Book Title: Abhidhan Rajendra Kosh Part 07
Author(s): Vijayrajendrasuri
Publisher: Rajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/016149/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय कल्पप्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर, पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर, साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर, व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरगुरुभ्यो नमः। सकल-आगम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञ कल्प विद्वन्मान्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. निर्मित श्री अभिधानराजेन्द्रः (सकल आगमों के समस्त संकलित शब्दों का ससंदर्भ ज्ञानमय कोष अर्थात् जिनागम कुञ्जी) सप्तमो भागः ('श' से 'ह') मुनिराज दीपविजय यतीन्द्रविजयाभ्यां प्रथमा आवृति संशोधिता संपादिता च प्रस्तुत तृतीय संस्करण प्रकाशन के प्रेरणादाता सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती-राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगप्रस्तोता-श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि-सत्साहित्य ___विधायक-जीव जगत के अक्षय अभयारण्यश्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब प्रकाशक श्री राजेन्द्रसूरि शताब्दि शोध संस्थान, उज्जैन (M.P.) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: राजेन्द्रसूरी शताब्दि शोध संस्थान 87/2 विक्रम मार्ग, टावर चोक, एस.एम.कॉम्पलेक्ष, फीगंज, उज्जैन (M.P.), प्राप्ति स्थान: श्री अभिधानराजेन्द्र प्रकाशन संस्था श्री राजेन्द्रसूरी जैन ज्ञान मन्दिर, हाथीखाना, रतनपोल, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट : शेखनो पाडो, रीलीफ रोड, अहमदाबाद-३८०००१ राज राजेन्द्र जयंतसेन म्युजियम : मोहनखेडा तीर्थ मार्ग, राजगढ़, (M.P.) पार्श्व पब्लिकेशन : 102, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाम, अहमदाबाद-३८०००६ विक्रम संवत् - 2071 वीर संवत - 2540 राजेन्द्रसूरि संवत - 108 तृतीय आवृत्ति इस्वीसन - 2014 (सुकृत् सहयोगी श्री सौधर्म बहत्तपोगच्छीय त्रिस्ततिक जैन श्वेताबर संघ सुभाष चोक, गोपीपुरा, सुरत टाईप सेटिंग : श्रीमद् जयन्तसेनसूरि सत्साहित्य कृते श्री देवचन्द सुखराम डोलिया इन्दौर (M.P.) मुद्रण व्यवस्था: खुश्बू प्रकाशन 103, नंदन कोम्प्लेक्ष, मीठाखली गाँव, अहमदाबाद-६ मूल्यः संपूर्ण 7 भाग रु : 6000-00 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरुदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी - राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रतः।। सधस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान ? // 1 // Page #4 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री अभिधानराजेन्द्रः 2014 अनुक्रमणिका 7-11 1. प्रस्तावना-तृतीय आवृत्ति 2. सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली प्रस्तावना-द्वितीय आवृत्ति आभार प्रदर्शन 5. प्रशांत-वपुषं श्रीराजेन्द्रसूरि नुमः 6. श्रीअभिधानराजेन्द्रः-सप्तमो भागः 12-13 14 01-1251 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (तृतीय आवृत्ति) कलिकाल सर्वज्ञ कल्प-प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में तब हुए जब मुगल साम्राज्य डाँवाडोल हो चुका था, मराठा परास्त हो चुके थे और इनके साथ ही राजपूत और नवाब सभी अंग्रेजों की कूटनीतिज्ञ चाल के सामने समर्पित हो चुके थे। भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात अपनी चरम सीमा पर था / अंग्रेज अपनी योजित शैली में भारत की अन्तरात्मा कुचलने में सफल हो रहा था। भारत के सभी धर्मावलम्बियों में शिथिलाचार जोर पकड़े हुए था। ऐसे असमंजस भरे काल में विविध जीवनदर्शक साठ ग्रंथों के साथ अभिधान राजेन्द्रः (ज्ञान कोश) लेकर एक देदीप्यमान सूर्य के समान प्रकट हुए। इस ग्रंथ के निर्माण के साथ ही वे एक महान साधक, तपोनिष्ठ, क्रान्तिकारी युगदृष्टा के रूप में समाज और जगत् के असर कारक अप्रतिम पथ प्रदर्शक के रूप में अवतरित हुए। आचार्य प्रवर का यह ग्रन्थराज भगवान् महावीर की वाणी का गणधरों द्वारा प्रश्रुत आर्षपुरुषों की अर्धमागधी भाषा, जिसमें सभी आगमों का संकलन हुआ है, शताब्दी का शिरमोर व विश्ववन्द्य ग्रन्थ है। यह विश्वकोश आगम साहित्य के संदर्भ ग्रन्थ के रूप में अत्यन्त मूल्यवान है। इस ग्रन्थराज की सुसमृद्ध संदर्भ सामग्री ने, जिससे संसार सर्वथा अनभिज्ञ था, भारतीय विद्वता का मस्तक ऊँचा किया है और यूरोपीय विद्वानों ने इस ग्रन्थराज की मुक्तकंठ से भरपूर प्रशंसा की है। यह सत्यान्वेषक तथा अनुसन्धानकर्ताओं के लिए मूल्यवान पोषक रहा है। इस ग्रन्थराज के विशद ज्ञान गाम्भीर्य और विद्योदधि श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी की चमत्कारपूर्ण अद्वितीय सृजन-शक्ति के प्रति हर कोई नतमस्तक हुए बिना नहीं रहता। इस ग्रंथराज के अवलोकन करनेवालों को जैन धर्म तथा दर्शन के अपरिहार्य तथ्यों की जानकारी मंत्रमुग्ध किये बिना नहीं रहती। सूरिजी ने अंधकार-युग में अपना मार्ग स्वयं ही प्रशस्त किया और वे जगत् के लिए पथ-प्रदर्शक बने / उनका चारित्रिक बल, उनकी विद्वता और निर्भीकता प्रशंसनीय ही नहीं बल्कि समस्त विद्वज्जगत पर महान अनुग्रह हुआ है। इस महर्द्धिक ग्रन्थराज के निर्माण ने विद्वत्संसार को चमत्कृत ढंग से प्रभावित किया। इसके अनुकरण और इसकी Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहायता तथा मार्गदर्शन पाकर अनेक विद्वानों ने पूरी शताब्दी भर अपने-अपने कोश-निर्माण की भावना में इस ग्रंथराज के बीजरूप में ही रखी है। यह ग्रन्थराज बीसवीं शताब्दी की एक असाधारण घटना ही है। इसने जैन-जैनेतर सभी विद्वन्मण्डल को निरन्तरउपकृत किया है और करता रहेगा। इस ग्रन्थराज में तमाम जैनागमों के अर्धमागधी भाषा के प्रत्येक शब्द का संकलन किया गया है और प्रत्येक शब्द का संस्कृत अनुवाद, लिंग,व्युपत्ति, अर्थ तथा सूत्रानुसार विवेचन और संदर्भ सहित ज्ञान सुविधापूर्वक दिया है, जो सुगम और अवबोध्य है। - इस ग्रन्यराज ने लुप्तप्राय अर्धमागधी भाषा को पुनरुज्जीवित करने के साथ ही इसे अमरत्व प्रदान किया है। आगम शास्त्र जिज्ञासुओं के लिए उनकी तमाम शंकाओं के समाधान के लिए यह अक्षय भंडार है। इस ग्रंथराज के प्रथम खण्ड के अनेकांतवाद, अस्तित्ववाद, अदत्तादान, आत्मा (अप्पा), अभय, अभयारण्य, अर्हन्त जैसे विषयों पर संदर्भ सहित विशद व्याख्या के साथ प्रत्येक पाठक को आश्चर्यचकित करे, इतना ज्ञान आकर्षक रूप से व्याख्यायित है, जिनके अर्थबोध को पाकर हर कोई प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इस ग्रंथराज के निर्माण के समय कुछ अक्षरों की अनुपलब्धता के कारण उनके स्थान पर वैकल्पिक अक्षर का उपयोग किया गया था जिससे पाठक-वृंद को पठन करने में जो असुविधा होती रही है उसका इस आवृत्ति में जिन वैकल्पिक अक्षरों का उपयोग किया गया था, उन्हें दूर कर दिया गया है तथा सर्वबोध्य अक्षरों का उपयोग कर लिया गया है। जिनके लिए वैकल्पिक अक्षर उपयोग में लिये गये थे वे हैं- अ, इ,उ,ऊ, ऋ,छ, झ, ठ, ड, ढ, द,द्भ, द्ग, द्व्य, भ, ल, ट्ठ, क्ष, ज्ञ, त्र, द्ध, द्व, क्व, क्त, ह्र। अब इस प्रथम भाग की तृतीय आवृत्ति में वैकल्पिक रूप हटाकरप्रवर्त्तमान प्रचलित अक्षरों का यथास्थान उपयोग कर लिया गया है। प्रज्ञा-पुरुष के इस ग्रन्थराज के विषय में, इसकी ज्ञान-गरिमा और आध्यात्मिक साधना की अभिव्यक्ति के विषय में कुछ कहना दैदीप्यमान सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। अन्त में इतना ही कि यह चिर प्रतिक्षित संशोधित आवृत्ति आपके हाथों में रखते हुए आनंद की अनुभूति हो रही है / आचार्य जयन्तसेनसूरि Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 श्रीमहावीरस्वामीशासननायक 1 श्रीसुधर्मास्वामी ___ श्रीजम्बूस्वामी 3 श्रीप्रभवस्वामी श्रीसय्यंभवस्वामी श्रीयशोभद्रसूरि श्रीसंभूतविजयजी श्रीभद्रबाहुस्वामी श्रीस्थूलभद्रस्वामी श्रीआर्यसुहस्तीसूरि श्रीआर्यमहागिरि श्रीसुस्थितसूरि श्रीसुप्रतिबद्धसूरि 10 श्रीइन्द्रदिन्नसूरि 11 श्रीदिन्नसूरि 12 श्रीसिंहगिरिसूरि 13 श्रीवज्रस्वामीजी 14 श्रीवज्रसेनसूरिजी 15 श्रीचन्द्रसूरिजी 16 श्रीसामन्तभद्रसूरि 17 श्रीवृद्धदेवसूरि 18 श्रीप्रद्योतनसूरि 16 श्रीमानदेवसूरि 20 श्रीमानतुङ्गसूरि 21 श्रीवीरसूरि 22 श्रीजयदेवसूरि 23 श्रीदेवानन्दसूरि श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय पट्टावली 24 श्रीविक्रमसूरि 48 श्रीसोमतिलकसूरि 25 श्रीनरसिंहसूरि 46 श्रीदेवसुन्दरसूरि 26 श्रीसमुद्रसूरि 50 श्रीसोमसुन्दरसूरि 27 श्रीमानदेवसूरि 51 श्रीमुनिसुन्दरसूरि 28 श्रीविवुधप्रभसूरि 52 श्रीरत्नशेखरसूरि 26 श्रीजयानन्दसूरि 53 श्रीलक्ष्मीसागरसूरि 30 श्रीरविप्रभूसरि 54 श्रीसुमतिसाधुसूरि 31 श्रीयशोदेवसूरि 55 श्रीहेमविमलसूरि 32 श्रीप्रद्युम्नसूरि 56 श्रीआनन्दविमलसूरि 33 श्रीमानदेवसूरि 57 श्रीविजयदानसूरि 34 श्रीविमलचन्द्रसूरि 58 श्रीहीरविजयसूरि 35 श्रीउद्योतनसूरि श्रीविजयसेनसूरि 36 श्रीसर्वदेवसूरि श्रीविजयदेवसूरि 37 श्रीदेवसूरि श्रीविजयसिंहसूरि 38 श्रीसर्वदेवसूरि 61 श्रीविजयप्रभसूरि 1श्रीयशोभद्रसूरि 62 श्रीविजयरत्नसूरि श्रीनेमिचन्द्रसूरि 63 श्रीविजयक्षमासूरि 40 श्रीमुनिचन्द्रसूरि 64 श्रीविजयदेवेन्द्रसूरि 41 श्रीअजितदेवसूरि 65 श्रीविजयकल्याणसूरि 42 श्रीविजयसिंहसूरि 66 श्रीविजयप्रमोदसूरि श्रीसोमप्रभसूरि 67 श्रीविजयराजेन्द्रसूरि श्रीमणिरत्नसूरि 68 श्री विजयधनचन्द्रसूरि 44 श्रीजगचन्द्रसूरि 66 श्री विजयभूपेन्द्रसूरि श्रीदेवेन्द्रसूरि 70 श्री विजययतीन्द्रसूरि श्रीविद्यानन्दसूरि 71 श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि 46 श्रीधर्मघोषसूरि 72 प्रवर्तमान आचार्य 47 श्रीसोमप्रभसूरि श्री विजयजयन्तसेनसूरि 36 43 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजेन्द्र कोश धनचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. मोहनविजयजी म.सा. भूपेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. यतीन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. श्री गुलाबविजयजी म.सा. विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (द्वितीयावृत्ति) अनादि से प्रवहह्मान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिथ्यात्व से मुक्त होकर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करती है, तब आत्मिक उत्क्रान्ति का शुभारंभ होता है। सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से ग्राह्य हैं, अतः इनका समावेश परोक्षज्ञान में होता है. परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ग्राह्य हैं ; अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान में समाविष्ट हैं। सम्यक्त्व क सूर्योदय होते ही मिथ्यात्व काधना अंधेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होती है। यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रेसर करता है। प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो करलोकोत्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को डुबो दे' जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।' संसार परिभ्रमण का प्रमुख कारण है आश्रव और बन्ध। दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है। बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वय को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अपुनर्बन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं। जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहें। कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है, अतः कर्म आत्मा के साथ ही लगा रहता है, जैसे खदान में रहे हुए सोने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है। मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और कर्म आत्मा की। प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब दोनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है। ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने में से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके उज्ज्व लता प्रकट कर देती है। कर्म की आठों प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा को कर्म के फल भुगतने के लिए प्रेरित करती रहती है। जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में है, ऐसे संसारी जीवों की कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं। ज्ञानावरण य कर्म आँखों पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आँखों पर कपड़े की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता, ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत कर लेता है। इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्मजीव को उल्टी चाल चलाता है। दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेदार के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को राजदर्शन से वंचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है। यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है, अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है। मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है। साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटने वाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है, पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुःख का भी वेदन करता है। मोहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करने वाला मनुष्य अपने होश-हवास खो बैठता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव अपने आत्म स्वरूप को भूल जाता है और पर पदार्थों को आत्म स्वरूप मानलेता है। यही एकमात्र कारण है जीव के संसार परिभ्रमण का। 'मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकुं भरमत बादि। यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक् चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है। जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता, वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है। अहंकार और ममत्व जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मोहनीय कर्म के बन्धन में जकड़े हुए ही हैं। अहंकार और ममत्व जितना जितना घटता जाता है, उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है। यह मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोह राजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगे कूच करती है। जीव को भेद विज्ञान से वंचित रखनेवाला यही कर्म है। इसने ही जीव को संसार की भूलभुलैया में भटकाये रखा है। और बेड़ी के समान है आयुष्य कर्म। इसने जीव को शरीर रूपी बेड़ी लगा दी है, जो अनादि से आज तक चली आ रही है। एक बेड़ी टूटती है, तो दूसरी पुनः तुरंत लग जाती है। सजा की अवधि पूरी हुए बिना केदी मुक्त नहीं होता, इसी प्रकार जब तक जीव की जन्म जन्म की कैद की अवधि पूरी नहीं होती, तब तक जीव मुक्ति का आनंद नहीं पा राकता। ___ नाम कर्म का स्वभाव है चित्राकार के समान। चित्रकार नाना प्रकार के चित्र चित्रपट पर अंकित करता है, ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चर्तुगति में भ्रमण करने के लिए विविधजीवों को भिन्न-भिन्न नाम प्रदान करता है। इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य, तिर्यच और नरक गति में भ्रमण करता है। गोत्रा कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है। कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े बर्तन बनाता है और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और नीच गोत्र प्रदान करता है, जिरारो जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पड़ता है। इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-- राजा के खजाँची के समान। खजाने में माल तो बहुत होता है पर कुञ्जी खजाँची के हाथ में होती है, अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। यही कार्य अन्तराय कर्म करता है। इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती / दान, लोभ, भोग, उपभोग और वीर्य (आत्मशक्ति) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जीव किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता। संक्षेप में ही है, जैन दर्शन का कर्मवाद। इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तवाद, षद्रव्य, नवतत्व, मोक्ष मार्ग आदि ऐसे विषयों का समावेश है, जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं। द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्मकल्याण की कामना करने वालों के लिएद्वादशांगी का गहन अध्ययन् अत्यंत आवश्यक है। संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्व-स्वरूप अर्थात् ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन-धर्म-दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं।' सर्व धर्मान परित्यज्य, मामेकं शरण व्रज।' बुद्धं शरणं गरछामि ........... धम्म सरणं गच्छामि।' और केवलिपण्णत्तं धम्म सरणं पव्वज्जामि इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्त ऐश्वर्यवान, केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के बल पर परमात्मपद प्राप्त कर सकता है। अन्य सनस्तधर्म दर्शनों में जीव को परमात्म प्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है, जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरूप ही माना गया है। यह जैन धर्ग की अपनी अलग विशेषता है। परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप,सप्तभंगी एवं स्यादवाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमों के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न संदर्भ ग्रन्थों का अनुशीलन अत्यंत आवश्यक है। आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था। विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुंजी तलाश रहे थे, जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके। ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय वयोवृद्ध त्यागवृद्ध तपोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया। वे दिव्य पुरुष थे उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज। उन्होंने जिनागम की कुंजी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ श्री सुविधिनाथ जिनालय की छा छाया में अपने हाथ में लिया। कुंजी निर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुंजी बन कर तैयार हो गयी। यह कुंजी है 'अभिधान राजेन्द्र'। यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त अभिधान राजेन्द्र पास में हो तो और कोई ग्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट वस्तुतत्त्व जो 'अभिधान राजेन्द्र' में है, यह अन्या हो या न हो, पर जो नहीं है; वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परम्परा आज तक चली आ रही है। निघंटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। यास्क' की रचना' निरुक्त' में और पाणिनी के ' अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्द संग्रह दृष्टिगोचर होता है ये सब कोश गद्य लेखन में हैं। इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल।जो कोश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये। एक प्रकार है, एकार्थक कोश और दूसरा प्रकार है --अनेकार्थक कोश। कात्यायन की 'नाममाला', वाचस्पति का 'शब्दार्णव', विक्रमादित्य का 'शब्दार्णव' भागुरी का 'त्रिकाण्ड' और धनवन्तरी का निघण्टु, इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य। उपलब्ध कोशों में अमरसिंह का 'अमरकोश' अत्यधिक प्रचलित है। धनपाल का 'पाइयलच्छी नाम माला' 276 गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें 668 शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने पाइयलच्छी नाम माला' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है। धनञ्जय ने 'धनञ्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'धर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक शब्द बन जाते हैं -जैसे भूधर, कुधर इत्यादि। इस पद्धति से अनेक नये शब्दों का निर्माण होता है। इसी प्रकार धनञ्जय ने 'अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है। कलिकाल, सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के अभिधान चिन्तामणि','अनेकार्थ संग्रह', निघण्टु संग्रह और 'देशी नाममाला' आदिकोश ग्रन्थ सुप्रसिद्ध है। इसके अलावा 'शिलोंछ कोश' 'नाम कोश'शब्द चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', शब्दभेद नाममाला'' नाम संग्रह' , शारदीय नाममाला',शब्द रत्नाकर', 'अव्ययैकाक्षर नाममाला' शेष नाममाला, 'शब्द सन्दोह संग्रह', 'शब्द रत्न प्रदीप','विश्वलोचन कोश','नानार्थ कोश 'पंचवर्ग संग्रह नाम माला', 'अपवर्ग नाम माला', एकाक्षरी नानार्थ कोश,' 'एकाक्षर नाममलिका', एकाक्षर कोश', 'एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 'पाइय सद्दमहण्णव','अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश','अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', 'जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' इत्यादि अनेक कोश ग्रन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं। इनमें से कई कोश ग्रन्थ'अभिधान राजेन्द्र के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्यात् भी। 'अभिधान राजेन्द्र की अपनी अलग विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त कोश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है। सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दीया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार इस महाग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है, फिर भी इसकी कुछ विशेषताएं प्रस्तुत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। 'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है। भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी। उन्होंने इसी भाषा में आम आदमी को धर्म का मर्म समझाया। यही कारण है कि जैन आगमों की रचना अर्धमगामी प्राकृत में की गई। इस महाकोष में श्रीमद्ने प्राकृत शब्दों का मर्म'अ'कारादिक्रम से समझाया है, यह इस महाग्रंथ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अर्थ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रूप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है, इसके अलावा उन शब्दों के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं। वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैन धर्म दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्याद्वाद, ईश्वरवाद, सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थपरिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है। सत्तानवे सन्दर्भ ग्रंथ इसमें समाविष्ट हैं। वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ-साथ यह सुविशाल भी हैं। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रॉयल पेजों में विस्तारित है। इसमें धर्म-संस्कृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थव्यख्यायित हुए हैं। उनकी पुष्टि-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक श्लोक उद्धृत किये गये हैं। इसके सात भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे, तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पड़ेगा। इस महाग्रंथ के प्रारंभिक लेखनकी भी अपनी अलग कहानी है। जिस जमाने में यह महाग्रंथ लिखा गया, उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था। श्रीमद् गुरुदेव ने रात के समय लेखन कभी भी नहीं किया। कहते हैं वे कपड़े का एक छोटा सा टुकड़ा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे। एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा। चार्तुमास काल के अलावा वे सदैव विहार-रत रहे। मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दीर्घ विहार किये, प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान, संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 कार्य सम्पन्न किये, जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक संताप भी सहन किये। साथ-साथध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही। ऐसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस' जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ, यह एक महान आश्चर्य है। इस महान ग्रंथ के प्रणयन ने उन्हें विश्वपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है। श्रीमद् विजय यशोदेव सूरिजी महाराज' अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं -आज भी यह (अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है। साधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है, इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथपुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है, क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश की रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और इस विकट सम्पय में अपने विचार पर उन्होंने पालन भी किया। यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौन सी है, तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है। प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने की हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बंबई चार्तुमास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ। जो भी मिला उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुलर्भ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पास वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो, तो हमें इनके प्रकाशन का अधिकार दीजिये। हमनें उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है। अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा। श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये। तामिलनाडू राज्य की राजधानी है यह मद्रास। दक्षिण में बसे हुए दूर-दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चार्तुमास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चार्तुमास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चार्तुमास समाप्ति के पश्चात् पौष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमी प्रातः स्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज साहब का जन्म और स्मृति दिन है। गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्टी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेव श्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते हुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में 'अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्यांकन करते हुए इसके पुर्नमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया। __इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैंने मद्रास संघ को किया। आह्वान होते ही संघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ। ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई, पर 'श्रेयांसि बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमें यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन को स्थगित करना सबके लिए दुःखदथा, पर मैं मजबूर था। आंतरिक विरोध को जन्म देकर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है। हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओं ने ........... ......... उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया। श्रीमद् गुरुदेव ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा, व्यवसायियों के लिए नहीं। यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया कि इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघको है। त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोलधरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था / ऐसा न करके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है। श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मवृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने-कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए उपस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा। अधिवेशन प्रारंभ हुआ / संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के समक्ष विश्व की असाधारण कृत्ति इस अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा / श्री संघ ने हार्दिक प्रसन्नता व हार्दिक व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी / परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है। और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोशग्रन्थपुनर्मुद्रित होकर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है, यह हम सबके लिए परम आनंद का विषय है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्टप्रभाकर-चत्राचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज તોલામારા विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्नं, शुभ्रव्रतं सुकविकैरसवद्विलासम् / हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् // 1 // Page #16 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है, फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देने वाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अभा सौ बृ त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मंत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता / इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं। इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है / प्रेसकार्य, प्रफरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते। त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गई है। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है। शुभम् / नेनावा (बनासकांठा) दिनांक 2-12-1985 - आचार्य जयन्तसेनसरि Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार-प्रदर्शनम् / --0-- सुविहितसूरिकुलतिलकायमान-सकलजैनागमपारदृश्व-आबालब्रह्मचारी-जङ्गमयुगप्रधान--प्रातःस्मरणीय-परमयोगिराजक्रियाशुद्ध्युपकारक-श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-सितपटाचार्य-जगत्पूज्य-गुरुदेव-भट्टारक श्री 1008 प्रभु श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ने 'श्रीअभिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधरदेशीय श्री सियाणा नगर में संवत् 1646 के आश्विनशुक्लद्वितीया के दिन शुभ लग्न में आरम्भ किया। इस महान संकलनकार्य में समय समय पर कोशकर्ता के मुख्य पट्टधर शिष्य श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज ने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढे चौदह वर्ष के अविश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् 1660 चैत्र शुक्ला 13 बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर (सूरत-गुजरात) में बनकर परिपूर्ण (तैयार) हुआ। गवालियर-रियासत के राजगढ़ (मालवा) में गुरुनिर्वाणोत्सव के समय संवत् 1663 पौष-शुक्ला 13 के दिन महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी, मुनिश्रीदीपविजयजी, मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय -छोटे बड़े ग्राम नगरों के प्रतिष्ठित-सद्गृहस्थों की सामाजिक-मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि-मर्हम-गुरुदेव के निर्माण किए हुए 'अभिधानराजेन्द्र प्राकृत मागधी महाकोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाभ प्राप्त कर सकें, इसलिए इसको अवश्य छपाना चाहिए, और इसके छपाने के लिए रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखबदासजीत्-भागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्- प्यारचंदजी और गोमाजी गंभीरचंदजीत्- निहालचंदजी, आदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीअभिधानराजेन्द्र- कार्यालय और 'श्रीजैनप्रभाकरप्रिन्टिगप्रेस स्वतन्त्र खोलना चाहिए। कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का समस्त-भार दिवंगत पूज्य गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्रीदीपविजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी) और मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजी का सोपा जाए। बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० 1664 श्रावणसुदी 5 के दिन उक्त कोश को छपाने के लिए रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य- मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० 1981 चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ। ___ इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदभञ्जनकेसरीकलिकालसिद्धान्तशिरोमणी-प्रातःस्मरणीय-आचार्यश्रीमद्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय-श्रीमन्मोहनविजयजी महाराज, सचारित्रीमुनिश्रीटीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेवसेवाहेवाक-मुनिश्रीहुकुमविजयजी महाराज, सत्क्रियावान्-महातपस्वी-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज, साहित्यविशारद-विद्याभूषण--श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानवाचस्पत्युपाध्याय-मुनिश्रीयतीन्द्रविजयी महाराज, ज्ञानी ध्यानी भौनी महातपस्वी-मुनि श्रीहिम्मतविजयजी मुनिश्री लक्ष्मीविजयजी, मुनिश्री-गुलाबविजयजी, मुनिश्री-हर्षविजयजी, मुनिश्रीहंसविजयजी, मुनिश्री-अमृतविजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार में दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे देकर तन, मन और धन से पूर्ण सहायता पहुँचाई, और स्वयं भी अनेक भाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आभारी है। जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय–श्रीसंघ ने इस महान् कोषाङ्कन कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है - श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ-मालवा श्रीसंघ-रतलाम, वाँगरोद, राजगढ़,जावरा, वारोदा-बडा,झाबुवा,बड़नगर, सरसी, झकणावदा,खाचरोद, मुंजाखेड़ी, कूकसी, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविशाल गच्छाधिपति-शासन सम्राट-धर्म चक्रवर्ती राष्ट्रसन्त-श्रुत दिवाकर-स्मित भास्कर-अनेकांत के जगदर्शन श्रमण शाश्वत धर्म के प्राण व दिशादर्शक-क्षमा दानेश्वरी-जन जन के वात्सल्य महोदधि व प्रेरणा पुंज-सत्साहित्य विधायक जीव जगत् के अक्षय अभयारण्य श्रीमद् विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी महाराज साहब Page #20 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 मन्दसोर. खरसोद-बडी. आलीराजपर. सीतामऊ, चीरोला-बड़ा, रींगनोद, निम्बाहेडा, मकरावन, राणापुर, इन्दौर, बरडिया, पारा, उज्जैन, (भाट) पचलाना, टांडा, महेन्दपुर, पटलावदिया, बाग, नयागाम, पिपलोदा, खवासा, नीमच-सिटी, दशाई, रंभापुर, संजीत, बड़ी-कड़ोद, अमला, नारायणगढ़, धामणदा, बोरी, बरडाबदा, राजोद, नानपुर श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात श्रीसघ-अहमदाबाद, थिरपुर (थराद्), ढीमा, वीरमगाम, वाव, दूधवा, सूरत, भोरोल, वात्यम, साणंद, धानेरा, वासण , बम्बई, धोराजी, जामनगर, पालनपुर, डुवा, खंभात, श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़ श्रीसंघ-जोधपुर, भीनमाल, शिवगंज, आहोर, साचोर, कोरटा, जालोर, बागरा, फतापुरा, भेसवाड़ा, धानपुर, जोगापुरा, रमणिया, आकोली, भारंदा, माकले सर, साथू, पोमावा, देवावस, सियाणा, बीजापुर, विशनगढ़, काणोदर, बाली, मांडवला, देलंदर, खिमेल, गोल, मंडवारिया, सांडेराव, साहेला, बलदूट, खु डाला, आलासण, जावाल, राणी, रेवतड़ा, सिरोही, खिमाड़ा, धाणसा, सिरोडी, कोशीलाव, बाकरा, हरजी, पावा, मोदरा, गुडाबालोतरा, एंदला का गुडा, थलवाड़, भूति, चाँणोद, मेंगलवा, तखतगढ, ड्रडसी, सूराणा, सेदरिया, थॉवला, दाधाल, रोवाडा, जोयला, धनारी, भावरी, काचोली, इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों की ओर से मदद मिली है, उन सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है। श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय, रतलाम (मालवा) // श्रीः॥ मत्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणीराजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनाऽऽगमः संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशो, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितोविजयराजेन्द्रात्परोन्योस्तिकः // Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 प्रशान्त-वपुषं श्रीमद् राजेन्द्रसूरिं नुमः विद्यालङ्करणं सुधर्मशरणं मिथ्यात्विनां दूषणं, विद्वन्मण्डलमण्डनं सुजनता सदोधिबीजपदम् / सचरित्रनिधिं दयाभरविधिं प्रज्ञावतामादिमम्, जैनानां नवजीवनं गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः / / 1 // धुर्यो यो दशसंख्येकेऽपि यतिनां धर्मे दृढः संयमे, सत्वात्मा जनतोपकारनिरतो भव्यात्मनां बोधकः / शास्त्राणां परिशीलने दृढमतिानी क्षमावारिधि स्तं शान्तं करुणावतारमनिशं राजेन्द्रसूरि नुमः // 2 // वाणी यस्य सुधासमाऽतिमधुरा दृष्टिमहाजञ्जुला, संव्रज्या सुखशान्तिदा खलु सदाऽन्यायादिदोषापहा / बुद्धिलॊकसुखानुचिंतनपरा कल्याणकों नृणां, लोके सुप्रथिपताऽस्ति तं गुरुवरं राजेन्द्रसूरि नुमः / / 3 / / य कर्ता जिनबिम्बकाञ्जनशलाका नामनेकाऽऽत्मना, मूर्तिश्चापि जिनेश्वरस्य शतशः प्रातिष्ठिपन्मन्दिरे / जीर्णोद्धारमनेकजैननिलयस्याचीकरच्छावक स्तं सत्कार्यकरं मुदा गुरुवरं राजेन्द्रसूरिं नुमः / / 4 / / लोके यो विहरन् सदा स्ववचनैर्वरं मिथो देहिनां, दूरीकृत्य सहानुभूतिरुचिरां मैत्री समावर्धयत् / मूढाँश्चापि हितोपदेशवचसा धर्मात्मनः संव्यधाद्, देशोपद्रवनाशकं तमजित राजेन्दसूरिं नुमः / / 5 // यो गङ्गाजलभिर्मलान् गुणगुणान् संधारयन् वर्णिराट्, यं यं देशमञ्चकार गरनैस्तं तं त्वपायीन्मुदा। सच्छास्त्रामृतवाक्यावर्षणवशाद् मेघव्रतं योऽधरन्, तं सज्ज्ञानसुधानिधिं कृतिनुतं राजेन्दसूरिं नुमः // 6 // तेजस्वी तपसा प्रदीप्तवदनः सौम्योऽतिवक्ताचलः, शास्त्रार्थेषु परान विजित्य विविधैर्मानेस्तथा युक्तिभिः / शिष्यांस्तानकरोत्स्वधर्मनिरतान् यो ज्ञानसिन्धुः प्रभु स्ते सूरिप्रवरं प्रशान्त-वपुष राजेन्द्रसूरिः नुमः / / 7 / / लोकान्मंदमतीन्स्वधर्मविमुखप्रायान बहून् वीक्ष्य यो, जैनाचार्यनिबद्धसर्वनिगमानालोङय बुद्ध्या चिरम् / मान् बोधियितुं सुखेन विशदान् धर्मान्महामागधीकोशं संव्यत्तनोत्तमच्छमनसा राजेन्द्रसूरिं नुमः // 8 // गुरुवरगुणराजिभ्राजितं सारभूतं, परिपठति मनुष्यो योऽष्टकं शुद्धमेत्तद् / अनुभवति स सर्वां सम्पदं मानावानामिति वदति मुनीशो वाचको मोहनाख्यः // 6 // -उपाध्याय श्री मोहनविजयजी महाराज Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभिधानराजेन्द्रः सप्तमो भागः Page #24 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः / शकार मम्मम्म्म्म्म्म्म ||8 / 4 / 286 / / इति मागध्यामूर्ध्वलोपापवादः स स्थाने स एवादेशः। शस्यरूपे कवले, प्रा० 4 पाद। शामसू न० (सामान्य) "न्य-ग्य-ज्ञ-जांजः" || 263|| इति न्यस्थाने द्विरुक्तो जकारः / अविशेष,प्रा०४ पाद। शालम पुं० (सारस) "रसोर्लशौ" ||841288|| इत्युभयत्र सस्य श पुं० (श) तालुस्थानीये ऊष्मसंज्ञके वर्णे, मागध्याम् शौरसेन्याञ्च शस्य शः रस्य लाः / स्वनामख्याते पक्षिणि, प्रा०४ पाद। श एव प्राकृते तु सः। शी-ड। महादेव,शब्द० / सूर्ये, शशाङ्के, रश्मी, शुद न० (श्रुत) “सर्वत्र लवरालचन्द्र"||८२७६।। इति रलुप्। शेषं महार्णवे, शिष्टो, वाल्मीके, कच्छपे, भूपेच स्वस्त्यर्थे ,शातने, तनूकृती, सौरसेनीवत् / / 8 / 302 // इति न्यायात्तस्य दः। “रसोर्लशी" शीते, सुखे, मङ्गले, शस्त्रे च / नपुं० / एका० / “रसोर्लशौ" ||1| ||841228|| इति पुनस्तस्य शः। आगमे, प्रा०१ पाद। 288 / / इति मागध्या सकारस्थाने शकारादेशेन ये सकारादिशब्दाः सुपलिगढिद त्रि० (सुपरिग्रथित) अत्यन्तमाबद्धे, "अम्महे एआए कृते दर्शयिष्यन्ते ते मागध्यां शकारादित्वेन स्वयमभ्यूह्याः / प्रा०४ शुम्मिलाए सुपलिगढिदे भव" प्रा० 4 पाद। पादा शुस्क त्रि० (शुष्क) “शषोः संयोगे सोऽग्रीष्मे" ||84286 अनेन शलिश त्रि० (सदृश) प्राकृतशैल्या सदृशस्थानेसरिसं / “रसोर्लशौ" | षकारस्य सकारादेशः / शुस्क। शोषमुपगते, प्रा०४ पाद। ||84288|| इति उभयत्र शः। रस्यलः / तुल्ये, “शलिशं णिमं" प्रा० / शुस्तिद त्रि० (सुस्थित) स्थ-र्थयोस्तः / / 8 / 4 / 261 / / इत्यनेन 4 पाद। स्थभागस्य स्तः। सुखेन स्थिते, प्रा०४ पाद। शस्तवाह पुं० (सार्थवाह) “स्थ-र्थयोः स्तः" ||8142613 // इति | | शोभन त्रि० (शोभन) "रसोर्लशौ" ||8/4/285|| इति प्राकृतलक्षणर्धभागस्य सकाराक्रान्तस्तकारः। सार्थाधिपतौ, प्रा०४ पाद। सम्पन्नस्य शस्य मागध्यांशः। शोभाकारिणि,प्रा०४पाद। किं खुशोभणे शस्यकवल पुं. (शस्यकवल) सषोः-"सषोःसंयोगे सोऽग्रीष्मे" वम्हणे शित्तिकलिअ लज्जापलिग्गहे दिण्णे। प्रा० इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय___ कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री क) 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 168 “अभिधानराजेन्द्रे" शकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / / Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः / பாடாபட்ட षकार ष पुं० मूर्द्धस्थानीय ऊष्मसंज्ञके वर्णे, एका० / षो-क / षत्वम / केशे, गर्भविमोचने, मानवे, सर्वश्रेष्ठे विज्ञे च। त्रि०। मेदनी। अतिरोषे, अपवर्गे, प्रक्षरे, सानौ, वेधसि, षडूमिमरहिते, सुरख-दुःखसमे, अनित्ये नृपोत्तमे च / पुं०। वृषस्यन्त्यां सत्या च / स्वी० नाश्लेिषे, मुखे, पण्डिते, जालके, भेषजे च। नपुं०। एका०। “षोऽतिरोषेऽपवर्गे षः, प्रक्षरे, सानुवेधसोः / / 6 / / नार्याश्लेषे मुखेषं स्यात्पण्डितेऽपिषमादृतम् / षडूमिरहित षः स्योशालके भेषजे च षम्।।१०|| सुखदुःखसमः षो ना, वृषस्यन्ती सती च षा 1 // 11 // " एका०। त्रिदिवे, पारोक्ष्ये, विभवे च / पुं० / सुखे, अव्य० रमायाम, स्त्री० अवसाने, गर्भमोक्षे, मर्षणे च / नपु०। श्रेष्ठाथें, त्रि०ा एका "षकारस्त्रिदिवे पुसि, पारोक्ष्ये विभवे तथा। षमव्ययं सुखे स्यात्स्त्री, रमायां षा नपुंसके // 86 // अवसाने गर्भमोक्षे, मर्षणे च निरूप्यते। विशेष्यनिघ्नः षः शब्दः, श्रेष्ठार्थे समुदाहृतः॥१०|| एका०। (संस्कृतभिन्नासु भाषासु प्रायः न षादयः शब्दाः सम्भवन्ति 'सर्वत्र' "शषोः सः"८११२६०।। इति। अनेन सादेशदिति षादयः शब्दाः अत्राभिधानेऽनुदाहााः / ) (बहुलम् / / 8 / 1 / 2 / / इत्यधिकारात्प्राकृतसर्वसूत्राणां वैकल्पिकत्वेऽपि षकाराभावः प्रायः प्राकृतशब्देषु। मागध्याम"तिष्ठा-श्चिष्ठ" |426|| इति चिष्ठा देशे षकारमध्यःदृश्यते / चिष्ठो। चिष्ठदि। प्रा०पाद।) इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभुश्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री / 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 6 "अभिधानराजेन्द्रे" षकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / / Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिधानराजेन्द्रः / . . . . . . Cor सकार चरगमरूगाइआणं, भिक्खुवजीवीण काउणमपोहं। अज्झयणगुणनिउत्तो, होइ पसंसाइ उ स भिक्खू // 331 / / चरकमरूकादीनामिति-चरकाः-परिव्रजकविशेषाःगरूका:-धिग्वर्णाः आदिशब्दाच्छाक्यादिपरिग्रहः, अमीषां भिक्षोपजीविनांभिक्षणशीलास पुं० (स) दन्तस्थानीये ऊसंज्ञके वर्णे, सो-ड-विष्णौ, सर्प, ईश्वरे, नामगुणवत्त्वेकनापोहं कृत्वा अध्ययनगुणनियुक्तः-प्रक्रान्तशास्त्रनिष्यविहगे च / शब्द० / साकारे, गौरीपुत्रे, प्रभजने, धर्महेतौ च / न्दभूतपक्रान्ताध्ययनाभिहितगुणसमन्वितो भवति, प्रशंसायामवगम्यदेहकान्त्यां, श्रियां च / स्त्री० / एका०। सोमे, सोमपाने,सूर्ये, पक्षिणि, मानायां सिद्धक्षुः-संश्चासौ भिक्षुश्च तत्तदन्यापोहेन सदिक्षुरिति गाथाऽर्थः / तपसे, वृषे, सदानन्दे च / पुं० / वने, धने, यौवने, वस्तु-वृन्दे च। उक्तः सकारः / दश० 10 अ० / वायुतत्त्वे,जै०गा०। नपुं० / एका०। समासे साहित्यार्थस्य सहशब्दस्य स्थाने साऽऽदेशः। स्व न० (स्वन्) ड। धने, आत्मनि, ज्ञातौ च / पुं० 1 आत्मीये, त्रिका सूत्र० 1702 उ०। तच्छब्दस्य प्रथमैकवचने स इति निर्देशे, नि० चू० आत्मीय आत्मनि चार्थेऽस्य सर्वनामता। वाच०। 1 उ० / दश०। सअंग न० (स्वाग) शिरोऽधरादिषु स्वकीयेष्वङ्गेषु, “जहा-कुम्मो सअंगाई तत्र सकारनिक्षेपमाह सए देहे समाहरे" सूत्र०१ श्रु०८ अ०। नाम ठवणसयारो, दव्वे भावे अ होइ नायव्वो। सअंड त्रि० (साऽण्ड) सह अण्डैवर्वत इति साऽण्डम् / कीटिकादीनाम् दव्वे पसंसमाई, भावे जीवो तदुवउत्तो / / 328|| अण्डैः सहिते, दशा०२ अ० नासासकारः सकार इति नाम, स्थापनासकारः सकार इति स्थपना, सअट्ठ पुं० (स्वार्थ) स्वप्रयोजने, “इह खलु गाहावई अप्पणो सअट्टाए द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः-द्रव्यसकारोभावसकारश्च। तत्रद्रव्य इत्यागम अगणिकायं उज्जालेज वा।” आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ० 1 उ०। नोआगम-ज्ञशरीर-भव्यशरीर-तद्व्यतिरिक्तःप्रशंसाऽऽदिविषयो द्रव्य- *सार्थ त्रि० अर्थेन प्रयोजनेन सहितम् / एका० / अर्थसहिते, सूत्र० सकारः भाव इति भायसकारो जीवः तदुपयुक्तः-सकरोपयुक्तः तदुप 2 श्रु० 3 अ० / सप्रयोजने, कल्प०३ अधि०२ क्षण। योगानन्यत्वादिति गाथाऽर्थः / असट्ठिय त्रि० (सास्थिक) सहास्था वर्तते इति सास्थिकः / अस्या प्रकृतोपयोगीत्यागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीराऽ सहिते, पञ्चा० 16 विव०। तिरिक्त प्रशंसादिविषयं द्रव्यसकारमाह सअढ पुं० न० (शकट) शक-अटन्- ।यानभेदे, असुरविशेषे, स्वल्पार्थे, निद्देसपसंसाए, अत्थीभावे अ होइउ सगारो। वाच० / "क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" निद्देसपसंसाए, अहिगारो इत्थ अज्झयणे / / 326 / / // 8/1 / 177 / / अनेन ककारस्य लोपः / प्रा०। सअढ / “अवर्णो निर्देश प्रशंसायामस्तिभावे चेत्येतेष्वर्थेषु भवतितुसकारः। तत्र निर्देशे यश्रुतिः / / 8 / 1 / 180|| पूर्वोक्तसूत्रेण कस्य लुक्यनेन अवर्णो पथा-सोऽनन्तरमित्यादि,प्रशंसायां यथा सत्पुरूप इत्यादि, अस्तिभावे यश्रुतिकः / सअढ़। “सटाशकटकैटभे ढः"||८/१/१९६|| इत्यनेन यथा-सद्भूतममुकमित्यादि। तत्र निर्देशप्रशंसायामिति-निर्देशे प्रशंसायां यस्य ढः / प्रा०। च यः सकारस्तेनाऽधिकारोऽत्राध्ययने प्रक्रान्त इति गाथाऽर्थः / सअण पुं० (स्वजन) “एकस्वरे श्वःस्वे" ||8/2 / 114 // अत्रैकएतदेव दर्शयति स्वरगृहणाभावेऽस्मिन्त्रापिलक्ष्ये लक्षणस्य प्रवृत्तौ उत्त्वं स्यात् / सअणो / जे भावा, दसवेआ-लिअम्मि करणिज्ज वणि जिणेहिं। आत्मीये, प्रा०२ पाद। तेसिं समावणम्मि, ति, जो भिक्खू भन्नइ स भिक्खू // 330 // | सअहुत्तं अव्य० (शतकृत्वस्) शतवारशब्दार्थे, “कृत्वसो हुत्तं" ये भाषाः- पदार्था:पृथिव्यादिसंरक्षणादयो दशवैकालिके प्रस्तुते शास्त्र ||2|158|| अनेन कृत्वसो हुत्तमादेशः। सअहुतं / प्रा०२ पाद करणीया-अनुष्ठेया वर्णिताः-कथिता जिनैः-तीर्थकरगणधरैः, तेषां - मइ अव्य० (सकृत्) एकवारे, द्वा० 16 द्वा०। नि०चू० / सकृद्-एकवारम् / भावाना समापने-यथाशक्त्या ( क्ति) द्रव्यतो भावताश्वाऽऽचरणेन आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० 1 उ०। व्य० / “असइ णीयागोए त्ति" / स पर्यन्तनयनेन यो भिक्षुः-तदर्थ यो भिक्षणशीलो न तूदरादिभरणार्थ इति संसार्यसुमानसकृदनेकश उच्चैर्गोत्रमान् सत्कारार्ह उत्पन्न इति / भण्यते स भिक्षुरिति। इतिशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। 'सभिक्षु रित्यत्र शेषस्तथा असकृन्नीचैर्गोत्र सर्वलोकावगीते पौनःपुन्येनोत्पन्न इति / निर्देशे सकार इति गाथाऽर्थः। आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ० / सर्वेष्वपि विशेषावगमेषु द्रष्टव्ये, नं०। सकृदेकदा कर्कसकान्तावित्यर्थः / स०१८ सम०। प्रशसायामाह Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सई 4 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सइअकरण सदा अव्य०। “इः सदादौ वा" ||8|172 / / अनेनाकारस्यत्वम् / परापेक्षम्, स्वविषये तु स्वतन्त्रमेव / स्मृतेरिव तस्मात्पूर्वाऽनुभवाऽनुसर्वस्मिन् काले, प्रा० १पाद। सन्धानेनार्थप्रतीत्यभावात् / तदुक्तम् - "पूर्वविज्ञानविषय विज्ञानं स्मृति स्त्री० (स्मरण) स्मृतिः। “इत् कृपादौ"||८/१/१२८।। इत्येनाद्रः स्मृतिरिष्यते / पूर्वज्ञानादिना तस्याः, प्रामण्यं नावगम्यते / / 1 / / तत्र 'ऋत इत्त्वम्। प्रा०। पूर्वाऽनुभूतार्थालम्बनप्रत्ययविशेष, नं०। विशे०। यत्पूर्वविज्ञानं, तस्य प्रमाण्य मिष्यते / तदुपस्थानमात्रेण, स्मृतेः उपयोगलक्षणे, सामायिकस्य स्मृत्यकरणे सामायिकस्य सम्बधिनी या स्याच्चरितार्थता / / 2 / / " इति। तदपि न पेशलम् / स्मृत-तेरप्युत्पत्तिस्मरणास्मृतिरूपयोगलक्षणा / आव० 6 अ० 1 संस्कारप्रबोधसम्भूत- मात्रेऽनुभवसव्यपेक्षत्वात्, तदाहितसंस्कारत्तदुत्पत्तेः। स्याः स्वातन्त्र्यमेव। मनुभूतार्थविषयं तदित्याकारवेदनं स्मृतिः / स्था० 2 ठा०३ उ० / ननु नात्र रवात्र्यम्, अस्याः पूर्वानुभवभावितभावभासनायामेवाभ्युद्यस्मृतिरवबोध इत्यनथान्तरम्। आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / सइ त्ति तत्वात् / एवं तर्हि व्याप्तिप्रतिपादि-प्रमाणप्रतिपन्नपदार्थोपस्थापनमात्रे वा-मति त्ति वा पन्नत्ति वा सव्वमेय आभिणिबोहियं एतेहिं एगट्टिएहिं भणित प्रवृत्तेरनुमानस्यापि कुतस्त्या स्वातन्त्र्यसङ्गतिः। अथ व्याप्तिग्राहकेणति। आ०चू०१ अ०।वासनानन्तरं कुतश्चितादृशार्थदर्शनादि-कारणात् नैयत्येन प्रतिपन्नात्तनूनपातो नैयत्यविशेषेणानुमानेन परिस्फुरणससंस्कारस्य प्रबोधे यज्ज्ञानमुदयते तदेवेदं यन्मया प्रागुपलब्धभित्यादि- म्भवात् कुतो न स्वातन्त्र्यमिति चेत्, तर्हि अनुभवे भूयं विशेषशालिनः रूपं सा स्मृतिः। उक्तं च / नं०।-"तदनन्तरं तदत्था, विच्चवणं जो उ स्मरणे तु कतिपयैरेव विशेषैर्विशिष्टस्य वस्तुनो भानात् कुतो नास्याऽपि वासणा जोगो / कालन्तरेण जं पुण, रणुसरणं धारणा सा उ // 261 / / " तत् स्यात्। ननुतेऽपि विशेषास्तावदनुभूतौ प्रत्यभुरेव। अन्यथा स्मरणविशे०। मेवतन्न स्यात् इति चेत्, नियतदेशोऽपि पावको व्याप्तिग्राहिणि प्रत्यभातथाऽनुभूविषया साम्प्रमोषः स्मृतिः स्मृता (6) / देव / अन्यथाऽनुमानमेव तन्न स्यात् इति किन्न चेतवसे / अथ तत्र द्वा०११द्वा०॥ सर्वे सार्वदिकाः सार्वत्रिकाश्च पावकाः पुस्फुरूः, अनुमान तु स एवैकश्च(व्याख्यातमिदम् 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1621 पृष्ठे ) कास्तीत्युक्तमिति चेत्, ननूतरमपि तत्रोक्तमेव मा विस्माषी : / ननु अर्थतेषुतावत् स्मरणं कारणगोचरस्वरूपैः प्ररूपयन्ति नसर्वत्रैव कतिपयाविशेषावसायव्याकुलं स्मरणम्; वविद्यावदनुभूततत्र संस्कारप्रबोधसम्भूतमनुभूतार्थविषयं तदित्याकारं वेदनं रूपादिविशेषमपि तस्यात्पत्तेस्ततस्तत्र का गतिरिति चेत् / नैवम् / नहि स्मरणम् / / 3 / / रूपादय एव विशेषा वस्तुनः, किन्तु अनुभूयमानताऽपि। चाऽसौ स्मरणे तत्रेति-प्राक् तनेभ्यः संस्कारप्रबोधसम्भूतत्वादिना गुणेन स्मरणं काऽ पि चकास्ति, तस्याऽपि प्राचीनानुभवस्वभावतापत्तेः। किन्त्वनुनिर्धारयन्ति / संस्कारस्याऽऽत्मशक्तिविशेषस्थ प्रबोधात् फलदाना- भुततैव भावस्य तत्र भाति / इति सिद्धमनुमानस्येव स्मरणस्याऽपि भिमुख्यलक्षणम् सम्भूतमुत्पन्नामात कारणनरूपणम्। अनुभूतःप्रमाण- प्रामाण्यम्। न च तस्याप्रामाण्येऽनुमानस्याऽपि प्रामाण्यमुपापादि, मात्रेण परिच्छिन्नोऽर्थश्चतनाऽचेतनरूपो विषयो यस्यति विषयव्यावर्णनम्। सम्बन्धस्याप्रमाणस्मरण सन्दर्शितस्यानुमानानङ्गत्वात्, संशयिततदित्याकारं तदित्युल्लेखवत्। तदिफ्युल्लेखवत्ता चास्य योग्यताऽपेक्ष- लिङ्गवत। न च प्राक्प्रवृत्तसम्बनधग्राहिप्रमाणव्यापारोप स्थापनमात्र याऽऽख्यायि / यावता 'स्मरसि चैत्र ! कश्मीरेषु वत्स्यामस्तत्र द्राक्षा चरितार्थत्वान्नास्य तत्र प्रामाण्येन प्रयोजमिति वाच्यम् / अप्रमाणस्य भोक्ष्यामहे' इत्यादि स्मरणे तच्छब्दोल्लेखो नोपलक्ष्यत एव, किन्त्विदं तदुपस्थापनेऽपि सामर्थ्यासंभवात्। किञ्च-अर्थोपलब्धिहेतुत्वं प्रमाणस्मरणं तेषु कश्मीरेषु इति ता द्राक्षा इति तच्छब्दोल्लेखमहत्येव / न चैव लक्षणं लक्षयांचकृट्वे / तच धारावाहिप्रत्यक्षस्येवास्याप्यषणमीक्ष्यत प्रत्यभिज्ञानेऽपि तत्प्रसङ्गः। तस्य स एवायमित्युल्लेखशेखरत्वात् / इति | एवेति किमन्यरसत्प्रलापैरिति॥४॥ रत्ना० 3 परि०। सर्वेष्वपि विशेषास्वरूपप्रतिपादनम् // 3 // वगमेषु द्रष्टव्ये, द्वा० 16 द्वा०।आव०। अनुभूतवस्तुन उद्बोधकसहकारेण अत्रोदाहरन्ति - संस्काराधीने ज्ञानभेदे, वाच०। (स्मृतिसंस्कारयोरानन्तर्य्यम् 'इस्सर' तत्तीर्थकरविम्बमिति यथा / / 4 / / शब्दे द्वितीयभागे 641 पृष्ठे उक्तम्।) तदिति-यत् प्राक् प्रत्यक्षीकृतम्, स्मतम्, प्रत्यभिज्ञातम, वित - तिम्, / सइअंतरद्धा स्त्री० (स्मृत्यन्तर्धा) स्मृत्यन्तर्धाने, स्मृतः-स्मरणस्य अनुमितम्, श्रुतं वा भगवतस्तीर्थकृतो बिम्ब प्रतिकृतिः तस्य परामर्शः, योजनशतादिरूपदिक्परिमाणविषयस्यान्तभ्रिंशः स्मृत्यन्ती।पञ्चा० इत्येवं प्रकारंतच्छब्दपरामृष्ट यद्विज्ञान तत्रावरमरणमित्यर्थः / ये तु योगाः 1 विव० / स्मृतेर्भशे यद्वर्तनं तत्स्मृत्यन्त नम / किं म्या परिगृहीत रमृतेरप्रामाण्यमध्यगीषत न ते साधु व्यधिषत / यतो यतावत केचिदनर्थ- कया वा मर्यादया व्रतमित्येवमननुस्मरणमित्यर्थः / श्रा० / आव०। जल्वादस्याः तदाम्नासिषुः तत्र हेतुः, 'अभूत्वृष्टिरुदेष्यति शकटम्' सइअकरण न० (स्मृत्यकरण) स्मृत्यन्तर्धान, स्मृतेःस्मरणस्य सामाइत्याद्यतीतानागतगोचरानुमानेनसव्यभिचार इत्यनुचित एवोच्चारयितुम्। यिकविषयाया अकरणमनासेवनं स्मृत्यकरणम् / प्रबलप्रमादान्नैवं परे तु मेनिरे -न स्मृतिः प्रमाणम्, पूर्वाऽनुभवविषयोपदर्शनेनार्थ स्मरति, यदुतास्यां वेलायां मया सामायिक कर्त्तव्यं कृतं न कृतं येति, निश्चिन्वत्या अर्थपरिच्छेदे पूर्वानुभवपारतन्त्र्यात् अनुमानज्ञानं तूत्पत्तौ | स्मृतिमूलं च मोक्षानुष्ठानम्। पञ्चा० 1 विव०। उत्त०। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सइअणोयारण 5 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सउणपुव्व सइअणोयारण नः (स्मृत्यनवतारण) सामयिककरणावसरविषयायाः कृत्यस्य वा सामयिकस्य प्रबलप्रमादयोगादनवतारणमनुपस्थापनं मया कदा सामयिकं कर्त्तव्यं कृतं वा मया सामयिकं नवेत्येवरूपे स्मरणभ्रशे, 602 अधिक। सइआभास पुं० (स्मृत्याभास) स्मरणाऽऽभासे, रत्ना० / अथ परोक्षाऽऽभासं विवक्षवः स्मरणाऽऽभासं तावदाहुःअननुभूते वस्तुनि तदिति ज्ञानं स्मरणाभासम्॥३१।। अननुभूते प्रमाणमात्रेकणानुपलब्धे // 31 // उदाहरन्तिअननुभूते मुनिमण्डले तन्मुनिमण्डलमिति यथा / / 3 / / रत्ना० 6 परि० सइंगाल न० (साङ्गार) चारित्रेन्धनधूमाङ्गारमिव यः करोति भोजनविषयरागाग्नि सोडार एवोच्यतेतेन सहयद्वर्ततेपानकादितत् साङ्गारम् / अडारदोषविशिष्ट, भ०६श०७ उ०।"रागेकण सइंगालंदोषेण सधूमगति जेयत्वं” महा०३ अ०। सइंदिय पुं० (सेन्द्रिय) इन्द्रियपर्याप्त,स्था०२ ठा०२ उ०। संसारिणि च / स्था०२ ठा०१३०। ('अणिंदिय' शब्दे प्रथमभागे 334 पृष्ठे दण्डक उक्तः ) सइकरण न० (स्मतिकरण) स्मृत्युत्पादे,बृ०१ उ०३ प्रक०। सइकाल पुं० (स्मृतिकाल) स्मर्य्यते यत्र भिक्षाकालः स स्मृतिकालः। "सइकाले चरे भिक्खू" दश०५ अ०१ उ०। सइज्झिता (देशी धान्यविशेष, स्था०। सइण्ण न० (सन्य) अइदैत्यादौ च // 8 / 11151 / / इत्यनेनैकारस्य अइ इत्यादेशः। सइन्न / सेनायासमवैति। अमिलिते हरत्यश्वादो, प्रा० / सेनायाः संघः। ष्यज। सेनासमुदाये नं०। सइन्भंस पु० (स्मृतिभ्रंश) स्मृत्यन्त ने, स्मृतेः-स्मरणस्य योजनशतादिरूपदिकपरिमाणविषयस्यातिव्याकुलत्वप्रमादित्वमत्यपाटवादिना भंशो ध्वंसः स्मृतिभ्रंशः। विस्मरणशीलतायाम, प्रव०२०७ द्वार। सइर न० (स्वर) “अइर्दैत्यादौ च" ||8111151 / / इत्यनेनैकारस्य 'अई' इत्यादेशः / सइरं / प्रा० / स्वच्छन्दे, व्य०७ उ०। सइरचारि त्रि० (स्वैरचारिन्) उद्भ्रामके, बृ०१ उ०३ प्रक०। सइरिन् त्रि० (स्वरिन्) स्वेचछाचारिणि, ग०१ अधि०। सइल पुं० (शैल पर्वते, “उच्छल्लन्ति समुद्दा, सइला निपतति तं हल नमथ" प्रा०४ पाद सइविप्पहूण त्रि० (स्मृतिविप्रहीन) अपगतकर्तव्यविवेके, सूत्र० 1 श्रु० / 5 अ०१3०। सइसंजाय त्रि० (सकृत्संजात) एकवारं समुत्पन्ने, पञ्चा० 3 विव०। सईण (देशी) धन्यविशेष, स्था०५ ठा० 3 उ०। सउज्जोय त्रि० (सोद्योत) सहोद्योतेन वस्त्वन्तरप्रकाशनेन वर्त्तन्त इति सोद्योतानि / स०। बहिर्विनिर्गतवस्तुस्तोमप्रकाशकरेषु, प्रज्ञा०२ पद। प्रत्यासनन्वस्तूद्योतके, भ० 2 श० 8 उ० / जला रा० / स० / बहिर्व्यवस्थितप्रत्यासन्नवस्तुस्तोमप्रकाशकरोद्योतसहिते, रा०। सउण पु० (शकुन) लोमपक्षिभेदे, औ० / नि०चू० / ज्ञा० / विवक्षितार्थसूचकनिमिरो, नपुं०। पञ्चा०७ विव०। पं०व०। इदानी भाष्यकारः शकुनं प्रतिपादयन्नाहनन्दीतूरं पुण्ण-स्स दंसणं संख पडह सद्दो य / भिंगारछत्त चामर, धयप्पडागा पसत्थाई।।१०।। समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दहिं। मीणं घंटं पड़ागं च, सिद्धमत्थं वियागरे॥११०।। एता निगदसिद्धा। ओघol | नन्दीतूर्यम्-द्वादशविधतूर्यसमुदायो युगपद्वाद्यमानः पूमर्णस्यपूर्णकलशस्य दर्शन शखपटहयोः-शब्दश्च श्रूयमाणःभृङ्गारछत्रचामराणि प्रतीतानि, वाहनानिहस्तितुङ्गमादीनि, यानानिशिबिकादीनि एतानि प्रशस्तानिशुभावहानि श्रमणलिङ्गमात्रधारिणं संयतं-षट्कायरक्षणे सम्यग्यत दान्तमिन्द्रियनोकइन्द्रियदमनेन, सुमनसः-पुष्पाणि मोदका दधि च प्रतीतं, मीनम्-मत्स्यं घण्टाम् एतासां च दृष्ट्वा श्रुत्वा वा सिद्धं निष्पन्नमर्थ प्रयोजनं व्यागृणीयादिति बृ०१ उ०२ प्रक०। शकुनाशकुनयोरेव स्वरूपोद्देशमाहणंदाह सुहो सद्दो, भरिओ कलसो त्थ सुन्दरा पुरिसा। सुहजोगाई सउणो, कंदअिसहादि इअरो उ॥५।। नन्द्यादिः-नन्दीप्रभृतिः तत्र नन्दी-द्वादशतूर्यनिर्घोषः, तद्यथा"भभामउंदमद्दल, कलंबझलरिहुडुक्ककंसाला। वीणा वंसो पडहो, संखो पणवो अवारसमो॥१॥" आदिशब्दात्-घण्टाशब्दादिग्रहः / तथा भृतो जलपरिपूर्णः कलशो घटः / अत्र व्यतिकरे सुन्दराकारनेपथ्या नराः शुभयोगादिप्रशस्तचेष्टाप्रभृतिशुभचन्द्रनक्षत्रादि संबन्धादि वा शकुनों विवक्षितार्थसिद्धिसूचकं निमित्तम्, क्रन्द्रितशब्दादिः-आक्रन्दध्वनिप्रतिषेधवचनप्रभृतिः, पुनः इतरोऽशुकन इत्यर्थः / षोडशकेऽपि “दार्वपि च शुद्धमिह यन्नानीतं देवताद्युपवनादेः / प्रगुणं सारवदभिनवमुचर्गन्थ्यादिरहितं च / / 1 / / सर्वत्र शकुनं पूर्व, ग्रहणादावत्र वर्तितव्यमिति / पूर्णकलशादिरूपश्चित्तोत्साहानुगः शकुनः / / 2 / / " ध०२ अधि० / “गहदिणाउ मुहत्तो, मुहत्ता सउणो बली। सउणाओ बलवंलग्गं, ततो निमित्तं पहाणं तु।।८०॥" / / 626|| द०प० / “यावद् यातो गुरुं पृष्ट्वा,शकुनस्तावद्धिवान् / ततस्तौ सूरयोऽवोचन, भावी लाभोऽद्य वां महान् / / 52 / / " आ०० 1 अ०। सउणग पुं० (शकुनक) पक्षिविशेषे, नि०चू० ५उ०। सउणपुव्व न० (शकुनपूर्व) शकुनमूले, षो०५ विव० / Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सउणवृड्डि 6 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकप्प सउणवुड्डि स्त्री० (शकुनवृद्धि) सन्निमित्तवर्द्धने शुभशकुनसत्त्व, पञ्चा० उच्यन्ते / बृ०३ उ०। 12 विव०। सउवद्दव त्रि० (सदुपद्रव) उपद्रवसहिते, तत्र तैः सदुपद्रवैर्वाऽतिभूतो सउणरूय न० (शकुनरूत) शकुनविचारे, शकुनरूतम् अत्र शकुनपदं व्याप्तः / ज्ञा० 1 श्रु०१०। रुतपदं चोपलक्षणं तेन वसन्तराजाधुक्तसंग्रहः गतिचेष्टादिग्बलादि- सदोपद्रव पुं० सर्वकालीने उपद्रवे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। परिग्रहश्च / जं०२ वक्ष० / स०। कल्प०। औ०। ज्ञा० स्था०1 सउह न० (सौध) “अउः पौरादौ च" / / 8 / 1 / 162 / / सउणि पुं० (शकुनि) स्त्री० पक्षिणि, सूत्र० 2 श्रु० 2 अ०। औ०। जा अत्रीकारस्योक्त-लक्षणेन 'अउ' इत्यादेशः। सुधानिर्मित पक्वगृहे, प्रा० आ० क०।०।०। शकुनिः पक्षिविशेषो लावकादिकः / सूत्र०२ श्रु० १पाद। 1 अ०। क्लीवभेदे, प्रव०२४७ द्वार। शकुर्निवेदोत्कटतया गृहचटकवत् / सं अव्य० (सम) समन्तात् प्रकर्षणेत्यर्थे, उत्त०१ अ० 1 एकीभावे, प्रतिसेवना करोति। बृ० 4 उ०। प्रव०करणे, पं० भा०ाववादिकरणेष्व- सू०प्र० 10 पाहु० / रा०। सम्यगर्थे, स०१ सम०। न्यतमे, उत्त० 4 अ० / कृष्णचतुर्दशीरात्रौ सदावस्थितं शकुनिनामकं | संकंत त्रि० (संक्रान्त) प्रविष्ट, स्था० / “दिव्वे संकंते भवई” दिवि भवं करणम् / आ०म०१ अ०। विशे० ज०। सूत्र०। दुर्योधनराजमन्त्रिणि. दिव्य स्वर्गगतवस्तुविषयं संक्रान्तं तत्र देवे प्रविष्टं भवतीति / स्था० पुं०। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। चतुर्दशविद्यासु, स्त्री० / शकुनीपारगोऽपि ३ठा०३ उ०। द्विजो गर्हितो भवति शकुनीशब्देन चतुर्दशविद्यास्थानानि गृह्यन्ते। बृ० शङ्कमान त्रि० अतिमूढत्वाद् विपर्यस्तबुद्धौ, सूत्र०१ श्रु०१अ०२ उ०। 3 उ०। आव०॥ संकंति स्त्री० (संक्रान्ति) संक्रमणं संक्रान्तिः / दश० 1 अ० / संक्रमे, सउणिगणे पुं० (शकुनिगण) पक्षिसमूहे, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। विश०। सउणिपोस पुं० (शकुनिपोष) पक्षिणो गुदे, "सउणिपोस पिट्टत- संकट्ठ त्रि० (संकष्ट) व्याप्ते, संथा०। रा०। रोरूपरिणया" इति। शकुनिपक्षिण इव पुरीषोत्सर्गे निर्लेपतया पोसन्ति | *संकृष्ट त्रि० विलिखिते, ज्ञा० १श्रु० 1 अ०। पोसः- अपानदेशः / पुस-उत्सर्गे, पुसन्ति पुरीषमुत्सृजन्तीति त्युत्पत्तेः / संकड्डिय त्रि० (संकर्षित) क्षेत्रादाकर्षिते, स्था०४ ठा०४ उ०। तथा लब्धपरिणमतया पृष्ठ च प्रतीतम् अन्तरे च पृष्ठोदरयोरन्तराले संकड त्रि० (संकट) संकीर्णे, प्रश्न०२ आश्रद्वार। अष्ट० / कल्प० स०। पाश्ववित्यर्थः ऊरू चेति द्वन्द्वस्ते परिणता येषां ते शकुनिपोसपृष्ठान्तरो- संकणिज्ज वि० (शङ्कनीय) भयजनके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / रूपरिणताः निष्टान्तस्य परनिपातः। ओघ०। संकप्प पुं० (संकल्प)अध्यवसाये, आव०३ अ०। परिणामे, पं० चू०३ सउणिय पुं० (शाकुनिक) शकु नेन-श्येनादिना-मृगयां कुर्वन्ति इति कल्प। विकल्पे, भ०६ श०३ उ०नि०। ज्ञा० / प्रारम्भे, विशे०। सत्त० / शाकुनिकाः प्राकृतत्वाद्धस्वत्वम्। पक्षिव्याधेषु, प्रश्न०२ आन० द्वार / विचारे, कल्प०१ अधि०२ क्षण / युक्तायुक्तविवेचने, ज्ञा०१ श्रु०१ शकुनिभिः पक्षिभिश्चरतीति शाकुनिकः / सूत्र०२ श्रु०२ अ०१ अ०। संकल्पस्तु द्विधा भवति-कश्चिद्ध्यानात्मकोऽपरश्चिन्तात्मकः / सउणिया स्त्री० (शकुनिका) पक्षिण्याम्, शकुनिविकुर्वणात्मिकायां रा०ा प्रव० / चित्तरवभावे, स्था० 4 ठा०२ उ०। (संकल्पः 'अट्ठारसट्टाण' परिव्राजकविद्यायाम,व्य० 1 उ०। "सुघराए स उणिगाए भणिओं" आव० शब्दे प्रथमभागे 246 पृष्ठे व्याख्यातः।) “संकप्पो संरंभो” भ०३ श०३ 1 अ०। “सउणिय त्ति" भण्यते या तु शकुनिका हितैव पक्षिणी सा कथम् उ०प०भा०। "सउलिय" त्ति इत्येवमिहापि प्राकृतशैल्यामेवमङ्गीकृत्यायथार्थता / संकप्पो उ इदाणिं य,सोय पसत्थो य अप्पसत्थो य। अनु०॥ एतेसिं दोण्हं पि, परूवणा होतिमा कमसो। सउत्तरोट्ठ पुं०(सोत्तरोष्ठ) सह उत्तरौष्ठन सोत्तरौष्ठस्तस्मिन। सश्मश्रुके, दंसणणाणचरित्ते, अणुपालणपत्थणा पसत्थो उ। भ०१५श। इंदियविसयकसाए-सु अपसत्थो उ संकप्पो। सउदय त्रि० (सोदक) उदकेन सहिते, आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०३ दंसणपभावकाई, सत्थाई कहमहं अहिज्जेजा। उ० / सह उदकेन वर्तत इति सोदकम् / उदकं भौमान्तरिक्षभेदादनेक- जा चिंतयतो एसो, संकप्पो दंसणे होति। प्रकारम्। दशा०१ अ०। सउली स्त्री० (सौली) महौषधिभेदे, ती०६कल्प। णाणतियारं न करे, कंहं व णाणं अहं अहिज्जेज्जा / सउवक्कोस स्त्री० (सोपक्रोश) अप्रशस्तविनयभेदे, स्था०७ ठा०३ उ० / इति णाणे चारित्ते,सुद्धचरित्तो कहं होना। सउवचार त्रि० (सोपचार) उपचारसहिते, वृ० / ततस्ते तासा वसति- उत्तरउत्तरिएहि व, चारित्तगुणेहि कह णु विभरेजा। सोपचाराः प्रविशन्ति / सोपचारा नाम त्रिषुस्थानेषु प्रयुक्ता नैषेधिकी- एसो तु चरित्तम्मी, संकप्पो सत्थागो मणितो। शब्दाः, यद्वा-संयतीभिर्येषां वक्ष्यमाण उपचारः प्रयुक्तस्ते सोपचारा पं०भा०३ कल्प / आचा०। ५०चू०। नि० चू० अष्ट० / गौ दार Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकप्प 7 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम कामथुन, प्रश्र०। संकल्पो विकल्पस्तत्प्रभवत्वादस्य संकल्प इति नाम, उक्त च-"काम ! जानामि ते रूपं, संकल्पास्किल जायसे / न त्वां संकल्पयिष्यामि, ततो मे न भविष्यसि // 1 // " इति। प्रश्न०४ आश्र० द्वार। संकप्पकय त्रि० (संकल्पकृत) आकुट्टिकादिविहिते, “पाणातिवावपभितिसु, संकप्पयेसु चरणविगमम्मिाआउट्टे परिहारा. पुण पट्टवणं तुमूलं ति।" पञ्चा०१६ विव०। संकप्पय पुं० (संकल्पज) सङ्कल्पाज्जाते प्राणातिपाते, आव० संकल्पजः मनसा संकल्पाद्वीन्द्रियादिप्राणिनां मासास्थिचर्मनखवालदन्ताद्यर्थ व्यापादयतो भवति : आव०६ अ०। संकप्पिय त्रि० (संकल्पत) आलोचितें, विशे०। संकम पुं० (संक्रम) संक्रम्यते येन स संक्रमः / काष्टचारे, (नाकादी) नि०चू० 1 उ० / अलगर्तपरिहाराय पाषाणकाष्ठरचिते (दश०५ अ० 1 उ०) विषमात्तरागमार्गे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। “संकमेणं न गच्छेना विजमाणो परक्कमे" दश०५ अ०१ उ०। 60 / नि००। जीवेन बध्यमानायाः कर्मप्रकृतरनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थवीर्यविशेषेण परिणमने, स्था। चउटिवहे संकमे पण्णत्ते, तं जहा-पगइसंकमे ठिइसकमे अणुभाग-संकमे पएससंकमे / (सू०२६६) या प्रकृति बध्यानि जीवः तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक वीर्यविशेषण यत्परिणमयति स संक्रमः। उक्तं च- "सो संकमो त्ति भन्नइ, जब्बधणपरिणओ पओगेणं / पययतरत्थदलियं, परिणामइ तदभावे जं // 1 // " इति / तत्र प्रकृतिसंक्रमः सामान्यलक्षणावगम्य एवंति, मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां वा स्थितेर्यदुत्कर्षणम् अपकर्षण वा प्रकृत्यन्तरस्थितौ धानयनं स स्थितिसंक्रम इति। उक्तं च (कर्मप्रकृता)"ठिइसंक्रमो त्ति वृचइ, मूलुत्तरपगइओ उ जा हि ठिई। उव्वट्टिया व ओवट्टिया व पगई णिया वनं // 28 // " इति, अनुभागसंक्रमोऽप्येवमेव, यवाह (क०प्र०)"तथऽट्टपयं उव्व-ट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा। अणुभागसंकमो ए-स अन्नपगई णिया वावि / / 1 // " इति, अपयं ति-अनुभागसंक्रमस्वरूपनिर्धारणम्, 'अविभाग' त्ति अनुभागाः 'निय' त्ति नीता इति / यत्कर्मद्रव्यमन्यप्रकृतिस्वभावेन परिणम्यतेस प्रदेशसंक्रमः उक्तञ्च"जं दलियमन्नपगई, णिज्जइ सो संकमो पएसस्स" इति, निधानं निहित वा निधत्तम्, भावे कम्मर्माणि वा क्तप्रत्यये निपातनात, उद्वर्त्तनापवर्त्तनावर्जिताना शेषकरणानामयोग्यत्वेन कर्मणोऽवस्थापनमुच्यते, नितरां काचनबन्धनं निकाचितंकर्मणः सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापनम्। उक्तद्योभयसंवादि-"संकमणं पि निहत्तीए, णऽस्थि सेसाणि व त्ति इयरस्स" इति / स्था० 4 ठा०२ उ०॥ सम्प्रत्युद्देशक्रमेण वक्तुमवसरप्राप्त संक्रमकरणम् / संक्रमश्च प्रकृतिरिथत्यनुभागप्रदेशापविषयभेदाच्चतुर्विधः। तत्र प्रथमतः संक्रमस्य सामान्यलक्षणमभिधातुकाम आहसो संकमो त्ति वुचइ, जंबंधणपरिणओ पओगेणं / पगयंतरत्थद लियं, परिणमयइ तयणुभावे जं / / 1 / / 'सो संकुमुत्ति इह जीवो यद्वन्धनपरिणतो यस्याः प्रकृतेर्बन्धनेन बन्धकत्वेन परिणतः। अनेन किलेदमावेद्यते-यदिजीवस्तथा-रूपबन्धनपरिणामपरिणतो भवति ततः कर्मवर्गणापुद्रला अपि कर्मरूपतया परिणमन्ते, नान्यथा, उक्त च"जीवपरिणामहेऊ कम्मत्ता पुग्गला परिणमंति। पोग्गलकम्मनिमित्तं, जीवो वि तहेव परिणमइ॥१॥" अस्याक्षरगमनिका-जीवस्य सत्कात्परिणामादध्यवसायाद्धेतोः, जीवपरिणाम हेतुमाश्रित्येत्यर्थः / कर्मवर्गणान्तःपातिनो जीवस्वप्रदेशावगाढाः पुद्रलाः कर्मरूपतया ज्ञानावरणीयादिकर्मरूपतया परिणमन्ते। अथ जीवस्याऽपि तथारूपः परिणामः कस्माद्भवतीति चेदुच्यते 'पुग्गले' त्यादि पुगलरूपं प्राग्बद्धं कर्म विपाकोदयप्राप्त तन्निमित्तं तत्सामादिति भावः / जीवोऽपि तथैव प्रदेशावगाढकर्मवर्गणान्तःपातिपुद्गलकर्मरूपतापतिहेतुतयैव परिणमत इति / 'पओगेणं' ति प्रयोगेण संक्लेशसज्ञितेन विशोधिसंज्ञितन वा वीर्यविशेषेण विवक्षिताया प्रकृतेरन्या प्रकृतिः प्रकृत्यन्तर विवक्षितबध्यमानप्रकृतिव्यतिरिक्ताऽन्या प्रकृतिरित्यर्थः / तत्र स्थं दलिकं तदनुभावेन बध्यमानप्रकृतिस्वभावेन यत्परिणभयति परिणमनमापादयति,स संक्रम उच्यते एतदुक्तं भवतिवध्यमानासु प्रकृतिषु मध्येऽबध्यमानप्रकृतिदलिक प्रक्षिप्यबध्यमानप्रकृतिरूपतया यत्तस्य परिणमनम,यच्च वा बध्यमानानां प्रकृतीनां दलिकरूमपस्येतरेतररूपतया परिणमन तत्सर्व संक्रमणमित्युच्यते। तत्र बध्यमानप्रकृतिष्वबध्यमानप्रकृतीनां संक्रमो यथा-सातवेदनीये वध्यमानेऽसातवेदनीयस्य, उच्चैर्गोत्र वा नीचैर्गोत्रस्येत्यादि। बध्यमानाना परस्पर संक्रमा यथा-बध्यमाने मतिज्ञानावरणीये बध्यमानमेव श्रुतज्ञानावरणं संक्रमयति, श्रुतज्ञानावरणे वा बध्यमाने बध्यमानमेव मतिज्ञानावरणीयमित्यादि / इह यत्प्रकृतिबन्धकल्वेन परिणत आत्मा तदनुभावेन प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक यत्परिणमयति स संक्रम इत्युक्तम्। एतच्च लक्षणं दर्शनत्रिकव्यतिरेकेणान्यत्र द्रष्टव्यम्, दर्शनत्रिके पुनर्बन्धं विनाऽपि संक्रमोऽवगन्तव्यः। तथा चाहदुसु वेगे दिट्ठिदुर्ग, बंधेण विणा वि सुद्धदिहिस्स। परिणामइ जीसे तं, पगईए पडिग्गहो एसा / / 2 / 'दुसु' त्ति शुद्धदृष्टः सम्यगदृष्टयोः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोराधारभूतयोमिथ्यात्वम्, एकस्मिश्च सम्यक्त्वे सम्यग्गिथ्यात्वं बन्ध विनापि संक्रामति / इयमत्र भावना-इह मिथ्यात्वस्यैव बन्धो न सम्यक्त्सम्यग्मिथ्यात्वयोः / यतो मिथ्यात्वपुद्रला एव मदनकीद्रवस्थानीया ओषधविशेषकल्पनौपशमिकसम्यक्त्वानुगतेन विशोधिस्थानेन त्रिधा क्रियन्ते / तद्यथाशुद्धा अर्धविशुद्धा अविशुद्धाश्च / तत्र विशुद्धाः सम्यक्त्वम्, अर्द्धविशुद्धाः सम्याग्मथ्यात्वम्, अविशुद्धा मिथ्यात्वम्। तत्र विशुद्धसम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः बन्धं विनापि तत्र मिथ्यात्वं संक्रमयति, सम्यग्मिथ्यात्वं च सम्यक्त्वे इति। तदेवमुक्तं संक्रमस्य सामान्यलक्षणम्। सम्प्रति यासु प्रकृतिषु प्रकृत्यन्तरस्थं दलिक संक्रमयति तासां संज्ञान्तरमाह - 'परिणामे' त्यादि यस्यां प्रकृती Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 8 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम आधारभूतायां तत्प्रकृत्यन्तरस्थं दलिकं परिणमयति आधारभूतप्रकृतिरूपतामापादयति एषा प्रकृतिराधारभूता पतद्ग्रह इत्युच्यते / पतद्ग्रह इव पतद्ग्रहः संक्रम्यमाणप्रकृत्याधार इत्यर्थः / संक्रमलक्षणं च प्रागुक्तमितिप्रसक्तमिति तत्रापवादमाहमोहदुगाउगमूल-प्पगडीण न परोप्परम्भि संकमणं / संकमबंधुदउव्व-ट्टणा (णव) लिगाईण करणाइं / / 3 / / 'मोह' ति मोहद्विक-दर्शनमोहनीयं, चारित्रमोहनीयं च। तयोः पररम्हपर संक्रमो न भवति। तथाहि-नदर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीये संक्रमयति, चारित्रमोहनीयं वा दर्शनमोहनीये / तथा आयूषि चत्वार्यपि न परस्पर संक्रमयति, नापि मूलप्रकृतीः परस्पर संक्रमयति। तथाहि-न ज्ञानावरणीये दर्शनावरणीय संक्रमयति, नापिदर्शनावरणीये ज्ञानावरणीयम्। एवं सर्वास्वपि मूलप्रकृतिषु भावनीयम्। अपि च-यस्मिन् दर्शनमोहनीये यो जन्तुरवतिष्ठते, स तदन्यत्रन संक्रमयति। यथा मिथ्यादृष्टिमिथ्यात्वम्, सम्य-ग्मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यात्वम्, सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वम, तथा सासादनाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयश्च न किमपि दर्शनमोहनीय कापि संक्रमयन्ति, अविशुद्धदृष्टित्वात् / बन्धभावे हि दर्शनमोहनीयस्य संक्रमो विशुद्धदृष्ट रेव भवति, नाविशुद्धदृष्टः / अन्यच्च-परप्रकृतिसंक्रान्तं दलिकमावलिकामात्रं कालं यावदुद्वर्तनादिसकलकरणायोग्यमवगन्तव्यं, न केवलं संक्रान्तमपि तु बन्धाद्यावलिकागतमपि। तथाचाह- 'संको त्यादि संक्रमावलिकागतम, बन्धावलिकागतम्, उदयावलिकागतम, उद्धर्तनावलिकागतम्, आदिशब्दादुपशान्तं मोहनीय दर्शनमोहनीयत्रिकरहितमित्येतानि सर्वाण्यप्यकरणानि सकलकरणायाग्यान्यवसैयानि / दर्शनत्रिकं तूपशान्तमपि संक्रमयति। तदेवं लक्षणापवादोऽभिहितः। सम्प्रति क्रमेणोत्क्रमेण वा विशेषण (षण) संक्रमे प्राप्ते सति नियममाहअंतरकरणम्मि कए, चरित्तमोहेऽणुपुट्विसंकमणं / अन्नत्थ सेसिगाणं, च सव्वहिं सव्वहा बंधे / / 4 / / 'अंतरकरणम्मि' त्ति अन्तरकरणविधिग्रे उपशमनाकरणाभिधानावसरे प्रतिपादयिष्यते, तत्रोपशमश्रेण्यां चारित्रमोहनीयोपशमनार्थमकविशतेः प्रकृतीनाम, क्षपक श्रेण्या पुनः कषायाष्टकक्षपणानन्तरं त्रयोदशप्रकृतीनामन्तरकरणे कृते सति, चारित्रमोहे पुरूषवेदसंज्वलनचतुष्टयलक्षणे / अत्र हि चारित्रमोहनीयग्रहणेनेता एव पञ्च प्रकृतयो गृह्यन्ते, न शेषाः बन्धाभायात्। तत्रानुपूर्वीपरिपाट्या संक्रमणं भवति, न त्वनानुपूर्व्या। तथाहि-पुरूषवेद सज्वलनक्रोधादावेव संक्रमयति नान्यत्र। संज्वलनक्रोधमपि संज्वलनमानादावेव न तु पुरूषवेदे / संज्वलनभानमपि संज्वलनमायादावेव, न तु संज्वलनक्रोधादौ / संज्वलनमायामपि संज्वलनलोभे एव, न तु संज्वलनमानादाविति / 'अन्नत्थ त्ति अन्तरकरणादन्यत्र पञ्चानामपि पुरूषवेदादिप्रकृतीनां शेषाणां पुनः प्रकृतीनाम्। | 'सव्वहि' ति सर्वस्मिन्नप्यवस्थाविशेषेऽन्तरकरणावस्थायामन्यत्र वा इत्यर्थः / सर्वैःप्रकारैः क्रमेणोत्क्रमेण वा संक्रमोऽवगन्तव्यः / किं सर्वदैव ? नेत्याह-बन्धे बन्धकाले, न त्वन्यदा यथोक्तं प्राक् / तदेवं संक्रमस्य सामान्यलक्षणविधिरपवादो नियमश्वोक्तः। संप्रति यदुक्तं यस्याः प्रकृतेर्बन्धः सा प्रकृत्यन्तरदलिकसंक्रमणं प्रति पतद्ग्रह इति तत्रापवादमाहतिसु आवलियासु समऊ-णियासु अपडिग्गहा उ संजलणा। दुसु आवलयासु पढम-ठिइए सेसासु वि य वेदो।।५।। “तिसु' ति-अन्तरकरणे कृते प्रथमस्थितौ, तिसृष्वावलिकासु. समयोनासु सतीषु चत्वारोऽपि संज्वलना अपतद्ग्रहाः, पतद्ग्रहा न भवन्ति / एतदुक्तं भवति-चतुलपि संज्वलनेषु प्रथमस्थिता तिसृष्वावलिकासु समयोनावलिकात्रिकशेषायां सत्यां बध्यमानेष्वपि नान्यत्प्रकृत्यन्तरदलिकं तेषु संक्रामति, तेन तदानीमपतद्ग्रहाः / तथाऽतरकरणे कृते सति द्वयोरावलिकयोःप्रथमस्थितिसत्कयोः समयोनयोः सत्योर्वेदः पुरूषवेदः पतद्ग्रहो न भवति, न किमपि तत्र प्रकृत्यन्तरदलिक संक्रामतीत्यर्थः / वेदश्वेह पुरूषवेद एव द्रष्टव्यः,ने स्थीनपुंसकवेदौ, तदानीं तयोर्बन्धाभावादेवापतद्ग्रहत्वसिद्धेः ।अपि चमिथ्यात्वे क्षपिते सति सम्यग्मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोश्च क्षपितयोः सम्यक्त्वस्योदलितयोस्तु सम्यक्त्यसम्यगमिथ्यात्वयोर्मिथ्यात्वस्यापतद्ग्रहताऽनुक्ताऽपि द्रष्टव्या, न खलु तत्रापि किंचित संक्रामतीति। संप्रति साधनादिप्ररूपणामाहसाइअणाईधुवअ-धुवा य सव्वधुवसंतकम्माणं / साइयधुवा य सेसा, मिच्छावें यणीयनीएहिं / / 6 / / 'साई' ति सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वनरकद्विकमनुजद्विकदेवद्विकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकतीर्थकरोकच्चैर्गोत्रलक्षणाश्चतुर्विंशतिप्रकृतयोऽधुवसत्कर्माण आयुश्चतुष्टयं च ।शेषं पुनस्त्रिंशदुत्तरं प्रकृतिशतं ध्रुवसत्कर्म / ततोऽपि साताऽसातवेदनीयनीचैर्गोत्रमिथ्यात्वरूपं चतुष्टयमपनीयते। ततः शेषस्य षड् विंशत्युत्तरप्रकृतिशतस्य साद्यादिरूपतया चतुर्विधोऽपि संक्रमो भवति / तथाहि-अमूषां ध्रुवसत्प्रकृतीनां संक्रमविषयप्रकृतिबन्धव्यवच्छेदे सति संक्रमोन भवति / ततः पुनरपितासां संक्रमविषयप्राकृतीनां स्वबन्धहेतु-सम्पर्कतो बन्धारम्भे सति भवति, ततोऽसौ सादिः, तत्तद्वन्धव्यवच्छेदस्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, अभव्यस्य ध्रुवः कदाचिदपि व्यवचछेदाभावात्, भव्यस्य पुनरध्रुवः कालान्तरे व्यवच्छेदसम्भवात् / शेषाश्चतुर्विंशतिप्रकृतयोऽध्रुवसत्कर्माणो मिथ्या-त्ववेदनीयनीचैर्गोत्रः सह साद्यध्रुवाः-साद्यध्रुवसंक्रमाअवगन्तव्याः। तथाहि-अध्रुवसकर्मणामध्रुवसत्कर्मत्वादेव संक्रमः सादिरध्रुवश्चावगन्तव्यः, सातासातवेदनीयनीचैर्गोत्राणांतुपरावर्तमानत्वात्। मिथ्यात्वस्थपुनः संक्रमौविशुद्धसम्यगदृष्टः, विशुद्धसम्यग्दृष्टित्वंच कादाचित्कं,ततस्तस्याऽपि संक्रमः साद्यध्रुवएव। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 6 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम साम्प्रतं पतद्ग्रहाणां साधनादिप्ररूपणामाहमिच्छत्तजढाय परि-ग्गहम्मि सव्वधुवबंधपगईओ। नेया चउव्विगप्पा, साई अधुवा य सेसाओ॥७॥ 'मिच्छत्त' त्ति मिथ्यात्वजढ़ाः-मिथ्यात्वरहिताः सर्व अपि धुवबन्धिन्यःप्रकृतयः-पक्ष ज्ञानावरणीयानि, नवदर्शनावरणीयानि, षोडश कषायाः, भयं, जुगुप्सा, तैजससप्तक, वर्णादिविंशतिः, अगुरूलघु उपघातं, निर्माणम्, अन्तरायपञ्चकं चेति / एताः संक्रममधिकृत्य चतुर्विकल्पः साधनादिधुवरूपचतुर्भेदा ज्ञेयाः / तथाहि-एतासा सप्तषष्टिसंख्यानां ध्रुवसबन्धिनीवामात्मीयात्मीयबन्धव्यवच्छेदसमये पतद्ग्रहत्वं न भवति, न किमपि प्रकृत्यन्तरदलिक तासु संक्रामतीत्यर्थः / पुनः स्वस्वबन्धहेतुसम्पर्कतो बन्धारम्भे सतिपतद्ग्रहत्वं भवति ततः सादिः, तत्तद्वन्धव्यवच्छेदस्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, धुवाध्रुवे अभव्यभव्यापेक्षया / 'साई' इत्यादि शेषास्त्वधुवबन्धिन्योऽष्टाशीतिसंख्याः प्रकृतयोऽध्रुवबन्धित्वादेव (तासां) साद्यधुवपतद्ग्रहता भावनीया। मिथ्यात्वस्य पुनर्बुवबन्धित्वेऽपि यस्य सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वे विद्यते स एव ते तत्र संक्रमयति, नान्य इति तस्य साद्यध्रुवपतद्ग्रहता द्रष्टव्या। तदेवमेकैकप्रकृतीना संक्रमस्य पतद्ग्रहत्वस्य च सा द्यनादिप्ररूपणा कृता / सम्प्रति प्रकृतिस्थानेषु ता चिकीर्षुरतिदेशमाहपगईठाणे वि तहा, पडिग्गहो संकमो य बोधव्यो। पढमंतिमपगईणं, पंचसु पंचण्ह दो वि भवे ||8|| 'पगईठाणे' त्ति यथकैकस्याः प्रकृतेः पतद्ग्रहत्वं संक्रमश्व साधादिरूप उक्तस्तथा प्रकृतिस्थानेष्वपि बोद्धव्यः / द्विवादीनां च प्रकृतीनां समुदायः प्रकृतिस्थानम् / तत्र प्रथमतो ज्ञानावरणीयस्य तत्समानवक्तव्यत्वादन्तरायस्य च संक्रमपतद्ग्रहत्वात् स्थानप्रतिपादनार्थमाह- 'पढमतिमे' - त्यादिप्रथमप्रकृतेर्ज्ञानावरणीयस्य अन्तिमप्रकृतेरन्तरायस्य सम्बन्धिनीनां प्रत्येकं पञ्चानामपि प्रकृतीनां पञ्चस्वपि प्रकृतिषु द्वावपि संक्रमपतद्ग्रहभावौ भवतः। एतदुक्तं भवति-ज्ञानावरणीयान्तराययोरेकैकं पञ्चप्रकृत्यात्मकं स्थानं संक्रमे पतद्ग्रहभावे च भवतीति। तौ चेमौ संक्रमपतद्ग्रहभावौ साद्यादिरूपतया चतुष्प्रकारी। तथाहि- उपशान्तमोहगुणस्थानके तयोरभावात्, ततःप्रतिपाते च पुनः सम्भवात् सादी, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादी, धुवाध्रुवता चाभव्यभव्यापेक्षया भावनीया। सम्प्रति दर्शनावरणीयस्य संक्रमपतद्ग्रहत्वस्थान प्रतिपादनार्थमाहनवगच्छक्कचउक्के, नवगं छक्कं च चउसु बिइयम्मि। अन्नयरस्सिं (स्से) अन्नय-रा वि य वेयणीयगोएसु / / 6 / / 'नवग त्ति' द्वितीये दर्शनावरणीये नवकषट्कचतुष्केषु नवक संक्रामति, षट्क च चतसृषु प्रकृतिषु। तेनेह द्वे संक्रमस्थाने। तद्यथा-नवकं, षट्क च। त्रीणि पतद्गृहस्था नानि, तद्यथा-नवकं, षट्क चतुष्कं च / तत्र नवकरूपे पतगृहे मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्च नवविधदर्शनावरणीयबन्धका नवकमपि संक्रमयन्ति। अयं च नवकरूपः पतद्ग्रहः साद्यादिरूपतया चतुष्प्रकारः / तद्यथा-सादिरनादिधुंवोऽधुवश्च / तथाहिसम्यग्मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानेषु न भवति, ततः प्रतिपाते च-भवति, ततोऽसी सादिः / षट्स्स्थानकमप्राप्तस्य पुनरनादिः धुवाध्रुवाऽभव्यभव्यापे क्षया। तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकादारभ्यापूर्वकरणस्यासंख्येयतम भाग यावन्नवविधदर्शनावरणीयसत्कर्माणः षड्डिधदर्शनावरणीयबन्धकाः षट्के नवकं संक्रमयन्ति / अयं तु षट्करूपः पतद्ग्रहः साद्यधुवः कादावित्कत्वात् / तथा-अपूर्वकरणस्य संख्येयतमे भागे निद्राप्रचलयोर्वन्धव्यवच्छेदे तत ऊर्ध्व सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकचरमसमयं यावदुपशमश्रेण्यां नवविधदर्शनावरणीयसत्कर्माणश्चतुर्विधदर्शनावरणीयबन्धकाश्चतुष्के नवकं संक्रमयन्ति। अयमपि च चतुष्करूपः पतद्ग्रहः साद्यधुवः, कदाचिद्भावात् / नवकरूपः संक्रमश्चतुष्प्रकारः तद्यथा-सादिरनादिधुवोऽधुवश्च। तथाहि-सूक्ष्मसम्परायात्परतः उपशान्तमोहे न भवति, ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ सादिः / तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः। धुवाधुवावभव्यभव्यापेक्षया। क्षपकश्रेण्यां पुनरनिवृत्तिकरणाद्धायाः। संख्येयतमे भागेऽवशिष्ट सति स्त्यानद्धित्रिकक्षयात् परतः सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकचरमसमयं यावत्षड्विधदर्शनावरणीयसत्कर्माणश्चक्षुरादिदर्शनावरणीयचतुष्टयं बध्नन्तसतस्मिन् दर्शनावरणचतुष्के षट्क संक्रमयन्ति / इमावपि संक्रमपतद्ग्रहौ, साद्यधुवौ, कादाचित्कत्वात्। अतः परं तु न संक्रमो नापि पतद्ग्रहत्वमिति। संप्रति वेदनीयगोत्रयोः संक्रमपतद्ग्रहत्वस्थानप्रतिपादनार्थमाह'अन्नरसे' त्यादि। वेदनीय गोत्रे चान्यतरस्यां प्रकृतौ बध्यमानायामन्यतराऽबध्यमाना प्रकृतिः संक्रामति / तेन या यत्र संक्रामति सा तस्याः पतद्ग्रहः / इतरा च संक्रमस्थानम् / तत्र सातबन्धकानां मिथ्यादृष्टिप्रभृतीनां सूक्ष्मसम्परायपर्यन्तानां सातासातसत्कर्मणां सातवेदनीयं पतद्ग्रहः असातं संक्रमस्थानम् / असातबन्धकानां पुनिर्मिथ्यादृष्टिप्रभृतीना प्रमत्तसंयतपर्यन्तानां सातासातसत्कर्मणाम् असातवेदनीयं पतदग्रहः, सातवेदनीयं तु संक्रमस्थानम् इमौ च सातासातरूपी संक्रमपतद्ग्रहौ साद्यधुवौ भूयो भूयः परावृत्त्य (त्ति) भावात् / तथा मिथ्यादृप्रिभृतीनां सूक्ष्मसम्परायपर्यन्तानामुचैर्गात्रबन्धकानामुच्चनीचैर्गोत्र। बन्ध। सत्कर्मणामुच्चेगोत्रं पतद्ग्रहः, नीचैर्गोत्रं तु संक्रमस्थानम्। नीचैर्गोत्रबन्धकानां तु मिथ्यादृष्टिसासादनानामुच्चनीचैर्गोत्रसत्कर्मणा नीचैर्गोत्रं पतद्ग्रहः, उच्चैर्गोत्रं तु संक्रम्यमाणम्। (मस्थान) इमावप्युचैर्गोत्रनीचैर्गोत्ररूपौ संक्रमपतद्ग्रही प्रागिव साद्यधुवौ भावनीयौ। सम्प्रति मोहनीयस्य संक्रमपतद्ग्रहत्वस्थानप्रतिपादनावसरस्तत्र प्रथमतः संक्रमासंक्रमस्थाननिर्देशं चिकीर्षुराहअट्ठचउरहियवीसं, सत्तरसं सोलसं च पन्नरसं। वज्जियसंकमठाणा-इँ हाँति तेवीसई मोहे / / 10 / / Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 10 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम 'अद्ध' त्ति अष्टाधिका चतुरधिका च विशतिः अष्टाविशतिश्चतुर्विशतिश्चेत्यर्थः / तथा सप्तदश षोडश पञ्चदश चेत्यमूनि स्थानानि वर्जयित्वा | शेषाणि एकद्वित्रिचतुःपाषट्सप्ताष्ट नवदशैकादशद्वादशत्रयोदशचतुर्दशाष्टादशैकोनविंशतिर्विशत्येकविंशतिद्वाविंशतित्रयोविंशतिपञ्चविंशतिषदिशतिसप्तविंशतिलक्षणानि त्रयोविंशतिसंख्यानि मोहनीये संक्रमस्थानानि भवन्ति / तथाहि-अष्टाविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टे - मिथ्यात्वं सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतद्गृह इति मिथ्यात्वव्यतिरिक्ताः शेषाः सप्तविंशतिः संक्रामन्ति / तत्र चारित्रमोहनीयं पञ्चविंशतिप्रकृत्यात्मकं परस्पर संक्रामति सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः मिथ्यात्वे / तथा सम्यक्त्वे उदलिते सति सप्तविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टर्मिथ्यात्वं सम्यग्मिथ्यात्वस्य पतद्ग्रह इति तद्व्यतिरिक्ताः शेषाः षड्विशतिः संकामन्तिा सभ्यमिथ्यात्वेऽप्युदलिते राति षड्विंशतिसत्कर्मणः पञ्चविंशतिः। अथवा-अनादिमिथ्यादृष्टः षड्विंशतिसत्कर्मणः पञ्चविंशतिः,गिथ्यात्वस्य संक्रमाभावात्। न हि तत् चारित्रभोहनीये संक्रामति,दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीययोः परस्पर संक्रमाभावात / अथवौपशमिकराम्यगदृष्टरष्टाविंशतिसत्कर्मणः सम्यक्त्वलाभादावलिकाया ऊर्द्ध वर्तमानस्य सम्यक्त्वे मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः संक्रमः / तेन तत् पतद्ग्रह इति / तस्मिन्नपसारिते शेषा सप्तविंशतिः संक्रमे प्राप्यते / तस्यैव चौपशमिकसम्यग्दृष्ट रष्टाविंशतिरात्कर्मण आवलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे न संक्रामति / यतो मिथ्यात्वपुद्रला एव सम्यक्त्वानुगति (त) विशोधिप्रभावतः सम्यग्मिथ्यात्वलक्षणं परिणामान्तरमापादिताः। अन्यप्रकृतिरूपतया परिणामान्तरापादनं च संक्रमः, संक्रमावतिकागतं च सकलकरणायोग्यमिति सम्यक्त्वलाभादावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानेन सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वेन संक्रम्यते, किंतु केवलं मिथ्यात्वमेव ततः सम्यग्मिथ्यात्वेऽप्यपसारित शेषा षड़विंशतिः रांकामति / चतुर्विशतिस्तु संक्रमे न प्राप्यते, यतश्चतुर्विशतिसत्कर्मा सम्यगदृष्टिर्मिथ्यात्वं गतः सन् यद्यप्यनन्तानुबन्धिनो भूयोऽपि बध्नाति, तथापि तान् सतोऽपि न संक्रमयति, बन्धावलिकागतस्य सर्वकरणायोग्यत्वात् / मिथ्यात्वं च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतद्ग्रह इतितस्मिनन्पसारिते शेषा त्रयोविंशतिरेव संक्रामति। अथवा-चतुर्विशतिसत्कर्मणः सम्यादृष्टः राम्यक्त्वं मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतद्ग्रह इति तरिमन्नपसारिते शेषा त्रयोविंशतिः संकामति / तस्यव मिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिः / अथवी-पशमिकसम्यगदृष्टरूपशम श्रेण्या वर्तमानस्य चारित्रमोहनीयस्यान्तरकरणे कृते सति लोभराज्वलनस्यापि संक्रमोन भवति, "अन्तरकरणे कृते पुरूषवेदसंज्वलनवतुष्टययोरानुपूा संक्रमो भवतीति वचनप्रामाण्यात, अनन्तानुबन्धिचतुष्टरय च विसंयोजितत्वादुपशान्तत्वाद्वा संक्रमाभावः / सम्यक्त्वं च मिथ्यात्वसम्यगिमथ्यात्वयोः पतद्ग्रह इति संज्वलनलोभाननतानुबन्धि-चतुष्टयसम्यवत्वेष्वष्टाविंशतेरपनीतेषु शषा द्वाविंशतिः संक्रामति। तस्येवापशगिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य नपुंसकवेदे उपशान्ते एकविंशतिः द्वाविंशतिस-कर्मणो वा सम्यक्त्व न क्वापि संक्रामतीत्येकविंशति : संक्रमे प्राप्यते / यद्वाक्षपक श्रेण्यां वर्तमानस्य क्षपकस्य यावदद्याप्यष्टौ कषाया नक्षयमुपयान्ति तावदेकविंशतिः संक्रमे प्राप्यते। औपशमिकसम्यग्दृष्टः सम्बन्धिन्याः प्रागुक्तायाः एकविंशतः स्त्रीवेदे उपशान्ते सति शेषा विंशतिः संक्रामति। यद्वा-क्षायिकसस्यगदृष्टरूपशमश्रेणि प्रतिपन्नस्य चारित्रमोहनीयस्यान्तरकरणे कृतेलोभसंज्वलनस्यापि। प्रागु-क्तयुक्तेः संक्रमो न भवतीति तस्मिन्नपसारित विंशतिः संक्रमे प्राप्यते / ततो नपुंसकवेदे उपशान्ते एकोनविंशतिः स्त्रीवेदे उपशान्तेऽष्टादश औपशमिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्यो वर्तमानरय प्रागुक्ताया विंशतेः षट्सु नोकषायेषूपशान्तेषु शेषाश्चतुर्दश संक्रामन्ति / ततः पुरूषवेदे उपशान्त त्रयोदश / यद्वाआपकस्य क्षपक श्रेण्यां वर्तमानस्य प्रागुक्ताया एकविंशतेरष्टसु कषायेषु क्षीणेषु शेषास्त्रयोदश संक्रामन्ति। तस्यैव क्षपकस्य चारित्रमोहनीयस्यान्तरकरणे कृते संज्वललोभस्य प्रागुक्तयुक्तेः संक्रमो न भवतीति तस्मिन्नपसारिते शेषा द्वादश संक्रामन्ति / अथवा-क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्योऽष्टादशभ्यः षट्सु नोकषायेषूपशान्तेषु सत्सु शेषाद्वादश संक्रामन्ति। ततः पुरूषवेद उपशान्ते एकादश / क्षपकस्य वा प्रागुवंताभ्यो द्वादशभ्यो नपुंसकवेदे क्षीणे शेषा एकादश संक्रान्ति। अथवीपशमिकसम्यगदृष्टिरूपशमश्रेण्यां प्रागुक्ताभ्यस्त्रयोदशभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधद्विके उपशान्ते शेषा एकादश संक्रमे प्राप्यन्ते / क्षपक श्रेण्यामेकादशभ्यः स्त्रीवेदे क्षीणे शेषा दश संक्रामन्ति। ओपशमिकसम्यग्दृष्टयोपशमश्रेण्यां वर्तमानस्यैफादशभ्यः संज्वलनलोभे उपशान्ते शेषा दश संक्रामन्ति! क्षायिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्य एकादशभ्योऽप्रत्याख्यानावरणलक्षणे क्रोधविक उपशान्ते शेषा नव संक्रामन्ति। तस्यैव ज्वलनक्रोधेऽप्युपशान्तेऽष्टौ। अथवौपशभिकसम्यग्दृष्टरलपशभश्रेण्यां वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्यो दशभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मानद्विके उपशान्ते शेषा अष्टौ संक्रामन्ति। तस्यैव संज्वलनमाने उपशान्ते सप्त। क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्योऽष्टाभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मानद्विक उपशान्ते शेषणः षट्सक्रामन्ति / तस्यैव संज्वलनमान उपशान्ते पञ्च / यद्वौपशमिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानरय प्रागुक्ताभ्यः सप्तभ्यः प्रकृतिभ्याऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मायाद्विक उपशान्ते शेषाः पञ्च संक्रामन्ति / तस्यैद संज्वलनमायायामुपशान्तायां चतस्रः / अथवा- क्षायिकराम्यगदृष्टः क्षपकस्य प्रागुक्ताभ्यो दशभ्यःषट्सुनोकषायेषु क्षीणेषुशेषाश्वतरस: प्रवृत्तयः संक्रामस्ति। तस्यैव पुरूषवदे क्षीणे तिस्रः। अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्यः पञ्चभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानाचरणलक्षणे मायाद्विके उपशान्तेशेषास्तिसः संक्रामन्ति, तस्यैवसंज्वलनमायायामुपशान्तायाद्वे। अथवौपशमिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्या वर्तमानस्य प्रागुक्ताभ्यश्चतसुभ्यः प्रकृतिभ्योऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरलक्ष Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 11 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम पणे लोभद्विक उपशान्ते शेषे द्वे प्रकृती संक्रामतः / अथवा- क्षायिकसम्यगदृष्टः क्षपकस्य प्रागुक्ताभ्यस्तिसृभ्यः संज्वलनक्रोधे क्षीणे वे सक्रामतः / तस्यैव संज्वलनमाने क्षीण एका तदेवं परिभाव्यमानेऽष्टाविंशतिचतुर्विशतिसप्तदशषोडशपञ्चदशलक्षणानि संक्रमस्थानानि न प्राप्यन्ते / इति प्रतिषिध्यन्ते / तेषु व प्रतिषिद्धेषु शेषाणि त्रयोविंशतिसंख्यानि संक्रमस्थानान्यवगन्तव्यानि / एतेषु संक्रमस्थानेषु मध्ये पञ्चविंशति प्रकृत्यात्मकं संक्रमस्थानम्। साद्यादिरूपतया चतुष्प्रकारम् / तद्यथा-साद्यनादि ध्रुवमधुवं च। तत्राष्टाविंशतिसत्कर्मणः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरुदलितयोर्भवत् सादि, अनादि मिथ्यादृष्टेरनादि, अधुवध्रुवता भव्याभव्यापेक्षया। शेषाणि तु संक्रमस्थानानि साधध्रुवाणिं, कादाचित्कत्वात् कृता मोहनीये संक्रमासंक्रमस्थानप्ररूपणा। सम्प्रति पतद्ग्रहापतद्ग्रहस्थानप्ररूपणार्थमाहसोलस बारसगट्ठग,वीसग तेवीसगा इगे छच्च। वञ्जिय मोहस्स पडि-ग्गहा अट्ठारस हवंति॥११॥ 'सोलस' त्ति षोडश द्वादशाष्टौ विंशतिस्त्रयोविंशत्यादयश्च षट्। तद्यथात्रयोविंशतिश्चतुर्विशतिःपञ्चविंशतिः षड्विंशतिःसप्तविंशतिरष्टाविंशतिश्च / एलानि स्थानानि वर्जयित्वा शषाण्येकद्वित्रिचतुः पञ्चषट् सप्तनवदशैकादशत्रयोदशचतुरर्दशपञ्चदशसप्तदशाष्टादशैकोनविंशत्येकविंशतिद्वाविशतिलक्षणानि अष्टादश पतद् ग्रहस्थानानि भवन्ति / तत्र कस्मिन् पतद्ग्रहे काः प्रकृतयः संक्रामन्तीत्येतद्भाव्यते-तत्र मिथ्यादृष्टरष्टाविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यात्वं रम्यवत्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतदग्रह इति तस्मिन्नपसारितेशेषा सप्तविंशतिर्मिथ्यात्वषोडशकषायान्यतर-वेदभयजुगुप्साहास्यरतियुगलारतिशो कयुगलान्यतरयुगललक्षणाया द्वाविशती संक्रामति। तस्यैव सम्यक्त्व उदलिते सप्तविंशतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टमिथ्यात्वंसम्यग्मिथ्यात्वस्य पतद्ग्रह इति तस्मिन्नपसारिते शेषा षड्वंशतिः प्रागुक्तायां द्वाविंशतौ संक्रामति / तस्यैव मिथ्यादृष्टः / सम्यग्मिथ्यात्वे उद्वलित षड्वंशतिसत्कर्मणो मिथ्यात्वे न किमपि संक्रामतीति न तत्करयचित्पतद्ग्रह इति। तस्मिन् प्रागुक्ताया द्वाविंशतरपनीते शेषे एकविंशतिप्रकृतिसमुदायात्मके पतद्ग्रहे पञ्चविंशतिः / अथवाऽनादिमिथ्यादृष्टे: षड्विंशतिसत्कर्मणो मिथ्यात्वं न वापि संक्रामति, नापि तत्रान्या प्रकृतिरित्याधाराधेयभावपरिभ्रष्ट मिथ्यात्वमपनीयते, ततः शेषा पञ्चविंशतिः प्रागुक्तायामेकविंशतौ संक्रामति / तथा चतुर्विंशतिसत्कर्मा मिथ्यात्वं गतः सन यद्यपि मिथ्यात्वप्रत्ययतो भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति, तथाऽपि बन्धावलिकागत सकलकरणायोग्यमिति कृत्वा सतोऽपि तान् न संक्रमयति / मिथ्यात्वं च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतद्ग्रहस्ततोऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयमिथ्यात्ववर्जितः शेषास्त्रयोविंशतिप्रकृतयः प्रागुक्तायां द्वाविंशतौ सक्रामन्ति / तदेवं मिथ्यादृष्टद्वीविंशतिपद्ग्रहे सप्तविंशतिषड्विंशतित्रयोविंशतिसंक्रमाः / एकविंशतिपदग्रहे च पञ्चविशतिसंक्रम उक्तः, शेषः संक्रमः पतदग्रहो वा न संभवति / सासादनसम्यग्दृष्टस्तुशुद्धदृष्टि त्वाभावादर्शनमोहनीयत्रयस्य संक्रमाभावः। ततोऽस्य सर्वदा एकविंशतिरूपे पतदग्रह पञ्चविंशतिरेव संक्रामति। सम्यग्मिथ्यादृष्टरपि शुद्धदृष्टित्वाभावादर्शनत्रयस्य संक्रमाभाव इति अष्टाविंशतिसत्कर्मणः सप्तविंशतिसत्कर्मणो वा पचविंशतिः / चतुर्विशतिसत्कर्मणःपुनरेकविंशतिः / द्वादशकषायपुरुषवेदभयजुगुप्साऽन्यतरयुगललक्षणसप्तदशप्रकृतिसमुदायरूपे पतद्ग्रहे संक्रामति / तदेवमुक्तौ सासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टी संप्रत्यविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु संक्रमाणां तुल्यत्वात् युगपत्पपतद्ग्रहा उच्यन्ते- तेषामविरतादीनामौपशमिकसम्यग्दृष्टीना सम्यक्त्वलाभप्रथमसमयादारभ्य यावदावलिकामा तावत् सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतद्ग्रहतेव भवति, न संक्रमः, इति शेषा षड्विंशतिविरताना द्वादशकषायपुरुषवेदभयजुगुप्साऽन्यतरयुगलसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वरूपे एकोनविंशतिपतदग्रहे, देशविरताना प्रत्याख्यानावरणसवंज्वलनकषायपुरुषवेदभयजुगुप्साऽन्यतरयुगलसम्यक्त्वसमयग्मिथ्यात्वलक्षणे पञ्चदशपतदग्रहे, प्रमत्ताऽप्रमत्तानां संज्वलनचतुष्टयपुरुषवेदसम्यपत्वसम्यग्मिथ्यात्वभयजुगुप्साऽन्यतरयुगलरूपे एकादशपतदग्रहे संक्रामति। तेषामेवाऽविरतसम्यगदृष्ट्यादीनामावलिकायाः परतः सम्यमिथ्यात्वं संक्रमे पतद्ग्रहे च लभ्यते इति सप्तविंशतिः प्रागुक्तेषु त्रिषु पतद्ग्रहेषु संक्रामति / तथा तेषामेवाविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनामनन्तानुबन्धिषद्वलितेषु चतुर्विशतिसत्कर्मणां क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टीना सम्यक्त्वं पतद्ग्रह इति कृत्वा शेषा त्रयोविंशतिः प्रागुक्तेश्वेवैकोनविंशत्यादिषु त्रिषु पतद्ग्रहेषु संक्रामति / ततो मिथ्यात्वे क्षपिते सति सम्यग्मिथ्यात्वं पतदग्रहभावे न लभ्यते, मिथ्यात्वं च संक्रमे न लभ्यते। ततः शेषा द्वाविंशतिरविरतदेशविरतसंयतानां यथा-संख्यमष्टादशचतुदर्शदशरूपेषु पतदग्रहेषु संक्रामति। ततः सम्यग्मिथ्यात्वे क्षपिते राति सम्यग्मिथ्यात्वरयन संक्रमो नापि पतद्ग्रह इत्येकविंशतिरविरतादीना यथासंख्यं सप्तदशत्रयोदशनवकरूपेषुपतद्ग्रहेषु संक्रामति। सम्प्रत्यौपशमिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य संक्रममाश्रित्य पतद्ग्रहविधिरूच्यते-चतुर्विशतिसत्कर्मणः राम्यक्त्वं मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः पतद्ग्रह एवेति कृत्वा तस्मिन्नपसारिते शेषा त्रयोविंशतिः पुंवेदसंज्वलनचतुष्टयसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वरूपे सप्तकपतद्ग्रहे संक्रामति, तस्यैवोपशमश्रेण्या वर्तमानस्यान्तरकरणे कृते संज्वलनलोभस्य संक्रमोन भवति इति तस्मिन्नपसारिते शेषा द्वाविशतिः पूर्वोक्त एव सप्तकपतद्ग्रहे संक्रामति / तस्यैव नपुंसक्वेदे उपशान्ते सप्तकपतद्ग्रहे एकविंशतिः। ततः स्त्रीवेदे उपशान्ते विंशतिः / ततः पुरूषवेदस्य प्रथमस्थितौ समयोनावलिकाद्विकशेषाया “दुसु आवलियासु पढमटिईसुसेसासुऽविय वेदो।" इतिवचनात् पुरूषवदः पतद्ग्रहो न भवति। ततः प्रागुक्तात् सप्तकात्पुरूषवेदेऽपनीतेशेषे षटकरूपेपतद्ग्रहे प्रागुक्ता विंशतिः संक्रामति।ततः षट्सुनोकषायेषूपशान्तेषु शेषाश्चतुर्दश प्रकृतयः प्रागुक्ते एव षट्करूपे पतद्ग्रहे संक्रामन्ति। ताश्च तावत्संक्रामन्ति यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् / ततः पुरूषवेदे उपशान्ते शेषास्त्रयोदश षट्करूपे पतद्ग्रहे संक्रामन्ति। ताश्च तत्र ताव Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 12 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम द्यादवन्तर्मुहूर्तम् / ततः संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थितो समयोनावलिकात्रिकशेषायां संज्वलनक्रोधोऽपि 'तिसु आवलियासु समऊणियासु अपडिग्गहा उ संजलणा' इति वचनात् पतद्ग्रहो न भवतीति प्रागुक्तातषट्कात्तस्मिन्नपसारितेशेषे पञ्चकरूपे पतदग्रहे ता एव त्रयोदश प्रकृतयः संक्रामन्ति / ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणक्रोधद्विक उपशान्ते शेषा एकादश प्रागुक्त एव पञ्चकपतद्ग्रहे संक्रामन्ति / ताश्व तावद्यावत्समयोनावलिकाद्विकम् / ततः संज्वलनक्रोधे उपशान्ते शेषा दश प्रकृतयस्तस्मिन्नेव पश्चकपतद्ग्रहे तावत्संक्रामन्ति यावदन्तर्मुहूर्तम् / ततः संज्यलनमानरय प्रथगस्थितौ समयोनावलिकात्रिकशेषायां संज्वलनमोनाऽपिपतद्ग्रहो न भवतीति पञ्चकात्तरिमन्नपनीते शेष चतुष्करूपे पतद्ग्रहे ता एव दश प्रकृतयः संक्रामन्ति / ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् / ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणरूपे मानद्विके उपशान्ते शेषा अष्टौ प्रकृतयश्चतुष्करूप एव पतद्ग्रहे संक्रामन्ति / ततः संज्वलनमाने उपशान्ते सप्त, ताश्च सप्त चतुष्करूपे पतद्ग्रहेऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत्संक्रामन्ति / ततः संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितौ समयोनावलिका त्रिकशेषायां संज्वलनमायाऽपि घतद्ग्रहो न भवतीति चतुष्कात्तस्यामपगताया शेषे त्रिकरूपे पतदग्रहे पूर्वोक्ताः सप्त संक्रामन्ति। ताश्चतावद्यावत् समयोनमावलिकाद्विकम्। ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मायाद्विके उपशान्ते शेषाः पञ्च प्रकृतयस्त्रिकरूपे पतद्ग्रहे संक्रामन्ति। ताश्च तावद्यावत्समयोनमाविलिकाद्विकम् / ततः संज्वलनभायायामुपशान्तायां शेषाश्चतस्रः प्रकृतयः संक्रामन्ति / ताश्च तावद्याव दन्तर्मुहूर्तम् / ततोऽनिवृतबादरसम्परायचरमसमयेऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे लोभाद्विक उपशान्ते शेषे द्वे प्रकृती संक्रामतः / ते च मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वलक्षणे। नचैते संज्वलनलोभे संक्रामतः दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीययोः परस्पर संक्रमाभावात् / ततस्तस्यापि पतद्ग्रहता न भवतीति द्वयोरेव ते द्वे संक्रामतः। तत्र मिथ्यात्वं सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः, सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वे। तदेवमौपशमिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या संक्रमफ्तद्ग्रहविधिरूक्तः। सम्प्रतिक्षायिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्या संक्रमपतदग्रहविधिरूच्यते-तत्रानन्तानुबन्धिचतुष्टयदर्शनविकरूपे सप्तके क्षपिते सति एकविंशतिसत्कर्मा सन क्षायिकसम्यग्दृष्टिरूपशमश्रेणिं प्रतिपद्यते। तस्य चान्तर्मुहूर्त कालं यावत्पुरुषवेदसंज्वलनचतुष्टयरूप पक्षकपतदग्रहे एकविंशतिः संक्रामति। ततोऽन्तरकरणे कृते सति संज्वनलोभस्य संक्रमो न भवतीति एकविंशतस्तस्मिन्नपनीते शेषा विंशतिः पञ्चकपतद्ग्रहे संकामति / सा चान्तमुँहूर्त काल यावत् / ततो नपुंसकवेदे उपशान्ते एकोनविंशतिः / साऽपि चान्तर्मुहूर्त कालं यावत्। ततः स्त्रीवादे उपशा-ते शेषा अष्टादश प्रकृतयस्तस्मिन्नेव पश्चकपतद्ग्रहे संक्रामन्ति / ताश्च तत्र तावत् यावदन्तर्मुहूर्तम् / ततः पुरुषवेदस्य प्रथमस्थिती रागोनावलिकाद्विकशेषायां पुरूषवेदः पतद्ग्रहो न भवतीति पथकात्तस्मिन्नपगते शेषे चतुष्करूपे पतद्ग्रहे ता एवाष्टादश प्रकृतयः संक्रामन्ति / ततः षट्सु नोकषायेषूपशान्तेषु शेषा द्वादश प्रकृतयश्चतुष्करूपे एव तस्मिन् पतदग्रह संक्रामन्ति / ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् / ततः पुरूषवेद उपशान्ते एकादश। ताश्चतुष्करूपे पतद्ग्रहे तावत्संक्रामन्ति यावदन्तमुहर्तम् / ततः संज्वलनक्रोधस्य प्रथमस्थिती समयोनावलिकात्रिकशेषायां संज्वलनक्रोधोऽपि पतद्ग्रहो न भवतीति चतुष्कात्तस्मिन्नपगते शेषे विकरूपे पगद्ग्रहे ताः पूर्वोक्ता एकादश प्रकृतयः संक्रामन्ति / ताश्च तावद्यावत् समयोनमावलिकादिकम् / ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे क्रोधद्विके उपशान्ते शेषा नव प्रकृतयः पूर्वोक्त एव त्रिकरूपे पतगृहे संक्रामन्ति, ताश्च ताव-द्यावत्समयोनमालिकाद्विकम् / ततः संज्वलनक्रोधे उपशान्तेऽष्टों संक्रामन्ति / ताश्च त्रिकरूपे पतदग्रहे तावत्संक्रामन्ति यावदन्तर्मुहूर्तम्। ततः संज्वलनमानस्य प्रथमस्थिती समयोनावलिकात्रिकशेषायां संज्वलनमानोऽपि पतद्ग्रहो न भवतीति त्रिकात्तस्मिन्नपनीतेश द्विकरूपे पतद्ग्रहे पूर्वोक्ता अष्टौ प्रकृतयः संक्रामन्ति / ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् / ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मानद्रिके उपशान्ते शेषाः षट् प्रकृतयो द्विकपतद्ग्रहे संक्रामन्ति ताश्च तावद्यावत्समयोनमावलिकाद्विकम् / ततः संज्वलनमाने उपशान्ते पक्ष संक्रामन्ति / ताश्च द्विकरूपे पतद्ग्रहे तावत् संक्रामन्ति यावदन्तर्मुहूर्तम् ततः संज्वलनमायायाः प्रथमस्थितौ समयोनावलिकात्रिकशेषायां संज्वलनमायाऽपि पतद्ग्रहो न भवतीति द्विकात्तस्यामपगताया शेषे संज्वलनलोभ एवैकस्मिस्ताः पञ्च प्रकृतयः संक्रामन्तीति; ताश्च तावद्यावत् समयोनावलिकाद्विकम् / ततोऽप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलक्षणे मायाद्विके उपशान्ते शेषा स्तिस्रः प्रकृतयः संज्वलनलोभे संक्रामन्तिाताश्च तावद्यावत् समयोनमावलिकाद्विकम्।ततः संज्वलनमायायामुपशान्तायां शेषे द्वे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणलोभलक्षणे प्रकृतीसंज्वलनलोभेराक्रामतः, ते चान्तमुहूर्त कालं यावत ततोऽनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकचरमसमये ते अप्युपशान्ते इति न किमपि कापि संक्रामति / तदेवं क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या संक्रमपतद्ग्रहविधिरूक्तः। संप्रति क्षायिकसम्यग्दृष्टः, क्षपकश्रेण्यां संक्रमपतद्ग्रहविधिरभिधीयते-तत्र क्षायिकसम्यगदृष्टिरेकविंशतिसत्कम क्षपक श्रेणिं प्रतिपद्यते / तस्य चानिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानं प्राप्तस्य पुरूषवेदसंज्वलनचतुष्टयरूपे पश्चकपतद्ग्रहे पथमत एकविंशतिप्रकृतयः संक्रामन्ति / ततोऽष्टसु कषायेषु क्षीणेषु त्रयोदश, ताश्चान्तर्मुहूर्त काल यावत्। ततोऽन्तरकरणे कृते सति संज्वलनलोभस्य संक्रमा न भवतीति शेषा द्वादश प्रकृतयस्तस्मिन्नेव पञ्चकपतद्ग्रहे संक्रामन्ति, ताश्चान्तमुहूर्त कालं यावत्। ततो न पुसकवेदे क्षीणे एकादश,ता अपि अन्तर्मुहूर्त कालं यावत्। ततः स्त्रीवेदे क्षीणे दश / ता अप्यन्तर्मुहूर्त कालभ्याक्त तस्मिन्नेव पक्षकरूप पतद्ग्रहे संक्रामन्ति। ततः पुरूषवेदस्य प्रथमस्थिती समयोनावलिकाद्विकशेषायां पुरुषवेदः पतद्ग्रहो न भवतीतिपञ्चकात्तस्मिन्नपनीते शेषे चतुष्करूपे पतद्ग्रहेता एव दश संक्रामन्तिाताश्च तावद्यावत्समयोनमावलि काद्विकम्। ततः षट्सु नोकषायेषु क्षीणेषु शेषाश्चतस्रः प्रकृतयस्तस्मिन्नेव चतुष्करूपे पतद ग्रहे संक्रामन्ति / ततः पुरू Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 13 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम पवेदः क्षीणः। तत्समये च सेज्वलनक्रोधस्यापि पतद्ग्रहता न भवतीति तस्मिन्नपगते शेषासु तिसृषु प्रकृतिषु तिरत्रः प्रकृतयः संक्रामन्ति, तावान्तर्मुहूर्त कालं यावत् / ततः समयोनावलिकाद्विकेन कालेन संज्वलनक्रोधः क्षीयते / तत्समये च संज्वलनमानस्याऽपि पतदग्रहता न भवतीति शेषयोर्द्वयोः प्रकृत्योर्द्ध प्रकृती संक्रामतः, ते चान्तमुहूर्त कालं यावत्। ततः समयोनाबलिकाद्विकन कालेन संज्वलनमानोऽपि क्षीयते। तत्समयमेव च संज्वलनमायाया अपि पतद्ग्रहता न भवति / तत एकस्यामेव संज्वलनलोभलक्षणाया प्रकृतौ संज्वनलमायालक्षणा एका प्रकृतिः संक्रामति, सा चान्तर्मुहूर्त कालं यावत्। तत आवलिकाद्विकेन कालेन संज्वलनमायाऽपि क्षीयते। ततऊर्ध्वं न किमपि क्वापि संक्रामति / सम्प्रति यथोक्तरूपेषु पतद्ग्रहेषु प्रत्येक संक्रमस्थानानि संकलयन्नाहछव्वीससत्तवीसा-ण संकमो होउ चउसु ठाणेसु। बावीसपन्नरसगे, एकारस इगुणवीसाए।।१२।। 'छध्वीस' त्ति चतुर्पु स्थानेषु पतद्ग्रहरूपेषु। तद्यथा-द्वार्विशतो, पञ्चदशके , एकादशके, एकोनविंशतौ च षड्विंशतिसप्तविंशत्योः संक्रमो भवति। तत्र द्वाविंशतौ मिथ्यादृष्टः, पञ्चदशके देशविरतस्य, एकादशके प्रमत्ताप्रमत्तयाः, एकोनविंशती अविरतसम्यग्-दृष्टः / सत्तरसएकवीसा-सु संकमो होइ पन्नवीसए। नियमा चउसु गईसुं, नियमा दिट्ठी कए तिविहे / / 13 / / 'सत्तरस' त्ति-सप्तदशकैकविंशत्योः पञ्चविंशतेः संक्रमो भवति। तत्र सप्तदशके मिश्रदृष्टेः, एकविंशतो मिथ्यादृष्टेः सासादनस्य च / अयं च पञ्चविंशतेः सप्तदशकै कविंशत्योः संक्रमो नियमाचतसृष्वपि गतिषु प्राप्यते / नियमाच सप्तदशके सासादनकविंशतौ च पञ्चविंशतः संक्रमः त्रिविधायां-त्रिप्रकारायां दृष्टौ दर्शनमोहनीये कृतायां वेदितव्यः / मिथ्यादृष्टस्त्वेकविंशतौ पञ्चविंशतिसंक्रमोऽनादिमिथ्यादृष्टरपि भवति। 'कए' इति 'तिविहे' इति च पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्। बावीसपन्नरसगे, सत्तगएकारसिगुणवीसासु। तेवीसाए नियमा,पंच वि पंचिंदिएसु भवे / / 14 / / 'बावीस' त्ति त्रयोविंशतः संक्रमो द्वाविंशतिपञ्चदशकसप्तकैकादशकै कोनविंशतिरूपेषु पञ्चसु पतद्ग्रहेषु भवति / तत्र द्वाविंशती मिथ्यादृष्टः, पञ्चदशके देशविरतस्य, सप्तके औपशमिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य, एकदशके प्रमत्ताप्रमत्तयोः, एकोनविंशती अधिरतसम्यग्दृष्टेः / एतानि च पञ्च पतद्ग्रहस्थानानि पञ्चेन्द्रियेष्वेव भवन्ति / / चोदसगदसगसत्तग, अट्ठारसगे य होइ बावीसा। नियमा मणुयगईए, नियमा दिट्ठीकए दुविहे / / 15 / / 'चोद्दस त्ति द्वाविंशतिः संक्रमोग्या भवति, चतुर्दशके दशके सप्तकेऽ- | ष्टादशके च। तत्र चतुर्दशके देशविरतस्य,दशके प्रमत्ताप्रमत्तयोः, सप्तके औपशमिकसम्यगदृष्टरुपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य, अष्टादशकेऽविरत - सम्यग्दृष्टः एषा च द्वाविंशतिर्नियमान्मनुजगतौ भवति, नान्यत्र / नियमाच्च दृष्टौ द्विविधायां कृतायां सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरेव सतोरित्यर्थः। तेरसगनवगसत्तग, सत्तारसपणगएकवीसासु। एक्कवीसा संकमइ, सुद्धसासादणमीसेसु / / 16 / / 'तेरस' त्ति त्रयोदशकनवकसप्तकसप्तदशकपञ्चकेकविंशतिरूपेषु षट्सु पतदग्रहेष्वेकविंशतिः संक्रामति। केषु जीवेष्वित्यागशुद्धसासादनमिश्रेषु शुद्धेषु विशुद्धदृष्टिषु अविरतसम्यग्दृष्ट्यादिषु सासादनमिश्रेषु / तत्र त्रयोदर्शक देशविरतस्य, नवके प्रमत्ताप्रमत्तयोः, सप्तके औपशमिकसम्यगदृष्ट रूपशभश्रेण्या वर्तमानस्य, सप्तदशकेऽविरतसम्यग्दृष्टमिश्रदृष्टश्च, पञ्चके क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य क्षपकश्रेण्यांग एकविंशतो सासादनस्य इहयैराचार्यश्चतुर्विशतिसत्कर्मा सन्नुपशमश्रेणीतः प्रतिपतन मिथ्यात्वाभिमुखः सासादन इष्यते, तन्मते सासादनस्यैकविशतावेकविंशतिः संक्रमेऽभिहिता अन्यथा पुनरनन्तानुबन्ध्युदयसहितस्य सासादनस्यैकविंशतौ पञ्चविंशतिरेव संक्रमे प्राप्यते। सा च प्रागेवोक्ता। एत्तो अविसेसा सं-कमंति उवसामगे व खवगे वा। उवसामगेसु वीसा,य सत्तगे छक्कपणगे य॥१७॥ 'एत्तो' त्ति इत ऊर्द्धमविशेषाः सप्तदश संक्रमाः संक्रामन्ति, उपशमके क्षपके वा। तत्र विंशतिः संक्रमयोग्या सप्तके षट्के पञ्चके चौपशमिकेषु प्राप्यते / तत्रापि सप्तके षट्के चौपशमिकसम्यग्दृष्टे रूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य पञ्चके क्षायिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्याम्। पंचसु पगुणवीसा, अट्ठारस पंचगे चउक्के य। चउदस छसु पगईसुं,तेरसगं छक्कपणगम्मि / / 18|| 'पंचसु' त्ति-पशके एकोनविंशतिः संक्रामति / सा च क्षायिकसम्यग्दृष्टरुपशमश्रेण्या वर्तमानस्य। तथा तस्यैवाष्टादश संक्रामन्ति पञ्चके चतुष्के च, तथा चतुर्दश षट्सु प्रकृतिषु / ताश्चौपशमिकसम्यग्दृष्टे - रूपशम श्रेण्या वर्तमानस्य तथा त्रयोदशकं षट्के पश्चके च। तत्र षटके औपशमिकसम्यगदष्टरूपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य, पञ्चके क्षपक श्रेण्याम्। पंच चउक्के बारस,एक्कारस पंचगे तिगचउक्के / दसगं चउक्कपणगे, नवगं च तिगम्मि बोधव्वं / / 16 / / 'पंच'ति-पञ्चके चतुष्के च द्वादश संक्रामन्ति। ताश्च पञ्चके क्षपक श्रेण्या, चतुष्के क्षायिकसम्यग्दृष्ट रूपशमश्रेण्यां वर्तमानस्या तथैकादश पञ्चके त्रिके चतुष्के च संक्रामन्ति / तत्र पञ्चके औपशमिकसम्यगदृष्टे - रूपशमश्रेण्या (वर्तमानस्य, क्षपक श्रेण्या) त्रिके चतुष्के व क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्यां च, तथा दशकं चतुष्के पञ्चके च संक्रामति / तचौपशमिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य क्षपक श्रेण्यां च / तथा नवकं त्रिके बोद्धव्यम्। तच क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 14 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम अट्ठ दुगतिगचउक्के, सत्त चउक्के तिगे य बोधव्या। छक्कं दुगम्मि नियमा, पंच तिगे एक्कगदुगे य // 20 // 'अट्ट' त्ति अष्टौ द्विके त्रिके चतुष्के च संक्रामन्ति। तत्र द्विक त्रिके च क्षायिकसम्यगदृष्ट रूपशमश्रेण्यां वर्तमानस्य, चतुष्के औपशमिकसम्यग्दृष्टः। तथा सात त्रिके चतुष्के च बोदव्याः / ताश्च त्रिके चतुष्के चौपशमिकसम्यगदृष्टरेवोपशम श्रेण्यां वर्तमानस्य वेदितव्याः / तथा षट्क द्विके एव नियमाद्भवति / तच्च क्षायिकसम्यगदृष्ट रूपशश्रेण्या वर्तमानस्य / तथा पञ्च त्रिके एकके द्विके च संक्रामन्ति / तत्र त्रिके औपशमिकसम्यग्दृष्ट रूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य। द्विके एकके च क्षायिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्याम्। चत्तारि तिगचउक्के , तिन्नि तिगे एक्कगे य बोधव्वा / दो दुसु एकाए वि य, एक्का एक्काएँ बोधव्वा // 21 // 'चत्तारि' ति चरास्त्ररिखके चतुष्के च संक्रान्ति / तत्र त्रिके ओपशमिकसम्यगदृष्टरूपशमश्रेण्या वर्तमानस्य, चतुष्के क्षपक श्रेण्याम्। तथा तिम्ररित्रके एकके च बोद्धव्याः / तत्र त्रिके क्षपक श्रेण्याम / एकके क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्याम / तथा द्वे प्रकृती द्वयोरेकस्या च संक्रामतः। तत्र द्वयोः क्षपकश्रेण्यामौपशमिकसम्यग्दृष्टश्चोपशम श्रेण्याम् / एकस्यां तु क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशमश्रेण्याम् / तथैकप्रकृतिरेकस्यां बोद्धव्या, सा च क्षपक श्रेण्यामेव। एतच्च पतद्ग्रहेषु संक्रमस्थानसंकलन प्रागुक्तं सप्त पञ्च पतद्ग्रहेषु संक्रमस्थानसम्बन्धं पट्टकादी प्रस्तार्य परिभावनीयम्। सम्प्रति पतद्ग्रहेषु संक्रमस्थानसंकलने मार्गणोपायानाहअणुपुविऽणाणुपुव्वी, झीणमझीणे य दिट्ठिमोहम्मि। उवसामगे य खवगे, य संकमे मग्गणोवाया / / 22 / / 'अणुपुचि' ति पतद्ग्रहेषु संक्रमे संक्रमस्थानसंकलनचिन्तायामेते मार्गणोपायाः। तथाहि-किमिद संक्रमस्थानमानुपूर्व्या संक्रमे उपपद्यतेऽनानुपूर्ध्या धोभयत्र वा?,तथा क्षीणे दृष्टिमोहे आहोश्चिदक्षीणे उभयत्र वा ? तथोपशमके उतश्चित क्षपके उभयत्र वेति ? तदेवमुक्तो मोहनीयस्य प्रपञ्चतः संक्रमपतद्ग्रहविधिः। संप्रति नामकर्मणोऽभिधीयते। तत्र द्वादशनामभकर्मणः संक्रम स्थानानि। तथा चाहतिदुगेगसयं छप्पण, चउतिगनउई य दगुणनउईया। अट्ठचउदुगेक्कसीई, संकमा बारस य छठे / / 23 / / 'तिदुगेगसयं' ति षष्ठे नामकर्मणि द्वादश संक्रमस्थानानि / तद्यथाव्युत्तरशत, व्युत्तरशतम, एकोत्तरशतं. षण्णवतिः, पञ्चनवतिः चतुर्नवतिः, त्रिनवतिः, एकोननवतिः, अष्टाशीतिः, चतुरशीति, द्वयशीतिः, एकाशतिश्वेति। तत्र नाम्नः सर्वसंख्यया व्युत्तर प्रकृतिशतम्। तद्यथा-गतिचतुष्टयं, जातिपटकं, शरीरपञ्चक, संघातपशकम्, बन्धनपशदशक, संस्थानषट्क, संहननषट्कम्, अगोपाङ्गत्रयं, वर्णपशक, गन्धद्विकं. ररापञ्चकं. स्पशॉष्टकम्, अगुरूलघु, आनुपूर्वीचतुष्टय, पराघातोपघाताच्छासातपादद्योतविहायोगातिद्विक्त्रसस्थावरबादरसूक्ष्मसाधारणप्रत्येकपर्याप्तापर्या सास्थिरास्थिरशुभाशुभसुभगदुर्भगदुःस्वरसुस्वरादेयानादेयायशः कीर्तियशः कीर्तिनिर्माणतीर्थकराणि च / एतदेव च तीर्थकरवर्ज व्युत्तरशतम्। अथवा-यशःकीर्तिरहित व्युत्तरशतम्। तीर्थकरयश-कीर्तिरहितमेकोत्तरशतम् / व्युत्तरशतमेवाहारकसप्तकरहितं षण्णवतिः / सैव तीर्थकररहिता पशनवतिः। अथवा यशःकीर्तिरहिता पश्चनवतिः। यशः कीर्तितीर्थकररहिता चतुर्नवतिः। तीर्थकररहिता पञ्चनवतिरेव देवगतिदेवानुपूोररुद्धलितयोस्त्रिनवतिः। अथवा-नरकगतिनरकानुपूर्वीरहिता त्रिनवतिः। त्र्युत्तरशतान्नरकगतिनरकानुपूर्वीतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी - पञ्चेन्द्रियजातिवर्जशेषजातिचतुष्टयस्थावरसूक्ष्मसाधारणाऽऽतपोद्द्योतलक्षणासुत्रयोदशसु प्रकृतिषु क्षीणासु यशःकीर्ती चापनीतायामेकोननवतिर्भवति / सैवतीर्थकररहिताऽष्टाशीतिः / त्रिनवतेक्रियसप्तके उद्वलिते नरकगतिनरकानुपूर्योचोदलितयोः शेषा चतुरशीतिर्भवति / मनुजगतिमनुजानुपूर्योरूद्वलितयोद्वर्यशीतिः। अथवा - षण्णवतिः प्रागुक्तासु त्रयोदशसु प्रकृतिषु क्षीणासु यशः-कीर्ता चापनीतायां द्वयशीतिः / सैव तीर्थकररहिता एकाशीतिः / एतानि नाम्नः संक्रमस्थानानि। सम्प्रति पतद्ग्रहस्थानप्रतिपादनार्थमाहतेवीसपंचवीसा,छव्वीसा अट्ठवीसगुणतीसा। तीसेक्कतीसएगं, पडिग्गहा अट्ट नामस्स // 24 // 'तेवीस' त्ति त्रयोविंशतिः, पञ्चविंशतिः, षड्दिशतिः, अष्टाविंशतिः, एकोनत्रिंशत, त्रिंशत, एकत्रिंशत्, एका चेत्यष्टौ नाम्नः पतदग्रहस्थानानि भवन्तीति। सम्प्रति काः? प्रकृतयः कुत्र संक्रामन्तीत्येतन्निरूपणार्थमाहएक्कगदुगसयपणचउ, नउईता तरसूणिया वाऽवि। परभवियबंधवोच्छे-य उपरि सेढीऍ एकस्स / / 25 / / 'एकाग' त्ति पारीभविकीनां-परभववेद्यानां नामप्रकृतीनां देवगतिप्रायोग्यकत्रिंशदादीनां बन्धव्यवच्छेदे सति उपरिद्वयोरपि श्रेण्योरूपशमक्षपक श्रेणिरूपयोरेकस्यां यशः कीर्ति लक्षणायां प्रकृती बध्यमानायामष्टौ संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति / तद्यथा-एकोत्तरशतं, व्युत्तरशतं, पञ्चनवतिः, चतुर्नवतिः, 'ता' इति तान्येवानन्तरोदितानि चत्वारि संक्रमस्थानानि त्रयोदशन्यूनानि चत्वारि भवन्ति / तद्यथाअष्टाशीतिः, एकोननवतिः, व्यशीतिः, एकाशीतिश्चेति। तत्र त्र्युत्तरशतसत्कर्मणो यशःकीर्तिर्वध्यमाना पतद्ग्रह इति तस्यामुत्सारिताया शेष व्यत्तरशतं यशःकीर्तिपतद्ग्रहे संक्रामति। एवमेव व्युत्तरशतसत्कर्मण एकोत्तरं शतम् / तथा षण्णवतिसत्कर्मणो यशःकीर्तिःपतद्ग्रह इति तस्यामुत्सारितायां शेषा पञ्चतवतिः तस्यां यशःकीर्ती संक्रामति। एवमेव पञ्चनवति-सत्कर्मणश्चतुर्नवतिः। तथा त्र्युत्तरशतसत्कर्मणस्त्रयोदशसु पूर्वोक्तेषु नामकर्मसु क्षीणेषु सत्सु यशः कीर्तिपतद्ग्रह इति तस्यामपगतायां शेषा एकोननवतियेशः कीर्ती संक्रामति द्व्यत्तरशतसत्कर्मणः पुनस्त्रयोदशसु क्षीणेष्वष्टाशीतिः संक्रामति / षण्णवतिसत्कर्मणस्तु नामत्रयोदशके क्षीणे ट्यशीतिः / पञ्चनवतिसत्कर्मण एकाशीतिः / / Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 15 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम एकत्रिंशत्प्रकृतिसमुदायरूपे पतद्ग्रहे चत्वारि संक्रम स्थानानि तथा चाहतिगदुगसयं छपंचग-नउई य जइस्स एक्कतीसाए। एगंतसेदिजोगे,वञ्जिय तीसिगुणतीसासु / / 26 / / 'तिग' ति यतेरप्रमत्तस्यापूर्वकरणस्य च देवगतिपोन्द्रियजातिवक्रि य-शरीरसमचतुरखसंस्थानवैक्रियागापाङ्ग देवानुपूर्वीपराधाताच्छासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिरशुभसुभगसुखरादेययशःकीर्तित जसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणतीर्थकराहारक द्विकलक्षणामेकत्रिंशतं बध्नतस्तस्याभेकत्रिंशति एकत्रिंशत्प्रकृतिसमुदायरूपे पतद्ग्रहे व्युत्तरशत व्युत्तरशत षण्ण वतिः पशनवतिरिति चत्वारि संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति / तत्र व्युत्तरशतं तीर्थकराहारकयो बन्धावलिकायामपगतायामकत्रिंशत्प्रकृतिपतद्ग्रहे संक्रामति / तीर्थकरनामः पुनबन्धावलिकायामनपगतायां व्युत्तरशतम् / आहारकसप्तकस्य तु बन्धावलिकायामनपगताया षण्णवतिः / तीर्थकराहारक सप्त - कयो:पुनर्वन्धावलिकाथाभनपगतायां पक्षनवतिः / 'एगते' त्यादि एकान्तेन श्रेण्यिांग्यानि यानि संक्रमस्थानानि एकोत्तरशतचतुर्नवत्येकोननवत्यष्टा शीत्येकाशीतिरूपाणि / एतानि हि श्रेणावेव वर्तमानेन यशः कीतविकरयां बध्यमानायां संक्रम्यमाणानि प्राप्यन्त, नान्यत्र / ततस्तानि वर्जयित्वा शेषाणि त्र्युत्तरशतद्व्युत्तरशतषण्णवतिपश्चनवतित्रिनवतिचतुरशीतिद्व्यशीतिरूपाणि त्रिंशत्पतदग्रहे एकोनत्रिंशत्पतदग्रहे च सृप्त संक्रमस्थानानि भवन्ति।तत्र त्र्युत्तरशतसत्कर्मणो देवस्य सम्यग्दृष्ट स्तैजसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिमणिपोन्द्रय जात्यौदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्ग समचतुरस्वसंस्थानवज्रर्षमनाराचं संहननमनुजगतिमनुजानुपूर्वीत्रसबादर - पर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरसुभगसुखरादेययशः कीर्तिपराधातोच्छासप्रशस्तविहायोगतितीर्थकरलक्षणां मनुजगतिप्रायोग्यां तीर्थकरनामसहिता त्रिशतं बध्नतस्त्र्युत्तरशतं तरिमन त्रिंशत्पलदाहे स्क्रामति / व्युत्तरशतसत्कर्मणोऽप्रमतसंयतस्यापूर्वकरणस्य वा देवगतिपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीरसमचतुररतसंस्थानवै कि याङ्गोपाङ्ग दैवानुपूर्वीपराघातो च्छ्रासप्रशस्तविहायोग - तित्रसवादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुखरादेययशः कीर्तितेजसकामणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणाहारक द्विक लक्षणां, देवगतिप्रायोग्यां त्रिंशतं बनतो व्युत्तरशतं तस्मिन् त्रिंशत्पतदग्रहे संक्रामात। अथवा-द्वयुत्तरशतसत्कर्मणामेकेन्द्रियादीनामुद्द्योतसहिता द्वीन्द्रियादिप्रायोग्यां तैजसकार्मणागुरुलघूपघातनिर्माणवणादिचतुष्कातिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वी द्वीन्द्रियाद्यन्यतमजातिसवादर पर्याप्त प्रत्ये करिशरास्थिरान्यतरशुभाशुमान्यतरदुर्भगदुःखरानादेययशः कीर्त्ययशःकीय॑न्तरोदरिकशरीरौदारिकाङ्गो पाङ्गान्यतभर यानान्यामसहननाप्रशस्तविहायोगतिपराघातोद्योतोच्छ्रासलक्षणा त्रिशतंबध्नता व्युत्तरशतं तस्मिन् त्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति / पग्णवतिसत्कर्मणां देवनारकाणां मनुजगतिप्रायोग्यां तीर्थकरनामसहिता प्रागुक्ता त्रिंशतं बध्नता तस्मिन् त्रिंशत्पतद्ग्रहे षण्णवतिः संक्रामति / पक्षनवतिसत्कर्मणामप्रमत्तापूर्वकरणसंयतानामाहारकद्विकसहिता प्रागुक्तां देवगतिप्रायोग्या त्रिशतं बध्नतामाहारकसप्तकस्य बन्धावलिकायामनपगतायां पञ्चनवतिस्त्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति / अथवापञ्चनवतिरात्कमणामेकेन्द्रियादीना द्वीन्द्रियादिप्रायोग्यामुद्योतसहिता प्रागुक्तां त्रिंशतं बध्नतां पञ्चनवतिस्त्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति। त्रिनवतिसत्कर्मणा चतुरशीतिसत्कर्मणां व्यशीतिसत्कर्मणा चैकेन्द्रियादीनां विकलेन्द्रियपक्षन्द्रियतिर्यग्गतिप्रायोग्यां प्रागुतामुच्छ्राससहिता त्रिंशत बध्नतां यथाक्रम त्रिनवतिश्चतुरशीतियशीतिश्च त्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति / एकोनत्रिंश पतदग्रहेऽप्येतान्येव सप्त संक्रमस्थानानि। तत्र व्युत्तरशतसत्कर्मणामविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयताना देवगतिप्रायोग्यां तीर्थकरनामसहितां देवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्ग पराघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येक स्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरसुभगसुस्वरादेययशः कीययशःकीय॑न्यतरसमचतुरस्रसंस्थानतैजसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणतीर्थकरलक्षणामेकोनत्रिंशतं बध्नतां युत्तरशतमेकोनत्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति। एतेषामेवाविरतादीनां त्रयाणां प्रागुक्तानेकानत्रिंशतं बध्नतां तीर्थकरनाम्रो बन्धावलिकायामनपगतायां व्युत्तरशतं तस्मिन्नेकोनत्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति / अथवैकेन्द्रियादीनां व्युत्तरशतसत्कर्मणां द्वीन्द्रियादिप्रायोग्यां प्रागुक्तामेव त्रिंशतमुधोतरहिनामेकानत्रिंशतं बध्नता व्युतरशतमेकोनत्रिंशत्पतद्ग्रहे संक्रामति / अविरतसम्यग्दृष्टिदेश विरतप्रमत्तसं यतानां षण्णवतिसत्कर्मणां प्रागुक्ताया देवगातप्रायोग्यायारित्रंशत आहारकद्विकेऽपनीते तीर्थकरनाम्नि पंतत्र प्रक्षिते सति या सञ्जातै-कोनत्रिंशत्तां बध्नतां षण्णवतिस्तस्मिन्नेकोनत्रिशत्पद्ग्रहे संक्रामति / अथवा-नैरयिकस्य तीर्थकरनामसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टरपर्याप्तावस्थायां वर्तमानस्य मनुजगतिप्रा. योग्यां मनुजगतिमनुजानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरारिथरान्यतरशुभाशुभान्यतरसुभगदुर्भगान्यतरादेयानादेयान्यतरयशकीरायशःकी-न्यतरसंस्थान-षट्कान्यतमसंस्थानसहननषट्कान्यतमसंहननवर्गादिचतुष्कागुरुलघूपघाततैजसकामानिर्माणौदारिकशरीरोदारिकाङ्गोपाङ्गसुत्वरदुःस्वरान्यतरपराघातोच्छ्वासप्रशस्ताप्रशस्तान्यतरविहायोगतिलक्षणामेकोनत्रिंशतं बध्नतः षण्णवतिरेकोनत्रिंशति संक्रामति। अविरतसम्यग्दृष्टीना देशविरताना प्रमत्तसंयतानां च षण्णवतिसत्कर्मणां प्रागुक्तां तीर्थकरनामसहितां देवगतिप्रायोग्यामेकोनत्रिंशत बध्नतां तीर्थकरनामकर्मणो बन्धावलिकायामनपगलायामकानविंशति पञ्चनवतिः संक्रामति। यद्वा-पञ्चनवतिसत्कर्मणमेकेन्द्रियादीना द्वीन्द्रियादिप्रायोग्या प्रागुक्ता या त्रिंशत् सैवोद्योतरहितको नत्रिंशत् / ता बध्नतां तस्यानेवै कोनत्रिंशति पशनवतिः संक्रामति। त्रिनवतिचतुरशीतिद्वाशीतयो यथा त्रिंशत्पतद्ग्रहेऽभिहितास्तथैवात्रापि भावीनयाः। अट्ठावीसाऍ वि ते, वासीइ तिसयवजिया पंच। ते चिय वासीइजुया, सेसेसु छन्नेउइवज्जा / / 27 / / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 16 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम 'अट्ठावीसाए' त्ति अष्टाविंशतावपि तान्येव पूर्वोक्तानि यशीति युत्तरशतवर्जितानि शेषाणि व्युत्तरशतपणवतियानवतित्रिनवतिचतुरशीतिरूपाणि पञ्च संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति / तत्र मिथ्यादृष्ट नरकगतिप्रायोग्यां नरकगतिनरकानुपूर्वीप क्षेन्द्रियजातिवैक्रि यशरीरव क्रि याङ्गोपाङ्ग हुण्ड संस्थानपराघाताच्छासाप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरा-यतरशुभाशुभान्यतरदुर्भगदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघाततैजसकार्मणनिर्माणलक्षणा, तथा मिथ्यादृष्ट : सम्यगदृष्टवा देवगतिप्रायोग्यां तेजसकार्मणवर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणदेवगतिदेवानुपूर्वीपोन्द्रियजातिवं क्रियशरीरक्रियाद्गोपाङ्गसमचतुरस्त्रसंस्थानपराघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्त प्रत्येक स्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरसुभगसुखरादेययशः कीर्त्ययशःकीय॑न्यतरलक्षणामष्टाविंशति बनतो व्युत्तरशतसत्कर्मणो ट्युत्तरशतमष्टाविंशतिपतद्ग्रहे संक्रामति। तथा मनुष्यस्य तीर्थकरनामसत्कर्मणः पूर्वमेव नरके बद्धायुष्कस्य सतो नरकाभिमुखस्य सतो मिथ्यात्वं प्रपन्नस्य नरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्तामष्टाविंशति बध्नतः षण्णवतिसत्कर्मणोऽष्टाविंशतिपत-द्ग्रहे षण्णवतिः संक्रामति / यथा व्युत्तरशतस्य भावना कृता तथा पञ्चनवतेरपि भावना कार्या केवलं व्युत्तरशतस्थाने पञ्चनवतिरित्युचारणीयम्। तथा मिथ्यादृष्टस्त्रिनवतिसत्कर्मणो देवगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्तामष्टाविंशतिं बध्नतो वैक्रियसप्तकदेवगरिदेवानुपूर्वीणां बन्धावलिकायाः परतो वर्तमानस्य त्रिनवतिरष्टाविंशतौ संक्रामति / अथवा-पञ्चनवतिसत्कर्मणो देवगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्तामेवाष्टाविंशति बनतो देवगतिदेवानुपूर्योन्या-वलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य त्रिनवतिरष्टाविंशती संक्रामति। त्रिनवतिसकर्मणो मिथ्यादृष्टेनरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्तामष्टाविंशति बध्नतो नरकगतिनरकानुपूर्वविक्रियसप्तकाना बन्धावलिकायाः परतो वर्तमानस्य त्रिनवतिरष्टाविंशतौ संक्रामति / अथवा पञ्चनवतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टनरकगतिप्रायोग्यां पूर्वोक्तामष्टाविंशति बनतो नरकगतिनर कानुपूर्योबन्धावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य त्रिनवतिरष्टाविंशतौ संक्रामति। तथा त्रिनवतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टदेवगतिप्रायोग्यामष्टाविंशति बध्नतो देवगतिदेवानुपूर्वीवक्रियसप्तकानां बन्धावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य चतुर-शीतिरष्टाविंशती संक्रामति। अथवा-त्रिनवतिसत्कर्मणो मिथ्यादृष्टेनरकगतिप्रायोग्या पूर्वोक्तामष्टाविंशतिं बनतो नरकगतिनरकानुपूर्वीवैक्रियसप्तकानां बन्धावलिकाया अभ्यन्तरे वर्तमानस्य चतुरशीतिरष्टाविंशतो संक्रामति / षड्विंशत्यादिपतद्ग्रहेषु संक्रमस्थानान्याह-'ते चिये' त्यादि शेषेषु षदिशतिपञ्चविंशतित्रयोविंशतिलक्षणेषु पतद्ग्रहेषु तान्येव पूर्वोक्तानि व्युत्तरशतादीनिषण्णवतिरहितानि द्वयशीतियुतानि पञ्च संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति / तद्यथाव्युत्तरशतं पञ्चनवतिस्त्रिनवतिश्चतुरशीतिद्वर्यशीतिश्च। तत्रैकेन्द्रियादीना नैरयिकवर्जिताना व्युत्तरशतसत्कर्मणां पञ्चनवतिसत्कर्मणां च तैजस कार्मणागुरुलघूपघातनिर्माणवर्णादिचतुष्कैकोन्द्रियजातिहुण्डकसंस्थानौदारिकशरीरतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीस्थावर (बादर) पर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतर दुर्भगानादेयायश: कीर्तिपराघातोच्छासातपोद्योतान्यतररूपामेकेन्द्रियप्रायोग्यां षड्विंशति बध्नतां व्युत्तरशतं पञ्चनवतिश्च तस्यामेव षड्दिशतौ संक्रामति। तथा तेषामेवैकेन्द्रियादीनां देववर्जानां त्रिनवतिसत्कर्मणां देवनारकवर्जानां चतुरशीतिसत्कर्मणां च तामेव पूर्वोक्तां षदिशति बनतां त्रिनवतिश्चतुरशीतिश्च तस्यामेवषड्विंशतो संक्रामति / तथा तेषामेवैकेन्द्रियादीनां देवनारकमनुष्यवर्जानां द्व्यशीतिरात्कर्मणां तामेव पूर्वोक्तां षड्डिशतिं बध्नता द्व्यशीतिस्तस्यामेष षद्भिशतौ संक्रामति। तथा पञ्चविंशतिपतद्ग्रहे तान्येव पञ्च संक्रमस्थानानि चिन्त्यन्तेतत्रैकेन्द्रियपर्याप्तघ्रायोग्यां पूर्वोक्तामेव षड्विशतिमातपेनोद्द्योतेन वा रहितां पञ्चविंशति बध्नतामेकद्वित्रिचतुरन्द्रियादीनां व्युत्तरशतपश्चनवतित्रिनवतिचतुरशीतिद्व्यशीतिसत्कर्मणां यथासंख्यतस्याभेव पञ्चविंशतौ व्युत्तरशतं पञ्चनवतिः त्रिनवतिः चतुरशीतिः ट्यशीतिश्च संक्रामति। अथवा-अपर्याप्तविकलेन्द्रियतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुजप्रायोग्या तैजसकार्मणवर्णा-दिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणद्वीन्द्रियाद्यन्यतमजातिहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहननौदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्ग - तिर्यग्गातितिर्यगानुपूर्वीत्रसबादरपर्याप्त प्रत्येकस्थिरास्थिरान्यतरशुभाशुभान्यतरदुर्भगानादेयायशःकीर्तिलक्षणां पञ्चविंशतिं बध्नतामेकद्वि-त्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिरश्चां व्युत्तरशतादिसत्कर्मणां पञ्चविंशतौ द्व्युत्तरशतादीनि पश संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति / तथा पर्याप्तकै केन्द्रियप्रायोग्यां वर्णादिचतुष्कागुरुलघूपघातनिर्माणतैजसकार्मणहुण्डसंस्थानौदारिकशरीरैकोन्द्रयजातितिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीबादरसूक्ष्मान्यतरस्थावरपर्याप्त प्रत्येकसाधारणान्यतरास्थिराशुभदुर्भगानादेयायशः कीर्तिलक्षणां त्रयोविंशति बनतामेकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियतिरश्वां व्यत्तरशतपञ्चनवतित्रिनवतिचतुरशीतिद्व्यशीतिसत्कर्मणां यथासंख्य द्वयुत्तरशतादीनि पञ्च संक्रमस्थानानि संक्रामन्ति। तदेवमुक्तः प्रकृतिसंक्रमः / सम्प्रति स्थितिसंक्रमाभिधानावसरः। तत्र चैतेऽर्थाधिकाराः / तद्यथा-भेदो विशेषलक्षणम् उत्कृष्टस्थितिसंक्रमणप्रमाण जघन्यस्थितिसंक्रमप्रमाणं साद्यनादिप्ररूपणा स्वामित्वप्ररूपणा चेति। तत्र भेदविशेषलक्षणयोः प्रतिपादनार्थमाहठिइसंक्रमो त्ति वुधइ, मूलत्तरपगईउ य जा हि ठिई। उव्वट्टिया उ ओव-ट्टिया व पगई निया वswणं // 28 // 'ठिइ'त्ति-इह 'मूलत्तरपगईउ।' इत्यत्र षष्ट्यर्थे पञ्चमी / ततोऽयमर्थः-हि स्पुटं या स्थितिर्मूलप्रकृतीनामष्टसंख्यानामुत्तरप्रकृतीनां वाऽष्टपञ्चाशदधिकशतसख्यानां सम्बन्धिनी उद्वर्तिता हस्वीभूता सती दीर्धाकृता, अपवर्तिता वादी/भूता सती ह्रस्वीकृता, अन्यां वा प्रकृतिंनीता, पतद्ग्रहप्रकृतिस्थितिषु मध्ये नीत्वा निवेशिता स स्थितिसंक्रम उच्यते। एतदुक्तं भवति-द्विविधः स्थितिसक्रमो मूलप्रकृतिस्थितिसंक्रमः, उत्तरप्रकृतिस्थितिसंक्रमश्च / तत्र मूलप्रकृतिस्थिति संक्रमोऽष्टप्रकारः। तद्यथा-ज्ञानावरणीयस्य यावदन्तराय Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 17 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम स्य / उत्तरप्रकृतिस्थितिसक्रमोऽष्टपञ्चाशदधिकशतधा / तद्यथानतिज्ञानावरणीयस्य श्रुतज्ञानावरणीयस्य यावतीर्यान्तरायस्य। 'तदेवं मलुत्तरपगईउ' इत्यनेन भेद उक्तः / 'उवडिया व' इत्यादिना तु विशेषलक्षण त्रिप्रकारम् / तत्र कर्मपरमाणूनां हस्वस्थितिकालतामपहाय दीर्घकालतया व्यवस्थापनमुद्वर्तना। कर्मपरमाणूनामेव दीर्घस्थितिकालतामपहाय हस्वस्थितिकालतया व्यवस्थापनमपवर्तना। यत्पुनः संक्रम्यमाणप्रकृतिस्थितीनां पतद्ग्रहप्रकृतौ नीत्वा निवेशनं तत्प्रकृत्यन्तरनयनं, स्थितीनां चान्यत्र निवेशन स्थितियुक्तानां परमाणूनामवसेयम, स्थितेरन्यत्र नेतुमशक्यत्वात्। इदं च विशेषलक्षणं सामान्यलक्षणे सत्येवावगन्तव्यं, न सर्वथा तदपवादेन, तेन मूलप्रकृतीनां परस्पर संक्रमप्रतिषेधात्, तासामन्यप्रकृत्यन्तरनयनलक्षणः स्थितिसंक्रमो न भवति, किंतु-द्वावेव उद्वर्तनापवर्तनालक्षणौ संक्रमौ / उत्तरप्रकृतीनां तु त्रयोऽपि संक्रमा द्रष्टव्याः। तदेवं भेदविशेषलक्षणे प्रतिपाद्य संप्रत्युत्कृष्टस्थितिसंक्रमपरिमाणप्रतिपादनार्थमाहतीसासत्तरि चत्ता-लीसा वीसुदहिकोडिकोडीणं / जेट्ठा आलिगदुगहा, सेसाण वि आलिगतिगूणो ||26|| 'तीस' त्ति-इह सर्वासां प्रकृतीनां बन्धमाश्रित्योत्कृष्टा स्थितिः प्रागेव बन्धनकरणे प्रतिपादिता। अत्र पुनः संक्रमे उत्कृष्टा स्थितिश्चिन्त्युमाना द्विधा प्राप्यतेबन्धोत्कृष्टा, संक्रमोत्कृष्टा च। तत्रया बन्धादेवे केवलादुत्कृष्टा स्थितिलभ्यते सा बन्धोत्कृष्टा / या पुनर्बन्धेऽबन्धे वा सति संक्रमादुत्कृष्टा स्थितिर्भवति सा संक्रमोत्कृष्टा / तत्र यासामुत्तरप्रकृतीनां स्वस्वमूलप्रकृत्यपेक्षया स्थितेन्यूनता न भवति, किंतु-तुल्यतैव, ता बन्धोत्कृष्टा ज्ञातव्याः / ताः सप्तनवतिसंख्याः / तद्यथा-ज्ञानावरणपश्चकम्, दर्शनावरणनवकम्, अन्तरायपञ्चकम्, आयुश्चतुष्टयम्, असातवेदनीयम्, नरकद्विकम्, तिर्यग्द्विकम्, एकेन्द्रियजातिः, पञ्चेन्द्रियजातिः, तैजससप्तकम्, औदारिकसप्तकम्, वैक्रियसप्तकम, नीलतिक्तवर्जमशुभवर्णसप्तकम्, अगुरुलघु, पराघातम्, उपाघतम्, उच्छासाऽऽतपोद्द्योतानि, निर्माणम्, षष्ठं संस्थानम्, षष्ठ संहननम्, अशुभविहायोगतिः, स्थावरम्, सचतुष्कम्, अस्थिरषट्कम्. नीचैर्गोत्रम्, षोडश कषायाः, मिथ्यात्वं च। सर्वसंख्यया सप्तनवतिः / अत्र नरकतिर्यगायुषी यद्यपि स्वमूलप्रकृत्यपेक्षया तुल्यस्थितिके न भवतः, तथाऽपि संक्रमोत्कृष्टत्वाभावात्ते बन्धोत्कृष्ट उक्ते / शेषास्त्वेकषष्टिप्रकृतयः संक्रमोत्कृष्टाः / ताश्चेमाःसातवेदनीयम, सम्यक्त्वम्, सम्यग्मिथ्यात्वम्, नवनोकषायाः, आहारकसप्तकम्, शुभवधिकादशकम, नीलम, तिक्तम्, देवद्विकम्, मनुजद्विकम, द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातयः, अन्तवानि संस्थानानि, अन्तवर्जानि संहननानि, प्रशस्तविहायोगतिः, सूक्ष्म, साधारणम, अपर्याप्तम्, स्थिरशुभसुभगसुखरादेययशः कीर्तितीर्थकरोच्चैर्गोत्राणि च। तत्र बन्धोत्कृष्टाना मतिज्ञानावरणीयादिमिथ्यात्वषोडशकषायनरकद्विकादीना यथाक्रम त्रिंशत्-सप्ततिचत्वारिंशविंशतिसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकानां ज्येष्ठ उत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः 'आ (व) लियद्गह' त्ति आवलिकाद्विकहीनः / तथाहि-स्थितिबद्धा सती बन्धावलिकायामतीतायां सत्यां संक्रामति। तत्राप्युदयावलिका सकलकरणायोग्येति कृत्वोदयावलिकात उपरितनी / ततो बन्धोत्कृष्टानां मतिज्ञानावरणीयानामुत्कृष्टः स्थितिसंक्रमो - बन्धावलिकाद्विकहीन एव प्राप्यते / इहो-दयवतीनामनुदयवतीनां वा प्रकृतीनामुदयसमयादारभ्यावलिकामात्रा स्थितिरूदयावलिकेति पूर्वग्रन्थेषु व्यवहियते। तथा यद्यपि 'तीसासत्तरिचत्तालीसा' इत्यनेन ग्रन्थेनेह मिथ्यात्वस्य सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीस्थितिकस्योत्कृष्टतः स्थितिसक्रम आवलिका-द्विकहीन उक्तस्तथाऽप्यन्तर्मुहूर्तोमोऽवगन्तव्यः / यतो मिथ्यात्व-स्योत्कृष्टा स्थिति बवा जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त कालं यावन्मिथ्यात्वे एवावतिष्ठते / ततः सम्यक्त्वं प्रतिपद्य मिथ्यात्वस्य स्थितिमन्तर्मुहूर्तानां सम्यक्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वे च संक्रमयति।ततोऽन्तमुहूर्तान एवास्योत्कृष्टः स्थितिसक्रमः / वक्ष्यति च- 'मिच्छत्तमुक्कोसो' इत्यादि इह पुनर्यत् सत्तरीत्युपादानं तदशेषाणामपिबन्धोत्ष्टानां प्रकृतीनां व्याप्तिपुरः सरमविशेषेणावलिकाद्विकहीनोत्कृष्टस्थितिसंक्रमप्रदर्शनार्थम्। 'सेसाण वि आलिगतिगूणो' त्ति शेषाणां संक्रमोत्कृष्टानामावलिकात्रिकहीन उत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः। तथाहि-बन्धावलिकायामतीतायां सत्यामावलिकात उपरितनी स्थितिः सर्वाऽप्यन्यत्र प्रकृत्यन्तरे आवलिकाया उपरि संक्रामति / तत्र च संक्रान्ता सती आवलिकामात्र काल यावत्सकलकरणायोग्येति कृत्वा संक्रमावलिकायामतीतायां सत्यामुदयावलिकात उपरितनी स्थितिस्ततोऽप्यन्यत्र प्रकृत्यन्तरे संक्रामति / ततः संक्रमोत्कृष्टानामुत्कृष्टः स्थितिसंक्रम आवलिकात्रिकहीन एव / तद्यथा-नरकद्विकस्य विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणामुत्कृष्टां स्थिति बडा बन्धावलिकायामतीतायां सत्यामावलिकात उपरितनी तां सर्वामपि स्थिति मनुजद्विकं बध्नन् तत्र मनुजद्विके संक्रमयति, तत्र च संक्रान्ता सती आवलिकामात्रं कालं यावत्सकलकरणायोग्येति कृत्वा संक्रमावलिकायामतिक्रान्तायां सत्यामुदयावलिकात उपरितनी ता सर्वामपि स्थितिं देवद्विक बध्नन् तत्र संक्रमयति / एवमन्यासामपि संक्रमोत्कृष्टानामुत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः आवलिकात्रिकहीनो भावनीयः। तदेवं यासां प्रकृतीनां बन्धे सति संक्रमादुत्कृष्टा स्थितिर्भवति, तासामेव तत् उत्कृष्टस्थितिसक्रमपरिमाणमुक्तम्। सम्प्रति पुनर्यासा बन्धेन विना संक्रमादेव केवलादुत्कृष्टा स्थितिलभ्यते, तासामुत्कृष्टस्थितिसंक्रमप रिमाणनिरूपणार्थमाहमिच्छत्तस्सुक्कोसो, भिन्नमुहुत्तूणगो उसम्मत्ते। मिस्सेवंतो कोडा-कोडी आहारतित्थयरे // 30 / / 'मिच्छतस्स' ति-मिथ्यात्वस्योत्कृष्टः स्थितिसंक्रमो भिन्नमुहूर्तानोऽन्तमुहर्मोनस्तथा सम्यक्त्वे सम्यक्त्वस्य मिश्रे मिश्रस्य चोत्कृष्टः स्थितिसंक्रमो भिन्नमुहूर्तानः। तुशब्दस्याधिकार्थसंसूचनादावलिकाद्विकहीनश्च वेदितव्यः। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 18 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम इयमत्र भावना-दर्शनमोहनीयत्रितयसत्कर्मा मिथ्यादृष्टिरूत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमानो मिथ्यात्वस्योत्कृष्टां स्थिति बद्ध्वा ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रानन्तरं मिथ्यात्वात् प्रतिपत्त्य विशुद्धिमासादयन् सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते / ततो मिथ्यात्वस्योतकृष्टां स्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणामन्तमुहूर्तानां सम्यक्त्वे सम्यग्मिथ्यात्वे च संक्रमयति / सा च संक्रान्ता सती संक्रमावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनी सम्यक्त्वस्थितिमपवर्तनाकरणेन स्वस्थाने संक्रमयति। सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिमपि संक्रमावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनी सम्यक्त्वे संक्रमयति अपवर्तयति च। तदेवं मिथ्यात्वस्यान्तर्मुहूर्तानः सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोस्त्वन्तर्मुहूर्तावलिकाद्विकहीन उत्कृष्टः स्थितिसंक्रमः इह तीर्थकरस्याहारक सप्तकस्य चोत्कृष्टः स्थितिबन्धा - ऽन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणःसत्कर्माऽप्येतेषामन्तःसागरापमकोटीकोटीप्रमाणमेव, ततः संशयः-किमेताःसंक्रमोत्कृष्टा उत बन्धोत्कृष्टा इति, तदपनोदार्थमाह- 'अंतो कोडाकोडी' त्यादि आहारके आहारकसप्तके तीर्थकरे च संक्रमतः स्थितिसत्कर्म अन्तःसागरोपमकोटीकोटी, अत एताः संक्रमोत्कृष्टाः। यद्यपिच बन्धेऽप्यन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं स्थितिसत्कर्माभिहितं, तथाऽपि बन्धोत्कृष्टायाः स्थितेः सकाशात् संक्रमोत्कृष्टा स्थितिः संख्येयगुणा द्रष्टव्या। उक्त च चूर्णो - "बंधढिईओ संतकम्मट्टिई संखिजगुणा" / ननुनामकर्मण उत्कृष्टा स्थितिर्विशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणा तत आहारके तीर्थकरे च संक्रमादुत्कृष्टा स्थितिः प्राप्यमाणा बन्धावलिकोदयावलिकारहिता विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणैव लभ्यते, कथमुच्यते तीर्थकराहारकयोः संक्रमतोऽप्युत्कृष्टा स्थितिरन्तःसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणेति ? तद-युक्तमभिप्रायापरिज्ञानात् / तथाहि-तीर्थकराहारकयोः प्रकृत्यन्तरस्य स्थितिः संक्रामति बन्धकाले नान्यदा, बन्धश्चानयोर्यथाक्रमं विशुद्ध-सम्यगदृष्टः संयतस्य च। विशुद्धसम्यगदृष्टीनां संयतानां च स्थितिसत्कर्म सर्वेषामपि कर्मणामायुर्वर्जानामन्तः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं नाधिकम् / ततः संक्रमोऽप्येतावन्मात्र एव प्राप्यते नाधिक इत्यदोषः। सम्प्रति सर्वासां प्रकृतीनां बन्धोत्कृष्टानां संक्रमोत्कृष्टानां वा संक्रमणकाले यावती स्थितिः प्राप्यते तावतीं निर्दिदिक्षुराहसव्वासिं जट्ठिइगो, सावलिगो सो अहाउगाणं तु। बंधुक्कोसुक्कोसो, साबाहठिईए जट्ठिइगो॥३१॥ 'सवासिं' ति-सर्वासां प्रकृतीनां संक्रमो यस्थितिक संक्रमणकाले या स्थितिर्विद्यते सा यत्स्थितिरित्युच्यते। सा यस्य संक्रमस्यास्ति स संक्रमो यत्स्थितिकः / या स्थितिर्विद्यते यस्याऽसौ इति बहुव्रीहिसमासाश्रयणात् / सावलिक आवलिकया सहितो द्रष्टव्यः / एतदुक्तं भवति-यःप्रागुक्तःसंक्रमः स आवलिकया सहितः सन यावान भवति तावती संक्रमकाले स्थितिरित्यर्थः / ततो बन्धोत्कृष्टानामावलिकाहीना, संक्रमोत्कृष्टानां त्वावलिकाद्विकहीना संक्रमकाल सर्वा स्थितिर्वेदितव्या। तथाहि-संक्लेशादिकारणवशत उत्कृष्टां स्थिति बद्धवा बन्धावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनी स्थितिमन्यत्र प्रकृत्यन्तरे संक्रमयितुमारभते। ततो बन्धोत्कृश्टानामेकावलिकाहीना संक्रमकाले सर्वा स्थितिः प्राप्यते। संक्रमोत्कृष्टानां पुनर्बन्धावलिकानां संक्रमावलिकयोरतीतयोरुदयावलिकातः परतो वर्तमान स्थितिमन्यत्र संक्रमयति / तेन संक्रमोत्कृष्टानामावलिकाद्विकहीना संक्रमकाले सर्वा स्थितिरवाप्यते / अथायुषामुत्कृष्ट स्थितिः किं बन्धोत्कृष्टा उत संक्रमोत्कृष्टा ? उच्यते-बन्धोत्कृष्ट्वा तथा चाह-'अहाउगाण' मित्यादि आयुषामुत्कृष्टः स्थितिसंभवो बन्धोत्कृष्ट एव न संक्रमोत्कृष्टः, यतोनायुषा परस्परं संक्रमः “मोहदुगाउग-मूलप्पगडीणनपरोप्परम्मिसकमणं" इति वचनात् / 'साबाह-ठिईए' इत्यादि आयुषां साबाधा अबाधसहिता या सर्वा स्थितिः सा यत्स्थितिरवगन्तव्या। केवल "बंधुक्कोसाणं आवलिगूणा ठिई जट्टिई” इति वचनात् बन्धावलिकोना द्रष्टव्या / तथाहि-आयुर्घन्धे प्रवर्तमान एव प्रथमसमये यद्वद्धं दलिकं तद्न्धावलिकातीतं सदुद्वर्तयति / तत उद्भर्तनारूपसंक्रमे बन्धावलिकोना साबाधा यत्स्थितिः प्राप्यते। अथवा-अपवर्तनाऽपि नियाघातभाविन्यायुषो बन्धावलिकायामतीतायां सर्वदैव प्रवर्तते। ततस्तामधिकृत्य यथोक्ता यत्स्थितिरवसेया। तदेवमुक्तमुत्कृष्टस्थितिसंक्रमपरिमाणम्। सम्प्रति जघन्यस्थितिसंक्रमपरिमाणप्रतिपादनावसरः / जघन्यस्थितिसंक्रमश्च द्विधा-स्वप्रकृती परप्रकृतौ च / तत्र स्यप्रकृती जघन्य स्थितिसंक्रमप्रतिपादनार्थमाहआवरणविधिदसण, चउक्कलोभंतवेयगाऊणं। एगा ठिई जहन्नो, जट्टिइ समयाहिगावलिया॥३२।। 'आवरण' त्ति-पश्चानां ज्ञानावरणीयप्रकृतीना 'विग्घत्ति पञ्चानागन्तरायप्रकृतीनां, चतसृणां दर्शनावरणीय प्रकृतीनां चक्षुरचक्षुरवधिके वलदर्शनावरणलक्षणानां, संज्वलनलोभस्य, वेदकसम्यक्त्वस्य, चतुर्णा चायुषा, सर्वसंख्यया विंशतिप्रकृतीनाम् आत्मीयात्मीयसत्ताव्यवच्छेदसमये समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितावुदयावलिका सर्वकरणायोग्यति कृत्वोदयावलिकात उपरितनी समयमात्रा स्थितिरपवर्तनासंक्रमेणाधस्तेन उदयावलिकात्रिभागे समयाधिके संक्रामति, तदा च सर्वस्थितिपरिमाणं समयाधिकावलिका। तथा चाह- 'जट्टिई' इत्यादि। निदादुगस्स एक्का, आवलिगदुगं असंखभागो य। जट्ठिइहासच्छक्के, संखिजाओसमाओ य॥३३|| 'निह' त्ति निद्राद्विकस्य-निद्राप्रचलालक्षणस्य जघन्यःस्थिति-संक्रमः स्वसंक्रमान्ते स्वस्थितरूपरितनी एका समयमात्रा स्थितिः, सा आवलिकाया अधस्तेन त्रिभागे निक्षिप्यते। तदानीं च यत्स्थितिः सर्वा स्थितिः आवलिकाद्विकं तृतीयस्याश्चावलि-काया असंख्येयो भागः। अत्र वस्तुस्वभाव एष यन्निद्राद्विकस्यावलिकाऽसंख्येयभागाधिकाऽऽवलिकाद्विकशेषायां स्थितावुपरितनी समयमात्रैका स्थितिः संक्रामति, न पुनर्मतिज्ञानावरणीयादीनामिव समयाधिकायलिकाशे Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 19 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम पायामिति। सम्प्रति थासा परप्रकृतिषु संभवी जघन्यस्थितिसंक्रमस्ताः प्रतिपादयति- 'हासच्छक्के' इत्यादि, हास्येनोपलक्षितं षट्क हास्यषट्क हास्यरत्यरतिभयशोकजुगुप्सालक्षण, तस्य क्षपकेणापवर्तनाकरणेन संख्येयवर्षप्रमाणा स्थितिः कृता।ततः सास्वनिर्लेपनावसरे संज्वलनक्रोधे प्रक्षिप्यमाणा जघन्यः स्थितिसंक्रमः। सोणमुहुत्ता जट्टिइ, जहन्नबंधो उपुरिससंजलने। जट्ठिइसगऊँणजुत्तो, आवलिगदुगूणओ तत्तो॥३४॥ 'सोणमुहुत्त' त्ति-संक्रमणकाले सैव संख्येयवर्षप्रमाणा स्थितिः सोनमुहूर्ता-अन्तर्मुहूर्तेनाभ्यध्रिका यत्स्थितिः सर्वा स्थितिः। तथाहिअन्तरकरणे वर्तमानस्ता संख्येयवर्षप्रमाणां स्थिति संज्वलनक्रोधे संक्रमयति, अन्तरकरणे च कर्मदलिकंन वि (वे) द्यते, किंतु-ततऊर्ध्वम्, ततोऽन्तरकरणकाल नाभ्यधिका संख्येयवर्षप्रमाणा स्थितिहास्यषट्कस्य जघन्यस्थितिसंक्रमकाले यस्थितिः / 'जहन्नबंधो' इत्यादि, पुरूषवेदस्य संज्वलनानां च यो जघन्यः स्थितिबन्धः प्रागुक्तः। तद्यथापुरूषवेदस्याष्टौ संवत्सराणि, संज्वलनक्रोधस्य मासद्वयं, संज्वलनमानस्य मा-सः, संज्वलनमायाया अर्धमासः, स एव जघन्यः स्थितिबन्धोऽबाधाकालोनस्तेषां जधन्यःस्थितिसंक्रमः अबाधारहिता हि स्थितिरन्यत्र संक्रामति, तत्रैव कर्मदलिकसंभवात्, 'अबाधाका-लोना कर्मस्थितिः कर्मनिषेकः' इति वचनात्, जघन्यस्थितिबन्धे चाऽबाधाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा। न च जघन्यस्थितिसंक्रमणकाले-ऽबाधाकालमध्ये प्राग्बद्धं सत्कर्म प्राप्यते, तस्य तदानीं सर्वस्याऽपि क्षीणत्वात्। ततोऽन्तमुहूर्तहीन एवैतेषां पुरूषवेदादीनां स्वखो जघन्यस्थितिबन्धो जघन्यस्थितिसंक्रमः, तदानी चैतेषां यस्थितिः सर्वा स्थितिः खकीयेनोनेनाबाधारूपान्तर्मुहूर्तलक्षणेन युक्तोऽबाधाकालसहित इत्यर्थः, जघन्यः स्थितिबन्धः / ततः पुनरप्यावलिकाद्विकेनोनो हीनः सन् द्रष्टव्यः / एतदुक्तं भवति-जघन्यस्थितिसंक्रमऽबाधाकालःप्रक्षिप्यते। तत्प्रक्षेपानन्तरं चावलिकाद्विकं ततोऽपसार्यते / तदुत्सारणे च कृते यावती स्थितिर्भवति, एतावती जघन्यस्थितिसंक्रमकाले सर्वा स्थितिः। आवलिकाद्विक करमादुत्सार्यत इति चेदुच्यते-बन्धव्यवच्छेदानन्तर बन्धावलिकायामतीतायां चरमसमयबद्धाः पुरूषवेदादिप्रकृतिलताः संक्रमयितुमारब्धाः / आवलिकामात्रेण च कालेन ताः संक्रम्यन्ते, सक्रमावलिकाचरमसमये च जघन्यः स्थितिसंक्रमः प्राप्यते / ततो बन्धावलिकासक्रमावलिकारहित एवाबाधासहितो जघन्यः स्थितिबन्धो जघन्यस्थिति-संक्रमकाले सर्वास्थितिः। सम्प्रति केवलिसत्कर्मणा जघन्यस्थितिसंक्रमप्ररूपणा __ र्थमाहजोगंतियाण अंतो, मुहुत्तिओ सेसयाण पल्लस्स। भागो असंखियतमो, जद्विइगो आलिगाइ सह // 35 / / 'जोगतियाण' त्ति-योगिनि-सयोगिकेवलिनि संक्रममाश्रित्यान्तःपर्यन्तो यासां ता योग्यन्तिकाः नरकद्विकतिर्यग्द्विकपञ्चेन्द्रियजाति- | वर्जशेषजातिचतुष्टयस्थावरसूक्ष्मसाधारणातपोद्द्योतवर्जाः शेषा नाम्रो नवतिप्रकृत्यः सातासातवेदनीयोचैर्गोत्रनीचैर्गोत्राणि / एतासां सयौगिकेवलिचरमसमये सर्वापवर्तनयाऽऽन्तमुहूर्तिकी स्थितिर्भवति / सा चापवर्त्यमाना उदयावलिकारहिता, जघन्यस्थितिसंक्रमः उदयावलिकासकलकरणायोग्येति कृत्वा नापवर्त्यते, तया चावलिकया सहिता अपवर्तनारूपजघन्यस्थिातसंक्रमकाले तासा यस्थितिः / नन्वासा प्रकृतीनामयोगिकेवलिनि समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ वर्तमानो जघन्यः स्थितिसंक्रमःकरमान्नाभिधीयते, क्षीणकषाय इव मतिज्ञानावरणीयादीनामिति? उच्यते-अयोगिकेवली भगवान् सक-लसूक्ष्मबादरयोगप्रयोगरहितो मेरूरिव निष्प्रकम्पो नैकमप्यष्टानां करणाना मध्ये करणं प्रवर्तयति, नित्क्रियत्वात् / केवलमुदयप्राप्तानि वेदयते / ततः सयोगिकेवलिन एवैतासां जघन्यः स्थितिसंक्रमः प्राप्यते। 'सेससियाणे' त्यादि उक्तशेषाणां प्रकृतीनां स्त्यानर्द्धित्रिकमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणनपुंसकस्त्रीवेदनरकद्विकतिर्यग्द्विकपचेन्द्रियजातिवर्जशेषजातिचतुष्टयस्थावरसूक्ष्मातपोद्योतसाधारणलक्षणानां द्वात्रिंशत्प्रकृतीनामात्मीयात्मीयक्षपणकाले यश्चरमः संक्षोभः पल्योपमासंख्येयभागमात्रः स जघन्यः स्थितिसंक्रमः / यस्थितिकस्तु सर्वस्थितियुक्तस्तु स एवावलिकया सह युक्तो वेदितव्यः / अयमिह सम्प्रदायः-स्त्रीनपुरसकवेदवर्जानां प्रकृतीनामेकामधस्तादावलिका मुक्त्वा शेषमुपरितनं पल्योपमासंख्येयभागमात्रं चरमखण्डमन्यत्र संक्रमयति / ततस्तासां जघन्यस्थितिसंक्रमकाले यत्स्थितिः स एव जधन्यस्थितिसंक्रमः आवलिकयाऽयधिको वेदितव्यः / स्त्रीनपुंसकवेदयोस्त्वन्तर्मुहूर्तेनाभ्यधिको यतस्तयोश्चरम स्थितिखण्डमन्तरकरणे स्थितः सन् संक्रमयति। अन्तरकरणे च कर्मदलिकं न वि (वे) द्यते, किं तु-तत ऊर्द्धन, अन्तरकरणं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणम्। ततोऽन्तर्मुहूर्तयुक्ता जघन्यस्थितिसंक्रमस्तयोर्यत्स्थितिरवसे यां / शेषाणां तु प्रकृतीनामन्तरकरण न भवति, ततस्तासामावलिकायुक्त एव यस्थितिः। तदेवमुक्त जधन्यस्थितिसंक्रमपरिमाणम्। सम्प्रति साधनादिप्ररूपणावसरः / सा च द्विधा मूलप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च / तत्र मूलप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणार्थमाहमूलठिई अजहन्नो, सत्तण्ह तिहा चऊव्विहो मोहे / सेसविगप्पा तेसिं, दुविगप्पा संकमे होंति // 36 // 'मूलठिइ' त्ति-इह जघन्यादन्यत्सर्वमजघन्यं यावदुष्कृष्टम् / उत्कृष्टादन्यत्सर्वमपि यावजघन्य तावदनुत्कृष्टम् / तत्र मोहनीयवर्जानां सप्ताना कर्मणामजघन्यस्थितिसंक्रमस्त्रिधा। तद्यथा-अनादिधुवोऽध्रुवश्च। तथाहिज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणां क्षीणकषायस्य समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ वर्तमानस्य जघन्यः स्थितिसक्रमो भवति। नामगोत्रवेदनीयायुषां तु सयोगिकेवलिचरमसमयेऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणे आवलिकारहितो जघन्यः स्थितिसंक्रमः। स च सादिरध्रुवश्वा तस्मादन्यः सर्वोऽपि स्थितिसंक्रमोऽजघन्यः। सचानादिःध्रुवोऽभट्यानां भव्यानामध्रुवः। चउब्यिहो Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 20 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम मोहे' ति मोहे मोहनीयेऽजघन्यः स्थितिसंक्रमश्चतुर्विधः / तद्यथासादिरनादिधुंवोऽध्रुवश्च / तथाहि-मोहनीयस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमः सूक्ष्मसंपरायस्य क्षपकस्य समयाधिकावलिकायां शेषायां स्थिती, ततोऽसौ सादिरध्रुवश्च / तस्माच्च जघन्यादन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः। स च क्षायिकसम्यग्दृष्टरूपशान्तमोहगुणस्थानके न भवति, ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ सादिः, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, अध्रुवध्रुवौ भव्याभव्यापेक्षया / शेषविकल्पा उत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्यलक्षणास्तेषां कर्मणां संक्रमे संक्रमविषये द्विविकल्पा भवन्ति। तद्यथा-स्रादयोऽधुवाश्च / तथाहि-यएवोत्कृष्टां स्थिति वध्नाति स एवोत्कृष्ट स्थितिसंक्रमं करोति, उत्कृष्टांच स्थिति बध्नाति उत्कृष्ट संक्लेशे वर्तमानः। न चोत्कृष्टः सल्केशः सर्वदैव लभ्यते, किं त्वन्तराऽन्तरा, शेषकालं त्वनुत्कृष्टः। तत एतौ द्वावपि साद्यध्रुवौ / जघन्यश्च साद्यधुवः प्रागेव भावितः। ___ सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणार्थमाहधुवसंतकम्मिगाणं, तिहा चउद्धा चरित्तमोहाणं। अजहन्नो सेसेसुय, दुहेतरासिंच सव्वत्थ॥३७।। 'धुव' त्ति-ध्रुवं सत्कर्म यासांता ध्रुवसत्कर्मिकास्त्रिंशदुत्तरशतसंख्याः / तथाहि-नरकद्विकमनुजद्विकदेवद्विकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकतीर्थकरनामसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वोच्चैर्गोत्रायुश्चतुष्टयलक्षणा अष्टाविंशतिसंख्या अध्रुवसत्कर्मिकाः प्रकृतयस्ता अष्टापञ्चाशदधिकात् शतादपनीयन्ते। ततः शेषं त्रिंशदुत्तरमेव शतं ध्रुवसत्कर्मिकाणां भवति। तस्मादपि चारित्रमोहनीयप्रकृतयः पञ्चविंशतिसंख्या अपनीयन्ते, तासा पृथग्वक्ष्यमाणत्वात्। ततः शेषस्य पञ्चोत्तरशतस्य स्वखक्षपणपर्यवसाने जघन्यः स्थितिसक्रमो भवति स च सादिरध्रुवश्च ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः / स चाऽनादिः, अध्रुवध्रुवी भव्याभव्यापेक्षया / चारित्रमोहनीयप्रकृतीनां पञ्चविंशतिसंख्यानामजघन्यः स्थितिसंक्रमश्चतुर्धा। तद्यथासादिरनादिधुवोऽधुवश्च / तथाहि-उपशमश्रेण्यामुपशान्तौ सत्यां संक्रमाभावः, उपशमश्रणितः प्रच्यवने न पुनरप्यजघन्यं स्थितिसंक्रममारभते, ततोऽसौ सादिः, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः, अधुवधुवा भव्याऽभाव्यपेक्षया। 'सेसेसु य दुहा' शेषेषूत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्येषु द्विधा प्ररूपणा कर्तव्या / तद्यथा-सा-दिरधुवश्च / तत्रोत्कृष्टानुत्कृष्टयार्यथा मूलप्रकृतिषु भावना कृता तथाऽत्रापि कर्त्तव्या। जघन्यस्थितिसंक्रमः स्वस्वक्षयावसरे प्राप्यते, ततोऽसौ सादिरध्रुवश्च / 'इयरासि' मित्यादि इतरासामधुवसत्कर्मणां पूर्वोक्तानामष्टाविंशतिसंख्याना सर्वत्रापि सर्वेष्वपि जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्षु द्विधा प्ररूपणा कर्तव्या। तद्यथासादिरध्रुवश्च / सा च साद्यध्रुवताऽध्रुवसत्कर्मत्वादेव परिभावनीया। सम्प्रति क्रमप्राप्त स्वामित्वमभिधानीयम् / तच द्वेधाउत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामित्वं जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामित्वं च। तत्रोत्कृष्टस्थितिसक्रमस्वामित्वं प्रतिपिपादयिषुराहबंधाओ उक्कोसो, जासिं गंतूण आलिगं परओ। उक्कोससामिओ सं-कमाउ जासिं दुगं तासिं // 38|| 'बंधाओ' त्ति-यासां प्रकृतीनां बन्धात्-बन्धनात् उत्कृष्टस्थितिबन्धी भवति तासां ते एवोत्कृष्टस्थितिबन्धका देवनैरयिकतिर्यड् मनुष्याः / 'गंतुण आलिगं परओ' त्ति बन्धाऽऽवलिकां गत्वा-अतिक्रम्य परतः बन्धावलिकायामतीतायामित्यर्थः / उत्कृष्ट-स्वामिनः उत्कृष्टस्थितिसंक्रामस्वामिन उत्कृष्टां स्थिति संक्रमयन्तीत्यर्थः / यासां पुनः प्रकृतीनामुत्कृष्टा स्थितिः संक्रमेण प्राप्यते तासां द्विक बन्धादलिकासंक्रमावलिकालक्षणं गत्वाऽतिक्रम्य परत उत्कृष्टस्वामिनः, बन्धावलिकासक्रमावलिकयोरतीतयोरुत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामिनो भवन्तीत्यर्थः / सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरुत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामिनमाहतस्संतकम्मिगो बं-धिऊण उक्कोसगं मुहुत्तंतो। सम्मत्तमीसगाणं, आवलिया सुद्धदिट्ठी उ॥३६।। 'तस्संतकम्भिगो' त्ति-तत्सत्कर्मा-सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वसत्कमा मिथ्यादृष्टिरूत्कृष्टां स्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाण बद्ध्वा ततोऽन्तर्मुहूर्तादनन्तरं मिथ्यात्वात् प्रतिपत्य सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते ततोऽसौ शुद्धदृष्टिः / सम्यग्दृष्टिरन्तर्मुहूर्तानामुत्कृष्टां मिथ्यात्वस्थिति सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः संक्रमयति ततः संक्रमावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनी सम्यक्त्वस्थितिमपवर्तनाकरणेन स्वस्थाने संक्रमयति / सम्यग्मिथ्यात्वस्थितिमपि संक्रमावलिकायामतीतायामुदयावलिकात उपरितनीसम्यक्त्वे संक्रमयति, अपवर्तयति च / तत एवं तिसृणामपि दर्शनमोहनीयप्रकृतीनामुकृष्टस्थितिसंक्रमस्वामी सम्यग्दृष्टिरेवेति। तदेवमुक्त उत्कृष्टस्थितिसंक्रमस्वामी, संप्रति जघन्यस्थि तिसंक्रमस्वामिनमाहदंसणचउक्कविग्धा-वरणं समयाहिमालिगा छउमो। निदाणावलिगदुगे, आवलियअसंखतमसेसे॥४०॥ 'दसण' त्ति-चक्षुरचक्षुरवधिके वलदर्शनावरणीयानां 'विग्घ' ति पञ्चानामन्तरायप्रकृतीनां पञ्चानां च ज्ञानावरणीयप्रकृतीनां जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी 'छउमो' त्ति क्षीणकषायवीतरागच्छदास्थः स्वगुणस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषे वर्तमानः / तथा निद्रयोनिद्राप्रचलयोः स एव क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थो द्वयोरावलिकयो शेषयोस्तृतीयस्याश्वावलिकाया असंख्येयतमे भागे शेषो वर्तमानो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति। वेदकसम्यक्त्वस्य जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमाहसमयाहिगालिगाए, सेसाए वेयगस्स कयकरणे। सक्खवगचरमखंडग, संछुभणा दिट्ठिमोहाणं / / 41 / / 'समय' त्ति-दर्शनमोननीयक्षपको मनुष्यो जघन्यतोऽपि वर्षाष्टकादुपरि वर्तमानो मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वेक्षपयित्वा सम्यक्त्वच सर्वापवर्तनयाऽपवर्त्य सम्यक्त्वं वेदयमानस्ततः सम्यक्त्वे क्षपितशेषे सति कश्चिचतसृणां गतीनामन्यतमस्यां गतौ प्रयाति / ततश्चतुर्गतिकानामन्यतमः सम्यक्त्वस्य समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ वर्तमानः 'कयक Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 21 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम रणो' ति कृतकरणः क्षपणकरणेऽभ्युद्यतो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति। मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्जधन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमाह'सक्खवगे' त्यादि दृष्टिमोहयोमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वयोः क्षपणकाले राधरभरखण्ड संक्षुमणं सर्वापवर्तननापवर्त्य परस्थाने पल्योपमासंख्येयभागमात्रचरभखण्डे प्रक्षेपण तत्र वर्तमानो मनुष्योऽविरतसम्यगदृष्टिर्देशविरतः प्रमत्तोऽप्रमतो वा जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति। समउत्तरालिगाए, लोभे सेसाएँ सुहुमरागस्स। पढमकसायाण विसं-जोयण संछोभणाए उ॥४२।। 'समउत्तरे' ति-सूक्ष्मसम्परायस्य स्वगुणस्थानकस्य समयाधिकांवलिकाशेषाया स्थितौ वर्तमानस्य लोभे लोभस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमो भवति इटमिह तात्पर्यम्-सूक्ष्मसम्परायः स्वगुणस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषाया स्थिती वर्तमानो लोभसत्कजधन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति / / अनन्तानुबन्धिनां जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामिनमाह- 'पढमें त्यादि, प्रथमकषायाणामनन्तानुबन्धिनां विसंयोजनेविनाशने या वरमा पल्योपमासंख्येयभागमात्रा संक्षोभणा प्रक्षेपणं तत्र वर्तमानश्चतुर्गतिकानामन्यतमः सम्यग्दृष्टिर्जघन्यस्थितिसंक्रमर वामी भवति। चरिमसजोगे जा अ-त्थि तासि सो चेव सेसगाणं तु। खवगक्कमेण अनिय-ट्टिवायरो वेयगो वेए॥४३।। 'चरिम' त्ति-य सयोग्यन्तिकाः प्रकृतयश्चतुर्नवतिसंख्याः प्रागुक्तास्तासां स व सयोगिकेवली चरमापवर्तने वर्तमानो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवति / / शेषप्रकृतीनां जघन्यस्थितिसंकभस्वामिनमाह.. 'सेसगाण' मित्यादि, शेषाणां स्त्यानद्धित्रिकनामत्रयोदशकाष्टकषायनवनांकषायसंज्वलनक्रोधमानमायालक्षणाना पत्रिंशत्प्रकृतीनां क्षपणक्रमणक्षपणपरिपाट्या चरमे पल्योपमासंख्ययभागादिम त्रे संछोभणे वर्तमानोऽनिवृत्तिबादरो जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी भवाते। 'वेयगो वेदे' ति वेदको वेदे वेदस्य जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी / इयमत्र भावना-पुरूषवेदोदये वर्तमानः पुरुषवेदस्य, स्त्रीवेदोदय वर्तमानः स्त्रीवदस्य, नपुंसकवेदोदये वर्तमानो नपुंसकवेदस्यानिवृत्तिबादरसंपरायश्चरमसंक्रम कुर्वन् जघन्यस्थितिसंक्रमस्वामी वेदितव्यः / अन्येन हि वेदेन क्षपकश्चेणिमारूढरम्यान्यस्य वेदस्य जघन्यस्थितिसक्रमो न लभ्यते : तथाहि-येन वेदेन क्षपक श्रेणिमारोहति तस्य वेदस्यो-दयोदीरणापवर्तनादिभिःस्थिते पुद्गलाश्व बहवः परिसटन्ति। तता यद्यपि नपुंसकवेदन क्षपकश्रेणिं प्रपन्नः स्त्रीवेदनपुंसकवेदौ युगपरक्षपयति, तथापि नपुंसकवेदस्यैव जघन्यः स्थितिसंक्रमः प्राप्यते, न स्त्रीवेदस्य उदयादीरणयोरभावात् / स्त्रीवेदेन च प्रतिपन्नो नपुसकवक्षयानन्तरमन्तर्मुहूर्तन कालेन स्त्रीवेदं क्षपयति / एतावता च कालेनोदयोदीरणाभ्यां बह्री स्थितिस्त्रुट्यति। यद्यपि च पुरुषवेदेनाऽपि प्रतिपन्नस्यतावान् कालो लभ्यते तथाऽपि तस्य स्त्रीवेदसत्के उदयोदीरणे नभवत इति स्त्रीवेदप्रतिपन्नस्यैव स्त्रीवेदस्य जघन्यः स्थितिसंक्रमो, न शेषस्य / तथा पुरुषवेदन क्षपकश्रेणिं प्रपन्नो हास्यादिषट्कक्षयानन्तरं पुरूषवेदं क्षपयति, अन्यथा तु हास्यादिषट्कसहितम् / उदितस्य च वेदस्योदीरणाऽपि प्रवर्तत इति बढी स्थितिस्त्रुट्यति / पुरूषवेदस्यापि पुरुषवेदारुढस्येव च धन्यस्थितिसंक्रमोन शेषस्य। तदेवमुक्तः स्थितिसंक्रमः, सम्प्रत्यनुभागसंक्रमा:भिधानावसरः, तत्र चैतेऽर्थाधिकारास्तद्यथा-भेद-स्पर्धकप्ररूपणा, विशेषलक्षणप्ररूपणा, उत्कृष्टानुभागसंक्रमप्रमाणप्ररूपणा, जघन्यानुभागसंक्रमप्र माणप्ररूपणा, साधनादिप्ररूपणा, स्वामि त्वं चेति। तत्र भेदप्ररूपणार्थमाहमूलत्तरपगइगतो, अणुभागे, संकमो जहा बंधे। फडुगनिदेसो सिं, सव्वेयरघायऽघाईणं / / 44|| 'मूलत्तर' ति-अनुभागेऽनुभागविषये संक्रमो मूलो तरप्रकृतिगतः। किमुक्त भवति ? द्विधाऽनुभागसंक्रमस्तद्यथामूलप्रकृत्यनुभागसंक्रमश्च, उत्तरप्रकृत्यनुभागसंक्रमश्च / ते च मूलोत्तरप्रकृतिभेदा यथा बन्धेबन्धशतकेऽभिहितास्तथापि द्रष्टव्याः / कृता भेदप्ररूपणा / / स्पर्धकप्ररूपणार्थमाह-'फड्डगे' त्यादि आसां सर्वधातिनीनां देशघातिनीनामघातिनीनां प्रकृतीनां स्पर्धकनिर्देशः स्पर्धकप्ररूपणा यथा शतके कृता तथात्राऽपि कर्तव्या। तथापि किंचिदुच्यते-तत्र च केवलज्ञानावरणकेवलदर्शनावरणाद्यद्वादशकषायनिद्रापञ्चकमिथ्यात्वलक्षणाना विंशतिप्रकृतीनां रसस्पर्धकानि सर्वघातीनि, सर्व स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षण गुणं घातयन्तीति सर्वघातीनि, तानि च ताम्रभाजनवत् निश्छिद्राणि घृतवत् सिग्धानि द्राक्षावत्तनुप्रदेशोपचितानि स्फटिकाभ्रहारबचातीव निर्मलानि / उक्तं च- "जो घाएइ सविसयं, सयलं सो होइ सव्वघाइरसो / सो निच्छिड्डो निद्धो, तणुओ फलिहत्भहरविमलो / / 1 / / " मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानावरणचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणसंज्वलनचतुष्टयनवनोकषायान्तरायपञ्चकलक्षणानां पञ्चविंशतिसंख्यानां देशघातिप्रकृतीनाम्। (देशघातिप्ररूपणा 'देसघाइण' शब्दे चतुर्थभागे 2626 पृष्ठे गता / ) वेदनीयायुर्नामगोत्राणां सम्बन्धिन एकादशोत्तरप्रकृतिशतस्याघातिनो रसस्पर्धकान्यघातीनि वेदितव्यानि। केवल वेद्यमानसर्वघातिरसस्पर्धकसम्बन्धात्तान्यपि सर्वघातीनि भवन्ति / यथेह लोके स्वयमचौराणामपि चौरसम्बन्धाचौरता। उक्त च- "जाण न विसओघाइत्तणम्मिताणं पिसव्वघाइरसो। जायइघाइसगासे-ण चोरया वेहऽचोराणं / / 1 / / सम्प्रति दर्शनमोहनीयस्य स्पर्धकप्ररूपणार्थमाहसव्वेसु देसघाइसु, सम्मत्तं तदुवरिं तु वा मिस्सं। दारूसमाणस्साणं-ततमो मिच्छत्तमुप्पिमओ॥४५|| 'सव्व सु' त्ति-इह दर्शनमोहनीयस्य सत्कर्म प्रतीत्य द्विविधानि रसस्पर्ध कानि / तद्यथा-देशघातीनि, सर्वघातीनि च / तत्र यानि देशघातीनि स्पर्घकानि एक स्थानक रसोपेतानि द्वि Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 22 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम स्थानकरसेपेतानि च तेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वं तदुवरितुवा मिस्स' यत्र देशघातीनि स्पर्धकानि निष्ठितानि तत उपरि सम्यग्मिथ्यात्वस्य स्पर्धकानि भवन्ति। तानि च सर्वघातीनि द्विस्थानकरसोपेतानि च तानि सम्यग्मिथ्यात्वस्य स्पर्धकानि तावद् द्रश्व्यानि यावत् 'दारूसमाणस्साणंततमो त्ति' दारूसमान इति द्विस्थानको रसस्तस्य सम्बन्धिनां स्पर्धकानामनन्ततमो भागो गतो भवति। ततो यत्र सग्यग्मिथ्यात्वस्य स्पर्धकानि निष्ठां यान्ति, ततः प्रभृति द्विस्थानकत्रिस्थानकचतुःस्थानकरसोपेतानि स्पर्धकानि सर्वाण्यपि मिथ्यात्वस्य द्रष्टव्यानि। कृता स्पर्धकप्ररूपणा। सम्प्रति विशेषलक्षणप्ररूपणार्थमाह - तत्थट्ठपयं उव्व-ट्टिया व ओवट्टिया व अविभागा। अणुभागसंकमो ए-स अन्नपगई निया वाऽवि॥४६।। 'तत्थ' त्ति-तत्रानुभागसंक्रमेऽर्थपदं याथात्म्यनिर्धारणमिदम्यदुत उद्घर्तिताः प्रभूतीकृताः, यदा-अपवर्तिता ह्रस्वीकृता अथवाऽन्यां प्रकृति नीता अन्य प्रकृतिस्वभावेन परिणमिताः अविभागा अनुभागाः / एष सर्वाऽप्यनुभाग संक्रमः / तत्र मूलप्रकृतीनामुद्वर्तनापवर्तनारूपी द्वावेव संक्रमौ नान्यप्रकृतिनयनरूपः संक्रमः, तासां परस्परं संक्रमाभावात् उत्तरप्रकृतीनां तु त्रयोऽपि संक्रमाः। तदेवमुक्त विशेषलक्षणम्। सम्प्रत्युत्कृष्टानुभागसंक्रम प्रमाणप्रतिपादनार्थमाहदुविहपमाणे जेट्ठो, सम्मत्ते देसघाददुट्ठाणा। नरतिरियाऊ आयव-मिस्से वि यसव्वघाइम्मि।।४७|| 'दुविहे' त्ति-द्विविधे प्रमाणे स्थानप्रमाणे घातित्वप्रमाणे च ज्येष्ठ उत्कृ ष्ठोऽनुभागसंक्रमः सम्यक्त्वस्य देशघातिनि द्विस्थानके रसस्पर्धके संक्रम्यमाणे वेदितव्यः / एतदुक्तं भवति-सम्यक्त्वस्य घातित्वमाश्रिते देशघातिस्थानमाश्रित्य सर्वोत्कृष्टद्विस्थानकरसोपेतं स्पर्धकपटलं यदा संक्रामति तदा तस्योत्कृष्टोऽनुभागसंक्रम इति नरायुस्तिर्यगायुरातपसम्यग्मिथ्यात्वानां स्थानं प्रतीत्य सर्वोत्कृष्ट द्विस्थानकरसोपेतघातित्वमाश्रित्य सर्वघातिनि रसस्पर्धके उत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमः / अनापीयं भावना-नरतिर्यगायुरातपसम्यग्मिथ्यात्वानां सर्वोत्कृष्टद्विस्थानकरसोपेतं सर्वघातिरसस्पर्धक यदा संक्रामति तदा स तेषामुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमः। अत्र नरतिर्यगायुरातपाना “दुतिचउट्ठाणा उसेसा उ" इति वचनात् द्वित्रिचतुःस्थानकरससंभवेऽपि यत् द्विस्थानकरसस्पर्धकस्यैव संक्रमे उत्कृष्टोऽनुभागसंक्रम उक्तः, स एवं ज्ञापयति- एतेषा कर्मणां तथा स्वाभाव्यादेव त्रिस्थानकचतुःस्थानकरसस्पर्धकानाभुदर्तनापवर्तनाप्रकृत्यन्तरनयनरूपस्त्रिप्रकारोऽपि संक्रमो न भवतीति। सेसासु चउट्ठाणे, मंदो संमत्तपुरिससंजलणे। एगट्ठाणे सेसा-सु सव्वघाइम्मि दुट्ठाणे॥४८|| 'सेसासु' त्ति-शेषाणामुक्तव्यतिरिक्ताना प्रकृतीनां स्थानमाश्रित्य सर्वोत्कृष्टश्चतुःस्थानको घातित्वमाश्रित्य सर्वघाती रसो यदा संक्रामति तदा स तासामुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमः / तदेवमुक्तमुत्कृष्टानुभागसंक्रम- ) प्रमाणम्।। सम्प्रति जघन्यानुभागसंक्रमप्रमाणप्रतिपादनार्थमाह- 'मंदो' त्ति सम्यक्त्वस्य पुरूषवेदस्य संज्वलनानां चैकस्थानकेरसे संक्रामति मन्दो जघन्योऽनुभागसंक्रमो वेदितव्यः / एतदुक्तं भवति-सम्यक्त्वस्य सर्वविशुद्ध एकस्थानको रसो यदा संक्रामति तदा तस्य जघन्योऽनुभागसंक्रमः, पुरूषवेदसंज्वलनानां च क्षपणकाले यानि समयोनावलिकाद्विकबद्धानि स्पर्धकानि एकस्थानरसोपेतानि तानि यदा संक्रामन्ति तदा से तेषां जघन्योऽनुभागसंक्रमः। 'सेसासु' इत्यादि शेषासूक्तव्यतिरिक्तासु सर्वासु प्रकृतिषु सर्वघातिनि द्विस्थानकरसोपेते स्पर्धके संक्रम्यमाणो जघन्योऽनुभागसंक्रमो वेदितव्यः / इदमत्र तात्पर्यम्सम्यक्त्वपुरूषवेदसंज्वलनचतुष्टयव्यतिरिक्तिानां शेषप्रकृतीनां घातित्वमाश्रित्य सर्वघातीनि, स्थानमाश्रित्य द्विस्थानकरसोपेतानि मन्दानुभावानि यानि रसस्पर्धकानि तानि यदा संक्रामन्ति तदा सतासा जघन्योऽनुभागसंक्रमः / इह यद्यपि मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानावरणचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणान्तरायपञ्चकानामेकस्थानकोऽपि रसो बन्धे प्राप्यते तथाऽपि क्षयकालेऽपि प्रारबद्धो द्विस्थानकोऽपि रसः संक्रामति, नकस्थानकः केवल इतिजघन्यसंक्रमविषयतया नैतेषामेकस्थानकरस उक्तः / तदेवमुक्तं जघन्यानुभागसंक्रमपरिमाणम्। सम्प्रति साधनादिप्ररूपणा कर्तव्या। सा च द्विधा-मूलप्रकृतिसाद्यनादिप्ररूणा उत्तरप्रकृतिसाद्यनादिप्ररूपणा च / तत्र मूलप्र कृतीनां साद्यनादिप्ररूपणार्थमाहअजहण्णो तिण्णि तिहा, मोहस्स चउव्विहो अहाउस्स। एवमणुक्कोसो से-सगाण तिविहो अणुक्कोसो॥४६॥ सेसा मूलप्पगइसु, दुविहा अह उत्तरासु अजहणो। सत्तरसण्ण चउद्धा, तिविकप्पो सोलसण्हं तु / / 5 / / 'अजहण्णो' ति-ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायलक्षणानां त्रयाणां कर्मणामजघन्योऽनुभागरित्रधा त्रिप्रकारस्तद्यथा-अनादिरधुवो, ध्रुवश्च / तथाहि-क्षीणकषायस्यैतेषां कर्मणां समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ जघन्यानुभागसंक्रमो भवति, स च सादिरधुवश्च / ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः स चानादिः / अधुवधुवौ भव्याऽभव्यपेक्षया / मोहनीयस्याजघन्योऽनुभागसंक्रमश्चतुर्विधः / तद्यथासादिरनादिधुवोऽधु वश्च / तथाहि-सूक्ष्म-संपरायस्य क्षपकस्य मोहनीयस्य समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ जघन्योऽनुभागसक्रमो भवति / स च सादिरधु वश्च ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः, सच क्षायिकसम्यग्दृष्टरूप-शमश्रेण्यां वर्तमानस्योपशान्तमोहगुणस्थानके न भवति / उपशान्त-मोहगुण-स्थानकाच्च प्रतिपपतः सतः पुनरपि भवति, ततोऽसौ सादिः। तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / धुवाधुवा पूर्ववत्। आयुषस्त्वनुत्कृष्टोऽनुभागसंकमश्चतुर्विधः। तद्यथा-सादिरनादिधुंवोऽधुवश्च / तथाहि-अप्रमत्तो देवायुष उत्कृष्ट मनुभागं बवा बन्धावलिकायाः परतःसंक्रमयितुमारभते तं च, तावत्संक्रमयति यावदनुत्तरसुरभवे स्थितस्य त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यतिक्रामन्ति Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 23 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम आवलिकामात्रा स्थितिरवतिष्ठते / ततोऽन्योऽनुभागसंक्रम आयुषः सर्वोऽप्यनुत्कष्टः / स च साऽऽदिः / तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः। युगाधुवावभव्यभव्यापक्षया / शेषाणां नामगोत्रवेदनीयानामनुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमरित्रविधस्त्रिप्रकारः। तद्यथा-अनादिरध्रुवो ध्रुवश्च / तथाहिसूक्ष्मसम्परायेण क्षपकेण स्वगुणस्थानकस्य चरमसमये तेषां नामगोत्रवेदनीयानां सर्वोत्कृष्तो ऽनुभागो बध्यते / बन्धावलिकायामतीतायां यावासयोगिचरमसमयस्तावत्संक्रामति। स च सादिरधुवश्च। ततोऽन्यः सोऽप्यनुत्कृष्टः / स चानादिः, आदेरभावात् / ध्रुवाऽधुवी पूर्ववत / उक्तशेषेषु विकल्पेषु द्विधा प्ररूपणा कर्तव्या। तद्यथा-सादिरध्रुवश्च / तत्र च तुर्णा घातिकर्मणाम् उत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्येषु जघन्यःसादिरध्रुवश्च भावित एव / उत्कृष्टःकदाचिन्मिथ्यादृष्टिर्भवति, अन्यदा तु तस्याप्यनुत्कृष्टः, अत एती साद्यधुवाँ। शेषाणां चतुर्णामघातिकर्मणां जघन्याजघन्योत्कृष्टषु मध्ये उत्कृष्टो भावित एव / जघन्यः सूक्ष्मस्यापर्याप्तस्यैकेन्द्रियस्य ह प्रभूतानुभागसत्कर्मणो लभ्यते, नान्यस्य / प्रभूतानुभागसत्कर्मपाताभावे तु तस्याप्य जधन्यः / तत एवावपि साद्यधुवौ। कृता मूलप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणा | सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां साद्यनादि-प्ररूपणार्थमाह- 'अहेल्यादि' उत्तारासूत्तरप्रकतिषु मध्ये सप्तदशानां कर्मणामनन्तानुबन्धिचतुष्टयसंज्वलनचतुष्टयनवनोकषायलक्षणानामजघन्योऽनुभागसंक्रमचतुर्धा / त प्रथा-सादिरनादिधुंवोऽधुवश्च। तथाहि-एतेषामनन्तानुगनिधवजीनां बयोदशकर्मणां स्वस्वक्षयपर्यवसानावसरे जघन्य - स्थितिसंक्रमकाले जघन्योऽनुभाग-संक्रमः प्राप्यते। अनन्तानुबन्धिनां पुनद्वलनासंक्रमणोद्वल्य भूयोऽपि मिथ्यात्वप्रत्ययतो बद्धानां बन्धावलिकायामतीतायां द्वितीया-बलिकायाः प्रथमसमये जघन्योऽनुभागसंक्रमः, एतदन्यः पुनः सर्वोऽप्येतासां सप्तदशप्रकृतीनामजघन्यः / स सोपशम श्रेण्यामुपशान्तानामेतासां न भवति ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसा सादिः / त स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / अध्रुवध्रुवी भव्याभव्यापेक्षया / तथा पशविधज्ञानावरणस्त्यानद्धित्रिकवर्ज षड्दर्शनाहरणपशविघ्नान्तरायलक्षणानां षोडशकर्मणामजघन्योऽनुभागसंक्रमरित्रविकल्परित्रप्रकारस्तद्यथा-अनादिरधुवो धुवश्च / तथाहि-एतेषां पोडशकर्मणां जघन्यानुभागसंक्रमःक्षीणकषायस्य स्वगुणगुणस्थानकस्य समयाधिकावलिकाशेषायां स्थितौ वर्तमानस्य प्राप्यते / ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजघन्यः तर य चादिन विद्यते इत्यनादिः। अधुवधुवो भव्याऽभव्यापक्षया / / 5 / / तिविहो छत्तीसाए, ऽणुक्कोसोऽह नवगस्स य चउद्धा। एयासिं सेसाऽसे-सगाण सव्वे यदुविगप्पा / / 51 / / 'तिविहो त्ति सातवेदनीयपक्षेन्द्रियजातिर्तजससप्तकसमचतुरखसंस्थानशुक्ललोहितहारिद्रसुरभिगन्धकषायाम्लमधुरमृदुलघूष्णशीत (श्रिग्धोष्ण) लक्षणशुभवर्णाधेकादशकागुरुलघूच्छासपराघातप्रशस्तविहायोगतित्रसादिदशकनिर्माणलक्षणानां षट्त्रिंशत्प्रकतीनामुत्कष्टोऽनुभागसंक्रमस्त्रिविधस्त्रिप्रकारः / तद्यथा-अनादिधुवोऽध्रुवश्च / तथाहि-आसां षट्त्रिंशत्प्रकृतीनां क्षपक आत्मीयॉत्मीयब न्धव्यवच्छेदकाले उत्कृष्टमनुभाग बध्नाति, बवा च बन्धावलिकायामतीतायां संक्रमयितुमारभते। तं च तावत्संक्रमयति यावत्सयोगिकेवलिचरमसमयः। ततः क्षपकस-योगिकेवलिवर्जस्य शेषरयानुकृष्ट एवानुभाग एतासां संक्रामति / तस्य चादिर्न विद्यत इत्यनादिः, धुवाध्रुवा अभव्यभव्यापेक्षया। अहेत्यादि' अथ शब्दस्तथाविधार्थे / नवकरय-उद्योतवजर्षभनाराधसंहननादारिकसप्तकलक्षणस्यानुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमश्चतुर्विधः। तद्यथा-सादिरनादिधुंवोऽध्रुवश्च। तथाहि-एतेषामुद्द्योतवर्जानामष्टानां कर्मणाम् सम्यग्दृष्टिदेवोऽत्यन्तविशुद्धपरिणाम उत्कृष्टममुभागं बद्धा बन्धावलिकायामतीतायां संक्रामति / उद्योतनाम्नः पुनः सप्तमनरकपृथिव्या वर्तमानो नैरयिको मिथ्यादृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपत्तुकाम उत्कृष्टमनुभागबन्धं करोति / ततो बन्धावलिकायामतीतायां संक्रमयति / तं च जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतो द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणां यावत् / इह यद्यपि सप्तमनरकपृथिव्या चरमेऽन्तर्मुहूर्तेऽवश्यं मिथ्यात्वं गच्छति यथाऽप्यग्रेतने भवेऽन्तर्मुहूर्तानन्तरं यः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते स इह गृह्यते / ततोऽपान्तराले स्तोको मिथ्यात्वकालो भवन्नपि चिरन्तरगन्थेषु न विवक्षित इत्यस्माभिरपि द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणां यावदित्युकामा तत उत्कृष्टात्प्रतिपतितस्यानुत्कृष्टः। स च साऽऽदिः। तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / ध्रुवाध्रुवी भव्याभव्यापक्षया / 'एयासि' मित्यादि एतासां सप्तदशषोडशषत्रिंशन्नवकरूपाणां प्रकृतीनामुक्तशेषा विकल्पा उक्तसप्तदशादिव्यतिरिक्तानां च शेषप्रकृतीनामशीतिसंख्यानां सर्वेऽप्युत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्या द्विविकल्पा द्विप्रकारा ज्ञातव्याः। ताथा-सादयोऽध्रुवाच। तथाहि-ससदशानां षोडशानां चोत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमो मिथ्यादृष्टरूत्कृष्टे संक्लेशे वर्तमानस्य प्राप्यते। शेषकाल तु तस्याप्यनुत्कृष्ट एव / अत एव ता द्वावपि साद्यधुवौ जघन्यो भावित एव / तथा षटत्रिंशत्प्रकृतीनां नवकस्य च जघन्योऽनुभागसंक्रमः सूक्ष्मैकेन्द्रिये हतप्रभूतानुभागसत्कर्मणि प्राप्यते / प्रभूतानुभागसत्कर्मघाताभावे तु तस्मिन्नप्यजघन्यस्तत एतौ साद्यध्रुवौ / उत्कृष्टो भावित एव / शेषाणां प्रकृतीना संज्ञिनि पञ्चेन्द्रिये पर्याप्त शुभानां वैक्रियसप्तकदेवद्विकोचेगोत्रातपतीर्थकराहारकसप्तकमनुजद्विकनरकायुर्वर्जशेषायुस्त्रयरूपाणां चतुर्विशतिसंख्यानां विशुद्धावशुभानां च स्त्यानद्धित्रिकासातवदीनयदर्शनमोहनीयत्रितयाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायनरकायुर्नरकतिकतिर्यग्द्विकपञ्चेन्द्रिजातिवर्जशेषजातिचतुष्टयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्जसंहननाऽशुभवर्णादिनवकाप्रशस्तविहायोगत्युपघातस्थावरदशकनीचैर्गोत्ररूपाणां षट्पञ्चाशत्संख्यानां संक्लेशे उत्कृष्टोऽनुभागबन्धो लभ्यते / शेषकालं त्वनुत्कृष्टः एवं संक्रमोऽपि / तत एतौ साद्यध्रुवौ। जघन्योऽनुभागसंक्रमः पुनः सूक्ष्मैकेन्द्रिये हतप्रभूतानुभागसत्कर्मणि प्राप्यते / प्रभूतानुभागसत्कर्मघाताभावे तु तस्मिन्नप्यजघन्यः। तत एतावपि साद्यधुवौ। कृता साद्यनादिप्ररूपणा / सम्प्रति स्वामित्वं वक्तव्यम् / तच द्विधा उत्कृष्टानु भाग संक्र म स्वामित्व, जघन्यानुभागसंक्रमस्वामित्व च / तत्रोत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामित्वमभिधि Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 24 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम त्सुस्तत्कालप्रमाणनियमनार्थमिदमाहउक्कोसगं पबंधिय, आवलियमइच्छिऊण उक्कोसं / जावं न घाणइ तगं, संकमइ य आमुहुत्तंतो / / 5 / / 'उनोसम' ति-मिथ्यादृष्टिरूत्कृष्टमनुभागं बद्ध्वा तत आवलिकामतिक्रम्यः अन्धावलिकायाः परत इत्यर्थः / तमुत्कृष्टमनुभाग संक्रमयति तावधावन्न विनाशयति / कियन्तं कालं यावत्पुनर्न विनाशयतीति चेदुच्यते-आ मुहूर्तान्तः अन्तर्मुहूर्त यावदित्यर्थः। परतो मिथ्यादृष्टिः शुभप्रकृतीनामनुभागं संक्लेशेन अशुभप्रकृतीनां तु विशुद्ध्याऽवश्यं विनाशयति। सम्प्रति स्वामी प्रतिपाद्यतेअसुभाणं अन्नयरो, सुहुम अपज्जत्तगाइ मिच्छो य! वजिय असंखवासा-उए यमणुओववाए य॥५३|| 'असुभाणं' ति-अशुभानां प्रकृतीना पञ्चविधज्ञानावरणनवविधदर्शनावरणासातवेदनीयाष्टाविंशतिविधमोहनीयनरकद्विकतिर्यग्द्विकपञ्चेन्द्रियजातिवर्जशेषजातिचतुष्टयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्ज संहनननीलकृष्णदुरभिगन्धतितकटुकरूक्षशीतकर्क शगुरुपघाताप्रशस्तविहायोगतिस्थावरसूक्ष्मसाधारणापर्याप्तास्थिराशुभदुर्भगदुःखरानादेयायशःकीर्तिनीचैर्गोत्रपञ्चविधान्तरायलक्षणानामष्टाशीतिसंख्यानामन्यतरः सूक्ष्मापर्याप्तादिः, आदिशब्दात्-पर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्तबादरद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिसंज्ञितिर्यक्पश्चेन्द्रियमनुष्यदेवनारकपरिग्रहः / तत एतेषामन्यतमो मिथ्यादृष्टिरूत्कृष्टमनुभागसंक्रम करोति। केवलमसंख्येयवर्षायुषो मनुष्यतिरश्चोये च देवाः स्वभवाच्च्युत्त्वा मनुष्येषूत्पद्यन्ते तांश्च मनुष्योपपातान् आनतप्रमुखान् देवान् वर्जयित्वा / एते हि मिथ्यादृष्टयोऽपि नाशुभप्रकृतीनामुक्तस्वरूपाणामुत्कृष्टमनुभाग बध्नन्ति, तीव्रसंक्लेशाभावात्। ततश्चोत्कृष्टानुभागसंक्रमाभाव इति तेषां वर्जनम्। सव्वत्थायावुञ्जो-यमणुयगइपंचगाण आऊणं। समयहिगालिगा से-सग त्ति सेसाण जोगंता॥५४॥ 'सव्वत्थ' त्ति-सर्वत्र-सर्वेषु सूक्ष्मापर्याप्तादिषु नैरयिकपर्यवसानेषु असंख्येयवर्षायुस्तिर्यग्मनुष्येषु मनुष्योपपातेषु च देवेषु आनतादिषु मिथ्यादृष्टिषु सम्यादृष्टिषु वा। आतपस्योद्योतस्य मनुजगतिपञ्चकस्य मनुजगतिमनुजानुपूर्योदारिक द्विकवर्षभनाराचसंहननलक्षणस्य अत्रौदारिकद्विकग्रहणादौदारिकसप्तक गृह्यते, तथा विवक्षणात् / ततः सर्वसंख्यया द्वादशानां प्रकृतीनामुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमो वेदितव्यः / तथाहि-सम्यग्दृष्टिः शुभमनुभाग न विनाशयति, किं तु-विशेषतो द्वे षट्षष्टी सागरोपमाणां यावत् परिपालयति। तत उत्कर्षत एतावन्तं कालं यावदुत्कृष्टमनुभागमविनाश्य पञ्चात्सर्वत्र यथायोग्यमुत्पद्यते / ततो मिथ्यादृष्टिष्वप्यनन्तरोक्तप्रकृतीनामुत्कृष्टोऽनुभागसंक्रमोऽन्तर्मुहूर्त काल यावदवाप्यते। आतपोद्योतयोश्चोत्कृष्टोऽनुभागोमिथ्यादृष्टिनेव बध्यते। ततो न तत्र तयोरूत्कृष्टानुभागसंक्रमाभावः / मिथ्यात्वाच प्रतिपत्य सम्यक्त्वं गते सम्यग्दृष्टावपि प्राप्यते। नच सम्यग्दृष्टिः सन्तयोरुत्कृष्ट मनुभागं विनाशयति, शुभप्रकृतित्वात, ततो द्वेषट्षष्टी अपि सागरोपमाणां यावदुत्कर्षतस्तयोस्तत्र संक्रमो द्रष्टव्यः। तथा चतुर्णामायुषामुत्कृष्टमनुभागं बडा बन्धावलिकायामतीतायां यावत्समयाधिकावलिका शेषा तावदुत्कृष्टानुभागसंक्रमः प्राप्यते। शेषाणां तु शुभप्रकृतीनां सातवेदनीयदेवद्विकपञ्चेन्द्रियजातिवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकतैजससप्तकसमचतुरस्रसंस्थानशुक्ललोहितहारिद्रवर्णसुरभिगन्धकषायाम्लमधुररसमृदुलघुसिग्धोष्णस्पर्शप्रशस्तविहायोगत्युच्छासागुरुलघुपराघातत्रसादिदशनिर्माणतीर्थकरोचैर्गोत्रलक्षणानां चतुःपञ्चाशत्संख्यामात्मीयात्मीयबन्धव्यवच्छेदसमये उत्कृष्टमनुभागं बद्धवा बन्धावलिकायाः परतस्तावदुत्कृष्टभनुभाग संक्रमयति यावत्सयोगिकेवलिचरमसमयः / तथा चैतासा प्रकृतीनामुत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामिनः प्रायोऽपूर्वकरणादयः सयोगिकेवलिपर्यवसाना द्रष्टव्याः। तदेवमुक्त उत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामी, संप्रतिजघन्यानुभागसंक्रमस्वामिनं प्रतिपिपादयिषुर्जघन्यानुभाग संक्रमसम्भवपरिज्ञानार्थमाहखवगस्संतरकरणे, अकए घाईण सुहुमकम्मुवरिं। केवलिणोऽणंतगुणं, असन्निओ सेसअसुभाणं / / 5 / / 'खवगस्स' ति-यावदद्याप्यन्तरकरणं न विधीयते तावत्क्षपकस्य सर्वघातिनीना देशघातिनीनां च प्रकृतीनां सम्बन्धी अनुभाग: सूक्ष्मैकेन्द्रियसत्कादनुभागसत्कर्मणोऽनन्तगुणो भवति। अन्तरकरणे तु कृते सति सूक्ष्मैकेन्द्रियस्यापिसत्कादनुभागसत्कर्मणो हीनो भवति। तथा शेषाणामप्यघातिनीनामशुभप्रक तीनामसातवेदनीयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्जसंहननकृष्णनीलदुरभिगन्धतिक्तकटुगुरुकर्कशरूक्षशीतोपघाताप्रशस्तविहायोगतिदुर्भगदुःखरानादेयास्थिराशुभापप्तिायशःकीर्तिनीचैर्गोत्रलक्षणानां त्रिंशत्संख्यानां केवलिनोऽनुभागसत्कर्म असज्ञिपञ्चेन्द्रियसत्कादनुभागसत्कर्मणोऽनन्तगुणं वेदितव्यम्। तथा चराति सर्वघातिनीना देशघातिनीनां च प्रकृतीनां जघन्यानुभागसक्रमसम्भवः क्षपकस्यान्तरकरणे कृते सति वेदितव्यः / शेषाणां त्वशुभप्रकृतीनामुक्तरूपाणां जघन्यानुभागसंक्रमसंभवः, न सयोगिकेवलिनि, किंतु-हतस्तकर्मणः सूक्ष्मैकेन्द्रियोदः, तस्यैव वक्ष्यमाणत्वात्। इह 'संकमई य आमुहुत्तंतो' इति वचनात्सम्यग्दृष्टयो मिध्यादृष्टयो वा किलान्तर्मुहूर्तात्परतः सर्वप्रकृतीना मनुभागघात कुर्वन्तीति प्रसक्तम्-तत्रापवादमाहसम्मद्दिट्ठी न हणइ, सुभाणुभागे असम्मट्ठिी वि। सम्मत्तमीसगाणं,उकोसं वजिया खवणं / / 56|| 'सम्पद्दिट्ठि' ति-इह याः शुभप्रकृतयः सातवेदनीयदेवद्विकमनुजद्विकपोन्द्रियजातिप्रथमसंस्थानप्रथमसंहननौदारिकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकतैजससप्तकशुभवर्णाद्येकादशकागुरुलघूपघातो - च्छासातपोद्योतप्रशस्तविहायोगतित्रसादिदशकनिर्माणतीर्थकरोचैर्गोत्रलक्षणाःषट्षष्टिसंख्यास्तासां सर्वासामपि शुभमनुभागमुत्कर्षतो द्वे षट्षष्टीसागरोपमाणां यावत्सम्यग्दृष्टिर्न विनाशयति / असम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिः / अपि शब्दात्सम्यग्दृष्टिश्च सम्यग्मिथ्यात्वयोरूत्कृष्टमनुभाग Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 25 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम न विनाशयति / क्षपण-क्षपणकालं वर्जयित्वा / एतदुक्तं भवतिक्षपणकाले सम्यग्दृष्टिरपि सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोरूत्कृष्टमनुभाग विनाशयति, तेन क्षपणकालो वय॑ते / तथा चोक्त पञ्चसंग्रहमूलटीकायाम्- “सम्यग्दृष्टियो मिथ्यादृष्टयश्च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोनोंत्कृष्टमनुभाग विनाशयन्ति, अपि तु क्षपकः सम्यग्दृष्टिविनाशयति, उभयोरपि दृष्ट्योरिति” मिथ्यादृष्टिः पुनः सर्वासामपि शुभप्रकृतीना संक्लेशेनाशुभप्रकृतीना तु विशुद्धषाऽन्तर्मुहूर्तात्परत उत्कृष्टमनुभागमवश्यं विनाशयति। तदेव जघन्यानुभार्गसंक्रमस्वामित्वप्रतिपादनाय भावना कृता सम्प्रति जघन्यानुभागसंक्रमस्वामित्वमेवाहअंतरकरणा उवरिं, जहन्नठिइसंकमो उ जस्स जहिं। घाईण नियगचरम-रसखंडे दिट्ठिमोहदुगे / / 57 / / 'अतकरण' ति-अन्तकरणादूर्ध्व घातिकर्मप्रकृतीनां मध्ये यस्याः प्रकृतेर्यत्र गुणस्थानके जघन्यस्थितिसंक्र म उक्तः,तस्यास्तत्र जघन्यानुभागसंक्रमोऽपि वेदितव्यः। एतदुक्तं भवति-अन्तरकरणे कृति सति अनिवृत्तिबादरसपरायक्षपको नवनोकषायसंज्वलनचतुष्टयानां क्षपणक्रमेण जघन्यस्थितिसंक्रमणकाले जघन्यानुभागसंक्रमं करोति, ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपञ्चकचक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणनिद्राप्रचलारूपदर्शनाऽऽवरणषट्कानां क्षीणकषय समयाधिकावलिकाशेषायां स्थिती वर्तमानो जपन्यानुभागसंक्रम करोति नियगे' त्यादि दर्शनमोहनीयद्विकरय सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वरूपस्य क्षपणकाले निजकचरमरसखण्डे आत्मीयात्मीयचरमरसखण्डसंक्रमणकाले जघन्यानुभागसंक्रमो भवति। आऊण जहण्णठिई,बंधिय जाव त्थि संकमो ताव / उव्वलणतित्थसंजो-यणा य पढमालियं गंतु // 58|| 'आऊण' ति चतुर्णामय्यायुषां जघन्यां स्थिति बवा, जघन्यां हि स्थिति बध्नन् जघन्यमनुभागं वध्नातीति जघन्यस्थितिग्रहणम्। ततो जघन्यां स्थिति बवा बन्धावलिकायाः परतस्तावज्जघन्यानुभागं संक्रमयति यावत्समयाधिकावलिका शेषा भवति / ततो जघन्यां स्थिति बद्धा याववस्ति संक्रमस्तावजघन्यानुभागसंक्रमः प्राप्यते। तथा नरकद्विकमनुजद्विका देवद्विकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तको चैर्गोत्रलक्षणानामेकविशत्युद्वलनप्रकृतीनां तार्थकरस्यानन्तानुबन्धिना च जघन्यमनुभाग बद्धा प्रथमावलिका बन्धावलिकालक्षणां गत्वाऽतिक्रम्यः बन्धावलिकायाः परतः इत्यर्थः / जघन्यमनुभाग संक्रमयति / कः संक्रमयतीति चेदुच्यते-वैक्रियसप्तकदेवद्विकनरकद्विकानामसंज्ञिपञ्चेन्द्रियः, मनुष्यद्विकोर्चर्गोत्रयोः सूक्ष्मनिगोदः, आहारकसप्तकस्याप्रमत्तः, तीर्थकरस्या विरतसम्यग्दृष्टिः, अनन्तानुबन्धिनां पश्चात्कृतसम्यक्त्वो मिथ्यादृष्टिः संक्रमयतीति। सेसाण सुहुमहयसं-तकम्भिगो तस्स हेट्ठओ जाव। बंधइ तविं एगि-दिओ वऽणेगिंदिओ वाऽवि।।५।। 'सेसाण' त्ति-उक्तेशेषाणां शुभानामशुभानाम् प्रकृतीनां सप्तनवति- | संख्यानां यः सूक्ष्मैकेन्द्रियो वायुकायिकोऽग्रिकायिको वा हतसत्कर्मा, | हतविनाशित प्रभूतमनुभागसत्कर्म येन स हतसत्कर्मा, स तस्यात्मकसत्कस्यानुभागसत्कर्मणोऽधस्तात् ततः स्तोकतरमित्यर्थः, अनुभाग तावद्वध्नाति यावदे केन्द्रियस्तस्मिन्नन्यस्मिन् वा एकेन्द्रियभवे वर्तमानोऽनेकेन्द्रियो वेति, स एव हतसत्कर्मा एकेन्द्रियोऽन्यस्मिन् द्वीन्द्रियादिभवे वर्तमानो यावदन्यं बृहत्तरमनुभागं न बध्नाति तावत्तमेव जघन्यमनुभाग संक्रमयति। तदेवमुक्तोऽनुभागसंक्रमः / सम्प्रति प्रदेशसंक्रमाभिधानावसरः / तत्र चैतेऽर्थाधिकाराः, तद्यथा-सामान्यलक्षणभेदैः साद्यानादिप्ररूपणा। उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमस्वामी जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामी च। तत्र सामा न्यलक्षणप्रतिपादनार्थमाहजं दलियमन्नपगई, निजइ सो संकमो पएसस्स। उव्वलणो विज्झाओ, अहापवत्तो गुणो सव्वो॥६०।। जं 'ति' - यत्संक्रमप्रायोग्यं दलिकं कर्मद्रव्यम् अन्य प्रकृति नीयत अन्यप्रकृतिरूपतया परिणम्यते स प्रदेशसंक्रमः। उक्तं सामान्यलक्षणम / / सम्प्रति भेदमाह- 'उव्वलणो' इत्यादि / प्रदेशसंक्रमः पञ्चधा। तद्यथा-उद्वलनासक्रमः, विध्यातसक्रमः यथाप्रवृत्तसंक्रमः, गुणसंक्रमः, सर्वसंक्रमश्च / तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात्प्रथमत उद्बलनासंक्रमस्य लक्षणमभिधीयते- इहानन्तानुबन्धिचतष्टयसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वदेवद्विकनरकद्विकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकमनुजद्विकोच्चैर्गोत्रलक्षणानां सप्तविंशतिप्रकृतीनां प्रथमतःपल्योपमासंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डमन्तमुहूर्तेन काले नोत्किरति / ततः पुनरपि द्वितीयं स्थितिखण्ड पल्योपमासख्येयभागमात्रमेव, केवलं प्रथमात् स्थितिखण्डात् विशेषहीनमन्तर्मुहूर्तेन कालेनोत्किरति / ततोऽपि तृतीयं स्थितिखण्ड पल्योपमासंख्येयभागमात्रम्, द्वितीयात् स्थितिखण्डात् विशेषहीनमन्तर्मुहूर्तेन कालेनोत्किरति / एवं पल्योपमासंख्येयभागमात्राणि स्थितिखण्डानि पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् स्थितिखण्डाद्विशेषहीनानि तावद्वाच्यानि यावत् द्विचरम स्थितिखण्डम् सर्वाण्यपि च तानि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेनोत्कीर्यन्ते / इह च द्विधा प्ररूपणाअनन्तरोपनिधया, परम्परोपनिधया च / तत्रानन्तरोपनिधया प्रथमस्थितिखण्डस्य प्रभूता स्थितिः। ततो द्वितीयस्य विशेषहीना। ततोऽपि तृतीयस्य विशेषहीना। एवं यावद् द्विचरम स्थितिखण्डम् / कृताऽनन्तरोपनिधया प्ररूपणा / / संप्रति परम्परोपनिधया क्रियते-तत्र प्रथमस्थितिखण्डापेक्षया कानिचित् स्थितिखण्डानि स्थित्यपेक्षयाऽसंख्येयभागहीनानि, कानिचित्संख्येयभागहीनानि, कानिचित संख्येयगुणहीनानि, कानिचिदसंख्येयगुणहीनानि / यदा तु प्रदेशापरिमाणं चिन्त्यते, तदा प्रथमस्थितिखण्डात् द्वितीयं स्थितिखण्ड दलिकापेक्षया विशेषाधिकम् / ततोऽपि तृतीयं विशेषाधिकम्, एवं तावद्वाच्यं यावत् द्विचरमं स्थितिखण्डम्। इयमनन्तरोपनिधा। परम्परोपनिधा पुनरियम-प्रथमात् स्थितिखण्डाइलिकमपेक्ष्य किंचिदसंख्येयभागाधिकम्, किं चित्संख्येयभागाधिकम् ,किंचित्संख्येयगुणाधिकम्, किंचिदसंख्येयगुणाधिकम्, स्थितिखण्डानां चोत्करणविधिरयम्प्रथमसमये स्तोकं दलिक मुत्किरति। द्वितीये समयेऽसंख्ये - Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 26 - अनिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम यगुणम् / ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम् / एवं तावद्वाच्यं यावदन्तमर्मुहूर्तस्य चरमसमयः। गुणकारश्चात्र पल्योपमासंख्येयभागलक्षणो वेदितव्यः एवं सर्वेष्वपि स्थितिखण्डेषु द्रष्टव्यम् / दलिकं चोत्कीर्य व प्रक्षिप्यत इति चेदुच्यते-किंचित्स्वस्थाने किंचित्परस्थाने / तत्र कियत्प्रक्षिप्यत इति विशेषतो निरूप्यते-प्रथमे स्थितिखण्डे प्रथमसमये यत्कर्मदलिकमन्यप्रकृतिषु प्रक्षिपति तत् स्तोकम् / यत् स्वस्थान एवाधस्तात्प्रक्षिप्यते तत्ततोऽसंख्येयगुणम् / ततोऽपि द्वितीयसमये यत्स्वस्थाने प्रक्षिप्यते तदसंख्येयगुणम्। परप्रकृतिषु पुनर्यत् प्रक्षिप्यते तत्प्रथमसमयपरस्थानप्रक्षिप्ताद्विशेषहीनम् / तृतीयसमये यत्स्वस्थाने प्रक्षिप्यते तत् द्वितीयसमयस्वस्थानप्रक्षिप्तादसंख्येयगुणम् / यत्पुनःपरप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते, तत् द्वितीयसमयपरस्थानप्रक्षिप्ता द्विशे षहीनम्। एवं तावद्वाच्यं यावदन्तर्मुहूर्तचरमसमयः / एवं सर्वेष्वपि स्थितिखण्डेषु द्विचरमस्थितिखण्डपर्यवसानेषु वाच्यम् / सम्प्रति चरमखण्डस्य विधिरूच्यते-चरमस्थितिखण्डं द्वि चरमस्थितिखण्डापेक्षयाऽसंख्येयगुणं तदपि चरमस्थितिखण्डमन्तर्मुहूर्तन कालेनोत्कीर्यते। तरय च यत्प्रदेशाग्रं तदुदयावलिकागतं मुक्त्वा शेष सर्व परस्थाने प्रक्षिपति। तचैवम्-प्रथमसमये स्तोकं, द्वितीये समयेऽसंख्येयगुणं, ततोऽपि तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम, एवं यावच्चरमसमयः / चरमसमये तुथरपरप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते दलिक स सर्वसंक्रम उच्यते। तत्र यावत्प्रमाणं द्विचरमस्थितिखण्डसत्कं कर्मदलिकं चरमसमये परप्रकृतिषु संक्रमयति, तावत्प्रमाणं चेच्चरमस्थितिखण्डस्य कर्मदलिकं प्रतिसमयमपहियते तर्हि तच्चरमं स्थितिखण्डमसंख्येयाभिरूत्सर्पिण्यवसर्पिणी-भिर्निलेपीभवति एषा कालतो मार्गणा / क्षेत्रतः पुनरियम्-यावत्प्रमाण द्विचरमस्थितिखण्डसत्कं कर्मदलिकं परप्रकृतिषु संक्रमयति. तावत्प्रमाणं कर्मदलिक चरम-स्थितिखण्डस्य सत्कमेकत्रापहियते, अन्यत्र एक आकाशप्रदेशः। एवमपहियमाणं चरमस्थितिखण्डमङगुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशेरसंख्येयतमेन भागेनापहियते / अड्गुलस्यासंख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावन्ति चरमस्थितिखण्डे यथोक्तप्रभाणानि खण्डानि भवन्तीत्यर्थः यावत्प्रमाणां पुनर्द्धिचरमस्थितिखण्डसत्कं कर्मदलिक स्वस्थाने संक्रमयति, तावत्प्रमाणं चेच्चरमस्थितिखण्डस्य कर्मदलिक प्रतिसमयमपहियते तर्हि तच्चरमं स्थितिखण्डं पल्योपमासंख्येयभागमात्रगतैः समयैर्निपीभवति। तदेवमुक्तपुद्वलनासंक्रमलक्षणम्। सम्प्रत्येतदेव लक्षणं योजयन्नाहारकसप्तकस्योद्वलनासंक्रमकारकमाहआहरतणू मिन्नमु-हुत्ता अविरइगओ पउव्वलए। जा अविरतो त्ति उव्वल-इ पल्लभागे असंखतमे / / 61 / / 'आहार' ति-आहारकसप्तकसत्कर्माऽविरतिर्विरत्यभाव गतः सन् अन्तर्मुहूर्तात्परत आहारकतनुम्, इहाहारकग्रहणेनाहारकसप्तकं गृहीत द्रष्टव्यम् तत आहारकसप्तकम्। 'पउव्वलए' ति प्रद्विलयति / कियता पुनः कालेनोदलयतीति चेदुच्यते-यावदविरतिस्तावदुरलयति / एतेनाविरतिप्रत्यया आहारकसप्तकस्योद्वलना प्रतिपादिता द्रष्टव्या / अविरतिश्चानन्तमपि कालं यावद्भवति, ततो नियममाह- 'पल्लभागे असंखतमे' पल्योपमस्यासंख्येयतमेन भागेनसर्वमुद्रलयतीत्यर्थः। अंतोमुहुत्तमर्द्ध, पल्लासंखिज्जमित्तठिइखंडं। उकिरइ पुणो वि तहा, उणूणमसंखगुण्हं जा // 62 / / 'अंतोमुहत्तं त्ति-अन्तर्मुहूर्तप्रमाणामद्धा यावदन्तर्मुहूर्तेनकालेनेत्यर्थः / पल्योपमासंख्येयभागमात्रं स्थितिखण्डमुत्किरति / एष विधिः प्रथमखण्डस्य / / ततः पुनरपि तथा तेनैव प्रकारेणान्तर्मुहूतेन कालेनान्यत् पल्योपमासंख्येभागमात्र खण्ड पूर्वस्मादूनमूनतरमुत्किरति / एवं तावद्वाच्यं यावद् द्विचरमं स्थितिखण्डम् / तच्च प्रथमस्थितिखण्डा-- पेक्षयाऽसंख्येयगुणहीनम्। तं दलियं सत्थाणे, समए समए असंखगुणियाए। सेढीए परठाणे विसेसहाणीऐं संछुभइ॥६३।। 'त' ति-तदुत्कीर्यमाणं दलिक समये समये स्वस्थाने असंख्येयगुणितया श्रेण्या संक्षुभते-प्रक्षिपति / यत्पुनः परस्थाने परप्रकृतौ तद्विशेषहान्या / तद्यथा-प्रथमसमये यत् परप्रकृतौ प्रक्षिपति तत् स्तोकम् / यत्पुनः स्वस्थाने एवाधस्तात् प्रक्षिप्यते, तत्ततोऽसंख्येयगुणम्। ततोऽपि द्वितीयसमये यत् स्वस्थानेप्रक्षिप्यतेतदसंख्येयगुणम् / परप्रकृतिषु पुनर्यत प्रक्षिप्यते तत्प्रथमसनये परस्थानप्रक्षिप्ताद्विशेषहीनम् / एवं तावत्प्रतिसमयं वाच्यं यावदन्तर्मुहूर्तस्य चरमसमयः / एष प्रथमस्थितिखण्डस्योत्करणविधिः एवमन्येषामपि द्रष्टव्यम्। जं दुचरमस्स चरिमे, अन्नं संकमइ तेण सव्वं पि। अंगुलअसंखभागे-ण हीरए एस उव्वलणा॥६॥ 'ज' ति-द्विचरमस्थितिखण्डस्य चरमसमये यत् कर्मदलिकमयां प्रकृति संक्रमयति, तेन मानेनतावत्प्रमाणेन दलिकेनेत्यर्थः / यदि चरम स्थितिखण्डमपहियते, ततः कालतोऽसंख्येयाभिरूत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते क्षेत्रतः पुनरङ्गुलमात्रक्षेत्रासंख्येयतमेन भागेन / एषा प्रागुक्ता द्विचरमस्थितिखण्डं यावदाहारकसप्तकस्योद्बलना। सम्प्रति चरमस्थितिखण्डकस्य वक्तव्यतामाहघरममसंखिज्जगुणं, अणुसमयमसंखगुणियसेढीए। देइपरत्थाणे ए-वं संछुभतीणि (एव) मविकसिणो // 65 'चरम' ति-द्विचरमस्थितिखण्डाचरम स्थितिखण्डं स्थित्यपेक्षयाऽसंख्येयगुणम् / तथा तस्य चरमखण्डस्य यत्प्रदेशाग्रं तदुदयावलिकागतं मुक्त्वा शेष परस्थाने परप्रकृतिषु / अनुसमयम्-प्रतिसमयम् असंख्येयगुणनया श्रेण्या प्रक्षिपति / तद्यथा-प्रथमसमये स्तोकम्, द्वितीयसमयेऽसंख्येयगुणम्, तृतीयसमयेऽसंख्येयगुणम्। एवं यावच्चरमसमयः / एवममुना प्रकारेण परप्रकृतौ प्रक्षिप्यमाणानां प्रकृतीनाम्। अपिः सम्भावने / चरमसमये यः कृत्स्नसंक्रमो भवति स सर्वसंक्रमः। एतेन सर्वसंक्रमस्य लक्षणं प्रतिपादितं द्रष्टव्यम्। ___ सम्प्रति वेदकसम्यक्त्वादीनामुद्वलनासंक्रमकारकानाहएवं मिच्छद्दिट्ठि-स्स वेयगं मीसगं ततो पच्छा। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 27 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम एगिंदियस्स सुरदुग-मओ स वेउव्विनिरयदुर्ग / / 66|| 'एवं' ति-अष्टाविंशतिसत्कर्मा मिथ्यादृष्टिः प्रथमत एवमुपदर्शितेन प्रकारेण सम्यक्त्वमुद्वलयति, ततः सम्यग्मिथ्यात्वम्। तथा एकेन्द्रियाहारकसप्तकरहिता या नामकर्मणः पश्चनवतिप्रकृतयस्तत्सत्कर्मा देवगतिदेवानुपूर्यों पूर्वोक्तेन विधिना युगपदुद्रलयति ततोऽनन्तरं वैक्रियसप्तकं नरकद्विकं च युगपदुद्बलयति। सुहुमतसेगो उत्तम-मओ य नरदुगमहानियट्टिम्मि। छत्तीसाए नियगे, संजोयणदिट्ठिजुयले य॥६७।। 'सुहुम' त्ति-सूक्ष्मत्रसस्तैजस्कायिको वायुकायिकश्च / उत्तम गोत्रमुच्चेगर्गोत्रम् / प्रथमतः पूर्वोक्तेन विधिनोबलयति। ततो नरद्विकंमनुजगतिमनुजानुपूर्वीलक्षणम। तदेवं मिथ्यादृष्टरूदलना प्रतिपादिता / / सम्प्रति सम्यदृष्टः प्रतिपाद्यत-'अहानियट्टिम्मि छत्तीसाए' ति अथशब्दोऽधिकारान्तरसूचकः / किमिदमधिकारान्तरमिति चेदुच्यते-प्राक्तनीना प्रकृतीनामुद्बलना पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेन भवति यथायोग मिथ्यादृष्टेश्व, वक्ष्यमाणाना चान्तर्मुहूर्तेन कालेन सम्यग्दृष्टीनां चेत्यधिकारान्तरता। अनिवृत्तावनिवृत्तबादरसम्पराये षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामुदलना। एतदुक्तं भवति-अनिवृत्तिबादरसम्परायःक्षपकः स्त्यानद्धित्रिकनामत्रयोदशकाप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणकषायाष्टकनवनोकषायसंज्वलनक्रोधमानमायालक्षणाः षट्त्रिंशत्प्रकृतीः स्वस्वक्षपणकालेऽन्तर्मुहूतेन कालेनोद्वलयति / 'नियगे' इत्यादि, निजके-आत्मीये क्षपकेस्वक्षपके, अविरतसम्यग्दृष्ट्यावित्यर्थः। संयोजनदृष्टियुगले च। अत्र षष्ठ्यर्थे सप्तमी, संयोजनानामनन्तानुबन्धिनां दृष्टियुगलस्य च मिथ्यात्वसम्यमिथ्यात्वयोश्च पूर्वोक्तविधिनोदलनाऽन्तर्मुहूर्तेन कालेनावगन्तव्या। तदेवमुद्वलनासंक्रम उक्तः। सम्प्रति विध्यातसंक्रमस्य लक्षणगाहजासि न बंधो गुणभव-पच्चयओ तासि होइ विभाओ। अंगुलअसंखभागो, ववहारो तेण सेसस्स॥६८|| 'जासि' त्ति-यासा प्रकृतीनां गुणप्रत्ययतो भवप्रत्ययतो वा बन्धो न भवति तासां विध्यातसंक्रमोऽवसेयः। कास्ता भवप्रत्ययतो गुणप्रत्ययतो वा बन्धनायान्तीति चेदुच्यते-इह या मिथ्यादृष्टि-गुणस्थानान्ताः षोडश प्रकृतयस्तासां सासादनादिषु गुणप्रत्ययतो बन्धो न भवति / सासादनान्तानां पञ्चविंशतिप्रकृतीनां सभ्यग्मिथ्यादृष्ट्यादिषु, अविरतसम्यगदृष्ट्यन्तानां दशानां दशविरतादिषु, देशविरतान्तानां च चतसृणां प्रमत्तादिषु, प्रमत्तान्तानां षण्णमप्रमत्तादिषु, गुणप्रत्ययतो बन्धो न भवति / ततस्ता-सां तत्र तत्र विध्यातसंक्रमः प्रवर्तते। तथा वैक्रियसप्तकदेवद्विकनरकद्विकैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातिस्थावर सूक्ष्मसाधारणापर्याप्ताऽऽतपलक्षणानां विंशतिप्रकृतीनां नैरयिका मिथ्यात्वादिरूपे हेतौ विद्यमानेऽपि भवप्रत्ययतो बन्धका न भवन्ति / नरकद्विकदेवद्विकवैक्रियसप्तकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मापर्याप्तासाधारणानां सप्तदशप्रकृतीना समस्ता अपि देवा भवप्रत्ययतो बन्धका नोपजायन्ते। एकेन्द्रियजात्यातपस्थावरनामामपितु सनत्कुमारादयः। संहननषट्क- / समचतुरस्त्रवर्जसंस्थानपशकतपुंसकवेदमनुजद्विकौदारिक सप्तकतिर्यगेकान्तयोग्यस्थावरादिप्रकृतिदशकदुर्भगादित्रिकनीचैर्गोत्राप्रशस्तविहायो-गतिप्रकृतीनां त्वसंख्येयवर्षायुषः / एवं यस्य यत् यत् कर्म भवप्रत्ययतो गुणप्रत्ययतो वा न बन्धमायाति तत्तत्तस्य तस्य विध्यातसंक्रमयोग्यं वेदितव्यम् / दलिकप्रमाणनिरूपणार्थमिदमाह'अंगुले' त्यादि यावत्प्रमाणं कर्मदलिकं प्रथमसमये विध्यातसंक्रमेण परप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते, तेन मानेन शेषस्यदलिकस्यापहारे क्रियमाणेडगुलस्यासंख्येयतमेन भागेनापहारो भवति। इयमत्र भावनायावत्प्रमाणं प्रथमसमये कर्मदलिक विध्यातसंक्रमेण प्रकृत्यन्तरे प्रक्षिप्यते, तावत्प्रमाणैः खण्डः शेषं सर्वमपि तत्प्रकृतिगतं दलिकमपहियमाणमडगुलमात्रस्य क्षेत्रस्यासंख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्संख्याकैरपहियते इदं क्षेत्रतो निरूपणम्। कालतस्त्वसंख्येयाभिरूत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहारः। अयं च विध्यातसंक्रमः प्रायो यथाप्रवृत्तसंक्रमावसाने वेदितव्यः। (गुणसंक्रमस्य लक्षणं गुणसंक्रम' शब्दे तृतीयभागे 130 पृष्ठे गतम्) सम्प्रति यथाप्रवृत्तसंक्रामस्य लक्षणं प्रतिपादयतिबंधे अहापवत्तो, परित्तिओवा अबंधे वि॥६६॥ 'बंधे' इत्यादि, ध्रुवबन्धिनीनां प्रकृतीनां बन्धे सति यथाप्रवृत्त संक्रमः प्रवर्तते / 'परितिओ वा इति,' 'परि' त्ति अनेन परावर्तमानाः प्रकतय उच्यन्ते। तासामवन्धेऽपि आस्तां बन्धेइत्यपिशब्दार्थः, यथाप्रवृत्तसंक्रमो भवति / इयमत्र भावनासर्वेषामपि संसारस्थानमसुमतां ध्रुवबन्धिनीनां बन्धे परावर्तमानप्रकृतीनां तु स्वस्वभवबन्धयोग्यानां बन्धेऽबन्धे वा यथाप्रवृत्तसंक्रमो भवति। सांप्रतमेतैरवोद्वलनासंक्रमविध्यातसंक्रमगुणसंक्रमयथाप्रवृत्तसंक्रमैरपहारकाल स्याल्पबहुत्वमभिधीयतेथोवोवहारकालो, गुणसंकमणेण संखगुणणाए। सेसस्स हापवत्ते, विज्झाए उव्वलणनामे / / 7 / / 'थोवो' त्ति-उद्वलनासंक्रमाभिधानावसरे यत्प्रागभिहितं चरमखण्ड तच्छेषमित्युच्यते। तस्य शेषस्य यदि गुणसंक्रममानेनापहारः क्रियते, ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रेण कालेन सकलनपि तदपहियते। ततो गुणसंक्रमेणापहारकालः सर्वस्तोकः / ततो यथाप्रवृत्तसंक्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः / यतस्तदेव चरमखण्ड चरमखण्डयदि यथा प्रवृत्तसंक्रमेणापहियते तर्हि पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेनापहियते / ततो विध्यातसंक्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः। यतस्तदेव चरमखण्डं यदि विध्यातसंक्रमेणापहियते ततोऽसंख्येयाभिरूत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते। ततोऽप्युद्वलनासंक्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः / तथाहितदेव चरमखण्ड द्विचरमस्थितिखण्डस्य चरमसमये यत्परप्रकृती प्रक्षिप्यते तेन मानेन चेदपहियते, ततोऽतिप्रभूताभिरसंख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते / ततः पाश्चात्यादयमुद्वलनासंक्रमेणापहारकालोऽसंख्येयगुणः। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 28 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम इह प्राग्यथाप्रवृत्तसंक्रमस्य कालो नोक्तः, उदलनासक्र मेऽपि यद् द्विचरम स्थितिखण्ड तस्य चरमसमये स्वस्था ने यत्कर्मदलिकं प्रक्षिप्यते तेन मानेन शेषस्य चर मस्थितिखण्डस्यापहारकालो नोक्तस्ततस्तंत्रि रूपणार्थमाहपल्लासंखियभागेण-हापवत्तेण सेसगऽवहारो। उव्वलगेण वि थियुगो, अणुइनाए उजं उदए / / 71 / / 'पल्ल' त्ति-उदलनासंक्रमे यच्चरमं स्थितिखण्ड तस्य यदि यथाप्रवृत्तसंक्रममानेनापहारः क्रियते, तर्हि पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेन निःशेषतोऽपहारो भवति। उद्वलनासंक्रमेणापि द्विचरमस्थितिखण्डकस्य चरमसमये यत्स्वस्थाने प्रक्षिप्यते दलिक तेन मानेन चरमस्थितिखण्डस्यापहारकाल: पल्योपमासंख्येयभागलक्षणो वेदितव्यः / तत एती द्वावपि तुल्यौ / इहान्योऽपि षष्ठः स्तिबुकसंक्रमाऽस्ति, पर नासौ राक्रमकरणे सम्बध्यते करणलक्षणासम्भवात्। करणं हि सला वीर्यमुच्यते / अथ च लेश्यातीतोऽपि भगवानयोगिकेवली द्विधरमसमये द्विसप्ततिप्रकृतीः स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति / अपि च स्तिबुकसंक्रमेण संक्रान्तं दलिक न सर्वथा पतद्ग्रहप्रकृतिरूपतया परिणमते, ततो नासौ संक्रमे संबध्यते। परमेषोऽपि संक्रम इति संक्रमप्रस्तावातल्लक्षणनिरूपणार्थमाह - 'पिबुगो' इत्यादि अनुदीर्णायाअनुदयप्राप्तायाः सत्कं यत्कर्मदलिकं सजातीयप्रकृतावुदयप्राप्तायां समानकालस्थिती संक्रगयति संक्रमय्य चानुभवति, यथा मनुजगतावुदयप्राप्तायां शेष गतित्रयम, एकेन्द्रियजातौ जातिचतुष्यमित्यादि स स्तिबुकसंक्रमः / एष एव च प्रदेशानुभवः / तदेवमुक्त लक्षण भेदश्च। सम्प्रति साधनादिप्ररूपणा कर्तव्या। तत्र मूलप्रकृतीना परस्परं संक्रमो न भवति, तत उतरप्रकृतीनामेव साधनादिप्ररूपणार्थमाहधुवसंकमअजहन्नो, ऽणुकोसो तासि वा विवजित्तु / आवरणनवगविग्घं, ओरालियसत्तगं चेव / / 72 / / साइयमाइ चउद्धा, सेसविगप्पा य सेसगाणं च। सव्वविगप्पा नेया, साई अधुवा पएसम्मि।।७३।। 'धुवसंकम' ति-प्रागुक्तानां ध्रुवसत्कर्मणा षड्रिंशत्युत्तरशतसंख्यानामजघन्यः प्रदेशसंक्रमश्चतुर्धाचतुष्प्रकारः। तद्यथा-सादिरनादिधुवोऽध्रुवश्च / तत्र क्षपितकर्माशो वक्ष्यमाणलक्षणः क्षपणार्थमभ्युद्यतो ध्रुवसत्कर्मप्रकृतीनां सर्वासामपि जघन्यं प्रदेशसंक्रमं करोति, रा च सादिरध्रुवश्च। ततोऽन्यः सर्वोऽप्यजधन्यः। सचापशमश्रेण्या बन्धव्यवच्छेदे सति सर्वासामपि प्रकृतीना न भवति. ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ साऽऽदिः, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / ध्रुवाध्रुवावभव्यभव्यापेक्षया / अनुत्कृष्टोऽपि प्रदेशसंक्रमो ध्रुवसत्कर्मप्रकृतीनां चतुर्धा / किं सर्वासा त्याह-आवरणनवकं ज्ञानावरणापक्षकदर्शनावरणचतुष्टयलक्षणम्, तथाऽन्तरायपञ्चकमौदारिकसप्तकं च वर्जयित्वा शेषस्य पश्चोत्तरप्रकृतिशतस्य / तथाहि- सर्वासामपि प्रकृतीनां गुणितकर्माशे वक्ष्यमाणलक्षणे क्षपणार्थमभ्युद्यते उत्कष्टः प्रदेशसंक्रमः प्राप्यते. नान्यत्र / ततोऽसौ सादिः / तरमादन्यः सर्वोऽप्यनुत्कृष्टः स चोपशमश्रेण्यां व्यवच्छिद्यते, ततः प्रतिपाते च भवति, ततोऽसौ साऽऽदिः-तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादिः / धुवाधुवावभव्यभव्यापेक्षया / 'सेसे' त्यादि शेषविकल्पाः पञ्चत्तरशतस्य जघन्य उत्कृष्टश्च ज्ञानावरणीयाोकविंशतिप्रकृतीनां जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टाः सादयोऽध्रुवाश्च / तत्र पश्चोत्तरशतस्य जघन्य उत्कृष्टश्च साद्यधुवतयाँ भावित एव ज्ञानावरणीयादीनां चोत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो गुणितकर्माश मिथ्यादृष्टौ कदाचिल्लभ्यते, शेषकालं चनुत्कृष्टः / तत एतौ द्वावपि साद्यध्रुवौ / जघन्यस्तु साद्यध्रुवतया भावित एव। शेषप्रकृतीनां च सर्वेऽप्युत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्याजघन्यविकल्पा अध्रुवसत्कमत्वात् मिथ्यात्वध्रुवसत्कर्मणोऽपि सदैव पतद्ग्रहाप्राप्तींचैगोत्रसातासातवेदनीयानां तु परावर्तमानत्वात् सादयोऽध्रुवाश्चावगन्तव्याः / तदेवं कृता साद्यनादिप्ररूपणा। साम्प्रतमुत्कृष्टप्रदेशनंक्रमस्वामित्वमभिधातव्यम्। तच्च गुणितकार्गशे लभ्यत इति तनिरूपणार्थमाहजो बायरतसकाले, णूणं कम्मट्टिइं तु पुढवीए / बायर (रि) पज्जत्ताप-जत्तगदीहेयरद्धासु // 74 / / जोगकसा उक्कोसो, बहुसो निच्चमवि आउबंधं व। जोगज्जपणेणुवरि-लठिइनिसेगं बहु किच्चा / / 7 / / 'जो बायर' ति-इह द्विधा त्रसाः-सूक्ष्माः ,बादरश्च / तत्र बादरा द्वीन्दियादयः, सूक्ष्भास्तेजोवायुकायिकाः। तत्र सूक्ष्मत्रसव्यवच्छेदार्थ बादरग्रहणम् / बादरत्रसानां द्वीन्द्रियादीनां यः कायस्थितिकालः पूर्वकोटीपृथक्त्वाभ्यधिकद्विसहस्रसागरोपमप्रमाणः, तेनोनां कर्मस्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां यावत् पृथिव्यां बादरे यादरपृथिवीकायभवेषु स्थित्वा / कथं स्थित्वेत्यत आह- ‘पञ्जत्तापजत्तगदीहेयरद्धासु' त्ति दीर्धेतराऽद्धाभ्यां पर्याप्तापर्याप्तयोर्यथासंख्येन योजना। ततोऽयमर्थःदीर्घाऽद्धं पर्याप्तभवेषु, इतराऽर्द्ध स्तकाद्धमपर्याप्त भवषु / प्रभूतेषु पर्याप्तभवेषु स्तोकेषु चापर्याप्तभवेषु रिथत्वेत्यर्थः / तथा बहुशोऽनेकवारम् / योगकषाोत्कृष्ट उत्कृष्टषु योगस्थानेषु उत्कृष्टेषु च काषायिकेषु संक्लेशपरिणामेषु वर्तित्वा / इह शेषेक न्द्रियेभ्यो बादरपृथिवीकायस्य प्रभूतमायुस्तेनाव्यवच्छिन्नं तस्य प्रभूतकर्मपुगलोपादानम् / बलवत्तया च तस्यातीव वेदनासहिष्णुत्वम् / तेन तस्य प्रभूतकर्मपुदलपरिसाटो न भवतीति बादरपृथिवीकारिकग्रहणम् / अपर्याप्तभवग्रहणं च परिपूर्णकायस्थितिपरिग्रहार्थम् / तेषां चापर्याप्तकभवानां स्तोकानां पर्याप्तकभवानां च प्रभूतानां ग्रहणं प्रभूतकर्मपुद्रलपरिसादाभावप्राप्त्यर्थम् अन्यथा हि निरन्तरमुत्पद्यमानम्रियमाणेषु बहवः पुद्गलाः परिसटन्ति। नच तेन प्रयोजनम् उत्कृष्टषु च योगस्थानेषु वर्तमानः प्रभूतं कर्मदलिकमादते, उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामश्चोत्कृष्टां स्थिति बध्नाति प्रभूतां चोद्वर्तयति स्तोकं चापवर्तयति, अतो योगकषायोत्कृष्टग्रहणम्। 'नियमि' त्यादि, नित्यं सर्वकाल भवे भवे आयुर्वन्धकाले जघन्ये योगे वर्तमानः-आयुर्वन्धं कृत्वा / उत्कृष्ट हि आयुःप्रायोग्ये यंगे वर्तमानः प्रभूतानायु:-पुदगलान् आदते, तथा स्वभाव्याच्च ज्ञानावरणीयस्य Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 26 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम प्रभूतान् पुद्गलान् परिसाटयति / न च तेन प्रयोजनम्, अतो जघन्ययोगग्रहणम् / तथोपरितनीषु स्थितिषु निषेकं कर्मदलिकन्यासरूपं बहु स्वभूमिकानुसारणातिशयेन प्रभूतं कृत्वा। एवं बादरपृथ्वीकायिकेषु मध्ये पूर्वकाटिपृथक्त्वाभ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयन्यूनाः सप्ततिसागरोपमकोटीकोटी: संसृत्य ततो विनिर्गच्छति, विनिर्गत्य चबादरत्रसकायेषु द्वीन्द्रियादिषु मध्ये समुत्पद्यते। बायरतसेसु तक्का-लमेवमंते य सत्तमखिईए। सव्वलहुं पज्जत्तो, जोगकसायाहिओ बहुसो॥७६|| 'बायर' त्ति-एवं पूर्वोक्तेन विधिना- “पज्जत्तापज्जत्तग-दीहेयरद्धासु / / जोगकसाउनोसो, बहुसो निसमवि आउबन्धं च। जोगजहण्णणुवरिलटिइनिसेग बहु किच्चा / / 1 / / " इत्येवरूपेण बादत्रसेषु तत्काल बादरत्रसकायस्थितिकालं पूर्वकोटिपृथक्त्वाभ्यधिकसागरोपमसहस्रदयप्रमाणं परिभ्रम्य यावतो वारन् सप्तमी नरकपृथिवीं गन्तुं योग्यो भवति तावतो वारान गत्वा अन्तिम सप्तमपृथिवीनारकभवे वर्तमानः। इह दीर्घजीवित्वं योगकषायोत्कटता च लभ्यत इति यावत्सम्भवसप्तमनरकपृथ्वीगमनग्रहणमा तथा सप्तमपृथ्वीनारकभवे सर्वलघुपर्याप्तः सर्वेभ्योऽप्यन्येभ्यो नारके कभ्यः शीघ्र पर्याप्तभावमुपगतः / इहापर्याप्तापेक्षया पर्याप्तस्य योगोऽसंख्येयगुणो भवति। तथा च सति तस्यातीव प्रभूतकर्मपुग़लोपादानसम्भवः। तेन चेह प्रयोजनमिति सर्वलघुपर्याप्त इत्युक्तम्। बहुशश्चानेकवारं च तस्मिन् भवे वर्तमानो योगकषायधिक उत्कृष्टानियोगस्थानानि उत्कृष्टांश्च काषायिकान् परिणामविशेषान् गच्छन्। जोगजवमज्झ उवरिं, मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे / तिचरिमदुचरिमसमए, पूरित्तु कसायउक्कस्सं // 77 / / जोगुकोसं चरिमदु-चरिमे समए य चरिमसमयम्मि। संपुण्णगुणियकम्मो, पगयं तेणेह सामित्ते / / 78|| 'जोग' त्ति-योगयवमध्यस्योपरि अष्टसामायिकानां योगस्थानानामुपरीत्यर्थः / अन्तर्मुहूर्त कालं यावत् स्थित्वा जीवितावसानेऽन्तर्मुहूर्ते आयुषः शेष। एतदुक्तं भवति- अन्तर्मुहूर्ताविशेषे आयुषि योगयवमध्यस्योपरि असंख्येयगुणवृद्ध्याऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् प्रवर्धमानो भूत्वा / ततः किमित्याह-'तिचरिमें त्यादि त्रय-श्वरमा यस्मात्स त्रिचरमः यत आरभ्यान्तिमःसमयस्तृतीयो भवति; स त्रिचरम इत्यर्थः / तस्मिन् भवस्य / विचरमे द्विचरमे च समये वर्तमान उत्कृष्ट काषायिक संक्लेशस्थान पूरयित्वा चरमे द्विचरमे च समये योगस्थानमपि चोत्कृष्ट पूरयित्वा / इहोत्कृष्टो योग उत्कृष्टश्च संक्लेशो युगपदेकमेव समयं यावत् प्राप्यते, नाधिकमिति विषम्समयतया उत्कृष्टयोगोत्कृष्टकषायस्थानग्रहणम् / त्रिचरमे द्विचरम च समये उत्कृष्टसंक्लेशग्रहणं प्रभूतोद्वर्तनास्वल्पापवर्तनाभावनार्थ द्विचरमे चरभे च समये उत्कृष्टयोगग्रहणं परिपूर्णप्रदेशोपचयसम्भवार्थम / स इत्थंभूतो नारकभवस्य चरमसमये वर्तमानः सम्पूर्णगुणितकर्माशो भवति, तेन च सम्पूर्णगुणितकर्माशेन इहोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमस्वामित्वे प्रकृतमधिकारः / तदेवमुक्तो गुणितकर्माशः। सम्प्रति स्वामित्वमभिधीयते तत्तो उव्वट्टित्ता, आवलिगासमयतब्भवत्थस्स। आवरणविग्घचोद्दस-गोरालियसत्त उक्कोसो।।७।। 'तत्तो' ति-स गुणितकशिस्ततः सप्तमपृथ्वीरूपान्नरकादुवृत्य पर्याप्तपशेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्पन्नस्ततस्तद्भवस्थस्य तस्मिन् पर्याप्तसज्ञिपशेन्द्रियभव तिष्ठतः प्रथमावलिकाया उपरितने चरमे समये ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपञ्चकौदारिकसप्तकलक्षणानामेकविंशतिप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति। एतासां हि कर्मप्रकृतीनां नारकमवचरमसमये उत्कृष्टयोगवशात् प्रभूतं कर्मदलिकमात्रम्। तच बन्धावलिकायामतीतायां संक्रमयति, नान्यथा। अन्यत्र चैतावत् प्रभूतं कर्मदलिक न प्राप्यत इति 'आवलिगासमयतब्भवत्थस्स' इत्युपात्तम्। कम्मचउक्के असुभा-ण बज्झमाणीण सुहुसरागते / संछोभणम्मि नियगे,चउवीसाए नियट्टिस्स // 80| 'कम्मचउके' त्ति-कर्मचतुष्के दर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रलक्षणेया अशुभाः सूक्ष्मसम्परायावस्थायामबध्यमानाः प्रकृतयो निद्राद्विकासातवेदनीयप्रथमवर्जसंस्थानप्रथमवर्जसंहननाशुभवर्णादिनवकोपघाताप्रशस्तविहायोगत्यपर्याप्तास्थिरासुभगदुर्भगदुःखरानादेयायशः कीर्तिनीचैर्गोत्रलक्षणा द्वात्रिंशत्प्रकृतयस्तासा गुणितकशिस्य क्षपकस्य सूक्ष्मसम्परायस्यान्ते चरमसमये उत्कृष्टःप्रदेशसंक्रमो भवति / तथाऽनिवृत्तिबादरस्य गुणितकर्माशस्य क्षपकस्य मध्यमकषायाष्टकस्त्यानर्द्धित्रिकतिर्यग्द्विकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिसूक्ष्मसाधारणनो-कषायषट्करूपाणां चतुर्विशतिप्रकृतीनाम् आत्मीये आत्मीये चरमसंक्षोभे चरमसंक्रमे उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। तत्तो अणंतरागय-समयादुक्कस्स सायबंधद्धं / बंधिय असायबंधा, लिगंतसमयम्मि सायस्स / / 1 / / 'तत्तो' ति ततो नरकभवादनन्तरभवे समागतः प्रथमसमयादारभ्य सातवेदनीयमुत्कृष्टां बन्धाऽद्धाम् ; उत्कृष्ट बन्धकालं यावदित्यर्थः। बवा असातवेदनीय बझुमारभूते। ततोऽसातवेदनीयस्य बन्धावलिकान्तसमये सातवेदनीयं सकलमपि बन्धावलिकातीतं भवतीतिकृत्वा तस्मिन् समयेऽसातवेदनीये बध्यमाने सातं यथा-प्रवृत्तसंक्रमे संक्रमयतः सातस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। संछोभणाऍ दोण्हं, मोहाणं वेयगस्स खणसेसे। उप्पाइय सम्मत्तं, मिच्छत्तगए तमतमाए।।८२ 'संछोभणाए'त्ति-क्षपकस्य द्वयोर्मोहनीययोमिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वरूपयोरात्मीयात्मीयचरमसक्षोभे सर्वसंक्रमेणोत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति / तथा क्षणशेषेऽन्तर्मुहूर्तावशेष आयुषि तमस्तमाऽभिधानायां सप्तम - पृथिव्या वर्तमान औपशिनिक सम्यक्त्वमुत्पाद्य दीर्घेण चगुणसंक्रमकालेन वेदकसम्यक्त्वपुज समापूर्य सम्यक्त्वात् प्रतिपतितो मिथ्यात्वं च प्रतिपद्य तत्प्रथमसमय एव वेदकसम्यक्त्वस्य मिथ्यात्वे उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमं करोति। भिन्नमुहूत्ते सेसे, तच्चरमावस्सगाणि किच्चेत्थ। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 30 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम संजोयणा विसंजो-यगस्स संछोभणा एसिं॥३॥ 'भिन्नमुहुने' त्ति-सगुणितकर्माशः सप्तमपृथिव्यां वर्तमानो भिन्नमुहुर्ताविशेषे आयुषि तस्मिन् भवे यानि चरमावश्यकानि- “जोगजवमज्डाउवरिं, मुहुत्तमच्छित्तु जीवियवसाणे। तिचरिमदुचरिमसमए, पूरितु कसायउक्कस्सं / / 1 / / " इत्यादिलक्षणानि तानि कृत्वा तस्याश्च सप्तमपृथिव्या उद्धृत्य सम्यक्त्वं चोत्पाद्य वेदकसम्यग्दृष्टि: सन् संयोजनान् अनन्तानुबन्धिनो विसंयोजयति। विसंयोजना क्षपणा। तत एषामनन्तानुबन्धिनां चरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमेणोत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। ईसाणागथपुरिस-स्स इत्थियाएय अट्ठवासाए। मासपुहुत्तब्भहिए, नपुंसगे सव्यसंकमणे ||4|| 'ईसाणागय' त्ति-ईशानदेवो गुणितकर्माशः संक्लेशपरिणामेनेकेन्द्रियप्रायोग्यं वध्नन नपुंसकवेदं भूयो भूयो बद्ध्वा तत् ईशानाच्च्युतः सन स्त्री वा पुरूषो वा जातः / ततो मासपृथक्त्वाभ्यधिकेष्वष्टसु वर्षेष्वतिक्रान्तेषु क्षपणायोद्यतते। तस्य नपुंसकवेदं क्षपयतश्वरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमण नपुंसकवेदस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। इत्थीऍ भोगभूमिसु,जीवियवासाण संखियाणि तओ। हस्सठिई देवत्ता, सव्वलहुंसव्वसंछा।।८।। 'इत्थीए'त्ति-भोगभूमिषु भूयो भूयोऽसंख्येयवर्षाणि यावत् स्त्रीवेदं बवा ततः पल्योपमासंख्येयभागे गते सति अकालमृत्युना मृत्वा हस्वस्थिति दशवर्षसहस्रप्रमाणा देवायुषो वद्ध्वा देवत्वेनोत्पन्नः। तत्रापि तमेव स्त्रीवेदमापूर्य स्वायुःपर्यन्ते मनुजेषु मध्येऽन्यतरवेदसहितो जातः / ततो लघुशीघ्र क्षपणायोद्यतः। ततः इ 'इत्थीए' ति तस्य स्त्रीवेदस्य क्षपणसमये-चरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमेणोत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो भवति / इहैवमेव स्त्रीवेदस्योत्कृष्टमापूरणमुत्कृष्टश्च प्रदेशसंक्रमः केवलज्ञानेनोपलब्धो नान्यथेत्येषेव युक्तिस्त्रानुसतव्या, न युक्त्यन्तराणि युक्त्यन्तराणां चिरन्तनग्रन्थेषु अदर्शनतो निर्मूलतयाऽन्यथाऽपि कर्तुं शक्यत्वात् / एवमुत्तरत्रापि यथायोग तथैव केलज्ञानेनोपलम्भादित्युत्तरमनुसरणीयम्। वरिसवरित्थिं पूरिय, सम्मत्तमसंखवासियं लहियं / गंता मिच्छत्तमओ, जहन्नदेवट्ठिई भोच्चा / / 6 / / 'वारेसवर' ति-वर्षवरी नपुंसकवेदः तमीशानदेवलोके प्रभूतकालमापूर्य भूयो भूयो बन्धेन दलिकान्तरसंक्रमणेन च स्वायुः क्षये ततश्च्युत्वा संख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समागत्य पुनरसंख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः / तत्रासंख्येयवर्षाणि यावत् स्त्रीवेदमापूर्य ततोऽसंख्येयवर्षाणि यावत् सम्यक्त्वं लब्ध्वा-आस्वाद्य तद्धेतुकं च पुरुषवेदं तावन्ति वर्षाणि यावत् बध्नन तत्र स्त्रीवेदनपुंसकवेदयोर्दलिक निरन्तरं संक्रमयति / ततः पल्योपमासंख्येयभागमात्र सर्वायुःप्रमाणं जीवित्वा पर्यन्ते च मिथ्यात्वमासाद्य ततो जघन्यस्थितिषु दशवर्षसहस्रप्रमाणस्थितिषु देवेषु मध्ये समुत्पन्नः / तत्र समुत्पन्नः सन अन्तर्मुहुर्तेन कालेन सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते। आगंतु लहुं पुरिसं, संछुभमाणस्स पुरिसवेयस्स। तस्सेव सगे कोह-स्समाणमायाणमविकसिणो।।७।। 'आगंतु' ति-ततो देवभवाच्च्युत्त्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नस्ततो माससप्तकाभ्यधिकेष्वष्टसु वर्षेष्वतिक्रान्तेषु लघुशीघ्रं क्षपणायोद्यतते। केवलं बन्धव्यवच्छेदादर्वाक् आवलिकाद्विकेन कालेन यद्बद्ध पुरूषवेददलिकं तदतीव स्तोकमितिकृत्वा यत्परित्यज्य शेषस्य चरमसंक्षोभ उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो वेदितव्यः / तथा तस्यैव पुरूषवेदोत्कृष्टप्रदेशसंक्रमस्वामिनःसंज्वलक्रोधस्य संसारे परिभ्रमता उपचितस्य क्षपणकाले प्रकृत्यन्तरदलिकानां गुणसंक्रमेण प्रचुरीकृतस्य स्वके आत्मीये चरमसक्षोभे उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। अत्रापि बन्धव्यवचछेदादर्वाक् आवलिकाद्विकेन कालेन यबद्ध तन्मुक्त्वा शेषस्य चरमसंक्षोभे उत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो द्रष्टव्यः। एवं मानमाययोरपि वाच्यम्। चउरूवसमित्तु खिप्पं,लोभजसाणं ससंकमस्संते! सुभधुवबंधिगनामा, णावलिगं गंतु बंधंता॥८८|| 'चउर' त्ति-अनेकभवभ्रमणेन चतुरो वारान् यावन्मोहनीयमुपशमय्य चतुर्थोपशमनानन्तरं शीघ्रमेव क्षपक श्रेणिं प्रतिपन्नस्य तस्यैव गुणितकर्माशस्य स्वसंक्रमस्यान्ते, चरमसंक्षोभे इत्यर्थः / संज्वलनलोभयशः कीयोंरूत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमो भवति / इहोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नेन सता प्रकृत्यन्तरदलिकाना प्रभूताना गुणसंक्रमेण तत्र प्रक्षेपात् द्वे अपि संज्वलनलोभयशः कीर्तिप्रकृती निरन्तरमापूर्येते, तत उपशमश्रेणिग्रहणम् / आसंसार च परिभ्रमता जन्तुना मोहनीयस्य चतुर एव वारान् यावदुपशमः क्रियते, न पञ्चममपि वारम्, ततश्चतुरूपशमय्येत्युक्तम्। तथा संज्वलनलोभस्य चरमसक्षोभोऽन्तरकरणचरमसमये द्रष्टव्यः न परतः, परतस्तस्य संक्रमाभावात् / “अन्तरकरणम्मि कए चरित्तमोहेsगुपुट्विसंक मण" इति वचनात् / यशःकीर्तिरपूर्वकरणगुणस्थानके त्रिंशत्प्रकृतिबन्धव्यवच्छेदसमयेऽवगन्तव्या, परतस्तस्याः संक्रमस्याभावात् / 'सुभे' त्यादि याः शुभध्रुवबन्धिन्यो नामप्रकृतयस्तैजससतकशुक्ललोहितहारिद्रसुरभिगन्धकषायाम्लमधुरमृदुलघुखिग्धोष्णागुरुलघुनिर्माणलक्षणा विंशतिसंख्याः तासां चतुष्कृत्वो मोहनीयोपशमानन्तर बन्धान्ता बन्धव्यवच्छेदादूर्ध्वमावलिकां गन्तुमावलिकायाः परतो यशःकीतौ प्रक्षिप्यमाणानामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो लभ्यते / इह गुणसंक्रमेण राक्रान्त प्रकृत्यन्तरदलिकमावलिकायामतीतायां सत्यामन्यत्र संक्रमणयोग्यं भवति, नान्यथेत्यत उक्तम्- "आवलियं गंतु बंधता" इति। निद्धसमा य थिरसुभा, सम्मद्दिहिस्स सुभधुवाओ वि। सुभसंघयणजुयाओ, वत्तीससयोदहिचियाओ ||6|| 'निद्वसमत्ति सिग्धलक्षणस्पर्शसमये स्थिरशुभनामनी द्रष्टव्ये। इदमुक्त भवति-यथाऽनन्तरं शुभध्रुवबन्धिनामप्रकृतीनामन्तर्गतस्य सिग्धस्पर्शस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमभावना कृता, तथैतयोरपि स्थिरशुभनाम्नोत्वगन्तव्या / एते च स्थिरशुभनामनी अध्रुवबन्धित्वात् पृथगुपात्ते / 'सम्मद्दिहिस्से' त्यादि सम्यग्दृष्टाः शुभध्रुवबन्धिन्यः पञ्चेन्द्रियजाति Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 31 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम समचतुरससंस्थानपराघाताच्छासप्रशस्तविहायोगतित्रसयादरपर्याप्तप्रत्ये कसुभगसुखरादेयलक्षणा द्वादश प्रकृतयः शुभसंहननयुता वजर्षभनाराचसंहननसहिताः वर्षभनाराचं हि देवभवे नारकभवे वा वर्तमानाः सम्यग्दृष्टयो वध्नन्ति, न मनुजतिर्यग्भवे, तत्र वर्तमानानां सम्यगदृष्टीना देवगतिप्रायोग्यबन्धसम्भवेन संहननबन्धासम्भवात् / ततो नेतत्सम्यग्दृष्टः शुभध्रुवबन्धीति पृथगुपात्तम्। तथा द्वात्रिंशदधिकसागरोपमशतचिताः / तथाहि-षट्षष्टिसागरोपमाणि यावत्सम्यक्त्वमनुपालयन एता बानाति / ततोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् सम्यग्मिथ्यात्वमनुभूय पुनरपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते। ततो भूयोऽपि सम्यक्त्वमनुभवन् षट्षष्टिसागरोपमाणि यावदेताः प्रकृतीबंध्नातीति / तदेवं द्वात्रिंशदभ्यधिकं सागरोपमशतं यावत् सम्यग्दृष्टिधुवा आपूर्य,वर्षभनाराचसंहननं तु मनुष्यभवहीनं यथासम्भवमुत्कृष्ट कालमापूर्य, ततः सम्यग्दृष्टधुंवा अपूर्वकरणगुणस्थानके बन्धव्यवच्छेदानन्तरमावलिकामात्र कालमतिक्रय यशःकीर्ती संक्रमयतस्तासामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमः, तदानी प्रकृत्यन्तरदलिकानामप्यतिप्रभूतानां गुणसंक्रमेण लब्धाना संक्रमावलिकातिक्रान्तत्वेन संक्रमसंभवात्। वजर्षभनाराचसंहननस्य तु देवभवाच्च्युतः सन् सम्यगदृष्टिदेवगतिप्रायोग्य बध्नन् आयलिकामात्र कालमतिक्रम्योत्कृष्ट प्रदेशसंक्रमे करोति। पूरित्तु पुव्वकोडी-पुहुत्तसंछोभगस्स निरयदुगं / देवगईनवंगस्स य,सगबंधंतालिगं गंतुं 1800 'पूरितु' ति-नरकद्विकम्-नरकगतिनरकानुपूर्वीलक्षणं पूर्वकोटीपृथक्त्वं यावत्पूरयित्वा, सप्तसुपूर्वकोट्यायुष्केसु तिर्यग्भवेषु भयो भूयो बढेत्यर्थः / ततोऽष्टमभवे मनुष्यो भूत्वा क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नोऽन्यत्र तन्नरकद्विकं संक्रमयन चरमसंक्षोभे सर्वसंक्रमेण तस्योत्कृष्ट प्रदेशसक्रम करोति / तथा देवगतिनवकंदेवगतिदेवानुपूर्वीवक्रियसप्तकलक्षणं यदा पूर्वकोटिपृथक्त्वं यावदापूर्याष्टमभवे क्षपक श्रेणिं प्रतिपन्नः सन् स्वकबन्धान्तात् स्वबन्धव्यवच्छेदादनन्तरमावलिकामानं कालमतिक्रम्य यशःकीर्ती प्रक्षिपति तदा तस्योत्कृष्टप्रदेशसंक्रमो भवति / तदानी हि प्रकृश्यन्तरदलिकानामपि गुणसंक्रमेण लब्धानां संक्रमावलिकातिकान्तत्वेन संक्रमः प्राप्यत इति कृत्वा। सव्वचिरं सम्मत्तं, अणुपालिय पूरइत्तु मणुयदुगं / सत्तमखिइनिग्गइए, पढमे समए नरदुगस्स।।६१|| 'सव्वचिरं' ति-सचिरं सर्वोत्कृष्ट कालमन्तर्मुहूर्तोनानि, त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणीत्यर्थः सम्यक्त्वमनुपाल्य नारकः सप्तमक्षितौ वर्तमानः सम्यक्त्वप्रत्ययं तावन्तं कालं मनुजद्विकंमनुजगतिमनुजानुपूर्वीलक्षणामापूर्यबद्ध्वा चरमऽन्तर्मुहूर्ते मिथ्यात्वं गतः। ततस्तन्निमित्तं तिर्यद्विक तस्य बध्नतो गुणितकर्माशस्य सप्तमपृथिव्याः सकाशाद्विनिर्गतस्य प्रथमसमये एव मनुजद्विकं यथा-प्रवृत्तसंक्रमेण तस्मिन् तिर्यग्द्विके बध्यमाने संक्रमयतस्तस्य मनुजद्विकस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। थावस्तज्जाआया, वुज्जोयाओ नपुंसगसमाओ। आहारगतित्थयरं, थिरसममुक्कस्स समकालं ||2|| 'थावर' ति-स्थावरनाम तथा तजातिः-स्थावरजातिःएकेन्द्रियजातिरित्यर्थः। तथा आतपनाम- उद्द्योतनाम। एताश्चतसः प्रकृतयो नपुंसकसमाः-नपुसकवेदस्येव आसामपि प्रकृतीनामुत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो, भावनीय इत्यर्थः / तथा आहारकसप्तकं तीर्थकरनाम च स्थिरसम वक्तव्यम्। केवलं तदुत्कृष्टस्वकबन्धकालं यावदापूरणीयमभिधातव्यम्। इयमत्र भावना-आहारकसप्तक तीर्थकरनाम चोत्कृष्ट स्वबन्धकालं यावंदापूर्य तत्राहारकसप्तकस्य स्वबन्धकाल उत्कृष्टोदेशोनां पूर्वकोटीं यावत्सयममनुपालयतो यावानप्रमत्तताकालस्तावान् सर्वो वेदितव्यः। तीर्थकरनाम्नश्च स्वबन्धकाल उत्कृष्टो देशोनपूर्वकोटीद्वयाभ्यधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि / तत एतावन्तं कालं यावदापूर्य क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नो यदा बन्धव्यवच्छेदादनन्तरमावलिकामात्र कालमतिक्रम्य यशः कीर्ता संक्रमयति, तदा तयोरूत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमः। चउरूवसमित्तु मोहं, मिच्छत्तगयस्स नीयबन्धंतो। उच्चागोउक्कोसो, तत्तो लहु सिज्झओ होइ॥६३|| 'चउ' ति-इह मोहोपशमं कुर्वन उचैर्गोत्रमेव बध्नाति, न नीचैर्गोत्रम्। नीचे गोत्रसत्कानि च दलिकानि गुणसंक्रमेणोचैर्गोत्रे संक्रमयति / ततश्चतुष्कृत्वो मोहोपशमग्रहणमवश्यं कर्तव्यम् / तत्र चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमयन उचैर्गोत्रं च बध्नन् तत्र नीचैर्गोत्रं गुणसंक्रमेण संक्रमयति / चतुष्कृत्वश्च मोहोपशमः किल भवद्वयेन भवति। ततस्तृतीये भवे मिथ्यात्वं गतः सन नीचैर्गोत्रं बध्नाति, तच बध्नन् तत्रोचैर्गोत्रं संक्रमयति। ततः पुनरपि सम्यक्त्वमासाद्योधैर्गोत्रं बध्नन् तत्र नीचैर्गोत्रं संक्रमयति / एवं भूयो भूय उच्चैर्गोत्र नीचैर्गोत्रं च बध्नतो नीचुर्गोत्रबन्धव्यवच्छेदानन्तरं शीघ्रमेव सिद्धि गन्तुकामस्य नीचैर्गोत्रबन्धचरमसमये उच्चैर्गोत्रस्य गुणसंक्रमेण बन्धेन चोपचितीकृतस्योत्कृष्टः प्रदेशसंक्रमो भवति। तदेवमुक्तमुत्कृष्टप्रदेशसक्रमस्वामित्वम्। सम्प्रति जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामित्वमभिधानीयम्। तच्च प्रायः क्षपितक मशि प्राप्यत इति तस्यैव स्वरूपमाहपल्लासंखियभागो-ण कम्मठिइमच्छिओ निगोएसु। सुहमे सभवियजोग्गं, जहन्नयं कटु निग्गम्म ||6|| जोग्गे ससंखवारे, सम्मत्तं लमिय देसविरयं च / अट्ठक्खुत्तो विरई, संजोयणहा य तइवारे / / 5 / / चउरूवसमित्तु मोहं, लहुं खवें तो भवे खवियकम्मो। पाएण तहिं पगयं, पडुच काई वि सविसेसं / / 66|| 'पल्ल' ति-यो जीवः पल्योपमासंख्येयभागन्यूनां कर्म स्थिति सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां यावत् पल्योपमासंख्येयभागहीनं सप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं काल यावदित्यर्थः / सूक्ष्मनिगोदेषु सूक्ष्मानन्तकाथिकेषु मध्ये उषित्वा / सूक्ष्मनिगोदा हि स्वल्पायुषी भवन्ति, ततरतेषा प्रभूतजन्ममरणभावेन वेदनानिां प्रभूतपुद्रलपरिसाट उपजायते। अपि च-सूक्ष्मनिगोदजीवानां मन्दयोगता म Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 32 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम न्दकषायत्वं च भवति / ततोऽभिनवकर्मपुद्गलोपादानमपि तेषां स्तोकतरमेव प्राप्यत इति सूक्ष्मनिगोद (जीवानां मन्दयोग) ग्रहणम् "अभवियजोगं जहन्नयं कटु निग्गम्म" ति अभव्यप्रायोग्य जघन्यम अभव्यप्रायोग्यजघन्यकल्पं प्रदेशसञ्चयं कृत्वा ततः सूक्ष्मनिगोदेभ्यो निर्गत्य योग्येषुसम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतियोग्येषु वसेषु मध्ये उत्पद्य पल्योपमासख्येयभागमध्ये संख्यातीतान् वारान् यावत् सम्यक्त्व स्वल्पकालिकी देशविरतिं च लब्ध्वा / कथ लब्ध्येति चेदुच्यतेसूक्ष्मनिगोदेभ्यो निर्गत्य बादरपृथ्वीक्रायेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततोऽन्तमुहूर्तेन कालेन विनिर्गत्य मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः / तत्राऽपि शीघ्रमेव माससप्तकानन्तरं योनिविनिर्गमनेन जातः। ततोऽष्टवार्षिकः सन संयम प्रतिपन्नः। ततो देशोनां पूर्वकोटी यावत् संयममनुपाल्य स्तोकावशेषे जीविते सति मिथ्यात्वं प्रतिपन्नस्ततो मिथ्यात्वेनैव कालगतः सन् दशवर्षसहस्रप्रमाणस्थितिषु देवेषु मध्ये देवत्वेनोपजातः। ततोऽन्तर्मुहूर्तमात्रे गते सति सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते। ततो दशवर्षसहस्राणि जीवित्वा तावन्तं च कालं सम्यक्त्वमनुपाल्य पर्यवसानावसरे मिथ्यात्वेन कालगतः सन् बादरपृथिवीकायिकेषु मध्ये समुत्पन्नः। ततोऽन्तर्मुहूर्तेन ततोऽप्युवृत्य मनुष्येषु मध्ये समुत्पद्यते / ततः पुनरपि सम्यक्त्वं वा देशविरतिं वा सर्वविरतिं वा प्रतिपद्यते / एवं देवमनुष्यभवेषु सम्यक्त्वादि गृह्णन मुक्षश्च तावद्वक्तव्यतो यावत् पल्योपमासंख्येयभागमध्ये संख्यातीतान वारान् यावत् सम्यक्त्वलाभः स्वल्पकालिका देशविरतिलामो भवति / इह यदा यदा सम्यक्त्वादिप्रतिपत्तिस्तदा तदाबहुप्रदेशाः प्रकृतीरल्पप्रदेशाः करोति। ततो बहुशः सम्यक्त्वादिप्रतिपरिग्रहणम्। एतेषु च सम्यक्त्वादियोग्येषु भवेषु मध्येऽष्टौ वारान सर्वविरति प्रतिपद्यते तावत् एव वारान, अष्टौ वारानित्यर्थः। विसंयोजनहा-अनन्तानुबन्धिविघातको भूत्वा / तथा चतुसे वारान्मोहनीयमुपशमय्य ततोऽन्यस्मिन् भवे लघुशीघ्र कर्माणि क्षपयन क्षपितकर्माश इत्यभिधीयते / एतेन च क्षपितकर्माशोह जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामित्वे चिन्त्यमाने प्रायेणबाहुल्येन प्रकृतम-धिकारः। काश्चित्पुनःप्रकृतीरधिकृत्य सविशेष भणिष्यामि। तत्र जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामित्वमाहआवरणसत्तगम्मि उ, सहोहिणा तं विणोहिजुयलम्मि। निद्दादुगंतराइय-हासचउक्के य बंधंते // 67|| 'आवरण' ति-अवधिना सह बर्तते यो जीवःतस्य अवधिज्ञानावरणरहित ज्ञानावरणचतुष्टयम, अवधिदर्शनावरणरहित दर्शना - वरणत्रयम, एतासां सप्ताना प्रकृतीनामात्मीयात्मीयबन्धव्यवच्छेदसमये यथाप्रवृत्तसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति। अवधिज्ञानामुत्पादयन प्रभूतान कर्मपुगलान् परिसाटयति स्म / तत एतासा स्वस्वबन्धव्यवच्छेदसमये स्तोका एव पुद्गलाः प्राप्यन्ते। अत्रापि च जघन्यप्रदेशसंक्रमेणाधिकारः, ततोऽवधिना राह यो वर्ततइत्युक्तम / तथा उमवधि विनाऽवधिज्ञानावधिदर्शनरहित इत्यर्थः / अवधियुगले-अवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणरूपे स्वस्वबन्धव्यवच्छेदसमये जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति। अव-धिज्ञानमवधिदर्शनं चोत्पादयतः प्रवलक्षयोपशमभावतोऽवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोरतीव रूक्षाः कर्मपुरला जायन्ते / ततो बन्धव्यवच्छेदकालेऽपि प्रभूताःपरिसटन्ति। तथा च सतिजघन्यः प्रदेशसंक्रमो न लभ्यत इति 'तं विणे'त्युक्तम्। 'निद्दे' त्यादि निद्राद्विकंनिद्राप्रचलारूपम्, अन्तरायपशक, हास्यचतुष्क हास्यरतिभयजुगुप्सालक्षणम्, एतासाभेकादशप्रकृतीनां स्वबन्धान्तसमये यथाप्रवृत्तसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति / निद्राद्विकहास्यचतुष्टययोर्बन्धव्यवच्छेदानन्तरं गुणसक्रमेण संक्रमो जायते। ततः प्रभूतं दलिक लभ्यते। अन्तरायपञ्चकस्य बन्धव्यवच्छेदानन्तरं संक्रम एव न भवति, पतद्ग्रहाप्राप्तेः, ततो वन्धान्तसमयग्रहणम्। सायस्सऽणुवसमित्ता, असायबंधणधरिमबंधंते। खवणाए लोभस्स वि, अपुव्वकरणालिगाअंते॥६८|| 'सायस्स' त्ति-अनुपशमय्यमोहनीयोपशममकृत्वा, उपशमश्रेणिमकृत्वेत्यर्थः / असातबन्धानांमध्ये यश्वरमोऽसातबन्धस्तस्यान्तिमे समये वर्तमानस्य क्षपणायोद्यतस्य सातस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति। परतो हि सातस्य पतद्ग्रहता भवति, न संक्रमः। 'खवणाएं इत्यादि मोहनीयोपशममकृत्वा क्षपणायोद्यतस्यापूर्वकरणाद्धायाः प्रथमावलिकाया अन्तसमये संज्वलनलोभस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः। परतो गुणसंक्रमे लब्धरयातिप्रभूतस्य दलिकस्य संक्रमावलिकाति-क्रान्तत्वेन संक्रमसम्भवात् जघन्यप्रदेशसंक्रमाभावः। अयरच्छावट्ठिदुर्ग, गालिय थीवेयथीणगिद्धितिगे। सगखवणहापवत्त-स्संते एमेव मिच्छत्ते ||6|| 'अयर' त्ति-सागरोपमाणा द्वे षट्षष्टी यावत्सम्यक्त्वमनुपालयन् स्त्रीवेदस्त्यानद्धिविकलक्षणाश्वतस्रः प्रकृतीलयित्वा तासा सम्बन्धि प्रभूतं कर्मदलिकं परिसाट्य कि चिच्छेषाणां सतीनां तासां क्षपणाय समभ्युद्यतस्य यथाप्रवृत्तकरणान्तिमसमये विध्यातसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति / परतोऽपूर्वकरणे गुणसंक्रमेण पभूतकर्मदलिकसंक्रमसम्भवात् जघन्यप्रदेशसंक्रमो न लभ्यत इति यथाप्रवृत्तकरणन्तसमयग्रहणम् / 'एमेव मिच्छत्त' इति एवमेव पूर्वोक्तेनैव प्रकारेण मिथ्यात्वस्य जधन्यः प्रदेशसंक्रमोऽवगन्तव्यः / तद्यथा-२ षट्षष्टी सागरोपमाणा यावत्सम्यक्त्वमनुपाल्य तावन्त काल मिथ्यात्व गालयित्वा किचिच्छेषस्य मिथ्यात्वस्य क्षपणाय समुद्यतस्य स्वकीययथाप्रवृत्तकरणान्तसमये वर्तमानस्य विध्यातसक्रमेण मिथ्याल्यस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति, परतो गुणसंक्रमः प्रवर्तते, तेन सन प्राप्यते। हस्सगुणसंकमद्धा-एँ पूरयित्ता समीससम्मत्तं / चिरसम्मत्ता मिच्छ-त्तगयस्सुव्वलणथोगो सिं॥१००।। 'हरस' ति-सम्यक्त्वमुत्पाद्य हस्वया गुणसक्रमाऽट्या स्तो Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 33 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकम ककालेन, गुणसंक्रमेणेत्यर्थः / समिश्रं सम्यक्त्वं, सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वे इत्यर्थः / मिथ्यात्वदलेन पूरयित्वा-आपूर्यचिरेण प्रभूतेन कालेन सम्यक्त्वान्मिथ्यात्वं गतस्य द्वे षट्पष्टी; सागरोपमाणा यावत्सम्यक्त्वमनुपाल्य, मिथ्यात्वं गतस्येत्यर्थः / पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेन ते सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वे उद्वलयतः स्तोके उद्वलनसंक्रमे तयोर्जधन्यः प्रदेशसंक्रमो द्विचरमखण्डस्य चरमसमये सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयोर्यद्दलिकं परस्थाने मिथ्यात्वप्रकृतिरूपे प्रक्षिप्यते स तयोर्जघन्यः प्रदेशसंक्रम इत्यर्थः। संजोयणाण चतुरूव-समित्तु संजोजइत्तु अप्पड़ / अयरच्छावहिदुर्ग, पालियसकहप्पवत्तंते॥१०१|| 'संजोयणाण' त्ति-चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमय्य, चतुष्कृत्वो मोहनीयोपशमनेन किं प्रयोजनमिति चेदुच्यते-प्रभूतपुद्गलपरिसाटः। तथाहि-चारित्रमोहनीयप्रकृतीनामुपशमं कुर्वन् स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमैः प्रभूतान् पुदलान् परिसाटयतीति। ततश्चतुष्कृत्वो मोहनीयोपशमं कृत्वा मिथ्यात्वं गच्छति। मिथ्यात्वं गतश्च सन् अल्पाद्धाम्-अल्प कालं यावत् संयोजनान् संयोज्यानन्तानुबन्धिनो बवा, तदानीं च चारित्रमोहनीयदलिक स्वल्पमेव विद्यते, चतुष्कृत्वो मोहोपशमकाले तस्य स्थितिघातादिभिर्घातितत्वात् / ततोऽनन्तानुबन्धिनो बध्नन तेषु यथाप्रवृत्तसंक्रमेण स्तोकमेव चारित्रमोहनीयदलिकं संक्रमयति / ततोऽन्तर्मुहूर्ते गते सति पुनरपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते / तच द्वे षषष्टी सागरोपमाणां यावदनुपाल्यानन्तानुबन्धिना क्षपणाय समुद्यतते / तस्य स्वकयथाप्रवृत्तकरणान्तसमये तेषाममन्तानुबन्धिनां विध्यातसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति। परतोऽपूर्वकरणे गुणसंक्रमः प्रवर्तते इति सन प्राप्यते। अट्ठकसायासाए, य असुभधुवबन्धि अत्थिरत्तिगे य। सव्वलहुं खवणाए, अहापवत्तस्स चरिमम्मि॥१०२॥ 'अट्ठ' त्ति-अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणरूपा अष्टौ कषायाः, असातवेदनीयम्, अशुभधुवबन्धिन्यः कुवर्णादिनवकोपघातरूपाः, अस्थिरत्रिकम्-अस्थिराशुभायशःकीर्तिसंज्ञम् एतासां द्वाविंशतिप्रकृतीनां कषायाष्टकरहितानाम्। 'सव्वलहुँ तिसर्वेभ्योऽन्येभ्यः शीघ्रमेव क्षपणायोस्थितस्य मासपृथक्त्वाभ्यधिकेषु अष्टसु वर्षेष्वतिक्रान्तेषु; क्षपणायोद्यतस्येत्यर्थः / अष्टौ कषायान् प्रति देशोना पूर्वकोटी यावत् संयममनुपाल्य। पञ्चसंग्रहे पुनः सर्वा अप्येताः प्रकृतीरधिकृत्य देशोनां पूर्वकोटी यावत् संयममनुपाल्येत्युक्तम्। क्षपक श्रेणिं प्रतिपन्नस्य यथाप्रवृत्तकरणचरमसमये कषायाष्टकस्य विध्यातसंक्रमेण शेषाणां यथाप्रवृतसंक्रमेण जघन्यः प्रदेशसक्रमो भवति। पुरिसे संजलणतिगे, य घोलमाणेण चरमबद्धस्स। सगअंतिमे असाए-ण समा अरई य सोगो य॥१०३।। 'पुरिसे' त्ति- 'पुरिसे' इत्यादौ षष्ठ्यर्थे सप्तमी। पुरूषवेदस्य संज्वल- | नत्रिकस्य च क्रोधमानमायारूपस्य क्षपणाय समुद्यतेन क्षपण श्रेणिं प्रतिपन्नेन स्वस्वबन्धचरसमये। 'घोलमाणेणं' ति जघन्ययोगिना यद्बद्ध दलिकं तस्य चरमसंक्षोभे जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति। तथाहि-आसां चतसृणामपि प्रकृतीना बन्धव्यवच्छदसमये समयोनावलिकाद्विकबद्धं मुक्त्वाऽन्यत् प्रदेशसत्कर्म न विद्यते / तदपि च प्रतिसमयं संक्रमेण क्षयमुपगच्छति / तावत् यावचरमसमयबद्धस्यासंख्येयो भागः शेषो भवति / ततस्तं सर्व-संक्रमेण संक्रमयतो जघन्यः प्रदेशसंक्रमः 'असाएण समा अरई य सोगो य' त्ति अरतिशोकावसातसमौ असातवेदनीयस्येवारतिशोकयोर्जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भावनीय इत्यर्थः / वेउव्विक्कारसगं, उव्वलियं बंधिऊण अप्पद्धं / जिट्ठठिई निरयाओ, उव्वट्टित्ता अबंधित्तु / / 104|| थावरगयस्स चिरउ-व्वलणो एयस्स एव उच्चस्स। मणुयदुगस्स य तेउसु, वाउसु वा सुहुमबद्धाणं / / 105|| 'वेउवि' त्ति-देवद्विकनरकद्विकवैक्रियसप्तकलक्षणं वैक्रियैकादशकम् एकेन्द्रियभवे उद्वर्तमानेनोद्वलितं पुनरपि पञ्चेन्द्रियत्वमुपागतेन सता, अल्पाऽद्धाम-अल्पकालम्, अन्तर्मुहूर्तकालं यावदित्यर्थः / बवा, ततो ज्येष्टस्थितिरूत्कृष्टस्थितिस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितिक इत्यर्थः / सप्तमनरकपृथिव्या नारको जातः / ततस्तावन्तं कालं यावत् यथायागं तद्वैक्रियैकादशकमनुभूय ततो नरकादुद्वृत्य पश्चेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्पन्नः / तत्र च तद्वैक्रियै-कादशकमबद्धा स्थावरेष्वेकेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः। तस्य चिरोद्वलनया पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेनोद्वलनया तदुद्वलयतो यत् द्विचरमखण्डस्य चरमसमये प्रकृत्यन्तरे दलिक संक्रामति, स तस्य वैक्रियेकादशकस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः। 'एयस्से' त्यादि एतस्यैवानन्तररोक्तस्य जीवस्य पूर्वोक्तेन विधिना तेजोवायुषु मध्ये समागतस्य सूक्ष्मैकेन्द्रियभवे वर्तमानेन यद्बद्धमुच्चैर्गोत्र मनुजद्विकं च-मनुजगतिमनुजानुपूर्वीलक्षणम्। ते चिरोद्वलनयोद्वलयतो द्विचरमखण्डस्य चरमसमये परप्रकृतौ यद्दलिकं संक्रामति स तयोर्जघन्यः प्रदेशसंक्रमः / इयमत्र भावना-मनुजद्विकमुच्चैर्गोत्रं च प्रथमतस्तेजोवायुभवे वर्तमानेनोद्वलितं, पुनरपि सूक्ष्मैकेन्द्रियभवमुपागतेनान्तर्मुहूर्त यावददम् / ततः पञ्चेन्द्रियभवं गत्वा सप्तमनरकपृथिव्यामुत्कृष्टस्थितिको नारको जातः / तत उद्धृत्य पद्धेन्द्रियतिर्यक्षु मध्ये समुत्पन्नः / एतावन्तं च कालमबद्ध्वा प्रदेशसंक्रमेण चानुभूय तेजोवायुषु मध्ये समागतः / तस्य मनुजद्विकोच्चेर्गोत्र चिरोद्वलनयोद्वलयतो द्विचरमखण्डस्य चरमसमये परप्रकृतौ यद्द (लिक)ल संक्रामति स तयोर्जधन्यः प्रदेशसंक्रमः / हस्सं कालं बंधिय, विरओ आहारसत्तगं गंतु / अविरइं महुब्बलंत-स्स,जा थोवउव्वलणा।।१०६।। 'हस्सं त्ति-हस्वकाल-स्तोककाल यावत् विरतोऽप्रमत्तसंयतः सन्आहारकसातकंबवा कादयपरिणतिवशात्पुनरप्यविरतिंगतः। ततोऽन्तर्मुहूर्तात्परतो महोद्वलनया चिरोद्वलनया पल्योपमासंख्येयभागप्रमाणेन कालेनोद्वलन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकम 34 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकमण योद्वलयतःसतो या स्तोको द्वलना द्विचरमखण्डस्य चरमसमये छत्तीसाएँ सुभाणं, सेढिमणारूहियसेसगविहीहिं। यत्कर्मदलिकं परप्रकृतिषु प्रक्षिप्यते, सा स्तोकोद्वलना, सा आहार- कटु जहन्नं खवणं,अपुव्वकरणालिया अंते / / 106 / / कस्य जघन्यः प्रदेशसंक्रमः। 'छत्तीसाए' ति-श्रेणिमनारूह्योपशमश्रेणिमकृत्वा शेषैर्विधिभिः तेवट्ठिसयं उदही-ण सचउपल्लाहियं अबंधित्ता। क्षपितकशिसत्कैः षट्त्रिंशत्संख्यानां शुभप्रकृतीना परन्द्रियजातिअंते णहप्पवत्तक-रणस्स उज्जोवतिरियदुगे॥१०७॥ समचतुरससंस्थानयजर्षभनाराचसंहननतेजससप्तकप्रशस्तविहायो'तेवट्ठिसयं' ति-त्रिषष्ट्यधिकमुदधिशतं सागरोपमाणां शतं चतु- गतिशुक्ललोहितहारिद्रसुरभिगन्धकषायाम्लमधुरमृदुलघुसिग्धोष्णापल्योपमाधिकं च यावत् स क्षपितकर्माशः सर्वजधन्यतिर्थरिद्वकोद गुरुलधुपराधातोच्छासत्रसादिदशकनिर्माणलक्षणाना जधन्यं प्रदेशागं द्योतसत्कर्मा उद्द्योततिर्यद्विकमबवा यथाप्रवृत्तकरणस्यान्ते चरम - कृत्वा क्षपणायोस्थितस्य क्षपितकर्माशस्यापूर्वकरणसत्कायाः प्रथमासमये उद्द्योततिर्यग्द्विकयोर्जधन्यं प्रदेशसंक्रमं करोति। कथं त्रिषष्ट्यधिक वलिकाया अन्तेचरमसमये तासां जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति / तत सागरोपमाणां शतं चतुष्पल्याधिकं च यावदबद्धेति चेदुच्यते-रा ऊध्वं तु गुणसंक्रमेण लब्धस्यातिप्रभूतस्य दलिकस्य संक्रमावलिकातिक्षपितकर्माशस्त्रिपल्योपमायुष्केषु मनुजेषु मध्ये समुत्पन्नस्तत्र देवद्वि क्रान्तत्वेन संक्रमसम्भवात् स न प्राप्यते / पञ्चसंग्रहे तु ववर्षभनाराचकमेव बध्नाति, न तिर्यग्द्विकम् नाप्युयोतम् / तत्र चान्तमुहर्ते शेप वर्जिताना शेषाणां पञ्चत्रिंशत्प्रकृतीनामेवापूर्वकरणप्रथमावलिकान्ते जघन्यः प्रदेशसंक्रम उक्तः / वर्षभनाराचसंहननस्य तु स्वबन्धसत्यायुषिसम्यक्त्वमवाप्य ततोऽप्रतिपतितसम्यक्त्व एव पल्योपम व्यवच्छेदसमये इति। स्थितिको देवो जातः / ततोऽप्यप्रतिपतितसम्यक्त्वो देवभवात् च्युत्त्वा सम्मद्दिट्ठि अजोग्गा-णसोलसण्हं पिअसुभपगईणं। मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः / ततस्तेनैवाप्रतिपतितेन सम्यक्त्वेन सहित थीवेएण सरिसगं, नवरं पढमं तिपल्लेसु॥११०।। एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिकोवेयकेषु मध्ये देवो जातः / तत्र चोत्पत्त्य 'सम्मद्दिष्टि' त्ति-सम्यग्दृष्टरयोग्यानां षोडशानामशुभप्रकृतीनां प्रथमनन्तरमन्तर्मुहूर्तादूवं मिथ्यात्वं गतः / ततोऽन्तर्मुहूर्तावशेष आयुषि वर्जसंस्थानप्रथमवर्जसंहननाप्रशस्तविहायोगतिदुर्भगदुःखरानापुनरपि सम्यक्त्वं लभते। ततो द्वेषट्षष्टी सागरोपमाणां यावन्मनुष्या देयनपुंसकवेदनीचैर्गोत्रलक्षणानां स्त्रीवेदेन सदृशं वक्तव्यम्। यथा प्राक् नुत्तरसुरादिषु सम्यक्त्वमनुपाल्य तस्याः सम्यक्त्वाऽद्धाया अन्तर्मुहूर्त स्त्रीवेदस्य जघन्यप्रदेशसंक्रमभावना कृता तथाऽत्रापि कर्तव्या। शेषे शीघ्रमेव क्षपणाय समुद्यतः / ततोऽनेन विधिना त्रिषष्ट्यधिक नवरमेतासां जघन्यप्रदेशसंक्रमस्वामी प्रथमं त्रिपल्योपमायुष्केषु मनुष्येषु सागरोपमाणां शतं चतुष्पल्याधिकंच यावत्तिर्यग्द्विकमुद्द्योतं च बन्धरहितं गध्ये समुत्पन्नी वक्तव्यः / अन्तर्मुहूर्तावशेषे चायुषि प्राप्तसम्यक्त्वः / शेष भवतीति। तथैव वक्तव्यम्। इगविगलिंदियजोग्गा, अट्ठ य पज्जत्तगेण सह तेसिं / नरतिरियाण तिपल्ल-स्संते ओरालियस्स पाउग्गा। तिरियगइसमं नवर, पंचासीउदहिसयं तु / / 108|| तित्थयरस्सय बंधा,जहन्नओ आलिगं गंतु॥१११।। 'इग' त्ति-एकेन्द्रियविकलेन्द्रिययोग्या अष्टौ याः प्रकृतयः एकद्धि 'नर' ति-नरतिरश्वा त्रिपल्योपमस्यान्ते औदारिकस्य प्रायोग्याः त्रिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरातपसूक्ष्मसाधारणलक्षणाः। तासामपर्याप्त प्रकृतयो जघन्यप्रदेशसंक्रमयोग्याः। इयमत्र भावनायो जीवः सकलान्यकसहितानां नवानां प्रकृतीनां तिर्यग्गतिसमंवक्तव्यम् / नवरमत्र जीवापेक्षया सर्वजघन्यौदारिकसत्कर्मा सन् त्रिपल्योपमायुष्केषु तिर्यङ्पञ्चाशीत्यधिक सागरोपमशत चतुष्पल्याधिकं यावदबखेति वक्तव्यम् / मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः, तस्यौदारिकसप्तकमनुभवतो विध्यातसंक्रमेण कथमेतावन्तं कालं यावदबन्ध इति चेदुच्यते-इह क्षपितकर्माशो परप्रकृती संक्रमयतश्च स्वायुषश्वरमसमये तस्यौदारिकसप्तकस्य जघन्य: द्वाविंशतिसागरोपमस्थितिकः षष्ठपृथिव्यां नारको जातः / तत्राप्यन्त प्रदेशसंक्रमो भवति / औदारिकस्य प्रायोग्या इत्यौदारिकसप्तकम मुहूर्तावशेषे आयुषि सम्यक्त्वं प्राप्तवान्। ततोऽप्रतिपतितसम्यक्त्व एव 'तित्थयररसे' त्यादि तीर्थकरनामकर्मणो बन्धं कुर्वता यत्प्रथमसमरे मनुष्यो जातः ततस्तेनाप्रतिपतितेन सम्यक्त्वेन देशविरतिमनुपाल्य बद्धं दलिकं तत बन्धावलिकातीत सत्यदा परप्रकृतिषु यथाप्रवृत्तसंक्रमण चतुष्पल्योपमस्थितिकः सौधर्मदेवलोकं देवो जातः / ततस्तेना संक्रमयति तदा तीर्थकरनाम्रो जघन्यः प्रदेशसंक्रमो भवति। तदेवमुक्तः प्रतिपतितेन सम्यक्त्वेन सह देवभवाच्च्युक्त्वा मनुष्यो जातः / तरिमञ्च प्रदेशसंक्रमः / तदुक्तौ च समर्थितं संक्रमकरणम् / क० प्र० ३प्रकल ! मनुष्यभवे संयममनुपाल्य ग्रेवेयकेष्वेकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिको देवो (भवाद भवान्तरं संक्रामन् किमायुः प्रकरोति इति 'आउ' शब्दे द्वितीयजातः / तत्र चोत्पत्त्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तादूर्ध्व मिथ्यात्वं गतः / ततोऽन्त- भागे 18 पृष्ठे उक्तम्।) मुहूर्तावशेष आयुषि भूयोऽपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते / ततो वे षटषष्टी , संकमण न० (संक मण) संक्रम्यते अन्यप्रकृत्यादिरूपत्या सागरोपमाणां यावत् सम्यक्त्वमनुपाल्य तरयाः राम्यक्त्वाद्धाया व्यवस्थाप्यते येन तत्संक्रमणम् / क०प्र०१ प्रक० / असत्तादेः अन्तर्मुहूर्ते शेषे क्षपणाय समुद्यतते। तदेवं पञ्चाशीत्यधिक सामरापमशत सत्तादौ क्षेपणरूपे संक्रमे, विशे०! संक्रान्ती, विओका आव। चतुष्पल्याधिकं यावत्पूर्वोक्तानां नवप्रकृतीनां बन्धाभावः। नि०चू० / संथा० आक्रमणे, आव० 4 अ० / पर्यटने, सूत्र Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकमण 35 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संका आदानपदाख्ये सूत्रकृताङ्गस्य पञ्चवशे अध्ययने, सूत्राअस्याध्ययनस्यान्तादिपदयोः संकलनात्संकलिकेति नाम कुर्वते तस्या अपि नामदिकश्चतुर्द्धा निक्षेपो विधेयः / तत्रापि द्रव्यसङ्कलिका निगडादौ भावसङ्कलना तूत्तरोत्तरविशिष्टाध्यवसायसङ्कलनमिदमेव वाऽध्ययनम्, आद्यन्तपदयोः सङ्कलनादिति। सूत्र०१ श्रु०१५ अ०।। संका स्त्री० (शङ्का) शङ्कनं शङ्का। संशयकरणे, आतु० / सन्देहे, ध० २अधि० / नि० चू० / उत्त० / व्य०1 भगवदर्हत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धम्मास्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदौर्बल्यात्सम्यगवधार्यमाणेषु संशये, आव० 6 अ० / शङ्का भगवदर्हत्प्रणीतेषु पदार्थेषु धर्मास्तिकायादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिदौर्बल्यात् सम्यगनवधार्यमाणेषु संशयः, किमेवं स्यान्नैयमिति। यदाहुः-संशयकरणं शङ्केति / सा च शङ्का द्विविधा-देशशङ्का, सर्वशङ्का च / देशशङ्का-देशविषया; जीवाद्यन्यतमपदार्थ कदेशगोचरेत्यर्थः / यथाऽस्ति जीवः केवलं सर्वगतोऽसर्वगतो वा, सप्रदेशोऽप्रदेशो वेति / सर्वशङ्का-सर्वविषया यथाऽति वा धर्मो नास्ति वेति। इयं च द्विधाऽपि शङ्का भगवदर्हत्प्रणीतप्रवचनेऽप्रत्ययरूपा सम्यक्त्वं दूषयतीत्यतीचारः। केवलागमगम्या अपि हि पदार्था अस्मदादि-प्रमाणपरीक्षानिरपेक्षा आप्तप्रणेतृकत्वान्न सन्देग्धंयोग्याः, यत्राऽपि मतिदौर्बल्यादिभिर्मोहवशात् वचन संशयो भवति तत्राऽप्य-प्रतिहतेयमर्गला। यथा श्रु० 4 अ०२ उ० / पिपीलिकामत्कुणादीनां स्फुटितस्य गमने, नि०चू० 13 उ० / संक्रम्यतेऽनेनेति संक्रमणम्। चारित्रे, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। संकमणकाल पुं० (संक्रमणकाल) अवान्तरसंक्रान्तिसमये,आ० क० 10 / संकममाण त्रि० (संक्रामत) गच्छति, स्था० 2 ठा० 4 उ० / जं० / जी० / सम्-एकीभावेन क्रामन् गच्छन् / संगच्छमाने, जी० 3 प्रतिक १अधि०१ उ०। संकमुक्किट्ठट्ठिइ स्त्री० (संक्रमोत्कृष्टस्थिति) संक्रमोत्कृष्टस्थितिभेदे, या बन्धादेव केवलादुत्कृष्टा स्थितिलभ्यते। क०प्र०२ प्रक०। पं० सं०। संकर पुं० (संकर) भिन्नजातीयानां मीलके, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। 60 / विशे० / कन्यानयनीयनगरस्य स्वनामख्याते श्रावकाणां प्रतिपन्ने राजनि, ती०५० कल्प। सांकर्ये , संकीर्णत्वे, विशे० / संमीलनशीले, ब० 4 उ०। संकीर्यत सपिण्ड्य संकरणं वा संपिण्डनं संकरः / गौणपरिग्रहे, प्रश्र०५ आश्र० द्वार। संकरगायत्ती स्त्री० (शङ्करगायत्री) रूद्रप्रतिपादिकायां गायत्र्याम्, "तन्महेशाय विद्महे वागविशुद्धाय धीमहि तन्नो रूदः प्रचोदयात्" गा०। संकरदूस न० (शङ्करदूष्य) संकर इह प्रस्तावात्तृणभरमगोमयागारादिमीलक उत्कुरूटिका इति यावत्, तत्र दूष्यवस्त्र संकरदूष्यम्। अत्यन्तनिकृष्ट निरूपयोगिनि लोकैरुत्सृष्ट वस्त्रे, उत्त०१२ अ०। संकरपुर न० (शङ्करपुर) लक्ष्मणावतीसविधे स्वनामख्याते दुर्गरक्षिते पुरे, विक्रमे 1360 संवत्सरे लक्ष्मणावतीहम्मीर श्रीसुरत्राणसमदीनः शङ्करपुरदुर्गोपयोगिपाषाणग्रहणार्थ प्रतोलीं पातयित्वा कपाटसंपुटमग्रहीत् / ती०३४ कल्प। संकरसमय पुं० (शङ्करस मय) भिन्नजातीयानां मीलकस्यैकवाक्यतायम, यथा-वाममार्गादावनाचारप्रवृत्तावपि गुप्तिकरणमिति। सूत्र०१ ध्रु० 1 अ० 1 उ० संकरसामि पुं० (शङ्करस्वामिन्) नयनमनसोरपि प्राप्यकारित्ववादिनि स्वनामख्याते दार्शनिकविदुषि, न० / सम्म० / संकरिय न० (शावर्य) परस्परानुविद्धरूपतायाम्, अने०१ अधि०। संकरिसण पुं० (शङ्कर्षण) नवमे बलदेवे, ति०। ती०। स०। संकरी स्त्री० (शङ्करी) विद्याभेदे,या हि पठितमात्रा एव दासदासीसखीपरिवारभूत्वाऽऽदेशं करोति, अन्तिकमागतं प्रत्यनीक निवारयति, दूरस्थस्याऽपि चेष्टितं पृष्टा सती कथयति। उत्त० 13 अ०। संकलन० (श्रृङ्खल) “श्टङ्गे खःकः"||८/११८६इत्यनेनात्र खस्य ककारादेशः / संकलं / प्रा०। हस्त्यन्दुके, प्र० ३त्त० 5 संव० द्वार। संकला स्त्री० (श्टङला) अयोमयनिगडे, सूत्र 1 श्रु०५ अ० 2 उ०। संकलिय त्रि० (संकलित) अनुबद्धे, अनु० / सूत्र० / संकलिया स्त्री० (संकलिका) अन्तादिपदयोः सङ्कलनात्सङ्कलिका।। "कत्थ य मइदुब्बल्ले-णं तद्विहायरियविरहशो वाऽवि। नय गहणत्तणेण य, नाणावरणोदयेणं च / / 1 / / हेऊदाहरणासं-भवे य सइ सुटुजं न बुज्झेज्जा। सटवन्नुमयमवितह, तहाऽवि तं चिंतए मइम / / 2 / / अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जं जिणा जुगप्पवरा / जिअरागदोसमोहा, अनन्नहा वाइणो तेणं // 3 // " यथाच"सूत्रोक्तस्यैकस्या-प्यरोचनादक्षरस्य भवति नरः। मिथ्यादृष्टिः सूत्रं, हि नः प्रमाण जिनाभिहितम्॥१॥ एकस्मिन्नप्यर्थः, सन्दिग्धे प्रत्ययोऽर्हति नष्टः। मिथ्या च दर्शनं तत्, स चादिहेतुर्भगवतीनाम् / / 2 / / " प्रव.६ द्वार। (शड्काव्याख्या 'मिच्छदिदि शब्दे 6 भागे 275 पृष्ठे गता।) संसयकरणं संका, कंखा अण्णोण्णयदसणग्गाहो। संतम्मि वि वितिगिच्छा, सिज्झेणं मे अयं अट्ठो।।२४।। संसयण-संसयो करणं-क्रिया, संसयरस करणं संसयकरणमित्याह-जमिद रासयकरणं किमिदंवण्णणत्यंतरभूतं उताणत्थंतरमिति ? गुरुराहणमिदमत्थन्तरभूतघडरस दंडादयो जहा, इदंतु अणत्यंतर अंगुलियचक्रकरणवत्, जदिद संसयकरणं स एव संका, संकणं संका; चित्तासंकेत्यर्थः, सा दुविहादेसे सव्वे य। देसे जहा तुल्ले जीवत्ते कहमेगे भव्वा ? एगे अभव्या? अहवाएगणपरमाणुणाएगेआगासपदेसे पुणोपुणो विपरमाणूतत्थेवागासपदेसे अव-- Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संका 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकिय पडि० गाहति। ण य परमाणू , परमाणुतो सुहमतरो भवति / ण य आयपमाणे | संकामेञ्जमाण त्रि० (संक्रम्यमाण) हस्तादिना संक्रमं कार्यमाणे, स्था० अण्णावगाहं पयच्छति। कहमेयं ति एवमादिदेसे संका। 'सव्वसंक' त्ति 3 ठा०१ उ०। सव्वं दुवालसंगं गणिपिडगं पाययभासाणिबद्धं माणुए त कुसलकप्पियं संकावय त्रि० (शङ्कापद) किमेतन्मदारब्धमनुष्ठान निष्फल स्यादित्येहोजा। संकिणो असंकिणो य दोसगुणदीवणत्थं उदाहरणं-जहा, ते पेया वंभूतो विकल्पः-शङ्का, तस्याःपदं निमित्तकारणम्। आर्हतप्रोक्र्तेष्वत्य - पाया दारगा। एगस्स गिहवतिणो पसवियपुत्ता भज्जा मता। तेण य अण्णा न्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषु केवलागमग्राह्येष्वर्थे संशीतौ, आचा० 1 श्रु०५ घरिणी कता। तीए वि पुत्तो जाओ। ते दो वि लेहसालाए पढ़ति। भोयण- अ०१ उ०। काले य आगता। दोण्ह वि गिण्हतो मिट्टाणमासकणफोडिया पेया दिन्ना। संकास त्रि० (संकाश) सदृशे, स्था० 6 ठा०३ उ०। उत्त० / प्रज्ञा०। तत्थ मुयमातिओ चिंतेइ, मच्छिया इमा ससंकिओ पियति। तस्स संकाए संकासिया स्त्री० (शङ्काशिका) स्थविरात् श्रीगुप्ताचार्यान्निर्गतस्य वग्गुलिया वाही जातो मतो य। वितिओ चिंतेति-ण ममं माता मच्छियाओ चारणगणस्य तृतीयशाखायाम्,कल्प० / देति णिस्संकितो पिवति जीवितो य / तम्हा संका ण कायवा। संकि? त्रि० (संक्लिष्ट) संकीर्णे, वृ० 1 उ०३ प्रक० / णिस्संकितेण भवियव्वं / संके त्ति दारं गतं / नि० चू०१ उ० / श्रा० / संकिट्टवियारभूमि स्त्री० (संक्लिष्टविचारभूमि) संयतानां संयतीनां सूत्र० 1 दश०1 जीतः। संथा० / दर्शक | ग०। चैकस्यामेव संज्ञाभूमौ, बृ० 1 उ०३ प्रक०। संकिण्ण त्रि० (संकीर्ण) व्याप्ते, प्रज्ञा०२ पद। विशे०। मिश्रत्वे, विशे०। शङ्कायामुदाहरण पेयापायिन्ः"नार्याः कुत्रापि कस्याश्चि-द्वारको द्वौ बभूवतुः / भ० / “एएसिं हत्थीणं, थोव थोवं तु जोइ तणु हरइ हत्थी। रूवेण व सीलेण व,सो संकिण्णो त्ति नेयत्वो // 1 // " इति वचनात् संकीर्णनामि सपत्नतनुभूरेको, द्वितीयश्चात्मभूर्द्वयोः / / 1 / / हस्तिविशेषे, पुं० / स्था० 4 ठा०२ उ० ! शबलीकृतचारित्रे, बृ०३ उ० / प्राप्तयोर्लेखशालायां, माषपेयामदत्त सा। अचिन्तयत्सपत्नभूः, पेयाऽसौ मक्षिकान्विता // 2 // स्वपक्षपरपक्षव्याकुले क्षेत्रे, नपुं० / भ० 25 श० 7 उ० / संकिय त्रि० (शङ्कित) एकभावविषयसंशयसंयुक्ते, स्था० 4 ठा० 3 उ / इत्याशङ्की वमन्नित्यं, वल्गुलीव्याधिना मृतः / शंसयक्रोडीकृते, बृ०२ उ० / शङ्किते, शङ्कायोग्ये वागुरादिके. सूत्र०१ द्वितीयोऽचिन्तयन्माता, न प्रयच्छति मक्षिका : // 3 // श्रु० 1 अ०२ उ० / शङ्कितो देशतः सर्वतो वा। संशयवति, स्था० 3 ठा० निःशङ्कितो जीवितोऽसौ. संजातो भोगभाजनम्॥४॥" 4 30 / सूत्र० / सम्भाविताधाकर्मादिदोषयुक्ते भक्तादिके, ग० १अधि० / आ० क०६ अ०। आचा०। आधाकर्मादिशङ्काकलुषितो यदन्नाद्यादत्ते तच्छ्रङ्कितम्। ध०३ संकाठाण न० (शङ्कास्थान) शङ्काविषये स्थाने, उत्त० / “संकाठाणाणि अधि० जी०। पञ्चा० / प्रव० / शङ्कितं न विद्मः किमिदमुद्रमादिदोषयुक्तं, सव्वाणि, वजिजा पणिहाणव" / उत्त० 16 अ०। कि वा-नेत्येवमाशङ्कास्पदीभूतम् / दश० 8 अ०। पि० / (तत्र संकामण न० (सक्रामण) प्रस्तुतप्रमेये, स्था० / संक्रामणं -प्ररतु शङ्कितपदव्याख्या 'एसणा' शब्दे, तृतीयभागे 54 पृष्ठे गता।। तप्रमेयेऽप्रस्तुतप्रमयेस्य प्रवेशन, प्रमेयान्तर्गमनमित्यर्थः / अथवा किंबहुनेति, उपदेशसर्वस्वमाहप्रतिवादिभते आत्मनः संक्रामण परमताभ्यनुज्ञानमित्यर्थः / तदेव दोष जं भवे भत्तपाणं तु,कप्पाकप्पम्मि संकि। इति। स्था० 10 ठा० 3 उ०। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं // 44|| संकामणी स्त्री० (संक्रामणी) संक्रमणकारके, विद्याभेदे, ज्ञा०१ श्रु० यद्भवेद्भक्तपानं तु कल्पाकल्पयोः कल्पनीयाकल्पनीयधर्मविषय 16 अ०। इत्यर्थः, किम् ? शङ्कितं न विद्मः किमिदमुगमादिदोषयुक्तं किं वा संकामिय त्रि० (संकामित) स्वस्थानात् परस्थान नीते, आव०४ अ०।। नेत्याशङ्कास्पदीभूत; तदित्थंभूतमसति कल्पनीयनिश्चये ददती स्था०। 'संकामिय'त्ति संक्रामितं विभक्तिवचनाद्यन्तरतया परिणामित प्रत्याचक्षीत / न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः / / 44 / / दश० 8 अ०। तदनुयोगो यथा- 'साहूणं वन्दणेणं नासति पावं, असंकिया भावा' इह संकियगणणोवगा स्त्री० (शङ्कितगणणोपगा) प्रत्युपेक्षणाभेदे, ध०ा तथा साधूनामित्येतस्याः षष्ठ्याः साधुभ्यः सकाशादित्येवलक्षाणं पञ्चमीत्वेन शङ्किता चाऽसौ गणना च शङ्कितगणना तामुपगच्छति या प्रत्युपेक्षणा सा विपरिणामं कृत्वा अशङ्किता भावा भवन्तीति एतत्पदं सम्बन्धनीयम् / शङ्कितगणनोपगा ता न कुर्यात् / अयं भावः-पुरिमादयः कियन्तो जाता तथा “अच्छंदा जे न भुजंति, न से चा इत्ति वुचइ" इत्यत्र सूत्रे न स / इति शङ्कायां तद्गणनां करोति यः प्रमादी भवति पूर्वमित्थंभूता प्रत्युपेक्षणा त्यागीत्युच्यते इत्येकवचनस्य बहुवचनतया परिणामं कृत्वा न ते त्यागिन न कर्तव्येति स्थितम् / ध०३ अधि०। उच्यन्ते इत्येवं पदघटना कार्येति स्था० 10 ठा० 3 उ० / | संकियपडि से वणा स्त्री० (शङ्कितप्रतिसेवना) स्त्री०। "ज संके Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकिय पडि० 37 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संकुल तं समावजे” इति वचनात् / एषणीयेऽप्यनेषणीयतया शङ्गिते प्रति- | सूत्र० / स्था०। लेवनायाम, स्था१० ठा०३ उ०। तिविहे संकिलेसे पण्णत्ते, तं जहा-णाणसंकिलेसे, दंसणसंकिलिट्ठ त्रि० (संक्लिष्ट) संक्लेशवति, प्रश्न० 2 आश्र० द्वार। स्था०। संकि-लेसे, चरित्तसंकिलेसे / / (सू० 165 +) इदाणी संकिलिट्ठ भण्णति ज्ञानादिप्रतिपतनलक्षणः संक्लिश्यमानपरिणामनिबन्धनो ज्ञानादिजं वंतु संकिलिटुं, तं सणिमित्तं व होज्ज अणिमित्तं / संक्लेशो, ज्ञानादिशुद्धिलक्षणो विशुद्ध्यमानपरिणामहे-तुकस्तदजंतं सणिमित्तं पुण, तस्सुप्पत्ती तिधा होति॥१८|| संक्लेशः / रथा०३ ठा०४ उ०) जति अणिदिलु तं ति पूर्वाभिहितं / तुशब्दो संकिलिट्टविसेसणो। तस्स दसविहे संकिलेसे पण्णत्ते। जहा-उवहिसंकिलेसे उवस्ससंकिलिट्ठस्स दुविहा उप्पत्तीसणिमित्ता, अणिमित्ता य / णिमित्तं हेऊ यसंकिलेसे कसायसंकिलेसे भत्तपाणसंकिलेसे मणसंकिलेसे कारणं वक्खमाणस्सरूवो / अणिमित्तं निरहेतुक / जं तं सणिमित्तं वतिसंकि लेसे कायसंकिलेसे नाणसंकिलेसे दंसणसंकिलेसे तस्सुप्पत्ती, बाहिरवत्थुमवेक्ख तिविहा भवति / पुनरवधारणे / चोदग चरित्तसंकिलेसे। (सू०७३६+) आह-णसु कम्म चेव तस्स णिमित्तं किमण्ण बाहिरणिमित्तं घोसिजति। 'दसे' त्यादि संक्लेशः-असमाधिरूपधीयते-उपष्टभ्यते संयमः आचााह संयमशरीरं वा येन स उपधिर्वस्वादिः, तद्विषयः संक्लेश उपधिसंक्लेश / कामं कम्म णिमित्तं,उदयोणऽत्थि उदयओतव्वजो। एवमन्यत्रापि नवरम 'उवस्सय'त्ति उपाश्रयो-वसतिस्तथा कषाया एव तह विय बाहिरवत्थु, होति णिमित्तं तिमं तिविघं / / 16 / / कषायैर्वा संक्लेशः कषायसंक्लेशः तथा भक्तपानाश्रितः संक्लेशो कामं अनुमतार्थे , किमनुमन्यते ?-कर्म णिमित्तो उदमेत्यर्थः / न भक्तपानसंक्लेशः। तथा मनसि मनसो वा संक्लेशः, वाचा संक्लेशः, इति प्रतिषेधे, उदयः कर्मवज्जो न भवतीत्यर्थः / तथाऽपि कश्चिद्वाह्य कायमाश्रित्य संक्लेश इति विग्रहः / तथा ज्ञानस्य संक्लेशोवस्त्वपेक्षो कम्मोदयो भवतीत्यर्थः / इदं तिविधं बाह्यनिमित्तम् उच्यते। ऽविशुद्ध्यमानता स ज्ञानसक्लेशः। एवं दर्शनचारित्रयोरपीति / स्था० सदंवा सोऊणं,दव सरितुंवपुव्वभुत्ताई। 10 ठा०३ उ०। सणिमित्तऽणिमित्तं पुण, उदयाहारे सरीरे य॥२०॥ गीतादि विसयसई सोउ, आलिंगणादि त्थीरुवं वा दटु, पुच संकिलेसमाणय पुं० (संक्लिश्यमानक) उपशमश्रेण्याः प्रतिपततः कीलियाणि वा सरिउ, एतहिं कारणेहिं सणिमित्तो मोहुदओ। अणिमित्तो संयमभेदे, स्था०२ ठा० 1 उ०। पुण, पुणसद्दो अणिमित्तविसेसणे। किमुदओ। आहारेणं सरीरोववेया। संकु पुं०(शकु) कीलके, आ०म० 1 अ० / कल्प० / चसदो भेदप्रदर्शन। नि० चू० 1 उ०। संकुइय न० (संकुचित) संकुचनं संकुचितम् / गात्रसंकोचकरणे, दश० संकिलिट्ठकम्म न० (संक्लिष्टकर्मन्) छेदनभेदनादिके दुष्कर्मणि, जी० / 4 अ०। आ०म० / रा०। शिखरीकृत्य संकोचनमुपगते, त्रि० जी०३ 1 प्रतिः / प्रति०१ अधि०२ उ०। संकि लिट्ठकाल पुं० (संक्लिष्टकाल) गीतार्थसंविग्नरहिते काले, संकुइयपसारिय न० (संकुचितप्रसारित) नाट्यभेदे आ०म० 1 अ०। "सकिलिट्टकालो नाम जम्मि काले गीयत्थसंविग्गा नऽत्थि स संकिलि जं०। टुकालः" पं० चू० 4 कल्प०। संकुक पुं० (शंकुक) शङ्ककाविद्याप्रधाने वेताढ्यपर्वतस्योत्तरश्रेण्यां संकिलिट्ठलेस्सा स्त्री० (संक्लिष्टलेश्या) संक्लेशहेतौ लेश्यायाम, विद्याधरनिकाये, आ०चू० 1 अ० / वैताढ्यपर्वतस्योत्तर श्रेण्या स्था०३ टा०४ उ० (ताक्ष संक्लिष्टा लेश्याः 'लेसा' शब्दे षष्ठे भागे 687 विद्याधरनिकायविशेषाणां विद्यायाम्, स्त्री०। आ०५० 1 अ०। पृष्ठं गताः / ) संकुचेमाण त्रि० (संकुचयत्) हस्तपादादिसंकोचनतः संकोचं गच्छति, संकिलिट्ठायार पुं० (संक्लिष्टाचार) संसर्गवशात् स्थापितादिभोजिनि, | आचा० 1 श्रु०६ अ० 4 उ० / व्य०६ उ०। संकुडिय त्रि० (संकुटित) संकुचिते, जं० 2 वक्ष० / “संकुडियवलिसंकिलिस्समाण त्रि० (संक्लिश्यमान) अविशुद्धिं गच्छति, भ० 13 तरङ्ग परिचेडियंगमंगा" संकुटित-वलीलक्षणतरङ्गः परिवेष्टितं च अड़ येषां श०१ उ० / उपशमश्रेणीतः प्रच्यवमाने, भ० 25 श०७ उ० / ते तथा / भ०७ श० 6 उ०। संकिलेस पुं० (संक्लेश) असमाधौ, पा०1 रागादिलक्षणे चित्तमालिन्ये, | संकुल त्रि० (संकुल) व्याप्ते, अष्ट० 22 अष्ट० / स्वनामख्याते ग्रामे, संकुलो पक्षा० 15 विव० / आव० / तीव्ररागादिसंवेदने आरती, पं० सू०१ | नाम ग्रामस्तत्र जिनदत्तनामा श्रावकस्तस्य भार्या विनिमतिः / पिं० / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकुल 38 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख ग्रामवर्णकश्चेत्थम्-तत्र च ग्रामे कोद्रवा रालकाश्च प्राचुर्येणोत्पद्यते इति तेषामेव कूरं गृहे गृहे भिक्षार्थमटन्तः साधवो लभन्ते / वसतिरपि स्त्रीपशुपण्डकविवर्जिता समभूतलादिगुणैरतिरमणीया कल्पनीया च प्राप्यते। स्वाध्यायोऽपि तत्र वसतामविघ्रमभिवर्द्धते, केवलं शाल्योदनो नप्राप्यते इति न केचनापि सूरयो भरेण तत्रावतिष्ठन्ते / पिं०। (विशेष - श्चात्रत्यः 'आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे 40 पृष्ठे गतः।) संकेय त्रि० (संकेत) केत-चिह्न केतेन सह वर्तत इति संकेतम्। सचिहे, आव०६ अ०। स्था०। संके यपचक्खाण पुं० (संकेतप्रत्याख्यान) प्रत्याख्याने, ध०। अङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थ्यादिचिह्नोपलक्षितं सङ्केतं, तच्च श्रावकः पौरूष्यादिप्रत्याख्यानं कृत्वा क्षेत्रादौ गतो गृहे वा तिष्ठन भोजनप्राप्तेः प्राक प्रत्याख्यानरहितो मा भूवमित्यडगुष्ठादिकं सङ्केतं करोति यावदड्गुष्ट मुष्टिं ग्रन्थिं (वा) न मुञ्चामि, गृह वा न प्रविशामि, खेदबिन्दवो यावन्न शुष्यन्ति, एतावन्तो वा उच्छासा यावन्न भवन्ति, जलादिमञ्चिकायां यावदेते बिन्दवो न शुष्यन्ति, दीपो वा यावन्न निर्वाति तावन्न भुजे इति। ध०२ अधिन इदानीं सङ्केतद्वारविस्तरार्थप्रतिपादनायाऽऽहअंगुढद्विगंठी-घरसेउस्सासथिवुगजोइक्खे। भणियं संकेयमेयं, धीरेहि अणंतनाणीहिं / / 1578|| अड्गुष्ठश्च मुष्टिश्चेत्यादिद्वन्द्वः, अङ्गुष्ठमुष्टिग्रन्थिगृहस्वेदोच्छासस्तिवुकज्योतिष्कान् तान् चिहं कृत्वा यत् क्रियते प्रत्याख्यानं तत् भणितम्-उक्तं संङ्केतमेतत्, कैः ? धीरैः अनन्तज्ञानिभिरिति गाथासमासार्थः / अवयवत्थो पुण-केतं नाम चिंधं, सह केतेन सङ्केत सचिह्नमित्यर्थः / 'साधू सावगो वा पुण्णे वि पचक्खाणे किंचि चिण्ह अभिगिण्हति, जाव एवं ताबाधं ण जिमेमि' ति ताणिमाणि चिंधाणि अंगुट्ठमुढिगंठिघरसेऊसासथिबुगदीवगाणि / तत्थ ताव सावगो पोरूसीपच्चक्खाइतो ताथे छेत्तं गतो, घरे वा ठितो ण ताव जेमेति, ताथे ण किर वट्टति अपच्चक्खाणस्स अच्छितुं तदा अंगुट्टचिंध करेति, जाव ण मुयामि ताव न जेमेमि त्ति, जाव वा गठि ण मुयामि, जाव घरं ण पविसामि, जाव सेओ ण णस्सति, जाव वा एवतिया उस्साया, पाणियमंचिताए वा, जाव एत्तिया थिबुगा उस्सासबिंदू थियुगा वा, जाव एस दीवगो जलति ताव-अहं ण भुंजामि ति। न केवलं भत्ते अण्णेसु वि अनिग्गहविसेसेसु संकेतं भवति। एवं ताव सावयस्स, साधुस्स वि पुण्णे पचक्खाणे किं अपचवखाणी अचछउ? तम्हा तेण वि कातव्वं सङ्केतमिति / व्याख्यातं सङ्केतद्वारम्। आव 6 अ०। संकोडना स्त्री० (संकोटना) गात्रसंकोचने, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार।। विपा०। संकोडिय त्रि० (संकोटित) संकोचिते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। आ०चू० ! संकोय पुं० (संकोच) नस्कारे, आ०क० / द्रव्यभावसंकोचनम्।। द्रव्यसंकोचनम् -करशिरःपादादिसंकोचः, भावसंकोचनम्मनस एकाग्रता। द्रव्यसंकोचःपालकस्य / भावसंकोचोऽनुत्तरदेवानाम्। उभयसंकोचः शम्बस्य। उभयाभावः शून्यः। आ०क० 1 अ०1 संख पुं० (शख) “शषोः सः" ||4|306 / / इति शस्य सः / प्रा.। समुद्रोद्भवे (प्रज्ञा० १पद / ) वृत्ते दीर्घाकृती, (नि०चू० 17 उ०।) जलचरप्राणिविशेष, नि०५० 130 / कम्बुनि, स्था०६ ठा०३ उ०। औला उत्त० / प्रश्न० / वासुदेवस्य पाञ्चजन्यःशंखः / उत्त० 10 अ० / शंखः पाञ्चजन्यो द्वादशयोजनविस्तारध्वनिः / प्रव० 212 द्वार / आ०म० / उत्त० / रा०ा जं० / प्रश्न०।नं० / “परिट्ठिया संखसुत्तिव्य !" प्रा० 2 पाद। आचा० / आ०म० / अनु० / अक्षिप्रत्यासन्नावयवविशेषे ज्ञा०१ श्रु०८ अ० / एकोनविंशतितमे महाग्रह, स्था०२ अ०३ उ०। कल्प०। चं० प्र० / सू० प्र०। दो संखा / (सूत्र) स्था०२ ठा०३ उ०। वैशालीनगरीवास्तव्ये सिद्धार्थराजमित्र, आ०म० 1 अ० / आ०चू०। लवणसमुद्रस्य वेलारक्षके स्वनामख्याते वेलन्धरनागराजे, जम्बूद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तात् द्वाचत्वारिंशद्योजनान्यवगाह्य लवणसमुद्रे संखस्य वेलन्धरनागराजस्यावासपर्वते, स्था० 4 ठा०२ उ०। (संखस्य वेलन्धरनागराजस्य तदावासभूतस्य पर्वतस्य चवक्तव्यता'लवणसमुद्र' शब्दे 6 भागे 645 पृष्ठ गता।) स्वनामख्याते श्रावस्तीवास्तव्ये श्रावके, स्था० शंखशतको श्रावस्तीश्वावको, ययोरीदृशी वक्तव्यताकिल श्रावस्त्यां कोष्ठके चैत्ये भगवानेकदा विहरति स्म, शमादिश्रमणोपासकाश्वागतं भगवन्तं विज्ञाय वन्दितुमागताः। ततो निवर्तमानांस्तान् शंखः खल्वाख्याति स्मयथा भोदेवानांप्रिया ! विपुलमशनाद्युपस्कारयत ततस्तत्परिभुजानाः पाक्षिकं पर्व कुर्वाणा विहरिष्यामः / ततस्ते तत्प्रतिपेदिरे, पुनः शवोऽचिन्तयत्-न श्रेयो मेऽशनदिभुजानस्य पाक्षिकपौषधं प्रतिजाग्रतो विहर्तु, श्रेयस्तु मे पौषधशालायां पौषधिकस्य मुक्ताभरणशस्त्रादेः शान्तवेषस्य विहर्तुम्। अथ स्वगृहे गत्वा उत्पलाभिधानस्वभार्याया वार्ता निवेद्य पौषधशालायां पौषधमकार्षीत् / इतश्च तेऽशनाद्युपस्कारयांचाः,एकत्र च समवेयुः शङ्ख प्रतीक्षमाणास्तस्थुः। ततोऽनागच्छति शङ्ख पुष्कलीनामा श्रमणोपासकः शतक इत्यपरनाम: शंखस्याकारणार्थ तद्गृहं जगाम / आगतस्य चोत्पला श्रावकोचितप्रतिपत्तिंचकारा ततः पौषधशालायां स विवेश, ईर्यापथिकी प्रतिचक्राम। शङ्कमभ्युवाच-यदुतोपस्कृतं तदशनादि तद् गच्छामः श्रावकसमवाये, भुज्महे तदशनादि, प्रतिजागृमः पाक्षिकपौषधम्। तत उवाच शङ्क: अहं हि पौषधिको नागमिष्यामीति। ततः पुष्कली गत्वा श्रावकाणां तन्निविवेद / ते तु तदनुबुभुजिरे, शङ्खस्तुप्राप्तः पौषधमपारयित्वैव पारगतपादपद्मप्रणिपतनाथ प्रतस्थौ। प्रणिपत्य च समुचितदेशे उपविवेश / इतरेऽपि भगवन्तं वन्दित्वाधर्मच श्रुत्वाशंखान्तिकंगत्वा एवमुचुः-सुष्ठवंदेवानांप्रिय! अस्मान् हीलयसि. ततस्तान भगवान् जगाद-मा भो यूयं शङ्ख हीलयसि, शङ्को ह्यहीलनीयः, यतोऽयं प्रियधर्मा दृढधर्माचा तथा सुदृष्टि-जागरिका जाग Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 36 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख रित्र इत्यादि। स्था०६ दा०३ उ० आ० क०। आ० मा आ० चू०। कल्प। तेणं कालेणं तेणं समयेणं सावत्थी नामनगरी होत्था। वन्नओ, कोट्ठाए चेइए वन्नओ, तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासगा परिवसंति अड्डा०जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा०जाव विहरंति। तस्सणं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्था / सुकुमालंजाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवाजाव विहरइ / तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खली नाम समणोवासए परिवसइ अड्डे अभिगय०जाव विहरइ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा निग्गया०जाव पज्जुवासइ। तए णं ते समणोवासगा इमीसे जहा आलभियाए०जाव पज्जुवासइ / तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति० धम्मकहा.जाव परिसा पडिगया / तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ०समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छंति / पसिणाई पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियंति, अट्ठाई परियादियित्ता उठाए उठेति, उद्वित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियातो | कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता से जेणेव सावत्थी नगरी तेणेव पहारेत्थगमणाए। (सू०-४३७+) तएणं से संखे समणोवासए ते समणोवासए य एवं बयासी-तुज्झे णं देवाणुप्पिया! विउलं असणं पाणंखाइमं साइमं उवक्खडावेह, तए णं अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विस्साएमाणा परिभुंजे माणा परिभाएमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो। तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमढे विणएणं पडिसुणंति / तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अब्भत्थिए०जाव समुप्पज्जित्था नो खलु मे सेयं तं विउलं असणंजाव साइमं अस्साएमाणस्स० 4 पक्खियं पोसह पडिजागरमाणस्स विहरित्तए। सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवन्नस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अविइयस्स दब्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसह पडिजागरमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेति, संपेहित्ता जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समणोवासिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता उप्पलं समणो-वासियं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोसहसालं अणुपविसइ पोसहसालं अणुपविसित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पोसहसालं पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, उच्चारपासवणभूमि पडिले हित्ता दब्भ-संथारगं संथरति, दब्भसंथारगं संथरित्ता दब्भसंथारगं दुरूहइ, दुरू हित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी०जाव पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरइ। तएणं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थीनगरी जेणेव साइंगिहाईतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता अन्नमन्ने सद्दावेंति, अन्नमन्ने सद्दावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असणपाणखाइमसाइमे उवक्खडाविए, संखे यणं समणोवासए नो हव्वमागच्छइ / तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए / तए णं से पोक्खली समणोवासए, ते समणोवासए य एवं वयासी-अच्छह णं तुज्झे देवाणुप्पिया ! सुनिव्वया वीसत्था अहन्नं संखं समणोवासगं सद्दावेमित्ति कटु तेसिं समणोवासगाणं अंतियाओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता सावत्थीए नगरीए मज्झं मज्झेणं जेणेवं. संखस्स समणोवासगस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संखस्स समणो वासगस्स गिहं अणुपविढे / तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणो-वासयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठ.आसणाओ अब्भुट्टेइ अब्भुद्वित्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छइ, अणुगच्छित्ता पोक्खलिं समणोवासगं वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता आसणेणं उवनिमंतेइ, उवनिमंतित्ता एवं वयासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमागमणप्पयोयणं? तए णं से पोक्खली समणो-वासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासीकहन्नं देवाणुप्पिए ! संखे समणोवासए ? तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखेसमणोवासए पोसहसालाएपोसहिए बंभयारी० जाव विहरइ। तए णं से पोक्खली समणोवासएजेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता गमणागमणाए पडिक्कमइ गच्छइ गच्छित्तासंखं समणोवासगं वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहि से विउले असण०जाव साइमे उवक्खडाविए तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया!तं विउलं असणंजाव साइमं आसाएमाणा०जाव प Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 40 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख डिजागरमाणा विहारामो। तएणं से संखे समणोवासए पोक्खलिं समणोवासगं एवं वयासी-णो खलु कप्पइदेवाणुप्पिया! तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणस्स०जाव पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, कप्पइमे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए, तंछंदेणं देवाणुप्पिया ! तुब्भे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा०जाव विहरइ / तएणं से पोक्खली समणोसगे संखस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्तासावत्थिं नगरि मझ मज्झेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ते समणोवासए एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे सम-णोवासए पोसहसालाए पोसहिए०जाव विहरइ, तं छंदेणं देवाणुप्पिया ! तुज्झे विउलं असणपाणखाइमसाइमे० जाव विहरइ / संखे णं समणोवासए नो हव्वमागच्छइ / तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणपाणखाइमसाइमे आसाएमाणा० जाव विहरंति। तएणं तस्स संखस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे० जाव समुप्प-जित्थासेयं खलु मे कल्लं जाव जलंते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता०जाव पज्जुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेति एवं संपेहेत्ता कल्लंजाव जलते पोसहसालाओ पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता सुद्धप्पावेसाइं मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति, सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमित्ता पादविहारचारेणं सावत्थिं नगरि मज्झं मज्झेणंजाव पज्जुवासति, अभिगमो नऽत्थितएणं ते समणोवासगा कल्लं पादु०जाव जलंते ण्हाया कयवलिकम्मा 0 जाव सरीरा सएहिं 2 गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति सएहिं०२ मित्ता एगयओ मिलायंति एगयओ मिलायंति एगयत्ता सेसं जहा पढमजाव पज्जुवासंति। तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य धम्मकहा जाव आणाए आराहए भवति।तएणं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हद्वतुट्ठ उठाए उढेति उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव संखा समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छित्ता संखं समणोवासयं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया! हिजा अम्हेहिं अप्पणा चेव एवं वयासी-तुम्हे णं देवाणुप्पिया! विउं असणंजाव विहरिस्सामी / तएणं तुमं पोसहसालाए०जाव विहरिए, तं सुट्ठ णं तुम देवाणुप्पिया ! अम्हं हीलसि / अञ्जो त्ति समणे भगव महावीरे ते समणोवासाए एवं वयासी-मा णं अञ्जो! तुज्झे संखं समणोवासगं हीलह निंदह खिंसह गरहह अवमन्नह / संखे णं समणोवासए पियधम्मे चेव दढधम्मे चेव सुदक्खु जागरियं जागरिए (सू० -437) 'आसाएमाण' त्ति ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेखि 'विस्साएमाण' ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खजूरादेखि 'परिभाएमाण' ति ददतः 'परिभुजेमाण' त्ति सर्वमुपभुजाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः, एतेषां च पदानां वार्त्तमानिकप्रत्ययान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या। ततश्च तद्विपुलमशनाद्यास्वादितवन्तः सन्तः 'पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो' त्ति पक्षेअर्द्धमासि भवं पाक्षिकं पौषधम्-अव्यापार-पौषधं प्रतिजाग्रतःअनुपालयन्तः विहरिष्यामः-स्थास्यामः / यच्चेहातीतकालीनप्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्त्तमानिकप्रत्ययोपादानं तद्भोजनानन्तरमेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थम् / एवमुत्तर-त्राऽपि गमनिका कार्यत्येके। अन्ये तु व्याचक्षते-इह किल पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं, तच्च द्वेधाइष्टजनभोजनदानादिरूपमाहारादिपौषरूपं च / तत्र शंखः इष्टजनभोजनदानरूपं पौषधं कर्तुकामः सन् यदुक्तवांस्तद्दर्शयतेदमुक्तम्'तए णं अम्हे तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं अस्साएमाणा' इत्यादि, पुनश्च शङ्ख एव संवेगविशेषवशादाद्यपौषधविनिवृत्तमनाः द्वितीयपौषधं चिकीर्षुर्यचिन्तितवांस्तदर्शयतेदमुक्तम्- 'नो खलु में सेयं त' मित्यादि, 'एगस्स अविझ्यस्स' ति एकस्यबाह्यसहायापेक्षया केवलस्य अद्वितीयस्य तथाविधक्रोधादिसहायापेक्षया केवलस्यैव! न चैकस्येति भणनादेकाकिन एव पौषधशालायां पौषधं कर्तुं कल्पत इत्यवधारणीयम्, एतस्य चरितानुवादरूपत्वात्, तथा ग्रन्थान्तरे बहूना श्रावकाणां पौषधशालायां मिलनश्रवणाद्दोषाभावात्परस्परेण स्मारणादिविशिष्टगुणसम्भवाच्चेति। 'गमणाऽऽगमणाए पडिक्कमइ'त्ति ईपिथिकी प्रतिक्रामतीत्यर्थः / 'छंदेणं' ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति / 'पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि' ति पूर्वरात्रश्वरात्रेः पूर्वोभागःअपगता रात्रिरपररात्रः, सच पूर्वरा-त्रापररात्रस्तल्लक्षणः कालसमयो यः स तथा तत्र 'धम्मजागरियं' तिधर्माय धर्मचिन्तयावा जागरिका-जागरणं धर्मजागरिका तां पारित्तए त्ति कढ़ एवं संपेहेई त्ति-पारयितुंपारं नेतुम् एव सम्प्रेक्षते-इत्यालोचयति, किमित्याह-इति कर्तुम् एतस्यैवार्थस्य करणायेति। 'अभिगमोणऽस्थि' त्ति पञ्चप्रकारः पूर्वोक्तोऽभिगमो नास्त्यस्य, सचित्तादिद्रव्याणां विमोचनीयानामभावादिति / 'जहा पढ़म' ति यथा तेषामेव प्रथमनिर्गमस्तथाद्वितीयनिर्गमोऽपि वाच्य इत्यर्थः / भ० 12 श० 1 उ० / 30 20 / स०। मल्लीसह प्रवजिते काशीराजे, ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ० / ('मल्लि' शब्दे षष्ठे भागे 158 पृष्टस्य वक्तव्यता गता।) शंखः काशीवर्द्धनो वाराणसीनगरीसम्बन्धिजनपदवृद्धिकर इत्यर्थः / अयं च. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 41 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख न प्रतीतः केवलमलकाभिधानो राजा वाराणस्यां भगवता प्रवाजितोऽन्तकृद्दशासु श्रूयते स यदि परं नामान्तरेणायं भवतीति। स्था० | 8 ठा० 3 उ० / हरिकेशबलसाधोः पूर्वभवजीवस्य सोमदेवपुरोहितस्य प्रज्ञापके मथुराराज्यमुपभुज्य प्रव्रजिते स्वनामख्याते राजनि, उत्त० 12 अ० / हस्तिनापुरनगरवासिनि स्वनामख्याते इभ्यश्रावके, दर्शक 4 तत्त्व। आ० चू० वैताढ्यपर्वतस्योत्तरश्रेणेः सुरम्याया नगा राजनि स्वनामख्याते विद्याधरेन्द्रे, ती०६ कल्प / स्वनामख्याते महानिधी, ज०। णट्टविहीणाडगविही, कव्वस्सय चउव्विहस्स उप्पत्ती। संखे महाणिहिम्मि, तुडियंगाणं च सव्वेसिं||६| जं०३ वक्ष / ति०। दर्श०। ती०। (नवनिधिवक्तव्यता 'णिहि' शब्दे चतुर्थभागे 2151 पृष्ठे गता।) ऋषभदेवस्य शतपुत्राणांतृतीये पुत्रे, कल्प० 1 अधि०७ क्षण / जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे स्वनामख्याते चक्रवर्तिविजये, स्था०८ ठा०३ उ०। अरिष्टनेमेः पूर्वभवजीवे स्वनामख्याते राजनि, उत्त० 12 अ०। संख्य त्रि०संख्यान संख्या तामहतीतिसंख्यः। 'दण्डादेर्यः // 6 / 4 / 178 // इति यप्रत्ययः / संख्याते, कर्म० 5 कर्म०। संख्यायत इति संख्यः। पक्षमास-यनादिप्रमिते काले, विशे०। संग्राम, बृ०३ उ०। सांख्य पुं० संख्या संख्या विवेकास्तां वेत्तीति सांख्यः। कपिलशिष्ये, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। सांख्याः प्राहुः- "अशेषशक्ति-प्रचितात, प्रधानादेव केवलात् / कार्यभेदाः प्रवर्त्तन्ते, तद्रूपा एव भावतः / / 7 / / य दशेषाभिर्महदादिकार्यग्रामजनिकाभिरात्मभूताभिः शक्तिभिः प्रचित युक्तं सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थालक्षणं प्रधानम्, तत एव महदादयः कार्यभेदाः प्रवर्त्तन्त इति कापिलाः। 'प्रधानादेवे' त्यवधारणं कालपुरूषादिव्यवच्छेदार्थ, 'केवलादि' ति वचन सेश्वरसाख्योपकल्पितेश्वरनिराकरणार्थम् 'प्रवर्त्तन्ते' इति साक्षात्पारम्पर्येण उत्पद्यन्त इत्यर्थः / तथाहि-तेषां प्रक्रिया-प्रधानाद्-बुद्धिः प्रथममुत्पद्यते, बुद्धेश्वाहंकारः, अहंकारात्पञ्च तन्मात्राणिशब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकानीति, इन्द्रियाणि चैकादशोत्पद्यन्त-पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि श्रोतृत्वक्चक्षुर्जिवाघ्राणलक्षणानि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादपायूपस्थसंज्ञकानि / एकादशं मनश्चेति-पश्चभ्यस्तन्मात्रेभ्यः पञ्च भूतानि शब्दादाकाशः, स्पर्शाद्वायुः, रूपात्तेजः, रसादापः, गन्धात्पृथिवीति / तदुक्तमीश्वरकृष्णेन-"प्रकृतेर्महास्ततोऽहङ्कारस्तस्माद्रणश्च षोडशकः / तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि // 22 // " अत्र च-महानिति बुद्ध्यभिधानम्, बुद्धिश्च घटः पट इत्यध्यवसायल क्षणा, अहङ्कारस्त्वह सुभगोऽहं दर्शनीय इत्याद्यभिधानस्वरूपः / मनस्तु संकल्पलक्षणम्, तद्यथा-कश्चि-टुः शृणोतिग्रामान्तरे भोजनमस्तीति तत्र तस्य संकल्पः स्याद्यास्याभीति किं तत्र दधि स्यादुत दुग्धमित्येवं संकल्पः स्यात् / सकल्पवृत्ति मन इति / तदेवं बुद्ध्यहङ्कारमनसा परस्परं विशेषोऽवगन्तव्यः / महदादयः प्रधानपुरूषौ चेति पञ्चविंशतिरेषां तत्त्वानि। यथोक्तम-"पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः। शिखी मुण्डी जटी वापि, मुच्यते नात्र संशयः / / 1 / " इति / महदादयश्च कार्यभेदाः प्रधानात्प्रवर्त्तमाना न कारणादन्यन्तभेदिनो भवन्ति बौद्धाद्यभिमता इव कार्यभेदाः किं तु प्रधानरूपात्मान एव वैगुण्यादिना प्रकृत्यात्मकत्वात्। तथाहि-यदात्मकं कारण कार्यमपि तदात्मकमेव यथा कृष्णरतन्तुभिरारब्धः पटः कृष्णः शुक्लैः शुक्ल उपलभ्यते, एवं प्रधानमपि त्रिगुणात्मकम् / तथा बुद्धहङ्कारतन्मात्रेन्द्रियभूतात्मक व्यक्तमपि त्रिगुणात्मकमुपलभ्यते, तस्मात्तद्रूपम्। किं च-अविवेकि / तथाहि इमे सत्त्वादयः 'इदं च महदादिकं व्यक्तमिति' पृथग न शक्यते कर्तुं, किंतु - "ये गुणास्तद्वयक्तं यद् व्यक्तं ते गुणा" इति / तथोभयमपि विषयो भोग्यस्वभावत्वात् / सामान्यं च सर्वपुरूषाणां भोग्यत्वात्पण्य-स्त्रीवद्। अचेतनात्मक च सुखदुःखं मोहाऽवेदकत्वात्। प्रसवधर्मि च। तथाहि प्रधानं बुद्धि जनयति, साऽप्यहंकारें , सोऽपि तन्मात्राणि-इन्द्रियाणि चैकादशतन्मात्राणि महाभूतानि जनयन्तीति / तस्मात्वैगुण्यादिरूपेण तद्रूपा एव कार्यभेदाः प्रवर्तन्ते / यथोक्तम्- “त्रिगुणमविवेकिविषयः, सामान्यमचेतनं प्रसवधर्मि / व्यक्तं तथा प्रधानं, तद्विपरीतस्तथा चव पुमान्॥११॥" (साड्ख्य कारि.) इति। अथ यदि तद्रूपा एव कार्यभेदाः कथं शास्त्रे व्यक्ता व्यक्तयो_लक्षण्योपवर्णनम्। “हेतुमदनित्यमव्यापि, सक्रियमनेकमाश्रित लिङ्गम्। सावयवं परतन्त्रं, व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम्" 110 / / (सायकारिका) इति / क्रियमाणं शोभेत / अत्र ह्ययमर्थःहेतुमत्कारणवद्वयक्तमेव / तथाहि-प्रधानेन हेतु-मती बुद्धिः, अहङ्कारो बुद्ध्या हेतुमान पञ्चतन्मात्राणि एकादश चेन्द्रियाणि हेतुमन्ति अहंकारेण भूतानि तन्मात्रैः / नन्वेवमव्यक्तम् कुतश्चित्तस्यानुत्पत्तेः / तथा 'व्यव तमनित्यमुत्पत्तिधर्मकत्वात्' / तद्विपर्ययान्नत्वेवमव्यक्तम्। प्रधानपुरूषी दिवि भुवि चान्तरिक्षे च सर्वत्र व्याप्तितया यथा वर्तेत न तथा व्यक्तं वर्त्तत इति तदव्यापि / यथा च संसारकाले त्रयोदशविधेन बुद्धयहंकारेन्द्रियलक्षणेन करणेन संयुक्तं सूक्ष्मशरीराश्रितं व्यक्तम् संसारिनत्वेवमव्यक्त तस्य विभुत्वेन सक्रियत्वायोगात् / बुद्ध्यहंकारादिभेदेन चानेकविध व्यक्तमुपलभ्यते नाध्यक्तम्। तस्यैकस्यैव सकलत्रिलोकीकारणत्वात्। आश्रित च व्यक्तं- यद्यस्मादुत्पद्यते तस्य तदाश्रितत्वात्, नत्वेवमव्यक्तम् अकार्यत्वात्तस्य / लयं गच्छतीति इति कृत्वा लिङ्गं च व्यक्तम्। तथाहि-प्रलयकाले भूतानि तन्मात्रेषु लीयन्ते, तन्मात्राणीन्द्रियाणि चाहंकार, सोऽपि बुद्धौ, साऽपि प्रधाने। नत्वेवमव्यक्तं क्वचिदपि लय गच्छतीति / लीन वा अव्यक्तलक्षणार्थ गमयति व्यक्तं कार्यत्वाल्लिङ्ग, न त्वेवमव्यक्तमकार्यत्वात् तस्य / सावयवं च व्यक्तं शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकै रवयवैर्युक्तत्वात, नत्वेवमव्यक्तं तत्र शब्दादीनामनुपलब्धेः / अपि च-यथा पितरि जीवति पुत्रो न स्वतन्त्रो भवति तथा व्यक्तं सर्वदा कारणायतत्वात्परतन्त्रम्, नैवमव्यक्तमकारणाधीनत्वात्सर्वदा तस्येति / न; परमार्थतस्तद्रूप्येऽपि प्रकृतिविकारभेदेन तयोर्भेदाविरोधात / तथाहि-स्वभावतस्वैगुण्यरूपेण प्रकृतिरूपा एव प्रवर्त्तन्ते विकाराः / सत्त्वरजस्तमसान्तूत्कटानुत्कटत्वविशेषात्सर्गवैचित्र्य महदादिभेदेन न विरोत्स्यत इति कारणात्मनि कार्यमस्तीति प्रतिज्ञातं भवति / सम्म०१काण्ड (३गाथाव्याख्यायाम्)। इदानीमकारकवादिमताभिधित्सयाऽऽहकुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विजई। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 42 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उपगमिआ१३॥ कुर्वन्निति स्वतन्त्रः कर्ताऽभिधीयते आत्मनश्चामूर्तत्वान्नित्यत्वात्सर्वव्यापित्वाच कर्तृत्वानुपपत्तिः / अत एव हेतोः कारायतृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति / पूर्वश्वशब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको, द्वितीयः समुच्चयार्थः / ततश्वात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते नाप्यन्य प्रवर्तयति / यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन (जपास्फटिकन्यायेन च) भुजिक्रियां करोति, तथापि समस्तक्रियाक र्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतद्दर्शयति- 'सव्वं कुव्वं ण विज्जइ' त्ति सर्वां परिस्पन्दादिकां देशाद्देशान्तरप्राप्तिलक्षणां क्रियां कुर्वन्नात्मा न ] विद्यते सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्ये-वात्मनो निष्क्रियत्यमिति। तथा चोक्तम्- 'अकर्ता निर्गुणो भोक्ता,आत्मा सांख्यनिदर्शने' इति। एवमनेन प्रकारेणात्माऽ-कारकं इति / ते-सांख्याः तुशब्दः पूर्वेभ्यो व्यतिरेकमाह-ते पुनः सांख्या एवं प्रगल्भिताः प्रगल्भवन्तो धाटयवन्तः सन्तो भूयो भूयस्तत्र तत्र प्रतिपादयन्ति, यथा “प्रकृतिः करोति पुरूष उपभुङ्क्ते तथा बुझ्यध्यवसितमर्थ पुरूषश्चेतयते इत्याद्य कारवादिमतमिति। सूत्र०१ श्रु० 1 अ०१ उ०। ('कज्जकारणभाव' शब्दे तृतीयभागे 167 पृष्ठे सत्कार्ययाद उक्तः।) सांख्यदर्शनप्रतिपेक्षः अशुद्धद्रव्यास्तिकसांख्यमतप्रतिक्षेपकस्तु पर्यायास्तिकः प्राह-यदुक्तं कापिलैः "प्रधानादेव महदादिकार्यविशेषाः प्रवर्त्तन्ते" इति / तत्र यदि महदायः .कार्यविशेषाः प्रधानस्वभावा एव कथमेषां कार्यतया ततः प्रवृत्तिर्युक्ता? न हि यद् यतोऽव्यतिरिक्तं तत्तस्य कार्य कारणं वेति व्यपदेष्टुं युवतं, / कार्यकारणयोर्भिन्नलक्षणत्वात् अन्यथा हि 'इदंकारणं' कार्य च इत्यसंकीर्णव्यवस्थोत्सीदेत्। ततश्व यदुक्तं प्रकृतिकारणिकैः- "मूलप्रकृतेः कारणत्वमेव, भूतेन्द्रियलक्षणस्य षोडशकगणस्य कार्यत्वमेव, महदहकारतन्मात्राणां च पूर्वोत्तरापेक्षया कार्यत्वकारणत्वे च" इति तत्सङ्गतं न स्यात्। आह चेश्वरकृष्णः- “मूलप्रकृतिरविकृति-महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारो, न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः // 3 // " (सांख्यका०) इति / यतः सर्वेषां परस्परमव्यतिरेकात्कार्यत्वं कारणत्वं वा प्रसज्जयेत् अन्यापेक्षत्वाद्वा कार्यकारणभावस्यापेक्षणीयस्य रूपान्तरस्यवाऽभावात्। पुरुषवत्न प्रकृतित्वं विकृतित्वंवा सर्वेषां स्यात्। अन्यथा पुरूषस्यापि प्रकृतिविकारख्यपदेशप्रसक्तिः। उक्तं च“यदेव दधि तत् क्षीरं, यत् क्षीरं तद्दधीति च / वदता विंध्यवासित्वं, ख्यापितं विन्ध्यवासिना / / 1 / " इति / 'हेतुमत्त्वादिति धर्मासङ्गिविपरीतमव्यक्तम्' इत्येतदपि बालप्रलापमनुकरोति। न हि यद्यतोऽव्यतिरिक्तस्वभावं तत्ततो विपरीतं युक्तं वैपरीत्यस्य रूपान्तरलक्षणत्वात्, अन्यथा भेदव्यवहारोच्छेदप्रसङ्ग इति। सत्यरजस्तमसा चैतन्यानां च परस्परभेदाभ्युपगमो निर्निमित्तो भवेत्ततश्च विश्वस्यैकरूपत्वात् सहोत्पत्तिविनाशप्रसङ्गः अभेदव्यवस्थितेरभिन्नयोगक्षेमलक्षणत्वादिति। व्यक्तरूपाव्यतिरेकाद् अव्यक्तमपि हेतुमदादिधर्मासङ्गिप्रसक्तं व्यक्तस्वरूपवत्, अहेतुमत्त्वादिधर्मकलापाध्यासितं वा व्यक्तम् अव्यक्तरूपाव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवत् अन्यथाऽतिप्रसक्तिः / अपि चअत्वयव्यतिरेकनिबन्धनः कार्यकारणभावः प्रसिद्धः,नच प्रधानादिभ्यो / महदाद्युत्पत्त्यवगमनिबन्धनः अन्वयो व्यतिरेको वा प्रतीतिगोचरः सिद्ध, यतः- 'प्रधानान्महान्महतोऽहङ्कारः' इत्यादि प्रक्रिया सिद्धिसौधशिखरमध्यास्त / तस्मानिर्बन्धन एवायं प्रधानादिभ्यो महदाधुत्पत्तिप्रकमः / न च नित्यस्य हेतुभावः संगतः यतः प्रधानान्महदादीनामुत्पत्तिः स्यान्नित्यस्य क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधादिति प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / अथ नास्माभिरपूर्वस्वभावोत्पत्त्या कार्यकारणभावोऽभ्युपगतः यतो रूपाऽभेदादसौ विरूध्यते / किं तु-प्रधानं महदादिरूपेण परिणतिमुपगच्छति, सर्पः कुण्डलादिरूपेणेवेति / 'प्रधानं महदादिकारणम्' इति व्यपदिश्यते, महदादयस्तु तत्परिणामरूपत्वातत्कार्यव्यपदेशमासादयन्ति। न च परिणमोऽभेदेऽपि विरोधमनुभवति एकवस्त्वधिष्ठानत्वात्तस्येति, असम्यगेतत्परिणामासिद्धेः / तथाहिअसौपूर्वरूपप्रच्युतेर्भवेदप्रच्युतेर्वेति कल्पनाद्वयम्। तत्र यद्यप्रच्युतेरिति पक्षस्तदावस्थासांकर्यादृद्धाद्यवस्थायामपि युवत्वाद्यवस्थोपलब्धिप्रसङ्गः / अथ प्रच्युतिरिति पक्षस्तदा स्वरूपहानिप्रसक्तिरिति पूर्वक स्वभावान्तरं निरूद्धम् अपरं च तदुत्पन्नमिति न कस्यचित्परिणामः सिध्द्येत् / अपि च-तस्यैवान्यथाभावः परिणामो भवद्भिर्वर्ण्यत; स चैकदेशेन सर्वात्मना वा? न तावदेकदेशेन, एकस्यैकदेशासम्भवात्, नाऽपि सर्वात्मना, पूर्वपदार्थविनाशेन पदार्थान्तरोत्पादप्रसङ्गात्। अतो न तस्यैवान्यथात्वं युक्तं, तस्य स्वभावान्तरोत्पादनिबन्धनत्वात् / व्यवस्थितस्य धर्मिणो धर्मान्तरनिवृत्तौ धर्मान्तरप्रादुर्भावलक्षणः परिणामोऽभ्युपगम्यते नतु स्वभावान्यथात्वमिति चेत्, असदेतत् ; यतः प्रच्यवमान उत्पद्यमानश्च धर्मो धर्मिणोऽर्थान्तरभूतोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा धर्मिण्यवस्थिते तस्य तिरोभावाविर्भावासम्भवात् / तथाहियस्मिन् वर्तमाने यो व्यावर्त्तते स ततो भिन्नो, यथा घटेऽनुवर्तमाने ततो व्यावय॑मानः पटः, व्यावर्त्तते च धर्मिण्यनुवर्तमानेऽप्याविर्भावतिरोभावासङ्गीधर्मकलाप इति, कथ-मसौ ततो न भिन्न इति। धर्मी तदवस्थ एवेति कथं परिणतो नाम? यतो नार्थान्तरभूतयोः कटपटयोरूत्पादविनाशेऽचलितरूपस्य घटादेः परिणामो भवत्यतिप्रसङ्गात्, अन्यथा चैतन्यमपि परिणामि स्यात् / तत्सम्बद्धयोधर्मयोरुत्पादविनाशात् तस्याऽसावभ्युपगम्यते नान्यस्येति चेत्, न; सदसतोः सम्बन्धाभावेन तत्सम्बन्धित्वायोगात्। तथाहि- सम्बन्धो भवन् सतो वा भवेदसतो वा भवेदिति कल्पनाद्वयम्। न तावत्सतः समधिगता-शेषस्वभावस्यान्यानपेक्षतया क्वचिदपि पारतन्त्र्यासम्भवात् / नाप्यसतः, सर्वोपाख्याविरहिततया तस्य क्वचिदाश्रितत्वानुपपत्तेः, नहि शशविषाणादिः कचिदप्याश्रित उपलब्धः। नच व्यतिरिक्तधर्मान्तरोत्पादविनाशे सतिपरिणामो भवद्भिर्यवस्थापितः, किंतर्हि? यत्रात्मभूतैकस्वभावनुवृत्तिः अवस्थाभेदश्च तत्रैवत व्यवस्था। नच धर्मिणः सकाशाद्धर्मयोर्व्यतिरेकेसतिएकस्वभावानुवृत्तिरस्ति, यनोधर्येव तयोरेक आत्मा; सचव्यतिरिक्त इतिनात्मभूतैकस्यभावानुवृत्तिः। न च निरुध्यमानोत्पद्यमानधर्मद्वयव्यतिरिक्तो धर्मी उपलब्धिलक्षणप्राप्तो दृग्गोचरमवतरति कस्यचिदिति तादृशोऽस व्यवहारविषयतैव। अथ अनर्थान्तर भूत इतिपक्षःकक्षीक्रियते तथाऽप्येकस्माद्धमिस्यरूपाद व्यतिरिक्तत्वात्तिरोभावाऽऽविर्भाववतोर्मियोद्धयोरप्येकत्वं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 43 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख धभिस्वरूपवदिति के न रूपेण धर्मी परिणतः स्यात् धर्मों वा? अवस्थातुश्व धर्मिणः सकाशादव्यतिरेकाद्धर्मयोरवस्थातृस्वरूपवन्न निवृत्तिः, नाऽपि प्रादुर्भावः, धर्माभ्यां च धर्मिणोऽनन्यत्वात् धर्मस्वरूपवत् / अपूर्वस्य चोत्पादः पूर्वस्य चं विनाश इति नैकस्य कस्यचित्परिणतिः सिद्धयेदिति, न परिणामवशादपि साख्यानां कार्यकारणभावव्यवहारगच्छते। सम्मः 1 काण्ड। (नच परिणामप्रसाधकं प्रमाण क्षणिकमक्षणिकं वा सम्भवतीत्यादि, साङ्ख्यमतप्रदर्शन तत्प्रतिक्षपश्च काजकारणभाव' शब्दे तृतीयभागे 188 पृष्ठ गतः।) ततः 'शक्तस्य शक्यकरणाद्' इत्ययमप्यनैकान्तिकः। सत्कार्यवादे च कारणभावस्याघटमानत्वाद् 'कारणभावाद्' इत्ययमप्यनैकान्तिकः। अथवा-कार्यत्वासंम्भवस्य सतः प्राक् प्रतिपादतित्वदासत्कार्यवाद एव चोपादानग्रहणादिनियमस्य युज्यमानत्वाद् उपादानग्रहणाद्' इत्यादिहेतुचतुष्टयस्य साध्य-विपर्ययसाधनाद्विरुद्धता। अथ यदि 'असदेवोत्पद्यत' इति भवता मत तत कथं सदसतोरूत्पादः सूत्रे प्रतिषिद्धः ? उक्तं च तत्र"अनुत्पन्नाश्च महामतेः सर्वधर्मा सदसतोरनुत्पन्नत्वादिति," न, वस्तूनां पुर्वापरकोटिशून्यक्षणमात्रावस्थायी स्वभाव एव उत्पाद उच्यते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायां, न पुनर्वैभाषिकपरिकल्पिता जातिः संस्कृतलक्षणा प्रतिषेत्स्यमानत्वात्तस्याः / नापि वैशेषिकादिपरिकल्पितसत्तासमवायः स्वकारणसमवायो वा तयोरपि निषेत्स्यमानस्वात्, नित्यत्वात् तयोः परमतेन, नित्यस्य च जन्मानुपपत्तेः, उक्तंच'सत्ता स्वकारणाश्लेषकरणात्कारणं किल / सा सत्ता स च सम्बन्धो, नित्यो कार्यमथेह किम् // 1 // ' इति / स एवमात्मक उत्पादो नाऽसना तादात्म्यन सम्बध्यते, सदसतोर्विरोधात्। नासत्सद्भवति। नापि सता पूर्वभाविना सम्बध्यते / तस्य पूर्वमसत्वात्कल्पनाबुद्ध्या तु केवलमसता वस्तु संबध्यते, नासन्नाम किंचिदस्ति यदुत्पत्तिमाविशेत्। 'असदुत्पद्यत' इति तु कल्पनाविरचितव्यवहारमात्रम् / कल्पनाबीजं तु प्रतिनियतपदार्थानन्तरोपलब्धस्य रूपस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तस्योत्पत्त्यवस्थातः प्रागनुपलब्धिः तदेवमुत्पत्तेः प्राक्कार्यस्य न सत्त्वं धर्मः, नाऽप्यसत्त्वं धर्मस्यैवाभावात् / अपि च-चयः-प्रभृतिषु कारणेषु दध्यादिक कार्यमस्तीति यद्युच्यते तदा वक्तव्यं- किं व्यक्तिरूपेण तत्तत्र सद्, अथ शक्तिरूपेण? तत्र यदि व्यक्तिरूपेण इति पक्षः, सनयुक्त:-क्षीराद्यवस्थायामपि दध्यादीनां स्वरूपेणोपलब्धिप्रसङ्गात्। नाऽपि शक्तिरूपेण, यतः तद्रूपं दयादेः कार्यानुपलब्धिलक्षणप्राप्तात् किमन्यद्, आहोश्वित् तदेव ? यदि तदेव तदा पूर्वमेवोपलब्धिप्रसङ्गो दध्यादेः / अथान्यदिति पक्षस्तदा कारणात्मनि कार्यमस्तीत्यभ्युपगमस्त्यक्तो भवेत कार्यागिन्नतनोः शक्त्यभिधानस्य पदार्थान्तरस्य सद्भावाभ्युपगमात, तथाहि-यदेवाविर्भूतविशिष्टरसवीर्यविपाकादिगुणसमन्वित पदार्थस्वरूपं तदेव दध्यादिकं कार्यमुच्यते-क्षीरावस्थायां च तदुपलब्धिलक्षणप्राप्तमनुपलभ्यमानमसद्व्यवहारविषयत्वमवतरति। यचान्यच्छक्तिरूपं तत्कार्यमेव न भवति; नच अन्यस्य भावेऽन्यत्सद्भवति अतिप्रसङ्गात् / न चउपचारकल्पनया तद्व्यपदेशसद्भावेऽपि वस्तुव्यवस्था, शब्दस्य वस्तुप्रतिबन्धाभावात् / तद्भावेऽपि वस्तुसद्भावासिद्धेः / यदपि 'भेदानामन्वयदर्शनात्प्रधानास्तित्वम्' उक्तम् तत्र हेतोरसिद्धत्वं, नहि शब्दादिलक्षणं व्यक्तं सुखाद्यन्वितं सिद्ध सुखादीनां ज्ञानरूपत्वाच्छब्दादीनां च तद्रूपविकलत्वान्न सुखाद्यन्वितत्वम्। तथा च प्रयोगः / ये ज्ञानरूपविकलानते सुखाद्यात्मकाः, यथा-परोपगत आत्मा। ज्ञानरूपविकलाश्च शब्दादय इति व्यापकानुपलब्धिः। अथ ज्ञानमयत्वेन सुखादिरूपत्वस्य व्याप्तिर्यदि सिद्धा भवेत् तदा तन्नि (शि) वर्तमान सुखादिमयत्वमादाय निवर्तेत; न च सा सिद्धा पुरूषस्यैव संविद्रूपत्वेनेष्टे-रिति, असदेतत्; सुखादीना स्वसंवेदनरूपतया स्पष्टमनुभूयमानत्वात् / तथाहि-स्पष्टयं सुखादीनां प्रीतिपरितापादिरूपेण शब्दादिविषय - सन्निधाने असन्निधाने च प्रकाशान्तरनिरपेक्षा प्रकाशात्मिका स्वसंवित्तिः। यच्च प्रकाशान्तरनिरपेक्ष सातादिरूपतया स्वयं सिद्धिमवतरति तज्ज्ञान, संवेदनं, चेतन्यं, सुखमित्यादिभिः पर्यायैरभिधीयते / न च सुखादीनामन्येन सवेदनेनाऽनुभवादनुभवरूपता प्रथमे, तत्संवेदनस्यासातादिरूपताप्रसक्तेः स्वयमतदात्मकत्वात्। तथाहि-योगिनोऽनुमानवतो वा परकीय सुखादिकं संवेदयतो न सातादिरूपता, अन्यथा योग्यादयोऽपि साक्षात् सुखाद्यनुभाविन इवातुरादयः स्युर्योग्यादिवद्वा अन्येषामप्यनुग्रहोपघातो न स्याताम अविशेषात्। संवेदनस्य च सातादिरूपत्वाभ्युपगमे संविद्रपत्वं सुखादेः सिद्धम् / इदमेव हि सुख दुःखं च नः 'यत्सातमसातं च संवेदनम्' इति नानैकान्तिकता हेतोः / नाप्यसिद्धता, सर्वेषां बाह्यार्थवादिनां संविद्रूपरहितत्वस्य शब्दादिषु सिद्धत्वात् / विज्ञानवादिमताभ्युपगमोऽन्यथा प्रसज्येत। तथा चेष्टसिद्धिरेव विरूद्धताऽप्यस्य हेतोर्न सम्भवति सपक्षे भावात्। न च यथा बहिर्देशावस्थितनीलादिसन्निधानवशादनीलादिस्वरूपमपि संवेदनं नीलनिर्भासं संवेद्यते तथा बाह्यसुखाद्युपधानसामर्थ्यादसातादिरूपमपि सातादिरूप लक्ष्यते तेन संवेदनस्य सातादिरूपत्वेऽपि न सुखादीनां संविद्रपत्वं सिध्यति अतोऽनैकान्तिकता हेतोरिति वक्तव्यम्, अभ्यासप्रकृतिविशेषत एकस्मिन्नपि त्रिगुणात्मके वस्तुनि प्रीत्याद्याकारप्रतिनियतगुणोपलब्धिदर्शनात् / तथाहि-भावनावशेन मद्याङ्गनादिषु कामुकादीनां जातिविशेषाच्च करभादीनां केषाञ्चित्प्रतिनियताः प्रीत्यादयः सम्भवन्ति न सर्वेषाम्, एतच शब्दादीनां सुखादिरूपत्वान्न युक्तं, सर्वेषामभिन्नवस्तुविषयत्वान्नीलादि-विषयसंवित्तिवत्प्रत्येकं चित्रा संवित्प्रसज्येत। अथ यद्यपि त्रयात्मक वस्तु तथाऽप्यदृष्टादिलक्षणसहकारिवशात्किचिदेव कस्यचिदरूपमाभाति न सर्वं सर्वस्य, असदेतत् तदाकारशून्यत्वादवस्त्वालम्बनप्रतीतिप्रसक्तेः। तथाहि-त्र्याकारं तद्वस्तुएकाकारश्च संविदः संवेद्यन्त इति कथम् अनालम्बनास्ता न भवन्ति ? प्रयोगः-यद्यदाकारं संवदेनं न भवतिन तत्तद्विषयं यथा चक्षुज्ञनि न शब्दविषयम्, त्र्यात्मकवस्त्वाकारशून्याश्च यथोक्ताः संविद इति व्यापकानुपलब्धिः / तथापितद्विपयत्वेऽतिग्रसङ्गापत्तिर्विपर्यय वा बाधंक प्रमाणम्। न च यथा प्रत्यक्षेण गृहीतेऽपि सर्वात्मना वस्तुन्याभ्यासादिवंशात् क्वचिदेव क्षणिकत्वादौ निश्चयोत्पत्तिर्न सर्वत्र तद्वददृष्टादिवलादेकाकारा संविदुदेष्यतीत्यभिधातुं क्षम, क्षणिकादिविकल्पस्याऽपि परमार्थतो वस्तुविषयत्वानभ्युपग Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 44 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख मावस्तुनो विकल्पागोचरत्वात्परम्परया वस्तुप्रतिबन्धात्।तथाविधतत् प्राप्तिहेतुतया तु तस्य प्रामाण्यम् / उक्तं च-'लिङ्ग लिङ्गिधियोरेवं, पारंपर्येण वस्तुनि। प्रतिबन्धात्तदाभासशून्ययोरप्यबन्धनम् / / 1 / / ' इति परैस्तु परमार्थत एव वस्तुविषयत्वमिष्ट प्रीत्यादिप्रतिपत्तीनाम; अन्यथा सुखाद्यात्मना शब्दादीनामनुभवात्सुखानुभवख्यातिरित्येतदसतं स्यात्। सुखादिसंविदां च सविकल्पकत्वान्न किंचिदनिश्चित रूपमस्तीति सर्वात्मनाऽनुभवख्यातिप्रसक्तिः। यतः स्वार्थप्रतिपत्तिनिश्चयानामियमेव यत्तन्निश्चयनं नाम। यदपि 'प्रसादतापदैन्याद्युपलम्भात्सुखाद्यविन्वतत्वं सिद्ध शब्दादीनाभि' त्यभिहितं, तदनैकान्तिकम् / तथाहि-योगिनां प्रकृतिव्यतिरिक्त पुरूषं भावयता तमालम्च्य प्रकर्षप्राप्तयोगानां प्रसादः प्रादुर्भवति प्रीतिश्च, अप्राप्तयोगानां तदहुततरमपश्यतामुद्वेग आविर्भवति। जडमतीनां च प्रकृत्यावरणं प्रादुर्भवति / न च परैः पुरुषस्त्रिगुणात्मकोऽभीष्ट इति प्रसादतापदेन्यादिकार्यापलब्धेः' इत्यस्य कथं नानैकान्तिकता ? तच सङ्कल्पात्प्रीत्यादीनि प्रादुर्भवन्ति न पुरूषादिति वाष्य शब्दादिष्वप्यस्य समानत्वात्, सङ्कल्पमात्रभावित्वे च सुखादयो बाह्या नस्युः सङ्कल्पस्य संविद्रूपत्वात्। बाह्यविषयोपधानमन्तरेणाऽपि पुरुषदर्शन प्रीत्याधुत्पत्तिदर्शनात् / 'बाह्यसुखाद्युपधानबलात्सातादिरूपं संवेदनस्य' इत्यपि सव्यभिचारमेव इष्टानिष्टविकल्पादनावाश्रितबाह्यविषयसन्निधानं प्रसिद्धमेव हि सुखादिसंवेदनं कथं तत्परोपधानमेव युक्तम् ?तच मनोऽपि त्रिगुणं तदुपधानवशात्तदाविर्भवतीति वक्तव्यम, 'यदेव हि प्रकाशान्तरनिरपेक्षं स्वयं सिद्धम्' इत्यादिना संविद्रूपत्वस्य तत्र साधितत्वात् अतः 'समन्वयादि' त्यसिद्धोहेतुः / नैकान्तिकश्व प्रधानाल्येन कारणेन हेतोः क्वचिदप्यन्वयासिद्धेः / तथाहि-व्यापि नित्यमेकं त्रिगुणात्मकं कारण साधयितुमिष्ट, नचैवभूतेन कारणेन हेतोः प्रतिबन्धः प्रसिद्धः / न-चाऽयं नियमः यदात्मक कार्य कारणमपि तदात्मकमेव, तयोर्भेदात् / तथाहि-हेतुमदादिभिर्धर्मर्युक्तं व्यक्तमभ्युपगम्यते तद्विपरीतं चाऽव्यक्तमिति कथं न कार्यकारण्योर्भदादनैकान्तिको हेतुः ? धर्मिविशेषविपरीतसाधनाद्वि-रुद्धोऽप्ययं हेतुः। तथाहिएको नित्यस्त्रिगुणात्मकः कारणभूतो धर्मी साधयितुमिष्टरत्तद्विपरीतशानेकोऽनित्यश्च, ततः सिद्ध-मा-सादयति, यतो व्यक्त नैकया त्रिगुणात्मिकया स्वात्मभूतथा जात्या समन्वितमुपलभ्यते,किं तर्हि?, अनेकत्वानित्यत्वादिधर्मकलापोपेतमेव, अतः कार्यस्यानित्यत्वाऽनेकत्वादिधर्मान्वयदर्शनात्कारणमपि तथैवाऽनुमीयते / क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधान्न नित्यस्य कारणत्वं कारणभेदकतत्वाच्च कार्यवैचित्र्यस्य अन्यथा निर्हेतुकत्वप्रसङ्गात, नैकरूपस्याऽपि कारणत्वमिति विपर्ययसिद्धिप्रसक्तेन नित्यैकरूपप्रधानसिद्धिः / यदि तु अनित्यानेकरूपे कारणे 'प्रधानम् ' इति संज्ञा क्रियते तदा अविवाद एव / यद्यपि 'सत सदित्येकरूपेण स एवाऽयमिति' च स्थिरंगा स्वभावनानुगता अध्यवसीयन्ते कल्पनाज्ञानेन भावास्तथाऽपि नेषामेकजात्यान्वयः स्वस्वभावय्यवस्थिततया देशकालशक्तिप्रतिभासादिभेदात्, नापि स्थैर्य क्रमोत्पत्तिमतां तथैव प्रतिभासनात्। 'प्रतिभासदश्व भावान भिनत्ति' इत्यसकृर प्रतिपादितम / 'मुद्रिकारादिवद्' इति दुष्टान्तोऽपि साध्यसाधनविकलः एकजात्यन्वयस्यैककारणप्रभवत्वस्य च तत्राऽप्यसिद्धत्वात् / न चैकं मृत्पिण्डादिकं कारणं मृदादिजातिश्चैकानुगता तत्र सिद्धेति वक्तव्यं, यतोऽनैकोऽवयवी मृत्पिण्डादिरस्ति एकदेशावरणे सर्वाऽऽवरणप्रसङ्गात् / नाऽप्येका जातिः, प्रतिव्यक्ति प्रतिभासभेदादिति प्रतिपादितत्वात्प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च / 'समन्वयाद्' इत्यस्य हेतोः पुरूषैश्वानैकान्तिकत्वम्। तथाहि-चेतनत्वादिधर्मेरन्विताः पुमासोऽभीष्टाः / नच तथाविधैककारणपूर्वकास्त इष्यन्ते / नच चेतनाद्यन्वितत्वं पुरूषाणां गौणं यतोऽचेतनादिव्यावृत्ताः सर्व एव पुरूषाः, अतोऽर्थान्तरव्यावृत्तिरूपा चैतन्यादिजातिस्तदनुगामिनी कल्पिता, न तु तात्विकी समस्तीति वक्तव्यम्, अन्यत्रापि समानत्वात्-रातः शब्दादिष्वप्यमुख्य सुखाद्यन्वितत्वमसत्यप्येककारणपूर्वकत्वे पुरूषेष्विव भविष्यतीति कथं नानैकान्तिकत्वं हेतोः / मूलप्रकृत्यवस्थायां च सत्त्वरजस्तमोलक्षणा गुणाः, गुणत्वऽचेतनाऽभोक्तृत्वादिभिरन्विताः प्रधानपुरूषाश्च नित्यत्वादिभिरन्टितास्तथाभूतैककारणपूर्वकाश्चन भवन्तीत्यनैकान्तिकत्वमेव / तदेव 'समन्वयाद्' इत्यस्य हेतोरसिद्धविरूद्धानैकान्तिकदोषदुष्टत्वान्न प्रधानप्रसाधकत्वम्। अनेनेव न्यायेन 'परिमाणात्'शक्रितः प्रवृत्तेः कार्यकारणभावाद्वैश्वरूप्यस्याविभागादित्यादिकानामपि न प्रधानाऽस्तित्वसाधकत्वम् / तथाहि-साध्यविपर्यय च बाधकप्रमाणाप्रदर्शनात्सर्वेऽप्येतेऽनैकान्तिकाः। नहि प्रधानाख्यस्य हेतोरभावेन परिमाणादीनां विरोधः सिद्धः। तथाहियदि तावत्कारणमात्रस्याऽऽस्तित्वमत्र साध्यते तदा सिद्धसाध्यता नारगाकं कारणमन्तरेण कार्यस्योत्पादोऽभीष्टः, नच कारणमात्रस्य 'प्रधानमिति' नाम करणे किंचिद्वाध्यते। अथ प्रेक्षावत्कारणमस्ति यद् व्यक्तं नियतपरिमाणमुत्पादयति शक्नि तश्च प्रवर्त्तत इते साध्यते तदाऽनेकान्तिकता, विनाऽपि हि प्रेक्षावता विधात्रा स्वहेतुसामयात्प्रतिनियतपरिमाणादियुक्तस्योत्पत्त्यविरोधात् / न च प्रधान प्रेक्षावत्कारणं, युक्तम्, अचेतनत्वात् तस्य प्रेक्षायाश्च चेतनापर्यायत्वात्। अपि च - 'शक्तितः प्रवृत्तेः' इत्यनेन किमव्यतिरिक्र शक्तिमत्कार साध्यते, आहाश्विव्यतिरिक्तानेकशक्तिसम्बन्धि तदेकत्वादिधर्मकलापाध्यासितमिति कल्पनाद्वयम्। तत्रयद्याद्या कल्पना तदा सिद्धसाधनं कारणमात्रस्य ततः सिझ्यभ्युपगमात्। द्वितीयायां हेतोरनैकान्तिकता. तथाभूतेन वचिदप्यन्वयासिद्धेहेतुश्वासिद्धो यतो न विभिन्नशक्रियोगात्कस्यचित् कृचित्कार्ये कारणस्य प्रवृत्तिः सिद्धा स्वात्मभूतत्वाच्छक्तीनाम निरन्वयविनाशावष्टब्धत्वात् सर्वभावानां क्वचिदपि लयासिद्धेः, अविभागाद्वैश्वरूपस्येत्ययमपि हेतुरसिद्धः, लयो हि भवन पूर्वस्वभावापगमे वा भवेद, अनपगमे वा?, यद्याद्यः पक्षस्तदा निरन्वयविनाश - प्रसङ्गः। द्वितीयस्तदा लयाऽनुपपत्तिः, यतो नाविकलं स्वरूप विभ्रतः कस्य-चिलयो नामातिप्रसाङ्गादतिविरुद्धमिदं परस्परतः अविभागणे 'वेश्वरूप्यं' चेति / विरूद्धा वा एतं हेतवः प्रधानहेत्वभावस्वकारणशवितभेदतः कार्यस्य परिमाणदिरूपेण वैचित्र्यस्य कार्यकारणभावादिना चोपपद्यमानत्वात्। थाहि-प्रधानं यदि व्यक्तस्य कारण भवेत्तदा सर्वमेव विश्वं तत्स्वरूपवत्तदात्मकत्वादेकमेव द्रव्यं स्यात, Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 45 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संख ततश्च 'बुद्धिरेका एकोऽहंकारः पञ्च तन्मात्राणी' त्यादिकः परिमाणविभागोऽसङ्गतः स्यादिति निष्परिमाणमेव जगत्स्यात् / तथा प्रधानहेत्वभावे एव-प्रावतनन्यायेन 'अभेदेन शक्तिर्न क्रिया' इत्यादिना | घटादिकरणे कुम्भकारादीनां शक्तितः प्रवृत्तिरूपपद्यते, कार्यकारणविभागोऽपि प्रधानहेत्वभावे एव युक्तो नतु तत्सद्भावे इति प्राक् प्रतिपादितम् / प्रधानसद्भावे वैश्वरूप्यमनुपपत्तिकमेव, सर्वस्य जगतः तन्मयत्वेन तत्स्वरूपवदेकत्वप्रसक्तेस्तदविभागो दूरोत्सारित एवेतिन कुतश्चिद्धेतोः प्रधानासिद्धि यदपि प्रधानविकारबुद्धिव्यतिरिक्तं चैतन्यमात्मनो रूपं कल्पयन्ति "चंतन्यं पुरूषस्य स्वरूपम्" इत्यागमात्पुरूषश्च शुभाशुभकर्मफलस्य प्रधानोपनीतस्य भोक्ता नतु कर्ता सकलजगत्परिणतिरूपायाः प्रकृतेरेव कर्तृत्वाभ्युपगमात्। माणयन्ति चात्र यत्संघातरूपं वस्तुतत्परार्थ दृष्ट, यथाशयनाशनाद्यगादि, संघातरूपाश्च चक्षुरादय इति रवभावहेतुः, यश्वासो परः स आत्मेति सामर्थ्यात्सिद्धम् / अत्र च 'चैतन्यं पुरूषस्य स्वरूपम्' इत्यादिददता चैतन्य नित्यैकरूपमिति प्रतिज्ञातम् तस्य नित्यैकरूपात्पुरुषादव्यतिरिक्तत्वात, अध्यक्षविरूद्धं चेदं रूपादिसंविदां स्फुट स्वसंविच्या भिन्नस्वरूपावगमादेकरूपत्वे त्वात्मनोऽने - कविधार्थस्य भोक्तृत्वाभ्युपगमो विरुद्ध अत्सज्येत। अभोकृत्रवस्थाव्यतिरिक्तत्वादोकावस्थायाः,मच दिदृक्षादियोगादविरोधो दिदृक्षाशुश्रूषादीना परस्परतोऽभिन्नानामुत्पादैरात्मनोऽप्युत्पादप्रसङ्गः तासां तदव्यतिरेकात्, व्यतिरेके च तस्य ताः' इति सम्बन्धानुपपत्तिरूपकारस्य तन्निबन्धनस्याभावात्, भावे वा तत्राऽपि भेदाभेदविकल्पाभ्यामनवस्थातदुत्पत्तिप्रसङ्गतो दिदृक्षाद्यभावान्न भोक्तृत्वम्, प्रयोगोयस्य यद्भावव्यवस्थानिबन्धनं नास्ति नासौ प्रेक्षावता तद्भावन व्यवस्थाप्यः,यथाऽऽकाशं मूर्तत्वेन, नास्ति च भोक्तृत्वव्यवस्थानिबन्धनं पुरूषस्य दिदृक्षादि इतिकारणानुपलब्धिः / नचायमसिद्धो हेतुरिति प्रतिपादितम् / कर्तृत्वाभावाद्भोक्तृत्वमपि तस्य न युक्तम् न ह्यकृतस्य कर्मणः फलं कश्चिदुपभुक्ते अकृताभ्यागमप्रसङ्गात्। न च पुरूषस्य कर्माऽकर्तृत्वेऽपि प्रकृतिरस्याऽभिलषितमर्थमुपनयतीत्यसो भोक्ता भवति, यतो नासावप्यचेतना सती शुभाऽशुभकर्मणां की युक्ता येनाऽसौ कर्मफलं पुरूषस्य सम्पादयेत् / अथ यथा षङ्वन्धयोः परस्परसंबन्धात्प्रवृत्तिस्तथा महदादिलिङ्ग चेतनपुरूषसमबन्धाचेतनावदिव धर्मादिषु कार्येषु अध्यवसायं करोतीत्यदोष एवायम / उक्त च-“पुरूषस्य दर्शनार्थ, कैवल्यार्थतथा प्रधानस्य। पङ्ग्वन्धदुभयोरपि, संयोगात् तत्कृतः सर्गः // 21 // " (साङ्ख्यका०) इति। असदेतत्; यतो यदि प्रकृतिरकृतस्याऽपि कर्मणः फलमभिलषितमुपनयति तदा सर्वदा सर्वस्य पुंसोऽभिलषितार्थसिद्धिः किमिति न स्यात् ? नच तत्कारणस्य धर्मस्याभावान्नासाविति वक्तव्यम्, यतो धर्मस्याऽपि प्रकृतिकार्यतया तदव्यतिरेकातद्वत्सदैव भाव इति / सर्वदा सर्वस्याऽभिलषितफलप्राप्तिप्रसक्तिः / अपि च यद्यभिलषितं फलं प्रकृतिरूपनयति तदा नानिष्ट प्रयच्छेत्, न हि कश्चिदनिष्टमभिलषति / किं च-उपनयतु नाम प्रकृत्तिः फल तथाऽपि भोक्तृत्वं पुंसोऽयुक्तमविकारित्वान्नहि सुखदुःखादिना- | ऽऽहादपरिसापादिरूप विकारमनुपनीयमानस्य भोक्क्तृत्वमस्याकाशवत् सङ्गतमान च प्रकृतिरस्योपकारिणी अधिकृतात्मन्युपकारस्य कर्तुमशक्यत्वाद, विकारित्वे वा नित्यत्वहानिप्रसक्तिः अतावदस्थ्यस्याऽनित्यत्वलक्षणत्वात्तस्यापि विकारिण्यवश्यंभावित्वात् / अथ न विकारापत्त्याऽऽत्मनो भोक्तृत्वमिष्ट, किं तर्हि ? बुझ्यध्यवसितस्याऽर्थस्य प्रतिबिम्बोदयन्यायेन संचेतनात. तथाहि-बुद्धिदर्पणसंक्रान्तमर्थप्रबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य नतु विकारापतिः / न च पुरुषप्रतिबिम्बमात्रसंक्रान्तावपि स्वरूपप्रच्युतिमान् दर्पणवदविचलितस्वरूपत्वात्, असदेतत्; यतो बुद्धिदर्पणारूढमर्थप्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंसि संक्रामत् ततो व्यतिरिक्तमव्यतिरिक्तं वेति वाच्यम् / यदि अव्यतिरिक्तमिति पक्षस्तदा तदेवोदयव्यपयोगित्वं पुंसः प्रसज्येत उदयादियोगिप्रतिबिम्बाव्यतिरेकात्तत्स्वरूपवत / अथ व्यतिरिक्तमित्यभ्युपगमस्तदान भोक्तृतान भोक्त्रवस्थातस्तस्य कस्यचिद्विशेषस्याऽभावात्। न चार्थप्रतिबिम्बसम्बन्धात्तस्य भोक्तृत्वं, युक्तमनुपकार्योपकारकयोःसम्बन्धासिद्धेः उपकारकल्पनाया अपि भेदाभेदविकल्पतोऽनुपपत्तेः / अपि च-पुरूषस्य दिदृक्षां प्रधानं यदि जानीयात्तदा पुरूषार्थं प्रति प्रवृत्तियुक्ता स्यात् नचैव तस्य जडरूपत्वात्, सत्यपि चेतनावत्सम्बन्धे नपग्वन्धदृष्टान्तादप्रवृत्तियुक्तिमती, यतोऽन्धो यद्यपि मार्ग नोपलभते तथाऽपि पड़ोर्विवक्षामसी वेत्ति तस्य चेत-नावत्त्वात् न चैवं प्रधानं पुरूषविवक्षामवगच्छति तस्याचेतनावत्त्वेन जडरूपत्वात्। नच तयोनित्यत्वेन परस्परमनुपकारिणोः पङ्ग्वन्धवत्सम्बन्धोऽपि युक्तः / अथ प्रधानं पुरूषस्य दिदृक्षामवगच्छतीत्यभ्युपगम्यते, तथा सति भोक्तृत्वमपि तस्य प्रसज्यते करणज्ञस्य भुजि क्रियावेदकत्वाविरोधात् / न चय एक जानाति तेनापरमपि ज्ञातव्यमित्ययं न नियमो यतः प्रधानस्य कर्तृत्वे भो-वतृत्वमपि नियतसन्धीति युक्तं वक्तुम्, यतो यदि प्रधानस्य बुद्धिमत्त्वमङ्गीक्रियतेतदा पुरुषवचैतन्यप्रसङ्गो बुध्द्यादीनां चै-तन्यपर्यायत्वात्, यतो यत् प्रकाशात्मतया अपरप्रकाशनिरपेक्ष स्वसंविदितरूपं चकास्तितत् चैतन्यमुच्यते, तद्यदिबुद्धेरपि समस्ति चिद्रूपा सा किमिति न भवेत् / न च यथोक्तवुद्धिव्यतिरेकेणापरं चैतन्यमुपलक्षयामः, यतस्तद्वपतिरिक्तस्य पुरुषस्य सिद्धिर्भवत् / (सम्म०) (अत्रत्या विशेषवक्तव्यता 'वुद्धि' शब्दे पञ्चमभागे 1327 पृष्ठे गता।) यदपि"पराश्चिक्षुरादयः" इत्याधुक्तम्, तत्राधेयातिशयो वा परः साध्यत्वेनाभिप्रेतः, यद्वा-अविकार्यनाधेयातिशयः, आहोस्वित्सामान्येन चक्षुरादीनां पारार्थ्यमात्रं साध्यत्वेनाभिप्रेतमिति विकल्पत्रयम्। तत्र यदि प्रथमः पक्षः स न युक्तः, सिद्धसाध्यतादोषाऽऽघातत्वाद् यतोऽस्माभिरपि विज्ञानोपकारित्वेनाभ्युपगता एव चक्षुरादयः "चक्षुः प्रतीत्य रूपादियोत्पद्यते, चक्षुर्विज्ञानम्" इत्यादिवचनात् / अथ द्वितीयः पक्षोऽङ्गीक्रियते तदा हेतोविरूद्धतालक्षणो दोषः, विकार्युपकारित्वेन चक्षुरादीना साध्यविपर्ययेण दृष्टान्ते हेतोयाप्तत्वप्रतीतः / तथाहिअविकारिण्यतिशयस्याधातुमशक्यत्वाच्छयनाशनाऽदयोऽनित्यस्यैवो पकारिणो युक्ता नाऽनित्यस्येति कथं न तोविरुद्धता ? यदि पुनः सामान्येन आधे याऽनाधेयातिशयविशेषमपास्य पारा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संख 46 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि र्थ्यमात्रं साध्यत इत्ययं पक्षः कक्षीक्रियते तदापि सिद्धसाध्यतैव, तियत्रैवासी संखडिः स्यात्तत्र न गन्तव्यमिति, व चाऽसौ स्यादिति चक्षुरादीनां विज्ञानोपकारित्वेनेष्टत्वात्। न च चित्तमपि साध्यधर्मित्वे- दर्शयति, तद्यथा-ग्रामे वा प्राचुर्येण ग्रामधर्मोपेतत्वात्, करादिगम्यो का नोपात्तमित्यपरस्य तद्व्यतिरिक्तस्य परत्वमत्राभिप्रेत, चित्तादिव्यतिरे- ग्रामः, नास्मिन् करोऽस्तीति नकर, धूलिप्राकारोपेतं खेट, कर्वटकुनगरं, किणोऽपरस्याविकारिण उपकार्यत्वासम्भवात्, चक्षुरूपालोकमन- सर्वतोऽर्द्धयोजनात्परेण स्थितग्राममडम्बं पत्तनंयस्य जलस्थलपथयोरस्काराणामपरचक्षुरादिकदम्बको पकारित्वस्याऽन्यायप्राप्तत्वात् / न्यतरेण पर्याहारप्रवेशः, आकरः-ताम्रारूत्पत्तिस्थानं, द्रोणमुखं-यस्य विज्ञानस्य वा अनेककारणकृतोवकाराध्यासितस्य संहतत्वं कल्पित- जलस्थलपथावुभावपि, निगमावणिजस्तेषां स्थानं नैगमम्, आश्रममविरूद्धमेवेति ना असाध्ये हेतोरप्यसिद्धता सङ्गच्छते? तन्न सांख्योप- यत्तीर्थस्थानं, राजधानी-यत्र राजा स्वयं तिष्ठति, सन्निवेशो यत्र प्रभूताकल्पितचैतन्यरूपं; कल्पितचैतन्यरूपस्य नित्यस्यात्मनः कुतश्चि- नां भाण्डाना प्रवेश इति, तत्रैतेषु स्थानेषु संखडिं ज्ञात्वा संखडिसिद्धिः / तन्न अशुद्धद्रव्यास्तिकमतावलम्बिसांख्यदर्शनपरिकल्पित- प्रतिज्ञया न गमनम् अभिसंधारयेत्-न पर्यालोचयेत्। किमिति? यतः पदार्थसिद्धिरिति पर्यायास्तिकमतम्। सम्म०१ काण्ड 3 गाथाटीका। केवली ब्रूयात्-आदानमेतत्-कर्मोपादानमेतदिति / पाठान्तरं का औ०। विशे०1 सूत्र०। आचा० / स्या०1 'आययणमेयंति' आयतनं-स्थानमेतघोषाणां यत्संखडीगमनमिति। कथं संखडि स्त्री० (संखडि) संखड्यन्ते प्राणिनो यस्यांसा। अनेकसत्त्वव्या- दोषाणामायतनमिति दर्शयति- 'संखडि संखड्पिडियाए' त्ति-या या पत्तिहेतौ, औ०। आचा०ा जीता स्था०। आहारावपाकस्थाने, आचा० संखडिस्तां ताम्-अभिसन्धारयतः-तत्प्रतिज्ञया गच्छतःसाधोरखश्य१ श्रु०६ अ० 1 उ०। मेतेषां मध्येऽन्यतमो दोषः स्यात्, तद्यथा-आधाकर्म वा औद्देशिकं वा संस्कृति स्त्री० ओदनपाके, कल्प०३ अधि० 6 क्षण ! संखडि दृष्ट्वा न मिश्रजातं वा क्रीतकृतं वा उद्यतकं वा आच्छेद्य वा अनिसृष्ट वा अभ्याहृतं गच्छेत् / दश० 7 अ० / (संखड्यन्ते प्राणिनः इति व्याख्या तद्वर्णनं च वेति, एतेषां दोषाणामन्यतमदोषदुष्ट भुञ्जीत, स हि प्रकरणकर्तव'भासा' शब्दे पञ्चमभागे 1547 पृष्टे गतम्।) मभिसन्धारयेत्-यथाऽयं यतिमत्प्रकरणमुद्दिश्येहायातः, तदस्यभया येन से भिक्खू वा भिक्खुणी वा परं अद्धजोयणमेराए संखडिं नच्चा केनचित्प्रकारेण देयमित्यभिसन्धायाधाऽऽकर्मादि विदध्यादिति। यदि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिता गमणाए / से भिक्खू वा वा-यो हि लोलुपतया संखडिप्रतिज्ञया गच्छेत् सतत एवाऽऽधाकर्माद्यपि भिक्खुणी वा पाईणं संखडि नच्चा पडीणं गच्छे अणाढायमाणे, भुञ्जीतेति। पडीणं संखडिं नचा पाईणं गच्छे अणाढायमाणे, दाहिणं संखडिं किञ्च संखडिनिमित्तमागच्छतः साधूनुद्दिश्य गृहस्थ एवम्भूता वसतीः नचा उदीणं गच्छे अणाढायमाणे, उईणं संखडिं नचा दाहिणं कुर्यादित्याहगच्छे अणाढायमाणे जत्थेव सा संखडी सिया। तं जहा-गामंसि असंजए भिक्खुपडियाए खुड्डियदुवरियाओ महल्लियदुवारियावा नगरंसि वाखेडंसिवा कव्वडंसि वा मडंबंसि वा पट्टणंसि वा ओ कुजा, महल्लियदुवारियाओ खुड्डियदुवारियाओ कुन्जा, आगरंसि वा दोणमुहंसि वा नेगमंसि वा आसमंसि वा सिण्णवे- समाओ सिज्जाओ विसमाओ कुजा, विसमाओ सिज्जाओ समाओ संसि वा जाव रायहाणिंसि वा संखडिं संखडिपडियाए नो कुज्जा, पवायाओ सिज्जाओ निवायाओ कुज्जा, निवायाओ अभिसंधारिजा गमणाए, केवली बूया-आयाणमेयं संखडिं सिज्जाओ पवायाओ कुज्जा, अंतो वा बहिं वा उवस्सयस्त संखडिपडियाए अभिधारेमाणे आहाकम्मियं वा उद्देसियं वा हरियाणि छिंदिय छिंदियदालिय दालिय संथारगं संथारिजा,एस मीसजायं वा कीयगडं वा पामिचं वा अच्छिजं वा अणिसिटुं वा विलुंगयामो सिज्जा। तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं अभिहडं वा आहटु दिज्जमाणं भुंजिज्जा / (सू० - 134) पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडि संखडिपडियाए नो ‘से भिक्खू वे' ल्यादि स भिक्षुः परं प्रकर्षेणार्द्धयोजनमात्रे क्षेत्रे सं- अभिसंधारिजा गमणाए, एयं खलु तस्स भिक्खुस्स.जाव सया खड्यन्ते-विराध्यन्ते प्राणिनो यत्र सा संखडिस्ता ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया जए (सू०-१३) त्ति बेमि। नाभिसंधारयेत्-न पर्यालोचयेत्तत्र गमनमिति, न तत्र गच्छेदिति यावत्। असंयतः-गृहस्थः स च श्रावकः प्रकृतिभद्रको वा स्यात्, तत्रायदि पुनामेषु परिपाट्या पूर्वप्रवृत्तं गमनं तत्र च संखडि परिज्ञाय यद्विधेय ऽसौ साधुप्रतिज्ञया क्षुद्रद्वाराः-सङ्कटद्वाराः सत्यस्ता महागाराः तदर्शयितुमाह- 'से भिक्खू वे त्यादि-स भिक्षुर्यदि प्राचीना पूर्वस्यां दिशि कुर्यात्, व्यत्यय वा कार्यापेक्षया कुर्यात, तथा समाः शय्या-वसंखडि जानीयात्ततः प्रतीचीनम-अपरदिग्भागं गच्छेत्, अथ प्रतीचीनां सतयो विषमाः सागारिकापातभयात् कुर्यात्,साधुसमाधानार्थ जानीयात्ततः प्रचीनं गच्छेत्, एवमुत्तरत्राऽपि व्यत्ययो योजनीयः / कथं वा व्यत्ययं कुर्यात, तथा प्रवाताः शय्याः शीतभयान्निवाताः गच्छेत्? - 'अनाद्रियमाणः' संखडिमनादरयन्नित्यर्थः / एतदुक्तं भव- | कुर्यात, ग्रीष्मकालापेक्षया वा व्यत्ययं विध्यादिति / तथाऽन्तः-4 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 47 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि ध्ये उपाश्रयस्य बहिर्वा हरितानि छित्त्वा छित्त्वा विदार्य विदार्य उपाश्रयं संस्कुर्यात, संस्तारकं वा संस्तारयेत, गृहस्थश्वानेनाभिसन्धानेन संस्कुर्यात्। यथैव-साधुः शय्यायाःसंस्कारे विधातव्ये विलुंगयामा त्तिनिर्गन्थ: अकिञ्चन इत्ययः स गृहस्थः कारणे संयतो वा स्वयमेव / संस्कारयेदित्युपसंहरति, तस्मात् तथाप्रकाराम् अनेकदोषदुष्टां संखडिं विज्ञाय सा पुनःसंखडिः पश्चात्संखड़ियं भवेत्, जातनामकरणविवाहाऽऽदिकापुरःसंखडिः, तथा मृतकसंखडि:-पश्चात्संखडिरिति, यदिवा-पुरः- अग्रतः-संखडिर्भविप्यति अतोऽनागतमेव यायात, / वसति रा गृहस्थः संस्फुर्यात्, वृत्ता वा संखडिरतोऽत्र तच्छेषोपभोगाय साधवः समागच्छेयुरिति / सर्वथा रार्वा संखडिं सखडिप्रतिज्ञया नोऽभिसंधारयेत्-न पर्यालोचयेगगनक्रियामिति, एवं तस्य भिक्षोः सामग्यसम्पूर्णता भिक्षुभावस्य यत्सर्वथा संखडिवर्जनमिति / आचा०२ श्रु० 1 चू०१ अ०२ उ०। अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशके दोषसम्भवात्संखडिगमन निषिद्ध प्रकारान्तरेणाऽपि तद्गतानेव दोषानाह से एगइओ अन्नयरं संखडिं आसित्ता पिबित्ता छड्डिज वा वमिज्ज वा भुत्ते वा से नो सम्मं परिणामिज्जा अन्नयरे वा से दुक्खे रोगायके समुप्पजिज्जा, केवली बूयाआयाणमेयं / (सू०१४) इह खलु मिक्खू गाहावईहिं वा गाहावइणीहिं या परिवायएहिं वा परिवाइयाहिं वा एगज्जं सद्धिं सुंड पाउं भो वइमिस्सं हुरत्था वा उवस्सयं पडिले हेमाणो नो लभिज्जा तमेव उवस्सयं सम्मिस्सीभावमावजिज्जा, अन्नमणे वा से मत्ते विप्परियासियभूए इस्थिविग्गहे वा किलीबे वा तं भिक्खुं उवसंकमित्तु बूयाआउसंतो समणा ! अहे आरामंसि वा अहे उवस्सयंसि वा राओ वा वियाले वा गामधम्मनियंतियं कटु रहस्सियं मेहुणधम्मपरियारणाए आउट्टाभो, तं चेवेगईओ सातिजिजा, अकरणिज्जं चेयं संखाए एए आयाणा (आयतणाणि)संति संविजमाणा पच्चवाया भवंति, तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। (सू०-१५) स भिक्षुः एकदा-कदाचिद् एकचरो वा अन्यतराम-काश्चित्पुरः संखडिं पश्चात्सखडि वा संखडिमिति संखडिभक्तम् आस्वाद्यभुक्त्वा तथा पीत्वा शिखरिणीदुग्धादि तच्चातिलोलुपतया रसगृझ्याऽऽहारितं सत् 'छड्डेज वा' छर्दिविदध्यात, कदाचिच्चापरिणतं तद्विशूचिकां कुर्यात्, अन्यतरो वा रोग:-कुष्ठादिकः आतङ्कस्त्वा-शुजीवितापहारी शूसादिकः समुत्पद्येत, केवली-सर्वज्ञो ब्रूयात्, यथा एतत् संखडीभक्तम् आदान-कर्मोपादान वर्तत इति / यथै-लदादानं भवति तथा दर्शयति- 'इहेति' संखडिस्थाने स्मिन् वा भवेऽमी अपायाः, आमुष्मिकास्तु दुर्गतिगमनादयः, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, भिक्षधशीलो भिक्षुः स गृहपतिभिस्तद्भार्याभिर्वा परिव्राजकैः परिवाजिकाभिर्वा सार्द्धमेकद्यम्-एकवाक्यतया सम्प्रधार्य भो-इल्यामन्त्रणे एतानामन्त्र्य चैतद्दर्शयति-संखडिगतस्य लोलुपतया सर्व संभाव्यत इत्यतस्तैर्व्यतिमिश्र 'सुंड' ति सीधुम् अन्यद्वा प्रसन्नादिकं पातुं पीत्वा ततः 'हुरवत्था वा' बहिर्वा निर्गत्योपाश्रयं याचेत,यदा च प्रत्युपेक्षमाणो विवक्षितमुपाश्रयं न लभेत ततस्तमेवोपाश्रयं यत्राऽसौ संखडिस्तत्राऽन्यत्र वा गृहस्थपरिवजिकादि-भिर्मिश्रीभावमापद्येत। तत्र चासावन्यमना मत्तो गृहस्थादिको विपर्यासीभूत आत्मानं न स्मरति, स वा भिक्षुरात्मानं न स्मरेत, अस्मरणाच्चैवं चिन्तयेद्-यथाऽहं गृहस्थ एव, यदिवा-स्वीविग्रहेशरीरे विपर्यासीभूतः-अध्युपपन्नः क्लीये वा नपुंसके वा। सा च स्त्री नपुंसको वा तं-भिक्षुम् उपसंक्रम्यआसन्नीभूय ब्रूयात्, तद्यथा-आयुष्मन् ! श्रमण ! त्वया सहैकान्तमहं प्रार्थयामि, तद्यथाआरामे वोपाश्रये वा,कालतश्च रात्रौ वा विकाले वा, तं भिक्षु ग्रामधर्म :विषयोपभोगगतैर्व्यापार-नियन्त्रितं कृत्वा, तद्यथा-मम त्वया विप्रियं न विधेयं, प्रत्यहमहमनु-सर्पणीयेति, एवमादिभिर्नियम्य ग्रामासन्ने वा कुत्रचिद्रहसि मिथुन-दाम्पत्यं तत्र भवं मैथुनम्-अब्रह्मेति तस्य धर्माःतद्रता व्यापारास्तेषां 'परियारणा' आसेवना तया 'अउट्टामो' त्तिप्रवर्तीमहे / इदमुक्तं भवति-साधुमुद्दिश्य रहसि मैथुनप्रार्थना काचि(कुर्यात, तां चैकः कश्चिदेकाकी वा 'साइजेज' त्ति अभ्युपगच्छेत्. अकरणीयमेतद एवं संख्यायज्ञात्वा संखडिगमनं न कुर्याद्। यस्मादेतानि आयतनानि कर्मोपादानकारणानि सन्तिभवन्ति संचीयमानानि प्रतिक्षणमुपचीयमानानि / इदमुक्तं भवति-अन्यान्यपि कर्मोपादानकारणानि भवेयुः, यत एवमादिकाः प्रत्यपाया भवन्ति तस्मादसो संयतो निर्ग्रन्थस्तथाप्रकारा संखडिं पुरःसंखिडिं पश्चात्संखडिं वा संखडिं ज्ञात्वा संखडिप्रतिज्ञया नाभिसंधारयेद् गमनायगन्तुनपर्यालोचयेदित्यर्थः / तथासे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अन्नयरिं संखडिं सुच्चा निसम्म संपहावइ उस्सुयभूएण अप्पाणेणं, धुवा संखडी नो संचाएइ तत्थ इयरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहरित्तए, माइहाणं संफासे, नो एवं करिज्जा / से तत्थ कालेण अणुपविसित्ता तत्थियरेयरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं पडिगाहित्ता आहारं आहारिजा। (सू०-१६) स भिक्षुरन्यतरां-पुरःसंखडि पश्चात्संखडिवा श्रुत्वाऽन्यतः स्वतो वा निशम्यनिश्चित्य कुतश्विद्धेतोस्ततस्तदभिमुखं सम्प्रधावत्युत्सुकभूतेनात्मना / यथा-ममात्र भविष्यत्यद्भुतभूतं भोज्य, यत-स्तत्र धुवानिश्चिता संखडिरस्ति; नो संचाएइ ति न शक्नोति तत्र संखडिग्रामे इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः संखडिरहितेभ्यः सामुयाणिय तिभैक्ष, किम्भूतम् ? Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 48 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि एषणीयम् आधाकर्मादिदोषरहितं 'वेसियं' ति केवलरजोहरणादिवेषालब्धमुत्पादनादिदोषरहितम्, एवम्भूतं पिण्डपातम् - आहारं परिगृहाभ्यवहर्तुं न शक्रोतीति सम्बन्धः। तत्र चाऽसो मातृस्थानं संस्पृशेत. तस्य मातृस्थान संभाव्येत, कथं!-यद्य-पीतरकुलाहारप्रतिज्ञया गतो, नचासौ तमभ्यवहर्तुमल पूर्वोक्तया नीत्या, ततोऽसौ संखडिमेव गच्छेत् / एवं च मातृस्थानं तस्य संभाव्येत, तस्मात्रैव कुर्याद-ऐहिकामुष्मिकापायभयात् संखडिग्रामगमनं न विदध्यादिति। यथा च कुर्यात्तथाऽऽहस भिक्षुः तत्र संखडिनिवेशे कालेनानुप्रविश्य तत्रेतरतरेभ्यो गृहेभ्यः उग्रकुलादिभ्यः सामुदानिकं -समुदानंभिक्षा तत्र भवं सामुदानिकम् एषणीयं-प्रासुकं वैषिककेवलवेषावाप्तं धात्रीपिण्डादिरहितं पिण्डपात प्रतिगृह्याहारमाहारयेदिति। पुनरपि संखडिविशेषमधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा गामं वा०जाव | रायहाणिं वा इमंसिखलु गामंसि वा.जाव रायहाणिंसि वा संखडी सिया तं पि य गाम वा जाय. रायहाणिं वा संखडिं संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए / केवली बूयाआयाणमेयं, आइन्नाऽवमाणं संखडिं अणुपविस्समाणस्सपाएण वा पाए अकंतपुध्वे भवइ, हत्थेण वा हत्थे संचालियपुव्वे भवइ, पाएण वा पाए आवडियपुव्वे भवइ, सीसेण वा सीसे संघट्टियपुव्वे भवइ, कारण वा काए संखोभियपुव्वे भवइ, दंडेण वा अट्ठीण वा मुट्ठीण वा लेलुणा वा कवालेण वा अभिहयपुटवेण वा भवइ, सीओदएण वा उस्सित्तपुव्वे भवइ, रयसा वा परिघासियपुव्ये भवइ, अणेसणिज्जे वा परिभुत्तपुव्वे भवइ अन्नेसिं वा दिजमाणे पडिग्गाहियपुवे भवइ / तम्हा से संजए नियंठे तहप्पगारं आइन्नावमाणं संखडि संखडिपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए। (सू०१७) स भिक्षुर्यदि पुनरेवम्भूतं ग्रामादिक जानीयात्,तद्यथा-मामे वा नगरे वा यावद्राजधान्यां वा संखडिर्भविष्यति, तत्र च चरकादयोऽपरे वा भिक्षाचराः स्युरतस्तदपि ग्रामादिकं संखडिप्रतिज्ञया ना-भिसन्धारयद्मनाय-न तत्र गमनं कुर्यादित्यर्थः। तद्गतांश्च दोषान् सूत्रेणैवाह-केवली बूयाद्-यथैतदादान-कोपादानं वर्तत इति दर्शयति-सा च संखडिः आकीर्णा वा भवेत्-चरकादिभिः सडकुला अवमाहीना शतस्योपस्कृतेःपञ्चशतोपस्थानादिति. तां चाकीमवमा चानुप्रविशतोऽमी दोपाः, तद्यथा-पादेनापरस्य पाद आक्रान्तो भवेत्, हरतेन वा हरतः राञ्चालितो भवेत. पात्रेण वा भाजनेन वा यात्रं भाजनमापतितपूर्व भवेत्.शिरसा वा शिरः संघट्टितं भवेत, कायेनापरस्य चरकादेः कायः सशोभित-पूर्वो भवेदिति / स च चरकादिरारूषितः कलहं कुर्यात,कुपितेन च तेन टण्डेनास्थ्ना वा मुष्टिना वा लोष्टेन वा कपालेन वा साधुरभिहापूर्वो | भवेत, तथा शीतोदकेन वा कश्चित्सिचेत, रजसा वा परिघर्षितो वा भवेत् / एते तावत्सङ्कीर्णदोषाः / अवमदोषाश्वामी-अनेषणीयपरिभोगो भवेत्, स्तोकस्य संस्कृतत्वात्प्रभूतत्वाचार्थिना; प्रकरणकारस्यायमाशयःस्याद् यथा मत्प्रकर णमुद्दिश्यते समायातास्तत एतेभ्यो मया यथाकथशिद्देयमित्यभिसन्धिनाऽऽधाकर्माद्यपि कुर्याद, अतोऽनेषणीयपरिभोगः स्यादिति / कदाचिद्वा दात्राऽन्यस्मै दातुमभिवाञ्छितं, तच्चान्यस्मै दीयमानगन्तराले साधुर्गृह्रीयात्, तस्मादेतान् दोषानभिसम्प्रधायं संयतोनिन्थिस्तथाप्रकारामाकीर्णमवमा संखडि विज्ञायं संखड़िप्रतिज्ञया नाऽभिसन्धारयेद् गमनायेति। आचा०२ श्रुः१ चू० 1 अ०३ उ० / इहानन्तरोद्देशके संखडिगतो विधिरभिहितस्तदिहाऽपि तच्छेषविधेः प्रतिपादनार्थमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा.जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा मंसाइयं वा मच्छाइयं वा मंसखलं वा मच्छखलं वा आहेणं वा पहेणं वा हिंगोलं वा संमेलं वा हीरमाणं पेहाए अंतरा से मग्गा बहुपाणा बहुबीया बहुहरिया बहुओसा बहुउदया बहुउत्तिंगपणगदगमट्टियमक्के डा-संताणया बहवे तत्थ समणमाहणअतिहि-किवणवणीमगा उवागया उवागमिस्संति (उवागच्छंति) तत्थाइन्ना वित्ती नो पन्नस्स निक्खमणपवेसाए नो पन्नस्स वायणपुच्छणपरियट्टणागुप्पेह-धम्माणुओगचिंताए, से एवं नचा तहप्पगारं पुरेसंखडिं वा पच्छासंखडिं वा संखडिं संखडिपडिआए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए। से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जा मसाइयं वा मच्छाइयं वा०जाव हीरमाणं वा पेहाए अंतरा से मग्गा अप्पा पाणा०जाव संताणगा नो जत्थ बहबे समण०जाव उवागमिस्संति अप्पाइन्ना वित्ती पन्नस्स निक्खमणपवेसाए पन्नस्सवायणपुच्छण-परियट्टणाणुप्पेहधम्माणुओगचिंताए, सेवं नचा तहप्पगारं पुरेसंखडिं वाजाव अभिसंधारिजा गमणाए। (सू०-२२) स भिक्षुः कचिदग्रामादौ भिक्षार्थ प्रविष्टः सन् यद्येवम्भूतां संखडि जानीयात् तत्प्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद् गमनायेत्यन्ते क्रिया। यादृगभूता च संखडि न गन्तव्यं तां दर्शयति-मांसमादौ प्रधानं यस्यां सा मासादिका तामिति / इदमुक्तं भवति-मांसनिवृत्ति कर्तुकामाः पूर्णायां वा निवृत्ती मांसप्रचुर संखडि कुर्युः, तत्र कश्चित्स्वजनादिस्तदनुरूपमेव किश्चिन्नयेत्, तच नीयमानं दृष्ट्वा न तत्र गन्तव्यं तत्र दोषान् वक्ष्यतीति। तथा मत्स्या आदी प्रधानं यस्यां ससा तथा, एवं मांसखलमिति, यत्र संखडिनिमितं मांस छित्त्वा छित्त्वा शोष्यते शुष्कं वा पुचीकृतमास्ते तत्तथा, क्रिया पूर्ववत् / एवं मत्स्य खलमपीति / तथा- 'आहेणं' ति यद्विवाहोत्तरकालं वधूप्रवेशे वरगृहे भोजनं क्रियते, 'पहेणं' ति वध्वा नीयमानाया यत्पितृगृहभोजनमिति, 'हिंगोल' ति मृतकभक्तं, यक्षा-दियात्राभोजनं वा, 'संमेल' ति परिजनसन्मानभक्तं गोष्ठीभक्त वा, तदेवम्भूता सख Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 46 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि डिं ज्ञात्वा तत्र च केनचित्स्वजनादिना तन्निमित्तमेव किञ्चिद हियमाणंनीयमानं प्रेक्ष्य तत्र भिक्षार्थं न गच्छेद्, यतस्तत्र गच्छतो गतस्य च दोषाः सम्भवन्ति। तांश्च दर्शयति-गच्छतस्तावदन्तरा- अन्तराले तस्य भिक्षोः मार्गाः पन्थानो बहवः प्राणाः-प्राणिनः पतङ्गाकदयो येषु ते तथा, तथा बहु बीजा बहुहरिता बहुवश्याया बहूदका बहूतिङ्गपनकोदक - मृत्तिकामर्कटसन्तानकाः / प्राप्तस्य च तत्र संखडिस्थाने बहवः श्रमणब्राह्मणाऽतिथिकृपणवनीपका उपागता उपागमिष्यन्ति तथोपागच्छन्ति च। तत्राकीर्णा चरकादिभिः-वृत्तिः-वर्तनम् अतोन तत्र प्राज्ञस्य निष्क्रमणप्रवेशाय वृत्तिः कल्पते, नापि प्राज्ञस्य वाचनाप्रच्छनापरिवर्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मानुयोगचिन्तायै वृत्तिःकल्पते, नतत्रजनाकीर्ण गीतवादिवसम्भवात् स्वाध्यायादिक्रियाःप्रवर्तन्त इति भावः / स भिक्षुरेवं गच्छगतापेक्षया बहुदोषां तथाप्रकारां मांसप्रधानादिकां पुनः संखडिं पश्चात्संखडि वा ज्ञात्वा तत्प्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्मनायेति / साम्प्रतमपवादमाह-स भिक्षुरध्वनि क्षीणो ग्लानोत्थितस्तपश्चरणकर्षितो वाऽवमौदर्य वा प्रेक्ष्य दुर्लभद्रव्यार्थी वा स यदि पुनरेवं जानीयात्मांसादिकमित्यादि पूर्ववदालापका यावदन्तरा अन्तराले 'से' तस्य भिक्षोर्गच्छतो मार्गा अल्पप्राणा अल्पबीजा अल्पहरिता इत्यादिव्यत्ययेन पूर्ववदालापकः / तदेवमल्पदोषां संखडिं ज्ञात्वा मांसादिदोषपरिहरणसमर्थः सति कारणे तत्प्रतिज्ञयाऽभिसन्धारयेद्मनायेति। आचा०२ श्रु० 1 चू०१ अ०४ उ०। संखडिप्रलोकनाय न गच्छेत्। सूत्रमसंखडिं वा संखडिपडियातिए (एतुं) एत्तए।॥४८॥ अथाऽस्य सूत्रस्य सम्बन्धमाहदुविहाऽवाता उ विहे, वुत्ता ते होज्ज संखडीए तु। तत्थ दिया विन कप्पति, किमु राती एस संबंधो ||1|| 'दुविहे' ति अध्वनि गच्छता संयमात्मविराधनाभेदाद् द्विविधाः प्रत्यपाया उक्ताः, संखड्यामपिगच्छतांतएव प्रत्यपाया भवेयुः अतस्तत्र दिवाऽपि गन्तुं न कल्पते. किमुत रात्रौ, एष सम्बन्धः / अनेन सम्बन्धेनाथातस्यऽस्य (सूल 48) व्याख्या- 'संखडिं वे' ति वाशब्दान्न कल्पते इत्यादि पदान्यनुवर्तनीयानि। तद्यथा-न केवलमध्वानं रात्रौ वा विकाले वा गन्तुं न कल्पते, किन्तु - संखडिमपि रात्रौ वा विकाले वा संखडिप्रतिज्ञया एतु- गन्तुं न कल्पते. एष सूत्रसंक्षेपार्थः। __ अथ भाष्यकारो विस्तरार्थ बिभणिषुराहसंखंडिजति आऊ-णि जियाणं संखडी स खलु वुचइ। तप्पडिआएँ ण गम्मति, अन्नत्थ गते सिया गमणं IEERI समिति-सामस्त्ये न खण्ड्यन्ते-ताड्यन्ते जीवानां वनस्पतिप्रभृतीनामायूंषि प्राचुर्यण यत्र प्रकरणविशेषे सा खलु संखडिरित्युच्यते। 'सूरेभ्यः' इत्यौणादिक इप्रत्ययः, पृषोदरादित्वादनुस्वारलोपः / ता 'संखडिजति जहिं आऊणि जियाण संखडि' तत्प्रतिज्ञया संखडिमहं गमिष्यामोत्येवंलक्षणया गन्तुंन कल्पते। एवं ब्रुवता सूत्रेणेदं सूचितम्अन्यार्थमपरकार्य निमित्तं संखडिगाम तस्य संखड्यामपि गमनं स्यादिति। राओ व दिवसतो वा, संखडिगमणे हवंतिऽणुग्घाया। संखडिएगमणेगा, दिवसेहिं तहेव पुरिसेहिं / / 663 // रात्रौ वा दिवसतो वा संखड्यां गमने चत्वारोऽनुद्धाताः प्रायश्चित्तम्। सा च संखडी दिवसः पुरूषैश्च एका अनेका च भवति / इदमेव स्पष्टयतिएगो एगदिवसियं, एगो ऽणेगाहियं च कुजाहि। ऽणेगा व एगदिवसि तु, ऽणेगा व अणेगदिवसिं तु |4|| एकः पुरूषः एकदैवसिकी संखडी कुर्यात्, एकोऽनेकाहिकामनेकदेवसिकीम्, अनेके पुरूषाः सभूयैकदैवसिकीम्, अनेके पुरूषा अनेकदैवसिकी संखडिं कुर्वन्ति। एकेक्का सा दुविहा, पुरसंखडि पच्छसंखडी चेव / पुव्यावरसूरम्मि, अहवा वि दिसाविभागेणं / / 665|| एकैका-एकदैवसिकी अनेकदैवसिकी च संखडिः प्रत्येक द्विविधापुरःसंखडी, पश्चात्संखडी च। या पूर्वसूर्यपूर्वदिग् विभागमध्यासीने रवो क्रियते सा पूर्वसंखडी, या पुनरपरसूर्ये सा पश्चात्संखडी / अथवादिग्विभागेनानयोः पुरः पश्वाद्विभागो विज्ञेयः / या विवक्षितग्रामादेः सकाशात्पूर्वस्यां दिशि भवति सा पूर्वसंखडी, या तुतस्यैवापरस्यां दिशि सा पश्चात्संखडी। अत्र प्रायश्चित्तमाहदुविहाऐं विचउगुरु, विसेसिया मिक्खुमादिणं गमणे। गुरुगादिव जा सपयं, पुरिसेगअणेगदिणरातो ||666|| द्विविधायामपि अनन्तरोक्तायां संखड्यां गमने चतुर्गुरूकाः एते च भिक्षुप्रभृतीनां तपःकालविशेषताः, भिक्षोस्तपसा कालेन च लघवः, वृषभस्य तपसा लघवः, उपाध्यायस्य कालेन लघवः, आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरवः / अथवा चतुर्गुरूकमादौ कृत्वा एकानेकपुरूषकृतैकानेकदैवसिकसंखडीषु रात्रौ गच्छतः स्वपदं यावत् वेदितव्यम्। तद्यथा-भिक्षुरेकेषुरूषकृतामेकदैवसिकी संखडिं व्रजति चतुर्गुरवः, एकपुरूषकृतोनकदैवसिक्यां षड्लघवः, अनेकपुरूषकृतानकदैवसिक्या छेदः, एवं भिक्षुविषयमुक्तम्। वृषभस्य षड्लधुकादारब्धं मूले, उपाध्यायस्य षड्गुरुकादारब्धमनवस्थाप्ये, आचार्यस्य छेदादारब्धं पाराञ्चिके निष्ठामुपयाति। प्रकारान्तरेण प्रायश्चित्तमेवाहआयरियगमणे गुरुगा, वसभाण असारणम्मि चउलहुगा। दोण्ह वि दोण्णि वि गुरुगा, वसभपलातेतरे सुद्धा / / 667|| आचार्यस्य संखड्यां गच्छाम इति ब्रुवाणस्य चत्वारो गुरवः, तमेवं ब्रुवाण वृषभा न वारयन्ति चतुर्लघुकाः / अथाचार्येण संखडी व्रजाम इत्युक्ते वृषभा अपि व्रजाम इति भणन्ति ततो द्वयोरपि वृषभाचार्ययोः चत्वारो मासास्ते द्वयेऽपि गुरुकाः कर्त्तव्याः, वृषभाणामपि चतुर्गुरूका भवन्तीति भावः / अथ वृषभैर्वारिता अप्याचार्या बलमोडिकया गच्छन्ति ततसते आचार्याः प्रायश्चित्ते लग्नाः। इतरे वृषभास्तु शुद्धान प्रायश्चित्तभाज इति / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 50 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि सव्वेसि गमणे गुरुगा, आयरियअवारणे भवे गुरुगा। वसभे गीतागीए, लहुगा गुरुगाय लहुगो य / / 968|| यदि सर्वेऽपि साधवो भणन्ति संखड्यां गच्छाम इति ततस्तेषा चतवारो गुरुकाः, आचार्यस्तान्न वारयति ततो गुरुकाः / वृषभो न वारयति चतुर्लघवः गीतार्थो भिक्षुन वारयति लघुको मासः। एगस्स अणेगाण व,छंदेण पहाविया तु ते संता। वत्तमवत्तं सुचा, नियत्तणे होंति चउगुरुगा||६६EII एकस्याऽऽचायदिरनेकेषा वा बहूना छेदेनाऽभिप्रायेण ते संखड्या उपरि प्रधाविताः सन्तो वृत्तां वा संखडिं श्रुत्वा यदि निवर्तन्ते ततश्चतुर्गुरूका भवन्ति / वेलाए दिवसेहिं, वत्तमवत्तं निसम्म पञ्चेति। होहिइ अमुग दिवसं,सा पुण अन्नम्मि पक्खम्मि||१०००।। वेलया दिवसैर्वा प्रतिनियतां संखडी श्रुत्वा प्रस्थिताः, गच्छद्धिश्वापान्तराले श्रुता, यथा-सा संखडी वृत्ता-समाप्ता, अवृत्ता वा अन्यस्यां वेलायामन्यस्मिन् दिवसे भाविनी एवं वृत्तामवृत्तां वा निशम्यश्रुत्वा प्रत्यायान्ति-प्रतिनिवर्तन्ते / यथा कैश्चिदपि साधुभिः श्रुतम् -यथा अमुकगृहे पूर्वाह्नवेलायां संखडिर्भविष्यति ततस्ते पात्राण्युदग्राह्य तरयां गन्तुं प्रस्थिताः, अपान्तराले च तैः श्रुतम् -अतिक्रान्ता संखडी वा आकर्णितं यथा नाऽपि तत्र वेला एवं श्रुत्वा प्रतिनिवर्तन्ते / दिवसमधिकृत्य पुनरित्थं होहिइ' इत्यादि पश्चार्द्धम् / क्वचिद् ग्रामे स्थितैः श्रुतम्-अमुक ग्रामे अमुक-दिवसे पञ्चमीप्रभृतिके संखडी भविष्यति, इत्याकर्ण्य ते ग्रामं प्रस्थिताः, तत्र गच्छनिरन्तरा श्रुतम्-यथा वृत्ता सा संखड़ी न भविष्यति वा / कथमित्याह 'सा पुण अन्नम्मि पक्खम्मि 'त्ति यस्यां पञ्चम्या भाविनी संखडी साधुभिः श्रुता सा पुनरन्यस्मिन अतीते अनागते वा पक्षे भूता वा भविष्यति च, न तत्पक्षवर्तिनीति भावः / अथ संखडी कथं कुत्रवा भवतीत्युच्यतेआदेसो सेलपुरे, आदाणऽट्ठाहिया य महिमाए। तोसलिविसए विण्णव-णट्ठा तह होति गमणं वा / / 1001 / / आदेशः-संखडिविषये दृष्टान्तः-तोसलिविषये शैलपुरे नगरे ऋषितडाग नाम सरः / तत्र वर्षे वर्षे भूयान् लोकोऽष्टाहिकां महिमा करोति / तत्रोत्कृष्टावगाहिमादिधान्यस्यादानं ग्रहण कार्यम् / तदर्थ कोऽपि लुब्धो गन्तुमिच्छति / ततः स गुरूणां विज्ञापना संखडि-गमनार्थ कराति / आचार्यो वारयति / तथाऽपि यदि गमन करोति ततस्तस्य प्रायश्चित्तं दोषाश्च वक्तव्याः। इति पुरातनगाथा-समासार्थः / अथैनामेव विवृणोतिसेलपुरे (इ)सि तलाग-म्मि होति लट्ठाहियामहामहिमा। कोमलमेत्तपभासे, अब्बुयपाईणवाहम्मि।।१००२।। तोसलिदेशे शैलपुरे नगरे ऋषितडागे सरसि प्रतिवर्ष महता विच्छईनाष्टाहिकाया महती महिमा भवति / तथा कुण्डलमैत्रनाम्नो वाणव्यन्तरस्रा यात्रायां भरूकच्छपरिसरवर्ती भूयान लोक : संखडि करोति / प्रभासे वा तीर्थे अर्बुदे वा पर्वतयात्रायां संखडिः क्रियते।। प्राचीनवाह सरस्वत्या सम्बद्धः पूर्वदिगभिमुखप्रवाहः, तत्रानन्दपुरवास्तव्यो लोको गत्वा यथाविभवं शरदि संखडिं करोति / पशमादिषु कोऽप्युत्कृष्टद्रव्यलुब्धो गुरून् संखडिगमनार्थ विज्ञपराति। गुरवो ब्रुवतेआर्य ! न कल्पते संखडिं गन्तुम्। ततोऽसौ मायया ब्रवीतिअस्थिय में पुव्वदिट्ठा, चिरदिट्ठा ते अवस्सदहव्वा। मायागमणे गुरुगा, तहेव गामाऽणुगामम्मि / / 1003 / / सन्ति मे पूर्वदृष्टा:-पूर्वपरिचिताः सुहृदादयस्ते च चिरदृष्टाः प्रभूतकालतस्तेषां मिलितानामभवदिति भावः। अत इदानीमवश्य दृष्टव्यास्ते मया; एवं मायया गुरुन् आपृच्छ्य यदि गच्छति तदा गुरुको मासः। ग्रामानुग्रामेऽपि विहरता सखडिं श्रुत्वा गच्छता तथैव मासगुरुकम् / इदमेव व्याचष्टगामाणुगामियं वा, रीयंता सो उसंखडि तुरियं / छडुति वसतिकाले, गामंतेसिं पिदोसा तु॥१००४|| ग्रामानुग्रामिक वा रीयमाणा-विहरन्तःक्वाऽपि ग्रामे संखडि श्रुत्या ये त्वरितं गच्छन्ति, सतिवा भिक्षाकाले तंग्रामे परित्यजन्ति, परित्यज्य च संखडिग्रामं गच्छन्ति तेषामपि दोषा वक्ष्यमाणा भवन्ति। गन्तुमणा अन्नदिसिं, अन्नदिसिंतेवयंति संखडिनिमित्तं / मूलग्गामे अपंडिय-वसभा गच्छति तदट्ठाए।।१००५।। भिक्षाचर्यायामन्यस्यां दिशि गन्तुमनसः संखडिं श्रुत्वातन्निमित्तमन्यस्यां दिशि व्रजन्ति, मूलग्रामे तदर्थसंखडिहेतोर्गच्छन्ति। एतेषु सर्वेष्वपि गमनप्रकारेषु दोषानुषदिदर्शयिषुराहएगाहि अणेगहि,दिवा व रातो व गंतुपडिसिद्धं / आणादिणो य दोसा, विराहणा पंथिपत्ते य॥१००६।। एकाहिकीमनेकाहिकी वा ता संखडिं गन्तुं दिया रात्रौ प्रतिषिद्धम्, यदि गच्छति तत आज्ञादयो दोषाः, विराधना च संयमात्मविषया पथि वर्तमानानां तत्र प्राप्तानां च भवति। तत्र पथि वर्तमानानां भावदोषानभिधित्सुराहमिच्छते उड्डाहो, विराहणा होति संजमायाए। रीयादि संजमम्मिय,छक्कायअचक्खुविसयम्मि।।१००७।। संखडि गच्छतः साधून दृष्ट्वा यथा भद्रका मिथ्यात्वे स्थिरतरा भवेयुः,उड्डाहो भवेत्। तथा संयमात्मविराधना भवति। संयमविरधना रात्रौ गच्छन् ईर्थादिसमितीन शोधयति, अचक्षुर्विषये च गच्छत षट्कायविराधना / आत्मविराधना तु पुरस्ताद्वक्ष्यते। अथ मिथ्यात्वो-ड्डाहद्वारे व्याचष्टेजीहादोसनियत्ता,वयंति लूहेति तज्जिया भोजे। थिरकरणं मिच्छत्ते, तप्पक्खियखोभणा चेव॥१००८|| लोको बूयात्-अहो अमी श्रमणा जिहादोपनिवृत्ता-रसगृद्धिरहित अपि रूक्षेवलचणकादिभिराहारैस्तर्जिताः सन्तः प्रतिभोज्याध - संखडिहेतोर्गच्छन्तीत्युड्डाहो भवेत् / तथा यथैतदमीषामसत्यं तथा अन्यदपि मिथ्याप्रलपितमिति मिथ्यात्वे स्थिरीकरणं भवति / एवं शा तत्पाक्षिका साधुमानिनः श्रावकास्तेषां क्षोभणा मिथ्यादृष्टिभिः सम्यक्त्वाच्चालना भवति। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 51 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि अथाऽऽत्मविराधनामाहवाले तेणे तह सा-वते य विसमे य खाणुकंटे य / अकम्हाँ भयत्तसमुत्था, रत्तेमादी भवे दोसा।।१००६।। रात्रौ संखडिगमे व्यालः-सर्पस्तेन दश्येत। स्तेनैरूपकरणमपहियेत, श्वापदैः सिंहादिभिरूपद्रयेत, विषमे च निम्नोन्नते प्रपतेत्। स्थाणुना वा कण्टकेन वा विध्येत् / अकस्माद्भयं वा स्वयमात्मसमुत्थं भवति / रात्रादेवमादयो दोषा भवेयुः / एवं तावत्पथि गच्छता दोषा अभिहिताः। अथतत्र प्रार्थनामाहवसहीए जे दोसा, परउत्थियतज्जणाएँ विलधम्मे। आतोज्जगीतसद्दे, इत्थीसद्दे य सविकारे / / 1010 / / वसतेः सम्बन्धिनो ये आधाकादयो दोषास्ते लगन्ति, परतीर्थिकाश्च तत्र गताना तर्जना कुर्वन्ति। विलधर्मो नाम एकस्यामेव वसतौ गृहस्थैः समं संवासः तत्रैकत्रावस्थाने तत्र संखड स्यात्। तत्र च संखड्यामातोद्यगीतशब्दान स्त्रीशब्दाँश्च सविकारान् श्रुत्वा चशब्दादविरतिकाः अलंकृताः दृष्ट्वा स्मृतिकरणदयो दोषाः / इति द्वारगाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिआहाकम्मियमादी, मंडवगादीसु होति अमणुन्ना। रूक्खे अब्भावासे, उवरिंदोसे परूविस्सं / / 1011 / / संखडीवर्ती दानश्राद्धो यथाभद्रको वा साधूनां निमित्तमाधाकर्मिकान् कारयेत्। आदिशब्दाद्यावन्तिकादिपरिग्रहः / तेषु मण्डपेषु आदिशब्दात्पर्णकुटीप्रभृतिषु डालेअवकाशे वा वसन्ति, तत्र वसतां ये दोषास्तानुपरिष्टादस्मिन्नेव सूत्रे प्ररूपयिष्यामि। परतीर्थिकद्वारं भजनाद्वारमाहइंदियमुंडे मा किं -चि देह मा णे डहेज साहूणं / पेहासोभादीसु य, असंखडं हेतुवादो य॥१०१२|| संखडी श्रुत्वा शाक्यशैवभागवतादयः परतीर्थिकाः समायातास्ते साधून तर्जयन्त इत्थं बुवते इन्द्रियपहा-मुण्डा अमी संखडिप्राप्ताः श्रमणाः मा किश्चिद् ब्रूत किमप्यमीषां सम्मुखं विरूपकं भाषणीय (णे) युष्मान् अमी तपस्विन आक्रुष्टाः सन्तः शापेन दहेयुः एवं तर्जनामसहमाना अपरिणतास्तैस्सह संखड कुर्युः / तथा प्रेक्षा-प्रत्युपेक्षणां कुर्वतो दृष्ट्वा शोभा वा स्वल्पकलुषादिना पानकेन विधीयमानां दृष्ट्वा आदिशब्दात-संयतभाषया भाषमाणान श्रुत्वा परतीर्थिका उड्डञ्चकान् कुर्वन्ति / तत्र तथैव संखड भवेत्, हेतुना वा ते परतीर्थिका वादं मार्गयेयुः। वठरशिरःशेखरा एतेन किमपि जानन्तीत्यादि। विलधर्मद्वारमाहसिंगारेण ण दिण्णा,न य तुब्भं पेतिगी सभा एसा। अतिबहुओ ओगासो, गहितेण तु सो कलह एवं / / 1013 / / एवं साधारणे सभादौ पिण्डीभूय साधवो गृहस्थाश्च यदेकत्रावतिष्ठते स विलधर्मः, तेन वसतांसाधुभिः प्रभूतेऽवकाशे मिलिते सतिगृहस्था ब्रुवते भो श्रमणाः / एषा सभातुभ्यंन श्रृङ्गारेण दत्ता, उदकेन वा कल्पेति भावः / न च न वेयं पैत्रिकीपितृपरम्परागता / अतः किं नु नाम अतिवहुकोऽवकाशस्त्वया गृहीतः, एवं कलहो भवति।। तत्थ य अतितूडें तो, संविट्ठो वा छिवेज्ज इत्थीओ। इच्छमणिच्छे दोसा, भुत्तमभुत्ते य फासादी।।१०१४|| तत्र वनादौ कोऽपि साधुरतिगच्छन्निर्गच्छन् वा समुपविष्टो वा स्त्री स्पृशेत्, तत आत्मपरोभयसमुत्था दोषाः। तत्र च यदि नाम विरतिका प्रतिसेवितुमिच्छति तदा संयमविराधना, अथ नेच्छति ततः सा उड्डाह कुर्यात्। स्त्रीणां च स्पर्शादिषु तथा आतोद्यगीत-शब्दान् स्वीसम्बन्धिनश्च हसितकूजितादिशब्दान् श्रुत्वा भुक्ता-भुक्तसमुत्था दोषाः। भयोऽपि दोषदर्शनार्थमाहआवासगसज्झाए, पडिलेहणे भुंजणे य भासाए। वीयारे गेलन्ने, जा जहि आरोवणा भणिया / / 1015 / / आवश्यके स्वाध्याये प्रत्युपेक्षणायां भोजनेच भाषायां विचारे ग्लानत्वे च या यत्रारोपणा भणिता सा तत्र ज्ञातव्येति द्वारगाथा-समासार्थः। साम्प्रतमेनामेव प्रतिपदं विवृणोतिआवासगं तत्थ करेन्ति दोसा, सज्झाएँ एमेव य पेहणम्मि। उड्डंच वारेंतमवारणे य, आरोवणा ताणि अकुव्वतो जा // 1016 / / तत्र गृहस्थैः सह वसन्तो यद्यावश्यकं स्वाध्यायं वा कुर्वन्ति तदा ते कर्णकटुका नाम एते इति गमयन्ति, उड्डुञ्चकान्वा कुर्वन्ति, एव-मादयो दोषाः / प्रत्युपेक्षणायामप्येवमेवोडुश्चकान् कुर्वन्ति / यदि वार्यन्ते अन्यकुलैः सह संखड कुर्युः / अथ नवार्यन्तेततो भगवत्प्रवचनस्य भक्तिः कृता न स्यात्। अथैतद्दोषभयादावश्यकादीनि न कुर्वन्ति ततस्तान्यकुर्वतो या काचिदारोपणा सा द्रष्टव्या। तद्यथा-कायोत्सर्ग न करोति, वन्दनकं न ददातिस्तुतिप्रदानं न करोति, सूत्रपौरूषीं न करोति, सर्वेष्वपि मासलघु / अर्थपौरूषीं न करोति मासगुरु। जघन्यमुपछि न प्रत्युपेक्षते रात्रिन्दिवपशकम् / मध्यम न प्रत्युपेक्षते मासलघु। उत्कृष्ट न प्रत्युपेक्षते चतुर्लधु। तथाजं मंडलिं भजइ तत्थ मासो, गारत्थिभासासु य एवमेवं / चत्तारि मासा खलु मण्डलीए. उड्डाहो भासासमिए वि एवं / / 1017 / / भोजनं कुर्वन सागारिकमिति मत्वा यत् मण्डली भनक्ति तत्र मासलघु, अगारस्थभाषासु भाष्यमाणासु एवमेव मासलघु / अथै - तत्प्रायश्चित्तभयान्मण्डल्यां समुद्दिशन्ति तदा चत्वारो मासलघवः। उड्डाहश्च प्रवचनोपघातो मण्डल्या समुद्देशेन भवति। एवं भाषासमितेऽपि मन्तव्यम्। संयतभाषया भाषमाणस्य चत्वारो लधुमासा भवन्तीति भावः। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि . 52 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि थोवे थणे गंधजुते अभावे, विअस्स दव्वारगताण दोसा। आवातसल्लोगगया य दोसा, करंत कुव्वं परितावणादी॥१०१८॥ विचारभूमो गताना स्तोके-स्वल्पे थेन-कलुषे गन्धयुते दुर्गन्धिनि द्रवे अभावे वा सर्वथैव द्रव्यस्य दोषा अवर्णवादभक्तपानप्रतिषेधादयो भवन्ति। तथा पुरुषादीनामापातेसंलोके संज्ञा-कायिकी वा कुर्वति तदा तद्गता दोषाः / यथा पीठिकायां विचारकल्पिकद्वारे उक्तास्तथा द्रष्टव्याः / अथैतद्दोषभयात् कायिकी वा संज्ञा वा न करोति किं तु धारयति तदा परितापनादुःखमूर्छादयो दोषाः। गिलाणतो तत्थतिमुंजणेण, उच्चारमादीण तु संनिरोधा। अगुत्तसेज्जासु व सण्णिवासा, उड्डाहँ कुम्वन्ति मकुव्वतो य / / 1016 / / तत्र संखड्यामुत्कृष्ट द्रव्यलोभादतिमात्रभोजने, यद्वा-सागारिकाकीर्णतया तत्रोचारादीनां सन्निरोधात्म्लानो भवेत्। अथवा- अगुप्ताअसंवृता याः शय्या-वसतयस्तासु सन्निवासाद् ग्लानत्वमुपजायते / प्रतिश्रयशीतलतया भक्तस्याजीर्यमाणत्वात् / स च ग्लानो यदि तत्रोच्चारप्रश्रवणादि करोति तदा सगारिका उड्डाहं कुर्युः / अथ न करोति परितापनादयो दोषाः। अथैतद्दोषभयाद्ग्रामाद्वहिर्वसन्ति ततः को दोषः स्यादिति प्रश्नावकाशमाशङ्कयाहबहिता य रूक्खमूले, छकाया साणतेणपडिणीए। मत्तुं-मत्तविउव्वण, वाहणजाणे सतीकरणं / / 1020 / / ग्रामादेर्बहिर्वृक्षमूले आकाशं वा पृथिवीकायः-सचित्तरजः-प्रभृतिकः, अप्कायः-सेहकणिकादिस्तेजस्कायो-विद्युदादिर्घायुकायोमहावातादिर्धनस्पति कायो-विवक्षितवृक्षसन तः अल्पफलादिः त्रसकायो वृक्षनिश्रितद्वीन्द्रियादिरूपः सम्भवति, एते षट्कायास्तत्र तिष्ठता विराध्यन्ते। असंवृते च तत्रस्थानां भाज-नमपहरेयुस्तेना उपद्रवेयुः / प्रत्यनीको वा विजनं मत्वा हन्यादा मारयेद्वा / तथा मत्ता-मदिरामदभाविताः उन्मत्ता-मनाथोन्मा-दयुक्ता-विटा इत्यर्थः, ते विकुणा भूषणादिभिरलङ्करणं विधाय तत्रागच्छन्ति / वाहनानि-हस्त्यश्वादीनि यानानि-शिबिकारथादीनि तानि दृष्ट्वा भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणम् / अभुक्त-भोगिना तु कौतुकमुपजायते इति नियुक्तिगाथासमासार्थः। __ अथैनामेव विवृणोतिमा होज अंतो इति दोसजालं, तो जाति दूरं बहिरूक्खमूले। अभुजमाणे तहि गंतुकाया, अवाउडे तेणसुणे य ऽणेगे / / 1021 / / ग्रामाभ्यन्तरे वसतामित्यनन्तरोक्त दोषजाल मा भूदित्यभिसन्धाय | ततो ग्रामादहि र वृक्षमूले याति, तत्र वा भुज्यमाने अव्याप्रियमाणे प्रदेशे पूर्वोक्तनीत्या षडपि काया विराध्यन्ते / अपावृते च तत्र स्तेनाः श्वानश्वानेके उपद्रवं विदधति। उम्मत्तगा तत्थ विचित्तवेसा, पढ़ति चित्ताभिणया बहूणि। कीलंतिमत्ता य अमत्तगा य, तस्थित्थिपुंसा सुअलंकिता य॥१०२२।। यत्रोद्याने उन्मत्ता विचित्रवेषा विविधवस्त्रादिनेपथ्यधारिणश्चित्राभिनया नानाप्रकारहस्ताद्यभिनया बहूनि शृङ्गारकाव्यानि पठन्ति / तथा मत्ता अमत्ता या तत्र स्त्रीपुरुषाः सुष्ठु वस्त्राभरणैरलंकृताः सन्तः कीडन्ति। आसे रहे गोरहगे य चित्ते, तत्थामिरूढा उ गणे य केइ। चित्तिरूवा पुरिसा ललंता, हरंति चित्ताणि विकोवियाणं / / 1023 / / तत्रोद्याने केचित्पुरूषा अश्वान् अपरे रथान् तदन्ये गोरथकान्कहोडकान केचिचित्राणि नानाप्रकाराणि युग्यादीनि यानानि डगडानि च यानविशेषरूपाण्यधिरूढाः सन्तो विचित्ररूपाः पुरूषाः श्रेष्टिपुत्रादयो लालन्तः क्रीडन्तो विकोविदानामगीतार्थानां चित्तानि हरन्ति / ततश्च भुक्ताऽभुक्तसमुत्था दोषाःसामिद्धिसंदसणवावडेण, विप्पस्सता तेसि परेसि मोक्खे ! तस्थित्थिऽपातम्मि समंततेण, मिक्खावियारादिसु दुप्पयारं / / 1024|| समृद्ध्या-वस्त्राभरणदिरूपया समिति सामस्त्येन यद्दर्शनमवलोकनं तत्र व्यापृतेन इदं पश्यामि इदं च पश्यामीतिव्याक्षिप्तचे-तसां सदा तेषां परेषां श्रेष्ठिप्रभृतीनां यानवाहनादीनि मुख्यानि विविधमनेकप्रकारं पश्यता सूत्रार्थयोः परिमन्थः कृतः स्यादिति शेषः / तत्र च स्त्रीपुरुषैः समन्ततः 'अपाते' देशीपदत्वात् आकर्णे भिक्षायां विचारभूमौ आदिशब्दाद्विकारभूत्यादौ च दुष्प्रचारं भव-ति, यत एते दोषाः अतः संखड्यां न गन्तव्यम् / अथ परः प्राहदोसेहिं एत्तिएहिं, अगेण्हता चेव लग्गिमो अम्हे। गेण्हासु य भुज्जातु य, ण य दोस जहा तहा सुणसु / / 1025 / / संखडिगमने यावन्त एते षट् दोषा उक्ताः एतावद्भिः वयं संखडिभक्तमगृह्णाना एव गच्छामः, ततो न कार्यमस्माकं ग्रामादिमध्यासनेन। सूरिराह-वयं संखडिभक्तं गृह्णीमो वा भुज्महे वा नच दोषाः पूर्वोक्ता यथा भवन्ति तथाऽभिधीयमानं शृणु। इयं पुरातनी गाथा। अथैनामेव व्याख्यानयतिअपरिग्गहित अभुत्ते, जति दोसा एत्तिया पसज्जंती। इत्थं गते सुविहिया, वसंतु रन्ने अणाहारा / / 1026 / / पर: प्राऽऽह-अपरिगृहीते अभुक्तेऽपि च संखडि भक्ते या - Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 53 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि तावन्तो दोषाः पथि गच्छता ग्रामादेमध्ये बहिश्च तिष्ठतां भवन्ति; तत इतथमेवं व्यवस्थिते सम्प्रति सुविहिता अनाहाराः सन्तोऽरण्ये वसन्तु। गुरुराहहोहिंतिन वा दोसा, तेजाण जिणो ण चेव छउमत्थो। पाणियसदेण उवा-हणओ से वेभलो मुयति।।१०२७।। हे नादक? नायं नियमो; यत्-संखडिंगच्छतामवश्यमनन्तरोक्त दोषा भवन्ति, कारणे यतनया गच्छतस्तेषामसम्भवात् ततस्ते दोषा भविष्यन्ति वा न वेत्येतत् जिनोक्तिनैव छद्मस्थो भवादृशो वेत्ति, अतो यदुक्तं भवता इत्थं गते सुविहिता अरण्यं गत्वा वसन्तु तदेतदज्ञानविजृम्भितम् / यतः पानीयशब्देनोपानही वा विद्ध, मूर्यो मुञ्चति, यो सूर्यो भवति स एवं मुशतीतिभावः / एवं भवानपि संखडिगमनमात्रे दोषोपदर्शनं श्रुत्वा यदेवं ग्रामादीन् परित्यज्य अरण्ये वासमभ्युपगच्छति, तने नमदुधचक्रवनि हृदयम्। अपिचदोसे चेव विमग्गह, पुण दोसित्तेण णिचमुज्जुत्ता। ण हि होति सप्पलोट्ठी, जीवितुकामस्स सेताए।।१०२८॥ हे नोदक ! गुणद्वेषत्वेन यूयं नित्यमुधुक्ताः सन्तो गुणान्वेषणबुद्ध्या दोषानेव विमार्गयशन गुणान्। भवन्ति तदशा अपि केचिदस्मिन् जगति ये दोषानेव केवलन पश्यन्ति न गुणनिवहम् / उक्तं च - "गुणोच्छूिते सत्यपि स्वप्रभूते, दोषेषु यन्तस्तु महान् खलानाम् / क्रमलेकः केलिवनं प्रविश्य, प्रतीक्षते कण्टकजालमेव / / 1 / / " यतो न हि-नैव सर्पलुब्धिः सर्पग्राहकत्वं जीवितुकामस्य पुरूषस्य श्रेयसे भवति, किंतु प्रत्युत मरणाय / एवं भव तोऽपि संयमगुणान्वेषणबुद्ध्या अरण्यवसनम् , तन्न श्रेयस सम्पद्यते, प्रत्युताहाराभावेनार्तध्यानादिपरिणामसम्भवात्कन्दमूलफलादिभक्षणाद्वा तस्यैव संयमस्योपघातं जनयति। आह यद्येवं ततो निरूप्यतां कथमत्र दोषा भवन्ति कथं वा न भवन्तीत्युच्यतेमण्णति उचेवगमणे, इति दोसादप्पतोय जहि गंतुं। कमगहणभुंजणे य, न होति दोसा अदप्पेणं / / 1026 / / भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्-यद्ययं व्याकुट्टिकया संखड्यां गच्छति दर्पतश्च गुरुग्लानादिकारणाभावेन यत्र गत्वा गृह्णाति भुक्ते वा तत्राऽनन्तरोक्ता दोषा मन्तव्याः। अथ क्रमेण गृहपरिपाट्या संखडिगृहं प्राप्तः, ततस्तत्र गहणं भोजन वा कुर्वाणस्य न दोषा भवन्ति / अदर्पण वा पुष्टालम्बनेन संखडिप्रतिज्ञयाऽघि गच्छतो नदोषा भवन्ति। इदमेव भावयतिपडिलेहियं च खेत्तं, पंथे गामे य भिक्खवेलाए। गामाणुगामियम्मि य, जहि पायोग्गंतहिं लभते॥१०३०|| मासकल्पस्य वर्षावासस्य वा योग्यं क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितं गन्तुं प्रस्थितानां / पथि मार्गे वर्तमानानां यद्वा तस्मिन्नेव ग्रामे प्राप्तानां संखडिरूपस्थिता। उभयत्राऽपि यदि भिक्षावेलायां भक्तपानं प्राप्यते तदा कल्वपते गन्तुम्। ग्रामाऽनुग्रामिकेऽप्यनियतविहरतां यत्र भिक्षावेलायां प्रायोग्यं प्राप्यते तत्र ग्रहीतु लभते नान्यत्रेति। अथैनामेवगाथांव्याचष्टे वासाविहारखेत्तं, वचंताणंऽतरा जहिं भोज्जं / अत्तट्ठिताणं तर्हि, भिक्खमडताण कप्पेञ्जा॥१०३१।। वर्षाविहारो नाम वर्षावासस्तत्प्रायोग्य क्षेत्रं व्रजतामन्तरा पथि यत्र भोज्य-संखडी भवति / आह चूणिकृत्-"भोजन्ति वा संखडि त्ति वा एगट्ठ" तत्र ग्रामादावन्यार्थे स्थितानां सार्थमत्र स्थितानां न तु संखडिनिमित्तं गृहपरिपाट्या चभिक्षामटता संखडिं गत्वा भक्तपानं ग्रहीतुं कल्पते। कुत इति चेदुच्यतेनऽत्थि पवत्तणदोसो, पडिवाडीपडित मोण वाइण्णा। परसंसट्ठ अविलं-बियं च गेण्हंति अणिसण्णा।।१०३२।। नास्ति तत्र संखड्या गमने प्रवर्त्तमाना दोषाः परिपाट्या पतितं - प्राप्तावसरं यतस्तत्र भक्तपानं गृह्णाति न तदेवैकं गृहमुद्दिश्य गत्वेति। मो इति पादपूरणे / न वा सा संखडी आकीर्णा जनाकुला परसंसृष्टं च गृहस्थादिपरिवेषणनिमित्तं हस्तो वा मात्रक वा संसृष्टम, अवलम्बितं च तत्र प्राप्ताः सन्तो गृह्णन्ति / भिक्षावेलायां गमनात्तत्क्षणादेव भक्तपानं लभन्ते न पुनरूपविष्टाः प्रतीक्षन्ते इति भावः। किंचसंतन्ने ववराधा, कजम्मिजतो णिदंसवजेसु। जो पुण जतणारहितो, गुणा वि दोसायते तस्स॥१०३३।। सन्ति-विद्यन्ते अन्येऽप्यनेषणीयग्रहणादयोऽपराधाः / येषु कार्ये ज्ञानादौ यतः प्रयन्तं कुर्वन् प्रतिसेवमानोऽपि न दोषवान् भवति / यः पुनयातनारहितः प्रवर्तते तस्य गुणोऽपि दोषायते-दोष इव मन्तव्यः / असढस्सऽप्पडिकारे, अच्छेज्जततो ण कोइ अवराधो। सप्पडिकारे अजतो, दप्पोण वदोस वी दोसा॥१०३४|| अशठस्य-रागद्वेषरहितस्याप्रतीकारे प्रतिसेवनां विना नास्त्यन्यो यस्य प्रतीकार इत्येवलक्षणे अर्थ -संखडिगमनादौ यतमानस्य यतनां कुर्वतो न कोऽप्यपराधो भवति। यस्तु स प्रतीकारे परिहर्तुं शक्ये अर्थे अयतोन यतना करोति-सेवते तस्य द्वयोरप्ययतनादर्पयोर्दोषा भवन्तिकर्मबन्ध इत्यर्थः। यत एवमतःनिद्दोसा आइना, दोसवती संखडीयऽणाइण्णा। सुत्तमणाइण्णाए, तस्स विहाणा इमे होति॥१०३५|| निर्दोषा- वक्ष्यमाणदोषरहिता संखडी आचीण साधूनां गन्तुं कल्पनीया, या तुदोषवती सा अनाचीर्णा। तत्र सूत्रमनाचीणमिवावतरति, नतत्र संखडिप्रतिज्ञया रात्री वा विकाले वा गन्तव्यम् / तस्याश्वानाचीर्णाया अमी भेदा भवन्ति। तानेवाहजावंतिया पगणिया, सक्खेत्ताऽखेत्तबाहिराहारा। अविसुद्धपंथगमणा, सपचवाया य भेदाय // 1036 / / यावन्तो भिक्षाचरा आगमिष्यन्ति तावद्दातव्यमित्यभिप्रायेण यस्या दीयते सा यावन्तिका / दश शाक्याः, द Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 54 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि श परिव्राजकाः, दश श्वेतपटाः, एवमादिगणनया यत्र दीयते सा प्रगणिता। 'सक्खेत्ते' ति सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरवर्तिनी 'अखेत्ते' त्ति सचित्तपृथिव्यादावक्षेत्रे अस्थण्डिले स्थिता वा 'बाहिर' ति / सक्रोशयोजना क्षेत्रबहिर्वत्तिनी, आधारा नाम चरकपरिव्राजकादिभिराकुला, अविशुद्धेन पृथिव्यप्कायादिसंसक्तेन पथा गमनं यस्यां साऽविशुद्धपथगमना। यत्र स्तेनश्वापदादयो दर्शनादिविषयाश्च प्रत्यपाया भवति सा सप्रत्यपाया। सा च जीवितभेदाय चरणभेदाय वा भवेदिति द्वारगाथासमासार्थः। अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोतिआचंडाला पढमा, वितियापासंडजातिणामेहिं। सक्खेत्ते जा सकोस, अक्खेत्ते पुढविमाईसु॥१०३७|| प्रथमा यावन्तिकी; सा आ चण्डालात् यावन्तः केचन नटिकाकापटिकादयो भिक्षाचरा यावदपश्चिमश्चाण्डालस्तावतां दातव्यमिमिलक्षणा / द्वितीय प्रगणिता प्रकर्षेण पाषाण्डिनो जात्या नाम्ना वा गणयित्वा यत्र दीयते / तत्र जाति प्रतीत्य गणनादश भौताः, दश भागवताः, दश श्वेताम्बरा इत्यादि। नाम प्रतीत्य गणना, यथा-अमुकः श्वेलपटःअमुकश्च रक्तपट इत्यादि / स्वक्षेत्रसंखडी नाम या सक्रोशयोजनक्षेत्राभ्यन्तरे भवति / अक्षेत्रसंखडी तु या सचित्त-वनस्पतिकायादिष्वनन्तर वा प्रतिष्ठिता। एतासु गच्छतः प्रायश्चित्तमाहजावंतिगाएँ लहुगा,चउगुरु पगणीऍ लहुग सक्खेत्ते। मीसगसचित्ताणंतर,परंपरे कायपच्छित्तं / / 1038|| यावन्तिकायां चतुर्लघवः, प्रगणिताया चतुर्गुरवः, स्वक्षेत्रसंखड्यां गच्छतश्चतुर्लघु, अक्षेत्रसंखडयां मिश्रसचित्तानन्तरपरम्परप्रतिष्ठितायां कायप्रायश्चित्तम् / तत्र पृथिव्यादिषु प्रत्येकवनस्पतिपर्यन्तेषु मिश्रेषु परम्परप्रतिष्ठितायां लघुपञ्चकम्, अनन्तरप्रतिष्ठितायां मासलघु। एतेष्वेव सचित्तेषु परम्परप्रतिष्ठितायां मासलघु, अनन्तरप्रतिष्ठितायां चतुर्लधु अनन्तरवनस्पतिषु च / तान्येव प्रायश्चित्तानि गुरुकाणि कर्त्तव्यानि। बहि वुडिअड्डजोयण, गुरुगादी सत्तहिं भवे सपदं। चरगादी आइण्णा, चउगुरु हत्थाइभंगोय॥२०३६।। क्षेत्राद्वहिः संखड्यां गच्छतश्चतुर्लघु, ततः परमर्द्धयोजनवृद्ध्या चतुर्गुरू क मादौ सप्तभिर्वृद्धिभिः स्वपदं पाराशिकम् / तद्यथाक्षेत्रबहिरड़योजने चतुर्गुरू, योजने षड्लघ् सार्द्धयोजने षड्गुरु, द्वयोर्योजनयोश्छेदः, अर्द्धतृतीययोजनेषु मूलम, त्रिषु योजनेषु नवमम्, अर्द्धचतुर्थयोजनेषु पाराशिकम्, तथा या च परिव्राजककार्पटिकादिभिराकुला सा आकीर्णा, तां गच्छतश्चतुर्गुरूकम्। तत्र चातिसम्मर्दन हस्तपादपात्राणां भङ्गो भवेत्। अथाऽविशुद्धपथगमनादीनि द्वाराणि व्याख्यातिकाएहिँ विसुद्धपहा, सावयतेणा पहे पवायाओ। णबंभवतावा, तिविधा पुण होंति पत्तस्स।।१०४०।। दसणवादे लहुगा, सेसा वादेसु चउगुरु होति। जीवियचरित्तभेदा, विसचरगादीहिं गुरु काउं।।१०४१।। कायैः-पृथिव्यादिभिरविशुद्धः एष मार्गो यस्याः संखडेः सा तथा, अस्या च कायनिष्पन्न प्रायश्चित्त प्रत्यपायाश्च द्विविधाः / पथि वर्तमानस्य, तस्य प्राप्तस्य च / तत्र पथि श्वापदस्तेनकण्टकादयः, तत्र प्राप्तस्य तु त्रिविधाः प्रत्यपाया भवन्ति / दर्शनब्रह्मव्रतादिषु भेदात् / ततः सखडिं गतस्य चरकशाक्यादिभिया ग्रहणे दर्शनापायः, चरिकातापसीप्रभृतिभिरन्याभिर्वा मत्तप्रमत्तादिस्त्रीभिर्ब्रह्मव्रतापायः / आत्मापायस्तु पूर्वोक्त एव हस्तभङ्गादिकाः, एवं विधास्तत्सहिता सप्रत्यपायाः। अत्र च दर्शनापाये चतुर्लघुकाः। शेषेषु स्तेनश्वापदादिषु ब्रह्मव्रतात्मविषयेषु प्रत्यपायेषु चतुर्गुरवो भवन्ति / तथा सौगतोपासकादिदोषदुष्टा संखडिर्नवाचीर्णा, एतद्विपरीता आचीपर्णेति। द्वितीये पदे एतैः कारणैः संखडिमपि गच्छेत् - कप्पइ गिलाणगऽट्ठा, संखडिकगमणं दिवा व रातो वा। दव्वम्मि लभमाणे, गुरुउवदेसो त्ति वत्तब्वं // 1052 / / ग्लानार्थं संखडिगमनं दिवा वा रात्रौ वा कल्पते / तत्र च द्रव्ये ग्लानप्रायोग्ये लभमाने यावन्मात्रं ग्लानस्योपयुज्यते तावति प्रमाणप्राप्ते सति प्रतिषेधयन्ति। यद्यसौ दाता ब्रूयात्-किमिति न गृहीथ ? ततो वक्तव्यंभणनीयम्, गुरुवैद्यस्तस्योपदेशोऽयम्-यदेतावतः प्रमाणादूर्ध्व ग्लानस्य पथ्यादिकं न दातव्यम्। इदमेव भावयतिपुव्विं ता सक्खेत्तं, असंखडीसंखडीसु वा जतति। पडिवसभमलब्भंते, तो वच्चति संखडी जत्थ।।१०४३॥ ग्लानस्य प्रायोग्यं पूर्व तावत् स्वक्षेत्रे-स्वग्रामे असंखड्यां गवेषयितव्यम्-यद्यसंखड्यान प्राप्यते, ततः स्वग्राम एव याः संखड्यस्तासु यतते / तदभावे प्रतिवृषभग्रामेष्वपि, ततः संखड्यामपि। अथ तत्राऽपि न लभ्यते यत्र ग्रामादौ संखडी भवति तत्र व्रजन्ति। ताश्च संखड्यो द्विधासम्यगदर्शनभाविताः, तीर्थविषयाश्च / तत्र प्रथममाद्यासु गन्तव्यम्। यत आहउजिंतणायसंखडि-सिद्धसिलादीण चेव जत्तासु। सम्मत्तभाविएसुं, ण हुंति मिच्छत्तदोसाओ।।१०४४।। उज्जयन्ते ज्ञातसंखडे सिद्धशिलायाम् एवमादिषु सम्यक्त्वभावितेषु तीर्थेषु याः प्रतिवर्ष यात्राः संखडयो भवन्ति; तासु गच्छतो मिथ्यात्वस्थिरीकरणादयो दोषा न भवन्ति। एतेसिं असईए, इतरीओं वयंति तत्थिमा यतणा पुट्ठो अतिक्कमिस्सं कुणति व अण्णावदेसं तु // 1045 / / एतेषां सम्यक्त्व भावितानाम भावे इतरा अपि मिथ्यात्वभावित-तीर्थविषयाः संखडीवजन्ति / तत्र च गच्छत इयं यतना-यदि के नाऽपि पृच्छ्यन्ते -किं संखडी गमिष्यथं - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 55 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि ति? ततः पृष्टः स्न्नेव ब्रूयात्-अतिक्रमिष्याम्यहं संखडीमग्रतो गमिष्यामीत्यर्थः / अथवा-अन्यापदेश करोति। अव्यक्तमपि प्रतिवचन दूत इति भावः। तहियं पुव्यं गंतुं, अप्पोगासास ठाति वसहीसु। जे य अविपक्कदोसा, ण णेति ते तत्थ अगिलाणो।।१०४६।। तत्र-संखडिग्रामे पूर्वमेव गत्वा या अल्पावकाशा वसतयस्तासु तिष्ठन्ति, विस्तीर्णावकाशासु पुनः स्थितानां गृहस्थादिभिः पश्चादागतैः सह त दासंखडादयो दोषाः, ये च तत्राविपक्वदोषा इन्द्रियकषायान् ग्रहीतुमसमर्था अपि "कचिदेव" आह चूर्णिकृत्- "अविपक्कदोसा नाम ज. असमत्था निगिहिउं इंदियकसाए" अधिको विषया वा तत्रालंकृतस्त्रीदर्शनादिसमुत्थदोषपरिजिहीर्षयाऽन्यग्लानकार्याभावेन निर्गच्छन्ति। अथ ग्लानस्य प्रायोग्यग्रहणे विधिमाहविणा विओभासितसंथवेहिं, जंलब्भती तत्थ तु जोगदव्वं। गिलाणभुत्तुव्वरियं वि (साहू), नभुजमाणा वि अतिक्कमंति॥१०४७।। अवभाषणमवभाषितं याचनमित्यर्थः, संस्तवनं -संस्तवो दातुगुणविकत्थनमतेन सहात्मना सम्बन्धविकत्थनं वा तासां विनाऽपितत्र संखड्यां यत्प्रीतियोग्यद्रव्यं लभ्यते तत्प्रथमतो ग्लानेन, तन्मध्याद्भुक्तं तत उद्दरितं भुजाना अपि साधवो, नाऽतिक्रामन्ति-न भगवादाज्ञा विलुम्पन्तिः ओभासियंजंतु गिलाणगट्ठा, तंमाणपत्तं तु णिवारयति। तुडमे व अण्णे व जया नुबेति। भुंजेत्थता कप्पति णऽण्णहा तु॥१०४८|| यत् पुनः प्रयोग्यद्रव्यं ग्लानार्थमवभाषितम्, तद्यदा मानप्राप्तवैयोपदिष्टपथ्यमा प्राप्तं भवति तदा निवारयन्ति, पर्याप्तमायुष्मन्नेतावता अतः परं ग्लानस्य नोपयोक्ष्यते, एवमुक्ते यदा ते गृहस्था एवं बुवते-यूयं या अन्येवा साधवो भुञ्जन्तु तदा ग्लानयोग्य प्रमाणादधिकमपि ग्रहीतुं कल्पते, नान्यथा। इदमेव स्फुटतरमाहदिणे दिणे दाहिसिथोवथोवं, दीहाउया तेण ण गिण्हिमोहि। जो हावइस्सामि गिलाणगस्स, तुज्झेवता गिण्हह गेण्हणे वा / / 1046 / / भी श्रावक ! ग्लानस्य दीर्घा-चिरकालस्थायिनी रूक-रोगः समस्ति अतो दिने दिने इदं ग्लानयोग्यद्रव्यं दास्यति तेन कारणेन वयमिदं न गृह्णीमः / ततो यदि ते गृहस्था बुवते वयं प्रतिदिनं ग्लानस्य प्रायोग्य न हापयिष्यामः यूयमपि च तावत्प्रसादं कृत्वा गृहीत एवमुक्ते प्रमाणप्राप्तादधिकस्याऽपि ग्रहण कर्त्तव्यम् / एवं तावत्साधूनां प्रवेशे लभ्यमाने / विधिरूक्तः। अथ यत्र साधवः प्रवेशं न लभन्ते तद्विषयं विधिमाहन विलब्भते पवेसो, साधूणं लडभए त्थ अजाणं। वावारण पडिकिरणा, पडिच्छणा चेव अजाणं / / 1050 / / यत्र- अन्तःपुरादी नाऽपि-नैव साधूनां प्रवेशो लभ्यते; किंतु लभ्यते तत्रार्यिकाणां प्रवेशः। कर्मकर्तर्ययं प्रयोगः। ततः षष्ठीविभ-क्तिरदुष्टा, तत्रार्यिकाणां व्यापारणा विधेया। ततस्ता अन्तःपुरादौ प्रविश्य प्रज्ञापयन्ति / तथाऽपि चेत् प्रवेशो न लभते, ततः अन्तः पौरकरणनिम्ना आर्यिका ग्लानप्रायोग्य गृहीत्वा साधूना पात्रेषु परिकिरन्ति / तत आर्यिकाणां हस्तात् ग्लानप्रायोग्यं प्रतीच्छन्ति। इदमेव स्पष्टयतिअलब्भमाणे जतिणं पवेसे, अन्तोउरे इन्भघरेसुवाऽवि। उज्जाणमाईसुवसंठियाणं, अज्जाउ कारैतिजतिप्पवेसं॥१०५१॥ राजादीनामन्तःपुरे वा अन्यगृहेषु वा यतीनां प्रवेशे अलभ्यमाने उद्यानादिषु वा यतीनां प्रवेशे अलभ्यमाने उद्यानादिषु वा संस्थिताना साधूनामनागन्तुकानामित्यर्थः, आर्यास्तत्र यतीनां प्रवेशं कारयन्ति / कथमिति चेदुच्यते-ता आर्यिका अन्तःपुरादौ गत्वा प्रज्ञापयन्तियथैते भगवन्तो महातपस्विनो निःस्पृहा एतेभ्यो दत्तं बहुफल भवति, एवमादिप्रज्ञापनया यदा तानि कुलानि भावितानि भवन्ति, तदा साधवः प्रविशन्ति। अथ तथाऽपि प्रवेशो न लभ्यते ततः किं कर्त्तव्यमित्याहपुराणमाईसुवणीणवेंति, गिहत्थभाणेसु सयं व ताओ। अगारिसका जतिसत्तएही, दुट्ठोवभोगेहि य आणति।।१०५२। आर्यिका गृहस्थभाजनेषु ग्लानप्रयोग्यं गृहीत्वा पुराणादिभिर्गृहस्थैः साधुसमीप नाययन्ति; प्रापयन्तीत्यर्थः। अथ तादृशो गृहस्थो न प्राप्यते ततः स्वयमेव ताः आर्यिका गृहस्थभाजनेषु गृहीत्वा साधुसमीपं नयन्ति। तथाऽगारिणः शङ्कां कुर्युः-नूनमेता गृहस्थभाजनेष्वेवंविधमुत्कृष्टद्रव्य गृहीत्वा केषांचिदविरतिकानां प्रयच्छन्ति ततो यतीनां सत्कानि यान्यधस्तादुपभोग्यानि-असम्भोग्यानि भाजनानि उपहतानीत्यर्थः तेषु गृहीत्वा साधूनां समीपमानाययन्ति वा। तेसामभावा अहवा वि संका, गिण्हंति भाणेसुसएसुताओ। अभोइभाणेसु उतेसिभोगो, गारत्थि तेसेव व भोगिसुंवा॥१०५३।। तेषां संयतभाजनानामभावात् ; अथवा- तेषु गृह्यमाणेषु गृहस्थानां शङ्का भवेत् , एतानि संयमभाजनानि, तदवश्य Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 56 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखडि मेताः संयताना प्रयतानां प्रयच्छन्ति। अतस्ता आर्यिकाः स्वकेषु भाजनेषु गृह्णन्ति / ततः साधवोऽसंभोग्यभाजनेषु गृहीत्वा तस्य प्रायोग्यद्रव्यस्य भोगं कुर्वत / असंभोग्यभाजनाभावे गृहस्थभाजनेषु / अथ तान्यपि न सन्ति ततः तेष्वेव संयतीभाजनेषु भुञ्जते / अथ संयतीना तैर्भाजनैः शीघ्रं प्रयोजनं ततः सम्भोगिकेष्वपि भाजनेषु प्रक्षिप्यते / एवं तावत् ग्लाननिमित्तं यथा गृह्यते तथा भणितम्। अथ संखडीगमने कारणान्तराण्याहअद्धाण निग्गयादी पविसंता वावि अहव ओमम्मि। उपधिस्स गहणलिंपण-भावम्मि यतं पिजयणाए।।१०५४।। अध्वनो निर्गता आदिशब्दादशिवादिनिर्गता वा अध्वनि वा प्रविशन्तः, अथवा अवमे दुर्भिक्षे संखडिंगच्छेयुः। अथवा यत्र ग्रामादौ संखडिस्तत्रोपधिवस्त्रपात्रादिकः सुलभस्तस्य ग्रहणार्थं गन्तव्यम्। पात्रकाणि वा लेपनीयानि सन्ति, तत्र च लेपः प्रचुरः सुप्रापश्च भावो वा शैक्षस्य संखडिगमने समुत्पन्नः / एतैः कारणैस्तदपि संखडिगभनं यतनया कर्तव्यमिति संग्रहगाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिपविट्ठकामावविहं महंतं, विनिग्गया वाऽविततोऽथवो मे। अप्पायणट्ठाय सरी गाणं, अत्ता वयंती खलु संखडीओ।।१०५५।। विहम्-अध्वानं महान्तं-विप्रकृष्ट प्रवेष्टुकामास्ततो वा अध्वनो निर्गता / जनपद प्राप्ताः, अथवा-अवमे-दुर्भिक्षे चिरमटन्तोऽपि न पर्याप्त लभन्ते, अतस्तं शरीरेण दुर्बला आहारलुब्धाः, तत्र यानि कुत्सितत्वात् शरीरकाणि तेषामप्यायनार्थमार्ताः-प्रथमद्वितीयपरीषहपीडिताः, अथवा-आप्ताः रागद्वेषरहिताः, यद्वा-भामो भीमसेन इति न्यायात् आत्तो-गृहीतः सूत्रार्थों यैस्ते आत्तगीतार्थाः संखडी व्रजन्ति। वत्थं व पत्तं व तहिं सुलभ, णाणादिसंपिंडियवाणितेसु / पवित्तिसंघत्थकुलादिकज्जे, लेवं व घिच्छाम अतो वयंति।।१०५६।। तत्र क्षेत्रे नानाप्रकारेभ्यो दक्षिणापथादिदिग्भ्यो वस्त्रादिविक्रयार्थ समागत्य पिण्डिता मिलिता ये वणिजस्तेषु वस्त्र वा पात्रं वा सुलभम्। अथवा-तत्र क्षेत्र प्राप्ताः कुलादिकार्याणि कुलगणसंघप्रयोजनानि प्रवर्तयिष्यामः, लेप वा तत्र प्राप्ताः सन्तो ग्रहीष्यामः अत एवंविध पुष्टमालम्ब्य संखडी व्रजन्ति। सेहं विदित्ता अतितिव्वभावं, गीया गुरुं विण्णवयंति तत्थ। जे ते सहाचा अभविंसु पुट्विं, दीवेसु ते तस्स हिता वयन्ति॥१०५७।। शैक्षभिनवप्रव्रजितमतितीव्रभावं संखडिग्रामगमने अतीव तीव्रालाषं विदित्वा गीतार्था गुरुं विज्ञपयन्ति, तत आचार्यास्त शैक्ष न-एते वृषभास्ते सहाथाः पूर्वमभवन अभिहिता इति भावः। ते तस्य शैक्षस्य हिता मातृवदननुकूला सन्तो दीपयन्ति / दीपयित्वा च ततस्तं गृहीत्वा व्रजन्ति। पुव्वोदितं दोसगणं च तं तु, वजेंति सज्जाइजुतं जतीए। संपुन्नमेवं तु भवे गणितं. जं कंखियाणं पविणेति कंखं / / 1058|| पूर्वोदितं-प्राग भणितं शय्या वसतिः तदाऽऽदिभिर्युतं सम्बद्धं दोषगणं यतनया प्रागुक्तलक्षणया वर्जयन्ति / अथ किमेवंशैक्षस्यानुवर्त्तनां कृत्वा संखडिगमनेनाचार्या अनुजानन्तीत्याह-सम्पूर्ण मसंखड़मेट विदधानस्याचार्यस्य गणित्वमाचार्यकं भवति / यत्कासि तानांसंखडिगमनाद्यभिलाषवतां शिष्याणां काला प्रकर्षण तदीप्सितसम्पादनलक्षणात् विनयति स्फेटयति / उक्तं च दशाश्रुतस्कान्ध गणिसंपद्वर्णनाप्रक्रमे- 'कंखियस्स कंखं पविणित्ता भवई' त्ति / बृ०१ उ० 3 प्रक०। (उद्दिश्य भोज्यसंखडिर्भवेत् तत्र विधिः 'सागारिय' शब्दे वक्ष्यते) (संखड्यां भक्तं गृहीत्वा भक्ष्यते उदाले आगते इति कर्तव्यता 'उग्गाल' शब्दे द्वितीयभागे 730 पृष्ठे उक्ता।) जे मिक्खू संखडिपलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा पडिगाहेइ पडिगाहंतं वा साइजइ॥१३॥ जे भिक्खू संखडिपलोअण इत्यादि 'संखडि' त्ति आउआणि जम्मि जीवाणं संखडिजति सा संखडी संखडिसामिणा अणुण्णा-तो तम्मि रसवतीए पविसित्ताओ आणाति, पलोइउ भणाति-इतो इता पयच्छाहिति एस पलोयणा। जो एवं गेण्हति असणाति तस्स मासलहुं। नि०चू०३ उ०। गाहाएसमणाइण्णा खलु, तद्विवरीता तु होति आइण्णा। जा कोयी भत्तेणं, पाणेणं पलोयणं कारे॥४०|| एस जावंतिया तिदोसदुट्टा आणातिण्णो जावंबियादिदोसविप्पमुक्का आइण्णा कोइ सढी आइण्णाए भणाति-तुझे पलोएह जं एत्थ रूचति तं अत्थउ, सेस मरूगादीण पयच्छामि। गाहातं जो उ पलोइज्जा,गेण्हेज्जा आयइज्ज वा मिक्खू / सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे // 41 / / एवं भणितो जो तं पालेएज्ज गेण्हेज आदिएज्ज वा सो आणाभंगे वट्टति, अणवत्थं करेति, मिच्छत्तं जाणेति, आयसंजमविराहणं च पावति। पुव्वं पलोतिते गहिते वा इमे दोसा। पडिणीयगाहापडिणीयविसक्खेवा, तत्थ अण्णत्थ वाबि तण्णिस्सा। मरूगादीण पओसो, अधिकरणुक्कोस वित्तचयो / / 4 / / साधुणा जं पलोइयं भत्तपाणगं तत्थ पड़ीणीओ उवासगादि विस खिवेज्ज / साधुणीसाए वा वा पविट्ठो अण्णत्थ वा कोवि विस पक्खिवेजा। अत्थं ते य ठवणादो सा मरूगादयः स खड़ी. सामियस्स पदुटुं भोत्तुं णेच्छंति / समणाण पुव दत्तं उक्कोर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखडि 57 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखय वा ठविय त्ति अगारदाहं वा करेन्ज, साहुं वा पदुट्टो हणेज्ज ।असुईएहिं वा छिकति उप्फोसेज अहिगरणं भवति। सो वा संखडिसामिओ धीयारेसु अभुजतेसु संजयाण पदुसेज रिक्को मे वित्तचयो जाओ होज्जति। अथवा - धिनाइयाण दाउ भुजावेइ एताणट्ट वित्तचओ मे अस्थिगो जाओ त्ति। भवे कारण जेण पलोइ ना। गाहाअसिवे ओमोयरिए, रायडुट्टे भए व गेलण्णे। अद्धाण रोधएवा,जतणाए लोयणं कुज्जा।।३।। इमा जयणा। गाहाहत्थेण आदिसिंते, अणावडतो अणाभिडंतोय। दिस्सऽण्णमुहो भणति, होजाणे कज्जममुएणं॥४४॥ हत्थेण ण दाएति इओइ ति अणावडतो अणाभिडतो उ फासणदासपरिहरणत्थं पाओ णतो अण्णतो मुहं पलोएत्ता सणियं भणाति, अमुगेण दहिमादिणा कज्ज होतव्वं / तं च गच्छवग्गहकरं पणीयं पलिटुं पज्जत दव्वं पलोएति। नि०० 3 उ०। संखडिकरण न०(संखडिकरण) परमान्ने उपस्कृते, व्य०१ उ०। संखडग पुं०(शंखनक) लघुशङ्केषु, जी०१ प्रति० प्रज्ञा०। नि० चू०। संखणाम पुं० (शंखनाम) स्वनामख्याते महाग्रहे, कल्प०१ अधिक ६क्षण / सू०प्र०। (स च 'महग्गह' शब्दे षष्ठ भागे दर्शितः)।। संखतल न० (शंखतल) शंखस्योपरितने भागे, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / रा०। शंखतलेन कम्बुरूपेण विमलेन पकादिरहितेन सन्निकाशः शंकाश: सदृशो यः सः / रथा०६ ठा०३ उ०। शंखतलविमलणिम्मलदधिघणगाखीरफेणरययनिगरप्पगासे' इतिविमलंविगतमलं यत् शंखतलं शङ्खस्योपरितनभागो यश्च निर्मलो दधिघनो घनीभूतंदधि गोक्षीरफेनो रजतनिकरश्च तद्वत् प्रकाशःप्रतिमता यस्य तत्तथा / जी० 3 प्रति० 4 अधि० / “संखदलविमलसण्णि-गाश्च” शंखस्य यद्दलं खण्ड तलं वा रूप विमलं तत्सन्निकाशः सदृशो यः स तथा। भ०१५ श०। संखधमग पुं० (शंखध्मक) शंख ध्मात्वा ये जेमन्ति यदन्यः कोऽपि नागच्छतीति / वानप्रस्थभेदे, औ०। नि०चू० / भ० / संखपाणिलेह पुं० (शंखपाणिरेख) शंखाङ्कितहस्ततले, जी०३ प्रति० 4 अधि० / प्रश्न संखपुर न० (शंखपुर) स्वनामख्याते नगरे, ती०। पुव्विं किर नवमो पडिवासुदेवो जरासिंधो रायगिहाओ समग्गसिन्नसंभारेण नवमस्स वासुदेवस्स कण्हस्स य विग्गहत्थं पच्छि मदिसं चलिओ, कण्हो वि समग्गसागग्गीए बारवईओ निग्गंतूण संमुह तस्स गओ। विसयसीमाए तत्थ भयवयाऽरिहनेमिणा पंचजण्णो संखो पूरिओ। तत्थ संखेसरं नाम नयरं निविल। तओ संखस्स निनाएण खुभिएणा जरासंधेण जराभिहाणं कुलदेवयं आराहिता विउव्विया विहिणोबालजरातपखाससासरोगेहिय पीडियं नियसेन्नं दिढ। आउलीहूअचित्तेण केसवेण पुट्ठो-भयवं अरिट्टनेमी. रामिणो भविस्सस्स अरिहओ पासस्स पडिमा चिट्ठइ / निय देवयावरसरे तुमं पूएसि / तेण ते निरूवद्दव व जयसिरी य होहिति। तं सोऊण विण्हुणा सत्त मासे तिन्नि दिवसा अप्पिया य नागराएण। तओ महूसवपुव्वं आणित्ता नियदेवयावसरे ठविआ पूएउमाढत्तो तिकाल विहिणा। तओ तीए ण्हवणोदगेणं अहिसित्ते सयलसिन्ने नियत्तेसु जरारोगसोगाइविग्धेसु समच्छीहूअं विण्हुणो सेन्नं / कमेण पराजिओ जरासिंधू / लोहासुरगयासुरबाणा राइणो अ निज्जिया / तप्पभिई धरणिंदपउमावईसन्निदेसेण य सयलविग्घहारिणी सयलरिद्धिजणणीय सा पडिमा संजाया ठविआ तत्थेव संखपुरे। कालंतरेण पच्छन्नीहूआ, कमेण संखकूवंतरे पयडीहूआ। अज जाव चेइहरे सयलसंघेण पूइज्जइ, पूरेइ य अणेगविहे पव्वए तुरू-करायाणो वि तत्थ महिमं करिति / "सखपुरडियमुत्ती, कामिय-तित्थं जिणेसरोपासो। तस्स य समए कप्पे, लिहिओ गीयाणुसारेणं / / 1 / / " ती० 2 कल्प। आ० क०। संखमाल पुं० (शंखमाल) सुखमसुखमायां जाते कल्पद्रुमजातिविशेषे, जं०२ वक्षः। संखय त्रि० (संस्कृत) संस्क्रियत इति संस्कृतम् / तद्वर्तयितुं त्रोटयितु संधातुं वा शक्ये, उत्त० / सम्प्रति संस्कृतप्रतिषेधादसंस्कृतं विज्ञायत इति संस्कृतशब्दस्य निक्षेपो वाच्यः, तत्र च यद्यपि समित्युपसर्गोऽप्यस्ति तथापि धात्वर्थद्योतकत्वात्तस्य करणस्यैव चात्र धात्वर्थात्तदेव निक्षेक्तमाह नियुक्तिकृत / उत्त० 4 अ०। (असंस्कृतस्य व्याख्या 'असंखय' शब्दे, प्रथमभागे 816 पृष्ठे गता।) (द्रव्यस्य कथा 'धण' शब्दे, चतुर्थभागे 2645 पृष्ठ गता।) (करणस्य व्याख्या 'करण' शब्दे, तृतीयभागे 356 पृष्ठे गता।) इदानीं कर्मणामबन्ध्यतामभिदधत् प्रकृतमेवार्थ द्रढयितुमाहतेणे जहा संधिमुहं गहीए, सकम्मुणा किच्चइ पावकारी! एवं पया पिच्छ इहं च लोए, कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि / / 3 / / स्तेनः-चौरः यथेति दृष्टान्तोपदर्शने, सन्धिः-क्षत्रं तस्य मुखमिव मुख-द्वारं तस्मिन् गृहीतः-आत्तः स्वकर्मणा-आत्मीयानुष्ठानन, किम् ?-कृत्यते-छिद्यते, पापकारी-पातकनिमित्तानुष्ठानसेवी कथं पुनरसौ कृत्यत इति चेद्-अत्रोच्यते सम्प्रदायः- “एगम्मि नयरे एगो चोरो, तेण अभिजतो घरगस्स फलगचियस्स पागारकविसीसगसन्निहं खत्त खणियं / खत्ताणि अणेगागाराणिकलसागिई नंदावत्तसंठियं पउमागिई पुरिसागिई च / सो य तं कविसीसगसंठियं खत्तं खणतो घरसामिए णिवेइओ / ततो तेण अद्धपविट्ठो पाएसु गहितो। मा पविट्ठो संतो पहरणे ण पहरिस्सति ति, पच्छा चोरेण वि बाहिरत्थेण हत्थे गहिओ / सो तेहिं दो हिं वि बलवंतेहिं उभयहा कड्डिज्जमाणो सय कियपागारकविसीसगेहिं फालिज्जमाणो अत्ताणो विलवित्ति" एवमनुनै वोदाहरणदर्शितन्यायेन प्रजाः-हे प्राणिनः ! 'पे Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखय 58 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखय च्छ' ति प्रेक्षध्वम् प्राकृतत्वाद्वचनव्यत्ययः, एतच्च यत्राऽपि नोच्यते तत्राऽपि भावनीयम् / इह-अस्मिन् लोकेजन्मनि, आस्ता परलोक इत्यपिशब्दार्थः, कृताना-स्वयंविरचितानां कर्मणां ज्ञानावरणादीनां; न मोक्षः-न मुक्तिः , ईश्वरादेरपि तद्विमोचनं प्रत्यसामर्थ्यात. अन्यथा सकलसुखित्वाद्यापत्तेः / इदमुक्तं भवति-यथासावर्थग्रहाणवाञ्छया प्रवृत्तः स्वकृतेनैव क्षत्रखननात्मकोपायेन कृत्यते, न तरय स्वकृतकर्मणो विमुक्तिः, एवमन्यस्याऽपि तत्तदनुष्ठानतोऽशुभकारिणो न तता विमुक्तिः, किन्तु तदिहापि विपच्यत एवेति / पठ्यतेच- "एवं पयापेच्च इह च" त्ति इहाऽपि कृत्यत इति, संबध्यते, कृत्यत इव कृत्यते / तथाविधबाधानुभवनेन। काऽसौ ? प्रजा, क्व?प्रेत्य-परभवे, इह चेतिइहलोके किमिति प्रेत्येत्युच्यते-यावता इह कृतमिहेवापगतमत आहयत् कृतानां कर्मणां मोक्षो नास्ति, इह परत्र वा वेद्यमेवावश्यं कर्मेति। अहवा “एवं पयापेच्च इह पि लोए, ण कम्मुणो पीहति तो कयाती" एवं प्रजा ! आमन्त्रणपदमेतत्, प्रेत्येह लोके च यतः प्राणिनः कृत्यन्ते 'तो' इति ततो हेतोः कदाचित्-करिमश्चित्काले नेति निषेधे 'कामुणो' त्ति कर्मणे प्रस्तावाद् कुत्सितानुष्ठानाय स्पृहयेत्-ना भिलाषमपि कुर्याद आस्तां तत्करणमित्याकूतम्, तदभिलषणस्याऽपि बहुदोषत्वाता तथा च वृद्धाः- “एगम्मि नयर एगेण चोरेण रत्तिं दुरवगाढे पासाए आरोद् विमोण खत्तं कयं / सुबहुं च दव्वजायं णीणिय / णियघरं चऽणेण संपावियं / पहायाए रयणीए सहाय समालद्धसुद्धवासो तत्थ गतो। को किं भाराति त्ति जाणणत्था जइ तावऽज्जलोगो म ण याणिस्सइ ता पुणो वि पुव्वटिइए चोरिस्सामीति संपहारिऊण तम्मि य खत्तट्टाणे गओ। तत्थ य लोगो बहू मिलितो सलवति-कह दुरारोहे पासाए आरो, विमग्गेण खत्त कय? कह चखुडुलएणखत्तदुवारण पविट्ठा? पुणो य सह दव्येण णिग्गओ त्ति / सो सुणेउं हरिसितो चिंतेइ सच्चमेयं / किहऽहं एएण निग्गतो ति?. अप्पणो उदरं च कडिं च पलोएउं खत्तमुहं पलोएति। सो य रायनिउत्तेहिं पुरिसहिं कुसलेहिं जाणितो, रायणो उवणीतो सासितो य" एवं पापकर्मणामभिलषणमपि सदोषमिति न विदधीतेति सूत्रार्थः / इह कृतानां कर्मणाभवन्ध्यत्वमुक्तम्- तत्र च कदाचित स्वजनत एव तन्मुक्तिर्भविष्यति, अभुक्तौ वा विभज्यैवामी धनादिवद् भोक्ष्यन्त इति कश्चिन्मन्येत अत आहसंसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जंच करेति कम्म। कम्मस्स ते तस्स उवेयकाले, नबंधवा बंधवयं उति॥४॥ / पाठान्तरेऽपि पापकर्मस्पृहाणं सदोषमिति निषिद्धम् / ततस्तत्राऽपि स्यादेतत्-यथेह सर्व साधारण तथाऽमुष्मिन्नपि भविष्यत्यत आहसंसारसूत्रम्। संसरणं-संसार:-तेषु तेषूचावचेषु पर्यटनं तम् आपन्नःप्राप्तः, परस्य-आत्मव्यतिरिक्तस्य पुत्रकलत्रादेः, अर्थात्-इति अर्थप्रयोजनमाश्रित्य साधारणम् / 'जं च त्ति चस्य वाशब्दार्थत्वादभिन्नक्रमत्वाच्च साधारण वा यदात्मनोऽन्येषां चैतद् भविष्यतीत्यभिसन्धिपूर्वकं करोति-निर्वर्त्तयति भवान्, कर्माहतुत्वात् कर्म, क्रियत इति वा कर्म-कृष्यादि कर्म तस्यैव कृष्यादेः 'ते'-तव हे कृष्यादिकर्मकर्त्तः ! तस्य-परार्थस्य साधारणस्य वा, तुशब्दोऽपिशब्दार्थः, आस्तामात्मनिमित्तं कृतस्येत्यभिप्रायः, वेदन-वेदो विपाकः तत्तत्कर्मफलानुभवनं तत्काले न -इति निषेधे, अवधारणफलत्वाद्धाक्यस्य नैव बान्ध्या स्वजनाः-यदर्थ -तत्कर्म कृतवान् करोषि वा, ते बान्धवता - बन्धुभाव तद्विभजनापनयनादिना 'उति त्ति उपयन्तीति, यतश्चैवमतस्तदुपरि' प्रेमादिप्रमादपरिहारतो धर्म एवावहितेन भाव्यम, तथाविधाऽऽभीरीव्यंसकवणिग्वत्। तथा च बृद्धाः- “एगम्मि नयरे एगोवाणियग' अंतराऽऽवणेसुं ववहरइ, एगा आभीरी उज्जुगा दो रूवर घेत्तूण कप्पासनिमित्तमुवट्ठिया / कप्पासो यतया समग्धो वट्टति / तेण वाणियएण एगस्स रुवस्स दो वारा तोलेउ कप्पासो दिन्नो। सा जाणइ-दोण्ह विरुवगाण दिन्नो त्ति। सा पोट्टलयं बंधिऊण गया। पच्छा वाणियगो चिंतेति-एस रूवगो मुहा लद्धो। ततो अहं एवं उवभुंजामि। तेण तस्स रूवगरस समियं घय गुलो विक्किणिउ घरे विसजिउं भज्जा संलत्ताघयपुण्णे करेज्जासि त्ति / ताए कया घयपुण्णा / जामाउगो से सवयंसो आगतो। सो ताए परिवेसितो घयपुणे हिं, सो भुंजिउं गतो / वा-णियगो ण्हाणपयतो भोयणस्थभुवगतो। सो ताए परिवेसितो सा-भाविएण भत्तेण / भणतिकिं न कया घयाउरा?ताए भण्णति-कया पर जामाउएण सवयंसेण खाइया। सो चिंतेति-पेच्छ जारिस कयं मया, सा वराई आभीरी वंचेउ परनिमित्त अप्पा अवुन्नेण संजोइओ। सो य सचिंतो सरीरचिंताए णिग्गतो गिम्हो य वति। सो मज्झण्हवेलाए कयसरीरचिंतो एगस्स रुक्खस्स हेट्ठा वीसम-ति / साहू य तेणोगासेण भिक्खाणिमित्तं जाति / तेण सो भण्णति-भगवं। एत्थ रूक्खच्छायाए विस्सम मया समाणं ति। साहुणा भणियं-तुरियं मए णियकजेण गंतव्यं / वणिएण भणियं - किंभयव! कोऽवि परकज्जेणावि गच्छइ? साहुणा भणियंजहा तुम चिय भञ्जाइनिमित्त किलिस्ससि / " “स मर्गणीव स्पृष्टः” तेणेव एकवयणेण संबुद्धो भणतिभयवं ! तुम्हे कत्थ अच्छह ? तेण भण्णइ-उज्जाणे / ततो त साहु कयपज्जत्तिय जाणिऊण तरस सगासं गतो, धम्म सो भणतिपव्वयामि जाव सयणं आपुच्छिऊणं / गतो णिययं घरं बंधवं भज्ज च भणइ-जहा आवणे क्वहरंतस्स तुच्छो लाभगो, तो दिसावाणिज्ज करेरसामि / दो य सत्थवाहा, तत्थेगो मुल्लभंड दाऊण सुहेण इहपुरं पावेइ, तत्थ विढत्ते ण किंचि गिण्हति। बीओ न किंचि मुल्लभंड देति, पुव्व विढत्तं च विलुपेति। तं कयरेण सह वच्चामि ? सयणेण भणियं पढमेण सह वच्चसु। लेहि सो समणुण्णातो बंधुसहितो गओ उज्जाणं / तेहि भण्णतिकयरो सत्थवाहो ? तेण भण्णति- णणु परलोगसत्थ-वाहो एस साहू असोगच्छायाए उवविट्टो णियएण भंडेण ववहा-रावेइ / एएण सह निव्वाणपट्टण जामि त्ति पव्वइतो" यथा चायं वणिक् स्वजनस्वतत्त्वमालोचयन् प्रव्रज्या प्रत्यादृतः, तथाऽन्यैरपि विवेकिभिर्यतितव्यम्। तथा च वाचक:"रोगाघ्रातो दुःखा-दितस्तथा स्वजनपरिवृतोऽतीव। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखय 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखय कृणति करूणं सबाष्पं, रूज निहन्तुं न शक्तोऽसौ / / 1 / / भवति? बहुजनप्रवृत्तिदर्शनान्नैतेऽनर्थकारिण इति न विश्रम्भवान् भवेत्, माता भ्राता भगिनी, भार्या पुत्रस्तथा च मित्राणि। 'पण्डितः' प्राग्वत्, आशुशीघ्रमुचितकर्त्तव्येषु यतितव्यमिति प्रज्ञानप्रन्ति ते यदि रूज, स्वजनबलं किं वृथा वहसि ? ||2|| बुद्धिरस्येति-आशुप्रज्ञः, किमिति आशुप्रज्ञः? यतो घूर्णयन्तीति घोरा:रोगहरणेऽप्यशक्ताः, प्रत्युतधर्मस्य ते तु विघ्नकराः। निरनुकम्पाः, सततमपि प्राणिनां प्राणापहारित्वात्, क एते? 'मुहूर्ताः' मरणाच न रक्षन्ति, स्वजनपराभ्यां किमभ्यधिकम्? / / 3 / / कालविशेषाः, कदाचिच्छारीरबलाद्घोरा अप्यमीन प्रभविष्यन्तीत्यत तस्मात् स्वजनस्यार्थे, यदिहाकार्य करोषि निर्जज्ज !! आह- 'अबलं' बलविरहितं न मृत्युदायिनो मुहूर्तान् प्रति सामर्थ्यवत्, भोक्तव्यं तस्य फलं, परलोकगतेन ते मूढ ! ||4|| किं तत् ?शरीरम्, एवं तर्हि किं कृत्यमित्याह? 'भारण्डपक्खीव तस्मात् स्वजनस्योपरि, सङ्ग परिहाय निर्वृतो भूत्वा / चरऽप्पमत्तो' इतिपतत्यनेनति पक्षः सोऽस्यास्तीतिपक्षी। भारण्डश्चासौ धर्म कुरूष्व यत्ना-द्यत्परलोकस्य पथ्यदनम्॥५॥" पक्षी च भारण्डपक्षी स यद्वदप्रमत्तश्वरति तथा त्वमपि प्रमादरहितश्चरइति सूत्रार्थः। विहितानुष्ठानमासेवस्व, अन्यथा हियथाऽस्य भारण्डपक्षिणः पक्ष्यन्तइत्थं तावत् स्वकृतकर्मभ्यः स्वजनान्न मुक्तिरित्युक्तम् : अधुना तु रेण सहान्तर्वर्तिसाधारणचरणसम्भवात् स्वल्पमपि प्रमाद्यतोऽवश्यमेव द्रव्यमेव तन्मुक्तये भविष्यतीति कस्यचिदाशयः मृत्युः, तथा तवापि संयमजीविताभ्रंश एव प्रमाद्यत इति सूत्राऽर्थः। स्यादत आह अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाहवित्तेण ताणं न लभे पमत्ते, इमम्मि लोए अदुवा परत्थ। चरे पयाइं परिसंकमाणो, दीवप्पणढे व अणंतमोहे, नेयाउयं दठुमदठुमेव / / 5 / / जं किंचि पासं इह मन्नमाणो। वित्तेण-द्रविणेन त्राण-स्वकृतकर्मणो रक्षणं न लभते-न प्राप्रोति इति। लाभंतरे जीविय बूहइत्ता, पच्छा परिण्णायमलावधंसी।।७।। कीदृक् ?प्रमत्तः-मद्यादिप्रमादवशगः, क्व? 'इमम्मि' त्ति अस्मिन्ननु चरेत्-गच्छेत् पदानि-पादविक्षेपरूपाणि परिशङ्कमानः- अपाये भूयमानतया प्रत्यक्ष एव लोके जन्मनि, 'अदुवे' त्ति अथवा परत्रेति विगणयन, किमित्येवमत आह- 'यत्किञ्चिद्' गृहस्थसंस्तवाद्यल्पमपि परभवे, कथ पुनरिहापि जन्मनि न त्राणाय? अत्रोच्यते वृद्धसम्प्रदायः पाशमिव पार्श संयमप्रवृत्ति प्रति स्वातन्त्र्योपरोधितया, मन्यमानो“एगो किल राया इदमहाईए कम्हि ऊसवे अत्तपुरे निग्गच्छते घोसणं जानानः, यद्वा चरेदिति-संयमाध्वनि यायात्, किं कुर्वन् ?पदानिघोसावेइ-जहा सव्वे पुरिसा नयरातो निग्गच्छतु / तत्थ पुरोहियपुत्तो स्थानानि, धर्मस्येति गम्यते, तानि च मूलगुणादीनि परिशङ्कमानो-मा रायवल्लभो वेसाधरमणु-पविट्टो घोसिएऽविण णिग्गतो। सो रायपुरिसेहि ममेह प्रवर्तमानस्य मूलगुणेषु मालिन्यं स्खलना वा भविष्यतीति गहितो। तेण वल्लभेण न तेसिं किंचि दाऊण अप्पा विमोइतो / दप्पायमाणो परिभावयन् प्रवर्तेत / 'जं किंचि' ति यत्किञ्चिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि विवदंतोरायसगासमुवणीतो। राइणा वि वज्झो आणत्तो। पच्छापुरोहिओ प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन पाशमिव पाशं उवट्टितो भणति-सवरसं पि य देमि मा मारिजउ, तोऽवि ण भुक्को, मन्यमानः, तदयमुभयत्राभिप्रायः-यथा भारण्डपक्षी अपरसाधारणान्तसूलाए भिन्नो।" उत्त० 4 अ०। (द्वीपशब्दवक्तव्यता 'दीव' शब्दे चतुर्थभागे वर्तिचरणतया पदानि परिशङ्कमान एव चरति यत्किञ्चिद्दवरकादिकमपि 2541 पृष्ठे गता।) श्रुतज्ञानात्मकात् दृष्ट्वाऽपि वित्तादिव्यासक्तितस्त पाशं मन्यमानः तथाऽप्रमत्तश्चरेत्। ननु यदि परिशङ्कमानश्वरेत्तर्हि सर्वथा दावरणोदयादद्रष्टेव भवति, तथा च न केवलं स्वतस्त्राणाय वित्तं न भवति, जीवितनिरपेक्षेणैव प्रवर्तितव्यं, तत्सापेक्षतायां हि कदाचित्कथकिन्तुकथञ्चित् त्राणहेतुं सम्यग्दर्शनादिकमप्यवाप्तमुपहन्तीति सूत्रार्थः। शिदुक्तदोषसम्भव इत्याशङ्कयाह- 'लाभंतरे' त्यादि वृत्तार्द्धम्। लम्भनं एवं धनादिकमेव सकलकल्याणकारि भविष्यतीत्याशङ्कायां तस्य लाभ:-अपूर्वार्थप्राप्तिः-अन्तरं-विशेषः, लाभश्चासावन्तर चलाभान्तरं कुगतिहेतुत्वं कर्मणश्चाबन्ध्यत्वमुपदर्थ्य यत्कृत्यं तदाह- (सूत्रम्) तस्मिन सतीत्यर्थः / किमुक्तं भवति ?याव-द्विशिष्टविशिष्टतरसुत्तेसु आवी पडिबुद्धजीवी, नो विस्ससे पंडिय आसुपन्ने। सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रावाप्तिरितः सम्भवति तावदिदं जीवितं - धोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खीव चरऽप्पमत्ती // 6|| प्राणधारणात्मक 'हयित्वाअन्नपानोपयोगादिना वृद्धिं नीत्या, तदभावे सुप्तेषु-द्रव्यतः शयानेषु भावतस्तु-धर्मा प्रत्याजाग्रत्सु, चः पादपूरणे, प्रायस्तदुपक्रमणसम्भवादित्थमुक्तम्,'खुहा पिवासा य वाही य' त्ति चशब्दःसमाहारेतरेतरयोगसमुच्चयावधारणपादपूरणाधिकवचना- वचनात् क्षुदादीनामप्युपक्रमणकारणत्वेनाभिधानाद, इह च बृंहयित्वेव दिष्विति वचनात, अपिः सम्भावने, ततोऽयमर्थः-सुप्तेष्वप्यास्ता जागृत्सु बृहयित्वेति व्याख्येयम्, अन्यथा ह्यसंस्कृतं जीवितमिति विरूध्यत च (उत्त० 4 अ०) (पडिबुद्धजीवी इत्यस्य व्याख्या पडिबुद्धजीवि' [ण] इति भावनीयम्। ततः किमित्याह-पश्चाद्-लाभविशेषप्राप्त्युत्तरकालं शब्दे पञ्चमभागे 321 पृष्ठ गता) (अगडदत्तस्य कथा 'अगडदत्तशब्दे 'परिण्णाय' ति सर्वप्रकारैरवबुध्य यथेदं नेदानीं प्राग्वत्सम्य - प्रथमभागे 155 पृष्ट गता।), न विश्वस्यात्, प्रमादेष्विति गम्यते, किमुक्तं / ग्दर्शनादिविशेषहेतुः, तथा च नातो निर्जरा। न हि चरया च्याधिना Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखय 60 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखय वा अभिभूतं तत् तथाविधधर्माधानं प्रति समर्थम्, उक्त हि- "जरा जाव ण पीलेति, वाही जाव ण वड्डति / जार्विदिया ण हायति, ताव धम्म समायरे / / 1" एवं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय ततः प्रत्याख्यानपरिज्ञया च भक्तं प्रत्याख्याय, सर्वथा जीवितनिरपेक्षो भूत्वेति भावः / मलवदत्यन्तमात्मनि लीनतया मल:-अष्टप्रकार कर्म तदपध्वंसत इत्येवंशीलः, मलापध्वंसीमलविनाशकृत, स्यादिति शेषः। ततो यावल्लाभ देहधारणमपि गुणायैवेति भावः। यद्वा-जीवितं हयित्वा लाभान्तरे-लाभविच्छेदेऽन्तर्बहिश्व मलाश्रयत्वान्मल:-औदारिकशरीरं तदपध्वंसी स्यात्, कोऽर्थः-जीवितं त्यजेद् / इदभुक्तं भवति-अयमस्यैको हि गुणों मानुष्यमवाप्य लभ्यते धर्म इति भावयन् यावदितस्तल्लाभः ताव-दिदं बृहयेत्, लाभविच्छेदं सम्भाव्य संलेखनादिविधानतस्त्यजेत्। (उत्त०) (इह च यावल्लाभधारणे मण्डिकचौरोदाहरणम् ‘मडिय' शब्दे षष्ठे भागे 21 पृष्ठे व्याख्यातम।) दृष्टान्तानुवादपूर्वकोऽय-मिहोपनयः-यथाऽयमकार्यकार्यपि मण्डिको यावल्लाभ मूलदेवनृपतिनाधारितः तथा धर्मार्थिनाऽपि संयमोपहतिहेतुकमपि जी-वितं निर्जरालाभमभिलषता तल्लाभ यावद्धार्यमिति। न च तद्धारण संयमोपरोध एव, यथाऽऽगम हि प्रवृत्तस्य तत्तदुपष्टम्भकमेवेति भावनीयम् इत्यलं प्रसङ्गे नेति सूत्रार्थः / सम्प्रति यदुक्तं जीवित बृंहयित्वा मलापध्वंसी स्या दिति तत्कि स्वातन्त्र्यत एव उतान्यथेत्याहछंदं णिरोहेण उदेति मुक्खं, आसे जहा सिक्खियवम्मधारी। पुव्वाइवासाइचर ऽप्पमत्तो, तम्हा मुणी खिप्पमुवेति मुक्खं ||8|| छन्दो-वशस्तस्य निरोधः छन्दोनिरोधः-स्वच्छदतानिषेधः तेन उपैतिउपयाति मोक्षं-मुक्तिम्। किमुक्त भवति ? गुरुपरतन्त्रतया स्वाग्रहाग्रहयोगिता विना तत्र प्रवर्तमानोऽपि संक्लेशविकल इति न कर्मबन्धभाक, किन्त्वविकलचरणतया तन्निर्जरणमेवाप्रोति, अप्रवर्त्तमानोऽपि चाहारादिष्याग्रहग्रहाकुलकुलितचेताः 'छट्टहमदसमे' त्यादिवचनादनन्तसंसारिताद्यनर्थभागेव भवति / तत्सर्वथा तत्परतन्त्रेणैव मुमुक्षुणा भाव्यं, तस्यैव सम्यग-ज्ञानादिसकलकल्याणहेतुत्वाद् उक्त च"णाणस्स होइभागी, थिरयरतो दंसणे चरिते य / धण्णा आवकहाए, गुरुकुलवास न मुचंति / / 11 / " यद्वा-छन्दसागुर्वभिप्रायेण निरोधःआहारदि-परिहाररूपःछन्दोनिरोधःतेनैवोक्तन्यायतो मुक्त्यवाप्तिः, तत्त-द्वस्तुविषयाभिलापारिमका इच्छा वा छन्दः तन्निरोधेन मुक्तिः, तस्या एव तद्विबन्धकत्वात् तथा च लौकिका अप्याहुः- "श्लोकार्धन हि लद्रक्ष्ये गटुक्र ग्रन्थकोतिभिः / तृष्णा च सत् (चेत्सं) परित्यक्ता प्राप्त च परमं पदम् // 1 // " अथवा-छन्दो वेद आगम इत्यनान्तरम, ततः छन्दरा। 'आगाए आणाए गिय चरण' मित्यादिना निरोधःइन्द्रियादिनिग्रहात्मकः छन्दोनिरोधः तेनोपैति मोक्ष न तु सर्वथा जीवित यनपेक्षतया रथा व संगय-चिद:- "सब्वत्थ संजमं संजमातो / अप्पाणमेव रक्खिज्जा / मुच्चइ अइवायातो, पुणोऽवि सोही ण या विरती / / 1 / / " अत्रोदाह-रणमाह-अश्वो यथा शिक्षितोवल्गनप्लवनधावनादिशिक्षा ग्राहितो वृणोति-आच्छादयति शरीरकमिति वर्म-अश्वतनुत्राण तद्धरणशीलो वर्मधारी, शिक्षितश्चासौ वर्मधारी च शिक्षितवर्मधारी, अनेन शिक्षकतन्त्रतयाऽस्य स्वातन्त्र्यापोहभाह-ततोऽयमर्थ:-यथा अश्वःस्वातन्त्र्यविरहात्प्रवर्त्तमानः समरशिरसि न वैरिभिरूपहन्यत इति तन्मुक्तिमाप्नोति, स्वतन्त्रस्तुप्रथममशिक्षितो रणमवाप्तस्तैरूपहन्यते। अत्र च सम्प्रदायः- “एण्ण राइ-णा दोण्ह वि कुलपुत्ताण दो आसा दिण्णा सिक्खावणपोसणत्थं। तत्थेगो कालोचिएण जवसजोगासणे संरक्खमाणो धावियलालियवगियाइयातो कलातो सिक्खावेइ। बीओ कोएयरस इट्टजवसजोगासण दाहिइ ति घरट्टे वाहेइ ण तु सिक्खावेइ, सेसं अप्पणा भुंजति / संगामकाले उवट्ठिए ते रण्णा वुत्ता- तेसु चेवास्सेसु आरोदु झत्ति आगच्छह, संपत्ता, भणिया य राइणा-पविसह संगाम / तत्थ पढमोऽसो सिक्खागुणतणतो सारहियगणुवट्टमाण संगामपारतोजातो, दुइओ विसिट्ठसिक्खाभावतोऽसब्भावभावणाभावियत्ताणओ गोधूमजंतगजुत्त इव तत्थेव भमिउमाढत्तो / तं च पर उवलक्खेउ हयसारहिं काऊण गृहीतवन्तः। दृष्टान्तानुवादपूर्वकोऽयमुपनयः-यथाऽसावश्वः तथा धर्मार्थ्यपि स्वातन्त्र्यविरहितो मुक्तिमवाप्नोति, अत एव च पूर्वाणि-उक्त परिमाणानि वर्षाणि-वत्सराणि 'कालात्यन्तसंयोगे द्वितीया' (पा०२-३-५), किमित्याह- 'घर' इति सततमागमोक्तक्रियामासेवस्व, कथम् ? अप्रमत्तः-गुरूपारतन्त्र्यापहारिप्रमादपरि-हर्ता, 'तम्ह' त्ति तस्मात् अप्रमादचरणादेव, मन्यतेजानाति जीवादीनिति मुनिः तपस्वी क्षिप्रशीघ्रम् उपैति मोक्षम् / ननु छन्दोनिरोधोऽपि तत्त्वतोऽप्रमादात्मक एवेति कथं न पुनरूक्तदोषः / , उच्यते- अप्रमाद एवादरः कार्य इति ख्यापनार्थत्वादध्ययनार्थोजीवनार्थत्वाचास्य न पौनरूक्त्यमिति भावनीयम् / पूर्वाणि वर्षाणीति च एतावदायुषामेव चारित्रपरिणतिरिति दर्शनार्थमुक्तमिति सूत्रार्थः / ननु यदि छन्दोनिरोधेन मुक्तिः -अयमन्त्यकाल एव तर्हि विधीयतामित्याशङ्कयाह, यद्वा यदि पश्चान्मलापध्वंसी स्यात् तदैव छन्दोनिरोधादिकमपि तद्धेतुभूतमस्त्वत आहस पुव्वमेवं ण लभेज पच्छा, एसोवमा सासयवाइयाणं। विसीदति सिढिले आउयम्मि, कालोवणीए सरीरस्स भेए / / / / स इति-यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात् यः प्रथममेवाप्रमत्ततया भा. वितमतिर्न भवति स तदात्मकं छन्दोनिरोधम् 'युवमेव ति एवं शब्दस्यात्रोपमार्थत्वात्पूर्वमिवान्त्यकालात् मलापध्वंससमयावा अभावितमतित्वात् न लभेत्-न प्राप्नुयात् / सम्भावने लिड् / ततश्च लागसम्भावनाऽपि न समस्ति, किं पुनस्तल्लाभ इति / पश्चातअन्यकाले मलापध्वंससमये वा. 'एसोवस' ति एषा-अनन्तरममिहित Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखय 61 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखय स्वरुपा उपसामीप्येन मीयते-परिच्छिद्यते स्वयप्रसिद्ध्या अपरमप्रसिद्ध रस्त्वनयेत्युपमा, केषां?शाश्वता इव वदितुं शीलमेषामिति शाश्वतवादिनः, उष्ट्रक्रोशिव "कर्तर्युपमाने" (पा०३-२-१६) इति णिनिः, तषां शाश्वतवादिनाम, आत्मनि मृत्युमनियतकालभाविनम-पश्यताम्, इदमिहाकूतम्-यो हि छन्दोनिरोधमुत्तरकालमेव करिष्यामीति वक्रि सोऽवश्य शाश्वतवादी, स चैवं प्रज्ञाप्यते-यथा भद्र ! इदानीं भवतस्तकालात्पूर्वमसावुक्तहेतुतो न समस्ति, तथोत्तरकालमप्यसौ प्रमादिनस्तव न भवितेति। यदिवा एषाउपमेति-उपेत्युपयोगपूर्वकं मेति ज्ञानमुपमासम्प्रधारणा यदुत पश्चाद्धर्म करिष्यामः इति शाश्वतवादिनानिरूपक्रमायुषाम, ये निरूपक्रमायुष्कतया शाश्वतमिवात्मानं मन्यन्ते तेषां युज्येतापि, न तु जलबुदबुद-समानायुषाम, तथा चासावुत्तरकालमपि छन्दोनिरोधमनाप्नुवन् विषीदति-कथमहमकृतसुकृतः सम्प्रत्यनर्वाक्पारं भवाम्भोधि भ्राम्यन् भविष्यामीत्येवमात्मक वैक्लव्यमनुभवति / कदा? शिथिलयति-आत्मप्रदेशान् मुञ्चति आयुषि-मनुष्यभवोपग्राहिण्यायुष्कर्माणि, 'कालोवणीय क्ति कालेनमृत्युना स्वस्थितिक्षयलक्षणेन वा सयमेनोपनीतः उपढौ कितः-तस्मिन्, क? इत्याह-शरीरस्यऔदारिककायात्मकस्य भेदे-सर्वपरिशाटतःपृथग्भावे, तदिदमैदम्पयम-आदित एव न प्रमादवद्भिर्भाव्यम्, तथा चाह-“गमनं किमद्य किं श्वः, कदाऽपि वा सर्वथा ध्रुवं कापि? इति जानन्नपि मूढस्तथाऽपि मोहात्सुखं शेते॥१॥” इति सूत्रार्थः / किं पुनः पूर्वमिव पश्चादपि छन्दोनिरोधं न लभत इत्याहखिप्पं न सकेइ विवेगमे, तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। समेच लाभं समता महेसी, आयाणरक्खी चरमप्पमत्तो // 10 // क्षिप्रं तत्क्षण एव न शक्नोति न समर्थो भवति, किं कर्तुम्? एतुं-गन्तुं. प्राप्तुमिति यावत्, कम्? विवेक द्रव्यतो बहिः सङ्गपरित्यागरूपं, भावतस्तु-कषायपरिहारात्मकम्, न ह्यकृतपरिकर्मा झगिति तत्परित्याग कर्तुमलम् / अत्रोदाहरणं ब्राह्मणी- "एगो मरुतो परदेसं गंतूण साहापारतो होऊण सविसयमागतो, तस्सऽन्नण मरूतेण खद्धपलालितो लि काउंदारिका दत्ता। सोय लोए दक्खिणातो लहति, परे विभवे वड्डति तण तीसे भारियाए सुब-हु अलंकारं कारियं / सा निच्चमंडिया अच्छइ। तण भण्णइ-एस प.चंतगामो, ता तुमं एयाणि आभरणगाणि त्रिहि पव्वणीषु आवि-धाहि, कहिं चोरा उवगच्छेज्जा तो सुह गोविज्जति। सा भणइ-अहं ताए वेलाए सिग्धमेव अवणेस्सं ति। अन्नया तत्थ चोरा पडिया, तमेव णिच्चमडियागिह अणुपविट्टा, सा तेहिं सालंकिया गहिया, साय पणीयभोयणता मंसोवचितपाणिपायाण सक्केइ कडगाईणि अवणेउं, रातो मरहिं तीसे हत्थे छेत्तूण अवणीया, गेण्हिउंच निग्गया।" एवमन्योऽपि प्रागकृतपरिकनि तत्काल एव विवेकमेतुं शक्नोति, मलापध्वंसतस्तु तथा सति दुरापास्त एवेति न च मरूदेव्युदाहरणं तत्राप्यभिधेयम्, / आश्चर्यरूपत्वादस्य, न ह्येवंतीव्रभावा बहवः सम्भवन्ति, यतएवंतस्मात् सम् इति- सम्यक प्रवृत्त्या उत्थायेति च पश्नाच्छन्दो निरोल्स्याम इत्यालस्यत्यागेनोद्यम विधाय, तथा 'पहाय कामे' त्ति प्रकर्षणमनसाऽपि तदचिन्तनात्मकेन हित्वा त्यक्त्वा कामान्-इच्छाम-दनात्मकान् समेत्य-सम्यग् ज्ञात्वा लोक समस्तप्राणिसमूह, कया? समतयासमशत्रुमित्रतया क्वचिदरक्तद्विष्टतयेति यावत्, तथा च महर्षिः सन्, महः-एकान्तोत्सवरूपत्वान्मोक्षस्तमिच्छतीत्येवंशीलो महेषी वाकिमुक्तं भवति? विषयाभिलाषविगमान्निर्निदानः सन् आत्मानं रक्षत्यपायेभ्यःकुगतिगमनादिभ्य इत्येवंशील आत्मरक्षी, यद्वा आदीयते-स्वीक्रियते आत्महितमनेनेत्यादानः-संयमः तद्रक्षी 'चरमप्पत्तो' तिमकारोऽलाक्षणिकः, ततश्चाप्रमत्तः-प्रमादरहिः, इह च प्रमादपरिहाराऽपरिहारयोरहि-कमुदाहरण वणिग्महिला। तत्र च सम्प्रदायः- “एगा वणिगमहिला पउत्थपतिया सरीरसुस्सूसापरा दासभयगकम्मकरे णिजणिज-भियोगेसु न नियोजयति, न य तेसिं कालोववन्नं जहिच्छ आहारं भतिं वा देति, ते सव्वे नट्टा / कम्मतपरिहाणीए विभवपरिहाणी। आगतो वाणियओ। एवविह पस्सिऊण पच्छा तेण णिच्छूढा / अण्णं तु पुक्खलेणं सुकेणं वरेति, लद्धा पणेण / तेण तीसे णियगा भण्णन्ति-जइ अप्पाणं रक्खइ ता परिणेमि त्ति, ताए यऽमुणिय-परमत्थाए दुग्गयकन्नगाए सोउं नियगा भण्णति-रवखामि (क्खि-हिइ) अप्पगं, सा तेण विवाहिया, गतो वाणिजेण। साऽवि दासभयगकम्मकरादीणं संदेसं दाउंतेसिं पुव्वण्हिकाइकाले भोयणं देइ, महुराहिं च वायाहिं उच्छाहेइ, भई च तेसिं अकालपरिहीण देइ, णय णियगसरीरसुस्सूसापरा। एवमप्पाणं रक्खंतीए भत्ता उवागओ। सो एवंविहं पस्सिऊण तुट्ठो, तेण सव्वसामिणी कया।" इत्थं तावदिहेव गुणायाऽप्रमादो दोषाय च प्रमादः, आस्तामन्य-जन्मनीत्यभिप्रायेणात्रवैहिकोदाहरणाभिधानमिति परिभावनीयमिति सूत्रार्थः / प्रमादमूलं च रागद्वेषाविति सोपायं तत्परिहारमाहमुहं मुहं मोहगुणे जयंतं, अणेगरूवा समणं चरंतं। फासा फुसंती असमंजसं च, ण तेसु भिक्खू मणसा पउस्से ||11|| मंदाय फासा बहुलोभणिज्जा, तहप्पगारेसु मणं ण कुजा। रक्खेज्जा कोहं विणएज्ज माणं, मायं ण सेवेज पहिज लोहं / / 12 / / मुहुर्मुहुः-वारं वारम्, सततप्रवृत्त्युपलक्षणमेतत्, मोहयति जानानमपि जन्तुमाकुलयति प्रवर्त्तयति चान्यथेहेति मोहः तस्य गुणाः मोहगुणाः - तदुपकारिण: शब्दादयः, तान् जयन्तम् - अभिभवन्तम्, किमुक्तं भवति ? अविच्छेदतस्तजयप्रवृत्तम्, यद्वाकथञ्चिन्मोहनीयात्यन्तोदयत एकदा तैः पराजितमपिपुनः पुनस्तजयं प्रति प्रवर्त्तमानं नतुतत एव विमुक्तसंयमोद्योगम्, अनेकरूपाः-अनेकमितिअ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखय 62 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखय नेकविध परूषविषमसंस्थानादिभेद रूपस्वरूपमेषामिति अनेकरूपाः, श्रमणं चरन्तं प्रागवत्, ‘फास' त्ति स्पृशन्ति स्वानि स्वानीन्द्रियाणि गृह्यमाणतया इति स्पर्शाः-शब्दादयरते स्पृशन्तिगृह्यमाणतयैव सम्बध्नन्ति, असमञ्जसम्अननुकूलमिति क्रियाविशेषणमेतत, चशब्दोऽवधारणे असमञ्जसमेव, अथवा- स्पर्शनविषयाः-स्पशो: स्पृशन्ति, स्पशोपादानं चास्सैव दुर्जयत्वाद्वयापित्वाच, न तेषु-स्पर्शेषु भिक्षुः-मुनिः, मनसा उपलक्षणत्वाच वाचा कार्यन च, यद्वाऽपिशब्दस्य लुशनि-र्दिष्टत्वान्मनसाऽपि आस्तांवाचा कायेन वा, 'पदूरो' त्ति प्रदूष्येत् प्रद्विष्यादा / किमुक्त भवति? कर्क शसंस्तारकादिस्पर्शादी हन्तोपतापिता वयमेतेनेति च चिन्तयेत् नैव वा वदेत्परिहरेद्वा तमिति / "मंदाये” ति सूत्रम्, तथा मन्दायन्तीति मन्दाः-हिताहितविवेकिनमपि जनमन्यता नयन्तीति कृत्वा, चशब्दः पूर्वापक्षया समुच्चये, स्पर्शाः प्राग्वच्छब्दादयः,बहून् लोभयन्ति-विमोहयन्तीति बहुलोभनीयाः अन्यत्रापि (कुत्यल्युटो बहुलम्) इति वचनात् कर्तर्यनीयः, अनेनात्याक्षेपकत्वमुक्तम्, 'तहप्पगारेसु'त्ति अपेर्गम्यमानत्वात्तथा-प्रकारेष्वपि बहुलोभनीयेष्वपि मृदुमधुररसादिषु मनः-चित्तं न कुर्यात्, अथवाधातूनामनेकार्थत्वान्न निवेशयेत् / यद्वासङ्कल्पात्मकमेव मनः, ततो मन इति सङ्कल्पमपि न कुर्यात्-नविदध्यात्, आस्तां तत्प्रवृत्तिमिति / अथ वा-मन्दबुद्धित्वान्मन्दगमनत्वाद्वा मन्दाः-स्त्रियःता एव स्पर्शप्रधानत्वात स्पर्शाः, ततश्च मन्दाश्च ताः स्पर्शाः, बहूनां कामिना लोभनीयाःगृतिजनका बहुलोभनीया यास्तासु 'तहप्पगारेसु' ति लिङ्ग व्यत्ययात्तथाप्रकारासु बहुलोभनीयासु मनोऽपि न कुर्याद, इह च स्त्रीणामेव बहुतरापायहेतुत्वादित्थमुच्यते, तथा चाह- "स्पर्शेन्द्रियप्रस - क्ताश्च,बलवन्तो मदोत्कटाः। हस्तिबन्धकिसंरक्ता, बध्यन्ते मत्तवारणाः // 1 // " इति। एवं च पूर्वसूत्रेण द्वेषस्य परिहार उक्तः, अनेन च रागस्य, स तु कथं भवतीत्यत आहरक्ष-येत्-निवारयेत्, कम्? क्रोधमअप्रीतिलक्षणं, विनयेत्-अपनयेत् मानम्-अहङ्कारात्मकम्, मायापरवञ्चनबुद्धिरूपां न कुर्यात्, प्रजह्यात्-परित्यजेत् लोभम्अभिष्वगस्वभावम्, तथा च क्रोधमानयोषात्मकत्वान्मायालोभयोश्च रागरूपत्वात्तन्निग्रह एव तत्परिहृतिरिति भावनीयम्। अथवा-स्पर्शपरिहारमभिदधता, चतुर्थव्रतमुक्तम्, तच्च 'अबंभचेरं घोरं पमायं दुरहिट्टग' ति वचनामहाप्रमादरूपस्याब्रह्मणो निरोधकृदिति, तदभिधानाद्धिसादिनिरोधोऽप्युक्त एवेति, अनेनार्थतो मूलगुणाभिधानम्, रक्षेत् क्रोधमित्या - दिना च पिण्डादिकमयच्छते यच्छते वा न कषायवशगो भवेदित्युत्तरगुणोक्तिरिति सूत्रद्वयार्थः। सम्प्रति यदक्त- 'तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे' इत्यादि, तत्कदाचिच्चरकादिष्वपि भवेत. अत आह-यद्वैतावता चारित्रशुद्धिरूक्ता, सा च न सम्यक्त्वविशुद्धिमपहायातस्तदर्शमिदमाहजे संखया तुच्छपरप्पवादी, ते पेज्जदोसाणुगया परज्झा। एए अहम्मु ति दुगंछमाणो, कंखे गुणो जाव सरीरभेए / / 13 / / त्ति बेमि। 'ये' इति अनिर्दिष्टस्वरूपाः, संस्कृता इति न तात्त्विकशुद्धिमन्तः किन्तूपचरितवृत्तयः, यद्वा-संस्कृतागमप्ररूपकत्वेन संस्कृता, यथा सौगताः, ते हि स्वागमे निरन्वयोच्छेदमभिधाय पुनस्तेनैव निर्वाहमपश्यन्तः परमार्थतोऽन्वयिद्रव्यरूपमेव सन्तानमुपकल्पयाबभूवुः, सांख्याश्चैकान्तनित्यतामुक्त्वा तत्त्वतः परिणामरूपां चै (पावे) व पुनराविर्भावतिरोभावावुक्तवन्तो, यथा वा- “उक्रानि प्रतिषिद्धानि, पुनः सम्भावितानि च / सापेक्षनिरपेक्षाणि, ऋषिवाक्यान्यनेकशः / / 1 / / " इति वचननिषेधनसम्भवादिभिरूपस्कृतस्मृत्यादिशास्त्रामन्वादयः, अत एव 'तुच्छ' त्ति तुच्छा यदृच्छाभिधायितया निःसाराः परप्पवाइ'त्ति परे च ते स्वतीर्थिकव्यतिरिक्ततया प्रवादिनश्च परप्रवादिनः, ते किमित्याह'पेजदोसाणुगया' प्रेमद्वेषाभ्यामनुगताः प्रेमद्वेषानुगताः, तथाहि-सर्वथा संवादिनि भगवद्वचसि निरन्वयोच्छेदैकान्तनित्यत्वादिकल्पनंवचननिषेधनसम्भावनादि वा न रागद्वेषाभ्यां विनेति भावनीयम्, अत एव च 'परज्झ' ति देशीपदत्वात्परवशा रागद्वेषग्रहास्तमानसतया न ते स्वतन्त्राः। यदित एवंविधास्ततः किमित्याह-एते इति-अर्हन्मतबाह्याः, अधर्महेतुत्वादधर्मः, 'इति' त्यमुनोल्लेखेन 'दुगछमाणो' त्ति जुगुप्समान: उन्मार्गानुयायिनोऽमी इति तत्स्वरूपमवधारयन्, न तु निन्दन्, निन्दायाः सर्वत्र निषेधात्, तदेवंविधश्च किं कुर्यादित्याह-काङ्केत अभिलषेत् गुणान-सम्यग्दर्शनचारित्रात्मकान् भगवदागमाभिहितान्, किं नियतकालमेवोतान्यथेत्याह-यावच्छरीरात्-औदारिकात्पाप्रकाराद्वा भेदः-पृथग्भावः शरीरभेदो, मरणं विमुक्तिर्वेति यावद, अनेनेहैव समुत्थानं कामप्रहाणादि च तत्त्वतः, अन्यत्र तु संवृत्तिम दित्युक्तम्, एवं च काङ्गत्म कसम्यक्त्वातिचारपरिहाराभिधानतः राम्यक्त्वशुद्धिति सूत्रार्थः / / 13 / / इति परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्। उनोऽनुगमः / सम्प्रति नयाः ते च पूर्ववत् / उत्त० 4 उ०। किञ्चण य संखयमाहु जीवियं, तह विव बालजणो पगब्भइ। काले पापेहि मिज्जती, इति संखाय मुणी ण मज्जती // 21 // नच-नैव जीवितम्-आयुष्कं कालपर्यायण त्रुटितं सत् पुनः 'संखय' मिति संस्कर्तु-तन्तुवत्सन्धातुं शक्यते इत्येवमाहुस्तद्विदः, तथाऽटि एवमपि व्यवस्थिते बालः अज्ञो जनः प्रगल्भते पापं कुर्वन् धृष्टो भवति. असदनुष्ठानरतोऽपि न लज्जत इति,स चैवम्भूतो बालस्तैरसदनुष्टानापादितैः पापैः कर्मभिः मीयते-तद्युक्र इत्येवंपरिच्छिद्यते, मीयते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकवदिति, एवं संख्यायज्ञात्वा मुनिः-यथावस्थितपदार्थानां वेत्ता न माद्यतीति तेष्वसदनुष्ठानेष्वहं शोभनः कशेल्ट प्रगल्भमानो मदं न करोति / सूत्र०१ श्रु०२ अ० 2 उ०। ('छदेपनि (22) सूत्रं तद्व्याख्या च 'छंद' शब्दे तृतीयभागे 1340 पृष्ठ गता। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखराय 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखा संखराय पुं० (शंखराज) वाराणस्या स्वनामख्याते राजनि, यो हि मल्लितीर्थकृता सह प्रव्रजितः / स्था०७ठा० ३उ० / “संखयरिसी" ती० / संखवण्ण पु० (शखवर्ण) विशे महाग्रहे, स्था०1 कल्प०। सू० प्र०। च००। दो संखवन्ना। (सू०-६०x)स्था० 2 ठा० 3 उ० / संखवण्णाभ पु० (शंखवर्णाभ) एकविंशतितमे महाग्रहे, स्था०। दो संखवण्णाभा। (सू०-६०x) स्था० 2 ठा०३ उ०। संखवर पु० (शंखवर) द्वीपभदे, अनु० / “संखवरे दीवम्मि, संखे संखप्पभे य दो देवा / (58)" द्वी०। संखवरसमुह पु० (शंखवरसमुद्र) शंखवरद्वीपस्याभितः समुद्रे, “संखवर समुद्द अभिवाओ। मणिप्पभे मणिहिसेए दो देवा" द्वी०। संखवायण न० शंखवादन) शंखध्मानकरणे, नि०चू० 1 उ० / (शंखवादनं कल्पते न वेति 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे षष्ठे भागे 356 पृष्टे उक्तम्। संखवाल पुं० (शंखपाल) धरणस्य नागकुमारस्य चतुर्थे लोकपाले, भूतानन्दस्य चतुर्थ लोकपाले च / स्था० 4 ठा०१ उ०। धरणनागकुमारेन्द्रस्योत्तरदिगलोकपाले, भ० 3 श० 8 उ० / स्था०। कालोदायिप्रभृतिष्वन्ययूथिकेष्वन्यतमे (भ०७ श० 10 उ०।) स्वनामख्याते आजीविकापासके, भं० 8 श०५ उ०। संखा स्त्री० (संख्या) संख्यायन्ते परिच्छिद्यन्ते जीवादयःपदार्था येन तज ज्ञानं संख्येत्युच्यते / सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। सम्यक ख्याप्यतेप्रकाश्यतेऽनयेति संख्या / प्रज्ञायाम, आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ० / सूत्र० / संख्यान-संख्या। परिच्छेदे, सूत्र० 1 श्रु० 12 अ०। एकादिव्यवहारहेता, सम्म० 3 काण्ड / गणनायाम, आ० चू० 1 अ० आc म० / अनु० / सूत्र० / विशे० / संख्याप्रमाणं विवरीषुराहसे किं तं संखप्पमाणे ? संखप्पमाणे अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा-नामसंखा, ठवणसंखा, दव्वसंखा, ओवम्मसंखा, परिमाणसंखा, जाणणासंखा, गणणासंखा, भावसंखा। से किं तं नामसंखा ? नामसंखा जस्स णं जीवस्स वाजाव से तं नामसंखा 1 से किं तं ठवणसंखा? ठवणसंखा ? जण्णं कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा०जाव सेतंठवणसंखा। नामठवणाणं को पइविसेसो? नाम (पाएणं) आवकहियं, ठवणा इत्तरिया वा होजा, आवकहिया वा होजा। से किं तंदव्वसंखा? दव्वसंखा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- आगमओ य नो आगमओ य० जाव जाणयसरीरभविअ-सरीरवइरित्ता दव्वसंखा? से किं तं जाणय०२ तिविहा पण्णत्ता, ३तं जहा-एगभविए बद्धाउए अभिमुहणामगोत्ते अ / एगभविएणं भंते ! एगभविए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। बद्धाउए णं भंते ! बद्धाउए त्ति कालओ केवचिरं होइ? जहण्णेणं अंतोमुहूत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडीतिभागं / अमिमुहनामगोए णं भंते ! अभिमुहनामगोए त्ति कालओ केवञ्चिरं होइ? जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / इयाणिं को णओ कं संखं इच्छइतत्थ णेगमसंगह-ववहारा तिविहं संखं इच्छंति, तं जहाएगभविअं बद्धाउअं अभिमुहनामगोत्तं च / उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छइ,तं जहा-बद्धाउअंच अभिमुहनामगोत्तं च / तिणि सद्दनया अभिमुहणामगोत्तं संखं इच्छंति / से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ता दव्वसंखा। से तं नो आगमओ दव्वसंखा। से तं दव्वसंखा / (सू०-१५०x) संख्यान-संख्या, संख्यायतेऽनयेति वा संख्या, सैव प्रमाण संख्याप्रामणम् / इह च संख्याशब्देन संख्याशङ्खयोर्द्वयोरपि ग्रहणं द्रष्टव्यम, प्राकृतमधिकृत्य समानशब्दभिधेयत्वात्, गोशब्देन पशुभूम्यादिवत्। उक्तं च -“गोशब्दः पशुभूम्यप्सु, वाग्दिगर्थप्रयोगवान् / मन्दप्रयोगे दृष्ट्यम्बुवज्रस्वर्गाभिधायकः / / 1 / / " एवमिहापि संखा इति प्राकृतोक्ता संख्या संखाश्च प्रतीयन्ते, ततो द्वयस्याऽपि ग्रहणम् / एवं च नामस्थापनाद्रव्यादिविचारेऽपि प्रक्रान्ते संख्या शंखा वा यत्र घटन्ते,तत्तत्र प्रस्तावज्ञन स्वयमेव योज्यमिति। 'से किं तं नामसंखे' त्यादि, सर्व पूर्वाभिहितनामावश्यकादिविचारानुसारतः स्वयमेव भावनीय यावत् 'जाणय-सरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसंखे तिविहे पण्णत्ते' इत्यादि, इह यो जीवो मृत्वाऽनन्तरभवे शंखेषु उत्पत्स्यते स तेष्वबद्धायुष्को-ऽपि जन्मदिनादारभ्य एकभविकः स शंख उच्यते, यत्र भवे वर्तते स एवैको भवः शंखेषुत्पत्तेरन्तरेऽस्तीति कृत्वा, एवं शंखप्रायो-ग्यम्। बद्धमायुष्कं येन स बद्धायुष्कः, शंखभवप्राप्तानां जन्तूनां ये अवश्यमुदयमागच्छतस्ते द्वीन्द्रियजात्यादिनीचैर्गोत्राख्ये अभिमुखेजघन्यतः समयेनोत्कृष्टतोऽन्तमुहूर्तमात्रेणैव व्यवधानात् / उदयाभिमुखप्राप्ते नामगोत्रे कर्मणी यस्य सोऽभिमुखनागोत्रः, तदेष त्रिविधोऽपि भावशंखताकारणत्वात् ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यशंख उच्यते, यद्येवं द्विभविकत्रिभविकचतुर्भविकादिरपि कस्मान्नेत्थं व्यपदिश्यत इति चेत, नैवं तस्यातिव्यवहितत्वेन भावकारणतानभ्युपगमात्, तत्कारणस्यैव द्रव्यत्वाद् इदानीं त्रिविधमपि शंखं कालतः कमेण निरूपयन्नाह - 'एगभविए णं भंते !' इत्यादि, एकभविकःशंखो भदन्त ! एकभविक इति व्यपदेशेन कालतः कियचिरं भवतीति। अत्रोत्तरम-जपणेण' मित्यादि, इदमुक्तंभवतिपृथिव्याद्यन्यतर Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखा 64 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखित्तविउ० भवेऽन्तमुहूर्त जीवित्वा योऽनन्तरं शंखेपूत्पद्यत सोऽन्तमुहूर्तम- ५.(यावत्तावत् वक्तव्यता 'जावंतावं' शब्दचतुर्थभागे 1457 पृष्ठे गता।) कभविकः शंखो भवति, यस्तु मत्स्यायन्यतमभवे पूर्वकोटी जी- यथा वर्गः-संख्यानं यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारः 'सदृशद्विराशिघात' इति वित्यैतेषूत्पद्यते तस्य पूर्वकोटिरेकभविकत्वे लभ्यते, अत्र चान्र्मुहूर्तादपि वचनात् 7, 'घणो य' त्ति धनः संख्यानं यथा द्वयोर्घनोऽष्टौ 'समत्रिहीनं जन्तूनामायुरेव नास्तीति जघन्यपदेऽन्तर्मुहूर्तग्रहणम् / यस्तु राशिहति' रिति वचनात् 8, 'वगवग्गो' त्ति वर्गस्य वर्गो वर्गवर्गः, स च पूर्वकोट्यधिकायुष्कः साऽसंख्यातवर्षायुष्कत्वाद्देवेष्वेवोत्पद्यते न संख्यानं यथा द्वयोर्वर्गश्चत्वारश्चतुर्णा वर्गः षोडशेति, अपिशब्दः समुच्चये शंखेष्वित्युत्कृष्ट पदे पूर्वकोट्युपादानम्, आयुर्वन्धं च प्राणिनो - 6. 'कप्पे य' त्ति गाथाधिकम्, तत्र कल्पः- छेदःक्रकचेन काष्ठस्य तद्विषयं अनुभूयमानायुषो जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्ते शेष एव कुर्वन्त्युत्कृष्टतस्तु संख्यानं कल्प एव यत्पाट्यां क्राकचव्यवहार इति प्रसिद्धमिति, इह च पूर्वकोटित्रिभाग एव न परत इति बद्धायुष्करय जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त- परिकादीनां केषाश्चिदुदाहरणानि मन्दबुद्धीनां दुरखगमानि भविष्यमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीत्रिभाग उक्तः। आभिमुख्यं त्वासन्नतायां सत्यामु- 1 न्त्यतो न प्रदर्शितानीति 10 / स्था० 10 ठा० 3 उ। पपद्यते अतोऽभिमुखनामगोत्रस्य जघन्यतः समय उत्कृष्टतरत्वन्तर्मुहूर्त / संखादत्तिय पुं० (संख्यादत्तिक) संख्याप्रधानाः परिमिता एव दत्तयः काल उक्तः, यथोक्तकालात् परतरत्रयाऽपि भावशंखता प्रतिपद्यनत सकृद् भक्तादिक्षेपलक्षाद्ग्राह्या यस्य स संख्यादत्तिकः / स्था०५ ठा० इति भावः // इदानीं नैगमादिनयानां मध्ये को नयो यथोक्तत्रिविध- 1 उ० भ०1 सूत्र०ा औ० / परिमितभिक्षाप्रमाणेषु अभिग्रहविशेषधारशंखस्य मध्ये कशखमिच्छनीति विचार्यते-तत्र नैगमसंग्रहव्यवहाराः केषु साधुषु, स्था०५ ठा०१ उ०। स्थूलदृष्टित्वात् त्रिविधमपि शंखमिच्छन्ति दृश्यते हि स्थूलदृशां कारणे संखाय अव्य० (संख्याय) सम्यग्ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु०२ अ०२ उ०। कार्यो-पचारं कृत्वा इत्थं व्यपदेशप्रवृत्तिः, यथा राज्यार्हकुमारे अवधार्येत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०६ अ० 5 उ०। सूत्र० / राजशब्दस्य, घृतप्रक्षेपयोग्ये घटे घृतघटशब्दस्येत्यादि ऋजुसूत्र एभ्यो *संस्त्यान न० 'स्त्यै' संघाते इति सम्-स्त्य-क्त-“समः विशुद्धत्वादाद्यस्यातिव्यवहितत्वेनातिप्रसङ्ग भयाद् द्विविधमेवेच्छति, स्त्यःखाः" / / 4 / 15 / / इति स्त्यास्थाने खा। “क-ग-च ज-त शब्दादयस्तु विशुद्धतरत्वाद् द्वितीयमप्यतिव्यवहितं मन्यन्ते, द-प-य-वां प्रायो लुक् / / 8 / 1 / 177 / / इति यः। घनीभूते, प्रा० अतोऽतिप्रसङ्ग निवृत्त्यर्थमेकं चरममेवेच्छन्ति। अनु०। व्य० आ० म०। १पाद। सूत्र०। संख्याया अपि वस्तुगतान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावो नासिद्धः।। संखायण पुं० (शंखायन) शंखर्षिगोत्रापत्ये, सू०प्र 10 पाहु० / सम्म०३ काण्ड। चं०प्र० / जं०। संखाईय त्रि० (संख्यातीत) संख्यान-संख्या तामतीता अतिक्रान्ताः / संखार पुं० (संस्कार) वासनायाम, अष्ट० १अष्ट० वैशेषिकसम्मतगुणसंख्यातीताः / असंख्येयेषु, विशे०। आ०म० / विपा० / भेदे, संस्कारस्य वेगभावनास्थितिस्थापकभेदात्त्रैविध्येऽपि संस्कारत्वं संखाईयगुण त्रि० (संख्यातीतगुण) संख्यातगुणेषु, विशे०। जात्यपेक्षया एकत्वाच्छौ-दार्यादीनां चात्रैवान्तर्भावान्नाधिक्यम् / स्या० / संखाण न० (संख्यान) संख्यायते-गण्यतेऽनेनेति संख्यानम् / गणिते, | संखालग्ग त्रि० (शंखालग्न)शंखयोरक्षिप्रत्यासन्नावयवविशेषयोः सम्बद्धे, स्था० 4 टा०३ उ० गुणितस्कन्धे, नि०१ श्रु०३ वर्ग३ अ० औ01 ज्ञा,१श्रु०८ अ०। विशे० / ज्ञा० कल्प० / स्था० संखावई स्त्री० (संखावती) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मध्यमखण्डे कुरूजाड़दसविहे संखाणे पण्णत्ते, तं जहा- “परिकम्मं 1 ववहारो 2, लजनपदे स्वनामख्यातायां नगर्याम्, ती०६ कल्प। रज्जू 3 रासी 4 कलासवन्ने 5 य। जावंतावति 6 वग्गो 7, घणो संखित्तत पुं० (संक्षिप्त) हस्वतां गते, चं० प्र०१ पाहु० / भ० लघूकृते, 5 तह वग्गवग्गो / वि।।१।। कप्पे य०१०।" (सू०७४७) स्था० 3 ठा० 3 उ० औ० ज०। रा० / संगृहीते, पं० सं० 1 द्वार। निः। 'दसेत्यादि परिकम्म' गाहा, परिकर्म-संकलिताधनेकविधं गणित- संखित्तविउलतेउलेस्स त्रि० (संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्य) संक्षिप्ता शरीराज्ञप्रसिद्ध तेन यत्रांख्येयस्य संख्या परिगणनं तदपि परिकार्मेत्युच्यते न्तर्गतत्वेन हस्वतां गता विपुलाविस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रित१, एवं सर्वत्रति, व्यवहारः-श्रेणीव्यवहारादिः पाटीगणितप्रसिद्धोऽनेक- वस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्याविशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा धार२. 'रज्जु' त्ति रज्ज्वा यत्संख्यानं तद्रज्जुरभिधीयते, तच क्षेत्रगणि- तेजोज्वाला यस्य स तथा। सू० प्र०१पाहु०। विपा०रा०। शरीरान्ततम३, 'रासि'तिधान्यादेरूत्करस्तद्विषय संख्यान राशिः, स च पाट्यां लीनतेजोलेश्याके, भ०। ('तेउलेस्सा' शब्दे 4 भागे 2346 पृष्ठ अत्र राशिव्यवहार इति प्रसद्धिः४, 'कलासवन्ने य' त्ति कलानाम्-अंशानां विस्तरो गतः) (अस्य व्याख्या 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1008 सर्वणंन सर्वणः सवर्णः-सदृशीकरणं यस्मिन् संख्याने तत्कलासवर्णम् | पृष्ठे गता) Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखिय 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखेज्जय संखिय पुं० (शांखिक) शंखवादनशिल्पमेषामिति शांखिकाः, शंखो वा | हिंगुरूक्खे, लवंगरूखे य होइ बोद्धव्वे / पूयफली खज्जूरी, बोद्धव्वा विद्यते येषां माङ्गल्यचन्दनाधारभूतास्ते शांखिकाः। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / नालिएरी य / / 2 / " 'जे यावन्ने तहप्पगारे' त्ति ये चाप्यन्ये तथाप्रकारा चन्दनगर्भहस्तेषु माङ्गल्यकारिषु, शंखवादकेषु च। भ० 6. श० 33 उ० / / वृक्षविशेषास्ते संख्यातजीविका इति प्रक्रमः / भ० 5 श० 3 उ०। कल्प० / औ० / आ० चू०। संखेजय न० (संख्येयक) गणनासंख्याभेदे, अनु० / संखिया स्त्री० (शांखिका) लघुशंखे, जी० ३प्रति० 4 अधि० / निक से किं तं संखेज्जए? संखेजए तिविहे पण्णत्ते,तं जहा-जहण्णए चू० / जं०। रा०। हस्वशंखे०. भ०५ श०४ उ०। रा०। उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए। (सू० 150x) संखुड्डु धा० (रम्) क्रीडायाम्, “रमेः संखुड्डु-खेड्डेन्भाव-किलि- | सा च संख्येयकादिभेदभिन्ना, तद्यथा-संख्येयकम्, असंख्येय-कम्, किञ्च-कोट्टुम-मोट्टाय-णीसरवेल्लाः" ||14|168 / / अनेन अनन्तकम्। तत्र संख्येयकं जघन्यादिभेदात्त्रिविधम्। अनु०॥ वैकल्पिकः संखुड्डादेशः। संखुड्डइ / रमते। प्रा० 4 पाद। संख्येयकादिभेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतः संखुभिय त्रि० (संक्षुभित) महामत्स्यमकराद्यनेकजलजन्तु-जाति तत्स्वरूपनिरूपणार्थमाहसम्म१न प्रविलोडिते, स० जहण्णयं संखेजयं केवइअंहोइ? दो रूवयं, तेणं परं अजहसंखेज त्रि० (संखेय) संख्यायत इति संख्येयः / संख्या, आ० म० ण्णमणुकोसयाइं ठाणाइं.जाव उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ / 1 अ० / विशे० / नं० / स० / कर्म० / संख्यातवर्षसहस्रे, प्रश्न० 1 आश्र० (सू० 1504) द्वार। 'जहण्णय संखेजयं केवइय' मित्यादि अत्रजघन्यं संख्येयकं द्वौ, ततः संखेज्जकाल पुं० (संख्येयकाल) समयादिके शीर्षप्रहेलिकापर्वन्ते काले, परं त्रिचतुरादिक सर्वमप्यजघन्योकृष्ट यावदुत्कृष्ट न प्राप्नोति। जी०१ प्रति०। ('काल' शब्दे तृतीयभागे 470 पृष्ठे व्याख्यातम्।) तत्र कियत्पुनरूत्कृष्ट संख्येयकं भवतीति विनेयेन पृष्टे विस्तरेण तस्य संखेजकालसमय पुट (संख्येयकालसमय) कालः कृष्णोऽपि स्यात् | प्ररूपयिष्यमाणत्वादित्थमाहसमय आचारोपऽपि स्यादतः कालश्चासौसमयश्चेति कालसमयः / उक्कोसयं संखेजयं केवइ होइ? उक्कोसयस्स संखेज्जयस्स संख्येयो वर्षप्रमाणतः स चासौ कालसमयश्च संख्येयकालसमयः / परूवणं करिस्सामि-सेक जहानामए पल्ले सिआ एगं दशवर्षसह-सादिके समये, स्था०२ ठा०२ उ०। जोयणसयसहस्सं आयामविक्खे भेणं तिण्णि संखेज्जकालसमयट्ठिइय त्रि० (संख्येयकालसमयस्थितिक) कालः जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोण्णि अ सत्तावीसे कृष्णोऽपि स्यात् समय आचारोऽपि स्यादतः कालश्चासौ समयश्चेति जोयणसए तिण्णि अ कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य कालसमयः / संख्येयो वर्षप्रमाणतः स यस्यां सा संख्येयकालसमया अंगुलाई अद्ध अंगुलंच किंचि विसेसाहिअंपरिक्खेवेणं पण्णत्ते, स्थितिरवस्थानं येषां ते संख्येयकालसमयस्थितिकाः / दशवर्षसह- से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए, तओ णं तेहिं सिद्धत्थएहिं नादिस्थितिकेषु, स्था० 2 ठा०२ उ०। ('असंखेज्जकालसमयट्ठिय' दीवसमुद्दाणं उद्धारो घेप्पइ, एगो दीवे एगो समुद्दे एवं शब्दे प्रथमभागे 820 पृष्ठे अस्य दण्डकमुक्तम्।) पक्खिप्पमाणेणं 2 जावइआ दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं संखेजजीविय पुं० (संख्यातजीविक) संख्याता जीवा येषुसन्ति ते अप्फु ण्णा एस णं एवइए खेत्ते पल्ले (आइहा) पढमा संख्यातजीविकाः / संख्यातजीवपरिग्रहीतेषु वनस्पतिषु, भ०। सलागा,एवइआणं सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिआ तहावि से किं तं संखेजजीविया गोयमा! संखेज्जजीविया अणेगविहा उक्कोसयं संखेज्जयं न पावइ, जहा को दिटुंतो? से जहानामए पण्णत्ता, तं जहा-ताले तमाले तक्कलि तेतलि जहा मंचे सिआ आमलगाणं भरिए तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते सेऽवि पण्णवणाए०जाव नालिएरि जे यावण्णे तहप्पगारा / से तं माते अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि माते अन्ने ऽवि पक्खित्ते सेऽवि संखेज्जजीविया / (सू० 3244) माले एवं पक्खिप्पमाणेणं एवं पक्खिप्पमाणेणं होही सेऽवि 'संरखेजजीविय' त्ति संख्याता जीवा येषु सन्ति ते संख्यातजीविकाः, आमलए जंसि पक्खित्ते से मंचए भरिजिहिइजे तत्थ आमलए एवमन्यदपि पदद्वयम्। 'जहा पण्णवणाए' त्ति यथा-प्रज्ञापनायां तथा- न माहिइ। (सू. 150x) इदं सूत्रमध्येयम्- 'ताले तमाले तक्कलि, तेत-लिसाले य सालकल्लाणे / उत्कृष्टस्य संख्येयकस्य प्ररूपणां करिष्यामि, तदेवाह-तद्यथा सरले जायइ के अइ, कंदलितह चम्मरूक्खे य॥१॥ भुयरूक्खे नाम कश्चितपल्यःस्यात्, कियन्मान इत्याह- आयामविष्क - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेञ्जय 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखेज्जय म्भाभ्यां योजनशतसहस्र, परिधिना तु- "परिही तिलक्खसोलस,सहस्स दो य सयसत्तवीसऽहिया / कोसतिय अट्ठवीस, धणुसय तेरंगुलऽद्धहियं / / 1 / / " इति गाथाप्रतिपादितमानो; जम्बूद्वीपप्रमाण इति भावः। अयं चाधस्ताद्योजनसहस्रमवगाढो द्रष्टव्यः, रत्नप्रभापृथिव्या रत्नकाण्ड भित्त्वा वजकाण्डे प्रतिष्ठित इत्यर्थः, स चैवंप्रमाणः, पल्यो जम्बूद्वीपवेदिकात उपरि सप्रशिखः सिद्धार्थानां सर्षपाणां भ्रियते, 'तओ णं तेहि' मित्यादि, इदमुक्तं भवति-ते सर्षपा असत्कल्पनया देवादिना समुत्क्षिप्य एको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं सर्वेऽपि प्रक्षिप्यन्ते, यत्र च द्वीपे समुद्रे वा ते इत्थं प्रक्षिप्यमाणा निष्ठां यान्ति तत्पर्यवसानो जम्बूद्वीपादिरनवस्थितपल्यः कल्प्यते, अतएवाह- 'एसणं एव इए खेत्ते पल्ले' त्ति यावन्तो द्वीपसमुद्रास्तैः सर्षपैः 'अप्फुण्ण' ति व्याप्ता इत्यर्थः, एतदेतावत्प्रमाणं क्षेत्रमनवस्थितपल्यः सर्षपभृतो बुद्ध्या परिकल्पत इत्यर्थः / ततः किमित्याह- 'पढमा सलाग' त्ति ततः शलाकापल्ये प्रथमशलाका-एकः सर्षपः प्रक्षिप्यत इत्यर्थः, 'एवइयाणं सलागाण असंलप्पा लोगा भरिय' त्ति लोक्यन्ते-केवलिना दृश्यन्त इति लोकाव्याख्यानादिह वक्ष्यमाणाःशलाकाः पल्यरूपा गृह्यन्ते, ते चैकदशशतसहस्रसलक्षकोटिप्रकारेण संलपितुमशक्या असंलप्याः अतिबहव इत्यर्थः, यथोक्तशलाकानामसत्कल्पनया भृताः-पूरितास्तथाऽप्युत्कृष्ट संख्येयकन प्राप्रोति, आकण्ठपूरिता अपि हि लोकरूढ्या भृता उच्यनते, नचैतावतैवोत्कृष्ट संख्येयकं सम्पद्यते, किंतु यदा सप्रशिखतया तथा ते भ्रियन्ते यथा नैकोऽपि सर्षपस्तत्रापरो माति तदा तद्भव-तीति भावः। ननु सप्रशिखतया सर्वथा अभृतमपि लोके किं भृत-मुच्यते? सत्यं, प्रोच्यतएव, तथा चात्रार्थे दृष्टान्तं दिदर्शयिषु-राह- यथा कोऽत्र दृष्टान्त्रः? इति शिष्येण पृष्ट सत्युत्तरमाह-तद्यथानाम कश्चिन्मञ्चः स्यात्, स चामलकानां भृत इति शिखामन्तरेणापि लोकेन व्यपदिश्यते, अथ च तत्रैकमामलकं प्रक्षिप्त तन्मातमपरमपि प्रक्षिप्तं तदपि भातमन्यदपि प्रक्षिप्त तदपि मातमेवमपरापरैः प्रक्षिप्यमाणैः भविष्यति तदामलक येनासौ मञ्चौ भरिष्यति, यच तदुत्तरकालं तत्र मञ्चे न मास्यति, इत्थं चात्राप्यपरापरैर्यथोक्तशलाकारूपैः प्रक्षिप्तैर्यदा संलपितुमशक्या अतिबहवःसप्रशिखाः पल्या असत्कल्पनया भृता भवन्ति तदोत्कृष्ट संख्येयक भवतीत्यध्याहारो द्रष्टव्य इति तावदक्षरार्थः / / भावार्थस्त्वयम् - पूर्वनिदर्शितस्वरूपादनवस्थितपल्यादपरेऽपि जम्बूद्वीपप्रमाणा योजनसहस्रावगाढास्त्रयः पल्या बुद्ध्या कल्प्यन्ते, तत्र प्रथमः शलाकापल्यो, द्वितीयः प्रतिशलाकापल्यस्तृतीयो महाशलाकापल्यः / तत्रानवस्थितपल्यो भृतः शलाकापल्ये च प्रथमा शलाका प्रक्षिप्तेति पूर्वमादर्शितम, तदनन्तरं पुनरप्यनवस्थितपल्यसर्षपाः समुत्क्षिप्यैको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं प्रक्षिप्यन्ते, तैश्च निष्ठितैः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते, सर्पपाश्च प्रक्षिप्यमाणा यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितास्तत्पर्यवसानः पूर्वेण सह बृहत्तरोऽनवस्थितपल्यः सर्षपभृतः परिकल्प्यते, अत एवायमनवस्थितपल्य उच्यते, अवस्थितपल्यरूपाभावात्, पुनः सोऽप्युत्क्षिप्यै- | कैकसर्षपक्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च तृतीया शलाका प्रक्षिप्यते, ते च सर्षपाः प्रक्षिप्यमाणा यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितास्तत्पर्यवसानः पूर्वेण सह बृहत्तमोऽनवस्थितपल्यः सर्षपभृतः परिकल्प्यते। पुनः सोऽप्युत्क्षिप्य तेनैव क्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च चतुर्थी शलाका प्रक्षिप्यते, एवं यथोत्तरं वृद्धस्यानवस्थितपल्यस्य भरणरिक्तीकरणक्रमेण तावद् वाच्यं यावदेकै कशलाकाप्रक्षेपेण शलाकापल्यो भ्रियते, अपरां शलाकां न प्रतीच्छति, ततोऽनवस्थितपल्यो भृतोऽपि नोत्क्षिप्यते, किंतु शलाकापल्य एवोज्रियते, अयमप्यनवस्थितपल्याक्रान्तक्षेत्रात्परत एकैकसर्षपक्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते, यदा च निष्ठितो भवति तदा प्रतिशलाकापल्यलक्षणे तृतीये पल्ये प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्यः समुरिक्षप्य समुत्क्षिप्य शलाकापल्ये निष्ठास्थानात्परतस्तेनैव क्रमेण निक्षिप्यते, निष्ठिते च तस्मिन् शलाकापल्ये शलाका प्रक्षिप्यते, इत्थं पुनरप्यनवस्थितपल्यपूरणरेचनक्रमेण शलाकापल्यः शलाकानां भ्रियते, ततोऽनवस्थितशलाकापल्ययो तयोः शलाकापल्य एवोत्क्षिप्य पूर्वोक्तक्रमेणैव निक्षिप्यते, प्रतिशलाकापल्ये च द्वितीया प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्यः समुद्धृत्य शलाकापल्यनिष्ठास्थानात्परतस्तेनैवन्यायेन प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च शलाका प्रक्षिप्यते, एवमनवस्थितपल्यस्यो क्षेपप्रक्षेपक्रमेण शलाकापल्यः शलाकानां भरणीयः। शलाकापल्या तूत्क्षेपविधिना प्रतिशलाकापल्यः प्रतिशलाकानां पूरणीयः, यदा च प्रतिशलाकापल्यः शलाकापल्योऽनवस्थितपल्यश्च त्रयोऽपि भृता भवन्ति तदा प्रतिशलाकापल्य एवोत्क्षिप्य द्वीपसमुद्रेषु तथैव प्रक्षिष्यते, निष्ठिते च तस्मिन् महाशलाकापल्ये प्रथमा महाशलाका प्रक्षिप्यते, ततः शलाकापल्य उत्क्षिप्य तथैव प्रक्षिप्यते, प्रतिशलाकापल्ये च प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्य उत्क्षिप्य तथैव प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च शलाका प्रक्षिप्यते, एवमनवस्थितपल्योत्क्षेपप्रक्षेपक्रमेण शलाकापल्यो भरणीयः, शलाकापल्योद्धरणविकिरणविधिना प्रतिशलाकापल्यः पूरणीयः, प्रतिशलाकापल्योत्पाटनप्रक्षेपणाभ्यां महाशलाकापल्यः पूरयितव्यः / यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्ट संख्येयकं रूपाधिकं भवति / इह यथोक्तेषु चतुर्षु पल्येषु ये सर्षपा ये चानवस्थितपल्यशलाकापल्यप्रतिशलाकापल्योत्क्षेपप्रक्षेपक्रमेण द्वीपसमुद्रा व्याप्ता एतावत्संख्यमुत्कृष्टसंख्येयकमेकेन सर्षपरूपेण समधिक सम्पद्यत इति भावः / एतावद्भिश्च सर्षपैरसंलप्या लोकाः('लोक शब्दो दृष्टव्यः) शलाकापल्यलक्षणा भियन्त एवेति सूत्रविरोधेन भावनीयम् / इदं च तावदुत्कृष्ट संख्येयकम, जघन्य तु द्वौ, जघन्योत्कृत्टयोश्चान्तराले यानि संख्यास्थानानि तत्सर्वमजघन्योत्कृटम, आगमे च यत्र क्वचिदविशेषितं संख्येयकग्रहणं करोति तत्र सर्वत्राजघन्योत्कृष्ट द्रष्टव्यम्। इदं चोत्कृष्ट संख्येयकमित्थमेव प्ररूपयितुं शक्यते, शीर्षप्रहेलिकान्तराशिभ्योऽतिबहूनां समातिक्रान्तत्वात् प्रकारान्तरेणाख्यातुमशक्यत्वादिति / उक्तं त्रिविधं संख्येयकम् / अनु० Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जय 67 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखेज्जय सम्प्रति संख्येयकादिद्वारं प्रचिकटयिषुराहसंखिजेगमसंखं, परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं। एवमणंतं पि तिहा, जहन्नमज्झुक्कसा सव्वे / / 71 / / एतावन्त एत इति संख्यानं संख्येयम् “य एचातः” (5-1-28) इति यप्रत्ययः / तच्चेकमेकमेव भवति नापरे असंख्येयादेरिव परीत्तादयो मूलभेदस्वरूपा भेदा अस्य विद्यन्त इति भावः। न संख्यामर्हतीत्यसंख्य "दण्डादिभ्यो यः" (6-4-176) इति यप्रत्ययः। असंख्येयकं तत्पुनः परीतं च युक्तं च निजपदं स्वकीयपदमसंख्येयकलक्षणम्, तच परीत्तयुक्तनिजपदानि च तैर्युक्त-समन्वितं सत्। किमित्याह-त्रिविधंत्रिप्रकारं भवति / यथा-परीत्तासंख्येयक, युक्तासंख्येयकम, असंख्यातासंख्येयकमित्युक्तं त्रिधाऽसंख्येयकम्।। अधुना त्रिविध-मनन्तकमाह- 'एव-मणतं पि तिह' ति एवमनेनानन्तरप्रदर्शितप्रकारेण परीत्तयुक्तनिजपदयुक्तलक्षणेनानन्तमपि-अनन्तकमपि न केवलमसंख्येयकमित्यपिशब्दार्थः / त्रिधा त्रिप्रकारं वेदितव्यम, तद्यथा-परीत्तानन्तकं, युक्तानन्तकम्, अनन्तानन्तकमित्येवमेतानि समुदितानि सप्तापि पदानि मुनरेकैकशस्विरूपाणि भवन्तीति दर्शयितु-माह- "जहन्नमज्झुकसा सव्वे" तिं प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययाजघन्यमध्यमोत्कृष्टानिजघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि सर्वाणिसमस्तानि एकैकशः सप्तापि पदानि वेदितव्यानीत्यर्थः / तथाहि-जघन्यसंख्येयकं, मध्यमसंख्येयकम्, उत्कृष्टसंख्येयकम्। तथा जघन्यपरीत्तासंख्येयक, मध्यमपरीत्तासंख्येयकम्, उत्कृष्टपरीत्तासंख्येयकम्। जघन्ययुक्ता-संख्येयकं, मध्यमयुक्तासंख्येयकम्, उत्कृष्टयुक्तासंख्येयकम्। जघन्यासंख्यातासंख्येयकं, मध्यमासंख्यातासंख्येयकम्, उत्कृष्टासंख्यातासंख्येयकम् / तथा जघन्यपरीत्तानन्तक, मध्यमपरीत्तानन्तकम्,उत्कृष्टपरीत्तानन्तकम्, जघन्ययुक्तानन्तकं, मध्यमयुक्ता-नन्तकम्, उत्कृष्टयुक्तानन्तकम्। जघन्यानन्तानन्तक, मध्यमानन्ता-नन्तकम्, उत्कृष्टानन्तानन्तकम्।। तदेव संख्यातक त्रिधा, असंख्यात-मनन्तकं च नवधा भवतीति।।७१।। तदेवं संख्येयकादिभेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतस्तस्वरूपं निरूरूपयिषुः संख्यातकं विधेति यदुद्दिष्ट तद्विवृण्वन्नाहलहु संखिजं दुचिय, अओ परं मज्झिमं तु जा गुरुयं / जंबुद्दीवपमाणय, चउपल्लपरूवणाइ इमं / / 72 / / इहैकको गणनसंख्यां न लभते, यत एकस्मिन् घटादौ दृष्ट घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरूत्पद्यते, नैकसंख्याविषयत्वेन। अथवा-दानसमर्पणादिव्यवहारकाले एकं वस्तु प्रायो न कश्चिद्गणयति, अतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणनसंख्यां लभते, तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनसंख्या। अत एवाह-संख्येयं संख्यातकं लघु जघन्यं हस्व, चियशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः प्राकृतलक्षणे- “णाइ चेव चियच अवधारणे" (82-84) द्वावेव, नैकः पूर्वोदितयुक्तेः / अतः परमेतस्माद् द्विकभूतजघन्यसंख्यातकादूर्ध्व, मध्यम तुसंख्यातक, पुनस्त्रिचतुरादिकमनेकप्रकारं भवति। कियद् दूर यावन्मध्यम भवतीत्याह- 'जा गुरुयं' ति यावदित्यवधौ गुरुकमुत्कृष्ट सर्वोपरिवर्ति संख्यातकं प्राप्रोति इति शेषः / अथेदमेव गुरुकं संख्यातकं कथं विज्ञेयमित्याह-इदमधुनैव वक्ष्यमाणस्वरूपं गुरुकं संख्यातकं ज्ञेयमिति शेषः / कया? जम्बूद्वीपप्रमाणचतुष्पल्य (प्र) रूपणया जम्बूनाम्ना वृक्षणोपल क्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तेन जम्बूद्वीपेन प्रमाणमियत्तावधारणं येषा ते जम्बूद्वीपप्रमाणकास्ते च ते चत्वारश्वतुःसंख्याः पल्याश्च धान्यपल्या इव जम्बूद्वीपप्रमाणकचतुष्पल्यास्तेषां प्रकृष्टरूपा प्ररूपणा व्यावर्णना तया / एतदुक्तं भवति। यथा-जम्बूद्वीपो लक्षयोजनप्रमाण एवमेतेऽप्यायामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येकं लक्षयोजनप्रमाणा वृत्ताकारत्वाच्च परिधिना- "परिहीति लक्ख सलेस,सहस्स दो य सयसत्तवीराहिया। कोसतिय अट्ठवीसं, धणुसयतेरंगुलद्धहियं / / 1 / / " इति गाथाभिहितप्रमाणोपेताः। उक्तंच श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रे- “जहन्नयं सखिज्जयं कित्तिल्लिय होइ? दो रूवाइं तेण परं अजहन्नमणुक्कोसयं ठाणाई जाव उक्कोसयं संखिजयं न व पावइ। उक्कोसयं संखिज्जयं कित्तिय होइ? उक्कोसयस्त संखिज्जयस्स परूवणं करिस्सामि, से जहानामए पल्ले सिया एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सौलससहस्साइंदोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्निय कोसे अट्ठावीसं च धणुसय तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं" ततोजम्बूद्वीपप्रमाणचतुष्पल्यप्ररूपणयेदमुत्कृष्टसंख्यातकं प्ररूपयिष्यत इति भावः।।७२॥ अथैते चत्वारोऽपि पल्याः किंनामान इत्येतदाहपल्लाणवट्ठियसला-गपडिसलागमहासलागक्खा। जोयणसहसोगाढा, सवेइयंता ससिहभरिया।।७३।। धान्यपल्य इव पल्या कल्प्यन्ते, ते च जम्बूद्वीपप्रमाणाः किंनामान इत्याह- 'अणवडिये त्यादियथोत्तरं वर्धमानस्वभावतयाऽवस्थितरूपाभावादनवस्थित एवोच्यते / तथेह शलाकाएकैकसर्षपप्रक्षेपलक्षणास्ताभिःशलाकाभिर्धियमाणत्वात्पल्योऽपि शलाका / तथा प्रतिशलाकाभिनिष्पन्नत्वात्प्रतिशलाका, महाशलाकाभिर्निवृत्तत्वान्महाशलाका। तत एषां द्वन्द्वेऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहालाकास्ता' इत्थम्भूता आख्या संज्ञा येषां तेऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकाख्याः। त एव विशिष्यन्ते-योजनसहस्रं तु व्यवगाढा। इदमुक्तं भवति-रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमं योजनसहस्र-प्रमाणं रत्नकाण्ड भित्त्वा द्वितीये वज़काण्डे प्रतिष्ठिता इति / पुनस्त एव विशिष्यन्ते'सवेइयंत त्ति वज्रमय्या अष्टयोजनोच्छायाश्चत्वार्यष्टौ द्वादश योजनान्युपरि मध्याधोविस्तृताया जन्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्याद्वि. गव्यूतोच्छ्रितेन पञ्चधनुःशतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ताया उपरिवेदिकेति; पद्मवरवेदिकेत्यर्थः / द्विगव्यूतोच्छ्रिता पशधनुःशततिस्तीर्णा गवाक्षहे मकिङ्किणीजालघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवती तस्या अन्तः-पर्यावसानमग्रभाग इति यावत् वेदिकान्तः, ततश्च सह वेदिकान्तेन वर्तन्त इति सवेदिकान्ताः। ते च कथं सर्षपै - Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जय 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखेज्जय ता इत्याह- 'संसिहभरिय' ति सह शिखयोच्छ्रयलक्षणया वर्तन्त इति सशिखाः, ततः सशिखं यथाभवति तथा सर्षपै ता:- पूरिताः सशिखभृताः कर्तव्या इति शेषः / अयमत्राशयः-एतेषां व्यावर्णितस्वरूपाणां चतुर्णामपि पल्यानां मध्याद्यो यथावसरं सर्षपैः पूर्यते तं योजनसहस्रावगाढादूर्ध्व समधिकाष्टयोजनोच्छ्रितवेदिकान्तं पूरयित्वा तदुपरितावच्छिखा वर्द्धनीया यावदेकोऽपि सर्षपो नावतिष्ठत इति। अत्र सर्वे सवेदिकान्ताः सशिखभृताश्व कर्तव्या इति सामान्योक्तावपि प्रथममनवस्थितपल्य एव भृत: करणीयः, शेषास्तु यथावसरमेवेति मन्तव्यमिति / / 7 / / अधुना तस्यानवस्थितपल्यस्य जम्बूद्वीपप्रमाणस्य सर्ष __पैर्भूतस्य यद्विधेय तदाहतादीवुदहिसु इकि-कसरिसवं खिविय निट्ठिए पढमे। पढमं व तदंत चिय, पुण भरिए तम्मि तह खीणे / / 74 / / ततः सर्षपभरणादनन्तरमसत्कल्पनया के नचिद्देवेन दानवेन वा वामकरतले धृत्वा द्वीपोदधिषु द्वीपसमुद्रेषु एकैकं सर्षपंसिद्धार्थ क्षिप्त्या निष्ठितेऽन्तर्भूते, अथवा-निष्ठापिते रिक्तीकृते प्रथमेऽनवस्थितपल्ये, कोऽर्थः? एक सर्षपंद्वीपे प्रक्षिपति. एकमुदधौ, पुनरप्येकं द्वीपे, एकमुदधौ, एवं प्रतिद्वीपं प्रत्युदधि चैकैकं सर्षपं प्रतिक्षिपन्नसौ देवो वा दानवो वा तावद्गतो यावदनवस्थितपल्यो निष्ठितो भवति। ततः किं विधेयमित्याह'पढमं वे' त्यादि द्वीपे समुद्रेवा यत्रासावनवस्थितपल्यो निष्टितो भवति तदन्त चिय' ति स एवानवस्थितपल्यस्य निष्ठाकारी द्वीपः समुद्रो वाऽन्तः पर्यवसानप्रमाणतया यस्य द्वितीयानवस्थित पल्यस्य स तदन्तस्तं द्वितीयानवस्थितपल्यप्रमाणाभिधायक विशेषणमिदम्, ततस्तदन्तमेव चियशब्दस्यावधारणार्थत्वाद्विस्तीर्णतया तावत्प्रमाणमे वेत्यर्थः / प्रथममिवाद्यपल्यमिवेत्युपमानेन द्वितीयमनवस्थितपल्यमपि सहस्रयोजनावगाढमष्टयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिवेदिकोपशोभितं सशिख सर्षपैर्भूतं कुर्यादिति सूचयति। ततः प्रथमानवस्थितपल्यमिव तदन्तमेव पुनर्भूयो भृतः सर्षपैः पूरिते तस्मिन् द्वितीयानवस्थितपल्ये तथा तेन प्रकारेण निक्षिप्तचरमसर्षपद्वीपादेरगत एकः सर्षपो द्वीपे, एकः समुद्रे, इत्यादिना क्षीणे निष्ठिते सति द्वितीयानवस्थितपल्ये। ततः किं विधेयमित्याहखिप्पे सलागपल्ले, गुसरिसवो इय सलागखवणेणं। पुन्नो वीओ य तओ, पुट्विं पिव तम्मि उद्धरिए // 7 // क्षिप्यते -निधीयते शलाकापल्ये द्वितीये शलाकासंज्ञक एकसंख्य एव सर्षपः, स च नानवस्थितपल्यसत्कः, किं त्वन्य एवेत्यक्सीयते, 'पुण भरिए तम्मि तह खीणे' इति सूत्रावयवस्य सामस्त्यरिक्तीकरणप्रतिपादनपरत्वात्। अन्ये त्वनवस्थितपल्यसत्क एव क्षिप्यते इत्याचक्षते। तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति / आह-किमिति द्वितीयपल्य एव निष्ठिते सत्येकस्य सर्षपस्य शलाकापल्ये प्रक्षेपक्षणभिहितं यावता प्रथमपल्येऽपि निष्ठिते तत्रैकस्य सर्षपस्य प्रक्षेपो युज्यत इति ? तदयुक्तम, अभिप्राया- | परिज्ञानात्, यतोऽनवस्थितपल्यस्य शलाकाभिरेवासी पूरणीयः, प्रथमश्च लक्षयो-जनविस्तृतत्वेनावस्थितपरिणामतयाऽनवस्थित एवन भवतीत्यतो द्वितीयाद्यनवस्थितपल्यशलाका एव तत्र प्रक्षेपमहन्तीति। न चैतत् स्वमनीषिकाविजृम्भितम्, यदुक्तमनु योगद्वारेषु - "रेण पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए तओ णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीवसमुदाणं उतारे धिप्पइ एगे दीवे एगे समुद्दे, एगे दीवे एगे समुद्दे एवं खिप्पमाणेहिं खिप्पमाणेहि जावइया णं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहि अप्फुन्ना एस णं एवइए रिखने पल्ले आइट्टे से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए तओ णं तहिं सिद्धत्थरहि दीवसमुद्दाणं उद्धारे धिप्पइ एगे दीवे एगे समुद्दे एगे दीवे एगे समुद्दे एवं खिप्पमाणेहि खिप्पमाणेहिं जावइयाणं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थरहि अप्फुन्ना एस णं एवइए खित्ते पल्ले पढमा सलागा" इति। यश्च पल्लाणवहिए इत्यादिना गाथायां प्रथमस्यानवस्थितव्यपदेशोऽसौ योग्यतामात्रेय राज्याईकुमारस्य राजव्यपदेशवत् द्रष्टव्यः / 'इय सलागखवणे पुग्न वीओ य त्ति' इत्यमुना पूर्वप्रदर्शितशलाकाक्षपणप्रकारेण द्वितीय शलाकापल्यः पूर्णो भृतो भवति सशिख इति यावत् / इयमत्र भावनाततो यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा स एष द्वितीयपल्यो निष्ठां गतस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूर्ववन सर्षपः पूर्यते, ततस्तं तावत्प्रमाण पल्यमुत्पाट्य ततो निष्ठितस्थानात परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैक सर्षपं प्रक्षिपेत, यावदसौ निष्ठितो भवति। तते द्वितीया शलाका सर्षपरूपा शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते ततोऽपि यस्मिन द्वीप समुद्रे वा स एष तृतीयोऽनवस्थितपल्यो निष्ठतस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूर्ववत सर्षपेरापूर्यते, ततस्ते तावत्प्रमाणं पल्यमुत्पाट्य ततो निष्ठित. स्थानात्परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपंप्रक्षिपेत्,यावदसौ निष्ठतो भवति। ततस्तृतीया सर्षपरूपा शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते, एवमनेन क्रमेण पुनः पुनरनवस्थितपल्यस्य सर्षपभरणरिवतीकरणलब्धकैकसरूपाभिः शलाकाभिः शलाकापल्यो यथोक्तप्रमाणः सशिखाक स्तावत्पूरयितव्यो यावत्तत्रेकोऽप्यन्यः सर्षपो नमातीति। बीओट' ति इत्यत्र चशब्दात्पूर्वपरिपाट्यागतोऽनवस्थितपल्यः सर्षपैरापूरणीयः। ततः किं विधेयमित्याह- 'तओ पुव्वं पिव तम्मि उद्धरिए' त्ति ततः शलाकापल्यपूर्वपरिपाट्यागतानवस्थितपल्यापूरणानन्तरं पूर्ववत्तस्तिन शलाकापल्यै उद्धृते सति। खीणे सलाग तइए, एवं पढमेहि वीययं भरसु / तेहिं तइयं तेहि य, तुरियं जाकिर फुडा चउरो / / 76|| क्षीणे च निर्लेपे सति सर्षपरूपा शलाका तृतीये प्रतिशलाकापल्ये प्रक्षिप्यते इतीयमक्षरगमनिका / भावार्थस्त्वयम्ततःशलाकापल्यापूरणानन्तरं त शलाकापल्यं वामकरतले कुत्वा पूर्वानवस्थितपल्यचरमसषफाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चैकैकं सोट प्रतिक्षिपेद्यावदसौ निष्ठितो भवति। ततः प्रतिशलाकापल्ये सर्षपरूपाप्रक प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनन्तरोक्तोऽनवस्थितण्ज्य उत्पाय Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जय 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखेजय ते, ततः शलाकापल्यसर्षपाक्रान्ताद्द्वीपात् समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण व्याप्ताः सशिखा भृता इति यावचत्वारश्चतुःसंख्याः अनवस्थितशलाकादीपसमुद्रेष्वकैकं रार्षप प्रक्षिपेत, यावदसौ निःशेषतो रिक्तो भवति / प्रतिशलाकामहाशलाकाख्याःपल्या भवन्तीति / जतः शलाकापल्ये पुनरपि सर्षपरूपाएका शलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽन ततश्चतुर्णा पल्यानां पूर्णत्वे यत्सम्पद्यते तदाऽऽहन्तरोकानवंस्थितपल्यचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तदन्त- पढमतिपल्लुद्धरिया, दीवुदहीपल्लचउसरिसवाएय। ननदस्थितपल्यसपैर्भूत्वा ततः परतः पुनरप्येकैकं सर्षपं प्रतिद्वीप सव्वो वि एगरासी, रूवूणो परमसंखिज्जं / / 77 / / 'पतिसमुद्र के प्रक्षिपद्यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो द्वितीया शलाका प्रथमम्-आद्य यत्रिपल्यं-पल्यत्रयमनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकाख्य शलाकापल्ये प्रक्षिा यते / एवमपरापरानस्थितपल्यापूरणरिक्तीकरण- तेनोद्धता एकैकसर्षपप्रक्षेपेण व्याप्ताः प्रथमत्रिपल्योद्धृताः, कएत इत्याहलब्धेके कसर्षपैर्यदा शलाकापल्य आपूरितो भवति पूर्वपरिपाट्या द्वीपोदधयो, न केवल द्वीपोदधयः पल्यचतुष्कसर्षपाश्च, किं भवतीत्याहचानवस्थितपल्यस्तदाशलाकापल्यमुत्पाट्य प्राक्रनानवस्थितपल्यचर- सर्वोऽपिसमस्तोऽप्येषोऽनन्तरोक्तः-सर्षव्याप्तद्वीपसमुद्रपल्यचमसर्षपाक्रान्ताद्वीपात् समुद्राबा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्र चैकैकं सर्षप तुष्कगतः सर्षपलक्षणो राशिः संघातो रूपोनः-एकेन सर्षपरूपेण रहितः प्रक्षिपेत, यावदसौ निर्लेपो भवति / ततः प्रतिशलाकापल्ये द्वितीया सन् परमसंख्येयमुत्कृष्टसंख्यातकं भवतीति / तदेवं तावदिदमुत्कृष्टशलाका प्रक्षिप्यते ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाट्यानन्तररिक्तीकृत- संख्येयकम, जघन्यं तु द्वौ, जघन्योत्कृष्टयोश्चान्तराले यानि संख्याशलाकापल्यचरमर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण स्थानानि सर्वाणि मध्यम संख्येयकमिति सामर्थ्यादुक्तं भवति। सिद्धान्ते द्वीपसमुद्रेष्वकैकं सर्षपं प्रक्षिपेत्, यावदसी निष्ठितो भवति। ततः पुनरपि यत्र क्वचित् संख्यातग्रहण करोति तत्र सर्वत्रापि मध्यम संख्येयकं द्रष्टव्यम्। शलाकापल्ये सर्षप रूपा शलाका प्रक्षिप्यते, यत्र चासो द्वीपे समुद्रे वा यदुक्तभनुयोगद्वारचूर्णी -“सिद्धन्ते य जत्थ जत्थ संखिज्जगगहणं, तत्थ निष्ठितस्तावत्प्रमागविस्तरात्मकमनवस्थितपल्यं सर्षपैरापूर्य ततः तत्थ अजहन्नमणुक्कोसयं दट्टव्वं ति" / इदं चोत्कृष्ट संख्येयकमित्थमेव परतः पूर्वक्रमेणं द्वीपसमुद्रेष्वकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद्यावदसौ निष्ठतो भवति। प्ररूपयितुं शक्यते, द्विकादिदशशतसहस्रलक्षकोट्यादिशीषप्रहेलिकाततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका सर्षपरूपा प्रक्षिप्यते, एवमनेन क्रमेण न्तराशिभ्योऽतिबहुना समतिक्रान्तत्वेन प्रकारान्तरेणाख्यातुमशक्यतावद्वक्तव्य यावत त्रयोऽपि प्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थि- त्वात् / यदाहुः प्रसिद्धसिद्धान्तसन्दोहविवरणप्रकरणकरणप्रमाणग्रथतपल्याः परिपूर्णमापूरिता भवन्ति / ततः प्रतिशलाकापल्यमुत्पाट्य नावाप्तसुधांशुधामधवलयशः प्रसरधवलितसकलवसुन्धरायलयनिष्ठितस्थानात्परत: प्रतिद्वीप प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद्यावदसौ श्रहिरिभद्रसरिपादा अनुयोगद्वार-टीकायाम् - "जंबुद्दीवप्पमाणमेत्ता निष्ठितो भवति / ततो महाशलाकापल्य एका सर्षपरूपा शलाका चत्तारि पल्ला / पढमो अणवट्टियपल्लो, वीओ सलागापल्लो, तईओ पडिसप्रक्षिप्यत, ततः शलाकापल्यमुत्पाट्य प्रतिशलाकापल्यगतचरमसर्षपा- लागापल्ला, चउत्थओ गहा-सलागापल्लो / एए चउरो विरयणप्पहपुढवीए क्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्षप पढम रयणकंड जोयणसहस्सावगाहं भित्तूण विइए वयरकंडे पइडिया प्रक्षिपद्यावदसौ निष्ठतो भवति / ततः प्रतिशलाकापल्ये प्रतिशलाका इमा ठवणा (0000) एए ठविया / एगो गणणं न उवेइ दुप्पभिई संखं ति प्रक्षिप्यते, ततोऽनपस्थितपल्यमुत्पाटयेत्, उत्पाट्य च शलाकापल्य- काउं, तत्थ पढमे अणवट्टियपल्ले दो सरिसवा पक्खित्ता एयं जहन्नगं गतचरमसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात्समु द्राद्वा परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं संखिजग। ततो एगुत्तरखुड्डीए तिन्नि चउरो पंच,जाव सो पुणो अन्नसरिसवं प्रक्षिपस्तावदच्छे द्यावदसो निःशषतो रिक्तो भवति। ततः शलाकापल्ये नपडिच्छइत्ति ताहे असब्भावट्ठवणं पडुच्च बुच्चति। तं को वि देवो दाणवो प्रथमा शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यगतचरमसर्ष- उक्खित्तं वामकरयले काउते सरिसवे जबुद्दीवाइ (ए) एगंदीवे एग समुद्दे पाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तत्पर्यन्तविस्तरात्मकोऽनवस्थितपल्यः पक्खिविजा.जाव निट्ठिया। ताहे सलागापल्ले एगो सरिसवो छूढो जत्थ कल्पयित्वा सर्षपैरपूर्यते, ततस्तं समुत्पाट्य ततो निष्ठितस्थानात्परतो निडिओ तेण सह आरिल्लएहि दीवसमुद्देहिं पुणो अन्नो पल्लो आइज्जइ, सो द्वीपसमुद्रेष्वेकैक सर्षप प्रक्षिपद्यावदसौ(निष्टितो) निर्लेपो भवति। ततो वि सरिसवाणं भरिओ। तओ परओ एक्कक दीव-समुद्देसु पक्खिवंतेण द्वितीया शलाका श नाकापल्य प्रक्षिप्यते, एवं शलाकापल्य आपूरणीयः / निट्ठाविओ, तओं सलागापल्ले विइया सलागा पक्खित्ता / एवं एएणं एवमापूरणोत्पाटनप्रक्षेपपरम्परया तावद्वक्तव्यं यावन्महाशलाकापल्य- अणवट्ठियपल्लकरणकमेण सलायग्गहणं करेंति, तेण सलागापल्लो प्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थितपल्याः सर्वेऽपि परिपूर्णशिखा- सलागाण भरिओ कमागतो अणवट्ठियओ वि तओ सलागापल्लो सलागं युक्ताः समापूरिता भवन्ति / एतदेव निगमयन्नाह- 'एवं पढ़मेहि' इत्यादि, न पडिच्छइ त्ति काउंसो चेव निट्ठियहाणाओ परओ पुव्वक्कमेण उक्खित्तो एवमनेन प्रदर्शितक्रमेण प्रथमैरनवस्थितपल्यैर्द्वितीयमेव द्वितीयक पक्खित्तो निडिओ य तओ पडिसलागापल्ले पढमा सलागा छूढा / तओ शलाकापल्यं भरत्वपूरय, तैश्च द्वितीयस्थानवर्तिभिः शलाकापल्यै- अणवडिओ उक्खित्तो निट्टियहाणाओ परओ पुव्वक्कमेकण पक्खित्तो स्तृतीय प्रतिशलाकापल्यं भरस्व, तैश्च प्रतिशलाकापल्यैः, तुर्यम्चतुर्थ / निडिओ य। तओ सलागापल्ले सलागा पक्खित्ता, एवं अण्णेणं अण्णेणं महाशलाकापल्यं तावद्रस्व यावत 'किलेत्याप्तागमवादसंसूचकः' स्फुटा / अणवट्टिएण आरिक्कनिक्किरतेण जाहे पुणो सलागापल्लो भरिओ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेज्जय 70 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संखेवियदसा अणवडिओ य, ताहे पुणो सलागापल्लो उविखत्तो पक्खिप्पमाणो निहिओ तथाय पुव्वममेण, ताहे पडिसलागापल्ले विइया पडिसलागा छूढा / एवं "जिण्णे भोअणमत्तेओ, कविलो पाणिणं दया। आइरणनिकिरणेण जाहे तिन्नि वि पडिसलागसलागअणवट्ठियपल्लो य बिहस्सई रविस्सासो, पंचालो थीसुमद्दवं / / 2 / / " भरिओ ताहे पडिसलागापल्लो उक्खित्तो पक्खिप्पमाणो निहिओ य ताहे आ०क० 1 0 / आ० म० / आ० चू०। महासलागापल्ले पढमा सलागा छूढा। ताहे सलागापल्लो उक्खित्तो / संखेवओ अव्य०(संक्षेपतः) संक्षिप्तभविकजनानुकम्पायाम, पं०सं०५ पक्खिप्पमाणो निहिओ य,ताहे पडिसलागापल्ले सलागा पक्खित्ता द्वार। ताहे, अणवडिओ उक्खित्तो पक्खित्तो य, ताहे सलागापल्ले सलामा संखेवण न० (संक्षेपण) संकोचने, गृहशय्यास्थानादेः परतो निषेधरूपे पक्खित्ता / एवं आइरणनिक्किरणकमेण ताव कायव्वं जाव परम्परेण च। ध०२ अधि० / गोचराभिग्रहरूपे संकोचे, प्रव०६ द्वार। महासलागपडिसलागसलागअणवट्टियपल्लो य चउरो वि भरिया। ताहे संखवपिंडियत्थ पुं०(संक्षेपपिण्डितार्थ) संक्षेपेण समासेन; सामान्यउक्कोसमइच्छियं, इत्थ जावइया अणवट्ठियपल्लसलागपल्लपडिसलाग रूपतयेत्यर्थः, पिण्डित एकत्र मीलितस्तात्पर्यमात्रव्यवस्थितोऽर्थोऽपल्लेण यदीवसमुद्दा उद्धरिया, जे उचउपल्लट्ठिया सरिसवा एस सव्वो वि भिधेयं यस्य सः। संक्षिप्तार्थे, पिं०। एतप्पमाणो रासी एगरूवूणो उक्कोसयं संखिज्जयं हवइ, जहन्नुक्कोस संखेवरूइ स्त्री०(संक्षेपरूचि) संक्षेपः संग्रहस्तत्र रूचिः-संक्षेपरूचिः। सट्ठाणमझे जे ठाणा ते सव्वे पत्तेयं अजहण्णमणुकोसया सखिज्जया उपशमादिपदत्रयविषयिण्या रूचौ, तद्वति च / त्रि०। ध०२ अधि०। भणियव्वा / सिद्धते य जत्थ जत्थ संखिजग्गहणं कयं तत्थ तत्थ सव्यं प्रज्ञा०। अजहन्नमनुक्कोसयं दहव्वं / एवं संखेजगे परूविए सीसो पुच्छइ-भगवं! संक्षेपरूचिमाहकिमेएणं अणवद्वियपल्लसलागपडिसलागाईहि य दीवसमुद्दद्धारगहणेण अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरूइ त्ति होइ नायव्यो। य उक्कोससंखिज्जपूरूवणा किज्जइ? गुरु भणइनऽस्थि अन्नो अविसारओ पवयणं, अणभिग्गहिलो य सेसेसु / / 12 / / संखिज्जगस्स परूवणोवाओ त्ति” ||77 // कर्म०४ कर्म। 'अणभिग्गहि य' इत्यादि, नाभिगृहीता कुत्सिता दृष्टिर्येन सोऽनसंखेज्जवित्थड त्रि० (संख्येयविस्तृत) संख्येययोजनप्रमाणं विस्तृतं विस्तारो येषां ते। संख्येययोजनप्रमाणविस्तृतेषु, जी०३ प्रति०१ अधि० भिगृहीतकृदृष्टिः, अविशारदः प्रवचने-जिनप्रणीते शेषेषु च कपिलादि प्रणीतेषु प्रवचनेषु, अनभिगृहीतो न विद्यते आभिमुख्येन उपादेयतया 2 उ०॥ गृहीतं ग्रहणमस्येत्यनभिगृहीतः / पूर्वमनभिगृहीतकु दृष्टिरित्यनेन सेखेव पुं० (संक्षेप) संक्षेपणं संक्षेपः। विशे० / समासे, स्था० 5 ठा०३ परदर्शनान्तरपरिग्रहः / प्रतिषिद्धोऽनेन परदर्शनपरिज्ञानमात्रमपि निषिउ०। आचा० / संग्रहे, उत्त०२८ अ० / स्था० / अवान्तरभेदापरिग्रहे, नयो० / विस्ताराभवे, ग० 1 अधि० / आ० म० / समन्ताद् दुष्कर्मणां द्धमिति विशेषः, स इत्थभूतः संक्षेपरूचिरिति ज्ञातव्यः / प्रज्ञा० 1 पद। क्षेपो यत्र सः संक्षेपः / स्तोकाक्षरे सामायिके, द्वादशाङ्गार्थपिण्डनात्, संखेवियदसा स्त्री०(संक्षेपिकदशा) दशाध्ययनप्रतिबद्धे ग्रन्थविशेष, (आ०क०१ अ०1) तत्र महार्थस्याप्यस्य स्तोकाक्षरत्वात्। विशे०। स्था०। अथ संक्षेपे आत्रेयकथा संखेवियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-खुड्डिया "नगर्या श्रीविशालाया, जितशत्रुर्महीपतिः। विमाणपविभत्ती 1 महल्लिया विमाणपविभत्ती 2 अंगलिवा ऋषयस्तत्र चत्वारः, स्वस्वशास्त्राणि चक्रिरे // 1 // 3 वग्गचूलिया। विवाहचूलिया 5 अरूणोववाते 6 वरूणोववाते उपेत्याहुपं सर्वे, राजन् ! शास्त्राणि नः शृणु। 7 गरूलोववाते 8 वेलंधरोववाते वेसमणोववाते 10 / (सू० राजोचे मानमेषां किं, लक्षालक्षेति तेऽभ्यधुः / / 2 / / 7554) / सोऽवदन्न क्षमः श्रोतुं, राज्य सीदति मे यतः। संक्षेपिकदशा अप्यनवगतस्वरूपा एव, तदध्ययनानां पुनरयमर्थःसंक्षिपद्भिस्ततः सर्वे-रा दिक्रमेण तैः // 3 // 'खुड्डिए' त्यादि, इहावलिकाप्रविष्टेतरविमानप्रविभजन यत्राध्ययने यावचतुर्भिरप्येकः, श्लोकश्चक्रे स चैषकः तद्विमानप्रविभक्तिः, तच्चैकमल्पग्रन्थार्थं तथाऽन्यन्महाग्रन्थार्थमतः जीर्णे भोजनमात्रेयः कपिलः प्राणिनां दया। क्षुल्लिकाविमानप्रविभकिमहती विमानप्रविभक्तिरिति। अङ्गस्यआचाराबृहस्पतिरविश्वासः,पञ्चालः स्त्रीषु माईवम् / / 4!! देश्चूलिकायथाऽऽचारस्यानेकविधा, इहोक्तानुक्तार्थसंग्राहिका तद्राजाऽप्यशृणोदेव, यस्मिन् सामायिकेऽप्यहो। चूलिका, 'वग्गचूलिय' त्ति इह च वर्ग:-अध्ययनादिसमूहो यथ चतुर्दशानां पूर्वाणां, संक्षिप्यार्थोऽस्ति पिण्डितः / / 5 / / " अन्तकृद्दशास्वष्टौ वर्गास्तस्य चूलिका वर्गचूलिका / 'विवाहचूलिय'त्ति एतदेवाह व्याख्याभगवती तस्याश्चूलिका व्याख्याचूलिका / स्था० 10 ठा० “सयसाहस्सा गंथा, सहस्स पंचय दिविड्डमेगं वा। 3 उ०। (अरूणोपपात इत्यस्य व्याख्या “अरूणोववाय" शब्दे प्रथमभाने ठावआ एगसिलोए, संखेवो एस नायव्यो / / 1 / / " 766 पृष्ठे गता।) Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संखेसरपासणाह 71 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संगमथेर संखेसरपासणाह पुं० (शंखेश्वरपार्श्वनाथ) शंखेश्वरपुराधिष्ठिते पार्श्वनाथपरमेश्वरे, प्रति०॥ संग पुं० (सङ्ग) सज्यन्त इति सङ्गाः। मातृपित्रादिसम्बन्धे कर्मोपादान- / हेतुषु, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ० / मातापितृपुत्रकलत्रादिजनिते धनधान्यहिरण्यादिजनिते सङ्गे. आचा०१ श्रु०६ अ० 5 उ०। प्राणिनामासक्तौ कर्मानुषङ्गे आचा० 1 श्रु०५ अ०६ उ० रागद्वेषाभ्यां सम्बन्ध, आ० चा०। पुत्रपौत्रादिजनिते सम्बन्धे, कामानुषड्ने च / आचा० 1 श्रु०६ अ०२० सबाह्याभ्यन्तरसंबन्धे, सूत्र०२ श्रु०१०। उत्त०। स्था० / सम्पर्क पञ्चा०२ विव० / परिग्रहे, आ०क० 4 अ०। संगच्छते वशीभवति जीवा यस्मात् स सङ्गः / बन्धने, उत्त०२ अ०नि००। संगतौ, ध०१ अधि० / ग० / संगइ स्त्री० (संगति) मित्रत्वे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सूत्र० / सम्यक् स्वपरिगामेन गतिर्यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुभवनं सासंगतिः। नियती,सूत्र० 101 अ०२ उ० / एकत्वे, अष्ट०१५ अष्ट। संगइय त्रि० (साङ्गतिक) सङ्गतं विद्यते यस्याऽसौ साङ्गतिकः। परिचिते, स्था० 4 ठा०३ उ० / सम्यक् स्वपरिणामेन गतिर्यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखान भवन सा सङ्गतिर्नियतिस्तस्यां भवं साङ्गतिकम्। नियतिकृते सुखदुःखादिके, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०२ उ०। संगझा (गज्झा)ण न० (संगध्यान) सङ्गे परित्यक्तेऽपि पुनः सङ्गध्याने राजीमत्या रथनमेरिव नागिलां प्रति भवदेवस्येव वा ध्याने, आतु० / संगंथ पुं० (संग्रन्थ) स्वजनस्याऽपि स्वजने पितृव्यपुत्रश्यालादिके, आचा०१ श्रु० 2 अ०१ उ०। संगतअ पुं० (सङ्गतको दासे, आ०चू० 4 अ०। संगपरिण्णा स्त्री० (सङ्गपरिज्ञा) सङ्गः परिग्रहः तस्य परिज्ञा प्रत्याख्यानम् / सङ्ग प्रत्याख्याने, आ०क०। अत्रोदाहरणम्“णयरी अ चंपनामा, जिणदेवे सत्थवाह अहिछत्ता। अडवी अतेण अगणी, सावयसंगाण वोसिरणा / / 1 / / चम्पायां जिन देवाख्यः, श्रावकः सार्थपोऽभवत्। प्रतस्थे घोषण-पूर्व-महिच्छत्रां पुरी प्रति॥२॥ स भिल्लैटुंण्टितः सार्था-ऽनश्यत् श्राद्धोऽटवी ययौ। पृष्ठे व्याघ्रः पुरोवह्नि-रभितोऽभि प्रपा ततः।३।। अपश्यन् शरणं सोऽथ, भावलिङ्ग प्रपन्नवान्। कृतसामायिकः कायो-त्सर्गस्थः श्वापदा हतः।।४।। अन्तकृत्केवली भूत्वा, सिद्धिसौख्यमवाप सः / / 5 / / आ० के० 4 0 / संगम पुं० (सङ्गम) मीलने, दर्श० 4 तत्त्व / नदीमीलके, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। उत्त० / स्था० / (अत्र सङ्गमस्थविरकथा 'एगचरियापरीसह' शब्दे तृतीयभागे 6 पृष्ठे उक्ता।) शालिभद्रस्यानुत्तरोपपातिकदशोक्तस्य पूर्व भवजीवे स्वनामख्याते वत्सपाले, आव०१ अ० / आ०म० / तथा सङ्गमकसुरः सुरेशेन निष्काशितः स भवधारणीयेन शरीरेण मेरुचू लाया जगामोत्तरवैक्रियेण वेति? अत्र मौलेनेति विज्ञायते उत्तरवैक्रियस्यैतावत्कालमवस्थानाभावात्, यत्तु मौलं शरीर विमानादहिर्न निर्गच्छतीति वचस्तत्प्रायिकमिति बोध्यम्। ही०३ प्रका० / संगमथेर पुं० (सङ्गमस्थविर) कोलकिनगरे नित्यवासिनि स्वनामख्याते स्थविर, आव० 4 अ०! आ०चू० / दर्श०। ('णितियवास' शब्दे चतुर्थभागे 2070 पृष्ठ कथोक्ता।) श्रीसङ्गमसूरिकथा पुनरेवम्"इह सिरिसंगमसूरी, दूरीकयसयलगुरुपमायभरो। अन्नाणदारूदारूणद-वहुयवहसरिससमयधरो।।१।। पइ समयमुसरूत्तर-विसुद्धपरिणामहणियपावोहो। नगनगरगाममाइसु, नवकप्पपकप्पियविहारो॥२।। अइतिव्वपवरसद्धा-वसपरिणयसुद्धभावचारित्तो। जघाबलपरिहीणो, कुल्लागपुरम्मि विहियठिई।।३।। वट्टते दुभिक्खे, कयजणदुक्खे कयावि सो भगवं / पवयणमायापरिपा-लणुजय उज्जयविहारं / / 4 / / आहिंडिय बहुदेस, अवधारिय सयलदेसबहुभासं। सीहं नामऽणगारं, गणाहिवत्ते निरूवेइ॥५॥ भणइ य जइ वि महायस, सयमवितं पुणसि सयलकरणिज / ओयारू त्ति विचिंतिय, इय बुचसि तह वि अम्हेहिं / / 6 / / उल्लसिरपवरसद्धो, चरणभरं दुद्धरं धरिज सया। सीयत सीसगणं, मिउमहुरगिराहि सारिजा // 7 / / जओजीहाए वि लिहतो, न भद्दओ जत्थ सारणा नऽत्थि। दंडेण विताडतो, स भद्दओ सारणा जत्थ।।८। जह सीसाइँ निकंतइ, कोई सरणागयाण जंतूणं / एवं सारणियाणं, आयारिअ असारओ गच्छे।।६।। तथादव्वाइ अपडिबद्धो, अममो विहरिज्ज विविहदेसेसु। अनिययविहारया ज, जईण सुत्ते विणिहिट्ठा / / 10 / / तथाहिअनिए य वासो समुदाण चरिया, अन्नायउछ पयरिक्कया य। . अप्पोबही कलहविवज्जणा य, विहारचरिया इसिणं पसत्था॥११|| इचाइ कहिय वुत्तो, सो एवं वच्छ विहर अन्नत्थ! मा ओमे इत्थ ठिओ, सीसगणो एस सीइज्जा // 12 // एगागी वि अहं पुण, पहीणजंघावल्लो अबलदेहो। अनलो विहरिउमन्न-त्थ तो इहं चेव ठाइस्सं॥१३॥ इय भणिय मुणी वुत्ता; वच्छा सच्छा सया सयाकालं। कुलबहुनाएण इम, मा मुंचिज्जह कयावि तुमे // 14 // तिन्नुच्चिय भवजलही, एयपसाया सुहेण तुब्भेहिं / संपइ इमिणा सद्धि.कुणह विहारं महाभागा? ||15|| इह सुणिय सुमुणिवइणो, ते मुणिणो सूरिचरणठवियसिरा। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगमथेर 72 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संगरिगाफल मुचुता गुरु विरह-त्थ सो य उत्पन्नअंसुभरं।।१६॥ पडिपुन्नमन्नुभररू-द्ध कंटउहितगग्गरगिरिल्ला गुरुवयणं पडिकूखिउ; मचयंता दुक्खसंतत्ता / / 17 / / कहमवि नमिउं गुरुणो, अवराहपए खमाविउं नियए। ओमाइदोसरहिए, देसे पत्ता विहारेण // 18 // संगमगुरु वि खित्तं, नवभागी काउ कायनिरविक्खो। वीसु वसहीगोयर-वियारभूमाइसुजएइ // 16 // सुभिक्खे गुरुपासे कयावि सीहेण पेसिओ दत्तो। सो पुव्यवसहिसंठिय-सूरि दटुं विचिंतेइ।।२०।। कारणवसान कीरइ; खित्ते अवरावरे जइ विहारो। नवनववसहिविहारो, कीस एएहिं परिचत्तो।।२१।। ता एस सिढिलचरणो, खण पिन खमो इमेण संवासो। एवं चिंतिय वीसुं, समीववसहीइ सो ठाइ॥२२॥ भिक्खासमए गुरुणा, सह हिंडतो विसिट्ठमाहारं। दुभिक्खवसा अलह-तओ य जाओ कसिणवयणो।।२३।। तं तह निए वि सूरी, कम्मि वि ईसरगिहे गओ तत्थ। रेवइदोसेणेगो, सया रूयंतो सिसू अत्थि॥२४॥ सो दाउं चप्पुडियं, गुरुणा भणिओ य बाल मा रूयसु / गुरुतेयं असहंती, झड त्ति सा रेवइं नट्ठा / / 25 / / जाओ बालो सुत्थो, तजणगो गहियमोयगे पत्तो। गुरुणा करूणानिहिणा, दवाविया ते उ दत्तस्स / / 26 / / अह मुणिपहुणा भणियं, तं गच्छसु दत्तसंपयं वसहि। अहयं पि आगमिस्सं, पडिपुन्नं काउ समुयाणं / / 27 / / सङ्कगिहमेगमिमिणा, भिराउमह दंसियं सयं अहुणा। सेसेसु गमी दत्तो, इय चिंततो गओ वसहिं॥२८॥ गुरुणो वि अंतपंत, गहिउ सुचिरेण आगया वसहि। पन्नगबिलनाएणं, भुजति तयं समयविहिणा॥२६।। आवस्सयवेलाए, आलोइय सूरिणो समुवविट्ठा। सो निसेयंतो गुरुणा, आलोइसु सम्ममिय वुत्तो / / 30 / / स भणइ तुल्भेहिं चिय, सह परिभमिओ म्हि किमिहविडयेपि। आह गुरु सिसुविसयं, सुहमं नणु धाइपिंड ति॥३१॥ दत्तो तओ दुरप्पा, अणप्पसंकप्पकप्पणाभिहओ। बिंबुक्कड़कड्यगिरा-इँ मुणिवरं पइ इमं भणइ / / 3 / / राईसरिसवमित्ताणि, परच्छिद्दाणि पिच्छसि। अप्पणो विल्लमित्ताणि, पासंतो वि न पाससि / / 33 / / इय भणिय गओ एसो, नियवसहिं तयणु तस्स सिक्खत्थं। पुरदेवयाइ सिग्घ, विउव्वियं दुद्दिणं गरूयं / / 34 / / फुडफुट्टमाणबंभं-डभंडरवविरसजलहरारावं। सो निसुणतो भयभर-खलतक्यणो भणइ सूरि / / 3 / / भयव ! बीहेमि अहं, आह गुरुएहि मम सयासम्मि। स भणइ तिमिरभरेणं, दिसि विदिसिं नेव पिच्छामि // 36 / / दीवसिहं व जलंति, नय खेलेणं नियंगुलिं काउं। दंसेऊण य गुरुणा, सो बुत्तो वच्छ ! एहि इओ।।३७।। तं दटु स दुप्पा, जपइ दीवो वि अस्थि किमिमस्स? तो पच्चक्खीहोउं, एवं वुत्तो स देवीए॥३८॥ हा दुटु ! सेह ! निन्नेह, देहगेहाइमुक्कपडिबंधे। मुणिनाहम्मि इमम्मि वि, एवं चिंतेसि निल्लज्ज / / 3 / / वसहिविहारकमेणं, पुणो वि इत्थट्ठियं सुगुरूमेयं / पाविट्ठ ! दुट्ट धम्मिट्ठ-मन्नसी सिढिलचारित्त // 40 // हा अंतपंतभोयण-परं पिकप्पेसि मुद्धरसगिद्ध / धिद्धी लद्धिसमिद्धं, पि दीवजुत्तं पयंपेसि / / 41 / / दव्याइदोसवसओ, वीयपयहिएँ विसुद्धसद्धाए। भावचरित्तपवित्ते, किह अवमन्नसि इमे गुरुणो ? // 42 / / इय अणुसिट्टो सो दे-वयाइसंजायगुरुयअणुतावो। गुरुपयलग्गो खामइ, पुणो पुणो निययमवराहं / / 43 / / आलोइयाइयारो, दत्तो गुरुदत्तविहियपच्छित्तो। विणउज्जुओ सुनिम्मल-चारित्ताराहगो जाओ / / 44 / / संगमसूरी वि चिरं, विहिसेवावलिपल्लवणमेहो। निरूयमसमाहिजुत्तो, सुगई पत्तो गयकिलेसो।।४५।। इत्थं विशुद्धविधिसेवनतत्परस्य, श्रीसङ्गमस्य सुगुरोश्चरितं निशम्य। द्रव्यादिदोषनिहता अपि साधुलोकाः, श्रद्धां विधत्त चरणे प्रवरां पवित्रे / / 46 / / " इति सङ्गमसूरिकथा। ध०२०३ अधि०२ लक्ष०। संगय त्रि०(सङ्गत) उपपन्ने, चं०प्र०२० पाहु०। स्था०। ज्ञा०। सम्यगज्ञानदर्शनचारित्रात्मतया गत सङ्गतम्। आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ० / जी०। औ०। उचिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। उपपत्तिभिरबाधिते, प्रश्न० 2 संय० द्वार। स०। रा०ा व्याप्ते. द्वा०१७द्वा०। सङ्गतंगमनम्। सविलासे चंक्रमणे, सू०प्र० 20 पाहु० / “संगयगयहसियभणियचेट्टिय" सङ्गतंसुश्लिष्टं यद्गत-गमनं हंसगमनवत् हसितं हसनं कपोलविकासि प्रेम सन्दर्शि च भणितं भणनं गम्भीरं मन्मथोद्दीपनं चेष्टितंचेष्टनम् / जी०३ प्रति० 4 अधि। विपा। संगयपास त्रि० (सङ्गतपार्श्व) सङ्गतौ देहप्रमाणोचितौ पाश्वी येषां तेतथा। जी०३ प्रति०४ अधि० / देहप्रमायोचितपाद्वेषु, औ०। . संगयय पुं० (सङ्गतक) उज्जयिन्यां नगर्या देविलसुते,आव० 4 अ०। ('सव्वकामविरईशब्दे कथां वक्ष्ये।) संगर न० (संगर) समरे, पाइना० सङ्केते. 'सगर' ति सङ्केतोऽभिधीयते। ओघ०। संगरिंगाफल न० (सागरिकाफल) बब्बूलफले, सेन० / प्रवचनसारोद्धारस्य, तृतीयशतकस्य त्रयस्त्रिंशत्तमगाथायाः 'संगरिगाइम्मि अप्पडिए'. एतत्पदव्याख्याने श्रीआनन्दसूरिणा-सङ्गरिकादौ अपतिते पतिते तु द्विदलदोषसम्भवान्न कल्पते घोलादि इत्युक्तमस्ति, एतदुक्तिबलात् सागरिकाफलं बब्बूलफलमपि द्विदलत्वेन खरतरैरभ्युपगम्यते, आनन्दसूरिश्च वडगच्छीयः श्रूयते, तेन तदुक्तं कथमात्मनां प्रमाण नास्तीति? प्रश्वेऽत्रोत्तरम्-आनन्दसूरिकृतग्रन्थस्तु अद्य यावद् दृष्टो नास्ति, तेन तदर्शने तद्विषयविचारो युक्तिमान्नान्यथेति / / 261 / / सेन० 3 उल्ला० / Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगल 73 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संगह संगल धा० (सम् घट् ) संघटनं, “समो गलः" ||8|4|113 / / अनेन सम्पूर्वस्य घटतेवैकल्पिको गलादेशः। संगलइ। संघटते। प्रा० 4 पाद। संगलिया स्त्री० (सङ्गलि का) कलिकायाम्, अणु० / संगह पुं० (संग्रह) संग्रहण संग्रहः / स्वीकारणे, स्था० 5 ठा०३ उ०। संग्रहो द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतः-आहारोपध्यादीनाम, भावतः सूत्रार्थी / व्य०३ उ०॥ सम्प्रति संग्रहकुशलो व्याख्येयस्ततः संग्रहप्ररूपणार्थमाहदव्वे भावे संगहो, दव्वे ऊ उक्खहारमादी उ। साहिज्जादी भावे, परूवणा तस्सिमा होइ / / 150 // संग्रहां द्विधा-द्रव्ये, भावे च / तत्र द्रव्ये-उक्षादिकः, आहारादिकश्च / उक्षाबलीवर्दः / भावे भावविषयः साहाय्यादिकस्य भावसंग्रहस्य इयंतक्ष्यमाणा भवति प्ररूपणा / तामेवाहसाहिजवयण दायण-अणुभासण देसकालसंसमरण / अणुकंपणमणुसासण-पूयणमभंतरं करणं / / 151 / / संभुंजणसंभोगे, भत्तोवहिअन्नमन्नसंवासो।। संगहकुसल गुणनिही, अणुकरणकारावणनिसग्गो।।१५२।। 'साहिज़' सहायकृत्यकरणं वचनमाभाषितस्य इच्छाकारभणनम्, अथवा-अभिग्रहस्य-गृहीतमौनव्रतस्य वचनविषयेन केनाऽप्याभाषणं कृते तस्योत्तरभणनं वचनं 'वायण' त्ति वाचनया क्लान्ते गुरौ साधूनां ददाति वाचकम्। अनुभाषणं नाम-आचार्येण भाषिते पश्चाद्भाषणं, न पुनः प्रधानीभूयाचार्यभाषणादग्रेऽवभाषते / देशकालसंस्मरण नाम अस्मिन् देशेअरिमन काले च कर्त्तव्यमिदं ग्लानादीनामिति विज्ञाय सद्देशे यत्काले स्मारयत्याचार्याणां ग्लानादीनामनुकम्पनंदुःखार्तस्यानुकम्पाकरण बालवृद्धासहायान् यथादशकालमनुकम्पते इति भावः। (अनुशासनरय व्याख्या 'अणुरासण' शब्दे प्रथमभागे 421 पृष्ठे गता।) पूजनं नाम यथा-क्रम गुर्वादीनामाहारादिसम्पादनविनयकरणम्, यदि वा-ज्ञानाचारादिषु पञ्चस्वाचारादिषु यथायोगमुद्यच्छतामुपवृहणम्, अभ्यन्तरकरणं नाम-द्वयाः साध्वोर्गच्छमेढीभूतयोरभ्यन्तरे कुलादिकार्यनिमित्तं परस्परमुल्लपतास्तृतीयस्योपशुश्रूषोर्बहिष्करणम्। अथवा-यदिष्टः सन्नभ्यन्तरे गत्वा तत् गच्छादिप्रयोजनं ब्रूते एतदभ्यन्तरकरणम्। यदि वा-तेन सह ये बाह्यभावं मन्यन्ते तानपि तथाऽनुवर्तयति यथा तं तेजस्विनमभिमन्यन्ते एतदभ्यन्तरकरणम् // 151 / / संभोजनं नामयत्सांभोगिकैः सह भोजनसंयोगः, 'भत्तोवहीति' यदि भक्तमुपधि वा संभोगयति। किमुक्तं भवति-यद्यस्योपकारकं भक्तमुपधिर्वा तत्स्वयमुत्पाद्य तस्मै ददाति ततो गृह्णाति वा तथा 'अन्नमन्नं संवासे' इति साम्भोगिकः परस्परमेकत्र वसनमेतानि कुर्वाणः संग्रहकुशलः / व्य०३ उ० (अन्यदत्रैव 'सग-हकुसल' शब्दे वक्ष्यते।) संगृह्णातीति संग्रहः / संग्राहके, व्य०३ उ०। शिष्याणां श्रुतोपादाने, स्था० 5 ठा०३ उ०।। व्य० / संग्रहणं संग्रहः / व्यसनादौ सहायकरणे, स्था० 10 ठा०३ उ०। शिष्याणा संग्रहणे, प्रति०। पं० भा०। दव्वे भावे संगहो, दव्वे आहारमादिएहिं तु। सिक्खावणमगिलाए, गेलण्णे यावि करणं तु / / भावम्मि संगहो खलु,णाणादी तत्तु होति बोधव्वो। जह वट्टावेउं वा, गच्छं तु उवायकुसले तु / / संसारभउव्विग्गो, संविग्गो सोऽवि होति णायव्यो। एतेसिं तु पदाणं, चउभंगा होंति एकेके / तदुभयविसारदो खलु, न संगहे कुसलो एत्थ चउभंगो। तदुभयवाए कुसले, एत्थं पि तु होति चउभंगा। तदुभयसंविग्गेहि वि, चउभंगो एव होति कायव्वो। एवं गुणजातियस्स,पव्वावेउं तु कप्पति तु / / पव्वावेतॉ भणित्ता। पं० भा०१ कल्प। "दव्व भावे संगहों", दव्वे आहारवत्थमादीहिं / भावे णाणादीहि तु, संगेहति संगहो तणं" (पं०भा०५ कल्प।) इत्युक्तलक्षणायां गौणानुज्ञायाम्, नं० / उग्रादिक्षत्रियसंघे, ति। उग्गा भोगा रायम-खत्तिया संगहो भवे चउहा। आरक्खि (ग) गुरुवयंसा, सेसाओ खत्तिया होति।। ति०। संगृह्णाति सामान्यरूपतया सर्ववस्तु क्रोडीकरोतीति संग्रहः। ग० 2 अधि० / अष्ट० / स्था० / अनु० / सूत्र०। (अत्रत्या व्याख्या 'जाइ' शब्दे चतुर्थभागे 1438 पृष्ठे गता।) संगहियपिंडियत्थं, संगहवयणं समासतो बिंति। सम्-आभिमुख्येन गृहीत उपात्तः संगृहीतः, पिण्डित एकजाति-मापन्नः अर्थो विषयो यस्य तत्संगृहीतपिण्डितार्थम्। संग्रहस्य वचनं संग्रहवचन समासतः संक्षेपण ब्रुवते तीर्थकरणधराः / किमुक्त भवति-सामान्यप्रतिपादनपरः संग्रहनयः, शब्दव्युत्पत्तिश्चैवम्-संगृह्णाति अशेषविशेषविरोधनद्वारण सामान्यरूपतया समस्त जगदादत्ते इति संग्रहः। आ०म० १अ०। अथ संग्रहनयं विवृणोतिसंग्रहो द्विविधो ज्ञेयः, सामान्याच्च विशेषतः। द्रव्याणि चाविरोधीनि, यथा जीवाः समे समाः।।१२।। संग्रहातीति संग्रहः, अथवा-संगृह्येते अनेन सामान्यविशेषाविति संग्रहः, 'स च द्विविधः -द्विप्रकारस्तयोरेकः सामान्यौघात् सामान्यसंग्रहः, १द्वितीयो विशेषाद व्यक्तेर्विशेषसंग्रहः 2, इत्थं द्विभेदः / अथानयोः प्रत्येकमुदाहरणे द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि अविरोधीनि परस्परविरोधरहितानीत्यर्थः / एकद्रव्यसद्भावे द्रव्यषट्कमेव प्राप्यते इति प्रथमोदाहरणम् 1, यथा च जीवाः सर्वेऽविरोधिनो जीवा हि संसृतिविषयिणः सिद्धिविषयिणश्चानन्ता वर्तन्ते। तेषा निरूक्तिः-जीवतिचैतन्यादिति जीवः / अथ च जीव प्राणधारणे, तत्र प्राणा द्विधा-द्रव्य-भावभेदा Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगह 74 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संगह त् / तत्र च द्रव्यप्राणा दश, भावप्राणाश्चत्वारः / मोक्षप्राप्तौ यद्यपि द्रव्यप्राणानां कर्मजन्यानां सर्वथा क्षयस्तथाऽपि जीवनलक्षणा जीवस्य भावप्राणाः सहचारिणः कर्मासद्भायेऽपि भवन्ति सिद्धानामपि जीवत्वात् भावप्राणा भवन्ति, अतो मुक्ताः संसारिणश्व जीवाः / मुक्ताः पुनः पञ्चदशभेदाः, संसारिणोदेवनारकतिर्यङ् मनुष्यभेदाच्चतुर्दा, तान्तिमभेदयोः पञ्चभेदाः, तत्रापि मनुष्यस्य पञ्चाशलक्षण एक एव भेदः, तिरश्च एकरमादारभ्य पञ्च यावत् / अक्षभेदादेकाक्षयक्षत्र्यक्षचतुरक्षपक्षाक्षभेदात् पञ्च भवन्ति / एवं भेदतोऽपि जीवाः सर्वे अविरोधिनः, संग्रहाद् विशेषसंग्रहभेदः 2 / अथ च संग्रहस्वरूपमुषवर्णयन्ति-सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रह इति, सामान्यमात्रमशेषविशेषरहितम् / सतु द्रव्यत्वादिकं गृह्णातीत्येवंशीलः, समेकीभावेन विशेषराशिं गृह्णातीति संग्रहः / अयमर्थः-स्वजातेदृष्टष्टाभ्यामविरोधेन विशेषाणामेकरूपतया यद्ग्रहणं स संग्रह इति।अनुभेदानादर्शयन्ति, अनुभयविकल्पःपरः अपरश्चेति। तत्र परसंग्रहमाहुः-अशेषविशेषेष्वौदासीन्यं भजमानः शुद्धद्रव्य सन्मात्रमभिमन्यमानः परसंग्रह इति। परामर्श इति, अग्रेतनेऽपि योजनीयमुदाहरतिविश्वमेक सदाविशेषादिति 'यथे' ति अस्मिन्ननुक्ते हि सदिति ज्ञानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितिसत्ताकत्वेनैकत्वमशेषार्थानां संगृह्यते। अथ संग्रहनयभेदं दर्शयन्नाहसंग्रहभेदकव्यव-हारोऽपि द्विविधः स्मृतः। जीवाजीवा यथा द्रव्यं, जीवाः संसारिणः शिवाः / / 13 / / संग्रहस्य नयस्य यो भेदको विषयस्तस्य दर्शकः स व्यवहारनयः कथ्यते,व्यवहियते संग्रहविषयोऽनेनेति व्यवहारः, सोऽपि द्विविधःद्विप्रकारः स्मृतः-कथितः, तस्यैव-पूर्वोदितस्य संग्रहनयस्य भेदवदस्याऽपि भेदभावना कर्त्तव्या,यत एकः सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारः१, द्वितीयो विशेषसंहग्रहभेदकव्यवहारः२, एवं भेदद्वयम् / अथ तयोरूदाहरणे तत्राद्यस्योदाहृतिर्यथा जीवाजीवौ द्रव्यम्। अत्रजीवस्य चेत नस्याजीवस्याचेतनस्य संग्रहसामान्यविषयत्वाद्व्यमिति एकैव संज्ञा। कथम्? द्रवति तांस्तान् पायान गच्छतीति त्रिकालाहनुयायी यो वस्त्वंशस्तद् द्रव्यमिति व्युत्पत्त्या स्वगुणपर्यायवत्त्वेनोभयोरपि जीवाजीवयोर्द्रव्यपदं साधारणमित्याज्जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति सामान्यसंग्रहभेदकव्यवहारः 1, अथ जीवाःसंरगरिणः, सिद्धाश्च अत्र जीवानामनन्तानां चैतन्यवतां संसारित्वं सिद्धत्वं च विशेषव्यवहारः, अतो द्वितीयभेदः विशेषसंग्रहभेदकव्यवहारः 2, एवमुत्तरोत्तरविवक्षया सामान्यविशेषवत्त्वं भावनीयम् / द्रव्या०६ अ०। (संग्रहरवरूपापवर्णन 'णय' शब्दे चतुर्थभागे 1856 पृष्ट गतम्।) प्रकारान्तरण संग्रह लक्षयतिसंग्रहः संगृहीतस्य, पिण्डितस्य च निश्चयः। संगृहीतं परा जातिः, पिण्डितं च परा स्मृता / / 22 / / सग्रह इति-संग्रहीतस्य पिण्डितस्य च निश्चयः संग्रहस्तत्र संगृहीत परा- | सर्वव्यापिका जातिर्मताऽऽख्याता महासामान्यमिति यावत्। पिण्डितं त्वपरा देशव्यापिकाजातिव्यत्वादिसामान्यमिति यावत्। यद्यप्येतदुभयग्राहित्व प्रत्येकग्राहिण्यवाप्तप्रत्येकग्राहित्वं चाननुगत तथाऽपि सामान्यमात्राभ्युपगमप्रवणैकदेशयोधत्वं संग्रहनयत्वमिति लक्षण बोध्यम्, 'संगहे अपिण्डिअत्थं संगहवयणं समासओ बिति' त्ति सूत्रस्वारस्याचेत्थमुक्तिः। यदा-नैकगमाद्यपगतार्थपदं संग्रहश्च विशेषविनिर्मोकोऽशुद्धविषयविनिर्मोकश्चेत्यादि यथासम्भवमुपादेयस्तेन न प्रस्थल सामान्यविधयाऽसंग्रहात्तत्स्थलप्रदर्शितसंग्रहनयेऽव्याप्तिरियादिक बोध्यम्। “अर्थाना सर्वैकदेशग्रहणं संग्रहः” इति तत्त्वार्थभाष्यम् / अत्र सर्व सामान्यम एकदेशश्च विशेषस्तयोर्ग्रहण संग्रहः सामान्यैकशेषस्वीकार इत्यर्थः / अयं हि घटादीनां भवनानान्तरत्वाद्भावांशएवच प्रत्यक्षादिप्रमाण वृत्तेस्तन्मात्रत्वमेव स्वीकुरुते, घटादिविशेषविकल्पस्त्वविद्योपजनित एवेति मन्यते, अतव्यावृत्तिव्यवहारोऽप्यस्य प्रतियोगिसापेक्षत्वेन कल्पनामूल एवाय चाऽशुद्ध-संग्रहविषय एव तदवान्तरभेदास्तुयत् यत् सामान्यान्तविन विधिव्यवहारं प्रवर्त्तयन्ति तत्तत्सामान्यैकशेषस्वीकारिणो द्रष्टव्याः, तादृशतादृशसंग्रहनयविचारे च तत्तदवान्तरधर्माकारश्रुतिनिश्रितं मतिज्ञानमपि जायत एव, रूपविशेषवान्मणिः पद्मराग इत्युपदेशार्थप्रतिसन्धानानन्तरं चाक्षुषोपयोगे पद्मरागाकारमिव प्रत्यक्षमिति कार्यविशेषादपि तद्विशेष इति दिक्। संग्रहावान्तरभेदैरेव संग्राह्यार्थव्यवहारभेदमुपदर्शयतिएकद्वित्रिचतुःपञ्च-षड्भेदा जीवंगोचराः। मेदाभ्यामस्य सामान्य-विशेषाभ्यामुदीरिताः।।२३।। एकेति-चेतनत्वेन जीव एकः, सस्थावराभ्यां द्विविधः, पुंवेद 1 स्त्रीवेद 2 नपुसकवेदैस्त्रिविधः, देवमनुष्यतिर्यगनारकगतिभेदैश्चतुर्विधः, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियभेदात्पञ्चविधः, पृथ्वीकायाष्कायतेजस्कायवायुकायवनस्पतिकायत्रसकायभेदात् षड्विधः, इत्येव येजीवगोचराः संग्रहप्रकारा उदीरिताः सिद्धान्ते तेऽस्य संग्रहनयस्य सामान्यविशेषाभ्या-सामान्यसंग्रहविशेषसंग्रहलक्षणाभ्यां भेदाभ्यामवगन्तव्याः। नैगमव्यवहारयोरपेक्षया यथाऽस्य शुद्धत्वं तथाहउपचारा विशेषाश्च, नैगमव्यवहारयोः। इष्टा ह्यनेन नेष्यन्ते, शुद्धार्थपक्षपातिना // 24 // उपचारा इति-उपचाराःगौणव्यवहारा विशेषाश्व तत्तद्व्यावृत्तिरूपा नैगमव्यवहारयोरिष्टाः शुद्धार्थपक्षपातिना एतदुभयापेक्षया स्वविषयोत्कर्षाभिमानिना हि निश्चितमनेन संग्रहनयेन नेष्यन्ते, तथा च-नैगमव्यवहारसंमतोपचारविशेषानवलम्बित्वादस्य शुद्धत्वं स्वसमवायोचितोपचारविशेषयोः कचिदवलम्बनेनाऽपि नापोद्यत इति भावः / नयो० / स्या० / सम्म० / अत्यर्थमतृष्णया धनमेलने, अनु० / संगृह्यते नेनेति संग्रहः / “पुन्नाम्नि घः" / / 5 / 3 / 130 / / इति करणे घ (ज) प्रत्ययः। संग्राहके, पं०सं०१द्वार। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगहएक्कय 75 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संगहट्ठाण संगहएक्कय पुं० (संग्रहैकक) एककरूपे संग्रहे, स्था० 4 ठा० 2 उ०) महानुभागस्यैतत्करणम् / ईदृशस्तस्यानुकरणे कारापणे च निसर्गः (व्याख्या 'एक्केवा' शब्दे तृतीयभागे 1 पृष्ठ गता।) स्वभावः / "ज भणिय" ति किमुक्तं भवतीत्यर्थ:-ईदृशस्वभाव संगहकाल पुं०(संग्रहकाय) संग्रहण-संग्रहः, स एव कायः संग्रहकायः। उक्तःसंग्रहकुशलः / व्य० 3 उ०। (उपग्रहकुशलः ‘उवग्गहकुशल' शब्दे कायभेदे,आवा०५ अ०। द्वितीयभागे व्याख्यातः। संगहकुसल पुं० (संग्रहकुशल) उपध्यादिनासाधूनां संग्रहकरणनिपुणे, संग्रहज्झाण न० (संग्रहध्यान) संग्रहोऽत्यर्थमतृष्णया धनमेलनं तस्य व्य० / स च (संग्रहकुशलः) पुनः कथंभूत इत्याह-संग्रहानुगता ये ध्यानम्। मध्यमवणिजि इव धनसंग्रहाध्यवसाये, अनु०॥ गुणास्तेषां निधिरिव गुणनिधिः, तथा-अनुकरणं नामयत्सीवनलेपादि संगहट्ठया स्त्री० (संग्रहार्थता) संग्रहः-शिष्याणां श्रुतोपादानं स एवार्थः कुर्वन्तं दृष्ट्वा ग्रूते-इच्छाकारेण तवेदमहं करिष्यामि कुरुते वा. कारापणं प्रयोजनं तद्भावस्तत्त्वम् / संग्रह एवार्थो यस्य स संग्रहार्थः। स्था० 5 वा न यत्स्वयं करणे अकुशलानन्यानपीच्छाकारेण कारापयति तस्मिन् ठा० 3 उ०। कथं नुनामैते शिष्याः सूत्रार्थसंग्राहकाः सम्पत्स्यन्ते इत्येवरूपे निसर्गः स्वभावो यस्य सोऽनुकरणकारापणनिसर्गः, इत्थंभूतस्तस्य संग्रहनिमित्ते, आ०म०१ अ०। स्वभावो यदि अनभ्यर्थित एव करोति कारयति चेति भावः। संगहहाण न० (संग्रहस्थान) संग्रहो ज्ञानादीनां शिष्याणां वा तस्य सम्प्रति कतिपयपदव्याख्यानार्थमाह स्थानानि-हेतवः संग्रहस्थानानि ज्ञानशिष्ययोः संग्रहहहेतौ, ग० 1 अधि० / स्था०। वयणे तु अभिग्गहिय-स्स केणऽवी तस्स उत्तरं कुणति। संग्रहस्थानसूत्रम्जा जयणाए किण्हं, ते उगुरुम्मी वयणं देइ / / 153 / / आयरियउवज्झायस्स णं गणंसि सत्त संगहठाणा पण्णत्ता, तं वचने -वचनविषये अभिग्रहिकस्य-गृहीताऽभिग्रहप्रतिपन्नमौन जहा-आयरियउवज्णाए गणंसि आणं वा धारणं वा संपउंजित्ता व्रतस्येत्यर्थः / केनापि प्रश्ने कृते सतितस्योत्तरं यद्भणत्येष वचनसंग्रह भवति, एवं जधा पंचट्ठाणेजाव आयरियउवज्झाए गणंसि आकुशलः / पश्चार्ट्स सुगमम्। पुच्छियचारी यावि भवति नो अणापुच्छियचारी यावि भवति / साहूणं अणुभासइ, आयरिएणं तु भासिए संते। आयरियउवज्झाए गणंसि अणुप्पन्नाई उवगरणाइंसम्म उप्पासारेयायरियाणं, देसे काले गिलाणादि // 154|| इत्ता भवति, आयरियउवज्झाए गणंसि पुव्वुप्पन्नाई उवकरणाई अत्र साधूनामिति पदं पश्चात् गाथायां सम्बध्यते। सम्म सारक्खेत्ता संगोवित्ता भवति णो असम्मं सारक्खेत्ता शेषपदव्याख्यानार्थमाह संगोवित्ता भवइ। आयरियउवज्झायस्सणं गणंसि सत्त असंगहदुक्खत्ते अणुकंपा, अणुसासणभज्जमाणरक्खो वा। ठाणा पण्णत्ता, तंजहा-आयरियउवज्झाएगणंसि आणं वा धारणं जो वा जहुत्तकारी, अणुसासणकिच्चमेयं तु / / 155 / / वा नो सम्मं पउंजित्ता भवति, एवं जाव उवगरणाणं नो सम्म इयमपि व्याख्यातार्था। (व्य) (अभ्यन्तकरणम् 'अभंतरकरण' शब्दे सारक्खेत्ता संगोवेत्ता भवति। (सू०५४४) प्रथमभागे व्याख्यातम्।) 'आयरिए' त्यादि, आचार्योपाध्यायस्येति समाहारद्वन्द्वःकर्मधारयो संभुजण संभोगे-णभुज्जएजस्स कारगं भत्तं / वा / गणे गच्छे संग्रहो ज्ञानादीनां शिष्याणां वा तस्य स्थाना-नि-हेतवः तं घेत्तुमप्पणा से,देइ एमेव उवहिं पि।।१५६|| संग्रहस्थानानि, आचार्योपाध्यायोगणे आज्ञा वा-विधिविषयमादेश संभोजन नाग-यत्संभोगेन योजयति / साम्भोगिकैःसहकत्र भुक्ते धारणां वा-निषेधविषयमादेशमेव सम्यक प्रयोक्ता भवति. एव हि इति / तथा यहास्य कारकम्-उपकारकं भक्तं तदात्मना गृहीत्वा तस्मै ज्ञानादिसंग्रहः शिष्यसंग्रहोवा स्याद्, अन्यथा तद्भश एवेति प्रतीतम्।यतःददाति / एवमेवोपधिमपि उपधिरपियो यस्योपकारकस्तं स्वयमुत्पाद्य "जहि नत्थि सारणा वा-रणाय पडिचोयणा य गच्छम्मि। सो उ अगच्छो तस्मै ददाति। गच्छो, मोत्तव्वो संजमत्थीहिं।।१।।" इति। एवं जहा पंचट्टाणे त्ति' तच्चेदम् - एतेन 'संभोग भत्तोवहीति' व्याख्यातं परस्प आयरियउवज्झाए णं गणंसि अहाराइणियाए कितिकम्म पउंजित्ता भवति रमकर संवासः सुप्रतीतत्वान्न व्याख्यातः / 2 आयरियउवज्झाए णं गणंसि जे सुयपज्जवजाते धारेइ ते काले काले अणुकरण सिव्वणले-वणादिअणुभासणा उदुम्मेहो। सम्म अणुप्पवाइत्ता भवइ 3 आयरियउवज्झाए पं गणंसि गिलाणसेहवेएरिसो तस्स निसण्णा, जंभणियं एरिससहावो / / 157 / / आवच्चं सम्म अब्भुट्टित्ता भवइ 4 आयरियउवज्झाएणं गणंसि आपुच्छ्यिअनुकरणं नाम-सीवनलेपनादि स्वयं किचित् कुर्वन्तं दृष्ट्वा इच्छा- चारी यावि हवइ, नो अणापुच्छियचारी 5, स्थानद्वयं त्विहैवेति, व्याख्या कारेणानुज्ञाप्य करोति / तथा दुर्मेधसि स्वयं सीवनलेपनादि कर्तु- तु सुकरैव, नवरमाप्रच्छनं गच्छरस्य, यत उक्तम्-“सीसे जइ आमंते, मनुजानाति, स्वयं तावत्करोत्येव किंत्वन्यानपि भाषते। यथा कुरुततस्य / पडिच्छया तेण बाहिरं भावं। अह इयरे तो सीसा, तेवसमत्तम्मि गच्छति।।१।। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगहट्ठाण 76 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संगारसमय तरूणा बाहिरभावं, न य पडिलेहोवहीण किइकम्मं / मूलगपत्तसरिसगा, सत्थं कमति / (सू०-६३५)) परिभूया वच्चिमो थेरा // 2 // " इति / तथा- 'अणुप्पन्नाई' ति 'देवे ण' मित्यादि, 'तासिं बोदीणं अतर' त्ति तेषां विकुर्दिवतशरीअनुत्पन्नानि अलब्धानि उपकरणानि वस्त्रपात्रादीनि सम्यग-एषणादि- राणाभन्तराणि ‘एवं जहा अट्ठमसए' इत्यादि अनेन यत्सूचितं तदिदम् - शुद्ध्या 'उत्पादयिता' सम्पादनशीलो भवति, संरक्षयिताउपायेन 'पाएण वा हत्थेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा कट्टेण वा किलिंचेण वा चौरादिभ्यः सङ्गोपयिता-अल्पसागरिककरणेन मलिनताराणेन वेति। आमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं एवं संग्रहस्थानविपर्ययभूतमसंग्रहसूत्रमपि भावनीयमिति। स्था० 7 ठा० सत्थजाएण आछिंदमाणे वा विच्छिदमाणे वा अगणिकाएण वा सभोडह३उ। माणे वा तेसिं जीवप्पएसाणं आबाहं वा वाबाहं वा करेइ छविच्छयं वा संगहणी स्त्री० (संग्रहणी) संग्रहगाथायाम, स०। उप्पाएइ ? णो इणट्टे समट्टे त्ति व्याख्या चास्य प्राग्वत् / भ० 18 श०७ संगहदाण न० (संग्रहदान) दानभेदे, संग्रहणं संग्रहो व्यसनादौ सहायकरण उ०। (रथमुशलसंग्रामवक्तव्यता 'रहमुसल' शब्दे षष्ठे भागे गता।) तदर्थ दानं संग्रहदानम्। अथवा-भेदादानमपि संग्रह उच्यते, / आह च (देवासुरसंग्रामवक्तव्यता 'देवासुरसंगाम' शब्दे चतुर्थभागे उक्ता।) 'अभ्युदये व्यसने वा, यत् किंचिद्दीयते सहायार्थम। तत्संग्रहतोऽभिमत, संग्रामकाल पुं० (संग्रामकाल) परानीकयुद्धावसरे, सूत्र० १श्रु०३ अ० मुनिभिर्दानं न मोक्षाय / / 1 / / ' इति। स्था० 10 ठा 3 उ०। ३उ०। संगहपरिण्णा स्त्री० (संग्रहपरिज्ञा) संग्रहःस्वीकरणं तत्र परिज्ञान संगामरह पुं० (संग्रामरथ) संग्रामयोग्ये रथे, यस्योपरि प्राकारानुनामाभिधानम् / अष्टम्यां गणिसम्पदि, स्था० 8 ठा० 3 उ०। दशा०। कारिणी कटीप्रमाणा फलकमयी वेदिका क्रियते यत्रारूदैः संग्रामः (संग्रहप्रतिज्ञायाःव्याख्या गणिसंपया' शब्द तृतीयभागे 826 पृष्टादारभ्य क्रियते। अनु० ! बृ० / द्रष्टव्या।) संगामसंकड न० (सग्रामसङ्कट) संग्रामसहने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। संगहसुत्त न० (संग्रहसूत्र) प्रभूतार्थसंग्राहके सूत्रे, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० संगामसीस न० (संग्रामशीर्ष) संग्राममूर्धनि, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ० / “एस संगामसीसे वियाहिए।" संग्रामशिरसि परानीकनिशिता१उन संगहाभास पुं० (संग्रहाभास) अयथार्थसंग्रहनये, रत्ना० 7 परि०। कृष्टकृपाणानि यत्र प्रभासञ्चलितोद्यतसूर्यत्विद्धृतविद्युन्नयनचमत्(सत्ताद्वैतं कुर्वाणः ‘णय' शब्दे चतुर्थभागे 1603 पृष्ठेव्याख्यातः।) कृतिकारिणि कृतकरणेऽपि सुभटश्चित्तविकारं न विधत्ते एवं मरणकालेऽपि समुपस्थिते परिकर्मतः मतेरप्यन्यथाभावः कदाचित्स्यादत' यो संगहिय न० (संगृहीत) भावे क्तः प्रत्ययः / सामान्याभिमुख्येन ग्रहणे मरणकाले न मुह्यते स पारगामी। आचा० 1 श्रु०६ अ० 5 उ०। अनुगमे, सर्वव्यक्तिष्वनुगतस्य सामान्यस्य प्रतिपादने, विशे०। अनु० / संगामिय त्रि० (संग्रामिक) संग्रामप्रयोजने, स्था०५ ठा० 1 उ०म०॥ आ००। दृढीकृते, ज०३ वक्ष०ा शिष्यत्वेनाश्रिते, आभिमुख्येन गृहीते. ज्ञा०। आ०म० 1 अ० / आ० चू० / आश्रिते. स्था० 8 ठा० 3 उ० / संगामिया स्त्री० (सांग्रामिकी) या संग्रामकाले समुपस्थिते सामन्तादीनां संगहुवग्गहणिरय त्रि० (संग्रहोपग्रहनिरत) संग्रह उपदेशादिना, उपग्रहो ज्ञापनार्थ वाद्यते। कृष्णवासुदेवस्य भेाम्, आ०चू०१ अ०। विश०। वस्खादिना, व्यत्यय इत्यन्ते तत्र निरतः / संग्रहोपग्रहयोरासक्ते, प० व आ० म०। 4 द्वार। संगार पुं० (सङ्गार) सङ्केते, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / भ० / द०प। संगाम पुं० (संग्राम) रणशिरसि, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०१ उ० / स्था०| आ०म० / बृ०। स्था०। ज्ञा०। आचा। आचा०। प्रश्न०। महजनसमक्षकलहे, तं०1 संग्रामे हता देवलोकं यान्ति। संगारा स्त्री० (सङ्गारा) प्रव्रज्याभेदे, 'संगारमल्लिणाते. सनविवाकास भ०७ श०६ उ०। जह तु संगारं।' पं०भा०१ कल्प। पं० चू० / देवे णं भंते ! महड्डिए जाव महे सक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता संगारदत्त त्रि० (सङ्गारदत्त) सङ्गार:-सङ्केतः स दत्तो यस्य शैक्षस्य स पभू अन्नमन्नेणं सद्धिं संगाम संगामित्तए ? हंता पभू / ताओ संगारदत्तः। आहिताग्नेराकृतिगणत्वात् क्तान्तस्य परनिपातः। कृतसङ्केते णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ अणेगजीवफुडाओ? शिष्यादिके, बृ०३ उ०। गोयमा ? एगजीवफुडाओ णो अणेगजीवफुडाओ / तासि णं / संगारपवजा स्त्री० (सङ्गारप्रवज्या) प्रव्रज्याभेदे, स्था० / ('पवजा' भंते ! वोंदीणं अंतरा किं एगजीवफुडा अणेगजीवफुमा ? गो- शब्दे पञ्चमभागे 730 पृष्ठे व्याख्या गता।) यमा ! एगजीवफुडानो अणेगजीवफुडा। पुरिसेणं भंते ! अंतरेणं | संगारसमय पुं० (सङ्गारसमय) सङ्गारः सङ्केतस्तद्रूपः समयः सङ्गारहत्थेण वा एवं जहा अट्ठमसए तइए उद्देसए० जाव नो खलु तत्थ | समयः / सङ्केतरूपे समयभेदे, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ०। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगास 77 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघ संगास त्रि० (सङ्काश) सदृशे, उत्त० 34 अ०। छायाविशेषे, आ० म० | किरत्यपुण्यानि सुसाधुसेवनादथापि तं श्रावकमाहुरञ्जसा।।१।।" इति १अ०। एवं श्राविका अपि। स्था० 4 ठा० 4 उ० / आ०म० / “तित्थयरे तित्थयरे, संगिय न० (स्वाङ्गिक) परिभुक्तप्राये, स्था० 4 ठा०३ उ०। आचाo तित्थं पुण जाण गोयमा ! संघ।" महा० 4 अ०। संगिया स्त्री० (सङ्गिता) सङ्गो यस्यास्तिस सङ्गीतद्भावस्तत्ता। द्रव्यादिषु संघावज्ञाप्रतिक्षेपःसत्सङ्गे, भ०२श०५ उ०। तित्थयरवंदणिज्जं, संघं पि खिवेइ कोइ अइबालो। संगिल्ल पुं० (सइ) समुदाये, व्य०१ उ० / ज्ञा०। नत्थी संघो एसो, भणिओ आसायगो कप्पे / / 1 / / संगिल्लि पुं० (संगल्लि) अन्योऽन्यं हस्तावलम्बे, ज्ञा० 1 श्रु०३ अ०। तीर्थङ्करवन्दनीयं-सर्वज्ञवन्य 'नमो तित्थस्से' ति भणनात् संघमपि संगोवंग त्रि० (साङ्गोपाङ्ग) शिक्षा 1 कल्प 2 व्याकरण 3 निरुक्त 4 साधुसाध्वीश्रावक श्राविकाच ज्ञानादिगुणरूपं न केवलमाचार्यादीछन्दो 5 ज्योतिष्कानयन 6 लक्षणानि षडुपाङ्गानि तद्व्याख्यानरूपाणि त्यपेरर्थः, क्षिपति-तिरस्कुरूते कोऽपि कश्चिदेकस्त्वितरोऽन्योऽपि तैः सह वर्तन्त इति साङ्गोपाङ्गाः। अनु०। अङ्गोपाङ्गसहितेषु, “संगोवंगा प्राकृतस्वभावःअतिबालोः अतिबालोमहामूर्खः, कथं क्षिपतीत्यत आहवेया" तत्राङ्गानि शिक्षा 1 कल्पं 2 व्याकरणम् 3 छन्दः 4 ज्योतिः 5 न नास्ति विद्यते संघ उक्तरूपः एष संक्षेपको भणित उक्तश्चाशातनिरूक्तञ्च 6, उपाङ्गानि-अङ्गार्थविस्ताररूपाणि / कल्प०१ अधि०१ नाकारकः कल्पेछेदग्रन्थ इति गाथाऽर्थः / कल्पभणितमेवाहसंगोवित्ता त्रि० (सङ्गोपयितृ) क्षेमस्थानप्रापयितरि, स्था०७ठा०३ उ०। अक्कोसतज्जणाई, संघमहिक्खिवइ संघपडिणीओ। संगोवेमाणी स्त्री० (सङ्गोपयन्ती) वस्त्राच्छादनगर्भगृहप्रवेशनादिभिः अन्ने वि अस्थि संघा-ण सियालणतिकमाईणं / / 2 / / क्षेमप्रापिकायाम्, विपा० 1 श्रु०२ अ०। आक्रोशतर्जनादिभिः संघ-साध्वादिवर्गमधिक्षिपतिनिराकरोति संघ पुं० (सन) सङ्घाते, व्य०३ उ० / गुणसंघाते, व्य०३ उ०। समुदाये, संघप्रत्यनीकः-प्रवचनप्रतिकूलः, तत्राक्रोशी दुष्टवाग्भणनं तर्जहनं तुजी०३ प्रति०४ अधि० / प्रज्ञा० / ग० / रा० / औ०। कीटिकादिगण- किमने न सिद्ध्यतीति, एवमादि भणितिरादिग्रहणाद्यथोचित्यसमुदाय, स्था, 5 ठा०१ उ० / भ० / कुलसमुदायो गणः, वा-लुकाप- विनयाद्यकरणग्रहो विभक्तिलोपाचेत्थं निर्देशः / एवं च वदन संघ यन्तः संघः। पं०व०१ द्वार। सम्यग्दर्शनादिसमुचितप्राणिगणे साधुसा- क्षिपतीत्याह-अन्येऽपिपरे न केवलमयं साध्वादिवर्ग इत्यपेरर्थः / सन्तिध्वीश्रावकश्राविकारूपे (संघा०१ प्रस्ता०१ अधि०। प्रव० / ध०।) विद्यन्ते संघसमाग्रहणे केषामित्याह- 'सियालणतिकमाईणं' तत्र शृगालः गुणरत्नपात्रभूते (पं०व०१द्वार।) सत्त्वसमूह, स्था०ा प्रतीतः णतिकः देशीभाषया कालिकरवः, आदिशब्दाच्छेषजन्तुपरिग्रहः। चडविहे संघे पण्णत्ते, तं जहा-समणा समण्णीओ सावगा मकारोत्रालाक्षणिक इति गाथाऽर्थः। सावियाओ। (सू०३६३) पुनरपि संघस्य पूज्यतां दर्शयन्निदमाहसंघो-गुणरत्नपात्रभूतसत्त्वसमूहः, तत्र श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीति उग्घाडणा भएणं, सुयकेवलिणा वि मंनिओ संघो। श्रमणाः / अथवा-सह मनसा शोभनेन निदानपरिणामलक्षणपापरहितेन पुव्वाणं परिवाडिं, देहि भणंतो महासइणा / / 8 / / चेतसा वर्तन्त इति समनसस्तथा समान-स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो उद्घाटना-समयभाषया संद्यादहिष्करणलक्षणा तस्या भयं तेन येषां ते समनसः। उक्तञ्च- "तो समणो जइ सुमणो, भावेण य जइ न होइ अनुस्वारश्व पूर्ववत्, श्रुतकेवलिनाऽपि चतुर्दशपूर्वधरण न केवल पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसुं॥१॥" अथवा- तीर्थकरेणेत्यपेरर्थः मानित:-पूजितः संघः प्रतीतः। पूर्वेषां समयप्रसिसमिति-समतायां शत्रुमित्रादिष्वणन्ति-प्रवर्त्तन्त इति समणाः / आह द्वाना परिपाटी पाठरूपां देहि प्रयच्छशिष्येभ्य इत्यध्याहारः भणन-ब्रुवन्, च- "नऽत्थिय सि को इवेसो, पिओ व सव्येसु चेव जीवेसु। एएण होइ किंविशिष्टेन महाशयिना-अचिन्त्यशक्तिना। अत्र च कगचजे' त्यादिना समणो, एसो अन्नोऽविपजाओ / / 1 // " इति, प्राकृततया सर्वत्र 'समण' तकारलोपे स्वरे प्रकृतिलोपसंघय इत्यनेन तकाराकारलोपे रूपमिदम्। त्ति। एवं समणीओ, तथा शृण्वन्ति जिनवचनमिति श्रावकाः, उक्तश्च- इदमिहतत्त्व किल श्रीवीरस्वामिनो मोक्षे गतस्य दुष्कालो महान् संवृत्तः, "अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धसम्पत्, पर समाचारमनुप्रभातम् / शृणोति यः सोऽपि साधुवर्ग एकत्र मिलितो भणितं च परस्परं कस्य किमागच्छति साधुजनादतन्द्रस्तं श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः / / 1 / / " इति / अथवा- सूत्र ? यावत् न कस्याऽपि पूर्वाणि समागच्छति, ततः श्रावकैर्विज्ञातेभणितं श्रान्ति पचन्ति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठा नयन्तीति श्राः, तथा वपन्तिगुण- यथा कुत्र साम्प्रतं पूर्वाणि सन्ति? तैः भणितम् भद्रबाहुस्वामिनि। ततः वत्सप्त क्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वा, तथा किरन्ति-क्लिष्ट सर्वसङ्घसमुदायेन पर्यालोच्य प्रेषितस्तत्समीपे साधुसनाटकः, गत्वा कमरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति।। प्रणम्य च तेन भणिताः सूरयो यथा सुशिष्याणां पूर्वपरिपाटी प्रयच्छत। यदाह , "श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम्।। तैस्तूक्तं साम्प्रतं वयं महाप्राणध्यानाशक्तास्ततो न तां दातुं शक्ता इ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ 78 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघ त्युक्तः समागतः साधुसवाटकः,संघसमीप कथितं तद्वचः / ततो भूयोऽपि / प्रेषितो यः संधवधो न कुरुते तस्य किं विधीयते; एवं गत्वा बुवीत, तथा कृते तैरूक्तम्- यत्संघो भणति तदहं करोमि; इत्युक्ते, प्रेषितानि स्थूलभद्रप्रमुखानि सुशिष्याणां पञ्चशतानीति गाथाऽर्थः / ननु न वयं संघ निराकुर्मः किं त्वास्माकीनः संघो नान्येषामिति ये / मन्येरन् तान् प्रत्याहअम्हाणं चिय संघो, अत्ताणं न उण लक्खणा भावा। नेवं वोत्तुं जुत्तं, छउमत्थाणं जओ भणिअं॥८४|| अस्माकमेव संघः अन्येषाम्-अपरेषां न पुनर्लक्षणाभावात् ज्ञानाद्यसत्तातः नैवमित्थं वनुम-गदितु युक्त-संगतं छद्मस्थानामतीन्द्रियज्ञानाभाववतां यतो-यस्मात् भणितम्-उक्तम्, इति गाथार्थः / जीवा० 14 अधि०। (संघगुणस्य वक्तव्यता परिणाम' शब्दे पञ्चमभागे 612 पृष्ठे गता।) एवं स्थिते जीवोपदेशमाहसंघस्सोवरि वेयण, कयामि भणसु जाव पडिकुठे। जुत्ता तत्थ करवयण-मणम्मि भावो ण संपत्तं // 86|| प्रकाटार्था / जीवा० 14 अधिः / सत्तीऍ सघपूआ, विसेसपूआउ बहुगुणा एसा। जं एस सुए भणिओ,तित्थयराणंतरो संघो॥११३४।। शक्त्या संघपूजा विभवोचितया, किमित्यत आह-विशेषपूजायाः दिगादिगतायाः सकाशाद्रहुगुणा एषा संघपूजा, विषयमहत्त्वादेत-दाहयदेष श्रुते भणित:-आगमे उक्तः तीर्थकरानन्तरः संघ इत्यतो महानेष इति गाथाऽर्थः। एतदेवाहगुणसमुदाओ संघो, पवयणतित्थं ति होति एगट्ठा। तित्थयरोऽवि अए, णमए गुरुभावओ चेव // 1135|| गुणसमुदायःसंघ अनेकप्राणिस्थसम्यग्दर्शनात्मकत्वात्प्रवचनं तीर्थमिति भवन्त्येकार्थिका एवमादयोऽस्य शब्दा इति, तीर्थकरोऽपि चैन संघ तीर्थसंज्ञिनं नमति धर्मकथादौ गुरुभावत एव 'नमस्तीर्थाये' ति | वधनादेतदेवमिति गाथाऽर्थः / अत्रैवोपपत्त्यन्तरमाहतप्पुट्विआ अरहया, पूइअपूआ य विणयकम्मं च / कयकियो वि जह कहं, कहेइ णमए तहा तित्थं // 1136|| तत्पूर्विका-तीर्थपूर्विका अर्हन्तः तदुक्ताऽनुष्ठानफलत्वात्पूजितपूजा चेलि भगवता पूजितपूजत्वाल्लोकस्य विनयकर्म च कृतज्ञताधर्मगर्भ कृतं भवति / यदा-किमन्येन कृतकृत्योऽपि स भगवान्यथो कथां कथयति धर्मसम्बन्धिनीमिति तथा तीर्थ तीर्थकरनामकर्मोदयादेवौचित्य- 1 प्रवृत्तेरिति गाथाऽर्थः। एयम्मि पूइअम्मी, णत्थि तयं जं न पूइ होइ। भवण वि पूणिचं, गणुठाणं वा तओ अण्णं / / 1137 / / एतस्मिन् संघे पूजिते नास्ति तद्वस्तु यन्न पूजितमभिनन्दितं भवति। किमित्यत आह- भुवेनऽपि सर्वत्र पूज्यं-पूजनीयं न गुणस्थानं कल्याणतस्ततः संघादन्यदिति गाथऽर्थः। तप्पूआपरिणामो, हंदि महाविसय एव मुणिअव्वो। तद्देसपूअओ विहु, देवयपूआइणाएणं // 1138|| तत्पूजापरिणामः-संघपूजापरिणामः 'हन्दि' महाविषय एव मन्तव्यः, संघस्य महत्त्वात्तद्देशपूजातोऽप्येकत्वेन सर्वपूजाभावे देवतोद्देशादिपूजोदाहरणेनेति गाथाऽर्थः / पं० व० 4 द्वार / (पूर्वो-ल्लिखितगाथानां विवर्णनं पञ्चाशकटीकायां कृतं तच तृतीयभागे 1273 पृष्ठे दर्शितम्।) अथ संघ मुकुटोपमया वर्णयन् गाथाद्वयमाहगुत्तीसमिइगुणड्डो, संजमतवनियमकणयकयमउडो। सम्मत्तनाणदसण, तिरियणसंपावियमहग्धो॥११६|| तत्र तावन्मुकुटस्वरूपं भण्यते 'गुत्तीसमिइगुणड्डो' त्ति गोपनं गुप्ती रत्नानां प्रतिश्रयसुवर्णेन संधिमीलनम्, सम-सामस्त्येन इतिः-गमनं समितिः, मेलापको मणिरत्नसुवर्णानां यत्र सा समितिः, गुप्तिश्व समितिश्च गुप्तिसमिति, गुप्तिसमित्योर्गुणो गुप्तिसमितिगुणस्तेन आद्यो महान, मुकुटो हि ज्वरविषापहारादिमणिसंपर्काद् गुणाढ्यो भवति / पुनः कथंभूतः 'संजमतवनियमकणयकयमउडो' त्ति संयमतपोनियमस्थानीयं त्रिप्रकारमर्जुनरक्ततपनीयकाञ्चनरूपं यत्कनकं तेन कृतो निम्मितः सेर्लोपात्मुकुटविशेषणं 'मउडो' त्ति मुकुट इति विशेष्यकम् 'सम्मत्तनाणदंसणतिरियणसंपाविय' त्ति कथंभूतो मुकुटः? सम्यक्वज्ञानदर्शनतुल्यत्रिरत्नसंप्रापितः शिखरत्रये हि रत्नत्रयालंकृतो मुकुटो भवति / अथवाप्राकृतत्वा-त्प्रापितशब्दस्य परनिपातात् संप्रापितत्रिरत्नः, यत एव हि सप्रा-पितः त्रिरत्नोऽत एवमहार्यः-महामूल्यः 'पञ्चोइय'त्ति पाठे त्रिभी रत्नैः प्रत्योपितैः परिकर्मितैर्महाय॑ः एवंविधस्तावन्मुकुटः तेन संघ उपमीयते / तथाहि-गुप्तिसमितो गुणाढ्यो वाऽनेकातिशयर्द्धि गुणवान् संजमतपोनियमैः कनकस्थानीयैः कृतो-निर्वर्तितः संघमुकुटो मुकुट इव मुकटः शिरसाधार्यत इति भावः। 'सम्मत्त-माणदंसण' त्ति सम्यक्त्वज्ञाने प्रतीते, 'दसण'त्ति दृश प्रेक्षणे, दृश्यते-सम्यक् परिज्ञायते सावद्यमनेनेति दर्शनं चारित्रभनेकार्थत्वाद्धातूनां ततः सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूपत्रिरत्नसंप्रापितशिखरः, तथा महायोऽर्थयितुम् अशक्यः / / 116 / / अथेतरमुकुटात्संधमुकुटस्याधिक्यमाहसंघो सइंदयाणं, सदेवमणुयासुरम्मि लोगम्मि। दुलहतरो विसुद्धो, अविसुद्धो तो महामउडो॥११७|| इतरमुकुटः सुप्राप एव संघमुकुटश्च सेन्द्राणामपि देवानांसदेवमनुजासुरेऽपि च लोके दुर्लभतरः, विसुद्धो' त्ति विशुद्धश्व संघमुकुटो विशुद्धकर्मक्षयहेतुत्वात, ततः संघमुकुटायोमहानपि मुकुटः सुलभो बालतपस्विक्रिययाऽपि Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ 76 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघ प्यन्तरत्वनरेन्द्रत्वसद्भावे तल्लाभात् / 'अविसुद्धो तो महामउडो' त्ति अविशुद्ध एव र मुकुटस्तत्प्राप्तावनुरागादिभिर्मानादिवृद्धिहेतुत्वेन महाकापचयनिबन्धनत्वात् / ततो महामुकुटः संघमुकुटापेक्षया सर्वप्रकारैरशुद्ध एवेत्यर्थः / / 117 // संथा० / सम्प्रति तीर्थकरानन्तरं सङ्घः पूज्य इति परिभावयन संघस्य नगररूपकेण स्तवमाहगुणभवणगहणसुयरयण-भरियदंसणविसुद्धत्थागा। संघनगर ! भदंते, अक्खडचरित्तपागारा ||4|| 'गुणभवणे' त्यादि-गुणा इह उत्तरगुणा गृह्यन्ते, मूलगुणानामगे चारित्राशब्देन गृद्यमाणत्वात्, ते चोत्तरगुणाः-पिण्डविशुद्ध्यादयो, यत उक्तम्- “पिंडरस जा विसोही, समिईओ भावणा तवो दुविहो / पडिमा अभिग्गहाऽवि य, उत्तरगुण मो वियाणाहि॥१॥" त एव भवनानि तैर्गहनगुपिलं प्रचुरल्यादुत्तरगुणानां गुणभवन-गहनं, संघनगरमभिसम्बध्यते, तस्याऽऽमन्त्रण हे गुणभवनगहन!, तथा श्रुतरन्तभृत ! श्रुतान्येव आचारादीनि निरूपमसुखहेतत्वाद्रत्नानि श्रुतरत्नानि तैर्भूतपूरितं तस्यामन्त्रण हे श्रुतरत्नभृत! तथा दर्शनविशुद्धरथ्याक! इह दर्शनप्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलिङ्गगम्यात्मपरिणामरूपं सम्यग्दर्शनमिति गृह्यते, तच्च क्षायिकादिभेदात् त्रिधा, तद्यथा-क्षायिक, क्षायोपशमिकमौपशमिकं च / उक्तं च-"सम्मत्तं पि य तिविहं, खओवसमियं तहोवसमियं च। खइयं चे" ति तत्र त्रिविधस्याऽपि दर्शनमोहनी-यस्य क्षयेणनिर्मूलमपगमेन निर्वृत्तं क्षायिकम्, उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षयेण शेषस्य तूपशमेन निवृत्त क्षायोपशमिकम्, उदयावलिकाप्रविष्टस्यांशस्य क्षये सति शेषस्य भस्मच्छन्नाग्नेरिवानुद्रेकावस्था उपशमः तेन निवृत्तमौपशमिकम् आहऔपशमिकक्षायापशमिकयोःकः प्रतिविशेषः? उच्यते क्षायोपशमिके तदावारकस्य कर्मणः प्रदेशतोऽनुभवोऽस्तिन त्वौपशमिके इति। दर्शनमेवासारमिथ्यात्वादिकचवररहिता विशुद्धरथ्या यस्य तत्तथा, तस्यामन्त्रणं हे दर्शनविशुद्धरथ्याक ! 'सेर्लोपः सम्बोधने हस्वो वे ति प्राकृतलक्षणसूत्रे वाशब्दस्य लक्ष्यानुसारेण दीर्घत्वसूचना (र्थत्वा) त् दीर्घ निर्देशः, यथा “गोयमा!" इत्यत्र, संघः- चातुर्वर्णः श्रमणादिसंघातः स नगरमिव संघनगरं 'व्याघ्रादिभिगौणैस्तदनुक्ताविति' समासो; यथा पुरूषो व्याघ्र इव पुरुषव्याघ्रः, तस्यामन्त्रणं हे संघनगर ! भद्रकल्याणं तेतब भवतु, अखण्डचारित्रप्राकार ! चारित्रं-मूलगुणाः अखण्डम्अविराधितं चारित्रमेव प्राकारो यस्य तत्तथा- 'मांसादिषु चेति' प्राकृतलक्षणत्यात् चारित्रशब्दस्यादौ हस्वः, तस्यामन्त्रणं हे अखण्डचारित्रप्राकारः ! दीर्घत्वं प्रागिव। भूयोऽपि संघस्यैव संसारोच्छेदकारित्वाच्चक्ररूपकेण - स्तवमाहसंजमतवतुंबारय-स्स नमो सम्मत्तपारियलस्स। अप्पडिचक्कस्स जओ,होउसया संघचक्कस्स।।५।। संयमः-सप्तदशप्रकारः, यदुक्तम्- “पञ्चाश्रवाद्विरमण, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः / कषायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः / / 1 / " तपो द्विधाबाह्यम्, आभ्यन्तरं च। तत्रबाह्यं षड्डिधम्, यदुक्तम् “अनशनमूनोदरता, वृत्तेः संक्षेपणं रसत्यागः / कायक्लेशः संलीनतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम् / / 1 / / " आभ्यन्तरमपि षोढा, यत उक्तम्-“प्रायश्चित्तध्याने, वैयावृत्त्यविनयावथोत्सर्गः / स्वाध्याय इति तपः षट्-प्रकारमाभ्यन्तरं भवति / / 2 / / " सयमश्चतपासि च संयमतपांसि तुम्बंच अराश्च-अरकाः तुम्बाराः संयमतपस्येव यथासंख्यं तुम्बारा यस्य तत्तथा तरमै संयमतपस्तुम्बाराय नमः / सूत्रे षष्ठी प्राकृतलक्षणाच्चतुर्थ्यर्थे वेदितव्या। उक्तं च"छडिविहत्तीए, भन्नइ चउत्थी' तथा- 'सम्मत्तपारियलस्स' सम्यक्त्वमेव पारियल्लबाह्यपृष्टस्य बाह्याभ्रमिर्यस्य तत्तथा तस्मै नमः, गाथार्द्ध व्याख्यातम्। तथा न विद्यते प्रतिअनुरूपं समानं चक्रं यस्य तदप्रतिचक्र, चरकादिचक्ररसमानमित्यर्थः तस्य जयो भवतु सदासर्वकालं, संघश्चक्रमिव संघचक्रं तस्य। सम्प्रति संघस्यैव मार्गगामितया रथरूपकेण स्तवमभिधित्सुराहभई सीलपडागु-सियस्स तवनियमतुरयजुत्तस्स। संघरहस्स भगवओ, सज्झायसुनंदिघोसस्स॥६।। भद्र-कल्याणं संघरथस्य भगवतो भवत्विति योगः, किंविशिष्टस्य सत इत्याह- शीलोच्छ्रितपताकस्य शीलमेवअष्टादशशीलागसहस्ररूपमुच्छ्रिता पताका यस्य स तथा, भार्योढादेराकृतिगणतया तन्मध्यपाटाभ्युपगमादुच्छ्रितशब्दस्य परनिपातः, प्राकृतशैल्या वा, न हि प्राकृते विशेषणपूर्वापरनिपातनियमोऽस्ति, यथा कथञ्चित्पूर्वर्षिप्रणीतेषु वाक्येषु विशेषणनिपातदर्शनात्, तपोनियमतुरङ्गयुक्तस्य- तपःसंयमाश्वयुक्तस्य, तथा स्वाध्यायः-पञ्चविधः,तद्यथा-वाचना प्रच्छना परावर्तना अनुप्रक्षा धर्मकथा च, स्वाध्याय एव सन्-शोभनो नन्दिघोषो द्वादशविधतूर्यनिनादो यस्य स तथा तस्य, 'सज्झायसुनेमिघोसरसे' ति क्वचित्पाठः, तत्र-स्वाध्यायः एव शोभनो नेमिघोषो यस्येति द्रष्टव्यम्,इह शीलाङ्गप्ररूपणे सत्यपि तपोनियमप्ररूपणं तयोः प्रधानपरलोकागत्वख्यापनार्थम् / अस्ति चायं न्यायो यदुत-सामान्योक्तावपि प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषाभिधानं क्रियते, यथा-ब्राह्यणा आयाता वशिष्ठोऽध्यायात इति, एवमन्यत्रापि यथायोग परिभावनीयम्। संघस्यैव लोकमध्यवर्तिनोऽपि लोकधर्मासंश्लेषतः पद्मरूप केण स्तवं प्रतिपादयितुमाहकम्मरयजलोहविणि-ग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स / पंचमहव्वयथिरक-नियस्स गुणकेसरालस्स / / 7 / / सावगजणमहुअरिपरि-वुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स। संघपउमस्स भई, समणगणसहस्सपत्तस्स / / 8 / / कर्मज्ञानावरणाद्यष्ट प्रकारं तदेव जीवस्य गुण्डनेन मालिन्यापादनाद्रजो भण्यते, कर्मरज एव जन्मकारणत्वाजलौघः तस्माद्विनिर्गत इव विनिर्गतः कर्मरजोजलौघविनिर्गतः तस्य, इह पा जलौघाद्विनिर्गतं सुप्रतीतं, जलौघस्योपरि तस्य व्यवस्थितत्वात्, संघस्तु कर्मरजोजलौघाद्विनिर्गतोऽल्पसंसारत्वादवसेयः, तथा च-अविर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ 50 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघ तसम्यग्दृष्टरप्यपार्द्धपुरलपरावर्त्तमान एव संसारः, अत एव विनिर्गत इवेति व्याख्यातं, न तु साक्षाद्विनिर्गतः, अद्यापि संसारित्वात, तथा श्रुतरत्नमेव दी? नालो यस्य स तथा तस्य, दीर्घनालतया च श्रुतरत्नस्य रूपणं कर्मरजोजलौघतः तद्बलाद्विनिर्गतः, तथा पञ्च महाव्रतान्येवप्राणातिपातादिविरमणलक्षणानि स्थिरादृढा कर्णिकामध्यगण्डिका यस्य तत्तथा तस्य, तथा गुणाः-उत्तरगुणाः त एव पञ्चमहाव्रतरूपकर्णिकापरिकरभूतत्वात् केसरा इव गुणकेसराः ते विद्यन्ते यस्य तत्तथा तस्य, अत्र 'मतुवत्थम्मि मुणिज्जह आलं इल्लं मणं तह य इति प्राकृतलक्षणात् मत्वर्थे आलप्रत्ययः। तथा ये अभ्युपेतसम्यक्त्वाः - प्रतिपन्नाणुव्रता अपि प्रतिदवसं यतिभ्यः साधूनागारिणां चोत्तरोत्तरविशिष्टगुणप्रतिपत्तिहेतोः सामाचारी शृण्वन्ति ते श्रावकाः, उक्तंच- “संपत्तदंसणाई, पयदियह जइ जणा सुणेई य। सामायारिं परमं, जो खलु तं सावगं बिति 1 // 1 // " श्रावकाच ते जनाश्च श्रावकजनाः त एव मधुकर्यः ताभिःपरिवृतस्य तस्य, तथा-जिनसूर्यतजोबुद्धस्यजिन एव सकलजगत्प्रकाशकतया सूर्य इवभास्कर इव जिनसूर्यस्तस्य तेजो विशिष्टसंवेदनप्रभवा धर्मदेशाना तेन बुद्धस्य, तथा श्राम्यन्तीति श्रमणा 'नन्द्यादिभ्योऽनः' / 5 / 1 / 52|| इति कर्त्तर्यनप्रत्ययः श्राम्यन्ति-तपस्यन्ति, किमुक्तं भवति? प्रव्रज्याऽऽम्भदिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरता गुरुपदे-शादाप्राणोपरमायथाशवत्यनशनादि तपश्चरन्ति। उक्तं च- "यः समः सर्वभूतेषु, त्रसेषु स्थावरेषु च। तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः / / 1 / / " श्रमणाना गणः श्रमणगणः स एव सहस्र पत्राणां यस्य तत् श्रमणगणसहसपत्रं तस्य (श्रीसंघपास्य भद्रं भवतु)। भूयोऽपि संघस्यैव सोमतया चन्द्ररूपकेण स्तवमभिधि त्सुराहतवसंजममयलंछण, अकिरियराहुमुहदुद्धरिस निचं / जय संघचंद ! निम्मल-सम्मत्तविसुद्धजोण्हागा।।६।। तपश्च संयमश्चतपःसंयम, समाहारो द्वन्द्वः तपःसंयममेव मृगलाञ्छनंमृगरूपं चिह्न यस्य तस्यामन्त्रणं हे तपःसंयममृगलाञ्छन!, तथा न विद्यन्तेऽनभ्युपगमात् परलोकविषया क्रिया येषां ते अक्रियाः-नास्तिकाः तएव जिनप्रवचनशशाङ्कासनपरायणत्वादाहुमुखमिवाक्रियराहुमुखं तेन दुष्प्रधृष्यः-अनभिभवनीयः तस्यामन्त्रणं हे अक्रियराहुमुखदुष्प्रधृष्य!, संघश्चन्द्र इव संघ-चन्द्रः तस्यामन्त्रणं हेसंघचन्द्र!तथा निर्मलंमिथ्यात्वमलरहितं यत्सम्यक्त्वं तदेव विशुद्धा ज्योत्स्ना यस्य स तथा, 'शेषाद्वा' / / 7 / 3 / 175 / / इति कः प्रत्ययः तस्यामन्त्रणं हे निर्मलसम्यक्त्वविशुद्धज्योत्स्नाक ! दीर्घत्वं प्रागिव प्राकृतलक्षणादवसेयम्, नित्यं -सर्वकालं जय-सकलपरदर्शतारकेभ्योऽतिशयवान् भव, यद्यपि भगवान् सघचन्द्रः सदैव जयन् वर्तते तथाऽपीत्थं स्तोतुरभिधान कुशलमनोवाकायप्रवृत्तिकारणमित्यदुष्टम्। 'पुनरपि संधस्यैव प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण स्तवमाह परतित्थियगहपहना-सगस्स तवतेयदित्तलेसस्स। नाणुजोयस्स जए, भद्रं दमसंधसूरस्स / / 10 / / परतीर्थिकाः-कपिलकणभक्षाक्षपादसुगतादिमतावलम्बिनः तएव ग्रहाः तेषां या प्रभा एकैकदुर्नयाभ्युपगमपरिस्फूर्तिलक्षणा तामनन्तनयस कुलप्रवचनसमुत्थविशिष्टज्ञानभास्करप्रभावितानेन नाशयतिअपनयतीति परतीर्थकग्रहप्रभानाशकः तस्य, तथा तपस्तेज एव दीप्ताउज्ज्वला लेश्या-भास्वरता यस्य स तथा तस्य तपस्तेजोदीप्तलेश्यस्य, तथा ज्ञानमेवोद्योतो वस्तुविषयः प्रकाशो यस्य स तथा तस्य ज्ञानोद्द्योतस्य, जगति-लोके भद्रंकल्याणं, भवत्विति शेषः, दमः-उपशमः तत्प्रधानः संघः सूर्य इव संघसूर्यः तस्यदमसंघसूर्यस्य। सम्प्रति संघस्यैवाक्षोभ्यतया समुद्ररूपकेण स्तवं चिकी ए॒राहभई धिइवेलापरि-गयस्स सज्झायजोगमगरस्स। अक्खोहस्स भगवओ, संघसमुदस्स रूंदस्स||११|| संघएव समुद्रः संघसमुद्रः तस्य भद्रं भवत्विति क्रिया शेषः। किंविष्टिस्य सत इत्याह-वृतिवेलापरिगतस्य-धृतिः-मूलोत्तरगुणविषयः प्रतिदिवसमुत्सहमान आत्मपरिणामविशेषः सैव वेलाजलवृद्धिलक्षणा तया परिगतस्य, तथा स्वाध्याययोग एव कर्मविदारणक्षमशक्ति-समन्वित तया मकर इव मकरो यस्मिन् सतथा तस्य, तथा अक्षोभ्यस्य परीषहोपसर्गसम्भवेऽपि निष्प्रकम्पस्य भगवतः समप्रैश्वर्यरूपयशोधर्मप्रयत्नश्रीसम्भारसमन्वितस्य रून्द्रस्यविस्तीर्णस्य। भूयोऽपि संघस्यैव सदास्थायितया मेरुरूपकेण स्तवमाहसम्मईसणवरवइर-दढरूढगाढावगाएपेठस्स। धम्मवररयणमंडिअ-चामीयरमेहलागस्स।।१२। नियमूसियकणयसिला-यलुजलजलंतचित्तकूडस्स। नंदणवणमणहरसुरभि-सीलगंधुद्धमायस्स / / 13 / / जीवदयासुंदरकं-दरूद्दरियमुणिवरमइंदइन्नस्स। हेउसयधाउपगलं-तरयणदित्तोसहिगुहस्स!|१४|| संवरजलपगलियउ-ज्झरपविरायमाणहारस्स। सावगजणपउररवं-तमोरनचंतकुहरस्स / / 15 / / विणयनयपवरमुणिवर-फुरंतविज्जुज्जलंतसिहरस्स। विविहगुणकप्परूक्खग-फलभरकुसुमाउलवणस्स / / 16 / / नाणवररयणदिप्पं-तकंतवेरूलियविमलचूलस्स। वंदामि विणयपणओ, संघमहामंदरगिरिस्स।।१७।। गाथाषट्केन सम्बन्धः / सम्यक्-अविपरीतं दर्शन-तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यगदर्शनं तदेव प्रथमं मोक्षाङ्गतया सारत्वाद्वरवजमिव सम्यग्दर्शनवरवजं तदेव दृढं निष्प्रकम्पं रूढ़चिरप्ररूढं गार्दनिबिडमवगाढं निमग्र पीढं प्रथमभूमिका यस्य स तथा, इह मन्दरगिरिपक्षे वज़मयं पीठ दृढादिविशेषणं सुप्रतीतम्, संघमन्दरगिरिपक्षे तु सम्बग्दर्शन वरवज्रमयं पीठ दृढ शङ्कादिशुषिररहिततया परतीर्थिकवासनाजलेना Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ 81 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघ न्तः प्रवेशाभावतश्चालयितुमशक्यम्, रूढ प्रतिसमयं विशुद्धयमानतया प्रशस्ताध्यवसायेषु चिरकालं वर्तनाम्, गाढं तीव्रतत्त्वविषयरूच्यात्मकत्वाद्, अवगाढ जीवादिषु पदार्थेषु सम्यगवबोधरूपतया प्रवटिं, तं वन्दे। सूत्रेप्राकृतत्वात् द्वितीयार्थे षष्ठी। यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे'द्वितीयार्थे षष्ठी' अथवा-सम्बन्धविवक्षया षष्ठी; यथा माषाणामश्नीयादित्यत्र,यद्वा-इत्थम्भूतस्य संघमन्दरगिरेर्यत् माहात्म्यं तद् वन्दे, इति महात्म्यशब्दाध्याहारापेक्षया षष्ठी, तथा दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, स एव वररत्नमण्डिता चामीकरमेखला यस्य स धर्मवररत्नमण्डितचामीकरमेखलाकः, 'शेषाद्वा' / / 7 / 3 / 175 / / इति कः प्रत्ययः तस्य, इह धर्मो द्विधामूलगुणरूपः, उत्तरगुणरूपश्च / तत्रोत्तरगुणरूपो रत्नानि, मूलगुणरूपस्तु मेखला, न खलु मूलगुणरूपधर्मात्मकचामीकरमेखला विशिष्टोत्तरगुणरूपवररत्नविभूषणविकला शोभते। इहोच्छ्रितशब्दस्य व्यवहितः प्रयोगः। ततश्चायमर्थः-नियमा एव इन्द्रियनोइन्द्रियदमरूपाः कनकशिलातलानि तेषु उच्छ्रितानिउज्ज्वलन्ति ज्वलन्ति चित्तान्येव कूटानि यस्मिन् स तथा तस्य, इह मन्दरगिरी कूटानामुच्छ्रितत्वमुज्ज्वलत्वं भासुरत्वं च सुप्रतीतम्, संघमन्दरगिरिपक्षे तु चित्ररूपाणि कूटान्युच्छ्रितानि अशुभाध्यवसायपरित्यागादुज्ज्वलानि प्रतिसमयं कर्ममलवियमात् ज्वलन्ति उत्तरोत्तरसूत्रार्थस्मरणेन भासुरत्वात्,तथा नन्दन्ति सुरासुरविद्याधरादयो यत्र तन्नन्दनं वनम्-अशोकसहकारादिपादपवृन्दं नन्दनं च तद्वनं च नन्दनवनं, लतावितानगतविविधफल-पुष्पप्रवालसंकुलतया मनोहरतीति मनोहर, 'लिहादिभ्यः' इत्यच् प्रत्ययः, नन्दनवन च तन्मनोहरं च तस्य सुरभिस्वभावो यो गन्धस्तेन उद्घमायः-आपूर्णः, उखुमायशब्द आपूर्णपर्यायः, यत उक्तमभिमानचिह्नन- "पडिहत्थमुटुमायं अ, हिरे इयं च जाण आउण्णो" तस्य, संघमन्दरगिरिपक्षे तु-नन्दंनसन्तोषः, तथाहि-तत्र स्थिताः साधवो नन्दन्तितत्त्वविविधामर्षांषध्यादिलब्धिसङ कुलतया मनोहरं, तस्य सुरभिः शीलमेव गन्धः तेन व्याप्तस्य, अथवा-मनोहरत्वं सुरभिशीलगन्धविशेषणं द्रष्टव्यम् / जीवदया एव सुन्दराणि स्वपरनिर्वतिहेतुतया कन्दराणि तपस्विनामावासभूतत्वात्, तथा च लोकेऽपि प्रतीतम्- 'अहिंसाव्यवस्थितः तपस्वी' ति, जीवदयासुन्दरकन्दराणि, तेषु ये उत्-प्राबल्येन कर्मशत्रुजयं प्रति दपिता उद्दपिता मुनिवरा एव शाक्यादिमृगपराजयात मृगेन्द्राः तैराकीर्णोव्याप्तस्तस्य, तथा मन्दरगिरेगुहासु निष्यन्द्रवति चन्द्रकान्तादीनि रत्नानि भवन्ति क नकादिधातवो दीप्ताश्चौषधयः, संघमन्दरगिरिपक्षे तु अन्वयव्यतिरेकलक्षणा ये हेतवस्तेषां शतानि हेतुशतानि तान्येव धातवः, कुयुक्तिव्युदासेन तेषां स्वरूपेण भास्वरत्वात,तथा प्रगलन्तिनिष्यन्दमानानि क्षायोपशमिकभावस्यन्दित्वात् श्रुतरत्नानि दीप्ताः जाज्वल्यमाना ओषधयःआमोषध्यादयो गुहासुव्याख्यान-शालारूपासु यस्य स तथा तस्य, संवरः-प्राणातिपातादिरूपपञ्चाश्रवप्रत्याख्यानं तदेव कर्ममलप्रक्षालनात् सांसारिकतृडपनोदकारित्वात् परिणामसुन्दरत्वाच्च वरजलमिव | संवरवरजलं तस्य, प्रगलितः-सातत्येन व्यूढः उज्झरः-प्रवाहःसएव प्रविराजमानो हारो यस्य स तथा, श्रावकजना एव स्तुतिस्तोत्रस्वाध्यायविधानमुखरतया प्रचुरा रवन्तो मयूराः तैर्नृत्यन्तीव कुहराणिजिनमण्डपादिरूपाणि यस्य स तथा तस्य, विनयेन नता विनयनता ये प्रवरमुनिवराः त एव स्फुरन्त्यो विद्युतो विनयनतप्रवरमुनिवरस्फुरद्विद्युतः ताभिवलन्तिभासमानानि, शिखराणि,यस्य स तथा तस्य इह शिखरस्थानीयाः प्रावचनिका विशिष्टा आचार्यादयो द्रष्टव्याः, विनयनतानां च प्रवरमुनिवराणां विद्युता रूपणं विनयादिरूपेण तपसा तेषा भासुरत्वात् तथा विविधा गुणा येषां ते विविधगुणाः विशेषणान्यथानुपपत्त्या साधवो गृह्यन्ते, त एव विशिष्टकुलोत्पन्नत्वात् परमानन्द्ररूपसुखहेतु-धर्मफलदानाच्च कल्पवृक्षा इव विविधगुणकल्पवृक्षकाः, प्राकृतत्वात् स्वार्थे कप्रत्ययः, तेषां च यः फलभरो यानि च कुसुमानि तैराकुलानि वनानि यस्य स तथा तस्य, इह फलभरस्थानीयो मूलोत्तरगुणरूपो धर्मः,कुसुमानि नानाप्रकारा ऋद्धयः, वनानि तु गच्छाः / तथा ज्ञानमेव परमनिर्वृतिहेतुत्वात्वरं रत्नं ज्ञानवररत्नं तदेव दीप्यमाना कान्ता विमला वैडूर्यमयी चूडा यस्य स तथा, तत्र मन्दरपक्षे वैडूर्यमयी चूडा कान्ता विमला च सुप्रतीता, संघमन्दरपक्षे तु कान्ता भव्यजनमनोहारित्वाद्विमला यथावस्थितजीवादिपदार्थस्वरूपोपलम्भात्मकत्वात्, तस्य, इत्थभूतस्य संघमहामन्दरगिरेर्यन्माहात्म्यं तद्विनयप्रणतो वन्दे / तदेव संघस्यानेकधा स्तवोऽभिहितः। नं० / “दुप्पसहो सूरी फुग्गुसिरीअज्जा नाइलो सावओ सव्वसिरी साविया एस अपच्छिमो संघो पुथ्वण्हे भारहे वासे अस्थमेहिइ।" ती० 20 कल्प। ही०। (संघव्यवहारः ‘ववहार' शब्दे षष्ठ भागे 16 पृष्ठेद्रष्टव्यः।) श्रीवज्रस्वामिना पटविद्यया संघः सुभिक्षदेशे नीतः, तत्र संघः किं चतुर्विधः, साधुसाध्वीमात्रसमुदायो वा? पटविद्या च किं स्वरूपेति ? प्रश्नोऽत्रोत्तरम्-परिशिष्ट पर्वाद्युक्तवजस्वामिसम्बन्धानुसारेण चतुर्विधसंघोऽवसीयते, न तु साधुसाध्वीरूप एव। तथा यया चक्रवर्तिचर्मरत्नवद्विवक्षितविस्तारः पटो भवति साफ्टविद्येति // 351 / / सेन०३ उल्ला० / अथ वार्षिककृत्यानि यथा-संघर्चनादीनि बहुविधानि, यतः श्राद्धविधावेकादशद्वारैः प्रतिपादितानि। गाथोत्तरार्द्ध“पइवरिसं संघच्चण 1 साहम्मिअभत्ति 2 जत्ततिगं 3 // 1 / / जिणगिहण्हवणं 4 जिणधण-वुड्डी 5 महपूअ६धम्मजागरिआ 7 / सुअपूआ 8 उज्जवणंह, तह तित्थपहावण सोही 10 // 2 // " तत्रसंघपूजायां निजविभवाद्यनुसारेण भृशादरबहुमानाभ्यां साधुसाध्वीयोग्यमाधाकर्मादिदोषरहित वस्त्रकम्बलपादप्रोच्छनसूत्रोर्णापात्रदण्डकदण्डिकासूचीकण्टककर्षणकागदकुम्पकलेखनीपुस्तकादिक श्रीगुरुभ्योदत्ते, यद्दिनकृत्यसूत्रम्- "वत्थं पत्तं च पुत्थंच, कंबलं पायपुंछणं दंड संथारयं सिज, अन्नं किंचिसुज्झई / / 1 / / " एवं प्रातिहारिकपीठफलकपट्टिकाद्यपि संयमोपकारि सर्व साधुभ्यः श्रद्धया देयम्। सूच्यादीनामुपकरणत्वं तु श्रीकल्पे उकम्-यथा“असणाईवत्थाई, सूयाईचउक्गा तिन्नि" अशनादीनिवस्त्रादीनि सूच्यादीनि चेति त्रीणि चतुष्कानि, सङ्कलनया द्वादश / यथा-अशनं 1 पानं 2 खा Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ 82 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघयण दिमं 3 स्वदिभं 4, वस्त्रं 1 पात्रं 2 कम्बलं 3 पादप्रोच्छनम् 4, सूची 1 | संघधम्म पुं० (संधधर्म) संघधर्मो गोष्ठीसमाचारः, आर्हतानां वा पिप्पलको 2 नखच्छेदनकं 3 कर्णशोधनकं 4 चेति। एवं श्रावक श्रावि- गुणसमुदायरूपश्वतुर्वर्णो वा संघस्तद्धर्मस्तत्समाचारः / धर्मभेदे, स्था० कारूपसंघमपि यथाशक्ति सभक्तिपरिधापनकादिना सत्करोति, 10 ठा०३ उ०। यथोचितं च देवगुर्वादिगुणगायकान याचकादीनपि / संघार्चा हि | संघपउम न० (संघपद्म) लोकमध्यवर्तित्वेऽपि लोकधर्मासंश्लेषतः उत्कृष्टादिभेदात् त्रिधा-तत्रोत्कृष्टा सर्वपरिधापनेन, जघन्येन जघन्या- पद्मरूपता गते संघे, नं०। सूत्रमात्रादिना, एकद्यादेर्वा, शेषा मध्यमा। तत्राधिकव्ययनेऽशक्तोऽपि संघपालिय पु० (संघपालित) स्थविरस्य आर्यवृद्धस्य गौतमगोत्रे प्रतिवर्ष गुरुभ्यो मुखवस्त्रादिमात्रं द्वित्रादिश्राद्धेभ्यः पूगादीनि दत्त्वा स्वनामख्याते शिष्ये, कल्प०२ अधि०८ क्षण / “थेरं च संघवालियसंधार्चाकृत्यं भक्त्या सत्यापयति,निःस्वस्य तावताऽपि महाफलत्वात्, गोयमगुत्तं पणिवयामि" / कल्प० २अधि०८ क्षण। शक्त्या च क्रियमाणेयं महागुणकारी। यतः पञ्चाशके- “सत्तीइसंघपूजा, संधपाहुणग पु० (संघप्राघूर्णक) कुलगणसंघस्थविरेषु, कुल्गणसंघथेरा वि-सेसपूजा च वहुगुणा एसा। जं एस सुए भणिओ, तित्थयराणंतरी संघो संघपाहुणा भण्णति। नि०चू० 4 उ० / // 1 // " इति संघार्चाविधिः 1 / ध० 2 अधि०। संघमज्झयार पुं० (संघमध्यकार) कारशब्दोऽत्र रूपमात्रे इति। संघाभ्यसंघट्ट पुं० (संघट्ट) जनार्द्धप्रमाणे उदके, ओघ० / ग० / यस्मिन् काले न्तरे, व्य०३ उ०। उत्तरतां पादतलादारभ्य जया अर्द्ध वुडति स संघट्टः / बृ०४ उ० संघयण न० (संहनन) अस्थिसंचये, वज्रऋषभाद्युपमाने उपमेये शक्तिस्था०। स्पर्श, रा०11०। विशेषे, स्था०६ ठा०३ उ०। छव्विहे संघयणे पण्णत्ते,तं जहा-वतिरोसभणारायसंघयणे संघटुंती स्त्री० (संघट्टयन्ती) षट्कायान् शेषशरीरावयवेनेव स्पृशन्त्याम्, उसभणारायसंधयणे नारायसंघयणे अद्धानारायसंघयणे खीपि०। लियासंघयणे छेवट्ठसंघयणे / / (सू०४६४) संघट्टण न० (संघट्टन) अविधिना स्पर्शने, आव० 4 अ० / मनाक संहननम्-अस्थिसंचयः,वक्ष्यमाणोपमानोपमेयः शक्तिविशेष इत्यन्ये स्पर्शन,ग० 2 अधि० / अन्योऽन्यं गात्रैः संहतीकरणे, भ०५ श०६ उ०। तत्र वज्र-कीलिका ऋषभः-परिवेष्टनपट्टः नाराचः-उभयतो मक्कटबन्धः, जीवानां संघट्टने प्रायश्चित्तम् / महा०१ चू०। यत्र द्वयोरस्थ्नोरूभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनास्थ्ना संघट्टसुमिणसा स्त्री० (संघट्टसुमिनसा) वल्लीभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। परिवेष्टितयोरूपरि तदस्थित्रित-यभेदिकीलिकाकारं वज्रनामकमस्थि संघट्टिय त्रि० (संघट्टित) मनाक स्पृष्टे, आव० 4 अ० / ध० / संघर्षित, भवति तद्वज्रऋषभनाराचं प्रथमम्, यत्र तु कीलिका नास्ति तद् ऋषभभ०१६ श०३ उ० / आचा०। नाराचं द्वितीयम्, यत्र तूभयोमर्कटबन्धः एव तन्नाराचं तृतीयम्, यत्र संघड त्रि० (संघट) निरन्तरे, आचा० 1 श्रु० 4 अ०४ उ० / त्वेकतो मर्कटबन्धो द्वितीयपावें कीलिका तदर्द्धनाराचं चतुर्थम्, संघडणा स्वी० (संघटना) रचनायाम्, सूत्र. 1 श्रु०१ अ०१ उ०। कीलिकाविद्धास्थिद्वयसञ्चित कीलिकाख्यं पञ्चमम्। अस्थिद्वयपर्यन्तसंघडदसिन् त्रि० (संघटदर्शिन) निरन्तरदर्शिनि, आचा०१ श्रु०४ अ० स्पर्शनलक्षणां सेवामार्त सेवामागतमिति सेवार्तषष्ठम् / शक्तिविशेषयक्षे 4 उ०। त्येवं विधदावदिरिव दृढत्वं संहननमिति। इह गाथे- “वारिस-भनाराय, संघडिय त्रि० (संघटित) सम्यग्घटिते परस्परं स्नेहेन सम्बद्धे, (वयस्यादी) पढम वीयं च रिसभनारायं / नाराय अद्धनाराय कीलिया तह य छेवटु उत्त०१४ अ०। / / 1 / / रिसहो य होइ पट्टो, वज्जं पुण खीलियं वियाणाहि / उभओ संघडियव्व त्रि० (संघटितव्य) अप्राप्तेषु वस्तुषु कार्ययोगे, स्था०८ठा० / मक्कडबंध, नारायं तं वियाणाहि / / 2 / / " स्था०६ ठा० 3 उ०। 3 उ०। सम्प्रति संहनननाम षड्विधमभिधित्सुर्गाथायुगलमाहसंघतिलगसूरि पुं० (संघतिलकसूरि) रूद्रपालीयगच्छे गुणशेख- संघयणमट्ठिनिचओ, तं छद्धा वज्जरिसहनारायं / रसूरिशिष्ये, येन विक्रमीय 1442 संवत्सरे सम्यक्त्वसप्तत्युपरि टीका तह रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं // 37 // कृता। जै० इ०। कीलिहछेवढे इह, रिसहो पट्टो य कीलियावजं / संघथेर पुं० (संघस्थविर) संघकार्ये आप्रष्टव्ये स्थविरभेदे, पं० भा० उमओ मक्कडबंधो, नारायं इममुरालंगे // 38|| 5 कल्प। पं० चू०। संहन्यन्ते-दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्रला येन तत् संहननं तच्चास्थिनिचयः संघदासखमासमण पुं० (संघदासक्षमाश्रमण) पञ्चकल्पभाष्यनिर्मातरि कीलिकादिरूपाणामस्थ्नां निचयो रचनाविशेषोऽस्थिनिचयः / स्वनामख्याते आचार्य, पं० भा०५ कल्प। नं०। वसुदेवहिण्डीग्रन्थस्य तत्संहननं षड्धा षट्प्रकारैर्भवति / तद्यथा- वजऋषभनाराचं, तथा प्रथमखण्डोऽनेन रचितः। जै० इ०। ऋषभनाराचमिहानुस्वारोऽलाक्षणिकः, नाराचम्, अर्धनाराचं, कीलिका Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघपण 53 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघाड सेवार्तम् / इह प्रवचने ऋषभ ऋषभशब्देन परिवेष्टनपट्ट दृश्यते, वजं | संघयणजुय त्रि० (संहननयुत) विशिष्टशरीरसामर्थ्यरूपेणसंहनन वज़शब्देन कीलिकाऽभिधीयते, नाराचं चराचशब्देनोभयतो मर्कटबन्धो युते, स च व्याख्यानादिषु न श्राम्यतीति तत्त्वम्, पञ्चमः सूरिगुणः। प्रव० भण्यते। इदमस्थिनिचयात्मकं संहननमौदारिकाङ्गे औदारिकशरीर एव, ६५द्वा / ग०। नान्येषु शरीरेषु, तेषामस्थिरहितत्वादिति गाथायुगलाक्षरार्थः भावार्थः संघयणणाम न० (संहनननामन्) संहन्यन्ते धातूनामनेकार्थत्वात्-दृढीपुनरयम्- इह द्वयोरस्थ्नोरूभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना क्रियन्ते शरीरपुरलाः कपाटादयो लोहपट्टिकादिनेव येन तत्संहननं, तदेव तृतीयेनास्थ्ना परिवेष्टितयोरूपरि तदस्थित्रयभेदिकीलिकाख्यं वजना नाम संहनननाम / नानकर्मभेदे, कर्म० 1 कर्म० / पं० सं०। प्रश्न० / श्रा० / मकस्थि यत्र भवति तद्वजऋषभनाराचम्, तन्निबन्धन नाम वज्रऋषभ- | संघरह पु० (संघरथ) मार्गगामितया रथरूपकेणोपमिते साधुसाध्वीनाराचनाम। यत्पु-नः कीलिकारहितं संहननं तत् ऋषभनाराचं, तन्नि श्रावक श्राविकारूपे समुदाये, नं०। बन्धनं नाम ऋषभनाराचनाम। यत्र पुनर्मर्कटबन्धः केवलो भवति न पुनः संघरिस पुं० (संघर्ष) निर्मथने, प्रज्ञा०१ पद। कीलिका भवति ऋषभसंज्ञः पट्टश्च तन्नाराचं, तन्निबन्धनं नाम नारा संघरिसममण न० (संघर्षगमन) श्रावकयोः कः शीघ्रगतिरितिस्पर्धया चनाम। यत्र त्वेकपार्श्वन मर्कटबन्धो द्वितीय-पार्श्वेन च कीलिका भवति गमने, जीतः। तदर्धनाराचंतन्निबन्धनं नामार्धनाराचनाम। यत्र पुनरस्थीनि कीलिका संघरिससमुट्ठिय त्रि० (संघर्षसमुत्थित) अरण्यादिकाष्ठनिर्मथनसमुद्भूते मात्रबद्धान्येव भवन्ति तत्कीलिकासंहननं तन्निबन्धनं नाम कीलिकानाम। (अग्नौ,) प्रज्ञा० 1 पद। यत्र तुपरस्परंपर्यन्तस्पर्शलक्षणां सेवामागतान्यस्थीनि भवन्ति सेहाभ्य संघवद्धण न० (संघवर्द्धन) स्वनामख्याते नगरे, आ०चू० 4 अ०। वहारतैलाभ्यङ्ग विश्रामणादिरूपां च परिशीलनां नित्यमपेक्षते तत्सेवार्त, संघववहार पुं० (संघव्यवहार) संघेन छेत्तव्ये व्यवहारे, व्य० 3 उ०। तन्निबन्धनं नाम सेवार्तनाम। यद्वा 'छेवटुं' ति दकारस्य लुप्तस्येह ('ववहार' शब्दे षष्ठभागे 168 पृष्ठे उक्त एषः।) दर्शनाच्छेदानामस्थिपर्यन्तानां वृत्तं परस्परं सम्बन्धघटनालक्षणं वर्तन संघवेयावच न० (संघवैयावृत्य) संघकार्यकरणे, औ०। वृत्तिर्यत्र तच्छेदवृत्त, कीलिकापट्टमर्कटबन्धरहितमस्थिपर्यन्तमात्रसंस्प संघसमुह पुं० (संघसमुद्र) अक्षोभ्यतया समुद्ररूपकेण रूपिते, संघे, नं०। शिषष्टमित्यर्थः / ततो यदुदयात् शरीरे वज्रऋषभनाराचसंहननं भवति संघसम्मय त्रि० (संघसम्मत) साधुसाध्वीश्रावक श्राविकारूपस्य तद्वजऋषभनाराचसंहनननामकर्मेति / एवमृषभनाराचादिष्वपि वाच्य चतुर्विधस्य संघस्याभिमते, ध० 3 अधि०। मिति // 37 // 38 // कर्म०१ कर्म० / उत्त० / विशे० / प्रव० / आचा०। प्रज्ञा० / जं० / जी०। 50 सं०। पं०भा०। पं० चू० / स०। (के कुत्रोपपद्य संघसूर पुं० (संघसूर्य) प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण रूपिते, नं०। किं संहनना भवन्तीत्युक्तम् 'उववाय' शब्दे द्वितीयभागे) संघाइम त्रि० (संघातिम) संघातेन निवृत्त संघातिमम् परस्परतः पुष्पअसुरकुमारा णं भंते ! किंसंघयणा पण्णत्ता, गोयमा ! छह मालादिसंघातेनोपजायमाने, स्था० 4 ठा० 4 उ० / संघातिमंयत् पुष्पं संघयणाणं असंघयणी,णेवट्ठी व छिराणेव पहारू जे पोग्गाला पुष्पेण परस्परं नालप्रदेशेन संयोज्यते / जी० 3 प्रति० 4 अधि० / इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा मणाभिरामा ते तेसिं असंघ संघातिम तु यत्परस्परतो नालसंघातनेन संघात्यते। भ०६ श०३३ यणत्ताए परिणमंति। एवं० जाव थणियकुमाराणं / पुढवीकाइया उ०। ज्ञा० / कञ्चुकवत् बहुवस्त्रादिखण्डसंघातनिष्पन्ने (अनु०।दश। गंभंते ! किं संघयणी पण्णत्ता, गोयमा ! छेवट्ठसंघयणी पण्णत्ता, नि० चू०।) चोलकादौ, आचा०२ श्रु०२ चू०४ अ०। एव० जाव संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिय त्ति, गब्भव संघाइय त्रि० (संघातित) मिथो गात्रैः पिण्डीकृते, ध०२ अधि० / कतिया छव्विह-संघयणी, सम्मुच्छिममणुस्सा छेवट्ठसंघयणी, अन्योऽन्यं गात्रैरेकत्र लगिते, आव०४ अ०। आ०चू०। गब्भवक्कंतियमणुस्सा छव्विहे संघयणे पण्णत्ते, तं जहा-असुर- संधाएंत त्रि० (संघातयत्) अन्योऽन्यं गात्रैः संहतान् कुर्वन्ति, भ०५ 10 कुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया य (सू० 155+) स० ६उ०। 155 सम०। संघाड पुं० (संघाट) पुष्पाकीणे, जी० ३प्रति० 4 अधि० ज०। प्रकारे, नामकर्मभदे, प्रज्ञा० 23 पद / (पृथ्वीकायिका 'पुढवीकाइयाऽऽ' संघाड ति वा तय त्ति वा रागाए त्ति वा एगट्ठ ति। बृ० 1 उ०३ प्रक० / दिशब्देषु ते कति सहननवन्त इति उक्तम्।) युग्मे, संघाटशब्दो युग्मवाची। यथा साधुसंघाट इति। जं० 1 वक्षः / संघयणछक्क न (संहननषट्क) वज्रऋषभ 1 नाराचऋषभ 2 नाराच | संघात पुं० संहनने, आ०म०१ अ० / समूह, अनु० / विशे० / आव० / 3 अर्द्धनाराच 4 कीलिका 5 सेवार्तसंहननाख्ये संहननषट्के, कर्म० | तीर्थादिषु सम्मिलितजनसंघातवत् संधातः / अनु० / संमिश्रे, आ०म० 2 कर्म। 10 / ज्ञाताध्ययने, स०१८ सम०। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघाडकरण 84 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघाडी संघाडकरण न० (संघातकरण) औदारिकवैक्रियाहारकरूपाणां शरीराणां संघाते, आ०म० 1 अ० / आ०चू०। संघाडग नअ (संघाटक) युग्मे, रा०। जी०। जलजबीजफलविशेष, ज्ञा० / 1 श्रु०१ अ०॥ संघाडगणाय न० (संघाटकज्ञात) संघाटकं श्रेष्ठिचौरयोरेकबन्धनबन्धत्वम् / इदं चाभीष्टार्थज्ञापकत्वात् ज्ञातमिति / ज्ञाताधर्मकथाया द्वितीयाध्ययने, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / ('संघाडग' शब्दस्य वक्तव्यता 'धण' शब्दे चतुर्थभागे 2645 पृष्ठे द्रष्टव्या।) संघाडपरिसाट पुं० (संघातपरिशाट) संघातसंमिश्रे परिशाटे, आ०म० 1 अ०। संघाडी स्त्री० (संघाटी) उत्तरीयविशेषे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / विशे०। साधूपकरणविशेषे, बृ०। (संघाटी कतिविधा इति 'उवहि' शब्दे द्वितीयभागे 1063 पृष्ठे गतम्।) संघाटीं दीर्घसूत्रां करोतिजे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अप्पणो संघाडीए दीहसुत्तायं करेइ करतं वा साइजइ॥१३॥ जे ते संघाडिबंधणसुत्ता ते दीहा ण कायव्वा / अध दीहे करेति तो मासलहुं, आणादिणो य दोसा। गाहाजे भिक्खूदीहाई, कुजा संघाडिसुत्तगाइंतु। सो आणाणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे // 33 / / अच्छण्णे सम्मद्दा,पडिलेहाचेवऽणेगरूवाणं। सुत्तत्थतदुभएसुय, पलिमंथोहोति दीहेसु॥३४|| अच्छण्णं णाम-कट्टण तत्थ सम्मदा णाम पडिलेहणदोसो अणे- | गरूवधुणणदोसो य भवति। मूढेसु ओमोहंतस्स वालंतस्स य सुत्तत्थपलिमंथो। जम्हा एते दोसा तम्हा इमं पमाण। गाहाचतुरंगुलप्पमाणा, तम्हा संघडिसुत्तगं कुज्जा। जहण्णेण तिण्णि बंधा, उक्कोसेणं तु छन्भणिता॥३५॥ चउरंगुलप्पमाणा कायव्वा छच्चधा दोसु वि दिसासु तेसिं मूले इभेरिसो / पडिबंधो। गाहासउणगपातसरिच्छा, उपासगा तिण्णि अंतमज्झेगो। तज्जातेण गहेजा, मोत्तूण य होति पडिलेहा॥३६|| सउणगो-पक्खी तस्स जारिसो पडिपातो भवति तारिसो कायव्यो, तज्जाएण उणियं उण्णिएण खोमियं खोमिएण जया पडिलहेति तदा ते बंधे मोत्तूण। गाहावितियपदम्मि य वुड्डी, एगयगेलण्ण विसमवोच्छेए। एतेहि कारणेहिं,दीहे विहु सुत्तए कुन्जा // 37 // तुड्डीते दीहे बंधिउंन सक्केइ। पूर्ववत // नि०० 5 उछ / सूत्रम्जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं देइ देइंतं वा साइज्जइ॥३०॥जे भिक्खूपासत्थस्स संघाडियं पडिच्छइपडिच्छंतंवा साइजइ॥३१॥ जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं देइ देइंतं वा साइजइ॥३२॥ जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडियं पडिच्छइ पडिच्छन्तं वा साइज्जइ ॥३३॥जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडियं देइ देइंतवासाइजइ॥३४|| जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडियं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ // 35 // जे भिक्खू णितियस्स संघाडियं देएइ देएतं वा साइजइ // 36|| जे भिक्खू णितियस्स संघाडियं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइज्जइ॥३७॥जे भिक्खूसंसत्तस्स संघाडियं देएइदेएतं वा साइजइ ||38|| जे भिक्खू संसत्तस्स संघाडिगं पडिच्छइ पडिच्छंतं वा साइजइ॥३६॥ दस सुत्ता, णाणदंसणचरित्ताण पासहितो पासत्थो ओसण्णो दोसो। ओसण्णो उ यो वा संजमे तण्णिसण्णो, कुच्छियसीलो कुसीलो। बहुदोसो संसत्तो दव्वाईए असुयत्तो णितिओ। एतेसिं संघाडयं देति पडिच्छति वा तस्सलहुं। गाहापासत्थोसण्णाणं, कुसीलसंसत्तणितियवासीणं। जे भिक्खू संघाडं, दिज्जा अहवा पडिच्छेजा // 261 / / से आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविहं। पावति जम्हा तेणं, णो दिजाणो पडिच्छेजा।।२६२।। तेणं ति-संघाडएण इमा चारित्तविराहणा। गाहाअविसुद्धस्स तु गहणे, आवजण अगहिते य अधिकरणं। अप्पचओ गिहीणं, किंण हु दिट्ठो जतीणं पि॥२६३।। साहू तेण संघाडएण समं हिडतो जेण दोसणासुद्धं गेण्हति तमावति। आह साहूण गेण्हति तो पासत्थस्स अचियत्तं कलह वा करेति, साहुणा अपडिसिद्धे पासत्थेण गहिते जति साहू तुसिणीओ अच्छति एत्थ अणुमतिदोसो भवति / अप्पच्चओ गिहीणं भवति / इमं च भणेना किं तत्थ कारणं दुविधो धम्मो कहितो एवं भणिए। गाहाजति अच्छतितुसिणीओ, भणतित एवं पिदेसिओ धम्मो। आसातणा सुमहती, सो चिय कलहो तु पडिघाते॥२६४।। पासत्थेण अत्थिए जइ साधूतुसिणीओ अच्छति अणुमति वा करेति तो सुमहती आसायणा, दीहं च संसारं णिव्वत्तेति। अहवा-साधू भणति ण वट्टतिपासत्थवयण च पडिघाएति; ताहे पासत्थो चिंतेतिम ओभामिति सो चेव कलहो। पासत्थाईया इमेण दोसे परिहरंति। गाहापासत्थोसण्णीणं, कुसीलसंसत्तणितियवासीणं। उग्गमउप्पादणए-सणाए संसरगमविराधे।।२६५।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघाडी 85 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संघाडी अहाछंदो जहा से अप्पणो छंदो अभिप्पाओ तहाषणवेति, उग्गमदोसा सोलस, उप्पादणादोसा सोलस, दस एसणादोसा, संविग्गा पुण इमेण विधिणा परिहरंति। गाहाउग्गमउप्पायणए-सणाए तिण्हं पि तिकरणविसुद्धं / पासत्थोसण्णाणं, कुसीलणितिए वि एमेव / / 266|| मणउग्गम आहाराऽऽदीय तिया तिण्णि तिकरणविसुद्धा। एक्कासीती भंगा, सीलंगगमेण तव्वा / / 267 / / 'तिण्णि' ति आहार उवहिसेज्जा, तिषिण करणा तिकरणा तेहिं सुद्ध तिकरणसुद्ध। एयस्स पुव्वद्धस्स इमा वक्खाणगाहा।।२६६।। माणाऽ5तितिय उग्गम दितियं-आहारादितियं। एते तिण्णि तिया। तिकरणदोसा उग्गदौसा सोलस, उप्पायणादोसा सोलस, दस एसणादोसा संविग्गेण पुण इमेण एक्कासीती भंगा कायव्वा! गाहा आहारादीय तिया, तिण्णि तिकरणविसुद्धा। एक्कासीती भंगा, सीलंगगमेण तव्वा // 268|| आहारोवहिसेजा एयरन हेट्ठा उग्गामादितियं मणादितियं एयस्स वि हट्ठा करणतिय इमा वच्चारणा। गाहाआहार उग्गमेणं, अविसुद्धं ण गिण्हें गिण्हावे। गेण्हतं अणुजाणइ, एवं वायाऐं कारणं // 266 / / एमेव णव विकप्पा, उप्पातणएसणाएँ णव चेव। एते तिण्णि उणव ए-सणे विमाहारे भंगा तु / / 270 / / एमेवोवधिसेजा, एकेकं सत्तवीस मंगातु। एते तिण्णि वि मिलिता, एकासीती भवे भंगा।।२७१।। आहार उग्गमेण असुद्ध मणेण गेण्हतिण गेण्हावेति गेण्हतं णाणुमायति रते मणेण तिपिण, वायाए तिपिण, काएण वि तिणि एते णव उग्गमेण / तहा उप्पादणाए विणव, एसणाए विणव। एते सत्तावीसं आहारे। उवकरणे सेज्जार वि सनावीस / सव्वे एक्का-सीती। जहा एते वायालीसं अवराहे एक्कासीतीए परिहरति एवं पारसत्थे अहाछंदे कुसीले संसते णितिए, अविसद्धाओ-ओसणणे एतेसिं संघाडगं तिकरणविसोहीए ण देजा, ण पडिच्छेज्जा एक्कासी-तीए य भंग विगप्पेहि परिहरेजा। गाहाएताई साहेंतो, चरणं साहेति संसओ णऽस्थि। एतेहि असुद्धेहिं, चारित्तेदं वियाणाहि / / 272 / / पडिसेवे पडिसेहो, संविग्गे दाणमातितिक्खुत्तो। अविसुद्धे चउगुरुगा, दूरे साधारणं काउं / / 273 / / पासत्थादिकुसीले, पडिसिद्धे जो तु तेहि संसग्गी। पडिसिज्झति एसो खलु, पडिसेवे होति पडिसेहो // 274 / / दाणाई संसग्गी, सइ कतपडिसिद्धे लहुय आउट्टे। सब्भावे ति आउट्टे,ऽसुद्धे गुरुगोतु तेण परं / / 275 / / एते आहरातीए एक्कासीतिए भंगेहि साधयंतो चारित्तं सा हेति / एवं अत्थेण पडिसिद्धे पासत्थातियाण संघाडगस्सवत्थातियाणदाणं करेति / एस संसगी सइ एक्कसिं संसग्गि करेति, पडिसिद्धो पचोइओ आउझे मासलहु से पचिछत्तं / सड्भावे त्ति आउद्देति / एवं वितियवाराए वि मासलहु / ततियवाराए आउट्टस्समासलहु, तेण परं चउत्थवाराए णियमा असुद्धेति मायायी आउट्टस्स मासगुरूं। "मायी तिक्खुत्तो" त्ति अस्य व्याख्या / गाहातिक्खुत्तों तिणि मासा, आउट्टते गुरु उतेण परं। अविसुद्धं तं वीसुं, कारेंति जो भुंजते गुरुगा।।२७६।। तिण्णि वारा तिक्खुत्तो तिण्णि वारा आउदृतस्स तिणि मासलहुँ। तिण्हं वाराणं परेण तेण परं चउत्थवाराए णियमा माई, आउट्टते मायाणिप्फण्णं मासगुरुं / 'अविसुद्धे' चउगुरुगा अस्य व्याख्या-अविसुद्ध गाहद्धंसो पासत्थसंसगकारी जति आलोयणं ण पडिच्छितो अविसुद्धो तं अणाउदृतं वीसुं करेति, वीसुं-भोगमित्यर्थः। जो तं अण्णो साधू सं जति तस्स चउगुरुगं। चोदग आह-कम्हा पढमवितियततियवारासु मासलहु चउत्थवाराएमासगुरूं। आयरिओ आह / गाहासति दो वि सिय अमायी,ततियासेवी तुणियमओ मायी। सुद्धस्स होति चरणं,मायासहिते चरणभेदो॥२७७।। सइ पढमवारातो वितियवारा सिता मातीति सिता सेविउं जाव, जति अमाती तो मासलहुं। अह माती तो मासगुरुं, तेण परं णियमा माती तेण मासगुरुं / पच्छद्ध कंट। "दूरे साधारण काउं" ति अस्य व्याख्या। गाहासमणुण्णेसु विदेसं, गतेसु अण्णगता तहिं पच्छा। ते वसहिं गंतुमणा, पुच्छति तेहिं मणुण्णातुं // 278 / / कयाइ संभोतिया साहू विदेसंगता, अण्णे य संति ये अण्णाओ विदेसाओ तं चैव गच्छमागता / जे ते विदेसं गता तेहिं आगंतुएहिं ण दिट्ठा / ते वि आगंतुगा तं चेव देसं गंतुकामा पुच्छति / अत्थि केयि तेहिं अस्माकं संभोइया; एवं पुच्छति। गाहाअत्थि त्ति होति लहुओ, कयाइ ओसण्णभुंजणे दोसा। णत्थि ति लहुओ तंडण, ण खेत्तकहणं व पाहुण्णं / / 276 / / आयरिता जइ भणति अत्थितो मासलहु. कताति ओसण्णीभूता होज्जा ताहे गुरुवयणाओ संभुञ्जमाणा ओसण्णभुत्तदोसे पावेज / अह वि गुरु भणति-पत्थि, तह विमासलहुँ, यतः गुरुवयणाओ तेहिं सद्धिं संभोगण करेति, ताण अपत्तियं असंखडदोसाण य मासकप्पजोगे खेत्ते कहेंति णेव पाहुण्ण करेंति। जम्हा एते दोसातम्हा आयरिएण इमं भाणियव्यं / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघाडी 56 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संचय गाहा संघायपरिसाडकरण न० (संघातपरिशाटकरण) शकटाद्यवयवसआसि तदा समणुण्णा, भुंजध दव्वादिपेहि पेहित्ता। घातने, अवयवपरिशाटने च। सूत्र० 1 श्रु०१अ० 1 उ० / एवं भंडणदोसा, ण होति अमणुण्णदोसाय॥२८॥ संघायविमोयग पु० (संघातविमोचक) रागद्वेषात्मकाद् गुणसंघाताद् दव्वखेत्तकालभायेहि पडिलेहेत्ता भुजेजह एवं साधारणे सव्वदोसा विमोचके, व्य० 3 उ०। रागद्वेषविमुक्तः-आहारादिक ददत्सुरागाकारी परिहरिया भवति / कारणा देज वा पडिच्छेज वा। तद्विपरीतेषु द्वेषाकारीत्यर्थः / अत एव भवति समः सर्वजीवाना, स गाहा इत्थम्भूतो न प्रमाणीकर्तुं शक्यते श्रुतोपदेशेन व्यवहरणात्। व्य० 3 उ०। असिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलण्णे। संघायसमास पु० (संघातसमास) द्व्यादिगत्याद्यवयवमार्गणायाम, कर्मः अद्घाणरोधएवा, देजा अधवा पडिच्छेज्जा // 281|| 1 कर्म०। असिवे कारणे एगागी, एगागिअस्स बहु दोसगुणं जाणित्ता पास- संघायारभास न० (संघाचारभाष्य) चैत्यमुनिवन्दनविषयविधित्थसंघाडक, पासत्थरस वा संघाडकं-पासत्थस्स वा संघाडगो भवति। प्रतिपादके शान्त्याचार्यकृते भाष्यग्रन्थे, संघा०। तस्योपरि वृत्तिः अपुच्छतो रायपउठूरायवल्लभेण समाण णघेप्पति। भए वितिओ सहाओ श्रीदेवेन्द्रसूरिकृताऽस्ति, तदुपक्रमोपसंहारयोरयं पाठः। भवति / गेलण्णे पडियरणं अद्धाणे सहाओ रोधणिग्गमणट्ठा / एतेहि "देवेन्द्रवृन्दस्तुतपादपाः, स्वर्भूर्भुवः श्रीवरकेलिसद्म। कारणेहिं सव्वत्थ पाणगादिजयणाए जाहे मासलहुं पत्तो ताहे देजति वा सन्देहसन्दोहरजःसमीरः, स वः शिवायास्तु जिनेन्द्रवीरः॥१॥ पडिच्छेजति वा / नि०चू० 5 उ०।। चैत्यभुनिवन्दनप्रभृति-भाष्यविवृते यथाश्रुतं किञ्चित्। संघाडिम त्रि० (संघातिम) संघातनिष्पाद्ये०, ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ०। संघस्याचारविध, वक्ष्ये स्वपरोपकाराय / / 2 / " यत्परस्परतो नालसंघातेन संघात्यते। रा०नि०यू०। संघा० 1 अधि० 1 प्रस्ता०। संघाडिय त्रि० (संघाटित) सम्यग् घाटिताः परस्परस्नेहेन सम्बद्धाः। "इति श्रीसंघस्य प्रतिदिनमवश्यं कृतनिधी, वयस्यादिषु, उत्त० 14 अ० / संघा० / स्वधर्मानुष्ठाने प्रकटमधिकारः प्रथमकः। संघाटिक त्रि० सहचारिणि,जं० 2 वक्षः। सदार्हचैत्यानां विहितविधिवद्वन्दनवरः, संघादुद्देस पुं० (संघाघुद्देश) संघोपाश्रयालम्बने, पञ्चा० 17 विव०) श्रुतादास्नीयाच्च प्रकृतिविवृतिः पारगमनम् / / 136 // " संघात पुं० (संघात) संघात्यन्ते पिण्डीक्रियन्ते पुद्रला येन तत्संघातम्। | इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां श्रीसंघाचारभाष्यटीकायां चैत्यशरीरत्वपरिणतानां पुद्रलानामन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापने, प्रव० वन्दनाधिकारः प्रथमः समाप्तः / संघा० 1 अधि०३ प्रस्ता०। 216 द्वार / नि० चू० / आचा० / वर्षभनाराचलक्षणे संहनने, स्था० | संघायारविहि पुं० (संघाचारविधि) संघस्याचारविधिः चैत्यमुनिवन्दन८ टा०३ उ०। औ०। उच्छ्रये, आव०५ अ०। अनु०। उत्करे, आव०१ | प्रभृतौ संघाचारप्रकारे संघा० 1 अधि०३ प्रस्ता० / अ०। समूहे. तं०। संघाता द्विधा-पर्यवाणामक्षराणां च। तत्र पर्यवसंघाता संघार पुं० (संहार) “हो घोऽनुस्वारात्" / / 8 / 1 / 264|| इति हस्य अनन्ताः, अक्षरसघाताः संख्येयाः, (आचाराङ्गादिशब्देषु 'अक्खर' शब्दे घः / संघारो। संहारो। प्रा० / बहुजनक्षये, तं०। च प्रतिपादिताः) बृ० 1 उ०१ प्रक० / एकीभावेनाधिके गात्रसंकोचने, . संघिल्ल त्रि० (संघातवत्) परस्परं मिलिते, “राया पुरोहितो वा. संचिल्लातो आचा०१ श्रु० 1 अ०५ उ० / 'गइइंदियकाए' इत्यादिगाथाप्रति- नगरम्मि दो वि जणा" व्य० 1 उ० / आ०चू०। पादितद्वारकलापस्यैकदेशो यो गत्यादिकस्तस्याप्येकदेशो यो नरक- | संचइय त्रि० (सशयित) सञ्चयः सञ्जातमेषामिति सचयिताः, गत्यादिकस्तत्र जीवादिमार्गणा या क्रियते, स संघातः। श्रुतभेदे, कर्म० तारकादिदर्शनादितच् प्रत्ययः / येषां मासानां परतः सप्तमासाटिक 1 कर्म। यावदुत्कर्षतोऽशीतितमं मासानां प्रायश्चित्तं प्राप्तास्तेषु, व्य० 10 // संघायकरण न० (संघातकरण) आतानवितानीभूततन्तुसंघाते-न साञ्चायिक त्रि० घृततैलगुडाख्येषु बहुकालरक्षितुमशक्येषु द्रव्ये, कल्प० पटस्येव करणे, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / विशे० / पं० सं०। 3 अधि० 6 क्षण। संघायणा स्त्री० (संघातना) धर्माधर्मास्तिकायनभःप्रदेशानां परस्पर संचयं पुं० (सञ्चय) संग्रहे, “तण कट्ठ तेल्ल घय महु, वत्थाई तं च संचओ संहत्यावस्थाने, विशे०। पक्खविगलो त्ति पडितो तस्सं-घायणानिमित्त बहुहा" तृणकाष्ठतैलघृतमधुवस्वादीनामादिशब्दाद् बुसपल्लालादीनां उवगरणद्या कोक्कासो नगरगतो। आ०म० 1 अ०। संग्रहरूपः सञ्चयो बहुधा द्रष्टव्यः / बृ०१ उ०१ प्रक०। स्था० ! संघायणाम न० (संघातनामन्) संघात्यन्ते प्रत्येकं शरीरपञ्चकप्रायोग्यः सूक्ष्मसिक्थाद्यवयवपरिवासे, बृ०१ उ०२ प्रक०। (तृतीयभागे 672 पुद्रलाः पिण्ड्यन्ते येन तत्संघात; तदेव नाम संघातनामा कर्म० 1 कर्म। पृष्ठ 'गोयरचरिया' शब्दे कालातिक्रान्तभोजनप्रस्तावे सञ्चयो निषिद्धः।) नामकर्मभेदे, श्रा०॥ ('पडिसेवणा' शब्देऽपि सञ्चयो निषिद्धः। सञ्चये मम्मणवणिगदाहरणम् / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचय 57 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजम दश०३ अ० सञ्चीयत इति सञ्चयः / गौणपरिग्रहे,प्रश्न०५ संव० द्वार। भावस्रोतांसि संवृतत्वात् कर्माश्रवद्वाराणि येन स तथा। द्रव्यस्रोतोभ्यो संचयग्ग न० (सञ्चयाग्र) सञ्चितस्य द्रव्यस्योपरि भागे, आचा० 1 श्रु०६ विषयेन्द्रियप्रवृत्तिभ्यो भावस्त्रोतोभ्यः शब्दा दिषु शुभाशुभेषु रागद्वेषोत्पत्त्या अ० 2 उ० / उपरि स्थापिते तृणादिपूलि ते,नि०यू०१ उ०। 'विमुक्ते, सूत्र० 1 श्रु०१६ अ०। संचयमास पुं० (संञ्चयमास) प्रायश्चित्तापत्तितो यावन्तो मासाः शिष्ये- संछोभ पुं० (संक्षोभ) संक्रामणे, बृ० 1 उ०२ प्रक० / प्रक्षेपे, व्य०६ उ०। णासेवितास्तेषु मासेषु, निचू० 20 उ०। संछोभग पुं० (संक्षोभक) प्रक्षेपके, बृ०२ उ०। संचरंत त्रि० (सञ्चरत्) भ्रमति, प्रश्र० 3 आश्र० द्वार / संछोमण न० (संक्षोभण ) परावर्ते, बृ०१ उ० 3 प्रक० / संचरण न० (सञ्चरण) भ्रमणे, सूत्र० 1 श्रु० 12 अ० / संछोभपरंपरय न० (सक्षोभपरम्परक) परम्परया स्थानान्तरसंक्रमणे, संचारइ त्रि- (शक्न) समर्थे, भ० 3 श० 2 उ०। बृ० 3 उ। संचाय धाः (शक मर्षणे, शक्धातोः सञ्चायादेशः / संचाएइ। शक्रोति। / संजय पुं० (संजय) मृषावादाद्युपरतिमति मोक्षसाधके, प्रश्न०१ संव० द्वारा। स्था०१० ठा०३ उ०। आचा० / ज्ञा०। संजई स्त्री० (संयती) साध्व्याम्, बृ० 1 उ०३ प्रक० / संचार पुं० (सञ्चार) द्वारापद्वारेजनप्रवेशनिर्गमे, ज्ञा० 1 श्रु० २अ० संजय पुं० (संयम) संयमन संयमः, भावे अत्र प्रत्ययः। “संजमदसणलेसा" कुड्यादौ संचरणे, त्रि० / सञ्चरके, बृ०६ उ०। संयमन- सम्यगुपरमण सावद्ययोगादिति संयमः, यता-संयम्यते नियमत संचारसम पुं० (सञ्चारसम) वंशतन्त्र्यादिभिहीते, स्वरे, स्था०७ ठा० आत्मा पापव्यापारसम्भारादनेनेति संयमः"संनिव्युपावद्यमः" (5-3 25) इति सूत्रणालप्रत्ययः। यदि वा-शोभना यमाः प्राणातिपादानृत३ उ०। भाषणादत्तादानब्रह्मपरिग्रहविरमणलक्षणा अस्मिन्निति संयमश्चारित्रम् / संचाल पुंc (सञ्चार) गात्रविचलनप्रकारे, ल०। कर्म० 4 कर्म०। “आदेर्यो जः" / / 8 / 1 / 24 / / अत्र बहुलाधिकारासंचालण न० (संचालन) विघट्टने, नि०चू०७ उ०। पर्यालोचने, ज्ञा०१ / त्सोपसर्गस्याऽनादेरपि यकारस्य जकारादेशः / प्रा० / सम्यक् पापेभ्य श्रु०१ अ०। उपरमणम् / चारित्रे, उत्त० 28 अ० / संथा० / सम्-एकीभावेन यमः संचालिज्जमाण त्रि० (सञ्चाल्यमान) स्थानात् स्थानान्तरनयनेन संयमः। उपरमे, ध०३ अधि० / संयमनं संयमः / हिंसादिनिवृत्तौ, स्था० चाल्यमाने, ज्ञा० 1 श्रु० अ०। 5 ठा० 1 उ०। आव० / स० / सर्वसावद्यारम्भनिवृत्तौ, आचा०१ श्रु०२ संचिंतण न० (सञ्चिन्तन) सम्यक्प्रकारेण चिन्तनायाम्, उत्त० 32 अ०। अ०५ उ० / मनोवाक्कायविशुद्ध्या सर्ववधोपरमे, दर्श०५ तत्त्व। पृथिव्यासंचिजमाण त्रि० (सञ्चीयमान) प्रतिक्षणमुपचीयमाने, आचा०२ श्रु०१ दिरक्षणे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / प्रश्नः / पञ्चाश्रवविरमणादौ, उत्त०१ चू०१ अ०३ उ०॥ अ० / संथा० / प्रव० / प्राणतिपाताद्यकरणे, “पञ्चाश्रवाद् विरमणं, संचिट्ठण न० (सस्थान) कालस्थितौ, भ० 12 श०६ उ० / अव पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः / दण्डत्रयविरतिश्चे-ति संयमः सप्तदशस्थितिकाले, भ८ 8 श०२ उ०। (स च सर्वेषां जीवानामिति 'काय भेदः / " स्था०३ टा०३ उ० / प्राणिदयायाम्०, कल्प०१ अधि०६ ट्टिा' शब्दे तृतीयभागे उक्तः।) क्षण / ज्ञा० / सर्वविरत्यङ्गीकारे, आतु० ! सम्यगनुष्ठाने, आ०म० 1 संचिणित्ता अव्य० (सञ्चित्य) उपचित्येत्यर्थे, सूत्र० 2 श्रु० 2 अ०१ उ०। अ० / चारित्रसामायिके, विशे० / भ० / सामायिकादिरूपे चारित्रे, संचिण्णत त्रि० (सश्चिन्वत्) बध्नति, प्रश्र० 3 आश्र० द्वार। आ०म० 1 अ०। ग०। पृथिव्यादिविषयेभ्यः संघट्टपरितापनोपद्रवणेभ्य संचिय त्रि० (सञ्चित) राशीकृते, स्था० 3 ठा० 1 उ०। आव०। उपरमे, स्था०७ ठा०३ उ० / दया संयमो लज्जा जुगुप्सा अच्छलना संछण्ण त्रि० (सञ्छन्न) जलेनान्तरिते, जं०४ वक्ष०ा रा०। 'संछण्णप तितिक्षाऽहिंसा हीश्चत्येकार्थिकानि संयमस्या उत्त० 3 अ०। (एषां पदानां तम्मि समुणाले' संछन्नानि जलेनान्तरितानि विसमृणालानि यासु ताः। व्याख्या स्वस्वस्था-ने।) (सरागवीतरागसंयमौ सभेदौ चरित्तधम्म' शब्दे इह विसमृणालशब्दात्पत्राणि पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि। विसानिकन्दाः तृतीयभागे 1146 पृष्ठ व्याख्यातौ।) (पञ्चविधसंयमस्य व्याख्या असमामृणालानिपद्मनालाः / जी०३ प्रति० 4 अधि० / रा० / व्याप्ते, ज्ञा० 1 रंभमाण' शब्दे प्रथमभागे 841 पृष्ठ गता।) (अष्टविधसंयमस्य दशविधश्रुः 2 अ० / उत्त०। संयमस्य च व्याख्या असमारंभमाण' शब्दे प्रथमभागे 542 पृष्ठेगता।) संछण्णदव्व त्रि० (संछन्नद्रव्य) परिच्छेदविशेषकलिते, व्य०३उ०। चउव्विहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-मणसंजमे वतिसंजमे कायसंछिण्णासोय त्रि (सछिन्नस्रोतस्) सम्यक् छिन्नानि अपनीतानि | संजमे उवगरणसंजमे / (सू०३१३+) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजम 55 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजम मनोवाक्कायनामकुशलत्वेन निरोधाः कुशलत्वेन तूदीर्णानि संयमाः। | उपकरणसंयमो महामूल्यवस्वादिपरिहारः पुस्तकवस्वतृणचर्मपञ्चक- 1 परिहारोवा। तत्र-चर्मपञ्चकमिदम् - "अयएलगाविभहिसी-मिगाण अजिणं तु पंचमं होइ। तलिया खल्लगबद्धे, कोसगकत्ती य बीयं तु // 5 // " इति। स्था०४ ठा०२ उ०॥ पंचविहे संजमे पण्णत्ते,तं जहा-सामाइयसंजमे छेदोवट्ठावणियसंजमे परिहारविसुद्धियसंजमे सुहमसंपरायसंजमे अहक्खायचरित्तसंजमे / (सू०४२८) संयमनं संयमः पापोपरम इत्यर्थः। तत्र-समोरागादिरहितः तस्य आयो गमन प्रवृत्तिरित्यर्थः,समायः समाय एव, समाये भवं, समायेन निवृत्तं, समायस्य विकारोऽशो वा समायो वा, प्रयोजनमस्येति सामायिकम्, उक्तं च- "रागद्दोसविरहिओ, समोत्ति अयणं अउ ति गमणं ति। समगमणं ति समाओ, स एव सामाइयं नाम ||1|| अहवा भवं समाए, निव्वत्तं तेण तम्मयं वावि / जं तप्पओ-यणं वा, तेण व सामाइयं नेयं / / 2 / / " इति, अथवा समानि-ज्ञानादीनि तेषु तैर्वा अयनमयः समायः स एव सामायिकमिति, अवादि च- “अहवा समाइ सम्मत्तनाणचरणाइ तेसु तेहिं वा। अयणं अओ समाओ, स एव सामाइयं नाम / / 1 / " इति, अथवा समस्यरागादिरहितस्याऽऽयोगुणानां लाभः समानां वा-ज्ञानादीनामायः समायः स एव सामायिकम्, अभाणि च- "अहवा समस्स आओ, गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो। अहवा समाणमाओ, णेओ सामाइयं नाम // 1 // " इति,अथवा साम्निमैत्र्यां साम्रा वा अयस्तस्य वा आयः सामायः स एव सामायिकम्, अभ्यधायि च- "अहवा साममेत्ती, तत्थ अओ तेण व ति सामाओ। अहवा सामस्साओ, लाभो, सामाइयं नाम // 1 // " इति सावद्ययोगविरतिरूपं सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिकमेव, छेदादिविशेषैस्तु विशिष्यमाणमर्थतः शब्दतश्च नानात्यं भजते, तत्र प्रथम विशेषणाभावात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकामिति। तच द्विधाइत्वरकालिकं, यावजीविकं च। तत्रत्वरकालिकं सर्वेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य, यावज्जीविकंतु मध्यमविदेहतीर्थकरतीर्थेषु भवति इति, तेषूपस्थापनाऽभावादिति, सामायिकं च तत्संयमश्चेत्येवं सर्वत्र वाक्यं कार्यमिति। (स्था०) (छेदोपस्थापनिकव्याख्या 'छेओवट्ठावणिया' शब्दे तृतीयभागे 1356 पृष्ठे गता / ) (परिहारविशुद्धिकव्याख्या 'परिहारविसुद्धिया' शब्दे पञ्चमभागे 661 पृष्ठ गता।) (सूक्ष्मसंपरायव्याख्या 'सुहुमसंपराया' शब्दे वक्ष्यते / ) अथशब्दो यथार्थः, यथैवाकषायतयेत्यर्थः, आख्यातम्-अभिहितम्, अथाख्यातं तदेव संयमः अथाख्यातसंयमः। (स्था०) इह सप्तदशप्रकारसंयमस्याद्या नव भेदाः संगृहीताः, एकेन्द्रियसंयमग्रहणेन पृथिव्यादिसंयमपञ्चकस्य गृहीतत्वादिति। स्था०५ ठा०२ उ०। (षनिधसंयमव्याख्या 'असमारंभमाण' शब्दे प्रथमभागे 841 पृष्ठे गता।) सप्तविधःसंयमःसत्तविधे संयमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकायितसंजमे०जाव तसकायितसंजमे अजीवकायसंजमे। (सू०-५७१+) 'सत्तविहे' इत्यादि, सुगमं नवरं संयमः-पृथिव्यादिविषयेभ्यः संघहपरितापोऽपदावणेभ्यः उपरमः, 'अजीवकायसंजमे' त्ति अजीयकायानांपुस्तकादीनां ग्रहणपरिभोगोपरमः / स्था० 7 ठा० 3 उ० / सर्वसंवरणे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / दर्श01 मौनीन्द्रोक्ते सप्त-दसरूपेऽनुष्ठाने, स्था०३ ठा०२ उ०।। दशविधःसंयम:दसविधे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयसंजमे,०जाव वणस्सइकाइयसंजमे, वेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे चउरिंदियसंजमे पंचेंदियसंजमे अजीवकायसंजमे / (सू०७०६+) स्था०१० ठा०३ उ०। सप्तदशविधसंयमप्रतिपादनायाऽऽहपुढवि दग अगणि मारूय, वणस्सइ वि ति चउ पणिंदि अज्जीवो। पेहुप्पेहपमज्जण परिट्ठावण मणो वई काए ||1|| "पुढवाइयाण जावय, पंचेंदिय संजभो भवे तेसिं। संघट्टणाइन करे, तिविहेणं करणजोएणं !!1! अज्जीवेहि विजेहिं, गहिएहि असंजमो हवइ जइणो। जह पोत्थदूसपणए, तणपणए चम्मपणए य॥२॥ गंडी कच्छवि मुट्ठी, संपुडफलए तहा छिवाडी य। एयं पोत्थयपणयं, पण्णत्तं वीयराएहिं / / 3 / / बाहल्लपुहुत्तेहिं, गंडीपोत्थो उतुल्लगो दीहो। कच्छवि अंते तुणओ, मज्झे पिहुलो मुणेयध्वो // 4 // चउरंगुलदीहो वा, वट्टागिइ मुट्ठिपोत्थओ अहवा। चउरंगुलदीहो चिय, चउरस्सो वावि विण्णओ / / 5 / / संपुडओ दुगमाई, फलगावोच्छं छिवाडिमेत्ताहे। तणुपत्तू सियरूवो, होइ छिवाडी बुहा वेंति // 6 // दीहो वा हस्सो वा, जो पिलो होइ अप्पबाहल्ले। तं मुणियसमयसारा, छिवाडिपोत्थं भणंतीह / / 7 / / दुविह चव दूसपणयं, समासओ तं पि होइ नायव्वं / अप्पडिलेहियपणयं, दुप्पडिलेहं च विण्णेयं / / 8 / / अप्पडिलेहियदूसे, तूली उवहाणगं च नायव्व। गंडुवहाणा लिंगणि, मसूरए चेव पोत्तमए / / 6 / / पल्हवि कोयवि पावा-रणवए तहा य दाढिगालीओ। दुप्पडिलेहियदूसे, एवं बीयं भवे पणयं / / 10 / / पल्हवि हत्थत्थरणं,कोयवओ रूपपूरिओ पडओ। दढिगालि धोयपोत्ती, सेसपसिद्धा भवे भेया।।११।। तणपणयं पुण भणियं, जिणेहि जियरायदोसमोहेहिं। साली बीही कोदव-रालग रण्णे तणाई च // 12 // अलएलगाविमहिसी-मिगाणमइणं च पंचमं होइ। तलिगा खल्लगवज्झे, कोसगकत्ती य बीयं तु // 13 // अह वियडहिरनाई, ताइ न गिण्हइ असंजमो साहू। ठाणाइ जत्थ चेते, पेहपमज्जित्तु तत्थ करे // 14 // Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजम 86 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजमकुसल एसा पेडुवपेछा, पुणो य दुविहा उ होइ नायव्वा। वावारावावारे,वावारे जह उ गामस्स / / 15 / / एसो उ विस्सणो हू. अव्वावारे जहा विणरसंतं। किं एयं नु उवेक्खसि, दुविहाए वेत्थ अहिगारो।।१६।। वावारुवेक्ख तहि यं, संभोइयसीयमाण चोएइ। चोयइं इयर पि, पावयणीयम्मि कज्जम्मि // 17 // अभ्यायार उवेक्खा, न वि चोएई गिहिं तु सीयतं। कम्मेसु बहुविहेसु,संजम एसो उवेक्खाए / / 18 / / पाएँ सागारिएसुं, अपमजित्ता वि संजमो होइ। ते चेव पमजते, ऽसागारियसंजमो होइ / / 16 / / पाणेहि संसत्तं, भत्तं पाणमहवा वि अविसुद्ध / उवगरखपत्तमाई, जं वा अइरित्त होजाहि / / 20 / / संपरिठवणविहीए, अवहट्टुं संजमो भवे एरनो। अकुसलमणवइरोहे, कुसलाण उदीरणं जंतु।।२१।। मणवइसंजम एसो, काए पुण जं अवस्सकञ्जम्मि। पमणागमणं भवई, तओवउत्तो कुणइ सम्मं / / 22 / / तम्बलं कुम्मरस व, सुसमाहियपाणिपायकायस्स। हवई य कायसंजमो, चिटुंतस्सेव साहुस्स / / 23 / / आव० 4 अ०। आचा० / सूत्र० / संथा० / न०। ओघ० / आ० चू०। सवरसविहे संजमे पण्णत्ते, तं जहा-पुढवीकायसंजमे आउ- कायसंजमे तेउकायसंजमे वाउकायसंजमे वणस्सइकायसंजमे वेइंदियसंजमे तेइंदियसंजमे चउरिंदियसंजमे पंचिंदियसंजमे अजीवकायसंजमे पेहासंजमे उवेहासंजमे अवह संजमे पमअणासंजमे मणसंजमे वइसंजमे कायसंजमे [सू०१७x ] स० 17 सम०। ('चरितधम्म' शब्दे तृतीयभागे 1118 पृष्ठे अनेकविधसंयमाना व्याख्या / गता।) कजं नाणादीयं, सव्वं पुण होइ संजमो नियमा। जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायव्वयं होइ॥४२।। बृ० 2 उ० ('कुछ इए संजमस्स पलिमथू' इति 'पलिमंथु' शब्दे पञ्चमभागे 725 पृष्ठे व्याख्यातम्।) (संयममाश्रित्य षट्स्थानपतितत्वम् 'आगमववहारि' शब्दे द्वितीयभागे 710 पृष्ठे व्याख्यातम्।) संयमफलम्संजमेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? संजमेण अण्णहयणनणयइ // 26 // हे भगवन् ! संयमेन जीवः किं जनयति? गुरुराह-संयमेनअनं-हस्कन विद्यते अहः पापं यस्मिन् तत् अनंहस्कं तस्य भावोऽनंहस्कत्वं तज्जनयति, संयमेन आश्रवनिरोधं जनयति इत्यर्थः // 26 / / उत्त० 29 अ० / (संयमश्रेणिप्ररूपणम् 'कितिकम्म' शब्दे तृतीयभागे 507 पृष्ठे व्याख्यातन्।) संजमकरण न० (संयमकरण) पञ्चाश्रवविरमणादिगुणकरणे, उत्त० 13 अ०। संजमकुसल पुं० (संयमकुशल) पृथिव्यादिसंयमकुशले, व्य०। उपसंहारमाह(आयाकुसालो एसो) संजमकुसलं अतो उ वोच्छामि। पुढवादिसंजमम्मी, सत्तरसे जो भवे कुसलो // 132 / / अत ऊर्ध्व संयमकुशल वक्ष्यामि / प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिथिव्यादिसंयमे, 'पुढवि दग अगणि मारूय, वणस्सइ वि ति च उ पणिदि अजीवो / पेहुप्पेह पमज्जण, परिट्ठवणमणो वई काए' / / 1 / / इत्येवंरूपे सप्तदशेसप्तदशप्रकारे यो भवति कुशलः स संयमकुशलः। प्रकारान्तरेण संयमकुशलमाहअहवा गहणे निसिरण-एसणसेज्जानिसेज्जउवही य। आहारे विय सतिमं, पसत्थजोगे य जुजंणया / / 133 / / इंदियकसायनिग्गह, पिहियासवजोगझाणमल्लीणो। संजमकुसलगुणनिही, तिविहकरणभावसुविसुद्धो॥१३४।। अथवेति-संयमस्यैव प्रकारान्तरोपदर्शने, ग्रहणे आदाने निसरणे एषणाया-गवेषणादिभेदभिन्नायां शय्या निषद्योपध्याहारविषयायां निषद्यायां सम्यगुपयुक्तः संयमकुशलः। किंमुक्तं भवति-य उपकरणभारमाददानो निक्षिपित्वा प्रतिलेख्य प्रमाय॑ च गृह्णाति निक्षिपति वा / एतेन प्रेक्षासंयमः प्रमार्जनासयमश्वोक्तः। एतद्ग्रहणात्तज्जातीयाः शेषा अप्युपेक्षादिसंयमा गृहीता द्रष्टव्याः। तथा यः शय्यामुपधिमाहारं च उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धं गृह्णाति, संयोजनादिदोषरहितं च भुङ्क्ते, स्थानाद्यपि कुर्वाणाः प्रत्युपेक्ष्य प्रमाय॑ च करोति स सयमकुशलः। अत्र निषद्याग्रहणेन स्थानादिगृहीतम्। तथा य एतेषु सर्वेष्वपि संयमेषु कर्तव्येषु स्मृतिमान् रस संयमकुशलः, 'स्मृतिमूलमनुष्ठानमवितथ' मिति वचनात्, तथा यस्य प्रशस्तयोगस्य शुभमनोवाक्कायरूपस्य योजना-व्यापारणम्। किमुक्तं भवति-अप्रशस्तानां मनोवाकाययोगानामपवर्जनं प्रशस्ताना मनोवाकाययोगानामभियोजनं संयमकुशलः / तथा इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि कषायांश्चक्रोधादीन यो निगृह्णाति, तथा श्रोत्रादीनि न स्वविषये व्यापारयति, श्रोत्रादिविषयप्राप्तेषु शुभाशुभेषु शब्दादिष्वर्थेषु रागद्वेषो न विधत्ते, क्रोधादीनप्युदयितुः प्रवृत्तान् निरूणद्धि, उदयप्राप्तांश्च विफलीकरोति, तथा आश्रवाणिप्राणातिपातादिलक्षणानि पिदधाति, योग च-मनोवाकायलक्षणमप्रशस्त ध्यानं चातरौद्र तत्परिहारेण प्रशस्तं धर्म शुल्कं च तत्र आलीन:-आश्रितोऽनिगूहितबलवीर्यतया तत्र प्रवृत्त इत्यर्थः / एष संयमकुशलः / कथम्भूतः / सन्नित्याह-गुणनिधिः संयमानुगता ये गुणास्तेषां निधिरिव गुणनिधिः तैः परिपूर्ण इति भावः / तथा त्रिविधेन प्रकारेणमनोवाकायलक्षणेन सुविशुद्धो मनसाऽप्यसंयमानभिलाषात् भावेन च परिणामेन विशुद्धः, इहलोकाद्याशंसाविप्रमुक्तत्वात् त्रिकरणभावविशुद्धः। अस्यैव गाथाद्वयस्य व्याख्यानार्थमाहगिण्हइ, पडिलेहेउं, पमजिओ तह य निसिरए याऽवि। उवउतो एसणाए, सेज्जनिसज्जे व ववहारे // 135 / / एएसुं सव्वेसुं, जो ण पम्हुस्सते तु सो सतिमं / झुंजइ पसत्थमेव तु, मणभासा कायजोगं तु / / 136|| Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमकुसल 60 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजमभारवहण० सोइंदियाइयाणं, निग्गहणं चेव तह कसायणं / संजमट्ठाण न० (संयमस्थान) संयमः सामायिकच्छेदोपस्थापपाणातिवाइयाणं, संवरणं आसवाणं च / / 137 / / नीयपरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपः तदेव स्थानम् / झाणे अपसत्थए य, पसत्थझाणे य जोगमल्लीणो। आचा० 1 श्रु० 2 अ० 1 उ० / पं० भा० / ज्ञानदर्शनचारित्रपरिणासंजमकुसलो एसो, सुविसुद्धो तिविहकरणेण / / 138|| मात्मकेऽध्यवसायविशेषे, व्य०१ उ० / अष्टः / नि० चू० / पिं० / गाथाचतुष्टयमपि गतार्थम् / नवरम् - 'उवउत्तो एसणाइ' इत्यादि ! ("संजमट्ठाणं ति वा अज्झवसाणं ति वा परिणामट्ठाणं ति" इति 'ठाण' उपयुक्त एषणायाम् किं विषयायामित्याह-शय्यानिषद्योपध्याहारे, शब्दे चतुर्थभागे 1664 पृष्ठ व्याख्यातम्।) शय्या-उपाश्रयः निषद्यापीठफलकादिरूपा स्थानादिरूपनिषद्या संजमट्ठाणापात न० (संयमस्थानापात) चरणशुद्धिविशेषाप्रतिपाते, व्याख्यानं तु प्रागेवोक्तम्, उपधिः-पात्रनियोगादिराहारोऽशनादिरूपः, पञ्चा०१६ विव। एषां समाहारद्वन्द्वस्तस्मिन् तद्विषयायामित्यर्थः / 'झाणे अपसत्थे' त्यादि संजमण न० (संयमन) सप्तदशप्रकारसंयमकरणे, आचा० 1 श्रु०५ अ० ध्यान द्विधा-अप्रशस्त, प्रशस्तं च। अप्रशस्तम् आर्त्त, रौद्रं च / प्रशस्तम् 3 उ०। रज्जुनिगडादिभिर्बन्धने, आव० 4 अ०। धर्म, शुक्तं च / तत्र प्रशस्ते ध्यानेधर्मशुक्लरूपे चशब्दो भिन्नक्रमः / संजमत्तिय न० (संयमत्रिक) परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययप्रशस्तं योगमालीनः 'सुविसुद्धोतिविहकरणेणं' ति उपलक्षणमेतत् / थाख्यातचारित्रलक्षणे संयमत्रये, कल्प०१ अधि०७ क्षण। भावनापि रा विसुद्धः, शेष सुगमम्। उक्तः संयमकुशलः / व्य० 3 उ०। संजमधुवजोगजुत्तया स्त्री० (संयमध्रुवयोगयुक्तता) संयमचरणं तस्मिन् संजमघाइय त्रि० (राधमघातिक) संयमोपधातिके, प्रव० 267 द्वार। ध्रुवो-नित्यो योगः-समाधिस्तद्युक्तता। सन्ततोपयुक्ततायाम, उत्त० संजमघायण त्रि० (संयमघातक) संयमविनाशके, आव० 4 अ०॥ 1 अ०1 व्य० / चरणे नित्यं समाध्युपयुक्ततायाम्, स्था०८ ठा०३ उ०। संजमचरय त्रि० (संयमचरक) सप्तदशप्रकारसयमानुष्ठायिनि, दश० दशा० / प्रथमायामाचारसंपदि, “संजमधुवजोगजुत्ते याऽवि भवति" १०अ०॥ 'संयमे त्यादि संयमो नाम चरणं तस्य ये ध्रुवा अवश्यकर्त्तव्यत्वात् योगा: संजमज्जवगुण त्रि० (संयमार्जवगुण) संयमार्जवी गुणां यस्य तत् / प्रतिलेखनास्वाध्यायादयः तैयुक्तो भवति / अथवा-संयमः संयमऋजुभावप्रज्ञाशुद्धे, दश०६ अ०। संजमजाया स्त्री० (संयमयात्रा) संयमप्रवृत्ती, प्रश्न० 1 संव० द्वार। सप्तदशप्रकारः पञ्चाश्रवाद्विरमणमित्यादिकः तस्मिन् ध्रुवोनित्यो योगो व्यापारो यस्य स संयमधुवयोगयुक्तः। अथवा-संयम ध्रुवोनित्यो योगा संयमानुपालने. सूत्र०२ श्रु० 1 अ01 संजमजायामायावत्तिय त्रि० (संयमयात्रामात्रावृत्तिक) संयमयात्रा यस्य स संयमधुवयोगयुक्तः / चशब्दात्-ज्ञानादिष्वपि नित्योपयोगः संयमानुपालन सैव मात्रा आलम्बनसमूहांशः संयमयात्रामात्रा तदर्थ वृत्तिः अपिशब्दग्रहणात्परमपि योजयति इत्येका 11 दशा० 4 अ०॥ प्रवृत्तिर्यत्राहारे स संथमयात्रामात्रावृत्तिकः / संयमपालनमात्रप्रवृत्ते संजमपरिपालण न० (संयमपरिपालन) अहिंसाद्याराधने, शा० ७विव०। आहारादी, भ०७ श०१ उ०। संयमयात्रामात्राप्रत्यय त्रि०संयमयात्रामात्राप्रत्ययो यत्र / संयमयात्रार्थ | सजमबहुल त्रि० (संयमबहुल) संयमम्-आश्रवविरमणादिकं बहनिआहारादी, भ० 7 श० 1 उ० / सूत्र० / बहुसंख्यं यथाभवत्येवं लाति गृह्णातीति विशुद्धविशुद्धतरं पुनः पुनः संयम संजमजीविय न० (संयमजीवित) संयमवत्तया जीवने, आचा०। संयम- कुर्वन्तीति संयमबहुलाः, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः। पृथिव्यादि जीवितं तद् दुष्पतिवृहणीय कामानुष्क्तजनान्तर्वर्तिनादुःखेन निष्प्रत्यूहः संरक्षणप्रचुरेषु, प्रश्न०३ संव० द्वार। यदिवा-बहुलः-प्रभूतः संयमो येषा संयमः प्रतिपाल्य इति आवा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०। ते संयमबहुलाः। संयमप्रचुरेषु, प्रश्न०३ संव० द्वार। संयमेन पृथ्व्यादिसंजमजोग पु० (संयमयोग) धरणव्यापारे, पञ्चा० 12 विव० / कुशल- संरक्षणलक्षणेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा 1 संयमो वा बहुलः प्रचुरो यस्य व्यापार, पं० 0 4 द्वार। शा. वृ० / समितिगुप्तिरूपे आचरणे, प्रव० स तथा। प्रचुरतरसंयमे,स्था० 4 ठा०१ उ०। 101 द्वार। दर्शन संजयभट्ठ त्रि० (संयमभ्रष्ट) दूरीकृतचारित्रगुणे, ग० 2 अधिक। संजमजोणि स्त्री० (संयमयोनि) संयमस्य सर्वसंवरस्वभावस्य देशविर- संजमभउव्वेयणकर त्रि० (संयमभयोद्वेजनकर) संयमाद्भयम् भीतिमुद्वेभिमवस्य चोत्पत्तिस्थानं शुभमनोवाक्कायव्यापारे, दर्श०५ तत्व।। जनं चलनं कुर्वन्तीत्येवंशीलं यत् तत्। संयमभयोद्वेजनशीले, भ०६ संजमादु ए (शयमार्थ) संयमःप्रेक्षात्प्रक्षाप्रमार्जनादिलक्षणस्तदर्थम् / श०३३ उ०। मा०३ उ०। संजम भारवहणट्ठया स्त्री० (संयमभारवहमार्थता) संयम एव Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजमभारवहण० 61 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय व्य० भारस्तस्य वहन-पालन स एवार्थः संयमभारवहनार्थस्तद्धावस्तता। निति, स०। संयमपरिपालननिमित्ते विनयभेदे, भ०७ श०१ उ०। संजमोवगरण न० (संयमोपकरण) संयममात्रार्थे साधूपकरणे, आचा० संजमलट्ठ पुं० (संयमलजार्थ) संयमार्थे लज्जार्थः / संयमरूपलज्जार्थे, | 1 श्रु०२ अ०५ उ०। दश०। संजमोवघाइ (न) त्रि० (संयमोपघातिन) सचित्तपृथिव्यादिक भिक्षादात्री जंपिवत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। यत्र स्थिता अध उपरि च फलादि संघट्टयति तादृशे स्थानादौ, ध० तं पि संजमलजट्ठा, धारंति परिहरंति य॥१६॥ ३अधि०। दश०६अ। (अस्या गाथाया व्याख्या 'वयछक्क' शब्द षष्ठभाग | संजय त्रि०(संयत) सम-एकीभावेन यतः संयतः क्रियाया प्रयत्नवान। गता।) आव० 3 अ०। यम उपरमे। संयच्छति स्म सर्वसावायोगेशः सम्यगुपसंजमविग्घकर पुं०(संयमविघ्रकर) संयमविघातकारिणि, सूत्र०१ श्रु० रमते स्मेति संयतः / 0 / आचा०। सम्यगच्छति स्मेति संयतः गत्यर्था३ अ०१ उ०। कर्म तिकः / कर्म०२ कर्म० | पं० सं०ादर्श०। यम उपरमे / सम्-सम्यग् संयमविराहणा स्त्री० (संयमविराधना) मूलोत्तरगुणविराधनायाम, यतः संयतः / साधो, पा०। आचा०। सूत्र० / प्राण्युपमर्दान्निवृत्ते, सूत्र० नि०चू०१६ उ०। 1 श्रु०२ अ०३ उ० / सावधव्यापारेभ्यो निवर्तिते, उत्त० 12 अ०। संजमवुड्डि त्रि० (संयमवृद्धि) संयमैधने, व्य०१3०। व्य० / ध०। सर्वविरते, स्था०४ उ०। स०। सम्यग् यतमाने, आचा०१ संजमसामायारी स्त्री० (संयमसामाचारी) विनयभेदे, प्रव० 65 द्वार। श्रु०१ अ०२ उ०। सम-सामास्त्येन यतः संयतः / सप्तदशप्रकार संयमोपेते, पा० / सम्यगुपयुक्ते, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०६ उ०। तत्र संयमसामाचारीमाह उत्त० / संयमतोऽकरणीयेषु योगेषु सम्यक्प्रयत्न्परे, आ.चू० 5 अ०। संजममारयति सयं, परं च गाहेति संजमं नियमा। सर्वदासर्वकालं यतः संयतः। पापानुष्ठानान्निवृत्ते, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / सीयंते थिरिकरणं, उज्जयचरणंच उवबूहा।।२६४|| स्था०। दश०। औ०। षट् कायरक्षणोपायरक्षणे सम्यग्यते, बृ० 1 उ०२ स्वय संयममाचरति, परं च नियमात संयमं ग्राहयति। तथा संयमविषये प्रक०। आ० म० / इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमवति, आचा० 2 श्रु० 1 चू०१ सीदति स्थिरीकरणम्, उद्यतचरणं तु उपवृहयति। एषा संयमसामाचारी / अ०६ उ० / निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपे संयम प्रतिपन्ने, भ० 25 व्य० 10 उ०। श०७ उ० / दशः / प्रश्नः / संजमाऽणुढायि त्रि० (संयमानुष्ठायिन्) संयमानुष्ठानकर्तरि, आचा० संजया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-पमत्तसंजया, अपमत्तसंजया 105 अ०३उ० य / तत्थ णं जे अपमत्तसंजयाते णो आयरंभा, णो परारंभा जाव संजमायहेउ पुं० (संयमात्महेतु) संयमस्य पृथिव्यादिसंरक्षण - रूपस्यात्मनः स्वशरीरस्य संयमरूपस्य वाऽऽत्मनः हेतुर्निमित्तम्। अणारंभा। तत्थणंजेतेपमत्तसंजया ते सुहंजोगं पडुच्च णो आयारंभा संयमात्महेतुः / संयमात्मनिमित्ते, पञ्चा० 13 विक०। णो परारम्भा णो तदुभयारम्भा, अणारम्भा चेव। असुभजोगं पडुच्च संयमायहेतु पुं० (संयमस्य) संयमलाभस्य हेतुर्निमित्तम् / संयम आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, णो अणारंभा एवं जंबू! प्राप्तिनिमित्ते, पञ्चा० 13 विव० / दुप्पसहो जाव बकुसकुसीले हिं तित्थं पवदिसमइ जहा संजमासंजम पु० (संयमासजम) द्विःस्वभावात् देशसंयमे, स्था० 4 ठा० विवाहपन्नत्तीए। अङ्ग पञ्च संयताः४ उ०। संजमित्ता अव्य० (संयम्य) संयमनं कृत्वेत्यर्थे , सूत्र० 1 श्रु०१० अ०। कति णं भंते ! संजया पण्णता? गोयमा ! पंच संजया पण्णत्ता, संजमुत्तम त्रि० (संयमोत्तम) सर्वविरती, स०। प्रधानसंयमे, स०। तं जहा- सामाइयसंजए छेदोवट्ठोवणियसंजए परिहारविसुद्धिसंजमुत्तर त्रिः (संयमोत्तर) संयमेत देशविरतिलक्षणेन धर्मेण उत्तरः यसंजए सुहमसंपरायसंजए अहक्खायसंजए। सामाइयसंजए णं प्रधानः / परिपूर्णसंयम, उत्त० 5 अ०। भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए संजमेरिया स्त्री० (संयमेऱ्या) सप्तदशविधसंयमानुष्ठाने, असंख्येयेषु य, आवकहिए य।छेओवट्ठावणियसंजएणं पुच्छा, गोयमा ! दुविहे संयमस्थानेषु एकस्मात संयमस्थानादपरसंयमस्थानगमने, आचा०२ पण्णत्ते, तं जहा-सातियारे य निरतियारे य, परिहारविसुद्धियQ०१चू०३ अ०१ उ०। संजए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-णिव्विसमाणए य, संजमोच्छाहनिच्छिय त्रि० (संयमोत्साहनिश्चित) संयमे उत्साहो वीर्य निविट्ठकाइए या सुहुमसंपराए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं निश्चितोऽवश्यंभावी वषां ते संयमोत्साहनिश्चिताः / सर्वविरति प्रति / जहा-संकि लिस्समाणए य, विसुद्धमाणए य / अहक्खा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 62 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय यसंजए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-छउमत्थे य, केवली य / “सामाइयम्मि उ कए, चाउज्जामं अणुत्तरं धम्म / तिविहेण फासयंतो, सामाइयसंजओ स खलु / / 1 / / छेत्तूण उ परिया, पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं / धम्मम्मि पंचजामे, छेदोवट्ठावणो स खलु ाश परिहरइ जो विसुद्धं, तु पंचयामं अणुत्तरं धम्म। तिविहेण फासयंतो, परिहारियसंजओ स खलु // 3 / / लोभाणुवेययंतो, जो खलु उवसामओ वखवओ वा। सो सुहुम-संपराओ, अहखाया ऊणओ किंचि // 4|| उवसंते खीणम्मि व, जो खलु कम्मम्मि मोहणिज्जम्मि / छउमत्थो व जिणो वा, अहखाओ संजओ स खलु // 5 // " (सू०-७०६)। 'कति णं भंते' इत्यादि, 'सामाइयसंजए' ति सामायिक नाम चारित्रविशेषस्तत्प्रधानस्तने वा संयतः सामायिकसंयतः, एवमन्येऽपि। 'इत्तरिए य' त्ति इत्वरस्यभाविव्यपदेशान्तरत्वेनाल्पकालिक स्य सामायिकस्यास्तित्वादित्वरिकः, स चारोपयिष्यमाणमहाव्रतः प्रथमपश्विमतीर्थकरसाधु, 'आवकहिए यत्ति यावत्कथिकस्यभाविव्य-पदेशान्तराभावाद् यावज्जीविकस्य सामायिकस्यास्तित्वाद्याव-त्कथिकः, स च मध्यमजिनमहाविदेहजिनसंबन्धी साधुः, 'साइयारे य' त्ति सातिचारस्य यदारोप्यते तत्सातिचारमेव छेदोपस्थापनीयं, तद्योगात्साधुरपि सातिचार एव / एवं निरतिचारच्छेदोपस्थापनीययोगाग्निरतिचारः, स च शैक्षस्य पार्श्वनाथतीर्थान्महावीरतीर्थसंक्रान्तौ वा, छेदोपस्थापनीयसाधुश्च प्रथमपश्चिमतीर्थयोरेव भवतीति, 'णिधिसमाणए यत्ति परिहारिकतपस्तपस्यन् 'निविट्टकाइए यति निर्विशमानकानुचरक इत्यर्थः, 'संकिलिस्समाणए य' त्ति उपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानः 'विसुद्धमाणए यत्ति उपशमश्रेणी क्षपक श्रेणी वा समारोहन, 'छउमत्थे य केवली य'त्ति व्यक्तम्। अथ सामायिकसयतादीनां स्वरूप गाथाभिराह-'सामाइराम्गिउ' गाहा, सामायिक एव प्रति-पन्ने न तु छे दोपस्थापनीयादौ चतुर्यामम्-चतुर्महाव्रतम् अनुत्तरं धर्मम् - श्रमणधर्ममित्यर्थः, त्रिविधेन-मनःप्रभृतिना 'फासयंतो' त्ति स्पृशनपालयन यो वर्तते इति शेषः सामायिकसंयतः स खलुनिश्चितमित्यर्थः / अनया च गाथया यावत्कथिकसामायिकसयतः उक्तः / इत्वरसामायिकसंयतस्तु स्वयं वाच्यः / / 1 / / 'छेत्तूण' गाहा, कण्ठ्या, नवरं 'छेदोवट्टावणे' त्ति छेदेनपूर्वपर्यायच्छेदन उपस्थापनं व्रतेषु यत्र तच्छेदोपस्थापनं तद्योगाच्छेदोपस्थापनः, अनया च गाथया सातिचार इतरश्व द्वितीयसंयत उक्तः।।सा 'परिहरई' गाहा, परिहरति-निर्विशमानकादिभेदं तप आरोवते यः साधुः, किं कुर्वन् ? इत्याह विशुद्धमेव पञ्चयामम्अनुत्तरं धर्म त्रिविधन स्पृशन, परिहारिकसंयतः स खल्विति, पञ्चयाम मित्यनेन च प्रथमचरमतीर्थयोरेव तत्सत्तामाह / / 3 / / 'लोभाणु' गाहा, लोभाणूनलोभलक्षणकषायसूक्ष्मकिट्टिकाः वेदयन् यो वर्त्तत इति, शेष कण्ट्यम्॥४॥ 'उवसंत' गाहा, अयमर्थः-उपशान्ते मोहनीये कर्मणि क्षीण या यश्यस्थो जिनो वा वर्तते स यथा-ख्यातसंयतः खल्विति // 5 // वेदद्वारेसामाइयसंजए णं भंते ! किं सवेदए होज्जा, अवेदए होज्जा ? गोयमा ! सवेदए वा होजा, अवेदए वा होजा। जइ सवेदए एवं जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं, एवं छेदोवट्ठावणियसंजए वि, परिहारविसुद्धियसंजओ जहा पुलाओ, सुहमसंपरायसंजओ अहक्खायसंजओ य जहा नियंठो।।२सा सामाइयसंजए णं भंते ! किं सरागे होज्जा वीयरागे होजा? गोयमा ! सरागे होजा, नो वीयरागे होज्जा / एवं सुहमसंपरायसंजए, अहक्खायसंजए जहा नियंठे / / 3 / / सामाइयसंजए णं भंते ! किं ठियकप्पे होजा अट्ठियकप्पे होजा? गोयमा! ठियकप्पे वा होजा अट्ठियकप्पे वा होजा / छेदोबट्ठा-वणियसंजए पुच्छा, गोयमा ! ठियकप्पे होज्जा,नो अट्ठियकप्पे होजा, एवं परिहारविसुद्धियसंजए वि, सेसा जहा सामाइयसंजए / सामाइयसंजए णं भंते ! किं जिणकप्पे होज्जा थेरकप्पे वा होज्जा कप्पातीते वा होजा? गोयमा ! जिणकप्पे वा होज्जा जहा कसायकुसीले तहेव निरवसेसं। छेदोवट्ठावणिओ परिहारविसुद्धिओ य जहा बउसो, सेसा जहा नियंठे॥४॥ (सू० --787) | सामाइयसंजए णं भंते! किं पुलाए होज्जा बउसे०जाव सिणाए होज्जा? गोयमा ! पुलाए वा होज्जा बउसे०जाव कसायकुसीले वा होजा, नो नियंठे होज्जा नो सिणाए होजा, एवं छेदोवठ्ठावणिए वि / परिहारविसुद्धियसंजए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! नो पुलाए नो बउसे नो पडिसेवणाकुसीले होज्जा, कसायकुसीले होज्जा नो नियंठे होजा नो सिणाए होजा, एवं सुहुमसंपराए वि। अहक्खायसंजए पुच्छा, गोयमा ! नो पुलाए होज्जा०जाव नो कसासकुसीले होज्जा नियंठे वा होज्जा सिणाए वा होज्जा / / 5 / / सामाइयसंजए णं भंते ! किं पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होज्जा? गोयमा! पडिसेवएवा होज्जा अपडिसेवए वा होज्जा। जइपडिसेवए होज्जा किं मूलगुणपडिसेवए होज्जासेसंजहा पुलागस्स, जहा सामायसंजए एवं छेदोवट्ठावणिए वि / परिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा ? गोयमा! नो पडिसेवए होज्जा अपडिसेवए होज्जा एवं०जाव अक्खायसंजए / / 6 / / सामाइयसंजए णं मंते ! कतिसु नाणेसु होज्जा? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा नाणेसु होज्जा, एवं जहा Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 63 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय कसायकुसीलस्स तहेव चत्तारि नाणाइं भयणाए, एवं ०जाव सुहुम-संपराए, अहक्खायसंजयस्स पंच नाणाइं भयणाए जहा नाणुद्देसए / सामाइयसंजएणं भंते ! केवलियं सुयं अहिज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयसमायाओ जहा कसायकुसीले, एवं छेदोवठ्ठावणिए वि, परिहारविसुद्धियसंजए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं नवमस्स पुवस्स ततियं आयारवत्थु उक्कोसेणं असंपुन्नाई दस पुव्वाई अहिज्जेज्जा, सुहुमसंपरायसंजए जहा सामाइयसंजए। अहक्खायसंजए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अट्ठ पवयणमायाओ उक्कोसेणं चोद्दस पुव्वाइं अहिज्जेज्जा सुयवतिरित्ते वा होज्जा / / 7 / / सामाइयसंजए णं भंते ! किं तित्थे होज्जा अतित्थे होजा? गोयमा ! तित्थे वा होज्जा अतित्थे वा होज्जा, जहा कसायकुसीले छेदोवठ्ठावणिए परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइवसंजए / / 8|| सामाइयसंजए णं भंते ! किं सलिंगे होज्जा अन्नलिंगे होज्जा गिहिलिंगे होज्जा, जहा पुलाए,एवं छेदोवट्ठावणिए वि।परिहारविसुद्धियसंजएणं भंते ! किं पुच्छा, गोयमा ! दव्वलिंग पि भावलिंग पि पड़च सलिंगे होज्जा नो अन्नलिंगे होज्जा नो गिहिलिंगे होज्जा, सेसा जहा सामाइयसंजए।।।। सामाइयसंजए णं भंते ! कतिसु सरीरेसु होज्जा? गोयमा ! तिसु वा चउसु वा पंचसु वा जहा कसायकुसीले, एवं छेदोवट्ठावणिए वि, सेसा जहा पुलाए।।१०।। सामाइयसंजए णं भंते ! किं कम्मभूमीए होज्जा अकम्मभूमीए होज्जा ? गोयमा ! जम्मणं संतिभावं च पडुच्च कम्मभूमीए नो अकम्मभूमीए जहा बउसे, एवं छेदोवट्ठावणिए वि, परिहारविसुद्धिए य जहा पुलाए, सेसा जहा सामाइयसंजए।।११।। (सू०७८८) सामायिकसंयतःसवेदकोऽपि भवेदवेदकोऽपि भवेत, नवमगुणस्थानके हि वेदस्योपशमः क्षयो वा भवति, नवमगुणस्थानक च यावत्सामायिकसंयतोऽपि व्यपदिश्यते / 'जहा कसायकुसीले' ति सामायिकसयतः सवेदस्त्रिवेदोऽपि स्यात्, अवेदस्तु श्रीणोपशान्तवेद इत्यर्थः / 'परिहारविसुद्धयसंजए जहा पुलागो' त्ति पुरुषवेदो वा पुरूषनपुंसकवेदो वा स्यादित्यर्थः, 'सुहुमसपराये' त्यादौ 'जहा नियंठो' त्ति क्षीणोपशान्तवेदत्वेनावेदक इत्यर्थः / एवमन्यान्यप्यतिदेशसूत्राण्यनन्तरोद्देशकानुसारेण स्वयमवगन्तव्यानीति। कल्पद्वार- ‘णो अट्ठियकप्पे त्ति अस्थितकल्पो हि मध्यमजिनमहाविदेहजिनतीर्थषु भवति, तत्र च छेदोपस्थापनीयं नास्तीति। चारित्रद्वारमाश्रित्येदमुक्तम्- 'सामाइय-संजएणं भंते! | किं पुलाए' इत्यादि, पुलाकादिपरिणामस्य चारित्रत्वात् / ज्ञानद्वारे 'अहक्खायसंजयस्य पंच नाणाई भयणाइ जहा णाणुद्देसए' त्ति, इह च ज्ञानोद्देशक:-अष्टमशतद्वितीयोद्देशकस्य ज्ञानवक्तव्यतार्थमवान्तरप्रकरण, भजना पुनः केवलियथाख्यातचारित्रिणः केवलज्ञानं छद्मस्थवीतरागयथाख्यातचारित्रिणो द्वे वा त्रीणि वा चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्तीत्येवंरूपा / श्रुताधिकारे यथा-ख्यातसंयतो यदि निर्ग्रन्थस्तदाऽष्टप्रवचनमात्रादि चतुर्दशपूर्वान्तं श्रुतम, यदि तु स्नातक-स्तदा श्रुतातीतोऽत एवाह-'जहन्नेणं अट्ठपवयणमायाओ' इत्यादि। कालद्वारेसामाइयसंजएणं भंते ! किं ओसप्पिणीकाले होञ्जा, उस्सप्पिणीकाले होजा, नो ओसप्पिणी नो उस्सप्पिणीकाले होज्जा ? गोयमा ! ओसप्पिणीकाले जहा बउसे, एवं छेदोवट्ठावणिए वि, नवरं जम्मणं संतिभावं (च) पडुच चउसु विपलिभागेसु नऽत्थि, साहरणं पडुच्च अन्नयरे पडिभागे होजा, सेसं तं चेव / परिहारविसुद्धिए पुच्छा, गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होज्जा, उस्सप्पिणीकाले वा होज्जा, नो ओसप्पिणीनो उस्सप्पिणीकाले होज्जा, जइ ओसप्पिणीकाले होजा जहा पुलाओ, उस्सप्पिणीकालेऽवि जहा पुलाओ, सुहमसंपराइयो जहा नियंठो, एवं अहक्खाओ वि।१२।। (सू०-७८६) सामाझ्यसंजए णं भंते ! कालगए समाणे किं गतिं गच्छति ? गोयमा ! देवगतिं गच्छति / देवगतिं गच्छमाणे किं भवणवासीसुउववज्जेज्जा, वाणमंतरेसु उववजेजा, जोइसिएसु उववज्जेज्जा, वेमाणिएसु उववजेज्जा ?, गोयमा ! णो भवणवासीसु उववशेजा जहा कसायकुसीले / एवं छेदोवठ्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। सुहुमसंपराए जहा नियंठे। अहक्खाए पुच्छा, गोयमा ! एवं अहक्खायसंजए वि. जाव अजहन्नमणुक्कोसेणं अणुत्तरविमाणेसु उववजेज्जा, अत्थे गतिए सिज्झं ति जाव अंतं करेंति / सामाइयसंजए णं भंते ! देवलोगेसु उववजमाणे किं इंदत्ताए उववजति पुच्छा, गोयमा! अविराहणं पडुच्च एवं जहा कसायकुसीले / एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए।सेसा जहा नियंठे। सामाइयसंजयस्स णं भंते ! देवलोगेसु उववज्जमाणस्स केवतियं कालं ठिती णं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दो पलिओवमाइं, उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई, एवं छेदोवट्ठावणिए वि, परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं दो पलिओवमाई उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाइं, सेसाणं जहा नियंठस्स।१३।। [सू० 760] / सामाझ्यसंजयस्स णं भंते ! केवइया संजमट्ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा! असंखेज्जा संजमट्ठाणा पण्णत्ता,एवंजाव परि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 64 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय हारविसुद्धियस्य / सुहमसंपराइयसंजयस्स पुच्छा ? गोयमा! संजयस्स य एएसि णं उक्कोसगा चरित्तपज्जवा दोण्ह वि तुल्ला असंखेज्जा अंतोमुहुत्तिया संजमट्ठाणा पण्णत्ता। अहक्खायसं- अनंतगुणा, सुहुमसंपरायसंजयस्स जहन्नगा चरित्तपञ्जवा जयस्स पुच्छा, गोयमा! एगे अजहन्नमणुकोसए संजमट्ठाणे, अणंतगुणा, तस्स चेव उक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतगुणा, एएसिणं भंते ! सामाइयछेदोवट्ठावणियपरिहारविसुद्धियसुहु- अहक्खायसंजयस्स अजहन्नमणुक्कोसगा चरित्तपज्जवा अणंतमसंपरायअहवायसंजयाणं संजमट्ठाणाणं कयरे कयरे०जाव गुणा / / 15|| सामाइयसंजएणं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे अहक्खायसंजयस्स एगे होजा? गोयमा! सजोगी, जहा पुलाए, एवं जाव सुहुमसंपरायअजहन्नमणुक्कोसए संजमट्ठाणे सुहुमसंपरायसंजयस्स अंतो- संजए, अहक्खाए जहा सिणाए।।१६।। सामाइयसंजएणं भंते! मुहुत्तिया संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा परिहारविसुद्धियसंजयस्स किं सागारोवउत्ते होजा अणागारोवउत्ते होजा ? गोयमा ! संजमट्ठाणा असंखेज्जगुणा, सासाइयसंजयस्स छेदोवट्ठावणिय- सागारोवउत्ते जहा पुलाए एवंजाव अहक्खाए, नवरं सुहुमसंजयस्स य एएसिणं संजमट्ठाणा दोण्ह वितुल्ला असंखेजगुणा संपराए सागारोवउत्ते होज्जा, नो अणागारोवउत्ते होज्जा // 17 // / / 14 / / (सू०७६१) सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवइया चरित्त- सामाइयसंजए णं भंते ! किं सकसायी होजा अकसायी होजा? पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता चरित्तपज्जवा पण्णत्ता, एवं गोयमा! सकसायी होज्जा; नो अकसायी होजा, जहा कसायजाव अहक्खाय-संजयस्स। सामाझ्यसंजए णं भंते ! सामा- कुसीले। एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए। इयसंजयस्स सट्ठाण-सन्निगासे णं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे तुल्ले सुहुमसंपरागसंजए पुच्छा, गोयमा ! सकसायी होज्जा नो अकअब्भहिए ? गोयमा ! सिय हीणे छट्ठाणवडिए। सामाइयसंजए सायी होज्जा, जइ सकसायी होज्जा से णं भंते ! कतिसु कसायेसु णं भंते ! छेदोवट्ठावणियसंजयस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्त- होजा? गोयमा! एगम्मि संजलणलोभे होज्जा, अहक्खायसंजए पज्जवेहिं पुच्छा, गोयमा! सिय हीणे छट्ठाणवडिए,एवं परिहार- जहा नियंठे॥१८|| सामाइयसंजए णं भंते ! किं सलेस्से होज्जा विसुद्धियस्स वि। सामाइयसंजएणं भंते ! सुहमसंपरागसंज- अलेस्से होजा ? गोयमा! सलेस्से होजा जहा कसायकुसीले। यस्स परट्ठाणसन्निगासे णं चरित्तपज्जवे पुच्छा, गोयमा ! हीणे एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहा पुलाए / सुहुमनो तुल्ले नो अब्भहिए अणंतगुणहीणे, एवं अहक्खायसंजयस्स संपराए जहा नियंठे / अहक्खाए जहा सिणाए / नवरं जई वि। एवं छेदोवट्ठावणिए वि, हेहिलेसु तिसु वि समं छट्ठाणवडिए सलेस्से होज्जा एगाए सुक्कलेस्साए होज्जा।।१६।। (सू०-७९२) उवरिल्लेसु दोसुतहेव हीणे, जहा छेदोवट्ठाणवणिए तहा परिहार- ‘एवं छेओवट्ठावणिए वि' त्ति, अनेन बकुशसमानः कालतश्छेदोविसुद्धिए वि। सुहुमसंपरागसंजए णं भंते ! सामाइयसं-जयस्स पस्थापनीयसंयत उक्तः। तत्र च बकुशस्य उत्सपिण्यवसप्पिणीव्यपरट्ठाणे पुच्छा, गोयमा! नो हीणे नो तुल्ले अब्भहिए अणंतगुण- तिरिक्तकाले जन्मतः सद्भावतश्च सुषमसुषमादिप्रतिभागत्रये निषेधोऽमन्भहिए एवं छे ओवट्ठावणियपरिहारविसुद्धिएसु वि समं सट्ठाणे भिहितः, दुष्षमसुषमाप्रतिभागे च विधिः / छेदोपस्थापनीय-संयतस्य सिय हीणे नो तुल्ले सिय अब्भहिए, जइ हीणे अणंतगुणहीणे तु तत्राऽपि निषेधार्थमाह- 'नवर' मित्यादि। संयमस्थानद्वारे - 'सुहमअह अब्भहिए अणंतगुणमब्भहिए, सुहमसंपर / य संजयस्स संपराये' त्यादौ 'असंखेज्जा अंतोमुहुत्तिया संजमहाण' त्ति अन्तर्मुहूर्ते अहक्खायसंजयस्स परहाणे पुच्छा, गोयमा ! हीणे नो तुल्ले नो भवानि आन्तर्मुहूर्तिकानि, अन्तर्मुहूर्तप्रमाणा हि तदद्धा, तस्याश्च अब्भहिए अणंतगुणहीणे, अहक्खाए हेट्ठिल्लाणं चउण्ह वि नो प्रतिसमयं चरणविशुद्धिविशेषभावदसंख्येयानि तानि भवन्ति, हीणे नो तुल्ले अब्भहिए अणंतगुणमब्भहिए सट्ठाणे नो हीणे तुल्ले यथाख्याते त्वेकमेव, तददायाश्चरणविशुद्धेर्निर्विशेषत्वादिति / संयमनो अब्भहिए एएसिणं भंते ! सामाइयछेदोवट्ठावणियपरिहार- स्थानाल्पबहुत्वचिन्तायां तु किलासद्भावस्थापनया समस्तानि विसुद्धियसुहमसंपरायअहक्खायसंजयाणं जहन्नुकोसगाणं संयमस्थानान्येकविंशतिः, तत्रैकमुपरितनं यथाख्यातस्य, ततोचरित्तपज्जवाणं कयरे कयरे०जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! ऽधस्तनानि चत्वारि सूक्ष्मसंपरायस्य तानि च तस्मादसंख्येयगुणानि सामाइयसंजयस्स छेओवट्ठावणियसंजयस्स य एएसिणं जहन्नगा दृश्यानि, तेभ्योऽधश्चत्वारि परिहत्यान्यान्यष्टौ परिहारिकस्य, चरित्तपज्जवा दोण्ह वितुल्ला सव्वत्थोवा परिहारविसुद्धियसंज- तानि च पूर्वेभ्योऽसंख्येयगुणानि दृश्यानि / ततः परिहतानि यानि यस्स जहन्नगा चरित्तपञवा अणंतगुणा तस्स चेव उक्कोसगा / चत्वार्यष्टौ च पूर्वोक्तानि तेभ्योऽन्यानि चत्वारीत्येवं तानि षोडश चरित्तपञ्जवा अनंतगुणा सामाइयसंजयस्स छेदोक्ट्ठावणिय- | सामायिकच्छंदोपस्थापनीयसंयतयोः, पूर्वेभ्यश्चैतान्यसंख्यातगु Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 65 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय णानीति / सन्निकर्षद्वारे- 'सामाइयसंजमे णं भंते ! सामाइयसंजयस्से' त्यादौ सिय हीणे' ति असंख्यातानितस्य संयमस्थानानि, तत्र च यदैको हीनशुद्धिकेऽन्यस्त्वितरत्र वर्तते तदैको हीनोऽन्यस्त्वभ्यधिकः, यदा समाने संयमस्थाने वर्तते तदा तुल्ये, हीनाधिकत्वे च षट्स्थानपतितत्वं स्यादत एवाऽऽह-'छट्टाणवडिए'त्ति उपयोगद्वारे-सामायिकसंयतादीनां पुलाकवदुपयोगद्यं भवति / सूक्ष्मसम्परायसंयतस्य तु विशेषोपदर्शनगर्थमाह-'नवरं सुहमसंपराइए' इत्यादि, सूक्ष्मसम्परायः साकारोपयुक्तस्तथास्वभावत्वादिति / लेश्याद्वारे-यथाख्यातसंयतः सातकसमान उक्तः / सातकश्च सलेश्यो वा स्यादलेश्यो वा। यदि सलेश्यस्तदा परमशुल्कलेश्यः स्यादित्येवमुक्तः। यथाख्यातसंयतस्य तु निर्गन्थत्वा क्षया निर्विशषेणापि शुल्कलेश्या स्यादतोऽस्य विशेषस्याभिधानार्थमाह 'णवरं जई' इत्यादि। परिणामद्वारेसामाइयसंजएणं भंते ! किं वड्डमाणपरिणामे होज्जा, हीयमाणपरिणामे होज्जा, अवट्ठियपरिणामे वा होजा? गोयमा ! वड्डमाणपरिणामे जहा पुलाए / एवं.जाव परिहारविसुद्धिए / सुहमसंपराए पुच्छा, गोयमा ! वड्डमाणपरिणामे वा होजा हीयमाणपरिणामे वा होजा, नो अवट्ठियपरिणामे होज्जा / अहक्खाए जहा नियंठे। सामाइयसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणाम होज्जा ? गोयमा ! जण्णेणं एवं समयं जहा पुलाए / एवं.जाव परिहारविसुद्धिए वि। सुहुमसंपरागसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / केवतियं कालं हीयमाणपरिणामे एवं चेव / अहक्खायसंजए णं भंते ! केवतियं कालं वड्डमाणपरिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं केवतियं कालं अवट्ठियपरिणामे होज्जा? गोयमा! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी॥२०॥ (सू०-७६३)। 'सुहुमसंपरए' इत्यादौ, 'वड्डमाणपरिणामे वा होज्जा हीयमाणपरिणामे वा होजा नो अवट्ठियपरिणामे होज' ति सूक्ष्मसंपरायसंयतः श्रेणि समारोहन वईमानपरिणामस्ततो भ्रस्यन् हीयमानपरिणामः, अवस्थितपरिणामस्त्वसौ न भवति, गुणस्थानकस्वभावादिति। तथा 'सुहमसंपरायसंजएणं भंते! कवइयं काल' 'जहन्नेणं एक समयं ति सूक्ष्मसंपरायस्य जघन्यतो यामानपरिणाम एकं समयं प्रतिपत्ति-समयानन्तरमेव मरणात, 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्त' ति तद्गुणस्थानकस्यैतावत्प्रमाणत्यात, एवं तम्य हीयमानपरिणामोऽपि भावनीय इति। तथा 'अहक्खायसंजएणं भंते !' इत्यादौ 'जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पि अंतोमुहत्त' ति यो यथासंख्यासंयतः केवलज्ञानमुत्पादयिष्यति यश्च शैलेशीप्रतिपन्नस्तस्य वर्द्धमानपरिणामो जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त तदुत्तरकालं तदव्यबच्छेदात, अवस्थितपरिणामस्तु जघन्येनैक समयम, उपशमाऽद्धायाः प्रथमसमयानन्तरमेव मरणात, 'उकोसेणं देसूणा पुव्वकोडि' त्ति एतच प्राग्वदावनीयमिति। बन्धद्वारेसामाइयसंजएणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ बंधइ? गोयमा ! सत्तविहबंधइ वा अट्ठविहबंधए वा एवं जहा बउसे, एवं ०जाव परिहारविसुद्धिए। सुहुमसंपरागसंजए पुच्छा, गोयमा ! आउयमोहाणिजवजाओ छ कम्मप्पगडीओ बंधति, अहक्खाए संजए जहा सिणाए / 21 / / सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ वेदेति ? गोयमा ! नियमं अट्ठ कम्मप्पगडीओ वेदेति, एवं जाव० सुहमसंपराए / अहक्खाए पुच्छा, गोयमा ! सत्तविहवेयए वा चउव्विहवेयए वा, सत्तविहवेदेमाणे मोहणिज्जवज्जाओ सत्त कम्मप्पगडीओ वेदेति, चत्तारि वेदेमाणे वेयणिज्जाओ य नामगोयाओ चत्तारि कम्मप्पगडीओ वेदेति / / 22 / / सामाइयसंजए णं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ उदीरेति ? गोयमा ! सत्तविह जहा बउसो,एवं०जाव परिहारविसुद्धिए। सुहमसंपराए पुच्छा, गोयमा ! छव्विह उदीरए वा पंचविह उदीरए वा, छ उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जवज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ उदीरेइ, पंच उदीरमाणे आउयवे यणिज्जमोहणिज्ज-वजाओ पंच कम्मप्पगडीओ उदीरेइ / अहक्खायसंजए पुच्छा, गोयमा ! पंचविह उदीरए वा दुविह उदीरए वा अणुदीरए वा, पंच उदीरेमाणे आउ-यवेयणिज्जवज्जाओ सेसं जहा नियंठस्स / / 23 / / (सू० 764) // सामाइयसंजए णं भंते ! सामाइयसंजयत्तं जहमाणे किं जहति किं उवसंपन्जति? गोयमा ! सामाइयसंजयत्तं जहति छेदोवट्ठावणियसंजयं वा सुहुमसंपरागसंजयं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उपसंपज्जति।छेओवट्ठावणिए पुच्छा, गोयमा! छे ओवट्ठावणियसंजयत्तं जहति सामाइयसंजत्तं जहति परिहारविसुद्धियत्तं जहति सुहुमसंजमं वा उवसंपज्जति असंजमं वा उवसं-पञ्जति संजमासंजमं वा उवसंपञ्जति। परिहारविसुद्धिए पुच्छा, गोयमा ! परिहारविसुद्धियसंजयत्तं जहति, छेदोवट्ठावणिय-संजयं वा; असंजमं वा उवसंपज्जति / सुहुमसंपराए पुच्छा, गोयमा! सुहुमसंपरायसंजयत्तं जहति सामाइयसंजयं वा छेदोवट्ठावणियसंजयं वा अहक्खायसंजयं वा असंजमं वा उवसंपज्जइ। अहक्खायसंजए णं पुच्छा, गोयमा! अहक्खायसंजयत्तं जहति सुहमसंपरायसंजयं वा असंजयं वा सिद्धिगतिं वा उवसंपज्जति / / 24 / / (सू० 765) सामाइयसंजए णं Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय भंते ! किं सन्नोवउत्ते होज्जा नो सन्नोवउत्ते होजा? गोयमा! सन्नो वउत्ते जहा बउसो, एवं०जाव परिहारविसुद्धिए, सुहमसंपराए अहक्खाए य जहा पुलाए / / 25 / / सामाझ्यसंजए णं भंते ! किं आहारए होजा, अणाहारए होजा? जहा पुलाए, एवं०जाव सुहुमसंपराए, अहक्खायसंजए जहा सिणाए।।२६|| सामाइयसंजए णं भंते ! कति भवग्गहणाई होजा ? गोयमा! जहण्णेणं एवं समयं उक्कोसेणं अट्ठ, एवं छेदोवट्ठावणिएऽवि। परिहारविसुद्धिए पुच्छा, गोयमा ! जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं तिन्नि, एवं०जाव अहक्खाए॥२७॥ [ सू०-७६६] 'सुहमसंपराए' इत्यादौ 'आउयमोहणिज्जवज्जाओ छ कम्मप्पगडीओ बंधई' त्ति सूक्ष्मसम्परायसंयतो ह्यायुर्न बध्नाति अप्रमत्तान्तत्वात्तद्वन्धस्य, मोहनीयं च बादरकषायोदयाभावान्न बध्नातीति तदर्जाः षट् कर्मप्रकृतीबंधनातीति। वेदद्वारे-'अहक्खाये' त्यादौ 'सत्तविहवेयए वा चउविहवेयए व' त्ति यथा-ख्यातसंयतो निर्ग्रन्थावस्थायां 'मोहवज्ज' त्ति मोहवर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां वेदको, मोहनीयस्योपशान्तत्वात क्षीणत्वाद्वा, स्नातकावस्थायांतु चतसृणामेव,घातिकर्मप्रकृतीनां तस्य क्षोणत्वात्। उपसम्पद्धानद्वारे- 'सामाइयसंजएण' मित्यादि, सामायिकसंयतः सामायिकसंयतत्वं त्यजति, छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं प्रतिपद्यते, चतुर्यामधत्पिञ्चयामधर्मसंक्रमे पार्श्वनाथशिष्यवत्. शिष्यको वा महाव्रतारोपणे, सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते श्रेणिप्रतिपत्तितः असयमादिर्वा भवेद्भावप्रतिपातादिति / तथा छेदोपस्थापनीयसंयतश्छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं त्यजन् सामायिकसंयतत्वं प्रतिपद्यते, यथाऽऽदिदेवतीर्थसाधुः अजितस्वामितीर्थ प्रतिपद्यमानः, परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते, छेदोपस्थापनीयवत एव परिहारविशुद्धिसंयमस्य योग्यत्वादिति। तथा परिहारविशुद्धिकसंयतः परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं त्यजन् छेदोपस्थापनीयसंयतत्व प्रतिपद्यते पुनर्गच्छाद्याश्रयणात्, असंयमंवा प्रतिपद्यते देवत्वोत्पत्ताविति। तथा सूक्ष्मसम्परायसंयतः सूक्ष्मसंपरायसंयतत्वं श्रेणीप्रतिपातेन त्यजन् सामायिकसंयतत्वं प्रतिपद्यते, यदि पूर्व सामायिकसंयतो भवेत् छेदोपस्थापनीयसंयतत्वं वा प्रतिपद्यते, यदि पूर्व छेदोपस्थापनीयसंयतो भवेत, यथाख्यातसंयतत्व वा प्रतिपद्यते श्रेणीसमारोहणत इति, तथा यथाख्यातसंयतो यथारख्यातसंयतत्वं त्यजन् श्रेणिप्रतिपतनात् सूक्ष्मसम्परायसंयतत्व प्रतिपद्यते असंयम वा प्रतिपद्यते, उपशान्तमोहत्वे मरणात् देवोत्पत्ती, सिद्धिगतिं वोपसम्पद्यते स्नातकत्वे सतीति। आकर्षद्वारेसामाइयसंजयस्स णं भंते ! एगभवग्गहणीया के वतिया आगरिसा पण्णत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं जहा बउसस्स, छेदोव- / द्वावणियस्स पुच्छा गोयमा! जहन्नेणं एवं उक्कोसेणं बीसपुहुत्तं / परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं , उक्कोसेणं तिन्नि / सुहुमसंपरायस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं, उक्कोसेणं चत्तारि / अहक्खायस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं, उक्कोसेणं दोन्नि / सामाइयसंजयस्सणं भंते ! नाणाभवग्गहणीया केवतिया आगरिसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा बउसे। छेदोवट्ठावणियस्स पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं दोन्नि, उक्को सेणं उवरिं नवण्हं सयाणं अन्तोसहस्सस्स परिहारविसुद्धियस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं सत्त। सुहमसंपरायस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं नव / अहक्खायस्स जहन्नेणं दोन्नि, उक्कोसेणं पंच। (सू०-७६७) 'छेदोवट्ठावणीयस्से' त्यादौ 'बीसपुहत्तं तिछेदोपस्थानीयस्योत्कर्षतो विंशतिपृथक्त्वं पञ्चषादिविंशतयः आकर्षाणां भवन्ति, 'परिहारविसुद्धियस्से' त्यादौ 'उक्कोसेणं तिन्नि' त्ति परिहारविसुद्धिकसंयतत्वं त्रीन् वारान् एकत्र भवे उत्कर्षतः प्रतिपद्यते, 'सुहमसंपरायस्से' त्यादौ 'उक्कोसेणं चत्तारि'त्ति एकत्र भवे उपशमश्रेणीद्वयसंभवेन प्रत्येक संक्लिश्यमानविशुद्ध्यमानलक्षणसूक्ष्मसंपरायद्वयभावाचतस्रः प्रतिपत्तयःसूक्ष्मसंपरायसयतत्वे भवन्ति, 'अहक्खाथे' त्यादौ 'उकोसेणं दोन्नि' त्ति उपशमश्रेणद्वियसम्भवादिति। नानाभवग्रहणाऽऽकर्षाधिकारे 'छेओयहावणीयस्से' त्यादौ 'उक्कोसेणं उवरि नवण्हं सयाणं अन्तोसहस्स'त्ति, कथम्? किलैकत्र भवग्रहणे षडविंशतय आकर्षाणां भवन्ति, ताश्चाष्टाभिभवैर्गुणिता नव शतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति / इदं च संभवमात्रमाश्रित्य संख्याविशेषप्रदर्शनमतोऽन्यथाऽपि यथा नव शतान्यधिकानि भवन्ति तथा कार्यम् / 'परिहार विशुद्धियस्से' त्यादौ 'उक्कोसेणं सत्त' त्ति कथम् ? एकत्र भवे तेषां त्रयाणामुक्तत्वात्, भवत्रयस्य च तस्याभिधानादेकत्र भवे त्रयं द्वितीये द्वयं तृतीये द्वयमित्यादिविकल्पतः सप्ताऽऽकर्षाः परिहारविशुद्धिकस्येति। 'सुहमसंपरायस्से' त्यादौ 'उक्कासेणं नव' त्ति, कथम्? सूक्ष्म-संपरायस्यैकत्र भवे आकर्षचतुष्कस्योक्तत्वाद्भवत्रयस्य च तस्याभिधानादेकत्र चत्वारो द्वितीयेऽपि चत्वारस्तृतीये चैक इत्येवं नवेति / 'अहक्खाए' इत्यादौ 'उक्कोसेण पंच' त्ति, कथम्? यथा-ख्यातसंयतस्यैकत्र भवे द्वावाकाँ द्वितीये च द्वावेकत्र चैक इत्येवं पञ्चेति। कालद्वारेसामाइयसंजएणंभंते! कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं दूसेणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडी, एवं छेदोवट्ठावणिए वि। परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एन्कं समयं उक्कोसेणं देसूणएति एगूणतीसाए वासेहिं ऊणियापुव्वकोडी, सुहुमसंपराए जहा नियंठे, अहक्खाए जहा सामाइयसंजए। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 67 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय सामाइयसंजया णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सव्वऽद्धा, छेदोवट्ठावणिएसु पुच्छा? गोयमा ! जहन्नेणं अड्डाइजाईवाससयाइंउक्कोसेणं पन्नासं सागरोवमकोडिसयसहस्साई। परिहारविसुद्धीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं देसूणाई दो वाससयाइं उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुव्वकोडीओ। सुहुमसंपरागसंजया णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुरा, अहक्खायसंजया जहा सामाइयसंजया / / 2 / / सामाइयसंजयस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ? गोयमा ! जहन्नेणं जहा पुलागस्स एवं०जाव अहक्खायसंजयस्स। सामाइयसंजयस्स भंते! पुच्छा, गोयमा! नऽत्थि अंतरं। छेदोवट्ठावणियपुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं तेवट्टि वाससहस्साई उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमकोडाकाडीओ, परिहारविसुद्धियस्स पुच्छा? गोयमा ! जहन्नेणं चउरासीयं वाससहस्साई उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवमकोडकोडीओ सुहुमसंपरायाणं जहा नियंठाणं / अहक्खायाणं जहा सामाइय-संजयाणं // 30 // सामाइयसंजयस्सणं भंते ! कति समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा! छ समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-कसाय-कुसीलस्स / एवं छेदोवट्ठावणियस्स वि। परिहारविसुद्धियस्स जहा पुलागस्स। सुहमसंपरागस्स जहा नियंठस्स / अहक्खा-यस्स जहा सिणायस्स।३१।। सामाइयसंजएणं भंते! लोगस्स किं संखेजइभागे होजा असंखेचइभागे पुच्छा, गोयमा ! नो संखेजइजहा पुलाए, एवं० जाव सुहुमसंपराए। अहक्खायसंजए जहा सिणाए ॥३२।सामाइयसंजए णं भंते ! लोगस्स किं संखेज्जइभार्ग फुसइ, जहेव होजा तहेव फुसइ॥३३|| सामाइयसंजएणं भंत ! कयरम्मि भावे होजा? गोयमा! उपसमिए भावे होजा, एवं०जाव सुहुमसंपराए। अहक्खायसंपराए पुच्छा, गोयमा ! उवसमिए वा खइए वा भावे होजा॥३४|| सामाइय-संजयाणं भंते ! एगसमएणं के वतिया होज्जा ? गोयमा ! पडिव-जमाणए य पडुच्च जहा कसायकुसीला तहेव निरवसेसं / छेदोवट्ठावणिया पुच्छा, गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अत्थि, सिय नऽस्थि, जइ अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं सयपुहुत्तं, पुव्वपडिवन्नए पडुच सिय, अत्थि सिय नऽस्थि, जई अत्थि जहन्नेणं कोडिसयपुहुत्तं उक्कोसेण वि कोडीसयपुहुत्तं, परिहारविसुद्धिया जहा पुलागा। सुहमसंपराया जहा नियंठा। अहक्खायसजयाणं पुच्छा, गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नऽत्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं वावट्ठसय अठ्ठ त्तरसयं खमगाणं च उप्पन्नं उवसामगाणं, पुवपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं को डिपुहुत्तं उक्कोसेणं वि कोडिपुहुत्तं / एएसिणं भंते ! सामाइयछेओवट्ठावणिय-परिहारविसुद्धियसुहुमसंपरायअहक्खायसंजयाणं कयरे कयरे०जाब विसेसाहिया? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहुमसंपरायसंजया परिहारविसुद्धियसंजया संखेज्जगुणा अहक्खायसंजया संखेज्जगुणा छे ओवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुणा सामाइयसंजया संखेज्जगुणा // 36 / / (सू०-७६८) 'सामाइय' इत्यादौ सामायिकप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणादेकः समयः, 'उक्कोसेणं देसूणएहिं नवहिं वासेहिं ऊणिया पुव्वकोडित्ति यदुक्तं तदर्भसमयादारभ्यावसेयम्, अन्यथा जन्मदिनापेक्षयाऽष्टवर्षोनिकैव सा भवतीति, 'परिहारविसुद्धिए जहन्नेणं एक समयं ' ति मरणापेक्षमेतत्, 'उक्कोसेणं देसूणरहि' ति, अस्यायमर्थः-देशोननववर्षजन्मपर्यायण केनापि पूर्वकोट्ययुषा प्रव्रज्या प्रतिपन्ना, तस्य च विंशतिवर्षप्रव्रज्यापर्यायस्य दृष्टिवादो ऽनुज्ञाजस्ततश्चासौ परिहारविशुद्धिकं प्रतिपन्नः, तच्चाष्टादशमासमानमप्यविच्छिन्नतत्परिणामेन तेनाजन्म पालितमित्येवमेकोनत्रिंशद्वर्षोना पूर्वकोटिं यावत्तत्स्यादिति, 'अहक्खाए जहा सामाइयसंजए' त्ति तत्र जघन्यत एक समयम् उपशमावस्थायां मरणात्, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, सातक-यथाख्यातापेक्षयेति / पृथक्त्वेन कालचिन्तायां छओवट्ठावणिए' इत्यादि, तत्रोत्सर्पिण्यामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोपस्थापनीयं प्रभवतीति,तीर्थ च तस्य सार्द्ध द्वे वर्षशते भवतीत्यत उक्तम- 'अड्डाइजाज्ञा' इत्यादि, तथाऽवसर्पिण्यामादितीर्थकरस्य तीर्थ यावच्छेदोषस्थापनीय प्रवर्त्तते तच पञ्चाशत्सागरोपमकोटीलक्षाइत्यतः 'उक्कोसेणं पन्नास' मित्याधुक्तमिति / परिहारविशुद्धिककालो जघन्येन 'देसूणाई दो वाससयाई' ति, कथम्? उत्सपिण्यामाद्यस्य जिनस्य समीपे कश्चिद्वर्षशतायुः परिहारविशुद्धिक प्रतिपन्नस्तस्यान्तिकेतञ्जीवितान्तेऽन्यो वर्षशतायुरेव ततः परतो न तस्य प्रतिपत्तिरस्तीत्येवं वे वर्षशते, तयोश्च प्रत्येकमेकोनत्रिंशतिवर्षेषु गतेषु तत्प्रतिपत्तिरित्येवमष्टपञ्चाशता वर्षन्यूने ते इति-देशोने इत्युक्तम्, एतच्च टीकाकारव्याख्यानम्, चूर्णिकारव्याख्यानमप्येवमेव, किन्त्ववसप्पिण्यन्तिमजिनापेक्षमिति विशेषः। 'उक्कोसेणं देसूणाओ दो पुव्वकोडीओ' त्ति, कथम्? अवसपिण्यामादितीर्थकरस्यान्तिके पूर्वकोट्यायुः कश्चित्परिहारविशुद्धिकं प्रतिपन्नस्तस्यान्तिके तज्जीवितान्तेऽन्यस्तादृश एव तत्प्रतिपन्नइत्येवं पूर्वकोटीद्वयं तथैव देशोनं परिहारविशुद्धिकसंयतत्वं स्यादिति। अन्तरद्वारे- 'छओवट्ठावणिए त्यादौ जहन्नेणं तेव!ि वाससहस्साईति, कथम्?अवसप्पिण्या दुष्षमा यावच्छेदोपस्थापनीयं प्रवर्त्तते, ततस्तस्या एवैकविंशतिवर्षसहस्रमानायामकान्त दुष्षमायामुत्सर्पिण्याश्चैकान्तदुष्षमायां च तत्प्रमाणायामेव तदभावः स्यात्, एवं चैकविंशतिवर्षसहसमानत्रयेण त्रिषष्टिवर्षसहस्राणामन्तरमिति / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 18 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय - - उक्कोसेणं अट्ठारससागरोवपकोडाकीओ'त्ति किलोत्सपिण्यां चतुर्विशतितमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीयं प्रवर्तते, ततश्च सुषमदुष्पमादिसमात्रये क्रमेण द्वित्रिचतुः सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणे अतीते अवसपिण्याचेकान्तसुषमादित्रये क्रमेण चतुरित्रद्विसागरोपमकोटीप्रमाणे अतीतप्राये प्रथमजिनतीर्थे छेदोपस्थापनीय प्रवर्तत इत्येवं यथोक्त छेदोपस्थापनीस्यान्तरं भवति। यच्चेह किञ्चिन्न पूर्यते यच पूर्वसूत्रऽतिरिच्यते तदल्पत्यान्न विवक्षितमिति। 'परिहारविसुद्धियस्से' त्यादि, परिहारविशुद्धिकसंयतस्यान्तरं जघन्यं चतुरशीतिवर्षसहस्राणि, कथम्? अवसपिण्या दुष्षमैकान्तदुष्पमयोरूत्सपिण्याश्चैकान्तदुष्षमादुष्षमयोः प्रत्येकमेकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाणत्वेन चतुरशीतिवर्षसहसाणां भवति तत्र च परिहारविशद्धिकं न भवतीति कृत्वा जधन्यमन्तरं तस्य यथोक्तं स्यात्, यश्चेहान्तिमजिनानन्तरो दुष्षमायां परिहारविसुद्धिककालो यश्चोत्सर्पिण्यास्तृतीयसमायां परिहारविशुद्धिकप्रतिपत्तिकालात्पूर्वः कालो नासौ विवक्षितोऽल्पत्वादिति, 'उक्कोसेणा अट्ठारससागरोवमकोडाकोडीओ' त्ति छेदोपस्थापनीयोत्कृष्टान्तरवदस्य भावना कार्येति / परिणामद्वारे'छेदोवट्ठावणिये' इत्यादौ 'जहन्नेणं कोडीसयहुपुत्तं उक्कोसेण वि कोडीसयपुहुत्त'ति, इहोत्कृष्ट छेदोपस्थापनीयसंयतपरिमाणमादितीर्थकरतीर्थान्याश्रित्य संभवति, जघन्यं तु तत्सम्यग् नायगम्यते, यतो दुषमान्ते भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येकं तवयस्य भावाद्विशतिरेव तेषां श्रूयते। केचित्पुनराहुः-इदमप्यादितीर्थकराणा यस्तीर्थकालस्तदपेक्षयैव समवसेयम्, कोटीशतपृथक्त्वं च जघन्यमल्पतरमुत्कृष्ट च बहुतरमिति। अल्पबहुत्वद्वारे- 'सव्वत्थोवा सुहमसंपरामसंजय' त्ति स्तोकत्वात्तत्कालस्य निर्ग्रन्थतुल्यत्वेन च शतपृथक्त्वप्रमाणत्वात्तेषां, 'परिहारविशुद्धियसंजया संखेज्ज्गुण' त्ति तत्कालस्य बहुत्वात पुलाकतुल्यत्वेन च सहस्रपृथक्त्वमानत्वात्तेषाम्, 'अहक्खायसंजया संखेजगुण' त्ति कोटीपृथक्त्वमानत्वात्तेषा, छेदोवट्ठावणियसंजया संखेज्जगुण' त्ति कोटीशतपृथक्त्वमानतया तेषामुक्तत्वात्, 'सामाइयसंजया संखंजगुण' त्ति कषायकुशीलतुल्यतया कोटीसहस्रपृथक्त्वमानत्वेनोक्तित्वात्तेषामिति / भ० 25 श०७ उ०। जीवाणं भंते ! किं संजया, असंजया, संजयासंजया, नोसंज या, नोअसंजया, नोसंजयासंजया? गोयमा! जीवा संजया वि 1, असंजया वि 2, संजयासंजया वि३, नोसंजया, नोअसंजया, नोसंजयासंजया वि 4 / नेरझ्या णं भंते ! पुच्छा, गोयमा! नेरइया नो संजया असंजया नोसंजयासंजया नो नोसंजय नोअसंजयनोसंजया, एवं.जाव चउरिदियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा,गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिता नो संजता असंजता वि संजतासंजता वि नो नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजता वि, मनुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! मणूसा संजता वि असंजता वि संजतासंजता वि, नो-नोसंजतनोअसंजतनोसंजतासंजता, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिया जहा | नेरझ्या सिद्धाणं पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा नो संजता 1, नो असंजता 2, नो संजतासंजता 3, नो संजतनोअसंजतनोसंजतासंजता 4 / गाहा “संजयअसंजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य। संजतरहिया तिरिया, सेसा अस्संजता होंति||१||" (सू० 316) / संजयपयं समत्तं // 32 // 'जीवा ण भंते!' इत्यादि, संयच्छन्ति स्भसर्वसावधयोगेभ्यः सम्यगुपरमन्ति स्म अर्थात् निरवद्ययोगेषु चारित्रपरिणामस्फातिहेतुषु वर्तन्ते स्म इति संयताः 'गत्यर्थनित्याकर्मका' दिति कर्तरि क्तप्रत्ययः, हिंसादिपापस्थाननिवृत्ता इत्यर्थः / तद्विपरीता असंयताः / हिंसादीना देशतो निवृत्ताः संयतासयताः, त्रितयप्रतिषेधविषयाः सिद्धाः, कथमिति चेत्, उच्यते, उक्तमिह संयमो नाम निरवद्येतरयोमप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः, ततः संयतादिपर्यायो योगाऽऽश्रयः, सिद्धाश्च भगवन्तो योगाऽतीताः शरीरमनसोऽभावादतस्वितयप्रतिषेधविषयाः, एवं च सामान्यतो जीवपदे चतुष्टयमपि घटते। तथा चाह- 'गोयमे त्यादि, गौतम ! जीवाः संयता अपि साधूना संयतत्वात्, असंयता अपि नैरयिकादीनामसंयतत्वात्, संयतासंयता अपि पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च देशतः संयमस्य भावात्, नोसंयतनोअसंयतनोसंयतासंयता अपि सिद्धानां त्रयस्यापि प्रतिषेधात्। चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि सुगमानि। अत्रैवं संग्रहणिगाथामाह-'संयते' त्यादि, संयता अंयता मिश्रकाश्चसंयतासंयता जी वास्तथैव मनुष्याश्च / किमुक्तं भवति? जीवपदे मनुष्यपदे च एतानि त्रीण्यपि पदानि घटन्ते नतुन घटन्ते इत्येवं परमेतत् सूत्रम्, अन्यथा जीवपदे त्रितयप्रतिषेधरूपं चतुर्थमपि पदंघटतएव, यथोक्तं प्राक्, तथा संयतरहिता उपलक्षणमेतत् त्रितयप्रतिषेधरहिताश्च तिर्यशा-तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाः / आह-कथ संयतपदरहितास्तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाः? यावता तेषामपि संयतत्वमुपपद्यते एव, तथाहि-संयतत्वं नाम निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मक, ते च निरवद्येतरयोगेषु प्रवृत्तिनिवृत्ती तिरश्वामपि सम्भवतः, यतश्चरमकालेऽपि चतुर्विधस्याप्याहारस्य प्रत्याख्यानं कृत्वा शुभेषु योगेषु वर्तमाना दृश्यन्ते / अन्यच्च सिद्धान्ते तत्रतत्र प्रदेशे महाव्रतान्यप्यात्मन्यारोपयन्तः श्रूयन्ते, उक्तं च- 'तिरियाणं चारितं,निवारित तह य अह पुणो तेसिं। सुव्वइ बहुयाण चिय, महव्वयारोवणं समए / / 1 / / " तदेतदयुक्तं, सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात्, संयतत्वमिह निरवद्येतरयोगप्रवृत्तिरूपमान्तरचारित्रपरिणामानुषक्तमवगन्तव्यं, नशेष, न च तेषां कृतचतुविधाहारप्रत्याख्यानानामपि महाव्रतान्यारोपयतां भवप्रत्ययादेव चरणपरिणाम उपजायते, स ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पे मनुष्यभव एव यदि परं कर्मक्षयोपशमाद् भवति, नान्यथा, अतएवायमतिदुर्लभो गीयते भगवद्भिः / अथ कथमवसीयतेन तिरश्चां तथा चेष्टमानानामप्यान्तरश्चारित्रपरिणामः? उच्यते, केवलज्ञानद्यश्रवणात्, यदिहि तिरश्चामपिचरणपरिणामरस-भवेत्, तत्वचित् कदाचित् कस्यचिदुत्कर्षतोभावतोमनः-पर्यायज्ञानं केवलज्ञान वा श्रूयते, तयोश्चारित्रपरिणामनिवन्धनत्वात्, नच श्रूयते, तस्मादवसीयतेनतेषां चारित्रपरिणामः। उक्तंच-"नमहव्वयसब्भावे, विचरण-परिणामसं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय EL - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय भवो तेसिं / न बहुगुणाणं पिजओ, केवलसंभूइपरिणामो।।१।।" तद्भावाऽभावात् संयमपदरहिताः, शेषाः संसारस्था असंयताःअसंयतपदसहिता भवन्ति, न शेषपदसहिताः / प्रज्ञा० 32 पद / संयमाश्चतुर्द्धा, असंविग्नाः गीतार्थाः,संविग्नाःगीतार्थाः गीतार्थाः संविग्नाः,असंविग्नाः अगीतार्याश्च / बृ०१ उ० 2 प्रक० / वीरेण सह प्रव्रजिते स्वनामख्याते राजपुत्रे, स्था०८ ठा०३ उ० / स्वनामख्याते काम्पिल्यराजे, ती० 25 कल्प। उत्त० / सञ्जयशब्दनिक्षेपायाह नियुक्तिकृत्निक्खेवो संजइज्ज-म्मि चउविहे दुविहे उ होइ दव्वम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमओ य सो तिविहो // 262 / / जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य से पुणो तिविहो। एगभवियबद्धाउय, अभिमुहओ नामगोए य / / 363 / / संजयनाम गोयं, वेयंतो भावसंजओ होइ। तत्तो समुट्टियमिणं, अज्झयणं संजइज्जं ति।।३६४|| गाथात्रयं व्याख्यातप्रायम्, नवरं 'णिक्रोवो संजइज्जम्मि'त्ति निक्षेपःन्यासःसञ्जयीयाध्ययने अर्थात-सञ्जयस्येति गम्यते। तथा च तृतीयगाथायां 'संजयनाम गोयं वेयंतो' इत्युक्त 'तत' इति सञ्जयादभिधेयभूतात् समुत्थितम्-उत्पन्नम् इदम् अध्ययनं सञ्जयीयमिति, तस्माद्धेतोरूच्यत इति गाथात्रयार्थः / इत्युक्तो नामनिष्पन्ननिक्षेपः / सम्प्रति सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसरः, सच सूत्रे सति भव त्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् - कंपिल्ले नयरे राया, उदिन्नबलवाहणे। नामेणं संजओ नाम, मिगव्वं उवनिग्गए।।१।। काम्पिल्ये नगरे राजा नृपतिरूद्दीर्णम्-उदयप्राप्तं बलं-चतुरङ्ग वाहनं | च-गिल्लिथिल्ल्यादिरूप यस्य सोऽयमुदीर्णबलवाहनः / यद्वा बलंशरीरसामर्थ्य बाहन-गजाश्वादि पदात्युपलक्षणं चैतत्, स च नाम्नाअभिधानेन सञ्जयः नाम इति प्राकाश्ये, ततोऽयमर्थः-संजयः इति नाम्ना प्रसिद्धो, मृगव्यांमृगयां प्रतीति-शेषः, उपसामीप्येन निर्गतो निष्क्रान्त उपनिर्गतस्तत एव नगरादिति शेषः / इति सूत्रार्थः। सच कीदृग विनिर्गतः,किश्च कृतवानित्याहहयाणीए गयाणीए,रहाणीए तहेव य।। पायत्ताणीए महया, सव्वओ परिवारिए।।२।। मिए छुमित्ता हयगओ, कंपिल्लुजाणकेसरे। भीए संते मिए तत्थ, वहेइरसमुच्छिए / / 3 / / पाठसिद्धम्, नवरं पदातीनां समूहः पादातं तस्यानीकंकटकं पा- | दातानीकं तेन, सुब्यत्ययः प्राग्वत्, एवं पूर्वेष्वपि, महता-बृहत्प्रमाणेन मृगान् क्षिप्त्वा 'कंपिल्लुजाणकेसरि' त्ति तस्यैव काम्पिल्यस्य नगरस्य सम्बन्धिनि केशरनाम्न्युद्याने भीतान्-त्रस्तान् सतो मितान्-परमितान् तत्र-तेषु मृगेषु मध्ये 'वहेइ' त्ति व्यथति-हन्तिवा, शरैरिति गम्यते, रसःतत्पिशितास्वादस्तत्र मूर्छितो-गृद्धो रसमूर्छित इति सूत्रद्वयार्थः / अमुमेवार्थ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या स्पष्टयितुमाहकंपिल्लपुरवरिम्मि अ, नामेणं संजओ नरवरिंदो। सो सेणाए सहिओ, नासीरं निग्गओ कयाइ॥३६५।। हयमारूढो राया, मिए छुहित्ताण केसरूजाणे / ते तत्थ उ उत्तत्थे, वहेइ रसमुच्छिओ संतो॥३६६|| गाथाद्वयं प्रतीतमेव, नवरमिह नासीरं-मृगयां प्रति उत्त्रस्तानअतिभीतानिति गाथाद्वयार्थः / अत्रान्तरे यदभूत्तदाह सूत्रकृत्अह केसरम्मि उज्जाणे, अणगारे तवोधणे! सज्झायझाणजुत्तो, धम्मज्झाणं झियायइ |4|| अप्फोवमंडवम्मी, झायई झवियासवे / तस्सागए मिए पासं, वहेई से नराऽहिवे // 5 // अथ-अनन्तर केशरे उद्यानेऽनगारस्तपोधनः स्वाध्यायः-अनुप्रेक्षणादिानधर्मध्यानादि ताभ्यां युक्तो-यथाकालं तदासेवकतया सहितः स्वाध्यायध्यानयुक्तोऽत एव धर्मध्यानम्-आज्ञाविजयादि 'झियायइ' त्तिध्यायति चिन्तयति, क्व? 'अप्फोवमंडवम्मि' त्ति वृक्षाद्याकीर्णे, तथा च वृद्धाः- 'अप्फोव' इति / किमुक्तं भवति ? आस्तीर्णे, वृक्षगुच्छगुल्मलतासंछन्न इत्यर्थः, मण्डपेनागवल्ल्यादिसम्बन्धिनि ध्यायति धर्मध्यानमिति गम्यते, पुनरभिधानमतिशयख्यापकम् 'झविय' त्ति क्षपिता निर्मलिता आश्रवाः कर्मबन्धहेतवो हिंसादयो येन स तथा, तस्यइत्युक्तविशेष्णाविन्वतस्यानगारस्य पाश्चसमीपमिति सम्बन्धः, आगतान प्राप्तान मृगान् 'वहेइ'त्ति विध्यति हन्ति वा स इति-सञ्जयनामा नराधिपः-राजेति सूत्रद्वयार्थः। अमुमेवार्थ सविशेषमाह नियुक्तिकृत्अह केसरमुजाणे, नामेणं गद्दभालि अणगारो। अप्फोवमंडवम्मि अ, झायइ झाणं झविअदोसो // 367|| 'अहे' ति गाथा व्याख्यातप्रायैव / नवरं नाम्ना अभिधानेन गर्दभालिनामेत्यर्थः, 'झविय' त्ति क्षपिता दोषाः कर्माश्रवहेतुभूता हिंसादयो येन स तथा। पुनस्तत्र यदभूत्तदाहअह आसगओ राया, खिप्पमागम्म सो तहिं। हए मिए उपासित्ता, अणगारं तत्थ पासइ / / 6 / / अथ-अनन्तरम् अश्वगतः-तुरगारूढो राजा क्षिप्रं-शीघ्रमागत्य 'स' इति-सञ्जयनामा तस्मिन-यत्र मण्डपे स भगवान् ध्यायति, हतान्विनाशितान् मृगान तुशब्द एवकारार्थस्ततो मृगानेव, न पुनरनगारमित्यर्थः 'पासित' त्ति दृष्ट्वा अनगारं-साधं तत्र इति-तस्मिन्नेव स्थाने पश्यतीति सूत्रार्थः। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 100 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय ततः किमसावकार्षीदित्याहअह राया तत्थ संमंतो, अणागारो मणाऽऽहओ। मए उ मंदपुण्णेणं,रसगिद्धेण घंतुणा / / 7 / / आसं विसज्जइत्ता णं, अणगारस्स सो निवो। विणएणं यहई पाए, भगवं ! इत्थ मे खमे / / 8 / / अह मोणेण सो भगवं, अणगारो झाणमस्सिओ। रायाणं न पडिमंतेइ, तओ राया भयङ्गुओ / / 6 / / संजओ अहमस्सीति, भगवं ! वाहिराहि मे। कुद्धे तेएण अणगारे, दहिज्जा नरकोडिओ।।१०।। अथ राजा तत्र इति-तद्दर्शने सति संभ्रान्तः भयव्याकुलो, यथाऽनगारो-मुनिर्मनागिति-स्तो के नैव आहतः-विनाशितः, सदासन्नमृगहननादित्यभिप्रायः, मया तु मन्दपुण्येन रसगृद्धेन-रसमू-र्छितन 'तुण' त्ति घातुकेन, हननशीलेनेत्यर्थः / ततश्च अश्वं-तुरंग विसृज्यविमुच्य ' प्राग्वत्, अनगारस्य-उक्तस्यैव सः सञ्जयनामा नृपः विनयेन-उचितप्रतिपत्तिरूपेण वन्दते-स्तौति पादौचरणी, अत्यादर - ख्यापक चैतत्, पादावपि तस्य भगवतः स्तवनीयाविति, वक्ति - यथा भगवन् ! अत्र एतस्मिन् मृगव्ये, मम अपराधमिति शेषः, क्षमस्वसहस्व / अथ इत्यनन्तरं मौनेन वागनिरोधात्मकेन 'सो' ति स गर्दभालिनामा भगवान अनगारः ध्यान-धर्मध्यानम् आश्रितः-स्थितः राजानं नृपं न प्रतिमन्त्रयतेन प्रतिवक्ति, यथाऽहं क्षमिध्ये नवेति, ततः तत्प्रतिवचनाभावतो-ऽवश्यमयं क्रुद्ध इति न किमपि मां प्रभाषते इति राजा भयदुतः-अतीव भयत्रस्तो, यथा न ज्ञायते किमसी कुद्धः करिष्यतीति / उक्तवाश्च यथा-संजयः-सञ्जयनामा राजाऽहमरिम, मा भून्नीच एवायमिति सुतरां कोपः इत्येतदभिधानमिति, इति अस्माद्धेतो गवन् ! 'वाहराहि' त्ति ब्याहरसंभाषय मे इति, सुब्ल्यत्ययान्माम्, अथाऽपि स्यात् - किमेव भवान् भयदुत इत्याह-कुद्धःकुपितःतेजसा तपोमाहात्म्यजनितेन ताजेलेश्यादिना अन्नगार: मुनिः दहेत् भस्मसात्कुर्यात नरकोटीः, आस्तां शतं सहस्र थेति / अतोऽत्यन्तभयद्रुतोऽहमिति सूत्रचतुष्टयार्थः। - इदमेव व्यक्तीकर्तुमाह- नियुक्तिकृत्अह आसगओ राया, तं पासिअ संभमागओ तत्थ। भणइ अहा जह इम्हि, इसिवज्झाए मणालित्तो // 368|| वीसजिऊण आसं, अह अणगारस्स एइ सो पासं। विणएण वंदिऊणं, अवराहिं ते खमावेइ॥३६६।। अह मोणमस्सिओ सो, अणगारो नरवइं न वाहरइ / तस्स तवतेयभीओ, इणमटुं सो उदाहरइ // 400 / / कंपिल्लपुराहिवई, नामेणं संजओ अहं राया। तुज्झ सरणागओऽम्हि, निद्दहिहा मा मि तेएणं / / 401 / / गाथाचतुष्टयं स्पष्टमेव / नवरं तं 'पासिय संभमागती' त्ति मुनिरव दृश्यत / इत्यसावपि मया विद्धो भविष्यतीत्याकुलत्वमापन्नः, भणति च-वक्ति च - हा इति खेदे, यथेदानीम् 'इसिवज्झाए' त्ति ऋषिहत्यया मनागपि लिप्तोऽहं-स्वल्पेनैव न स्पृष्टः 'तुब्भ' ति तव शरणागतोऽस्मिः त्वामेव शरणम्-आश्रये प्रतिपन्नोऽस्मि, ततश्च निर्धाक्षीः मानिषेधे, 'इति मा तेजसा तपोजनितेनेति गम्यते इति गाथाचतुष्टयार्थः। इत्थ तेनोक्ते यन्मुनिरूक्तवास्तदाहअभओ पत्थिवा ! तुज्झं, अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं हिंसाए पसञ्जसि ? ||11|| जया सव्वं परिचज्ज, गंतव्यमवसस्स ते। अणिच्चे जीवलोगम्मि, किं रजम्मि पसजसि? ||12|| जीवियं चेव रूवं च, विज्जुसंपायचंचलं। जत्थतं मुज्झसी रायं, पिच्चत्थं नाव बुज्झती / / 13 / / दाराणिय सुया चेव, मित्ता य तह बंधवा। जीवंतमणुजीवंति,मयं नाणुव्वयंति य / / 14 / / नीहरंति मयं पुत्ता, पियरं परमदुक्खिया / पियरो अ तहा पुत्ते, बंधू रायं ! तवं चरे / / 15 / / तओ तेणऽजिए दव्वे,दारे य परिरक्खिए। कीलतं ऽन्ने नरा रायं!, हठ्ठतुट्ठमलंकिया / / 16 / / तेणावि जं कयं कम्म,सुहं वा जइ वा दुहं / कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छई उ परं भवं / / 17 / / 'अभओ' त्ति अभयं-भयाभावःपार्थिव ! नृपते ! आकारोऽलाक्षणिकः, कस्य?'तुभ' ति तव, न कश्चित्त्वां दहतीति भावः, इत्थं समास्त्रास्थोपदेशमाह- अभयदाता च-प्राणिनां वाणकर्ता भवाहि य'ति भवयथाहि भवता मृत्युभयमेवमन्येषामपीति भावः, चशब्दा योजितः एव, अमुमेवार्थ सहेतुकं व्यतिरिकद्वारे-णाह-अनित्ये अशाश्वते जीवलोके प्राणिगणे, किमिति परिप्रश्ने, हिंसायां प्राणिवधरूपायां प्रसजसि अभिष्वक्तो भवसि? जीवलोकस्य ह्यनित्यत्वे भवानप्यनित्यस्तत्किमिति-केन हेतुना रवल्पदिनकृते पापमित्थमुपार्जयसि ? नैवेदमुचितमिति भावः / इत्थं हिंसात्यागमुपदिश्य राज्यपरित्यागोपदेशमाहयदा सर्वं कोशान्तःपुरादि परित्यज्य-इहैव विमुच्य गन्तव्यं भवान्तमिति शेषः, तदपि न स्ववशस्य किन्तु अवशस्य-अस्वतन्त्रस्य ते-तब, वसति? अनित्ये जीवलोके, ततः किं राज्ये-नृपतित्वे प्रसजति? राज्यपरित्याग एव युक्त इति भावः, पाठान्तरतश्च किं हिंसाया प्रसजसि? इह च पुनर्वचनमादरातिशयख्यापनार्थमिति पुनरूक्तता। जीवलोकाऽनित्यत्वमेव भावयितुमाह-जीवितम-आयुः चः समुच्चर्य, एवेति पूरणे, रूपंच-पिश्तिादिपुष्टस्य शरीरशोभात्मक विद्युतः संपातः संपातः-चलनचमत्कारो विद्युत्सम्पातस्तद्वच्चञ्चलम्-अतीवाऽस्थिर विद्युत्सम्पातचञ्चलं यत्र जीविते रूपे च 'त' ति त्वं मुह्यसि मोह विधत्से मूढश्च हिंसादौ प्रसजसीति भावः, राजन् ! नृपते ! रोल्यार्थ पर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय लाक प्रयोजनं नावबुध्यसे, कि मुक्तं भवति?जानास्यपि न किं पुनस्तत्करणगिति। तथा दाराश्चकलत्राणि प्राकृतत्वानपुंसकनिर्देशः, सुताश्चैव मित्राणि च प्रतीतान्येव, तथा बान्धवाः- स्वजनाः जीवन्तम् अनुजीवन्ति-तदुपार्जितवित्तायुपभोगत उपजीवन्ति, मृतं 'णाणुव्वयंति य' ति चशब्दस्यापिशब्दार्थत्वादनुव्रजन्त्यपि न, किं पुनः सह यास्यन्तीति, तदनेन दारादीनामपि कृतघ्रतया न तेष्वास्था विधाय धर्मे उदासितव्यमि युक्तमिति। इदं च सूत्रं चिरन्तनवृत्तिकृता न व्याख्यातं, प्रत्यन्तरेषु च दृश्यत इत्यस्माभिरुन्नीतम् / पुनस्तत्प्रतिबन्धनिराकरणायाह- 'नीहरंति' ति निस्सारयन्ति मृत्तम् इति-गतायुष पुत्राःसुताः पितरं-सनक परम दुःखिता-अतिशयसञ्जातदुःखा अपि, किं पुनर्य न तथा दुःखमाज इति भावः, पितरोऽप तथा पुत्रान्, 'बंधु त्ति बन्धवश्व बन्धूनिति शेषः / अतश्च किंकृत्यमित्याह-राजन् ! तप उपलक्षणत्याद्दान दि चरे:-आसेवस्वेति / अपरञ्च 'ततो ति मृतनिःसारणादनन्तरं तेन इति-मित्रपित्रादिना अर्जित-विढपिते द्रव्य-वित्ते दारेषु च-कलत्रेषु च परिरक्षितेषु-सर्वापायपरिपालितेषु; उभयत्रार्पत्वादेक वचन, कीडन्ति-विलसन्ति तेनैव-वित्तेन दारेश्चति गम्यते,शब्दअपर राजन ! 'इट्टतुहमल-किय'त्ति हृष्टाः-पहिः- पुलकादिमन्तः तुष्टाःआन्तरप्रीति-भाजः अलंकृताः-विभूषिताः, यत ईदृशी भवस्थितिस्ततो रजन! तपश्चरेरिति मध्यदीपकत्वाद-नन्तरसूत्रोक्तेन सम्बन्धः। मृतस्य च को वृत्तान्त इत्याह-तेनापि भूतेन यत् कृतम्-अनुष्ठीतं कर्म शुभं वा पुण्यप्रकृतिरूप. यद्वा-सुखं वा-सुखहेतुः यदिवेति-अथवा-दुःखंदु:खहेतः, पापकृत्यात्मकमित्यर्थः। कर्मणा तेन सुखहेतुना दुःखहेतुना वा, उत्तरत्र तुशब्दस्येवकारार्थत्वाद् भिन्नक्र मत्वाच तेनैव, न तु दुःखपरिरक्षितेनापि द्रव्यादिना संयुक्तः- सहितः गच्छति-याति परम्अन्य भवं-जन्म, यतश्च शुभाशुभयोरेवानुयायिता ततः शुभहेतुं तप एव चरेरिति भावः इति सूत्रसप्तकार्थः। ततस्तद्वचः श्रुत्वा राजा किमचेष्टतेत्याहसोऊण तस्स सो धम्मं, अणगारस्स अंतिए। महया संवेगनिव्वेयं, समावन्नो नराहिवो // 18|| संजओ चइउं रज्जं, निक्खंतो जिणसासणे। गद्दभालिस्स भगवओ, अणगारस्स अंतिए।।१६।। श्रुत्या-अकार्य तस्य इत्यनगारस्य स 'स' इति-सञ्जयाभिधाना राजा धर्मम्-उक्तरूपम अन्गारस्य-भिक्षोः अन्तिकेसमीपे 'महय' त्ति महता आदरेणेति शेषः, सुब्ब्यत्ययेन वा महत्, संवेग-निर्वेद तत्र संवेगोमोक्षाभिलाषो निवेदः - संसारोद्विग्नता समापन्नः-प्राप्तः नराधिपः राजा सञ्जयः सखायनामा 'चइउ' त्यक्त्वा राज्य-राष्ट्राधिपत्यरूपं निष्का तः-प्रव्रजितः जिनशा-सने-अर्हद्दर्शने, न तु सुगतादिदेशितेऽसद्दर्शन एवेति भावः, गर्दभाले:-गर्दभालिनानो भगवतोऽनगारस्यान्तिक इति पुत्रदया। सूत्र-नवकोक्तसेवार्थ स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत - अभयं तुज्झ नरवई, जलवुब्वुअसंनिभे अ माणुस्से / किं हिंसाइ पसज्जसि, जाणन्तो अप्पणो दुक्खं / / 401 / / सव्वमिणं चइऊणं, अवस्सं जया य होइ गन्तव्वं / किं भोगेसुं रसजसि, किंपागफलोवमनिभेसुं / / 402 / / सोऊण य सो धम्म, तस्सऽणगारस्स अंतिए राया। अणगारो पव्वइओ, रज्जं चइउंगुणसमग्गं / / 403 // व्याख्यातप्रायमेव, नवर 'अप्पणो दुक्खं' ति आत्मनो दुःखमिति दुःखजनकं मरणमिति शेषः, 'किंपागफलोवमणिभेसु' ति किंपाकफलोपमा निभा छाया येषां ते तथाआपातमधुरत्वपरिणतिदारुणत्वाभ्या, तथा अनगारः अविद्यमानगृहो, जात इति शेषः, स च शाक्यादिरपि संभवेदत आह 'पव्वइओ' ति प्रकर्षेण विषयाभिव्यङ्गादिपरिहारूपेण वजितो-निष्क्रान्तः प्रव्रजितो, भावभिक्षुरिति यावत्, तथा गुणाः-कामगुणा मनोज्ञशब्दादय आज्ञैश्वर्यादयो वा तैः सम-सम्पूर्ण गुणसमग्रमिति गाथात्रयार्थः। स चैवं गृहीतप्रवज्योऽधिगतहेयोपादेयविभागो दशविधचक्रवालसामाचारीरतश्वानियतविहारितया विहरन् तथाविधसन्निवेशमाजगाग, तत्र च लस्य यदभूत्तदाहचिचा रट्टे पव्वइओ, खत्तिओ परिभासई। जहा ते दीसई रूवं, पसन्नं ते तहा मणो / / 20 / / किंनामे किंगुत्ते, कस्सट्ठाए व माहणे? कहं पडियरसी बुद्धे, ?, कहं विणीय त्ति वुचसि ? / / 21 / / त्यवन्वा राष्ट्र ग्रामनगरादिसमुदायं पद्रजितः प्रतिपन्नदीक्षः क्षत्रियः क्षत्रजातिरनिर्दिशनामा परिभाषते, सञ्जयमुनिमित्युपस्कारः, स हि पूर्वजन्मनि वैमानिक आसीत ततश्च्युतः क्षत्रियकुलेऽजनि, तत्र च कुतश्चित्तथाविधनिमित्ततः स्मृतपूर्वजन्मा तत एव चोत्पन्न-वैराग्यः प्रव्रज्या गृहीतवान् / गृहीतप्रव्रज्यश्च विहरन् सञ्जयमुनि दृष्ट्वा तद्विमर्षार्थमिदमुक्तवान, यथा ते दृश्यते-अवलोक्यते रुपम्-आकृतिःप्रसन्नं विकाररहितं ते-तव तथा-तैनैव प्रकारेण प्रसन्नमिति प्रक्रमः, किं तत् ? मनः-चित्त, न हान्तः कलुषताया बहिरप्येवं प्रसन्नतासम्भवः, तथा कि नामकिमभिधानः किंगोत्र:-किमन्वयः 'कस्सट्टाएव' त्तिकस्मैवा अर्यायप्रयोजनाय 'माहणे' इति मा वधीत्येवं रूपं मनो वाक् क्रिया च यस्यासी माहनः, सर्व धातवः पचादिषु दृश्यन्त' इति वचनात्पचादित्वादच, स चैवविधः प्रव्रजित एवं सम्भवत्यतः किं वा प्रयोजनभुद्दिश्य प्रव्रजितः कथ - कन प्रकारेण प्रतिचरसिसेवसे, कान ? बुद्धान आचार्यादीन्, कथं 'विणीय' त्ति विनीतः-विनयवानित्युच्यत इति सूत्रद्वयार्थः। सञ्जयमुनिराहसंजयो नाम नामेणं, तहा गुत्तेण गोयमो। गद्दभाली ममायरिया, विजाचरणपारगा।।२२।। यदुक्तं त्वया किनामा त्वमिति, तत्र संजयो नाम नाम्ना, यच्चावोचः किंगोत्रः? इति, तत्राह-तथा गोत्रण अन्वयेन गौतमः, उभयत्राहमिति गम्यते, शेषप्रश्रत्रयपतिवचनामाह-गर्दभालयः गर्दभाल्यभिधाना मम अ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 102 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय मोपदेशकत्वादिना, विद्यतेऽनया तत्त्वमिति विद्या-श्रुतज्ञानं तथा चर्यत अक्रियावादित्वं चैषां कथञ्चिद्भेदाभेदलक्षणप्रकारान्तराभावेन तदभावइति चरणं-चारित्रं विद्या च चरण च विद्याचरणे तयोः-पारगाः- स्यैवावशिष्यमाणत्वत्, येऽप्युत्पत्त्यनन्तरमात्मनः प्रलयमिच्छन्ति पर्यन्तगामिनो विद्याचरणपारगाः, एवं च वदतोऽयमाशयः-यथा तेषामपि तदस्तित्वाभ्युपगमेऽप्यनुपचरितपरलोकाद्यसम्भवात्, गर्दभालिभिर्धर्माचार्य विद्यार्जनान्निवर्तितोऽह, विद्याचरणपारगत्वाच तत्त्वतस्तदसत्त्व-मेवेत्यक्रियावादित्वम्, उक्तं हि वाचकैः- "ये तैस्तन्निवृत्तौ मुक्तिलक्षणं फलमुक्तम्, ततस्तदर्थ माहनोऽस्मियथा च पुनरिहाक्रियावादिनस्तेषामात्मैव नास्ति, न चावक्तव्यः शरीरेण तदुपदेशस्तथा गुरुन् प्रति चरामि, तदुपदेशासेवनाच विनीत इति सहैकत्वान्यत्वे प्रति, उत्पत्त्यनन्तरप्रलयस्वभावको वा, तस्मिन्नसूत्रार्थः। निर्णिक्ते च कर्तृत्वादिविशेषमूढा एवे" ति, अमीषां तु विचाराक्षमत्वइत्थं विमृश्य तद्गुणबहुमानाकृष्टचेता अपृष्टोऽपि मात्माऽस्तित्वस्य प्राक् प्रत्यक्षानुमानलक्षणप्रमाणद्वयसमधिगम्यत्वेन क्षत्रिय इदमाह साधनात्, तस्य च शरीरात्कथञ्चिद्भिन्नाभिन्नरूपतया तत्र तत्र वक्तव्ये किरियं अकिरिअं विणयं, अन्नाणं च महामुणी। (व्यत्वे) न स्थापितत्वात्, क्षणिकपक्षस्य तु सामुच्छेदिकनियएएहि चउहि ठाणेहिं, मेयन्ने किं पभासई // 23 // वक्तव्यतायाभेवोन्मूलितत्वादिति 2 / विनयवादिनो विनयादेव क्रिया अस्तीत्येवंरूपा, लिङ्ग व्यत्ययान्नपुंसकनिर्देशः, अक्रिया मुक्तिमिच्छन्ति, यत उक्तम्-"वैनयिकवादिनो नाम येषां सुरासुरतद्विपरीता, विनयः-नमस्कारकरणादिः, लिङ्ग व्यत्ययः प्राग्वत्, तथा नृपतपस्विकरितुरगहरिणगोमहिष्यजाविकश्वशृगालजलचरकपोतज्ञान-वस्तुतत्त्वावगमस्तद्भावोऽज्ञानं, चः समुच्चये, महामुने ! सम्यक् काकोलूकचटकप्रभूतिभ्यो नमस्कारणात् क्लेशनाशोऽभिप्रेतो, प्रव्रज्याप्रतिपत्तिगुरुपरिचर्यादिकरणतः प्रशस्ययते! एतैः क्रियादिभि विनयाच्छ्यो भवति नान्यथेत्यध्यवसिताः एतेऽपि न विचारसहिष्णवो, श्चतुर्भिः तिष्ठन्त्येषु कर्मवशगा जन्तव इति स्थानानि-मिथ्याऽध्यव न हि विनयमात्रादिहापि विशिष्टानुष्ठानविकलादभिलषितार्थायाप्तिसायाधारभूतानि तैः 'मेयपणे' ति, मीयत इति मेयंज्ञेयं जीवादिवस्तु रवलोक्यंते, नाऽपि चैषां विनयाहत्वं, येन पारलौकिक श्रेयोहेतुता भवेत, तजानन्तीति मेयज्ञाः क्रियादिभिश्चतुर्भिः स्थानैः स्वस्वाभिप्रायकल्पि तथाहि- लोकरसमयवेदेषु गुणाभ्यधिकस्यैव विनयाहत्वमिति प्रसिद्भिः, तैर्वस्तुतत्त्वपरिच्छेदिन इति यावत्, किम् इति कुत्सितं 'पभासई' त्ति गुणास्तु तत्त्वतो ज्ञानध्यानानुष्ठानात्मका एव, न च सुरादीनामज्ञानाप्रकर्षण भाषन्ते-प्रभाषन्ते, विचाराऽक्षमात्वात्, तथाहि-ये तावक्रिया श्रवाविरमणादिदोषदूषितानामेतेष्वन्यतरस्याऽपि गुणस्य सम्भव इति वादिनस्तेऽस्तिक्रियाविशिष्टमात्मानं मन्यमाना अपि तस्य सदा कथं यदृच्छया विधीयमानस्य तस्य श्रेयोहेतु तेति ?3 / अज्ञानविभुत्वाविभुत्वकर्तृत्वा-कर्तृत्वादिभिर्विप्रतिपद्यन्ते। उक्तं हि वाचकैः वादिनस्त्वाहुः- यथेदं जगत् कैश्चिद् ब्रह्मादिविवर्त्त इष्यते, अन्यैः क्रियावादिनो नाम येषामात्मनोऽस्तित्वं प्रत्यविप्रतिपत्तिः किन्तु स प्रकृतिपुरुषात्मकमपरैर्द्रव्यादिषड्भेदम्, तदपरैश्चतुरार्यसत्या-त्मकम, इतरैर्विज्ञानमयम्, अन्यैस्तु शून्यमेव इत्यनेकधाभिन्नाः पन्थानः, विभुरविभुः कर्ताऽकर्ता क्रियावानितरो मूर्त्तिमान मूर्तिरित्येवमाद्याग्रहो तथाऽऽत्माऽपि नित्यानित्यादिभेदतोऽनेकधैवोच्यते, तत्को ह्येतद्वेद किं पहृत-प्रीतयस्तेऽस्ति माता पिताऽस्ति न कुशलाकुशलकर्मवैफल्यं, न चानेन ज्ञातेन?,अपवर्ग प्रत्यनुपयोगित्वात् ज्ञानस्य, केवलं कष्ट तप न सन्ति गतय इत्येव प्रतिज्ञाश्च / इह च विभुत्वं व्यापित्वम्, तच्चात्मनो एवानुष्ठेय, न हि कष्ट विनेष्टसिद्धिः, तथा चाह- 'अज्ञानिका नाम न घटते, शरीर एव तलिङ्ग-भूतचैतन्योपलब्धेः / न च वक्तव्यमानोऽ येषामियमुपघृतिः, यथेह ज्ञानाधिगमप्रयासोऽपवर्ग प्रति अकिञ्चित्करो, व्यापित्वे सुखदुः खबुद्धीच्छा-द्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्कारा नवाऽऽत्मगुणा घोरततपोभिरपवर्गोऽवाप्यते' इति। विचारासहत्वं चैषां विज्ञानरहितस्य इति वचनात्तद्गुणयोर्धर्माधर्मयोरप्यव्यापित्वं, तथा चद्वीपान्तरगतदेव महतोऽपि कष्टस्य तिर्यग्नारकादीनामिवापवर्ग प्रत्यहेतुत्वात्, तदन्तरेण दत्तादृष्टाकृष्टमणिमुक्तादीना नेहागमनं स्यादिति, विभिन्नदेशस्या व्रततपउपसर्गादीनामपि स्वरूपापरिज्ञानतः क्वचित्प्रवृत्त्यसम्भवादिति। प्ययस्कान्तादेरयः प्रभृतिवस्त्वाकर्षणशक्तिदर्शनाद्धर्माधर्मयोरपि एषां च क्रियावादिनामुत्तरोत्तरभेदतोऽनेकविधत्वम्। उक्तं वाचकैः-"एषां शरीरमात्रव्यापित्वेऽपि तद्वद्विप्रकृष्टवस्त्वाकर्षकत्वादिति न तावद्वि मौलेषु चतुर्पु कल्पेष्ववस्थितेषु तद्भेदाः सुबहवोऽवनिरुहशाखा-प्रशाखाभुरात्मा युज्यते / तथाऽविभुरप्यडगुष्ठपर्वाद्यधिष्ठानो यैरिष्यते तेषा निकरवदवगन्तव्याः" तत्र तावच्छतम-शीतं क्रियावादिनाम, अक्रियासकलशरीरव्यापिचैतन्यासत्त्वम्, तदसत्त्वाच्च शेषशरीरावयवेषु वादिनश्व चतुरशीतिसंख्याः, अज्ञानिकाः सप्तषष्टिविधाः, वैनयिकवादिनो शरादिभेदादौ वेदनानुभवासम्भवो, नचैतद् दृष्टमिष्ट वा, एवं सर्वदा द्वात्रिंशत, एवं त्रिषष्ट्यधिकशतत्रय, सर्वेऽपिचामी विचाराक्षमत्वात्कुत्सित कर्तृत्वादिकमपि यथा न युज्यते तथा स्वधिया वाच्यम् 1 / ये प्रभावन्ते इति स्थितमिति सूत्रार्थः। त्यक्रियावादिनस्तेऽस्तीनि क्रियाविशिष्टमात्मानं नेच्छन्त्येव, अस्तित्वे __ न चैतत्स्वाभिप्रायेणैवोच्यते, किन्तुवा शरीरेण सहकत्वान्यत्वाभ्यामवक्तव्यमिच्छन्ति, एकत्वे ह्यविनष्ट इह पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्वुडे / शरीरावस्थितौ न कदा-चिन्मरणप्रसत्तिः, आत्मनः शरीरानन्यत्वेनाव- विजाचरणसंपन्ने, सच्चे सच्चपरक्कमे // 24 // स्थितत्वात्, तथा मुक्त्यभावाद्यनेकदोधापत्तिश्व, शरीरान्यत्वे तु 'इह' इति -तत् क्रियादिवादिनः किं प्रभाषन्ते ? इत्येवं शरीरच्छेदादो तस्य वेदनाऽभावप्रसङ्गः, तस्मादवक्तव्य एवेति।। रूपं 'पाउकरे' त्ति प्रादुरकार्षीत् -प्रकटितवान् बुद्धः-अवगत Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय तत्त्वः सन् ज्ञात एव ज्ञातकः-जगत्प्रतीतः क्षत्रियो वा, स चेह प्रस्तावान्महावीर एव, परिनिवृतः कषायानलविध्यापनात्समन्ताच्छीतीभूतो विद्याचरणाभ्यामर्थात् क्षायिकज्ञानचारित्राभ्यां सम्पन्नो युक्तो विद्याचरणसम्पन्नोऽतएव सत्यः सत्यवाक्, तथा सत्यः-अयितथस्तात्त्विकत्वेन परेभावशत्रवस्तेषामाक्रमणम आक्रमः-अभिभवो यस्याऽसौ सत्यपराक्रम इति सूत्रार्थः। तेषां च फलमाहपडंति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो। दिव्यं च गई गच्छंति, चरित्ता धम्ममारियं / / 25!! पतन्ति गच्छन्ति नरके-सीमन्तकादौ घोरे-नित्यान्धकारादिना भयानके ये नराः उपलक्षणत्वात्स्त्र्यादयो वा पातयति नरकादिषु जन्तुमिति पापः तच्च हिंसाद्यनेकधा, इह त्वसत्प्ररूपणैव, तत्कर्तुम्अनुष्ठातुं शीलमेषामिति पापकारिणः / ये त्वेवंविधा न भवन्ति ते किमित्याह-दिव्या च गतिं देवलोकगति, चशब्दः पुनरर्थे, स च पूर्वेभ्यो विशेषद्योतकः, गच्छन्ति-यान्ति चरित्वा-आसेव्य धर्मः-श्रुतधर्मादिः अनेकविधः, इह च सन्यप्ररूपणारूपःश्रुतधर्म एव तम्, आर्य-प्राग्वत्. सदयमभिप्रायः असत्परूपणापरिहारेण सत्प्ररूपणापरेणेव च भवता भवितव्यम् इनि सूत्रार्थः। कथं पुनरमी पापकारिण इत्याहमायावुइयमेयं तु, मुसाभासा निरत्थिया। संजममाणोऽवि अहं, दसामि इरियामि य / / 26 / / मायया-शाठ्यन 'बुइय' ति उक्तं मायोक्तम् एतत्-यदनन्तरं क्रियादिवाटिभिरुक्त, तुः एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च मायोक्तमेव, यतश्च तत-मृषा-अलीका भाषाः-उक्तिः निरर्थकासम्यगभिधेयशून्या, तत एव च 'सजनमाणोऽवि त्ति अपिः एवकारार्थस्ततः संयच्छन्नेवउपरमन्नेव तदुक्त्वाकर्णनादितः, अहम् इत्यात्म-निर्देशे विशेषतः तस्थिरीकरणार्थम्, उक्तं हि- "टियतो टावरं परं" ति, वसामि-तिष्ठामि उपाश्रय इति शेषः, 'इरियामि य' त्ति ईरे च-गच्छामि च गोचरचर्यादिष्विति सूत्रार्थः। इदमपि सूत्रं प्रायो न दृश्यते / कुतःपुनस्त्वं तदुक्त्याकर्णनादिभ्यः संयच्छसीत्याह अनन्तरसूत्राभावे च यदुक्तं चतुर्भिः स्थानैर्मे यज्ञाः किं प्रभाषन्ते इति तत्कुत इत्याहसव्वे ते विइया मज्झं, मिच्छादिट्ठी अणारिया। विजमाणे परे लोए, सम्मं जाणामि अप्पगं // 27 / / सर्वे -निरवशेषाः ते क्रियादिवादिनः विदिताः-ज्ञाता मम, यथा-ऽमी, 'मिच्छादिहि' ति मिथ्या-विपरीता परलोकात्माद्यपलापित्वेन दृष्टिःबुद्धिरेषानिति मिथ्यादृष्टयः तत एव, अनार्या-अनार्यकर्मप्रवृत्ताः, कथं पुनस्त एवंविधास्ते विदिता इत्याह-विद्यमाने सति परलोके- अन्यजन्मनि सम्यग् अविपरीतं जानामि-अवगच्छामि 'अप्पगं' ति आत्मानं, ततः परलोकात्मनः सम्यग्वेदनात् ममैवविधत्वेन विदितास्ततोऽहं तदुक्त्याकानादितः संयच्छामि किं प्रभाषकाश्चैत इति सूत्रार्थः / कथ पुनस्त्वमात्मानमन्यजन्मनि जानासीत्याहअहमासी महापाणे, जुइमं वरिससओवमे / जा सा पाली महापाली, दिव्वा वरिससओवमा।।२८।। से चुए बंभलोगाओ, माणुस्सं भवमागए। अप्पणो य परेसिंच, आउं जाणे जहा तहा॥२६।। 'अहमासि' त्ति अहमभूवं महाप्राणे-महाप्राणनाम्नि ब्रह्मलोकवि-माने द्युतिमान्-दीप्तिमान् वरिसतोवमे' त्ति वर्षशतजीविना उपमा-दृष्टान्तो यस्याऽसौ वर्षशतोपमो' मयूरव्यंसकादित्वात्स-मासः, ततोऽयमर्थयथेह वर्षशतजीवी इदानी परिपूर्णायुरुच्यते, एवमहमपि तत्र परिपूर्णायुरभूवम्। तथाहि-या सा पालिरिव पालिः-जीवितजलधारणाद्भवस्थितः, सा चोत्तरत्र महाशब्दोपादानादिह पल्योषमप्रमाणा, महापाली सागरोपमप्रमाणा, तस्या एव महत्त्वात्, दिवि भवा दिव्या वर्षशतेनोपमा यस्याः सा वर्षशतोपमा, यथाहि-वर्षशतमिह परमायुः तथा तत्र महापाली उत्कृष्टतोऽपि हि तत्र सागरोपमैरेवायुरुपनीयते, न तूत्सर्पिण्यादिभिः, अथवा- "योजनं विस्तृतः पल्यस्तथा योजनमुच्छ्रितः। सप्तरात्रप्ररूढानां, केशाग्राणां स पूरितः / / 1 / / ततो वर्षशते पूर्णे, एकैकं केशमुद्धरेत्। क्षीयते येन कालेन, तत्पल्योपममुच्यते॥२॥" / इति वचनाद्वर्षशतैः केशोद्धारहेतुभिरुपमा अर्थात् पल्यविषयः यस्याः सा वर्षशतोपमा, द्विविधाऽपि स्थितिः, सागरोपमस्याऽपि पल्योपमनिष्पाद्यत्वात्, तत्र मम महापाली दिव्या भवस्थितिरासीदित्युपस्कारः / अतश्चाहं वर्षशतोपमायुरभूवमिति भावः। 'से' इति-अथ स्थितिपरिपालनादनन्तरं च्युतः भ्रष्टः ब्रह्मलोकात्-पञ्चमकल्पात् मानुष्यं - मानुष्यसम्बन्धिन भव-जन्म आगतः-आयातः। इत्थमात्मनो जातिस्मरणलक्षणमतिशयमाख्यायाति-शयान्तरमाह-आत्मनश्च परेषां वा आयुःजीवितं जाने-अव-बुध्ये यथा-येन प्रकारेण स्थितमिति गम्यते तथातेनैव प्रकारेण न त्वन्यथेत्यभिप्रायः, इति सूत्रद्वयार्थः / इत्थ प्रसङ्गतः परितोषतश्चापृष्टमपि स्ववृत्तान्तमावेद्योपदे ष्टुमाहनाणारुईच छंदं च, परिवजिज्ज संजओ। अणट्ठा जे अ सव्वत्था, इह विज्जामणुसंचरे // 30 // नानेति-अनेकधा रुचिं च-प्रक्रमात्क्रियावाद्यादिमतविषयमभिलाषं छन्दश्व-स्वमतिकल्पितमभिप्रायम्, इहाऽपि नानेति सम्बन्धादनेकविधं परिवर्जयेत्-परित्यजेत् संयतः-यतिः। तथा अनर्थाः-अनर्थहेतवो ये च सर्वार्थाः अशेषहिंसादयो गम्यमानत्वात्तान् वर्जयेदिति सम्बन्धः, यद्वा'सव्वत्थे' त्याकारस्यालाक्षणिकत्वात्सर्वत्र क्षेत्रादावना इति निष्प्रयोजना ये च व्यापारा इति गम्यते, तान् परिवर्जयेत्, इतीत्येवंरूपा विद्यां सम्यगज्ञानरूपामन्विति-लक्षीकृत्य सञ्चरेः त्वसम्यक् संयमाध्वनि यायाः, इति सूत्रार्थः। अन्यचपडिकमामि परिणाणं, परमंतेहि वा पुणो। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय अहो उहिओ अहो रायं, इइ विजातवं चरे // 31 // प्रतीप क्रमामि प्रतिक्रमामि-प्रतिनिवर्त्त, केभ्यः - 'पसिणाण' ति | सुब्ब्यत्ययात् प्रश्रेभ्यः-शुभाशुभसूचकेभ्योऽडगुष्ठप्रश्नादिभ्यः, अन्येभ्यो वा साधिकरणेभ्यः, तथा परे-गृहस्थास्तेषां मन्त्राः परमन्त्रा:-तत्कार्यालोचनरूपा स्तेभ्यः, वा समुच्चये, पुनः विशेषणे, विशेषेण परमन्त्रेभ्यः प्रतिक्रमामि, अतिसावद्यत्वात्तेषां, सोपस्कारत्वात्सूत्रस्यामुनाऽभिप्रायेण यः संयम प्रत्युत्थानवान् सः अहो इति विस्मये उत्थितः धर्म प्रत्युधतः / कश्चिदेव हि महात्मैवंविधः सम्भवति अहोरात्रम्अहर्निशम् इति इत्येत-दनन्तरोक्त 'विज' त्ति विद्वान जानन् 'तवं ति अवधारणफलत्वा-द्वाक्यस्य तप एव न तु प्रश्नादि चरे:-आसेवस्वेति सूत्रार्थः। पुनस्तत्स्थिरीकरणार्थमाहजं च मे पुच्छसी काले, सम्म सुद्धेण चेयसा। ताई पाउकरे, बुद्धे,तं नाणं जिणसासणे // 32 // यच मे इति-मां पृच्छसि-प्रश्नयरिस काले-प्रस्तावे सम्यग्युद्धेन अविपरीतवोधवता चेतसा-चित्तेन, लक्षणे तृतीया, 'ता' इति सूत्रत्वात्तत 'पाउकरे' ति प्रादुष्करोमि-प्रकटीकरोमि प्रतिपाद-यामीति यावत्, बुद्धः-अवगतसकलवस्तुतत्त्वः / कुतः पुनर्बुद्धोऽस्म्यत आह-तदिति यत्किञ्चिदिह जगति प्रचरति ज्ञान-यथा-विधवस्त्ववबोधरूपं तल्लिनशासनेऽस्तीति गम्यते, ततोऽहं तत्र स्थितः इति तत्प्रसादाद बुद्धोऽरमीत्यभिप्रायः, इह च यतस्त्वं सम्यम्बुद्धेन चेतसा पृच्छस्यतः प्रतिक्रान्तप्रश्नादिरप्यहं यत्पृच्छसि तत्प्रादुष्करोमीत्यतः पृच्छ यथेच्छमित्यैदम्पर्यार्थः / अथवा-अत एव लक्ष्यते तथा 'अप्पणो य परेसिं च' इत्यादिना तस्यायुर्विज्ञताभवगम्य सञ्जमुनिनाऽसौ पृष्टः कियन्ममायुरिति ततोऽसौ प्राह-यच त्वं मां कालविषयं पृच्छसि तत्प्रादुष्कृतवान् बुद्धः-सर्वज्ञोऽत एव तज्ज्ञानं जिनशासने व्यवच्छेदफलत्वाजिनशासन एव न त्वन्यस्मिन् सुगतादिशासने, अतो जिनशासन एव यत्नो विधेयो येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि जानीषे,शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः। पुनरुपदेष्टमाहकिरियं च रोअए धीरो, अकिरियं परिवज्जए। दिट्ठीए दिट्ठिसंपन्नो, धम्मं चरसु दुचरं / / 33 / / क्रिया च अस्ति जीव इत्यादिरूपां सदनुष्ठानात्मिकां था रोचयेत् तथा तथा भावनातो यथाऽसावात्मने रुचिता जायते तथा विदध्यात् धीरःमिथ्यादृग्भिरक्षोभ्यः / तथा अक्रियां नास्त्यात्मेत्यादिकां मिथ्यादृक परिकल्पिततत्तदनुष्टारूपां वा परिवर्जयत्-परिहरेत् / ततश्च दृश्यासम्यग्दर्शनात्मिकया हेतुभूतया 'दिहि-संपन्नो' 'त्ति 'धीदृष्टिः शेमुषी धिषणा इति शाब्दिकश्रुतेदृष्टिः-बुद्धिः, सा चेह प्रस्तावात्सम्यगज्ञानात्मिका तया सम्पन्नो-युक्तो दृष्टिसम्पन्नः, एवं च सम्यग्दर्शनज्ञानान्वितः सन् धर्म-धारित्र-धर्मचर-आसेवस्व सुदुश्वरम्-अत्यन्तदुरनुष्ठेयमिति सूत्रार्थः। पुनः क्षत्रियमुनिरेव सञ्जयमुनि महापुरूषो दाहरणैः स्थिरीकर्तुमाहएयं पुण्णपयं सुचा, अत्थधम्मोक्सोहियं / भरहोऽवि भारह वासं, चिच्चा कामाई पव्वए।॥३४॥ सगरोऽवि सागरंतं, भरहवासं नराहिवो। इस्सरियं केवलं हिचा, दयाए परिनिव्वुडे ||35|| चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिडिओ। पव्वजमन्भुवगओ, मघवं नाम महाजसो॥३६।। सणंकुमारो मणुस्सिदो, चक्कवट्टी महिड्डिओ। पुत्तं रजे ठवित्ताणं, सोऽवि राया तवं चरे॥३७॥ चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डिओ। संती संतिकरो लोए,पत्तो गइमणुत्तरं / / 38|| इक्खागरायवसहो, कुंथूनाम नरेसरो। विक्खायकित्ती धिइमं, मुक्खं गओ अणुत्तरं / / 36 / / सागरंतं जहित्ता णं, भरहवासं नरेसरो। अरो अरय पत्तो, पत्तो गइमणुत्तरं / / 4 / / चइत्ता भारहं वासं, चक्कवट्टी महिड्डिओ। चिच्चा य उत्तमे भोए, महापउमो दमं चरे॥४१॥ एगच्छत्तं पसाहित्ता, महिं माणनिसूरणो। हरिसेणो मणुस्सिदो, पत्तो गइमणुत्तरं // 42 // अनिओ रायसहस्सेहिं, सुपरिचाई दमं चरे। जयनामो जिणक्खायं, पत्तो गइमणुत्तरं / / 43|| दसण्णरजं मुइयं, चइत्ता णं मुणी चरे। दसण्णभद्दो निक्खंतो, सक्खं सक्केण चोइओ॥४४|| (नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सक्केण चोइओ। जहित्ता रज्जं वइदेही, सामन्ने पज्जुवट्टिओ1) प्रक्षिप्ताकरकंडू कलिंगाणं, पंचालण य दुम्मुहो। णमी राया विदेहाणं, गंधाराण य नग्गई // 45 // एए नरिंदवसभा, निक्खंता जिणसासणे। पुत्ते रज्जे ठवित्ता णं, सामन्ने पज्जुवट्ठिआ४६|| सोवीररायवसभो, चइत्ता अमुणी चरे। उद्घायणो पव्वइओ, पत्तो गइमणुत्तरं / / 47|| तहेव कासिराया वि,सेओ सच्चपरक्कमो। कामभोगे परिचज्ज, पहणे कम्ममहावणं // 48|| तहेव विजओ राया, अणट्टा कित्तिपव्वए। रखं तु गुणसमिद्धं, पयहित्तु महायसो ||4|| तहेवुग्गं तवं किचा, अव्यक्खित्तेण चेयसा। महाबलो रायरिसी, अद्दाय सिरसा सिरं // 50 // सूत्राणि सप्तदश ! एतत्-अनन्तरोक्तं पुण्यहेतुत्वात्पुण्यं तच्च तत् पद्यतेगम्यतेऽनेनार्थ इतिपदंच, पुण्यपद, पुण्यस्य वा पदस्थानं पुण्यपदंक्रियादिवादिस्वरूपनानारुचिपरिवर्जनाद्यावेदकं शब्दसन्दर्भ श्रुत्वाआकार्य, अर्थ्यत इति अर्थः-स्वर्गापवर्गादिः धर्मः-तदुपायभूतः श्रुतधर्मादि Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजय स्ताभ्यामुपशोभित-विभूषितमर्थधर्मोपशोभित भरतोऽपि भरतनामा चक्रवर्त्यपि, अपिशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये 'भारह' ति प्राकृतत्वाद्धारतं वर्ष - क्षेत्रं त्यक्त्वा कामाई ति चस्य गम्यमानत्वात कामाश्च विषयान् प्राकृतत्वान्नपुसकनिर्देशः, 'पव्वए' त्ति प्रावाजीत्। 'सगरो वी' त्यादि सर्वमपि स्पष्ट, नवरं सागरान्तंसमुद्रपर्यन्तं दिक्त्रये, अन्यत्र तुहिमवत्पर्यन्तमित्युपस्कारः, तथा ऐश्वर्यम् आज्ञैर्श्वयादि केवलं परिपूर्णमनन्यसाधारणं वा दयय संयमेन परिनिर्वृतः इहैव विध्यातकषायानलत्वाच्छीतीभूतो मुक्तो वा। तथा- 'अरो य' त्ति अरनामा च तीर्थकृच्चक्रवर्ती 'अरयं' ति रतस्य रजसो वाऽभावरूपमरतमरजो वा, पाठातरतः-अरस वा शृङ्गारादिरसाभावं, प्राप्तः-गतो गतिमनुत्तरां-मुवितमित्यर्थः / तथा त्यक्त्वोत्तमान् भोगानिति, पुनरत्यक्त्वेत्यभिधानं भिन्नवाक्यत्वादपौनरुक्त्य, महापद्मः महापद्मनामा 'चरे' त्ति आचरत्। तथा एकं छत्रंनृपतिचिह्नमस्यामित्येकच्छवा तां, कोऽर्थः? अविद्यमानद्वितीयनृपति महींपृथ्वी प्रसाध्यवशीकृत्वति सम्बन्धः, माणनिसूरणो' त्ति दृप्तारात्यहङ्कारविनाशकः मनुष्येन्द्रः इति चक्री / तथा 'अन्नितो' त्ति अन्वितःयुक्तः 'सुपरिचाइत्ति सुष्टुशोभनेन प्रकारेण राज्यादि परित्यजतीत्येवं शीलः सुपरित्यागी दमंजिनाख्यातमिति सम्बन्धः, 'चरि'त्ति अचारीच्चरित्वा च जयनामा चक्रीति शेषः प्राप्तो गतिमनुत्तराम् / तथा दशा? नाम देशस्तद्रज्य-तदाधिपत्यं मुदित सकलोपद्रवविरहितं प्रमोदवत् त्यक्त्वा 'गः' प्राग्वत् 'त्ति अचारात, अप्रतिबद्धविहारतया विहृतवानित्यर्थः, साक्षाच्छक्रेण चोदितः- अधिकविभूतिदर्शनेन धर्म प्रति प्रेरितः / तथा निष्क्रान्ताः प्रव्रजिता निष्क्रम्य च श्रामण्ये- श्रमणभावे पर्युपस्थिताः तदनुष्ठानं प्रत्युद्यताः अभूवन्निति शेषः / तथा सौवीरेषु राजवृषभःतत्कालभाविनृपतिप्रधानत्वात्सौवीरराजवृषभः 'चेच्च' त्ति त्यक्त्वा राज्यमिति शेषः प्राग्वत्, मुनिःवैकाल्यावस्थावेदी सन् 'चरे' ति अचारात्, कोऽसौ? 'उदायणो' त्ति उदायननामा प्रव्रजितः, चरित्वा च किमित्याह-प्राप्तो गतिमनुत्तराम् / तथैव-तेनैव प्रकारेण काशीराजः काशीमण्डलाधिपतिः श्रेयसि-अति-प्रशस्ये सत्येसंयमे पराक्रमःसामर्थ्य यस्याऽसो श्रेयःसत्यपराक्रमः 'पहणे' त्ति प्राहन्-प्रहतवान् कर्म महावनमिवातिगहनतया कर्ममहावनम्। तथैव विजयः इति विजयनामा 'अणट्टाकित्तिपव्वए'त्ति, आर्षत्वाद् अनातः-आर्तध्यानविकलः कीर्त्यादीनानाथादिदानोत्थया प्रसिद्ध्योपलक्षितः सन्, यद्वा-अनार्ता सकलदोषविगमतोऽबाधिता कीर्तिरस्येत्यनार्त्तकीर्तिः सन्, पठ्यतेच- 'आणट्टा किइपव्वइ' त्ति, आज्ञाआगमोऽर्थशब्दस्य हेतुवचनस्याऽपि दर्शनादथों हेतुरस्याः सा तथाविधा आकृतिरन्मुिनिवेषात्मिका यत्र तदाज्ञार्थाकृति यथा भवत्येवं प्रावाजीद् गुणैःराज्यगुणैः शब्दादिभिर्वा समृद्धसम्पन्न गुणसमृद्ध, पूर्व तुशब्दस्यापिशब्दार्थत्वाद्व्यवहितसम्बन्धत्वाच्च / गुणसमृद्धमपि / तथा 'अद्दाय' त्ति आर्षत्वाद् आदितगृहीत्वांस्तद्गमनेन स्वीकृतवान शिरसव-शिरसा शिरःप्रदानेनेव जीवितनिरपेक्षमिति योऽर्थः, सिरं' ति शिर इव शिरः सर्वजगदुपरिवर्तितया मोक्षः, पठ्यते च-'आदाय सिरसो सिरिति, अत्रच आदायग्रहीत्वा शिरःश्रियं सर्वोत्तमा केवललक्ष्मीं परिनिर्वृत इति शेषः, इति सप्तदशसूत्रार्थः। इत्थं महापुरूषोदाहरणैानपूर्वकक्रिया - माहात्म्यमभिधायोपदेष्टमाहकहं धीरो अहेऊहिं, उम्मत्तो व्व महिं चरे? एए विसेसमादाय, सूरा दढपरक्कमा।।५१।। कथं-केन प्रकारेण धीरः उक्तरूपः अहेतुभिः-क्रियावाद्यादिपरिकल्पितकुहेतुभिः उन्मत्त इव-ग्रहगृहीत इव तात्त्विकवस्त्वपलपनेनालजालभाषितया महीं -पृथ्वीं चरेत्-भ्रमेत्? नैव चरेदित्यर्थः, किमिति? ते एते-अनन्तरोदिता भरतादयः विशेषम् विशिष्टतां गम्यमानत्वान्मिथ्यादर्शनेभ्यो जिनशासनस्य आदा-य-गृहीत्वा मनसि सम्प्रधार्येति यावत् शूरा दृढपराक्रमा एतदेवाश्रितवन्त इति शेषः / अयमभिप्रायः-यथेत महात्मानो विशेषमादाय कुवादिपरिकल्पित-क्रियावाद्यादिदर्शनपरिहारतो जिनशासन एव निश्चितमतयोऽभूवंस्तथा भवताऽपि धीरेण सताऽस्मिन्नेव निश्चित चेतो विधेयमिति सूत्रार्थः। किनअचंतनियाणखमा, एसा मे भासिया वई। अतरिंसु तरंतेगे, तरिस्संति अणागया / / 5 / / अत्यन्तभ-अतिशयेन निदान:-कारणैः, कोऽर्थः ? हेतुभिर्न तु परप्रत्ययेनेव, क्षमा-युक्ताऽत्यन्तनिदानक्षमा, यद्वानिदानकर्ममलशोधनं तस्मिन् क्षमा-समर्था एषा-अनन्तरोक्ता, पाठान्तरतः-सर्वा-अशेषा सत्या वा मे मया भाषिता, अनयाऽङ्गीकृतया अतीर्घः-तीर्णवन्तः तरन्ति एकेअपरे, पाठान्तरतोऽन्ये, सम्प्रत्यपि तत्कालापेक्षया क्षेत्रान्तरापेक्षया वेत्थमभिधामिति, तथा तरिष्यन्ति अनागताः भाविनो, भवोदधिमिति सर्वत्र शेष इति सूत्रार्थः। यतश्चैवमतःकहं धीरे अहेऊहिं, अदायं परियावसे / सव्वसंगविणिम्मुक्को, सिद्धे भवइ नीरए।।५३॥ त्ति बेमि / कथं धीरोऽहेतुभिः आदाय-गृहीत्वा, क्रियादिवादिमतमिति शेषः, पर्या वसेत् परीति-सर्वप्रकारमावसेत् तत्रै वनिलीयेत, नैव तत्राभिनिविष्टो भवेदिति भावः / पठ्यते च-'अत्ताणं परियावसि' ति आत्मानं पर्यावास-येद, अहेतुभिः कथमात्मानमहेत्वावास कुर्यात? नैव कुर्यादित्यर्थः / किं पुनरित्थमकरणे फलमित्याह-सर्वेनिरवशेषाः सजन्ति कर्मणा सम्बध्यन्ते जन्तव एभिरिति सङ्गाः द्रव्यतो द्रविणादयो भावतस्तु मिथ्यात्वरूपत्वादेत एव क्रियादिवादास्तैर्विनिर्मुक्तोविरहितः सर्वसङ्गाविनिर्मुक्तः सन् सिद्धो भवति नीरजाः, तदनेनाहेतुपरिहाररय सम्यगज्ञानहेतुत्वेन सिद्धत्वं फलमुक्तमिति सूत्रार्थः / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजय 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजुत्ताहि० 2 विव०। इत्थं तमनुशास्य गतो विवक्षितं स्थानं क्षत्रियः शेषसजयवक्तव्यता तद्न लभ्येत, पूर्वलब्धमपि च पुनस्तदुदये सर्व तद्भ्रश्यतीति। न हित्वाह नियुक्तिकृत् नैव यथा-ख्यातमात्रोपघातिनः संज्वलनाः, किन्तु-शेषचारित्राणामपि काऊण तवचरणं, बहूणि वासाणि सो धुयकिलेसो। देशोपघातिनो भवन्ति,यतस्तेषामुदये तदपि शेषचारिखंसातिचारं भवति, तं ठाणं संपत्तो, संपत्ता न सोयंति / / 404 / / इति गाथार्थः / / 1246 / 1247 / / 1248 // विशे०। सूत्र० / संज्वलयति सुगमैव, नवरं धुताः-अपनीताः क्लिश्यन्त्येषु सत्सु जन्तव इति / दीपयति सर्वसावद्यविरतिमपीन्द्रियार्थसम्पातेवा संज्वलति दीप्यत इति क्लेशाः-रागादयो येन स धुतक्लेशो यत्सम्प्राप्ता न शोचन्ते, शोकहेतु- संज्वलनः / स्था० 4 ठा० 1 उ०। प्रतिक्षणरोषणे, दशा०१०। आ० शारीरमानसदुःखाभावादिति गाथार्थः इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमि पूर्ववत् / म०। सूत्र० / मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलने, भ० 12 श० 5 उ० / उत्त०१८ अ०। ऋषभदेवस्य पुत्राणां शतकाभ्यन्तरवर्तिनि चतुर्नवतितमे आ०चू० / स०। पं० सं०। पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। संजलणकसायसंगय त्रि० (संज्वलनकषायसङ्गत) अल्पतरकल्पसंजयभद्द पुं० (संजयभद्र) साध्वनुकूले संयते, नि०चू० 11 उ०। कषायोद्भवे, पञ्चा० 17 विव०। संजयविरयपचक्खायपावकम्म पुं० (संयतविरतप्रत्याख्यातपाप संजलणतिग न० (संज्वलनत्रिक) संज्वलनक्रोधमानमायारूपे कषायकर्मन) सामस्त्येन यतः संयतः सप्तदशप्रकारसंयमोपेतः, विविधमने त्रये, कर्म०२ कर्म। कधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः संयतश्चाऽसौ विरतश्च, तथा प्रतिहतं संजलणा स्त्री० (संज्वलना) ज्ञानादिगुणोद्दीपनायाम्, उत्त० 10 स्थितिहासतो ग्रन्थिभेदेन विनाशितं प्रत्याख्यातं हेत्वभावतः पुनर्वृद्ध्य संजाणय त्रि० (संज्ञापक) विज्ञे, अनु०। भावेन निराकृतं पापकर्मज्ञानावरणीयादि येन स तथा पुनः कर्मधारयः। संजाय त्रि० (संजात) उत्पन्ने औ०। सुसंयते, ध०३ अधिक। दश०। संजायतिव्वसद्ध त्रि० (सजाततीव्रश्रद्ध) समुत्पन्नोत्कटगुरुरुची, पञ्चा० संजयाऽऽभास पुं० (संयताभास) संयतवदवभासमाने असंयते, आचा० संजायसव त्रि० (सञ्जातश्रद्ध) प्रकर्षेण जातश्रद्धे, सू०प्र० 1 पाहु०। 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। रा०। संजयासंजय पुं० (संयतासंयत) देशविरते, भ०६ श०३ उ० / नं०। / संजीवणी स्त्री० (सजीवनी) जीवितदात्र्याम्, सूत्र० 1 श्रु०५ 702 उ० / संजलण पुं० (संज्वलन) ईषज्ज्वलनात्संज्वलनाः, सपदि ज्वलनाद् संजुय न० (संयुग) संग्रामे, षष्ठभागे 'मूलपिंड' शब्दे उदाहृत सिन्धुवा संज्वलनाः। परीषहादिसंपाते चारित्रिणमपि ज्वलयन्तीति संज्वलनाः। राजपालिते नगरे, पिं० / पाइ० ना० / अल्पतरेषु क्रोधादिषु कषायेषु, विशे०। स्था०। परीषहोपसर्गोपनिपाते संजुत्त त्रि० (संयुक्त) मिश्रिते 'कम्मणा तेण संजुत्तो गच्छइ उ परभवं।' यतिमप्यमी समीपज्ज्वलयन्त्येव तेन संज्वलनाः स्मृताः, ते चत्वारः / उत्त० 18 अ० / संबद्धे, उत्त० 1 अ०। क्रोधमानमायालोभाः / कर्म०१ कर्म० / आव० / संजुत्तदव्वसम्मत्त न० (संयुक्तद्रव्यसम्यक्त्व) द्वयोर्द्रव्ययोः संयोगा अथ संजलणाणं उदए' इत्यादिनियुक्ति गुणान्तराधानाय नोपमर्दाय उपभोक्तुमनःप्रीतये पयः-शकरयोरिद गाथोत्तरार्धव्याख्यामाह तत्संयुक्तद्रव्यसम्यक् द्रव्यसम्यक्त्वभेदे, उत्त०२८ अ०। ईसिं सयराहं वा, संपाए वा परीसहाईणं। संजुत्तसंजोग पुं० (संयुक्तसंयोग) 'संजोग' शब्दे वक्ष्यमाणे संयोगभेदे, जलणाओ संजलणा, नाहक्खायं तदुदयम्मि॥१२४६|| उत्त०१अ०। अकसायमहक्खायं, जं संजलणोदए न तं तेणं। संजुत्ताहिगरण पुं० (संयुक्ताधिकरण) अधिक्रियते नरकादिष्वलब्भइ लद्धं च पुणो, भस्सइ सव्वं तदुदयम्मि / / 1247 / / नेनेत्यधिकरणं वासः उदूखलमुशलशिलापुत्रक गोधूमयन्त्रादिनहु नवरिमहक्खाओ, वघाइणो सेसचरणदेसं पि। संयुक्तमर्थक्रियाकरणयोग्यम्, संयुक्तं च तदधिकरणंचेति समासः घाएंति ताणमुदए, होइ जओ साइयारं तं / / 1258|| आव०६ अ० / उपा० / श्रा० / पञ्चा० / तूणीरधनुर्मुशलोदूखलघरट्टाइह संशब्दस्य त्रयोऽर्थाः, तद्यथा-ईपज्ज्वलनात् संज्वलनाः, अथवा- | दिके, ध००२ अधि। 'सयराह' झगिति ज्वलनात संज्वलनाः, यदि वा-परीषहादिसम्पाते / | संजुताहिगरणया स्त्री०(संयुक्ताधिकरणता)अधिक्रियते आत्माचारित्रिणमपि ज्वलयन्तीति संज्वलनाः, तदुदये यथाख्यातचारित्रं न ऽनेनेत्यधिकरणम्। उदूखलादिसंयुक्तं चार्थक्रिया। ध०२ अघि०। संजुत्ताभवति / कुतस्तदुदये तद् न भवति? इत्याह- 'अकसाय' मित्यादि, 'ज' हिगरणे' त्ति संयुक्तम्- अर्थक्रियाकरणक्षममधिकरणम्-उदूखलमुशलादि. तियस्मादकषायं यथाख्यातमुच्यते, तेन करणेन संज्वलन कषायोदये / तदतिचारहेतुत्वादतिधारोहित्र प्रदाननिवृत्तिविषयः, यतोऽसे साक्षाद्यापि हिरसं आधा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजुत्ताहिक 107 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग शकटादिकं न समर्पयति परेषां तथापि तेन संयुक्तेन तेऽयाचित्वाऽप्यर्थक्रियां कुर्वन्ति विसंयुक्ते तु तस्मिरन्ते स्वत एव विनि-वारिता / भवन्ति / / 4 / / अर्थक्रियाकरणक्षमे चतुर्थेऽतिचारे, उपा०१ अ०। संयुक्ताधिकरणम्- अधिक्रियते नरकादिष्वनेनेत्यधिकरणम्, वास्तूदूखलशिलापुत्रकगोधूमयन्त्रकादि संयुक्तम् अर्थक्रियाकरणयोग्यम्, संयुक्तं च तदधिकरणं चेति सभासः। एत्थ सामाचारीसावगेण संजुत्ताणि चैव रसगडादीनि न धरेतव्वाणि, एवं वासीपरसुमादिविभासा।' उपभोगपरिभोगातिरेक' इति उपभोगपरिभोगशब्दार्थो निरूपित एष तदतिरेकः / एत्थ वि सामायारी-उवभोगातिरितं जदि तेल्लामलए बहुए गेण्हति ततो बहुगा बहायगा वचंति तस्स लोलियाए. अण्हविण्हायगा बहायंति, एत्थ पूतरगा आउक्कायवधो, एवं पुप्फतंबोलमादिविभासा, एवं ण वट्टति / काविधी सावगरस उवभोगेण्हाणे? घरे पहायव्वंणऽस्थिताधे तेल्लामलएहिं सीसं घंसिना सव्वे साडेतूणं ताहे तडागाऽऽइतडे निविट्ठो अंजलिहि हाति। एवं जेसु य पुप्फेसुपुप्फकुंथुगाणि ताणि परिहरति। आव०६ अ०। संजुद्ध (देशी) सस्पन्दे, देना० 8 वर्ग 6 गाथा। संजुय पु० (संयुग) संग्रामे, व्य०१ उ०। *संयुत त्रि० बहुविधैर्व्यञ्जनादिभिः सहिते, उत्त० 12 अ० / संजूह न० (संयूथ) निकायविशेषे, अनुयोगभेदे, म० 15 श० / दृष्टिवादस्थाष्टाशीतिसूत्रेषु सप्तमे सूत्रे, स० 147 सम० / सङ्गत युक्तार्थ यूथं पदानां पदयोर्वा समूहः संयूथं, समास इत्यर्थः / स्था० 10 ठा० 3 उ०। सूत्र०। संजोइत्ता अव्य० (संयोज्य) संयोगं कृत्वेत्यर्थे, स्था०१० ठा० संजोइम त्रि० (संयोगिम) संयोगिमं च संयोगस्तेन निवृत्तः "भावादिमः” // 6 / 4 / 21 / / इतीमप्रत्ययः / संयोगनिष्पन्ने, हैम० संजोग पुं० (संयोग) संयुज्यते संयोजनं वा संयोगः / आचा० 1 श्रु०२ अ०१ उ०। समुचितो योगः। पं० सू०१ सूत्र। “आदेो जः" || 8/1 / 245 / / इति यस्य जः / प्रा० / परस्परोचितपदार्थानां योगे, औ० / जीवस्य सम्बन्धे, आचा० 1 श्रु० 8 अ० 1 उ० उत्त० / नानाभवेषु पुत्रकलत्रमित्रशरीरादिसम्बन्धे, आतु०। आचा०। सूत्र०। विशे०। उत्त० / पुत्रकलत्र- | मित्रादिजनिते सम्बन्धे, आचा०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। सम्बन्धे, सूत्र०२ श्रु० 1 अ० / कनचित्सह सम्बन्धे, आव० 4 अ० / पित्रादिभिः सार्द्ध सम्बन्धे, दर्श० 4 तत्त्व। ममत्वकृते सम्बन्धे, आचा० 1 श्रु० 2 अ०६ उ० / अप्राप्ति-पूर्विकायां प्राप्तौ, सम्म० 3 काण्ड। आचा०। संयोगभेदाःसे किं तं संजोए णं? संजोगे चउविहे पण्णत्ते, तं जहादव्न-संजोगे खेत्तसंजोगे कालसंजोगे भावसंजोगे? से किं तं दव्वसं-जोगे? दय्वसंजोगे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-सचित्ते अचित्ते मीसए। से किं तं सचित्ते,? सचित्तेगोहिंगोमिए महिसीहिं महिसए ऊरणीहिं ऊरणीए उट्टीहिं उट्टीवाले, से तं सचित्ते / से किं तं अचित्ते? अचित्ते छत्तेण छत्ती दंडेण दंडी पडेण पडी घडेण घडी कडेण कडी, से तं अचित्ते / से किं तं मीसए ? मीसए हलेणं हालिए सगडेणं सागडिए रहेणं रहिए नावाए नाविए से तं दध्व-संजोगे / से किं तं खित्तसंजोगे? 2 भारहे एरवए हेमए एरण्ण-वए हरिवासए रम्मगवासए देवकुरुए उत्तरकुरुए पुव्वविदेहए अवरविदेहए, अहवा-मागहे मालवए सोरवठ्ठए मरहट्ठए कुंकणए, से तं खेत्तसंजोगे / से किं तं कालसंजोगे? 2 सुसमसुसमाए सुसमाए सुसमदुसमाए दुसमसुसमाए दुसमाए दुसमदु-समाए। अहवा-पावसए वासारत्तए सरदए हेमंतए वसंतए गिम्हए, से तं कालसंजोगे। से किं तं भावसंजोगे? 2 दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पसत्थे अ, अपसत्थे अ। से किं तं पसत्थे? 2 नाणेणं नाणी दंसणेणं दंसणी चरित्तेणं चरित्ती, से तं पसत्थे। से किं तं अपसत्थे ? 2 कोहेणं कोही माणेणं माणी मायाए मायी लोहेणं लोही से तं अपसत्थे। से तं भावसंजोगे। से तं संजोए थे। संयोगः-सम्बन्धः,स चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्रव्यसंयोग इत्यादि, सर्व सूत्रसिद्धमेव, नवरं-सचित्तद्रव्यसंयोगेन गावोऽस्य सन्तीति गोमानित्यादि। अचित्तद्रव्यसंयोगेन क्षत्रमस्यास्तीति क्षत्रीत्यादि, मिश्रद्रव्यसयोगेन हलेन व्यवहरतीति हालिक इत्यादि। अत्र हलादीनामचेतनत्वाद् बलीवर्दानां सचेतनत्वान्मिश्रद्रव्यता भावनीया। क्षेत्रसंयोगाधिकारे भरते जातो भरते वाऽस्य निवास इति तत्र जातः (का० 507) "सोऽस्य निवास" इति वाऽणप्रत्यये भारतः। एवं शेषेष्वपि भावना कार्या / कालसंयोगाधिकारे सुषमसुषमायां जातइति “सप्तमी पञ्चम्यन्तेजनेर्ड:" (का० रू० 661) / इति डप्रत्यये सुषमसुषमजः एवं सुषमजादिष्वपि भावनीयम् / भावसंयोगाधिकारे भावः-पर्यायः, स च द्विधाप्रशस्तो ज्ञानादिरप्रशस्तश्च क्रोधादिः, शेषं सुगमम्। इदमपि संप्रयोगप्रधानतया प्रवृत्तत्वाद्रौणाद्भिद्यत इति / अनु०। सम्प्रति सूत्राऽऽलापकनिष्पन्ननिक्षेपस्य सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्तेश्च प्रस्ताव इति मन्यमानः संयोग इत्याद्य पदं स्पृशन्निक्षेप्ठ ___ माह नियुक्तिकृत्संजोगे निक्खेवो, छक्को दुविहो उ दव्वसंजोगे। संजुत्तगसंजोगो, नायव्वियरेयरो चेव // 30 // संयोग इति-संयोगविषयः निक्षेपः न्यासः, षट्परिमाणमस्येति षट्कः प्राग्वत्कन्, एतद्भेदाश्च नामस्थाफ्नाद्रव्यक्षेत्रकालभावाः, प्रसिद्धत्वादुत्तरत्र व्याख्यानत उन्नीयमानत्वाच्च नोक्ताः, (अत्र-त्या वक्तव्यता 'वक्खाण' शब्दे 'णामणय' शब्दे 'ठवणाणय' शब्दे च उक्ता) उक्तं पूज्यैः- "आगरो चिय मइसघवत्थुकिरियाफलाभिहाणाई। आगारमयं सव्वं, जमणागार तय Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 108 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग नऽस्थि / / 1 / / ण पराणुमयं वत्थु, अगाराभावओ खपुप्फ व। उलंभव्ववहारा, भावाओणाणगारं च।।।।" द्रव्यनय आह- "यथानामादिनाकार, विना संवेद्यते तथा / नाऽऽकारोऽपि विना द्रव्यं, सर्वे द्रव्यात्मकं ततः // 1 // " तथाहि-द्रव्यमेव मृदादिनिखिलस्थासकोश-कुशूलकुटकपालाद्याकारानुयायि वस्तु सत्, तस्यैव तत्तदाकारानुयायिनः सद्बोधविषयत्वात, स्थासकोशाधाकाराणां तु मृद्रव्यातिरेकिणां कदाचिदनुपलम्भात्, तचोत्पादादिसकलविकारविरहितं तथा तथाऽऽविर्भावतिरोभावमात्रान्वितं सम्मूञ्छितसर्वप्रभेदनिर्भेदबीजं द्रव्यमगृहीततरङ्गादिप्रभेदस्तिमितसरःसलिलवत्, आह च"दव्वपरिणाममेतं, मोत्तूणागारदरिसणं किं तं / उप्यायव्वयरहिय, द चिय निध्वियारं ति ||1|| आविब्भावतिरोभावमेत्तपरिणामकारणमचिन्तं / णि बहुरूवं पि य, नडो व्व वेसंतरावण्णो / / 2 / / " (भावनयव्याख्या 'भावणय' शब्दे पञ्चमभागे गता।) परमार्थतस्त्वयम्संविन्निष्ठेव सर्वाऽपि विषयाणां व्यवस्थितिः। संवेदनं चनामादि, विकलं नानुभूयते / तथाहि"घटोऽयमिति नामैतत. पृथुबुध्नादिनाऽऽकृतिः / मृद्रव्यं भवनं भावो, घटे दृष्ट चतुष्टयम्॥१॥ तत्राऽपि नाम नाकारमाकारो नाम नो विना। तौ विना नापि चान्योऽन्यमुत्तरावपि सस्थितौ / / 2 / / मयूराण्डरसे यदद्वर्णा नीलादयः स्थिताः। सर्वेऽप्यन्योऽन्यमुन्मिश्रास्तद्वन्नामादयो घटे॥३॥" इत्थं चैतत् परस्परसध्यपेक्षितयैवाशेषनयानां सम्यग्नयत्वात, इतरथा उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति प्रत्यक्षादिप्रमाणप्रतीतसलक्षणानुपपत्तेश्च / किया-शब्दादपि घटादेन मादिभेदरूपेणैव घटाद्यर्थे बुद्धिपरिणामो जायते. इत्यतोऽपि नामादिचतूरूपतैव सर्वस्य वस्तुनः / उक्तं च"नामादिभेदसहत्थ बुद्धिपरिणाग-भावओ णिययं। जंवत्थु अस्थिलोए, चउपजायं तय सव्वं / / 1 / / " ततश्च- "चतुष्काभ्यधिकस्येह, न्यासो योऽन्यस्य दयत। एतदन्तर्गतः सोऽपि, ज्ञातव्यो धीधनान्चितैः / / 1 / / " इत्यलं प्रसङ्गेन / सम्प्रति नियुक्तिरनुश्रि (स्त्रि) यते। तत्र नामस्थापने आगमतो नोआगमतश्च ज्ञशरीरभव्यशरीररूपश्च द्रव्यसंयोगः सुगम इति मन्वानो व्यतिरिक्तद्रव्यसंयोगमभिधातुमाह-द्विविध-रित्वति द्विविध एव, द्रव्येण द्रव्यस्य वा, समिति सङ्गतो योगः संयोगः / संयोग विध्यमेवाहसंयुक्तमेव संयुक्तकम्- अन्येन संश्लिष्ट, तस्य संयोगोवरस्वन्तरसम्बन्ध: संयुक्तकसंयोगो ज्ञातव्यः / इतरेतर इति इतरेतरसयोगः / चः समुच्चये। एवः अवधारणे / इत्थमेव द्विविध एष संयोग इति गाथासमासार्थः / / 30 // विस्तरार्थ त्वभिधित्सुः "यथाशं निर्देश" इति न्यायतः संयुक्तकसयोग भेदेनाहसंजुत्तगसंजोगो, सच्चित्तादीण होइ दवाणं / दुममणुसुवण्णमाई, संतइकम्मेण जीवस्स / / 31 / / संयुक्तकसंयोगः अनन्तराभिहितस्वरूपः सचित्तादीनां सचित्ताचित्तमिश्राणां भवति द्रव्याणाम्। अमीषामुदाहरणान्याह- 'दुम-मणुसुवण्णमाइ'त्ति' अत्र मकास्यालाक्षणि कत्वात् सुब्ब्यत्ययाच द्रुमाणुसुवर्णादीनां प्रत्येक चादिशब्दसम्बन्धात्सचित्तद्रव्याणां द्रुमादीनाम्, अचित्तद्रव्याणामण्वादीनां सुवर्णादीनां च, मिश्रद्रव्यस्य तु सन्ततिकर्मणोपलक्षितस्य जीवस्य। अत्र चाऽसवादीना सुवर्णादीनामित्युदाहरणद्वयमचित्तद्रव्याणां सचित्तमिश्रद्रव्यापेक्षया भूयस्त्वख्यापनार्थम् / एतद्भ्यस्त्वं च जीयेभ्यः पुद्रलानामनन्तगुणत्वात्। उक्तंच-“जीया पोग्गलसमया, दव्धपएसाय पजवा चेव / थोवाऽणताणता, विसेसमाहिया दुवेऽणता / / / / 1 / / " इति, अनेन च सचित्तादेः संयोगद्रव्यस्य त्रैविध्यात रायुक्तक-योगस्य त्रैविध्यमुक्तमिति गाथार्थः / / 3 / / तत्र द्रुमादीना सचित्तसंयुक्तद्रव्यसंयोग विवरीतुमाहमूले कंदे खंधे, तया य साले पवालपत्तेहिं / पुप्फफले बीएहि अ, संजुत्तो होइ दुममाई / / 32 / / मूले कन्दे स्कन्धे इति सर्वत्र सूत्रत्वात्, तृतीयार्थे सप्तमी। ततश्च मूलेनअधःप्रसर्पिणा स्वावयवेन कन्देनतेनैव मूलस्कन्धान्तरालवर्तिना स्कन्धेनस्थुडेन त्वचाछविरूपया 'साले' त्ति एकारोऽलाक्षणिकः, ततः शालाप्रवालपत्रैःशाखापल्लवपलाशैः, फले इत्यत्राप्येका-रस्तथैव, ततः पुष्पफलबीजेश्व प्रसिद्धरेव संयुक्तः-सम्बद्धो भवति। 'दुमनाइ'त्ति मकारोऽलाक्षणिकः ततो दुमादिः, आदिशब्दाद्-गुच्छगुल्मादिश्व संयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः। स हि प्रथममुद्रच्छन्नड़ कुरत्मकः पृथिव्याः संयुक्त एव मूलेन संयुज्यते, ततो मूलसंयुक्तक एव कन्टेन, कन्दसंयुक्त एव स्कन्धेन एवं त्वक्शाखाप्रवालपुष्पफलबीजैरपि पूर्वसंयुक्त एवोत्तरोत्तरैः संयुज्यते इति भावनीयम् / नन्वेवं द्रुमादेव्यत्वात् संयुतकसंयोगस्य च गुणत्वात्कथं द्रुमादिरेव स इति, अत्रोच्यते- धर्मधर्मिणोः कथाश्चिदनन्यत्वादेवमुक्तमित्यदोषः। एवमुत्तरभेदयोरपीति गाथार्थः // 32 // अण्वादीनामचित्तसंयुक्तकद्रव्यसंयोगं स्पष्टयितुमाहएगरस एगवण्णे, एगे गंधे तहा दुफासे अ। परमाणू खंधेहि अ, दुपएसाईहिणायव्वो / / 33 / / एक:-अद्वितीयरितक्तदिरसान्यतमो रसोऽस्येति एकरसः, तथैकः कृष्णादिवर्णान्यतमो वर्णोऽस्येति एकवर्णः, एवम् एकगन्धः-सुग-धीतरान्यतरगन्धान्वितः, 'एगे' इत्येकार स्यालक्षणिकत्वात्, तथा दो चाविरुद्धौ स्निग्धशीताद्यात्मको स्पर्शावस्येति द्विस्पर्शः / चशब्दः स्वगतानन्तभेदीपलक्षकः। क एवंविधः? इत्याह -परमः-तदन्यसूक्ष्मतरासम्भवात् प्रकर्षवान् स चासावणुश्च परमाणुः, उपलक्षणत्वाद्दव्यणुकादिश्व०, स्कन्धैश्वस्कन्धशब्दाभिधेयैः, कैरित्याह-दौ प्रदेशाधारम्भकावस्येति द्विप्रदेशोयणुकः, स आदिर्येषां त्रिप्रदेशादीनामचित्तमहारकन्धपर्यन्तानां ते तथा तैः-चशब्दात्परमाण्वन्तरैर्वर्णान्तरादिभिश्व, संयुज्यमान इति गम्यते। विज्ञेयः विशेषेणसंख्यातासंख्यातानन्तभङ्गवि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग भावनात्मकेनावबोद्धव्यः, पाठान्तरतो ज्ञातव्यः, अचित्तसंयुक्तकसंयोग इति प्रक्रमः, अयमर्थः- "कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकररावर्णगन्धो, द्विस्पर्श: कार्यलिङ्गश्च / / 1 / / " इत्येवलक्षणः परमाणुर्यदा त्र्यणुकादिस्कन्धपरिणतिमनुभवति तदा रसादिसंयुक्त एव दव्यणुकादिभिः स्कन्धैः संयुज्यते, यदा वा तिक्ततादिपरिणतिमपहाय कटुकत्वादिपरिणति प्रतिपद्यते तदाऽपि वर्णादिभिःसंयुक्त एव कटुकत्वादिना संयुज्यते इति संयुक्तसंयोग उच्यते। अत्र च कृष्णपरमाणुः कृष्णत्वमपहाय नीलत्वं प्रतिपद्यत इत्येको भङ्गः, एवं रखतत्वं पीतत्वं शुल्कत्वं चेति च वारः। तथाऽयमेव रसपशकगन्धद्वयाविरुद्धस्पर्शस्तारतम्यजनितेश्च स्वस्थान एव द्विगुणकृष्णत्वादिभिः परमाण्वन्तरद्विप्रदेशादिभिश्च योजनाद्विवक्षावशतः संख्यातासंख्यातानन्तात्मिका भड़रचनामवाप्नोति. एवं वर्णान्तररसस्पर्शगन्धस्वगततारतम्ययुक्तोऽपि, तथा द्विप्रदेशादिश्च / यश्च- 'वण्णरसंगधफासा, पोग्गलाणं च लक्खणं' इत्यादिसूत्रेषु वर्णस्यादित्वेन दर्शनेऽपि 'एगरसएगवण्णे' त्ति रसस्य प्रथमत उपादानं तदनानुपूर्व्या अपिव्याख्याङ्गत्वेन गाथाबन्धानुलाम्येन वेति भावनीयन् / सुपर्णादीनां च प्राच्यवर्णकासंयुक्तानामेव विशिष्टवर्णकादिभिः संयोगोऽचित्तसंयुक्तकसंयोग उक्तानुसारेण सुज्ञान एवेति निर्युकृता न व्याख्यात इति गाथार्थः / दृष्टान्तपूर्वक सन्ततिकर्मणा जीवस्य मिश्रसंयुक्तकद्रव्य संयोग व्यक्तीकर्तुमाहजह धाऊ कणगाई, सभावसंजोयसंजुया हुंति / इअ संतइकम्मेणं, अणाइसंजुत्तओ जीवो // 34 // यथा इति-उदाहरणोपन्यासार्थः, यथा धातवः कनकादियोनिभूता मृदादयः 'कणगाई' ति सूत्रत्वात्कनकादिभिः, आदिशब्दात्ताम्रादिभिश्च, किमित्याह-स्वभावेन संयोगः प्रकृतीश्वराद्यर्थान्तरव्यापारान क्षयोपलक्ष्यानुपलक्ष्यरूपो यः सम्बन्धस्तेन संयुक्तामिश्रिताः स्वभावसंयोगसंयुताः भवन्ति-विद्यन्ते इतीत्यमुनैवार्थान्तरनिरपेक्षत्वलक्षणेन प्रकारेण सन्ततिः-उत्तरोत्तरनिरन्तरोत्पत्तिरूपः प्रवाहस्तयोफ्लक्षित कर्म-ज्ञानावरणादि सन्ततिकर्म तेन, न विद्यते आदिः-प्राथम्यमस्येत्यनादिः, स चेह प्रक्रमात्संयोगस्तेन 'स' मिति 'अण्णोण्णाणुगयाणं इम चतं च त्ति विभयणमजुत्त' इत्यागमाद्वि-भागाभावतो युक्तः श्लिष्टोऽनादिसंयुक्तः स एव अनादिसंयुक्तकः,यद्वा संयोगः संयुक्तं ततोऽनादिसंयुक्तमस्येति अनादिसंयुक्तकः, क इत्याह-जीवति जीविष्यति जीविताश्चेति जीवः मिश्रसंयुक्तक-द्रव्यसंयोग इति प्रक्रमः / इदमुक्तं भवति-जीवो ह्यनन्तकर्मा-सुवर्गणाभिरावेष्टितप्रवेष्टितोऽपि न स्परूपं चैतन्यमतिर्तिते, नचाचैतन्यं कर्माणव इति तयुक्ततया विवक्ष्यमाणो - ऽसौ संयुक्तकमिश्रद्रव्य, ततोऽस्य कर्मप्रदेशान्तरैः संयोगो मिश्रसंयुक्तकद्रव्यसयोग उच्यते। इह च जीवकर्मणोरनादिसंयोगस्य धातुकनकादिसंयोगदृष्टान्तद्वारेणाभिधानं तद्वदेवानादित्वेऽप्युपायतो जीवकर्मसंयोग स्याभावख्यापनार्थम्, अन्यथा मुक्त्यनुष्ठानवैफल्यापत्तेरिति भावनीयमिति गाथार्थः / उक्तः संयुक्तकसंयोगः। इतरेतरसंयोगमाहइयरेयरसंजोगो, परमाणूणं तहा पएसाणं / अभिपेयमणभिपेओ, अभिलावो चेव संबंधो॥३५।। इतरेतरस्यपरस्परस्य संयोगो-घटना इतरेतरसंयोगः परमाणूनाम्उक्तरूपाणा, तथा प्रकर्षण-सूक्ष्मातिशयलक्षणेन दिश्यन्ते-कथ्यन्त इति प्रदेशाः-धर्मस्तिकायादिसम्बन्धिनो निर्विभागा भागास्तेषाम्, 'अभिपेय'ति प्राकृतत्वादभिप्रेतः, इतरेतर-संयोग इति योज्यते. एवमुतरत्रापि / अभिप्रेतत्वं चास्य अभिप्रेतविषयत्वाद्, एतद्विपरीतोऽनभिप्रेतः / अभिलप्यते-आभिमुख्येन व्यक्तमुच्यतेऽनेनार्थ इत्यभिलापोवाचकः शब्दरसद्विषयत्वात् अभिलापः। चः समुच्चये। एवः अवधारणे। सम्बन्धशब्दानन्तरं चैतौ योज्यौ, ततः सम्बन्धनं सम्बन्धः, स चैवं स्वस्वामित्वादिरनेकधा वक्ष्यमाणः। एतावद्भेद एवायमितरेतर-संयोग इति चावधारणस्यार्थ इति गाथासमासार्थः। परमाणुना संयोगमाहदुविहो परमाणूणं, हवइ य संठाणखंधओ चेव / संठाणे पंचविहो, दुविहो पुण होइ खंधेसुं // 36 / / द्वौ विधौ प्रकारावस्थेति द्विविधः-द्विभेदः, कोऽसौ?-परमाणूनाम् इति परमाणुसम्बन्धी, प्रक्रमादितरेतरसंयोगो भवति। चः पूरणे / कथं द्विविध इत्याह- 'संठाणखंधतो' त्ति सन्तिष्ठतेऽनेन रूपेण पुदलात्मकं वस्त्विति संस्थानम्-आकारविशेषः ततस्तमाश्रित्य, स्कन्धतः स्कन्धमाश्रित्य / चः समुचये। एवः भेदावधारणे। द्विविधस्थाऽपि प्रत्येक भेदानाह-संस्थाने संस्थान-विषयः पञ्चविधः-पञ्चप्रकार:द्विविधः-द्विप्रकारः, पुनःशब्दो वाक्यान्तरोपन्यासे, भवति, स्कन्धेषु स्कन्धविषय इति गाथार्थः। इह च संस्थानस्कन्धभेदद्वारक एवायमितरेतरसयोगभेद इति तदभिधानमुचितं, तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायतः संस्थानभेदाभिधानप्रस्तावेऽप्यल्पवक्तव्यत्वात् स्कन्धभेद हेतुभेदद्वारेणाऽऽहपरमाणुपुग्गला खलु, दुन्निव बहुगा य संहता संता। निव्वत्तयंति खंधं, तं संठाणं अणित्थत्थं // 37 // परमाणुपुद्रलौ खलु द्वौ वा बहव एव बहुकाः-त्रिप्रभृतयः, ते च परमाणुपुरलाःसंहताः-एकपिण्डतामापन्नाः सन्तो निर्वर्तयन्तिजनयन्ति, किमित्याह-स्कन्धंद्यणुकादिकम्, अनेन च द्विपरमाणुजन्यतया बहुपरमाणुजन्यत्वेन च स्कन्धस्य द्विभेदत्वमुक्तम्। खलुशब्दोऽत्र विशेष द्योतयति, स चायम्-इह रूक्षः स्निग्धो वा एकगुणः सम्बध्यमानो द्विगुणाधिकनैव स्वस्वरूपापेक्षया सम्बध्यते, नतु समगुणेनैकगुणाधिकेन वा। किमुक्तं भवति ? एकगुणस्निग्धस्त्रिगुणस्निग्धेन सम्बध्यते, त्रिगुणस्निग्धः पशगुणस्निग्धेन, पञ्चगुणस्निग्धः सप्तगुणस्निग्धेनेत्यादि।तथा द्विगुणस्निग्धश्चतुर्गुणस्निग्धेन, चतुर्गुणस्निग्धः षड्गुणस्निग्धेनेत्यादिएवमेकगुणरूक्ष Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 110 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग तथा स्विगुणरूक्षेण, त्रिगुणरूक्षः पञ्चगुणरूक्षेणेत्यादि, तथा द्विगुणरूक्ष- तत इयत एव संस्थानभेदाः, 'घणपयर' त्ति घनं च प्रतरं च घनप्रतरं शतुर्गुणरूक्षेण, चतुर्गुणरूक्षः षड्गुणरूक्षणेत्यादि, एवं द्विगुणाधि- प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, सर्वत्र च प्रतरपूर्वक एव घनः प्ररूप्यते इहापि कसम्बन्धो भावनीयः, नत्वेकगुणस्त्रिग्धः एकगुणस्निग्धेन द्विगुणस्निग्धेन तथैवोपदर्शयिष्यते,ततः प्रतरघन इति निर्देशः प्राप्तः, अल्पाक्षरत्वात्तु या सम्बध्यते, द्विगुणस्निग्धो द्विगुणस्निग्धेन त्रिगुणस्निग्धेन वा यावदन- घनशब्दस्य पूर्वनिपातः / ततश्चैकैकं परिमण्डलादि प्रतर घनं च, न्तगुणस्निग्धोऽप्यनन्तगुणस्निग्धेन समगुणेनैकगुणाधिकेन वा। एवमेक- भवतीति गम्यते / तथा प्रथमम्-आद्यं वर्जयतित्यजतीति प्रथमवर्जगुणरूक्ष एकगुणरूक्षेण द्विगुणरुक्षेण वा, द्विगुणरुक्षो द्विगुणरूक्षेण त्रिगुण- परिमण्डलरहितं वृत्तादिसंस्थानचतुष्कमित्यर्थः 'ओयपएसे य' त्ति रूक्षेण वा यावदनन्तगुणरूक्षोऽप्यनन्तगुणरूक्षेण समगुणेनैकगुणाधिकेन ओजःप्रदेशं च विषमसंख्यपरमाणुकं 'जुम्मे य' त्ति प्रक्रमाद् युग्मप्रदेश वेति / अन्ये त्वाः-एकगुणादिस्वस्थानापेक्षया द्विगुणेन रूपाधिकेन च, उभयत्र चः समुच्चये। इह च घन-प्रतरभेदमेव वृत्तादीत्थ भिद्यते, सम्बध्यत इति। अयमत्र विशेषः खलुशब्देन सूच्यते, तथा चैककस्य ततः प्रतरवृत्तमोजःप्रदेश युग्मप्रदेशच, तथा घनवृत्तमोजःप्रदेशंयुग्मप्रदेश स्वस्थानापेक्षया द्विगुणो द्विक एव, स च रूपाधिकरिखक एव इति च, एवं व्यसादिष्वपि चतुर्विध भावनीयम् / परिमण्डल वर्जनीयं च, त्रिगुणेनैवैकगुणस्य सम्बन्धः / तथा द्विगुणस्य पञ्चगुणेन, त्रिगुणस्य सप्त- समसंख्याणुष्वेव तस्य सम्भवेनैवविधभेदासम्भवात, तथा च द्विविधमेव गुणेन, चतुर्गुणस्य नवगुणेन, पञ्चगुणस्यैकादशगुणे-नेत्यादि / उक्तंच- परिमण्डलमिति गाथार्थः। "समनिद्धयाइ बंधो, न होइ समलुक्खया वि य न होइ / वेमाइनिद्ध- इह च परिमण्डलादि प्रत्येक जघन्यमुत्कृष्ट च, तत्रोत्कृष्ट लक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं / / 1 / / " सर्वमनन्ताणुनिष्पन्नमसंख्यप्रदेशावगाढ चेत्येकरूपत याऽनुक्तमपि सम्प्रदायाज्ज्ञातुं शक्यमिति तदुपेक्ष्य जधन्यं "दोण्ह जहण्णगुणाणं, निद्धाणं तह य लुक्खदव्वाणं। तु प्रतिभेदमन्यान्यरूपतया न तथेति तदुपदर्शनार्थमाहएगाहिए वि य गुणं, ण होति बंधस्स परिणामो / / 2 / / पंचग वारसगं खलु, सत्तग वत्तीसगं तु वट्टम्मि। णिद्धविउणाहिएणं, बंधो निद्धस्स होइ दव्वस्स। तिय छक्कग पणतीसा, चत्तारिय हुंति तंसम्मि।।३०।। लुक्खविउणाहिएण य, लुक्खस्स समागमं पप्प / / 3 / " नव चेव तहा चउरो, सत्तावीसा य अट्ठ चउरंसे। स्निग्धरूक्षपरस्परबन्धविचारणायां तु समगुणयो विषमगुणयोर्वा तिगदुगपन्नरसेऽवि य, छच्चेव य आयए हुंति / / 4 / / जधन्यवर्जयोर्बन्धपरिणतिरिति विशेषः / तथा चाह - “बज्झंति पणयालीसा वारस, छडभेया आययम्मि संठाणे। णि लुक्खा, विसमगुणा अहव समगुणा जेऽवि / वजित्तु जहन्न-गुणे, | वीसा चत्तालीसा, परिमंडलि हुति संठाणे॥४१॥ बज्झंती पोग्गला एवं // 1 // " इत्यादि, येन विशेषेण संस्थानात् स्कन्धस्य | . आसामर्थः स्पष्ट एव नवरमायते षड्भेदाभिधानमव्यापित्वेन प्रागभेदेनोपादानं तमाविष्कर्तुमाह-'तं संढाण' ति प्राकृतत्वादेवं पाठः, तस्य- 1°°नुदिष्टस्यापि श्रेणिगतभेदद्वयस्याधिकस्य तत्र सम्भवात् ,तथा परिस्कन्धस्य संस्थानम्-आकारस्तत्संस्थानम्, अनेन-हदि विवर्तमान- मण्डलादित्वेऽपि संस्थानानां वृत्तादिभेदानामोजःप्रदेशप्रतरा-दीनामतया प्रत्यक्षेण परिमण्डलादिनाऽनन्तरोक्तप्रकारेणेत्थमित्थं तिष्ठति नन्तरादिष्टत्वात् प्रत्यासत्तिन्यायेन यथाक्रम पञ्चकादिभिः प्रथममुपइत्थस्थं, न तथा अनित्थस्थम्, अनेन नियतपरिमण्डलाद्यन्यतराकार दर्शन, पश्चात परिमण्डलभेदद्वयस्य / तत्रौजः प्रदेशप्रतर-वृत्तं, संस्थानं शेषोऽनियताऽऽकारस्तुस्कन्ध इत्यनयोर्विशेष इत्युक्तं भवति। पञ्चाणुनि-पन्नं पञ्चाकाशप्रदेशावगाढं च तत्रैकोऽणुरन्तरेव स्थाप्यते, आह- स्कन्धानामपि परस्परं बन्धोऽस्तियदुक्तम्- "एमेव य खंधाण, चतसृषु पूर्वादिदिक्षु चैकैकः स्थापना १-युग्मप्रदेशप्रतरवृत्तं दुपएसाईण बंधपरिणामो” त्ति अतः किं न तेषामपीतरेतरसंयोग द्वादशप्रदेश, द्वादश प्रदेशावगाढंच, तत्र हि चतुषु प्रदेशेषु इहोक्तः? उच्यते-उक्त एव, तेषां प्रदेशसद्भावात, प्रदेशानां च 'इयरेय- निरन्तरमन्तवतुरोऽणू निधाय तत्परिक्षेपेणाष्टो रसंजोगो, परमाणूणं तहा पएसाणं इत्यनेनतदभिधानादिति गाथार्थः // 37 // स्थाप्यन्ते,स्थापना 2, ओजःप्रदेशं घनवृत्तं सप्तप्रदेश, संस्थानभेदानाह सप्तप्रदेशावगाढं च, तचैव तत्रैवं तत्रैव पञ्चप्रदेशे प्रतरवृत्ते परिमंडले य वट्टे, तंसे चउरंसमायए चेव। मध्यस्थितस्याणोरूपरिष्टादधस्ताचैकैकोऽणुरवस्थाप्यते, घणपयर पढमबजं, ओयपएसे य जुम्मे य॥३८॥ ततो द्वयसहिताः पञ्च सप्त भवन्ति 3, युग्मप्रदेशं धनवृत्तं द्वात्रिंशत्'लिङ्गं व्यभिचार्यपि' इति प्राकृतलक्षणात सर्वत्र लिङ्ग व्यत्ययः, ततः प्रदेश द्वात्रिंशत्प्रदेशावगाद च, तत्र प्रतरवृत्तोपदर्शितद्वादश-प्रदेशोपरि परिभण्डल, प्रक्रमात् संस्थानमेवमुत्तस्त्राऽपि, तच बहिर्वृत्ततावस्थित- द्वादशान्ये, तदुपरि चत्वारोऽधस्ताच्च तावन्त एवाणवः स्थाप्याः, एते प्रदेशजनितमन्तः शुषिरम्, यथा बलकस्य चशब्द उत्तरभेदापेक्षया मीलिता द्वात्रिंशद्भवन्ति / / ओजःप्रदेशं प्रतस्त्र्ययं त्रिप्रदेश समुच्चये / वृत्तं तदेवान्तःशुषिरविरहितं यथा कुलालचक्रस्य, त्र्यसं त्रिप्रदेशावगाढं च। तत्रच तिर्यनिरन्तरमणुद्वयं विन्यस्याऽऽ- : त्रिकोणं, यथा शृङ्गाटकस्य चतुरसं-चतुष्कोणं. यथा कुम्भिकायाः, द्यस्याध एकोऽणुः स्थाप्यः, स्थापना १-युग्मप्रदेशं प्रतरत्र्यसं षट्प्रदेश, आयतंदीर्घ , यथा दण्डस्य। चः पूर्वभेदापेक्षया समुच्चये। एव अवधारणे। | षट्प्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्यग्निरन्तरं त्रयोऽणवः स्थाप्यन्ते ततः Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 111 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग आद्यस्याधस्तादध ऊर्यभायेनद्वयं द्वितीयस्य त्वधएकोऽणुः स्थाप्यः, P स्थापना 1- 100 ओजःप्रदेश घनत्र्यत्रं पञ्चत्रिंशत्प्रदेशं पञ्च त्रिंशत्प्रदेशावगाढं च, तत्र च तिर्यनिरन्तराः पश्चाऽणयो न्यस्यन्ते तेषा वाधोऽधः क्रमेण तिर्यगय चत्वारस्त्रयो द्वावेकश्वाणुः स्थाप्यन्ते, स्थापना गगगगगगगन वात्र गल अस्य च प्रतरस्योपरि सर्वपङ् क्तिष्क न्त्यान्त्यपरमाणुपरिहारेण दश, तथैव तेषा मुपर्यु परिषट् त्रय एक श्वेति| क्रमेणाणयःस्थाप्याः, तेषां स्थापना इति मीलिताः पञ्चत्रिंशद्भवन्ति 3, युग्मप्रदेशघनत्र्यस्रं चतुष्प्रदेशं चतुष्प्रदेशावगाढं च, तत्र च प्रतरत्र्यस्त्र एव त्रिप्रदेशे एकतरस्योपये कोऽणुर्दीयते, ततो मीलिताश्चत्वारो भवन्ति / ओजःप्रदेशं प्रतरचतुरस्र नवप्रदेश नवप्रदेशावगाद च / तत्र च तिर्यग्निरन्तरं त्रिप्रदेशास्तिस्रः, पङ् यतयः का स्थाप्याः / स्थापना 1 युग्मप्रदेश प्रतरचतुरस्रचतुष्प्रदेश प्रतरायतस्यैवोपरि तथैव तावन्तोऽणवःस्थाप्याः, ततो द्विगुणाः षट् द्वादश भवन्ति / / (धनपरिमण्डलस्थापना परिणाम' शब्दे पञ्चमभागे 568 पृष्ठे गता।) न चैतान्यतीन्द्रियत्वेनातिशायिगम्यत्वात् सर्वथाऽनुभवमारोपयितुं शक्यन्ते, स्थापनादिद्वारेण च कथञ्चिच्छक्यानीति तथैव दर्शितानीति गाथात्रयभावार्थः। उक्तः परमाणूनामितरसंयोगः। सम्प्रति तमेव प्रदेशानामाहघम्माइपएसाणं, पंचण्ह उजो पएससंजोगो। तिण्ह पुण अणाईओ, साईओ होति दुण्हं तु // 42 / / धर्मादीनां-धर्माधर्माकाशजीवपुद्गलानां प्रदेशाः-उक्तरूपा धर्मादिप्रदेशास्तेषां पञ्चानाम् इति सम्बन्धिनां धर्मादीनां पञ्चसंख्यत्वेन पञ्चसंख्यानाम्, तुः पुनरर्थः, संयोग इति गम्यते। स च श्रुतत्वाद्धर्मादिभिः स्कन्धैस्तथा तदन्तर्गतैर्देशैः प्रदेशान्तरैश्च सजातीयेतरैः, असौ किमित्याह-प्रदेशाना संयोगःप्रकृतत्वादि-तरेतरसंयोगाख्यः प्रदेशसंयोगः, उच्यते इति शेषः / अस्यैव वि-भागमाह-त्रयाणां पुनः, पुनः-शब्दस्य विशेशद्योतकत्वात् धर्मा-धर्माकाशप्रदेशानां धर्मादिभिरेव त्रिभिस्तेषामेव देशैः प्रदेशान्त-रैश्च प्रकृतत्वादितरेतरसंयोगः अनादिः-आदिविकलःसदा संयु-क्तत्वादेषाम्, सादिकः-आदियुक्तो भवति द्वयोः पारिशेष्याजीवप्रदेशपुद्रलप्रदेशयोः, तथाहि-संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते संसारि-जीवप्रदेशाः कर्मपुदलप्रदेशाश्च परस्परं धर्मादिप्रदेशैश्च सह, तुशब्दो विशेष द्योतयति / स चायं जीवप्रदेशानां धर्मादित्रयदेशप्रदेशापेक्षया पुदलस्कन्धाद्यपेक्षया च सादिसंयोगः, धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षया त्वनादिः पुदलप्रदेशानामपि धर्मादिस्कन्धत्रयापेक्षयाऽनादिः, शेषापेक्षया तु सादिः / इह च धर्मादिस्कन्धानां तद्देशानां च यः परस्परं संयोगः सन प्रदेशसंयोगमन्तरेणेति तदभिधानत एवोक्तो मन्तव्यः / अप्रदेशस्य तु परमाणोर्धर्मादिभिः संयोग उक्तानुसारतः सुज्ञान एव इति नोक्त इति गाथार्थः। उक्तः प्रदेशानामितरेतर संयोगः, सम्प्रत्यभिप्रेतानभिप्रेतभे दरूपं तमेवाहअभिपेयमणमिपेओ, पंचसु विसएसु होइ नायव्वो। अणुलोमोऽभिप्पेओ, अणभिप्पेओ अ पडिलोमो 143 / / 'अभिपेय' त्ति अभिप्रेतः 'अनभिप्पेओ' त्ति चस्य गम्यमानत्वादनभिप्रेतच, प्रक्रमादितरेतरसयोगः / किमित्याह-पञ्चसु विषयेषु शब्दादिपञ्चकगोचरे, अर्थादिन्द्रियमनसां तद्ग्रहणप्रवृत्तौ ग्राह्य-ग्राहकभावः, स चाभिप्रेतार्थविषयोऽभिप्रेतः, अनभिप्रेतार्थविषयस्त्वनभिप्रेतो भवतिज्ञातव्यः / आह-अस्त्वेवाभिप्रेतानभिप्रेतार्थविषयत्वेनाभिप्रेतः अनभिप्रेतश्चेतरेतरसंयोगः, अभिप्रेतानभिप्रेतार्थी तु काविति, अत्रोच्यतेअनुलोम इति इन्द्रियाणां प्रमोदहेतुतयाऽनुकूलश्रव्यकाकलीगीतादिरभिप्रेतः, अनभिप्रेतश्च प्रतिलोम उक्त विपरीतकाकस्वरादिरिति गाथार्थः। इह गाथापश्चान मनोनिरपेक्षप्रवृत्त्यभावेऽपीन्द्रियाणां प्राधान्यमाश्रित्य तदपेक्षयाऽभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थः उक्तः, सम्प्रति मनोऽपेक्षया तमेवाहसव्वा ओसहजुत्ती, गंधज्जुत्ती य भोयणविहीय। चतुष्प्रदेशावगाढ़ च, तत्र च तिर्यनिरन्तरं द्विप्रदेशे द्वे पङ्क्ती स्थाप्येते, स्थापना-२ नि ओजःप्रदेशं घनचरतुत्रं सप्तविंशतिप्रदेशं सप्तविंशतिप्रदेशाव गाढंच, तत्र च नवप्रदेशस्य प्रतरचतुरस्रस्यैवाध उपरिच तथैव नव नवागवः स्थाप्याः, ततस्त्रिगुणा नव सप्तविंशतिर्भवति 3, युग्म-प्रदेश धनचतुरस्त्रम् अष्टप्रदेशमष्टप्रदेशावगाढं च। तत्र चतुष्प्रदेशस्य प्रतरस्यैवोपरि चत्वारोऽन्ये स्थाप्याः, ततो द्विगुणाश्चत्वारोऽष्टी भवन्ति / / ओजःप्रदेश श्रेण्यायतं त्रिप्रदेश-त्रिप्रदेशावगाद च / तत्र च तिर्यग् निरन्तरास्त्रयोऽणवः स्थाप्याः। स्थापना१, गगगयुग्मप्रदेश श्रेण्यायतं द्विप्रदेश द्विप्रदेशावगाढं च / तत्र च तथैवाणुद्रयं न्यस्यते, स्थापना२- जब ओजःप्रदेश प्रतरायतं पञ्चदशप्रदेश पञ्चदशप्रदेशावगाढे च। तत्र प्राग्वत् पङ्क्तित्रयेपञ्च पञ्चाणवः स्थाप्याः, स्थापना गिनगा 3- युग्मप्रदेशं प्रतरायतं षट्प्रदेशंषट्प्रदेशावगाढं च, गम तत्र च प्राग्वत्पतिद्रये त्रयस्त्रयोऽणवः स्थायाः स्थापना ४-जनन ओजः प्रदेशं घनायतं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशावगाढं च / तर पञ्चदशप्रदेशस्य प्रतरायतस्यैयाध उपरि च तथैव पञ्चदश पञ्चदशाणयः स्थाप्याः, ततस्विगुणाः पञ्चदश पञ्चचत्वारिंशद्भवन्ति 5, युग्मप्रदेशंघनायतं द्वादशप्रदेशद्वादश-प्रदेशावगाढ च।तत्रचषट्प्रदेशस्य Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 112 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 7 संजोग रागविहि गीयवाइयविही अभिप्पेयमणुलोमो॥४४|| सर्वाः-समस्ताः कोऽर्थः? इन्द्रियाणामनुकूलाःप्रतिकूलाश्च / अस्य चौषधयुक्त्यादिभिःप्रत्येकं सम्बन्धः। ततश्च औषधादीनाम्-अगुरुकुङ् कुमादीनां सज्जिकाराजिकादीनां च युक्तयोवो जनानिसमविषमविभागनीतयो वा औषधयुक्तयः गन्धानांगन्धद्रव्याणां श्रीखण्डादीनांलशुनादीनां च युक्तयः गन्धयुक्तयः ताश्च,भोजनस्य अन्नस्य विधयः-शाल्यौ- 1 दनादयः कोद्रवभक्तादयश्च भेदाः भोजनविधयः तेच, 'रागविहिगीयवाइयविहि' त्ति सूत्रत्वाद्वचनव्यत्यये रागविधयश्च गीतवादित्रविधयश्च रागविधिगीतवादित्रविधयः। तत्र रञ्जनं रागः-कुसुम्भादिना वर्णान्तरापादनंतद्विधयः-स्निग्धत्वादयो रूक्षत्वादयश्च / गीतवादित्रविधयः इति, अत्र विधिशब्दस्योभयत्र योगात्, गीतं गानं तद्विधयः-कोकिलारुतानुकारित्वादयः काकस्वरानुविधायित्वादयश्च, वादित्रम्-आतोद्यम्, इह चोपचारात्तद्ध्वनिः तद्विधयोमृदङ्गादिखनाः केवलकरटिकादिस्वनाश्च / चशब्दो नृत्तादिविधिसमुच्चयार्थः / एते किमित्याह- 'अभिप्पेयं' ति अभिप्रेतार्था उच्यन्ते, कीदृशाः सन्त इत्याह-अनुलोमाः, कोऽर्थः?शुभा अशुभा या मनोऽनुकूलतया प्रतिभासमानाः, एतेनैतदप्याह-यथैत एव देशकालावस्थादिवशतो विचित्राभिसन्धितया जन्तूनां मनसोऽननुलोमाः सन्तोऽनभिप्रेतोऽर्थः / इत्थं व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिमाश्रित्येन्द्रियापेक्षया मनोऽपेक्षया च भेदेनाभिप्रेतोऽनभिप्रेतश्चार्थो व्याख्यातः, अथवाऽनन्तरगाथापश्चार्द्धनाविशेषेणेन्द्रियाणां मनसश्चानुकूलोऽभिप्रेतोऽर्थः इतरस्त्वनभिप्रेत उक्तः। एतगाथयाऽपि स एव विशेषतोदर्शित इति व्याख्येयम् / अत्र च सर्वा इति सर्वप्रकारा अनुलोमा इति चेन्द्रियमनसामनुकूलाः शेषं प्राग्वत् / उपेक्षणीयस्य त्विहानभिधानं न यस्य कस्यचिन्मतेनानभिप्रेत एव तस्यान्तर्भावादिति गाथार्थः / उक्तोऽभिप्रेतानभिप्रेतभेदरूप इतरेतरसंयोगः, साम्प्रतममुमेवाभिलापविषयमाहअभिलावे संजोगो, दव्वे खित्ते अकालमावे अ। दुगसंजोगाईओ, अक्खरसंजोयमाईओ॥४५|| अभिलापः उक्तस्वरूपः,तद्विषयः संयोगः प्रक्रमादभिलापेतरेतरसंयोगः / अयं च त्रिधा सम्भवति, तत्रैकोऽभिलापस्याभिलाप्येन, द्वितीयोऽभिलाप्यस्याऽभिलाप्यान्तरेण, तृतीयो वर्णस्य वर्णान्तरेण / तत्राद्योऽभिलाप्यस्य द्रव्यादिभेदेन चतुर्विधत्वाद्रव्ये इति द्रव्यविषयः, स चार्थाद् घटादिशब्दस्य पृथुबुध्नोदराद्याकारपरिणतद्रध्येण वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धः, एवं क्षेत्रेच क्षेत्रविषयः, आकाशध्वनेरवगाहदानलक्षणक्षेत्रेण कालभावे इति समाहारद्वन्द्वः, ततः काले कालविषयः समयादिश्रुतेर्वर्तनादिव्यङ्गयेन कालपदार्थन, भावेच भावविषय औदयिकादिक्च-सोमनुष्यत्वादिपर्यायण, चशब्दोऽत्र पूर्वत्रच समुचये। द्वितीयमाह-द्विकस्य संयोगो द्विकसंयोगःस आदिर्यस्य त्रिकसंयोगादेः सोऽयं द्विकसयोगादिकः / इहाभिलापसंयोगस्य त्रिविधत्वाद् तत्र चाद्यस्यानन्तरमेवोक्तत्वात् तृतीयस्य चाभिधास्यमानत्वाद् अर्थाद् द्विकग्रहणेनाभिलाप्यद्वयमेव गृह्यते, तत्र द्विकसंयोगो यथा-सच स च तौ, त्रिकासंयोगो / यथा-सच तौ च ते, अत्र तोचते चेत्युक्तेसच सचतथा सचतौ चेत्यनुक्तावप्येकत्राभिलाप्यार्थद्वयमन्यत्र चाभिलाप्यार्थत्रयं सह प्रतीयते अभिलापसंयोगत्वं चास्याभिलापद्वारकत्वादभिलाप्येन सह प्रतीतेः / तृतीय-माह-अक्षरेच अक्षराणि च अक्षराणि तेषां संयोगः अक्षरसंयोगः, स आदिर्यस्योदात्ताद्यशेषवर्णधर्मसंयोगस्य सोऽयमक्षरसंयोगादिकः, मकारोऽलाक्षणिकः / तत्राक्षरयोः संयोगो यथा-क इति, अक्षराणां संयोगो यथा-श्रीरि ति / उदात्तादिवर्णधर्मसंयोगास्तु स्वधिया भावनीयाः / अस्याप्यभिलापसंयोगत्वं वर्णादीनां कथञ्चिदभिलापानन्यत्वेन तदात्मकत्वात्, यद्वाऽक्षरसंयोग इत्यनेन सर्वोऽपि व्यञ्जनसंयोग उक्तः, आदिशब्देन त्वर्थसंयोगः, एत-द्विशेषणं च द्विकसंयोगादिरिति योजनीयम्। अन्यत् प्राग्वत् / द्रव्यसंयोगत्वं चास्याभिलापस्य द्रव्यत्वात्, द्रव्यत्वं चास्य स्पर्श-वत्त्वेन गुणाश्रयत्वात्। वक्ष्यति हि- "गुणाणमासओ दध्वं" ति न च स्पर्शक्त्त्वमसिद्धं प्रतिघातजनकत्वात्, तथाहि-यत् प्रतिघातजनक तत्स्पर्शवत् दृष्ट, यथा लोष्टादि, प्रतिघातजनकश्च शब्दः, अन्यथातथाविधशब्दश्रुतावनुभवसिद्धश्रोत्रान्तःपीडाया असम्भवादिति गाथार्थः। उक्तोऽभिलापविषय इतरेतरसंयोगः सम्प्रति सम्बन्धनसंयोगरूपस्यतस्यावसरः,सोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभाव भेदतश्चतुर्धा, तत्र द्रव्यसंयोगसम्बन्धमाहसंबंधणसंजोगो, सच्चित्ताचित्तमीसओ चेव। दुपयाइ हिरण्णाई, रहतुरगाई अ बहुहा उ।।४६|| सम्बध्यते प्रायो ममेदमित्यादिबुद्धितोऽनेनास्मिन् वाऽऽत्माऽष्टविधेन कर्मणा सहेति सम्बन्धनः, स चाऽसौ संयोगश्च सम्बन्ध-नसंयोगः, 'सच्चित्ताचित्तमीसओ चेव' त्ति प्राग्वत् सुपो लुकि सचित्तोऽचित्तो मिश्रकः / चः समुच्चये। एवः भेदावधारणे। यथा-क्रममुदाहरणान्याहद्विपदेत्यादिना, सचित्ते द्विपदादिः, आदि-शब्दाच्चतुष्पदापदपरिग्रहः / तत्र च द्विपदसंयोगा यथा-पुत्री, चतुष्पदसंयोगो यथा-गोमान्, अपदसंयोगो यथा-पनसवान् / अचित्ते हिरण्यादिः, आदिशब्दान्मणिमुक्तादिग्रहः, सच हिरण्यवानित्यादि मिश्रे रथयोजितस्तुरगः मध्यपदलोपेरथतुरगस्तदादिः, आदिशब्दाच्छकटवृषभादिपरिग्रहः। स च रथिक इत्यादि / चः समुच्चये / बहुधा तु इति बहुप्रकार एव, तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात, इह च सचित्तविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगोऽपि सचित्त इत्यादि सर्वत्र भावनीयम्। आह-यदि सचित्तादिविषयत्वादसौ सचित्तादिरिति व्यपदिश्यते, एवं सत्यात्मन् एवाऽसौ तैः सह, तत उभयनिष्ठत्वात्तेनापि किं न व्यपदिश्यते? उच्यते-यवाङ् कुरादिवदसाधारणेनैव व्यपदेशः, आत्मनश्च सर्वैरप्यमीभिरसाविति तस्य साधारणत्वान्न तेनेह व्यपदेशः पृथिव्यादिभिरिवाड कुरस्येति न दोषः, एवमुत्तरत्रापि, इति गाथार्थः। अमुमेव क्षेत्रकालभावविषयमभिधित्सुखेत्ते काले य तहा, दुण्ह वि दुविहो उ होइ संजोगो। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग भावम्मि होइ दुविहो, आएसे चेवऽणाएसे / / 47 / / क्षेत्रे-क्षेत्रविषयः, काले च-कालविषयश्च, तथा इति-तेनागमप्रसिद्धप्रकारेण द्वयोरपि इति-अनयोरेव क्षेत्रकालयोः द्विविधः द्विभेदः, चशब्दो 'भावम्मि' इत्यत्र योक्ष्यते, भवति संयोगः प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगः / न च क्षेत्रे काले इत्युक्ते द्वयोरपीति पौनरुक्त्याद् दुष्ट, लोकेऽपि हस्तिन्यश्वे च द्वयोरपि राज्ञो दृष्टिरित्येवंविधप्रयोगदर्शनाद् / भावे च भावविषयश्च, संयोग इति संटङ्कः, भवति द्विविधः / कथं क्षेत्रादिद्वैविध्यम् ? इत्याह- 'आएसे चेवऽणाएसे' त्ति (अस्य पदस्य व्याख्या 'आएस' शब्दे द्वितीयभागे 45 पृष्ठ गता।) अत्र क्षेत्रकालगतयोरदिशानादेशयोरल्पवक्तव्यत्वेन सम्प्रदायादपि सुज्ञानत्वात् तद्विषयः सम्बन्धनसंयोगोऽपि सुज्ञान एवेति मत्वा भावगतादेशानादेशविषयं तमाभधित्सुरुक्तहेतोरेव प्रथममनादेशविषय भेदत आहओदइअ ओवसमिए, खइए य तहा खओवसमिए य। परिणामसन्निवाए, छव्विहो हो अणाएसो।।४।। तत्रोदयः-शुभानांतीर्थकरनामादिप्रकृतीनाम् अशुभानां च मिथ्यात्यादीनां विपाकतोऽनुभवनं तेन निवृत्तः औदयिकः क्वचित्तु- 'उदयिए' त्ति पठ्यते, तत्रच-पदावसानवर्तिन एकारस्य गुरुत्वेऽपि विकल्पतोलघुत्वानुज्ञानात नात्र छन्दोभङ्गः / उक्तं हि-“इहियारा बिंदुजुया. एओ सुद्धा पयावसाणम्भि। रहवजणसंजोए, परम्मि लहुणो विभासाए।।१।।" विपाकप्रदेशानुभवरूपतया द्विभेदस्याप्युदयस्य विष्कम्भणमुपशमस्तेन निर्वृत्त औपशमिकः, क्षयः-कर्मणामत्यन्तोच्छेदः तेन निवृत्तः क्षायिकाः स च, तथा क्षयश्चअभाव उदयावस्थस्य उपशमश्चविष्कम्भितोदयत्वं तदन्यस्य क्षयोपशमौ ताभ्यां निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः सच, परीतिसर्वप्रकारं नमनंजीवानामजीवानां च जीवत्वादिस्वरूपानुभवनं प्रति प्रड्डीभवन परिणामः, 'एदोद्रलोपा विसर्जनीयस्ये' ति विसर्गलोपः समिति संहतरूपतया नीति-नियत पतन,गमनं कोऽर्थः-एकत्र वर्तन, सन्निपातः औदयिकादिभावानाभेव द्व्या-दिसंयोगः, चः सर्वत्र समुच्चये। इत्थं षड् विधाः-प्रकाश अस्येतिषविधो भवति अनादेशः सामान्यं, सामान्यत्वं चौदयिकादीनां गतिकषायादि-विशेषेष्वनुवृत्तिधर्मकत्वाद्। अनादेशस्य षड्विधत्वे तद्विषयः संयोगोऽपि षड्विध इत्युक्तं भवति, इति गाथार्थः / इदानीमादेशविषयं तमेव भेदत आहआएसो पुण दुविहो, अप्पिअववहारऽणप्पिओ चेव। हक्किक्को पुण तिविहो, अत्ताण परे तदुभए य ||4|| आदेशः-अभिहितरूपः, पुनःशब्दो विशेषणे, द्विविधः-द्विभेदः कथमित्याह- 'अप्पियववहारऽणप्पिओ चेव' त्ति व्यवहारशब्दोऽत्र डमरुकमणिन्यायेनोभयत्र सम्बध्यते, ततश्चार्पित इति व्यवहारो यस्मिन् सोऽयमर्पितव्यवहारः, मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, अनर्पितव्यवहारस्तु तद्विपरीतः। तत्रार्पितो नाम क्षायिकादिविः स्वाधारे भाववति ज्ञाताऽयमित्यादिरूपेण ज्ञानमस्येत्यादिरूपेण वा वचनव्यापारण वक्त्रा स्थापितः। अनर्पितस्तु वस्तुनः साधारणत्वेऽपि निराधार एव प्ररूपणार्थ विवक्षितो यथा-सर्वभावप्रधानः क्षायिको भावः / अनयोरपि भेदानाह-एकैकःइत्यर्पितव्यवहारः / अनर्पितव्यवहारश्च पुनस्विविधः, कथमित्याह'अत्ताण' त्ति आर्षत्वाद्-आत्मनि परस्मिन् तयोरात्मपरयोरुभय तस्मिश्च, विषयसप्तम्यश्चैताः, ततो विषयत्रैविध्येनानयोस्वैविध्यम्, इहाप्यादेशभेदाभिधानद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य भेद उक्तो भवति,तत्र धानर्पितस्य प्ररूपणामात्रसत्त्वेऽप्यर्पितप्रतिपक्षत्वेनैवात्रोपादानम्, अतो वस्तुतस्तस्यासत्त्वान्न तेन कस्यचित्संयोगसम्भव इति न तद्भेदेन संयोगभेदः / अर्पितस्य त्वात्मपरोभयार्पितभेदतस्त्रैविध्यात् तद्भेदेन त्रिविधः सम्बन्धनसंयोग इति गाथार्थः। तत्राऽऽत्मार्पितसम्बन्धनसंयोगमाहओवसमिए य खइए, खओवसमिए य पारिणामे य। एसो चउविहो खलु,नायव्वो अत्तसंजोगो // 50 // औपशमिके चस्य भिन्नक्रमत्वात् क्षायिके च क्षायोपशमिके च सर्वत्र सम्यक्त्वादिरूपे जीवस्य (स्व) भावे तथा तेनागमोक्तप्रकारेण चस्याऽस्याऽपि भिन्नक्रमत्वात परिणामे च जीवत्वाद्यात्मके च सर्वत्र संयोग इति प्रक्रमः / पठ्यते च- 'खओवसमिए य पारिणामे य' त्ति स्पष्टमेव,एषःअनन्तरोक्त औपशमिकादिसंयोगः चतुर्विधः-चतुष्प्रकारः, खलुनिश्चितं ज्ञातव्यः-अवबोद्धव्यः, आत्मसंयोगः इत्यात्माप्तिसम्बन्धनसंयोगः / अत्र ह्यात्मशब्देनार्पितभाव एव धर्मधर्मिणोः कथञ्चिदनन्यत्वादुक्तः। तथा च वृद्धाः- 'एए हि जीवमया भवंति, एएसु भावेसु जीवोऽनन्नो हवइ' तदात्मक इत्यर्थः, औपशमिकादिभावानां च प्रागनादेशतोक्तावप्यत्रादेशत्वेनाभिधानं सम्यक्त्वादिविशेषनिष्ठत्येन विवक्षितत्वाद् भावसामान्यापेक्षया वेति गाथार्थः / किञ्चजो सन्निवाइओ खलु, भावो उदएण वजिओ होइ। इक्कारससंजोगो, एसो चिय अत्तसंजोगो // 51 // यः सान्निपातिक खलुः-वाक्यालङ्कारे, भावः उदयेन, औदयिकभावेन वर्जितः-रहितो भवति, एकादशएकादशसङ्ख्याः संयोगाद्व्यादिमीलनात्मका यस्मिन् स एकादशसंयोगः, सूचकत्वात् सूत्रस्यैतद्विषयो यः संयोगः, एषोऽपि, न केवलमौपशमिकादिसंयोगः इत्यपिशब्दार्थः / चः पूरणे, आत्मसंयोगः-प्राग्वदात्मार्पितसंयोगः, एकादश संयोगाश्चैवं भवन्ति-औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक-पारिणामिकानां चतुर्णा षट् द्विकसंयोगाश्चत्वारस्त्रिकसंयोगा एकश्चतुष्कसंयोगः, एते च मीलिता एकादश इति गाथार्थः। बाह्यार्पितसम्बन्धनसंयोगमाहलेसा कसायवेयण, वेओ अन्नाणमिच्छ मीसं च / जावइया ओदइया, सव्वो सो बाहिरो जोगो ||51|| लेश्या-लेश्याध्ययनेऽभिधास्यमानाः, कषायाश्चवक्ष्यमाणाः वेदना च सातासातानुभवात्मिका कषायवदनं, प्राकृतत्वाद्विन्दुलोपः, वेदः पुंस्त्र्युभयाभिलाषाऽभिव्यङ्गयः, मिथ्यात्वोदयवतामसदध्यवसायात्मकं सत्ज्ञानमप्यज्ञानम्, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 114 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग उक्तं हि-“जह दुव्वयणमवयणं, कुच्छियसीलं असीलमसईए। भण्णइ तह नाणं पिहु,मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं // 1 // " अत एव मिथ्यात्वोदयभावीत्वादस्यौदयिकत्वं, तद्दलिकेषु चार्पितत्वविवक्षया बाह्यार्पितत्वमिति भावनीयम् / मिथ्येति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य मिथ्यात्वम्अशुद्धदलिकस्वरूपं, मिश्र-शुद्धाशुद्ध-दलिकस्वभावं, चशब्दः शेषौदयिकभेदसमुच्चये। अत एवोप-संहारमाह-यावन्तो यत्परिमाणा औदयिकाः, भावा इति गम्यते, प्रक्रमादेतद्विषयो यः संयोगः सर्वः निर्विशेषः,सः बाह्यः परः तद्विषयत्वाद, बाह्यसंयोग इति प्रकृतक्षायोपशमिकेन मत्यादिना औपशमिकत्वात्सम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति शेषः / इहापि बाह्यशब्देन प्राग्वद् बाह्यार्पित उक्तः / आह-'भावा भवन्ति जीवस्यौदयिकाः पारिणामिकाश्चैव' इति वचनादौदयिकोऽपि जीवभावत्वेन जीवार्पित एवेति कथं बाह्ये कर्मण्यर्पित इति। अत्रोच्यतेकर्मानुभवनमुदयः, अनुभवनं चानुभवितरि जीवेऽनुभूयमाने च कर्मणि स्थितम्, तत्र यदाऽनुभवितरिजीवे विवक्ष्यते तदोदयः जीवगतोलेश्यादिपरिणामः प्रयोजनमस्येत्यौदयिकः कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणो विपाक एव तमाश्रित्य कर्मणि बाह्येऽर्पितत्वमिहौदयिकभावस्योक्तम्, यदा त्यनुभूयमानस्थतया विवक्ष्यते तदोदये कर्मणः फलप्रदानाभिमुख्यलक्षणे भव औदयिको लेश्याकषायादिरूपो जीवपरिणामः, तदाश्रयणेन चोच्यते भावा भवन्ति जीवस्यौदयिका इत्यादि / इहापि चादेशान्तरेण वक्ष्यति 'छव्विहो अत्तसंजोगो' त्ति सर्वः स इति चैकवचनं बाह्य-संयोगस्य विधीयमानतया प्राधान्यात् प्रधानानुयायित्वाच्च व्यवहाराणामिति गाथार्थः। उभयार्पितसम्बन्धनसंयोगमाहजो सन्निवाइओ खलु, भावो उदएण मीसिओ होइ। पन्नारससंजोगो, सव्वो सो मीसिओ जोगो।।१३।। यः सान्निपातिकः खलु भावः उदयेन औदयिकभावेन मिश्रितः संयुतो | भवति, कियत्संख्य इत्याह-पञ्चदशसंयोगा अस्मिन्निति पञ्चदशसंयोगः सर्वः सः, किमित्याह-आत्मकर्मणोर्मिश्रत्वात्तदर्पितभावा अप्यौदयिकसहितौपशमिकादयो मिश्राः, ततस्तद्विषयत्वात्संयोगोऽपि मिश्रः, स एव मिश्रको योगः, प्रक्रमात् सम्बन्धनसंयोगो ज्ञेय इति शेषः / ते च पञ्चदश संयोगा औदयिकममुञ्चता औपशमिकादिपञ्चकस्य द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगतः कार्याः। तत्र चत्वारो द्विकसंयोगाः षट् त्रिकसंयोगाश्चत्वारअतुष्कसंयोगा एकः पञ्चकसंयोगः, एतेच मीलिताः पञ्चदश, भावना तु वक्ष्यमाणा इति गाथार्थः। पुनरात्मसंयोगादीनेव प्रकारान्तरेणाभिधित्सु प्रस्तावनामाहवीओऽवि य आएसो, अत्ताणे बाहिरे तदुभए य। संजोगो खलु भणिओ, तं कित्तेऽहं समासेणं / / 14 / / द्वितीयोऽपि च न केवलमेक एव इत्यपि शब्दार्थः। चः पूरणे। आदेशः- | प्रकारः, प्रस्तावात् प्ररूपणीयः, कीदृश इत्याह-आत्मनि बाह्ये तदुभयस्मिश्च, संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः, खलुनिश्चितंभणित-उक्तो, | गणधरादिभिरिति गम्यते, अनेन च गुरुपारतन्त्र्यमाविष्करोति, तम् इतिद्वितीयमादेशं कीर्तये संशब्दये वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा' (पा० 3-3-131) इति भविष्यत्सामीप्ये लट्, अहम् इत्यात्मनिर्देशः, समासेन-संक्षेपेणेति गाथार्थः, तत्र तावदात्मसंयोगमाहओदइय ओवसमिए, खइए य तहा खओवसमिए य। परिणामसन्निवाए, अछविहो अत्तसंजोगो // 15 // औदयिके- औदयिकविषये, एवम् औपशमिके च क्षायिके तथा क्षायोपशमिके च परिणामसन्निपाते च सर्वत्र संयोग इति प्रक्रमः, तत एष षड्विधः षड्भेदः, आत्मभिः-आत्मरूपैः संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः आत्मसंयोगः न चैषामेकैकेनात्मनः संयोगः सम्भवति, अपितु-द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिः पञ्चभिर्वा / तत्र द्वाभ्यां क्षायिकेण सम्यक्त्वेन ज्ञानेन वा पारिणामिकेन चजीवत्वेन, त्रिभिरौदयिकेन देवगत्यादिना क्षायोपशमिकेन मत्यादिना पारिणा-मिकेन च जीवत्वेन, चतुर्मिस्त्रिभिरे (वमे) व चतुर्थेनौपशमिकेन क्षायिकेण वा सम्यक्त्वेन, पञ्चभिर्यदा क्षायिकसम्यग्दृष्टिरेवोपशमश्रेणिमारोहति तदौदयिकेन मनुष्यत्वेन, क्षायिकेण सम्यक्त्वेन क्षायोपशमिकेन मत्यादिना औपशमिकेन चारित्रेण पारिणामिकेन जीवत्वेनेति, अत्र च त्रिकभङ्गक एकः, चतुष्कभनौ च द्वावेते त्रयोऽपि गतिचतुष्टयभाविन इति गतिचतुष्टयेन भिद्यमानाद्वादश भवन्ति। उक्तंच"ओदइय खओवसमो,तइओ पुण पारिणामिओ भावो। एसो पढमवियप्पो, देवाणं होइ नायव्यो / / 1 / / ओदइय खओवसमो, ओवसमियपारिणामिओ बीओ। उदइयखइयपरिणामिय, खइओक्समो भवे तइओ॥२॥ एए चेव वियप्पा, णरतिरिणरएसु हुंति बोद्धव्या। एए सव्वे मिलिया, वारस होती भवे भेया // 3 // " पञ्चभिर्मनुष्यस्यैव, तस्यैव तथोपशमश्रेण्यारम्भकत्वात, तस्यामेव च तत्सम्भवात् / तथा चाह-“ओदइए आवसमिए, खओवसमिए खए य परिणामे। उवसमसेढिगयस्स, एस वियप्पो मुणे-यव्यो।।१।।" अन्यथाऽपि च त्रिभिः संभवति, तद्यथा-औदयिकेन मनुष्यत्वेन क्षायिकेण ज्ञानेन पारिणामिकेन जीवत्वेन, अयं च केवलिनाम् / उक्तं हि-"उदइय खइयपरिणामिय भावा होंति केवलीणं तु / " प्रागुक्तभावोभयेन च सिद्धानामेव, उक्तं हि- “खाइय तह परिणामा, सिद्धाणं होति नायव्वा" एवं चैते पञ्चक-त्रिकद्विक संयोगभङ्गास्त्रयः पूर्वेच द्वादशेति मीलिताः पञ्चदश सम्भवन्ति / एत एव चाविरूद्धसान्निपातिकभेदाः पञ्चदश तत्र तत्रोच्यन्ते। तथा चाहुः- “एए संजोएणं, भावा पन्नरस होति नायव्वा / के वलिसिद्धवसमसे-ढिएसु सव्वासु य गईसु // 1 // " आह-एवं सान्निपातिकेनैवात्मनः सदा संयोगसम्भवात् कथं षविधत्वमात्मसंयोगस्य? उच्यते-सहभावित्वेऽपि भावानांयदैकस्य प्राधान्यं विवक्ष्यते तदैकेनाप्यात्मसंयोगसम्भव इत्यदोष इतिगाथार्थः। बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाहनामम्मि अ खित्तम्मि अ, नायव्यो वाहिरो य संजोगो। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग कालेण बाहिरो खलु,मीसोऽवि य तदुभए होइ॥५६|| नाम्ना-वस्त्वभिधायिध्वनिस्वभावेन, चकारात्-द्रव्येण क्षेत्रेण | चाकाशदेशात्मकेन,प्राकृतत्वात् तृतीयार्थे सप्तमी। प्रकृतत्वात् संयोगः, किमित्याह- ज्ञातव्यः बाह्यविषयत्वाबाह्यः। तुः पुनरर्थः। संयोग इति सम्बन्धनसंयोगः, कालेन इति-चस्य गम्यमानत्वात् कालेन च समयाऽऽवलिकादिना, तत एव संयोगो-बाह्य-सम्बन्धनसंयोगः खलु-निश्चितं, ज्ञातव्य इति योज्यम्। इदमिहै-दम्पर्यम्-यः पुरुषादे-देवदत्तादिनाम्ना सम्बन्धोऽयं देवदत्त इत्यादिः, द्रव्येण च दण्डीत्यादिः, क्षेत्रेणारण्यजो नगरज इत्यादि, कालेन दिनजो रजनिज इत्यादि, स सवों नामादिभिबहिरेवेति बाह्यः सम्बन्धनसंयोगः। भावेन तुसंयोग आत्मसंयोगत्वेनोक्त एव, भवितुरनन्यत्वात् भावस्य, अन्यथा तस्याभावत्वप्रसङ्गः इतीह तस्यानभिधानम् / तथा कालेन बाह्य इति च भिन्नवाक्यता-करणं केषाचिन्मतेन कालस्यासत्त्वख्यापनार्थम्,यद्वा-नाम्नि, क्षेत्र इति च विषयसप्तम्येव, यो हि येन सह भवति स तद्विषय एवेति कृत्वा / आहनाम्नोऽप्यभिलापत्वात् तद्विषयोऽपि संयोगोऽभिलापसंयोगः, स चोक्त एवेति कथं न पौनरुक्त्यन् ? उच्यते-अभिलापसामान्यविषयोऽभिलापसंयोगः, अयंतु सम्बन्धनसंयोगस्य प्रकृतत्वात् तस्य च सकषायजीवसम्बन्धित्वात्। वक्ष्यति हि- “संबंधणसंयोगो, कसायबहुलस्स होइ जीवस्स" त्ति, कस्यचिन्नाम्न्यप्यभिष्वङ्ग सम्भवादभिष्वङ्ग हेत्वभिलापविषय एवेतिन पौनरुक्त्यम् 'मीसोऽवि य' ति अपिः पुनरर्थे। चः पूरणे। ततो मिश्रविषयत्यान्मिश्रः सम्बन्धनसयोगः पुनातव्यः, यः कीदृगित्याह- 'तदुभए' त्ति प्राग्वत्तदुभयत्वेन-आत्मबाह्यलक्षणेन तदुभयस्मिन् वोक्तरूप एव भवति, यः संयोग इति शेषः, यथा-क्रोधी देवदत्तः, क्रोधी कौन्तिको, मानी सौराष्ट्रः, क्रोधी वासन्तिकः, अत्र क्रोधादिभिरौदयिकभावान्तर्गतत्वेनात्मरूपैर्नामादिभिस्त्वात्मनोऽन्यत्वेन बाह्यरूपैः संयोग इत्युभयसम्बन्धनसंयोग उच्यते। नन्वेवं नकदाचिन्नामादिविकलैरौदयिकादिभिरौदयिकादिरहितैर्वा नामादिभिरात्मनः संयोग इति सर्वदोभयसम्बन्धनसंयोग एव प्राप्तः,सत्यमेतत्, किन्तु-वक्तु-रभिप्रायवैचिव्यात्कदाचिदौदयिकादिभिः कदाचिन्नामादिभिः कदाचित्तदुभयेन संयोगविवक्षेतिमात्मपरोभयसम्बन्धनसंयोगत्रयविरोध इति गाथार्थः / प्रकारान्तरेण बाह्यसम्बन्धनसंयोगमाहआयरिय सीस पुत्तो, पिया य जणणी य होइ धूया य। भज्जा पइसीउण्हं, तमुजछायाऽऽयवे चेव / / 57 / / आडित्यभिप्याप्त्या मर्यादया वा स्वयं पञ्चविधाचारं चरत्याचा-रयति वापरान; आचर्यत वा मुक्त्यर्थिभिरासेव्यत इति आचार्यः अन्यत्रापीति वचनात कर्तरि कर्मणि वा कृत्यप्रत्यययः। तथा शासितुं शक्यः शिष्यः, पुनाति पितुराचारामुवर्तितयाऽऽत्मानमिति पुत्रः, पाति-रक्षत्यपत्यमिति पिता, स च जनयति प्रादुर्भावयत्य-पत्यामिति जननी, सा च भवति बाह्यसम्बन्धनसयोगविषयत्वात् बाह्यसम्बन्धनसंयोग इति वृद्धाः। इदं च सर्वत्र योज्यम्। दोग्धि च केवलं जननी स्तन्यार्थमिति दुहिता, ततश्च "दुहितरि धो हिलो-पश्च” इति वचनादादेर्धत्वे हिलोपे च "उदूत् सुपुष्पोत्सवोत्क -दुहितृषु" इति वचनात्, उत ऊत्त्वे च धूया, सा च, चकारत्रयं पूरणे / भियते-पोष्यते भत्रेति भार्या, पाति-रक्षति तामिति पतिः, स्त्यायते धातूनामनेकार्थत्वात् कठिनीभवत्यस्मिन् जलादीति शीतम्, उषति-दहति जन्तुमिति उष्णतमयति-खेदयति जनलोचनानीति तमः औणादिकोऽसन् 'उज्ज' त्ति आर्षत्वादु-द्योतयतीति उद्द्योतः पचादित्वादच्, छ्यति छिनत्ति वाऽऽतपमिति छाया, आसमन्तात्तपति सन्तापयति जगदिति आतपः, चशब्दो राजभृत्याद्यनुक्ताशेषसम्बन्धिसमुच्चये, लक्षणानुपपत्तौ च सर्वत्र नैरुक्तो विधिः / सुपश्च यत्राश्रवणं तत्र प्राग्वल्लुक् / इदमत्रैदम्पर्यम्-आचार्यः शिष्यादन्यत्वेन बाह्यः, ततो यस्तेन शिष्यस्य संयोगः-शिष्य इत्युक्तिरवश्यमाचार्यमाक्षिपति यस्याऽयं शिष्य इत्याक्षेप्याक्षेपक-भावलक्षणः स बाह्येनेति कृत्वा बाह्यसम्बन्धनसंयोगः, ततस्तद्विषय आचार्योऽप्युपचारात्तथोच्यते। एवं शिष्योऽप्याचार्यादन्यत्वेन बाह्यः / तेनाप्याचार्यस्य यः संयोगः-आचार्य इत्युक्तिरवश्यं शिष्यमाक्षिपति यस्यायमाचार्य इत्याक्षेप्याक्षेपकभावरूपः सोऽपि बाह्येनेति कृत्वा बाह्यसम्बन्धनसंयोगः, ततस्तद्विषयः शिष्योऽप्युपचारात् तथोच्यते / एवं पुत्रपित्रादिद्वयेष्वपि भावनीयम् / सर्वत्र सामान्येन परस्पराक्षेप्याक्षेपकभावः सम्बन्धनः / विशेषनिरूपणाया त्वाचार्यशिष्यभार्यापतीनामुपकार्योपकारकभागः, पितृपुत्रजननीदुहितॄणां, जन्यजनकभावः, शीतोष्णादीनां च विरोधः, सम्बन्धः / अत एव च विशेषाद् द्रव्यसंयोगत्वेऽप्यस्य भेदेनोपादानमिति गाथार्थः। उत्त०१०। सह जायगाइमित्ता, नाई माया पिईहि संबद्धा। ससुरकुलं संजोगो, तिण्णि उ मेत्तादयो छट्ठो।। सहजातकादयः सुहृदो-मित्राणि आदिग्रहणात्-सहवर्द्धितकाःसहपांशुक्रीडितकाः सहदारदर्शिनश्चेति ज्ञातयोमातृपितृसंबद्धा, मातृकुलसंबंद्धाश्वेत्यर्थः। तत्र मातृकुलसंबद्धामातामहादयः पितृकुलसंबद्धाः-पितृव्यपितामहादयः, श्वशुरकुलसंयोगोऽभिधीयते। किमुक्तं भवति श्वशुरकुलपाक्षिका ये-केचित् श्वशुर श्वश्रूश्यालकादयस्तेषां संबन्धः संयोग उच्यते। बृ० 170 2 प्रक०। सम्प्रति संयोगप्रक्रमेऽप्याचार्यशिष्यमूलत्वादनुयोगस्य तयोःस्वरूपमाहआयरिओ तारिसओ, जारिसओ नवरि हुज्ज सो चेव। आयरियस्स वि सीसो, सरिसो सव्वेहि वि गुणेहिं // 58|| आचार्यः तादृशः तथाविधः, यादृशः क इत्याह-यादृशो नवरमिति यदि परं भवेत् ‘स चेव' त्ति चः पूरणे, स एव-आचार्य एव / किमुक्तं भवति? आचार्यस्याचार्य एवान्यःसदृशो भवति, न पुनरनाचार्यः, आचार्यगुणानामन्यत्राविद्यमानत्वात्, नह्याचार्यादन्यः षट् त्रिंशत् सङ्ख्यगणिगुणसमन्वित इहास्ति, तत्समन्वितत्वे त्वन्योऽपि तत्त्वत आचार्यः एवेति / अथ क एते षट् त्रिंशद् गुणाः? उच्यन्ते -प्रत्येकं चतुष्प्रकारा अष्टौ गणिसम्पदो द्वात्रिशत, Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग षत्रिंशद्भवन्तितत्र चाचारादिचतुर्विधविनयमीलनात्, उक्तं च "अट्टविहा गणिसंपइ, चउग्गुणा नवरि होति वत्तीसा। विणओ य चउन्भेओ, छत्तीस गुणा हवतेए" / / 1|| तत्राष्टौगणि-सम्पद इमाः-आचारसम्पत् 1 श्रुतसम्पत 2 शरीरसम्पत् 3 वचनसम्पत् 4 वाचनासम्पत् 5 मतिसम्पत् 6 प्रयोगमतिसम्पत७ संग्रहपरिज्ञासम्पत् 8, तथा चाह- "आयारसुयसरीरे, वयणे वायणमती पतोगमती। एएसुसंपया खलु, अट्टमिया संगहपरिण्णा" / / 1 / / तत्र चाचारसम्पत् चतुर्धा-संयमधुवयोगयुक्तता 1 असम्प्रग्रहता 2 अनियतवृत्तिः 3 वृद्धशीलता चेति 4, तत्र संयमः-चरणं तस्मिन ध्रुवोनित्यो योगः-समाधिस्तद्युक्तता, कोऽर्थः? सन्ततोपयुक्तता संयमध्रुवयोगयुक्तता 1, असम्प्रग्रहःसमन्तात् प्रकर्षेण जात्यादिप्रकृष्टतालक्षणेन ग्रहणम्-आत्मनोऽवधारण सम्प्रग्रहस्तदभावोऽसम्प्रग्रहः, जात्याद्यनुत्सिक्त-तेत्यर्थः 2, अनियतवृत्तिः अनियतविहाररूपा 3, वृद्धशीलतावपुषि मनसि च निभृतस्वभावता निर्विकारतेति यावत् 4, 1 / श्रुतसम्पचतुर्धा-बहुश्रुतता 1 परिचितसूत्रता 2 विचित्रसूत्रता 3 घोषविशुद्धिकरणता 4 च, तत्र बहुश्रुततायुगप्रधानागमता 1 परिचितसूत्रताउत्क्रमक्रमवाचनादिभिः स्थिरसूत्रता र विचित्रसूत्रतास्वपरसमयविविधोत्सर्गापवादादिवेदिता 3 घोषविशुद्धिकरणताउदात्तानुदात्तादिस्वरशुद्धिविधायिता 4,2 / शरीरसम्पत् चतुर्धाआरोहपरिणाहयुक्तता 1 अनवत्राप्यता 2 परिपूर्णेन्द्रियता 3 स्थिरसंहननता च 4. इह च-आरोहो-दैर्ध्य परिणाहो-विस्तरः ताभ्यां तुल्याभ्यां युक्तता आरोहपरिणाह-युक्तता 1 अविद्यमान-मवत्राप्यम्-अवत्रपणं-लज्जन यस्य सोऽयमनवत्राप्यः,यद्वा-अवत्रापयितुं-लज्जयितुमर्हःशक्यो वाऽवत्राप्योलज्जनीयः न तथाऽनवत्राप्यस्तद्भावोऽनव त्राप्यता 2 उभरात्राहीनसर्वाङ्गत्वं हेतुः, परिपूर्णेन्द्रियताअनुपहतचक्षुरादिकरणता 3 स्थिरसहननता-तपःप्रभृतिषु शक्तियुक्तता 4. 3 / वचनसम्पचतुर्भेदाआदेयवचनता 1 मधुरवचनता 2 अनिश्चितवचनता 3 असन्दिग्धवचनता 4 तत्र आदेयवचनता-सकलजनग्राह्यवाक्यता मधुरं-रसवद् यदर्थतो विशिष्टार्थवत्तया-अर्थावगाढत्वेन शब्दतश्चापरुषत्वसौस्वर्यगाम्भीयादिगुणोपेतत्वेन श्रोतुराणादमुपजनयति तदेवंविधं वचनं यस्य स तथा तद्भावो मधुरवचनता 2 अनिश्रितवचनता रागाद्यकलुषितवचनता ३असंदिग्धवचनता परिस्फुटवचनता 4, 4 / वाचनासम्पचतुर्धाविदित्वोद्देशनं ? विदित्वा समुद्देशनं 2 परिनिर्वाप्य वाचना 3 अर्थनिर्यापणेति४, तत्र विदित्वोद्देशने विदित्वा समुद्देशने ज्ञात्वा परिणामकत्वादिगुणोपेतं शिष्यं यद् यस्य योग्यं तस्य तदेवोद्दिशति समुद्दिशति वा, अपरिणामिकादावपक्वघटनिहितजलोदाहरणतो दोषसम्भदात् 2, परीति-सर्वप्रकार निर्वापयतो निरो निर्दग्धादिषु भृशार्थस्यापि दर्शनात् भृशं गमयतः-पूर्वदत्तालापकादि रात्मिना स्वात्मनि परिणमयतः शिष्यस्यसूत्रगताशेषविशेषग्रहणलक्षणं कालं प्रतीक्ष्य शक्त्यनुरूपप्रदानेन प्रयोजकत्वमनुभूय परिनिर्वाप्य वाचनासूत्रप्रदानं परिनिर्वाप्यवाचना 3, अर्थ:-सूत्राभिधेयं वस्तु तस्य निरितिभृशं यापनानिर्वाहणा पूर्वापरसागत्येन स्वयं ज्ञानतोऽन्येषां च कथनतो निर्गमना निर्यापणा 4,5 मति-सम्पत् अवग्रहेहापायधारणारूपा चतुर्दा, अवग्रहादयश्च तत्र तत्र प्रपश्चिता एवेति न विवियन्ते 6 / प्रयोगमतिसम्पच्चतुर्धा-आत्मपुरुषक्षेत्रवस्तु-विज्ञानात्मिका, तत्राऽऽत्मज्ञानं वादादिव्यापारकाले किममु प्रतिवादिन जेतु मम शक्तिरस्ति न वा? इत्यालोचनम्, पुरुषज्ञान-किमयं प्रतिवादी पुरुषः सांख्यः सौगतोऽन्यो वा? तथा प्रतिभादिमानितरो वेति परिभावनम् 2, क्षेत्रज्ञान-किमिद मायाबहुलमन्यथा वा? तथा साधुभिरभावित भावितं वा नगरादिति विमर्शनम् 3. वस्तुज्ञानं-किमिदं राजाऽमात्यादि सभासदादि वा वस्तुदारुणमदारुण भद्रकमभद्रक वेति निरूपणम् 4,7, संग्रहपरिज्ञा तुबालदुर्बलग्लाननिर्वाहबहुजनयोग्यक्षेत्रग्रहणलक्षणैका 1 निषद्यादिमालिन्यपरिहाराय फलक पीठोपादानाऽऽत्मिका द्वितीया 2 यथासमयमेव स्वाध्यायोपधिसमुत्पादनप्रत्युपेक्षणभिक्षादिकरणात्मिका तृतीया 3 प्रव्राजकाध्यापकरत्राधिकादिगुरुणामुपधिवहनविश्रामणसंपूजनाभ्युस्थानदण्डकोपादानादिरूपा चतुर्थीति 4, 8 / इत्युक्ता अष्टी चतुर्गुणा आचारादिगणिसम्पदः। विनयस्तूत्तस्त्राचार्यविनयप्रस्तावेऽभिधास्यते, इति गतं प्रासङ्गि कम् / प्रकृतमुच्यतेतत्राऽऽचार्यस्य स्वरूपमभिहितं, शिष्यस्याह-आचार्यस्य, अपिभिन्नक्रमः, ततः शिष्योऽपि, न केवलमाचार्यस्तादृशोयादृशो नवरंस एवेति वचनादाचार्य इत्यपिशब्दार्थः सदृशःतुल्यः, सर्वरपिन कतिपयै-रेव, कैः?गुणैः-साधारणैः क्षान्त्यादिभिरिति गम्यते / यद्वा लक्षणे तृतीया, ततः सर्वैरपि स्वगुणैर्लक्षितः शिष्य आचार्यस्य सदृश इति योज्यम्, सादृश्यं च स्वगुणमाहात्म्यविभूषित उभयो-रपि यथोक्तान्वर्थयुक्त (त्व) मेव, अथवाऽऽचार्यस्यापीति अपेरेवकारार्थत्वात् स्वगुणोपलक्षितः शिष्यः सदृश एव-अनुरूप एव, अनुरूपार्थस्याऽपि सदृशशब्दस्य दर्शनात्, यथाऽऽत्मसदृशं कुर्याः कुलानुरूपमित्यर्थः / अननुरूपस्तु तत्त्वतोऽशिष्य एवेति भावः। अथ के अमी शिष्यगुणाः? उच्यन्ते- "भाववि-याणणमणुयत्तणा उ भनी गुरूण बहुमायो / दक्खत्तं दक्खिण्णं, सील कुलमुजमो लज्जा / / 1 / / सुस्सूसा पडिपुच्छा, सुणणं गहणं च ईहणमवाओ। धरण करणं सम्म, एमाई होति सीसगुणा / / 2 / " इति गाथार्थः। इत्थमनुयोगोपयोगित्वादाचार्यशिष्ययोःस्वरूपमुक्तं, प्रकारान्तरेणोभयसम्बन्धनसंयोगमाहएवं नाणे चरणे, सामित्ते अप्पणो उ (य) पिउणो ति। मज्झं कुलेऽयमस्स य, अह यं अम्भितरो मित्ति ||5|| एवम्-अनन्तरोक्तबाह्यसंयोगवदाक्षेप्याक्षेपकभावेन ज्ञानेज्ञानविषयः चरणे-चरणविषयः, आत्मन उभयसम्बन्धनसंयोगो ज्ञातव्य इति वृद्धाः / अत्र भावना-ज्ञानेनात्मभूतेन संयोगो, ज्ञानमित्युक्तिनिराश्रयस्य निर्विषयस्य च ज्ञानस्यासम्भवादवश्य ज्ञानिनं ज्ञेयं चाऽऽक्षिपतीति, ज्ञानाक्षिप्तेन च ज्ञेयेन बाह्येन तद्-द्वारकः संयोग इत्युभयसंयोगः / एवं चरणेनाप्यात्मभूतेनोक्तवत्तदाक्षिप्तेन चर्यमाणेन च बाह्येन संयोगः Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 117 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग इन्युभयसम्बन्धनसंयोगः / अयमाक्षेप्याऽऽक्षेपकभावे उभयसम्वन्धनसंयोग उक्तः / अमुमेव प्रकारान्तरेणाह-स्वामित्वेन स्वामित्वविषयः, उभयसम्बन्धनसंयोग इति प्रक्रमः। किंरूप? इत्याहआत्मनः-मम चःपूरणे, पितुः-जनकस्य पुत्र इति गम्यते, एवविधोल्लेखव्यङ्गये, अत्रात्मनः पित्रा सहात्मकद्वारकः स्वस्थामिभावलक्षणः सम्बन्धः, तत्पुत्रेण परद्वारकः, मम पितुरयं, पुत्र इति पितृद्वारेणासाविति कृत्वा तत उभयद्वारकत्वादुभयविषय - संयोग उभयसम्बन्धसंयोगः, इति शब्दो मम पितुः पिता, मम भातुः पुत्रः, मम दासस्य कम्बल इत्येवंप्रकारसम्बन्धान्तरव्यञ्जकान्योल्लेखकसूचकः, अनेन लौकिके स्वामित्व उभयसम्बन्धनसंयोग उक्तः। लोकोत्तरमेवाहमम कुले नागेन्द्रादावय साध्वादिरिति गम्यते / यद्वा कुलमेव कुलकं तस्य चःसमुच्चय योक्ष्यते, ततोऽहमेव अहकम् अभ्यन्तरः अस्मिभवामि / चशब्दा-दयं च साध्वादिरित्येवंविधोल्लेखद्वयव्यङ्ग्यः / एषोऽप्युभयसम्वन्धनसंयोग इति वृद्धाः / अत्र हि मच्छब्दवाच्यस्य कुलेन सहात्मद्वारकः स्वस्वामिभावसम्बन्धः, कुलान्तर्वर्तिना च साध्वादिना परद्वारका, मम कुलेऽयमिति कुलद्वारकत्वादस्य, ततोऽयमपि प्राग्वदुभयसम्बन्धनसंयोगः / इहापि इतिशब्दोऽयं मम गुरोः साध्वादिरित्याधवप्रकारसम्बन्धान्तरव्यञ्जकान्योल्लेखसूचकार्थः। इह चोल्लेखद्वयाभिधानर्मकत्राप्यनेकोल्लेखसम्भवख्यापनार्थमिति गाथार्थः / पुनरन्यथा तमेवाहपच्चयओ य बहुविहो, निवित्तीपच्चओ जिणस्सेव। देहाय बद्धमुक्का, माइपिइसुआइ अहवंति॥६०॥ प्रतीयतेऽनेनार्थ इति प्रत्ययः-ज्ञानकारणं घटादिः, सर्वथा निरा- / लम्बनज्ञानाभावेन तदविनाभावित्वात् ज्ञानस्य, ततस्तमा-श्रित्य, चकरात् ज्ञानतश्व-ज्ञानं चाश्रित्य बहुविध:-बहुप्रकारः, प्रक्रमादात्मना यः संयोगः स उभयसम्बन्धनसंयोगः, तबहुत्वं च प्रत्ययानां तद्विशिष्टज्ञानानां च बहुविधत्वात्। तथा च वृद्धाः-घट प्रतीत्य घटज्ञानं, पट प्रतीत्य पटज्ञानम, एवमादीनि प्रत्ययात् ज्ञानानि भवन्ति / तथा च सति ज्ञानेनात्मद्धारको ममेदं ज्ञानमिति प्रत्ययेन परद्वारका, भम ज्ञानस्याय विषय इति ज्ञानद्वारकत्वात्त-स्य, तत उभयविषयत्वादुभयसम्बन्धनसंयोगः / आह-एवं के-वलिनोऽप्युभयसंयोग एवेति। अत्रोच्यते-निर्वृत्तिः-इत्युत्तरत्रैव-कारस्य भिन्नक्रमत्वान्निर्वृत्तिरेवसकलावरणक्षयादुत्पत्तिरेव प्रत्यथो जिनस्य, जिनसम्बन्धिज्ञानस्येति गम्यते / इदमाकूतम् -छद्मस्थज्ञानं हि मत्यादिकं लब्धिरूपतयोत्पन्नमप्युयोगरूप-तायां बाह्यमपि घटादिकमपेक्षते। तथाहि-घट प्रतीत्य घट ज्ञानं, घटं प्रतीत्य पटज्ञान, के वलिनस्तु ज्ञानं लब्धिरूपतयोत्पन्नं पुनरुपयोगरूपतां प्रति नबाह्य घटादिकमपेक्षते, तज्ज्ञानस्योत्पत्तिसमकाल मेव सकलातीतानागतदूरान्तरितस्थूलसूक्ष्मार्थयाथात्म्यवेदितयैवोपयोगभावात् / यदुक्तम् - उभयावरणाईतो, केव-लवरणाणदंसणसहावो। जाणइपासइय जिणो, सव्वं गयं सय-काल / / 1 / / " ततः केवलज्ञानस्य सर्वत्र सततोपयोगेन नोपयोग प्रति बाह्यापेक्षति निर्वृत्तिरेव प्रत्ययः, ततो न छद्मस्थज्ञानस्येव प्रत्ययत उभयसंयोगः / आह-उक्त एव ज्ञानस्योभयसंयोगः तत् कि पुनरुच्यते? सत्यम, उक्तः स तत्राक्षेप्याक्षेपकभावेन, इह त्वेकस्यापि वस्तुन उपाधिभेदेनाने कसम्बन्धसम्भवख्यापनाय जन्यजनकभावे नोच्यते इति न दोषः / उभयसम्बन्धनसं योगमेव पुनः स्वस्वामिभावनाहदिह्यन्ते-उपचीवन्ते पुद्गलरिति देहा:-कायाः ते च बद्धाइहजन्मनि जीवेन सम्बद्धा मुक्ता-अन्यजन्मनि तेनैवोज्झिताः, अनयोर्द्वन्द्वे बद्धमुक्ताः , 'माइपितिसुयाइ' ति ‘णो जस्शसोर्लोपे आर्षत्वाच्च' 'लोपे दीर्घः' इति दीर्घत्वस्याभावे पितृमातृसुतादयः / आदिशब्दात् भ्रातृभगिन्यादयो, बद्धमुक्ता इत्यत्रापि योज्यते / चशब्दोऽयं पूर्वश्व समुच्चये / एते च किमित्याह- 'भवंति' त्ति जायन्ते, प्राग्वदुभयसम्बग्धनसंयोगाः, जीवस्येति गम्यते / इयमत्र भावनाबद्यादेहा मात्रादयश्चात्मरूपाः, तत्र देहात्मनोः क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगतत्वेन मात्रादयश्चात्यन्तस्नेहविषयतयाऽऽत्मवद्दृश्यमानत्वेन, मुक्तास्तूभयेऽपि बाह्याः। तत्र देहा आत्मनः पृथग्भूतत्वेन, मात्रादयश्च तथाविधस्नेहावि-षयतयाऽऽत्मवददृश्यमानत्वेन, अतो देहेर्मात्रादिभिश्च बद्धमुक्तैः स्वस्वामिभावलक्षणसम्बन्धो जीवस्योभयसम्बन्धनसंयोगः / आह-देहादयो मुक्ताश्च स्वस्वामिविषयाश्चेति विरुद्धमेतत्, एवमेतद्, यदि भावतोऽपि मुक्ताः स्युः, अथ भावतोऽप्यहमेषां स्वामी ममैते स्वमिति भावाभावान्मुक्ता एव ते, नन्वे वमै हिके ष्वप्यमीष्वपरापरोपयोगवत आत्मनो न सततमेवं भावोऽस्तीति कथं तेष्वपि तद्विषयता? अथ तेष्वेवं भावाभावेऽपि व्युत्सर्गीकरणतस्तद्विषयत्वम्, एतदिहापि समानं, व्युत्सर्गीकरणत एव तद्विषयत्वस्ये हापि विवक्षितत्वादिति गाथार्थः / इत्थमनेकधा सम्बन्धनसंयोग उक्तः, अयं च कीदृशस्य कस्य भवतीत्याहसंबंधणसंजोगो, कसायबहुलस्स होइ जीवस्स। पहुणो वा अपहुस्स ब, मज्झं ति ममन्जमाणस्स॥६१॥ सम्बन्धनसयोगः उक्तरूपः, कषायाः-क्रोधादयस्तैर्बहुलस्यव्याप्तस्य, प्रभूतकषायस्येत्यर्थः भवति-जायते, कस्य? जीव-स्य, पुनः कीदृशस्य? प्रभवति-सम्बन्धिवस्तु तत्र तत्र स्वकृत्ये नियोक्तुं समर्थो भवतीति प्रभुस्तस्य वा अप्रभोर्वा उक्तविपरी-तस्य, वाशब्दो समुचये, उभयोरपि संयोगसाम्यं प्रति कारणमाह - 'मज्झं ति ममज्जमाणस्स' ति ममेदं नगरजनपदादीति ममत्वमाचरतः, इदमुक्तं भवति-सत्यसति वा मत्सम्बन्धतया बाह्यवस्तुनि तत्त्वतोऽभिष्वङ्ग एव सम्बन्धनसंयोगः, अनेन च काका कषायबहुलत्वे हेतुरुक्तः, कषाय बहुलस्येति च बुवता कषायद्वारेण सम्बन्धनसंयोगस्य कर्मबन्धहेतुत्वं ख्यापितं भवति, आह-मिथ्यात्वादयो हि बन्धहेतवः, तत्कथं कषायसत्तामात्रेणेव तद्धे-तुख्यापनम् ? उच्यते, तेषामेव तत्र प्राधान्यात्, तत्प्राधान्यं च तत्तारतम्येनैव बन्धतारम्यात्। उक्तं च-"जइ भागगया मत्ता, रागाईणं तहा चउक्कम्मे" इति, बाहुल्यापेक्षं च शुक्ला बलाके त्यादिवत् कषायबहुलस्य जीवस्येत्युच्यते, ततोऽकषायहेतुकत्वेऽप्यौपशमिकादिभावे - Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग नामादिसंयोगानामजीवविषयत्वेऽपि च शीतोष्णादिविरोधिसंयोगाना सम्बन्धनसंयोगत्वं न विरुध्यते। आह-एवमभिप्रेतानभिप्रेतसंयोगयोरपि तत्त्वतः सकषायजीवविषयत्वात् सम्बन्धनसंयोगत्वप्राप्तिः, सत्य, तथापीन्द्रियमनसोः साक्षात्तावुक्तौ, अयं तु जीवस्येति न दोषः / अन्यस्त्वाह-संयुक्तकसंयोगोऽपि द्विष्ठत्वेनेतरेतरस्यैव तथेतरेतरसंयोगोऽपि स्वपरधर्मःसंयुक्तत्वात् सर्ववस्तुनः संयुक्तस्यैवेति नानयोः प्रतिविशेषः, एवमेतत्, तथाऽप्येकस्कन्धताऽऽपन्नद्रव्यविषयैः संयुक्तकसंयोगः, इतरेतरसंयोगस्तु तथाऽन्यथा च, तत्र परमाणुसंयोगस्तथा, प्रदेशादिसंयोगस्तुप्रायोऽन्यथेति युक्तएव तयोर्भेदः। एवं तर्हि परमाणुसंयोगस्य संयुक्तकसयोगादभेदोऽस्तूभयोरपि एकस्कन्धताsऽपन्नद्रव्यविषयत्वात्, अयमपि न दोषः, यतो निष्पाद्यमानविषय इतरेतरसंयोगः, परिमण्डलादिसंस्थितद्रव्यस्य तेनैव (वि) निष्पाद्यमानत्वात्, संयुक्तसंयोगस्तु प्रायो निष्पन्नद्रव्यविषयः निष्पन्नं हि मूलादिरूपेण वृक्षादिद्रव्यं कन्दादिना युज्यते, इत्य-स्त्यनयोर्विशेष इति गाथार्थः / इत्थं सम्बन्धनसंयोगः स्वरूपत उक्तः,सम्प्रतितस्यैव फलतः प्ररूपणापूर्वकं विप्रमुक्तस्येति प्रकृतसूत्रपदं व्याख्यानयन् यथा ततो विप्रमुक्ता भवन्ति यच तेषा फलं तदाहसंबंधणसंजोगो, संसाराओ अणुत्तरणवासो। तं छित्तु विप्पमुक्का, माइपिइसुआइय हवंति।।६।। सम्बन्धनसंयोगः उक्तरूपः संसरन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्दिजन्तव इति संसारस्तस्मात्, न विद्यते उत्तरणं-पारगमनमस्मिन सतीत्यनुत्तरणः, स चासौ वासश्च-अवस्थानमनुत्तरणवासः, अनुत्तरणवासहेतुत्वादायुघृतमित्यादिवदनुत्तरणवासः, अथवा- 'अनुत्तरणवासो' त्ति आत्मनः पारतन्त्र्यहेतुतया पाशवत् पाशः, ततोऽनुत्तरणश्चासौ पाशश्च अनुत्तरणपाशः, उभयत्र च सापेक्ष-त्वेऽपिगमकत्वात् समासः, अनेन संसारावस्थितिः पारवश्यं वा सम्बन्धनसंयोगस्यार्थतः फलमुक्तम्।तम्-एवंविधं सम्बन्धन-संयोगम, अर्थाद् औदयिकभावविषयं मात्रादिविषयं च छित्त्वा द्विधा विधाय निर्णाश्येति यावत्, किमित्याह-विप्रमुक्ताः, श्रुतत्वादनन्तरोक्तसम्बन्धनसंयोगादेव, केते, ?साधवः-अन-गाराः, येनैवं तेन किमित्याह-मुक्ताः ततः संसारात्, तद्धेतुक-त्वात्तस्य, तेन हेतुना, अनेन च गाथापश्चार्धन सम्बन्धच्छेदनल-क्षणेन प्रकारेण विप्रमुक्ता भवन्ति, तेषां च फलं मुक्तिरित्यर्थत उक्तं भवति / यच्च विप्रमुक्तस्येत्येकत्वप्रक्रमेऽपि विप्रमुक्ता इतीह बहुवचनं तदेवंविधभिक्षोः पूज्यत्वख्यापनार्थमिति गाथार्थः। एवं 'संजोगे निक्खेवो' इत्यादि मूलगाथोपक्षिप्तसंयुक्तकसंयोगेतरेतरसंयोगभेदतो द्विविधं द्रव्यसंयोग निरूप्य तत्र संयुक्तकसंयोगं सचित्तादिभेदतस्त्रिविधम्, इतरेतरसंयोग तुपरमाणुप्रदेश-भिप्रेतानभिप्रेताभिलापसम्बन्धनविधानतः षड्विधमभिधाय सम्बन्धनसंयोग एव च साक्षात् कर्मसम्बन्धनिबन्धनतया संसारहेतुरिति तत् त्याज्यतां च / / सम्प्रति तत्प्रतिपादनत एवान्यदुक्तप्रायमिति मन्वानः क्षेत्रादि निक्षेपमविशिष्टमतिदेष्टुमाह संबंधणसंजोगे, खित्ताईणं विभासों जा भणिया। खित्ताइसु संजोगो, सो चेव विभासियव्वो अ॥६३।। सम्बन्धनसंयोगे क्षेत्रादीनाम्, आदिशब्दात्-कालभावपरिग्रहः, वितिधा-आदेशानादेशादिभेदादनेकभेदा भाषा विभाषा, या इति प्रस्तुतपरामर्शः, भणिता-अभिहिता, क्षेत्रादिषु क्षेत्रादिविषयः संयोगः प्रथमद्वारगाथासूचितः। स चैवं विभाषितव्यः। तुः पूरणे। संयोगत्वं चात्र विभाषाया वचनरूपत्वाद्वचनपर्यायाणां कथञ्चिद्वाच्यादभेदख्यापनार्थमुक्तम् / ततोऽयमर्थः-सम्बन्धनसंयोगविषयक्षेत्रादिविभाषायां यत्संयोगस्वरूपमुक्तम्, इहापि तदेव वक्तव्यं, चकारस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् / संयुक्तकसंयोगः सम्भवन्त इतरेतरसंयोगशेषभेदाश्च वाच्याः / तत्र क्षेत्रस्य संयुक्तकसंयोगो यथा-जम्यूद्वीपः स्वप्रदेशसंयुक्तक एव लवणसमु-द्रेण युज्यते, इतरेतरसंयोगः क्षेत्रप्रदेशानामेव परस्पर धर्मास्ति-कायादिप्रदेशैर्वा संयोगः / एवं कालभावयोरपि नेयमिति गाथार्थः। इह चोक्तनीत्या सम्बन्धनसंयोग एव साक्षादुपयोगी, इतरेषा तु तदुपकारितया तेषामपि कथञ्चित्त्याज्यतया च शिष्यमतिव्युत्पादनाय चोपन्यास इति भावनीयम् / उक्तःसंयोगः, तदभिधाना-च्च व्याख्यातं प्रथमसूत्रम् / / 1 / / उत्त० 1 अ० / कथं संयोगासिद्ध-त्वम्' येनोक्तदोषदुष्टः प्रकृतो हेतुः स्यात् 1 उच्यते-तद्ग्राहक-प्रमाणाभावात, बाधकप्रमाणोपपत्तेश्च / ' तथाहि- "संख्यापरि-माणानि पृथक्त्वं संयोगविभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपि (द्रव्य) समवायाचाक्षुपाणि (वैशेषिकद. 4 / 1 / 11 / )" इति वचनात् दृश्यवस्तुसमवेतस्य परेण प्रत्यक्षग्राह्यत्वमभ्युपगतम् / न च निरन्तरोत्पन्नवस्तुद्वयप्रतिभासकालेऽध्यक्षप्रतिपत्तौ तद्व्यतिरेकेणापरः संयोगो बहिर्गाह्यरूपतां बिभ्राणः प्रतिभाति, नापि कल्पनाबुद्धौ वस्तुद्वयं यथोक्तं विहाय, शब्दोल्लेख चान्तरमपरं वर्णाकृत्यक्षराकाररहितं संयोगस्वरूपमुद्भाति / तदेवमुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य संयोगस्यानुपलब्धेरभावः, शशविषाणवत्। तेन यदाहोद्द्योतकराः- “यदि संयोगो नार्थान्तरं भवेत्तदा क्षेत्रबीजोदकादयो निर्विशिष्टत्वात्सर्वदैवाड्कुरादि-कार्यकुर्युः, न चैवम्-तस्मात्सर्वदा कार्यानारम्भात् क्षेत्रादीन्यड् कुरोत्पत्तौ कारणान्तरसापेक्षाणि, यथा मृत्पिण्डादिसामग्री घटादिकरणे कुलालादिसापेक्षा; योऽसौ क्षेत्रादिभिरपेक्ष्यः स संयोग इति सिद्धम् / किञ्च-असौ संयोगो द्रव्ययोर्विशेषणभावेन प्रतीयमानत्वात् ततोऽर्थान्तरत्वेन प्रत्यक्षसिद्ध एव / तथाहिकश्चित्केनचित्संयुक्त द्रव्ये आहरेत्युक्ते ययोरेव द्रव्ययोः संयोगमुपलभते ते एवाहरति न द्रव्यमात्रम्। किञ्च-दूरतरवर्तिनः पुंसः सान्तरेऽपि वने निरन्तररूपाऽवसायिनी बुद्धिरुदयमासादयति; शेष मिथ्याबुद्धि, मुख्यपदार्थानुभवमन्तरेण न क्वचिदुपजायते।नह्यननुभूतगोद-र्शनस्य गवये 'गौः' इति विभ्रमो भवति / तस्मादवश्यं संयोगोमुख्योऽभ्युपगन्तव्यः। तथा'न चैत्रः कुण्डली' इत्यनेन प्रतिषेधवाक्येन न कुण्डलं प्रतिषिध्यते, नापि चैत्रः, तयोरन्यत्र देशादो सत्त्वात्।तस्माचैत्रस्यकुण्डलसंयोगः प्रतिषिध्यते। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 116 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोग तथा चैत्रः कुण्डली इत्यनेनापि विधिवाक्येन न चैत्रकुण्डलयोरन्यतरविधानम्, तयोः सिद्धत्वात्, पारिशेभ्यात् संयोगविधानम्। तस्मादस्त्येव संयोगः” इति / तन्निरस्तं दृष्टव्यम् / संयुक्तद्रव्यस्वरूपावभासव्यतिरे के णापरस्य संयोगस्य प्रत्यक्षे निर्विकल्पके सविकल्पकेषाऽप्रतिभासस्य प्रतिपादितत्वात् / न च संयुक्तप्रत्ययान्यथानुपपत्या संयोगकल्पनोपपन्ना, निरन्तरावस्थयोरेव भावयोः संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वात् / यावच्च तस्यामवस्थायां संयोगजनकत्वेन संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन ताविष्येते, तावत्संयोगमन्तरेण संयुक्तप्रत्ययहेतुत्वेन तद्विचयो कि नेष्येते ? किं पारम्पर्येण? न च सान्तरे बने निरन्तरावभासिनी बुद्धिः मुख्यपदार्थानुभवपूर्विकाऽरसतत्प्रत्ययत्वेनानुपचरितत्वात्। 'न चैत्रः कुण्डली' इत्यादौ चैत्रसम्बन्धि कुण्डल निषिध्यते विधीयते वा, न संयोगः / न च सम्बन्धव्यतिरेकेण चैत्रस्य कुण्डलसम्बन्धानुपपत्तिरिति वक्तुं शक्यम्, यतश्चैत्रकुण्डलयोः किं सम्बन्धिनोः स सम्बन्धः, उत-असम्बन्धिनोः, नासम्बन्धिनाः हिमवद्विन्ध्ययोरिवासंबन्धिनोः सम्बन्धानुपपत्तेः / न चासम्बन्धिनोभिन्नसम्बन्धेन तदभिन्नं सम्बन्धित्वं शक्यं विधातुम् / विरुद्धधर्मध्यासेन भेदाता नापि भिन्नम्। तत्सद्भावेऽपि तयोः स्वरूपेणासम्बन्धित्वप्रसङ्गात्; भिन्नस्य तत्कृतोपकारमन्तरेण तत्सम्बन्धित्वायोगात् , ततोऽपरोपकारकल्पनेऽनवस्थाप्रसङ्गात्। सम्बन्धिनोस्तु सम्बन्धपरिकल्पनं व्यर्थम्, सम्बन्धमन्तरेणापि तयोःस्वत एव सम्बन्धिस्वरूपत्वात्। यत्तूक्तम्-'विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण क्षितिबीजोदकादीनां नाड् कुरजनकत्वम् सा च विशिष्टावस्था तेषां संयोगरूपा शक्तिः। तदसादरम्; यतो यथा विशिष्टावस्था-युक्ताः क्षित्यादयः संयोगमुत्पादयन्ति, तथा तदवस्थायुक्ता अडरादिकमपि कार्य निष्पादयिष्यन्तीति व्यर्थ संयोगशक्तेस्त-दन्तरालवर्त्तिन्याः परिकल्पनम्। अथ संयोगशक्तिव्यतिरेकेण न कार्योत्पादने कारणकलापः प्रवर्तत इति निर्बन्धः, तर्हि संयोगशक्त्युत्पादनेऽप्यपरसयोगशक्तिव्यतिरेकेण नासी प्रवर्तत इत्यपरा संयोगशक्तिः परिकल्पनीया, तत्राप्यपरेत्यनवस्था / अथ तामन्तरेणाऽपि शक्तिमुत्पादयन्ति, तर्हि कार्यमपि तामन्तरेणैवाड़ कुरादिकं निर्वर्तयिष्यन्तीति व्यर्थ संयोगशक्तेः तदन्तरालवर्त्तिन्याः कल्पनम्। न च विशिष्टावस्थाव्यतिरेकेण पृथि-व्यादयः संयोगशक्तिमपि निर्वर्तयितुं क्षमाः, तथाऽभ्युपगमे सर्वदा तनिर्वर्तनप्रसङ्गादड़ कुरादेरप्यनवर तोत्पत्तिप्रसङ्गः / न चान्य-तरकर्मादिसव्यपेक्षाः संयोगमुत्पादयन्ति क्षित्यादय इति नाय दोषः, कर्मोत्पत्तावपि संयोगपक्षोक्तदूषणस्य सर्वस्य तुल्यत्वात् / तस्मादेक सामग्य - धीनविशिष्टात्पत्तिमत्पदार्थव्यतिरे के ण नापरः संयोगः / तस्य बाधकप्रमाणविषयत्वात्,साधकप्रमाणाभावाच्च / यस्तु 'संयुक्ते द्रव्ये एते' इति, 'अनयोर्वाऽयं संयोगः' इतिव्यपदेशः, स भेदान्तरप्रतिक्षेपाऽप्रतिक्षेपाभ्यां तथाऽवस्थोत्पन्नवस्तुद्वयनिबन्धन एव,नातोऽपरस्य संयोगस्य सिद्धिः / नचाक्षणिकत्वे तयोः स सम्बन्धी युक्तः / तत् सम्बन्धस्य सगवायस्य निषिद्धत्वात्, निषेत्स्यमानत्वाच्च / न च तजन्यत्वादसा तत्सम्बन्धी, अक्षणिकत्वे जनकत्व विरोधस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् / क्षणिकत्वेऽपि तयो रे कसामर, यधीना नैरन्तर्योत्पत्तिरेव, नापरसंयोग इति 'रचनावत्त्वाद' इति अत्र हेतोर्विशेषणस्य संयोग-विशेषस्य रचनालक्षणस्याऽसिद्धः तद्वतो विशेष्यस्याप्यसिद्धि-रिति स्वरूपासिद्धत्वम् / सम्म०१ काण्ड। संजोगवियोगतो य लब्भइ जहा दो महुरातो दाहिणा, उत्तरा य / तत्थुत्तरातो वाणियतो दक्खिणं गतो, तत्थ एगो वाणियगो तप्पडिमो तेण से पाहुण्ण कयं / ताहे ते निरंतरं ते मित्ता जाया, अम्हं थिरतरा पीती होउ त्ति जइ अम्ह पुत्तो धूया य जायइ तो संजोग करिस्सामो। ताहे दक्खिणेण उत्तरस्स धूया वरिया, दिन्नाणि बालाणि, एत्थंतरे दक्षिणमहुरा, वाणिओ मतो, पुत्तो से तम्मि ठाणे ठितो। अण्णया सो पहाई, चउद्दिसिं चत्तारि सोव-निया कलसा ठविया ताण वाहिं रोप्पिया। ताणं बाहिं तंबिया, ताण बाहिं मट्टिया / अण्णा य पहाणविही रइया। ततो तस्स पुरतो पुटवाए दिसाए सोवन्निओ कलसो नट्ठो। एवं चउद्दिसिं पि, एवं सव्वे नट्ठा, उट्ठियस्स णहाणपीढं वि नटुं, तस्स अधिती जाया। जाव घरं पविट्टो ताहे भोयणबिही उवट्ठविया, ताहे सोवण्णियरुप्पमयाणि थालाणि रइयाणि, तत्थ एक्ककं भायणं नासिउमारद्धं, सोय पेच्छति नासते जा वि से मूलपत्ती सा वि णासिउमारद्धा / ताहे तेण गहिया, जत्तिय गहियं तत्तिय ठिय, सेसं नटुं ततोगतो सिरिघरं जो एइ सो वि रित्तओ। जं पि निहाणपउत्तं तं पि नट्ट / ज पि आभरणं तं पि नऽत्थिाज पिबुड्डिपउत्तं ते विभणन्ति-तुमं न याणामो,जो बि दासीवग्गो सो वि नट्टो / ताहे चिंतेइ / पव्वयामि। पव्वइतो सामाइयाणिएक्कारस अगाणि पद्रियाणि / ततो तेण खडेण हत्थगएण कोऊहल्लेण हिंडइ, जइ पेच्छेन्जामि विहरंतो उत्तरम-हुरं गतो / ताणि वि रयणाणि ससुरकुलं गयाणि, ते य कलसा, तहा हि सो उत्तरमाहुरो वाणितो उवगिज्जतो अन्नया कयाई मज्जई, तरस मज्जमाणस्स ते कलसा गया। ताहे सा तेहिं चेव पमजितो, भोयण-वेलाए सव्यं भोयणभंडं उवट्ठियं सोवि साहू भिक्ख अडतो तं घरं पविट्ठो। तत्थ सत्थवाहस्स धूया पढमजोव्वणे वट्टमाणी वीयणय गहाय अच्छइ। ताहे सो साहू तं भोयणभडं पेच्छइ। सत्थवाहेण भिक्खा नीणाविया। गहिए वि अच्छई, ताहे पुच्छई-किं भयव! एवं चेडिं पलोवेह / ताहे सो भणई-न मम चेडीए पओयणं / एयं भोयणभंडगं पलो एमि / ततो पुच्छई-कतो एयरस आगमो ? सो भणइअजयपज्जयागयं, तेण भणियं-सब्भावं साह, तेण भणियं-मम बहायंतस्स एव चेव पहाणविही उवट्ठिया / एवं सव्वो वि जेम-णवेलाए भोयणविही सिरिघराण वि भरियाणि दिवाणि अदिट्ठपु-व्वा य वाणियगा आणित्ता देंति। ताहे सो भणइ-एयं सव्वं मम आसि / सो पुच्छइ इह ताहे साहूकहेई। पहाणादि जइन पत्तियसि भोयणपत्ती खंड पेच्छ जाव ढोइयं चड त्ति लग्गं पिउणो नामं साहइ / ताहे नायं एस सो जामाओ, ताहे सो उद्वित्ता अक्यासेऊण परुतो पच्छा भणई / एयं सव्वं तव तदवत्थ अच्छई / एसा पुव्वादिन्ना चेडी पडिच्छसु त्ति / सो भणइ-पुरिसो वा पुटवं कामभोगे विप्पजहई, कामभोगावा पुटव पुरिसं विप्पजहं Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोग 120 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोयणा ति।ताहे सो वि संवेगमावन्नो ममं पिएमेव विप्पजहिस्संति त्ति पव्वइतो। तत्थ एगेण वि विप्पओगेण लद्धं एगेण संजोगेण सामाइयं लद्धं ति।' आ०म० 1 अ० / “अमन्त्रमक्षरं नास्ति, नास्ति मूलमनौषधम्। अधुना पृथिवी नास्ति, संयोगाः खलु दुर्लभाः" ||1|| गा० / संजोगगम त्रि०(संयोगगम) संयोगगम संयोगतो गमः प्रकारो यस्य तत्तथा / व्य० 1 उ० / संयोगतोऽनेकप्रकारे, व्य० 1 उ० / संजोगट्टि(ण) त्रि० (संयोगार्थिन्) संयुज्यते संयोजन वा प्रयो-जनं सोऽस्यास्तीति संयोगार्थी। तत्र धनधान्य हिरण्यद्विपदचतुष्पदराजभार्या दिसंयोगस्तेनार्थी तत्प्रयोजनः / अथवा-शब्दादिविषयःसयोगो मातापित्रादिभिर्वा तेनार्थी / संयोगप्रयोजिनि, व्य० 5 उ०। संजोगदिट्ठपाढि पुं० (संयोगदृष्टपाठिन्) संयोग औषधद्रव्यमीलनप्रयोगस्तद्विषयो दृष्टः पाठश्चिकित्साशास्त्रावयवविशेषो येन सः आर्षत्वाद् इन्प्रत्यः / बृ०१ उ०२ प्रक०ा क्रियाशास्त्रयोर्निपुणे यो ह्यनेकान् संयोगान् व्यापार्यमाणान् दृष्टवान्यश्च तत्पाठं पठितवान् तादृशे, व्य०५ उ०। संजोगमूला स्त्री० (संयोगमूला) संयोगो नानाभवेषु पुत्रकलत्रमि शरीरादिसम्बन्धरूपः स एव मूलं यासा ताः संयोगमूलाः / संयोगकारणीभूतायां स्त्रियाम्, आतु०। संजोगरय त्रि० (संयोगरत) पुत्रकलत्रमित्रादिजनितसम्बन्धरते, आचा० १श्रु० 4 अ० 1 उ०। संजोगसंबंध पुं० (संयोगसम्बन्ध) संयोगस्य संबन्धोऽभिलाषः। नानाभवेषु पुत्रकलत्रमित्रशरीरादिसम्बन्धेच्छायाम्. आतु० / संजोणिय त्रि० (संयोनिक) सह योन्युत्पत्तिस्थानेन वर्तते इति संयोनिकः / संसारिणि, स्था० 2 ठा० 1 उ०। संजोत्ता पुं० (संयोजयिता) संयोग कारयितरि, स्था० 6 ठा० ३उ०। संजोयणा स्त्री० (संयोजना) लोभाद् द्रव्यस्य मण्डकादेव्यान्तरेण खण्डघृतादिना वसतेर्बहिरन्तर्वा योजन संयोजना / ध०३ अधि० / संयोजनं संयोजना। उत्कर्षतोत्पादनार्थं द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण मीलने, प्रव०६३ द्वार / पं० प० / पिं० / भक्तादेर्गुणान्तरोत्पादनीयद्रव्यान्तरमीलने, पञ्चा० 13 विव० / ग्रासैषणायाः प्रथमे दोषे, यथाक्षीरदधिघृतादि द्रव्यं सम्मील्य रसलौल्येन भुक्ते / उत्त० 24 अ० / जीत० / नि०चू० 1 पिं०। संप्रति संयोजनामेव व्याचिख्यासुःप्रथमतस्तस्या निक्षे पमाहदव्वे भावे संजो-अणा उदध्वे दुहा उ बहि अंतो। भिक्खं चिय हिंडतो, संजोयं तम्मि वाहिरिया / / 636|| संयोजना द्विधा, तद्यथा-द्रव्ये-द्रव्यविषया, भावभावविषया। तत्र द्रव्येद्रव्यविषया संयाजना द्विविधा, तद्यथा-बहिरन्तश्च। तत्र यदा भिक्षार्थमेव हिण्डमानः सन् क्षीरादिकं खण्डादिभिः सह रसगृझ्या रसविशेषोत्पादनाय संयोजयति एषा बाह्याबहिर्भया संयोजना। एनामेव स्पष्ट भावयतिखीरदहिसूवकट्टर-लंभे गुडसप्पिवडगवालुंके। अंतो उ तिहा पाए, लंबणवयणे विभासा उ॥६३७।। क्षीरदधिसूपानां प्रतीतानां कट्टरस्य तीमनोन्मिश्रघृतवटिकारूपस्य देशविशेषप्रसिद्धस्य लाभे सति तथा गुडसर्पिर्यटकवालुङ्कनां च प्राप्ती सत्यां रसगृङ्ख्या रसविशेषोत्पादनायानुकूलद्रव्यैः सह संयोजना यत्करोति वहिरेव भिक्षामटन् एषा बाह्या द्रव्यसंयोजना। अभ्यन्तरा, पुनर्यद्वसतावागत्य भोजनवेलायां संयोजयति, तथा चाह-अन्तस्तु अभ्यन्तरा, पुनः संयोजना त्रिधा-त्रिप्रकारा, तद्यथा-पात्रे लम्बने वदने च, नवरं लम्बन-कवलः, ततोऽस्या-स्त्रिविधाया अपि विभाषाव्याख्या कर्त्तव्या। सा चैवं यद्रव्यं यस्य द्रव्यस्य रसविशेषाधायि तत्तेन सह पात्रे रसगृङ्ख्या संयोजयति, यथा-सुकुमारिकादिकं खण्डादिना सह, एषा पात्रेऽभ्यन्तरासंयोजना, यदातुहस्तगतमेव कवलतयोत्पाटितचूर्णं सुकुमारिकादि खण्डादिना सह संयोजयति तदा कवलेऽभ्यन्तरा संयोजना। यदा पुनर्वदने कवलं प्रक्षिप्य ततः शालनकं प्रक्षिपति, यद्वा-मण्डकादिकं पूर्व प्रक्षिप्य पश्चाद् गुडादिकं प्रक्षिपति एषा वदनेऽभ्यन्तरा संयोजना। एषा च द्रव्यसंयोजना समस्ताऽप्यप्रशस्ता यतोऽनयाऽऽत्मानं रागद्वेषाभ्यां संयोज्यति। तथा चामुमेव दोषं वक्तुकाम आहसंजोयणाए दोसो, जो संजोएइ भत्तपाणं तु। दव्वाईरसहेउं, वाधाओतस्सिमो होइ।।६३८|| संयोजनायां प्रागुक्तस्वरूपायामयं दोषः- 'दव्वाइरसहेउ' ति, अत्रार्षत्वादादिशब्दस्य व्यत्यासेन योजना। ततोऽयमर्थः-द्रव्यस्य सुकु मारिकादेः रसहेतोः-रसविशेषोत्पादनाय, आदिशब्दाच्छुभगन्धादिनिमित्तं च, यो भक्तं पानं चानुकूलद्रव्येण खण्डादिना सह संयोजयति तस्य साधोरयं वक्ष्यमाणः व्याघातः-दीर्घदुःखोपनिपातरूपो भवति। तमेव भावयन् भावसंयोजनामप्याहसंजोयणा उभावे, संजोएऊण ताणिदव्वाई। संजोयइ कम्मेणं, कम्मेण भवंतओ दुक्खं॥६३६।। तानि हि सुकुमारिकाखण्डादीनि द्रव्याणि रसगृङ्ख्या संयोजयन्नात्मानमप्रशस्तेन गृद्ध्यात्मकेन भावेन संयोजयति, एषा भावे भावविषया संयोजना, ततस्तानि द्रव्याणि तथा संयोज्यात्मनि कर्म ज्ञानावरणीयादिकं संयोजयति सम्बध्नाति कर्मणा च संयोजयति भवं दीर्घतरं संसारं तस्माच्च भवाद्दीर्घतरसंसाररूपात् दुःखम् -अज्ञात संयोजयति, ततो यो द्रव्यसंयोजनां करोति तस्येत्थमनन्तकालसंवेद्यो दुःखनिपात इति। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोयणा 121 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संजोयणा सम्प्रत्यस्या एव द्रव्यसंयोजनाया अपवादमाहपत्तेय पउरलम्भे, भुत्तुव्वरिए य सेसगमणऽट्ठा। दिह्रो संजोगो खलु,अह कमो तस्सिमो होइ // 640 / / प्रत्येकम्-एकैकं साधुसंघाटकम् प्रति प्रचुरलाभेविपुलघृतादि-प्राप्ती सत्यां यदि कथमपि भुक्त सति चः-समुच्चये शेषम्-उदरितं भवति, ततस्तस्य शेषस्य निर्गमनार्थ दृष्टः-अनुज्ञात-स्तीर्थकरादिभिः खलु संयोगः, उद्वरितं हि घृतादि न खण्डादिक-मन्तरेण मण्डकादिभिरपि सह भोक्तुं शक्यते प्रायस्तृप्तत्वात्, न च परिष्ठापनं युक्तं, घृतादिपरिष्ठापने स्निग्धत्वात् पश्चादपि की-टिकादिसत्त्वव्याघातसम्भवेन बृहत्तरप्रायश्चित्तसम्भवात्तत उद्वरितघृतादिनिर्गमनार्थ खण्डादिभिरपि तस्य संयोजनं न दोषाय, एष तावदयमपवादः संयोजनायाः। अथान्योऽपि तस्य संयोगस्यायं वक्ष्यमाणः क्रमो -भवनपरिपाटीरूपो भवति। तमेवाहरसहेउं पडिसिद्धो, संयोगो कप्पए गिलाणऽट्ठा। जस्स व अभत्तछंदो, सुहोचिओऽभाविओ जो य॥६४१।।। रसहेतोः- गृङ्ख्या रसविशेषोत्पादनाय संयोगःप्रतिषिद्धस्तीर्थकरादिभिः, यावता पुनः स एव संयोगो ग्लानार्थ-ग्लानसञ्जीक-रणार्थ कल्पते,यद्वा-यस्य अभक्तच्छन्दः-भक्तारोचकः, यश्च सुखोचितो राजपुत्रादिः यश्चाद्याप्यभावितः-असञ्जातसम्य-क्परिणामः शैक्षकस्तस्य निमित्त कल्पते / उक्तं संयोजनाद्वारम्। पिं० / व्य० / पं०चू० / महा० / ग० / आचा० / अनन्तानुबन्धिक-षायेषु, पं०सं०३ द्वार। संयोज्यते-सम्बध्यतेऽनेकसंख्यैर्भव-जन्तवो यैस्ते संयोजनाः। संयोजयत्यात्मनोऽनन्तमपि कालमिति "रस्यादिभ्यः कर्तरि" इत्यनटि प्रत्यये संयोजना / कर्म० 5 कर्म०। “संजोयणाए कसाया भवादिसंजोयणातो य।" आ०म०१ अ० / एकजातीयातिचारमीलते, तथा-शय्यातरपिण्डो गृहीतः सौ ह्यु-दकाहस्तादिना सौम्याद्भुतः सोऽप्याधाकर्मिकः तत्र यत्प्रायश्चित्तं तत्संयोजनाप्रायश्चित्तम् संयोजनोच्यते / स्था० 4 ठा० 1 उ० / कथं संयोजना पृथक् प्रायश्चित्तमुच्यते / अधुना संयोजनाप्रायश्चित्त वक्तव्यम् / अस्मिश्व व्याख्याते यतः प्ररूपणापृथक्वमित्येतदपि द्वारं व्याख्यातं द्रष्टव्यम्। तत्र चोदकःसंयोजनाऽऽदीनां भेदानां प्ररूपणापृथक्त्व माक्षिपन्नाहपडिसेवणं विणा खलु, संजोगाऽऽरोवणा न दिजंति। माया विय पडिसेवा, अइप्पसंगो य इति एक्कं // 137 / / इह प्रायाश्वतं सर्वमुत्पद्यते, प्रतिसेवनातो, खलु मूलगुणगुणप्रतिसेवनाम, उत्तरगुणप्रतिसेवनां वा विना क्वापि प्रायश्चित्तस्य संभवः "पडिसेवियम्मि दिइ पच्छित्तं इहरहाउपडिसेहो" इति वचनात्, ततः संयोजनाप्रायश्चित्तमारोपणाप्रायश्चित्तं च प्रतिसेवनामन्तरेण न भवतीति तयोः सम्प्रति प्रतिसेवनायामेवान्तर्भावः / प्रतिकुश्च-नाप्रायश्चित्तमपिन प्रतिसेवनातः पृथगुपपन्न यतः प्रतिकुञ्चना-नाम-माया। तथा चोक्तम् "पलिउंचण ति य माय त्ति य नियडि ति य एगट्ठा इति।" माया च प्रतिसेवना ततः एकमेव प्रतिसेवन-प्रायश्चित्तमुपपत्तिमत् न शेषाणि त्रीणि संयोजनादीनि पृथक प्राय-श्चित्तानि, अन्यथैवमतिप्रसङ्ग आपद्यते / तथाहि-संयोजनादीनि त्रीणि प्रायश्चित्तानि प्रतिसेवना रूपाणि भवन्त्यपि प्रतिसेवना भ-वन्ति / ततः प्रतिसेवनाऽपि न प्रतिसेवना स्यात् विशेषाभावात् / अनिष्ट चैतत्तस्मादेकमेव प्रायश्चित्तं प्रतिसेवना न शेषाणीति। एवं चोदकेनाऽऽक्षिप्ते प्ररूपणापृथक्त्वे सूरिरुत्तरमाहएगाहिगारिगाण वि, नाणत्तं केत्तिया व दिजंति। आलोयणाविही वि य, इय नाणत्तं चउण्हं पि॥१३८|| ऐकाधिकारिकाणि नाम एकस्मिन् शय्यातरपिण्डादायधिकृतदोषेऽनालोचिते एवं यानि शेषदोषसमुत्थितानि प्रायश्चितानि तान्य काधिकारिकाणि- एकाधिकारे भवान्यै काधिकारिकाणि अध्यात्मादित्वादिकणिति व्युत्पत्तः, तेषामप्यैकाधिकारिकाणां नानात्वं, न पुनरैकाधिकारिकतया एकत्वमिति प्रज्ञानाय तदर्थ संयोजनाप्रायश्चित्तं पृथगुच्यते। नानात्वमेव गाथाद्येन दर्शयतिसेज्जातरपिण्डे य, उदउल्ले खलु तहा अमिहडे य। आहाकम्मे य तहा, सत्त उसागारिए मासा॥१३६।। केनापि साधुना प्रथमतः शय्यातरपिण्ड उपभुक्तः तस्मिन्ननालोचित एव तदनन्तरमुदकामासेवितं, ततोऽभ्याहतं, तदनन्तरमाधाकमिकम्, एतानि चत्वार्यप्यकाधिकारिकाणि अधिकृत एव शय्यातरपिण्डदोघे अनालोचिते शेषदोषप्रायश्चित्तानां संभ-वात् / एतेषां चैकाधिकारिकाणामपि नानात्वं नतु शय्यातरपिण्डे एव शेषाण्यन्तभवन्ति। ततः सर्वाण्यपि पृथगालोचनीयानि न केवल एवैकः शय्यातरपिण्ड इति परिज्ञानाय संयोजना दर्शाते तत्र शय्यातरपिण्डे मासलघु, उदकाईऽपि मासलघु / स्वग्रामा-दाहृतेऽपि मासलघु। आधाकर्मिमके चत्वारो गुरुमासाः। “गुरुगा आय” इति वचनात्। एवं शय्यातरपिण्डे अधिकृते संयोजनाप्रायश्चित्तं सप्त मासास्तथाचाह- "सत्त उ सागारिए मासा" सागारिको नाम-शय्यातरस्तस्मिन्सागारिके-सागारिकपिण्डे अधिकृते एकाधि-कारिकाणामपि नानात्वात् संयोजनाप्रायश्चित्तं सप्त मासाः। रण्णो आहाकम्मे, उदउल्ले खलु तहा अभिहडे य। दसमास रायपिंडे, उग्गमदोसादिणो चेव।।१४०।। केनापि प्रथमतो राजपिण्ड उपभुक्तस्ततस्तैनैव राजपिण्डे उपभुक्ते अनालांचित एव आधाकर्मिकमुपभुक्तं तदनन्तरमुदका ततोऽभ्याहृतमेवमेतान्यपि चत्वार्यकाधिकारिक ाणि, अधिकृत एवं-राजपिण्डदोषे शेषदोषाणां सम्भवात् / एतेषां च नानात्व-मिति पृथगालोचनायां संयोजना दर्श्यन्ते-राजपिण्डे चत्वारो गुरुमासाः, आधाकर्मिक ऽपि चत्वारो गुरुमासौः / उदकार्दै लघु-मासः / अभ्याहृतेऽपि लघुमासः इत्यधिकृते राजपिण्डे उद्गमदो-षादिना उद्गमदोषेण आदिशब्दादुत्पादनादोषेणैषणादोषेण चशब्दादन्येन च १-पुस्तकान्तर- 'आलोवणाविहीं विय, इय णाणत्तं चउण्इं पि' Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संजोयणा 122 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संझापडिक्कमण यथासंभव संयोजनाया दश मासाः प्रायश्चित्तम्, एवमनया दिशा तत्तदोषसंयोजनात, संयोजनाप्रायश्चित्तमवसातव्यम् / एवं संयोजनायामनुमतायां मा भूदारोपणाशङ्केति कस्मिन्नपि तीर्थे कति मासा दीयन्ते प्रायश्चित्तमिति परिज्ञानाय संयोजनात् आरोपणा-प्रायश्चित्त पृथकृतम्, 'आलो यणा विही विय' त्ति / यद्यथा प्रति-से वित तत्तथैवालोचयितव्यम् / न तु मायया प्रतिकुञ्चनीयमन्यथा मायया प्रतिकुञ्चन्नेन मायाप्रत्ययमधिकं मासगुरां प्राप्नोतीत्येवं ज्ञापितः सन् यथा प्रतिसेवितमालोचयते। तत आलोचनाविधि-रपि सम्यग्ज्ञापितः स्यात्, अपिशब्दादेवं ज्ञापितो यदा मायया अन्यथा आलोचयते तदा आरोपणायां क्रियमाणायां यत्र मास-लघु आभवति, तत्र मासगुरु प्रदातव्यमिति ज्ञापनार्थमारोपणातः प्रतिकुचना-प्रतिकुञ्चनाप्रायश्चित्तं भिन्नं कृतमिति / एवम्-उक्तेन प्रकारेण चतुण्णामपि प्रायश्चित्ताना नानात्वमिति / उक्त संयोजनाप्रायश्चित्तं तदुक्तौ यतः प्ररूपणापृथक्त्वमिति द्वारमप्युक्तम्। व्य०१ उ०। संजोयणादोसदुट्ठ त्रि० (संयोजनादोषदुष्ट) संयोजना द्रव्यस्य गुणविशेषार्थ द्रव्यान्तरेण योजनं सैव दोषस्तेन दुष्ट यत् / द्रव्यान्तरसयोगदोषदुष्ट, भ०७ श०१ उ०। संजोयणाहिगरणिया स्त्री० (संयोजनाधिकरणिकी) संयोजन हलगरविषकूटयन्त्राङ्गना पूर्वनिवर्तिताना मीलनं तदेवाधिकरण- क्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया ।अधिकरणिक्याः क्रियाया भेदे, भ०३ श०३ उ०। संझच्छेयावरण पुं०(सन्ध्याच्छेदावरण) संध्याच्छेदः-सन्ध्याविभागः स आप्रियते येन स सन्ध्याच्छेदावरणः। चन्द्रे, व्य०७ उ०। संझप्पम न० (संध्याप्रभ) शक्रलोकपालस्य सोमस्य विमाने, भ०३ श० ७उ० सं झडभराग पुं० (सन्ध्याभराग) वर्षासु सन्ध्यासमयभाविनि अभ्ररागे,जी०३ प्रति०४ अधि० / जं०प्रज्ञा० / संझा स्त्री० (सन्ध्या)"ङ-ञ-ण-नो व्यञ्जने" ||8/1 / 25 / / अनेनात्र नकारस्यानुस्वारः : सझा / प्रा० / सायंकाले, प्रज्ञा०१७ पद 4 उ० / जी०। संझागय न० (सन्ध्यागत) यत्र नक्षत्र सूर्योऽनन्तरं स्थास्यति तादृशे नक्षत्रे, 'भा-म०१ अ०। यत्र नक्षत्रे सूर्यस्तिष्ठति तस्माच्चतुर्दश पञ्चदशं वा नक्षत्र सन्ध्यागतमित्यन्ये, विशे०। जीतक। पं०व० / नि० चू० / द०प० / संझाणुराग पु० (सन्ध्यानुराग) सन्ध्याभ्ररागे, "संझाणुराग-वसणा वाउकुमारा मुणयव्वा प्रज्ञा०२ पद। सझापडिक्कमण नल (सच्या प्रतिक्रमण) प्रतिक्रमणभेदे, सेन / सन्ध्याप्रतिक्रमणे पडावश्यक्सूत्राणि कानीति? प्रश्नः, अत्रोत्त-रम"नमो अरिहंताणमि" त्यादि सम्धनमस्कारः 'करेमि भंते! सामाइअं' इत्यादितः 'अप्पाणंकोसिरामी त्यन्तं प्रथम सामा-यिकाध्ययनम् / / 1 / / 'लोगस्सउज्जोअगरे' त्यादितः 'सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु' इत्यन्त द्वितीय चतुर्विशतिस्तवाध्ययनम् ॥सइच्छामि खमासमणो ! वदिउ जाव पाणिसीहियाए अणुजाणह में मिउग्गहमि' त्यादि तृतीय वन्दनकाध्ययनम्॥३॥ 'चत्तारि मङ्गलं , इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ, इच्छामि पडिक्कमिउं इरिआवहिआए० 'इच्छामि पडिक्कमिउं पगामसिखाएक' इत्यादि चतुर्थ प्रतिक्रमणाध्ययनम्।।४।। 'इच्छामि ढामि काउ-स्सगं' राइदेव० 17 / 5 इच्छामि ठामि काउस्सगं, जो मे देवसिओ अइआरो कओ काइओवाइओ माणसिओ उस्सुत्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिजो दुज्झाओ दुविचिंतिओ अणायारो अणि-च्छिअव्वो असावगपाउग्गो नाणे दंसणे चरिताचरिते सुए सामाइ-ए, तिण्हं गुत्तीणं,चउण्ह कसायाणं, पंचण्हमणुव्वयाणं, तिण्ह गुण-व्वयाणं, चउण्ह सिक्खावयाणं, वारसविहरस सावगधम्मस्स, जं खंडिअंजं विराहियं तस्स मिच्छामि दुक्कडं / राइदेव०३।१०-तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग / / 1 / / अन्नत्थ ऊससिएणं नीससिएणं खासिएणं छीएण जंभाइएणं उड्डएणं वायनिसग्गेणं भमलीए पित्तमुच्छाए / / 1 / / सुहमेहि अंग-संचालेहि, सुहुमेहिं खेलसंचालेहि, सुहुमेहिं दिहिसंचालेहिं / / 2 / / एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो, अविराहिओ, हुन मे काउस्सग्गो / / 3 / / जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि।१४।। ताव काय ठाणेणं मोणेणं झाणेण अप्पाणं वोसिरामि // 5 // सव्वलोए अरिहंतचेइआणं, करेमि काउस्सग्गं / / 1 / / वंदणवत्तिआए पूअ-णवत्तिआए सकारवतिआए सम्माणवत्तिआए बोहिलाभवत्तिआए निरुवसग्गवत्तिआए / / 2 / सद्धाए मेहाए धिईए धारणाए अणुप्पे-हाए वड्ढमाणीए ठामि काउस्सम् / / 3 / / अन्नत्थ "पुक्खरवरदीवळे,धायइसंडे अजंबुदीवे अ। भरहेरवयविदेहे, धम्माइगरे नमसामि / / 1 / / तमतिमिरपडलविद्ध-सणस्स सुरगणनरिंदमहिअस्स! सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिअमोहजालस्स / / 2 / / जाईजरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुक्खलविसालसहावहस्स। को देवदाणवनरिंदगणचिअस्स, धम्मस्स सारमुक्लब्भ करे पमायं / / 3 / / सिद्धे भो ! पयओ णमो जिणमए नंदी सया संजमे। देव नायसुवन्नकिन्नरगणस्सब्भूअभावच्चिए।। लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं तेलुक्कमच्चासुरं। धम्मो वड्ढउ सासओ विजयओ धम्मुत्तर वड्ढउ / / 4 / / 'सुअरस भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तिआए। सिद्धाणं बुद्धाणं, पारगयाणं परंपरगयाणं। लोअग्गमुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाण / / 1 / / जो देवाण वि देवो,जं देवा पंजली नमसन्ति। तं देवदेवमहिअं, सिरसा वंदे महावीर // 2 इक्को वि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्स मद्धमाणस्स। संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा // 3 // उजिंतसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स। तं धम्मचक्कवट्टि, अरिट्टनेमि नमसामि // 4 // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संझापडिक्कमण 123 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संठाण चत्तारि अट्ट दस दो य, वंदिया जिणवरा ! चउव्वीसं / परमट्टनिटिअट्टा, सिद्धा ! सिद्धि मम दिसंतु।।५।। वे आवच्चगराण संतिगराण इच्छामि खमासमणो अब्भुडिओ मि अभितरदेवसि खामेउ ? इच्छ खामेमि देवसिअंजं किंचि अपत्तिों परपत्तिअं भत्ते पाणे विणए वेआवच्चे आलावे सलावे उच्चासणे समासणे अंतरभारसाए उवरिभासाए जं किंचि मज्झ विणयपरिहीण सुहुमंवा बायर वा तुब्भे जाणह अहं न जाणामि तस्स मिच्छा मि दुक्कडं / 'इच्छामि खमासमणो ! पिअंच में जं भे' इत्यादि पञ्चमं कायोत्सर्गाध्ययनम् / / 5 / / 'उग्गए सूरे नमुक्कार- सहि अं पच्चक्खामी' त्यादि सर्वाण्यपि प्रत्याख्यानसूत्राणि षष्ठं प्रत्याख्यानाध्ययनम्।।६।। च इमानि प्रतिक्रमणे षडावश्यक-सूत्राणि परम्परया ज्ञेयानीति // 51 / / सेन० 3 उल्ला० / संझाराइ स्त्री० (सन्ध्यारात्रि) सन्ध्या येन राजते-शोभते दीप्यतेऽनेन सन्ध्यारात्रिः / रजन्याम, नि०चू० 16 उ०। संझाविगम पुं० (सन्ध्याविगम) रात्रौ, नि०चू०१६ उ०। संझाविराग पु० (सन्ध्याविराग) सन्ध्यारूपो विरुद्धस्तिमिर-रूपत्वाद् रागःसन्ध्याविरागः / संन्ध्यासमये, जी० 3 प्रति० 4 अधिः / संटंक पुं० (संटङ्क) प्रबन्धसम्बन्धे, आचा०१श्रु०२ अ० 1 उ० / विशे० / संठवण न० (संस्थापन) संस्करणे, विशे०। सूत्र०।। संठवणा स्त्री० (संस्थापना) संस्कारे, पं० व०२ द्वार / वसतेः संस्कारकरणे, ध० / तस्यामपि नियुक्ता भणन्ति-वयमकुशलाः संस्थापनाकर्मणि कर्तव्ये सप्राभृतिकायामपि वसतौ कारणतः स्थिताः स्वकीयमुपकरणं प्रयत्नेन संरक्षन्ति यावत्प्राभृतिका क्रि - यते तावदेकस्मिन् पार्श्वे तिष्ठन्ति / ध० 3 अधि० / पुनरपि योगो-त्क्षेपे, पं०चू०४ कल्प। संठ(ठा) विअ त्रि० (संस्थापित) “वाऽव्ययोत्खातादावदातः" // 1 / 67 / / इत्याकारस्याऽकारः। संस्थाप्रापिते, प्रा०। संठवित्तए अव्य० (संस्थापयितुम्) गृहस्थभावेन द्रव्यलिङ्गा च्च्यावयितुमित्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०२ अ० 1 उ०। संठाण न० (संस्थान) संतिष्ठतेऽनेन रूपेण पुदलात्मकं वस्त्विति संस्थानम / उत्त०१ अ०। आकारविशेषे, मुखवृत्त्या पुद्गलरचना-कारे, आव० 4 अ० / दर्श० / अत्यद्भुते रचनाविशेषे, आ०म० १अ० / विशे०। स० औ० / स्था० / अनु० / चं० प्र० / अनु० / भ० / आकृतिविशेषाः संस्थानानि तानि च जीवाजीवसम्बन्धि त्वेन द्विधा भवन्ति तत्रेहाजीवसम्बन्धीनि तावदाहकतिणं भंते ! संठाणा पण्णत्ता? गोयमा!छ संठाणा पण्णत्ता, तं जहा- परिमंडले वट्टे तंसे चउरसे आयते अणित्थंथे / / परिमंडला णं भंते ! संठाणा दव्वट्ठयाए किं संखेज्जा असंखेज्जा अणंता? गोयमा ! नो संखेजा नो असंखेज्जा अणंता / वट्टा णं भंते ! संठाणा एवं चेव एवं० जाव अणित्थंथा एवं पएसट्ठाए वि। (724+) 'कइ णं भंते' इत्यादि, संस्थानानि-स्कन्धाकाराः 'अणित्थथे' त्ति इत्थम् - अनेन प्रकारेण परिमण्डलादिना तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थस्थं ; परिमण्डलादिव्यतिरिक्तमित्यर्थः, परि-मण्डला णं भते ! संठाण' ति परिमण्डलसस्थानवन्ति भदन्त ! द्रव्याणीत्यर्थः 'दव्वट्ठयाए' त्ति द्रव्यरूपमर्थमाश्रित्येत्यर्थः 'पए-सट्टयाए' त्ति प्रदेशरूपमर्थमाश्रित्येत्यर्थः / भ० 25 20 3 उ०। (एतेषामल्पाबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे 1663 पृष्ठे गतम्।) रत्नप्रभाद्यपेक्षया संस्थानप्ररूणामाहकति णं भंते! संठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! पंच संठाणा पण्णत्ता। परिमण्डले०जाव आयते / परिमण्डला णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा असंखेना अणंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता / वट्टाणं भंते संठाणा किं संखेजा०? एवं चेव एवंजाव आयता / इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए परिमण्डला संठाणा किं संखेज्जा असंखेज्जा अणंता ? गोयमा ! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता। वट्टा णं मंते ! संठाणा किं संखेज्जा असंखेज्जा एवं चेव, एवं०जाव आयया। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए परिमण्डलासंठाणा एवं चेव एवं०जाव आययां। एवं जाव अहे सत्तमाए / सोहम्मे णं भंते ! कप्पे परिमण्डला संठाणा एवं चेव एवं०जाव अच्चुए। गेविजगविमाणा णं भंते ! परिमडलसंठा-णा एवं चेव एवं अणुत्तरविमाणेसु वि, एवं ईसिपब्भाराए वि। जत्थ णं भंते ! एगे परिमंडले संठाणे जवमज्झे तत्थ परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा असंखेज्जा अणंता ? गोयमा ! नो संखेजा नो असंखेज्जा, अणंता / वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा असं-खेजा चेव, एवं०जाव आयता / जत्थ णं भंते ! एगे वट्टे संठाणे जवमज्झे तत्थ परिमंडला संठाणा एवं चेव वट्टा संठाणा एवं चेव, एवं०जाव आयता। एवं एक्के केणं संठाणेणं पंच विचारेयव्वा / जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे परिमंडले संठाणे जवमज्झे तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेजा। पुच्छा, गोयम ! नो संखेजा नो असंखेज्जा अणंता / वट्टा णं भंते ! संठाणा किं संखेजा० पुच्छा गोयमा ! नो संखेजा नो असं-खेज्जा अणंता, एवं चेव०जाव आयता / जत्थ णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए एगे वट्टे संठाणे जवमज्झे तत्थ णं परिमंडला संठाणा किं संखेज्जा०? पुच्छा गोयमा! नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाण 124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संठाण - वट्टा संठाणा एवं चेव०जाव आयता / एवं पुणरवि एक्केकेणं संठाणेणं पंच वि चारेयव्वा जहेव हेट्ठिल्ला०जाव आयता णं एवं०जाव अहेसत्तमाए एवं कप्पेसु वि०जाव इंसीपब्भाराए पुढवीए। (सू० 725) 'कइ ण' मित्यादि, इह षष्ठसंस्थानस्य तदन्यसंयोगानिष्पन्नत्वेनाविवक्षणात् पञ्चेत्युक्तम् / अथ प्रकारान्तरेण तान्याह- 'जत्थ ण' मित्यादि, किल सर्वोऽप्ययं लोकः परिमण्डलसंस्थानद्रव्यैर्निरन्तर व्याप्तस्तत्र च कल्पनया यानि यानि तुल्यप्रदेशावगाहीनि तुल्यप्रदेशानि तुल्यवर्णादिपर्यवाणि च परिमण्डलसंस्थानवन्ति द्रव्याणि तानि तान्येकपड् क्त्या स्थाप्यन्ते, एकमेकैकजातीयेष्वेकै कपड़तयामोत्तराधर्येण निक्षिप्यमाणेष्वल्पबहुत्वभावाद् यवाकारः परिमण्डलसंस्थानसमुदायो भवति / तत्र किल जघन्यप्रदेशिकद्रव्याणां वस्तुस्वभावेन स्तोकत्वादाद्या पङ्क्तिहत्वा ततः शेषाणां क्रमेण बहुबहुतरत्वाद्दीर्घदीर्घतरा, ततः परेषां क्रमेणाल्पतरत्वात हस्वहस्वतरेव यावदुत्कृष्ट प्रदेशानामल्पतमत्वेन ह्रस्वतमेत्येवं तुल्यैस्तदन्येश्व परिमण्डलद्रव्यैर्यवाकार क्षेत्र निष्पाद्यत इति इदमेवाश्रित्योच्यते- 'जत्थ' ति यत्र देशे एगे' त्ति एक परिमंडले' ति परिमण्डलंसंस्थानं वर्तत इति गम्यते, 'जब-मज्झे ति यवस्येव मध्यमध्यभागो यस्य विपुलत्वसाध यत्त्द् ियवमध्यं, यवाकारमित्यर्थः / तत्र यवमध्ये परिमण्डलसंस्थानानियवाकारनिवर्तकपरिमण्डलसंस्थानव्यतिरिक्तानि कि संख्यातानि ? इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं त्वनन्तानियवाकारनिवर्तकेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात् तदपेक्षया च यवाकारनिष्पादकानामनन्तगुणहीनत्वादिति / पूर्वोक्तामेव संस्थानप्ररूपणा रत्नप्रभादिभेदेनाह- 'जत्थे' त्यादि सूत्रसिद्धम। अथ संस्थानान्येव प्रदेशतोऽवगाहतश्च निरूपयन्नाहवट्टे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए कतिपदेसोगाढे पण्णत्ता ? गोयमा ! वट्टे संठाणे दुविहे पण्णत्ता, घणवट्टे य पयरवट्टे य / तत्थणं जे से पयरवट्टे से दुविहे पण्णत्ता, तं जहा-ओयपएसे य जुम्मापएसे य। तत्थ णं जे से ओय पएसिए से जहन्नेणं पंचपएसिए पंचपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं वारसपएसिए वारसपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे। तत्थ णं जे से घणवट्टे से दुविहे पण्णत्ता, तं जहा- ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जह० सत्तपएसिए सत्तपएसोगाढे प०, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे पण्णत्ता, तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं वत्तीसपएसिए बत्तीसपएसोगाढे प०, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे / / तंसे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए / कतिपदेसोगाढे प०? गोयमा ! तंसे णं संठाणे दुविहे पण्णत्ते तं जहा-घणतंसे य पयरतंसे य / तत्थ णंजे से पयरतंसे से दुविहे पण्णत्ता, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जह० तिपएसिए तिपएसोगाढे प० उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे / तत्थ णंजे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे प०, उक्को सेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे प०। तत्थ णं जे से घणतंसे से दुविहे 50, तं जहा-ओपपएसिए जुम्मपएसिएय। तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पणतीसपए सिए पणतीसपएसोगाढे उक्कोसेणं अणं-तपएसिए तं चेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउ-प्पएसिए चउप्पएसोगाढे प० उक्को० अणतपएसिए तं चेव / / चउरंसे णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए ? पुच्छा, गोयमा ! चउरंसे संठाणे दुविहे प० भेदो जहेव बट्टस्स० जाव तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं नवपएसिए नवपएसोगाढे प०, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेजपएसोगाढे प० / तत्थ णं जे से जुम्मप-देसिए से जहन्नेणं चउपएसिए चउपएसोगाढे प०, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तं चेव / तत्थ णं जे से घणचउरंसे से दुविहे पण्णत्ता, तं जहा ओयपएसिए जुम्मपएसिए य / तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं सत्तावीसइपएसिए सत्तावीसति-पएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंतपएसिए तहेव / तत्थ जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं अट्ठपएसिए अट्ठपएसोगाढे पण्णत्ता, उक्को०अणंतपएसिए तहेव / आयए णं भंते ! संठाणे कतिपदेसिए कतिपए-सोगाढे प०? गोयमा ! आयए णं संठाणे तिविहे पण्णत्ता, तं जहासेढिआयते पयरायते घणायते / तत्थणं जे से सेढिआ-यते से दुविहे पण्णत्ता, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए या तत्थ णं जे ओयप० से जह० तिपएसिए तिपएसोगाढे उक्को अणंतपएतं चेव, तत्थ णं जे से जुम्मपएसे से जह० दुपएसिए दुपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंता तहेव / तत्थ णं जे से पयरायते से दुविहे प०, तं जहा-ओयपएसिए य जुम्मपएसिए य। तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पन्नरसपएसिए पन्नरसपएसोगाढे, उक्कोसेणं अणंता तहेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं छप्पएसिए छप्पएसोगाढे उक्कोसेणं अणंता तहेव / तत्थ णं जे से गणायते से दुविहे प० तं जहा-ओयपएसिए जुम्मपएसिए / तत्थ णं जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं पणयाली-सपएसिए पणयालीसपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंत० तहेव / तत्थ णं जे से जुम्मपएसिए से जह०वारसपएसिए वारसपएसोगाढे उक्कोसेणं अणंततहेव।। परिमंडले णं भंते ! संठा Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाण 125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संठाण णे कतिपदेसिए? पुच्छा, गोयमा! परिमंडले णं संठाण्णे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-घणपरिमंडलेय,पयरपरिमंडलेय, तत्थणं जे से पयरपरिमंडले से जहन्नेणं वीसतिपदेसिएवीसइपएसोगाढे, उक्कोसे णं अणंतपदे०तहेव / तत्थ णं जे से घणपरिमंडले से जहन्नेण चत्तालीसतिपदेसिए चत्तालीसपएसोगाढे पण्णत्ता, उक्कोसेणं अणंतपएसिए असंखेज्जपएसोगाढे पन्नत्ता। (सू०-७२६) 'यट्टे ण' मित्यादि अथ परिमण्डलं पूर्वम् - आदावुक्तम् इह तु कस्मात्तत्यागेन वृत्तादिना क्रमेण तानि निरूप्यन्ते ? उच्यते-वृत्तादीनि चत्वार्यपि प्रत्येक समसंख्यविषमसंख्यप्रदेशान्यतस्तत्साधयत्तिषां पूर्वमुपन्यासः परिमण्डलस्य पुनरेतदभावात्पश्चाद् विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति, 'धणवट्टे' त्ति सर्वत्र समं घनवृत्तं मोदकवत् 'पयरवट्टे' ति बाहल्यतो हीन तदेव प्रतरवृत्तं मण्ड-लवत्, 'ओवपएसिए' त्ति विषमसंख्यप्रदेशनिष्पन्न 'जुम्मएसिए' ति समसंख्यप्रदेशनिष्पन्नं, 'तत्थ ण जे से ओयपएसिए पयरपट्टे से जहन्नेणं पंचपएसिए' इत्यादि, इत्थं पञ्चप्रदेशावगाढं,पञ्चाणुकात्मकमित्यर्थः, उत्कर्षणानन्त - प्रदेशिकमसंख्येयप्रदेशावगाढं लोकस्याप्यसंख्येयप्रदेशात्मकत्वात्, 'जे से जुम्मपएसे से जहन्नेणं वारसपएसिए' इति एतस्य स्थापना 'जे से ओयपएसिए घणवट्टे से जहन्नेण सत्तपएसिए सत्तपएसोगाढे' ति एतस्य स्थापना-अस्य मध्यपरमाणोरुपर्येकः स्थापितोऽधश्चैक इत्येवं साप्रदेशिकं धनवृत्तं भवतीति 'जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं बत्तीसइपएसिए' इत्यादि एतस्य स्थापना-अस्य चोपरीदृशएव प्रतरः स्थाप्यस्ततः सर्वे चतुर्विशतिस्ततः प्रतरद्वयस्य मध्याना चतुर्णामुपर्यन्ये चत्वारोऽधश्चेत्येवं द्वाविंत्रिंदशदिति त्र्यससूत्रे- 'जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं तिपएसिए' ति अस्य स्थापना- 'जे से जुम्मपएसिए से जहन्ने णं छप्पएसिए' त्ति अस्य स्थापना- 'जे से आयपएसिए से जहन्नेणं पणतीसपासिए' त्ति, अस्य स्थापना-अस्य पादशप्रदेशिकस्य प्रतरस्योपरि दशप्रदेशिक :एतस्या-प्युपरि षट्प्रदेशिकः एतस्याप्युपरि त्रिप्रदेशिकः प्रतरः एतस्या-प्युपर्येकः प्रदेशो दीयते इत्येवं पञ्चत्रिंशत् प्रदेशा इति। 'जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउप्पएसिर' ति, अस्य स्थापना-अत्रैकस्योपरि प्रदेशो दीयत इत्येवं चत्वार इति। चतुरस्त्रसूत्रे- 'जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं नवपएसिए'त्ति एवं 'जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं चउप्पएसिए'त्ति, एवं 'जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं सत्तावीसपएसिए' त्ति, एवमेतस्य नवप्रदेशिक प्रतरस्योपर्यन्यदपि प्रतरद्वयं स्थाप्यत इत्येवं सप्तविंशतिप्रदेशिक चतुरस्र भयतीति 'जे से जुम्मपएसिए से जहन्नेणं अट्ठपएसिए' इत्येवमस्योपर्यन्यश्चतुष्प्रदेशिकप्रतरोवीयत इत्येवमष्टप्रदेशिकं स्यादिति / आयतसूत्रे - 'सेढिआयए' त्ति श्रेण्यायतं प्रदेशश्रेणीरूप प्रतरायतंकृतविष्कम्भश्रेणीद्वयादिरूपं घनायत-बाहल्यविष्कम्भोपेतमनेकश्रेणीरूपम्, तत्र श्रेण्यायतमोजःप्रदेशिक जघन्य त्रिप्रदेशिया, तच्चैवम्१ तदेव युग्मप्रदेशिक द्विपदेशिक तच्चैव, 'जे से ओयपएसिए से जहन्नेणं परसगएसिए त्ति, एवं तदेव युग्मप्रदेशिकं जघन्यं षट्प्रदेशिकम्। तच्चैयम् - एवं घनायतमोजःप्रदेशिक जघन्य पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशिकं तश्चैवम्-अस्योपर्यन्यत् प्रतरद्वयं स्थाप्यत इत्येवं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशिक जघन्यमोजःप्रदेशिक घनायतं भवति / तदेव युग्मप्रदेश्किं द्वादशप्रदेशिकम् / तच्चैवम् - एतस्य षट्प्रदेशिकस्योपरि षट्प्रदेशिक एयान्यः प्रतरः स्थाप्यते ततो द्वादशप्रदेशिकं भवतीति 'परिमंडलेणमि' त्यादि इह ओजोयुग्मभेदौ न स्तः युग्मरूपत्वेनैकरूपत्वात्परिमण्डलस्येति तत्र प्रतरपरिमण्डल जघन्यतो विंशतिप्रदेशिकं भवति, तदेवं स्थापनाएतस्यैवोपरि विशतिप्रदेशिकेऽन्यस्मिन् प्रतरे दत्ते चत्वारिंशत्प्रदेशिक घनपरिमण्डलं भवतीति / / अनन्तरं परिमण्डलं प्ररूपितम् / भ० 25 श०३ उ०। साङ्गोपाङ्गविचारे,जं०३वक्ष०।दर्श०। सू०प्र०। आ०म० आ० चू० / परिमण्डलादिसस्थानानां संख्येयासंख्येयत्वविचारः 'चरम' शब्दे तृतीयभागे 1137 पृष्ठे गतः।) संस्थानभेदानाहकइविहेणं भंते ! संठाणे पन्नते? गोयमा! छविहेसंठाणे पण्णत्ता। तं जहा-समचउरसे १णिग्गोहपरिमण्डले 2 साइए 3 वामणे 4 खुज्जे 5 हुंडे 6 / णेरइया णं भंते ! किंसंठाणी पण्णत्ता? गोयमा ! हुंडसंठाणी पण्णत्ता, असुरकुमारा किंसंठाणी पण्णत्ता? गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिया पण्णत्ता, एवं०जावथणियकुमारा! पुढवी मसूरसंठाणा पण्णत्ता, आऊ थिबुयसंठाणा पन्नता, तेऊ सूइकलावसंठाणा पन्नत्ता, वाऊ पडागासंठाणा पन्नता, वणस्सई नाणासंठाणसंठिया पन्नत्ता, वेइंदियतेइंदियचउरिदियसमुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खा हुंडसंठाणा पण्णत्ता, गमवक्कंतिया छव्विहसंठाणा समुच्छिममणुस्सा हुंडसंठाण-संठिया पन्नत्ता, गब्मवक्कंतियाणं मणुस्साणं छव्विहा संठाणा पण्णत्ता, जहा असुरकुमारा तहा वाणमंतरजोइसियवेमाणिया वि।[सू०-१५५+] 'कइविहे' णं 'भंते ! संठाणे' त्यादि, तत्र मानोन्मानप्रभाणानि अन्यूनान्यनतिरिक्तानि अङ्गोपाङ्गानि च यस्मिन् शरीरसंस्थाने तत्समचतुरस्रसंस्थानं, तथा नामित उपरि सर्यावयवाश्चतुरस्रालक्षणाऽविसंवादिनोऽधस्तु तदनुरूपं यन्न भवति तन्न्यग्रोधसं-स्थानम्, तथा नाभितोऽधः सर्वावयवाश्चतुरस्रा लक्षणाविसंवा-दिनो यस्योपरि च यत्तदनुरूप न भवति तत्सादिसंस्थानम्, तथा ग्रीवाहस्तपादाश्च समचतुरस्रा लक्षणयुक्ता यत्र संक्षिप्त विकृतं च मध्यै कोष्ठ तत् कुब्जसंस्थानम्, तथा यल्लक्षणयुक्त कोष्ठ चतुरस्रलक्षणोपेतंग्रीवाद्यवयवहस्तपादं च तद्वामनम, तथा यत्र हस्तपादाद्यवयवाः बहुप्रायाः प्रमाणविसंवादिनश्च तद्भुण्डमित्युच्यते। स०१५५ सम०। ('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2676 पृष्ठे गता वक्तव्यता) (पृथिवीकायिकादीनां संस्थानानि पृथिव्यादिषु शब्देषु।) कृतयुग्मादिभेदेन संस्थानमाहपरिमंडले ण मते ! संठाणे दव्वट्ठयाए किं कडजुम्मे Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाण 126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संठाण तेओएदावरजुम्मे कलियोए ? गोयमा! नो कडजुम्मे णो तेयोए णो दावरजुम्मे, कलियोए। वट्टे णं भंते ! संठाणे दव्वट्ठयाए एवं चेव एवं० जाव आयते। परिमंडलाणं भंते ! संठाणा दव्वट्ठायाए किं कडजुम्मा तेयोया दावरजुम्मा कलियोगा पुच्छा, गोयमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा सिय तेओगा सिय दावरजुम्मा सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं नो कडजुम्मा नो तेओगा नो दावरजुम्मा, कलिओगा, एवं०जाव आयता / / परिमंडले णं भंते ! संठाणे पएसट्ठयाए किं कडजुम्मे ? पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजुम्मे सिय तेयोगे सिय दावरजुम्मे सिय कलियोए, एवं०जाव आयते / परिमंडला णं भंते ! संठाणा पएसट्ठयाए किं कडजुम्मा? पुच्छा, गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा०जाव सिय कलियोगा, विहाणादेसेणं कडजुम्मा वि तेओगा वि दावरजुम्मा वि कलिओगा वि एवंजाव आयता। परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मपएसोगाढेजाव कलियोगपएसोगाढे ? गोयमा ! कङजुम्मपएसोगाढे, णो तेयोगपएसोगाढे नो दावरजुम्मपएसोगाढे नो कलियोगपएसोगाढे || वट्टे णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मे ? पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजुम्मपदेसोगाढे सिय तेयोगपएसोगाढे नो दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कलियोगपएसोगाढे | तं से णं भंते ! संठाणे पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजुम्मपएसोगाढे सिय तेयोगपएसोगाढे सिय दावरजुम्म-पदेसोगाढे, नो कलिओगपएसोगाढे / चतुरंसे णं भंते ! संठाणे जहा वट्टे तहा चउरंसे वि। आयए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! सिय कड जुम्मपएसोगाढे जाव सिय कलिओगपएसोगाढे / परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मपएसोगाढा तेयोगपएसोगाढा ? पुच्छा, गोयमा ! ओघादेसेण वि विहाणदेसेण वि कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेयोगपएसोगादा, नो दावरजुम्मपएसोगाढा, नो कलियोगपएसोगाढा। वट्टा णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मपएसोगाढा पुच्छा, गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा नो तेयोगपएसोगाढा नो दाव-रजुम्मपएसोगाढानो कलियोग पएसोगाढा वि। तंसा णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मा पुच्छा, गोयमा ! ओधादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा णो तेयोगपएसोगाढा नो पावरजुम्मपएसोगाढा नो कलियोग-पएसोगाढा, विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा तेयोगपएसोगाढा नो दावरजुम्मपएसोगाढा नो कलियोगपएसोगाढा। चउरंसा जहा वट्टा / आयया णं भंते! संठाणा पुच्छा, गोयमा! ओघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा नो तेयोगपएसोगाढा नो दावरजुम्मपए-सोगाढा नो कलिओगपएसोगाढा, विहाणादेसेणं कडजुम्मपएसोगावि०जाव कलिओगपएसोगाढा वि / परिमंडले णं भंते ! संठाणे किं कडजुम्मसमयठितीए ते योगसमयठितीए दावरजुम्मसमयठितीए कलिओगसमयठितीए ? गोयमा ! सिय कडजुम्मसमयठितीए०जाव सिय कलिओगसमयठितीए एवं० जाव आयते / परिमंडला णं भंते ! संठाणा किं कडजुम्मसमयठितीया पुच्छा, गोयमा! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मसमयठितीया०जाव सिय कलिओगसमयठितीया, विहाणादेसेणं कडजुम्मसमयठितीया वि०जाव कलिओगसमयठितीया वि, एवं जाव आयता // परिमंडले णं भंते ! संठाणे कालवन्नपज्जवेहिं किं कडजुम्मे० जाव सिय कलियोगे? गोयमा! सिय कडजुम्मे एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ठितीए एवं नीलवन्नपज्जवेहिं एवं पंचहिं वन्नेहिं दोहिं गंधेहिं पंचहिं रसेहिं अट्ठहिं फासेहिंजाव लुक्खफासपज्जवहिं। (सू०-७२७) 'परिमंडले' त्यादि, परिमण्डलं द्रव्यार्थतयैकमेव द्रव्यं, न हि परिमण्डलस्यैकस्य चतुष्कापहारोऽस्तीत्येकत्वचिन्तायां न कृतयुग्मादिव्यपदेशः, किन्तु-कल्योजव्यपदेश एव,यदातु पृथक्त्वचिन्ता तदा कदाचिदेतावन्ति तानि परिमण्डलानि भवन्ति यावतां चतुष्कापहारेण विच्छेदता भवति कदाचित्पुनस्त्रीण्यधिकानि भवन्ति कदाचिद् द्वे कदाचिदेकमधिकमित्यत एवाह- 'परिमंडला णं भंते !' इत्यादि'ओघादेसेण ति सामान्यतः, विहाणादेसणं ति विधानादेशो यत्समुदितानामप्येकैकस्यादेशनं तेन च कल्यो-जतैवेति / अथ प्रदेशार्थचिन्ता कुर्वन्नाह- 'परिमंडलेण' मित्यादि, तत्र परिमण्डलं संस्थाने प्रदेशार्थतया विंशत्यादिषु क्षेत्रप्रदेशेषु ये प्रदेशाः परिमण्डल-संस्थाननिष्पादका व्यवस्थितास्तदपेक्षयेत्यर्थः, 'सिय कडजुम्मे त्ति तत्प्रदेशानां चतुष्कापहारेणापहियणाणानां चतुष्पर्यवसितत्वे कृतयुग्मं तत्स्यात्, यदा त्रिपर्यवसानं तत्तदा त्र्योजः, एवं द्वापरं कल्योजश्चेति, यस्मादेकत्रापि प्रदेशे बहवोऽणवोऽवगाहन्त इति / अथावगाहप्रदेश-निरूपणायाह'परिमले' त्यादि, 'कडजुम्मपएसोगाढे' ति यस्मात्परिमण्डलं जघन्यतो विंशतिप्रदेशावगाढमुक्तं विंशतेश्च चतुष्कापहारे चतुष्पर्यवसितत्वं भवति, एवंपरिमण्डलान्तरेऽपीति। 'वट्टेण' मित्यादि, 'सिय कडजुम्मपएसोगाढे, ति यत्प्रतरवृतंद्वादशप्रदेशिकंयचघनवृत्तद्वात्रिंशत्प्रदेशिकमुक्तं तच्चतुष्कापहारे चतुरगत्यात्कृतयुग्मप्रदेशावगाढं 'सिय तेओयपएसोगाढे त्ति यच्च घनवृत्त सप्तप्रदेशिकमुक्तंतल्यगत्वाल्योजःप्रदेशावगाढं 'सिय कलिओयपएसोगाढे त्ति यत्प्रतरवृत्तं पञ्चप्रदेशिकमुक्तंतदेकाग्रत्वात्कल्योजःप्रदेशावगाढमिति॥ 'तसेण मित्यादि, 'सिय कडजुम्मपएसोगाढे ति यद् घनत्र्यस्त्रं चतुष्प्र Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाण 127 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संठाणपरिणय देशिक 'तत्कृतयुग्मप्रदेशावगाढम्' 'सिय तेओगपएसोगाढे' त्ति यत् पणयालीसा वारस, छन्भेया आययम्मि संठाणे। प्रतरुयसं त्रिप्रदेशावगाढं घनत्र्यसं च-पञ्चत्रिंशत्प्रदेशावगाढ परिमंडलम्मि वीसा, चत्ता य भवे पएसगं / / 4 / / तलयग्रत्वाल्योजःप्रदेशावगाढं, 'सिय दावरजुम्मपएसोगाढे' त्ति सव्वे वि आययम्मि, गेण्हसु परिमंडलम्भि कडजुम्म। यत्प्रतरत्र्यसं षट्प्रदेशिकमुक्तं तद् व्यग्रत्वादद्वापरप्रदेशावगाढमिति।। वजेज कलिं तसे, दावरजुम्मं च सेसेसु॥५॥” इति। 'चउरसेण' मित्यादि, 'जहा वट्टे ति 'सिय कडजुम्मपएसोगाढे सिय भ० 25 श०३ उ०। (इन्द्रियाणां संस्थानम्। 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे तेओयपएसोगाढ सिय कलिओयपएसोगाढे' इत्यर्थः, तत्र यत्प्रतरचतुरखं 548 पृष्टे उक्तम् / ) (नैरयिकाणां तथा-नरकपृथिवीनां संस्थानानि चतुष्प्रदेशिकं घनचतुरस्र चाष्ट प्रदेशिकमुक्तं तच्चतुरगत्वात्कृत- 'णरग' शब्दे चतुर्भभागे 1607 पृष्ठे उक्तानि।) (शरीराणां संस्थानानि युग्मप्रदेशावगाढं, तथा यद् धनचतुरस्र सप्तविंशतिप्रदेशिकमुक्तं 'सरीर' शब्दे वक्ष्यते।) (वनस्पतिजीवानां संस्थानम् 'वणप्फई' शब्दे तल्यग्रत्वालयोजःप्रदेशावगाढं, तथा यत्प्रतरचतुरसं नवप्रदेशिकमुक्तं षष्ठभागे उक्तम।) मृगशिरोनक्षत्रे च / सू० प्र० 12 पाहु०। तदेकाग्रत्वात् कल्योजःप्रदेशावगाढमिति / 'आयएण' मित्यादि | संठाणकप्प पुं० (संस्थानकल्प) संस्थानरूपे कल्पे, पं०भा०। 'सियकडजुम्मपएसोगाढे' ति यद् घनायतं द्वादशप्रदेशिकमुक्त दारं। तत्कृतयुग्मप्रदेशावगाढं यावत्करणात्-'सिय तेओयपएसोगाढे सिय दंसण-णाण-चरित्ते, तवे य तह भावणा तु समितीसु। दावरजुम्मपएसोगाढे' त्ति दृश्यम्, तत्र च यत् श्रेण्यायतं त्रिप्रदेशावगाढ छण्हं पि तिप्पगारं, सद्दह संठाणसंघणता॥ यच्च प्रतरायतं पञ्चदशप्रदेशिकमुक्तं तत्त्र्यग्रत्वालयोजःप्रदेशा- सद्दहति सम्मदंसण, आयरति परूवणंच कुणमाणो। वगाढम्, यत्पुनः श्रेण्यायतं द्विप्रदेशिकं यच्च प्रतरायतं षट्प्रदेशिकं तद् संठाणकप्प एसो, एवं सेसाणवी णेयं / व्यग्रत्वाद् द्वापरयुग्मप्रदेशावागाढं, सिय कलिओयपएसोगाढे ति यद् संठाणकप्पएसो, भणितोतुसमासतो जिणक्खाओ।। घनायतं पञ्चचत्वारिंशत्प्रदेशिकं तदेकाग्रत्वात्कल्योजः प्रदेशावगाढ- पं०भा० 5 कल्प। मिति / एवमेकत्वेन प्रदेशावगाढमाश्रित्य संस्थानानि, चिन्तितानि अथ संठाणगसंकमण न० (संस्थानकसंक्रमण) पिपीलिकादीनामपृथक्त्वेनतानि तथैव चिन्तयन्नाह-'परिमंडलाण' मित्यादि 'ओघादेसेण ण्डादिसञ्चलने, सण्ठाणगसङ्कमणं पिपीलियगमकोडगादीणं भण्णति / वि' ति सामान्यतः समस्तान्यपि परिमण्डलानीत्यर्थः 'विहाणादेसेण नि०चू०१३ उ०। वि' ति भेदतः एकैकं परिमण्डलमित्यर्थः, कृतयुग्मप्रदेशावगाढान्येव संठाणछक न० (संस्थानषट्क) समचतुरनन्यग्रोधपरिमण्डलविंशतिचत्वारिंशत्प्रभृतिप्रदेशावगाहित्वेनोक्तत्वात्तेषामिति / 'वट्टा ण' सादिवामनकुब्जहुण्डसंस्थानानां समुदाये, कर्म०२ कर्म० / मित्यादि, ओघादेसेण कडजुम्मपएसोगाढ़े' त्ति वृत्तसंस्थानाः स्कन्धाः संठाणऽज्झयण न० (संस्थानाध्ययन) अनुत्तरौपपातिक-दशाना सामान्येन चिन्त्यमानाः कृतयुग्मप्रदेशावगाढाः सर्वेषां तत्प्रदेशानां मीलने पञ्चमाध्ययने, स्था० 10 ठा० 3 उ०। चतुष्कापहारे तत्स्वभावत्वेन चतुष्पर्यवसितत्वात्. विधानादेशेन संठाणणाम न० (संस्थाननामन्) सतिष्ठते विशिष्टावयवरचना-त्मिकया पुनपरप्रदेशावगाढवर्जाःशेषावगाढा भवन्ति,यथा पूर्वोक्तेषु पञ्च- शरीराकृत्या जन्तवो भवन्ति येन तत्संस्थानं तदेव नाम संस्थाननाम। सप्तादिषु जघन्यवृत्तभेदषु चतुष्कापहारे द्वयावशिष्टता नास्तिएवं सर्वेष्वपि समचतुरस्रादिसंस्थानकारणे नामकर्मभेदे, कर्म 1 कर्म। संस्थानमातेषु वस्तुस्वभावत्वाद्, अत एवाह-'विहाणादेसेण' मित्यादि / एवं कारविशेषस्तेष्वेव गृहीतसंघातितवद्देहेष्वौदारिकादिषु पुद्रलेषु यस्रादिसंस्थानसू-त्राण्यपि भावनीयानि / / एवं तावत्क्षेत्रत संस्थानविशेषो यस्य कर्मण उदयात्प्रादुर्भवति तत्संस्थाननाम / पं० एकत्वपृथक्त्वाभ्यां संस्थानानि चिन्तितानि। अथ ताभ्यामेव कालतो स०३ द्वार। श्रा०। प्रव० / प्रज्ञा०। भावतश्च तानि चिन्तयन्नाह-'परिमंडलेण' मित्यादि, अयमर्थः- से किं तं संठाणणामे संठाणणामे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहापरिमण्डलेन संस्थानेन परिणताः स्कन्धाः कियन्तं कालं तिष्ठन्ति ? परिमंमलसंठाणणामे वट्टसंठाणणामे तंससंठाणणामे चउरंससंकिं चतुष्कापहारेण तत्कालस्य समयाश्चतुरणा भवन्ति त्रिद्वयेकाग्रा वि? ठाणणामे आयतसंठाणणामे से तं संठाणणामे / अनु०। उच्यते, सर्वे संभन्तीति। इह चैता वृद्धोक्ताः संग्रहगाथाः संठाणणिव्वत्ति स्त्री० (संस्थाननिर्वृत्ति) निवृत्तिभेदे, भ०१६ श० 8 “परिमंडले य 1 वट्टे 2, तंसे 3 चउरंस 4 आयए 5 चेव। उ0 1 (सा चपञ्चविधा 'णिव्वत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 2120 पृष्ठे दर्शिता।) घणपयरपढमवज, ओयपएसे य जुम्मे य।।१।। संठाणपरिणय पुं० (संस्थानपरिणत) संस्थानरूपतया परिणते, पुद्गले, पंच य वारसयं खलु, सत्त य वत्तीसयं च वट्टम्मि। प्रज्ञा०। तियछक्कयपणतीसा, चउरो य हवंति तंसम्मि।।२।। संठाणपरिणया पंचविधा पण्णत्ता,तं जहा-परिमण्ड लसंठाणनव चेव तहा चउरो, सत्तावीसा य अट्ट चउरंसे। परिणया वट्टसंठाणपरिणया तंससंठाणपरिणया चउरंससंठातिगदुगपन्नरसं चे-व छ चेव य आयए होंति॥३।। णपरिणया आययसंठाणपरिणया। प्रज्ञा०१ पद / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संठाणपरिणाम 128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकज्जवाय संठाणपरिणाम पुं० (संस्थानपरिणाम) संस्थानरूपे परिणामे, प्रज्ञा० च द्विविधः-तद्यातः, इतरश्व। अन्यत आनीय तत्र निहितः। ओघ०। (स 23 पद। (अत्रत्य सूत्रम् परिणाम' शब्दे पञ्चमभागे 565 पृष्ठे उक्तम्।) एकैकस्विविध इति 'णईसंतार' शब्दे चतुर्थभागे 1740 पृष्ठे उक्तम्।) संठाणविचय न० (संस्थान विचय) संस्थानानि लोकद्वीप- संढ पुं० (षण्ढ) तृतीयवेदोदयवर्तिनि महामोहकर्मणि, ध० 3 अधि०। समुद्राधाकृतयः विचीयन्ते-निर्णीयन्ते पालोच्यन्ते वा यरिंमस्तत् 'सकारपच्चन्तरिओ ढकारों' सकारप्रत्यन्तरितो ढकार इति प्रतिपत्तसंस्थानविचयम् / धर्मध्यानभेदे, ध० / संस्थान लोकाकाशस्येव व्यम् / प्राकृतशैल्या-सण्ढः संस्कृते तु षण्ढ इति भावः / बृ० 4 उ० / धर्माधर्मयोर्जीवानांसमचतुरस्रादि, अजीवानां परिमण्डलादि, कालस्य अनु० / ('पंडग' शब्दे पञ्चमभागे एतल्लक्षणमुक्तम्।) मनुष्यक्षेत्राकृति। ध०३ अधि०। औ०। *षण्ड न० खण्डे, वने,०३ वक्ष०। आव०। संठावंत त्रि० (संस्थापयत्) अविनाशयति, नि०यू० 17 उ०1 संणद्ध त्रि० (सन्नद्ध) कृतसन्नाहे, औ०। रा०। 'संणद्धबद्धव-म्मियकवचे' संठिइ स्त्री० (संस्थिति) व्यवस्थायाम्, चं० प्र०१ पाहु० / सू०प्र०) संनद्धः सन्नाहबद्धः कशाबन्धनतो वर्मितो वर्मतया कृतोऽङ्गे निवेशनात् बृ०॥ कवचः कङ्कटो येन स तथा। भ०७श०६ उ०। औ०। जी०। संठिय त्रि० (संस्थित) विशिष्टसंस्थानवति, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। उपा० / संणयपास त्रि० (सन्नतपार्थ) सन्नतावधोऽधो नमन्तौ पार्था प्रतीतौ येषां स्वप्रमाणतया स्थिते, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०१ उ०। सम्यक स्वप्रमाणतया ते तथा। सन्नमितपार्श्वदशे, प्रश्न० 4 आश्रद्वार। स्थितः संस्थित इति व्युत्पत्तेः। जी०३ प्रति०४ अधि०।स्था०।तं० / संणाहपट्ट पुं० (संन्नाहपट्ट) विहारे उपधेः शरीरेण सह बन्धनार्थे उपधौ, औ० / व्यवस्थिते, भ०१२०१ उ०। रा० / “संठियसुसिलिट्ठगूढगुप्फ" बृ०३ उ०। सम्यक् स्वप्रमाणतया स्थितौ संस्थितौ सुश्लिष्टौ मांसलौ गूढौ गुल्फी संणिभ त्रि० (सन्निभ) सदृशे, उत्त० 16 अ०। गुलुकौ येषां ते तथा। जी०३ प्रति०४ अधिः / तं० / रा० / प्रश्न / संण्णत्ति स्त्री० (संज्ञप्ति) प्रज्ञप्तौ,प्रतिबोधने, स्था०१० ठा०३ उ०। संस्थाने, न० 1 आकारे, रा०ा जं० / प्रश्न० / संत त्रि० (शान्त) क्रोधाद्यावाधिते, यो,विं.। क्रोधधिकाररहिते, द्वा० 20 संड न० (षण्ड) स्वण्डे, वने, जं०३ वक्ष०। द्वा० / ज्ञा० / उत्त० / पं व० / अन्तर्वृत्त्या (कल्प० 1 अधि० 6 क्षण) संडंस पुं० (सन्दंश) अयस्कारोपकरणे, ओघ०। आ०म०। उपशमवति, "न यत्र दुःखं न सुखं न रागो, न द्वेषमोही नच काचिदिच्छ। संडंसतुंड पुं० (सन्दशतुण्ड) सन्दंशाकारं तुण्ड येषां ते तथा / रसः स शान्तो विहितो मुनीना, सर्वेषु भावेषु समः प्रदिष्टः" षो०१४ संदंशाकारमुखेषु पक्षिषु, उत्त०१६ अ० / प्रश्न० / विव०। आचा० / इन्द्रियनोइन्द्रियैः शमं प्राप्ते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ संडप्पवायगुहा स्त्री० (पण्डप्रपातगुहा) 'खंडप्पवायगुहा' शब्दे उक्तेऽर्थे, आ०क० 1 अ०। उ०।। ('पसंतरस' शब्दे पञ्चमभागे-ऽप्ययमुक्तः।) संडासग पुं० (सन्दंशक) अयस्कारस्य लोहग्रहणदण्डे, विशे०।। *श्रान्त त्रि० सामान्येन श्रमार्ते, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। कल्प० / आ०चूला आ०चू० / नि०चू० / दश० / जानुपुतापादरूपकोणत्रयाकलिते जानु देहतः खिन्ने, विशे०। ज्ञा०। संदंशके, ततो जिनकल्पिकस्योत्कुटुकनिविष्टस्य जानुसदंशकादारभ्य *सत् त्रि० विद्यमाने, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। स्था०। स्वायत्ते, भ०६ श० पुतादृष्ट च छादयित्वा स्कन्धस्योपरि यावता न प्राप्यते एतावत्तदीय 33 उ० / मुनौ, साधौ, विशे० / स्था० / आ०म० / नि० चू०। भ० / कल्पस्य दैर्घ्यप्रमाणम्, अयं च संदशक उच्यते / बृ०३ उ० / नाशिका शोभनं, सूत्र० 1 श्रु०१० अ० / ज्ञा० / आव० / सौम्यमूर्ती, ज्ञा० 1 श्रुः केशोत्पाटने, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। 5 अ० / प्रशस्ते, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति। सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१ संडिज्झ न० (सण्डिज्झ) बालक्रीडास्थाने, दश० 5 अ० 130 / उ०। आचा०। संडिल्ल पुं० (शाण्डिल्य) नन्दिपुरप्रतिबद्धेषु जनपदेषु प्रज्ञा० 1 पद। *स्वान्त न० अन्तःकरणे, अष्ट०३ अष्ट०। नन्दिपुरं नगरं शाण्डल्या शाण्डिल्या वा देशः / प्रक० 275 द्वार।। संतअसंतकज्जवाय पुं० (सदसद्कार्यवाद) प्रागुत्पत्तेः कथंचिदसतः कौशिकगोत्रे श्यामार्यशिष्ये, नं०। आर्यधर्मशिष्ये, कल्प०२ अधिक कथंचित्सतः कार्यस्योत्पादवादे, सूत्र० / (स च जैनसंमतः ‘अत्तछ?' 8 क्षण / दशपुरनगरे स्वनामख्याते ब्राह्मणे, उत्त० 13 अ० / शब्द प्रथमभागे 502 पृष्ठे दर्शितः।) संडेय पुं० (पाण्डेय) षण्डपुत्रे, षण्डे च / औ० / ज्ञा०। संतकज्जवाय पुं० (सत्कार्यवाद) प्रागुत्पत्तेः सत्कार्यमित्येवं वादे, सूत्रः संडेवग पुं० (संडदक) पाषाणादेरन्यस्मिन् पाषाणादौ पादवि-क्षेपे, स / १श्रु०१ अ०१ उ०। आचा०। ('भूगोल' शब्दे पञ्चमभागे व्याख्यातम् / / Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 126 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म संतकम्म न० (सत्कर्मन्) उदयप्राप्तस्य कर्मणस्सत्तायाम्, क०प्र०। सम्प्रति सत्ताभिधानावसरः, तत्र चेमेऽर्थाधिकाराः। तद्यथा-भेदः, साद्यनादिप्ररूपणा, स्वामित्वं चेति। तत्र भेदनिरूपणार्थमाहमूलुत्तरपगइगय, चउव्विहं संतकम्ममवि नेयं धुवमद्भवणाईयं, अट्ठण्हं मूलपगईणं / / 1 / / 'मूलत्तर' त्ति-सत्कर्म द्विधा-मूलप्रकृतिगतम्, उत्तरप्रकृतिग तं च / तत्र मूलप्रकृतिगतमष्टप्रकारं, तद्यथा-ज्ञानावरणीयम्, दर्शनावरणीयमित्यादि / उत्तरप्रकृतिगतमष्टपञ्चाशदधिकशतप्रकारम्, तद्यथा-मतिज्ञानावरणीयमित्यादि / पुनरेकैकं चतुर्विधम्, तद्यथाप्रकृतिसत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म, प्रदेशसत्कर्म च / तदेवमुक्तो भेदः। सम्प्रति साद्यनादिप्ररूपणार्थमाह- 'धुवे' त्यादि अष्टानां मूलप्रकृतीनां सत्कर्म त्रिधा, तद्यथा-ध्रुवमधुवमनादि च / तत्रानादित्वं सदैव भावात्। ध्रुवाध्रुवताऽभव्यभव्यापेक्षया / सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणार्थमाहदिट्ठिदुगाउगछग्गति, तणुचोद्दसगं च तित्थगरमुच्चं। दुविहं पढमकसाया, होति चउद्धा तिहासेसा / / 2 / / 'दिट्टिदुग' त्ति-दृष्टिद्विकं सम्यक्त्वसम्यड्मिथ्यात्वरूपं, आयूंषि चत्वारि, 'छग्गइ'त्ति मनुष्यद्विकं देवद्विकं नरकद्विकंच, तनुचतुर्दशक वैक्रियसप्तकाहारकसप्तकरूपम्, तथा-तीर्थकरनामोचैर्गोत्रं च, एतासामष्टाविंशतिप्रकृतीनां सत्कर्म द्विविध-द्विप्रकारं, तद्यथा-सादि, अध्रुवं च / साद्यध्रुवता चाध्रुवसत्कर्मत्वादवसेया। तथा-प्रथमकषाया अनन्तानुबन्धिनः सत्कर्मापेक्षया चतुर्विधाः, तद्यथा-सादयोऽनादयो ध्रुवा, अधुवाश्च / तथाहि-ते सम्यग्दृष्टिना प्रथममुदलिताः, ततो मिथ्यात्वं गतेन यदा भूयोऽपि मिथ्यात्वप्रत्ययेनबध्यन्ते, तदा सादय / तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादयः / ध्रुवाध्रुवता पूर्ववत् / तथा शेषाः षड्विंशतिशतस ख्याः प्रकृतयः सत्कर्मापेक्षया त्रिधा-त्रिप्रकाराः, तद्यथा-अनादयो ध्रुवा अध्रुवाश्च / तत्रानादित्वं ध्रुवसत्कर्मत्वात्। ध्रुवाध्रुवता पूर्ववत्। तदेवं कृता साद्यनादिप्ररूपणा। सम्प्रति स्वामित्वं वक्तव्यम्। तच द्विधा-एकैकप्रकृतिगतं,प्रकृतिस्थानगतं च। तत्रैकैकप्रकृतिगतं स्वामित्वमभिधित्सुराहछउमत्थंता चउदस, दुचरमसमयम्मि अत्थिदो निदा। बद्धाणि ताव आउ-णि वेझ्याइंतिजा कसिणं // 3 // 'छउमत्थंत' ति-ज्ञानावरणपञ्चकान्तरायपश्चकदर्शनावरणचतुष्ट्यरूपाश्चतुर्दश प्राकृतयः छद्मस्थान्ताः क्षीणकषायवीतराग-- छदास्थगुणस्थानकं यावत्सत्यो भवन्तीत्यर्थः / परतस्तासामभावः / एवमुत्तरत्राप्युक्तगुणस्थानकात्परतोऽभावो वेदितव्यः। तथा द्वे निद्रे क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थानकद्विचरमसमयं यावत्सत्यौ स्तः। आयूंषि चत्वार्यपि बद्धानि तावत्सन्ति यावत्कृत्संनिरवशेष वेदितानि न भवन्ति। तिसु मिच्छत्तं नियमा, अट्ठसुठाणेसु होइ मइयव्वं / आसाणे सम्मत्तं, नियमासम्मंदससु भजं // 4|| 'तिसु' त्ति त्रिषु गुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टिलक्षणेषु नियमादवश्यतया मिथ्यात्वं सत्-विद्यमानम् / शेषेषु पुनरष्टसु गुणस्थानकेषु उपशान्तमोहगुणस्थानकपर्यवसानेषु भाज्यम् / तथाहि-अविरतसम्यग्दृष्ट्यादिना क्षपिते न भवति, उपशान्ते तु भवति / क्षीणमोहादिषु पुनस्तस्यावश्यमभावः / तथाआसादने सासादने सम्यक्त्वं नियमांदस्ति / दशसु पुनगुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्ट्याद्युपशान्तमोहगुणस्थानकपर्यवसानेषु भाज्यं कदाचिद्भवति कदाचिन्न भवतीत्यर्थः / तथाहि-मिथ्यादटावमव्ये न भवति, भव्येऽपि कदाचिद्भवति कदाचिन्न / तथासम्यगमिथ्यादृष्टित्वं कियत्कालं सम्यक्त्वे उद्वलितेऽपि भवति, ततस्तत्रापि तद्भाज्यम् / अविरतादिषु पुनः क्षपकेषु न भवति, उपशमकेषु तु भवति, अतस्तत्रापि तद्भाज्यम्।। बिइय-तइएसु मिस्सं, नियमा ठाणनवगम्मि भयणिज्जं / संजोयणाउ नियमा, दुसु पंचसुहोइ भइयव्वं / / 5 / / 'बिइय' त्ति-द्वितीये तृतीये च गुणस्थानके मिश्रं सम्यगमिथ्यात्वं नियमादस्ति / यतः सासादनो नियमादष्टाविंशतिसत्कर्मव भवति, सम्यड् मिथ्यादृष्टिश्च सम्यगमिथ्यात्वं विना न भवति, ततः सासादने सम्यगमिथ्यादृष्टौ च सम्यमिथ्यात्वमवश्यमस्ति / स्थाननवकेगुणस्थानकनवके मिथ्यादृष्ट्यविरतसम्यग्दृष्ट्यादौ उपशान्तगुणस्थानकान्ते भजनीयं,कदाचिद् भवति कदाचिन्न भवति / भावना च प्रागुक्तप्रकारेण स्वयमेव कर्त्तव्या, सुगमत्वात्। तथा संयोजना अनन्तानुबन्धिनोईयोमिथ्यादृष्टिसासादनयोर्नियमाद्भवन्ति / यत एताववश्यमनन्तानुबन्धिनो बध्नाति पञ्चसुपुनर्गुणस्थानकेषु सम्यङ् मिथ्यादृष्ट्यादिष्वप्रमत्तसंयतपर्यन्तेषु भजनीयाः। यदि उद्वलितास्ततो न सन्ति, इतरथा तु सन्तीत्यर्थः। खवगानियहि अद्धा, संखिज्जा होति अट्ठवि कसाया। निरयतिरियतेरसगं, निदा निहातिगेणुवरि // 6 // 'खवग' त्ति-क्षपकस्य अनिवृत्तिबादरसम्परायाद्धाया यावत् संख्येया भागास्तावत् अष्टावपि अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्ञाः कषायाः सन्ति / परतो न विद्यन्ते, क्षीणत्वात् / उपशमश्रेणिमधिकृत्य पुनरुपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् सन्तो वेदितव्याः। निरयतिर्यगेकान्तप्रायोग्यं यन्नामत्रयोदशकं नरकतिकतिर्यगद्विकैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियजातिस्थावरातपोद्योतसूक्ष्मसाधारणरूपं निद्रानिद्रात्रिकेण सह संयुक्तं कषायाष्टकक्षयादुपरिस्थितिखण्डेषु सहस्रेषु गतेषु सत्सु युगपत्क्षयमेति। ततो यावन्न क्षयं याति तावत् सत्, क्षये च सति असत्। उपशमश्रेण्यां पुनरेताः षोडशापि प्रकृतय उपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् सत्यो वेदितव्याः। अपुमित्थी' समंवा, हासच्छक्कं च पुरिससंजलणा। पत्तेगं तस्स कमा, तणुरागतो तिलोभो य|७|| 'अपुमित्थीए' त्ति-पूर्वोक्तप्रकृतिषोडशक क्षयादनन्तरं संख्ये येषु स्थितिखण्डे षु गतेषु सत्सु नपुंसक वेदः क्षीयते, यावच नक्षीयते तावत् सन् / ततः पुनरपि स्थितिखण्डे - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 130 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म षु संख्येयेषु गतेषु सत्सु स्त्रीवेदः क्षीयते, सोऽपि यावत्क्षयं न याति तावत्सन, एवं स्त्रीवेदेन पुरुषवेदेन या क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम्। नपुंसकवेदेन प्रतिपन्नस्य तु स्त्रीवेदनपुंसकवेदी युगपत्क्षयमुपगच्छतः, यावच्च न क्षयमुपगच्छतस्तावत्सन्तौ / उपशमश्रेणिमधिकृत्य पुनरुपशान्तमोहगुणस्थानक यावत्सन्तौ / ततः स्त्रीवेदक्षयानन्तरं संख्येयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु सत्सु हास्यादिषट्वं युगपत्क्षयमुपयाति, ततः समयोनावलिकाद्विकातिक्रमे पुरुषवेदः / एवं पुरुषवेदेन क्षपक श्रेणि प्रतिपन्नस्य द्रष्टव्यम्। स्त्रीवेदेन नपुंसकवेदेन वा क्षपकश्रेणिं प्रतिपन्नस्य पुनः पुरुषवेदो हास्यादिषट्कं च युगपत्क्षीयते / ततः पुरुषवेदक्षयानन्तरं संख्येयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु सत्सु संज्वलनक्रोधः क्षयमुपयाति। ततः पुनरपि संख्येयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु सत्सु संज्वलनमानः / ततोऽपि संख्येयेषु स्थितिखण्डेषु गतेषु संज्वलनमाया। यावच्च हास्यादिप्रकृतयः क्षय नोपयान्ति तावत्-सत्यः / 'तणुरागतो त्ति लोभो य' लोभः संज्वलनलोभो यावत्तनुरागान्तः सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकान्तः तावत् सन् वेदितव्यः, परतोऽसन् / उपशमश्रेणिमधिकृत्य पुनर्हास्यादिप्रकृतयः सर्वा अपि उपशान्तमोहगुस्थानकं यावत् सत्योऽवसेयाः। मणुयगइजाइतसबा-यरं च पज्जत्तसुभग आएजं / जसकित्ती तित्थयरं, वेयणिउच्चं च मणुयाणं |8|| भवचरिमस्समयम्मि उ, तम्मग्गिल्लसमयम्मिसेसा उ। आहारगतित्थयरा, भजादुसुनऽऽस्थि तित्थयरं111 'मणुयगई' त्यादि मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभ - गादेययशःकीर्तितीर्थकरान्यतरवेदनीयोचैर्गोत्रमनुष्यायूरूपा द्वादश प्रकृतयो भवचरमसमये सन्ति अयोगिकेवलिचरमसमय यावत् विद्यन्ते परताऽसत्य इत्यर्थः / शेषाः पुनरुक्तव्यतिरक्तिाः सर्वा अपि त्र्यशीतिसंख्याः / 'तम्मग्गिल्लसमयम्मि,' ति भवचरमसमयपाश्चात्यसभयेऽयोगिकेवलिद्विचरमसमये इत्यर्थः सत्यो भवन्ति, वरमसमये त्वसत्यः / आहारकतीर्थकरनामनी सर्वेष्वपि गुणस्थानकेषु भाज्ये / द्वयोःपुनर्गुणस्थानकयोः सासादनसम्यड् मिथ्यादृष्टिरूपयोस्तीर्थकरनाम नियमान विद्यते, तीर्थकरनामसत्कर्मणः स्वभावत एवोक्तरूपे गुणस्थानकद्विके गमनासम्भवात्। तदेवमुक्तमेकैकप्रभृतिसत्कर्म / सम्प्रति प्रकृतिस्थानसत्कर्म प्ररूपणार्थमाहपढमचरिमाणमेगं, छन्नव चत्तारि वीयगे तिन्नि। वेयणियाउयगोए-सु दोन्नि एगो त्ति दो होति / / 10 / / 'पढम'त्ति-प्रथमचरमयोर्ज्ञानावरणान्तराययोरेकैकं पञ्चप्रकृत्यात्मक स्थानम् / तच क्षीणकषायचरमसमयं यावत्सत्, परतोऽसत् / तथाद्वितीये दर्शनावरणीये त्रीणि प्रकृतिस्थानानि, तद्यथा-षट् नव चतरत्रः। तत्र सकलदर्शनावरणीयप्रकृतिसमुदायो नव / ताश्च नव प्रकृतय उपशमश्रेणिमधिकृत्य उपशान्तमोहगुणस्थानकं यावत् रात्यः / क्षपक श्रेणिमधिकृत्य पुनरनिवृत्तिबादरसम्परायाद्धाया यावत संख्येयभागस्तावत्सत्यः, परतः स्त्यानद्धित्रिकज्ञये षट् भवन्ति। ताश्च तावत्सत्यो यावत् क्षीणकषायस्य द्विचरमसमयः। तस्मिन् द्विचरमसमये। निद्राप्रचले व्यवच्छिद्येते। ततश्चरमसमये चतस्र एव सत्यः / ता अपि तत्र व्यवच्छिद्यन्ते। तथा वेदनीयायुर्गोत्राणां द्वे प्रकृतिस्थाने तद्यथा द्वे एका च / तत्र वेदनीयस्य यावदेकं न क्षीणं तावत् द्वे सत्यौ / एकस्मिस्तु क्षीणे एका / गोत्रस्य यावदेकं न क्षीणम् उदलितं तावत् द्वे सत्यौ। नीचैर्गोत्रे क्षपिते उच्चैर्गोत्र वा उद्भलिते पुनरेका सती। आयुषस्तु यावद्राद्धमायुनोंदति तावत् द्वे प्रकृती सत्यौ उदिते तु तस्मिन् प्राक्तनं क्षीणमिति एका प्रकृतिः। सम्प्रति मोहनीयस्य प्रकृतिसत्कर्मस्थानप्रतिपादनार्थमाहएगाइजाव पंचग-मिक्कारसवार तेरसिगवीसा। विय तिय चउरो छ स-त्त अट्ठवीसाय मोहस्स।११।। 'एगाई' ति-मोहनीयस्य पञ्चदशप्रकृतिसत्कर्मस्थानानानि / तद्यथा एका द्वे तिस्रः चतस्रः पञ्च एकादश द्वादश त्रयोदश एकविंशतिः द्वाविंशतिः त्रयोविंशतिः चतुर्विशतिः षड्विंशतिःसप्तविंशतितिरष्टाविंशतिश्चेति / एतानि सुखावबोधार्थे गाथाक्रमवैपरीत्येन भाव्यन्ते, तत्र मोहनीयस्य सर्वप्रकृतिसमुदायोऽष्टाविंशतिः। सम्यक्त्वे उद्वलिते सप्तविंशतिः / ततोऽपि सम्यड् मिथ्यात्वे उद्घलितेषदिशतिः / अथवा अनादिमिथ्यादृष्ट षड्रिंशतिः / अष्टविंशतिरनन्तानुबन्धिचतुष्टये क्षीणे चतुर्विंशतिः / ततो मिथ्यात्वे क्षीणे त्रयोविंशतिः। ततः सम्यगमिथ्यात्वे क्षीणे द्वाविंशतिः / ततः सम्यक्त्वे क्षीणे एकविंशति। ततोऽष्टसु कषायेषु क्षीणेषु त्रयोदश। ततो नपुसकवेदे क्षीणे द्वादश / ततः स्त्रीवेदे क्षीणे एकादश / ततः षट्सु नोकषायेषु क्षीणेषु पञ्च। ततः पुरुषवेदे क्षीणे चतस्रः। ततः संज्वलनक्रोधे क्षीणे तिस्रः / ततः संज्वलनमाने क्षीणे द्वे / संज्वलनमायायां च क्षीणायामेका। सम्प्रत्येतानि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि गुणस्थानकेषु विचिन्तयन्नाहतिन्नेग तिगं पणगं, पणगं पणगंच पणगमह दोन्नि। दस तिन्नि दोन्नि मिच्छा-इगेसु जावोवसंतो त्ति // 12 // 'तिन्नेग' त्ति-यावदुपशान्तमोहगुणस्थानकं तावन्मिथ्यादृष्ट्या-दिषु गुणस्थानकेषु यथासंख्य व्यादीनि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि भवन्ति / तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके त्रीणि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि / तद्यथाअष्टाविंशतिः, सप्तविंशतिः, षड्विशतिश्च / एतानि प्रागेव भादितानि / सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके एकं प्रकृतिसत्कर्मस्थानमष्टाविंशतिरूपम् / सम्यगमिथ्यादृष्टिगुणस्थानके त्रीणि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-अष्टाविंशतिः सप्तविंशतिश्चतुर्विशतिश्च / इह योऽष्टाविंशतिसत्कर्मा सन् सम्यगमिध्यात्वं गतस्तमाश्रित्याष्टाविंशतिः / येन पुनर्मिथ्यादृष्टिना सता पूर्व सम्यक्त्वमुदलितं ततः सप्तविंशतिसत्कर्मणा सता सम्यमिथ्यात्वमनुभवितुमारब्धं तं प्रति सप्तविंशतिः / चतुर्विशतिसत्कर्मणा सम्यग मिथ्यादृष्टिं प्रतीत्य पुनश्चतुर्विशतिः प्राप्यते / तथाऽविरत-सम्यग दृष्टि गुणस्थानके पशप्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-अष्टाविंशतिः चतुर्विशतिः त्रयोविं Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म शतिः द्वाविंशतिःएकविंशतिश्च / तत्राष्टाविंशतिरौपशमिकसम्यग्दृष्टः क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टा / अष्टाविंशतिसत्कर्मणोऽनन्तानुबन्धिक्षये वेदकसम्यग्दृष्टेरौपशमिकसम्यग्दृष्ट या चतुर्विशतिः / वेदकसम्यग्दृष्टर्मिथ्यात्वे क्षपिते त्रयोविंशतिः / तस्यैव सम्यगमिथ्यात्वे क्षपिते द्वाविंशतिः। क्षायिकसम्यग्दृष्टरेकविंशतिः। तथा देशविरतिगुणस्थानके पञ्चप्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तानि च पूर्वोक्तान्येव प्रमत्तसंयतगुणस्थानके। तान्येव चाप्रमत्तसंयतगु-णस्थानके। 'अह दोन्नि' त्ति अथअनन्तरम् अपूर्वकरणगुणस्थानकेद्वे प्रकृतिस्थाने, तद्यथा-चतुर्विशतिरेकविंशतिश्च / तत्रोपशमश्रेणिं प्रतिपन्नस्य चतुर्विशतिः, क्षायिकसम्यग्दृष्टिमधिकृत्यद्वयोरपि श्रेण्योरेकविंशतिः। तथा अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानके दशप्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-चतुर्विशतिः एक-विंशतिः त्रयोदश द्वादश एकादश पञ्च चतस्रःतिसाढे एका च। तत्र चतुर्विशतिरुपशमश्रेणिमधिकृत्य, एकविंशतिः, क्षायिक सम्यग्दृष्टयोरपि श्रेण्योःशेषाणि पुनः क्षपक श्रेण्या, तानि च प्रागेव भावितानि सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके त्रीणि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथाचतुर्विशतिः एकविंशतिः एका च। तत्र चतुर्विशति-रौपशमिकसम्यग्दृष्टः, एकविंशतिश्च क्षायिकसम्यग्दृष्टः, एतेच द्वे अपि प्रकृतिसत्कमस्थाने उपशमश्रेण्याम्, एका च क्षपकश्रेण्यामा तथा-द्वे प्रकृतिसत्कर्मस्थाने उपशान्तमोगुणस्थानके, तद्यथा-चतुर्विश-तिरेकविंशतिश्च / एते च द्वे अपि प्रागिव भावनीये। सम्प्रति मतान्तरमाहसंखीणदिट्ठिमोहे, केई पणवीसई पि इच्छंति। संजोयणाण पच्छा, नासंतेसिं उवसमं च / / 13 / / 'संखीण' ति केचिदाचार्याः पञ्चविंशतिलक्षणमपि प्रकृतिसत्कर्मस्थानमिच्छन्ति / ते हि प्रथमतो दृष्टिमोहे दर्शनमोहनीयत्रितये संक्षीणे क्षयमुपगते सति पश्चादननन्तानुबन्धिनां नाशमिच्छन्ति / ततस्तन्मतेन दर्शनमोहनीयत्रितयक्षये सति पञ्चविंशतिरूपमपि प्रकृतिसत्कर्मस्थानं प्राप्यते। यद्येवं तर्हि तन्मतमिह कस्मान्नाभ्यु-पगम्यते? उच्यते-आर्षण विरोधात् / यदाह चूर्णिकृत् - "तं आरिसे न मिलइ तेण न इच्छिलई" त्ति / तथा त एवाचार्यास्तेषामनन्तानुबन्धिनामुपशम चेच्छन्ति,नान्ये परमार्थवेदिनः / अत एव च प्रागनन्तानुबन्धिनामुपशमनाऽस्माभिनौपदर्शिता सम्प्रति नामकर्मणः प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि प्रति पिपापदयिषुराहतिदुगसयं छप्पंचग, तिग नउई नउई गुणनउई य। चउ तिग दुगाहिगासि, नव अट्ठ य नाम ठाणाइं॥१४॥ 'तिद्गसय' ति-नामकर्मणो द्वादश प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथात्र्युत्तरशतं व्युत्तरशतं षण्णवतिः पञ्चनवतिः त्रिनवतिः नवतिः एकोननवतिः चतुरशीतिः त्र्यशीतिः व्यशीतिः नव अष्टौ चेति / तत्र सर्वनामकर्मप्रकृतिसमुदायस्त्र्युत्तरशतम् / तदेव तीर्थकररहित व्युत्तरशतम, व्युत्तरशतमेवाहारक सप्तकरहितं षण्णवतिः / सैव तीर्थकररहिता पश्चनवतिः। पञ्चनवतिरेषदेवद्विकरहिता नरकद्विकरहिता वा त्रिनवतिः / तथा-त्र्युत्तरशतमेव नामत्रयोदशकरहितं नवतिः / सैव तीर्थकररहिता एकोननवतिः। तथा त्रिनवतिर्नरकद्विकवैक्रियसप्तकरहिता देवद्विकवैक्रियसप्तकरहिता वा चतुरशीतिः / षण्णवतिस्त्रयोदशरहिता त्र्यशीतिः पञ्चनवतिस्त्रयोदशरहिता व्यशीतः, अथवा-चतुरशीतिमनुजद्विकरहिता द्वयशीतिः / मनुजगतिपश्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशःकीर्तितीर्थकररूपानव ता एव तीर्थकररहिता अष्टौ / __ एतान्येव प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह - एगे छद्दोसु दुगं, पंचसु चत्तारि अट्ठगं दोसु। कमसो तीसु चउकं, छत्तु अजोगम्मि ठाणाणि / / 15 / / 'एगे' त्ति-एकस्मिन्मिथ्यादृष्टिलक्षणे गुणस्थानके षट् प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-दव्युत्तरशतं षण्णवतिः पश्शनवतिः त्रिनवतिःचतुरशीतिः व्यशीतिः / ननुषण्णवतिस्तीर्थकरनामसहिता भवति ततः सा कथं मिथ्यादृष्टौ प्राप्यते? उच्यते-इह कश्चित् नरकेषु बद्धायुष्कः पश्चात्सम्यक्त्वं प्राप्य, तन्निमित्तं तीर्थकरनामकर्म बद्धा नरकाभिमुखः सन् सम्यक्त्व त्यक्त्वा मिथ्यादृष्टिजतिः, ततो नरके उत्पन्नः सन् अन्तर्मुहूर्तानन्तरं पुनरपि सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, ततोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् षण्णवतिमिथ्यादृष्टी प्राप्यते, आहारक सप्तकतीर्थकरनामसत्कर्मा च मिथ्यात्वं न प्रतिपद्यते। उक्तं च- 'उभए संतिन मिच्छो' इति ततस्त्रयुत्तरशतं मिथ्यादृष्टौ न प्राप्यते / तथा-द्वयोः सासादनसम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकयो· द्वे प्रकृतिसत्कर्मस्थाने, तद्यथा व्युत्तरशतं पञ्चनवतिश्च / तथा-पञ्चसु अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकप्रभृतिषु अपूर्वकरणगुणस्थानकान्तेषु चत्वारि चत्वारि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि। तद्यथा-त्र्युत्तरशतं द्व्युत्तरशतं षण्णवतिः पञ्चनवतिः / शेषाणि क्षपक श्रेण्यामेकेन्द्रियादौ च संभवन्तीति कृत्वा इह न प्राप्यन्ते। तथा द्वयोरनिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायलक्षणयोर्गुणस्थानकयोरष्टकम्, अष्टो प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि। तद्यथा-व्युत्तरशतं द्व्युत्तरशतं षण्णवतिः पञ्चनवतिः नवतिः एकोननवतिः त्र्यशीतिः ट्यशीतिश्च / तत्रानिवृत्तिबादरस्यामिानि चत्वारि उपशमश्रेण्यां क्षपक श्रेण्या वा यावन त्रयोदशकं क्षीयते, शेषाणि पुनः क्षपकश्रेण्यामेव। सूक्ष्मसम्परायस्यादिमानि चत्वारि उपशमश्रेण्यां, शेषाणि तु क्षपक श्रेण्याम्। तथा-त्रिषु उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानकेषु चत्वारि चत्वारि प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि भवन्ति / तत्रोपशान्तमोहे इमानि चत्वारि, तद्यथा व्युत्तरशतं द्व्युत्तरशतं षण्णवतिः पञ्चनवतिः / क्षीणमोह सयोगिकेवलिंनोः पुनरमूनि, तद्यथा-नवतिः एकोननवतिः त्र्यशीतिः ट्यशीतिश्च / 'छत्तु अजोगम्मिठाणाणि त्ति अयोगिकवलिनिषट्प्रकृतिसत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-नवतिः एकोननवतिः त्र्यशीतिः व्यशीतिः नव अष्टौ चेति। एतेषामादिमानिचत्वारि अयोगिकेवलिद्विचरमसमयं यावत्, चरमसमये तु Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 132 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म तीर्थकराऽतीर्थकरौ प्रतीत्य द्वे अन्तिम प्रकृतिसत्कर्मस्थाने। तदेवमुक्तं प्रकृतिसत्कर्म। सम्प्रति स्थितिसत्कर्म वक्तव्यम्। तत्र त्रयोऽर्थाधिकाराः, तद्यथा-भेदः साद्यनादिप्ररूपणा स्वामित्वं चेति / तत्र भेदः प्रागिव / साधनादिप्ररूपणा च द्विधा-मूलप्रकृतिविषया, उत्तरप्रकृतिविषया च। तत्र प्रथमतो मूलप्रकृतिविषया साधनादिप्ररूपणां चिकीर्षुराहमूलठिई अजहन्नं, तिहा चउद्धाय पढमगकसाया। तित्थयरुव्वलणायुग-वजाणि तिहा दुहाणुत्तं // 16|| 'मूलठिइ' त्ति मूलप्रकृतिस्थितिसत्कर्म अजघन्यं त्रिधात्रिप्रकारम् / तद्यथा-अनादि ध्रुवमधुवं च / तथाहि-मूलप्रकृतीनां जघन्य स्थितिसत्कर्म स्वस्वक्षयपर्यवसाने समयमात्रैकस्थित्यवशेषे भवति, तच्च सादि, अध्रुवं च। ततोऽन्यत्सर्वमजघन्य, तच्चानादि, सदैव भावात्। ध्रुवाध्रुवता पूर्ववत्। उत्कृष्टमनुत्कृष्ट च साद्यधुवं द्वयोरपि पर्यायेणानेकशो भवनात्। कृता मूलप्रकृतीनां साद्यनादिप्ररूपणा, सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीनां क्रियते'चउद्धा य' इत्यादि अत्र षष्ठ्यर्थे प्रथमा, ततोऽयमर्थः-प्रथमकषायाणामनन्तानुबन्धिनामजघन्य स्थितिसत्कर्म चतुर्धा चतुःप्रकार, तद्यथासादि अनादि ध्रुवमध्रुवं च / तथाहि-एषां जघन्य स्थितिसत्कर्म स्वक्षयोपान्त्यसमये स्वरूपापेक्षया समयमात्रैकस्थितिरूपम्, अन्यथा तु द्विसमयमानं, तच्च साद्यधुवं ततोऽन्यत्सर्वमजघन्य, तदपि चोदलिताना भूयो बन्धे साऽऽदि, तत्स्थानमप्राप्तानां पुनरनादि, धुवाधुवता पूर्ववत् / तथा-तीर्थकरनामोद्वलनयोग्यत्रयोविशत्या - युश्चतुष्टयवर्जितानां शेषाणां षद्विशत्यधिकशतसंख्याना प्रकृतीनामजघन्य स्थितिसत्कर्म त्रिधा, तद्यथा-अनादिध्रुवमधुवं च। तथाहिएतेषां जघन्य स्थितिसत्कर्म स्वस्वक्षयपर्यवसाने उदयवतीनां समयमात्रैकस्थितिरूपम्, अनुदयवतीनां स्वरूपतः समयमात्रैकस्थितिकम् / अन्यथा तु द्विसम-यमात्रम्, तच्च साद्यध्रुवम् / ततोऽन्यत्सर्वमजघन्यं तच्चानादि, सदैव भावात् / ध्रुवाऽध्रुवता पूर्ववत् / 'दुहाणुत्त' ति। अनुक्तम्- उक्तप्रकृतीनामुत्कृष्टानुत्कृष्टजघन्यरूपं तीर्थकरनामोगलनयोग्यदेवद्विकनरकद्विकमनुजद्विकवैक्रियसप्तकाहारकसप्तकोथैर्गोत्र-सम्यक्त्वसम्यमिथ्यात्वरूपत्रयोविंशत्यायुश्चतुष्टयानां जघन्या-जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टरूपं विकल्पचतुष्टयं द्विधाद्विप्रकार, तद्यथा- सादि, अध्रुवं च / तथाहि-उक्तप्रकृतीनामुत्कृष्टमनुत्कृष्ट च स्थितिसत्कर्म पर्यायणानेकशो भवति / ततो द्वितयमपीदं साद्यध्रुवम्। जघन्यं च प्रागेव भावितम् / तीर्थकरनामादीनां चाध्रुवसत्कर्मत्वाच्चत्वारोऽपि विकल्पाः साद्यधुवा अवसेयाः / मूलप्रकृतीनां चानुक्तं जघन्यमुत्कृष्टमनुत्कृष्ट च द्विप्रकार प्रागेव चोक्तम्। तदेवं कृता साद्यनादिप्ररूपणा / सम्प्रति स्वामित्वं वक्तव्यम् / तच्च द्विधा उत्कृष्टस्थितिसत्कर्मस्वामित्वं जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामित्वं च / तत्र प्रथम उत्कृष्टस्थितिसत्कर्मस्वामित्वमाहजेट्ठठिई बंधसमं, जेट्ठ बंधोदया उजासिसह। अणुदयबंधपराणं, समऊणा जट्ठिई जे8।।१७।। 'जेट्ठठिइ' त्ति-यासां प्रकृतीनां सह युगपत् बन्धोदयौ भवतः कासा | युगपद्वन्धोदयौ भवतः इति चेदुच्यते -ज्ञानावरणपशकदर्शनावरणचतुष्टयासातवेदनीयमिथ्यात्वषोडशकषायपोन्द्रियजातित - जससप्तक हुण्डसंस्थानवर्णादिविंशत्यगुरुलधुपराघातोच्छ्रासाप्रशस्तविहायोगत्युदयोतत्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकास्थिराशुभदुर्भ. गदुःस्वरानादेयायशःकीर्तिनिर्माणनीचैर्गात्रपञ्चविधान्तरायाणां तिर्य मनुष्यानधिकृत्य वैक्रियसप्तकस्य सर्वसंख्यया षडशीति-प्रकृतीनाम् तासां ज्येष्ठमुत्कृण्टस्थितिसत्कर्म ज्येष्ठस्थितिबन्धसमम् उत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणं भवति / तासां हि उत्कृष्टस्थितिबन्धारम्भेऽबाधाकालेऽपि प्राग्बद्ध दलिकं प्राप्यते। न च तासां प्रथमस्थितिरन्यत्र स्तिबुकसंक्रमेण संक्रामति, उदयवतीत्वात् / ततस्तासाममुत्कृष्टस्थितिबन्धप्रमाणमुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्यते / अनुदयबन्धपराणां समयोना ज्येष्ठा स्थितिज्येष्ठमुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म। तत्रानुदये उदयाभावे पर उत्कृष्टः स्थितिबन्धो यासां ता अनुदयबन्धपराः निद्रापञ्चकनरकद्विकतिर्यग्द्विकौदारिकसप्तकै केन्द्रियजातिसेवार्तसंहननातपस्थावररूपा विंशतिसंख्या स्तासां समयोना उत्कृष्टा स्थितिरुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म / तथाहि-एतासामुत्कृष्टस्थितिबन्धारम्भे यद्यप्यबाधाकालेऽपि प्रारबद्ध दलिकमस्ति तथापि प्रथमस्थिति तासामुदयवतीषु मध्ये स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति / तेन तया प्रथमस्थित्या समयमात्रया ऊना उत्कृष्टा स्थितिरुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म। अथोच्येत-कथं निद्रादीनामनुदये सति बन्धेनोत्कृष्टा स्थितिः प्राप्यते? उच्यते-उत्कृष्टो हि स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लेशे भवति / न चोत्कृष्ट सक्लेशे वर्तमानस्य निद्रापञ्चकोदयसम्भवः नरकद्विकस्य तिर्यचो मनुष्या वा उत्कृष्टिस्थितिबन्धकाः। न च तेषां नरकद्विकोदयः सम्भवतीति शेषकर्मणां तु देवा नारका वा यथायोगमुत्कृष्टस्थितिबन्धकाः। न च तेषु तेषामुदयो घटते। संकमओ दीहाणं,सहालिगाए उ आगमोसंतो। समऊणमणुदयाणं, उभयासिंजट्टिई तुला।।१८|| 'संकमओ' त्ति यासा प्रकृतीनां संक्रमत उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म प्राप्यते, न बन्धतः, उदयोऽपि च विद्यते तासां संक्रमतो दीर्धाणां संक्रमवशलब्धोत्कृष्टस्थितिकानां य आगमः संक्रमेण आवलिकाद्विकहीनोत्कृष्टस्थितिसमागमः स आवलिकया उदयावलिकया सह उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म। एतदुक्तं भवति-सात वेदयमानः कश्चिदसातमुत्कृष्टस्थितिक बध्नाति। तच्च बद्धा सातं बद्धं लग्नः। असातवेदनीय च बन्धावलिकातीतं सत आवलिकात् उपरितनं सकलमपि आवलिकाद्विकहीनं त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणं स्थितिसत्कर्म तस्मिन् सातवेदनीये वेद्यमाने बध्यमाने च उदया-वलिकाया उपरिष्टात संक्रमयति / ततस्तया उदयावलिकया सहितः संक्रमणावलिकाद्रिकहीनोत्कृष्टस्थितिसमागमः सातवेदनीयस्योत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म / एवं नवनोकषायमनुजगतिप्रथमसंहननपञ्चकप्रथमसंस्थानपश्चकप्रशस्तविहायोगसिस्थिरशुभसुभगसुस्वरादेय यशाकीयुचैर्गोत्रा, मष्टाविंशतिप्रकृतीनामावलिकाद्विकहीनः स्वस्वसजातीयोत्कृ. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म एस्थितिसमागमः उदयावलिकया सहित उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म | भावनीयम् / सम्यक्त्वस्य पुनरन्तर्मुहूर्तो न उत्कृष्टस्थितिसमागम उदयावलिकाया सहित उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म / तथाहि-मिथ्यात्वस्योत्कृष्टा स्थिति बद्ध्वा तत्रैव च मिथ्यात्वेऽन्तर्मुहूर्त स्थित्वा ततः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते। तस्मिश्च प्रतिपन्ने सति मिथ्यात्व-स्योत्कृष्टां स्थितिम् - आवलिकात उपरितनी स्थिति-तथापि संख्ययाऽन्तर्मुहूर्तानसप्ततिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां सकलामपि सम्यवत्वे उदयावलिकात उपरि संक्रमयति / ततोऽन्तर्मुहूर्तोन एवोत्कृष्टस्थितिसमागम उदयावलिकया सहितः सम्यक्त्स्योत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म / यासां पुनः प्रकृतीना संक्रमत उत्कृष्टा स्थितिः प्राप्यते, न च संक्रमकाले उदयोऽस्ति, तासां संक्रकालेऽनुदयानां तावदेव पूर्वोक्त स्थितिसत्कर्म समयां नमवगन्तव्यम्, आवलिकाद्विक हीनोत्कृ पस्थितिसमागम आवलिकया सहितः समयोनस्तासामुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मेत्यर्थः / तथाहि-कश्चिन्मनुष्य उत्कृष्टसंक्लेशवशादुत्कृष्ट नरकगतिस्थितिं बवा परिणामपरावर्तनेन देवगति बद्धमारब्धवान, तस्यां च देवगतौ बध्यमानायामावलिकाया उपरि नरकस्थिति बन्धावलिकातीताम् उदयावलिकाया उपरितनीं सकलामपि विंशतिसागरोपमकोटीकोटीप्रमाणां संक्रमयति / प्रथमा च स्थितिः समयमात्रा देवगतेः सत्का मनुजगतौ वेद्यमानायां स्तिबुकसंक्रमेण संक्रामति। ततस्तया समयमात्रया स्थित्या ऊन आवलिकयाऽभ्यधिक आवलिकाद्विकहीनोत्कृष्टस्थितिसमागमो देवगतेरुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म / एव द्वित्रिचतुरिन्द्रियजात्याहारकसप्तकमनुजानुपूर्वीदेवानुपूवीसूक्ष्मापर्याप्त साधारणतीर्थकराख्यानामपि षोडशप्रकृतीनां यथोक्तमानमुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म भावनीयम् / सम्यङ् मिथ्यात्वस्य पुनरन्तर्मुहूतान उत्कृष्टस्थितिसमागम आ वलिकयाऽभ्यधिकसमयोन उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म वाच्यम्, तच्च सम्यक्त्वोक्तभावनानुसारेण भावनीयम, 'उभयासिं जट्टिई तुल्ल' ति उभयीषामुदयवतीनामनुदयवतीनां च प्रकृतीनां संक्रमोत्कृष्टस्थितीनां संक्रमकाले यत्स्थितिः सर्वा स्थितिस्तुल्या / यतोऽनुदयवतीनामपि तदानीं प्रथमस्थितिः स्तिबुकसंक्रमेणोदयवतीषु संक्रम्यमाणाऽपि दलिकरहिता विद्यते एव। न हि कालः संक्रमयितुं शक्यते, किं तु तत्स्थं दलिकमेव / ततः प्रथमस्थितिगतदलिकसंक्रान्तावपि दलिकरहिता प्रथमा स्थितिः तदानीं विद्यत एवेति कृत्वा उभयी यामपि यत्स्थितिः तुल्या / यश्च यासां प्रकृतीनामुत्कृष्टां स्थिति बध्नाति, यश्च यासूत्कृष्टां स्थितिं संक्रमयति, स तासामुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मस्वामी / तदेवमुक्तमुत्कृष्टस्थितिसत्कर्मस्वामित्वम्। सम्प्रति जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामित्वमाहसंजलणतिगे सत्तसु, य नोकसाएसुसंकमजहन्नो। सेसाण ठिई एगा, दुसमयकाला अणुदयाणं।।१६।। 'संजलणतिगे'त्ति- संज्वलनत्रिकस्य-क्रोधमानमायारूपस्य सप्ताना चनो कषायाणां पुरुषवेदहास्यादिषट्करूपाणां जघन्य-स्थितिसत्कर्म जधन्यस्थितिसंक्रमो वेदितव्यः। एता हि प्रकृतयो बन्धे उदये च व्यवच्छिन्ने सति अन्यत्र संक्रमेण क्षयं नीयन्ते: तेन एतासांय एव चरमसंक्रमः स एव जघन्य स्थितिसत्कर्म / उक्तंच- "हासाइपुरिसकोहादि तिन्नि संजलण जेण बन्धुदये। वोच्छिन्ने संकमई, तेण इह संकमो चरिमो।।१।।" जघन्य स्थिति-सत्कर्मति सम्बन्धः / शेषाणां पुनरुदयक्तीनां ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयवेदकसम्यक्त्वसंज्वनलोभायुश्चतुष्टयनपुंसकवेदस्त्रीवेदसातासातवेदनीयोचैर्गोत्रमनुजगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तसुभगादेययशःकीर्तितीर्थकरान्तरायपञ्चकरूपाणां प्रकृतीनां चतुस्त्रिंशत्संख्यानां स्वस्वक्षयपर्यवसानसमये या एका समयमात्रा स्थितिः सा जघन्य स्थितिसत्कर्म / अनुदयवतीनां पुनः प्रकृतीनां स्वस्वक्षयोपान्त्यसमये या स्वरूपापेक्षयासमय-मात्रा स्थितिरन्यथा तु द्विसमयमात्रकाला, सा जघन्य स्थिति-सत्कर्म / अनुदयवतीनां हि चरमसमये स्तिबुकसंक्रमेणोदयवती-षु प्रकृतिषु मध्ये प्रक्षिपति; तत्स्वरूपेण चानुभवति, तेन चरसमये तासां दलिकं स्वरूपेण न प्राप्यते, किं तु पररूपेण / अत उक्तम्-'उपान्त्यसमये स्वरूपापेक्षया समयमात्रा अन्यथा तु द्विसमयमात्रकालेति / सम्प्रति सामान्येन सर्वकर्मणां जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामी प्रतिपाद्यते-तत्रानुबन्धिनां दर्शनमोहनीय त्रिकस्य चाविरताऽऽदिरप्रमत्तपर्यन्तो यथासंभवं जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामी / नारकतिर्यग्देवायुषां नारकतिर्यग्देवाः स्वस्वभवचरमसमये वर्त्तमानाः / कषायाष्टकस्त्यानर्द्धित्रिकनामत्रयोदशकनवनोकषायसंज्वलनत्रिकरूपाणां षट् त्रिंशत्प्रकृतीनामनिवृत्तिबादरसम्परायः। संज्वलनलोभस्य सूक्ष्मसंपरायः। ज्ञानावरणपशकदर्शनावरणषट् कान्तरायपञ्चकानां क्षीणकषायः, शेषाणां पानवतिसंख्यानामयोगिके वली जघन्यस्थितिसत्कर्मस्वामी / तदेवमुक्तं जघन्यस्थितिरसत्कर्मस्वामित्वम्। सम्प्रति स्थितिभेदप्ररूपणार्थमाहठिइसंतवाणाइं, नियगुक्कस्सा हि थावरजहन्न। नेरंतरेण हेट्ठा, खवणाइसु संतराइं पि / / 20 / / 'ठिइसंतवाणाई' ति सर्वेषां कर्मणां स्वकीयात्स्वकीयादुत्कृष्टात् स्थितिस्थानात् समयमात्रादारभ्याधस्तात्तावदवतरीतव्यं यावत् स्थावरजघन्यम् एकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्यं स्थितिसत्कर्म / एतावता स्थितिकण्डके यावन्तः समयास्तावन्ति स्थितिस्थानानि नानाजीवापेक्षया निरन्तरणनैरन्तर्येण लभ्यन्ते। तद्यथा-उत्कृष्टा स्थितिरेकं स्थिति स्थानम्। समयोना उत्कृष्टा स्थितिद्धितीयं स्थितिस्थानम् / द्विसमयोना उत्कृष्टा स्थितिस्तृतीय स्थितिस्थानम् / एवं तावद्वाच्यं यावदेकेन्द्रियप्रायोग्य जघन्यं स्थितिसत्कर्म। एकेन्द्रियप्रायोग्याच जघन्यस्थितिसत्कर्मणोऽधस्तात् क्षपणादिषु क्षपणे उद्बलने च सान्तराणि स्थितिस्थानानि लभ्यन्ते। अपिशब्दान्निरन्तराणि च। कथमिति-चेदुच्यते-एकेन्द्रियप्रायोग्यजघन्यस्थितिसत्कर्मण उपरितनाग्रिमभागात्पल्योपमासंख्येयभागमात्र स्थितिखण्डखण्डयितुमारभते।खण्डनारम्भप्रथमसमयादारभ्य च समये समयेऽस्तादुदयवतीनामनुभावेनानुदयवतीनां स्तिबुक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 134 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म सक्रमेण समयमात्रा समयमात्रा स्थितिःक्षीयते / ततः प्रतिसमयं स्थितिविशेषा लभ्यन्ते / तद्यथा-तत्स्थावरप्रायोग्यं जघन्यं स्थितिसत्कर्म प्रथमसमयेऽतिक्रान्ते समयहीनं द्वितीय समयेऽतिक्रान्ते द्विसमयहीनम् / तृतीये समयेऽतिक्रान्ते त्रिसमयहीनमित्यादि / अन्तर्मुहूर्तेन च कालेन तत् स्थितिखण्ड खण्डयति / तत एतावती स्थितियुगपदेव त्रुटितेति कृत्वाऽन्तर्मुह दूर्व निरन्तराणि स्थितिस्थानानि लभ्यन्ते / ततः पुनरपि द्वितीयं पल्योपमासंख्येयभागमागमन्तर्मुहूर्त्तमात्रेण खण्डयति / तत्रापि प्रतिसमयमधः समयमात्रसमयमात्रस्थितिक्षयापेक्षया निरन्तराणि स्थितिस्थानानि पूर्वप्रकारेण लभ्यन्ते। द्वितीये च स्थितिखण्डे खण्डिते सति पुनरपि पल्योपमासंख्येयभागमात्रा स्थितियुगपदेव त्रुटितेति न भूयोऽप्यन्तमुहूर्तादूर्व निरन्तराणि स्थितिस्थानानि लभ्यन्ते एवं तावद्वाच्य यावदावलिकाशेषा भवति / साऽपि चावलिका उदयवतीनामनुभवेनानुदयवतीनां स्तिबुकसंक्रमेण समये समये क्षयमुपयातितावद्यावदेका स्थितिः / ततोऽमूनि आवलिकामात्रसमयप्रमाणानि स्थितिस्थानानि निरन्तराणि लभ्यन्ते। तदेवं स्थितिस्थान-भेदोपदर्शनमपि कृतम्। सम्प्रत्यनुभागसत्कर्मप्ररूपणार्थमाहसंकमसममणुभागे, नवरिजहन्नं तु देसघाईणं। छन्नोकसायवजाँण, एगट्ठाणम्मि देसहरं॥२१॥ मणनाणे दुट्ठाणं, देसहरं सामिगोयसम्मत्ते। आवरणविग्घसोलस-ग किट्टिवेएसुय सगते।।२२।। 'संकमसममि' त्यादि-अनुभागसंक्रमेण तुल्यमनुभागसत्कर्म वक्तव्यम / एतदुक्तं भवति-यथाऽनुभागसंक्रमे स्थानप्रत्ययविपाकशुभाशुभत्वसाद्यनादित्वस्वामित्वानि प्राक प्रतिपादितानि तथैवात्राप्यनुभागसत्कर्मणि वक्तव्यानि / नवरमयं विशेषो यदुत देशघातिनीनां हास्यादिषट् कवर्जितानां मतिश्रुतावधिज्ञानावरणचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणसज्वलनचतुष्ट यवेदत्रिकान्तरायपशकरूपाणामष्टादशप्रकृतीना जघन्यानुभागसत्कर्मस्थानमधिकृत्य एकस्थानीयं, घातिसंज्ञामधिकृत्य देशहरं देशघाति वेदितव्यम् / मनःपर्यायज्ञानावरणे पुनर्जघन्यमनुभागसत्कर्मस्थानमधिकृत्य द्विस्थान, धातिसंज्ञामधिकृत्य देशघाति / इहोत्कृष्टानुभागसत्कर्मस्वामिन उत्कृष्टानुभागसंक्रमस्वामिन एव वेदितव्याः। जघन्यानुभागसत्कर्मस्वामिनः पुनराह - 'सामिगोये' त्यादि / सम्यक्त्वज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणषट् कान्तरायपञ्चकरूपप्रकृतिषोडशककिट्टिरूपरंग्ज्वलनलाभवेदत्रयाणां स्वस्वान्तिमसमये वर्तमाना जघन्यानुभागसत्कर्मस्वामिनो वेदितव्याः। अत्रैव विशेषमाहमइसुयचक्खु अचक्खू-ण सुयसमत्तस्स जेट्ठलद्धिस्स। परमोहिस्सोहिदुर्ग, मणनाणं विउलनाणस्स // 23|| 'मइसुय' त्ति-मतिज्ञानावरणश्रुतज्ञानावरणचक्षुर्दर्शनावरणाचक्षुर्दर्शनावरणानां श्रुतसमाप्तस्य सकलश्रुतपारगामिनश्चतुर्दश पूर्वधरस्येत्यर्थः / ज्येष्ठलब्धिकस्य उत्कृष्टायां श्रुतार्थलब्धौ वर्तमानस्य जघन्यमनुभागसत्कर्म / इदमत्र तात्पर्यम्-मतिज्ञानावरणा-दीनां चतसृणां प्रकृतीनामुत्कृष्ट श्रुतार्थसम्पन्नश्चतुर्दशपूर्वधरो जघन्यानुभागसत्कर्मस्वामी वेदितव्यः। तथा परमावधिज्ञानेनावधिद्विकमवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणरूपंजघन्यानुभागसत्कर्म भवति। एतदुक्तं भवतिअवधिज्ञानावरणावधिदर्शनावरणयोजघन्यानुभागसत्कर्मस्वामी परमावधियुक्तो वेदितव्यः। तथा मनोज्ञानं मनःपर्यायज्ञानावरण जघन्यानुभागसत्कर्म विपुलमनःपर्यायज्ञानिनोऽवगन्तव्यम्, स्वामित्वभावना अवधिज्ञानावरणवत् / लब्धिसहितस्य हि प्रभूतोऽनुभागः प्रलयमुपयातीति 'परमोहिस्से' त्याद्युक्तम्। शेषाणां तु प्रकृतीनां य एव जघन्यानुभागसंक्रमस्वामिनस्त एव जधन्यानुभागसत्कर्मणोऽपि द्रष्टव्याः / इदानीमनुभागसत्कर्मस्थानभेदप्ररूपणार्थमाहबंधहयहयहउप्प-त्तिगाणि कमसो असंखगुणियाणि / उदयोदीरणवजा-णि होंति अणुभागठाणाणि // 24 // 'बंध' त्ति इहानुभागस्थानानि त्रिधा, तद्यथा-बन्धोत्पत्तिकानि हतोत्पत्तिकानि हतहतोत्पत्तिकानि च / तत्र बन्धादुत्पत्तिर्येषां तानि बन्धोत्पत्तिकानि / तानि चासंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तद्धेतूनामसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् / तथा उद्वर्तनापवर्तनाकरणवशतो वृद्धिहानिभ्यामन्यथाऽन्यथा यान्यनुभागस्थानानि वैचित्र्यभाञ्जि भवन्ति, तानि हतोत्पत्तिकान्युच्यन्ते / हतात्घातान पूर्वावस्थाविनाशरूपादुत्पत्तिर्येषां तानि हतोत्पत्तिकानि तानि च पूर्वेभ्योऽसंख्येयगुणानि, एकैकस्मिन बन्धोत्पत्तिके स्थाने नानाजीवापेक्षया उद्वर्तनापवर्तनाभ्यामसंख्येयभेदकरणात् / यानि पुनः स्थितिघातेन रसघातेन चान्यथाऽन्यथाभवनादनुभागस्थानानि जायन्ते तानि चहतहतोत्पत्तिकान्युच्यन्ते। हते उद्गर्तनापवर्तनाभ्यां घाते सति भूयोऽपि हतात् स्थितिघातेन रसघातेन वा घातादुत्पत्तिर्येषां तानि हतहतोत्पत्तिकानि। तानि चोद्वर्तनापवर्तनाजन्येभ्योऽसंख्येयगुणानि / संप्रत्यक्षरयोजना क्रियते -यानि उदयत उदीरणातश्च प्रतिसमय क्षयसम्भवात अन्यथाऽन्यथानुभागस्थानानि जायन्ते, तानि वर्जयित्वा शेषाणि बन्धोत्पत्तिकादीनि अनुभागस्थानानि क्रमशोऽसंख्ये यगुणानि वक्तव्यानि उदयोदीरणाजन्यानि कस्माद्वय॑न्त इति चेदुच्यतेयस्मादुदयो दीरणयोः प्रवर्त्तमानयोर्नियमात् बन्धोद्वर्तनापवर्तनास्थितिघातरसघातजन्यानामन्यतमान्यवश्यं सम्भवन्ति, तत्र उदयोदीरणाजन्यानि तत्रैवान्तः प्रविशन्तीति न पृथक् क्रियन्त्ये। तदेवमुक्तमनुभागसत्कर्म / सम्प्रति प्रदेशसत्कर्म वक्तव्यं, तत्र चैतेऽर्थाधिकाराः, तद्यथा-भेदः साधनादिप्ररूपणा, स्वामित्वं चेति / तत्र भेदः प्राग्वत् / सम्प्रति साद्यनादिप्ररूपणा कर्त्तव्या, सा च द्विधामूलप्रकृतिविषया, उत्तरप्रकृतिविषया च / तत्र मूलप्रकृतिविषयां तां चिकीर्षुराहसत्तण्डं अजहण्णं, तिविहं सेसा दुहा पएसम्मि। मूलपगईसु आउसु, साई अधुवा य सव्वे वि॥२५।। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म 'सत्तण्हं ति अयुर्वर्जानां सप्ताना मूलप्रकृतीनामजधन्यं प्रदेशसत्कर्म त्रिविध त्रिप्रकारम, तद्यथा- अनादि, धुवम्, अधुवं च / तत्र क्षपितक शिर य आयुर्वजनिां सप्ताना कर्मणां स्वस्वक्षयावसरे चरमस्थिती वर्तमानस्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म / तच्च साद्यधुवं ततोऽन्यत्सर्वम जघन्यम, तच्चानादि, सदैव सद्भावात् / धुवाध्रुवताऽभव्यभव्यापेक्षया। 'सेसा दुह' त्ति शेषा विकल्या उत्कृष्टा-नुत्कृष्टजघन्यरूपा द्विधा-द्विप्रकाराः, तद्यथा-सादयोऽधुवाश्च। तत्रोत्कृष्टप्रदेशसत्वर्मगुणितकम शस्य मिथ्यादृष्टःसप्तमपृथिव्यां वर्तमानस्य प्राप्यते / शेषकालतुतस्थाप्यनुत्कृष्टं ततो द्वे अपि साद्यध्रुवे / जघन्यं तु भावितमेव। तथा आयुषः सर्वेऽपि विकल्पा उत्कृष्टा-नुत्कृष्टजघन्याजघन्यरूपाः सादयोऽधुवाश्च, अध्रुवसत्कर्मत्वात्। सम्प्रत्युत्तरप्रकृतीरधिकृत्य साऽऽद्यनादिप्ररूपण चिकीर्षुराहवायालाणुकस्सं, चउवीससया जहन्न चउतिविहं। होइह छह चउद्धा, अजहन्नमभासियंदुविहं।।२६।। 'वायाल' त्ति सातवेदनीयसंज्वलनचतुष्टयपुरुषवेदपशेन्द्रियजातितेजससप्तकप्रथम स्थानप्रथमसंहननशुभवर्णाशुभवर्णाही कादशकागुरुलघुपराघातोच्छ्वासप्रशस्तविहायोगतित्रसवादरपर्याप्त - प्रत्येकास्थरशुभसुभगसुखरादेययशः-कीर्तिनिर्माणरूपात्र द्विचत्वारिंशत्प्रकृतीनामनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म चतुर्विधम्। तद्यथा-साधनादिध्रुवमधुवं च / तद्यथा-वर्षभनाराचवर्जाना शेषाणा-मेकचत्वारिंशत्प्रकृतीनां क्षपकश्रण्यां स्वस्वबन्धान्तसमये गुणि-तकर्माशस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति, तच्चैकसामयिकमिति कृत्वा साद्यधुवम्। ततोऽन्यत्सर्वमनुत्कृधम / तदपि च द्वितीये समये भवत्सादि / तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरमादि धुवाधुवे पूर्ववत् / वर्षभनाराचसंहननस्य तु सप्तमपृथिव्यां सम्यग्दृष्टनारकस्य मिथ्यात्वगन्तुकामस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तच्च साद्यधुवं, ततोऽन्यदनुत्कृष्ट, तदपि च द्वितीये समये भवत्सादि / तत्स्थानमप्रामस्य पुनरनादि / धुवाधुवे पूर्ववत् / अनन्तानुबन्धियशः कीर्तिस ज्वलनलोभवर्जितानां चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यानां ध्रुवसत्कर्मप्रकृतीनामजघन्य प्रदेशसत्कर्म त्रिविधम्। तद्यथा-अना-दि, ध्रुवम्, अध्रुवं च / तथाहि-एतासां क्षपितकर्माशस्य स्वस्व-क्षयचरमसमये जघन्य प्रदेशसत्कर्म, तच्चैकसामयिकामिति कृत्वा साद्यधुव च / ततोऽन्यदजघन्यम्, तच्चानादि, सदैव सद्भावात् / ध्रुवाध्रुवता पूर्ववत्। 'घउतिविहं' ति यथासंख्येन याजनीयम्, द्विचत्वारिंशत्प्रकृतीनामनुत्कृष्ट चतुर्विध, ध्रुवसत्कर्मणां चा-जघन्यं त्रिविधमिति। तथाऽनन्तानुबन्धिचतुष्टयसंज्वलनलोभयशः कीर्तिरूपाणां षण्णा प्रकृतीनामजघन्य प्रदेशसत्कर्म चतुर्विधम् / तद्यथा-सादि, अनादि, ध्रुवम्, अधुवं च। तथाहि-अनन्तानुबन्धिनामुद्धलके क्षपितकर्माशे यदा शेषीभूता एका स्थितिर्भवति तदा जघन्य प्रदेशसत्कर्म / तच्चैकसामयिकामिति कृत्वा साद्यधुवं च ततोऽन्यत्सर्वमजघन्यम्। तच्चोद्वलिताना मिथ्यात्वप्रत्ययेन / भूयोऽपि बध्यमानानां सादि, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुननादि / धुवाध्रुवे पूर्ववत् / यश:कीर्तिसंज्वलनलोभयोः पुनः क्षपितकर्माशस्य क्षपणा- | योद्यतस्य यथाप्रवृत्तिकरणस्यान्तिमसमये जघन्य प्रदेशसत्कर्म / तकसामयिकमिति कृत्वा साद्यधुवं च। ततोऽन्यत्सर्वमजधन्यम् तदपि चानिवृत्तिकरणप्रथमसमये गुणसंक्रमेण प्रभूतस्य दलिकस्य प्राप्यमाणत्वात अजधन्य भवत् सादि, तत्स्थानमप्राप्तस्य पुनरनादि / ध्रुवाध्रुवता पूर्ववत्। 'अभासिय दुविह' ति अभाषितम्-अनुक्तं सर्वासा प्रकृतीनां द्विविधं-द्विप्रकारमवगन्तव्यम्। तद्यथा-साद्यध्रुवं च। तत्र द्विचत्वारिंशत्प्रकृतीनामभाषितंजघन्यमजघन्यमुत्कृष्ट च। तत्रोत्कृष्ट द्विप्रकारं भावितमेवा जघन्याजघन्यता च वक्ष्यमाणं स्वामित्वमवलोक्य स्वयमेव भावनीया / धुवसत्कर्मणां च चतुर्विशतिशतसंख्यानामभाषितमुत्कृष्टमनुत्कृष्ट जघन्य च। तत्र जघन्य भावितमेव / उत्कृष्टानुकृष्ट मिथ्यादृष्टी गुणितकर्माश प्राप्येते / ततो द्वे अपि साद्यध्रुवे / एवमनन्तानुबन्धिसंज्वलनलोभयशःकीर्तीनामपि उत्कृष्टानुत्कृष्ट भावनीये / जघन्यं तु भावितमेव शंषाणां चाधु-वसत्कर्मणां चत्वारोऽपि विकल्पाःसाधधुवा अध्रुवसत्कर्मत्वा-दवसेयाः। तदेवं कृता साद्यनादिप्ररूपणा। सम्प्रति स्वामित्वं वक्तव्यम्। तच्च द्विधा-उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामित्वं जधन्यप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वं च। तत्रो त्कृष्टप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वमाहसंपुन्नगुणियकम्मो, पएसउक्कस्ससंतसामी उ। तस्सेव उ उप्पिविणि-ग्गयस्स कासिं चि वण्णेहिं / / 27 / / 'संपुन्न' ति-उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी सम्पूर्ण गुणितकमशि: सप्तमपृथिव्यां नारकश्वरमसमये वर्तमानःप्रायः सर्वासामपि प्रकृतीनामवगन्तव्यः / कासांचित्पुनः प्रकृतीना तस्यैव सम्पूर्णगुणितकर्माशस्य सतमथिव्या विनिर्गतस्योपरिष्टात् विशेषोऽस्ति, ततस्तमहं वर्णयामि वर्णयिष्यामि / “वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा” (पा०-३३३१३) इति (श्रीसि०-३-४-८४) भविष्यति वर्तमानः / प्रतिज्ञातमेवाऽऽहमिच्छत्ते मीसम्मि य, संपक्खित्तम्मि मीस सुद्धाणं / वरिसवरस्स उईसा-णगस्स चरमम्मि सयम्मि||२८|| 'मिच्छत्ते' त्ति-स,प्रागभिहितस्वरूपो गुणितकर्माशः सप्तमपृथिव्या उद्धृत्य तिर्यसूत्पन्नः, तत्राप्यन्तर्मुहूर्त स्थित्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः, तत्र सम्यक्त्वं प्राप्य सप्तकक्षपणाय शीघ्रमभ्युद्यतः। ततो यस्मिन् समये मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वे सर्वसंक्रमेण प्रक्षिपति, तस्मिन्समये सम्यड्मिथ्यात्वस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म / तदपि च सम्यङ् मिथ्यात्वं यस्मिन् समये सर्वसंक्रमेण सम्यक्त्वे प्रक्षिपति, तस्मिन् समये सम्यक्त्वस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म। अक्षर-योजना त्वियम्-मिथ्यात्वे मिश्रे च यथासख्य मिश्रे सम्यक्त्वे च प्रक्षिप्ते सति तयोर्मिश्रशुद्धयोः मिश्रसम्यक्त्वयोरुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति। तथा स एव गुणितकर्माशो नारकरितर्यग्भूत्वा कश्चिदीशानदेवो जातः / सोऽपि च तत्रातिसक्लिष्टो भूत्वा भूयो भूयो नपुंसकवेदं बध्नाति। तदानीं च तस्य स्वभवान्तसमये वर्तमान-स्य वर्षवरस्य नपुंसकवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म ईसाणे पूरित्ता, नपुंसगतो असंखवासासु। पल्लासंखियभागे-ण पूरिए इथिवेयस्स||२६|| 'ईसाणे' त्ति-ईशानदेवलोके उक्तप्रकारेण नपुंसकवेदमापूर्य नपुंसकवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसंचयं कृत्वा ततः संख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समुत्पद्य पुनरसंख्येयवर्षायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः। तत्र च तेन संक्लिष्टन भूत्वा पल्योपमासंख्येयभागमात्रेण कालेन पूरिते स्त्रीवेदे बन्धेन नपुंसकवेददलिकसंक्रमेण च प्रभूतमापूरिते स्त्रीवेदे सति तदानीं तस्य स्त्रीवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति। पुरिसस्सपुरिससंकम-पएसउक्कस्स सामिगस्सेव! इत्थीजं पुण समयं, संपक्खित्ता हवइताहे||३०|| 'पुरिसस्स' त्ति-पुरुषस्य पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म उत्कृपुरुषवेदसंक्रमस्वामिन एव वेदितव्यम्, एतदुक्तं भवति-य एवोत्कृष्टपुरुषवेदसंक्रमस्वामी स एवोत्कृष्टपुरुषवेदप्रदेशसत्कर्मस्वाभ्यपि वेदितव्यः / नवरं यं समय यस्मिन् समये स्त्रीवेदं पुरूषवेदे संप्रक्षेप्ता भवति संक्रमयति 'ताहे' तदानीं पुरुषवेदस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी। तस्सेवउसंजलणा, पुरिसाइकमेण सव्वसंछोभे। चउरूवसमित्तु खिप्पं,रागतेसायउच्चजसा // 31 / / 'तस्सेव' ति-य एव पुरुषवेदोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी तस्यैव संज्वलनाश्चत्वारः क्रोधादयः क्रमेण पुरुषवेदादिसत्कदलिकस-र्वसंक्षोभे उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मणो भवन्ति / इयमत्र भावना- य एव पुरुषवेदोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी यदा पुरुषवेदं सर्वसंक्रमण संज्वलनक्रोधे संक्रमयति तदा संज्वलनक्रोधोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी। स एव यदा संज्वलनक्रोधं सर्वसंक्रमेण माने संक्रमयति तदा संज्वलनमानोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी / स एव संज्वलन-मान सर्वस कमेण संज्वलनमायायां संक्रमयति तदा संज्वलनमायोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी / स एव यदा संज्वलनमायां सर्वसंक्रमण संज्वलनलोभे संक्रमयति तदा संज्वलनलोभोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी / तथा चतुरो वारान् मोहनीयमुपशमय्य गुणितकाशः शीघ्र क्षपणायोस्थितस्तस्य सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानकचर-मसमये वर्तमानस्य सातवेदनीयोथैर्गोत्रयशःकीर्तीनामुत्कृष्ट प्रदे-शसत्कर्म / यस्मादेतासु प्रकृतिषु श्रेण्यामारूढः सन् गुणसंक्रमेण प्रभूतान्यशुभप्रकृतिदलिकानि संक्रमयति। ततः सूक्ष्मसम्परा-यचरमसमये एतासामुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्यते। उक्तं च-“चउरुवसामिय मोह, जसुच्चसायाण सुहमखवगते। जं असुभ-पगइदलिया-ण, संकमो होइ एयासु॥१॥" देवनिरियाउगाणं,जोगुक्कस्सेहिं जेट्ठगद्धाए। बद्धाणि ताव जावं, पढमे समए उदिनाणि॥३२॥ 'देवनिरियाउगाणं' ति-देवनारकायुषोरुत्कृष्टै योगैरुत्कृष्टया च बन्धाऽद्भया द्वयोः सतोस्तावदुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्यते, याव-त्प्रथमे समये उदीर्णे उदयप्राप्ते भवतः / किमुक्तं भवति-बन्धादारभ्योदयप्रथमसमयं यावद्देवनारकायुषोरुक्तप्रकारेण द्वयोरु-त्कृष्ट प्रदेशसत्कर्भ भवति। सेसाउगाणि नियगे-सु चेव आगम्म पुव्वकोडीए। सायबहुलस्स अचिरा, बंधते जाव नो वड्डे // 33 // 'सेसाउगाणि' त्ति-शेषायुषी-तिर्यङ्मनुष्यायुषी / 'पुव्वकोडीए' त्ति पूर्वकोटयोपलक्षिते पूर्वकोटिप्रमाणे उत्कृष्टया बन्धाऽट्या उत्कृष्टयोगैर्बद्धे / बद्धा च निजकेषु भवेषु निजनिजभवे समागत्य, सातबहुलः सन् ते आयुषी यथायोगमनुभवति! सुखितस्य हि न भूयांस आयुःपुरलाः परिसटन्तीति कृत्वा सातग्रहणं कृतम् / ततोऽचिरात् बन्धान्ते इति उत्पत्तिसमयादूर्ध्वमन्तर्मुहूर्त्तमात्रमेव स्थित्वा मर्तुकामो जातः सन् उत्कृष्टया बन्धाऽद्धया उत्कृष्टश्च-योगैरन्यत् पारभविकं समानजातीयं मनुष्यो मनुष्यायुःतिर्यड् च तिर्यगार्यबध्नाति / ततो बन्धान्तसमये यावन्नाद्याप्यपवर्तयति तावत्तस्य सातबहुलस्य मनुष्यस्य सतो मनुष्यायुषः तिरश्चः (च) सतस्तिर्यगायुष उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति / यतस्तस्य तदानीं स्वभवायुः किशिदूनं परभवायुश्व समानजातीयं परिपूर्णदलिक-मस्तीति कृत्वा, बन्धान्तरं चायुर्वेद्यमानं द्वितीये समयेऽपवर्तयि-ष्यति, ततः उक्तं बन्धान्ते इति। पूरितु पुव्वकोडी, पुहुत्तनारगदुगस्स बंधते। एवं पल्लतिगते, वेउव्वियसेसनवगम्मि॥३४|| 'पूरितु' ति-पूर्वकोटीपृथक्त्वं पूर्वकोटीसप्तकं यावत् संक्लिष्टाध्यवसायवशेन नरकद्विकं नरकगतिनरकानुपूर्वीलक्षणं भूयोभूय आपूर्य बन्धेन निचितं कृत्वा नरकाभिमुखो बन्धान्तसमये नरकद्विकस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्वामी / तथा एवम्-अनेनैव प्रकारेण पूर्वकोटिपृथक्त्व यावत् भोगभूमिषु मध्ये पल्योपमत्रयं च यावद्विशुद्धाध्यवसायवशेन वैक्रियैकादशकात् नरकद्रिकेऽपनीते शेषं यद्वैक्रियनवकं देवद्विकं वैक्रियसप्तकं चेत्यर्थः / तत् बन्धेनापूर्य देवत्वाभिमुखस्तासा देवद्विकवैक्रियसप्तकरूपाणां नवप्रकृतीनामुत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मस्वामी। तमतमगो सव्वलह, सम्मत्तलभियसव्वचिरमद्ध। पूरित्ता मणुयदुर्ग, सवज्जरिसहंसबंधते॥३॥ 'तमतमगो' त्ति-तमस्तमगः सप्तमपृथ्वीनारकः / सर्वलघुअति-क्षिप्रं जन्मानन्तरमन्तर्मुहूर्ते गते सतीत्यर्थः। सम्यक्त्व लब्ध्वा। 'सव्वचिरमद्ध ति अतिदीर्घ कालं यावत् सम्यक्त्वमनुपालयन् मनुष्यद्रिक वज्रर्षभनाराचसहनन च बन्धेनापूर्य यतोऽनन्तरसमये मिथ्यात्वं यास्यति तस्मिन् समये बन्धाऽद्धाचरमभूते तयोर्मनुष्यद्विकवज्रर्षभनाराचसंहननयोरुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति। सम्मद्दिट्ठिधुवाणं, वत्तीसुदहीसयं चउक्खुत्तो। उवसामइत्तु मोहं, खतगे नियगबंधते॥३६।। 'सम्मद्दिट्टि' ति-याः प्रकृतयः सम्यग्दृष्टीनां बन्धमाश्रित्य ध्रुवाः पशेन्द्रियजातिसमचतुरस्रसंस्थानपराघातोच्छ्रासप्रशस्तविहायोगतित्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकसुस्वरसुभगादेयरूपा द्वादश तासां द्वात्रिंशदधिक सागरोपमाणां शतं यावद्वन्धेनोपचितानां चतुः कृत्वःचतुरो वारान् मोहनीयं चोपशमय्य। मोहनीयं हि उपशमयन् प्रभूतानि दलिकानि गुणसंक्रमेण Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 137 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म संक्रमयतीति कृत्वा चतुःकृत्वो मोहोपशमग्रहणम्। ततः क्षपणायोद्यतस्य निजबन्धव्यवच्छेदकाले उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भवति। धुवबंधीण सुभाणं, सुभथिराणं च नवरि सिग्घयरं / तित्थगराहारगतणू, तेत्तीसुदही विरचिया य॥३७|| 'धुवबंधीण' त्ति-याःशुभध्रुवबन्धिन्यः प्रकृतयस्तैजससप्तकशुभवर्णाचे कादशक गुरुलघुनिर्माणरूपा विंशतिप्रकृतयः तासा शुभस्थिरयोश्च पूर्वोक्तेन प्रकारेणोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भावनीयम्। नवर चतुःकृत्वो मोहनीयोपशमनानन्तरं शीघ्रतरं क्षपणायोद्यतस्येति वक्तव्य शेषं तथैव / तथा तीर्थकरनाम्नो गुणितकर्माशेन देशोनपूर्वकोटिद्विकाधिकानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावद्गन्धेन पूरितस्य स्वबन्धान्तसमये उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म। आहारकतनोराहारकसप्तकस्य तु विरचितस्य देशोनपूर्वकोटिं यावत् भूयो भूयो बन्धेनोपचितस्य स्वबन्धव्यवच्छेदसमये उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म।। तुल्ला नपुंसवेए, णेगिंदियथावरायवुज्जोया। विगलसुहुमत्तिया वि य, नरतिरिय चिरऽजिया हॉति॥३८।। 'तुल्ल' त्ति-नपुंसकवेदेन तुल्या एकेन्द्रियजातिस्थावरातपो-योता वेदितव्याः / यथा नपुंसकवेदस्य ईशानदेवभवचरमसमये उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मोक्तं तथा एतेषामपि द्रष्टव्यमित्यर्थः / विकलत्रिक द्विविधतुरिन्द्रियजातिरूपं, सूक्ष्मत्रिक सूक्ष्मापर्याप्तसाधारणरूपं यदा पूर्वकोटिपृथक्त्वं यावत् तिर्यङ्मनुष्यभवैरर्जितं भवति, तदा स्वबन्धान्तसमय तेषां तिर्यड्मनुष्याणां तद्विकलत्रिकादिकमुत्कृष्टप्रदेशसत्कर्म भवति। तदेवमुक्तमुत्कृष्टप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वम्। सम्प्रति जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वमाहखवियं सयम्मि पगयं, जहन्नगे नियगसंतकम्मंते। खणसंजोइय संजो-यणाण चिरसम्मकालंते॥३६।। 'खविय' ति-जघन्ये-जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वे प्रकृतमधिकारः। क्षपितकर्माशेन। सूत्रे चात्र सप्तमी तृतीयार्थेवेदितव्या। नियगसंतकम्मते' त्ति स्वस्वसत्ताचरमसमये। एवं तावत्सर्वकर्मणां सामान्येनोक्तम्। सम्प्रति पुनर्येषां कर्मणां विशेषोऽस्ति तानि पृथगेवाह- 'खणे' त्यादि इह क्षपितकर्माशेन सम्यग्दृष्टिना सता अनन्तानुबन्धिन उदलिताः / ततः पुनरपि मिथ्यात्वं गतेनान्तर्मुहूर्त कालं यावदनन्ता-नुबन्धिनो वद्धाः / ततो भूयोऽपि सम्यक्त्वं प्रतिपन्नः। तच्च सम्यक्त्वंद्वेषट्पष्टी सागरोपमाणा यावदनुपाल्य क्षपणार्थमभ्युद्यतस्तस्यानन्ता-नुबन्धिनं क्षपयतो यदा एका स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्रावस्थाना अन्यथा तु द्विसमयावस्थाना शेषीभवति तदा तेषां जघन्यं प्रदेशसत्कर्म / उव्वलमाणीणं उ-टवलणा एगट्ठिइ दुसामइगा। दिट्ठिदुगे वत्तीसे, उदहिसए पालिए पच्छा / / 4 / / 'उव्वलमाणीण' ति-उदल्यमानानां त्रयोविंशतिप्रकृतीनामुल-नकाले या एका स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्रावस्थाना, अन्यथा तु द्विसमय मात्रावस्थाना, सा तासा जघन्यं प्रदेशसत्कर्म / एतच्च सामान्येनोक्तम, अत्रैव विशेषमाह- 'दिविदुर्ग' त्यादि द्वात्रिंशदधिकं सागरोपमाणां शतं यावत् सम्यक्त्वमनपाल्य पश्वान्मिथ्यात्वं गतो मन्दोदलनया च पल्योपमासंख्येयभागमाप्रमाणया सम्यक्त्वमिश्रे उद्वलयितुमारभते स्म / उदल-यश्च तद्दलिक मिथ्यात्वे संक्रमयति। सर्वसंक्रमेण चावलिकाया उपरितन सकलमपि दलिक संक्रमितम् आवलिकागतं चदलिक स्तिबुकसंक्रमेण संक्रमयति संक्रमयतश्चयदैका स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्रावस्थाना, अन्यथा तु द्विसमयमात्रावस्थाना, तदा तयोः सम्यक्त्वमिश्रयोर्जघन्य प्रदेशसत्कर्म। अंतिमलोभजसाणं, मोहं अणुवसमइत्तु खीणाणं / नेयं अहापवत्त-करणस्स चरमम्मि समयम्मि। 411 // 'अन्तिम' त्ति-अन्तिमलोभः-संज्वलनलोभः ततः संज्वलनलोभयशःकीयोश्चतुरो वारान मोहनीयमनुपशमय्यमोहस्योपशमं कृत्वा, उपशमश्रेणिमकृत्वेत्यर्थः / शेषाभिः क्षपितकर्माशक्रियाभिः क्षीणयोर्यथाप्रवृत्तकरणचरमसमये जघन्यं प्रदेशसत्कर्म ज्ञेयम् / मोहनीयोपशमे हि क्रियमाणे गुणसंक्रमेण प्रभूतं दलिकमवाप्यते, न च तेन प्रयोजनमिति कृत्वा मोहनीयोपशमनप्रतिषेधः। वेउव्विक्कारसगं, खणबंधगतेउनरयजिट्ठठिइं। उव्वट्टित्तु अबंधिय, एगेंदिगए चिरुवलणे॥४२॥ 'वेउविचारसग' ति-नरकद्विकदेवद्विकवैक्रियसप्तकरूपं वैक्रियैकादशकं पूर्व क्षपितकर्माशनोदलितम्, ततो भूयोऽप्यन्तर्मुहूर्त काल यावद्धम्। ततो ज्येष्ठस्थितौ नरके प्रतिष्ठानाभिधाने नरके जातः। तत्र च सता तेन तत वैक्रियैकादशकं त्रयस्विशत्सागरो-पमाणि यावत् विपाकतः संक्रमतश्च यथायोगमनुभूतम् / ततो नरकादुद्वृत्य तिर्यक्पवेन्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः / तत्र च वैक्रियैकादशकस्य भूयोऽपि बन्धो न कृतः, तथाविधाध्यवसायाभावात् / तत एकेन्द्रियो जातः / स च तद्वै क्रियैकादशकं चिरोद्गलनया उद्बलयितुं लग्नः। चिरोद्वलनया चोदलयतः सतो यदैका स्थितिः स्वरूपापेक्षया समयमात्रावस्थाना, अन्यथा तु द्विसमयमात्रावस्थाना शेषीभवति तदा तस्य वैक्रियैकादशक स्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म। मणुयदुगुचागोए, सुहुमखणबद्धगेसु सुहुमतसे। तित्थयराहारतणु, अप्पद्धा बंधिया सुचिरं / / 43|| 'मणुय' त्ति-मनुष्यद्विकमुचैर्गोत्रं च पूर्वं सूक्ष्मत्रसेन क्षपितकर्माशेनोदलितम्, ततः 'सुहमखणबद्धगेसु' ति सूक्ष्मेण सूक्ष्मैकेन्द्रियेण पृथिव्यादिना सता क्षणमन्तर्मुहूर्तकालं यावत् भूयोऽपि बद्धम् / ततः सूक्ष्मत्रसेषु तेजोवायुषु मध्ये समुत्पन्नः। तत्र च चिरोद्वलनया उद्वलयितुं लग्नः उद्बलयतश्च यदा तेषामेका स्थितिर्द्विसमयमात्रावस्थाना शेषीभवति तदा तयोर्मनुष्यद्विकोच्चैर्गोत्रयोः सूक्ष्मक्षणबद्धयोर्जघन्यं प्रदेशसत्कर्म। तथा तीर्थकरनाम 'अप्पद्धाबंधिय' ति अल्पं कालं चतुरशीतिवर्षसहस्राणि सातिरेकाणि यावद्वद्धा केवली जातः / ततः 'सुचिरं' ति प्र Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म भूतं कालं देशोनपूर्वकोटिरूपं यावत् केवलिपर्याय परिपाल्यायोगिकेवलिनः सतः क्षपितकर्माशस्य चरसमये वर्तमानस्य तीर्थकरनाम्नो जघन्य प्रदेशसत्कर्म / अन्ये तु ब्रुवते-तीर्थकरनाम्नः क्षपितकर्माशेन तत्प्रायोग्यजघन्ययोगिना प्रथमसमये या लता बद्धा सा जघन्य प्रदेशसत्कर्म। 'आहारतणु त्ति आहारकतनूप-लक्षितमाहारकसप्तकम् / 'अप्पद्धा बंधिय' ति अल्पकालं बद्धा मिथ्यात्वं गतः, ततः 'सुचिर' त्ति चिरोद्वलनया उद्वलयतः सतो यदा एका स्थितिर्द्धिसमयमात्रावस्थाना शेषीभवति तदा तस्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म / तदेवमुक्तं जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्वामित्वम्। सम्प्रति प्रदेशसत्कर्मस्थानप्ररूपणार्थ स्पर्धकप्ररूपणामाहचरमावलियपविठ्ठा, गुणसेढी जासिमत्थिनय उदओ। आवलिगा समयसमा, तासिं खलु फडगाइंतु।।४४|| 'चरमावलिय' ति-घरमा-सर्वान्तिमा या क्षपणकाले आवलिका ता प्रविष्टा गुणश्रेणियोंसां प्रकृतीनामस्ति न च उदयः तासां स्त्या - नर्दित्रिकमिथ्यात्वाद्यद्वादशकषायनरकद्विकतिर्यग्द्विकपोन्द्रियजातिवर्ज जातिचतुष्टयातपोदद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणरूपाणामे कोनत्रिंशत्संख्यानामावलिकायां यावन्तः समयास्तावन्ति स्पर्धकानि भवन्ति / खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे / तुरेवकारार्थः / आवलिकारामयसमाऽन्ये वेत्यर्थः / इयमत्र भावना-अभव्यप्रायोग्यजघन्यप्रदेशसत्कर्मयुक्तस्त्रसेषु मध्ये समुत्पन्नः / तत्र च सर्वविरतिंदेशविरति चानेकशो लब्ध्वा चतुरश्च वारान् मोहनीयमुपशमय्य भूयोऽप्ये केन्द्रियेषु मध्ये समुत्पन्नः / तत्र च पल्योपमासंख्येयभागमात्र कालं यावत् स्थित्वा मनुष्येषु मध्ये समुत्पन्नः, तत्र च क्षपणायामभ्युतः / तस्य चरमे स्थितिखण्ड के ऽपगते सति चरमावलिकाया स्तिबुकसंक्रमेण क्षीयमाणायां सदा एका स्थितिद्विसमयमात्रावस्थाना शेषीभवति तदा सर्वमजघन्य यत् प्रदेश-रात्कर्म तत प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थानम् / तत एकस्मिन परमाणी प्रक्षिप्त सति अन्यत-द्वितीयं प्रदेशसत्कर्मस्थान भवति / ततो द्वयोः परमाण्या: प्रक्षिप्तयोरन्यत्तृतीयं प्रदेशसत्कर्मस्थानं त्रिषु परमाणुषु प्रक्षिप्तेषु अन्यत्। एवमेकैकपरमाणुप्रक्षेपेण प्रदेशसत्क-मस्थानानि नानाजीवापेक्षयाऽनन्तानि तावद्वाच्यानि यावत्तस्मि-न्नेव चरमे स्थितिविशेषे गुणितकर्माशस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानं भवति / अत ऊर्ध्वमन्यप्रदेशसत्कर्मस्थानं न प्राप्यते तत इदमेक स्पर्धकम् / इद तु चरमस्थितिमधिकृत्य / एवं द्वयोश्चरमस्थित्यो-द्वितीय स्पर्धकं वक्तव्यम्। तिसृषु च स्थितिषु तृतीयम् / एवं तावद्वाच्यं यावत्समयानावलिकासमयप्रमाणानि स्पर्धकानि भवन्ति / तथा चरमस्थितिधातस्य चरमं प्रक्षपमादिं कृत्वा पश्चानुपूर्व्या प्रदेशसत्कर्मस्थानानि यथोत्तरं वृद्धानि तावद्ववतव्यानि यावदात्मीयमा मीयमुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म / तत एतावदेतदपि सकलस्थितिगतं यथासम्भवमेकं स्पर्धक विवक्ष्यते। तत एतेन स्पर्धकन सहादलिकासमयप्रमाणानि स्पर्धकानि भवन्ति / संजलणतिगे चेवं, अहिगाणि य आलिगाएँ समएहिं। दुसमयहीणेहि गुणा-णि जोगठाणाणि कसिणाणि / / 45 / / 'संजलणतिगे' त्ति-संज्वलनत्रिके क्रोधमानमायारूपे, एवं पूर्वो -क्तेन प्रकारेण स्पर्धकानि वाच्यानि / इयमत्र भावना-क्रोधादीना प्रथमस्थितिर्यावदावलिकाशेषा न भवति तावत् स्थितिघात रसघातबन्धोदयोदीरणाः प्रवर्तन्ते / आवलिकाशेषायां तु प्रथम-स्थिती व्यवच्छिद्यन्ते, ततोऽनन्तरसमये समयोनावलिकागतं समयद्वयोनावलिकाद्विकबद्धं च सकृदस्ति, अन्यत् सर्व क्षीणं तत्र समयोनावलिकागतस्य दलिकस्य स्पर्धकभावना यथा प्राक् कृता तथाऽत्रापि कर्त्तव्या, यच समयद्वयोनावलिकाद्विक बद्धं दलिक - मस्ति तस्यान्यथा स्पर्धकभावना क्रियते पूर्वप्रकारेणात्र स्पर्द्धक-स्वरूपस्याप्राप्यमाणत्वात्। अथो च्यते कथं स्थितिघातरसघातबन्धोदयो दीरणाव्यवच्छे - दानन्तरसमये समयद्वयो नावलिका-द्विकबद्धमेव टलिकमस्ति न शेषमिति ज्ञायते? उच्यते-इह चरमसमयक्रोधादिवेदकेन यद्वद्धं दलिक तद्वन्धावलिकातीतम् आवलिकामात्रेण कालेन निरवशेष संक्रमयति / तथा च सति आवलिकाचरमसमये स्वरूपापेक्षयाऽकर्मी भवति / द्विचरमसम-यवेदकेन यद्वद्धं तदपि च बन्धावलिकायामतीतायामन्येनावलि-कामात्रेण कालेन संक्रमयति; आवलिकायाश्चरमसमये अकर्मी भवति। एवं यत्कर्म यस्मिन् समये बद्धं तत्तस्मात्समयादारभ्य द्वितीयावलिकाचरमसमयेऽकर्मी भवति / तथा च सति बन्धाद्यभावप्रथमसमये समयद्वयोनावलिकाद्विकबद्धमेव सत्प्राप्यते, न शेषम्। तथाहि-तत्त्वतोऽसंख्यातसमयात्मिका-ऽप्यावलिका किलारात्कल्पनया चतुःसमयात्मिका कल्प्यते / तता बन्धादिव्य - वच्छेदच रमसमयादक अष्ट मे समर्थ यदद्धं तद्वन्धावलिकायां चतुःसमयात्मिकायामतीतायाम् अन्यया चतुःसमयात्निकया आवलिकया अन्यत्र संक्रम्यमाणं चरमसमये बन्धादिव्यवच्छेद-सनयरूप सर्वथा स्वरूपेण न प्राप्यते, अन्यत्र सर्वात्मना संक्र-मितत्वात् सप्तमे समय यद्बद्धंतचतुः समयात्मिकायामावलिका-यामतिक्रान्तायानन्यया चतुः समयात्मिकया अन्यत्र संक्रम्यमाणं बन्धादिव्यवच्छेदानन्तरसमये स्वरूपेण न प्राप्यते. सर्वात्मनाऽन्यत्र संक्रमितत्वात, शेषषष्ठादिसमयबद्धं तु प्राप्यते / ततो बन्धादौ व्यवच्छिन्ने सति अनन्तरसमये समयद्वयोनावलिकाद्विक बद्धमेव सत् प्राप्यते नान्यदिति / तत्र बन्धादिव्यवच्छेदसमये जघन्ययोगिना सता यद्द्धं तस्य बन्धवलिकायामतीतायामन्य-या आवलिकयाऽन्यत्र संक्रम्यमाणस्य चरमसम्ये यत्संक्रमयिष्यति न तावत्संक्रमयति तत् संज्वलनक्रोधस्य जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्थानम्। एवं द्वितीययोगस्थानवर्तिना बन्धादिव्यवच्छेदसमये यद्बद्ध तस्यापि दलिकं चरमसमये द्वितीय प्रदेशसत्कर्मस्थानम्। एवं तावद्वाच्यं यावदुत्कृष्ट योगस्थानवर्तिना सता बन्धादिव्यवच्छेदसमये यद्द्धं तस्य दलिकं चरमसमये सर्वोत्कृष्टमन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थानम् / एवं जघन्य योगस्थानमादिं कृत्वा यावन्ति योगस्थानानि भवन्ति तावन्ति प्रदेशसत्कर्मस्थानान्यपि चरमसमये प्राप्यन्ते इदमेकं स्पर्धकम् / एवं बन्धादिव्यवच्छेदद्विचरमसमये जघन्ययो गादिना यद्वध्यते तत्रापि द्वितीयावलिकाचरम समये Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म प्रागिव तावन्नि प्रदेशसत्कर्म स्थानानि भावनीयानि / केवलं स्थितिद्वयभावीनि तानि प्रतिपत्तव्यानि, बन्धादिव्यवच्छेदचरमसमये बद्धस्यापि दलिकस्य तदानी द्विसमयस्थितिकस्य प्राप्यमाणत्वात्। इदं द्वितीय स्पर्धकम् / एवं बन्धादिव्यवच्छे दद्विचरमसमये जघन्ययोगादिना यद्वध्यते तत्रापि द्वितीयावलिकाचरसमये प्रागिव तावन्ति प्रदेशसत्कर्मस्थानानि भवन्ति। नवरं स्थितित्रयभावीनितानि भावनीयानि, तदानी बन्धादिव्यवच्छे-दचरमसमयबद्धसत्कस्यापि दलिकस्य त्रिसमयस्थितिकरय प्राप्यमाणत्वात्। इदं तृतीय स्पर्धकम् / एवं समयद्वयोनावलिका-द्विके यावन्तः समयास्तावन्ति स्पर्धकानि भवन्ति / तत आह-'अहिगाणि य आवलिगाए' इत्यादि। योगस्थानानि कृत्स्नानि समस्तानि समुदाय करूपतया विवक्षितानि, सकल योगस्थानसमुदाय इत्यर्थः / आवलिकागतैः समयैः समयद्वयहीनैर्गुण्यन्ते गुणिते सति यावन्तः सकलयोगस्थानसमुदायारतावन्ति प्रथमस्थितौ व्यवच्छिन्नायामधिकानि स्पर्धकानि भवन्ति / तथाहि-बन्धादिव्यवच्छे दानन्तरसमये समयदयोनावलिकाद्विकसमयप्रमाणानि स्पर्धकानि प्राप्यन्ते / एतच्चानन्तरमेव भावितम् / बन्धादिव्यवच्छेदादूर्ध्वं च प्रथमस्थितिरावलिकामात्रा तिष्ठति, ततस्तस्यामावलिकामात्रायां प्रथमस्थितौ संक्रमेण व्यवच्छिद्यमानायां परत आवलिकासमयप्रमाणानि स्पर्धकानि अन्यत्र संक्रमण व्यवच्छिद्यन्ते अतएव च तानि पृथक्न गुण्यन्ते। ततस्तेषुव्यवच्छिन्नेषु प्रथमस्थिती च व्यवच्छिन्नायां शेषाणि समयद्वयोनाबलिकासमयप्रमाणान्येवाधिकानि प्राप्यन्ते,नान्यानीति। वेएसु फडुगदुर्ग, अहिगा पुरिसस्स वेड आवलिया। दुसमयहीणा गुणिया, जोगट्ठाणेहिं कसिणेहिं॥४६॥ 'वेएसुत्ति-वेदेषु स्त्रीवेदपुरुषवेदनपुंसकवेदेषु प्रत्येकंद्वेव स्पर्धक भवतः / कथमिति चेद्? उच्यते-कश्विजन्तुरभवसिद्धिकप्रायाग्यजघन्यप्रदेशसत्कर्मा बसेषु मध्ये समुत्पन्नः तत्र देशविरतिं सर्वविरतिं च बहुशो लब्ध्वा चतुरश्च वारान् मोहनीयमुपशमय्य द्वाविंशदधिकं च सागरोपमाणां शत यावत्सम्यक्त्वमनुपाल्याप्रतिपतितसम्यक्त्वो नपुंसकवेदेन क्षपक श्रेणिमारूढः, ततो नपुंसकवेदस्य प्रथमस्थितौ द्विचरमसमये वर्तमाने उपरितनस्थितिखण्डमन्यत्र संक्रमितम्, तथा सति उपरितनी स्थितिः सर्वात्मना निर्लोपीकृता।ततः प्रथमस्थितौ चरमसमये सर्वजघन्यं यत प्रदेशसत्कर्म तत प्रथम प्रदेशसत्कर्मस्थानम् / तत एकस्मिन् परमाणौ प्रक्षिप्ते सति द्वितीय प्रदेशसत्कर्मस्थानम्। परमाणुद्वयप्रक्षेपे च तृतीयम् / एवं नानाजीवापेक्षया एकैकपरमाणुवृद्ध्या प्रदेशसत्कर्मस्थानानि अनन्तानि तावद्वाच्यानि यावद्गणितकर्मा शस्योत्कृष्टं प्रदेशसत्कर्मस्थानम्। इदमेक स्पर्धकम्। ततो द्वितीयस्थिती चरमखण्डे संक्रम्यमाणे चरमसमये पूर्वोक्तप्रकारेण सर्वजघन्यं यत्प्रदेशसत्कर्मस्थान तत् आदि कृत्वा नानाजीवा-पेक्षया यथासम्भवमुत्तरोत्तरवृझ्या निरन्तरे प्रदेशसत्कर्मस्थानानि तावद्वाच्यानि यावरणितकाशस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानम् / तानि द्वितीयं स्पर्धकम् / अथवा-यावत्प्रथमा स्थितिर्द्वि-तीया च स्थितिर्विद्यते तावदेक स्पर्धकम् / द्वितीयस्थितौ च क्षीणायां प्रशभस्थितौ शेषीभूतायां समयमात्रायां द्वितीयं स्पर्धकमिति। | एवं प्रकारद्वयेन स्त्रीवेदस्यापि स्पर्धकद्वयं भावनीयम्। पुरुषवेदस्य पुनः स्पर्धकद्वयमेवं भावनीयम्-उदयचरमसमये जघन्य प्रदेशसत्कर्म आदि कृत्वा नानाजीवापेक्षया एकै कपरमाणुवृद्ध्या निरन्तर प्रदेश - सत्कर्म स्थानानि तावद्वाच्यानि यावद्गुणितक मशिस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानम् / एतानि सर्वाण्यनन्तानि / एतान्येक स्पर्धकम् / उदयचरमसमये च द्वितीयस्थितौ चरमखण्डे संक्रम्यमाणे सर्वजघन्य प्रदेशरात्कर्मस्थानमादि कृत्वा प्रागिव द्वितीय स्पर्धक वाच्यम्। किंच'अहिगा पुरिसस्स' त्ति पुरुषवेदस्याधिकान्यपि स्पर्धकानि भवन्ति / कियन्ति भवन्तीति चेदुच्यते-'वउ आवलिया' इत्यादि, अत्र द्वे आवलिके इत्यत्र तृतीयार्थे प्रथमा। 'जोगट्ठाणेहिं कसिणेहिं' इति अत्र तु तृतीया प्रथमार्थ ततोऽयमर्थः-कृत्स्त्रानि योगस्थानानि सकलयोगस्थानसमुदाय इत्यर्थः / द्वभ्यामावलिकाभ्यां द्विसमयहीनाभ्याम् आवलिकाद्विकसमयैर्द्विरूपही रित्यर्थः, गुण्यन्ते गुणिते च सति यावन्तः सकलयोगस्थानसमुदायास्तावन्ति स्पर्धकान्यधिकानि भवन्ति, समयद्वयहीनावलिकाद्विकसमयप्रमाणानि अधिकानि भवन्तीत्यर्थः / तथाहि-पुरुषवेदस्य बन्धोदयादिव्यवच्छेदे सति समयद्वयोनावलिकाद्विकवद्धं पुरुषवेदस्य दलिक विद्यते। ततोऽवेदकस्य सतः संज्वलनत्रिकोक्तप्रकारेण योगस्थानापेक्षया समयदयहीनावलिकाद्विक - समयप्रमाणानि स्पर्धकानि वाच्यानि। सम्प्रत्युक्तानां वक्ष्यमाणानां च स्पर्धकाना सामान्यरूप लक्षण-माहसव्वजहन्नाढत्तं,खंधुत्तरओ निरन्तरं उप्षि। एगं उव्वलमाणी, लोभजसा नोकसायाणं // 47 // 'सव्वजहन्न' ति-सर्वजधन्यात प्रदेशसत्कर्मस्थानादारब्धमेकैकेन कर्मस्कन्धेनोत्तरतः पूर्वस्मात्पूर्वस्मादुत्तरोत्तरेण निरन्तरं प्रदेशसत्कर्मस्थानजाल तावन्नेयं यावत् 'उप्पि' उपरितनं सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म स्थान भवति / इयमत्र भावना-सर्व जघन्यप्रदेशसत्कर्मस्थानादारभ्ययोगस्थानापेक्षया एकैकेनकर्मस्कन्धेन वद्धानि प्रदेशसत्कर्मस्थानानि निरन्तराणि तावन्नेतव्यानि याव-दुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानं भवति / एकैककर्मस्कन्धेनोत्तरत इति चोक्तं योगस्थानवशलब्धस्पर्धकापेक्षया, अन्यथा “चरमावलि-यपविटे" त्यादौ यानि स्पर्धकान्युक्तानि तेष्वेकैकेन प्रदेशेनैवो-त्तरोत्तरा वृद्धिः प्राप्यते इति / तदेवमुक्त सामान्येन लक्षण स्पर्ध-कानाम् / सम्प्रत्युद्वल्यमानप्रकृतीना स्पर्धकप्ररूपणार्थमाह- 'एणं उव्वलमाणी' एकं स्पर्धक मुद्वल्यमानप्रकृतीनां त्रयोविंशतिस-ख्यानाम् / तत्र सम्यक्त्वस्य भावना क्रियते-अभव्यप्रायोग्यज-घन्यस्थितिसत्कर्मा बसेषु मध्ये समुत्पन्नस्तत्र सम्यक्त्व देशवि-रतिं चानेकवारान् लब्ध्वा चतुरश्च वारान मोहनीयमुपशमय्य द्वा-त्रिंशदधिकं च सागारोपमाणां शत यावत्सम्यक्त्वमनुपाल्य मिथ्यात्वं गतः, ततश्विरोद्वल नया सम्यक्त्वमुद्वलयतो यदा चरमखण्डं संक्रान्तम् एका च शेषा उदयावलिका तिष्ठति, तामपि स्तिबुकसंक्रमेण मिथ्यात्वे संक्रमयति। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 140 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतकम्म संक्रमयतश्च या एका स्थितिर्द्धिसमयमात्रावस्थाना शेषीभूता यदाऽवतिष्ठते / घातादयो निवृत्ताः। यदपि च क्षीणकषायाद्धासमं स्थितिसत्कर्म कृतम्, तदा सम्यक्त्वस्य सा जघन्यं प्रदेशसत्कर्मस्थानम्। ततो तदपि च क्रमेण यथासम्भवमुदयोदीरणाभ्यां क्षयमुपगच्छत्तावद्वक्तव्य नानाजीवापेक्षया एकै क प्रदेशवृद्ध्या प्रदेशसत्कर्म स्थानानि यावदेका स्थितिः शेषीभवति। तस्यां च क्षपितकर्माशस्य सर्वजघन्य तावन्नेतव्यानि यावद् गुणितकर्माशस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानं भवति / यत्प्रदेशसत्कर्म तत्प्रथमे स्थानम्, तत एकस्मिन् परमाणौ प्रक्षिप्ते सति इदमे कं स्पर्धकम् / एवं सम्यग्मिथ्यात्वस्यापि एवमेव च द्वितीये प्रदेशसत्कर्मस्थानम्, एवमेकैकपरमाणुवृद्ध्या निरन्तराणि शेषाणामप्युद्वलनयोग्यानां वैक्रियैकादशकाहारकसप्तकोच्चैर्गो- प्रदेशसत्कर्मस्थानानि तावद्वाच्यानियावद्गुणि-तकर्माशस्य सर्वोकृष्ट त्रमनुष्यतिकरूपाणां प्रकृतीनाम् / नवरं तासां द्वात्रिंशदधिकसा- प्रदेशसत्कर्मस्थानम्। इदमेकं स्पर्धकम्। द्वयोश्च स्थित्योः शेषीभूतगरोपमशतप्रमाणः सम्यक्त्वकालो मूलत एव न वक्तव्यः / 'लोभजसे' योरुक्तप्रकारेण द्वितीय स्पर्धकम् / तिसृषु स्थितिषु शेषीभूतासु तृतीयं त्यादि सज्वलनलोभयशःकीयोरपि एक स्पर्धकम्। तथाहि-स स्पर्धकम् / एवं क्षीणकषायाऽद्धासमीकृते सत्कर्मणि यावन्तः स्थितिएवाभवसिद्धिकप्रायोग्यजघन्यस्थितिसत्कर्मा बसेषु मध्ये समुत्पन्नः / विशेषास्तावन्ति स्पर्धकानि वाच्यानि। चरमस्य च स्थितिघातस्य चरम तत्र चतुःकृत्वो मोहोपशममन्तरेण शेषाभिः क्षपितकर्माशक्रियाभिः प्रक्षेपमादौ कृत्वा पश्चानुपूर्व्या प्रदेशसत्कर्मस्थानानि यथोत्तर वृद्धानि कर्मदलिक प्रभूतं क्षपयित्वा चिरकालं च संयममनुपाल्य ताव-द्वक्तव्यानि यावदात्मीयमात्मीयं सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तावदेक्षपणायोत्थितः / तस्य यथाप्रवृत्तकरणचरमसमये जघन्य प्रदेशसत्कर्म / तदपि सकलनिजनिजस्थितिगतं यथासम्भवमेकैकं स्पर्धक द्रष्टव्यम्। ततस्तेनाधिकानि स्थितिघातव्यवच्छेदात् परतः क्षीणकषायाद्धाततस्तस्मादारभ्य नानाजीवापेक्षया एक -कप्रदेशवृद्ध्या निरन्तराणि प्रदेशसत्कर्मस्थानानि तावद्वाच्यानि यावद् गुणितकाशस्योत्कृष्ट समयसमानि स्पर्धकानि भवन्ति / निद्राप्रचलयोस्तु द्वि-चरमस्थितिप्रदेशसत्कर्मस्थानम्, एवमेक सज्वलनलोभयशःकीयो : स्पर्धकम्। मधिकृत्य स्पर्धकानि याच्यानि, चरमसमये तद्दलि-कस्याप्राप्य माणत्वात्। तत एकेन हीनानि तस्य स्पर्धकानि द्रष्टव्यानि / षण्णामपि च नोकषा-याणा प्रत्येकमेकैक स्पर्धकम, तदपि चैवम्-स सेलेसिसंतिगाणं, उदयवईणं तु तेण कालेणं / एवाभविसिद्धिक-प्रायोग्यजघन्यप्रदेशसत्कर्मा बसेषु मध्ये समुत्पन्नः / तुल्ला णेगहियाई, सेसाणं एगऊणाइं॥४६।। तत्र सम्य-वत्वं देशविरतिंचानेकशो लब्ध्वा चतुरश्च वारान्मोहनीयमुपश 'सेलेसि' त्ति-शैलेसी-अयोग्यवस्था तस्याः सत्ता यासां प्रकृतीनां ताः मय्य स्त्रीवेदनपुंसकवेदौ च भूयो भूयो बन्धेन हास्यादिदलिकसंक्रमेण च शैलेशीसत्ताकाः / ताश्च द्विधा, तद्यथा-उदयवत्योऽनुदयवत्यश्च / प्रभूतमापूर्य मनुष्यो जातस्तत्र चिरकालं संयममनुपाल्य क्षपणायोत्थितः। तत्रोदयवत्यो मनुष्यगतिमनुष्यायुःपञ्चेन्द्रियजाति-ससुभगादेयतस्य चरमखण्डचरमसमये यद्विद्यमानं प्रत्येक षण्णां नोकषायाणा पर्याप्तबादरयशः कीर्तितीर्थकरोथैर्गोत्रसातासाता-न्यतरवेदनीयरूपा प्रदेशसत्कर्म तत्सर्व जघन्यम् / ततस्तस्मादारभ्य नानाजीवापेक्षया द्वादश / तासां प्रकृतीनां तेनायोगिकालेन तुल्यानि स्पर्धकानि एकैकप्रदेशवृद्ध्या निरन्तराणि प्रदेशसत्कर्मस्थानानि अनन्तानि एकैकेनाधिकानि भवन्ति / अयोगिकाले यावन्तः समयास्तावन्ति तावद्वाच्यानि यावद् गुणितकर्मा शस्योत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म,। एवमेकं षण्णा स्पर्धकानि एके नाधिकानि भवन्तीत्यर्थः। कथमिति चेदुच्यते - नोकषायाणां प्रत्येक स्पर्धकम्। अयोगिके वलिनश्वरमसमये क्षपितकाशमधिकृत्य यत्सर्वजघन्य सम्प्रति मोहनीयवर्जानां घातिकर्मणां स्पर्धकनिरूपणार्थमाह प्रदेशसत्कर्मस्थानम्, तत् प्रथम स्थानम्। तत एकस्मिन् परमाणौ प्रक्षिप्त ठिइखंडगविच्छेया, खीणकसायस्स सेसकालसमा। सति द्वितीय प्रदेशसत्कर्मस्थानम् / एवं नानाजीवापेक्षया एकैकएगहियों घाईणं, निद्दापयलाण हिच्चेकं // 48|| प्रदेशवृद्ध्या तावत्प्रदेशसत्कर्मस्थानानि द्रष्टव्यानि यावदगुणित - "ठिइखंडग' त्ति-क्षीणकषायस्य स्थितिखण्डव्यवच्छेदात् स्थि कर्माशस्य सर्वो-त्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानम्. इदमेकं स्पर्धकम् / तत तिघातव्यवच्छेदात् परतो यः शेषकालस्तिष्ठति तत्समानि शेष एवमेव द्वयोः स्थित्योः शेषीभूतयोर्द्वितीयं स्पर्धकम् / तिसृषु स्थितिषु कालसमयसमानि स्पर्धकानि एकाधिकानि घातिकर्मणां भवन्ति / / तृतीयम्। एवं निरन्तरं तावदवगन्तव्यम्, यावदयोगिप्रथमसमयः। तथा निद्राप्रचलयोस्तु हित्वा-परित्यज्य एक चरमं स्थितिगत स्पर्धक, शेषाणि सयोगिकेवलिचरमसमये चरमस्थितिखण्डसत्कं चरमप्रक्षेपमादिं कृत्वा य'च्यानि, निद्राप्रचलयोर्हि उदयाभावात् स्वस्वरूपेण चरमसमये दलिकं यावदात्मीयमात्मीयं सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तावदेतदपि सकलस्वन प्राप्यते, किं तुपरप्रकृतिरूपेण, तेन तयोरेक स्पर्धकं चरमस्थितिगत स्वस्थितिगतभेकैकस्पर्धकंद्रष्टव्यम्। ततोऽयोगिकेच-लिगुणस्थानकेयावन्तः परित्यज्यते / रपर्धकानां चेयं भावना-क्षीणकषायाऽद्धायाः संख्येयेषु समयास्तावन्ति स्पर्धकानि एकाधिकानि उदयवतीना प्रकृतीनां प्रत्येक भागेषु गतेषु सत्सु एकस्मिश्च संख्येयतमेऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणे भागेऽवतिष्ठमाने भवन्ति, शेषाणांत्वनुदयवतीनां प्रकृतीनां त्र्यशीतिसंख्यानां तावन्ति स्पर्धज्ञानावरणपक्षकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपञ्चकानां स्थितिसत्कर्म- कान्येकेन हीनानि भवन्तिायतस्ता अयोगिकेवलिचरमसमये उदयवतीषु सर्वापवर्तनयाऽपवर्त्य क्षीणकषायाद्धासम करोति / निद्राप्रचल- मध्ये स्तिबुकसंक्रमेण संक्रम्यन्ते। ततस्तासां चरमसमयगत स्पर्धक न योस्त्वेकसमयहीनम् / अत्र व कारणं प्रागेवोक्तम् तदानीं च स्थिति- | प्राप्यत इति तेन हीनानि तासां स्पर्धकानि भवन्ति / इह यद्यपि म Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतकम्म 141 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतत्त नुष्यगत्यादीनाम् 'एगं उव्वलमाणी' इत्यनेन ग्रन्थेन प्रागेव स्पर्ध- मोहगुणस्थानकात् प्रतिपाते भूयोऽपि बन्धारम्भप्रथमसमये, स हि कप्ररूपणा कृता तथापि इहापि तासां स्पर्धकानिप्राप्यन्त इति भूय तदानीं न भूयस्कारो वक्तुं शक्यते, नाप्यल्पतरः, नाप्यवस्थितः, उपादानम्। एवं करणेष्वपि बन्धनादिषु यथासम्भव स्पर्धकानि वाच्यानि / तल्लक्षणायोगात, ततोऽसाववक्तव्य इत्युच्यते, भूयस्कारादिनाम्ना तथा चाह वक्तुमशक्यत्वात् ! एवमुत्तरप्रकृतीरधिकृत्य ज्ञानावरणीयादीना वेदसंभवतो ठाणाई, कम्मपएसेहिं होंति नेयाई। नीयवर्जानामवक्तव्यो भावनीयः। वेदनीयस्य त्ववक्तव्यो न सम्भवति, करणेसु य उदयम्मिय,अणुमाणेणेव मेएणं / / 5 / / तस्य हि सर्वथा बन्धव्यवच्छेदः सयोगिकेवलिचरसमये / न च ततः 'संभवतो' त्ति सम्भवमाश्रित्य स्थानानि प्रदेशसत्कर्मस्थानानि करणेषु प्रतिपातो येन भूयो बन्धः प्रवर्त्तमानः प्रथमसम-येऽवक्तव्यः स्यात्। बन्धनादिषु उदये च कर्मप्रदेशेभ्यः कर्मप्रदेशानधिकृत्य ज्ञेयानि। तदेवं मूलप्रकृतीरधिकृत्य वक्तव्यवर्जाः शेषास्त्रयः प्रकाराः, ज्ञातव्यानि / कथमित्याह-एवमुपदर्शितन एतेन-प्रागुक्तेन अनुमानेन उत्तरप्रकृतीरत्वधिकृत्य चत्वारोऽपि प्रकाराः सम्भवन्ति / यथा च बन्धे प्रकारण ज्ञातव्यानि। तथाहि-बन्धनकरणे जघन्यं योगस्थानमादिं कृत्वा चत्वारोऽपि प्रकारा भाविताः / एवं संक्रमे उद्वर्त्तनायामपवर्तयावदुत्कृष्टयोगस्थानम् एतावन्ति प्रदेशसत्कर्मस्थानानि बन्धमाश्रित्य नायामुदीरणायामुपशमनायामुदये सत्तायां च प्रकृतिस्थानेषु स्थित्यनुप्रयन्ते, तावन्ति चैक स्पर्धकम् एवं संक्रमणादिष्वपि प्रत्येक यथायोगं भागप्रदेशस्थानेषु च यथा-योग स्वयमेव भावनीयाः। भावनीयम्। करणोदयसंताणं, सामित्तोघेहिँ सेसगं नेयं। करणोदयसंताणं, पगइहाणेसु सेसगतिगे य। गइयाइमरगणासु, संभवओ सुळु आगमिय।।५३|| भूयकारप्पयरो, अवडिओतह अवत्तव्यो / / 51 / / 'करणोदयसंताणं' ति-अष्टानां करणानामुदयसत्तयोश्च यदुक्तं प्रत्येक 'करणोदयसंताण' ति-अष्टानां करणानामुदयसत्तयोश्च प्रकृति-स्थानेषु सप्रपा स्वरूपं तत् ओघस्वामित्वमुच्यते / 'सामित्तोघेहिं' ति 'सेसगतिगे य त्ति' शेषके च त्रिके स्थित्यनुभागप्रदेशरूपे प्रत्येक चत्वारो द्वितीयाथें तृतीया, व्यक्त्यपेक्षया च बहुवचनम् / ततश्च तानि ओघविकल्पा ज्ञातव्याः / तद्यथा-भूयस्कारः, अल्पतरः, अवस्थितः, स्वामित्वानि यथोक्तकरणाष्टकोदयसत्तास्वरूपाणि सुष्ठु आगम्य अवक्तव्यश्व: एतेषां चतुर्णा लक्षणमिदम् परिभाव्य शेषकमपि ज्ञातव्यम्। क्व ज्ञातव्यमित्याह-गत्यादिषु चतुर्दशसु एगादहिगे पढमो, एगाई ऊणगम्मि विइओ उ। मार्गणास्थानेषु / कथमित्याह-सम्भवतो यथासम्भवति घटते तथैव, नाऽन्यथा। तत्तियमेत्तो तइओ, पढमे समये अवत्तव्यो / / 52 / / 'एगादहिगे' त्ति-इह बन्धमाश्रित्य भावना क्रियते / बन्धो द्विमूल बंधोदीरणसंकम-संतुदयाणं जहन्नगाईहिं। प्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनां च। तत्र मूलप्रकृतीनां बन्धः कदाचित् अष्टानाम्, संवेहो पगइठिई, अणुभागपएसओ नेओ।॥५४॥ कदाचित्सप्तानाम, कदाचित् षण्णाम्, कदाचिदेकस्याः। तत्र यदा स्तोकाः 'बधोदीरण' ति-बन्धोदीरणासंक्रमसतोदयरूपाणां पञ्चानां पदार्थाना प्रकृतीराबध्नन् परिणामविशेषतो भूयसीः प्रकृतीर्बध्नाति, यथा सप्त बडा प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशतः प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशानधिकृत्य अष्टौ बध्नाति, यदा-षट् एकां च बद्धा सप्त, तदा स बन्धो भूयस्कारः / जघन्याजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टैः सम्बन्धः परस्परमेककालमागमाविरोधेन तथा चाह- 'एगा दहिगे पढमो' एकादिभिरेकद्वित्र्यादिभिः प्रकृति मीलनम् / यथा ज्ञानावरणीयस्य जघन्ये स्थितिबन्धे जघन्योभिरधिके बन्धे प्रथमः प्रकारो भवति, भूयस्कारो बन्धो भवतीत्यर्थः / ऽनुभागबन्धः, जघन्यः प्रदेशबन्धः अजघन्याः स्थित्युदीरणासंक्रमयदा तु प्रभूताः प्रकृतीबंधनन् परिणामविशेषतः स्तोका बर्द्धमारभते, सत्तोदया इत्यादिरूपं, तत्पूर्वापरौ सुष्ठ परिभाष्य ज्ञातव्यम्। क०प्र०१० यथाऽष्टौ बद्धा सप्त बध्नाति, सप्त वा बद्धा षट् षड्डा बवा एकां, तदानीं स प्रक०। पं० सं०। बन्धोऽल्पतरः / तथा चाह- 'एगाई ऊणगम्मि बिइओ उ' एका- | संतगुणनासग पु० (सद्गुणनाशक) गुणापालके, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। दिभिरेकद्विव्यादिभिः प्रकृतिभिरूने बन्धे द्वितीयः प्रकारः अल्प- तर संतचित्त त्रि०(शान्तचित्त) उपशान्तमनसि, षो०११ विव०। इत्यर्थः / तथा स एव भूयस्कारोऽल्पतरो वा द्वितीयादिषु समयेषु संतच्छण न० (सन्तक्षण) समेकीभावेन तक्षणे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० तावन्मात्रतया प्रवर्तमानोऽवस्थित इति व्यपदेशं लभते / तथा चाह- १उ०। 'तत्तियमेत्तो तइओ' तावन्मात्रस्तृतीयोऽवस्थित इत्यर्थः / एते त्रयोऽपि संतजण न० (संतर्जन) विग्रहस्य परित्राणं मत्तो भविष्यतीत्यादिरूपे प्रकारा मूलप्रकृतीना सम्भवन्ति / चतुर्थस्तु न सम्भवति / न हि राज्यव्यवहार्यभदे, स्था० 3 टा०३ उ०। गूलप्रकृतीनां सर्वासा बन्धव्यवच्छेदे सति भूयोऽपि बन्धः सम्भवति येन संतति स्त्री० (सन्तति) सन्ताने, विशे०। उत्तरोत्तरनिरन्तरोत्पचतुर्थो बन्धः स्यात्। तत उत्तरकृप्रकृतीरधिकृत्य स वेदितव्यः / यथा त्तिरूपप्रवाहे, उत्त० 1 अ०। मोहनीयस्य तगतसर्वोत्तर प्रकृतिबन्धव्यवच्छेदे सति उपशान्त- संतत्तत्रि० (संतप्त) समन्तात् तप्ते, सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 1 उ०। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतत्ततव(स) 142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संति पृष्ठे।) संतत्ततव(स) पुं० (सन्तप्ततपस्) आहारादिनिमित्तं तपः कारिणि, पं० / सहितः सान्तरोत्तरः। सौत्रौर्णिकाभ्यां प्रावृते, कल्प०३ अधि० 6 क्षण। व०५ द्वार। आचा०। संतपय न० (सत्पद) सच तत्पदं च सत्पदम्। विद्यमानार्थे पदे, विशे०। | संतसंगम पुं० (सत्सङ्गम) सत्पुरुषसम्पर्के, षो० 13 विव०। संतपयपरूवणया स्त्री० (सत्पदप्ररूपणता) सच तत्पदं च सत्पदं तस्य | संतसण न० (संत्रसन) बासप्राप्तौ, उत० 2 अ०। उद्वेगे, उत्त० 2 अ० / प्ररूपणं सल्पदप्ररूपणम्। गत्यादिद्वारेषु विचारणम्। तद्धावस्तत्ता कस्मिन् | संतसार त्रि० (सत्सार) शोभनसारे, सूत्र० 2 2010 गत्यादिद्वारे इदं सदीत्येवं सतो विद्यमानस्यार्थस्य गत्यादिद्वारेषु | संतसोय त्रि० (शान्तश्रोतस्) शान्तप्रवाहे, द्वा० ११द्वा०। प्ररूपणायाम, विशे० 1 आ०म०1 आ० चू० न० / अनु० / इह स्तम्भ- संता स्त्री० (शान्ता) सुपार्श्वस्य शासनदेव्याम्, प्रव० / सा च सुवर्णवर्णा कुम्भादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते, खरशृङ्गव्योमकुसुमादीनि गजवाहना चतुर्भुजा वरदाक्षसूत्रयुक्तदक्षिणकरद्वया शूलाभययुक्तवात्वसदर्थविषयाणि, तत्रानुपूादिपदानि किं स्तम्भादिपदानीव सदर्थ- | महस्तद्वया च / प्रय० 27 द्वार। विषयाण्याहोश्वित् खरविषाणादिपदवत् असदर्थगोचराणीत्येतत्प्रथम संताचेल पुं० (सदचेल) सद्भिर्वस्वैरचेलाः सदचेलाः / जिनेभ्योऽन्येषु पर्यालोचयितव्यं तथाऽनुपूर्व्यादिपदाभिधेयद्रव्याणां प्रमाण संख्यास्वरूपं साधुषु, पञ्चा० 17 विव० (तत्त्वं चोक्तम् 'अचेल' शब्दे प्रथमभागे 188 प्ररूपणीयम् / अनु० / आम्म०। संतप्य-धा०[सं-तप] सम्यक् दुःखे, "संतपेझंझ" ||84140 / / संताण पु० (सन्तान) तन्तुजाले, आचा० 1 श्रु०८ अ० 6 उ०। आव०! इति झड्डादेशाभावे-संतप्पइ / प्रा०४ पाद। पं० व० / आ० चू० / प्रवाहे, आव० 4 अ० / औ / गुणानां समभागसंतबुद्धि स्त्री० (सद्बुद्धि) शोभनोऽयमित्येवं रूपायां शोभनायां बुद्धी, सन्ततानवरतप्रवृत्तौ, विशे०। हा०२६ अष्ट। संताणकर त्रि० (सत्त्राणकर) आर्तजनपरित्राणकारिणि, बृ० 1 30 संतमस न० (संतमस्) अन्धकारे, 'संतमसं अंधकार' पाइ० ना० 46 / २प्रक०। गाथा / ('अंधकार' शब्दे प्रथमभागे 105 पृष्ठे अस्य स्थित्यादि संताणभेद पुं० (सन्तानभेद) सन्तानश्वासौ भेदश्व संतानभेदः / निरूपणमुक्तम्।) क्षणप्रवाहविशेषे, हा०१४ अष्ट / संतय त्रि० (सन्तत) व्याप्ते. उत्त०२ अ०। निरन्तराले, विशे०। आचा०।। संताभाव पुं० (सद्भाव) सद्भावे सन्ति साधवः परं नधर्मकथादिषु कुशला निरन्तरे, पाइ० ना० 87 गाथा। इत्येवरूपे विद्यमानस्यार्थस्याभावे, व्य०६उ०। संतर न० (सान्तर) सहान्तरेण व्यवधानेन वर्तते इति सान्तरः। सव्यवधाने, संताव पु० (सन्ताप) मानसे क्लेशे, आ०म०१ अ० / 'संतावणिचए' उत्त० 5 अ०। स्वस्वकृते त्रिकालावस्थाने, बृ०२ उ०। (सान्तरं निरन्तर संतापः एकत्र शोकदिकातोऽन्यत्र चाऽग्निकृ तो नित्यं यत्र स वा उपपद्यन्ते इति उक्तम् 'उववाय' शब्दे द्वितीयभागे 617 पृष्ठे) संतापनित्यकः / प्रश्न०३ आश्र० द्वार। संतरण न० (सन्तरण) नद्यादेः पारगमने, अष्ट० 21 अष्ट० / आव०। संतावणकिच्छ न० (सन्तापनकृच्छ्र) "त्र्यहमुष्णं पिवेदम्बु,त्र्यहमुष्णं धृतं ('णदीसंतार' शब्दे चतुर्थभागे 1738 पृष्ठे सन्तरणविधिदर्शितः।) पिर्वत / त्र्यहमुष्णं पिवेन्मूत्र, त्र्यहमुष्ण पिवेत् पयः / / 1 / / " इत्येवंरूपे संतरणिरन्तरा स्त्री० (सान्तरनिरन्तरा) यासां कर्मप्रकृतीना जघन्यतः तपोभेदे, द्वा०१२ द्वा०। समयमात्रमुत्कर्षतः समयादारभ्य नैरन्तर्येणान्तर्मुहूर्तस्योपर्यपि संतावणी स्त्री० (सन्तापनी) सन्तापयतीति संतापनी। नरककुम्भ्याम, असंख्येयकालं यावत्तादृशीषु कर्मप्रकृतिषु, पं०सं० 3 द्वार। संतरणोपाय पुं० (सन्तरणोपाय) पारंगमनोपाये, अष्ट० 22 अष्ट०।। सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ01 संतरयणदित्ति खी० (सद्रत्नदीप्ति) सद्रत्नस्य जात्यरत्नस्य स्वभावत संतासंतसत्ति पुं० (सदसच्छक्ति) सद्भावेनासद्भावेन वाऽशक्ते, लत्र एव क्षारमृत्पुटपाकाद्यभावेऽपि भास्वररूपस्य या दीप्तिः। सद्रत्नप्रकाशे, सद्भावो न लब्धमन्नं प्रान्तं तेन क्षामीभूतोऽसद्भावो यथा-तृमि षो०११ विव०। भक्ष्यस्यैवाभावः स तथा क्षामीभूतो विहर्तुमशक्नुवन् / व्य० 4 उ०। संतरा स्त्री० (सान्तरा) यासां प्रकृतीनां जघन्यतः समयमात्रबन्धस्तासु संति स्वी० (शान्ति) मोक्षे, स्था० 8 ठा० 3 उ०। सूत्र० / कर्मदाहोपशमे, कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३द्वार। (एताश्च 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 266 पृष्ट सूत्र०१ श्रु०३ अ० 4 उ०! अशेषद्वन्द्वोपरमे, सूत्र० 1 श्रु० 14 अ० दर्शिताः।) क्रोधजये. सूत्र०१ श्रु०१६ अ० / द्रोहविरतौ, प्रश्न०१ संव० द्वार। संतरित्तए अव्य० (सन्तरितुम्) भूयःप्रत्यागन्तुमित्यर्थे , साङ्गत्येन शमनं-शान्तिः। अहिंसायाम्, आचा० 1 श्रु०६ अ०५ उ० / शान्तिःनावादिना तरितुमित्यर्थे , वृ० 4 उ०1 उपशमप्रशमसंवेग-निर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणसम्यगसंतरुत्तर त्रि० (सान्तरोत्तर) आन्तरः सौत्रकल्पः, उत्तर और्णिकस्ताभ्या | दर्शनज्ञानचरणकलापैः शान्तिरुच्यते / निराबाधमोक्षास्पशान्ति Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संति 143 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संति प्रासिकारणत्वात तस्य आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ० / अशेषकर्मापगमेमोक्षे, आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ० / मिथ्यात्वादिदावालनविध्मापनात सामायिके, आ०म०१ अ०। शान्तियोगात्तदात्मकत्वात कर्तृकत्वाद्वा शान्तिरिति / तथा गर्भस्थे पूर्वोत्पन्ना शिवशान्तिरभूदिति शान्तिः / ध० 2 अधि० / आ०म० / भरते वर्षे वर्तमानावसर्पिण्या जाते षोडशे तीर्थंकरे. आ०चू. 1 अ०। इदानीं शान्यात्मकत्वात् शान्तिः तत्र सर्व एव तीर्थकृत एवं रूपा अतो विशेषमाहजातो असिवोवसमो, गब्भगते तेण संति जिणो।। पूर्व महदशिवभासीत् भगवति तु गर्भगते जातः अशिवोपशमस्तेन कारणेन शान्तिजिनः। आ०म०२ अ०। अनु० / प्रव०। ति०। आ०चूल। राः / “रमरणं यस्य सत्त्वाना, तीव्रपापौघशान्तये / उत्कृष्टगुणरूपाय, तरमै श्रीशान्तय नमः / / 1 / / " श्रा०। ('तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे सम्पूर्णोऽधिकार उक्तः।) चइत्ता भारहं वासं,चक्कवट्टी महड्डिओ। सन्ती संतिकरेलोए, पत्तो गइमणुत्तरं॥३८|| पुनः शान्तिः शान्तिनाथः प्रस्तावात्पञ्चमश्चक्री अनुत्तरागतिं प्राप्तः मोक्ष प्राप्तः / कथम्भूतः शान्तिः? लोके शान्तिकरः शान्तिं करोतीति शान्तिकरः इति विशेषणेन तीर्थङ्करत्वं प्रतिपादितं षोडशस्तीर्थकरः शान्तिनाथो, मोक्षं जगाम इत्यर्थः / किं कृत्वा भारत वासं त्यक्त्वा भरतस्य इदं भारतं भरतक्षेत्रसंपन्धि वासम् इति-राज्यवासम्। कीदृशः शान्तिः? चक्रवर्ती महर्द्धिकः इत्यनेन शान्तेश्चक्रवर्तित्वं तीर्थकरत्वं च प्रतिपादितम् / / 3 / / अत्र शान्तिनाथदृष्टान्तःइहैव जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे वैताढ्यपर्वते रयनू पुरचक्रवालं नाम नगरमस्ति / तत्र राजा अमिततेजा परिवसति / तस्य सुतारा नानी भागिनी वर्तते। सा च पोतनाऽधिपतिना श्रीविजयराजेन परिणीता / अन्यदाऽमिततेजोराजः पोतनपुरे श्रीविजयसुतारादर्शनार्थ गतः / प्रेक्षते च प्रमुदितमुच्छ्रितपताकं सर्वमपि पुरं विशेषतश्च राजकुलम्। ततो विस्मितलोचनोऽमित-तेजोराजो गगनतलादुत्तीर्ण : गतश्व राजभवनमभ्युत्थानादिसत्कृतः श्रीविजयेन कृतमुचितं करणीयमुपविष्टः सिंहारानेऽमित-तेजोराजः पप्रच्छ नगरोत्सवकारणम्। यतः श्रीविजय एव प्राह-यथा इतोऽष्टमे दिवसे मदन्तिके एको नैमित्तकः समायातः, मदनुज्ञाते सिंहासने उपविष्टः पृष्टश्च मया किमागमनप्रयोजनम्? तास्तेन भणितं महाराज ! मया निमित्तभवलोकितं यथा पोतनाधिपतेरूपरि इतो दिवसात्सप्तमे दिवसे मध्याह्नसमये विद्युत्पतिष्यति। इदं च कर्णकटुकं वचः श्रुत्वा मन्त्रिणाभणितंतदानीं तवो-परिक पतिष्यति? तेनोक्तं मा कुप्यत यथा मयोपलब्ध नितित्तं तथा भवता ततोऽहं प्राप्तयो वनः पूर्वदतकन्याया भ्रातृभिरूत्प्रवाजितः कर्मपरिणतिवशेन सा मया परिणीता / तेन मया सर्वज्ञप्रणीतनिमित्तानुसारेण प्रला कितम यथा-सप्तमं दिवसे पोतनाधिपतेरूपरि विद्युत्पातो भविष्यति / एवं तेन नैमित्तिकेनोक्ते एकेन मन्त्रिणा भणितम्-यथा महाराज ! समुद्रमध्ये वाहनान्तर्भवद्भिः सप्तदिवसात् यावत् स्थेयम्, तत्र विद्युन्नपरा भवति / अन्येन मन्त्रिणा भणित-दैवयोगोऽन्यथा कर्तुन तीर्यते,यत उक्तम-"धारिजइ इन्तो सागरो विकल्लोलभिन्नकुलसेलो। न हुअन्नजम्मनिम्मिअ-सुहासुहो कम्मपरिणामो" ||1|| अपरेण मन्त्रिणा भणितम्-पोतनाधिपतेर्वधोऽनेन समादिष्टो नपुनः श्रीविजयराजस्य ततः सप्तमदिवसात यावदपरः कोऽपि पोतनाधिपतिर्विधीयते, सरप्युक्तमयमुपायः साधुः मयोक्तं गज्जीवितरक्षाकृतेऽपरजीववधः कथं क्रियते सर्वरुक्तं तर्हि यक्षप्रतिमाया राज्याभिषेकः क्रियते, एवं मन्त्रयित्वा सरपि यक्षप्रतिमा पोतनपुरराज्येऽभिषिक्ता, सप्तदिवसान्यावत् मया पौषधागारे गत्वा पौषधा एव कृताः। सप्तमदिवसमध्याह्नसमये गगनमार्गेऽकस्मान् मेघः समुत्पन्नः, स्फुरिता विद्युल्लता, इतस्ततः परिभ्रम्य यक्षप्रतिमा विनाशिता, अष्टमे दिवसे चाहं पौषधशालातो निर्गत्य क्षेमेण स्वभवने समायातः, तं नैमित्तिक कनकरत्नादिभिः पूजितवान: पुनरह नागरिकैः पोतनराज्ये अभिषिक्तः, तदिदमस्मिन्नगरे विविधमहोत्सवकारणमिति श्रीविजयेनोक्तेऽमिततेजाः प्राह- अविसम्बादनिमित्तं शोभनो रक्षणोपाय इत्युक्त्वा अमिततेजोराजःस्वस्थानं गतवान् / अन्यदा श्रीविजयराजः सुतारया समं वने रन्तुं गतः सुतारया तत्र कनकमृगा दृष्टः श्रीविजयस्योक्तं स्वामिन् ! ममैनं मृगमानीय देहि। मम क्रीडार्थ भवष्यिति। ततः श्रीविजयराजा तद्ग्रहणार्थ स्वयमेव प्रधावितो, नष्टो मृगस्तत्पृष्टि राजा न त्यजति कियन्ती भुवं गत्वा उत्पतितो मृगः, तावता सुतारा कुर्कुटसर्पण दष्टा पूचकार। अहं कुर्कुटसर्पण दष्टा हा प्रिय ! मां त्रायस्वेति श्रुत्वा श्रीविजयस्त्वरित पश्चादायातः तावता सुतारा पञ्चत्वमुपागता। राजा च शोक-परवसस्तया समं चितायां प्रविष्टः उद्दीप्तो ज्वलनः ताक्ता स्तोकवेलायां समागतौ द्वौ विद्याधरौ / तत्र एकेन सलिलमभिमन्त्र्य चिता सिक्ता वैतालिनी विद्या नष्टा, राजा स्वस्थो जातो बभाण च-किमिदमिति?, विद्याधराभ्यां भणितमावाममिततेजसः स्वकीयो जिनवन्दन-निमित्तमाकाशमार्गे भ्रमन्ती अशनिघोषविद्याधरणापहियमाणायाः सुतारायाः आक्रन्दशब्दं श्रुतवन्तौ तन्मोचनार्थमावाभ्या युवमारब्धम्। ततः सुतारया च प्रोक्तमलं युद्धेन यथा महाराजः श्रीविजयो वैतालिनीविद्यामोहितो जीवितं न परित्यजति तथा तदुद्याने गत्वा शीघ्रं कुरुताम् / तत आवामिहायाती दृष्टस्त्वं वैतालिन्या सम चितारूढः / अभिमन्त्र्य जलेन सिक्ता चिता नष्टा सा दुष्टवैतालिनी। स्वस्थावस्थस्त्वमुत्थित इति। अपह्रता सुतारां ज्ञात्वा विषण्णः श्रीविजयो राजा भणितश्च ताभ्यां राजन् ! खेदं मा कुरू, सपापः क्यास्यति? इत्यादिवचनैः श्रीविजयराजानमाश्वास्य तौ विद्याधरौ अमिततेजःसमीपं गतौ / ततोऽमिततेजःप्रेषित विद्याधररचितविमानैः स श्रीविजयोऽपि अमिततेजः समीप हिरण्यवृष्टिः पतिष्यति। मया भणितं त्वयैतन्निमित्तं क्व पठितम् ? तेन भणितं मया त्रिपृष्ठवासुदेवभ्रात्रचलबलदेवदीक्षासमये पित्रा समं मयाऽपि प्रव्रज्या गृहीता नत्रानेकशास्त्राभ्ययनं कुर्वताऽष्टाङ्ग निमित्तमप्यधीतम्।। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संति 144 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 7 संति गतः / अमिततेजः श्रीविजयाभ्यां ससैन्याभ्यां गत्वा तन्नगरं वेष्टितमशनिघोषान्तिके दूतः प्रेषितः तयोरागमनं श्रुत्वाऽशनिघोषो नष्टः उत्पन्न केवलस्य अचलस्य समीपे गतः / अमिततेजःश्रीविजयावपि | ततपृष्ठतस्तत्रायातौ, सर्वेऽपि गतमत्सरा धर्म शृण्वन्ति। एकेन अमिततेजोविद्याधरण सुताराऽपि तत्रानीता। लब्धावसरेणाशनिघोषेण भणित न मया दुष्टभावेन सुतारा अपहृता किं तु विद्यां साधयित्वा गच्छता मया इयं दृष्टा, पूर्वस्नेहेन इमां त्यक्तुं न शक्नोमीति वैतालिन्या विद्यया श्रीविजय मोहयित्वा सुतारा गृहीत्वा स्वनगरे गतः / नास्याः शीलभङ्गमकार्ष तथापि ममात्राथै योऽपराधः स क्षन्तव्य इत्याकर्ण्य अमिततेजसा भणितम् -भगवन् ! किं पुनः कारणमेतस्य अस्यां स्नेहोऽभूत् / ततोऽचलकेवली कथयति-मगधदेशेऽचलग्रामे धरणीजको नाम विप्रस्तस्य कपिला नाम चेटी तस्याः पुत्रः कपिलो नाम, तेन कर्णश्रवणमात्रेण विद्या शिक्षिता, गतश्च देशान्तरे "रत्नपुरं" नाम नगरम। तत्र कस्यचिदु-पाध्यायस्य मठे गतःउपाध्यायेन पृष्टःकस्त्वम् ?, कुत आगतः?, कपिलेनोक्तमचलग्रामे धरणीजढविप्रसुतः कपिलनामाऽहं विद्यार्थी अत्रायातस्तव समीपमिति / उपाध्यायेन स बहुमान स्वगृहे रक्षितः, विद्यामध्याप्य स्वपुत्री तस्य दत्ता सत्यभामा नाम्नी। अन्यदा वर्षाकाले स कपिलो रात्रौ स्ववस्त्राणि कक्षायां कृत्वा वर्षत्येव मेघे स्वगृहद्वारे समायातः। सत्यभामा च अयं स्तिमितवस्त्रो भविष्यतीति चिन्तयन्ती अपराणि वरवाणि गृहीत्वा गृहद्वारे सन्मुखमायाता / कपिलेन तस्या उक्तम. अस्ति मम प्रभावो येन वस्त्राणि न स्तिम्यन्ति. तावता विद्युत्प्रकाशे तया स नग्नो दृष्टः / ज्ञातं चायं नग्न एव समायातो वस्त्राणि कक्षायां च निहितवानित्यवश्यमयं हीनकुल इति सा कपिले मन्दस्नेहा जाता। अन्यदा धरणिजढो विप्रस्तत्र कपिलसमीपे समायातः,सत्यभामा च पितापुत्रयोर्विरूद्धमाचारं दृष्ट्वा परमार्थ पृष्टोधरणिजढविप्रः / तेन यथार्थ कथितं तच्छुत्वोद्विग्ना सत्यभामा कामभोगेभ्यो निर्विण्णा प्रव्रज्याग्रहणनिमित्तं पृष्ठः कपिलः, न मुञ्चत्येष कपिलः तदा इयं गता तन्निवासिश्रीषेणराजसमीपं बभाण च / भो राजन् ! मां कपिलसमीयान्मोचय, येनाहं दीक्षां गृह्णामि / राज्ञा कपिल-स्योक्तम्, कपिलो न मन्यते / राज्ञा पुनस्तस्या उक्तं, तावत् त्वं मम गृहे तिष्ठ यावत् कपिल बोधयामीति। अन्यदा स राजा स्वपुत्रौ गणिकानिमित्तं युध्यमानौ दृष्ट्वा वैराग्येण विष भक्षितवान् / ततः सिंहनन्दिताऽभिनन्दितानाम्न्यौ श्रीषेणनृपस्य भार्ये कपिलस्य भार्या सत्यभामा च विषप्रयोगेण कालं गताः / चत्वारोऽप्यमी जीवा देवकुरुषु युगलत्वेनोत्पन्नाः। ततः सौधर्मे कल्पे गताः। ततश्च्युत्वा श्रीषणजीवोऽमिततेजा जातः / अभिनन्दिता जीवः श्रीविजयो जातः, सत्यभामा जीवः सुतारा जाता, स कपिलजीवस्तिर्यग्भवेषु चिरकालं भ्रान्त्वा क्वचित्तथाविधमनुष्ठानं कृत्वाऽशनिघोषः समुत्पन्नः सुतारां च सत्यभामाबाह्मणीजीवं दृष्ट्वा पूर्वस्नेहेन अपहृत्य गतः। पुनरप्यमिततेजसा पृष्ट भगवन्नह किं भविको न वा? अचलकेवलिना कथितं त्वम्? भविकः, इतच नवमे भवे तीर्थकरो भविष्यसि, एषोऽपि श्रीविजयस्तव गणधरो भविष्यति / तत एतदाकामिततेजः श्रीविजयनृपी अचलकेवलिन | वन्दित्वा गतौ स्वस्वस्थानम् / अन्यदा अमिततेजःश्रीविजयाभ्यामुद्यानगताभ्यां चारणश्रमणाभ्यामवधिज्ञानेन ज्ञात्वा उक्तम्- यथा षड्विंशतिदिनानि भवतोयोरप्यायुः ततस्ताभ्यां मेरौ गत्वा कृतोऽष्टाहिकामहोत्सवः स्वस्वराज्ये च गत्वा स्वस्वपुत्रौ अभिषिच्य जगन्नन्दनमुनिसमीपे संयममादाय पादपोपगमनमनशनं च विहितम्। विधिना काल कृत्वा प्राणते कल्पे विंशतिसागरोपमायुर्वेदवत्वेनोत्पन्नौ ततश्च्युतौ इहैव जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे रमणीविजये शीताया महानद्या दक्षिणकूले सुभगायां नगर्या प्रेमसागरस्य राज्ञो वसुन्धराऽनङ्ग सुन्दर्योर्महाग क्रमेण कुमारत्वेनोत्पन्नौ अमिततेजोजीवोऽपराजितनामा, श्रीविजयजीवोऽनन्तवीर्यनामा जातः / तत्रापि प्रतिशत्रुरिदमिता व्यापाद्य क्रमेण बलदेव वासुदेवत्वमापन्नौ। तयोश्च पिता प्रव्रज्याविधानेन मृत्वाऽसुरकुमारेन्द्रत्वेनोत्पन्नः। अनन्तवीर्यस्तु कालं कृत्वा द्विचत्वारिंशत्सहरत्रवर्षायुनारक: प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नः, चमरश्च पुत्रस्नेहेन तत्र गत्वा वेदनोपशमं चकार / सोऽपि संविग्नः सम्यक् सहते। अपराजितो बलदेवो भ्रातृविरहदुःखितो निक्षिप्तपुत्रराज्यो जगद्धरगणधरसमीपे निष्क्रान्तः / शुद्धा प्रवज्यां परिपाल्य अच्युतेन्द्रत्वेनोत्पन्नः। अनन्तवीर्यस्तु, नरकादुदवृत्य वैताढये विद्या-धरत्वेनोत्पन्नः अच्युक्तेन्द्रेण प्रतिबोधितोऽसौ प्रव्रज्यां गृहीत्वाऽच्युतकल्पे इन्द्रः सामानिकत्वेनोत्पन्नः / अपराजितोऽच्युतेन्द्रस्ततश्च्युक्त्वा इहैव जम्बूद्वीपे शीतामहानदीदक्षिणकूले मङ्गलावतीविजये रत्नसंचयापुर्या क्षेमंकरो राजा; तस्य भार्या रत्नमाला, तयोः पुत्रो वज्रायुधाभिधानो जातः / इतश्च श्रीविजयजीवो देवापुरप्रतिष्ठितम्। अन्यदा पौषधशालायां स्थितो वज्रायुधो देवेन्द्रेण प्रशंसितः, यथाऽयं वज्रायुधो धर्माचालयितुं न शक्यते देवैर्दानवैश्च / तत एको देवस्तद्वाक्यमश्रद्दधानः पारापतरूप विक-य॑ भयभ्रान्तो वज्रायुधमाश्रितः। हे वज्रायुध ! तव शरणं ममास्तु इति मनुष्यभाषयोवाच / वज्रायुधेन तस्य शरणं दत्तम्, स्थितस्तदन्तिके पारापतः। तदनन्तरं तवैवागतो लावकः / तेनापि भणितम्-यथा महासत्त्व ! एष मया क्षुधाक्लान्तेन प्राप्तः, ततो मुञ्चैनमन्यथा नास्ति मम जीवितमिति / ततस्तद्ववनमाकर्ण्य वज्रायुधेन भणित न युक्तं शरणागतसमर्पणम्। तवापि न युक्तमेतत्, यतः"हंतूण परप्पाणे, अप्पाणं जो करेइ सप्पाणं / अप्पाणं दिवसराणं, क एस नासेइ अप्पाणं / / 1 / " यथा जीवितं तव प्रियं सर्वेषामपि जीवानां तथैवास्ति, एनं भयभ्रान्तं दीनं व्यापादयितुं तव न युक्तमाधर्म्म कुरु। पापं मुञ्च / लावकः प्रतिभणतिराजन्नह बुभुक्षितः न मे मनसि धर्मस्तिष्ठति / ततः पुनरपि भणितं राज्ञा-भो महासत्त्व ! यदि बुभुक्षितस्त्वं ततोऽन्यत्तव मांसं ददामि। लावकः प्रतिभणति-स्वयं व्यापादितजीयमांसाश्यस्म्यहं न च रोचते मां परव्यापादितमासम् / राज्ञा भणितम्यावन्मात्रेण पारापतस्तुलति तावन्मात्र मांसं ददामि / सोऽप्यवदत यदि त्वं स्वदेहादुत्कीर्य मांस ददासि तदाऽहं मुशामि तदाज्ञा प्रतिपन्नं ततस्तुष्टो लावकः / राज्ञा च तुला आनायिता एकस्मिन पायें पारापतः प्रक्षिप्तः, एकस्मिन्पार्श्वे स्वदेहादुत्कीर्णमांसारोपो वि 18 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संति 145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संतिण्णसम हितः / राजा यथा यथा तत्र मांसं प्रक्षिपति तथा तथा अन्यत्र पार्श्वे (सू० 840x) स०४० सम० / पारापतो गुरुतरो देवमायया भवति। राजा पुनःपुनः स्वदेहमांसमन्यत्र संतिस्स णं अरहओ नउइगणा नउइगणहरा होत्था। क्षिपति / तं दृष्ट्वा राजलोकः समस्तो हाहारवं चकार पारापतपार्वे (सू०६०+) गुरुभारभवेक्ष्य स्वमांसपार्श्वे राजा स्वयमारूढः / एतादृशं वज्रायुधस्य शान्तिनाथस्येह नवतिर्गणा गणधराश्चोक्ताः / अवश्यके तुपञ्चनसत्त्वं दृष्ट्वा विस्मितो देवः स्वं रूपं प्रकटीकृत्य प्रकामं स्तुत्वा च स्वस्थान वतिरजितस्य षट्त्रिंशत्तु शान्तेरूक्तास्तदिदमपि मतान्तरमिति। स० गतवान् / अन्यदा वज्रायुधसहस्रायुधौ पितापुत्रौ क्षेमकरगणधरसमीपे १०समा जातवैराग्यौ सहस्रायुधसुतं बलिं राज्येऽभिषिच्य प्रव्रज्यापर्यायं च संतिस्स णं अरहओ एगणनउइ अज्जासाहस्सिओ उक्कोसिया परिपाल्य पादपोपगमनविधिना कालं कृत्वा द्वावपि जनावुपरितन- अज्जियासंपया होत्था। [सू०५६+] ग्रे वेयके एकत्रिंशत्सागरोपमस्थितिको अहमिन्द्रदेवौ जातो इह शान्तिजिनस्यैकोननवोत्तरार्यिकासहस्राण्युक्तान्यावश्यक अहमिन्द्रसौख्यमनुभूयततश्च्युतौ इहैव जम्बूद्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावती त्वेकषष्टिः सहस्राणि शतानि च षडभिधीयन्ते इति मतान्तरमेतदिति। विजये पुण्डरीकिण्या नगर्या घनरथो राजा तस्य द्वे महादेव्यो पद्मावती स०८६ सम०। मनोरमती च तयोर्गर्भे जातौ, वज्रायुधो मेघरथः, सहस्रायुधो दृढस्थ संतिस्सणं अरहओतेणउइचतुद्दसपुट्विसया होत्था। श्चेति वृद्धिं गतौ। ततः कृतं ताभ्यां कलाग्रहणं तौ द्वौ राज्ये स्थापयित्वा [सू०६३x] स०६२ सम०। घनरथः स्वयं दीक्षां गहीत्वा केवलज्ञानमुत्पाद्य तीर्थंकरो जातः / / श्रान्ति स्त्री० पापोपशमहेतौ अध्ययनपद्धती, उत्त० 12 अ०। तयोर्मघरथदृढ रथयोः पूर्वभवाभ्यासतो जिनधर्मदक्षताऽभूत् / संतिकम्म न० (शान्तिकर्मन्) दुरितोषशमक्रियायाम, भ०११ 2011 अधिगतजीवाजीवादिभावौ तौ सुश्रावको जातौ / अन्यदा उ० / अग्नि कारिकादिके (प्रश्र०२ आश्र० द्वार / ) ग्रहोपशमपितुस्तीर्थकरस्य समीपे द्वावपि जनौ निजपुत्र राज्येऽभिषिच्य प्रव्रजितौ। नार्थे बलिकरणादिके, स्था०५ ठा०३ उ० / विघ्रोपशमकर्मणि, ज्ञा० तत्राऽधीतसूत्राऽर्थेन मेघरथेन विशतिस्थानकैः समर्जितं 1 श्रु०१अ० / होमादिके, स्था० 8 ठा० 3 उ० / तीर्थकरनामगोत्र, दृढ रथेन शुद्ध चारिप्रमाराधितम् / द्वावपि संतिकम्मत न० (शान्तिकर्मान्त) शान्तिकर्मगृहे, यत्र शान्ति कर्म क्रियते / संलेखनाविधिना कालं कृत्वाऽनुत्तरोपपातिकेषु देवेषु उत्पन्नो, तत्र आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ० 2 उ०। सर्वार्थसिद्धविमानेऽनर्गलं सुखमनुभूय मेघरथकुमारस्ततश्चयुत्वा इहैव संतिगय त्रि० (शान्तिगत) पूर्वोक्तप्रकारां शान्ति गताःप्राप्ताः जम्बूद्वीपे भरते क्षेत्रे हस्तिनागपुरे विश्वसेनस्य राज्ञोऽचिरादेव्याः कुक्षौ शान्तिगताः / शान्तौ वा स्थिताः शान्तिगताः। ज्ञानदर्शनचारित्राख्येषु भाद्रपदकृष्णसप्तम्यां चतुर्दशत्रपसूचितः पुत्रत्वेनोत्पन्नः / पुनः ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशीदिने जन्मास्यसंजातः। चतुःषष्टि सुरेन्द्रैरपि मोक्षमार्ग स्थितेषु, आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ० / जन्माभिषेकः कृतः। उचितसमये गर्भस्थे चास्मिन् भगवति सर्वदेशेषु संतिगर पुं० (शान्तिकर) क्षुद्रोपद्रवेषु शान्तिकृत्सु ,ल०। शान्तितिति शान्तिरिति नाम कृतं मातापितृभ्याम् / क्रमेणासौ संतिगिह न० (शान्तिगृह) शान्तिकर्मस्थाने, भ०३ श०७ उ०। सर्वकलाकुशलो जातः, यौवन प्राप्तः, विवाहितःप्रवरराजकन्याः, क्रमेण संतिघर न० (शान्तिगृह) शान्तिकर्मस्थाने, कल्प० 1 अधि० 4 क्षण। राज्ये स्थापितः, पित्रा चारित्रं गृहीतं, शान्तेश्चक्रवर्तिपदवी समायाता, यत्र राज्ञां शान्तिकर्म होमादि क्रियते। स्था० 5 ठा० 170 / उत्पन्नानि चतुर्दश रत्नानि, साधितं भरतम्, षट्खण्डराज्यं परिपाल्य संतिचंदगणि पुं० (शान्तिचन्द्रगणिन्) अजितशान्तिस्तवषष्ठोउचितावसरे स्वयं संबुद्धोऽपिलोकान्तिकामरैः प्रतिबोधितः, सांवत्सारं पाइटीकयोः कर्तरि सकलचन्द्रवाचकशिष्ये, तेन च तौ ग्रन्थौ 1651 दानं दत्त्वा ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्यां चक्रिभोगांस्त्यक्त्वा निष्क्रान्तः / चतु- विक्रमसंवत्सरे विरचितौ, जै० इ०। निसमन्वितस्य उद्यतविहारं कुर्वतः पौषशुद्धनवम्या केवलज्ञान संतिजल न० (शान्तिजल) शान्त्यर्थ मन्त्रपाठपूर्वकं मस्तके दातव्ये जले, समुत्पन्नम्, देवैः समवसरणं कृतं, भगवता धर्मदेशना प्रारब्धा, प्रवाजिता ___ शान्तिपानीये, ध० 2 अधिः / गणधराः, प्रतिबोधिता बहवः प्राणिनः / क्रमेण विहत्य भरतक्षेत्रे संतिणाह पुं० (शान्तिनाथ) शान्तितीर्थकृति, प्रव० 27 द्वार। बोधिबीजमुप्त्वा क्षीणसर्वकर्माशो ज्येष्ठकृष्णत्रयोदश्यां मोक्षं गत इति। | संतिणिव्वाण न० (शान्तिनिर्वाण) शान्तिः-कर्मादाहोपशमस्तेन च अस्य भगवतः कुमारत्वे पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि, माण्डलिकत्वेऽपि निर्वाण-मोक्षपदं-सर्वद्वन्द्वापगमरूपम् / अष्टकर्मक्षयरूपे मोक्षे, सूत्र० पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि, चक्रित्वे पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि, श्रामण्ये च / १श्रु० 3 अ०४ उ०। पञ्चविंशतिवर्पसहरत्राणि दीक्षापर्यायं सर्वायुश्च वर्षलक्षमेक जातमिति। संतिण्ण त्रि० (संतीर्ण) मुक्ते, सूत्र०१ श्रु० 2 अ० 3 उ०। उत्त०१८ अ०। संतिण्णसम त्रि० (संतीर्णसम) सांसरिकसुखस्य दुःखमयत्वद्रष्टरि संती अरहा चत्तालीसं घण्इं उर्ल्ड उधत्तेणं होत्था। मुक्तप्राये, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतिथय 146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथव संतिथय पुं० (शान्तिस्तव) शान्त्यर्थे देवस्तवपाठे, ध०२ अधि० | संथरंत त्रि० (संस्तरत्) विवक्षितानुष्ठानवाहनसमर्थे, व्य० 2 उ०। संतिदास पुं० (शान्तिदास) धर्मसंग्रहवृत्तिकृतो मानविजयस्य संथरण न० (संस्तरण) प्रासुकैषणीयाहारादिप्राप्तौ साधूनां निवहि, ध० धर्मसंग्रहवृत्तिकरणप्रार्थके, ध० 3 अधि० / (शान्तिदासस्य वृत्तं / २अधि०। (अत्रत्या व्याख्या 'ठवणाकुल' शब्दे चतुर्थभागे 1660 पृष्टे 'धम्मसंगह' शब्दे चतुर्थभागे 2732 पृष्ठे गतम्।) गता / ) (त्रिविधं संस्तरणम्जधन्यं, मध्यमम्, उत्कृष्ट च / संतिदेवया स्त्री० (शान्तिदेवता) शान्तिसुरे, शान्तिकारिण्यां देवतायाम, तत्राऽऽचार्यादीनामाचारः 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 23 पृष्टे गतः / ) पञ्चा० 16 विव०। संस्तारककरणे, सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 2 उ०। संतिविजय पुं० (शान्तिविजय) धर्मसंग्रहवृत्तिकारकमानविजयसूरिगुरौ / संथरमाण त्रि० (संस्तरत्) विद्यमाने, 'संथरमाणेहिं जणवएहि' आचा० विजयानन्दसूरिशिष्ये, ध०३ अधि० / 2 श्रु० 1 चू० 3 अ० 1 उ०। प्रतिपन्नप्रतिमापरिपालनक्षमे, संस्तरन् संतिविरइ स्त्री० (शान्तिविरति) शान्तिरूपशमःक्रोधजयस्तत्प्रधाना नाम उच्यते-यः सूत्रोक्तविधिना प्रतिमाप्रतिपत्तियोग्यतामुपगतः प्राणातिपातिभ्यो विरतिः शान्तिविरतिः। क्रोधजयार्थ विरमणे, सूत्र० मासिक्यादीनां च प्रतिमानां मध्ये या प्रतिमा प्रतिपन्नस्ता सम्यक् 2 श्रु०१ अ०। परिपालयितु क्षमस्तस्य संस्तरतो विधिः। बृ० 1 उ०२ प्रक०। संतिसूरि पुं० (शान्तिसूरि) थारापद्रीयगच्छे विजयसिंहसूरि शिष्ये, संथव पुं० (संस्तव) संस्त्वनं संस्तवः। दातुर्गुणविकत्थने, तेन सहात्मनः वादतुष्टेन भोजराजेनास्मै 'वादिवेताल' इति विरूदमर्पितमनेनैव __ सम्बन्धविकत्थने च ! बृ०१ उ०३ प्रक०। परिचय, प्रत्यासत्तौ, सूत्र० उत्तराध्ययनटीका रचिता, या पाई टीकेति प्रसिद्धा। दिगम्बरविजेता 1 श्रु०४ अ०१ उ०। स्नेहे, उत्त०५ अ०1 सूत्र० / स्वरूपज्ञानादुत्पन्ने देवसूरिरस्यैव विद्याशिष्य आसीत् / वीरसूरिशालिभद्रसूरि- परिचये, उत्त० 28 अ०। एकासने स्थित्वा परिचये, उत्तः 16 अ० / सर्वदेवसूरयश्चेति त्रयः पट्टशिष्या आसन् / विक्रमीय 1066 वर्षे अयं अभिष्वङ्गे . सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। कामसम्बन्धे, सूत्र०१ श्रु०२ स्वर्गतः। जै० इ०। अ०३ उ० / गृहगमनालापदानसंप्रीणनादिरूपे परिचये, सूत्र० 1 श्रु०४ संतिसेणीय पुं० (शान्तिश्रेणिक) स्थविरस्यार्यशिष्यस्य प्रथमे शिष्ये, . अ० 130 / सहसंवासे, सूत्र० 1 श्रु० 6. अ० / दर्श० ! बृ० / एकत्र कल्प०२ अधि०८ क्षण। संवासात परस्परालापादिजनिते परिचये, ध० 2 अधि० / अभ्यासे, संतुयट्ट त्रि० (सन्त्वग्वर्त) शयिते, ज्ञा० 1 श्रु०१३ अ०। आव० 1 अ० / श्रा० / संयासजनिते परिचये, सहवासभोजनालासंतुयट्टण न० (सन्त्वग्वर्त्तन) सत्यक्त्वग्वर्तन शयने, व्य० 5 उ01 पादिलक्षणे स्नेहे, आव० 6 अ०। आ०चू० / सूत्र० / पञ्चा० / संतोदत्त पुं० (शान्तोदात्त) शान्तस्तथाविधेन्द्रियकषायविकारविकलः, निजपटप्रदर्शनेन लोकावर्जने, पिं० / प्रवका उदात्तः-उचोच्चतराद्याचरणस्थितिबद्धचित्तस्ततः शान्तश्वासावुदात्तश्च संस्तवपिण्डोन ग्राह्यः / सांप्रतं संस्तवपरिहारमाहशान्तोदात्तः। श्रद्धानुष्टानसाधनपरे सूक्ष्मभावसंयुक्त तत्त्वसंवेदनानुगे, गिहिणो जे पव्वइएण दिट्ठा, अपव्वइएण व संथुया हविज्ञा। यो०बि०। द्वा०॥ तेसिं इहलोयफलट्ठयाए, जो संथवं न करेइ स भिक्खू // 10 // संतोस पुं० (संतोष) अल्पेच्छायाम, स्था० 10 ठा०३ उ०। संतुष्टौ, गृहिणः-गृहस्था ये प्रव्रजितेन गृहीतदीक्षेण दृष्टा उपलक्षणत्वापञ्चा०१ विव०। द्वा०। सर्वद्वन्द्वोपरमरूपे, सूत्र०२ श्रु०६०। “संतोषः त्परिचिताश्च अप्रव्रजितेन वा गृहस्थावस्थेन सह संस्तुताः परिचिता परम सौख्यम्" / हा०२६ अष्ट1 "विश्वस्यापि स वल्लभो गुणगणस्तं भवेयुहिणो य इति संबन्धः 'तेसिं' ति तैरूभयावस्थयोः परिचितैहिसंश्रयत्यन्वह, तेनेयं समलंकृता वसुमती तस्मै नमः सततम् / / भिरिहलौकिकफलार्थवस्त्रपात्रादिलाभनिमित्तं यः संस्तवं-परिचयं न तस्मादन्यतमः समस्ति न परस्तस्यानुगा कामधुक, तस्मिन्नाश्रयता करोति स भिक्षुरिति सूत्रार्थः / उत्त० 16 अ०। यसासि दधते संतोषभाक् यः सदा।।१।।" 0 201 अधि० 11 गुण। पुरे संथवं करेइसंतोसि (ण) पुं० (सन्तोषिन्) येन केनचित् संतुष्ट अवीतरागे, सूत्र० जो भिक्खू पुरे संथवं करेइ करतं वा साइज्जइ // 237 // 1 श्रु०१२ अ०। संथवो-थुती अदत्ते दाणे पुव्वं संथवो, दिण्णे पच्छा सथवो जो तं करेति संथड त्रि० (संस्तृत) कृतसंस्तारे, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०३ उ०। / सातिजति वा तस्स मासलहुं / अहवा-सयणे पुत्वपच्छ-संथवं करेति! संथडिय त्रि० (संस्तृत) समर्थे, तद्विवसं पर्याप्तभोजिनि च / बृ० 4 उ० / अत्र नियुक्तिमाहसंथणण न० (सस्तनन) अत्यर्थ सशब्दनिःश्वासे, सूत्र०१ श्रु०२ अ० दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य संथवो मुणेयव्वो। ३उ०। अत्तपरतदुभए वा, एकेको सो पुणो दुविधो // 238|| संथर पुं० (संस्तर) द्रव्यादिरहितकाले, दर्श०४ तत्त्व। साह आत्मसंस्त्वं करोति, साहू उभयस्स वि सं स्तव क Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथव 147 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथव रोति। अहवा-आत्मना संस्तव करोति इति आत्मसंस्तवः। साहू गिहत्थं थुणति एस आत्मस्तवः, गिहत्थो साधु थुणति एस परस्तवः, दो वि. परोप्परं एस उभयस्तवः। एतेसिं एक्केको पुण दुविहो संतासंतोय। दव्वे खेत्ते काले संथवो इमो / गाहादव्वे पुट्ठमपुछे, परिहीणधणा तु पुव्वयंती उ। खेत्तेकतरा खेत्ता, कम्मिवतो दिक्खितो काले|२३|| दव्वसंथवो परेणे पुच्छिओ-तुम सो ईसरो आमंति; भणाति / सो पुण तहा संतो वा असंतो वा पुच्छितो भणाति अमुगणामधेयं तुम इस्सरं ण याणसि तो एवं भणति परिहीणधणा पव्वयंति त्ति परिहीणधणो - दरिद्रेत्यर्थः, एवं परेण किंदितो समुन्नुइतो परं णिभं काउं अप्पाणं पि थुणाति यथा भवानैश्वर्ययुक्तः तथा अहमप्यासीत् / खेत्तसंथवो कतरातो तुम चेव सरिसव्वतोहं / अथवा-प्रथमवयंसि णिविट्ठो णिविस्समाणो वा। भावे संथवो दुविहो-सयणे, वयणे य। सयणे ताव इमो। गाहासयणे कस्स सरिसओ,आमंतुसिणीऍपुच्छई कोवा। आउट्टणाणिमित्तं, वयणे आउट्टिओवाऽवि॥२४०।। केणइ पुच्छिओ जो सो इंददत्तभाया पव्वतितो सो तुम सरिसो दीससि / सो भणाइ-आम, तुसिणीओ वा अच्छति भणति वा को एरिसाणि पुच्छति / इदाणिं वयणसंथवो अदित्ते दाणे पुव्वं करेति, आउट्टणाणिमित्तं वर में आउट्टितो इट्ट दाणं देहिति। दाणण वा दत्तेण आराहितो पच्छा वयणसंथवं करेति। एस संखेवो भणितो इदाणीं वित्थारोसंखेवभणियस्स वाइम वक्खाण। तत्थ दव्वसंथवो इमो चउसहिप्पगारो। गाहधण्णाई रतणथावर, दुपदचतुप्पद तहेव कुवियं वा। चउवीसं चउवीसं, तियदुगदसहा अणेगविधं / / 241 / / धण्णादियाणं कुवियपज्जवसाणाणं छहं पच्छद्धणं जहासंखं संखा भणिता। गाहाधण्णणि चतुव्वीसं, जव गोहुम सालि वीहि सट्ठी य। कोद्दव अणवा कंगू, रालग तिल मुग्ग मासा य // 242 / / बृहच्छिरा कंगू, अल्पतरशिरा रालकः / गाहाअतसि हिरिमंथतिपुडग, णिप्फावसलिसिदरायमासा य। इक्खू मसूर तुवरी, कुलत्थ तह धाणगकलाया / / 243 / / अतसी मालवे प्रसिद्धा, हेरिमंथा वट्टणगं, तिपुडालगा चणगा, णिप्फावा वल्ला, अलिसिदा चवलगा, रायमासा पंडरचलगा, धाणा कुंथुभरी, वट्टचणगा। गाहारयणाई चउवीस, सुवण्णतवुतंबुरयतलोहाइं। सीसगहिरण्णपासा-ण वेरमणमोत्तियपबालो॥२४४|| संखतिणिसा अगुलुचं-दणा. वत्थामिलाई कट्ठाई। तह दंत चम्मबाला, गंधा दव्वोसहाइं च / / 245 / / रयत-रूप्पं हिरण-रूपका पाषाणा स्फटिकादयः मणिः सूरचन्द्रकांतादयः, तिणिसा रूक्खकट्ठा अगलुं-अगरूं यानि न म्लायन्ते शीघ्रतानि अमिलातानि वस्त्राणि कट्टा शाकादिस्तम्भा दंता हस्त्यादीनां, चम्मा वग्घाणं, वाला चमरीणं, गंधयुक्तिकृता गंधा एक गंध, औषधंद्रव्यं बहुद्रव्यसमुदायादौषध। त्रिविधं थावरं / गाहाभूमिघरतरूगणादी, तिविधं पुण थावरं समासेणं। चक्कारवद्धमाणुस, दुविधं पुण होति दुपयं तु॥२४६|| भूमीधरं केल्लाघरं खातमियमुभय तिविधं, तरूगणा-आम्रवणारामादि दुपय दुविधं होदि अरगबद्ध मानुसं च। दसविधं चतुष्पदं / गाहागावी महिसी उट्टी, अय एलग आस आसतरगाय। घोडग गद्दभ हत्थी, चतुप्पदा होति दसधातु॥२४७|| आसतरगा अस्सतरी। कुप्पोवकरणं णाणाविहं / गाहाणाणाविहो विकरणं, लक्खणकुप्पं समासतो होति। चतुसद्विपगारोत्तं, एवं भणितो भवे अत्थो।।२४८|| कुप्पोवकरणं णाणाविहं अणेगलक्खणं तच्च कंसभंड लोहभांडताम्रमयं मृन्मयादि च 2 / 4 / 2 / 4 व्ह 3 / 2 / 10 / 1 / एष सर्वोपि संपिण्डितः चतुःषष्टिप्रकारोऽभिहितः। आत्मपरसंस्तवोपसंहारनिमित्तमिदमाहचतुसट्ठिपगारेणं, जाधव अटेण उवचितोसि त्ति। किं अप्पसंथवेणं, कातण एमेव अहयं पी॥२४६।। यथा त्वं चतुःषष्टिप्रकारेणोपपेतस्तथाऽहमप्यासं किं वाऽऽत्मसंस्तवेनेति / इयाणिं खेत्तसंस्तवोपेतं / गाहाअम्हा साहू देसी, एगग्गामेगणगरवत्थे य। पुण्णाओ खेत्ताओ, अम्हं मो पुच्छिओ वत्ती॥२५०।। जइ भणति लोइयं तू, पुण्णं खेत्तं तहिं भवे गुरुगा। अह आरूह तं अम्ह वि, जिणजम्मादी तहिं लहुओ // 251 / / गिहिणा पुच्छितो कम्मि देसे अजो उप्पण्णो साहू भणतिकुरूखेत्ते, गिही भणति-अम्ह साहू देसीएण गामणगरउप्पण्णो गिहिणा पुच्छिओ कहिं गामम्मि त्ति साहू भणति, कुरूखेत्ते एवं जइलोइयं पुण्णखेत्तं भणति तो चतुगुरु, लोउत्तरे लहुओ। इदाणी कालसंथवो गिहिणा पुच्छिओ कम्मि वए पव्वतितो भणाति / गाहाएवइयम्मि य जम्मे, परियाओ वि मम्झ एवतिओ। भयणसमत्थ णिविट्ठो, णिव्विसमाणो पसूतो वा / / 252|| एवइओं में जम्मो पवजाए वा एवतितो मयणसमत्थो वा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथव 148 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथव पटवइतो णिविट्ठो परिणीओ णिव्विसमाणो विवाहदिणे ठविए पसूयपुत्तो जाओ। इदाणि णिस्साकतं जाओ। नि०चू०२ उ०। गाहासुत्तणिवातो नियमा, चतुविधे संथवम्मि संतम्मि। मोत्तूण सयणसंथव,तं सेवं तम्मि आणादी॥२६३।। सुत्तणिवातो दव्वादिचतुविहे संथवे संतम्मि मासलहुँ, मोत्तूण सयणसंथवं सयणसंथवे पुण इमं पुरिससथवे चउलहू इत्थीसंथवे चउगरूँ, चउविहे विदव्यातिएसंथवे आणादिया दोसा, कारणे पुण संथवं करेजति। गाहाअधिकरण-रायदुढे, गेलण्णद्धाण-संभमभए वा। पुरिसित्थीसंबंधे,समणाणं संजतीणं च॥२६४|| गिहत्थेण समं अहिकरणमुप्पण्णं तस्स उवसमणट्ठाए पुव्वं चतुम्विहं पि दव्वातिय संतं करेंति, पच्छा असंतं पि। एवं रायदुढे वि उवसमणट्टता गिलाणोसहणिमित्तं वा अद्धाण संभमभएसु, संताणठ्ठया वा 'पुरिसित्थि' ति एएहि कारणहिं संजताण संजतीण वा। 'पुरिसित्थि' ति संबंधो भवेज वयणसयणक्रमप्रदर्शनार्थ इदमाह / गाहावयसंथवसंतेणं, पुव्वथुणे पुरिससंथवेतत्तो। णातित्थिगतेणं वा, भाइयवजं च इतरेणं / / 265|| पुब्वि वयसंथवेणं संतेणं, पच्छा पुरिससंथवेणं पुवावरेण संतेणं ततो पच्छाणातित्थिगतेणं संतेणं ततो भाइयवज इतरेण पच्छा संथवेण संतेण ततो पच्छा वयणादि असंतेण। गाहापुव्वे अवरे य पदे, एसेव गमो उ होइ समणीणं / जह समणाणं गुरुई, इत्थी तह तासि पुरिसा उ॥२६६।। संजतीणं एसेव गमो, जहा समणाणं इत्थी गुरुगा, तहासमणीणं पुरिसा | गुरुगा। सूत्रजे भिक्खू समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगामं दुइज्जमाणे पुरे संथुतियाणि वा पच्छा संथुइयाणि वा कुलाइं पुव्वामेव अणुपवेसित्ता पच्छा वा भिक्खायरियाए अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइजइ॥३८|| समाणो नाम समवेतः अप्रवसितः को सोवुड्डावासः वसमा णो उड्डबद्धिए अह्रमासे वासावासं वणवम एवं णयविहं विहारतो वसमाणो भण्णति, अनुपश्चादभावे गामातो अण्णो गामो अणुगामो दोसुपाएसु सिसिरगिम्हेसु वारिजति त्ति दूइजति। पुरे संथुता मातापितादी, इच्छा संथुता सुसराती, कुलशब्दः प्रत्येकं भिक्खाकालातो पुदिव अप्राप्ते भिक्खाकाले इत्यर्थः / अनुप्रवेशो पच्छा भिक्खाकाले अतिक्रांतेत्यर्थः / एवं अप्राप्त अतिक्रांते वा पविसंत साइजति-अनुमोदते मासलहुं 'से' पच्छित्त। एस सुत्तत्थो। | नि०चू० 2 उ०। पं० चू० / दर्श०। व्य०। संस्तवनं व्याख्यानयतिसुत्तेण अत्थेण य उत्तमो उ, आगाढपण्णेसुय भावियप्पा। जच्चन्निओ यावि विसुद्धभावो, संते गुणेवं पविकत्थयंतो॥४७॥ सूत्रेण अर्थेन च एष उत्तमः-प्रधानः परिपूर्णः सूत्रस्यार्थस्य चावदातस्यास्य संभवात् / तथा आगाढा प्रज्ञा येषु व्याप्रियते न था काचन तान्यागाढप्रज्ञानि शास्त्राणि तेषु भावितात्मा तात्पर्यग्राहितया तत्रातीव निष्पन्नमतिरिति भावः / तथा जात्या सकलजनप्रशस्ययान्वितोयुक्तो जात्यन्वितः, तथा विशुद्धः-स्वपरसंसारनिस्तारेणेकतानतयाऽवदातो भावःअभिप्रायो यस्य स विशुद्धभावः, एवंभूतो गुणान् गणधारिणः शिष्या अपरे च प्रकर्षतो हर्षातिरेकलक्षणतो विकत्थयन्ते-लाध्यन्ते / व्य० 3 उ०। संस्तवः परिचयः तस्याभिष्वङ्ग हेतुत्वात्। द्वाविंशे परिग्रहे, प्रश्नः 5 आश्रद्वार। से भिक्खूवा भिक्खुणीवावसमाणे वागामाणुगामवादूइज्ज-माणे से जंपुण जाणेज्जा गामवा.जाव रायहाणिं वा इमंसि खलु गामंसि वा.जाव रायहाणिंसि वा संतेगतियस्स मिक्खुस्स पुरे-संथुया वा पच्छासंथुया वा परिवसंति, तं जहा- गाहावई वा०जाव कम्मकरी वा तहप्पगाराई कुलाइंणो पुवामेव भत्ताए वा णिक्खमिज्ज वा पविसिज वा, केवली बूया-आयाणमेयं, पुरा पेहाएतस्स परो अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवकरेज वा उवक्खडेज वा अह भिक्खू णं पुव्वोवदिट्ठा. 4 जंणो तहप्पगाराइंकुलाइंपुव्वामेव भत्ताए वा पाणाए वा पविसेज वा णिक्खमिज वा 2 से तमायाय एगंतमवक्कमिज्जा २,अणावायमसंलोए चिट्ठज्जा,से तत्थ कालेणं अणुपविसेज्जा 2 तत्थेतरेतरेहिं कुलेहिं सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहारं आहारेजा, सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आहाकम्मियं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा उवकरेज वा उवक्खडेज वा। तं चेगतिओ तुसिणीतो उवेहेज्जा आहडमेवं पच्चाइक्खिस्सामि माइट्ठाणं संफासे, णो एवं करेजा से पुव्वामेव आलोएज्जा आउसो त्तिवा भगिणि तिवाणोखलु मे कप्पति आहाकम्मियं असणंवा पाणं वाखामंवा साइमंवा भोत्तएवापायए वामा उवकरेहिमाउवक्खडेहि से सेवं वयं तस्स परो आहाकम्मियं असणं वा०४ उवक्खडावित्ता आहट्ट दलएज्जा तहप्पगारं असणं वा०४ अफासुयं लाभे संते णो पडिगाहेजा। (सू० 50) स भिक्षुर्यत् पुनरेवं जानीयात्, तद्यथा-ग्राम वा यावद्राजधानी वा- अस्मिश्च गृामादौ सन्ति-विद्यन्ते कस्यचिदिक्षा: पूर्व संस्तुताः पितृव्यादयः, पश्चात्संस्तुता वाश्वशुरादयः, ते Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथव 146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथवपिंड चतत्र बद्धगृहाः प्रबन्धेन प्रतिवसन्ति ते चामी गृहपतिर्वा यावत्कर्मकरी ___ गिहिसंथवसंबंधं, करेइ पुव्वं च पच्छा वा // 48 // वा तथाप्रकाराणि च कुलानि भक्तपानाद्यर्थ न प्रविशेन्नापि निष्क्रामेत्। मातापित्रादिरूपतया यः संस्तवः-परिचयः स पूर्वसंस्तवो मात्रादीना स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह- केवली बूयात्-कोपादानमेतत् पूर्वकालभावित्वात् / यस्तु श्वश्रूश्वशुरादिरूपतया संस्तवः स पक्षाकिमिति?, यतः पूर्वमवैतत्प्रत्युपेक्षेत-पयालोचयेत्, यथैतस्य भिक्षोः संस्तवः / श्वश्रूवादीनां पश्चात्कालभावित्वात्। तत्र साधुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः कृते परोगृहस्थोऽशनाद्यर्थम् उपकुर्यात्- ढोकयेत् उपकरणजातम् सन गृहिभिः सह संस्तवसंबन्धं-परिचयघटनम् पूर्वपूर्वकाल'उवक्खडेजति तदशनादि पचे-द्वेति / अथ-अनन्तरं भिक्षणां भाविमात्रादिरूपतया पश्चाता पश्चात्कलभाविश्वश्रूवादिरूपतया वा पूर्वोपदिष्टमेतत्पतिज्ञादि, यथानो तथाप्रकाराणि स्वजनसम्बन्धीनि करोति। कुलानि पूर्वमेवभिक्षाकालादारत एव भक्ताद्यर्थ प्रविशेद्वा निष्क्रामेद्वेति / कथमित्याहयद्विधेयं तदर्शयति-'से तमादाये' त्ति स-साधुःएतत्-स्वजनकुलम् आयवयं परवयं, नाउंसंबंध एतयणुरुवं / आदाय-ज्ञात्वा केनचित्स्वजनेनाज्ञात एवैकान्तमपक्रामेद्, अपक्रम्य च, मममाया एरिसिया, ससाय धूयावनत्ताई॥४८३|| स्वजनाद्यनापातेऽनालोके च तिष्ठेत्, स च तत्र स्वजनसम्बद्धगामादी इह साधुर्भिक्षार्थ गृहे प्रविष्टः सन्नाहारलम्पटतया आत्मवयः परवयश्च कालेनभिक्षावसरेणानुप्रविशेत, अनुप्रविश्य च इतरेतरेभ्यः कुलेभ्यः- ज्ञात्वा तदनुरूप वयोऽनुरूपं संबध्नाति, यदि सा वयोवृद्धा स्वयं च स्वजनरहितेभ्यः 'एसिय' ति-एषणीयम्उद्रमादिदोषरहितं 'वेसिय' ति मध्यमवयास्ततो ममेद्दशी माताऽभूदिति बूते / यदि पुनः साऽपि वेषमात्रादवाप्तनुत्पादनादिदोषरहित पिण्ड-पातंभिक्षाम् एषित्वा- मध्यमवयास्तत ईदृशी मम स्वसाऽभूदिति वदति / अथ वालयास्ततो अन्विष्य एवं भूतं ग्रासेषणादोषरहितमाहारमाहारयेदिति / आचा. दुहिता नप्ता वेत्यादि। (उत्पादनादोषाः ग्रारोषणादोषाश्च स्वस्वस्थानादवगन्तव्याः / ) संप्रत्यस्यैव पूर्वरूपसंबन्धसंस्तवस्योदाहरणमाहग्रासषणादिदोषरहितः सन्नाहारमाहारयेदिति। अथ कदाचिदेवं स्यात्, अद्धिइ दिट्ठीपण्हव, पुच्छा कहणं ममेरिसीजणणी। स परः-गृहस्थः कालनानुप्रविष्टस्यापि भिक्षोराधाकर्मिकमशनादि थणखेवो संबंधो, विहवासुण्हाइदाणंच॥४८७|| विदध्यात्, तर कश्चित्साधुस्सूष्णीभावनोत्प्रेक्षेत, किमर्थम्?, आहतमेव कोऽपि साधुर्भिक्षार्थ प्रविष्टः काचिन्निजमातृसमानां स्वीमवेक्ष्य प्रत्याख्यास्यामीति, एवं च मातृस्थानं संस्पृशेत्, न चैवं कुर्यात, यथा च आहारादिलम्पटतया मातृस्थानेनाधृत्या दृष्टिप्रसवम्-ईषदश्रु-विमोचन कुर्यात्तदर्शयति-स पूर्वनेव आलोकयेत्-दत्तोपयोगो भवेत्, दृष्ट्वा चाहारं करोति / ततः 'पुच्छ' त्ति / सा स्त्री पृच्छति-किं त्वमधृतो दृश्यसे? रंस्क्रियमाणमेवं वदेद्-यथा अमुक ! इति वा भगिनि! इति वा न खलु इति / ततः साधोः कथनम्।मम ईदृशी त्वत्सदृशी जनन्यभूदिति। अत्र मम कल्पत आधाकर्मिक आहारो भोक्तुं वा पातुं वाऽतस्तदर्थ यत्नोन दोषानाह-ततस्तया मातृत्वप्रकटनार्थ साधुमुखे स्तनप्रक्षेपः क्रियते। विधेयः / अथैवं वदतोऽपि पर आधाकर्मादि कुर्यात्ततो लाभे सति न परस्परं च संबन्धः सेहवृद्धिरूपो जायते। तथा विधवा स्नुषादिदानं च प्रतिगृह्णीयादिति / / आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६ उ०। कतरि प्रत्यये। करोति मृतपुत्रस्य स्थाने अयं मे पुत्र इति बुद्ध्या स्वस्नुषादानं कुर्यात्। त्रि० / संस्तावके, ज्ञाः 1 श्रु०१६ अ०। आदिशब्दात्स्नेहवशतो दास्यादिदानं च / उक्तं पूर्वसंबन्धिसंथवदाण न० (संस्तवदान) परिचयकरणे, व्य०७उ०। संस्तवोदाहरणम्। एवं पश्चात्संबन्धिसंस्तवोदाहरणमपि भवानीयम्। संथवपिंड 10 (संस्स्तवपिण्ड) पूर्व जननीजनकादिद्वारेण पश्चाच्च संप्रति पुनः पश्चात्संबन्धिसंस्तवे दोषानाहश्वश्रूस्वरसादिद्वारेणात्मपरिचयानुरूपं सम्बन्ध भिक्षार्थ घटयता ग्राह्ये पच्छा संथवदोसा,सासूविहवादिधूयदाणंच। पिण्डे, जीतः / ध०। भज्जा ममेरिसि चिय, सज्जो घाओ व (य) भंगो वा॥४८८|| संस्तवद्वारमाह पश्रात्संबन्धिसंस्तवे इमे दोषाः-श्वश्रूरीदृशी ममाऽऽसीदित्युक्ते सा दुविहो उसंथवो खलु, संबंधीवयणसंथवो चेव। विधवाया आदिशब्दात् कुरण्डादिरूपायाः सुताया दानं करोति, तथा एकेको विय दुविहो, पुवं पच्छायनायव्वो // 484|| भार्या ममेदृश्यभवदित्युक्ते यदि ईर्ष्यालुस्तदर्ता समीपे च वर्तते तदा द्विविधःखलु संस्तवः, तद्यथा-परिचयरूपः, श्लाघारूपश्च / तत्र | मम भार्याऽनेन स्वभार्या कल्पितेति विचिन्त्य साधोति कुर्यात् / परिचयरूपः सम्बन्धिसंस्तवः, श्लाघारूपो वचनसंस्तवः। तत्र अर्थालुस्तदर्ता न भवति, समीपे वा न वर्तते: तदा भार्याऽहमनेन संबन्धिनोमात्रादयः, श्वश्रवादयश्च / तद्रूपतया यः संस्तवः स कल्पितत्युन्मत्ता भार्यव समाचरन्ती चित्तक्षोभमापादयेत् ततो व्रतभङ्गः / संबन्धिसंस्तवः / वचन श्लाघा तद्रूपो यः संस्तवः स वचनसंस्तवः / एवं तावत्पूर्वसम्बन्धिसंस्तवस्य पश्चात्संबन्धिसंस्तएकैकोऽपि च द्विधा / तद्यथा 'पुटिव पच्छा य'त्ति पूर्वसस्तवः, वस्य च प्रत्येकमसाधारणान् दोषानभिधाय संपश्चात्संस्तवश्च। प्रत्युभयोरपि साधारणानभिधित्सुराहतत्र संबन्धिसंस्तवस्य द्विविधस्यापि स्वरूपमाह मायावी चडुयारी, अम्हं ओहावणं कुणइ एसो। मायपिइपुव्वसंथव, सासूसुसराइयाण पच्छा उ। निच्छुमणाई पंतो, करिज भद्देसु पडिबंधो।।४६६|| Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 150 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार अधतिदृष्टिप्ररनवाऽऽदि कुर्वन्मायावी एषोऽस्माकमावर्जनानिमित्तं चाटूनि प्रतिष्ठति / तथा-सस्तारकः प्रमोदाय। करोतीति निन्दा, तथाऽस्माकं स्वस्य कार्पटिकप्रायस्य जनन्यादि- 'भूइगहणं जह नग्गयाणं' ति पाठः / भूतिग्रहणं-भस्मादानं प्रथमतो कल्पनेनापभ्राजनं विधत्ते, ततः एवं विचिन्त्य प्रान्तः स्वगृहनिष्काशनादि दीक्षाग्रहणकाले नग्रस्य भावो नाग्न्यं तेषां नाग्न्यानां - सरजस्कानां करोति / अथ ते गृहिणो भद्रा भवेयु-स्तर्हि तेषु भद्रेषु साधोरूपरि प्रथमभरमावगुण्टनं तेषां यथैवेति यथा तथा संस्तारकः। अवमाणयं च प्रतिबन्धो भवेत्, प्रतिबन्धे च सत्याधाकर्मादिकं कृत्वा दयादिति। उक्तो वज्जाणं' ति- 'अचः अची' ति अवशब्दाकारलोपात् 'अवज्जाणं' ति द्विविधोऽपि सम्बन्धिसंस्तवः। जातम्, 'अवजाणं' ति-ज्ञातव्यम्-अवमानकं च पूजनकं च न वद्यं पापं अथवचनसंस्तवस्य पूर्वरूपस्य लक्षणमाह येषां ते अवद्या निर्दोषास्तेषां निर्दूषणानां केनापि प्रत्यनीकेनापि गुणसंथवेण पुट्वं, संताऽसंतेण जो थुणिज्जाहि। तव्यलीकानां यथाऽयं पारदारिक इति, चौर इति, अभिमर इति, अपाङ दायारमदिन्नम्मी, सो पुटवं संथवो हवइ॥४६॥ ते य इति, सीतासुभद्रानामिव आरोपितकलङ्कानां ततोऽपि स्वयमेव गुणाः औदार्यादयः तेषां यः संस्तवः-प्रशंसारूपो वचनसंघातस्तेन ज्वलनप्रवेशादिना प्रतीतिदानेनोत्तारितकलङ्कानाम् / अवमानकं च सत्यरूपेणासत्यरूपेण वा यः साधुर्दातव्ये भक्तादावदत्ते सति दातार तोषाय ववज्झाणं च' पाठे पूर्ववदकारलोपे 'अवज्झाणं' ति भवति, तत्र स्तूयात्, स एष पूर्वसंस्तवो भवति। अवध्याना वधानर्हाणामपि विद्वेषिवचनतो वजत्वेन स्थापितानां अस्यैवोल्लेखं दर्शयति सुदर्शनसुजातादीनामिव देवताप्रातिहार्यतो निराकृतवध्यत्वदोषाणाम् एसो सो जस्स गुणा, वियरंति अवारिया दसदिसासु। अवमानकं च दधिवाहनादिनरेन्द्रेर्यथा प्रीतये तथाऽयं संस्तारक इति इहरा कहासु सुणिमो, पचक्खं अज्ज दिट्ठोऽसि // 461|| 'मल्लाण च पडाग' त्ति-यथा मल्लाना मर्द्धनकमल्लादीनामिव 'उल्लेणि अट्ठणे सुगमम् / नवरं, 'इहरा' इतरथा, इदानी दर्शनात् पूर्वमित्यर्थः / खलु, सीहगिरिसो पारयमि / पुहवई मच्छिमल्लो, दूरिल्लकाविया सम्प्रति पश्चाद्रूपस्य वचनसंस्तवस्य लक्षणमाह फलिहमल्ले य' इत्येतस्मिन्प्रबन्धे अट्टनक उज्जयिनीतो गत्वा प्रतिवर्ष गुणसंथवेण पच्छा, संतासंतेण जो थुणिज्जाहि। मात्सिकमल्लपताकामवहतवान् अपहरतश्च यथा तस्य तोषस्तथा दायारं दिन्नम्मि, सोपच्छा संथवो होइ॥४६२|| संस्तारक इति गाथार्थः / दत्ते भक्तादौ सति पश्चात् दातारं गुणसंस्तवेन सत्यरूपेणाऽसत्यरूपेण वेरूलिय व्व मणीणं, गोसीसगचंदणं व गंधाणं। वा यः साधुः स्तूयात् एष पश्चात्संस्तवो भवति। जह व रयणेसु वयरं, तह संथारो सुविहियाणं // 4| संप्रति तस्यैवोल्लेखं दर्शयति यथा मणीना सूर्यादिमणीनां मध्ये विषापहाररोगोपशमादिना विमलीकय म्ह चक्खू, जहत्थया वियरिया गुणा तुझं। सातिशयगुणेन वैडूर्यमणिः सर्वोत्तमस्तथाऽयमपि / 'गोसीसगचंदणं व आसि पुरा मे संका, संपय निस्संकियं जायं // 463|| गंधाणं' ति-यथा गोशीर्षकचन्दनं निर्विकारत्वेन निर्मलस्थिरगन्धत्वेन भिक्षार्थ प्रविष्टः साधुर्लब्धे भक्तादौ दातारं वक्ति, यथा- निजदर्शनन गन्धेषु मध्ये प्रशस्यते तथाऽयमपि यद्यपि कस्तूरिकाया अपि सातिशयत्वया विमलीकृते नः चक्षुषी तथा यथास्तिवगुणाः सर्वत्रापि विचरिताः / गन्धोऽस्ति तथापि सर्व निकृष्टवर्णा समला च,तथा यद्यपि घनसारः तथा पुरापूर्व में शङ्का आसीत् यादृक गुणः श्रूयते स किं तादृश सारतरवर्णस्तथाप्यस्थायिगन्धो दुर्वर्णासारसंसर्गभाक् च, अतो न एवोतान्यादृश इति / संप्रति तु त्वयि दृष्टे निःशङ्कित मे हृदय जातम् / तयोर्गन्धः प्रशस्यते 'जह व रयणेसु वयरंति' -यथा रत्नेषु इन्द्रनीलकउक्तं संस्तवद्वारम्। पिं०। तनादिषु मध्ये महामूल्यत्वेन प्रशस्यते वज्ररत्नं च। यदाहसंथार पुं० (संस्तार) संस्तरन्ति साधवोऽस्मिन्निति संस्तारः / उयाश्रये, व्य० 4 उ० / संस्तीर्यते भूपीठे विस्तार्यते शयालुभिरिति संस्तारः / "ज जहमुल्लं रयणं, तं जाणइ रयणवाणिओ निउणो। पर्यन्तक्रिया कुर्वद्भिर्द दिविस्तरणे, संथा। थोवं तु महलस्स, विकासविअप्पस्स वि बडु व / / 1 / / अथैकोनविंशत्या गाथाभिः संस्तारकमाहात्म्यमेवाह अहवा कायमणिस्स य, सुमहल्लस्सावि कागिणी मुलं / भूइग्गहणं जह न-क्याण अवमाणयं च वजाणं। वयरस्स उ अप्परस वि, मुल्ल होही सयसहस्सं // 2 // मल्लाणं च पडागा, तह संथारो सुविहियाणं / / 3 / / वेरूलिय व्व मणीणं, गोसीसं चंदणं व गंधाणं / 'जहन्नक्कयाण' ति-यथा न्यक्तानां - पराभूतानां निराकृताना जह व रयणेसु वयर, तह संथारो सुविहियाण / / 4 / / " पित्रादिसकाशात् भागमलभमानाना राजादिविज्ञपनेन भूतिग्रहण यथा मणीना-सूर्यादिमणीनां मध्ये विषापहाररोगोपशमादिना विभूतिलाभो महते तोषाय, देवानां वा स्वर्गादिस्थाननिष्काशिताना सातिशयः तथाऽयमपीति गाथार्थः / पुनरिन्द्रादिप्रलीकरणेन स्वर्गस्थान लाभः राज्ञा वा स्वराज्यान्नि- पुरिसवरपुंडरीओ, अरहाइव सव्वपुरिससीहाणं। छुटितानां पुनर्मित्रादिबलदलमीलनेन स्वराज्यप्राप्तिः, मन्त्रिणां वा महिलाण भगवईओ, जिणजणणीओ जयम्मि जहा / / 5 / / स्वपदच्यावितानां पुना राज्ञा व्यावर्जनेन स्वमुद्रावाप्तिः, श्रेष्ठिना वा 'पुरिसवर' त्ति-पुरूषाणां मध्ये वरः पुरूषवरः पुरूषवराणां स्वनगरान्निर्वासिताना महाजनसमावर्जनेन पुनः स्वपुरप्रवेशेन श्रेष्ठिपद- | मध्ये पुण्डरीक मिवक मलमिव यथा पुण्डरी के पङ्के जा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार तं जले च वृद्धिमुपगतं न पङ्केन लिप्यते नापि जलेन, किं तु जलोपरिवत्येव भवति एवमर्होऽपि तीर्थंकरः कामैर्जातो भोगवृद्धिमुपगतो न कामर्लिप्तो नापि भोगैः, किं तु त्रिभुवनोपर्येव जातः / पुण्डरीकमातपत्रं पुरुषवराणा पुण्डरीकमिव-आतपत्रमिव तद्धि आतपं निवारयति, अहोऽपि कतिपनिवारणसमर्थत्वात्तेनोपमीयते। यदि वा-पुण्डरीकश्वित्रकः पुरुषवराणां मध्ये पुण्डरीक इव। यथा स केनापि पशुजातीयन न पराभूयते एवमोऽपि त्रिषष्ट्यधिकैस्विभिःपाषण्डिकशतेन न कदापि पराभूयत इति / यथाऽर्हः सर्वोत्तमस्तथा संस्तारकोऽपीति महिलाण भगवईओ' ति यथा महिलानां मध्ये भगवत्यः पूज्या जिनजनन्या जिनमातररित्रभुवनस्यापि चतुःषष्टरपीन्द्राणां पूज्यत्वात् सत्यत्वाच सर्वोत्तमा जगति-त्रिभुवने तथाऽयमिति। वंसाणं जिणवंसो, सव्वकुलाणंच सावयकुलाई। सिद्धिगईव गईणं, मुत्तिसुहं सव्वसोक्खाणं |6|| वंशानाम-अन्वयाना मध्ये यथा जिनवंशः प्रधान तथा सर्वकुलानामुग्रादिकुलानां मध्ये श्रावककुलं प्रधानं धर्मस्य मूलबीजत्वात, तथा सर्वगतीनां नारकतिर्यग्नरामरलक्षणानां मन्ये सर्वश्रेष्ठा सिद्धिगतिः पुनरागमनाभावात् तथा-मुक्तिसुखं-सिद्धिसुखं सर्वसुखाना संसारिकाणांमध्ये साद्यपर्यवसित्वादुत्तमम् / यदाह (औ०)"न वि अस्थि माणुसाण, तं सुक्खं नो य सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सोक्खं, अच्वावाहं उवगयाणं / / 13 / / तत्थ य जरजम्मणे सा. रोगॅसोगॅतन्हाछुहाइयविमुक्को। साइअपज्जवसाण, कालमणंत सुहं लहई।।१॥" यथा तत प्रधान तथाऽयमपि। धम्माणं व अहिंसा, जणवयवयणाणसाहुवयणाणि। जिणवयणं वसुईणं,सुद्धीणं दंसणं व जहा / / 7 / / यथा धर्माणां दानादीनांमध्ये अहिंसा रक्षा त्रसस्थावरजीवानामुत्तमा यतस्तां विनान्योऽप्रमाणमेव / उक्त च"न तद्दानं न त्द्ध्यान न तज्ज्ञानं न तत्तपः। नसा दीक्षा न सा भिक्षा, दया यत्र न विद्यते / / 1 / / " तथा हारिभद्राष्टके"अहिंसैका मना मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी। अस्याः संरक्षणार्थ च, न्याय्य सत्यादिपालनम्।।५।" (अस्य व्याख्या अहिंसा शब्द) किंच"एक चिय इत्थ वयं, निद्दिट्ट जिणवरेहि सव्वेहि। पाणइवायविरमण-मक्सेसा तस्स रक्खट्ठा / / 3 / / किं ताए पढिआए, पयकोडीए पलालभूयाए। जत्थित्तियं न नायं, परस्स पीडान कायव्वा॥४॥" इति। यथा सर्वधर्माणामहिंसा तथाऽयमिति 'जणवयवयणाण साहुवयणाणि' त्ति जनपदवचनाना मध्ये यथा साधुवचनानि असत्यसत्यामृषावचनपरित्यागेन सत्यासत्यामृषारूपाणि निर्दोषाणि। यत आह (विशेषावश्यके)“सचा हिय सवामिह, संतो मुणओ गुणा पयत्था वा। तविवरीता मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा / / 375 / / अणहिगया जा तिसु विति, सद्दो चिय केवली असचमुसा। एया सभेयलक्खण, सोदाहरणा मुणेयव्वा / / 376 / / तत्र सत्या दशप्रकारा दर्शाते"जणव य 1 समय 2 ठवणा 3, नामे 4 रूवे 5 पडुच्च सच्चे य६ ववहार 7 भाव 8 जोगे, वसमे ओवम्म 10 सच्चे य॥१॥" (प्रज्ञा० 11 पद 165 सूत्र) तत्र जनपदसत्यं यथा उदकार्थे कोकणादिदेशरूढ्या पय इति वचनम् 1, सम्मतसत्यं यथा-समानेऽपि पड़ संभवे गोपालादीनामपि समतत्वेनारविन्दमेय पङ्कजमुच्यते न कुवलयादीनि 2, स्थापनासत्यजिनप्रतिमादिषु जिनादिव्यपदेशः३, नामसत्यं यथाकुलमवर्द्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते ४,रूपसत्यं यथा भावतोऽश्रमणोऽपि तदूपधारी श्रमण इत्युच्य 5, प्रतीतसत्यं यथा अनामिका कनिष्ठा प्रतीत्य दीर्घत्युच्यते, सेव मध्यमा प्रतीत्य ह्रस्वेति 6, व्यवहारसत्यं यथा गिरिगततृणादिषु दह्यमानेषु व्यवहारादिरिदह्यत इति 7, भावसत्यं यथा सत्यपि पश्चवर्णत्वे शुक्लत्वलक्षणभावोत्कटत्वात् शुक्ला वलाकेति योगसत्यं यथा दण्डयोगाद्दण्डी इत्यादि उपमासत्यं यथा समुद्रवत्तडाग इत्यादि 10. असत्यभाषाभेदाः 10 'कोहे १माणे 2 माया 3, लोभे 4 पिज्जे 5 तहेव दोसे य 6 / हास 7 भए 8 अक्खाइय 6, उवघाइय 6 निस्सिए 10 दसमा॥१॥' (प्रज्ञा० 11 पद 165 सूत्र) क्रोधनिश्रिताक्रोधाभिभूतोऽदासमपि दासं भणति 1, माननिश्रिता-अल्पधनोऽपि पृष्टः सन्नात्मोत्कर्षणाननुभूतमपि विभवादि अनुभूतमिति प्रकाशयति 2 मायानिश्रिता परस्य वञ्चनार्थ नात्रकाणि योजयति कूटक्रयं कथयति, स्यकीय क्रयाणक प्रशंसयति, परकीयं निन्दति, इन्द्रजालिकवेशकरो दृष्टि संबध्नाति 3 लोभनिश्रिता लुब्धनन्दस्येव सुवर्णमपि लोह भणतः अज्ञानां दायकानां रत्नमपि पाषाणं कर्पूरमपि लवर्ण पट्टसूत्रमपि सण इति भणति 4 प्रेमनिश्रिता- 'अइपमेण दोसेण हतब्वें'ति 5 दोषनिश्रितःतीर्थकरादीनामपि निन्दा करोति 6 हास्यनिश्रितःहास्येन सार्थवाहमकालगतमपि सार्थवाहिन्या अग्रतः कालगतः इति भणति 7 भयनिश्रिता स्वामिनमस्क रादि भयेन कर्मकरोऽहमिति प्राघू - र्णकोऽहमिति वा वदति,राजपुरुषगृहीतचोरो वा वदति नाहं चौरो यथा रोहिणेयः 8 आख्यायिका-कल्पितकथा धूख्यिायिका कमण्डलुमध्ये षण्मासानगतो दिगम्बरः पश्चाद्धस्ती इत्यादि उपघातनिश्रिता अचौरमपि चौर भणति एते छत्रिणो गच्छन्ति महाराजकत्वादिति ब्राह्मणो न हन्तव्यः, गौरवध्या, शेषजीवान-पत्त्या घातयति, सर्वजीवा न हन्तव्या इति वक्तव्यम्, 10 सत्यासत्यभाषाभेदाः 10 “उप्पन्न 1 विगय 2 मीसित, 3 जीव 4 मजीवे यजीअजीवे य 6 / तह मीसगा अणंता 7, परित 8 अद्धा य ह अवता 10" ||1 // (प्रज्ञा० 11 पद 165 सूत्र) उत्पन्न मिश्रा यथा व्यवहारे कस्यचित्समुत्पन्नं द्वितीयो वदतिअनेन पञ्चशता-नि विटिपितानि, एवं दश दारका जाता इत्यादि 1 विगत मिश्रे मार्ग स्तोकेऽपि व्यतीते बहुतरं गतमिति 2 उत्पन्नविगतमिश्रा-अमुकपुरे यथा दश दारका जाता दश चतुर्दा विगता इत्यभिदधतस्तन्न्यूनाधिकभावे 3 'जीवमीसए त्ति-अजीवजीवमिश्रंयथा तस्मिन्नेव कृमिराशौच जी Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 152 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार वराशिरिति 5 'जीवाजीवमीसए ति-जीवाजीवविषयं मिश्रं यथा तस्मिन्नेव जीविमृतकृमिराशौ प्रमाणजीवा मृता इत्यभिदधतस्तन्यूनाधिका च 6 / अनन्तमिश्रा यथा-वनस्पतिपत्राणि अनन्तानिनतु जन्स्वादि यतः सर्वोऽपि वणोऽनन्त इति वदतः७ प्रत्येकमिश्रा सर्वोऽपि वणः प्रत्येकमिश्र इति 8 / अद्धा मिश्रा अद्धा कालः घटिकाद्वये तिष्ठति रात्रिः पतिता अनुदितेऽपि आदित्ये वदति उत्तिष्ठति बहिर्घटिकाद्वयं चढितम् अद्धाद्वामिश्रा प्रहर-द्वयेऽपि अचढिते वदति प्रहरद्वयं चढितमिति 10, असत्याभूषाभाषाभेदाः 12- 'आमंतणि 1 आणयणी २,जायणि 3 तह पुच्छणी य 4 पन्नवणी५ / पचक्खाणी भासा 6, भासा इच्छा-णुलोमा य७।।१।। अणभिग्गहियो भासा 8 भासाय अभिग्गहम्मि बोधव्वा 6 / संसयकरणी भासा 10, वागढ 11 अव्वागडा 12 चेव / / 2 / / (प्रज्ञा०११ पद 165 सूत्र) आमंतणी -देवदत्त 1. आज्ञापनी काजपरस्स पवत्तणी, जहा अमुगं करेहि 2, जायणी-कस्स य वत्थुविसेसस्स देहि त्ति पराणि 3. पुच्छणी-अविज्ञात-स्य संविग्नस्य वा अर्थस्य यथा कीदृशो जीवो मोक्षो वा कथं वाधर्मो भवति 4 पन्नवणी शिष्यस्य उपदेशः 'पाणि वहा न नियत्ता, भवन्ति दीहा जया अरोगा य / एमाइयपन्नवणी, पन्नत्ता वीयरागेहिं 5 // 1 // ' प्रत्याख्यानी याचमानस्य अदित्सा मेऽतो मां मोयच-स्वेत्यादि प्रत्याख्यानरूपा 6 भाषा इच्छानुलोमा च प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा तदनुकूला . यथा कार्ये प्रेरितस्य एव-मस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः 7 अनभिगृहीता अर्थानभिग्रहेण या उच्यते डित्थादिवत् 8 भाषा चाभिग्रहेण बोद्धव्या / अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत् 6 संशया अनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरणी, यथासैन्धवशब्दःपुरुषलवणवाजिषु वर्तमान इति 10 व्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था 11 अव्याकृता गम्भीरशब्दार्था मन्मनाक्षरप्रयुक्ता वा अविभावितार्था / / 12 / / इति द्वाचत्वारिंशद्भाषाभेदविधिज्ञानां साधूना साधुत्वव्यवस्थितानां वचनानि जनपदवचनानां सामान्यजनवचनानां मध्ये शोभन्तेयतः। 'अविसंवादनयोगः, कायमनोवागजिह्यता चैव / सत्यं चतुर्विधं तजिनवरवचनेऽस्तिनान्यत्र / / 1 / / ' इति / यथा-संस्तारकः 'जिनवयणं व सुईणं' ति श्रूयन्त इति श्रुतयः श्रुतीनां मध्ये यथा जिनवचन तीर्थकरवचनमविसंवादितया सर्वसत्त्व हिततया च प्रधानम्। तथाहि"अविसंवादनयोगः, कायमनोवागजिह्यता चैव। सत्यं चतुर्विधं त-जिनवरवचनेऽस्ति नान्यत्र / / 1 / / सुलहा सुरलोयसिरी, रयणायरमेहला मही सुलहा। निव्वुइसु जह णियरुई, जिणरयणसुई जहा दुलहा / / 2 / / रिभियपयक्खरसरला, मिच्छ्यिरतिरिच्छसगरपरिणामा / नाणनिव्वाणीविणिजो-यण नीहारिणी जं च / / 3 / / नारयतिरियनरामर-संसारियसव्वदुक्खरोगाणं। जिणवयणमेगमोसह-मलक्खणपवग्गसुहियकयफलयं / / 4 / / " तथाऽयमपीति सुद्धीण दंसणं वजह' त्ति शोधन शुद्धिः तत्र द्रव्य-शुद्धिः भावशुद्धिश्च / द्रव्यशुद्धिर्जलाग्न्यादिका। उक्तं च- 'अंवर-जोहमहीणं, कमसो जह मलकल कपकीण | सहभागणयणसे सो, होहिंति / जलानलाइचा / 1 / ' भावशुद्धिस्तु सत्यमस्य कुचारित्राणि इति जलाग्न्यादिशुद्धी मध्ये यथा दर्शनं यथा ज्ञातसम्यक्त्वं पुनमिथ्यात्वागमनात् तन्महती शुद्धिस्तथाऽयमपीति भावः / कल्लाणं अन्भुदओ, देवाणं दुल्लहं तिहुयणम्मि। वत्तीसं देविंदा,जंतंझायंति एगमणा।।८।। कल्याणमारोग्यमणति-गच्छतीति कल्याणं निरुक्तं यथा प्रमोदाय तथाऽयमपीति। यद्धि कल्याणहेतुत्वात्कल्याणवत् इह शान्तिकर्मादिसंस्तारकप्रतिपत्तौ तु कर्मोपशमः। अभ्युदयो यथेयं राज्याभिषेकादिप्रीतये यथा भवति तथा स्वर्गापर्वगप्राप्तिहेतुत्वादस्य संस्तारकस्येति एषोऽप्यभ्युदयः। वत्तीस' ति-द्वात्रिंशतोऽपि देवेन्द्राः तत्र देशकल्पजाः विशन्ति। भावनाधिपाः चन्द्रादित्यौ च जम्बूद्वीपजौ रतद्वात्रिंशत्। शेषज्योतिष्केन्द्रव्यन्तरेन्द्राश्च तत्परिवारकल्पत्वादल्पर्द्धिकत्वाच्च न गणिताः 'जं तं ति' यं तं संस्तारकं ध्यायन्ति स्मरन्ति 'एणमणत्ति' एकाग्रमनसः सन्त इत्यर्थः। लद्धं तुतए एयं,पंडियमरणंतु जिणवरक्खायं। हंतूण कम्ममल्लं, सिद्धिपडागा तुमे लद्धा || लब्धं प्राप्तं तुरवधारणे 'तएं त्ति-त्वया हि क्षपक ! 'एय' तिपण्डितमरण संस्तारकप्रतिरूपं विशेष्यत्वेनाध्याहरणीय पण्डितमरणमुत्तमार्थप्रतिपत्तिरूपं त्वया प्राप्तमेवेत्यर्थः / कथंभूतं तदिति, जिनवराख्याततीर्थकरभणितम्। किं कृत्वेत्याह- 'हंतूण हत्वाविनाश्य 'कम्ममलं' ति कर्माण्येव मल्लः-सुभटः कर्ममल्लोऽष्टाचत्वारिंशदुत्तरप्रकृतिरूपस्त 'सिद्धिपडाग' ति सिद्धिः सुखहेतुत्वादाराधनायः पताके व पताका सिद्धिरेव पताका मोक्षपताका सा त्वया प्राप्त्यर्थः। झाणाण परमसुक्कं, नाणाणं केवलं जहा नाणं / परनिव्वाणंच तहा, कमेण भणियं जिणवरेहिं।।१०।। 'झाणाण' तिध्यायन्ते स्वस्वहेतुभिः स्मर्यन्त इति ध्यानानि रौद्रातधर्मशुक्लरूपाणि / तत्राद्यानां त्रयाणामिहानुपयोगित्वात् चतुर्थमेव स्वरूपत आर्षवचनैर्दश्यते। तथाहि- 'सुक्कं चउव्विहं चउप्पडोयारे पन्नत्ते, तं जहा-पुत्तवियक्के सवियारी 11 एगत्त-वियक्के अवियारी 2 / सुहमकिरिए अनियट्टी 3, समुच्छिन्नकिरिए अप्पडिवाई 4 / 'सुयनाणे उवउत्तो, अत्थम्मि य वंजणम्मि सवियारं / झायइ चउदसपुवी, पढम सुकं सरागो उ।१ सुयनाणे उवउत्तो, अत्थम्मि य वंजणम्मि अविधारं। अनियट्टिजवसपुव्वा, वीयं सुक्कं विगयरागो। 22, अथ संकमणं चेव तहावंजणसंकम, जोगसंकमणं चेव / पढमे झाणे नियच्छइ३ वीए झाणे न विजए 4 जोगे जोगेसु यथा पढमं वीयं जोगम्मि कमिवी, तइयं च कायइजोगे, चतुत्थं च अजोगिणो। पढमं वीयं च झाणाई झायंति पुय्यजाणणा उवसंतेहिं कसाएहि खीणे च महामुणी ६वीयस्स तइयस्स वि अंतरएय केवलनाणमुप्पज्जइ दुन्नी पुण्णझाणा पुव्वे केवलनाणिगा खीणमोहा झियायन्ति केवली दुन्नी उत्तरा७सिज्झिउकामो जीवो कार्य जोगं निरुभइ ताहे तस्स सुहुमउस्सासनिस्सासा 8 तत्थ य दुसमयतिइयं कम्म परमसायं इरियावहियं वज्झसुहुम-किरियं / अनियट्टी झाण भवइ, जो Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 153 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार गविरोहे य पुव्वपओगेण चतुत्थं समुच्छिन्नकिरियमप्पडिवायमाण। 'पढमवीया उ सक्काए, तइयं परमसुक्कए। चउत्थं उवरिल्लेहि, होइ झाण वियाहियं // 1 // , अणुत्तरेहिं वेदेहि, पढमवीएहि गच्छइ। उवरिल्लेहि झाणेहिं, सिज्झई नीरओ धुवं / / 2 / / ' अणुप्पेहा चउब्विहा-अवायाणुप्पेहा असुभाणुप्पेहा अणंतवत्तियाणुप्पेहा विपरिणामासुप्पेहा। जहत्थ आस तइअंवा य पिक्खइसंसारस्स असुमत्त अणंतत्तं सव्वभावविपरिणामियं / रवखणाणि चत्तारि तं जहा-विवेगो वि उस्सग्गे अवहे असमोहे सव्वसंजोगविवेय पिक्खइ। विउस्सग्गे सव्वोवहिमाइविउस्सग्गं करेइ। अव्वहे विन्नाणसपन्नो न वीहइ न चलइ असमीहे सुद्दोवमे अत्थेन संसुज्झइ ति। आलंबणाणि चत्तारि तं जहा-संती-मुत्तीअन्जव मद्दव" ति इत्येवं चतुःप्रकारे शुल्के यथा प्रथम द्वितीयभेदातीत तृतीयं परमशौक्लिक-परमशुक्लध्यानप्रधान, तथा ज्ञानानांमतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलज्ञानाना-मध्ये यथा केवलज्ञानं प्रधानं तथा सुखानामि स्वध्याहारो दृश्यः, यथा सुखानां मध्ये परिनिर्वाणं सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष प्रधानम् इति तावदेषां स्वस्थाने प्राधान्यमस्त्येव परं तथापि “क्रमेण भणियं जिणवरेहि" इति भणनेन ग्रन्थकार एषामुत्तरोत्तरप्राधान्यमप्याह-यतस्तावत्परमशुक्ल तृतीयभेदरूपं प्रधान तत्सद्भावे च के वलज्ञानं भवतीति, ततः केवलज्ञानं प्रधानम् / के वलिनोऽपि पञ्चाशीतिकर्मप्रकृतिसत्ताकत्वात् ततोऽपि परं निर्वाणं पञ्चाशीति-- कर्मप्रकृतिक्षयात मोक्ष प्रधानतरं क्रमेण परिपाट्या यथा जिनवरेभणित तथाऽयं संस्तारक इति गाथाभावार्थः / सव्वुत्तमलाभाणं, सामन्नं चेव लामैं मन्नंति। परमुत्तमतित्थयरो, परमगई परमसिद्धि त्ति॥११॥ सर्वेषामुत्तमाः सर्वोत्तमाः, ते च ते लाभश्च सर्वोत्तमलाभाः सम्यक्त्वदेशविरतिलाभरूपाः, तत्प्राप्तौ संसारपरिकरणात् तेषामपिलाभाना मध्ये श्रामण्यमेव चारित्रमेव लाभं मन्यन्ते विद्वांसः, तत्प्राप्तायेव मोक्षगमनात्। उक्तंच-"जम्मा दंसण नाणा, संपुन्न-फलंन दिति पत्तेयं / चारित्तजया दिति, तिसमए तेण चारित्तं / / 1 / / " इति आस्तां संस्तारकलाभोत्तमः सर्वोत्तमलाभाना श्राम-ण्यमेव तावल्लाभं मन्यते, यथा सर्वोत्तमः पुरुषेषु मध्य तीर्थकरः, यथा च परमगतिः-सर्वोत्तमगतिः / 'परमसिद्धि' ति-सिद्धय-स्तावद्-अणिमा, गरिमा लघिमा, तनिमा, वशिमाद्या अपि भवन्ति, अत आह-परमा चासौ सिद्धिश्च परमसिद्धिः, गतौ विषये उत्तमा सर्वकर्मक्षयरूपा यथा निर्वाणप्राप्तिस्तथाऽयमिति। मूलं तहसंजमोवा, परलोगरयाण कट्ठकम्माण। सव्वुत्तमलाभाणं, सामन्नं चेव मन्नंति।।१२।। परलोको-भवान्तरं तस्य हिते रतानां भवान्तरमस्तीति श्रद्धानवताम्, अथवा-आत्मव्यतिरिक्तः परलोकःसर्वलोकसर्वजन्तुसमूहस्तस्य हिते रतानां साधूना, कष्ट मिथ्यात्वादि कर्मणां विलसिताशेषपापानां जीवाना मोक्षतरोर्मूल सम्यक्त्वं, यदाह- "एगिदिएसु अत्थि य, कालमणतं पसूत्तमन्नव्व। कहमवि कयाइ केई, जीवा पाविति तसभावं / / 1 / / तत्थ नरत्त तत्थ वि, सुह त्ति तं तत्थ वि य सुहक्खित्त / जाइ कुलव तचा-रोग्गं चिरजीवितं च अइदुलह / / 2 / / तत्थ वि बहुसुहकम्मो-दएण धम्मे वि हुन्ज जइ बुद्धी। तो वि जियाण न सुलहो, जिणवयणुवएसगो सगुरू // 3 // तो गुहिरमहोदहिमज्झे, पडियरणं व सकलसामग्गि। दुलहं पिलहिय तह विय, मूलं धम्मस्स सम्मत्तं / / 4 / / " इति मूलसम्यक्त्वं दुष्प्राप्यम, 'तहे' ति तथा संयमश्चारित्रं दुर्लभं वाशब्दाज्ज्ञानं च एषोऽपि तावन्महान् लाभः परं तथापि सर्वो - तमलाभानमेषा श्रामण्यमेव विशिष्टलाभं मन्यन्ते विवेकिनः / यत आह"सम्मत्त आचरितस्रा हुज भयाणाए नियमसो नऽत्थी। जो पुण चरित्तजुत्तो, तरस हु नियमेण सम्मत्तं / / 1 / / " तत्रैवश्रामण्यदेशविरतिरूपे एव संस्तारकप्राप्तिरिति गाथाभावार्थः / लेसाण सुक्कलेसा,नियमाणं बंभचेरवासोय। गुत्तीसमी गुणाणं, मूलं तह संजमोय तवो॥१३॥ 'लेसाण' ति-लेश्यानां कृष्णनीलकापोततेज:पद्मशुक्लाना मध्ये यथा शुक्ललेश्या उत्तमा 'नियमाणं' ति-नियमाना-विरमणाना मध्ये यथा ब्रह्मचर्यवास उत्तमजनशक्यः- 'ब्रह्मचर्यव्रतं घोरं, शूरैश्च न तु कातरः / करिपर्याणमुद्राहा, करिभिर्न तु रासभैः।।१।।' किं च- "देवदाणवगंधव्वा, जक्खरक्खसकिनरा / बंभयारिं नमसन्ति, दुक्करं जं करेंति य / / 2 / / " गुत्तीसमी गुणाणं ति-तथा यथा गुप्तिसमित्यौ गुणानां सप्तविंशतियतिगुणानां मध्ये उत्तम प्रधाने तथा सयभोपायलक्षण यन्मूलं मोक्षकारणं तत्तपः, सतोऽपि ज्ञानादेस्तदभावे मुक्तेरभावादिति। तिसृभिर्गाथाभिः श्रामण्यस्यापि प्राधान्यमुक्तं किमुत्तरसंस्तारकस्येति। सव्वुत्तमतित्थाणं, तित्थयरपयासियं जह य तित्थं / अभिसेउव्व सुराणं, तहसंथारो सुविहियाणं॥१४|| 'सव्वुत्तमं' ति यथा लौकिकाना प्रभासप्रयागादीनां तीर्थानां तथा लोकोत्तराणागप्यष्टापदादितीर्थाना मध्ये तीर्थकरप्रकाशितं प्रकटित तीर्थ यथा ज्ञानादिचतुर्विधसंघो वा प्रथमगणधरो वा तथाऽयमपीति / 'अभिसेउ व्व सुराण' ति-अभिषेको वा अभिनवोत्पन्नदेवानां यथा राज्याभिषेकरूपः, तथाऽयमपीति। सियकलसकमलसुत्थि-नंदावत्तवरमल्लदामाणं। तेसिं पिमंगलाणं, संथारो मंगलं अहियं / / 15 / / शितःशुभ्रःकलशा विवाहादावुत्सवे यो मङ्गयते तस्यैव माङ्गलिकत्वात् ग्रहणं शितकलशश्च कमल च स्वस्तिकश्चनन्दावर्त्तश्च वरमाल्यदाम च शितकलशकमलस्वस्तिकनन्दावर्तवरमाल्यदामानि तेषामेतानि च लोके मागल्यतया रूढाणि तथापि तेषामपि मङ्गलाना मध्ये संस्तारकोऽधिकं मङ्ग लमिति भावः। तवअग्गिनियमसूरा, जिणवरनाणा विसुद्धपत्थयणा। जं निव्वहंति पुरिसा, संथारगयिंदमारूढा||१६|| 'तवअग्गि' त्ति- अष्टप्रकार कर्म तापयतीति तपः, तप एवाग्निस्तपोऽग्निः, नियमाश्च व्रतान्यभिग्रहविशेषाश्च 'सूर' ति शूराः-सुभटाः तथा चार्षम् “चत्तारि सूरा पन्नत्ता तं जहाखंतिसूरे तवसूरे दाणसूरे जुद्धसूरे / खंति सूरो अरिहंता, तवसूरा अणगारा, दाणसूरे, वेसमणे जुद्धसूरे वासुदेवे" तत्र तपोऽग्नौ कर्म्मशत्रुदाहकत्वेन नियमेषु च व्रतेषु अभिग्रह Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार विशेषेषु वा नवकर्मानादानभूतेषु शूरा अकातराश्चारित्रिण इत्यर्थः, 'जिणवरनाण' ति-जिनवराणां ज्ञानं सामान्यतः सदुपदेशरूपं विशेषतः अङ्गानङ्गादिरूपं वा येषां मोहराजविजयनीतिप्रदर्शकत्वाद्येषां ते तथा 'विसुद्धपत्थयण' त्ति विशुद्ध पथ्यदनं शंबलं भवान्तरानुयायित्वात् सम्यक्त्वं येषान्ते विशुद्धपथ्यदनाः, के एवंविधा इत्याह 'जे निव्वहति पुरिस' ति ये पुरुषा निर्वहन्ति मोहराजविजयं कर्तुं संस्तारकगजेन्द्रमारूढाः सन्तः, योधा अपि नानाविधप्रहरणयुद्धकोशल्याभिज्ञतादक्षताव्यवसायशरीरारोम्यतादिगुणयुक्ताः शात्रवसंघाततापकाग्नितैलतनुत्राणनियमाः शत्रुनियमने बन्धने वा शूराः-सुभटा रणदीक्षाबद्धकक्षाः 'जिणवरनाण' त्ति-जिनवराणा जयस्वामिनां वराज्ञाकारिणः जिनवरज्ञाना वा 'विसुद्धपत्थयण' त्ति विशुद्धपथ्यदनाः गृहीतकूलरिकादिशंबलाः य एवंविधा योधा भवन्ति ते गजेन्द्ररकन्धमारूढाः सन्तः, प्रबलजयं निर्वहन्ति रिपुसंघात जयन्तीति गाथार्थः। परमत्थेपरमतुलं, परमाययणं ति परमकप्पो त्ति। परमुत्तमतित्थयरो, परमगई परमसिद्धि त्ति॥१७॥ परमार्थे -मोक्षे पर-प्रकृष्टमतुलं-तुलनातिक्रान्तं संसारिकलक्षणं कारणं 'परमाययण' ति परगमायतनं स्थानं ज्ञानादीनामे तदित्यर्थः / 'घरमकप्पो' ति स्थविरादीनामेष प्रधानकल्पः-पर्यन्तकृत्यविधिः संस्तारक इत्यर्थः / परमुत्तमतित्थयरो परमगई परमसिद्धि' त्ति पूर्ववत्। ता एयं तुमिलद्धं, जिणवयणामयविभूसियं देह। धम्मरयणस्सिय त्तिय, पडिया भुवणम्मि वसुहारा।।१०।। 'ता इति तावत् 'एय' ति-एतत् 'तुमि' त्ति त्वया संरतारकारूढेन 'लद्ध ति प्राप्त 'जिणवयणामयविभूसियं देह' ति हे क्षपक ! एतदस्मिन्नवसरे जिनवचनामृतेन जिनोपदेशं साधय / सर्वकुश्रुतिमूर्छाविघातकेन विभूषितं देह शरीरं प्राप्तम, तत्कि जातमित्याह- 'धम्मरयणस्सिय' त्ति धर्मरत्नराश्रिता युक्ता पाठान्तरेण 'धम्मरयणिम्मिय' त्ति धर्मर्निर्मिता निष्पादिता 'धम्मरयमय' ति वा धर्मरत्नमया वा, ते इति ते तव भवनेदहगृहं वसुधारवापतिता सर्वकार्यसिद्धितत्वात। अत्रायं भावार्थ:यथा कस्यापि पुण्यवतो महाङ्गणे वसुधारापातः,सर्वतोऽपि निपुणगीतार्थनिर्यामकमुखात जिनपचनामृतश्रवणस्यास्यामवस्थायां भवतीतिजानीहीति भावः। पत्ता उत्तमपुरिसा!, कल्लाणपरंपरा परमदिव्वा। पावयणसाधुधीरा!, कयं च ते अज्ज सप्पुरिसा!||१९|| 'पश' ति प्राप्ता-संपादिता हे उत्तमपुरूष ! का प्राप्तेति 'कल्लाण' ति कल्याणपरपराभाइल्पपदार्थसन्ततिः संस्तारकलाभात् 'पावयणसा' त्ति प्रवचनं वदन्ति जानन्ति प्रावधनाः प्रावचनाश्च ते साधवश्च प्रावचनासाधवः प्रावचनसाधना मध्य धीर इव धीरः तस्य संबोधन हेप्रावचनसाधुधीर ! 'कयं चलि कृतं च निष्पादित कि यत्किमपि समीहितं सर्वश्रेष्ठ कार्यमित्याध्याहारः 'ते' त्वया अद्यास्भिन्नहनि उतमार्थप्रतिपल्यहीकारात हे सपुरुष ! इति गाथार्थः / समत्तनाण दंसण-वररयणा नाणतेयसंजुत्ता। चारित्तसुद्धसीला, तिरयणमाला तुमे लद्धा // 20 // 'रामसदाण ति' समाई - गलमज्ञान - मिथ्यात्वोपगमाद्यस्व स सभायाऽज्ञानस्तस्यसंबोधन समाप्ताज्ञानादीत्विं सर्वत्र प्राकृतित्वाद / 'दसणवररयण' त्ति हे दर्शनवररत्न ! प्रवरसम्यक्त्वरत्न !, अथवासम्यक्त्वस्य वररचन अनेन कृत्वा दर्शनस्य -सम्यक्त्वस्य वराप्रधाना रचनाविच्छित्तयो येन स समाप्तज्ञानदर्शनवररचनः तस्य संबोधन हेसमाप्तज्ञानदर्शनवररचन! तद्रचना चैव, तथाहि"एगविह दुविह तिविहं, चउहा पंचविह दसविहं सम्म। दव्वाइकारगाई, उवसमभेएहि वा सम्म / / 1 / / एगविहं सम्मरुई, निसग्गभिगमेहि तं भवे दुविह। तिविह त खइयाई, अहवा विहु कारगाई य॥२॥ सम्मत्त मीसमिच्छ-त्तकम्मक्खयओ भणंतितं खइयं। मिच्छत्तखओवसमा, खाओवसमं ववइसति / / 3 / / मिच्छत्तउवसमाउ, उवसम्मत्तं भणंति समयन्नू। तं उक्समसेढीए. उवसमसम्मत्तलाभे वा // 4 // विहियागुट्टाणं पुण, कारगमिह रोयग तु सद्दहणं। मिच्छट्टिी दीवइ, जे पत्ते दीवगं तं तु॥५॥ खइयाई सासायण, सहियं तं चउविहं तु विनेय। एतं समत्तभंगे, मिच्छत्तापत्तिरूवं तु / 6 / / वेयगसम्मत्तं पुण, एयं चिय पंचहा विणिहिटं। सम्मत्त चरिमपोग्गल-वेयणकाले तय होइ।।७।। एवं चिय पंचविह, निसगाऽभिगमभेयओ दसहा। अहवा निस्सग्गरुई, इच्चाइ जमागमे भणियं / / 8 / / " अयमेवार्थ आर्षे दर्शनात्॥ सम्मत्त समाइयं तिविहं-खइयं, उत्समियं खाओवसमिय / अहवा तिविहं सम्मत्तसामाइयं कारगं रोयगं दीवगं / कारगं जहा साहूणं, रोयग सेणियाई णं च, दीवगं अभवसिन्द्वियस्स मिच्छादिहिस्स वा भवसिद्धिस्सवा। अभव-सिद्धियस्स कहं?.जंसो एगारस अंगाई पढइन य सद्दहइ धम्मं च कहेई एवं दीवगं / अहवा. निसागसम्भहराणं अभिगमसम्मइंसणं च / निसमासम्मसणं निसर्गः स्वभावः परिणाम इत्यनान्तरं जं उवसमभतरेण वि गिण्हइ तं निसग्गसम्महसणं, अहिगसम्भद्दसणं-जंजीवाइनवपयत्थे उबल्भेऊणं गिण्हइ ति 'नाणतेयसंजुत्त' त्ति ज्ञान तेजसा संयुक्तो ज्ञानतेजः संयुक्तस्तस्य संबोधनं हेज्ञानतेजःसंयुक्त ! प्रनष्टमोहान्धकार ! चारित्तसुद्धसील त्ति चारित्रेण निरतिचारतया शुद्धः शीलः समाचारो यस्य स चारित्रशुद्धशीलस्तस्य संबोधनं हे चारित्रशुद्धशील : 'तिरयणमाल' त्ति त्रिरत्नमाल ! ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्नत्रयमाला त्वयैवं लब्धा प्राप्ता, रत्नमालाऽपि समाप्ताऽज्ञानतिमिरा दर्शनेर्दर्शनीयैव यै रत्ननिर्मिता समामाज्ञाना च दर्शनवररत्ना च सभाप्ताज्ञानदर्शनवररत्ना ज्ञानतेजोयुक्ता परीक्षाहतुकज्ञानतेजःसमन्विता चारित्रशुद्धशीला शुभा च सुद्धा त्रासादिदोषरहिता प्रशस्यत इति गाथार्थः। सुविहितगुण ! वित्थारं, संथारं जे लहंति सप्पुरिसा! तेसि जियलोयसार, रयाणाहरणं कयं होइ॥२१।। हे सुविहितगुण ! शो भनानुष्ठान गुण ! विस्तारं व्यावर्णित व्यावर्य मानम अनेकातिशय प्रकार संस्तारं ये सतारूपा लभन्ते तेषां जीवलोक सारं रत्नाभरण ज्ञानदर्शनचास्त्रिरूप कृतं भवति इति तद्भवताऽलं कृतमिति जानीहि अवे हि ति Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार लोयसार' मिति पाठे विज्ञानादिरत्नाभरणमात्मनःकृतं भवतीत्यर्थः। तंतित्थं तुमें लद्ध, पवरं सव्वजीवलोगम्मि। भूयो जत्थ मुणिवरा, निव्वाणमणुत्तरं पत्ता / / 22 / / तं तीर्थ प्रभासतीर्थप्रयागादि लौकिकं लोकोत्तरमष्टापदादि द्रव्यतीर्थव्यतिरिक्तं भावतीर्थ त्वया लब्धप्राप्त, यत्र तीर्थे साताः धालितकर्ममलपटला मुनिवरा निर्वाणसुख मोक्षसुखमनुत्तरं प्राप्ता इति ! द्रव्यतीर्थे देहाद्युपशमतृष्णाव्यवच्छेदमलप्रक्षालनात्सुखं भवति, अब तु भावतीर्थ कषायोपशमलोभनिग्रहसकलकल्मषमलप्रक्षालनानिर्वाणसुखमिति। आसवसंवरनिन्जर, तिन्नि वि अत्था समाहिया जत्थ। तं तिथं ति भणंति, सीलव्वयवद्धसोवाणा // 23 // अथ तीर्थशब्दस्य व्युत्पत्ति तीर्थकर एवाह-त्रिषु तिष्ठतीति त्रिस्थं, के ते त्रय इत्याह-'आसवसवरनिज्जर' त्ति आश्रवाणाम्- इन्द्रियाणां समाधानं हितेषु-प्रवृत्तिरहितेषु निवृत्तिः / तत्राश्रवभेदा 'इदियकसाए' त्यादि द्वाचत्वारिंशत्प्रसिद्धा एव४२यथा कषायशब्देन षोडश कषाया नवा नोकषाया एते पञ्चविंशतिः, योगशब्देन 'सचं मोसं मीसमि' त्यादि योगाः पञ्चदश आश्रवभेदाः पञ्चसाप्ततिः संवरण संवरः 'समिइ गुत्तीपरीसहे' त्यादि 57 तथा गुप्तिशब्देन मनोगुप्त्याद्याः 3 ब्रह्मचर्य गुप्तयो 6 भावनाशब्देनानि-त्याद्याः 12 महाव्रतानां 25 'कंदप्पदेव 1 किदिवस 2 अभिओगा 3 आसुरा य 4 समोहो५' इति शुभभावनानां सविपक्षत्येनाशुभभावना अपि गृह्यन्ते, तदा संवरभेदाः 16 'संवरत्व' च कन्दप्पोदीना परिज्ञानात् येभ्य: कारणेभ्य एते भवन्ति तत्परिहारेण 'निजर' ति निर्जरणं निर्जरा तपः, तद् द्वादशधा प्रसिद्धमेव / आश्रवश्व संवरच निर्जरा च आश्रवसंवरनिर्जराः प्राकृतत्वाद्विभक्तिलोपः, 'तिन्नि वि' ति एते प्रयोगार्थाः 'सगाहिय' ति समा-धियुक्ताः कृताः समाहृता वामीलिताः यत्र तत् त्रिस्थ तीर्थ वा भणतो विवेकिनः ‘सीलवयबद्धसोवाण' त्ति शीलव्रतान्येव बद्धानि सोपानानि यैस्ते शीलव्रतबद्धसोपानाः / कस्य एलत त्रिस्थस्य तीर्थस्य, ते तथाविधाः सन्तो भणन्तो विवेकिनिर्वाणमनुत्तरं प्राप्ता इति पूर्वगाथातः संबध्यत इति गाथार्थः। भंजिय परीसहचमुं, उत्तमसंजमबलेण संजुत्ता। भुंजंति कम्मरहिया, निव्वाणमणुत्तरं रज्जं // 24|| कथं निर्वाण प्राप्तास्तत्र किं कुर्वन्तीत्याह- 'भंजिय' भक्त्वा प रीषहच -परीषहसेनाम् उत्तमसंयमबलेन युक्ताः सन्तो भुञ्जन्ति कर्मरहिता निर्वाणमनुत्तर विशिष्ट राज्यमित्यर्थः / तिहुयणरज्जसमाहि,पत्तो सि तुम पिसमयकप्पम्मि। रज्जाभिसेयमतुलं, विउलफलं लोएँ विहरंति॥२१॥ त्रिभुवनस्य राज्यं त्रिभुवनराज्य समाधानं समाधिः, त्रिभुवनराज्यस्य समाधिः त्रिभुवनराज्यसमाधिस्तम् / तत्र समाधिर्दशधा धम्मचिंता य 6 सन्नाणे 2 सुविणे 3 देवदत्तरिसणे 4 / ओहीद-सण 5 नाणे य 6, मणपज्जव 7 केवले // 1 // नाणे य 8 दंसणे चेव, केवलीमरणे इय 10 / असमुप्पन्ना समुप्पज्जो, दसचित्तसमा-हिओ / / " इति हे क्षपक ! येन स्माधिना त्रिभुवनस्य राज्यमिव तीर्थकृत्त्वं केवलज्ञानं मुक्ति प्राप्यते तं समाधिं त्वमपि प्राप्तोऽसि 'समयकप्पमि' ति सिद्धान्तविचारणायां क्रियमाणायां किमिति राज्येनोपमितमित्युच्यते, 'रज्जाभिसेयमतुलं विउलफल लोए विहरति' यथा क्षत्रिया राज्याभिषेकं विशिष्टमतुलं विपुलैहिकसुरखफलं प्राप्य लोके जानपदलोकमध्ये प्रमुदितात्मनो विहरन्ति- विविध चेष्टन्ते विजृम्भन्ते ते दत्तराज्याभिषेकतुल्यमतुल चारित्रं दधानास्तावत्साधयो विहरन्ति, त्वया तु संस्तारकभाश्रयता त्रिभुवनाधिपत्यसमाधिः समायभाषया प्राप्त इति गाथार्थः / अभिनंदइ मे हिययं, तुज्झे मोक्खस्स साहणोवाओ। जंलद्धो संथारो,सुपुरिसपरमत्थसंथारो॥२६|| अथ क्षपकस्य गुरुरात्मोत्कर्षदर्शनन स्थैर्यमुत्पादयति हे क्षपक ! भवानभिनन्दयति प्रीतं करोति मे-भदीय हृदयं यतः कारणात् 'तुज्झे मोक्खस्स' तित्वया मोक्षस्य अपुनर्भवस्य साधनोपायः आत्मशान्तिसाधनोपायः कृतः / यत्-यस्मात्कारणात् लब्धः-प्राप्तः संस्तीर्यते विस्तीर्यते यस्मिन् जीवदयार्थ दर्भादिः स संस्तारकः-सत्पुरूषपरमार्थज्ञानादिस्तस्य संस्तारो विस्तार इति महान् प्रमोद इति गाथार्थः / देवाऽविदेवलोए, भुजंता बहुविहाइँसोक्खाई। संथारं चितंता, आसणसयणाणि मुंचंति॥२७॥ देवा अपि देवलोके व्यवस्थिता अपि भुजाना बहुविधानि सुखानि संस्तारकगतं साधुधर्मानुभूताराधनं वा संस्तारकगुणान्या चिन्तयन्तः स्मरन्त आसनशयनानि मुञ्चन्तिपरिज्यजन्ति त्वद्-गुणाकृष्टचेतसा भक्तिहर्षवशादभ्युत्थानादि कुर्वन्तीति गाथार्थः। चंद व्वपेच्छणिज्जो, सूरो इव तेयसो वि दिप्पंतो। धणवंतो गुणवंतो, हिमवंत महंतविक्खाओ।।२८|| अथाङ्गीकृतसंस्तारकः क्षपकः क इव शोभते इत्याह-सौम्यतायां चन्द्रवत्, प्रेक्षणीयः, तपस्तेजसाऽपि सूर इव दीप्ततेजा भवति, धनवानिव सर्वस्याप्याश्रयणीयः, गुणवानिव सर्वपूज्यो भवति, हिमवानिव महत्त्वस्थैर्याभ्यां विख्यातः-प्रसिद्ध इत्यर्थः / गुत्तीसमिइउवेओ, संजमतवनियमजोगजुत्तमणो। समणो समाहियमणो, दंसणनाणे अणण्णमणो॥२६॥ 'गुत्तीसमिइ'तिमोधनं गुतिर्मनोवाकायनिरोधलक्षणा समयन-समितिः ईयाभाषेषणादनिक्षेपपारिष्ठापनिकालक्षणा पञ्चप्रकारा गुप्तिश्च समितिश्च गृतिसमती ताभ्यामुपेतो युक्तो गुप्तिसमित्युपेतः 'संजमतवनियम' त्ति संयम: पक्षावविरमणलक्षणाः, तपो-द्वा-दशविध नियमाअभिग्रहविशेषाः 'उक्खित्तचरगा निक्खित्तचरगा' इत्यादिकाः योगा मनोवासायनिरोधाः, संजमश्च तपश्च नियमश्च योगाश्च संयमतपोनियमयोगास्तैः युक्तं मनो यस्य स संयमतपोनियमयोगयुक्तमनाः सुप्रणिहितमनाः श्रमणस्तपसि खेदज्ञः समाहितमनाः-सुप्रणिं हितचितः 'दंसणनाणे' ति दर्शनं सम्यक्त्वं ज्ञानं सत्यादिकं दर्शनं च ज्ञानं च दर्शनज्ञानम्, समाहारत्वादेकवचनं तस्मिन्, न विद्यते अन्यद्धर्मध्यानलक्षणान्मनो यस्य स अनन्यमनाः-एकाग्रचितः एवंविधः साधु: संस्तारकं प्रतिपद्यते इति शेष इति गाथार्थः / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार तथामेरू व्व पव्वयाणं, सयंभुरमणुव्व सव्वउदहीणं। चंदो इव ताराणं, तह संथारो सुविहियाणं // 30 // मेरूरिव-पर्वताना मध्ये यथा मेरूःप्रशस्यः स्वयंभूरमणो यथा गाम्भीर्यगुरूत्वाभ्यां प्रशस्यते, चन्द्रश्च यथा तारकाणा मध्ये प्रकाशकतया शोभते, तथा संस्ताकरः सुविहितानां शोभनानुष्ठानानां भवतीत्यर्थः। भण्ण केरिसस्स-भणिओ, संथारो केरिसे वओगासे। उक्खंभिगस्स करणे, एयंता इत्थिमो नाउं॥३१॥ अथ तत्स्थः श्रोता गुरुं पृच्छति-भो प्रभो ! भण-कथय कीदृशस्य क्षपकस्य भणितः प्रतिपादितः संस्तारकः कीदृशो वाऽवकाशः भूप्रदेश ग्रामनगरादौ वा गन्धर्वनाट्यशालादिविवर्जिते? 'उवखंभिगस्स करणि' ति यथा कस्मिश्विद् गृहादी जीर्णे पतितुकामे वा उत्प्रावल्येन स्तम्भनम् उत्तम्भनम्, उत्तम्भ एव उत्तम्भिकः, स्वार्थे इकणप्रत्ययः, उत्तम्भिकस्य भाव उत्तम्भिकत्वम् तस्य उत्तम्भिकस्यअवष्टम्भनकस्य प्रति स्तम्भदारुकादेः करणे तृतीयार्थत्वात्सप्तभ्याः, तत उत्तम्भिकस्य करणेन गृहादौ स्थैर्य विधीयते तथा साधोरपि उत्तभ्यते स्थिरीक्रियते जीवो मुक्ति-कारणेषु येन-पर्यन्ताराधनालक्षणेन तस्य विधाने करणेन वा यथा परमार्थसाधनामोक्षसाधना भवति / एवं 'ता' इति-एतत् तावदिति भाषाक्रमे इच्छामो वाञ्छा कुर्मो ज्ञातुमिति गाथार्थः। हायंति जस्स जोगा, जरा य विविहा यहुति आयंका। आरूहई संथारं, सुविसुद्धोतस्स संथारो॥३२॥ अथ शिष्यः पृच्छति-कदा संस्तारकः क्रियते? तत्राह सालम्बनरेव "काहं अधित्तिं अदुवा अहीहं, तवोवहाणे सुयंउज्जमिस्सं / गणं व नीए अइसारविरसं, सालंबसे वी समुवेइ सोक्खं / / 1 / / " यदा तु तान्यालम्बानानि न भवन्ति क्षीणबलत्वात् रोगाद्यमिभूतत्वात वृद्धत्वाक्रान्तत्वात्तदैव चिन्तयति 'जो देहदेसेण दढो यजाओ, सिलिप्पई सो हु करेह कज्जं / जो दुव्वलो संतविओसतो उ, न तं तु सीलंति विसन्नदारु' इति 'हायति' हीयन्ते हानि प्राप्नुवन्ति यस्य योगाः संयमव्यापारास्त्रुटितबलत्वात् 'जरा य' त्ति जरा च बार्द्धकं सर्वरुपादिबलाऽपहारका भवन्ति 'विविहाय हुति आयक'त्ति विविधाअनेकप्रकारा भवन्ति आतङ्काः सद्योधातिनः शूलादिका रोगा:स्फेटयितुमशक्याः अतः कारणादिह-लोकनिरपेक्षया आरोहति अगीकरोति संस्तारक तस्य सुविशुद्धो निरविचारः संस्तारक इति। जो गारवेण मत्तो, निच्छइ आलोयणं गुरुसगासे। आरुहई संथारं,अविसुद्धो तस्स संथारो।।३३।। यः साधुर्गारवेण ऋद्धिरससातलक्षणेन माद्यति स्म मत्तो दर्पवान नेच्छति नाभिलषति गृहीतुमालोचना गुरूसकाशे-गुरुसमीपे, यतः "ललाए गारवेण व.बहुसुयमएण वावि दुचरि या जइ न कहिति गुरुणां, न हु ते आराहगा हुति / / 1 / / " इति अकृत्वा आलोचना यः संस्तारकमारोहति तस्याविशुद्धः सस्तारक इति गाथार्थः। जो पुण पत्तब्भूओ, करेइ आलोयणं गुरुसकासे। आरूहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो॥३४।। यः पुनः पात्रभूतो योग्या निर्मायः संविग्नः कृतसंलेखनः सन् आलोचनां गुरुसमीपे कृत्या चारा हति संस्कारकमिति। जो पुण दंसणसुद्धो, आयचरित्तो करेइ सामन्नं / आरूहई संथारं, सुविसुद्धोतस्स संथारो॥३५॥ यः पुनः साधुः श्रावको वा 'दंसणे' त्ति दर्शनेन सम्यक्त्वेन सप्तषष्टिभेदभिन्नेन-शुद्धो-निर्मलः / ते चामी सप्तषष्टिभेदाः- "चउसदहणं तिलिंग 3, दसवेयण १०तिसुद्धि 3 पंचगयदोस 5 / अट्ठपभावण 8 भूसण 5, रक्खण 5 पंचविह संथुत्तं / / 1 // छवि-हजयणारंभा ६छठभावेण 6 भावियं ठाणं५। वइ सत्तसडिलक्खण, भेयविसुद्धं च सम्मत्तं / / 2 / / (चउसहहणं ति)परमत्थसंथवो खलु, मुणियपरमत्थ जाइ जणनिसेवा। वावन्नकुदिट्ठीण य, वजणमिह चतुहसद्दहणं // 3 // जीवाइपयत्थाणं, सम्मपयाईहि अटेहि पएहिं। बुद्धाण विपुण पुण स-वण चिंतणं संथवो होइ / / 4 / / गीयत्थचरित्तीणं, सेवाबहुमाणविणयपरिसुद्धा। तत्ताव बोहजोगा सम्मत्त निम्मलं कुणइ / / 5 / / पावन्नदसणाण, निण्हगया सत्थअन्नउत्थीणं। उम्मग्गुवएसेहि, वला विभालिज्जए सम्म॥६॥ मोहिजइ मंदमई, कुदिट्ठिसत्थेहि गुविलसद्देहिं / दूरेण वज्जियव्या. तेणइ नेसुद्धबुद्धीणं // 7 // परमागमसुस्सूसा, अणुरागो धम्मसाहणे परमो। जिणगुरुवेयावचे, नियमो सम्मतलिंगाइं॥८॥ तरूणो सुहोवदिहो, रागी पि य पणइणी जुओ सो उ। इच्छइजह सुरगीयं, तओहिया समयसुस्सूसा / / 6 / / कतारूत्तिन्नदिओ, धयपुन्ने भुत्तुमिच्छइ च्छुहिओ। जह तह सदणुट्टाणे, अणुराओ धम्मराउ ति॥१०|| पूयाइए जिणाणं, गुरुण विस्सामणाइएहि विहे। नियमो अंगीकारो, वेयावचे जहासत्ती // 11 // दसविणय ति य अरिहं-त सिद्धचेइयसुए य धम्मे य। आयरिय उवज्झाए, पावयणे दंसणे वावि।।१२।। अरिहंता विहरता, सिद्धा कम्मक्खया सिवं पत्ता। साहुवग्गेय चेझ्य, सुरा तु सामाझ्याईय॥१३॥ धम्मो चरित्तधम्मो, आहारो तस्स साहुवग्गो त्ति। आयरियउवज्झाया, विसेसगुणसंपया जुत्ता॥१४॥ पवयणमसेससंघो,दसणमिच्छति इत्थ सम्मत्त। विणओ दंसणमेसिं, कायव्वा चेव एयं तु॥१५॥ भत्ती बहमरणो व-नजणण नासणमवन्नवायस्स। आसासणपरिहारो, दसणविणओ समासेणं / / 16 / / भत्ती बहुपडिवत्ती, बहुमाणो मणसि निज्झरा पीई। वन्नजणणं च तेसिं, असेसगुणकित्तणाईहिं / / 17 / / उड्डाहगोवणाई. भणियं नासणमवन्नवायस्स। आसायणपरिहरण, उचियासणसेवणाईयं // 18 // मणवायाकारणं, सुद्धीसम्मत्तसोहण तत्थ। मणसुद्धी जिणजिणमय-वजमसार मणुयलोयं / / 16 / / तित्थकरचलणऽऽराहे, णेण मज्झ सिज्झइ तिसुद्धित्ति / कज्जं पत्त्थयन्तं, देसविसेसं ति वयसुद्धी॥२०॥ छिज्जतो भिज्जतो, पीलीज्जंतो वि डज्झमाणो वि। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार जिणवज्जदेवयाण, जनमइलो तस्स तणुसुद्धी।।२१।। पंचगय दोसंति, दूसिजइ जेहि मंतदोसा य। सेकाकख दुर्गहण (पचेवज्जाणिज्जा), परतित्थि पसंससंथवणं / / 22 / / / देवगुरुतत्तविसधा, अच्छिन्नच्छित्तिसंसओ संका। कखाई संदेहो, (होई मुणिजणम्मि वि दुगुंछा / / 23 / / गुणकित्तणं पसंसा, पयवयकरणं च संथवणं। (अट्ठ पभावण त्ति) रसम्मद्दसणजुत्तो, सइ सामत्थे पभावगो होइ। सो पुण इत्थ विसिट्टो, निधिट्ठो अट्टहा सुत्ते / / 25 / / पात्रपणी धम्मकही, वाई नेमित्तिओ तवस्सी य। दिल्जासिद्धो काई, अट्टेव पभावगा भणिया / / 26 / / कात्येचियसुत्तधरो, पावयणी तित्थवाहगो सूरो। पडिवोहियभव्वजणो, धम्मकही कहणंलद्धिन्नू / / 27|| बाइंय वायकुशलो,रायदुवारे वि लद्धमाहप्पो। नेमित्तिओ निमित्त, कजम्मि पउंजई निउणं / / 28|| जिणमयमुब्भावितो, विगिट्टखमणेण भण्णइ तवस्सी। सिद्धबहुविज्जॉमतो, विजावंतो वि उचियन्नू।।२६।। संघाइकजसाहग, चुन्नंजणजोगमंतसिद्धो उ। भूयत्थसत्थगथी, जिणसाणदेसओ सुकवी।।३०।। (भूसण त्ति) सम्मत्त भूसणाई, कोसल्लं तित्थसेवणं भत्ती। थिरया पभावणा विय, भावत्थं तेसि वोच्छामि।।३१।। वंदणसंवरणाई, किरियानिउणतणं च कोसल्लं / तत्थ वि सेवा सययं, संविग्गिजणाण संसग्गी।।३।। भती आयरकरणं, जहोचियं जिणवरिंदसाहूणं / भिरया दढसम्मत्तं, पभावणुस्सप्पणाकरणं / / 33 / / (लक्खणपंचविह त्ति) हिययगय सम्मत्त,लक्खिज्जइजेहि ताइँ पंचेव। उवसमसंवगो तह, निव्वयेणुकंप अस्थिक्कं / / 34 / / अवराहे वि महंते, कोहाणुदओ वियाहियोपसमो। संवेगो मोक्खं पइ, अहिलासो भवविरॉगो य॥३५।। निव्वेओ चागित्तं, तुरियं संथारवारयगिहस्स। दुहियदया अणुकंपा, अत्थिक्कं पंचओ वयणे॥३६।। (छव्विह जयण त्ति) परतित्थीणं तह दे-वयाण भगहिय चेइयाणं च। जं छविहववहारं, न कुणइ सा छविहा जयणा // 37 / / वंदणनमंसणं वा, दाणपयाणम्मि मेसि वज्जेइ। आलावं सला, पुष्वमणाभत्तगो न करे / / 3 / / वंदणयं करजेडण, सिरनामणवंदणं च इह यं च। वायाएँ नमोकारो, नमसण मणपसाओ य॥३६॥ गउरवपिसुणवियरणा, मिट्ठासणपाणजज्जसेजाणं। दाणं त चिय बहुसो, अणुप्पयाणं मुणी बिति / / 40 / / सप्पणयं संभासण, कुसलं वासागयं च आलावो। संवासो पुणतं,सुहदुहगुणदोसपडिपुच्छा॥४१।। (आगगर ति) राया गणबलाक्य, गुरुनिग्गहवित्तिछेयमाईहिं। आगारेहिं भजइ, संमन मज्झ न कयाइ।।४।। (छब्भावणभावियं ति) देहलहुं मुक्खफल, दसणमूलं दढम्मि धम्मदुमो। भंतु दसणदारं, न पवेसो धम्मनयरम्मि॥४३॥ नंदइ बयपासाओ, दसणपीढम्मि सुप्पइट्टम्मि। सम्मतमहाधरणी, आधारो चरणलोगस्स // 44|| सुपसीलभणन्नरसं, दसणवरभायणं लहुं धरई। मलुनरगुणरयणा, दसंणअक्खयनिहाणं च / / 45 / / (छट्टाणं ति) अस्थि जिओ तह निचो, कत्ता भुत्ता य पुन्नपावाणं / अत्थि धुवं निव्वाणं, तस्सोवाओ य छट्ठाणा / / 46 / / अयणुपवयसिद्धो, गम्मइ तह चित्तवेयणाईहिं। जीवो अत्थि अवस्स, पचक्खो नाणदिट्ठीणं / / 47|| दव्वट्ठयाएँ निचो, उप्पायविणासवजिओ जेणं / पुवकयाणुसरणओ, पज्जाया तस्स उ अणिचा // 48 // कत्ता सुहाऽसुहाण, कम्माणं कसायजोगमाईहिं। मिउदंडचक्कचीवर, सामग्गिवसा कुलालं व॥४६।। भुंजइ सयं कयाई, परकयभोगो उ................... / अकयस्सनत्थि भोगा, अन्नह मक्खे विसो हज्जा // 50 // सम्मत्तनाणचरणा, संपुन्नो मुक्खसाहणोवाओ। ता इह जत्तो जुत्तो, ससत्तिओ नाणतत्ताणं // 51 // " इत्येवंप्रकारेण दर्शनेन शुद्धो निरतिचारः 'आयचरित्तो' त्ति आयभूतं निरतिचारतया चारित्रं यस्य स आयचरित्रो दृढ चारित्रत्वात् प्राकृतत्वादात्तचारित्रोगृहीतचारित्रः करोति-पालयति श्रामण्यं - श्रमणभावम् आरोहति संस्तारं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारः / जो रागदोसरहिओ, तिगुत्तिगुत्तो तिसल्लमयरहिओ। आरुहईसंथारं, सुविसुद्धोतस्स संथारो॥३६।। यः साधुः रागद्वेषाभ्यां रहितः तिसृभिर्मनोवाक्कायलक्षणाभिर्गुप्तिभिर्गुप्तः तथा त्रिभिर्मायाशल्यनिदानशल्यमिथ्यादर्शनशल्यैर्मदेश्व रहित आरोहति संस्तारं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारकः। तिहिं गारवेहि रहिओ, तिदंडपडिभोयगो पहियकित्ती। आरुहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो॥३७॥ त्रिभिगौरवैः ऋद्धिरससातलक्षणै रहितः त्रयाणां मनोवाकायलक्षणानां परिमोचकः प्रतिमोचको वा प्रथितकीर्तिः ख्यातप्रसिद्धिः आरोहति संस्तारकं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारकः / चउविहकसायमहणो,चउहिं विगहाहि विरहिओ निचं। आरूहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो॥३८॥ चतुर्विधाना-क्रोधमानमायालोभरूपाणां कषायाणां मथनोविनाशकः चतुर्विधकषायमथनःचतसृभिःस्वीकथाभक्तकथाराजकथादेशकथालक्षणाभिर्विरहितो नित्यसदाकालम्, आरोहति संस्तारकं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारक इति। पंचमहव्वयकलिओ, पंचसु समिईसु सुद्ध आउत्तो। आरूहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो / / 36 / / पञ्चभिर्महाव्रतैः कलितो-युक्तः तथा पञ्चसु ईयादिसमितिषु सुष्टुतिशयेनायुक्तः आरोहति संस्तारकं सुविशुद्धस्तस्य संस्तारक इति। छक्कायाए विरओ, सत्तसयट्ठाणविरहियमईओ। आरूहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो // 40 / / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार षण्णां कायानां समाहारः षट्कार्य तस्मात् षट्कायात् तदारम्भात्। प्रायः कर्म क्षपयति / अनुसमयं तस्मिन्सुपर्यन्ताराधनासमयैर्युक्ती विरतो-निवृत्तस्त्या सप्तभ्यो भयस्थानेभ्य इहपरलोकादाना- विशेषणोक्तिः तस्यामवस्थायां विशेषतः क्षपणात्, लाभप्रश्नस्य गुरुणा धाआजीविकामरणाश्लोकलक्षणेभ्यो विरहिता मतिर्यस्य स सप्त- निर्वचनं दत्तम्। भयस्थानविरहितमतिकः आरोहति संस्तार सुविशुद्धस्तस्य संस्तारः। अथ सौख्यस्य उत्तरमाहअट्ठमभट्ठाणजढो, कम्मट्ठविहस्सख (व) मणहेतुत्ति। तणसंथारनिवन्नो, विमुणिवरो भट्ठरागमयमोहो। आरोहइ संथारं, सुविसुद्धो होइ संथारो॥४१|| जंपावइ मुत्तिसुहं, नचक्कवट्टी वितं लभइ॥४७॥ अष्टभिर्जातिकुलबलरूपतपऐश्वर्यश्रुतलाभरूपैर्मदस्थानर्जढस्त्य तृणसस्तारके कर्कशेदर्भादितृणमये निपन्नः सुप्तः तृणसंस्तारकनिपन्नः क्तोऽष्टमदस्थानजढः 'कम्मट्टविहस्स' त्ति प्राकृतत्वात् कर्मशब्दस्य अतस्तृणसंस्ताकस्यातिकर्कशत्वमुक्तं, परं स मुनिवरस्तृणपूर्वनिपातः, ततोऽष्टविधकर्मणःक्षपणमष्टविधकर्मक्षपणं तस्य हेतु संस्तारकनिपन्नोऽपि सुप्तोऽपि भृष्टो रागमदमोहो यस्य स भ्रष्टरागमदमोहः मारोहति संस्तार सुविशुद्धस्तस्य सस्तारः। यत्प्राप्तो निर्लोभत्वेन सुखं मुक्तिसुखं मोक्षसुखं वालेशतः परमानन्दमयं नववंभचेरगुत्तो, उज्जुत्तोदसविहे समणधम्मे। ,संतोषमित्यर्थः, 'न चक्रवट्टी वि' तिन चक्रवर्त्यपि तल्लभते; ..... आरूहई संथारं, सुविसुद्धो तस्स संथारो॥४२।। त्यर्थः / यदाह- "दुष्ट्यर्थ-मन्नमिह यत्प्रणधिप्रयास, संत्रासदोषकलुषो नवसु वसत्यादिषु ब्रहाचर्यगुप्तिषु गुप्तः नवब्रह्मचर्यगुप्तः, तथा-उद्युक्त नृपतिस्तु भुक्ते। ...............यन्निर्भयः प्रशमसौख्यरतश्च भुक्ते उद्यमवान् दशविधक्षान्त्यादिके श्रमणधर्मे एवंविधः सन्नारोहति संस्तार // 1 // " ||47 // सुविशुद्धस्तस्य संस्तारः। निप्पुरिसनाडगम्मि व, न सा रई तह सहत्थवित्थारे। अथ संस्तारकस्थ क्षपकमालोक्य शिष्यो गुरुं पृच्छति गाथाद्वयेन। जिणवयणम्मि विसाले, हेउसहस्सोवगूढम्मि॥४८॥ भगजन् ! संस्तारकस्थस्य मुनेः कीदृशो लाभः कीदृशश्च सुखमिति तदेव देवानां संबन्धिनि नाटके सा रतिर्न भवति। कथंभूते निजपुरूषनाटके गाथाद्वयेनाह निजपुरूषा नाटककर्तारः स्वस्वामिनः सातं बुध्यन्ते, ततस्तत्सुरा जुत्तस्स उ (त्त) त्तिमढे,मलियकसायस्स निध्वियारस्स। नाटकपात्राणि विकुर्वन्ति 'तह सहत्थवित्थारि' ति तथा देवा भण केरिसओ लाभो, संथारगयस्स समणस्स॥४३।। वैक्रियलब्ध्या स्वहस्ताभ्यां पात्राणि निष्काश्य द्वात्रिंशद्विधं नाटकं युक्तस्य-व्यवस्थितस्य च उत्तमार्थेऽनशनप्रतिपत्तिरूपे मलित विस्तारयन्ति, परमात्मेच्छयाऽपि विरचिते तस्मिन् न सा रतिर्न कषायस्य अधःकृतकषायस्य अत एव निर्विकारस्य कोपादिविकाररहितस्य भण-कथय कीदृशो लाभो भवति संस्तारगतस्य तत्सुखम्, जिनवचने विशाले विस्तीर्णे हेतुसहस्रो-पगूढे- हेतुसहस्रयुक्ते क्षपकेण श्रूयमाणेमनसिधार्यमाणे च यत् सुखं या रतिरित्यर्थः। अथवा - श्रमणस्य। जुत्तस्स उत्ति (त्त) मटे, मलियकसायस्स निव्वियारस्स। 'निप्पुरिसनाडगम्मि' त्ति निर्गतारहिताःपुरूषा यस्मिन्नाटके तन्निष्पुरूष भण केरिसंचय सुखं, संथारगयस्स समणस्स // 44 // तस्मिन्निष्पुरूषनाटके केवलस्त्रीपात्रमये नाटके स्वहस्तविस्तारजुत्तस्सेति' पादद्वयं तथैव भण-ब्रूहि कीदृशं च सौख्यं संस्तारकगतस्य स्वेच्छासंचारितहरतादिलये न सा रतिर्न तत् सुखम् / केवलखीनाटके श्रमणस्य। हि सर्वविषयाविर्भावके रागिणामतीव रतिर्भवति परं तस्मिन्नपि सा रतिर्न गुरुरपि गाथाद्वयेन क्रमेणोत्तरमाह भवति या जिनवचने रतिर्भवति इति तात्पर्यार्थः।। पढमिल्लगम्मि दिवसे, संथारगयस्स जो हवइ लाभो। जं रागदोसमइयं, सुक्खं जं होइ विसयमइयं च / को दाणि तस्स सक्का, काउंअग्धं अणग्धस्स॥४५|| अणुहवइ चक्कवट्टी, न होइ तं वीयरागस्स ||4|| 'पढमिल्लगम्मि' ति-प्रथमकेऽपि दिवसे संस्थारकगतस्यसंस्तारके यत्सुखं रागमयं-पुत्रकलत्रादिसेहमयं द्वेषमयंशत्रुविनाशसंभवं, यच सुखं व्यवस्थितस्य साधोर्यो लाभो भवति 'को दाणि' ति क इदानी 'विसयमइय' ति शब्दादिविषयसंभवं चतुःषष्टिसहस्रललनापरिचारनिरतिशयिनि काले तस्य लाभस्य 'सक्क' ति समर्थः पटुः स्यात् 'काउ' णामयमनुभवति चक्रवर्ती भवति तत्सुखं मोहमयम्, वीतरागस्यति कर्तुमर्घमनर्घस्य-अर्घगोचरातीतस्या गतरागद्वेषमोहत्वान्महामुनेः तद्धि सुखं क्षणविनश्वरं नहरेस्तु जो संखिज्जभवद्विइ, सव्वं पिखवेइ सो तहिं कम्म। परमसंतोषसुखसंभृतत्वान्न तत्किचिदित्यर्थः। अणुसमयं साहुपयं, साहू वुत्तो तहिं समए / / 46 / / मा होइ वासगणया, न तत्थ वरिसाणि परिगणिजंति। यः साधुः 'संखिजभवडिइ'त्ति संख्याता-संख्यायुर्लक्षणा भवेएकस्मिन् बहवे गच्छं बुच्छा, जम्मणमरणं च ते छुत्ता / / 50 / / भवे एकजन्मस्थितिकः-असंख्यातवर्षायुषो हि चारित्रप्रतीतिरपि न गुरुः शिष्यान प्रति भणति- भो वत्सा ! मा भवथ वर्षगणकीयता भवतीति संख्यातवर्षस्थितिकत्वमुक्तग. 'सव्वं पि खवेइ सो तहिं कम्म' / स्तोकेनापि कालेन ये इमेऽर्हन्तस्ते पुण्डरीकवत्परमार्थसाधका भवन्ति, ति सर्वभपि क्षपयति-निर्जरयति स साधुस्तत्र तस्मिन्संस्तारके न तत्र वर्षाणि गण्यन्ते, यदुतानेन बहूनि वर्षाणि दीक्षा कृताऽनेन व्यवस्थितः, प्रथमसंहननवत्प्रकृष्टा-राधनः क्षपयति अष्टप्रकारमपि स्तोकानीति। यतो बहवोऽपि गच्छवासमुषिताश्चिरं कालं यावद्गच्छवासं कर्म / अयं प्रतिसमय स साधुः साधुपदं प्रतिपन्नः सन्तरिमन्नेव भवे / कृतवन्तोऽपि प्रबलप्रमादतया “जयन्तराजर्षिवत् पार्श्वस्थतया विहृत्य Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार जन्ममरणरूपं संसारमतिशयेन क्षुण्णा मग्नाः क्षुप्ता वा संसारसागरे बुडिता इत्यर्थः। पच्छा विते पयावा, खिप्पं काहिंति अप्पणो पत्थं। जे पच्छिमम्मि काले, मरंति संथारमारूढा // 51 // पश्चादपि पर्यन्तसमयेऽपि उद्यतविहारितया “सेलकवत्" उद्यत-मरणेन "अर्हन्नकवत्" साधवः पूर्व-प्रथममेव वा पुण्डरीकगजसुकुमालवदुद्यतविहारेण पूर्व वा उद्यतमरणेनावन्तीसुकुमारववत् / अथवा- 'पयावा' इति-प्रपाताद्वा स्वदोषनिन्दागर्हालक्षणात् क्षिप्रंशीघ्र करिष्यन्ति आत्मनः पथ्यं-हितम् / के ते आत्मनो हितं विधास्यन्तीत्याह'पच्छिमम्मि'त्ति ये पश्चिमेऽपि काले 'मरन्ति' त्ति मियन्ते संस्तारकारूढाः सन्तो विहितानशना इत्यर्थः। अथ दीदृशो वाऽवकाशे संस्तारकः कर्तव्य इति प्रश्न स्य निर्वचनमाहन विकारणं तणमओ, संथारो न वियफासुया भूमी। अप्पा खलु संथारो, हवइ विसुद्धो चरित्तम्मि॥५२॥ नापि-नैव कारण-निमित्तं तृणमयः संस्तारकः पर्यन्ताराधनस्थकारणं / नापि प्रासुका निरया भूमिः तर्हि किंनिमित्तमित्याह- 'अप्पा खलु' तिआत्मा खलु-निश्चयेन संस्तारको भवति विशुद्धो निर्मलः 'चरित्तम्मि' त्ति-चारित्रे निर्मले, निरतिचारे इत्यर्थः।। अथ कीदृशस्य कस्मिन् काले इत्युभयनिर्वचनमाहनिचं ति तस्स भावु-ज्जुयस्स जत्थ व जहिं व संथारो। जो होइ अहक्खाया, विहारमन्भुञ्जओ लुक्खो॥५३।। नित्यं-सर्वदा तस्य-क्षपकस्य 'भावुज्जुयस्स' ति भावतो निर्मायस्याऽप्रमादिनः कृतालोचनस्य जत्थव' त्ति यत्रैव क्षेत्रे ग्रामननगरादौ, यत आह "चक्खुयजोगाणं पुण, मुणीण झाणे सुनिचलमणाणं / गामम्मि जणाइन्ने, सुन्नेऽरन्नम्मि न विसेसो॥१॥" 'जहिं वत्ति यस्मिन्वा काले दिवसनिशादी हेमन्तग्रीष्मादौ वा, यदाह- 'काले वि सो चिय जहिं, जोगसमाहाणमुत्तमं लहइ / न तु दिवसनिसावेला, इ (इ) नियमणं झाइणो भणियं / / 1 / / ' अथवा- 'जहिं' ति दर्भतृणकुसुमशिलातलतूलिकादौ यो भवति 'अहक्खाय' त्ति यथा च जिनवचनप्ररूपकः 'विहारमभुजओ' त्ति विहारमुद्यत-विहारं द्वादशसांवत्सरिकमभ्युद्यतः कृतसंलेखनः, अत एव कृतसंलेखनात्वा द्रूक्षः क्षीणधातुत्वादस्थिचविनद्धशरीरो, भावतः कषायपरिहारेण इति; द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च क्षेपकस्य शुद्धिरुक्ता। अथ यथाविधि तपो विधाय यस्मिन् काले संस्तारको विधेय इति तमाहबासारत्तम्मि तवं, चित्तविचित्ताइ सुलु काऊणं! हेमंते संथारं, आरूहई सव्वऽवत्थासु // 54 // पूर्व तावद्गुरुमनुज्ञाप्य"वत्तारि विचित्ताई, विगई निज्जूहियाइ चत्तारि। संवच्छरे य दुन्नी, एगंतरियं च आयाम।।१।। नाऽइविसिट्ठोय तवो, छम्मासे परिमियं च आया। अन्ने विय छम्से , होइ विगिट्ट तवोक्कम्मं // 2 // वीस कोडीसहिय, आयाम कटुटु आणुपुव्वीए। मिरिकंदरनवर्गतु, पाउवगमणं अह करेइ॥३॥" वर्षाकाले रात्री तपश्चित्रविचित्रादिकं 'सुटु' ति सुष्टुतिशयेन कृत्वा हेमन्तशीतकालादौ संस्तारकः कर्त्तव्यो निरापदि आयुषि च पूर्यमाणे आपदि चतुष्पदायुवि वा 'आरूहई' आरोहति करोति संस्तारक सर्वास्ववस्थास्विति गाथार्थः। अथ कैः कैरभ्युद्यतमरणविधिर्विहित इति तान् द्वात्रिंशता गाथाकलापेनाहआसीय पोयणपुरे, अज्जा नामेण पुप्फचूल त्ति। तीसे धम्मायरिओ, पविस्सुओ अन्नियापुत्तो॥५५।। 'गंगाए तडे पुप्फभव नाम नयरमि' त्यावश्यकचूर्णिः / इद पुनस्तस्यैव नामान्तर संभाव्यते / आसीत्पोतनपुरे आर्थिका पुष्पचूलेति, तस्या धर्माचार्यः-धर्मगुरुः प्रकर्षेण विश्रुतः प्रविश्रुतो विख्यातः अन्निकापुत्रः सूरिरिति। सो गंगमुत्तरंतो,सरसा उस्सारिओय नावाए। पडिवन्नों उत्तमहें, तेण वि आराहियं मरणं / / 56 / अन्यदाऽभिनवदीक्षितायाः पुष्पचूलायाः केवलोत्पत्तावात्मानं निन्दन तया भणितो भगवतामपि गङ्गामुत्तरतां केवलमुत्पत्स्यते, ततोऽसौ झटित्येव गङ्गायां नावमारूढः / तत्र च नगराधिष्ठातृदेवता सूरिभक्ता। नदीदेवता तु तस्याः प्रत्यनीका / तया चिन्तित-मदीयवैरिण्या गुरुरयं मारयितव्यः इति चिन्तयन्ती एवं विधत्ते, "जेणं जेणं पासेणं विलग्गति तं बुडइ सा मज्झे ठिओ सव्वा पाणी वुड्डइ तेहिं नाविएहि पाणीए छूढो देवयाए तिसूलेण विद्धा. नाणं उत्पन्न देवेहिं महिमा कया पयाग ति तत्थ जायं तित्थं / " संपूर्ण-कथा आवश्यकचूर्णितो ज्ञेया। अधुनाऽक्षरयोजना-स गङ्गामुत्तरन् सहसा तत्क्षणादेव नाविकेनाचार्य उत्सारितः, पातितः, प्रतिपन्न उत्तमार्थ , तेनापि मरणमाराधितम्।। पंचमहव्वयकलिया, पंच सया अज्जिया सुपुरिसाणं। नयरम्मि कुंभकारे, करगम्मि निवेसिया तइया / / 57 / / पञ्चमहाव्रतकलितानि पशशतानि 'अज्जिय' त्ति प्राकृतत्यादर्दितानिपीडितानि प्राकृतत्वादेव वा अर्जितानि रागादिभिः सत्पुरुषाणां 'नयरम्मि' कुभकारोपकारस्य लाक्षिणिकत्वात् नगरे कुम्भकारे कटके 'निवेसिय'त्ति निवेशितानि 'जतम्मि' त्ति अग्रेतनगाथायां संबन्धः, यन्त्रेघ्राणके। एगूण पंच सया, वाएण पराजिएण रूटेणं / जंतम्मि पावमइणा, छुन्नाछुन्ना अणुकमेणं // 58|| एकोनानि पञ्च शतानि स्कन्दकाचार्यशिष्याणां, वादे पराजितेन रुष्टेन कलकाभिधद्विजातिना पापमतिना क्षुण्णाक्षुण्णाः पिष्टाः अनुक्रमेणपरिपाट्या। निम्मम निरहंकारा, निययसरीरे वि अप्पडीबद्धा। ते वि तह छुज्जमाणा, पडिवन्ना उत्तमं अट्ठ / / 5 / / निर्ममा-ममत्वरहिताः निर्गताहंकारा:-निजदेहेऽप्यप्रतिबद्धाःप्रतिबन्धरहिताः तेऽपि, तथा-तेनैव प्रकारेण 'छुञ्जमाण' ति क्षुद्यमानापीड्यमनाः प्रतिपन्ना उत्तमार्थमिति। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 160 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार दंडो त्ति विस्सुयजसो, पडिमा दसधारओ ठिओ धम।। जयणाबंके नयरे, सरेहि विद्धोय सुरगीओ॥६॥ दण्ड इति नाम्ना मुनिर्विश्रुतयशा विख्यातकीर्तिः 'पडिमा दसधारड' ति तृतीयसप्तरात्रिंदिवलक्षणदशमभिक्षुप्रतिमाधारकः स्थितःप्रतिमाकायोत्सर्ग यमुनावड् ते उद्याने नगरेमथुरानाश्चि शरेणैिः विद्धः / यमुनाराजा तत्पदातिभिश्च 'सुरगीड त्ति सुरैर्देवैर्गीतस्तद्गुणगानेन। जिणवयणनिच्छियमई, निययसरीरे वि अप्पडीबद्धो। सोऽवितह विज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अट्ठ॥६१।। जिनवचने निश्चिता मतिर्यस्याऽसौ जिनवचननिश्चितमतिकः, तथा जिनकशरीरेऽपि अप्रतिबद्धः - प्रतिबन्धमुक्तः सोऽपि तथा विध्यमानोऽपि प्रतिपन्न उत्तमार्थम् / भावार्थः कथागम्यः, स चायम्"महुरा नथरी जउणावक उज्जाणं अवरेण जडणाए कुप्परो दिनो। तथा दंडो अणगारो आयावेइ। सो रायाए निंतणे दिहो, तो रोसेण असिणा सीसं छिन्नं / अन्ने भणंति-फालेहिं आहओ पच्छा सव्वेहि वि मणूसेहि कोवोदयं पइयरस आवइकाले मओ सिद्धो, देवाण महिमा करणं, समागमणं / पालएणं तस्स वि रन्नो अधिई जाया, वजेण, भासिओ सक्केण-जइ पव्वयसि तो मुच्चसि।पवयणथेराणं अंतिए अभिग्गहं गिण्हइ। जइ भिक्खागओवासंभरामि तान जिमेमि, जइ दूरे जिमिओ ता सेसगं पि विर्गिचिम। एवं किर तेण भगवया एगमवि दिवसं नाहारिय। तस्स वि दवावई दंडयरस भावावई एवं दढधम्मया कायव्वा। आसी सुकोसलरिसी, चाउम्मासस्स पारणादिवसे। ओरूहमाणोय नगे,खइओछुहियाएँवग्घीए॥६२|| आसीद्-अभूत्सुकोसलर्षिश्चातुर्मासस्य पारणकदिने 'ओरूहमाणो य नगे' त्ति पञ्चम्यर्थे सप्तमी नगादवतरन् ‘खइओ छुहियाए' त्ति क्षोभयाबुभुक्षितया व्याघ्रया। धीधणियबद्धकच्छो, पञ्चक्खाणम्मि सुछ आउत्तो। सो वितह खज्जमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अटुं // 63 / / धृत्या-अन्तरङ्गहृदयावष्टम्भेन धनिता अत्यर्थ बद्धा कक्षाप्रतिज्ञा येन स धृतिधनितबद्धकक्षः प्रत्याख्यानेऽनशनप्रतिपत्तिरूपे सुष्टुतिशयेन युक्तः- उपयोगवान सोऽपि भगवान् तथा खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम्। उज्जेणी नयरीए, अवंतिनामेण विस्सुओ आसी। पाउवगमणनिवन्नो, मुसाणमज्झेण एगते // 6 // उज्जयिन्यां नगर्यामवन्तिनाम्ना विश्रुतः “अवन्तीसुकुमार" इति ख्यात आसीत् / पादप इवोपगमनमवस्थान तेन पादपोपगमननिपन्नः सुप्तःपादपोपगमननिपन्नः 'मुसाणमज्झेण' त्ति महाकालाख्यश्मशाने 'एगते' ति निर्जनप्रदेशे। तिन्नि रयणीउ चइउं, भालुंका उट्ठिया विकडुति। सो वि तह खज्जमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अटुं // 65 // 'तिन्नि रयणीउ' त्ति-त्रीन रजनिप्रहरान् अवयवे समुदायोपचारात् 'धइउं' त्यक्त्वा स्वशरीरमित्यध्याहारः' अथवा-च्यावयितुं क्षारयितुं रूधिरादि रात्रिंदिवं, मार्गे च गच्छतोऽति सुकुमारत्यात रूधिरस्रावत् / तद्वन्धेनाकृष्टा 'मालुंका' श्टगाली 'उट्टिया वि' त्ति उत्थिता 'कट्टतीति' कर्षयति साऽन्त्रादि। यत उक्तम् 'लोहियगंधेणं सिवा आगमण सिवा एग पायं खाइ, एक पि लूगाणि, पढमे जानुगाणि, वीए उरू, तइए पोर्ट कालगओ, विस्तरेणावश्यक-चूर्णेरवसेयम्। सोऽप्यवन्तिसुकुमारस्तथा खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थमिति। जल्लमलपंकधारी,आहारोसीलसंजमगुणाणं / आजीरणो य गीओ, कत्तियअज्जो सरवणम्मि॥६६|| याति लगति च जल्लो-रजोमात्रःमलः-कठिनीभूतःपङ्को-मल एव स्वेदेनार्दी भूतः जलश्च मलश्च पङ्गश्च तान निष्प्रति कर्मतया धारयतीत्येवंशीलो जलमलपङ्कधारी / पुनः किंभूतः, आधारः-स्थानं, केषां? शीलसंयमगुणानां शीलमष्टादशधा ब्रह्मचर्यम् अष्टादशसहस्रशीलाङ्गानिवा संयमः सप्तदशधा गुणाः सप्तविंशत्यनगारगुणाः। शीलं च संयमश्व गुणाश्च शीलसंयमगुणास्तेषाम् 'आजीरणो य' त्ति आजीरणव आजि-संग्राम ईरयति प्रेरयति क्षपयति जयतीति यावत्, आजीरणो राज्यावस्थायां शत्रुभिः सह श्रामण्ये कर्मभिः सहेति 'गीओ' त्ति गीतः प्रसिद्धः गीतार्थश्व 'आग्गीउ' त्ति पाठे प्राकृतत्वात् अग्ने राज्ञोऽयमाग्नेयः / यत आह- 'रोहेडगम्मि सत्ती, हओ वि कोवेण अम्मिनिवदइओ / तं वेयणमहियासिय, पडिवन्नो उत्तम अटुं' / / 1 / / कत्तियअज्जो सरवणम्मि' त्ति कार्तिकार्य इति नाम्ना सरवणसंनिवेशे यो महात्मा यात इति / रोहेडगम्मि नयरे, आहारं फासुयं गवेसंतो। कोवेण खंतिएणं, मिन्नो सत्तिप्पहारेण // 67|| स च भगवान् रोहेडकपुरे प्रासुकमाहारं गवेषयन् राज्यावस्थापरावेन केनापि क्षत्रियेण कोपेन शक्तिप्रहारेण शक्तिप्रहरणविशेषेण भिन्नोविदारितः। ततोऽनन्तरं स महर्षिः किं कृतवानित्याहएगते मणवाए, विच्छिन्ने थंडिले चयइदेह। सो वितह विज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अटुं॥६८|| एकान्ते-दुष्टपशुश्वानस्वापदस्यादिवर्जिते अनापाते धर्मध्याने व्याघातकागन्तुकजनरहिते विस्तीर्णे -पुष्कले स्थण्डिले संस्तारककरणप्रायोग्ये भूखण्डे त्यजति-मुञ्चति व्युत्सृजति स्वयमेव देह निजशरीरम् / 'चइय' इति पाठे त्यक्त्वा देहं सोऽपि महासत्त्वस्तध विध्यमानस्तेन शक्त्या ताड्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम्। 'पाडली' त्यादि गाथात्रयम् ‘धम्मसीह' शब्दे चतुर्थभागे 2734 पृष्ठे गतम्। (चाणक्यः इङ्गिनीमरणं प्रतिपन्न इति 'इंगिणीमरण शब्दे द्वितीयभागे 532 पटे गतम्।) अणुलोमपूयणाए, अहसो सत्तुंजओ डहइ देहं। सो वितह डज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तमं अट्ठ॥७२।। अनुलोमा-अनुकूला पूजनाऽनुलोमपूजना तया अनुलोम पूजनया कृष्णागुरुप्रभृतिसुरभिधूपोत्क्षेपदाहय्याजेन गोवाटककरीषदहनतया सुबन्धुः दहति देहं शरीरम्, सोऽपि तथा दह्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम्। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार एतत्संवादिगाथेयम्गुढे पाओवगओ, सुबंधुणा गोमये पलिवियम्मि। डज्झंतो चाणको, पडिवन्नो उत्तमं अटुं // 73|| अथ गाथात्रयेण संबन्धः। कायंदीनयरीए, राया नामेण अमयघोसो त्ति। तत्तो सुयस्स रज्जं, दाऊणं अहचरे धम्मं / / 74| काकन्द्यां नगर्या राजा नाम्ना "अमृतधोष" इति, ततः स राजा सुतस्यपुत्रस्य राज्य दत्त्वाऽथ चरेदनुतिष्ठेत् धर्म चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणम्। आर्हिडिऊण वसुहं, सुत्तत्थविसारओ सुयरहस्सो। काइंदी चेव पुरि, अहसंपत्तो विगयसोगो।।७।। आहिण्ड्य-परिभ्रम्य विहृत्येत्यर्थः वसुधा सूत्रार्थविशारदोविचक्षणः, यत एव सूत्रार्थविशारदोऽत एव श्रुतरहस्यः श्रुतनिकषः काकन्दीभेव पुरीमथ विहरन्नुद्यतविहारेण संप्राप्तः विगतशोकः-परित्यक्तदैन्यभाव इति। नामेण चंडवेगो, अहसो पडिछिंदई तयं देहं। सो वितह छिज्जमाणो, पडिवन्नो उत्तम अहूँ॥७६।। नाम्ना चण्डवेगः पूर्वापराद्धो मन्त्री अन्यो वा कोऽपि संपन्नोऽथ स प्रत्यनीकस्तकं राजर्षि देह-शरीरं प्रतिछिनत्तिद्विधाकरोति / सोऽपि भगवानमृतघोषस्तथा छिद्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम्। (संथा०) (अथ 'कोसवी' त्यादिगाथा 'ललियघडा' शब्दे षष्ठभागे गता।) जलमज्झे ओगाढाज्ञ, नईऍपूरेण निम्ममसरीरा। तह विहुजलदहमज्झे, पडिवन्नो उत्तमं अटुं॥७८|| ततश्च तेषां भगवतां पादपोपगमनिकावतामकाले वृष्टिप्रादुर्भावान्नदी पूरेणायाता / नदीपूरेण च महता वहता काष्ठेशय्याऽस्य जलमध्ये ओगाढा-विक्षिप्ता / ततच निर्ममः-शरीरऽपि ममत्ववर्जितस्तथापि हु:स्फुट 'जलदहमज्झि' त्ति अकालागतनदीपूरेणोह्यमानो जलहदसमुद्रं प्रापितः / ततो जलहदमध्येऽपि उत्तमार्थ प्रतिपन्नः। अथ गाथाचतुष्टयेन संबन्धःआसी कुणालनगरे,राया नामेण वेसमणदासो। तस्स अमच्चो रिट्ठो, मिच्छादीट्ठी अहिनिविट्ठो॥७९॥ आसीद्-अभूत् कुणालनगरे-उज्जयिन्यामित्यर्थः, राजा नाम्ना वैश्रमणदासः / तस्य राज्ञः अमात्यो-मन्त्री रिष्टोरिष्टाभिधानः मिथ्यादृष्टिर्जिनशासन प्रत्यनीकः अभिनिविष्टःसर्वज्ञमतं प्रति द्वषवान् समभूदित्यर्थः। तत्थ य मुणिवरवसभो, गणिपिडगधरो तहऽऽसि आयरियो। नामेण उसभसेणो, सुयसागरपारगोधीरो।।८०| तत्र-तस्यामुजयिन्यां मुनिवरवृषभः प्रधानाचार्यः गणिपिटकधरो द्वादशाङ्ग धारी, तथा आसीदाचार्यः नाम्ना 'उसभसेण' त्ति-वृषभसेनः श्रुतसागरपारगः-सर्वश्रुताम्भोधितीरगामी धीर:-परीषहसहनसमर्थः / तस्साऽऽसी य गणहरो, नाणासुत्तत्थगहियपेयालो। नामेण सीहसेणो, वाएण पराजिओ रिहो।।१।। तस्य शिष्य आसीद्गणधरः आचार्यः, नानासूत्रार्थगृहीतपेयालःअनेकसूत्रार्थपरिज्ञातविचारः नाम्ना सिंहसेनः, तेन च 'वारण' ति वादेनस्वदर्शनस्थापनलक्षणेन पराजितःपराभग्रः रिष्टः-रिष्टामात्यो यादे उपस्थितः सन्नित्यर्थः। अह सो निराणुकंपो, अग्गिं दाऊण सुविहियपसंते। सो वितह डज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तम अटुं॥२॥ अथ स रिष्टः पापिष्ठः 'निराणुकंपो' त्ति निर्गतघृणः 'अग्गिं दाऊणं' ति अग्निवैश्वानरं दापयित्वा दत्त्वा वा सुविहितानां-साधूनां पश्यत्युपाश्रयति वेति विहितोपाश्रयः 'सुविहियपसुत्ते' त्ति पाठे सुविहितेऽप्यप्रसुप्तेऽपि दहतीत्यध्याहारः। सोऽपि सिंहसेनाचार्यस्तथा दह्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थमिति। कुरुदत्तो वि कुमारो, संबलिफालि व्व अग्गिणा दड्डो। सो वितह डज्झमाणो, पडिवन्नो उत्तम अहं / / 3 / / "कुरुदत्तः” कुरुदत्तनामाऽपि इभ्यपुत्रर्षिः संबलिफालिव्व' त्ति शाल्मली वृक्षविशेषस्तस्य फालिवत्-तस्य शाखावत् अग्रिना दग्धः, सा हि निःसारत्वादग्निना झटित्येव दह्यते / सोऽपि तथा दह्यमानः प्रतिपन्न उत्तमार्थम् / अस्य भावार्थोऽपि दर्श्यते। तथाहि - "हत्थिणाउरे नयरे कुरुदत्तसुओ नाम इब्भपुत्तो, स तहारूवाणं थेराणं अंते पव्वइओ। वहुस्सुओ समणो कयाइ एगल्लविहारं पडिम पडिवन्नो / सो साएयस्स नयरस्स अदूरसामंते आगओ। विहरतो चरिमा ओगाढा पोरिसी। तत्थेव पडिमं ठिओ चच्चरे,तत्थ य एमाओ गावीओ हरियाओ तेणेहिं / तेण ओगासेण नीयाओ जाव मग्गमाणा उडिया आगया, दिवो साहू / तत्थ दुवे पंथा। पच्छा ते न जाणति कयरेण नीयाओ। ते साहुं पुच्छंतिसो भगवं न वाहरइ / तेहिं पउद्वेहिं सीसे पट्टिया पालिंबंधेऊण वियगाओ अंगारि चित्तूण सीसे छूढा / तेण भगवया सम्ममहियासियं।” ('आसी' इत्यादि गाथा 'चिलाई पुत्त' शब्दे तृतीयभागे 1162 पृष्ठ गता।) आसीगयसुकुमालो,अल्लयचम्मं वकीलयसएहि। धरणियले उव्विद्धो, तेण वि आराहियं मरणं / / 8 / / आसीद्गजसुकुमाल इभ्यपुत्रः, कुरुदत्तन्यायेन गृहीतव्रतः सकलाधीतश्रुतः एकलविहारप्रतिमाप्रतिपन्नः कायोत्सर्गस्थस्तेनैव प्रकारेण कुटिकैः पृष्टो गोगमनमार्गो न गदितवानिति गजसुकुमारस्य शरीरमाचगंवस्कीलकशतैस्ताडयित्वा धरणितले महीपीठे उद्विद्धः, तेनापि भगवता मरणमाराधितं प्राणसमाप्तिं यावच्च धर्मध्यानवान् जात इति तात्पर्यार्थः / मंखलिणा वि अरहओ, सीसा तेयस्स उग्गया दड्डा। ते वितह डज्झमाणा, पडिवन्ना उत्तम अह्र // 86|| 'मंखलिणा वित्ति-पुत्रशब्दलोपान्मङ्खलिपुत्रेणाऽपि गोशालकेन अर्हतो महावीरशिष्यौ सुनक्षत्रसर्वानुभूती 'तेयस्स उग्गय' त्ति तेजसस्तेजोलेश्याया 'उग्गया दड्ढ' त्ति उग्रतया-तीव्रतया दग्धौ भस्मीकृतौ तौ तथा दह्यमानौ प्रतिपन्नावुत्तमार्थमिति, इत्येते दृष्टान्ता बहवः प्रसिद्धा एव / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार शास्त्रप्रसद्धित्वान्न दर्शिताः पर्यायमात्रनिदर्शने हेतुत्वात्प्रारम्भस्य। अथ गाथाद्वयेन संबन्धः। परिजाणइ त्तिगुत्तो, जावजीवाएँ तिविहमाहारं। संघसमवायमझे, सागारं गुरुनिओगेणं / / 87 // अहवा समाहिहेउं, करेइ सो पाणगस्स आहारं। तो पाणगं पि पच्छा, वोसिरइ मुणी जहाकालं / / 88|| परिजानाति-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्याति त्रिगुप्तो- मनोवाक्कायगुप्तः 'जावजीवाए' त्ति यावजीवं सर्वमपि चतुर्विधमप्याहार, व प्रत्याख्याति? गुरुसमीपे / कथमिव प्रत्याख्यातीत्याह- 'भवचरिम पत्रक्खामि चउटिवह पि आहार, असणं पाणं खाइमं साइम अन्नत्थऽणाभोगेणं सहसागारेणं वोसिरामि' किमेकाक्येव प्रत्या-ख्याति उत कानपि साक्षिणः कृत्वेत्याह-संघसमवायमध्ये-संघसभामध्ये 'सागारं गुरुनिओगेणं' ति ए तत्पदमतनगाथायां संबध्यते / ततः किमित्याह-अथवा समाधिहेतु-समाधिनिमित्तं 'सागारं गुरुनिओगेणं ति' एतत्पदम् आकारचतुष्टययुक्तं तदेवाह-'भवचरिम करेमि' कोऽर्थः गुरुनियोगेन-गुज्ञिया सपानक-स्याहारे प्रथमतःपूर्वमुत्कलं करोति 'तो पाणगं पि' तिततोऽनन्तरं पानकमपि पश्चात्पर्यन्तसमये व्युत्सृजति, यथाकालं-यथावसरं ज्ञात्वा- 'अह कयमंजलिपणओ भणइ' त्ति पदमुत्कलितमेव / अथ क्षपकः कृताञ्जलिः प्राकृतत्वान्मकारागमश्व रचिताञ्ज-लिकोरकः प्रणतः सन भणति। यच भणति तदाहखामेइसव्वसंघ, संवेगंसेसगाण कुणमाणो। मणुवइकाएहिं पुरा, कयकारियअणुमए वाऽवि।।८६|| क्षमयति-मर्षयति सर्वसंघ-साधुसाध्वीश्रावक श्राविकारूपं कुर्वन् क्षमयति 'संवेग' ति संवेगं मोक्षाभिलाषम्।यत आह-"सिद्धीय देवलोगो सुकुलुप्पत्ती य होइ संवेगो' शिष्यकाणामपि मुनीनां कुर्वाणः कथं क्षमयति 'मणुवइजोगेहि पुरा' इति-मनोवाग्योगाभ्यामुपलक्षणत्वात्काययोगेन च पुर' त्ति पूर्वकृतानपराधान् न केवलं मगोवाकाययोगैः 'कयकारियअणुमए वाऽवि' त्ति तृतीयाविभक्तिबहुवचनलोपात् कृतकारितानुमतिभिः अपिवाशब्दस्य समुच्चयार्थत्वात् क्षमयत्यपीत्यर्थः / सव्वे अवराहपया, एस खमावेमि अज निस्सल्लो। अम्मापिउणो सरिसा, सव्वे विखमंतु मे जीवा 180|| 'सव्वे अवराहपय' त्ति- प्राकृतत्वात्पुंलिङ्ग निर्देशः, सण्यिपराधपदानि आशातनारूपाणि एष-अहं 'खमावेमि' क्षमयामि पूर्वगाथायां संबन्धः क्षमयतीत्युक्तम् / तत्र संघस्य मुख्यो गुरुः, तद्विपयाश्व त्रयस्त्रिंशदाशातनाः ताश्च द्वादशावर्त्तकृतकर्मपूर्व क्षमयितव्याः, अतो भण्यते-अपराधक्षामणां कुर्वन् रजोहरणोपरिन्यस्तमस्तको विनेयो भणति- 'खामेमी' त्यादि दैवसिकव्यतिक्रममवश्यकरणीययोगविराधनारूपमपराधम्, अवसिए' त्यादि जो मे अइयारो कओ इत्येतत्पर्यन्तं स्वकायाद्यतीचारनिवेदनपरमालोचनाहे प्रायश्चित्तसूचकं सूत्रम् तरय खमासमणो इत्यादिके प्रतिक्रमणार्हप्रायश्चित्ताभिधायक व्युत्सृजाम्यात्मानं दुष्टकर्मकारिणं तदनुमतित्यागेन च। अथ त्रयस्त्रिंशदाशातना | दय॑न्ते"पुरओ पच्चासन्ने, गंता चिट्टण निसीयणागमणे। आलोयण पडिसुणणे, पुवालवणे य आलोए।।१।। तह उवदंसनिमंतण, खद्धयणे तहा अपडिसुणणे। खद्धत्ति य तत्थ तए, किंतु मत जायनो सुमणे / / 2 / / णो सरसि कह छित्ता, परिसंभित्ता अणुट्ठिया य कहा। संथारपायघट्टण, चिटुच्च समासणी यावि।।३।।" प्रथमगाथायां चतुर्दश, द्वितीयायामेकादश, तृतीयायामष्टौ चेति / तत्र गुरोः पुरतो निष्कारणं गमनं शिष्यस्य 1 पाभ्यामपि गमनं 2 पृष्ठतोऽप्यासन्नगुरुगमनं निःश्वासक्षुत् (च) श्लेष्मपातादिप्रसङ्गात् 3 एवं पुरतः 4 पार्श्वतः 5 पृष्ठतश्च स्थानम् 6 एवं निषदनम् / आचार्येण सहोचारभूमि गतस्याचार्यात्प्रथममेवागमनम् 10 आचार्येण सह बहिर्गतस्य शिष्यस्य पुनर्निवृत्तस्याचार्यात्प्रथममेव गमनागमनलोचनम्, 11 तत्राचार्यः कः स्वपिति जागर्ति वेति गुरोः पृच्छतोऽपि जाग्रतापि शिष्येणाप्रतिश्रवणम् 12 गुरोरालापनीयस्य शिष्येण प्रथममालापनम् 13 भिक्षामानीय पूर्व शैक्षस्य पुरत आलोच्य पश्चाद् गुरोरालोचनम् 14 भिक्षामानीय प्रथममेव शिष्यस्योपदर्थ्य पश्चाद् गुरोर्दर्शनम् 15 भिक्षामानीय शैक्षनिमन्त्र्य गुरोनिमन्त्रणम् 16 गुरुमनापृच्छ्य शैक्षाणां यथारुचि प्रभूताहारदानम्, 17 शैक्षण भिक्षामानीय गुरखे यत्किचिता स्वयं स्निग्धमधुरमनोज्ञाहारशाकादीनां वर्णरसगन्धरसस्पर्शवतां च द्रव्याणां स्वयमुपभोगः 18 दिवापि अप्रतिश्रवणम् 16 गुरोः पुरतो बहिः कर्कशस्योचैःस्वरस्य च विशेषेणाभणनम् 20 गुरो ाहरति यत्र तत्र स्थितेन शयितेन वा शिष्येण प्रतिवचनदानम्, आहूते बहिः सन्निहितीभूय मस्तकेन वन्दे इति वदता गुरुवचः श्रोतव्यम् 21 गुरुणा आहूतशिष्यस्य किमिति वचनम् 22 गुरु प्रति शिष्यस्य सत्वंकारः, 23 गुरुणा ग्लानादिवैयावृत्यादि कुर्वि-त्यादिष्टस्त्वमेव किं न कुरुपे इति त्वमलस इत्युक्ते स्वमप्यलस इति च शिष्यस्य जातवचनम् 24 गुरुः धर्म कथयति-साधूक्तं भगवद्धिरिति अननुमोदमानस्यापहतमनस्त्वम् 25 न स्मरसि त्वमेनमर्थ नायमर्थः संभवतीति शिष्यस्य वचनम् 26 न एवमेतदिति अन्तराले शिष्यस्य वचनम् 27 इयं भिक्षावेलाभेजानवेला इत्यादिना शिष्येण पर्षवेदनम्, 28 आचार्येण धर्मकथां कृतायामनुत्थितायामेव पर्षदि स्वस्य पाटवादिज्ञापनाय शिष्येण सविशेषधर्मकथनम् 26 गुरौ धर्मकथा कथयिष्यामीति शिष्येण कथनं, वा गुरोः शय्यासस्तारकादिकस्य पा देन घट्टनमननुज्ञाप्य हस्तेन स्पर्शन घट्टयित्वा स्पृष्ट्वा वा अक्षामणम् 30 गुरोः शय्या-संस्तारकादौ स्थानं निषदनं शयनं वेति 31 गुरोः पुरत उच्चासने शिष्यस्योपवेशनम् 32 समासने गुरोरुपवेशनम् 33 एतास्तावद् गुरुविषया 'जवा' इत्यादिकाः पुनश्चतुर्दश केवलस्यैव सूत्रस्य विषया अपि सामान्यतस्त्रयस्त्रिंशत् क्षमयति इत्यमुना प्रकारेणाचार्योपाध्यायसाधुसाध्वीश्रावकभाविकारूपं चतुर्विध सङ्घ मनोवाक्कायकृतकारितानुमतिभिः सर्वापराधपदानि क्षमयाभिमर्षयामि एष प्रत्यक्षवत्ती अद्यास्मिन्नहनि निःशल्योमायामिथ्यादर्शननिदानशल्य Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार रहितः कृताऽऽलोचन इत्यर्थः / (अतः परम् 'अम्मापिउणो सरिस' त्ति (संथा०) पदव्याख्या 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1536 पृष्ठे गता।) धीरपुरिसपन्नत्तं, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं। धन्ना सिलायलगया, साहिंती उत्तम अटुं|१|| अथ गुरवः क्षपकमनुशासयन्ति, हे वत्स ! धीरपुरुषप्रज्ञप्तं तीर्थ - करणगधरादिदेशितं सत्पुरुषनिषेवितं पुण्डरीकादिमहापुरुषाचीर्ण परमधोरं क्लीबैर्दुरनुचरं धन्या एव शालिभद्रादिन्यायेन साधयन्ति निष्ठा प्रापयन्ति उत्तमार्थ विशिष्टाराधनम्। तामेवानुशासनां चतुर्गतिकसांसारिकपरिभ्रमण दर्शयतिनारयगइ-तिरियगइ-माणुसदेवत्तणे वसंतेणं / जंपत्तं सुहदुक्खं, तं अणुचिंते अणन्नमणो||२|| नरकगतिश्च तिर्यम्गतिश्च मानुषाश्च देवाश्च नरकगतितिर्यग्गतिमानुषदेवास्तेषां भावो नरकगतितिर्यग्गतिमानुषदेवत्वं तस्मिन्नरकगतितिर्यग्गतिमानुषदेवत्वे वसता सता यत्प्राप्तं सुखं दुःखं च सुख-दुःखं तत् अनुचिन्तयस्मर 'अणन्नमणो' त्ति एकाग्रचित्त इत्यर्थः। नरएसुवेयणाओ, अणोवमाओ असायबहुलाओ। कायनिमित्तं पत्तो,अणंतखुत्तो बहुविहाओ||३|| नरकेषु वेदनाः शीतोष्णदंशक्षुत्पिपासादाहज्वरशोकभयकण्डुपारवश्यरूपा दशप्रकाराः। यत उक्तं च "अच्छिनिमीलणमित्तं, नऽस्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं / नरए नेरइयाणं, दुक्खसयाई अविस्सामं / / 1 / / अइसीयं अइउन्हं, अइतन्हा अइखुहा अइसयं च / नरए नेरइयाण, वेयणसयसंपगाढाणं ॥२सा” अणोव-माओ' त्ति अनुपमाउपमातीताः अशातबहुलाःदुःखप्रचुराः 'कायनिमित्तं पत्तो' त्ति वैक्रियादेः शरीरयोगात्प्राप्ता बहुविधाः तप्तत्रपुपानतप्तायोमयस्त्रीपुत्तलिकासमालिङ्गनकूटशाल्मलिशिखरारोपणचरणशिरः समाकर्षणायोघनघातनवज्रमयमुद्गरनिकरप्रहरणवज्रविनिर्मितनिशितवास्यादितक्षणक्षतक्षारोष्णतैलनिक्षेपणकुन्तादिप्रोतनभ्राष्टभर्जनयन्त्रपीडनक्रकचपाटनवैक्रियानेकककोलूकनकुलसर्पवृश्चिकश्वमार्जारव्याघ्रसिंहादिकदर्थनाकदम्बपुष्पाकारवज्रवासुकावतारणासिपत्रवनप्रवेशनवैतरणीनदीप्लावनपरस्परयोधनादिका वेदनाः नानाप्रकाराः शरीरभावात् अशरीरिणां सिद्धानां सर्वथाऽपितासामभावादिति। अथ कियतीबेलास्ताः प्राप्ता इत्याह- 'अणंतखुत्तो' त्ति-अनन्तकृ (त्वा) त्वः-अनन्तवेला इत्यर्थः। देवत्ते मणुयत्ते, परामिओगत्तणं उवगएणं / दुक्खपरिकिलेसकर, अणंतखुत्तो समणुभूओ ||4|| | न केवलं नरकत्वे एव वेदनाः समनुभूताः, किं तु देवत्वमानुषत्वेऽपि समनुभूताः / देवत्वे तावदीयाविषादपरपरिभवप्रेक्षताभियोगिकत्ववजताडनादिका, मनुजत्वे मण्टकुण्टटुण्टपड़ गुवधिरान्धदुः स्वरदुर्भगहीनदीनदारिद्र्योपद्रवरोगशोकेष्टवियोगानिष्टसंप्रयोगजन्मजरामरणा दिकाः पराभियोगकत्वमुपगतेन प्रादुर्भूताः, 'दुक्खपरिकिलेसकरि' त्ति दुःखपरिक्लेशकरीवेदनाः 'समणुभूओ' त्ति समनुभवति स्म समनुभूतः अणतखुत्तो' त्ति अनन्तकृत्वोऽनन्तेषु भवेष्वित्यर्थः / तिरियगई अणुपत्तो,भीममहावेयणा अणोयारे। जम्मणमरणरहट्टे, अणंतखुत्तो परिब्भमिओ।।६।। तिर्यग्गतिमनुप्राप्तः भीमाश्चभयानकाः महतीः वेदना- महावेदनाः भीमाश्च ता महावेदनाश्च भीममहावेदनावधवेधदहनाङ्कनिर्वृषणगलकर्त्तनकर्णच्छेदपुच्छच्छेदतृष्णाक्षुधाभारवहनादिकाः 'अणोयारे' त्ति अनर्वाक् अलब्धपारे अपार पर्यन्तेजन्ममरणारघट्टे संसारेऽनन्तकृत्वः परिभ्रान्तःपर्यटित इत्यर्थः। सुविहिय ! अईयकाले, अणंतकालंतु आगयगएणं। जम्मणमरणमणंतं, अणंतखुत्तोसमणुभूओ||१६|| हे सुविहित ! अस्मिन्संसारे चातुर्गतिकेऽतीते काले व्यतीद्धायाम् अनन्तकालं 'तु' त्ति अपिशब्दार्थे, ततोऽयमर्थो न केवलं संख्यातं कालं किं त्वनन्तकालपपि आगतकाले काले कृत्वा गमनेन पुनः परिभ्रमणे - नेत्यर्थः, 'जम्मणमरणमणत' ति प्राकृतत्वादेकवचनं जन्ममरणान्यनन्तानि। एकपरिपाट्याऽपि अनन्तानि भवन्तीत्याह- 'अणंतखुत्तो' त्तिअनन्तान्यपि। अनन्ता परिपाटी कथम् ? निगोदेष्वनन्तकालमुषित्वा ततस्त्रसत्वं प्राप्य पुनः तेष्वेवानन्तकालमुषित्वा एवमनयेव परिपाट्या अनन्तकृत्वोऽपि अनन्तानीत्थमनुभूत इत्यर्थः। नऽत्थि भयं मरणसमं, जम्मणसरिसंन विजए दुक्खं / जम्मणमरणायंकं, छिंद ममत्तं सरीराओ||७|| नास्ति भयं मरणसम-मृत्युतुल्यं, यत आह-'सब्वे जीवा पियाउया अप्पियवहा (सुयसाया) दुक्खपडिकूला। सवे जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं ति॥१॥ किंच-"तृणायाऽपिन मन्यन्ते, सुतदारार्थसंपदः / जीवितार्थे नरास्तेन, तेषामायुर-तिप्रियम्॥१॥" तथा जन्मसदृशंदुःखं न विद्यते। यतः-"सूईहिं अग्गिवन्नाहि,संभिन्नस्स य जंतुणो। जावइयं गोयमा / दुःक्खं, गब्भे अद्वगुणं तओ // 1 // गब्भाओ निस्सरंतस्स, जोणीजतनिपलणे / सयसाहसियं दुक्खं, कोडाकोडीगुणं पि वा // 2 // " जन्ममरणातङ्क जन्ममरणे आतङ्कहेतुत्वात् ममत्वं छिन्धिनाशय ममत्वं शरीरात्, शरीरे ममत्ववतानि भवन्तीत्यर्थः / अतश्च किं भावयअन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवो त्ति निच्छयमई उ। दुक्खपरि किलेसकरि, छिंद ममत्तं सारीराओ / / 68|| अन्यदेतच्छरीरम् अन्यश्च जीवः शरीराद् व्यतिरिक्त इति निश्चयमतिकः सन् दुःखपरिक्लेशकारि 'ममत्त' ति प्राकृतत्वान्ममत्वं मूछा छिन्धिनाशयेत्यर्थः। यतः कारणात्जावंति केइ दुक्खा, सारीरा माणसा य संसारे। पत्तो अणंतखुत्तो, कायस्स ममेतिदोसाणं / / 6 / / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार यावन्तिकानि च दुःखानि शारीराणि मानसानि च संसारे वर्तन्ते तानि प्रज्ञातानि प्राकृतत्वालिङ्ग निर्देशः सर्वत्र अनन्तकृत्वः कायस्यदेहस्य ममत्वभावेनेत्यर्थः। तम्हासरीरमाई, सब्मितरबाहिरं निरविसेसं। छिंद ममत्तं सुविहिय!, जइइच्छसि उत्तमं अटुं।।१०।। तस्मात्-कारणात् शरीरादिना सहाभ्यन्तरबाह्येन वर्त्तते इति सबाह्याभ्यन्तरम् / तत्राभ्यन्तरं-कषायनिदानादि बाह्यमुपधिस्वजनपरिवारादिक निरविशेष-परिपूर्ण छिन्धिविदारय ममत्वंप्रतिबन्धं हे सुविहित ! उत्कृष्टारोधन! यदिइच्छसि-वाञ्छसि मोक्षमिति तात्पर्यार्थः। विशेषतः पुनः उत्तमार्थ संघक्षामणामाहजगआहारो संघो, सव्वो मह खमउ निरविसेसं पि। अहमविखमामि सुद्धो, गुणसंघायस्ससंघस्स।।१०१।। जगतो-लोकस्य दुर्गतौ पततः आधार:-आलम्बनं संघः, संघप्रसादतो / दुर्गतिपातो न भवतीत्यर्थः, सर्वोऽपि साधुसाध्वीश्रीवकश्राविकालक्षण: 'मह खमउंति मम क्षमय निरविशेषमप्यपराधजातम्। अहमपि क्षमामिक्षमा करोमि गुणसंघातस्यगुणसमुदायस्य सत्कमपराधजातमित्यर्थः। पूर्वमपि संघक्षामणा सर्वजीवराशिक्षामणा च कृतेति पुनरपि किंचित्सनामग्राहमाहआयरिय उवज्झाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे य। जे मे कया कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि।।१०।। सव्वस्ससमणसंघ-स्स भगवओ अंजलिं करिय सीसे। सव्वं खमावइत्ता,खमामि सव्वस्स अहयं पि॥१०३|| सव्वस्स जीवरासि-स्स भावओधम्मों निहियनियचित्ते। सव्वं खमावइत्ता, अहयं पिखमामि सव्वेसिं॥१०४|| गाथात्रयमपि प्रतिक्रमणाध्ययनप्रसिद्धत्वान्न विवृतम्। इइ खामियाइयारो, अणुत्तरं तवसमाहिमारूढो। पप्फोडतो विहरइ, बहुभवबाहाकयं कम्मं / / 10 / / 'इति' सर्वसंघसर्वजीवराशिक्षामितातिचारः सन् अनुतरांप्रधानां तपःसमाधिं 'नो इह लोगट्टयाए तवमहिडिजा, नो परलोगट्टयाए तवमहिडिजा, नो कित्तिवण्णलद्धसिलोगट्टयाए तवमहिडिल्ला, नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिहिजा ' 'इत्येवंरूपां चतुर्विधामपि तपसि परमसमाधिमारूढः उत्कृष्टाराधनाकरणे बद्धकक्षः प्रस्फोटयन्विनाशयन विहरति-वर्त्तते / किमित्यत आह-'बहुभवबाहाकयं कम्म' ति-बहवश्व ते भवाश्च बहुभवास्तेषां बाधानिरन्तर परिभ्रमणेन संकट बहुभवबाधा बहुभवबाधया कृतं किं कर्म तत्प्रस्फोटयति-विनाशयति इत्यर्थः। तदेव कर्मस्फोटनं विशेषेण विवृणोतिजं बद्धमसंखेज्जा-हि असुहभवसयसहस्सकोडीए। एगसमएण वि हणइ, संथारं आरुहंतो य॥१०६।। यत्कर्म बद्धम् असंख्याताभिरशुभभवशतसहसकोटिभिः 'असुह'त्ति | विभक्तिलोपाद्वा अशुभ पापप्रकृतिरूपं वा तत् कर्म एकसमयेनापि हन्ति संस्तारकमारुहन्नित्यर्थः। इहभवविहारिणो सा,विग्धंकरीवेयणासमुद्रुइ। तीसे विज्झवणाए, अणुसट्टि दिति निजवगा // 107 / / इत्थम्-अमुना प्रकारेण तपोविहारिणः-अनशनरूपतपश्चारिणः सा पूर्ववर्णितचतुर्गतिकभवभाविनी विघ्गकरी धर्मध्यानविघातकवेदना समुतिष्ठति-प्रादुर्भवति / ततस्तस्या वेदनाया विधमापनार्थम् - उपशमनार्थमनुशारित 'दिति त्ति ददति निर्यामकागीतार्थगुरव इत्यर्थः / केनोल्लेखेनते ददतीत्याहजइ ताव ते मुणिवरा, आरोवियवित्थरा अपरिकम्मा। गिरिपब्भार विलग्गा, बहुसावयसंकडं भीमं / / 108|| यदि तावत्ते मुनिवृषभाः सुकोशलादयः 'आरोवियवित्थर' त्तिआरोपितो-नियोजित आत्मनि आराधनाविस्तरो यैस्ते आरोपितविस्तराः 'अपरिकम्म' त्ति सर्वथा शरीरंपरिकर्मणा वर्जितत्यादपरिकर्माणः 'गिरिपब्भार त्ति प्राकृतत्वाद् द्वितीयैकवचनलोपात् गिरिप्राग्भारं पर्वतनितम्ब विलग्नाः कथंभूतमित्याह-बहूनि च तानि स्वापदशतानि च सिंहव्या घ्रादीनि तैः संकट व्याप्तमत एव भीमभीषणाकारम्। तत्र किं कुर्वन्तीत्याहधीधणियबद्धकच्छा, अणुत्तरविहारिणो समक्खाया। सावयदाढगया वि हु, साहिंती उत्तमं अहूं / / 10 / / यदि ते एकाकिनोऽपि असहाया अपि 'धीधणियबद्धकच्छ' ति घृत्याचित्तस्वास्थ्येन धनितम्-अत्यर्थ बद्धाकृता आराधनारूपा कक्षाप्रतिज्ञा परिकरो वा यैस्ते धृतधनितबद्धकक्षाः, अत एव जिनशासने ते अनुत्तरविहारिणः समाख्याताः-कथिताः पूर्वमुनिभिरिति अध्याहारः / 'सावयदाढगया विहुत्ति श्वापददंष्ट्रयोपगता अपि व्याघ्रादिश्वापददंष्ट्रया निष्ठुरपीडापरिगता अपि साधयन्ति-निष्पादयन्ति उत्तमार्थ न ध्यानात् भ्रस्यन्ते, वेदनाव्याप्ता अपि निर्यामकविवर्जिता अपीत्यर्थः / किं पुण अणगारसहा-यगेहि संगयमणेहि धीरेहिं। नहु नित्थरिजइइमो, संथारो उत्तिमट्टम्मि // 110|| हे क्षपक ! यदि तावत्तैरपि दुर्गोपसर्गप्राप्तैरप्यसहायैरप्ययं संस्तारको निस्तीर्णः किं पुनर्युष्मादृशैरनगारसहायकै नियमिकगुरुयुक्तैः धीरेबुद्धिमद्भिः संगतमनोभिर्विशेषोपसर्गसंसर्गरहितत्वेन सिद्धान्तं श्रुत्वा, नियमिकं गुरुमुखनिःसृततया संगतंयुक्तमातरौद्रध्यानरहितं मनो येषां ते संगतमनसस्तैः संगतमनोभिः-निश्चलचित्तैः, न हु-नैव 'नित्थरिजइ इमो' ति निस्तीर्यते-पर्यन्ते प्राप्यते 'इमो' अयं संस्तारकः काका अक्षरयोजना, किं न निस्तीर्यते अपि तु निस्तीर्यत एव उत्तमार्थे - उत्तमार्थविषये इति। उच्छडसरीरघरा, अन्नो जीवो सरीरमन्नं ति। धम्मस्स कारणे सुवि-हिया सरीरं पिछडुति / / 111 / / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार उच्छड्डितं त्यक्तं शरीरगृहं यैस्ते उच्छड्डितशरीरगृहा:-परित्यक्तदेहभवनाः, केनोल्लेखेनैवंविधा इत्याह- 'अन्नो जीवो सरी रमन्नति' त्ति-अन्यः शुभाशुभफलभोक्ता जीवस्तव्यतिरिक्ते शरीरमन्यदिति चिन्तय, मा शरीरप्रतिबन्धं कुरु भाटकगृहकल्पत्याच्छरीरस्य / यतो धर्मस्य कारणे-धर्मानिमित्तं सुविहिताः शरीरमप्यास्तां पुत्रकलादि 'छडुति' त्ति त्यजन्तीत्यर्थः / अथ गुरुरेव क्षपकस्य संस्तारगुणमाहपोराण य पञ्चन्ना, याओ अहियासिऊण वियणाओ। कम्मकलंकलवल्ली, विहुणइसंथारमारूढो॥११२।। पुरातना-रोगज्वरादिवंदना:-प्रत्युत्पन्ना-वर्तमानाः क्षुत्पिपासादिकाः देवमनुजतिर्थक्कृतोपसर्गरूपा वा अधिरुह्य सम्यक् सोढा 'कम्मकलकलवल्ली' ति कर्मव कलं-कश्मलमशुभवस्तु तस्य वल्लीव वल्ली-तत्संतानः कर्मकलङ्कलवल्लीः श्रेणीः कर्म-तापन्ना 'विहणइ'त्ति संस्तारकमारूढः क्षपको योधः अन्योऽपि य एवंविधो हस्त्यारूढो भवति साऽपि वल्लीरडुशेन त्रोटयति। विशेषेण वदनासहनस्य गुणमाहजं अन्नाणी कम्म,खवेइ बहुयाहि वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिंगुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं / / 113 // प्रकटाथैत्र। एतदेव पुनर्व्यक्तीकरोतिअट्ठविहकम्ममूलं, बहुएहिं भवेहिं अअियं पावं। तन्नाणी तिहिंगुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं / / 114 / / अष्टप्रकारकर्ममूलमष्टकर्महेतुक बहुभिर्भवेरर्जित-संचितं पापं ज्ञानीज्ञानवान त्रिभिर्मनोवाक्कायगुप्तः क्षिपतिप्रेरयति उच्छास-मात्रेणापि कालेन। अथ संस्तारकरणस्य फलमाहएवँ मरिऊणधीरा,संथारम्मि उगुरुप्पसत्थम्मि। तइयभवेण व तेण व, सिज्झित्ता खीणकम्मरया॥११५|| एवम्-अमुना प्रकारेण मृत्वो-प्राणत्यागं कृत्वा धीराः-सुभटाः 'संथारम्मि उ' त्ति संस्तारक गुरौ-महति 'पसत्थम्मि' त्ति गुणैः सर्वोत्तमैः प्रशस्ते, तृतीयभवन सामान्याराधनायां तेनैव भवेनो-त्कृष्टाराधनायां कृताया 'सिज्झिज्ज' त्ति सिद्धार्थाः-निष्ठितार्था भवेयुः क्षीणकर्मरजसःक्षीणकर्मकचवरा इत्यर्थः। (संथा०) (संघस्य मुकुटोपमया वर्णनं 'संघ' शब्देऽस्मिन्नेव मागे 78 पृष्ठे गतम् / ) अथ संस्तारक ग्रन्थमुपसंजिहीर्षुर्गन्थकाराश्वत्रमहर्षिदृष्टान्तमुपदर्शयन् गाथात्रयमाह- यथा चित्रण भवगता बहादत्तपूर्वभवमात्रा प्रधानाराधना विहिता तथैव विधेयेति / कथंभूतेन तेन विहितेत्याह- 'डज्झतेणव' ति दह्यमानेनेव दह्यमानेन क ग्रीष्मघमत्ता 'कालसिलाए' त्ति कालशिलायां मरणार्थ पादपोपगमनशिलायाम। कथंभूतायां 'कविल्लभूयाए' त्ति कविल्लभूतायां, कविल्लकंमण्डकपचनिका तद्वत्तप्तायणमित्याह- 'सूरेण व' त्ति सूर्येण वा भास्करण, कथभूतेन किरणसाहस्सपयंडे ण' ति दीर्घत्वं प्राकृतप्रभवं, | किरणसहस्रप्रचण्डेन, तथा ग्रीष्मे उपलक्षणत्वाच्छिशिरमहाहिमपाते चन्द्रेणेवातिशीतलेश्याया दाहकत्वेन तेनापि तप्तायमिति शीतयुक्तायामित्यर्थः / अथवा 'सूरेण व चंदेण व' त्ति विशेषणं साधोरेव / कथंभूतेन चित्रेण ? सूर्येणेव किरणसहस्रप्रचण्डेन तपस्तेजसा विराजमानेन, चन्द्रेणेव सौम्यचन्द्रिकाभ्यधिके न मनोवाक्कायसौम्यतासुभगेन कोपादिपरिहारतोऽतिशीतलेश्येनेत्यर्थः / लोगविजयं करेंतेण, झाणोवओगचित्तेणं। परिसुद्धनाणदंसण-विभूइमंतेण चित्तेणं / / 11 / / लोकः-कषायलोकस्तस्य विजयो लोकविजयस्तं कुर्वता कषायान् जितवता तेन महात्मना 'झाणोवओगचित्तेण' ति ध्यानोपयोगेविशिष्टध्यानाभ्यासे चित्तं यस्य स ध्यानोप योगचित्तस्तेन, पुनः किं विशिष्टन?परिसुद्धनाणदंसणविभूइमतेण' त्ति परिसुद्धज्ञानदर्शनविभूतिमता केवलज्ञानकेवलदर्शनयुक्तेनेत्यर्थः / 'चित्तेणं' ति चित्रेण विधानसाधुना। किं तेन कृतमित्याहचंदगविज्झंलद्धं, केवलसरिसं समाउपरिहीणं। उत्तमलेसाणुगओ, पडिवन्नो उत्तमं अटुं॥१२०।। तेन महात्मना चन्द्रकवेध्यं-राधावेध लब्ध-प्राप्तम्, कथंभूतमित्याह'केवलिसरिसं' ति केवलज्ञाननिमित्तम् / यथा कोऽपि राधावेधं कृत्या सर्वोत्कर्षजयी भवति, एवं कोऽपि केवलज्ञानलाभाद्राधावेधकल्पोपत्रे 'समाउपरिहीण' तिकेवलज्ञानेन समंसह आयु:-परिक्षीणं परिसमाप्त केवलज्ञानेन सह मोक्ष गत इत्यर्थः, 'उत्तमलेसाणुगओ' ति उत्तमलेश्यानुगतः-शुक्ललेश्यासमन्वितः प्रतिपन्न उत्तमार्थ मोक्षमिति। अथशास्त्रकारः संस्तारकं प्रतिपृच्छन् प्रार्थयन्नाहएवं मए अभिथुया, संथारगइंदखंधमारूढा। सुसमणनरिदचंदा,सुहसंकमणं ममं दितु॥१२१॥ एवम्-अमुना प्रकारेण मया अभिष्टुता-विशिष्टगुणोत्कीर्तनेन व्यावर्णिता महर्षयः / कथंभूताः? संस्तारकगजेन्द्रस्कन्धमारूढाःसंस्तारकद्विपेन्द्राधिरोहिणः / के ते इत्याह- 'सुसमणनरिद त्ति सुश्रमणा एव नरेन्द्राः सामान्यराजास्तेषामपि चन्द्रा इव चन्द्रा बलदेववासुदेवचक्रवर्त्तिनस्ते सुश्रमणनरेन्द्रचन्द्राः 'सुहसंकमणं' ति सुखस्यमुक्तिरूपस्य वा विशिष्टपुण्यप्रकृतिरूपस्य संक्रमणं-संक्रान्ति संसारदुः खादशुभाता निस्तारणेन मम दिन्तु ददतु नरेन्द्रचन्द्रा अपि रणशिरसि गजेन्द्रस्कन्धाधिरूढा लब्धजयपताकास्तल्लोकमागधजनानां विपुलं जीविताह प्रीतिदान ददति, इति तैरुपमा कृतेति भद्रं भवतु / संथा०। अर्द्धतृतीयसहस्रप्रमाणे, आचा०२ श्रु०१ चू० 2 अ०३ उ० / ग०॥ध०। कम्बलास्तरणे, विशे०दर्भसंस्तारकादौ, आतु० / उत्त० / फलककम्बलादौ, उत्त० 17 अ० / आचा० / लघुतरे शयने, औ० / रा०। पं०भा० / ज्ञा० / पं० व०। स्था०। साण्डसपरिकर्मणःसंस्तारकग्रहणम्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकं खेज्जा संथारगं ए Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार सित्तए से जं पुण संथारंय जाणेज्जा सअंडं जाव ससंताणगं इच्चेयाणं चउण्हं पडिमाणं अन्नयरं पडिमं पडिवजमाणे तं तहप्पगारं संथारगं लाभे संते णो पडिगाहेजा 1, से भिक्खू वा चेव०जाव अन्नोऽन्नसमाहीए एवं च णं विहरंति। (सू०१०३) भिक्खुणी वा से जं पुण संथारयं जाणेजा अप्पंडं०जाव संता- इत्येतानि-पूर्वोक्तानि आयतनादीनि दोषरहितस्थानानि वसणगरु यं तहप्पगारं लाभे संते णो पडिगाहेजा 2, से भिक्खू वा तिगतानि संस्तारकगतानि च उपातिक्रम्य-परिहृत्य वक्ष्यमा-णांश्च भिक्खुणी वा अप्पंडं जाव अप्पसंताणगं लहुयं अपाडिहारियं दोषान् परिहृत्य संस्तारको ग्राह्य इति दर्शयति-अथ-आनन्तर्ये स तहप्पगारंसेज्जा संथारयं लाभे संतेणोपडिगाहेजा 3, से भिक्खूवा भावभिक्षुर्जानीयात् आभिः-करणभूताभिश्चतसृभिः प्रतिमाभिः भिक्खुणी वा से जं पुण संथारगं जाणेजा अप्पंडं जाद अभिग्रहविशेषभूताभिः संस्तारकमन्चेष्टुम् / ताश्चेमाः-उद्दिष्ट 1 प्रेक्ष्य 2 अप्पसंताणगं लहुयं पाडिहारियं नो अहाबद्धं तहप्पगारे लाभे संते तस्यैव 3 यथासंस्तृत-४ रूपाः, तत्रोद्दिष्टा फलहकादीनामन्यतनो पडिगाहेजा,से भिक्खू वा भिक्खुणीवा से जं पुण संथारगं मद्ग्रहीष्यामि 1, यदेव प्रागुद्दिष्ट तदेव द्रक्ष्यामि ततो ग्रहीष्यामि नान्यदिति जाणिज्जा अप्पंड जाव संताणगं लहुयं पाडिहारियं अहाबद्धं द्वितीया प्रतिमा 2, तदपि यदि तस्यैव शय्यातरस्य गृहे भवति ततो तहप्पगारं संथारगं लाभे संते पडिगाहेजा। (सू०६६) ग्रहीष्यामि नान्यत आनीय तत्र शयिष्यइति तृतीया 3, तदपि स भिक्षुर्यदि फलहकादिसंस्तारकमेषितुमभिकाङ् क्षयेत्, तचैवंभूतं फलहकादिक यदि यथा संस्तृतमेवास्ते ततो ग्रहीष्यामि नान्यथेति जानीयात्, तद्यथा-प्रथमसूत्रे साण्डादित्वात्संयमविराधनादोषः 1. चतुर्थी प्रतिमा 4 आसु च प्रतिमास्वाद्ययोः प्रतिमयोगच्छनिर्गतानामग्रहः, द्वितीयसूत्रे गुरुत्वादुत्क्षेपणादावात्मविराधनादिदोषः 2. तृतीयसूत्रऽप्रतिहारकत्वात्तत्परित्यागादिदोषः 3, चतुर्थसूत्रे त्वब उत्तरयोरन्यतरस्यामभिग्रहः, गच्छान्तर्गतानां तु चतस्रोऽपि कल्पन्त द्धत्वात्तद्वन्धनादिपलिमन्थदोषः५ पञ्चमसूत्रे त्वल्पाण्डं यावद इति / एताश्च यथाक्रम सूत्रैर्दर्शयति-तत्र खल्विमा प्रथमा प्रतिमा, तद्यथाल्पसन्तानकलघुप्रातिहारिकावबद्धत्वात्सर्वदोषविप्रमुक्तत्वा उद्दिश्योतिश्यक्कड़ादीनामन्यतमद्ग्रहीष्यामीत्येवं यस्याभिग्रहः त्संस्तारको ग्राह्य इति सूत्रपञ्चकसमुदायार्थः 5 / सोऽपरलाभेऽपि न प्रति गृह्णीयादिति। शेष कण्ठ्य नवरं कठिन-वंशकटादि साम्प्रतं संस्तारकमुद्दिश्याभिग्रहविशेषानाह जन्तुक-तृणविशेषोत्पन्नं परकं-येन तृणविशेषेण पुष्पाणि ग्रथ्यन्ते 'मोरगं' इच्चेयाइं आयतणाईउवाइक्कम-अह भिक्खू जाणिज्जाइमाइंचउहिं | ति मयूरपिच्छनिष्पन्नं 'कुचगं' ति येन कूर्चकाः क्रियन्ते, एते चैवंभूताः पडिमाहिं संथारगं एसित्तए, तत्थ खलुइमा पढमापडिमा-से भिक्खू / संस्तारका अनूपदेशे सार्दादिभूम्यास्तरणार्थमनुज्ञाता इति / अत्रापि वा भिक्खुणी वा उद्दिसिय उ०२ संथारगंजाइजा, तं जहा-इक्कडं पूर्ववत्सर्व भणनीयम्, यदि परं 'तमिक्कडादिकं' संस्तारकं दृष्ट्वा याचते वा कढिणं वाजंतुयं वा परगंवा मोरगंवातणगंवा सोरगं वा कुसंवा नादृष्टमिति। एवं तृतीया ऽपि नेया, इयांस्तु विशेषः गच्छान्तर्गतो निर्गतो कुच्चगंवा पिप्पलगंवा पलालगंवा, से पुव्वामेव आलोइज्जा आउसो ! वा यदि वसतिदातैव संस्तारकं प्रयच्छति ततो गृह्णाति, तदभावे उत्कुटुको त्तिवा भगिणी०दाहिसि मे इत्तो अन्नयरंसंथारयं? तहप्पगारं संथारगं वा निषण्णो वा पद्मासनादिना सर्वरात्रमास्त इति एतदपि सुगमम, सयं वा णं जाइज्जा परो वा देज्जा फासुयं एसणिज्जंजाव केवलमस्यामयं विशेषः-यदि शिलादिसस्तारकं यथासंस्तृतं शयनयोग्य पडिगाहेजा पढमा पडिमा।(सू०१००) अहावरा दुचा, पडिमा-से लभते ततः शेते नान्यथेति / किञ्च- 'इच्चेया' इत्यादि। आसां चतसृणां भिक्खूवा भि० पेहाएसंथारगंजाइजा, तंजहा-गाहावईवाकम्मकरि प्रतिमानामन्यतरां प्रतिपद्यमानोऽन्यमपरप्रतिमाप्रतिपन्नं साधु न वा से पुव्वामेव आलोइजा-आउसो ! त्ति वा भइ० ! दाहिसि मे ? हीलयेद, यस्मात्ते सर्वेऽपि / जिनामाश्रित्य समाधिना वर्तन्त इति / जाव पडिगाहिज्जा, दुचा पडिमा।।२।। अहावरा तच्चा पडिमा-से आचा०२ श्रु० 1 चू० 2 अ० 3 उ० / व्य० / भिक्खू वा भि० जस्सुवस्सए सवसिज्जाजे तत्थ अहासमन्नागए, तं जहा-इकडे इ वा जाव पलाले इ वा तस्स लाभे संवसिज्जा ऋतुबद्धिक शय्यासंस्तारकं पर्युषणायाः परं नयति। तस्सालाभे उक्कुडुए वा नेसजिए वा विहरिजा तचा पडिमा / / 3 / / ऋतुबद्धे संस्तारकमाह(सू० 101) अहावरा चउत्था पडिमा से भिक्खू वा० से य अहालहुस्सगं सेज्जासंथारगं गवेसेज्जा जं चक्किया एगेणं अहासंथडमेव संथारगं जाइज्जा, तं जहा-पुढविसिसं वा हत्थेणं उगिज्झ जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा अद्धाणं कट्ठसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संते संवसिज्जा, तस्स परिवहित्तए एस मे हेमंतगिम्हासु भविस्सइ ॥२से अहालहुस्सगं अलाभे उक्कुडुए वा विहरिजा, चउत्था पडिमा।।४।। (सू० 102) सेज्जासंथारयं गवे सेज्जा जंचक्किया एगेणं हत्थेणं उगिज्झजाव Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 167 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा अद्धाणं परिवहित्तएएस मे वासावासेसु भविस्सइ॥३॥से अहालहुस्सगंसेज्जासंथारयं गवेसेज्जाजंचक्किया एगेणं उगिज्झजाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा चउयाहं वा | पंचाहं वा दूरमवि अद्धाणं परिवहित्तएएस मे वुड्डावासासु भविस्सति // 4 // सोऽधिकृतो भिक्षुर्यथालधुस्वकम्-अनेकान्तलघुक वीणाग्रहणग्राहां शय्यासर्वाङ्गिका संस्तारकोऽर्द्धतृतीयहस्तदीर्घः, हस्तश्चत्वार्यड्गुलानि विस्तीर्णः / अथवा-तत्पुरुषः समासः-शय्या एव संस्तारकः शय्यासंस्तारकः तृणमयं पट्टमयं वा गवेषयेत्। तत्र यत् शक्नुयात् एकेन हस्तेनावगृह्य यावदेकाहं वा व्यहं वा त्र्यहं वा अध्वानं गच्छन् परिवोद तत गृह्णीयात एप मे वर्षावासे भविष्यति। एष वर्षासूत्रस्यार्थः / / 3 / / एवं हेमन्तग्रीष्मसूत्रार्थो वृद्धावाससूत्रार्थश्च भावनीयः / नवरं वृद्धावाससूत्रे चतुरहं वा पञ्चाह वेत्यधिक वक्तव्यम्। __ अधुना नियुक्तिविस्तरःसोपुण उउम्मि घेप्पइ, संथारो वासें वुड्ववासे वा। ठाणं फलगादिवा, उउम्मिवासासुयद्ववेऽवि।।७।। रा पुनः संस्तारकः स्थान-स्थानरूपम् ऋतुबद्धे-वर्षाकाले वृद्धावासे च यथानुरूपे गृह्यते / तद्यथा-ऋतुबद्धे काले अवकाशे गृह्यते वर्षावासे वृद्धावासं च निवातस्थानेऽपि। तथा ऋतुबद्ध काले ऊर्णादिमियं संस्तारक परिगृहा पुरुषविशेष ग्लानादिकमपेक्ष्य फलकादि वा वर्षावासे द्विकावपिद्वावपि संस्तारको वक्ष्यमाण-लक्षणो गृह्णीयात्।। उउबड़े दुविहगहणे, लहुगो लहुगा यदोस आणादी। झामियहियवक्खेवे, संघट्टणमादिपलिमंथो॥चा द्विविधः संस्तारकः-परिशाटिरूपः, अपरिशाटिरूपश्च / तत्र / परिशाटिरूपो द्विविधः-झुषिरः, अझुषिरश्च / तत्र शाल्यादि पलालतृणमयो झुषिरः, कुशकाशादिरूपः अझुषिरः / अपरिशाटिरूपो द्विविधःएकाङ्गिकः, अनेकानिकश्च / एकाङ्गिकोऽपि द्विविधः-संघातितः, असंघातितश्च / तत्र संघातित एकफलात्मकः, असंघातितोट्यादिफलसंघातात्मकः। अनेकानिकः कथिकाप्रस्तारात्मकः / तत्र यदि ऋतुबद्ध अझुषिरं परिश टिसस्तारकं गृह्णाति तदा तस्य प्रायश्चित्तं लघुको मासः, झुषिरं गृह्णतश्चत्वारो लघुकाः, अपरिशाटिमपि गृह्णतश्चत्वारो लघुकाः, न केवलं प्रायश्चत्तं, किं त्वाज्ञादयश्च दोषाः / तथा यद्यग्निना सध्याम्यते तदापि प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, व्याक्षेपेण वा स्तेनैरपहृते चतुर्लधुकम्, अपरिशाटौ ध्यामिते हृते वा मासलघुः, ततोऽन्यं संस्तारकं मृगयमाणानां सूत्रार्थपलिमन्थः / तथा तस्मिन्संस्तारकेये प्राणजातयः आगन्तुकारतदुद्भूता वा तान् संघट्टयति, अपद्रावयति च ततस्तन्निष्पन्नं तस्य प्रायश्चित्तमित्येष गाथार्थः / सांप्रतमेनामेव भाष्कृत् विवृणोतिपरिसाडि अपरिसाडी, दुविहो संथारओ समासेणं / परिसाडी झुसिरेयर, एत्तो वुच्छं अपरिसाडी ll द्विविधः समासेन संक्षेपेण संस्तारकस्तद्यथा-परिशाटिः, अपरिशाटिश्च / तत्र परिशाटिर्द्विधा-झुषिरः, इतरश्च / इतरो नाम-अझुषिरः। अतऊर्ध्वमपरिशार्टि वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव करोतिएगंगि अणेगंगी,संघातिम एतरो य एगंगी। अझुसिरगहणे लहुगो, चउरोलहुगाय सेसेसु॥१०॥ अपरिशाटिर्द्विधा एकाङ्गिकः, अनेकाङ्गिकश्च / तत्रैकाङ्गि को द्विधासंघातिमः, इतरश्च / अमीषां व्याख्यानं प्रागेव कृतम्। तत्राझुषिरस्य संस्तारस्य ग्रहणे प्रायश्चित्तं लघुको मासः / शेषेसु झुषिरसंधाते इतरैकानि कानैकाङ्गिकेषु प्रत्येकं चत्वारो लघुकाः। लघुकाय झामियम्मिय, हरिए विय होंति अपरिसाडिम्मि। परिसाडिम्मियलहुगो, आणादिविराहणाचेव।।११।। अग्निना ध्यामिते अपरिशाटौ स्तेनैर्वा तस्मिन्नपहृते प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुका भवन्ति / परिशाटौ ध्यामिते हृते वा प्रत्येक लघुको मासः, आज्ञादयश्च दोषाः / तथा विराधना च संयमस्य। तामेवाभिधित्सुराहविक्खेवो सुत्तादिसु, आगंतुतदुब्भवेण घट्टादी। पलिमंथो पुव्वुत्तो, मंथिज्जति संजमो जेणं / / 12 / / अन्यसस्तारकमार्गणे सूत्रादिषु-सूत्रेष्वर्थेषु च विक्षेपोव्याघातः; परिमन्थ इत्यर्थः / तथा ये तत्रागन्तुकाः प्राणाः कीटिकादयो ये च तदुद्षा मत्कुणादयस्तेषां यत् घट्टनादि तन्निमित्तमपि प्रायश्चित्तम् / इदानीं परिमन्थो व्याख्येयः / स च पूर्वमेव 'विक्खेवो सुत्तादिसु' इत्यादिना ग्रन्थेनोक्तः। अथ कस्मात् व्यापेक्षो घट्टनादि वा परिमन्थ इत्युच्यते। तत आह-एतेन कारणेन येन संयम उपलक्षणमेतत् सूत्रमर्थश्व मथ्यते तेन परिमन्थ इति। तम्हाउनघेत्तव्यो, उउम्मिदुविहो विएस संथारो। एवं सुत्तं अफलं,सुत्तनिवाओ उकारणितो।।१३।। यस्मादेते दोषास्तस्मात् ऋतौ- ऋतुबद्धे काले द्विविधोऽप्येष परिशाट्यपरिशाटिरूपः संस्तारो न ग्रहीतव्यः / अत्र पर आह-एवं सति सूत्रमफलं सूत्रे तृणमयशय्यासंस्तारकस्यानुज्ञानाद् ! आचार्य आहसूत्रनिपातः कारणिकः-कारणवशात्प्रवृत्तः। तदेव कारणमुपदर्शयतिसुत्तनिवातो तणेसुं,देसें गिलाणे य उत्तमढे य। चिक्खलपाणहरिए, फलागाणि वि कारणे जाते / / 14 / / सूत्रस्य निपातो निपतनमवकाश इति भावः / देशे- देशविशेषे तथा ग्लाने उत्तमार्थे च तथा चिक्खल्ले-कर्दमे प्राणजाते-भूमौ संसक्ते तथा हरितकाये एवं रूपे कारणे जाते सति फलकान्यपि गृह्यन्ते / फलकरूपोऽप्यपरिशाटिः संस्तारको गृह्यते इति गाथासंक्षेपार्थः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 168 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतस्तृणेषु 'दोसो' इत्यस्य व्याख्यामाहअसिवादिकारणगता, उवही कुच्छण अजीरगभया वा। अझुसिरमसंधिऽवीए, एक्कमुहे भंगसोलसर्ग 1115 / / अशिवादिभिः कारणैस्तत्र प्रदेशे गता ये वर्षारात्रे पानीयेन प्लाव्यन्ते यथा सिन्धुविषयः / अथवा- तत्र देशे स्वभावतः यतः प्रखरा भूमिस्ततो रात्रौ शीतलवातसंपर्कतोऽवश्यायः पतनतो वा जलप्लाविते च सा भूमिरुपजायते / अथवा-आसन्नीभूतेन पानीयेन तमवकाशमप्राप्नुवताऽपि भूमिः स्विद्यति। तत्रोपधेः कोथनं मा भूत्वा माअजीर्णेन ग्लान्यमित्युपधिकोथनभयादजीर्णक भयाद्वा तृणानि गृह्णन्ति साधवस्तानि च अझुषिराणि असंधीनि अबीजानिच। एतान्येकमुखानि क्रियन्ते / यत्र च अझुषिरे असंधौ अबीजे एकमुखरूपेषु चतुर्षु पदेषु भङ्गषोडशकम्-षोडशभङ्गाः। तत्राऽझुषिरादिव्याख्यानार्थमाहकुसमादि अझुसिराई, असंधऽबीयाइएक्कउ मुहाई। देसीपोरपमाणा, पढिलेहा तिन्नि वेहासं|१६|| कुशादीनि-कुशवच्चकप्रभृतीनि तृणानि अझुषिराणिअसंधीनि अबीजानिबीजातीतानि भवन्ति तानि एकमुखानि कर्तव्यानि / तत्र भनषोडशकमध्ये यत्र भङ्गे झुषिराणि तत्र प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, बीजेषु प्रत्येकेषु पञ्चरात्रिन्दिवानिलघुकानि, अनन्तकायिकेषु गुरुकाणि, शेषेषु भङ्गेषु मासलघु, प्रथमे भङ्गे गृह्णन्तः शुद्धाः / 'देसीपोरे' त्यादि देशीत्यङ्गुष्ठोऽभिधीयते, तस्य यत्पर्व तत्प्रमाणानि जिनकल्पिकानां स्थविरकल्पिकानां च तृणानि भवन्ति / इयमत्र भावना-अङ्गुष्ठस्य यत्पर्व तत्राङ्गुल्यग्राणि स्थापयित्वा यावद्भिस्तृणैर्मुष्टिरापूर्यते तावन्ति मुष्टिप्रमाणानि जिनक-ल्पिकानां स्थविरकल्पिकानांचतृणानि भवन्ति, तेषां च तृणानां प्रत्युपेक्षास्तिस्त्रः / तद्यथा-प्रभाते, मध्याह्ने, अपराहे च / यदा च भिक्षादौ गच्छन्ति तदा विहायसि कुर्वन्ति। साम्प्रतमेतदेव किंचिद्व्याचिख्यासुराहअंगुट्ठपोरमेत्ता, जिणाण थेराण होंति समासो। भूमीऍ विरल्लेउं, अवणे तुपमञ्जए भूमिं // 17 // अड् गुष्ठपर्वमात्राणि-अड् गुष्ठपर्वपरिमितमुष्टिप्रमाणानि जिनानानिजकल्पिकानां स्थविराणां स्थविरकल्पिकानां भवन्ति, तैश्च तृणैः संस्तारक आस्तीर्यमाणस्तावद्धिर्भवतियावत्सण्डासः, (संदंशकः) तानि / च भूमौ विरल्यशयनार्थ विरलीकृत्य भूमिं प्रमार्जयति। सम्प्रति 'गेलण्णे उत्तिमढे य' इति व्याख्यानार्थमाहगेलन्ने उत्तिमढे, उस्सग्गे तु वत्थंथारो। असतीऍ अझुसिराई,खरा सतीए उ झुसिरा वि।।१८।। यो नाम ग्लानो यो वा प्रतिपन्नोत्तमार्थ:-कृतानशनप्रत्याख्यानः तस्मिन् द्वयेऽपि संस्तार उत्सर्गतो वस्त्ररूपः क्रियते तस्य कोमलतया समाधिभावात् / असति-अविद्यमाने वस्त्ररूपे संस्तारके अझुषिराणि कुशवचकप्रभृतीनि मृग्यन्ते। अथ तानि खराणि, यदि वा-नसन्ति तदा झुषिराण्यपि शाल्यादिपलालमयान्यानेतव्यानि / तदिवसंमलियाई, अपरिमिय सयं तुयट्टजयणाए। उभयट्ठ उठ्ठिए उ,चंकमणविज्जको वा / / 16 / / तदिवस -प्रतिदिवसं मलितानि-तृणान्युत्सार्यन्ते अन्यानि च समानीयन्ते; तानि वा परिमितानि गृह्यन्ते, यथा समाधिर्भवति तथा सकृत्-एकवार तुयट्टानि-प्रस्तारितानि तिष्ठन्ति तत्र यतनया करणम्। उभयं नाम-उच्चारः प्रस्रवणं च तदर्भमुत्थिते ग्लाने उत्तमार्थे वा अन्यो निषीदति / किं कारणमिति चेत्प्राणिदयार्थम्, अन्यथा शुषिरभावतस्तत्रागन्तुकाः प्राणास्तृणान्युपलीयेनर् स तावन्निषीदति यावत्स तत्र प्रत्यागच्छति / एवं चंक्रमणार्थमप्युत्थिते, प्रवातार्थ वा बहिर्निर्गत, वैद्यकार्ये वा बहिर्नीते यावत्स प्रत्यानीयते तावदन्यो निषीदति; तस्मिन्नागते स उत्तिष्ठति। अथवा-स गुरूणामपि पूज्य इति तस्मिन् पूर्वोक्तकारणैरुत्थिते तत्रान्यस्य निषदनं न कल्पते ततस्तेषां तृणानामुपरि हस्तः कर्तव्यः। एतदेवाहअन्नो निसिज्जइ तर्हि, पाणियदवाएँ तत्थ हत्थो वा। निक्कारणमगिलाणे, दोसा ते चेव य विकप्पा॥२०॥ अन्यस्तत्र संस्तारके प्राणिदयार्थ निषीदति, हस्तो वा तत्र क्रियते। अत्र भावना प्रागेव कृता / एतैः कारणैर्यथोक्तरूपः संस्तारक ऋतुबद्दे काले। निष्कारणम् देशादिकारणमन्तरेण अग्लाने अग्लानस्य तृणमयसंस्तारकग्रहणे त एव पूर्वोक्ता दोषाः / विकल्पो, विकल्पदोषश्च / विकल्पग्रहणेन विकल्पप्रकल्पावपि सूचितौ। तेषां व्याख्यानमाहअत्थरणवजितो उ, कप्पोंपकप्पो उहोति पट्टदुगं। तिप्पभिई तु विकप्पो, अकारणे चेवतणभोगो॥२१॥ आस्तरणवर्जितः-कल्पः / किमुक्तं भवति- यद् जिनकल्पिका अनवस्तृते रात्रावुत्कुटुकास्तिष्ठन्ति एष कल्प इत्यभिधीयते। तत्पुनः पट्टद्विक भवति; संस्तारोत्तरपट्टयोरुपरि यत्सुप्यते इत्यर्थः : एष भवति प्रकल्पः / यानि पुनस्विप्रभृतीनि संस्तारके प्रस्तारयति एष विकल्पः / यच अकारणे कारणमन्तरेण तृणानां भोगः क्रियते एषोऽपि विकल्पः / अथवा अन्यथा कल्पप्रकल्पव्याख्यानमाहअहवा अझुसिरगहणे, कप्पो पकप्पो उ कज्जे झसिरे वि। झुसिरे य अझुसिरे वा, होइ विकप्पो अकजम्मि // 22 // अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने यत्कारणे समापतिते अझुषिराणि तृणानि गृह्णाति एष कल्पः यत्पुनः कार्य समापतिते झुषिराण्यपितृणानि गृह्णाति एष प्रकल्पः / यत्पुनः अकार्ये झुषिराणि अझुषिराणि वा गृह्णाति एष भवति विकल्पः / एवं तावत्तृणानामृतुबद्धे काले कारणे गृहीताना यतनोक्ताः / Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार सम्प्रति कारणैरेव ऋतुबद्ध काले फलकरूपस्य संस्तारकस्य ग्रहणं, यतनां चाऽऽहजह कारणे तणाई, उउबद्धम्मि उहवंति गहियाइं। तह फलगाणि विगेण्हे, चिक्खल्लादीहि कज्जेहिं / / 23 / / यथा कारण-देशादिलक्षणे ऋतुबद्धे काले तृणानि गृहीतानि भवन्ति, तथा ऋतुबद्धे एव काले चिक्खल्लादिभिः कार्यरादिशब्दात्प्राणसंसक्तिहरितकायपरिग्रहः फलकान्यपि गृह्णाति। सत्र यतनामाहअझुसिरमविद्धमफुडिय, अगरुयअणिसट्टवीणगहणेणं। आयासंजमें गुरुगा, सेसाणं संजमे दोसा॥२४|| अझुषिरो झुषिररहितोऽविद्धो-वेधरहितोऽस्फुटितोऽराजितोऽगुरुको-गुरुभाररहितोऽनिसृष्टः- प्रातिहारिकंः एतेषां च पञ्चाना पदानां द्वात्रिंशगङ्गाः। ते च प्रागिव प्रस्तारतःस्वयं ज्ञातव्याः। अत्र यः प्रथमभङ्गः सोऽनुज्ञातस्तत्र दोषाभावात्,अयं लघुकः शेषदोषविनिर्मुक्तश्च / ततो यथा वीणालघुकत्वात् दक्षिणहस्तेन मुखंविवक्षितं स्थानं नीयते एवमेषोऽपि / तथा चाह-वीणाग्रहणेन यत्नतः तत्र वा नीयते इति वाक्यशेषः। शेषा एकत्रिंशत् भङ्गानानुज्ञाताः। तत्र गुरुके आत्मविराधनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं चतुर्गुरुकम्।संयमविराधना पुनरेवं भवति / गुरुकें हस्तात्पतिते एकेन्द्रियादीनामुपधातोऽत्र स्वस्थानप्रायश्चित्तं शेषेषु संयमदोषाः-संयमविराधना / ततस्तत्र प्रत्येकं प्रायश्चित्तं चत्वारो लधुकाः। अझुसिरमादिपएहिं,जा अणिसटुंतु पंचिमा भयणा। अहसंथडपासुड्डे,विपज्जए होंतिचउलहुगा!|२५|| अझुषिरादिभिः पदैरारभ्य यावदनिसृष्टमिति पञ्चमं पदं तेषु पञ्चसुपदेसु प्रथमभङ्ग रूपेषु इय- वक्ष्यमाणा भजनाविकल्पना / तामेवाह-'अह संथड' इत्यादि शय्यातरेण य उपाश्रयो दत्तस्तस्मिन् यो यथाऽवस्तृतः प्रथमभङ्गरूपः / संस्तारकः स ग्रहीतव्यः, तदभावे पार्श्वन कृतस्तस्याप्यभावे ऊर्द्धकृतः, एवं क्रमेण यतनया ग्रहणं कर्त्तव्यम् / यदि पुनर्विपर्यासेन गृह्णानि तदा विपर्यस्ते गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। अंतोवस्सय बाहिं,निवेसना वाडिसाहिए गामे। खेत्तंतो अन्नगामे,खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं // 26 // एवमन्तरुपाश्रयस्य यदि संस्तारकं फलकरूपं न लभते तदा बहिरुपाश्रयस्य तथैव ग्रहीतव्यः, तथाऽप्यलाभे,नेनैव क्रमेण निषदनादानेतव्यः, तत्राप्यसति वाटकात्, तत्राप्यलाभे साहीतः, तत्राप्यसति दूरादपि ग्राममध्यादानेतव्यो, ग्राममध्येऽप्यसति क्षेत्रान्तस्तत्क्षेत्रमध्यभागात अन्यग्रामादानेतव्यः, तत्राप्यसति क्षेत्राहिष्ठोऽप्यानेयः / एवमविपर्यस्तमानयनं कर्त्तव्यम्।यदि पुनः सति लाभे विपर्यस्तमानयति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। सम्प्रत्यानयनयतनामाहसुत्तं च अत्थं च दुवे वि काउं, भिक्खं अडंतो उदुए वि एसे। लाभे सहूए विदुए विघेत्तुं, ___लाभासती एगदुवे व हावे॥२७॥ सूत्रं च अर्थ च द्वावपि कृत्वा भिक्षामटन द्वावप्येषयेत्-गवेषयेत्। तद्यथाभिक्षा संस्तारकं च तत्रलाभे सति समर्थो द्वावपि गृहीत्वा प्रत्यागच्छति, लाभेऽसति भिक्षां गतस्य संस्तारकाभावे एक सूत्रमर्थ वा, यदि वाद्वावपि हापयति संस्तारकगवेषणेन। दुल्लभो सेज्जसंथारो, उदुबंद्धम्मि कारणे। मग्गणम्मि विही एसो, भणितो खेत्तकालतो॥२८|| ऋतुबद्धे काले कारणे समापतिते दुर्लभे शय्यासंम्तारके यन्मार्गणं तत्र क्षेत्रतः कालतश्च विधिरेष भणितः, अनेन विधिना नान्यथेति। वर्षासु संस्तारग्रहणम्उउबड़े कारणम्मि, अगेण्हणे लहुगगुरुगवासासु। उउबद्धे जं भणियं,तंचेवयसेसयंवोच्छं|२६|| ऋतुबद्धे काले कारणे सति यदि संस्तारकं न गृह्णाति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, वर्षासु पुनरवश्यं ग्रहीतव्यः संस्तारकस्तत्र सूत्रस्योग्रहणे चत्वारो गुरुकाः। तथा या ऋतुबद्ध काले यतना भणिता गवेषणादौ सा वर्षास्वपि द्रष्टव्या शेषं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव करोतिवासासु अपरिसाडी,संथारो सो अवस्स घेत्तव्यो। मणिकुट्टिमभूमिए वि, तमगेण्हणे चउगुरू आणा॥३०॥ वर्षासु यदि मणिकुष्टिमायां भूमौ वसन्ति तथापि संस्तारकोऽपरिशाटि: फलकरूपोऽवश्यं ग्रहीतव्यः तमगृह्णति प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः, तथा आज्ञा उपलक्षणमेतदनवस्थादयश्च दोषाः। किं कारणमत आहपाणा सीयल कुंथू, उप्पायगदीहगोम्हिसिसुनागे। पणएय उवहिकुच्छण, मलउदकवहो अजिण्णादी॥३१।। कालस्य शीतलतया भूमौ प्राणाः सम्मूर्छन्ति / के ते इत्याहकुन्थवःप्रतीता, उत्पादका नाम-ये भूमि भित्त्वा समुत्तिष्ठन्ति दीर्घाःसास्तेभ्य आत्मविराधना। गोम्मी नाम कर्णगाली शिशुनागः-अलसः तथा शीतलायां भूमौ पनकः संजायते / उपधावपि पनकः संमूर्छति। तथा उपधेः शीतलभूमिस्पर्शतः कोथनसंभवः। तथा सचेह धूलिलगन मलसंभवः, ततो हिण्डमानस्य वर्षे पतति उदकवधः-अप्कायविराधना। तथा उपधेर्मलिनत्वेनारतिसम्भवे निद्राया अलाभतोऽजीर्णत्वसंभवः। आदिग्रहणात्-ततो ग्लानत्वं तदनन्तरं चिकित्साकरणेत्यादिपरिग्रहः / तम्हा खलुघेत्तव्यो, तत्थ इमे पंच वण्णिया भेया। गहणे य अणुण्णवणे, एगंगियअकुयपाउग्गे // 32 / / यस्मादे तेषां तस्मादवश्यं फलक रूपः संस्तारको ग्रहीत Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 170 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार व्यः, तत्र च ग्रहणे इमे-वक्ष्यमाणाः पञ्च वर्णिता भेदाः / तानेवाह-ग्रहणे अनुज्ञापनायामेकाङ्गि के अकुचे प्रायोग्ये च। तत्र प्रथमतो ग्रहणद्वारमाहगहणंच जाणएणं, सेजाकप्पो उजेण समहीतो। उस्सग्गववाएहिं,सोगहणेकप्पिओ होइ॥३३॥ येन समधीतः-सम्यगधीतः शय्याकल्पः शय्याग्रहणविधिः तेन जानता ग्रहणं संस्तारकस्य कर्तव्यमा यतः स उत्सर्गापवादाभ्यां ग्रहणे कल्पिको योग्यो भवति। गतं ग्रहणद्वारम्। इदानीभनुज्ञापने या यतना तामाहअणुण्णवणाएँ जयणा, गहिते जयणाय होति कायव्या। अणुण्णवणाएँ लद्धे, बेंति पडिहारियं एयं // 34 // अनुज्ञापनायां यतना-गृहीते च यतना कर्तव्या। तत्रानुज्ञायामियमलब्धे संस्तारके बुवर्त, एतं सस्तारकं प्रातिहारिक ग्रहीष्यामो | यावत्प्रयोजनं तावद्धरिष्यामः पश्चात्समर्पयिष्याम इति। कालंच ठवेइतर्हि, बेइय परिसाडिवतमप्पहिमो। ऽणुण्णवणे जयणों ऐसा, गहिय जयणा इमा होति॥३५।। यदा संस्तारको लब्धो भवति तदा तत्र कालं स्थापयति एतावन्तं काल धरिष्यामः, तथा ब्रूते - एष संस्तारको जराजीर्णतया परिशाटिरूपरतमेनं बयं ग्रहीष्यामः / तत्र नियाघातेनैतावता कालेन यत्परिशटति तन्मुक्त्वा शेषमर्पयिष्यामः / एवं यदि प्रतिपद्यते तदा गृह्यते, अथ न प्रतिपद्यते तदा न गृहीतव्यः किं त्वन्यो याच्यते / अथान्यो याच्यमानो न लभ्यते तदा स एव प्रतिगृह्यते केवलं परिशाटौ यतना विधेया। एषा अनुज्ञापने यतना। गृहीते यतना इयं वक्ष्यमाणा भवति। तामेवाहकीसं पुणघेयव्वो, बेतिममं जा हि तुं भवे सुन्नो। अमुगस्स सो वि सुन्नो, ताहे धरम्भिठवेजाहि॥३६|| कहि एत्थ चेव ठाणे, पासे उवरिव तस्स पुंजस्स। अहवा तत्थेवथओ, ते विहुनीयल्लगा अम्हं।।३७।। गृहीते संस्तारके पुनः पृच्छति-कार्यसमाप्ती कस्य पुनरर्पयितव्य एष संस्तारकः? एवमुक्तेस यदि ब्रूते ममैव समर्पयितव्यः इति, तदा वक्तव्यं यदा त्वं भवति शून्यः / किमुक्तं भवति- यदा यूयं न दृश्यध्ये तदा करय समर्पणीयः? एवमुक्ते स बूयादभुकस्याततो भूयोऽपि वक्तव्यम्, सोऽपि यदा शून्यो भवति न दृश्यते इत्यर्थः, तदा करम समर्पणीयः ? अथ यादव गृहे स्थापयेत् ततः पुनरपि पृच्छेत् कतररिमन्नवकाशे स्थापनीयः? एवमुक्ते यदि स ब्रूयात् यतोऽवकाशात् गृहीतोऽत्रैव स्थाने स्थापयेत्, यदि या-वदेत अत्रैव स्थाने छन्ने प्रदेशे, अथवायतोऽवकाशात् गृहीत-स्तरय पार्थे, अथवा-अस्य पुञ्जस्योपरि स्थापयेत् / यदिवा-यत्र यूथं नयथ तत्रैव तिष्ठतु, यता यस्योपाश्रये यूयं | वसथ सोऽपि हु-निश्चितम्-अस्माकं निजकः / किं बहुना यत्र वदति तत्र नीत्वा स्थापयितव्यः। एसा गहिए जयणा, एत्तो गेण्हतए उ वुच्छामि। एगो चिय गच्छे पुण, संघाडो गेण्हति ग्गहितो // 38 / / एषा-अनन्तरोदिता गृहीते यतना, अत ऊर्द्ध गृह्णति यतना वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव करोति-गच्छे पुनरेक एव संघाटः आभिग्रहितः संस्तारक गृह्णाति, न शेषोऽन्यथा व्यवस्थापत्तेः / आभिग्गहियस्सऽसती, वीसुंगहणे पमिच्छिउंसव्वे। दाऊण तिन्नि गुरुणो, गिण्हँति सेसे जहावुळं // 36 // आभिग्रहिकस्याभावे विष्वक्-प्रत्येक सघाटकानां ग्रहण प्रवर्तते। इयमत्र भावना- एकै कः संघाटकः प्रत्येकमे कैकं संस्तारक मार्गयति. अभ्यधिकास्त्रयः संस्तारका आचार्यस्य योग्या मृग्यन्ते / तत्रापि सैव मार्गणे अनुज्ञापने गृहीते च यतना यावत्कार्यसमाप्तौ व स्थापयितव्य इति / एवं विष्वक् ग्रहणे सर्वान् संस्तारकान्प्रती-च्छ्यप्रतिगृह्य त्रीन संस्तारकान् गुरोर्दत्त्वा शेषानन्यान् यथावृद्धं गृह्णन्ति। इयमत्र सामाचारीआभिग्रहिकसंघाटकेन प्रत्येकं प्रत्येक संघाटकैरानीतानां वाऽनानीताना वा मध्यादाचार्यस्यो-त्कृष्टान् त्रीन संस्तारकान् प्रवर्तको दत्त्वा शेषाण' रत्नाधिकतया संस्तारकान् भाजयन्ति तानपि तथैव गृह्णन्ति। णेगाण उणाणतं, सगणेयरभिग्गहीण अन्नगणे। दिट्ठोभासणलद्धे, मन्नाउट्टेपभूचेव // 40 // अनेकानां स्वगणेतराभिग्रहिकाणां यन्नानात्वं - प्रतिविशेषा यच्चान्यगणेन सह स्वगणसाधूना समुदायेन संस्तारकान मार्गयतामाभवद्व्यवहारनानात्वं तत् वक्ष्ये / तत्र-पा द्वाराणि, तद्यथादृष्टद्वारमवभाषणं नाम-याचनं तद् द्वार, लब्धद्वारमभाषणं-मानयाचन तद्वार,प्रभुद्वारं च। दिट्ठादिएसु एत्थं एकेके होंतिमे उछडभेया। दठूण अहाभावे-ण वावि सोउंच तस्सेव॥४१|| विप्परिणामणकहणा, वोच्छिन्ने चेव तिपडिसिद्धेय। एएसिंतु विसेस, वुच्छामि अहाणुपुव्वीए॥४२|| अत्र एषु दृष्टादिकेषु द्वारेषु मध्ये एकैकस्मिनद्वारे इमे-वक्ष्यमाणाः षड्भेदा भवन्ति / तद्यथा- दृष्टुति द्वारं, यथा-भावेनेति द्वार, तस्य वा वचनतः श्रुत्वेति द्वार, विपरिणामनद्वारं, कथनद्वारं व्यवच्छिन्नद्वारं च / एतेषां तु द्वाराणां यथा नुपूर्व्या क्रमेण विशेष वक्ष्यामि। यदपि च दृष्टादिषुद्वारनानात्वं तदपि यथावसरं वक्ष्यते। संथारं देहतं, असहीणप तुपेसिओ पढमो। ताहे परियरिऊणं, ओभासिय लब्भमाणेति॥४३॥ मानसंस्तारक - फलकरूपं पट्टरूपं वा देहान्तं -देहप्रमाणम्, अस्वाधीनप्रभुम्-न विद्यते स्वाधीनस्तत्कालप्रत्यासन्नःप्रभुर्यस्य स तथा तमस्वाधीनप्रभुं दृष्ट्वा कमपि पृच्छति, कस्यैष सस्तारकः? स प्राह-अमुकस्य, परमिदानीमत्र स न तिष्ठति / ततः संघाटकश्चिन्तयतियदा संस्तारकस्वामी समागमिष्यति तदा याचिष्ये, इति विचिन्त्य प्रसरतिप्रतिनिवर्तते वसतावागच्छतीत्यर्थः / ततः प्रतिनिवृत्य त Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 171 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार दा अन्यदा अवभाषिते याचिते संस्तारकं लब्धं वसतिमानयति अत्रैवापान्तराले वक्तव्यशेषमाहसंथारो दिट्ठोन य, तस्सपभूलघुगों अकहणे गुरूणं। कहिए ब अकहिए वा, अण्णेण वि आणितो तस्स॥४४|| यदा संस्तारक-प्रेक्ष्य तस्य स्वामिनमदृष्ट्वा वसतौ प्रत्यागतस्तदातेन गुरूणामाचार्याणां कथनीयम्-यथा दृष्टः संस्तारको न च तस्य संस्तारकस्य यः प्रभुः स उपलब्ध इति / एवं चेन्नालोचयति तस्य प्रायश्चित्त लघुको मासः / तथा कथिते अकथिते वा गुरुणां यद्यन्येन सघाटकेनामुकस्य गृहे संस्तारकोऽमुकेन संघाटकेन दृष्टः परं स्वामी नोपलब्ध इति न याचितस्तस्माद्वयं याचित्वा नयाम इति विचिन्त्य तत्र गत्वा स्वामिनमनुज्ञाप्य, आनीतस्तथापि येन पूर्व दृष्टस्तस्याऽऽभवंति न पाश्चात्यसंधाटस्य। तदेवं 'दठूणेति' व्याख्यातम्। इदानी यथाभावेनेति व्याख्यानयतिवितिओ उ अन्नदिहूं, अहभावेणं तुलद्धमाणेति। पुरिमस्सेव उस खलु, केई साहारणं बेंति।।१५।। प्रथमसंघाटके संस्तारकं दृष्ट्वा स्वामिनमनुपलभ्य याचित्वैव वसतौ प्रत्यागते द्वितीयः संघाटकोऽशठभावोऽन्येन पूर्व दृष्ट इत्यजानाना यथाभावे तमन्यदृष्ट संस्तारकं स्वामिनमनुज्ञाप्य लब्ध्वा समानयति स कस्याऽऽभवतीति चेदत आह-स खलु नियमात्पूर्वस्य संघाटकस्य येन पूर्व दृष्टो, न पाश्चात्यस्य येन लब्धः समानीतः, किं तु उभयोरपि संघटयोराभवनमधिकृत्य साधारण ब्रुवते। गतं यथाभावेनेति द्वारम्। इदानीं तस्यैव वचनतः श्रुत्वेति द्वारव्यानार्थमाहतइओ उगुरुसगासे, विगडिजंतं सुणेतुसंथारं। अमुगत्थ मए दिट्ठो,हिंडतो वऽण्णसीसंतं॥४६|| तृतीयः संघाटकः प्रथमेन संघाटकेन क्वापि संस्तारकं दृष्ट्वा स्यामिनमनुपलभ्य वसती प्रत्यागतेन गुरुसकाशे-आचार्यस्य समीपे दृष्टो मया संस्तारकः परं स्वामी न दृष्टस्तत आगतं स न याचिष्ये इति, संस्तारकं विद्यमानमालोच्यमानं श्रुत्वा, यदिवा-भिक्षां हिण्डमानोऽन्यस्य संघाटकस्य शास्ति-कथयतियथा अमुकत्र मया दृष्टः परं स्वामी नास्ति इति नयाचितः स्वामिन्यागते याचिष्यामि एवं शिक्ष्यमाणं श्रुत्वगंतूण तहिं जायइ, लद्धम्मी बेति अम्ह एस विही। अन्नदिट्ठोन कप्पइ, दिहो एसो उ अमुगेणं // 47|| मा दिज्जसि तस्सेयं, पडिसिद्धतम्मि एस मज्झंतु। अण्णो धम्मकहाए, आउट्टेऊणतं पुव्वं / / 48|| संथारगदाणफला-दिलोभियं बेति देहि संथारं। अमुगं तिन्नि यवारो,पडिसेहेऊण तं मज्झं / / 46 / / गत्वा तत्र संस्तारकस्वामिनं संस्तारकं याचते, याचित्वा लब्धे त परिणामयति / यथा एषोऽस्माकं विधिराचारो योऽन्येन दृष्टो दृष्ट्वा च संस्तारकस्वामिनं याचिष्ये इत्यध्यवसितः सोऽन्यस्य न कल्पते एष च संस्तारकोऽन्येन दृष्टस्ततस्त्वं मम प्रियतया तस्य याच्यमानस्य संस्तारकममुदद्याः, ततस्तस्मिन् प्रतिषिद्ध एष मम भविष्यति / अत्रेयमाभवनचिन्ता यदि विपरिणामकरणे लब्धस्ततस्तस्य नाऽऽभवति किं तु पूर्वस्यैव संघाटस्य। अथवा-द्वितीयो विपरिणामनप्रकारस्तमाहगुरुसकाशे कथ्यमानमन्यस्य वा संघाटस्य शिक्ष्यमाण संस्तारक श्रुत्वाऽन्यः संघाटकस्तत्र गत्वा संस्तारकस्वामिनं पूर्वकथया धर्मकथाकथनेनावृत्त्यात्मानुकूलं कृत्वा पश्चाद्विपरिणामयति, कथमित्याह- 'संथारगदाणे' त्यादि संस्तारकस्वामिनं पूर्वसंस्तारकदानफलादिलाभित बूते-अमुकं संघाटकं याचमानं त्रीन्वारान्प्रतिषिध्य तदनन्तरं मम संस्तारकं देहि। एवं विपरिणामकरणलो लब्धः स पूर्वस्यैव संघाटकस्याऽऽभवति न पाश्चात्यस्य। अत्र प्रायश्चित्तविधिमाहएवं विपरिणामिऍण,लभती लहुगाय होंति सगणिचे। अन्नगणिचे गुरुगा, मायनिमित्तं भवे गुरुगो॥५०॥ एवम्-उक्तेन प्रकारेण विपरिणामितेन-स्वामिना यदि लभते स्वगणसत्कसाधुस्तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः, अन्यगणसत्के चत्वारो गुरुकाः / तथा स्वगणसत्को वा अन्यगणसत्को वा विपरिणम्य लब्ध्वा यदि पृष्ठः सन् विपरिणामनमपलपति तदा मायानिमित्तोमायाप्रत्ययो भवत्यधिको गुरुको मासः। सम्प्रति व्यवच्छिन्नद्वारमाहअह पुण जेणं दिट्ठो, अन्नो लद्धो उतेण संथारो। छिन्नो तदुवरि भावो, ताहे जो लभति तस्सेव।।५१।। अथ पुनर्येन संघाटकेन दृष्टः संस्तारकस्तेनान्यो लब्धः संस्तारकस्तस्य पूर्वदृष्टस्योपरि भावोऽध्यवसायश्छिन्नोव्यवच्छिन्नस्ततो यःपश्चात् लभते तस्यैव स आभवति नेतरस्य। गतं व्यवच्छिन्नद्वारम्। अधुना त्रिप्रतिषिद्धद्वारमाहअहवा वि तिनि वारा, उमग्गितोन वियतेण लद्धोउ। भावे छिन्नमछिन्ने, अन्नो जो हवइतस्सेव॥५२॥ अथवा येन दृष्टस्तेन याचितःपरं न लब्धो द्वितीयमपि वारं याचितो न लब्धस्तृतीयमपि वारं न लब्धस्तत एवं त्रीन् वारान् याचितो न च तेन लब्धस्ततस्तस्योपरि यदितस्य संघाटकस्य भावो व्यवच्छिन्नो, यदिवान व्यवच्छिन्नस्तथा योऽन्यो लभते तस्याऽऽभवति न पूर्वसंघाटकस्य। तदेवंषभिद्वारः समाप्त प्रथम दृष्टद्वारम्। अधुनाऽवभाषितद्वारमाहएवं ता दिट्ठम्मी, ओभासितके वि होंति छच्चेव। सोउं अहभावेण व, विप्परिणामे य धम्मकहा।।५३।। वोच्छिन्नम्मि व भावे, अन्नो वऽन्नस्स जस्स देजाहि। एएखलु छब्मेया, ओहासणे होंति बोद्धव्वा / / 5 / / Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार एवमुक्तेन प्रकारेण दृष्ट-दृष्टद्वारे षड् भेदाः प्रकाशिता एवमवभाषितेऽपि षड् भेदा भवन्ति-ज्ञातव्याः / तद्यथा-प्रथमं श्रुत्वेति द्वार, द्वितीय यथाभावेनेति द्वार, तृतीयं विपरिणामद्वारं, चतुर्थ धर्मकथाद्वारं, पञ्चम व्यवच्छिन्नदारं, षष्ठमन्यो वा तस्येति द्वारम्। तत्र एते खलु षड़ भेदा अवभाषणे भवन्ति-वोद्धव्याः। प्रथमद्वारव्याख्यानार्थमाहओभासिते अलद्धे, अव्वोच्छिन्ने यतस्स भावे उ। सोउं अण्णो भासइ, लद्धोऽण्णो तप्पुरिल्लस्स॥५५|| संघाटकेन भिक्षामटता संस्तारकस्वामी च संस्तारकं याचितः परं न | लब्धः, अथ च तस्य-संघाटकस्य संस्तारकोपरि भावोऽद्यापि न च व्यवच्छिद्यते तेन च संघाटकेन गुरुसमीपमागत्यालोचितो यथा अभुकस्य गृहे संस्तारको दृष्टः याचितश्च परं न लब्धः द्वितीयं वारं याचिष्यते एवमवभाषिते अलब्धे अव्यवच्छिन्ने च तस्य संस्तारकस्योपरि भावे विकटनं श्रुत्वा अन्यः संघाटकस्तत्र गत्वा याचते लभते, च, स लब्धो नीतः सन् कस्याऽऽभवतीत्यत आह-पूर्वस्य। येन पूर्वमवभाषितोऽपि न लब्धस्तस्याऽऽभवति, तद्विषयभावाव्यवच्छेदान्नेतरस्य। सेसाणि जहा दिढे, अह भावादीणि जाव वोच्छिन्ने। दाराइंजोएज्जा, छटे सेसं तुवुच्छामि // 56 // शेषाणि यथा भावादीनि चत्वारि द्वाराणि यावद् व्यवच्छिन्नद्वारम्, यथा दृष्टदृष्टद्वारे पूर्व भावितानि तथा योजयेत् / तद्यथा-एकेन संघाटेन भिक्षामटता क्वापि संस्तारको दृष्टो याचितश्च परं न लब्धः, द्वितीयः संघाटको यथाभावेन तत्र गत्वा तं संस्तारकमानयति स पूर्वसंधाटकस्याऽऽभवति, न येनानीतस्तस्य। अन्ये तु ब्रुवते-द्वयोरपि संघाटकयोराभवनमधिकृत्य साधारणमिति, गतं यथाभावद्वारम् / / 2 / / अधुना विपरिणामद्वारमुच्यते-गुरुसमीपे विकथ्यमानमन्यस्य कथ्यमानं याचितमलब्ध संस्तारक मह्य सम्प्रति देहि, अत्रापि पूर्वस्यैव संघाटकस्य स आभवति न येना-नीतस्तस्य / गतं विपरिणामद्वारम् / / 3 / / राम्प्रति धर्मकथाद्वार-मुच्यते -अग्रेतनेन संघाट के न याचिते अलब्धे चान्यसंघाटकस्तत्र गत्वा तं संस्तारकस्वामिनं धर्मकथाकथनेन समाकर्ण्य याचते संस्तारकम्, स तथा लब्ध्वानीतः सन् पूर्व संघाटकस्याऽऽभवति न येन पश्चादानीतस्तस्येति। गतं धर्मकथाद्वारम् ||4|| अधुना व्यवच्छिन्नभावद्वारमुच्यते-प्रथमसंधाटकेन संस्तारको याचितो न लब्धस्ततस्तद्विषये भावो व्यवच्छिन्नः, गुरुसमीपे च गत्वा तथैवालोचितं यथा अमुकस्य गृहे सस्तारको दृष्टो याचितश्च पर न लब्धः, स तिष्ठतु द्वितीयं वारं न कोऽपि याचिष्यते। एवं व्यवच्छिन्नं भाव ज्ञात्वा योऽन्यसंघाटको याचते, लभते च; स च तस्याऽऽभवति, न पूर्वस्य। तदेवं योजितानि यथाभावादीनि चात्वार्यपि द्वाराणि / / 5 / / अत ऊर्द्धमाह- | षष्ठेद्वारे अन्यो वाऽन्य-स्येति लक्षणे विशेषोऽस्ति तं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव करोति। अच्छिन्ने अन्नोऽन्नं, सो वा अन्नं तु जइसे देजाहि। कप्पइ जो उ पणइतो, तेण व अन्नेण व न कप्पइ / / 57 / / येन प्रथमसंघाटकेन संस्तारको दृष्टोयाचितश्च न लब्धस्तस्य तद्विषये भावे अच्छिन्ने-अव्यवच्छिन्ने अन्येन संघाटकेन तत्र गत्वा याचिते अन्यो मनुष्योऽन्यसंस्तारक यदि दद्यात्, यदिवा-स एव संस्तारकस्वामी अन्य संस्तारक दद्यात्, तदा 'से' - तस्य कल्पते। यस्तु प्रणयितो-याचितः संस्ताकरः स तेन स्वामिना अन्येन वा मनुष्येण दीयमानो न कल्पते। गतमवभाषितद्वारम्। अधुना लब्धद्वारमाहलद्धबारे चेवं, जोए जहसंभवंतुदाराई। जत्तियमेत्तों विसेसो, तंबुच्छामी समासेणं॥५८|| लब्धद्वारेऽप्येवमुक्तप्रकारेण श्रुत्वादीनि द्वाराणि यथासंभवं योजयेत्। यावन्मात्रश्व विशेषस्तावन्मात्रं तं विशेष समासेन वक्ष्ये। तत्र प्रथम / श्रुत्वेति द्वारमधिकृत्य विशेषमाहओभासियम्मिलद्धे, भणंति नतरामिइण्हि नेउंजो। अच्छत नेहामो पुण, कल्ले वा घिच्छिहामो त्ति॥५६।। प्रथमसंघाटेन क्वापि संस्तारको दृष्टो याचितो लब्धश्च, तस्मिन् अवभाषिते लब्धे च साधवो भणन्ति-नशक्नुमः संप्रति भिक्षा-मटन्तः सस्तारक नेतुम्, ततस्तिष्ठतु पश्चान्नेष्यामः / एतच गुरु-समीपे समागत्य तेन संघाटकेनालोचितम्, तच्च श्रुत्वा अन्यो याचते लभते च, स आनीतः सन पूर्वसंघाटकस्याऽऽभवति, न येनानीतस्तस्य / अपरः संघाटकोऽग्रेतनसंघाटकवृत्तान्तमविदित्वा यथाभावेन गत्वा याचते तेनाप्यानीतः पूर्वसघाटकस्याऽऽभवतिन तस्य। अपरे द्वयोरपितं साधारणमाचक्षते। विपरिणामद्वारं साक्षादाहनवरि अण्णो आगतो, तेण विसो चेव पणयितो तत्थ। दिन्नो अन्नस्य तओ, वी (वि) परिणामेइतह चेव॥६०|| प्रथमसंघाटकेन संस्तारके याचिते लब्धे नेतुमशक्यतया तव मुक्ते नवरि-केवलमन्यः संघाटक आगतस्तेनापि तत्र स एव संस्तारकः प्रणयितो-याचितः। संस्तारकस्वामिनोक्तं दत्तोऽन्यस्य, ततस्तथैवतं विपरिणामयति, यथा सर्वदैवाहं तव प्रियस्ततो मयि सति किमन्यस्मै तव दातुमुचितं तस्माद्यदि स आगच्छति तर्हि तस्य प्रतिषिध्य पश्चान्मम दातव्य इति / एवं यदि वि-परिणम्यानीतो भवति ततः पूर्वतमस्याऽऽभवति, नेतरस्य / तदेवमुक्त विपरिणामद्वारम् / / अधुना धर्मकथाद्वारम्-तथैव प्रथमसंघाटकेन संस्तारके याचिके लब्ध नेतुमशक्यतया तत्रैव मुक्ते अन्यसंघाटकस्तत्र समागत्य तं संस्तारक याचितवान् / ततः संस्तारक स्वामिनोक्तंदत्तोऽन्यस्मै / तता धर्मकथाकथनतस्तमावयं ब्रूते यथा तस्य प्रतिषिध्याय संस्तारको मां देयः / एवमानीतः पूर्व संघाटकस्य स आभवति, नेतरस्य / तथा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार येन प्रथमसंधाटकेन सस्तारको याचितो लब्धः श्रुतश्च तरय तद्विषये भावः कुतश्चित्कारणात व्यवच्छिन्नः, अन्येन वा अशठभावेन याचितो लब्धश्च तस्याऽऽभवति, न प्रथमसंघाटस्य तस्य तद्विषयभावव्यवच्छे दात / तथा प्रथमसंघाटके न संस्तारके याचिते लब्धे नेतुमशक्यतया तत्रैव मुक्ते अन्यः संघाटकस्तत्र समागत्य संस्तारकं याचते / तत्र यदि अन्यो मनुष्योऽन्यं संस्तारकं दद्यात्, स वा प्रथमसघाटकयाचितोऽन्य तदा स तस्य कल्पते। यः पुनः प्रणयितः स तेनान्येन वा दीयमानो न कल्पते। तथा च विपरिणामद्वारमुक्त्वा शेषद्वाराणामतिदेशमाह - अहभावोऽऽलोयणध-म्मकहण वोच्छिन्नमन्नदाराणि। नेयाणि तहा चेव उ, जहेव उछट्ठदारम्मि।।६१|| यथाभावाद्वारम्, 'आलोयण' त्ति-पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् आलोचनां श्रुत्वेति द्वारं, धर्मकथनद्वारं, व्यवच्छिन्नद्वारमन्यद्वार चेति पञ्च द्वाराणि यथैवावभाषितद्वारेऽभिहितानि तथैव ज्ञेयानि / षष्ठ तु विपरिणामद्वारं साक्षादुक्तम् / गतं लब्धद्वारम्। __इदानीं संज्ञातिकद्वारमाहसण्णायए वि एच्चिय, दारा नवरं इमं तुनाणत्तं। आयरिएणाभिहितो, गेण्हह संथारयं अज!||६|| सुद्धदसमीठियाणं, बेतिय घेच्छामि तद्विणं चेव। नायगिहे परिण्णातो, मए उसंथारतो भंते!||६३।। यान्येव श्रुताऽऽदीनि षट् द्वाराणि लब्धद्वाराभिहितानि एतान्येव संज्ञातिकद्वारेऽपि द्रष्टव्यानि, नवरं भावनायां यन्नानात्वं तदिद वक्ष्यमाणम् / तदेवाऽऽह- 'आयरिएणे त्यादि आचार्यणाभिहितः आर्य ! संस्ताकं गृहाण, एवमुक्तः सन् संज्ञातिकानां गृहमागच्छन् दृष्टः संस्तारको याचितो लब्धश्च / अथवा-संज्ञातिकै रयाचितैरेव स उक्तो गृहाण संस्तारकम्, ततस्तेनोक्तम्- यस्मिन् दिवसे संस्तारके स्वप्तुमारभ्यते तस्मिन् दिवर नेष्यामः, आचार्यश्च शुद्धदशम्यां तत्र स्थितः स आगत्य शुद्धदशमीस्थितानां गुरूणा-मन्ते बूते-आलोचयति भदन्त ! मया ज्ञातिगृहे संस्तारकः प्रतिज्ञप्तो निभालितस्तिष्ठति / ततो यत्र दिने संस्तारके स्वास्यते तदिवसमेवतस्मिन्नेव दिने ग्रहीष्यामः। एवमालोचित श्रुत्वा अन्यो याचते लभते च, स आनीतः पूर्वसंघाटकस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य / गतं श्रुत्वा अपरः संघाटकोऽग्रेतन् संघाटकवृत्तान्तमनवज्ञाय यथाभावेन गत्वा याचते लभते च स तेनानीतः पूर्वसंघाटकस्याऽऽभवति न तस्य / अपरे तु द्वयोरपि संघाटकयोस्तं साधारणमाचक्षते / यथाभावद्वारमपि गतम्। इदानीं साक्षाद्विपरिणामद्वारमाहविपरीणामे तह विय, अन्नो गंतूण तत्थ नायगिह। आसन्नयरोगेण्हइ, मित्तो अण्णो विमंचोत्तुं / / 6 / / अन्ने वि तस्स नियगा, देहिह अन्नं च तस्स मम दाउं। दुल्लभलाममणा उं-ठियम्मि दाणं हवति सुद्धं // 65 / / सन्नायगिहो अन्नो, न गेण्हए तेण असमणुण्णातो। सति विहवे सत्तीए, सो विहुन वि तेण निव्विसंति / / 66 / / तेन साधुना मया भदन्त ! ज्ञातगृहे संस्तारकः प्रतिज्ञप्तोऽस्ति ततस्तरिमन्नेव दिने समानेष्यते, इत्यालोचितं श्रुत्वा अन्य आस-नतरो, मित्ररूपो वा ज्ञातिगृहं गत्वा तत्र तथैव संस्तारकस्वामिनं विपरिणामयति, स चान्यो विपरिणम्य गृह्णाति। इदं वक्ष्यमाणमुक्त्वा तदेवाह-'अन्नेवी' त्यादि अन्येऽपि च तस्य निजकाः संस्तारकं दास्यन्ति / यदि वा-ममामु संस्तारक दत्त्वा तस्यान्यं संस्तारकं दद्याः / अथवा-अस्मादृशे अज्ञातोञ्छवृत्तिजीविनि यद् दुर्लभदानं दीयते तद्भवति शुद्धमिहपरलोकाशंसाविप्रमुक्तत्वात् / तथा स्वज्ञातगृहेऽन्योऽसंज्ञातिकस्तेन सस्तारकस्वामिना असमनुज्ञातो न गृह्णाति। अहं पुनः संज्ञातिकस्ततोवा शय्यामे-कवारमनुज्ञातस्यापि संस्तारकस्य ग्रहणे, तथा सति विभवे, यदि वा-विभवाभावेऽपि स्वशक्त्या सोऽपि संज्ञातिकस्तेनात्मीयेन संज्ञातिकेन विना न निर्विशति उपभुङ्क्ते भक्तपानसंस्तारकादि तस्मान्मम दातव्य एष संस्तारक इति / एवं विपरिणम्यानीत: पूर्वसंघाटस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य / गतं विपरिणामद्वारम् / / अधुना धर्मकथाद्वारमुच्यते-तथैवालोचनामाकान्यः संघाटकस्तत्रागत्य धर्मकथामारभते, ततो धर्मकथया तमत्यन्त-मावर्त्य तं संस्तारक याचते; सधर्मकथाश्रवणोपरोधतो न नि-षेळू शक्त इति तस्मै दत्तवान्, सोऽपि पूर्वसंघाटस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य / गतं धर्मद्वारम् ।।संप्रति व्यवच्छिन्नद्वारमाह, भावना-तस्य संज्ञातिकस्य याचितसंस्तारकविषये भावः कुतश्चित्कारणतो व्यवच्छिन्नोऽन्येन च संघाटकेनाभावेन याचित्वा समानीतः। स येनानीतस्तस्याऽऽभवति, न पूर्वसज्ञातिकस्या अन्यद्वारभावना त्वियम्-पूर्वप्रकारेण तेन संज्ञातिकेन गुरुणामन्तिके विकटने कृतेतत् श्रुत्वा अन्यः संघाटकस्तत्र गत्वा संस्तारकं याचते, तत्रान्यो मनुष्योऽन्य संस्तारक यदि ददाति, यदि वा स एव पूर्वसंघाटकयाचितः संस्तारकस्वामी ; परमन्यं संस्तारकं तदा कल्पते। पूर्व याचितस्त्वनेनान्येन वा दीयमानो न कल्पते। तथा चाऽऽहसेसाणि य दाराणि, तह विय बुद्धिए भासणीयाई। उद्धद्दारे वितहा, नवरं उद्धम्मि नाणत्तं॥६७।। शेषाण्यपि विपरिणामजानि श्रुत्वादीनि द्वाराणि तथैव प्रागुक्तप्रकारेणव बुद्ध्या परिभाव्य भाषणीयानि तानि च तथैव भाषिततानि। गतं संज्ञातिकद्वारम् // इदानीमूर्द्धद्वारमाह- ऊर्द्धद्वारेऽपि तथा पूर्वोक्तप्रकारेण द्वाराणि षडपि श्रुत्वादीनि योजनीयानि नवरमूर्द्धऊर्द्धकारणे नानात्वम्। तदेव भावयतिआणेऊण न तिण्णे, वासस्सय आगमं तु नाऊणं। मा उल्लेज्ज हुछण्णे, ठवेइ अण्णो व मग्गेज्जा॥६८|| संघाट के न क्वापि गृहे संस्तारको दृष्टो, याचितो लब्धश्च / आने तु - मपि व्यवसितः परं वर्ष स्य आगमम् - आगमन Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 174 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार ज्ञात्वा माऽपान्तराले वर्ष पतेदिति कृत्वा नानेतु तीर्णःशक्तः। तया मा वर्षेणात्र प्रस्तारित आर्दीक्रियेत। तथा मा अन्यः संघाटकः समागत्य मार्गयत-यात इति छन्ने प्रदेशे कुड्ये-अवष्टभ्य ऊकृतस्ततो गुरुसमीपे समागत्य विकटयति, तच श्रुत्वा अन्य उपेत्यआगत्य याचते स च तेनानीतः पूर्वसंघाटकस्याऽऽभवति न येनानीतस्तस्य / गतं श्रुत्वा द्वारम्। इदानीं यथाभावद्वारं विवक्षुराहपुच्छाए नाणत्तं, केणुद्धकयं तु पुच्छियमसिट्टे। अन्नासढमाणीयं, पिपुरिल्लो केइ साहारं॥६६॥ यथाभावद्वारे पृच्छायां नानात्वं, किं तदिति चेत् ? उच्यते-अन्यः संघाटकस्तत्र यथाभावेन गतस्तेनऊीकृत संस्तारकं दृष्ट्वा चिन्तितम्किं नामैष संयतेन ऊीकृत उत गृहस्थेन? यथा-भावत एवं तेन संशयेन पृष्टः-कैनायमूर्तीकृत इति? गृहस्थैश्च न किमपि शिष्टं -कथितम्, ततोऽन्येन संघाटकेनाशठेन संस्तारको याचितो लब्ध-आनीतश्च / तथाऽन्येनाशठेनानीतमपि संस्तारकं पूर्वस्य संघाटकस्याऽऽभवन्तमाचक्षते, केचित् पुनर्द्वयोरपि संघा-टकयोः साधारणम् / अथ पृष्टे गृहस्थैराख्यातं गृहीतेनोद्धी कृतः, यथाभावेन याचितो लब्धश्च सोऽप्यानीतः पूर्वसंघाटस्याऽऽ-भवति। अपरेतुद्वयोरपि साधारणमाहुः / छन्ने उड्डो व कतो, संथारो जइ वि सो अहाभावा। तत्थ वि सामायारी, पुच्छिज्जा इतरहा लहुतो / / 70 / / यद्यपि संस्तारो यथाभावात्-यथाभावेन गृहस्थैः छन्ने प्रदेशे ऊद्धी कृतो ज्ञायते चेतत्तथापि तत्रेयं सामाचारी गृहस्थोऽवश्यमु-क्तप्रकारेण पृच्छ्यते, इतरथा-पृच्छाकरणाभावे प्रायश्चित्तं लघुको मासः / गत यथाभावद्वारम् / विपरिणामेन धर्मकथाव्यवच्छिन्न-भावान्यद्वाराणि पूर्ववत् भावनीयानि। तथा चाहसेसाई तह चेव य, विपरीणामाइयाइँ दाराई। बुद्धीऍ विभासेज्जा, एत्तो वुच्छं पभूदारं।७१।। शेषाणि-विपरिणामादीनि द्वाराणि बुद्ध्या यथा प्रागभिहितानि तथैव परिभाष्य विभाषेत-प्रतिपादयेत्। गतमूर्द्धकृतद्वारम्। अत ऊर्ध्वप्रभुद्वारं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपभुदारे वी एवं, नवरं पुण तत्थ होइ अहभावे। एगेण पुत्तो जॉइओ, विइएण पिया उ तस्सेव।।७२।। प्रभुद्वारेऽपि एवं-पूर्वोक्तप्रकारेण श्रुत्वादीनिषट् द्वाराणि ज्ञेयानि, नवर पुनस्तत्र प्रभुद्वारे यथाभावलक्षणे अवान्तरभेदे नानात्वं भवति / एकेन संघाटकेन यथाभावेन पुत्रो याचितः,एकेनतस्यैव पिता, द्वाभ्यामपि दत्तः स कस्याऽऽभवति? तत आहजो पभुतरओ तेसिं, अहवा दोहिं पि जस्स दिन्नं तु / अपभुम्मि लहू आणा, एगतरपदोसतो जं च / 73 / / तयोः पितापुत्रयोर्मध्ये यः प्रभुतरस्तेन यस्य दत्तस्तस्याऽऽ भवति / अथ द्वावपि प्रभूताभ्यामपि संभूय यस्य, दत्तस्तस्याऽऽभवति, यस्य तु प्रतिषिद्धस्तस्य नाऽऽभवति / अथाप्रभुणादत्तं गृह्णाति, गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे , सदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघवः, तथा आज्ञादयो दोषाः / यच्च एकतरप्रद्वेषत आपद्यते प्रायश्चित्तं तदपि तस्य द्रष्टव्यम्। एकतरप्रदेषो नाम-यः प्रभुः स संयतस्य-वोपरि प्रद्वेष यायात, येन वा अप्रभुणा सता दत्तस्तस्य। अहवा दोण्णि वि पहुणो, ताहे साहारणं तु दोण्हं पि। विप्परिणामादीणि उ, सेसाणि तहेव भासेज्जा // 74|| अथवा द्वावपि पितापुत्रौ प्रभू, द्वाभ्यामपि च पृथक् पृथक् द्वयोः संघाटकयोरनुज्ञातः, तदा तयोर्द्वयोरपि संघाटकयोः साधारणमाचक्षते संस्तारकम्।तदेवं यथाभावे विशेषो दर्शितः। शेषाणि तु विपरिणामादीनि पञ्चापि द्वाराणि तथैव भावनीयानि यथा प्रागभिहितानि / साम्प्रतमुपसंहारमाहएसो विही उ भणितो, जहियं संघाडएहि मग्गंति ! संघाडे अलभंतो, ताहे वंदेण मग्गंति / / 75|| यत्र संघाटकैः प्रत्येकं प्रत्येकं संस्तारका मृग्यन्ते तत्र एष प्रत्येक प्रत्येकमानीतानां संस्तारकाणामाभवनव्यवहारविषयो विधि-रुक्तः, यत्र पुनरेकैकः संघाटको न लभते तदा वृन्दसाध्यानि कार्याणि वृन्देनः कर्तव्यानीति न्यायात् संघाटकैरलभमाने वृन्देन समुदायेन मार्गयन्ति। तत्र विधिमतिदेशत आहवंदेणं तह चेव य, गहणुण्णवणाइतो विही एसो। नवरं पुण नाणत्तं, अप्पणए होइ णायव्वं / / 76 / / वृन्देनापि मार्गणे तथैव तेनैव प्रकारेण ग्रहणे अनुज्ञापनायामादिशब्दादर्पणे च विधिरेष प्रागभिहितो द्रष्टव्यो नवरं पुनरर्पणे भवति नानात्वं ज्ञातव्यम्। तदेवाऽऽहसव्वे वि दिट्ठरूवे, करेहि पुन्नम्मि अम्ह एगयरो। अण्णो वा वाघाए, अप्पहितिज भणसि तस्स॥७७|| संस्तारकस्वामिनं प्रति उच्यते-सर्वानप्यस्मान् दृष्टरूपान्दृष्ट-मूर्तीन कुरु अस्माकमेकतरः पूर्ण वर्षाकालं संस्तारकं युष्माकम-प्पयिष्यति। अथास्माकमेतेषां कश्चनापि व्याघातो भवेत्तदा अन्योऽपि यत्तं भणसि तस्य समर्पयिष्यति। एवं ता सग्गामे, असती आणेज्ज अण्णगामातो। सुत्तत्थे काऊणं, मग्गइ मिक्खं तु अडमाणो // 78|| एवमुक्तप्रकारेण तावत्स्वग्रामे संस्तारकानयने विधिरुक्तः, असतिस्वग्रामे संस्तारवरयाभावे अन्यग्रामादपि आनयेत्।कथमित्याह-सूत्रार्थीकृत्वा सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी चकृत्वा भिक्षामटन्संस्तारकमान्यति। यदिपुनरन्यग्रा Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार मेऽपि प्रत्येकं स्घाटकरयालाभस्तदा अर्थपौरुषी हापयित्वा तत्र वृन्देन गत्वा याच्यते! अहिटे सामिम्मिउ, वसिउं आणेइ विइयदिवसम्मि। सक्खेत्तम्मि उ असते, आणयणं खेत्तबहियातो 176 / / यदि स्वग्रामे न दृश्यते संस्तारको, दृश्यमानो वा न लभ्यते तदा / स्वक्षेत्राद् द्विगव्यूतप्रमाणे वा, तत्रापि न लभ्यते तदा अन्यग्रामे गत्वा याचनीयः / अथ न दृश्यते तत्र संस्तारकस्वामी तदा गृहे उषित्वा द्वितीयदिवसे संस्तारकमनुज्ञाप्य गृहीत्वा समागच्छति। अथ स्वक्षेत्रे न लभ्यते तदा स्वक्षेत्रे सस्तारकस्याभावे स्वक्षेत्राद्विहिष्ठादप्यानयन संस्तारकस्य द्वित्रिदिनमध्ये कर्त्तव्यम्। सव्वेहि आगएहिं, दाउं गुरुणो उसेसेजहवुड़े। संथारे घेत्तूणं,ओगासे होइऽणुन्नवणा।[८०|| सर्वैरपि संघाटकैः परपरतरग्रामेभ्यः समागतैः संस्तारकपरिपूर्णतायां सत्यां त्रय उत्कृष्टाः संस्तारका गुरोर्दातव्याः, ततः शेषैर्यथावृद्धयथारत्नाधिकतया गृहीतव्याः / तान्संस्तारकान् गृहीत्वा तदनन्तरमवकाशे भवत्यनुज्ञापना / एतावता ग्रहणमिति द्वार समाप्तमनुज्ञापनाद्वारंसमापतितमित्यावेदितम्। जो पुव्यमणुण्णवितो, पेसिजंतेण होति ओगाढो। हेहिले सुत्तम्मी, तस्सावसरोइह पत्तो।।१।। यः पूर्वमधस्तने प्रथमे पिण्डसूत्रे प्रेष्यमाणेनावकाशोऽनुज्ञापितस्तस्यावसर इह प्राप्तस्ततः स भण्यते। नाऊण सुद्धभावं, थेरा वियरंतितंतु ओगासं। सेसाणि वि जो जस्स उ, पाउग्गो तस्स तं देति।।२।। तत्र प्रेष्यमाणस्यावकाशमनुज्ञापयतः स्थविरा-आचार्याः शुद्धं भावं ज्ञात्वा तमेवावकाशं वितरन्ति-अनुजानते, शेषाणामपि योऽवकाशे यस्य साधोः प्रायोग्यस्ततस्तस्येदंददति। अत्र विधिमाहखेलनिवातपवाते, कालगिलाणे य सेहपडियरए। समविसमे पडिपुच्छा, आसंखडिए अणुण्णवणा।।८३।। यस्य खेलः- श्लेष्मा प्रस्यन्दते स गुरून् अनुज्ञापयति-भगवन ! श्लेष्मा पतति ततोऽन्यदवकाशान्तरमनुजानीत ततस्तस्मादन्योऽवकाशो दातव्यः / तथा निवातं घमें निपीड्यमानो यदि प्रवातमनुज्ञापयति तर्हि तस्य प्रवातो दातव्यः / प्रवातेन पीड्यमानस्य निवातः कालग्रहीति द्वारमूलमनुज्ञापयति / स तत्र स्थाप्यते ग्लानस्य समीपे शैक्षस्य प्रतिचारकः शिक्षाद्वय ग्राहयित्वा शैक्षकस्य समीपे सभविषमायां भूमौ यस्य पाश्वाणि दुःखयति सोऽध्यास्यायां भूमौ स्थाप्यते, योऽयं पुनः पुनः प्रतिपृच्छति स तस्य पार्श्वे आसंखडिकः सूत्रधारकस्य पार्चे, एवमनुज्ञापना साधूनां भवति / आचार्येण च शुद्धभावमवगम्य तथैवानुज्ञायते। अथ उपसंहारमाहएवमणुण्णवणाए, एयं दारं इहं परिसमत्तं / एगंगियादिदादारा, एत्तो उठें पवक्खामि।।८४|| एवम्-उक्तप्रकारेण साधूनामनुज्ञापनायां भणितायामेतत् अनुज्ञापनालक्षण द्वारमिह परिसमाप्तम्, अतऊर्द्ध तु एकाङ्गिकादीनि द्वाराणि प्रवक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिअसंघातिमेव फलग,घेत्तव्वं तस्स असति संघाइं। दोमादितस्स असती, गेण्हेज अहाकडा कं (बी) ठी!|८|| पूर्वमसंघातिममेव फलकं गृहीतव्यम्, तस्यासत्यभावे संघातिमम्। किं विशिष्ट मित्याह-द्वयादिफलकात्मकं -द्विफलकात्मकम्, आदिशब्दात्-त्रिफलकात्मक चतुःफलकात्मकंवा गृह्णीयादितियोगः। तस्य फलकसंघा तात्मकस्य संस्तारकस्याभावे यथाकृताः कण्ठी (म्बी) गृह्णीयात्, गृहीत्वा तन्मयः संस्तारको विधीयते / तत्र या नमन्तिक व्यस्ताः सान्तराः क्रियन्ते, निरन्तराभिः प्राण-जातेर्विराधनात्, एतच्च फलकेष्वपि द्रष्टव्यम्। तथा चाहदोमादिसंतराणि उ, करेइमा तत्थ ऊऽनमंतेहि। संघरिसेणऽण्णोण्णं, पाणादिविराहणा हुज्जा // 86 // व्यादीनि फलकानि नमनशीलानि सान्तराणि करोति / किमर्थमित्याह-तत्र व्यादिफलकात्मके, संस्तारकेऽनमद्भिः फलकैरन्योन्यं संस्तारके प्राणादीनां विराधना भवेत् / प्राणा द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, आदिशब्दाद्-जीवादिपरिग्रहः / गतमेकानिकद्वारम्। इदानीमकुचद्वारम् / कुच-स्यन्दने। न कुचतीत्यकुचः, इगुपान्त्यलक्षणः कप्रत्ययः / यस्तथा बद्धः सन् न स्यन्दते सोऽकुचग्राह्यः। यस्तु कुचबन्धनः स परिहार्यः / तथा चाह कुयबंधणम्मि लहुगा, विराहणा होइ संजमायाए। सिढिलिअंतम्मि जहा, विराहणा होइ पाणाणं // 87 / / पवडिज्ज व दुब्बद्धे, विराहणा तत्थ होइ आयाए। जम्हा एए दोसा, तम्हा उ कुयं न बंधेज्जा / / 88|| कुचं-शिथिलं बन्धनं यस्य तस्मिन् कुचबन्धने संस्तारके गृह्यमाणे प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकास्तथा विराधना भवति संयमे, आत्मनि च / यतरतस्मिन् शैथिल्यमाने शिथिलबन्धनतया प्रस्यन्दमाने प्राणानां विराधना भवति / एषा संयमविधना दुर्बद्ध स तस्मात् प्रपतेत, तत्र भवत्यात्मविराधना। यस्मादेते दोषाः तस्मात् यथा कुचं-शिथिलं भवेत्, तथा न बध्नीयात्कि तु गाढबन्धनबद्धं कुर्यात्। तद्विवसं पडिलेहा, ईसी उक्खेत्तु हेह्र उवरि च। रयहरणेणं भंडं, अंके भूमीऍवा काउं।।८६|| तद्विवस-प्रतिदिवस दिने दिने इत्यर्थः / भाण्डे संस्तारकादिलक्षणमीषत् उत्क्षिप्य अङ्के-उत्सङ्गे भूमौ वा कृत्वा अध उपरिच रजोहरणेन तस्य प्रत्युपेक्षा कर्त्तव्या। एवं तु दोण्णि वारा, पडिलेहा तस्स होइ कायव्या। सव्वे बंधे मुत्तुं, पडिलेहातस्स कायव्वा ||6|| Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार एवम्-उक्तेन प्रकारेण द्वौ वारौ प्रातरपराहे च तस्य संस्तारकस्य प्रत्युपेक्षा भवति कर्त्तव्या। पक्षस्य पक्षस्यान्ते पुनः सर्वान् बन्धान मुक्त्वाछोटयित्वा प्रत्युपेक्षा भवति कर्त्तव्या। गतमकुचद्वारम्। अधुना प्रायोग्यद्वारमाहउग्गममादी सुद्धो, गहणादी जाव वण्णितो एसो। एसो खलु पायोग्गा, हेट्ठिमसुत्ते वजो भणितो।।१।। य उद्गमादिषोषशुद्ध-उद्गमोत्पादनादिदोषविशुद्धो यो वा एषोऽनन्तरमुपवर्णितो ग्रहणादौ ग्रहणेऽनुज्ञापनायां बद्ध एकाङ्गि कोऽकुचश्च / यदि वा-यो भणितोऽधस्तनसूत्रे-ऋतुबद्धप्रत्येकसूत्रे द्वात्रिंशद्रङ्गेषु मध्ये प्रथमभङ्गवर्ती एष खलु प्रायोग्यो वेदितव्यः। कजम्मि समत्तम्मि, अप्पेयव्वो अणप्पिणे लहुगा। आणादीया दोसा, बिइयं उट्ठाणहियदड्डो॥६२|| कार्ये समाप्ते सति नियमात् संस्तारकोऽर्पयितव्यः / अनपणे प्रायश्चित्त चत्वारो लघुकाः, आज्ञादयश्च दोषाः / अत्रापि द्वितीयपदमपवादपदम्। यदि रोगस्योत्थानं प्रवर्तेत, स्तेनैर्वाऽपहृतोऽग्निना वा कथमपि दग्धस्तदा नार्पणमिति। तदेवं भावितं वर्षावाससूत्रम्। संप्रति वृद्धावाससूत्रभावनार्थमाहबुड्डावासे चेवं, गहणादिपदा उहाँति नायव्वा। नाणत्तखेत्तकाले, अप्पडिहारीय सो नियमा||३|| वृद्धावासेऽप्येवं-पूर्वोक्तेन प्रकारेण ग्रहणादीनि पदानि ज्ञातव्यानि भवन्ति / किमुक्तं भवति / यथा प्राक् वर्षावासे ग्रहणानुज्ञापनैकागि काकुचप्रायोग्यलक्षणानि पञ्च द्वाराण्यभिहितानि, तथा-वृद्धावासेऽप्यनुगन्तव्यानि / तुशब्दो विशेषणे / स चैतद्विशिनष्टि-वृद्धावासे ऋतुबद्धेऽप्येषएव विधिरिति, नवरमत्र नानात्वं क्षेत्रे काले च तथा नियमादप्रतिहारी स वृद्धावासयोग्यः संस्तारको ग्रहीतव्यः। संप्रत्येतदेव सुस्पष्ट विभावयिषुराहकालेजा पंचाहं,परेण वाखेत्तंजाव वत्तीसा। अप्पडिहारी असती, मंगलमादीसुपुव्वुत्ता ||4|| इह वर्षावासे संस्तारकस्यानयने कालत उत्कर्षे ण त्रीणि दिनान्युक्तानि, अत्र तु वृद्धावासे काले-कालमधिकृत्य यावत्पशाह-पञ्च दिनानि, ततः परेण वा आनयनं द्रष्टव्यम् / क्षेत्रतो यावत् द्वात्रिंशत् योजनानि / तथा अप्रतिहारिणोऽसत्यभावे संस्तारकस्य यानि मङ्गलादीनि पूर्वमुक्तानि तानि प्रायोक्तव्यानि। व्य० 8 उ०। रत्नाधिकाज्ञया रत्नाधिकार्थाय शय्यासंस्तारग्रहणम् - कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जासंथारएपडिगाहित्तए॥२०॥ अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याहजइ तु जहक्कमेणं, उवहीसंथारएसु उवयंति। तेसिं पि जया गहणं, तं पि हु एमेव संबंधो॥६८०।। अथ रत्नाधिकक्रमणोपधि गृहीत्वा ततस्ते स्वस्वसंस्तारकभूमिषु स्थापयन्ति / तेषामपि च संस्तारकाणां यदा ग्रहणं तदा तदप्येवमेव यथारत्नाधिकं कर्त्तव्यमेष पूर्वसूत्रेण संबन्धः, अनेन संबन्धे - नायातस्यास्य (सूत्रस्य-२०) व्याख्या-कल्पते निर्गन्थानां वा निर्गन्थीनां वा यथारत्नाधिकं शय्यासंस्तारकान् प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। अथेदमेव सूत्रं विवरीषुराहसेज्जासंथारो वा, सेजा वसही उठाणसंथारो। पुव्वण्हम्मि उगहणं,अगिण्हणं लहुग आणादी॥६८१|| संस्तारो नाम शय्या-वसतिस्तस्यां यत् स्थान शयनयोग्यावकाशलक्षणंस शय्यासंस्तारकउच्यते। तस्य च शय्यासंस्तारकस्य उपाश्रयं प्राप्तैः पूर्वाह्नवेलायामेव ग्रहण कर्त्तव्यम्, अग्रहणे भासलघु प्रायश्चित्त - माज्ञादयश्च दोषाः। चोयगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होइ आगमणं। संयम आयविराहणा, वियायगहणे यजे दोसा।।६८२ अत्र नोदकः पृच्छां करोति-यदि पूर्वाह्न एव ग्रामं प्राप्तास्ततस्तदैव शय्यासंस्तारकमपि गृह्णन्तु, वयमप्येतत्प्रतिपद्यामहे ततो बहिरेव समुद्दिश्य चरमपौरुषीप्रत्युपेक्षणं कृत्वा स्वाध्यायं च विधाय कालवेलायां ग्रामं प्रविशन्तु / सूरिराह- 'दोस' त्ति-बहिर्भुजानानां बहयो दोषाः / कथमित्याह- मण्डलीबन्धे चिलिमिलिकां दत्त्वा मण्डलीरचनया भोजने विधीयमानो कुतूहलेन सागारिका-णामागमनं भवति, तैः सहासंखडे क्रियमाणे संयमात्मविराधना / अकाले वसतेहणे ये दोषा भवन्ति, तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं भवतीति द्वारगाथासमासार्थः / सांप्रतमेनामेव विवरीषुराहअइभारेण व इरियं,नसोहए कंटगाइ आयाए। भत्तट्ठिय वोसरिया, अतितुं एवं जढा दोसा॥६५३|| परः प्राह- भक्तवेलायां प्राप्तैस्तावत्प्रथमतो भक्तं ग्रहीतव्यमन्यथा वेलातिक्रमे भवतपानलाभो न भवेत्, ततो भक्तपानं गृहीत्वा वसति गवेषयित्वा यदि तदानीमेव तत्र प्रवेशः क्रियते तदा भक्तपानोपकरणसत्के योऽतिभारस्तेन वाशब्दस्योक्तसमुचयार्थतया बुभुक्षातृष्णापरितापनया चोपयोगमप्रयच्छन्तः संयमे न शोधयेयुः। आत्मनि कण्टकादिक न पश्येयुः। एवं च यथाक्रम संयमात्मविराधना / ततो भक्तार्थितव्युत्सृष्टाः-पूर्व भक्तार्थिता बहिरेव समुद्दिष्टास्ततो व्युत्सृष्टाः कृतपुरीषप्रस्रवणोत्सर्गाः सन्तो ग्राममतियन्तु प्रविशन्तु। एवं हि दोषाः संयमात्मविराधनालक्षणाः परित्यक्ता भवन्ति / अथाऽऽचार्यः प्रत्युत्तरयतिआयरियवयणदोसा, दुविहा नियमा उ संजमायाए। वचह को वासामी, असंखडं मंडलीएवा॥६८४|| आधार्यस्य वचनमिदम्-त्वदुक्तनीत्या बहिर्भुजानानां नियमाद् द्विविधाः संयमात्मविराधनादोषा भवन्ति / तथा हि-तैस्तद् भक्तपानमानीतं, सागारिकाच कुतूहलवशाद् तद्दर्शनार्थ मागतास्ततो यदि तावन्तं काल भक्तपानं धारयन्त स्ति Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार ष्ठन्ति तदा भारेण महती परितापना भवेत्, सूत्रार्थयोश्च परिहानिरूपजायेताअथ सागारिकान ब्रुवते-व्रजत यूयं ततोऽधिकरणं भवति / अथवा-सागारिका एवमुच्यमाना ब्रुवीरन् कोऽस्य वृक्षस्य देवकुलस्य वा स्वामी यो वाऽस्माकं संमुखं व्रजतीति भणिते एवमसंखडे तैः सह संजाते ततश्च भाजनभेदादयो दोषाः / अथ मण्डल्यां रचिताया सागारिकाः समागच्छन्ति ततो महान्तमुड्डाहं कुर्युः। अमुमेवार्थ सविशेषमाहभत्तद्विणों सज्झाए, पडिलेहण रत्तिगेण्हणे जंव। पुव्वण्हम्मितु गहणं, परिहरिया ते भवे दोसा // 685 / / भक्तार्थिना मण्डल्या भोजन स्वाध्यायं प्रत्युपेक्षणा वा क्रियमाणां विलोक्येति उड्डाहं उडु वक्त्रं वा बुवीरन, तत्रापि तथैवासंखडिदोषः / अथ ते सागारिकाः प्रद्विष्टाः सन्तो वसतिं न प्रयच्छन्ति ततोऽपर ग्राम गच्छेयुः / तत्र च विकाले प्राप्ताः सन्तो रात्रौ वसति-ग्रहणं कुर्वन्तो यघोषजालमापद्यन्ते तन्निष्पन्न प्रायश्यित्तम्, अतः पूर्वाह्न एव वसतेर्ग्रहणं कर्त्तव्यम्, ततश्च ते पूर्वोक्ता दोषाः परिहता भवन्ति। किंचकोतूहल आगमणं, संखोहेणं अकंटगमणादी। तेचेव संखडादी, वसहिं वनदेंतिजं चऽन्नं // 686 / / मण्डल्या सागारिकाः कुतूहलेनागमनं कुर्युः, तत्र कस्यापि संयत-स्य संक्षोभेण भक्तपानस्य कण्टगमादिकमश्रोतोगमनप्रभृतिकं भवेत् / अथवा-कोऽप्यसहिष्णुर्च्यात् किमेनं प्रति कथयत,तत एवासंखडादयो दोषाः / अथ सागारिकामिति कृत्वा अभुक्ता एव भक्तपानव्यग्रहस्ता ग्रामं प्रविशन्ति, तत्र च यैः सममसंखड कृतं तत्र ते वसतिं न प्रयच्छेयुः अन्यानपि च ददतो निवारयेयुः / एवं च तत्र निवसतावप्राप्यमाणायां यदन्यदोषजातमासज्जते तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तम्। अथवसत्यभावादकृतभोजना एवान्यं ग्रामंगच्छेयु स्तत इमे दोषाःभारेण वेयणाय, अनपेहा खाणुमाइए दोसे। इरियाइसंजमम्मी, परिगलमाणे य छक्काया॥६८७।। भक्तपानस्योपकरणस्य च संबन्धिनां भारेण वेदना भवेत्, तथा च स्थाणुकण्टकादीन् दोषाननपेक्षतश्चात्मविराधना, यत्पुनर्याया अशोधनं सा संयमविराधना। परिगलति भक्तपाने षट्कायविराधना। तत्र प्राप्तान् दोषानभिधित्सुराहपविसणमग्गणठाणे, वेसित्थिदुगुछिए य सुण्णे य। सज्झाएसंथारे, उच्चारे चेव पासवणे॥६८८|| अन्यस्मिन् ग्राम विकालवेलायां प्रवेशे कृते वसतेर्गिणे परस्परस्फिटितानामाकारणेन महानधिकरणदोषो भवति। वेश्यास्त्री (वा) पाटके | चर्मकारादिस्थाने वा जुगुप्सिते तिष्ठतां वक्ष्यमाणं दोष-जातम् / शून्यगृहादौ वा प्रत्युपेक्षितायां संस्तारकमुच्चार प्रस्रवणं च कुर्वतां च बहवो दोषा भवन्तीति द्वारगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिसावय तेणे दुविहा, विराहणा जा य उवहिणा उ विणा। गुम्मियगहणाहणणा, गोणादी चमढणा रत्तिं // 686 / / विकाले प्रविशता श्व (स्वा) पदभयं भवति / स्तेना द्विधाशरीरापहारिणः, उपकरणापहारिणश्च / ते तदानीमभिद्रवन्ति / उपधावपहृते या तेन विना तृणग्रहणानिसेवनादिका संयमविराधना तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / अथवा-स प्रत्यन्तप्रदेशवर्ती ग्रामस्ततस्तत्र बद्धस्थानकगौल्मिका आरक्षिकपुरुषाः स्तेनादीनभिलीयमानान् रक्षन्ति, ततो विकालवेलायां प्राप्तानां स्तेना अमी इति बुझ्या ग्रहणाहननादिकं कुर्युः / अथवा-विकाले प्रविशन्तो गवादिभिः पादप्रहारादिकां चमढनामासादयन्ति / एते रात्रौ प्राप्तानां दोषाः / किञ्चफिडिताऽन्नान्नोऽऽगारण, तेणा रत्तिं दिया वपंथम्मि। मसाणाइवेसकुच्छिय, तवोवणं मूसगाजंच॥६६०|| विकाले वसतिगवेषणार्थ पृथक् 2 गतास्ततः स्फिटिताः-परस्परपरिभ्रष्टाः सन्तोऽन्योन्यमाकारण-व्याहरणं कुर्युः, स्तेनकास्तद्वचनं श्रुत्वा रात्रौ मुषितुमभिलषेयुः,दिवा वा द्वितीये दिवसे पथिमार्गे गच्छतः स्तेनका मुषेयुः / श्वानादयो वा रात्रौ वसति-गवेषणार्थं पर्यटन्तस्तान् उपद्रवेयुः / 'वेसकुच्छिय' ति रात्रौ च वसतिमन्वेषयन्तः किमेतद् गृह वेश्यापाटकस्य प्रत्यासन्नमुत नेति। यद्वा-किमेतचर्मकारकादिजुगुप्सितकुलासन्नमाहोश्यिन्नेति / एवं च जनास्ते वेश्यापाटकासन्ने प्रतिश्रये वसेयुः। ततो लोको ब्रूयात्-अहो तपोवनमध्यासते जितेन्द्रिया अमी महर्षय इति। अथ जुगुप्सितस्थानासन्ने स्थितास्ततोलोका ब्रुवीरन् स्वस्थानं मूषिकाः समागता एतेऽप्येवं जानीया इति भावः 'जं च' त्ति यच रात्रौ अन्योन्यालपने अप्कायानयनादिकमपिकरणं तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् / तथा तत्रोपाश्रये रात्रौ प्राप्ताः सन्तः काले भूमिर्न प्रत्युपेक्षितेति कृत्वा यदि स्वाध्यायं न कुर्वन्ति ततस्सूत्रार्थनाशा-दयो दोषाः। अथ कुर्वन्ति ततः सामाचारीविराधना। अथ संस्तारकद्वारं व्याख्यातिअप्पडिलेहियकंटा, विलं व संथारगम्मि आयाए। छक्कायाण विराहण, विलीण सेहऽन्नहाभावो // 661 / / अप्रत्युपेक्षिताया वसतौ कण्टका भवेयुः, विलं-सदिसंबन्धि ततः संस्तारके प्रस्तीर्यमाणे आत्मनि विराधना। भावतः पृथिव्यादयो दोषाः, षट्कायास्तत्र भवेयुः तेषां संस्तारकेनाक्रम्यमाणानां विराधना भवति। विलीनं वा-जुगुप्सितं वा संज्ञाकायिक्यादिकं तत्र भवेत्, ततः शैक्षस्य जुगुप्सया अन्यथाभावो-निष्क्रमणाभिप्रायो भवेत्। अथोचारप्रस्रवणद्वारद्वयं युगपदाहखाणुगकंटगवाला, विलम्मि जइ वोसिरिन्ज आयाए। संजमओ छक्काया, गमणे पत्ते अइंते य॥६९२|| Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 178 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार अप्रत्युपेक्षिते अतिभये स्थाणुकण्टकव्याला भवेयुस्तदाकुले -विलसमाकुले वा प्रदेशे यदि व्युत्सृजति तेन आत्मविराधना / अथ / पृथिव्यादिषट्कायवति भूभागे व्युत्सृजति ततः संयमविराधना। एते द्वे अपि विराधने 'गमणे' त्ति संज्ञाकायिकीव्युत्सर्जनार्थं वा गच्छतः। पत्ते' त्ति संज्ञाभुवं-कायिकीभुवं वा प्राप्तस्य 'अइंते य' ति संज्ञा कायिकी वा व्युत्सृज्य भूयोऽपि वसतिं प्रविशतो यथा-संभवं मन्तव्ये। अथ विराधनाभयान्न व्युत्सृजति तत इमे दोषाःमुत्तनिरोहे चक्खुं, वचनिरोधेण जीवियं जहइ। उड्डनिरोहे कोट,गेलन्नं वा भवे तिसु वि॥६६३|| मूत्रनिरोधे विधीयमाने चक्षुरुपहन्यते / वर्चः-पुरीषं तस्य निरोधेन जीवितं परित्यजति / अचिरादेव मरणभवतीत्यर्थः / ऊर्ध्ववमनं तस्य निरोधे कुष्ठ भवति। ग्लानं वा सामान्यतो मान्यं त्रिष्वपि सूत्रपुरीषवमनेषु निरुध्यमानेषु भवेत्। यत एते दोषाः अतःपढमविइयाएँ तम्हा, गमणं पडिलेहणाएँ वेसोय। पुवठिया जइ गच्छं, ठवेतु बाहिं इमे तिन्नि।।६६४|| तस्मात्प्रथमद्वितीयस्यां वा पौरुष्यां विवक्षितग्रामे गमनं कृत्वा ततो वसतेः प्रत्युपेक्षणा प्रवेशश्च तस्यां कर्त्तव्यः / कथमित्याह-यदि तत्र केऽपि साधवः पूर्वस्थिताः सन्ति तदा सर्वेऽपि प्रविशन्ति / अथ न सन्ति पूर्वस्थितास्ततो गच्छ क्वचित् वृक्षादेरधो बहिः स्थापयित्वा इमे ईदृशा स्त्रयः साधवो ग्रामं प्रविशन्ति। परिणयवयगीयत्था, हयसंका पुंछचिलिमिलीदारे। तिन्नि दुवे एको वा, वसहीपेहट्ठया पविसे // 665 / / गीतार्था परिणतवयसः अत एव हतशङ्का-अशङ्कनीयाः ते गुरुमापृच्छ्य दण्डप्रोञ्छनकं चिलिमिलीदवरकांश्च गृहीत्वा त्रयो जनास्तदभावे द्वौ जनौ तदप्राप्तावेको वा वसतिप्रत्युपेक्षणार्थं ग्राम प्रविशति। ततो वसति गृहीत्वा प्रमृज्य च चिलिमिलिकां च दत्त्वा सबालवृद्धमपि गच्छं तत्र प्रवेशयति। अथ विकालवेलायां न प्रवेष्टव्यमिति यदुक्तं तदपवदन्नाहविइयं ताहे पत्ता, एएव ततो उवस्सयं न लभे। सुन्नघरदेउलेवा, उजाणे वा अपरिभोगे॥६६६|| द्वितीयपदमत्राभिधीयते-तदानीं विकालवेलायामेव प्राप्ताः, यद्वा प्रगेप्रभाते प्राप्ताः परमुपाश्रयं न लभन्ते ततो विकाले प्रविशेयुः प्रभातप्राप्ताश्च दिवा शून्यगृहे देवकुले वा उद्याने वा अपरिभोग्येजनोपभोगरहिते तिष्ठन्ति तत्रैव च समुद्देशनं कुर्वन्ति। आवाय चिलिमिणीए, रन्ने वा निब्भये समुद्धिसणं। सभये पच्छण्णासइ, कमढगकुरुयावसंतरिया॥६६७॥ अथ शून्यगृहादौ सागारिकाणामपि यतो भवति ततः चिलिमि-लिकां दत्त्वा समुद्देष्टव्यम। अरण्यं वा यदि निर्भय ततस्तत्र गत्वा समुद्दिशन्ति। | अथारण्यं सभयं वसतिसमीपे एव यः प्रच्छन्नप्रदेशस्तत्र समुद्देशनं कर्तव्यम् / अथ प्रच्छन्नस्थानं नास्ति ततस्तत्रैव शून्यगृहादौ कमठकेषु शुक्लपेन सबाह्यभ्यन्तरं लिप्तेषु कांस्यकोदकाकारेषु समुद्दिशन्ति / कुरुचावरामुद्देशनानन्तरं पादप्रक्षालनादिका वहुना द्रवेण कर्तव्याः / समुद्दिशन्तश्चसान्तराः-सावकाशाः बृहदन्तराला उपविशन्ति / एवं कृत्वा बहिरेव संज्ञादि व्युत्सृज्य ततो ग्रामं प्रविशन्ति, प्रविष्टाश्च या पूर्व भिक्षा हिण्डमानैर्वसतिःप्रत्युपेक्षिता तस्यां वसन्ति। कथमित्याहकोट्टग सभा व पुव्वं, कालवियारादिभूमिपडिलेहा। पच्छा अतिति रत्तिं, अहवण पत्ता निसिं चेव 668|| कोष्टक-आवासविशेषः, सभा प्रतीता. एवमादिकं यत्पूर्व भिक्षां पर्यटद्भिः प्रत्युपेक्षितं तत्र कालग्रहणयोग्या भूमिं विचारस्य च-संज्ञायाः, आदिशब्दात् कायिक्याश्च भूमि सूर्ये ध्रियमाण एव प्रत्युपेक्षन्ते। ततः पश्चात्सर्वेऽपि वसतौ रात्रौ प्रदोषसमये अतियन्ति 'अहवण' त्ति अथवाते साधवो निशायामेव प्राप्ता भवेयुः। ततः को विधिरित्याहगोम्मियभेसणसमणा, निब्भयबहिठाण वसहिपडिलेहा। सुन्नघरपुव्वभणिए, कंचुग तह दारुदंडेणं // 666 / / गुल्मेन-समुदायेन चरन्तीति गौल्मिकाः-स्थानरक्षपालास्ते यदि भीषणं-वित्रासनं कुर्वन्ति ततो वक्तव्यं श्रमणा वयं न स्तेनाः यदि रात्री वासो निर्भयो भवति तदा 'ठाण' त्ति। बहिरेवगच्छस्तावदवस्थानं करोति, वृषभास्तु वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ ग्राम प्रविशन्ति तत्र च शून्यगृहं पूर्वभणितेन विधिना प्रत्युपेक्ष्य सादिपतनभयात् गोपालक परिधाय दारुदण्डेन प्रोञ्छनकेन वसतिमुपरि प्रस्फोटयन्ति ततो गच्छः प्रविशति। अथ संस्तारकग्रहणविधिमाहसंथारगभूमितिगं, आयरिए सेसगाण एक्कक्कं / रुंदाऐं पुप्फकिन्ना, मंडलिया आवली इतरे॥७००।। 'आयरिए' ति षष्ठीसप्तम्योरर्थ प्रत्यभेदादाचार्यस्य योग्य संस्तारभूगित्रयं प्रथमतो निरूपणीयम् / तत्रैका निवाता संस्तारकभूमिरपरा प्रवाता, अनिवातप्रवाता च शेषाणांसाधूनां योग्यामेकैकां संस्तारभूमिमन्वेषयेत्। इह वसतिस्त्रिधाविस्तीर्णा, क्षुलिका, प्रमाणयुक्ता च। तत्र रुन्दा नाम विस्तीर्णा घड शालादिरित्यर्थः। तस्यां पुष्पावकीपणाः पुष्पकरवदवकीपणा अनियतक्रमा अय-थार्थाः स्वपन्ति, येन सागारिकाणामवकाशो न भवति। अथ क्षुल्लिका ततो मध्ये पात्रकाणि कृत्वा मण्डलिकाकारेण पार्श्वतः शेरते / इतरा नाम प्रमाणयुक्ता तस्यामावल्या पड़ क्त्या स्वपन्ति। __ अत्रैव विधिविपर्यास प्रायश्चित्तमाहसीसं इतोयपादा, इहं च मे बंधिया इह मज्झं। जइ अगहियसंथारो, भणेइलहुगोऽहिकरणादी॥७०१।। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार इतो मे शीर्षमितः पादौ भविष्यतः / इह च मे वादका भाजनानि वा स्थाप्यन्ते, एवं यद्यगृहीतसंस्तारक आत्मीयया इच्छया भणति, विण्टिकादिकं च स्थापयति, तदा लघुमासः प्रायश्चित्तम्, अधिकरणादयश्व दोषा भवति / अधिकरणं नाम-द्वितीयोऽपि साधुरेवमेव ब्रूयात्, ममाप्यत्रैव शीर्षादि भविष्यतीति। ततश्चास्थिभङ्गादयो दोषाः / यत एवमतःसंथारग्गहणीए, वेंटियउक्खेवणं तु कायव्वं। संथारो घेत्तव्यो, मायामयविप्पमुक्केणं // 702 / / 'संथारगहणीए'त्ति आर्षत्वात् स्त्रीत्वं, संस्तारकग्रहणकाले विण्टिकाया उत्क्षेपणं कर्त्तव्यम्, येन सुखेनैव दृष्टायां भुवि संस्तारका विभक्तं शक्यन्ते / स च संस्तारको यो यस्मै साधवेदीयते स तेन मायामदविप्रमुक्तेन ग्रहीतव्यः। माया नाम-अहं सतीयॊ ममात्रैवावकाशं प्रयच्छत इत्यादि सुन्दर तरावकाशलोभेनासद्भू-तकारणनिवेदनलक्षणा, मदोऽहंकारः, अहो अहममुष्मादपि गरीयान् येन मे शोभना संस्तारकभूमिः प्रदत्तेति। अथ किमर्थ संस्तारकग्रहणकाले विण्टिका उत्क्षिप्यन्ते ? उच्यतेसमविसमा नपासइ, दुक्खं वठियम्मि ठायई अन्नो। नेवय असंखडादी, विणयो अममत्तया चेव।।७०३|| विण्टिका यदि नोत्क्षिप्यन्ते, तदा गणावच्छेदिकादिसंस्तारकान् विभजमानः समविषमाणि स्थानानि न पश्यति अवकाशानित्यर्थः। तथा एकस्मिन्साधौ विण्टिकासहिते पूर्व स्थिते सति अन्यो न तिष्ठतिस्थातुं नशनोतीति भावः / अपि च-विण्टि-कासूत्क्षिप्तासु असंखडादयो दोषा नैव भवन्ति / यथारत्नाधिकं च संस्तारकग्रहणे विनयः कृतो भवति / अममता च ममत्वं संस्ता-रकभूमिविषयं परिहृतं भवति / अतः साधुभिःस्वस्योपकरणे प्रत्युपेक्षिते, उपाश्रये च प्रमार्जिते सुरिभिर्वक्तव्यम्आर्या ! उत्क्षिपत स्वा वेण्टिकाः, एवमुक्ते यो नोत्क्षिपति तस्य मासलघु। अथ वेण्टिकासु समुत्क्षिप्यमाणासु कश्चिदिमां मायां कुर्यात्। संथारग्गहणीए, कंटगवीयारपासवणधम्मे। पयलायणमासगुरूं, सेसेसु वि मासियं लहुगं // 704 / / संस्तारक ग्रहणकाले समसुन्दरभूमिलोभेन कण्टकोद्धरणमहं संप्रति करिष्यामि, विचारंवा-संज्ञाव्युत्सृष्ट प्ररत्रणं वा कर्तुं बहिर्गमिष्यामि, धर्म वा शय्यातरादेरगे कथयिष्यामि इत्यादि ब्रूयात् / प्रचलायनं स्वपनमिदानीं विदध्यात् / एवं शेषेषु कण्टकादिषु मायाभेदेषु मासलघुकम्। __अथकण्टकादिपदानि विवृणोतिदुक्खं ठिओ व निजइ, नियाणुघाएण पेल्लिउं सका। जो विवणे अवणेहिइ,तं पिय नेहामि इति मंता॥७०५|| संथारभूमिलद्धो, भणेइ छंदे ण भंत ! गिणिहत्तो। संथारगभूमीओ, कंटकमहमुद्धरामेणं / / 706 / / कोऽपि समसुन्दरे अवकाशे संस्तारकं कर्तुकामस्तत्र चापरः कोऽपि साधुः स्थितः-उपविष्टो वर्त्तते, सच दुःखदुःखेन नीयते अन्यत्र स्थाप्यते, नचानुपायेन कण्टकोद्धरणादिव्याजमन्तरेण प्रेरयितुं शक्यः, योऽपि 'वणे' इति मदीयं कण्टकमपनेष्यति तमप्यह ज्ञास्यामीति मत्वा संस्तारकभूमिलुब्धो भणति-भदन्त ! इह संस्तारकभूमी छन्देन स्वाभिप्रायेण गृहीत अहं पुनरत्र कण्टकमेनमुद्धरामीति, एवं मायाकरणे मासलघु प्रायश्चित्तम्। अथ सद्भावादेव कण्टको लग्नस्तत्र किमित्यत आहलग्गे वऽणहियासम्मि, कंटए उक्खिवे वि अन्नेणं। मज्झिव्वगमवणेत्ता, कमागयं गेण्हह ममं पि॥७०७।। वा इति अथवा सद्भावेनैव तस्य कण्टको लगः, स चानधिसह्यः सोदमशक्यः / ततो वेण्टिकामन्येनोत्क्षेपयेत्, उत्क्षिप्य च ब्रूयात् मदीयकण्टकमपनीय क्रमागतं ममापि योग्यं संस्तारकं गृह्णीत। एष शुद्धः / अथ विचारादीनतिदिशन्नाहएमेव य वीयारे, उज, अणुज्जू तहेव पासवणे। धम्मकहालक्खेण व, आवजइमासियं मायी॥७०८|| एवमेव विचारविषयेऽपि ऋजुरनृजुश्च वक्तव्यः, मायी अमायी चेत्यर्थः / तथैव प्रस्रवणद्वारेऽपि विभाषा कर्तव्या। धर्मकथाया वा लक्ष्येण-व्याजेन कश्चित् क्रमागतसंस्तारकं व्यत्यासं करोति सोऽपि भायीमायावागिति कृत्वा मासिकं लघुकमापद्यते / अथ सद्भावतो धर्मकथां करोति ततः शुद्ध एव। अपि च तदानीं सद्भावतो धर्मकथायां विधीयमानाया ममी गुणाः-- दुवियनुबुद्धिमलणं, सडा सज्जायरेयराणं च। तित्थवियडिपभावण, असारियं चेव कहयते॥७०६! श्रोतृणां दुर्विदग्धा-विपरीतशास्त्रपल्लवग्राहिणी बुद्धि स्तस्या मलनंमर्दनं कृतं भवति शय्यातरस्य इतरेषां च श्राद्धानां श्रद्धा वर्द्धिता भवति। धर्मश्रवणानन्तरं च बहुषु प्रव्रज्या प्रतिपद्यमानेषु तीर्थस्य विवृद्धिः कृता भवति। प्रभावना च प्रवचनस्य जायते। अहो विजयते जैनेन्द्रशासन, योदृशी धर्मकथा लब्धिसंपन्ना इति। येऽपि च सागारिका बहिधर्मश्रवणव्याक्षिप्ताः सन्तः-प्रतिश्रयमध्ये न प्रविशेयुः, ततश्च साधूनामुपकरणं प्रत्युपेक्ष्यमाणानामसागारिकं भवति / एवमेते गुणा धर्मे कथयति भवन्ति / अथ प्रचलायनद्वार भावयतिमा पयल गिण्ह संथा-रगं तिपयलाइए विजइ वुत्तो। को नामन निगिण्हइ, खणमेत्तं तेण गुरुओ सो॥७१०।। गणावच्छेदिकादिना कश्चित्प्रचलायमानो भणितः, मा प्रचलायस्य गृहाण संस्तारकमितयुक्तोऽपि यद्यसौ प्रचलायते ततो ज्ञातव्यं शठ एषः / कुत इत्याह- को नाम महानिद्रालुरपि क्षणमात्रं यावता संस्तारको गृह्यते,तावन्मात्रकालं निद्रां न निगृह्णाति, स तु तावन्तमपि कालं निद्रानिरोधमकुर्वाणः परिस्फुटं मायावी मन्तव्यः। अत Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 150 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार एव 'से' तस्य तीव्रतरमायाविनो मासगुरु प्रायश्चित्तम्। अथ संस्तारकग्रहणे विधिमाहवित्थिन्नकुट्टिमतले, डहराए विसमए य घेप्पंते। होइ अहाराइणियं, राइणियाते इमे हों ति॥७११।। विस्तीर्णायां वा डहरायां वा-संपूर्णायां वसतौ कुट्टिमतले च विषमे वा भूभागे यथारत्नाधिकं संस्तारको गृह्यते / ते च रत्नाधिका इमे भवन्ति। / उवसंपज गिलाणे,परित्तखमए अवाउडियथेरे। तेण परं वित्थिपणे, परियाए मोत्तिमे तिण्णि ||712 / / प्रथमतो गुरूणां संस्तारकत्रयं दत्त्वा ततो यो ज्ञानाद्यर्थमुपसंपद प्रतिपन्नस्तस्य संस्तारको दातव्यः,ततो ग्लानस्य, ततः परीत्तोपधेः, ततः क्षपकस्य, ततः अपावृतकस्य-अपावृतेन मया सकलाऽपि रजनी गमनीयेत्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहस्य, तदनन्तरं स्थविरस्य-श्रुतेन वयसा वा वृद्धस्य ततः परं विस्तीर्णे प्रतिश्रये पर्यायण रत्नाधिकक्रमेण संस्तारको ग्रहीतव्यः,परं मुक्त्वा अमून् त्रीन् क्षुल्लक शैक्षवैयावृत्यकरान् वक्ष्यमाणगाथायामभिधास्यमानान्। आह-उपसंपन्नग्लानादीनां क्रियता प्रथमं संस्तारकप्रदानेनानुग्रहः, यस्तु तपस्वी विपुलां निर्जरामभिलषन् स्वयमेवापावृतेन मया स्थातव्यमित्येवमभिगृह्णाति तस्य किमर्थस्थविरादिभ्यः प्रथम संस्तारको दीयते। कामं सकामकिचो, अभिग्गहो नो बलाभिओगेणं। तणुसाहारणहे, तहवि निवाए व ठावेंति // 713 // काममनुमतमिदं स्वकामेन-स्वकीयया एव इच्छया कृत्यः कर्त्तव्योऽभिग्रहो न तु बलाभियोगेन परं तथापि न तु साधारणहेतोः शरीरस्य शीतोपद्रवसंरक्षणनिमित्तं निवाते प्रदेशे तं स्थापयन्ति। कुत इति चेदित्याहअन्नोण्णकारेण वि निज्जराजा, नसा भवे तस्स विवज्जएणं। जहा तवस्सी धुणुते तवेणं, कम्मतहा जाणतवोऽणुमंता 1714 // अन्योन्यकारो नाम-परस्परं वैयावृत्त्यकरणं तेन या निर्जरा विशिष्टकर्मक्षयरूपा सा तस्य अन्योन्यकारस्य विपर्ययेण-व्यतिरेकेण न भवति / यथा किल तपस्वी तपसा कर्म-ज्ञानावरणादि धुनोति, तथा यस्तस्य साहाय्यक रणेन तदीयतपसोऽनुमन्ता तमपि तथैव कर्मक्षयकारिणं जानीहि अतो युक्तमेवापावृताभिग्रहिकस्यानुग्रहविधानम्। अथ यदुक्तममून् त्रीन् मुक्त्वेति तस्य व्याख्यानार्थमाहवीहंत एव खुड्डे, वेयावच्चकरे सेहों (जस्स) पासम्मि। विसमऽप्प तिन्नि गुरुणो, इतरे गहियम्मि गेण्हति // 715 / / क्षुल्लकस्वभावादेव विभ्यत् भवति ततो बहिः स्थाप्यमानः कूजितरुदिताादि कुर्यात, अतो यस्तं परिवर्त्तयति तस्य समीप स्थाप्यते।। वैयावृत्यकरो-ग्लानस्य प्रतिचरकः स ग्लानपार्चे क्रियते। शैक्षो यस्य पाचे भिक्षां गृह्णाति तस्यान्तिके स्थापनीयः / तथा विषमे वा अल्पे वा संकीर्णे प्रतिश्रये त्रीन संस्तारकान् गुरूणां दत्त्वा तत इतरे उपसंपन्नादयो गुरुभिहीते सति संस्तारकत्रये यथोक्तक मेण गृह्णन्ति एष संग्रहगाथासमासार्थः। अथास्या एव पूर्वार्द्ध विभावयिषुराहवीहेज बाहिं ठवितो उखुड्डो, तेणाइगंभोय अजग्गराये। सारेइजोतं उभयं च नेई, तस्सेव पासम्मि करेंति तं तु // 716|| क्षुल्लको बहिः स्थापितः सन् अजागरणशीलश्चासौ बहिः सुप्तः, स न केनापि उत्थापितः प्रतिक्रमणवेलायामपिनजागृयात्, ततो यस्तं क्षुल्लक सारयति भिक्षां ग्राहयति उभयं च-संज्ञाकायिकीलक्षणं तदीयं यो नयति परिष्ठापयति तस्यैव पार्श्वेतं कुर्वन्ति। संथारगंजो इतरंवमत्तं, उव्वत्तमादीव करेइतस्स। गाहेइसेहं खलु जोय मेरं, करेन्ति तस्सेव उतं सगासे॥७१७|| ग्लानस्य संस्तारक यः करोति, इतरद्वा संज्ञाव्युत्सर्जन यो ग्लान कारयति, मात्रकं वा परिष्ठापयति, उद्वर्तनपरावर्त्तनादीनि वा तस्य ग्लानस्य यः करोति तं वैयावृत्यकरं तस्यैव पावें स्थापयन्ति यो वा शैक्ष मेरा समाचारी ग्राहयतितं तस्यैव सकाशे कुर्वन्ति। एवं विस्तीर्णाया वसतौ तावद्विधिरुवतः। अथ संकीर्णायां विधिमभिधित्सुराहसमविसमा थेराणं, आवलिया तत्थ अप्पणो इच्छा। खेलपवायनिवाए, पाहुणए जं विहिग्गहणं 1718|| संकीर्णायां वसतौ सर्वत्रापि संस्तारणीयेन पुनर्विषम इति कृत्या कश्चिदप्यवकाशश्वान्यो मोक्तव्यः / तत आवलिक या पङ्ख्या यथारत्नाधिकं विभज्यमाना संस्तारकभूमिः स्थविराणां-वृद्धानां समा वा समागच्छेद्विषमा वा / तत्र विषमायां तेषामात्मीया इच्छा / कोऽर्थःयदि सहिष्णुतया विषमेऽपि संस्तारयितुं शक्नु-वन्ति ततस्तत्रैव संस्तारयन्ति / अथ असहिष्णवस्तदा समां भूमिमनुज्ञापयन्ति / 'खेल' त्ति यस्य खेलः स्यन्दते तस्य मध्ये अवकाशः समायातस्तेन विविक्ते अवकाशे यः संस्तारकः सोअनुज्ञापनीयः / यः पितलः, स प्रवाते स्थातुमभिलषति यो वातूलः स निवाते / एतयोः परस्पर संस्तारकपरावर्तो भवति / प्राघूर्णक आचार्यादिः समागतः तस्याऽपि यद्विधिना वक्ष्यमाणेन संस्तारकग्रहण तदनुज्ञातमिति पुरातनगाधासमासार्थः। अथैनामेव विभावयिषुराहविसमो मे संथारो, गाढापासा में एत्थ भजंति। को देज मज्झ ठाणं,समं तितरुणा सयं बेति॥७१६।। संस्तारक भूमिः स्थविराणां विषमा तरुणानां समा याता। यः स्थविरः असहिष्णु: स बूयात् विषमो मे मदीयः संस्तारकः पाश्वाणि चात्र विषमे शयानस्य गाढं मम भज्यन्ते , अतः को नाम मा सम स्थानं दद्यादिति / ततो ये तरुणास्त Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार स्वयमेव गुरुभिरनुक्ता बुबते-अस्माकमक्काशे यूयं संस्तारयत। जइपुण अच्छिजंता, न दिति ठाणं बलान दावेंति। देंतितह पुच्छणादी,बहिभावा संखडं मावा॥७२०।। यदि पुनरत्तरूणाः समं भूभागमर्थ्यमाना अपि न प्रयच्छन्ति, ततो वृषभा सूरयो वा न तेर्बलादापयन्ति। मा बलाद्दाप्यमानास्ते बहिर्भावं गच्छेयुः, असंखड वा कुयुः / स्थविराश्च तत्र विषमेऽवकाशे पादप्रोञ्छनादिकं ददति, येन सुखेनैव संस्तारयितुं शक्यते। खेलद्वारमाह। मज्झम्मि ठाओमम एस जातो, पासंदए निच्च ममंच खेलो। वाओ सरावस्स यनऽत्थि एत्थं, सिविज्जखेलेण यमाहुसुत्ते॥७२१।। श्लेष्मलो ब्रूयान्-ममतावदेष स्थायः-अवकाशो मध्ये संजातः, मम च खेलः-श्लेष्मा नित्यं प्रस्यन्दते। अत्र चोभयतोऽपि पार्श्ववर्त्तिसंस्तारकाकीर्ण शरावस्यखेलमल्लकस्य नास्त्यवकाशः। अत्र संस्तारयन् अहं प्रन्यासन्नसुप्तान शेषसाधूनपि मा शलेष्मणा सिधेयमिति ततो यस्य विविक्ते प्रदेशे संस्तारकः स तस्यात्मीयमवकाशं प्रयच्छति। प्रवातनिवातद्वारमाहनिबंण विंदामिय उद्धरण, को मे पवायम्मिदएज भूमि। सीएण वाएण य मज्झ बाहिं, नपच्चए अन्न महऽन्नमाह॥७२२।। पित्तलो ब्रूयात-अहमिह निवाते संस्तारयन् उद्धरेणधर्मोपतापेन निद्रा न विन्दामि-न लभे, अतः को नाम प्रवाते भूमिकां दद्यात् / अथानन्तरमन्यो वातलः स आह- ब्रूयात्, शीतन वातेन पीड्यमानस्य मम बहिः सुप्तग्यान्नं न पच्यते-न जीर्यति। तत एतौ परस्पर संस्तारकं परिवर्तयतः / इह संग्रहगाथाया खेलप्रवातनिवातग्रहणमुपलक्षणं तनेदमभिधीयते। जो एति एक नउएकलेणं, ठतितं सूरगहस्स पासे एक्कम्मिखंभम्मिन मत्तहत्थी, वज्झन्ति वग्घा नयपंजरे दो॥७२३|| यः एकः असंखडिकः-कलहनशीलः इत्यर्थः, तमे केन सह न योजयन्ति, किंतु यः शूरो ग्राहकः-कलहादिकुर्वतां शिक्षा कर्तुं समर्थः तस्य पार्श्वे तं स्थपयन्ति, यतः एकस्मिन् आलीनस्तम्भे द्वौमत्तहस्तिनौ न वध्येते, परस्परं भण्डनसंभवात् / एवमेकस्मिन् पञ्जरे द्वौ ब्याघ्रौ न प्रक्षिप्यते। अथ पाहुणए जं विहिग्गहण' ति पदं व्याख्यातुमाहरायणिओ आयरिओ, आयरियस्सेव अक्कमइ ठाणं / इतरो वसभट्ठाए, ठायइजे ते व दो एगो / / 724 // यदि प्राघूर्णक आचार्यो रत्नाधिकस्ततोऽसावाचार्यस्यैव स्थानमवकाशमाक्रामति / वास्तव्याचार्यस्थाने संस्तारयती-त्यर्थः / इतरो वास्तव्याचार्यो वृषभस्योपाध्यायस्य वा अवकाशे तिष्ठतिसंस्तारयति / अथाचार्यसत्कं संस्तारकत्रयं तन्मध्यादेकस्मिन् प्राघूर्णकाचार्यः प्रसुप्तः 'जे ते वादो एग' ति। ततो यौ तौ द्वाववशिष्यमाणौ संस्तारको तयोरेकस्मिन् वास्तव्याचार्यः संस्तारयति। ओमे पुण आयरिओ, वसभोमासे अणंतरेवसभो। संछोभपरंपरओ, चरिमं सेहंवमोत्तूणं॥७२५॥ अथाऽसौ प्राघूर्णक आचार्यः अवमपर्यायलघुस्ततो वृषभस्यावकाशे संस्तारयति / वृषभस्तु तदनन्तरमवमरात्रिकस्थाने स्वपिति / एवं संस्तारकाणां संघो परंपरकः परंपरया स्थानान्तरसंक्रमणरूपस्तावन्मन्तव्यो यावद् द्विचरमःसाधुः / यस्तु चरमः सर्वपाश्चात्यावकाशशायी त शैक्ष च मुक्त्वा तयोः संस्तारको नान्यत्र संक्रामयितव्य इति भावः। इदमेव व्याचष्टेचरिमो बहिन कीरइ, सेहंन सहायगा विहुयलं ति। रंगिद्विपुरिसनायं, सवे तत्थेव मावेति॥७२६।। चरमः-प्रत्यन्तवर्ती बहिर्न क्रियते / शैक्षमपि सहायकान्शिक्षाग्राहकान् न विहुगलन्ति-न स्फाटयति, बहिनिष्काश्यमा नौ हि तो बहिविगच्छतः, बहिरवगमनतः प्रतिगमनादीनि कुर्याताम् / अतः संस्तारकं संक्षिप्य तथा. प्रस्तारणीयः, यथा तयोरपि चरमशैक्षयोः संस्तारको प्रतिश्रयमध्य एव पूर्येताम् / तथा चात्र रङ्गे ये बुद्धिमन्तः पुरुषास्तैतिः कर्त्तव्यः / यथा रङ्गभूमौ पूर्वं प्राकृतजनैराकीण्णायामपि ये राजामात्य श्रेष्ठि प्रभृतयः प्रधानपु-रुषाः पश्चादागच्छन्ति तेषामुपवेशनयोग्यानवकाशान् दत्त्वा संक्षिप्ततरावकाशस्थापनेन प्रागुपविष्टा अपि तत्रैव मापय्यन्ते / एवमस्माकमपि प्राघूर्णकः प्रधानपुरुषकल्पस्ततस्तेषां यथायो-ग्यमवकाशान् दत्त्वा वृषभाः संस्तारकभूमीः संक्षिप्य प्रयच्छन्तः सपूर्वानपि साधून् तत्रैव मापयन्तीति / बृ०३ उ०। प्रातिहारिक शय्यासंस्तारमनर्पयित्वा न गन्तव्यम्नो कप्पति निग्गंथाण वा निम्गंथीण वा पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आयाए अपडिहटु संपव्वएत्तए / / 25 / / अस्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याहअविदिण्णमंतरगिहे, परिकहणमियं पदिण्णमिइ जोगो। निग्गमणं वसभाणं, बहिं व वत्तं इमं अंतो ||16|| अन्तरगृहे यत्परिकथनमुपदेशप्रदानं तदवतीर्ण तीर्थकरैर्गृहपतिनाथाननुज्ञातम् / इदमपि प्राति हारिकं शय्यासं स्तार Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 182 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार कस्य प्रत्यपणमदत्तमनुज्ञातमित्येवं योगः-संबन्धः / यद्वा-निमित्तं प्रतिश्रयात् द्वयोरपि सूत्रयोः समानं-तुल्यम् / अथवा-पूर्वसूत्रे प्रतिश्रयाबहिर्भक्षायां निर्गतस्य धर्मकथनं न कल्पते इत्युक्तम्. इदं पुनरन्तः प्रतिश्रयमध्ये संस्तारकस्य यन्निक्षेपणं तत्कल्पते इत्यत्र प्रतिपद्यते / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (सूत्रस्य-२५) व्याख्यानो कल्पते-निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीना वा प्रति-हरण प्रतिहारः-प्रत्यर्पण तमर्हतीति प्रातिहारिक, शय्या च सर्वाङ्गीणा संस्तारकश्चार्द्धतृतीयहस्तमानः शय्यासंस्तारकं तदादायगृहीत्वा कार्यसमाप्तौ अप्रतिहत्यार्पणमकृत्वा सप्रव्रजितु ग्रामान्तरं विहर्तुमिति सूत्रार्थः। सिज्जा संथारो य, परिसाडी अपरिसाडिमो होई। परिसाडि कारणम्मि, अणप्पिणामो सों आणादी||२०|| शय्या संस्तारको वा-परिशाटी, अपरिशाटी च भवति / परिशाटी तृणादिमयः, अपरिशाटी फलकादिमयः / तत्र परिशाटी संस्तारकः कारणवशादृतुबद्धे गृहीतो भवेत्, तं मासकल्पे पूर्ण अनर्पयित्वा व्रजतो मासलघु, आज्ञादयो दोषाः। एतेवा अपरेसोचा गत त्तिलहुगा, अप्पत्तियगुरुगजंचवोच्छेओ। कप्पट्ठखेल्लणेण य, डह लहुलहुगा य गुरुगा य॥६२१|| संस्तारकस्वामिना श्रुतं संस्तारकमनर्पयित्वा गतास्ते संयताः / एवं श्रुत्वा यदि प्रीतिकं करोति, अनर्पितेऽप्यनुग्रह एवास्माकमिति ततश्चतुर्लघयः / अथाप्रीतिकं करोति मदीयानि तृणानि हारितानि विनाशितानि चेति, तदा च चतुर्गुरवः / यदि तद्रव्यस्यान्यद्रव्यस्य वा व्यवच्छेदः तथापि चतुर्गुरूकम्। अथवा- तस्मिन्सस्तारके शून्ये 'कप्पटु' त्ति वालकानि खेलन्ते मासलघु / अथान्यत्र तं नयन्ति ततश्चतुर्लघु। अग्रौ प्रक्षिप्य दहन्ति चतुर्लघवः / दह्यमाने च तस्मिन्नन्येषा प्राणजातीयानां विराधना भवेत् तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। तथा प्रीतिकपदव्याचष्टेदिजंते वितया णि-च्छज्जण अलभेसु भेत्तिणेत्तण्णं। कयकजाजणभोगं, काऊण कहिं गया सच्छा // 22 // ग्रहणकाले निर्देशमपि दीयमानं तदानीं नेच्छति स्म / अनिष्पन्नमभिकाक्ष्यमासकल्पे पूणे भे' -भवतामर्पयिष्याम इतिभण-नपूर्वक नीत्वा / सांप्रतं कृतकार्या विहितान्यप्रयोजनाः शून्यं जनभोग्यं कृत्वा कुत्रचित् ग्रामे नगरेवा गताः, 'सच्छं' ति। नैपाति-कपदं कुत्सायां वर्त्तते, वा पुनस्ते दुर्दृष्टधर्माणो गता इत्यर्थः। अथ 'कप्पट्ठखेलणे' इत्यादि विवृणोतिकप्पट्ठखेलणतुअ-ट्टणे य लहुगोय होइगुरुगोय। इत्थीपुरिसतुयट्टे, लहुगा गुरुगा अणायारे / / 23 / / तत्र संस्थारके कल्पस्थकानि खेलन्ते लघुको मासः / अथ तान्येव त्वग्वर्त्तयन्ति गुरुको मासः। अथ महती स्त्री महान्पुरुषो वा त्वग्वर्त्तयति चतुर्लधु। अथ एतावनाचारमाचरतस्तदा चतुर्गुरुकाः / वोच्छेदे लहुगुरुगा, नयणे डहणे य दोस वी लहुगा। छिदिणिग्गयादलंभे, जं पावे सयं चतु णियत्ता / / 124 // तस्यैकस्य साधोस्तस्यैवैकस्य द्रव्यस्य व्यवच्छेदे चतुर्लधु, अनेकेषां साधूनामन्यद्रव्याणां च व्यवच्छेदे चतुर्गुरु / संस्तारकस्य कल्पस्थकैरन्यत्र नयने दहने च द्वयोरपि चतुर्लघवः / व्यवच्छेदकरणाच्च संस्तारकादेरलाभे विहम्-अध्या तन्निर्गता यत्परितापनादि प्राप्नुवन्ति स्वयं वा निवृत्तास्तत्र प्राप्ताः संस्तारकादिकमलभमाना या विराधनामासादयन्ति तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। माइस्स होति गुरुगो, जति एक्कतो भागऽणप्पिए दोसा। अह होंति अण्णमणे, तेचेवय अप्पिणे सुद्धो // 625|| मायिनो-मायाविनो गुरुको मासो भवति, कथं पुनर्मायां करोती-त्याह यच्चैकत एकस्माद्ग्रहादनेकैः साधुभिरनेके संस्तारका आनीतास्तदा 'भाग' त्ति प्रत्यर्पणकाले तेषु पृथग्भागीकृतेषु य आत्मीयं भागं तत्रैव ग्रहीतव्य इति कृत्वा तेषां मध्ये प्रक्षिपति, नात्मना तत्र नयति / एष मायी भण्यते / अस्य च ये अनप्पित संस्तारकदोषास्ते सर्वेऽपि मन्तव्याः / अथान्येभ्यो गृहेभ्य आनीताः संस्ताका भवन्ति तदापि मायाकरणे त एव दोषाः / तस्माद्यतो गृहादानीतः तत्र विधिना प्रत्यप्पणे शुद्ध इति संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिसंथारे य गमणगे, भयणऽट्ठविहा उ होइ कायव्वा। पुरिसे घरसंथारे, एगमणेगे तिसुपदेसु॥२६|| संस्तारके गृह्यमाणे एकानेकपदाभ्यामष्टविधा भजना कर्त्तव्या भवति, अष्टौ भङ्गा इत्यर्थः सा चैतेषु त्रिषु पदेषु। तद्यथा-पुरुषे गृहे संस्तारके च। एतेषु एकानेकपदाभ्यामष्टौ भङ्गाः यथा एकेन साधुना एकस्माद् गृहादेकः संस्तारक आनीतः। एकेन एकस्माद् अनेके। एकेन अनेकेभ्यो गृहेभ्यः एकः। एकेन अनेकेभ्यो गृहेभ्यः अनेके संस्तारका आनीताः एवं एकेन साधुना चत्वारो भगा लब्धाः / अनेकैरपि साधुभिरेवमेव चत्वारो लभ्यन्ते / सर्वसंख्ययैते अष्टौ भङ्गाः। आणयणे जा भयणा, सा भयणा होति अप्पिणते वि। वोचत्थमायिसहिए, दोसाय अणप्पिऽणंतम्मि / / 127|| संस्ताकस्य आनयने या भजना-अष्टभङ्गी भणिता तामेव भजना संस्तारकमर्पयतोऽपि भवति, यथैवानीतस्तथैव प्रत्यर्पयितव्य इति भावः / अथ विपर्यस्तं प्रत्यर्पयति न वा सर्वथैवार्पयति ततो विपर्यस्ते मायासहिते अनर्पयति च दोषा व्यवच्छेदादयो भवन्ति। तत्र ये आद्याश्चत्वारो भङ्गास्तषु यथैव गृह्णन्ति तथैवार्पयन्ति / पञ्चम भङ्गे ग्रहणकाले अस्माकमन्यतरः समर्पयिष्यतोत्येष विधिर्निर्वहितस्ततो यद्येकः प्रत्यय॑यति, तदा विपर्यस्तं भवति / अष्टमभङ्गे एकः साधुः प्रत्यर्पयितु प्रस्थितः, अपरश्चिन्तयति मदीया अपि तृणकम्बिकास्तत्रैवानेतव्या इति __ कृत्वा तदीयाना तृणादीनां मध्ये प्रक्षिपति एषा माया भण्यते / स Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 183 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार प्तमे भने तृतीयभङ्ग वा कम्बिकास्तृणानि वा एकस्मिन् गृहे अर्पयतोऽनर्पणं भवति / यत एते दोषास्तस्मात्पृथक् पृथक् सर्वैरपि प्रत्यर्पणीयाः। कारणे पुनर्विपरीतमर्पयति। तदेव कारणमाहविझ्यपयझामिते वा, देसुट्ठाणे व बोधिकभए वा। अद्धाणसीसएवा, संछोवपधाविते तुरियं // 628|| द्वितीयपदे संस्तारका ध्यामितो भवेत, देशोत्थाने वा संस्तारकस्वामी कुत्रापि गत इति न ज्ञायते / बोधिकभये संस्तारकस्वामी साधवो वा नष्टाः, अध्वसार्थको वा सार्थस्त्वरित प्रधावितो भवेत्, यावत संस्तारक प्रत्यर्पयति तावत् सार्थो दूरं गच्छति, अपरश्च सार्थो दुर्लभः / एतेहि कारणेहिं, वचंते कोऽवि तस्स उणिवेदे। अप्पाहंतिवसागा-रियाइ असदण्णसाहूर्ण // 626 / एतैः कारणैः न प्रत्यर्पययुः, अध्वशीर्षक च त्वरितं व्रजतामेकः कोऽपि साधुर्गत्वा तस्य संस्तारकस्वामिनो निवेदयति-अमुकस्मिन्कुले संस्तारकः प्रत्यर्पणीयः / अन्यसाधूनामसत्यभावे सागारिकादीन 'अप्पाहति' संदिशन्ति / एवं संस्तारकोऽमुकरयाप्पणीयः एष तृणकम्बिकासु विधिरूक्तः। एमेव गमो नियमा, फलएसु वि होइ आणुपुव्वीए। चउरोलहुगा माई,ननऽस्थि एयं तु नाणत्तं / / 630|| एष एव गमा नियमात फलकेष्वपि आनुपूर्व्या वक्तव्यो भवति, नवरं प्रायश्चित्ते विशेषः / फलकमयस्य संस्तारकस्याप्रत्यर्पणे चतुर्लघुकः / मायिना यथा तृणेषु कम्बिकासु वा अपरास्तृणकम्बिकाः प्रक्षिप्यन्ते तथा फलकाना नास्ति प्रक्षेप इति भावः / एतन्नानात्वमत्र मन्तव्यम् / वृ०३ उ०। सागारिकसत्कं संस्तारमादाय विकरणं कृत्वा न संप्रव्रजितुं कल्पतेनो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सगारियसंतियं सेज्जासंथारगं आयाए अहिकरणं कटुसंपव्वइत्तए (सू०२३) अस्य संबन्धमाहसंथारगअहिगारो, अहवा पडिहारिगा उसागारी। नीहरिमो अणीहा-रिमो य इति एस संबंधो / 731 // संस्तारकण्याधिकारोऽयमनुवर्त्तते इदमपि संस्तारकसूत्रमार-भ्यते। अथवा-पूर्व सूत्रे प्रातिहारिकः संस्तारक उक्तः, अत्र तु सागारिकसत्कोऽभिधीयते / यद्वा-निहारिमोऽनिहारिमश्चेति द्विधा संस्तारकः, तत्र निर्हरणमन्यत्र नयनम्, तन्निर्वृत्तो निर्हारिमः अन्यत्र नीत्वा प्रत्यर्पणीय इत्यर्थः / तद्विपरीतोऽनिर्झरिमः / तत्र निर्झरिम उक्तः / इह पुनरनिहारिम उच्यते, एष संबन्धः / अथास्य सूत्रस्य (23) व्याख्या-न कल्पते निग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकः शय्यातरस्तस्य सत्कं शय्यासंस्तारकमादायगृहीत्वा, अधिकरणं कृत्वा अधिकरणं नामयत् साधुना करणं कृतं तृणानां प्रस्तरणं कम्बिकानां बन्धनं फलकस्य स्थापनं तदनपनीय संप्रव्रजितुविहर्तुमिति सूत्रार्थः। अथ निर्युक्त्या विस्तारयितुमाहसागारिसंत विकरणे ,परिसाडिं अपरिसाडियं चेव। तम्मि विसो चेव गमो, पच्छित्तुस्सग्गअववाए।।७३२।। सागारिकसत्कस्य संस्तारकस्य विकरणं कृत्वा गन्तव्यम् / स च परिशाटी, अपरिशाटी चेति द्विविधः / तत्रापि स एव प्रायश्चित्तोत्सर्गापवादेषु गमो मन्तव्यः। अविकरणे चेमे दोषाःकिड्ड तुअट्टण बाले, णयणे डहणे य होइतह चेव। विकरणपासुढे वा, फलगतणेसुंतु साहरणं / / 733 / / बालाना-कल्पस्थकानां क्रीडने त्वग्वर्तने अन्यत्र नयने च दोषास्तथैव भवन्ति, ततो विकरणं कर्त्तव्यम् / कथमित्याह-फलकस्य पार्श्वतः स्थापनमूर्द्धकरणं वा तृणेषु संहरणम्-एकत्र मीलनं,तु-शब्दात्कम्बिकासु बन्धनच्छोटनमेतद्विकरणम्। इदमेव व्याख्यातिपुंजे वा पासे वा, उवरि पुंजेसु विकरणतणेसुं। फलगंजत्तो गहियं, वाहाए विकरणं कुजा। 734|| यानि तृणाणि पुजात् गृहीतानि तानि पुजे एव निक्षेपणीयानि, यानि पार्श्वतस्तानि पार्श्वे स्थापनीयानि, एवं तृणेषु विकरणं भवति। फलक यतो गृहीतं तत्रैव नीत्वा यदि पार्श्वतः स्थापितमासीत्तदा पार्थे, अथोर्द्ध स्थापितमासीत्तत ऊर्द्ध स्थाप्यते / कम्बिका अपि यतो गृहीतास्तत्र बन्धात् छोटयित्वा निक्षेपणीयाः। अथ व्याघातेन तत्र नेतुन पार्यन्ते तदा तत्रैव रथापयित्वा नियमाद्विकरणं कुर्यात्। वितियमहसंथडे वा, देसुट्ठाणादिसूवक सु। एएहि कारणेहि,सुद्धो अविकरणकरणे वि।७३५।। द्वितीयपदे यथासंस्तृते विकरण न कुर्यात्। न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात् यथासंस्तृत नामनिष्प्रकम्पचम्पकपट्टादि देशोत्थादिषु पूर्वसूत्रोक्तेषु कार्येषु विकरणं न कुर्यात्। एतैः कारणैः-विकिरणाकरणेऽपिशुद्धः। बृ० ३उ०। सागारिकसंस्तारक सागारिकसत्क बहिर्नयतिजे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियसंतियं सेञ्जासंथारयं आयाए अधिकरणं कटु अणप्पणित्ता संपव्वयति संपव्वयंतं वा साइज्जइ॥५६॥ अधिकरण णाम-जं संजतेण कयं तणाण वा संथरणं कंबीण वा बंधो फलगरस वा ओअवणं एवं च णं अप्फोडित्ता अणप्पिणित्ता क्यति मासलहु / इमा णिज्जुत्ती पडिगाहा। दोसु सिसिरगिम्हासु रीइजति वा दोसु वा पदेसु रिइजति, अविकरणे इमे दोसा / किड्डु-तुयट्टणगाहा / कप्पडगाणं किडण, तुअट्टणंथीपुरिसाणं / तुयट्टणे अणायारसवणं अण्णत्थ वाहणं डहणं वा, एतेसु चेव ते दोसा, पच्छित्तं च पूर्ववत् / फलगस्स विकरणं पासल्लियं करेति, उड्डाहं वा करेइ, तणेसु साहारणं कंबीसु बंधणं छोड़णं वा / पुजाणं सा गाहा। जे तणा पुंजातो गहिता ते पुंजे ठवेयव्वा। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार जे पासातो गहिता ते तहिं ठवेयव्वा / जं वा जतो गहियं तं तहिं ठवेयध्वं ति। कंबीमादीफलगंजतो पदेसातो गहितं तहिं ठवेयव्वा मासकप्पे वा पुण्णे अंतरा वाघाते उप्पण्णे णियमावकरणं कायव्वं, ण करेज्जा विकरण वा करेजा पावेजा पच्छित्तं / वितियपदगाहा / अहासंखड णामणिप्पकंप पट्टादि। शेषं पूर्ववत्। नि०चू०२ उ०1 जे भिक्खू सागारियसंतियं सेञ्जासंथारयं पचप्पिणित्ता दोच्चं पि / अणुण्णविय अहाठिइ अहाळंतं वा साइज्जइ // 24 // जे मिक्खू पडिहारियं वा सागारियसंतियंसेज्जासंथारयं पच्चप्पिणित्ता दोच्चं पि अणुण्णविय अहिद्वेति अहिहृतं वा साइजइ॥२५॥ सेज्जा एव संथारओ सेज्जासंथारओ, अहवा-सेना-सव्वंगिआ, संथारओ अड्डिइज्ज हत्थो / अथवा-सेज्जा वसही संथारगो पुण पडिसारिमितरो वा / सामिणो अप्पेउं अणणुण्णवेत्ता पुणो अधि-तुति परिभुजति तस्स मासलहुं / सेज्जासंथारगगाहा-परिसाडि अपरिसाडी णिज्जायमाणा अप्पेउं गता अवसउणेहिं पचागता सो य संथारओ तहेव अच्छति, तं दोचं अणणुण्णवेत्ता पुणो अधिट्टति परिभुजति मासलहुं, आणाइआ य दोसा / नि०चू० 5 उ०। सांप्रतं प्रातिहारकसंस्तारकप्रत्यर्पणे विधिमाहसे भिक्खू वा भिक्खुणीवा अभिकंखिज्जा संथारगं पचप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगं जाणिज्जा सअंडं०जाव ससंताणयं तहप्पगारं संथारगंनो पचप्पिणिज्जा। (सू०१०४) से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अमिकंखिज्जा संथारगं पचप्पिणित्तए, से जं पुण संथारगंजाणिज्जा सअप्पंडं.जाव ससंताणगं तहप्पगारं संथारगं पडि-लेहिय, पडिलेहिय पमज्जिय 2 आयाविय 2 विहुणिय 2 तओ संजयामेव पञ्चप्पिणिञ्जा / (सू०१०५) 'से' इत्यादि स भिक्षुः प्रातिहारिक संस्तारकं यदि प्रत्यर्पयितुमभिकाले देवंभूतं जानीयात्, तद्यथा-गृहकोकिलकाद्यण्डकसंबदमप्रत्युपेक्षणयोग्यं ततो न प्रत्यर्पयेदिति। किञ्च- 'से' इत्यादि सुगमम्।। आचा०२ श्रु०१चू०२ अ०३ उ०। प्रातिहारिक शय्यासंस्तारमन्यसत्क द्वितीयमप्यवग्रहमन नुज्ञाप्य न कल्पतेणो कप्पइणिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चं पिउग्गहं अणणुण्णवित्ता बहिया णीहरित्तए / कप्पइ णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं दोच्चं पि उग्गहं अणुण्णवित्ता बहिया णीहरित्तए।।६।। णो कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारगं पच्चप्पिणित्ता दोच्चं पितमेव उग्गहं अणणुण्णवेत्ता अहिद्वित्तए। कप्पति णिग्गंथाण वाणिगंथीण वा सेज्जासंथारयं पाडिहारियं वा सागारियसंतियं वा सेज्जासंथारयं पञ्चप्पिणित्ता दोच्चं पि उग्गह अणुण्णवेत्ता अहिहित्तए!|७|| (व्य०) अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहसंथारएसु पगए-सु अंतरा छत्तदंडकत्तिल्ले। जंगमथेरे जयणा, अणुकंपरिहे समक्खाया।।१२६॥ दोचं वऽणणुण्णवणा, भणिया इमिगा वि दोच्चऽणुण्णवणा। नियउग्गहम्मि पढम, वियइंतुपरोग्गहे सुत्तं / / 127 / / संस्तारकेषु पूर्वसूत्रेष्वधिकृतेषु अन्तरा छत्रदण्डकृत्तिचत्रिजङ्गमस्थविर समस्तस्याऽपि गच्छस्थानुकम्पार्हे यतना अननन्तरसूत्रेण समाख्याता // 126 / / संप्रति पुनः संस्तारकोऽनेन सूत्रेण भण्यते एष सूत्रसंबन्धः। अथवा अन्यथासूत्रसंबन्धस्तमेवाह- 'दोचं वे' त्यादि द्वितीयावग्रहानुज्ञाप ना जङ्गमस्थविरस्यानन्तरसूत्रेण भणिता। इयमपि सूत्रेणाभिधीयमाना द्वितीयावग्रहानुज्ञापना। ततः द्वितीयावग्रहहानुज्ञापनाप्रस्तावादिदं सूत्रं पूर्वसूत्रादनन्तरमुक्तम्, नवरं प्रथममनन्तरसूत्रं निजकस्यात्मीयस्योपकरणस्यावग्रहे अनुज्ञापनाविषयम् / द्वितीयमधिकृतं तु सूत्रं परस्यपरकीयस्य शय्यातरसत्कस्यान्यसत्कस्य वा इत्यर्थः, अवग्रहे अनुज्ञापनायामेवमनेन संबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या। नो कल्पते निर्गन्थानां वा निग्रन्थीनां वा प्रातिहारिक शय्यासंस्तारकं शय्यादातृसत्कमन्यसत्कं वा द्वितीयमप्यवगृहमननुज्ञाप्य बहिर्विहर्तु नवरमनुज्ञाप्य पुनः कल्पते इति सूत्रसंक्षेपार्थः। व्य०८ उन जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाडिहारियं सेज्जासंथारगं दो पि अणुण्णवेत्ता बाहिं णीणाइणीणंतं वा साइज्जइ॥५२॥ जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियसंतियं सेज्जासंथारयं दोचं पि अणुण्णवित्ता बाहिं णीणाइणीणतं वा साइज्जइ॥५३॥ पाडिहारिको प्रत्यर्पणीयो अ सेज्जातरस्स वा संतिओतं जदि पुण्णे मासकप्पे दोच्च अणुण्णवेत्ता अंतोहितो बाहिं णीणेति बाहिंतो वा अंतो अतिणीणेति तहाऽवि मासलहुं, एस सुत्तत्थो / इमा णिज्जुत्ती / गाहापरिसाडिमपरिसाडी, सागरियसंतियं व पडिहारि। दोचमणणुण्णवेत्ता, अंतो बहिणेति आणादी॥४६५|| कुसातितणसंथारए परिभुज्जमाणे जस्स किंचि परिसडति सो परिसाडी, वंसकप्पिमादी अपरिसाडी। दोच्चं अणणुण्णवेत्ता जो णेति तस्स आणा अणवत्थादी दोसा भवति। चोदगाह-णणुसुत्ते अणुण्णवेंतरस विमासलहु वुत्तं णिकारणे, आचार्याह-णिकारणे सुत्तं / अत्थो तु कारणे विधि दरिसेति। अविधीए इमे दोसा। गाहाताई तणफलगाते, तेणाहडगाणि अप्पणो वाऽवि। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार णिजंतागहियाई, सिवाणि तहाय असिवाणि॥४६६|| ते तणफलगा तस्स तेणाहडा वा अप्पणा वा तेणाहडेसु णिज्जतेसु अंतरे पुव्वसामी दट्ट गहितेसु साधू पुच्छितो जति कहेति, जस्स ते ण कहें ति वा तो उभयहा वि दोसा, तम्हा दोसपरिहरणत्थं विही भण्णतिसपरिक्खेवे ठिताणं अंतो मासो बहिं मासो अंतो मासकप्पं काऊणं | विहिणिग्गच्छतो तत्थेव तणफलगा गेण्हंतु / अह ण लब्भति अण्णग्गम वयंतु। अह तेसु असिवादिकारणा अत्थि तो तेसिं सव्वेसिं फलयादीण इमा विही। गाहाअण्णउवस्सयगमणे, अणपुच्छाणऽस्थि किंचिणेतव्वं / जोणेति अणापुच्छा, तत्थ उदोसाइमे होति।।४६७|| सपरिक्खेवे अण्णउवस्सयं वयंता अणापुच्छाए न किंचिणेयव्वं, णत्थि अनापृच्छ्य नास्ति किंचिन्नेयमिति। जो पुण अणापुच्छाए णेति तस्सिमे दोसा। गाहाकम्मे तेणा फलगा, सिट्टे अमुगस्स तस्स गहणादी। णिण्हवति व सो भीओ, पंचंगिरलोगमुड्डाहो।।४६८|| णेदिट्टे सिढे गहि-ए कट्टण (व) वहारववहरिते। उड्डाहे य विभंगे, उद्दवणे चेव णिव्विसए।।४६६।। लहुओ लहुगा गुरुगा, छलहु छग्गुरुगछेदमूलदुर्ग। अहवा वि असिम्मिय, एसेव उसंकणे लहुया॥५००।। निस्संकियम्मि गुरुगा, एगमणेगेय गहणमाईया। अणवट्ठप्पो दोसुं, दोसुय पारंचिओ होति / / 501 / / तेणाहडा अणापुच्छाए णिज्जंता पुव्वसामिणा दिट्ठा साहू पुच्छितोकस्सेते तणफलगा? साहू भणति-अमुगस्स तस्स गेण्हणे कड्डणमाईया दोसा। अह पिण्हवेति सो भीतो संतो साहू तो पचंगिरदोसो। परितोषः तस्मिन् संभाव्यत इति प्रत्यंगिरा लोगे वि उड्डाहो साधवो वि परदव्वावहारिणो त्ति / गहणादिपदस्स इमा वक्खातणफलया अणापुच्छाए णेति, तेणाहडा णिजमाणो पुटवसामिणा दिट्ठ पुच्छिएण साहुणा सिट्ठ अमुगस्स / सोरायपुरिसेहिं हत्थे गहिउं कड्डिओ ववहारमेव ति पुब्बसामिणा सद्धि ववहराहि त्ति वुत्तं भवति / ववहारिए त्ति ववहारितुमारद्ध पुच्छा कडे त्ति। जिते उड्डाहेवि रंधाण एकपदं / उद्दविते णिव्विसए एवं पदं / एतेसु चउसु पदेसु इमं पच्छित्त / मासलहुगादि, मासगुरुं, मोत्तुं णिण्ह-वति पच्छद्धरस इमा वक्खाअहवेत्ययं निपातः अविशब्दः प्रकारवाची / असिडे-अनाख्याते एसेव तु तेणो त्ति संकिते लहुगा, निस्संकिते एस तेणो त्ति चउगुरुगा। तस्सेवेगस्स अणेगाण अणेगेसि साहूर्ण गहणादी। इमे दोसा गाहाणयणे गहिते कड्डे-विकड्डे कड्डेववहारववहरिए। उड्डाहे य विभंगे, उद्दवणे चेव णिव्विसए।।५०२।। एक्गाहाए दोण्हं पि पच्छित्तं / तेणाहडादीणतणफलयाणं अणापुच्छाए भयणे पुव्वसामिणो द? तणफलयाणि साहुस्स वा गहणं कयं विकोपयित्या कड्डण त्वं चौर इति विकोवणं साहुस्स रायपुरिसेणं कड्डणं कत साहू ते रायपुरिसे प्रतीपं कड्ढति त्ति विकहणं। सेसा ते चेवपदातं चेव पच्छित्तं / शिष्यः प्राह- किमस्तीदृशसं-भवः ? आचार्याह। गाहादंतपुरे आहरणं, तेणाहडवच्चगादिसुतणेसु। छावण मीराकरणे, अत्थरणत्थं तुचंपादी॥५०३|| दंतपुरे दंतवक्कआख्यानकं प्रसिद्धं / तद्यथा-तत्र तेनाहडप्पगादिसु तणेसु संभवो भवे / तानि पुनः किमर्थ साधवो नयंति?, उच्यतेछावणनिमित्तं वा मीराकरणं वा मेराकरणमित्यर्थः / पत्थरणत्थं वा / फलगा वि मीराकरणपत्थरणनिमित्तं ते पुण चंपपट्टादी नयंति इदाणीं। गाहाअतेणहडाणयणे, लहुओ लहुगा य होंति सद्धम्मि। अप्पत्तियम्मिगुरुगा, वोच्छेदपसज्जणा सेसे।।५०४।। भाणियव्वा अतेणाहडतणाई जदि नेति अणापुच्छाए तणेसु लहुगो अप्पणाणे से सिह तुज्झ चया तणफलया साधूहि बाहिं नीणिता हुएत्थ लहुगा। अणुग्गहो त्ति एत्थ वि चउलहुगा अप्पत्तियम्मि गुरुगा वोच्छेदं वा करेजा तस्स साधुस्स तइव्वस्सन्नरस वा पसज्जणा। सेसे त्ति अण्णेसिं पि साधूणं असणादियाण य दव्वाणं य वोच्छेदो। तणफलगविशेषज्ञापनार्थमाह / गाहाएसेव गमो णियमा, फलएसु वि होति आणुपुव्वीए। णवरं पुण णाणत्तं, चतुरो लहुगा जहण्णपदे||५०५।। जो तणेसु विधी भणितो फलगेसु वि एएसो चेव विधी। नवरं नाणत्तं चतुरो लहुगा जहन्नपदे / जत्थ तणेसु मासलहुं तत्थ फलगेसु चउलहू भवतीत्यर्थः। गाहावितियं पहुणिव्विसए, णटुट्टितसुण्णमतप्पणमब्भे! खंधारअगणिभंगे, दुल्लमसंथारए जतणा।।५०६।। अणापुच्छाए वि सेज्जासंथारगपभू निव्विसओ कतो, नट्टो वा उद्वितो। उव्वसितो वा सुण्णो पविसितो मतो वा अण्णप्पज्झो वा जातो, खंधावारतया वा बर्हितो अतिनेति, अग्गिभये वा नेति, विसयभंगे वा नेति, दुल्लभसंथारए वा जतणाए नेति। इमा सा जतणा गाहातम्मि तु असधीणावा, परिचरितुंवा सहीण वक्खित्ते। पुव्वावरसंझासुव, णयंति अंतो व बाहिं वा / / 507 / / गिहसंथारयसामी जदा असहीणो तदा नयंति। सहीणो वा पडिचरितु जदा वक्खित्तचित्तो तदा नयंति / पुथ्वसंझाए अवरसंझाए वा अंतो वा बाहि, बाहितो वा अंतो नयति। जे भिक्खू पाडिहारियसंतियं वा सेज्जासंथारयं दोच्चं / Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार पि अणुण्णविता बाहिं गीणेइणीणें तं वा साइज्जइ / / 5 / / जे मिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं आयाते अपरिहलु संपव्वयति संपव्वयंतं वा साइजइ / / 5 / / आदाय गृहीत्वा अप्पडिहटु सम्म अणप्पणित्ता सम्म एगीभावेण प्रव्रजति संप्रव्रजति तस्स मासलहुं एस सुत्तत्थो। इदाणिं णिज्जुत्तीवित्थरो त्ति गाहापरिहरिणउ पडिहारि उ, ओआतायतंडगेऊणं / अप्पडिहटुमणप्पि उ, संपव्वएँ सम्मगमणं तु // 508|| मासकप्पे पुण्णे मासकप्पे अपडिहटुमणप्पितुं न प्रतीपं अर्पयतीत्यर्थः सम्यकभावे व्रजति व्रजगतौ सम्म एगी प्रव्रजनं। संथारगो विहो गाहासेज्जा संथारो उ, परिसाडी अपरिसाडिओ होति। परिसाडि कारणम्मी, अणप्पिणे मासो आणादी।।५०६।। सोचागत त्ति लहुगा, अप्पत्ति य गुरुग जं च वोच्छेदो। सव्वंगी सेजा, अद्धतियहत्थो संथारमो। अहवा सेज्जा एवं संथारभो एकेको दुविहो-परिसाडी, अपरिसाडी य / उदुबद्धे परिसाडी कारणे घेप्पति तं मासकप्पे पुण्णे अणप्पेउवादेतस्स मासलहुं. आणादयो दोसा / इमे य अण्णे दोसु तं तेण संथारगसामिणो जहा ते संजता संथारगं अणप्पिणित्तगता चउलहुगा पछित्त, परियणो य से भणति / किं च सजताण दिप्पेण सो भवति। अप्पडित वि अणुग्णहो अम्हं एवं पत्तिए वि चउलहुं, अह उप्पत्तियं करेति तेणा इमे सुप्पा हारित्ता विणासिता वा चउगुरु। जंच वोच्छेद करेति, तरस वा अण्णस्स वा साहुस्स, तहव्वस्स वा अण्णदव्वस्स वा, एत्थ वि चउगुरुगं / अहवा तम्मि संथारये सुण्णे कप्पट्टाणि खेलति मासलहूं, अह तुवट्टति मासगुरुं। अह अण्णतो नयंति मासलहुं / अह दहति चउलहुं। डज्झतेसुय अण्णपाणाण जा विराहणा तण्णिप्फण्णं च पच्छित्त। अप्पाहंति व सागा-रियादि असदण्णसाधूणं / / 516 / / एसेव गमो णियमा, फलगाण वि होति आणुपुवीए। चतुरो लहुया मायी, य णऽस्थि एवं तु णाणत्तं / / 517 / / परिसाडिमपरिसाड़िय,सागारियसंतियं तु संथारं / अधिकरणं कातूणं,दूतिखंतम्मि आणादी // 518|| किड्तुयट्टणबाले,णयणे डहणे य होति तह चेव। विकरणपासुद्धं वा, फलगतणेसुंतुसाहरणं // 516 / / पुंजे पासे व गहितं,जंजहितं तहि ठवेतव्वं / फलगंजत्तो गहितं, बाहाए वि कुरणं कज्जा / / 520 / / पुव्वद्धं गतार्थ तम्मि सुण्णे संथारगे पुरिसित्थीसु तु पदेसु चउलहुँ / अणायारमाचरतेसु चउगुरुग। अहवा सोउंगले इमं फरूसवयण भणेज। दिलते विगाहा-गहणकालेतद्दिज्ज पि दिज्जमाण नेच्छिणं पुण्णे मासकप्पे अप्पेसु त्ति। एवं भणित्ताणेण अप्पणो कते कज्जे सुण्णे जणभागं करेऊण कहिं ति कं गाम नगरं वाति पुनः शब्दो द्रष्टव्यः / भच्छेति निठुरं किं पुण माम नगरं वा गतेत्यर्थः। संथारगस्स गहणकाले इमा विही। संथारे गाहा संथारे घेप्पमाणे एगाणेगवयणे अट्ठविहभंगरयणा कायव्या। सा य सेसेसु तिसु पदेसु पुरिसघरसंथारएसु। एगेण साहुणा एगो संथारो पढमो भंगो। एवं अट्ठ भंगा कायव्वा। 'एगमणेगं पत्तेगे' क्ति एगमणेगे, एगगणे अणेगगणेसु वा साधारणपत्तगेसु खेत्तेसु एस विधी भणिता-इमो अप्पिणतेसु विधी। आणणे गाहा भणियव्वा आणयणे जाअट्टविहा भंगभयणा कता अप्पिणते वि सा चेव अट्टविहा भंगभयणा कातव्वा ! अविवरीते अप्पति भायं वा करेति न वा अप्पेति वो-च्छेदादयो दोसा भवंति / जे पढमा चत्तारि भंगा तिसु ज हत्थेण गहणं तहे; अप्पिणते पंचमभंग गहणकाले अम्हं अण्णतरे अप्पे-हिति ति। एस विधी न कतो एगप्पणे वोचत्थं भवति। छट्ठभगे एगो साधू पच्चप्पिणिओ पिट्टतो अवरो साहू चिंतेति मज्झ वि तण-कंबीओ तत्थेव नेयव्या,तेस्स चयाणं मज्झे च मुंचति अयाणतस्स नेच्छति नेउ त्ति एवं माया भवति। सत्तमभंगे ततियभंगे या ओहारकंबीयो तणा एगघरे समप्तस्सअप्पणं संभवंति जम्हा एते दोसा तम्हा सव्वेहि सध्वे वीसुं 2 अप्पेतव्या। कारणे पुण विवरोतं अप्पेति न अप्पेति वा। इमे य ते कारणा। गाहावितियपदमवासंथड, देसुट्ठाणे व बोहिगादीसुं। अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पधावितो तुरियं / / 521 / / सो संथारो झामितो जेसु ठाणेसु वा सो संथारगसामी वा कतो विगतो, बोहिभये संथारगसामी साधू वा नट्टे अद्धाणसीसए वा सत्थो लद्धी तुरितं पहावितो जाव अप्पिणति ताव सत्थातो फिट्टति, अण्णा दुल्लभो सत्थो / एतेहि कारणेहिं गाहा-न पञ्चपिपणति। विकरणं पुण करें ति। अण्णे साधू सत्थेण वयति। एगो साधू तस्सेव निवेदयति सत्थो तुरित पधावितो तेण न आनीओ तुज्झ एयं संथारयं आणेजह गाहा कप्पट्ठखेलणेण य,डहणे लहुगा लहुग अन्नत्थ / / 510 // कप्पट्ठखेलणतुय-ट्टणे य लहुगो होति गुरुगो य। इत्थीपुरिसतुयट्टे, लहुगा गुरुगा अणायारे / / 511 / / दिजंते वि तदा णि-च्छिजण अलभेसु भे त्ति णेत्तणं। कतकज्जा जणभोगं, कातूण कहिं ? गया सच्छा / / 512 / / संथारेगमणेगे,भयणट्ठविधा तु होति कायव्वा / पुरिसे घरसंघारे, एगमणेगे य पत्तेगो / / 513 / / आणयणे जा जयणा, सा जयणा होति अप्पिणंते वि। वोचत्थमायसहिते, दोसाय अणप्पिणंतम्मि॥५१४।। वितियपदभामिते वा, देसुट्ठाणे व बोधिगादीसुं। अद्धाण सीसए वा, सच्छो व पधावितो तुरितं 1 / 515 / / एतेहिं कारणेहिं, वचंते को वितस्स तु णिवेदे। १-मणमाछा इति पाठन्तरम, गृहत्कल्पभाष्यपिइमा गाथाः। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 187 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार अण्णे वा साधूभणति-तुझं इमं संथारयं अमुगे कुले अप्पेजह। असति ततः पूर्वमनुज्ञापनं पश्चान्नयनमित्येकान्तशुद्धो भगः / एष च भङ्गस्तदा साहूण सागारियादीण अप्पहेति इमं संथारयं अप्पेजह णिवेदणं वा द्रष्टव्यो यदा ये दोषा मासकल्पे वर्णिणतास्ते अन्तः सन्ति बर्हिर्न विद्यन्ते। करेजह / एस तणकबीण विधी भणिता। एसेव कमो गाहा-फलगेसु वि | बहिश्च तृणफलकादीन्यनुज्ञाप्यमानान्यपि न लभ्यन्ते तदा अभ्यन्तराणि सव्वा एसो विधी णवर विसेसो पच्छित्तं चउलहुगा / मायी तणत्थी जहा येपा सत्कानि तावनुज्ञाप्य नीयन्ते / अथान्तरशिवादीनि कारणे नितणेसु कंबीसु वा अण्णे तणा कबीओ पक्खिवंति तहा फलगाणं णऽस्थि र्गमनमुहूर्त्तश्चातिप्रत्यासन्नो न च बहिस्तृणफलकादीनि लभ्यन्ते तदा पक्खेदो। निचू०२ उ०। पूर्वनयनं पश्चादनुज्ञापनं यथा बहिर्याचितानि तृणफलकादीनि परं न सप्रति नियुक्तिविस्तर: लब्धानि ततो युष्मदीयान्येव तत्र नीतानीत्यस्माकं तान्यनु-जानीत। परिसाडिमपरिसाडी, पुव्वं भणिया इमं तु नाणत्तं / यदा तु कारणवशता बहिरवश्यं गन्तव्य बहिश्च तृणफ-लकादीनि न पडिहारिय सागारिय,तंचेवंतो बहिं णेति।।१२८|| लभ्यन्ते नच तानि विना साधवः संस्तरीतु शक्नु-वन्ति / ननु परिशाटिः यादृशः संस्तारको भवति, यादृशश्चापरिशादिः / एतौ द्वावपि येषामभ्यन्तराणि तृणफलकादीनि ते अनुजानन्तः संभाव्यन्ते पूर्वमस्मिन्नेवाष्टमोद्देशके भणिताविदन्त्वत्र नानात्वम, तदेवाह- नवाऽननुज्ञाप्यम्, तेषु बहिर्नीतेषु तेषामभिनिवातदा-नपूर्वमनुज्ञापन प्रातिहारिकं सागारिकसत्कं तमेव शय्यातरसंस्तारकमन्तःस्थित नापि नीत्वा पश्चादनुज्ञापनमिति। तदेवं पूर्णमा-सकल्पे पूर्णे च वर्षाकल्पे बहिर्नयते। वाऽयं विधिरूक्तः। एवमपूर्णेऽपि द्रष्टव्यम्। एतदेव सविस्तरं भावयति तथा चाहपरिसाडीपडिसेहो, पुणरूद्धारो य वण्णितो पुव्वं / एमेव अपुण्णम्मि वि, वसहीवाधाएँ अन्नसंकमणे। अप्परिसाडिग्गहणं, वासासु य वण्णिउंणियभा।।१२६।। गंतव्युबासवासति, संथारो सुत्तनिद्देसो॥१३२।। पूर्व परिशाटेः शय्यासंस्तारकस्य प्रतिषेधः कृतो यथा-न कल्पते एवमेव अनेवैव प्रकारेण अपूणे मासकल्पे दृष्टव्यम् / कथमित्याहपरिशाटिः शय्यासंस्तारक इति। ततः पुनरुद्धारोऽपवादः पूर्वमेव वर्णितो वसतेयाघाते सति उपाश्रयाभावे सति उपाश्रयाभावे गन्तव्यमवश्यं यथा ऋतुबद्ध काले निष्कारण सस्तारका नकल्पन्ते, तथा पूर्वमेवैतदपि जातम् / तत्रान्यक्षेत्रसंक्रमणे तत्र संस्तारकालाभे पूर्वप्रकारेण संस्तारको वर्णितं यथा वर्षासु काले नियमादपरिशाटेः शय्यासंस्तारकस्य ग्रहण नेतव्यः, एष सूत्रनिर्देशः-एष सूत्रविषय इति भावः। कर्तव्यमिति। तत्र पूर्वनयनं पश्चादनुज्ञापनमिति भङ्गमधिकृत्य पुण्णम्मि अंतों मासे, वासावासे विसंभवइ सुत्तं / विधिमाहतत्थेव ऽण्णगवेसे, असती तं चेवऽऽणुण्णवए / / 130|| नीहरिउं संथारं, पासवणोचारभूमिभिक्खादी। अन्तमस्य नगरस्य वा मध्ये पूर्णे मासे वा बहिरवस्थातुकाम- गच्छेह वा वि (स) झायं, करे इमा तत्थ आरूवणा।।१३३।। मिदमधिकृतं सूत्रं भवति। यथा न कल्पन्ते अभ्यन्तराणि तृणफलकानि यदि कारणवशतः पूर्वमनुज्ञाप्य तणफलकादिमयः संस्तारको यैर्दत्तानि तानि अनापृच्छ्य च बहिनेंतुमिति / तत्र प्रथमतस्तत्रैव बहिः बहिर्नी तः, यदि वा-वसताघाते च बहिरन्यां वसतिं गत्वा तत्र प्रदेशे अन्यत्र तृणफलकादिमयं शय्यासंस्तारकं गवेषयेत् / असति-बहिः संस्तारकोऽननुज्ञाप्य नीत्वा स्थापितस्तर्हि शेष व्यापारपरित्यागेन संस्तारकस्यालभ्यमानत्वेनाभावे तमेव सागारिकसत्कमन्यसत्क वा नियमतः पश्चादनुज्ञापना कर्तव्या। अथ नीत्वा प्रस्रवणभूमिमुचारभूमि शय्यासंस्तारकमनुज्ञापयेत् / यथा बहिर्याचितः शय्यासस्तारकः परं न भिक्षादी वा गच्छेद, अथवा स्वाध्यायं करोति तत्रेयं वक्ष्यमाणा-आरोपणा लब्धस्ततो यूयमनुजानीतात्मीयं संस्तारकं येन बहिर्नयाम इति। यदि प्रायश्चित्तम् / नानुज्ञापयति तदा तृणमयसंस्तारकविषये प्रायश्चित्तं मासलघु, तामेवाहफलकमयसस्तारकविषये चतुर्लघु। एएसुंचउसुंपी, तणेसु लहुगोयलहुगफलगेसु। अत्रैवापवादमधिकृत्य विकल्पानाह रायडुट्ठग्गहणे, चउगुरुगा हों ति णातव्वा / / 13 / / अहवा अवस्सघेत्त-व्वयम्मिदव्चम्मि किं भवे पढमं। एतेषु-प्रस्रवणभूम्यादिषु चतुर्षु स्थानेष्वननुज्ञाप्य प्रवृत्ती तृणेषुणयणं समणुण्णा वा, विवज्जतो वा जहुत्तातो।।१३१।। तृणमयसस्तारकविषये, प्रायश्चित्त लघुको मासः। फलकेषु विषयं चत्वारो अथवे त्यपवादमधिकृत्य प्रकारान्तरोपदर्शने, यदि नियमात लघुकाः। राजद्विष्टानां राजप्रतिषिद्धाना तृणफलकादीनामनुज्ञाप्य ग्रहणे संस्तारकद्रव्यं बहिर्नेतव्यं न शक्यते तद्विना मोक्षसाधनं कर्तुमिति, तर्हि चत्वारो गुरुका भवन्ति-ज्ञातव्याः। प्रथमतः किं कर्त्तव्य नयनं समनुज्ञा वा ? आचार्य आह-अवश्य नो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा पुवामेव ओग्गहं ओगिनयनलक्षण अपवादे प्राप्ते पूर्व नयनं कर्त्तव्यम् , पश्चादनु-ज्ञापना। यदि ण्हित्तातओ पच्छा अणुन्नवेत्तए।।१०।। वा-पूर्वननुज्ञापना कर्तव्या पञ्चान्नयनम् / विपर्ययो वा यथोक्तः / कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुवामेव ओग्गहं किमुक्तं भवति?, नापि पूर्वमनुज्ञापयेत् नापि नीत्वा पश्वादनुज्ञापयेत् | अणुन्नवेत्ता तओ पच्छा ओगिण्हित्तए अह पुण एवं जा Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 188 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार णेज्जा इह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा नो सुलभे पाडिहारिए सेज्जासंथारए त्तिकटु एवण्हं कप्पइपुव्वामेव ओग्गाहं ओगिण्हित्ता तओपच्छा अणुन्नवेत्तएमावहउं अजोवइ अणुलोमेणं अणुलोमयव्ये सिया इति॥११॥ अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहउग्गहसमणुण्णासु, सेज्जासंथारएसु य तहेव। अणुवत्तंतेसु भवे, पंते अणुलोमवति सुत्तं / / 13 / / अवग्रहः संस्तारकाश्च स्वामिना अनुज्ञाताः, अवग्रहीतत्र्याः, इत्युत्सर्गत उपदेशरतदेवमवग्रहसमनुज्ञासु शय्यासंस्तारकेषु तथैव समनुज्ञातव्येष्वनुवर्तमानेष्विदमिति सूत्रं समनुज्ञातसस्तारकादिग्रहणविषये भवति / अपवादतोऽननुज्ञाप्य संस्तारकग्रहणे यदि संस्तारकस्वामी प्रान्तो रूटो भवेत् , तस्मिन्प्रान्ते अनुलोमवाक् वक्तव्या, अनेन सबन्धेनायातस्यास्य व्याख्या-न कल्पते निन्थाना निग्रन्थीना वा प्रातिहारिक शय्यासंस्तारकं सर्वात्मना अर्पयित्वा द्वितीयमप्यवग्रहमननुज्ञाप्य, अधिष्ठातुम् अनुज्ञाप्य पुनः कल्पते एवं सागारिकसत्केऽपि शय्यासंस्तारके द्वावालापको वक्तव्यौ / तथा न कल्पते निर्गन्थानां वा निर्गन्थीनां वा पूर्वभवावग्रहमवगहीतु ततः पश्चादनुज्ञापयितुम् / कल्पते निर्ग-न्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा पूर्वमेवावग्रहमनुज्ञापयितुं पश्चादवग्र-हीतुमिति। अथ पुनरेतत् जानीयात्-इह खलु निर्ग्रन्थानां वा निर्गन्थीना वा न सुलभः शय्यासंस्तारक इति कृत्वा एवमेव-अमुना प्रकारेण। णमिति वाक्यालंकारे। कल्पते पूर्वमवावग्रहमवग्रहीतुं ततः पश्चादनुज्ञापयितुम् / तत्रैव कारणे शय्यासंस्तारकस्वामिना सह संयतानां कलहे आचार्याः संयतान् बुवते- 'भो' आर्चा ! द्विविधा कुरूत द्वावपि कुरूत एक वसतिं प्रतिगृह्णीथ अपरे परूषाणि भाषध्ये, तस्मात् क्षमध्वमित्येवं वचसा अनुलोमेन-अनुकूलेनानुलोमयितव्यः स्यादिति। सेज्जासंथारदुर्ग, अणुण्णवेऊण ठायमाणस्स। लहुगो लहुगो लहुगा, आणादी निच्छुभणपंतो॥१३६।। शय्यासंस्तारकद्विक परिशाट्यपरिशाटिररूपं शालादिषु चावग्रह - मननुज्ञाप्य तिष्ठतः प्रायश्चित्त लधुकादि / तद्यथा-शालादिष्ववगृहमननुज्ञाप्य तिष्ठतां लघुको मासः। परिशाटी मासलघु, अपरिशाटी चत्वारो लघुकाः। तथा आज्ञादयः-आज्ञाभङ्गादयो दोषाः। तथा सांप्रतं कोऽपि रूपः सन् निच्छुभण-निष्काशन कुर्यात्। एवमदिण्णवियारे, दिण्णवियारे विसभपवादीसुं। तणफलगागुण्णाया, कप्पडियादीण जत्थ भवो / / 137 / / एवमदत्तविचारे शालादा द्रष्टव्यमा दत्तविचार नाम यत्र कार्पटि-कादिर्न कोऽपि वार्यते तच्च, सभा वा प्रपा वा मण्डपको वा यान्यपि च तत्र तृणफलकादीनि तान्यप्यनुज्ञातानि। तथा चाह- यत्र कापटिकादीनां तृणफलादीन्यनुज्ञातानि भवन्ति तेष्वपि दत्तविचारेषु सभाप्रपादिषु यानि तृणफलकादीनि तान्यपि। किमित्याह ताणि वि उन कप्पंती, अणणण्णवियम्मि लहुगमासो उ। इत्तरियं पि न कप्पइ, तम्हा उ अजातितो गहणं / / 138|| तान्यपि अननुज्ञापिते स्वामिन ग्रहीतुं न कल्पन्ते। यदि पुनरननुज्ञाप्य गृह्णाति तदा प्रायश्चित्तं लघुको मासः। करमादेवमत आह-यस्मादित्यरमपिक्षणमात्रमपीत्यर्थः अवग्रहणमयाचितंन कल्पते। उक्तंच- "इत्तरिय पिन कप्पइ, अविदिन्नं खलु परोग्गहादीसु। चिट्टित्तु निसीयइतुं, तुवट्टइत्तु च (तइयव्यय) रक्खणट्टाए।।१।।" तथा अननुज्ञापने तिष्ठत इमे च दोषाःजावंतियदोसो वा, अदत्तनिच्छुभणदिवसरातो वा। एए दोसे पावइ, दिन्नवियारे वि ठायंतो।।१३६।। अननुज्ञाते दत्तविचारोऽपि यदि तिष्ठति तदा यावन्तिकदोषस्तथा 'अदत्ते' लि-अदत्तदानग्रहदोषश्योपजायते / तथा कदाचित स सभादिस्वामी प्रान्तो बूयात्-के नामीषामत्र स्थानं दत्तं नह्यमीषा योग्यमिति / ततो रूष्टः सन् दिवसे रात्रौ वा निष्काशनं कुर्यात् / तस्मादत्तविचारेऽप्यननुज्ञाप्य तिष्ठन एतान् दोषान्प्राप्रोति, तस्मात्तत्रापि पूर्वमनुज्ञाप्य पश्चात्कल्पते स्थातुम् / एवं सति यावन्तिकदोषो न भवति / स्वामिसत्कं कृत्वा तदनुज्ञापनाददत्तादान निष्काशनं च न भवतीति। किं तु अदिन्नवियारे, कोट्ठारादीसुजत्थ तणफलगा। रक्खिज्जंते तहियं, अणणुन्नाए य ठायंति।।१४०।। आस्तां दत्तविचारे अनुज्ञापनमन्तरेण न तिष्ठन्ति प्रागुक्तदोषसंभवात्। किं तु-अदत्तविचारेष्वपि / माथायामेकवचनमपिशब्दलोपश्चार्ष-वात्।न दत्तो विचारप्रदेशो यत्र तान्यदत्तविचाराणि तेष्वपि, केष्वित्याह - कोष्ठिागारादिषु कोष्ठागारं धान्यस्य तृणादीनां वा आदिशब्दातचतुःशालादीनी। तथा देवकुलं गोष्ठिकादीनां वा गृहाणि, यत्र गोष्टिकादयः समवायं कुर्वन्ति तानि : दत्तविचाराणि भवन्ति अदत्तविचाराणि गृह्यन्ते, तेषु कोष्ठागारादिषु यत्र येषु तृणफलकानि रक्ष्यन्ते / तथाहिप्रतीतमेतत्कोष्ठागारादिषु मा कोऽपि किमपि हाषींरिति प्राहरिक मोचनेन तृणानि फलकानि धान्यानि च प्रयत्नेन रक्ष्यन्ते। तत्र तेष्वननुज्ञातेषु साधवो न तिष्ठन्ति। किमर्थमिति चेदत आहदोसाण रक्खणट्ठा, चोण्ह निरत्थयं ततो सुत्तं। भन्नइ कारणियं खलु, इमे यते कारणाहुति॥१४१।। दोषाणां प्रायश्चित्तप्रसङ्गतो भङ्गदिरूपाणां रक्षणार्थरक्षणाय तत्र न तिष्ठन्ति। अत्र परश्चोदयति- यद्येवं ततः सूत्रम्-'इह खलु निग्गथाण वा निग्गथीण वा नो खलु भे पाडिहारिए' इत्यादि निरर्थकमविषयत्वात, सूत्रे हि अनुज्ञापनमन्तरेणापि पूर्वमनुज्ञातमिति। सूरिराह-भण्यते-उत्तरं दीयते / इदं च खलु सूत्रं कारणिकंकारणैर्निर्वृत्तम् तानि च कारणनि इमानि-वक्ष्यमाणानि भवन्ति / तान्येवाहअद्धाणे अट्ठाहिय, ओमसिवगामाँ णुगामियवियाले। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार तेणा सावयमसगा,सीयं वा संदुरहियासं॥१४२।। अध्वनि-मार्गे गताः साधवः तत्रान्यत्र याचिता वसतिः पर न लब्धा। अथवा- अष्टाहिकां द्रष्टुमागताः। यदि वाग्लानादीना कारणेन / यदिवाअवमौदर्यमशिवं वा भविष्यतीत्यन्यदेशं प्रस्थिता विकाले प्राप्ताः / अथवा-ग्रामानुग्राम विहरन्तिा व्यति-कृष्टमन्तरमपान्तराले इति कृत्वा सार्थवशेने या निशि-विकाले प्राप्ताः, अन्या च वसति रोचते / वसतिमन्तरेण च स्तेनभय वा स्वापदभयं वा मशका वा दुरध्यासाः, शीतं वा दुरध्यासं पतति, यथा उत्तरापथे। वर्ष वा घनं निपतन तिष्ठति। तत एतः कारणैर-दृष्टऽप्यधिकृतवसतिस्वामिनि मा-यथा अन्ये पथिकाः कार्पटिाका वा तिष्ठन्ति तथैव कायिक्यादिभूमीः प्रत्युपेक्ष्य पूर्व-मवग्रह गृहीत्वा पश्चाद्वसतिस्वामिनपनुज्ञापयति। एतदेव सविशेषमाहएएहि कारणेहिं, पुव्वं पेहेतु दिट्टणुण्णाए। ताहे अयंति दिढे, इमा उ जयणा तहिं होइ॥१४३॥ एतैः-अनन्तरोदितैः कारणैः पूर्वमुच्चारादिभूमीः प्रत्युपेक्ष्य दृष्टः परिजनोऽनुजाप्यते। ततस्तस्यां वसतावायान्तिसाधवस्तत्र दृष्ट परिजने इयं वक्ष्यमाणा यतना भवति। तामेवाहपेहे उच्चारभूमादी, ठायंती वोत्तु परिजणं। अत्थाओ जाव सोएई,जाचीहामो तमागयं / / 144 / / प्रेक्ष्य-प्रत्युपेक्ष्य उच्चारभूम्यादि परिजनमुक्त्वा साधवस्तत्र तिष्ठन्तिकथमुक्त्वेत्यत आह-आस्महे तावत् यावत्स गृहस्वामी समागच्छति ततस्तमागतं याचिष्यामहे। स चागतो येन विधिना समनुज्ञापयितव्यस्तं विधिमाहवयं वण्णं च णाऊणं वयंते वग्गुवादिणो। सभंडा वेयरे सेजं, अप्हफदंती निरंतरं।।१४५।। वयो वर्णं च गृहस्वामिनो ज्ञात्वा वल्गु शोभनं वदन्तीत्ये वंशीलो वल्गुवादिनो वसतिस्वामिनं वक्ष्यमाणं वदन्ति / इतरे च सभण्डाः सोपकरणाः सन्तो निरन्तरं वसतिमास्पन्दन्ते व्याप्नुन्ति। कथं वदन्तीत्यत आहुअब्भासत्थं गंतू-ण पुच्छए दूरएत्तिमा जयणा। तद्दिसमेत्तपडिच्छण, पत्ते य कहेंति सम्भावं / / 146 / / यदि अभ्यासस्थो-निकटवर्ती भवति तदा गत्वा वसतिस्वामिनं पृच्छति / अथ दूरप्राप्तस्तत्रेयं यतना। तां दिशमागच्छतः प्रतीक्षणं कर्तव्यम प्राप्ते च तरिमन सद्भावं कथयन्ति यथा बहिः स्तेनादि-भयात् युष्माकमुपाश्रये वयं स्थिताः, तथेदं वदन्ति। विले व वसिउं नागा, (पातो) गच्छामो तज्जणा निरत्थाणं। बहि दोसा जाते मा, होजा तुज्झ वि अहोसज्जा / / 147 // विले नागाइव वयं युष्मदुपाश्रये उषित्वा प्रातर्गच्छाम एवं याचितो यदि ददाति ततः सुन्दरम् / अथ न ददाति तदाऽनुलोमेन वचसा अनुलामयितव्यः। धर्मकथा तस्य कथ्यते, निमित्तादिकं वा प्रयुज्यते। तथाप्यददति परुषमपि वक्तव्यम्। कथमित्याह-निरस्तानां निष्काशितानामस्माकं ये स्तेनकश्वापदादिभिरूपधिशरीरमरणदोषा जायेरन् मा ते तवप्युपरि पतेयुरिति। एतदेव सविस्तरमभिधित्सुराहजइ देइ सुंदरंतु, अह उवएजाहि नीति मज्झ गिहा। अन्नत्थ वसहि मग्गह, तहियं अणुसहिमादीणि॥१४८।। यदि 'विले व वसिउं नागा' इत्यादि भणनानन्तरं वसतिं ददाति ततः सुन्दरम्। अथ वदेत् मम गृहान्निर्गच्छतअन्यत्र वसतिं याचध्वमिति तदा तत्रानु शिष्टयादीनि क्रियन्ते, अनुशिष्टः-अनुशासनं क्रियते / आदिशब्दात-धर्मकथा कथ्यते इति परिग्रहः। अणुलोमणं सजाती, सजाइमेवेति तह विउ अठते। अभिओगनिमित्तं वा, बंधण गोसे य ववहारो।।१४६।। तथा अनुलोमेन वचसा अनुलोमन कर्त्तव्यम्। अथ तथापि न ददाति तर्हि सजातिः सजातिमनुकूलयतीति न्यायमङ्गीकृत्य ये तस्य स्वजना यानि च मित्राणि तैरनुनयितव्यः। तथाप्यतिष्ठति अभियोगो मन्त्रादिना कर्त्तव्यः, निमित्त वा प्रयोक्तव्यम्, बन्धनं वा सर्वरपि साधुभिस्तस्य कर्त्तव्यम्।ततः प्रभाते व्यवहारः कर्तव्यः। माणो छिबसु भाणाई,माभिंदिस्ससि णोऽजत! दुहतो वायँ वोलेंति,थेरा वारेंति संजए।।१५०।। यदि साधूनां भाण्ङ बहिर्नेतुं व्यवसितस्तदा स भण्यते / मा नःअस्माकं भाजनानि स्पृश, हे अयत? मा वा नोऽस्माकं भाजनानि भिन्धि / यदि पुनस्तं संयता निर्द्धादिवचोभिराकोशन्ति तदा स्थविरा आचार्याः संयतान वारयन्ति। आचार्या द्विधातो वाचं कुर्युः, एकं तावत् वसतिं प्रतिगृह्णीथ, द्वितीयं परूषाणि भाषध्वे / तस्मान्मा एवं भणत; यत्करोति तत् क्षमध्वमिति। अहवावेंति अम्हे ते,सहामो एस ते बली। नसहेजाऽवराहं ते,तेण होजन ते खेमं॥१५१।। अथवा इदं ब्रुवते-वयं तवापराधं सहामहे, एष पुनर्बलीयान् तवापराध न सहेत। असहिष्णुना वा तेन यत्क्रियेत तन्न ते क्षेमं भवेत्। एवमुक्तो यदि सोऽतिरोषेण न तिष्ठति, निष्काशयति, प्रहारैर्वा धावति, तदा स बलीयान् यत्करोति तद्दर्शयतिसो य रूट्ठो व उद्वित्ता, खंभं कुट्ट व कंपए। पुव्वं वा नातिमित्तेहिं, तं गमेंति पहऍ वा।।१५२॥ स बलीयान् रुष्ट इव, न तु परामार्थतो रूष्ट उत्थाय स्तम्भ वा कुड्यं वा मुष्टिप्रहारेण कम्पयति / कम्पयंश्च ब्रूते-एवं शिरः पातयिष्यामि, यदि न स्थास्यसि / एतच्च पर्यन्ते उच्यते, अन्यथा पूर्वमवज्ञातिभिर्मित्रैर्वा प्रभुणा तं गमयन्ति, तथाऽप्यतिष्ठत्यनन्तरोदितं क्रियते।व्य०८ उ०। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 160 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार संस्तारको विप्रणष्टः स्यात् तदावग्रहःइह खलु निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पडिहारिए वा सागारियसंतिए वा सेज्जासंथारए परिभट्टे सिया, से य अणुगवेसियव्वे सिया, से य अणुगवेसमाणे लभेजा / तस्सेव अणुप्पदायव्वे सिया, से अ अणुगवेसमाणे णो लभेजा। एवं से कप्पइ दोचं पि उग्गहं ओगिण्हित्ता परिहारं परिहरित्तए।॥२८|| अथास्य (सूत्रस्य) संबन्धमाहदोण्हेगयरं णटुं, गवेसिउं पुव्यसामिणो दें ति। अपमादट्ठा अहिए, हिए य सुत्तस्स आरंभो // 636|| द्वयोः-प्रातिहारिकसागारिकयोः परिशाट्यपरिशाटिनोवा संस्तारकयोरेकतरं संस्तारकं नष्ट गवेषयित्वा पूर्वस्वामिनः प्रयच्छन्ति। अतः अहृते-अनष्टेऽप्रमादार्थ, हृत्ते च गवेषणादिसामाचारीप्रदर्शनार्थमस्व सूत्रस्यारम्भः क्रियते / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (28) व्याख्या-इहास्मिन् मोनीन्द्रे प्रवचने स्थितानां खलुक्यालंकारे निर्ग्रन्थानां वा निर्ग्रन्थीनां वा प्रातिहारिको वा सागारिकसत्को वा शय्यासंस्तारको विप्रणश्येत्-विविधैः प्रकारैः प्रकर्षण रक्षमाणोऽपि नश्यते। स चानुगवेषयितव्यो विप्रणाशानन्तरं पृष्ठत एव गवेषयितव्यःस्यात्-भवेत्। स चानुगवेष्यमाणो लभ्येत्, तस्यैव -संस्तारकस्वामिनः प्रतिदातव्यः-प्रत्यर्पणीयः स्यात् / स चानुगवेष्यमाणो नो लभ्येत, तत एवं 'से' तस्य कल्पते द्वितीयमप्यवग्रहमनुज्ञाप्य एक तावत्प्रथमं यदा गृहीतस्तदाऽनुज्ञापितः, ततो विप्रनष्टः सन् गवेष्यमाणोऽपि यदा न लब्धस्तदा संस्तारकस्वामिनः कथिते सति यदसावन्यं संस्तारक ददाति,यद्वा स एव संस्तारकस्वामिना मृग्यमाणो लब्धः, ततस्तद्विषयं द्वितीयमवग्रहमनुज्ञाप्य परिहारंधारणापरिभोग-लक्षण परिहा धातूनामनेकार्थत्वात्कर्तुमिति सूत्रार्थः / अथ नियुक्तिविस्तर:संथारो नासिहिती, वसहीपालस्स मग्गणा होति। सुन्नाई उ विभासा, जहेव हेट्ठा तहेव इहं / / 637 / / शून्यायां वसती कृतायां संस्तारको नश्यतीति प्रथमतएव वसतिः शून्या कर्त्तव्या येनासो न नश्यति। अतः एवात्र वसतिपालस्य मार्गणा भवति। कथमित्याह-'सुन्नाई' इत्यादि यथैवाधरस्तात्पीटिकायां शय्ययाकल्पिकद्वारे 'सुन्ने वालगिलाणे' इत्यादिका विभाषा कृता तथैवेहापि मन्तव्या। स्थानाशून्यार्थ पुनरिदमाहपढमम्मि य चउलहुगा, सेसेसुं मासियं तु नाणत्तं / दोहे गुरु एक्केणं, चउत्थपऍ दोहि वी लहुगा ||638|| प्रथमे स्थाने वसतेः शून्यताकरणलक्षणे चतुर्लघुकाः, द्वाभ्यां तपःकालाभ्यां गुणकाः शेषेषु-बालाज्ञानाव्यक्तस्थापनलक्ष-णेषु त्रिषु लघुमासिकम्। तत्र यालस्थापने तपसा गुरूकं, ग्लानस्थापने कालेन गुरुक, चतुर्थपदे-अव्यक्तस्थापनात्मके द्राभ्यामपि-तपःकालाभ्यां 1 भीजिका-भार्या / भौगिकः-अश्वरक्षकः। लघुकम्। तत्र दोषानुपदर्शयतिमिच्छत्तबहुगवारण-भडाण मरणं तिरिक्खमणुयाणं / आएसबालनिक्के-यणे य सुन्ने भवे दोसा ||636| बलिधम्मकहाकिड्डा-पमज्जणा चरिभणायपाहुडिया। खंधारअगणि भंगे,मालवतेणाएँमाईया।।९४०१॥ गाथाद्वयं पीटिकाया सविस्तरं व्याख्यातम् / यत एते दोषा अतो वसतिः शून्या न कर्तव्या, न वा बालो ग्लानोऽव्यक्तो वा वसति-पालः स्थापनीयः। संथारविप्पणासो, एवं खु भविज्जतीति चोएति। सुत्तं होइय अफलं,अह सफलं उभयहादोसा // 41 // नोदयति-परः प्रेरयति, एवं खुः-अवधारणे सुरक्षिते क्रियमाणे संस्तारकस्य विप्रणाशो न विद्यते / तथा च 'सेज्जा संथारए विप्पणरिसज्जा' इत्यादिलक्षणे सूत्रमफलं भवति। अथ सूत्रं सफलं मन्यव्ये ततो बालादिदोषरहितो वसतिपालः स्थापनीयः इति यदुक्तं तदफल प्राप्नोति / एवमुभयथाऽपि दोषा भवन्ति। सूरिराह-यथा द्वयमपि सफलं भवति तथाऽभिधीयतेनिजंताऽणिज्जतो, आयावणणीणितोऽवहीरेखा। तेणऽगणिउदगसंभम-बोहिकभयरट्ठउट्ठाणे |942|| प्रत्यर्पणार्थ नीयमानः संस्तारको राजपुरुषैरन्तराऽपहियेत 'आणिज्जतो' ति गृहपलिग्रहादानीयमानो वा राजपुरुषैर्बलादपहियेत। आतापनमातापे संस्तारकस्य प्रदानं तदर्थं वा बहिनिष्काशितः केनापि हियेत, स्तनाग्न्युदकसंभ मेषु वा बोधिकमये वा राष्ट्रस्य देशस्व यदुत्थानम्-उद्वसीभवनं तत्र हियेत। पडिसेहेण वलद्धो, पडिलेहणमादिविरहिते गहणं / अणुसिट्ठी धम्मकहा, वल्लमो वा निमित्तेणं // 943|| प्रतिषेधो नाम संस्तारको माय॑माणस्तेन स्वामिना नाहं प्रयच्छामीति भवेत् प्रतिषिद्धस्ततः सकेनचित् भद्रकेणानुशिष्टः-किन प्रयच्छसीति? स प्राह-विप्रणाशभयात् / इतरो ब्रवीति-नामीषां हस्ताद्विप्रणति, एवंविधन प्रतिषेधेन वा लब्धः स प्रयत्नेन रक्ष्यमाणोऽपि प्रत्युपेक्षणानिमित्त बहिनतिः, साधुश्च विस्मृतरजोहरणार्थ मध्ये प्रविष्टः / स चोत्कृ टोऽयमिति कृत्वा विरहितं मत्वा केनापि गृहीतः / आदिग्रहणादुपाश्रयस्यान्तः राजवल्लभेन दृष्ट्वा बलमोटिकाया ग्रहणं कृतम् / एवं विप्रनष्टे सति येन हृतस्तस्य पाश्चन्मिार्गयितव्यः / अथ मार्गितोऽपि न ददाति ततोऽनुशिष्टिः क्रियते / तथाप्यप्रयच्छति धर्मकथा कर्त्तव्या। एवमप्यददाने यो द्रमकस्तस्य तापने क्रियते / यस्तु राजवल्लभः स निमित्तेनावर्तनीयः। कथं पुनरनुशिष्टिः क्रियते इत्युच्यतेदिन्नो भवविहेणे-व एस णारिहसि णे ण दाउं जो। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार अन्नो वि ताव देयो, देज / णमजाणताऽऽणीयं / / 644 // | य एष भवता संस्तारको गृहीतः स भवद्विधेनैव शिष्टपुरुषेण दत्तस्ततो 'णे' -अस्माकंन नार्हसि दातुम, अतोऽपि तावद्भयता संस्तारको देयः किं पुनर्योऽन्यदनः / ततः अजानता जानता वा आनीतमतोऽस्माकं प्रयच्छ। एवम् अनुशिष्टो यदि न प्रयच्छति ततोऽयं विधिःमंतनिमित्तं पुणरा-यवल्लभेदमगभेसणमदेंते। धम्मकहा पुण दोसु वि, जति अवराहो दुहा वाहिओ!|६४५।। राजवल्लभे अददति,मन्त्रो निमित्तं वा प्रयोक्तव्यम्। द्रमकस्य तु भेषणं कर्त्तव्यम / धर्मकथा पुनर्द्वयोरपि द्रमकराजवल्लमयोः प्रयुज्यते, यथा यतयः- साधवर-तेषामुपकरणापहाराद्यपराधो हि इह लोके परलोके वाहितो भवति। - इदमेव व्यनक्तिअन्नं पिताव तेन्नं, इहपरलोके य पारिणामऽहियं / परतो जायितलद्धं,किं पुण मन्नुपहरणेसुं॥६४६|| अन्यदपि प्राकृतजनविषयमपि यत्स्तैन्यं तत्तावदिह परलोके वा परिणामेऽहितं भवति / किं पुनः परतो याचितं यल्लब्धं तदपि ह्रियमाणं मन्युप्रहरणेषु साधुषु / मन्यु:-क्रोधस्तत्प्रहरणास्तदायुधा एव ऋषयः / ततस्तेषां हियमाणमिहपरलोकयोः सुतरामहितं भवति। एवमप्युक्तो यदि न दद्यात् ततःखंते व भूणए वा, भोइगजामातुगे असइ साहे। सिट्ठम्मियजं कुणइ, सो मग्गणदाणववहारो॥६४७|| 'खंते' त्ति-पिता तेन गृहीते पुत्रस्य निवेद्यते, भूणकः-पुत्र स्तेन गृहीते पिता प्रज्ञाप्यत / यद्वा-या तस्य भोजिकाभार्या, यो वा जामाता ताभ्यामसौ भागयितव्यः / 'असइसाहे' त्ति सर्वथाऽपि यदि न ददाति तदा महत्तरादीनां निवेद्यते / तस्य शिष्ट कथिते यदसौ महत्तरादिः करोति तत्प्रमाणम् / एवं प्रनष्टस्य संस्तारकस्य मार्गणा, एवमप्यलभ्यमाने प्रान्तस्य संस्तारकस्वामिनो 'दाणं निवेदनं दीयते, व्यवहारो वा करण प्रविश्य कर्त्तव्य इति संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिभूणगगहिते खंत, भणाइ खंतगहिते य से पुत्तं। असति त्ति नदेमाणे, कुणति दवावेति बलवाओ ||948|| भूणकेन गृहीत खन्तं-पितरं भणति-प्रज्ञापयति। खन्तेन तु गृहीते 'से' तस्य पुत्र भणति। उपलक्षणमिदं तेन भोजिकादीनपि भाणयति 'असई' त्ति एतद्ग्रहणपदं व्याचष्टे 'न देमाणे' त्ति एवमप्यददाने भोगिकादेः निवेद्यते / ततो यदसौ बन्धनरोधनादि करोति दापयति वा तत्प्रमाणम्। भोइय व उत्तरोत्तर, नेयव्वं जावऽपच्छिमो राया। दाणं विसद्धणं वा, दिट्ठमदिटे इमं होइ॥९४६|| प्रथमं भोगिकस्य निवेद्यते, यद्यसौ न दापयति ततो यस्तत्र देशारक्षिकः स ज्ञाप्यते। एवमुत्तरोत्तरं तावन्नेतव्यं यावदपश्चिमो राजा। ततो 'दाणं' ति भोगिकादयश्चौरसकाशाद् गृहीत्वा साधूनां संस्तारकं दधुः। / ‘विसज्जणं व' ति यद्वा ते भोगिकादयो भणेयुः गच्छत यूयं वयं संस्तारक सस्तारकस्वामिनं समर्पयिष्यामः, इति एष विधिदृष्ट संस्तारके मन्तव्यः / अदृष्ट इदं वक्ष्यमाणं भवति। अथैनामेव गाथा व्याचष्टेखंताइसिट्टे दिंते, महत्तरकिचकरभोइए वाऽदि। देसारक्खियमचे, करणे निवेमा गुरूदंडो॥९५०।। 'खत' त्ति-पितरि तदानीमनन्तरोक्तनीत्या शिष्ट-कथितेऽप्यददाने महत्तरस्य-ग्रामप्रधानपुरुषस्य कथयन्ति। कृत्यकरो-ग्रामकृत्ये नियुक्तो भोगिको ग्रामस्वामी तयोर्वा कथयन्ति / देशारक्षिकोमहाबलाधिकृतः अमात्यो-राजमन्त्री तयोर्वा यथाक्रम निवेद्यते / तथाप्यददाने करणेऽपि निवेदयन्ति। नृपस्य तु न निवेद्यते, मा गुरुगरीयान् सर्वस्वहारणादिको दण्डो भवेदिति कृत्वा / एए उदवावेंती,अहव भणेज्जा स कस्सदायव्यो। अमुकस्स त्तिय भणिए,वह तस्सप्पणिस्सामो।।९५१|| एते भोगिकादयो यदि दापयन्ति ततो लष्टम् / अथवा-ते भणेयुः-स संस्तारकः कस्यदातव्य इति। ततः साधुभिरमुकस्येति भणिते ते ब्रुवतेव्रजत यूयं, वयमेव तस्याप्पयिष्याम इति। जति सिं कन्जसमत्ती, वयंति इहरा उधेत्तु संथारं दिढे णाते चेवं, अदिट्ठणाए इमा जयणा।।९५२|| यदि 'सिं' तेषा साधूना तेन संस्तारकेण कार्यसमाप्तिः संजाता मासकल्पश्च पूर्णस्ततो भोगिकादिभिर्विसर्जिता व्रजन्ति, इतरथासंस्तारककार्ये असमाप्ते, अपूर्ण मासकल्पे तं वा अन्यं वा संस्तारकं गृहीत्वा परिभुञ्जते / एवं दृष्ट संस्तारके ज्ञाते वा स्तेने विधिरुक्तः / अदृष्ट अज्ञाते चैवं यतना भवतिविजादीहिगवेसण, अदिट्टे भोइयस्स वा कहिंति। जो भद्दओगवेसति, पंते अणुसिट्ठिमाईणि||६५३|| विद्यादिभिः संस्तारकस्य गवेषणा कर्त्तव्या / अथ न सन्ति विद्यादयस्ततोऽदृष्टऽज्ञाते स्तेने भोगिकस्य कथयन्ति / ततो यो भद्रको भवति स स्वयमेव गवेषयति, यस्तु प्रान्तः स स्वयं न गवेष्यति ततस्तत्रानुशिष्ट्यादीनि पदानि प्रयोक्तव्यानि। एषा पुरातनगाथा। अत एना व्याख्यानयतिआभोगिणिए पसिणे-ण देवयाए निमित्ततो वाऽवि। एवं नाए जयणा, सा चिय खंतादिजा राया।।९५४|| आभोगिनी नाम विद्या सा भण्यते, या परिजापिता सती मानस परिच्छेदमुत्पादयति। सा यद्यस्ति ततस्तया येन संस्तारको गृहीतः स आभोग्यते। एवं प्रश्नेनाङ गुष्ठस्वप्रप्रश्नादिना देवतया वा क्षपक-प्रष्टव्येन निमित्तन वा अविसंवादिना तं स्तेनं जानन्ति / एवं ज्ञाते सति सैव यतना कर्तव्या, या खन्तादिगृहीते संस्तारके भणिता। एतेषामभावे विधिमाहयावदपश्चिमा राजा। विजादसई भोइय, विकहण केण गहिओ नजाणीमो। दीहो हु रायहत्थो, भद्दो आमंतिमग्गयते॥६५५।। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार विद्यादीनामभावे न ज्ञायते केनापि गृहीत इति, ततो भोगिकादीना कथयन्ति / संस्तारकोऽस्माकं नष्टो वर्तते, यूयं त गवेषयत / भोगिकः प्राह-केन गृहीतः, साधवो बुवते-न जानीमो वयम् / भोगिकः प्राह- | अज्ञायमानं कथं गवेषयामि / साधुभिर्वक्तव्यं दी? हि राजहस्तो भवति, तेन हि गवेष्यमाणः सुखेनैव स्तेनः प्राप्यते। ततो यो भद्रको भवति स आमं सत्यमिदमिति भणित्वा मार्गयति। प्रान्तः पुनरिदमाहजाणह जेणं हडो सो, कत्थति मग्गामिणं अजाणतो। इति पते अणुसिट्ठी, धम्मनिमित्ताइ तह चेव / / 956 / / यः प्रान्तः रन ब्रूयात्-जानीत यूय येनासौ संस्तारको हतः। अज्ञातेन तु कुत्राहं मार्गयामि / अज्ञकवदन्धवद्वा इति प्रान्ते ब्रुवाणे अनुशिष्टिधर्मकथानिमित्तादि तथैव प्रयोक्तव्यम्। असतीय भेसणं वा, भीया वा भोइयस्स व भएणं। साहिति दारमूले, पडिगीए इमेसु विछुभेजा / / 957|| अथ नास्ति तत्र भोगिकः, अस्ति वा परं न दापयति, तदा साधवो / भेषणं कुर्वन्ति / ततो भीता वा भोगिकस्य वा भयेन द्वारमूले संहरन्ति, संस्तारकं स्थापयन्तीत्यर्थः / यस्तु प्रत्यनीकः स एतेष्वपि पृथिव्यादिषु कायेषु प्रक्षिपेत् / यद्यस्माकं न जातस्तत एतेषामपि मा भूदिति कृत्वा। एष पुरातनगाथासमासार्थः। अथैनामेव व्याख्यातिभोइयमादीण सती, अहवा ते वि बिंतिजणपुरओ। मुण्हीहामो सकज्जे, किह लोगमयाइजाणंता।६५८।। भोगिकादीनामभावे तेषु वा संस्तारकमदापयत्सु साधवो बहुजनस्य पुरतो ब्रुवते। वयं लोकमभिजानन्तः स्वकार्ये कथं मुह्यामहे, यदि लोकस्य नष्ट विनष्टं विस्मृतं वा जानीमस्ततः कथमात्मीयं न ज्ञास्याम इति भावः / अतो यद्यस्माकं संस्तारकं नार्पयथ ततो वयं जनपुरतस्तं हस्ते गृहीत्वा दापयिष्यामः। अथ यूयं न प्रतीच्छथ ततःपेहुण तंदुलपव्वय-भीया साहति भोइगस्सेते। साहित्थि साहरंति व, दोण्ह विमा होउ पडिणीए / / 656| | तन्दुला द्विधा क्रियन्ते-एके 'पेहुणमिश्रिताः,' अपरे केवलाः एवा पेहुणं नाम-मयूराङ्ग पिच्छंतत एकः साधुःसाधूनां मध्यादपस-रति, गृहस्थांश्च भणति / युष्माकं मध्यादेकः किमुप्युपकरणं गृह्णातु ततो गृहीते सति स साधुरागत्य भणति युक्त्या सर्वेऽपि तिष्ठन्तु, स्थितेषु च स नैमित्तिकसाधुरुदकं तेषामञ्जलौ ददाति। येन च साधुना तत् गृह्यमाण दृष्ट स तन्दुलान् प्रयच्छन् येन गृहीतं तत्र पेहुणमिश्रितान् ददाति / ततो नैमित्तिकसाधुस्तानि पेहुणानि दृष्ट्वा भणति, अनेन गृहीतमिति / एवं प्रत्यये उत्पन्ने भीतश्चिन्तयति नूनमेते एवं ज्ञात्वा भोगिकस्य कथयिष्यन्ति / एवं विचिन्त्य स्वह-स्तेन प्रतिश्रयद्वारमूले संस्तारकं स्थापयन्ति। प्रत्यनीकता वा द्वयोरपि वर्गयोरस्माकममीषां च मा भूदिति बुद्ध्या एतेषु संहरन्ति। पुढवी आउक्काए, अगणिवणस्सइतसेसु साहरइ। चित्तूण यदायव्यो, अदिट्टे दिटे य दोचं पि॥९६०॥ कश्चित्प्रत्यनीकः साधुसामाचारीकोविदः सचित्तपृथिव्यष्कायवनस्पतित्रसेषु प्रक्षिप्ते न ग्रहीष्यतीति बुद्ध्या तेषु आगाढे वा गर्तयां प्रक्षिपति। यद्यप्येतेषु प्रक्षिप्तस्तथापि ततो गृहीत्वा संस्तारक-स्वामिनो दातव्यः / अथ प्रयत्नेन गवेषितोऽपि न कुत्राति दृष्टः / यद्वा-स प्रत्यनीकतया न ददाति ततो 'दोचं पि' त्ति द्वितीयमपि वारमवग्रहमनुज्ञापयेत् / परः प्राह-यथाऽहं भणामि तथा द्वितीया-वग्रहः अनुज्ञापनीयः / कथमिति चेदुच्यते-स संस्तारकस्वामी न ज्ञाप्यते , यया नष्टः संस्तारकः, किं तुगत्वा भणितव्यं देहि तं संस्तारकमिदानीमेष द्वितीयोऽवग्रह उच्यते। गुरुराहदिट्ठत पडिहणित्ता, जयणाए भद्दतो विसजेति। मगते यतणाए, उवहिग्गहणे ततो वाओ॥६६१|| दृष्टान्तो नाम-नोदकेन स्वमत्या योऽभिप्रायो दृष्टः, तं प्रतिहत्य निक्षेप्य संस्तारकस्वामिनो यतनया सद्भावः कथनीयः / कथिते च भद्रको विसर्जयति गच्छत नाह किंचिदपि भणामि / यः प्रान्तः स संस्तारकं मार्ग यति, तत्रानुशिष्टिःकर्त्तव्या / अथ नेच्छति तदा यतनया प्रान्तोपधितिव्यः। अथ बलादेव सारोपधिग्रहणं करोति ततो राजकुले विवादः कार्यः। अमुमेवार्थ व्याख्यातिपरवयणाऽऽउद्देउं, संथारं देहि तं तु गुरु एवं / आणेह भणति पंतो, तेणं दाणं न वादाहं / / 962 / / परः प्रेरक स्तस्य वचनमत्र भवति 'आउट्टे उं' ति धर्मकथया संस्तारकस्वामी आवर्त्य याच्यते। तसंस्तारकं नियाज प्रयच्छ। गुरुराहएवं मायया याचमानस्य चतुर्गुरुकम्। भद्रकप्रान्तकृताश्व दोषा भवन्ति। प्रान्तो भणति आनयत संस्तारकं ततो दास्यामि वा न वा। किंचदिजंतो विन गहिओ किं सुहसेओ इयाणि संजाओ। हियनट्ठो वा नूणं, अथक्कजायाएँथवयामो॥९६३।। दीयमानोऽपि तदानीं यो न गृहीतः किमसौ संस्तारक इदानीं सुखशय्यः संजातः / अनया अथक्याञ्चया अकालप्रार्थनया स्तवयामःस्तव कुर्मः / स नूनं हृतो वा नष्टो वा। भद्दो पुण अग्गहणं, जाणंतो वा वि विपरिणामेज्जा। किं फुडमेवं सीसइ, इमो हु अन्ने वि संथारा / / 964|| यः पुनर्भद्रकः साधुषु अग्रहणमनादरं कुर्यात्, यो वा जानाति संस्तारको हुतो -नष्टो वेति स सम्यग्दर्शनप्रव्रज्याद्यभिमुखो विपरिणमेत् अहो मायाविनोऽमी। विपरिणतो ब्रूयात्- किं स्फुट-मेवास्माकं न शिष्यतेन कथ्यते यथा संस्तारको नष्टः, किमेव मायया याच्यते ? इमो हुरिति प्रत्यक्षमुपलभ्यमाना अन्येऽपि संस्तारकाः सन्ति / इह चोयगदिटुंतं, पडिहाँ सिस्सते य सब्भावो। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार भद्दो सो मम नट्ठो, मग्गामि न तो पुणो दाहं / / 665 / / इतिःपुरः प्रदर्शने, एवं भद्रकप्रान्तदोषोपदर्शनेन नोदकदृष्टान्त पराभिप्राय प्रतिहन्य तत्त्वमुच्यते / तस्यसंस्तारकस्वामिनः सद्भावः शिष्यते-निवेद्यते। निवेदितेच भद्रको भणति-स संस्तारको मम नष्टोन युष्माकम्, अद्य प्रभृति नाहं मार्गयामि लब्धं तु तं पुनरपि युष्मभ्यं दास्यामि। तुज्झे वि ताव मग्गह,अहं पिझूसेमि मग्गह व अण्णं। नटे वितुम्भ णट्ठा, वदंति पंतेऽणुसिट्ठादी।।६६६|| यूयमपि तावत्त संस्तारकं मार्गयत, अहमपितं'झुसेमि' त्ति-गवेषयामि। अथयुष्माकं चरित-संस्तारकेण प्रयोजनंतदा यावदसौ लभ्यते तावदन्यं मार्गयत्। यस्तु प्रान्तः स सद्भावे कथिते भणति-नष्टऽपि संस्तारके यूयं मम नष्टाः, यतो जानीथ ततः संस्तारकं मार्गयत। इयं यतनामोल्लं णत्थिऽहिरण्णा, उवधिं मे देहपंतदायणया। अन्नं वदंतिफलगं,जयणाएमग्गिउंतस्स॥९६७|| अहिरण्या वयं नास्ति मूल्यम् / स ब्रूयात-उपधिं प्रयच्छ। ततो येन साधुना स संस्तारक आनीतः तस्य सत्कमन्तप्रान्तमुपकरणं दर्शनीयम्। अन्य वा फलकं यतनया मार्गयित्वा ददाति। तत्र प्रथमतः शुद्धम्। तदभावे पञ्चकपरिहाण्या राजकुले वा गत्वा व्यवहारः क्रियते। दत्त्वा दातुमनीश्वर इति एतेन 'अग्गहदाणं व ववहारों'त्ति पदं व्याख्यातम्। सव्वे वितत्थरुंमति, भद्दो मुल्लेण जाव अवरण्हे। एगठवेउगमणं,सो वियजा अट्ठमं काउं।।६६८|| कोऽपि राजवल्लभादिः सर्वानपि साधून् तत्र निरुणद्धि, ततो यदि कश्चिद्यथाभद्रको मूल्येन मोचयति स न प्रतिषेद्धव्यः / अथ प्रतिषेध कुर्वन्ति तदा चतुर्गुरु। अथ नास्ति मोचयिता ततोऽपराह्ने यावत् सर्वेऽपि सबालवृद्धास्तिष्ठन्ति, यदि न मुञ्चति तत एक क्षपकादिकं स्थापयित्वा शेषाः सर्वेऽपि गच्छन्ति / सोऽपीदृशः स्थाप्यते योऽष्टमं कर्तु समर्थो भवति / असमर्थस्थापने चतुर्गुरु। ततोऽसावष्टमं कृत्वा पलायते। लद्धे तीरियकजा, तस्सेवऽप्पंति अहव भुंजंति। पमु लद्धेवऽसमत्तं, दोचोग्गहो तस्स मूलाउ ||6|| लब्धे संस्तारके यदि तीरितकार्याः समाप्तप्रयोजनास्ततस्तस्यैव संस्तारकस्वामिनोऽप्यन्ति / अथ कार्यमसमाप्त ततो भुञ्जते / अथ पभुणा-संस्तारकस्वामिना साधूनां च कार्यमद्याप्यसमाप्तं ततस्तस्य मूलाधद्वितीयं वास चावग्रहोऽनुज्ञाप्यते एष सूत्रोक्तो द्वितीयोऽवग्रहः। अथ द्वितीयपदमाहवितियं पभुनिव्विसए, णठुलियसुण्णमयमणप्पज्झे। असहू य रायदुटे, वोहिकभयमद्धसीसे वा / / 670|| द्वितीयपदमत्र भवति-संस्तारकेण कार्य समाप्तम्, योऽपि संस्तारकस्य | प्रभुः स राज्ञा निर्विषय आज्ञतः, देशभड़े वा नष्टः, दुर्भिक्ष वा उत्थितउदसितः, 'सुन्ने' त्ति सपुत्रदारः कुत्राप्यामन्त्रितः सन् गतो गृह शून्यं संजातम्, मृतो वा कालगतः / एतानि गृहस्थ-कारणानि। अमूनि तु संयतकारणानि / स साधुरसहिष्णुर्न शक्रोति गवेषयितुम,राजद्विष्ट वोधिकभये वा अध्वशीर्षके वा सार्थवशतः एतैः कारणैर्विप्रनष्ट शय्यासंस्तारकं न गवेषयेत्, न च प्रायश्चित्तमाप्नुयात्। बृ० 3 उ० / विप्रनष्ट शय्यासंस्तारकं गवेषयेत्जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा पाडिहारियसंतियं वा सेज्जासंथारयं विप्पणतुण गवेसइन गवसंतंवा साइज्जइ॥५७|| जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियसंतियं वा सेजासंथारयं विप्पणटुंण गवेसइण गवसंतं वा सातिजइ॥५८।। वि इति विधीए प इति प्रकारेण पक्खिज्जमाणो णट्टो विप्पणट्ठो शेष पूर्ववत् / नि०यू० 2 उ० (यस्मिन् दिवसे निर्ग्रन्थाः शय्यासंस्तारक विप्रजहतितत्रापरे आगच्छेयुः, तत्रावग्रहः 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे७१५ पृष्ठे उक्तः।) (रात्रावपि संस्तारको ग्राह्य इति 'राइभोयण' शब्दे षष्ठभागे उक्तम्।) साम्प्रतं वसतौ वसतां विधिमधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम दूइज्जमाणे वा पुव्वामेव पण्णस्स उच्चारपासवणभूमि पडिलेहिज्जा, केवली बूया-आयाणमेयं अपडिलेहियाए उच्चारपासवणभूमीए / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा राओ वा वियाले वा उच्चारपासवणं परिट्ठवेमाणे पयलेज वा पवडेज वा से तत्थ पयलमाणे वा पयडमाणे वा हत्थं वा पायं वा०जाव लूसिज्ज या पाणाणि वा ४०जाव ववरोविज्जा। अह मिक्खू णं पुष्वोवदिट्ठा जं पुव्यामेव पण्णस्स उचारपासवणभूमि पडिलेहिज्जा। (सू० 106) 'से' इत्यादि सुगम नवरं साधूनां सामाचार्येषा, यदुत विकाले प्रस्रवणादिभूमयः प्रत्युपेक्षणीया इति। साम्प्रतं संस्तारकभूमिमधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकंखेज्जा सेज्जासंथारगभूमि पडिले हित्तए णण्णत्थ आयरिएण वा उवज्झाएण वा०जाव गणावच्छेएण वा बालेण वावुद्वेण वासेहेण वा गिलाणेणवा आएसेण वा अंतेण वा मज्झेण वा समेण वा विसमेण वा पवा-एणवा णिवाएण वा तओ संजयामेव पडिलेहिय 2 पमञ्जिय 2 तओ संजयामेव बहुफासुयं सेज्जासंथारगं संथरेजा। (सू०१०७) स भिक्षुराचार्योपाध्यायादिभिः स्वीकृतां भूमि मुक्त्वाऽन्यां स्वसंस्सरणाय प्रत्युपेक्षेत, शेष सुगमम् / नवरमादेशः-प्राघूर्णक इति, तथाऽन्तेन वेत्यादीनां पदानां तृतीया सप्तम्यर्थ इति। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथार इदानीं शयनविधिमधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुयं सेज्जासंथारगं संथरित्ता अभिकंखेज्जा बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरूहित्तए, से भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुए सेज्जासंथारए दुरूहमाणे पुटवामेव ससीसोयरियं कायं पाए य पमञ्जिय पमञ्जिय ततो संजयामेव बहुफासुए सेज्जासंथारगे दुरूहेजा, दुरूहित्ता तओ संजयामेव बहुफासुए सेजासंथारएसएज्जा। (सू०-१०८) 'से इत्यादि' स्पष्टम्। इदानीं सुप्तविधिमधिकृत्याहसे भिक्खू वा भिक्खुणी वा बहुफासुए सेज्जासंथारए सयमाणे णो अण्णमण्णस्स हत्थेणं हत्थं पाएण पायंकाएण कायं आसाएज्जा, से | अणासायमाणे तओसंजयामेव बहुफासुए संथारएसएजा।से भिक्खू वा भिक्खुणीवा उस्समाणे वाणीससमाणेवा कासमाणे वा छीयमाणे वाजंभायमाणे वा उड्डोएवा वातणिसग्गंवा करेमाणे पुव्वामेव आसयं वापोसयं वा पाणिणापरिपेहित्ता तओ संजयामेव ऊससेजवा०जाव वायणिसगंवा करेजा। (सू० 106) 'से' इत्यादि निगदसिद्धम् / इयमत्र भावना-स्वपदिर्हस्तमात्रव्यवहितसंस्तारकैः स्वप्तव्यमिति / एवं सुप्तस्य निःश्वसितादिविधिसूत्रमुत्तानार्थ, नवरम् 'आसयं व' त्ति-आस्यं 'पोसयं वा' इत्यधिछानमिति। आचा०२ श्रु० 1 चू० 2 अ०३ उ०। तत्रच लब्धायां वसतौ को विधिरित्यत आहकोट्ठगसभाय पुट्विं, कालवियाराइभूमिपडिलेहा। पच्छा अइंति रत्तिं, पत्ता वा ते भवे रत्ति॥२००। कोष्ठकः-आवासविशेषः सभा-प्रतीता कोष्ठकसभा वसतौ लब्धायां प्रागेव 'काले ति-कालभूमिं प्रत्युपेक्षन्ते, यत्र कालो गृह्यते / तथा 'वियारभूमिपडिलेहा' विचारभूमिः-संज्ञाकायिकाभूमिस्तस्याश्च प्रत्युपेक्षणा क्रियते।तत एवं प्रत्युपेक्षितायां विकाले वसतौ 'पच्छा अतिति रत्ति' तिपश्चाच्छेषाः साधवो रात्रौ प्रविशन्ति / 'पत्ता वा ते भवे रत्ति' त्तियदा पुनस्त आगच्छन्त एव कथमपि रात्रावेव प्राप्तास्तदा रात्रावपि प्रविशन्ति। तत्रच प्रविशतामगुम्मियभेसण समणा, णिब्भय बहिठाण वसहिपडिलेहा। सुन्नघरपुव्वभणियं, कंचुग तह दारुदंडेणं // 201 / / गुल्मिकाः-स्थानकरक्षपालाः भेसणं' ति यदि ते कथञ्चित् त्रासयन्ति ततश्चेदं वक्तव्यं-यदुत श्रमणा वयं न चौराः। 'निब्भय' त्ति-अथ नुस सन्निवेशो निर्भय एव भवेत्तदा 'बहिट्ठाणं' ति बहिरेव गच्छस्तावत्तिष्ठति, वृषभास्तु वसतिप्रत्युपेक्षणार्थं व्रजन्ते। किंविशिष्टाऽसौ वसतिरन्विष्यते? शून्यगृहादि पूर्वोक्तम्, 'कंचुग' तह दारुदंडेणं ति-दण्डकपुञ्छनं तद्धि कञ्चुक परिधाय सर्पपतनभयाद्दण्डनपुञ्छनकेन वसतिमुपरिष्टात्प्रस्फोटयन्ति, गच्छश्च प्रविशति। ततः को विधिः स्वापे? संथारगभूमितिगं, आयरियाणं तु सेसगाणेगा। रुंदाएँ पुप्फइन्ना, मंडलिआ आवली इयरे।।२०२।। संस्तारकभूमित्रयमाचार्याणां निरूप्यते, एका निवाता संस्तारकभूमिरन्या प्रवाता अन्या निवातप्रवाता / 'सेसगाणेग' नि शेषाणां साधूनामेकेका संस्तारकभूमिर्दीयते / 'रुंदाए' ति यद्यसो वसतिविस्तीर्णा भवति ततः पुष्पावर्कीर्णाः स्वपन्ति-पुष्पप्रकरवदयथायथं स्वपन्ति,येन सागारिकावकाशो न भवति / 'मंडलिय' ति-अथासौ वसतिः क्षुल्लिका भवति ततो मध्ये पात्रकाणि कृत्वा मण्डन्याः पार्वे स्वपन्ति। 'आवलिय' त्ति-प्रमाणयुक्तायां वसतौ 'आवल्या' पड् क्त्या स्वपन्ति 'इयरे' त्ति-क्षुल्लिकाप्रमाणयुक्त-योर्वसत्योरयं विधिः / संथारग्गहणाए, बेंटिअउक्खेवणं तु कायव्वं। संथारो घेत्तव्यो, मायामयविप्पमुक्केणं // 203|| संस्तारकग्रहणाय संस्तारकभूमिग्रहणकाले, एतदुक्तं भवतियदा स्थविरादिः संस्तारकभूमिविभजन करोति तदा साधुभिःकिं कर्तव्यमत आह- 'वेटिअउक्खेवणं तु कायव्वं' वेण्टिया-उपधिवेण्टलिकास्तासा सर्वरेव साधुभिरात्मीयात्मीयानामुत्क्षेपणं कर्त्तव्यं येन सुखेनैव दृष्टाया भुवि विभजितुं संस्तारकाः शक्यन्ते। स च संस्तारको यो यस्मै साधवे दीयते स कथं तेन ग्राह्य इत्याह- मायामदविप्रमुक्तेन तेन न माया कर्तव्या, यदुताह वातार्थी ममेह प्रयच्छ, नापि मदः-अहङ्कारः कार्या, यदुताहम-स्यापि पूज्यो येन मम शोभना सस्तारकभूर्दत्तेति। "जइ रत्ति आगया ताहे कालं न गेण्हति, निज्जुत्तीओ संगहणीओ य सणिअंगुणेहि, मा वेसित्थदुगुछिआदओदोसा होहिंति। कायिका मत्तएसु छकुंति उच्चार पि जयणाए। जइ पुण कालभूमी पडिलेहिया ताहे काल गिण्हति, यदि सुद्धो करेंति सज्झाय, अह न सुद्धो न पडिलेहिआ वा नसही ताहे निज्जुत्तीओ गुणेति / पढमपोरिसिं काऊणं बहुपडिपुण्णाए पोरिसीए गुरुसगास गंतूण भणतिइच्छामि खमासमणो वंदिउ०जाब णिझाए निसीहिआए मत्थएण धंदामि, खमासमणा ! बहुपडिपुण्णा पोरिसी, अणुजाणह राईसंथारयं, ताहे पढम काइआभूमि वच्चंति। ताहे जत्थ संथारगभूमी तत्थ वचंति / ताहे उवहिम्मि उवओगं करेंता पमज्जता उवहीए दोरयं उच्छोडेति। ताहे संथारगपट्टअं उत्तरपट्टयं च पडिलेहित्ता दो वि एगत्थ लाएता ऊरुम्मि ठवेति / ताहे संथारमभूमि पडिलेहंति, ताहे संथारयं अच्छुरतिसउत्तरपट्ट। तत्थय लग्गा मुहपोत्तिआए उवरित्र कार्य पमज्जात, हेछिल्लं रयहरणेणं / कप्पेय वामपासे ठवेंति, पुणो संथारए चढंतो भणइ-जेडजाईणं पुरतो चिटुंताणं अणुजाणेज्जह। पुणो सामाइअं तिण्णि वारे कट्टिऊणं सोवइ / एस ताव कमो। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथार 195 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संथारपोरसी इदानीं गाथा व्याख्यायते अन्यः कायिकां व्युत्सृजति, अन्यस्तत्समीपे रक्षपालस्तिष्ठति। 'जति पोरिसि आपुच्छणया, सामाइय उभय कायपडिलेहा। य चिर' ति-यदि च चिरं तस्य व्युत्सृजतो जातं ततो योऽसौ द्वारे साहणिअदुवे पट्टे, पमज्जभूमिंजओ पाए।।२०४।। व्यवस्थितः साधुः सोऽन्यं द्वारे स्थापयित्वा साधुं पुनश्चासौ व्युत्सृजन्तं पौरुष्यां नियुक्तीर्गुणयित्वा 'आपुच्छण' त्ति-आचार्यसमीपे 'पडिअरति' त्ति प्रतिजागर्ति / / मुखवस्त्रिका प्रतिलेखयित्वा भणति 'बहुपडिपुण्णा पोरिसी' संदिशत आगम्म पडिक्कतो, अणुपेहे जाव चोद्दस विपुव्ये। सस्तारके तिष्ठामीति / 'सामाइयं' तिसामायिकं वारत्रयमाकृष्य परिहाणि जा तिगाहा,निद्दपमाओ जढो एवं / / 208|| स्वपिति / 'उभय ति-संज्ञाकायिकोपयोग कृत्वा' 'कायपडिलेह' त्ति- सोऽपि साधुः कायिका व्युत्सृज्य आगत्य वसतौ 'पडिक्कतो' त्तिसकलं कायं प्रमृज्य ‘साहणिअ दुवे पट्टे' त्ति-साहणिय-एकत्र लाएत्ता ईर्यापथिको प्रतिक्रान्तः सन् 'अणुपेहे ' अनुगुणनं करोति। कियद् दूर दुवे पट्टे-उत्तरपट्टी संथारपट्टो अ, तत ऊर्वोः स्थापयति। 'पमञ्जभूमि यावदत आह- 'जाव चोद्दस वि पुवे' यावचतुर्दश पूर्वाणि समाप्तानि / जओ पाओ' ति-पादौ यतस्तेन भूमि प्रमृज्य ततः सोत्तरपट्ट संस्तारकं यश्च साधुः सूक्ष्मानप्राणलब्धिसंपन्नः अथैवं न शक्रोति ततः 'परिहाणि नुश्चति। अस्माश्च सामाचा-र्यनुक्रमेण गाथायां संबन्धो न कृतः, किन्तु जा तिगाहा' परिहाण्या गुणयति स्तोकं स्तोकतरमिति यावद्गाथात्रयं स्वबुद्ध्या यथाक्रमेण व्याख्येया। जघन्येन यद्वा तद्वा परिगुणयति शैक्षोऽपि। एवं च कृते विधौ निद्राप्रमादो एवमसौ संस्तारकमारोहन् किं भणतीत्याह 'जढो' परित्यक्तो भवति। अणुजाणह संथारं, बाहुवहाणेण वामपासेणं। अतरंतो व निवज्जे, असंथरंतो अपाउणे एकं / कुक्कुडिपायपसारण ,अतरंत पमज्जए भूमिं॥२०५।। गद्दभदिट्ठतेणं, दो तिण्णि बहूजह समाही।।२०६॥ अनुजानीध्वं संस्तारकम्, पुनश्च बाहूपधानेन वामपाइँन स्वपिति। अथासौ गाथात्रयमपि गुणयितुं न शक्रोति ततः 'णिवज्जे' त्ति-ततः 'कुक्कुडिपायपसारण' ति-यथा कुक्कुटी पादावाकाशे प्रथम प्रसारयती स्वपित्येवेति / 'असंथरंतो अ'त्ति-उत्सर्गतस्तावत्प्रावरणरहितः एवं साधुनाऽप्याकाशे पादौ प्रथममशक्नुवता प्रसारणीयौ / 'अतरंतो' स्वपिति / अथ न शक्रोति यापयितुमात्मानं ततोऽसं-स्तरमाणः त्ति-यदा आकाशव्यवस्थिताभ्यां पादाभ्यां न शक्नोति स्थातुं तदा प्रावृणोति / एक कल्पं द्वौ त्रीन वा। तथाऽपि यदि शीतेन बाध्यते तदा 'पभजए भूमि' ति-भुवं प्रमृज्य पादौ स्थापयति। बाह्यतोऽप्रावृतः कायोत्सर्ग करोति / ततश्च शीतव्याप्तोऽभ्यन्तरं संकोएसंडासं,उव्वत्तंतेय कायपडिलेहा। प्रविशति / तत्र च प्रविष्टोऽनिवातमिति मन्यते,तत्रापि स्थातुमशप्नुवन् दव्वाई उवओगं, णिस्सासनिरंभणालोयं // 206 / / कल्प गृह्णाति / एव द्वौ त्रीस्ताव-द्यावत्समाधानं जातम् / अत्र च यदा तु पुनःसङ्कोचयति पादौ तदा 'संडासं' ति संदशम्-ऊरुसन्धिं गर्दभदृष्टान्तः, 'जहा निच्छगद्दभो अणुरूवभारेण आरूविएण सो वहिउं प्रमृज्य सङ्कोचयति / 'उव्वत्तंते य' त्ति-उद्वर्त्तयश्चासौ साधुः कायं नेच्छइ, ताहे जोऽवि अण्णस्स भारो सो वि चडाविज्जइ, अप्पणावि प्रमार्जयति। एवमस्य स्वपतो विधिरुक्तः। यदा पुनः कायिकार्थमुत्तिष्ठति आरोहति। जाहे नातिदूर गया ताहे अप्पणा उत्तरति, ताहे सो जाणातिस तदा कि करोतीत्याह- 'दव्वाई उवओगं' द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो उत्तरितो मम भारो ति तुरियतर पहाविओ। पच्छा अण्णो से अवणीओ, भावतश्चोपयोग ददाति / तत्र द्रव्यतः कोऽहं प्रव्रजितो वा ? क्षेत्रतः ताहे सो सिग्घयरं पहाविओ। एवं साहू वि णिवायतरं मण्णंतो सुहेण किमुपरितलेऽन्यत्र वा? कालतः किमियं रात्रिर्दिवा? भावतः | अच्छति / जाव रत्तिं, एस विही, अववाएणं जहा वा समाही होति तहा कायिकादिना पीडितोऽहं न वेति, एवमुपयोगे दत्तेऽपि यदा निद्रया- कायव्व / संगारवितिअवसहि ' त्ति व्याख्यातम् / ओघा त्रिन ऽभिभूयते तदा णिस्सास-निरुभणं' ति-निःश्वासं निरुणद्धि नासिकां / संस्तारकतरि, प्रव०७१ द्वा०। दृढं गृह्णाति, निः- श्वासनिरोधार्थ ततोऽपगताया निद्रायां 'आलोयंति- संथारग पुं० (संस्तारक) संस्तीर्यते भूपीठ शयालुभिरिति संस्तारः स एव आलोकं पश्यति द्वारम्। संस्तारकः। पर्यन्तक्रियां कुर्वद्भिर्दादिविस्तरणे तत्क्रियाप्रतिपादनरूपे यतः प्रकीर्णकग्रन्थे, संथा० / अर्द्धतृतीयहस्तमाने (अनु०1) लघुतरे शयने, दारं जा पडिलेहे, तेण मए दोणि सावए तिण्णि। ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। स्था० / ध०। जइ य चिरं तो दारे, अण्णं ठावेत्तु पडिअरइ / / 207 / / संथारगपइण्णग न० (संस्तारकप्रकीर्णक) संस्तारकप्रतिपाद के तदाऽसौ द्वारं यावत् प्रत्युपेक्षयन-प्रमार्जयन् व्रजति, एवमसौ / प्रकीर्णकग्रन्थे, संथा। निर्गच्छति, तत्र च यदि स्तेनभयं भवति ततः 'दोण्णि' त्ति-द्वौ साधू | संथारपोरसी स्त्री० (संस्तारपौरुषी) “साधुविश्रामणाद्यैश्च, नि-शाधप्रहरे निर्गच्छतः, तयोरेको द्वारे तिष्ठति अन्यः कायिकां व्युत्सृजति। 'सावए गते। गुर्वादशादिविधिना,संस्तारे शयने तथा / / 1 // " संस्तरे शयनयोग्ये तिण्णि' त्ति-श्वापदभये सति त्रयः साधव उत्तिष्ठन्ति / तत्रैको द्वारे तिष्ठति, / रात्रेर्द्वितीयप्रहरे, ध० 3 अधिः / Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथारपोरसी 196 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संधणा ('संथार' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव तद्विधिरुक्तः।) संथारप्पलोइ त्रि० (संस्तारप्रलोकिन) शिशयिषोर्तुरीः संस्तारप्रेक्षणं कर्तरि,कथं संस्तारः कृतः काऽत्र त्रुटिरितिद्रष्टरि शिष्ये, आचा० 1 श्रु० 5 अ०४ उ०। संथारुत्तरपट्ट पुं० (संस्तारोत्तरपट्ट) संस्तारकोत्तरपट्टयोर्द्वन्द्वे 'संथारुत्तरपट्टो, अड्डाइजाय आयया हत्था। दोण्हं पि अवित्थारो, हत्थो चउरंगुले चेव // 1 // " ध०३ अधि०। संथीण न० (संस्त्यान) विनाशे, सम्म०३ काण्ड। संथुय त्रि० (संस्तुत) विनयविषयत्वेन परिचिते, सद्भूतगुणो - त्कीर्तनादिभिःसम्यक्स्तुते च / उत्त० 1 अ०। पुं० / संयुतकरमुद्राविशेषवृन्दे,ज०२ वक्षः / उत्त० / त्रि० / सम्बद्धे, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / दर्शनभाषणादिभिः परिचिते, प्रश्न० 4 संव० द्वार / भिक्षोः पुरः संस्तुताः भ्रातृव्यादयः, पश्चात् संस्तुताः श्वशुरकुलसम्बद्धाः / आचा० 2 श्रु०१ चू०१ अ०४ उ०। संदट्ट त्रि० (संदष्ट) "टस्यानुष्ट्रेष्टासंदष्टे" |||||34|| अत्रानुष्ट्रष्टासन्दष्टग्रहणात् ष्टकारस्य टकार एव। चुण्ण व्व सन्दट्टो। संदष्ट,प्रा०। “संदष्टो दंशमशकै - स्त्रास द्वेषं न वा व्रजेत्। न वारयेदुपेक्षेत, सर्वाहारप्रियत्ववित्॥१॥" आ०म०१ अ०। संदट्टय देशी-संलग्गे, देना० 8 वर्ग 18 गाथा। संदन पुं० (स्यन्दन) रथविशेषे, प्रश्न०५ संवन्द्वार / द्विविधो रथः सांग्रामिको, देवयानरथश्च / प्रश्न०१ आश्र० द्वार। “संदणो रहो" पाइ० ना०२२३ गाथा। अतीतोत्सर्पिण्यां भारते जाते त्रयोविंशतितमे तीर्थकरे, प्रव०७द्वार। संदब्भ पुं० (संदर्भ) सूत्रेण ग्रन्थेन, स्था० ४ठा०४ उ०। आ० म०। संदम्भिय त्रि० (संदर्भित) स्नेहरज्जुभिग्रंथिते, स्था० 4 ठा०३ उ०। संदमाणिया स्त्री० (स्यन्दमानिका) पुरुषस्य स्वप्रमाणाव-काशदायिनि दीघे जम्पानविशेषे, रा०। जी० / भ०। औ० / ज्ञा० / अनु० / जं० / दशा० / शिबिकायाम्, औ० / सूत्र० / संदाण कृ धा० अवष्टम्भकरणे, "निष्टम्भावष्टम्मे णिगृह-संदाणं" ॥४॥६७||अनेनावष्टम्भविषयस्य कृञो वैकल्पिकः संदाण इत्यादेशः / संदाणइ-अवष्टम्भं करोतीति / प्रा० 4 पाद। संदाणिअ त्रि० (सदाणित) बन्धिते, “बद्ध संदाणिअंनिअलिअच" पाइ० ना० 167 गाथा! संदिट्ठ पुं० (संदिष्ट) गुरुणाऽभिहिते, कथिते, निरूधिते, पञ्चा० 13 विव० / आ०म० / उत्त० / संदेशिते, नपुं० / “संदिट्ट अप्पाहिअं" पाइ० ना० 185 गाथा। संदिद्ध त्रि० (सदिग्ध) अनिश्चिते सकलसंशयादिदोषसहिते, स्था० 6 ठा०३ उ०। सैन्धवशब्दवत् लवणपटघोटकाद्यनेकार्थसंशयकारिणि, आ०म०१ अ०। अत्थेसु दोसु तिसुवा, सामन्नऽभिहाणओ उ संदिद्धं / जह सिंधवं तु आणय,अत्थबहुत्तम्मि संदेहो / / यस्मिन्नर्थे ऽभिधीयमाने द्वयोस्त्रिषु सामान्याभिधानतः संदेह उपजायते तत्संदिग्धं, यथा-सैन्धवमानयेत्युक्ते किमश्वस्य ग्रहणमाहोश्वित् पुरुषस्य / उताहो लवणस्येत्त्यर्थबहुत्ये सन्देहः / बृ०१ उ० 1 प्रक०। “सदिद्धं संसइअं" पाइ० ना० 185 गाथा। संदिसाविय अव्य० (संदिश्य) अनुज्ञाप्येत्यर्थे, पं०व०२द्वार। संदिसाविऊण अव्य० (संदेश्य) संदिशन्तमनुजानन्तमाचार्यमनुप्रयुज्य संदिशत यूयं मां येन पारयामीत्येवमनुज्ञाप्येत्यर्थे, पञ्चा० 5 विव०। संदिहाण त्रि० (संदिहान) संशयाने, विशे०। संदीण त्रि० (संदीन) संदीयते जलप्लावनात् क्षयमाप्नोतीति संदीनः / उत्त० 4 अ०। यो हि पक्षमासादुदकेन प्लाव्यते तस्मिन् दीपभेदे, आचा० 1 श्रु०६ अ०३ उ०। संदुम धा० (प्रदीप) प्रज्वालने, “प्रदीपेस्तेअव-संदुम-सन्धु-काभुत्ताः // 84152 / / अनेन प्रदीप्यतेः सदुमादेशः संदुमइ। प्रदीप्यते। प्रा० 4 पाद। संदुमिअ त्रि० (संदीप्त) “संदुमिअंऊसिक्कि पाइ०ना०१६ गाथा। संदेव (देशी) सीमायाम्, देना० 8 वर्ग 7 गाथा। संदेस पुं० (संदेश) भाषकान्तरेण देशान्तरस्थस्य भणने, ज्ञा०१ श्रु० अ०। अपभ्रंशे स्वार्थ डप्रत्ययः। प्रा०। संदेह पु० (संदेह) दोलायमानतायाम्, दर्श०५ तत्त्व ।आचा० / संशये०, आचा० 1 श्रु०५ अ० 1 उ०। संदोह पुं० (संदोह) निकुरम्बे, को०। सारे, आव०६ अ० / संधणा स्त्री० (संधना) अभिसन्धनायाम,प्रार्थनायाम, सूत्र० 1 श्रु० १अ०१ उ० / संधानकरणे, व्य! संधनास्थानमाहरज्जुयमादि अछिन्नं, कंचुयमादीय छिन्नसंधणया। सेदिदुगं अच्छिन्नं, अपुव्वगहणं तुभावम्मि।।३३।। संधना-संधानकरणं, सा द्विधा-द्रव्यसंधना, भावसंधना चा द्रव्यसंधना द्विधा-छिन्नसंधना, अच्छिन्नसंधना च। तत्र रज्जुकादिकमच्छिन्नं यत् वलयति एषा अच्छिन्ना द्रव्यसंधना / कञ्चुकादीनां छिन्नसंधनता कञ्चुकादयो ह्यन्योन्यखण्डमीलनतः संधीयन्ते ततस्ते छिन्नसंधनाः। भावसंधनाऽपि द्विधा-छिन्नसंधना, अछिन्नसंधना च। तत्राच्छिन्नसंधना श्रेणिद्विकम्, उपश्रमश्रेणिः, क्षपकश्रेणिश्च / तथाापशमश्रेण्या प्रविष्टो यदाऽनन्तानुबन्धिप्रभृतिमोहनीयमुपशमयितु तथा यतते, यथा सर्व मोहनीयमुपशमयति,तदा भवत्युपशम श्रेणिरछिन्नसंधना क्षपकश्रे-ण्यामपि दर्शनसप्तकक्षयानन्तरं कषायाष्टकादि क्षपयितुं प्रवृत्तो नियमादाकेवलप्राप्तेन निवर्त्तते ततः क्षपक श्रेणिरप्यच्छिन्नसधना। 'अपुव्वगहणं तु भावम्मि' इति प्रशस्तेषु भावेषु वर्तमानो यदपूर्व Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथणा 197 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संधिवाल भावं संदधाति एषाऽप्यच्छिन्ना भावसंधना / शुभभावसंधनस्या- भावसन्धीनिदर्शनचारित्राध्यवसायस्य कार्मोदयात् त्रुटवतःपुनः व्यवच्छिन्नत्वात्। सन्धानं-मीलनम् / एतत्क्षायोपशमि-कादिभावलोकस्य विभक्ति(भाष्यम्) इयं पुनश्छिन्नसंधना परिणामाद्वा लो के ज्ञानदर्शनचारित्राहे भावसन्धिं ज्ञात्वा मीसत्तो ओदइयं गयस्समीसगमणे पुणो छिन्नं। तदक्षुण्णप्रतिपालनाय विधेयमिति / यदि वा-सन्धिः-अवसरो अपसत्थपसत्थंवा, भावे पगयं तु छिन्नेण // 34 // धर्मानुष्ठानस्य तं ज्ञात्वा लोकस्यभूतग्रामस्य दुःखोत्पादनानुष्ठानं न 'छन्नाभावे संधनामिश्रः क्षायोपशमिको भावः / तस्मात् मिश्रात् कुर्यात् / सर्वत्रात्मौपम्यं समाचरेदिति। आचा० 1 श्रु०१ अ० 3 उ०। क्षायोपशमिकभावात् यदा औदयिकभाव संक्रामन्ति तदा तस्य औदयिक 'अयं संधी' इत्यादि, अविवक्षितकर्मका अप्यकर्मका धातवो,यथा गतस्य छिन्नभावसधना भावान्तरे संक्रान्तत्वात्। तथा तस्मादोदयिक- पश्य मृगो धावति एवमत्राप्यद्राक्षीदित्येतत्क्रियायोगे अप्ययं सन्धिरिति भावात् यदा पुनर्मिश्रगमनं भवति-मिश्रं भावं संक्रामति, तदापि प्रथमा कृतेति। 'अय' मिति प्रत्यक्षगोचरापन्न आर्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तीन्द्रिछिन्नभावसंधना, एवं शेषेष्वपि भावेषु यथा-योग भावनीयम्। अथवा- यनिर्वृत्तिश्रद्धासंवेगलक्षणः सन्धिःअवसरो मिथ्यात्व क्षयानुद-यलक्षणो द्विविधा छिन्नभावसंधनाप्रशस्ता, अप्रशस्ता च / तत्र यदा प्रशस्ते वा सम्यक्त्वावाप्तिहेतुभूतकर्मविवरलक्षणः संन्धिः शुभाध्यवसायचरणादिभावे स्थितः सन तथा-विधकर्मोदयवशतोऽप्रशस्तमचरणभावं सन्धानभूतो वा सन्धिरित्येनं स्वात्मनि व्यवस्थापितमद्राक्षीद्भगवास्क्रामति तदा प्रशस्ता छिन्नभावसंधना। अत्र प्रकृतमधिकारः, छिन्नेन नित्यतः क्षणमप्येक न प्रमादयेत् न विषयादिप्रमादवशगो भूयात् / भावरांधानेन तत्राप्रशस्तेन / तथाहि-प्रायश्चित्तस्थानं तदा प्रतिसेवतो, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। “तेणावि संधि व्व णं णचा" -संधि छिद्रं या प्रशस्तादावादप्रशस्त भावं संक्रान्तो भवति तदेवं स्थाननिरूपणा। विवरम् / संधि ज्ञानावरणादि-कर्मविवररूपं नापिनैव ज्ञात्वा व्य० / स्था० / आचा० / ग्रहणे गुणने, नि० चू०१ उ०। अज्ञात्वेत्यर्थः / ण वाक्यालंकारे, यथा जीवकर्मणोःसंधिः-भिन्नत्व संदोह पु० (संदोह) निकुरम्चे, “संदोहो निकुरंबो" पाइन्ना० 16 गाथा। भवति तथा ज्ञात्वा मोक्षार्थ प्रवृत्ता इत्यर्थः / संधिर्द्विविधः-द्रव्यसंधिः संधाण न० (सन्धान) पाटितसीवने, आचा० 1 श्रु०६ अ०३ उ०। कुड्यादेः,भावसंधिः कर्मविवररूपस्तमुत्तरोत्तरपदार्थपरिज्ञान वा मीलने, आचा०१ श्रु०३ अ०३ उ० / अर्द्ध सन्धियोग्ये, पं०चू०४ सधिस्तं ज्ञात्वा प्रवृत्ताः / सूत्र० दी०१ श्रु० / 1 अ० 1 उ०। फलककल्प / सूत्रादेः प्रदेशान्तरे नष्टस्य मीलने, आ० म०१ अ०। आत्मना द्वयापान्त-रालदेशे, जी०३ प्रति०४ अधि०। रा०। जं०। आ०म०। सहाविच्छेदेन संघटने. (अचार) अथाणाख्याते नानाद्रव्यसंयोगजे रस्ये, संधाने, प्रश्न०१आश्र० द्वार। अड् गुल्याद्यस्थिमेलापकस्थाने, तं०। आचा० 1 श्रु० 1 अ०१ उ० / संधानं निम्बकविल्वकादीनामनेक- जानुकूपरादिके, सूत्र० 1 श्रु०१५ अ० / गृहट्यान्तराले, उत्त० 20 संसक्तिनिमित्तत्वाद् वय॑म् / ध०२ अधि०। ('संधावण' इत्यस्य अ०। सन्निकर्षे , प्रश्न० 2 संव० द्वार। पं० चू० / खात्रे, सूत्र०२ श्रु०२ व्याख्या 'उवभोगपरिभोगपरिणाम' शब्दे द्वितीयभागे 101 पृष्ठे गता।) अ० / चोरखात्रे भित्तिसन्धौ च / आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० 6 उ०। विस्मृतस्य पुनरनुसन्धाने, पञ्चा० 12 विव०। विप्रतिपत्तौ संस्थायाम, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। संघावण न० (संन्धावन) पौनःपुन्येन गमने, आचा० 1 श्रु०१ अ०१ संधिअ (देशी) दुर्गन्धे, देना०८ वर्ग 8 गाथा। उ। संधिकरण न० (सन्धिकरण) खात्रच्छेदे स्थूलमृषावादविरतेरसंधि पुं० (सन्धि) सुरङ्गादी, सन्धान सन्धिः कर्मसन्ततिः। है। सन्धीयते तिचारे,उपा०१०। इति वा भवात् भवान्तरमनेनेति सन्धिः। अष्टप्रकारे कर्मसन्ततिरूपेऽर्थे, | संधिच्छेयग पुं० (सन्धिच्छेदक) खात्रखानके, प्रश्०३ आश्र० द्वार। 'नहेल्थ मए संधी झोसिए एवमणत्थसंधी दुज्झोसिए भवति' आचा० __आ० म०। सन्धिच्छेदका ये गृहभित्तिसन्धि विदारयन्ति / ज्ञा० 1 श्रु० 1 श्रु० 5 अ० 2 उ० 1 मीलने, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ० / संथा० / द्रव्यतो 18 अ० / विपा०। विवरे, भावतः कर्मविवरे, आचा। सन्धिर्दव्यतो, भावश्च / तत्र द्रव्यतः संधिच्छेययत्त न० (सन्धिच्छेदकत्व) सन्धिच्छेदकभावे, खात्रखननत्वे, कुङ्यादिविवर, भावतः कर्मविवरम्, तत्र दर्शनमोहनीय यदुदीर्ण तत्क्षीणं सूत्र०२ श्रु०२ अ०। ज्ञा०1 शेषमुपशान्तमित्ययं सम्यक् त्वावाप्तिलक्षणो भावसन्धिः, यदि वा- संघदोस पुं०(सन्धिदोष) विश्लिष्टसहितत्वे, सन्ध्यभावे च। आ० म० ज्ञानावरणीय विशिष्ट क्षायोपशमिकभावमुपगतमित्ययं सम्यग्ज्ञाना 1 अ० / विशे० / यत्र सन्धिप्राप्तौ तं न करोति दुष्टं वा करोति तत्र वाप्तिलक्षणः सन्धिः / अथवा-चारित्रमोह नीयक्षयोपशमात्मकः सन्धिदोषः / अनु०। सन्धिस्तं ज्ञात्वा न प्रमादः श्रेयानिति यथाहि-लोकस्य चारकाद्यवरु- संधिबन्धण न० (सन्धिबन्धन) जानुकूपरादिषु सन्धिषु संयमने, प्रश्न० द्धस्य कुड्यनिगडादीनां सन्धि-छिद्रं ज्ञात्वोपलभ्य न प्रमादःश्रेयान्, 3 आश्र० द्वार। एवं मुमुक्षोरपि कर्मविवरमासाद्य लवक्षणमपि पुत्रकलत्रसंसारसुख- | संधिवाल पुं० (सन्धिपाल) राज्यसन्धिरक्षके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ घ्यामोहो न श्रेयसे भवतीति / यदि वा-सन्धान सन्धिः स च / कल्प० भ०। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधिमग्ग 198 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संपइ संधिमग्ग पुं० (सन्धिमार्ग) मर्मस्थाने, आ०म०१ अ०। संधिमुह न० (सन्धिमुख) खात्रद्वारे, उत्त० 4 अ०। संधिरण-पु० [सं (धी) धिरण] पितामहकृतस्वाभिधाने देवदत्त सम्भवेऽन्निकापुत्रे, ती० 35 कल्प। संधुक्क धा० (प्रदीप) प्रज्वाले,"प्रदीपेस्तेअव-संदुम-सन्धुक्काब्भुत्ताः" // 814/152 / / प्रदीप्यतेः संधुक्कादेशः। सन्धुक्काइ / प्रदीप्यते / प्रा० ४पाद। संधुक्किअ त्रि० (प्रदीप) उद्दीपिते, "संधुक्किअं उद्दीविअ" पाइ०ना० 16 गाथा। संधेमाण त्रि० (सन्दधान) सन्धानं कुर्वाणे, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ० / संधेयव्व त्रि० (सन्धातव्य) जोडनीये, “जंणेव छिन्दियव्वं संधेयट्वं च सिव्वियव्वं च / तं होति अधाकडयं जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं / / 1 // " नि० चू०१ उ०। संपआ स्त्री० (सम्पद) प्राकृते “स्त्रियामादविद्युतः" / / 8 / 1 / 15 / / इति आ अन्त्यव्यञ्जनस्य। संपत्ती, प्रा० 1 पाद। संपइ अव्य० (सम्प्रति) आर्षत्वात्, “प्रत्यादौ डः / / 8 / 1 / 206 / / इति तस्य न डः / इदानींतकाले, प्रा० "इहइ संपइ इहि” पाइ० ना०६७ गाथा। सम्प्रतिजातत्वात् सम्प्रतिः। स्वनामख्याते चन्द्रगुप्तपौत्रे, बृ०। संप्रतिनृपतिदृष्टान्तमाहकोसंबाहारकते, अजसुहत्थीण दमगपव्वज्जा। अव्वत्तेणं सामा-इएण रण्णोधरे जातो॥११२७।। कौशाम्ब्यामाहारकृते आर्यसुहस्तिनामन्तिके द्रमकेण प्रव्रज्या गृहीता। स तेनाव्यक्तेन सामायिकेन मृत्वा राज्ञो गृहे जात इत्यक्षरार्थः / भावार्थस्तु कथानकगम्यः। तच्चेदम् - “कोसंबीए नयरीए अजसुहत्थी समोसढो। तया य अंबियकालो साधुजणो य हिंडमाणो गच्छति। एत्थ एगेन दमएणते दिहा, ताहे सो भत्तं जायति। तेहिं भणियं अम्ह आयरिया जाणंति। ताहे सो गतो आयरियसगासं। आयरिया उवउत्ता,तेहिं णात एस पवयणउग्गहे वड्डिहिति। ताहे भणिओ जति पव्वयसि तो दिज्जए भत्तं / सो भणइपव्वयामि त्ति / ताहे पव्वाइतो सामाइयं कारिउं / तेण अति-समुट्ठि / तओ कालगतो / तस्स अव्वत्तसामाइयस्स पभावेण कुणालकुमारस्स अंधस्स रन्नो पुत्तो जातो / को कुणालो कहिं वा अंधो त्ति- पाडलिपुत्ते असोगसिरी राया तस्स पुत्तो कुणालो / तस्स कुमारभत्तीए उज्जेणी दिण्णा / सो य अट्ठवरिसो रण्णा लेहो विसज्जितो 'शीघ्रमधीयतां कुमारः' असंवत्तिए लेहे रण्णो उहितस्स माइसवत्तीए कतं, अधीयतां कुमारः। सयमेव तत्तलोहाए अच्छीणि अंजियाणि, सुतं रण्णा गामो से दिण्णो / गंधब्बकलासि-क्खणं पुत्तस्स रज्जत्थी। आगतो पाइलिपुत्ते असोगसिरिणी जवंणिअंतरिउ गंधव्वं करेइ। आउट्टो राया भणइ-मग्गिजते अभिरुइयं ति। तेण भणिय - "चंदगुत्तपपुत्तोयं, बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति काकर्णि" ||1|| चन्द्रगुप्तस्य राज्ञः प्रपौत्रो बिन्दुसारस्य नृपतेर्नप्ता पौत्रः,अशोकश्रियो नृपस्य पुत्रः, कुणालनामा अन्धः काकणीं -राज्यं याचते / तओ राइणा भणितो-किं ते अंधस्स रज्जेणं? तेण भणिय-पुत्तस्स मे कञ्जति / राइणो भणिय-अहिते पुत्तो त्ति। तेण आणित्ता दाइओ इमो मे संपइजाओ पुत्तो त्ति, ते चेव नामं कयं / तओ संवडिओ दिन्नं रज्जं / तेण संपइराइणा उज्जेणिं आयकाउं दक्खिणावहो सव्वो तत्थट्ठिएण अवि सव्वे पच्चतरायाणो वसीकया। तओ सो विउल रजसिरि भुंजइ। किंच“अज्जसुहत्थीगमणं, दटुं सरणं च पुच्छणा कहणा। पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरण्णो" // जीवन्तस्वामिवन्दनार्थमुज्जयिन्यामार्यसुहस्तिन आगमनम् / तत्र च रथयात्रायां राजाङ्गणप्रदेशे रथपुरतः स्थितानार्यान् सुहस्ति-गुरून् दृष्ट्वा नृपतेर्जातिस्मरणम् / ततस्तत्र गत्वा गुरुपदकमलमभि-वन्द्य पृच्छा कृता। भगवन् !अव्यक्तस्य सामायिकस्य किं फलम्?, सूरिराहराज्यादिकम् / असौ संभ्रान्तः प्रगृहीताञ्जलिरा-नन्दोदकपूरपूरितनयनयुगलः प्राह-भगवन् ! एवमेवेदं परमहं भवद्भिःकुत्रापि दृष्टपूर्वो नेवेति ? ततः सूरयः उपयुज्य कथयन्ति-महाराज ! दृष्टपूर्वस्त्वं पूर्वभवे मदीयशिष्य आसीदित्यादि / ततोऽसौ परमं संवेगमापन्नस्तदन्तिके सम्यग्दर्शनमूलं पञ्चाणु-व्रतमयं श्रावकधर्ममयं प्रपन्नवान् / ततश्चैव प्रवचने संप्रतिराजस्य भक्तिः संजाता। किंच"जवमज्झमुरियवंसे, दाणावणिविवणिदारसंलोए। तसजीवपडिक्कमओ, पभावओ समणसंघस्स॥१॥" यथा यवो मध्यभागे पृथुलः आदावन्ते च हीनः एवं मौर्यवंशोऽपि। तथाहि-चन्द्रगुप्तस्वाव बहुलवाहनादिविभूत्या विभूषित आसीत्। ततो बिन्दुसारो बृहत्तरस्ततोऽप्यशोक श्रीवृहत्तमस्ततः संप्रतिः सर्वोत्कृष्टः / ततो भूयोऽपि तथैव हानिरवसातव्या। एवं यवमध्यकल्पः संप्रतिनृपतिरासीत् / तेन च राज्ञा द्वारसंलोके चतुर्वपि नगरद्वारेषु दानं प्रवर्तितम् 'वणिविवणि' त्ति इह ये बृहत्तरा आपणास्ते आपणयः इत्युच्यन्ते, ये तु दरिद्रापणास्ते विपणयः / यद्वाये आपणान् व्यवहरन्ति ते वणिजः / ये पुनरापणेन विनाऽप्यर्द्धस्थिता वाणिज्यं कुर्वन्ति ते विवणिजः / एतेषु तेन राज्ञा साधूनां वस्वादिकं दापितम्, स च राजा वक्ष्यमाणनीत्या त्रसजीवप्रतिक्रामकः प्रभावकश्च श्रमणसंघस्यासीत्। अथ 'दाणावणिविवणिदारसलोए' इति भावयतिओदरियमओ दारे-सु चउसु वि महाणसे स कारेइ। णिताणिं ते भोयण, पुच्छा सेसे य सुन्ने य॥११२८।। औदारिको-द्रमक. पूर्वभवेऽहं भूत्वा मृतः सन्निहायात इत्यात्मीयं वृत्तान्तमनुस्मरन् नगरस्य चतुषु द्वारेषु स राजा सत्राकारमहानसानि कारयति / ततो दीनानाथादिको लोको यस्तत्र निर्गच्छन् वा प्रविशन्वा नोक्तुमिच्छति स सर्वो भोजनं कार्यते. यच्छेषमुद्वरति तन्महानसिकानामाभवति / ततो राज्ञा ते महानसिकाः Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संप 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संपइ पृष्टाः, यदस्माक दीनादिभ्यो ददतामवशिष्यते तेन यूयं कि कुरूथ? तैरुक्तम्-अस्माकं गृहे उपयुज्यते / नृपतिराह-यद्दीनादिभिरभुक्त तद्भवदिः साधूना दातव्यम्। एतदेवाहसाहूण देह एवं, अहं में दाहामि तत्तियं मोलं। णेच्छंति घरे घेत्तुं, समणे मम रायपिंडो त्ति।।११२६|| साधूनामेतद्भक्तपानं प्रयच्छत, अहं 'भे' भवतां तावन्मानं मूल्यं दास्यामि। यतो मम गृहे श्रमणा राजपिण्ड इति कृत्या ग्रहीतु नेच्छन्ति। एमेव तिल्लगोलिय-पूवियमोरंडदुस्सिए चेव। जंदेह तस्स मोल्लं, दलामि पुच्छायमहगिरिणो।।११३०।। एवमेव तलि कास्तेलं, गोलिका मथितविक्रयिकाः तक्रादिक, अपूपलिका 3. पूपादिकं , मोरण्डका:-तिलादिमोदकास्तद्विक्र - यिकास्तिलादिभादकान् / दीष्यका वस्त्राणि च दायिता। कथमित्याहयनैलतकादि यूयं साधूना दत्थ तस्य मूल्यमहं भवतां प्रयच्छामि, तत आहारवरजादा किमपीप्सिते लभ्यमाने श्रीमहागिरिरार्यसुहस्तिनं पृच्छति / आय ! प्रचुरमाहारवस्त्रादिकं प्राप्यते? ततो जानन्त्यार्याः, राज्ञा लोकः प्रवर्तितो भवेत्। अजसुहत्थिममत्ते, अणुरायाधम्मतोजणो देति। संभोगवीसुकरणं, तक्खणआउट्टणनियत्ती॥११३१।। आर्यसुहस्ती जानानोऽप्यनेषणीयमात्मीयशिष्यममत्वेन भणतिक्षमाश्रमण ! अनुाराजधर्मतो राजधर्ममनुवर्तमानः एष जनः एवं यथेप्सितमाहारादिक प्रयच्छति / तत आर्यमाहगिरिणा भणितम्आचार्य : त्वभापे ईदृशा बहुश्रुतो भूत्वा यद्येवमात्मीयशिष्यममत्वनेत्थं बवीषि ततो मम तव चाद्य प्रभृति विसंभोगो - नै कत्र मण्डल्यां स्मुद्देशनादिव्यवहार इत्येव विसंभोगस्याविष्करणमभवत् / ततः आर्यसुहस्ती चेन्तयति-मायाभावादेवमनेषणीयमाहारजातं साधवो ग्राहिताः, स्वयमपि चानेषणीयं भुक्तम्। अपरं चेदानी-महमित्थमुपलम्भयामि तदेतन्मम द्वितीयं बालस्य मन्दत्वमित्यापन्नम् / अथवा - नाद्यापि किमपि विनष्टं भूयोऽप्यहमेतस्मादर्थात्प्रतिक्रमामीति विचिन्त्य तत्क्षणादेवावनिमभवत्, ततो यथावदालोचना दत्त्वा स्वापराधं सम्यक क्षामयित्वा तस्या अकल्पप्रतिसेवनायास्तस्य निवृत्तिरभूत, ततो भयोऽपि तयोः संभोगिकत्वमभवत्। अशत्रसजीवप्रतिक्रामक इत्यस्य भावार्थभाहसो रायाऽवंतिवती, समणाणं भावतो सुविहिताणं / पञ्चंतियरायाणो, सव्वे सद्दाविया तेणं / / 1132 // स संप्रतिनामा राजा अवन्तीश्रमणानां श्रावकपञ्चाणुव्रतधारी | अभवदिति शेषः। तेच शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्यत आह-सुविहितानाशोभनानुष्ठानानां ततस्तेन राज्ञा ये केचित् प्रात्यन्तिकाः प्रत्यन्तदेशाधिपतयो राजानरस्ते सर्वेऽपि शब्दायिताः। ततः किं कृतवानित्याह कहिओ य तेसि धम्मो, वित्थरतो गाहिता य सम्मत्तं / अप्पाहिता य बहुसो, समणाणं भद्दगा होह।।११३३।। कथितश्च तेषां प्रात्यन्तिकराजानां तेन विस्तरतो धर्मः, ग्राहिताश्व ते सम्यक्त्वं, ततः स्वदेशगता अपि ते बहुशस्तेन राज्ञा संदिष्टाः, यथा श्रमणाना भद्रका भक्तिमन्तो भवत। अथ कथमसौ श्रमणसंघप्रभावको जात इत्याहअणुजाणे अणुजाती, पुप्फारुहणाइ ओक्किरणगाई। पूयं च चेइयाणं, ते विसरजेसु कारिति॥११३४|| अनुयानं - रथयात्रा तत्राप्यसौ नृपतिरनुयाति, दण्डभद्रभोजिकादिसहितो रथेन सह हिण्डते / तत्र पुष्पारोपणम् आदिशब्दात्माल्यगन्धचूण्णाभरणारोपणं च करोति, 'उकिरणगाई' ति रथपुरतो विविधफलानि खाद्यकानि कपर्दवस्त्रप्रभृतीनि चोत्किरणानि करोति / आह निशीथचूर्णिकृत्- 'रहम्गतो य विविहफलखज्जगेयकवड्डुगवत्थमादी य उकिरणं करेइ'त्ति। अन्येषां च चैत्यगृहे स्थितानां चैत्याना भगवद्विम्बानां पूजन महतां विच्छईनं करोति, तेऽपि च राजान एवमेव स्वराज्येषु रथयात्रामहोत्सवादिकं कारयन्ति / इद च ते राजानः संप्रतिनृपतिना भणिताः। जतिमंजाणह सामि, समणाणं पणमहासुविहियाणं / दव्वेण मे न कजं, एयं खु पियं कुणहमज्झं।।११३५।। यदि मां स्वामिनं यूयं जानीथ मन्यध्ये ततः श्रमणेभ्यः संविहितेभ्यः प्रणमत-प्रणता भवत, द्रव्ये-दण्डदातव्येनार्थेन मे न कार्य कित्वेतदेव श्रमणप्रणमनादिकं मम प्रियं तदेव यूयं कुरुत। वीसजिया य तेणं, समणं घोसावणं सरजेसुं। साहूण सुहविहारा, जाता पच्चंतिया देसा।।११३६।। एवं तेन राज्ञा शिक्षा दत्त्वा विसर्जिताः, ततस्तेषां स्वराज्येषु गमनं, तत्र च तैः स्वदेशेषु सर्वत्राप्यमारिव्रतघोषणं कारितं, चैत्य-गृहाणि च कारितानि / तथा प्रात्यन्तिका देशाः साधूनां सुखविहाराःसंजाताः / कथमिति चेदुच्यते-तेन संप्रतिना साधवो भणिताः-भगवन्तः! एतान् प्रत्यन्तदेशान् गत्वा धर्मकथया प्रतिबोध्यमानाः पर्यटन्तु। साधुभिरुक्तम् राजन्नात्र साधूनामाहारवस्त्रपात्रादेलाभः। ततः किमभूदित्याहसमणभडभाविएसुं, तेसुं रज्जेसु एसणादीसुं। साहू सुहं विहरिया, तेणं वि य भद्दगा ते उ॥११३७॥ श्रमणवेषधारिभिर्भटरेषणादिभिः शुद्धमाहोरादिग्रहणं कुर्वाणैः साधुविधिना भावितेषु तेषु राज्येषु साधवः सुखं विहृताः। तत एव च संप्रतिनृपतिकालात्ते प्रत्यन्तदेशा भद्रकाः संजाताः। इदमेव स्पष्टयतिउदिण्णजोहाउलसिद्धसेणा पडिट्ठितो णिज्जियसत्तुसेण्णो। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपइ 200 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संपत्थिय समंततो साहुसुहप्पयारे, संपगाढ त्रि० (सम्प्रगाढ) अध्युपपन्ने, “वित्तेसिणो मेहुणसंप-गाढा" सूत्र० अकासि अंधे दविले यघोरे।।११३८|| 2 श्रु०६ अ० / व्याप्ते, सूत्र० 2 श्रु०६ अ० / सम्यड् नारकतिर्यड् उदीर्णाःप्रबला ये योधास्तैराकुला-संकीर्णा सिद्धाप्रतिष्ठता सर्व- नरामरभेदेन प्रगाढाः-प्रकर्षण व्यवस्थिता इति। सूत्र० 1 श्रु०१२ अ० / त्राप्यप्रतिहता सेना यस्य स तथा, अत एव च निर्जितशत्रुसेन्यः- असो, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२उ०। स्ववशीकृतविपक्षनृपतिसैन्यः एवंविधः स संप्रतिनामा पार्थिवः, अन्ध्रान् संपग्गह पु० (सम्प्रग्रह) आत्मनो जात्याधुत्सेकरूपग्रहे, स्था० 8 ठा० द्रविडान् चशब्दान्महाराष्ट्रान कुडुक्कादीन् प्रत्यन्तदेशान् घोरान् 3 उ०! प्रत्यपायबहुलान् समन्ततः साधुसुखप्रचारान् साधूनां सुखविहारान संपज्ज धा० (सम्पद्) सम्पत्तौ, "स्विदां जः" ||8|4|224|| कार्षीत्-कृतवान् / बृ० 1303 प्रक० / विशे० 1 नि०चूल। कल्प० / अनेनात्रान्त्यस्य द्विरुक्तो जकारादेशः / सम्पद्यते। प्रा०४ पाद! दर्शनशुद्धौ संपन्जण न० (सम्पजन) रसपुष्टिजनने, सूत्र० 1 श्रु०७ अ० / "जय जय नाणदिवायर!, परोवयारिकपचल ! मुणिंद ! / संपट्ठिय त्रि० (सम्प्रस्थित) सम्प्रयाते, प्रज्ञा० 15 पद ! औ०। "बहवे गुरुकरुणारसससायर!, नमो नामे तुज्झ पायाणं // 26 / / तडियकप्पडिगादयो सम्पट्ठिया" आव०१०। दारिद्दअमुद्दसमुद्रमज्झनिवडतजंतुपोयाण। संपडिअ देशी-लब्धे, दे०ना० 8 वर्ग 14 गाथा। गुरुकरुणारससायर !, नमो नमो तुज्झ पयाणं / / 27 / / संपडिलेहियव्व त्रि० (सम्प्रत्युपेक्षितव्य) सम्यक्-प्रतिले-खितव्ये, सग्गापवग्गमगाणुलग्गजणसत्थवाहपायाणं। दश०१ चून गुरुकरुणारससायर!, नमो नमो तुज्झ पायाण // 28 // चक्ककुसझसवरकलसकुलिसकमलाइलक्खणजुयाणं / संपडिवाइय त्रि० (सम्प्रतिपादित) स्थापिते, "धम्मे संपडिवा-इओ" दश०२अ०॥ गुरुकरुणारससायर!, नमो नमो तुज्झ पायाणं / / 26 / / इम थोउं सो गुरुणो, गिहिधम्म गहिय सगिहमणुपत्तो। संपणदिय त्रि० (संप्रणदित) सम्यक् श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षेण सर्वकालं सव्वत्थ वि नियरजे, रहजत्ताओ पवत्तेइ // 30 // नदितं सम्प्रणदितम् / सम्यक् प्रकर्षेण शब्दं कुर्वति, जी०३ प्रतिक जह सुमरिय रंकत्तं-सत्तागारा कराविया तेणं। 4 अधि०। प्रज्ञा०। जह बोहिया अणज्जा, तहा निसीहाउ नेयव्वं // 31 // संपणा देशी-घृतपूरार्थगोधूमपिष्टे, देना० 8 वर्ग 8 गाथा। जिणसासणं पभाविय-सुइरं सुगुरु सुसूसुमाणपरो। संपणोलिय अव्य० (सम्प्रणुद्य) भाजनस्थं प्रेर्येत्यर्थे, द्रव्या०। सो संपइनरनाहो, जाओ वेमाणिओ सुसुरो।।३।। संपण्ण त्रि० (सम्पन्न) युक्ते, उत्त०१ अ० / सूत्र० / स्था० / ओघ०। इत्यधिकार्य धर्मविचार, संप्रतिभूपतिवृत्तमुदारम्। आतु० / समन्विते, आव० 4 अ०। उपेते, जं०२ वक्ष। सद्गुरुप्रहताखिलबहुमान, भव्यजना दधता बहुमानम्॥३३॥" संपण्णदोहला स्त्री० (सम्पन्नदौहदा) विवक्षितार्थभोगसं-पद्यानन्दसंपइक्खि पुं० (साम्प्रतेक्षिन्) बाले, अपरिणामद्रष्टरि, सूत्र० 1 श्रु० संप्राप्तायामन्तर्वल्याम्, विपा०१ श्रु० 2 अ०। 5 अ०२उ०। संपण्णा देशी-घृतपूरार्थगोधूमपिष्ट, दे०ना० 8 वर्ग 8 गाथा। संपइण्ण त्रि० (सम्प्रकीर्ण) रमणीयतया व्याप्ते, रा० / संपण्णाय त्रि० (सम्प्रज्ञात) सम्यक् प्रज्ञानप्रतिपादके समाधिभेदे, संपइण्ण त्रि० (सम्प्रकीर्ण) रमणीयतया व्याप्ते, रा० / सम्यक् संशयविपर्ययध्यानाध्यवसायरहितत्वेन प्रज्ञायते प्रकर्षण ज्ञायते संपउत्त त्रि० (सम्प्रयुक्त) सम्बद्धे, स्था० 4 ठा० 1 उ०।व्यापृते, संगते, भव्यस्य स्वरूपं येन स सम्प्रज्ञात उच्यते। द्वा०२० द्वा०। (सम्प्रज्ञातस्य स्था०८ ठा०३ उ० / प्रवर्त्तिते, स्था० 6 ठा० 3 उ० / समन्विते, सूत्र० व्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1626 पृष्ठे उक्ता।) 2707 अ० / व्यापारिते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० औ० / योजिते, ज्ञा० संपत्त त्रि० (सम्प्राप्त) संलग्ने, आ०म० 1 अ० / समागते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 श्रु०१ अ०१ श्रु०१ अ०। औ० / योजिते, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० 1 अ० / उत्तः / शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते, दश० अविरूद्धतया प्रवर्तिते, जं०१ वक्षः। 5 अ०१ उ०॥ संपओग पुं० (सम्प्रयोग) सम्बद्धे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / सूत्र०ा प्रवर्त्तने, संपत्ति स्त्री० (सम्पत्ति) यथोक्तार्थसम्पादने, भ० 3 श० 1 उ०। ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। सम्यगग्रतो वा प्रयोगः सम्प्रयोगः। अकल्पिते योगे, . दश०१ अ० / सम्पर्केः, प्रश्न०४संव० द्वार। आ०म०। आव० / विभवसमागमे, द्वा० 12 द्वा०1 “सम्प्राप्तिश्च विपत्तिश्च, कार्याणां द्विविधा संपक्क पु० (सम्पर्क) सङ्गमे, आ०म० 1 अ०। स्मृता / संप्राप्तिः सिद्धिरर्थेषु विपत्तिश्च विपर्ययः // 1 // " नि०चू० 15 संपक्खालग पुं० (संप्रक्षालक) वानप्रस्थभेदे, मृत्तिकाद्याघर्षणपूर्वक ये उ० / 'विलिंगण लिंगणीए संपत्तिं जइ निग्गच्छई तो मूढो' बृ० 3 उ० / अक्षालयन्ति ते संप्रक्षालका उच्यन्ते। नि०१ श्रु० 3 वर्ग 3 अ० / प्राप्तौ, पञ्चा० 16 विव० / अपूर्वलाभे, षो० 12 विव० / भ० / औ०। संपत्थिय त्रि० (सम्प्रस्थित) सम्प्रस्थानकाले प्रयाते, व्य० 1 उठा संपक्खालिय त्रि० (सम्प्रक्षालित) क्षालितसर्वपापमले, ध०३ अधि० / भ०। / शीघ्र,दे० ना० 8 वर्ग 11 गाथा। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपदागम 201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संरापइय० संपदागम पुं० (सम्पदागम) सम्पत्तिसम्प्राप्तौ, सम्पदागमः सद- दापयति ददाति वा / स्था० 7 ठा० 3 उ०। नुष्ठानलक्षणम्, तत एव शुभभावपुण्यसिद्धेः। द्वा० 23 द्वा०। संपराइय त्रि० (सापरायिक) संपराया बादरकषायास्तेभ्य आगतं संपधारणा स्त्री० (संप्रधारणा) धारणाव्यवहारे, व्य०।-"जम्हा संपहार ___ साम्परयिकम्। तज्जीवोपमर्दकत्वेन वैरानुषङ्गितयात्म-दुष्कृतकारिभिः पउंजती तम्हा कारणा तेण नायव्वा संपधारणा।" तथा यस्मात्सम्प्रधार्य स्वपापविधायिभिर्बध्यमाने कर्मणि, सूत्र० 1 श्रु०८ अ०। सम्यक प्रकर्षणावधार्य व्यवहारं प्रयुक्ते तस्मात्कारणात्तेन शिष्येण संपराइयबंध पुं० (सापरायिकबन्ध) संपरैति-संसार पर्यटति एभिरिति संप्रधारणा भवति ज्ञातव्या। व्य०१० उ०। साम्परायाः कषायास्तेषु भवं साम्पराविक कर्म, तस्य यो बन्धः स संपधूमिय त्रि० (सम्प्रधूमित) सौगन्ध्यार्थ धूपैर्वासिते, कल्प० साम्परायिकबन्धः / कषायप्रत्यये बन्धे, भ०। 1 अधि०६ क्षण। धूपद्रव्येण समन्ततः प्रकर्षेण धूपिते, बृ० 1 उ० संपराइयंणंभंते! कम्म किनेरइयोबंधइ,तिरिक्खजोणीओबंधइ० 3 प्रक०। जावदेवी बंधइ ? गोयमा! नेरइओ विबंधइ तिरिक्ख-जोणीओ वि संपमज्जिय अव्य० (संप्रमृज्य) प्रक्षाल्येत्त्यर्थे, कल्प० 3 अधि०६ क्षण / बंधइ, तिरिक्खजोणिणी वि बंधइ, मणुस्सो विबंधइ, मणुस्सी वि संपमिजमाण त्रि० (संपरिमृजत्) सम्यग् परि समन्तात् हस्तपा- बंधइ, देवी वि बंधइ, देवी विबंधइ, // तं भंते ! किं इत्थी बंधइ, दादीनवयवान् तनिक्षेपस्थानानि वा रजोहरणादिना मृजति, आचा०१ पुरिसोबंधइ, तहेवजावनोइत्थीनो पुरिसोनोनपुंसओबंधइ? श्रु०५ अ०४ उ०। गोयमा! इत्थी वि बंधइपुरिसो विबंधइ० जाव नपुंसगो वि बंधइ। संपयं अव्य० (साम्प्रतम्) वर्तमानक्षणभाविनि युक्ते, विशे० / शब्दनये, अह वेए य अवगयवेदो य बंधइ, अह वेएय अवगयवेयाय बंधंति। अस्य द्वितीयनाम साम्प्रतवस्त्वाश्रयणात् साम्प्रतम् / यथा ह्येषोऽपि जइभंते ! अवगयवेदो य बंधइ अवगयवेदाय बंधति,तं भंते ! किं ऋजुसूत्रनय इव साम्प्रतमेव वस्त्वभ्युपगच्छति, नाप्यतीतमनागतं, नापि इत्थी पच्छकोडो बंधइ पुरिसपच्छाकडो बंधइ ? एवं जहेव वर्तमानमपि परकीयम् / आ०म० 1 अ०। आचा० / ईरियावहिया बंधगस्स तहेव निरवसेसं ०जाव अहवा इत्थी संपयकालीण त्रि० (सांप्रतकालीन) वर्तमाने, विशे० / पच्छाकडायपुरिसपच्छाकडाय नपुंसगपच्छाकडाय बंधति।तं संपयगाहि पुं० (साम्प्रतग्राहिन्) वर्तमानकलक्षणवस्तुग्राहिणि, विशे०। भंते ! किं बंधी बंधइबंधिस्सइ १बंधी बंधइन बंधिस्सइ२बंधीन संपयहीण त्रि० (सम्पद्धीन) सम्पद्रहिते, स० 3 सम०। बंधइबंधिस्सइ 3 बंधीनबंधइन बंधिस्सइ 4 ? गोयमा ! अत्थे संपया स्त्री० (सम्पदा) सम्पन्नतायाम्, उत्त० 1 अ० / ऋद्धी, स्था० गतिए बंधी बंधइबंधि-स्सइ१अत्थे गतिएबंधी बंधइनबंधिस्सइ 3 ठा० 1 उ० / उत्त० / व्य० / समृद्धौ, ज्ञा० 1 श्रु० 11 अ०। चतुर्थीकारके २अत्थेगतिएबंधीन बंधइबंधिस्सइ ३अत्थेगतिए बंधीनबंधइन अर्थविश्रामस्थाने, संघा० 1 अधि० 1 प्रस्ता०। बंधिस्सइ 4 // तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बन्धइ ? पुच्छा संपयाण न० (सम्प्रदान) सम्यक् सत्कृत्य वा दानं यस्मै तत्स-म्प्रदानम् / तहेव, गोयमा! साइयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणाइयं वा दात्रा कर्मणाऽभिप्रेतघटादिग्रहीतरि, विशे० सत्कृत्य सम्यग्वा प्रदीयते सपज्जवसियं बंधइ, अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइ, णो चेवणं यस्मै तत्संप्रदानम्। तच्च त्रिविधं तद्यथा-दीयतां मां बहुफलं भवता साइयं अपज्ज-वसियं बंधइं। तं भंते ! किं देसेणं बंधइ, एवं जहेव भविष्यतीत्यादिवचनप्रपश्चन किञ्चित् प्रेरकं यथा वटुाह्मणः / अपरं ईरियावहिया बंधगस्स जाव सव्वेणं सव्वं बंधइ। (सू०-३४२) स्वित्थमप्रेरकमपि दानस्य ग्रहण-परिभोगाभ्यामनुमोदकं भवति / यथा 'संपराइयं ण' मित्यादि, 'किं नेरइओ' इत्यादयः सप्त प्रश्नाः, उत्तमुनिः साधुः / अन्यत्तु पुष्पा-द्यनिषेधकम् यथाऽर्हत्प्रतिमादेः / आ०म० राणि च सप्तैव, एतेषु च मनुष्यमानुषीवर्जाः पञ्च साम्परायिकब-न्धका 1 अ० 1 आ०चू० / सम्यगर्थिभ्यो दाने, आ० म० 1 अ० / विशे० / एव सकषायत्वात्, मनुष्यमानुष्यौ तु सकषायित्वे सति साम्परायिक अनु०॥ बध्नीतो न पुनरन्यदेति / साम्परायिकबन्धमे व स्त्र्याद्यपेक्षया संपयामूल न० (सम्पदामूल) श्रीकरणे, पञ्चा० 6 विव०। निरूपयन्नाह–'तं भंते ! किं इत्थी' त्यादि, इह स्त्र्यादयो संपयावण न० (सम्प्रदा (प) न) सत्कृत्य प्रदाप्यते यस्मै उपल- | विवक्षित कत्व बहुत्वाः षट् सर्वदा साम्परायिकं बध्नन्ति, क्षणत्वात्स-प्रदीयते वा यस्मै तत्संप्रदापनम् संप्रदानं वा। चतु-र्थीकारके, अपगतवेदश्व कदाचिदेव तस्य कादाचित्कत्वात् / ततश्च स्त्र्या"चउत्थी संपयावणे" चतुर्थी सम्प्रदाने भवति, यथा भिक्षवे भिक्षां दयः के वला बध्नन्ति अपगतवेदसहिताश्च / ततश्च यदाऽपगतवेद Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपराइय० 202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संपसारय 7 अ०। सहितास्तदोच्यते अथवैते स्यादयो बध्नन्ति अपगतवेदश्च , नाविधपरिवारोपेते, आ० म० 1 अ० भ० / सम्यक् परिवारिते, तस्यैकस्यापि सम्भवात्। अथवैत स्त्र्यादयो बध्नन्ति अपगतवे-दाश्च. परिकरभावेन परिकरित, भ०२श०५ उ० / ज्ञा० / वेष्टिते, सूत्र०१ श्रु० तेषां बहूनामपि सम्भवात्, अपगतवेदश्च साम्परायिकबन्धको वेदत्रये उपशान्ते क्षीणे वा यावद्यथाख्यातं न प्राप्रोति तावल्लभ्यत इति, इह च संपलग्ग त्रि० (संप्रलन) योद्धं समारब्धे, विपा० 1 श्रु० 3 अ०। राधा पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकविवक्षा न कृता, द्वयोरप्येकत्वबहुत्वयोधिन | संपलिथालग न० (सम्पलिस्थालक) वल्लादिफलीनां पाके, आचा० निर्विशेषत्वात्। तथाहि-अपगतवे-दत्वे साम्परायिकबन्धोऽल्पकालीन 2 श्रु० 1 चू० 1 अ०। एव तत्र च योऽपगतवेदत्वं प्रतिपन्नपूर्वः साम्परायिकंबध्नात्यसावेकोऽनेको | संपलिय पुं० (सम्पलित) आर्यकालकशिष्ये, कल्प०२ अधि०८ क्षण। वा स्यात्, एवं प्रतिपद्यमानकोऽपीति / अथ साम्परायिककर्मबन्धमेव ___ 'गोयमगुत्तकुमारं, सम्पलियं तह य भद्दयं वंदे' कल्प०२ अधि० 8 क्षण। कालत्र-येण विकल्पयन्नाह-'त भते! किमि' त्यादि इह च पूर्वोक्तिष्व- | नपुं० / मुगादीनां विध्वस्तफले, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० 10 उ० / ष्टासु विकल्पेष्वाद्याश्चत्वार एव सम्भवन्ति नेतरे, जीवानां | संपलियंक पुं० (सम्पर्यङ्क) पद्मासने, औ०। साम्परायिककर्मबन्धस्यानादित्वेन 'न बंधी' त्यस्यानुपपद्यमानत्वात. संपलियंकणिसण्ण त्रि० (समपर्यङ्कनिषण्ण) पद्मासनसन्निविष्ट, रा०। तत्र प्रथमः सर्व एव संसारी यथाख्यातासंप्राप्तोपशमकक्षपकावसानःस भ०। हि पूर्व बद्धवान् वर्तमानकाले तु बध्नाति अनागतकालापेक्षया तु संपवत्तमाण त्रि० (संप्रवर्त्तमान) व्याप्रियमाणे, पञ्चा०८ विव०। भन्त्स्यति 1 / द्वितीयस्तु मोहक्षयात्पूर्व-मतीतकालापेक्षया बद्धवान् संपवयमाण त्रि० (सम्प्रव्रजत्) सम्यक् प्रव्रज्यामभ्युपगच्छति, आचा० वर्तमानकाले तु बध्नाति भाविमोह-क्षयापेक्षया तु न भन्स्यति 2 / 1 श्रु० 5 अ० / सम्यक् प्रवजने, नि० चू० 2 30 / सम्-एकीभावेन तृतीयः पुनरुपशान्तमोहत्वात् पूर्व बद्धवान् उपशान्तमोहत्वेन बध्नाति प्रव्रजति, नि० चू०२ उ०। तरमाच्युतः पुनर्भत्स्यतीति 3 / चतुर्थस्तु मोहक्षयात्पूर्व साम्परायिक | संपवेयण न० (सम्प्रवेतन) कम्पने, आचा० 2 श्रुः 4 चू०। कर्म बद्ध-वान् मोहक्षय नबध्नाति न च भन्त्स्य तीति।साम्परायिककर्म- संपसार पुं० (सम्प्रसार) सम्-एकीभावेन किमप्युद्दिश्य एकत्र मीलने, बन्धमेवाश्रित्याह- 'त' मित्यादि, 'साइयं वा सपज्जवसियं बंधइ' त्ति- | समवाये, आ० म०१ अ०। उपशान्तमोहताया च्युतः पुनरुपशान्तमोहता क्षीणमोहतां वा | संपसारण न० (सम्प्रसारण) पर्यालोचने, आचा० 1 श्रु०५ अ०४ उ०। प्रतिपत्स्यमानः, अणाइयं वा सपञ्जवसियं बंधइ' ति आदितः सूत्र०। क्षपकापेक्षमिदम्, 'अणाइयं वा अपज्जवसिय बंधई' त्ति-एतच्चा-- संपसारय पुं० (सम्प्रसारक) देववृत्त्यर्थकाण्डादिसूचक कथाविस्तारके, भव्यापेक्ष, 'नो चेव ण साइयं अपञ्जवसिय बंधइ' त्ति सादिसाम्प- सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 2 उ०। कुशीलभेदे, नि० चू। रायिक बन्धो हि मोहोपशमाच्च्युतस्यैव भवति, तस्य चावश्य जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा संपसारयं वंदइ वंदंतं वा साइजइ मोक्षयायित्वासाम्परायिकबन्धस्य व्यवच्छे दसम्भवः / ततश्च न / / 57 / / जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा संपसारयं पसंसइ पसंसंत सादिरपर्यवसानः साम्परायिकबन्धोऽस्तीति। भ० 8 208 उ०। वा साइजइ॥५८|| संपराइया स्त्री (साम्परायिका) सम्परायाः-कषायास्तेषु भवा जो संपसारयं इत्यादि द्वे सूत्रे गिहीण कज्जाणं गुरुलाघवेणं संपसा--रेतो साम्परायिकी। पुद्गलराशेः कर्मतापरिणतिरूपायां जीवव्यापार- संपसारातो। स्याविवक्षणादजीवक्रि यायाम, सा च सूक्ष्मसंपरायात्तानां गुण गाहास्थानकवतां भवति / स्था० 2 ठा. 170 / अस्संजयाण भिक्खू, कज्जे अस्संजमप्पवत्तेसु। संपराय पु० (सम्पराय, सम्परायन्ति भृशं पर्यटन्त्यस्मिन् जन्तव इति जो देती सामत्थं, संपसारतो उ नायव्वो।।१०१।। सम्परायः / संसारे, उत्त०२० ॐ। सूत्र० / कषायोदये, आ०म०१ जो भिक्खू असंजमकज्जपवत्ताणं पुच्छंताणं अच्छताण वा सम-थयं अ०। स्था० / दर्श०। उत्त / सग्राम, ज्ञा०१ श्रु०६अ। दश० / वदति सो एवं इमं वा करेहि एत्थ बहू दोसा जहाहं भणामि भट्ठा करेहि बादरकषाये,सूत्र०१ श्रु... / विश० / अनु० / त्ति / एवं करेंतो स परतो भवति। ते य इमे असंजमकज्जा गिहीणं ; संपरिखित्त त्रि० (सम्परिक्षिा वाटेते, स्था० 3 ठा० 4 उ०। गाहा। संपरिखित्तु अव्य० (सम्परिक्षिय परिवार्यत्यर्थे, स्था०५ ठा० 2 उ०।। गिहिणिग्गमणपवेसे, आवाहविवाहविक्कयकए वा। संपरिवुड त्रि० (संपरिवृत) सम्यक् नायकैकचित्ताराधनपरतया परिवृते, गुरुलाघवं कहेंत, गिहिणो खलु संपसारीओ।।१०२।। राः / सम्यक् आराधकभाव विभ्राणः परिवृते, रा) / सम्यक् / गिहिण असं जयाण गिह ओ दिसि जताए वा णिगमण परिवाररीत्या परिवृते, रा० / औ० / भ० / सेवागतना- | देति, गिहि-जत्ताओ वा आगयरस वा पवे संदति, आवाही Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपसारय 203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संपुण्णकिच्छ विट्टिया लंभणयं सुहं दिवसं कहेति, मा वा एयस्स देहि इमस्स वा देहि, सम्प्रातर अव्य० प्रातः-प्रभातं तेन समं प्रातः सम्प्रातः। प्रभातविवाहपडलमादिएहिं जोतिसगंथेहिं विवाहवेल देति, अग्घकंडमादिएहिं समकाले, स्था०३ ठा०१ उ०। गंथेहि इमं दव्वं विकिणाहि इमं वा किणाहि एवमादिएसु कज्जेसु गिहीण संपायणा स्त्री० (सम्पादना) निर्वर्तनायाम, पञ्चा० 13 विव० / गुरुलाघवं कहेंतो संपसारत्तणं पावति। नि० चू० 13 उ०। संपाविउकाम त्रि० (सम्प्राप्तुकाम) प्राप्तुमनसि, "सिद्धिगइनाम-धिज्ज संपहारित्थ त्रि० (सम्प्रहारितवत्) विकल्पितवति. 'संपहारित्थ गमणाए' / ठाणं संपाविउकामेणं” स०१४ सम० / प्राप्तुमना न तु तत्प्राप्तस्याज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कारणत्वेन विवक्षितार्थानां प्ररूपणासंभवात्। प्राप्तुकाम इति च यदुच्यते संपहारिय अध्य० (संप्रधार्य) ज्ञात्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०१चू०२ अ० | तदुपचारादन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केवलिनो भवन्ति 'माक्षे 1 उ० / समालोचितवति. सूत्र०२ श्रु०१०। भवे च सर्वत्र निस्पृहो मुनिसत्तम' इति वचना-त् / भ० 1 श० संपहावण न० (सम्प्रधावन) सम्यगौत्सुक्येन धावने, आचा०२ श्रु० | 10 / १चू०१ अ०३ उ०। संपाविय त्रि० (सम्प्रापित) नीते, प्रश्न०१आश्र० द्वार। संपहिट्ठ त्रि० (सम्प्रहृष्ट) हर्षित, उत्त० 15 अ०। संपासंग (देशी) दीर्घ , दे० ना० 8 वर्ग 11 गाथा। संपहित्ता अव्य० (सम्पिधाय) स्थगयित्वेत्यर्थे, स०३० सम०। संपिंडण न० (सम्पिण्डन) समूहे, औ० / मोदकादिबन्धने, पिं०] संपा (देशी) काञ्च्याम् 'दे० ना० 5 वर्ग 2 गाथा। संपिंडिय त्रि० (सम्पिण्डित) अविच्छिन्ने, प्रव० 2 द्वार / एकतः संपाइन् पुं० (सम्पातिन) सम्पतितुमुत्प्लुत्योत्प्लुत्य गन्तु -मागन्तुं वा पिण्डीभूते, जी०२ प्रति० 4 अधि० / औ० / रा०। ज० मिलिते, ज्ञा० शील येषां ते सम्पातिनः जीवाः / मक्षिकाभ्रमरपतङ्गमशकपक्षिवातादिकषु 1 श्रु० 1 अ० / सम्यक् पुञ्जीकृत, उत्त० 14 अ०। प्राणिषु, आचा०१ श्रु० 1 अ० 4 उ०। संपिंडियकरण न० (सम्पिण्डितकरण) अव्यवच्छिन्ने, प्रव०२ द्वार। संपाइअवं त्रि० (सम्पादितवत्) "भवद्भगवतोः” / 8 / 4 / 265 / / अस्य | संपिणद्ध त्रि० (सम्पिनद्ध) बद्धे, जं० 2 वक्ष० / क्वाचित्कत्वात् नकारस्य मकारादेशः / संपातं कृतवति, सपाइअवं सीसो। संपील पुं० (सम्पीड) संघाते, उत्त० 32 अ० / प्रा०४ पाद। संपुच्छण पुं० (सम्प्रश्न) सम्प्रश्नः सावधो गृहस्थविषयः / रागासंपाइम पुं० (सम्पातिम) सम्पातनशीलेषु शलभादिषु प्राणिषु, सूत्रः | द्यर्थ कीदृशो वाऽहमित्त्यादिरूपे साधुना (दश० 3 अ० / ) गृहस्थगृहे १U०७अ। कुशलादिप्रच्छने, आत्मीयशरीरावयवप्रच्छने च। सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। संपाउप्पायक पुं० (सम्पातोत्पादक) सम्पातानामनर्थमीलकानामु- | नरैरुदन्तवहने, व्य०२ उ०। त्पादकः सम्पातोत्पादकः / अष्टादशे गौणपरिग्रहे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार। संपुच्छिया स्त्री० (सम्प्रोच्छिका) पादादिलूषिकायां सम्मार्जिकायाम्, संपागड त्रि० (सम्प्रकट) गीतार्थसमक्षे, स्था०४ ठा०१ उ०। आव०। ज्ञा० 1 श्रु०७ अ01 संपागडअकिञ्च पुं० (सम्प्रकटाकृत्य) सम्प्रकटानि प्रवचनो संपुंजिऊण अव्य० (सम्पूज्य) सन्मानयित्वेत्यर्थे , पञ्चा०८ विव०। पघातनिरपेक्षतया समस्तजनप्रत्यक्षाण्यकृत्यानि मूलोत्तरगुण- संपुडाग पुं० (सम्पुटक) द्वयोर्वस्तुनोरेकत्र समावेशे, व्य०७ उ०। प्रतिसेवनारूपाणि यस्य स तथा / सम्प्रकटप्रतिसेविनि, बृ०३ उ० | संपुडफलय पुं० (सम्पुटफलक) पुस्तकपञ्चकान्तर्गतऽन्यतमपुस्तके, संपागडपडिसेविन् पुं० (सम्प्रकटप्रतिसेविन्) सम्प्रकटमेव गी- ___"संपुडगो दुगमाई फलगा पोत्थं" संपुटफलको यत्र व्यादीनि फलकानि तार्थप्रत्यक्षमेव प्रतिसवते मूलगुणान् उत्तरगुणान् वा दर्पतः कल्पेन वेति भवन्ति / वणिग्जनस्योद्धारनिक्षेपादिरूपे संपुटकारख्ये करणविशेष, सम्प्रकट प्रतिसेवी। स्था० 4 ठा०२ उ० / सम्प्रकटमगीतार्थ स्था० 4 ठा० 2 उ० / बृ० आव० / नि० चू०। समक्षमकल्प्यभक्तादिप्रतिसे वितुं शीलं यस्य सः / स्था० 4 ठा० | संपुडिय त्रि० (सम्पुटित) सम्पुटं संजातमस्येति सम्पुटिताः, तारकादि२३०। प्रवचनोपघातनिरपेक्षतयैव मूलोत्तरगुणप्रतिसेवके, आव० दर्शनादितः प्रत्ययः। आधन्तकृतसम्पुटे, व्य०२ उ। 3 अ० / नि० चू०। संपुण्ण त्रि० (सम्पूर्ण) समग्रे, प्रतिः / आचा० / उत्त० / विशे०। ज्ञा०। संपाडणहेतु पुं० (सम्पादनहेतु) संपादनार्थे पचा० 6 विव० / संपुण्णकिच्छ न० (सम्पूर्ण कृच्छ) चतुर्गुणिते पादकृच्छ्र तपसि, संपाय पुं० (सम्पात) आगमने, पञ्चा० 6 विव० / चलने, उत्त० 2 अ०। | पादकृच्छत्वे ततः-“एक भक्तो न नक्तेन, तथैवायाचि Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपुण्णकिच्छ 204 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संबंथसंबंधि तेन च / उपवासेन चैकेन, पादकृच्छ्र विधीयते।।१।।" इति सम्पूर्णकृच्छू इह संबन्धोऽनेकधा भवति। यथा पुष्पेषु ग्रथ्यमानेषु यदा सूत्रं तन्तुनिष्ठितं पुनरेतदेव चतुर्गुणितमिति / द्वा०१२ द्वा०। भवति तदा तस्य यदाद्यं सूत्रम् तद्यदि सदृशाधिकारकं भवति तदा सूत्रात् संपुण्णगुण त्रि० (सम्पूर्णगुण) सुविशुद्धज्ञानादिगुणे, जी०१ प्रति०। सूत्रं गुथ्नातीत्युच्यते / क्वापि पुनरादपरं सूत्र संबध्यते। बादशब्दोसंपुण्णघोस त्रि० (सम्पूर्णघोष) सम्पूर्णो घोषः शब्दो यत्र तत्तथा / पादानात्काप्यर्थादर्थस्य संबन्धः क्रियते। बृ०४ उ० / संबन्धस्तु द्विधापूर्णशब्दसहिते, कल्प० 1 अधि० 3 क्षण। उपायोपेयभावलक्षणः, गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च / तत्र प्रथमस्तर्कानुसारिणः संपुण्णदोहला स्वी० (सम्पूर्णदोहदा) अभिलषितार्थपूरणे, भ० 120 प्रति / स चायम्-वचनरूपापन्नं शास्त्रमिदमुपायः, उपेयं-सम्यगेत३ उ० / कल्प० / समस्तवाञ्छितार्थपूरणे, परिपूर्ण मनोरथाया- च्छास्त्रार्थपरि-ज्ञानं मुक्तिपदं वा तस्याप्यतः पारंपर्येण प्राप्तेः / मन्तर्वल्याम, विपा० 1 श्रु०२ अ०। श्रद्धानुसारिणस्तु प्रति गुरुपर्वक्रमलक्षणसंबन्धः, तत्क्रमश्चायम्--प्रथम संपुण्णनाणकरण न० (संपूर्णज्ञानकरण) सर्वविरतिप्रतिपत्तितोऽखण्डे, हि घना-घनपटल इवातिप्रसारिणि पटु तरोज्जृम्भमाण - आप्तवचनानुपालने च / पञ्चा०६ विव०। खरकिरणनिकर-प्रकाशसंकाशकमनीयके वलालोकन्य झारिणि संपुल पुं० (सम्पुल) स्वनामख्याते दधिवाहननृपकञ्चुकिनि, आ०क० घनघातिकर्मनिचये प्रचण्डप्रभजनप्रसारिणेवाध्यामलशुभध्यानेन 1 अ०। आ० म०। प्रलयमापादिते निःशेषयथावस्थितजीवाजीवादिपदार्थसार्थावसंपूयण न० (सम्पूजन) वस्खपात्रादिना पूजने, सूत्र० 1 श्रु० 10 अ०। भासिनि निःसपत्ने समुत्पन्ने केवलज्ञानालोके नाकिनगरगुरुतरविशुद्धसंपेहण न० (सम्प्रेक्षण) पर्यालोचने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। उत्ता आचा० / समृद्धिसंभारतिरस्कारकारिण्यामपापायां नगर्या सकललोकलोसंपेहा स्त्री० (सम्प्रेक्षा) पर्यालोचनायाम, आचा०१ श्रु०२ अ० 2 उ०। चनामन्दानन्दोत्सवकारिनिरुपमप्राकारत्रयो द्वासित समवसरसंफाली (देशी) पड्क्ती , दे० ना० 8 वर्ग 5 गाथा। णमध्यभागव्यवस्थापितविचित्ररत्नखण्डखचितसिंहासनोपविष्टन संफास पुं० (संस्पर्श) “लुप्त य--र--व-श-ष-सांश-ष-सां दीर्घः' विशिष्टमहाप्रातिहार्यादिपरमार्हन्त्यसमृद्धिमहिम्ना भगवता श्रीमन्महा||८।१।१३।। अनेनात्र लुप्तसकारस्यादेः स्वरस्य दीर्घः / संस्पर्शः / वीरेण सुरासुरकिन्नरनरेश्वरनिकरपरिकरिताया परिषदि प्रवचनसंफासो / प्रा० / सङ्घ, आचा० 1 श्रु० 5 अ० 4 उ० / असकृदनीषद्वा सारभूताः सर्वेऽपि पदार्था अर्थतो निवेदिताः, तदनु प्रवचनाधिस्पर्श, दश० 4 अ०। पतिसुधर्मस्वामिना त एव सुत्रतो रचिताः, 'अत्थं भासइ अरहा, सुत्त संब पुं० (साम्ब) अम्बया पार्वत्या सहित इति। उमया सहित शिवे, अन्त०। गंथति गणहरा निउणं' इत्यार्षवचनात्, तदनु जम्बूस्वामिप्रभवशाम्ब पुं० कृष्णवासुदेवस्य जाम्बवतीगर्भसम्भूते पुत्रे, अन्त० / आ००। शय्यं भवयशोभद्रसंभूतविजयभद्रबाहुस्थूलभद्रमहागिरिसुहस्तिआ० चू० / नि०चू० / "द्वारवत्त्यामभूत् पुर्या, वासुदेवो महीपतिः / तस्य स्वातिश्यामार्यप्रभृतिभिः सूरिभिः स्वकीयस्वकीयसूत्रेषु, विस्तृततरपालकशाम्बाद्या, बभूवुर्बहवः सुताः / / 1 / / " प्रव० 2 द्वार। विश०। आ० विस्तृततमविस्तृतेषूपनिबध्यमाना भव्यजनेभ्यश्च प्रकाश्यमाना एतावता म० / शत्रुञ्जयस्तोत्रमध्ये शाम्बप्रद्युम्नाभ्या सहाष्टी कोटयः सिद्धाः भूमिका यावदानीताः ततस्तेभ्योऽपि सूत्रेभ्य ऐदयुगीनमन्दमेधसामवकथितास्सन्ति, केचन सार्द्धकोटित्रयं कथयन्त्यत्र निर्णयः प्रसाद्य इति, बोधाय संक्षिप्यास्मिन प्रकरणे अन्योपकारकरण धर्माय महीयसे च प्रश्रः / अत्रोत्तरम्-श्रीशत्रुञ्जयमहात्म्यानुसारेण श्रीशत्रुञ्जये भवतीत्यधिगतपरमार्थानामविवादो वादिनामत्रेति परोपकाररसिशाम्बप्रद्युम्नाभ्यां सह सार्द्धकोटित्रयं सिद्धमिति ज्ञायते / / 162 // कान्तःकरणप्राक्कालिक श्रुतधराभिहितश्रुतमनुस्मरता मया समुद्सेन० 4 उल्ला० / कुन्थुनाम्नः सप्तदशतीर्थकरस्य प्रथमशिष्ये,प्रव० ब्रियन्ते, इत्येवं परंपरया सर्वविन्मूलमिदं प्रकरणमर्थमाश्रित्य न पुनर्मया 8 द्वार। स०। नूतनं किंचिदत्र सूत्र्यते, इत्यवदातबुद्धीनामिदमुपादेयं भवतीति। प्रवर संबंध पुं० (सम्बन्ध) सड़े, आचा० 1 श्रु०३ अ०१ उ०। संयोगे, पं० / १द्वार। ब०४ द्वार।द्वयोः संश्लेष, स्था० 10 ठा० 3 उ० / 'द्विठसम्बन्धसंवित्ति- संबंधण न० (सम्बन्धन) सम्बन्धे,उत्त० 1 अ०। नैकरूपप्रवेदनात्। द्वयोः स्वरूपग्रहणे, सति सम्बन्धवेदनम्।।१।।' इति | संबंधणसंजोग पुं० (सम्बन्धनसंयोग) संबध्यते प्रायो ममेदमिवचनात् / स्था० / अनन्तरसूत्रादिभिः सह योजने, व्य० 5 उ०। त्यादिबुद्धितोऽनेनास्मिन् वात्माष्टविधेन कर्मणा सहेति संबन्धः स चासौ (संबन्धस्य व्याख्या 'वक्खाण' शब्दे षष्ठभागे गता। संयोगश्च सम्बन्धनसंयोगः। संयोगभेदे, उत्त०७ अ०। (रा च 'संजोग' संबन्ध इति चिन्तयां सबन्धविधिमेव शब्देऽस्मिन्नेव भागे 114 पृष्ठे दर्शितः / ) बद्धीकरणे, स्था० 4 ठा. तावदुपदर्शयति १उ०। सुत्ते सुत्तं वज्झति, अंतिमपुप्फे व वज्झती तंसे। संबंधसंबंधि त्रि० (सम्बन्धसम्बन्धिन) श्वशुरपाक्षिकादिसत्के, विपा० ता (इय)सुत्तातो सुत्तं, अत्थाओ वा भवे सुत्तं / / 1 / / 1 श्रु०२ अ०1 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबन्धसमकप्प 205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संबुद्ध संबंधसमकप्प पुं० (सम्बन्धसमकल्प) सम्-एकीभावेन परस्प रोपकार्योपकारितया च बद्धाः-पुत्रकलत्रादिस्नेहपाश :सम्बद्धा गृहस्थास्तैः समस्तुल्यः कल्पो व्यवहारोऽनुष्ठानं येषां ते / सम्बद्धसमकल्पगृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्टानेषु साधुषु, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ० / संबंधि त्रि० (सम्बन्धिन) पुत्रपौत्राणां श्वशुरादिषु. कल्प० 1 अधि० 5 क्षण / विपा०। औ० / सम्बन्धिनो मातृपक्षीयाः / भ० 3 101 उ० / संबन्धी स्वजनः / बृ० 1 उ०२ प्रक०। संबन्धिनस्तासामेव संयतीनां नालबद्धा वा भ्रातृसम्बन्धयुक्ता इत्यर्थः, श्वशुरकुलानां वा। बृ० 130 3 प्रक० / श्वशुरपुत्रश्वशुरादयः / व्य०५ उ०। ज्ञा० / देवरादिषु, औ०। संबद्ध त्रि० (सम्बद्ध) सम्-एकीभावेन परस्परोपकारितया च बद्धाः सम्बद्धाः। पुत्रकलत्रादिस्नेहपाशैः सम्बद्धेषु गृहस्थादिषु, सूत्र०१ श्रु० 1 अ०४ उ०। लग्ने, विशे। नं०। संबद्धसम पु० (सम्बद्धसम) सम्बद्धा गृहस्थास्तै स्समस्तुल्यः / गृहस्थतुल्ये, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। संबमुणि पुं० (साम्बमुनि) नागेन्द्रकुलीये जम्बूगुरुकृतजिनशतकटीकावृत्तिकारके, वैक्रमीयसंवत्सरे 1025 दुर्गकश्रावकप्रेरणयाऽनेन टीका कृता / जै० इ०। संबल न० (शम्बल) पथ्यदने, संथा०। आ०५०। ज्ञा० / स्वनामख्याते नागकुमारे, आ०म० अ० (तत्कथा 'कंबल' शब्दे तृतीयभागे 176 पृष्ठे दर्शिता।) संबलिफालि स्त्री० (शाल्मलीफालि) शाल्मलीशाखायाम, संथा० / संबसाहस न० (शाम्बसाहस) शाम्बनाम्नः कृष्णवासुदेवपुत्रस्य साहसे, आ०क० 1 अ / ('अणुओग' शब्दे प्रथमभागे कथा गता।) संबाह पुं० (सम्बाध) यात्रासमागतप्रभूतजनविशेषे, व्य०१ उ० / जी०। प्रज्ञा० / नि० चू० / संबाधो नाम यत्र कृषीबललोकोऽन्यत्र कर्षणं कृत्वा वणिग्वर्णो वा वाणिज्यं कृत्वाऽन्यत्र पर्वतादिषु विषमेषु स्थानेषु संवोदमिति कणादिक समुह्य कोष्ठागारादौ च प्रक्षिप्य वसति। बृ० 1 उ०२ प्रक०। प्रभूतचातुर्वर्ण्यनिवासे, उत्त०३४ अ० पर्वतनितम्बादिदुर्गे, औ० / बहुप्रकारलोकसङ्कीर्ण-स्थानविशेषे, अनु० / सोभणबाहा संवाहा सा चउबिहा। नि० चू० 3 30 / ज्ञा०। समभूमो कृषि कृत्वा येषु दुर्गभूभिभूतेषु धान्यादिकृषीवलाः संहवन्ति रक्षार्थमिति स संबाधः / स्था० 1 ठा०। नि० चूत / कल्प० / संबाहो संवोढु, वसति जहि पव्वयाइविसमेसु / बृ० 1 उ० 2 प्रकला यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशे, जी०३ प्रति०४ अधि० / संबाहण न० (सम्बाधन) अङ्ग परिकर्मणि, प्रश्न० 5 आश्र० द्वार / शरीरस्याऽस्थिसुखत्वादिना नैपुण्येन मर्दनविशेषे, स्था० 4 ठा० 4 उ० / विश्रामणायाम, औ०। आत्मनः पादौ संबाधयति, नि०चू०४ उ०। जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा अप्पणो पाए संबाहेज वा पलिमद्देज वा संबाहंतं वा पलिमहतं वा साइज्जइ / / 16 / / सति प्रशंसा सोभणा बाहा संबाहा-सा चउव्विहा अट्ठिसुहा मंससुहा मज्जासुहा तयासुहा सा गुरुमाइयाण वियाले संबाधा भवति / जो पुण अद्धरत्ते पच्छिमरते दिवसतो वा अणेगसो संवाधेति सा परिमद्या भण्णति / नि०यू०३ उ० / आचा०। ज्ञा० / विश्रामणे सकृन्मर्दने, निचू०१ उ०। पर्वतदुर्गे , संबाधशब्दार्थे, संबाधनं चाद्रिशृङ्गे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। संबाहिज्जावंत त्रि० (सम्बाधयत) विश्रामणां कारयति, नि०५० 18 उ० / संबाहित त्रि० (सम्बाधित) सम्-एकीभावेन बाधिताः-पीडिताः। संपीडितेषु, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। संबाहिय त्रि० (सम्बाधित) हस्ताभ्यां कृतोपपीडनसेवे, पिं०। संबिद्ध त्रि० (सम्बिद्ध) सम्यग् ताडिते, आचा०१ श्रु० 5 अ० 3 उ०। संबिद्धपह पु० (सम्बिद्धपथ) सम्यक् बिद्धस्ताडितः क्षुण्णः पन्थाः मोक्षमार्गो ज्ञानदर्शनचारित्राख्यो-येन स तथा। दृष्टप्रयातपथे,आचा० 1 श्रु०५ अ०३ उ०। संबिल्लिय त्रि० (सम्बेल्लित) संवृत्ते, जं०१ वक्ष०1"संवेल्लिय-गसिरया" सं ये सिताग्रशिरोजा संबेल्लित संवृतमगं येषां खरकर्मकरणात्ते सम्बेल्लितायाः, शिरोजाः केशा यासांतास्तथा। जी०३ प्रति० 4 अधि० / संबुक्क पु० (सम्बूक) शङ्खे, स्था० 4 ठा०२ उ०। प्रज्ञा० / उत्त० / स्वनामख्याते अवन्तिसविधे खेटे, 'अवन्तीनामजणवए तत्थ य सम्बुक्के नाम खेडे' महा० 2 चू०। संबुक्कवट्टा स्त्री० (शम्बूकवृत्ता) शम्बूकः शङ्खस्तद्वच्छभ्रमिवदित्यर्थः, या वृत्ता सा शम्बूकवृत्ता / गोचरचर्याभेदे, स्था०६ ठा०३ उ०। इयं च द्वधा तत्र यस्यां क्षेत्रबहिभागाच्छड्सवृत्तत्वगत्या अटन क्षेत्रमध्यभागमायाति साभ्यन्तरशम्बूका, यस्यां तु मध्य-भागाद्वहिर्याति सा बहिःशम्बूकेति। स्था०६ ठा०३ उ० / ध० / गला दशा० / उत्त० / दश० / कल्प० / संबुज्झमाण पुं० (संबुद्ध्यमान) संसारपाताय प्रमाद इत्येवमवगच्छति, आचा० / सम्यक् श्रुतचारित्राख्यं धर्म वा भावसन्धिं वा बुद्ध्यमाने, / विहितानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। सम्बुद्धमानका भवन्ति, तद्यथास्वयम्बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बुद्धबोधिताश्च / आचा० 1 श्रु० 8 अ०३ उ। यथोपदिष्टधर्म सम्यगवबुध्यमाने, आचा०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। संबुद्ध त्रि० (सम्बुद्ध) विदितविषयस्वभावे सम्यग्दृष्टौ, दश० 2 अ० / हेयोपादेयवस्तुतत्त्वं विदितवति, स०१ सम० / उत्त० / सम्यग्ज्ञाततत्त्वे, उत्त० 10 अ० / मिथ्यात्वापगमतोऽवगतजीवाजीवादितत्त्वे, उत्त० 2 अ० / हेयोपादेयोपेक्षपणीयवस्तुतत्त्वं विदितवति, भ०१ श० 1 उ० / Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संबुद्धा 206 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभाणय संबुद्धा स्त्री० (सम्बुद्धा) अपरोपदेशमन्तरेण जायमाने प्रव्रज्याभेदे, | संमंत त्रि० (संभ्रान्त) व्याकुलीभूते,ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। आ० म० / "संबुद्धा तित्थकरा" पं०भा०१ कल्प०। “सम्बुद्धो भरहो राया" पं० चू० | संभंति स्त्री० (संभ्रान्ति) सम्भ्रमे, भ०१६ श० 5 उ०। -1 कल्प। संभंतियवंदणय न० (सम्भ्रान्तिकवन्दनक) सम्भ्रान्तिः सम्भ्रमसंबेल्लि स्त्री० (सम्बेल्लि) मालायाम, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औत्सुक्यं; तया निवृत्तं सम्भ्रान्तिकं यद् वन्दनं तत्तथा। औत्सुक्यसम्बेल्लिय त्रि० (सम्बेलित) संवृत्ते किञ्चिदाकुञ्चिते, जं० १वक्षा जवन्दनक्रियायाम्, भ०१६ श०५ उ० / संकोचिते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। संभग्ग त्रि० (सम्भन) चूर्णिते, उत्त० 16 अ० / ज्ञा०। प्रश्न / संबोह पुं०(संबोध) सुप्तस्य प्रबोधे, स च नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् 'सम्भग्गमउडविडओ-संभग्नो मुकुटविटपः शेखरकविस्तारो यस्य स चतुर्दा / तत्र नामस्थापने सुगमे। द्रव्येद्रव्यविषये सुप्तस्य बोधनम्, भावे- तथा। भ०३ श०३ उ०। भावविषये पुनर्बोधो दर्शनज्ञानचारित्रतपःसंयमा द्रष्टव्याः। सूत्र०१ श्रु० संभम पुं० (सम्भ्रम) व्याकुलत्वे, अनु०। सूत्र०। प्रमोदवृतौत्सुक्ये, ज्ञा० 2 अ० 1 उ०। ( 'वैयालिया' शब्दे षष्ठभागे तदध्ययनोक्तः सम्बोध 1 श्रु० 1 अ०। संक्षोभे, जीत०। प्रश्न० / भक्तिकृतौत्सुक्ये, औ०। उक्तः / ) भगवत्समीपगमने, वनदवाग्नि-सम्भ्रमादिके, व्य०४ उ० / सर्वोत्कृष्टसंबोहण न० (सम्बोधन) आमन्त्रणे, आहाने,आ०म० 1 अ०। सम्भ्रमतो नामेह स्वनायकविषयबहुमानख्यापनपरा स्वनायकोपदिष्ट(तीर्थकृतो लोकान्तिकदेवैः संबोधनं 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2301 कार्यसम्पादनाय यावच्छक्तित्त्वरिता प्रवृत्तिः / रा०। आ०म० / प्रश्नका पृष्ठे उक्तम्।) परचक्रादिभये,अनु०। सत्कारे, आ० म०१ अ०। उदकाग्निह-- संबोहि स्त्री० (संबोधि) सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रावाप्तौ,सूत्र०। स्त्याद्यागमसमुत्थे आकस्मिके संत्रासे, बृ० 1 उ०२ प्रक० / अंतं करंतिदुक्खाणं,इहमेगेसि आहियं / संभयणा स्त्री० (सम्भजना) संवासे, आ०चू० 4 अ०। आघायं पुण एगेसिं,दुल्लमेयं समुस्सये।।१७।। संभरिय त्रि० (संस्मृत) चिन्तिते, हा०२७ अष्ट० / इओ बिद्धंसमाणस्स, पुणोसंबोहिदुल्लमा। संभरित्ता अव्य० (स्मृत्वा) अनुचिन्त्येत्यर्थे , स्था० 4 ठा० 1 उ०। दुलहाओ तहचाओ, जे धम्मटुं वियागरे|१८|| संभली स्त्री० (सम्भली) दूतिकायाम्, व्य०५ उ० / दे० ना०। संभव पुं० (सम्भव) उत्पादे, विशे०। सदा भवने, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। नह्यमनुष्या अशेषदुःखानामन्तं कुर्वन्ति ; तथाविधसामर यभा अनु० / समुत्पत्ती, सूत्र०२ श्रु०१०। ज्ञा०। संभवो त्ति वा, उववत्ति त्ति वाद्यथै केषां वादिनामाख्यातम् / तद्यथा-देवा एवोत्तरोत्तरं स्था-- वा एगट्ठा। आ०चू० 2 अ०। सम्भवति प्रकर्षण भवन्ति चतुस्त्रिंशदतिनमास्कन्दन्तोऽशेषक्लेशप्रहाणं कुर्वन्ति तथेहार्हते प्रवचने इति / शयगुणा यस्मिन्स सम्भवः। आ०म०१ अ०11०। आ० चू०। भारते इदमन्यत् पुनरेकेषां गणधरादीनां स्वशिष्याणां वा गणधरादिभि वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते तृतीये तीर्थकरे, प्रक०८ द्वार। ति०। राख्यातम् / तद्यथा-युगसमिलादिन्यायावाप्तः कथंचित्कर्मविवरात् संभवेणं अरहाएगूणसहिपुव्वसयसहस्साइंआगारमझे वसित्ता योऽयं शरीरमुच्छ्रयः सोऽकृतधर्मोपायैरसुमद्भिर्महासमुद्रप्रभ्रष्टरत्नव मुंडे०जाव पव्वइए। (सू०५६+) त्पुनर्दुर्लभो भवति, तथा चोक्तम्- “ननु पुनरिदमति-दुर्लभमगाध सम्भवस्यैकोनषष्टिः पूर्वलक्षाणि गृहस्थपर्याय इहोक्तः। आवश्यकेतु संसारजलधिविभ्रष्टम् / मानुष्यं खद्योतकतडिल्लताविलसितप्रतिमम् चतुःपूर्वाऽङ्गाधिका सोक्तेति। स०५६ सम०। (अस्य सर्वोऽप्यधिकारः // 1 // " इत्यादि // 17 // 'तित्थयर' शब्दे, चतुर्थभागे 2247 पृष्ठे उक्तः) समुदायेन समुदायिनोअपि च- 'इओ बिद्धं से' इत्यादि / इतः-अमुष्मात् मानुष्यभवा ऽवगम इत्येवं लक्षणे प्रमाणभेदे, खारी द्रोण इत्यादिर्नानुमानात्पृथक् त्सद्धर्मतो वा विध्वंसमानस्याकृतपुण्यस्य पुनरस्मिन् संसारे पर्यटतो तथा हि खारी द्रोणवती खारीत्वात्पूर्वोपलब्धखारीवत् / समुदायेन बोधिः-सम्यग्दर्शनावाप्तिः सुदुर्लभोत्कृष्टतः अपार्धपुद्गलपरा समुदायिनोऽवगम इत्येवलक्षणः संभवः, सचन प्रमाणान्तरम्। रत्ना० वर्तकालेन यतो भवति, तथा दुर्लभा दुरापा तथाभूता सम्यग्दर्शन 2 परि० / प्रव०। प्रसवचरायाम्, दे० ना० 5 वर्ग 4 गाथा। प्राप्तियोग्या अर्चा लेश्या अन्तःकरणपरिणतिरकृतधर्माणामिति / संभवंत त्रि० (संभवत्) वर्तमाने,आचा० 1 श्रु० 6 अ० 4 उ० / यदिवा-अर्चामनुष्यशरीरं तदप्यकृतधर्मबीजानामार्यक्षेत्रसुकुलो- संभवमाश्रित्येत्यर्थे, क० प्र०१ प्रक०। त्पत्तिसकलेन्द्रियसामर यादिरूपं दुर्लभं भवति, जन्तूनां ये धर्मरूप- संभवदेव पुं० (सम्भवदेव) श्रावस्त्यां सम्भवतीर्थकृत्प्रतिमायाम्, मर्थ व्याकुर्वन्ति, ये धर्मप्रतिपत्तियोग्या इत्यर्थः। तेषां तथाभूतार्चा श्रावस्त्यां श्रीसम्भवदेवो जागुलीविद्याधिपतिः। ती० 43 कल्प०॥ सुदुर्लभा भवतीति / / 185 // सूत्र०१ श्रु० 15 अ० संभवसमणंतर न० (सम्भवसमनन्तर) उत्पत्त्यनन्तरे, पं० व० 4 द्वार। संबोहियव्व त्रि० (संबोधयितव्य) आमन्त्रयितव्ये, स्था० 4 ठा०३ उ०। / संभाणय न० (संभाणक ) गुर्जरधरित्रीसत्क नगरभेदे, "इओ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभाणय 207 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभूतविजय अ चंदकुले सिरिवद्धभणसूरिसीसजिणे सरसूरीण सीसो सिरिअ- संभिन्नानि श्रोतासि सर्वाण्यपिपरस्परेन्द्रियाणि यस्याऽसौ संभिन्नश्रोता भयदेवसुरी गुज्जररन्नाए संभाणयट्टाणे विहरिओ।" ती० 52 कल्प० / इति भावः / इत्यत्रापि स एवार्थः / अथवा-द्वादशयोजनस्य संभार पुं० (साभार) बहुद्रव्यसंयोगे, 702 उ० / उपरिप्रक्षेपद्रव्यै-- चक्रवर्त्तिकटस्य युगपद् ब्रुवाणस्य तत्तूर्यसंघातस्य वा युगपदास्फाल्यस्त्वगेलाप्रभृती, ज्ञा० 1 श्रु० 16 अ० / आवश्यकतया कर्मणो मानस्य संभिन्नान् लक्षणतोऽभिधानतश्च परस्परतो विभिन्नान विपाकानुभवने, वेदने, सूत्र०२ श्रु०७ अ० / प्रा० / सम्भ्रियते धार्यत जननिवहसमुत्थान् शङ्कभेरीपणवढक्कादितूर्यसमुत्थान् वा युगपदेव सुबहून सम्भरणं वा धारण संभारः / षष्ठे गौणपरिग्रहे, प्रश्न०५ आश्र० द्वार।। शब्दान्यः शृणोति स संभिन्नश्रोता / एवं च संभिन्नश्रोतृत्वलब्धिरपि संभारघय न० (संभारघृत) संभारो बहुद्रव्यसंयोगस्ततप्रधान घृत ऋद्धिरेवेति। आoचू० 1 अ० सम्भारघृतम्। बहुद्रव्यमिश्रिते घृते, बृ०२ उ०। संमिण्णालाव पुं०(सम्भिन्नालाप) सम्बद्धभाषणे, द्वा०८द्वान संभालणा स्त्री० / सम्भालना) अन्यत्राव्यापारणे, विशे०। संभिय त्रि० (संभृत) संस्कृते, विशे०। सम्यगभृते, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। संभाव धा० (लुभ) विमोहने, “लुभेः संभावः" ||8/4/153 / / अनेन __ आ० म० / स्था०। लुभ्यतेः पाक्षिकः संभाव इत्यादेशः / संभावइ / लुभ्यते। प्रा० / संभु पुं० (शम्भु) शिवे, को। संभावि धा० अनेन संभावयतेः पाक्षिक आसनादेशाभावेसम्भावइ / | संभुजंत त्रि० (सम्भुज्जान) एकमण्डल्यां सम्भोगं कुर्वाणे, नि०चू० सम्भावयति। प्रा०। 10 उ०। संभावणत्थतक्क पुं० (संभावनार्थतर्क) प्राकृतशैल्या अर्थसंभावनातर्कः। | संभुंजण न० (सम्भोजन) एकमण्डल्या भोजनादिव्यवहारे, पं०भा० एवमेव चायमर्थ उपपद्यत इत्यादिरूपेतर्के, दश०४०। 1 कल्प / एकमण्डल्या सम्-एकीभूय भोजने, बृ० 4 उ०। संभुजणा संभावणा स्त्री० (सम्भावना) अर्थालङ्कारभेदे, व्याकरणोक्ते क्रियासु तिविहा-लोइया, लोउत्तरिया, कुप्पावयणिया / पं० चू०१ कल्प० / योग्यताध्यवसाय लिङ् र्थभदे, उत्कटकोटिकसंशयरूपे ज्ञानभेदे च। साम्भोगिकः सह भोजने, व्य०३ उ०। वावः / आचा०॥ संभंजित्तए अव्य० (सम्भोक्तुम्) एकमण्डलीसमुद्देशादिना व्यसंभास पुं० (संभाष) परस्परालापे,बृ० 1 उ० 3 प्रक० / वहारयितुमित्यर्थे , बृ० 4 उ० / स्था०। संभासण न० (संभाषण) उचितकाले स्मरकथाभिर्जल्पे, प्रव० 166 संभुंजिय अव्य० (सम्भुज्य) एकमण्डल्या समुद्देशनादिव्यवहारं कृत्वेत्यर्थे, द्वार। दश०। पं०व०२ द्वार। संभासिय पुं० (संभाषिक) समाप्तभाषाव्यवहारिणि, व्य०४ उ०। संभुल्ल (देशी) दुर्जने, दे० ना०८ वर्ग 7 गाथा। संभिण्ण त्रि० (संभिन्न) सम्-एकीभावेन भिन्ने, विशे० / अबहुभेदमापके, | संभूत (य) त्रि० (सम्भूत) सजाते, आचा०१ श्रु०६ अ० 1 उ० / औ० / प्रव० / आ० चू० आव० / प्रश्नः / समुत्पन्ने, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०४ उ० / सम्यक् संभिण्णवरणाणदंसणधर पुं० (संभिन्नवरज्ञानदर्शनधर) संभिन्ने प्रतिपालनाय संछन्ने, आचा० 1 श्रु० 2 अ० 3 उ० / मिलित्वेत्यर्थे, सम्पूर्ण वरे श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन धरन्ति येतेतथा। केवलिषु, कल्प०१ अधिः अने० / बलदेववासुदेवयोःप्रथमे धर्माचार्ये, स०। ति० / ब्रह्मदत्तचक्र६क्षण। वर्तिजीवे, उत्त० 13 अ० / (सम्भूतकथा 'बभदत्त' शब्दे पञ्चमभागे संभिण्णवित्त पुं० (संभिन्नवृत्त) अखण्डनीयखण्डितचारित्रे, दश०१ चू० / उक्ता।) यशोभद्रशिष्ये, "जसभहसीसो संभूतो संभूअस्सथूलभदं जाव संभिण्णसोय पुं० (सम्भिन्नश्री (तृ) तस्) सम्भिन्नान-बहुभेदभिन्नान पृथक् सव्वेसिं” नि० चू० 5 उ० / वीरजिनजीवस्य पूर्वभवविश्वभूतेनामपृथक् श्टण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः / संभिन्नानि-शब्देन व्याप्तानि क्षत्रियस्य दीक्षाग्राहके यतौ, आ०म०१ अ०। शब्दग्राहीणि प्रत्येकं वा शब्दादिविषयैः श्रोतांसि सर्वेन्द्रियाणि येषां ते संभूत(य)विजय पुं० (सम्भूतविजय) भद्रबाहुस्वामिनो गुरुभ्रातरि तथा / औ० / रा०ा आ० म०। ग० / लब्धिविशेषशालिषु, पा० / 'जे स्थूलभद्रस्य शकटालपुत्रस्य दीक्षादातरि, स्था० 10 ठा०३ उ०। संभिन्नसोय' त्ति- यः सर्वतः सर्वेरपि शरीरदेशैः शृणोति स संभिन्नश्रोता / आ० चू० / नं० / कल्प० / (तद्वक्तव्यता दीर्घदशानामष्टमेऽध्ययने अथवा-श्रोतासीन्द्रियाणि संभिन्नान्येकैकशः सर्वविषयैर्यरय स तथा। प्रोक्ता तत एवावगन्तव्या, परन्त्विदानीं स ग्रन्थ एव व्युच्छिन्नः।) एकतरेणापीन्द्रियेण समस्तापरेन्द्रियगम्यान्विषयान्यो मुणत्यवगच्छति "केवली, चरमो जम्बूस्वाम्यभूत् प्रभवप्रभूः / शय्यं भवो यशोभद्रः, स संभिन्नश्रोता इत्यर्थः। अथवा-श्रोतासीन्द्रियाणि संभिन्नानि परस्परत संभूतविजयस्तथा / / भद्रबाहुः, स्थूलभद्रः श्रुतकेवलिनो हि षट् एकरूपतामापन्नानि यस्य स तथा / श्रोत्रचक्षुः-कार्यकारित्वा- / / 1 / / " अजमहागिरित्तए" आर्यमहागिरिजिनकल्पविच्छे देऽपि च्चक्षुरूपतामापन्नं चक्षुरपि श्रोतृकार्यकारित्वात्तदूपतामापन्नमित्येवं जिनकल्पतुलनामकार्षीत् / कल्प० 2 अधि० 5 क्षण / (अस्य Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभूतविजय 208 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग शिष्यादिकुलं 'थेरावली' शब्दे चतुर्थभागे 2366 पृष्ठे दर्शितम्।) माढागोत्रेऽयं वीरस्य षट्षष्टिसवत्सरे जातः स च द्वाचत्वारिंशद् वर्षाणि गृहिपर्यायं ततः श्रामण्यपर्यायं परिपाल्य युगप्रधानपदवीमुपगत्य नवतिवार्षिक: 156 वीरसंवत्सरे स्वर्गतः। जै० इ०। संभूतिविजय पुं० (संभूतिविजय) स्वनामख्यातेऽनगारे अयं पूर्वभवे प्रतिलाभ्य राजपुत्रो धनपतिनामा सुखेन सिद्धः। विपा०२ श्रु०७ अ० / संभोइत्तए अव्य० (संभोक्तुम्) एकमण्डलीसमुद्देशादिना व्यवहारयितुमित्यर्थे , बृ०४ उ० / भोजनमण्डल्यां निवेशयितुमित्यर्थे, स्था० २ठा०१ उ०। संभोइय पु० (साम्भोगिक) सम-एकत्र भोगो-भोजनं सम्भोगः, साधूनां समानसमाचारितया परस्परमुपध्यादिदानग्रहणसंव्यवहारलक्षण संविद्यते यस्य स साम्भोगिकः / स्था० 3 ठा०३ उ०। एकसामाचारीप्रविष्ट, आचा० 1 श्रु०१ चू०७ अ० 1 उ० एकमण्डलिकादिके, स्था० 4 ठा०४ उ० / प्रव०। संभोएत्ता अव्य० (सम्भोज्य) मिश्रयित्वेत्यर्थे , आचा० 2 श्रु०१ चू० १अ०७ उ०। संभोग पुं० (संभोग) सम्-एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजन संभोगः / स० 11 सम०। एकमण्डल्यां भोजने, उत्त० 16 अ० / ('विसंभोग' शब्दे षष्ठभागेषड् विधः संभोग उपसंभोगश्चोक्तः।) दुवालसविहे संभोगे पण्णत्ता, तं जहा"उवहिसु अभत्तपाणे, अंजलीपग्गहे त्तिय। दायणे य निकाए य, अब्भुट्ठाणेति आवरे।।१।। किइकम्मस्सय करणे, वेआवञ्चकरणे इय। समोसरण संनिसिजाय, कहाए य पबन्धणे // 2 // सम्-एकीभूय समानसमाचाराणां साधूनां भोजनं सम्भोगः स चोपध्यादिलक्षणविषयभेदात्द्वादशधा। तत्र 'उवही' त्यादिरूपकद्वयम् / तत्रोपधिर्वस्त्रपात्रादिस्तं साम्भोगिकः साम्भोगिकेन सार्द्धमुद्गमोत्पादनैषणादोषैर्विशुद्धं गृह्णन् शुद्धः, अशुद्धं गृह्णन् प्रेरितः। प्रतिपन्नप्रायश्चित्तो वारत्रयं यावत्सम्भोगार्हश्चतुर्थवेलायां प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यमानोऽपि, विसम्भोगार्ह इति, विसम्भोगिकेनपार्श्वस्थादिना वा संयत्यावा सार्द्धमुपधि शुद्धमशुद्धं वा निष्कारणं गृह्णन प्रेरितः, प्रतिपन्नप्रायश्चित्तोऽपि वेलात्रयस्योपरिन सम्भोग्यः / एवमुपधेः परिकर्म परिभोग वा कुर्वन् सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति / उक्तं च– “एणं व दो व तिन्नि व, आउटुंतस्स होइ परिछत्तं [आलोचयत इत्यर्थः] / आउदृते वितओ, परेण तिण्ह विसंभोगो / / 1 // " त्ति, 'सूव' त्ति-साम्भोगिकस्यान्यसांभोगिकस्य वोपसम्पन्नस्य श्रुतस्य वाचनाप्रच्छनादिक विधिना कुर्वन् तथा शुद्धः, तस्यैवाविधिनोपसम्पन्नस्यानुपसम्पन्नस्य वा पार्श्वस्थादेर्वा स्त्रिया वा वाचनादि कुर्वस्तथैव वेलायोपरि विसम्भोग्यः। तथा भत्तपाणे' त्ति-उपधिद्वारवदवसेयं, नवरनिह भोजन दानं च परिकर्मपरिभोगयोः स्थानेवाच्यमिति / तथा 'अंजलीपरगहे त्ति य' इहेतिशब्दा उपदर्शनार्थी, चकाराः समु चयार्थाः, तत्रोपलक्षणत्वादञ्जलिप्रग्रहस्य बन्दनादिकमपीह द्रष्टव्य, तथाहि-साम्भोगिकानामन्यसाम्भोगिकानां वा संविद्यानां वन्दनकप्रणाममञ्जलिप्रग्रह नमः क्षमाश्रमणेभ्य इति भणनम, आलोचनासूत्रार्थनिमित्तनिषद्याकरणं च कुर्वन् शुद्धः / पार्श्वस्थादेरेतानि कुर्वस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति।तथा 'दायणे य'त्ति-दानं, तत्र साम्भोगिकः साम्भोगिकाय (वस्त्रादिभिः शिष्यगणोपग्रहासमर्थे साम्भोगिके) अन्यसाम्भोगिकाय वा शिष्यगणं यच्छन् शुद्धः, निष्कारण विसाम्भोगिकस्य पार्श्वस्थादेर्वा संयत्या वा तं यच्छंस्तथैव सम्भोग्यो विसम्भोग्यश्चेति। तथा निकाएय'त्ति-निकाचन छन्दनं निमन्त्रणमित्यनान्तरम्, तत्र शय्योपध्याहारैः शिष्यगणप्रदानेन स्वाध्यायेन च साम्भोगिकः साम्भोगिक निमन्त्रयन् शुद्धः, शेषं तथैव / तथा 'अब्भुट्टाणे त्ति यावरे' त्ति-अभ्युत्थानमासनत्यागरूपमित्यपरं सम्भोगासम्भोगस्थानमित्यर्थः, तत्राभ्युत्थानं पार्श्वस्थादेः कुर्दस्तथैवासम्भोग्यः, उपलक्षणत्वादभ्युत्थानस्य किङ्करता च-प्राघूर्णकग्लानाद्यवस्थायां कि विश्रामणादि करोमीत्येवं प्रश्रलक्षणां तथाऽभ्यासकरणंपार्श्वस्थादिधर्माच्च्युतस्य पुनस्तत्रैव संस्थापनलक्षणं, तथा अविभक्तिं चअपृथगभावलक्षणां कुर्वन्नशुद्धोऽसम्भोग्यश्वापि / एतान्येव यथाऽऽगमं कुर्वन् शुद्धः सम्भोग्यश्चेति, तथा 'किइकम्मरस य करणे' त्ति-कृतिकर्मवन्दनकं तस्य करणंविधानं तद्विधिना कुर्वन शुद्धः, इतरथा तथैवासम्भोग्यः / तत्र चाय विधिः--यः साधुवतिन स्तब्धदेह उत्थानादिः कर्तुमशक्तः स सूत्रमेवास्खलितादिगुणोपेतमुच्चारयति, एवमावत्त'शिरोनमनादियच्छक्गोति तत्करोत्येवं चाशठप्रवृत्तिर्वन्दनविधिरिति भाव। तथा 'येयावचकरणे इय' त्ति-वैयावृत्त्यम्-आहारोपधिदानादिना प्रश्रवणादिमात्रकाप्पण्यादिनाऽधिकरणोपशमनेन साहाय्यदानेन वोपष्टम्भकरणं तस्मिंश्च विषये सम्भोगासम्भोगौ भवत इति / तथा 'समोसरण' ति-जिनस्नपनरथानुयानपट्टयात्रादिषु यत्र बहवः साधवो मिलन्ति तत्समवसरणम् / इह च क्षेत्रमाश्रित्य साधूनां साधारणोऽवग्रहो भवति, वसतिमाश्रित्य साधारणोऽसाधारण-श्चेति / अनेन चान्येऽप्यवग्रहा उपलक्षिताः, ते चानेके, तद्यथा-वर्षावग्रह ऋतुबद्धावग्रहो वृद्धवासावग्रहश्चेति। एकैकश्वायं साधारणावग्रहः प्रत्येकावग्रह श्चेति द्विधा। तत्र यत् क्षेत्रं वर्षाकल्पाद्यर्थ युगपत् व्यादिभिः साधुभिभिन्नगच्छस्थैरनुज्ञाप्यते स साधारणः, यत्तु क्षेत्रमेके साधवोऽनुज्ञाप्याश्रिताः स प्रत्येकावग्रह इति / एवं चैतेष्ववग्रहेषु आकुट्टया अनाभाट्यं सचित्त शिष्यमचित्तं वा वस्त्रादि गृह्णन्तोऽनाभोगेन च गृहीतं तदनर्पयन्तः समनोज्ञा अमनोज्ञाश्च प्रायश्चित्तिनो भवन्त्यसंभोग्याश्च / पार्श्वस्थादीनां चावग्रह एव नास्ति तथापि यदि तत् क्षेत्रं क्षुल्लकमन्यत्रैव च संविना निर्वहन्ति ततस्तत् क्षेत्र परिहरन्त्येव। अथ पार्श्वस्थादीनां क्षेत्र विस्तीर्ण सविग्नाश्चान्यत्र न निर्वहन्ति ततस्तत्रापि प्रविशन्ति, सचित्तादि च गृह्णन्ति, प्रायश्चित्तिनोऽपि न भवन्तीति। आह च- "समणुन्नमसमणुनने, अदिन्नणाभवगिण्हमाणे वा / सम्भोग वीसुकरण, (पृथक्करणमित्य Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग थः] इयरे य अलभ पेलति / / 1 / " [इतरान् पार्श्वस्थादीनित्यर्थः।] तथा 'सन्निसिज्जा य' त्ति सन्निषद्या-आसनविशेषः, सा च सम्भोगाऽम्भोगकारणं भवति / तथाहि-संनिषद्यागत आचार्यो निषद्यागतेन सम्भोगिकाचार्येण सह श्रुतपरिवर्तना करोति शुद्धः। अथामनोज्ञपार्श्वस्थादिससाध्वीगृहस्थैः सह तदा प्रायश्चित्ती भवति। तथा अक्षनिषद्या विनाऽनुयोग कुर्वतः शृण्वतश्च प्रायश्चित्तम्। तथा निषद्यायामुपविष्टः सूत्रार्थी पृच्छति, अतिचारान् वाऽऽलोचयर्ति, यदि तदा तथैवेति। तथा 'कहाएं य पबंधणे'त्ति कथा-वादादिका पञ्चधा, तस्याः प्रबन्धन-प्रबन्धेन करणं कथाप्रबन्धन, तत्र सम्भोगासम्भोगौ भवतः। तत्र मतमभ्युपगम्य पञ्चावयवेन व्यवयवेन वा वाक्येन यत्तत्समर्थनं स छलजातिविरहितो भूतान्वेिषणपरो वादः / स एव छलजा तिनिग्रहस्थानपरो जल्पः। यत्रकस्य पक्षपरिग्रहोऽस्ति नापरस्य सा दूषणमात्रप्रवृत्ता वितण्डा। तथा प्रकीर्णकथा चतुर्थी / सा चात्सर्गकथा द्रव्यास्ति-कनयकथा वा ; तथा निश्चयकथा पञ्चमी, सा चापवादकथा पर्यायास्तिकनयकथा वेति तत्राद्यास्तिसः कथाः श्रमणीवजैः सह करोति, श्रमणीभिस्तु सह कुर्वन् प्रायश्चित्ती। चतुर्थवलाया चालोचयन्नपि विसम्भोगार्ह इति रूपकद्वयस्य संक्षेपार्थः। विस्तरार्थस्तु निशीथपञ्चमोद्देशकभाष्यादवसेय इति / स० 12 सम०। उता प्रत्यक्ष प्रत्येकं सम्भोगःजे निग्गन्था य निग्गम्थीओ य संभोइया सिया, नो पहं कप्पइ पारोक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करेत्तए। कप्पइण्हं पञ्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोइयं करेत्तए। जत्थेव अन्नमन्नं पासेज्जा, तत्थेव एवं वएज्जाअहोणं अजो ! तुमाए सद्धिं इमम्मि कारणम्मि पचक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेमि: सेयपडितप्पेञ्जा, एवं से नो कप्पइ पञ्चक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए, से य नो पडितप्पेजा। एवं से कप्पइ पच्चक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए।।३।। जाओनिग्गन्थीओ वा निग्गन्था वा संभोइया सिया, नोण्हं कप्पइ पच्चक्खं पाडिएक्कं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए, कप्पइ ण्हं पारोक्खं पाडिएक्कं संभो-इयं विसंभोगं करेत्तए। जत्थेव ताओ अप्पणो आयरियउवज्झाए पासेज्जा, तत्थेव एवं वएज्जा-अहणं भन्ते !अमुणीए अज्जाए सद्धिंइमम्मिकारणम्मिपारोक्खं पाडिएक संभोइयं विसंभोगं करेमिासाय से पडितप्पेज्जा, एवं सेना कप्पइ पारोक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए / सा य से नो पडितप्पेज्जा, एवं से कप्पइ पारोक्खं पाडिएकं संभोइयं विसंभोगं करेत्तए॥४॥ ये निग्रन्था निर्गन्थ्यश्च सांभोगिकाः स्युस्तेषां 'नो णमि' ति वावयालंकारे, कल्पते परोक्षे प्रत्यक्ष सांभोगिक विसाभोगिक कतु , यत्रव एवं वदेत् 'अहाण' मिति पूर्ववत्। अहो-आर्य ! त्वया सार्द्धमस्मिन्कारणे प्रत्यक्ष प्रत्येक साम्भोगिक विसम्भोग करोमि, एवमुक्तेयदि स परितप्यते / मिथ्यादुष्कृतं न भूय एवं करिष्यामि, एवं सति 'से' तस्य न कल्पत त्रयाणा प्रत्यक्ष प्रत्येक सांभोगिक विसाम्भोगिक कर्तुम् / अथ सन परितप्यते एवं सति 'से' तस्य कल्पते त्रयाणां प्रत्येक साम्भोगिक विसाम्भोगिकं कर्तुमिति सूत्राक्षरार्थः ||3|| या निन्थ्यो निर्गन्था वा साम्भोगिकाः स्युस्तेषां न कल्पते प्रत्यक्ष प्रत्येक साम्भोगिकी विसंभोगा कर्तुम्। यत्रैव ता निर्ग्रन्थ्य आत्मीयानाचार्योपाध्यायान् पश्यन्ति तत्रैव एवं वदन्ति। अथणमिति वाक्यालंकारे। भदन्त ! अमुकया सहास्मिन् कारणे समापतिते परोक्षं प्रत्येक साम्भोगिकं विसंभोगं करोमि / सा च 'से' तस्याः प्रवर्तिन्याः परितपति मिथ्यादुष्कृतप्रदानेनानुतपति असदा तदाख्यानमिति प्रत्याययति / एवं सतिन कल्पते परोक्ष प्रत्येकं सांभोगिक विसंभोग कर्तुम। अथ सा तस्याः प्रागुक्तप्रकारेण नानुपतिता एवं सति 'से' तस्याः कल्पते परोक्षं प्रत्येकं संभोग कर्तुमिति सूत्राक्षरार्थ: / व्य०अ० ७उ०। अधुना भाष्यकार आहसंभोगो पुव्युत्तो, पत्तेयं पुण वयंतिपडिएक्कं / तप्पंते समणुण्णे, पडितप्पणमाऽणुतप्पंतु॥४६|| संभोगः पूर्व निशीथाध्ययने उक्तः, 'पडिएके' पुनर्वदन्ति प्रत्येक यो विसंभोग करोति स तप्यते, यथा एतेन नाम शय्या तरपिण्डप्रतिरो चितो हा कष्टमेवं तप्यन्तमितरो ज्ञात्वाऽनुतप्यते, एष मम दोषेण तप्यति तस्मात प्रत्याययामि, यथाअसदेतत् यदहं शय्यातर पिण्ड सेवितवान्। अथ स तुतदाऽसौ चिन्तयति मम दोषेणैष तप्यतु तस्मात् मिथ्यादुष्कृतं करोमि, एवं सविग्ने तप्यति यदनुतपनं तत् प्रतिपतनमिति। तदेवं भाष्यकृता विषमाणि सूत्राक्षराणि विवृतानि / / संप्रति नियुक्तिविस्तरःसागारियगिहानिग्ग-ते य वडघरिए जंबुघरए य। धम्मियगुलवाणियए, हरितालित्ते यदीवे य॥४७।। सागारिके शय्यातरगृहान्निर्गले पटगृहिक जम्बूगृहिके या अराद् व्याख्यानेन विसंभोगः कृतः / इयमक्षरघटना भावार्थस्त्वयम-एकस्मिन नगरे आचार्यस्य वटगृहिकः शय्यातरस्तरिमन्नेव नगरे आर्यो जम्यूग्राहको गृहस्थोऽस्ति ताभ्यां वगृहिकजम्बूगृहिकाभ्यामात्मीयं गृहं कारितम्। तयोश्च निर्मापितया द्वयारपि गृहयोः कपोताः प्रविष्टास्ततोऽमइलामति मन्यमामौ ता नैमित्तिकं पृच्छतः। कथमतस्य दुनिमित्तस्य व्याघाता भवेत् ? नैमित्तिका वदति-वटगृहिको जम्बूगृहिकस्य गृहमधितिष्ठ तु, जम्बूगृहिको वटगृहकगृहम्। ततः कतिपयानि दिनानि स्थित्या पश्चान्निजनिजगृहे गच्छेताम्। तौ परस्परे गृहे संचरितौ अथान्यदा अन्यस्मात् गच्छात् प्राघूर्णकाः समागतः, ततो वास्तव्यैर्जम्यूगृहिकगृहं प्रविष्टस्य गृहात्प्रत्यमालिकाभानीय तेषा प्राघूर्णकाना दत्ता तैः शय्यातरपिण्ड मन्यमानेरुपरोधवशादप्रीत्या भुक्तास्ततस्ते प्राघूर्णका निर्गत्य आत्मीयस्याचार्यस्य समीपं गत्वा आलोचयन्ति। अस्माकं सांभोगिकाः Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 210 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग शय्यातरपिण्ड भुजते अस्माभिः कथमप्यपरोधवशादप्रीत्या | तेन यद्यवि चार्य विसंभोगः क्रियते तदा अत्र सूत्रोपनिपातः। . प्रथमालिका भुक्ता, एवं श्रुत्वाऽऽचार्योऽपि अविचिन्त्य यदि विसंभोगं 'दीपो / ' त्यस्य व्याख्यानम्तं करोति तदा अत्रैतदधिकृतसूत्रं पतति। छिण्णाणिवा विहरिताणि,पविहो दीवएणवा। तथा चाह भाष्यकार: कयकजस्स पम्हुढे, सो विजाणे दिणे दिणे॥५३॥ नवघरकवोतपविसण, दोण्हं नेमित्तिजुगव पुच्छाय। यस्यां शय्यायां संयताः स्थिताः तत्र शय्यातरः केनापि कारणेन अण्णोण्णस्स घराई, पविसधनेमित्तिओ भणई॥४८|| प्रदोषदीपकेन सह प्रविष्टस्ततो येन कार्येण समागतस्तत्कार्यं कृत्वा आदेसागम पढमा, भोत्तुंलज्जाऍ गंतु गुरुकहणं। निर्गतः, दीपस्तत्रैव विस्मृतः, तत्र च तस्मिन् दिवसे सांभोगिकाः सोजइ करेज वीसु,संभोग एत्थ सुत्तं तु // 46|| समागताः / स च प्राघूर्णको बृहत्तरः शय्यातरस्य कृतकार्यस्य विस्मृतं नवयोहयोः कपोतानां प्रविशनं, ततो द्वयोरपि गृहस्वामिनोर्यु- | दीपं जानाति दिने दिनेक्सतौदीपः क्रियते। एतच ज्ञात्वा गुरोः प्राधूर्णकन गपन्नैमित्तिको भणति-अन्योन्यस्य गृहं प्रविशताम्। तौ च प्रविष्टावन्यदा कथितं, स च विचिन्त्य विसंभोगं कृतवान् / अत्राप्यधिकृतसूत्रआदेशानां प्राघूर्णकानामागमस्ततो वास्तव्यैर्जम्बूगृहि-कस्य वटगृहिक स्योपनिपातः। गृहं प्रविष्टस्य गृहात्प्रथमालिका आनीता तां लज्जया भुक्त्वा ततो निर्गत्य एतानि सन्ति तानि कारणानि। अत्र प्रायश्चित्तविधिमाहगुरुसमीपं गत्वा गुरोः कथनं, स यद्यविचार्य विष्वक्संभोगं तं करोति। दलु साहण लहुओ, वीसुकरेंताणलहुगआणादी। अद्धाणनिग्गयादी, दोण्हंगणभंडणं चेव॥५४॥ / तदा अत्र सूत्रमापतितं द्रष्टव्यम् / अत्र विचारो यदि तावित्वरं गृहपरिवर्त योऽसन्ति कारणान्यविवेच्य गुरोर्निवेदयति तस्य प्रायश्चित्तं लघुको कृतवन्तौ तदा स जम्बूगृहिकोऽशय्यातर एव / अथ यावत्कथिकस्तदा जम्बूगृहिक एव शय्यातरः। मासः, कथितेऽपि यद्याचार्यान विवेचयन्ति अविवेच्यच विसंभोगं कुर्वन्ति तदा तेषां विष्वक् कुर्वतां चत्वारो लघुकाः / न केवलं प्रायश्चित्तं किं 'धम्मिय' त्ति अस्य व्याख्यानमाह त्वाज्ञाभङ्गादयश्च दोषाः। तथा अध्वादिनिर्गतानामादिशब्दाद-शिवादिधम्मितो देउलंतस्स, पालेइजइ भद्दओ। कारणपरिग्रहः द्वयोरपि गणयोर्भण्डनं च। सोयसंवट्टियं तत्थ,लद्धं देखा जईण उ॥५०॥ ___एतदेव च स्पष्टं भावयतितस्य शय्यातरस्य किंचित् देवकुलं तत्धार्मिकः पालयति, सच यतीनां तं सोउं मणसंतावो, संतईए ति तुट्टई। भद्रकस्ततः संवर्द्धितमग्रकूरं तस्मिन् शय्यातरगृहे लब्धं साधूनामानीय अण्णे विते विवज्जंति, वज्जिया अमुएहि वा / / 55|| ददाति, अत्रापि तथैव प्राधूर्णकागमनं, धामिकात् प्रथमालिकानयन येतेषां सांभोगिकास्तैःतत् शय्यातरपिण्डाद्यासेवनं श्रुत्वा मनःसंतापः मित्यादि सर्वं तथैव वाच्यम्। क्रियते, यथा तेन धर्मश्रद्धिकेनापि भवतां शय्यातरपिण्डाद्य'गुलावाणिय' इत्यस्य व्याख्यानम् कल्पिकमासेवितमतोऽद्य प्रभृत्यस्माकं संततेस्त्रुट्य (स्तुद्य) तिवाणियओयगुलं तत्थ, विकिणंतोउदंतए। पृथविभिन्न इत्यर्थः / ततो येऽन्ये तेषां सांभोगिकास्तेऽपि तान् तत्थमोबाहिरेहुजा, अडं कच्छपुडेणवा // 11 // विवर्जयन्ति, यतस्तेऽवसन्ना जातास्ततोऽमुकेनाचार्येण विवर्जिताः। शय्यातरगृहे स्थितो गुडवणिक्, स तत्र गुडं विक्रीणन् साधूनां गुडं ततो वा अन्नतो वा वि, तं सुचा इह निग्गया। ददाति / अथवा-शय्यातरस्यापवरिकायामात्मीयभाण्डे निक्षिप्तं, ततः वछत्ताजंतु पार्वति, निजरातोय हावित्ता॥५६|| कच्छपुटेनाटित्वा तत्रैव समागच्छति,स चाटन् यदा तदा वा साधूनां ततस्ते विवर्जिता अध्वनिर्गता अशिवादिकारणेन वा निर्गताः, इह यत्र भिक्षां ददाति। ततः प्राघूर्णकागमनमित्यादि विभाषा। ते पूर्वसांभोगिकास्तिष्ठन्ति तत्र प्राप्तास्ततो यैरविवेच्य शय्यातरतथैव 'हरितोपलिप्तेः' इत्यस्य व्याख्यानम् पिण्डादिकमासेवितमित्याचार्याणां कथितं, तेभ्योऽन्येभ्यो वा श्रुत्वा यूयं हरितोलित्ता कया सेजा, कारणे ते य संठिया। पृथकृता इत्याकर्ण्य तं गणं वर्जयित्वा यतः प्रथमद्वितीयपरीषहापसज्झावसहिपालस्स, चेइयट्ठागणागए॥५२॥ भ्यामनागाढादि परितापनं प्राप्नुवन्ति। तन्निष्पन्नमविवेच्य विसंभोगछिन्नानि वा हरितानि, छगणेन वसतिरधुनोपलिप्ता कृता, हरितानि कारणं प्रायश्चित्तम् / 'निजरातो य हाविता' इति तेषाम्-अध्वादिच तत्र परिसाटितानि / तस्यामधुनोपलिप्तायां पातितेषु वा हरितेषु निर्गतानां ते वास्तव्या वैयावृत्त्यं कृत्वा निर्जरां प्राप्नुयुस्तेततो हापिताः साधवः कारणेन स्थिताः / अथवा-पूर्वस्थितानां चैत्यवन्दनार्थ गणे प्रभूते च कर्म अविवेच्य न तवध्यते,यन्महता संसारेण निस्तरीतुं निर्गते पश्चात् वसतिपालस्य प्रसह्य बलात्कारेणोपलिप्ता कृता, शक्यते। हरितानि च पातितानि / अत्रा वसरे प्राघूर्णकाः समागतास्ते वसतिं तं कज्जतो अकजे, वा सेवियं जइ वितं अकज्जेण। दृष्ट्वा चिन्तयन्ति प्रतिदिवसमुपलिप्यते शय्या आचार्यस्य कथितम्। नहु कीरइ पारोक्खं, सहसा इति भंडणं हुया / / 57|| Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 211 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग यस्मादेते दोषास्तस्मात्कार्यतः कारणेन कार्ये वा कारणाभावे वा यद्यपि सेवितं तत् शय्यातरपिण्डादिकं तथा ऽप्यकार्येण एवमेव परोक्षं सहसा इत्येव न विसंभोगः क्रियते, मा परस्परं द्वयोगणयोर्भण्डनं भूयादिति हेतोः / कथं विवेकः कर्त्तव्य इत्यत आहनिस्संकियं च काउं,आसंकनिवेयणा तहिं गमणे। सुद्धेहिं कारणमणा-भोगजाणता दप्पतो दोण्हें / / 5 / / तैः प्राघूर्णकैस्ते प्रष्टव्याः, को युष्माकं शय्यातरः? कथ मेष शय्यातरो न भवति? एवं निःशङ्कितं कृत्वा / अथ लज्जया न पृष्टास्ततो न निश्चय इति एवमाशङ्कानिवेदनायां कृतायां यस्याचा-य॑स्य कथित तेन प्रेषितस्य संघाटस्य तत्रगमन, तेन च संघाटकेन गत्वा यत्तः कथितम् / तत्तेन प्रष्टव्यम्, ते गृहपरिवादि यथातथ्यं कथयन्ति / ततः संघाटो गत्वा निजसूरिसमीपं कथयति / एवम-क्रियमाणे द्वयोर्गणयोर्भण्डनम्। तदेव पश्चाद्धेन भावयति- 'सुद्धेहिं' शुद्धैरप्यस्माभिः समं यूयं विसंभोग कुरुथ / अथवा-कारणं गृह-परिवर्तादिकमधिकृत्य तत् गृहीतम् / यदि वाअनाभोगेन गृहीतम्। अथवा-द्वयोः प्रथमद्वितीयपरीषहयोरुदीर्ण - योर्जानता दर्पतो गृहीत, पुनः पश्चात् कृता शोधिः / अपि च यदि च निष्कारणेऽपि गृहीत तथापि न युक्तं परोक्षं वि संभोगकरणम् / यदि वयं नावृता भवामस्ततो युक्तं विसंभोगकरणम् / अथ कारणे गृहीतं तदा वयं शुद्धा एव कथ विसंभोगकरणमेव भण्डनं स्यात्। सांप्रतं 'कारणमनाभोगे' ति पदद्वयं व्याख्यानयतिकजेण वा वि गहियं, सागॉरपरियट्टतो व सो अम्हं। कारणमजाणतो वा, गहियं कि सूचिकरणं तु॥५६।। कार्येण च गृहीतमस्माभिर्वापिशब्दो विकल्पने / तच्च कार्य मस्माकं स्वागारपरिवर्तः / अथवा-कारणमजानता यदि गृहीत तथापि किं | कस्मात् परोक्षे शौधिकरणविसंभोगकरणम्। सम्प्रति 'जाणता दप्पतो' इति व्याख्यानयतिजाणंतेहि व दप्पा, घेत्तुं आवट्टिउं कया सोही। तुज्झत्थ निइरयारा, पसीय भंते ! कुसीलाणं // 60 / / जानद्भिरपि वा प्रथमद्वितीयपरीषहत्याजितो दर्पतो गृहीत्वा आवृत्य कृताऽरमाभिः शोधिः तस्मात् यूयमेवात्र गतिर्निरतिचारा भदन्त ! कुशीलानामस्माकं प्रसीदतेत्युपहासवचनमेतत्। पढमविश्य दप्पेणं, जं सव्वं आउरेहि तं गहियं / दिटुंताणि भवंतो, जं विइयपएसु नित्तण्हा।।६१॥ प्रथमद्वितीययोः परीषहोदयन यत्तत्सर्वमातुरैर्गृहीतं, युष्माभिस्तत विस्मृतं दृष्टान्ता भवन्त इत्यर्थः, नीयते द्वितीयपदेषु निस्तृष्णा इति, एतदप्युपहासवचनम् / एवं भण्डनं प्रवर्तते। यत एवं परोक्षे विसंभोगकरणे | भण्डनदोषास्तरमात्कल्पते निर्ग्रन्थानां प्रत्यक्षं सांभोगिकं विसंभोगं कर्तुम्। अस्य सूत्रस्य व्याख्यानमाहसत्तमए ववहारे, अवराहविभावियस्स साहुस्स। आउट्टेणाउट्टे, पञ्चक्खेणं विसंभोगो॥६२।। अस्मिन् सप्तमे व्यवहारस्योद्देशके अपराधेन विभावितः परिभावितो यदि प्रत्यावर्तते तदा तस्यापराधविभावितस्य साधोरावृत्तस्य विसंभोगो न क्रियते, प्रायश्चित्त पुनर्दीयते / अथ नावर्त्तते ततो वारत्रयं भण्यते, आवर्तस्व महानुभाव ! एवमुक्तोऽपि यदि नावर्तत तदा तस्मिन्ननावृत्ते प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षतया विसंभोगः क्रियते।। संभोगऽभिसंबंधे-ण आगतो केरिसेण सह नाओ। केरिसएण विसंभो-गो भणइ सुणसुसमासेणं // 63|| एवमभिसंबन्धेन संभोगतः शिष्यः पृच्छति कीदृशेन सह संभोगो ज्ञेयः, कीदृशेन सह विसंभोगः / सूरिराह-भण्यते एतत्समासेन तत्त्व भण्यमानं शृणु। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपडिसेहे पडिसेहो, संविग्गे दाणमादि तिक्खुत्तो। अविसुद्धे चतुगुरुया, दूरे साहारणं काउं।।६।। प्रतिषिध्यते पार्श्वस्थत्वादिक न कल्पते इति निवार्यते इति प्रतिषेधः, असंविग्नः-पार्श्वस्थादिः भण्यते, तस्मिन् प्रतिषेधे असंविग्ने दानादेदानग्रहणसंसदिः प्रतिषेधः / त्रिःकृत्व इति यदि कथमपि दानादि करोति तदा एकं द्वौ त्रीन्वारान वार्यते / एकैकरिंमश्च धारे, प्रायश्चित्तं मासलघु। वारत्रयवारणेऽपि यदि भूयस्तैः सह दानादि करोति तदाऽसो अविशुद्धः इति विसभोगः क्रियते-विसांभोगिक करोति, तस्य प्रायश्चित्त चत्वारो लघुकाः / दूरे गतानां यदि केऽपि पृच्छन्ति, यथा सत्यमरमाकं च सांभोगिकास्तत्र देशे इति? तदा साधारणं कृत्वा वक्तव्यम् यदा तदा सांभोगिका अभवन इदानीं पुनर्न जानीमः किमनुपालयन्ति सांभोगिकत्व किं वा नेति। एष नियुक्तिगाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव भाष्यकारो विवरीषुराहपासत्थादिकुसीले, पडिसिद्धे जो उ तेसि संसग्गी। पडिसिज्झइ एसो खलु, पडिसेहे होइ पडिसेहो // 65 // पार्श्वस्थादिक कुशीलस्थान प्रतिषेधे यत्तेषां पार्श्वस्थादिस्थाने वर्त्तिनां संसगी प्रतिषेध्यते स च संसर्गी दानग्रहणाभ्यामवसातव्य एष भवति प्रतिषेधः / न चैष प्रतिषेधनार्थः / यत आह.. सूयगडंगे एवं घ-म्मज्झयणे निकाचितं / अकुसीले सया भिक्खू, नो य संसग्गियं वदे // 66 / / सूत्रकृताङ्गे द्वितीये स्कन्धे धाऽध्ययने एवं निकाचितम्-एच निश्चयपूर्वकं भणितम्। यथा सदा भिक्षुरकुशीलो भवेद् नैव कुशीलैः सह संसर्गिकं ब्रजेत। दाणादीसंसग्गी, संघकते तिप्पडिसिद्ध लहतो। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 212 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग आउट्टे उ असुद्धे, गुरुतो उ होइ तेण परं / / 67 // दानादिभिः संसर्गिः दानादिसंसर्गिस्तस्यां (इकारान्तः संसर्गिशब्दः / (सूत्र-१४) प्रश्न० 4 आश्र० द्वार 1 )कृतायां स प्रतिषिध्यते, आर्य ! कस्मात्पार्श्वस्थादिभिः सम संसर्गिकरोषि, एवं प्रतिषिद्धे यदिस आवर्त्तते तदा स साभोगिक एव केवलं तस्मिन्नावृत्ते प्रायश्चित्तं लघुको मासः / द्वितीयमपि वारं यदि करोति ततोऽपि मासलघु, अथ तृतीयमपि वारं करोति आवर्त्तते च तदापि मासलघु, सद्भावतरित्रःकृत्व आवृत्ते लघुको मासः। तेन परमिति ततस्तृतीयवारात् परं यदि चतुर्थवारं संसर्गिकरोति तदा असो अशुद्ध इति तस्य प्रायश्चित्तं गुरुको मासः। एतदेव स्पष्टतरमाहतिक्खुत्तो मासलहू, आउट्टे गुरुगों मासों तेण परं। अविसुद्धे तं वीसु, करोति जो भुंजती गुरुगा॥६॥ त्रिःकृत्व आवृत्ते प्रायश्चित्तं लघुको मासस्ततः परं भूयः संसर्गिकरणे सोऽविशुद्ध इति गुरुको मासः, त च विष्वक् विसंभोग करोति। योऽपि तं संभुङ्क्ते तस्यापि प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। अथ कस्मत् वारत्रयात् परं भूयः संसर्गिकृतो विसंभोगः क्रियते इत्यत आहसति दोणि वा वि होज, अमाई तुमाइतेण परं। सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदो॥६६॥ सकृत-एकवार द्वौ त्रीन वारान् वा स्यादमायी, ततस्तृतीयात् बारात् परं संसर्गिकरणे मायी / अथ शुद्धस्य भवति चरणं मायासहिते तु चरणभेदश्चरणाभावस्ततो विसंभोगः क्रियते। एवं पासत्थादिसु, संसग्गियवारियाय आएसा। समणुण्णे विऽपरिच्छिते, विदेसमादीगते एवं॥७०।। एवम्-उक्लेन प्रकारेण एषा दानग्रहणाभ्या संसर्गिवारिता, एवं रामनोज्ञेऽपि विदेशादागते अपरीक्षिते संसर्गिवारिता द्रष्टव्या / तेनापि सह संसर्गिः परीक्ष्य कर्तव्यो नान्यथेति भावः। संप्रति 'दूरे साहारणं काउ' मित्यस्य विभावनार्थमाहसमणुण्णेसु विदेसं, गतेसु पच्छण्णे* होज्ज अवसन्ना। ते वि तहि गंतुमणा, अत्थि तहिं केइ मणुण्णा णो 71|| कस्याप्याचार्यस्य समनोज्ञेषु सांभोगिकेषु विदेशं गतेषु पश्चादागत्य सांभोगिकाः केचित् भिक्षाद्यलाभेनावसन्ना भवेयुस्ततस्तेऽपि तत्र विदेशे गन्तुमनस आचार्य पृच्छन्ति, सन्ति तत्र के चिदस्माकं मनोज्ञाः सांभोगिकाः। अस्थि त्ति होइ लहुतो, कंयाइ ओसण्णि भुंजणे दोसा। नऽत्थि विलहुतो भंडण, न खित्तकहनेव पाहुणगं / / 7 / / एवमुक्ते यद्याचार्यो वदति सन्ति तत्र नः सांभोगिकाः तदा प्रायश्चित्त भवति तस्य लघुको मासः / किं कारणमिति चेदत आह-कदाचित्ते अवसन्नीभूता भवेयुस्ते च प्राघूर्णकास्तत्र गतास्तैः सह भुञ्जन्ति, भुजानानां च चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तम्। यत एवं दोषः तस्मात्सन्तीति न वक्तव्यम् / अथाचार्यों ब्रूयात्-न सन्तीति तदापि मासो लघुकः, कस्मादिति चेत् भण्डनदोषः। तथाहि-ते तत्र प्राप्तास्तेषां नास्ति केनापि गृहीते तैर्वास्तव्यैरुक्तमस्माकं ते सांभोगिकास्ततस्ते प्राघूर्णका उक्ताः,करमादसतौ नोत्तीर्णाः? प्राघूर्णकैरुक्तमस्माभिः क्षमाश्रमणाः पृष्टाः, सन्त्यस्माकं तत्र सांभोगिकास्तैरुक्तं न सन्ति। एवं वास्तव्यानामप्रीतिर्जाता। किमस्माभिः कृतं यद्वयं विसंभोगाः कृताः। तदनन्तरं परुषमपि भाषन्ते, ततो भण्डनम् / तथैव चाप्रीत्या मासप्रायोग्य वर्षाप्रायोग्य वा न कथयन्ति, न च प्राघूर्णकत्वं कुर्युः / यस्मादेते दोषास्तस्मादाचार्येणैवं वक्तव्यम्। आसि तया समणुण्णा, भुजह दव्वाइएहि पेहित्ता। एवं भंडणदोसा, न हाँति अमणुनदोसाय॥७३॥ यदा अस्मात् देशात् निर्गतास्तदा समनोज्ञाः सांभोगिका आसीरन, इदानीं न जानीमः किमनुपालयन्ति। सांभोगिकत्वं किं वा नेति। केवलं द्रव्यादिभिर्द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च प्रेक्ष्य संभुङ् ग्ध्वमित्येवमाचार्येणोक्ते न भण्डनदोषाः, नाप्यमनोज्ञदोषा भवन्तीति। नायमनाए आलो-यणा उऽणालोइए भवे गुरुगा। गीयत्थे आलोयण, सुद्धमसुद्धं विर्गिचंति // 7 // ज्ञाते अज्ञाते वा सांभोगे आलोचना दातव्या, तदनन्तरं तैः सह संभुञ्जते / यदि पुनरनालोचिते परस्परं भुजते तदा भवन्ति चत्वारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् / सा चालोचना गीतार्थे दातव्या। 'सुद्धमसुद्ध विगिचति' त्ति-शुद्धोऽशुद्धो वा य उपधिस्त विचिन्वन्ति-पृथक् कुर्वन्ति विवेच्य यो निष्कारणे उद्गमादिभिरशुद्धो गृहीतो यश्व कारणे वा अयतनया तयोः परित्यागः कर्त्तव्यस्तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यन्ते / एण नियुक्तिगाथासमासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो 'नायमनाए' इत्यस्य व्याख्यानमाह-- अविणढे संभोगे, नायमनाए य नासि पारिच्छा। एत्थोवसंपयं खलु, सेहं वाऽऽसज्ज आणादी॥७५|| आर्यमहागिरेः परतः संभोगो विनष्ट आसीत्, तदा ज्ञाते अज्ञाते वा नास्ति द्रव्यादिभिः परीक्षा, आर्यसुहस्तिशिष्यद्रमकप्रव्रज्या-प्रतिपत्तिप्रभृतित आरात् विनष्टः संभोग इति ज्ञात अज्ञाते वा द्रव्यादिभिः परीक्षाऽऽलोचयितव्या। अनालोचिते च सह भुञ्जते। अथ सांभोगिकाः सन्तः कथन ज्ञायन्ते येनाज्ञाते इत्युच्यमानं शोभेत तत आह- एत्थोवसंपर्य खलु' इत्यादि पूर्व ये उपसंपन्नास्ते असमानीभूताः, अन्ये पश्चात्केऽप्युपसंपन्नाः। अथवा-पश्चादागत्य केचित् प्रवाजितास्ततो-ऽदृष्टपूर्वतया तो न ज्ञायन्ते इत्यज्ञाता भवन्ति।गाथायामेकवचनं जातौ / ततोऽयमर्थःआरादपि पूर्वदर्शनादर्वागपि पश्चादुपसंपत् शैक्षत्वमासाद्य सांभोगिका. नामप्यज्ञानता भवति / तदेवं 'नायमनाए' त्ति गतम्। इदानीम् 'आलोयणा उ' इति व्याख्यानयतिमहल्लयाए गच्छस्स, कारणे असिवादिहिं। देसंऽतरागयाऽण्णोण्णे, तत्थिमा जयणा भवे // 76|| Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 213 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग अतिमहत्तया गच्छस्य नास्त्येकत्र, संस्तरणं, यद्यस्ति वा अशिवादिभिः कारणैर्देशान्तर गताः, एतैः कारणैर्बहवः पृथक् पृथक् स्थिताः / तत्र पूर्वस्थितेषु पश्चादागतानां परस्परं यत्र मेलापको भवति तत्रेयं (वक्ष्यमाणा) यतना-- दोण्णि विजइगीयत्था, राइणिए तत्थ विगडणा पुव्वं / पच्छाइयरो विदए, समाणतो छत्तछायातो॥७७।। अगीतार्थेन गीतार्थस्य पुरत आलोचयितव्यम्, यदि पुनावपि गीतार्थों / ततोऽवमरत्नाधिकेन गुरुरत्नाधिकस्य पुरत आलोचयितव्यम् / अवमरत्नाधिकेनालोचिते पश्चादित रोऽपि अवमरत्नाधिकस्य पुरतः आलोचनां ददाति, यः पुनः समानछायाकः स-अवमरत्नाधिकस्तत्र यः पश्चादाचार्यसमीपान्निर्गतस्तस्य पुरतः प्रथममालोचयितव्यं पश्चादितरस्य सनीप तेन 1 यदि पुनरनालोचिते। परस्परं भुञ्जते तदा प्रायश्चित्तं प्रत्येक चत्वारो गुरुकाः। एतेन 'अनालोइए भवे गुरुगा गीयत्थे आलोयण' इति व्याख्यातम्। संप्रति 'सुद्धमसुद्ध विगिंचती' त्यस्य व्याख्यानमाहनिकारणे असुद्धोउ, कारणे वाऽणुवायतो। अंतिए उवहिं दो वि, तस्स सोहिं करेंतिय।७८|| य उपधिनिष्कारणं-पुष्टालम्बनमन्तरेणोद्मादिभिर्दोषैरशुद्धो गृहीतः, यश्च कारणऽनुपायतोऽयतनया गृहीतस्तमुपधिं द्वावपि परित्यजतः। तस्य परस्परमालोचनायां येन दोषन अशुद्धोपधिस्तत्प्रत्यपायमयतनाप्रत्ययं च प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते। एवं तु विदेसत्थे, अयमन्नो खलु भवे सदेसत्थे। अभिणीवारीगादी, विणिग्गए गुरुसगासातो ||7|| एवम उक्तेन प्रकारेण खलु विदेशस्थे यतना भणिता, अयभन्यः खलु यतनाप्रकारः स्वदेशस्थे। तमेवाह-अभिनिवारिका प्रागुक्तस्वरूपा तया आदिशब्दादुपधिकार्येण स्पर्द्धकयतीना वा साराकरणेन गुरूपदेशतो गुरुसकाशाद्विनिर्गत विनिर्गमनैव प्रत्यागतैराचार्यपादमूले कस्यां वेलायामागन्तव्यम्। तामेव नियुक्तिगाथां भाष्यकारो विवृणोतिअभिनिवारिऍ निग्गते, अहवा अन्नेण वाऽवि कलेणं। विसणं समणुण्णेसुं, काले को वा विकालो तु ||80 / / अभिनिवारिक या-प्रागुक्तस्वरूपया निर्गत, अन्येन वा उपध्यु-- त्पादादिना कार्येण निर्गत, भूयः समनोज्ञेषु सांभोगिकेषु आचार्यपादमूल इत्यर्थः , विशन-प्रवेशः काले कर्तव्यः / शिष्यः प्राह-कः कालः। सूरिराहभत्तट्ठियआवासग, सोहेउमति त्ति एत्थ अवरण्हे। अब्भुट्ठाणं दंडा-इयाण गहणेगवयणेणं / / 81 / / भक्तार्थितां कृत्वा बाह्यग्रामेषु भिक्षामटित्वा भोजनं च विधाय तदनन्तरमावश्यकमुचारादि शोधयित्वा पश्चादपराहे काले वे लायामाथान्ति। वास्तव्यैरपि नैषधिकाशब्दं श्रुत्वा अभ्युत्थान कर्त्तव्यम्। दण्डादीनामादिशब्दात्पात्रादिपरिग्रहः, ग्रहण कर्तव्यम्। कथमित्याहएकवचनेन दण्डादिकं गृह्णामीत्येवंरूपेणैकेन वचनेन यदि समर्थयन्ति तदा ग्रहीतव्याः / किं कारणमित्येतदुच्यते-वास्तव्येनातिशयेन गृहीतमिति मन्यमानेन प्राधूर्णकेन वास्तव्यागृहीते मुक्त भाजनभेदो भवति। तेन पततः प्राणजातिविराधना ततस्तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। तस्मादेकवचनेन दण्डादिग्रहणम् / वक्ष्यमाणकारणैः पुनरपवादतः कालवेलायां न प्रविशेत्। तान्येव कारणान्याहखुड्गविगिडगामे, उण्हं अवरण्हे तपोतु पागे वि। पक्खित्तं मुत्तूणं, निक्खिवि उक्खित्तमोहेणं / / 2 / / क्षुल्लको ग्रामे यत्र प्राप्तो वर्तते तत्र पर्याप्त न भविष्यतीति विचार्य दिवा विकृष्टमन्तर ततः कृतभिक्षाकान् प्राप्स्यामः / अथवाऽपराह्ने व्रजतां तापस्तत एतैः कारणैः प्रागपि प्रातरपि प्रविशेत्। तत्र च नैषधिकीशब्द श्रुत्वा तन्मुख प्रक्षिप्तं तन्मुक्त्वा तत् गलनीयमित्यर्थः / यत उक्षिालम्बने वर्तते तत्पात्रे निक्षिप्य वास्तव्यैरभ्युत्थातव्यम् / अत्र यदि प्राघूर्णकाः कृतपर्याप्ताः ततस्तैर्वक्तव्यं वा अभ्युत्तिष्ठत वयं कृतपर्याप्ताः समागताः। यदि वा-यस्य कस्यार्थः, स समं भुड्क्ते। अथ कदाचित प्राघूर्णका न कृतपर्याप्ता भवेयुस्तदा तेषां दत्त्वा वास्तव्या अन्यत् गृह्णन्ति / अथ वास्तव्यैरतिशयन पर्याप्त लब्धे ते प्राघूर्णका समागतास्ततो यदि तपोऽहं प्रायश्चित्तमापन्नास्तदा ओघाऽऽलोचनया आलोच्य तैः समं भुजते. एष नियुक्तिगाथासमासार्थः / साम्प्रतमेनामेव विषमपदव्याख्यानतो व्याख्यानयति 'तत्र आहेणे' ति एनं व्याचिख्यासुराहजइ उ तवं आवन्नो,जा भिन्नो अहव होजनावन्नो। तहियं ओहालोयण, तेण परेणं विभागो उ॥८३|| वास्तव्यैर्भिक्षावेलामतिशयेन पर्याप्त लब्धे यदि प्राघूर्णकाः समा-- गच्छन्ति तदा यदि प्राघूर्णकास्तपोऽर्ह प्रायश्चित्तमापन्नाः, यावदद्यापि भिन्नान भवन्तिछेदादिकमप्राप्ता इत्यार्थः / अथवा तपोऽर्हमपि प्रायश्चित्तं नापन्नाः, तदा ओघालोचनया आलोच्य तैः समं मण्डल्यां समुद्दिशन्ति। ततः समुद्देशानन्तरं परतो विभागालोचनयाऽऽलोच्य प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यन्ते। अथ छेदादिकमापन्नास्ततो मण्डल्या उत्कृष्य दीयते। अथ वेलाया न प्राप्ताः कित्वनागाढायां पौरुष्यां प्राप्तास्तत्र विधिमाहअहवा भुत्तुव्वरियं, संखडि अन्नेहि वा वि कजेहिं / तं सुत्ता पत्तेयं, इमे य पत्ता तहिं होज्जा / / 4 / / अथवे ति प्रकारान्तरे वास्तव्यभुक्तोद्वरितं वर्तते / अथवा सं खडयां निमन्त्रिताः श्राद्धादिभिवास्तव्यास्तत्र पर्याप्त गृहीतमस्ति / यदि वाऽऽचार्याः कुलादिकार्ये विनिर्गतास्तत् कियन्तं कालं प्रतीक्ष्य तद् योग्यं मण्डल्या भुक्तं प्रत्येक मुद्व Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 214 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोग रितमस्ति, इमे च प्राघूर्णकास्तत्रावसरे प्राप्ता भवेयुस्ततो वास्तव्या नैषधिकीशब्दं श्रुत्वा समुत्थाय भणन्ति। भुंजह भुत्ता अम्हे, जे वा इच्छंति भुत्तु सह भोज / सव्वं व तेसि दाउं, अन्नं गेण्हंति वत्थव्वा।।८।। भुड्ध्व यूयं भुक्ता यो वा इच्छति अभुक्तैर्वास्तव्यैः सह भोज्यं स तैः सह भुड़क्त अथ प्राघूर्णकाना न पश्चाद्भागे परिपूर्ण जातंततः सर्व तेषां प्राधूर्णकानां दत्त्वा वास्तव्या अन्यत् गृह्णन्ति। तिण्णि दिणे पाहुण्णे, सव्वेसिं असति बालवुड्डाणं / तरुणा जे सग्गामे, वत्थव्वा वाहि हिंडंति||६|| सर्वेषामागतानां त्रीणि दिनानि यावत्प्राघूर्णकत्वं करणीयम् / अथ सर्वेषां कर्तुं न शक्नुवन्ति ततः सर्वेषामभावे बालवृद्धाना त्रीणि दिनानि, प्राघूर्णकत्वं कर्तव्यमा ये तत्र प्राघूर्णकानां तरुणास्ते स्वग्रामे हिण्डन्ते ये तु वास्तव्यतरुणास्ते उद्घामकभिक्षाचर्यया बहिमि हिण्डन्ते। संघाडगसंजोगो, आगंतुगभद्दएतया हिंडे। आगंतुका व बाहिं, वत्थव्यभद्दए हिंडे॥८७|| यदि ग्रामवास्तव्या जना आगन्तुकभद्रकास्तदा प्राघूर्णकानामेकैको वास्तव्येन समं संधाटकेन हिण्डते / इतरेवास्तव्याना संघाटकसंयोगा उद्वरितास्ते बहिर्गामे उभ्रामकभिक्षाचर्यया व्रजन्ति। अथ ग्रामवास्तव्या जना वास्तव्यभद्रकास्ततो वास्तव्यानामेकैकः प्राघूर्णकन समं हिण्डते। ये तु प्राधूर्णकानां संघाटकसंयोगा अधिकास्ते बहिरुभ्रामकभिक्षाचर्यया व्रजन्ति / उपधिचिन्तायामपि परस्परमालोचनायां दत्ताया यो गीतार्थेन उपधिरुत्पादितः स परिभुज्यते। यस्त्वगीतार्थेनोत्पादितस्तस्य परित्यागः करणीयः। सूत्रम्- "जे निगथा निग्गंथीओ य०" इत्यादि। अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहमंडुगगतिसरिसो खलु, अहिगारो होइ विइयसुत्तस्स। संपुडतो वा दोण्हं वि,होइ विसेसोवलंभोवा॥५८|| मण्डूकः-शालूरः स यथा उत्प्लुत्य गच्छति, एवं निर्ग्रन्थसूत्रान्निग्रन्थीसूत्रं विसदृशमिति मण्डूकगतिसदृशं तत उक्तम् / द्वितीयसूत्रस्याधिकारप्रस्तावो मण्डूकगतिसदृशः। तथा 'संपुडतो वा' इत्यादि, यथा द्वे फलक एकसंपुट इत्युच्यते, एवं निर्ग्रन्थसूत्रात् द्वितीय निर्गन्थीसूत्रं संपुटसदृशं भवति। तत उक्तं द्वयोरपि सूत्रयोः संपुटक इति निर्ग्रन्थसूत्रादनन्तर निग्रन्थीसूत्रमुक्तं भवति। विशेषोपलम्भो वा इति। "जे निगंथा निगथीओ यसंभोगिया सिया" इत्यादि। यग्निर्ग्रन्थ सूत्रमस्मात्तदनन्तर निर्ग्रन्थीसूत्रं संपद्यतेततः शिष्याणां विशेषोपलम्भो भवति। दूरव्यवधाने तुन स्यात्ततो भवति विशेषोपलम्भ इति कृत्वा निर्ग्रन्थसूत्रादनन्तर निर्गन्थी-सूत्रमुक्तम् एवमनेन संबन्धेनायातस्यास्य (व्य०) (सूत्रद्वयस्यापि व्याख्या सहैवास्मिन्नेव भागे गता।) संप्रति भाष्यकारः प्राहएसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। जं एत्थ उ नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं ||86 यो निर्ग्रन्थस्य सूत्रस्य व्याख्यागम उक्तः, एष एव गमो निर्गन्थीनामपि सूत्रं भवति-ज्ञातव्यः, केवलं यदत्र नानात्वं तदहं समासेन वक्ष्ये। तदेव विवक्षुः प्रथमतः प्रश्रमुत्थापयतिकिं कारणं परोक्खं, संभोगो तासुकीरई वीसुं। पाएण ताहि तुच्छा, पञ्चक्खं भंडणं कुजा॥६०|| किं कारणं केन कारणेन तासु संयतीसु परोक्षं संभोगो विष्वक् क्रियते? आचार्य आह--हि यस्मात्प्रायेण ताःसंयत्यस्तुच्छाः, ततः प्रत्यक्ष विसभोगकरणे भण्डनं कुर्युः। दोण्णि वि ससंयतीया, गणिणो एगस्सवा दुवे वग्गा। वी( करणम्मिते चिय, कवोयमादीउदाहरणा||१|| द्वौ गणिनावाचार्यों समं यतिकौ परस्पर सांभोगिकौ च। अथवा-एकस्य द्वौ वर्गा संयतवर्गः, संयतीवर्गश्वापरस्य त्वेक एव संयतवर्गः / तौ यां विसभोगां कुरुतस्ता तैरेव चटकगृहिककपोतप्रविशनादिरूपादुदाहरणात् प्रागुक्तप्रकारेण विसंभोगां कुरुत इत्यर्थः। कथमित्याहपडिसेवितं तुनाउं, साहंती अप्पणा गुरूणं तु। ते चिय वाहरिऊणं, पुच्छंतिय दो वि सम्मावं / / 2 / / काश्चित संयत्यः कासाचित्संयतीनां प्राघूर्णकागतास्ताभिश्च पूर्वप्रकारेण प्रथमालिका कृता, जाता शय्यातरपिण्डाऽऽशङ्का / अथवा हरितोपलिप्तायां वसतौ स्थिताः, यदिवा-सदीपायां, ततस्ताभिरागत्य निजप्रवर्त्तिन्याः कथितम, यथा-एताः शय्यातरपिण्डमासेवन्ते प्रतिदिवस हरितोपलिप्तायां वसतौ वसन्ति, सदीपायां चेति। सा प्रवर्तिनी तन्मुखात् प्रतिसेवितुमिति ज्ञात्वा ताभिः सह गत्वाऽऽत्मनो गुरूणां कथयति / तेऽपि च गुरखो व्याहृत्य आ कार्य द्वावपि संयतीवर्गीसद्भाव पृच्छन्ति केवल यदि ता एकगुरुप्रतिबद्धाः, अन्यथा दोषः। तथा चाहजइ ताउ एगमेगं, अहवा वी परगुरुं वइजाही। अहवा वी परगुरुतो, पवत्तिणी तीसु वी गुरुगा // 63|| यदि यकाभिः प्रतिसेवितं शय्यातरपिण्डादि, यकाभिश्च प्रतिसेवितं ज्ञात्वा गुरुभ्यः कथित ता यदिएकैकमाचार्यमाश्रिताः, अथवा--आत्मीया अपि सत्यः शय्यातरपिण्डाद्यासेविन्यः परं गुरून कुतश्चित्कारणात व्रजेयुः प्रतिपन्नाः, यदिवा-सा प्रवर्तिनी यत्संयतीभिः शय्यातरपिण्डाद्यासेवितं तासां परगुरुत उपसंपदं प्रतिपन्ना एतासु तिसृष्वपि यद्याचार्यः स्वयं पृच्छति, कोऽत्र भूतार्थ? इति तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। किं कारणमिति चेदत आहभंडणदोसा हुंती, वगडासुत्तम्मि जे भणिय पुट्विं / सयमवि य वीसु करणे, गुरुगा-वावल्लया कलहो / / 64|| Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोग 215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संभोगकप्प तासां तिसृणामपि स्वयं प्रच्छने भण्डनदोषा भवन्ति, ये भणिताः पूर्व कल्पाध्ययने प्रथमोद्देशके वगडासूत्रे ते चैवमेतासां स्वयं प्रच्छने त्रिषु स्थानेषु भण्डनम् / तानि च त्रीणि स्थानान्यमूनि-आत्मनो द्वौ गच्छौ संयतवर्गः संयतीवर्गश्च / तृतीयोऽन्याचार्यसत्का: संयताः, संयत्यश्च एषो वा वर्गो गण्यते / भण्डन पुनरेवं जायते ताः संयत्यः पारकीयरूपाः पृष्टाः सत्यो ब्युर्यथा जानीमो येन दुःखापिता / इहलोकसहायया निजप्रवर्तिन्या एवमुक्ते संयतास्ताभिः सह कलह कुर्युः / संयतीनामपि परस्परं रण्डाराटिभवति। तथा-अन्ये गच्छवर्तिनः साधवः पराचार्येण समपरसयतः समपरसंयतीभिश्च समराटि विदध्युः / यत एवं दोषास्तस्मात् द्वावपि तौ संयतीवर्गावात्मन आत्मन आचार्यस्य कथयतः। यदि पुनस्ताः संयत्यः स्वयमेव विष्वक् संभोगं कुर्वन्ति तदा तासा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः / कस्मादिति चेदत आह-चापल्यतःचपलतादोषण कलहःपरस्परं भूयादिति हेतोः / पत्तेयं भूयत्थं,दोण्हं पिय गणहरो तुलेऊणं / मिलिउं तक्खणदोसे, परिक्खितुं सुत्तनिद्देसो||५| यत एवं दोषास्तस्मादात्मन आचार्यस्य कथनीयम्, तौ चरणधरो द्वयोरपि संयतीवर्गयोः प्रत्येकं भूतार्थ तुलयित्वा सम्यग्विज्ञाय तत एकत्र मिलित्वा तयोर्द्वयोरपि संयतीवर्गयोर्गुणदोषान्परीक्ष्य सूत्रनिर्देश: कर्तव्यः / स चायं यदि नानुतपति ततस्तत्रैव यत्र मिलिताः संयतीनां परोक्ष विसंभोगं कुर्वन्ति / प्रत्यक्ष संयतीना विसभोगकरणे तुच्छतया कलहभावात् / व्य०७ उ / तओ न कप्पंति संभुंजित्तए पंडए कीबए वाइए / (सू०-४४) बृक्ष 4 उ.। ('पवजा' शब्दे पञ्चमभागे७७२ पृष्ठे व्याख्यातमिदं सूत्रम्।)-(गणान्तर संभोगप्रतिज्ञयोपसंपद्यविहरणम् 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1016 पृष्ठे प्रतिपादितम् ।)-(उपस्थापनायामकृताया संभोगे दोषाः 'जड्डु' शब्देऽर्थतो 4 भागे दर्शिताः।) निन्थ्याः क्षताचारायाः प्रायश्चित्तमदत्त्वा संभोगो न कर्त्तव्य इति 'खयायार' शब्द तृतीयभागे 717 पृष्ठे उक्तम्) (आर्यसुहस्तिनो विसम्भोग: 'संपई' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तः1) (त्रिभिः स्थानः साम्भोगिक कुर्वन्नातिक्रामति इत्युक्तं 'विसंभोइय' शब्दे षष्ठे भागे) (अन्ययूथिकैः सह सम्भोगो न कार्य इति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 477 पृष्ठे उक्तम्। तत्र परतीर्थिकैः सार्द्ध न भोक्तव्यम्, स्वयूथ्यैश्च पावस्थादिभिः सहाऽसांभोगिकैः सहौघालोचनां दत्त्वा भुञ्जानानामयं विधिः / तद्यथा-'से तत्थ भुंजमाणे' इत्यादि सुगमम्, इति वृत्तिलेशः / ध०३ अधि० / ज्ञानादि-सद्भावे हि द्वादशविधसम्भोगपरिहारो नोपपद्यते / यत आह भग-वान् भद्रवाहुस्वामी"अड्डाइएहिँदीवो-दहीहिंजे कम्मभू-मिगा साहू। एगम्मि हीलियम्मी, ते सत्वे हीलिया होति।।१।।" दर्श०५ तत्त्व। संभोगकप्प न० (संभोगकल्प) एकमण्डल्या सह भोजनाचारे, पं०भा०। संभोगकप्पमेत्तो, वोच्छामि अहं समासेणं / पुव्वभणितो विभागो, संभोगविहीए दोहि ठाणेहिं। दोसु वि पसंगदोसा, सेसे अतिरेग पण्हवए।। दसविहसत्तविहेहिं, पुव्वुत्ते तेहिं दोहिं ठाणेहिं। दोसु विपसंगदोसा,ण भुंजए अण्हसंभोई।। जम्हातु ण णजंती, उग्गममादीउजे भवे दोसा। एतेण अपरिभोगो, अमणुन्ने होतिबोधव्वो।। दारंजंतत्थण वुत्तं तु,तत्थ ह वोच्छामि एतमतिरेगं। जे तुगुणा संभोग, ते क्ण्णे ऽहं समासेणं। अणुकंपा संगहे चेव, लाभालाभे विदाघता। दावदुवे गेलण्णे, कंतारे अंचिए गुरू। दारं-- बालाणुकंपणट्ठा,असहू अतरंतसंगहट्ठाए / दार। केऽविसलद्धि अलद्धी,तेसिं साहिण्हयट्ठाए। दारं। उप्पण्णे अहिगरणे, कार्हिति वि ओसणं तु अविदाहि। ण य गच्छे बहिमावे, उप्परओ हंति परिभूतो।। दारं। मज्झं अणेक्कभाणे, ति काउमाएस पेच्छती पुव्यिं / जत्थ उकुले महल्ले, लब्भति भिक्खा महल्लीतु।। तम्हा उदवदवस्स पुट्विं गच्छामह तुतं गेहं। एते तु परिहरीता, दोसा हु भवंति संभोगे।। गेलण्णे णवए तस्स, हिंमंतू आणियं तु अण्णेहिं। भोक्खति य साहुवग्गो, कंतारे आणितं तु साहूहिँ // दार। एमेव अंचिए वी, (दारं) गुरू वि गेण्हति तु अन्नमन्नस्स। एक्को पुण परितम्मति,बाहिरभावं च गच्छेज्जा / / एते उ एवमादी,संभोगम्मि उगुणा भवन्ती उ। तम्हा खलु कायव्वो, संभोगगुणन्निएण सगं / / एताई ठाणाई, जो तु सहू होति उ पमादि त्ति। अन्ने आणेति त्ति,घेतूणं जं च तं वेत्ति !! सेसाणुवालणट्ठा, तो तं उम्मंडलिं करेंती तु। जदि आउट्टति वज्जति, ताहे मेलेजति पुणो वि।। अह पुण चोइजतो, बहुसो णाउट्टए उ तं दोसं। सतिलाभलद्धिजुत्तो,णिज्जूहंती तु तं ताहे / / अह मंदलाभलद्धी-ण जो तं णिज्जूहति अहत्थाम। सो वि खरंटेऊणं, मेलिज्जति मंडलीए तु / / किं कारण निज्जुहणा, जं साहूणं गुणुत्तरधराणं / Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभोगकप्प 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संमुच्छिममणुस्स ण करोती वच्छल्लं, तेण उणिज्जूहणा तस्स / / किं फलं जनयति? तदा गुरुराह-हे शिष्य ! संभोगप्रत्याख्यानेन एवं आयरिएणतु, जोगो सव्वस्स चेव गच्छस्स। आलम्बना क्षपयति, यतोऽहं ग्लानोऽस्मि रोग्यस्मि इत्यादि कथनानि वोढव्वां दिट्ठतो, गतेण इत्थं इमो होति।। क्षपयति धीरो भवति इत्यर्थः / निरालम्बनस्य च आवतार्था योगा जह गणकुलभूओ, गिरिकंदरविसमकडगदुग्गेसु। भवन्ति / आयलो-मोक्षःस एव अर्थः-प्रयोजनं येषां ते आयतार्थाः, परिवहति अपरितंतो, निययसरीरोग्गते दंते।। एतादृशा ये योगाः मनोवाक्कापयोगाः भवन्ति। स्थेन लाभेन सन्तुष्यति, तह पवयणभत्तिगतो, साहम्मियवच्छलो असढभावो। परस्य लाभं न आस्वादयति न वाञ्छति। ततश्च परस्य लाभान्नो तर्कयति, परिवहति अपरितंतो, खेत्तविसमकालदुम्सु॥ मह्यं दास्यतीति मनसा न विकल्पयति, नो स्पृहयति--परलाभे श्रद्धा-- जदि एक्कभाणजिमिता, गिहिणो विय दीहमेत्तिया होति। लुतया स्वस्य स्पृहां न प्रकटीकरोति। पुनः परस्य लाभं न प्रार्थयतिजिणवयणवहिन्भूता, धम्मं पुण्णं अयाणंता॥ मां देहीति नयाचते। यत इदं पुनर्न अभिलषतिपरस्य लालसापूर्वक न किं पुण जगजीवसुहा-वहेण संभुंजिऊण समणेणं। वाञ्छति। अथ परस्य लाभं 'अणासाएमाणे' अनास्वादयन् अतर्कयन् सक्का हु एक्कमेक्को, णियओ विवरिक्खितुंदेहो। अनीहमानःअप्रार्थमानः अनभिलषन् द्वितीयां सुखशय्यामुपसंपद्य केरिसयं वा वित्तू–णं संभुंजे त्ति वावि भन्नत्ति। विरहति-अपरेभ्यः साधुभ्यः पृथक् उपाश्रयमङ्गीकृत्य प्रवर्तते। यादृशी उग्गमसुद्धं भुंजे,तहा असुद्धंण भुंजेजा।। स्थानाने उक्तास्ति तां प्रतिपद्य विहरति / अत्र हि एते शब्दा एकार्थाः वोंदे आहारादि, उग्गममाइं असुद्धमा भुजे। प्रतिपादिताः, तत अनेकदेशीयशिष्याणां प्रतिबोधनार्थ पर्यायत्वेन जं पुण अपेहणादी, कालादीहिं उवहयं तु। प्रतिपादिताः। उत्त० 26 अ01 तं पुण सुद्धोबहिणा, मासमयं एकहिं तुबंधेजा। संभोगवत्तिया स्त्री० (सम्भोगप्रत्यया) सम्भोगनिमिने कर्मसम्बन्धे, संघासेणं तस्स तु, उवधातो मा हुसुद्धस्स। नि०यू० 5 उ० / ('संभोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शिता / ) भण्णति सुद्धस्स जदी, संघासेणं तु होति उवधातो। संमज्जग पुं० (सम्मज्जक) उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन ये लान्ति तेषु सुद्धेण असुद्धस्स वि, पायति सुद्धी तवमएणं। वानप्रस्थेषु, भ० 11 श०६ उ०। अह उवघातो त्ति मतं, संफासेण तु मता विसोहीउ। संमज्जण न० (सम्माजन) दण्डप्रच्छादिना (अनु०) जलेन वा शोधने, तेणुत्ते (इ) च्छछित्ते-णय इच्छामेत्तओ सिद्धी।। भ०११ श०६ उ० / सम्मार्जन्या कचवरापनयने वसति प्रतिकर्मणि उवधातो वि विसोही, णत्थि अजीवस्स भावतो एसो। ਧੁ 4 ਚੋਂ। उवघातों विसोहीवा, परिणामवसेण जीवस्स। संमज्जणी स्त्री० (सम्मार्जनी) कचवरापनयनकारिकायान, व्य० 4 उ। तस्सेवपसत्थेसुतु, परिणामस्स अह रक्खणट्ठाए। समजिअ त्रि० (सम्मार्जित) प्रमार्जनिकादिना (भ०६ श०३३ उ०) कीरतिसंभोगविही, गच्छपमोत्ते गमागच्छे॥ अपहृतकचवरे, प्रज्ञा०१ पद / कल्प० / ज्ञा० / जी० / कचवरशोधित, संभोगदारंगतं। पं० भा०४ कल्प०। पं० चू०। आ०म०१ अ०। जी० / वस्त्रादिनार्द्रतामपनयनीये, आचा०२ श्रु०१ संभोगपञ्चक्खाण न० (संभोगप्रत्याख्यान) स्वपरलाभमीलनात्मकेन चू० 1 अ०४ उ०। नोगः संम्भोगः, एकमण्डलीभोक्तृत्वमिति योऽर्थस्तस्य यत् प्रत्या- संमज्जिया स्त्री० (सम्मार्जिका) गृहस्यान्तर्बहिश्च बहुकरिकावाहिकायाम्, ख्यानं जिनकल्पादिप्रतिपत्त्या परिहारस्तत्तथा / गीतार्थावस्थायां ज्ञा०१ श्रु०७ अ०। जिनकल्याचारग्रहणेन परिहारे, उत्त०! संमट्ट त्रि० (समृष्ट) कचवरापनयनेन (ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / औ0) एतत्फलम् - प्रमार्जिते, ग०१ अधि० भूमिकर्मादिना संस्कृते. आचा० 2 श्रु०१ चू० संभोगपञ्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सम्भोगप- | २अ०१उ०। चक्खा –णेणं आलंवणाई खवेइ, निरालम्बणस्स य आयतट्ठिया संमि (ल्ल) ल धा० (सम्मील) सलमे, “प्रादेर्मी ले।" ||8/4 / 232 // जोगा भवन्ति / सएणं लाभेणं संतुस्सइ, परलाभ नो आसाएइ __अनेन प्रादेः परस्य मीलेरन्त्यस्य वा द्वित्त्वम् / संमिलई / संमिल्लइ नो तक्केइ नो पीहेइ नो पत्थेइ नो अहिलसइ / परस्स लाभ सम्मीलति / प्रा० 4 पाद। अणासाएमाणे अतक्केमाणे अपत्थेमाणे अणमिलसमाणे दोच्चं संमुइ पुं० (संमुचि) जम्बूद्वीपे आगामिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति षष्ट सुहसिज्जं उक्स--म्पजित्ता णं विहरइ।३३।। __ कुलकरे, स्था० 10 ठा०३ उ०। है भदन्त / सम्भोगप्रत्याख्यानेन एकमाडल्या स्थित्ता आहारस | समनिम्ममास्य गंगार्षिनाग नोने ना.. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संमुत्त 217 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा संमुत्त पुं० (संमुक्त) माण्डवगोत्रावान्तरगोत्रविशेषप्रवर्तके पुरुष, स्था० औ० / ज्ञा० / जं०। प्रियेण सह सप्रमोदं सकामं परस्परं संकथायाम, 7 ठा०३ उ०। चं०प्र०) 20 पाहु०। वृ०। सू०प्र०ा 'संलापो भाषण मिथ' इति बचानात् / संमुसमाण त्रि० (सम्मृशत्) सामस्त्येन स्पृशति, भ० 8 श० 3 उ०। स्था० 7 ठा० 3 उ० / मिथःकथारूपे, ध०२ अधि०। ('णिग्गंथी' शब्दे संमुह त्रि० (सम्मुख) अभिमुखे, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। चतुर्थभागे 2046 पृष्ठ सूत्रं तद्व्याख्या च गता।) संमुहागय त्रि० (सम्मुखागत) सम्मुखं स्थिते, जं०१ वक्ष०। संलावकीव पुं० (संलापक्लीब) सम्भाषणनपुंसके, संलावकीवो जो संमुहीभूय त्रिः (सम्मुखीभूत) अभिमुखीभूते, सूत्र०१ श्रु० 15 अ०। अवस्ससंलवियव्ये परम्मुहो संलवति। नि० चू० 4 उ०। संमूढ त्रि० (सम्मूढ) समिति-भृशं मूढा वैचित्त्यमुपगताः सम्मूढाः। उत्त० संलिहण न० (संलेखन) ईषल्लेखने, दश० 8 अ०। 3 अ० / मोहजालेन मोहं गतेषु, तं०।। संलिहणकप्प पुं० (संलेखनकल्प) पात्राणां संलेखनपूर्वक धावने, संमोहभावणा स्त्री० (संमोहभावना) पञ्चमभावनाभेदे, प्रव०७३ द्वार। औ०। (वक्तव्यता 'भोयण' शब्दे पञ्चमभागे द्रष्टव्या / भोजनान्तेऽयं (व्याख्या पञ्चमभागे 'भावणा' शब्दे गता।) विधिरुक्तः।) संरंभ पुं० (संरम्भ) विनाशसंकल्पे, भ० 3 श०३ उ०। स्था०। विशे०। संलिहित्ताणं अव्य० (संलिख्य) प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वेत्यर्थे, दश० 'संकप्पो संरम्भो' प्राणातिपातं करोमीति यः संकल्पोऽ-ध्यवसायः स / 5 अ० 2 उ० / संरम्भः / आह च चूर्णिकृत्पाणाइवायं करोमि त्ति जो संकप्पं करेइ / संलिहिय अव्य० (संलिख्य) निर्लिपीकृत्वेत्यर्थे , कल्प०३ अधि०६ चिन्तयतीत्यर्थः / व्य० 1 उ०। (पञ्चमभागे 'पडिसेवणा' शब्दे 334 पृष्ठे क्षण निरक्यवं कृत्वेत्यर्थ , -आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ० 4 उ०। एतत्प्रायश्चित्तमुक्तम् / ) परजीवस्य विनाशनसमर्थे दुष्टविद्यानां गुणने / संलिखित त्रि० संलेखनविधिना शोषिते, तच्च त्रिधा-आहाराः, शरीरम्, उत्त 24 अ० / इष्टानिष्टप्राप्ति--परिहाराय प्राणातिपातादिसंकल्पावेशे, | उपधिश्च / वृ०३ उ०। आचा०१ श्रुः 2 अ०५ उ० / विषयादिषु तीव्राभिलाषे, आतुका क्रोधे, संलीण त्रि० (संलीन) एकाश्रयस्थे, दश० 3 अ० / उत्त० / संवृते, प्रव० "सरभो अमरिसो मन्न" पाइ० ना० 161 गाथा। ६द्वार। संरंभज्झाण न० (संरम्भध्यान) संरम्भो-विषयादिषु तीव्राभि- संलीणया स्त्री० (सलीनता) सलीनस्य-संवृतस्य भावः संली-नता। लापस्तस्य ध्यानम् / जनन्युपरोधतो व्रत पालयतोऽपि विषया- पञ्चा० 16 विव० / अङ्गोपाङ्गादि संवृत्य प्रवर्त्तने, उत्त०३० अ० / दश० / भेलाषिणः क्षुल्लककुमारस्येव दुनि, आतु01 प्रव० / न० / स० / सलीनता गुप्तता, सा चेन्द्रियकषाययोगविषया संरक्खण न० (संरक्षण) सर्वैरिणाद्यैरुपायै। करादिभ्यो निज-वित्तस्य विविक्तशय्यासनता चेति चतुर्द्धा / ध०२ अधि० / ग01 उत्त सङ्गोपने, विशे०। सर्वोपायैः परित्राणे रौद्रध्यानभेदे, स्था० 4 टा०१ अथ संलीनतामाहउ०। आपदः संगोपने, ज्ञा०१ श्रु०१४ अ० / परिपालने, आव० 14 अ०। एगन्तमणावाए, इत्थीपसुविवज्जिए। संरक्खय पुं० संरक्षक) नानाव्यसनेभ्यः सङ्गोपके, ज्ञा०१ श्रु०१०। सयणासणसेवणया, विवित्तसयणासणं / / 28|| संरोहणी स्त्री० (संरोहणी) सरोहणकारिकायामोषध्याम, आ०म०१ अ०। एकान्ते-जनैरनाकुले पुनरनापाते न विद्यते आपातः स्त्रीपुरुषासंलप्प त्रि० (सलप्य) संलपितुं शक्ये, अनु०। दीनामागमनं यत्र तत् अनापातं तस्मिन् पुनः पशुपण्डकादिविवर्जित संलवण न० (संलपन) मिथो भाषणे, स्था० 4 ठा० 2 उ०। आरामोद्यानशून्यगृहादिस्थाने शयनासनसेवनया कृत्वा सलीनताख्य संलवमाण वि० (संलपत) मिथो भाषमाणे, स्था० 4 ठा० 2 उ०। / तपो ज्ञेयमित्यर्थः / उत्त०३४ अ०। स्त्रियाम- 'सलवमाणी' कल्प०१ अधि०३ क्षण। संलुंचमाण त्रि० (संलुच्यमान) इतश्चेतश्च भक्ष्यमाणे, आचा० 1 श्रु० संलवित्तए अध्य० (संलपितुम) पुनः पुनः संलापं कर्तुमित्यर्थे , प्रति०। / 8 अ०३ उ०। उपा। संलेह पुं० (संलेख) कवलत्रयप्रमाणे शरीरावशोषणार्थमाहारे, बृ० ५उ० / संलाव पुं० (संलाप) भिन्नकथाद्यालापे, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ० 1 उ०। पुनः संलेहणा स्त्री० (संलेखना) उद्बलने, आचा०१ श्रु०१ अ० 3 उ०। संलिख्यपुनर्जल्पने, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० आव० / संलापः पुनः पुनः संभाषणम् / तेऽनया शरीरकषायादीति संलेखना। तपोविशेषे, स्था० 2 ठा० 2 उ०। भ० 3 श०१ उ० / मुहुर्मुहुर्जल्पने, भ०३ श०१ उ० / प्रीत्या सह सूत्र० / शरीरशाषणायाम्, प्रव०१द्वार। आगमोक्तेन विधिना शरीराद्यपसकामसुहृतप्रत्यर्पणक्षमे परस्पर-सम्भाषणे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। / कर्षणे,प्रव० 135 द्वार। कषायशरीरकृशतायाम्, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। औ० / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 218 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा आगमप्रसिद्धचरमानशनविधिक्रियायाम्,पञ्चा० 1 विव० / सा जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा च / व्य० 10 उ०।। साम्प्रतं 'संलेहणा दुवालसवरिसे' त्ति चतुस्त्रिंशदुत्तरशततमं द्वारमाहचत्तारि विचित्ताई,विगई निज्जूहियाई चत्तारि। संवच्छरेयदोन्नि, एगंतरियं च आयामं॥१२॥ नाइविगिट्ठोयतवो, छम्मासे परिमिअंच आयाम। अवरे वियछम्मासे,होइ विगिटुंतवो कम्म॥१८३|| वासं कोडीसहियं, आयामंकटु आणुपुटवीए। गिरिकंदरं वगंतुं, पाउवगमणं पवजेई|| || 'चत्तारि विचित्ताई' इत्यादि गाथात्रयम्, संलेखने-संलेखना आगमोक्तेन विधिना शरीराद्यपकर्षणम्, सा च त्रिविधा--जधन्या पाण्मासिकी, मध्यमा संवत्सरप्रमाणा, उत्कृष्टा तु द्वादश वर्षाणि। | तत्रोत्कृष्टा तावेदवं प्रथमं चत्वारि वर्षाणि विचित्राणि विचित्रतपांसि करोति / किमुक्तं भवति-चत्वारि वर्षाणि यावत्कदाचिचतुर्थम्, कदाचित्षष्ठम्, कदाचिदष्टममेवं दशमद्वादशादीन्यपि करोति, पारणकं च सर्वकामगुणितेनोद्मादिशुद्धनाहारेण विधत्ते। ततः परमन्यानि चत्वारिवर्षाणि उक्तप्रकारेण विचित्रतपांसि करोति, विकृतिनियूंहितानिविकृतिरहितानि / किमुक्तं भवति विचित्रं तपः कृत्वा पारणके निर्विकृतिकं भुङ्क्ते उत्कृष्टरसवर्ज च। ततः परतोऽन्ये द्वेच वर्षे एकान्तरितमाचाम्लं करोति, एकान्तरं चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारयतीत्यर्थः / एवमेतानि दशवर्षाणि गतानि। एकादशस्य तुवर्षस्याद्यान् षण्मासान् नाति-विकृष्ट नातिगाढं तपः करोति / नातिविकृष्टं नाम 'तपश्चतुर्थं षष्ठं वाऽवसेयं नाष्टमादिके, पारणके तुपरिमितं किञ्चिनोदरतासम्पन्नमाचाम्लं करोति। ततः परमपरान् षण्मासान् विकृष्टमष्टमदशभद्वादशादिकं तपः कर्म भवति, पारणके तु मा शीघ्रमेव मरणं यासिषमिति कृत्वा परिपूर्णघ्राण्याऽऽचाम्लं करोति, न पुनरूनोदरतयेति / द्वादशं तु वर्ष कोटीसहितं निरन्तरमाचाम्लं करोतीत्यर्थः। उक्तंच निशीथचूर्णी- 'दुवालसमं वरिसं निरन्तरं हायमाणं उसिणोदएण आयंबिलं करेइ, तं कोडीसहियं भवइ, जेणायंबिलस्स कोडीकोडीए मिलईत्ति चतुर्थं कृत्वा आचाम्लेन पारयति, पुनश्चतुर्थ विधायाचाम्लेनैव पारयतीत्यादन्यपि बहूनिमतान्तराणि द्वादशस्य वर्षस्य विषये वीक्ष्यन्ते, परं ग्रन्थगौरवभयानात्र लिखितानीति। इह च द्वादशे वर्षे भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनमेकैककवलहान्या तावदूनोदरतांकरोति यावदेकं कवलमाहारयति। ततः शेषेषु दिनेषु क्रमश एकेन सिक्थेनोनमेकं कवलमाहारयति, द्वाभ्यां सिक्थाभ्यां त्रिभिः सिक्थैरेवं यावदन्ते एकमेव सिक्थं भुङ्क्ते, यथा दीपे समकालं तैलवर्तिक्षयो भवति, तथा शरीरायुषोरपि समकं क्षयः स्यादिति हेतोः / अपरं च-द्वादशस्य वर्षस्य पर्यन्तवर्तिनश्चतुरो मासान् यावदेकान्तरितं तैलगण्डूषं चिरकालमसौ मुखे धारयति,ततः खेलमल्लके भस्ममध्ये प्रक्षिप्य मुखमुष्णोदकेन शोधयति / यदि पुनस्तैलगण्डूषविधानंन कार्यते तदा रूक्षत्वात्तेन मुखयन्त्रमीलनसम्भवे पर्यन्तसमये नमस्कारमुचारयितुं न शक्तोति, तदेवमनया आनुपूर्व्या क्रमेण द्वादशवार्षिकीमुत्कृष्टां संलेखनां कृत्वा गिरिकन्दरं गत्वा उपलक्षणमेतदन्यदपि षट्कायोपमईरहितं विविक्तं स्थानं गत्वा पादपोपगमनं, वाशब्दाभक्तपरिज्ञामिङ्गिनीमरणं च प्रपद्यते। मध्यमा तु संलेखना पूर्वोक्तप्रकारेण द्वादशभिर्मासैः,जधन्या चद्वादशभिः पक्षः परिभावनीया। वर्षस्थाने मासान् पक्षाँश्च स्थापयित्वा तपोविधिः। प्रागिव निरवशेष उभयत्रापि भावनीय इति भावः / प्रव० 134 द्वार। नि० चू०। स०। पं० व० / आ० चू०। विस्मृतसंलेखनाविधिःसंलेहणा इहंखलु, तवकिरिया जिणवरेडिंपण्णत्ता। जंतीऍसंलिहिजइ, देहकसायाइणिअमेणं // 1366|| संलेखना इह खलु प्रक्रमे तपःक्रिया विचित्रा जिनवरैः प्रज्ञप्ता / किमित्याह-यद्यस्मात्तया संलिख्यते कृशीक्रियते देहकषायादि बाह्यमान्तरं च नियमेनेति गाथार्थः। अतिप्रसङ्गपरिहारमाहओहेणं सव्व चिय-तवकिरिआजइ वि एरिसी होइ। तह विअइमाऽवसिट्ठा, धिप्पइजाचरिमकालम्मि।।१३६७|| ओघेन सामान्येन सर्वेष तपःक्रिया आदित आरभ्य यद्यपीदृशी देहकषायादिसंलेखनात्मिका भवति तथापि चैषा प्रस्तुतावशिष्टा गृह्यते, तपःक्रियया चरमकाले देहत्यागायेति गाथार्थः। एतदेवाहपरिवालिऊण विहिणा,गणिमाइपयंजईणमिअमुचि। अन्भुजओ विहारो,अहवाअब्भुज्जअंमरणं // 1368|| परिपाल्य विधिना सूत्रोक्तेन गण्यादिपदम् आदिशब्दाद् उपाध्यायादिपरिग्रहः, यतीनामुचितमिदं चरमकाले यदुताभ्युद्यतो विहारो जिनक्रल्पादिरूपः,अथवा-अभ्युद्यतं मरणं पादपोपगमनादीति गाथार्थः। एसो अविहारो विह, जम्हा संलेहणासमोचेव। ताण विरुद्धोणेओ, एत्थं संलेहणादारे॥१३६९।। एष च विहारोऽभ्युद्यतः; यस्मात्संलेखनासमो वर्तते तत्तस्मान्न विरुद्धो ज्ञेयोऽत्र प्रस्तुते संलेखनाद्वारे भण्यमान इति गाथार्थः। मणिऊण इमं पढम,लेसुद्देसेण पच्छओवोच्छं। दाराणुवायगं विअ, सम्म अब्भुजमरणं // 1370 // भणित्वा एनमभ्युद्यतविहारेण प्रथमलेशोद्देशेन-संक्षेपेणपृष्ठतः-ऊर्ध्वं वक्ष्ये, द्वारानुपात्येव प्रस्तुतमित्यर्थः / सम्यसिद्धान्तनीत्याऽभ्युद्यतं मरणमिति गाथार्थः। तत्र द्वारगाथामाहअव्वोच्छित्तीमणपं-चतुलणउवगरणमेव परिकम्भो। तवसत्तसुएगत्ते, उवसम्गसहे अवउरुक्खे॥१३७१।। अध्यवच्छित्तिमनः प्रयुक्ते. तथा पशानामाचार्यादीनां तुलना स्वयोग्यविषया उपकरणमे वेति वक्तव्यमुचितं, परि Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा कर्मेन्द्रियादिजयः तपःसत्त्वश्रुतैकत्वे उपसर्गसहश्चेति / पञ्च भावना भवन्तीत्यर्थः। वटवृक्ष इत्यपवादात्तदेव प्रतिपद्यत इति गाथार्थः / व्यासार्थमाह-- सो पुव्वावरकाले,जागरमाणे उधम्मजागरि। उत्तमपसत्थझाणे, हिआएण इमं विचिंतेइ॥१३७२।। स गणी वृद्धः सन पूर्वापरकाले सुप्तः सुप्तोत्थितो वा रात्री जाग्रत् धर्मजागरिका धर्मचिन्ता कुर्वन्नित्यर्थः, उत्तमप्रशस्तध्यानः प्रवृद्धशुभयोगहृदयेनेदं वक्ष्यमाणं वस्तु विचिन्तयतीति गाथार्थः। अणुपालिओ उदीहो, परिआओ वायणा तहा दिण्णा। णिप्फाइआयसीसा, मज्झं किं संपयं जुत्तं।।१३७३|| अनुपालित एव दीर्घः पर्यायः प्रवज्यारूपः, वाचना तथा दत्ता उचितेभ्यः, निष्पादिताश्च शिष्याः, कृतऋणमोक्षस्य मम किं साम्प्रतं युक्तमेतच्चिन्तयतीति गाथार्थः। किंकिन्नु विहारेणा-उभुज्जएण विहरामणुत्तरगुणेणं / उअ अब्भुजयसास-णेण विहिणा अणुमरामि।।१३७४|| केन विहारेणाभ्युद्यतेन जिनकल्पादिना वा विहरामि ? उत्तरगुणेनैतत्कालापेक्षया उताभ्युद्यतशासनेन विधिना सूत्रोक्ते न अनुमिये इति गाथार्थः। पारद्धा वोच्छित्ती, एम्हि उचियकरणा इहरआउ। विरसावसाणऊणो, इत्थंदारस्स संपाओ।।१३७५|| प्रारब्धा व्यवस्थितिः प्रव्रज्यानिर्वहणमखण्डम, इदानीमुचितकरणाद्भवति, इतरथा तु तदकरणे विरसावसानतः कारणान्न प्रारब्धा व्यवस्थितिस्त-न्यूनत्वादिति। अत्र द्वारस्य व्यवस्थितिमनःसंजितस्य संपात इति गाथार्थः / प०व० 4 द्वार। संलेहणापुरस्सर मेअंपाएण वा तयं पुट्विं / वोच्छंतओ कमेणं,समासओऽन्भुज्जयं मरणं॥१५७३|| संलेखनापुररसरमेतत्प्रायशः पादपविशेष मुक्त्वो तत्ते पूर्व वक्ष्ये सलेखनाम्, ततः क्रमेणोक्तरूपेण समासतोऽभ्युद्यतमरणं वक्ष्ये इति गाथार्थः। चत्तारि विचित्ताइं,विगईणिज्जूहिआईचत्तारि। संवच्छरे उ दोण्णि उ, एगंतरिअंच आयामं / / 1574 // चतुरः संवत्सरान विचित्राणि तपांसि करोति षष्ठादीनि तथा विकृतिनिर्मूढानि निर्विकृतिकानि चतुर एव, संवत्सरौ द्वौ च तदूधमकान्तरितमयं च नियोगतः आयामं तपः करोतीति गाथार्थः / णाइविगिट्ठो अ तवो, छम्मासे परिमिअंच आयामं / अण्णे वि अछम्मासे, होइ विगिटुं तवोकम्मं / / 1575 / / नातिविकृष्ट च तपः चतुर्थादि षण्मासान् करोति / तत ऊर्द्ध परिमित चायामं तत्पारणक इति तैलगण्डूषधारणं च, मुखभने अन्यान्यपि च षण्मासान् अत ऊर्ध्व भवति विकृष्टमद्यैव तपः कर्मेति गाथार्थः / वासं कोडीसहियं, आयामं तह य आणुपुव्वीए। संघयणादणुरूवं, एत्तो अट्ठाइ नियमेणं / / 1576 / / वर्षकोटीसहितमायाम तथा चानुपूा एवमेव संहननाधनुरूपम्, आदिशब्दाद-शक्त्यादिग्रहः, अत उक्तात्कालादर्खादि अर्द्धप्रत्यर्द्धत्वानियमेन करोति, इह च कोटीसहितमित्येवं वृद्धा बुवते'पट्ठवणओ य दिवसा, पचक्खाणस्स निट्ठवणओ य / जहियं समिति दोणि उ, तं भन्नइ कोडिसहियं तु / / 1 / / " भावत्थो पुण इमस्स जत्थ पच्चक्खाणस्सकोणो काणो य मिलयइ। कहं ? गोसे आवस्सए अब्भत्तट्टो गहियो, अहोरत्तं अत्थिऊण पच्छा पुणरवि अब्भत्तं करेइ, बीयरसपट्ठावणा पढमरस निट्ठावणा एवं दो वि कोणा एगट्ट दो वि मिलिया। अट्ठमादिसु दुण्हउ कोडिसहिय, जो चरिमदिवसो तस्स वि एगा कोडी एवं आयविलनिविइयएगासणएगट्ठाणाणि वि। अहवा इमो अण्णो विही-- अदभत्तट्ट कय, आयं-बिलेण पारिय पुणरवि अब्भत्तट्ठ करेइ आयंबिलं च / एवं एगासणगाईहि वि संजोगा कायव्वा, णिव्विगतिगाइसु सव्वेसु सरिसंसु य एत्थ आयंबिलेणाहिगारो" ति गाथार्थः। इस्थमसंलेखनायां दोषमाहदेहम्मि असंलिहिए, सहसा धाऊहिं खिज्जमाणेहिं। जायइ अट्टज्झाणं, सरीरिणो चरमकालम्मि। 1577 / / देहे असलिखित सति सहसा धातुभिः क्षीयमाणैर्मासादिभिर्जायते आर्त्तध्यानम-असमाधिः शरीरिणश्वरमकालेमरणसमय इति गाथार्थः / विहिणा उथोवथोब,खविज्जमाणेहि संभवइणेअं। भवविडविबीअभूअं, इत्थं यजुत्ती इमाणेआ॥१५७८|| विधिना तु शास्त्रोक्तेन स्तोकस्तोक क्षयमाणैर्धातुभिः संभवति नैतदातध्यानं भवविटपिबीजभूतमेतदत्र युक्तिरियं ज्ञेयाऽसंभवे इति गाथार्थः। कथं जय इत्याहसइसुहभावेण तहा,थोवविवक्खत्तणेण णो बाहा। जायइबलेण महया,थेवस्सारंभभावाओ॥१५७६|| सदा शुभभावस्य तथा' तेन संलेखनाप्रकारेण स्तोकविपक्षत्वेन हेतुना न बाधा जायते कुत इत्याह- बलेन महता शुभभावेन तेन स्तोकस्य दुःखस्यार भभावादिति गाथार्थः / उवकमणं पुण एवं, सप्पडिआरं महाबलंणेयं / उचिआणासंपायण, सइसुहभावं विसेसेणं / / 1580 / / उपक्रमणमेव धात्वादीनां सप्रतीकारं भूयो बृंहणेन महाबलं ज्ञेयम्, अत्र उचिताज्ञासपादनेन सदा शुभभावमुपक्रमणं विशेषेणेति गाथार्थः / थोवं उवक्कमिजं, बज्झं अभिंतरंच एअस्स। जाइइअगोअरत्तं, तहा तहा समयभेएणं / / 1581 / / स्तोकमुपक्रमणीयम,बाह्यं मांसादि, आभ्यान्तरं च अशुभपरिणामादि; एतस्योपक्रमेणास्य याति एवं गोचरत्वं संलेनायाः तथा तथा समयभेदेनकालभेदेनेति गाथार्थः / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 220 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा जुगवं तु खिविजंतं, उदग्गभावेण पायसो जीवं / चावइ सुहजोगाओ, बहुगुरुसेण्णं च सुद्दडं ति।।१५८२।। युगपत्तु क्षेप्यमाण तन्मांसादि उदग्रभावेण प्रचुरतया प्रायशो जीवं, किमत्याह-च्यावयति शुभयोगात् सकाशात् / किमिव कमित्याहबहुगुरुसैन्यमिव सुभटं च्यावयति जयादिति गाथार्थः। आहप्पवहणिमित्तं, एसा कह जुजई जइजणस्स। समभाववित्तिणो तह, समयत्थविरोहओ चेव॥१५८३।। आह-आत्मवधनिमित्तमेषा सलेखमा कथं युज्यते? यतिजनस्य समभाववृत्तेः सतः तथा सभतार्थविरोधतश्चैवेति गाथार्थः। विरोधमाहतिविहाऽतिवायकिरिया, अप्पपरोभयगया जओ भणिया। बहुसो अणिट्ठफलया, धीरेहि अणंतनाणीहिं॥१५८४|| त्रिविधा अतिपातक्रिया, कथमित्याह-आत्मपरोभयगता यतो भणिता समये बहुशोऽनिष्टफलदेय क्रिया धीरैरनन्तज्ञानिभिः सर्वज्ञ रिति गाथार्थः भण्णइ सच्चं एअं, ण उएसा अप्पवहणिमित्तंति। तल्लक्खणविरहाओ, विहिआणुट्ठाणभावेणं / / 1585 // भण्यते सत्यमेतत्रिविधातिपातक्रियेति, नत्वेषा संलेखना क्रिया आत्मवधनिमित्तेति / कुत इत्याह-तल्लक्षणविरहात-आत्मवधक्रियालक्षणविरहात्, विरहश्च विहितानुष्ठानभावेन हेतुनेति गाथार्थः। जा खलु पगत्तजोगा, णिअमा रागाइदोससंसत्ता। आणाउ बहिन्भूआ, सा होइ अइवायकिरिआ य॥१५८६।। या खलु प्रमत्तयोगात् सकाशात् नियमाद्रागादिदोषसंसक्ता स्वरूपतः आज्ञातो बहिर्भूता उच्छास्त्रा सा भवत्यतिपातक्रिया इदं लक्षणमस्या इति गाथार्थः। जा पुण एअविउत्ता, सुहभावविवड्डिणी अनियमेणं / सा होइ सुद्धकिरिया, तल्लक्खणजोगओ चेव / / 1587 / / या पुनरेतद्वियुक्ता क्रिया शुभभावविवर्द्धिनी च नियमेन अवश्यतया सा भवति शुद्धक्रिया कुतस्तल्लक्षणयोगत एवेति गाथार्थः। पडिवज्जइ अ इमं जो, पायं किअकिचिमो उ इह जम्मे। सुहमरणा कियकिचो,तस्सेसा जायइ जहुत्ता / / 1588 / / प्रतिपद्यते चैनां संलेखनालियां याः प्रायः स कृतकृत्य एवेह जन्मनि निष्ठितार्थः सुभमरणनात्र कृतकृत्यो यदि परं तस्यैषा जायते यथोक्ता संलेखना शुद्धक्रिया चेति गाथार्थः / मरणपडिआरभूआ, एसा एवं च ण मरणनिमित्ता। जह गंडछेअकिरिआ, णो आयविराहणारूवा!।१५८६।। मरणप्रतीकारभूतेषा एवं चोक्तन्यायान्न मरणनिमित्ता, यथा गण्डच्छेदक्रिया दुःखरूपाऽपि नामांवेराधनारूपेति गाथार्थः / अब्भत्था सुहजोगा, असंपन्ना पायसो जहासमयं / एसो इमस्स उचिओ, अमरणधम्मेहि निहिट्ठो / / 1560 // अभ्यस्ताः शुभयोगाः औचित्येन असंपन्नाः यथागमं प्रायशो यथासमयं यथाकालमेषोऽप्यस्य मरणं योगस्योचितः समयः, अमरणधर्माभिर्वी तरागनिर्दिष्टः सूत्रे इतिगाथार्थः।। यतश्चैवम्ता आराहेमु इमं, चरमं चरमगुणसाहगं सम्म। सुहभाव विवड्डी खलु, एवमिह पक्त्तमाणस्स।१५६१।। यतश्चैवं तत्-तस्मादाराधयामः-संपादयामः एनं चरम शुभयोग चरमगुणसाधकमाराधनानिष्पादक 'सम्यग' आगमनीत्या, शुभभाववृद्धिः खलु कुशलाशयवृद्धिरित्यर्थः / एवमिह संलेखनाया प्रवर्तमानस्य सत इति गाथार्थः / उचिएकाले एसा, समयम्मि विवण्णिआ जिणिंदेहि। तम्हा तओ ण दुट्ठा, विहिआणुट्ठाणओ चेव / / 1562 / / उचिते काले-चरमे 'एषा' संलेखना 'समयेऽपि' आगमेऽपि वर्णिता 'जिनेन्द्रः'तीर्थकरैर्यस्मात्तस्मान्न दुष्टाएषा। कुत इत्याह--विहितानुष्ठानत एव शास्त्रोक्तत्वादिति गाथार्थः / भावमवि संलिहेई, जिणप्पणीएण झाणजोएणं / भूअत्थभावणाहिं, परिवड्डइ बोहिमूलाई॥१५६३।। भावमप्यान्तरं सलिखति-वशं करोति, जिनप्रणीतेनागमानुसारेण ध्यानयोगेन धर्मादिना भूतार्थभावनाभिश्ववक्ष्यमाणाभिः परिवर्द्धयतिवृद्धिं नयति बोधिमूलान्यवद्धकारणानीति गाथार्थः। एतदेवाहभावेइ भाविअप्पा, विसेसओ नवरं तम्मिकालम्मि। पयईए निग्गुणतं, संसारमहासमुद्दस्स॥१५६४।। भावयति-अभ्येति भावितात्मा सूत्रेण विशेषतोऽतिशयेन नवरं तस्मिन्काले चरमे, किमित्याह-स्वभावेन निर्गुणत्वमसारत्वं संसारमहासमुद्रस्य भवोदधेरिति गाथार्थः / जम्मजरामरणजलो, अणाइमं वसणसावयाइण्णो। जीवाण दुक्खेहेऊ, कट्ठ रोद्दो य भवसमुद्दो।।१५६५।। जन्मजरामरणजलो बहुत्वादमीषामनादिमानित्यगाधःव्यसनश्वापदाकीर्णः अपकारित्वादमीषां जीवानां दुःखहेतुः सामान्येन, कष्टरोद्रोभयानको भवसमुद्र एवंभूत इति गाथार्थः। धण्णोऽहं जेण मर, अणोरपारम्मि नवरमेअंसि। भवसयसहस्सदुलहं, लद्धं सद्धम्मजाणंति।।१५६६|| धन्योऽहं सर्वथा येन मया 'अनर्वाक्पारे' महामहति नवरमेतस्मिन भवसमुद्रे भवशतसहरादुर्लभमेकान्तेन लब्धम्-प्राप्त सद्धर्मयानंसद्धर्म एव यानपात्रमिति गाथार्थः। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा एअस्स पहावेणं, पालिजंतस्स सइ पयत्तेणं। जम्मंतरे विजीवा, पावंतिण दुक्खदोगच्च / / 1567|| एतस्य प्रभावेण धर्मयानस्य पाल्यमानस्य सदा सर्वकाल प्रयत्नेनविधिना जन्मान्तरेऽपि जीवाः--प्राणिनः प्राप्नुवन्ति न, किमित्याहदुःखप्रधानं दौर्गत्यं दुर्गतिभावमिति गाथार्थः। चिंतामणी अपुव्वो, एयमपुव्वोय कप्परुक्खो त्ति। एअंपरमो मंतो, एअंपरमामयं एत्थ।।१५६८|| चिन्तामणिरपूर्वोऽचिन्त्यमुक्तिसाधनादेतद्धर्मयानम्, अपूर्वश्च कल्पवृक्ष इत्यकल्पितफलदानात्, एतत्परमो मन्त्रो रागादिविषघातित्वात्, एतत्परमामृतमत्रामरणाबन्ध्यहेतुत्वादिति गाथार्थः। इच्छं वे आवडिअं, गुरुमाईणं महानुभावाणं।। जेसिपहावेणेअ, पत्तं तह पालिअंचेव॥१५६६। इच्छामि वैयावृत्त्यं सम्यग गुर्वादीना, महानुभावानाम् आदिशब्दात्सहायसाधुग्रहः,येषां प्रभावेणेदं धर्मयानं प्राप्तं मया, तथा पातित चैवाविनेनेति गाथार्थः। तेसि णमो तेसि णमो, भावेण पुणो पुणो वितेसि णमो। अणुवकयपरहिअरया, जे एयं दिति जीवाणं / / 1600|| तेभ्यो नमः, तभ्यो नमः, भावेन अन्तःकरणेन पुनरपि तेभ्यो नम इति त्रिर्वाक्यम् / अनुपकृतपरहितरता गुरवो यत एतद्ददति जीवेभ्यो धर्मयानमिति गाथार्थः। नो इत्तो हिअमण्णं, विजइ भुवणे वि भव्वजीवाणं। जाअइ अओ वि अजओ, उत्तरणं भवसमुद्दाओ।।१६०१।। नाता धर्मयानाद्धितमन्यद्वस्तु विद्यते भुवनेऽपि त्रैलोक्येऽपि भव्यजीवानाम, कुत इत्याह-जायते अत एव धर्मयानाधत उत्तरणं भवसमद्रादिति गाथार्थः। एत्थ उसव्वे ठाणा, तहण्णसंजोगदुक्खसयकलिआ। रोद्दाऽणुबंधजुत्ता, अचंत सव्वहा पावा॥१६०२|| अत्र तु भवसमुद्रे सर्वाणि स्थानानि देवलोकादीनि तथाऽन्यसंयोगदुःखशतकलितानि योगावसाने विमानादीनि संयोगदुःखानीति प्रतीतम्, अत एव रौद्रानुबन्धयुक्तानि विपाकदारुणत्वादत्यन्तं सर्वथा पापान्यशोभनानीति गाथार्थः। किं एत्तो कट्ठयर, पत्ताणं कहिंचि मणुअजम्मम्मि। जं इत्थ वि होइ रई, अचंतं दुक्खफलयम्मि / / 1603 / / किमतः कष्टतरमन्यत्प्राप्तानां कथंचित्कृच्छ्रण मनुजजन्मन्यपि यदत्रापि भवति रतिः संसारसमुद्रे अत्यन्तं दुःखफलदे यथोक्तन्यायादिति नाथार्थः। भावनान्तरमाहतह चेव सुहुमभावे, भावइ संवेगकारए सम्म / पवयणगब्भभूए, अकरणनिअमाइसुद्धफले // 1604 / / तथैव सूक्ष्मभावान्-निपुणपदार्थान् भावयति / संवेगकारकान्प्रशस्तभावजनकान् सम्यग् विधानेन प्रवचनगर्भभूतान सारभूता-- नित्यर्थः, अकरण नियमादिशुद्धफलान्-आदिशब्दादनुबन्धहासपरिग्रह इति गाथार्थः। परसावज्जच्चावण-जोएणं तस्स जो सयं चाओ। संवेगसारगुरुओ, सो अकरणणियमवरहेऊ॥१६०५।। परसावद्यच्यावनयोगेन-व्यापारेण तस्य यः स्वयं त्यागः सावद्यस्य, किंभूत इत्याह-संवेगसारगुरु:-प्रशस्तभावप्रधानः स सावद्यत्यागोऽकरणनियमवरहेतुः पापाऽकरणस्याबन्ध्यहेतुरिति गाथार्थः। परिसुद्धमणुट्ठाणं, पुव्वावरजोगसंगयं जंतं। हेमघडत्थाणी,सयाऽवि णिअमेण इट्ठफलं॥१६०६।। परिशुद्धमनुष्टानं समयशुद्ध पूर्वापरयोगसंगतं यत् त्रिकोटीशुद्ध तत् हेमघटस्थानीय वर्तते, सदाऽपि नियमेनेष्टफलमपवर्गसाधनानुबन्धीति गाथार्थः। जंपुण अप्पडिसुद्धं, मियमयघडतुल्लमोतयं णे फलमित्तसाहगं चिअ,ण साणुबंधे सुहफलम्मि।।१६०७।। यत्पुनरपरिशुद्धं समयनीत्या मृन्मयघटतुल्यमसारं हि तत् ज्ञेयं फलमात्रसाधकमेव, यथा कथंचिन्न सानुबन्धे शुभफले इतरवदिति गाथार्थः। धम्मम्मि अअइआरे,सुहमेणाभोगसंगए वित्ति। ओहेण चयइ सव्वे,गरहापडिक्खभावेण।।१६०८|| धर्मे चातिचारानपवादान् सूक्ष्मान्-स्वल्पान् अनाभोगसंगतानपि कथंचिदोघेन त्यजति सर्वान सूत्रनीत्या गहाँप्रतिपक्षभावेन हेतुनेति गाथार्थः। सो चेव भावणाओ, कयाइदुलसिअविरिअपरिणामो। पावइसेटिं केवलमेव मओ णो पुणो मरई॥१६०६।। स चैव भावनातः सकाशात् कदाचिदुल्लसितवीर्यपरिणामःसंप्राप्नोति श्रेणिं तथा केवलम् / एवं मृतकेवलाप्त्या न पुनर्मियते कदाचिदपीति गाथार्थः। जइविन पावइ सेटिं, तहाऽवि संवेगभावणाजुत्तो। णिअमेण सुगइँ लहइ, तहाय जिणधम्मबोहिं च।।१६१०|| यद्यपिन प्राप्नोति श्रेणिं कथमपि संवेगभावनायुक्तः, यन्नियमेन सुगति लभते अन्यजन्मनि, तथा जिनधर्मबोधिं च लभत इति गाथार्थः। एतदेवाहजमिहसुहभावणाए, अइसयभावेण भाविओ जीयो। जम्मंतरेऽवि जायइ, एवंविहभावजुत्तो अ॥१६११।। यत यस्मादिह शुभभावनया अतिशयभावेन भावितो जीवः सुवासित इत्यर्थः, जन्मान्तरेऽप्यन्यत्र जायते एवंविधभावयुक्तश्च शुभभावयुक्त इति गाथार्थः। एसेव बोहिलाभो, सुहभावबलेण जो उजीवस्स। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 222 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा पेचावि सुहो भावो, वासिअतिलतिल्लनाएणं / / 1612 / / एष एव बोधिलाभो वर्तते। शुभभावबलेन वासनासामर्थ्याद्य एव जीवस्य प्रेत्यापि-जन्मान्तरेऽपि शुभो भावो भवति वासिततिलतैलज्ञानेन, तेषां हि तैलमपि सुगन्धि भवतीति गाथार्थः / संलिहिऊणऽप्पाणं,एवं पच्चप्पणित्तु फलगाई। गुरुमाइए असम्म,खमाविऊ भावसुद्धीए॥१६१३।। संलिख्यात्मानमेवं द्रव्यतो भावतश्च प्रत्यर्पा फलकादिप्रातिहारिकं | गुर्वादींश्च सम्यक् क्षमयित्वा यथार्ह भावशुद्ध्या संवेगेनेति गाथार्थः। उवबूहिऊण सेसे, पडिबद्धतम्मितह विसेसेण। धम्मे उजमिअव्वं, संजोगाइह वियोगता।।१६१४॥ उपबृह्य 'शेषान्' गुर्वादिभ्योऽन्यान् प्रतिबद्धान, 'तस्मिन्' स्वात्मनि तथा विशेषेणोपबृद्य, धर्मे 'उद्यमितव्यम्' यत्नः कार्यः, संयोगा इह वियोगान्ताः, एवमुपोति गाथार्थः। अह वंदिऊण देवे,जहाविहिं सेसए अगुरुमाई। पच्चक्खाइत्तु तओ, तयंतिगे सव्वमाहारं।।१६१५।। अथ वन्दित्वा देवान्-भगवतो यथाविधि–सम्यग् शेषांश्च गुर्वादीन् वन्दित्वा, प्रत्याख्याय ततः-तदनन्तरं तदन्तिके गुरुसमीपे सर्वमाहारमिति गाथार्थः। समभावम्मि वि अप्पा, सम्मं सिद्धतभणिअमग्गेण। गिरिकंदरंतुगंतुं, पायवगमणं अह करेइ॥१६१६।। समभावे स्थितात्मा स सम्यक् सिद्धान्तोक्तेन मार्गेण निरीहः सन् गिरिकन्दरं तु गत्वा स्वयमेव पादपगमनमेव करोति / पादपसमान उन्मेषाद्यभावादिति गाथार्थः। सव्वत्थापडिबद्धो, दण्डाययभाइठाणमिह ठाउं। जावजीवं चिट्ठइ, णिचिट्ठोपायव समाणो॥१६१७।। सर्वत्राप्रतिबद्धः समभावात्, दण्डायतादिस्थानमिह स्थित्वा स्थण्डिले यावज्जीवं तिष्ठति महात्मा निश्चेटः पादपसमान, उन्मेषाद्यभावादिति गाथार्थः। पढमिल्लुगसंघयणे, महाणुभावा करिति एवमिणं / एअंसुहमावचिअ, णिचलपयकारणं परमं॥१६१८|| प्रथमसंहनेनेति योगतः महानुभावा-ऋषयः कुर्वन्त्येवमेतदनशन प्रायः शुभभाव एव, नान्ये, निश्चलपदकारण परमं, निश्चलपदं, मोक्ष इति गाथार्थः। णिव्वाघाइयमेअं, भणियं इह पक्कमाणुसारेणं। संभवइ अइअरं पिहु, भणियमिणं वीअरागेहिं / / 1616 / / निर्व्याघातवदेतत्पादपगमनं भणितम् / इह प्रक्रमानुसारेण हेतुना संभवति चेतरदपि-सच्याघातवदेतत्, भणितमिद वीतरागैस्तीर्थकरैरिति गाथार्थः। सीहाइहि अभिभूओ, पायवगमणं करेइ थिरचित्तो। आउम्मि पहुप्पंते, विआणि नवरै गीअस्थो॥१६२०।। सिंहादिभिरभिभूतः सन् पादपगमनं करोति स्थिरचित्तः कश्चिदायुषि प्रभवति सति विज्ञाय नवरं गीतार्थः उपक्रममिति गाथार्थः। संघयणाभावाओ,इअ एवं काउँ जो उ असमत्थो। सो पुण थेवयरागं, कालं संलेहणं काउं॥१६२१॥ संहननाभावात कारणादेवमेतत्कर्तुं योऽसमर्थः पादपगमनं, स पुनः स्तोकतरं कालं जीवितानुसारेण संलेखनां कृत्वेति गाथार्थः। (प० व०।) (इङ्गिनीमरणव्याख्यानम् 'इंगिणिमरण' शब्दे द्वितीयभागे 532 पृष्ठे गतम् / ) भत्तपरिणाए विहु, आपव्वजं तु विअडणं देइ। पुट्विं सीअलगो विहु, पच्छा संजायसंवेगो।।१६२६।। भक्तपरिज्ञायामपि-तृतीयनशनरूपायाम् आप्रव्रज्यमेवप्रव्रज्याकालादेवारभ्य विकटनां ददाति, पूर्व शीतलोऽपि परलोकं प्रति पश्चात्तत्काले संजातसंवेगः-उत्पन्नसंवेग इति गाथार्थः / वजइ असंकिलिटुं,विसेसओणव भावणं एसो। उल्लसिअजीवविरिओ, तओ अ आराहणं लहइ॥१६२७।। वर्जयति च 'संक्लिष्टाम्' अशुद्धां विशेषतो नवरं भावनामेषः यथोक्तानशनी उल्लसितजीववीर्यः सत्संवेगात् ततश्चाराधनां लभतेप्राप्नोतीति गाथार्थः। कंदप्पदेवकिदिवस- अभिओगा आसुरा य संमोहा। एसा उसंकिलिट्ठा, पंचविहा भावणा भणिआ॥१६२८॥ कान्छर्पिकी, कैल्विषिकी, आभियोगिकी, आसुरी संमोहनी छ / कन्दर्पोदीनामियमिति सर्वत्र भावनीयम् / एषा तु संक्लिष्टा पञ्चविधा भावना भणिता, तत्तत्स्वभावाभ्यासो भावनेति गाथार्थः / जो संजओ विएआ-सु अप्पसत्थासु वट्टइ कहंचि। सो तविहेसुगच्छइ,सुरेसु भइओ चरणहीणो॥१६२६।। यः संयतोऽपि सन् व्यवहारत एतास्वप्रशस्तासु भावनासु वर्तते कथंचिद्भावप्राधान्यात्स तद्विधेषु गच्छति सुरेषु-कन्दप्पदिप्रकारेषु भाज्यश्चरणहीनः सर्वथा तत्सत्ताविकलो द्रव्यचरणहीनश्चेति गाथार्थः / कंदप्पे कुक्कुइए, दवसीले आवि हासणपरे / विम्हावितो अपरं,कंदप्पं भावणं कुणई॥१६३०।। कन्दर्पवान कन्दर्पः एवं कौत्कुच्यः द्रुतदर्पशीलश्चापि हासकरश्च, तथा विस्मापयंश्च परान कान्दपी भावनां करोतीति गाथार्थः / कन्दर्पवान् कान्दी भावनां करोतीत्युक्तं स च यथा करोति तथाहकहकहकहस्सहसणं, कंदप्पो अणिहुआ यसलावा / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा कंदप्पकहाकहणं, कंदप्पुवएससंसा य॥१६३१।। सर्वसाधून सामान्येन, भाषमाणोऽवर्णमश्लाघारूपं तथा मायी सामान्येन 'कहकहकहस्से' ति “अन्यत्रापि सुपो भवन्ति" / / इति तृतीयार्थे षष्ठी, यः स कैल्विषिकी भावना तद्भावाभ्यासरूपां करोतीति गाथार्थः / कहकहकहेन हसन्तः; अट्टहास इत्यर्थः / तथा कन्दर्पः-परिहासः ज्ञानाऽवर्णमाहस्वानुरूपेण अनिभृताश्च संलापाः, गु दिनाऽपि निष्ठु-रवक्रोक्त्यादयः, काया वया य ते चिअ,ते चेव पमायअप्पमायाय। तथा कन्दर्पकथाकथनं-कामकथाग्रहः, तथा कन्दप्पोपदेशो मोक्खाहिआरिआणं, जोइसजोणीहि किं कजं // 1637 / / विधानद्वारेणैवं कुर्विति शंसा च प्रशंसा च कन्दर्पविषया यस्य स कायाः-पृथिव्यादयः, व्रतानि-प्राणातिपातनिवृत्त्यादीनि, तान्येव भूयो कन्द्रर्पवान् ज्ञेय इति गाथार्थः। भूयः, तथा त एव प्रमादाः-मद्यादयः, अप्रमादाश्च तद्विपक्षभूताः-तत्र कौत्कुच्यवन्तमाह तत्र कथ्यन्त इति पुनरुक्तदोषः,तथा मोक्षा-धिकारिणां-साधूनां भूमुहणयणाइएहिं, क्यणेहि अतेहि तेहिँ तहचिट्ठ। ज्योतिषयोनिभ्यांज्योतिषयोनि-प्रवृत्तिभ्या किं कृत्य? न किञ्चिद्रकुणइयजह कुक्कुअंचिअ, हसइ परो अप्पणा अहसं।।१६३२।। बहेतुत्वादिति ज्ञानवर्णवादः, इह कायादय एव यत्नेन परिपालनीया इति। भमुखनयनादिभिर्दहावयवैर्वचनैश्च तैस्तैहासकारकैः तथा चेष्टश करोति तथा तदुपदेशः उपाधि-भेदे तन्मा भूद्वि राधनेति ज्योतिःशास्त्रादि च क्वचित् तथाविधमोहदोषाद् यथा कुकुचमेव-गात्रपरिस्पन्दवत् हसति शिष्यग्रहणपालनफलमित्यदुष्टफलमेव सूक्ष्मधिया भावनीयमिति परः-तद्रष्टा, आत्मना अहसन्, अभिभिन्नमुखराग इव य एवंविधः स गाथार्थः। - कौत्कुच्यवानिति गाथार्थः। कैवल्यवर्णमाहदारद्रुतदर्पशीलमाह सव्वे विण पडिवोहें इ,णयाऽविसेसेण देइ उवएस। भासइ दुअंदुअंगच्छई अदप्पिअव्व गोविसो सरए। पडितप्पइण गुरूण वि, आणो इह णिट्टिअट्ठो उ॥१६३८।। सव्वद्यअदुअकारी, फुट्टइव ठिओ विदप्पेणं॥१६३३।। सर्वानपि प्राणिनो न प्रतिबोधयतीति न समवृत्तिर्नव वा विशेषण भाषते द्रुतं द्रुतमसमीक्ष्य संभ्रमाद्वेगाद् गच्छति च द्रुतं द्रुतमेव, 'दर्पित ददात्युपदेशमपि तु गम्मीरगम्भीरतरदेशनाभेदेन, तथा परितप्यते न इव' दप्पो र इव 'गोवृषभो' बलीवर्दविशेषः शरदि काले तथा गुरुभ्योऽपि दानादिना आस्तामन्यस्य ज्ञातः सन्नेवमिति निष्ठितार्थ सर्वद्रुतद्रुतकारी असमीक्ष्यकारीति यावत् तथा स्फुटतीव तीव्रोद्रेक एवालौकिको गर्हा शब्द एष इति के वलयवर्णवादः / नाभव्याः, विशेषात् स्थितोऽपि 'दर्पण' कुत्सितबलरूपेण य इत्थंभूतः स द्रुतदर्पशील काङ्कटकपायाश्च भव्याः केनचित्प्रतिबोध्यन्ते उपायाभावादिति सर्वानपि इतिगाथार्थः। न प्रतिबोधयति, अत एवाविशेषेण न ददात्युपदेशं गुणगुरुत्वाच गुरुभ्यो हासकरद्वारमाह न परितप्यते साधुर्निष्ठितार्थ इति गाथार्थः। वेसवयणेहिं हासं,जणयंतो अप्पणोपरेसिंच। धर्माचार्यावर्णमाहअह हासणे त्ति भण्णइ, घयणो व्व छले णिअच्छंतो॥१६३४॥ जचाइहिं अवण्णं, विहॉसइ वट्टइणयावि ओवाए। अहिओ छिद्दप्पेही, पगासवाई अणणुलोमो॥१६३६॥ वेषवचनैस्तथा चित्ररूपैसिं जनयन्नात्मनः परेषां च द्रवृणामथ हासन जात्यादिभिः सद्भिरसद्भिर्वा अवर्णमश्लाघारूपं विभाषते अनेकधा इति भण्यते, हासकर इत्यर्थः / 'घतने इव' भाण्डइव 'छलानि' छिद्राणि 'नियच्छन्निति' गाथार्थः। ब्रवीति, वर्तत नवाप्यवपाते-गुरुसेवावृत्तौ तथा अहितः छिद्रप्रेक्षी गुरोरेव प्रकाशवादी-सर्वसमक्षं तद्दोषवादी अननुलोमः-प्रतिकूल इति विस्मापकद्वारमाह धर्माचार्यावर्णवादः / जात्यादयो ह्यकारणमत्र गुणाः कल्याणकारणं, गुरु सुरजालमाइएहि, तु विम्हयं कुणइतविहजणस्स। परिभवाभिनिवेशादयस्त्वतिरौद्रा इति गाथार्थः। तेसुण विम्हियइ सयं, आहट्टकुहेडएसुंच।।१६३५॥ साध्ववर्णमाह दारं'सुरजालादिभिस्तु' इन्द्रजालिको विस्मयं करोति चित्तविभ्रमलक्षणं अविसहणाऽतुरियगई, अणाणुवित्ती अ अवि गुरूणं पि। तद्धिजनस्यबालिशप्रायस्य, तेष्विन्द्रजालादिषु न विस्मयते विस्मयं खणमित्तपीइरोसा, गिहिवच्छलगा य संचइया / / 1640 / / स्वयं न करोत्यात्मना आहतकुहेटकेषु च पुनस्तथाविधग्राम्य अविषहणा न सहन्ते कस्यचिदपि तु देशान्तरं यान्ति। अत्वरितगतयो लोकप्रतिबद्धेषु यः सविस्मापक इतिगाथार्थः। उक्ता कन्र्दपा भावना। मन्दगामिन इत्यर्थः / अननुवर्तिनः स्वप्रकृतिनिष्ठुराः अपि तु गुरुमपि कैल्विषिकीमाह प्रत्यास्तामन्यो जनः, तथा क्षणमात्रप्रीतिरोषाः तदैव रुष्टास्तदैव तुष्टा नाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्वसाहूणं / गृहिवत्सलाश्च स्वभावेन संचयिनः सर्वसंग्रहपरा इति साध्ववर्णवादः। हासं अवण्णमाई, किदिवसियं भावणं कुणइ / / 1636|| इहाविषहणाः परोपतापेन, अत्वरितगतय ईर्यादिरक्षार्थमननुवर्तिनः ज्ञानरय-श्रुतरूपस्य 'केवलितां' वीतरागाणां 'धम्माचार्याणां' गुरूणां | असंयमापेक्षया, क्षणमात्रप्रीतिरोषाः अल्पकषायतया, गृहिव Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा त्सला धर्मप्रतिपत्तये संचयवन्त उपकरणाभावे परलोकाभावादिति निमित्तमाहगाथार्थः। तिविहं होइ णिमित्तं, तीए पच्चुप्पणागयं चेव। मायिस्वरूपमाह दार एत्थ सुभासुभमेअं,अहिगरणेतरविमासाए।।१६४७|| गृहइ आयसहावं,छायइ अगुणे परस्ससंते वि। त्रिविधं भवति निमित्त कालभेदेनेत्याह- अतीतं प्रत्युत्पन्नमना-गतं चोरो व्व सव्वसंकी, गूढायारो हवइमाया॥१६४१।। चैव, अतीतादिविषयत्वात्तस्य, अत्रशुभाशुभभेदमेतल्लोके, कथमित्याहगृहति-प्रच्छादयत्यात्मनः स्वभावं गुणाभावरूपमशोभन छादयति अधिकरणेतरविभाषा यत्साधिकरणं तदशुभमिति गाथार्थः। गुणान्परस्यान्यस्य सतोऽपि विद्यमानानपि मायादोषण तथा चौर इव एयाणि गारवट्ठा, कुणमाणो आमिओगिअंबंधे। सर्वशडी स्वचित्तदोषेण गूढाचारः सर्वत्र वस्तुनि भवति मायी जीव इति बीअंगारवरहिओ, कुव्वइ आराह उच्चं च।।१६४८|| गाथार्थः / उक्ता कैल्विषिकी भावना। एतानि भूतिकर्मादीनि गौरवार्थ -गौरवनिमित्तं कुर्वन् ऋषिः आआभियोगिकीमाह दारं भियोगिकम् अभियोगनिमित्त बध्नाति कर्म देवताधभियोगादि कोउअभूईकम्मे, पसिणा इअरे णिमित्तमाजीवी। कृत्यमेतत्। द्वितीयमपवादपदनिमित्तम्, अत्र गौरवरहितः सन्निस्पृह एव इडिरससायगुरुओ,अमिओगं भावणं कुणइ।।१६४२।। करोत्यतिशयज्ञाने सत्येतत्स चैवं कुर्खन्नाराधको न विराधकः, उच्चं च गोत्रं बध्नातीति शेषः / तीर्थोन्नतिकरणादिति गाथार्थः / उक्ता कौतुकं वक्ष्यमाणम् एवं भूतिकर्म एवं प्रश्रः, एवमितरः प्रश्नाप्रश्न एव आभियोगिकी भाना। निमित्तम् आजीवति कौतुकाद्याजीवकः ऋद्धिरससातगुरुः सन्नाभियोगां साम्प्रतमासुरीमाहभावनां करोति, तथाविधाभ्यासादिति गाथार्थः / पं० य०४ द्वार / अणुबद्धविम्गहे विअ, संसत्ततवो णिमित्तमाएसी। (कौतुकस्वरूपनिरूपण कोउय' शब्दे तृतीयभागे 666 पृष्ठे गतम्।) णिकिवणिराणुकंयो,आसुरिअंभावणं कुणई॥१६४६।। भूतिकर्माण्याह अनुबद्धविग्रहः-सदा कलहशीलः, अपि च-संसक्तपा आहाभूइए अमट्टिआए, सुत्तेण व होइ मूइकमंतु। रादिनिमित्तं तपःकारी, तथा निमित्तम्- अतीतादिभेदमादिशति। तथा वसहीसरीरमंडग-रक्खाअभिओगमाईआ॥१६४४।। निष्कृपः कृपारहितः, तथा निरनुकम्पोऽनुकम्पारहितः अन्यस्मिन् भूत्या भस्मरूपया मृदा वाऽऽर्द्रपासुलक्षणया तालव्या अपि दन्त्याश्च कम्पमानेऽपि / इत्यासुरीभावनोपेतो भवतीति गाथार्थः ! शम्बशूकरपांशयः / अमरटीका / सूत्रेण वा प्रसिद्धेन भवति भूतिकर्म व्यासार्थमाहपरिरयवेष्टनरूपम् / किमर्थमित्याह-वसतिशरीरभण्डकर क्षेत्येत णिचं, दुग्गहसीलो, काऊण यणाणुतप्पई पच्छा। द्रक्षार्थमभियोगादय इति कृत्वा तेन कृतेन तद्रक्षां कर्तुमिति गाथार्थः। णय खामिओ पसीअइ, अवराहीणं दुविण्ह पि॥१६५०।। प्रश्नस्वरूपमाह दारं नित्यं व्युद्ग्रहशीलः? सततं कलहस्वभावः, कृत्वा च कलह नानुतप्यते पण्हाउ होइ पसिणं,जं पासइवा सयं तु तं पसिणं। पश्चादिति न च क्षान्तः सन्नपराधिना प्रसीदति-प्रसादं गच्छति। अंगुट्ठोच्छिट्टपए, दप्पणअसितोयकुड्डाई॥१६४५॥ अपराधिनोईयो:-स्वपक्षपरपक्षगतयोः कषायोदयादे वेत्येषोप्रश्नस्तु भवति पाठादिरूपः प्रश्न इति यत्पश्यति स्वयमात्मना ऽनुबद्धविग्रह इति गाथार्थः। / तुशब्दादन्ये च अवस्थाः प्रस्तुतं च स्तुते स प्रश्न इति / क तदित्याह संसक्ततपसमाहअङ्गुष्ठोच्छिष्टपदे इत्यङ्गुष्ठपदे तु शिष्टः कासारादिभक्षणेन एवं दर्पणे- आहारउवहिसिज्जा-सु जस्स भावो उनिचसंसत्तो। आदर्श असौ च-खने तोये-उदके कुड्डेभित्तौ आदिशब्दान्मदन- भावोवहओ कुणइ अ, तवोवहाणं तयट्ठाए।।१६५११॥ फलादिपरिग्रहः, (पाठान्तरे-) कुद्धादिः क्रुद्धः प्रशान्तो वा पश्यति- आहारोपधिशय्यास्वोदनादिरूपासु यस्य भावस्तु-आशयः कल्पविशेषादिति गाथार्थः। 'नित्यसंसक्तः' -सदा प्रतिबद्धः, भायोपहतः स एवंभूतः करो-ति च प्रश्राप्रश्नमाह तप उपधानम्-अनशनादि, तदर्थम्-आहाराद्यर्थ यः स संसक्ततपा पसिणापसिणं सुमिणे, विज्जासिट्ठ कहेइ अण्णस्स। यतिरिति गाथार्थः। अहवा आइंखणिए, घंटिअसिद्धि परिकहेइ।।१६४६।। निमित्तादेशनमाह दारप्रश्नाप्रश्नोऽयमेवंविधो भवति , यः स्वप्रे 'विद्याशिष्ट--' विद्याकथित / तिविहँ निमित्तं एक्कि कछव्विहं तं तु होइ विण्णेी सत्कथयत्यन्यस्मै शुभजीवितादि, अथवा-आइखणि ए' ति। ईक्षणिका | अभिमाणाभिनिवेसा, वागरिअं आसुरं कुणई।।१६५२॥ दैवज्ञा आख्यात्री लोकसिद्धा डोम्बी, साऽपि घण्टिकाशिष्ट घण्टिकायां | त्रिविधं भवति निमित्तम्-कालभेदेन, एकै कं षड्डिधं लाभास्थित्वा घण्टिकयक्षेण कथितं परिकथयत्येष वा प्रश्नाप्रश्न इति गाथार्थः। , लाभसुखदु:खजीवितमरणविषयभेदेन तत्तु भवति विज्ञय Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा म् / एतच्चाभिमानाभिनिवेशादित्यभिमानतीव्रतया व्याकृतं, सदा आसुरीं भावनां करोति तद्भावाभ्यासरूपत्वादिति गाथार्थः / निष्कृपमाह दारंचंकमणाईसत्तो, सुणिक्किवोथावराइसत्तेसु। काउंचणाणुतप्पइ, एरिसओ णिकिवो होइ॥१६५३॥ चङ्क्रमणादि-गमनासनादि तत्र सक्तः सन् क्वचित्सुनिष्कृपः सुष्ठ | गतघृणः स्थावरादिसत्त्वेषु करोत्यजीवप्रतिपत्त्या कृत्वा वा चक्रमादि नानुतप्यते केनचिन्नोदितः सन्नेतादृशो निष्कृपो भवति, लिङ्गमेतदस्येति गाथार्थः। निरनुकम्पमाह दारंजो उपर कंपंतं, दतॄणन कंपए कठिणभावो। एसोउणिरणुकंपो,पण्णत्तोवीअरागेहिं॥१६५४|| यस्तु परं कम्पमानं दृष्ट्वा कुतश्चिद्धेतुतः न कम्पते कठिनभावः सन् क्रूरतया एष पुनः निरनुकम्पो जीवः प्रज्ञप्तो वीतरागैराप्तैरिति गाथार्थः। उक्ता आसुरी भावना। सांप्रत संमोहनीमाह दारंउम्मग्गदेसओम-गदूसओमग्गविप्पडीवत्ती। मोहेण य मोहित्ता, संमोहणि भावणं कुणई॥१६५५॥ उन्मार्गदेशकः वक्ष्यमाणः,एवं मार्गदूषकः एवं मार्गविप्रतिपत्तिः तथा मोहेन स्वगतेन तथा मोहयित्वा परं संमोहिनीं भावनां करोति। तद्भावाभ्यासरूपत्वादिति गाथार्थः। उन्मार्गदशकमाहनाणाइदूसयंतो, तविवरीअंतु उडिसइमगं। उम्मग्गदेसओएस होइ अहिओ असपरेसिं॥१६५६|| ज्ञानादीनि दूषयन्पारमार्थिकानि तद्विपरीतं तु पारमार्थिकज्ञानविपरीतमेवोदिशति मार्ग धर्मसंबन्धिनमुन्मार्गदेशक एष एवंभूतः भवत्यहितः, एवं परमार्थेन स्वपरयोद्धयोरपीति गाथार्थः / पं०व०४ द्वार / (मार्गदूषकव्याख्या 'मग्गदूसग' शब्दे षष्ठभागे 58 पृष्ठे गता।) मार्गविप्रतिपत्तिमाहजो पुणतमेव मग्गं, दूसित्ताऽपंडिओ सतकाए। उम्मग्गं पडिवाइ, विप्पडिवत्तेस मग्गस्स॥१६५८|| यः पुनस्तमेव मार्ग-ज्ञानादि दूषयित्वा अपण्डितः सन् स्वतर्कया | जातिरूपया देशे उन्मार्ग प्रतिपद्यते एष एव मार्गविप्रतिपत्तिरिति / गाथार्थः। मोहमाहतह तह उवहयमइओ, मुज्झइ णाणचरणंतरालेसु। इड्डीओ अबहुविहा, दटुं जत्तो उमोहो य॥१६५६।। तथा तथा चित्ररूपतया उपहतमतिः सन् मुह्यति ज्ञानचरणान्तरालेषु गहनेषु ऋद्धीश्च बहुविधा दृष्ट्वा परतीथिकानां यतो मुह्य-त्यसौ मोह इति / गाथार्थः। मोहयित्वेति व्याचिख्यासुराहजो पुण मोहेइपरं, सब्भावेणंच कइअवेणं वा। समयंतरम्मि सो पुण, मोहित्ताघेप्पइ अणेणं // 1660 // यः पुनर्मोहयति परमन्यं प्राणिनं सद्भावेन वा तथ्येनैव कैतवेन वा परिकल्पितेन समयान्तरे-परसमये मोहयतिस पुनरेवंभूतः प्राणी 'मोहयित्वे ति गृह्यते अनेन द्वारगाथावयवेनेति गाथार्थः / आसां भावनानां फलमाहएयाओं भावणाओ,भावित्ता देवदुग्गइंजंति। तत्तो विचुआसंता, पडिंति भवसागरमणंतं॥१६६१।। एता भावना भावयित्वा अवश्यं देवदुर्गतिं यान्ति प्राणिनः, ततस्तस्या अपिच्युताः सन्तः देवदुर्गतः पर्यटन्ति भवसागर-संसारसमुद्रमनन्तमिति गाथार्थः। प्रकृतोपयोगमाहएयाओं विसेसेणं,परिहरई चरणविग्धभूआओ। एअन्निरोहओ चिअ, सम्मंचरणं पिपावेइ॥१६६२।। एता भावना विशेषेण परिहरति चरणविघ्रभूताः / एता इति एतनिरोधादेव कारणात्सम्यक्करणमपि प्राप्नोति प्रस्तुतानशनीतिगाथार्थः / आहण चरणविरुद्धा,एआओ एत्थचेवजं भणिओ। जो संजओ विभइओ, चरणविहीणो अचाई॥१६६३|| आह न चरणविरुद्धाः एता भावनाः, अत्रैव यद् भणितं ग्रन्थे यः संयतोऽप्येतास्वित्यादि तथा भाज्यश्चरणहीनश्चेत्यादि प्रागिति गाथार्थः। अत्रोत्तरम्ववहारणयाचरणं, एआसुंजं असंकिलिट्ठो वि। कोई कंदप्पाई,सेवइणउणिच्छऍण एसुं॥१६६४॥ व्यवहारनयाचरणम् एतासु भावनासु यदसंक्लिष्टोऽपि प्राणी कश्चित्कन्दप्पादीन् सेवते, नतु निश्चयेनतेन चरणमेतास्विति गाथार्थः। एतदेवाहअखंडं गुणट्ठाणं, इ8 एअस्स णियमओचेव। सइउचियपवित्तीए,सुत्ते विजओइमं भणियं // 1665 // अखण्डंगुणस्थानं निरतिचारमिष्टमेतस्यां नियमत एव निश्चयनयेन यस्य सदौचित्यप्रवृत्त्या हेतुभूतया सूत्रेऽपि यत इदं भणितं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः। किं तदित्याहजो जहवायंन कुणइ, मिच्छादिट्ठीतओहुको अण्णो। व अमिच्छतं, परस्ससंकं जणेमाणो॥१६६६|| यो यथावादं यथाऽऽगमं न करोति विहितं मिथ्यादृष्टिस्तत एवंभूतात्कोऽन्यः स एवाज्ञाविराधनादि विवर्द्धयति च, मिथ्यात्ववशादात्मनः परस्य शङ्कांजनयन्सदनुष्ठानविषयामिति गाथार्थः। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा स्याद् यथावादमेव कन्दादिकरणमित्याशङ्कयाह-- कंदप्पाईवाओ, न चेह चरणम्भिसुइकह चि। ताए असेवणं पिहु, तह वायविराहगं चेव।।१६६७।। कन्दादिवादो नचेहागमे चरणे चारित्रविषयः श्रूयते कृचिक- | रिमश्चित्सूत्रस्थाने, तत्तस्मादेतत्सेवन कन्दर्पसवनमपि तद्वाद-विराधकं चारित्रवादविराधकमेवेति गाथार्थः।। एवं निश्चयनयेनैतदुक्तम्किं तु असंखिजाई, संजमठाणा. जेण चरणे वि। भणियाइँजाइँ भेया, तेण नदोसो इहं कोई।।१६६८|| किं त्वसंख्येयानि संयमस्थानानि तारतम्यभेदेन येन चरणेऽपि-- चारित्रेऽपि भणितान्यागमे जातिभेदात्तजातिभेदेन तेन कारणेन दोषा इह कश्चित्कन्ददौ तथाविधसंयमस्थानभावादिति गाथार्थः। प्रकृतयोजनामाहएआण विसेसेणं, तच्चाओ तेण होइ कायव्यो। पुव्यिं तु भाविआण वि, पच्छातावाइजोगेणं / / 1666 / / एतासां भावनानां विशेषेण तत्यागो भवति तेन कर्त्तव्यो विवक्षिताऽनशनिना, पूर्वभावितानामपि सतीनां पश्चात्तापादियोगेन भवसारेणेति गाथार्थः। कयमित्थ पसंगेणं, पगयं वोच्च्छामि सव्वणयसुद्धं / भत्तपरिण्णाए खलु, विहाणसेसं समासेणं / / 1670 / / कृतमत्र प्रसङ्गेन, प्रकृतं वक्ष्यामि / किंभूतं सर्वनयविशुद्धम्, किमित्याह-भक्तपरिज्ञायाः खलु विधानशेष यन्त्रोक्तं तं समासनसंक्षेपेणेति गाथार्थः। वियडणअब्भुट्ठाणं, उचिअंसंलेहणं च काऊण। पच्चक्खाइऑहारं, तिविहं चउव्विहं वाऽवि।।१६७१।। विकटनां दत्त्वा तदन्वभ्युत्थानं संयमे उचिता संलेखना च संहननादेः कृत्वा प्रत्याख्यात्याहारं गुरुसमीपे त्रिविधं चतुर्विध चापि यथासमाधानमिति गाथार्थः। उव्वत्तइ परिअत्तइ, सयमण्णेणावि कारवइ किंचि। जत्थऽसमत्थो नवरं,समाहिजणगं अपडिबद्धो।।१६७२।। उद्वर्तते परावर्त्तते स्वयमात्मनैव अन्येनापि कारयति, किं चित् वैयावृत्त्यकरणे यत्रासमर्थो नवरं तत्कारयति, समाधिजनक दयात्मनः अप्रतिबद्धः सन सर्वत्रेति गाथार्थः / मेत्तादी सत्ताइसु, जिणिंदवयणेण तहय अच्चत्थं। भावेइ तिव्वभावो, परमं संवेगमावण्णो।।१६७३।। मे त्र्यादीनि मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वादिषु सत्त्वगुणाधिकस्य मानाविनेयेषु जिनेन्द्रवचनेन हेतुभूतेन तथा चात्यर्थ नितरां भावयति तीव्रभावः सन् परमं संवेगमापन्नः अतिशयेनान्तिःकरण इति गाथार्थः। देहसमाधौ यतितव्यमित्याह-- सुहझाणाओ धम्मो, तं देहसमाहिसंभवं पायं / ता धम्माऽपीडाए, देहसमाहिम्मि जइअव्वं // 1674 / / शुभध्यानाद्धर्मादः धर्मो भवति तच्छुभध्यानं देहसमा धेसंभट प्राया वाहुल्येनास्मद्विधानाम् / यत एवं तत्तस्माद्धापीडा हेतु-भूतया देहसमाधी-शरीरसमाधाने यतितव्यं-प्रयत्नः कार्य इति गाथार्थः / इहरहछे यवट्टम्मिय,संघयणे थिरधिईए रहिअस्स। देहस्स समाहीए,कत्तोसुहझाणभावो ति॥१६७५।। इतरथा छेदवर्तिनि संहनने सर्वजघन्य इत्यर्थः / स्थिरधृत्त्या रहितस्य दुर्बलमनसः देहस्याऽसमाधौ संजाते सति कुतः भध्यानभाने नैवेति गाथार्थः। तयभावम्मि अ असुहा, जायइलेसा वि तस्स णियमेणं। तत्तो अपरभवम्मि अ, तल्लेसेसुंतु उववाओ॥१६७६।। तदभावे च -शुभध्यानाभावे च अशुभा जायते लेश्याऽपि तथा - विधात्मपरिणामरूपा तस्य नियमेन देहासमाधिमत ततश्च शुभलेश्यातः परभवे-जन्मान्तरेऽपि तल्लेश्यास्वेवोपपातो महाननर्थ इति गाथार्थः। तम्हाउसुहं झाणं, पञ्चक्खाणिस्स सव्वजत्तेणं / संपाडेअव्वं खलु, गीअत्येणंसुआणाए।१६७७।। यरमादेवं तस्मात् शुभमेव ध्यानं प्रत्याख्यानिनः सव्यत्ने न कवचज्ञातासंपादयितव्यं खलु नियोगतः गीतार्थेन श्रुतान-साधुनेति गाथार्थः। सो विअ अप्पडिबद्धो, दुलहलाभस्स विरइभावस्स। अप्पडिपडणत्थं विअ,तंतं चिट्ठे करावेइ।।१६७८|| सोऽपि च प्रत्याख्यानी अप्रतिबद्धः सर्वत्र दुर्लभलाभत्य दुर्लभप्राप्तेः विरतिभावस्य-चारित्रस्य अप्रतिपतनार्थमेव चाज्ञापर-तन्त्रः सन् तां तां चेष्टां कारयति कवचादिरूपामिति गाथार्थः / तह वितया अद्दीणो, जिणवरवयणम्मिजायबहुमाणो। संसाराउ विरत्तो, जिणेहिं आराहओ भणिओ।।१६७६।। तथापि तदा अदीनः सन भावेन जिनवरवचने जातबहुमानः वचनैकनिष्ठः सन् संसाराद्विरक्तः संविग्नो जिनैराराधको भा गतः परमार्थत इति गाथार्थः। __ अत्रोपपत्तिमाहजंसो सया वि पायं, मणेण संविग्गपक्खिओ चेव। इअरोउ विरइयणं, नलहइचरमे वि कालम्मि।।१६८०|| यदसावेव विधः सदापि प्रायः मनसा भावेन संदिग्न्पाक्षिक एवम् इतरस्त्वसं विग्नपाक्षिकः विरतिरत्न-चारित्रं न लभर न प्राप्नोति चरमकालेऽपीति गाथार्थः। संविग्गपक्खिओपुण, अण्णत्थ पयट्टओ विकाएणं / धम्मे चिअ तल्लिच्छो, दढरति त्थिव्व पुरिसम्मि॥१६८१॥ स विग्नपाक्षिक : पुनः शीतलविहारी अन्यत्र प्रवृतोऽपि कायादि-भोगे कायेन प्रमादात् धर्म एव तल्लिप्स : तद्गतचित्तः दृढ रक्तस्त्रीवत् पुरुषे / सा यथा कुलजा प्रोषित भत-- Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 227 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संलेहणा का क्वचिजातरागा कादा चिरक स्वल्पकालतत्प्राप्त्या दानादिक्रियाप्रवृत्ताऽपि तद्गतचित्ता पापे न युज्यते, स्वल्पं च दानादिक्रियाफलमाप्नोतीत्येवं संविनपाक्षिकोऽपि कायमात्रेणासमञ्जसप्रवृत्तो भावेन धर्मरकतो धार्मिक एव मन्तव्य इतिगाथार्थः / तत्तो चिअभावाओ, णिमित्तभूअम्मिचरमकालम्मि। उक्करिसविसेसेणं, कोई विरईपि पावेइ॥१६८२|| तत एव भावात-धर्मविषयात् निमित्तभूते चरमकाले सति उत्कर्षविशेषेण शुभभावस्य कश्चिद्विरतिमपि प्राप्नोति धन्य इति गाथार्थः / युक्तियुक्तमेतत्जो पुण किलिट्ठचित्तो, णिरवेक्खोऽणत्थदंडपडिबद्धो। लिंगोवधायकारी, ण लहइ सो चरमकाले वि॥१६८३॥ यः पुनः क्लिष्टचित्तः सत्त्वनिरपेक्षः सर्वत्रानर्थदण्डप्रतिबद्धः तथा लिङ्गोपघातकरी तेन तेन प्रकारेण न लभते स विरतिरत्नं चरमकालेऽपीति गाथार्थः। चोएइ कहं समणो, किलिट्ठचित्ताइदोसवं होइ। गुरुकम्मपरिणईओ, पायं तह दव्वसमणो अ॥१६५४।। चोदयति चोदकः, कथं श्रमणः संक्लिष्टचित्तादिदोषवान् भवतीति, उत्तरमत्रगुरुकामपरिणतेर्भवति प्रायस्तथा बाहुल्येन द्रव्यश्रमणश्चेति गाथार्थः। एतदेव समर्थयतेगुरुकम्मओ पमाओ, सो खलु पावोजओतओऽणेगे। चोद्दसपुव्वधरा विहु, अणंतकाए परिवसंति।।१६८५।। गुरुकर्मणः सकाशात्प्रमादो भवति, स खलु पापोऽतिरौद्रः यस्ततः प्रमादादनेके चतुर्दशपूर्वधरा अपि तिष्ठन्त्वन्ये अनन्तकाये परिवसन्ति | वनस्पताविति गाथार्थः। किश्चदुक्खं लब्भइ नाणं, नाणं लभ्रूण भावणा दुक्खं / भाविअमई विजीवो, विसएसु विरजई दुक्खं / / 1686|| दुःख लभ्यते--कृच्छ्रण-प्राप्यते ज्ञानं यथास्थितपदार्थावसायि, तथा ज्ञानं लब्ध्वा--प्राप्य भावना एवमेवैतदित्येवंरूपा दुःखं भवति / भावितमतिरपि जीवः कथंचित् कर्मपरिणतिवशात् विषयेभ्यः शब्दादिभ्यो विरज्यते अपरिवृत्तिरूपेण दुःखं तत्प्रवृत्तेः सात्मीभूतत्वादिति गाथार्थः / एवं गुरुकर्मपरिणतेः क्लिष्टचित्तादिभावो विरुद्धः, द्रव्य श्रमणमाह-- अन्ने उपढमगं चिअ, चरित्तमोहक्खओवसमहीणा। पव्वइआ ण लहंती, पच्छा विचरित्तपरिणामं॥१६५७|| अन्ये तु प्रथममेव-आदित आरभ्य चारित्रमोहक्षयोपशमहीनाश्चारित्रमन्तरेणव प्रव्रजिताः द्रव्यत एवंभूताः सन्तोनलभन्ते पश्चादपि तत्रैव तिष्ठन्तश्चारित्रपरिणाम प्रव्रज्यास्तित्वरूपमिति गाथार्थः। एतदेवाहमिच्छादिट्ठीओ वि हु, केई इह होंति दव्वलिंगधरा। ता तेसि कह ण हुंती, किलिट्ठचित्ताइओ दोसा / / 1688|| मिथ्यादृष्टयोऽपि अपिशब्दादभव्या अपि केचनेह लोके शासने वा भवन्ति द्रव्यलिङ्गधारिणो विडम्बकप्रायाः, तत्तस्मात्तेषामेवंभूतानां कथं न भवन्ति ? भवन्त्येव क्लिष्टचित्तादयो दोषाः प्रागुपन्यस्ता इति गाथार्थः। तत्रैव प्रक्रमे विधिशेषमाहएत्थ य आहारो खलु,उवलक्खणमेव होइणायव्यो। वोसिरइतओसव्वं, उवउत्तो भावसल्लं पि॥१६८६।। अत्र चानशनाधिकारे आहारः खलु परित्यागमधिकृत्योपलक्षणमेव भवति ज्ञातव्यः शेषस्यापि वस्तुनः। तथा चाहव्युत्सृजतिपरित्यजत्यसावनशनी सर्वम्, उपयुक्तः सन्भावशल्यमपि सूक्ष्ममिथ्यात्वादीनीति गाथार्थः। किंबहुनाअण्णं पिव अप्पाणं, संबेगाइसयाउचरमकाले। मण्णइ विसुद्धभावो, जो सो आराहओ भणिओ॥१६६०॥ अन्यमिवात्मानं प्राक्तनादात्मनः संवेगातिशयात् संवेगातिशयेन चरमकाले प्राणप्रयाणकाले मन्यते शुद्धभावः सन् सर्वाऽसदाभि-- निवेशत्यागेन यः स आराधको भणितस्तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः / अयमेव विशिष्यतेसव्वत्थापडिबद्धो, मज्झत्थो जीविए अमरणे अ। चरणपरिणामजुत्तो, जो सो आराहओ भणिओ।।१६६१।। सर्वत्राप्रतिबद्धः इहलोके परलोके च,तथा मध्यस्थो जीविते मरणे च; न मरणमभिलषति नापि जीवितमित्यर्थः, चरणपरिणामयुक्तो न तद्विकलः, य एवंभूतः स आराधको भणितस्तीर्थकरगणधरैरिति गाथार्थः। अस्यैव फलमाहसो तप्पभावओ चिअ, खविउंतं पुव्वदुक्कडं कम्म। जायइ विसुद्धजम्मा, जोग्गो अपुणो विचरणस्स।।१६६२।। स एवंभूतस्तत्प्रभावत एव-चारित्रपरिणामप्रभावादेव क्षपयि-- त्वाऽभावमापाद्य तत्पूर्वदुष्कृतं कर्म शीतलविहारजं जायते वि-- शुद्धजन्मा-जात्यादिदोषरहितः योग्यश्व पुनरपि तज्जन्मापेक्षया चरणस्येति गाथार्थः। त्रिविधको भवतीति तद्विशेषमभिधातुमाहएसोअहोइ तिविहो, उक्कोसो मज्झिमो जहण्णो य। लेसादारेण फुड, वोच्छामि विसेसमेएसिं॥१६६३|| एष चाराधको भवति त्रिविधः / त्रैविध्यमेवाह-उत्कृष्टो, मध्यमो, जघन्यश्च / भावसापेक्ष चोत्कृष्टत्वादि यत एवमतो लेश्याद्वारेणलेश्यागीकरणेन स्फुट-प्रकटं वक्ष्यामि विशेषमेतेषामुत्कृष्टादिभेदानामिति गाथार्थः। सुक्काएलेसाए, उक्कोसगमसंगं परिणमित्ता। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संलेहणा 228 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर जो मरइ सो हु णियमा, उक्कोसाराहओ होइ॥१६६४॥ सकलव्याबाधानिवृत्तेः स आराधको मुक्तः तत्र सिद्धो जन्मादिशुक्लाया लेश्यायाः सर्वोत्तमाया उत्कृष्टमंशकं विशुद्ध परिणम्य- दोषरहितः-जन्मजरामरणादिरहितः संस्तिष्ठति भगवान् स्दा-कालतद्भावमासाद्य यो म्रियते कश्चित्सत्त्वः स नियमादेवोत्कृष्टाऽऽराधको भवति सर्वकालमेव नत्वभावी भवति यथाऽऽहुरन्ये- 'प्रविध्यातदीप-कल्पोपमो स्वल्पभवप्रञ्च इति गाथार्थः। मोक्षः' इति गाथार्थः / पं०व०४ द्वार। आव०। ध०। ('ज्जुसवणा' मध्यमाऽऽराधकमाह शब्दे वर्षासु संलेखनाविधिः) / जे सेसा सुक्काए, अंसाजे आवि पम्हलेसाए। संलेहणाझुसिय त्रि० (संलेखनाझोषित) संलेखना-शरीरस्य तपसा ते पुणजो सो भणिओ, मज्झिमओ वीयरागेहिं।।१६६५|| कृशीकरण तथा वा 'झू सिय' ति जुष्टाः सेविताय ते तथा। ये शेषा उत्कृष्ट विहाय शुक्लायाः अशाः-भेदाः, ये चापि पद्म- | संलेखनाख्यतपःकारिषु, ओद्या लेश्यायाः, सामान्येन तान् पुनर्विपरिणम्य यो मियते स मध्यमो भणितो | संलेहणाझोसणाझु (झू) सिय त्रि० [संलेखनाजोषणा(इषित) जुष्ट] मध्यमाराधको वीतरागैर्जिनैरिति गाथार्थः / सलेखनाया-कषायशरीरकृषीकरणे या जोषणा-प्रीतिः सवा वा जुषी जघन्यमाराधकमाह प्रीतिसेवनयोरिति वचनात्, तया तां वा ये जुष्टाः सेवितास्ते तथा तेओलेसाएजे, असा अह नेओंजे परिणमित्ता। 'झूसिय' ति झूषिताः क्षीणा येते तथा / संलेखनातपः कारिषु, भ०३ मरइतओ विहुणेयो, जहण्णगाराहओ इत्थ।।१६६६।। श०७ उठा औ०। तेजोलेश्यायाः ये अंशाः-प्रधानाः, अथवा तान् यः परिणम्याऽशकान् | संलेहणासुय न० (संलेखनाश्रुत) यत्र संलेखनायां श्रुतं प्रतिपाद्यते तत् काश्चित् म्रियतेऽसावप्येवंभूतो ज्ञेयः, किंभूत इत्याह-जघन्याराधकोऽत्र संलेखनाश्रुतम् / उक्तलक्षणसंलेखनाप्रतिबद्धे उत्क लिकश्रुतप्रवचन इति गाथार्थः। विशेषे, पा०। अस्यैव सुसंस्कृतभोजनलवणकल्पविशेषमाह संलोग पुं० (संलोक) संलोक्यत इति संलोकः / चतुर्दशर ज्वा-त्मके एसो पुण सम्मत्ताऽऽ-इसंगओ चेव होइ विण्णेओ। लोके, आव० 2 अ०। (लोकस्य ध्रुवाध्रुवत्वविचारः 'भूगोल' शब्दे ण उलेस्सामित्तेणं,तं जमभव्वाण विसुराणं / / 1667 / / पञ्चमभागे 1601 पृष्ठे गतः।) (लोके गोलानामसंख्येर त्व-विचारः एष पुनर्लेश्याया द्वारोक्ताराधकः सम्यक्त्वादिसंगत एवसम्य 'लोक' शब्दे षष्ठभागे 706 पृष्ठे गतः।) प्रकाशे, आचा० 1 अ०१ श्रु०१ क्त्वज्ञानतद्भावस्थायिचरणयुक्त एव भवति विज्ञेय आराधको न तु अ०२ उ० / संदर्शन, आचा०१ श्रु०१ अ० 3 उ०। लेश्यामात्रेण केवलेन आराधकः / कुत इत्याह- 'तत्'-लेश्यामात्र 'यत्' संवग्ग पुं० (संवर्ग) संवर्यत इति संवर्गः / गुणिते, व्य०६ उ० / गुणने, यस्मात् कारणात् अभव्यानामपि सुराणां भवति, यल्लेश्याच मियन्ते नि० चू०१ उ०। तल्लेश्या एवोत्पद्यन्ते इतिगाथार्थः। संवच्छर पुं० (संवत्सर) “हस्वात् थ्य-श्व-त्स-प्सामनिश्चले" आराधकगुणमाह ॥चा।२१।। अनेनात्र ह्रस्वात्परस्य त्सस्य छकारः। प्रा० / द्वादशआराहगो अजीवो, तत्तो खविऊण दुक्कडं कम्म। मासात्मके वर्षे, आ०म०१ अ०। पञ्चा०ा "दो अयणा संवच्छरो" जं०२ जायइ विसुद्धजम्मा,जोग्गो विपुणो विचरणस्स।।१६६८।। वक्ष० / कर्म० / भ० / ज्यो० / अयनद्वयेन संवत्सरः / तं० / अनु० आठ आराधकश्च जीवः तत आराधकत्वात् क्षपयित्वां दुष्कृतं कर्म प्रमादज म०। विशे०। अनु० / स्था०। ज्ञानावरणादि जन्मादिकुलाद्यपेक्षया योग्यस्य पुनरपि चरणस्य ता कतिणं भंते ! संवच्छरे आहिताति वदेजा?, ता पंच संव-च्छरा तद्भावभाविन इति गाथार्थः। आहितेति वदेजा, तं जहा-णक्खत्तसंवच्छरे, जुगसं-वच्छरे, आराधनाया एव प्रधानफलमाहआराहिऊण एवं,सत्तट्ठभवाण सारओ चेव। पमाणसंवच्छरे, लक्खणसंवच्छरे, सणिच्छरसंवच्छरे। (सू०५४) तेल्लुक्कमत्थअत्थो, गच्छइ सिद्धिं णिओगेणं / / 1666 / / 'ता कइण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति-किंसङ्ग्याः णमिति आराध्यैवमुक्तप्रकार, किमित्याह-सप्ताष्टभवेभ्यः सप्ताष्टजन्मभ्यः वाक्यालङ्कार, संवत्सरा आख्याता इति वदेत्? भगवानाह- 'ता' आरत एव त्रिषु वा चतुषु वा जन्मसु, किमित्याह-त्रैलोक्यमस्तकस्थः इत्यादि, ता इति प्राग्वत्, पञ्च संवत्सरा आख्याता इति वदेत, सकललोकचूडामणिभूतो गच्छति सिद्धिमुक्तिं नियोगेनावश्यंतयति तद्यथा नक्षत्रसंवत्सरमित्यादि, तत्र यावता कालेनाष्ट विंशत्याऽपि गाथार्थ: नक्षत्रः सह क्रमेण योगपरिसमाप्तिस्तावान् कालविशेष्ो द्वादशभितत्रच गतः सन गुणितो नक्षत्रसंवत्सरः,उक्तं च- “नक्खत्तचंदजोगो बारगुणिओ सवण्णु सव्वदरिसी, निरुवमसुहसगंओ य सो तत्थ। य नक्खत्तो" अत्र पुनरे कोनितनक्षत्रपर्याययोग को नक्षत्रजम्माइदोसरहिओ, चिट्ठइ भयवं सयाकालं / / 1700 / / मासः, स च सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा सर्वज्ञः सर्वदर्शी नाचेतनो गगनकल्पः तथा निरुपमसुखसंगतश्व | अहोरात्रस्य, एष राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा त्रीण्यहोरात्रश Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर तानि सप्तविंशत्यधिकानि एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य, एताव -प्रमाणो नक्षत्रसवत्सरः / युगं पञ्चवर्षात्मकं तत्पूरकः संवत्सरो युगसंवत्सरः युगस्य प्रमाणहेतुः संवत्सरः प्रमाणसंवत्सरः। लक्षणेन यथावस्थितेनोपपेतः संवत्सरो लक्षणसंवत्सरः / शनैश्वरनिष्पादितः संवत्सरः शनश्वरसवत्सरः / शनैश्चरसंभवः / सू. प्र० 10 पाहु० / नक्षत्रसंवत्सर 'णक्खत्तसंवच्छर' शब्दे चतुर्थभागे 1762 पृष्ठे उक्तः।) (युगसंवत र र: 'जुग' शब्दे चतुर्थ भागे 1567 पृष्ठे उपतः।) (प्रमा गसंवत्सरः ‘पमाणसंवच्छर' शब्दे पञ्चमभागे 476 पृष्ठे उक्तः।) (लक्षणसंवत्सरः 'लक्खणसंवच्छर' शब्दे षष्ठभागे उक्तः।) प्रमाणसंवत्सरेऽत्र विशेषमाहतापमाणसंवच्छरे पंचविहे पण्णत्ते,तं जहा-नक्खत्ते चंदे उडू आइचे अभिवड्डिए। (सू०५७) 'पमाणे' त्यादि, प्रमाणसंवत्सरः पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--नक्ष संवसर ऋतुसंवत्सरश्चन्द्रसंवत्सरः आदित्यसंवत्सरोऽभिव-- द्धितसंवत्सरश्च / तत्र नक्षत्रचन्द्राभिवर्द्धितसंवत्सराणां स्वरूप प्रागेवक्तमितानीमृतुसंवत्सरादित्यसंवत्सरयोः स्वरूपमुच्यते-तत्र द्वे घटिके एको मुहूर्त्तस्त्रिंशन्मुहूर्ता अहोरात्रः, पञ्चदश परिपूर्णा अहोरात्राः पक्षः, द्वौ पक्षं मासो, द्वादश मासाः संवत्सरो, यस्मिश्च संवत्सरे त्रीणि शतानि षष्टाधिकानिपरिपूर्णान्यहोरा–त्राणां, भवति एष ऋतुसंवत्सरः / ऋतवालोका सिद्धाः वसन्ता-दयः तत्प्रधानः संवत्सर ऋतुसंवत्सरः। अस्य चापरमपि / नाम-द्वयमस्ति, तद्यथा-कर्मसंवत्सरः, सवनगंवत्सः / तत्र कर्मलौकिको व्यवहारस्तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवत्सरः, लोको हि प्रायः सर्वोऽप्यनेनेव संवत्सरेण व्यवहरति / तथा चेतगरमा-समधिकृत्यान्यत्रोक्तम्- "कम्मो निरंसयाए, मासो यवहारकारगो लोए। सेसाओं संसयाए, क्वहारे दुक्करो चित्तु / / 1 / / " तथा सेवन कर्मसु प्रेरण 'षु' प्रेरणे इति वचनात्, तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसंवत्सर इत्ययस्य नाम, तथा चोक्तम्"बे नालिया मुहुत्तो, सट्ठी उण नालिया अहोरत्तो। पन्नरस अहं रत्ता, पक्खो तीसं दिणा मासो।।१।। संवम्छरो उ बारस, मासा पक्खाय तेचउव्वीसं। तिन्नेव सया सट्टी, हवंति राइंदियाणं तु // 2 // एसो उ कम भणिओ, निअमा संवच्छरस्स, कम्मस्स। कम्गो त्ति रावणो त्ति य, उउइ ति य तरस नामाणि // 3 // " तथा यावता कालेन षडपि प्रावृद्धादयः ऋतवः परिपूर्णाः प्रावृत्ता भवन्ति तावान कार्ला शेिष आदित्यसंवत्सरः। उक्तं च- "छप्पि उऊवरियट्टा, एसो संवच्छरो उ आइयो" तत्र यद्यपि लोके षष्ट्यहोरात्रप्रमाणः प्रावृडादिक ऋतुः प्रसिद्ध तथापि परमार्थतः स एकषष्ट्यहोरात्रप्रमाणो वेदितव्यः, तथैवोत्तरकालामव्यभिचार-दर्शनात्, अत एव चास्मिन् संवत्सरे त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि रात्रिन्दिवाना द्वादशभिश्व मासैः संवत्सरं भवति, तथा चान्यत्रापि पञ्चस्वपि संवत्सरेषु यथोक्तमेव रात्रिन्दिवानां परि- | मागमुक्तम् "तिन्नि अहोरत्तराया, छावट्ठा भक्खरो हवइ वासो। तिन्नि सया पुण सट्टी, कम्मो संवच्छरो होइ।।१।। तिन्नि अहोरत्तसया, चउपन्ना नियमसो हवइ चंदो। भागो य बारसेव य, बावट्ठिकएण छेएण॥२॥ तिन्नि अहोरत्तसया, सत्तावीसा य हॉति नक्खत्ता। एक्कावन्न भागा, सत्तट्टिकरण छेएण।।३।। तिन्नि अहोरत्तसया, तेसीई चेव होइ अभिवड्डी। चोयालीस भागा, बावट्टिकरण छेएण // 4 // " एताश्चतस्रोऽपि गाथाः सुगमाः / इदं च प्रतिसंवत्सरं रात्रिन्दिवपरिमाणमग्रेऽपि वक्ष्यति परमिह प्रस्तावादुक्तम् / सम्प्रति विनेयजनानुग्रहाय संवत्सरसंख्यातो माससंख्या प्रदर्श्यते-तत्र सूर्यसंवत्सरस्य परिमाण-त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यधिकानि रात्रिन्दि-वानां द्वादशभिश्च मासैः संवत्सरस्तत्र त्रयाणां शतानां षट्षष्ट्य-धिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धाः त्रिंशत् 30. शेषाणि तिष्ठन्ति षट् 6, ते अद्ध क्रियते, जाता द्वादश, ततो लब्धमेक दिवसस्यार्द्धमतावत्परिमाणः सूर्यमासः, तथा कर्मसंवत्सरस्य परिमाणंत्रीणि शतानि षष्ट्यधिकानि रात्रिन्दिवानां तेषां द्वादशभिभागहते लब्धास्त्रिंशदहोरात्रा एतावत्कर्ममासपरिमाणम, तथा चन्द्रसंवत्सरस्य परिमाणं त्रीण्यहोरात्रशतानि चतुष्पशाशदधिकानि द्वादश च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, तत्र त्रयाणां शतानां चतुष्पशाशदधिकानां द्वादशभिर्भाग हृते लब्धा एकोनत्रिंशदहोरात्राः, शेषाः तिष्ठन्ति षट् अहोरात्राः, ते द्वाषष्टिभागकरणार्थ द्वापाच्या गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि द्विसप्तत्यधिकानि 372, येऽपि द्वादश द्वापष्टिभागा उपरितनास्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि चतुरशीत्यधिकानि, तेषां द्वादशभिर्भाग हृते लब्धा द्वात्रिंशत् द्वाषष्टिभागाः, एतावचन्द्रमासपरिमाणम् / तथा नक्षत्रसंवत्सरस्य परिमाणंत्रीणि शतानि सप्तविंशत्य-िकानि रात्रिन्दिवानामेकस्य च राविन्दिवस्य एकपशाशत्सप्तषष्टिभागाः / तत्र त्रयाणां शताना सप्तविंशत्यधिकानाद्वादशभिर्भागो हियते, लब्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषास्त्रयस्तिष्ठन्ति, ततस्तेऽपि सप्तषष्टिभागकरणार्थ सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जाते द्वे शते एकोत्तरे 201, येऽपि च उपरितना एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागास्तेऽपि तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जाते द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके 252, तेषां द्वादशभिर्भागे हृते लब्धा एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, एतावन्नक्षमासपरिभाणमा तथा अभिवर्द्धितसंवत्सरस्य परिमाणंत्रीणि रात्रिन्दिवशतातित्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य, तत्र त्रयाणां शताना त्र्यशीत्यधिकानां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदहोरात्राः शेषास्तिष्ठन्त्यहोरात्रा एकादश,तेच चतुर्विशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विशत्युत्तरशतेन 124 गुण्यन्ते, जातानि त्रयोदश शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि 1364, येऽपि चोपरितनाश्चतुश्चत्वारिंशद्द्वाषष्टिभागास्तेऽपि चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ द्वाभ्यां गुण्यन्ते, जाता अष्टाशीतिः। साऽनन्तरराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि चतुर्दश शतानि द्विपञ्चाशदधिकानि 1452, तेषां द्वादशभिर्भागो हियते, लब्ध Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 230 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर मे कविशत्युत्तर शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागानाम्, एतावदभिवर्द्धितमासपरिमाणम्, तथा चोक्तम्"आइचो खलु मासो, तीसं अद्धं च सावगो तीसं। चंदो एगुणतीस, बिसट्टिभागा य बत्तीसं / / 1 / / नक्खत्तो खलु मासो, सत्तावीस भवे अहोरत्ता / अंसा य एकवीसा, सत्तट्टिकरण छेएण।।२।। अभिवडिओ य मासो, एक्कत्तीसं भवे अहोरत्ता। भागसयमेगवीस, चउवीससरण छेएणं / / 3 / / " सम्प्रतिएतैरेव पञ्चभिः संवत्सरैः प्रागुक्तस्वरूप युगंपञ्च संवत्सरात्मक मासानधिकृत्य प्रमीयते। तत्र युगंप्रागुदितस्वरूपं यदि सूर्यमासैर्विभज्यते ततः षष्टिः सूर्यमासा युगं भवति, तथाहि-सूर्यमासे सार्द्धास्त्रिंशदहोरात्रा युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि भवन्ति / कथमेतदवसीयते इति चेत, उच्यते-इह युगे त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरौ, एकै कस्मिश्च चन्द्रसंवत्सरेऽहोरात्राणा त्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, द्वादश च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य 354 12 तत एतत् त्रिभिर्गुण्यते, जातान्यहोरात्राणां दश शतानि द्वाषष्ट्यधिकानि 1062 षट् त्रिंशच्च द्वाषष्टि भागा अहोरात्रस्य ३०६,अभिवर्द्धित-संवत्सरे च एकैकस्मिन अहोरात्राणां त्रीणि शतानि त्र्यशीत्यधिकानि चतुश्चत्वारिंशच्च द्वाषष्टिभागा अहोरात्रस्य, (तत एतद् द्वाभ्यां गुण्यते जातानि सप्तषष्ट्यधिकानि सप्तशतान्यहोरात्राणां षद्धिशतिश्च द्विषष्टिभागा अहोरात्रस्य तदेव चन्द्रसंवत्सरत्रयाभिवर्द्धितसंवत्सरद्वयाहोरात्रमीलने त्रिंशदधिकान्यहोरात्राणामष्टादश शतानि, सूर्यमासस्य च पूर्वोक्तरीत्या सार्द्धत्रिंशदहोरात्रमानतेति तेन भागे कृते स्पष्टमेव षष्टलाभः / तथाहि-अष्टादशशत्यास्त्रिंशदधिकाया अर्धीकरणाय द्वाभ्यां गुणने षष्ट्यधिका षट्त्रिंशच्छती त्रिंशतश्चा/करणाय द्वाभ्यां गुणने षष्टिः, एक प्रक्षेपे एकषष्टिस्तेन पूर्वोक्तराशेः भागे कृते लभ्यते षष्टिः, तथा च युगमध्ये सूर्यमासाः षष्टिरिति स्थितम् / सावनस्य तु मासा एकषष्टिः, त्रिंशदिनमानत्वाद् तस्य त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्यास्त्रिंशता भागे एकषष्टे लाभात् / चन्द्रमासा द्विषष्टिर्यत एकोनविंशत्या अहोरात्रैरेकोनत्रिंशता द्विषष्टिभागैरधिकै मसिः, युगदिनानां तैर्भाग च द्वाषष्टलाभात्, कथम्? त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्या द्विषष्टिभागकरणार्थ गुणकारे एक लक्षं त्रयोदश सहस्राणि षष्ट्यधिकमेक शतम् 113166, चन्द्रमासस्यापि भागकरणाय द्विषष्ट्या एकोनत्रिंशति गुणिते प्रक्षिप्ते च द्वात्रिंशति त्रिंशदधिकाया अष्टादशशत्या भावः, तया भक्ते पूर्वोक्तराशौ द्वाषष्टेर्भावात् चन्दमासा द्वाषष्टिरिति। नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः, कथमिति चेत्, नक्षत्रमासस्तावत् सप्तविंशत्या आहोरात्रैरेकविंशत्या च सप्तषष्टिभागः,) तत्र सप्तविंशतिरहोरात्राः समषष्टिभागकरणार्थं सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि नवोत्तराणि 1806, तत उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830, युगस्यापि सम्बन्धिनस्त्रिंशदधिकाष्टादशशतप्रमाणा अहोरात्राः सप्तषष्ट्या गुण्यन्ते, जात एको लक्षः द्वाविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि दशोत्तराणि 122610, एतेषामष्टादशशतैस्त्रिंशदधिकैनक्षत्रमाससत्कसप्तष्टिभागरूपैर्भागो हियते लब्धाः सप्तषष्टिर्भागाः 67 / तथा यदि युगमभिवर्द्धितमासैः परिभज्यते तदा अभिवर्द्धित्तमासा युगे भवन्ति सप्तपञ्चाशत् सप्त रात्रिन्दिवानि एकादश मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागाखयोविंशतिः, तथाहि-अभिवर्द्धितमासपरिमाणमेकत्रिशदहोरात्रा एकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विशत्यधिकशतभागानामहोर त्रस्य, तत एकत्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विंशत्युत्तरशतभागकरणार्थ चतुर्विशत्युत्तरेण शतेन गुण्यन्ते जातान्यष्टात्रिंशच्छतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि 3844, तत उपरितनमेकविंशत्युत्तरं शतं भागानां तत्र प्रक्षिप्यते, जा तान्येकानचत्वारिंशच्छताति पञ्चषष्ट्यधिकानि 3665, यानि च युगे अहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830 तानि चतुर्विशत्युतरेण शतेन गुण्यन्ते, जाते द्वेलक्षे षड्विंशतिः सहस्राणि नव शतानि विंशत्यधिकानि 226620, तत एतेषामेकोनचत्वारिंशच्छतैः पञ्चषष्ट्यधिकैरभिवर्द्धितमाससत्कचतुर्विंशत्युत्तरशतभागरूपैर्भागो ह्रियते, लब्धाः सप्तपञ्चाशन्मासाः 'शेषाणि तिष्ठन्ति नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, तेषामहोरात्रानयनाय चतुर्विशत्यधिकेन शठेन भागो हियते, लब्धानि सप्त रात्रिन्दिवानि, शेषास्तिष्ठन्ति चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः सप्तचत्वारिंशत्, तत्र चतुर्भिगिरेकस्य च भागस्य चतुर्भिस्त्रिंशद्भागैर्मुहूर्तो भवति, तथाहि--एकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ता अहोरात्रे च चतुर्विंशत्युत्तर शत भागाना कल्पितमास्ते, ततस्तस्य चतुर्विशत्युत्तरशतस्य 'शता भागे हृते लब्धाश्चत्वारो भागाः एकस्य च भागस्य सत्काश्चत्वारस्त्रिंशद्भागास्तत्र पञ्चचत्वारिंशदागैरेकस्य च भागस्य सत्कैश्चतुर्दशभिस्त्रि शद्भागैरेकादश मुहूर्त्ता लब्धाः शेषस्तिष्ठत्येको भागः, एकस्य च भागस्य सत्काः षोडश त्रिंशद्भागाः। किमुक्तं भवति?षट्चत्वारिंशत-त्रिंशद्धागा एकस्य भागस्य सत्काःशेषास्तिष्ठन्ति, ते च किल मुहूर्तस्य चतुविशत्युत्तरशतभागरूपास्ततः षट्चत्वारिंशतश्चतुर्विशत्युत्तरशतस्य च द्विकेनापवर्त्तना क्रियते,लब्धा मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागास्त्रयोविंशतिः। उक्तं चैतदन्यत्रापि"तत्थ पडिमिजमाणे पंचहिं माणेहि सव्वगणिएहिं। मासेहि विभज्जता, जइ मासा होति ते वोच्छं।१।।" अत्र 'तत्थे' ति तत्र, 'पंचहिं माणेहिं तिपञ्चभिर्मानः-मानसंवत्सरैः प्रमाणसंवत्सरैरादित्यचन्द्रादिभिरित्यर्थः,पूर्वगणितैः-प्राक्प्रतिसंख्यातस्वरूपैः प्रतिमीयमाने प्रतिगण्यमाने मासैः-सूर्यादिमासैः शेष सुगमम् / “आइचेण उ सट्ठी, मासा उउणो उ हों ति एगट्टी / चंदेण उ बावट्ठी,सत्तट्टी होति नक्खत्ते / / 1 / / सत्तावण्णं मासा, सत्त य राइंदियाइँ अभिवड्डे / इक्कारस य मुहुत्ता, विसट्ठिभागा य तेवीसं / / 2 / / " सू० प्र० 10 पाहु०। यथा 'संवत्सराणामादिर्वक्तव्य इति,ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कहं ते संवच्छ राणामादी आहिते ति वदेजा? तत्थ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर खलु इमे पंच संवच्छरे पण्णत्ता, तंजहा-चंदे, चन्दे, अभिवडिते, चंदे, अभिवद्भिते।ताएतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स के आदी आहितेति वदेजा ? ता जेणं पंचमस्स अभिवड्डितस वच्छरस्स पज्जवसाणं से णं पढमस्स चंदस्स संवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समए, तीसे णं किं पञ्जवसिते आहितेति वदेञ्जा? ताजेणं दोचस्स आदी चंदसवंच्छरस्स से णं पढवस्स चंदसंवच्छर पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये।तं समय चणं चंदे केणं गक्खत्तेणं जोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं छदुवीसं मुहुत्ता छदुवीसं च बावट्ठिभागा मुहुतस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छित्ता चउप्पण्णं चुण्णिया भागा सेसा,तं समयं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स सोलस मुहुत्ता अट्ठय बावट्ठिभागा मुहत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्टिहा छेत्ता वीसं चुण्णिया भागा सेसा। ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं दोचस्सणं चंदसंवच्छरस्स के आदी आहितेति वेदज्जा ? ताजेणं पढमस्सचंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे सेणंदोच्चस्स णं चंदसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किं पज्जवसिते आहितेति वदेजा? ताजेणं तचस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स आदी से णं दोचस्स संवच्छरस्स पञ्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये।तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जोएति? ता पुव्वाहिं आसाढाहिं, पुव्वाणं आसाढाणं सत्त मुहुत्ता तेवण्णं च बावट्ठि-भागा मुहुत्तस्स बावद्विभागं च सत्तद्विधा छेत्ता इगतालीसं चुण्णिया भागासेसा, तं समयं चणंसुर केणं णक्खत्तेणंजोएति? ता पुणव्वसुणा, पुणव्यसुस्स णं बायालीसं मुहुत्ता पणतीसं च बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावद्विभार्ग च सत्तद्विधा छेत्ता सत्त चुण्णिया भागा सेसा। ता एतेसि णं पंचण्हं संवच्छराणं तच्चस्स अभिवड्डितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वदेजा? ता जेणं दोचस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं तच्चस्स अभिववितसंवच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समए / ता से णं किं पज्जवसिते आहितेति वदेज्जा? ताजे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स आदी से णं तच्चस्स अभिवड्डितसंवच्छरस्स पञ्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समए / तं समयं च णं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति ? ता उत्तराहिं आसाढाहिं उत्तराणं आसाढाणं तेरस मुहुत्ता तेरस य बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता सत्तावीसं चुणिया भागा सेसा, तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेण जोएति? ता पुणव्वसुणा, पुणवसुस्स दो / मुहुत्ता छप्पण्णं बावट्ठिभागामुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सट्ठी चुपिणया भागा सेसा। ता एएसिणं पंचण्ह संवच्छराणं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स के आदी आहितेति वदेजा? ताजे णं तच्चस्स अभिवडितसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं चउत्थस्स चंदसंबच्छरस्स आदी अणंतरपुरक्खडे समये, ता से णं किं पज्जवसिते आहितेति वदेज्जा? ताजे णं चरिमस्स अभिवड्डियसंवच्छरस्स आदी से णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये, तं समयं च णं चंदे केणं नक्खत्तेणं जोएति? ता उत्तराहिं आसाढाहिं, उत्तराणं आसाढाणं चत्तालीसं मुहुत्ता चत्तालीसं च बा (व) सट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता चउसट्ठी चुण्णिया भागासेसा। तं समयं च णं सूरे केणं णक्खत्तेणं जोएति ? ता पुणव्वसुणा, पुणव्वसुस्स अउणतीसं मुहुत्ता एकवीसं बावट्ठिभागा मुहुत्तस्स बावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता सीतालीसं चुण्णिया भागासेसा, ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पञ्चमस्स अभिवड्डितसंवच्छरस्स के आदी आहिताति वर्दज्जा? ताजे णं चउत्थस्स चंदसंवच्छरस्स पज्जवसाणे से णं पंचमस्स अभिवद्भुितसंयच्छरस्स आदीअणंतरपुरक्खडे समये। तासे णं किं पज्जवसिते आहितेति वदेजा? ताजे णं पढमस्स चंदसंवच्छरस्स आदी से णं पंचमस्स अभिवनितसंवच्छरस्स पञ्जवसाणे अणंतरपच्छाकडे समये।तं समयं चणंचंदे केणं णक्खत्तेणंजोएति?, ता उत्तराहिं आसाढाहि, उत्तराणं चरमसमये,तंसमयं च णं सूरे केण णक्खत्तेणं जोएति? ता पुस्सेणं, पुस्सस्स णं एकवीसं मुहुत्ता तेतालीसंच बावट्ठिभागे मुहत्तस्स बावट्ठिभागं सत्तट्ठिधा छेत्ता तेत्तीसं चुण्णिया भागासेसा। (सू०७१) / एक्कारसमं पाहुडं समत्तं // 'ता कह ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं -केन प्रकारेण भगवन्! त्वया संवत्सराणामादिराख्यात इति वदेत्? भगवानाह– 'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र-संवत्सरविचारविषये खल्विमे पञ्च संवत्स-राः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- चन्द्रश्चन्द्रोऽभिवर्धितः चन्द्रोऽभिवर्धितः, एतेषां च स्वरूप प्रागेवोपदर्शितम्। भूयः प्रश्नयति- 'ता एएसि ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, एतेषां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमस्य चान्द्रस्य संवत्सरस्य क आदिराख्यात इति वदेत्? भगवानाह– 'ता जे ण' मित्यादि, यत् पाश्चत्ययुगवर्तिनः पश्चमस्याभिवर्द्धितसंवत्सरस्य पर्यवसानंपर्यवसानसमयः तस्मादनन्तरं पुरस्कृतो-भावी यः समयः स प्रथमस्य चन्द्रसंवत्सरस्यादिः,तदेव प्रथमसंवत्सरस्यादितिः। स-- Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 232 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर म्प्रति पर्यवसानसमयं पृच्छति- 'ता सेणं' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, स प्रथमश्चान्द्रसंवत्सरः किं पर्यवसितः-किं पर्यवसान आख्यात इति वदेत्? भगवानाह- 'ताजे ण' मित्यादि, यो द्वितीयस्य चान्द्रसंवत्सरस्यादिः-आदिसमयस्तस्मादनन्तरो यः पुरस्कृतः-अतीतसमयः स प्रथमचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानं-पर्यवसानसमयः, 'तं समयं च ण' मित्यादि, तम्मिश्चान्द्रसंवत्सरपर्यवसानभूते समये चन्द्रः केन नक्षत्रेण सह योग युनक्ति-करोति ? भगवानाह– 'ता उत्तराहि' इत्यादि, इह द्वादशभिः पौर्णमासीभिश्चान्द्रः संवत्सरो भवति, ततो यदेव प्राक् द्वादश्यां पौर्णमास्यां चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाण चोक्तं तदेवान्यूनातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यम्, तथैव गणितभावना कर्तव्या, एवं शेषसंवत्सरगतान्यादिपर्यवसानसूत्राणि भावनीयानि यावत्प्राभृतपरिसमाप्तिः, नवरं गणितभावना क्रियते-तत्र द्वितीयसंवत्सरपरिसमाप्तिश्चतुर्विशतितमपौर्णमासीपरिसमाप्तौ, तत्र ध्रुवराशिः षट्षष्टिमुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकः सप्तषष्टिभागः 66-5-1 इत्येवं प्रमाणश्चतुर्वि-शत्या गुण्यते, जातानि पादश शतानि चतुरशीत्यधिकानि मुहूर्ताना मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां विंशत्युत्तरं शतमेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विशतिः सप्तषष्टिभागाः 1584 / 120 / 24 // तत एतस्मादष्टभिः मुहूर्तशतै रे कोनविंशत्यधिकै रेक स्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्त-षष्टिभागैरेकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायः शुद्ध्यति.ततः स्थितानि पश्चात्सप्त मुहूर्तशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां पञ्चनवतिरेकस्य च द्वाषाष्टिभागस्य पञ्चविंशतिः सप्तषष्टिभागाः 765 / 65 / 25 / ततो 'मूले सत्तेव चोयाला' इत्यादि वचनात् सप्तभिश्चतुश्चत्वारिंशदधिकै - मुहूर्तशतैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्त-षष्टिभागैरभिजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, ततः स्थिताः पश्चात् द्वाविंशतिर्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टो द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् विशतिः सप्तषष्टिभागाः / / 22 / 666 / / तत आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरस्य पर्यवसानसमये पूर्वाषाढानक्षत्रस्य सप्त मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपक्षाशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य द्वाषष्टिभागस्य एकचत्वारिंशत् सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तदानीं च सूर्येण युक्तस्य पुनर्वसोर्टाचत्वारिंशद् मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः 166 / 5 / 15 चतुर्विशत्या गुणितो जातानि पञ्चदश शतानि चतुर-शीत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तगतानां च द्वाषष्टिभागानां विंशत्युत्तर शतम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्विशतिः सप्तषष्टिभागाः / / 1584 // 120 / 24 तत एतस्मादष्टभिः शतैरेकोनविंशत्यधि-कैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैः / / 816 / 24 / 66 / / एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायः शुद्धः, स्थितानि पश्चात् / सप्तमुहूर्तशतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि मुहूर्तानामेकमुहूर्तगताश्च द्वाषष्टिभागाः पशनवतिः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पशाविंशतिः सप्तषष्टिभागाः 7656525 // तत एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहूर्तरेकस्य च मुहूर्त-स्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रि-शता सप्तषष्टिभागैः पुष्यःशुद्धः, स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य एकपञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्यैकोनषष्टिः सप्तषष्टिभागाः 746 / 51 / 56 / ततो भूयोऽप्येतस्मात् सप्तभिर्मुहूर्तशतैश्चतुश्चत्या-रिंशदधिक रेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीनि आर्द्रापर्यन्तानि शुद्धानि, स्थितौ पश्चाद् द्वौ मुहूर्तावकस्य च मुहूर्तस्य षड्विंशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिः सप्तषष्टिभागाः / 26 / 60 / आगतं द्वितीयचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वाचत्वारिंशन्मुहूर्त्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चत्रिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः शेषाः, तथा तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसवत्सरपरिसमाप्तिः सप्तत्रिंशता पौ भासीभिस्ततो ध्रुवराशिः 66 / 5 / 1 / सप्तत्रिंशता गुण्यते,जातानि मुहूर्तानां चतुर्विशतिः शतानि द्वाचत्वारिंशदधिकानि द्वाषष्टिभागानां च पञ्चाशीत्यधिकं शतं सप्तषष्टिभागाः सप्तत्रिंशत् 2442 / 185 / 37 / तत एतेभ्योऽष्टी मुहूर्तशतानि एकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिःसप्तषष्टिभागा इत्येकनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्वाभ्या गुणयित्वा शोध्यते,ततः स्थितानि पश्चादष्टौ मुहूर्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां पञ्चत्रिंशदधिकं शतम् एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः। 804 / 135 / 36 / तत एतेभ्यः सप्तभिर्मुहूर्तशतश्चतुःसप्तत्यधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिभागैरेकरयच द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरभिजिदादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चादे क त्रिंशन्मुहूता रकस्य च मुहूर्त्तस्याष्टचत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः 31 / 48/40 / तत आगतं तृतीयाभिवर्द्धितसंज्ञसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य त्रयोदश मुहूत्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोदश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः, शेषाः, तदानीं च सूर्येण सम्प्रयुक्स्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य द्वी मुहूर्ती एकस्य च मुहूर्तस्य षट्पञ्चाशद्वाषष्टिभागाः, एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः षष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-स एव ध्रुवराशिः 66 / 5 / 1 / सप्तत्रिंशता गुण्यते, जातानि मुहूर्ताना चतुर्विशतिः शतानि वाचत्वारिंशदधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां पञ्चाशीत्यधिक शतम् / एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तत्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः 2442 / 185 / 37 / तत एतेभ्यः पूर्ववत् सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं द्विगुणं कृत्वा शोध्यते स्थितानि पश्चादष्टी मुहूर्तशतानि चतुरुत्तराणि मुहूर्त सत्कानां द्वापष्टिभागानां पञ्चत्रिंश Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 233 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर दधिकं शतम, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनचत्वारिंशत्सप्तषष्टिभागाः 804 / 135 36 / ततो भूय एतेभ्य एकोनविंशत्या मुहूर्तरेकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशता सप्तष्टिभागैः पुष्यः शुद्धः स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि पञ्चाशीत्यधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागानां द्विनवतिरेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट् सप्तषष्टि–भागाः 785 / 12 / 6 / ततो भूयोऽप्येतेभ्यः सप्तभिर्मुहूर्त्तशनैश्च-तुश्चत्वारिंशदधिकैरेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरे-करय च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीनि आ- पर्यन्तानि शुद्धानि, स्थिताः पश्चान्मुहूर्ताद्वाचत्वारिंशत् एकस्य च मुहूर्तस्य पक्ष द्वाषष्टिभागा एकस्य चद्वाषष्टिभागस्य सप्त सप्तषष्टिभागाः 42 / 5 / 7 / तत आगतं तृतीयाभिवतिसंज्ञमेव-सरपर्यवसानसमये सूर्येण सह संयुक्तस्य पुनर्वसोद्वी मुहूर्तावेकस्य च मुहूर्त्तस्य षट्पञ्चाशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षष्टिश्चूर्णिका भागाः शेषाः। तथा चतुर्थचान्द्रसपत्सरपर्यवसान-मेकोनपञ्चाशत्तमपौर्णमासीपरिसमाप्ता, ततः स एव द्वराशिः 66 / 5 / 1 / एकोनपञ्चाशता गुण्यते, जातानि मुहर्तानां द्वाात्रे-शच्छतानि चतुरित्रंशदधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वाषष्टिभागान द्वे शते पञ्चचत्वारिंशदधिके, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनप-चाशत् सप्तषष्टिभागाः 3234 / 245 / 46 / तत एतस्मात्, प्रा-गुक्तं सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुणयित्वा शोध्यते, ततः स्थितानि सन्म शतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहूर्तानां मुहूर्तसत्वानां च द्वाषष्टिभागानां सप्तत्यधिकं शतम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्विपञ्चाशत् राप्तषष्टिभागाः 777 / 170 / 52 / ततः सप्तभिः शत: चतुःसप्तत्यधिके मुहूत्तनिामे कस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषप्रिभागरे कस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैर्भूयोऽभिजिदादीनि पूर्वाषाढापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि, स्थिताः पश्चात्पञ्च मुहर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिषिष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रिपक्षाशत्साःषष्टिभागाः 5 / 21 / ५३।तत आगतं चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानसमये उत्तराषाढानक्षत्रस्य चन्द्रयुक्तस्य एकोनचत्वारिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहर्त्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुर्दश सह-षष्टि भागाः शेषाः, तदानीं च सूर्येण सह युक्तस्य पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोनत्रिंशन्मुहूर्ता एकविंशतिषष्टिभागा मुहूर्तस्य एक च द्वाषष्टिभा सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काः सप्तचत्वारिंशच्चूर्णिका भागाः शेषाः, तथाहि-सएव ध्रुवराशिः एकोनपञ्चाशता गुण्यते, गुणयित्वा च ततः प्रागुक्त सकलनक्षत्रपर्यायपरिमाणं त्रिभिर्गुयित्वा शोध्यते, स्थितानि सप्त मुहूर्त्तशतानि सप्तसप्तत्यधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टि भागनां सप्तत्यधिकं शतमे कस्य च द्वाषष्टि भागस्य द्विपशाशत्रषष्टिभागाः 7771170 / 521, ततएतेभ्य एकोनविंशत्या मुहरि कर च मुहूर्तस्य त्रिचत्वारिंशता द्वाषष्टिभागैरे कस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयविशता सप्तषष्टिभाग: पुष्यः शुद्धः,स्थितानि पश्चान्मुहूर्तानां सप्त शतानि अष्टापशाशदधिकानि मुहूर्तसत्कानां च द्वापष्टिभागानां सप्तविंशत्यधिकं शतम्, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य एकोनविंशतिः सप्तषष्टिभागाः / 758 / 127 / 16 / ततः सप्तभिः शतैश्वतुश्चत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशत्या द्वाषष्टिभागैरेकरय च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेषादीन्यादापर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि,स्थिताः पश्चात् पञ्चदश मुहूर्ता एकरय च मुहूर्तस्य चत्वारिंशद् द्वाषष्टिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य विंशतिः सप्तषष्टिभागाः 115 / 40 / 20 / , तत आगतं चतुर्थचान्द्रसंवत्सरपर्यवसानरामये पुनर्वसुनक्षत्रस्य एकोन-त्रिंशन्मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य एकविंशतिद्वाषष्टिभागा एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्सप्सषष्टिभागाः शेषा इति, पञ्चमाभिवर्द्धितसंवत्सरपर्यवसानं च द्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिसमये, ततो यदेव प्राक् द्वाषष्टितमपोर्णमासीपरिसमाप्तिसमये चन्द्रनक्षत्रयोगपरिमाणं सूर्यनक्षत्रयोगपरिमाणं चोक्तं तदेवान्यूनातिरिक्तमत्रापि द्रष्टव्यम् // इति श्रीमलयगिरिविरचिताया सूर्यप्रज्ञाप्तिटीकायामेकादशं प्राभृतं समाप्तम्। तदेवमुक्तमेकादशं प्राभृतम्, सम्प्रति द्वादशमुच्यते-तस्य चायमर्थाधिकारः, यथा 'कति संवत्सरा भवन्ति' तद्विषयं प्रश्नसूत्र--माह ता कति णं संवच्छरा आहिताति वदेखा? तत्थ खलु इमे पंच संवच्छरा पण्णत्ता, तं जहा-णक्खते चंदे उडू आदिचे अभिव--- डिते,ता एतेसिणं पंचण्हं संवच्छराणं पढमस्सनक्खत्तसंवच्छरस्स णक्खत्तमासे तीसतिमुहुत्तेणं ती०२ अहोरत्तेणं मिज्जमाणे केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा? ता सत्तावीसं राइंदियाई एक्कवीसंच सत्तट्ठिभागा राइंदिअस्स राइंदिअग्गेण आहितेतिवदेज्जा तासे णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा? ता अट्ठसएएकूणवीसे मुहुत्ताणं सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा,ता एएसिणं अद्धा दुवालसक्खुत्तकडाणक्खत्ते संवच्छरे, ता सेणं केवतिए राइंदियग्गेणं आहिताति वदेजा ? ता तिणि सत्तावीसे राइंदियसते एक्कावन्नं च सत्तट्ठिभागे राइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेज्जा, ता से णं केवतिए मुहत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा? ताणव मुहत्तसहस्सा अट्ठय बत्तीसे मुहत्तसए छप्पन्नं च सत्तट्ठिभागे मुहुत्तस्स मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा। (सू०७२४) 'ता कइ संवच्छारा' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कति संवत्सरा भगवन् ! त्वया आख्याता इति वदेत्?, भगवानाह- 'तत्रेत्यादि, तत्र-संवत्सर-विचारविषये खल्विमे पञ्च संवत्सराःप्रज्ञप्ताः, तद्यथा'नक्खत्ते' त्यादि, पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात नक्षत्रसंवत्सरश्वन्द्रसंवत्सर ऋतुसंवत्सर आदित्यसंवत्सरोऽभिवर्द्धितसंवत्सरः। एतेषां च पक्षानामपि संवत्सराणा स्वरूप प्रागेवोपवर्णितम्, 'ता एए Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 234 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर सिण' मित्यादि प्रश्नसूत्रम्, 'ता' इति पूर्ववत, एतेषां पञ्चाना संवत्सराणां | य उणापन्ने मुहुत्तसते सत्तावण्णं वावट्ठिभागे मुहत्तस्स वावट्ठिभागं मध्ये प्रथमस्य नक्षत्रसंवत्सरस्य सत्को यो नक्षत्रमासः रा त्रिंशन्मुहूर्त- च सत्तट्टिघा छेत्ता पणपण्णं चुणिया भागा मुहुत्तग्गेणं आहितेति प्रमाणेनाहोरात्रेण गण्यमानः कियान् रात्रिन्दिवागेण रात्रिन्दिव- | वदेजा, ता केवतिए णं ते जुगप्पत्ते राइंदियग्गेणं आहितेति परिमाणेनाख्यात इति वदेत्? भगवानाह-'ता' इत्यादि, ता इति पूर्ववत, वदेजा, ता अट्ठतीसं राइंदियाइं दस य मुहुत्ता चत्तारिय वावट्ठिसप्तविंशतिः रात्रिन्दिवानि एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा रात्रिन्दिवस्य भागे मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तट्ठिधा छेत्ता दुवालस चुण्णिया रात्रिन्दिवागेणारख्यात इति वदेत्. तथाहि-युगे नक्षत्रमासाः सप्तपष्टिरेतन भागे राइंदियग्गेणं आहिताति वदेज्जा, ता से णं के यतिए प्रागेव भावितम, युगे चाहोरात्राणामष्टादश शतानि विशदधिकानि मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा? ता एक्कारस पण्णासे मुहुत्तसए 1830, तत्त-स्तेषां सप्तषष्ट्या भागे हृते लब्धाः सप्तविंशति रहोरात्रा चत्तारि य बावट्ठिभागं च सत्तट्ठिहा छत्ता दुडालस चुण्णिया भागे एकस्य चाहोरात्र्रय एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः 27 23 ता से ' मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेजा, ता केवतियं जुगे राइंदियग्गेणं मित्यादि, स नक्षत्रमासः कियान मुहूर्ताओण-मुहूर्तपरिमाणेना-ख्यात आहितेति वदेजा, ता अट्ठारस तीसे राइंदियसते राइंदियग्गेणं इति वदेत् ? भगवानाह--'ता अटुसए' इत्यादि, अष्टोत आहियाति वदेज्जा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहियाति रशतान्येकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः वदेजा? ता चउप्पण्णं मुहुत्तसहस्साई णव य मुहुत्तसताई सप्तषष्टिभागाः 816 17 | मुहू ग्रेणाख्यात इति वदेत. तथाहि. मुहत्तग्गेणं आ-हिते ति वदेजा? ता से णं के वतिए नक्षत्रमासपरिमाण सप्तविंशतिरहोरात्रा एकस्य चाहोरात्रस्य एकविंशतिः बावट्ठिभागमुहुत्तग्गेणं आहि-तेंति वदेजा? ता चउत्तीसं सप्तपहिभागाः,ततः सवर्णनार्थ सप्तविंशतिरप्यहोरात्राः सप्तषणा सतसहस्साइं अट्ठतीसंच बाव-ट्ठिभागमुहत्तसते बावट्ठिभागगुण्यन्ते, गुणयित्वा थोपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागाः प्रक्षिप्यात, मुहुत्तग्गे आहितेति वदेज्जा, / (सू०७३) जातानि सप्तषष्टिभागानामष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि 1830, तानि 'ता' इति पूर्ववत्, कियत्-किंप्रमाणं ते-त्वया भगवन् ! नोयग'नोशब्दो मुहूर्तानयनाथ त्रिंशता गुण्यते, जातानि चतुष्पश्चाशत्सहस्राणि नव देशनिषेधवचनः, किश्चिदून युगमित्यर्थः, रात्रिन्दिवाओण त्रिन्दिवशतानि मुहूर्त्तगतसप्तषष्टिभागानां 54600, तत एतेषां सप्तषष्ट्या भागो परिमाणनाख्यात इति वदेत? भगवानाह- "ता सत्तरसे यादि नोयुगं ह्रियते, लब्धानि अष्टौ शतान्यकोनविंशत्यधिकानि मुहूर्तानामेकरयच हि किशिदुन युगं तच्च नक्षत्रादिपञ्चसंव-त्सरपरिमाणमतो नक्षत्रादिमुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागा इति 16 / / ता एस ण मित्यादि, पशुसंवत्सरपरिमाणानामेकत्र मीलने भवति यथोक्ता रात्रिनिदवसंख्य। एषा अनन्तरमुक्ता नक्षत्रमासरूपा अद्धा द्वादशकृत्व : कृताद्वादश.. तथाहि-नक्षत्रसंवत्सरस्य परिभाणं त्रीणि रात्रिनिरवशतानि भिवरिगुणिता इत्यर्थः, नक्षत्रसंवत्सरो भवति, सम्प्रति सकलनक्षत्रसंव सप्तविंशत्यधिकानि एकस्य च रात्रिन्दिवस्य एकपञ्चाशत्साष्टिभागाः, सरगतरात्रिन्दिवपरिमाणमुहूर्तपरिमाणवि-षयप्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह-. चन्द्रसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानिद्वादश च 'ता से ण' मित्यादि सुगम,नवर रात्रिन्दिवचिन्ताया नक्षत्रमासरात्रि द्वापष्टिभागा राबिन्दिवस्य ऋतुसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिनिदवशतानि न्दिवपरिमाण मुह चिन्ताया नक्षत्रमासमुहूर्तपरिमाणं द्वादशभिर्गुणितव्यं, ततो यथोक्ता रात्रिन्दिवसंख्या मुहूर्नसंख्या च भवति।सू०प्र०१२पाहु०' षष्ट्यधिकानि, सूर्यसंवत्सरस्य त्रीणि शतानि षट्पष्टाधिकानि (चन्द्रसवत्स-रविषयः 'चंदरांवच्छर' शब्दे तृतीयभागे 1065 पृष्ट गतः। रात्रिन्दिवानाम्, अभिवद्धितसंवत्सरस्य त्रीणि रात्रिनिदवशता(ऋतुसंवत्सरविषयः 'उउसंवच्छर शब्दे द्वितीयभागे 686 पृष्टे गतः।) नित्र्यशीत्यधिकानि एकविंशतिश्च मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्त्तस्याष्ट दश द्वाप(आदित्यसंवत्सरविषयः 'सूरसंवच्छर' शब्दे वक्ष्यते) (अभिवर्द्धित ष्टिभागाः, तत्र सर्वेषां रात्रिन्दिवानामेकत्रमीलने जातानि सप्तदशशतानि संवत्सरविषयः अभिवड्डिय' शब्दे प्रथमभागे 727 पृष्ठ गतः।) नवत्यधिकानि, ये च एकपञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा रात्रिनिदवस्य ते सम्प्रत्येते पक्ष संवत्सरा एकत्र भीलिता यावत्प्रमाणा मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि पञ्चदश शतानि त्रिशदधिकानि रात्रिन्दिवपरिमाणेन भवन्ति तावतो निर्दिदिक्षुः 1530 तेषा सप्तषष्ट्या भागो हियते, लब्धा द्वाविंशतिर्मुहूर्त्ता एकस्य च प्रथमतःप्रश्नसूत्रमाह गुहूर्तस्य षट्पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागाः 22.25 मुहूश्चि लब्धाः कविशती ता केवतियं ते तो जुगे राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा? ता मुहूर्तेषु मध्य प्रक्षिप्यन्ते, जाता-स्त्रिचत्वारिंशन्मुहूर्तास्तत्र त्रिशना सत्तरस एकाणउते राइंदियसत्ते एगूणवीसं च मुहुत्तं च सत्तावण्णे अहोरात्रों लब्ध इति जातान्यहारो त्राणां सप्तदश शतान्ये कनवावट्ठिभागे मुहुत्तस्स वावट्ठिभागं च सत्तद्विधा छेत्ता पणपण्णं वत्यधिकानि 1761, शेषास्तिष्ठन्ति मुहूर्तास्त्रयोदश 13, येऽपि च चुण्णिया भागे राइंदिग्गेणं आहितेति वदेज्जा / ता से णं केवतिए / द्वाषष्टि भागा अहोरात्रस्य द्वादश तेऽपि मुहत्त करणार्य मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा? ता तेपण्णमुहुत्तसहस्साई, सत्त / त्रिशती गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि षटुधिकानि 360, ते Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवच्छर द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः पञ्चमुहूर्तास्ते प्रागुक्तेषु त्रयोदशसु मुहूर्तेषु मध्ये प्रक्षिप्याने, जाता अष्टादश, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चाशत् द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य,येऽपि च षट्पञ्चाशत्सप्तषष्टिभागा मुहूर्तस्य ते बैराशिकेन द्वाषष्टिभागा एवं क्रियन्ते-यदि सप्तषष्ट्या द्वाषष्टिभागा लभ्यन्ते ततः षट् पक्षाशता सप्तपष्टिभागैः कि यन्तो द्वाषष्टि भागा लभ्यन्ते राशित्रयस्थापना 67 / 62 / 56 / अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं | जातानि चतुरि संशच्छतानि द्वासप्तत्यधिकानि 3472. तेषामादिराशिना साषष्ट्या भाग ह्रियते, लब्धा एकपञ्चाशद्वाषष्टिभागाः, ते च प्रागुक्तेषु पशाशति द्वापष्टिभागेध्वन्तः प्रक्षिप्यन्ते जातमेकोत्तर शतं 101, ततस्तन्मध्येऽभवर्धितसंवत्सरसत्काः उपरितना अष्टादश द्वाषष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते जातमेकोनविंशत्यधिक शतं द्वाषष्टिभागानाम् 116, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चपञ्चाशत् द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिभागाः।। द्वाषष्ट्या द्वाषष्टिभागैरेको मुहूर्तो लब्धः, स प्रागुक्तेष्वष्टादशसु मुहूर्तेषु मध्ये प्रक्षिप्यते जात एकोनविंशतिर्मुहूर्ताः 16, शेषाः सप्तपशाशत् द्वाषष्टिभागा अवतिष्ठन्ते इति / 'ता से ण' मित्यादि, मुहूर्तपरिमा--णविषयप्रश्नसूत्रं निर्वचनसूत्रं च सुगम, रात्रिन्दिवपरिमाणस्य त्रिंशता गुणने तदुपरि शेषमुहूर्तप्रक्षेपे च यथोक्तमुहूर्तपरिमाण-समागमात. 'ता केवइए ण ते' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, कियता रात्रिन्दिवपरिमाणे तदेव नोयुगं | युगप्राधमाख्यातमिति वदेत्?, कियत्सु रात्रिन्दिवेषु प्रक्षिप्तेषु तदेव नीयुगं परिपूर्ण युगं भवतीति भावः / भगवानाह– 'ता अमृती स' मित्यादि, अष्टाविंशद रात्रिन्दिवानि दश मुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य चत्वारो द्वाषष्टिभागा एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्का द्वादश चर्णिका भागा इत्येतावता रात्रिन्दिवपरिमाणेन युगप्राप्तामाख्यातमिति वदेत्, एतावत्सु रात्रिन्दिवादिषु प्रक्षिप्तेषु तत् नोयुग परिपूर्ण युगं भवति इति भावः / सम्प्रति तदेव नोयुगं मुहूर्तपरिमाणात्मकं यावता मुहूतपरिमाणेन प्रक्षिप्त परिपूर्ण युगं भवति तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-- 'ता से / ' मियादि सुगम भगवानाह– 'ता इक्कारसे' त्यादि. इदं चाष्टात्रिंशतो रात्रिन्दिवाना त्रिशता गुणनेन शेषमुहूर्तादिप्रक्षेपे च यथोक्तं भवति, भावार्थश्चायम्-एतावति मुहूर्तपरिमाणे प्रक्षिप्त प्रागुक्तं नोयुगमुहूर्तपरिमाणं परिपूर्णयुगमुहूर्तपरिमाणं भवतीति / सम्प्रति युगस्येव रात्रिन्दिवपरिमाणं मुहूर्तपरिमाणं च प्रतिपिपादयिषुः प्रश्ननिर्वचनसूत्राण्याह'ता केवइयं ते इत्यादि सुगमम्, अधुना समस्तयुगविषये एव मुहूर्तगतद्वाषष्टिभागपरिज्ञानार्थ प्रश्नसूत्रमाह- 'ता से ण' मित्यादि सुगमम्, भगवानाह.. 'ता चोत्तीस' मित्यादि, इदमक्षरार्थमधिकृत्य सुगमम्, भावार्थस्त्वयम्-चतुष्पञ्चाशन्मुहूर्तसहस्राणां नवशताधिकानां द्वाषष्ट्या गणनं क्रियते ततो यथोक्ता द्वाषष्टिभागसंख्या भवतीति। सम्प्रति कदाऽसौ चन्द्र (नद्रादि) संवत्सरः सूर्य (यादि) स्वत्सरेण सह समादिः समपर्यवसानो भव तीति जिज्ञासिषुः प्रश्नं करोतिता कता णं एते आदिचचंदसंवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेजा? ता सहिँ एए आदिघमासा बावडिं एतेए चन्दमासा, एस णं अद्धा छ खुत्तकडा दुबालसभयिता तीसं एते आदिघसंवच्छरा एक्कतीसं एते चंदसंवच्छरा, तता णं एते आदिचसंवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहिताति वदेजा। ता कता णं एते आदिघउडुचंदणक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेजा? ता सर्व्हिएते आदिचा मासा एगट्टि एते उडुमासा बावट्टि एते चंदमासा सत्तट्टि एते नक्खत्ता मासा, एस णं अद्धा दुबालस खुत्तकडा दुबालस भयिता सर्टि एते आदिचा संवच्छरा एगढिं एते उडुसंवच्छरा बावट्टि एते चंदा संवच्छरा सत्तढेि एते नक्खत्ता संवच्छरा,तता णं एते आदि-चउडचंदणक्खत्ता संवचछरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेजा। ता कता णं एते अभिवड्डिआदिचउडुचंदणक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपञ्जवसिता आहितेति वदेज्जा? ता सत्तावण्णं मासा सत्त य अहोरत्ता एक्कारस य मुहूत्ता तेवीसं बाव ट्ठिभागा मुहुत्तस्स एते अभिवद्धिता मासा सट्ठिएते आदिचमासा एगट्ठिएते उडुमासा बावट्टि एते चंदमासा सत्तहिँ एते नक्खत्त-मासा, एस णं अद्धा छप्पण्णसतखुत्तकडा दुबालस भयिता सत्तसता चोत्ताला एते णं अभिवड्डित्ता संवच्छरा, सत्तसता असीता एते णं आदिचा संवच्छरा, सत्तसता तेणउता एते णं उडुसंवच्छरा अट्ठसता छलुत्तरा एते णं चंदा संवच्छरा, एकसत्तरी अट्ठसया एए णं नक्खत्ता संवच्छरा, तताणं एते अभिवडित-आदिचउडुचंदनक्खत्ता संवच्छरा समादीया समपज्जवसिया आहितेति वदेञ्जा, ता णयट्ठताए णं चंदे संबच्छरे तिणि चउ-प्पण्णे राइंदियसते दुबालस य बावट्ठिभागे राइंदियस्स आहितेति वदेज्जा, ता अहातच्चे णं चंदे संवच्छरे तिण्णि चउप्पण्णे राइंदियसते पंच य मुहुत्ते पण्णासं च बावट्ठिभागे मुमुत्तस्स आहितेति वदेजा। (सू०७४) 'ता कया ण' मित्यादि, सुगम, भगवानाह- 'ता सट्टि' मित्यादि, ता इति पर्वत, एते-एकयुगवर्तिनः षष्टिः सूर्यमासाः एते च एकयुगान्तर्वर्तिन एव द्वाषष्टिश्चन्द्रमासाः, एतावती अद्धा षट्कृत्वः कियतेषभिर्गुण्यते ततो द्वादशभिर्भज्यते द्वादशभिश्च भागे--हृते त्रिंशदेते सूर्यसंवत्सरा भवन्ति एकत्रिंशदेते चन्द्रसंवत्सराः, तदा एतावति कालेऽतिक्रान्ते एते आदित्यचन्द्रसवत्सराः समादयः समप्रारम्भाः समपर्यवसिताः-समपर्यवसाना आख्याता इति वदेत समपर्यवसाने। किमुक्तं भवति? एते चन्द्रसूर्यसंवत्सराः विवक्षितस्यादौ समा:... समप्रारम्भप्रारब्धाः सन्तस्तत आरभ्य षष्टियुगपर्यवसाने समपर्यवसाना भवन्ति,तथाहि एकस्मिन्युगेत्रयश्चन्द्रसंवत्सरा द्वौ चाभिवर्द्धितसंवत्सरी, Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवच्छर 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवट्टमेह तोच प्रत्येकं त्रयोदशचन्द्रमासात्मको, ततः प्रथमयुगे पञ्च चन्द्रसंवत्सरा शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चाशन्मुहूर्तस्य द्वाषष्टिभागा इति / तटवं संघद्वौ च चन्द्रमासौ, द्वितीये युगे दश चन्द्रसंवत्सराश्चत्वारश्चन्द्रमासाः, एवं त्सरवक्तव्यता सप्रपञ्चमुक्ता / सू०प्र०१२ पाहु० / चं० प्र० / ज्योग प्रतियुगं मासद्विकवृद्ध्या षष्ठयुगपर्यन्ते परिपूर्णा एकत्रिंशचन्द्रसंवत्सरा जं०। (संवत्सरेषु चन्द्रसूर्यावृत्तय 'आउहि' शब्दे द्वितीयभाग 30 पृष्ठे भवन्ति, 'ता कया ण' मित्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, कदा णमिति उक्ताः / ) वर्षासु चातुर्मासिके ज्येष्ठावग्रहे, दश०२ चू०। “संवत्सरं वावि वाक्यालङ्कारे आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः पर पमाण, वीअंच वास न तहिं वसिज्जा" दश०२ चू० / समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत्? भगवानाह- 'ता सट्टी' त्यादि, संवच्छरदान न० (संवत्सरदान) तीर्थकरस्य प्रव्रज्यासमये संवपष्टिरेते एकयुगान्तर्वर्तिनः, आदित्यमासा एकषष्टिरेते ऋतुमासाः त्सरपर्यन्तदाने,आचा०। द्वाषष्टिरेते चन्द्रमासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती प्रत्येकमद्धा संवच्छरपडिलेहग पुं० (संवत्सरप्रतिलेखक) जन्मदिनादारभ्य द्वादशकृत्वः कृता, द्वादशभिर्गुणिता इत्यर्थः तदनन्तरं संवत्सरानयनाय संवत्सरमहोत्सवपूर्वक जन्मदिनमहोत्सवे, यत्र दिने वर्ष वर्ष प्रति द्वादशभिर्भक्ता तत एवमेतेषष्टिरादित्यसंवत्सरा एकषष्टिरेते ऋतुसंवत्सरा संख्याज्ञापनार्थ ग्रन्थिबन्धः क्रियते, ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ०। राः। द्वाषष्टिरेते चन्द्रसंवत्सराः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रसंवत्सरास्तदा द्वादशयु संवच्छरपरियाय पुं० (संवत्सरपर्याय) संवत्सरमेकं यावत् पर्यायः गातिक्रमे इत्यर्थः, एते आदित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः, प्रव्रज्यालक्षणो येषां ते संवत्सरपर्यायाः।वर्षकप्रजितेषु स०५३ सम०। समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत् / एतदुक्तं भवति-विवक्षितयुग संवच्छरवासर पुं० (संवत्सरवासर) सांवत्सरिकदिने, संवत्सवासरे स्थादावत चत्वारोऽपि समाः-समारब्धप्रारम्भाः सन्तस्तत आरभ्य द्वादशयुगपर्यन्ते समपर्यवसाना भवन्ति, अर्वाक चतुर्णामन्यतम पूगीफलसहितनाणकप्रभावना लान्ति नवा? इति, प्रश्नः? अत्रोत्तरम्रस्यावश्यंभावेन कतिपयमासानामधिकतया युगपत् सर्वेष पूगीफलादिसहितं तथा रहिता वा प्रभावना लान्ति, पश्चाद् यस्मिन समपर्यवसानत्वासम्भवात्, 'ता कया ण' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्, ग्राभे या रीतिस्तदनुसारेण प्रवर्त्तितव्यमिति // 152 / / सेन० 3 उल्लाका भगवानाह-'ता सत्तावण्ण' मित्यादि, सप्तपञ्चाशन्मासाः सप्त अहोरात्रा संवच्छरादि पुं० (संवत्सरादि) संवत्सराणामादिः संवत्सरादिः। एकादशमुहूर्ता एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयोविंशतिषिष्टिभागा एतावत्प्रमाणा संवत्सराणामादितिथौ, सू०प्र०१ पाहु०। एते एकयुगान्तर्वर्तिनोऽभिवर्द्धितमासाः षष्टिरेते सूर्यमासाः एकषष्टिरेते संवच्छरिय त्रि० (सांवत्सरिक) संवत्सरे भवस्सावत्सरिकः / वार्षिके, ऋतुमासा द्वाषष्टिरेते चन्द्रमासाः सप्तषष्टिरेते नक्षत्रमासाः, एतावती विशे० / यद्येक वर्ष प्रतिदिनं क्रियते,यथा-संवत्सरपर्यन्तं तीर्थकृतः प्रत्येकमवाषट्पञ्चाशदधिकशतकृत्वः क्रियते, कृत्वा च द्वादशभिर्भ-- प्रव्रज्यावसरे दीयते दानम्। आ०चू०१ अ० / आ०म०। संवत्सरस्यान्ते ज्यते, द्वादशभिश्व भागे हृते चतुश्चत्वारिंशदधिकसप्तशतसंख्याः 744 सांवत्सरिकम् / वर्षान्तोद्भवे, प्रव०३ द्वार। एतेऽभिवर्द्धितसंवत्सराः, अशीत्यधिकसप्तशतसंख्याः 750 एते संवच्छरियपडिक्कमण न० (सांवत्सरिकप्रतिक्रमण) पर्युषणापआदित्यसंवत्सराः, त्रिनवत्यधिक सप्तशतसंख्या: 763 एते न्तिप्रतिक्रमणे, कल्प०१ अधि०१क्षण। ('काउस्सग्ग' 'पज्जुसणा' ऋतुसंवत्सराः, षडुत्तराष्टशतसंख्याः 806 एते चन्द्र-संवत्सराः, / शब्दयोरनयोख्यिा ) एकसप्तत्यधिकाष्टशतसंख्याः 871 नक्षत्रसंवत्सराः, तदा णमिति संवट्ट पुं० (संवत) नगररोधके, बृ०३ उ० / संवत नाम यत्र वाक्यालङ्कारे एतेऽभिवर्द्धितादित्यऋतुचन्द्रनक्षत्रसंवत्सराः समादिकाः नगजलदुर्गादिषु बहूनां ग्रामाणां जनः संवतीभूय तिष्ठति। ज्ञा० 1 श्रु०१ समपर्यवसिता आख्याता इति वदेत. अर्वाक कस्यापि कतिपय अ०। भयत्रस्तजनसमवाये, उत्त०३४ अ० / चौरधाटी येन बहवो मासाधिकत्वेन युगपत् सर्वेषां समपर्यवसानत्वासम्भवात् : सम्प्रति ग्रामनायकाधिष्ठिता एकत्र स्थिताः सवर्तः। बृ०३ उ०। जाले. आ० म० यथोक्तमेव चन्द्रसंवत्सरपरिमाण गणितभेदमधिकृत्य प्रकारद्वयेनाह 1 अ० / वातविकुर्वणान्निवर्तन्ते। संवर्तकवातमुपसंहरन्तीति भावः। रा०। 'ता नयट्ठाए' इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत, नयार्थतया परतीथिकानामपि संवट्टइत्ता अव्य० (संवर्त्य) एकत्र स्थाने न्यस्येत्यर्थे, / स्था। सम्मतस्य नयस्य चिन्तया चन्द्रसंवत्सरस्त्रीण्यहोरात्रशतानि संकोच्ये, स्था०२ठा०४ उ०1 चतुष्पञ्चाशदधिकानिद्वाषष्टिभामा अहोरात्रस्येत्यादिराख्यात इति वदेत, याथातथ्येन पुनश्चिन्त्यमानश्चन्द्रसंवत्सरस्त्रीणि रात्रिन्दिवशतानि संवट्टण न० (संवर्तन) विनाशने, अनु० / मार्गमिलनस्थाने, ज्ञा० 1 चतुष्पशाशदधिकानि पक्ष व मुहत्ता एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चाशत् श्रु० 2 अ० / संक्षपणे, आचा०१ श्रु० 8 अ०६ उ० / 'संवट्टण अचित्ते द्वाषष्टि भागा इत्येवंप्रमाण आख्यात इति वदेत, तत्राहोरात्र सुवण्णे कुंडलाइकरणं' नि०चू०१ उ०। परिमाणमुभयत्रापि तावदेकरूपं, ये तूपरितना द्वादश द्वाषष्टिभागा संवट्टणिग्गय त्रि० (संवर्तनिर्गत) मासप्रायोग्यक्षेत्रान्निर्गत्य संवत्तें राबिन्दिवस्य ते मुहूर्तकरणार्थं त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि स्थितेषु, बृ०३ उ०। षष्ट्यधिकानि 360, तेषां द्वाषष्ट्या भागो हियते, लब्धाः पश्च मुहूर्ताः, | संवट्टमेह पुं० (संवर्तमेघ) पुष्कलसंवर्तक मेघे, आव०१०। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवट्टय 237 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवर संवट्टय पुं०(संवर्तक) संवर्त्तनमपवर्तन संवतः स एव संवर्तकः। उपक्रमे, स्था / दोण्ह आउयसंवट्टए पण्णत्ते, तं जहा–मणुस्साणं चेव, पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं चेव / स्था०३ ठा०२ उ०। (सू०८५४) जंगनं०1 संवट्टयवाय मुं० (संवर्तकवात) संवर्तनस्वभावे,भ० 1 श०१ उ०। वायुकायभेदे, भ० 1 0 4 उ० / रा०। आ० म० / संवट्टिअ त्रि० (संवर्तित) "र्तस्याधूर्तादौ" ||८।२।३०।अने नात्र र्तस्य ट्रकारादेशः। संवट्टि। पिण्डीभूते, प्रा० / नि० चू० / संकोचिते, स्था० २ठा 4 उ / संवट्टियावराह पुं० (संवर्त्तितापराध) संवर्तिताः पिण्डीभूता अपराधा यत्र तत् संवर्नितापराधम्। बलपराधे, संचयितमासे, व्य०१ उ० / संवृते. द० न०८ वर्ग 12 गाथा। संवड्डिय त्रि० (संवर्द्धित) भोजनादिना संवर्द्धिते अनाथपुत्रके, स्था० १०टा०३०। संवत्तण न० (संवर्तन) 'तस्याधू दौ' / / 8 / 2 / 30 / / इति धूर्तादिपयुदासान टः / पिण्डीभवने, प्रा०२ पाद। संवर पुं० (संवर) क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक् // 8/1:177 / / इति स्वरात्परत्वाभावान्न लुक् / प्रा० / संवरण संवरः। आच्छादने, 'वशे०। संवियते कर्म कारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः / आश्रवनिरोधे, स्था०१ ठा० / प्रश्रव्याकरणेषु अहिंसादिशब्देषु, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। सम्म० / संवरस्योत्तरप्रकृतयः / द्रव्या० / स्था। अथाश्रवप्रतिपक्षभूतसंवरस्वरूपमाहएगे संवरे। (सूत्रम्) संद्रियते-कर्म कारणं प्राणातिपातादि निरुध्यते येन परिणामेन स संवरः, आश्रवनिरोध इत्यर्थः / सच समितिगुप्तिधमानुप्रेक्षापरीषहचारित्ररूपः क्रमेण पञ्च-त्रिदश-द्वादशद्वाविंशति-पश-भेदः, आह- "समिई 5 गुत्ती ३धम्मो 10 अणुपेह 12 परीसहा चरितं च 5 / सतावत्र भेया, पणतिगभेयाइ संवरणे / / 1 / / " त्ति अथवाऽय द्विधाद्रव्यतो,भावतश्च / तत्र द्रव्यतो जलमध्यगत-नावादे रनवरतप्रविशजलानां छिद्राणां तथाविधद्रव्येण स्थागनं संवरः, भावतस्तु जीवद्रोण्यामा श्रवत्कर्मजलानामिन्द्रियादिछिद्राणां समित्यादिना निरोधनं संवर इति। स च द्विविधोऽपि संवरः सामान्यादेक इति। स्था० 1 ठा० / संथा। सूत्रापं०भा०; आव०। स०। प्राणातिपातविरमणादौ, औ० / नं० / आचा०। सूत्र०ा अशुभकर्मागमनिरोध, आव० 4 अ० / आश्रवद्वारप्रविशत्कर्मनिरोधे, जीत० / कर्मानुपादाने, स० 5 सम० / सम्नः / अ० श्रा०1 जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधने, स्था० 5 ठा० 2 उ० / चरित्रे, दश०५ अ० 2 उ० / इन्द्रियक-षायनिग्रहादिभेदे, स्था०४ ठ०१ उ०। इन्द्रियनोइन्द्रिय सङ्गोपने / स्था० 10 ठा०३ उ० / आ० म०। संवरसिद्धिः-संवरस्य त्वध्यक्षानुमानागमप्रसिद्धता न्यायानुगतेव चैतन्यपरिणतेः स्वात्मनि स्वसंवेदनाध्यक्षसिद्धत्वाद् अन्यत्र तु तत्प्रभवकार्यानुमेयत्वादागमस्य च तत्प्रतिपादकस्य प्रदर्शितत्वात्। सम्ग० 3 काण्ड / कर्म। पर संवरद्वाराणिपंच संवरदारापण्णत्ता, तं जहा सम्मत्त विरती अपमाओ अकसातित्तमजोगित्तं / (सू०-४१+) तथा संवरण जीवतडागे कर्मजलस्य निरोधनं संवरस्तस्य द्वाराणि उपायाः संवरद्वाराणि, मिथ्यात्वादीनामाश्रवाणा क्रमेण विपर्ययाः सम्यक्त्वविरत्यग्रमादाकषायित्वायोगित्वलक्षणाः प्रथमाध्ययनवद् वाच्या इति / स्था०५ ठा०२ उ०।। पञ्चविधः संवर:पंचविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियसंवरे जाव फासिंदियसंवरे। (सू०-४२७४) स्था०५ ठा०२ उ०। पविधः संवर:छविहे संवरे पन्नत्ते, तं जहा-सोइंदियसंवरेजाव फासिंदियसंवरे णो इंदियसंवरे। (सू०-४८७+) स्था०६ ठा०३ उ०। अष्टविधः संवरःअट्ठविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा-सोइंदियसंवरे०जाव फासिंदियसंवरे मणसंवरे वयसंवरे कायसंवरे। (सू०५६८४) स्था०८ ठा०३ उ०। दसविहे संवरे पण्णत्ते, तं जहा–सो इंदियसंवरे०जाव फासिंदियसंवरे मणवयकायउवगरणसंवरे सूईकुसग्गसंवरे। (सू०७०६) स्था०१० ठा०३ उ० प्रतिधारा, सूत्र० 1 01 अ०३ उ०। संवरद्वारे प्रतिपक्षद्वारमाह"वाणारसी कुलग-पासे गोपालिभहसेणे य। नंदिसिरी पउमसिरी, रायगिहे सणिए वीरे / / 1 / / " "पुरे राजगृहे श्रीम-द्वर्द्धमानप्रभोः पुरः। एका नाट्यविधिं देवी, दर्शयित्वा ययौ ततः।।१।। पप्रच्छ श्रेणिकः कैषा, स्वाम्यूचे काशिपत्तने। भद्रसेनाभिधो जीर्णः, श्रेष्ठी नन्दा च तत्प्रिया / / 2 / / मन्दश्रीस्तत्सुता कन्या, तत्र चैत्ये च कोष्ठके। श्रीपाश्वः समवासार्षी-नन्दश्रीः प्राव्रजततः / / 3 / / दत्ता गोपालिकायाः सा, शिष्या तीव्र तपो व्यधात्। पश्चाच वकुशा जाता, हस्तपादादिधावनात् / / 4 / / वार्यमाणा पृथकस्था तु, तदनालोच्य सा मृतां / क्षुद्रे हिमवदाद्री श्री-र्देवी पद्महदेऽभवत्।।५।। सैषा नाट्य व्यथादरयाः, फलमल्पमसवरात्॥" आक० 4 अ०। स्तानिकाशोधकेषु व्य०२ उ०। अनेकशाखशृङ्गे द्विखुरे अटव्यपशी, प्रश्न०२ आश्रद्वार। प्रज्ञा० / ज्ञा०ा जं० / अभिनन्दनजिनस्य पितरि, प्रव०१६ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर 238 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवास द्वार। आव० / स० / भारते वर्षे भविष्यति अष्टादशे तीर्थकरे, "अट्टारसो | संवसमाणी स्त्री० (संवसन्ती) पुरुषेण सह संवासं कुर्वत्याम्, स्थाc सयालिजीवो संवरो एगूणवीसो दीवायणजीवो संवरो," ती०२० कल्प। 5 ठा०२ उ०। स० / पञ्चदश्यां गौणानुज्ञायाम, नं० / प्रव०।। संवहण न० (संवहन) क्षेत्रादिभ्यस्तृणकाष्ठधान्यादेहादावानयने, उपा० संवरजोग पुं० (संवरजोग) नूतनकर्मनिरोधः संवरस्तद्रूपो योगो व्यापारः, 1 अ० / वृद्धस्य ग्राम्यभाषायां संबोधनप्रयोज्ये शब्दे, 'वृद्ध संवहणेति संवरेण योगः सम्बन्धो वा संवरयोगः / नूतनकर्मनिरोधव्यापारे, ध० णो वएज्जा' आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ० / दश०। 3 अधि०। “एसा महब्बयउचारणा संवरजोगे" पा०| संवहणिय त्रि० (सांवहनिक) संवहणं क्षेत्रादिभ्यस्तृणकाष्टधासंवरण न० (संवरण) संवरणे, विशे० आव०। संरक्षणे, पं०व०३ द्वार। | न्यादेहादावानयनम्, तत्प्रयोजनकं सांवहनिकम्। भारवहनगन्त्र्याम्, सङ्गोपने, स्था० 10 ठा०३ उ०। आच्छादने, बृ०२ उ० / निवारणे, बृ० उपा० 1 अ०। 4 उ०। प्रच्छदपटे, बृ० 1302 प्रक०। पर्यालोचने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० संवाअआ (देशी) नकुले, श्येने च। दे० ना० 8 वर्ग 47 गाथा। कपाटे० बृ०१ उ०३ प्रक०। संवाय पुं० (संवाद) संवादने, रागादिविरहेण यथावद् वदन, विशे० / संवरणकरण न० (संवरणकरण) प्रत्याख्यानग्रहणे, ध०२ अधि० धर्मकथाया व्याख्याने, सूत्र० 1 श्रु० 14 अ० / संवादादिति चेन्न तु संवरणी स्त्री० (संवरणी) संवरकारिणि विद्याभेदे,ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। संवादप्रत्ययस्याप्यदुष्टकारणारब्धत्वविशेषोऽन्यस्माददुष्टकारणासंवरबहुल त्रि० (संवरबहुल) प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारनिरोधप्रचुरे, ख्धात्संवादप्रत्ययात्। सम्म०१ काण्ड / स्था०। प्रश्न०३ संक० द्वार। संवास पुं० (संवास) सान्निध्ये, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ 1 उ०। संवरभावणा स्त्री० (संवरभावना) संवरतत्त्वपर्यालोचने, प्रव०६७ सम्भजनायाम्, आ० चू०४ अ० / मैथुनार्थे संवसने, स्था० 4 ठा० द्वार / (संवरभावना 'भावना' शब्दे पञ्चमभागे 1508 पृष्ठ गता।) 4 उ० / औ० / चिरं संवासे, स्था० 4 ठा० 1 उ० / स्त्रीभिः सहकत्र संवरसंयुड त्रि० (संवरसंवृत) प्राणातिपातादिपञ्चमहाव्रतोपते, सूत्र०१ निवासे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ० / आचा० / श्रु०१ अ०४ उ०। संवासभेदानाहसंवरसमाहिबहल पुं० (संवरसमाधिबहुल) संवर इन्द्रियविषये चउविहे संवासेपण्णत्ते, तंजहा–देवेणाममेगेदेवीए सद्धिं संवासं समाधिरनाकुलत्वं बहुलं प्रभूत यस्य स तथा विध इति समासः। गच्छेज्जा, देवे णाममेगे छवीए सद्धिं संवासंगच्छेज्जा, छवी णाममेगे संवरसमाधिप्रचुरे,दश० 2 चूना देवीए सद्धिं संवासं गच्छेज्जा, छवी णाममेगे छवीए सद्धिं संवासं संवरसुय पुं०(संवरसुत) अभिनन्दनजिने, "तिन्नेव सयसहस्सा, गच्छेज्जा / (सू०२४८+) स्था० 4 ठा० 1 उ०। अभिणंदणजिणवरस्स सीसाणं / सव्वविरियव्यवस्सा, सिद्धत्तं संवासो दिव्यासुरराक्षसमानुषाणाम्संवरसुयस्स।" ति०। चउव्विहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-दिव्वे आसुरे रक्खसे माणुसे संवरिय त्रि० (संवृत) स्थगिते, आव० 5 अ० / “संवरिय बलयबाहू" 1 / चउव्विहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-देवे नाममेगे देवीए सद्धिं संवृत्ती हर्षातिरेकादतिस्थूरीभवन्तौ निषिद्धी वलयैः कटकैर्बाहू भुजौ संवासंगच्छइ, देवे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासंगच्छइ, असुरे यस्याः सा तथा। भ०६ श०३३ उ०। नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छइ, असुरेनाममेगे असुरीए सद्धिं संवरियदार त्रि० (संवृतद्वार) संवृतानि स्थगितानि आश्रवद्वा-राणि | संवासं गच्छइ 2, चउविहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-देवे प्राणातिपातादीनि येन सः। आच्छादितेन्द्रियद्वारे,बृ० 3 उ०। आव० / णाममेगे देवीए सद्धिं संवासं गच्छद, देवे नाममेगे रक्खसीए संवलि पुं० (संवलि) वृक्षविशेषे, स्था० 5 टा०२ उ०। सद्धिं संवासं गच्छइ, रक्खसे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं संववहारिपचक्ख न० (सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष) संव्यवहारो बाधा - गच्छति, रक्खसे नाममेगे रक्खसीएसद्धिं संवासं गच्छति। 4-3 / रहितप्रवृत्तिनिवृत्ती प्रयोजनमस्येति सांव्यवहारिकम, तच्च प्रत्यक्षं चेति चउव्यिहे संवासे पण्णते, तंजहा-देवे नाममेगे देवीए सद्धिं संवासं वाह्येन्द्रियादिसामग्रीसापेक्षत्वादपारमार्थिकऽस्मदादिप्रत्यक्षे, रत्ना० गच्छइ, देवे नामभेगे मणुस्सीहिं सद्धिं संवासं गच्छइ मणुस्से 3 परि०। णाममे गे देवीहिं सद्धिं संवासं गच्छति, मणुस्से णाममेगे संवसण न० (संवसन) स्त्रीभिः सार्द्ध परिभोगे, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०१ मणुस्सीहिं सद्धिं संवासं गच्छति / 4-4 चउविहे उन सहवासे, पं० भा०१ कल्प० / पं० चू०। संवासे पण्णत्ते, तं जहा-असुरे नाममेगे असुरीहिं सद्धिं संवासं Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवास 236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवास एमेव वितियभंगे, कंतारादीसु उवहिवाघातो। होति समणाण वसिते, दोसा किं पुणेगतरणिगिणि // 487|| उभओ दिट्ठमदिडे, दिट्ठिपयारे य भवे खोभो। आयपरउभये दोसा, वितिए भंगेन कप्पती बितियं / / 458|| विहसुद्धदव्वदाणं,अद्धाणादिसु वएति एगत्थ। एमेव ततियभंगे, अद्धाणे उवस्सयं तु लभे // 486 // गच्छइ, असुरे नाममेगे रक्खसीहिं सद्धिं संवासं गच्छइ०४५। चउव्विहे संवासे पण्णत्ते, तं जहा-असुरे नाममेगे असुरीए सद्धिं संवासं गच्छइ; असुरे नागमेगे मणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छइ० 4-6 / चउव्विहे संवासे पण्णत्ते ; तं जहा-रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छद ; रक्खसे नाममेगे माणुस्सीए सद्धिं संवासं गच्छइ०॥ "चउव्यिहे सवासे” त्यादि कण्ट्यं नवरं स्त्रिया सह संवसनशयन सवासः, द्यौः...स्वर्गस्तवासी देवोऽप्युपचाराद् द्यौस्तत्र भवो दिव्यो वैमानिकसंबन्धीत्यर्थः / असुरस्यभवनपतिविशेषस्यायभासुर एवमितरी, नवरं राक्षसोव्यन्त रविशेषश्चतुर्भङ्गि कासूत्राणि देवासुरे त्येवमादिसयोगतः पड़ भवन्ति / 2.0 4 ठा० 4 उ०। (संवासे संभोगः 'सभोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 206 पृष्ठे निषिद्धः।) षण्डकः क्लीबो वातिक इति त्रयो न कल्पन्ते सवा सयितुम् / बृद्ध 4 उ० 1 प्रक० / स्था० / आधाकर्मभोक्तृभिः सहकत्र संवसने, पि। (आधाकर्मभोक्तृभिः सह संवासात् शुद्धाहारभोज्यपि अधाकर्मभोजी द्रष्टव्य इति 'आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे 216 पृष्ठे गम्।) स्चेलस्य सचेलिक्या सह संवासे प्रायश्चित्तम्-- जे भिक्खू सचेले सचेलियाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइज्जइ ||16|| जे भिक्खू सचेले अचेलियाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइजइ / / 165 / / जे भिक्खू अचेले सचेलियाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइजइ।।१९६|| जे भिक्खू अचेले अचेलियाणं मज्झे संवसइ संवसंतं वा साइजइ / / 167|| सबेला संजता सचेलाओ संजतीओ चउभंगसूत्रं व्याख्येयं / चउसु वि भंगेनु चउगुरु तवकालपरिसिद्ध। गाहाजे भिक्खू य सचेलो, ठाणनिसीयणतुयट्टणं वा वि। वेतिज्जइ चेलाणं, सोपावति आणमादीणि॥४८४॥ वीसत्थादी दोसा, चतुद्देसम्मि वन्निया जे तु। ते चेव निरवसेसा, सचेलमज्झे अचेलस्स।।४८५।। कंदा। कारणे वसेजबितियपदमणप्पज्झे, गेलण्णुवसग्गरोहगट्ठाणे। समणाणं असतीए, समणी पव्वाविते चेव।।४८६॥ अगप्पज्झ वसेज। गिलाणं पडियरतो वसेज / उवसग्गे वा जहा सो रायकुमारो संगुत्तो राहए वा एक्कवसही लद्धा, अलद्धाण पडिवन्नो या। संजयाण असति संजतिवराहीए वसेजा। अहवा दो वि वग्गा अद्धाण पडिवन्ना वसेज्जा / अथवा समणाण असती ते समणीहि भाया पिया वा पक्षाविओ सो वसेजा। खड्डादिमज्झेसमणी,साक्यभयचिट्ठणादीसुं॥४६॥ एमेव चरिमभंगे, दोसा जयणासुदप्पमादीहिं। सभयम्मि मज्झे समणी,निरवाए मग्गतो एति॥४६१।। दुहतो वाघातो पुण,चउत्थभंगम्मि होति नायव्यो। एमेवय परपक्खे, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि।।४६२|| दुहतो वाघायम्मी, पुरतो समणा तु मग्गतो समणी। खुडाहिमणावेंति, कजे देयं ति दावेंति।।४६३|| चितियभंगे समणीण उवधिवाघातो / ततियभंगे समणाण वचसा विभगसिमे दोसा। संचरित गाहा। पढमभंगे उभये वि संचरिते वीसत्यादि आलावादिया य दोसा किं पुण बितियततिय उभयणिगिन्ने स सविसेसा दोसा। सजता संजती वा चिंतेति-दिट्ठ अदिट्ट मे अंगादाणादि सागारिया दिद्विपयारेण चित्तक्खोभो भवति. खुभिओ अणायारपडिसेवण करेजा। दुहओ वा गाहा। पुव्वद्धं कठ, परपक्खो गिहत्थिअन्नतिस्थिणीओ तेसु एवं चेव चउभंगो दोसाय क्त्तव्वा / एगतरे उभयपक्खे वा विवित्ते वत्थाभावे खडगपत्तदज्झचीवरहत्थपिहणादि जयणा कायव्वा सावयभयादीसु य संजइओ मज्झे छोढुं ठाणाती चेतेज्जा दुहतो वि अवेलाणं पंथे इमा गमणे विही। दुहओवा गाहा। अगतो साहू गच्छति पिट्ठतो समणीओ, जति संजतीओ किंचि वत्तव्वओ खुड्डुहिं भणावेंति। जं किंचि देयं तं पि खुइहिं चेव ववाति। सभए पुण पिट्टओ अग्गतोपासतो वा संजया गच्छति न दोसो। विइयचउत्थेसु भंगेसु सव्वपयत्तेणं संजतीण वत्था दायव्वा। गाहासमणाणं जो उ गमो, अट्ठहि सुत्तेहि वण्णितो एसो। सो चेव निरवसेसो, वत्तव्यो होइ समणीणं / / 464|| चउरो संजतिसुत्ता चउरो गिहत्थन्नतिस्थिणीएसु एते अट्ट। संजतीण वि संजतेसु चउरो सुत्ता निहत्थन्नतित्थीएसुचउरो एसेव विवज्जासो दोसाय वत्तव्वा / नि० चू० 11 उ०। नायकमनायकं वा संवासयतिजे मिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासगं वा अणुवासगं वा अंतो उवस्सयस्स अद्धं रातिए कसिणं वा रायं संवासावेइ संवासावंतं वा साइजइ // 12 // जे भिक्खू तं न पडियाइक्खेइ ण पडियाइक्खंत वा साइजइ!|१३|| णायगा स्वजनो अणायगो-अस्वजन : उवासगो-श्रावक : इयरो अणु वासगो अद्ध रात्रीए दो जामा, वा विकप्पेण ए गाहा Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवास 240 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संविग्ग गं वा जाम, चउरो जामा, कसिणराती, वा विकप्पेण तिण्ण जामा किचणं अपसित, आयु सजएहि। उद्दविओगेण्हणादिया दोसा पावेति / एगवसहीए संवासा वसाहि ति भणाति, अण्ण वा अणुमोदेति, जो तं ण | कोइ सहो असहो वा अपुट्ठधम्मीत हिरण्ण जाणेत्ता तं से हरिउं णासेज, पडिसेधेति, अण्ण वा पडिसेधत णाणुमोदेति तस्स चउगुरु। एवं गमणगह-णपक्खेवि। सहिरण्णगं जाणित्ता तं निहत्थं अण्णो कोइ गाहा-- गिही हरेज ताहे संजतासिं किं कजंति, ताहे सो रायकुलं गतं कहेजा णायगमणायगंवा, सावगमस्सावगं च जे भिक्खू। संजएहि मे हिरण्णं आसियावियं, तत्थ गेण्हणादिया दोसा। आदिग्गहणाता अद्धं वा कसिणं वा, रातिंतुसंवसाणादी॥१२६|| वा उभयं हरेन्ज / जम्हा एते दोसा। आणाअणवत्थिया दोसा। तम्हा ण संवसेजा, खिप्पं णिक्खामते ततो ते उ। जे भिक्खूण निक्खामे, सोपावति आणमादीणिं / / 132 // साधं उवासमाणो, उवासगो सो वतीव अवतीवा। णिक्खमणं णिप्फडणं तत आश्रयात्ते इति-गृहस्थाः साहूहिं च तजा तो पुण णायग इतरो, एवऽणुवासे विदो भंगा।।१२७।। णिग्गच्छहिति / नि०चू०८ उ०। (कारणे वसेदपीति निशीथसाधु उवासतीति उवारागो, थूलगपाणवहादिया यवा जेणं गहिता सो ग्रन्थादष्टमोद्देशकादवसेयम्।) (अत्रत्यं वक्तव्यं 'टाण' शब्दे चतुर्थभागे वती. इयरो अवती। सो दुविहो वि सयणो, असयणो य। एवं आणुवासए | 1665 पृष्ठे।) ('णिग्गंथी' शब्दे चतुर्थभागे 2047 पृष्ठे च गतम्) वापकानां वि दो भंगा ; भंगा इति प्रकारा इत्यर्थः / कर्षकाणामावासे, अन्नत्थ किसिं करेत्ता अण्णत्थ वोढुं वसंतितं संवार्स इमं पुण सुत्तं / गाहा भण्णति। नि०५० 12 उ०। इत्थिं पडुच्च सुत्तं, सहिरण्णसभोयणे व आवासो। संवासभद्दय पुं० (संवासभद्रक) संवासश्चिरं सह वासस्तरिमजति णिस्सागयं जे वा,मेहुणणिसिभोयणं कुजा॥१२८|| भद्रकाहिसकरपात संसारपारणनियोजकत्यायोति संधारभद्रकः / जइ इत्थी उवासगे संवसति, सइत्थीओ वा पुरिसो, अणित्थीओ वा संवासभद्रकारिणि, स्था० 4 ठा०१ उ०। सहिरण्णो, अहिरण्णो गहियपत्तपाणभोयणो एते वा साधू वसहीए | संवासित्तए अव्य० (संवासयितुम्) एकसमीपे आसयितुमित्यर्थे , वृ० आवासेति, रातो साधुंवा पडुच आगता वसहिट्ठिया मेहुणं करति, रातो 4 उ० / स्था० / संस्तारकमण्डल्या निवेशयितुमित्यर्थे, स्था० 2 ठा० वा भुंजति / एएसु सुत्तणिवातो-ह / एतद्दोसविप्पमुक्के पुरिसेह / पुण १उ०। अद्धराईए एग वा जाम तिणि वा जामा स भवति। संवाह पुं० (संवाह) समभूमौ कृषि कृत्वा येषु दुर्गभूमिभूतेषु धान्यानि गाहा कृषीवलाः संवहन्ति रक्षार्थमिति। कृषीवलानां धान्य-रक्षार्थ निर्मितेषु जति पत्ता तु निसीहे, एगे व णितेसु अण्णमण्णतरे। समभूमितलेषु, स्थानेषु, स्था० 1 ठा० / एगतरमुभयतो वा, वाघातेणं तु अद्धणिसिं / / 126 // संविक्खमाण त्रि० (संवीक्षमाण) समतया ईक्षमाणे, उत्त०२४ अ०) जइ अद्धरत्ते वा एगम्मि वा जामे गते तेहिं वा जामेहिं गतेहिं पत्ता हवेजा।। संविग्ग पुं० (राविग्न) मोक्षाभिलाषिणि, बृ० 3 उ० / आव० / पं० वः एगतरं ति गिहत्था संजता वा, उभय ति निहत्था संजया य, एवं औः / पञ्चा० / आ०म० / दर्श०। प० / व्य० / वक्ष्यमाणलक्षणसंवेगमन, बाधायकारणेण वा अप्पणो वा रातीए एए णिग्गच्छताणं अद्धणिस्सादि- सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ० / पञ्चा० / यो बि० / ध० / उत्त्रस्ते, व्यः संभवो भवति। 1 उ० / संविग्ना नाम उत्त्रस्तास्ते च द्विधा द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यतः गिहिणा सह वसंताण इमे दोसा। गाहा संविना मृगारतेषां इतस्ततो वा विभ्यता प्रायः सदैवोत्रसमानत्वात्। सागारिय अधिकरणे,भासादोसा पबालमातंको। भावसंविनाये संसारादुनस्तमानसतया सदैव पूर्वरात्रादिष्येतचिन्तयआउयवाघातम्मिय,सपक्खपरपक्खतेणादी॥१३०॥ न्ति / 'कि मे कड किवा मेऽत्थि सेस किं सक्कणिज्जनसमायरामि' इत्यादि। किं वा णट्ठा एएहिँ, घाइतो गहणदोसगमणं वा। व्यः१ उ० / (संविग्नस्य विशेषतो व्याख्या 'उस्सारकप्प' शब्द अण्णेणावि अवहिते, संकागहणादिया दोसा॥१३१।। द्वितीयभागे 1176 पृष्ठे गता।) संविनोदव्वसविग्गो, भावसंवियो। सव्वा काइयराण्णां वोसिरति तो उदगस्स अभावे कारणतो मोयपमजणेण अवनस्स वीहेति। उक्तं च-"मृगा यथा मृत्युभयस्य भीता, उद्विग्रवास पायपमजणेण वा सागरियं भवति, आउज्जोए वणवणियादि अधिकरणं। न लभन्ति निद्राम। एवं बुधा ज्ञानविशेषबुद्धाः, संसारभीता न लभन्ति अहवा णिताणित चलणादिसंघट्टिते अधिकरणं कलहो हवेल / जति निद्राम्॥१॥" आ० धू० 3 अ०। आव०। पं० भा०। पं० चू०। संसारभीरो, संजतिभासाहिं भासंति तो गिहत्था गेण्हति / अह गारस्थियभासाए पशा० 12 विव० / सामाचार्या सम्यगुद्युक्ते, व्य० 4 उ० / सम्यग् व्याने भारसति तो असंजता वोलेंति। सो निहत्थो सप्पेण खइतो, आयंकण वा वशीभूते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। उद्यतविहारिणि, नि०० 4 उi मतो, अधय कालेण वा मतो, ताहे संका। किंच णूण एयस्स गिहत्थरस | बृ० / आय० / 20 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संविग्गपक्खिय 241 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवेग संविग्गपक्खिय पुं० (संविग्नपाक्षिक) संविग्नाः सुसाधवः तेषां पक्षण चरति यः सः संविग्नपाक्षिकस्तेषां वा पाक्षिकः पक्षग्राही संविग्नपाक्षिकः / संम्यक्त्वसंयमपरिपालनासमर्थसंयतिपक्षपातेन आत्मनिस्तारके, दर्श०१ तत्त्व / पञ्चा० / पं०व०। (अत्रत्यव्याख्या 'संलेहणा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 218 पृष्टे गता।) अथ संविग्नपाक्षिकस्यैव किंचित् कर्त्तव्यं दर्शयन्नाहसम्मग्गमग्गसंपडिआण साहूर्णं कुणइ वच्छल्लं। ओसहभेसजेहि अ, सयमन्नेणंतुकारेइ॥३५।। सन्मार्गमार्गसंप्रस्थितानां-सन्मुनिमार्गे सम्यक् प्रवृत्तानां साधूनांमुनीना करोति-विधत्ते, स्वयम् आत्मना वात्सल्यं समाधिसंपादनम्, अधिकारात् संविनपाक्षिकः, कैः? औषधभैषज्यैः / तत्र औषधानिके वलद्रव्यरूपाणि बहिरुपयोगीनि वा भैषज्यानि सांयोगिकानि अन्त ग्याणि वा, चशब्दोऽनेकान्य-प्रकारसूचकः / तथाऽन्येनात्मव्यतिक्तेन कारयति, तुशब्दात् कुर्वन्तमन्यमनुजानातीति गाथाछन्दः / ग०१ अधि०। द्वा० / “संविग्गोऽणुवएस, ण देइ दुब्भासिअंकडुविवाग। जाणतो तम्मि तहा, अतहकारो उ मिच्छत्तं / / 1 // " इति। द्वा० 1 द्वा०। संविग्गभाविय त्रि० (संविग्नभावित) उद्यतविहारिसंभाविते, णि० चू० 4 उ०। संविग्गविहार पुं० (संविनविहार) संविनानुष्ठाने, भ० 1206 उ०। संविग्गविहारि(ण) पुं० (सविनविहारिण) संविग्नानुष्ठानकर्तरि उद्यतविहारिणि, भ० 11 श० 12 उ०। संविग्गसुहाभिगम त्रि० (संविग्नसुखाभिगम) संविग्गैः संसारभयोद्वेगाविर्भूतमोक्षाभिलाषैरपकृष्यमाणरागद्वेषाहंकारकालुष्यैरिदमेव जिनवचनं तत्त्वमित्येवं सुखेनावगम्यते यत्तत् संविग्नसुखाभिगमनम्। संविग्नानां स्वावबोधे, सम्म० 3 काण्ड। संविढत्त त्रि० (समर्जित) सम्पादिते, पं०व०१द्वार। संवित्ति स्त्री० (संवित्ति) ज्ञाने, आ०म०१ अ०। स्था०। संविधुणिय अव्य० (संविधूय) प्रमथ्येत्यर्थे, आचा० 1 श्रु० 6 अ० 8 उ०। संविभागि(ण) पुं० (संविभागिन्) संविभजति आनीताहारमन्येभ्यः साधुभ्यः प्रार्थयतीत्येवंशीलो यः स संविभागी। परेभ्यो दत्त्वा भोक्तरि, उत्त०११ अ०॥ संविभाविऊण अव्य० (संविभाव्य) पर्यालोच्येत्यर्थे, महा० 1 चू०। संविह पुं० (संविध) आजीविकोपासकभेदे, भ०८ श०५ उ०। संवीत त्रि० (संवीत) आकुले, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। संवुअ त्रि० (संवृत) इति आदेः ऋत उत्त्वम् / संवुअं। निरुद्धे, प्रा०१ पाद। संवुड त्रि० (संवृत) उपयुक्ते सत्साधौ, दश० 5 अ० 1 उ० / निरुद्धन्द्रिये, औ० / सामान्येन प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारसंवरोपेते, भ० 11 श०११ उ०। विरुद्धाश्रवद्वारे सर्वविरते, भ०१६ श० 6 उ०। उत्तः / आचा० / मनोवाक्कायगुप्ते, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ० 1 उ० / यमनियमरते, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 4 उ० / त्रिगुप्तिगुप्ते, सूत्र० 1 श्रु० 2 अ० 3 उ० / उत्त० / इन्द्रियनोइन्द्रियैः संयते, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 4 उ० / (संवृतस्यानगारस्य क्रियाया विषयः 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे 272 पृष्ठे दर्शितः / समन्तत आवृते,चं० प्र० 20 पाहु० / पार्श्वतः कटकुड्मादिनाऽऽच्छादिते, उत्त० 1 अ० / काल्पनिके, द्वा० 8 द्वार। संवुडकम्म पुं० (संवृतकर्मन्) संवृतानि-निरुद्धानि कर्माण्यनुष्ठानानि सम्यगुपयोगरूपाणि वा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि या यस्य स तथा। निरुद्धकर्मणि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। संवुडचारि (ण) पुं० (संवृतचारिन्) यमनियमाद्युपेते शब्दमनस्के, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 2 उ०। संवुडबहल त्रि० (संवृतबहुल) प्राणातिपाताद्याश्रवद्वार--निरोधप्रचुरे, प्रश्र०३ संव० द्वार। संवुडवियडा स्त्री० (संवृतविवृता) संवृतविवृतोपमरूपे योनिभेदे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। प्रज्ञा०। संवुडा स्त्री० (संवृता) घटिकालयवत् योनिभेदे, स्था० 3 ठा० 1 उ०। प्रज्ञा०। संवुडासंवुड न० (संवृतासंवृत) संवृतासंवृताः स्थगितास्थगिताः परित्यक्तापरित्यक्ताः सावद्ययोगाः यस्मिन् सामायिके तत्संवृतासंवृतम् / देशविरतिसामायिके, विशे० / आ० म०। संवुड पुं० (संवृद्ध) अव्युत्क्रान्ते, आचा०२ श्रु०१ चू० 1 अ०८ उ०। संवेग पुं० (संवेग) संवेजनं संवेगः। भ०१७ श० 3 उ० / सम्यग् वेग उद्वेगः संवेगः / आ०० 4 अ० / मोक्षोत्कण्ठे, आ०चू० 4 अ० / व्य० नरसुरसुखपरिहारेण मोक्षसुखाभिलाषे, दश०१ अ० प्रव० / द्वाण श्रा० / संघा० / ध० / संथा०। दर्श० / अष्ट० / विरतिप्रतिपत्तिकारणभूते मोक्षाभिलाषाध्यवसाये, पञ्चा० 5 विव० / दश० / जी० / बृ० / उत्ता आव० / अवश्यभाविनिर्वेद, उत्त० २६अ० / भवभये, भ०१ श०७ उ० / दश० / स० / शुभाध्यवसायविशेषे, पञ्चा० 15 विव० / संवेगलक्षणम्- "तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देवे रागद्वेषमोहादिमुक्ते। साधौ सर्वग्रन्थसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः।।१।" यो. विं० / ध० समुद्रपालः संवेग, प्राप्तः सन्निदमब्रवीत् " किं कृत्वा तं चौरं वध्यं दृष्ट्वा इदम् इति, किम् ? अहो इत्याश्चर्ये अशुभानां कर्मणामिदं पापकं निर्याणम्, अशुभं प्रान्ते दृश्यते। उत्त० 21 अ० / Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेग 242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवेग संवेगफलम्संवेगेणं भंते जीवे किंजणयइ? संवेगेणंअणुत्तरं धम्मसद्धंजणयइ, अणुत्तराए धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ, अणन्ताणुबन्धिकोहमाणमालालोभेखदेइ, नवंच कम्मनबंधइ, तप्पच्चइयं चणं मिच्छत्तविसोहि काऊणं दंसणाराइए भवइदिसणविसोहीएण विसुद्धाए अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेण सिज्झइ,सोहिएणं विसुद्धाए तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ॥१॥ शिष्यः पृच्छति-हे भदन्त ! हे पूज्य ! संवेगेनमोक्षाभिलाषेण कृत्या जीवः किं जनयति-किमुत्पादयति, तदा गुरुराह-हे शिष्य! संवेगेन कृत्या जीवोऽनुत्तरां प्रधानां धर्म श्रद्धां धर्मरुचिं जनयति, तया प्रधानया धर्मस्य श्रद्धया संवेगः मोक्षाभिलाषः 'हव्वं' इति शीघ्रमागच्छति-. प्राप्रोति, ततो नरकानुबन्धिनो नरकगतिदायि-नोऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोभान् चतुरोऽपि कषायान क्षपयति, नवं च कर्मन बध्नाति, तत्प्रत्ययाम- अनन्तानुबन्धिकषायक्षयादत्पन्नां मिथ्यात्वविशुद्धिं सर्वथा मिथ्यातवक्षतिं कृत्वा दर्शनाराधको भवति, ख्यायकशुद्धसम्यक्त्वस्य आराधको-निरति-चारपालको भवति, ततः सम्यक्त्वविशुध्द्या अतिनिर्मलया अस्त्येकः कश्चित् भव्यो यः स तेनैव भवग्रहणेनजन्मोपादानेन सिद्ध्यति-सिद्धि प्राप्नोति / एकः पुनः सम्यक्त्वस्य निर्मलया विशुद्ध्या तृतीयं पुनर्भवग्रहणं नातिक्रामति इत्यनेन शुद्धख्याय-कसम्यक्त्ववानन् भवत्रयमध्ये मोक्ष व्रजत्येव / उत्त० 26 अ० / जिनवचनभावितान्तःकरणतायाम, दर्श० 5 लत्त्व / संवेगोभवविरागः निर्वेदोमोक्षाभिलाष इति / (ध०) संवेगोभयम जिनप्रवचनानुसारिणो नरकेषु शीतोष्णादिसहन सक्लिष्टासुरादिनि-मित परस्परोदीरितं च तिर्यक्षु भारारोपणाद्यनेकविधं मनुजेषु दारिद्रयदौर्भाग्यादि देवेष्वपि ई.विषादपरप्रेष्यत्वादि। ध०२ अधिक। संवेगे कथा। संवेगद्वारमाहचंपाए मित्तपभे, धणमित्ते धणसिरी सुजाए य। पियंगूधम्मघोसे य, रक्खुरी चेव चंदघोसे य॥१३०२।। चंदजसा रायगिहे, वारत्तपुरे अभयसेणवारत्ते। सुसुमारधुंधुमारे, अंगारवई य पजोए।।१३०३।। “मित्र प्रभो नृपश्चम्पापुर्या राज्ञी च धारिणी। धनमित्रः सार्थवाहो, धनश्रीस्तस्य वल्लभा / / 1 / / तस्योपयाचितशतैर्जाते पुत्र जनोऽवदत्। अहो सुजातमस्येति, कुलेऽमुष्मिन् महद्धिक / / 2 / / सुजात इति तस्याथ, द्वादशेऽति कृताऽभिधा। सोऽत्यन्तरूपवांस्तस्य, ललितं शिक्षते जनः ||3|| अमात्यो धर्मघोषाऽभूत, प्रियङ्गुस्तस्य च प्रिया। सा सुजातगुणान् श्रुत्वा,ऽवोचदासी यथाऽमुना // 4|| यदैत्येष तदाऽऽख्येयं,येन प्रेक्षे नवं स्मरम्। तेनाध्वनाऽन्यदाऽऽयात स, प्रियगो: पथितस्तया / / 5 / / दृष्ट्वाऽथ सा सपत्नीक.तं प्रियङ्गुरदोऽवदत्। धन्या साऽसौ प्रियो यस्या, रतेरिव मनोभवः / / 6|| सुजातवेषमाधाय, प्रियङगू रमतेऽन्यदा। तद्विलासाँ स्तदालापान, स्वसपत्नीषु कुर्वती / / 7 / / अमात्यश्च तदाऽऽयातो, ऽन्तःपुरंनिध्वनीति सः। शनैरेत्य द्वारसंधौ, ता विक्रीडा निरक्षत ||8|| सोऽथ दध्यौ विनष्ट मे, ऽन्तः पुरं छन्नमेव तत्। सुजातं कारयामीति, परं विभेति तत्पितुः / / 6 / / मा भूत्ततो विनाशो मे, राजमान्योऽस्ति येन सः। कूट लेखं विधायाथ,राज्ञो राजद्विषस्ततः // 10 // नुपाग्रऽवाचयन् मन्त्री, मित्रप्रभुनरेश्वरः। भोः सुजात ! त्वया घात्यो-ऽर्द्धराज्यं दास्यते तव / / 11 / / कुपितोऽथ नृपो लेख-हरान् वध्यान् समादिशत्। मन्त्रिणा ते धृताच्छन्नाः पृथ्वीनाथोऽथ दध्यिवान् // 12 // लोकज्ञातं तेऽमुष्मिन्, पुरक्षोभो भविष्यति। मम तस्य च भूपस्य, प्रदास्यत्ययशो जनः॥१३॥ ततः प्रत्यन्तनगरे, 'अर (क्खू) री' ति नामनि। अस्ति माण्डलिकस्तत्र, निजश्चन्द्रध्वजाभिधः / / 14 / / सुजातः प्रहितस्तत्र, विशिष्टश्वर्यसंयुतः। राजादेश समर्प्य स्वं,चन्द्रध्वतनपान्तिके||१५|| राजकार्यापदेशेन, कर्तुं प्रेतधिपातिथिम् / सोऽगात्तत्र नृपोऽदर्शि, राजादेशः समर्पितः।।१६।। घात्यस्त्वयैष दृष्ट्वेति, दध्यावस्तुहनिष्यते। सह प्रतिदिनं तेन, खेलति स्म महीपतिः।।१७।। रूपशीलसदाचारान् दृष्ट्वा तस्य व्यचिन्तयत्। नूनमन्तःपुरध्वंस-दोषान्निग्राहितोऽस्न्यसौ।।१५।। ईदगुरूपं कथं हन्मी-त्याख्यत्तस्याखिल रहः / सुजातः स्माह यद्वेत्सि, तत् कुरुष्वाथ सोऽवदत्।।१६।। न त्वां हन्भि रहस्तिष्ठ.दत्ता चन्द्रयशाः स्वसा। अस्तित्वग्दोषिणी साऽथ, तया सार्द्ध समस्ति सः / / 20 / / सुजातस्यापि संक्रान्तो, रोगस्तत्सङ्ग तो मनाक्। सा तु तेनोपदेशोधः, प्रबोध्य श्राविका कृता / / 21 / / सा दध्यौ मम सङ्गेन, सरुग्जातोऽयमप्यतः। संविनाऽनशनं चक्रे. तेनैव निरयाम्यत / / 2 / / देवो जज्ञेऽथ सोऽज्ञासीद, दृष्ट्वा नत्वा वदत्यसौ। किं कुर्मः सोऽपि संविग्नः,स्माह पित्रोविलोकनात् / / 23 / / जिघृक्षामि व्रत देव-स्तमूचे तत्करिष्यते। तदैवोत्पाट्य तं कृष्णो-द्याने मुक्त्वा पुरोपरि।।२४।। शिला स चक्रे महती, लोकोऽभूद् व्याकुलोऽखिलः। धूपहस्तोऽवदद्राजा, योऽस्ति रुष्टःसुरोऽसुरः ||25|| स तु दर्शयतु स्वं मे,येन प्राऽऽसादयामि तम्। देवोऽवदत सुजातोऽयं, श्रावकः परमार्हतः / / 26 / / निर्दोषो मन्त्रिणाऽदूषि, तत्सर्वं चूरयाम्यहम्। तं प्रसाद्यानयध्वं चे-ततो मुञ्चामि नान्यथा // 27 / / राजोगे क्वास्ति देवाऽवग, बाह्योद्याने नृपस्ततः। तत्र गत्वा सपौरोऽपि, क्षमयित्वा तमानयत् // 28|| शिला संहृत्य देवोऽगात्, सुजातः पितरौ पुनः। आपृच्छय व्रतमादत्त, पश्चात्तौ पितरावपि // 26 // Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेग 243 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संवेयणी ते त्रयोऽपि शिवं प्रापु-मन्त्री राज्ञा प्रवासितः। सुजातस्य गुणान्मन्त्री, श्रुत्वा सर्वत्रगानिमान् / / 30 / / यथा नेत्रे तथा शील, यथा नासा तथाऽर्वजम् यथा रूपं तथा चित्त, यथा शीलं तथा गुणाः // 31 // ततश्च सोऽपि निर्विण्णो, दध्यौ पापं मया कृतम्। गतो राजगृहे साधु-संनिधौ व्रतमात्तवान् // 32 // अभूद्वहुश्रुतो भाम्यन्, वारत्तगपुरं ययौ। तत्रेशोऽभयसेनोऽभू-न्मन्त्री वारत्तकः पुनः॥३३।। तद्गृहे धर्मघोषोऽगा--भ्रमन् भिक्षामुपाहरत्। परमान्नं सखण्डाज्यं, बिन्दोः पाते न सोऽग्रहीत् // 34 // वारत्तको गवाक्षस्थो, दध्यौ नैच्छदिदं कथम्। तावद्विन्दी लगन्ति स्म, मक्षिकास्ताश्च खादितुम् // 35 // गृहालिका समायासी-त्कृकलासश्च तां पुनः / ततस्तदर्थ मा रि-र्जिघत्सूतां पुनः शुनौ / / 36 / / एकः स्थाय्यपरो यायी, एकद्रव्यार्थिनीस्तयोः। बभूवास्फलनं पश्चा-त्कलिस्तत्स्वामिनोऽभवत् / / 37|| ततो बल मेलयित्वा, चक्रे ताभ्या महारणः। वारत्तकस्ततो दध्यौ, स नैच्छत्कारणादतः / / 38 / / इति ध्यायन् सोऽपि जाति-मस्मरत् प्रतिबुद्धवान्। उपधि देवताऽयच्छ-द्वारत्तकमुनिस्ततः।।३६।। सुसुमारपुरेऽयासी-द्विहरन् क्ष्मामनिश्रया। धुन्धुमारो नृपस्तत्र, तस्याङ्गारवती सुता / / 4 / / सा परिवाजिकाधर्म-विचार जितवत्यथ। सापत्न्येऽमुंक्षिपामीति, वैरात्प्राब्राजिकाऽधमा / / 41 / / लिखित्वा चित्रफलके-ऽवन्त्यां प्रद्योतभूतेः। ऐक्षयिष्ट स पप्रच्छ, साऽख्यगन्धोऽथ तत्कृते॥४२।। प्रेषीद् दूतं ततो धुन्धु-मारस्तमिदमुक्तवान्। विद्यावद्विनयेनव, लभ्यन्ते कन्यका अपि // 43|| आख्यत् प्रतिग दूत-स्तत्तदुक्ताधिक प्रभोः / कुपितः सोऽथ सर्वोघे–णागत्याऽवेष्टयत्पुरम् / / 44 / / धुन्धुमारोऽल्पसेनागो, बिभ्यन्नैमित्तिक जगौ। स ऊचे वीक्ष्य वक्ष्यामि, तद् द्रष्टुमथ सोऽगमत्॥४५।। कीडन्त्येकत्र डिम्भानि, भीषयामास वीक्ष्य सः। तत्र चास्ते नागगृहे, वारत्तकमहाऋषिः / / 46 / / प्रतिमास्थस्तत्र तानि, सदति प्रययुर्भयात्। वारत्तकोऽवदनानि, मा भैषुरिति संभ्रमात् // 47 / / नैमित्तिकस्तदाकर्ण्य, नृपस्याख्यन्न ते भयम्। अवस्कन्दमथो दत्त्वा, धृत्वा प्रद्योतभूषतिम् / / 48|| धुन्धुमारोऽन्तराऽऽनीय,पुरद्वाराण्यबन्धयत् / अथ प्रद्योतमूचे ते, किमातिथ्यं विधीयताम् / / 46 / / सोऽवदद्रोत्तते यत्ते, धुन्धुमारो ददौ ततः। महाभूत्याऽङ्गारवतीं, तया सार्द्धमथास्ति सः / / 50 / / राजपाटीमथान्येधु-स्तत्र कुर्वन्नवन्तिराट्। दृष्ट्वा बलाल्पतामूचे. गृहीतोऽहं कथं प्रिये ! // 51 // सा साधुवाक्यमाचख्यौ, तन्मूलं स गतोऽवदत्। नैमित्तिकमुने ! वन्दे, सस्माराथोपयुज्य सः॥५२|| डिम्भाभयगिरं दत्ता, संवेगं परमं गताः। सुजातो धर्मघोषश्च तथा चन्द्रयशा अपि।।५३॥" आ०क०४अ०। संवेगकरणत्थ पुं० (सवेगकरणार्थ) संवेगहेतुषु भावेषु, स०१४७ सम०। संवेगपर पुं० (संवेगपर) संविग्ने चारित्रिणि, पञ्चा० 16 विव०। संवेगपरायण त्रि० (संवेगपरायण) संवेगः संसारभयं मोक्षाभिलाषो वा परमयनं गमनं येषु तानि संवेगपरायणानि / संवेगतात्पर्यकषु, षो० 8 विव०। संवेगभावियमइ पुं० (संवेगभावितमति) मोक्षाभिलाषत्वासितमतिके, पञ्चा० 10 विव० / जी। संवेगरसायणय त्रि० (संवेगरसायनद) संवेगः संसारनिर्वेदो मोक्षानुरागो वा स एव रसायनममृतमजरामरनरत्वहेतुत्वात् संवे-गरसायनम्, तद्ददाति प्रयच्छतीति संवेगरसायनदः / संवेगोत्या-दके,पञ्चा०२ विव० / संवेगविसेसजोग पुं० (संवेगविशेषयोगा) भवभयातिशयसंबन्धे, पञ्चा० 16 विव०। संवेगवुड्विजणग त्रि० (संवेगवृद्धिजनक) मोक्षाभिलाषातिशय कारिणि, पञ्चा०६ विव०। संवेगसमावण्ण त्रि० (संवेगसमापन्न) मोक्षसुखाभिलाषमेवानुगते. पं० व० 4 द्वार। संवेगसारगुरु पुं० (संवेगसारगुरु) प्रशस्तभावप्रधाने, पं० व०५ द्वार। संवेगसुद्धजोग पुं० (संवेगशुद्धयोग) संवेगेन शुद्धव्यापारे, पं० व०३ द्वार। संवेज त्रि० (संवेद्य) संवेदनाहे, योगिनामेतदन्येषां श्रुतिगोचर उपमाभावातो व्यक्तमभिधातुं न शक्यते। हा०३२ अष्ट० / संवेध पुं० (संवेध) संयोगे, व्य० 1 उ०। (बन्धोदयसत्ताप्रवृत्ति-स्थानाना परस्पर प्ररूपणा 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 265 पृष्ठे 'पच्छित्त' शब्दे पञ्चमभागे 156 पृष्ठे विस्तरत उक्ता।) संवेयण न० (संवेदन) वस्तुस्वरूपपरामर्श, षो०१२ विव०। पुरोऽवस्थिते घटादौ विषये तद्भावेतराभावाध्यवसायरूपे विज्ञाने, अने०२ अधि० / णाण ति वा संवेदणं ति का अहिगम ति वा वेयण त्ति वा भावो ति वा एगट्ठा / आ० चू० 1 अ० / नं० / आचा० / संवेयणी स्त्री० [संवे (द) (ग) जनी] संवेगयति संवेगं करोतीति संवेद्यते वा संवेज्यते वा संवेग ग्राह्यते श्रोता अनयेति संवेगनी संवेदनी संवेजनी वेति। कथाभेदे, स्था० 4 ठा०२ उ०। संवेयणीकहा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-इहलोगसंवेयणी परलोगसंवेयणी आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी (सू०२८२४) इहलोको मनुष्यजन्म तत्स्वरूपकथनेन संवेगनी इहलोकसवेगनी, सर्वमिदं मानुषत्वमसारमधुवं कदलीस्तम्भसमानमित्यादिरूपा, एवं परलोक संवेदनी-देवादिभवस्वभाव -- कथनरूपा, देवा अपीप्यांविषाद-भयवियोगादिदुःखैरभिभूताः Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवेयणी 244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसट्ठा किंपुनस्तिर्यगादय इति, आत्मशरीरसंवेगनी-यदेतदस्मदीय शरीरमेत- क्षिप्तौ न तावन्मुखे क्षिपति तच लेपालेपकरणस्वभावमिति। स्था० दशुचि अशुचिकारणजातमशुचिद्वारविनिर्गतमि ति न प्रतिबन्धस्थान- 3 ठा० 3 उ० / “असंसट्टे संसट्टे चेव बोद्धव्व।" दश० / मित्यादिकथनरूपा, एवं परशरीरसंवेगनी / अथवा-परशरीरं-- संसद्रुण हत्थेण, दव्विए भायणेण वा।। मृतकशरीरमिति / स्था० 4 ठा०२ उ०। दिज्जमाणं पडिच्छेज्जा, जंतत्थेसणियं भवे॥३६|| मता संवेजनी स्वान्य-देहेहप्रेत्यगोचरा। संसृष्टेन हस्तेन-अन्नादिलिप्तेन तथा दा भाजनेन व दीयमानं यया संवेज्यते श्रोता, विपाकविरसत्वतः॥१३॥ प्रतीच्छेत् गृह्णीयात्किं सामान्येन ? नेत्याह... यत्तवैषणीयं भवति, ममेति-यया कथया विपाकविरसत्वतो विपाकवरस्यात् प्रदर्शितात् तदन्यदोषरहितमित्यर्थः, इह च वृद्धसंप्रदायः "संसढे हत्थे संस? मत्ते श्रोता संवेज्यते-संवेग ग्राह्यते: सा संवेजनी स्वान्यदेहेह-प्रेत्यगोचरा- सावसेसे दव्ये, संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते णिवसेसे दव्वे, एवं अट्ठभंगा एल्थ स्वशरीरपरशरीरेहलोकपरलोकविषया चतुर्विधा मता। द्वा० 6 धा० / पढमभङ्गो सव्वुत्तमो अन्नेसु विजत्थ सावसेस दव्यं तत्थ धिप्पइण इयरेसु संवेल्लेमाण त्रि० (संवेष्टयत) “समोलः11८1५।२२२।। अनेन सम्पूर्वस्य पच्छाकम्मदोसाउ" त्ति सूत्रार्थः / दश० 5 अ० 1 उ०। द्विरुक्तोलकारः 1 सङ्कोचयति, प्रा०४ पाद। संसट्ठकप्पेण चरिज भिक्खू, संवेलिअ त्रि० (संवेष्टित) संवर्त्तिते, भ०१६ श०६ उ० / मुकुलिते, तज्जायसंसट्ठ जईजइजा // 6 // "सवेल्लिअंमउलिअ" पाइ० ना० 181 गाथा। संवृते, दे० ना०८ वर्ग 12 संसृष्टकल्पेन-हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरेत् भिक्षुरित्यु-पदेशः, * गाथा। अन्यथा पुरःकर्मादिदोषात्। संसृष्टमेव विशिनष्टि-तज्जा-तसंसृष्ट इत्यामे संसइय त्रि० (संशयित) कथमिदं स्यादित्येवं संशयशीले, आ०म० | गोरसादिसमानजातीयसं सृष्टे हस्तमात्रकादो यतिर्य ते तयत्न 1 अ०। दर्श०। संशयविषये,सूत्र०२ श्रु०२ अ०। कुर्यात्,अतज्जातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषादित्यने-नाष्टभड़ सूचनम् / *संशयिक त्रि० संशयेन निवृत्ते मिथ्यात्वे, यदशाद्भगवदर्हदुपदिष्टष्वपि तद्यथा- "संसट्टे हत्थेसंसट्टे मत्तेसावसेसे दव्वे" इत्यादि,अप्रथमभङ्गः जीवाजीवादितत्त्वेषु संशय उपजायते , यथा-न जाने किमिदं भगवदुक्तं श्रेयान्, शेषास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः / दश०२ चू०। आ० चू०। प्रव० / धर्मास्तिकायादि सत्यमुतान्यथेति। कर्म० 4 कर्म०। संदिग्धे, "सदिद्ध रा० / पूर्वपरिचिते उद्भ्रामके, बृ०१ उ० 3 प्रक० / संश्लेषिते, प्रव० 5 संसइ पाइ० ना० 185 गाथा। द्वार। गोरससंश्लिष्टे भाजने प्रक्षिप्तत्वेन गोरसरसेन परिणामिते उदके, संसग्ग पुं० (संसर्ग) सम्यक् सर्गो योगः संसर्गः सम्यक् संबन्धे, विशे०। बृ० 1 उ० 2 प्रक० / ('लेव' शब्द षष्ठभागे संसृष्टोदकेन लेपकरणे सूत्र० / सांगत्ये, सूत्र०१ श्रु०२ उ०। आव० / उत्त० / प्रश्नः / “गवाशनानां दर्शितम्।) स गिरः शृणोति, वयं च राजन् ! मुनिपुङ्गवानाम् / प्रत्यक्षमेतद्भवताऽपि संसट्ठकप्पिय पुं० (संसृष्टकल्पिक) संसृष्टन खरण्टितेनेत्यर्थी दृष्ट, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति / / 1 / / " आ० चू० 3 अ० (संसर्गविशेष हस्तभाजनादिना दीयमानं कल्पिकं कल्पवत् कल्पनीयमुचितमदर्दुरकथा 'दडुर' शब्दे चतुर्थभागे 2451 पृष्ठे उक्ता।) (पार्श्वस्थादि- भिग्रहविशेषाद्भक्तादि यस्य सः। तथाविधाभिग्रहविशेषधारके साधी, संसर्गः "किइकम्म' शब्दे 517 पृष्ठे 3 भागे निषिद्धः / संसर्गाद् स्था०५ ठा०१ उ० / सूत्र०। औ०। गुणाऽगुणव्यवस्थाऽपि तत्रैव।) संसट्ठचरय पुं० (संसृष्टचरक) संसृष्टेन खरण्टितेन इत्यादिना दीयमान संसग्गि पुं० (संसर्गि) प्राकृतत्वात्संसर्गः / उत्त० 1 अ० 1 / संगतौ, | संसृष्टमुच्यते ; तचरति यः स तथा / संसृष्टकल्पिके, औ०। उत्त० 1 अ० / संसक्ती, वृ० 4 उ०। आ० चू०। कुशीलादिसंसर्गिनिषिद्धाः | संसट्ठा स्त्री० (संसृष्टा) भिक्षाभेदे, नि०चू०१६ उ०। / व्य०७ उ० / पं० व० / मैथुनसम्पर्क-स्त्रीपुंसंसर्गविशेषरूपत्वा- तम्मी या संसट्ठा, हत्थमत्तए इमा पढमभिक्खा // 747 / / त्संसर्गजत्वात् संसर्गिरित्युच्यते। प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। 'तम्मि' त्ति प्राकृतत्वात् तासु भिक्षासु मध्ये संसृष्टा संसज्जिय त्रि० (संसर्जित) सामस्त्येन प्रगुणित जीवेन स्वप्रदेशेषु हस्तमात्रकाभ्यां भवति / कोऽर्थः संसृष्टेन तक्रतीमनादिना खरण्टिते सम्बन्धिनि चारित्रमोहनीयादिकर्मणि, पञ्चा० 4 विव०। हस्तेन संसृष्टे नैवं च मात्रके ण करोटिकादिना गृहातः साधोः संसट्ठ त्रि० (संसृष्ट) खरण्टित, स्था० 5 ठा० 1 उ० / खरण्टितेन संसृष्टा नाम भिक्षा भवति / इयं च द्वितीयाऽपि मूलगाथोक्तहस्तादिना दीयमाने, सूत्र० 2 श्रु० 2 अ० / अन्यदीयपिण्डैः सह | क्रमापेक्षया प्रथमा / अत्र च संसृष्टासं सृष्ट सावशेषनिरवशेषसम्मीलिते, बृ०२ उ० / संसृष्टं नाम भोक्तुकामेन गृहीतं कूरादौ हस्तः द्रव्यरष्टौ भङ्गास्तेषु चाष्टमो भङ्गः-संसृष्टो हस्तः संसृष्ट मात्र सावशेष Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसट्ठा 245 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसत्त द्रव्यमित्येष गच्छनिर्गतानामपि कल्पते। शेषास्तु भङ्गा गच्छान्तर्गतानां सूत्रार्थहान्यादिकं कारणमाश्रित्य कल्पन्त इति। प्रव०६६ द्वार। सूत्र० / आचा० / पशा० / प्रव०। आव०। संसठ्ठ सिणोदग न० (संसृष्टोष्णोदक) लवङ्गादिरसभाजनस्थे उष्णोदके, नि चूका लवङ्गरसभायणणिक्केयणं जंतं संसठ्ठसिणोदगं भण्णति। अहवा-कोसलविसयादिसुसल्लोयणाविणस्सणभया सीतोदगे छुभति तम्मि य ओदणे भुत्ते तं अंबीभूतं जइ अतमागतो घेप्पति एवं वा संसठुसिणोदगं। नि०चू०१ उ०। संसत्त त्रि० (संसक्त) संबद्धे, ज्ञा० १श्रु०८ अ०। संकीर्णे, स०८ सम० सप्रतिबन्धे, उत्त० 25 अ० / श्वापदविशेषे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। (निर्ग्रन्थ्याः पात्रे उदकबिन्दुः पर्यापद्येत तत्र ग्रहणविधिः 'पाणग' शब्द पञ्चमभागे 827 पृष्ठे उक्तः।) द्वीन्द्रियादिजन्तुमिश्रे भक्तपाने, बृ०३ उ०। (यत्र देश भक्तपानं संसज्जते तं देशं प्राप्तानां यतना 'पडिसेवणा' शब्दे पञ्चमभागे 364 पृष्ठे उक्ता।) दद्ध्या-दिद्रव्ये, पिं० / “घडिअंलग्गं च संसत्तं" पाइ० ना० 201 गाथा। संसक्तग्रहणम्से भिक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावइकुले पिंडवायपडियाए अणुपविठे समाणे से जं पुण जाणेज्ज असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमंवा पाणेहि वा पणएहिं वा बीएहिं वा हरिएहिं वा संसत्तं उम्मिस्सं सीओदएण वा ओसित्तं रयसा वा परिघासियं वा तह-प्पगारं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परहत्थंसि वा परपायंसि वा अफासुअं अणेसणिजं ति मण्णमाणे लाभे विसंते नो पडिग्गहिज्जा। (सू०-१४) 'से' इति मागधदेशीवचनः प्रथमान्तो निर्देशे वर्तते / यः कश्विद्भिक्षणशीलो भावभिक्षुः मूलोत्तरगुणधारी विविधाभिग्रहरतः भिक्षुणी वा साध्वी सभावाभेक्षुर्वेदनादिभिःकारणैराहारग्रहणं करोति, तानि चामूनि“वेयण वेयावर इरियट्टाए य संजमट्टाए। तह पाण-वत्तियाए छटुं पुण धम्मे चिन्ताए / / 1 / / " इत्याद्यमीषां मध्ये अन्य-तमे नापि कारणेनाहारार्थी-सन गृहपतिर्गृहस्थस्य कुलं-गृहं तद-नुप्रविष्टः , किमर्थ 'पिंडवायवडियाए' त्ति-पिण्डपातो-भिक्षाला-भस्तत्प्रतिज्ञया अहमत्र मिक्षा लप्स्ये इति, स प्रविष्टः सन् यत्पुन-रशनादि जानीयात्, कथमिति दर्शयति-प्राणिभिः रसजादिभिः पनकैरुल्लिजीवैः संसक्तं बीजैर्गोधूमादिभिर्हरितैर्दू डरा दिभिरु-मिश्र शबलीभूत तथा शीतोदकेन वा अवसिक्तमाद्रीकृतं रजसा वा सचित्तेन परिघासियं' ति परिगुण्डित कियद्वा वक्ष्यति ?, तथाप्रकारम्- एवंजातीयकमशुद्धमशनादि चतुर्विधमप्याहारं परहस्ते-दातृहस्ते परपात्रे वा स्थितम् अप्रासुकं सचित्तमनेषणी-यमाधाकादिदोषदुष्टमित्येवं मन्यमानः सभावभिक्षुः सन्यपि लाभे न प्रतिगृह्णीयादित्युत्सर्गतः, अपवादतस्तु द्रव्यादि ज्ञात्वा प्रतिगृह्णीयादपि / तत्र द्रव्य-दुर्लभद्रव्यं क्षेत्रं-- साधारणद्रव्यलाभरहितं सरजस्कादिभावित वा कालो-दुर्भिक्षादिः भावोग्लानतादिरित्यादिभिः कारणैरुपस्थितरल्पबहुत्वं पर्यालोच्य गीतार्थो गृह्णीयादिति। अथ कथंचिदनाभोगात् संसक्तमागामिसत्त्वोन्मिश्र वा गृहीतं तत्र विधिमाहसे य आहच्च पडिग्गहे सिया से तं आया य एगतमवक्कमिज्जा एगंतमवक्कमित्ता अहे आरामंसिवा अहे उवस्सयंसि वा अप्पंडे अप्पमाणे अप्पबीए अप्पहरिए अप्पोसे अप्पोदए अप्पुत्तिंगपणगदगमट्टियमक्कडासंताणए विगिंचिय विगिंचिय उम्मीसं विसोहियरतओ संजयामेव भुजिज्ज वा पीइज्ज वाजं च णो संजाएज्जा भोत्तएवा पायए वा से तमायाय एगंतमवक्कमेजा। (सू०--१४) 'से आहचे' त्यादि स च भावभिक्षुः 'आहचे' त्ति-सहसा संसक्तादिकमाहारजातं कदाचिदनाभोगात् प्रतिगहीयात्, स चानाभोगो दातृप्रतिग्रहीतृपादद्वयाचतुर्दा योजनीय इति, तम्-एवंभूतमशुद्धमाहारमादाय एकान्तम्-अपक्रामेद्गाच्छेत् / तमपक्रम्य गत्वेति यत्र सागारिकाणामनालोकमसंपातश्च भवति तदेकान्त-मनेक धेति दर्शयति- 'अहे आरामंसि यं' ति-अथाराम वा अथो-पाश्रये वा। अथशब्दः अनापातविशिष्टप्रदेशोपसंग्रहार्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः शून्य गृहाद्युपसंग्रहार्थो वातद्विशिनष्टि-अल्पाण्डे अल्पशब्दोऽभाववचनः अपगताण्ड इत्यर्थः, एवमल्प-बीजे अल्पहरिते अल्पावश्याये अवश्याय उदकसूक्ष्मतुषारः, अल्पोदके, तथा अल्पोत्तिङ्गपनकदग-मृत्तिकामर्कटसन्तानके। तत्रोत्तिङ्गस्तृणाग्र उदकबिन्दुः (भुञ्जीतेत्युत्तर-क्रियया संबन्धः) पनकः-उल्लीविशेषः उदकप्रधाना मृत्तिका उदकमृत्ति-केति, मर्कटकः-सूक्ष्मजीवविशेषस्तेषां संतानः, यदिवामर्कटकस-न्तानः कोलियकस्तदेव मण्डादिदोषरहिते आरामदिके स्थण्डिले गत्वा प्राग्गृहीताहारस्य यत् संसक्तं तद्विविच्य विविच्य त्यक्त्वा त्यक्त्वा क्रियाभ्यावृत्त्या, अशुद्धस्य परित्यागानिःशेषतामाह-उन्मिभं वा आगामुकसत्त्वसंवलितं सक्तुकादि ततः प्राणितो विशोध्य विशोध्यअपनीयापनीय ततस्तदनन्तरं शेषं शुद्धं परिज्ञाय सम्यग्यत एव भुञ्जीत पिवेद्वा रागद्वेषविप्रमुक्तः सन्निति। उक्तञ्च- "वायालीसे सणसंकडम्मि गहणम्मि जीवणु छलिओ। इण्डिं जहण छलिज्जसि, भुजन्तो रागदोसेहि ||1|| रागेण सइंगाल, दोसेण सधूमग विजाणाहि / रागद्दोसविमुक्को, भुजेज्जा णिज्जरा पेही / / 2 / / " तच्चाहारादिकं पातुं भोक्तुं वा न शक्नुयात्प्राचुर्यादशुद्धपृथक्करणासंभवादा. स भिक्षुस्तदाहारजातमादाय एकान्तमपक्रामेदपक्रम्य च तदाहारजातं परिष्ठापयेत् त्यजेदिति संबन्धः / यत्र च प्रतिष्ठापयेत्तद्दर्शयतिअहे झामथंडिलंसिवअट्ठिरासिंसिवा किट्टरासिंसिवातुसरासिंसि वा गोमयरासिंसि वा अण्णयरंसि वा तहप्पगारंसि थंडिलंसि पडिलेहिय पडिले हिय पमज्जिय पमञ्जिय तओ संजयामेवपरिट्ठवेजा। (सू०-१४) Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसत्त 246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसत्त या) 'अहे झामथडिलंसि, वे' त्ति-अथानन्तर्यार्थः, वाशब्द उत्तरापे-क्षया विकल्पार्थः, 'झामे' त्ति-दग्धं तस्मिन् वा स्थण्डिले अ-स्थिराशौ वा किट्टो-लोहादिमलस्तद्राशौ वा तुषराशौ वा गोम-यराशी वा किया वक्ष्यते इत्युपसहरति-अन्यतरराशौ वा तथा प्रकारे-पूर्वसदृशे प्रासुके स्थण्डिले गत्वा तत्प्रत्युपेक्ष्य 2 अक्ष्णा प्रसृज्य 2 रजोहरणादिना अत्रापि द्विर्वचनमादरख्यापनार्थमिति प्रत्युपेक्षणप्रमार्जनपदाभ्यां सप्तभड़का भवन्ति, तद्यथा-अप्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितम् 1, प्रत्युपेक्षितं प्रमार्जितम् 2 प्रत्युपेक्षितमप्रमार्जितम् 3 तत्राप्रत्युपेक्ष्य प्रमृजन् स्थानात् स्थानसंक्रमणेन सान् विराधयति, प्रत्युपेक्ष्याप्यप्रमृजन्नागन्तुकपृथिवीकायादीन् विराधयतीति, चतुर्थभङ्ग के तु चत्वारोऽमी, तद्यथा-- दुष्प्रत्युपे-क्षितं दुष्प्रमार्जितम् 4, दुष्प्रत्युपेक्षित सुप्रमार्जितम् 5 सुप्रत्युपेक्षितं दुष्प्रमार्जितम् 6 सुप्रत्युपेक्षितं सुप्रमार्जितमिति स्थापना। तत्रैवं भूते सप्तमभङ्गायाते स्थण्डिले संयत एव सम्यगुपयुक्त एव शुद्धा-- शुद्धपुञ्जभागपरिकल्पनया परिष्ठापयेत्-त्यजेदिति। आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० 1 उ०। (औषधविधिवक्तव्यता 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे 664 पृष्ट द्रष्टव्या।) भिक्षां गृह्णतः साधोः पात्रे प्राणादि पतेयुःनिग्गंथस्सय गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणे वा वीये वा रए वा परियावज्जेज्जा। तं च संचाएइ विर्गिचित्तए वा विसोहित्तए वा ततो संजतामेव भुजेज वा पिवेजातं चनो संचाएइ विर्गिचित्तएवा विसोहित्तएवा, तं नो अप्पणा मुंजेज्जा नो अन्नेसिं अणुप्पदेज्जा, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयव्वे सिया॥११॥ अस्य संबन्धमाहवंतादियाण रत्तिं, णिवारितं दिवसतो वि अत्थेणं। वंतमणे सियगहणं, सियापडिपक्खओ सुत्तं / / 181 / / रात्रौ वान्तादिपानं पूर्वसूत्रे निवारितं दिवसतोऽप्यर्थेन वारितम् / अनेषणीयग्रहणमपि साधुभिर्वर्जितमेव अतस्तदिहप्रतिषिध्यते, 'सिया उपडिवक्खओ सुत्त'ति-स्याद्यतनया प्रतिपक्षतो वा एतत् सूत्रं भवति अप्रतिपक्षतो वा / तत्र प्रतिपक्षतो यथा पूर्वसूत्रे रात्री वान्ताऽऽपानं निवारितम्, इदं तु दिवा अनेषणीयं वान्तं निवार्यत / अथ प्रतिपक्षतो यथा पूर्वसूत्रे वान्तं न वर्तत, प्रत्यापा-तुमित्युक्तम्, इहाप्यनेषणीयं वान्तं न वर्तते ग्रहीतुमित्युच्यते / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (११सू०) व्याख्या-निर्गन्थस्य गृहपतिकुल पिण्डपातप्रतिज्ञया तु प्रविष्टस्यान्तः प्रतिगृहे प्राणा वा बीजानि वा रजो वा परि समन्तादापतेयुः, तच प्राणादिक यदि शक्नोति विवेक्तु वा विशोधयितुं वा ततस्तत्प्राणजातादिकं लात्वा हस्तेन गृहीत्वा विशोध्य 2 सर्वथैवापनीय ततः संयत एव प्रयत्नपर एव भुजीत वा पिवेद्वा, तच्च न शक्नोति विवेक्तुं वा विशोधयितुं वा तन्नात्मना भुञ्जीत, न वा अन्येषां दद्यात् / एकान्ते बहुप्रासुके प्रदेशे प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यं स्यादिति सूत्रार्थः। अथ भाष्यकृद्विषमपदानि विवृणोतिपाणग्गहणेण तसा, गहिया वीएहिं सव्ववणकाओ। रयगहणा होति मही, तेऊ वण संपरट्ठाई॥१८२|| प्राणग्रहणेन त्रसा गृहीताः, बीजग्रहणेन तु सर्वोऽपि वनस्पतिकायः सूचितः, रजोग्रहणेन च मही–पृथिवीकायो गृहीतः, तेजस्कायो वा परस्थो न भवतीति कृत्वा विवेचनादिकं तत्र न घटते। ते पुण आणिजंते, पडेज्ज पुट्विं वसंसिया दव्ये। आगंतुगतब्भवावा, आगंतूहि तिमं सुत्तं // 183|| ते पुनस्त्रसादय आनीयमाने वा भक्ते पतेयुः पूर्वे वा। तत्र द्रव्ये भक्तपाने संश्रितास्ते च द्विविधाः, आगन्तुकास्तदुद्भवा वा / तत्रागन्तुकत्रसादिविषयमिदं प्रस्तुतसूत्रं मन्तव्यम्। अथ के तदुद्भवाः के वा आगन्तुका भवेयुरित्याहरसया पणतो वसिया, होज्ज अणागंतुगाण पुण सेसा। एमेव य आगंतुय, पणगविवज्जा भवे दुविहा।।१८४|| ये रसजाः-तक्रदधितीमनादिरसोत्पन्नाः कृम्यादयवसादयश्च पनकः स्यात् एते अनागन्तुकास्तदुद्भवा भवन्ति, न पुनः शेषाः पृथिवीकायादयः। एवमेव च ये पनकवा द्विविधाः साः स्थावराश्च जीवास्ते सर्वेऽप्यागन्तुकाः संभवन्ति। सुत्तम्मि कड्डियम्मि, जयणा गहणंतु पडितों दट्टव्वो। लहुगो अपिक्खणम्मि, आणादिविराहणा दुविहा / / 18 / / एवं सूत्रमुचार्य पदच्छेदं कृत्वा य एष सूत्रार्थो भणितः एतत्सूत्रमाकर्षितमिति भण्यते / एवं सूत्रे आकर्षिते सति नियुक्तिविस्तर उच्यतेतेन साधुना यतनया भक्तपानस्य ग्रहणं कर्तव्यम्। का पुनर्यतनेत्याहपूर्व गृहस्थहस्तगतः पिण्डो निरीक्षणीयो यदि शुद्धस्ततो गृह्यते. एवं यतनया गृहीतोऽपि प्रतिग्रहे पतितो द्रष्टव्यः। यदि न प्रेक्षते ततो लघुको मासः, आज्ञादयश्च दोषाः / विराधना च द्विविधा-तत्र संयमे त्रसादय उष्णे वा द्रवे वा पतिता विराध्यन्ते। आत्मविराधना तुमक्षिकादिसन्मिश्रे भुक्ते वल्गुलीव्याधिर्मरणं वा भवेत् / तस्मात् प्रथममेव प्रतिग्रहपतितः पिण्डो द्रष्टव्यः। अहिगारोऽसंसत्ते, संकप्पादीतु देससंसक्तो। संसज्जिमं तुतहियं, ओदणसत्तूदधिदवाई॥१८६|| अत एव यस्मिन् देशे सप्राणादिभिः संसक्तं भक्तपानं न भवति तत्रासंसक्ते अधिकारस्तस्मिन्नेव देशे विहरणीयमिति भावः / यस्तु संसक्ते देशे संकल्पादीनि पदानि करोति तस्य प्रायश्चित्तम, तच्चोत्तरत्र वक्ष्यते। तत्र च संसजिम संसक्तियोग्यमोदनसक्तु-दधिद्रवादिकं द्रव्यं मन्तव्यम्। अथ संसक्तदेशे संकल्पादिषु प्रायश्चित्तमाहसंकप्पे पहमिंदण, पंथेपत्तेतहेव आवण्णे। चत्तारिछच लहुगुरु, सट्ठाणं चेव आवण्णे॥१८७।। यस्मिन् विषये भक्तादिकं प्राणिभिः सं सज्यते तत्र संकल्पंगमनानि प्रायः करोति चतुर्लघु / यदा भेद करोति च Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसत्त 247 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसत्त तुर्गुरु संसक्तदेशस्य पन्थानं गच्छतः षड्लघु, तं देशं प्राप्तस्य षड्गुरु, तथैव द्वीन्द्रियादेः संघट्टनादिकमापन्नस्य स्वस्थानप्रायश्चित्तम्, तद्यथाद्वीन्द्रिय संघट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, अपद्रावयति षड्लधु, द्वीन्द्रियाणा संघटनादिषु पदेषु चतुर्गुरुकादरब्ध षड्गुरुके तिष्ठति / चतुरिन्द्रियाणां संघट्टनादिषु षड्लघुकादिकं छेदान्तमिति। (अ) सिवादिएहिं तु तर्हि पविट्ठा, संसज्जिमाइं परिवञ्जयंति। भूइट्ठसंसज्जिमदव्वलंभे, गेहतुवारण इमेण जुत्ता।।१८८|| अशिवादिभिः कारणस्तत्र संसक्तदेशे प्रविष्टास्ततः संसज्जिमानि सक्तुदधिप्रभृतीनि द्रव्याणि परिवर्जयन्ति। अथ भूयिष्ठानि-प्रभूततराणि संसजिमद्रव्याणि लभ्यन्ते ततोऽमुनोपायेन युक्ताः प्रयत्नपरा गृह्णन्ति / गमणागमणे गहणे, पत्ते पडिए य होति पडिलेहा। अगहियदिट्ठविवज्जण, अह गिण्हइ तमाभजे / / 186 / / भक्तार्थ दायकमध्ये गमन 'कुर्वन् कीटिकामण्डूकीप्रभृतिजन्तु-- संसक्तायां भूमौ मा विराधनां कुर्यादिति सम्यग निरीक्षणीयः, एवमागमने भिक्षाया हर तेन ग्रहणमवविलोकनीयम्। प्राप्ते च दायके तदीयहस्तगतः पिण्डः प्रत्यपेक्षणीयः / पात्रे च पतितः प्रत्युपेक्षितव्यः / ततो गृहीते त्रसादिकं प्राणजातं पश्यति ततस्तस्मिन् दृष्टे वर्जयति न गृह्णातीत्यर्थः / अथ गृह्णानि ततो येन द्वीन्द्रियादिना संसक्तं गृह्णाति तन्निष्पन्न प्रायश्चित्तमापद्यते। ___ अथ पुनरेवं न प्रत्युपेक्षते तत इम दोषाःपाणाइसंजमम्मि, आता मयमच्छिकंटकविसंवा। मुइंगमच्छिविच्छुग, गोवालियमाझ्या उभए।।१६।। संयमे त्रसप्राणपनकादयो विराध्यन्ते / आत्मविराधनाया घृतं मक्षिकासंमिश्र भुड्यते वल्गुलीव्याधिस्ततश्चक्रमेन मरणं भवेत, कण्टको वा विष व समागच्छत् / उभय विराधनायां मुइङ्गा-पियीलिका मक्षिकावृश्चिकगोपालिकादयों वा भवन्ति ! गोपालिका अहिलोहिकाख्यो जीबविशेषः / एते हि मक्षिका जीवा भक्तेन सह भुक्ताः संयमोपघातमात्मनश्चमधाधुपघातं कुर्वन्ति। पवयणघातं च सिया, तं वियर्ड पिसियमट्ठजातं वा। आदाणकिलेसऽजसे, दिटुंतो सेट्ठिकप्पट्ठो।।१६१।। प्रवचनोपजाति वा स्यात्तद्विकट पिशितं वा ततस्याद्-भवेत, अर्थजातं वा सुवर्ण संकलिकामुद्रिकादिक कश्चिदनुकम्पया प्रत्यनीकतया तावद्दद्यात्,ततः पतितं पिण्ड प्रत्युपेक्षेत तचाप्रत्युपेक्ष्य गृहीतं मन्दधर्मणः कस्याप्युत्प्रवजितुकामस्यादानमाजीविकाकारणं भवति, तदादायोत्प्रव्रजतीत्यर्थः / अर्थजाते च गृहीते साधूनां रक्षणादिके महान् परिक्लेशोऽयशो वा भवेत् / तथा चात्र सिद्धित्रिराज्यपदोपविष्ट -- कल्पस्थकोपलक्षितस्य काष्ठश्रेष्ठिनो दृष्टान्तः / स चावश्यकटीकातोऽवगन्तव्यः। तम्हा खलु दट्ठव्वो, सुक्खग्गहणं अगेण्हणे लहुगा। आणादिणो य दोसा, विराहणा जा भणियपुट्विं / / 12 / / यत एते दोषास्तस्मात खलु-नियमात् पात्रकपतितः पिण्डो द्रष्टव्यः / ससक्ते च देश शुष्कस्य कूरस्य पृथक् मात्रके ग्रहण कार्यम्। अथ पृथक्न गृह्णाति ततश्चतुर्लधु आज्ञादयश्च दोषाः, विराधना च द्विधा संयमात्मविषया पूर्वमनन्तरमेव भणिता। इदमेव भावयतिसंसज्जिमम्मि देसे, मत्तगसक्खपडिलेहणा उवरि। एवं ताव अणुण्हे, उण्हे कुसणं च उवरि तु ||163 / / संसजिमे देशे यः शुष्कपौगलिकोऽनुष्णो लभ्यते स मात्रके गृहीत्वा प्रत्युपेक्ष्य यद्यसंसक्तस्तदा प्रतिग्रहोपरि क्षिप्यते, एवं तावदनुष्णे विधिरुवतः। यः पुनरुष्णः कूरः कुसणं वा तन्नियमादसंसक्तमिति कृत्वा प्रतिग्रहस्थवोपरि गृह्यते। गुरुमादीण व जोग्गं, एगम्मितरम्मि पेहिउँ उवरि। दोसु वि संसत्तेसुं, दुल्लहपुवेतरं पुच्छा / / 164|| गुरुालानादीनां च योग्यमेकरिमन् मात्रके गृह्यते, इतररिमन्-द्वितीये मात्र संसक्तं प्रत्युपेक्ष्य प्रतिग्रहोपरि प्रक्षिप्यते, एवं तावद्यत्रक भक्तं पानकं वा संसक्त तत्र विधिरुक्तः / यत्र तुद्वे अपि भक्तपानके संसक्ते तत्र यद्भक्तं पानकं वा दुर्लभं तत्पूर्व गृह्णन्ति, इतरत्-सुलभं पश्चाद गृह्णन्ति। एसा विही तु दिखे, आउट्टियगेण्हणे तु जं जत्थ / अणॉभोगगहे विगिंचणे, खिप्पमवि चिंतियं जत्थ // 165 / / एष विधिदृष्ट गृह्यमाणे भणितः। अथाकुट्टिकया संसक्तं गृह्णन्ति ततो यद्यत्र द्वीन्द्रियपरितापनादिकं करोति तत्तत्र प्राप्रोति / यथा-ऽनाभोगेन संसक्त गृहीतं ततःक्षिप्रमेव विवेचनम् / अथ क्षिप्रं न विनक्ति ततो यावः परिष्ठापयति तावत् यत्र यद्विनाशमश्नुते तन्निष्पन्नं प्रायश्चित्तम्। कः पुनः क्षिप्रकाल इत्याहसत्त पदा गम्मते, जावति कालेण तं भवे खिप्पं / कीरति वा तालाओ अडुयमविलंबिता सत्तं / / 166 / / यावता कालेन सप्त पदानि गम्यन्ते तत् क्षिप्रं मन्तव्यम् / यावता वा कालेनाहृतमविलम्बितं सप्त तालाः क्रियन्ते तावान् कालविशेषः क्षिप्रम् / तम्हा विविंचितव्वं, आसपणे वसहिदूरजयणाए। सागारिय उण्हविए, पमज्जणा सत्तुगदवे य / / 167 / / तस्मात्तजन्तुसंसक्तमनन्तरोक्तक्षिप्रकालमध्य एव विवेचनीयम्। यदि च वसतिरासन्ना ततस्तत्र गत्वा परित्यक्तव्यम्, अथ दूरे वसतिस्तदा शून्यगृहादिषु यतनया परिष्ठापयति / अथ सागारिके पश्यति उष्णे वा भूभागे स्थितो वा ऊर्द्ध स्थितः परिष्ठापयति ततो वक्ष्यमाणं प्रायश्चितम् / यत्र च परिष्ठाप्यते तत्र प्रर्माजना कर्त्तव्या। एवमोदनस्य विधिः / सक्तुद्रवस्य तत्रैवमेवाल्पसागारिके प्रमृज्य छयायां परिष्ठापन विधेयम्। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसत्त 248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसत्त इदमेव व्याचष्टेजावइकाले वसहिं उवेति जति तावते ण चिटुंती। तं पियमणुण्हमदवं, तो गंतुमवस्सए पट्ठो।।१६८।। यावता कालेन वसतिमुपैति तावता कालेन यदि ते प्राणिनो नदिशन्ति / न विपश्यन्ति तदसतिं नीयते तदनुष्णमद्रवं चयदिभवति ततः प्रतिश्रयं नेतव्यम्। किमुक्तं भवति-यद्युष्णः कूरो द्रव वा संसक्तं ततः प्रतिश्रय न नीयते / मा यावत्प्रतिश्रयं नीयते तावत्प्राणजातीया उष्णे द्रवे वा मरिष्यन्तीति कृत्वा / अथानुष्णमद्रवं वा तत उपाश्रये गत्वाऽपद्रवेतपरिष्ठापयेत / यत्पुनरुष्णं द्रवे वा तत्तत्रैव शून्यगृहादौ परिष्ठापनीयम्। अथ दूरे वसतिस्ततोऽनुष्णमपि शून्यगृहादिषु परिष्ठापयितव्यम्। सुण्णघरादीण सती,दूरे को णयति अंतरीभूते। उकुडुपमज्जछाया, वतिकोणादीसु विकिरणं // 16 // अथ शून्यगृहादीनि न सन्ति ततो दूरे एकान्तं गत्वा यत्र कोणस्थितो वृत्त्या अन्तरितीभूतो वा सागारिको न पश्यति तत्रोत्कुटुको भूत्वा प्रमृज्य छायायां वृत्तः, कोणके प्रक्षिपति, आदिग्रहणेन वृत्तेमध्येऽपि विकिरति- / परिष्ठापयतीत्यर्थः / एवमोदनस्य सत्कानां द्रवस्य वा परिठापनं कर्त्तव्यम् / सागारिएँ उण्हठिए, अपमजंते यमासियं लहुगं। वोच्छेदुडाहादी, सागारियसेसए काया // 200 / / अथ सागारिके च पश्यति उष्णे वा प्रदेशे भूत्वा स्थितो वा ऊर्द्ध भूमेरप्रमाणं वा परिष्ठापयति ततश्चतुर्ध्वपि लघुमासिकम्। सागारिके च पश्यति यदि भक्तं परिष्ठाप्यते तदा स भक्तपानेन व्यवच्छेदमुड्डाहादिकं वा कुर्यात, शेषेषु उष्णादित्रये परिष्ठापयतः पृथिव्यादिकाया विराध्यन्ते। इइओअणसत्तविही, सत्तूतदिणकतादिजा तिपिण। वीसुंदीसुंगहणं,चतुरादिदिणादिएगत्थ॥२०१॥ इत्येवमोदनस्य संसक्तस्य विधिरुक्तः / सक्तुसक्तानां विधिरुच्यते यत्र सक्तवः संसक्ताःलभ्यन्तेतत्र नैव गृह्यन्ते। अथ न संस्तरति ततस्तदिवसकृतान् सक्तुकान् गृह्णन्तीति। आदिशब्दात्तैरप्यसंस्तरतो द्वितीयतृतीयदिनकृतानपि सक्तून गृह्णन्ति, ते पुनः पृथग 2 गृह्यन्ते। चतुर्थदिवसकृतादयस्तु सर्वेऽप्येकत्र गृह्यन्ते, तेषामयं प्रत्युपेक्षणाविधिः / रजस्त्राणमधः-प्रस्तीर्य तस्योपरि पात्रकम्बलं कृत्वा तत्र सक्तवः प्रकीर्यन्ते, तत ऊर्ध्वमुखं पात्रकबन्धंकृत्वा एकस्मिन्याचे नीत्या यास्तत्र | कणिका लग्रास्ता उद्धृत्य कपरे प्रक्षिप्यन्ते / एवं प्रत्युपेक्ष्य भूयोऽपि तथैव प्रत्युपेक्षन्तेततः। नव पेहातो अदिटे, दिढे अण्णा उ होंति णव चेव। एवं नवगा तिण्णी, तेण परं संथरे उज्झे / / 202 / / नव वाराः प्रत्युपेक्षणाः कृत्वा यदि प्राणजातीया न दृष्टास्ततो भोक्तव्यास्ते सक्तवः, अथ दृष्टास्ततो भूयोऽप्यन्या नववारा: प्रत्युपेक्षणा भवन्ति / तथापि यदि दृष्टास्ततः पुनरपि नव वाराः प्रत्युपेक्षन्ते / ततो यद्येवं विभिनवकैः शुद्धास्ततो भुजताम् / अथ न शुद्धास्तदा तान् ततः परं परिष्ठापयेत् / अथासंस्तरणं ततस्तावत्प्रत्युपेक्षन्ते यावत् शुद्धीभवन्ति। प्राणजातीयानां च परिष्ठापने विधिरयम्आगरमादी असती, कप्परमादीसु सत्तुए उरणी। पिंडमलेवकडाणय, काऊण दवं तुतत्थेव / / 203 / / या ऊरणिकाः प्रत्युपेक्षमाणेन दृष्टास्ता आकरादिषु परिष्ठापनीयाः, इह घरट्टादिसमीपे प्रभूता यत्र तुषा भवन्ति स आकर उच्यते। तस्याभावे कर्परादिषु स्तोकान् सक्तून् प्रक्षिप्य तत्रोरणिकाः स्थापयित्वा बहिरनाबाधे प्रदेशे स्थाप्यन्ते, यदिच द्रवभाजनं नास्ति ततो ये सक्तवः शुद्धा अलेपकृताश्च ते पिण्डं कृत्वा भाजनस्यैकपार्श्वे स्थापयित्वा तत्रैव च द्रवं कृत्वा गृहीत्वा भुञ्जते। यत्र च काञ्जिकं संसज्जते तत्रायं विधिःआयामसंसठुसिणोदगंवा, गिण्हंति वा णिव्वतचाउलोदं। गिहत्थभाणेसु वि पेहिताणं, मत्तेव सोहेतुवरि छुभंति॥१०४|| आयाम संसृष्टपात्रकमुष्णोदकं वा त्रिवृत्तं वा प्राशुकीकृतं वा उष्णोदकं तन्दुलधावनं गृह्णन्ति / एतेषामभावेतदेव काजिकं गृहस्थभाजनेषु प्रत्युपेक्ष्य मात्रके वा शोधयित्वा यद्यसंसक्तं तदा गृहोपरि प्रेक्षिपन्ति। द्वितीयपदमाहबिइयपदऽपेक्खणं तु, गेलण्णद्धाणओगमादीसुं। तंचेव सुक्खगहणे, दुल्लभदव्येसु वी जयणा / / 205 / / द्वितीयपदे ग्लानाध्वावमादिषु कारणेष्वपेक्षणं-पिण्डस्याप्रत्यु-- पेक्षणमपि कुर्यात्। तदेव ग्लानत्वादिकं द्वितीयपदं शुष्कस्यौदनस्य ग्रहणे मन्तव्यम्। दुर्लभं वा द्रव्यं पश्चात् लभ्यते, ततः पूर्वं तद् गृहीतमिति कृत्वा नास्ति तद्राजनं यत्र पृथक् शुष्कं गृह्यते 'दोसु विजयण' त्ति द्वयोरप्युपेक्षणं शुष्कग्रहणयोरेषा यतना कर्तव्या। एष संग्रहगाथा-समासार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतिअचाउरसंमूढो, वेलातिक्कमति सीयलं होई। असढो गेण्हणगहिते, सुज्झेइ अपेक्खमाणो वि॥२०६|| कश्चिदतीवातुरत्वेन ग्लानत्वेन संमूढः संमोहसमुद्धातमुपगतस्ततो यावत्प्रत्युपेक्षति तावद्वेला अतिक्रामति / शीतलं वा तावता कालेन भवति, तदप्यशठो-विशुद्धभावो गृह्णानो वा, गृहीते वा पिण्डे प्रत्युपेक्षणामकुर्वाणोऽपि शुध्यति तत्प्रायश्चित्तभाग्न भवति। ओमाणपेल्लितो वे-लतिक्कमे चलितुमिच्छति भयं वा। एवंविहे अपेहा, ओमो सति कालवेला वा / / 207 / / अध्वनि वा गच्छसार्थाऽवमानप्रेरिते प्रभूतभिक्षाचराकीणों यावच प्रत्युपेक्षतेतावद्वेलातिक्रमो भवति, सर्वः सार्थश्वलितुमिच्छति, पृष्टा भो गच्छतां च भयं, तत एवं विधे कारणे अपेक्षा प्रत्युपेक्षामन्तरेणापि पिण्ड गृह्णीयादित्यर्थः / अयमेव प्रत्युपेक्षमाणानां सत्कालो भिक्षाया देशः कालः स्फिटति। सूर्य चास्तमिते अथ स्थानं वा भिक्षाचराकीर्ण ततोऽप्रत्युपेक्षितमपि गृह्णीयात्। तो कुज्जा उवओगं, पाणे दळूण तं परिहरेज्जा। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसत्त 246 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसत्त कुजाण वा वि पेहं, सुज्झइ अतिसंभमा सो उ॥२०॥ यद्यनन्तरोक्तकारणैः प्रत्युपेक्षणं न भवति तत उपयोगं कुर्यात् / कृते वोपयोगे यदि प्राणिनः पश्यति ततस्तान् दृष्ट्वा भक्तपानं परिहरेत् / अथवा-अत्यातुरं प्रेक्ष्य उपयोगमपि कुर्याद्वा, न वा / अनु-पयुञ्जानोऽपीति संभ्रमादसौ साधुः शुद्ध्यति / यद्वाऽधस्तादुक्त-स्तत्रोक्तः शुष्कौदनः पृथक् गृह्यतेतत्राप्येतेष्वेवग्लानाध्वावशेषेषु कारणेषु द्वितीयपदं मन्तव्यम्। तथा चाऽऽहवीसुंघेप्पइ अतरं-तगस्स बितियं दवं तु सोहेति। तेण उ असुक्खगहणं,तं पिय उण्हेतरो पेहे॥२०६।। अतरन्तगस्य ग्लानस्य योग्यं विष्वगेकस्मिन् मात्रके गृह्यते, द्वितीये च मात्रके गृह्यते द्रवं शोधयति / ततो यत्र शुष्कौ दनं पृथक् गृह्यते ततः तृतीयमात्रकं नास्तीति कृत्वा शुष्कद्रवं तत्रैव प्रतिग्रहे गृह्णीयात् / ग्लानस्यापि यदोदनं द्वितीयाङ्गादिकमेकस्मिन् मात्रके गृह्णाति तदप्युष्णं ग्रहीतव्यम्, इतरत्तु शीतलं प्रत्युपेक्षितं यद्यसंसक्तं ततो गृह्णीयादन्यथा तु नेति भावः। अद्धाणे ओमेवा, तहेव बेलातिवातियं णातुं। दुलभदवे व भा सिं, धोवणपियणेण होहिंति॥२१०।। अध्वनि वा अवमौदर्य वा वेलाया अतिपातमपि अतिक्रमज्ञात्वा तथैव शुष्कं विष्वग् न गृह्णीयात्। दुर्लभं वा तत्र ग्रामे द्रवं पानक ततो मा 'सिं' एषां साधूनां भाजनधावनपानेन भविष्यत इति कृत्वा पूर्वमात्रकेद्रवं ग्रहीतं ततो नास्ति भाजनं यत्र शुष्कं पृथक् गृह्यते, अत एकत्रैव गृह्णीयात् / उक्तमोदनविषयं द्वितीयपदम्।। अथ पानकविषयमाहआउट्टिएँ संसत्ते, (देसे) गेलण्णद्धाण कक्खडे खिप्पं / इयराणिय अद्धाणे, कारणगहिते यजयणाए।।२११॥ यथा कारणे आकुट्टिकया जनितेऽपि संसक्ते देशे गच्छन्ति तथा तत्र गताः सन्तः संसक्तमपि पानके गृह्णन्ति, गृहीत्वा ग्लानत्वे अध्वनि कर्कशे वा अवमे क्षिप्रं न परित्यजेयुरपि / तथाहि-ग्लानत्वे यावत्ससक्तं परिष्ठापयन्ति तावत् ग्लानस्य वेलातिक्रमो-भवति, अध्वनि सार्थातपरिभ्रस्यन्ति, अवमोदर्ये भिक्षाकालः स्फिटति, ततो न क्षिप्रं परित्यजेयुः / इतराणि च सागारिकस्य पश्यतः परिष्ठापनं संसृत्यादीनि यानि पूर्वप्रतिषिद्धानि तान्यप्यध्वनि वर्त्तमानः कुर्यात्, एषकारणे यतनया गृहीतस्यसंसक्तस्य विवेचने विधिरवगन्तव्य इति संग्रहगाथा-समासार्थः / अथैनामेव विवृणोतिआउट्टिगमणसंस-त गिण्हणं न य विगिंचए खिप्पं / ओमगिलाणे वेला-विहम्मि सत्थो वइक्कमइ।।२१२|| यथा आकुट्टिकया संसक्ते देशे गमन तथा तत्र गतः संसक्तमपि गृह्णीयात् न च क्षिप्रं विविच्यात्, परिष्ठापयेत् / कुत इत्याह-अथ में भिक्षाकालः स्फिटति ग्लान्ये वा ग्लानस्य वेला अतिक्रामेत् / विहेअध्वनि सार्थोऽतिक्रामति ततः क्षिप्रं न परित्यजेत्।। अविवादिहि संसत्ते, संकप्पादी पदा तु जह सुज्झे। संसट्ठसत्तुचाउल-संसत्त सतीतहा गहणं // 213|| अशिवादिभिः करणेर्यथा संसक्ते देशे संकल्पादीनि पदानि कुर्वाणोऽपि शुद्ध्यति, तथा तत्र गतो यद्यसंसक्तं पानकं लभते ततः संसृष्टपानक तन्दुलोदकं वा संसक्तं तथैव गृह्णीयात्।। तेषां पुनर्गृहीतानामयं विधिःओवग्गहियं चीरं, गालणहेउं घणं तु गेण्हंति। तह विय असुज्झमाणे, असती अद्धाण जयणा उ॥२१४॥ औपग्रहिक घनं-निच्छिद्रं चीवरं तेषां संसक्तपानकानां गालनाहेतोर्गृहन्ति। तथापि गाल्यमानं यदि न शुद्ध्यति न वा तन्दुल-धावनादिकमपिलभ्यते ततो वा प्रथमोद्देशके अध्वनि गच्छतांतु 'वारफलयरक्खें' इत्यादिना पानकयतना भणिता सा कर्त्तव्या। अथ दधिविषयं विधिमाहसंसत्त गोरसाणं, ण गालणं णेव होइ परिभोगो। कोडिदुगलिंगमादी, तहि जयणा णो य संसत्तं / / 215 / / यदि क्वापि संसक्तो गोरसो लभ्यते ततस्तस्य न गालनं नवा परिभोगः कर्त्तव्यः, किंतु-'कोडिदुगलिंगमाईत्ति-कोटिद्वयेन विशोधिकोट्या च अविशोधिकोट्या भक्तपानग्रहणे यतितव्यं यावदाधाकर्मापि गृह्यते, अन्यलिङ्गमपि कृत्वा भक्तपानमुत्पाद्यते न पुनः संसक्तो गोरसो ग्रहीतव्यः। अथ 'इयरणि' इत्यादि पश्चार्द्ध व्याचष्टसागारियसव्वत्तो, णऽस्थिय छाया विहम्मि दूरे वा। वेला सत्थो व चले, ण णिसीयपमजणे कुजा // 216 // अध्वनि गच्छता सर्वतोऽपि सागारिक छाया च तत्र नास्ति, अस्ति वा परं दूरे। तत्र च गच्छता वेलाऽतिक्रामति, सार्थो वा चलति,तत्र उष्णेऽपि भूभागे परिष्ठापयेत् / यत्र चोपविशतः सागारिक वा शङ्कादयो दोषाः अशुचिरं वा स्थानं तत्र निषदनप्रमार्जने अपि न कुर्यात् / बृ० 5 उ० / (संसक्तनिर्युक्त्युक्तानि संसक्तद्रव्याणि 'भुजाभुज' शब्देऽस्माभिर्दर्शितानि) कदाचित्संविग्नगुणानां कदाचित्पार्श्वस्थादिदोषाणां संबन्धात् गौरवत्रयसंसज्जनाच संसक्तम् / ज्ञा० 1 श्रु० 5 अ० / गुणैश्च दोषैश्च संसजते मिश्रीभवतीति संसक्तः / प्रव०२ द्वार। संसक्त इव संसक्तः। पार्श्वस्थादिकं तपस्विनं वा आसाद्य संनिहितदोषगुणे, व्य० 10 / संसक्तलक्षणम्संसत्तो य इआणिं, सो पुण गोभत्तलंदए चेव / उचिट्ठमणुचिटुं, जं किंची छुब्भई सध्वं / / 1 / / एमेव य मूलुत्तर, दोसा य गुणा य जत्तिया केइ। ते तम्मि वि सन्निहिआ, संसत्तो भन्नई तम्हा ||2|| रायविदूसगमाई, अहवाऽवि नडो जहा उ बहुरूवो। अहवाऽवि मेलगो जो, हलिद्दरागाइबहुवन्नो // 3 // एमेव जारिसेणं, सुद्धमसुद्धेण वाऽवि संमिलइ। तारिसओ चिअ होही, संसत्तो भण्णई तम्हा।।४।। आव०३ अ०। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसत्त 250 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसय संप्रति संसक्तसूत्रं वक्ष्यति : तच्च प्राग्वत् परिभावनीम् / अधुना संसक्तप्ररूपणामाह- 'संसक्तः अलिन्द इब नट इव बहुरूपी नटरूपी एडक इव ज्ञातव्य इति शेषः।। एतदेव व्याचिख्यासुराहगोभत्ताऽलिंदो विव, बहरूवों नडो व्व एलगो चेव। संसत्तो सो दुविहो, असंकिलिट्ठो य इयरो वा।।२६८।। गोभक्तयुक्तोऽलिन्दा गोभक्तालिन्दः स इव। किमुक्तं भवति-यथा अलिन्दे गोभक्त कुक्कुसा ओदननिश्रयः अवश्रावणमित्यादि। सर्वमेकत्र मिलित भवतीति संसक्त उच्यते / एवं यः पार्श्वस्थादिषु मिलितः पार्श्वरथसदृशो भवति, संविगेषु मिलितः संविग्रसदृशः स संसक्त इति। यथा वा नटो रङ्गभूमौ प्रविष्टः कथानुसारतः तत्तद्रूपं करोलि एवं वहुरूपनट इव सोऽपि पार्श्व--स्थादिमिलितः पार्श्वस्थादिरूपं भजते,सविग्नमिलितः संविग्नरूममिति। यदिवा-यथा एडको लाक्षारसे निमग्नः सन लोहितवर्णो भवति, गुलिकाकुण्डे निमग्नः सन नीलवर्ण इत्यादि / एवं पायस्थादिर्द्विधा, तद्यथा-असंक्लिष्टः इतरश्च-संविलष्टः। तत्रासंक्लिष्टमाहपासत्थे अहाच्छंदे, कुसील ओसण्णमेव संसत्ते। पियधम्मा पियधम्मसु, (चेव) असंकिलिट्ठो भवे एसो॥२६६।। पार्श्वस्थे मिलितः पार्श्वस्थः, यथाच्छन्दे यथाच्छन्दः,कुशीले कुशीलः, अवसन्ने अवसन्नः, संसक्ते संसक्तः, तथा प्रियधर्मसु मिलितः प्रियधर्मा , एष संसक्तोऽसंक्लिष्टो ज्ञातव्यः। सक्लिष्टमाहपंचासवप्पसत्तो, जो खलु तिहिं गारवेहि पडिबद्धो। इत्थिगिहिसंकिलिट्ठो,संसत्तो संकिलिट्ठोसो॥२७०।। यः खलु पशसु आश्रवेषु हिंसादिषु प्रवृत्तः, तथा विभिर्गा स्व:ऋद्धिरससातलक्षणः प्रतिबद्धः, तथा स्त्रीषु च प्रतिबद्धः स संविलष्टः संसक्तो ज्ञातव्यः / अस्य वा संक्लिष्ट रम्य प्रायश्चित्तविधिदेशतः पार्श्वस्थस्येव वेदितव्यः। व्य०१ उ०। “संसक्ते संकिलिट्टो उरासक्तः संसर्गवशात स्थापितादिभाजी संक्लिष्टः संक्लिष्टाचारः / व्य०३ उ०। (संसक्तस्य आहारो न देया न वा ग्राहा इति 'दाण' शब्द चतुर्थभागे 2463 पृष्ठे उक्तम्।) संसत्तणिज्जुत्ति स्त्री० (संसक्तनियुक्ति) अग्रायणीयाख्यद्वितीयपूर्वादुदधृतं सम्मछिमजीवसंसक्तिमभोज्याभोज्यप्रदर्शक पूर्वधररचिते नियुक्तिगन्थे, संसः निः / उसहाइवीरचरिमे, सुरअसुरनमंसिए पणमिऊणं / संखेवओ महत्थं, भणामि संसत्तनिज्जुत्तिं / / 1 / / बीयाओ पुव्वीओ, अग्गेणीयस्स इमं सुअमुआरं। संसेइम समुच्छिम--जीवाणं जाणिऊणंगं / / 2 / / संस०नि०। संसत्ततव पुं० (संसक्ततपस्) आहारादिपूजासु नित्यं परिणत- | भावे. बृ०। अथ संसक्ततपसमाहआहारोवहिपूया-सु जस्स भावो उ निचे संसत्तो। भावोवहतो कुणइ अ, तवोवहाणं तदट्ठाए॥४८७|| आहारोपधिपूजासु यस्य भावः-परिणामो नित्यसंसक्तः सदा प्रतिबद्धः स एवं रसगौरवादिना भावेनोपहतः करोति तपउपधानमनशनादिकं तदर्थमाहाराद्यर्थ यः ससंसक्ततपा इति / बृ० 1 उ० 2 प्रक०। ध०। संसत्ततवोकम्म न० (संसक्ततपःकर्मन्) आहारोपविशय्यादि प्रतिबद्धभावतपश्चरणे, स्था० 4 ठा०४ उ०॥ संसद्दण न०(संशब्दन) उत्कीर्तने, आव० 4 अ०। संसप्पग पुं० (संसर्पक) संसर्पन्तीति संसर्पकाः / शून्यगृहादिष्यहिनकुलादिषु, आचा०१ श्रु० अ०२ उ० / संसर्पणशीलेषु, अहिनकुलादिषु, बृ० 1 उ०१ प्रक० / पिपीलिकाकोष्ट्रादिषु, आचा० 1 श्रु०१ अ०८ उ० / नि० चू०। संसप्पिअ (देशी) उत्प्लुत्य गमने, दे० ना०८ वर्ग 15 गाया। संसय पुं० (संशय) एकतरविशेषनिश्चयचिकीर्षोः किमिदमिति विमर्शरूप, (विशे० / स्था०।) अनवधारितार्थज्ञाने, चं०प्र०१ पाहुा दोलायमानमानसात्मके,उत्त० 1 अ०नि००। आ०म०। अनि रितार्थमुभयवस्त्वाशावलम्बितया प्रवृत्ते ज्ञाने, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। औ० / रा० नं० / किमित्यनवधारणार्थे प्रत्यये, सूत्र०१ श्रु० 12 अ० संशयं लक्षयन्तिसाधकबाधक प्रमाणाभावादनवस्थिताऽनेककोटिसंस्पर्शिज्ञानं संशयः / / 11 // उलिख्यमानस्थाणुत्वपुरुषत्वाद्यनेकांशगोचरयोः साधकबाधक प्रगाणयोग्नुपलम्भादनवधारितनानांशावलम्बिविधि प्रतिषेधयोरसमर्थ सवेदन संशय इत्यर्थः, समिति-समन्तात् सर्वप्रकारैः शेत इवेति व्युत्पत्तेः / / 11 / / उदाहरन्तियथाऽयं स्थाणुर्वा पुरुषो वा / / 12|| व्यक्तम् / अयं च प्रत्यक्षविषये संशयः / परोक्षविषये तु यथा वाऽपि विपिनप्रदेशे शृङ्गमात्रदर्शनात् किंगौरय स्याद् गवयो वा? इन्यादि।।१२।। रत्ना० 1 परि० / नं०। संशयोऽपि ग्रन्थादौ प्रवृत्त्यङ्गम्, संशयश्च द्विधाअर्थसंशयः, अनर्थसंशयश्च / तत्रार्थसंशयो यथा, यदि वृष्ट्यादिसामग्री ततः संभवति सस्यनिष्पत्तिः, अनर्थसंशया यथाविषमिदं यो भक्षयति स मियते। तत्रानर्थसंशयान्न कस्य चित्सचेतसः प्रवृत्तिरनर्थतः संशयस्यापि विभ्यत्त्वात्,अर्थसंशयस्तु प्रेक्षावतोऽपि प्रवृत्यङ्गमनर्थशङ्काया अभावात्, फलरय च केषाचिद्दर्शनात् / न चायमधिकृतप्रयोजनाडुपन्यासजनित संशयोऽनर्थसंशय इति भवति प्रेक्षावतां प्रवृत्तिरिति न किचिदनुपपन्नम्। आ०म०१ अ०! रत्ना० / आचा० / संसयं परिआणओ संसारे परिन्नाए भवइ,संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिन्नाए भवइ / (सू०-१४३) (अस्य सूत्रस्य व्याख्या 'लोग सार' शब्दं षष्ठ भागे Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसय 251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसार गता / ) "स्यान्निश्चय कनिष्ठानां, कार्यसिद्धिः परानृणाम् / संशयक्षुण्णचित्ताना, कार्ये संशीतिरेव हि / / 1 // " ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। *संश्रय पुं० आश्रयणे, सूत्र०१ श्रु० 10 अ०॥ संसयकरणी स्त्री० (संशयकरणी) संदेहजनिकायां भाषायाम, संशयकरणी या एका वागनेकार्थाभिधायितया परस्य संशयमुत्पादयति, यथा-सैन्धवमानीयतामित्यत्र सैन्धवशब्दो लवणवस्त्रपुरुषवाजिषु वर्तमान इति / प्रज्ञा० 11 पद / दश० / संथा०। ध० भ०। संसरंत त्रि० (संसरत्) परिभ्रमति.आतु०। संसरण न० (संस्मरण) सकल्पिकस्यादिदर्शनतः स्मरणरूपे असंप्राप्तकामभेदे, दश०६ अ०। संसार पुं० (संसार) संसरण संसारः / भावे घञ्प्रत्ययः / आ०म० 4 अ० / भवाद्भवान्तरगमने, विशे० / नरकादिषु पुनः पुनर्भमणे, विशे०। दुर्गतिभ्रमणे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 2 उ० 1 आव० / दर्शी (एतत्संभवः 'परलोग' शब्दे पञ्चमभागे 542 पृष्ठे साधितः।) तेषु तेषु उच्चावचेषु कुलेषु पर्यटने, उत्त०३ अ० / चतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणे; स्था०४ डा०१ उ० चतुर्गतिकभेदेन संसृती, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० / पं० सू०। दश० / स० / गतिषूत्पादे, आचा० 1 श्रु०१ अ०७ उ०। संसारो द्रव्यादिभेदाचतुर्धाचउठिवहे संलारे पण्णत्ते, तं जहा-दव्वसंसारे खेत्तसंसारे कालसंसारे भावसंसारे। (सू०-२६१)। तत्र संसरणम्-इतश्चेतश्च परिभ्रमणं संसारः, तत्र संसारशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तो द्रव्याणां वा जीवपुद्गललक्षणानां यथायोग भ्रमण द्रव्यसंसारः, तेषामेव क्षेत्रे-चतुर्दशरज्ज्वात्मके यत्संसरणं स क्षेत्रसंसारः, यत्र वा क्षेत्रे संसारो व्याख्यायतेतदेव क्षेत्रमभेदो-पचारात संसारो, यथारसवतीगुणनिकेत्यादि / कालस्यदिव-सपक्षमासययनसंवत्सरादिलक्षणस्य संसरणचक्रन्यायेन भ्रमणं पल्योपमादिकालविशेषविशेषितं वा यत्कस्यापि जीवस्य नरकादिषु स कालसंसारः, यस्मिन् वा कालेपौरुष्यादिके संसारो व्याख्यायते स कालोऽपि संसार उच्यते अभेदाद्यथाप्रत्युपेक्षणाकरणात् कालोऽपि प्रत्युपेक्षणेति। तथा संसारशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तो जीवपुद्गलयोर्वा संसरणमात्रमुपसर्जनीकृतसम्बन्धिद्रव्यं, भावानां चौदयिकादीनां वर्णादीनां वा संसरणपरिणामो भावसंसार इति। स्था०४ ठा०१ उ०। सूत्र०। लक्खणमेयं चेव उ, पयरस्स असंखभागमेत्ता ते। निक्खमणे य पवेसो, एगा बीया वि एमेव / / 7 / / निक्खमपवेसकाले, समयाई एत्थ आवलियभागो। अंतोमुहुत्तविरहो, उदहिसहस्साहिए दोण्णि ||8|| आचा० 1 श्रु०१ अ०६ उ० / द्रव्यसंसारो व्यतिरिक्तो द्रव्यससृतिरूपः, क्षेत्रसंसारो येषु क्षेत्रेषु द्रव्याणि संसरन्ति, कालसंसारः यस्मिन् काल इति नारकतिर्यग्नरामरगतिचतुर्विधानुपूर्वृदयावान्तरसंक्रमणं, कालसंसरः, भावसंसारस्तु संसृतिस्वभाव औदयिकादिभाव परिणतिरूपः, तत्र च प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां प्रदेशविपाकानुभवनम, एवं द्रव्यादिकः पशविधः संसारः / अथवा-- द्रव्यादिकश्वतुर्धा संसारः, तद्यथा-अश्वाशस्तिन, ग्रामानगर, वसन्ताद् ग्रीष्मम्, औदयिकादीपशमिकमिति गाथार्थः / आचा० 1 श्रु० 2 अ० 10 // नरकादिःचउविहे संसारे पण्णत्ते, तं जहा-णेरतियसंसारे जाव देवसंसारे। (सू०४२६४) 'वउविहे' इत्यादि, व्यक्तं, किन्तु संसरण संसार:-मनुष्यादिपर्यायान्नारकादिपर्यायगमनमिति। स्था० 4 ठा०२ उ०।दश। सूत्र० / आचा० / नानि० चू०। संसारश्वतूरूपो गतिचतुष्कभेदात्। पञ्चप्रकारश्च एकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिभेदात्, षट्प्रकारश्च पृथिव्यप्प्रभृतिभिर्भेदात् इति संभाव्यते। निचू०२० उ०। आव०। नवभिः स्थानैः संसार वर्तयन्ति / स्था० / जीवाणं नवहिं ठाणेहिं संसारं वत्तिंसु वा वत्तंति वा वत्तिस्संति वा, तं जहा-पुढविकाइयत्ताएन्जाव पंचिंदियकाइयत्ताए। (सू० 666+) 'वत्तिंसुवति' संसरणं निर्वर्तितवन्तोऽनुभूतवन्तः, एवमन्यदपि। स्था० 6 ठा०३ उ० / ("अधुवे असोसयम्मि, संसार (प)-यम्मिदुक्खपउराए। किं नाम होज त कम्म, जेणाहं दुग्गई न गच्छेज्जा / / 1 / / " इति कपिलनिर्वेदः 'कविल' शब्दे तृतीयभागे 388 पृष्ठ उक्तः) संसारमुच्छेतुमना अष्टप्रकारं कर्म छेदयेत् / आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। "संसारम्मि अणते, अविलाजोणीएँ एक्कए सत्ता। हविवन्नकुहियमाणा, जोणीए मज्झदेसम्मि / / 1 / / " महा०६ अ०। ससारं ज्ञात्वा रतिं कुर्यात् संसार इति चतुर्थं भेदं व्याचिख्यासुराहदुहरूवंदुक्खफलं, दुहाणुबंधी बिडंबारूवं। संसारमसारंजा-णिऊण नरइंतहिं कुणइ॥६३|| इह तत्र संसार रतिं न करोतीति योज्यम्-किं कृत्वा ज्ञात्वा संसारम्, कि विशिष्टम् ? दुःखरूपं-जन्मजरामरणरोगशाकादिग्रस्तत्वेन दुःखस्वभावम्, तथा दुःखफलं जन्मान्तरे नरकादिदुःख-भावात्, दुःखानुबन्धीति दुःखानुबन्धिनं पुनः पुनर्दुःखसन्तानसंधानात, तथा विडम्बनायामिव जीवानां सुरनरनैरयिकतिर्यक्-सुभगदुर्भगादीनि विचित्राणि रूपाणि यत्र स विडम्वनारूपस्तमेवंविधं संसारं चतुर्गतिरूप सुखसाराभावादसार ज्ञात्वा-अवबुध्य न रति-धृति तस्मिन् कुरुतेविदधाति श्रीदत्तवत्। तदृष्टान्तश्चायम्“पाउसंकालंसिमिय, बहुसस्सकूलागसंनिवेसम्मि। आसि जिणधम्मरत्तो, सिरिदत्तो सिविवरपुत्तो / / 1 / / तस्सऽन्नदिण भजा, अतक्कियं चेव मरणमणुपत्ता। संसारविरत्तमणो, तो सो इय चिंतिउंलग्गो / / 2 / / Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार 252 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसार सुरअन्नुन्नुद्दीरिय-साहावियवेयणासमभिभूए। नरयभवम्मि जियाणं, निमेसमित्तं पि नत्थि सुहं / / 3 / / छिंदणभिंदणबंधण-दुव्वहभरवहणमसुहदुक्खेहि। सययं संतत्ताणं, तिरियाणं नाम किं सुक्खं / / 4 / / खंडियआखंडलवा-वचंचलं जीवियं इह नराणं / दुल्लहजणसंजोगो महल्लकल्लोललोलतरो / / 5 / / ताव भरकंतसकुं-तपोयगलचंचलं च तरुणतं। इह संपयाउ संपा-संपायसमाउ सयकालं॥६।। इय इट्टाणिट्ठविओ-गजोगबहुरोगसोगपमुहेहिं। निच्चमभिद्दमियाणं, मणुयाणं न सुहगधो वि॥७॥ असरिसअमरिसईसा-विसायरोसाइमइलियमणेसु। अमरेसु वि अइफारो, दुहसंभारो वियंभेइ / / 8 / / ता चउगइसंसारे, जियाण नूण न अस्थि इत्थ सुह। सयलसुहहेउदुहजल-हिसेउ जिणधम्ममुक्काणं / / 6 / / इय चिंतिय सिरिदत्तो, गिण्हइ दिक्खं कमेण संजाओ। मीयत्थो पडिवजइ, एगल्लविहारवरपडिम / / 10 / / कस्स य गामस्स बहि. पेयवणे अत्रया निसाइ इमो। अणमिसनयणो वीरा-सणेण चिट्ठइ सुहज्झाणो।।११।। इत्तो हरी पसंसइ, सिरिदत्तमुणी इमो सुरेहिं पि। झाणाउ न चालिज्जइ, खरपवणेहिं व अमरगिरी / / 12 / / तं गिरमसद्दहतो, एगो अमरो समागओ तत्थ। काउं रक्खसरूवं, तं मुणिमुवसग्गए गाढं // 13 // चंदणतरूंववेदिय-सव्वंगंडसइ विसहरो हो। सुमुणिं तह अवि हत्थो, गलहत्थइ हत्थिरूवेणं / / 14 / / जालइ जडालजाला-कलावकलियं चउद्दिसिं जलणं, खरपवणेहिं पडि-तु भामए अक्कतूल व // 15 // करहयकंठकडारे-ण पंसुपूरेण पिहइ सव्वत्तो। विसमविसपसरचिंचइ-य विछुए मुंचए तत्तो॥१६|| अह मुणिणोऽभिप्पाय, अमरो जानियइ ओहिनाणेण / ता चिंतइ साहू सा-हसिक्कमल्लो मणम्मि इमं / / 17 / / सहियउवसग्गवट्टो, तुज्झइमो जीवसत्तकसवट्टो। सत्थावत्थाइ वयं, पायं पालेइ सव्वो वि।।१८।। इत्तो अणंलगुणिया, सहिया वियणा तए परवसेण / रेजिय ! इह भवगहणे, न उण गुणो को विसंजाओ।।१६।। ता धरिय धीरिमगुणं, खणं इमं वेयणं सहसु सम्म। जेण लहु भवजलहि, तरिउ पाविसि सिवं जीव ! // 20 // खामेसु सयलजीवे, तुम पितेसिं खमेसु रे जीव ! / सव्वत्थ कुणसु मित्ति, इमम्मि अमरे विसेसेण / / 21 / / जो य तुमं कड्डिय भव-कारागाराउ खिवइ किर अप्पं। सी एस सुरो तुह जिय, परमसुही परमबंधूय॥२२।। किं तु इमो उवरसग्गो, जइ मह हरिसा य भवहरतेण। तह णतभवनिबंधण-मिमस्स इय दूमइ मणम्मि।।२३।। इय सुहभावणधणसा-रवासिय मुणिमण मुणे वि सुरो। गयमिच्छत्तो पयडिय-नियरूवो नमिय इय थुणइ // 24 // जय जयद! धम्मधुरी-ण ! रीण भवगहणओ मुणिसुधीर ! / धीरिमनिजियमंदर ! धरविसहरनियरवरगरुड!।२५।। तस्स तुह चरणकमलं, कमलसरं सारस व्व अणुसरिमो। जस्स सय देविंदो, वंदि व्व पसंसइ गुणोहं।२६।। इय थुणिऊण मुणिदं, सुरलोय सुरवरो गओ अहवा। गुणिथुणणा ओसगं, जंति जिया किमिह अच्छरियं / / 27 / / सिरिदत्तमुणिवरो वि हु, परियायं पालिऊण चिरकालं / अणसणविहिणा मरिउ, जाओ अमरो महासुक्के॥२८॥ तो चविउ साएए. पुरम्मि सिरितिलयनयरसिट्ठिस्स। दइयाइ जसवईए. उयरे पुत्तो समुप्पन्नो // 26 // सो अट्टममासे जिण-धम्म जणणीइ निसुणमाणीए। गब्भदुहं अमरसुह, निसामिउं संभरइ जाई॥३०॥ तो भवविरत्तचित्तो, अभिग्गह लेइजह मए समए। दिक्ख चिय गहियव्वा, नियमो पुण गेहवासस्स // 31 / / कमसो जाओ कयपउ-मनामओ तरुणभावमणुपत्तो। चउनाणिगुरुसमीवे, गिहिय दिक्खं गओ मुक्ख // 32 / / श्रीदत्तचेष्टितमिति स्फुटफुल्लमलीवल्लीवितानविशदं विनिशम्य सम्यक् / निःसंख्यदुःखनिकरप्रभवे भवेऽस्मिन्नित्यं विरक्तमनसो भविनो भवन्तु // 33 // ध० 202 अधि०३ लक्ष०। जइ उप्पज्जइ दुक्खं, दट्ठव्वो सहावओ नवरं / किं किं मए न पत्तं, संसारं संसरंतेणं // 62 / / संसारचक्कवाले, सव्वे वि य पुग्गला मए बहुसो। आहारिया य परिणा-मिया य न पहं गओ तत्तिं / / 63 / / आतु०। णाणस्स दंसणस्स य, सम्मत्तस्स य चरित्तजुत्तस्स। जो काही उवओगं, संसाराओ विमुचिहिति।।८।। आतु०। निक्कसायस्स दंतस्स, सूरस्स वदसाइणो। संसारपरिभीयस्स, पञ्चक्खाणं सुहं भवे / / 2 / / आतु० संसारमावण्णपरस्स अट्ठा, साहारणं जंच करेइ कम्म। कम्मस्स ते तस्स उ वेयकालो, नबंधवा बंधवयं उर्वति।।४। उत्त० 4 अ०। णत्थि चाउरंते संसारे,णेवं सन्नं निवेसए। अस्थि चाउरंते संसारे, एवं सन्नं निवेसए।।२३|| सूत्र०२ श्रु०६अ01'अस्थिवाय शब्देप्रथमभागे 521 पृष्ठे व्याख्यातेषा गाथा।) (यथा यथा रागद्वेषास्तथा तथा संसारवृद्धिरिति 'किरियावाई' शब्दे तृतीयभागे 55 पृष्ठे उपपादितम् 1) (संसारे कथं न बंधम्यादिति'संसय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे अनुपदमेवोक्तम्।) अथेहापि किशित्प्रतिपाद्यते, द्वाभ्या स्थानाभ्यां संपन्नोयुक्तो नास्यागारगेहमस्तीत्यनगार:-- साधुः, नास्त्यादिरस्येत्यनादिकंतत् अवदापर्यन्तस्तन्नास्ति यस्यसामान्यजीवापेक्षया तदनवदा तत् दीर्घा अद्धा कालो यस्य तद् दीर्घावं तत्। मकार आगमिकः, दीर्घो वाऽध्वामार्गो यस्मिंस्तद्दी_ध्वं तच्च-तुरन्तं-चतुर्विभाग नरकादिगतिविभागेन, दीर्घत्वं प्रकटादित्वादिति, संसारकान्नारंभवारण्य Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार 253 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसारपडिग्गह व्यतिव्रजेद्-अतिक्रामेत्, तद्यथा--विद्यया चैव-ज्ञानेन चैव चरणेन चैवचारित्रेण चैवेति, इह च संसारकान्तारव्यतिव्रजनं प्रति विद्याचरणयोयोगपद्येनैव करणत्वमवगन्तव्यम् / स्था० 2 ठा० 1 उ. / (त्रिभिः स्थान : संपन्नोऽनगार: संसारमतिक्रामति-इति 'अणगार' शब्दे प्रथमभागे 266 पृष्ठे गतम्।) “जम्मं दुक्खं जरा दुक्ख, रोगा य मरणाणि य / अहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसंति पाणिणो // 1 // " तथा "तण्हाइयरस पाणं, कूरो छुहियस्स भुजए तित्ती। दुक्खसयसंपउत्त, जरियमिव जगं कलयलेइ॥१॥" सूत्र०१ श्रु०७ अ०। अनादिरेष संसार:अनादिरेष संसारो, नानागतिसमाश्रयः। पुद्गलानां परावर्ता, अत्रानन्तास्तथा गताः॥७०।। अनादि:--अविद्यमानमूलारम्भः एषः--प्रत्यक्षतो दृश्यमानः संसारोभवः / कीदृश? इत्याह-नानागतिसमाश्रयः-नरका-दिचित्रपर्यायपात्रं वर्तते। ततश्च युगलानाम्- औदारिकादिवर्गणारूपाणां सर्वेषां परावर्ताग्रहणमोक्षात्मकाः अत्र-संसारे अनन्ता-अनन्तवारस्वभावास्तथातेन समयप्रसिद्धप्रकारेण गता-अतीताः। केषामित्याहसर्विषामेव सत्त्वानां, तत्स्वाभाव्यनियोगतः। नान्यथा संबिदेतेषां, सूक्ष्मबुद्ध्या विभाव्यताम्॥७५|| सर्वेषामेव सत्त्वानां-प्राणिनाम् तत्स्वाभाव्यात्-अनन्तपुद्गलपरावर्त्तपरिभ्रमणस्वभावता, तस्य नियोगो-व्यापारस्तस्मात् / अत्रैव व्यतिरेकमाह-न-नैव अन्यथा तत्स्वाभाव्यनियोगमन्तरेण संविदअवबोधो घटते एतेषाम्-अनन्तपुद्गलपरावतानां सूक्ष्मबुद्ध्यानिपुणाभोगेन विभाव्यताम-अनुचिन्त्यतामेतत् / यो०बि०। चरणविहिं पवक्खामि,जीवस्स उसुहावहं। जंचरित्ता बहू जीवा, तिन्ना संसारसागरं / / 1 / / उत्त०२० अ० ('चरणविहि' शब्दे तृतीयभागे 1128 पृष्ठे व्याख्यातेषा) (संसा- . रोऽशाश्वतस्तद्गतानां संसारिणा स्वकृतकर्मवशगानामितश्चेतश्च | गमनादिति। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। अनादिरेष संसार:अणादियं परिन्नाय, अणवदग्गे त्ति वा पुणो। सासयमसासए वा, इति दिढेि न धारए / / 2 / / सूत्र० 2 श्रु०२ अ०। ('अणायार' शब्दे प्रथमभागे 356 पृष्ठ - ख्यातेषा।) यत्र कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः संसरन्ति समसार्पः संसरिष्यन्ति चेति संसारः / स्या०। उत्त० / नारकतिर्यनरामरलक्षणे मातापितृभार्यादिस्नेहलक्षणे च जगति, आचा० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०ा एस संसारो त्ति पवुच्चइ मंदस्स अविजाणओ। एष अण्डजादिप्राणिकलापः ससारः प्रोच्यते नातोऽन्यस्त्रसानामुत्पत्तिप्रकारोऽस्तीति / आचा० 1 श्रु० 1 अ०६ उ०। (तस' शब्दे चतुर्थभागे 2216 पृष्ठऽत्रत्यविस्तारो गतः) सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टश्व समः संसार:-तथा “अंतोमुत्तमित्तं पि" त्ति-गाथया सम्मगदृष्टेन्यूँनार्धपुद्गलपरावतः रासार उत्कर्षतः प्रतिपादितोऽस्ति, जो अकिरियावाई सो भाविओ अभविओवा" इत्यादिदशाचूर्ण्यक्षरानुसारेण तु सम्यग्दृष्टः क्रियावादिना मिथ्यादृष्टे श्वात्कर्षतो न्यूनपुद्गलपरावतः संसारः, परं सोऽप्यागमान्तरानुसारेण न्यूनार्धपुद्गलरूपोऽवसीयते। अत्र सम्यग्दृष्टः क्रियावादिनी मिथ्यादृष्टश्व कथं संसारसाम्यमिति? अत्र यद्यपि आपातमात्रेण साम्यमुक्तमस्ति तथापि सम्यग्दृष्टेः कस्यचिदासातनाबहुलस्य विराधकस्यैतावान् संसारो भवति, नान्यस्य क्रियावादिमिथ्यादृष्टिसमुदाये तु कस्यचिल्लघुकर्मणः एवैकावतारित्वसंभव इति कथ साम्यशङ्केति प्रतिभाति / तत्त्वं तु तत्त्वविद् वेत्ति, इति / / 2 / / तथा कस्यचिज्जानतोऽभिनिविष्टस्य संसारवृद्धिहेतुः कर्मबन्धो भूयानुताभिनिविष्टस्य तन्मार्गानुयायिनो वा अजानत इति? अत्र व्यवहारेण जानतः कर्मबन्धो भूयानित्यवसीयते // 3 / / ही०३ प्रका० संसारकतार पु० (संसारकान्तार) संसार एव कान्तारः-निर्जलः समयस्त्राणरहितोऽरण्यप्रदेशः। संसाराटव्याम,सूत्र० 2 श्रु०३ अ०। संसारकलंकलीभाव पुं० (संसारकलङ्कलीभाव) असमञ्जसत्वे, औ०। संसारकलंकलीभावपुणब्भवगब्भवासवसहीपवंचमइकता। (सू० 434) संसारे कलङ्कलीभावेन असमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवाः-पौनःपुन्यनोत्पादाः गर्भवासवसतयश्च गर्भाश्रयनिवासास्तासां यः प्रपञ्चो विस्तरः स तथा तमतिक्रान्ता निस्तीपर्णाः। औ०। संसारचक्क वाल पुं० (संसारचक्रवल) संसार एव चक्र वालः, चक्रवालशब्दः समूहार्थे / भवसमूहे, आतु०। सूत्र० / द०प०। संसारजलहि पुं० (संसारजलधि) भवोदधौ, पञ्चा० 6 विव०। संसारण न० (संसारण) ईषत्स्वस्थानात्स्थानान्तरनयेन चाल-ने, ज्ञा० 1 श्रु० 4 अ०। संसारनिगुण्ण न० (संसारनैगुण्य) वैराग्यसाधने, पं०व०३द्वार! संसारतरु पुं० (संसारतरु) कषायमूलके संसाररूपे वृक्षे, आचा०। यतो नारकतिर्यग्नरामरगतिस्कन्धस्य गर्भनिषेककललार्बुदमांसपेश्यादिजन्मजरामरणशाखस्य दारिद्रपाद्यनेकव्यसनोपनिपातपत्रगहनस्य प्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगार्थनाशानेकव्याधिशतपुष्पोपचितस्य शारीरमानसोपचिततीव्रतरदुःखोपनिपातफलस्य संसारतरोः (मूलम्) / आचा० 1 श्रु० 2 अ०१ उ०। संसारतरुबीय न० (संसारतरुबीज) भववृक्षकारणे, आव० 4 अ०। संसारपडिग्गह पुं० सारप्रतिग्रह) दृष्टिवादान्तर्गतसिद्धश्रेणिकापरिकर्मभेदे, स०१४७ समर Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारपडिवण्ण 254 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसारमोयग संसारपडिवण्ण पुं०(संसारप्रतिपन्न) संसार चतुर्गतिलक्षणं प्रतिपन्ने, आचा०१ श्रु०४अ०२ उ०। संसारपयणुकरण त्रि० (संसारप्रतनुकरण) संसार-भवं प्रतनुअल्प करोति इति संसारप्रतनुकरणः / पञ्चा०६ विव० / संसारक्षयकारणे, “संसारपयणुकरणो, विरयाविरयाण एस खलु जोगा।” प्रति० / संसारपवड्डग पुं० (संसारप्रवर्धक) दीर्घसंसारिणि, पं०व०१द्वार। संसारपारकंखि (ण) त्रि० (संसारपारकाशिन) मोक्षाभिलाषुके, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 3 उ०। संसारपारगामि (ण) त्रि० (संसारपारगामिन्) भवतारके, ध०३ अधि० 1 पा०। संसारभावणा स्त्री० (संसारभावना) संसारतत्त्वपर्यालोचने, प्रव०७१ द्वार। ('भावणा' शब्दे पञ्चमभागे 1507 पृष्ठे गतैषा भावना।) संसारमंडल न० (संसारमण्डल) संसारिजीवचक्रवाले, संसार मण्डलशब्देन परिभाषितसंज्ञेह सूचिता / भ० 5 105 उ० / संसारमोयग पुं० (संसारमोचक) व्यापाद्योपकृतये दुःखित-सत्वव्यापादनमुपदिशति वादिनि, श्रा० / संसारमोचकानां व्यापाद्योपकृतये दुःखितसत्त्वव्यापादनमुपदिशतामकुशलमार्गप्रवृत्तत्वमावेदितं द्रष्टव्यम्, यतस्ते एवमाहुःयत् परिणामसुन्दरं तदापातकटुकमपि परेषामाधेयम्, यथा रोगोपशमनमौषधम्, परिणामसुन्दरं च दुःखितसत्त्वानां व्यापादनमिति, तथाहि-कृमिकीटप-तङ्गमशकलावकचटककु-टिकमहादरिद्रान्धपड़ ग्वादयो दुःखितजन्तवः पापकर्मोदय-वशात्संसारसागरमभिप्लवन्ते, ततस्तेऽवश्यं तत्पापक्षपणाय परोपकरणकरसिकमानसेन व्यापादनीयाः तेषा हि घ्यापदने महादुःखमतीवोपजायते, तीव्रदुःखवेदनाभि-भववशाच्च प्राग् बद्धं पापकर्मोदीयोंदीर्यानुभवन्तः प्रतिक्षिपन्ति। स्यादेतत्-किमत्र प्रमाणं यत्ते व्यापादयमानाः तीव्रवेदनाऽनुभवतः प्राग्बद्धं पापकर्मोदीर्योदीर्य परिक्षिपन्ति न पुनरातरौद्रध्यानोप-गमतः प्रभूततर पापमावर्जयन्तीति? उच्यते-युष्मत्सिद्धान्तानुगतमेव नारकस्वरूपोपदर्शकं वचः, तथाहि-नारका निरन्तरं परमाधार्मिकसुरैः ताडनभेदनोत्कर्तन-शूल्यारोपणाद्यनेकप्रकार-मुपहन्यमानाः परमाधार्मिकसुराभावेपरस्परोदीरिततीव्र वेदना रौद्रध्यानोपगता अपि प्राग्बद्धमेव कर्म क्षपयन्ति, नापूर्व पापमधिकतरमुपार्जयन्ति, नारकायुर्बधासम्भवात्, तदसंभवश्वानन्तरं भूयः तत्रैवोत्पादाभावाद् / अपि चयत एव रौद्रध्यानोपगता अत एव तेषां प्रभूततरप्राग्बद्धपापकर्मपरिक्षयः, तीव्रसवलशा भावात्, न खलु तीव्रसंक्लेशाभावे परमाधार्मिकसुरा अपि तेषां कर्म क्षपयितुं शक्ताः, ततो रौद्रादिध्यानमुपजनयन्तोऽपि व्यापादका ध्यापाद्यानामुपकारका एव / इत्थं च व्यापादनतः तेषामुपकारसम्भवे ये तदव्यापादनमुपेक्षन्ते प्रतिषेधन्ति वा ते महापापकारिणः, ये पुनः प्रागुपात्तपुण्यकर्मोदयवशतः सुखासिका-मनुभवन्तोऽव-तिष्ठन्ते न ते | व्यापादनीयाः, तेषां व्यापादने सुखानुभवनियोगभावतोऽपकारसम्भ वात् / न च परहितनिरताः परापकृतये संरम्भमातन्वन्ते तदेतदयुक्तम्, परोपकारो हि स एव सुधिया विधेयो य आत्मन उपकारकः / न च परेषां व्यापादनेनोपकृतिकरणे भवतः कमप्युपकारमीक्षामहेयथाहि-परेषा व्यापादने को भवतः उप-कारः? किं पुण्यबन्ध उत कर्मक्षयः? तत्र न तावत्पुण्यबन्धः? परेषामन्तरायकरणात्, ते हि परे यदि भवता न व्यापाद्येरंस्ततस्ते परान सत्त्वान् व्यापाद्य पुण्यमुपार्जयेयुः, व्यापादिताश्च परवधे अप्रसक्ता इति व्यापादनं पुण्योपार्जनान्तरायकरणम्, न च पुण्योपार्जनान्तरायकृत पुण्यनुपार्जयति विरोधात सर्वस्य पुण्यबन्धप्रसक्तेश्च / एतेन यदुक्तम्- 'परिणामसुन्दरं च दुःखितसत्त्वाना व्यापादनमिति' तदसिद्धं द्रष्टव्यम्, पुण्योपार्जनान्तरायकरणेन परिणामसुन्दरत्यायोगात् / अथ कर्मक्षय इति पक्षः, ननु तत्कर्म किं सहेतुकमुताहेतुकम् ? सहेतुकमपि किमज्ञान-हेतुकमुताहिंसाजन्यमुताहो वधजन्यम् ? तत्र न तावदज्ञानहेतुकम्, अज्ञानहेतुकतायां हिंसातो निवृत्त्यसंभावात. यो हि यन्निमित्तो दोषः स तत्प्रतिपक्षस्य॑वासेवायां निवर्त्तते, यथा हिमजनितं शीतमन-लासेवनेन, न चाज्ञानस्य हिंसा प्रतिपक्षभूता, किं तु सम्यग्ज्ञानम्, तत्कथमज्ञानहेतुकं कर्म हिंसातो विनिवर्तत ? अथाहिंसाजन्य-मिति वदेत्, तदपि न युक्तम्, एवं सति मुक्तानामपि कर्मबन्ध-प्रसक्तेः, तेषामहिंसकत्वात्। अथ हिंसाजन्यम्, यद्येवं तर्हि कथं हिंसात एव तस्य निवृत्तिः, न हि यत एव यस्य प्रादुर्भावः तत एव तस्य निवृत्ति वितुमर्हति, विरोधात्, न खल्वजीर्णप्रभवो रोगो मुहुरजीर्णकरणात् निवर्तते, ततः प्राणिहिंसोत्पादितकर्मनिवृत्त्यथमवश्यमहिंसाऽऽसेवनीया, उक्ते च- "तम्हा पाणिवहो वज्जियस्स कम्मरस खवणहेऊओ। वहविरई कायव्वा. संवररूवत्ति नियमेणं / / 1 / / " अथाहेतुकं न तर्हि तदस्ति, खरविषाणवत्, तत्कथं तदपगमाय प्राणिवधोद्यमो भवतः? अथाहेतुकमप्यस्ति यथाऽऽकाशं. ताकाशस्येव तस्यापि न कथञ्चन विनाश इत्य-फलत्वात्न कार्यः प्राणिबधः / यदप्युक्तम्- 'ये तु प्रागुपात्तपुण्यकर्मवशतः सुखासिकामनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते न ते व्यापादनीयाः, इत्यादि, तदप्ययुक्तं, यतः पुण्यपापक्षयान्मुक्तिः, ततो यथा परेषां पापक्षपणाय व्यापादने भवतः प्रवृत्तिः तथा पुण्यक्षपणा-यापि भवति / अथ पापं दुःखानुभवफलं ततो व्यापादनेन दुःखो-त्पादनतः पापं क्षपयितु शक्य, पुण्यं तु सातानुभवफलं तत्कथं दुःखोत्पादनेन क्षपयितुं शक्यम्? शातानुभवफलं हि कर्म सातानुभवोत्पादनेनैव क्षपयितुशक्यम्, नान्यथा, तदपि न समीचीन, यतो यत्पुण्य विशिष्ट वेदभवे वेदनीय तन्मनुष्यादिभवव्यापाद-नेन प्रत्यासमीक्रियते, प्रत्यासमीकृतं च प्रायः स्वल्पकालवेद्यं भवति, तत एवं पुण्यक्षपणस्यापि सम्भवात् कथं न व्यापादनेन पुण्यपरिक्षयः ? अथ व्यापादनानन्तरं विशिष्टदेवभववेदनीयः पुण्योदयः संदिग्धः कस्यचित्पापोदयस्या Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारमोयग 255 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसारसंचिट्ठणकाल पि सम्भवात,ततो न व्यापादनं पुण्यमनुभवतः कर्तुमुचितम। यद्येवमितरत्र कथं निश्चयः? इतरत्रापि संदेह एव तथाविधदुः-खितोऽपि यदि मार्यते तर्हि नरक दुःखानुभवभागी भवति, अमारितश्च सन् कदाचनापि प्रभूतसत्त्वव्यापादनेन पुण्यमुपायं विशिष्टदेवाधिभवभागी भवेत, ततो दुःखितानामपि व्यापादन न भवतो युक्तम् / एवं च सति सन्दिग्धानकान्तिकोऽपि हेतुः, व्यापादनस्य परिणामसुन्दरत्वसन्देहात् / यदप्युक्तम्- 'युष्म सिद्धान्तामुगं नारकस्वरूपोपदर्शकं वचः' इत्यादि, तदप्यसमीक्षिताभिधानं सम्यगरमत्सिद्धान्तापरिज्ञानाद, अस्मत्सिद्धातं ह्येवं नारकस्वरूपव्यावर्णनानारकाणां परमाधार्मिकसुरोदीरितदुःखानां परस्परोदीरितदुःखानां वा वेदनातिशयभावतः सम्मोहमुपागताना नातीव परत्र संक्लेशो यथाऽत्रैव केषाश्चिन्या-नवानां रूम्मूढानाम, यथा हि-मानवालकुटादिप्रहारजर्जरीकृत-शिरःप्रभृत्यवयवा वेदनातिशयभावतः सम्मूढचेतना नातीव परत्र संक्लिश्यमाना उपलभ्यन्त, तथा नारका अपि सदेव द्रष्टव्याः, ततः तथाविधतीव्रसंक्लेशाभावान् नारकाणां नाभिनवप्रभूततरपापोपचयः / यद्येव तर्हि सम्मोहो महोपकारी, तथाहि-सम्मोहवशान्न परत्रातीव संक्लेशः, तीव्रवेदनाभावतश्च प्रारबद्धपापकर्मपरिक्षयः सम्मोहश्च हिंसव्यापारादुपजायते, तता हिंसका महोपकारिण इति सिद्धमस्मत्समीहितम / तदयुक्तम्- हिंसकानां परपीडोत्पादनतः क्लिष्टकर्मबन्धप्रसक्तः, न खलु पापस्य परपीडामतिरिच्यान्यन्निबन्धनमीक्षामहे / यदि स्यात्तर्हि मुक्तानामपि पापबन्धप्रसङ्गः, तेषामहिंसकत्वात्, ततः कथ मिव सचेतनो मनसाऽपि परं व्यापादयितुमुत्सहते ? इत्यलं पापचेताभिः सह प्रसङ्गेन। नं०। संसारविउस्सग्ग पुं० (संसारव्युत्सर्ग) ज्ञानावरणादिकर्मबन्धहेतूनां ज्ञानप्रत्यनीकत्वादीना त्यागे, औ० / नारकायुष्कादिहेतूनां मिथ्यात्वादीनां त्याग, भ०२ श०५ उ० / संसारवुड्डि स्त्री० (संसारवृद्धि) संसारपरिवृद्धौ,ही० 3 प्रका०। संसारवेइ पुं० (संसारवेदिन) यथावस्थितसंसारतत्त्वज्ञातरि, आचा० 1 श्रु० 5 अ०१ उ०। संसारसंचिट्ठणकाल पुं० (संसारसंस्थानकाल) संसारस्य भवाद् भवान्तरसारणलक्षणस्य संस्थानं भवस्थितिक्रिया तस्य काल:अवसरः संसारसंस्थानकालः। अमुष्य जीवस्यातीतकाले कस्यां कस्यां गतावत्रस्थाने, भ०। जीवस्स णं भंते ! तीतद्धाए आदिट्ठस्स कइविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णते? गोयमा! चउविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णत्ते,तं जहाणेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले तिरिक्खजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले मणुस्सजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले देवजोणियसंसारसंचिट्ठणकाले य पण्णत्ते / नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले णं / भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहासुन्नकाले, असुन्नकाले, गिस्सकाले / तिरिक्खजोणियसंसारपुच्छा, गोयम ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-असुन्नकाले य, मिस्सकाले य। मणुस्साण य, देवाण य जहा नेरइयाणं। एयस्स vणं भंते ! नेरइय-संसारसंचिट्ठणकालस्स सुन्नकालस्स असुन्नकालस्स मीसकालस्स य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे असुन्नकाले, मिस्सकाले अनंतगुणे, सुन्नकाले अणंतगुणे। तिरिक्खजोणियाणं भन्ते ! गोयमा ! सव्वथोवे असुन्नकाले, मिस्सकाले अणंतगुणे, मणुस्सदेवाण य जहा नेरइयाणं / एगस्स णं भन्ते ! नेरइयस्स संसारसंचिट्ठणकालस्स जाव देवसंसारसंचिट्ठण०जाव विसेसाहिए वा? गोयमा! सव्वत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, देवसंसारसंचिट्ठणकाले असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणिए अणंतगुणे। (सू०-२३) 'जीवरस ण' मित्यादि व्यक्तं. नवरं किंविधस्य जीवस्य? इत्याह-- आदिष्टस्य-अमुष्यनारकादेरित्येवं विशेषितस्य 'तीतद्धाए' त्ति-- अनादावतीत काले कतिविधः-उपाधिभेदात्कतिभेदः, संसारस्यभवाइवान्तरे संचरणलक्षणस्य संस्थानम्-अवस्थितिक्रिया तस्य कालः,-अवसरः संसारस्थानकालः, अमुष्य-जीवस्यातीतकाले कस्यां कस्यां गताववस्थानमासीत्? इत्यर्थः, अत्रोत्तरम्चतुर्विधः, उपाधिभेदादिति भावः। तत्र नारकभवानुगसंसारावरस्थानकालस्विधा-शून्यकालः, अशून्यकालो, मिश्रकालश्चेति / तिरश्वा शून्यकाला नास्तीति, तेषां द्विविधः, मनुष्यदेवानां त्रिविधोऽप्यस्ति / आह च- "सुन्नासुन्नो मीसो, तिविहो संसारचिट्ठणाकालो। तिरियाण सुन्नवजो, सेसाणं होइ तिविही वि / / 1 / / " तत्राशून्यकालस्तावदुच्यते, अशून्यकालस्वरूपपरिज्ञाने हि सतीतरौ सुज्ञानौ भविष्यत इति, तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीषु ये नारका वर्तन्ते तेषां मध्याद् यावन्न कश्चिदुद्वर्त्तत न चान्य उत्पद्यते तावन्मात्रा एव ते आसते स कालस्तान्नारकानङ्गीकृत्याशून्य इति भण्यते। आह च-"आइडसमइयाण, नेरइयाणं न जाव एक्को वि। उव्वट्टइ अन्नो वा, उववज्जइ सो असुन्नो उ / / 1 / / " मिश्रकालरतु तेषामेव नारकाणा मध्यादे-कादय उवृत्ता, यावदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः / शून्यकालस्तु यदा त एवादिष्टसामयिका नारकाः सामस्त्येनोवृत्ता भवन्ति नैकोऽपि तेषां शेषोऽस्ति स शून्यकाल इति। आह च–“उव्वट्टे एकम्मि वि, ता भीसो धरइ जाव एक्को वि। निलविएहि सवेहि, पट्टमाणेहि सुन्नो उ / / 1 / " इदं च मिश्रनारक संसारावस्थानकालचिन्तासूत्रं न तमेव वार्त्तमानिकनारकभवगङ्गीकृत्य प्रवृत्तम, अपितु-वार्त्तमानिकनारकजीवानां गत्यन्तगमने तत्रवोत्पत्तिमाश्रित्य यदि पुनस्तमव नारकभवमङ्गीकृत्वेदं सूत्रं स्यात्तदाऽशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणता सूत्रोक्ता न स्यात्। आह Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसारसंचिट्ठणकाल 256 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संसाहग च– “एयं पुण ते जीवे, पडुच्च सुत्तं न तब्भवं चेव। एकीभावेनापन्ना एवं संसारसमापन्नकाः, प्राकृतत्वात्स्वार्थे कप्रत्ययः / जइ होज्ज तब्भवं तो, अनन्तकालो ण संभवइ॥१॥" संसारिषु जीवेषु, प्रज्ञा० 12 पद। (तभेदाः 'भासग' शब्दे पञ्चमभागे कस्मात् ? इति चेद् उच्यते-ये वार्त्तमानिका नारकास्ते स्वायुष्क- | उक्ताः / ) ('जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1525 पृष्ठे च दर्शिताः। कालस्यान्ते उद्वर्त्तन्ते, असंङ्ख्यातमेव च तदायुः, अत उत्कर्षतो | संसारसागर पुं० (संसारसागर) संसरणं संसारस्तिर्यड नरकामद्वादशमौहूर्तिकाशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणत्वा- रभवानुभवलक्षणः; स एव भवस्थितिकायस्थितिभ्यामनेकधाऽभावप्रसङ्गादिति / आह च- "किं कारणमाइट्ठा, णेरझ्या जे इमम्मि वस्थानेनालब्धपारत्वात् सागर इव संसारसागरः / ल०1 आव०। द० समयम्मि / ते ठिइकालरसंते, जम्हा सवे खविज्जति / / 1 / / " इति।। प० / अतिगहनत्वात् सागरकल्पे संसारे, दर्श०४ तत्त्व। 'सव्वत्थोवे असुन्नकाले' ति–नारकाणामुत्पादोद्वर्त्तनाविरहका- | संसाराडवीमहाकडिल्ल न० (संसाराटवीमहाकडिल्ल) भवारण्यलस्योत्कर्षतोऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात्, 'मीसकाले अणंतगुणे' त्ति- गुरुगहने, पञ्चा० 15 विव०। मिश्राख्यो विवक्षितनारकजीवनिर्लेपनाकालोऽशून्यकाला-पेक्षयाऽ- संसाराणुप्पेहा स्त्री० (संसारानुप्रेक्षा) संसारस्य चतसृषु गतिषु नन्तगुणो भवति, यतोऽसौ नारकेतरेष्वागमनगमनकालः, स च सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा संसारानुप्रेक्षा। स्था० 3 ठा०१ त्रसवनस्पत्यादिस्थितिकालमिश्रितः सन्ननन्तगुणो भवति, त्रसवन- उ० / द० प० / भ० / "माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति स्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वात्, स च नारकनिर्लेपनाकालो संसारे। व्रजति सुतः पितृतां भ्रातृतां पुनः शत्रुतां चैव // 1 // " इत्येवं वनस्पतिकायस्थितेरनन्तभागे वर्तत इति / उक्तं च- “थोवोअ- संसारस्यचतसृषु गतिषु सर्वावस्थासु संसरणलक्षणस्यानुप्रेक्षा सुन्नकालो, सो उक्कोसेण बारसमुहुत्तो / तत्तो य अणंतगुणो, मीसो | संसारानुप्रेक्षा इति। धर्मध्यानभेदे, स्था० 4 ठा० 1 उ०। निल्लेवणाकालो।।१।। आगमणगमणकालो, तसाइतरुमीसिओ अणत- | संसाराभिणंदि पुं० (संसराभिनन्दिन्) भवाभिनन्दिनि मुमुक्षौ, आ०म० गुणो। अह निल्लेवणकालो, अणंतभागे वणद्धाए॥” इति 'सुत्रकाले १अ०। अणंतगुणे' ति-सर्वेषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पतिष्य- संसारावेस पुं० (संसारावेश) संसरणे, सूत्र०। “यथा प्रकारा यावन्तः, नन्तानन्तकालमवस्थानात्, एतदेवं वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालाव- संसारावेशहेतवः / तावन्तस्तद्विपासा, निर्वाणावे-शहेतवः / / 1 / / " स्थानं जीवानां नारकभवान्तरकाल उत्कृष्टो देशितः समय इति / उक्तं | सूत्र० 1 श्रु०१२ अ०। च- "सुन्नो य अणंतगुणो, सो पुण पायंवणस्सइगयाणं। एयं चेव य नारय-- संसारि(न) पुं० (संसारिन्) संसरणं संसारः, संसरणं ज्ञानावरभवंतरं देसियं जेटुं // 1 // " इति / 'तिरिक्खजोणियाणं सव्वत्थोवे ___णादिकर्मयुक्तानां गमनं स एषामस्तीति संसारिणः / दश० 2 अ० असुन्नकाले' त्ति-स चान्तर्मुहूर्त्तमात्रः, अयं च यद्यपि सामान्येन विशे० / संसारो गतिचतुष्काविर्भावः, सोऽस्ति येषां ते संसारिणः। तिरक्षामुक्तस्तथाऽपि विकलेन्द्रियसम्मूछिमानामे वावसे यः, | द्रव्या०५ अध्या० / संसारमध्यवर्तिषु अमुक्तेषु, द्रव्या०६ अध्या०। तेषामेवान्तर्मुहूर्तमानस्य विरहकालस्योक्तत्वात, यदाह-“भिन्नमुहत्तो / संसारिकज न० (संसारिकार्य) गृहकार्ये, “जइ मे हुन्ज पमाओ, इमस्स विगलिदिएसु समुच्छिमेसु वि स एव।” एकेन्द्रियाणांतूद्वर्तनीपपातवि- देहस्स इमाइ रयणीए। आहारमुवहिदेहं, सव्यं तिविहण वोसिरिअं॥१॥" रहाभावेनाशून्यकालाभाव एव / आह च- “एगो असंखभागो, वट्टइ एतद्राथानुसारेण श्राद्धन रात्रौ निद्रापगमे सासारिककार्य कृत्वा सुप्यते उव्वट्टणोवदायम्मि। एगनिगोए निच्चं, एवं सेसेसु वि स एव // 1 // " तदा पुनर्गाथोचारो विधीयते, कि वा प्राक् कृतोच्चार एव प्रमाणमिति पृथिव्यादिषु पुनः 'अणुसमयमसंखेज' त्ति वचनाद्विरहाभाव इति, प्रश्नः? अत्रोत्तरम्-श्राद्धः शयनवेलायामेवं प्रत्याख्यानं कृत्वा स्वपिति 'मिस्सकाले अणंतगुणे' त्ति-नारकवत्, शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव, यद्रात्रौ प्रमादो भवति तदाहारप्रमुखं व्युत्सृजामि, तस्मान्निद्रापगमेऽपि यतो वार्त्तमानिकसाधारणवनस्पतीनां तत उद्त्तानां स्थानमन्यन्नास्ति, कश्चित्कदाचित्संसारकार्य करोति तदा प्रत्याख्यानभङ्गोन भवति इति 'मणुस्सदेवाणं जहा नेरइयाण' ति अशून्यकालस्यापि द्वादशमुहूर्त- 74 / / सेन० 4 उल्ला०। प्रमाणत्वात्, अत्र गाथा- 'एवं नरामराण वि. तिरियाणं नवरि नत्थि / संसारिय पुं०(सांसारिक) परस्परसंसरणशीलेषु, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। सुन्नद्धा। जं निग्गयाण तेसिं, भायणमन्नं तओ नऽत्थि॥१॥' भ०१श० | संसारो विद्यते येषु ते सांसारिकाः। संसारिषु, सूत्र०२ श्रु०७ अ०! २उ०। संसारुत्तारण न० (संसारोत्तारण) महाभीमभवभ्रमणपारगमने, पा० / संसारसमावण्ण न० (संसारसमापन्न) संसरणं संसारो नारक- / संसारुत्तारणी स्त्री० (संसारोत्तारणी) संसारादुत्तारयति मुक्तितिर्यग्ररामरभवानुभवलक्षणस्तं सम्यग-एकीभावेनापन्नः संसा- प्रापकत्वेन निस्तारयतीति संसारोत्तारणी। तथाविधायां धमश्रुतौ, उत्त० रसमापन्नः। संसारवर्तिनि, प्रज्ञा०१ पद। स्था० / संसारभवं समाप- 3 अ०। नकाः-आश्रिताः संसारसमापन्नकाः / संसारिषु, स्था०२ ठा० 1 उ०। / संसाहग पुं० (संसाधक) दोलायके पृष्ठतः कुतश्चिदागते साधौ, बृ० भववर्तिषु, स्था०। 4 ठा० 2 उ० / संसारं चतुर्गतिभ्रमणरूपं सम्यग- 4 उ० / Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभिभूय 417 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समभिरूढ समभिभूय त्रि० (समभिभूत) परिभूते, प्रश्र० 4 आश्र० द्वार। समभिरूढ पुं० (समभिरूढ) वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं समभिरोहयत्याश्रयति यः स समभिरूढः / स्था० 3 ठा० 3 उ० / पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहयन् समभिरूढः। स्था० / पर्यायशब्दानां प्रविभक्तार्थाभिमन्तरि नयभेदे, स्या०। विशे०। अथ समभिरूढनयमाहजं जं सण्णं भासइ, तं तं चिय समभिरोहए जम्हा। सणंतरत्थविमुहो, तओ तओ समभिरूढो त्ति / / 2236 / / यां या संज्ञा घटादिलक्षणां भाषते-वदति तां तामेव यस्मात् / संज्ञान्तरार्थविमुखः कुटकुम्भादिशब्दवाच्यार्थनिरपेक्षः समभिरोहति समध्यास्ते तत्तद्वाच्यार्थविषयत्वेन प्रमाणीकरोति, ततस्तस्माद् नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढो नयः / यो घटशब्दवाच्योऽर्थस्तं कुटकुम्भादिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसावित्यर्थः इति। यदुक्तं नियुक्तिकृता 'वत्थुओ संकमणं, होइ अवत्थु नए समभिरूढे' इति,तद्व्याख्यानार्थमाहदव्वं पज्जाओ वा, वत्थं वयणंतराभिधेयं जं। न तदन्नवत्थुभावं, संकमए संकरो मा भू // 2237 / / न हि सबंतरवचं, वत्थु सदंतरत्थतामेइ / संसयविवज्जएग-त्तसंकराइप्पसंगाओ / / 2238|| द्रव्य-कुटादि,पर्यायस्तु तद्गतो वर्णादिस्तल्लक्षणं प्रस्तुतघटादिवचनाद् यत्-कुटादि वचनान्तरं तदभिधेयं यद् वस्तु न तदन्यवस्तुभावं घटादिशब्दाभिधेयवस्तुभावं संक्रामति। कुतः? इत्याहवस्तुनो वस्त्वन्तरसंक्रमे मा भूत् संकरादिदोष इति / एतदेव भावयतिनहि शब्दान्तरवाच्यं वस्तु शब्दान्तरवाच्यार्थ-रूपतामेति / एवं हि घटादौ पटाद्यर्थसंक्रमे किमयं घटः पटादिवा? इति संशयः स्यात्, विपर्यया वा भवेत्, घटादावपि पटादिनिश्चयात, पटादौ वा घटाद्यध्यवसायादेकत्वं वा घटपटाद्यर्थानां प्राप्नुयात्; मेचकमणिवत् संकीर्णरूपता वा घटपटाद्यर्थानां भवेदिति। इयमत्र भावना-घटः कुटः कुम्भ इत्यादिशब्दात् पटस्तम्भादिशब्दादिव भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद् भिन्नार्थगोचरानेव समभिरूढनयो मन्यते; तथाहि-घटनादुघट इति विशिष्टचेष्टावानों घट इति गम्यते, तथा कुट' कौटिल्ये, कुटनात् कौटिल्ययोगात् कुटः, तथा 'उभ' 'उम्म' पूरणे, कुम्भनात् कुत्सितपूरणात कुम्भ इति भिन्नाः सर्वेऽपि घट-कुटाद्याः / ततश्च यदा घटाद्यर्थे कुटादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र संक्रान्तिः कृता भवति, तथा च सति यथोक्तसंशयादिदोष इति। ततो घटकुटाद्यर्थानां भेदसाधनायैव प्रमाणयन्नाहघडकुडसहत्थाणं, जुत्तो भेओऽभिहाण भेआओ। घडपडसद्वत्थाण व, तओन पञ्जायवयणं ति।।२२६६।। घटकुटकुम्भादिशब्दवाच्यानामर्थानां भेद एव परस्परं युक्त इति / प्रतिज्ञा। अभिधानभेदाद--वाचकध्वनिभेदादिति हेतुः / घटपटस्तम्भादिशब्दवाच्यानामिवार्थानामिति दृष्टान्तः / तत एतदभिप्रायेण घटादेः कुटकुम्भकलशादिकं पर्यायवचनं नास्त्येव, एकस्मिन्नर्थेऽनेकशब्दप्रवृत्त्यनभ्युपगमादिति। अतिक्रान्तशब्दनयशिक्षणार्थमाहधणिभेयाओ भेओ, ऽणुमओ जइ लिंग वयणमिन्नाणं / घडपडवचाणं पिव, घटकुडवचाण किमणिट्ठो // 2240 / / हन्त ! यदि लिङ्गवचनभिन्नानां घटपटस्तम्भादिशब्दवाच्यानामिवार्थानां ध्वनिमेदाद् भेदस्तवानुमतः, तर्हि घटकुटकुम्भकलशादिशब्दवाच्यानामर्थानां किमिति भेदा नेष्टः, ध्वनिभेदस्यात्रापि समानत्वात्। तस्मादस्मत्पथवर्तित्वं भवतोऽपि बलादापतितमिति। वसतिप्रस्थकादिविचारेऽप्यस्य पूर्वनयेभ्यो भेद / इति दर्शयन्नाहआगासे वसइ त्तिय, मणिए भणइ किह अन्नमन्नम्मि। मोत्तूणायसहावं, वसेज्ज वत्थु विहम्मम्मि? // 2241 / / वत्थु वसइ सहावे, सत्ताओ चेयणा व जीवम्मि। न विलक्खणत्तणाओ, मिन्ने छायातवे चेव / / 2252 / / 'क्वाऽसौ साध्वादिसति?' इति पृष्ठे 'लोकग्रामवस त्यादौ वसति' इति नैगमादिनयवादिनो वदन्ति / झजुसूत्रनयवादी तु वदति'यत्रावगाढस्तत्राकाशखण्डे वसति'। ततश्च ऋजुसूत्रेणैवं भणिते भणति समभिरूढः-नन्वात्मस्वभावं मुक्त्वा कथमन्यद् वस्त्वन्यस्मिन् विधर्मक आत्मविलक्षणे वस्तुनि वसेत् ? न कथञ्चिदित्यर्थः / तर्हि क्व वसति? इत्याह--सर्वमेव वस्त्वात्मस्वभावे वसति, सत्त्वात्, जीवे चेतनावत्। भिन्ने त्वात्मविलक्षणस्वरूपे वस्तुन्यन्यद्न वसति, यथा छायाऽऽतप इति। एष त्रयाणामपि शब्दनयानामभिप्राय इति। अथ प्रस्थकविचारमधिकृत्याहमाणं पमाणमिटुं,नाणसहावो स जीवओऽणन्नो। कह पत्थयाइभावं, वएज मुत्ताइरूवं सो।।२२४३।। नहि पत्थाइ पमाणं,घडो व्व भुवि चेयणाइ विरहाओ। केवलमिव तन्नाणं, पमाणमिट्ठ परिच्छेओ॥२२४४।। इह यमानं तत् प्रमाणमेवेष्टम्, प्रमीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कृत्वा / प्रमाणं च परिच्छेदात्मकं जीवस्वभाव एव, स च जीवादनन्यः, अतः कथं मूर्तादिस्वभावम्, आदिशब्दादचेतनस्वभाव प्रस्थकादिस्वभावं व्रजेदसौ,येन नैगमादयः काष्ठमयं प्रस्थादिकमानमिच्छन्ति ? तर्हि शब्दनयानां किं प्रस्थकादि प्रमाणम्, किंवा न प्रमाणम् ? इत्याह-नहि-नैव काष्टघटितं प्रस्थादिकं प्रमाणम,चेतनादिरहितत्वात् घटपटलोष्टादिवत्; किंतु तस्यप्रस्थ करय ज्ञानं तज्ज्ञानं तदुपयोगस्तत्परिच्छेदः प्रमाण मानमिष्टम, तेनैव तत्त्वतः प्रमीयमाणत्वात्। 'परिच्छेया' इति पाठान्तरं वा, तेनैव परिच्छेदात्, केवलज्ञानवत्। तस्मात् प्रस्थकज्ञानमेव प्रस्थक इति स्थितम्। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभिरूढ 418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समय अत्र परमतमाशङ्क्य परिहन्नाहपत्थादओ वि तक्का-रणं ति माणं मई न तं तेसु / जमसंतेसु वि बुद्धी, कासइ संतेसु वि न बुद्धी / / 2245 / / तक्कारणं ति वा जइ, पमाणसिद्धं तओ पमेयं पि। सव्वं पमाणमेवं, किमप्पमाणं पमाणं वा / / 2246 / / प्रस्थादयोऽपि मानमिति प्रतिज्ञा, तत्कारणात्-प्रस्थकज्ञानकारणत्वात्, यथा 'नङ्कलं पादरोग' इत्येवंभूता परस्य मतिः स्यात् / तदेतद् न, यतस्तेषु प्रस्थकादिष्वसत्स्वपि कस्यापि धान्यराश्यवलोकनमात्रेणापि कलनशक्तिसंपन्नस्य अतिशयज्ञानिनो वा प्रस्थकपरिच्छेदबुद्धिरुपजायते / कस्यापि पुनर्नालिकेरद्वीपाद्यायातस्य सत्स्वपि तेषु प्रस्थकपरिच्छेदबुद्धिर्न संपद्यते, इत्यनैका-- न्तिका एव काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रस्थकज्ञानजनने, इति कथं तत्कारणत्वात् ते प्रस्थकादिमानरूपा भवेयुः? यदि वा-भवन्तु ते तत्कारणम्, तथापि न तत्कारणत्वेन तेषां प्रस्थादिमानरूपता, अतिप्रसङ्गादिति दर्शयति- 'तक्कारण ति वे' त्यादि, यदि प्रस्थकज्ञानकारणतामात्रेणापि ते काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रमाणमिष्टाः, तर्हि प्रमेयमपि प्रमाणं प्राप्नोति, प्रमाणाज्ञानकारणत्वात् / एवं च सति दधिभक्षणादीनामपि परम्परया तत्कारणत्वेन प्रमाणत्वात् किं नामाप्रमाणं स्यात् ? यदि च सत्यपि तत्कारणत्वेऽन्यत् सर्व दधिभक्षणादिकंन प्रमाणम्, तर्हि काष्टमयप्रस्थकादयोऽपिन प्रमाणम्, अतः किं नाम प्रमाणं भवेत् ? न किञ्चित्। ततो विशीर्णा प्रमाणाप्रमाणव्यवस्था। तस्मात् प्रस्थकज्ञानमेव प्रस्थकप्रमाणं त्रयाणामपि शब्दनयानामिति। तथा-पञ्चाना-धर्माऽधर्माऽऽकाशजीवपुद्गलास्तिकायानां देशप्रदेशकल्पनायामस्य षष्टीसभासादि नेष्टम् / किं तर्हि? देशी चासौ देशश्चेत्यादि कर्मधारयमेव मन्यतेऽसौ नयः कुतः? इत्याहदेसी चेव य देसो, नो वत्थु वान वत्थुणो भिन्नो। भिन्नो वन तस्स तओ, तस्स व जइ तानसो भिन्नो / / 2247 / / एत्तो चेव समाणा-हिगरणया जुज्जए पयाणं पि। नीलुप्पलाइयाणं,न रायपुरिसाइसंसग्गो // 2248|| धर्मास्तिकायादिको देश्येव हि देशो न पुनस्तस्माद् घटादिवारघट्टोऽत्यन्तभिन्नं स्वतन्त्रवस्तुदेशः। अथ न स्वतन्त्रवस्तुदेशः किन्तु तत्संबन्धित्वादस्वतन्त्रोऽपि देशितो भिन्नो देश इति चेत् / तदप्ययुक्तम्। कुत? इत्याह-नवा देशिलक्षणाद्वस्तुनो भिन्नो-- ऽसौ देशः / अथ भिन्नस्तस्मादिष्यते सः, त_न्यस्यान्येन विन्ध्यहिमवदादीनामिव सर्वथा संबन्धायोगाद न तस्य देशिनस्तकोऽसौ देशः / यदि पुनस्तस्य देशिनः संबन्धी देशोऽभ्युपगम्यते तर्हि घटादेः स्वस्वरूपवद् न स देशस्तरमाद् देशिनो भिन्नः किन्तुतदात्मक एवेति। अत एव विशेषणविशेष्यभूतानां सर्वेषां पदाना समानाधिकरणता-कर्मधारय एव समासो युज्यत इत्यर्थः,यथा नीलोत्पलादीनाम्, उपलक्षणं चेदम्-धवखदिर-पलाशदीनां द्वन्द्वोऽपि स्यात्, न तु राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इति षष्ठ्यादिसमासः, यतो भिन्नानामन्योन्यं संसर्गः संबन्धो न घटते, तथाहि-संबद्धवस्तुद्वयात् संबन्धो भिन्नो वा स्यादभिन्नो वा ? यदि भन्नः, तर्हि संबद्धवस्तुद्या भिन्नं स्वतन्त्रं तृतीयमेव वस्तु तत् स्याद नतु संबन्ध इति कथं तद्वशात् षष्ठ्यादिविभक्तिः? नहि विन्ध्यहिमवदादिभ्यो भिन्नो घटादिः संबन्धो भण्यते। नापितद्वशात् तेषां षष्ठ्यादिविभक्तिः प्रवर्तते ।अथ संबद्धवस्तद्वयादभिन्नः संबन्धः, तर्हि भासौ षष्ट्या दिहेतुः, संबद्धवस्तुद्वयादव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपवत्, इत्यादि बह्वत्र वक्तव्यम्, तत्तुनोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसड़ादिति। अपरमपि समभिरूढनयाभिप्रायभेदं दर्शयन्नाहघडकारविवक्खाए, कत्तुरणत्थंतरं जओ किरिया। न तदत्थंतरभूए, समवाओ तो मओ तीसे / / 2246 / / कुंभम्मि वत्थुपज्जा-यसंकराइप्पसंगदोसाओ। जो जेण जं व कुरुए, तेणाभिन्नं तयं सव्वं / / 2250 / / 'घट करोति' इति घटकार इत्यस्यां विवक्षायां प्ररूपणायां यस्मात तस्य घटकर्तुरनर्थान्तरमव्यतिरिक्ता घटकरणक्रिया, कर्तर्यवघटकारे तस्याः समवायात्। 'तो' तितस्माद् न तदर्थान्तरभूते कर्तुर्व्यतिरिक्ते कुम्भे घटे तस्याः समवायः संश्लेषो मतः / कुतः? वस्तुपर्यायसंकरादिदोषप्रसङ्गात् वस्तूनां ये पर्यायाधर्मास्तेषां परस्परं संकरः संकीर्णत्वमेकत्वं वा स्यात्, कर्तृगतक्रियायाः कुम्भेऽपि समवायाभ्युपगमात् / ततश्व यः कुम्भकारादिर्थेन क्रियाविशेषेण यत् कुम्भादिक कुरुते तेन क्रियाविशेषेण तत्क्रियारूप-तयेत्यर्थः, सर्व तत्कर्तृकर्माद्यभिन्न स्यात्तस्मात् कर्तृगतक्रियाया न कर्मणि संक्रमः, किन्तु कुर्वन् कारकः, कुम्भनादिभ्य एव कुम्भादय इति मन्यते समभिरूढ इति। उक्तः समभिरूढनयः / विशे० / नं० / आ० / चू० / आ० म०। (समभिरूढनयव्याख्या 'णय' शब्देऽपिचतुर्थभागे 1857 पृष्ठ गता।) (एतदाभासव्याख्या 'णयाभास' शब्दे चतुर्थभागे 1903 पृष्ठे गता।) दृष्टिवादस्य सूत्रभेदे, स० / अष्ट० / सूत्र० / अनु० / सम्म० / स्था०। समभूमि स्त्री० (समभूमि) अविषमक्षितितले, आव०५ अ०। समय न० (समक) सममेव समकम् / सरसविरसादिष्वभिष्वङ्गादिविशेषरहिते, उत्त०१ अ०। सहार्थे, उत्त० 4 अ०। युग-पदर्थे, व्य० 2 उ० / एककाले, प्रज्ञा० 1 पद। विशे० / जं० / ज्ञा०। सम्यगीयते परिच्छिद्यते इति समयः / सम्म०१ काण्ड। सम्यक् प्रमाणान्तराविसंवादित्वेनायते परिच्छिद्यत इति समयः। सम्म०२ काण्ड। सम्यगवैपरीत्येनायन्ते ज्ञायन्ते जीवादयोऽर्था अनेनेति समयः, सम्यगयन्ति गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वस्मिन रूपे प्रतिष्ठा प्राप्नुवन्ति अस्मिन्निति समयः / स्या०। सूत्र० / आ० म०। आगमे, आचा०२ श्रु०२ चू०५ अ०। सूत्र० / अनु० / सिद्धान्त, नं० / व्य०। विशे० / जैनागमे, विशे०। जिनादिसिद्धान्ते, स्था०३ ठा० 4 उ० / सम्म० जी०। संथा०। स्वसमयोऽर्हन्मतानुसारिशास्त्रात्मकः, परसमयः कपिलाद्यभिप्रायानुवर्त्तिग्रन्थरूपः, उभयसमयस्तूभयम-तानुगतशास्त्रस्वभावः तत्रास्यस्व-समयवक्तव्यतायामेवावतारः,स्वसम्यपदार्थानामे Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समय - वात्र वर्णनात्, यत्रापि परो भयसमयपदार्थवर्णनं तत्रापि स्वसमयवक्तव्यतव परोभयसमययोरपि सम्यग्दृष्टि परिगृहीतत्वेन स्वसमयत्वात्, अत एव साध्ययनानामपि स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतारः / उत्त०१ अ०। दर्श०। आत्मीयप्रवचने, व्य० 3 उ०। सांख्यादीनां सिद्धान्ते, स्था० 3 ठा० 3 उ०! अवसरे, आचा० 1 श्रु०८ अ०६ उ०। कल्प०। रा०। ज्ञा०। विशिष्टकाले,आचा०२ श्रु०३ चू० / चं० प्र० / निर्विभागे सर्वसूक्ष्मकालांश, अनु० / विशे० / परमनिकृष्ट काले, आ० म० 1 अ० / नं० / काल-विशेषे, नि०१ श्रु०१ वर्ग०१ अ० / स्था० / विश० / आ० म० / त० / अहोरात्रादिकालस्य विशिष्ट भागे,भ०१शः 1 उ० / कल्प०। विपा० / सम्म०। चं० प्र० / अनु० / __ समयप्ररूपणम्से किं तं समए ? समयस्स णं परूवणं करिस्सामि, से जहाना-मए तुण्णागदारए सिआ तरुणे बलवं जुग जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणते तलजमलजु-यलपरिघणिभबाहू चम्मेट्ठगदुहणमुट्ठिअसमाहतनिचित (य) गत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए लंघणपवणजइणवायामसमत्थे छे ए दक्खे पत्तट्टे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पावगए एगं महतीं पडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय सयराहं हत्थमेत्तं ओसारेज्जा, तत्थ चोअएपण्णवयं एवं वयासीतेणं कालेणं तेणं समएणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडिआए वा पट्टसाडिआए वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ ? नो इणढे समढे, कम्हा ? जम्हा संखेजाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं एगा पडसाडिआ निप्फज्जइ, उवरिल्लम्मि तंतुम्मि अच्छिण्णे हिडिल्ले तंतू न छिज्जइ, अण्णम्मि काले उवरिल्ले तन्तू छिनइ, अण्णम्मि काले हेडिल्ले तन्तू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ / एवं वयंतं पण्णवयं चोयए एवं वयासी--- जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडि आए वा पट्टसाडिआए वा उवरिल्ले तंतू छिण्णे से समए भवइ ? न भवइ। कम्हा? जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे तंतू निप्फज्जइ, उवरिल्ले पम्हे अच्छिण्णे हेढिल्ले पम्हे न छिज्जइ, अण्णम्मि काले उवरिल्ले पम्हे छिज्जइ, अणम्मि काले हेढिल्ले पम्हे छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ / एवं वयंतं पण्णवयं चोअए एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तस्स तंतुस्स उपरिल्ले पम्हे छिण्णे से समए भवइ ? न भवइ / कम्हा ? जम्हा अणंताणं संघायाणं समुद-यसमितिसमागमेणं एगे पम्हे निप्फज्जइ, उवरिल्ले संघाए अवि-संघाइए हेट्ठिल्ले संघाए न विसंघाइजइ,अण्णम्मि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ अण्णम्मि काले हिट्ठिले संघाए विसंघाइजइ तम्हा से समए न भवइ / एत्तो वि अण्णं सुहुमतराए समए पण्णत्ते समणाउसो ! (सू०१३८४) अथ कोऽयं समय इति पृष्ट सत्याह-समयस्य प्ररूपणांविस्तरवर्ती व्याख्या करिष्यामि, सूक्ष्मत्वात् संक्षेपतः कथितोऽपि नासौ सम्यक प्रतीतिपथभवतरतीति भावः, तदेवाह- ‘से जहानामए' इत्यादि, स कश्चित् यथानामकोयत्प्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः, 'तुण्णागदारए' सूचिकइत्यर्थः स्यात् भवेत्,यः किमित्याह-तरुणादिविशेषणविशिष्टः पट साटिका पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा 'सयराह' झटिति कृत्वा हस्तमात्रमपसारयेत-पाट-येदिति सण्टङ्कः, अथवा- 'स' इति पूर्ववत् 'यथे' त्युपदर्शने, 'नामे' ति सम्भावनायाम्, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, ततश्च स कश्चि–देव तावत्संभाव्यते तुण्णागदारको यस्तरुणादिविशेषणः, स्यात्-कदाचित् पटसाटिका पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा झटितिहस्तमात्रमपसारयेत-पाटयेदिति तथैव सम्बन्धः, तत्र तरुणः-प्रवर्द्धमा-नवयाः आह-दारकः प्रवर्द्धमानवयाः एव भवति, किं विशेष-णेन ? नैवम्, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात्, तस्य चासन्नमृत्युत्वेन विशिष्टसामर्थ्यानुपपत्तः, विशिष्टसामर्थ्यप्रति-पादनार्थश्चायमारम्भः अन्ये तु वर्णादिगुणोपचितोऽभिनवस्तरुण इति व्याचक्षते, बलं-- सामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान्. युग-सुषभदुष्षमादिकालः सोऽदुष्टोनिरुपद्रवो विशिष्ट बलहेतुर्यस्यास्त्यसौ युगवान्, कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्यविघ्नहेतुरितीत्थं विशेषणम्, 'जुवाणो' त्ति-युवा-यौवनस्थः प्राप्तवया एष इत्येवम् अणति-व्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः बाल्यादिकालेऽपि दारकोऽभिधीयते अतो विशिष्टवयोऽवस्थापरिग्रहार्थमतद्विशेषणम्, अल्पशब्दोऽभाववचनः, अल्प आत-को-रोगो यस्य स तथा, निरातङ्क इत्यर्थः, स्थिर:-प्रकृतपट पाटयतोऽकम्पोऽग्रहस्तो हस्तागं यस्य स तथा,दृढ पाणिपादं यस्य, पाश्वा पृष्ठ्यन्तरे च ऊरू च परिणते-परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा, सर्वावयवैरुत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरि-घणिभबाह' तलौ तालवृक्षौ तयोर्यमलंसमश्रेणीक यद् युगलं-द्वयं परिघश्व-अर्गला तन्निभौ- तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा, आगन्तुकोपकरणज सामर्थ्य माह- चर्मेष्टका-द्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रकायःचर्मेष्टकया दुघणेन मुष्टिकेन च समाहतानि प्रतिदिनमभ्यास प्रवृत्तस्य निचितानि-निविड़ीकृ-तानि गात्राणि स्कन्धोरुपृष्ठादीनि यत्र स तथाविधः कायो-देहो यस्य स तथा, चर्मेष्टकादयश्च लोकप्रतीता एव, औरर यबलसमन्वागतः-आन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः, व्यायामवत्ता दर्शयति- 'लङ्घनप्लवनजवनव्यायामसमर्थ:-जवनशब्दः शीघ्रवचनः छेक:-प्रयोगज्ञः दक्षः-शीघ्रकारी प्राप्तार्थ:-अधिकृते कर्मणि निष्ठां गतः, प्राज्ञ इत्यन्ते, कुशलः-आलोचितकारी मेधावीसकृच्छुतदृष्टकर्मज्ञः निपुणः-उपायारम्भकः निपुणशिल्पो Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय 420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समय पगतः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितः एवंविधो ह्यल्पेनैव कालेन साटिका पाटयतीति बहुविशेषणोपादानम् स इत्थंभूत एका महतीं पट-साटिका पट्टसाटिकां वा पटसाटिकाया इयं श्लक्ष्णतरेति भेदेनो-पादानम, गृहीत्वा 'सयराह' मिति सकृत् झटिति कृत्वेत्यर्थः, हस्तमात्रमपसारयेत--- पाटयेदित्यर्थः तत्रैवं स्थिते प्रेरकः-शिष्यः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकोगुरुस्तमेवमवादीत, किम् ? येन कालेन तेन तुण्णागदारकेण तस्याः पटसाटिकायाः पट्टसाटिकाया वा सकृद्धस्तमात्रमपसारित-पाटितमसो समयो भवति? प्रज्ञापक आह- नायमर्थः समर्थः-- नैतदेवमित्युक्तं भवति, कस्मादिति पृष्ट उपपत्तिमाह-यस्मात् संख्येयानां तन्तूनां समुदयसमितिस-मागमेनेति पूर्ववद्, एकार्था वा सर्वेऽप्यमी समुदायवाचकाः, पट-साटिका निष्पद्यतेतत्र च उवरिल्ले तिउपरितने तन्तौ अच्छिन्ने अविदारिते 'हेट्टिले' ति-आधस्त्यतन्तुर्न छिद्यते अतोऽन्यस्मिन् काले उपरितनस्तन्तुः छिद्यते अन्यस्मिन् काले आधस्त्यः , तरमादसौ समयो न भवतिएवं वदन्तं प्रज्ञापक प्रेरक एवमवादीत् येन कालेन तेन तुन्नागदारकेण तस्याः-पटसाटिकाया उपरितन-स्तन्तुश्छिन्नः स समयः? किं भवतीति शेषः, अत्र प्रज्ञापक आ-ह-न भवतीति, कस्मात् ? यस्मात्संख्येयानां पक्ष्मणां लोके प्रतीतस्वरूपाणां समुदायेत्यादि सर्वं तथैव यावत्तस्मादसौ समयो न भवति, एवं वदन्तं प्रज्ञापकमित्याधुपरितनपक्ष्मसूत्रमपि तथैव व्याख्येयम्, नवरमनन्तानां परमाणूनां विशिष्ट कपरिणामा--पत्तिः सङ्घातः, तेषामनन्ताना यः समुदयः- संयोगस्तेषां समु-दयाना या अन्योऽन्यानुगतिरसौ समितिः, तासा समागमेन-एकवस्तुनिवर्तनाय मीलनेन उपरितनपक्ष्मोत्पद्यते, समुदायवा-चकत्वेनैकार्था वा समुदयादयः, तस्मादसावुपरितनैकपक्ष्मच्छे-दनकालः समयो न भवति. कस्तहि समय इत्याह- 'एतोऽवि अण्ण' मित्यादि, एतस्माद् उपरितनैकपक्ष्मच्छेदनकालात सक्ष्मतरः समयः प्रज्ञप्तो हे श्रमण ! आयुष्मन्निति, अत्राह-ननु यद्यनन्तैः परमाणुसङ्घातैः पक्ष्म निष्पद्यते ते च सनाताः क्रमेण छिद्यन्ते त.कस्मिन्नपि पक्ष्मणि विदीर्यमाणे अनन्ताः समया लगेयुः, एतच्चागमेन सह विरुध्यते, तत्रासंख्येयास्वप्युत्सर्पि-- ण्यवसर्पिणीषु समयासंख्येयकस्यैव प्रतिपादनात्, यत उक्तम्'असंखेज्जासु णं भंते ! उस्सप्पिणीअवसप्पिणीसु केवइया समया पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा / अणंतासु णं भंते ! उस्सप्पिणीअवसप्पिणीसु केवइया समया पण्णत्ता ? गोयमा ! अणता' तदेतत्कथम् ? अत्रोच्यते--अस्त्येतत्, किन्तु-पाटनप्रवृत्तपुरुषप्र-यत्नस्याचिन्त्यशक्तित्वात् प्रतिसमयमनन्तानां सङ्घाताना छेदः संपद्यत, एवंच सत्येकस्मिन् समये यावन्तः सङ्घाताश्छिद्यन्ते तैरनन्तैरपि स्थूलतर एक एव सङ्घातो विवक्ष्यते, एवम्भूताः स्थू-लतरसडाता एकस्मिन्पक्ष्मणि असंख्येया एव भवन्ति, तेषाचक्रमेण छेदने असंख्येयः समयैः पक्ष्म छिद्यते, अतो न कश्चिद्वि-रोधः, इत्थं च विशेषतः सूत्र अनुक्तमप्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा ग्रन्थान्तरैः सह विरोधप्रसङ्गात् सूत्राणां च सूचामात्र-त्वादिति, ततोऽसंख्येयैरेव समयैर्यथोक्तपक्ष्मणो विदीर्यमाण-त्वाच्छद्मस्थानुभवविषयस्य च समयप्रसाधकस्य विशिष्टक्रिया-विशेषस्य कस्यचिद्दर्शयितुमशक्यत्वाद् एत्ताऽवि अण्णं सुहुमत-राए समए' इति सामान्येनैवोक्तवानिति, एकरमादुपरितन - पक्ष्म-च्छेदनकालादसंख्याततमोऽशः समय इति स्थितम् युगपदन्तसङ्घातविदारणहेतुपूर्वोक्तप्रयत्नविशेषसिद्धिश्च नगरादिपस्थितानवरतप्रवृत्तपुरुषादेः प्रयत्नविशेषात् प्रतिक्षणे बहून्नभःप्रदेशान् विलच्या चिरेणैवेष्टदेशप्राप्तिर्भावनीया, यदि पुनरसो क्रमेणै के कं व्योमप्रदेशं लड़येत् तदा असंख्येयोत्सप्पिण्यवसर्पिणीभिरेवेष्ट-देश प्राप्नुयाद् 'अंगुलसेढीमित्ते उरसप्पिणीउ असंखेज्जा' इत्यादिवचनादिति भावः / नचातीन्द्रियेष्वर्थेषु एकान्तेन युक्तिनिष्ट-र्भाव्यम् सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्, उक्तंच“आगमश्चोपपत्तिश्च, संपूर्ण विद्धि लक्षणम्। अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये / / 1 / / आगमश्चाप्तवचन-माप्तं दोषक्षयाद्विदुः। वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयात्विसम्भवात्।।२।। उपपत्तिर्भवद्युक्तियां सद्भावप्रसाधिका। साऽन्वयव्यतिरेकादि-लक्षणा सूरिभिः कृता // 3 // " इति, निदर्शितं चेहोभयमपीत्यलं विस्तरेण / अनु० / स्था० / एगे समए। (सू०४४४) परमनिकृष्ट काल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ताज्जरत्पटशाटिकापाटनदृष्टान्ताद्वा समयप्रसिद्धादवबोद्धव्यः, स चैक एव वर्तमानस्वरूपोऽतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनाभावात् / अथवाअसावेकस्वरूपेण निरंशत्वादिति। स्था०१ ठा०। आचा० / कल्प० / निकासका जी० / तं०। राजनीतिशास्त्रे, वृ०३ उ०। सङ्केते, आ० म० 1 अ०। पं०व०1 सू० प्र०। चं० प्र० / ज्ञा० / विशे०। कर्मः / समितिसम्यकशब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगयः समयः / सम्यग्दयापूर्वक जीवेषु विषये प्रवर्तन, विशे० / आचारे, अनुष्ठाने,आचा० १श्रु० 3 अ० 1 उ० / मुक्तिमार्गप्रवर्तन, विशेा नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययन समय एवेति। स०१६ सम०। सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमेऽध्ययने, आव०४ अ०। साम्प्रत निक्षेपावसरः, स च त्रिधा-ओघनिष्पन्नो, नामनिष्पन्नः, सूत्रालापकनिष्पन्नश्च / तत्रौघनिष्पन्नेऽध्ययनम्, तस्य च निक्षेप आवश्यकादौ प्रबन्धेनाभिहित एव. नामनिष्पन्ने तु समय इति नाम, तन्निक्षेपार्थ नियुक्तिकार आहनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले कुतित्थसंगारे। कुलगणसंकरगंडी, बोधव्वो भावसमए य / / 29 / / 'नाम ठवणा' इत्यादि, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालकुतीर्थसंगारकुलगणसङ्करगण्डीभावभेदात् द्वादशधा समयनिक्षेपः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यसमयो द्रव्यस्य सम्यगयन-परिणतिविशेषः स्वभाव इत्यर्थः, तद्यथा-जीवद्रव्यस्योपयोगः पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तत्व धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाह-दानलक्षणः / अथवा–यो यस्य द्रव्य स्यावसरो-द्रव्यस्योपयोगकाल इति, तद्यथा- 'वर्षा सु लवणममृतं, शरदि जलं गोषयश्च हेमन्ते। शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्त गुडश्चान्ते' / / 1 / / क्षेत्रसमय:-क्षेत्रम्-आकाशं तस्य समयः Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय 421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समयपरिसुद्ध स्वभावः, यथा 'एगेण वि से पुण्णे, दोहि वि पुण्णे सयं पि माएजा। वा पभासिंति वा पभा-सिस्संति वा, कति सूरिया तविंसु वा० 3 कइ लक्खसऍण दि पुण्णे, कोडिसहस्सं पि माएजा' / / 1 / / यदिवा- णक्खता जोयं जोइंसुवा' इत्यादिकानि प्रत्येकं ज्योतिष्कसूत्राणि, देवकुरुप्रभृतीना क्षेत्राणामीदृशोऽनुभावो यदुत तत्र प्राणिनः सुरूपा तथा- 'सेकेण?णं भते! एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे गोयमा ! जंबूदीवेणं दीव नित्यसुखिनो निर्वराश्च भवन्तीति, क्षेत्रस्य वा परिकर्मणावसरः क्षेत्रसय मंदररस पटवयरस उत्तरेण लवणस्स दाहिणेण० जाव तत्थ 2 बहवे इति, कालसमयस्तु सुषमादेरनुभावविशेषः उत्पलपत्रशतभेदाभि- जबुरुक्खा जंबुवणा० जाव उवसोभेमाणा चिटुंति से तेण-टेणं गोयमा ! व्यङ्ग्यो वा कालविशषः कालसमय इति, अत्र द्रव्यक्षेत्रकाल- एवं वुचइ जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादीनि प्रत्येकमर्थसूत्रा-णि च सन्ति, प्राधान्यविवक्षया द्रव्य क्षेत्रकालसमयता द्रष्टव्ये ति कुतीर्थसमयः ततश्चैतविहीनं यथा भवत्येव नीवाभिगमवक्तव्य तया नेयमस्योद्देश पाखण्डिकानामात्मीय आगमविशेषः। तदुक्तं वाऽनुष्ठानमिति, संगार: कस्य सूत्रम्- 'जाव इमा गाह' त्ति-संग्रहगाथा। सा च–'अरहंतसमयसंकेतस्तद्रपः समयः संगारसमयः यथा सिद्धार्थसाराथिदेवेन वायर-विज्जूथणिया वलाहगा अगणी। आगरनिहिनइउवरागनिगमे पूर्वकृतसंगारानुसारेण गृहीतहरिशवो-बलदेवः प्रतिबोधित इति, वुड्डिवयणं च' / / 1 / / अस्याश्चार्थ-स्तत्रानेन सम्बन्धेनायातो कुलसम्यः-कुलाचारो यथा शकानां पितृशुद्धिः, आभीरकाणां जम्बूद्वीपादीनां मानुषोत्तरान्तानामर्थानां वर्णकस्यान्ते इदमुक्तम्- 'जावं मन्थनिकाशुद्धिः, गणसमयो यथा मल्लानामयमाचारो-यथा यो ह्यनाथो चणं माणुसुत्तरे पव्वए तावं च णं अस्सि लोए त्ति पवुचई' / मनुष्यलोक मल्लो म्रियते स तः संस्क्रि-यते, पतितश्चोद्धियत इति संकरसमयस्तु उच्यत इत्यर्थः। तथा 'अरहते' ति जावं च णं अरहंता चकवट्टी०जाव संकरो-भिन्नजाती-यानां मीलकस्तत्र च समयः-एकवाक्यता, यथा सावियाओ मणुया पागइभद्दया विणीया तावं चणं अस्सिलोए त्ति पवुचइ, समय त्ति, जावं च णं समयाइवा आवलियाइ वा० जाव लोए त्ति पवुच्चइ, वाममार्गादाव-नाचारप्रवृत्ताव पि गुप्तिकरणमिति, गण्डीसमयो-यथा एवं जावं चणं बायरे विज्जुयारे बायरे थणियसद्दे जावं चणं बहवे उराला शाक्यानां भोजनावसरे गण्डीताडनमिति,भावसमयस्तु नोआगमत बलाया संसेय त्ति, अगणि त्ति, जावं च णं बायरे तेउयाए जावं च णं इदमेवा-ध्ययनम्, अनेनैवात्राधिकारः शेषाणां तु शिष्यमतिवि आगराइ वा निहीइ वा नईइ वा उवराग त्ति, चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ काशार्धमु-पन्यास इति। सूत्र०१ श्रु०२ अ०। वातावं च णं अरिंस लोए त्ति पवु-चइ / उपरागो-ग्रहणम् / 'निग्गमे समयंतर न० (स्मयान्तर) परसमये, पं०व०५ द्वार। युड्डिवयणं व'ति-यावन्निर्गमादीनां वचनं प्रज्ञापनं तावन् मनुष्यलोक समयकप्प पुं० (समयकल्प) सिद्धान्तविचारणायाम, संथा०। इति प्रकृतम्, तत्र- 'जावं च ण चंदिमसूरियाणं 0 जाव तारारूवाण समयकयपिंडणाम न० (समयकृतपिण्डनामन्) समयकृतपि अइगमणं निग्गमण वुड्डि-निवुड्डी आघविज्जइ, तावं चणं अस्सिलोएत्ति ण्डनाम्नि, पिं० (व्याख्या 'पिंड' शब्दे पञ्चमभागे 617 पृष्ठे।) पवुचइ अतिगम-नमिहोत्तरायणं, निर्गमनं दक्षिणायनं वृद्धिर्दिनस्य समयखेत्त न० (समयक्षेत्र) समयः कालस्तद्विशिष्ट क्षेत्र समय-क्षेत्रम्। वर्द्धन,निर्वृद्धि-स्तस्यैव हानिः / भ०२ श०६ उ०। मनुष्यक्षेत्र, स्था० 3 ठा०४ उ०। मनुष्यलोके, स्था०३ ठा०१ उ०। स०। समयचज्जा स्त्री० (समयचर्या) समयपरिभाषया उपक्रमे, विशे०। किमिदं भंते ! समयक्खेत्ते त्ति पवुचइ ? गोयमा ! अड्डाइजा समयज्झयण न० (समयाध्ययन) समयाख्ये सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे दीवा दो य समुद्दा एस णं पव्वइए समयखेत्ते त्ति पवुचइ। तत्थ अध्ययने. सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। आ० चू०। णं अयं जंबुद्दीवे सव्वदीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वमिंतरे एवं समयणा (ण्णा) य पुं० (समयन्याय) आगमप्रामाण्ये, पञ्चा० 12 विव०। जीवा-भिगमवतव्वया नेयव्वा जाव अतरपुक्खरद्धं समयणिबद्ध न० (समयनिबद्ध) मनसा निबद्धेसङ्केते, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। जोइसविहूणं / / / समकनिबद्ध त्रि० सहितैरुपात्ते ज्ञाताङ्गसूत्रे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० 'किमि' त्यादि / तत्र समयः कालस्तेनोपलक्षित क्षेत्र समयक्षेत्र, कालो समयणीइ स्त्री० (समयनीति) सिद्धान्तव्यवस्थायाम, आव० 1 अ०। हि दिनमासादिरूपः सूर्यगतिसमभिव्यग्यो मनुष्यक्षेत्र एव न परतः, समयण्णु त्रि० (समयज्ञ) सिद्धान्तविदि, पं० व०२ द्वार। आग-मज्ञे, परतो हि नादित्याः सञ्चरिष्णव इति / एवं जीवाभिगम-वत्तव्वया नेयव्य' षो०१५ विव० / आचा०। त्ति। एषा चैवम्- 'एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणमि' त्यादि। समयपरमत्थवित्थर पुं० (समयपरमार्थविस्तर) सम्यगीयन्ते परिच्छि'जोइसबिहूणं' ति-तत्र जम्बूद्वीपादिमनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतायां द्यन्तेऽनेनार्था इति समय आगमस्तस्य परमः अकल्पितश्वासावर्थश्च जीवाभिगमोक्तायां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽप्यस्ति, ततस्तद्विहीनं यथा समयपरमार्थस्तस्य विस्तरो रचनाविशेषः। सिद्धान्तस्याकल्पितार्थस्य भवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यता नेतव्येति, वाचनान्तरे तु-'जोइस- परमार्थरचनायाम, सम्म०३ काण्ड। अट्टविहूणं' इत्यादि बहु दृश्यते, तत्र-जंबुद्दीवेणं भंते ! कइ चंदा पंभासिंसु | समयपरिसुद्ध त्रि० (समयपरिशुद्ध) शिष्टव्यवहारविशुद्धे, पश्चा० 4 विव०। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयपाहुड 422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समवाइकारण समयपाहुड न० (समयप्राभृत) स्वनामख्याते ग्रन्थविशेषे, अष्ट० 13 | *समर पुं० जनमरक्युक्ते, प्रश्न०३ आश्र द्वार। संग्रामे, ज्ञा०१ श्रु०१ अष्ट। अ०। उत्त। समयभणिय न० (समयभणित) सिद्धान्तप्रतिपादिते, दर्श०१ तत्त्व। / सम त्रि० समत्वेन युक्ते, रकारः प्राकृतत्वात्। उत्त०२ अ०। शत्रुजयसमयय न० (समयज) अन्वर्थरहिते समय एव प्रसिद्ध नामनि, पिं०। पर्वतस्य मूलनायकोद्धारकर्तरि स्वनामख्याते साधौ, ती 1 कल्प। समयलुक्खया स्त्री० (समयरूक्षता) कालरूक्षतायाम, भ०७२०६७०। समरवहिय त्रि० (समरव्यथित) संग्रामे हते, भ०७ श०६ उ० / समयविउ त्रि० (समयविद) आगमवेदिनि, पो० 12 विव० / भद्रबाहु- समरभड पुं०(समरभट) संग्रामभेदे, प्रश्न०३ आश्रद्वार। प्रभृतिषु सिद्धान्तवेदिषु, पञ्चा० 4 विक०। समरसावत्ति स्त्री० (समरसापत्ति) समे भावे रसोऽभिलायो यस्या सा समयविरुद्ध वि० (समयविरुद्ध) स्वसिद्धान्तविरुद्धे, विशे० / यथा समरसा सा चासावापत्तिश्च प्राप्तिरधिगतिरधिगम इत्यनर्थान्तरम् / षो० सांख्यस्यासत्कारणम्, कार्य सवैशोषिकस्येत्यादि। आ० म०१ अ०। 6 विव० / समतापतो, आगमाहितसर्वज्ञरूपोपयोगोपयुक्तस्य अनु० / यथा वैशेषिको व्रते प्रधान कारणं जैनो वदति नास्ति जीव तपोयोगानन्यवृत्तः परमार्थतः सर्वतरूपत्वाबाहाालम्बनाकारोपयुक्तइत्यादि / बृ० 1 उ०१ प्रक०। त्वेन मनसो ध्यानविशेषरूपायां तत्फलभूतायां वा समाप्ती, षा० 2 विव० / समयविहाण न० (समयविधान) सिद्धान्तनीती, पं० व० 4 द्वारा समरसीह पुं० (र.मरसिंह) स्वनामख्याते मेदघाट (मेवाड) देशाधिपती, समयसण्णा स्त्री० (समयसंज्ञा) आगमपरिभाषायाम, बृ०१3०३ प्रक०। / ती०१६ कल्प: समयसम्माव पुं० (समयसद्भाव) सिद्धान्तार्थे, आव० 4 अ०। समराइच पुं० (समरादित्य) स्वनामख्याते राजनि, तचरित्रं श्रीसमयसागर पुं० (समयसागर) समयः-आगमस्तस्य सागर इव / हरिभद्रसूरिकृतं समरादित्यचरित्रादवसेयम्। ध०२ अधि०। रत्नाकरः / स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, स्था०२ ठा०३ उ०। समरीइय त्रि० (समरीचिक) बहिर्विनिर्गतकिरणजालसहिते, जी०३ समयसिद्ध त्रि० (समयसिद्ध) आगमोक्ते,पञ्चा०१६ विव०। प्रति० / स०। रा०1 औ०। समयसुन्दर पु० (समयसुन्दर) सकलचन्द्रगणिशिष्ये, येन 1686 | समल्लीण त्रि० (समालीन) आसन्ने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। आ० म०। संवत्सरे गाथासाहसी विवादशतक दशवैकालिकटीका चेति ग्रन्था | समलेस्स त्रि० (समलेश्य) लेश्यया तुल्ये, म०१ श०२ उ०। (अत्र रचिताः / जै० इ०। दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) समयसो अव्य० (समयशस) समयेनेत्यर्थे, क० प्र०१ प्रक० / समवण्ण त्रि० (समवर्ण) वर्णतस्तुल्ये, भ०१श०२ उ० समया खी० (समता) समो रागद्वेषमध्यस्थस्तद्भावस्तत्ता। आ० म० (अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) 1 अ०। समभावे, आचा०१ श्रु०३ अ०१3०1 सूत्रा आ० चू०।। समवतार पु० (समवतार) सम्यगवतारणे, नि० चू०१ उ०। आत्मपरतुल्यतायाम्, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०॥ अरक्तादिष्टतायाग, समवया त्रि० (समवयस्) सवयस्ये, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अष्ट० 14 अष्ट० / सामायिके, रागद्वेषविरहे, सूत्र० 1 श्रु० 14 अ० / समवसरण न० (समवसरण) अवसरणकरणे, ही०२ प्रका० आ० चू०। आचा०।माध्यस्थे, आचा०१श्रु०८ अ०२ उ०। यो०वि०। औपपातिकदेवतानिमित्ते जिनधर्मदेशने, पञ्चा०२ विव०। समयाजोगि पुं० (समतायोगिन) ध्यानबलेन भस्मीभूतमोह-कर्मातप्त- ('समोसरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्याख्यां वक्ष्यामि।) त्वादिपरिणतिरहिते योगिनि, अष्ट०६ अष्ट०। समवसरणबिंबरूव न० (समवसरणबिम्यरूप) समवसरणे जिनधर्मसमताणुपेहि(ण) त्रि० (समतानुप्रेक्षिन) समतया प्रेक्षितुं शीलमस्येति देशनार्थमाघपातिकदेवतानिर्मितानि तस्यैव बिम्बानिप्रतिकृतयसमतानुप्रेक्षी। प्रियद्वेष्यरहिते, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। स्तेषामिव रूपं स्वभावो यस्य स समवसरणविम्बरूपः। विशिष्टरूप समयातीय त्रि० (समयातीत) आगमादतिक्रान्ते, सूत्र०१ श्रु०६ अ01 चतुर्मुखे, पञ्चा० 2 विव०। समयाणुभाव पु० (समतानुभाव) कालविशेषसामर्थ्य , भ०७ श०६ अ०। समवाइकारण न० (समवायिकारण) सम्-एकीभावे अवशब्दः अपृथक्त्वे समर त्रि० (शवर) “शबरे बो मः" ||1 / 258 / / इत्यनेनात्र अव गतौ इण गतौ वा। ततश्चैकीभावेन अपृथगमनं समवायः-संश्लेषः स बकारस्य मकारः / समरो। प्रा० / वन्यमनुष्यजातिभेदे, को० / अप० / विद्यतेयेषातेसम्यायिनरतन्तवः, यस्मात्तेषुपटः समवैति इति।समवायिनश्चले Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाइकारण 423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाण कारण च समवायिकारणम्, तन्तुसंयोगास्तु कारणरूपद्रव्यान्त- / समसहाव पुं० (समस्वभाव) समः-तुल्यःस्वभावःस्वरूपं यस्य तत्तथा। रधर्मत्वेन पटाख्यकार्यद्रव्यान्तरवर्त्तित्वात्समवायिनस्त एव कारणम्। तुल्यरूपे, स०२३ सम०। कार भेदे, विशे०। आ० चू०। ('कारण' शब्दे तृतीय-भागे 465 पृष्ठे / समसार त्रि० (शमसार) समप्रधाने, द्वा० 23 द्वा०। इदमुक्तम्।) समसील त्रि० (शमशील) समस्वभावे, अष्ट० ३अष्ट। समवाय पुं० (समवाय) समवयनं समवायः। वणिजादीनां संधाते, पिं०। समसुहदुक्ख त्रि० (समसुखदुःख) विगतरागे, पं० चू० 3 कल्प। ओघ० / गोठीनां मेलापके, आ० म०१ अ० / आचा० / समिति समसुहाकिरा स्त्री० (शमसुधाकिरा) क्रोधादिपरित्यागः समस्तदेव सम्यगवैत्याधिक्येन अयनमयः परिच्छेदो जीवाजीवादिविविध सुधा-अमृतं तस्याः किरणं किरा-सेवन यस्याः सा तथा / पदार्थसार्थस्यस्मिन्नसौ समवायः। समवयन्ति समवतरन्ति समिलन्ति शमतामृतमय्या दृष्टी,अष्ट०२ अष्ट। नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवायः समसेढि स्त्री० (समश्रेणि) अविषमश्रेणी, नं०। चतुर्थेऽङ्गे, स०१ सम०। पा०ा अनु०।नं०। स०। समस्सा स्त्री० (समस्या) समस्यते-संश्रिप्यतेऽनया। सम्-अस्-क्यः / से किं तं समवाए ? समवाएणं ससमया सूइज्जंति परसमया संक्षेपेण उक्तस्य श्लोकपदादेः परकृतेन स्वकृतेन वा अवशेषेण सूइज्जति ससमयपरसमया सूइज्जति 0 जाव लोगालोगा सूइ भागान्तरेण संघटनार्थ कृते प्रश्ने, वाच० / आ० म०१ अ०। अंति। समवाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियं परिवुड्डीए दुवा समा स्त्री० (समा) आत्मपरतुल्यतायाम्, दर्श० 1 तत्त्व। संवत्सरात्मके लसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ,ठाणगसय कालविशेष, व्य०३ उ० / स्था०। दो समाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-उस्सप्पिणी समा चेव, ओसस्स य बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स प्पिणी समा चेव / स्था० 2 ठा०१ उ० भगवओ समासेणं समायारे आहिज्जति, तत्थ य णाणाविहप्प ('लोक' शब्दे षष्ठे भागे विस्तरो गतः।) गारा जीवाजीवा यवणिया वित्थरेण, अवरे वि अबहुविहा विसेसा समाइण्ण त्रि० (समाचीर्ण) भाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्वदाच-रिते, नरगतिरियमणुअसुरगणाणं आहारुस्सालेसा आवा-ससंख जी०१ प्रति०। आयप्पमाणउववायचवणउग्गहणोवहिवेयणाविहाण-उवओग समाउ त्रि० (समायुष) उदयापेक्षया समकालायुष उदये, भ० 26 जोगा इंदियक साया विविहा य जीवजोणी विक्खं भु श०१ उ०। स्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुल समाउत्त त्रि० (समायुक्त) युक्ते, सूत्र०१ श्रु०१अ०३ उ०। औ०। गरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाणं चक्कीणं चेव चकहर समाउय न० (समायुष्क) आयुषा तुल्ये, भ०६ श०१ उ०। हलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ (अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तः।) एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिज्जंति / समवायस्स णं परित्ता समाउल त्रि० (समाकुल) सम्मिश्रे, जी०३ प्रति० 4 अधि० / जं०। वायणा० जाव से णं अङ्गट्ठयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे रा०। उत्त०। सुयखंधे एगे उद्देसणकाले एगे समुद्देसनकाले एगे चउयाले समाओग पुं०(समायोग) सम्यग आयोगः समायोगः। आव०१ अ०। पदसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ता, संखेजाणि अक्खराणि० जाव तं० / स्थिरीभावे,स्था० 4 ठा०४ उ०। चरणकरणपरू वणया आघविज्जति / सेत्तं समवाए। (सू० समागम पुं०(समागम) परस्परं संबद्धतया विशिष्टकपरिणाम-समुदाये, 136) स०। अनु० / संयोग, एकीभवने, समुदये, अनु० / संपर्के, व्य० 6 उ०। प्राप्तौ, “समवायववच्छेदो, तस्सहि होर्हिति वासाणीमाढरगो-तस्स सूत्र०१ श्रु०७ अ०। इह. संभूतजतिस्स मरणम्मि” ति० / संबन्धविशेषे, आ० म०१ अ०। समागय त्रि० (समागत) एकीभूते, पं०व०३ द्वार। स्था०। अयुतसिद्धानामकार्याधारभूतानाम् इहेति प्रत्ययहेतौ सम्बन्ध, सम्म० समाण धा० (भुज) जेमने, “भुजो भुज-जिम-जेम-कम्माण्ह३ काण्ड। सूत्र० / स्या०। (अत्रत्या व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे समाण-चमढ-चड्डाः" ||14|110 // इति भुजेः समाणादेशः / 2664 पृष्टतो द्रष्टव्या। रामाणइ / भुङ्क्ते। प्रा०४ पाद। समविसम त्रि० (समविषम) अनुकूलप्रतिकूले शय्यासनादौ, सूत्र०१ / *समाप् धा० समाप्तौ, "समापेः समाणः" ||814/142 / / इत्यनेनात्र श्रु०२ अ८२ उ०1 समाप्नोतेर्वकल्पिकः समान आदेशः / समाणइ। समावेइ। प्रा० 4 पाद। समवेयण वि० (समवेदन) वेदनया तुल्ये, भ०१श०२ उ०। *समान त्रि० समे, नि० चू० 4 उ० / उत्त० / रा०। सदृशे, उत्त०३२ समसण्ण त्रि० (समसंज्ञ) तुल्यबद्धौ, आव०५ अ०1 अ०।ज्ञा०॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाण 424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समावत्ति *सत् त्रि० विद्यमाने, स्था०३ ठा०१ उ०। ज्ञा०। आचा०। प्रश्न जी० ! उत्त०। हा०। ('सामायारी' शब्दे अस्मिन्नेव भागे दशधा औत्तराहे आज्ञप्तिकेन्द्र, स्था०२ ठा०३ उ०। सामाचारी वक्ष्यते।) समाणइत्ता अव्य०(समाप्य) समाप्ति नीत्वेत्यर्थे, आव०५ अ० समार-धा०(सम् आ रच्) निर्माणे, "समारचेरुवहत्थ-सारवसमाणकप्प पु० (समाणकल्प) तुल्याध्यवसाये, कल्प०१ अधि०६ समार-केलायाः" ||8|4|| अनेन समारचे:समारादेशः समारइ। -क्षण। समारचयति। प्रा० 4 पाद। समाणी स्त्री० (सती) विद्यमानायाम्, प्रज्ञा०१५ पद। ज०। समारंभ पुं० (समारम्भ) उपादानहेतौ, आचा०१ श्रु० 101 उ० / समाणु अव्य० (समम्)“एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मना---एम्ब- परितापकरे व्यापारे, व्य० 1 30 / व्यापादने, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०२ पर-समाणु-धुवु-मं-मणा" ||84418|| अनेन अप-भ्रशऽर्थे उ० / परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनध्याने, दशा०। त्रिविधः समासममः समाणु इत्यादेशः। सहार्थे, समाणु। समम्। प्रा० 4 पाद। रम्भः मानसिकवाचिककायिकभेदात्, तत्र मानसिकः मन्त्रादिध्यासमादहमाण त्रि० (समादहत) शीतस्पर्श सहमाने, आचा०१ श्रु०६ / नम्,परमारणहेतोः प्रथमः समारम्भः परपीडाकरोच्चाटनादिनिबअ०२ उ०। न्धनध्यानम् / वाचिको यथा आरम्भः परव्यापदनसमक्षुद्रविद्यादिसमादाण न० (समादान) ग्रहणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। परावर्तनासंकल्पसूचको ध्वनिरेव समारम्भः। परपरितापकरमन्त्रादिसमादाय अव्य० (समादाय) गृहीत्वेत्यर्थे, आचा०१ श्रु० 3 अ०१ परावर्तनम् / कायिको यथा आरम्भोऽभिघाताय यष्टिमुष्ट्यादिकरणं, उ०। सूत्र। समारम्भः परितापकरो मुष्ट्याद्यभिधातः / दशा०६ अ०1 अडारकर्मणि, समादेज त्रि० (समादेय) ग्राह्ये, विशे०। पं० सू०१ सूत्र / "संकप्पो संरंभो, परितापकरो भवे समारंभी।" भ०३ समादेस पु० (समादेश) निर्ग्रन्थानां साधूनां कृते औद्देशिकभेदे, ध०३ / श०३ उ०। स्था०नि० चू०। आचा०1 उत्त०। सूत्र०ाजीवोपमर्दे,सूत्र० अधि०। 1 श्रु०११ अ० / प्रस्थापने, विशे० / सेवने, सूत्र० 1 श्रु०८ अ० समाय पुं० (सयवाय) समवायनं समवायः, प्राकृतत्वेन वकार-लोपः। आचा०।ताडने, सूत्र०१श्रु०५ अ०२ उ०। आचा०। स्था०। सम्यकपरिच्छेदे सद्धेतौ, गन्थे च / समो रागद्वेषरहित्या-दयो-गमन | समारंभमाण त्रि० (समारम्भमाण) समारम्भं कुर्वति, स्था० १०टा०३ समायः / आ० म०१ अ०। समो रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्म- उ० / जीवानां विनाशके, औ० / व्यापादयति, स्था०६ ठा०३ उ०। वत्पश्यति, अयो-लाभः-प्राप्तिरितिपर्यायाः। समस्यायः समायः / समी संघट्टादीनां विषयीकुर्वति, स्था०५ ठा०२ उ०। हि प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानदर्शनचरणपर्या-यै निरुपमसुखहेतुभिः | समारंभावण न० (समारम्भण) समनुज्ञाने, आचा०१ श्रु०१अ०२ उ०। अधःकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमैयुज्यते स एव समायः, आव० 6 समारंभि (न्) त्रि० (समारम्भिन्) कृतसमारम्भे, कर्तरि, आचा० 1 अ० / अनु० / सामायिके, आव०६ अ० सूत्र० स्था० / चतुर्थेऽड़े, श्रु०१ अ०५ उ०। स०१३६ सूत्र। समारंमित्ता अव्य० (समारभ्य) प्रज्ज्वाल्येत्यर्थे , सूत्र० 1205 *समा(म)क न० युगपदित्यर्थ, भ०२६ श०१ उ०। मृषावादे. सूत्र० / अ०१उ01 1 श्रु०८ अ०। समारोव पु० (समारोप) अतस्मिन् तदध्यवसाये, अतत्प्रकारे पदार्थ समायकरण न० (समायकरण) समतासमागमपरिज्ञाननिमि- तत्प्रकारतानिर्णये, (रत्ना० 1 परि०। ) यथा क्षणिके, अक्षणिकज्ञानम् / त्तरेखाकरणे, ज्यो०२ पाहु०। सम्म०१ काण्ड। समायरंत त्रि० (समाचरत्) सेवमाने, ५०व०१द्वार। कुर्वति, स्था०६ / समारोह पुं० (समारोह) सम्यक् क्लेशेनोर्ध्वगमने, आव०४ अ०। ठा०३ उ01 समालवण न० (समालपन) अतिविषमत्वादल्पाक्षरैरसम्यग-वबोधे, समायरण न० (समाचरण) करणे, सूत्र० 1 श्रु०३ अ० 3 उ०। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। समायरित्ता अव्य० (समाचर्य) कृत्वेत्यर्थे , विपा०१ श्रु०१ अ०॥ समाव धा० (समाप) समाप्तिनयने, “समापेः समाणः" ||8|| समायरियव्व त्रि०(समाचरितव्य) सेव्ये, आव०६ अ०। 142 / / अनेन पाक्षिकः समाणादेशः / तत्पक्षे-समावेइ। समापयति / समायाण न० (समादान) ग्रहणे, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। प्रा०४ पाद। समायार पुं० (समाचार) समाचरणं समाचारः। अनुष्ठाने, आचा०१ श्रु० / समावडिय त्रि० (समापतित) समापन्ने, औ०। प्रश्न०। 1 अ० 5 उ०। सूत्र० / स्था०। शिष्टाजनाचरिते क्रियाकलापे, समावण्ण त्रि० (समापन्न) निष्ठानयने,आव० 3 अ० भ०। आचा० / अनु०1 स्था०1 समागते, सूत्र० 1 श्रु०३१०३ उ०। सम्यगापन्ने, प्राप्ते, आचा० १श्रु० समायारग त्रि० (समाचारक) समाचरतीति समाचारकः / कर्तरि, 5 अ०५ उ०। नं0 1 आ० म०। समावत्ति स्त्री० (समापत्ति) अवधानेन मनस्तादात्म्यापादने, द्वा० 22 समायारी स्त्री० (समाचारी) समाचरणे, पं० 50 5 द्वार / व्या ती०।। द्वा० / प्रति० / षो० // Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समावत्ति 425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि मनोबिम्बप्रतिच्छाया, समापत्तिं परात्मनः। समासदोषः / अनु० / विशे०। क्षीणवृत्तिर्भवेद् ध्याना-दन्तरात्मनि निर्मितम् / / 1 / / समासिय त्रि० (समाश्रित) अभ्युपगवति, आ० म०१ अ०। द्वा०२२द्वा०। समासिक न० द्वयोर्बहूना वा पदानां समसनं-सलीनं समासस्त-न्निवृत्त ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1630 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्।) समासिकम्। समासजे नामनि, अनु०॥ यथा राज--पुरुषोऽयमिति। अत्र समावयंत त्रि (समापतत्) एकीभावेनाभिमुखं पतति, दश०६ अ० | तत्पुरुष समासे कर्तव्ये विशेषणसमासकरण बहुब्रीहिसमासकरणम् / ३उ०। यदिवाअत्र सभासकरणं, यथा-राज्ञः पुरुषोऽयमिति। आ० म०१ अ०। समाविभाग 60 (समाविभाग) कालविभागे, ज्यो०६ पाहु०। समाहटु अव्य० (समाहृत्य) सम्यगुपादायेत्यर्थे. सूत्र०१श्रु०८ अ०। समास पुं० (समास) असुक्षेपणे, असनमासः क्षेप इत्यर्थः, शोभनमसन | सवाहड त्रि० (समाहृत) शुद्ध, आचा०२ श्रु०१ चू० १अ०३ उ०। सभासः। संसारादहिर्जीवात् कर्मणो वा क्षेपणे, आ० म०१ अ०। संक्षेपे. ___ अङ्गीकृते सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सामान्ये, ओप० / सामायिके, विशे०। संशब्दः प्रशंसायाम, असु क्षेपणे, सयाहय त्रि० (समाहत) परस्परेणोपहते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अभिभूते, शोभनमसन संसारादहिर्जीवस्य जीवा-त्कर्मणो वा क्षेपण समासः / प्रश्र०४ आश्र० द्वार। रा०1 अमनोज्ञे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अथवा-संशब्दः सम्यगर्थः सम्य-गासः समासः। रागद्वेषरहितस्य समस्य समाहरण न० (सभाहरण) गोपने, उपसंहरणे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। वा आराः समसः। विशे०। 'अप्पक्खरं समासो' त्ति-महार्थत्वेऽप्यल्पा- विस्रोतसिकाराहित्वनादाने, सूत्र०१ श्रु० 8 अ०। क्षरत्वात्सा-मायिक समास उच्यते। 'अहवाऽऽसो सण' ति-अथवा- समाहाण न० (समाधान) विषयाद्यौत्सुक्यनिवृत्तिलक्षणे स्वास्थ्ये, असु क्षपणे इत्यस्य धातीयुत्पाद्यते। आकारश्चेह प्रश्लिष्टो द्रष्टव्यः, ततश्च अनु० / आव०। सभ्यगारख्याने, सूत्र०२ श्रु० 2 अ० 1 अनादिकालात्संहअसनमासो जीवात्कर्मणः क्षेप इत्यर्थः / णकारस्यानुस्वार-चेह लुप्तो त्यावस्थाने, धातूनामनेकार्थत्वात्। विशे०। वित्तसमाधाने, आ० चू० दृश्यः। समशब्दार्थमाह- 'महासणं सव्ये' त्ति-अव्य-यानामनेकार्थत्वा तत्रोदाहरणम्महत्कर्मणोऽसनं समसनं समासः / वा इति अथवा, सच्छोभनमसनं णयरं सुदंसणपुरं, सुसुणाए सुजस सुव्वए चेद। समासः कर्मक्षपणस्य शोभनत्वादिति / अथवा-सम्यगर्थे समर्थ वा पव्वज्ज सिक्खमादी, एगविहारे य फासणया / / 1268 / / संशब्दः / तल्किमित्याह- 'सम्म समस्त वाऽऽसो' त्ति-सम्यक् समस्य सुदसणं पुर नगर, सुसुणागो गाहावई, सुजसा से भज्जा, सड्ढाणि ताण या रागद्वेषरहितस्यासः कर्मक्षेप इति कृत्वा सामायिकं समासो भवति। सुवत्तो पुत्तो णाम सुहेण गब्भे अच्छितो, सुहेण जातो, एवं वडितो, एवं० विशे० / आ० चू०। (कथा 'चिलाईपुत्त' शब्दे तृतीयभागे 1188 पृष्ठे जाव जोवणत्थो संबुद्धो, आपुच्छित्ता पव्वइतो पडितो, एगल्लविहारपडिम गता। संक्षेपे, नं०। आतु०। आच०। आ०म०। पञ्चा० / रा०। विशे०। पडिवण्णो / सक्कपससा, देवेहिं परिक्खितो / अणुकूलेण धण्णो, उत्त० / पा० / स्था० / अनु० / 'समास' त्ति-संशब्दः प्रशंसायामसु कुमारबंभयारी एकेण, वितिएण को एआओ कुलसंताणच्छेदगाओ क्षेपणे / शोभनमसनम्-संक्षेपेण विस्तरवतः सकोचन समासः। पदाना- अधण्णात्ति? सो भगवं समो / एवं मातापिताणि से विसयपसत्ताणि मेकीकरणे, प्रान०२ संव० द्वार। दंसिताणि / पच्छा मारिजतगाणि कलुणं कूति, तहा वि समो। पच्छा से किं तं समासिए ? समासिए सत्त समासा भवंति, तं जहा- सव्वे तुहा विउवित्ता दिव्वाए इत्थिगाए सविडभमं, पलोइयं मुक्कदीहनी"दंदे अबहुव्वीही, कम्मधारए दिग्गू आतप्पुरिसे अव्वईभावे, सासमवगूढा तहा वि संजमें समाहिततरो, जातो णाणं उप्पण्णं जाव एक्कसेसे असत्तमे" ||1|| अनु०।। सिद्धो। आ० चू० 4 अ०। आव०। द्वयोर्बहूनां पताना वा समसनं–संमीलनं समासः / अनु० / समाहार पु० (समाहार) समानाहारे, प्रज्ञा०१७ पद १उ०। (अत्रदण्डकः (द्वन्द्रादिपदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने।) 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) समासओ अव्य० (समासतस्) संक्षेपेणेत्यर्थे , नि० चू०१ उ०। कर्म०। / समाहारा स्त्री० (समाहारा) द्वादश्यां रात्रितिथौ, जं०७ वक्ष० / ज्यो०। समासज्ज अव्य० (समासाद्य) प्राप्येत्यर्थे, आचा० 1 श्रु०८ अ०८ उ०। दक्षिणचरुकवास्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम्, आ० चू०१ अ०। समासण न० (समासन) समानोपवेशने,आव० 4 अ०। आ० म०। दी० / जं०। आ० क०। स्था०! चं० प्र०। समासत्थ पु० (समासार्थ) संक्षिप्तार्थ, आ० म०१ अ०। समाहि पु० (समाधि) समाधानं समाधिः / सम्यग्मो - समासदोस पुं० (समासदोष) समासव्यत्यये, आ० म० 1 अ० / यत्र | क्षमार्गावस्थाने, स० 20 सम० / रागद्वेषपरित्यागरूपे धर्मसमासविधिः प्राप्त समास न करोति, व्यत्ययेन वा करोति, तत्र | ध्याने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। स्वास्थ्ये, आ० म०२ अ०। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि चेतः स्वास्थ्ये, स०३२ सम० / आचा० / आ० चू०। आव० / धo नीरोगतायाम्, व्य०१ उ०। उत्त० / इन्द्रियप्रणिधाने, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०ायोगे उत्त०२ उ०।धर्मध्यानादिके, सूत्र०१श्रु०२ अ०३ उ०। सम्यगवस्थाने, सूत्र० 1 श्रु० 14 अ० / सम्य-ग्दर्शनादिकायां मोक्षपद्धती, सूत्र०१ श्रु० 13 अ०। प्रशमवाहि-तायां ज्ञानादो च। स्था० 4 ठा०१ उ० / एकाग्रे निरुद्ध चित्ते स-माधिरिति / द्वा० 11 द्वा० / ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके चित्तरवास्थ्ये, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। प्रशस्तभावे, स्था०२ ठा०३ उ० / समाधानं समाधिः, स च द्रव्यभावभेदात द्विविधः / तत्र द्रव्यस-माधिर्यदुपयोगात् स्वास्थ्यं भवति, येषां वा विरोध इति, भावस-माधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव, तदुपयोगादेव परमस्वास्थ्ययो-गादिति, यतश्वायमित्थं द्विधा, अतो द्रव्यसमाधिव्यवच्छेदार्थ-माह-वर-प्रधानं भावसमाधिमित्यर्थः, (ददतु / आव०२ अ०। प्रव० / सन्मार्गानुष्ठाने, ध०३ अधि० / द्वा० / प्रशान्तवाहिता वृत्तेः,संस्कारात् स्यान्निरोधजात्। प्रादुर्भाव-तिरोभावौ, तद्व्युत्थानजयोरयम्।।२३।। प्रशान्तति-प्रशान्तवाहिता परिहृतविक्षेपतया सदृश प्रवाहपरि... जामिता, वृत्तेर्वृत्तिमयस्य चित्तस्य निरोधजात् संस्कारात् स्यात, तदाह - "तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात्" (3-10) / कोऽयं ? निरोध एवेत्यत आह- तदव्युत्थानजयो निरोधजव्युत्थानजयोः संस्कारया: प्रादुर्भावतिरोवाभौ-वर्तमानाध्वाभिव्यक्तिकार्य-करणासामथ्यविस्था नलक्षणी, अयं निरोधः चलत्वेऽपि गुणवृत्तस्योक्तोभयक्षयवृत्तित्वान्वयेन चित्तस्य तथाविधस्थैर्य-मादाय निरोधपरिणामशब्दव्यवहारात् / तदुक्तम्- "व्युत्थाननि-रोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावी निराधक्षणचित्ताऽन्वयो निरोध-परिणाम" इति (3-6) / सर्वार्थतैकाग्रतयोः, समाधिस्तु क्षयोदयौ। तुल्यावेकाग्रताशान्तो-दितौ च प्रत्ययाविह॥२४॥ सर्वार्थतति-सर्वार्थता--चलत्वान्नानाविधार्थग्रहणम्:चित्तस्य विक्षेपो - धर्मः; एकाग्रता-एकस्मिन्नेवाऽऽलम्बने सदृशपरिणामिता तयोः क्षयोदयाँ तु अत्यन्ताभिभवाभिव्यकि लक्षणी, समाधिरुद्रिक्तसत्त्वचित्तान्वयितयाऽवस्थितः; समाधिपरिणामोऽभिधीयते / यदुक्तम् - "सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयाँ चित्तस्य समाधिपरिणामः” इति (311) / पूर्वत्र विक्षेपस्याभिभवमात्रम्, इह त्वत्यन्ताभिभवोऽनुत्पत्तिरूपीऽतीताध्वप्रवेश इत्यनयोर्भेदः / इहा-धिकृतदर्शने तुल्यावेकरूपालम्बनत्वेन सदृशौ शान्तोदिती अतीताध्वप्रविष्टवर्तमानाध्वस्फुरितलक्षणौ च प्रत्ययौ एकाग्रता उच्यते समाहितचित्तान्वयिनी। तदुक्तम्"शान्तोदिती हि तु (तो तु) ल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः" (312) / नचैव-मन्वयव्यतिरेकवस्त्वसंभवः, यतोऽन्यत्रापि धर्मलक्षणावस्थापरिणामा दृश्यन्ते / तत्र धर्मिणः पूर्वधर्मनिर्वृत्तावुत्तरधर्मापत्तिध - र्मपरिणामः, यथा-मल्लक्षणरय धर्मिणः पिण्डरूपधर्मपरित्यागेन घटरूपधर्मान्तरस्वीकारः। लक्षणपरिणामश्च यथा-तस्यैव घट-स्यानागताऽध्वपरित्यागेन वर्तमानाध्वस्वीकारः, तत्परित्यागेन वाऽतीताध्वपरिग्रहः। अवस्थापरिणामश्च यथा- तस्य घटस्य प्रथमद्वितीययोः क्षणयोः सदृशयोरन्वयित्वेन चलगुणवृत्तीनां गुणपरिणामनं धर्मीय शान्तोदितषु शवितरूपेण स्थितेषु सर्वत्र सर्वात्मकत्यव्यपदेशेषु धर्मेषु कथचिदिन्नप्वन्वयी दृश्यते, यथा-पिण्डघटादिषु मृदेव प्रतिक्षणमन्यान्यत्वाद्विपरिणाभान्यत्वम् / तत्र केचित्परिणामाः प्रत्यक्षेणैवोपलक्ष्यन्ते, यथासुखादयः संस्थानादयो वा। केच्चिानुमानगम्या, यथा-कर्मसंस्कारशवितप्रभृतयः / धर्मिणश्च भिन्नाभिन्नरूपतया सर्वत्रानुगम इति न काचिदनुपपत्तिः / तदिदमुक्तम्- "एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याः” (3-13) / “शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी" (3-14) "क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतु-रिति” (3-15) // 24 // (द्वा०) (25 श्लोकः 'सप्पवित्तिप-यावहा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः1) (26 श्लोकः 'परा' शब्दे पञ्चमभागे 546 पृष्ठे गतः।) स्वरूपमात्रनिर्भासं, समाधियानमेव हि। विभागमनतिक्रम्य, परे ध्यानफलं विदुः / / 27|| स्वरूपेति-स्वरूपमात्रस्य ध्येयस्वरूपमात्रस्य निर्भासो यत्र तत्तथा। अर्थाकारसमावेशेन भूतार्थरूपतया न्यग्भूतज्ञानस्वरूपतया च ज्ञानस्वरूपशून्यतापत्तेः ध्यानमेव हि समाधिः / तदुक्तम्-"तदवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः" इति। (3-3) विभागमाङ्गो योगः इति प्रसिद्धमनतिक्रम्यानुल्लङ्घय परे ध्यानफलं समाधिरिति विदुः / निराचारपदो ह्यस्या-मतः स्यान्नातिचारभाक् / चेष्टा चास्याखिलाभुक्त--भोजनाभाववन्मता॥२८॥ निराचारेति-अस्या दृष्टौ योगी नातिचारभाक् स्यात् तन्निबन्धनाभावात् / अतो निराचारपदः प्रतिक्रमाद्यभावात्, चेश चास्यैतददृष्टिमतोऽखिलाभुक्तभोजनाभाववन्मता आचारजेयकर्मा-भायात्, तस्य भुक्तप्रायत्वात, सिद्धत्वेन तदिच्छाविघटनात्। कथं तर्हि भिक्षाटनाद्याचारोऽत्रेत्यत आहरत्नशिक्षादृगन्या हि, तन्नियोजनदृग्यथा। फलभेदात्तथाचार-क्रियाऽप्यस्य विभिद्यते // 26 / / रत्नेति-रत्नशिक्षादृशोऽन्या हि यथा शिक्षितस्य सतस्तन्नियाजनदृक्, तथाऽऽचारक्रियाऽप्यस्य भिक्षाटनादिलक्षणफलभेदाद्विभिद्यते / पूर्व हि साम्परायिककर्मक्षयः फलम्, इदानीं तु भवापग्राहिकर्मक्षय इति। कृतकृत्यो यथा रत्न-नियोगाद्रत्नविद्भवेत् / तथाऽयं धर्मसंन्यास-विनियोगान्महामुनिः।।३०।। कृतकृत्य इति-यथा रत्नस्य नियोगात् शुद्धदृष्ट्या यथच्छव्यापाराणिग् रत्नवाणिज्यकारि कृतकृत्यो भवेत् तथाऽयमधिकृतदृष्टिस्थ धर्मसंन्यासविनियोगात द्वितीयापूर्वकरणे महामुनिः कृत-कृत्यो भवति। केवलश्रियमासाद्य, सर्वलब्धिफलान्विताम्। परंपरार्थ संपाद्य, ततो योगान्तमश्नुते // 31|| के वले ति-के वल श्रियं के वल ज्ञानलक्ष्मीमासाद्य-प्राप्य सर्वल-ब्धिफलान्वितां सर्वोत्सुक्यनिवृत्त्या परंपरार्थ यथा भव्यं सम्य-क्त्वादिलक्षणं संपाद्य ततो योगान्त-योगपर्यन्तमश्नुते Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 427 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि प्राप्नोति। तत्रायोगाद्योगमुख्याद्भवोपग्राहिकर्मणाम्। क्षयं कृत्वा प्रयात्युच्चैः, परमानन्दमन्दिरम् // 32 // तत्रेति-तत्र योगान्ते शैलेश्यवस्थायाम् अयोगादव्यापारात योग... मुख्यात् भयोपग्राहिणां कर्मणां क्षयं कृत्वा उचैलोकान्ते परमाऽऽ . नन्दमन्दिरं प्रयाति द्वा० 24 द्वा० / साम्प्रतं समाधिरुच्यते तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्यादनादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाहदव्वं जेण व दव्वेण समाही आहिअंच जं दव्वं / भावसमाहिचउव्विह-दसणनाणे तवचरित्ते / / 327 / / द्रध्यमिति-द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिर्यथा भात्रकम्, अवि-रोधि वा क्षीरगुडादि, तथा येन वा द्रव्येणोपयुक्तेन समाधिरित्र-फलादिना तद द्रव्यसमाधिरिति / तथा आहितं वा यद् द्रव्यं समता करोलि तुलारोपित्पलशतादिवत् स्वस्थाने तत् द्रव्यं समाधिरिति / उक्तो द्रव्यसमाधिः / / भावसमाधिमाह-भावसमाधिः प्रशस्तभावविरोधलक्षणश्चतुर्विधः, चातुर्विध्यमेवाह-दर्शनज्ञानत--पश्चारित्रेषु एतद्विषयो दर्शनादीनां व्यस्ताना समस्तानां वा सर्वथा अविरोध इति गाथार्थः / दश०६ॐ०१ उ० / पा०। उत्त० / मोक्षे, सम्यग्ध्याने, सदनुष्ठाने च। सूत्र०१8०३१०३ उ० / स्था। दसविहा समाही पण्णत्ता, तंजहा-पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे इरि-- यासमिई मासासमिई एसणासमिई आयाणउच्चारपासवण--- खेलसिंघाणगपारिट्ठावणियासमिई। (सू०११४) समाधानं समाधिः, समता सामान्यतो रागाद्यभाव इत्यर्थः, स चोपाधिभेदात्दशधति। स्था० 10 ठा०३ उ०। संथा० अनु-टाने.सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०। सम्यगमार्गानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० / गुर्वादीनां कार्यकारणद्वारेण चित्तस्वास्थ्योत्पादने, ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ०। आ० क०। ('समाहाण' शब्दे अस्मिन्नेव भागे कथा-नकम्।) शुभलेश्याध्यवसाये, दश०२ चू० / भारते वर्षे उत्सर्पि–ण्यां भविष्यति सप्तदशे तीर्थकरे, स०८४ सम० / ति० / सत्तरसो रेवइजीवो समाही। ती०२ कल्प। समतायाम प्रश्न०१संव० द्वारा धर्मे समाधिः कर्त्तव्यः, सम्यगाधीयते व्यवस्थाप्यो माक्ष सन्मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः धर्मध्यानादिकः / स सम्यग ज्ञात्वा स्पर्शनीयः। नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकृदाह आयाणपदेणाऽऽघं, गोणं नामं पुणो समाहि त्ति। णिक्खिविऊण समाहिं, भावसमाहीइ पगयं तु / / 103 / / णामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो उसमाहीए, णिक्खेवो छविहो होइ॥१०४|| पंचसु विसएसु सुभेसु,दव्वम्मित्ता भवे समाहित्ति। खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जो उ / / 105|| भावसमाही चउव्विह, दंसणणाणे तवे चरित्ते य। चउसु वि समाहियप्पा, सम्मं चरणट्टिओ साहू // 106 / / आदीयते-गृह्यते प्रथमम्-आदौ यत्तदादानम् आदानंचतत्पदं च सुबन्तं तिडन्त वा तदादानपदं तेन 'आघं' ति नामास्याध्ययनस्य, यस्मादध्ययनादाविद सूत्रम्- "आघं मईमं मणुवीइधम्म" इत्यादि, यथोत्तराध्यनेषु चतुर्थमध्ययनं प्रमादाप्रमादाभिधाय-कमप्यादानपदेन 'असं खय' मित्युच्यते, गुणनिष्पन्न पुनरस्या-ध्ययनस्य नाम समाधिरिति, यस्मात्स एवात्र प्रतिपाद्यते, तं च समाधिं नामादिना निक्षिप्य भावसमाधिनेह प्रकृतम् -अधिकार इति / समाधिनिक्षेपार्थमाह-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, एष तु समाधिनिक्षेपः षविधो भवति। तु शब्दो गुणनिष्पन्नस्यैव नाम्नो निक्षेपो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनार्थ इति / नामस्थापने सुगमत्वादनाहृत्य द्रव्यादिकमधिकृत्याह-पञ्चस्व-पिशब्दादिषु मनोज्ञेषु विषयेषु श्रोत्रादीन्द्रियाणां यथास्वं प्राप्तो सत्यां यस्तुष्टिविशेषः स द्रव्यसमाधिः,तदन्यथा त्वसमाधिरिति। यदिवा-द्रव्ययोर्द्रव्याणां वा सम्मिश्राणामविरोधिनां सतां न रसोपघातो भवति, अपितु रसपुष्टिः स द्रव्यसमाधिः / तद्यथाक्षीरशर्करयोदधिगुडचातुर्जातकादीनां चेति, येन वा द्रव्येणोपभुक्तेन समाधिपानकादिना समाधिर्भवति तद् द्रव्यं द्रव्यसमाधिः। तुलादावोरोपितं वा यद् द्रव्यं समतामुपैतीत्यादिको द्रव्यसमाधि-रिति / क्षेत्रसमाधिस्तु यस्य यस्मिन् क्षेत्रे व्यवस्थितस्य समाधि-रुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यात क्षेत्रेसमाधिः / यस्मिन् वा क्षेत्रे समा-धिव्यविर्यत इति। कालसमाधिरपि यस्य यं कालमवाप्य समा--धिरुत्पद्यते तद्यथा-शरदि गवां नक्तमुलूकानामहनि बलिभुजा, यस्य वा यावन्तं काल समाधिर्भवति यस्मिन् वा काले समाधि-व्याख्यायते स कालप्राधान्यात् कालसमाधिरिति / भावसमाधि त्वधिकृत्याह-भावसमाधिस्तु दर्शनज्ञानलपश्चारित्रभेदाच्चतुर्दा, तत्र चतुर्विधमपि भावसमाधि समासतो माथापश्वार्धनाह-मुमुक्षुणा चर्यत इति चरणं तत्र सम्यक् चरणे चारित्रे व्यवस्थितः समुद्युक्तः साधु:-मुनिश्चतुर्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनज्ञान-तपश्चारित्ररूपेषु सम्यगाहितो-व्यवस्थापित आत्मा येन स समा-हितात्मा भवति। इदमुक्तं भवति-यः सम्यक्चरणे व्यवस्थितःस चतुर्विधभावसमाधिसमाहितात्मा भवति / यो वा भावसमाधिसमाहितात्मा भवति, स सम्यक्चरणे व्यवस्थितो द्रष्टव्य इति। तथाहि-- दर्शनसमाधी व्यवस्थितोजिनवचनभावितान्तः करणो निवातशरणप्रदीपवन कुमतिवायुभि म्यते, ज्ञानसमाधिना तु यथा यथाऽपूर्व श्रुतमधीते तथा तथाऽतीव भावसमाधावुद्यक्तो भवति। तथा चोक्तम्"जह जह सुयमवगाहइ, अइसयरसपस-रसंजुयमउव्यं / तह तह पल्हाइ मुणी, णवणवसंवेगसद्धाए / / 1 / / " चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिःस्पृहतया निष्किानोऽपि परं समाधिमाप्नोति, तथा चोक्तम्- "तण संथारणिरान्नी, ऽवि मुणि-वरो भट्टरागमयमोहो। जं पावइ मुत्तिसुहं, कत्तो तं चक्रवट्टी वि? ||1 / / नैवास्ति राजराजस्य तत्सुख नैव देवराजस्य / यत्सुख-मिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य" / / 2 // इत्यादि, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि तपःसमाधिनाऽपि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा क्षुत्त- ष्णादिपरीषहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निवार्णस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यत इत्येवं चतुर्विधभावसमाधिस्थः सम्यक्चरणव्यवस्थितो भवति साधु-रिति। गतो नामन्निष्पन्नो निक्षेपः,साम्प्रत सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचरणीय, तच्चेदम्आघं मईमं मणुवीय धम्म, अंजू समाहिं तमिणं सुणेह। अपडिन्न भिक्खू उ समाहिपत्ते, अणियाणभूतेसु परिव्वएज्जा / / 1 / / उड्ढे अहेयं तिरिय दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य णो गहेजा / / 2 / / सुयक्खायधम्मे वितिगिच्छतिण्णे, लाढे चरे आयतुले पयासु। आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू ||3|| सव्विंदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के / पासहि पाणे य पुढो वि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्पमाणे ||4|| अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः तद्यथा-अशेषगारवपरिहारेण मुनिर्निर्वाणमनुसन्धयेदित्येतद्भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः समाख्यातवान,एतच्च वक्ष्यमाणमाख्यातवानिति, 'आध' ति-आख्यातवान कोऽसौ?-मतिमान-मनन मतिः-समस्तपदार्थ-परिज्ञानं तद् विद्यते यस्यासा मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रा--सधारणविशेषणो - पादानात्तीर्थकृद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्ते-रिवर्द्धमानस्वामी गृह्यते, किमाख्यातवान्? धर्म-श्रुतचारित्रा-ख्यं, कथम्? अनुविचिन्त्यकेवलज्ञानेन ज्ञात्वाप्रज्ञापनायो-ग्यान पदार्थानाश्रित्य धर्म भाषते, यदि वाग्राहकमनुविचिन्त्य कस्यार्थस्यायं ग्रहणसमर्थः? तथाकोऽयं पुरुषः? कश नतः? किं वा दर्शनमापन्नः? इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषको वा मन्य-न्ते, यथा-प्रत्येकमस्मदभिप्रायनुविचिन्त्य भगवान धर्म भाषते, युगपत्सर्वेषां स्वभाषापरिणत्या संशयापगमादिति, किं भूतं धर्मभाषते? ऋजुम्--अवक्र यथावस्थितवस्तुस्वरूपतिरूपणतो, न यथा शाक्याः सर्व क्षणिकाभ्युदगम्य कृतनाशाकृताभ्यागमदोष-भयात्सन्तानाभ्युपगमं कृतवन्तः, तथा वनस्पतिमचेतत्वेनाभ्यु-पगम्य स्वयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु ददति, तथा कार्षापणादिकं हिरण्यं स्वतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्परिग्रहतः क्रयविक्रय कारयन्ति, तथा सांख्याः सर्वमप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभाव नित्यमभ्युपगम्य कर्मबन्धमोक्षाभावप्रसङ्ग दोषभयादाविर्भावतिरोभावावाश्रितवन्त इत्यादिकौटिल्य भावपरिहा-रेणावळं तथ्यं धर्ममाख्यातवान्, तथा सम्यगाधीयते-मोक्षं तन्मार्ग वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते-व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासौ धर्मः समाधिस्तं समाख्यातवान् / यदिवा-धर्ममाख्यातवाँस्तत्समाधिं च धर्मध्यानादिकमिति / सुधर्मस्वाम्याह-तमिमं-धर्म समाधिं वा भगवदुपदिष्ट शृणुत यूयम्। तद्यथा न विद्यते ऐहिकामुष्मिकरूपा प्रतिज्ञाआकाङ्क्षा तपोऽनुष्ठान कुर्वतो यस्यासावप्रतिज्ञो, भिक्षणशीलो भिक्षुः तुर्विशेषणे भावभिक्षुः, असावेव परमार्थतः साधुः, धर्म धर्मसमाधि च प्राप्तोऽसावेवेति। ('अणियाणभूतेसुपरिव्व-एजा' अस्य पदस्य व्याख्या 'अणिदाणभूय' शब्दे प्रथमभागे 334 पृष्ठे गता।) तथा प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्त्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्धा। तच क्षेत्रप्राणा-तिपातमधिकृत्याह-सर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञाप-कापेक्षयोर्ध्वमस्तिर्यक् क्रियते / यदिवाऊवधिस्तिर्यगपेषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिक्षु विदिक्षु चेति, द्रव्यप्राणाति-पातस्त्वयंत्रस्यन्तीति त्रसा-द्वीन्द्रियादयो ये च स्थावराः पृथि--व्यादयः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः, कालप्राणातिपातसंसूचनार्थो वा दिवा रात्रौ वा प्राणा:-प्राणिनः, भावप्राणातिणतं त्वाह-- एतान् प्रागुक्तान् प्राणिनो हस्तपादाभ्यां संयम्य-बद्धा उपलक्षणार्थत्वादस्यान्यथा वा कदर्थयित्वा यत्तेषां दुःखोत्पादनं तन्न कुर्यात् / यदिवाएतान् प्राणिनो हस्तौ पादौ च संयतकायः सन्न हिस्यात् / चशब्दादुच्छासनिः श्वासकासितक्षुतवातनिसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाक्कायकर्मसु संयतो भवन भावसमाधिमनुपा-लयेत्। तथा परैरदत्तं न गृह्णीयादिति तृतीयवतोपन्यासः, अदत्तादाननिषेधाच्चार्थतः परिग्रहो निषिद्धो भवति, नापरिगृही-तमासेव्यत इति मैथुननिषेधोऽप्युक्तः। समस्तव्रतसम्यक्पाल-नोपदेशाच मृषावादोऽप्यर्थतो निरस्त इति // 2 // ज्ञानदर्शनसमाधिमधिकृत्याह-- सुष्वाख्यातः श्रुतचारित्राख्यो धर्मो येन साधुना-ऽसौ स्वख्यातधर्मा, अनेन ज्ञानसमाधिरुक्तो भवति, न हि वि-शिष्टपरिज्ञानमन्तरेण स्वाख्यातधर्मत्वमुपपद्यत इति भावः। तथा विचिकित्साचित्तविप्लुतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा तां वि] तीर्णः- अतिक्रान्तः 'तदेव च निःशङ्कयजिनः प्रवेदित' मित्येवं निःशङ्कतया नवचिचित्तविप्लुतिं विधत्त इत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपादितो भवति, येन केनचित्प्रासुकाहारोपकरणादिगतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयति-पालयतीति लाढः,स एवम्भूतः संयमानुष्ठानं चरेद्-अनुतिष्ठत्, तथा प्रजायन्त इति प्रजाः-- पृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वात्मातुल्यः, आत्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः, एवम्भूत एव भावसाधुर्भवतीति / तथा चोक्तम्- “जह मम ण पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाण। ण हणेइण हणावेइय, सममणई तेण सो समणो ||1 // " यथा च ममाऽऽकुश्यमानस्या-भ्याख्यायमानस्य वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मत्वा प्रजास्वात्मसमो भवति / तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा 'आय' कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात् / तथा--चयम्उपचयमाहारोपकरणादर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेर्वा परिग्रहलक्षण संचयमायात्यर्थ सुष्टु तपस्वी सुतपस्वीविकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो भि Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि क्षुन कुर्यादिति / / 3 / / (गाथापूर्वार्द्धव्याख्या 'इत्थी' शब्दे द्वितीय-भागे 614 पृष्ठे गतः।) स एवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः सन् पश्य-अवलोकय पृथक पृथिव्यादिषु कायेषु सूक्ष्मबादरपर्या-तकापर्याप्तकभेदभिन्नान् सत्त्वान्-प्राणिनः अपिशब्दावनस्पति--काये साधारणशरीरिणाऽनन्तानप्यकत्वमागतान् पश्य, किं भूतान्? दुःखेन-असातवेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम् अष्टप्रकार कर्म तेनानि-पीडितान् परिसमतात्संसार-कटाहोदरे स्वकृतेनेन्धनेन परिपच्यमानान्-वध्यमानान, यदिवा-दुष्प्रणि हितेन्द्रियानार्तध्यानोपगतान्मनोवाक्कायैः परितप्यमानान् पश्येति सम्बन्धो लगनीय इति। अपिचएतेसु बाले य पकुव्वमाणे, आवट्टती कम्मसु पावएसु। अतिवायतो कीरति पावकम्म, निउंजमाणे उ करेइ कम्मं // 5 // आदीणवित्तीय करेति पावं, मंताउ एगंतसमाहिमाहु। बुद्धे समाही य रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियऽप्पा / / 6 / / सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा। उट्ठाय दीणो य पुणो विसन्नो, संपूयणं चेव सिलोयकामी // 7 / / आहाकडं चेव निकाममीणे, नियामचारी य विसण्णमेसी। एतेषु प्राग निर्दिष्टषु प्रत्येकसाधारणप्रकारेषूपतापक्रियया बालवत् बालः अज्ञश्वशब्दादितरोऽपि संघट्टनपरितापनापद्रावणादिके-नानुष्ठानेन पापानि कर्माणि प्रकर्षण कुर्वाणस्तेषु च पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजन्तुषु गतः संस्ते नैव संघट्टनादिना प्रकारेणानन्तशः आवर्त्यते-पीड्यते दुःखभाग्भवतीति / पाठा-न्तर वा-एवं तु वालेएवमित्युपदर्शन यथा चौरः पारदारिको वा असदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान् बन्धवधादींश्चेहावाप्नात्येवं सामान्यदृष्टेनानुमानान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःख-भाग्भवति, 'आउद्दति' त्ति क्वचित्पाठः, तत्राशुभान् कर्मविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेभ्योऽसदनुष्ठानेभ्यः 'आउट्टति' ति-नि-वर्तते, कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्तते निवर्त्तत वा इत्याशङ्करः तानि दर्शयति-अतिपाततः-प्राणातिपाततः प्राणव्यपरोपणाद्धतास्तचाशुभम्-ज्ञानावरणादिकं कर्म क्रियतेसमा-दीयते, तथा परांश्च भृत्यादीन प्राणातिपातादौ नियोजयन्-व्या-पारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृषावादादिकं च कुर्वन कार-यश्च पापकं कर्म समुचिनोतीति / / 5 / / किं चान्यत्-आ-समन्ता-दीना-करुणास्पदा वृत्तिःअनुष्ठानं यस्य कृपणवनीपकादेःस भवत्यादीनवृत्तिः, एवम्भूतोऽपि पापं कर्म करोति, पाठान्तरं वा (आदीनभोज्यपि पापं करोतीति 'आईणभाई' शब्दे द्वितीयभागे 7 पृष्ठे गतम् / ) द्रव्यसमाधयो हि स्पादिसुखोत्पादका अनेका-न्तिका अनात्यन्तिकाश्च भवन्ति, अन्ते चावश्यमसमाधिमुत्पा-दयन्ति, तथा चोक्तम्- "यद्यपि निषेव्यमाणा, मनसः परितुष्टि-कारका विषयाः / किम्पाकफलादनव-द्भवन्ति पश्चादतिदु-रन्ताः।।१।।" इत्यादि, तदेवं बुद्धः-अवगततत्त्वः स चतुर्विधेऽपि ज्ञानादिके रतोव्यवस्थितो विवेके वा आहारोपकरणकषायपरित्यागरूपे द्रव्यभावात्मके रतः सन्नेवभूतश्च स्यादित्याहप्राणानां दशप्रकाराणामप्यतिपातो-विनाशस्तस्माद् विरतः स्थितः सम्यग्मार्गेषु आत्मा यस्य सः, पाठान्तर वा-ठियच्चि त्ति-स्थिता शुद्धस्वभावात्मना अर्चिः-लेश्यायस्य स भवति स्थितार्चिः, सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः / / 6 / / किंच-सर्व-चराचर जगत्-प्राणिसमूह समतया प्रेक्षितुं शीलमस्य स समतानुप्रेक्षी समताप-श्यको वा, न कश्विप्रियो नापि द्वेष्य इत्यर्थः तथा चोक्तम्- "नस्थि य सि कोइ वि (दि) स्सो, पिओ व सव्वेसुचेव जीवेसु।" तथा "जह ममण पियं दुःख" मित्यादि-समतोपेतश्च न कस्यचित्प्रि-यमप्रियं वा कुर्यान्निःसङ्गतया विहरेद, एवं हि सम्पूर्णभावस-माधियुक्तो भवति। कश्चित्तु भावसमाधिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीषहोपसर्गस्तर्जितो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषण्णो भवति, वि-षयार्थी वा कश्चिद्गार्हस्थ्यमप्यवलम्बते, रससातागौरवगृद्धो वा पूजा सत्काराभिलाषी स्यात्, तदभावे दीनः सन् पार्श्वस्थादि-भावेन वा विषण्णो भवति, कश्चित्तथा सम्पूजनं वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयेत, श्लोककामी च-श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणित-ज्योतिषनिमित्तशास्त्राण्यधीते कश्चिदिति // 7 // किंचान्यत-साधूनाधाय-उद्दिश्य कृत निष्पादितमाधाकर्मेत्यर्थः,तदेवम्भू-तमाहारोपकरणादिकं निकामम्अत्यर्थ यः प्रार्थयते स 'निका-ममीणे' इत्युच्यते / तथा-निकामम्अत्यर्थम् आधाकर्मादीनि तन्निमित्तं निमन्त्रणादीनि वा सरति-चरति तच्छीलश्च स तथा, एवम्भूतः पार्श्वस्थाक्सन्नकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठानविषण्णतया संसारपङ्कावसन्नो भव-तीति यावत्, ('इत्थीसु' इत्यारभ्य 'परिग्गह' शब्दे पञ्चमभागे 556 पृष्ठे गतम्।) तथा 'वेराणुविः ' इत्यादि 'धम्म' शब्दे 4 भागे 2676 पृष्ठे गतम्।) किंचान्यत्आयं ण कुजा इह जीवियट्ठी, असजमाणो य परिव्वएजा। णिसम्मभासीय विणीय गिद्धि, हिंसन्नियं वा ण कहं करेजा / / 10 / / आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो॥११॥ आगच्छतीत्यायो-द्रव्यादेला भस्तन्निमित्तपादितोष्ट प्रकार Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 430 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि कम लाभा वा तम्. इह-अस्मिन् संसारे असंयमजीवितार्थी भोगप्रधानजाविता त्यर्थः / यदिवा-आजीविकाभयात् द्रव्यसञ्चय न कुर्यात् पाठान्तरं वा- 'छन्दण कुजा' इत्यादि, छन्दः प्रार्थ-नाभिलाष इन्द्रियाणां स्वविषयाभिलाषो वा तत् न कुर्यात्, तथा असजमानः सङ्गमकुर्वन् गृहपुत्रकलत्रादिषु परिव्रजेत्-उद्युक्त-विहारी भवेत, तथा गृद्धि- गाध्य विषयेषु शब्दादिषु विनीयअ-पनीय-निशम्य-अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत, तदेव दर्शयति-हिंसया-- प्राण्युपमर्दरूपया अन्वितायुक्ता कथां न कुर्यात्-न तत् बूयात् यत्परात्मनोरुभयोर्वा बाधक वच इति भावः / तद्यथा-- अश्नीत पिबत खादत मोदत हत छिन्त प्रहरत पचतेत्यादिकथा पापोपादानभूतां न कुर्यादिति // 10 // अपि च-साधूनाधाय कृतमाधाकृतमौद्देशिकमाधाकर्मत्यर्थः, तदेवंभूत-माहारजातं निश्चयेनैव न कामयेत्- नाभिलपे तथाविधाहारादिकं च निकामयतः-निश्चयेनाभिलषतः पार्श्वस्थादीस्तत्सम्पर्कदानप्रतिग्रहसंवाससंभाषणादिभिः न संस्थापयेत्नोपद्व्हयेत्, तैर्वा सार्ध संस्तवं न कुर्यादिति / किश्व-- 'उरालं' ति औदारिक शरीरं-विकृष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुप्रेक्षमाणो धुनीयात्-कृश कुर्यात् / यदि वा-- 'उराल' ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म तदुदारं मोक्षमनुप्रेक्षमाणो धुनीयाद्-अपनयेत, तस्मिँश्च तपसा धूयमाने कृशीभवति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात्. तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणःशरीरक धुनीयादिति सम्बन्धः / सूत्र०१ श्रु० १०अ०। किञ्चाऽन्यत्इत्थीसु या आऽरय मेहुणाउ, परिग्गहं चेव अकुव्वमाणे। उचावएसुं विसएसु ताई, निस्संसयं भिक्खु समाहिपत्ते / / 13 / / दिव्यमानुषतिर्यगपासु त्रिविधास्वपि स्त्रीषु विषयभूतासु यत् मैथुनम्अब्रह्म तस्माद् आ--समन्तान्न रतः-अरतो निवृत्त इत्यर्थः, तुशब्दात्प्राणातिपातादिनिवृत्तश्च तथा परिसमन्ताद् गृह्यते इति परिग्रहो धन्धान्यद्विपदचतुष्पदादिसंग्रहःतथा-ऽऽत्माऽऽत्मीयग्रहस्त चैवाकुर्वाणः सन्नुचावचेषु-नानारूपेषु यदिवोच्चा-उत्कृष्टा अवचा जधन्यास्तेष्वरक्तद्विष्टः त्रायी-अ-परेषां च त्राणभूतो विशिष्टोपदेशदानतो निःसंशयंनिश्चयेन परमार्थतो भिक्षुः-साधुरेवम्भूतो मूलोत्तरगुणसमन्वितो भावसमाधि प्राप्तो भवति, नापरः कश्चिदिति / उच्चावचेषु वा विषयेषु भावसमाधि प्राप्तो भिक्षुर्न संशयं याति नानारूपान् विषयान् न संश्रयतीत्यर्थः / / 13 // (14 गाथा परिसह' शब्दे पञ्चमभागे 647 पृष्ठे उक्ता / ) किश्चान्यत्गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहटु परिव्वएज्जा। गिहं न छाए ण वि छायएज्जा, संमिस्सभावं पयहे पयासु // 15|| वाचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्तो–मौनव्रती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धभाषी वेत्येवं भावसमाधि प्राप्तो भवति, तथा शुद्धा लेश्या तेजस्यादिकां समाहृत्य--उपादाय अशुद्धा च कृष्णादि कामपहृत्य परिसमन्तासंयमानुष्ठाने व्रजेत् गच्छेदिति। किंचान्यत्-गृहम् आवसथं स्वतोऽन्येन वा न छादयेदुपलक्षणार्थत्वादस्यापरमपि गृहादेरुरगवत्परकृतबिलनिवासित्वात्संस्कारं न कुर्यात् / अन्यदपि गृहस्थकर्त्तव्यं परिजिहीर्षुराह-प्रजायन्त इति प्रजास्तासु-तद्विषये येन कृतेन सम्मिश्रभावो भवति तत्प्रजह्यात् / एतदुक्तं भवति-प्रव्रजितोऽपि सन् पचनपाचनादिकां क्रियां कुर्वन् कारयश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभावं भजते। यदि वाप्रजाःस्त्रिय-स्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावस्तम-विकलसंयमार्थी प्रजह्यात-परित्यजेदिति / / 15 / / ('जे केइ' 0 इत्यादि 16 गाथा 'अकिरि-याआय' शब्दे प्रथमभागे 126 पृष्ठे गता।) किंचान्यत्पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुढो य वायं जायस्स बालस्स पकुव्व देहं, पवड्डी वेरमसंजतस्स॥१७॥ पृथक-नाना छन्दः- अभिप्रायो येषां ते पृथक्छन्दा इह अस्मिन्मनुष्यलोके मानवा-मनुष्याः तुरवधारणे,तमेव नानाभिप्राय-माहकियाऽक्रि ययो: पृथक्त्वेन क्रियावादमक्रियावादं च समाश्रिताः तद्यथा-- "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् / यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सु खितो भवेत् // 1 // " इत्येवं क्रियैव फलदायित्वेनाभ्युपगताः क्रियावादमाश्रिताः, एवमेतद्वि-पर्ययणाक्रियावादमाश्रिताः, एतयोश्वोत्तरत्र स्वरूप न्यक्षेण वक्ष्यते ते च नानाभिप्राया मानवाः क्रियाऽक्रियादिकं पृथग्वादमाश्रिता मोक्षहेतु धर्ममजानाना आरम्भेषु सक्ता इन्द्रियवशगा रससातागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति,तद्यथा- 'जातस्य-उत्पन्नस्य बालस्य अझस्य सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो देहम्-शरीरं 'पकुव्व' ति-खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति,तदेवं परोपघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तर-शतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षण वर्धत / पाठान्तरं वा-'जायाएँ बालस्स पगडभणाएं बालस्य-अज्ञस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पस्य या जाता प्रगल्भताधाष्य तया वैरमेव प्रवर्धत इति सम्बन्धः / / 17 / / (18 गाथा 'आउक्खय' शब्दे द्वितीयभागे 27 पृष्ठे गता।) किंचान्यत्जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लालप्पवी सेऽवि य एइ मोहं, अन्ने जणा तंसि हरति वित्तं / / 16 / / Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहिबहुल सीहं जहा खुडुमिगा चरंता, यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानिदूरे चरंती परिसंकमाणा। दुःखो-त्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुबध्नन्ति तच्छीलानि च वैरानुएवं तु मेहावि समिक्ख धम्म, बन्धीनि-जन्मशतसहस्रदुर्मोचानि, अत एव महदयं येभ्यः सकाशातानि दूरेण पावं परिवज्जएज्जा / / 20 / / महाभयानीति, एवं च मत्वा मतिमानात्मानं पापा-निवर्तयेदिति / वित्तं-द्रव्यजातं तथा पशवो-गोमहिष्यादयस्तान् सर्वान जहाहि- पाटान्तरं वा 'निव्वाणभूएव परिव्वएज्जा' अस्या-यमर्थः--यथाहि निर्वृतो परित्यज तेषु ममत्वमा वृथाः, ये बान्धवा-मातापित्रादयः श्व-शुरादयश्च निर्व्यापारत्वात्कस्यविदुपघातेन वर्तते एवं साधुरपि सावद्यानुष्ठानरहितः पूर्वापरसंस्तुता ये च प्रिया मित्राणि सह पांसुक्रीडिता-दयस्ते एते परि- समन्ताद् व्रजेदिति // 21 / / तथा आप्तो-मोक्षमार्गस्तगामीमातापित्रादयो न किंचित्तस्य परमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽपि च तद्गमनशील आत्महित-गामी वा, आतो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तवित्तपशुबान्धवमित्रार्थी अत्यर्थं पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते तद्यथा-हे दुपदिष्टमार्गगामी मुनिः-साधुः मृषावादम्-अनृतमयथार्थ न ब्रूयात् मातः? हे पितरित्येवं तदर्थ शोकाकुलः प्रलपति, तदर्जनपरश्न सत्यमपि प्राण्युपधा-तकमिति, 'एतदेव मृषावादवर्जनम्' कृत्स्नं-संपूर्ण मोहमुपैति / रूपवानपि कण्डरीकवत्, धनवानपि मम्मणवणिग्वत् भावसमाधि निर्वाणं चाहुः, सांसारिका हि समाधयः-स्नानधान्यवानपि तिलक श्रेष्टिवद्, इत्ये--वमसावप्यसमाधिमान मुह्यते (ति) भोजनादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिका नात्यन्तियच्च तेन महता क्लेशोनाप-रप्राण्युपमर्दैनोपार्जितं वित्तं तदन्ये जनाः कत्वेन दुःखप्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते. तदेवं मृषावादमन्येषां 'से' तस्यापहरन्ति जीवत एव मृतस्य वा, तस्य च क्लेश एव केवलं वा व्रतानामतिचारं स्वयमात्मना न कुन्निाप्यपरेण कारये तथा पापबन्धश्वेत्येवं मत्वा पापानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति / / 16 / / कुर्वन्तमप्यपरं मनोवाक्कायकर्मभिर्नानुमन्येन इति॥२२॥ सूत्र०१ श्रु० 10 अ० आ० चू०। सामर्थ्य , आव०६ अ० शीले, स्था० 4 ठा०१ तपश्वरणोपा-यमधिकृत्याह-यथा क्षुद्रमृगा:-क्षुद्राटव्यपशवो उ०। (आहारविषयकसमाधिवक्तव्यता 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 522 हरिणजात्याद्याः चरन्तः-अटव्यामटन्तः सर्वतो बिभ्यतः परिशङ्कमानाः सिंह व्याघ्र का आत्मोपद्रवकारिण दूरेण परिहृत्य चरन्ति-विहरन्ति, एवं पृष्ठे गता।) (समाधिद्वारं समाहाण' शब्दे-ऽस्मिन्भागे गतम्।) मेधावी..मर्यादावान्, तुर्विशेषणे सुतरां धर्म समीक्ष्यपर्यालोच्य पापं समाहिइंदिय पु० (समाहितेन्द्रिय) संयतेन्द्रिये, सूत्र०१ श्रु० 2 अ० 220 / समाहिकाम त्रि० (समाधिकाम) समाधिमभिलषति, व्य०१ उ०। कर्म-असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाकायकर्मभिः परिहृत्य परिसमन्ताद् व्रजेत् समाहिजोय पुं० (समाधियोग) समाधिः-धर्मध्यानं तदर्थं तत्प्रधानो संयमानुष्ठायी तपश्चारी च भवेदिति, दूरेण वा पापंपापहेतुत्वा योगः-मनोवाकायव्यापारः / मनोवाक्कायव्यापारेण धर्मध्याने, सूत्र०१ त्सावद्यानुष्ठानं सिंहमिव मृगः स्वहितमिच्छन् परिवर्जयेत्-परित्यजे श्रु०४ अ०१उ01 दिति // 20 // समाहिट्ठाण न० (समाधिस्थान) समाधे-रागादिरहितचित्तस्य अपि च स्थानानि-आश्रयाः समाधिस्थानानि / पा० / प्रशान्ताश्रयेषु, स० 10 संबुज्झमाणे उ गरे मतीमं, सम० / दशा० / वित्तसमाधिस्थानानि 'चित्तसमाहिट्ठाण' शब्दे पावाउ अप्पाण निवट्टएना। तृतीयभागे 1183 पृष्ठे गतानि।) हिंसप्पसूयाइँ दुहाइँ मत्ता, (ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानान्यपि स्वस्वस्थाने।) वेराणुबंधीणि महब्भयाणि / / 21 / / समाहिट्ठाय वि०(समाधिष्ठातृ) प्रभौ, आचा०। गृहपतौ,आचा०२ श्रु० मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, १चू०७ अ०१ उ०। णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं / समाहिपडिमा स्त्री० (समाधिप्रतिमा) समाधिः श्रुतचारित्रं च तद्विषया सयं न कुजा नय कारवेजा, प्रतिमा-प्रतिज्ञाभिग्रहः समाधिप्रतिमा। प्रतिमाभेदे, स्था० 3 ठा०१ करंतमन्नं पि य णाणुजाणे // 22 // उ०। समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोक्ता द्विभेदाश्रुतसमाधिमननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान, प्रशं साया मतुप, प्रतिमा,सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च / स्था०२ ठा०३ उ०। तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यक् श्रुतचारित्राख्यं धर्म भावसमाधि चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-समाहिपडिमा, उवहावा बुध्यमानस्तु-विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वाणस्तु पूर्व तावन्निषिद्धा- णपडिमा, विवेगपडिमा, विउसग्गपडिमा। (सू० 2514) चरणात् निवर्तेत, अतस्तदर्शयति-पापात्-हिंसानृतादिरूपात्कर्मण (व्याख्या 'पडिमा' शब्दे पञ्चमभागे 332 पृष्ठे गता।) आत्मानं निवर्तयेत्, निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीत्यतोऽ- | समाहिबहुल त्रि० (समाधिबहुल) चित्तस्वास्थ्यप्रचुरे,प्रश्न०३ सर्व० शेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निरुध्यादित्यभिप्रायः। किं द्वार। समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादि वा। तत्प्रचुरे, स्था० 3 ठा० चान्यत्-हिंसा-प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि 4 उ०। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहिमरण 432 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समिइ समाहिमरण न० (समाधिमरण) भक्तपरिज्ञङ्गितमरणपादपो-- पगमनानामन्यतमस्भिन मरणभेदे,आचा०१ श्रु०८ अ० 1 उ०। समाहिय त्रि० (समाधित) शोभने, बीभत्से, दुष्ट च। सूत्र०१ श्रु०३ अ० | 170 / समाहित त्रि० सम्यगाहित व्यवस्थापिते च। सूत्र० 1 श्रु०५ अ० 1 उ०। समापिते, विशे० / शुभाध्यवसयासहिते, सूत्र०१ श्रु० 1 अ० 4 उ०! सम्यगाख्याते.सूत्र०१ श्रु०६ अ०॥ धर्मादिध्यान-युक्ते, सूत्र०१ श्रु० 2 अ०२ उ० / उपयुक्ते, आचा०२ श्रु०४ चू०। समाधि प्राप्ते, सूत्र० १श्रु०३ अ० 4 उ०। आचा० / व्य०। आ० म०। समाधियुक्ते, संघा० 1 अधि०१ प्रस्ता०। समाहृत त्रि० गृहीत, आचा० 1 श्रु० 8 अ०५ उ० , सम्यग्व्यव स्थापिते,आचा०१ श्रु०८ अ०६ अ०। आ० म०। समाहियच्च त्रि० (समाहितार्च) सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता अर्चा-शरीर येन स समाहितार्चः ।नियमितकायव्यापार, अर्चा-लेश्या सम्यगाहिता लेश्या येन स समाहितार्चः / अतिविशुद्धाध्य-वसाये, यदि वा --अर्चा-- क्रोधाध्यवसायात्मिका ज्वाला। समा-हिता–उपशमिता अर्चा येन स तथा। अक्रोधने, आचा०१ श्रु० 8 अ०६ उ०। समाहियप्प त्रि० (समाहितात्मन्) सम्यक्चरणे, चारित्रे व्यवस्थितः समुद्युक्तः साधुर्मुनिश्च चतुर्ध्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनज्ञानतपश्चारित्ररूपेषु सम्यगाहितो व्यवस्थापितआत्मा येन स समाहितात्मा। ध्यानापादकगुणेषु उपयुक्तात्मनि, दश० 10 अ०। समाहियमण त्रि० (समाहितमनस्) समतुल्यं रागद्वेषाकलितमाहितमुपनीतमात्मनि मनो येन स तथा। समाहितात्ममनस्के, प्रश्न०१ संव० द्वार। समाहिरय त्रि० (समाधिरत) ऐकान्तिकात्यन्तिकसुखोत्पादके समाधी रते, सूत्र०१ श्रु०१० अ०॥ समाहिराय पुं० (समाधिराज) सर्वयोगाग्रसरत्वात् (बौद्धमतेन) नैरात्म्यदर्शने, द्वा० 24 द्वा०। समाहिवीरिय न० (समाधिवीर्य) मनआदीनां समाधाने, नि० चू० 1 उ०। समि त्रि० (शमिन्) शमोऽस्यास्तीति शमी / जितमनोवेगे, आचा० 1 श्रु०५ अ०३ उ०। समिइ स्त्री० (समिति) सम्पूर्वस्येण गतावित्यस्य क्तिन्प्रत्यया-न्तस्य समितिर्भवति। समेकीभावेनेतिः-समितिः / शोभनेकान-परिणामस्य चेष्टायाम, आव०४ अ०। उत्त०। सूत्रका दशा० / सम्यक् प्रवृत्तौ, प्रश्न० 1 संव० द्वार। संथा०। समितिरिति पश्चानां चेष्टानां तान्त्रिकी संज्ञा। ध० 2 अधि०। नि० चू०। प्रव० / दश० / चतुर्विंशतिसङ्ख्याके उत्तराध्ययने, स०३६ सम० / उत्त० / सम्य-विजने, प्राणातिपातवर्जने, ओघ01 | स०। आचा० / रथा / आव० / डा० / सम्गग्गगने.रागक प्रवर्तने, | उत्त०२४ अ०। समागमे, स०। पंच समिईओ पण्णत्ताओ, तं जहा-इरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिई। (सू०५+) तथा समितयः-सङ्गताः प्रवृत्तयः, तत्रेयर्यासमितिः-गमने सम्यक् सत्त्वपरिहारतः प्रवृत्तिः, भाषासमितिः-निरवद्यवचनप्रवृत्तिः, एषणासमितिः-द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने-गृहणे भाण्डमात्रयोरुपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणे अवस्थापने समितिःसुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोच्चारस्यपुरीषस्य प्रश्रयणस्य-मूत्रस्य खेलस्य-निष्ठीवनस्य शिक्षाणस्य-नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य-देहमलस्य परिष्ठाप-नायां परित्यागे समितिः-स्थण्डिलादिदोषपरिहारतः प्रवृत्ति-रिति पञ्चमी। स०५ सम०। अट्ठ समितितो पण्णत्ताओ, तंजहा-ईरियासमिति भाससमिती एसणासमिति आयाणमंडमत्तणिक्खेवणासमिती उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिती मणसमिति वइसमिती कायसमिती। (सू०६०३) 'अट्ठ समिई' त्यादि, सम्यगितिः-प्रवृत्तिःसमितिः, ईर्यायां-गमने समितिश्चक्षुर्व्यापारपूर्वतयेतीर्यासमितिः,एवं भाषायां निरवद्यभा-षणतः, एषणायामुद्गमादिदोषवर्जनतः, आदाने-ग्रहणे भाण्डमा-त्रायाः-- उपकरणमात्राया भाण्डस्य वा-वस्वाद्युपकरणस्य मृन्म-यादिपात्रस्य वा मात्रस्य च साधुभाजनविशेषस्य निक्षेपणायां च समितिः सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जितक्रमेणेति, उच्चारप्रश्रवणखेलशिवाणजल्लानां पारिष्ठापनिकायां समितिः स्थण्डिलविशुद्धादिक्रमेण, खेलो, निष्ठीवनं शिड्डाणोनासिकाश्लेष्मेति, मनसः कुशलतायां समितिः, वाचोऽकुशलत्वनिरोधेसमितिः, कायस्य स्थानादिषु समितिरिति। स्था०८ ठा०३ उ०। अट्ठसु वि समिईसु अ, दुबालसंगं अमोअरइ जम्हा। तम्हा पवयणमाया, अज्झयणं होइ नायव्वं // 456|| 'अष्टास्वपि' अष्टसंख्यास्वपि समितिषु द्वादशाङ्गं प्रवचनं स्मवतरतिसंभवति यस्मात्, ताश्चेहाभिधीयन्त इति गम्यते, तस्मात्प्रवचनमाता प्रवचनमातरो वोपचारत इदमध्ययनं भवति ज्ञातव्यमिति गाथार्थः / गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः / उत्त०। (यः समितः स गुप्तः इति 'अब्भुट्ठाण' शब्दे, प्रथमभागे 663 पृष्ठे उक्तम्।) एषणासमितिमाहगवेसणाए गहणे य, परिभोगेसणा य जा। आहारमुवहिसिज्जाए, एए तिण्णि विसोहिए।।११।। उग्गमुप्पायणं पढमे, बिइए सोहेज एसणं। परिभोगम्मि चउक्कं तु, विसोहेज्ज जयं जई।१२।। गवेषणायाम- अन्वेषणायां गृहणे च-स्वीकारे, उभयत्र प्राकत त्वादेषणे ति संवयते. ततो गये पाणायामेषाणा गाणे . Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्च 273 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सच्च नेन संयमेन भूतार्थहितकारिणा सदा-सर्वकाल संपन्नो युक्तः, एतद्गुणसंपन्नश्वासौ भूतेषु--जन्तुषु मैत्री-तद्रक्षणपरतया भूतदयां कल्पयेत-कुर्यात्। इदमुक्तं भवति–परमार्थतः स सर्वज्ञस्तत्त्वदर्शितया यो भूतेषु मैत्री कल्पयेत्, तथा चोक्तम्- “मातृवत्परदाराणि, परद्रव्याणि लोप्टवत / आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति स पश्यति॥१।। / / 3 / / सूत्र 1 श्रु० 15 अ / “वरं कूपशताद्वपी, वरं वापीशतात्क्रतुः / वरं क्रतुशतात्पुत्रः, सत्यं पुत्रशताद्वरम् / / 1 / / " स्था० 4 ठा०३ उ०। सच्चेसु वा अणवजं परं। सत्येषु वाक्येषु यदनवा पीडानुत्पादकं वाक्यं तत् श्रेष्ठ सत्यंतदेव यत्परपीडानुत्पादकम् / यतः लोकेऽपि श्रूयते-वादः तथाऽसत्येन कांशिकः “पतितो वधयुक्तेन नरके तीव्रवेदने" यथा-"तहेव काणं काणि त्ति, पंडग पंडा ति वा / वाहिअं वाहिरोगि त्ति, चोरं चोरि त्ति नो वदे ||1 // " सूत्र० दीपि०१ श्रु०६ अ०। रा० / सद्भ्यो हितं सत्यम्। परमार्थे, यथावस्थितपदार्थनिरूपणे मोक्ष, तदु-भयभूते संयमे, सूत्र० 1 श्रु०१२ अ०। उत्त०। रथा० / नं० / व्य० भ०। ध०। बृ० / स०। सच्चम्मि घिई कुव्वहा (सू०११२४) 'सच्चे' इत्यादि, सद्भ्यो हितः रात्यः-संयमस्तत्र धृति कुरुध्वं, सत्यों वा-मानीन्द्रागमो यथावस्थितवस्तुर वरूपाविर्भावनात / तत्र भगवदाज्ञायां धृतिं कुमार्गपरित्यागेन कुरुध्वमिति / आचा० 1 श्रु०३ अ०२ 30 / तमेव सच्चं णीसकं जं जिणेहिं पवेइयं / (सू०१६२४) 'तमेव सच्च' इत्यादि, यत्र क्वचित्स्वसमयपरसमयज्ञाचार्याभावात् सूक्ष्मव्यवहितातीन्द्रियपदार्थेषुभयसिद्धदृष्टान्तसम्यग- हेत्वभावाच्च ज्ञानावरणीयोदयेन सम्यगज्ञानाभावेऽपि शङ्काविचिकित्सादिरहित इदं भावयेत्,यथा तदेवैक सत्यम्-अवितथम्। आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। तत्सत्यतामेव दर्शयन्नाहसे नूणं भंते ! तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहि पवेइयं? हंतागोयमा! तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं। (सू०३०) "से णूण' मित्यादि व्यक्तम, नवरं तदेव ने पुरुषान्तरैः प्रवेदित रागाद्यपहतत्वेन तत्प्रवेदितस्यासत्यत्वसम्भवात्, सत्यम्-सूनृतं तच्च व्यावहारतोऽपि स्यादत आह-निःशङ्कम्-अविद्यमान-सन्देहमिति। अथ जिनप्रवेदितं सत्यमित्यभिप्रायवान् यादृशो भवति तद्दर्शयन्नाहसे नूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे एवं पकरेमाणे एवं चिट्ठमाणे एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति? हंता गोयमा ! एवं मणं धारेमाणे०जाव भवइ। (सू०३१) 'से नूण' मित्यादि व्यक्तम्, नवर नूनं-निश्चितम्, ‘एवं मणं धारे-माणे' त्ति 'तदेव सायं निःशङ्ख यञ्जिनैः प्रवेदितमित्यनेन प्रकारेण मनामानसमुत्पन्नं सत धारयन-स्थिरीकुर्वन एवं पकरेमाणे' तिउक्तरूपेणानुत्पन्नं सत प्रकुर्वन-विदधानः ‘एवं चिट्टेमाणे' त्ति उक्तन्यायेन मनश्चेष्टयन नान्यमतानि सत्यानीत्यादिचि-न्ताया व्यापारयन चेष्टमानो वा विधेयेषु तपोध्यानादिषु एवं संवरमाणे' त्ति-- उक्तबदेव मनः संवृण्वन्-मतान्तरेभ्यो निवर्तयन प्राणातिपातादीन वा प्रत्या वक्षाणो जीव इति गम्यते, 'आणाए' त्ति आज्ञाया-ज्ञानाद्यासेवारूपजिनोपदेशस्य 'आराहए' त्ति-आराधकः-पालयिता भवतीति / भ०१श०३ उ०। सचंसि परिचिट्ठिसु। (सू०१४०४) सत्यमिति ऋतंतपःसंयमो वा तत्र परिचिते स्थिरे तस्थुः स्थित-वन्तः, उपलक्षणार्थत्वात् त्रिकालविषयता द्रष्टव्या-तत्रातीते काले अनन्ता अपि सत्ये तस्थुर्वर्तमाने पञ्चदशसु कर्मभूमिषु संख्येयास्तिष्ठन्ति, अनागते अनन्ता अपि स्थास्यन्ति / आचा० 1 श्रु० 4 अ०३ उ० / स्वप्रादिप्रकारेण अवितथोपदेष्टरि देवा-दिके, भ० 12 10 8 उ० / औ०। ('विणय' शब्दे षष्ट भागे एत-त्कथानकमुक्तम्।) सच्चमेव समभिजाणाहि सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेहावीमारं तरह। (सू०११८४) सद्भ्यो हितः सत्यः-संयमस्तमेवापरण्यापारनिरपेक्षः समभि-- जानीहि-आसेवनापरिज्ञया समनुतिष्ठ, यदि वा-सत्यमेव समभिजानीहि गुरुसाक्षिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहको भव / यदि वा-सत्यःआगमस्तत्परिज्ञानं च मुमुक्षोस्तदुक्तप्रति पालनम्, किमर्थमेतदिति चेदाह- 'सच्चस्स' इत्यादि सत्यस्य आगमस्याज्ञयोपस्थितः सन् मेधावी मार--संसार तरति। आचा० 1 श्रु०३ अ० 3 उ० / शब्दानुशासनोपदर्शिते यथोक्तलक्षणेऽविपरीते वचने, आ० म०१ अ०। (इदं च 'मुसावायवेरमण' शब्दे षष्ठभागे 325 पृष्ठे विस्तरतः प्रपञ्चितम्।) अथ द्वितीयव्रतलक्षणमाहसर्वथा सर्वतोऽलीका-दप्रियाचाहितादपि। वचनाद्धि निवृत्तिर्या, तत्सत्यव्रतमुच्यते॥४१॥ सर्वतः क्रोधादिसकलप्रकारजनितात् अलीकाद्-असत्याच पुनरप्रियाद्-अप्रीतिकारिणः / तथा अहितादपि आयतौ अहितकारिणः न केवलम् अलीकादेवेत्यपिशब्दार्थः, एवंविधाद्वचनाद्या सर्वथा त्रिविधत्रिविधन निवृत्तिर्विरमणं तत् सत्यं सत्य व्रतमुच्यते जिनैरिति शेषः / ननु अलीकाद्वचनान्निवृत्तिरित्येवास्तु सत्यव्रताधिकारात् किमप्रियाऽहितयोर्ग्रहणं तयोरनधिकारात्, इति चेत्, मैवं व्यवहारतः सत्यस्यापि अप्रियस्याऽहितस्य च परमार्थतोऽसत्यत्वात्, यथा-चौरं प्रति चौरस्त्वं, कुष्ठिनं प्रति कुष्ठी त्वमिति, तदप्रियत्वान्न तथ्यम्-तथा च सूत्रम- "तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडग त्ति अ। वाहिरं वावि रोगि त्ति, तेणं चोरि ति नो वए // 1 // " अत एव षड् भाषा अप्रशस्ता उवतास्तथाहि-"हीलिअखिसिअफरुसा, अलिआ तह गारहत्थिआ भासा / छट्ठी पुण उवसंताहिगरणउल्लाससंजणणी / / 1 / / " इति तथा मृगयुभिः पृष्टस्यारण्ये मृगान् दृष्टवतो मया मृगा दृष्टा इति तज्जन्तुघातहेतुत्वान्न तथ्यम्। तथा चोक्तं योगशास्त्रे- "न सत्यमपि भाषेत, परपीडाकर वचः / लोकऽपि श्रूयते यस्मात्, कौशिको नरकं गतः / / 1 // " इति। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच 274 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सच्चउर ध०३ अधि०। आचा० / (सत्यवचने कालिकाचार्योदाहरणम् 'उम्मग्गदेसणा' शब्दे द्वितीयभागे 845 पृष्टे उक्तम्।) अहोरात्रस्य दशमे मुहूर्ते,स०३० सम० / (सत्योऽसत्यश्चेति चत्वारि पुरुषजातानि पुरिसजाय' शब्दे पञ्चमभागे 1018 पृष्ठे दर्शितानि।) *सार्च त्रि० सपूज्ये, अवितथे, जगत्पूजास्पदत्वात्तस्य। ध०३ अधि०। प्रश्न! *दश धा० प्रेक्षणे, प्रा० / "दृशो निअच्छ-पेच्छावयच्छावयज्झ-बजसच्च-देक्खौअक्खावक्खावअक्ख-पुलोअपुलअ-निआवआसपासाः" ||१४|१८१||अनेन दृशेःस्थाने सच्चादेशः / सच्चइ। पश्यति। प्रा० (सत्यं केन सह वक्तव्यम् इति 'भरह' शब्दे पञ्चमभागे 1416 पृष्ठे गतम्। सचइ पुं० (सत्यकि) निर्गन्थीपुत्रे, स्था०६ ठा०३ उ० (तस्य वक्तव्यता 'णियंठिपुत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2086 पृष्ठे कथिता।) यो हि द्वादशस्तीर्थकृद भविष्यति। स०। ती०। स्पर्शलोलुपे स्वनामख्याते पुत्रे, आचा०१ श्रु० 3 अ० 1 उ०। सच्चउर न० (सत्यपुर) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे मरुमण्डले स्वनामख्याते नगरे, तीन "पणमिय सिरिवीरजिणं, देवं सिरिबंभसंतिकयसेवं। सञ्चउरतित्थकप्पं, जहासुअं किं पि जपेमि॥१॥ सिरिनाहडनरवई, कारिअ जिणभवणिदेसदारुमए। तेरसवच्छरसइए, वीरजिणो जयउ सच्चउरे।।२।।" इहेव जंबुद्दीवे दीये भारहे वासे मरुमंडले सच्चउरं नाम नयर, तत्थ नाहडकारियं सिरिजज्जिगसुरिगणहरपइट्ठियं पित्तलमयं सिरिवीरबिंब चेइहरे अच्छइ। कहं नाहडराइणा तं कारिअंति। तस्स उप्पत्ती भण्णइ / पुटिव नडूलमंडलमंडणमंडोवरनयरस्स साभिं रायाणं बलवंतेहिं दाइएहिं मारिऊण तं नयरं अहिडियं। तस्स रण्णो महादेवी आवण्णसत्ता पलाइत्ता बंभाणपुरं पत्ता / तत्थ य सा सयललक्खणसंपुण्ण दारय पसूआ। तओ नयरीए बाहिं एगत्थ रुक्खे तं बालयं झोलिआगय टावित्ता सयं तप्पासए ठिया / किंचि कम्मं काउमाढत्ता / तत्थ य देवजोगेण समागया सिरिजज्जिगसूरिणो तरुच्छायं अपरावत्तमाणिं दठूण एस पुण्णवंतो भावि त्ति कलिऊण चिरं अवलोइता अच्छिआ। तीए रायपत्तीए आगंतूण भणिआ सूरिणो-भयवं! किं एस दारओ कुल–क्खणो कुलक्खयकरो दीसइ? सूरिहिं वुत्तं भद्दे ! एस महापुरिसो भविस्सइ,ता सव्वपयत्तेण पालणिज्जो। तओ सा अणुकंपाए चेइहरचिंताकरणे निउत्ता। गुणेहिं सो अदारओ कयनाहडनामो गुरुमुहाओ पंचपरमेट्टिनमोकार सिक्खिउं सो अचवलत्तेण गहि-अधणुसरो अक्खयपट्टयस्स उबरि आगच्छइंते मूसए अमूढल-क्खो मारेइ। तओ सावरहिं चेइहराओ निक्कालिओ। जणाणं गावीओ रक्खेइ। अन्नया केण वि जोगिणा पुरबाहिर भमतेण सो दिट्टो। बत्तीसलक्खणधरो त्ति विन्नासिओ। तओ तेण सुवण्णपु-रिससाहणत्थं रमणुगच्छतेण तस्स मायरं अणुण्णविअतत्थेव ठिई कया। तओ अवसरे तेण जोगिणा भणिओ नाहडो, जत्थ गावीरक्खणाई कुणतो रत्तदुग्धं कुलिसतरुपाससि तत्थ चिण्हं काऊण मम कहिज्जासि / बालेण तह त्ति पडिवण्णं / अन्नया दिव्वु-जोएण तं दद्रूण जाणाविअं। जोगिणो दो वि गया तत्थ। तओ लहुत्तविहाणेण अग्गिं पजालिऊण तं रत्तक्खीर तत्थ पक्खिवित्ता जोगिम्मि पयाहिणं दितो, नाहडेणावि पयरिखणीकओ अग्गी / कहिं चि जोगिणो दुट्ठचित्तवित्तिं नाऊण रायपुत्तेण सुमरिओ पंचनमुक्कारो / तप्पभावेण जोगी अप्पहवंतो उक्खिविअ जलणे खित्तो नाहडेण, जाओ सुवण्णपुरिसो। तओ चिंतिअंतेण अहो मंतस माहप्पं / कहनुतेसिं गुरूणं एयस्स दायगाणं पच्चुवयरिस्सामि त्ति आगंतुंपणया गुरुणो, सव्वं च तं सरूवं विण्णत्तं / किंच आइ-सह ति भणियं गुरुवयणाओ उत्तुंगाई चउवीसं चेइआई कारि-आई कमेण पत्तो पउरं रज्जसिरिसेन्नसंभारेण गंतु गहि पेइयं सट्ठाणं / अन्या विनत्ता सिरिजजिगसूरिणो तेण, जहा भगवंतं किं विकज्ज आइसहजण तुज्झाणं मज्झ य कित्ती चिरकाल पसरइ त्ति / तओ गुरूहि घेणू चउहिं थणेहिं जत्थ खीरं झरइ तं भूमि अब्भुदयकरं नाऊण तं ठाणं दंसिअरण्णो / तेण गुरुआएसेणं सच्चउरे वीरमुक्खाओ छवी ससएहिं महंत कारिअं अब्भलिहसिहरं चेइआतत्थ पइट्ठाविआ पित्तलमई सिरिमहावीरपडिमा जजिगसूरिहिं। जया पइट्ठाकरणत्थं आयरिया पट्टिआ तया अंतराले एगम्मि उत्तमलग्गे वहनामे नाहडरायपुव्वपुरिसस्स विज्झरायस्स आसाढरूढस्स मुत्तीए पइट्ठा कया। वीरम्मि लग्गे लग्गविसेसाउ मइन्च महीए जायाए संखनामचिल्लएणं गुरुआएसाओ दंडधारण कूवओ कओ अज्ज वि संखकूवओ भण्णइ / सो अण्णया सुक्को वि वइसाहपुण्णिमाए पाणिएण भरिजइ। तइए लग्गे वीरसामी पइडिओ। जम्मि य लग्गे वीररस पइट्ठा कया तम्मि चेव लग्गे दुग्गासूमअग्गामे वयणए गामे च दुन्नि पीरपडिमाओ साहुसावयहत्थाए सिअवासेहिं पइट्टियाओ। तच वीरपडिमं निचमचइ राया। एवं नाहडएण जं बिब कारिअं तं च बंभसंतिजक्खेण सन्निहिअपाडि हे रेण अहोनिसिं पज्जुवासिजइ / सो अ पुटिंध घणदेवसिट्ठिणो क्सहो आसि, तेण वेगवईए नदीए पंचसयसगडभरो कडिओ / सो तुट्ठो, तओ सिंहिणा चारिजलाऽऽइहेउं वैयणं दाऊण वड्डमाणगामवासिलोआणं समप्पियं। तेय गामिल्लया गहियरिच्छा तस्स वसहस्स चितं पिन कुणंति, तओ सो अकामनिजराए मरिऊण वंतरेसु सूलपाणिनाम जक्खो जाओ। विभंगनाणं पउंजिय विन्नाय पुव्वजम्मवइरो तम्मि गामे बदमच्छरो मारि विवेइ / तओ अद्दमाणो गामो बहाउं कयबलिकम्मो धूअकडुच्छु-अहत्थो भणइजस्स देवस्स दाणवस्स वा अम्हेहिं कि पि अवरद्धं सो मरिसे उ ति / तओ तेण जक्खेण पुवभववसहस्सबुत्ततो कहिओ। तस्स वसहस्स अट्टिपुंजोवरि देउल लोएहि कय / तस्स पडिमा कारिया इंदसम्मो देव व उहिओ। तओ सो बद्धमाणगामो अद्विअगामो त्ति पसिद्धो। जायं सिवं / कमेणं दूइजतगताव सेसओ भयवं बद्धमाणसामी छ उमत्थविहारेणं विहरतो वा Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चउर 275 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सच्चप्पवायपुव्व सारत्ते तत्थ गामे पत्तो। गाममणुन्नविअतत्थेव देवउले रयणीए काउस्सग्गे ठिओ। तेण मिच्छादिट्टिणा सुरेण भीमट्टहासहत्थिपिसायनागरूवेहि उवसग्गित्ता सिरकन्ननासादंतनहत्थिपिट्टिवियाणओ विउव्वियाओ। सव्वथा भवयं तमक्खोभं नाऊण सो उवसंतो गीयनथुइमाईहिं पज्जुवासेइ। तप्पभिई तस्स जक्खस्स बंभसंति त्ति नाम रूढ / सो य सच्चाउरवीरचेइएपइहाविसेसेण निवेसइ। इओ अगुजरधराए पच्छिमभागे वलहि ति नयरी रिद्धिसमिद्धा / तत्थ सिलाइयो नाम राया / तेण य. रयणजडियककसीलुद्धण रंकओ नाम सिट्ठी पराभूओ। सो अकुविओ तविग्गहणत्थं गजणवइहम्मीरस्सपभूअंधणं दाऊण तस्स महंत सेन्न आणेइ। तम्मि अवसरे वलहिओ चंदप्पहसामिपडिमा अंबखित्तवालजुत्ता अहिट्टायगबलेणं गयणपहेण अंबपट्टणं गया। रहाहिरूढा य देवयाबलेणं वीरनाहपडिमा अदिट्ठवत्तीए संचरंतीए आसीयपुण्णे सिरिमालपुरमागया / अण्णं वि साइसया देवा जहोचियं ठाणं गया। पुरदेवयाए सिविद्धमाणसूरीणं उप्पाओ जाणविओ। जत्थ भिक्खालद्धं खीरं रुहिरं होऊण पुण खीर होहिइ तत्थ साहूहिं ठायव्वं ति / तेण य सेन्मेण विक्कमाओ अट्टहिं सएहि पणयालेहिं वरिसाण गएहिं वलहिं भंजिऊण सो राया मारिओ। गओ सट्टाणं हम्मीरो, तओ अण्णया अन्नो गञ्जणवई गुजरं भजिउंतओ चलंतोपत्तो सचउरे दसलयइक्कासीए विक्कमवरिसे मिच्छराओ। दिट्ट तत्थ मणोहरं वीरभवणं पविट्ठो हणहण त्ति / तओ गयउरजुत्तित्ता वीरसामी ताणि उ लेसमित्तं पि न चलिओ सट्टाणाओ। तओ बइल्वेसु जुत्तिएसु पुष्वभवरागेणं बंभसंतिणा अंगुलच उक्कं चालिओ सर्य हक्कते वि गजणवइम्मि निब्बलीहोउ ठिओ जगनाहो जाओ। विलक्खो मिलक्खुनाहो / तओ घणघाएहिं ताडिओ सामी। लग्गति घाया ओरोहसुंदरीण / तओ खग्गपहारेसु विहलीभूएसुमच्छरेण तुरकहि वीरस्स अंगुली कट्टिओ। तं गहिऊण य ते पट्टिआ। तओ लग्गा पञ्जलिओ तुरयाणं पुच्छा लग्गा य बलिओ मिच्छाणं पुच्छा। तओ तुरए छड्डित्ता पायचारिणो चेव पणट्ठा धम्म त्ति धरणीए पडिया / रहिमानं सुमरंता विलवंता दीणखीणसव्वबला नहंगणे अदिट्टवाणीए भणिया। एवं वीरस्स अंगुली आणीता तुम्हेहि जीवसंपएपडिआ, तओगज्जणाहिवई विम्हिअमणो सीसं धुणंतो सिल्लारे आइसइ, जहा-एयमंगुलिं वलिऊण तत्थेव ठावेहातओ भीएहिं तेहिं पच्चाणीया सालगाय मड त्ति सामिणो | करे, तमच्छेरं पिच्छिय पुणो वि सय्वपुण्णं पि न मागं ति तुरुका / तुट्ठो चउविहो समणसंघो वीरभवणे पूआमहिमागीयनट्टवाइत्तदविणदाणेहि पभावणं करेइ / अन्नया बहुम्मि काले बोलीणे मालवाहिवइनरिंदो गुजरधरंभजिऊण सच्चउरसामीए पहुत्तो। तओ बंभसंतिणा पउरं सिन्नं विउविऊण भंजिओतस्स बल। तस्स ल्हास आवासेसु उडिओ वजग्गी। मालवाहिवई कोसओ कुट्ठागाराइछटिअ पणट्ठो कागणासं। अह अन्नया तरहसयअडयाले विक्कमसंवच्छरेण पबलेणं कप्पुरदलेणं देसंति भजते नयरे, गामेसु पलाणेसु, जिणभवणदुवारेसु ढक्किएसु, जोअणचउमज्झे वंभसं तिमादप्येणं अणाहयगहिरस्सरं तंचकं वजंतं सोऊण / सिरिसारंगदेवमहाराइणो आगमणं संकिऊण भग्गं मुग्गलबल / सच्चउरसामी वि न चंपिओ। अह तेरससयछप्पन्नविकमवरिसे अल्लाउद्दीणसुरताणस्स कणिट्ठो भाया लुक्खाननामधिज्जा ढिल्लीपुराओ मंतिमाहवपेरिओ गुज्जरधरं पट्टिओ। चित्तकूडाहिवई समरसीहेण दंड दाउ मेवाड़देसो तया रक्खिओ / तओ हम्मीरजुव राओ मेवाडदेसं मुहडासयाइँ नयराणि य भंजिय आसावाल्लीए पत्तो। कण्णदेवराओ अ नट्ठो। सोमनाहं च घणघाएण भंजित्ता गडुपरोविऊण दिल्लीवामणथलीए गंतुं मंडलिक्करण य दंडित्ता सोरयट्टे नियट्ठाणं पयट्टाविता आसावल्लीए आवासिओ। गढमंदिरदेवकुलाईणि पज्जालेइ कमेण सत्तसयदेसे संपत्तो। तओ सच्चउरे तहव अगाह-तेसु चक्केसु वजंतेसु मिलिच्छदलं पलाणं। एवं अणेगाणि अवदाणाणि पुहवीमंडले सव्वओ खीरनाहस्स पभावाणि वुच्चति / अह अलं-घणिज्जा भवियव्यय त्ति दूसमकालविलसिएणं केलिप्पिया वंतरा हवंति। गोमंसरुहिरछंटिए अ भवणाओ दूरीभवंति देवयाउ ति, असन्निहिए पमत्रो अहिट्ठायगे बंभसंतिजक्खम्मि अलाउदीणए रराणे सो चेव अणप्पहप्पो भयवं वीरसामी तेरसयसत्तसट्टे विक्कमाइघसंवच्छरे दिल्लीए आणित्ता आसायणाभायणं कओ। कालतरेण पुणरवि पडिमंतरपायडए भावो पूआरिहो भविस्सइ / 'सच्चउरकप्पमेय, निच्च वायतुमहिमयँ अमेयं / वंछिअफलसिद्धिकए. सिरिजिणपहसूरिणो भव्वा / / 1 // इति श्रीसत्यपुरकल्पः / ती० 16 कल्प। सच्चणेमि पुं० (सत्यनेमि) समुद्रविजयस्य राज्ञः शिवादेव्यामुत्पन्ने पुत्रे, अन्त०। (स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकृशाना चतुर्थे वर्ग नवने अध्ययने प्रत्यपादि।) सच्चपइण्ण त्रि० (सत्यप्रतिज्ञ) सत्यसन्धे, अङ्गीकृतपरिपा लयितरि,आव० 4 अ०। सच्चपरक्कम त्रि० (सत्यपराक्रम) विहितवीर्ये , उत्त०१८ अ०। सच्चपरूवय त्रि०(सत्यप्ररूपक) अवितथदेशके, जीवा०१ अधि०। सच्चप्पभा स्त्री० (सत्यप्रभा) सत्यभामानाम्न्यां कृष्णस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 8 ठा०३ उ०। ( सा च नेमेरन्तिके प्रव्रज्य सिद्धा।) सच्चप्पभाव त्रि० (सत्यप्रभाव) प्रत्यक्षतो दृश्यमानप्रभुत्वे, औ०। सचप्पवाय न० (सत्यप्रवाद) सत्यं संयमो वचन प्रकर्षण सप्रपञ्च वदन्ति यत्रेति सत्यप्रवादम्। पूर्वे, नं० / सत्यप्रवादं नाम यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदनमिति / दश०१ अ० / स० / तस्य पदपरिमाणमेका कोटी एकपदोना / स०१४७ सम०। सच्चप्पवायपुच्व न० (सत्यप्रवादपूर्व) षष्ठे पूर्वगतश्रुतभेदे, स्था०। सच्चप्पवायपुव्वस्स णं दुवे वत्थू पण्णत्ता। (सू०१०६) 'सच्चप्पवाये' त्यादि, सद्भ्यो जीवेभ्यो हितः सत्यःसंयमः सत्यवचनं वा स यत्र सभेदः सप्रतिपक्ष प्रकर्षणो - च्यते ऽभिधीयते तत् सत्यप्रवादं तच तत् पूर्वकं च सकल Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चप्पवायपुव्य 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सच्चावाइ श्रुतात् पूर्व क्रियमाणत्वादिति सत्यप्रवादपूर्वम्, तच्च षष्ट, तत्परिमाणं च एका पदकोटी षट्पदाधिका, तस्य द्वे वस्तुनी वस्तु च तद्विभागविशेषोऽध्ययनादिवदिति। स्था०२ ठा० 4 उ० / स० / सच्चभाणु पुं० (सत्यभानु) धर्मजिनेन्द्रस्य पितरि, ति०। (समवायाने तु भानुरित्येव।) सच्चभामा स्त्री० (सत्यभामा) स्वनामख्यातायां कृष्णाग्रमहि-व्याम्, | आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। सच्चमंत पुं० (सत्यमन्त्र) महत्त्यामप्यापदि अदीने, "सच्चं पधानं महंतीए वि आवदीए जो अदीणो भवति-सो सचमतो" नि० चू०२ उ०। सच्चमणजोग पुं० (सत्यमनोयोग) मनोयोगर्भदे, कर्म० 4 कर्म०। ('मणजोग' शब्दे षष्ठभागे 84 पृष्ठेऽस्य व्याख्या द्रष्टव्या।) सचमणप्पओग पुं० (सत्यमनःप्रयोग) सद्भूतार्थचिन्तननिबन्धनस्य मनसः प्रयोगे, भ०५ श०४ उ०। सच्चरत त्रि० (सत्यरत) सत्यप्रधाने, “अकोहणे सच्चरते तवस्सी।" सूत्र० 1 श्रु०१० उ०। सच्चरित त्रि० (सच्चरित) सच्चरणे शोभनसंयमे, दर्श० 3 तत्त्व। सच्चवइजोग पुं० (सत्यवाग्योग) वाग्योगभेदे, कर्म० 4 कर्म० / ('वइजोग' शब्दे षष्ठे भागे 758 पृष्ठे स्वरूपमस्य द्रष्टव्यम्।) सच्चवं पुं० (सत्यवत) त्रिंशत्तमेऽहोरात्रमुहूर्ते, चं० प्र० 10 पाहू०। सचवई स्त्री० (सत्यवती) दर्शनपुरे दन्सवक्रराजभार्यायाम, आव० 4 अ०। सचवयण न० (सत्यवचन) सद्भ्यो-मुनिभ्यो गुणेभ्यः पदार्थेभ्यो वा हितं सत्यम्। आह च-“सचं हियं सयामिह संतो मुणउ गुणा पयत्था वा" सत्यं च तद्वचनञ्च सत्यवचनम्। प्रश्न० 2 संव० द्वार। यथार्थवचने, दर्श० / मृषावादविरतो, औ० / रा०। स०। (चतुरिवंशत् सत्यवचनस्यातिशयाः 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 31 पृष्ठे दर्शिताः।) सच्चवाइ पुं० (सत्यवादिन्) अविरुद्धवक्तरि, दश०६ अ०३ उ०१ सच्चवाय पुं० (सत्यवाद) सत्यो वादः सत्यवादः / तथ्यवादे, स्था० / 10 ठा०३ उ०। सच्चविय पुं० (सत्यविद्वस्) संयमपालके, पा०। सच्चवीरिय पुं० (सत्यवीर्य) अभिनन्दनजिनस्तावके, "तिन्नेव रग्यसहस्सा, अभिणदणजिणवरस्स सीलाणं / सचवीरियथुयस्स, सिद्धत्था संवरसुयरस / / " ति०। सच्चसंध पुं० (सत्यसन्ध) सत्यप्रतिज्ञे, आव०४ अ०। आ० मा सच्चसंहणणवंध पुं० (सत्यसंहननबन्ध) सर्वेण सर्वस्य संहन-नलक्षणो बन्धः क्षीरनीरादीनामिवेति। सत्यसंहननबन्धभेदे, भ०८ श०६ उ०। सच्चसेण पुं० (सत्यसेन) ऐरवतवर्षे भविष्यति त्रयोदशे जिने, प्रव० 7 द्वार। सच्चसेव त्रि० (सत्यसेव) सेवायाः सफलीकरणात्। सेवाफलदे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। सच्चा स्त्री० (सत्या) भाषाभेदे, विशे०। (अत्रत्या व्याख्या 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे गता।) सचामोस अव्य० (सत्यामृषा) यत्र किश्चित्सत्यं किश्चिन्मृषेति मिश्रभाषायाम, आचा०२ श्रु०१ चू० 4 अ०१ उ० 1 औ० / दश। (सत्यामृषावक्तव्यता 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे 1523 पृष्ठे द्रष्टव्या।) ('सच्च' शब्देऽस्मिन्नेव भागे सूत्रं गतम्।) अथ तृतीयाया दश भेदाः, यथा“उप्पन्न 1 वियग 2 मीसग 3, जीव 4 अजीवे अ५ जीवअज्जीवे 6 / तह मीसिया अणंता७. परित्त 8 अद्धा यह अद्धद्धा 10 // 1 // " अत्र मिश्रिताशब्दस्य प्रत्येकं योगादुत्पन्नमिश्रिता इत्यादि द्रष्टव्यम्, ततश्च-उत्पन्न मिश्रिताऽनुत्पन्नः सह संख्यापूरणार्थ यया सा उत्पन्नमिश्रिता / एवमन्यत्रापि यथायोगं भाव्यम्। तत्रोत्पन्नमिश्रिता क्व? यथा-कस्मिंश्चिद् ग्राम न्यूनेष्वधिकेषु वा दारकेषु जातेषु दश दारका अत्राद्यजाता इत्यादि व्यवहरतः सत्याऽसत्या एव, श्वस्ते शतं दास्यामीत्युक्त्वा पञ्चाशत्यपि दत्ते लोके मृषात्वादर्शनात अनुत्पन्नांशे च मृषात्वव्यवहारात्, 1 / एवं मरणकथा विगतमिश्रिता 2 / अकृतनिश्चये जातस्य मृतस्य च कृतपरिणामस्याभिधाने मिश्रकमिश्रिता उत्पन्नविगतमिश्रितेत्यर्थः, यथा अद्य दश जाता मृताश्चेति 3 / तथा बहूनां जीवानां स्तोकानां च मृतानां शङ्ख शङ्खनकादीनामेकत्र राशौ दृष्ट जीवराशिरयमिति भाषणं जीवमिश्रिता 4 / एवं प्रभूतेषु मृतेषु स्तोकेषु च जीवत्सु अजीवरा-शिरिति वाक्यम् 5 / तथा तस्मिन्नेव राशी अकृतनिश्चये एतावन्तो जीवन्त एतावन्तश्च मृता इति अवधारणवाक्यं च जीवाजीवमिश्रिता 6 / तथा मूलकादि अनन्तकायं तस्येव सत्कैः परिपाण्डुपत्रैरन्येन वा केनचिद्वनस्पतिना मिश्रं विलोक्य सर्वोऽप्येष अनन्तकाय इति वदतोऽनन्तमिश्रिता 7 / एवं प्रत्येकमन्तेन सह दृष्ट्वा सर्वोऽपि प्रत्येक इति वदतः प्रत्येकमिश्रिता 8, अद्धाकालः स चह प्रस्तावात दिवसो रात्रिर्वा गृह्यते, सा मिश्रिता यया साऽद्धामिश्रिता यथा कश्चित कञ्चन त्वरयन् दिवसेऽपि रात्रितिति वदति, तथा दिवसस्य रात्रे, एकदेशोऽद्धाद्धा सा मिश्रिता यया साऽद्धाद्धामिश्रिता, यथा प्रथमपौरुष्यामेव त्वरयमाणः कञ्चन वक्तिशीघ्रो भव, मध्याह्नो जात इति 10 / ध०३ अधि। सच्चावाइ पु० (सत्यावादिन) सत्यं वदितु शीलमस्ये ति स Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सच्चावाइ 277 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्ज त्यवादी। सत्यवदनशीले, आचा० 1 श्रु०८ अ०१ उ०। सजोगिके वलिगुणट्ठाण न० (सयोगिकेवलिगुणस्थान) त्रयोदशे सचाहिट्ठिय त्रि० (सत्याधिष्ठित) सत्येनावितथभाषणेनाधिष्ठितः गुणस्थाने, कर्म० / योगो वीर्य शक्तिरुत्साहः पराक्रम इति पर्यायाः, स समाश्रितः सत्याधिष्ठितः सत्यवचनव्याप्ते, पा०। च मनोवाकायलक्षणकरणभेदात्तिस्रः संज्ञा लभते, मनोयोगो वाग्योगः सच्चिदाणंद पुं० (सचिदानन्द) सत्-शुभ शाश्वतं वा चित्-ज्ञानंतस्य य काययोगश्चेति। तथा चोक्तं कर्मप्रकृती-"परिणामालंबणग्गह-णकारणं आनन्दः / सुखप्रकाशरूपे ब्रह्मणि, अष्ट०१ अष्टः / तेण लद्धनामतिगं / कजब्भासानुन्नप्पवेसविसमीकयपएसं / / 1 / / " तत्र सचोवाय त्रि० (सत्यावपात) सफलसेवे, ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ०। भ० / भगवतो मनायोगो मनः पर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सत्याभिलाषे, औ०। सतो मनसैव देशनात्, ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनः सच्छंद त्रि० (स्वच्छन्द) स्वम्-आत्मीयं छन्दः अभिप्रायो यस्याऽसौ। पर्यायज्ञानेनावधिज्ञानेन वा पश्यन्ति, दृष्टा च ते विवक्षितवस्त्वाकाराव्य 1 उ० / स्वाभिप्राये, आ० म०१ अ०। नं०। आव०। प्रव० / न्यथानुपपत्त्या लोकस्वरूपादिबाह्यमर्थमवगच्छन्तीति वाग्योगो धर्मअनु० / ज्ञा० / आत्मच्छन्दसि. व्य०६ उ० / स्ववशे, विषा० 1 श्रु० देशनादौ काययोगो निमेषोन्मेषचक्रमणादौ। ततोऽनेन योगत्रयेण सह 2 अ० / ज्ञा० / अनु० / सुरुचौ, स०। वर्तत इति सयोगी / “सर्वादरिन्” इतीन्प्रत्ययः / केवल–केवलज्ञानं सच्छंदचारि त्रि० (स्वच्छन्दचारिन्) कामरूपिणि, आ० म०१ अ०। ककेवलदर्शन च विद्यते यस्य य केवली / सयोगी चासौ केवली च सच्छंदमइ त्रि० (स्वच्छन्दमति) स्वच्छन्दास्ववशा स्ववशे वा सयोगिकेवली तस्य गुणस्थानं सयोगिकेवलिगुणस्थानम् / कर्म० मतिरस्येति-स्वच्छन्दमतिः / निरर्गलबुद्धौ, विपा० 1 श्रु०२ | 2 कर्म०। पं० सं०। आ० चू० / प्रव० / दर्श०। प्रप० / ज्ञा०। सजोगिभवत्थकेवलनाण न० (सयोगिभवस्थकेवलज्ञान) सह योगैः सच्छंदया स्त्री० (स्वच्छन्दता) स्वाभिप्रायेण वर्त्तितायाम्, व्य० 1 उ० / कायव्यापारादिभिर्यः स सयोगी इन समासान्तत्वात् स चासौ भवस्थश्च सच्छंदयारिन् त्रि० (स्च्छन्दचारिन्) स्वच्छन्देन-स्वाभिप्रायेण न तु तस्य केवलज्ञानमिति विग्रहः / कायव्यापार-सहितस्य भवस्थस्य जिनाज्ञया चरतीति स्वच्छन्दचारी। यथाछन्दे, ग०१ अधि०। केवलज्ञाने, स्था०। सच्छंदविगप्पिय त्रि० (स्वच्छन्दविकल्पित) स्वच्छन्देन स्वाऽभिप्रायेण सजोगिभवत्थकेवलणाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पढमसमयविकल्पितम्। स्वेच्छाकल्पिते, व्य०१ उ० / संघा०। सजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, अपढमसमयसजोगिभवत्थसच्छत्त त्रि० (सच्छा) छत्रेण सहिते, स०३४ सम० जी० औ०। केवलणाणे चेव। अहवा-चरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव, सच्छाय (ह) त्रि० (सच्छाय) सती-शोभना छाया निर्नलस्वरूपा येषां अचरिमसमयसजोगिभवत्थकेवलणाणे चेव। (सू०७१+) ते। रा०। “छायायां होऽकान्तौ वा" ||१२४६॥अनेनान्त्ययकारस्य 'सयोगी' त्यादि प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य सः तथा एवं प्रथमावैकल्पिको हकारादेशः / सच्छायम् / सच्छाहम् / प्रा० / जी०। व्यादिसमयो यस्य सतथा, शेषं तथैव। 'अथवे' त्यादि चरमः अन्त्यःशोभनच्छायेषु, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, शेष तथैवा स्था०२ ठा० सजल त्रि० (सजल) जलसम्पूर्णे, कल्प०१ अधि०३क्षण। 1 उ०। सजसा स्त्री० (सयशस) शीतलजिनस्य प्रथमशिष्यायाम, तिक सजोणिय वि० (सयोनिक) सह योन्या उत्पत्तिस्थानेन वर्तन्ते इति सजाईय त्रि० (स्वजातीय) आत्मीयजातिविशिष्ट, आ० म०१ अ०। सयोनिकाः संसारिषु, स्था० 2 टा० 1 उ०। सजित्था अव्य० (सज्जित्वा) शक्तिं गृहीत्वेत्यर्थे, नि० चू०१ उ०। सजीव त्रि० (सजीव) कोट्यारोपितप्रत्यचे, ज्ञा०१ श्रु० 16 अ०। सजोति त्रि० (सज्योतिष) सह ज्योतिषा- उद्योतेन वर्तत इति औ०। विपा० / मृतधात्वादीनां सहजस्वरूपापादने, जं० 2 वक्ष०। / सज्योतिः / साग्रिके सूत्र० 1 श्रु०५ अ० 1 उ० / सज्योतिःसः / ज्ञा०। साग्निकमित्यर्थः / दश० 8 अ०२ उ०। सजूह पुं० (स्वयूथ) स्वकीयनिकाये, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। सज त्रि० (सज्ज) प्रगुणीभूते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। औ०। सजोग त्रि० (सयोग) संसारिणि, स्था० 2 ठा० 4 उ० / मनोवा *सद्यस् अव्य० शीघ्र, आतु०। तत्काले,बृ० 1 उ०३ प्रक० / कायात्मकोंगैः सह वर्तमानेषु, नं० / *सर्ज पुं० वृक्षविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०। विशे० / स्था०। संजोगि (ण) त्रि० (सयोगिन) सह योगैः कायव्यापारादिभिर्यः सः *षड्ज त्रि० षड्भ्यो जातः षड्जः अनु० / “क-ग-ट-ड-त-- सयोगी। स्था० 2 ठा० 1 उ० / स योगेन वर्तन्ते ये ते संयोगा द-प-श-ष-स-क पामूज़ लुक्" / / 8 / 277 / / अनेनात्र गनोवाक्कायाः, ते यस्य विद्यन्ते स सयोगी / पं० सं० 2 द्वार / डकारस्य लुक सजो / षड् जो प्रा० / स्वरभेदे, "नासामनोवाक्कायात्मकैयोगैर्वर्त्तमाने, नं०। कण्ठमुरस्तालुजिह्वादन्ताश्च संश्रिताः / षड् भिः संजायते Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्ज 278 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्जण यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः" ||1 / / अनु० / ('सर' शब्दे सर्वा वक्तव्यतां वक्ष्यामि।) सज्जइपुं०(सद्यपि) सत्साधौ, षो०१२ विव०। सज्जण पुं० (सज्जन) "अन्त्यव्यञ्जनस्य" ||81 / 11 / / इति जकारस्य लुक / सज्जनः / सज्जणो / प्रा० / विशिष्टलोके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / नाम सज्जन इति त्रिवर्णकं, कर्णकोटरकुटुम्बिचेद्भवेत्। नोल्लसन्ति विषशक्तयस्तदा, दिव्यमन्त्रनिहताः खलोक्तयः॥१॥ स्याद्रली बलमिह प्रदर्शयेत्, सज्जनेषु यदि सत्सुदुर्जनः। किं बलं नु तमसोऽपि वर्ण्यते, यद्भवेदसति भानुमालिनि।।२।। दुर्जनस्य रसना सनातनी, संगतिं न परुषस्य मुञ्चति। सज्जनस्य तु सुधातिशायिनः, कोमलस्य वचनस्य केवलम्॥३|| या द्विजिहृदलनाद्यनादरा द्याऽऽत्भनीह पुरुषोत्तमस्थितिः। याऽप्यनन्तगतिरेतयेष्यते, सज्जनस्य गरुडानुकारिता // 4 // सज्जनस्य विदुषां गुणग्रहे, दूषणे निविशते खलस्य धीः। चक्रवाकदृगहर्पतेर्तुतौ, घूकदृक् तमसि सङ्गमङ्गति॥५|| दुर्जनरिह सतामुपक्रिया, तद्वचो विजयकीर्तिसंभवात्। व्यातनोति जिततापविप्लवां, वहिरेव हि सुवर्णशुद्धताम्॥६॥ या कलङ्किवसनेन सक्षया, __ या कदापि न भुजङ्गसङ्गता। गोत्रभित्सदसि या नसासतां, वाचि काचिदतिरिच्यते सुधा॥७॥ दुर्जनोद्यमतपर्तुपूर्तिजा, तापतः श्रुतलता क्षयं व्रजेत्। नो भवेद्यदिगुणाम्बुवर्षिणी, तत्र सज्जनकृपातपात्ययः॥८|| तन्यते सुकविकीर्तिवारिधी, दुर्जनेन बडवानलव्यथा। सज्जननेन तु शशाङ्ककौमुदी, सारङ्गवदहो महोत्सवः / / 6 / / यद्यनुग्रहपरं सतां मनो, दुर्जनात् किमपि नो भयं तदा। सिंह एव तरसा वशीकृते, किं भयं भुवि शृगालबालकात्।।१०।। खेदमेव तनुते जडात्मनां, सज्जनस्य तु मुदं कवेः कृतिः। स्मेरता कुवलयेऽब्जपीडन, चन्द्रभासि भवतीति हि स्थितिः // 11 // नत्यजन्ति कवयः श्रुतश्रम, संमुदैव खलषीडनादपि। स्वोचिताचरणबद्धवृत्तयः, साधवः शमदमक्रियामिव / / 12|| नव्यतन्त्ररचनं सतां रते स्त्यज्यते न खलखेदतो बुधैः। नैव भारभयतो विमुच्यते, शीतरक्षणपटीयसी पटी।।१३।। आगमे सतिनवः श्रमोमदा न स्थितेरिति खलेन दूष्यते। नौरिवेह जलधौ प्रवेशकृत, सोऽयमित्यथ सतां सदुत्तरम्॥१४॥ पूर्वपूर्वतनसूरिहीलना, नो तथापि निहतेतिदुर्जनः। तातवागनुविधायिबालव नेयमित्यथ सतांसुभाषितम्॥१५|| किं तथापि पलिमन्थमन्थरै स्त्र साध्यमिति दुर्शनोदिते। स्वान्ययोरुपकृतिर्नवा मति श्चेति सज्जननयोक्तिरर्गला / / 16 / / सप्रसङ्गमिदमाद्यविंशिको पक्रमे मतिमतोपपादितम् / चारुतां व्रजति सज्जनस्थिति क्षितासु नियतं खलोक्तिषु // 17 // न्यायतन्त्रशतपत्रभानवे, लोकलोचनसुधाञ्जनत्विषे / पापशैलसतकोटिमूर्तये, सज्जनाय सततं नमो नमः / / 18 / / भूषिते बहुगुणे तपागणे, श्रीयुतैर्विजयदेवसूरिभिः। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सञ्जण 276 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झ भूमिसूरितिलकैरपि श्रिया, पूरितैर्विजयसिंहसूरिभिः॥१६॥ धामभास्वदधिकं निरामयं, रामणीयकमपि प्रसृत्वरम्। नाम कामकलशातिशायिना, ___ मिष्टपूर्तिषु यदीयमञ्चति॥२०॥ यैरुपेत्य विदुषां सतीर्थ्यतां, स्फीतजीतविजयाभिधानताम्। धर्मकर्म विदधे जयन्तिते, श्रीनयादिविजयाभिधा बुधाः॥२१॥ उद्यतैरहमपि प्रसद्य तै स्तर्कतन्त्रमधिकाशि पाठितः। एष तेषु धुरिलेख्यतां ययौ, सद्गुणस्तु जगतां सतामपि॥२२॥ येषु येषु तदनुस्मृतिर्भवे तेषु धावति च दर्शनेषु धीः। यत्र यत्र मरुदेतिलभ्यते, तत्र तत्र खलु पुष्पसौरभम्॥२३।। तद्गुणैर्मुकुलितंरवेः करैः, शास्त्रपद्ममिह मन्मनोहदात्। उल्लसन्नयपरागसंगतं, सेव्यते सुजनषट्पदव्रजैः!|२४|| निर्गुणो बहुगुणैर्विराजिता स्तान् गुरूनुपकरोम कैर्गुणैः। वारिदस्य ददतो हि जीवन, किं ददातुवत चातकार्भकः // 25 / / प्रस्तुतश्रमसमर्थितैर्नयै ोग्यदानफलितैस्तु तद्यशः। यत्प्रसर्पति सतामनुग्रहा देतदेव मम चेतसो मुदे॥२६|| आसते जगति सज्जनाः शतं, तैरुपैमिनु समं कमञ्जसा। किं न सन्ति गिरयः परः शता, __ मेरुरेव तु बिभर्तु मेदिनीम्॥२७|| तत्पदाम्बुरुहषट्पदः सच, ग्रन्थमेनमपि मुग्धधीय॑धाम् यस्य भाग्यनिलयोऽजनिश्रियां, सद्म पद्मविजयः सहोदरः // 28|| मत्त एव मृदुवुद्धयश्च ये, तेष्वतोऽप्युपकृतिश्च भाविनी। किं च बालवचनानुभाषणा नुस्मृतिः परमबोधशालिनाम्॥२६|| अत्र पद्यमपि पाक्तिकं क्वचि द्वर्तते च परिवर्तितं क्वचित्। स्वान्ययोः स्मरणमात्रमुद्दिशं स्तत्र नैव तु जनोऽपराध्यति॥३०॥ ख्यातिमेष्यति परामयं पुनः, सज्जनैरनुगृहीत एव च। किं न शङ्करशिरोनिवासतो, निम्नगा सुविदिता सुरापगा।॥३१॥ यत्र स्याद्वादविद्या परमततिमिरध्वान्तसूर्याशुधारा, निस्ताराजन्मसिन्धोःशिवपदपदवी प्राणिनो यान्ति यस्मात्। अस्माकं किं चयस्माद्भवति शमरसैनित्यमाकण्ठतृप्ति, जैनेन्द्र शासनं तद्विलसति परमाऽऽनन्दकन्दाम्बुवाहः // 32 // द्वा०३२ दा०। सज्जमरण न० (सद्योमरण) तात्कालिकमरणे, आव०५ अ०1 सज्जमाण त्रि० (सज्जमान) सङ्गमं कुर्वति, सूत्र०१ श्रु०१ अ०। आसक्तिं कुर्वति, सूत्र० १श्रु०७ अ०। नि० चू०। सज्जमाणेहि विणिग्यायमाणाहिं" आचा०२ श्रु० 3 चू०। सज्जम्मदरिद्द पुं० (सज्जन्मदरिद्र) आजन्मदरिद्रे, महा०२चू०। सज्जा स्त्री० (शय्या) शेरतेऽस्यामिति शय्या। प्रव० 121 द्वार। वसतौ, आव० 5 अ० / शयने, स्था० 5 ठा० 2 उ० / घड्च शालादिरूपायां वसतौ, स०२० सम०। प्रव०। *संज्ञा स्त्री० "ज्ञोञः" ||8 / 2 / 83|| अनेनात्र सम्बलितस्यत्रकारस्य वैकल्पिको लुक् / सज्जा / सण्णा / ज्ञाने, प्रा०२ पाद / सज्जिय त्रि० (सजित) निष्पादिते, जी. 3 प्रति अधिक। वितानिते, औ०। सञ्जोग पुं० (सद्योग) सद्धर्मपरायणे, षो० 6 विव० / सञ्जोगविग्धवजणया स्त्री० (सद्योगविघ्नवर्जनता) सन्तश्च ते योगाश्च धर्मव्यापाराः स्वाध्यायध्यानादयस्तेषु विघ्न उपरोधो विघातस्तस्य वर्जना / सायोगापरिहारे, पञ्चा० 5 विव० / षो०। सज्जोगावंचग पुं० (सद्योगावञ्चक) “सद्भिः कल्याणसम्पन्न-दर्श-नादपि पावनैः / तथाऽऽवादनतो योग, आद्यो वञ्चक उच्यते॥१॥" इत्युक्तलक्षणे प्रवञ्चकयोगे, षो०६ विव०। सज्झ त्रि० (साध्य) “साध्वस-ध्य-ह्यां झः / / 8 / 26 / / इति ध्यस्य झः। सज्झ / प्रा० / शक्ये, पिं० / निवर्त्यस्वभावे, आ० म०१ अ० / अनुमानतः साध्ये, रत्ना०३ परि०। (अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता 'हेउ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यते।) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झंतिय 280 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय सज्झंतिय पुं० (साह्यान्तिक) ब्रह्मचारिणि, बृ० 4 उ०। सझंतिया स्त्री० (साह्यान्तिका) भगिन्याम्. व्य०३ उ०। सज्झंभराग पुं० (सन्ध्याभराग) वर्षासु सन्ध्यासमयभाविनि अभ्ररागे, रा०। सज्झय पुं० (सध्वज) कल्पपाले. बृ०५ उ०1 सज्झवयणणिद्देस पुं० (साध्यवचननिर्देश) साध्यत इति साध्यम, उच्यत इति वचनम् अर्थः, यस्मात्स एवोच्यते। साध्यं च तद्वचनं च साध्यवचनं साध्यार्थ इत्यर्थस्तस्य निर्देश:-- प्रतिज्ञा। अनुमानकोटौ प्रतिज्ञावचने, दश० 1 अ०। सज्झस न०(साध्वस) “साध्वस--ध्य-ह्यां झः" ||8/2 / 26 / / इति संयुक्तस्य ध्यस्थ झः। सज्झसं। भये, प्रा०२पाद। सज्झाइय पुं० (स्वाध्यायिक) अध्ययनम-अध्यायः, शोभनो ऽध्यायः स्वाध्यायः स एव स्वाध्यायिकः / स्वाध्याये, आव०१४ अ० / सज्झाण न० (सध्यान) शोभनध्याने, षो०१ विव०। सज्झाय पुं० (स्वाध्याय) अध्ययनम्-अध्यायः, शोभनोऽध्यायः स्वाध्यायः, सएव स्वाध्यायः। आव०४ अ० / सुष्ठ आमर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः। स्था०२ ठा०२ उ०। सुछ आ-मर्यादया-कालवेलापरिहारेण पौरुष्यपेक्षया वा अध्यायः अध्ययनं स्वाध्यायः / ध०३ अधि० / “साध्वसध्य-ह्यां झः" . ||8 / 2 / 26 / / इति ध्पस्य झः। प्रा० / अणुव्रतविद्यादिस्मरणे नमस्कारपरावर्त्तने, ध० 2 अधि० / अधीतगुणने, प्रश्न० 1 संक० द्वार। सूत्रपौरुष्याम्, आव० 4 अ०। अधुना स्वाध्यायमाहयत्तु खलु वाचनादे-रासेवनमत्र भवति विधिपूर्वम्। धर्मकथान्तं क्रमश-स्तत्स्वाध्यायो विनिर्दिष्टः / / 3 / / यत्तु-यत्पुनः खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे, वाचनादेचिनाप्रधानुप्रेक्षादेरासेवनमभिव्याप्त्या मर्यादया वा प्रवचनोक्तया सेवन करणमत्र प्रक्रमे भवति-जायते। विधिपूर्व-विधिमूलं धर्मकथान्त धर्मकथाsवसानं क्रमशः-क्रमेण तदासेवनं स्वाध्ययोऽपि पूर्वाक्तनिर्वचनो विनिर्दिष्टः--कथित इति / षो० 13 विव० / “वारसंगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहिओ वुहे / तं उवइसति जम्हा, उवझाया तेण वुचंति" // 3167 / / विशे० / (व्याख्यातैषा गाथा 'उवज्झाय' शब्दे द्वितीयभागे 882 पृष्ठे।) स्वाध्यायस्य भेदानाहसे किं तं सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-वायणा पडिपुच्छा परिअट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा। से तं सज्झाए। सू०२०) औ०॥ 'पंचविहे' इत्यादि सुगमम्, नवर शोभनम् आ-मर्यादया अध्ययन श्रुतस्याधिकमनुसरणं स्वाध्यायः, तत्र वक्ति शिष्यस्तं प्रति गुरोः प्रयोजकभावो वाचना पाठनमित्यर्थः गृहीतवाचनेनापि संशयाद्युत्पत्ती पुनः प्रष्टव्यमिति पूर्वाधीतस्य सूत्रादेः शङ्कितादौ प्रश्नः प्रच्छनेति, प्रच्छनाविशोधितस्य सूत्रस्य मा भूद्विस्मरणमिति परिवर्तना, सूत्रस्य गुणनमित्यर्थः / सूत्रवदथेऽपि सम्भवति विस्मरणमतः सोऽपि परिभावनीय इत्यनुप्रेक्षणमनुप्रेक्षा, चिन्त-निकेत्यर्थः / एवमभ्यस्तश्रुतेन धर्मकथा विधयेति, धर्मस्यश्रुत-रूपस्य कथा-व्याख्या धर्मकथेति स्था०५ ठा०३ उ० / औ०। (पञ्चविधस्वाध्यायः 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 266 पृष्ठ व्याख्यातः / ) (स्वाध्यायार्थ कालवेलाग्रहणम् 'जोगविहि' शब्दे चतुर्थभागे 1643 पृष्ठ उक्तम्।) अस्वाध्यायविषयमाह एसो उ असज्झाओ, तव्वजिउ (स) झाउ तत्थिमा मेरा। कालपडिलेहणाए, गंडगमरुएहि दिटुंतो॥१३६१।। एसो संयमधाताइओ पंचविहो असज्झाओ भणिओ। तेहिं व पंचहिं वजिओ सज्झाओ भवति / 'तत्थ' त्ति-तम्मि सज्झाय-काले इमावक्ष्यमाणा 'मेर' वि नामाचारी-पाडेक्कमित्तु जाव वेला न भवति ताव कालपडिलेहणार याए गहणकाले पत्ते गंड-गदिट्टतो भविस्सइ। गहिए सुद्धे काले पठ्ठवणः / लाए मरुयगदिट्टतो भविस्सति त्ति गाथार्थः / स्याद् बुद्धिः किमर्थ कालग्रहणम् ? अत्रोच्यतेपंचविह असज्झाय-स्स जाणणट्टाए पेहए कालं / चरिमा चउभागवसे-सियाइभूमिं तओ पेहे // 1362 / / पञ्चविधः संयमघातादिकोऽस्वाध्यायः तत्परिज्ञानार्थ प्रेक्षते कालकालवेलां निरुपयतीत्यर्थः / कालो निरूपणीयः, काल-निरूपणमन्तरेण न ज्ञायते पञ्चविधसंयमघातादिकम्- “जइ अग्घेत्तुं करेंति ता चउलहुगा, तम्हा कालपडिलेहणाए इमा सामाचारी-दिवसचरिम - पारिसीए चउभागावसेसाए कालग्गहणभूमिओ ततो पडिलेहियव्वा, अहवा-तओं उच्चारपासवणकालभूमी य" ति गाथार्थः / अहियासियाइँ अंतो, आसन्ने चेव मज्झे दूरे य / तिन्नेव अणहियासी, अंतो छ दच बाहिरओ॥१३६३।। 'अंतो' त्ति-निवेसणस्स तिन्नि उच्चारअहियासियथंडिले आसण्णे मज्झे दूरे य पडिलेहेइ। अणहियासियाथंडिले वि अंतो एवं चेव तिण्णि पडिलेहेति। एवं अंतो थंडिल्ला छ, बार्हि पि निवेसणस्स एवं चेव छभवंति। एत्थ अहियासिया दूरयरे अणहियासिया आसन्नयरे कायव्वा। एमेव य पासवणे, बारस चउवीसतिं तु पेहेत्ता। कालस्स य तिन्नि भवे, अह सूरो अत्थमुवयाई / / 1364 / / पासवणे एएणेव कर्मणं बारस एवं चउवीसं अतुरियमसंभंत उवउत्तो पडिलेहेत्ता पच्छा तिन्नि कालग्गहणथंडिले पडिलेहेति / जहण्णेण हत्थतरिए, 'अह' त्ति-अनंतर थंडिलपडिलेहा जोगाणंतरमेव सूरी अत्थमेति, ततो आवस्सग करेइ। तस्सिमो विहीअह पुण निव्वाघाओ, आवासं तो करेंति सव्वेऽवि / सडाइकहणवाधा-ययाइपच्छा गुरू ठंति।।१३६५।। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय अर्थत्यानन्तयें . सूरत्थमणाणंतरमेव आवस्सय करेंति / पुनर्विशेषणे, दुविहमावर-रागकरण विसेसेइ-निव्वाघाय, वाघाइमंच। जदि निव्वाघाय ततो सध्बे गुरुसहिया आवस्सयं करेंति। अह गुरु सड्डेसुधम्म कहें ति तो आवस्सगरस साहहिं राह करणिजस्स वाधाओ भवइ / जम्मि वा काले तंकरणिज्जत-हासेतस्स वाघाओ भण्णइ तओ गुरुं निसिज्जहरो य पच्छा चरित्तातियारजाणणट्टा काउस्सग टाहिति। सेसाउजहासत्तिं, आपुच्छित्ताण ठंति सट्ठाणे। सुत्तत्थकरणहेउ, आयरिऍठियम्मि देवसियं / / 1366|| रोसा साहू गुरूं आपुच्छित्ता गुरुगणस्स मग्गओं आसन्ने दुरै आधाराइणियाए जं जस्स ठाणं तं सट्टाणं / तत्थ पडिक्कमंताण इमा ठयणा / गुरू पच्छा ठायंतो मज्झेण गंतुं सट्टाणे ठायइ, जे वामओ ते अणंतरसवेण गंतु सट्टाणे ठायन्ति / जे दाहिणओ अणंतरसवेण गतुं टायति, त थ •णागय टायति सुत्तत्थसरणहेर्छ। तत्थ य पुवामेव ठायंता 'करेमि भंते ! सामाइयमिति' सुत्तं करें ति, पच्छा जाहे गुरू सामाइयं वरतावोसिरानि त्ति भणित्ता ठिया उस्सगं, ताहे देवसियाइयारं चिंतंति। अन्ने भणतिजाहे गुरू सामाइयं करेंति ताहे पुवट्ठिया वि तं सामाइयं करेंति सेसं कंह। जो हुज्ज उ असमत्थो, बालो वुड्डो गिलाणपरितंतो। सो विकहाविरहिओ, अच्छिज्जा निजरापेही।।१३६७।। परिस्संतो पाहुणगादि सो वि सज्झायज्झाणपरो अच्छति। जाहे गुरू टंति ताहे ते वि बालादिया ठायति एएण विहिणा। आवासगं तु काउं, जिणोवइटुंगुरूवएसेणं। तिण्णि थुई पडिलेहा, कालस्सइमा विही तत्थ।।१३६८॥ जिणहिं गणहराण उवइह,ततो परंपरएण जाव अम्हं गुरूवएसेण आगयं, तं काउं-आवरसयं अपणे तिणि थुतीओ करिति / अहवा-एगा एगसिलोगिया बितिया बिसिलोइया, ततिया (त) तियसिलोगिया / तसिं समत्तीए फालपडिलेहणविही कायव्वा। अचउताव विही, इमो कालभेओ ताव वुच्चइदुविहो उ होइ कालो, वाघाइम एतरोय नायव्वो। वाघाताँ घंघसालाए,घट्टणं सडकहणं वा॥१३६६।। पुव्बद्ध कंठं / पच्छद्धस्स व्याख्या-जा अतिरित्ता वसही कप्प-- डिगसेविया य सा घंधसाला / ताए अतिताणं घट्टणपडणाइ वाघायदोसा, सङ्घकहणेण य वेलाइक्कमणदोसो त्ति / एवमादि। वाघाए तइओ सिं, दिजइ तस्सेवते निवेएंति। इयरे पुच्छंतिदुवे, जोगं कालस्स घेच्छामो।।१३७०।। तम्मिवाघातिमे दोषिण जे कालपडियरगा ते निग्गच्छति। तेसिंततिओ उवज्झायादि दिजइ। ते कालग्गाहिणो आपुच्छसंदिसावणकालपवेयणं च सव्वं तरसेव करें ति। एत्थ गंडगदिट्टतो न भवइ। इयरे उवउत्ता चिट्ठति / सुद्धे काले तत्थेव उवज्झायस्स पवेएति ताहे दंडधरो बाहि कालपडिघरओ चिट्टइ। इयरे दुइगा वि अंतोपविसंति, ताहे नीतिदंडधरो अतीति। तेण पट्टविए सज्झाय करें ति। निव्वाघाए पच्छद्धं, अस्यार्थःआपुच्छण किइकम्मे, आवासिय पडियरिय वाघाते। इंदियदिसाय तारा, वासमसज्झाइयं चेव।।१३७१।। निव्याघात दोन्नि जणा गुरुं आपुच्छति-काल घेच्छामो / गुरुणा अणुण्णाया 'कितिकम्म' ति-वंदणं काउं दंडगं घेत्तुं उवउत्ता आवासियमासज्ज करेन्ता पमज्जन्ता य निग्गच्छति / अंतरे य जइ पक्खलति पडति वा वत्थादि वा विलम्गति कितिकम्मादि किंचि वितह करेंति तता कालवाधाओ। इमा कालभूमीपडियरणविही। इंदिएहिं उवउत्ता पडियरति। 'दिसत्ति-जत्थच चउरो वि दिसा दीसंति। उडम्मि जइ तिन्नि तारा दीसति। जइ पुण न उवउत्ता अणिट्ठो वा इदियविसओ 'दिस' ति दिसामोहो दिसाओवा तारगाओ वा न दीसंति वासं वा पडइ। असज्झाइयं वा जाय तो कालवहो त्ति गाथार्थः। किंचजइ पुण गच्छंताणं, छीयं जोइंततो नियत्तेति। निव्वाघाए दोण्णि उ, अच्छंति दिसा निरिक्खंता / / 1372 / / तसिं चेव गुरुसमीया कालभूमी गच्छंताणं अंतरे जइ छीत जोति वा फुसइ तो नित्तति / एवमाइकारणेहिं अव्वाहया ते दो वि निव्वाघाएण कालभूमि गया / संडासगादिविहीए पमञ्जित्ता निसन्ना उद्घट्टिया वा एक्के को दो दिसाओ निरिक्खंतो अच्छा त्ति गाथार्थः। कि च-तत्थ कालभूमीए ठियासज्झायमचिंतंता, कणगंदळूण पमिनियत्तंति। पत्ते य दंडधारी, मा बोलं गंडए उवमा॥१३७३।। तत्थ सज्झाय (अ) करेंता अच्छन्ति, कालवेलं च पडियरेइ / जइ गिम्हे तिण्णि सिसिरे पंच वासासु सत्त कणगारंति (पडति ) पेच्छेज तहा विनियत्तति। अह निव्वाघाएणं पत्ता कालग्गहणवेला ताहे जो दंडधारी सो अंतो पविसित्ता भणइ-बहुपडिपुण्णा कालवेला मा बोलं करेह, एत्थ गंडगोवमापुचभणिया कज्जइ ति गाथार्थः। आघोसिए बहूहिं, सुयम्मि सेसेसु निवडए दंडो। अह तं बहूहिँ, न सुयं, दंडिज्जइ गंडओ ताहे / / 1374 / / जहा लोए गामादिदंडगेण आघोसिएबहूहिं सुए थेवेहिं असुए गामादिठिउ अकरेंतस्स दंडो भवति। बहूहिँ असुए गंडस्स दंडो भवति। तहा इहं पि उवसहारेयव्व / ततोदडधरे निग्गए कालग्गही उठेइ त्ति गाथार्थः / सो य इमेरिसोपियधम्मो दढधम्मो, संविग्गो चेवऽवञ्जभीरू य। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 282 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय खेअण्णो य अभीरू, कालं पडिलेहए साहू ||1375 / / पियधम्मो दढधम्मो य एत्थ चउभंगो / तत्थिमो पढमभंगो / निच्च / संसारभउविग्गो संविग्गो। वजंपावं तस्स भीरूजहा तं न भवति तहा जयइ। एत्थ कालविहीजाणगो खेदण्णो। सत्तवतो अभीरू। एरिसो साहू कालपडिलेहओ / प्रतिजागरकश्च ग्राहकश्चेति गाथार्थः। ते यतं वेल पडियरंता इमेरिस काल तुलेतिकालो संझाय तहा, दो वि समप्पंति जह समं चेव। तहतं तुलेंति कालं, चरिमंच दिसं असज्झाए।।१३७६।। संझाए धरतीए कालग्गहणमाढत्तं तं कालगहण सज्झाए यजं सेसं एते दो वि समं जहा समप्पति तहा तं कालवेलं तुलंति / अहवा-तिसु उत्तरादियासु संझाये गिण्हति / 'चरिम' ति–अवराए अवगयसंझाए वि गेण्हतितहावि न दोसो ति गाथार्थः / आव०४ अ०। ततः कालस्य ग्रहणवेला वर्तते न वा ? इति, तत्र च-कालवेला-- / निरूपणे एव विधिरिति वक्ष्यमाण: दुविहोय होइ कालो, वाघातिम एयरोय नायव्वो। वाघाओं घंघसालाएँ, घट्टणं सडकहणं वा॥६३६।। द्विविधो भवति कालो-व्याघातकालः, इतरव-अव्याघातकालः। तत्र व्याघातकाल प्रतिपादयन्नाह-व्याघातः घशालायाम-अनाथमण्डपे दीर्घ , घट्टना-परस्परेण वैदेशिकैर्वा स्तम्भैर्वा सह निर्गच्छतः प्रविशतो वा तादृशो व्याघातकालः / तथा श्राद्धकादीनां यत्राचार्यों धर्मकथा करोति सोऽपि व्याघातकालः / न तत्र कालग्रहणं भवति नापि कलावेलानिरूपणार्थ प्रच्छन भवति। वाघाते तइओ सिं, दिजइ तस्सेव ते निवेयंति। निव्वाघाते दुन्नि उ, पुच्छंती काल घेच्छामो॥६४०।। एवं घड शालायां व्याघाते सति तृतीयस्तयो:-कालग्राहिणो: उपाध्यायादिर्दीयते येन तस्यैवाग्रतो बाह्यत एव निवेदयन्ति सन्दिशापयन्ति च / अथ नियाघातं भवति न कश्चिद् घड्ड शालायां धर्मकथादि कालव्याघातः वैदेशिकादिव्याघातो वा, ततश्च निव्याधाते सति द्वावेव निर्गच्छतः,एकः कालग्राहकः अपरो दण्डधारी, पुनश्च तो पृच्छतः / यदुत कालं गृह्णीवः-वेला निरूपयाव इत्यर्थः, तेषां च निर्गच्छता यद्यते ध्याघाता भवन्ति ततश्च निवर्तन्ते-न गृह्णन्ति कालम्। के च ते व्याघाताः? आपुच्छण कि इकम, आवस्सियखलियपडियवाधाओ। इंदियदिसा य तारा, वासमसज्झाइयं चेव।।६४१।। जइ पुण वच्चंताणं, छीयं जोइंच तो नियत्तंति / निव्वाघाते दोन्नि उ, अच्छंति दिसा निरिक्खंता॥६४२।। गोणादि काल मिए, होज्जा संसप्पगा व उद्वेजा। कविहसियवासविज्जु-क्कगजिए वावि उवघातो // 643|| | आपृच्छना नाम-आपुच्छित्ता गच्छन्ति,दंडगं गहाय मत्थएण वदामि खमासमणो कालस्सवेल निरूवेमो। एवं चयदिन पृच्छन्ति ततो व्याघातो भवति-न ग्राहाः कालः / अथाविनयेन वा पृच्छन्ति तथाऽपि व्याघात एव / कृतिकर्म च-वन्दनं यदि न कुर्वन्ति, अविनयेन व कुर्वन्ति, आवरियका च यदि न करोति, अविनयैन वा करोति, स्खलनं वा गच्छता यदि स्तम्भादो भवति, पतनं वा तेषामन्यतमस्य यदि भवति, एवमेभिव्याघातो भवति। तथा इंदिय'त्ति-श्रवणेन्द्रियादीनामिन्द्रियाणां ये विषयास्ते अननुकूला भवन्ति ततो न गृह्यते। एतदुक्तं भवति-यदि छिन्धि भिन्धीत्येवमादि शृण्वन्ति शब्दं ततो निवर्तन्ते। एवं गन्धश्वाशुभो यदि भवति, यत्र गन्धस्तत्र रस इति, विरूपं पश्यन्ति रूपं किश्चिद्। एवं सर्वत्र योजनीय ततो निर्गच्छन्ति, तथा दिग्गमोहश्च यदि भवति तता न गृह्यते / तारकाश्च यदि पतन्ति, वर्षण वा यदि भवति ; तत एभिरनन्तरोक्तैव्याघातैः कालोन गृह्यते। अस्वाध्यायिकं च यदि भवति, तथा यदि पुनर्वृजतां क्षुतं ज्योतिर्वाअग्निः उद्द्योतो वा भवति ततो निवर्तन्ते / यदा तु पुनरुक्तलक्षणो व्याघातो न भवति, तदा नियाघाते सति द्वावेव तिष्ठतो दिशो निरूपयन्तौ क्षणमात्रम्। तथा एभिश्च कालभूमी गतानामुपघातो भवति / यदि तत्र कालमण्डलके गौ रुपविष्टः, आदिग्रहणाद्-महिषादि उपविष्टो भवति ततो व्याघातः कदाचिद्वा तस्या कालभूमौ संसर्पगाः पिपीलिकादय उत्तिष्ठेरन् ततश्च व्याघातः / कदाचिद्वा कपिहसितं-विरलवानरमुखहसितं भवति / अथवाकपिहसितम्- 'उदित्तयं वा दीसई' जलं वा विद्युत् वा भवति, उल्कापातो वा भवति, गर्जितध्वनिर्वा श्रूयते, एभिः सर्वव्याघातः कालस्य, न गृह्यत इत्यर्थः। सज्झायमचिंतता, कणगं दठूण तो नियत्तंति। वेलाऍदंडधारी,मा बोलं गंडए उवमा।।६४४।। एवं ते कालवेलानिरूपणार्थं निर्गताः स्वाध्यायमकुर्वाणा एकाग्राः कालवेला निरूपयन्ति। अथ तत्र कनकं पश्यन्ति ततः प्रतिनिवर्तन्ते। कनकपरिमाणं च वक्ष्यति- "तिपंचसत्तेव घिसिसिरवास" इत्येवमादिना / अथ तन्न वर्तते तदा कालग्रहणवेलाया जातायां दण्डधारी प्रविश्य गुरुसमीपे कथयति,यदुत कालग्रहणवेला वर्त्तते मा बोलं कुरुत अल्पशब्दरवहितैश्च भवितव्यम्। अत्र च गण्डकदृष्टान्तः, यथा हि गण्डकः कस्मिश्चित्कारणे आपन्ने उत्कु रुटिकायामारुह्य घोषयति ग्राम इदं प्रत्यूषसि कर्त्तव्यम्। एवमसावपि दण्डधारी भणति--यदुत कालाग्रहणवेला वर्त्तते ततश्च भवद्भिरपि गर्जितादिषूपयुक्तैर्भवितव्यमिति। आघोसिए बहूहि, सुयम्मि सेसेसु निवडई दंडो। अहतं बहुहिन सुयं, दंडिजइगंडओ ताहे // 645|| एवमाघोषिते सति दण्डधारिणा बहुभिश्च श्रुतं शेषाश्च स्तोकास्तैर्न श्रुतम् , ततश्च तेषामुपरि दण्डो निपततिसूत्रार्थकरणं नानुज्ञायते। अथेदृश तदा घोषितं यद्बहुभिर्न श्रुतं स्तोकैः श्रुतं ततश्च तस्यैव दण्डधारिणो निपततितस्यैव स्वाध्यायनिरोधः क्रियते / कथं गण्डकस्यैव ? यथा Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 283 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय गण्डकेनाघोषिते बहुभिग्रामीणकैः श्रुते सति यैः स्तोर्न श्रुतंतेदण्ड्यन्ते, अथाघोषिते स्तोकैः श्रुत बहुभिर्न श्रुतंततो गण्डके एव दण्डो निपततीति / कालो सज्झाय तहा, दो वि समप्पंतिजह समं चेव। तह तंतुलंति कालं,चरिमदिसंवा असञ्झागं।।६४६॥ तौ च प्रत्युपेक्षको कालः सन्ध्या च यथा द्वे अपि समकमेव समाप्ति व्रजतस्तथा तं कालं तुलयतः / एतदुक्तं भवति-यथा कालसमातिर्भवति सन्च्या च समाप्तियाति तथा तुलयतः प्रत्युपक्षको। 'चरिमदिसं या असञ्झाग' ति-चरिमा-पश्चिमां दिग् असन्ध्याविगतसन्ध्या भवति यथा कालश्च समाप्यते तथा गृहन्ति। इदानीं किविशिष्टेन पुनः कालः प्रतिजागरणीय? इत्यत आहपियधम्मो ददधम्मो, संविग्गो चेवऽवज्जभीरू य। खेयन्नो य अभीरू,कालं पडिलेहए साहू॥६४७।। प्रियः-इष्ट धर्मो ऽस्येति प्रियधा, तथा दृढः-स्थिरो निश्चलो धर्मो यस्य स तथा, 'संविग्गों' मोक्षसुखाभिलाषी, अवद्यभीरुः पापभीरुः, खेदज्ञः-गीतार्थः तथा अभीरुः-सत्त्वसंपन्नः एवंविधः कालंकालग्रहण येज्ञा प्रत्युपेक्षते साधुः, एवंविधः कालवेलायाः प्रतिजागरणं करोति / इदानीं दण्डधारिणि घोषयित्वा निर्गते पुनश्च स द्वितीयः कालग्राही कालसंदिशनार्थ गुरोः समीपं प्रविशति / कथम् ? आउत्तपुव्वभणिए, अणपुच्छा खलियपडियवाघाते। घोसंतमूळसंकिय, इंदियविसए वि अमणुन्ने॥६४८|| रा च प्रविशन् आयुक्तः-उपयुक्तः स् प्रविशति। एतस्मिश्च प्रवेशने पूर्वोक्तमेव द्रष्टव्य; यतो निर्गच्छतो यो विधिः प्रविशतोऽपि स एव विधिरित्यत आह-पूर्वभणितमेतत्। अथ त्वनापृच्छयैव गुरु कालं गृह्णाति ततश्चानापृच्छय गृहीतस्य कालस्य,एतदुक्तं भवति-गृहीतोऽप्य सौन भवति / तथा स्खलितस्य सतः कालव्याघातः, पतितस्य व्याघातः कालस्याएव संजाते सति कालोन गृह्यते।तथा प्रविष्टस्य गुरुवन्दनकाले केनचित्सह जल्पतः कालो व्याहन्यते। तथा मूढो यदि भवति आवर्तान् विधिविपय'सेन ददाति तथाऽपि व्याहन्यते कालः, तथा शङ्क या न जानाति किमावर्त्ता दत्ता न वेत्यस्यामवस्थायां व्याहन्यते कालः। इन्द्रियविषयाश्च यद्यमनोज्ञा भवन्ति तथाऽपि कालो व्याहन्यते, छिन्धि भिन्धीत्येव विधान शब्दान् शृणोति / गन्धोऽनिष्टो यदि भवति यत्र गन्धस्तत्र रसोऽपि, विकराल रूपं पश्यति, स्पर्शन लेष्टुभिघातोऽकरमाद्भवति, एवंविधै सत्यामपि वेलायां न गृह्णाति कालम्। प्रविष्टश्चासौ किं करोतीत्यत आहनिसीहिया नमोक्कारे, काउस्सग्गे य पंचमंगलए। पुवाउत्ता सव्वे, पट्ठवणचउक्कनाणत्तं / / 646 / / प्रविशश्च गुरुसमीपे कालसन्दिशनार्थ यदि निषेधिकां न करोति ततः कालो व्याहन्यते / नमस्कार करोति- 'नमो खमासमणाणं' अथैवं न भणति ततः कालव्याघातो भवति। प्राप्तश्चर्यापथिकाप्रत्ययं कायोत्सर्गम् अष्टोच्छासं करोति, नमस्कारं च चिन्तयति, इरिया बहियं च अवस्स पडिक्कमति, जइ दूराओ जदि आसन्नओ वा आगतो, पुनरसौ नमस्कारेणोत्सारयति-पञ्चमङ्गलकेनेत्यर्थः / पुनश्च संदिशापयित्वा कालग्रहणार्थ निर्गच्छति। निर्गच्छंश्च "जदि आवस्सियं न करेइ खलति पडति वा जीयो वा अंतरे हवेज्जा एवमादीहिं उवहम्मइ” इदानीं कालग्रहणवेलायां किं कर्त्तव्यं साधुभिः? इत्याह–'पुव्वाउत्ता' पूर्वमेव दण्डधारिघोषणानन्तरमुपयुक्ताः सर्वे गर्जितादौ भवन्ति। उपयुक्ताश्च सन्तः कालग्रहणोत्तरकालं सर्वे स्वाध्यायप्रस्थापनं कुर्वन्ति / 'चउक्कनाणत्त' ति-कालचतुष्कस्य यथा नानात्वं भवति तथा वक्ष्यामः, कालचतुष्कम् एकः प्रादोषिकः, अपरोऽर्द्धरात्रिकः, अपरो वैरात्रिकः, अपरः प्राभातिकः / एतच भाष्यकारो वक्ष्यति। __इदानीं कालं गृह्णतः को विधिरित्यत आहथोववसेसियाए, सञ्झाए ठाइ उत्तराहुत्तो। चउवीसगदुमपुफिय-पुव्वग एक्कक्कयदिसाए॥६५०|| स्तोकावशेषायां सन्ध्यायां 'पुणो कालमंडलयं पमजित्ता' निषेधिकां कृत्वा कालमण्डलके प्रविशति, ततश्चोत्तराभिमुखः कायोत्सर्ग करोति, तरिमश्व पशनमस्कारमष्टोच्छ्रासं चिन्तयति। पुनश्च नमस्कारणोत्सार्य मूक एवं चतुर्विंशतिस्तवं "लोगस्सुज्जोयकरं" पठति मुखमध्ये, तथा 'दुमपुफियपुव्वर्ग' ति-दुमपुष्पिका-"धम्मो मंगलं पुटवगं" तिश्रामण्यपूर्वकं कह नु कुज्जा सामन्नमित्यर्थः / एतच्च एकैकस्यां दिशि चतुर्विंशतिस्तवादि “सामन्नपुवगपज्जतं कड्डइ, दंडधारी वि उत्तराभिमुहस्स संठियस्स वामपासे पुवदिसाहुत्तो अग्गओतेरिच्छदंडा धरेइ उद्घट्टियओ, पुणो तस्स पुवाईसु दिसासु चलतस्स दंडधारी वि तहव भमति"। इदानीं स गृह्णन् कालं यद्येवं गृह्णाति ततो ध्याहन्यते। कथमित्यत आहभासंतमूढसंकिय, इंदियविसए य होइ अमणुम्ने। बिंदूय छीयऽपरिणय, सगणे वा संकियं तिण्हं॥६५१।। भाषमाणः--ओष्ठसञ्चारेण पठन् यदि कालं गृह्णाति ततो व्याहन्यते कालः / मूढो दिशि अध्ययने वा यदि भवति ततो व्याहन्यते कालः। शङ्कितो वा-न जानाति किं मया द्रुमपुष्पका पठितान वेत्येवंवि-धायां शङ्कायां व्याहन्यते कालः। इन्द्रियविषयाश्च अमनोज्ञाः-अशोभनाः शब्दादयो यदिभवन्ति ततो व्याहन्यतेकालः। 'सोइदिए छिंद भिंदमारह विस्सरं बालाईणं रोवण वा रूवं वा पेच्छति, पिसायाईणं बीहावणयं, गंधे य दुरभिगंधे, रसो वि तत्थेव जत्थ गंधो तत्थ रसो, फासो बिंदुलिट्ठपहाराई एवमेतेष्वमनोज्ञेषु विषयेषु सत्सु व्याघातो भवति। तथा बिन्दुर्यधुपरिपतति शरीरस्योपधेर्वा कालमण्डलके वा ततो व्याहन्यते। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 284 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय तथा क्षुतं यदि भवति ततो व्याहन्यते / 'अपरिणत' इति / कालग्रहणभावोऽपगतोऽन्यचित्तो वा जातस्ततश्च व्याहन्यते कालः। तथा शङ्कितेनापि गर्जितादिना व्याहन्यते कालः / कथम् ? यद्येकस्य साधोर्जितादिशङ्का भवति ततो नव्याहन्यते कालः, द्वयोरपिशडितेन भज्यते कालः, त्रयाणां तु यदि शङ्का गर्जितादिजनिता भवति ततो ध्याहन्यते। तच स्वगणे-स्वगच्छे त्रयाणां यदि शङ्कितं भवति, न परगणे, ततो व्याहन्यते। इदानीमस्या एव गाथाया भाष्यकार: किञ्चिद्व्याख्यान (यन्ना) माहमूढोव दिसऽज्झयणे, भासंतोवाऽवि गिण्हइन सुज्झे। अन्नंच दिसज्झयणं,संकंतोऽणिट्ठविसयंवा 306 / / मूढो यदा दिशि भवति अध्ययने वा तदा व्याहन्यते / भाषमाणो वा ओष्ठसञ्चारेण यदि गृह्णाति कालं ततो न शुद्धयति / अन्या वा दिश संक्रान्तो मोहात, अध्ययनं वाऽन्यत् संक्रान्तं द्रुमपुष्पिकां मुक्त्वा 'सामन्नपुव्वए गओ उत्तराए वा दिसाए दक्खिणं गतो' यद्वाऽन्यां दिश शङ्कमानः, अन्यद्वाऽध्ययनं शङ्कमानो यदा भवति तदा न शुद्ध्यति / अनिष्ट-अशोभने वा शब्दादिविषयसन्निधाने व्याहन्यते / कालः, 'ततो आवस्सियं काऊण नीसरति कालमंडलाओं एवं गृहीतेऽपि काले यदि कालमण्डलकान्निर्गच्छन्नावश्यकादि न करोति ततो व्याहन्यत एवं काल इति। किञ्चजो वचंतम्मि विही, आगच्छंतम्मि होइ सोचेव। जंएत्थं नाणत्तं,तमहं वुच्छं समासेणं // 652 / / य एव प्रथम वसतेव्रजतो विधिरुक्तस्तद्यथा- "यदि कविहसियं वा उक्का वा पडति, गज्जति वा, एवमाईहिं उवघाओ गहियस्स वि कालरस होइ, आगच्छतस्स वसहि" ततश्च यो विधिजतः कालभूमावुक्तः आगच्छतोऽपि पुनर्वसतौ स एव विधिर्भवति। यत्पुनरस्त्र वसतौ प्रविशतो नानात्वंभेदस्तदहं नानात्वं वक्ष्ये समासतः-संक्षेपेण। इदानीं नानात्वं प्रतिपादयन्नाहनिसीहिया नमुक्कारं, आसजावडणपडणजोइक्खे। अपमज्जियभीए वा, छीए छिन्नेव कालवहो॥६५३।। कालं गृहीत्वा गुरुसकाशे प्रविशन् यदि निषेधिकां न करोति ततः कालव्याघातः,तथा 'नमोक्कार' नमो खमासमणाणं इत्येवं यदि न प्रविशन् भणति ततो गृहीतोऽपि कालो व्याहन्यते। तथा 'आसजासज्ज' इत्येवं तु यदि न करोति ततो व्याहन्यते गृहीतोऽपि / तथा साधोः कस्यचिदावडणे अभिपडणे कालो व्याहन्यते, पतनं लेष्वादेरात्मनो वा, ज्योतिष्कस्पर्श वा व्याहन्यते। तथा यदि प्रमार्जयन् न प्रविशति ततश्च व्याहन्यते कालः। भीतः-वस्तो वा यदि भवति तथाऽपि व्याहन्यते / क्षुते वा व्याहन्यते / छिनत्ति वा-यदि मारिवादिस्तिर्यक् छिन्दन / व्रजति, ततश्चैभिरनन्तरोदितैः कालस्य वधोभङ्गो भवतीति। आगम इरियावहिया, मंगल आवेयणं तु मरुनायं / सव्वे हि वि पट्टविऍहि, पच्छाकरणं अकरणं वा / / 654 / / आगत्य च गुरुसमीपमीर्यापथिकां प्रतिक्रामति / कार्यात्सर्ग चाष्टोच्छ्रास पचनमस्कारं चिन्तयति, तेनैव चोत्सारयति / मड़ लमिति पञ्चनमस्कारम् उच्यते / तत ईर्यापथिकां प्रतिक्रम्य गुरोः आवेदयतिनिवेदयति कालमित्यर्थः / अत्र मरुओ बंभणो तेनैव ज्ञातं दृष्टान्तः। त जहा-कम्हिइ पट्टणे धिजाइयाणं राइणा दिन्नं, तेसिं च घोसावियं-जो सामन्नो सो गेण्हउ आगंतूणं भाग एत्थ, एवं हक्कारिए जो आगतो तण लद्धो भागो, जो पुण गामाइसु गतो सो चुक्यो / एवं साहू वि दंडधारिणो घोसिए जे उवउत्ता ठिया णिवेदिए य काले जेहिं सज्झाओ पट्टविओताणं सज्झाओ दिज़ई। जे पुण विकहादिणा ठियां ताणं सज्झायकरण न दिल्लइ। एतदेवाह- सर्वैःसाधुभिः स्वाध्याये प्रस्थापिते सति पश्चात्तेभ्यः स्वाध्यायकरणं दीयते। ये पुनः कालग्रहणवेलायामुपयुक्ता न स्थिताः न स्वाध्यायप्रस्थापनवेलाया सन्निहिता भूतास्तेभ्यः स्वाध्यायकरण न दीयते। इदानीं मरुककथानकमुपसंहरन्नाहसन्निहियाण वडारो, पट्टवियपमाय नो दए कालं। बाहिठिए पडियरए, पविसइ ताहेव दंडधरो॥६५५।। सन्निहितानां त्रैविद्यब्राह्मणानां 'वडारो' वण्टकः आकरणम्-आह्वान यथासन्निहितानां, ये तु नागतास्तेषां न वण्टको-विभागो जातः / एवमत्रापि 'पट्टविय' ति-स्वाध्यायप्रस्थापनं यः कृतं तेभ्यो दीयते स्वाध्यायः / ये पुनः प्रमादिनस्तेभ्यो न दीयते काल इति / काले गृहीते स्वाध्यायो भवति। पुनश्च निवेदिते सति काले पुनर्बहिरन्यः प्रतिजागरकः प्रेष्यते / पुनश्च तत्र बहिः स्थिते प्रतिजागरके सति ततो दण्डधारी प्रविश्तीति। पट्टविय वंदिए य, ताहे पुच्छेइ किं सुयं भंते !! ते वि य कहेंति सव्वं, जं जेण सुयं व दिनुं वा / / 656 / / पुनश्वासौ प्रस्थापितस्वाध्यायो वन्दितगुरुश्च सन् तदा साधून पृच्छति दण्डधारी, यदुत-हे भदन्त ! भवतां मध्ये केन किं श्रुतम् ? तेऽपि च साधवः कथयन्ति सर्व यद्येन श्रुतं गर्जितादि,दृष्ट वा कपिमुखादि। पुनश्चतत्र केषाश्चिद्गर्जितादिशङ्का भवति ततश्च को विधिरित्यत-आहएकस्स दोण्ह वा सं-कियम्मि कीरइन कीरए तिण्हं। सगणम्मि संकिए पइ-गणम्मि गंतुं न पुच्छंति / / 657 / / एकस्य गर्जितादिशङ्किते क्रियते स्वाध्यायः, द्वयोर्वा, त्रयाणां पुनर्गर्जिताद्याशङ्कायां न क्रियते स्वाध्यायः। एवं यदि स्वगणे शङ्का भवति; ततश्चैवंविधायास्वगणेशङ्कायांसत्यापरगणे अन्यगच्छगत्वान पृच्छन्ति किंकारणम? Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 285 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय यत इह कदाचित्स कालग्राहकः साधू रुधिरादिनाऽनायुक्त आसीत्, ततश्च देवता कालं शोधयितुं न ददाति / तत्र तु परगणे नैवम् / अथवापरगण एव कदाचिदनायुक्तः कश्चिद्भवति इह तु नैवम। तस्मात्परगणो न प्रमाग मिति। इदानीं यदुक्तमासीत् 'कालचतुष्के नानात्वं वक्ष्यामः' तत्प्रदर्शयन्नाहकालचउक्के नाण-त्तयं तुपादोसियम्मि सव्वे वि। समयं पट्ठवयंती, सेसेसुसमंव विसमंवा॥६५८|| कालानां चतुष्के कालचतुष्कम् / तत्रैकः प्रादोषिकः, द्वितीयो- | ऽर्द्धरात्रिकः, तृतीयो वैरात्रिकः, चतुर्थः प्राभातिकः काल इति। एतस्मिन् कालचतुष्के नानात्वं प्रदर्श्यते ! तत्र प्रादोषिककाले सर्व एव समकं स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति / शेषेषु तु त्रिषु कालेषु समकम एककाल स्वाध्याय प्रस्थापयन्ति विषम वा-न युगपद्वा स्वाध्यायं प्रस्थापयन्तीति। इदानीं चतुर्णामपि कालादीनां कनकपतने सति यथा व्याधाता भवति तथा प्रदर्शयन्नाहइंदियमाउत्ताणं, हणंति कणगा उसत्त उक्कोसं। वासासुय तिन्नि दिसा, उउबद्धे तारगा तिन्नि॥६५६॥ इन्द्रियैः-श्रवणाऽऽदिभिरुपयुक्ताना घ्रन्ति-व्याघातं कुर्वन्ति कालस्य कनका उत्कृष्टन सप्त / एतच वक्ष्यति। 'वासा सु य तिन्नि दिस' त्तिवर्षासु-वर्षाकाले प्राभातिके काले गृह्यमाणे तिसृषु दिक्षु यद्यालोकः शुद्ध्यति चक्षुषो न कुड्यादिभिरन्तरितस्ततो गृह्यत एव कालः,अन्यथा व्याघात इति / एतद्विशेषविषयं द्रष्टव्यं, शेषेषु त्रिष्वाद्येषु कालेषु चतसृष्वपि दिक्षु चक्षुष आलोको यदिशुद्ध्यति ततो गृह्यते वर्षाकाले नान्यथा। एतच्च प्रकटीकरिष्यति। 'उउबद्धतारगा तिण्णि त्ति-ऋतुबद्धे-शीतोष्णकालयोराधेषु त्रिपु कालेषु यदि मेघच्छन्नेऽपि तारकात्रयं दृश्यते ततः शुद्ध्यति कालग्रहणम / यदि पुनस्तिस्रोऽपि न दृश्यन्ते ततो न ग्राह्यः। प्राभातिकस्नु कालः ऋतुबद्ध मेघरदृश्यमानायामप्येकस्यामपितारकायां गृह्यते कालः / वकाले त्वकस्यामपि तारकायाम-दृश्यमानायां चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते। इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याख्यानयतिकणगा हणंति कालं, तिपंचसतेव प्रिंसिसिरवासे। उक्काउ सरेहागा, रेहारहितो भवे कणगो॥३१॥ वानकाः घन्ति कालं त्रयः पञ्च सप्त यथासंख्येन 'धिंसिसिरवासे' ग्रीष्मकाले त्र्यः कनकाः काल व्याघ्नन्ति, शिशिरकाले पञ्च प्रन्तिकालं, वर्षाकाले सप्त प्रन्ति कालम् / इदानीमुल्काकनकयोर्लक्षणं प्रतिपादयनाई-उल्कासरेखा भवति। एतदुक्तं भवति-निपततो ज्योतिष्पिण्डस्य रेखायुक्तस्य उल्केत्याक्या / स एव च रेखारहितो ज्योतिष्पिण्डः कनकोऽभिधीयते। सव्वेऽवि पढमजामे, दोन्नि उवसभा उ आइमा जामा। तइओ होइगुरूणं, चउत्थओ होइसव्वेसिं॥६६०|| तस्मिश्च प्रादोषिके काले गृहीते सति सर्व एव साधवः प्रथमयाम यावत्स्वाध्यायं कुर्वन्ति / द्वौ त्वाद्यौ यामौ वृषभाणां भवतो गीतार्थानाम् / ते हि सूत्रार्थ चिन्तयन्तस्तावत्तिष्ठन्ति यावत्प्रहरद्वयमतिक्रान्तं भवति, तृतीया च पौरुष्यवतरति / ततस्ते चैव कालं गृह्णन्ति 'अङ्करत्तियं उवज्झायाईणं संदिसावेत्ता ततो कालंघेत्तूणं आयरियं उट्ठवेंति, वंदणय दाऊण भणन्ति --सुद्धो कालो, आयरिया भणंति-तह त्ति, पच्छा ते वसमा सुयति, आयरिओ वि बितियं उट्टावेत्ता कालं पडियरावेइ, ताहे एगचित्तो सुत्तत्थ चिंतेइजावा रत्तियस्स कालस्स बहुदेसकालो, ताहे तइयपहरे अतिकंते सो कालपडिलेहगो आयरियस्स पडिसंदेसवित्ता वेरत्तिय कालं गेण्हइ / आयरिओ वि कालस्स पडिक्कभित्ता सोवति। ताहे जे सोइयलया साहू आसी ते उद्देऊण वेरत्तियं सम्झाटां करेंति जाव पाभाइयकालग्गहणवेला जाया / ततो एगो साहू उवज्झायरस वा अण्णस्स वा संदिसावेत्ता पाभाइयं काल गण्हइ, जहा नवण्हं कालगहणाणं वेला पहुच्चति सज्झाए आरतो चेव पुणो ताहे साहुणो सव्वे उडेति / किह पुण नव काला पडिलेहिज्जति / पढमो उवट्ठिओ कालग्गाहो तस्स तिन्नि वारा कालो उवहओ एक्कम्मि मंडलए। तओ पुणो बितिओ उद्देइ सो बितिए मंडलए तिन्नि वारा लेइ / लिंतस्स जदिन सुज्झति ततो तइओ साहू उट्टेइ / सोऽवि ततिए मंडलए तिण्णि वारा लेइ, लिंतस्स जदिन सुज्झति ताहे भग्गो कालो। एत्थ लिंताण साहूण नव वा-राऽवसाणे पभा फुट्टति / ततो तीए वेलाए पडिक्कमन्ति / अह तिणि कालगाहिणो नऽत्थि, किं तु-दुवे चेव, ततो इको पढम पढमकालमंडलए तिणि वारा उलेऊण ततो बितिए दो वारे गिण्हइ। ततो बितिओ साहू बीयए चेव कालमंडलए एक वारं लेऊण ततो तइए मंडले तिन्नि वारातो गेहण्इ / एवं चेव नव वारा हवंति। अहवा-पढमे चेव कालमंडलए एगो चत्तारिवाराओलेइ। बितिओ पुण बितिए कालमंडलए दो वाराओ लेइ। ततिए तिन्नि वाराओ लेइ सो चेव बितिओ। एवं वा दोण्हं साहूणं नव वाराओ भवंति। अह एको चेव कालग्गाही ततो अववाएण सो चेव पढमे तिन्नि वारा लेइ। पुणो सो चेव बितिओ मंडले तिन्नि वारा लेइ। पुणो सो चेव ततिए मंडलए तिन्नि चेव वाराओ लेइ। एसो पाभाइयकालस्स विही। एवं च सति कालस्स पडिक्कमित्ता सुवति / एगो न पडिक्कमति। सो अववाएण कालं निवेदिस्सइ। इदानीं यदुक्तं “वासासुय तिण्णि दिस" त्ति तद्व्याख्यानयन्नाह भाष्यकार:वासासु (इयं गाथा भाष्यकृत इति अङ्केषु वैषम्यग् / ) य तिणि दिसा, हवंति पाभाइयम्मि कालम्मि। सेसेसु तीसु चउरो, उउम्मि चउरो चउदिसं पि॥३११।। वर्षासु तियो दिशो यदि कु ड्यादिभिस्तिरोहिता न भवन्ति ततः प्राभातिककालग्रहणं क्रियते / शेषेषु त्रिषु कालेषु चतस्रोऽपि दिशो यदि कुड्यादिभिस्तिरोहिता न भवन्ति ततो गृह्यन्ते कालाः? नान्यथा, 'उउम्मि चउरो चउदिसं पि' त्ति ऋतुबद्धे काले चत्वारोऽपिकाला गृह्य Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय न्ते यदि चतस्रोऽपि दिशोऽतिरोहिता भवन्ति, नान्यथा / एतदुक्तं भवति-चतसृष्वपि दिक्षु यद्यालोको भवति ततश्चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते। इदानीम् "उउबद्धे तारका तिण्णि" त्ति व्याख्यायते--- तिसु तिण्णि तारगाउ, उदुम्मि पाभाइए अदिट्टे वि। वासासु अतारागा, चउरो छन्ने निविट्ठोऽवि॥३१॥ त्रिषु-आद्येषु कालेषु घनसंछादितेऽपि ऋतुबद्धे काले यदि तारकास्तिस्रो दृश्यन्ते ततस्त्रयः काला आद्या गृह्यन्त इति। 'पाभाइए अदि? वि' ति-प्राभातिके काले गृह्यमाणे ऋतुबद्ध घनाच्छादिते यदि तारकात्रितयमपि न दृश्यते तथाऽपि गृह्यते काल इति,वर्षाकाले पुनर्घनाच्छादितेऽपि अदृष्टतारा एव चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते / छन्ने न सावकाशे एते चत्वारोऽपि काला गृह्यन्ते। 'निविडो वि' त्ति-प्राभातिके त्वयं विशेषः-उपविष्टोऽपि छन्ने स्थाने ऊर्द्धस्थानस्यासति गृह्णाति। एतदेव व्याख्यानयन्नाहठाणासति बिंदूसु, गेण्हइ विट्ठो विपच्छिमं कालं। पडियरइ बाहि एको, एक्को अंतट्ठिओ गिण्हे॥६६१।। स्थानस्याऽसति, एतदुक्तं भवति--यर्द्धस्थितो न शक्नोति ग्रहीतुं कालं ततः स्थानाभावे सति तोयबिन्दुषु वा पतत्सु सत्सु गृह्णात्युपविष्टः पश्चिम-प्राभातिकं कालं तथा प्रतिजागरणं करोति, द्वारिएको स्थितः। ओलिकापातादेरधस्तास्थितः साधुः, एकश्च साधुरन्तः-मध्ये स्थितो गृह्णाति कालमिति। इदानीं कः कालः कस्यां दिशि प्रथमं गृह्यते?, एतत्प्रदर्शयन्नाहपाओसियऽडरत्ते, उत्तरदिसि पुव्वपेहए कालं। वेरत्तियम्मि भयणा, पुव्वदिसा पच्छिमे काले॥६६२|| प्रादोषिकः अर्द्धरात्रिकश्च कालः द्वावप्येतावुत्तरस्यां दिशि पूर्वप्रथम प्रत्युपेक्षते गृह्णाति, ततः पूर्वादिदिक्षु, वैरात्रिके-तृतीयकाले भजनाविकल्पः कदाचित् उत्तरस्यां पूर्व पूर्वस्यां वा, पुनः पश्चिमेप्राभातिके काले पूर्वस्यां दिशि प्रथमं करोति कायोत्सर्ग ततः पुनर्दक्षिणादाविति। सज्झायं काऊणं, पढमवितीयासु दोसु जागरणं। अन्नं वाऽवि गुणंती, सुणंति झायंति वाऽसुद्धे // 663 / / एवं यदि शुद्ध्यति प्रादोषिकः कालस्ततः स्वाध्यायंकृत्वा प्रथमद्वितीयपौरुष्योर्जागरणं कुर्वन्ति साधवः। अथासौ प्रादोषिकः कालो न शुद्धस्ततः अन्यत्-उत्कालिकं गुणयन्ति शृण्वन्तिध्यायन्ति, तथाऽशुद्धे सति, एहि अववाओ भण्णइ-जति पाओसिओ सुद्धो ततो अङ्करत्तिओ, जइ वि न सुज्झइ तह वि त चेव पवेयइत्ता सज्झाय कुणंति। एवं जइ वेरत्तिओ न सुज्झइ ततो अणुगहत्थं जइ अवरत्तिओ सुद्धो तओतं चेव पवेयइत्ता सज्झाय कुणति। एवं जइ नपाभाइओ तओ तं चेव पवेयइत्ता सज्झायं कुणति। एवं द्रव्यक्षेत्रकालभावा ज्ञातव्या इति। जो चेव य सयणविही, ऽणेगाणं वन्निओ वसहिदारे। सो चेव इह पि भवे, नाणत्तं उवरि सज्झाए॥६६४।। य एव शयितव्ये विधिः पूर्वमेकानेकानां प्रत्युपेक्षकाणां व्यावर्णितो वसतिद्वारे स एवात्रापि द्रष्टव्यः, नानात्वं यदि परमिदं यदुत स्वाध्याय कृत्वा स्वपन्तीति। ओघ०। पं०व०।०। आ० चू। स्वाध्यायविधिःस्वाध्याय-इति, अन्ययस्तूक्त एव, स्वाध्यायश्च कियत्कालं कार्य इत्याह- आद्यपौरुषीमिति-प्रथमपौरुषी पादोनप्रहर याव--दित्यर्थः / अत्र विधिश्चैव-वसतेर्हस्तशतावधि क्षेत्र शोधयित्वा तत्रास्थिप्रमुखं पतितं विधिना परिष्ठाप्य वसतिं प्रवेदयन्ति गुरवे साधयः / यः पुनः कालग्राही स मुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनापूर्व वन्दनके दत्त्वा वसति शुद्धं च कालं प्रवेदयति, ततश्नोपयुक्तः पूर्व वाचनाचार्यस्तदनुतदनुज्ञाताश्वेतरेऽपि सूत्रोक्तविधिना स्वाध्यायं प्रस्थापयन्ति, यदुक्तं सर्वमेतद्यतिदिनचर्यायाम्"हत्थसयं सोहित्ता, जाणित्ता पसवमिथिआईणं। परिठविअ अद्विपमुह, विहिणा वसहिं पवेइंति // 1 // जे उण कालागाही, ते पुत्तिं पेहिऊण किइकम्म / काउं वसहि तत्तो, कालं सुद्धं पवेअंति // 2 // सिद्धतसिट्टविहिणा, उवउत्तो पट्टवेइ सज्झाय। पढमं वाणायरिओ, तयणुण्णाया तहा इअरे // 3 // " इयं च मण्डली सूत्रविषयेति सूत्रमण्डलीत्युच्यते / सा चाद्यपौरुषीप्रमाणेति आद्या पौरुष्यपि सूत्रपौरुषीत्युच्यते / इदानीं तूपयोगकरणकाले स्वाध्यायं कुर्वन्तो गीतार्था एनां सत्यापयन्ति, यतस्तत्रैव-"उवओगकरणकाले, गीअत्था जं करेंति सज्झायं / सो सुत्तपोरिसीए,आयारो दंसिओ तेहिं / / 1 / / " इति / द्वितीया पौरुषी त्वर्थविषयेतिज्ञेयमित्युत्सर्गः, अपवादस्तु अगृहीतसूत्रा–णांबालानां द्वे अपि पौरुष्यौ सूत्रस्यैव, गृहीतसूत्राणांतुद्वे अप्य-र्थस्येति, तदुक्तं तत्रैव"उस्सग्गेणं पढ़मा छग्घडिआ सुत्तपो-रिसी भणिआ / बिइआ य अत्थविसया, निद्दिट्ठा दिलुसमएहिं / / 1 / / बिइअपय बालाण, अगहिअसुत्ताण दो वि सुत्तस्स / जे जहि असुत्तसारा, तेसिं दो चेव अत्थस्स / / 2 // " इति / च स्वाध्यायो-वाचनापृच्छनापरिवर्तनाऽनुप्रेक्षाधर्मकथारूपः पञ्चविधः। ध०३ अधिः / “पडियमंताणं पडिक्कमणकालं० जाव सज्झायं करिजा दुवालसं" महा० 1 चू० / चतुष्कालं स्वाध्यायः कर्त्तव्यः। नि० चू०१६ उ०। (चतुष्कालस्वाध्यायवक्तव्यता 'पुच्छण शब्दे पञ्चमभागे द्रष्टव्या।) (तथा 'कालियसुय' शब्दे तृतीयभागे 500 पृष्ठे द्रष्टव्या।) पट्टविय वंदिएवा, ताहे पुच्छति किं सुयं भंते ! / ते वि य कहेंति सव्वं,जंजेण सुयं व दिह्र वा।।१३६५|| दंडधरेण पट्टविए वंदिए. एवं सव्वेहि वि पट्टविए पुच्छा भवइ-अज्जो ! केण किं दिट्ट सुयं वा? दंडधरो पुच्छइ अणो वा ते वि सञ्च(व) कहेंति जति सव्वेहि वि भणियं-न किंचि सुयं दि? वा, तो सुद्धे करेंति सज्झायं / अह एगेण वि किंचि विज्जुमादि फुडं दिट्ट गजियादि वा सुयं तो असुद्धे न करेंति त्ति गाथार्थः / Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 287 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय अह संकियइक्कस्स दोण्ह वसं-कियम्मि कीरइन कीरती तिण्हं। सगणम्मि संकिए पर-गणं तु गंतुंनपुच्छंति॥१३८६|| जदि एगण सदिद्ध दिट्ट सुय वा, तो कीरइ सज्झाओ, दोण्ह वि सदिद्धे कीरति, तिहं विज्जुमादिएण संदेहे ण कीरइ सज्झाओ, तिण्हं अण्णाण संदेहे कीरइ, सगणम्मि सकिए परवयणाओऽसज्झाओ न कीरइ। खत्तविभागेण तसिं चेव असज्झाइयसंभवो। जं एत्य णाणत्तं तमह वोच्छ समासेण' ति-अस्यार्थ:कालचउक्के पाण-त्तगंतु पाओसियम्मि सव्वे वि। समयं पट्टवयंती, सेसेसु समंच विसमं वा।।१३८७।। एवं सव्वं पाओसियकाले भणियं, इयाणिं चउसुकालेसु किंचि सामण्णं किचि विसेसियं भणामि, पाओसियं दंडधरं एक मोत्तुं सेसा सवे जुगवं पट्टति, सेसेसु तिरसु अद्धरत्तवेरत्तियपाभाइएय समंवा विसमंवा पट्टति। किं चान्यत्इंदियमाउत्ताणं, हणंति कणगा उ तिन्नि उक्कोसं। वासासुय तिन्नि दिसा, उउबद्ध तारगा तिन्नि।।१३८५।। सुटु इदियउवओगउवउत्तेहिं सव्वकाला पडिजागरियव्वा घेत्तव्या, कणगेसु कालसंखाकओ विसेसो भण्णइ-तिणि गिम्हे उवहणति त्ति, तण उक्कोसं भण्णइ, चिरेण उवघाउत्ति, तेण सत्त (तिण्णि) जहण्णं सेसं मज्झिम। अस्य व्याख्याकणगा हणंति कालं, तिपंच सत्तेव गिम्हि सिसिरवासे। उक्का उसरहागा, रेहारहितो भवे कणओ।।१३८६।। कणगा गिम्हे तिन्नि सिसिरे पंच वासासु सत्त उवहणति, उक्का पुणेगावि, अयं चासिं विसेसाकणगो सण्हरेहो पगासरहिओ य, उमा महंतरेहा पकासकारिणी य। अहवा-रेहारहिओ विप्फुलिंगा पभाकरो उक्का चेव। 'वासासु तिणि दिसा' अस्य व्याख्यावासासुय तिन्नि दिसा, हवंतिपाभाइयम्मि कालम्मि। सेसेसुतीसुचउरो, उडुम्मिचउरो चउदिसिं पि।।१३६०॥ जत्थ टिओ वासाकाले तिन्नि वि दिसा पेक्खइ तत्थ ठिओ पाभाइय कालं गेण्हइ, सेसेसु तिसु वि कालेसु वासासु (उबद्धे सव्वेसु) जत्थ / ठिओ चउरो वि दिसाभाओ पेच्छइ तत्थ ठिओऽवि गेण्हइ। 'उडुबद्धे तारगा तिन्नि' अस्य व्याख्यातिसु तिन्नि तारगाओ, उडुम्मि पाभातिए अदिढेऽवि। वासासु (य) तारगाओ, चउरो छन्ने निविट्ठोऽवि।।१३६१।। तिसु कालेसु पाओसिए अङ्करत्तिए वेरत्तिए, जति तिन्नि ताराओ | जहणणेण पेच्छति तो गिण्हति। उडुबद्ध चेव अब्भादिसथडे जइ वि एक पि तार न पिच्छंति तहावि पाभाई कालं गेण्हति। वासाकाले पुण चउरो वि काला अब्भाइसंथडे तारासु अदीसंतासु वि गेण्हंति। 'छन्ने निविट्ठो' त्ति अस्य व्याख्याठाणासइ बिंदुसु अ, गिण्हं चिट्ठो विपच्छिमं कालं। पडियरइ बहिं एको, एको [व] अंतडिओ गिण्हे||१३६२।। जदि वि वसहिस्स बाहिं कालग्गाहिस्स ठाओ नत्थि ताहे अंतो छण्णे उद्घडिओ गेण्हति। अह उद्घट्टियर-रस वि अंतो ठाओ नत्थि ताहे छण्णे चेव निविट्ठो गिण्हइ / बाहिट्टिओ वि एको पडियरइ। वासबिंदुसु पडतीसु नियमा अंतो ठिओ गिण्हइ / तत्थ वि उद्धट्टिओ निसण्णो वा / नवरं पडियरगो वि अंतो ठिओ चेव पडियरइ। एस पाभाइए गच्छुवग्गहट्ठा अववायविही / सेसा काला ठाणासति न घेत्तव्वा, आइण्णतो वा जाणियव्व। __ 'कस्स कालस्स कं दिसमभिमुहेहिं ठायव्व' मिति भाष्यतेपाओसि अड्डरत्ते, उत्तरदिसि पुचपेहए कालं। वेरत्तियम्मि भयणा, पुव्वदिसा पच्छिमेकाले॥१३६३।। पाओसिए अड्डरत्तिए नियमा उत्तराभिमुहो ठाइ, 'वेरत्तिए भयण' त्ति इच्छा उत्तराभिमुहो पुव्वाभिमुहो वा पाभाइए नियमा पुव्वाभिमुहो। इयाणि कालग्गहणपरिमाण भण्णइकालचउक्कं उक्को-सएण जहन्नतिंय तु बोद्धव्वं / बीयपएणं तु दुर्ग, मायामयविप्पमुक्काणं / / 1364 / / उस्सग्गे उक्कोसेणं चत्तारि काला घेप्पंति। उस्सग्गे चेव जहण्णेण तिग भवति। 'बितियपए' त्ति-अववाओ, तेण कालदुगं भवति, अभायाविनः करणे अगृह्यमाणस्येत्यर्थः / अहवा-उक्कोसेणं चउक्नं भवति। जहण्णेण हाणिपदे तिगं भवति। एकम्मि अगहिए इत्यर्थः / बितिए हाणिपदे कए दुगं भवति / द्वयोरपहणत इत्यर्थः, एवममायाविणो तिन्नि वा अगिण्हतस्स एको भवति / अहवा-मायाविमुक्तस्य कारणे एकमपि कालमगृह्णतो न दोषः, प्रायश्चित्तं न भवतीति गाथार्थः / कहं पुण काउचउक्न?, उच्यतेफिडियम्मि अडरत्ते, कालं चित्तुंसुवंतिजागरिया। ताहे गुरू गुणंती, चउत्थि सव्वे गुरू सुअइ।।१३६५।। पादोसियं कालं घेत्तुं सव्वे सुत्तपोरिसिं काउं पुन्नपोरिसीए सुत्तपाढी सुवंति। अत्थचिंतया उक्कालियपाढिणो य जागरंति। जाव अडरत्तो / ततो फिडिए अङ्कुरत्ते कालं घेत्तुं जागरिया सुवति, ताहे गुरू उठेत्ता गुणेति / जाव चरिभो पत्तो। चरिमजामे सव्ये उद्वित्ता वेरत्तियं घेत्तुं सज्झायं करेंति, ताहे गुरू सुवंति। पत्ते पाभाइयकाले जो पाभाइयं कालं घेच्छिहिति सो कालस्स पडिक्कमिउं पाभाइयकालं गेण्हइ / सेसा कालवेलाए पाभाइयकालस्सपडिक्कमंति। ततो आवस्सयं करेंति। एवं चउरो काला भवति। तिण्णि कह? उच्यते-पाभाइए अगहिए सेसा __तिन्नि। अहवागहियम्मि अड्ड रत्ते-वेरत्तिय अगहिए भवइ तिन्नि। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 288 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय घरत्तिय अडरत्ते, अइ उवओगा भवे दुण्णि / / 1366 / / पडिजग्गियम्मि पढमे, वीयविवज्जा हवंति तिन्नेव। पाओसिय वेरत्तिय, अइउवओगा उदुण्णि भवे / / 1367 / / वेरत्तिए अगहिए सेसेसु तिसु गहिएसु तिषिण, अड्डरत्तिए वा अगहिए तिपिण, दोषिण कह? उच्यते, पाउसियअडरत्तिएसु गहिएसु सेसेसु दोणि भवे / अहवा-पाउसियवेरत्तिए गहिए य दोन्नि / अहवापाउसियपाभाइएसु अगहिएसु दोणि, एत्थ विकप्पे पाउसिए चेव अणुवहएण उवओगओ सुपडियग्गिएण सव्वकालेण पढति न दोसो। अहवा-वेरत्तिए अड्डरत्तिए अगहिए दोगिण / अहवा-अड्डरत्तियपाभाइयगहिएसुदोपिण। अहवा-वेरत्तियपाभाइएसुगहिएसु. जदा एक्का तदा अण्णतरं गेण्हइ / कालचउक्ककारणा इमे कालचउक्के गहण उस्सग्गविही चेव।अहवा-पाओसिएगहिए उवहए अड्डरतं घेत्तुं सज्झायं करेंति। पाभाइओ दिवसट्टा घेत्तव्यो चेव / एवं कालचउक्क दिट्ट, अणुवहए पाओसिए सुपडियग्गिए सव्वं राई पढति। अडरत्तिएण वि वेरत्तिएण पदति। वेरत्तिएण वि अणुवहएण सुपडियग्गिएण पाभाइय असुद्धे उद्दिट्ट दिवसओ वि पढेति / कालचउक्के अग्गहणकारणा इमे-पाउसियं न गिण्हति असिवादिकारणओ न सुज्झति वा, अड्डरत्तियं न गिण्हंति, कारणतो ण सुज्झति वा, पाओसिएण वा सुपडियग्गि-एण पढति न गेण्हति। वेरत्तिय कारणआ न गिण्हति न सुज्झइ वा। पाओसिय अड्डरत्तेण वा पदति, तिन्नि वा णो गेहति / पाभाइयं कारणओ न गिण्हइ, न सुज्झइ वा, वेरत्तिएणेव दिवसओ पढ़ति। इयाणिं पाभाइयकालग्गहणविहिं पत्तेयं भणामिपाभाइयकालम्भिउ, संचिक्खे तिन्नि छीयरुन्नाणि। परवयणे खरमाई, पावासुय एवमादीणि।।१३६८|| व्याख्या त्वस्या भाष्यकारः स्वयमेव करिष्यति / तत्थ पाभाइयम्मि काले गहणविही य, तत्थ गहणविही इमानवकालवेलसेसे, उवग्गहियअट्ठया पडिक्कमई। नपडिक्कमई वेगो, नववारहए धुवमसज्झाओ॥२२४|| दिवसओ सज्झायविरहियाण देसादिकहासंभववजणट्टा मेहावी-तराण य पलिभंगवजणट्टा, एवं सव्वेसिमणुग्गहट्ठा नवकालम्गहणकाला पाभाइय अणुण्णाया। अओ नवकालग्गहणवेलाहिं सेसाहिं पाभाइयकालगाही कालस्स पडिक्कमति। सेसा वितं वेलं पडिक्कमति वा न वा। एगो नियमा न पडिक्कमइ, जइ छीयरु-दादिहिं न सुज्झइ तो सो चेव वेरत्तिओ सुपडियग्गिओ होहिति त्ति सो वि पडिक्कतेमु गुरुणो कालं निवेदित्ता अणुदिए सूरिएकालस्स पडिक्कमति। जइघेप्पंतो नववारे उवहओ कालो तो नजइ धुवमसज्झाइयमत्थि ति न करेंति सज्झाय / नववारगहणविही इमो-'सचिक्खे तिण्णि छीतरुण्णाणि' ति अस्य व्याख्याइकिक्क तिन्नि वारे, छीयाइहयम्मि गिण्हई कालं। चोएइ खरो बारस, अणिट्ठविसए अकालवहो / / 225 / / एक्कस्स गिण्हओ छीयरुदादिहए संचिक्ख इति ग्रहणाद्विरमतीत्यर्थः, पुणो गिण्हइ, एवं तिण्णि वारा तओ परं अण्णो अण्णम्मि थंडिले तिण्णि वाराउ,तस्स वि उवहए अण्णो अण्णम्मि थंडिले तिणि वारा तिण्हं असई दोषिण जणा णव वाराओ पूरेइ। दोण्ह वि असती एएक्को चेव णव वाराओ पूरेइ। थंडिलेसु वि अववाओ, तिसुदोसुवा एक्कमि वा गिण्हति। 'परवयणे खरमाई' अस्य व्याख्या 'चोएइ खरो पच्छद्धं' चोदक आहजदि रुदति मणिट्टे कालवहो ततो खरेण रडिते वारहवरिसे उवहमउ, अण्णेसु वि अणिट्टइंदिय विसएसु एवं चेव कालवहो भवतु? आचार्य आहचोअग माणुसणिढेकालवहो सेसगाण उपहारो। पावासुआइ पुचि, पन्नवणमणिच्छ उग्घाडे॥२२६।। माणुससरे अणिढे कालवहो 'सेसग' त्ति-तिरिया तेसिं जइ अणि पहारसद्दो सुव्वइतो कालबंधो। 'पावासिय' ति-मूलगाथायां योऽवयवः अस्य व्याख्या 'पावासुयाय' पच्छद्धं, जइ पाभाइयकालग्गहणवेलाए पावासियभज्जा पइणो गुणे संभरंति दिवे दिवे रोएति, रुवणवेलाए पुव्वयरो कालो घेत्तव्यो। अहवा-सा वि पच्चूसे रोवेज्जा ताहे दिवा गंतु पण्णविजइ, पण्णवणमनिच्छाए उग्धाडणकाउस्सग्गो कीरइ। "एवमादीणि' ति अस्यावयस्य व्याख्यावीसरसहरुअंते, अव्वत्तगडिभगम्मिमा गिण्हे। गोसे दरपट्ठविए, छीए छीए तिगी पेहे॥२२७।। अच्चायासेण रुयंत वीरसं भन्नइातं उवहणए, जं पुण महुरसह घोलमाण चतंन उवहणति, जावमजंपिरंतामव्वत्तं तं अप्पेण विवीसरेण उवहणइ। महंत उस्सुंभरोवणेण उवहणइ, पाभाइयकालग्गहणविही गया। इयाणि पाभाइयपट्टवणविही-'गोसे दर' पच्छर्छ, ‘गोसि' त्ति-उदितमादिहो, दिसालोय करेत्ता पट्टवेति। 'दरपट्टविए' त्ति अद्धपट्टविए जइ छीतादिगा भग पट्टवणं अण्णो दिसालोय करेत्ता तत्थव पटवेति / एवं ततियवाराए। दिसावलीयकरणे इम कारणआइन्न पिसियमहिया, पेहित्ता तिन्नि तिण्णि ठाणाई। नववारहए काले, हउ त्ति पढमाइन पढंति॥१३६६।। 'आइण्णा पिसिय'त्ति-आइण्णं–पोग्गलं तं कागभादीहिं आणीय हाजा. महिया वा पडिउमारद्धा, एवमाई एगट्टाणे ततोवारा उवहए हत्थसयबाहि अण्णं ठाणं गंतु पेहंति पडिलेहें ति / पट्टविति त्ति वुत्तं भवति। तत्थ दि पुवुत्तविहिणा तिन्निवारा पट्ठति। एवं बिति-यठाणे वि असुद्धेतओ चि हत्थसयं अन्नं ठाणं गंतु तिन्नि वारा पुव्युत्तविहाणेण पट्टवेति। जइ सुद्धं तो करेंति सज्झायं / नववारहए खुताइणा णियमा अहो, (ततो) पढमाए पोरिसीए न करेंति सज्झायमिति गाथार्थः / पट्ठवियम्मि सिलोगे,छीए पडिलेह तिन्नि अन्नत्थ। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 286 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय सोणिय मुत्तपुरीसे, घाणालोअंपरिहरिज्जा॥१४००।। जदा पढवणाए तिन्नि अज्झयणा समत्ता, तदा उवरिमेगो सिलोगो कड्डियव्यो / तम्मि, समत्ते पट्ठवणं समप्पइ। वितियपादोगयत्थो। 'सोणिय' त्ति अस्य व्याख्याआलोअम्मि चिलमिणी, गंधे अन्नत्थर्गतुपकरंति। वाघाइयकालम्मी, दंडग मरुआ नवरिनऽस्थि॥१४०१।। जत्थ सज्झायं करेंतेहिं साणियवचिगादीसंतितत्थ न करेंति सज्झाय / कडगं चिलिमिलि वा अंतर दातुं करेंति। जत्थ पुण सज्झायं चेव करेन्ताण मुतपुरीसकलेवरादीयाण गधे अण्णम्मि वा असुभगधे आगच्छते तत्थ | सज्झायं न करेंति। अण्णं पिबंधणसेहणादि आलोय परिहरेज्जा। एय सव्वं निव्याघाए काले भणिया वाघाइमकालो वि एवं चेव। नवरं गंडगमरुगदिहता न संभवंति। एएसामन्नयरे--सज्झाए जो करेइ सज्झायं। सो आणाअणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पावे॥१४०२।। निगदसिद्धा। आव० 4 अ०। से भयवं! केणं अट्ठणं गोयमा!जे भिक्खू जावजीवाए अभिग्गहेणं चाउक्कालियं वायणाइजहासत्तीए सज्झायं न करेज्जा, सेणं कुसीले जेए। अन्नं च जे केईजावजीवाभिग्गहेण अपुव्वनाणाहिगमं करेजा तस्सासत्तीए पुव्वाहीयं गुणेज्जा तस्स वि य असत्तीए पंचमंगलाणं अड्डाइज्जे सहस्से परावत्ते से भिक्खू आराहगे, तं च नाणावरणं च खवइ / तिव्वयरेइ वा भवित्ताणं सिज्झेजा। महा०३ अ०। (अत्रल्या वक्तव्यता 'कुसील' शब्दे तृतीयभागे 606 पृष्ठे गता) अहा णं पढमबीयपोरिसीए जइणं कहाइ महया कारणवसेणं अट्ठघडिगं वासज्झायंन कयंतंतत्थ मिच्छक्कड गिलाणस्स अन्नेसिं निव्विगइ। महा०१चू०। जेणं भिक्खू उभयं थंडिलाणि विहिणा गुरुपुरो संदिसावित्ताणं पागणस्सय संचरेऊणं कालवेलंजाव सज्झायं ण करेज्जा तस्स / णं छठें पायच्छित्तं / महा०१०।। (काल एव स्पध्यायः कर्तव्य इति आयार' शब्दे द्वितीयभागे 340 पृष्ठ कालाचारप्रस्तावे उक्तम्।) (अस्वाध्यायिके स्वाध्यायो न कर्त्तव्यः, तसारवध्यायिक्रमात्मसमुत्थं परसमुत्थं चेति द्विविधम् 'असज्झाइय' शब्द प्रथगभाग 827 पृष्ट व्याख्यातम्।) (प्रतिपत्सुस्वाध्यायो न कर्तव्य इत्युक्तम्-'असज्झाय' शब्दे प्रथमभागे 830 पृष्ठे।) व्यतिकृष्टकाले स्वाध्यायो न कर्त्तव्यः / सूत्रम्नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा वितिगिट्टे काले असज्झायं उहिसित्तए वा करेत्तए वा||१०|| अस्य संबन्धमाहवितिगिट्ठ खलु पगयं, एगंतरितोय होति उद्देसो। अव्वितिगिट्ठ-विगिटुंजह पाहुडमेव नो सुत्तं / / 181 / / व्यतिकृष्टमिति खलु प्रकृतमनुवर्तनमस्ति दिकसूत्राऽव्यतिकृष्ट काले / उद्धाटायां पौर ष्यामित्यर्थः, स्वाध्यायमुद्देष्ट्रवा कर्तुं वेति सूत्राक्षरार्थः। संप्रति भाष्यविस्तर:-- लहुगा य सपक्खम्मी, गुरुगा परपक्खे उद्दिसंतस्स ! अंग सुयखंधं वा, अज्झयणुद्देसथुतिमाई॥१८॥ यदि विकृष्ट-उद्धाटापौरुषीलक्षणे सपक्ष उद्दिशति संयतः संयत-- स्योद्दिशतीत्यर्थः तदा तस्य प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः / परपक्ष:संयतस्य संयती, संयत्याः संयतस्तत्र संयतः संयत्या उद्दिशति, कारण वा संयती संयतस्य तदा प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः। अथ किमुद्दिशत एवं प्रायश्चित्तमह आह-अङ्गं श्रुतं स्कन्धमध्ययनमुद्देशं स्तुतिम् आदिशब्दात् (व्य०७ उ०।) शब्दसम्बन्धम्। बृ०। (स्वाध्याये प्रायश्चित्तम् 'थय' शब्दे चतुर्थभागे 2383 पृष्ठ उक्तम्।) अथ व्यतिकृष्ट काले उद्दिशतः पठतो वा को दोषः, अत आहअट्टहा नाणमायारो, तत्थ काले य आदिमो। अकालऽऽज्झाइणा सोउ, नाणायारो विराहितो।।१८४॥ ज्ञानाचारोऽष्टधा-अष्ट प्रकार: ‘काले विणए' इत्यादि प्रागुक्तलक्षणस्तषु चाष्टसु ज्ञानाऽऽचारेषु मध्ये काले इत्यादिको ज्ञानाचारः, स चाऽकालाध्यायिना ज्ञानाचारो विराधितः, न केवलमयं दोषः किं त्वन्येऽपि। तथा चाऽऽह-- कालादिउवयारेणं, न विजा सिज्झते विणा। देति रंधे अवद्धंसं, साव अण्णा वसे तहिं!|१८५।। कालाद्युपचारेण विना विद्या न सिध्यति, न केवलं न सिध्यति, किंतुकालादिवैगुण्यलक्षणे रन्धे--छिद्रे सति साऽधिकृतविद्याधिष्ठात्री देवता अन्यावा तत्रावसरे अवध्वंसं ददाति। एष दृष्टान्तः। अयमुपनयः-व्यतिकृष्ट काले सूत्रे उद्दिश्यमाने पठ्यभाने वा सूत्रं निर्जराफलदायितया तया म सिध्यति। न केवलं न सिध्यति, किन्तु-यया देवतया सूत्रमधिष्ठितं सा कालातिक्रमेण पठनतोऽक्षाम्यन्ती प्रान्ता वा काचिद्देवता अकाले पठनलक्षणं छिद्रभवाप्यावध्वंस दद्यात्। अथ कथं ज्ञायते सूर्य देवतयाऽधिष्ठितमत आहसलक्खण मिदंसुत्तं, जेण सव्वण्णुभासियं। सव्वं च लक्खणोवेयं, समहिट्ठति देवया॥१८६|| इदमधिकृतं सूत्रं सलक्षणं येन कारणेन सर्वज्ञेन भाषितं सर्वमपि च लक्षणोपेतं वस्तु जगति देवताः समधितिष्ठन्ति ततो ज्ञायते सूत्रमपि देवताधिष्ठितम्। अन्यच्चजहा विजानरिंदस्स,जं किंचिदपि भासियं / विजा भवति सा चेह, देसे काले य सिज्झइ॥१८७|| यथा विद्यानरेन्द्रस्य-विद्याचक्रवर्त्तिनो यत्किञ्चिदपि भाषितं (तत्) विद्या भवति। सा चेह जगति देशे काले वा सिध्यति। न कालाऽऽद्युपचारमन्तरेण / तथा। जहा य चक्किणो चक्कं, पत्थिवेहिं वि पुज्जइ। ण वाऽवि कित्तणं तस्स, जत्थतत्थ न जुज्जई // 188|| Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 260 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय यथा वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसूचने / चक्रिणः-चक्रवर्तिनश्चक्रम्-आज्ञा पार्थिवैरपि सर्वे : युज्यते, न चापि तस्य यत्र तत्र वा कीर्तनंसंशब्दन युज्यते। उक्तो दृष्टान्तः। उपनयमाहतहा अट्ठगुणोवेया, जिणसुत्तीकया जति। पुजते नय सव्वत्थ, तीसे झाया उजुज्जती।।१६।। तथा-तेन प्रकारेण इह-जगति जिनस्य वाक् सूत्रीकृता अष्टगुणोपेता वक्ष्यमाणनिर्दोषत्वाद्यष्टगुणसमन्विता सवैरपि सुरासुरमनुजैः पूज्यते, न च सर्वत्र देशे काले वा तस्याध्यायिता युज्यते, किन्तु यथोक्त एव देशे काले च। संप्रति तानेवाऽष्टौ गुणानाहनिघोसंसारवंतंच, हेउजुत्तमलंकियं / उवणीयं सोवयारंच, मियं महरमेव य॥१६॥ निर्दोष-द्वात्रिंशताऽपि दोषैर्विनिर्मुक्त सारवत् बह्न र्थमधिकृत--- व्यवहारसूत्रवत्, हेतवोऽन्वयव्यतिरेकलक्षणास्तैर्युक्तमल कृतम उपमाद्यलंकारोपेतम्, उपनीतम्-उपनयोपसंहृतं सोपचारं मितं-- परिमिताक्षरंमधुरललिताक्षरं पदाद्यात्मकतया श्रोत्रमनोहारि। पुव्वण्हे उपरण्हे य,अरहा जेण भासई। एसाऽविदेसणा अंगे, जंच पुवुत्तकारणं / / 161|| येन कारणेन भगवानहन्पूवाहे वा एषैव च भगवतो देशना अड़े निबद्धा, तस्मादुद्धाटाया पौरुष्या न पटनीयं, नाप्युद्वेष्टव्यम् / यच्च पूर्वनिशीथाध्ययने उक्त कारणं तत्रोदाहरणं लक्षण तस्मादप्यकाले पठनीय, नाप्युद्देष्टव्यामिति। सन्ध्याकाले न पठनीयम् / यत आहरत्तीदिणाण मज्झेसु, उभओ संझओ रवी। चरंति गुज्झगा के इ, तेण तासिं तुणो सुतं // 192|| रात्रिदिनमध्ययोः प्रातसंध्यायां विकालसंध्यायां चेत्यर्थः / तथा उभयोरपि संध्ययोर्मध्याह्नसंध्यायामर्द्धरात्रसंध्यायां चेत्यर्थः,येन कारणेन केचिद् गुह्यका व्यन्तरविशेषाश्चरन्ति परिभ्रमन्ति तेन कारणेन तासु चतसृष्वपि संध्यासुन श्रुतमुद्दिश्यते पठ्यतेवा, मा भूत् छलनादोष इति कृत्वा। आह यदि सन्ध्यासु गृहाकावरन्ति ततः कथमावश्यक संध्यायां क्रियः / तत आह जवहोमाऽऽदिकज्जेसु, उभओ संझओ सुरा। लोगेण भाविया तेण, संझावासगदेसणा।।१६३॥ जपहोमादिकारोंषु उभयोः रांध्रायोः सुरा-गुह्यका लोकेन भावितारितष्ठन्ति, तावद्वयमावश्यकं कुर्मस्तेषां तत्र व्याप्तत्वासायश्यकस्यापि च संध्याकृत्यरुपरवात्तन संध्यायामावश्यकदेशना। एते उ सपक्खम्मी, दोसा आणादओ समक्खाया। परक्खम्मि विराहण,दुविहेण विसेण दिह्रतो / / 164|| एते प्रवचनवेदिनामतीव प्रसिद्धाः, स्वपक्षे उद्विशतः आज्ञादयो दोषाः / समाख्याताः / तद्यथा-आज्ञातीर्थकराज्ञा विराधिता भवति, अनवस्था / तं दृष्ट्वा अन्येषामपि तथा करणात् मिथ्यात्वं, तीर्थकराज्ञाभवात्। विराधना द्विविधा-संयमविराधना, आत्मविराधना च। नत्र संयमविराधना ज्ञानाचारविराधनात्, आत्मविराधना देवताछलनात्। परपक्षेऽप्यते दोषाः / केवलं या संयमविराधना सा ज्ञानाचार-विघातात्मिका, ब्रह्मघातात्मिका च ज्ञातव्या। तत्र द्विविधन विषेण द्रव्यविषण भावविषेण च दृष्टान्तः। तत्र द्रव्यभावविषप्ररूपणार्थमाहदव्वविसं खलु दुविहं,सहजं संजोइमंचतं बहुहा। एमेवं य भावविसं, सचेयणाऽचेयणं बहुहा।।१६५।। द्रव्यविष खलु द्विविध, तद्यथा-सहज, संयोगिमं च / संयोजन संयोगरतेन निवृत्त संयोगिमं 'भावादिमः / 6 / 4 / 21 / ' इतीम-प्रत्ययः। तच सहज, संयोगिम च / बहुधा-अनेकप्रकारमेवमेव अनेनैव प्रकारेण खलु द्विविध भावविषम् / तद्यथा--सहज,संयोगिमं च / तच्च प्रत्येक सचेतनम अचेतन च / बहुधा बहुप्रकारम् / संप्रति सहजसंयोगिमद्रव्यविषप्ररूपणार्थमाह.. सहजं सिंगियमादी, संजोइम घयमहुंच समभाग। दव्वविसंणेगविहं, एत्तो भावम्मि वुच्छामि।।१६६।। सहज द्रव्यविष शृङ्गि कादि संयोगिमं घृतं मधु च समभागम् / एतचेकैकमपि द्रव्यविषमनेकविध द्रष्टव्यम् / अत ऊर्ध्व भावे भावविष वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिपुरिसस्स निसग्गविसं, इत्थी एवं पुमंपिइत्थीए। संजोइमो सपक्खे, दोण्ण विपरपक्खनेवत्थो॥१९७|| पुरुषस्य निसर्गविषं स्त्री; स्त्रीनेपथ्योपेता, एवं स्त्रिया अपि सहज विष पुमान, पुरुषनेपथ्योपेतः / संयोगिमविषं द्वयोरपि संयतस्य संयत्याश्चेत्यर्थः / स्वपक्षः परपक्षनेपथ्यः, तद्यथा-संयतस्य पुरुषः स्त्रीनेपथ्योपेतः, निर्गथ्याःस्त्री,पुरुषनेपथ्योपेता। घाणरसपासतो वा,दव्वविसंवा सइंऽतिपातेइ। सव्वविसयाणुसारी,भावविसंदुज्जयं असइं॥१९८| द्रव्यविष घ्राणतो रसतः स्पर्शतो वा सकृदेकवारतो वा अतिपातयति वा-विभाषायाम, तदपि सकृदतिपातवैकल्पिकं भवति। तथाहि-द्रव्यविष जीवितान्न च्यावर्यदपीति, भावविषं पुनः सर्वविषयानुसारि पञ्चस्वपीन्द्रियविषयेषु संप्रापकत्वात्, तथा दुर्जयमल्पसत्वेन जेतुमशक्यत्त्वान्नियमोच्छासकृदनेकवारमतिपातयतिविनाशयति-भावविषमूर्छितानामनेकमरणभावात। उपसंहारमाहजम्ह। एए दोमा, तम्हा उसपक्खें समणसमणीहिं। उद्देसो कायव्वो, किमत्थ पुण कार उद्देसो।।१६।। यरमाद्विपक्षे एते दोषास्तस्मात् श्रमणश्रमणीभ्यां स्वपक्षे उद्देशः कर्तव्यः, संयतैः संयतानामुद्देशः कार्यः, संयतीभिः संयतीनामित्यर्थः / ततः प्रागुक्ता दोषा न भवन्ति। आह परः-किमत्र पुनः कारणं यदुद्देशः क्रियते। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 261 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय अनुद्दिष्ट कस्मान्न पठ्यते ? तत्राहबहुमाणविणयआउत्तताति उद्देसतो गुणा होति। पढमो एसो सव्वो, एत्तोवुच्छंचरणकालं // 20 // उद्देशे हि क्रियमाणे श्रुतस्य-श्रुताधारस्य वा अध्यापकस्योपरि बहुमानमान्तरः प्रीतिविशेषो भवति, विनयश्च प्रयुक्तः स्यात्, आयुक्तता च महती भवति, एते उद्देशतो गुणा भवन्ति / एष सर्वोऽप्यङ्गादिविषय उद्देशः-प्रथमोद्देशः, अत ऊर्द्ध तुस्वाध्यायकरणकालं वक्ष्ये। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिथयथुइधम्मक्खाणं, पुव्वुद्दिद्वंतु होइ संझाए। कालियँकाले इयरं, पुन्बुद्दिढ विगिट्टे वि॥२०१॥ स्तवः-स्तुतिधर्माख्यानं वा पूर्वोद्दिष्ट संध्यायामपि पठनीय भवति, कालिकं पुनः श्रुतं प्रथमायां पौरुष्यामुद्दिष्ट काले-प्रथमपौरुषीलक्षणे चारमपौरुषीलक्षणे च पठ्यते नाकाले / इतरत् उत्कालिक प्रथमाया पौरुष्यामुद्दिष्टय्यतिकृष्टऽपि काले संध्यायामस्वाध्यायिकं च वर्जयित्वा पठ्यते। पत्ताण समुद्देसो, अंगसुयक्खंधपुव्वसूरम्मि। इच्छा नसीहमादी, सेसादिण पच्छिमादीसुं॥२०२।। अध्ययनमुद्दश वा पठन्तो यदैव श्रवणं प्राप्त भवन्ति तदैव तस्याध्ययनस्योद्देशस्य वा समुद्देशः क्रियते, श्रुतस्कन्धो वा पूर्वसूरे उद्धाटायामपि पौरुष्यामनुज्ञायते / येषाभागाढा योगास्तेषां निशीथादीनामिच्छा प्रथमायां चरमायां वा पौरुष्या तेषामनुज्ञा प्रवर्तत इति। शेषाणि अध्ययनान्युद्देशका या दिवसस्य पश्चिमायां पौरुष्याम्, आदिशब्दादशः प्रथमायां चरमायाश्चानुज्ञायते। अनुज्ञामेवाधिकृत्य विशेषव्याख्यानमाहदिवसस्स पच्छिमाए, निसिन्तु पढमाएपच्छिमाए वा। उद्देसज्झयणुन्नाण य रत्ति णिसीहमादीणं / / 203 // उद्देशाध्ययनानां चानुज्ञा दिवसस्य पश्चिमायाम, निशि तु प्रथमायां पश्चिमायां व प्रवर्तते / निशीथादीनामागाढयोगानां दिवसस्य प्रथमायां पौरुष्यामनुज्ञानं, न तु रात्रौ / __ अत्रैवादिशब्दस्याधिकार्थसंस्तवकत्वमुपदर्शयतिआदिग्गहणा दसका--लिउत्तरज्झयणचुल्लसुतमादी! एएसि भइअऽणुण्णा, पुव्वण्हे याऽवि अवरण्णे // 204|| आदिग्रहणादादिशब्दोपादानात्, यानि दशवैकालिकोत्तराध्ययनक्षुल्लककल्पश्रुतादीनि, अत्र शब्दादौपपातिकादिपरिग्रहः, एतेषामनुज्ञा भजिताविकल्पिता पूर्वाह्न वा स्यादपराहे वा। सांप्रतमङ्ग श्रुतस्कन्धानामनुज्ञाविधिमाहनंदीभासणचुण्णे,उ विभासा होइ अंगसुयखंधे। मंगलसद्धाजणणं, सुयपूयाभत्तवोच्छेदो।।२०५।। अङ्ग श्रुते स्कन्धे च भवति / अनुज्ञायां कर्त्तव्यायां नन्दीभाषणंज्ञानपञ्चकोचारणम्-चूणे च विभाषा यदि भवन्ति वासाः शिरसि प्रक्षिष्यन्ते, तदभावे केसराण्यपि / करमादेवमनुज्ञा क्रियते इति चेत? अत थाह-न्दीभागो तारानिशेपे / मङ्गलं भवति / ज्ञानपञ्चकस्रा भावमङ्ग लत्वाद्वासनिक्षेपस्य च द्रव्यमङ्ग लत्वात् / तथा अन्येषा परमश्रद्धाजननम्, यथैकोऽमुकस्याङ्गस्य श्रुतस्कन्धस्य च पारगत आचार्येण चैवं सकलजनसमक्षं पूजितस्तस्माद्वयमपि गाढतरमुत्साह कुर्म इति, तथा अध्ययनाना वा व्यवच्छेदोऽन्यथा नानुज्ञातमन्येषा दीयते इति तेषां व्यवच्छेदः स्यात्। अत्रैवाऽपवादमाहबिइयपयं आयरिए, अंगसुयक्खंधमुद्दिसंतम्मि। मंगलसद्धाभयगोरेवं य तह निट्ठिए चेव // 206!! स्वपक्षे उद्देशः कर्त्तव्यो न परपक्षे इत्युत्सर्गः / अत्र द्वितीयपदम्अपवादपदं,यदि प्रवर्त्तिन्यास्तत् श्रुतं न विद्यते तत आचार्यः परपक्षेऽपि संयतीरूपे अङ्गं श्रुतस्कन्धं वा उपलक्षणमेतदध्ययनादिकं चोद्दिशति। अथवा-सत्यपि तस्मिन् प्रवर्त्तिन्याः श्रुते आचार्यः संयत्या अङ्ग श्रुतस्कन्धं वा उद्विशति / मङ्गलादीनि भवन्ति ततः स परमं ज्ञानपात्रमिति मग लबुद्धिरुपजायते / तथा यस्मादाचार्येणोद्दिष्टमिदमत आदरेण पठनीयमिति पाठविषया महती श्रद्धा भवति / तथा यदि पाठे प्रमाद करिष्यामि ततो न पठितमित्याचार्या राष्येयुरिति भयम् / तथा ममेदमाचार्येण गौरवेणोद्दिष्ट तस्मादादरेण पठित्वा शीघ्र समाप्ति नयामि / 'तह निहिए चेव' त्ति-तथा निष्ठिते अङ्गे श्रुतस्कन्धे वा समाप्तिं नीते यथासंभवमेतैरेव कारणैरङ्ग श्रुतस्कन्धं वा आचार्योऽनुजानीयात्। एमेव संयतीवा, उद्दिसति संजयाण बिझ्यपदे। असतीऍ संजयाणं, अज्झयणाणं च वुच्छेदो / / 207 / / तत् विवक्षितं श्रुतं संयतानां न विद्यते, अध्ययनानां चान्यथा व्य-- वच्छेदःस्यात्। ततो द्वितीयपदेनापवादपदेन गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे संयत्यपि संयतानामुद्दिशति। एवं ता उद्देसो, अज्झाओ वी न कप्पइ विगिढे / दोण्हं पिहुंति लहुगा, विराहणा सेव पुव्वुत्ता / / 208|| एवमुक्तेन प्रकारेण तावदुद्देशाभिहितो यथा व्यतिकृष्ट कालेसन क्रियते अध्यायोऽप्यध्येय द्वयोरपि लघुकं प्रायश्चित्तम्, विराधना च पूर्वोक्ता, ज्ञानविराधना, आत्मविराधना च / तत्र ज्ञानविराधना ज्ञानाचारहननादात्मविराधना प्रान्तदेवताछलनात्। अत्रैवापवादमाहवितिगिट्टे सागारियाए कालगया असति वुच्छेदो। एवं कप्पइ तहियं, किं ते दोसो न संती उ / / 206 / / कदाचित्साधवः कारणेन सागारिकायां वसतौ स्थितास्तत्र परिचारणाशब्दात श्रुत्वा यस्य यत्पराजितं स तत्परावर्तयति आदिशब्दात् अनेकादिष्वपि समापतत्सु यस्य यत्परार्जितं स तत् गुणयतीति परिग्रहस्तथा कालगतः संयतो यदि कारणेन प्रतीक्षापयितव्यो भवति तदा रात्री जागरणनिमित्तं यस्य यत्पराजितं स तत्परावर्त्तयति। तथा यस्य सकाशे तत श्रुतमधीत स कालगतोऽन्यत्र च तत् श्रुतं नास्ति, ततः संप्रति पठित मा विस्मृति यायात्, अनुप्रेक्षायां च सोऽकुशलस्तत एवमेतैः कारणैर्द्वितीयपद-मधिकृत्य व्यतिकृष्टऽपि काले स्वाध्यायः कल्पते। अत्र पर आह Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 262 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सज्झाय तत्रापवादपदेन व्यतिकृष्टेऽपि काले पठते कि ते दोषा आज्ञाभड़ाऽऽदयो न सन्ति-न भवन्ति ? अत्रोत्तरमाहमण्णइजेण जिणेहि,अणुण्णायाइकारणे ताई। तो दोसो नसँजायइ, जयणाइतहिं करेंतस्स।।२१०।। भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते येन कारणेन जिनैःकारणे-सागारिकादिलक्षणे तानि पठनान्यनुज्ञातानि तस्मात् कारणात् रहस्यश्रुतस्यापि च यतनया वक्ष्यमाणलक्षणया तत्र सागारिकवसत्यादौ पाठ कुर्वतो दोषआज्ञाभङ्गादिलक्षणो न संजायते। तत्र यतनामाहकालगय मुत्तूणं,इमा अणुप्पेह दुब्बले जयणा। अन्नवसहिं अगीते, असती तत्थेवऽणुच्चेणं // 211 / / कालगत मुक्त्वा शेषेषु कारणेष्वनुप्रेक्षा दुर्बले इयंवक्ष्यमाणा यतना। अन्यस्यां वसतौ गत्या रहस्यश्रुतं परावर्त्तयन्ति मा अगीते अगीतार्थस्य श्रुतश्रवणं भूयादिति हेतोः / अथान्य उपाश्रयो न विद्यते ततोऽन्यस्या यसतेरभावे तत्रैव-तस्यामेव वसतावनुचेन शब्देन परावर्त्तयन्ति / कालगतेऽपि वसत्यन्तरे न यान्ति, किन्तु-तत्रैव जागरणनिमित्तमनुच्चशब्देन गुणयन्ति / संयत्योऽप्यपवादपदेन संयताना समीपे पठेयुः, परावर्त्तययुर्वा न कश्चिद्दोषः / व्य०७ उ०। (व्यतिकृष्टकाले निर्ग्रन्थीनां स्वाध्यायो न कल्पते इत्युक्तम् 'वायणा' शब्दे षष्ठभागे 1064 पृष्ठे / ) स्वाध्यायहीनता नाम यदि प्राप्तायामपि कालवेलायां कालप्रतिक्रमण करोति, अधिक तायद्यतिक्रान्तायामपि कालवे लायां कालं प्रतिक्रामतिवन्दनादिक्रिया वा तदनुगतां हीनाधिका करोति, इत्यादि सर्वम् 'आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे 410 पृष्ठे उक्तम् / ) (पूर्वोत्तरयो-- द्वयोर्दिशोः स्वाध्यायःसमुद्देष्टव्योऽनुज्ञातव्य इति 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2527 पृष्ठ उक्तम्।) (सचित्तवृक्षे स्थित्या स्वाध्यायो न कर्त्तव्य इत्युक्तम् 'सचित्तरुक्ख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे / ) क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः क्षेत्रे लब्धे तत्र स्वाध्यायं ये न कुर्वन्ति तेषां प्रायश्चित्तं मासकल्पम् / बृ०१ उ०२ प्रक०। (सन्ध्यासु स्वाध्यायो न कर्त्तव्य इत्युक्तम् 'असज्झाइय' शब्दे प्रथमभागे 30 पृष्ठे।) (उदकतीरे स्वाध्यायो न कर्त्तव्य इति 'दगतीर' शब्दे चतुर्थभागे 2442 पृष्ठे उपतम्।) (रात्रौ संयतीनामुपाश्रयाऽन्तरं स्वाध्यायकरणम् 'विहार' शब्दे षष्ठे भागे 1327 पृष्ठ रात्रिविहारप्रस्तावे उक्तम् / ) (यो भिक्षुः स्वाध्यायं कृत्वा प्रत्युपेक्षणं न करोति तस्य प्रायश्चित्तम् ‘विकहा' शब्दे षष्ठे भागे 1126 पृष्ठे गतम्।) अनुराधारेवतीचित्रामृगशिरोनक्षत्रेषु स्वाध्यायाऽनुज्ञा उद्देश्यसमुपदेशौ कुर्यात्। द०प०ा स्वाध्यायसमं तणे नास्ति / द०प०: वारसविहम्मिविता, सभितरबाहिरे कुसलदिखे। नवि अत्थिन विय होही, सज्झायसमं तवाकम्म।८६|| मेहा हुजन हुज्जव, मोहो उवसमेइ कम्माण। उज्जोओ कायव्वो, णाणं अभिकंखमाणेणं॥६०|| कम्ममसंखिजमवं, खवेइअणुसयमेवआउत्तो। बहुमवे संचियं पि हु, सज्झाएणं खणे खवइ / / 11 / / सतिरिअसुरासुरनरो, सकिंनरमहोरगो सगंधव्यो। सव्वो छउमत्थजणो, पडिपुच्छइ केवलिं लोए ||2|| दगा पा चन्दविज्झगपइन्ना / व्य०। स्वाध्यायगुणाःपढणाई सज्झायं, वेरग्गनिबंधणं कुणइ विहिणा। पठनमपूर्वश्रुतग्रहणमादिशब्दात्प्रच्छनापरावर्तनानुप्रेक्षाधर्मकथा गृह्यन्ते, ततः पञ्चप्रकारमपि स्वाध्यायं करोति-किं विशिष्टन् ? वैराग्यनिबन्धनविरागताकारण विधिनाशास्त्रोक्तेन श्येन श्रेष्टिवत् / तत्र पठनविधिः-- "पर्यस्तिकामवष्टम्भ, तथा पादप्रसारणम् / यर्जयेद्विकथा हास्यमधीयन् गुरुसन्निधौ” / / 1 / / इति पृच्छाविधिरयम्- "आसणगओ न पुच्छिज्जा, नेव सिज्जागओ कया। आगम्मुकुडुओ संतो, पुच्छिज्जा पंजलीउडो॥१॥” इति। ध० २०२अधि 3 लक्ष० / व्य० / (धर्मकथानां परावर्तनानुप्रेक्षा 'परियट्टणा' शब्दे पञ्चमभागे 727 पृष्ठे गता।) स्वाध्यायफलम्सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ? सज्झाएणं नानावरणिज्ज कम्म खवेइ॥१६॥ हे भदन्त ! स्वाध्यायेन पञ्चप्रकारेण जीवः किं जनयति ? गुरुराह-हे शिष्य ! स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीय कर्म क्षपयति / उत्त० 26 अ० / (दोषाविष्करणम् 'पाढयंत' शब्दे पञ्चमभागे 825 पृष्ठे गतम् / ) "स्वाध्यायादिष्टदर्शनम्" स्वाध्यायात्स्वभ्यस्तादिष्टदर्शनम्, जप्यमानमन्त्राभिप्रेतदेवतादर्शनं भवति / तदाह- "स्वाध्यायादिष्ट-देवतासंप्रयोगः" (2-44) द्वा० 22 द्वा० उत्त०। से किं तं सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते,तं जहावायणा पडिपुच्छणा परियट्टणा अणुप्पेहा धम्मकहा। सेत्तं सज्झाए। (सू० 8024) भ० 25 श०७ उ०। मालवीयऋष्यादीना स्वाध्यायो मण्डल्या कल्पते न वा? आगमोक्तयतीनां सांप्रतीनानामाचार्याणां भट्टारकाणां च स्वाध्यायो मण्डल्यां कल्पते, नत्वन्येषां वार्तमानिकोपाध्यायादीनामिति वृद्धवादः / ही० 2 प्रक० / महाहिंसायत्त्वेनाश्विनचैत्रदिनानि सिद्धान्तवाचनादिषु अस्वाध्यायदिनानीति कृत्वा त्यज्यन्ते, तद्वद् "ईद" दिनमपि तेन हेतुना कथं न त्यज्यते? केचिच्च मतिनस्तदिनं त्यजन्ति, आत्मनां का मर्यादा? "ईद" दिने अस्वाध्यायविषये वृद्धैरनाचरणमेव निमित्तमवसीयते / ही० 3 प्रका० / गुरुसन्निधौ पाश्चात्यप्रतिलेखनाक्रियां कुर्वाणाः श्राद्धाः स्वाध्यायमुपविश्य कुर्वन्ति ऊर्ध्वस्थाया ? ऊर्ध्वस्थाः स्वाध्याय विदधति / ही०२ प्रक० / स्वाध्यायोऽपि किं हीनाऽऽचारैः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्ताहाच्छन्दनित्यवासिभिः सम सह सर्वजिनेन्द्र वृषभादिभिः प्रतिकुष्टो निराकृतः ? तदालापादेर्मिथ्यात्वहेतुत्वादिति दर्श०४ तत्त्व। सान्ध्यप्रतिक्रमणस्वाध्यायप्रान्तवदन्येष्वपिस्वाध्यायप्रान्तेषु सम्पूर्णो नमस्कारः कथनीयो नवेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-यत्रा, Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सज्झाय 263 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सडल देशद्वयं तत्र स्वाध्याय नमस्कारद्वयभणनम्, यत्र चैकादेशरतत्रैक एव सगट्टाणं सट्टाणं / नि० चू०१ उ०। इहापत्तिरूपं प्रायश्चित्तं स्वस्थाननमस्कारः पठनीय इति / सान्ध्यप्रतिक्रमणस्वाध्यायप्रान्ते सम्पूर्ण- __मुच्यते / जीत०। नमस्कारपठनं सामाचार्यादौ न दृश्यते परम्परया तु दृश्यते, तेन तदपि सट्ठाणगसंकमण न० (स्वस्थानकसंक्रमण) पिपीलिकादीनाममङ्गलरूपत्वाददोषमेवेति || सेन० 1 उल्ला० / सामाचार्या नवमद्वारे __ण्डादिसंचालने, सट्ठाणगसंकमण पिपीलिगमक्कोडगादीण भण्णति। नि० कालग्रहणविधौ "गिलिउम्गिलिए" इति शब्देन किमुच्यते तत्साक्षरं चू० 13 उ०। प्रसाद्यमिति? प्रश्रः, अत्रोत्तरम्-मार्जारादिनामूषिकादौ "गिलितोद् सट्ठाणट्ठाणंतर न० (स्वस्थानस्थानान्तर) स्वस्थानात पूर्व-पूर्वस्थागिलिते" इति गिलितस्सन्नुद्गिलितो वान्तस्तस्मिन कोऽर्थः? नादुत्तरोत्तरस्य संख्यास्थानस्य उत्पत्तिस्थानात्संख्याविशेषलक्षणात् स्थानान्तरे गिलित्वा वसतेः षष्टिहस्तमध्ये आगत्य वान्ते स्वाध्यायो न गुणनीयादित्यर्थः स्थानान्तराणि / अनन्तरस्थाने, स० 84 सम०। भवतीतयभिप्राय आवश्यकवृत्त्यादा-वस्तीति॥१२॥ सेन० 1 उल्ला०। सट्ठाणसण्णिगास पुं० (स्वस्थानसन्निकर्ष) स्वम-आत्मीयं सजीतायं प्रतिक्रमणहेगर्भ रात्रिकप्रतिक्रमणविधौ रात्रिकप्रायश्चित्तकायोत्सर्गस्ततः स्थानं पर्यवाणामाश्रयः स्वस्थानं पुलाकादेः पुलाकादिभिरेव, तस्य त्यवन्दनं, ततः स्वाध्यायः, एवं पश्चात्प्रतिक्रमणादौ चत्वारि सन्निकर्षः / स्वस्थानसंयोजने,भ०२५ श०६ उ०। क्षमाश्रमणान्यूक्तानि सन्ति एवं तुन क्रियते, तत्कि बीजमिति? प्रश्नः, सट्ठाणाऽऽरोवणा स्त्री० (स्वस्थानाऽऽरोपणा) स्वकं स्थानं स्वस्थानं, अत्रोत्तरम्-यतिदिनचर्यादौ स्वाध्यायादनु चत्वारि क्षमाश्रमणानि प्रो स्वस्थानस्यारोपणा स्वस्थानारोपणा। प्रतिसेवमानस्य प्रतिसेवनीयक्तानि, श्राद्धदिनकृत्यवृत्तिवन्दारुवृत्त्यादौ तु स्वाध्यायादनुप्रतिक्रमणस्थापनमुक्तम्, ततस्तानि स्वाध्यायात्पूर्व ज्ञायन्ते / अयं च विधिः स्थानस्यारोपणायाम्, नि० चू० 1 उ०। परम्परया बाहुल्येन क्रियमाणोऽस्ति / सामाचारीविशेषेण चोभयथाऽपि सहि स्त्री० (षष्टि) षडावृत्तायां दशसंख्यायाम, प्रज्ञा०२ पद। अविरुद्धमेवेति // 162 / / सेन० 3 उल्ला० / प्रणयपूर्वाणां मन्त्राणां जपे, सहितंत न०. (षष्टितन्त्र) कापिलीयशास्त्रे ज्ञा० 1 श्रु० 5 अ०। आ० / द्वा० 22 द्वा० कुहणाख्यवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० पद। नि० / पश्चात् षष्टितन्त्र संवृतमेव कुतीर्थं जातं तत्कपिलोप-दिष्टमिति। सज्झायजोग पु०(स्वाध्याययोग) वाचनाद्युपचारव्यापारे, दश०२चू० / आ० चू० 1 अ०। (षष्टितन्त्रोत्पत्ति-वृत्तान्तम् 'कविल' शब्दे तृतीयभागे सज्झायज्झाणय न० (स्वाध्यायध्यानरत) स्वाध्याय एव ध्यान 287 पृष्ठे गतम्।) स्वाध्यायध्यानं तत्र रतः। स्वाध्याये ध्याने च रते, दश०८ अ०। सद्वितंतविसारय पुं० (षष्टितन्त्रविशारद) षष्टितन्त्र-कापिली यशास्त्र सज्झायभूमि स्त्री० (स्वाध्यायभूमि) विचारभूमी, स भिक्षुर्थहि- तत्र विशारदः-पण्डितः। सांख्यवेत्तरि, कल्प०१ अधि०।१क्षण। औ० / बिचारभूमि संज्ञाव्युत्सर्गभूमि तथा विहारभूमि स्वाध्यायभूमि सट्ठिभत्त न० (षष्टिभक्त) उपवासविंशतो, “सर्द्धि भत्ताइं अणसणाई तैरन्यतीर्थिक दिभिः सह दोषसम्भवान्न प्रविशेत्। आचा०२ श्रु०२चू० छेएत्ता" प्रतिदिनं भोजनद्रव्यस्य त्यागात् त्रिंशद् दिनैः षष्टिभक्तानि 3 अ० / अन्ययूथिकैः सह न प्रविशेत्। नि० चू०२ उ०। (स्वाध्याय- त्यक्तानि भवन्ति / भ०२ श०१ उ० / भूमिविषयः 'चरियापविट्ठ' शब्दे तृतीयभागे 1156 पृष्ठे गतः।) सट्ठिय त्रि० (सष्टिक) षष्टिवर्षजाते, न० / षष्ट्यहोरात्रेः परिपच्यमानेषु सज्झायमुक्कजोग त्रि० (स्वाध्यायमुक्तयोग) स्वाध्यायेन मुक्तो योगो- | शालिषु, ज० 3 वक्ष० / ध०। व्यापारो यस्य सः स्वाध्यायमुक्तयोगः / स्वाध्यायकारिणि, ग० सहिहायण त्रि० (षष्टिहायन) षष्टिायनाः सम्बत्सरा यस्य स 3 अधि०। षष्टिहायनः / षष्टिवर्षजाते, जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। सज्झायवाय पुं० (स्वाध्यायवाद) विशुद्धपाठकोऽहमित्यादिके वादे, सड धा० (सद्) विशरणगत्यवसादनेषु, “सदपतोर्डः" ||84219 / / स०३० सम०। अनेनान्त्यस्य डकारः। सडइ। सीदति। प्रा०४ पाद। सज्झायसारणा स्त्री०(स्वाध्यायसारणा) स्वाध्यायनिर्वाह--णायाम, *श धा० रुजा विशरणगत्यवसादनेषु,सडति / शटति / उत्त०५ "गुरुपारतंतं टिणओ सज्झायसारणा चेव” पञ्चा०१८ विव०। (अत्रत्या ___ अ० विशे०। व्याख्या 'भिक्खुपडिमा' शब्दे पञ्चमभागे 15681 1577 पृष्ठे गता।) सज्झिल्लग पु० (सज्झिल्लक) धर्मभ्रातरि, पं०व०३ द्वार / भ्रातरि, सडंगविय पुं० (षडङ्ग विद्) पूर्वोक्तानि षडङ्गानि विचारयतीति पि०अ० / व्यः / भगिन्याम्, सज्झिल्लिका। स्त्री० / पिं० / षडावित्। कल्प०१ अधि०१क्षण / शिक्षादिविचारके, औ० / सज्ञा स्त्री० (संज्ञा) "ज्ञो ञः पैशाच्याम्" ||8/4 // 303 / / इति ज्ञस्य नि० चू०। ज्ञः। सङ्केते, प्रा० 4 पाद। सडण न० (सटन) कुष्ठादिनाऽडगुल्यादेर्गलने, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / सट्ठाण न० (स्वस्थान) आत्मीये स्थाने, यत्र हि स तिष्ठति, बृ०४ उ०। / तं० / स्वत एव विशरणे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। -- -- -- - - -- - --- --- Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सड्ढ 264 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण सङ्घ पुं० (श्राद्ध) श्रद्धाश्रद्धानं यस्मिन्नस्ति स श्राद्धः / श्रद्धेयवचने / सडकय त्रि०(श्राद्धकृत) श्रावकविहिते,जी०१ प्रति। स्था० 3 टा०३ उ० / तत्त्वं प्रति श्रद्धावति, पञ्चा० 3 विव०। श्रद्धालौ, सङ्घा स्त्री० (श्रद्धा) "श्रद्धर्द्धि-मूर्द्धार्द्धऽन्त्ये वा" / / 8 / 2 / 41 / / पञ्चा० 15 विव० श्रावके, पञ्चा०७ विव० / धर्मलिप्सौ, सूत्र०२ श्रु० अनेनात्रान्त्यस्य संयुक्तधकारस्य ढकारः / सड्डा। सद्धा। प्रा०1 रुचौ, 1 अ० / दर्शनश्रावके, प्रतिः / आचा०। प्रव० / आ० क० / श्राद्धः-- उत्त० 5 अ०। अभिलाषे, ज्ञा० 1 श्रु० अ० / रा०। इच्छायाम. नि० श्रद्धावान् दीक्षितस्यापि श्रद्धारहितस्याङ्गारमर्दकादेरिव त्याज्यत्वात्। 1 श्रु०१ वर्ग 1 अ० / ज्ञा० / मोक्षमार्गाद्यमेच्छायाम्, आचा० 1 श्रु० ध० 3 अधि० / (श्राद्धगुणाः 'धम्मरयण' शब्दे चतुर्थभागे 2726 पृष्ठे 3 अ०४ उ० / तत्त्वेषु श्रद्धाने, आस्तिक्ये, अनुष्ठानेषु वा वर्णिताः।) पृष्ठे वर्णिताः।) श्रद्धया क्रियमाणे मृतेषु पित्रादिषु पिण्डदाने, निजेऽभिलाषे,योषिति, पं०व०५ द्वार / स्त्रीसङ्गाभिलाषे, दश० "मृतानामपि जन्तूनां, श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्। तन्निर्वाणप्रदीपरय, स्नेहः ६अ० आ००। सम्बर्द्धयेत् त्विषम-1॥१॥" स्था०१ ठा०। भ० / औ०। नि०। श्रद्धाः सडाइक हणावाघाय पुं० (श्रद्धादिकथनाव्याघात) श्रावकविपाक्षिकदिनेऽतीचारान् कथयन्ति, तत्रषष्ठ दिगव्रतं दशमंच देशावकाशिक धिधर्मपदार्थकथनविघ्नाभावे, पं०व०२ द्वार। कथितम्, तदन्ये नाऽङ्गीकुर्वन्ति,यवतद्वयं कथितमस्ति, तदात्मश्राझैः | सड्डाण पुं० (श्रद्धान) तत्त्वेषु अनुष्ठानेषु वा निजेऽभिलाषे, स्था०८ ठार कथितम्। यत्षष्ठव्रतं यावजी-वप्रत्ययिकं दशमं तु दिनप्रत्ययिकमित्यपि ३उ०। नाङ्गीकुर्वन्ति, तत्र का युक्तिरिति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-श्रीआवश्यके | सडि पुं० (श्राद्धिन) श्रद्धा मोक्षमार्गाद्यमेच्छा वर्तते यस्यासौ श्रद्धावान्। श्रावकव्रतोधिकारे देशावकाशिकव्रतालापः कथितोऽस्ति सलिख्यते, आचा०१श्रु०३ अ० 4 उ०। श्रद्धा-धर्मेच्छा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावान् / यथा आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ० / नि० चू०ा स्था०। श्रद्धावति, सूत्र०१ श्रु० 'दिसिव्वयगहिअस्स दिसापरिमाणस्स पइिदिण परिमाणकरणं 11 अ० / पिं० श्रावके, नि० चू० 2 30 / सूत्र० / कल्प० / देसावगासिअं.देसावगासिअस्स समणोवासारण इमे पंच अइआरा सब्जिय त्रि० (श्राद्धिक) श्राद्धे, प्रव० 1 द्वार। श्रद्धाश्रद्धानं यस्मिन्नस्तिस जाणियव्या न समायरिअव्वा। तंजहा-आणवणप्पओगे 1 पेसवणप्पओगे __ श्राद्धः। श्रद्धेयवचने, स्था०३ ठा०३ उ०। 2 सद्दाणुवाए 3 रूवाणुवाए 4 बहिआ पुग्गलक्खेवे५'एतदालापकानुसारेण | सड्डी स्त्री० (श्रद्धी) अविरतसम्यग्दृष्टिकायाम्, व्य. 3 उ० / षष्ठदिग्व्रतस्य संक्षेपरूपदेशावकाशिकं स्पष्टतया ज्ञायते, तथा- श्राविकायाम, जी०१ प्रति०। योगशास्त्राद्यनेकग्रन्थेषु षष्ठदिगव्रतसंक्षेपरूपदेशावकाशिकं कथितमस्ति, | सढ पुं० (शठ) “ठो ढः" ||851 / 166 // इति ठस्य ढः। सढो / प्रा०। तथा-श्रीउपासकदशाङ्गे आनन्दव्रतोचाराधिकारे सामायिकादि- धूर्ते, उत्त० 7 अ० / स्तब्धे, (पाइ० ना० 225 गाथा / ) चतुष्कव्रतालापकविस्तारो न कथितः, तस्मात्केचन नाऽङ्गीकुर्वन्ति, शठकर्मकारित्वात्। सूत्र०१ श्रु०२ अ० 3 उ०। मिथ्याभाषिणि, उत्त० तत्तु तदज्ञानमेव, यतो व्रतोच्चारादौ एवं पाठोऽस्ति- 'अहण्णं भंते ! 34 अ० / विश्वस्तजनवञ्चके, उत्त०७ अ० / शठानुष्ठाने, सूत्र० 1 श्रु० देवाणुप्पिआणं अंतिए पंचाऽणुव्वइअं सत्तसिक्खावइअं दुवालसविह 3 अ०२ उ० / स्था० / मायिनि, प्रश्न० 2 आश्र० द्वारा 'नेकृतिमति सावयधम्म पडिवज्जिस्सामि अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबधं करेह' मायोपेते, प्रश्न०३ संव० द्वार। कैतवयुक्ते, स०३ सम०। आ०म०। तथा व्रतोच्चारानन्तरमेवं पाठोऽस्ति- 'तए णं आणंदे गाहावई सम-- | सढवंदण न० (शठवन्दन) शठ शाठ्येन विश्रम्भाथ वन्दनम्, णस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइअ सत्त सिक्खावइअं ___ अज्ञानादिव्यपदेश वा कृत्वा न सम्यगवन्दनम् / ध० 2 अधि० / दुवालसविहं सावयधम्म पडिवजइ, पडिवञ्जित्ता समणं भगवं महावीर स्वनामख्याते विंशतितमे वन्दनकदोषे,बृ०। वदइ नमसइ' एतदालापकद्वयेद्वादशव्रतोच्चाराङ्गीकारः कथघटते?यदि विशतितमं दोषमाहदेशाऽवकाशिकव्रतं न भवति तर्हि पश्चातीचाराः कथं कथिताः, वीसंभट्ठाणमिणं सब्भावजढे सढे हवइ एतं। तस्मादानन्देन चत्वारि व्रतानि सविस्तराणि नोच्चरितानि यत्प्रतिदिनं कवडंति कयवयंतिय, सढया विय हों ति एगट्ठा। वारंवारमुचार्यन्ते। पुनः सङ्केपतस्तदुचारितान्येवेतिज्ञेयम्॥७३|| सेन० विश्रम्मो-विश्वासस्तस्य स्थानमिदं वन्दनकमेठस्मिन् यथा४ उल्ला० / महाविदेहेषु ये श्राद्धा देशप्रतिनस्ते उभयकालमावश्यक वदीयमाने श्रावकादयो विश्वसन्तीत्यभिप्रायेणाद्य सद्भावरहिते कुर्वन्ति, किं वायतिवत्कारणे समुत्पन्ने कुर्वन्तीति? प्रश्नः,अनोत्तरम्- अन्तर्वासनाशून्ये वन्दमाने शिष्ये शठमेतद्वन्दनकं भवति / बृ० 3 उ०। “देसिअराइय पक्खिअ,चाउम्मासिअवच्छरी अनामाओ। दोण्हं पण आव०। आ० चू०। पडिक्रमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढमा // 1 // " इति सप्ततिशतस्थान- सढा स्त्री० (शठा) जटायाम, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। कस्थगाथानुसारेण यदि यतीनां देवसिकरात्रिकप्रतिक्रमणद्वयकरणं सण पुं० (शण) बल्क लप्रधाने वनस्पतिविशेष, ज्ञा 1 श्रु०६ प्रत्यहं दृश्यते, तर्हि श्रावकाणां तत्करणे किं वक्तव्यमिति। 14 / सेन० अ०। प्र० / शणप्रभृतयः सप्तदश धान्यानि / आ० म०१ अ०। 4 उल्ला०। प्रज्ञा० / त्वक् प्रधाननाले धान्य विशेषे, भ०६ श०७ उ०। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण 265 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सणंकुमार उत्त० / स्था० तत्तुष्ये, नः / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सणजातिभेदे, अनु०। सणंकुमार पुं० (सनत्कुमार) चतुर्थचक्रवर्तिनि, स०। प्रव०। तिला आव० / सणंकुमारोमणुस्सिदो, चक्कवट्टी महड्डिए। पुत्तं रखे ठवेऊणं, सोऽवि राया तवं चरे॥३७।। अत्र सनत्कुमारदृष्टान्तः-अस्त्यत्र भरतक्षेत्रे कुरुजाङ्गलजनपदे हस्तिनागपुर नाम नगरम् / तत्राश्वसेनो नाम राजा, तस्य भार्या सहदेवीनाम्नी। तयोः पुत्रश्चतुर्दशस्वप्रसूचितश्चतुर्थश्चक्रवर्ती सनत्कुमारो नाम / तस्य रिकालिन्दीतनयेन महेन्द्रसिंहेन परममित्रेण समं कलाचार्यसमीपे सर्वकलाभ्यासो जातः। सनत्कुमारो यौवनमनुप्राप्तः। अन्यदा वसन्तमासेऽनेकराजपुत्रनगरलोकसहितः सनत्कुमारः क्रीडार्थमुद्याने गतः, तत्राश्वक्रीडा कर्तुं सर्वे कुमाराः अश्वारूढाः स्वस्वमश्वं खेलयन्ति / सनत्कुमारोऽपि जलधिकलोलाभिधानं तुरङ्गमारूढः, समकालं सवैः कुमारैर्मुक्तस्ततो विपरीतशिक्षितेन कुमाराश्वेन तथा गतिः कृता यथा अपरकुमाराश्वाः प्राक् पतिताः, कुभाराश्वस्तु अदृश्यीभूतः। ज्ञातवृत्तान्तो राजा सपरिकरस्तत्पृष्टी चलितः। अस्मिन्नवसरे प्रचण्डवायुर्वातुं लग्नः, तेन तुरङ्गपदमार्गो भग्नः / महेन्द्रसिहा राजाज्ञा मार्गयित्वा उन्मार्गेणैव कुमारमार्गणाय लग्नः, प्रविष्टो भीषणां महाटवीं तत्र भ्रमतस्तस्य वर्षमेकमतिक्रान्तम्,एकस्मिन् दिवसे गतः स्तोक भूमिभाग तावत्, यावदेकं महत्सरोवरं दृष्टवान्। तत्र कमलपरिमलमाघ्रातवान् / श्रुतवांश्च मधुरगतिवेणुरवम्। यावन्महेन्द्रसिंहोऽग्रे गच्छति तावत्तरुणीगणमध्यसंस्थित सनत्कुमारं दृष्टवान्। विस्मितमना महेन्द्रसिंहश्चिन्तयति--किं मया एष विभ्रमो दृश्यते / किं वा सत्य एवायं सनत्कुमारः? यावदेव चिन्तयन् महेन्द्रसिंहस्तिष्ठति तावत्पठितमिदं वन्दिना. "जय आससेण ! नहयल-मयङ्क ! कुरुभुवणलग्गणे खंभ! ज्यति हुयणनाह ! सणंकुमार ! जयलद्धमाहप्प ! 1191" ततो महन्द्र-सिंहः सनत्कुमारोऽयमिति निश्चितवान् / अथ प्रकामं प्रमुदितमनाः सनत्कुमारेण दूरादागच्छन् दृष्टः सनत्कुमारोऽप्युस्थायाभिमुख-माययौ / महेन्द्रसिंहः सनत्कुमारपादयोः पतितः / सनत्कुमारेण समुत्थापितो गाढमालिङ्गितश्च / द्वावपि प्रमुदितमनस्कौ विद्याधरदत्तासन उपविष्टौ / विद्याधरलोकश्च तयोः पार्श्वे उपविष्टः / अथानन्दजलपूरितनयनेन सनत्कुमारेण भणितम्-मित्र! कथमेकाक्येव त्वमस्यामटव्याभागतः? कथं चात्र स्थितोऽहं त्वया ज्ञातः / किञ्चकरोति मद्विरहे मम पित्त माता च / कथितः सर्वो वृत्तान्तो महेन्द्रसिंहेन / ततो महेन्द्ररिम्हो वरविलासिनीभिर्भज्जितः स्नापितश्च भोजनं द्वाभ्यां सममेव कृतम्। भोजनावसाने च महेन्द्रसिंहेनसनत्कुमारः पृष्टः-कुमार! तदा त्वं तुरङ्ग मेणापहृतः क गतः? क्व स्थितश्च? कुत एतादृशी ऋद्धिस्त्वया प्राप्ता? सनत्कुमारेण चिन्तिन-न युक्तं निजचरित्रकथनं निजमुखेनेति संक्षिप्ता स्वयं परिणीता खचरेन्द्रपुत्री विपुलमतीनाम्नी स्वप्रिया सनत्कुमारवृत्तान्तं स्वविद्याबलेन कथयितुं प्रवृत्ता। तदानी कुमारो / भवदादिषु पश्यत्सु तुरन मेणापहतो महाटव्यां प्रवष्टिः। द्वितीयदिनेऽपि तथैव धावतोऽश्वस्य मध्याह्नसमयो जातः। क्षुधापिपासाकुलितेन श्रान्तेनाश्वेन निष्कासिता जह्वा / कुमारस्तत उत्तीर्णः / सोऽश्वस्तदानीमेव मृतः। कुमारस्ततः पादाभ्यामेव चलितः। तृषाक्रान्तश्च सर्वत्र जल गवेषयन्नपिन प्राप। ततो दीर्घाध्यश्रमेण सुकुमारत्वेन चात्यन्तमाकुलीभूतो दूरदेशस्थित सप्तच्छदं वृक्ष पश्यन् तदभिमुख धावन् कियत् कालानन्तरं तत्र प्राप्तः / छायायामुपविष्टः पतितश्व लोधने भ्रामयित्वा कुमारः / अत्रावसरे कुमारपुण्यानुभावेन वनवासिना यक्षेण जलमानीतम् / शिशिरशीतलजलेन सर्वाङ्ग सिक्तः, आश्वासितश्च। लब्धचेतनेन च कुमारण जलं पीतम्।पृष्टश्च कस्त्वं? कुतो वाऽऽनीतं जलमिदम्? तेन भणितम्-अहं यक्षोऽत्र निवासी सलिलं चेद मानसरोवरादानीतम्। कुमारेणोक्तम्-यदि मा तदर्शयसि तदा तत्र मानसरोवरे प्रक्षालयामि तथा च मद्वपुस्तत्तापभुपनयति / तच्छुत्वा यक्षण करतलसंपुटे गृहीत्वा नीतो मानसरोवरम्। तत्र व्यसनापतितोऽयमिति कृत्वा क्रुद्धन वैताट्यवासिना असितयक्षेण समं कुमारस्य युद्धं जातम् / तथाहि-यक्षेण प्रथम मोटिततरुः प्रचण्डःपवनो मुक्तः। तेन नभस्तलंबहुलधूल्याऽन्धकारितम्। ततो विमुक्ताऽट्टहासा ज्वलनज्वालापिङ्गलकेशाः पिशाचा मुक्ताः / कुमारस्तैर्मनाक न भीति मतः। ततो नयनज्वालारफुलिङ्ग वर्षद्भिर्नागपाशैः कुमारो यक्षेण बद्धः / जीर्णरज्जुबन्धनानीव तान् त्रोटयति स्म कुमारः / ततः करास्फालनपूर्व मुष्टिमुद्यम्य यक्ष: समायातः / तावता मुष्टिप्रहारेण कुमारस्तं खण्डीकृतवान्। पुनरीक्षः स्वस्थीभूय गुरुमत्सरेण कुमारं घनप्रहारेण हतवान् / तत्प्रहारातः कुमारश्छिन्नमूलद्रुम इव भूमी निपतितः। ततो यक्षेण दुरमुत्क्षिप्य गिरिवरः कुमारस्योपरि क्षिप्तः, तेन दृढपीडिताङ्गोऽसो निश्चेतनो जातः। अथ कियत्कालानन्तरं लब्धसंज्ञः कुमारस्तेन समं बाहुयुद्धं चकार / कुमारेण करभुदराहतो यक्षः प्रचण्डवाताहचूत इव तथा भूमौ निपतितः यथा मृत इव दृश्यते। परं देवत्वात्स नमृतः। आरार्टिकुर्वागः स यक्षस्तथा नष्टो यथा पुनर्न दृष्टः / कौतुकान्नभस्यागतविद्याधरैः पुष्पवृष्टिर्मुक्ता। उक्तं च-जितो यक्षः कुमारेणेति / ततो मानससरसि यथेष्ट स्नात्वाउत्तीर्णः कुमारो यावत् स्तोक भूमिभागंगतः तावत्तत्र वनमध्यगता अष्टौ विद्याधरपुत्रीदृष्टवान् / ताभिरप्यसौ स्निग्धदृट्या विलोकितः / कुमारेण चिन्तितम्-एताः कुतः समायाताः सन्ति, पृच्छाम्यासां स्वरूपमिति पृष्ट कुमारण।तासां समीपे गत्वा मधुरवाण्या कुतो भवत्य आगताः? किमर्थमेतत् शून्यभरण्यमलकृतम् / ताभिर्भणितम्महाभाग ! इतो नातिदूरे प्रियसङ्ग-माभिधाना अस्माकं पुरी अस्ति। त्वमपि तत्रैवागच्छति भणितः। किङ्करीदर्शितमार्गस्तासां नगरी प्राप्तः। कञ्चुकिपुरुषैः राजभवनं नीतः। दृष्टश्च तन्नगरस्वामिना भानुवे गराजेन अभ्युत्थानादिना सत्कृत / उक्त राज्ञामहाभाग ! त्वमेतासां ममाष्टकन्यानां वरो भव। पूर्व हि अत्रायातेन अर्चिमालिनाम्ना मुनिना एवमादिष्टम् योऽसिताक्षं यक्षं जे Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणं कुमार 296 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सणंकमार ष्यति स एतासां भर्ता भविष्यति। ततस्त्वमेताः परिणवेति नृपणोक्ते कुमारेण तथेति प्रतिपन्नम्। राज्ञा महामहः पूर्वक विवाहः कृतः। कङ्कण कुमारकरे बद्धम् सुप्तश्च ताभिः सार्द्ध रतिभवने कुमारः पल्यकोपरि / निद्राविगमे चात्मानं भूमौ पश्यति / किमेतदिति। चिन्तितवांश्व करबद्ध कङ्कणं च न पश्यति / ततः खिन्नमनाः कुमारस्ततो गन्तुं प्रवृत्तः / अरण्यमध्ये च गिरिवरशिखरे मणिमयस्तम्भप्रतिष्ठित दिव्यभवन दृष्ट कुमारण। चिन्तितम्-इदमपीन्द्रमायाजालप्रायं भविष्यतीति। तदासन्न यावद्गन्तुं प्रवृत्तः कुमारस्तावत् तद्भवनान्तः करुणस्वरेण रुदन्त्या एकस्या नार्याः शब्द श्रुतवाना प्रविष्टस्तद्भवनान्तः सप्तमभूमिमारूढः / रुदन्त्या तत्र एकया कन्यया भणितम्-कुरुजनपदनभस्तलमृगाङ्क ! सनत्कुमार! त्वं भवान्तरेऽपि मम भर्ता भूया इति वारं वारं भणन्ती पुनदि रोदितुं प्रवृत्ता / ततो रुदन्त्येव तयाऽऽसनं दत्तम् / तत्रोपविश्य कुमारस्ता पृष्टवान्–सनत्कुमारेण सह तव कः सम्बन्धः? येन त्वं तमेवं स्मारयसि। सा प्राह-मम स मनोरथमात्रेण भर्ता कथमिति कुमारेणोक्ते सा प्राहअहं हि साकेतपुरस्वामिसुरथनामनरेन्द्रभार्यायाः चन्द्रयशःपुत्री अरिम। अन्यदाऽहं यौवनं प्राप्ता। पित्रा च मत्कृतेऽनेकराजकुमारचित्रपटरूपाणि दूतैरानीय दर्शितानि एकमपि चित्रपटरूपं मम न रोचते / एकदा सनत्कुमारचित्रपटरूपं दूतैरानीय मेदर्शितम्, तदत्यन्तं मे रुरुचे। मोहिता चाहं तद्रूपमेव ध्यायन्ती स्वगृहे तिष्ठामि / तावदहमेकेन विद्याधरण पितृगृहादपहृता अत्रानीता स्वयं विकुर्वितेऽस्मिन्नावासे मा मुक्त्वा स क्वचित् गतोऽस्ति / यावत्सा कन्या एवं वदन्त्यस्ति तावत् अशनिवेगसुतवजवेगेण विद्याधरेण तत्रागत्य सनत्कुमार उत्क्षिप्तो गग.. नमण्डले / सा च कन्या हा हा रवं कुर्वाणा मूर्छापराधीना निपतिता पृथिवीपीठे / तावदाकाशमार्गादागत्य सनत्कुमारेण स विद्याधरो मुष्टिप्रहारेण व्यापादितः / सनत्कुमारेण तस्य वृत्तान्तः कथितः, परिणीता च सा सुनन्दाभिधाना कन्या / साऽस्य स्त्रीरत्नं भवि-ष्यति / स्तोकवेलायां तत्र वज्रवेगविद्याधरभगिनी सन्ध्यावली समागता भ्रातरं व्यापादितं दृष्ट्वा कोपमुपागता / पुनरपीदं नैमित्तिक वचः स्मृतिपथमागतम्-यथा तव भ्रातृवधकस्तव भर्ता भविष्यतीति मत्वा कुमारस्यैवं विज्ञप्तिं चकार-अहमिह त्वां विवाहार्थमायाताऽस्मीति। सनत्कुमारेण सा तत्रैव परिणीता / अत्रान्तरे सनत्कुमारसमीपे द्वौ विद्याधरनृपौ समायातौ। ताभ्यां प्रणामपूर्वं कुमारस्यैवं भणितम्-देव ! अशनिवेगविद्याधरो विद्याबलेन ज्ञातपुत्रमरणवृत्तान्तस्त्वया समं योद्धमायाति / ततश्चन्द्रवेगभानुवेगाभ्यामावा हरिचन्द्रसेनाभिधानी च निजपुत्रौ प्रेषितौ रहसि संनाहश्च प्रेषितः / आवामस्मत्पितरौ भवत्सेवार्थ संप्राप्ताः / तदनन्तर ततः समागतौ चन्द्रवेगभानुवेगौ सनत्कुमारस्य साहाय्याय सन्ध्याबल्या प्रज्ञप्तिविद्या दत्ता / चन्द्रवेगभानुवेगसहितः सनत्कुमारः संग्रामाभिमुखंचलितः, तावताऽशनिवग: सेनावृतः समायातः। तेन समं प्रथमं चन्द्रवेगभानुवेगौ योद्धं प्रवृत्तौ / चिरकालं युद्धं कृत्वा तयोर्बल भग्नम् / ततः स्वयनुत्थितः सनत्कुमारः, तेन अशनिवेगेन समं धोरं युद्धमारब्धं प्रथम महोरगास्त्रं कुमारस्याभिमुख मुक्तम्, तच कुमारेण मुष्टिनैव निहतम्। पुनस्तेन आग्नेयमत्रं मुक्त, तत् कुमारेण वरुणास्त्रेण निहतम् / पुनस्तेन वायव्यास्त्र मुक्तं कुमारेण शैलारत्रेण प्रतिहतम्। ततो गृहीतधनुर्बाणान् मुञ्चन् कुमारस्तं निर्जीवमिव चकार / पुनर्गृहीतकरवालः स सनत्कुमारेण छिन्नदक्षिणकरः कृतः। ततो द्वितीयकरण बाहुयुद्धमिच्छतस्तस्याभिमुखमायातस्य कुमारेण चक्रेण शिरच्छिन्नम्। तदानीम् अशनिवेगविद्याधरलक्ष्मीरने कविद्याधरैः सहिता सनत्कुमारण संक्रान्ता / ततोऽशनिवेगचन्द्रवेगादिविद्याधरपरिवृतः सनत्कुमारो नभोमार्गाद्विद्याधररथेन समुत्तीर्य तदावासे पुनरायातः / दृष्टस्तत्र हर्षिताभ्यां सुनन्दासन्ध्यावलीभ्याम् / उक्तश्च ताभ्याम्-आर्यपुत्र ! स्वागतम्। अत्र च समस्तविद्याधरैः सनत्कुमारस्य राज्याभिषेकः कृतः / सुखेनात्र विद्याधरराज सेवितः सनत्कुमारस्तिष्ठति। अन्यदा चन्द्रवेगन विज्ञप्तः सनत्कुमारः, यथा-देव ! मम पूर्वमर्धिमालिमुनिनैवमादिष्टमयथेदं तव कन्याशतं भानुवेगस्य चाष्टकन्याः यः परिणेष्यति / सोऽवश्य सनत्कुमारनामा चतुर्थश्चक्री भविष्यति / स इतो मासमध्ये मानसरोवरे समेष्यति। तत्र व्यसनापतित सरसि स्नानम् असिताक्षो यक्षः पूर्वभवबैरी द्रक्ष्यति। स पूर्वभवबैरी कथमिति सनत्कुमारेण पृष्ट चन्द्रटेगो मुनिमुखश्रुतं तत्पूर्वभववृत्तान्तं प्राह-अस्तिकाञ्चनपुरं नाम नगरम् / तत्र विक्रमयशोनामा राजा / तस्य पशशतान्यन्तःपुर्यों वर्तन्ते / तत्र नागदत्तः सार्थवाहोऽस्ति / तस्य रूपलावण्यसौभाग्ययौवनगुणैः सुरसुन्दरीभ्योऽधिका विष्णुश्रीनाम भार्याऽस्ति साऽन्यदा विक्रमयशोराजेन दृष्टा / मदनातुरेण तेन स्वान्तः पुरे क्षिप्ता ततो नागदत्तस्तच्चिन्त्या उन्मत्तीभूत एवं विलपति। हा चन्द्रानने ! क गता, दर्शन में देहीति विलपन काल नयति / विक्रमयशोराजस्तु मुक्तस्वकराजकार्योऽगणितजनाववादस्तया विष्णु श्रिया सह अत्यन्तरतिं प्रसक्तः काल नयति / पञ्चशतान्तःपुरीणां नामापि न गृह्णाति। अन्यदा ताभिः कार्मणादियोगेन विष्णुश्रीापादिता / ततो राजा तस्या मरणेनात्यन्तं शोकार्तोऽश्रुजलभृतनयनो नागदत्त इवोन्मत्तीभूतो विष्णु श्रीकलेवरं वह्निसात्कर्तु न ददाति / ततो मन्त्रिभिर्नृपः कथमपि वञ्चयित्वा अरण्ये तत् कलेवरं त्यक्तम् / राजा च तत् कलेवरमपश्यन परिहतानपानभोजनः स्थितः। मन्त्रि-भिर्विचारितम्-एष तत्कलेवरदर्शनमन्तरेण मरिष्यतीति अरण्ये नीत्वा राज्ञस्तत्कलेवरं दर्शितम्। राज्ञातदानीं तत्कलेवरं गलत्पूतिनिवह निर्यत्कृ मिजालं वायसकर्षितनयनयुगलं चण्डखगतुण्डखण्डित दुरभिगन्धं प्रेक्ष्य एवमात्मानं निन्दितुमारब्ध् / रे जीव ! यस्य कृते त्वया कुलशील-जातियशोलञ्जाः परित्यक्ताः तस्येदृशी अवस्था जाता।ततो वैराग्यमार्ग प्राप्तो राजा राज्य राष्ट्र पुरं स्वजनवर्ग च परिहत्य सुव्रताचार्यसमीपे निष्क्रान्तः / ततश्चतुर्थषष्ठाष्टमादिविचित्रतपः कर्मभिरात्मान भावयन प्रान्ते संलेखनां कृत्वा सनत्कुमारदेवलोके गतः / ततश्च्युतो रत्नपुरे श्रेष्ठिसुतो जिनधर्मो जातः / स च जिनवचनभाविमनाः सम्य Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणंकुमार 267 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सणंकुमार क्त्वमूलं द्वादशविध श्रावकधर्म पालयन् जिनेन्द्रपूजारतः कालं गमयति / इतश्च स नगदत्तः प्रियाविरहदुःखितो भ्रान्तचित्तः आर्तध्यानपरिक्षिप्तशरीरा भूत्वा बहुतिर्यग्योनिषु भ्रान्त्वा ततः सिंहपुरे नगरेऽग्निशर्मनामा द्विजो जातः / कालेन त्रिदण्डव्रतं गृहीत्वा द्विमासक्षपणरतो रत्नपुरमागतः / तत्र हरिवाहनो नाम राजा तापसभक्तस्तेन तपस्वी आगतः श्रुतः / पारणकदिन राज्ञा निमन्त्रितः स गृहमागतः / अत्रान्तरे सजिनधर्माः नामा श्रावकस्तत्रागतः / तं दृष्ट्वा पूर्वभवजातवैरानुभावेन रोषारुणलोचनेन मुनिना एपमुक्तं राज्ञः, यदा त्वं मां भोजयसि तदाऽस्य श्रेष्ठिनः पृष्टौ रथालं विन्यस्य मा भोजय? अन्यथा नाहं भोक्ष्य। राज्ञोपतभसी श्रेष्ठी महान् वर्तते, ततोऽपरस्य पुरुषस्य पृष्टौ त्वं भोजनं कुरु। स प्राह-एतस्य पृष्टावेव भोजनं करिष्ये। नापरस्येति राज्ञातापसानुरागण तत प्रतिपन्नम् राज्ञो वचनात श्रेष्ठिना पृष्टी स्थालमारोपितम् / तापसेन तत्पृष्टी दाहपूर्वक भोजनं कृतम् / श्रेष्ठिना पूर्व भवदुष्कर्म फलं ममोपस्थितनिति मन्यमानेन तत्सम्यक् सोढमिति स्थालीदाहना पृष्टा क्षत जातम् ततः स तापसस्तथा भुक्त्वा स्वस्थाने गतः, श्रष्ट्यपि स्वगृहं गत्वा स्वकुटुम्बवर्ग प्रतिबोध्य जनदीक्षां जग्राह / ततो नगरात्रिर्गता गिरिशिखरे गत्वा अनशनमुच्चचार / पूर्व दिगभिमुखं मासाई यावत्कायोत्सर्गेण स्थितः, एवं शेषास्वपि दिक्षु / ततः पृष्टिक्षते काकशिवादिभिर्भक्षितः सम्यग् तत्पीडा सहमानो मृत्वा सोधने कल्पे इन्द्रो जातः। स तापसाऽपि तस्यैव वाहनम् ऐरावणो जातः। ततश्च्युतोऽथ स ऐरावणो रतिया भ्रान्त्वाऽसिताक्षो जातः / शक्रोऽपि ततश्च्युत्त्वा हस्तिनागपुरे सनत्कुमारः चक्री जातः / एवमसिताक्षयक्षयरय भवता सह वैरकारणमिति मुनिनोक्ते मया तवान्तरवासनिमित्तं भानुवेगं विसर्जयित्वा प्रियसङ्गमपुरीनिवेशपूर्वं तव भानुवेगेन कन्याः परिणायिताः / मुक्ता मथैव कारणेन त्वं तदने / एवं करिष्याम इति विचार्य तदा विद्याधरा तत्कृतवन्तः / ततो विज्ञपयामि देव ! मन्यस्व में कन्याशतपाणेग्रहणम्, ता अपि तत्र भवन्मुखकमलं पश्यन्ति / एवं भवत्विति कुमारेणोक्ते स चन्द्रवेगः कुमारेण समं स्वनगरे गतः / तत्र कुमारण कन्याशत परिणीतम्। पुनरत्रागतश्च दशोत्तरेण कन्याशतन सह भागान् भुङ्क्ते कुमारः / अद्य पुनरेवमुक्तः कुमारेण यथाद्य गन्तव्यं यत्रास्माभिवक्षो जितः / साम्प्रतमत्रायातस्य कुमारस्य पुरः प्रेक्षणं कुर्व-तीनामस्माकं कुमारपत्नीनां भवद्दर्शन जातमिति / अत्रान्तर रतिगृहशय्यत उत्थितः कुमारः महेन्द्रसिंहेन समं विद्याधरपरिवृता वेताळयं गतः / अवसरं लब्ध्वा महेन्द्रसिंहेन विज्ञप्तम / कुमार ! तव जननीजनका त्वद्विरहातॊ दुःखेन कालं गमयतः, ततस्तदर्शनप्रसादः क्रियताम इति। महेन्द्रसिंहवचनानन्तरमेव महता गगनस्थितविद्याधरविमानह-यगजादिवाहनारूढविद्याधरवृन्दसंमन हस्तिनागपुरे संप्राप्तः कुमारः, आनन्दिताश्च जननीजनक नागरजनाः / ततो महत्या विभृत्याऽश्वसेनराजन सनत्कुमार: स्वराज्येऽभिषिक्तः। महेन्द्रसिंहश्च सनापतिःकृतः / जन्नीजनकाभ्यां स्थविराणामन्तिके प्रव्रज्यां गृहीत्वा स्वकार्यमनष्ठितम् / सनत्कुमारोऽपि प्रवर्द्धमानको कशवलसारो राज्यमनुपालयति / उत्पन्नानि चतुर्दश रत्नानि नवनिधयश्च / कृता च तेषा पूजा / तदनन्तरं चक्ररत्नदर्शितमागों मागधवरदामप्रभास - सिन्धुरखण्डप्रपातादिक्रमेण भरतक्षेत्रं साधितवान् / सनत्कु मारः / हस्तिनागपुरे चक्रवर्तिपदवीं पलायन यथेष्ट सुखानि भुक्ते शक्रेणावधिज्ञानप्रयोगात पूर्वभवे स्वपदाधिरूढं ज्ञात्वा महता हर्षेण वैश्रमणोऽनुज्ञप्तः / सन कुमारस्थ राज्याभिषेकं कुरु / इमच हार वनमाला छत्रं मुकुटं चामर-- युगल कुण्डलयुग दूष्ययुग सिंहासनञ्च पादपीठञ्च प्राभृतं कुरु। शक्रेण तव वृत्तान्तः पृष्टोऽरतीति ब्रूयाः। वैश्रमणोऽपि शक्रदत्तं गृहीत्वा गजपुरनगरे समागत्य तत् प्राभृतं चक्रिणः पुरो मुक्तवान, शक्रवचन चोक्तवानिति। पुनः शक्रेण तिलोत्तमारम्भे देवाङ्गने तत्र तदभिषेककरणाय प्रेषिते / चक्रिणोऽनुज्ञा गृहीत्वा विकुर्वितयोजनप्रमाणमणिपीठोपरिरचितमणिमण्डपान्तः स्थापित मणि सिंहाराने कुमारं निवेश्य कनककलशाहृतक्षीरादजलधाराभिर्धवलगीतानि गायन्तीदेवीदेवाश्वाभ्यषिशन / रम्नातिलोत्तगादेव्या तदानीं नृत्यं कुरुतः, महामहोत्सवेन कुमारमभिषिच्य वैश्रमणादयः स्वलोक जग्मुः, चक्रयपि भोगान् भुजन् कालं गमयति / अन्यदा सुधमसभायां सौधर्मेन्द्रः सिंहासने अनेकदेवदेवीसेवितः स्थितोऽस्ति। अत्रान्तरे एक ईशानकल्पदेवः सौधर्मेन्द्रपार्वे आगतः। तस्य देहप्रभया सभास्थितः देवदेह प्रभाभरः सर्वतो नष्टः / आदित्योदये चन्द्रग्रहादय इव निष्प्रभाः सर्वे सुरा जाताः। तस्मिन् पुनः स्वस्थाने गते देवः सोधर्मेन्द्रः पृष्टः / स्वामिन् ! केन कारणेन अस्य देवस्येदृशी प्रभा जाताऽस्ति। शक्रःप्राह- अनेन पूर्वभवे आचाम्लवर्द्धमानतपः खण्ड कृतम तत्प्रभावादस्य देह प्रभा ईदृशी जाताऽस्ति / देवैः पुनरिन्द्रः पृष्टः, अन्योऽपि कश्चिदीदृशो दीप्तिमानस्ति न वा? इन्द्रेण भणित यथा हस्तिनागपुरे कुरुवंशेऽस्ति सनत्कु मारनामा चक्री, तस्य रूपं सर्वदेवेभ्योऽप्यधिकमस्ति / इदं शक्रवचोऽश्रद्दधानौ, विजयवैजयन्ती देवो बाहाणरूपौ आगतो, प्रतीहारेण मुक्तद्वारौ गृहान्तः प्रविष्टी, राजसमीपं गती / दृश्य तैलाभ्यङ्गं कुर्वन् राजा अतीव विस्मितौ देवी शकवणितरूपाधिकरूप तो पश्यन्तौ राज्ञा पृष्टौ / किमर्थ भवन्तौ अत्रायाती। तो भणतः देव! भवद्रूपं त्रिभुवने वर्ण्यते तद्दर्शनार्थ कौतुकेन आवामत्रायाती। ततोऽतिरूपगर्वितेन राज्ञा तो उक्तौ भो भो विप्रौ युवा किं मद्रूप दृष्ट स्तोककालं प्रतीक्षेथा यावदहमास्थानसभामुपविशामि एबगस्त्विति प्राच्य निर्गतौ द्विजौ / चक्रयपि शीघ्र मज्जनं कृत्वा सर्वाङ्गोपाङ्ग शृङ्गारं दधत सभाया सिंहासने उपविष्टः / अकारितौ द्विजौ ताभ्या तदा चक्रिरूपं दृष्ट्वा विषण्णाभ्यां भणितम्-अहो मनुष्याणा रूपलावण्ययौवनानि क्षणदृष्टनष्टानि। तयोजियोरेतद्वधः श्रुत्वा चक्रिणा भणितम, भी किर्मवं भवन्तौ विषण्णौ मम शरीरं निन्दतः / ताभ्यां भणितम्-महाराज! देवानां रूपयौवनतेजासिप्रथमवयस आरभ्य षण्मासशेषायुःसमययावदवस्थितानि भवन्ति, यावजीवं न हीयन्ति / भवता शरीरे तु आश्चर्य दृश्यते / यत्तद्रूपलावण्यादिकं सांप्रतमेव दृष्ट नष्टम्। राज्ञा भणितम कथमेवं भवदभ्यां ज्ञातम? ताभ्यां शक्र प्रशंसादिकः सर्वो ... Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणंकुमार 268 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सणबंधण ऽपि वृत्तान्तः कथितः / चक्रिणा तु कयूरादिविभूषितं बाहुयुगलं पश्यता प्रव० / सनत्कुमारप्रधा-नविमानकल्पः सनत्कुमारः / अनु० / तृतीये हारादिविभूषितमपि स्ववक्षः स्थलं विवर्णमुपलक्ष्य चिन्तितम् / अहो देवलोके, अनु० / स्था० / प्रज्ञा० / प्रव० / औ० / स० / (तृतीयकल्पअनित्यता संसारस्य, असारता शरीरस्य, ए तावन्मात्रेणापि कालेन देवाधिपे, स च कल्पः क्व कथं तद्देव आधिपत्यं करोतीति 'ठाण' शब्द मच्छरीरस्य यौवनतेजांसि नष्टानि / अयुक्तोऽस्मिन् भवे प्रतिबन्धः, चतुर्थभागे 1712 पृष्ठे उक्तम्।) दाक्षिणात्यानां सनत्कुमारकल्पस्येन्द्र, शरीरमोहोऽज्ञानं, रूपयौवनाभिमानो मूर्खत्वं, भोगासेवनमुन्मादः, स्था० 2 टा० 3 उ० / विपा०। परिग्रहा ग्रह इवा तत एतत्सर्वं व्युत्सृज्य परलोकहितं संयम गृह्णामीति सणंकुमारे णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए विचार्य चक्रिणा पुत्रः स्वराज्येऽऽभिषिक्तः स्वयं संयमग्रहणाय उद्यतो सम्मट्ठिी मिच्छादिट्ठी परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए सुलभबोहिए जाः / तदानी देवदेवीभ्या भणितम्- "अणुहरिअं धीर ! तुम, चरियं दुल्लभबोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सणंकुमारे निययरस पुवपुरिसस्स / भरहमहानरवइणो, तिहुअणविक्खाय- णं देविंदे देवराया भवसिद्धिए, णो अभदसिद्धिए, एवं सम्मचिट्ठी कित्तिस्सा" इत्यायुक्त्वा देवौ गतौ / चयपि तदानीमेव सर्व परिग्रह परित्तसंसारिए सुलभबोहिए आराहए चरिमे पसत्थं नेयव्वं / से परित्यज्य विरताचार्यसमीप प्रव्रजितः / ततः स्त्रीरत्नप्रमुखाणि केणऽद्वेणं भंते ! गोयमा ! सणंकुमारे देविंदे देवराया बहूणं सदरत्नानि शेषाश्च रभव्यः सर्वेऽपि नरेन्द्राः, सर्वसैन्यलोका नवनिधयश्च समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं पलान थावत्तन्मार्गानुलनाः / तेन संयमिना सिंहावलोकनन्यायेन हियकामए सुहकामए पत्थकामए आणुकं पिए निस्सेयसिए दृश्याऽपि विलाविताः / षष्ठभक्तेन भिक्षानिमितं गोचरप्रविष्टस्य हियसुहनिस्सेसकामए, से तेणढेणं गोयमा ! सणंकुमारे णं ममेव अजातक्रतस्य गृहस्थेनदत्त, तद्भुक्तम्। द्वितीयदिवसे चपटमेव भवसिद्धिए जाय णो अचरिमे / सणंकुमारस्स णं भंते ! कृतं पारणक प्रान्तनीरसाहारकरणात्तस्यैते रोगा प्रादुर्भूताः / कण्डू: देविंदस्स देवरण्णो केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! सत्त १ज्वरः२ कासश्वासः 4 स्वरभङ्गः५ अक्षिदुःखम् 6 उदरव्यथा 7 एताः सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / से णं भंते ! तओ देवलोगाओ सप्त व्याधयः सप्तशतवर्षाणि यावदध्यासिता उग्रतपः कुर्वतरतस्य आउक्खएणं जाव कहिं उववञ्जिहिति? गोयमा ! महाविदेहे आमषौषधी 1 खेलोधी 2 विप्पौषधी 3 जल्लोषधी 4 सर्वोषधी 5 वासे सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिइ। (सू०१४१+) प्रभतयो लायः सम्पन्नाः, तथाप्यसो स्वशरीरप्रतीकार न कराति / 'आराहए' ति–ज्ञानादीनामाराधयिता चरमे' ति–चरम एव भयो यस्य पुनः शक्रणकदा एवं प्रशसितः, अहो.पश्यन्तु देवाः सनत्कुमारस्य धीरत्वं, प्राप्तस्तिष्ठति,देवभवो वा चरमो यस्य स, चरमभवो वः भविष्यति यस्य व्याधिकदार्थतोऽप्यर्थ न स्ववधुःप्रतीकारं कारयति / एतदिन्द्रवचनम स चरमः, 'हियकामए' त्ति-हितं सुखनिबन्धनं वस्तु 'सुहकमए' रि श्रद्दधागे लायेव देवा वैद्यरूपेण तस्य भुनेः समायाता, भणितवन्तौ च / सुखं- शर्म 'पत्थकामए' ति-पथ्य-दुःखत्राणम्, कस्मादेवमित्यत मनन् ? नव वपुष्य व प्रतीकारं कुर्वः / सनत्कुमारस्तदानीं तूष्णीक आह– 'आणुकंपिए' त्ति-कृपावान्, अत एवाह- 'निस्सेयरिए' त्तिस्थितः / पुनरण, गितम्-तथैव मुनिमानभाव जातः पुनः निःश्रेयसंमोक्षस्तत्र नियुक्त इव नैःश्रेयसिकः 'हियसुहनिस्सेसकामए' पुस्तथैव ही ना - दा मुनिना भणितम्भवन्ता कि शरीरव्याधि ति-हितं यत्सुखम दुःखानुबन्धमित्यर्थः,तन्निःशेषाणां सर्वेषां कामय फटका, कि व्याधिस्फेटको? ताभ्यां भणितमावा धाञ्छति यः स तथा। भ०३श०१ उ०। (यद्यपि सनत्कुमारे स्त्रीणामुशरीरत्याधि-स्फेट : कानों सनत्कुभारमुनिना स्वमुखथूत्कृतेन त्पत्तिास्ति तथापि याः सौधर्मोत्पन्नाः समयाधिकपल्योपमादिदशपघर्षिता स्वाङ्गुली कनक दर्शिता भणितञ्च--अहं स्वयमेव शरीख्याधि ल्यापभान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेव्यस्ताः सनत्कुमारदेवाना भोगाय काट यामि, यदि सहनक्तिर्न स्यात्तति। युवा यदि संसारख्याधि संपद्यन्ते इति 'परियारणा' शब्दे पञ्चमभागे 632 पृष्ठे गतम्।) स्फटनसमों तदा ताटयतम,तो दवा विस्मितमनस्को प्रकटित सणंकुमारमाहिंदकप्प पुं० (सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्प) स्वनामख्याते स्वरुपी एवमचतु:... भगवन ! व रासारव्याधिस्फेटन-समाऽसि, आवाया तु शक्रवचनमश्रधानाम्यामिहागत्य त्वं परीक्षितो यादृशः कल्पे, स्था० 4 ठा०४उ०। (अस्मिन् कल्पे कतिविधानि विमानानीति शक्रण कातर-तादृश 5 : सरयुक्त्वा प्रणम्य च स्वरथानं गतौ / 'विमाण' शब्दे षष्ठ भागे 1211 पृष्ठे गतम्।) भगवान् सनकुमार मारव यशाशद्वर्षसहस्राणि चक्रवर्तित्वे / सणंदिघोस त्रि० (सनन्दिघोष) सह नन्दिघोषो द्वादशतूर्यनिनादो यस्य वर्षलक्षश्रामण्य च वर्षलक्षात परिपःल्य समेतशैलशिखरं गतः / तत्र सः / नन्दिघोषतुल्ये, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। शिलातले आलाचनाविधानपूर्वनासिके न भक्तन कालं कृत्वा सणकप्पास पुं० (शणकास) शणत्वचि, ‘सणी' वणस्पति-जातो तरस सनत्कुमार माल्य देवत्वेनोपन्नः, श्च्युतो महाविदहे वारा सत्स्यति। वा गोकव्वणिजो कप्पासो भण्णति / नि० चू० 2 उ०। इति सनत्कुमारदृष्टान्त !! : 18 अ०। ध००। स्थाः। | सणबंधण न० (शणबन्धन) शणपुष्पवृन्ते, और। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणय 266 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सणियाण सणय न० (शगज) शणादिवल्कजे, नि० चू०१ उ०। टेलृक् / राणिअमवगूढो / प्रा० / “भसिणं सणिअं मटुं" पाइ० ना० सणसत्तरस त्रि० (शणसप्तदशन) शणः सप्तदशो येषां व्रीह्यादीना तानि 15 गाथा। तथा। शणादिसप्तदशसंख्याकेषु धान्येषु, प्रश्न० 2 विव० द्वार। सणिओग पुं०(शनियोग) परस्य कुबुद्धिसुबुद्ध्यादिदाने शनैश्चरग्रहयोग, सणह पुं० (सनख) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे भविष्यति षष्ठे कुलकरे, उत्त०३२ अ। समवायाङ्गे तु-सुमहनामाऽयम् / ति०। सणिंचर पुं० (शनैश्वर) महाग्रहभेदे, स्था०। सणहप्पई स्त्री० (सनखपदी) सनखपदपञ्चेन्द्रियतिर्यग्जातिस्त्रियाम, दो सणिंचरा / स्था० 2 ठा०३ उ०। जी०२ प्रतिः / सणिंचारि (ण) पुं० (शनैश्चारिन्) शनैर्मन्दमुत्सुकत्वाभावाच्चसणहप्पय पुं० (सनखपद) नखरेषु सिंहादिषु, स्था० 4 ठा० 4 उ० / रन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः / भ०६ श०७ उ० / यत्र सुखमसुसनखानि दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषां ते श्वादयः प्राकृतत्वाच खमाकालः तत्रत्यमनुष्यजाती, जी०३ प्रति० 4 अधि० / 'सणहप्पया' इति / जी०१ प्रति०। सूत्र०। प्रश्नः / भ०। सणिचर पुं०(शनैश्वर) ताराग्रहभेदे, स्था०६ठा०३७०। से किं तंसणहप्प (प्फ) या? सण० अणेगविहा पण्णत्ता,तंजहा सणिच्छर पुं० (शनैश्वर) “इत्सैन्धवशनैश्वरे" ||8/11146 / / अनेनात सीहा वग्घा दीविया अच्छा मरच्छा परस्सरा सियाला विडाला इत्वम् / सपिरो / प्रा० चतुर्थे महाग्रहविशेष,कल्प०१ अधिक सुणगा कोलसुणगा कोकंतिया ससगा चित्तगा चिल्लगा।जे यावण्णे ५क्षण च / स्था० / ज्योतिर्देव, प्रज्ञा० 2 पद / सूत्र०। औ०। तहप्पगारा। सेत्तं सणहप्प (प्फ)या।तेसमासओदुविहापण्णत्ता, प्रश्नः / जं०। तंजहा-संमुच्छिमाय, गब्भववंतिया यातत्थणजे ते संमुच्छिमा सणिच्छरसंवच्छर पुं० शनैश्चरसंवत्सर) शनैश्चरनिष्पादितः संवत्सरः ते सव्वे णपुंसगा, तत्थणं जे ते गड्भवतिया ते तिविहा पण्णत्ता, शनैश्वरसंवत्सरः / संवत्सरमदे, 070 / तं जहा-इत्थी पुरिसा नपुंसगा। (सू०३४४) ता सणिच्छरसंवच्छरे णं अट्ठावीसतिविहे पण्णत्ते, तं जहा.. तथा सन्नख नि दीर्घनखपरिकलितानि पदानि येषा त सनख...दा: अभियी सवणे० जाव उत्तरासाढा। जंवा सणिच्छरे महग्गहे तीसाए चादयः। प्राकृतत्वाच्च-'सणहप्फया इति-सूत्रे निर्देशः, अधुना एतानेव एकखुरादीन् भेदतः क्रमेण प्रतिपिपादयिषुरिद-माह-- ‘से कि त' संवच्छरेहि सव्वं णक्खत्तमंडलं समाणेति। (सू०५८x) मित्यादि, सुग्म नवरे ये केचिजीवभेदाः प्रतीतास्ते लोकतो वेदितव्याः 'ता सणिच्छरे' त्यादि तत्र शनैश्चरसंवत्सरोऽष्टाविंशतिविधः प्रज्ञप्तः, 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' इत्यादि सूत्रं प्राग्वद्भावनीयम नवरात्र तयथा--अभिजित- अभिजिच्छनैश्चरसंवत्सरः, श्रवणः-श्रवणशनैश्चरजातिकुलक टीनां योनिप्रमुखाणि शतसहस्राणि दश भवन्तीति संवत्सरः, एवं यावदुत्तराषाढाउत्तराषाढाशनैश्चरसवत्सरः। तत्र यस्मिन् वेदितव्यम्, अत्रापि च संमूच्छिमानां गर्भव्युत्क्रान्तिकानां च प्रत्येक संवत्सरे अभिजिता नक्षत्रेण सह शनैश्चरो योगमुपादत्ते सो ऽभिजियच्छरीरादिद्वारेषु चिन्तनं यच्च-स्त्रीपुनपुंसकाना परस्परमल्पबहुत्वं छनश्चरसंवत्सरः, श्रवणेन सह यस्मिन संवत्सरे शनैश्चरो योगमुपादत्ते तजीवाभिगमटीकातो वेदितव्यम्। प्रज्ञा० 1 पद। रा श्रवणशनैश्चरसवत्सरः। एवं सर्वत्र भावनीयम्। 'जं वे' त्यादि, वाशब्दः सणहमच्छ पुं० (सनखमत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति० / प्रज्ञा०। प्रकारान्तरताद्योतनाथ तत्सर्वं समस्तं नक्षत्रमण्डलं शनैश्चरो महाग्रहसणहा स्त्री (सनखा) नखोपलक्षितायां पिण्डिकायाम, यस्या रिशता संवत्सरे: समापयति, एतावान् कालविशेषरिवंशद्वर्षप्रमाणः पिण्डिकाया बध्यमानायामङ्गलीनखा ओष्ठ स्याधो लगन्ति सा शनेश्चरसवत्सरः / च० प्र०१०पाहु० / स्था० / सू० प्र०ा जं०। सनखत्युच्यता भ०१५श०। सणिधण त्रि० (सनिधन) सक्षये, प्रश्न 1 आश्र० द्वार! सणाण न० सज्ञान) ज्ञानेन सहितम् / सम्यग्दृष्टिसहितधु, स्था० | सणिद्ध त्रिल (स्निग्ध) "स्निग्धे वादितौ" / / 8 / 21106 / / इति स्निग्धे २ठा०४ उ। संयुक्तरथ ना पूर्वाता सिणि« / सणिद्धं / स्नेहवति, प्रा० 2 पाद। सणातण त्रि० (सनातन) शाश्वते, द्रव्यार्थतया नित्ये, सूत्र०२ शु० / सणिमित्त त्रि० (सानिमित्त) सह निमित्तेन उपादानकारणेन सह६अ। कारिकारणन वा वति इति सनिमित्तम् / सकारण, सूत्र० 2 श्रु० सणाह त्रि० (सनाथ सस्वामिके, ज्ञा० 1 श्रु० 8 अ०। आ० म०। १अः / कर्मः। सणाभि त्रि० (सनाभि) बान्धवे, “बधू सयणी सणाही य" पाइ० ना० सणिय अध्य० (शनेस) मन्दे, अशैध्रये च / सणियं सणियं" आचा०२ 101 गाथा। सणिअं अव्य० (शनैस) “शनै सो डिअम्" ||8 / 2 / 168 / इति - सणियाण त्रि० (सनिदान) सह निदानेन वति इति सनिदानः / स्वार्थे डिअ प्रत्ययः / अत्वरायाम, प्रा०२पाद / डित्वाच्च / भांगसारपनिदानसाहत. सुत्र०१२०१३ अ० Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सणेह 300 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णा सणेह पुं० (स्नेह) "स्नेहाग्न्योर्वा" ||8/2 / 102 / / अनेनात्र संयुक्तादन्तव्यञ्जनात्पूर्वस्याकारादेशः / सणेहो / नेहो / प्रीती, प्रा० 2 पाद। सण्ढ पुं० सं(ष)ण्ढ "वर्गेऽन्त्यो वा" ||8/1 / 30 / / अनेनात्रानुस्वारस्य वैकल्पिको वर्गान्त्यादेशः। संढो। सण्ढो / नपुंसके, प्रा०१ पाद। सण्ण त्रि० (संज्ञ) सम्यग जानाति पश्यतीति संज्ञः / ज्ञानदर्शन युक्ते,आचा०१ श्रु०५ अ०६उ०। *सन्न त्रि० अवसन्ने, माने,“सन्नो इह काममुच्छिया, मोह जंति असंवुडा नरा।" सूत्र० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। सण्णक्खर न० (संज्ञाक्षर) संज्ञायतेऽनयेति संज्ञानाम तन्निबन्धनं तत्कारणमक्षरं संज्ञाक्षरम् / अक्षरश्रुतभेदे, बृ० 130 1 प्रक० ।(एतच 'अक्खर' शब्दे प्रथमभागे 140 पृष्ठे उपपादितम्) सण्णकुंभ पुं० (स्वर्णकुम्भ) वासुपूज्यशिष्ये रोहिणीतपउपदेष्टरि, ती० 34 कल्प। सण्णजंघ पुं० (स्वर्णजंघ) ऋषभदेवजीवस्य वज्रजन स्य पितरि, आ० क०१ अ०। सण्णद्ध त्रि० (सन्नद्ध) कृतसन्नाहे, ज्ञा० 1 श्रु० 2 अ०। विपा०। औ०। "सण्णबद्धवम्मियकवया" सन्नद्धबद्धवमितकवचाः / कवचंतनुत्राणं वर्मलोहमयकुतूलिकादिरूप सजातमस्मिन्नितिवम्मितम्। सन्नद्ध-शरीरं आरोपणात् बंद्धंगाढतरबन्धनेन बन्धनात् वम्मितं कवचं यैस्ते सन्नद्धबद्धवम्मितकवचाः। जी०३ प्रति०२ उ०। भ०। सण्णप्प त्रि० (संज्ञाप्य) प्रज्ञापनीये, नं० / स्था०। आचा०। सण्णय पुं० (सन्नय) समीचीननये, प्रति०। सण्णयपास त्रि० (सन्नतपार्श्व) सम्यगधोऽधः क्रमेण नतो पावों येषा ते सन्नतपााः / अधोऽधः क्रमावनतपार्वेषु, जी० 3 प्रति०४ अधि० / जं० सण्णवणा स्त्री० (संज्ञापना) संबोधनायाम, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। सण्णा स्त्री० (सज्ञा) संज्ञानं संज्ञा “उपसर्गादातः" / 5 / 3 / 110 / / इत्यम् प्रत्ययः / ततः “म्नज्ञोर्णः" / / 8 / 2 / 42 / / इति ज्ञस्य णः / प्रा० व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभवे मतिविशेषे, आहारभयाद्युपाधिकायामचेतनायाम्, अभिधाने स्था० / एगा सण्णा। (सू०३) स्था०१ ठा०। संज्ञान संज्ञा। अभोगे, संज्ञायतेऽनयेति वा संज्ञा। भ०७ श० 8 उ०। आ० म० / घटशब्दादिलक्षणे अभिधाने, विशे० / आ० म० / नं० / आरख्यायाम्, अनु० / उत्तरकालपरि लोचनायाम, सूत्र०२ श्रु० 4 अ० / ऊहापोहविमर्षे, सूत्र०२ श्रु०७ उ० / प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिण्या चेतनायाम, दश० 4 अ०। संज्ञानं संज्ञा / पदार्थपरिच्छित्ती. 'पत्तेयं सण्णा' प्रत्येक सज्ञा। मन्दमन्दतस्पटुपटुतरभेदात्। प्रत्येकमेवोपजायते। सर्वज्ञादारतस्तरतमयोगेन मतेर्व्यवस्थितत्वात् / सूत्र०१ श्रु०७ उ० / ज्ञाने, सूत्र० 2 श्रु०१ अ०1 अन्तःकरणवृत्तौ, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। प्रतिनियतशब्दाभिधेयत्वे, सम्म०१ काण्ड / दश०। / भूतभवद्भाविभावस्वभावपालोचने, कर्म० 4 कर्म०। पं० सं०। नं०। संज्ञा स्मृतिरवबोध इत्यनान्तरम् / आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इहमेगेसिंणो सण्णा भवइ। (सू०१) "सुत्तं अट्ठहि य गुणेहिं उववेयं / / 1 / / " इत्यादि, तच्चेदं सूत्रम्-- 'सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं -इहमेगेसि णो सण्णा भवति' अरस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या-संहितोच्चारितैव, पदच्छेदस्त्वयम्-श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातम्-इह एकेषां नो संज्ञा भवति। एक तिङन्त शेषाणि सुवन्तानि, गतः सपदच्छेदः सूत्रानुगमः / साम्प्रतं सूत्रपदार्थः समुन्नीयते-भगवान् सुधर्मस्वामी जम्बूनाम्न इदभाचष्टे, यथा-श्रुतम्- आकर्णितमवगतमवधारितमिति यावद, अनेन स्वमनीषिकाव्युदासो मयेति साक्षान्न पुनः पारम्पर्येण आयुष्मन्निति जात्यादिगुणसम्भवेऽपि दीर्घायुष्कत्वगुणोपादानं दीर्घायुरविच्छेदेन शिष्योपदेश-प्रदायको यथा स्यात् / इहाचारस्य व्यचिख्यासितत्वात्तदर्थस्य च तीर्थकृत्प्रणीतत्वादिति सामर्थ्यप्रापितम्, तेनेनि तीर्थकरमाह। यदि वा- आमृशता भगवत्पादारविन्दम् अनेन विनय आवेदितो भवति, आवसता वा तदन्तिक इत्यनेन गुरुकुलवासः कर्त्तव्य इत्यावेदितं भवति, एतचार्थद्वयम् 'आमुसंतेण आवसंतेणे' त्येतत्पाठान्तरमाश्रित्यावगन्तव्यमिति / भगवतेति भगः-ऐश्वर्यादिषडात्मकः सोऽस्यास्तीति भगवान् तेन, एवमिति वक्ष्यमाणविधिना, आरख्यातमित्यनेन कृतकत्वव्युदासेनार्थरूपतया आगमस्य नित्यत्वमाह- 'इहे' ति-क्षेत्रे प्रवचने आचारे शस्त्रपरिज्ञायां वा आरण्यातमिति सम्बन्धः / यदिवा-'इहे' ति-संसारे एकेषां ज्ञानावरणीयावृत्तानां प्राणिनां नो संज्ञा भवति, संज्ञाने संज्ञा स्मृतिरवबोध इत्यनर्थान्तरम्, सा नो जायत इत्यर्थः। उक्तः पदार्थः / पदविग्रहस्य तु सामासिकपदाभावादप्रकटनम्। इदानी चालनाननु चाकारादिकप्रतिषेधकलघुशब्दसम्भवे सति किमर्थं नोशब्देन प्रतिषेध इति? अत्र प्रत्यवस्था, सत्यमेवम्, किन्तु-प्रेक्षापूर्वकारितया नोशब्दोपादानम्, सा चेयम्अन्येन प्रतिषेधेन सर्वनिषेधः स्याद्यथा न घटोऽघट इति चोक्ते सर्वात्मना घटनिषेधः, स च नेष्यते, यतः प्रज्ञापनाया दश संज्ञाः सर्वप्राणिनामभिहितास्तासा सर्वासा प्रतिषेधः प्राप्नोतीति कृत्वा। ताश्चेमाः"कइणभंते ! सण्णाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुण-सण्णा परिग्गहसण्णा कोहसण्णा माणसण्णा मायासण्णा लोभसण्णा ओहसण्णा लोगसण्ण" त्ति, आसां च प्रतिषेधे स्पष्टो दोषः, अतो नोशब्देन प्रतिषेधनमकारि, यतोऽयं सर्वनिषेधवाची, देशनिषेधवाची च / तथा हि-नो घट इल्युक्ते यथा घटाभावमात्रं प्रतीयते, तथा प्रकरणादिप्रसक्तस्य विधानम् / स पुनर्विधीयमानः प्रतिषेध्यावयवो ग्रीवादिः प्रतिषेध्यादन्यो वा पटादिः प्रतीयत इति / तथा चोक्तम्-'प्रतिषेधयति समस्त, प्रसक्तमर्थ च जगति नोशब्दः। स पुनस्तदवयवो वा, तस्मादर्थान्तरं वा स्याद् / / 1 / / ' इति, एवमिहापि न सर्वसंज्ञानिष्धः, अपि Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णा 301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णा तु-विशिष्टसंज्ञानिषेधो, यथाऽत्मादिपदार्थस्वरूपं गत्यागत्यादिकं ज्ञायते तस्या निषेध इति। साम्प्रतं नियुक्तिकृत्सूत्रावयवनिक्षेपार्थमाह... दव्ये सचित्ताई, भावेऽणुभवणजाणणा सण्णा। मति होइ जाणणा पुण, अणुभवणा कम्मसंजुत्ता॥३८ संज्ञा नामादिभेदाचतुद्धा, नामस्थाने क्षुण्णे / ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता सचित्ताऽचित्तमिश्रभेदास्त्रिधा, सचित्तेन हस्तादिद्र-व्येण पानभोजनादिसंज्ञा, अचित्तेन ध्वजादिना, मिश्रेण प्रदीपा-दिना संज्ञान-संज्ञा अवगम इति कृत्वा। भावसंज्ञा पुनर्द्विधा अनुभवनसंज्ञा, ज्ञानसंज्ञा च। तत्राल्पव्याख्येयत्वात्तावत्, ज्ञान-संज्ञा दर्शयति- 'मइ होइ जाणणा पुण' त्ति-मनन मतिः-अवबोधः, सा च मतिज्ञानादिः पक्षाधा, तत्र के वलसंज्ञा क्षायिकी शेषास्तु क्षायो पशमिक्यः, अनुभवनसंज्ञा तु स्वकृतकर्मोदयादि-समुत्था जन्तोर्जायते। सा च षोडशभेदेति दर्शयतिआहारभयपरिग्गह-मेहुणसुखदुक्खमोहवितिगिच्छा। कोहमाणमायलोहे, सोगे लोगे य धम्मोहे // 36 // आहाराभिलाष आहारसंज्ञा, सा च तेजसशरीरनामकम्मोदयादसातोदयाच्च भवति, भयसंज्ञा त्रासरूपा,परिगृहसज्ञा मूर्छा रूपा, मैथुनसंज्ञा स्त्र्यादिवेदोदयरूपा, एताश्च मोहनीयोदयात् सुखदुःखसंज्ञे सातासातानुभवरूपे वेदनीयोदयजे / मोहसंज्ञा मिथ्यादर्शनरूपा मोहोदयात्, विचिकित्सासंज्ञा चित्तविप्लुति-रूपा मोहोदयात् ज्ञानावरणीयोदयाच्च, क्रोधसंज्ञा अप्रीतिरूपा मानसंज्ञा गर्वरूपा, मायासज्ञा वक्रतारूपा, लोभसंज्ञा गृद्धिरूपा, शोकसंज्ञा विप्रलापवैमनस्यरूपा, एता मोहोदयजाः लोकसंज्ञाः स्वच्छन्दघटितविकल्परूपा लौकिकाचरिता, यथा न सन्त्यन-पत्यस्य लोकाः, श्वानो यक्षाः, विप्रा देवाः, काकाः पितामहाः, बर्हिणा पक्षवातेन गर्भ इत्येवमादिका ज्ञानावरणक्षयोपशमान्मो-होदयाच भवन्ति। धर्मसंज्ञा क्षमाद्यासेवनरूपा मोहनीयक्षयोप-शमाजायते, एताश्चाविशेषोपादानात् पञ्चेन्द्रियाणां सम्यग्मिथ्या-दृशां द्रष्टव्याः, ओघसंज्ञा तु अव्यक्तोपयोगरूपा वल्लिवितानारो-हणादिलिङ्गा ज्ञानावरणीयाल्पक्षयोपशमसमुत्था द्रष्टव्येति। इह पुनर्ज्ञानसंज्ञयाऽधिकारो, यतः सूत्रे सैव निषिद्धा इह एकषां नो संज्ञा--ज्ञानम् अवबोधो भवतीति।।१।। प्रतिषिद्धज्ञानविशेषावगमार्थमाह-सूत्रम्तं जहा-पुरत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहम सि, दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, पचत्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उत्तराओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, उड्डाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि, अहोदिसाओ वा आगओ अहमंसि, अण्णयरीओ वा दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि। एवमेगेसिं णो णायं भवति / (सू०२) "तं जहे" त्यादि “णो णाय भवती" ति यावत् तद्यथेति प्रतिज्ञाता- | र्थोदाहरणम्, 'पुरस्थिमाउ' त्ति-प्राकृतशैल्या मागधदेशीभाषा-नुवृत्त्या पूर्वस्या दिशोऽभिधायकात् पुरथिमशब्दात्पञ्चम्यन्ता-तसा निर्देशः / वाशब्द उत्तरपक्षापेक्षया विकल्पार्थः / यथा लोके भोक्तव्यं वा शयितव्यं वेति / एवं पूर्वस्या वा दक्षिणस्या वेति। दिशतीति दिक, अतिसृजतिव्यपदिशति द्रव्यं द्रव्यभागं वेति भावः / आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / द्विविधा संज्ञा सा पुनः सा-मान्येन क्षायोपशमिकी, औपशमिकी च / तत्राद्या ज्ञानावरणक्षा योपशमजा मतिभेदरूपा न तयेहाधिकारः, द्वितीया सामान्येन चतुर्विधाऽऽहारसंज्ञादिलक्षणा।आव० 4 अ०। आ० चू० / त्रिविधा संज्ञा दीर्घकालिकोपदेशेन हेतुवादोपदेशेन दृष्टिवादोपदेशेन / विशे०। बृ० / प्रव०। इदानीं 'सन्नाओ तिन्नि'त्ति चतुश्चत्वारिंशच्छततम द्वारमाहसन्नामो तिन्नि पढमे, त्थ दीहकालोवएसियासयानाम। तह हेउवायदिट्ठी, वा उवएसातदियराओ॥३२॥ संज्ञान संज्ञा,ज्ञानमित्यर्थः सा त्रिभेदा, 'पढमे त्थ' त्ति-प्रथमा आद्या अत्र एतासु तिसृषु संज्ञासु मध्ये दीर्घकालोपदेशिका नाम दीर्घकालमतीतानागतवस्तुविषयत्वेनोपदेशः कथनं यस्याः सा दीर्घकालोपदेशी, सैव दीर्घकालोपदेशिका। तथा तदितरे द्वितीये हेतुवाददृष्टिवादोपदेशे, उपदेशशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् / हेतुवादोपदेशा द्वितीया संज्ञा, दृष्टिवादोपदेशा च तृतीयेत्यर्थः। तत्र हेतु कारणं निमित्तमित्यनथन्तिरम्, तस्य वदन वादस्त-द्विषय उपदेशः-प्ररूपणा यस्यां सा हेतुवादोपदेशा, तथा दृष्टि-दर्शनं सम्यक्त्वं तस्य वदनं वादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादः, तद्विषय उपदेशः प्ररूपणं यस्यां सा दृष्टिवादोपदेशेति। अथ दीर्घकालोपदेशसंज्ञायाः स्वरूपं प्रतिपिपादयिषु स्तया संजिनमेवाहएयं करेमि एयं, कयं मए इममहं करिस्सामि / सो दीहकालसन्नी, जोइय तिक्कालसन्नधरो 633|| एतत्करोऽम्यहम्, एतत्कृतं मया, एतत्करिष्याम्यहम्, इत्येवं यस्त्रिकालविषयां वर्तमानातीतानागतकालत्रयवर्तिवस्तुविषयां संज्ञा मनोविज्ञान धारयति सः,दीर्घकालादीर्घकालोपदेशा संज्ञाऽस्यास्तीति कृत्वा, स च गर्भजस्तिर्यड् मनुष्यो वा देवो नारकश्व मनःपर्यप्तियुक्तो विज्ञयः, तस्यैव त्रिकालविषयविमर्शा-दिसंभवात्, एष चप्रायः सर्वमप्यर्थ स्फुटरूपमुपलभते / तथाहि-यथा चक्षुष्मान् प्रदीपादिप्रकाशेन स्फुटमर्थमुपलभते, तथैषोऽपि मनोलब्धिसंपन्नो मनोद्रव्यावष्टम्भसमुत्थविमर्शवशतः पूर्वापरानुसंधानेन तथावस्थितं स्फुटमर्थभुपलभते। यस्य पुनास्ति तथाविधरित्रकालविषयो विमर्शः सोऽसंज्ञीति सामर्थ्यालभ्यते। राच संभूछितपश्चेन्द्रियविकलेन्द्रियादिर्विज्ञेयः। स हि स्वल्पस्वल्पतरमनोलब्धिसंपन्नत्वादस्फुटतरमर्थं जानाति। तथाहि-पञ्चेन्द्रियापेक्षया संमृच्छिमपञ्चेन्द्रियोऽस्फुटमर्थजानाति।जानाति ततोऽप्य-स्फुट चतुरिन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतम द्वीन्द्रियः' Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णा 302 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णा ततोऽप्यत्यस्फुटतममेकेन्द्रियः, तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात्, केवलमव्यक्तमेव किंचिदतीवाल्पतरं मनो द्रष्टव्यम्-यदशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुष्यन्तीति? साम्प्रतं हेतुवादोपदेशसंज्ञया संज्ञिनमसंज्ञिनंचाहजे उणसंचितेउ, इवाणिहेसु विसयवत्थूसु। वत्तंति नियत्तंतिय, सदेहपरिपालणाहेउं||३४|| पाएणसंपइचिय, कालम्मिनयाऽविदीहकालम्मि। ते हेउवायसन्नी, निचेट्ठा हुँति हु असन्नी / / 635 // ये पुनः संचिन्त्य संचिन्त्येष्टानिष्टषुछायातपाहारादिषु विषयवस्तुषुमध्ये स्वदेहपरिपालनाहेतोरिष्टेषु वर्तन्ते। अनिष्टभ्यस्तु तेभ्य एव निवर्तन्ते। प्रायेण च साम्प्रतकाल एव, न चापि नैव दीर्घकालेऽतीतानागतलक्षणे, प्रायोग्रहणात् केचिदतीतानागतकालावलम्बिनोऽपि, नातिदीर्घकालानुसारिणः ते द्वीन्द्रियादयो हेतुवादोपदेश संज्ञया संज्ञिनो विज्ञेयाः। अत्र च निश्चेष्टा धर्माद्यभितापितास्तन्निराकरणाय प्रवृत्तिनिवृत्तिविरहिताः पृथिव्यादय एवासंज्ञिनो भवन्ति / किमुक्तं भवति?यो बुद्धिपूर्वक स्वदेहपरिपालनार्थमिष्टेष्वाहारादिषु वस्तुषु प्रवर्तते, अनिष्टेभ्यश्च निवर्तते; स हेतूपदेशसंज्ञी, सच द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः। तथाहिइष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिसंचिन्तनं न मनोव्यापारमन्तरेण सम्भवति, मनसा च पर्यालोचने संज्ञा, सा च द्वीन्द्रियादेरपि विद्यते, तस्यापि प्रतिनियतेष्टाविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात् / ततो दीन्द्रियादिरपि हेतूपदेशसंज्ञया संज्ञी लभ्यते, नवरमस्य संचिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयम्, न भूतभविष्यद्विषयमिति / नायं दीर्घकालोपदेशेन संज्ञी यस्य पुनर्नास्त्यभिसंधारणपूर्विका प्रवृत्तिनिवृत्तिशक्तिः स प्राणी हेतुवादोपदेशेनाप्यसंज्ञी लभ्यते। सच पृथिव्यादिरेकेन्द्रियो वेदितव्यः। तस्याभिसंबन्धपूर्वकमिष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्त्यसम्भवात, या अपि च आहारादिका दश संज्ञाः पृथिव्यादीनामप्यत्र वक्ष्यन्ते, प्रज्ञापनायामपि य प्रतिपादितास्ता अप्यत्यन्तमव्यक्तरूपा मोहोदयजन्यत्वादशोभनाश्च इतिन तदपेक्षयापि तेषां संज्ञित्वव्यदेशः। न हि लोकेऽपि कार्षापणमात्रास्तित्वेन धनवानुच्यते, न चाविशिष्टन मूर्तिमात्रेण रूपवानिति, अन्यत्रापि हेतुवादोपदेशसंज्ञित्वमाश्रित्योक्तं- कृमिकीटपतङ्गाद्याः समनस्का, जङ्गमाश्चतुर्भेदाः / अमनस्काः पञ्चविधाः। पृथिवीकादयो जीवाः। अथ दृष्टिवादोपदेशसंज्ञया संज्ञिनमसंज्ञिनं चाहसम्मविट्ठी सन्नी, संते नाणे खओवसमिए य। असन्नि मिच्छत्तम्मि, (य) दिहिवाओवएसेण॥६३६|| दृष्टिवादोपदेशेन क्षायोपशमिकज्ञाने वर्तमानः सम्यग्दृष्टिमेव संज्ञानी, संज्ञानं संज्ञा सम्यग्ज्ञानम् / तद्युक्तत्वात् / मिथ्यादृष्टिः पुनरसंज्ञी, विपर्ययत्वेन वस्तुतः सम्यग्ज्ञानरूपसंज्ञारहितत्वात्। यद्यपि च मिथ्यादृष्टिरपि सम्यगदृष्टिरिव घटादिकं जानाति, व्यवहरतिच, तथापि तस्य संबन्धिव्यवहारमाप्रण ज्ञानम पि निश्चयतोऽज्ञानमेवोच्यते। तर्हि किमिति क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तोऽसौ गृह्यते? क्षायिकज्ञाने हि विशिष्टतरा सा प्राप्यते, ततस्तवृत्तिरप्यसौ किं नाऽङ्गीक्रियते? उच्यते यतोऽतीतस्यार्थस्य स्मरणमनागतस्य च चिन्ता संज्ञाऽभिधीयते, सा च केवलिनां नास्ति। सर्वदा सर्वार्थावभासकत्वेन केवलिनां स्मरणचिन्ताद्यतीतत्वात्ः इति क्षायोपशमिकज्ञान्येव सम्यगदृष्टिः संज्ञीति। ननु प्रथमं हेतुवादोपदेशेन संज्ञी वक्तुं युज्यते / हेतुवादोपदेशेनाल्पमनोलब्धिसम्पन्नस्यापि द्वीन्द्रियादेः संज्ञित्वेनाभ्युपगमात्, तस्य चाविशुद्धतरत्वात्, ततो दीर्घकालोपदेशेन हेतूपदेश-संजयपेक्षया दीर्घकालोपदेशसंझिनो मनःपर्याप्तियुक्तया विशुद्धत्वात्। तत्किमर्थमुत्क्र मोपन्यासः! उच्यते-इह सर्वत्र सूत्रे यत्र कृचित्संज्ञी असंज्ञी वा परिगृह्यते तत्र सर्वत्रापि प्रायो दीर्घकालोपदेशेन गृह्यते, न हेतुवादोपदेशेन, नापि दृष्टिवादोपदेशेन,तत एतत्संप्रत्ययार्थं प्रथमं दीर्घकालोपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणम् / उक्तञ्च-'सन्नि त्ति असन्नि त्ति य, सव्वसुए कालिओवएसेणं। पायं संववहारो, कीरइतेणाइओ सकओ1॥१॥ ततोऽनन्तरमप्रधानत्वात् हेतूपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणम्। ततः सर्वप्रधानत्वादन्ते दृष्टिवादोपदेशेनेति / प्रव० / 144 द्वार। आ० म०। कर्म०। नं०। संज्ञानं संज्ञा असा-तवेदनीयमोहनीयकर्मोदयजन्ये चैतन्यविशेषे, पा० / वेदनीयमोहनीयोदयाश्रितानां ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपसमाश्रि-तायां विचित्राहारादिप्राप्ति-क्रियायाम, प्रव० 14 द्वार / दर्श० / अभिलाषे, आहारसंज्ञा-आहाराभिलाषः क्षुद्वेनीयप्रभवः खल्वात्मपरिणामविशेष इति।नं०। संज्ञा चतुर्धाचत्तारि सणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा। (सू०३५६४) 'चत्तारि' इत्यादि व्यक्तं केवलं संज्ञानं संज्ञा--चैतन्यं, तचासातवेदनीयमोहनीयकम्र्मोदयजन्यविकारयुक्तमाहारसंज्ञादित्वेन व्यपदिश्यत इति / स्था० 4 ठा०४ उ०। स०। आतु० / उत्त० / प्रव०। (आहारसंज्ञावक्तव्यता 'आहारसण्णा' शब्दे द्वितीयभागे 527 पृष्ठे द्रष्टव्या।) (भयसंज्ञावक्तव्यता 'भयसण्णा' शब्दे पञ्चमभाग 1385 / 1384 पृष्ठे गता।) ('मैथुनसंज्ञाव्याख्या मेहुणसण्णा' शब्दे षष्ठे भागे 426 / 430 पृष्ठे गता।) (परिग्रहसंज्ञावक्तव्यता 'परिग्गहसण्णा' शब्दे पञ्चमभागे 567 पृष्ठे गता।) इदानीं 'सण्णाओ चउरों' त्ति पञ्चचत्वारिंशच्छततमं द्वारमाहआहार१ भयर परिग्गह३, मेहुण 4 रूवाउ हुंति चत्तारि। सत्ताणं सन्नाओ, आसंसारं समग्गाणं / / 637 / / संज्ञानं संज्ञा आभोगः, सा द्विधा-क्षायोपशमिकी औदयिकी च / तत्राद्या ज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यमतिभेदरूपा, सा चानन्तरमेवोक्ता। द्वितीय पुनः सामान्येन चतुर्विधाऽऽहारसंज्ञादिलक्षणा, तत्र क्षुद्वेदनीयोदयाद्या कवलाद्याहाराद्यर्थं तथाविधपुग़लोपादानक्रिया सा आहार-- Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्णा 303 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णा संज्ञा, तस्य आभोगात्मिकत्वात् सा पुनश्चतुर्भिः कारणैः समुत्पद्यते। यदुक्तं स्थानाङ्गे-'चउहिं ठाणेहिं आहारसण्णा समुप्पजइ, सं नहाओमकुट्टयाए छुहावेयणिज्जस्स कम्मरसुदएणं मईए लदोवओगण' ति तत्र अवमकोष्ठतया रिक्तोदरतया, क्षुद्वेदनीयकर्मोदयेन, मत्या आहारकथा श्रावणादिजनितबुद्ध्या, तदपियोगेन सततमा हारचिन्तयेति, तथा भयमोहनीयोदयादयोद्धान्तरय दृष्टिवदनविकाररोमाशोढ़ेदादिक्रिया भयसंज्ञा। इयमपि चतुर्भिः स्थानैत्पद्यते, यदुक्तं “हणिसत्तयाए य भयवेयणि वस्स कम्मस्सुदएण, मईए तदट्टोवओगेण" ति। तत्र हीनसत्त्वतया सत्वाभावेन, मत्या भयवार्ताश्रवणभीषणदर्शनादिलनितया बुध्या , तदर्थोपयोगेन इह लोकादिभयलक्षणार्थपर्यालोचनेनेति, तथा लोभोदयात्प्रधानसंस्कारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रियापरिग्रहसज्ञा / एषापि चतुर्भिः स्थानरुत्पद्यते, यदुक्तम्'अविमुत्तियाएलोभे वेयणिजस्स कम्मस्स उदएणं, मईए तदट्ठोवओगेणं' ] ति तत्र अविमुक्ततया सपरिग्रहतया, मत्या सचेतनादिपरिग्रहदर्शनादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन परिग्रहचिन्तनेनेति / तथा पुवेदोदयान्मैथुनाय स्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपथुप्रभृतिलक्षणा क्रिया मैथुनसंज्ञा, असावपि चतुर्भिः स्थानैरुत्पद्यते / यदुक्तम्- 'चियमंससोणियाए मोहणिज्जरस कम्मर-सुदएणं मईए तदट्टोवओगणं' ति। तत्र चिते उपचिते मांसशोणिते यस्य स तथा तद्भावस्तत्ता, तया चितमासशोणिततया मत्या सुरतकथाश्रवणादिजनितबुद्ध्या तदर्थोपयोगेन मैथुनलक्षणार्थचिन्तनेनेति, एताश्चतस्रः संज्ञाः समग्राणामेकेन्द्रियादीनां पञ्चेन्द्रियपर्यवसानानां सत्त्वानांजीवानामासंसार संसारवासं यावद्भवन्ति / तथा च केषांचिदेकेन्द्रियाणामप्येताः स्पष्टमेवोपलभ्यन्ते / तथाहि- जलाद्याहारोपजीवनाद्वनस्पत्यादीनामाहारसंज्ञा / संकोचनी वल्ल्यादीनां तु हस्तस्पर्शादिभीत्या अवय्वसंकोचनादिभ्यो भयसंज्ञा, विल्वपलाशादीनां तु निधानी-- कृतद्रविणोपरि पादमोचनादिभ्यः परिग्रहसंज्ञा / कुरवकाशोकतिल.. कादीनां तु कमनीयकामिनीभुजलतावगूहनपाणिप्रहारकटाक्षविक्षेपादिभ्यः प्रसूनपल्लावादिप्रसवप्रदर्शनान्मैथुनसंज्ञेति। प्रव०१४५ द्वार कइ णं भंते ! सण्णाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा कोहसण्णा माणसण्णा मायासण्णा लोहसण्णा लोयसण्णा ओहसण्णा। सू०१४७४) प्रज्ञा०८ पद। (आसामर्थः स्वस्वस्थाने) प्रज्ञा०। प्रव० स्था०। (एकेन्द्रियाणमपि आहारादिसंज्ञा विद्यन्ते इति ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1640 पृष्ठे मतिज्ञानयोर्भेदप्रस्तावे उक्तम्।) नेरइयाण मंते ! कइसण्णाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहारसण्णा 0 जाव ओघसण्णा / (01474) असुरकुमाराणं भंते ! कइसण्णाओ पण्णाओ ?गोयमा ! दस सन्नाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आहारसण्णा 0 जाव ओघसण्णा, एवं० जाव थणियकुमाराणं एवं पुढ विकाइयाणं 0 जाव वेमाणियावसाणाणं नेतव्वं / (सू०१४७x) नेरइयाणं भंते! किं आहारसन्नोवउत्ता भयसन्नोवउत्ता मेहुणसन्नोवउत्ता परिम्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा! ओसन्नं कारणं पडुच्च भयसन्नोवउत्ता, संतइभावं पडुच आहारसन्नोवउत्ता वि० जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता वि। एएसिणं भंते ! नेरइयाणं आहारसण्णोवउत्ताणं मयसन्नोवउत्ताणं मेहुणसण्णोवउत्ताणं परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वातुल्ला वा विसेसाहियावा? गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइया मेहुणसण्णोवउत्ता आहारसण्णोवउत्ता संखिज्जगुणा परिग्गहसण्णोवउत्ता संखिज्जगुणा मयसण्णोवउत्ता संखिज्जगुणा / तिरिक्खजोणियाणं भंते ! किं आहारसण्णोवउत्ता 0 जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा ! ओसन्नं कारणं पडुच आहारसण्णोवउत्ता संतइभावं पडुच्च आहार-सण्णोवउत्ता वि० जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि, एएसि णं भंते! तिरिक्खजोणियाणं आहारसण्णोवउत्ताणं 0 जाव परिग्गहसण्णो-वउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया परिमहसण्णोवउत्ता, मेहुणसन्नोवउत्ता संखिज्जगुणा भयसन्नो-वउत्ता संखिज्जगुणा आहारसन्नोवउत्ता संखिज्जगुणा।। मणुस्सा णं मंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता 0 जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता? गोयमा ! ओसन्नं कारणं पडुच्च मेहुणसन्नोवउत्ता संततिभावं पडुच आहारसन्नोवउत्ता वि 0 जाव परिग्गहसनोवउत्ता वि। एएसि णं मंते ! मणुस्साणं आहारसन्नोवउत्ताणं० जाव परिग्गहसन्नोवउत्ताण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणूसा भयसन्नोवउत्ता आहारसन्नोवउत्ता संखिज्जगुणा परिग्गहसण्णोवउत्ता संखिजगुणा मेहुणसण्णोवउत्ता संखिज्जगुणा / / देवा णं भंते ! किं आहारसन्नोवउत्ता 0 जाव परिग्गहसन्नोवउत्ता? गोयमा ! ओसन्नं कारणं पडुच्च पहिग्गहसन्नोवउत्ता संततिभावं पडुच्च आहारसन्नोवउत्ता वि०जाव परिग्गहणसन्नोवउत्ता वि, एएसिणं भंते! देवाणं आहारसन्नोवउत्ताणं०जाव परिगहसन्नोवउत्ताणय Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णा 304 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णा कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहियावा? चाहारेच्छाया भावतः पृच्छासमये अतिप्रभूतानामाहारसंज्ञपयुक्तानां गोयमा ! सवत्थोवा देवा आहारसन्नोवउत्ता भयसन्नोवउत्ता संभयात्, तेभ्यः संख्येयगुणाः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः, आहारेच्छा हि संखिज्जगुणा मेहुणसन्नोवउत्ता संखिजगुणा परिग्गहसन्नोवउत्ता देहार्थमेव भवति परिग्रहेच्छा तु देहे प्रहरणादिषु च, प्रभूततरकालावसंखेनगुणा / (सू० 148) स्थायिनी च परिग्रहेच्छा, ततः पृच्छासमयेऽतिप्रभूततराः परिग्रहसंज्ञोप'कइणं भंते ! सन्नाओ पण्णत्ताओ' इति-कति-कियत्संख्या 'ण' मिति युवता अवाप्यन्ते इति भवन्ति पूर्वेभ्यः संख्येयगुणाः, तेभ्यो भयसंज्ञोपवाक्यालङ्कारे / भदन्त / संज्ञाःप्रज्ञप्ताः, तत्र संज्ञानं संज्ञा आभोग युक्ताः संख्येयगुणाः, नरकेषु हि नैरयिकाणां सर्वतो भयमामरणान्तइत्यर्थः / यदिवा-संज्ञायतेऽनयाऽयं जीव इति संज्ञा, उभयत्रापि भावि, ततः पृच्छासमयेऽतिप्रभूततमा भयसंज्ञोपयुक्ताः प्राप्यन्ते इति वेदनीयमोहोदयाश्रिता ज्ञानावरणदर्शनावरणक्षयोपशमाश्रिता च संख्येयगुणाः। तिर्यकपञ्चेन्द्रिया अपिबाह्य कारणं प्रतीत्य बाहुल्येनाहारविचित्राहारादिप्राप्तिक्रिया, सा चोपाधिभेदादशविधा, तथा चाह संज्ञोपयुक्ता भवन्ति न शेषसंज्ञोपयुक्ताः तथा प्रत्यक्षत एवोपलब्धेः, गौतम ! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तदेव दशविधत्वं नामग्राहमाह- 'आहार आन्तरमनुभवभावमाश्रित्याहारसंज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसन्ना' इत्यादि तत्र क्षुद्वेदनीयोदयात् या कयलाद्याहारार्थ तथाविध संज्ञोपयुक्ता अपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः परिग्रहसंज्ञोपपुद्गलोपादानक्रिया साऽऽहारसंज्ञा, तस्या आभोगात्मिकत्वात्। यदिवा युक्ताः, परिग्रहसंज्ञायाः स्तोककालत्वेन पृच्छासमये तेषां स्तोकानामेसंज्ञायते जीवोऽनयेति, एवं सर्वत्रापि भावना कार्या / तथा वाऽवाप्यमानत्वात्, तेभ्यो मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः संख्येय-गुणाः, मैथुनभयमोहनीयोदयात् मयोभ्रान्तस्य दृष्टिवदनविकाररोमाञ्चोज्दादिक्रिया संज्ञोपयोगस्य प्रभूततरकालत्वात्, तेभ्योऽपि भयसंज्ञोपयुक्ताः भयसंज्ञा, पुंवेदोदयान्मैथुनाय स्त्र्यालोकनप्रसन्नवदनसंस्तम्भितोरुवेपनप्रभृतिलक्षणक्रिया मैथुनसंज्ञा, तथा लोभोदयात् प्रधान संख्येयगुणाः,सजातीयात्परजातीयाच तेषां भयसंभवतो भयोपयोगस्य संसारकारणाभिष्वङ्गपूर्विका सचित्तेतरद्रव्योपादानक्रिया परिग्रहसंज्ञा, च प्रभूततमकालत्यात्, पृच्छासमये भयसंज्ञोप-युक्तानामतिप्रभूततथा क्रोधवेदनीयोदयात् तदावेशगर्भा पुरुषमुखवदनदन्तच्छदस्फुरण तराणामवाप्यमानत्वात्, तेभ्यः संख्येयगुणाः आहारसंज्ञोपयुक्ताः, चेष्टा क्रोधसंज्ञा, तथा मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिण प्रायः सततं सर्वेषामाहार (संज्ञा) संभवात्। मनुष्या बाह्य कारणमधिकृत्य तिर्मानसंज्ञा, मायावेदनीयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणादिक्रिया बाहुल्येन मैथुनसंज्ञोपयुक्ताःस्तोकाः शेषसंज्ञोपयुक्ताः, सन्ततिभावमायासंज्ञा, तथा लोभवेदनीयोदयतो लालसत्वेन सचित्तेतरद्र- मान्तरानुभवभावरूपं प्रतीत्याहार-सज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहव्यप्रार्थना लोभसंज्ञा, तथा मतिज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमनात् संज्ञोपयुक्ता अपि। अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका भयसंज्ञोपयुक्ताः, शब्दाद्यर्थगोचरा सामान्यावबोधक्रिया ओघसंज्ञा, तथा तद्वि- स्तोकानां स्तोककालं च भयसंज्ञा-संभवात्, तेभ्य आहारसंज्ञोपयुक्ता शेषावबोधक्रिया लोकसंज्ञा। एवं चेदमापतितम्-दर्शनोपयोग ओधसंज्ञा, संख्येयगुणाः, आहारसंज्ञोपयोगस्य प्रभूततरकालभावात् अत एव हेतोः ज्ञानोपयोगो लोकसंज्ञा, अन्ये त्वभिदधति-सामान्यप्रवृत्तिर्यथा वल्ल्या तेभ्यः संख्येयगुणाः परिग्रह-संज्ञोपयुक्ताः, तेभ्यो मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः वृत्त्यारोहणमोघसंज्ञा, लोकस्य हेया प्रवृत्तिर्लोकसंज्ञा, तदेवमेताः संख्ये यगुणाः, मैथुनसंज्ञाया अतिप्रभूततरकालं यावद् भावतः सुखप्रतिपत्तये स्पष्टरूपाः पञ्चेन्द्रियानधिकृत्य व्याख्याताः, एकेन्द्रियाणां पृच्छासमयेतेषामति-प्रभूतत-राणामवाप्यमानत्वात् / तथा बाह्य त्वेता अव्यक्तरूपाः, नैरयिकसूत्रे 'ओसन्नकारणं पडुच्च भयसन्नोवउत्ता' कारणमधिकृत्य बाहुल्येन देवाः परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः, मणिकनकरइति-तत्रोत्सन्नशब्देन बाहुल्यमुच्यते कारणशब्देन च बाह्यं कारणम्-, त्नादीनां परिग्रह--संज्ञोपयोगहेतुना तेषां सदा सन्निहितत्वात्. संततिभावं ततोऽयमर्थः-बाह्यकारणमाश्रित्य नैरयिका बाहुल्येन भयसंज्ञोप यथोक्तरूपं प्रतीत्य पुनराहार-संज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः, तथाहि-सन्ति तेषां सर्वतः प्रभूतानि परमाधार्मिकायः युक्ता अपि, अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका आहारसंज्ञोपयुक्ताः, कवल्लीशक्तिकुन्तादीनि, 'संतइभावं पडुच्च इति-इहानन्त आहारच्छाविरहकालस्यातिप्रभूततया आहारसंज्ञोपयोगकालस्य रोऽनुभवभावः-सन्ततिभाव उच्यते; तत आन्तरमनुभवभावमपेक्ष्य चातिस्तोकतया तेषां पृच्छासमये सर्वस्तोकानां तेषामवाप्यमानत्वात्. नैरयिका आहारसंज्ञोपयुक्ता अपि यावत्परिग्रहसंज्ञोपयुक्ता अपि / अल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोका मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः, नैरयिका हि ततो भयसंज्ञोपयुक्ताः, संख्येयगुणाः, भयसंज्ञायाः प्रभूतानां प्रभूतकालं चक्षुनिमीलनमात्रमपि न सुखिनः केवलनवरतमतिप्रबलदुःखाग्निना च भावात,तेभ्योऽपि मैथुनसंझोपयुक्ताः संख्येयगुणाः, तेभ्यः परिग्रहसंतप्यमानशरीराः / उक्तं च- “अच्छिनिमीलणभत्तं, नऽस्थि सुह संज्ञोपयुक्ताः संख्येयगुणा, जीवापेक्षया बहवो वक्तव्यास्ते च तथैव दुक्खमेव पडिबद्ध। नरए नेरइयाणं, अहोनिसंपच्चमाणाणं / / 1 / / " ततो भाविता इति। प्रज्ञा० 8 पद। मैथुनेच्छा नैतेषां भवतीति, यदिएरंक्वचित्कदाचित्केषांचित् भवति साऽपि जीवा णं भंते ! किं सपणी असण्णी नो सपणी च स्तोककालाइति पृच्छा समये स्तोका मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः, तेभ्यः नो असण्णी? गोयमा! जीवा सण्णी वि असण्णी विनो संख्येयगुणा आहारसंज्ञोपयुक्ताः, दुःखितानामपि प्रभूतानां प्रभूतकालं / सण्णी नाअसण्णी वि। णे रइयाणं पुच्छा, गोयमा ! री Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णा 305 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संण्णाणपसंसा णेरइया सण्णी वि असण्णी वि नोसण्णी नोअसण्णी वि। एवं असुरकुमारा० जावथणियकुमारा। पुढविकाइयाणपुच्छा, गोयमा ! नो सण्णी असण्णी, नो नोसण्णी नो असण्णी, एवं बेइंदियतेइंदियचउरिंदिया वि मणुस्सा जहा जीवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया वाणमतराय जहाणेरड्या जोइसियवेमाणिया सण्णीनोअसण्णी,नो नोसन्नीनो असण्णी सिद्धाणं पुच्छा गोयमा! नो सण्णी नो असण्णी नोसण्णी नोअसण्णी / “णेरइयतिरियमणुया,य वणयरगसुराइसण्णीऽसण्णीय। विगलिंदिया असण्णी, जोइसवेमाणिया सण्णी॥१॥” (सू०३१५४) 'जीवा णं भंते ! किं सपणी' इत्यादि, संज्ञान संज्ञा--'उपसर्गादातः' / / 5 / 3 / 110 // इत्यजप्रत्ययः, भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां ते संझिनः, विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाज इत्यर्थः, यथोक्तमनोविज्ञानविकला असज्ञिनः, ते च एकेन्द्रियविकलेन्द्रियसम्मच्छिमपञ्चेन्द्रिया वेदितव्याः। अथवा-संज्ञायते-सम्यकपरिच्छिद्यते पूर्वो पलब्धो वर्तमानो भावी च पदार्थो यया सा सज्ञाभिदादिपाठाभ्युपगमात् करणे घञ् विशिष्टा मनोवृत्तिरित्यर्थः, सा विद्यते येषां ते सज्ञिनः समनस्का इत्यर्थः / तद्विपरीता असंज्ञिनोऽमनस्का इत्यर्थः ते चैकेन्द्रियादय एवानन्तरोदिताः प्रतिपत्तव्याः। एकेन्द्रियाणां प्रायः सर्वथा मनोवृत्तेरभावात्,द्वीन्द्रियादीना तु विशिष्ट मनोवृत्तेरभावः,ते हि द्वीन्द्रियादयो वार्तामानिक मेवार्थ शब्दादिकं शब्दादिरूपतया सविदन्ति,न भूतं भाविन चेति / केवली सिद्धश्चोभयप्रतिषेधविषयः। केवली हि यद्यषि मनोद्रव्यसम्बन्धभाक् तथापि न तैरसौ भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनं करोति, किन्तु क्षीणसकल-ज्ञानदर्शनावरणत्वात् पर्यालोचनमन्तरेणैव के वलज्ञानेन के वलदर्शनेन च साक्षात्समस्तं जानाति पश्यति च, ततो न संज्ञी नाप्यसंज्ञी, सकलकालकलाकलापव्यवच्छिन्नसमस्तद्रव्यपर्यायप्रपञ्चसाक्षात्कारणप्रवणज्ञानसमन्वितत्वात् / सिद्धोऽपि न संज्ञी,द्रव्यमनसोऽप्यभावात्, नाप्यसंज्ञी सर्वज्ञत्वात्, तवेदं सामान्यतो जीवपदे संझिनोऽसंज्ञिनो नोसंझिनोअसंज्ञिनश्च लभ्यन्ते इति भगवान् तथैव प्रतिसमाधानमाह'गौतमे' त्यादि, जीवाः सज्ञिनोऽपि नैरयिकादीनां संज्ञिनां भावाद्, असंज्ञिनोऽपि पृथिव्यादीनामसंज्ञिनां भावात्. नोसंज्ञिनोअसंज्ञिनोऽपि सिद्धके वलिना नोसंज्ञि-नो असं झिनामपि भावात् / एताने व चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयति- 'नेरइया ण' मित्यादि, इह ये नैरयिकाः संज्ञिभ्य उत्पद्यन्तेते संज्ञिनो व्यवयिन्ते इतरेत्वसंज्ञिनः नच नैरयिकाणां केवलिभावो घटते, चारित्रप्रतिपत्तेरभावात्,तत उक्तं नैरयिकाः संज्ञिनोऽप्यसंज्ञिनोऽपि, नो नोसंज्ञिनो नो असंज्ञिनः, एवमसुरकु मारादयोऽपि स्तनितकु मार-पर्यवसाना भवनपतयो वक्तव्याः, तेषामप्यसंज्ञिनोऽप्युत्पादात् केवलित्वाभावाच्च / 'मणूसा जहा जीव' ति-मनुष्याः प्राक् यथा जीवा उक्तास्तथा वक्तव्याः, संज्ञिनोऽपि असज्ञिनोऽपि नोसंज्ञिनोअ-संज्ञिनोऽपि वक्तव्या इति भावः / तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तास्ते संज्ञिनः सम्मूञ्छिमा असंज्ञिनः केवलिना नोसंज्ञिनो असंज्ञिनः, 'पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियवाणमंतरा जहा नेरइया' इति-पञ्चेन्द्रियतिर्यग-योनिका व्यन्तराश्च यथा नैरयिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, संज्ञिनोऽपि असंज्ञिनोऽपि नोसंज्ञि-नोअसंझिनो वक्तव्या इति भावः। तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः संमूर्षिछमा असंज्ञिनः गर्भव्युत्क्रान्ताः सज्ञिनः, व्यन्तरा असंज्ञिभ्य उत्पन्नाः असंज्ञिनः, संज्ञिभ्य उत्पन्नाः संज्ञिनः / उभयेऽपि चारित्रप्रतिपत्तेरभावावात् नो संज्ञिनोअसंज्ञिनः / ज्योतिष्क-वैमानिका संज्ञिन एव नोअसंज्ञिनः संज्ञिभ्य उत्पादाभावान्नो नोसंज्ञि-नो असंज्ञिनश्चारित्रप्रतिपत्तेर-भावात्, सिद्धास्तु प्रागुक्तयुक्तितो नो संझिनो नाप्यसज्ञिनः किंतु-नोसंझिनोअसंज्ञिनः / अत्रैव सुखप्रतिपत्तये संग्रहणिगाथा-माह- 'नरइए' इत्यादि, नैरयिकाः 'तिरिय' त्ति-तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाः मनुष्या वनचरा व्यन्तरा असुरादयः-समस्ता भवनपतयः प्रत्येकं संझिनोऽसंज्ञिनश्च वक्तव्याः, एतद्यानन्तरमेव भावितम्। विकलेन्द्रिया एकद्वित्रिचतुरिन्द्रिया असंज्ञिनो ज्योतिष्कवैमानिकाः संज्ञिन इति। प्रज्ञा०३१ पद। प्रव० / संकेते, नि० चू० 2 उ०। विषयाभिष्वङ्ग जनितसुखेच्छायाम्, परिगहसंज्ञायां च / आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ०। ('वणप्फई' शब्दे षष्ठ भागे 808 पृष्ठे उत्पलादिवनस्पतीनां संज्ञाद्वारम्।) (सामायिकसयतादयः किं संज्ञोपयुक्ताः इति 'संजय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे६६ पृष्ठे गतम्।) (निर्ग्रन्थाना संज्ञाद्वारम् 'णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे 2045 पृष्ठे उक्तम्।) (विप्रकृष्टष्वपि विषयेषु अविरतेः कर्मबन्धो भवतीति प्रतिपादनात् संज्ञयसंज्ञिदृष्टान्ता 'पराक्खाण' शब्दे 5 भागे 111 पृष्ठे उक्तौ / ) समयपरिभाषया पुरीपोत्सर्गे , 50 व० 1 द्वार (थंडिल शब्द चतुर्थभागे 2380 पृष्ठे तद्विधिरुक्तः।) *स्वर्णा स्त्री० उज्जयन्तशैले स्वनामख्यातायां नद्याम,ती०३ कल्प। (गाथा 'उज्जयंत' शब्दे द्वितीयभागे 735 पृष्ठे।) सण्णाकरण न० (संज्ञाकरण) संज्ञाविशिष्ट करणं संज्ञाकरणम्। सङ्केतकरणे, विशे०। आ० म०। सण्णाखंध पुं० (संज्ञास्कन्ध) संज्ञानिमित्ताऽवग्रहणात्मके प्रत्यये. सूत्र० 1 श्रु०१०१ उ०। सण्णाण न० (संज्ञान) सम्यग्ज्ञाने, षो०१३ विव०। उपयोगे अवधाने, आव०६ अ० / स्मृतावबोधे, आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / संज्ञा व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालभवे मतिविशेषे, स्था०१ ठा०। *स्वज्ञान न० स्वगतबोधे, पञ्चा० 12 विव०। संण्णाणपसंसा रत्री० (संज्ञानप्रशंसा) संज्ञानप्रशंसनमिति सद अविपर्यस्तं ज्ञानं यस्य स सज्ञानः पण्डितो जनः, सतो वा ज्ञानस्य सविवेचनलक्षणस्य प्रशंसन पुरस्कार इति। विद्वजनप्रशंसायाम, ध०। "तन्नेत्रस्त्रिभिरीक्षते न गिरिशो नो पद्मजन्माऽष्टभिः, Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संण्णाणपसंसा 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णिवाइय स्कन्दो द्वादशभिर्न वा न मघवा चक्षुःसहस्रेण च। संभूयापि जगत्त्रयस्य नयनैस्तद्वस्तु नो वीक्ष्य (क्ष) ते, प्रत्याहृत्यदृशः समाहितधियः पश्यन्ति यत्पण्डिताः१” इति। तथा "नो प्राप्यमभिवाञ्छन्ति, नष्ट नेच्छन्ति शोचितुम्। आपासु च न मुह्यति, नराः पण्डितबुद्धयः / / 2 / / न हृष्यत्यात्मनो माने,नापमाने च रुष्यति। गाङ्गो हद इवाक्षोभ्यो,यः स पण्डित उच्यते।।३।।" ध०१ अधि०। सण्णाणसंवेयवेरग्ग न० (संज्ञानसंवेगवैराग्य) एवं विज्ञाय तत्-त्यागश्च सर्वथा वैराग्यमाहुः / संज्ञानसङ्गततत्त्वदर्शन इत्युक्तलक्षणे वैराग्यभेदे, हा०१० अष्ट सण्णाणादुदय पुं० (संज्ञानाद्युदय) सम्यग्ज्ञानदर्शनादिनिर्वाणकार णोत्पत्तों, पञ्चा० 4 विव०। सण्णाणिव्वत्ति स्त्री० (संज्ञानिवृत्ति) संज्ञानिष्पती, भ० 16 श० 8 अ०। (संज्ञानिवृत्तिव्याख्या 'णिव्वत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 2120 पृष्टे उक्ता / ) सण्णाभूमि स्त्री० (संज्ञाभूमि) व्युत्सर्गभूमी, आचा०१ श्रु० 1 अ० 1 उ०। सण्णामुह न० (संज्ञामुख) पुरीषोचये, आ० म० 1 अ०। सण्णायग पुं० (सन्नायक) शोभने नायके, गृहस्वामिनि, नि० चू० 2 उ०। सण्णास पुं० (संन्यास) परित्यागे, नं०। सण्णासिद्धि स्त्री० (संज्ञासिद्धि) संज्ञानं संज्ञा रूढिरिति पर्यायाः। तया सिद्धिः सज्ञासिद्धिः। संज्ञासम्बन्धे, दश०१ अ०॥ सण्णासुत्त न० (संज्ञासूत्र) स्वसङ्केतपूर्वकं निबद्धे, सूत्र०१ श्रु०१०१ उ०। (वक्ष्यते 'सुत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे एतद्विवृतिः।) सण्णाह पुं० (सन्नाह) प्रहरणे खड़ादिके, स्था०६ ठा०३ उ०। औ०। सण्णि(ण) पुं० (संज्ञिन्) संज्ञानं संज्ञा भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यालोचनम् “उपसर्गादातः" / / 5 / 3 / 110|| सिद्धहेम० ) इत्यड प्रत्ययः / स विद्यते यस्य स संज्ञी "ब्रीह्यादिभ्यर हौ" ||72 / 5 / / (सिद्धहेम०) इतीन प्रत्ययः / विशिष्टसंवरणादिरूप-मनोविज्ञानभाजि प्राणिनि यः सम्यग् जानाति 'ईहापोहादिगुण-जुत्तो ति वुत्तं भवति' आo चू०१ अ० / कर्म० / दर्श०। पं० सं० / स्था० / आ० म० / औ०।। विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञान-सहितेन्द्रियपश्चकसमन्विते प्राणिनि, कर्म०३ कर्म०। नं०। ('अस-णि' शब्द प्रथमभागे 836 पृष्ठे दण्डक 3271) के संज्ञिनः के वा असंज्ञिन इति 'संण्णा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे अनुपदमेवोक्तम्।) संज्ञा गुरुदेवधर्मपरिज्ञानं सा विद्यते यस्य स संज्ञी। 101 उ०३ प्रक०: श्रावके, आव० 4 अ०। समानरकन्धजीवे, विशे०। नि० चू०। सण्णिओय पुं० [सन्नि (स्वनि) योग] स्वकीयव्यापारे,आगभरच-नादिके. पञ्चा०४ विव०। सण्णिक्खित्त त्रि० (सन्निक्षिप्त) न्यस्ते,स्था० 5 ठा०१ उ० / जगत्स्थितिस्वाभाव्येन सम्यगनिवेशिते, रा०। सण्णिकोसलय पुं० (संज्ञिकोशलक) कोशलश्रावके, व्य०१० 20 / सण्णिगब्भ पुं० (संज्ञिगर्भ) मनुष्यगर्भवसतौ, भ०१४ श०१० उ०। सण्णिगरिस पुं० (सन्निकर्ष) संबन्धे, सूत्र०१ श्रु. 12 अ० / संयोगे, “संजोग सन्निगासो पडुच्च संबन्ध एगट्ठा।” नं०। सण्णिगास पुं० (सन्निकाश) सदृशे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। आ० म०। रा०। “सन्निगासो नाम अब्भासो वा अववादो वा” पं० 150 4 कल्प। सपिणचय पुं० (सन्निचय) प्राचुर्य उपभोग्यद्रव्यनिचये, आचा० 1 श्रु० 2 अ०१ उ० / सम्यग निश्चयेन चीयते इति सन्निचयः / विनाशिद्रव्याणामभयासितामृद्वीकादीनां संग्रहे,आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। सण्णिचिय पुं० (सन्निचिय) प्रचयविशेषान्निविडीकृते, अनु०॥ सण्णिणाय पुं० (सन्निनाद) प्रश्न०। प्रतिशब्दे,औ०। सण्णिन्दा रत्री० (सन्निन्दा) सतां सत्पुरुषाणा साधुश्रावकप्रभृतीन निन्दा सन्निन्दा। सद्गस्याम्, षो०१ विव० / सण्णिपुव्वजाइसरण न० (संज्ञिपूर्वजातिस्मरण) संज्ञिनांसता या पूर्वजातिः-प्राक्तनो भवस्तस्या यत्स्मरणं तत्तथा / संज्ञिनां सता पूर्वभवस्य स्मरणे, औ०। सण्णिप्पवाय पुं० (सन्निप्रपात) संज्ञिनोऽवपतनस्थाने, स्था० 3 ठा०! सण्णिभ पुं० (सन्निभ) सदृशे,अष्ट०१ अष्ट०। त०। जं| सण्णिभूय पुं० (संज्ञिभूत) संज्ञिनःपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूता नारकत्वं गताः संज्ञिभूताः। पञ्चेन्द्रियेषु सत्सुनारके, भ०१श०२ उ०। सण्णिर त्रि० (सन्निर) पत्रशााके, दश०५ अ० 1 उ०। सण्णिरुद्ध त्रि० (सन्निरुद्ध) सम्यग् निरुद्धं सन्निरुद्धम्। आचा०२ श्रु० २चू०१ अ०। सूत्रकादिना अत्यन्तं नियन्त्रिते, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०४ उ01 उत्त०। सण्णिवयमाण त्रि (सन्निपतत्) गच्छति. आचा० 2 101 चू०१ अ०३ उ०। सण्णिवाइय पुं० (सान्निपातिक) संहतरूपतया नाऽसिनियतं पतनं गमनमेकत्र वर्तनं सन्निपातः, कोऽर्थ एषामेव दयादिसंयोगिप्रकारस्तेन निर्वृत्तः शान्निपातिकः / कर्म० 4 कर्म० / स्था० / पं० सं० भ० / सन्निपात एषामेवौदयिकादिभावानां द्व्यादिमेलापकः स एव, नेन वा निर्वृतः सान्निपातिकः / अनु० / पं० सं०। पञ्चानामपि भावाना द्विकादिसंयोगनिष्पन्ने भावभेदे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। अनु०॥ से किं तं सण्णिवाइए? सण्णि० एएसिं चेव उदइअउवस Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णिवाइय 307 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णिवाइय मिअखइअखओवसमिअपारिणामिआणं भावाणं दुगसंजोएणं तियसंजोएणं चउक्कसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे निप्फजइ सव्वे से सन्निवाइए नामे। तत्थ णं दस दुअसंजोगा दस तिअसंजोगा पंच चउक्कसंजोगा एगे पंचकसंजोगे। (सू० 1274) सन्निपातः-एषामेवौदयिकादिभावानां व्यादिमेलापकः, स एव तेन वा निर्वृत्तः सान्निपतिकः / तथा चाह-'एसिं चेवे' त्यादि, एषामौदयिकादीना पञ्चाना भावानां द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगैर्ये षड्विंशतिर्भङ्गाः भवन्ति ते सर्वेऽपि सान्निपातिको भाव इत्युच्यते / एतेषु मध्ये जीवेषु नारकादिषु षडव भङ्गाः सम्भवन्ति, शेषास्तु विशतिर्भङ्गका रचनामात्रेणैव भवन्ति / न पुनः क्वचित् सम्भवन्ति, अतः प्ररूपणामात्रतयैव ते अवगन्तव्याः / एतत् सर्वं पुरस्ताव्यक्तीकरिष्यते। कियन्तः पुनस्ते द्वयादिसंयोगाः प्रत्येकं सम्भवन्ति, इत्याह- 'तत्थ णं दस दुगसंजोगा' इत्यादि,पञ्चानामौदयिकादिपदाना दश द्विकसंयोगाः, दशैव त्रिकसंयोगाः पञ्च चतुःसंयोगाः, एकस्तु पञ्चकसंयोगः संपद्यत इति। सर्वेऽपि षड्विंशतिः। तत्र के पुनस्ते दश द्विकसंयोगा इति जिज्ञासायां प्राहएत्थ णं जे ते दस दुगसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे उदइए उवसमनिप्फण्णे 1 अत्थि णामे उदइए खाइगनिप्फण्णे 2 अस्थि णामे उदइए खओवसमनिप्फण्णे 3 अस्थि णामे उदइए पारिणामिअनिप्फण्णे 4 अत्थिणामे उवसमिए खयनिप्फण्णे 5 अस्थिणामे उवसमिए खओवसमनिप्फण्णे 6 अत्थि णामे उवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 7 अत्थि णामे खइए खओवसमनिप्फण्णेच अत्थिणामे खइएपारिणामिअनिप्फण्णे अत्थिणामेखओवसमिए पारिणामिअनिष्फण्णे 10 / कयरेसेनामे उदइए उवसमनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया, एस णं से नामे उदइए उवसमनिप्फण्णे 1, कयरे से नामे उदइए खयनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से खइयं सम्मत्तं / एस णं से नामे उदइएखयनिप्फण्णे 2, कयरे से णामे उदइए खओवस-मनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से खओवसमिआइं इंदिआई, एस णं से णामे उदइए खओवसमनिप्फण्णे 3, कयरे से णामे उदइए पारिणामिअनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से पारिणामिए जीवे एस णं से णामे उदइए पारिणामिअनिष्फण्णे 4, कयरे से णामे उवसमिए खयनिप्फण्णे? उवसंता कसाया खइयं सम्म-त्तं / एस णं से णामे उवसमिए खयनिप्फण्णे 5, कयरे से णामे उवसमिए खओवसमनिप्फण्णे? उवसंता कसाया खओवस-मिआई इंदिआई, एस णं से णामे उवसमिए खओवसमनिप्फण्णे 6, कयरे से णामे उवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे? उवसंता कसाया पारिणामिए जीवे, एस णं से णामि उवसमिए पारिणा मिअनिप्फण्णे ७,कयरे से णामे खइए खओवसमनिप्फण्णे? खइयं सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई। एस णं से णामे खइए खओवसमनिप्फण्णे 8, कयरे से णामे खइए पारिणामिअनिप्फण्णे? खइ सम्मत्तं परिणामिए जीवे / एस णं से णामे खइए पारिणामिअनिप्फण्णे, कयरे से णामे खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे? खओवसमिआइं इंदिआइं पारिणामिए जीये। एस णं से णामे खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 10 / (सू० 127) नामाधिकारादित्थमाह-अस्ति तावत्सन्निपातिकभावान्तर्वर्ति नाम। विभक्तिलोपादोदयिकौपशमिकलक्षणभावद्वयनिष्पन्नमित्येको भङ्गः, एवमन्य नाप्युपरितनभावत्रयेण सह संयोगादौ दयि के न चत्वारो द्विकसंयोगा लब्धाः, ततस्तत्परित्यागे औपश-मिकस्योपरितनभावत्रयेण सह चारणाया लब्धास्त्रयः तत्परिहारे क्षायिकस्योपरितनभावद्वयमीलनायां लब्धौ द्वौ, ततस्तं विमुच्य क्षायोपमिकस्य पारिणामिकमीलने लब्ध एक इति सर्वेऽपि दश। एवं सामान्यतो द्विकसंयोगभङ्ग केषु दर्शितषु विशेषतस्तत्स्वरूपमजानन् विनेयःपृच्छति- 'कयरे से णामे उदइए?' इत्यादि, अनोत्तरम्- 'उदइए ति मणुस्से' इत्यादि, औदयिके भावे मनुष्यत्वमनुष्यगतिरिति तात्पर्यम्, उपलक्षणमात्रं चेदं, तिर्यगादिगतिजातेशरीरनामादि-कर्मणामप्यत्र सम्भवाद् / उपशान्तास्तु कषाया औपशमिके भाव इति गम्यते, अत्राप्युदाहरणमात्रमेतत्, दर्शनमोहनीयनोकषायमोहनीय-योरप्यौपशमिकत्वसम्भवाद / एतनिगमयति- 'एस ण से णाम उदइए उवसमनिष्कण्णे' त्ति-'ण' मिति वाक्यालङ्कारे / एतत्तन्नाम यदुद्दिष्टं प्रागौदयिकोपशमिक- भावद्वयनिष्पन्नमिति प्रथमद्विकयोगे भङ्ग कव्याख्यानम् / अयं च द्विकयोगविवक्षामात्रत एव संपद्यते,न पुनरीदृशो भङ्गः क्वचिज्जीवे सम्भवति / तथाहि-यस्यौदयिकी मनुष्यगतिरोपशमिकाः कषाया भवन्ति तरय क्षायोपशभिकानीन्द्रियाणि पारिणामिक जीवत्व करयवित क्षायिक सम्यक्त्वमित्येतदपि सम्भवति, तत्कथमस्य के वलरय सम्भवः? एवमेतद्व्याख्यानुसारेण शेषा अपि व्याख्येयाः, केवलं क्षायिकपारिणामिकभावद्वयनिष्पन्न नवमभङ्ग विहाय परेऽसम्भविनो द्रष्टव्याः,नवमस्तु सिद्धरय सम्भवति, तथाहि-क्षायिके सम्यक्त्वज्ञान पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येतदेव भावद्वयं तस्यास्ति नापरः, तस्मादयमेकः सिद्धस्य सम्भवति, शेषास्तु नव द्विकयोगाः प्ररूपणामात्रमिति स्थितम्,अन्येषां हि संसारिजीवानामौदयिकी गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वमित्येतद्भावनयं जघन्यतोऽपि लभ्यत इति कथं तेषु द्विकयोगसम्भव? इति भावः। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णिवाइय 308 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णिवाइय त्रिकयोगानिर्दिदिक्षुराह-- सम्मत्तं / खओवसमियाई इंदिआइं पारिणामिए जीवे, एस तत्थ णंजे ते दस तिगसंजोगा तेणंइमेअत्थिणामे उदइएउवसमिए णं से णामे खइए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 10 / खयनिप्फण्णे 1, अत्थि णामे उदइए उवसमिए खओवसम- | (सू०१२७) निप्फण्णे२, अस्थि णाामे उदइए उवसमिए पारिणा-मिअनिप्फण्णे एतदप्यौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिक भाव३, अत्थि णामे उदइए खइए खओवसमनिप्फण्णे 4, अस्थि णामे पशकं भूम्यादावालिख्य तत आद्यभावद्वयस्योपरितनभ वत्रयेण सह उदइए खइए पारिणामिअनिप्फण्णे 5, अस्थि णामे उदइए चारणाया लब्धास्त्रय इत्यादिक्रमेण दशाऽपि भावनीयाः, एतानेव खओवसमिए पारिणामिअनिष्फण्णे 6, अत्थिणामे उवसमिए खइए स्वरूपतो विवरीषुराह- 'कयरे से णामे उदइए उवसमिए' इत्यादि, खओवसमनिप्फण्णे 7, अस्थि णामे उवसमिए खइए व्याख्या पूर्वानुसारतोऽत्रापि कर्त्तव्या,नवरमत्रौदयिक क्षायिकपारिणापारिणामिअनिप्फण्णे 8, अस्थि णामे उवसमिए खओवसमिए मिकभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः केवलिनः सम्भवति, तथाहिपरिणामिअनिप्फण्णे 6, अत्थि णामे खइए खओवसमिए औदयिकी मनुष्यगतिः, क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, पारिणामिक पारिणामिअनिप्फणे 10 / कयरे से णामे उदइए उपसमिए तु जीवत्वमित्येते त्रयो भावास्तस्य भवन्ति, औपशमिकरित्वह नास्ति, मोहनीयाश्रयत्वेन तस्योक्तत्वात्, मोहनीयस्य च केवलिन्यसम्भवात्। खयनिष्फण्णे? उदइएत्तिमणुस्सेउवसंता कसाया खइअंसम्मत्तं। एसणं से णामे उदइए उवसमिए खयनिप्फण्णे१, कयरे से णामे तथा क्षायोपशमिकोऽप्यत्रापास्य एव क्षायोपशमिकानामिन्द्रियादि पदार्थानामस्यासम्भवाद्, 'अतीन्द्रियाः केवलिन' इत्यादिवचनात्, उदइए उपसमिए खओवसमियनिष्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से तस्मात् पारिशेष्याद्यथोक्तभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भगः केवलिनः उवसंता कसायाखओवसमिआइंइंदिआई, एसणं से णामे उदइए सम्भवति, षष्ठस्त्वौदयिकक्षायोपशमिक पारिणामिकभावनिष्पन्नो उवसमिए खओवसमनिप्फण्णे 2, कयरे से णामे उदइए उवसमिए नारकादिगतिचतुष्टयेऽपि संभवति। तथाहि-औदयिकी अन्यतरा गतिः, पारिणामिअनिप्फपणे? उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वमित्येवमेतद्भाववयं पारिणामिए जीवे , एस णं से णामे उदइए उपसमिए सर्वास्वपि गतिषु जीवानां प्राप्यत इति, शेषास्त्वष्टौ त्रिकयोगाः प्ररूपणापारिणामिअनिप्फण्णे 3, कयरे से णामे उदइए खइए मात्रम्, क्वाप्यसम्भवादिति भावनीयम्। खओवसमनिप्फण्णे? उदइए ति मणुस्से खइअं समत्तं चतुष्कसंयोगान्निर्दिशन्नाहखओवसमिआइं इंदिआई / एस णं से णामे उदइए खइए तत्थ णं जे ते पंच चउकसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे खओवसमनिप्फण्णे 4, कयरे से णामे उदइए खइए पारिणामि उदइए उवसमिए खइए खओवसमनिप्फण्णे 1 अत्थि णामे अनिप्फण्णे? उदइएत्ति मगुस्से खइअंसम्मत्तं पारिणामिएजीवे, उदइए उवसमिए खइए पारिणामिअनिप्फण्णे 2 अस्थि णामे एसणं सेनामे उदइएखइएपारिणामिअनिप्फण्णे 5, कयरे से णामे उदइए उपसमिए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 3 अस्थि उदइए खओविसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से णामे उदइए खइए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे४ अत्थि खओवसमिआईइंदिआई पारिणामिए जीवे, एसणं से णामे उदइए णामे उवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 5 / खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 6, कयरे से णामे उवसमिए कयरे से णामे उदइए उवसमिए खइए खओवसमनिप्फण्णे ? खइए खओवसमनिप्फण्णे? उवसंता कसाया खइ सम्मत्तं उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइयं सम्मत्तं खओवखओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे उवसमिए खइए समिआई इंदिआई। एस णं से णामे उदइए उवसमिए खइए खओवसमनिप्फण्णे 7, कयरे से णामे उवसमिए खइए खओवस-मनिप्फण्णे 1, कयरे से नामे उदइए उवसमिए खइए पारिणामिअनिप्फण्णे? उवसंता कसाया खइअंसम्मत्तं पारिणामिए पारिणामि-अनिष्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया जीवे, एस णं से णामे उवसमिए खइए पारिणामिअनिष्फण्णे 8, खइ सम्मत्तं पारिणामिए जीवे / एस णं से नामे उदइए कयरे से णामे उवसमिए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे? उवसमिए खइए पारिणामि-अनिफण्णे 2, कयरे से णामे उवसंता कसाया खओवसमिआइं इंदिआइंपारिणामिए जीवे, एस उदइए उवसमिए खओवस-मिए पारिणामिअणिफण्णे? णं से णामे उवसमिए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे , कयरे उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाया खओवसमिआइं इंदिआई से णामे खइए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे? खइ | पारिणामिए जीवे / एस णं से णामे उदइए उवसमिए ख Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णिवाइय 306 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समिणसिज्जा - ओव० पारिणा० 3, कयरे से णामं उदइए खइए खओवसमिए चतरराष्वपि गतिषु सम्भवन्तीति निर्णीतम्, अतो गतिचतुष्टयभेदात् ते पारिणामिअनिप्फण्णे? उदइए त्ति मणुस्से खइ सम्मत्तं किल द्वादश वक्ष्यन्ते, ये तु शंषा द्विकयोगात्रिकयोग -पशकयोगखओवसमिआइंइंदिआइंपारिणामिएजीवे। एसणं से नामे उदइए लक्षणारत्रयो भङ्गाः सिद्धकेवल्युपशान्तमोहानां यथाक्रमं निर्णीताः ते खइए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे 4, कयरे से णामे यथोक्तकैकर थानसम्भवित्वात त्रय एवेत्यनया विवक्षायाऽयं सान्निपाउवसमिए खइए खओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे? उवसंता तिको भावः स्थानान्तरे पञ्चदशविध उक्ता द्रष्टव्यः / यदाह-- कसायाखइअंसम्मत्तं खओवसमिआईइंदिआई पारिणामिए जीवे। 'अविरुद्धरान्निवाइयभेया एमेव पण्णरस' त्ति, 'रुसं सण्णिवाइए' त्ति एसणं से नामे उवसमिए खइएखओवसमिए पारिणामिअनिप्फण्णे निगमनम। उक्तः सान्निपातिको भावः,तगणन चोक्ताः षडपि भावाः, 5 / (सू०१२७४) ते च तद्वा-चकनामभिर्विना प्ररुपयितुं न शक्यन्त इति तद्वाचकाभङ्ग करचना अकृच्छ्रावसेयैव / इदानी तान्येव पच भगान् व्या- न्यादयिकादीनि नामान्यप्युक्तानि / एतेश्वषभिरपि धर्मास्तिकायादेः चिख्यासुराह- 'कयर से नामे उदइए' इत्यादि भावना पूर्वाभि- समस्तस्यापि वस्तुनः संग्रहात् षट्प्रकारं सत् सर्वस्यापि वस्तुनो नाम हितानुगुण्येन् कर्त्तव्या, नवरमत्रौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिक-- पण्णामेत्यनया दिशा सर्वमिदं भावनीयम्। अनु० / स्था०। सूत्र० / आ० पारिणामिक नावनिष्पन्नस्तृतीयभङ्गो गतिचतुष्टयेऽपि सम्भवति, . म० भ०! आचा। सन्निपातजन्ये, त्रि० / 0 / औदायिकादिपचभावतथाहि-औदयिकी अन्यतरा गतिः नारकतिर्यग्देवगतिपु प्रथम रामकालनिष्पादित, आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ० ('भाव' शब्दे षष्टभाग सम्यक्त्वलाभकाले एव उपशमभावो भवति, मनुष्यगतौ तु तत्री उदाहरणान्तरमपि। पशमश्रेण्या चौपशमिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि सण्णिवाय मुंआ (सन्निपात) अपरापरस्थानेभ्यो जनानाभेकत्र भीलने. पारिणामिकं लीवत्वमित्येवमयं भङ्गकः सर्वासु गतिषु लभ्यते / यत्विह औ०। ज्ञा० / वातादित्रयसंयोगे,प्रश्र० 5 संव० द्वार / भ०। औ० / चूत्र प्रोक्ता:-. 'उदइए त्ति मणुस्से उवसंता कसाय' त्ति-तत्तु द्वित्रिभावाना रायागे, आ० म०१ अ० / मेलापके,सूत्र०२ श्रु० 6 अ० मनुष्यगत्यपेक्षसैव द्रष्टव्यम, मनुष्यत्वोदयस्योपशमश्रेण्या कपायोपश वृ० / स्था० / औदयिकादिभावानागेव व्यादिरांयागे, उत्त० 1 अ०। मस्य च तस्य मेव भावाद् / अस्य चोपलक्षणमात्रत्वादिति, एवमौदयि अनन्त रोकतादिभावाना मेलके, अनु०ा समवाये, स्था० 4 ठा०४ उ० / कक्षायिक क्षायोपशनिकपारिणामिकभावनिष्प-नश्चतुर्थभाइोऽपि सपिणविट्ठ त्रि० (सन्निविष्ट) सम्यक् स्वशरीरानाबाधया न तु चतुसृष्वपि गतेषु सम्भवति, भावना त्वनन्त-रोक्ततृतीयभङ्ग कवदेव विषमसर यानन निविष्टाः रान्निविष्टाः / जी०३ प्रति० 4 अधि० / कर्तव्या, नवमीपशमिकसम्यक्त्वस्थाने क्षायिकसम्यक्त्वं वाच्यम, अभिनिविष्ट, प्रश्न०५ आश्र० द्वार / सम्यक निश्चलता आपत्परिहारेण अस्ति च क्षायकसम्यक्त्वं सर्वास्वपि गतिषु, नारकतिर्यग्देवगतिषु च निविष्ट, आ० म०१ अ० / प्रश्न० / जं०। रा०। निवेशिते, विपा० पूर्वप्रतिपन्नस्राव / मनुष्यगतौ तु पूर्वप्रतिपन्नस्य प्रतिपद्यमानकस्य च 1 श्रु० 3 अ० / ज्ञा०। औ० / सन्निवेशपाटके, रा०। आवसिते, आचा० तस्यान्यत्र प्रतिपादितत्वादिति, तरभादत्राप्येताद्वी भड़का राम्भगिनी, 20101 अ०३ उ०। शेषास्तु त्रयः संवृतिमात्रम्. तद्रूपण वस्तुन्धसम्भवादिति। सण्णिवेस 50 (सन्निवेश) यात्राद्यर्थसमागतजनावासे, जनसमागमे च। साम्प्रत पक्षकसंयोगमेकं प्ररूपयन्नाह आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। उत्त० स्थाने, आचा०१ श्रु०६ अ० तत्थ णं जे से एक्के पंचगसंजोए से णं इमे-अत्थि नामे उदइए 1 उ० / यत्र प्रभूताना भण्डानां प्रवेशः स सन्निवेशः। स्था० 5 ठा०१ उवसमिए खओवसमिए खइए पारिणामिअनिप्फण्णे 1, कयरे से उ० / कटकादीनामावासे,ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। स्था०। सूत्र० / औ०। णामे उदइएउवसमिएखइएखओवसमिए पारिणामिअनि-प्फण्णे? घोषादी, अनु०। भ०। औ०। सन्थावास-णत्थाणं सण्णिवेसो गामो वा उदइए त्तिमणुस्से उवसंता कसाया खइअंसम्मत्तं खओवसमिआई पीडितो सनिविट्ठा जतागतो वा लोगो सन्निविट्ठो सो सण्णिवेसं भण्णति। इंदिआइं पारिणामिए जीवे / एस णं से णामे जाव पारिणामिअनिप्फण्णे। सेतं सन्निवाइए। (सू० 127) नि० चू०१२ उ०। अयं च सविवरणः सुगम एव, केवलं क्षायिकः सम्यग्दृष्टिः सन् यः सण्णिसज्जा स्त्री० (सन्निषद्या) सच्छोभनाः सुखोत्पादकतयाउपशमश्रेणी प्रतिपद्यते तस्यायं भड़कः सम्भवति, नान्यस्य, उनुकुलत्वान्निपद्या इव निषद्याः / स्त्रीभिः कृतायां मायायाम, स्त्रीवसती समुदितभावपशकस्यास्य तत्रैव भावादिति परमार्थः / तदेवभेको च। "तम्हा समणा ण समेति आयहियाए सन्निसेजाओ।" सूत्र०१ श्रु० द्विकसंयोगभङ्गको द्वौ द्वौ त्रिकयोगचतुष्कयोगभङ्गकावेकस्त्वयं पञ्चकयोगे 4 अ०१उ०। इत्येत षड़ भङ्ग का अत्र सम्भविनः प्रतिपादिताः, शेषास्तु विंशतिः सण्णिसण्ण त्रि० (सन्निषण्ण) सङ्गततया निषण्णम् / सुखासीने, भ० सयोगोन्थानमात्रतयैव प्ररूपिता इति स्थितमा एतेषु च षट्भङ्ग केषु 7 श०१० उ० / रा०। मध्ये एकरि कसंयोगो द्वौ चतुष्कसंयोगावित्येते वयोऽपि प्रत्येक | सण्णिसिज्जा वी० (सन्निषद्या) शोभानाया निषद्यायाम, व्य०१ उ०। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णिसिज्जा 310 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णिसुय *स्वनिषद्या स्त्री० स्वकीयायां निषद्यायाम, व्य० 4 उ०। सण्णिसुय न० (संज्ञिश्रुत) संज्ञाः विद्यन्तेयेषाते संज्ञिनः पर सर्वत्राप्यागमे दीर्घकालिक्या संज्ञया संज्ञिनस्ते संज्ञिन उच्यन्ते। ततः संजिनां श्रुतं संज्ञिश्रुतम् / समनस्काना मनः सहितैरिन्द्रियैर्जनिते श्रुतज्ञाने, कर्म० 1 कर्म०। से किं तं सण्णिसुअं? सण्णिसुयं (अं)तिविहं पण्णत्तं,तं जहाकालिओवएसेणं हेऊवएसेणं दिट्ठिवाओवएसेणं / से किं तं कालिओवएसेणं? कालिओवएसेणं जस्सणं अत्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसणा चिंता वीमंसा से णं सपणीति लब्मइ। जस्सणं नऽत्थिईहा अवोहो मग्गणा गवसणा चिंता वीमंसा से णं असन्नीति लब्भइ। सेतं कालिओवएसेणं से किं तं हेऊवए-सेणं? जस्सणं अत्थि अभिसंधारणपुट्विआ करणसत्ती से णं सण्णीति लब्भइ, जस्सणं नऽस्थि अभिसंधारणपुट्विआ करणसत्ती से णं असण्णीति लब्भइ, से तं हेऊवएसेणं / से किं तं दिट्ठिवाओवएसेणं ? दिट्ठिवाओवएसेणं सण्णिसुअस्स खओ-वसमेणं सण्णी लब्भइ, असिण्णसुअस्स खओवसमेणं असण्णी लब्भइ। से तं दिट्ठिवाओवएसेणं / से तं सण्णिसुअं। से तं असण्णिसुअं। (सू०३६।) 'से किं त' मित्यादि,अथ किं तत्संज्ञिश्रुतम् ? संज्ञानं संज्ञा साऽस्यास्तीति संज्ञी तस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतम्।आचार्य आह-संज्ञिश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञप्तम् संज्ञिनस्त्रिभेदत्वात्, तदेव त्रिभेदत्वं सझिनो दर्शयति। तद्यथाकालिक्युपदेशेन 1 हेतूपदेशेन 2 दृष्टिवादो-पदेशेन 3 // तत्र कालिक्युपदेशेनेकत्यत्रादिपदलोपाद्दीर्घकालिक्युपदेशेनेति द्रष्टव्यम्। 'से कि त' मित्यादि अथ कोऽयं कालिक्युपदेशेन संज्ञी ? इह दीर्घकालिकी संज्ञा कालिकीति व्यपदिश्यते, आदिपदलोपादुपदेशनमुपदेशः-कथनमित्यर्थः, दीर्घकालिक्या उपदेशः-दीर्घकालिक्युपदेशरतेन, आचार्य आह–कालिक्युपदेशेन संज्ञी स उच्यते यस्य प्राणिनोऽस्ति विद्यते ईहासदर्थपर्यालोचनभपोहो-निश्चयो मागणाअन्वय-धर्मान्वेषणरूपा गवेषणा-व्यतिरेकधर्मस्वरूपपर्यालोचन चिन्ता-कथमिदं भूतं कथं चेदं सम्प्रति कर्त्तव्यं कथं चैतद्भविष्यतीति पर्यालोचन विमर्शन विमर्श:इदमित्थमेव घटते इत्थं वा तद्भुतमित्थमेव वा तद्धावीति यथावस्थितवस्तुस्वरूपनिर्णयः, स प्राणी 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे संज्ञीति लभ्यते। स च गर्भव्युत्क्रान्तिकपुरुषादि रोपपातिकश्च देवादिर्मनः पर्याप्तियुक्तो विज्ञेयः, तस्यैव त्रिकालविषयचिन्ता-विमर्शादिसम्भवाद्, आह च भाष्यकृद्-'इह दीहकालिगि-कालिगित्ति सन्ना जया सुदीह पि। समभरइ भूयमेस्सं, चिंतेइ य किहणुकायव्वं / / 1 / / ' कालियसन्नि त्ति तओ, यस्स मई सो य तो मणोजोगे। खंधेऽणते घेत्तुं, मन्नइ तलद्धिसंपत्तो॥२॥" एष च प्रायः सर्वमप्वर्थं स्फुटरूप-मुपलभते, तथाहि-यथा चक्षुष्मान् / प्रदीपादिप्रकाशेन स्फुटमथ-सुपलभते तथैषोऽपि मनोलब्धिसम्पन्नो / मनोद्रव्यावष्टम्भसमुत्थ-विमर्शवशतः पूर्वापरानुसन्धानेन यथावस्थित स्फुटमर्थमुपलभते, यस्य पुनर्नास्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिन्ता विमर्शः सोऽसंज्ञीति लभ्यते, स च संमूञ्छिमपञ्चेन्द्रियविकलेन्द्रियादिर्विज्ञेयः स हि स्वल्प-स्वल्पतरमनोलब्धिसम्पन्नत्वादस्फुटभस्फुटतरमर्थं जानाति / तथाहि- संज्ञिपञ्चेन्द्रियापेक्षया संमूछिमपवेन्द्रियोऽस्फुटमर्थ जानाति, ततोऽप्यस्फुट चतुरिन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतरं त्रीन्द्रियः, ततोऽप्य-स्फुटतभं द्वीन्द्रियः, ततोऽप्यस्फुटतममेकेन्द्रियः तस्य प्रायो मनोद्रव्यासम्भवात्, केवलमव्यक्तमेव किञ्चिदतीवाल्पतरं मनोद्रष्टव्यं, यदशादाहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुःष्यन्ति, 'सेत्त' मित्यादि, सोऽयं कालिक्युपदेशेन संज्ञी। ‘से किं त' मि त्यादि, अथ कोऽयं हेतूपदेशेन संज्ञी? हेतुः कारणं निमित्तमित्यनर्थान्तरम, उपदेशनमुपदेशः हेतोरुपदेशनं हेतूपदेशस्तेन कि-मुक्त भवति!, कोऽयं संज्ञित्वनिबन्धहेतुमुपलभ्य कालिक्युपदे-शेनासयपि संज्ञीतिव्यवह्रियते, आचार्य आह-हेतूपदेशेन संज्ञा यस्य प्राणिनोऽस्तिविद्यतेऽभिसन्धारणम्-अव्यक्तेन व्यक्तेन वा विज्ञ'नेनालोचन तत्पूर्विकातत्कारणिका करणशक्तिः-करणं क्रिया तस्यां शक्तिःप्रवृत्तिः,स प्राणी णमिति वाक्यालङ्कारे, हेतुपदेशेन संज्ञीति भण्यते, एतदुक्त भवति-यो बुद्धिपूर्वक स्वदेहपरिपालनार्थ-मिष्वाहारादिषु वस्तुषु प्रवर्तते अनिष्टभ्यश्च निवर्त्तते स हेतूपदेशेन सज्ञी, स च द्वीन्द्रियादिरपि वेदितव्यः, तथाहि-इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्ति सञ्चिन्तनं न मनोव्यापारमन्तरेण सम्भवति,मनसा पर्यालोचनं संज्ञा, सच द्वीन्द्रियादेरपि विद्यते, तस्यापि प्रतिनियतेष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिदर्शनात ततो द्वीन्द्रियादिरपि हेतुपदेशेन संज्ञी लभ्यते,नवरमस्य चिन्तनं प्रायो वर्तमानकालविषयं न भूतभविष्यद्विषयमिति न कालिक्यपदेशेन सज्ञी लभ्यते / यस्य पुनर्नारस्यभिसन्धारणापूर्विका करणशक्तिः स प्राणी, णमिति वाक्यालङ्कारे, हेतूपदेशेनाप्यसंज्ञी लभ्यते,स च पृथिव्यादिरेकेन्द्रियो वेदितव्यः, तस्याभिसन्धिपूर्वकमिष्टानिष्ट प्रवृत्तिनिवृत्त्यसम्भवात, या अपि चाहारादिसंज्ञाः पृथिव्यादीनां वर्तन्तेत अप्यत्यन्तमव्यक्तरूपा इति तदपेक्षयाऽपि न तेषां संज्ञित्वव्यपदेशः / उक्तं च भाष्यकृता “जे पुण संचिंतेउं, इटाणिठेसु विसयवत्थुसु। वत्तंति नियत्तति य, सदेहपरिपालणाहेउ।।१।।पाएणसंपइचिय, कालम्मिनयाइदीह-कालण्णू / ते हेउवायसण्णी, निच्चिट्ठा होति अस्सण्णी // 2 // " अन्यत्रापि हेतूपदेशेन संज्ञित्वमाश्रित्वोक्तम्-'कृमिकीटपतङ्गाद्याः, समनस्का जड़माश्चतुर्भेदाः / अमनस्काः पञ्च-वधाः, पृथिवीकायादयो जीवाः // 1 // ' 'सत्त' मित्यादि, सोऽयं हेतूपदेशेन संज्ञी। 'से किंत' मित्यादि। अथ कोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी? दृष्टिदर्शनसम्यक्त्वादिवदनवादःदृष्टीनांचादोदृष्टिवादस्तदुपदेशन, तद Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णिसुय 311 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सण्णिहिसण्णिचय पक्षयेत्यर्थः, आचार्य आह.-दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमेन सन्निधिं न कुर्यातसंशी लभ्यते,संज्ञानं सज्ञा---सभ्यगज्ञानं तदस्यास्तीति (स) संज्ञी- सण्णिहिं च न कुग्विजा, लेवमायाइ संजए। सन्यगदृष्टिस्तर य यच्छुत तत्संज्ञिश्रुत, सम्यक श्रुतमिति भावार्थः,तस्य पक्खी पत्तं समादाय, निरविक्खो परिव्वये / / 16 / / क्षयोपशमेन त दावारकस्य कर्मणः क्षयोपशमभावेन संज्ञी लभ्यते, च-पुनःसंयतः-साधुर्लेपमात्रयाऽपि संनिधि न कर्यात लेपस्य मात्रा किमुक्तं भवति - सम्यग्दृष्टिः क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो दृष्टिवादोपदेशेन लेपमात्रा तया लेपमात्रया सम्-सम्यक् प्रकारण निधीयते-स्थाप्यते संज्ञी भवति, स च यथा-शक्ति रागाऽऽदिनिग्रहपरो वेदितव्यः स हि दुर्गती आत्मा येन स सन्निधिः-घृतगुडादिसंचयस्तं न कुर्यात, यावता सम्यगदृष्टिः सम्यग्ज्ञानी वा यो रागादीन निगृह्णाति, अन्यथा पात्रं लिप्यते तावन्गात्रमपि घृतादिक न संचयेत् / भिक्षुराहारं कृत्वा पात्रं 'हताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्यभावतः सम्यग्दृष्टित्वाद्ययोगात, उक्तं च-- समादायपात्रं गृहीत्वा निरपेक्षः सन-निःस्पृहः सन परिव्रजेत्'तज्ज्ञानमेव' न भवति, यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः / तमसः साधुमार्गे प्रवर्तेत / क इव-पक्षी इव यथा पक्षी आहार कृत्वा पक्षकुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ? ||1 // " अन्यस्तु तनूर हमात्र गृहीत्या उड्डीयते तथा साधुरपि कुक्षिसंबलो भवेत् / / 16 / / मिथ्यादृष्टिरसंझो,तथा चाह- 'असंज्ञिश्रुतस्य मिथ्याश्रुतस्य क्षयोपशमे- उत्त०७ अ०। सन्निधिश-ब्दवक्तव्यता 'वयछक्क' शब्दे षष्ठे भागे गता।) नासज्ञीति लभ्यते, 'से त' मित्यादि निगमनं, सोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन सन्निहिं च न कुट्विज्जा, अणुमायं पिसंजए। संज्ञी / तदेवं संझिनस्त्रिभेदत्वात् श्रुतमपि तदुपाधिभेदात् मुहा जीवी असंबद्धे,हविज जगनिस्सिए|२४|| त्रिविधमुपन्यस्तम्। अवाह-ननु प्रथम हेतूपदेशेन संज्ञी वस्तुं युज्यते, सन्निधिं-प्रागनिरूपितस्वरूपां न कुर्यात् अणुमात्रभपिस्तोकमपि हेनुपदेशेनालामनोलब्धिसम्पन्नस्यापि द्वीन्द्रियादेः संज्ञित्वेनाभ्यु- संयतः- साधुरतथा मुधाजीवीति पूर्ववत्, असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवत् चमतत्वात् तस्य चाविशुद्धतरत्वात्, ततः कालिक्युपदेशन, गृहस्थः एवंभूतः सन् भवेत जगन्निश्रितश्चराचरसंरक्षणे प्रतिबद्धः / इति हे तूपदेशसंज्ञापक्षया कालिक्युपदेशेन संझिनो मनःपर्याप्तियुक्ततया सूत्रार्थः / दश०८ अ०३ उ०। (सन्निधिव्याख्या 'भिक्खु शब्दे पञ्चमभागे विशुद्ध वात, तत्किमर्थमुत्क्रमोपन्यासः? उच्यते,इह सर्वत्र सूत्रे यत्र १५६८--पृष्ठ गता।) (तथा सन्निधिव्याख्या 'रायपिंड' शब्दे षष्ठे भागे वचित् संज्ञी असंझी या परिगृह्यत तत्र सर्वत्रापि प्रायः कालिक्युपदेशेन 554 --पृष्ठे गता।) (तथा 'आरंभ' शब्दे द्वितीयभागे 365 पृष्ठे गता।) गृह्यते न हेतूपाशेन,नापि दृष्टिवादोपदेशेन तत एतत्सम्प्रत्ययार्थ प्रथम (तथा 'परिगह' शब्दे पञ्चमभागे 553 पृष्ठे गता!) ( 'पडिसेवणा' शब्दे कालिक्थुपदेशन संझिनो ग्रहणम् / उक्तं च- "सन्नित्ति असन्निति रात्रिभोजनस्य दर्पिकाप्रतिसेवनप्रस्तावे सन्निधिदोष उक्तः।) "नयश्चीयसबसुए क लिओवरसण / पाय संववहारों, कीरइ तेणाइ सकओं दामिनेऽर्थाग,सन्निधत्तेऽशनादिकम्।” आगामिनेऽर्थाय श्वः परश्यो वा / / 1 / / " लतोऽनन्तरमप्रधानत्वाद्धेतूपदेशन संझिनो ग्रहणम्, ततः सर्वप्र- भाविने प्रयोजनाय सन्निधत्ते साधुः / द्वा०२७ द्वा०। धानत्वादन्ते दृष्टिवाटोपदेशेनेति 'से त्ति' मित्यादि, तदेतत्संज्ञि- न सण्णिहिं कुव्वइ आसुपन्ने। (25+) श्रुतम असंज्ञिश्रुतमपि प्रतिपक्षाभिधानादेव प्रतिपादितम्। तत आह- तथा सन्निधान सन्निधिः स च द्रव्यसन्निधिः धनधान्यहिरण्यपद'सतं असन्निर सुअं' तदेतदसतिश्रुतम् / नं०! चतुप्पदरूपो, भावसन्निधिस्तु मायाक्रोधादयो वा सामान्येन सण्णिसे जागय त्रि० ( सन्निषद्यागत) राती नाम शोभना स्वकीया वा कषायास्तम्भयरूपमपि सन्निधिं न करोति भगवाँस्तथाऽऽशुप्रज्ञः सर्वत्र निषद्या सन्निषद्या तस्यां गतः। सन्निषद्योपविष्ट, व्य०४ उ०। सदोपयोगात्रछदास्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते। सूत्र० सण्णिह त्रि० (सन्निभ सदृशे. प्रज्ञा०२ पद। 1 श्रु०६ अ०। (सन्निधिव्याख्या 'आत?' शब्दे द्वितीयभागे 158 पृष्ठे सपिणहाण F0 (सन्निधान) सन्निधीयते आधीयते यस्मॅिरतत्स- गता।) निधान्म,अन० / सन्निधीयत क्रियाऽस्मिन्निति सन्निधानम्। आधारे, | सन्निहिय त्रि० (सन्निहित) अशेषिते विशे० / दाक्षिणात्यानाअथाः 88:0320 / सम्यग् निधीयते नारकादिगतिषु येन माज्ञप्तिकानामिन्द्रे, स्था० 2 टा०३ उ०। सत्सन्निधाना / कम्भणि, आचा० 1 श्रु०८ अ०३ उ०। रान्निधिः सण्णिहियपाडिहेर पुं० (सन्निहितप्रातिहार्य) सन्निहितं प्रतिहार्य सन्निधानम् / वरत्रादेयंवस्थाने.सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। प्रतिहारकर्म सान्निध्यं देवेन यस्य स तथा / भ०१४ श० 8 उ० / सण्णिहि पुं० (सन्निधि) सम्यकप्रकारेण निधीयते-स्थाप्यते दुर्गती | विहितदेवताप्रतिहार्ये, औ०।। आत्मायेन स सन्निधिः। संचये,उत्त०६ अ० / दश०। विनाशिद्रव्याणां / सण्णिहिसण्णिचय पुं० (सन्निधिसन्निचय) सन्निधानं सन्निधिस्तस्य या दनाद ना स्थापने, आचा० 1 श्रु० 2 अ० 5 उ० / सन्निचयः सन्निधिसन्निचयः, अथवा--सम्यग् निधीयते स्थाप्यते उपवैशियाहारसग्रहस्य संचये, सूत्र०१ श्रु०१६ उ० / व्य० / गोरसादेः भोगाय योऽर्थःस सन्निधिस्तस्य सन्निचयः, प्राचुर्यमुपभोग्यम् / द्रव्यसन्निवय, निशायमशनादिधारण ग०२ अधि०। निचरा, आचा० 1 श्रु०२ अ० १७०।सम्यगभिधीयत इति सन्निधिः, विनाशित Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सण्णिहिसण्णिचय 312 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्त द्रव्याणां दध्योदनादीनां तथा सम्यग् निश्चयेन चीयते इति सन्निचयः। | शतपत्त न० (शतपत्र) दलशतकलिते कमले, जं०१ वक्ष०। रा०ा भ०। विनाशिद्रव्याणामभयासितामृद्वीकादीनां संग्रहे, आचा० 1 श्रु०२ अ० सतवाइया स्त्री० (सप्तपादिका) त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। 5 उ०। सतारुक न० (शतारुक) क्षुद्रकुष्ठभेदे, प्रश्न०५ संव० द्वार। सह स्त्री० (श्लक्ष्ण) “सूक्ष्म-श्न-ठण-स्न-ह-हु-क्ष्णां ण्हः” | सति खी० (स्मृति चिन्तने, स्था० 4 ठा० 1 उ०। ।।८।२।७५|अनेनात्र क्ष्णस्य णकाराक्रान्तो हकारादेशः। सह। प्रा०। सतिगिच्छा त्रि० (सचिकित्सा)प्रतिक्रियोपेते, पञ्चा०१६ विव०। मसृणे,स० / सू०प्र० / चं० प्र० / श्लक्ष्णपुगलस्कन्धनिष्पन्ने, सतेरा स्त्री० (शतेरा) विदिग्रुचकवास्तव्यायां तृतीयकुमारीमश्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् / प्रज्ञा०२ पद / जी० / रा०। ज० / श्ल- हत्तरिकायाम, जं०५ वक्ष०। आ० क० / आ० म०। विद्युत्कुमारक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिःप्रदेशे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। महत्तरिकायाम, आव०१ अ०। औ० स्था०! *सूक्ष्म त्रि० "सूक्ष्म-श्न -ष्ण-स्न-ह-ह-क्षणां पहः" ||8/275 / / | सतोरणवर त्रि० (सतोरणवर) तोरणवरसहिते,रा०। जी०। अनेनात्र सूक्ष्मशब्दसबन्धिनःक्ष्मस्य णकाराक्रान्तो हकारादेशः। सह। सत्त त्रि० (शक्त) समर्थे , विशे० / स्या० / अहोरात्रस्य द्वितीये मुहूर्ते, प्रा०। “अदूतः सूक्ष्मे वा" ||8 / 1 / 18|| अनेनात्रोकारस्य वैकल्पिकः स०३सम०। आचा०। अदादेशः / सोहं ।सुग्रहं / प्रा० / अणुपरिमाणवति,अल्पे च / वाचा *सक्त त्रि० (सुखदुःखेषु बद्धे, आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ० / सूत्र०। मृदुलघुस्पर्श, प्रज्ञा०२ पद। गृद्धे, सूत्र०१ श्रु०१अ०१3०।आचा०ाअध्युपपन्ने, सूत्र०१ श्रु०१० सण्हकरणी स्त्री०(श्लक्ष्णकरणी) श्लक्ष्णनि चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते अ०।रते, आचा०। तत्परे, आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ०। लग्ने, सूत्र० यस्यां सा श्लक्ष्णकरणी। पेषणशिलायाम्, भ०१६ श०३३० १श्रु०१० उ० / उत्त०। रा०। सण्हपट्ट पु० (श्लक्ष्णपट्ट) श्लक्ष्णं पट्टवृत्ति पट्टसूत्रम् / श्लक्ष्ण *सत्त्व न० (उत्पादव्ययधौव्ययुक्ततारूपायां विद्यमानतायाम, दश० पट्टमये,कल्प०१ अधि०२क्षण। 1 अ० / अने० / अनु० / विशे०। दर्श०। जन्तौ. सूत्र० 1 श्रु०११ अ०। सण्हपट्टभत्तिसयचित्तताणगा स्त्री० (श्लक्ष्णपट्टभक्तिसतचित्तताण) आचा० / सत्तायोगात् सत्त्वाः / स्था० 4 ठा० 2 उ० / “जम्हा सत्ते श्लक्ष्णपट्टसूत्रमयो भक्ति तच्चित्रस्थानको यस्यां सा तथा। घनमसृण सुहासुहेहि कम्मेहिं तम्हा सत्ते वि वत्तव्य सियाआसक्तः शक्तो वा विविधचित्रायां शाटिकायाम्, भ०११ श०३ उ०। समर्थः, सुन्दरासुन्दरासुचेष्टासु / अथवा-सक्तरसम्बद्धः शुभाशुभैः सण्हबायरपुढवीकाइय पुं० (श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायिक) पृथ्वी कर्मभिरिति / भ०२ श०१ उ०। आ० चू० / प्राणिनि,ज्ञा०१ श्रु०१६ कायिकभेदे, जी0। “सण्हबायरपुढविकाइया" जी०१ प्रति०। ('पुढवी अ०। सूत्र० / जीवे, विशे० / आव०“प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ता, भूतास्तु काइय' शब्दे पञ्चमभागे 673 पृष्ठे व्याख्या गता।) तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्त्वा इतीरिताः / / 1 / " सण्हामच्छ पुं० (श्लक्ष्णमत्स्य) मत्स्यभेदे, विपा०। इति वनस्पति-व्यतिरिक्तेषु एकेन्द्रियेषु, स्था०५ ठा०२ उ०। ज्ञा०। सत पुं० (सप्त) 'तदोस्तः' |84307 // इति पैशाच्या तस्य तः। सता जी०। आचा०। संख्याभेदे, प्रा०४ पाद। सतका स्त्री० (सतर्का) स्वकीयमिथ्यात्वविकल्पे, बृ०१ उ०२ प्रक० / "सत्तविराहणपावं, असंखगुणियंतु इमभूयस्स। सतंत त्रि० (स्वतन्त्र) आत्मायत्ते, स्वतन्त्रः कर्ता / विशे० / स्वकार्यकर्तत्व भूयस्स य संखगुणं, पावइ इक्कस्स पाणस्स // 1 // प्रत्यपरनिरपेक्षे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। स्वसिद्धान्ते, नि० चू०११ उ०। बेइंदिय तेइंदिय, चउरिदिय चेति तह य पंचिंदी। सतंतअविरुद्ध त्रि० (स्वतन्त्राविरुद्ध) स्वतन्त्रस्वसिद्धान्त-स्तरिम लक्खसहस्सं तह सय-गुणं च पाव मुणेयव्वं / / 2 / / " नविरुद्धम् / स्वसमयाविरुद्धे, नि० चू०११ उ० / इति गाथाद्वयं कस्मिन् ग्रन्थे विद्यते?, "सत्तविराहणपावमि" त्यादिसतंतविरुद्ध त्रि० (स्वतन्त्रविरुद्ध) स्वसमयविरुद्धे, यथासर्वत्र सर्वकालं गाथाद्वयं छूटकपत्रेषु लिखितं दृश्यते परं न वापि ग्रन्थे। ही०२ प्रका०। नास्त्यात्मति। "अध सव्वत्थ सव्वकालं नऽस्थि आया तो सततविरुद्धं तिर्यड् नरामरलक्षणेषु संसारिजीवेषु, आचा०१ श्रु० 6 अ०५ उ०। भन्नति" नि० चू०१ उ०। दैन्यविनिर्मुक्ते मानसेऽवष्टम्भे, अनु०। सामर्थ्य , ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। सतत न० (सतत) अविच्छिन्ने, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अनवरते, सूत्र० | साहसे, जं०३ वक्ष०ा वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्ये आत्मपरि१ श्रु०१२ अ०॥ णामे, आ० म०१ अ०। प्रभूततरभाषणे पवर्द्धभाने आन्तर उत्साहसतन न० (सदन) “तदोस्तः" ||846307 / / पैशाच्याम् अनेनात्र विशेषे, बृ०५ उ० / परीष। हादिसहने रणाङ्गणे वा अवष्टम्भे स्था० 4 दकारस्य तकारादेशः। सतनम् गृहे, प्रा० 4 पाद। ठा० 3 उ० / प्राणव्यपरोपणसमर्थविद्याप्रयोगे व्यवसिते तन्मानोपमर्दहती सतत्तचिंता स्त्री० (स्वतत्त्वचिन्ता) स्वरूपचिन्तने, पञ्चा० 1 विव०।। अवष्टम्भे व्य०१उ० Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्त 313 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तणाम सत्त त्रि० (सप्तन) सात संख्याभेदे, नि० चू०१ उ० ज० / स०। / संत्तंग न० (सप्ताङ्ग) राजामात्याऽ 1 मात्यगृहाऽ २र्थलाभ ३कोश 4 राष्ट्र 5 दुर्ग 6 सैन्य 7 लक्षणे सप्तावयवे राज्ये, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सत्तंगपइट्ठिय त्रि० (सप्ताङ्ग प्रतिष्ठित) सप्ताङ्गानि चत्वारः पादाः करः पुच्छं शिरनं चेति, एतानि प्रतिष्ठितानि भूमौ लग्नानि यस्य तत्तथा / सप्तभिः पादादिभिर्भूमी लग्ने, उपा०२ अ०। सत्तंत न० (सत्तन्त्र) सच्छास्त्रे, प्रति०। सत्तकप्प पुं० (कप्तकल्प) सप्तविधकल्पे, पं० भा०। सत्तविहकप्पमेत्तो, वोच्छामि अहकमेणंतु। ठितमट्टितजिणथेर-लिंग उवही तहेव संभोगे॥ एसो तु सत्तकप्पो,णेयव्यो आणुपुव्वीए। पं०भा०१ कल्पापं०५०। सत्तखेत्ती स्त्री० (सप्तक्षेत्री) सप्ताना क्षेत्राणां समाहारः समक्षेत्री। जिनबिम्बादिसप्तके,सप्तक्षेत्र्या धनवापः। ध०। सप्तानां क्षेत्राणां समाहारः सप्तक्षेत्री, जिनबिम्ब 1 भवना२ऽऽगम 3 साधु 3 साध्वी 5 श्रावक 6 श्राविका 7 लक्षणा तस्या वित्तस्यधनस्य श्रावकाधिकारान्न्यायोपात्तस्य वापोविकरणं तच विशेषतो गृहिधर्मो भवतीति योज्यम् / एवमग्रेऽपि स्वयमूह्यम् / क्षेत्रे हि बीजस्य वपनमुचि तमित्युक्तं वाप इति। वपनमपि क्षेत्रे उचितं नाऽक्षेत्रे इति सप्तक्षेत्र्यामित्युक्तम्। क्षेत्रत्वं च सप्तानां रूढमेव वपनं व सप्तक्षेत्र्या यथोचितस्य द्रव्यस्य भक्त्या श्रद्धया चाध०२ अधिक। सत्तग पुं०(सप्तक) सप्तपरिमाणस्य सप्तकः। सप्तावयवे, व्य०४ उ०। सत्तगइय पुं० (सप्तगतिक) मृतानां सप्त गतयः-अण्डजादियोनिलक्षणा येषां ते सप्तगतयः / मृत्वा सप्तसु गतिषु उत्पत्स्यमानेषु, स्था० 7 ठा० ३उ०। सत्तघर न० (सप्तगृह) जीवानुशासनकारस्य जिनदत्तसूरेर्निवासस्थाने, जी०१ प्रतिः। सत्तघरंतर न० (सप्तगृहान्तर) सप्तगृहमध्ये, कल्प० 3 अधि०६क्षण। सत्तघरंतरिय पुं० (सप्तगृहान्तरिक) राप्तगृहाण्यन्तरं भिक्षाग्रहणे यस्य स सप्तगृहान्तरिकः / सप्तर गृहाण्यतिक्रम्यभिक्षाग्रणाभिग्रहे, औ०। सत्तच्छद पुं० (सप्तच्छद) सप्तपर्णवृक्षे,विशे० / “अजुअल (प) वण सत्तच्छय" पाइ० ना०२५७ गाथा। सत्तट्ठाणणिव्वत्तिय पुं० (सप्तस्थाननिर्वर्तित) सप्तकारनिष्पादिते, स्था० 7 ठा०३ उ०। सत्तट्ठिसट्ठिखंडिय त्रि० (सप्तषष्टिखण्डित) सप्तषष्टिप्रविभागीकृते, ज्यो०६ पाहु०। सत्तणउइ स्त्री० (सप्तनवति) सप्ताधिकायां नवतिसंख्यायाम, स०। सत्तणाम न० (सप्तनाम) सप्तानामर्थानामभिधायके, नामनि, अनु०। / से किं तं सत्तनामे? सत्तनामे सत्त सरा पण्णत्ता, तं जहासज्जे रिसहे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे। रेवए चेव नेसाए,सरा सत्त विआहिआ।।१।। 'स्व' शब्दोपतापयोरिति स्वरणानि स्वराः-ध्वनिविशेषाः, ते च सप्त, तद्यथा- 'सज्जे' त्ति श्लोकः, व्याख्या-षड्भ्यो जातः षड्जः, उक्तं च- 'नासां कण्ठमुरस्तालु, जिह्वां दन्ताँश्च संश्रितः। षड्भिः संजायते यस्मात, तस्मात्, षड्ज इति स्मृतः।।१।।' तथा ऋषभो-वृषभस्तद्वत् यो वर्तते स ऋषभः, आह च-“वायुः समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः / नर्दन वृषभवद्यस्मात्,तरमादृषभ उच्यते॥२॥" तथा गन्धो विद्यते यस्य स गन्धारः, स एव गान्धारो; गन्धवाहविशेष इत्यर्थः, अभाणि च - "वायुः समुत्थितो नाभेर्हदि कण्ठे समाहतः। नानागन्धवहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना॥३॥" तथा मध्ये कायस्य भवो मध्यमः, यदवाचि"वायुः समुत्थिता नाभेरुरोहृदि समाहतः / नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते / / 4 / / " तथा पशाना षड्जा-दिस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः, अथवा-पञ्चसुनाभ्यादिस्थानेषु मातीति पञ्चमः स्वरः, यदभ्यधायि- "वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहृत्कण्ठशिरोहतःनवाऽक्षरो*यं पादः / पञ्चस्थानोत्थितस्यास्य, पश्चमतत्वं विधीयते / / 5 / / " तथाऽभिसन्धयतेऽनुसंधयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवशालैंवतः, यदुक्तम्-- "अभिसंधयते यरमादेतान् पूर्वोदितस्वरान् / तस्मादस्य स्वरस्यापि, धैवतत्वं विधीयते॥६॥" पाठान्तरेण रक्तश्चैवेति, तथा निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः, -यतोऽभिहितम्"गिषीदन्ति स्वरा यस्मिन्निषादस्तेन हेतुना / सर्वाश्चाभिभवत्येव, यदादित्योऽस्य दैवतमत्॥७॥” इति, तदेवं स्वराः-जीवाजीवनिश्चितध्वनिविशेषाः 'सत्तवियाहिय' त्ति विविधप्रकारैराख्यातास्तीर्थकरगणधरैरिति श्लोकार्थः / आह-ननु कारणभेदेन कार्यस्य भेदात् स्वराणां च जिहादिकारणजन्यत्वात् तद्वतां च द्वीन्द्रियादित्रसजीवानामसंख्येयत्वाज्जीवनिसृता अपि तावत् स्वरा असंख्याताः प्राप्नुवन्ति किमुताजीवनिसृता इति कथं सप्तसंख्या नियमो न विरुध्यत इति? अत्रोच्यते, असङ्घ यातानामपि स्वरविशेषाणामतेष्येव सप्तसु सामान्यस्वरेष्वन्तभर्भावाद बादराणां वा केषाश्चिदेवोपलभ्यमानविशिष्टव्यक्तीनां ग्रहणादीतोपकारिणां विशिष्ट स्वराणां वक्तुमिष्टत्वाददोष इति / स्वरान्नामतो निरूप्य कारणतस्तानेवाभिधित्सुराहएएसिणं सत्तण्हं सराणं सत्तसरहाणा पण्णत्ता। तंजहा सजंच अग्गजीहाए, उरेण रिसह सरं। कंग्गएणं गंधारं, मज्झजीहाएमज्झिमं||२|| Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तणाम 314 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तणाम नासाए पंचमं बूआ, दंतोटेण अरेवतं / भमुहक्खेवेण। णेसाह, सरट्ठाणा विआहिआ॥३।। सत्त सराजीवणिस्सिआपण्णत्ता, तं जहा- “सजं रवइ मऊरो, कुक्कुडो रिसभं सरं / हंसो रवइ गंधारं,मज्झिमंच गवेलगा।।४|| अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं संर। छ8 च सारसा कुंचा, नेसायं सत्तमंगओ॥५॥ सत्तसरा अजीवनिस्सिआ पण्णत्ता,तं जहा सजं रवइ मुअंगो, गोमुही रिसह सरं / संखो र बइ गंधारं, मज्झिमं पुण झल्लरी // 6|| चउसरणपइट्ठाणा, गोहिआ पंचमं सरं। आडंबरो रेवइयं, महाभेरी अ सत्तमं॥७॥ तत्र नाभेरुत्थितोऽविकारी स्वर आभोगतोऽनाभोगता वा यदा जिह्लादिस्थान प्राप्य विशेषमासादयति, तत् स्वरस्योपकारकमतः स्वरस्थानमुच्यते, त्र 'सञ्ज' मित्यादिश्लोकद्वयं सुगमम् नवरं चकारोऽवधारणे, षड्जमेव प्रथमस्वरलक्षणं ब्रूयात्, कयेत्याह--अग्रभूता जिह्वा अग्रजिह्वा जिह्वाग्रमित्यर्थस्तया, इह यद्यपि षड्जभणने स्थानान्तराण्यपि काण्ठादीनि व्याप्रियन्ते अग्रजिहा च स्वरान्तरेषु शानियत लथापि सा तत्र बहुव्यापारवतीति कृत्वा तया तमेव यादित्युक्तम् / इदमत्र हृदयम्-- षड्जस्वरोऽग्रजिहां प्राप्य विशिष्टा श्यक्तिभागदयत्यत:तदपेक्षया सा स्वररथानमुच्यते, एवमन्यत्रापि भावना काय। उरो-वक्षस्तेन ऋषभं स्वरम् ब्यादिति सर्वत्र सम्बध्यते। 'कादग्गएण' दि. कण्टादुदमनमुद्रगतिः स्वरनिष्पत्तिहेतुभूता क्रिया तेन काटोदतेन गान्धारम, जिहाया मध्यो भागो मध्यजिहा तया मध्यमम्, था दन्ता च दलोहं तेन वत रेवतं वेति: भूत्वोपावहाभन निषादमिति। इतऊ सर्व निगसिद्धमेव, नवरं जीवनिस्सिय तिजीवाश्रिताः जीवभ्यो वा निस्ता--निर्गताः, 'सज रवई' त्यादिश्लोकः, खदिनदति गलत गावश्च एलकाश्च--ऊरणकाः गवेलकाः, अथवा गवेलकाः ऊरणका एक, 'अह कुसुम' त्यादि, अर्थति विशेषणार्थी, विशेषणार्थता वयापागवलका अविशेषेण मध्यमस्वरं नन्दन्तिन तथा पञ्चाम काफिलः, आप वनस्पतिषु बाहुल्यन कुसुमानां-- मल्लिकापाटलादीना यस्मिन् काले सतथा तस्मिन, मधुमारा इत्यर्थः / 'अजीवनिारयति-तथव, नवर-मीवष्वपि मृदङ्गादिषु जोवव्यापारी थापिता एव... मन्तव्याः, अपरं षड्जादीना मृदङ्गादिषु यद्यपि नासाकण्या पन्नास व्युत्पत्त्यर्थी न घटते तथापि सादृश्यात् तद्भाव वानी : 'सत मित्यादिश्लोकद्वयग, गोसुखी काहला यस्य मुख गालिटी इति, भिश्वरः प्रतिमानम् अवस्थानं भुवियस्याः सः गांधा मानछा गाधिकाया विशेषा / दर्दरिकत्यारनाम्ना प्रसिद्धा, आडम्बर:--पटहः, साममिति निवामित्यर्थः। एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तं जहासज्जेण लहई वित्तिं,कयं च न विणस्सइ। गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होइ वल्लहो / / 8 / / रिसहेण उ एसज्ज (पसेज), सेणावचं धणाणि अ। वत्थगंधमलंकार, इथिओ सयणाणि य ||6|| गंधारे गीतजुत्तिण्णा, वज्जवित्ती कलाहिआ। हवंति कइणो धण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा // 10 // मज्झिमस्सरमंता उ, हवंति सुहजीविणो। खायई पियई देह, मज्झिमस्सरमस्सिओ।।११।। पंचमस्सरमंता उ, हवंति पुहवीपई। सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणनायगा / / 12 / / रेवयस्सरमंता उ, हवंति दुहजीविणो। कुचेला य कुवित्ती य, चोरा चंडालमुट्ठिया / / 13 / / णिसायस्सरमंता उ, होंती कलहकारगा। जंघाचरा लेहवाहा, हिंडगा भारवाहगा / / 14 / / एतेषां सताना स्वराणा प्रत्येक लक्षणस्य विभिन्नत्वात् सप्त स्वरलक्षणानि यथास्वं फलप्राप्त्यव्यभिचारीणि स्वरतत्वानि भवन्ति, तान्येव फलत आह-- 'सज्जणे' त्यादि सप्त श्लोकाः / षड्जेन लभते वृत्तिम, अयमर्थः--षड्जस्वदं लक्षणं-- स्वरूपमस्ति येन तस्मिन् सति वृत्तिंजीवनं लभते प्राणी, एतच्च मनुष्यापेक्षया लक्ष्यते. वृत्तिलाभादीनां तव घटनात, कृतं च न विनश्यति, तस्येति शेषः, निष्फलाभो न भवतीत्यर्थः, गावः पुत्राश्च मित्राणि च भवन्तीप्ति शेषः / धारे गीतयुक्तिज्ञा वर्यवृत्तयः -प्रधानजीविकाः कलाभिरधिकाः कवयः काव्यकर्तारः प्राज्ञाः सदोधाः ये चोक्तेभ्यो गीतयुक्तिज्ञा दिभ्योऽन्ये -- शास्त्रपारगा: चतुर्वदाशिास्त्रपारगामिनस्ते भवन्तीति / कुनेन श्येनलक्षणेन चरन्ति पापर्धि कुर्वन्ति शकुनान वा घन्तीति शाकुनिकाः, बागुरा--मृगवन्धन राया चरन्तीति वागुरिकाः, शूकरण सन्निहितेन शूकरवधार्थ चरन्ति शूकरान वा प्रन्तीति शौकरिकाः माष्टिका मल्ला इति / पाठान्तराण्यशुक्तानुसारेण व्याख्येयानि। एएसिंणं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णत्ता,तं जहा-सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे / सज्जगामस्सणं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-मग्गी कोरविआ हरिया, रयणी असारकंता य। छट्ठी असारसी नाम, सुद्धसज्जा यसत्तमा॥१५|| मज्झिमगामस्सणं सत्त मुच्छणाओ, पण्णत्ताओ, तंजहाउत्तरमंदाररयणी, उत्तरा उत्तरासमा ।समोक्तायसोवीरा, अभिरूपा होइ सत्तमा॥१६||गंधारणामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नंदी अ खड्डिआ पूरिमा य Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तणाम 315 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तमंगी चउत्थी असुद्धगंधारा | उत्तरगंधारावि अ, सा पंचमिआ हवइ मुच्छा / / 17 / / सुठुत्तरमायामा, सा छट्ठी सव्वओ य णायव्या। अह उत्तरायथा कोडिमा य सा सत्तमी मुच्छा।।१८।। एतचिरन्तनमुनिगाथाभ्यां व्याख्यायते-- “सज्जाइतिहागामो, ससमूहो मुच्छणाण विन्नेओ / ता सत्त एक्कमेक्के, तो सत्तसराण इगवीसा / / 1 / / अन्नन्नसरविसेसे, उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया। कत्ता व मुच्छिओ इव, कुणई मुच्छवसोवति / / 2 / / कर्ता वा मूर्छित इव ताः करोतीति मूछना उज्यन्ते, 'मुच्छ वा सो व त्ति' मूर्च्छन्निव वा स कर्त्ता ताः करोतीति मुर्छना उच्यन्त इत्यर्थः / मङ्गीप्रभृतीना चैकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषाः पूर्वगतस्वरप्राभृते भणिताः, इदानीं तु तद्विनिर्गतभ्यो भरतविशाखिलादि-शास्त्रिभ्यो विज्ञेया इति / अनु० / (सप्तस्वरात्पत्त्यादिव्याख्या गीय' शब्दे तृतीयभागे 601 पृष्ठे गता।) सत्ततंतु पुं० (समतन्तु) यज्ञ, “अद्धरा सत्ततंतुणो जन्ना" पाइ० ना० 135 गाथा सत्तपण्ण पुं० सप्तपर्ण) सप्तच्छदे, अनु० / सप्तपर्णपोये वृक्षविशषं, ओ० / रा०। प्रज्ञा०। सत्तपरिग्गहियत्त न० (सत्त्वपरिग्रहीतत्त्व) ओजस्वितारूपस त्यवचनातिशथे, रा० सत्तपरिवज्जिय त्रि० (सप्तपरिवर्जित) सत्वरहित, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / सत्तभङ्गी स्त्री० (समभङ्गी) भज्यन्ते-भिद्यन्ते अर्था येस्ते भङ्गा सप्तानां भङ्गानां समाहारः समभङ्गी। सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासे, रत्ना० 8 परि० / स्थ। अनन्तरमन-तधर्मात्मकत्वं वस्तुनि साध्यं मुकुलितमुक्तम, तदेव सप्तभड़ीप्रमाणद्वारेण प्रपञ्चयन् भगवतो निरतिशयं वचनातिशयं च स्तुवन्नाहअपर्ययं वस्तु समस्यमान-मद्रव्यमेतच विविध्यमानम्। आदेशभेदोदितसप्तभङ्ग-मदीदृशस्त्वं बुधरूपवेद्यम्।॥२३॥ समन्यमानं सक्षेपेणोच्यमानं वस्तु. अपर्ययमविवक्षितपर्यायम, वसन्ति गुणपर्याया अस्मिन्निति वस्तुधर्माधर्माऽऽकाशपुद्गल-काल-जीवलक्षण द्रव्यषटकम्। अयमभिप्रायः--यदैकमेव वस्तु आत्मघटादिक चेतनाऽचेतनं सतामपि पर्यायाणामविवक्षया द्रव्यरूपमेव वक्तुभिष्यते तदा संक्षपणाऽभ्यन्तरीकृतसकलप-यायनिकायत्वलक्षणे नाभिधीयमानत्वात् अपर्ययमित्युपदिश्यते-के वलद्रव्यरूपमेव इत्यर्थः, यथाऽऽत्माऽयं घटोऽयमित्यादि ; पर्यायाणा द्रव्याऽनतिरेकात्, अत एव द्रव्यास्तिकनयाः शुद्धसंग्रहादयो द्रव्यमात्रमेवेच्छन्ति, पर्यायाणा तदविप्वगभूतत्वात् / पर्ययः, पर्थवः,पर्याय इत्यनर्थान्तरम् / अद्रव्यमित्यादि-चः पुनरर्थे , स च पूर्वस्माद् विशेषद्योतने भिन्नक्रमश्व विविध्यमानं चेति, विवेकेन पृथगरूपतयोच्यमानं पुनरेतद वस्तु अद्रव्यमेव-अवेवक्षितान्वयिद्रव्यं केवलपर्यायरूपमित्यर्थः / यदाह्यात्मा ज्ञानदर्शनादीन् पर्यायानधिकृत्य प्रतिपर्यायं विचार्यते तदा पर्याया एव प्रतिभासन्ते,न पुनरात्माख्यं किमपि द्रव्यम्। एवं घटोऽपि कुण्डलौष्ठपृथुबुनोदरपूर्वापरादिभागाद्यवयवापेक्षया विविच्यमानः पर्याया एव, न पुनर्धटाख्य तदतिरिक्तं वस्तु / अत एव पर्यायास्तिकनयानुपातिनः पठन्ति-- "भागाएव हि भासन्ते, सन्निविष्टास्तथा तथा तद्वान् नैव पुन: कश्चिन्निर्भागः संप्रतीयते // 1 // " इति / ततश्च द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वेऽपि वस्तुना द्रव्यनयार्पणया। पर्यायनयाऽनर्पणया च द्रव्यरूपता, पर्यायनयार्पणया द्रव्यनयाऽनर्पणया च पर्यायरूपता, उभयनयार्पणया च तदुभयरूपता। अत एवाऽऽह वाचकमुख्यः- “अर्पितानर्पितसिद्धेः" इति। एवंविधं द्रव्यपर्याधात्मक वस्तु त्वमेवाऽदीदृशस्त्वमेव दर्शितवान, नान्य इति काक्वाऽवधारणाऽवगतिः। नन्वन्याभिधानप्रत्यययोन्यं द्रव्यम्, अन्याभिधानप्रत्ययविषयाश्च पर्यायाः। तत्कथमेकमेव वस्तूभयात्मकम्? इत्याशङ्कय विशेष-णद्वारेण परिहरति-आदेशभेदत्यादि--आदेशभेदेन-- सकलादे-शविकलादेशलक्षणेन आदेशद्वयन, उदिताः-प्रतिपादिताः, सप्तसंख्या भङ्गावचनप्रकारा यस्मिन् वस्तुनि तत्तथा। ननु यदि भगवता त्रिभुवनबन्धुना निविशेषतया सर्वेभ्य एवंविधं वस्तुत-चमुपदर्शितम्, तर्हि किमर्थतीर्थान्तरीयाः तत्र विप्रतिपद्यन्ते? इत्याह- “बुधरूपवेधम्" इति-बुध्यन्ते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वं सारेतरविषयविभागविचारणया इति बुधाः, प्रकृष्टा बुधा बुधरूपा नैसर्गिकाऽऽधिगमिकाऽन्यतरसम्यग्दर्शनविशदीकृतज्ञानशालिनः प्राणिनः तैरेव वेदितुं शक्यं वेद्य परिच्छे धम् / न पुनः स्वस्वशास्त्रतत्त्वाभ्यासपरिपाकशाणानिशातबुद्धिभिरप्यन्यैः / तेषामनादिमिथ्यार्दशनवासनाषितमतितया यथावस्थितवस्तुतत्वाऽनवबोधेन बुधरूपत्वाभावात्। (स्या०1) अथ केडमी सप्तभङ्गाः? कश्वायमादेशभेद इति? उच्यते- एकत्र जीवादी वस्तुनि, एककसत्पादिधर्मविषयप्रश्नवशाद अविराधेन प्रत्यक्षादिवाधापरिहारण, पृथग्भूतयाः समुदितयोश्च विधिनिषेधयोः पालोचनया कृत्वा स्याच्छन्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणः सप्तभिः प्रकारेचनविन्यासः सलमड़ीलि गीयते ।तद्यथा--१स्यादरत्येव सर्वमिति विधिकल्पनया प्रथनो भङ्गः / २-स्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषे-धकल्पनथा द्वितीयः।३-स्यादस्त्येव स्यानास्त्येवेतिक्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः। 4 स्यादवक्तव्यमेवेति युगपदि-धिनिषेधकल्पनया चतुर्थः / 5 स्यादस्त्या स्यादवक्तध्यमवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः / - स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः / ७--स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनिषेधकल्पनया, युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च सप्तमः। तत्र-स्यात्कथंचित् स्वद्रव्यक्षत्रकालभावरूपेणाऽस्त्यव सर्व कुम्भादि, न पुनः परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण, तथाहि-कुम्भो द्रव्यतः पार्थिवत्वेनाऽरित, नाssयादिपत्वेन। तः पाटलिपुत्रकत्वन न कान्यकुब्जादित्येन / कालसः शशिरत्वन, वासन्तिकादित्वना भावतः श्यामत्वन, न रक्तादित्वेन। अन्यथतररूपापत्त्या स्वरूपहानिप्रस, इति / अबधारण चात्र भङ्ग ऽनभितार्थवावृत्य-- Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तभंगी 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तभंगी र्थमुपात्तम्, इतरथा अनभिहिततुल्यतैवास्त वाक्यस्य प्रसज्ज्येत, प्रतिनियतस्वार्थाऽनभिधानात् / यदुक्तम्-“वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये। कर्त्तव्यमन्यथाऽनुक्त-समत्वात् तस्य कुत्रचित्।।१।।" तथाऽप्यस्त्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रोपादाने कुम्भस्य स्तम्भाद्यस्तित्वेनाऽपि सर्वप्रकारेणाऽस्तित्वप्राप्तः प्रतिनियतस्वरूपानुपपत्तिः स्यात् / तत्प्रतिपत्तये 'स्याद्' इति शब्दः प्रयुज्यते। स्यात्कथंचित स्वद्रव्यादिभिरेवाऽयमस्ति, न परद्रव्यादिभिरपीत्यर्थः / यत्राऽपिचासीन प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफलैवकारवद् बुद्धिमद्भिः प्रतीयत एव / यदुक्तम्"सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्झैः, सर्वत्राऽर्थात्प्रतीयते / यथैवकारोऽयोगादि व्यवच्छेदप्रयोजनः / / 1 / / " इति प्रथमो भगः / स्यात्कथंचिद् नास्त्येव कुम्भादिः, स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रय्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वाऽनिष्टो हि प्रतिनियतस्वरूपाऽभावाद् वस्तुप्रतिनियतिर्न स्यात् / न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्धमिति वक्तव्यम् , कथंचित तरय | वस्तुनि युक्तिसिद्धत्वात्, साधनवत्। न हि क्वचिद् अनित्यत्यादी साध्ये सत्त्वादिसाधनस्यास्तित्वं विपक्षे नास्तित्व-मन्तरेणोपपन्नम, तस्य साधनत्वाऽभावप्रसङ्गात्। तस्मात् वस्तुनोऽस्तित्वं नास्तित्वेनाऽविनाभूतम्, नास्तित्वं च तेनेति। विवक्षावशाचाऽनयोः प्रधानोपसर्जनभावः / एवमुत्तरभङ्गेष्वपि ज्ञेयम्- “अर्पिताऽनर्पितसिद्धेः” इति वाचकवचनात् / इति द्वितीयः। तृतीयः स्पष्ट एव / द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वधर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयाऽर्पिताभ्याम्, एकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्याऽसंभवाद्, अवक्तव्यं जीवा दिवस्तु, तथाहिसदसत्त्वगुणद्वयं युगपद् एकत्र सदित्यनेन वक्तुमशक्यम्: तस्याऽसत्त्व - प्रतिपादनाऽसमर्थत्वात, तथाऽसदित्यनेनाऽपि तस्य सत्त्वप्रत्यायनसामर्थ्याऽभावात्। न च पुष्पदन्तादिवत् साङ्केति-कमेकं पदं तद् वक्तु समर्थम, तस्याऽपि क्रमेणार्थद्वयप्रत्यायने सामोपपत्तेः,शतृशानयोः संकेतितसच्छन्दवत; अत एव द्वन्द्वकर्मधारयवृत्त्योर्वाक्यस्य चन तवाचकत्वम्, इति सकलवाचकरहितत्वाद् अवक्तव्य वस्तु युगपत्सत्वाऽसत्त्वाभ्यां प्रधानभावाप्र्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते / न च सवर्थाऽवक्तव्यम; अवक्तव्यशब्देनाप्यनभिधेयत्वप्रसङ्गात् / इति चतुर्थः। शेषा--स्त्रयः सुगमाभिप्रायाः / न च वाच्यमेकत्र वस्तुनि विधीयमाननि-षिध्यमानाऽनन्तधर्माभ्युपगमेनाऽनन्तभङ्गीप्रसङ्गाद् असङ्ग तैव सप्तभङ्गीति, विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुनि अनन्तानामपि सप्तभडीनामेव सम्भवात्। यथा हि सदसत्वाभ्याम्, एवं सामान्यविशेषाभ्यामपि सप्तभङ्गयेव स्यात्। तथाहि-स्यात्सामान्यम् | स्याद् विशेषः, स्यादुभयम्, रयादवक्तव्यम, स्यात्सामान्यावक्तव्यम, स्याद विशेषाऽवक्तव्यम्, स्यारसामान्यविशेषाऽवक्तव्यमिति। न चात्र विधिनिषेधप्रकारौ न सः इति वाच्यम्, सामान्यस्य विधिरूपत्वाद्, विशेषस्य च व्यावृत्तिरूपतया निषेधात्मकत्वात् / अथवा-प्रतिपक्षशब्दत्वाद् यदा सामान्यस्य प्राधान्यं तदा तस्य विधिरूपता विशेषस्य च निषेधरूपता। यदा विशेषस्य पुरस्कारस्तदातस्य विधिरूपता इतरस्य च निषेधरूपता। एवं सर्वत्र योज्यम्। अतः सुष्टुक्तमनन्ता अपि सप्तभङ्ग्य एव भवेयुरिति प्रतिपर्याय प्रतिपाद्यपर्यनुयोगाना सप्तानामेव सम्भवाद, तेषामपि सप्तत्वं सप्तविधतजिज्ञासानियमात; तस्या अपि सप्तविधत्वं सप्तधैव तत्संदेहसमुत्पादात् तस्यापि सप्तविधत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणा सप्तविधत्वस्यैवोपपत्तेरिति / स्या०। अथ सप्तभङ्गीमेव स्वरूपतो निरूपयन्तिएकत्र वस्तुन्ये कैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः सम-स्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनयास्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्यप्रयोगः सप्तभङ्गी||१४|| एकत्र जीवदी वस्तुन्येकै कसत्त्वादिधर्मविषयप्रश्नवशादविरोधेन प्रत्यक्षादिवाधापरिहारेण पृथग्भूतयोः समुदितयोश्व विधिनिषेधयोः पर्यालोचनया कृत्वा स्याच्छब्दलाञ्छितो वक्ष्यमाणैः सप्तभिः प्रकारैर्वचनविन्यासः सप्तभङ्गी विज्ञेया। भज्यन्ते-भिद्यन्तेऽर्था यैस्ते भङ्गा वचनप्रकारास्ततः सप्त भङ्गाः समाहृताः सप्तभङ्गीति कथ्यते। नानावस्त्वाश्रयविधिनिषेधकल्पनया शतभडीप्रसङ्गनिवर्त्तनार्थमेका वस्तुनीत्युपन्यस्तम्। एकत्रापि जीवादिवस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्मपर्यालोधनयाऽनन्तभङ्गीप्रसक्तिव्यावर्त्तनार्थमेकैकधर्मर्ण्यनुयोगवशादित्युपातम्। अनन्तेष्वपि हिधर्मेषु प्रतिधर्म पर्यनुयोगस्य सप्तधैव प्रवर्त्तमानत्वात् / तत्प्रतिवचनस्यापि सप्तविधत्वमेवोपपन्नमित्येकैकस्मिन् धर्मे एकैकैव सप्तभङ्गी साधीयसी। एवं चानन्तधर्मापेक्षया सप्तभङ्गीनामानन्त्यं यदायाति, तदभिमतमेव / एतचाग्रे सूत्रत एव निर्णेष्यते। प्रत्यक्षादिविरुद्धसदायेकान्तविधि-प्रतिषेधकल्पनयाऽपि प्रवृत्तस्य वचनप्रयोगस्य सप्तभङ्गीत्वानुषङ्गभङ्गार्थमविरोधनेत्यभिहितम्। अवोचाम च“या प्रश्नाद्विधिपर्युदासभिदया बाधच्युता सप्तधा, धर्म धर्ममपेक्ष्य वाक्यरचनाऽनेकात्मके वस्तुनि। निर्दोषा निरदेशि देव ! भवता सा सप्तभङ्गी यया, जल्पन जल्परणाङ्गणे विजयते वादी विपक्ष क्षणात् / / 1 / / " इदं च सप्तभङ्गीलक्षण प्रमाणनयसप्तभङ्गयोः साधारणमवधारणीयम् / विशेषलक्षण पुनरनयोरग्रे वक्ष्यते। अथास्या प्रथमभङ्गाल्लेख तावद्दर्शयन्तितद्यथा-स्यादस्त्येव सर्वमिति विधिविकल्पनया प्रथमोभङ्गः।।१५।। स्यादित्यव्ययमनेकान्तवद्द्योतकं स्यात्कशित्स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेणास्त्येव सर्व कुम्भादि, न पुनः परद्रव्यक्षेत्रकालभावरूपेण / तथाहि-कुम्भो द्रव्यतः पार्थिवत्वेनाऽस्ति, न जलादिरूपत्वेन; क्षेत्रतःपाटलिपुत्रकत्वेन, न कान्यकुब्जादित्वेन, कालतः शशिरत्वेन, न वासन्तिकादित्वेन, भावतः श्यामत्वेन, न रक्तवादिना। अन्यथेतररूपापत्त्या स्वरूपहानिप्रसङ्ग इति। अवधारणं चात्र भङ्गेऽनभिमतार्थव्यावृत्यर्थमुपात्तम् / इतरथाऽनभिहिततुल्यतैवास्य वाक्यस्य प्रसज्येत, प्रतिनियतस्वार्थानभिधानात्। तदुक्तम्- “वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थनिवृत्तये। कर्त्तव्यमन्यथाऽनुक्त-समत्वात् तस्य कुत्रचित् // 1 // तथाऽप्यस्त्येव कुम्भ इत्येतावन्मात्रोपादाने कुम्भस्य स्तम्भाधस्तित्वेनापि सर्व प्रकारेणास्तित्व प्राप्ते : प्रतिनियतस्वरूपानुप Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तभंगी 317 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तभंगी पत्तिः स्यात्. तत्प्रतिपत्तये स्यादिति प्रयुज्यते, स्यात्कथक्षित्स्वद्रव्यादिभिरेवायमस्ति, न परद्रव्यादिभिरपीत्यर्थः / यत्रापि चासो न प्रयुज्यते तत्रापि व्यवच्छेदफलैवकारंवद् बुद्धिमद्भिः प्रतीयत एव / यदुक्तम्-“सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैः, सर्वत्रार्थात्प्रतीयते। यथैवकारो योगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः / / 1 / / " अथ द्वितीयभड्रोल्लेखं ख्यापयन्तिस्यान्नास्त्येव सर्वमिति निषेधकल्पनया द्वितीयः॥१६॥ स्वद्रव्यादिभिरिव परद्रव्यादिभिरपि वस्तुनोऽसत्त्वानष्टौ प्रतिनियतस्वरूपाभावाद्वस्तुप्रतिनियमविरोधः। न चास्तित्वैकान्तवादिभिरत्र नास्तित्वमसिद्धमित्यभिधानीयम् कथञ्चित्तस्य वस्तुनि युक्तिसिद्धत्यात्साधनवत् / न हि क्वचिदनित्यत्वादौ साध्ये सत्त्वादिसाधनस्यास्तित्वं विपक्षे नास्तित्वमन्तरेणोपपन्नम, तस्य साधनाभासत्वप्रसङ्गात्। अथ यदेव नियतं साध्यसद्भावेऽस्तित्वं तदेव साध्याभावे साधनस्य नास्तित्वमभिधीयते, तत्कथं प्रतिषेध्यमः, स्वरूपस्य प्रतिषेधत्वानुपपत्तेः, साध्यसद्भावे नास्तित्वं तु यत्तत्प्रतिषेध्यम्, तेना विना भावित्वे साध्यसद्भावास्तित्वस्य व्याघातात्तेनैव स्वरूपेणास्ति नास्ति चेति प्रतीत्यभावादिति चेत् / तदसत् एवं हेतोस्त्रिरूपत्वविरोधात् / विपक्षासत्त्वस्य तात्विकस्याभावात् / यदि चायं भावाभावयोरेकत्वमाचक्षीत, तदा सर्वथा न क्वचित्प्रवर्तेत / नापि कुतश्चिन्निवर्तेत / प्रवृत्तिनिवृत्ति - विषयस्य भावस्याभावपरिहारेणासंभवात्, अभावस्य च भावपरिहारेणेति वस्तुनोऽस्तित्वनास्तित्वयो रूपान्तरत्वमेष्टव्यम्। तथा चास्तित्वं नास्तित्वेन प्रतिषेध्येनाविनाभावि सिद्धम्। यथा च प्रतिषेध्यमस्तित्वस्य नास्तित्व तथा प्रधानभावतः क्रमार्पितोभयत्वादिधर्मपशकमपि वक्ष्यमाणं लक्षणीयम्। अथ तृतीयं भङ्ग मुल्लेखतो व्यक्तीकुर्वन्तिस्यादस्त्येवस्यान्नास्त्येवेतिक्रमतो विधिनिषेधकल्पनया तृतीयः | ||17|| सर्वमिति पूर्वसूत्रादिहोत्तख चानुवर्तनीयम् / ततोऽयमर्थः / क्रमापितस्वपरद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया क्रमार्पिताभ्यामस्तित्वनास्तित्वाभ्यां विशेषितं सर्व कुम्भादि वस्तु स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवेत्युल्लेखेन यवतध्यमिति। __ इदानीं चतुर्थभङ्गोल्लेखमाविर्भावयन्तिस्यादवक्तव्यमेवेति युगपद्विधिनिषेधकल्पनया चतुर्थः 18 / द्वाभ्यामस्तित्वनास्तित्वाख्यधर्माभ्यां युगपत्प्रधानतयार्पिताभ्यामेकस्य वस्तुनोऽभिधित्सायां तादृशस्य शब्दस्यासम्भवादवक्तव्यं जीवादिवस्त्विति। तथाहि-सदसत्त्वगुणद्वयं युगपदेकर सदित्यभिधानेन वक्तुमशक्यम् / तस्यासत्त्वप्रतिपादनासमर्थत्वात्, तथैवासदित्यभिधानेन न तद्वक्तुं शक्यम् / तस्य सत्त्वप्रत्यायने सामर्थ्याभावात्। साङ्केतिकमेकं पदं तदभिधातुं समर्थमित्यपि न सत्यम् / तस्यापि क्रमेणार्थद्वय प्रत्यायने सामोपपत्तेः, शतृशानचौ सदितिशतृशानचोः | सङ्केति तसत्छन्दवत् / द्वन्द्ववृत्तिपदं तयोः सकृदभिधायकमित्य प्यनेनापास्तम् / सदसत्त्वं इत्यादि पदस्य क्रमेण धर्मद्वय प्रत्यायने समर्थत्वात। कर्मधारयादिवृत्तिपदमपिन तयोरभिधायकं तत एव वाक्य तयोरभिधायकमनेनैवापस्तमिति सकलवाचकरहितत्वाद-वक्तव्यं वस्तु युगपत सदसत्त्वाभ्यां प्रधानभावार्पिताभ्यामाक्रान्तं व्यवतिष्ठते। अयं च भङ्गः कैश्वित्तृतीयभङ्ग स्थाने पठ्यते, तृतीयश्चैतस्य स्थाने। न चैवमपि कश्चिद्दोषः, अर्थविशेषस्याभावात्। ___अथ पञ्चमभङ्गोल्लेखमुपदर्शयन्तिस्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः||१६| स्वद्रव्यादिधतुष्ठयापेक्षयाऽस्तित्वे सत्यस्तित्वनास्तित्वाभ्यां सह वक्तुमशक्यम् सर्व वस्तु / ततः स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेत्येवं पञ्चमभङ्गेनोपदर्श्यत इति। अथषष्ठभड्रोल्लेख प्रकटयन्तिस्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः // 20 // परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया नास्तित्वे सत्यस्तित्वनास्तित्वा भ्या योगपदोन प्रतिपादयितुमशक्य समस्तं वस्तु। ततः स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेत्येवं षष्ठभङ्गेन प्रकाश्यते। सम्प्रति सप्तमभङ्ग मुलिखन्ति-- स्यादस्त्येव स्यान्नास्त्येवस्यादवक्तव्यमेवेति क्रमतो विधिनि-- षेधकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनयाच सप्तम इति॥२१॥ इतिशब्दः सप्तभङ्गीसमाप्त्यर्थः / स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयाऽपेक्षयाऽस्तित्वनास्तित्वयोः सतोरस्तित्वनास्तित्वाभ्यां समसमयमभिधातुमशक्यमखिलं वस्तु तत एवमनन भङ्गेनोपदर्श्यते। अथास्यामेव सप्तभङ्गयामेकान्तविकल्पा निराचिकीर्षवः सूत्राण्याहुःविधिप्रधान एव ध्वनिरिति न साधु / / 22 / / प्राधान्येन विधिमेव शब्दोऽभिधत्ते इति न युक्तम् / अत्र हेतुमाहुःनिषेधस्य तस्मादप्रतिपत्तिप्रसक्तेः।।२३।। 'तरमादिति' - शब्दात्। आशङ्कान्तरं निरस्यन्तिअप्राधान्येनैवध्वनिस्तमभिधत्ते इत्यप्यसारम्॥२४॥ तमिति निषेधम्। अत्र हेतुमाचक्षतेक्वचित्कदाचित्कथञ्चित्प्राधान्येनाप्रतिपन्नस्य तस्याप्राधान्यानुपपत्तेः॥२५|| न खलु मुख्यतः स्वरूपेणाप्रतिपन्नं वस्तु क्वचिदप्रधानभावमनुभवतीति। इत्थं प्रथमभद् कान्तं निरस्येदानी द्वितीयभङ्गै कान्तनिरासमतिदिशन्तिनिषेधप्रधान एवशब्द इत्यपि प्रागुक्तन्यायादपास्तम्॥२६।। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तभंगी 318 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तभंगी त्यवतम्। अथ तृतीयभङ्गै कान्त पराकुर्वन्तिक्रमादुभयप्रधान एवायमित्यपिन साधीयः॥२७।। 'अयमिति' --शब्दः। एतदुपपादयन्तिअस्य विधिनिषेधान्यतरप्रधानत्वानुभवस्याप्यबाध्यमानत्वात्॥२८॥ प्रथमद्वितीयभग तक प्रधानत्यप्रतीतेरप्यबाधितत्वान्न तृतीयभङ्गै कान्ताभ्युपगमः श्रेयान। अथ चतुर्थभरै कान्तपराभवाय प्राहुःयुगपद्विधिनिषेधात्मनोऽर्थस्यावाचक एवासाविति च न चतुरस्रम् // 26 // स्यादववतव्यमेवेति चतुर्थभने कान्तो न श्रेयानित्यर्थः / कुत इत्याहुःतस्यावक्तव्यशब्देनाप्यवाच्यत्वप्रसङ्गात्।।३०।। अथ पञ्चमभरैकान्तमपास्यन्ति-- विध्यात्मनोऽर्थस्य वाचकः सन्नुभयात्मनो युगपदवाचक एव स इत्येकान्तोऽपिन कान्तः॥३१॥ अत्र निमित्तमाहुःनिषेधात्मनः सह द्वयात्मनश्वार्थस्य वाचकत्वाऽवाचकत्वाभ्यामपि शब्दस्य प्रतीयमानत्वात्।।३२|| निषेधारमनोऽर्थस्य वाचकत्वेन सह, विधिनिषेधात्मनोऽर्थस्यावाचकत्येन च शब्दः षष्ठभड़े प्रतीयते रातः,ततः पक्षमभड़कान्तोऽपिन श्रेयान्। षष्ठमकान्तमपाकुर्वन्ति-- निषेधात्मनोऽर्थस्य वाचकः सन्नुभयात्मनो युगपदवाचक एवायमित्यप्यवधारणं न रमणीयम्॥३३।। अत्र हेतुमुपदर्शयन्तिइतरथाऽपि संवेदनात् // 34|| आहाभड़ादिषु विध्यादिप्रधानतयाऽपि शब्दस्य प्रतीयमानस्था--- दित्यर्थः। अथ सप्तमभङ्गै कान्तमपाकुर्वन्तिक्रमाक्रमाभ्यामुभयस्वभावस्य भावस्य वाचकश्वाऽवाकश्च ध्व-निर्नाऽन्यथेत्यऽपि मिथ्या // 35 // अब बीजमाख्यान्तिविधिमात्रादिप्रधानतयाऽपि तस्य प्रसिद्धेः॥३६।। नन्वे करिगन् जीवादी वस्तुन्यनन्तानां विधीयगाननिषिध्यमानाना धर्माणामहीकरणादनन्ता एव वचनमा: स्याद्वादिना भवेयुः, वाच्येरात्ताऽऽयत्तत्वाद वाचकेनायाः, ततो विरुदैव सप्तभङ्गीति बुवाणं निरस्यन्ति एकत्र वस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्माभ्युपगमेनानन्तभङ्गीप्रसङ्गादसङ्गतैव सप्तभङ्गीतिन चेतसि निधेयम् // 37 / / अब हेतुमा:-- विधिनिषेधप्रकारापेक्षया प्रतिपर्यायं वस्तुन्यनन्तानामपि सप्त-- भङ्गीनामेव संभवात्।।३।। एकैकं पर्यायमाश्रित्य वस्तुनि विधिनिषेधविकल्पाभ्या व्यस्तसमस्ताभ्यां सप्तैव भङ्गाः सम्भवन्ति,न पुनरनन्ताः / तत्कथमनन्तभङ्गीप्रसङ्गादसङ्गतत्वं सप्तभङ्गयाः समुद्भाव्यते? कुतःसप्तैव भङ्गाः सम्भवन्तीत्याहुःप्रतिपर्यायं प्रतिपाद्यपर्यनुयोगानां सप्तानामेव सम्भवात्॥३६॥ एतदपि कुत इत्याहुःतेषामपि सप्तत्वं सप्तविधतजिज्ञासानियमात्॥४०॥ अथ सप्तविधतजिज्ञासानियमे निमित्तमाहुःतस्या अपि सप्तविधत्वं सप्तधैवतत्सन्देहसमुत्पादात्॥४१॥ तस्या अपीति प्रतिपाद्यजिज्ञासायाः / तत्सन्देहसमुत्पादादिति प्रतिपाद्यसंशयसमुत्पत्तेः। सन्देहस्यापि सप्तधात्वे कारणमाहुःतस्याऽपि सप्तप्रकारत्वनियमः स्वगोचरवस्तुधर्माणां सप्तविधत्वस्यैवोपपत्तेः॥४२॥ तस्य-प्रतिपाद्यगतसन्देहस्य स्वगोचरवस्तुधर्माणां सन्देहविषयीकृतानामस्तित्वादिवस्तुपर्यायाणाम् / इयं सप्तभङ्गी कि सकलादेशस्वरूपा, विकलादेशस्वरूपा वेत्यारेका पराकुर्वन्तिइयं सप्तभङ्गीप्रतिमङ्गं सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च॥४३॥ एकैको भदोऽरयाः संबन्धी सकलादेशस्वभावः, विकालादेशस्वभावश्चेत्यर्थः। अथ सकलादेश लक्षयन्ति-- प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यादभेदोपचाराद्वा यौगपद्येन प्रतिपादकं वचः सकलादेशः॥४४|| कालादिभिरष्टाभिः कृत्वा यदभेदवृत्तेधर्मधर्मिणोरपृथग्भावस्य प्राधान्य तस्मात्, कालादिभिभिन्नात्मनामपि धर्मधर्मिणामभेदाध्यारोपावा समकालमभिधायकं वाक्यं सकलादेशः प्रमाणवाक्यमित्यर्थः / अयमर्थः-योगपद्येनाशेषधर्मात्मकं वस्तु कालादिभिरभेदवृत्त्या, अभेदोपचारेण वा प्रतिपादयति सकलादेशः, तस्य प्रमाणाधीनत्वात् / विकलादेशस्तु क्रमेण भेदोपचाराद, भेदप्राधान्यादा तदभिधत्ते, तस्य नयायत्तत्वात् / कः पुनः क्रमः?, किं वा यौगपद्यम्? यदाऽस्तित्वा दिधर्माणां कालादिभिर्भेदविवक्षा, त्दैकस्य शब्दस्यानेकार्थप्रत्यायने शक्त्यभावात् क्रमः, यदा तु तेषामेव धर्माणां कालादिभिरभेदेन वृत्तमात्मरूपमुच्यते, तदैकेनापि शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामापन्नस्यानेकाशेषरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादन सम्भवाद्योगपद्यम् / के पुनः कालादयः ! कालः, आत्मरूपम्, अर्थः, सम्बन्धः, उपकारः, गुणिदेशः, संसर्गः शब्दः इत्यष्टी / तत्र रया Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तभंगी 316 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तभामा जीवादि वर वस्त्येवेत्यत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधर्मा / प्रमाणं निर्णीयाथ यतः कारणात प्रतिनियतमर्थमेतव्यवस्थापयति वस्तुन्येकडेति तेषां कालेनाभेदवृत्तिः? यदेव चास्तित्वस्य तदगुण- तत्कथयन्तित्वमात्मरूपम्, तदेव चान्यानन्तगुणानामपीत्यात्मरूपेणाभेदवृत्तिः 21 तद् द्विभेदमपि प्रमाणमात्मीयप्रतिबन्धकापगमविशेषस्वरूपय एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य, स एवान्यपर्यायाणामित्य- सामर्थ्यतः प्रतिनियतमर्थमवद्योतयति॥४६|| र्थेनाभेदवृत्तिः 3 / य एव चाविष्वग्भावः कथञ्चितादात्म्यलक्षण: प्रत्यक्षपरोक्षरूपतया द्विप्रकारमपि प्रागुपवर्णितस्वरूपं प्रमाणं सम्बन्धोऽस्तित्वस्य,स एवाशेषविशेषाणामिति सम्बन्धेनाभेदवृत्तिः स्वकीयज्ञानावरणादृष्टविशेषक्षयक्षयोपशमलक्षणं योग्यताव४। य एव चोपकारोऽस्तित्वेन स्वानुरक्तत्वकरणम्,स एव शेषैरपि शात्प्रतिनियतं नीलादिकमर्थ व्यवस्थापयति। गुणैरित्युपकारेणाभेदवृत्तिः 5 / य एव गुणिनः सम्बन्धी देश: एतद्व्यवच्छेद्यमाचक्षतेक्षेत्रलक्षणोऽस्तत्वस्य, स एवान्यगुणानामित गुणिदेशेनाभेदवृत्तिः६ / न तदुत्पत्तितदाकारताभ्याम्, तयोः पार्थक्येन सामस्त्येन च य एव चैकटस्त्वात्मनाऽस्तित्वस्य संसर्गः स एवाशेषधर्माणामिति व्यभिचारोपलम्भात्॥४७॥ संसर्गणाभेदवृत्तिः / ननु प्रागुक्तसम्बन्धादस्य का प्रतिविशेषः? तथाहि ज्ञानस्य तदुत्पत्तितदाकारताभ्यां व्यस्ताभ्यां समस्ताभ्यां उच्यते-. 3भेदप्राधान्येन भेदगुणभावेन च प्रागुक्तः संबन्धः वा प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं स्यात् / यदि प्राच्यः पक्षः, तदा भेदप्राधान्येनाभेदगुणभावेन चैष संसर्ग इति / य एवास्तीति कचालक्षणः कलशान्त्यक्षणस्य व्यवस्थापकः स्यात्, तदुत्पत्तेः शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचकः, स एव शेषानन्तधर्मा केवलायाः सद्भावात्। स्तम्भः स्तम्भान्तरस्य च व्यवस्थापकः स्यात्, त्मकस्यापति शब्देनाभेदवृत्तिः 8 / पर्यायार्थिकनयगुणभावे तदाकारतायास्तदुत्पत्तिरहितायाः सम्भवात्। अथ द्वितीयः, तदा द्रव्यार्थिकन्यप्राधान्यादुपपद्यते द्रव्यार्थिकगुणभावेन पर्यायार्थिक कलशस्योत्तरक्षणः पूर्वक्षणस्य व्यवस्थापको भवेत, समुदितयोप्राधान्ये तुन गुणानामभेदवृत्तिः सम्भवति,समकालमेकत्र नानागुणा स्तदुत्पनितदाकारतयोर्विद्यमानत्वात् / अथ विद्यमानयोरप्यन योनिमेवार्थस्य व्यवस्थापकम्, नार्थः,तस्य जड़त्वादिति मतम्। नामसम्भवात्, सम्भवे वा तदाश्रयस्य तावदा भेदप्रसङ्गात 1 / तदपि न न्यायानुगतम्,समानार्थसभनन्तर-प्रत्ययोत्पन्नज्ञानेद्य - नानागुणानां संबन्धिन आत्मरूपस्य च भिन्नत्वात्, आत्गुरूपाभेदे तेषां भिचारात्। तानि हि यथोक्तार्थव्यवस्था-पकत्वलक्षणस्य समग्रस्य भेदस्य विधात् 2 / स्वाश्रयस्यार्थस्यापि नानात्वात् अन्यथा सद्भावेऽपि प्राच्य जनक ज्ञानक्षणं न गृह्णन्ति / अपि च-- नानागुणाश्रयत्वविरोधात् 3 / सम्बन्धस्य च सम्बन्धिभेदेन भेद किमिदमर्थाकारत्वं वेदनानां? यदशात्प्रतिनियतार्थपरिच्छेदः स्यात् / दर्शनात्, नानासम्बन्धिभिरेकत्रैकसम्बन्धाघटनात् / / तैः क्रिय किमर्थाकारोल्लेखित्वम्, अर्थाकारधारित्वं वा / प्रथमप्रकारे, माणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात्, अनेकैरुपका अर्थाकाराल्लेखोऽकारपरिच्छेद एव, ततश्च ज्ञानं प्रतिनियरिभिः क्रियमाणस्योपकारस्यैकस्य विरोधात् 5 / गुणिदेशस्यच प्रतिगुण तार्थपरिच्छेदात्प्रतिनियतमर्थमवद्योतयतीति साध्याविशिष्टत्वं भेदात, तदभेदेभिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसङ्गात्। संसर्गस्य रपष्टगुपढीकते। द्वितीयप्रकारे पुनराकारधारित्वं ज्ञानस्य सर्वात्मना, च प्रतिसंसर्गिभेदात, तदभेदे संसर्गिभेदविरोधात् 71 शब्दस्य च देशेन वा। प्रथमपक्षे, जडत्वादर्थस्य ज्ञानमपि जडं भवेत्, उत्तरार्थप्रतिविषयं नानात्वात्, सर्वगुणानामेकशब्दवाच्यतायां सर्वार्थानामे क्षणवत् / प्रमाणरूपत्वाभावश्चोत्तरार्थक्षणवदेवास्य प्रसज्येत, कशब्दवाच्यताऽऽपत्तेः शब्दान्तरवैफल्यापत्तेः 8 तत्त्वतोऽस्तित्वा सर्वात्मना प्रमेयरूपताऽनुकरणात् / अथ देशेन नीलत्वादिनाऽर्थादीनामेकत्र वरतुन्येवमभेदवृत्तेरसंभवे कालादिभिर्भिन्नात्मनाम कारधारित्वमिष्यते ज्ञानस्य, तर्हि तेनाजडाकारेण जडताप्रतिपत्तेरभेदोपचारः क्रियते, तदेताभ्यामभेदवृत्यभेदोपचाराभ्यां कृत्वा सम्भवात कथं तद्विशिष्टत्वमर्थस्य प्रतीयेत? न हि रूपज्ञानेनाप्रतिप्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकस्य वस्तुनः समसमयं यदभिधायकं पानरसेन तद्विशिष्टता सहकारफलादौ प्रतीयते। किं च देशेनार्थावाक्यं स रकलादेशः प्रमाणवाक्यापरपर्याय इति स्थितम् / कारधारित्वान्नीलार्थवन्निः शेषार्थानामपि ज्ञानेन ग्रहणापत्तिः, "कालात्मरूपसम्बन्धाः, संसर्गोपक्रिये तथा / गुणिदेशार्थशब्दा सत्त्वादिगात्रेण तस्य सर्वत्राकारधारित्वाविशेषात् / अथ श्वेत्यष्टी कालादयः स्मृताः।।१।" तदविशेषेऽपि नीलाद्याकारवैलक्षण्यान्निखिलार्थानामग्रहणम्, तर्हि अधुना नयधाक्यस्वभावत्वेन नयविचारावसरलक्षणीयस्वरूपमपि समानाकाराणां समस्तानां ग्रहणप्राप्तिः। अथ यत एवज्ञानमुत्पद्यते, विकलादेशं सकलादेशस्वरूपनिरूपणप्रसङ्गेनात्रैव लक्षयन्ति तस्यैवाकारानुकरणद्वारेण ग्राहकम, हन्त ! एवमपि समानार्थसमतद्विपरीतस्तु विकलाऽऽदेशः / / 45|| नन्तरप्रत्ययस्य तद्ग्राहकं स्यादित्युक्तम्। ततो न तदुत्पत्तितदाकारनवविषयीकृतस्य वस्तुधर्मस्य भेदवृत्तिप्राधान्याद् भेदोपचाराद्वा तान्या ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थावभासः, किंतु-प्रतिबन्धकापगमकम यदभिधायकं वाक्यम्, स विकलाऽऽदेशः / एतदुल्लेखस्तु विशेषादिति सिद्धम् / रत्ना०४ परि / स्या० / दश०। (अत्रत्या नयस्वरूपानभिज्ञ श्रोतृणां दुस्वगाह इति न यविचारावसर एव वक्तव्यता 'अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 431 पृष्ठ गता।) प्रदर्शयिष्यते। | सत्तभामा स्त्री० (सत्यभामा) स्वनामख्यातायां कृष्णा गुम-- Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तभामा 320 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तरिसत्थ -हिष्याम, अन्त० / (सा चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्यां गृहीत्वा सिद्धति अन्तकृशायाः पामे वर्गे सप्तमे अध्ययने सूचितम्।) सत्तभावणा स्त्री० (सत्त्वभावना) सत्त्वविषयायामसंक्तिष्टभावनायाम्, व्य०१ उ०। बृ०। अथ सत्त्वभावनामाहजे विय पुट्विं निसि नि-गमेसु विसहिंसुसाहसभयाइं। अहितकरगोवाई, विसिंसुघोरेय संगामे / / 503 / / येऽपि च राजवजितादयः पूर्व गृहवासे निशिरात्रौ वीरचर्यादिना निर्गमेषु साध्वसम्-अहेतुकभयरूपं, भयंसहेतुकं ते अहितस्करगोपादिसंबन्धिनी व्यषहन-विषोढवन्तः,घोरे च संग्रामे सात्विकतया 'विसिस्' ति-प्राविशन, तेऽपि जिनकल्पप्रतिपित्सवः सत्त्वभावनामवश्यं भावयन्ति। कथमिति चेत? उच्यतेपासुत्ताण तुयट्ट, सोयव्वं जंचतीसुजामेसु ! थोवंथोवं जिणइ उ, भयं च जं संभवइतत्थ।।५०४।। यत् स्थविरकल्पिकाना पार्श्वत उत्तानकं वा त्वगवर्तनं यच कारणे त्रिषु यमिषु-प्रहरपु स्वप्तव्यंशयनं कारणभावे तु यस्तृतीयप्रहरे स्वप्तव्यं तत्सर्वमपि स्तोकं स्तोकं जयति;शनैः शनैरित्यर्थः / भयं च मूषिकादिजनितं यद्यत्रोपाश्रयादिषु संभवति तत्तत्र जयति। अत्र च सत्त्वभावनायां पञ्च प्रतिमा भवन्ति। ता एवाऽऽहपढमा उवस्सयम्मी, बिइया बाहिं तइयाँ चउक्कम्मि। सुन्नघरम्मि चउत्थी,तह पंचमिया मुसाणम्मि॥५०५।। प्रथमा प्रतिमा उपाश्रये, द्वितीया उपाश्रयादहिः तृतीया चतुष्क-चत्वरे, चतुर्थी शून्यगृहे, पञ्चमी श्मशाने। तत्र प्रथमां तावदाहभोगजढे गंभीरे, उव्वरए कोट्टए अलिन्दे वा। तणुसाइ जागरो वा, झाणट्ठाए भयं जिणइ।।५०६|| भोगजढे-अपरिभोग्ये गम्भीरे-सान्धकारे उपाश्रयसत्केऽपवरके वा कोष्ठके वा अलिन्दके वा तनुशायीस्टोकनिद्रावान् जागरित्वा निद्रामकुर्वन्ध्यानार्थ शुभाध्यवसायस्थैर्यहेतोः प्रसुप्तेषु शेषसाधुषु कायोत्सर्गस्थितो भयं जयति। कथमित्याहविक्कस्सव खइयस्सव, मूसिगमाईहि वा निसिचरेहि। जइजह सान विजायइ, रोमंचुब्भेय चाडो वा // 507 / / स्पृष्टस्य का खादितस्य वा मूषकैरादिग्रहणान्मार्जारादिभिर्निशाचरैःरात्रिपरिभ्रमणशीलैः, यथा राहसा नापि जायते रोमाञ्चो दः-भयोद्रेकजनितो रोमार्द्धपः 'चाडो वा' पलायनं तथा सत्त्वभावनयाऽऽत्मा भावविव्यः / उक्ता प्रथमा प्रतिमा। अथ द्वितीयादिकाश्चतस्रोऽप्यतिदिशन्नाहसविसेसतराबाहि, तक्करआरक्खिसावयाईया। सुण्णघरमुसाणेसु य, सविसेसतरा भवे तिविहा / / 508 / / यान्युपाश्रयप्रतिमायां भयान्युक्तानि तान्युपश्रयादहिः प्रतिमायां सविशेषतराणि तस्करारक्षिकश्वापदादिभयसहिता नि मन्तव्यानि / शुन्यगृहश्मशानयोश्चशब्दात-चतुष्के च सविशेषतराणि त्रिविधानि दिव्यमानुषतैरश्वोपसर्गरूपाणि भयानि भवन्ति तान्यपि सम्यग् जयतीति प्रक्रमः। अस्या एव भावनायाः फलमाहदेवेहिँ भेसिओ वि, दिया व रातो व भीमरूवेहिं। ता सत्तभावणाए, वहइ भरं निन्भओ सयलं / / 506 / / तत एवं सत्त्वभावनया स्वभ्यस्तया दिवा रात्रौ वा भीमरूपैः देवैभैषितोऽपि भर-जिनकल्पभारं सकलमपि निर्भयः सन् वहतीति। गता सत्त्वभावना। बृ०१उ०२ प्रक०। आ०म०। ध०। सत्तभूमिय पुं० (सप्तभूमिक) सप्तमालखण्डे प्रासादे, उत्त०१३ अ०। सत्तम त्रि० (सप्तम) सप्तसंख्यापूरणे, उपा०१अ०। सत्तमट्ठाण न० (सप्तमस्थान) स्थानाङ्गस्य सप्तमेऽध्ययने, स्था०८ ठा०३उ०। सत्तमपव्व न० (सप्तमपर्वन) भाद्रकृष्णपक्षे, स्था०६ ठा० 3 उ०। (वर्णनमस्य 'पव्व' शब्दे पञ्चमभागे 768 पृष्ठे उपपादितम्।) सत्तमा स्त्री० (सत्तमा) सप्तम्यां नरकपृथिव्याम, जी०३ प्रति०१ उ०। सत्तमासिया स्त्री० (सप्तमासिकी) सप्तमासान् यावत्सप्तादत्तिप्रमाणभिक्षाके साधुप्रतिज्ञाविशेषे, आ० चू० 4 अ०। औ०। सत्तमी स्त्री० (सप्तमी) सप्तसंख्यापूरके, अहोरात्रे, ज्यो० 4 पाहुन आo म०। डि-ओस सुप (व) रूपायां विभक्तौ, “सन्निहाणे य सत्तमी" अनु० / सप्तसंख्यापूरके स्त्रीलिङ्गेऽर्थे, द०प०। स्था०। सत्तरस त्रि० (सप्तदशन्) सप्ताधिकेषु दशसु,प्रज्ञा० 15 पद। सत्तरसम त्रि० (सप्तदश) सप्तदशसंख्यापूरके, चं० प्र०। 8 पाहु०। सत्तरसाह पुं० (सप्तरसाह) स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि,यानि निधानानि, प्राप्य कल्किनृपः सर्वां सामग्रीमुत्पाद्य महाराजो भविष्यति। ती०२० कल्प०। सत्तरह पुं० (समरथ) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे भविष्यति दशमे तीर्थकरे, स्था०१०ठा०३उ० सत्तरि स्त्री० (सप्तति) “सप्ततौ रः" // 8/1 / 210 / / अनेनात्रत-कारस्य रेफादेशः / सत्तरि / दशावृत्तायां सप्तसंख्यायाम, प्रा० / आवः / सत्तरिसत्थ न० (सप्ततिकाशास्त्र) षष्ठ कर्मग्रन्थे, कर्म०। "अशेषकर्माशतमः समूह-क्षयाय भास्वानिव दीप्ततेजाः।। प्रकाशिताशेषजगत्स्वरूपः,प्रभुः स जीयज्जिनवर्द्धमानः॥१॥ जीयाजिनेशसिद्धान्तो, मुक्तिकामप्रदीपनः / कुश्रुत्यातपतप्तानां सान्द्रो मलयमारुतः / / 2 / / चूर्णयो नावगम्यन्ते, सप्ततेर्मन्दबुद्धिभिः। ततः स्पष्टावबोधार्थ, तस्याष्टीकां करोम्यहम्॥३॥ अहर्निशं चूर्णिविचारयोगान्, मन्दोऽपि शक्तो विवृति विधातुम् / Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरिसत्थ 321 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तसत्तमिया निरन्तरं कुम्भनिक (घ) र्षयोगात्, घरं चिधि अं. जहा एरिसो तारिसो सावगो ति तस्स घरं जाह। तं गता ग्रावाऽपि कूपे समुपैति घर्षिम् // 4 // " पुच्छता दिट्टो जाव ण चेव आढाति। तत्थेक्कण साहुणा भणि अं-जदिवा इह यत् शास्त्र प्रकरणं वा सर्वविन्मूलं तत् प्रेक्षावतामुपादेयं भवति, ण चेव सो एसो, अहवा- पवचितामो त्ति, तं सोऊण पुच्छिता तेण, नान्यत्, ततः सप्ततिकाख्यं प्रकरणमारभमाण आचार्यः प्रेक्षावता कथित जहा अम्ह कथित एरिसो तारिसो सावगो ति। सो भणति-अहो प्रकरणविषये उपादेयबुद्धिपरिग्रहार्थ प्रकरणस्य सर्वविन्मूलताम, तथा अकजं, ममं ताव पवंचतु। ता किं साधुणो पवंचितेन्ति, ताहे मा सारता सर्वविन्मूलत्वेऽपि न प्रेक्षापूर्वकारिणोऽभिधेयादिपरिज्ञानमन्तरेण तेसि होउ त्ति भणति-देमि पडिस्सयं एक्काए ववत्थाए, जदि मम धम्मण यथाकथंचित्प्रवर्त्तन्ते प्रेक्षाक्त्ताक्षतिप्रसङ्गात्। कर्म०६ कर्म०। कहेह, साहूहिं कहिय-एवं होउ त्ति। दिण्ण घरं, वरिसारत्ते वित्ते संप्रत्यावार्योऽनुद्धतत्वेनात्मनोऽल्पागमत्वं ख्यापयन् आपुच्छंतेहिं धम्मो कहिओ। तत्थण किचितरइ घेत्तु मूलगुणउत्तरगुणाण शेषबहुश्रुतानां च बहुमान प्रकटयन्-प्रकरणपरिपूर्ण मधुमजमसविरतिं वा / पच्छा सत्तपदिवयं दिण्ण-मारेउकामेणं जावइएणं ताविधिविषये तेषां प्रार्थनां विदधान आह कालेण सत्त पद ओसकिजंति एवइ कालं पडिविरवत्तु मारेयव्वं / जो जत्थ अपडिपुन्नो, अत्थो अप्पागमेण बद्धो वि। संबुज्झिरसंतित्ति काउं, गता। अण्णया चोरो (रओ) गता, अवसउणेण तं खमिऊण बहुसुया,पूरेऊणं परिकहंतु // 75 / / णिअत्तो, रत्तिं सणिअंघरं एति। तदिवस च तस्स भगिणी आगएल्लिआ, अत्र सप्ततिकाख्ये प्रकरणे यत्र बन्धे उदये सत्तायां वा योऽर्थोऽपरिपूर्णः सा पुरिसणेवस्थिआ भाउज्जायाए समं गोज्झपेक्खिया गया। ततो चिरेण आगया, णिकताओ तहेव एक्कम्मि चेव सयणे सइयाओ इअरो अ खण्डोऽल्पागमेनाल्पश्रुतेन मया बद्धो निबद्धः, इतिशब्दः समाप्तिवचनः, सच गाथापर्यन्ते वेदितव्यः, तमपरिपूर्णमर्थतत्र बन्धादौ ममाऽपरिपूर्णा आगओ। ततो पेच्छति, परपुरिसो त्ति असिं करिसित्ता आहणेमित्ति, वतं सुमरियं / ठितो सत्तपदंतर। एअम्मि अंतरे भगिणी असे बाहा भजाए भिधानलक्षणमपराधं क्षमित्वा बहुश्रुता दृष्टिवादज्ञाः पूरयित्वा अकतिआ। ताए दुक्खाविज़तियाए भणि हला ! अवणेहि बाहाओ में तत्तदर्थप्रतिपादिकां गाथा प्रक्षिप्य शिष्यजनेभ्यः परिकथयन्तुसाम सीसं / तेण सरेण णाया भगिणी एसा मे पुरिसणेवत्थ लि लज्जितो, जातो स्त्येव प्रतिपादयन्तु / बहुश्रुता हि परिपूर्णज्ञानसंभारसपत्समन्विततया अहो मणागं मए अकज न कयंति। उवणओ जहा सावगभज्जाए, संबुद्धो, परोपकारकणकरसिकमानसा भवन्ति, ततो मम शिष्याणां च परमोप विभासा, पव्व-इओ। आच०१अ०। झारमाधित्सवस्तेऽवश्यं ममाऽस्फुटापरिपूर्णार्थाभिधानलक्षणमपराध सत्तवच्छ पुं० (सप्तवत्स)लोमपक्षिविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। विषह्य परिपूर्णमर्थ पूरयित्वा शिष्येभ्यः कथयन्तु सत्तविहबंधग पुं० (सप्तविधबन्धक) सप्तप्रकारकर्मोपार्जक, पञ्चा० "निरुपममनन्तमनघं, शिवपदमधिरूढभपगतकलङ्कम् / 16 विव०। दर्शितशिवपुरमार्ग, वीरजिन नमत परमशिवम् / / 1 / / सत्तसत्तमिया स्त्री० [सप्तसप्तकि(मि)का] सप्तसप्तकदिनानि यस्यां सा यस्योपान्तेः पि संप्राप्ते, प्राप्यन्ते संपदोऽनघाः / सप्तसप्तकिका सप्तशब्दककारस्य मकारः प्राकृतत्वात्। अथवा- सप्त नमस्तस्मै जिनेशश्री वीरसिद्धान्तसिन्धवे / / 2 / / सप्तमानि दिनानि यस्यां सा, यस्यां हि सप्तदिन-ससमकानि भवन्ति। यरेषा विषमार्था, सप्ततिका सुस्फुटीकृता सम्यक्। प्रव० 271 द्वार / सप्त सप्तमानि दिनानि यस्यां सा सप्तसप्तकैर्दिनअनुपकृतपरोपकृत-चूर्णिकृतस्तान्नमस्कुर्वे / / 3 / सप्तकर्यथोत्तरवर्द्धमानदत्तिभिर्निष्पन्ने प्रतिमाभेदे, स्था०७ ठा० 3 उ०। प्रकरणमेतद्विषम, सप्ततिकाख्यं विवृण्वता कुशलम्। सूत्रम्यदवापि मलयगिरिणा, सिद्धिं तेनाश्नुता लोकः / / 4 / / सत्तसत्तमिया णं भिक्खुपडिमा,एगूणं पन्नए राइदिएहिं एगेण अर्हतो मङ्गलं सिद्धान्.-मङ्गलं संयतानहम्। छण्णउएणं भिक्खासएणं अहासुत्तं (अहाकप्पं अहामग्गं अहातचं अशिश्रियं जिनाख्यातं, धर्म परममङ्गलम् / / 5 / / " अहासम्म फासिया पालिया तीरिया किट्टिया) अणुपालिया कर्म०६ कर्म०प्रश्न०। स०। भवई॥३१॥ सत्तरिसभ पुं० (सप्तर्षभ) एकविंशतितमेऽहोरात्रमुहूर्ते, स०३० सम०। अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहसत्तवइय पुं (साप्तपदिक) सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति साप्तपदिकः। सागारियअग्गहणे,अन्नाउञ्छं फुड समक्खायं / तथाविधे व्यवहारिणि,आ० म०१ अ०। “(सत्तवइए त्ति-(१३४ गाथा) सो होतिऽभिग्गहो खलु, पडिमाऽऽइअभिग्गहो चेव / / 74|| अस्य व्याख्या-सप्तभिः पदैर्व्यवहरतीति साप्तपदिकः-सत्तपदिगो एगम्भि अण्णाउञ्छविसुद्धं, घेत्तव्वं तस्स किं परीमाणं / पचंतगामे एगो ओलग्गयमणूसो,साधुमाहणादीणं न सुणेति,ण वा कालम्मि य भिक्खासु य, इति पडिमासुत्तसंबंधो 75|| अल्लीणति, ण वा सेज देति, मा मम धम्मं कहेहिन्ति, ताहे मा सदओ पूर्वसूत्रेषु सागारिक पिण्डो न ग्राह्य इत्युक्तं सागारिक पिण्डा - होहामि त्ति / अण्णया कया तं गामं साहुणो आगता, पडिस्सयं मग्गति, ऽग्रहणे स्फुटमज्ञातोञ्छ ग्रहः खलु भवत्यभिग्रहः, प्रतिमाघ-- ताहे गोट्टिलएहिं एसो नदेति त्ति, सो वि एतेहिं पवंचिओ होउ त्ति तस्स | १-(०जाव अणुपालिया भवइ॥३१॥) Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तसत्तमिया 322 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तसत्तमिया भिग्रह इत्यभिग्रहप्रस्तावात्सागारिकसूत्राऽनन्तरं प्रतिमासूत्रस्योपनिपातः / अथवा अन्यथा संबन्धः सागारिक पिण्डप्रतिषेधतोऽज्ञातोञ्छविशुद्धं ग्रहीतव्यमित्याख्यातं, तस्य भिक्षाकालेषु किं परिमाणमिति प्रश्नावकाशमाशङ्कय प्रतिमासूत्रमुपन्यस्तवान, एष प्रतिमासूत्रसम्बन्धः। अनेन सम्बन्धनायातस्यास्य (सू०३१) व्याख्यासप्तसप्तका दिनानां यस्याः सा सप्तसप्तकिका, सप्तकशब्दे ककारस्य मकारः प्राकृतत्वात्, 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे / भिक्षुप्रतिमा एकोनपशाशता रात्रिन्दिवैकेन षण्णवतेन भिक्षाशतेन यथा सूत्रं सूत्रानतिक्रमेण यावत्करणात-"अहामार्ग अहातचं अहासम्म फासिया पालिया तीरिया किट्टिया अणुपालिया भवई" इति--परिग्रहस्तत्र यथाकल्पं--यथाविधि--सूत्रोक्तविध्यनति-क्रमेणेत्यर्थः, यथामार्गज्ञानदर्शनचारित्राणामविराधनेन 'अहातचं' ति-याथातथ्यमेकान्ततः सूत्रानुसारेणापादितसत्य (त्य) ताकं 'अहासम्म' यथासम्यक् त्रिविधेनापि योगेनाऽपरि-ताम्यता सम्यक्करणस्फर्शिता सेविता पालिता विराधनारक्षणतः अत एव शोधिता अतीचारलेशेनाप्यकलङ्कनात् / तीरिता-तीर नीता, पर्यन्तं नीता इत्यर्थः / कीर्तिता--आचार्याणा कथिता, यथा प्रतिमा मया समाप्ता आज्ञया तीर्थकरोपदेशेन अत्र पालिता भवति / एवमष्टाष्ट किकानवनवकिकादशदशकिका-सूत्राण्यपि भावनीयानि। विशेषस्तुपाठसिद्धः, एष सूत्रचतुष्टयसंक्षेपार्थः। अहसुत्त सुत्तदेसा, कप्पो उविधीय मग्ग नाणादी। तचं तु भवे तत्थं, सम्मंजं अपरितंतेणं / / 76 / / फासिय जोगतिगेणं, पालियमविराहिय सोहितेमेव। तीरियमंतं पाविय, किट्टिय गुरुकरण जिणमाणा॥७७|| यथासूत्रमिति सूत्रादेशात् यथाकल्पमित्यत्र कल्पो- विधिर्यथामार्गमित्यत्र मागोंज्ञानादि, यथातथ्यमित्यत्र 'त' नाम तथ्य, यथासभ्यगिति सभ्यग् नाम यदपरि ताम्यताकरण स्पर्शिता योगत्रिकेण सेविता पालिता अविराधिता शोधिताऽप्येवमेव; अविराधनेनैवेत्यर्थः तारिता-अन्तं प्रापिता कीर्तिता-गुरूणां कथनतः आज्ञा जिनस्यतीर्थकृतः,द्वितीया षष्ठ्यर्थे प्राकृतत्वात्। पडिमाउपुव्वभणिया, पडिवज्जइकोतिसंघयणमादी। नवरं पुण णाणत्तं, कालच्छेए य भिक्खासु॥७८|| प्रतिपद्यते, प्रतिमा भिक्षोः प्रतिमाः पूर्वमाचारदशासु भणिताः ताः कः प्रतिपद्यते, तत आह– “तिसंघयण' ति-आद्येषु त्रिषु संहननेषु अन्यतरसंहननोपेतः चतुर्थादिषु संहननेषु वर्तमानः न प्रतिपद्यते, आदिशब्दात्-सोऽपि सूत्रार्थतदुभयोपेतो गच्छेत् कृतपरिका सातिशयो ननिरतिशय इति परिग्रहः, तृतीयं च संहनन यावदार्यरक्षितास्तावदनुवृत्त तत आरतो व्यवच्छिन्नम् / नवरं पुनानात्वमत्र कालच्छेदे भिक्षासु च / तत्र कालच्छेदमाह-- एगणपन्ने चउस-ट्ठिगासीती य सयं च बोद्धव्वं / सव्वासिं पडिमाणं, कालो एसो त्ति तो होइ॥७६|| यससप्तकिकायाः कालम् एकोनपञ्चाशत् रात्रिन्दिवानि, अष्टाष्टकिकायाश्वत: षष्टिः, नवनवकिकाया एकाशीतिः, दशदशकिकायाः शतं | रात्रिन्दिवानां बोद्धव्यं, सर्वप्रतिमानामधिकृतसूत्रचतुष्टयोपेतानामेष एतावान् भवति कालः। कथं पुनः सप्तकिका भवतीत्यत आह-. पढमाए सत्तगा सत्त, पढमे तत्थ सत्तए। एके गेण्हई भिक्खं, बिइए दोणि दोणि तु ||80|| एवमेक्कक्कियं भिक्खं, छुभिजेक्के क्क सत्तगे। गेण्हती अन्तिमो जाव, सत्त सत्त दिणे दिणे / / 1 / / प्रथमाया प्रतिमायां सप्त सप्तका भवन्ति / तत्र प्रथम सप्तके प्रतिदिवसमेकैकां भिक्षां गृह्णाति, द्वितीये सप्तके प्रतिदिवसं द्वे द्वे भिक्षे, एवं तृतीयादिषु सप्तकेष्वेकैकेषु एकैकां भिक्षामधिका प्रक्षिपेत् यावदन्तिमे सप्तके दिने सप्त सप्त भिक्षा गृह्णाति / इयमत्र भावनातृतीये सप्तके प्रतिदिवसं तिस्त्रस्तिस्रो भिक्षा गृह्णाति, चतुर्थे चतरत्रश्चतस्रः, पञ्चमे पञ्च पञ्च, षष्ठे षट् षट्, सप्तमे सप्त सप्तेति। अत्रैव प्रकारान्तरमाहअहवा एक्किक्कियं दत्तिं,जासत्तेके कसत्तए। आदेसो अत्थि एसो वि, सीहविक्कमसन्निभो॥२॥ अथवा एष द्वितीयोऽप्यादेशोऽस्ति, यथा एकैकस्मिन् सप्तके प्रत्येक प्रथमदिनादारभ्य प्रतिदिवसमेकैकां बर्द्धयेत्यावत्सप्तमे दिवसे / इयमत्र भावना-प्रथमे सप्तके प्रथम दिवसे एका भिक्षा गृह्णाति, द्वितीये द्वे, तृतीये तिरत्रः, चतुर्थे चतस्रः, पञ्चमे पञ्च, षष्ठे षट्, सप्तमे सप्त, एवं द्वितीये तृतीये चतुर्थे पञ्चमेषष्ठे सप्तमेच सप्तके द्रष्टव्यम्। एष आदेशः सिंहविक्रमसन्निभः, यथा-सिंहो गत्वा गत्वा पृष्ठतः प्रलोकयते एवमेषोऽपि सप्तके पुनर्मूलतः परावर्त्तते / गतः कालच्छेदः। सम्प्रति भिक्षापरिमाणमाहछन्नउयं मिक्खसयं, अट्ठासीया य दो सया हुंति / पंचुत्तरायचउरो, अद्धच्छटुं (अद्धछट्ठा सया चेव इतिपाठान्तरे।) सया चेव ||3|| सप्तसप्तकिकायां भिक्षापरिमाणं षण्णवतं शतम् 166, अष्टाऽष्टकिकायामष्टाशीते द्वे शते 288 भिक्षाणाम्, नवनवकिकायां पञ्चोत्तराणि चत्वारि शतानि 405 दशदशकिकायाम (दशदशकिकाया मर्धम षष्ठानि (५५०))षट् शतानि भिक्षाणामिति। सम्प्रत्यस्यैव भिक्षापरिमाणस्या - नयनाय करणमाहउचिट्ठवग्गदिवसा, मूलगुणा संजया दुहा छिन्ना। मूलेणं संगुणिया, माणं दत्तीण पडिमासु / / 4 / / पदगयसु बेयसु-त्तरसमाहयं दलियमादीणा। सहियं गच्छगुणं पडि-माणं भिक्खमाणं मुणेयव्वं / / 8 / / उद्दिष्टा ये चवर्गाः सप्तसप्तकिकादयस्ते दिवसा मूलदिनसयुक्ताः, सप्तादिदिनसन्मिश्राः क्रियन्ते, तदनन्तर द्विधाछिन्ना अधीक्रियन्ते इति भावः। ततो मूलेन सप्तादिलक्षणेन संगुण्यन्ते, संगुणिताः प्रतिमासु दत्तीना मानपरिमाणं भवति। तद्यथा-सप्तसप्तकवर्गदिवसा एकोनपशाशत् 46, ते मूलदिनैः स Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमत्तमिया 323 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ता द्वी०। सभिर्युताः क्रियन्ते जाताः षट्पञ्चाशत् 56, ते अर्धीक्रियन्ते जाता __णाणादी" आ० चू० 1 अ०। अष्टाविंशतिः 28, सा मूलेन सप्तकेन गुण्यते आगतं षण्णवतं शतम् सत्तसीस पुं० (सप्तशीर्ष) शिखरितलपर्वतकूटस्वामिनि नागकुमारदेवे १६६,तथा अष्टाष्टकवर्गदिवसाश्चतुःषष्टिः 64, ते मूलदिनैरष्टभिः संमिश्रयन्ते जाता द्वासप्ततिः 72, तस्या अर्द्ध क्रियते जाता षट्त्रिंशत् / सत्तहत्तरि स्त्री० (सत्तसप्तति) सप्ताधिकायां सप्ततिसख्यायाम, स०७६ 36, सा मूलेनाष्टकेन गुण्यते आगते द्वे शते अष्टाशीते 288, एवं सम०। नवनवकिकायां दशदशकिकायां च यथोक्तं भिक्षापरिमाणमानेतव्यम्। सत्ता स्त्री० (सत्ता) सामान्ये, विशे० / अविशेषेण सदबुद्धिवेद्येष्वपि अत्रैव करणान्तरमाह सर्वपदार्थेषुद्रव्यादिष्वेव त्रिषु सत्तासंबन्धः स्वीक्रियते, नसामान्यादिवये गच्छुत्तरसंविग्गे,उत्तरहीणम्मिपक्खिवे आदि। इति महतीयं पश्यतो हरता, यतः परिभाव्यतां सत्ताशब्दार्थः / अस्तीति अंतिमधणमादिजुयं,गच्छद्धगुणं तु सव्वधणं॥८६॥ सन् सतो भावः सत्ता-अस्तित्वं-तद्वस्तुस्वरूपं तच निर्विशेषमशेषेष्वपि गच्छ उत्तरेण संवर्गे संवर्म्यते स्म संवर्गो गुणित इत्यर्थः; तस्मिन् उत्तरेण | पदार्थेषु त्वयाऽप्युक्तम्, तत्किमिदमर्द्धजरतीय यद् द्रव्यादित्रय एव हीने कृते आदि प्रक्षिपेत् ततः अन्तिमधनमागच्छति, तदन्तिमधनम सत्तायोगो नेतरत्रये इति, अनुवृत्तिप्रत्ययाऽभावान्न सामान्यादित्रये आदियुक्तं क्रियते, तदनन्तरं गच्छार्द्धगुण ततः सर्वधनमागच्छति। तत्र सत्तायोग इति चेत्, न तत्राप्यनुवृत्तिप्रत्ययस्याऽनिवार्यत्वात् / सप्तसप्तकिकायां सप्त आदिः, सप्त उत्तरं, सप्त गच्छः, ततः सप्तकलक्षणो पृथिवीत्वगोत्वघटत्वा-दिसामान्येषु सामान्य सामान्यमिति विशेषेष्वपि गच्छ उत्तरेण सप्तलक्षणेन गुण्यते। जाता एकोनपञ्चाशत् 46, सा उत्तरेण बहुत्वादयमपि विशेषोऽयमपि विशेष इति, समवाये च प्रागुक्तयुक्त्या सप्तकेन हीना क्रियते, कृत्वा च पुनरादिना सप्तकेनैव युता कर्तव्या। इदं तत्तदव-च्छेदकभेदाद्- एकाकारप्रतीतेरनुभवात् स्वरूपसत्त्वसाधर्येण करणमन्यत्रापि व्यापकं , तत एवमुक्तमन्यथा चोत्तरहानावादिप्रक्षेपेच सत्ताध्यारोपात्सामान्यादिष्वपि सत्सदित्यनुगम इति चेत्तर्हि न कश्चिद्विशेषस्तस्या एव एकोनपञ्चाशतो भावात् / एतत् अन्तिमधनं मिथ्याप्रत्ययोऽयमापद्यते। अथ भिन्न स्वभावेष्वेकानुगभो मिथ्यै-वेति सप्तमे सप्तके भिक्षापरिमाणमित्यर्थः, तस्मिन् उत्तरेण हीने कृते आदि चेद, द्रव्यादिष्वपि सत्ताध्यारोपः कृत एवास्तु प्रत्ययानुगमः। असति प्रक्षिपेत्, ततः अन्तिमधनमागच्छति, तदन्तिमधनमादियुतं क्रियते, मुख्येऽध्यारोपस्याऽसंभवाद्-द्रव्यादिषु मुख्योऽयभनुगतः प्रत्ययः तदनन्तरं गच्छार्द्धगुण, ततः सर्वधनमागाच्छति। तत्र सप्तसप्तकिकायां सामान्यादिषु तु गौण इति चेत्। न, विपर्ययस्यापि शक्यकल्पनत्वात् सप्त आदिः, सप्त उत्तरं, सप्तगच्छः, ततः सप्तकलक्षणो गच्छ उत्तरेण सामान्यादिषु बाधकसंभवान्न मुख्योऽनुगतः प्रत्ययः, द्रव्यादिषु तु सप्तकलक्षणेन गुण्यते; एतत् आदिना सप्तकेन युतं क्रियते / जाताः- तदभावान्मुख्य इति चेद; ननु किमिदं बाधकम्? अथ सामान्येऽपि षट्पञ्चाशत् स गच्छार्द्धन गुण्यते,अत्र गच्छः सप्तकः स विषमत्वादर्द्धन सत्ताऽभ्युपगमेऽनवस्था विशेषेषु पुनः सामान्यसद्भावे स्वरूपहानिः, प्रयच्छति ततो गुणा राशिः षड्पश्चाशल्लक्षणोऽी क्रियते, जाता समवायेऽपि सत्ताकल्पने तवृत्त्यर्थ सम्बन्धान्तराभाव इति बाधकानीति अष्टाविंशतिः, सा परिपूर्ण न सप्तकलक्षणेन गच्छेन गुण्यतेजात षण्णवतं / चेत् / न सामान्येऽपि सत्ताकल्पने यद्यनवस्था तर्हि कथं न सा द्रप्यादिषु शतम् 166 व्य०६उ०। औ० स०प्रव०। अन्त०। तेषामपि स्वरूपसत्तायाः प्रागेव विद्यमानत्वात् / विशेषेषु पुनः सत्ताभ्युसत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति, पढमे सत्तए गमेऽपि न स्वरूपहानिः स्वरूपस्य प्रत्युतोत्तेजनात्, निःसामान्यस्य एक्ककं भोयणस्स दत्तिं पडिगाहेति एकेक पाणयस्स। दोचे सत्तए दो विशेषस्य कचिदप्यनुपलम्भात् / समवायेऽपि समवायत्वलक्षणायाः दो भोयणस्स दो दो पाणयस्स पडिगाहेति। तच्चे सत्तते तिपिण स्वरूपसत्तायाः स्वीकारे उपपद्यत एवाऽविष्वग्भावात्मकः सम्बन्धः, भोयणस्स तिण्णि पाणयस्स, चउत्थे सत्त० 4 पंचमे सत्त०५ छठे अन्यथा तस्य स्वरूपाभावप्रसङ्गः इति बाधकाभावात्तेष्यपि द्रव्यादिसत्तए 6 सत्तमे सत्तते सत्तर दत्तीतो भोयणस्स पडिगाहेति सत्त वन्मुख्य एव सत्तासम्बन्धः इति व्यर्थ द्रव्यगुणकर्मस्वेव सत्ताकल्पनम्। पाणयस्स। एवं खलु एयं सत्तसत्तमियं भिक्खु-पडिमं एगूणवण्णासे किं च-तैर्वादिभिर्यो द्रव्यादित्रयेमुख्यः सत्तासंबन्धः कक्षीकृतः सोऽपि राइदिएहिं एगेण य छन्नउएणं भिक्खासतेणं अहासुत्ता. जाव विचार्यमाणो विशीर्यत, तथा हि-यदि द्रव्यादिभ्योऽत्यन्तविलक्षणा आराहेत्ता। अन्त०५ वर्ग 3 अ०। सत्ता तदा द्रव्यादीन्यसद्रूपाण्येव स्युः सत्तायोगात्सत्त्वमस्त्येवेति चेद्, सत्तसत्तिक्कया स्त्री० (सप्तसप्तै किका) सप्ताध्ययनात्मिकाया असतां सत्तायोगेऽपि कुतः सत्त्वं?, सता तु निष्फलः सत्तायोगः / द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य द्वितीयचूडायाम, आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०। स्वरूपसत्त्वं भावानामस्त्येवेति चेत्तर्हि किं शिखण्डिना सत्तायोगेन? प्रश्रम सत्तायोगात् प्राग्भावो न सन्, नाप्यसन सत्तायोगात्तु सन्निति सत्तसरसमन्नागय त्रि० (सप्तस्वरसमन्वागत) षड्जादिसप्तस्वरान् / चेद्वाड् मात्रमतत, सदसद्विलक्षणस्य प्रकारान्तरस्याऽसंभवात् सम्यगनुगते, जं०१वक्ष। तस्मात् 'सतामपि स्यात्वचिदेव सत्ता' इति तेषां वचनं विदुषां परिषदि सत्तसार पुं० (सप्तसार) दृढांशे, “सत्तसारो दुविहो-बाह्यो गुरुत्तं अब्भतरो कथमिव नोपहासाय जायते? स्या० / द्रव्यगुणकर्मलक्षणेषु त्रिषु प Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता 324 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ता दार्थेषु सदबुद्धिहेतुः सत्ता। आ० म०१ अ०। स्या०। ("त्रिपदा-र्थसत्करी सत्ता" इति वचनात् सत्ताभ्युपगमः 'सामण्ण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे साधयिष्यते) उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।स्या०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'अणे गंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 425 पृष्ठे गता / ) (अयमेवार्थः अर्थक्रियाकारित्वलक्षण सत्त्वमभ्युपगच्छतां क्षणिकवादिनां दूषणमुद्भाव्यजातिलक्षणं सत्त्वं सम्मतितकें प्रपशेन साधितं तत एवावगन्तव्यम् / ) सम्म० / ('समवाय' शब्देऽस्मिन्नेव भाग 2, खण्डनावसरे सत्ताखण्डनमण्डने कारिष्येते)। द्रव्यगुणकर्मसु सत्ता परसामान्यम्। सूत्र०१ श्रु०१अ०२ अ०। सद्भावे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। आ० म० / सत्तानां यत्र ग्रामे नगरे वा भाजनानि सन्तीति प्राकरणिकोऽर्थः। बृ०३ उ०। सद्भावः सत्ता। क० प्र०१ प्रक० / कर्मपुद्गलाना बन्धसंक्रमाभ्यां लब्धात्मलाभानां निर्जरणसंक्र मकृतस्वरूपप्रच्युत्यभावे सति सद्भावे, कर्म० 5 कर्म०। बन्धसमयात् संक्रमणात्मलाभसमयादारभ्य यावत्ते कर्मपरमाणी नान्यत्र संक्रम्यन्ते यावद्वान क्षयमुपगच्छन्ति तावत्तेषां स्वरूपेण सद्भावे, कर्म०६ कर्म० / सत्तालक्षणम्-सत्तामाश्रित्य गुणस्थानेषु कर्मक्षपणं च। अथ सत्तालक्षणकथनपूर्वकं यथा तेन भगवता त्रिलोकाधिपतिना श्रीमद्बर्द्धमानस्वामिना सत्तामाश्रित्य गुण स्थानेषु कर्माणि क्षपितानि तथा प्रतिपादयन्नाहसत्ता कम्माण ठिई, बंधाईलम्सअत्तलाभाणं। संते अडयालसयं, जा उवसमुविजिणुबियतइए।२५।। सत्ता उच्यते इति शेषः, किमित्याह- कर्मणां ज्ञानावरणादियोग्यपरमाणूनां स्थितिरवस्थानं सद्भाव इति पर्यायाः / किं विशिष्टाना कर्मणामित्याह-बन्धादिलब्धात्मलाभाना, तत्र मिथ्यात्वादिभिहेतुभिः कर्भयोग्यपुद्गलैरात्मनो वढ्ययः पिण्डवदन्यो-न्यानुगमाभेदात्मकः संबन्धोबन्धः, आदिशब्दात्-संक्रमकर-णादिपरिग्रहः / ततो अन्धादिभिर्लब्धः-प्राप्त आत्मलाभआत्मस्वरूप यस्तानि बन्धादिलब्धात्मलाभानि तेषां बन्धादिलब्धात्मलाभानां कर्मणां या स्थितिः सा सत्ता तस्याम्। 'संत'त्ति-सत्कर्मणि सत्तायामष्टाचत्वारिंश शतं प्रकृतीनां भवति / कियन्ति गुणस्थानानि, यावदित्याह- 'जा उवसमुत्ति यावदुपशममुपशान्तमोहम् / अयमर्थः, मिथ्यादृष्टिगुणस्थानात् प्रभृत्युपशान्तमोहगुणस्थानं यावदष्टा-चत्वारिंशं शतं सत्तायां भवति, किमविशेषणेत्याह- 'विजिणुबियतइए' त्ति-विगतं जिननाम यस्मात्तद्विजिनं जिननामविरहितं तदेवाष्टाचत्वारिंश शतं भवति, क्वेत्याह-द्वितीये सास्वादने तृतीये मिश्रदृष्टी "साराणमिस्सरहिएर वा हित्थमि" ति वचनात् सास्वादनभिश्रयाः सप्तचतवारिंशं शतं भवतीत्यर्थः। इदमत्र हृदयम्-इह मिथ्यादृष्टरष्टचत्वारिंशमपि शतं सत्तायां यदा हि प्रारबद्धनरकायुः क्षायोपशमिक सम्यवत्वमवाप्य तीर्थकरनाम्नो बन्धमारभते, तदाऽसौ नारकेषूत्पद्यमानः सम्यक्त्वमवश्यं वमतीति / भिध्यादृष्टस्तीर्थ-करनाम्नोऽपि सत्ता सम्भवति, सास्वादन मिश्रयोस्तु तस्मिन्नेव जिननामरहिते सप्तचत्वारिंश शतं सत्तायां जिननाम सत्कर्मणो जीवस्य तद्भावानवाप्तेस्तबन्धारम्भस्य च शुद्धसम्यक्त्वप्रत्ययत्वात्, यदुक्त बृहत्कर्मास्तवभाष्ये- "तित्थयरेण विहीण, सीयालस्यं तु संतए होइ। सासायणम्मि उ गुणेसम्मामीसे य पयडीणं / 1 / / " अविरतसम्यगदृष्ट्यादीनामक्षिप्तदर्शनसप्तकानामष्टचत्वारिंशस्यापि शतस्य सत्ता सम्भवतीति। अप्पुव्वाइचउक्के, अणतिरिनिरया उ विणु विआलसयं / सम्माइचउसु सत्तग-खयम्मि इगचत्तसयमहवा / / 26|| गाथापर्यन्तवय॑थवाशब्दस्य संबन्धात् पूर्व तावदष्टचत्वारिंशं शतं सत्तायामुक्तम् / अथवा-अयमपरः सत्तामाश्रित्य भेदः तथा हि-- अपूर्वादिचतुष्के अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूमक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहस्वरूपे 'अण' त्ति-अनन्तानुबन्धिचतुष्कम्, 'तिरि-निरयाउ' तिआयुःशब्दस्य प्रत्येकं योगात्तिर्यगायुर्नरकायुश्च विना द्विचत्वारिंशं शतं भवतीति / अयमाशयः यः कश्चिद्विसंयोजितानन्तानुबन्धिचतुष्को बद्धदेवायुमनुजायुषि वर्तमान उपशमश्रेणिमारोहति, तस्य तिर्यगायुर्नरकायुरनन्तानुबन्धिचतुष्कलक्षणप्रकृतिषट्करहितं शेषं द्विचत्वारिंशं शतं सत्तायां प्राप्यते, यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवभाष्ये- “अणतिरिनारयरहियं, बायालसयं विभाणसंतम्मि। उवसामग्गस्स पुव्वा, नियट्टि सुहमोवसंतम्मि / / 1 / / " 'सम्माइचउसु'त्ति इत्यादि, सम्यक्त्वादि चतुर्यु अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु 'सत्तगखयम्भि'त्ति अनन्तानुबन्धिचतुष्कमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वलक्षणसप्तकक्षये सत्येकचत्वारिंश शतम्। अथवा--सत्तायां भवति / इहाप्यथवाशब्द आवृत्त्या योज्यते,यदुक्त बृहत्कर्मस्तवसूत्रे- “अणमिच्छमीससम्म, अविरयसम्माओ अप्पमत्तता।” इति। खवगं तु पप्प चउसु वि, पणयालं नरयतिरिसुरा उ विणा। सत्तगविणु अडतीसं, जा अनियट्टी पढमभागे // 27|| क्षपकं तुः पुनरर्थे, क्षपकं पुनः प्रतीत्य-आश्रित्य चतुर्ध्वपि अविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तेषु 'पणयालं'ति-पञ्चचत्वारिंशं शतम्। अथवाभवत्यथवाशब्द इहापि संबध्यते। कथमित्याह 'नरयतिरिसुराउ विण' त्ति-आयुःशब्दस्य प्रत्येक योगान्नरकायुस्तिर्यगायुः-सुरायुर्विनान्तरेण / इदमुक्तं भवतियो जीवो नारकतिर्यक्सुरेषु चरम तद्भवमनुभूय मनुष्यतयोत्पन्नस्तस्य नारकतिर्यकसुरायूंषि स्वस्वभवे व्यवच्छिन्नसत्ताकानि जातानि पुनस्तदनवाप्तेः / उक्तं च–“सुरनरतिरिय आउं. निययभव सव्वजीवाणमिति" इयं चैतेषु गुणस्थानेषु सामान्यजीवानां सम्भवमाश्रित्य सत्तावर्णिता न त्वधिकृतस्तवस्तुत्यस्य चरमजिनपरिवृढस्यत्, अस्याः सुरनारकतिर्यगायुः संभवापेक्षणीयत्वा जिनस्य च तदसंभवात तस्यापि च प्राग्भवापेक्षया संभवो वाच्यः, इदमेव पञ्चचत्वारिंशं शतं सप्तकमनन्तानुबन्धिमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वाख्यं विना अष्टाविंशं शतं भवति। कियन्ति गुणस्थानानि, यावदित्याह-'जा अनियट्टी पङमभागु' त्तिइहानिवृत्तिबादराद्धाया नव भागाः क्रियन्ते, ततोऽविरते देशविरते प्रमत्तेऽप्रमत्ते निवृत्तिबादरेऽनिवृत्तिबादरस्य च प्रथमो भागस्तावदष्टात्रिंश शतं भवति, उक्त च-"संते अड्यालसयं, खवगंतुपय होइ पणयालं। आउतिगन Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता 325 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ता स्थि तहिं, सत्तगखीणम्मि अडतीसं ||1|| पणयालं अडतीसं, अविरयसम्माउ अप्पमत्तो त्ति। अ(प्पु) पुव्वे अडतीसं, नवरं खवगम्मि बोधव्वं / / 2 / " इति। अथ क्षपक श्रेणिमधिकृत्यानिवृत्तिबादरादिषु प्रकृतिसचा वर्ण्यत, उपशमश्रेणिसत्तायास्त्विह नाधिकार इतिथावरतिरिनिरया यव, दुगथीणतिगेगविगलसाहारं। सोलखओ दुवीससयं, वियंसि वियतियकसायंतो॥२८॥ इहानिवृत्तिबादरस्य प्रथमे भागे अष्टात्रिंशं शतं सत्तायां भवति, तत्र च 'थावरतिरिनिरया य व दुग' त्ति-द्विकशब्दस्य प्रत्येक यागात स्थावरद्विक -स्थावरसूक्ष्मलक्षण तिर्यक् द्वितिय गतितिर्यगानुपूर्वी रूपं नरक द्विकंनरकगतिनरकानुपूर्वील क्षणमातपद्विकमातपउद्योताख्यं 'थीणतिग' त्ति-स्त्यानद्धित्रिक-निद्रानिद्राप्र--- चलाप्रचलारत्यानद्धिलक्षणम् ‘एग' त्ति-एकेन्द्रियजातिः, 'विगल' त्ति विक लेन्द्रियजातयो द्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिलक्षणाः 'साहारं' ति-साधारणनामेत्येतासां षोडशानां प्रकृतीनां क्षयः सत्तामाश्रित्य भवति, ततोडनिवृत्तिबादरस्य व्यंशे द्वितीयभाग द्विविशं शतं भवति। तत्र 'बियतियकसायं तु'त्ति-कषायशब्दस्य प्रत्येक योगात् द्वितीयकषाया अप्रत्याख्यानावरणाः चत्वारः तृतीयकषायाः प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वार इत्येता-सामष्टानाप्रकृतीनामन्तः क्षयस्ततस्तृतीयांऽशे चतुर्दशशतं भवतीति। एतदेवाहतइयाइसु चउदसते-रवारछपणचउतिहियसयकमसो। नपुइत्थिहासछगपुं-सतुरियकोहमयमायखओ॥२६॥ तृतीयादिषु भागेषु चतुर्दश च त्रयोदश च द्वादश चषट्च पच च चत्वारि च त्रीणि चेति द्वन्द्वस्तैरधिकं शतं 'तिहियसय' इत्यत्राकारलोपा विभक्तिल' पश्च प्राकृतत्वात्, क्रमश:-क्रमेण सत्तायां भवति, कथमित्याह- 'नपुंइत्थि' इत्यादिन पुंच-नपुंसकवेदः स्त्रीच-स्वीवेदः हास्यषट्क च-हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्साख्यं पुमाँश्च पुवेदः नपुंस्वीहास्यषट्कपुमांसः क्रोधश्चकोपः मदश्चमदो मानोऽहड्कार इति पर्याया: माया च--निकृतिः क्रोधमदमायास्तुर्या: चतुर्थाः संज्वलनाःोधमदमायाः तुर्यक्रोधमदमायाः नपुंस्त्रीहास्यषटकपुमासश्च तुर्यक्रोधमदनायाश्च नपुस्त्रीहास्यषट्कपुतुर्य क्रोधमदमायास्तासां क्षयो नपुरजीहास्यषटकपुतुर्यक्रोधमदमायाक्षयः 'भायखओ' इत्यत्र ह्रस्वत्वं "दीर्घहस्वी मिथोवृत्तौ" // 8/1 / 4 / इत्यनेन प्राकृतसूत्रेणेति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम् अनिवृत्तिबादरस्य तृतीये भागे द्वितीयतृतीयकषायाष्टकक्षये चतुर्दशाधिक शतं चतुर्थभागे नपुंसकवेदक्षये त्रयोदशाधिक शत,पञ्चमे भागे स्वीधदक्षये द्वादशाधिक शतं, षष्ठे भागे हास्यषट्कक्षये षडधिक शत, सप्तमे भागे पुंवेदक्षये पश्चाधिक शतम, अष्टमे भागे संज्वलनकोधक्षये चतुरधिकं शतं, नवमे भागे संज्वलनमानक्षये त्र्यधिक शतं. संज्वलनमायाक्षये तु व्यधिकं शतं सत्तायां भवति, तच सूक्ष्मसंपराये। तथाचाहसुहुमि दुसयलोहं तो,खीणदुचरिमेगसओ दुनिद्दखओ। नवनवइ चरमसमए, चउदंसणनाणविग्धंतो॥३०॥ 'सुहुमि त्ति-सूक्ष्मसंपराये द्विशतं द्वाभ्यामधिकं शतं सत्तायां भवति, तत्र च लोभान्तःसंज्वलनलोभस्य क्षयस्ततः 'खीणदुचरिमेगसउ' त्तिक्षीणमोहद्विचरमसमय एकशतमेकाधिकं शतं सत्तायां, तत्र च 'दुनिदखओ' त्ति निद्राप्रचलयोर्द्वयोःक्षयो भवति, ततो नवनवतिश्चरमसमये क्षीणमोहगुणस्थानस्येति शेषः, तत्र चत्वारि च तानि दर्शनानि च चतुदर्शनानि चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणाख्यानि ज्ञानानिज्ञानावरणानि मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेवलज्ञानावरणलक्षणानि पञ्च विघ्नानिदानलाभभोगोपभोगवीर्यविघ्ररूपाणि पञ्च तेषामन्तो भवति ततः / पणसीइसजोगी अजो-गिदुचरिमे देवखगइगंधदुगं। फासट्ठवन्नरसतणु-बंधणसंघायपणनिमिणं॥३१॥ पञ्चाशीतिः सयोगिकेवलिनि सत्तायां भवति, ततः 'अजोगि दुचरिम' त्ति-अयोगिकेवलिनि द्विचरमसमये इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनां क्षयो भवति,ता एवाह-- 'देवखगइगंधदुर्ग' ति-द्विकशब्दस्य प्रत्येक योगात् देवद्विकंदेवगतिदेवानुपूर्वीरूपम् खगतिद्विकंशुभविहायोगत्यशुभविहायोगतिरूपं गन्धद्विकं सुरभिगन्धासुरभिगन्धाख्यं 'फास?' तिस्पष्टिकगुरुलघुमृदृखरशीतोष्णस्निग्धरूक्षाख्यम् 'वन्नरसतणुबंधणसंधायपण' त्ति-पञ्चकशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात् वर्णपञ्चकंकृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लाख्यम्,रसपञ्चकतिक्तकटुकषायाम्लमधुर-र पम्, तनुपञ्चकम्-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणतनुलक्षणम्, एवं तनुनाम्ना बन्धनपाकम,संघातनपश्शकं च वाच्यम् 'निमिज' त्ति-- निर्माणामिति / संघयणअथिरसंठा-णछक्क अगुरुलहु चउ अपज्जत्तं / सायं व असायं वा, परित्तुवंगतिगसुसरनियं // 32 // षट्कशब्दस्य प्रत्येक योगात् सहननषटकं वज्रर्षभनाराचऋषभ.. नाराचनाराचार्द्धनाराचकीलिकासेवार्तसंहननाख्यम्, अस्थिरषट्कमस्थिराशुभदुर्भगदुःखरानादेयायशःकीर्तिरूप, संस्थानषट्कंसमचतुरसन्यगोधपरिमण्डलसादिवामनकुटनहुण्डसंस्थानाख्यम्, अगुरुलघुचतुष्कम् अगुरुलघूपधातपराघातोच्छासाख्यमपर्याप्त सातं वा असातं वा एकतरवेदनीयं यदनुदयावस्थं परितुवंगतिग' त्तित्रिकशब्दस्य प्रत्येकं संबन्धात् प्रत्येकत्रिकं प्रत्येकस्थिरशुभाख्यम् उपाङ्ग त्रिकम्-औदारिकवैक्रियाहारकाङ्गोपाङ्ग रूपं सुस्वरम्, 'नियं' तिनीचैर्गोत्रमिति। बिसयरिखओ यचरिमे, तेरसमणुय तसतिगजसाइज। सुभगजिणुचपणिंदिय,सायासाएगयरछेओ॥३३॥ इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनामयोगिके वलिद्विचरमसमये सत्तामाश्रित्य क्षयो भवति, ततः पूर्वोक्तपञ्चाशीतेरिमा द्विसप्ततिप्रकृतयोऽपनीयन्ते,शेषास्त्रयोदश प्रकृतयोऽयोगिचरमसमये क्षीयन्ते। तथा चाह- 'बिसयरिखओ' त्ति-स्पष्टम्। चः पुनरर्थे , व्यवहितसंबन्धश्च, चरमसमये पुनरयोगिके वलिनस्त्रयोदशप्रकृतीनां क्षयो भवति, 'भणुयतसतिग' शि-त्रिक शब्दस्य प्रत्येकं योगात् मनुजत्रिकंमनु जगतिमनु जानु पूर्वीमनुजाऽऽयुर्लक्षणम्, वसत्रिकं त्रसबादरपर्याप्ताऽऽख्यम् / 'जसाइज्जति' यशः कीर्ति नाम आदेय Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता 326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ता नाम 'सुभगजिणुच्च' त्ति-सुभगनाम जिननाम उच्चैर्गोत्रम् 'पणिंदिय'त्तिपञ्चेन्द्रियजातिः साताऽसातयोरेकतरं तस्य छेदः सत्तामाश्रित्य क्षय | इति। अत्रैव मतान्तरमाहनर अणुपुव्वि विणा वा,बारस चरिमसमयम्मि जो खविउं / पत्तो सिद्धिं देविं-दवंदियं नमहतं वीरं॥३४॥ नरानुपूर्वी विनामनुष्यानुपूर्वीमन्तरेण वाशब्दो मतान्तरसूचको, द्वादशप्रकृतिरयोगिकेवलिचरमसमये यः क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तस्तं वीर नमतेति संटङ्कः / अयमत्राभिप्रायः-मनुजाऽऽनुपूर्व्या अयोगिद्विचरसमये सत्ताव्यवच्छेद उदयाभावात्।उदयवतीनां हि द्वादशानां स्तिबुकसंक्रमाभावाल्स्वानुभवेन दलिक चरमसमयेऽपि दृश्यते इति युक्तस्तासां चरमसमये क्षयः / आनुपूर्वीनाम्नां तु चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकित्वादवान्तरालगतावे वोदयस्तेन भवस्थस्य नास्ति तदुदयस्तदुदयाभावाचायोगिद्विचरसमये मनुजानुपूर्व्या अपि सत्ताव्यवच्छेदः, तन्मते योगिके वलिनो द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीना चरमसमये (च) द्वादशानां क्षय इति। ततो यो भगवान् मातापित्रोर्दिवंगतयोः संपूर्णनिजप्रतिज्ञो भक्तिसभारभ्राजिष्णुरोचिष्णुलोकान्तिकत्रिदशसद्मजन्मभिः पुष्पमाणवकैरिव “सव्वजगज्जीवहियं, भयवं तित्थं पवत्तेहि।" इत्यादिवाभिनिवेदिते निष्क्रमणसमये संवत्सरं यावन्निरन्तरं स्थूरचामीकरधारासारैः प्रावृषेण्यधाराधर इवामुद्रदारिद्रसंतापप्रसरमवनीमण्डलस्योपशमय्य परस्परमहमहमिकया समायातसुरासुरनरोरगनायकनिकरैर्जयजीवनन्दक्षत्रियवरवृषभेत्यादिवचनरचनया स्तूयमानः संप्राप्यज्ञातखण्डवनं प्रतिपन्ननिरवद्यचारित्रभारः साधिका द्वादशसंवत्सरी यावत्परीषहोपसर्गवर्गसंसर्गमुग्रमधिसह्य परमसितध्यानाकुण्ठकुठारधारया सकलधनघातिवनखण्डनमखण्डमाधाय निर्मलाविकलके वलबलावलोकितनिखिललोकालोकः श्रीगौतमप्रभृतिमुनिपुड़वानां तत्त्वमुपदिश्य संसारसरितः सुखंसुखेन समुत्तरणाय भव्यजनानां धर्मतीर्थमुपदायोगिकेवलिचरमसमये त्रयोदशप्रकृतीदिशप्रकृती क्षपयित्वा सिद्धिं परमानन्दरूपां प्राप्तस्तं नमतप्रणमत वीरश्रीवर्द्धमानस्वामिनम् / किं विशिष्ट? देवेन्द्रवन्दितम्-देवानां भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामिन्द्राः स्वामिनो देवेन्द्राः तैर्वन्दितः शशधरकरनिकरविमलतरगुणगणोत्कीर्तनन स्तुतः, शिरसा च प्रणतः, 'वदुड' स्तुत्यभिवादनयोरिति वचनात्। यदा-पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् देवेन्द्रेण-देवेन्द्रसूरिणा आचार्येण श्रीमज्जगच्चन्द्रसूरिचरणसरसीरुहचञ्चरीकेण वन्दितः सकलकर्मक्षयलक्षणसाधारणगुणसंकीर्तनेन स्तुतः कायेन च प्रणत इति, नमतेति प्रेरणायां पञ्चम्यन्तं, क्रियापदम्, तच्च श्रोतृणां कथञ्चिदनाभोगवशतः प्रमादसंभवेऽप्याचारेण नोद्विजितव्यम्, किं तु-मृदु-मधुर- वचोभिः शिक्षानिबन्धनैः श्रोतृणां मनांसि प्रह्लाद्य यथार्ह सन्मार्गप्रवृत्तिरुपदेष्टव्येति ज्ञापनार्थम्। कर्मा०२ कर्म०। (ध्रुवाध्रुवसत्ता 'संतकम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 137 पृष्ठ दर्शिता।) ('कम्म' शब्दे तृतीयभागे 266 पृष्ठे बन्धोदयसत्तास्थानानां सम्बन्धे उक्तः / तत्रैव सत्तास्थानानां कालमानम्।) (गुणस्थानकेषु सत्तोदययोजना 'गुणट्टाण' शब्दे तृतीयभागे 623 पृष्ठे उक्ता।) सर्वासां प्रकृतीनां सत्तामाश्रित्य भूयस्कारादिसत्तास्थानानिभूयप्पयरा इगिचउ-वीसं जन्नेइ केवली छउमं। अजओ य केवलितं, तित्थयरियराव अन्नोन्नं / / 16 / / व्याख्या-भूयस्काराः-भूयस्कारोदया एकविंशतिः, अल्पतरोदयाश्चतुर्विशतिः, नोक्तसंख्यातो द्वयानामेकेऽप्यधिकाः, कुत इत्याह-यद्यस्मात्कारणान्न केवली छाछद्मोदयान् याति, नाऽप्ययतोऽविरतोऽविरतसम्यग्दृष्टिः केवलित्वं केवलित्यनिबन्धनेषूदयस्थानेषु याति, नाप्यतीर्थकरतीर्थकरावन्योन्यमन्योन्यस्योदयेषु गच्छतः,तत उक्तसंख्याका एव भूयस्काराऽल्पतरोदयाः। इयमत्र भावना-न केवली छद्मस्थोदयेषु याति, न चाप्यतीर्थकरस्तीर्थकरोदयम् / उपलक्षणमेतत्, तेन नाप्ययोगी सयोगिकेवल्युदयम् / तत एकादशद्वादशत्रयोविंशतिचतुर्विशतिचतुश्चत्वारिंशल्लक्षणानि पञ्च उदयस्थानानि भूयस्कारतया च प्राप्यन्ते; इत्येकविंशतिरेव भूयस्कारोदयाः / तथा अविरतसम्यगदृष्टिर्मिथ्यादृष्टिवर्वा न केवल्युदयस्थानमधिरोहति, ततश्चतुस्त्रिंशल्लक्षणोऽल्पतरोदयो न लभ्यते / आह-चतुस्त्रिंशदुदयः स्वभावस्थस्य तीर्थकृतः केवलिनो भवति, ततो यदा तीर्थकरः केवलित्वमासादयति, तदा चतुश्चत्वारिंशदादीनामन्यतमस्मादुदयस्थानाचतुरित्रंशदुदयस्थाने संक्रामतीति भवति चतुस्त्रिंशदुदयोऽल्पतरः तदेतदसमीचीनं,सर्वथा वस्तुतत्त्वाऽपरिज्ञानात्। केवलित्वं हि नाम सर्वोऽपि सामासादयति गुणस्थानकक्रमेण, नान्यथा, तत्र क्षीणमोहगुण स्थानके त्रयस्त्रिंशत्प्रकृत्यात्मकमेवोदय स्थानं, न शेषम् त्रयस्त्रिंशत्प्रकृतयश्चेमाः-मनुष्यगतिः पोन्द्रियजातिस्त्रसनामवादरनाम पर्याप्तकनाम सुभगनाम आदेयं यशःकीर्तिस्तैजसकार्मणे स्थिरास्थिरे शुभाशुभे वर्णादिचतुष्टयमगुरुलधुनिर्माणमौदारिकद्विकं प्रत्येकनाम उपघातनाम अन्यतरविहायोगतिः पराघातनाम सुखरदुःखरयोरन्यतरत् उच्छ्रासनाम संस्थानषट्कान्यतममेकं संस्थानं वज्रर्षभनाराचसंहननं सातासतान्यतरवेदनीयं मनुष्यायुरुचैर्गोत्रमिति / ततः केवलज्ञानोत्पत्तौ सयोगिकेवलिगुणस्थन प्राप्तः तीर्थकरनामकर्मण उदयतश्चतुस्त्रिंशल्लक्षणमुदयस्थानं भूयस्कारतयैव प्राप्यते, नाल्पतरया / यदपि चैकोनषष्टिरूपमुदयस्थानं,तस्यापि नाल्पतरत्वसंभवः, ततोऽन्यस्य महत उदयस्थानस्याऽसंभवात् / यदि हि ततोऽपि महदन्यदुदयस्थानं भवेत्, ततस्तस्मात्तत्र संक्रान्तौ तदल्पतरं भवेत्, न च तदस्ति,तरमाचतुस्त्रिंशदेकोनषष्टिरूपौद्वावुदयावल्पतरौ न भवतः, इति चतुर्विंशतिरल्पतराः। तदेवमुक्ताः सामान्यतः सर्वोत्तर-प्रकृतीनामुदयस्थानेषु भूयस्कारादयः। संप्रति प्रत्येकं ज्ञानावरणीयाधुत्तरप्रकृतीनां सामान्यतः सर्वोत्तरप्रकृतीनांच सत्तास्थानेषु वक्तव्याः। तत्र प्रत्येकं ज्ञानावरणीयाद्युत्तरप्रकृतीनां स्वयमेव ज्ञातव्याः, ते चैवंज्ञानावरणीयस्यान्तरायस्य च प्रत्येकं पञ्चपञ्चप्रकृत्यात्मकमेकं सत्तास्थानम्। अत्र द्वितीयं महदल्पंवा सत्तास्थानं न समस्तीति भूयस्काराल्पतरत्वसंभवः, नाप्यवक्तव्यसत्कर्मता ज्ञानावरणीयस्यान्तरा Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता 327 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ता यस्य च प्रत्येकं सर्वस्वस्वोत्तरप्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदे भूयः सत्तासंभवाऽभावात्। वेदनीयस्य द्वे सत्तास्थाने,तद्यथा-द्वेएका च / तत्र द्वे अयोग्यवस्थाया द्विचरमसमयं यावत्, एका चरमसमये, अत्र न भूयस्कारसत्कर्मता, एकप्रकृत्यात्मकसत्तास्थानका द्विप्रकृत्यात्मकसत्तास्थाने संक्रमाऽभावात्। एकमल्पतर, तच्चैकप्रकृत्यात्मकम्। एक द्विप्रकृत्यात्मकमवस्थितम्, एकप्रकृत्यात्मकस्य समयमात्रावस्थायितया अवस्थितत्वाऽसंभवात्। गोत्रायुषो. द्वे सत्तास्थानके, तद्यथा-वे एका च / तत्र यावत् द्वे अपि गोत्रप्रकृत्यो सत्यौ तावद् द्वे, यदा पुनस्तेजोवायुभवगतेनोचैर्गोत्रमुदलितं भवति, नीचैर्गोत्र वा अयोग्यवस्थाद्विचरमसमये क्षीणं,तदा एका! आयुषोऽपि यावन्नाद्यापि परभवायुर्बध्नाति तावदेका प्रकृतिः सती,परभवायुर्वन्धे च द्वे। तत गोत्रस्यैकं द्विप्रकृत्यात्मकं भूयस्कारसत्कर्म, तत्र यदोधैर्गोत्रमुद्वल्य नीचैर्गोत्रैकसत्कर्मा सन् भूय उच्चैर्गोत्रमवबध्नाति तदा समवसेयम् एकमेक प्रकृत्यात्मकमल्पतर,तदपि चोच्चैर्गोत्रे उद्वलिते नीचैर्गोत्रे वा क्षीणे दृष्टव्यं द्वे अवस्थितसत्कर्मणी द्वयोरपि सत्तास्थानयोश्चिरकालमवस्थानसंभवात्,नवरमेकप्रकृत्यात्मके सत्तास्थाने चिरकालमवस्थानमुदलितोच्चैर्गोत्रस्य नीचैर्गोत्ररूपे द्रष्टव्यम्। आयुषोऽप्येकं द्विप्रकृत्यात्मकं भूयस्कारसत्कर्म, तच्च परभवायुबन्धारम्भसमये, एकमेकप्रकृत्यात्मकमल्पतरसत्कर्म, तच्चानुभूयमानभवायुषः सत्ताव्यवच्छेदे, परभवायुष उदयसमये द्वे अवस्थितसत्कर्मणी, द्वयोरपि सत्तास्थानयाश्चिरकालमवस्थानात् / यत्त्ववक्तव्यं सत्कर्म, तदुभयत्रापि न विद्यते, उभयोरपि सर्वस्वस्वोत्तरप्रकृतिव्यवच्छेदे भूयः सत्ताया अयोगात्, दर्शनावरणीयस्य त्रीणि सत्कर्मस्थानानि,तद्यथानव षट्चतस्रः, तत्र क्षपकश्रेणिमधिकृत्याऽनिवृत्तिबादर-संपराद्धायाः संख्येयान् भागान् यावदुपशमश्रेणिमधिकृत्योपशान्तमोहगुणस्थानक यावत् नव, क्षपक श्रेणावनिवृत्तिबादरसंपरायावाया: संख्ये येभ्यो भागेभ्यः परत आरभ्य क्षीणमोहगुणस्थानकस्य द्विचरमसमयं यावत् षट् / चरमसमये चतस्रः अत्र द्वे अल्पतरे, तद्यथा-षट् चतस्रः, द्वे अवस्थितसत्कर्मणी, तद्यथा-नव षट्, चतुःप्रकृत्या मकं तृतीयं सत्तास्थानम् एकसामायिकमिति न तस्याऽवस्थितत्वसंभवः भूयस्कारमवक्तव्यं चात्र न समस्ति, द्वित्रादिप्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदे सर्वस्वोत्तरप्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदे वा भूयः सत्तासंभवाऽभावात्। मोहनीयस्य पञ्चदश सत्तास्थानानि, तद्यथाअष्टाविंशतिः सप्तविंशतिः षइविंशतिः चतुर्विशतिस्त्रयोविंशतिाविंशतिरेकविंशतिस्त्रयोदश द्वादश एकादश पञ्च चतस्रस्तिस्रो वएका च। तत्र सर्वप्रकृतिसमुदायोऽष्टाविंशतिः, ततः सम्यक्त्वे उद्वलिते सप्तविंशतिः, सम्यग्मिथ्यात्वेऽप्युद्वलिते षड्विंशतिः / अथवाअनादिमिथ्यादृष्टः षड्विंशतिः अष्टविंशतेरनन्तानुबन्धिचतुष्टये क्षीणे चतुर्विशतिः, ततो मिथ्यात्वेक्षीणे त्रयोविंशतिः, ततः सम्यग्मिथ्यात्यक्षीणे द्वाविंशतिः, सम्यक्त्वेक्षीणे एकविंशतिः, ततोऽष्टसु कषायेषु क्षीणेषु त्रयादश. ततो नपुंसकवेदे क्षीणे द्वादश, ततोऽपि स्त्रीवेदे क्षीणे एकादश, ततः षट्सु नोकषायेषु क्षीणेषु पञ्च, ततः पुरुषवेदे क्षीणे | चतस्रः, ततः संज्वलनक्रोधेः क्षीणे तिस्रः, ततः संज्वलनमाने क्षीणे द्वे, संज्वलनमायायामपि क्षीणायामेका। अत्र पञ्चदश अवस्थितसत्कर्माणि सर्वेष्वपि, सत्तास्थानेषु जधन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त यावदवस्थानसंभवात्, चतुर्दश अल्पतराणि, तानि चाष्टा विंशतिवर्जानिशेषाणि सर्वाण्यपिद्रष्टव्यानि : एकं भूयस्कारसत्कर्म,ततोऽष्टाविंशतिलक्षणमवसे यम् / तथाहि- चतुर्विशतिसत्तास्थानात् षड्वंशतिसत्तास्थानाद्वा गच्छत्यष्टाविंशतिरूपं सत्तास्थानं, शेषाणि तु सत्तास्थानानि भूयस्कारतया न प्राप्यन्ते; अनन्तानुबन्धिसम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वव्यतिरेकेणान्यस्याः प्रकृतेः सत्ताव्यवच्छेदे भूयः सत्ताया अयोगात्, अवक्तव्यं तु न समस्ति,मोहनीयस्य सर्वोत्तरप्रकृतिव्यवच्छेदे पुनः सत्ताया असंभवात् / नाम्नो द्वादश सत्कर्मस्थानानि, तद्यथा-त्रिनवतिर्द्विनवतिरेकोननवतिरष्टाशीतिरशीतिरेकोनाऽशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिः षडशीतिरष्टसप्ततिर्नव अष्टौ च / तत्र सर्वप्रकृतिसमुदायस्विनवतिः सैव तीर्थकररहिता द्विनवतिः, त्रिनवतिरेवाहारकाहारकाङ्गोपाड़ा. हारकबन्धनाहारक संघातरूपाहारकचतुष्टयरहिता एकोननवतिः,द्विनवतिराहारकचतुष्टयहीना अष्टाशीतिः, इदमेकं प्रथमसंज्ञ सत्तास्थानचतुष्टयम्, अस्माचनामत्रयोदशके क्षयमुपगतेक्रमेण द्वितीय सत्तास्थानचतुष्टयं भवति, तद्यथा अशीतिरेकोनाऽशीतिः षट्सप्ततिः पञ्चसप्ततिश्च / इदं द्वितीयसंज्ञं सत्तास्थानचतुष्टयं, प्रथमसत्तास्थानचतुष्टयसत्काचतुर्थादष्टाशीतिलक्षणात्सत्तास्थानात् देवद्विके नरकद्विके वा उदलितेषडशीतिः, ततोऽपि देवद्विकसहितेनरकद्विकसहिते वा वैक्रियचतुष्टय उद्वलिते अशीतिः, ततोऽपि मनुष्यद्रिके उद्वलिते अष्टसप्ततिः / एतानि च त्रीण्यपि सत्तास्थानानि चिरंतनग्रन्थेषु अध्रुवसंज्ञानि व्यवह्रियन्ते, नवप्रकृत्यात्मक तीर्थकृतः, अतीर्थकृतस्त्वष्टप्रकृत्यात्मकमयोग्यवस्थाचरमसमये सुप्रतीतम् इहाशीतिलक्षणं सत्तास्थानं द्विधालभ्यते, तथापि संख्यातस्तुल्यमित्येकमेव गण्यते, ततो द्वादश सत्तास्थानानि भवन्ति / अत्र दश अवस्थितसत्कर्माणि, नवाष्टसत्तास्थानयोरेकसामयिकतयाऽवस्थितत्वाऽसंभवात्, दश अल्पतरस्थानानि, तद्यथा-प्रथमसत्तास्थानचतुष्टयाद् द्वितीयसत्तास्थानचतुष्टयगमनेन चत्वारि, द्वितीयसत्तास्थानचतुष्टयान्नवाष्टगमनेन द्वे, प्रथमसत्तास्थानचतुष्टयसत्कचतुर्थस्थानात्प्रथमा, ध्रुवसंज्ञसत्तास्थानगमने। ततोऽपितृतीया ध्रुवसत्तास्थानगमने द्वे त्रिनवतिद्विनवतिभ्यामाहारकचतुष्टयोद्वलन एकोननवत्यष्टाशीतिसंक्रान्तौ द्वे, एवं सर्वसंख्यया दशाल्पतरसत्तास्थानानि भवन्ति, भूयस्कारसत्तास्थानानि षट् तद्यथा-भूयो मनुष्यद्विकबन्धनेनाष्टासप्ततेरशीतौ गमनं, ततोऽपि नरकद्विके देवद्विके वा वैक्रियचतुष्टयसहितेभूयोऽपिबध्यमाने षडशीतौ, ततोऽपि देवद्विके नरकद्विके वा पुनरपि बध्यमानेऽष्टाशीतौ, ततोऽपि तीर्थकरनामबन्धे एकोननवत्यांगमनमिति चत्वारि, अष्टाशीतेरेवाहारकचतुष्टयबन्धनेन द्विनवतौ गमनं, ततोऽपि तीर्थकरनामबन्धे त्रिनवती, एवं सर्वसंख्ययया षट्, शेषात्सत्तास्थानादन्यस्मिन् प्रभूते सत्तास्थाने गमनसंभवः, तेन षडेव भूयस्कारसत्कर्माणि, यत्त्ववक्तव्यं सत्तास्थानं तदिह न भवति, नाम्नः सर्वोत्तरप्रकृतिसत्ताव्यव Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता 328 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ता च्छेदे भूयः सत्तोपादानाऽसंभवात्, तदेवमुक्ताः प्रत्येक ज्ञानावरणीयाधुत्तरप्रकृतीना सत्तास्थानेषु भूयस्कारादयः / / 16 / / संप्रति सामान्यतः सर्वोत्तरप्रकृतीनां तानभिधित्सुः प्रथमतः सत्तास्थानान्याहएक्कारबारसासीइ, इगिचउपंचाहियाय चउणउई। एत्तो चउद्दहियसयं, पणवीसाओ यछायालं // 20 // बत्तीसं नऽत्थि सयं, एवं अडयाल संत ठाणाणि। जोगिअघाइचउक्के,भण खिविउंघाइसंताणि॥२१।। सामान्यतः सर्वोत्तरप्रतीनां सत्तास्थानानि अष्टचत्वारिंशत, तद्यथाएकादश, द्वादश, अशीतिः, 'इगि चउ पंचाहिया य' त्ति-अत्राऽशीतिः संबध्यत / ततोऽयमर्थः -अशीतेरनन्तरमेकचतुः पशाधिका अशीतिर्वक्तव्या, तद्यथा-एकाशीतिश्चतुरशीतिः, पञ्चाशीतिः, ततश्चतुर्नवतिः ‘एत्तो' इत्यादि अतश्चतुर्नवतेलमेकोत्तरया वृद्ध्या निरन्तर यावत्सत्तास्थानानि वाच्यानि,यावच्चतुर्दशाधिकं शतम्, तद्यथा-पञ्चनवतिः,षण्णवतिः, सप्तनवतिः, अष्टानवतिः, नवतिः, शतम्, एकोत्तरं शतं, व्युत्तरं शतं,व्युत्तरं शतं, चतुरुत्तरं शतं, पञ्चोत्तर शत, षडुत्तर शतं, सप्तोत्तरं शतम्, अष्टोत्तर शतं, नवोत्तरं शतं. दशोत्तरं शतम, एकादशोत्तर शतं, द्वादशोत्तरं शतं त्रयोदशोत्तरं शत, चतुर्दशोत्तर शतम् अत ऊर्ध्व पञ्चविंशाच्छतादारभ्य क्रमेणैकोत्तरया वृद्ध्या तावदभिधातव्यानि सत्तास्थानानि, यावत षट्चत्वारिंशतं शतं, नवरं द्वात्रिंश शतं नाऽस्ति; द्वात्रिंशशताऽऽत्मकसत्तास्थानवर्जितान्यभिधातव्यानीत्यर्थः तद्यथा-पञ्चविंश शतं, षड्विंशशतं, सप्तविंशं शतम्, अष्टाविंश शतम्, एकोनत्रिंश शतं, त्रिंशं शतम्, एकत्रिंशं शतं, त्रयस्त्रिंशं शतं, चतुरिवंशं शतं, पञ्चत्रिंश शतं, षट्-त्रिंशं शतं, सप्तत्रिंशं शतम, अष्टात्रिंश शतम्, एकोनचत्वारिंशं शतं, चत्वारिंश शतम्, एकचत्वारिंश शतं, द्वाचल्वारिंशं शतं, त्रिचत्वारिंश शतं, चतुश्चत्वारिंशं शतं, पक्षचत्वारिंश शतं. षट्-चत्वारिशं शतम् एवं सर्वसंख्यया अष्टाचत्वारिंशत्सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-(११) 12 / 80 / 81184 / 85164 / 65 / 66 / 67 / 68/66/100 / 101 / 102 / 103 / 104 / 105 / 106 / 1071 108 / 106 / 110 / 111 / 112 / 113 / 114 / 125 / 126 1271 128 | 126 130 / 131 / 133 / 134 / 135 / 136! 137 / 138 / 136 / 140 / 141 / 142 / 143 / 144 / 145 / 146 / ) अमीषां च सत्तास्थानानां यथापरिज्ञानमुपसंपद्यते तथोपदेशमाह योगिनां सयोगिके वलिनां यदधातिप्रकृतिसत्कं सत्तास्थानचतुष्टयमशीत्यादिलक्षणं, तस्मिन् घातिकर्म सत्कानि सत्तास्थानानि क्रमेण क्षिप्त्वा अष्टचत्वारिंशदपि सत्तास्थानानि शिष्येभ्योय भणप्रतिपादय। एतदेव भाव्यते अतीर्थकरकेवलिनोऽयोग्यवस्थाचरमसमये एकादशप्रकृत्यात्मकं सत्तास्थानं, तस्मिन्नेव समये तीर्थकृतो द्वादशप्रकृत्यात्मक ; ताश्च द्वादशप्रकृतय इमाः, तद्यथा-- मनुष्यायुर्मनुष्यगतिः पञ्चेन्द्रियजातिस्त्रसनाम बादरनाम पर्याप्तकनाम सुभगमादेयं यशः कीर्तिस्तीर्थकरनाम अन्यतवेदनीयमुचैर्गोत्रमिति। स्ता एव द्वादश प्रकृतयस्तीर्थकरनामरहिता एकादश सयोगिकेवल्यवस्थायामशीत्यादीनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-अशीतिः, एकाशीतिः, चतुरशीतिः पञ्चाऽ-शीतिः (80 / 811 84 / 85 / ) तत्राशीतिरियंदेवद्विकमौदारिकचतुष्टयं, तैजसकार्मणशरीरे, तैजसकार्मणबन्धने, तैजसकार्मणसंघाते, संस्थानषट्कं, संहननषटकं, वर्णादिविंशतिः, अगुरुलघु, पराघातम्, उपघातनाम, सनाम, विहायोगतिद्विकं, स्थिराऽस्थिरे, शुभाऽशुभे, सुस्वरदुःस्वरे, दुर्भगम्, अयशः कीर्तिः, अनादेयं, निर्माण, प्रत्येकम्, अपर्याप्तं. मनुष्यानुपूर्वी, नीचैर्गोत्रम्, अन्यतरवेदनीयमित्येकोनसप्ततिः, एकादश च प्रागुक्ताः ततः सर्वसंख्यया अशीतिर्भवति। सैव तीर्थकरनामसहिता एकाशीतिः, अशीतिरेव आहारकचतुष्टयसहिता चतुरशीतिः, सैव तीर्थकरनामसमन्विता पञ्चाशीतिः / एतान्येवाऽशीत्यादीनि चत्वारि सत्तास्थानानि ज्ञानावरणपञ्चकदर्शनावरणचतुष्टयान्तरायपञ्चकसहितानि यथाक्रम चतुर्नवत्यादीनि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-चतुर्नवतिः, पञ्चनवतिः, अष्टानवतिः, नवनवतिः (64 / 65 / 6866) एतानि च क्षीणकषायचरमसमये नानाजीवानधिकृत्य प्राप्यन्ते; एतान्येव चतुर्नवत्यादीनि चत्वारि सत्तास्थानानि निद्राप्रचलासहितानि यथाक्रम घण्णवत्यादीनि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-षण्णवतिः, सप्तनवतिः, शतम्, एकोत्तर शतम् (66 / 67 / 1001101) एतानि क्षीणकषायगुणस्थानके द्विचरमसमयं यावत् नानाजीवापेक्षया प्राप्यन्ते एतेष्वेव संज्वलनलोभप्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-सप्तनवतिः, अष्टान-वतिः,एकोत्तरं शतं, व्युत्तरं शतम् (67 / 18 / 101 / 102) एतानि सूक्ष्मसंपराये लभ्यन्ते. एतेष्वेव संज्वलनमायाप्रक्षेपादमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-अष्टानवतिः, नवनवतिः, व्युत्तरं शतं,त्र्युत्तरं शतम् (68 | EE | 102 / 103 / ) एतान्यनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थानकपर्यवसाने लभ्यन्ते, ततस्तस्मिन्नेव गुणस्थानके तेष्वेव चतुषु सत्तास्थानेषु सज्यलनमानप्रक्षेपादेतानि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति तद्यथा-नवन-वतिः, शतं, त्र्युत्तरं शतं, चतुरुत्तरं शतम्, (66 /100 / 103: 104) तत एतेष्वेव चतुषु सत्तास्थानेषु तस्मिन्नेव गुणस्थानके संज्वलनक्रोधप्रक्षेपादमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, तद्यथा-शतम्, एकोत्तरं शतं,चतुरुत्तरं शतं, पञ्चोत्तरं शतम्. (100 / 101 / 104 / 105 1) ततस्तस्मिन्नेव गुणस्थानके पुरुषवेदप्रक्षेपादमूनिचत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-एकोत्तरं शतं, व्युत्तरं शतं, पञ्चोत्तरं शतं, षडुत्तरं शतम्, (101 / 102 / 105 // 106 / ) ततो हास्यादिषट्कप्रक्षेपे तस्मिन्नेव गुणस्थानके अमूनि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति, तद्यथा-सप्तोत्तरं शतम् अष्टोत्तर शतम्. एकादशोत्तरं शतं, द्वादशोत्तर शतम्, (107 / 108 / 111 / 112) ततस्तस्मिन्नेव गुणस्थानके स्त्रीवेदप्रक्षेपादमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-अष्टोत्तर शतं, नवोत्तरं शतं, द्वादशोत्तरं शतं, त्रयोदशोत्तरं शतम्, (108/106 / 112:113) ततो नपुंसकवेद तस्मिन्नेव गुणस्थानके प्रक्षिप्तेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-नवोत्तरं शतं, दशोत्तरं शतं, त्रयोदशोत्तरं शतं, चतुर्दशोत्तरं शतम्, (106 / 110 / 113 / 114.) तत एतेष्वेव चतुर्यु सत्तास्थानेषु तस्मिन्नेव गुणस्थानके नामत्रयोदशकस्त्यानद्धित्रिकरूपप्रकृति षोडशकप्रक्षेपादिमानि चत्वारि सत्तास्थानानि भवन्ति, Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ता 326 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्ति तद्यथा-पञ्चविंशत्युत्तरं शतं, षड्विंशत्युत्तरं शतम्, एकोनत्रिंशतं शत, सत्तास्थानेषु परिभाव्यमानेषु द्वात्रिंशदुत्तरशतात्मकं सत्तास्थान त्रिंशं शतम, (125 / 126 / 126/1301) ततोऽपि तस्मिन्नेव गुणस्थानके नाऽवाप्यते, इति सूत्रकृता तद्वर्जनमकारि। इह यद्यपि सप्तनवत्यादीनि अप्रत्याख्यानावरण रू पकषायाष्टक प्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्ता- सत्तास्थानान्युक्तप्रकारेण तत्तत्प्रकृतिप्रक्षेपादन्यथानेकधा प्राप्यन्ते, स्थानानि तद्यथा-त्रयस्त्रिंशं शतं, चतुस्त्रिंशं शतं, सप्तत्रिंश / तथापि संख्यातस्तानि तुल्यानीत्येकान्येक विवक्ष्यन्ते, ततोऽष्टचत्वाशतम्,अष्टात्रिंशं शतम्, (133 / 134 / 137 / 138 / ) तथा यानि रिशदेव सत्तास्थानानि, नाधिकानि। अत्राऽवक्तव्यसत्कर्म न विद्यते. पूर्ववत्क्षीणमोहसत्कानि पण्णवतिः सप्तवतिः शतमेकोत्तरं शतमिति सर्वप्रकृतिसत्ताव्यवच्छेदे भूयः सत्तासंभवाऽभावात्, अवस्थितानि चत्वारि सत्तास्थानानि प्रतिपादितानि, तेषु मोहनीय-द्वाविंशति- चतुश्चत्वारिंशत्, एकादशद्वादशचतुर्नवतिपञ्चनवतिरूपाणां चतुर्णा स्त्यानर्द्धित्रकनामत्रयोदशकप्रक्षेपादिमानि चत्वारि सत्तास्थानानि सत्तास्थानानामेकसामायिकतया अवस्थितत्वाऽयोगात्, सप्तचत्वारिंभवन्ति, तद्यथा-च तुस्त्रिंशं शत, पञ्चत्रिंशं शतम्, अष्टात्रिंशं शतम्, शदल्पतराणि, सप्तदश भूयस्काराणि, यतस्तानि सप्तविंशतिशतादारभ्य एकोनचत्वारिंशं शतम्, (134 1135 1138 1136) तेष्वेव परत एव प्राप्यन्ते, नार्वाक, परतोऽपि यत् त्रयस्त्रिशशतात्मक सत्तास्थान क्षीणकषायसत्केषु षण्णवत्यादिषु चतुर्षु सत्तास्थानेषु मोहनीयत्रयो- तदपि भूयरकारतया न लभ्यते, कस्मादिति चेदुच्यते-इह सप्तविंशतिविंशतिनामत्रयोदशकस्त्यानद्धित्रिकप्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्था- शतादर्वाक यानि स्थानानि, यच्च प्रयस्त्रिंशदुत्तरशतात्मकं तानि नानि, तद्यथा-पत्रिंशं शतं, षट्त्रिंशं शतम्, एकोनचत्वारिंश शतं, क्षपकश्रेणावेव प्राप्यन्ते,नच क्षपक श्रेणेः प्रतिपातः, ततस्तेषां स्थानानां चत्वारिंशं शतम् (135 // 136 136 / 1401) तेष्वेव षण्णवत्यादिषु भूयस्करत्वेनाऽसंप्राप्तः सप्तदशैव भूयस्काराणि ॥२०॥२१॥पिं० सं०५ मोहनीयचतुर्विशतिस्त्यानर्द्धित्रिक-नामत्रयोदशकयोगादिमानिचत्वारि द्वार १प्रक०। सत्तास्थानानि, तद्यथा-षट्त्रिंशं शतं, सप्तत्रिंश शतं, चत्वारिंशं शतम, | सत्तागइय पुं० (सप्तागतिक) सप्तभ्य एव–अण्डजयोनिभ्यः आगतिःएकचत्वारिंशम्, शतम, (136 // 137 1140 / 141) तेष्वेव उत्पत्तिर्येषां ते सप्तागतयः / सप्तस्थानेषु उद्वर्त्तमानेषु, स्था० 7 ठा० षण्णवत्यादिषु मोहनीयषड्विंशतिस्त्यानद्धित्रिकनामत्रयोदशकप्रक्षे- 3 उ०। पादेतानि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-अष्टात्रिशं शतम, | सत्ताठाण न० (सत्तास्थान) सत्ताप्रकारे, कर्म०६ कर्म०। (बन्धोदयसत्ता एकोनचत्वारिश शत, द्विचत्वारिशशत, त्रिचत्वारिश शतम्, (138 / 136 / आश्रित्य भङ्गाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे 306 पृष्ठे उदाहृताः।) 1421143) तेष्वेव षण्णवत्यादिषु मोहनीयसप्तविंशतिनामत्रयोदशक- सत्ताणंदपर पुं० (सत्त्वानन्दपर) असंप्रज्ञातसमाधी, द्वा०२० द्वा०। स्त्यानद्धित्रिकप्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, तद्यथा-एकोन- सत्ताणवइ स्त्री० (सप्तनवति) सप्ताधिकायां नवतिसंख्यायाम, स० चत्वारिंशं शतं, चत्वारिंशं शतं, त्रिचत्वारिंशं शतं, चतुश्चत्वारिंशं शतम्, 66 सम०। (136 / 140 / 143 / 144) तेष्वेव षण्णवत्यादिषु मोहनीयाटाविंशति- सत्ताणुग्गह पुं० (सत्वानुग्रह) जीवदयायाम, सत्त्वानुग्रहस्य परम्परया नामत्रयोदशक-स्त्यानर्द्धित्रिकप्रक्षेपेऽमूनि चत्वारि सत्तास्थानानि, मोक्षावाप्तिनिबन्धनत्वात् / उक्तं च- 'सर्वज्ञस्योपदेशेन, यः तद्यथा-चत्वारिंशं शतम्, एकचत्वारिंश शतं, चतुश्चत्वारिंश शतं, तत्त्वानामनुग्रहम् / करोति बोधबाह्यानां, स प्राप्रोत्यांचरात् शिवम्॥१॥' पञ्चचत्वारिशं शतम्, (140 / 141 / 144 / 145) अमूनि च मोहनीय- ज्यो०१ पाह०। द्वाविंशत्यादि-प्रक्षेपसंभवीनि चतुस्त्रिंशशतादीनि, पञ्चचत्वारिशशतप- सत्तामित्त न० (सत्तामात्र) सद्भावमात्रे, पञ्चा० 4 विव० यन्तानि सत्तास्थानान्यविरतसम्यग्दृष्ट्या दीनाभप्रमत्तान्तानाम- सत्तावण्णा स्त्री० (सप्तपञ्चाशत्) सप्ताधिकायां पञ्चाशत्संख्यायाम, स० वसेयानि, यचानन्तरमुक्तं पञ्चचत्वारिंशशतलक्षण सत्तास्थानं तदेव ५७सम० परभवायुबन्धे षट्चत्वारिंशशतात्मक सत्तास्थानं भवति, तथा यदा सत्तावीसा रत्री० (सप्तविंशति) “दीर्घहस्वी मिथोवृत्तौ" ||8/1 / 4 / / जन्तोस्तेजोवायुभवे वर्तमानस्य नाम्नोऽष्टसप्ततिरेकमेव च नीचैगोत्र- इति भध्याकारय दीर्घः / सप्ताधिकविंशतिसंख्यायाम, प्रा० / जं०। लक्षणं गात्रं सत, तदा तस्य ज्ञानावरणपशकं दर्शनावरणनवक सत्तासुय पुं० (सक्तासुक) उतरपूर्वस्यां शुद्धविदिग्वाते, आ० म० वेदनीयद्विकं मोहनीयषड्-विंशतिरन्तरायपञ्चक तिर्यगायुम्नो- / 10 / आ० चू०। ऽष्टसप्ततिर्नीचर्गोत्रमिति सप्तविंशं शतं सत्तास्थान तदेव परभवतिर्यगा- सत्ति स्त्री० (शक्ति) स्ववीर्योल्लार, द्वा० 20 द्वा० / सामर्थ्य, आ० म० युर्वन्धे अष्टाविंशत्यधिकं शतं, तथा वनस्पतिकायिके धु यदा 1 अ०। आ० चु० / “समत्थं तिवा सत्ति त्ति वा एगटा" आ०० 110 स्थितिक्षयादेवद्विकनरकद्विकवैक्रिय-चतुष्टयरूपासु अष्टासु प्रकृतिषु "सत्ति ति सामत्थं ति जे जोगस्स हवंति पजाया" पं० सं० क्षीणासु नाम्नोऽशीतिप्रकृतयः सत्तायां लभ्यन्ते, तदा नाम्नोऽशीतिवें 5 द्वार / शक्तिद्धिधाधृतिसंहननभेदात् / बृ०१३०२ प्रक०। धर्म, वेदनीये, द्वे गात्रे, अनुभूयमानं तिर्यगायुर्ज्ञानावरणपञ्चकं, दर्शनावरण- स्था०६ ठा०३ उ०। नवकं,मोहनीयषत्रिंशतिः, अन्तरायपञ्चकं, इति त्रिंशदुत्तरशतात्मक गुणपर्याययोः शक्ति-मात्रमोघोद्भाऽऽदिमा। सत्तास्थान, तदेव परभवायुर्बन्धे, एकत्रिंशशतात्मक सत्तास्थानम--तदेव आसन्नकार्ययोग्यत्वाच्छक्तिः समुचिता परा।।६।। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ति 330 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्तुंजय ककः पञ्चमो रूपसप्तककः, षष्ठः परिक्रियासप्तककः, सप्तमोऽन्योऽन्यक्रियासप्तैकक इति / पा०ा पिण्डैषणाध्ययनादारभ्य अवग्रहप्रतिमाऽध्ययनं यावदेतानि सप्ताध्ययनानि। प्रथमा चूडा सप्तसप्तकका, द्वितीया भावना, तृतीया विमुक्तिः, चतुर्थी आचारविकल्पः, निशीथः सा पञ्चमीचूडति। आचा०२ श्रु०१चू०१अ०१ उ०। सत्तितो अव्य० (शक्तितस्) शक्तिमाश्रित्य यथाशक्तीत्यर्थे पश्चा० ८विव०। सत्तिम त्रि० (शक्तिमत्) सामर्थ्ययुक्ते, स्था०६ ठा०३ उ०। समर्थे, पञ्चविधकृततुलने, स्था०८ ठा०३ उ०। सत्तिय पुं०(सात्त्विक) सत्त्वप्रधाने, सात्विको नाम यो महत्यप्युदये गर्व नोपयाति, न च गरिष्ठेऽपि समापतिते व्यसने विषादम् / व्य० 3 उ०। "सुसमत्था व समत्था, कीरति अप्पसत्तिया पुरिसा। दीसंति सूरवादी, णारोवसमाण ते सूरा / / 1 / / " सूत्र० 1 श्रु० 4 अ०१ उ०। सत्तिवण्ण पुं० (सप्तपर्ण) सप्तच्छ्दे वृक्षविशेषे, जी०३ प्रति०४ अधि०। स्था। सर्वेषां द्रव्याणां निजनिजगुणपर्याययोः शक्तिमात्रम् ओधोद्भवाओघशक्तिः, अदिमा-प्रथमभेदरूपा कथ्यते / पुनः आसन्न निकट शीघ्रभावि वा यत्कार्य तस्य योग्यत्वात् व्यवहारयोग्यत्वात् समुचिता शक्तिरपरा द्वितीया समुचितशक्तिरुच्यत इति / (एत-नेदप्रदर्शकदृष्टान्तः 'ओसत्ति' शब्दे तृतीयभागे 126 पृष्ठे गतः।) अथ द्रव्यशक्तिं व्यवहारनिश्चयनयाभ्यां दर्शयन्नाह-- कार्यभेदाच्छक्तिभेदो, व्यवहारेण दृश्यते / युगनिश्चयनयादेकमनेकैः कार्यकारणैः // एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण एकैकस्य कार्यस्य ओघशक्तिसमुचितशक्तिरूपा शक्तयोऽनेकश एकद्रव्यस्य प्राप्यन्ते, ताः पुनर्व्यवहारनयेन व्यवहताः सत्यः कार्यकारणभेदं सूचयन्ति / कथं व्यवहारनयो हि कार्यकारणभेदमेवमनुते निश्चयनयो हि अनेक कार्यकारणैर्यगपि द्रव्यमकमेव स्वशक्तिस्वभावमस्ति इत्यवधारयति। कदापि इत्थं नावधार्यते तदा स्वभावभेदात् द्रव्यभेदोऽपि संपद्यते; तस्मात्तत्तद्देशकालादिकापेक्षया एकस्यानेककार्यकारणस्वभावमङ्गीकुर्वता न कोऽपि दोषपोषः, कारणान्तरापेक्षाऽपि स्वभावान्तर्भूता एवास्ति, तेन तरयापि वैफल्यं न जायते / तथा शुद्धनिश्चयमताङ्गीकारे तु कार्यकारणकल्पनैव मिथ्या / यतः- 'आदावन्ते च यन्नास्ति वर्तमानेऽपि तत्तथे' ति वचनात् / कार्यकारणकल्पनाविरहितं शुद्धमविकलमचलितस्वरूपं द्रव्यमस्तीति ज्ञेयम् / द्रव्या० 2 अध्या० / शब्दस्यार्थप्रतिपादनसामर्थ्य , रत्ना० 4 परि० / सम्भ० / त्रिशूलरूपे (प्रश्न० 3 आश्र0 द्वार / ) प्रहरणविशेषे, संथा० / ज० भ० / प्रश्न० / औ० / आचा० / त्रिशूलविशेष, स०। आचा० / सूत्र० / शक्त्यादिषु प्रहरणेषु, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। आत्मनः शक्तिरूपं कर्मति केचित्-ये पुनरपरे प्राहु--रात्मशक्तिरूप कर्मेति ते एवं प्रष्टव्याः, सा शक्तिरात्मनः स्वाभाविकी उतान्यसंपर्कसमुद्भवा ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तदाभावप्रसङ्गः आत्मस्वरूपस्यैद तस्याः शक्तरपनेतुमक्यत्वात् / अन्यथा निरुपाधिकात्मानुपपत्तेराभाख्यवस्तुमरवानाधावतदोषानुष्वङ्गस्तदवस्थ एव / अथ द्वितीयः पक्षस्तथा च सतिस्थापाधः संपर्कवशादात्मशक्तिरात्मनो नारकादिभवभ्रमणरूपा समुपादितदेवास्माकं पौगलिक कर्मति नकाचित क्षतिः / आ०म०१०। सत्तिकुमार पुं० (शक्तिकुमार) सातवाहननृपपुत्रे, ती० 23 कल्प। सत्तिक्कय पुं० (स-कक आधाराङ्गस्य द्वितीय श्रुतस्कन्धस्य द्वितीयचूडारूपेऽध्ययनसप्तक, "सत्त सत्तिक्कय” स्था०७ ठा०३ उ०१ आव० / आचा० महार रिक्षाऽध्ययने सप्तोदेशकास्तेभ्यः प्रत्येक सप्तकका नियूढाः / आच 2 श्रु०१ चू० 1101 उ०। प्रा० / तथा'सत्तिक्षय' तिस-सप्त स्पैककाः अनुद्देशकतयै कसरतवेनैकका अध्ययनविशेषा आचाराड़ रूप देनीय श्रुतस्कन्धे द्वितीयचूडारूपास्तेच समुदायतः सप्तेति कृत्वा सप्तकका अभिधीयन्ते। तेषामेकोऽपि सप्तकक इति ध्यपदिश्त थैव नाभत्यात् एवं च ते सप्तेति / तत्रप्रथमः स्थानसोकको, द्वितीयां नषधि-कीसप्तककः, नैषधिकीस्वाध्यायभूमिः / तृतीय उधारप्रश्न (सदणविधिसप्तककः, चतुर्थः शब्दसप्त सत्तु पुं० (सक्तु) भ्रष्टयवक्षोदे, बृ०१ उ०२ प्रक०। आव०॥ *शत्रु पुं० अगोत्रजे वैरिणि, औ०1"शत्रोरपि गुणा ग्राह्या, दोषास्त्यज्या __गुरोरपी" ति। उत्त०१ अ०1 पा० ज०। सत्तुंजय पुं०(सत्रुञ्जय) विमलगिरौ, ही। तथा श्रीशत्रुञ्जयस्थोपरि पशपाण्डवैः समं साधूना विशतिकोटयः सिद्धा इति, श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यादौ प्रोक्तमस्ति, सा कोटिर्विशतिरूपा शतलक्षरूपा वेति, अत्र शतलक्षरूपा कोटिरवसीयले न तु विंशतिरूपति बोध्यम् / / ही० 3 प्रका० / श्रीशत्रुजयतीर्थस्य माहात्म्यम्"देवः श्रीपुण्डरीकाख्य-भूभृच्छिखरशेखरम्। अलंकरिष्णुः प्रासाद, श्रीनाभेयः श्रियेऽस्तु वः।।१।। श्रीशत्रुजयतीर्थस्य, माहात्म्यमतिमुक्तकम्। केवली यदुवाच प्राक्, नारदस्य ऋषेः पुरः / / 2 / / तदह लेशलो वक्ष्ये, स्वपरस्मृतिहेतवे। श्रोतुमर्हन्ति भव्यास्तत्पापनाशनकाम्यया // 3|| युगलम्शत्रुञ्जये पुण्डरीकस्तपोभृत्पञ्चकोटियुक्। चैत्र्या सिद्धस्ततः सोऽपि, पुण्डरीक इति स्मृतः / / 4 / / सिद्धक्षेत्र तीर्थराजो, मरुदेवो भगीरथः। विमलाद्रिर्बाहुबली, सहस्रकमलस्तथा // 5 // तालध्वजः कदम्बश्व, शतपत्रो नगाधिराट्। अष्टोत्तरशतं कूटः, सहस्रं यन्त्रकाण्यभि॥६|| ढको लोहित्यः कपर्दि-निवासः सिद्धिशेखरः। शत्रुञ्जयस्तथा मुक्ति-निलयः सिद्धिपर्वतः / / 7 / / पुण्डरीकश्चेति नाम-धेयानामेकविंशतिः। गीयते तस्य तीर्थस्य, कृतासुरनरार्थिभिः / / 8|| कलापकम्ढङ्कादयः पञ्च कूटास्तत्र सन्ति सदैवताः। रक्तपीतरत्नखानि-विविधौषधिरजिताः / / Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत्तुजय 331 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संत्तुजय ढङ्कः कदम्बो लोहित्य-स्तालध्वजकपर्दिनौ। पञ्चेति ते कालवशान, मिथ्यादृग्भिरुदीरिताः।।१०।। अशीतियोजनान्याद्ये, द्वितीयके तु सप्ततिम्। षष्टिं तृतीये तुर्ये वा-ऽरके पञ्चाशतं तथा // 11 // पञ्चमे द्वादशैतानि, सप्तरत्नी तथान्तिमे। इत्याद्यैरवसर्पिण्या, विस्तरस्तस्य कीर्तितः।।१२।। युग्मम्पञ्चाशतं योजनानि, मूलेऽस्य दश चोपरि। विस्तार उच्छ्रयस्त्वष्टौ, युगादीशे तपत्यभूत्॥१३।। अस्मिन् वृषभसेनाद्या, असंख्याः समवासरन्। तीर्थाधिराजाः सिद्धाश्चा-ऽतीते काले महर्षयः / / 14 / / श्रीपद्मनाभप्रभुखा, भाविनो जिननायकाः / अस्मिन् समवसरिः, कीर्तिश्रावितविष्टपाः॥१५।। श्रीनाभेयादिवीरान्ताः, श्रीनमीश्वरवर्जिताः। त्रयाविंशतिरहन्तः, समवासापुरेव च // 16 // हेमरूपा द्विजा द्वाविं-शत्यहनप्रतिमान्वितम्। अङ्करत्नजनाभेय--प्रतिमालंकृतं महत् / / 17 / / द्वाविंशतिक्षुल्लदेव,कुलिकायुक्तमुच्चकैः / योजनं प्रमितं रत्न-मयमुत्पन्नकेवले ||18|| आदीश्वरे श्रीभरत-चक्री चैत्यमचीकरत्। एतस्यामवसर्पिण्या, पूर्वमत्र पवित्रधीः / / 16 / / द्वाविंशतिजिनेन्द्राणा, यथास्वं पादुकायुताः / नान्यत्रायतनश्रेणी, लेप्यनिर्मितबिम्बयुक् / / 20 / / अकारि चात्र समव–सरणेन सहोच्चकैः / प्रासादो मरुदेवायाः, श्रीबाहुबलिभूभुजः / / 21 / / प्रथमोऽत्रावसर्पिण्या,गणभृत् प्रथमार्हतः। प्रथम प्रथमस्तत्र, सिद्धःप्रथमचक्रिणः // 22 // अस्तिन्नमिविनम्याख्यौ, खेचरेन्द्रमहाऋषी। कोटिद्वयमहर्षीणा, सहितौ सिद्धिमीयतुः / / 23 / 1 संप्रापुरत्र द्रविड-वालिखिल्यादयो नृपाः। कोटिभिर्दशभियुक्ताः साधूनां परमं पदम् // 24 // जयरामादिराजर्षि-कोटित्रयमिहागमत्। नारदादिमुनीनां च, लक्षैको नवतिः शिवम्॥२५।। प्रद्युम्भशाम्बप्रमुखाः कुमाराश्चात्र निवृतिम्। प्राप्तवन्तः साष्टि-कोटिसाधुसमन्विताः।।२६।। मनुप्रमितलक्षादि-संख्याभिः श्रेणिभिस्तथा। असंख्याताभिः सर्वार्थः,सिद्धान्तरितमासदत्।।२७।। पञ्चाशत्काटिलक्षादीन्, यावन्नाभेयवंशजाः / अत्रादित्ययशोमुख्याः , सगरान्ताः शिवं नृपाः / / 28 / / भरतस्थापत्यापुत्र-श्रीशेलकशुकादयः। अत्र सिद्धा असंख्यात-कोटाकोटिभिरायताः / / 2 / / मुनीनां काटिविंशत्या, कुन्त्या च सह निर्वृताः / कृतार्हत्प्रथमोद्धाराः,अत्र ते पञ्च पाण्डवाः॥३०|| द्वितीयषोडशावत्र, जिनशान्तिजिनेश्वरी। वर्षारात्रचतुर्मासी, तस्थतुः स्थितिदेशिनौ // 31 // श्रीनेमेघनाद्यात्रा-गतः सर्वरुजापहम्। नन्दिषेणगणेशोऽत्रा- जितशान्तिस्तवं व्यधात्॥३२। याता असंख्या उद्धारा, असंख्याः प्रतिमारतथा। असंख्यानि च चैत्यानि, महातीर्थेऽत्र जज्ञिरे।।३३।। अर्चाः क्षुल्लतडागरथा--स्तथा भरतकारिताः। गुहास्थाश्वानमन् भक्त्या, स्यादत्रैकावतारभाक् // 34|| सम्प्रतिर्विक्रमादित्यः, शालिवाहनवाग्भटौ। पादलिप्तामदत्ताच, तस्योद्धारकृतः स्मृताः / / 35 / / विदेहवीपवास्तव्याः, स्मरन्त्येनं सुदृष्टयः। इति श्रीकालिकाचार्यः, पुरतः स किलाब्रवीत // 36|| अत्र श्री जावडेर्बिम्बो-द्धारजाते क्रमेण च। अजितायतनस्थाने,बभूवानुपम सरः / / 37 / / अत्र श्रीभरुदेवायाः, श्रीशान्तेश्चोद्धरिष्यति। मेघो घाघनृपः कल्कि-प्रपौत्रो भवने सुधीः / / 3 / / अस्याः पश्चिममुद्धारं, राजा विमलवाहनः / श्रीदुष्प्रसव (ह) सूरीणा-मुपदेशाद्विधास्यति / / 36 / / तीर्थोच्छेदेऽपि ऋषभ--कूटाख्योऽयं सुरार्चितः / यावत्पदानाभतीर्थ, पूजायुक्तो भविष्यति / / 4 / / प्रायः पापपरित्यक्ता-स्तिर्यचोऽप्यत्र वासिनः / प्रयान्ति सुगति तीर्थ-महात्म्याद् विशदाशयाः / / 41 / / सिंहाग्निजलधिव्याल-भूपालविषयुग्बलम्। चोरारिमारिज चास्य, स्मृतेश्येद्भयं नृणाम् / / 4 / / भरतेशकृतेर्लेप्य-मयस्याद्यजिनेशतुः। ध्यायन्नुत्सङ्ग शय्यास्थं, स्वं सर्वभयजिद्भवेत्॥४३॥ उग्रेण तपसा–ब्रह्मचर्येण (च) यदाप्नुयात्। शत्रुञ्जये तन्निवेशात्, प्रयतः पुण्यमश्नुते।।४४॥ प्रदद्यात्कामिकाहार, तीर्थे कोटिव्ययेन यः। तत्पुण्यमेकोपवासे-नाप्नोति विमलाचले / / 45 / / भूर्भुवः स्वस्त्रय तीर्थे,यत्किचिन्नाम विद्यते। तत्सर्वमेव दृष्ट स्यात्, पुण्डरीकेऽभिवन्दिते // 46 / / अत्राद्यापि विनारिष्ट, समपारिष्ट पक्षिणम्। न जातु जायते सत्र-मारभोज्येषु सत्स्वपि / / 47|| भोज्यदानेऽत्र यात्रायै, याति कोटि शुभाशुभम् / यात्रायै चलितेनैव, अत्रानन्तगुणं पुनः / / 48|| प्रतिलाभयतः संघ-मदृष्ट विमलाचले। कोटीगुणं भवेत् पुण्य, दृष्टऽनन्तगुणं पुनः / / 46 / / केवलोत्पत्तिनिर्वाणे, यत्राभूतां महात्मनाम। तानि सर्वाणि तीर्थानि, वन्दितानीह वन्दिते / / 5 / / जन्मनिष्क्रमणज्ञानोत्पत्तिमुक्तिगमोत्सवाः / वैयस्त्यात क्वापि सामस्त्या-जिनानां यत्र जज्ञिरे।।५१।। अयोध्या मिथिला-चम्पा-श्रावस्ती-हस्तिनापुरे। कौशाम्बी-काशि-काकन्दी--काम्पिल्ये-भद्रिलाभिधे / / 5 / / रत्नवाहे-शौर्यपुरे, कुण्डग्रामे ह्यपापया। चन्द्रानना-सिंहपुरे तथा राजगृहे पुरे / / 53 / / श्ररिवेतकसम्मेत-वैभाराष्टापदादिषु। यात्रा यरिंमस्तेषु यात्रा-फलाच्छतगुणं फलम् / / 54 / / चतुर्भिः कलापकम्। पूजापुण्याच्छतगुणं, पुण्यं बिम्बविधापने। वैनेत्रे सहस्रगुणं, पालनेऽनन्तशोगुणम्।।५५।। यः कारयेदस्य मोलौ, प्रतिमा चैत्यवेश्म वा। भुक्त्वा भारतवर्षद्धि, स स्वर्गश्रियमश्नुते / / 56 / / Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत्तुजय 332 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संत्तुजय नमस्कारादिसहित-तपांसि विदधन्नरः / उत्तरोत्तरतपसा, पुण्डरीकस्मृतेर्लभेत्।।५७।। तीर्थमेतत्स्मरेन्मर्त्यः, करणत्रयशुद्धिमान्। षष्ठादिमासिकान्तानां, तपसां फलमाप्नुयात् // 58|| अद्यापि पुण्डरीकाऽद्रौ, कृत्याऽनशनमुत्तमम् / भूत्वा शीलविहीनोऽपि, सुखेन स्वर्गमृच्छति॥५६॥ छत्रचामरभृङ्गार-ध्वजस्थालप्रदानतः। विद्याधरो जायतेऽत्र, चक्री स्याद्रथदानतः॥६०॥ दशात्र पुत्रनामानि, ददानो भावशुद्धितः। भुजानोऽपि लभेच्चैव, चतुर्थतपसः फलम्॥६१।। द्विगुणानि तु षष्ठस्या-ष्टमस्य त्रिगुणानितु। चतुर्गुणानि दशम-स्येति तानि ददत्युनः // 62 / / फलं भवेद्वादशस्य, ददत्पञ्चगुणानि तु। तेषां यथोत्तरं वृद्ध्या, फलवृद्धिरपि स्मृता / / 63|| पूजास्नपनमात्रेण, यत्पुण्यं विमलाचले। नान्यतीर्थेषु यत्स्वर्ण-भूमिभूषणदानतः॥६५॥ धूपोत्क्षेपणतः पक्षो-पवासस्य लभेत्फलम्। कर्पूरपूजया चात्र, मासक्षपणजं फलम्॥६५॥ निर्दोषैरथ भक्ताद्यैर्यः.साधून् प्रतिलाभयेत्। फलेन कार्तिक मासे, क्षपणस्य स युज्यते॥६६|| त्रिसंध्यं मन्त्रवाःस्नातो, मासान्तं चैत्यपूजया। नमोऽर्हद्भ्यः फलं ध्याय-निहार्जेत्तीर्थकृत्पदम्॥६७।। पादलिप्तः पुरे यातः, प्रासादौ पार्श्ववीरयोः। अधोभागे चास्य नेमि-नाथस्यायतनं महत्॥६५|| तिस्रः कोटीस्विलक्षोना, व्ययित्वा वसु वाग्भटः / मन्त्रीश्वरो युगाधीश-प्रासादमुददीधरत्॥६६॥ दृष्टदेव तीर्थप्रथम-प्रवेशेऽत्रादिमार्हतः! विशदा मूर्तिराधत्ते, दृशोरमृतपारणम् / / 7 / / अष्टोत्तरे वर्षशते-ऽतीते श्रीविक्रमादिह! बहुद्रव्यव्ययादिम्ब, जावडिः समचीकरत्॥७१|| भास्करद्युतिमम्माण-मणिशैलतटीस्थितम्। ज्योतीरसाख्यं यद्रत्नं, तत्तेन घटितं किल // 72 // मधुमत्यां पुरि श्रेष्ठी, वास्तव्यो जावडिः पुरा। श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं, श्रीवैरस्वामिनोऽतरत् // 73 // गन्धोदकस्नात्ररुचि-लेप्यबिम्बं शुभोऽवशः। स्मृत्वा चक्रेश्वरी सैष, मम्माणाद्रिखनीमगात्॥७४|| निर्माप्येहाश्मनी मूर्ति, रथमारोप्य चाऽचलत्। विमलादिँ सभार्योऽसौ, पद्यया हृद्यया दिने॥७५|| ययौ यावन्तमध्वानं, दिवसेऽप्रतिमो रथः। रात्रौ तावन्तमेवासौ, पश्चाव्यावर्तते भुवः // 76|| खिन्नः कपर्दिनं स्मृत्वा, स्पृष्ट्वा हेतुंच तद्विधौ। रथमार्गेऽपतत्तिर्यग, प्रयतः सह जायया // 7 // तत्साहसप्रसन्नेन, दैवतेनाधिरोपितः।। रथःसबिम्बोऽद्रेः शृङ्गे,दुःसाधं सात्त्विकेषु किम्? ||7|| मूलनायकमुत्थाप्य, न्यस्ते बिम्बे तदास्पदे। लेप्यबिम्बारटिस्तेन,पर्वतः खण्डशोऽदलत्।।७।। तन्मुक्ताऽथ तडिचश्रेणी, बिम्बेन करमर्दिता। सोपानानि छिद्रयन्ती, निर्ययौ शैलदेशभित्॥८॥ आरुह्य चैष शिखरं, सकलत्रः प्रमोदतः। जावडिर्नरिनर्ति स्म, चञ्चद्रोमाञ्चकञ्चुकः ||1|| अपतीर्थिकबोहित्था, नष्वाऽष्टादश आपतन्। तद्र्व्य व्ययतः श्रेष्ठी,तत्र चक्रे प्रभावनाम्।।८२|| इत्थं जावडिराद्यार्हत्-पुण्डरीककपर्दिनाम्। मूर्ति निवेश्य संजज्ञे, स्वर्विमानातिथिर्विभाक् / / 3 / / दक्षिणाङ्गेभगवतः, पुण्डरीक इहादिमः। वामाने दीप्यते तस्य, जावडिः स्थापिताऽपरः ||4|| इक्ष्वाकुवृष्णिवंश्याना-मसंख्याः कोटिकोटयः। अत्र सिद्धाः कोटिकोटि-तिलकं सूचयत्यदः // 85|| पाण्डवाः पञ्च कुन्तीच, तन्माता च शिवं ययुः। ख्यापयन्तीति तीर्थेऽत्र, षडेषां लेप्यमूर्तयः॥८६|| राजादनश्चैत्यशाखी, श्रीसंघाद्भूतभाग्यतः। दुग्धं वर्षति पीयूष-मिव चन्द्रकरोत्करः॥८७|| व्याघ्रीमयूरप्रमुखा-स्तिर्यञ्चो भक्तमुक्तिनः। सुरलोकमिह प्राप्ताः, प्रणतादीशपादुकाः // 88|| वामे सत्यपुरस्यास्य, द्वारे मूलजिनौकसः। दक्षिणे शत्रुजिचैत्य पृष्ठे चाष्टापदः स्थितः॥८६॥ नन्दीश्वरस्तम्भनको, जयतां नाम कृच्छ्रतः। भव्येषु पुण्यवृद्ध्यर्थ-मवतारा इहासने18011 आत्तासिना विनमिना,नेमिना च निषेवितः। स्वर्गारोहणचैत्ये च, श्रीनाभेयः प्रभासते॥६१।। तुङ्गे शृङ्गे द्वितीये च,श्रेयांसः शान्तिनेमिनौ। अन्येष्वृषभवीराद्या, अस्यालंकुर्वते जिनाः / / 6 / / मरुदेवां भगवती, भवनेऽत्र भवच्छिदाम्। नमस्कृत्य कृती स्वस्य, मन्यते कृतकृत्याताम्॥६३।। यक्षराजः कपर्दीह, कल्पवृक्षःप्रगेमुखः। चित्रान् यात्रिकसंघस्य, विघान् मर्दयति स्फुटम् / / 64|| श्रीनेम्यादेशतः कृष्णो, दिनान्यष्टावुपोषितः। कपर्दियक्षमाराध्य, पर्वतान्तर्गुहान्तरम् / / 65|| अद्यापि पूजां शक्रेण, बिम्बत्रयमगोपयत्। अद्यापि श्रूयते तत्र, किल शक्रसमागमः // 66|| युग्मम्पाण्डवस्थापितश्रीम-दवृषभोत्तरदिग्गता। सगृहा विद्यतेऽद्याति,यावत्क्षुल्लतडागिका ||7|| यक्षस्यादेशतस्तत्र,दृश्यन्ते प्रतिमाः किल। तत्रैवाजितशान्तीशौ, वर्षारात्रमवस्थितौ / / 98| तयोश्चैत्यद्वयं पूर्वा-भिमुखं तत्र वाऽभवत्। निकषाजितचैत्यं च,बभूवानुपमं सरः ||6| मेरुदेव्यन्तिके शान्ते-चैत्यं शैत्यकरीदृशम्। भवति स्म भवभ्रान्ति-भिदुरं भव्यदेहिनाम् / / 10 / / श्रीशान्तिचैत्यस्य पुरो, हस्तानां त्रिंशतां पुनः। पुरुषैः सप्तभिरधः,खनी द्वेस्वर्णरूप्ययोः / / 101 // ततो हस्तशतं गत्वा, पूर्वद्वाराऽस्ति कूपिता। अधस्तादष्टभिर्हस्तैः, श्रीसिद्धरसपूरिता!।१०२।। श्रीपादलिप्ताचार्येण, तीर्थोद्धारकृते किल। अस्ति संस्थापितं रत्नं, सुवर्ण तत्समीपगम्॥१०३।। पूर्वस्यामृषभबिंबा-दधश्वर्षभकूटतः। धनूंषि त्रिंशतं गत्वो-पवासाँस्त्रीन् समाचरेत्॥१०४।। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत्तुजय 333 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 संत्तुजय कृते बलिविधानादौ, याराध्या स्वं प्रदर्शयत्। तदाज्ञयोद्धाट्य शिला, रात्रौ मध्ये प्रविश्यते / / 10 / / तत्रोपवासतः सर्वाः,संपद्यन्ते च सिद्धयः। तवर्षभ वा नमता-द्भवेदेकावतारभाक् / / 106 / / पुरो धनुःपञ्चशत्या, आस्ते पाषाणकुण्डिका। ततः सप्तक्रमान् गत्वा कुर्यात्तलिविबुधः / / 107 / / शिलोत्पाटनतस्तत्र, कस्यचित्पुण्यशालिनः। उपवासद्वयेन स्यात्, प्रत्यक्षा रसकूपिका / / 108 // कल्किपुत्रा धर्मदत्तो, भावीशः परमार्हतः। दिने दिने जिनबिम्ब, प्रतिष्ठाप्य च भोक्ष्यते / / 106 / / श्रीमच्छत्रुश्चर्याद्धार, कर्ताऽथ जितशत्रुराट् / द्वात्रिंशद्वर्षराजश्री-भविष्यति तदात्मजः / / 110 / / तत्सूनमधघोषाख्यः, श्रीशान्तिमरुदेवयोः। कपर्दियक्षस्यादेशा-चैत्यमत्रोद्धरिष्यति / / 111 // नन्दिः सूरिरथाश्चर्य, श्रीप्रभोर्माणिभद्रकः। धनमित्रो यशोभित्र-स्तथा विकटधाम्मिकः / / 112|| सुमङ्गलः (शु) रसेनः इत्यस्योद्धारकारकाः। अवक दुष्प्रसहोदन्तो, भावी विमलवाहनः / / 113 / / यात्रिकान येऽस्य बाधन्ते, द्रव्यं चापहरन्ति ये। पतन्ति नरके घोरे, सान्वयार्तेऽहसा नराः / / 114 / / यात्रा पूजा द्रव्यरक्षा, यात्रिकाणां च सत्कृतिम्। कुर्वाणो वत्सगोत्रोऽपि, स्वर्गलोके महीयते।।११५।। श्रीवस्तुपालोपज्ञानि,पीथडादिकृतानि च / वक्ता पारं नयत्येव, धर्मस्थानानि कीर्तयन् / / 116 / / दुःखमासचिवातम्लेच्छा-द्रङ्ग सम्भाव्य भाविनम्। मन्त्रीशः श्रीवस्तुपाल--स्तेजपालाग्रजः सुधीः / / 117 / / मम्मणा (म्मणो) पलरत्नेन, निर्माप्यान्तस्तु निर्मले। न्यधाद्भूमिगृहे मूत्ती ,आद्यार्हत्-पुण्डरीकयोः / / 118|| युग्मम्हीप्रहर्तृक्रियास्थान-संख्ये विक्रमवत्सरे। जावडिस्थापितं विम्बं, म्लेच्छर्भग्नं कलेवंशात्।।११६।। वैक्रमे वत्सरे चन्द्र-हयाग्नीन्दुमिते (1371) सति। श्रीमूलनायकोद्धार, साधुः श्रीसमरो व्यधात् / / 120 / / तीर्थेऽत्र संघपतयो, ये बभूवुर्भवन्ति ये। ये भविष्यन्ति धन्यास्ते, नन्द्यासुस्ते चिरं श्रिया।।१२१।। कल्पप्राभृततः पूर्व कृतं श्रीभद्रबाहुना। श्रीवजेण ततः पाद-लिप्ताचार्यस्ततः परम् / / 122 / / इतोऽप्युद्धृत्य संक्षपात्,प्रणीतः कामितप्रदः / श्रीशत्रुञ्जयकल्पाऽयं, श्रीजिनप्रभूसूरिभिः / / 123 / / कल्पेऽस्निन् वाचिते ध्याते, व्याख्याते पठिते श्रुते। स्यात्तृतीयभवे सिद्धि-भव्यानां शक्तिशालिनाम् / / 124 / / श्रीशत्रुञ्जयशैलेश?-लेशतोऽपि गुणास्तव। कैावर्णयितुं नाम, पार्यन्ते विबुधैरपि॥१२५।। भवेद्यानोपनमाणः, नृणां तीर्थानुभावतः। प्रायो मन्:परीणामः, शुभ एव प्रवर्त्तते / / 126 / / यात्राये प्रचलत्संघ-रथाश्वोष्ट्रनृपादजः। रेणुरड़े लगन भव्य-पुसा पापं व्यपोहति।।१२७।। यावान कर्मक्षयोऽन्यत्र, मासक्षपणणो भवेत्। नमस्कारसहितादे-रपि तावान् कृतस्त्वयि // 128 / / श्रीनाभेयकृतावास-वासवस्तवनेन च। मनसा वचसा नत्वा, सिद्धिक्षेत्र ! नमोऽस्तुते।।१२६।। त्वत्कल्पमेत निर्मायं, निर्माय मनसा मया / यदार्जि पुण्यं तेनास्तु, विश्वं वास्तवसौख्यवत्।।१३०।। पुस्तकन्यस्तमपि यः, कल्पमेन महिष्यति। पक्षण कासितारतस्य, सिद्धिमेष्यन्ति संपदः / / 131 // प्रारम्भेऽप्यस्य राजाधि-राजः संघे प्रसन्नवान्। अतो राजप्रसादाख्यः, कल्पोऽयं जयताचिरम्।।१३।। श्रीविक्रमाब्दे (विक्रमसंवत् 1385 माघ शुक्ल,सप्तम्या शुक्रवासरे।) बाणाष्ट--विश्वदेवमिते शितौ। सप्तम्यां तपसः काव्य-दिवसेऽयं समप्पितः॥१३३।। ती०१ कल्प० / 'नार्हतः परमो देवो, न मुक्तेः परमं पदम् / न श्रीशत्रुञ्जयातीर्थ, श्रीकल्पान्न परं श्रुतम् / / 1 / / ' कल्प०१ अधि० १क्षण। अथ पण्डितडाहर्षिगणिकृतप्रश्नो यथा"दत्तेऽसौ सर्वसौख्यानि,त्रिशुद्ध्याराधितो यतिः। विराधितश्च तैरश्च्य-नरकानल्पयातनाः / / 60|| चारित्रिणो महासत्त्वा, व्रतिनः सन्तु दूरतः। निष्क्रियोऽप्यगुणज्ञोऽपि,न विराध्यो मुनिः क्वचित्।।६१|| यादृशं तादृशं चापि, दृष्ट्वा वेषधरं मुनिम्।। गृही गौतमवद्द्वक्त्या, पूजयेत्पुण्यकाम्यया / / 62|| वन्दनीयो मुनिर्वेषो, न शरीरं हि कस्यचित्। व्रतिवेषं ततो दृष्ट्वा, पूजयेत्सुकृती जनः॥१३॥ पूजितो निष्क्रियोऽपिस्या-ल्लज्जया व्रतधारकः। अवज्ञातः सक्रियोऽपि, व्रतेऽस्याच्छिथिलादरः ||6|| दानं दया क्षमा शक्तिः , सर्वमेवाल्पसिद्धिकृत्। तेषां ये व्रतिनं दृष्ट्वा न नमस्यन्ति मानवाः / / 5 / / आराधनीयास्तदमी, त्रिशुद्धया जैनलिङ्गिनः। न कार्या सर्वथा तेषां, निन्दा स्वार्थविघातिका॥६६|| कारणं तव कुष्टा (ठा) नां, महीपाल! स्फुट ह्यदः। मा कदापि मुनीन् कुद्धा-नपि त्वं तु विराधयेः।।१७" इति वृद्धश्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यद्वितीयसर्गमध्यगतश्लोकास्तेषां मध्ये केवललिङ्गमात्रधरोऽपि मुमुक्षुर्वन्दनीयो गौतमवत्पूजनीयश्च तत्कथं केन हेतुनेति ? / 1 / अर्थतस्य प्रश्नस्य प्रतिवचो यथा- 'दत्तेऽसौ सर्वसौख्यानी' त्यादि शत्रुञ्जयमाहात्म्यद्वितीयसर्गमध्यगतश्लोकास्तु कारणिकविधिमाश्रित्य तीर्थोद्भावनबुद्ध्या वा कृताः संभाव्यन्ते इति न कश्चिद्दोष इति // 1 // ही०२ प्रका० / 'पच्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागे 88 पृष्ठे मूलगुणप्रत्याख्यानव्याख्यानावसरे उदाहृतं स्वनामख्याते साकेतराजे / येन रत्नदर्शनच्याजेन सामायिकादिषडध्ययनरूपाणि भावरत्नानि गृहीतानि। आव०१ अ०। सत्तुग पुं०(शक्तुक) भष्ट यवक्षोदे, त दिवसक ताण एव ज.. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तुग 334 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्थ वा मुग्गा पासाणजंतग्गे दलिया महिणा सत्तुगा भण्णति / नि० चू० / १उ०। सत्तुचुण्ण पुं० (सक्तुचूर्ण) यवसक्तुषु, दश०१०। सत्तुजण पुं० (शत्रुजन) वैरिलोके, ति०। सत्तुदाह पुं० (शत्रुदाह) यत्र शत्रयो दान्ते / तादृशे स्थाने, नि० चू० / 330 // सत्तुमद्दन पुं० (शत्रुमर्दन) तच्छरीरतत्सैन्यकदर्थनादिषु सहस्र- / मानमथने, स० सत्तुय पुं० (शक्तुक) भ्रष्टयवक्षोदे, उत्तरावहे सत्तुया अन्नेसुवाजं विसए दाऊण पच्छा अणेगमवक्खा पगारा दिजंति। नि० चू० 1 उ०। सत्तुसेण पुं० (शत्रुसेन) नागरय गृहपतेः सुलसायां भार्यायामुत्पन्ने पुत्रे, अन्त०१ श्रु०२ वर्ग 1 अ०। (स च अरिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य शत्रुञ्जये सेत्स्यतीत्यन्तकृदृशाना तृतीये वर्ग षष्ठे अध्ययन सूचितम्।) सत्तुस्सेह त्रि० (सप्तोत्सेध) सप्तकुम्भादिषु स्थानेषून्नते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / सप्तहस्तप्रमाणशरीरे, च० प्र०१ पाहु० / सप्तहस्त-प्रमाणशरीरोच्छ्रये, सू० प्र०१पाहु०। सत्थ त्रि० (शस्त) प्रशस्ते, षो०७ विव०॥ *शस्त्र न० शस्यन्ते-हिंस्यन्ते अनेन प्राणिन इति शस्त्रम् / आचा० / 1 श्रु०१ अ०३ उ० / जीवशासनहेती, स्था० 6 ठा०३ उ० / उपघातकारिणि, आचा०१ श्रु०२ अ०१उ०। खड्गारिकाद्यक्षेप्यायुधे, प्रश्न०५ संव० द्वार। प्रव०। व्य०। स्था०। प्रहरणे, सूत्र० 1 श्रु०८ अ० / ज्ञा० / दात्रादिके, सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 1 उ०। जंजस्स विणासकारणं तं तरस सल्थं भण्णति। नि० चू०१ उ०। प्रच्छन्नके नापितोपकरणे, विपा० 1 श्रु०६ अ० / शस्त्र द्रव्यभावभिन्नम् / तत्र द्रव्यशस्वस्वकायपरकायोभयरूपम् / भावशस्त्र तु असंयमो दुष्प्रणिहितमनोवाक्कायलक्षणः / आचा०१ श्रु०१ अ०२ उ०। द्रव्यशस्त्रमपि समासविभागभेदात् द्विधातत्र समासो द्रव्यशस्त्रमप्कायविषयकमुत्सेचन उपक्षेषणादि, विभागतस्तु किं-चित्रस्वकार्य परकायं वा शस्त्रम् / आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। शस्त्रनिक्षेपःदव्वं सत्थग्गि विस--णेहंबिलखारलोणमादीयं / भावो उ दुप्पउत्तो, वाया काओ अविरती य / / 36 / / शस्त्रस्य निक्षेपो नामादिश्चतुर्धा-व्यतिरिक्तं द्रव्यशस्त्रं खङ् गाद्यग्निविषस्नेहाम्लक्षारलवणादिकम्, भावशखं दुष्प्रयुक्तो भावः अन्तःकरणं, तथा वाकायावविरतिश्चेति जीवोपघातकारित्वादिति भावः / आचा० 1 श्रु०१ अ०१ उ०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'पुढवीकाइय' शब्दे पञ्चमभागे 678 पृष्ठे गता।) (पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतिरसाना शस्त्राणि पृथिव्यादिशब्देषूक्तानि।) अस्थि सत्थं परेण परं, णऽत्थि असत्थं परेण परं / (सू० 1254) तत्र द्रव्य शस्त्र कृपाणादि लापरेणापि एरमरित, तीक्ष्णादपि तीक्ष्णतरमस्ति लोहकर्तृ संस्कारविशेषात् / यदि वा शस्वमिन्युपघातकारि; तत एकस्मात्पीडाकारिणोऽन्यत् पीडाकार्युत्पद्यते ततोऽप्यपरमिति। तद्यथा-कृपाणाभिघाताद्वातोत्कोपस्ततः शिरोर्तिस्तस्या ज्वरस्ततोऽपि मुखशोषमूदिय इति / भावशस्त्रपारपर्यत्वेकसूत्रान्तरित स्वत एव प्रत्याख्यानपरिज्ञाद्वारेण वक्ष्यति, यथा च शस्त्रस्य प्रकर्षगतिरस्ति पारंपर्य वा विद्यते अशस्त्रस्य तथा नास्तीति दर्शयितुमाह- 'नत्थि' इत्यादि, नास्ति- न विद्यते किं तत्-शस्त्रं संयमस्तत्परेण परमिति प्रकर्षगत्यापन्नमिति / तथाहि-पृथिव्यादिना सर्वतुल्यता कार्या, न मन्दतीव्रभेदोऽस्तीति, पृथिव्यादिषु समभावत्वात् सामायिकस्या अथवा शैलेश्यवस्थासंयमादपिपरः संयमो नास्ति तदूर्द्ध गुणस्थानाभावादिति भावः, यो हि क्रोधमुपादानतो बन्धतः स्थितितो विपाकतोऽनन्तानुबन्धिलक्षणतः क्षयमाश्रित्य प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानाति सोऽपरमानादिदर्श्यपीति / आचा०१ श्रु०३ अ०४ उ० / सत्थमेगे उ सिक्खंति। (सू०४+) शस्त्रम्-खङ्गादिप्रहरणं शास्त्रं वा-धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपम-ईकारि तत् सुष्ठ सातगौरवगृद्धा एके–केचन शिक्षन्ते उद्यमेन गृह्णन्ति, तच्च शिक्षितं सत् प्राणिनां-जन्तूनां विनाशाय भवति। तथाहि-तत्रोपदिश्यते एवंविधमालीढप्रत्यालीढादिभिञ्जीवे व्यापादयितव्ये स्थान विधेयं, तदुक्तम्- "मुष्टिनाऽऽच्छादयेलक्ष्य, मुष्टौ दृष्टिं निवेशयेत् / हतं लक्ष्य विजानीयाद्यदि मूर्धान कम्पते / / 1 / / " सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 शस्त्रमिव शस्त्रम् / मृषावादादिके, प्राण्युपतापकारिल्वात्तेषाम् / सूत्र०१ श्रु० 6 अ०। *शास्त्र न० शिष्यते शिक्ष्यते बोध्यतेऽनेनेति शास्त्रम। विशे० आ० म०। नं०। सूत्र०। सासिज्जए तेण तहिं, व नेयमायावतो सत्थं // 1384 / / 'शासु' अनुशिष्टौ, शास्यते ज्ञेयमात्मा वाऽनेनास्मादस्मिन्निति वा शास्त्रम्, शास्यते-कथ्यते तदिति वा शास्वमिति गाथार्थः। विशे० श्रुते, आ० चू०१ अ०। जैनागमे, अष्ट० 24 अष्ट०। तस्मात्सदैव धर्मार्थी, शास्त्रयत्नः प्रशस्यते।। लोके मोहान्धकारेऽस्मिन, शास्त्रालोकः प्रवर्तकः॥२२४।। तस्माद्धर्म विधानतः परानर्थभावात् सदैव-सर्वकालमेव धर्मार्थीधर्माभिलाषुकः शास्त्रयत्नः-शास्त्रादरपरः प्रशस्यतेश्लाघ्यते। कुतः - यतः लोके-जगति मोह एवान्धकारस्तमो यत्र स तथा / तत्र शास्त्रालोकः-शास्त्रप्रकाशः प्रवर्तकः--प्रवर्तयिता परलोकक्रियासु / अथ शास्त्रमेव स्तुवन्नाह-- पापामयौषधं शास्त्र,शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम्। चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्रं, शास्त्रं सर्वार्थसाधनम् // 225 / / पापामयौषधं-पापव्याधिशमनीयं शास्त्रम्, तथा शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम्-पवित्रकृत्यनिमित्तम् / चक्षुः-लोचनं सर्वत्र सूक्ष्म-- बादरादावर्थ गच्छति यत्तत्सर्वत्रगं शास्त्रम् / शाख सवार्थसाधन सर्वप्रयोजननिष्पत्तिहेतुः। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्थ 335 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सत्थपरिणामिय ततः ('मंगल' शब्दे षष्ठे भागे 5 पृष्ठे मङ्गलस्य शास्त्राङ्गता उक्ता।) नयस्य भक्तिरेतस्मि-स्तस्य धर्मक्रियाऽपि हि। *स्वस्थ त्रि० स्वस्मिन् तिष्ठतीति स्वस्थः / अनाबाधिते, हा० 32 अन्धप्रेक्षाक्रियातुल्या, कर्मदोषादसत्फला।।२२६।। अष्ट। न यस्य-धर्मार्थिनो भक्तिर्बहुमानरूपा, एतस्मिन्-शास्त्रे तस्य | *सार्थ त्रि० अर्थयुक्ते, बृ०। धर्मक्रियाऽपि हि-देववन्दनादिरूपा, किं पुनरन्यरूपेत्यपि हिशब्दार्थः, भंडीवहिलगभरवह-ओदरिया कप्पडियसत्थो। अन्धप्रेक्षाक्रियातुल्या अन्धस्यावलोकनकृते या प्रेक्षणकक्रिया तत्तुल्या सार्थः पञ्चविधस्तद्यथा-भण्डी-गन्त्री तदुपलक्षितः प्रथमः सार्थः कर्मदोषात्तथाविधमोहोदयादसत्फला-अविद्यमानाभिप्रेतार्था संपद्यत वहिलका:-करभीवेसरबलीवर्दप्रभृतयः तदुपलक्षितो द्वितीयः, इति। भारवहाः-पोट्टलिकावाहकास्तेषां सार्थस्तृतीयः, औदरिका नामएतदपि कुतः? यतः यत्रागतास्तत्र रूपकादिकं प्रक्षिप्य समुद्दिशन्ति समुद्देशनानन्तरं यः श्राद्धो मन्यते मान्या-नहंकारविवर्जितः। भूयोऽप्यग्रतो गच्छन्ति एष चतुर्थः, कार्पटिकाभिक्षाचरास्तैः सह भिक्षा गुणरागी महाभाग-स्तस्य धमक्रिया परा।।२२७।। भ्रमन्तो व्रजन्ति ते सार्थाः पञ्चमः / बृ०१ उ० 3 प्रक० / नि० चू०। यः श्राद्धः-सन्मार्गश्रद्धालुः, मन्यते-बहुमानविषयीकुरुते मान्यान्- | *स्वास्थ्य न० स्वस्थस्य भावः स्वास्थ्यम् / अनाबाधतायाम, हा० देवतादीन, अहंकारविवर्जितोमुक्ताभिमानः, अत एव गुणरागी- 32 अष्ट०। समाधौ, आ० म०१ अ०।ज्ञा०। आव०। स्था०। गुणानुरागवान् महाभागः-प्रशस्याचिन्त्यशक्तिः, किमित्याह-तस्य- सत्थकोस पुं० (शस्त्रकोस) शिरावेधादिशससमुदाये,बृ० 1 उ०३ शारत्रपरतन्त्रतया मान्यमन्तुः,धर्मक्रिया-उक्तरूपापरा प्रकृष्टति। प्रक० / (अस्योपयोगवर्णनं 'राइभोयण शब्दे षष्ठभागे 517 पृष्ठे गतम्।) व्यतिरेकमाह क्षुरनखरदनादिभाजने, ज्ञा० 1 श्रु०१३ अ०।शस्त्रकोशो नखरदच्छेदयस्यत्वनादरःशास्त्रे,तस्य श्रद्धादयो गुणाः। नादिभाजनम्। विपा०१ श्रु०१ अ०। उन्मत्तगुणतुल्यत्वा-न प्रशंसास्पदं सताम्॥२२८|| सत्थग्गहण न० (शस्त्रग्रहण) शस्त्र-खङ्गादितस्य ग्रहणं स्वीकरणम्। यस्य त्वनादरः-अगौरवरूपः शास्त्रे तस्य श्रद्धादयः-श्रद्धासवे- / शस्त्रादिधारणे तेषां वधार्थ व्यापारणे, ग०२ अधि० / गनिर्वेदादयो गुणाः / किमित्याह-उन्मत्तगुणतुल्यत्वात्-तथावि-- सत्थघायक त्रि० (सार्थघातक) सार्थनाशके, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। धग्रहावेशात सोन्मादपुरुषशौर्योदार्यादिगुणसदृशत्वान्न प्रशंसारपदं-न सत्थजत्त पुं० (शास्त्रयत्न) शास्त्रे यत्नो यस्येति समासः / आगमे श्लाघास्थानं सताविवेकिनामिति। यतमाने, “पापामयौषधं शास्त्र, शास्त्रं पुण्यनिबन्धनम् / चक्षुः सर्वत्रगं एतदपि कथम्? यतः शास्त्र, शास्त्र सर्वार्थसाधनम्॥१॥" ध०१ अधि०। मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम्। सत्थजाय न० (शस्त्रजात) आयुधविशेषे, आचा०२ श्रु०१चू०३ अ० अन्तःकरणरत्नस्य, तथाशास्त्रं विदुर्बुधाः।।२२६।। 2 उ०। मलिनस्य-मलवतो यथाऽत्यन्तम्-अतीव जलं-पानीयम् वस्त्रस्य- | सत्थजुत्तिसय न० (शास्त्रयुक्तिशत) शास्त्रस्य युक्तयः तेषां शतम्। प्रतीतरूपस्य शोधनं-शुद्धिहेतुः अन्तःकरणरत्नस्य अन्तः करणंमनः, अनेकागमरहस्यावबोधे, अष्ट०२६ अष्ट। तदेव रत्न, तस्य चिन्तारत्नादिभ्योऽप्यतिशायिनः, तथा शास्त्रं विदुः सत्थजोग (शास्त्रयोग) शास्त्रोक्ते योगे, “यथाशक्त्यप्रमत्तस्य, जानते शोधनं बुधा:-बुद्धिमन्तः। तीव्र श्रद्धावबोधतः / शास्त्रयोगस्त्वखण्डाराधनादुपदिश्यते // 4 // " अतएव द्वा० 16 द्वा०। (अत्रत्या व्याख्या 'जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1627 पृष्ठे शास्त्रे भक्तिर्जगद्वन्द्यै-मुक्ते ती परोदिता। गता।) अत्रैवेयमतो न्याया-त्तत्प्राप्त्यासन्नभावतः॥२३०।। सत्थत्थबाहण न० (शास्त्रार्थबाधन) आगमार्थविराधने प्राणाशास्त्र भक्तिरुक्तरूपा जगद्वन्द्यैर्जगत्त्रयपूजनीयस्तीर्थकृ द्भिर्मु- तिपातादिरूपे, पश्चा०१६ विव०। क्त ती-अवशीभूतमुक्तियोषित् समागमविधायिनी पराप्रकृष्टा सत्थपणग न० (सार्थपञ्चक) 'सत्य' शब्दोक्तानां पञ्चानां सार्थानां उदिता-निरूपिता। अत्रैव-शास्त्र एवेयं भक्तिरतो मुक्तिदूति-भावादेव पञ्चतय्याम्, नि० चू०१६ उ०।। हेतोः न्याय्या-संगता / कुत इत्याह-तत्प्राप्त्यासन्नभावतः-- सत्थपत्थावणा स्त्री० (शास्त्रप्रस्तावना) शास्त्रीयोपोद्घाते, स्था० मुक्तिप्राप्तरासन्नभावात् / न हि मुक्तिप्राप्तेरनासन्नः शास्त्रभक्तिमान् 1 ठा०। संपद्यते अतः शास्त्र एवेयं न्याय्येति। यो०बि०। “सुत्तं ति वा तंत तिवा सत्थपरिणामिय त्रि० (शस्त्रपरिणामित) शस्त्रेण रचकायपरकायादिना गंथो ति वा पाठो त्ति वा सत्थं ति वा एगट्ठा"। आ० चू०१ अ०। आचा० / निजींवीकृतं वर्णगन्धरसादिभिश्च परिणमितम्। सूत्र०२ श्रु०१ अ०। शारवस्यादौ प्रयोजनादि उपन्यसनीयम् / आ० म०१ अ०। (अत्रत्या वर्णादीनामन्यथाकरणेनाचित्ती कृतें, भ०७ श०१3० / कृताभिनव्याख्या 'आवस्सयनिज्जुत्ति' शब्दे द्वितीयभागे 456 पृष्ठे गता।) | वपर्याय, भ०५ श०२ उ०। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्थपरिण्णा 336 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सदणुट्ठाण सत्थपरिण्णा स्त्री० (शस्त्रपरिज्ञा) शस्त्रं द्रव्यभावभेदादनेकविध तस्य | सत्थसंदेदण न० (स्वार्थसंवेदन) स्वं चार्थश्च स्वार्थो तयोः संवेदनं जीवशंसनहेतोः परिज्ञाज्ञानपूर्वकं प्रत्याख्यानं यत्रोच्यते सा | स्वार्थसंवेदनम्। शब्दार्थज्ञाने, सम्म०२ काण्ड। शस्त्रपरिज्ञा / षट्जीवनिकायस्वरूपरक्षणोपायगर्भ आचाराङ्गस्य सत्थसच्च त्रि० (स्वार्थसत्य) स्वस्य अर्थः स्वार्थः तस्मिन् सत्यः। प्रथमश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययने, स्था०६ ठा०३ उ० / प्रश्नः / स्वाभिमतस्थापनकुशले, अष्ट०१६ अष्टः / आचा०। आव०॥ सत्था त्रि० (शास्तृ) अनुशासितरि, सूत्र. 1 श्रु० 1 अ० 1 साम्प्रतमुद्देशार्थाधिकारःशस्त्रपरिज्ञाया अयम् उ०। आचा० / तीर्थकरे, नि० चू० 11 उ०। जीवो छक्कायपरू-वणाय तेसिं बहे य बंधो त्ति। सत्थाइ पुं० (शास्त्रादि) शास्त्रप्रारम्भे, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 130 / विरईए अहिगारो, सत्थपरिण्णाएँणायव्वो॥३५॥ सत्थाईय न० (शस्त्रातीत) शस्त्रादग्न्यादेरतीतमुत्तीर्ण शस्खाती तम्। तत्र प्रथमोद्देशके सामान्येन जीवास्तित्वं प्रतिपाद्यम्, शेषेषु षट्सु और। शस्त्रमन्यादिकं तेनातीतं प्रासुकीकृतं शस्त्रातीतम्। सूत्र०२ विशेषेण पृथिवीकायाद्यस्तित्वमिति सर्वेषां चावसाने बन्धविर श्रु० 1 अ०। अग्न्यादिप्रासुकीकृते, भ० 5 श०३ उ। तिप्रतिपादनमिति / एतच्चान्ते उपात्तत्वात्प्रत्येकमुद्देशार्थेषु योज सत्था (त्थ) पारगय पुं० (शास्त्रपारगत) चतुर्वेदादिशास्वपारनीयम् / प्रथमोद्देशके जीवस्तबधे बन्धो विरतिश्चेत्येवमिति / तत्र गामिनि, अनु०। शस्त्रपरिक्षेति द्विपदं नाम / आचा० 1 श्रु० 1 अ० 1 उ०। सत्थि अव्य० (स्वस्ति) माङ्गल्ये, स्था० ४ठा०२ उ०। सत्थवाह पुं० (सार्थवाह) सार्थ वाहयतीति सार्थवाहः / नि० चू० सत्थिग पुं० (सार्थिक) सार्थो विद्यते यस्येति व्युत्पत्त्या सार्थवाहे,बृ० 6 उ० / सार्थनायके, प्रज्ञा० 20 पद 5 द्वार / "गणिमं धरिमं 1 उ०३ प्रक०। मेज़,पारिच्छेनं च दव्वजायं तु। घेत्तूणं लाभत्थं, वचति जो अन्नदेसंतु स्वस्तिक पुं० तस्यैव (जिन) कल्पस्य वस्त्रधारणे पूर्वोत्तरकरणे, / / 1 / / निवबहुमओ पसिद्धो दीणाऽणाहाण वच्छलो पंथे / सो हस्ताभ्यां गृहीत्वा द्वे अपि बाहुशीर्षे यावत्प्राप्येते तद्यथा-दक्षिणेन सत्थवाहनाम, धणो व्व लोए समुव्वहइ / / 2 / / " एतल्लक्षणयुक्ते, हस्तेन वाम बाहुशीर्ष, वामेन दक्षिणमेष द्वयोरपि कलाचिकयोहृदये अनु०। यो विन्यासविशेषः स स्वस्तिकाकार इति कृत्वा स्वस्तिक इत्युच्यते। अथ यदुक्तमष्टौ सार्थवाहा आदियात्रिकाचेति तदे-- (03 उ०।) इत्येवंरूपे विन्यासविशेषे, प्रव० 26 द्वार। महाग्रहे, तव्याख्यानयति-- कल्प० 1 अधि० 6 क्षण। सू० प्र०। पुराणसावगसम्म-द्दिट्ठि अहाभद्ददाण सड्ढे य। सत्थिवारसम त्रि० (स्वस्तिद्वादश) स्वस्ति द्वादशं यत्र तत्स्वअणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अन्नतित्थी य॥३३॥ पुराण:-पश्चात्कृतः१श्रावकः-प्रतिपन्नाणुव्रतः२,सम्यग्दृष्टिः स्तिद्वादशम् / द्वादशसंख्यापूरकस्वस्तिघटितसमुदाये, रा०। सत्थुत्तगुण त्रि० (शास्त्रोक्तगुण) ग्रन्थोदितधर्मक, पञ्चा० 14 विव०। चरितसदर्शनीयः३, यथाभद्रकः-सामान्यतः दर्शनसाधुपक्षपाती४, दानश्राद्धः-प्रकृत्यैव दानरुचिमान्५,अनभिगृहीतमिथ्या सत्थोवरय त्रि० (शस्त्रोपरत) शस्त्रात् द्रव्यभावभेदादुगरते, 'एत्थ दृष्टिः६ अभिगृहीतमिथ्यादृष्टिः 7 अन्यतीर्थिकः८ एते त्रयोऽपि सत्थोवरए' आचा०१श्रु०३ अ०१ उ०॥ प्रतीताः, एवमष्टौ सार्थाधिपतयः, आदियात्रिका अप्येवमेवाष्टौ भङ्गा सत्थोवाडण न० (शस्त्रावपाटन) शस्त्रेणावपाटनं विदारणमात्मनः। भवन्ति / बृ० 1 उ० 3 प्रक० / स्था० / कल्प० / नि० चू० ! आ० शस्त्रेण विदारणे,ज्ञा०१श्रु०१६ अ०1 ('मरण' शब्दे षष्ठे भागे 106 क० / रा०। आव०। ज्ञा०। यस्तु क्रयाणकजातं गृहीत्वा लोभार्थ पृष्ठे अस्य व्याख्या।) मन्यदेशं व्रजन् सार्थ वाहयति योगक्षेमधिन्तया पालयति स | सत्थोवाडिय पुं० (शस्त्रावपाटित) खगादिना विदारिते. विपा० सार्थवाहः / बृ० 1 उ० 3 प्रक०। १०६अ। सत्थविहान न० (सार्थविधान) गणिमादिभेदाच्चत्तुर्विधसार्थभेदे, बृ०॥ सदसण पुं० (सदर्शन) सह दर्शनेन वर्तते इति सदर्शनः! श्रद्दधाने, तत्र गणिमं यदेकद्वयादिसंख्यया गणयित्वा दीयते यथा नि० चू०१ उ०। शोभनागमे, द्वा०३ द्वा०। हरीतकीपूगफलादि, धरिमं--यत्तुलायां धृत्वा दीयतेयथा खण्ड- | सदक्खिण्ण पुं० (सदाक्षिण्य) स्वकार्यपरिहारेण परकार्यकरणशर्करादि, मेयं--यत्पलादिना सेतिकादिना वा मीयते यथा घृतादिकं, करसिकान्तःकरणे, प्रव०२३६ द्वार।प्रार्थनागम्भीरके गुणवच्छ्रापरिच्छेद्यं नामयचक्षुषा परीक्ष्यते यथा वस्त्ररत्नमाक्तिकादि / वके, ध०१ अधि०। एत चतुर्विधमपि द्रव्यं भण्डीसार्थादिषु प्रत्युपेक्षणीयं यथा सदवच्या स्त्री० (सदवाच्यता) सच्चाऽवाच्यं च सदवाच्ये तयोर्भावौ द्रव्यक्षेत्रकालभावैरपि सार्थः प्रत्युपेक्षणीयः। बृ०१ उ०३ प्रक०।। सदवाच्यते। अस्तित्वावक्तव्यत्वयोः, स्या०। सत्थयुत्तणाय पुं० (शास्त्रोक्तन्याय) अगमाभिहितनये, हा० 21 | सदस न० (सदस्) सभायाम्, षो० 14 विव०।। अष्ट। सदसत्त न० (सदसत्त्व) स्वपररूपाभ्यां विद्यमानाऽविद्यमानत्वे, नं०। सत्थब्भास पुं० (शरसायास) शस्त्रयटालाप्यारो, कल्प०१ / सदणुट्ठाण न० (सदनुष्ठान) सुन्दराऽनुष्ठाने, षो०४ विवाशोभनाअशित५क्षण। गुमाने, द्वा०२३ दा०॥ / Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदा 337 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सदारसंतोस सदा अव्य० (सदा) सर्वस्मिन् काले, ध०२ अधि० / सर्वदा शब्दार्थे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। सदागम पुं० (सदागम) आप्तोपदेशे, पञ्चा० 1 विव०। सदागमविसुद्ध त्रि० (सदागमविशुद्ध) सदर्थप्रतिपादकागमः सदागमस्तेन विशुद्ध निर्दोषम्। सदागमसम्मते, षो०२ विव०। सदाजत त्रि० (सदायत) अप्रमादिनि, आचा०१ श्रु० 3 अ०२ उ०। सदाजय त्रि०(सदाजय) सदा सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि / सर्वकालं जय-सु, जी०३ प्रति०३ अधि०।। सदायार पुं० (सदाचार) शोभनाचारे, षो०५ विव० / सर्वोपकारप्रियवचनाकृतिमाचितरनेहादिकायां सज्जनचेष्टायाम्, यो० वि०। अथ सदाचारमाहलोकापवादभीरुत्वं,दीनाभ्युद्धरणाऽऽदरः। कृतज्ञता सुदाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः॥१२६|| लोकापादभीरुत्वं-यतःकृतोऽपि लोकापवादान्मरणान्निर्विशिप्यमाणाद् भीतभावः, दीनाभ्युद्धरणादरः-उपलक्षणत्वाद्दीनानाथोपकारप्रयत्नः, कृतज्ञतापरकृतोपकारपरिज्ञानम्, सुदाक्षिण्यंगम्भीरधीरचेतसा निर्मत्सरस्य च प्रकृत्यैव परकृत्याभियोगपरता। किमित्याहसदाचारः-प्रागुपन्यस्यः प्रकीर्तितः-प्रज्ञप्तः। तथासर्वत्र निन्दासंत्यागो, वर्णवादश्च साधुषु। आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत्संपदिनम्रता।।१२७॥ सर्वत्र-जघन्यमध्यमोत्तमजनेषु निन्दासंत्यागः-परिवादापनोदः, वर्णवादश्च-प्रशंसारूपः साधुषु-सदाचारेषु जनेषु, आपदिव्यसनेऽदैन्या-अदीनभावोऽत्यन्तम्-अतीव तद्वदापादैन्यवत, संपदिविभवसमागम नम्रता औचित्येन नमनशीलता। तथाप्रस्तावे मितभाषित्व-मविसंवादनं तथा। प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम्॥१२८।। प्रस्तावे-भाषणावसरे उपलब्धे मितभाषित्वं मितभाषणशीलता, अविसंवादन-विसंवादवतः स्ववचनस्याकरणं, तथा प्रतिपन्नक्रिया घेति--प्रतिपन्नस्यव्रतनियमादेः क्रियानिर्वाहणम् / इति पदसमाप्ता, कुलधर्मानुपालनम्-अविरुद्ध स्वकुलाचारानुवर्त्तनम्। असद्व्ययपरित्यागः, स्थाने चैतक्रिया सदा। प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम्॥१२६।। असद्व्ययपरित्याग:-असतः पुरुषार्थानुपयोगित्वेनासुन्दरस्य व्ययस्यवित्तवियोगरूपस्य परित्यागः स्थाने च-स्थाने एव देवपूजनादावेतत् क्रियाव्ययक्रिया सदासर्वकालं प्रधानकार्येविशिष्टफलदायिनि प्रयोजने निर्बन्ध:--आग्रहः प्रमादस्यमद्यमानादिरूपस्य विवर्जनमउज्झनम्। लोकाचारानुवृत्तिश्च, सर्वत्रोचित्यपालनम्। प्रवृत्तिर्गर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि।।१३०॥ लोकाचारानुवृत्तिश्च-बहुजनरूढाविरोधिलोकव्यवहारानुपालनरूपा सर्वत्रस्वपक्षे परपक्षे चौचित्यपालनसमुचिताचाररूपं प्रवृत्तिर्गर्हिते कुत्सित कुलदूषणादौन-नैवेति प्रावित्, प्राणैरुच्छासरूपैः कण्टगतरपिगलस्थानप्राप्तैः किं पुनः स्वभावस्थैरित्यपिशब्दार्थः / यो०बि०। सदायारसंग पु० (सदाचारसङ्ग) सम्-शोभनम् आचार हपरलोकहिता प्रवृत्तिर्येषां ते सदाचारास्तैः सह सङ्ग:-सङ्गतिः / राजनीः सह सङ्गे, ध० / असत्सङ्गे हि सपदि शीलं विलीयेत / यदाह- "या सत्संगतिरतो, भविष्यसि भविष्यसि / अथाऽसज्जनगोष्ठीषु, पतिष्यारे पतिष्यसि / / 1 / / " इति। तथा- “सङ्गः सर्वात्मना त्याज्यः, स चेत् त्यातु न शक्यते / स सद्भिः सह कर्त्तव्यः,सन्तः सङ्गस्य भेषजम् / / 2 / / " इति। ध०१ अधि०। सदार पुं० (स्वदार) आत्मीयभार्यायाम, पञ्चा० 1 विव० / *सदार पुं० सपत्नीके. उत्त०१४ अ०। सदारमंतभेय पुं० (स्वदारमन्त्रभेद) स्वदाराणां मन्त्री विश्रम्भभाषित तस्य भेदः-अन्यकथनम्। ध०र०२ अधिक / स्वदाराणां विश्रब्धविशिष्टावस्थाभाषितस्यान्यस्मै कथने, ध०२ अधि० / पञ्चा० / श्रा०। आव०॥ सदारसंतोस पुं०(स्वदारसन्तोष) स्वदारैः सन्तोषः स्वदारसन्तोषः / स्वदारसन्तुष्टी, उपा०१ अ०। एयमिह-मुणेयव्यं, सदारसंतोस मो एत्थ॥११५।। स्वस्य आत्मनः स्वे वा आत्मियादाराःस्वदाराःस्वकलत्रं तैः संतोषःसंतुष्टिः मैथुनासेवनं प्रति वेश्यादेरपि वर्जनमिति स्वदारसंतोषः स च चतुर्थाणुव्रतमिति योजितमेव / इह च प्रथमैकवचनलोपः प्राकृतत्वात् 'मो' इति निपातः पादपूरणार्थः, अत्रेति चतुर्थाणुव्रते वर्जयतीत्युत्तरेण योग इति गाथार्थः / पञ्चा० १विव०। आत्मीयकलत्रादन्यत्रेच्छानिवृत्ता, स्था०५ ठा० 1 उ० / “स्वकीयदारसन्तोषो, वर्जन चान्ययोषिताम्। श्रमणोपासकानां तच्चतुर्थाणुव्रतमतम्॥१॥" ध०२ अधि०। ('आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 106 पृष्ठ व्याख्या गता।) (अस्यातिचाराः 'परदारगमन' शब्दे पञ्चमभागे 526 पृष्ठ व्याख्याताः। एतद्विषये प्रथमा कथा"सख्योऽत्र गिरिनगरे, तिस्रः सवयसोऽभवन्। उज्जयन्तं गता नन्तुं, गृहीतास्ता मलिम्लुचैः / / 1 / / नीत्वा पारसकुलेऽथ, वेश्यानां ददिरेऽधमैः / आसंस्ताः प्रौढगणिका-स्तत्पुत्राः पितृभिः पुनः।।२।। पालिता यौवनं प्राप्ता-स्तत्रैवागु:पणायितुम्। तासा भाटि ददुस्तेऽथ, स्वसंपत्या विभूषिताः / / 3 / / रात्रौ तन्मन्दिरे जग्मु-दौ रेमाते स्वमातरम्। एक: सुश्रावको रन्तु, नैच्छत्पप्रच्छ किं तु ताम्॥४॥ कुतः कथमिहायाता,सा स्वरूपं न्यरूपयत्। सोऽवदत्ते वयं युष्म-त्पुत्राः शिष्टं तदन्ययोः॥५॥ सर्वे वैराग्यमापन्ना-स्तदम्बाश्च प्रवव्रजुः। द्वितीया कथाश्रेष्ठी हेमपुरे श्रीदः, प्रियामुन्मुच्य गुर्विणीम्। दिग्यात्रायां ययौ पश्चा-ज्जायते स्म सुताऽदुता / / 1 / / Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द सदारसंतोस 338 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सच व्यवहरद्याव-त्तावत् पुत्र्यापयौवनम्। दत्ताऽन्यनगरे साऽस्ति, तत्रैवागाच्च तत्पिता॥२।। विनशन् मा क्रयाणानी-त्यस्थाद्वर्षाः स तत्र च / सार्द्ध संघटितः पुत्र्या, न भवेत्किमजानताम् / / 3 / / वर्षारात्रे व्यतीते च, श्रीदः स्वनगरं ययौ। आनायिता सुता मात्रा, पितरं वीक्ष्य लज्जिता // 4 // आत्मघातं व्यधात्पुत्री, पिता च व्रतमग्रहीत्। तृतीया कथावेश्या कुवेरसेनाऽभूत्, मथुरायां तयाऽजनि। अपत्ययुग्मं तत्स्वस्य,यौवनापहमित्यतः॥१॥ कुबेरदत्त कुबेर-दत्ता नामाङ्कमुद्रया। विभूष्य न्यस्य पेटायां, यमुनायां प्रवाहितम् / / 2 / / तच्च सौर्यपुरेभ्याभ्यां, दृष्ट्रकैकमुपाददे। तदेवोद्वाहित युग्म, दारकोऽपि गतोऽन्यदा // 3 // मथुरायां व्यधात्तत्र, स्वकीयां जननी जनिम्। दारिका तत्स्वसा दारा, धर्मं श्रुत्याऽग्रहीद् व्रतम् // 4 // साऽपि जातावधिज्ञाना, तत्रैव बिहरन्त्यगात् / तस्या एव गृहे तस्थौ, तस्याः पुत्रोऽस्ति पुत्रजः॥५॥ बालं विलोक्य सा साध्वी, तान् बोधयितुमब्रवीत्। भ्राताऽसि तनुजन्माऽसि, वरस्यावरजोऽसि च। भ्रातृव्योऽसि पितृव्योऽसि, पुत्रपुत्रोऽसि चार्भक ! / यश्च ते बालक ! पिता, स मे भवति सोदरः // 7 // पिता पितामहो भर्ता, तनयः श्वशुरोऽपि च। या च बालक ! ते माता, सा मे माता पितामही / / 8 / / भ्रातृजाया वधूः श्वश्रूः, सपत्नी च भवत्यहो। इत्युक्त्या ज्ञापयामास, स्वां कुबेराय मुद्रिकाम् / / 6 / / तां दृष्टा ज्ञापितं सर्व, जज्ञे संबन्धविप्लवम्। कुबेरदत्तःसंवेग-मासाद्य प्राव्रजत्तदा / / 10 / / कुबेरसेना श्राद्धाऽभू-दार्या च बिहृताऽन्यतः।" (एतानैहिकान् दोषान् ज्ञात्वा परस्त्री परिहार्या / ) आ० क०६ अ०। सदारसंतोसिय पुं० (स्वदारसन्तोषिक) स्वदारैः सन्तोषःस्वदारसन्तोषः,स एव स्वदारसन्तोषिकः, स्वदारसन्तोषो या स्थदारसन्तुष्टिः / चतुर्थाणुव्रते, उपा०१ अ०। सदाहिण्ण त्रि० (सदाक्षिण्य) सह दाक्षिण्येन वर्तते सदाक्षिण्यः। दाक्षिण्यगुणशालिनि, दर्श०२ तत्त्व। सदिव्व त्रि० (सदिव्य) सह दिव्यैः सदिव्यम् / गन्धर्वनगरादिके। दिव्योपद्रवे, आव०४ अ०। सदुवाय पुं०(सदुपाय) उपायाभासपरिहारे, यो०बि०। सदेव त्रि० (सदेव) अर्हत्प्रतिमालक्षणे देवे, ध०२ अधि०। सदेवसूरि पुं० (सदेवसूरि) वटगच्छप्रथमसू, ग०३ अधिक सदेस पुं० (सदेश) समानदेशजे, व्य०३ उ०1 *स्वदेश पुं० स्वावासमण्डले,पिं०। सद्द पुं० (शब्द) शब्द्यते-प्रतिपाद्यते वस्त्वनेनेति शब्दः / आ० म०१ अ० शब्दयति-भाषत इति शब्दः। विशे०। "सर्वत्र लव-रामचन्द्रे" // 876 / / इति वलोपः / प्रा० / शषोः सः / / 8 / 1 / 260 / / इति शस्य सः। प्रा०1श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यनियतक्रमवर्णात्मनि (द्वा०२६ द्वा०1) ध्यनौ, दश०१अ०रा०1 एगे सद्दे / (सू०४७) स्था०१ ठा०। वाचके, स्था०३ ठा०३ उ०। उत्त० / पञ्चा०। औ०। कालादिभेदेन ध्वनेरभेदं प्रतिपद्यमाने शब्दे, यथा बभूवभवति-भविष्यति- स मेरुरित्यादि। स्या०। शब्दनिक्षेपः नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् चतुर्धा शब्दः / तत्र नामस्थापने सुगमे।। द्रव्यनिक्षेपं दर्शयितुं नियुक्तिकृत् गाथापश्चार्द्धनाहदव्वं सद्दपरिणयं, मावो उ गुणा य कित्ती य॥३२३।। द्रव्य नोआगमतो व्यतिरिक्त शब्दत्वेन यानि भाषाद्रव्याणि परिणतानि तानीह गृह्यन्ते, भावशब्दस्त्यागमतः शब्दे उपयुक्तः, नोआगमतस्तु गुणाः अहिंसादिलक्षणा यतोऽसौ हिंसानृतादिविरतिलक्षणैः गुणैः श्लाघ्यते, कीर्तिश्च यथाभगवत एव चतुस्त्रिंशदतिशयाधुपेतस्य सातिशयरूपसंपत्समन्वितस्येत्यर्हन्निति लोके ख्यातिरिति, नियुक्त्यनुगमादनन्तरं सूत्रानुगमे सूत्रं, तश्चेदम्से मिक्खू वा मिक्खुणी वा मुइंगसद्दाणि वा नंदीसहाणि वा झल्लारीसद्दाणि वा अन्नयराणि वा तहप्पगाराणि विरूवरूवाई सद्दाई वितताई कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारिजा गमणाए। से भिक्खू वा मिक्खुणी वा अहावेगइयाई सद्दाइं सुणेइ, तं जहा- वीणासहाणि वा विपंचीसद्दाणि वा पिप्पी (बद्धी) सगसहाणि वा तूणयसहाणि वा वणयसद्दाणि वा तुंबवीणियसद्दाणि वा ढंकुणसद्दाइं अन्नयराइं तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाइं वितताइंकण्णसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जागमणाए। से भिक्खू वा मिक्खुणी वा अहावेगइयाई सराई सुणेइ, तं जहा तालसद्दाणि वा कंसतालसद्दाणि वा लत्तियसद्दाणि वा गोधियसदाणि वा किकिरियासदाणि वा अन्नयराणि तहप्पगाराई विरूवरूवाई सहाई कण्णसोया से भिक्खू वा मिक्खुणी वा अहोवेगइयाई सद्दा० तं जहा-संखसद्दाणि वा वेणुसद्दाणि वा वंससद्दाणि वा खरमुहिसदाणिवा पिरिपिरियासदाणिवाअन्नयराणि वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई सद्दाई झुसिराइं कन्नसोय० (सू० 168) से मिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेग-इयाइं सद्दाइं सुणेइ, तं जहा वप्पाणि वा फलिहाणि वा० जाव सराणि वा सागराणि वा सरसरपंतियाणि वा अन्नयराइं तहप्प-गाराई विरूवरूवाई सद्दाई कन्नसोया से मिक्खू वा मिक्खुणी वा अहावेगइयाई सद्दा०, तं जहा कच्छाणि वा ण्माणि वा गहणाणि वा वणाणि वा वणदुम्गाणि वा पव्वयाणि वा पव्वयदुग्गाणि वा अन्न० / / अहा० तहप्पगाराइंगामाणि वा नगराणि वा निगमाणि वा रायहाणाणि वा आसमपट्टणसंनिवेसाणि वा अन्नयराइं तहप्पगाराइं नो अमिसंधारिजा गमणाए। से भिक्खू० अहावेगइयाइं आरामाणि वा Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 339 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 7 सह उज्जाणाणि वा वणाणि वा वणसंडाणि वा देवकुलाणि वा सभाणि वा पवाणि वा अन्नयराइं तहप्पगाराइं सद्दाइं नो अभि० / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं सद्दाइं अट्टाणि वा अट्टालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा अन्नपराई तहप्पगाराई सद्दाइंनो अभिसंधारे।से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं० ,तं जहा-तियाणि वा चउक्काणि वा चचराणि वा घउम्मुहाणि वा अन्नयराइं वा तहप्पगाराइं सहाई नो अभिसंधारे / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं०,तं जहां-महिसकरणट्ठाणाणि वा वसभक रणट्ठाणाणि वा अस्सकरणट्ठाणाणि वा हत्थिकरणट्ठा-णाणि जाव कविंजलकरणट्ठाणाणि वा अन्नयराइंवा तहप्पगाराइं नो अभिसंधारे / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाई,तं जहा-महिसजुद्वाणि वा. जाव कविंजलजुद्धाणि वा अन्नयराइंवा तहप्पगाराई नो अभिसंधारे० / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहावेगइयाइं०, तं जहा-पुटवजूहियट्ठाणाणि वा हयजूहियट्ठा-णाणि, वा गयजूहियट्ठाणाणि अन्नयराइंवा तहप्पगाराइंनोअभिसंधारे / से भिक्खु वा० जाव सुणेइ, तं जहा-अक्खाइयट्ठाणाणि वा माणुम्माणियट्ठाणाणि वा महता हयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियपडुप्पवाइयट्ठाणाणि वा अन्नयराई तहप्पगाराई सद्दाइं नो अभिसंधारे / से मिक्खू वा भिक्खुणी वा० जाव सुणेइ, तं जहा-कलहाणि वा डिंवाणि वा डमराणि वा दो रजाणि वा वेररजाणि वा विरुद्धरज्जाणि वा अन्नयराई वा तहप्पगाराई सद्दाइं नो अभिसंधारे० / से भिक्खू वा भिक्खु० जाव सद्दाई सुणेइ खुड्डियं दारियं परिभुत्तमंडियं अलंकियं निवुज्झमाणिं पेहाए एग वा पुरिसं वहाए नीणिज्जमाणं पेहाए अन्नयराणि वा तहप्पगाराई नो अभिसंधारे० / से भिक्खु वा भिक्खुणी या अन्नयराई विरूवरूवाइं / महोसवाई एवं जाणेज्जा, तं जहा-- बहुसगडाणि वा बहुरहाणि वा बहुमिलक्खूणि वा बहुपंञ्चताणि वा अन्नयराइं वा तहप्पगाराई विरूवरूवाई महोसवाई कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारिज्जा गमणाए / से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अन्नयराइं विरूवरूवाइं महूसवाइं एवं जाणिज्जा, तं जहा-इत्थीणि वा पुरिसाणि वा थेराणि वा डहराणि वा मज्झिमाणि वा आभरणविभूसियाणि वा गायंताणि वा यायंताणि वा नचंताणि वा हसंताणि वा रमंताणि वा मोहंताणि वा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिभुजंताणि वा परिभायंताणि वा विछड्डियमाणाणि वा विगोवयमाणाणिवा अन्नयराइंतहप्पगाराई विरूवरूवाइं महु-स्सवाइं कन्नसोयपडियाए नो अभिसंधारे / से भिक्खू० इह-लोहएहिं सद्देहिं नो परलोइएहिं सद्देहिं नो सुएहिं सद्देहिं नो असुएहिं सद्देहिं नो दिद्धेहिं सद्देहिं नो अदिटेहिं | सद्देहिं नो कंतेहिं सद्देहिं सजिज्जा नो गिज्झिज्जा नो मुज्झिज्जा नो अज्झोववजिज्जा, एयं खलु० जाव जएज्जासि त्ति बेमि / (सू०१७०) स-पूर्वाधिकृतो भिक्षुर्यदि विततततघनशुषिररूपाश्चतुर्विधानातोद्यशब्दान् शृणुयात्, ततस्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेदमनाय न तदाकर्णनाय गमनं कुर्यादित्यर्थः / तत्र विततंमृदगनन्दीझल्लर्यादि, ततम्वीणाविपञ्चीबद्धीसकादितन्त्रीवाद्यं, वीणादीनां च भेदस्तन्त्रीसंख्यातोऽवसेयः, घनं तु हस्ततालकंसालादिप्रतीतमेव, नवरं 'लत्तिका'-कशि (सि) का गोहिकाभाण्डानां कक्षाहस्तगतातोद्यविशेषः किरिकिरिकातेषामेव वंशादिकम्बिकातोद्य, शुषिरं तु शङ्खवेण्वादीनि प्रतीतान्येव, नवरं खरमुहीतोहाडिका 'पिरिपिरिय'त्तिकोलियकपुटावनद्धा वंशादिनलिका, इत्येष सूत्रचतुष्टयसमुदायार्थः / / किश-स भिक्षुरथ कदाचिदेकतरान् कांश्चित् शब्दान शृणुयात्, तद्यथा'वप्पाणि वे' ति–वप्रः-केदारस्तदादि, तणकाः शब्दा वप्रा एवोक्ताः, वप्रादिषु वा श्रव्यगेयादयो ये शब्दास्तच्छ्रवणप्रतिज्ञया वप्रादीन्न गच्छेदित्येवं सर्वत्रायोज्यम्। अपिच-यावन्महिषयुद्धानीतिषडपि सूत्राणि सुबोध्यानि / किञ्च-स भिक्षु!थमितिद्वन्द्व वधूवरादिकं तत्स्थानं वेदिकादि, तत्र श्रव्यगेयादिशब्दश्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेत्, वधूबरवर्णन वा यत्र क्रियते तत्र न गच्छेदिति, एवं हयगजयूथादिस्थानानि द्रष्टव्यानीति / तथा-स भिक्षुः आख्यायिकास्थानानिकथानकस्थानानि, तथा 'मानोन्मानस्थानानि' मान-प्रस्थकादिः उन्माननाराचादि,यदिवामानोन्मानमित्यश्वादीनां वेगादिपरिक्षा तत्स्थानानि तवर्णनस्थानानि वा, तथा महान्ति च तानि आहतनृत्यगीतवादिवतन्त्रीतलतालत्रुटितप्रत्युत्पन्नानि च तेषां स्थानानिसभास्तद्वर्णनानि वा श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद्गमनायेति / किञ्चकलहादि-वर्णनं तत्स्थानं वा श्रवणप्रतिज्ञया न गच्छेदिति। अपि च-स भिक्षुः क्षुल्लिकादारिका डिक्करिकामण्डितालंकृतां बहुपरिवृतां 'णिवुज्झमाणिं' तिअश्वादिना नीयमानां तथैकं पुरुषं वधाय नीयमानं प्रेक्ष्याहमत्र किञ्चिच्छोष्यामीति श्रवणार्थं तत्र न गच्छेदिति / स भिक्षुर्यान्येवं जानीयात्, महान्त्येतान्याश्रवस्थानानिपापोपादानस्थानानि वर्तन्ते, तद्यथा-बहुशकटानि बहुरथानि बहुम्लेच्छानि बहुप्रात्यन्तिकानि, इत्येवंप्रकाराणि स्थानानि श्रवणप्रतिज्ञया नाभिसन्धारयेद् गन्तुमिति। किञ्च–स भिक्षुर्महोत्सवस्थानानि यान्येवंभूतानि जानीयात्, तद्यथास्त्रीपुरुषस्थविरबालमध्यवयांस्येतानि भूषितानि गायनादिकाः क्रिया यत्र कुर्वन्ति तानि स्थानानि श्रवणेच्छया न गच्छेदिति। इदानीं सर्वोपसंहारार्थमाह-स भिक्षुः-ऐहिकामुष्मिकापायभीरु: नो-नेव ऐहलौकिक:- मनुष्यादिकृतैः पारलौकिकैः-पारापतादिकृतैरहिकामुष्मिकैर्वा शब्दः, तथा श्रुतैरश्रुतैर्वा, तथा साक्षादुपलब्धैरनुपलब्धैर्वा 'न सङ्ग कुर्यात्-न रागं गच्छेत् न गाद्धर्य प्रतिपद्येत न तेषु मुह्येत Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 340 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द नाध्युपपन्नो भवेत्, एतत्तस्य भिक्षोः सामर, यम् / शेषं पूर्ववत् / इह च सर्वत्राय दोषः-अजितेन्द्रियत्वं स्वाध्यायादिहानी रागद्वेषसम्भव इति, एवमन्येऽपि दोषा ऐहिकामुष्मिकापायभूताः स्वधिया समालोच्या इति। [चतुर्थसप्तैककाध्ययनमादित एकादशं समाप्तम्। आचा०२ श्रु०२ चू० 4 अ० / अत्र 'अपोह' शब्दार्थ इति पूर्वम् 'आगम' शब्दे 2 भागे 65 पृष्ठे उक्तम्। अथेहापि किञ्चिद्वक्तव्यशेषमभिधीयते। भवतु वा सामान्य तथापि तस्य स्वभेदेभ्योऽर्थान्तरत्वे भिन्ने स्वभेदाध्यवसायो भ्रान्तिरेव / नह्यन्येनान्ये समानायुक्तास्तद्वतो नाम स्युरनान्तरत्वेऽपि सामान्यस्य सर्वमेव विश्वमेकं वस्तु परमार्थत इति। तत्र सामान्यप्रत्ययो भ्रान्तिरेव न होकवस्तुविषयः समानप्रत्ययः भेदग्रहणपुरःसरत्वात्तस्य भान्तत्वे च सिद्धे निर्विषयत्वमपि सिद्धं स्वाकारार्पणेन जनकस्य कस्यचिदर्थस्यालम्बनलक्षणस्य प्राप्तस्याभावात्। अन्यथा वा निर्विषयत्वं, तथाहियत्रैव कृतसमया ध्वनयस्स एव तेषामर्थो युक्तो नान्योऽतिप्रसङ्गात् / नच क्वचिद्वस्तुन्येषां परमार्थतः समयः संभवतीति निर्विषया ध्वनयः, प्रयोगः-ये यत्र भावतः कृतसमया न भवन्ति न ते परमार्थतस्तमभिदधति यथा सास्नादिमति पिण्डेऽश्वशब्दोऽकृतसमयः, न भवन्ति च भावतः कृतसमयाः सर्वस्मिन्वस्तुनि सवें ध्वनय इति व्यापकानुपलब्धिः, कृतसमयत्वेनाभिधायकत्वस्य व्याप्तत्वात्तस्य चेहाभावः। [संकेता संभवसाधनाय स्वलक्षणाद्यर्थभेदेन विकल्पपञ्चविधानम् ] - नचायमसिद्धो हेतुः / तथाहि-गृहीतसमयं वस्तु शब्दार्थत्वेन व्य-- वस्थाप्यमानं स्वलक्षणं वा व्यवस्थाप्येत, जातिर्वा, तद्योगो वा, जातिमान्वा पदार्थः, बुद्धेर्वा आकारः इति विकल्पाः / सर्वेष्वपि समया संभावन्न युक्तं शब्दार्थत्वं तत्त्वतः; सांवृतस्य तु शब्दार्थत्वस्य न निषेध इति न स्ववचनविरोधः प्रतिज्ञायाः। एवं ह्यसौ स्यात्-स्वलक्षणादीन शब्देनाऽप्रतिपाद्य न शक्यमशब्दार्थत्वमेषां प्रतिपादयितुं, तत्प्रतिपिपादयिषया च शब्देन स्वलक्षणादीनुपदर्शयता शब्दार्थत्वमेषामभ्युपेयं स्यात् / पुनश्च तदेव प्रति-ज्ञया प्रतिषिद्धमिति स्ववचनव्याघातः, नचासावभ्युपगम्यत इति। एतेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण-भाष्यकारेण"अवाचकत्वे शब्दानां प्रतिज्ञाहेत्वोयाघातः, [आ०२, आ०२ सू०६७ न्यायवा०] इति, तदपि प्रत्युक्तं भवति; नहि सर्वथा शब्दार्थापवादोऽस्माभिः क्रियते। आगोपालेभ्योऽपि प्रतीतत्वात्तस्य, किंतु-तात्विकत्वं धर्मः परैर्यस्तत्रारोप्यते तस्यैव निषेधो न तु धमिणः / [१स्वलक्षणे संकेतासंभवसाधतम् ] - तत्र -स्वलक्षणेन तावत् समयः संभवति, शब्दस्य समयो, हि व्यवहाराऽर्थ क्रियते न व्यसनितया, तेन यत्रैव सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति तत्रैव स व्यवहर्तृणां युक्तो नान्यत्र, न च स्वलक्षणस्य संकेतव्यवहारकालव्यापकत्वमस्ति तस्मान्न तत्र समयः संकेतव्यवहारकालाऽव्यापकत्वं च शाबलेयादिव्यक्तीनां देशादि भेदेन परस्परतोऽत्यन्तट्यावृत्ततयाऽनन्वयात्तत्रैकत्र कृतसमयस्य पुंसोऽन्यर्व्यवहारो न स्यादिति / तत्र समयाऽभावान्नासिद्धता हेतोः / नचाप्य- | नैकान्तिकत्वं, व्याप्तिसिद्धेः, तथाहि-यद्यगृहीत-संकेतमर्थ शब्दः प्रतिपादयेत्तदा गोशब्दोऽप्यश्व प्रतिपादयेत्सं-केतकरणानर्थक्य च स्यात्, तस्मादतिप्रसङ्गापत्तिबर्बाधकं प्रमाण–मिति कथं न व्याप्तिसिद्धिः? अयमेव वा अकृतसमयत्वादिति हेतुराचार्यदिग्नागेन “न जातिशब्दो भेदानां वाचक; आनन्त्यात्" इत्यनेन निर्दिष्टः, तथाहि- "आनन्त्याद्" इत्यनेन समयाऽसंभव एव दर्शितः / तेन यदुक्तमुद्द्योतकरेण- "यदि शब्दान्पक्षयसि तदा--'आनन्त्याद्' इत्यस्य वस्तुधर्मत्वाद व्यधिकरणा हेतुः अथ भेदा एव पक्षीक्रियन्ते तदा नान्वयीन व्यतिरेकी दृष्टान्तोऽस्तीत्यहेतुरानन्त्यम्।" (अ० 2 आ० 2 सू०६७ न्यायव०) इति, तत्प्रत्युक्तम्।यत्पुनः स एवाह- "यस्य निर्विशेषणाभेदाः शब्दैरप्यभिधीयन्ते तस्यायं दोषः, अस्माकं तु सत्ताविशेषणानि द्रव्यगुणकर्माण्य - भिधीयन्ते / तथा हि-यत्र यत्र सत्तादिकं सामान्यं पश्यति तत्र तत्र सदादिशब्दं प्रयुङ्क्ते एकमेव च सत्तादिकं सामान्यम्, अतः समान्योपलक्षितेषु भेदेषु समयक्रियासंभवाद-कारणमानन्त्यम्" (अ०२ आ०२ सू०६७न्यायवा०) इति, असदेतत्; यतो न सत्तादिकं वस्तुभूतं सामान्य तेभ्यो भिन्नमभिन्नं वाऽस्तीति भवतु वा तत्तथाप्येकस्मिन्भेदेऽनेकसामान्यसंभवाद-साङ्कर्ये ण सदादिशब्दयोजनं न स्यात् / न च शब्देनानुपदर्थ्य सत्तादिकं सामान्यं सत्तादिना भेदानुपलक्षयितु समयकारः शक्नुयात्, न चाकृतसमयेषु सत्तादिषु शब्दप्रवृत्तिरस्तीति इतरे-तराश्रयदोषप्रसक्तिः / अथापि स्यात्स्वयमेव प्रतिपत्ता व्यवहारोपलम्भादन्वयव्यतिरेकाभ्यां सदादिशब्दैः समयं प्रतिपद्यते, असदेतत् अनन्तभेदविषयनिः शेषव्यवहारोपलम्भस्य कस्यचिदसंभवात्। एकदा सत्तादिमत्सु भेदेष्वसकृद्व्यवहारमुपलभ्याऽदृष्टेष्वपि तज्जातीयेषु तान् शब्दान-प्रतिपद्यत इति चेत्, न; अदृष्टत्वात्, नादृष्टष्वतीतादिभेदभिन्नेष्वनन्तेषु भेदेषु समयः संभवत्यतिप्रसङ्गात्। विकल्पबुद्ध्या व्याह (हृत्य) तेषु तत्प्रतिपत्त्याऽभ्युपगमे विकल्पसमारोपितार्थविषय एव शब्दसङ्केतःप्राप्तः / तथा हि अतीतानागतयोरसत्त्वेनासन्निहितत्वात्तत्र विक-ल्पबुद्धिर्भवन्ती निर्विषयैव, तत्र भवन्समयः कथं परमार्थवस्तुविषयो भवेदिति ? सपक्षे भावान्नापि हेतोर्विरुद्धतेति सिद्धं स्वलक्षणाविषयत्वं शब्दानाम् / अथ स्थिरैकरूपत्वाद्धिमाचलादि-भावानां देशादि-भेदाभावात्, सङ्केतव्यवहारकालव्यापकत्वेन समयसंभवात्पक्षैकदेशाऽसिद्धताप्रकृतहेतोः,नैतत्, हिमाचला-दीनामप्यनेकाणुप्रचयस्वभावतया उदयानन्तरापवर्गितया च नाशेषावयवपरिग्रहेण समयकालपरिदृष्ट स्वभावस्य व्यवहारकालानुयायित्वेन च समयःसंभवतीति नासिद्धता हेतोः / अत उक्तन्यायेन समयवैयर्थ्य प्रसङ्गान्न स्वलक्षणे समयः संभवति, अश-क्यक्रियत्वाच न तत्र समयः तथाहिउदयानन्तरापवर्गिषु भावेषु समयः क्रियमाणः अनुत्पन्नेषु वा क्रियेत उत्पन्नेषु वा ? न तावदनुत्पन्नेषु परमार्थतः समयो युक्तः, असतः सर्वोपाख्यार-हितस्याधारत्वानुपपत्तेः, अपारमार्थिकवस्तुजातेऽपि पुत्रादौ समय उपलभ्यत इति न दृष्टविरोधः, विकल्पनिर्मितार्थविषयत्वेन तस्याऽपारमार्थिकत्वात् / नाप्युत्पन्ने समयो युक्तः, तस्मिननुभवोत्पत्तौ तत्पूर्व के च शब्दभेदस्मरणे सति समयः संभव Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 341 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सह ति नान्यथा-अतिप्रसङ्गात्- शब्दभेदस्मरणकाले च चिरनिरुद्ध | स्वलक्षणमिति / अजातवज्जातेऽपि कथं समयः समयक्रियाकाले द्वयोरप्यसन्निहितत्वात् ? तथाहि-अनुभवावस्थायामपि तावतत्कारणतया स्वलक्षणं क्षणिकं न सन्निहितसत्ताकं भवति, कि पुनरनुभवोत्तरकालभाविनामभेदाभोगस्मरणोत्पादकाले भविष्यति? 'नापि तज्जातीये तत्सामर्थ्यबलोपजाते समयक्रियाकालभाविनि क्षणे समयः संभवति तस्याऽन्यत्वात् / यद्यपि समयक्रियाकाले सन्निहितं क्षणान्तरमास्ते तथापि तत्र समयाभोगाऽसंभवान्न समयो युक्तः, नह्यश्वमुपलभ्य तन्नामस्मरणोपक्रमपूर्वकं समयं कुर्वाणस्तत्काल- / सन्निहिते गवादावाभोगाविषयीकृते 'अश्वः' इति समय समयकृत्करोति / अथापि स्यात्सर्वेषां स्वलक्षणानां सादृश्यमस्ति तेनैक्यमध्यवस्य समयः करिष्यते। असदेतत्; यतो विकल्पबुद्ध्याऽध्यारोपितं सादृश्य,तस्य च ध्वनिभिः प्रतिपादने स्वलक्षणमवाच्यमेवेति नस्वलक्षणे समयः। नाऽपि शब्दस्वलक्षणस्य / तथाहि-स्वसमयकृतस्मृत्युपस्थापितमेव नामभेदमर्थेन योजयति, नच स्मृतिर्भावतोऽनुभूतमेवाभिलापमुपस्थापयितुं शक्नोति तस्य चिरनिरुद्धत्वात्, यं चोचारयति तस्य पूर्वमननुभूतत्यान्न तत्र स्मृतिः, न चाविषयीकृतस्तया समुत्थापयितुं शक्यः, अतः स्मृत्युपस्थापितमनुसंधीयमानं विकल्पनिनिमित्तत्वेनास्वलक्षणमेवेति न स्वलक्षणत्वेऽस्य समयः। तस्मादव्यपदेश्य स्वलक्षणमिति सिद्धम् / (सम्म०) नैयायिकास्तु- "व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः (न्यायद० अ० 2 आ० 2 सू०६५) इति, प्रतिपन्नाः / तत्र व्यक्तिशब्देन द्रव्यगुणविशेषकमाण्यभिधीयन्ते (सम्म०1) ('गुणविसेसासय' शब्देतृतीयभागे 640 पृष्ठेऽत्रत्या वक्तव्यता गता) तथा च सूत्रम्-"आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या" (न्यायद० अ०२ आ०२ सू०६७) इति / अस्य भाष्यम्- “यया जातिर्जातिलिङ्गानि च व्याख्यायन्ते तामाकृतिं विद्यात् सा च सत्त्वावयवानाम् / तदवयवानां च नियतो व्यूहः" (न्यायद० वात्स्या० भा० पृ० 225) व्यूहशब्देन संयोगविशेष उच्यते, नियतग्रहणेन कृत्रिमसंयोगनिरासः, तत्र जातिलिङ्गानि प्राण्यवयवाः शिरः-पाण्यादयः तैर्हि गोत्वादिलक्षणा जातिर्लिङ्गयते, आकृत्या तुकदाचित् साक्षाज्जातिय॑ज्यते यदा शिर:पाण्यादिसन्निवेशदर्शनाद् गोत्वं व्यज्यते. कदाचिज्जातिलिङ्गानि यदा विषाणादिभिरवयवैः पृथक् पृथक् स्वावयवसन्निवेशाभिव्यक्तैर्गोत्वादिय॑ज्यते; तेन जातेस्तल्लिङ्गानां च प्रख्यापिका भवत्याकृतिः। जातिशब्देनाभिन्नाभिधान-प्रत्यय प्रसवनिमित्तं सामान्याख्य वस्तूच्यते / तथा च सूत्रम्- “समानप्रत्ययप्रसवात्मिका जातिः" (न्यायद० अ०२ आ०२ सू०६८) इति समानप्रत्ययोत्पत्तिकारण जातिरित्यर्थः / तत्र व्यक्त्याकृत्योः एतेनैव स्वलक्षणस्य शब्दार्थत्वनिराकरणेन शब्दार्थत्वं निराकृतम्। तथाहि-यथा स्वलक्षणस्याकृतसमयत्वादशब्दार्थत्वं तथा तयोरपीति 'अकृतसमयत्वात्' इत्यस्य हेतो सिद्धिः, नाप्यनैकान्तिकता / अपि च-व्यक्तिर्द्रव्यगुणविशेषकर्मलक्षणा, आकृतिश्च संयोगात्मिका, एतेच द्रव्यादयः प्रति-षिद्धत्वाद् असन्तः कथं शब्दार्थतामुपयान्ति? (2-5 जाति-तद्योग-तद्वत्सु संकेतासंभवप्रदर्शनम्)-एवं स्वलक्षणवज्जाति-तद्योग-जातिमत्स्वपि-जात्यादेरसम्भवात्समयासम्भवः / यथा च जातेस्तद्योगस्य च समवायस्यासम्भवस्तथा प्रागेव प्रतिपादितम्, जाति-तद्योगयोश्वाभावे तद्वतोऽप्यसम्भव एव तत्कृतत्वात् तद्व्यपदेशस्य, तद्वतश्च स्व-लक्षणात्मकत्वात्तत्पक्षभावी दोषः समान एव। (पदवाच्यविषयाणि वाजध्यायन व्याडि पाणिनीनां मतानि)- "जातिःपदार्थः इति वाजध्यायनः।" "द्रव्यम्” इति व्याडिः। "उभयम्” पाणिनिः। तदप्यनेनैव निरस्तम् जातेरयोगाद् द्रव्यस्य च स्वलक्षणात्मक-त्वात् तत्पक्षभाविदोषानतिवृत्तेः। (बुध्द्याकारे समयासंभवसाधनम्)बुध्द्याकारेऽपि न समयः सम्भवति, तस्य बुद्धितादात्म्येन व्यवस्थितत्वाद् नासौ तद्बुद्धिस्वरूपवत् प्रतिपाद्यमर्थ बुद्धयन्तरं वाऽनुगच्छति; ततश्च सङ्केत-व्यवहारकालाव्यापकत्वात्स्वल-क्षणवत् कथं तत्रापि समयः? भवतु वा तस्य व्यवहारकालान्वयस्तथापि न तत्र समयो व्यवहर्तृणां युक्तः / तथाहि- 'अपि नामेतः शब्दादर्थक्रि. यार्थी पुभानर्थक्रियाक्षमानर्थान् विज्ञाय प्रवर्त्तिष्यते' इति मन्यमानैर्व्यवहतृभिरभिधायका ध्वनयो नियोज्यन्ते न व्यसनितया; न चासौविकल्पो बुध्द्याकारोऽभिप्रेतशीताऽपनोदादिकार्य तदर्थिनः सम्पादयितुमलम् तदनुभवोत्पत्तावपि तदभावात्, तेन तत्रापि समयाभावान्नासिद्धः 'अकृतसमयत्वात्' इति हेतुः। ('अस्त्यर्थादयः शब्दार्थाः' इति वादिनां पक्षसप्तके निरूपयितव्ये प्रथमम् अस्त्यर्थवादिमतम)अथ अस्त्यर्थादयोऽपरे शब्दार्थाः सन्ति, ततश्च तत्र समयसम्भ-- वादसिद्धतैव हेतोः / तथाहि- 'अस्त्यर्थः' इति यदेतत् प्रतीयते तदेव सर्वशब्दानामभिधयं न विशेषः, यथैव ह्यपूर्वदेवतादि-शब्दा नार्थाकारं विशेष बुद्धिषु सन्निवेशयन्ति केवल तत्रैतावत् प्रतीयते- 'सन्ति केऽप्यर्थाः येष्वपूर्वादयः शब्दाः प्रयुज्यन्ते' तथा दृष्टार्थेष्वपि गवादिशब्देष्वेतत् तुल्यम्, यतस्तेभ्योऽप्येवं प्रतीतिरुपजायते- 'अस्ति कोऽप्यर्थो यो गवादिशब्दाभिधेयो गोत्वादिः' यस्तु तत्राकारविशेषपरिग्रहः केषाञ्चिदुपजायते स तेषां सिद्धान्तबलात् : न तु शब्दात्। (समुदायार्थवादिमतम्)अपरे "ब्राह्मणादिशब्दैस्तपो-जाति-श्रुतादिसमुदायो विना विकल्पसमुचायाभ्यामभिधीयते,यथा वनादिशब्दैर्धवादयः" इत्याहुः। तथाहि'वनम्' इत्युक्ते 'धवो' (वो वा) खदिरो वा' इति न विकल्पेन प्रतीतिरुपजायते, नापि 'धवश्वखदिरश्च' इति समुचयेन; अपि तुसामस्त्येन प्रतीयन्ते धवादयः तथा 'ब्रह्मणः' इत्युक्ते 'तपो वा जातिर्वा श्रुतं वा' 'तपश्च जातिश्च श्रुतं च' न प्रतिपत्तिर्भवति; अपि तुसाकल्येन सम्बन्ध्यन्तरव्यवच्छिन्नास्तपःप्रभृतयः संहताः प्रतीयन्त इति / बहुष्वनियतैकसमुदायिभेदावधारणं विकल्पः, एकत्र युगपदभिसम्बन्ध्यमानस्य नियतस्यैकस्य (तस्यानेकस्य) स्वरूपभेदावधारण समुच्चयः, तद्व्यतिरेकेणात्र प्रतिपत्तिर्लोकप्रतीतैव। {असत्यसंबन्धपदार्थवादिमतम् ]अपरे "द्रव्यत्वादिभिरनिर्धारितरूपैर्यः सम्बन्धो द्रव्या Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 342 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द दीनां स शब्दार्थः; स च सम्बन्धिना शब्दार्थत्वेनासत्यत्वादसत्यः शब्दैः / यत् पुनरुक्तम्- 'शब्दार्थोऽर्थः स एवेति तत् समारोपितइत्युच्यते / यता-तपः-श्रुतादीनां मेचकवर्णवदैक्येन भासनादेषामेव मेवार्थमभिसन्धाय, बुद्ध्याकारवादिना तु बुध्द्याकारः परमार्थतो वाच्य पररम्परमसत्यः संसर्गः" / तथा हि-एते प्रत्येकं समुदिता वा न खेन इष्यत इति महान् विशेषः। रूपेणोपलभ्यन्ते किन्त्वलातचक्रवदेषां समूहः स्वरूपमुत्क्रम्यावभासत (7 प्रतिभापदार्थवादिमतम्)इति। अन्ये त्याहुः-- “अभ्यासात् प्रतिभाहेतुः शब्दः न तु बाह्यार्थप्रत्यायकः" [असत्योपाधिसत्यपदार्थवादिमतम्] इति / शब्दस्य क्वचिद् विषये पुनः पुनः प्रवृत्तिदर्शनमभ्यासः, अन्ये त्वाहुः- "यद् असत्योपाधि सत्यं स शब्दार्थः” इति। तत्र स (?) नियतसाधनावच्छिन्नक्रियाप्रतिपत्त्यनुकूला प्रज्ञा प्रतिभा सा शब्दार्थत्वेनाऽसत्या उपाधयो विशेषा वलयाऽगुलीयकादयो यस्य प्रयोगदर्शनावृत्तिसहितेन शब्देन जन्यते, प्रतिवाक्यं प्रतिपुरुषं च सा सत्यस्य सर्व भेदानुयायिनः सुवर्णादिसामान्यात्मनस्तत भिद्यते, यथैव ह्यड्कुशादिघातादयो हस्त्यादीनामर्थप्रति पत्तौ क्रियमासत्यमसत्योपाधि शब्दप्रवृत्तिनिमित्तमभिधेयम् / णाया प्रतिभाहेतवो भवन्ति तथा शब्दार्थ-(सर्वे -ऽर्थ) वत्त्वसमता [अभिजल्पपदार्थवादिमतम्]-- वृक्षादयः शब्दा यथाभ्यास प्रतिभामाचसहारहेतवो भवन्ति न त्वर्थ अन्ये तु बुवते- “शब्द एवाभिजल्पत्वमागतः शब्दार्थः” इति स साक्षात प्रतिपादयन्ति, अन्यथा हि कथं परस्परव्याहत : प्रवचनभेदा चाभिजल्पः 'शब्द एवार्थः' इत्येवं शब्देऽर्थस्य निवेशनम 'सोऽयम्' उत्पाद्यकथाप्रबन्धाश्च स्वेकल्पापरचितपदार्थभेदद्योतकाः स्युरिति? इत्यभिसम्बन्धः, तस्माद् यदा शब्दस्यार्थेन सहकीकृत रूपं भवति तं (प्रागुन पक्षसप्तके प्रतिविधातव्ये प्रथमम् स्वीकृतार्थाकारं शब्दमभिजल्पमित्याहुः / / अस्त्यर्थवादिभतनिरसनम्)(६बुध्द्यारूढाकारपदार्थवादिमतम्) अत्र प्रतिविदा ति यद्यस्त्यर्थः पूर्वोदितस्वलक्षणादिर वभाव इष्यते अन्ये तु-“बुध्द्यारूढमेवाकारं बाह्यवस्तुविषयं बाह्यवस्तु तया गृहीत तदा पूर्वोदितदोषप्रसङ्गः / किञ्च-अनिर्धारितविशेषरूपत्वादस्त्यर्थस्य बुद्धिरूपत्वेनाविभावित शब्दार्थम्” आहुः / तथाहि-यावद बुद्धिरूप तरिमन केवल शब्दः प्रतिपाद्यमाने 'गौः' 'गवयः' 'गजः' इत्यादिभेदेन मर्थष्वप्रत्यस्तं 'बुद्धिरूपमेव' इति तत्त्वभावनया गृह्यते तावत तस्य व्यवहारो न स्यात, तस्य शब्दैरप्रतिपादितत्वात् / न च गोशब्दात शब्दार्थत्व नावसीयते तत्र क्रियाविशेषसम्बन्धाभावात, न हि गामानय' गोत्वविशिष्ट स्यार्थस्य सत्तामात्रस्य शाबलेयत्वादि भेदरहितस्य प्रतीत देन व्यवहारो भविष्यतीति प्रतिपादयितुं शक्यम्, अभ्युपगम'दधि खाद' इत्यादिकाः क्रियास्तादृशि बुद्धिरूपे सम्भवन्ति, क्रियायोगसम्भवी चार्थः शब्दरभिधीयते, अतो बुद्धिरूपतया गृहीतोऽसौ विरोधात्-गोशब्दादस्त्यर्थमात्रपरित्यागेन गवादिविशेषरय प्रतिपत्त्य भ्युपगमात्। अथ विषाणार्विशेषस्य गोशब्दादप्रतीतेरस्त्यर्थ-वाचकत्वं न शब्दार्थः यदा तु बाह्ये वस्तुनि प्रत्यस्तो भवति तदा तस्मिन् प्रतिपत्ता शब्दस्याभिप्रेतम्, नन्वेवं यदा गोत्यादिना विशिष्टमर्थमात्र-मुच्यत इति बाह्यतया विपर्यस्तः क्रियासाधनसामर्थ्य तस्य मन्यत इति भवति मतं तदा तद्वतोऽर्थस्थाभिधानमगीकृतं स्यात्, तत्र च जाते त्तत्समवास्य शब्दार्थः / ननु चा-पोहवादिपक्षादस्य को विशेषः? तथाहि.. चनिषेधाततद्वतोऽर्थस्यासम्भव इति पूर्वोक्तो दोषः / किश- तद्वतोऽर्थस्य अपोहवादिनाऽपि बुध्द्याकारो बाह्यरूपतया गृहीतः शब्दार्थ इतीष्यत स्वलक्षणात्मकत्वादशक्यसमयत्वमव्यवहार्य-त्वमस्पष्टावभासप्रसङ्गश्च एव यथो–क्तम्-"तद्रूपारोपमन्यान्य-व्यावृत्त्याधिगतैः पुनः। शब्दार्थो-- पूर्ववदापद्यत एव, स्वलक्षणादिव्यतिरेकेणा-न्योऽस्त्यर्थो निरूप्यमाणो ऽर्थः स एवेति, वचनेन विरुध्यते" ||1|| इति, नैतदस्ति, अयं हि न बुद्धौ प्रतिभातीत्यस्यासत्त्वमेव / बुद्ध्याकारवादी बाह्ये वस्तुन्यभ्रान्त सविषयं द्रव्याषु पारमार्थि [2 समुदायपदार्थवादिमतनिरसनम् ]केष्यध्यस्तं बुध्द्याकारं परमार्थतः शब्दार्थमिच्छति न पुनरा (नतु निरा) समुदायाभिधानपक्षे तु जाते दानां च तपःप्रभृतीनामभिधानमलम्बन भिन्नेष्वभेदाध्यवसायेन प्रवृत्तेन्तिमितरेतरभे-दनिबन्धन गीकृतमिति प्रत्येकाभिधानपक्षभाविनो दोषाः सर्वे युगपत् प्राप्नुमभ्युपैति; यदा तु यथाऽस्माभिरुच्यते– “स सवों (सर्वा) मिथ्याभा वन्तीति न तत्पक्षाभ्युपगमोऽपि श्रेयान् / सोऽयमर्थइतीष्यत एव यथोक्तेष्वेका (मर्थेष्वेका) त्मकग्रहः / [3-4 असत्यसंबन्ध-असत्योपाधिसत्यपदार्थव दिनदयइतरेतरभेदोऽस्य, बीजं संज्ञा यदर्थिका" / / इति तदा सिद्धसाध्यता। निरसनम्] - 'असत्यसंबध' - 'असत्योपाधिसत्य' इहे पक्षद्वय र यद्वक्ष्यति “इतरेतरभेदोऽस्य बीजं चेत् पक्ष एष नः" / / (तत्त्वसं० का० संयोग-समवायलक्षणरय सम्बन्धस्य निषिद्धत्वात सामान:स्य च त्रिगु.. 605) इति। न चापोहवादि-ना परमार्थतः किश्चिद्वाच्य बुध्द्याकारोऽन्यो णात्मकस्य सत्यस्याव्यतिरिक्तस्य, व्यतिरिक्त स्थायसम्भवात या शब्दानामिष्यते / तथाहि- यदेव शाब्दे प्रत्ययेऽध्यवसीयमानतया नासत्यः संयोगः / नाप्यसत्योपाधि सामान्य शब्दवाच्यं सम्भवति। प्रतिभासते स शब्दार्थः, न च बुध्द्याकारः शाब्दप्रत्ययेनाध्यवसीयते कि (5-6 अभिजल्प-बुद्ध्यारूढाकारपदार्थवादिमतद्वयनिसनम्) - तर्हि? बाह्यमेवार्थक्रियाकारि वस्तु न चापि तेन बाह्य परमार्थ- अभिजल्पपक्षेऽपि यदि शब्दस्य कश्चिदर्थः सम्भवेत् तदा तेन तोऽध्यवसीयते, यथातत्त्वमनध्यवसायाद्यथाध्यवसायमतत्त्वात् अतः सहै कीक रणं भवेदपि, स्वलक्षणादिस्वरूपस्य च शब्दार्थ - समारोपित एव शब्दार्थः / यच समारोपितं तन्न किश्चिद्भावतोऽभिधीयते / स्यासम्भवः प्राक् प्रदर्शित इति कथं ते नै कीक रम् ? अपि Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 343 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द चायमभिजल्पो बुद्धिस्थ एव / तथाहि-बाह्यार्थयोः (बाह्ययोः) शब्दार्थयोभिन्नेन्द्रियग्राह्यत्वादिभ्यो भेदस्य सिद्धेस्तयोरैक्यापादनं परमार्थतोऽयुक्तमेवेति बुद्धिस्थयो रेव शब्दार्थयोरेकबुद्धिगतत्वादेकीकर युक्तम् / तथाहि- उपगृहीताभिधेयाकारतिरोभूतशब्दस्वभाव। बुद्धौ विपरिवर्त्तमानः शब्दात्मा स्वरूपानुगतमर्थमविभागेनान्तः सन्निवेशयन्नभिजल्प उच्यते; स च बुद्धरात्मगत एवाकारो युक्ता न बाहाः, तस्येकान्तेन परस्पर विविक्तस्वभा-वत्वात; ततश्च बुद्धिशब्दार्थपक्षादनन्तरोक्तादस्य न कश्चिद् भेदः, उभयत्रापि बौद्ध एवार्थः / एत वन्मात्रं तु भिद्यते - 'शब्दा-विकीकृतौ' इति / दोषस्तु समान एव- 'ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमन्तिर व्रजेत्"? इति। (7 प्रतिभापदार्थवादिमतनिरसनम्)प्रतिभापक्षे तुयदि सा परमार्थतो बाह्यार्थविषया तदैकत्र वस्तुनिशब्दादौ विराद्धसमयावस्थायिनां विचित्राः प्रतिभा न प्राप्नुवन्ति, एकस्यानेकरवभाव सम्भवात् / अथ निर्विषया तदार्थे प्रवृत्ति-प्रतिपत्ती न प्राप्नुतः, अनद्विषयत्वाच्छब्दस्य। अथ स्वप्रतिभासो (से)ऽनर्थेऽर्थाध्यवसायन भ्रान्त्या ते प्रवृत्ती-प्रतिपत्ती भवत-स्तदा भान्तः शब्दार्थः प्राप्रति, तर याश्च बीजं वक्तव्यम् ; अन्यथा सा सर्वत्र सर्वदा भवेत्। यदि पुनर्भावानां परस्परतो भेद एव बीजमस्यास्तदाऽस्मत्पक्ष एव समर्थितः स्यादिति सिद्धसाध्यता। किञ्च-सर्वमेतत् स्वलक्षणादिकं शब्दविषयत्वनाभ्युपगम्यमानं क्षणिकम् अक्षणिकं वेति? आद्यपक्षे सङ्केतकालदृष्टस्य व्यवहारका लानन्वयान्न तत्र समयः सप्रयोजनः / अक्षणिकपक्षे च "नाक्रमात् क्रमिणो भावः" इति शब्दार्थविषयस्य क्रमिज्ञानस्याभावप्रसक्तिः / (विवक्षापदार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम्)अन्य त्वाहुः-- "अर्थविवक्षां शब्दोऽनुमापयति" इति / यथोक्तम्"अनुमान विवक्षायाः शब्दादन्यन्न विद्यते" इति। अत्रापि यदि परमार्थतो विवक्षा पारमार्थिकशब्दार्थविषयेष्यते तदसिद्धम्, स्वलक्षणादेः शब्दार्थस्य कस्यचिदसम्भवात; अतो न कृचिदर्थे परमार्थ विवक्षाऽस्ति, अन्वयिनोःर्थस्याभावात् / नापि तत्प्रति-पादकः शब्दः सम्भवति / यदाह- "धावा श्रुतिः" [तत्त्वस०का०६०७ ] इति। न च-विवक्षाया प्रतिपाद्यायां शब्दाद् बहिरर्थे प्रवृत्तिः प्राप्नोति, तस्याप्रेरितत्वात् अर्थान्तरन्त्। न च विवक्षा-परिवर्तिनो बाह्यस्य च सारूप्यादप्रेरितेऽपि तत्र ततः प्रवृत्तिर्यम-लकवत्, सर्वदा बाह्ये प्रवृत्तेरयोगात् कदाचिद् विवक्षापरिवर्ति-न्यपि प्रेरिते प्रवृत्तिप्रसक्तेर्यमलकयोरिव / अथ परमार्थत स्व-प्रतिभासानुभवेऽपि वक्तुरेवमध्यवसायो भवति 'म्याऽस्मै बाह्य-एवार्थः प्रतिपाद्यते' श्रोतुरप्येवमध्यवसायः 'ममार्य बाह्यमेव प्रतेपादयति' इति; अतस्तैमिरिकद्वयद्विचन्द्रदर्शनवदय-शाब्दो व्यवहार इते। यद्येवमस्मत्पक्ष एव समाश्रित इति कथं न सिद्धसाध्यता? शब्दस्तु लगभूतो विवक्षामनुमापयतीत्यभ्यु-पगम्यत एव यथा धूमोऽग्निम्। 1 [वैभाषिकमतं निर्दिश्य तन्निरसनम्]एतेन वैभाषिकोऽपि शब्दविषयं नामाख्यमर्थचिह्नरूपं विप्रयुक्त संस्कारमिच्छन्निरस्तः / तथाहि-तन्नामादि यदि क्षणिकं तदाऽ-- न्वयायोगः / अक्षणिकत्वे क्रमिज्ञानानुपपत्तिः, बाह्य च प्रवृत्त्य-- भावःसारूप्यात् प्रवृत्तौ न सर्वदा बाह्य एव प्रवृत्तिः / अशक्यस-मयो हात्मा, नामादीनामनन्यभाक्। तेषामतोन चान्यत्वं, कथ-चिदुपपद्यते" / / 1 / / इत्यादेः सर्वस्य समानत्वात् / तदेवम्- 'अशक्यसमयत्वात्' इत्यस्य हेतोनासिद्धता / नाप्यनैकान्तिकत्वं विरुद्धत्वे / तत् सिद्धम् अपोहकृच्छब्द इति। ['निषेधमात्रमेव अन्यापोहः' इति मत्वा कौमारिलकृतानामाक्षेपाणामुपन्यासः] अत्र परो निषेधमात्रमेव किलान्यापोहोऽभिप्रेत इति मन्यमानः प्रतिज्ञायाः प्रतीत्यादिविरोधमुद्भावयन्नाह"नन्वन्यापोहकृच्छब्दो, युष्मत्पक्षे नु वर्णितः। निषेधमात्रं नैवेह, प्रतिभासैव [ सेऽव ] गम्यते" / / [तत्त्वसं० का०६१०] "किन्तु गौर्गवयो हस्ती, वृक्ष इत्यादिशब्दतः। विधिरूपावसायेन,मतिः शाब्दी प्रवर्त्तते / / " [तत्त्वसं० का०६११] “यदि गौरित्ययं शब्दः, समर्थोऽन्यनिवर्तन। जनको गवि गोबुद्धे-ऍग्यतामपरो ध्वनिः।।" [भामहालं० परि०६ श्लो०१७] "नन ज्ञानफलाः शब्दा,नचैकस्य फलद्वयम्। अपवाद-विधिज्ञानं,फलमेकस्य वः कथम्"?|| [भामहालं० परि०६ श्लो०१८] "प्रागगौरिति विज्ञान, गोशब्दश्राविणो भवेत्। येनागोः प्रतिषेधाय, प्रवृत्तो गौरिति ध्वनिः" / / [ भामहालं० परि०६ श्लो०१६] यदि गोशब्दोऽन्यव्यवच्छेदप्रतिपादनपरस्तदा तस्य तत्रैव चरितार्थत्वात् सास्नादिमति पदार्थे गोशब्दात् प्रतीतिर्न प्राप्रोति, ततश्व सारनादिमत्पदार्थविषयाया गोबुद्धेर्जनकोऽन्यो ध्वनिर--न्वेषणीयः / अथैकनैव गोशब्देन बुद्धिद्वयस्य जन्यमानत्वान्नापरो ध्वनिमुंग्यः, नैकस्य विधिकारिणः प्रतिषेधकारिणो वा शब्दस्य युगपद्विज्ञानद्वयलक्षण फलमुपलभ्यते, नापि परस्परविरुद्धमप-वादविधिज्ञानं फलं युक्तम्, यदि च गोशब्देनागोनिवृत्तिर्मुख्यतः प्रतिपाद्यते तदा गोशब्दश्रवणानन्तरं प्रथमम् 'अगौः' इत्येषाश्रोतुः प्रतिपत्तिर्भवेत्। यत्रैव ह्यव्यवधानेन शब्दात् प्रत्यय उपजायते स एव शाब्दोऽर्थः न चाव्यवधानेनागोव्यवच्छेदे मतिः, अतो गोबु-ध्द्यनुत्पत्तिप्रसङ्गात् प्रथमतरमगोप्रतीतिप्रसङ्गाच नापोहः शब्दार्थः / अपि च-अपोहलक्षणं सामान्य वाच्यत्वेनाभिधीय-मानं कदाचित् पर्युदासलक्षणं वाऽभिधीयते, प्रसज्यलक्षण वा ? तत्र प्रथमपक्षे सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषः, अस्माभिरपि गोत्वा-ख्यं सामान्य गोशब्दवाच्यमित्यभ्युपगम्यमानत्वात्-यदेव ह्य-गोनिवृत्तिलक्षणं सामान्य गोशब्देनोच्यते भवता तदेवाऽस्माभि-विलक्षणं सामान्य तद्वाच्यमभिधीयते, अभावस्य भावान्तरा-त्मकत्वेन स्थितत्वात् / तदुक्तम्- "क्षीरे दध्यादि यन्नास्ति, प्रागभावः स उच्यते।" [ श्लो० वा० अभा० परि० श्लो०२] "नास्ति वा [ स्तिता ] पयसो दध्नि, प्रध्वंसाभावलक्षणम् / गवि योऽश्वाद्यभावश्व सोऽन्योन्याभाव उच्यते॥ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स 344 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द शिरसाऽवयवा निम्ना वृद्धि-काठिन्यवर्जिताः। सशसृड़ादिरूपण सोऽत्यन्ताभाव उच्यते" !! कि अभाः परि० श्लो०३-४] ": पापरतुन एतेभ्यु-र्भेदास्तेनाऽस्य [वस्तुता] / को 3ामा परि श्लो०८) एतेन क्षीरादय एव दध्यादिरूपेण मानः प्रागभावादिव्यपदेशभाज इत्युक्तं भवति। निवृत्ति धान्योन्याभावः तस्या अश्वादिव्यवछेदरूपत्वात, तस्मात सा वस्तु / तत्रैवमभावस्य भावान्तरात्मकत्वे कोऽयं भव-- निस्वादिनिवृत्तिस्वगावोऽभिप्रेत इति। अथ गवादिस्वलक्षणात्मैवासी, न; तत्र सर्वविकल्पप्रत्ययास्वमयाल (प्रत्यस्तमयात) विकल्पज्ञानगोचरः सामान्यमवेयत, असाधारणस्त्वर्थः सर्वविकल्पानामगाचरः / यथाक्तम.. "स्व. सत्यमानदेश्य रूपमिन्द्रियगोचरः" / इति यथैव हि भवतामसाधारमा विशेषोऽश्वादिनिवृत्त्यात्मा गोशब्दाभिधेयो नेष्टस्तथैव भारलेयादिः शब्दवाच्यतया नेष्टः, असामान्य प्रसङ्गतः / यदि हि शब्दः शाबलेयादिवाचक: स्यात् तदा तस्यानन्ययान्न सा अन्य विषय: स्यात् / यतश्चाश्वादिनिवृत्त्यात्मा भावोऽसाधारणा न घटते समात सर्वेषु सजातीयेषुशाबलेयादिपिण्डेषु यत्प्रत्येक परिसमाप्त सन्निबधना गोबुद्धिः, तच गोत्वाख्यमेव सामान्यम् तस्यागोऽपोहशब्दनाभिधानात केवल नामान्तरमिति सिद्धसाश्यता प्रतिज्ञादोषः। तथाऽऽह कुमारिल:-.. "अगानिवृत्तिः सामान्य, वाच्यं यः परिकल्पितम। गोत्वं वरत्वेवरक्त-मगोपोहगिरा स्फुटम"। मो० वा० अपोलो०१] “भग्वान्तरात्मकोऽभावो, येन सा व्यवस्थितः। सावादिनिवृत्त्यात्माऽभावः के इति कथ्यताम् / / * लोवा० अपो० श्लो०श नया साधारणस्तावद, विशेपो निर्विकल्पनात! तथा च शाबलेयादि-रसामान्यप्रसङ्गतः" / / लोट वी० अपाशा, "तरभात् सर्वषु यदूर्ग, प्रत्यकं पारनिष्ठितम। मोबुद्धिस्तन्निमिता स्याद, गोत्वादन्यच नास्तितत्" / / | लो० वा. 3810 श्लो. 10] साथ प्रसज्यलक्षणमिति पक्षस्तदा पुनरप्यगाऊपाहलक्षणामाब-. स्वरूपा शून्यता गौशब्दवाच्या प्रस|| वस्तुस्वरूपापहवात, तत्र सदबुद्धीनां स्वांशग्रहणं प्रसक्तम् बाह्यवस्तुरूपाग्रहात : ततश्चापोहस्य वाच्यत्वं मुधैवाभ्युपमा परेण बुध्द्याकारस्थाम(न) पक्षितामाहालिम्बनस्य विधिरूपस्थव शब्दार्थत्वाचनः / इत्य.. "युपगबाधा प्रतिक्षायाः परस्य। अथ बुद्या शारालम्बनाऽपि सा बुद्धिविजातीयागया (यगवा) दिबुद्धिभ्यो व्यानरमा प्रवर्तते तनापोहकल्पना युक्त, असदेतत, खता यपि बुद्धिमान्तराद व्यवच्छिन्ना तथापि सा न बुध-तरच्यवनदावसायिनी जायते, किं तर्हि ? अश्वादिष्वर्थेषु विधिरूपाऽध्यवसायिनी; तेन वस्त्वेव विधिरूपं वाच्यं बाल्पयितुं युक्तिमत् नाऽपोहः, बुध्द्यन्तरस्य बुध्धन्तरानपोहकत्वात् ! किञ्च योऽयं भवद्भिरपोहः पदार्थत्वेन कल्पितः स वाक्यादपोद्धृत्य कल्पितस्य पदस्यार्थः इष्टःवाक्यार्थस्तु प्रतिभालक्षण एव यथो-- क्तम्-- "अपोद्धारपदस्यायं, वाक्यादों विवेचितः। वाक्यार्थः प्रतिभाख्योऽयं, तेनादावुपजन्यते” / / 1 / / इति, सचायुक्तः शब्दार्थस्य विधिरूपताप्रसक्तेः, तथापि बाह्येऽर्थ शब्दवाच्यत्वेनासत्यपि वाक्यार्थो भवद्भिः प्रतिभालक्षण एवं वर्ण्यते नापोहस्तदा पदार्थोऽपि वाक्यार्थवत् प्रतिभालक्षण एव प्रसक्त इति द्वयोरपिपदवाक्यार्थयोर्विधिरूपत्वम्। अथ प्रतिभायाः प्रतिभान्तराद् विजातीयाव्यवच्छेदोऽस्तीत्यपोहरूपता, न सम्यगेतत; यतो यद्यपि बुद्धर्बुध्द्यन्तराद् घ्यावृत्तिरस्ति तथापि न च तत्र शब्दव्यापारः / तथाहि शब्दादसावुत्पद्यमाना न स्वरूपोत्पादट्यतिरेकणान्यं बुझ्यन्तरव्यवच्छेदलक्षण शब्दादर-वीयमानमंश बिभ्राणा लक्ष्यते किंतर्हि? विधिरूपासायिन्येवोत्यत्तिमती। नच शब्दादनवरीयमानो वस्त्वशः शब्दों युक्तः अतिप्रसङ्गादिति प्रतीतिबा धेतत्वं प्रतिज्ञायाः। अपि च-ये भिन्नसामान्यवचना गवादयः, ये च विशेष्वचनाः शावलेयादयस्ते भवदभिप्रायेण पर्याया प्राप्नुवन्ति, अर्थदाभा-- वात्, वृक्ष-पादपादिशब्दवत् / स च अवस्तुत्वात्, वस्तु-येव हि संसृष्टत्व--एकत्व-नानात्वादिविकल्पाः सम्भवन्ति, नवस्तुन्येवापोहाख्ये परस्पर संसृष्टतादिविकल्पोयुक्त इति कथमेषां भेदः? तदभ्युपगमे वा नियमेन वस्तुत्वापत्तिः। तथाहि- 'ये परस्परं "भेद्यन्ते ते वस्तुरूपाः, यथा स्वलक्षणानि, परस्परं भिद्यन्ते चापोहाः' इति स्वभावहतुः, इति विधिरेव शब्दार्थः / एतेनानुमानबाधितत्वं प्रतिज्ञाया: प्रतिपादितम् / अथावस्तुत्वमभ्युपगम्यतेऽपोहानां तदा नानात्वाभावात पर्यायत्वप्रसङ्ग : इत्येकान्त एषः / न चापोहाभेदात् रक्ता भेदाभावेऽपि तस्य भेदादपर्यायत्वम्, स्वस्तस्य नानात्वाभावभावकत्वात् परतोऽप्यसौ भवन् काल्पनिकः स्या; न हि स्वतोऽसतो सदस्य परतः सम्भवो युक्तः / यथाहि-संसर्गिण: शाबलयादयः आधारतयाऽन्तरङ्गा अपितं स्वरूपतो भेत्तुमशक्ताःबष्वपि शाबलेयादिष्टे कस्यागोव्यवच्छे दलक्षणस्यापोहस्र तेष्वभ्युपगमात-तथा बहिरङ्गभूतैरश्वादिभिरपोरिसौ भिद्यत इत्यपि साहसम्, न हि यस्यान्तरङ्गोऽप्यर्थो न भेदकस्तस्य बहिरङ्गोभावेष्यति बहिरङ्गत्वहानिप्रसङ्गात् / अथान्तरङ्गा एवाधारास्तस्य दकाः, असदेतत, अवस्तुनः सम्बन्धिभेदाद् भेदानुपपत्तेः, व तुन् धपि हि सम्बधिमेदाद भेदो नोपलभ्यते किमुतावस्तुनि निमदार हा हिदेवहिक कवि' (निःस्वभाव तथाहि-देवदत्तादिक मेलमदि) वस्तु युगपत् क्रमण वाऽनेके [ के रसनातिभिरं [ मे सम्बधामान मनासादितभेदमेवोपलन्यते किं पुनर्यदन्यदयावृत्तिरूपम वस्तु. संस्थादेव च क्वचिदसम्बद्धं विजातीयाच्चाऽव्यावृत्तम् अत एटानधि गतविशेषाशं तादृशं सम्बन्धिभेदादपि कथमिव भेदमश्नुवीत? किभवतु नाम सम्बन्धिभेदाद् भेदस्तथापि वस्तुभूतसामान्यानभ्युपगमे - भवतांस एवापाहाश्रयः सम्बन्धी न सिद्धिमासादयति यस्य भेदात् Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 345 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द तद्भेदोऽवकल्प्यते। तथाहि-यदि गवादीना वस्तुभूतं सारूप्यं प्रसद्धि भवेत् तदा श्वाद्यपोहाश्रयत्वमेषामविशेषेण सिद्धयेत [त] नान्यथा, अतोऽपोहविषयत्वमषामिच्छताऽवश्यं सारूप्यमड़ीकर्तव्यम्, तदेव च सामान्य वस्तुभूतं शब्दवाच्यं भविष्यतीत्यपोहकल्पना व्यर्थव / अपोह्यभेदोऽपि वस्तुभूतसामान्यमन्तरेण न सिद्धिमासदयति / तथाहि यद्यश्वादीनामेकः कश्चित् सर्वव्यक्तिसाधारणो धर्मोऽनुगामी स्यात् तदा ते सर्वे गव दिशब्दैरविशेषेणापोहोरन् नान्यथा, विशेषापरिज्ञानात् / साधारणधर्माभ्युपगमे चापोहकल्पनावैयर्थ्यम्। अपि च-अपोहःशब्दलिङ्गाभ्याम्व प्रतिपाद्यत इति भवद्भिरिष्यते, शब्दलिङ्गयाश्च वस्तु भूतसामान्यमन्तरेण प्रवृत्तिरनुपपन्नेति नातोऽपोहप्रतिपत्तिः। तथाहिअनुगतवस्तुव्यतिरेकेण न शब्दलिङ्गाभ्यां न शब्द लिङ्गयोः प्रवृत्तिः,न च शब्दलिडाभ्यां ] विनाऽपोहप्रतिपत्तिः, न चासाधारणस्यान्वयः, तदेयमपोह कल्पनायां शब्दलिङ्गयोः प्रवृत्तिरेव न प्राप्रोति, प्रवृत्तौ वा प्रामाण्यम-युपगतं हीयेत। तथाहि-प्रतिपाद्या व्यभिचारित्वं / तयां प्रामाण्यम्, अपोहश्च प्रतिपाद्यत्वेन भवताऽभ्युपगम्यमानो - ऽभावरूपलान्निःस्वभाव इति क्व तयोरव्यभिचारित्वम् ? न च विजातीयादर्शनमााणैव शब्दलिङ्गे अगृहीतसाहचर्ये एव स्वमर्थ गमयिष्यतः, विजातीयादर्शनमात्रेण गमकत्वाभ्युपगमे स्वार्थः परार्थ इति विशेषानुपपत्तेः तथा च स्वार्थमपि न गमयेत् तत्र अदृष्टत्वात् परार्थवत्। तदेवं शब्दलिगयारप्रामाण्याभ्युपगमप्रसङ्गान्नापोहः शब्दार्थो युक्तः / यदि वा-असत्यपि सारूप्ये शाबलेयादिष्वगोऽपोहकल्पना तदा गवाश्वस्यापि करमान्न कल्प्येतासौ अविशेषात्। तदुक्तं कुमारिलेन"अथासत्यपि सारूप्ये, स्यादपोहस्य कल्पना। गवाश्वयोग्य कस्मा-दगोपोहो न कल्प्यते" / / [लो०व० अपो० श्लो०७६ ] 'वाश्वटो:' इति “गवाश्वप्रभृतीनि च" (पाणि०-२-४-११) / इत्यकवद्भवलक्षणास्मरणादुक्तम् / अविशेषप्रतिपादनार्थ स एव पुनरप्युक्त वान"भाबलेयाच भिन्नत्वं, बाहुलेयाश्वयोः समम्। सामान्य नान्यदिष्ट चेत्, वागोऽपोहः प्रवर्त्तताम्"?|| (श्लो०व० अपो० श्लो०७७) यथैव हि शाबलेयाद् वैलक्षण्यादश्वे न प्रवर्त्तते तथा बाहुलेयस्यापि | तता वैलक्ष्ण्यमस्तीति न तत्राप्यसौ प्रवर्तेत; एवं शाबलेयादिष्वपि योज्यम्, सर्वत्र वैलक्षण्याविशेषात् / अपि च यथा स्वलक्षणादिषु समयासमवान्न शब्दार्थत्वम् तथाऽपोहेऽपि / तथाहि-निश्चितार्थो हि समयकृत् समयं करोति; न चापोहः के नचिदिन्द्रियेय॑वसीयते, व्यवहारात पूर्व तस्याऽवस्तुत्वात् इन्द्रियाणां च वस्तुविषयत्वात् / न चान्यव्यावृत्तं स्वलक्षणमुपलभ्य शब्दः प्रयोक्ष्यते, अन्यापोहादन्यत्र शब्दवृत्तेः प्रवृत्त्यनभ्युपगमात् / नाप्यनुमाने नापोहाध्यवसायः, “न चान्वयनिविनिर्मुक्ता प्रवृत्तिः शब्दलिङ्गयोः" इत्यादिना तत्प्रतिषेधस्य तत्राक्तत्व त् / तस्मात् 'अकृतसमयत्वात्' इत्यस्य हेतोरनैकान्तिकत्वमपोहेन, अकृतसमयत्वेऽप्यपोहे शब्दप्रवृत्त्यभ्युपगमात्। इतश्चापोहे सङ्केतासम्भवः अतिप्रसक्तेः। तथाहि-कथमश्चादीनां गोशब्दानभिधेयत्वम् ? सम्बन्धानुभवक्षणेऽश्वादेस्तद्विषयत्वेनादृष्टरिति चेत्, असदेतत्; यतो यदियद गोशब्दसङ्केतकाले उपलब्धततोऽन्यत्र गोशब्दप्रवृत्तिर्नेष्यत तदैकस्मात् सङ्केतेन विषयीकृताच्छाबलेया-दिकाद गोपिण्डादन्यद् वाहुलेयादि गोशब्देनापोह्य भवेत्, ततश्च सामान्य वाच्यमित्येतन्न सिध्ोत् / इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेश्चा-पोहे सङ्केतोऽशक्यक्रियः / तथाहि-अगोव्यवच्छेदेन गोः प्रति-पत्तिः, स चागौर्गानिषेधात्मा; ततश्च 'अगौः' इत्यत्रोत्तरपदार्थो वक्तव्यः यो 'न गौरगौः' इत्यत्र नञा प्रतिषिध्येत, न ह्यनितिस्वरूपस्य निषेधः शक्यते विधातुम्। अथापि स्यात् किमत्र वक्तव्यम्--अगोनिवृत्त्यात्मा गौः, नन्वेवमगोनिवृत्तिस्वभावत्वाद् गोरगोप्रतिपत्तिद्वारेणेव प्रतीतिः, अगोश्च गोप्रतिषेधा.. त्मकत्वाद् गोप्रतिपत्तिद्वारिकैव प्रतीतिरिति स्फुटमितरेतराश्रयत्वम्। अथाप्यगोशब्देन यो गौनिषिध्यते स विधिरूप एव अगोवव्यच्छेदमल (दल) क्षणापोहसिद्ध्यर्थम् तेनेतरेतराश्रयत्वं न भविष्यति / यद्येवं 'सर्वस्य शब्दरयापोहार्थः' इत्येवमपोहकल्पना वृथा, विधिरूपस्यापि शब्दार्थस्य भावात। अतः (अतोन) कश्चिद् विधिरूपः शब्दार्थः प्रसिद्धोऽङ्गीकर्तव्यः तदनङ्गीकरणे चेतरेतराश्रयदोषो दुर्निवारः। तदुक्तम्"सिद्धश्वागौरपोह्येत, गोनिषेधात्मकश्च सः / तत्र गौरव वक्तव्यो, नया यः प्रतिषिध्यते" / / “स चेदगोनिवृत्त्यात्मा भवेदन्योऽन्यसंश्रयः। सिद्धश्चेद् गौरपोहाथ , वृथाऽपोहप्रकल्पनम्" / / "गव्यसिद्धे त्वगौ स्ति, तदभावेऽपि गौः कुतः।" [श्लो० वा० अपो० श्लो०८३-८४-८५ अर्द्ध] इति। "नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टानर्थानाहुः" इत्याचार्यदिग्नागेन विशेष्यविशेषणभावसमर्थनार्थ यदुक्तं तदयुक्तमिति दर्शयन्नाह भट्टः- “नाधाराधेयवृत्त्यादि-सम्बन्धश्वाप्यभावयोः" / / [ श्लो० वा० अपो० श्लो० 85 ] यस्य हि येन सह कश्चिद् वास्तवः सम्बन्धः सिद्धो भवेत् तत् तेन विशिष्ट मिति युक्त वक्तुम्। न च नीलोत्पलयोरनीलानुत्पल व्यवच्छे दरूपत्वे नाभावारू पयोराधाराधेयादिः सम्बन्धः सम्भवति, नीरूपत्वात् / आदिग्रहणेन संयोगसमवायकार्थसमवायादिसम्बन्धग्रहणम् / न चासति वास्तवे राम्बन्धे तद्विशिष्टरय प्रतिपत्तिर्युक्ता, अतिप्रसङ्गात् / अथापि स्यात् नैवास्माकमनीलादिव्यावृत्त्या विशिष्टोऽनुत्पलादिव्यवच्छेदोऽभिमतः थतोऽयं दोषः स्यात्; किं तर्हि ? अनीलानुत्पलाभ्यां व्यावृत्तं वस्त्वेव तथा व्यवस्थितं तदर्थान्तरनिवृत्त्या विशिष्टं शब्दे नोच्यत इत्ययमर्थोऽत्राभिप्रेतः, असदेतत, स्वलक्षणस्यावाच्यत्वात् तत्पक्षभाविदोषप्रसङ्गाच / न च स्वलक्षणस्यान्यनिवृत्त्या विशिष्टत्वंसा (सि)ध्यति यता न वस्त्वपोहः, असाधारणं तु वस्तु / न च वस्त्ववस्तुनोयुक्तः, वस्तुद्वयाधारत्वात् तस्य / भवतु वा सम्बन्धस्तथापि विशेषणत्वमपोहरयायुक्तम्, न हि सत्तामात्रेणोत्पलादीनां नीलादि विशेषणं भवति, कि तर्हि ? ज्ञातंसदयत्रवाकारानुरक्तया बुध्द्या विशेष्यंरञ्जयतितद्विशेषणम,न चापोहेऽयं प्रकारः सम्भवति, न हाश्वादिबुद्ध्याऽपोहोऽध्यवसीयते, कि Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द तर्हि ? वस्त्येव, अतोऽपोहस्य बोधासम्भवाद् न तेन स्वबुद्धया रज्यतेऽश्वादि / न चाज्ञातोऽप्यपोहो विशेषणं भवति, न ह्यगृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिरुपजायमाना दृष्टा; भवतु वाऽपोहज्ञानम् तथापि वस्तुनि तदाकारबुझ्यभावात् तस्य तद्विशेषणत्वमयुक्तम्, सर्वमेव हि विशेषणं स्वाकारानुरूपा विशेष्ये बुद्धि जनयद् दृष्टम्, न त्वन्यादृर्श विशेषणमन्यादृशी बुद्धि विशेष्ये जनयति; न हि नीलमुत्पले 'रक्तम' इति प्रत्ययमुत्पादयति, दण्डो वा 'कुण्डली' इति; न चात्राश्वादिष्वभावानुरक्ता शाब्दी बुद्धिरुपजायते, किं तर्हि? भावाकाराध्यवसायिनी। यदि पुनर्विशेषणाननुरूपतयाऽन्यथा व्यवस्थितेऽपि विशेष्ये साध्वी विशेषणकल्पना तथासतिसर्वमेव नीलादिसर्वस्य विशेषणमित्यव्यवस्था स्यात्। नाप्यपोहेनापि स्वबुद्ध्या विशेष्यं वस्त्वनुरज्यते इति वक्तव्यम्, तथा ऽभ्युपगमे अभावरूपेण वस्तुनः प्रतीतेर्वस्तुत्वमेव न स्यात् भावाभावयोर्विरोधात्। एतदेवाह"न चासाधारणं वस्तु, गम्यतेऽपोहवत्तया। कथं वा परिकल्प्येत, सम्बन्धो वस्त्ववस्तुनोः॥" "स्वरूपसत्त्वमात्रेण न स्यात् किञ्चिद् विशेषणम्। स्वबुद्ध्या रज्यते येन, विशेष्यं तद् विशेषणम्॥" "न चाप्यश्वादिशब्देभ्यो, जायतेऽपोहबोधनम्। विशेष्यबुद्धिरिष्टह, न चाज्ञातविशेषणा।" "न चान्यरूपमन्यादृक, कुर्याज ज्ञानं विशेषणम्। कथं चान्यादृशे ज्ञाने, तदुच्येत विशेषणम्।" “अथान्यथा विशेष्येऽपि, स्याद् विशेषणकल्पना। तथासति हि यत् किश्चित्, प्रसज्येत विशेषणम्" / / "अभावगम्यरूपे च न विशेष्येऽस्ति वस्तुता। विशेषितमपोहेन वस्तु वाच्यं न तेऽस्त्यतः" / / [श्लो० वा० अपो० श्लो० 86-87-88-60-61] इतिअथान्यव्यावृत्ते एव वस्तुनि शब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिर्दृश्यते नापोहरहिते अतोऽपोहः शब्द-लिङ्गाभ्यां प्रतिपाद्यत इत्यभिधीयतेन प्रसज्यप्रतिधमात्रप्रतिपादनात् अत एव न प्रतीत्यादिविरोधोद्भावनं युक्तम्, असदेतत्, यतो यदि नाम तद्वस्त्वन्यतो व्यावृत्तं तथापि तत्रोत्पद्यमानः शब्द-लिङ्गोद्भवो बोधोऽन्यव्यावृत्तिं सतीमपि नावलम्बते, कि तर्हि ? वस्त्वंशमेवाभिधावति, तत्रैवानुरागात् / य एव चांशो वस्तुनः शाब्देन लैङ्गिकेन वा प्रत्ययेनावसीयते स एव तस्य विषयः नानवसीयमानः सन्नपि, न हि मालतीशब्दस्य गन्धादयो विद्यमानतया वाच्या व्यवस्थाप्यन्ते। नचाप्येतदु (धु) क्तम् यद् अन्यव्यावृत्ते वस्तुनि शब्द-लिङ्गयोः प्रवृत्तिः यतोऽन्यव्यावृत्तं वस्तुभवतां मतेन स्वलक्षणमेवं भवेत् न च तत् शब्दलिङ्गजायां बुद्धौ विपरिवर्त्तत इति, तस्य निर्विकल्पकबुद्धिविषयत्वात भवदभिप्रायेण शब्दलिङ्गजबुद्धश्च सामान्यवियत्वात् / न चासाधारणं वस्तु शाब्दलिङ्गजप्रत्ययाधिगम्यम्, तत्र विकल्पाना प्रत्यस्तमयात्। तथाहि-विकल्पो जात्यादिविशेषणसंस्पर्शेनैव प्रवर्तते न शुद्धवस्तूपग्रहणे, न च शब्देनागम्यमानमप्यसाधारण वस्तु व्यावृत्त्या विशिष्टमित्यभिधातुं शक्यम् / यतः "शब्देनागम्यमानं च, विशेष्यमिति साहसम्। तेन सामान्यमेष्टव्यं, विषयो बुद्धि-शब्दयोः" / / [श्लो० वा० अपो० श्लो०६४] इतश्व सामान्य वस्तुभूतं शब्दविषयः यतो व्यक्तीनामसाधारणवस्तुरूपाणामवाच्यत्वान्नापोह्यता अनुक्तस्य निराकर्तुमशक्यत्वात्, अपोह्येत सामान्यम् तस्य वाच्यत्वात्, अपोहानां त्वभाव-रूपतयाऽपोह्यत्वासम्भावात् तत्त्वे वा वस्तुत्वमेव स्यात्-तथाहि यद्यपाहानामपोह्यत्वं भवेत् तदेषामभावरूपत्वं विप्रतिषिद्धं भवेत्, प्रतिषेध च सति अभावैरभावरूपत्वं त्यक्तं स्यात्, तत-श्वाभावानाम-पोहलक्षणानाम भावरूपत्यागाद्वस्तुत्वमेव भवेत्, तच्चन शब्दविषयः-यद्वाऽभावानामभावाभावात् नाभावस्वभावा अपोहा अपोह्या युज्यन्ते, वस्तुविषयत्वात् प्रतिषेधस्य, तरमादश्वादौ गवादेपोहो भवन सामान्यस्यैवेति निश्चीयत इति सिद्धमपोह्यत्वाद्वस्तुत्वं सामान्यस्य। तदुक्तम्"यदा वा शब्दवाच्यत्वा-न्न व्यक्तीनामपोह्यता। तदाऽपोह्येत सामान्य, तस्यापोहाच वस्तुता" / / "नापोह्यत्वमभावाना-मभावाऽभावधर्जनात्। व्यक्तोऽपोहान्तरेऽपोहस्तस्मात् सामान्यवस्तुनः" / / [श्लो० वा० अपो० श्लो०६५-६६] इति। अपि च, अपोहाना परस्परतो वैलक्षण्यमवैलक्षण्यं वा ? तत्राद्ये पक्ष अभावस्यागौशब्दस्याभिधेयस्याभावो गोशब्दाभिधेयः, स चेत पूर्वोक्तादभावाद् विलक्षणस्तदा भाव एव भवेत् अभावनिवृत्ति रूपल्याद् भावस्य / न चेद् विलक्षणस्तदा गौरप्यगौः प्रसज्येत, तदवै लक्षण्येन तादात्म्यप्रतिपत्तेः / स्यादेतत् गवाश्वादिशब्दैः स्वलणान्येव परस्परता व्यावृत्तान्यपोह्यन्ते नाभावा तेनापोह्यत्वेन वस्तुत्वप्रसङ्गापादन नाऽनिष्टम्, असदेतत्; यद्यपि सच्छब्दादन्येषु गवादिशब्देषु वस्तुन (नः पर्वतादेपोह्यता सिद्ध्यति सच्छब्दस्य त्वभावाख्यादप'ह्यान्नान्यदपोह्यमस्ति असद्व्यवच्छेदेन सच्छब्दस्य प्रवृत्तत्वात; ततश्च पूर्ववदभावाभाववर्जनाद् असतोऽपोहे वस्तुत्वमेव स्याद् इत्यपोहवादिनोऽभ्युपगमविरुद्धाऽसद्वस्तुत्वप्रसक्तिः / अथास्त्वभावस्यापि वस्तुत्वम्, न, अभावस्यापि सि (स्याऽसिद्धौ कस्यचिद्भावस्यैवासिद्धेः, अभावव्यवच्छेदेन तस्य भवन्मतेन स्थितलक्षणत्वात्। अभावस्य वाऽपोहात्वे सति वस्तुत्वप्रसङ्गेनस्वरूपासिद्धरसत्त्वमपिन सिद्ध्यति; तस्य सत्त्वव्यवच्छेदरूपत्वात्, सत्त्वस्य च यथोक्तेन प्रकारेणायोगात्। नचात्र-"अपोझैः संबहिः संस्थितैर्भिद्यते” इत्यादौ “अवस्तुत्वादपोहानां नैव भेदः" इत्यादी च 'न खल्वपोह्यभेदादाधारभेदाद् वाऽपोहानां भेदः, अपित्वनादिकालप्रवृत्तविचित्रवितथार्थविकल्पवासनाभेदान्वयैस्तत्त्वतो निर्विषयरप्यभिन्नविषयालम्बिभिर्भिनरिव प्रत्ययभिन्नष्वर्थेषु बाह्येषु भिन्ना इवार्थात्मानझ्वास्वभावा अप्यपोहाः समारोप्यन्ते, तेचैवंतथा तैः समारोपिला भिन्नाः सन्तश्च प्रतिभासन्ते येन वा-सनाभेदाद् भेदः सद्रूपता वाऽपोहानां भविष्यति' इत्ययं परिहारो वक्तु युक्तः यतो न हावस्तुनि वासना सम्भवति, वासना-हेतोर्निर्विषयप्रत्ययस्यायोगात्,तदभावाविल्यार्थाना विकल्पानामसम्भवात् आलम्बनभूते वस्तुन्यसति निर्विषयज्ञा-- Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 347 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द नायोगेन वासनाधायकविज्ञानाऽभावतो न वासना; ततश्च वासनाऽभावात् कुतो वासनाकृतोऽपोहाना भेदः सद्रूपता वा ? अतो वाच्याभिमतापोहाऽभावः / तथा, वाच्काभिमतस्यापि तस्याभाव एव, तथापि शब्दाना भिनसामान्यवाचिनां विशेषवाचिनां च परस्परतो वासनाभेदनिमित्तो वा स्यात्वाच्या पोहभेदनिमित्तो वा? ननु प्रत्यक्षतएव शब्दानां कारणभंदाद् विरुद्धधर्माध्यासाच भेदः प्रसिद्ध एवेति प्रश्नानुपपत्तिः, असदेतत्, यतो वाचक शब्दमङ्गीकृत्य प्रश्नः, नच श्रोत्रज्ञानावसेयः स्वलक्षणात्मा शब्दो वाचकः, सङ्कतकालानुभूतस्य व्यवहारकाले चिरविनष्टत्वात् तस्य न तेन व्यवहार इति न स्वलक्षणस्य वाचकत्वं भवदभिप्रायेण, अविवादश्वात्र / यथोल्तम"नार्थशब्दविशेषस्य, वाच्यवाचकतेष्यते। तस्य पूर्वम्दृष्टत्वात, सामान्यं तूपदेक्ष्यते" ||1|| इति। तस्माद् वा चकं शब्दमधिकृत्य प्रश्रकरणाददोषः / "तत्र शब्दन्तरापोहे, सामान्ये परिकल्पिते। तथवावस्तुरूपत्वा-च्छब्दभेदोन कल्प्यते" / / [श्लो० वा अपो० श्लो० 104] यथा पूर्वक्तेन विधिना 'संसृष्टकत्वनानात्व' -इत्यादिना वाच्यापोहानः परस्परतो भेदो न घटते तथा शब्दापोहानामपि नीरूपन्चान्नारो युक्तः,यथा च वाचकानां परस्परतो भेदोन सङ्गच्छते एवं वाच्यवाचक योरपि मिथोऽनुपपन्नः, निःस्वभावत्वात्। न चापोह्यभेदाद् भदो भविष्पति, 'न विशेषः स्वतस्तस्य इत्यादिना प्रतिविहितत्वात्। तदेयं प्रतिज्ञायाः प्रतीत्यभ्युपेतबाधा व्यवस्थिता। साम्प्रतं वाच्यवाचकत्वाभावप्रसङ्गापादनादभ्युपे तबाधादिदोष प्रतिपिपाद येषुः प्रमाणयति-ये अवस्तुनी न तयोर्गम्यगमकत्वमस्ति, यथा खपुष्पशशङ्गयोः, अवस्तुनी च वाच्यवाचकापोही भवतामिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः / ननु च मेघाभावाद् वृष्ट्यभावप्रतीतेर्हेतोरनैकान्तिकता, अयुक्तमेतत्, यस्मात् तद्विविक्ताकाशाऽऽलोकात्मकं च वस्तु मत्पक्षेऽत्रापि प्रयोगो (गे) ऽस्त्येव, अभावस्य वस्तुत्वप्रतिपादनात्। भवत्पक्षेतुन केवलमपोहयोर्विवादास्पदीभूतयोर्गम्य-गमकत्वं नयुक्तम् अपि त्वेतदपिवृष्टिमेघाभावयोगम्यग मकत्वमयुक्तमेव। किचयदेतद्भवद्भिरन्वयापसर्जनयोर्व्यतिरेकप्रधानयोः स्वविषयप्रतिपादकत्वं शब्दलिङ्गयोर्वर्ण्यत,यच्च"अदृष्टर यशब्दार्थे , स्वार्थस्याशेऽपि दर्शनात्। श्रुतेः सम्बन्धसॉकर्य, न चास्ति व्यभिचारिता" ||1|| इत्यादिवर्णितम् तदप्यपोहाभ्युपगमेऽसङ्गतम्, यतः"विधिरूपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते। न भवेद् व्यतिरेकोऽपि, तस्य तत्पूर्वको ह्यसौं” / / [लो० सा० अपो० श्लो० 110] विधिनिवृत्तिलक्षणत्याद व्यति- | रेकस्येति भावः। किञ्च-नीलोत्पलादिशब्दानां विशेषणविशेष्यभावः सामानाधिकरण्यं | च यदेतल्लोकप्रतीतं तस्यापह्नवोऽपोहवादिनः प्रसक्तः / यकोदं विशेषणटिशेष्यभावसामानाधिकरण्यसमर्थनार्थमुच्यते “अपोह्यभेदा भिन्नार्था,स्वार्थभदगतौ जड़ा। एकत्वाभिन्नकार्यत्वाद, विशेषणविशेष्यता" / / 1 / / "तन्मात्राकानणाद् भेदः, स्वसामान्येन नोज्झितः। नोपत्तिः संशयोत्पत्तेः, सैव चैकार्थता तयोः" / 2 / / इति, तदप्यमनुपपन्नम्, यतः परस्परं व्यवच्छेदा (द्य) व्यवच्छेदकभावी विशेषणविशेष्यभावः स च बाह्य (वाक्य) एव व्यवस्थाप्यते यथा 'नीली (नीलमु) त्पलम्' इति। व्यधिकरणयोरपि यथा 'राज्ञः पुरुषः' इत्यादी। भिन्ननिमित्तप्रयुक्त योस्तु शब्दयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तिः सामानाधिकरण्यम,तच 'नीलोत्पलम्' इत्यादौ वृत्तावेव व्यवस्थाप्यते / न च नीलोत्पलादिशब्देषु शबलार्थाभिधायिषु तत्सिद्धिः, शबलार्थाभिधायित्वं च तेषाम- "न हि तत् केवलं नील, न च केवलमुत्पलम् / समुदायाभिधेयत्वात्,” इत्यादिना प्रतिपादितम्। यतः अनीलत्वव्युदासेऽनुत्पलव्युदासौ नास्ति, नाप्यनुत्पलप्रच्युतावनीलव्युदास इति नाऽनयोः परस्परमाधाराधेयसम्बन्धोऽस्ति नीलरूप (नीरूप) त्वात्: न चासति सम्बन्धे विशेषणविशेष्यभावो युक्तः अतिप्रगसङ्गात्; अतो युष्मन्मतेनाभाववाचित्वाच्छबलार्थाभिधायित्वासम्भवान्न विशेषणविशेष्यभावो युक्तः / अभिधेयद्वारेणैव हि तदभिधायिनोः शब्दयोर्विशेषणविशेष्यभाव उपचर्यत, अभिधेये च तस्यासम्भवेऽभिधानेऽपि कुतस्तदारोपः? सामानाधिकरण्यमपि नीलोत्पलशब्दयोन सम्भवति, तद्वाच्ययोरनीलानुत्पलव्यवच्छेद-लक्षणयोरपोहयोभिन्नत्वात् / तब भवद्भिरेव- 'अपोह्यभेदाद् भिन्नार्था' इत्यभिधानादवसीयते / प्रयोगःन नीलोत्पलादिशब्दाः समानाधिकरणव्यवहारविषयाः, भिन्नविषयत्वात्, घटादि-शब्दवत्। न च यत्रैव ह्यर्थेऽनुत्पलव्युदासो वर्त्तते तत्रैवानीलव्युदासोऽपीति नीलोत्पल-शब्दवाच्ययोरपोहयोरेकस्मिन्नर्थे वृत्तेः अर्थद्वारक सामानाधिकरण्यं शब्दयोरपीति वक्तुं युक्तम्, अपोहयोनीरूपत्वेन क्वचिदवस्थाना-सम्भवतो वास्तवाधेयतायोगाद् वन्ध्यासुतस्येव / भवतु वा नीलोत्पलादिष्वर्थेषु तयोराधेयता तथापि सा विद्यमानापिनशब्दैः प्रतिपाद्यते, यतस्तदेवासाधारणत्वान्नीलोत्पलादि वस्तु न शब्दगम्यम्, स्वलक्षणस्य सर्वविकल्पातीतत्वात् तदप्रतिपत्तौ च तदधिकरणयोर-पोहयोस्तदाधेयता कथं गृहीतु शक्या धम्मिग्रहणनान्तरीयकत्वाद् धर्मग्रहणस्य ? न चासाधारणवस्तुव्यतिरकण तयोरन्यदधिकरणं सम्भवति भवदभिप्रायेण / न चाप्रतीयमानं सदपि सामानाधिकरण्यव्यवहाराङ्गम् अतिप्रसङ्गात्। न च व्यावृत्तिमद् वस्तु शब्दवाच्यम्-यतो व्यावृत्तिद्वयोपाधिकयोः शब्दयोरेकस्मिन्नपोहवति वस्तुनि वृत्तः सामानाधिकरण्यं भवेत्-परतन्त्रत्वाद् नीलादिशब्दस्येतरभेदाना-क्षेपकत्वात्; स हि व्यावृत्त्युपसर्जन तद्वन्तमर्थमाह न साक्षात् ततश्च साक्षादनभिधानात् तद्गतभेदाक्षेपो न सम्भवति, यथा.मधुरशब्देन शुक्लादेः / यद्यपि शुक्लादीना मधुरादिभेदत्वमस्ति तथापि शब्दस्य साक्षादभिहितार्थगतस्यैव भेदस्याक्षेपे सामर्थ्यम् न तु पारतन्त्र्यणाभिहितार्थगतस्य; ततश्च नीलादिशब्देन तद्ग-तभेदानाक्षेपात् उत्पलादीनामतनेदत्वं स्यात्; अतड़ेदत्वे च न सामान्याधिकरण्यम, तेन जातिमन्मात्रपक्षे यो दोषः प्र Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 348 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द तिपादिता भवता "तद्वतो न वाचकः शब्दः, अस्वतन्त्रत्वात” इति स / व्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि तुल्यः / तथाहि-जातिमन्मात्रे शब्दार्थे सच्छब्दो जातिस्वरूपोपसर्जनं द्रव्यमान साक्षादिति तद्गतघटादिभेदानाक्षेपात् अतद्भेदत्वे सामानाधिकरण्याभावप्रसङ्ग उक्तः; स व्यावृत्तिमन्मात्रपक्षेऽपि समानः-तत्राऽपि हि सच्छब्दो व्यावृत्युपसर्जन द्रव्यमाह न साक्षादिति तद्गतभेदानाक्षेपोऽत्राऽपि समान एव; को पत्र विशेषः जातिव्या (या) वृत्तिर्जातिमव्या (जातिमान व्या) वृत्तिमानिति / न च लिङ्ग सङ्ख्या क्रियाकालादिभिः सम्बन्धोऽपोहस्यावस्तुत्वादयुक्तः एषां वस्तुधर्मत्वात्। न च लिङ्गादिविविक्तः पदार्थः शक्यः शब्देनाभिधातुम्, अतः प्रतीतिबाधाप्रसङ्ग : प्रतिज्ञायाः / न च व्यावृत्त्याधारभूताया व्यक्तेर्वस्तुत्वाल्लिङ्गादिसम्बन्धात् तद्द्वारेणापोहस्याप्यसौ व्यवस्थाप्यः, व्यक्तेर्निर्विकल्पकज्ञानविषयत्वाल्लिङ्ग सङ्खयादिसम्बन्धेन व्यपदेष्ट मशक्यत्वात अपोहस्य तद्वारेण तव्यवस्थाऽसिद्धेः / अव्यापित्वं चापोह. शब्दार्थव्यवस्थायाः, 'पचति' इत्यादिक्रियाशब्देष्वन्यव्यवच्छदाप्रतिपत्तेः। यथा हि घटादिशब्देषु निष्पन्नरूपं पटादिकं निषेध्यमस्ति म तथा पचति' इत्यादिषु, प्रतियोगिनो निष्पन्नस्य कस्यचिदप्रतीतेः। अथ मा भूत् पर्युदासरूपं निषेध्यम्, 'न पचति' इत्येवमादि प्रसज्यरूपं पचति' इत्यादेर्निषेध्यं भविष्यति, असदेतत् 'तन्न (नन) पचति' इत्येवमुच्यमाने प्रसज्यप्रतिषेधस्य निषेध एवोक्तः स्यात्, ततश्च प्रतिषेधद्वयस्य विधिविषयत्वाद् विधिरेव शब्दार्थः प्रसक्तः। किन-- 'पचति' इत्यादौ साध्यत्व प्रतीयते; यस्यां हि क्रियायां केचिदवयवा निष्पन्नाः केचिदनिष्पन्नाः सा पूर्वापरीभूतावयवा क्रिया साध्यत्वप्रत्ययविषयः, तथा- 'अभूत्' 'भविष्यति' इत्यादौ भूतादिकालविशेषप्रतीतिरस्ति, न चापोहस्य साध्यत्वादिसम्भवः निष्पन्नत्वादभावकरसत्वेन, तस्मादपोहशब्दार्थपक्षे साध्यत्वप्रत्ययो भूतादिप्रत्ययश्च निर्मिमित्तः प्राप्नोतीति प्रतीतिबाधा / न च विध्यादावन्यापोहप्रतिपत्तिरस्ति, पर्युदासरूपस्य निषेध्यस्य तत्राभावात्। 'न न पचति देवदत्तः' इत्यादौ च नञा (गो) ऽपरेण कत्रो योगे नैवापोहः,प्रतिषेधद्वयेन विधेरेव संस्पर्शात् / अपि चचादीनां निपातोपसर्गकर्मप्रवचनीयानां पदत्वमिष्टम, न चैषां ना सम्बन्धोऽस्ति असम्बन्धवचनत्वात् / तथाहि-यथा हि घटादिशब्दानाम् 'अघटः' इत्यादौ नञा सम्बन्धेऽर्थान्तरस्य पटादेः परिग्रहात्तद्व्यवच्छेदेन नञा रहितस्य घटशब्दस्यार्थोऽवकल्पते न तथा चादीनांना सम्बन्धोऽस्तिन चासम्बन्ध्यमानस्य नाऽपोहनं युक्तम; अतश्चादिष्वपोहाभावः / अपि च-कल्माषवर्णवच्छबलैक्यरूपो वाक्यार्थ इति नान्यनिवृत्तिस्तत्त्वेन व्यपदेष्टुं शक्या, निष्पन्नरूपस्य प्रतियोगिनोऽप्रतीतेः / या तु 'चैत्र! गामानय' इत्यादावचैत्रादिव्यवच्छेदरूपाऽन्यनिवृत्तिरवयवपरिग्रहण वर्ण्यते सा पदार्थ एवं स्यात् न वाक्यार्थः; तस्यावयवस्येत्थ विवेक्तुम शक्यत्वादित्यव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था। किश्न- 'न अन्यापोहः अनन्यापोहः' इत्यादी शब्दे विधिरूपादन्यद् वाच्य नोपलभ्यते, प्रतिषेधद्वयेन विधेरेवावसायात् / अत्र च 'नत्रश्चापिनजा योगे' इत्यनेनार्थस्य गतत्वेऽपि 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्येवंवादिनां स्ववचनेनैव विधिरिष्ट इति ज्ञापनार्थ पुनरुक्तम्। तथाहि-अनन्यापोहशब्दस्यान्यापोहः शब्दार्थो व्यवच्छेद्यः, स च विधेनन्यिो लक्ष्यते / ये च प्रमेय-ज्ञेयाऽभिधेयादयः शब्दास्तेषां न किश्चिदपोह्यमस्ति, सर्वस्यैव प्रमेयादिस्वभावत्वात्। तथाहि-यन्नाम किश्चिद्व्यवच्छेद्यमेषां कल्प्यतेतत् सर्व व्यवच्छेद्याकारणालम्ब्यमानं ज्ञेयादिस्वभावमेवावतिष्ठते, न ह्यविषयीकृतंव्यवच्छेत्तुं शक्यम्। अतोऽपोह्याभावादव्यापिनी व्यवस्था। ननु हेतुमुखे निर्दिष्टम् "अज्ञेयं कल्पितं कृत्वा तद्वयवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानम्" (हेतु०) इति तत् कथमव्यापित्वे कथमव्यापित्वंशब्दार्थव्यवस्थायाः, नैतत्, यतो यदि ज्ञेयमप्यज्ञेयत्वेनापोह्यमस्य कल्पप्यते तदा वरं वस्त्वेव विधिरूपं शब्दार्थत्वेन कल्पितं भवेत् यदध्यवसीयते लोकेन: एवं हादृष्टाध्यारोपी दृष्टापलापश्च न कृतः स्यात्।। (विकल्पप्रतिबिम्बार्थवादिमतमुल्लिख्य तन्निरसनम्)-- ये त्याहु:-"विकल्पप्रतिबिम्बमेव सर्वशब्दानाम:, तदेव चाभिधीयते व्यवच्छिद्यत इति च" तेऽपि न युक्तकारिणः / निरकारा बुद्धिः आकारवान् बाह्योऽर्थः- "स बर्हिर्देशसम्बन्धो विस्पष्टमुपलभ्यते" इत्यादिना ज्ञानाकारस्य निषिद्धत्वात् आन्तरस्य बुद्ध्यारूढरयाकारस्यासत्त्वात्तदवसायकत्वं शब्दाना-मयुक्तम्, अत एव तस्यापो ह्यत्वमप्यनुपपन्नम्।ये च एवम्' इत्यादयः शब्दास्तेषामपि न किश्चिदपोह्यम्, प्रतियोगिनः पर्युदासरूपस्य कस्यचिदभावात्। अथ 'नैवम्' इत्यादिप्रसज्यरूपं प्रतिषेध्यमत्रापि भविष्यति, न; उक्तोत्तरत्वात्। "न नैवमिति निर्देशे, निषेधस्य निषेधनम्। एवमित्यनिषेध्यं तु, स्वरूपेणैव तिष्ठति॥१॥" इति न्यायात्। (अपोहपक्षे उद्द्योतकरकृलानामाक्षेपाणामुपन्यासः)उद्द्योतकरस्त्वाह-"अपोहः शब्दार्थः इत्ययुक्तम् अव्यापकत्वात् / यत्र द्वैराश्यं भवति तत्रेतरप्रतिषेधादितरः प्रतीयते, यथा- 'गौः' इति पदाद् गौः प्रतीयमानः अगौनिषिध्यमानः नपुनः सर्वपद एतदस्ति, न ह्यसर्व नाम किञ्चिदस्ति यत् सर्वशब्देन निवर्तेत / अय मन्यसे एकादि असर्व तत् सर्वशब्देन निवर्त्तत इति, तन्न; स्वार्थापवाददोषप्रसङ्गात् / एवं ह्येकादिव्युदासेन प्रवर्त्तमानः सर्वशब्दोऽङ्गप्रतिषेधादग व्यतिरिक्तस्याङ्गिनोऽनभ्युपगमादनर्थकः स्यात् / अङ्गशब्देन ह्येकदेश उच्यते; एवं सति सर्वे समुदायशब्दा एकदेशप्रतिषेधरूपेण प्रवर्त्तमानाः समुदायिव्यतिरिक्तस्यान्यस्य समुदायस्याऽनभ्युपगमादनर्थकाः प्राप्नुवन्ति। व्यादिशब्दानां तु समुच्चय - विषयत्वादेकादिप्रतिषेधे प्रतिषिध्यमानार्थानामसमुचयत्वादनर्थकत्वं स्यात्" (अ०२ आ०२ सू०६७न्यायवा०) “यश्चायमगोऽपोहोऽगौर्न भवतीति गोशब्दस्यार्थः स किञ्चिद् भावः, अथाऽभावः? भावोऽपि सन् किं गौः, अथागौरिति / यदि गौः नास्ति विवादः / अथाऽगौः, गोशब्दस्यागौरर्थ इत्यतिशब्दार्थकौशलम्। अथाभावः, तन्न युक्तम; प्रैषसम्प्रतिपत्त्योरविषयत्वात् न हि शब्दश्रटणादभावे प्रेष:-प्रतिपादके न श्रोतुरर्थे विनियोगः-प्रतिपादकधर्म:, सम्प्रतिपत्त (त्ति) श्च–श्रोतृधर्मोभवेत्। अपि च शब्दार्थः प्रतीत्या प्रतीयते, न च गोशब्दादभावं कश्चित् प्रतिपद्यते" ( न्याय Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द वा०) किच- "क्रियारूपत्वादपोहस्य विषयो वक्तव्यः / तत्र 'अगौर्न भवति' इत्ययमपोहः किं गोविषयः, अथागोविषयः? यदिगोविषयः कथं गार्गव्येवाऽभावः? अथो गो विषयः कथमन्यविषयादपोहादन्यत्र प्रतिपत्तिः, न हि खदिरे छिद्यमाने पलाशे छिदा भवति / अथागोर्गवि प्रतिषेधो गौरगौन भवति' इति,केनागोत्वं प्रसक्तं यत्प्रतिषिध्यत इति" (न्यायवा०) "इतश्चायुक्तोऽपोहः विकल्पानुपपत्तेः। तथाहि-योऽयमगोरपोहो गवि स कि गोव्यतिरिक्तः, आहोश्विदव्यतिरिक्तः? यदि व्यतिरिक्तः स | किमाश्रितः अथाऽनाश्रितः? यद्याश्रितस्तदाऽऽश्रितत्वाद् गुणः प्राप्तः, ततश्चगोशब्देन गुणोऽभिधीयते 'न गौः' इति-गौस्तिष्ठति 'गार्गच्छति' इति न साम्गनाधिकरण्यं प्राप्रोतीति / अथानाश्रितस्तदा केनार्थेन 'गोरगोपाहः' इति षष्ठी स्यात्? अथाव्यतिरिक्तस्तदा गौरेवासावितिन किश्चित् कृतं भवति" [न्यायवा० पृ०३३० पं०८-१४] "अय चापोहः प्रतिवस्त्वेकः, अनेको वेति वक्तव्यम् / यद्येकस्तदानेकगोद्रव्यसम्बन्धी गोस्वमेवासौ भवेत् / अथानेकस्ततः पिण्डवदानन्यादाख्यानानुपपत्तेखाच्य एव स्यात्" [न्यायवा० पृ०३३० पं०१५-१७ ] किञ्च-“इदं तावत् प्रष्टव्यो भवति भवान्-किमपोहो वाच्यः, अथावाच्य इति / वाच्यत्वे विधिरूपेण वाच्यः स्यात, अन्यव्यावृत्त्या वा ? तत्र यदि विधिरूपेण तदा नैकान्तिकः शब्दार्थः 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इति। अथान्यव्यावृत्त्येतिपक्षस्तदा तस्याप्यन्यप्यवच्छेदस्यापरेणान्वयव्यवच्छेदरूपेणाभिधानम् तस्याप्यपरणेत्यव्यवस्था स्यात। अथावाच्यस्तदा 'अन्य-शब्दार्थापोह शब्दः करोति' इति व्याहन्येत" [न्यायवा० पृ०३३०पं०१८-२२] आचार्यदिनागोक्तम्- "सर्वत्राभेदादाश्रयस्यानुच्छेदात् कृत्स्नार्थपरिसमाप्तेश्च यथाक्रमं जातिधर्मा एकत्वनित्यत्वप्रत्येकपरिसपाप्तिलक्षणा अपोह एवावतिष्ठन्ते; तस्माद् गुणोत्कर्षादर्थान्तरापोह एव शब्दार्थः साधुः" इत्येतदाशङ्कय कुमारिल उप (ह) सह (संहर) नाह"अपि चैकत्व-नित्यत्व-प्रत्येकसमवायित्वाः(ताः)। निरूपाख्यष्वपोहेषु, कुर्वतोऽसूत्रकः पटः" / / "तस्माद् येष्वेव शब्देषु, नञ्योगस्तेषु केवलम्। भवेदन्यनिवृत्त्यशः, स्वात्मैवान्यत्र गम्यते" / / [श्लो० वा० अपो० श्लो० 163-164 ] 'स्वात्मैव' इति स्वरूपमेव विधिलक्षणम्। 'अन्यत्र' इति नत्रा रहिते। तन्नापोहः शब्दार्थ इति भट्टोद्ध्योतकरादयः। (स्वपक्षाक्षेपेषु प्रतिविधातव्येषु पूर्वम् अपोहवादिकृतं स्वमतस्पष्टीकरणम्)अत्र सौगताः प्रतिविदधतिद्विविधोऽस्माकमपोहः पर्युदासलक्षणः, प्रसह्यप्रतिपंधलक्षणश्च / पर्युदासलक्षणोऽपि द्विविधः-बुद्धिप्रतिभासोउर्थेष्वनुगतैकरूपत्वेनाध्यवसितो बुध्द्यात्मा, विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणात्मिकथातत्र यथा हरीतक्यादयो बहवोऽन्तरेणापि सामान्यलक्षणमेकमर्थ ज्वरादिशमनं कार्यमुपजनयति तथा, शाबलेयादयोऽप्यर्थाः सत्यपि भेद प्रकृतैकाकारपरामर्शहतवो भविष्यन्त्यन्तरेणापि वस्तुभूतं सामान्यम्। तदनुभवबलेन यदुत्पन्नं विकल्पज्ञानंतत्र यदाकारतयाऽर्था (र्थ) प्रतिबिम्बकं ज्ञानादभिन्न-माभाति तत्र 'अन्यापोहः' इतिव्यपदेशः। नचासावर्थाभासो ज्ञानतादात्म्येन व्यवस्थितः सन् बाह्यर्थाभावेऽपि तस्य तत्र प्रतिभासनाद्वाहाकृतः। न चापोहव्यपदेशस्तत्र निर्निमित्तः, मुख्यगौणभेदभिन्नस्य निमित्तस्य सद्भावात्। तथाहि-विकल्पान्तरारोपितप्रतिभासान्तरोदावन (प्रतिभासान्तराद्भेदेन) स्वयं प्रतिभासनात् मुख्यस्तत्र तद्व्यपदेशः 'अपोह्यत इत्यपोहः अन्यस्मादपोहः अन्यापोहः' इति व्युत्पत्तेः। उपचारात् तु त्रिभिः कारणैस्ता तव्यपदेशः-(१) कारणे कार्यधारोपाद्वा अन्यव्यावृत्तवस्तुप्राप्तिहेतुतया, (2) कार्ये वा कारणधर्मोपचारात् अन्यविविक्तवस्तुद्वारायाततया, (3) विजातीया-पोढपदार्थन सहैक्येन भ्रान्तैः प्रतिपत्तृभिरध्यवसितत्वाच्चेति। अर्थस्तु विजातीयव्यावृत्तत्वाद् मुख्यतस्तद्व्यपदेशभाक्। प्रसज्यप्रतिषेध-लक्षणस्त्वपोहः"प्रसज्यप्रतिषेधस्तु, गौरगौन भवत्ययम्। इति विस्पष्ट एवाय–मन्यापोहोऽवगम्यते" / / [तत्त्वस०का०१०१०] तत्र य एव हि शाब्दे ज्ञाने साक्षाद् भासते स एव शब्दाऽर्थो युक्तः। न चात्र प्रसज्यप्रतिषेधावसायः, वाच्याध्यवसितस्य बुद्ध्याकारस्य शब्दजन्यत्यात। नापीन्द्रियज्ञानवद् वस्तुस्वलक्षणप्रतिभासः, किं तर्हि? बाह्यर्थाध्यवसायिनी केवलशाब्दी बुद्धिरुपजायते तेन तदेवार्थप्रतिबिम्बक शाब्दे ज्ञाने साक्षात् तदात्मतया प्रतिभासनाच्छब्दार्थो युक्त इति अपोहत्रये प्रथमोऽपोहव्यपदेशमासादयति। यश्चापि शब्दस्यार्थेन सह वाच्यवाचकभावलक्षणसम्बन्धः प्रसिद्धो नासौ कार्यकारणभावादन्योऽवतिष्ठते, बाह्यरूपतयाऽध्यवसितस्य बुद्ध्याकारस्य शब्दजन्यत्वाद् द्वाच्यवाचकलक्षणसम्बन्धः कार्यकारणभावात्मक एव; तथा चशब्दस्तस्य प्रतिबिम्बात्मनो जनकत्वाद्वाचक उच्यते प्रतिबिम्ब च शब्दजन्यत्वाद् वाच्यम्। ('निषेधमात्रमेव अन्यापोहः' इति मत्वा अपोहपक्षमा क्षिप्तवतः कौमारिलस्य निराकरणम्)तेन यदुक्तम्- 'निषेधमात्रं नैवेह शाब्दे ज्ञानेऽवभासते'। इति, तदसङ्गतम्, निषेधमात्रस्य शब्दार्थत्वानभ्युपगमात्। एवं तावत् प्रतिबिम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाच्छन्दैरूपजन्यत्वाद् मुख्यः शब्दार्थो व्यवस्थितः शेषयोरप्यपोहयोर्गाणं शब्दार्थत्वमविरुद्धमेव / तथाहि"साक्षादपि च एकस्मिन्नेवं च प्रतिपादिते। प्रसज्यप्रतिषेधोऽपि,सामर्थ्येन प्रतीयते" / / (तत्वसं०का० 1013) सामर्थ्य च गवादिप्रतिबिम्बात्मनोऽपरप्रतिबिम्बात्मविविक्तत्वात् तदसंयुक्ततया प्रतीयमानत्वम्, तथा तत्प्रतीतौ प्रसज्यलक्षणापोहप्रतीतरप्यवश्यं सम्भवात; अतस्तस्यापि गौणशब्दार्थत्वम्। स्वलक्षणस्यापि गौणशब्दार्थत्वमुपपद्यत एव। तथापि-प्रथम यथावस्थितवस्त्यनुभवः,ततो विवक्षा, ततस्ताल्वादिपरिस्पन्दः,ततःशब्दइत्येवंपरम्परयायदा Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 350 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द शब्दस्य बाह्यार्थेष्वभिसम्बन्धः स्यात् तदा विजातीयव्यावृत्तस्यापि वस्तुनोऽर्थापत्तितोऽधिगम इत्यन्यव्यावृत्तवस्त्वात्माऽपोहशब्दार्थ इत्युपचर्यते। तदुक्तम्“न तदात्मा परात्मेति, सम्बन्धे सति वस्तुभिः / व्यावृत्तवस्त्वधिगमोऽ-प्यर्थादेव भवत्यतः" / / (तत्त्वसं० का० 1014) "तेनायमपि शब्दस्य, स्वार्थ इत्युपचर्यते। न च साक्षादयं शब्दे, द्वि(ब्दै)ि विधोऽपोह उच्यते" / / (तत्त्वसं० का० 1015) इति। (उद्योतकरदूषितस्य दिग्नागकथनस्य अभिप्रायमुद्धाट्य कण्टकोद्धारः)तेनाचार्यदिग्नागस्योपरि यद् उद्योतकरेणोक्तम्- “यदि शब्द-- स्यापोहोऽभिधेयोऽर्थस्तदाऽभिधेयार्थव्यतिरेकेणास्य स्वार्थो वक्तव्यः, अथ स एव स्वार्थस्तथापि व्याहतमेतत् अन्यशब्दाथपोहं हि स्वार्थ कुर्वती श्रुतिरभिधत्त इत्युच्यते इति, अस्य हि | वाक्यस्यायमर्थस्तदानीं भवत्यभिदधानाभिधत्त इति" [अ०२ आ० २सू०६७न्यायवा० / तदेतद्वाक्यार्थापरिज्ञानादुक्तम्। तथाहिस्वलक्षणमपि शब्दस्योपचारात् स्वार्थ इति प्रतिपादितम; अतः स्वलक्षणात्मके स्वार्थेऽर्थान्तरव्यवच्छेदं प्रतिबिम्बान्तराद्व्यावृत्तं प्रतिबिम्बात्मकमपोहं कुर्वती श्रुतिरभिधत्ते इत्युच्यते इत्येतदाचार्याय वचनमविरोधि / अयमाचार्यस्याशयः-न शब्दस्य बाह्यार्थाध्यवसायिविकल्पप्रतिबिम्बोत्पादव्यतिरेकेणान्यो बाह्याभिधानव्यापारः, नियापारत्वात् सर्वधर्माणाम् अतो बाह्यार्थाध्यवसायेन प्रवृत्तं विकल्पप्रतिबिम्ब जनयन्ती श्रुतिःस्वार्थमभिधत्ते इत्युच्यते, न तु विभेदिनं सजातीयविजातीयव्यावृत्तं स्वलक्षणमेषा स्पृशति, तथाविधप्रतिबिम्बजनकत्वव्यतिरे के ण नापरा श्रुते रभिधा क्रियाऽस्तीत्यर्थः। एवंभूते चापोहस्य स्वरूपे नपरोक्तदूषणावकाशः / तेन यदुक्तम्- 'यदि गो रिति शब्दश्च' इत्यादि। तत्र गोबुद्धिमेव हि शब्दो जनयति, अन्यविश्लेषस्तु सामर्थ्यदम्यते न तु शब्दात्तस्य गोप्रतिबिम्ब-स्य प्रतिभासान्तरात्मरहितत्वादन्यथानियतरूपस्य प्रतिपत्तिरेव न स्यात्तेनापरोध्वनिोबुद्धेर्जनको न मृग्यते, गोशब्देनैव गोबुद्धेर्जन्यमानत्वात् / यदपि-- 'ननु ज्ञानफलाश्शब्दाः' इत्यादि कुमारिलवचनं, तदप्यसारं; यतो यथा 'दिवान भुङ्क्ते पीनो देवदत्तः' इत्यस्य वाक्यस्य साक्षाद् दिवाभोजनप्रतिषेधः स्वार्थः, अभिधानसामर्थ्यगम्यस्तु रात्रिभोजनविधिर्न साक्षात्, तद्वत् 'गौः' इत्यादेरन्वयप्रतिपादकस्य शब्दस्यान्वयज्ञानं साक्षात् फलम् व्यतिरेकगतिस्तु सामति, यस्मादन्वयो विधिख्यतिरेकवान्नास्ति विजातीयव्यवच्छेदाव्यभिचारित्वात् तस्य, इत्येक ज्ञानस्य फलद्वयमविरुद्धमेव / यतो यदि साक्षादेकस्य शब्दस्य विधिप्रतिषेधज्ञानलक्षणं फलद्वयं युगपदभिप्रेतं स्यात् तदा भवेद् विरोधः यदा तु दिवाभोजनवाक्यवदेकंसाक्षात् अपरं सामर्थ्यलभ्यं फलमभीष्ट | तदाको विरोधः? यचोक्तम्- 'प्रागगौरिति ज्ञानम्' इत्यादि, तदपि निरस्तम्; अनभ्युपगमात्-न ह्यगोप्रतिषेधमाभिमुख्येन गोशब्दः करोतीत्यभ्युपगतमस्माभिः, किंतर्हि ? सामर्थ्यादिति। यत्रोक्तम् 'अगोनिवृत्तिः सामान्यम्' इत्यादि, तदप्यसत्; बाह्यरूपतयाऽध्यस्तो बुद्ध्याकारः सर्वत्र शाबलेयादौ 'गौर्गाः' इति समानरूपतयावभासनात् सामान्यमित्युच्यते।बाह्यवस्तुरूपत्वमपि तस्य भ्रान्तप्रतिपत्तृपशाद् व्यवहियतेन परमार्थतः। ननु च यदि कदाचित् मुख्यं वस्तुभूतं सामान्य बाह्यवरत्वाश्रितमुपलब्धं भवत्तदा तत्साधर्म्यदर्शनात् तत्र सामान्यभ्रान्तिर्भवत्याक्ता मुख्यार्थासम्भवे सैव भवतामनुपपन्ना, अर-देतत, साधर्म्यदर्शनाद्यनपेक्षद्विचन्द्रादिज्ञानवत् अन्तरुपप्लवादपि तज्झानसम्भवात्; न हि सर्वा भ्रान्तयः साधर्म्यदर्शनादेव भवन्ति किंतर्हि? अन्तरुपप्लवादपीत्यदोष इति सिद्धसाध्यतादोषो न भवति / स एव बुध्द्याकारो बाह्यतयाऽध्यस्तोऽपोहो बाह्यवस्तुभूतं सामान्यमिवोच्यते वस्तुरूपत्वेनाध्यवसायात्, शब्दार्थत्वाऽपोहरूपत्वयोः प्रागेव कारणमुक्तम्'बाह्यार्थाध्यवसायिन्या, बुद्धेः शब्दात समुद्भवात्' 'प्रतिभासान्तराद् भेदात्' इत्यादिना।। कस्मात् पुनः परमार्थतः सामान्यमसौ न भवति? बुद्धेरव्यतिरिक्तत्वेनार्थान्तरानुगमाभावात् / तदुक्तम्- 'ज्ञानादव्यतिरिक्तं च कथमर्थान्तरं व्रजेत् / न च भवद्भिर्बुद्ध्याकारो गोत्वाख्य सामान्य वस्तुरूपमिष्टम्, किंतर्हि? बाह्यशाबलेयादिगतमेकमनुगाति गोत्यादि सामान्यमुपकल्पितम्; अतः कुतः सिद्धसाध्यता / यचोक्तम्'निषेधमात्ररूपश्च' इत्यादि, तस्यानभ्युपगतत्वादेव न दोषः / यचेदमुक्तम्-'तस्यां चाश्वादिबुद्धीनाम्' इत्यादि, तदप्यसत् यतः-- "यद्यप्यव्यतिरिक्तोऽयमाकारो बुद्धिरूपतः। तथापि बाह्यरूपत्वं,भ्रान्तैस्तस्याऽवसीयते"। (तत्त्वसं० का० 1026) यदपि 'शब्दार्थोऽर्थानपेक्षः' इति, तत्र यत्र हि पारम्पदि वस्तुनि प्रतिबन्धोऽस्ति तस्य भ्रान्तस्यापि सतो विकल्पस्य मणिप्रभायां मणिबुद्धिवन्न बाह्यार्थानपेक्षत्वमस्ति; अतोऽसिद्धं बाह्यार्थानपेक्षत्वम् / यच्च- 'वस्तुरूपावभासा (रूपा च सा) बुद्धिः' इत्यादि, तत्र यद्यपि वस्तुरूपा सा बुद्धिस्तथापि तस्यास्तेन बाह्यत्मना बुद्ध्यन्तरात्मना च वस्तुत्वं नास्तीति प्रतिपादितम्।तेन 'बुद्ध-बुध्यन्तरापोहो नगम्यते' इत्यसिद्धम् सामर्थ्येन गम्यमानत्वात्। 'असत्यपि च बाह्येऽर्थे इति, अत्र यथैव हि प्रतिबिम्बात्मकः प्रतिभाख्योऽपोहो वाक्यार्थाऽस्माभिरुपवर्णितस्तथैव पदार्थोऽपि, यस्मात्पदादपि प्रतिबिम्बात्मकोऽपोह उत्पद्यत एव, पदार्थोऽपि स एव; अतो न केवल पाक्यार्थ इति विप्रतिपत्तेरभावाद् नोप (पा) लम्भो युक्तः / “बुध्यन्तराद् व्यवच्छेदो न बुद्धेः प्रतीयते” इत्यादावपि यत एव हि स्वरूपोत्पादनमात्रादन्यमंशं सा न बिभर्ति तत एव स्वभाव-व्यवस्थितत्वाद् बुद्धेर्बुध्यन्तराद्व्यवच्छेदः प्रतीयते; अन्यथा-ऽन्यस्वरूपं बिभ्रती कथं ततो व्यवच्छिन्ना प्रतीयते? 'भिन्नसामा-न्यवचनाः' इत्यादावपि यथैव ह्यपोहस्य निःस्वभावत्वादरूपस्य पर-स्परतो भेदो नास्तीत्युच्यतेतथैवाऽभेदोऽपि इति कथमभिन्नार्थाभावे पर्यायत्वासञ्जनं क्रियते ? अभेदो ह्येकरूपत्वम: तच्च नीरूपेष्येक-रूपत्वं नास्तीति न पर्यायता। स्यादेतत् यदि नाम नीरूपेष्वेकरूपत्वं भावो नास्ति तथापि काल्पनिकस्य तस्य भावात् पर्यायतासजन यु Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 351 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सह क्तमेव / नन्वेट पर्यायाऽपर्यायव्यवस्था शब्दाना कथंयुक्ता? उक्तं च-- "रूपाभावेऽपि चैकत्वं, कल्पनानिमित्तं यथा। विभेदोऽपि तथैवेति, कुतः पर्यायता ततः" ?|| (तत्त्वसं० का०१०३२) "भावतस्तु न पर्याया, न पर्यायाश्च वाचकाः। न ह्येक वाच्यमेतेषामनेक चेति वर्णितम्" / / (तत्त्वसं० का० 1033) इति। यदि परमार्थतो भिन्नमभिन्नं वा किञ्चिद्वाच्यं वस्तुशब्दानां स्यात् तदा पर्याया पर्यायता भवेत् यावता- 'स्वलक्षणं जातिस्तद्योगो जालिमांस्तथा' इत्यादिना वर्णितम्- यथैषां न किञ्चिद्वाच्यमस्तीति। पर्यायादिव्यदस्था तु अन्तरेणापि सामान्यम् सामान्यादिशब्दत्वस्य व्यवस्थापनात् / तस्य चेदं निबन्धनं यद् बहूनामेकार्थक्रियाकारित्वम्-- प्रकृत्या केचिदभावा बहवोऽप्येकार्थक्रियाकारिणो भवन्ति तेषामेकार्थक्रियासामर्थ्य- प्रतिपादपनाय व्यवहर्तृभिधिवार्थमकरूपाध्यारोपेणैकाश्रुति-निवेश्यले, यथा-बहुषु रूपादिषु मधूदकाद्याहरणलक्षणेकार्थक्रियासमर्थेषु 'घटः' इत्येका श्रुतिर्निवेश्यते / कथ पुनरे केनानुगामिना विना बहुष्वेका श्रुतिर्नियोक्तुं शक्या? इति न वक्तव्यम्, इच्छामात्रप्रतिबद्धत्वात् शब्दानामर्थप्रतिनियमस्या तथाहिचक्षुरूपाऽऽलोकमनस्कारेषु रूपविज्ञानैकफलेषु यदि कश्चिद् विनाप्येकेनानुगामिना सामान्येनेच्छावशादेकां श्रुतिं निवेशयेत् तत् किं तस्य कश्चित् प्रतिरोद्धा भवेत्? न हि तेषु लोचनादिष्वेक चक्षुर्विज्ञानजनकत्वं सामान्यमरितयतः सामान्यसमवायविशेषा अपि भवद्भिः चक्षुर्मानजनका अभ्युपगम्यन्ते, न च तेषु सामान्यसमवायोऽस्ति निःसामान्यत्वात् सामान्यस्य, समवायस्य च द्वितीयसमवायाभावात्। न च घटादिकार्यस्योदकाहरणादेस्तज्ज्ञानस्य च स्वलक्षणरूपत्वेन भिन्नत्वात् कथमेककार्यकारित्वम्? इति वक्तव्यम्, यतो यद्यपि स्वलक्षणभेदात् तत्कार्य भिद्यते तथापि ज्ञानाख्यं तावत् कार्यमेकार्थाध्यवसायिपरामर्शप्रत्ययहेतुत्वादेकम्, तज्ज्ञानहेतुत्वाचार्था घटादयोऽभेदिन इत्युच्यन्ते। न च योऽसौ परामर्शप्रत्ययस्तस्यापि स्वलक्षणरूपतया भिद्यमानत्वादेकत्वासिद्धेरपरापरैकाकारपरामर्शप्रत्ययकार्यानुसरणतोऽनवस्थाप्रसङ्ग तो ने (नै) ककार्यतया क्वचिदेकश्रुतिनिवेशो बहुषु सिद्धिमुपगच्छतीति वाच्यम्; यतो न परामर्शप्रत्ययस्यैककार्यकारितयकत्वमुच्यते, किं तहिं ? एकाध्यवसायितया। स्वयमेव परामर्शप्रत्ययानामेकत्वसिद्धेन नवस्थाद्वारेणैकश्रुतिनिवेशाभावः, अत एकाकारपरामर्शह तुत्वाद ज्ञानाख्यं कार्यमेकम्, तद्धेतुत्वाद् घटादय एकत्वव्यपदेशभाजः। तेन विनापि वस्तुभूत सामान्य सामान्यवचना घटादयः सिद्धिमासदयन्ति / तथा-कश्चिदेकोऽपि प्रकृत्यैव सागर यन्तरान्तः पातवशादनेकार्थक्रियाकारी भवति व्यतिरेकेणापि वस्तुभूतसामान्यधर्मभेदम, तत्राऽतत्कार्यपदार्थभदभूयस्त्वात् अनेक श्रुतिसमावेशः अनेकधर्मसमारोपात, यथा-स्वदेशे परस्योत्पत्तिप्रतिबन्धकारित्वाद् रूपं सप्रतिघम्-सह निदर्शनेन चक्षुर्मानजनकत्वेन वर्तत इति-सनिदर्शन च तदेवोच्यते, यथा वा शब्द एकोऽपि प्रयत्नानन्तर-ज्ञानज्ञानफलतया 'प्रयत्नानन्तरः' इत्युच्यते, श्रोत्रज्ञानफलत्वाच्च श्रावणः-श्रुतिः श्रवण श्रोतृ (त्र) ज्ञानम् तत्प्रतिभासतया तत्र भवः श्रावणः, यद्वा श्रवणेन गृह्यत | इति श्रावणः-एवमतत्कार्यभदेनैकस्मिन्नप्यनेका श्रुतिर्निवेश्यमानाऽविरुद्धा / अतत्कारणभेदेनापि क्वचित् तन्निवेशः, यथा भ्रामरं मधु क्षुद्रादिकृतमधुनो व्यावृत्त्या / तथा तत्कार्यकारणपदार्थव्यवच्छेदमात्रप्रतिपादनेच्छया अन्तरेणापि सामान्यं श्रुतेर्भेदेन निवेशन सम्भवति-- "अश्रावणं यथा रूपं, विद्युद्वाऽयत्नजा यथा" | (तत्त्वसं० का० 1042) "इत्यादिना प्रभेदेन, विभिन्नार्थनिबन्धनाः। व्यावृत्तयः प्रकल्प्यन्ते, तन्निष्टाः (ष्ठाः) श्रुतयस्तथा" || (तत्त्वसं० का०१०४३) "यथासङ्केतमेवातोऽ-सङ्कीर्णाभिधायिनः। शब्दा विवेकतो वृत्ताः, पर्याया न भवन्ति न (नः)" / / (तत्त्वसं० का० 1044) श्रोत्रज्ञानफलशब्दव्यवच्छेदेन 'अश्रावणं रूपम्' इत्युच्यते, प्रयनकारणघटादिपदार्थव्यवच्छेदेन 'विद्युदप्रत्नजा' इत्यभिधीयते। अन्तरेणापि सामान्यादिक वस्तुभूतम् व्यावृत्तिकृतमेव शब्दानां भेदेन निवेशनं सिद्धम, पर्यायत्वप्रसङ्गाभावश्च विभिन्नार्थनिबन्धनव्यावृत्तिनिष्ट (8) त्वे श्रुतीना सिद्धः / स्यादेतत् मा भूत् पर्यायत्वमेषाम् अर्थभेदस्य कल्पितत्वात; सामान्यविशेषवाचित्वव्यवस्था तु विना सामान्यविशेषाभ्यां कथमेषाम्? उच्यते"बह्वल्पविषयत्वेन, तत्सङ्केतानुसारतः। सामान्य-भेदवाच्यत्व-मप्येषां न विरुध्यते" / / (तत्त्वसं० का० 1045) वृक्षशब्दो हि सर्वेष्वेव धव-खदिर-पलाशादिष्ववृक्षव्यवच्छेदमात्रानुस्यूतं प्रतिबिम्बकं जनयति; तेनास्य बहुविषयत्वात् सामान्य वाच्यमुच्यते, धवादिशब्दस्य तु खदिरादिव्यावृत्तकतिपयपादपाध्यवसायिविकल्पोत्पादकत्वाद् विशेषो वाच्य उच्यते / यदुक्तम्'अपोह्यभेदेन' इत्यादि, तत्र"ताश्च व्यावृत्तयोऽर्थाना, कल्पनाशिल्पिनिर्मिताः। नापोह्याधारभेदेन, भिद्यन्ते परमार्थतः" / / “तासां हि बाह्यरूपत्वं, कल्पित न तु वास्तवम्। भेदोभेदौ च तत्त्वेन, वस्तुन्येव व्यवस्थितौ" || "स्वबीजानेकविश्लिष्ट वस्तुसङ्केतशक्तितः। विकल्पास्तु विभिद्यन्ते, तद्रूपाध्यवसायिनः" / / "नैकात्मतां प्रपद्यन्ते, न भिद्यन्ते च खण्डशः। स्वलक्षणात्मका अर्था, विकल्पः प्लवते त्वसौ" / / (तत्त्वसं०का०१०४६-१०४७-१०४८-१०४६) अस्य सर्वस्याप्ययमभिप्रायः-यदि हि पारमार्थिकोऽपोह्यभेदेनाधारभेदेन वाऽपोहस्य भेदोऽभीष्टः स्यात्तदैतद्दूषणं स्यात्यावता कल्पनया सजातीयविजातीयपदार्थभेदैरिव व्यावृत्तयो भिन्नाः कल्प्यन्ते न परमार्थतः ततः ताश्च कल्पनावशादव्यतिरिक्ता इव वस्तुनो भासन्तेन परमार्थतः / परमार्थतस्तु विकल्पा एव भिद्यन्ते अनादिविकल्पवासनाऽन्य Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 352 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द विविक्तवस्तुसङ्केतादेनिमित्ता व्यावृत्तवस्त्वध्यवसायिनः न त्वर्थाः / तथाहि-वृक्षत्वादिसामान्यरूपेण नैकात्मतांधवादयः प्रतिपद्यन्ते, नापि क्षणिकाऽनात्मकादिधर्मभेदेनखण्डशो भिद्यन्ते, केवल विकल्प एव तथा प्लवते; नत्वर्थः / यथोक्तम् "संसृज्यन्ते न भिद्यन्ते, स्वतोऽर्थाः पारमार्थिकाः। रूपमेकमनेक वा, तेषु बुद्धरुपप्लवः" ||1|| यचोक्तम्- 'न चाप्रसिद्धसारूप्य' -इत्यादि। तत्र.. "एकधर्मान्वयासत्त्वेऽ-प्यपोह्याऽपोहगोचराः। वैलक्षण्येन गम्यन्तेऽ-भिन्नप्रत्यवमर्शकाः" / / (तत्त्वसं० का० 1050) अपोह्याच अपोहगोचराश्चेति विग्रहः। तत्रापोह्या अश्वादयः गोशब्दस्य तदपोहेन प्रवृत्तत्वात्, अपोहगोचराः शायलेयादयः तद्विषयत्वाद् अगोपोहस्य, तेन यद्यप्येकस्य सामान्यरूपस्यान्वयो नास्ति तथाप्यभिन्नप्रत्यवमर्शहतवो ये ते प्रसिद्धसारूप्या भवन्ति, ये तु विपरीतास्ते विपरीता इति। स्यादेतत् तस्यैवैकप्रत्यवमर्शस्य हेतवोऽन्तरेण सामान्यमेक कथमा भिन्नाः सिद्ध्यन्ति? उच्यते"एकप्रत्यवशर्मे हिकेचिदेवोपयोगिनः। प्रकृत्या भेदवन्तोऽपि, नान्य इत्युपपादितम्" / / (तत्त्वस०का० 1051) प्रतिपादितमेतत् सामान्यपरीक्षायाम्-यथा धात्र्यादयोऽन्तरेणापि सामान्यमेकार्थक्रियाकारिणो भवन्ति तथैकप्रत्यवमर्शहतवो भिन्ना अपि भावाः केचिदेव भविष्यन्ति' इति। 'न चान्वयविनिर्मुक्ता' इत्यादावाहयद्यपि सामान्य वस्तुभूतं नास्ति तथापि विजातीयव्यावृत्तस्वलक्षणमात्रेणैवान्वयः क्रियमाणो न विरुध्यते। "यस्मिन्नधूमतो भिन्नं, विद्यते हि स्वलक्षणम्। तस्मिन्ननग्नितोऽप्यस्ति, परावृत्तं स्वलक्षणम्" || "यथा महानसे वेह, विद्यतेऽधूमभेदितत्। तस्मादनग्नितो भिन्न, विद्यतेऽत्र स्वलक्षणम्" / (तत्त्वस० का० 1053-1054) अवयवपञ्चकमपि स्वलक्षणेनान्वये क्रियमाणे शक्योपदर्शनमित्येव प्रयोगप्रदर्शनं कृतम्, इदं च कार्यहतावुदाहरणम् / स्वभावहेतावपि यद् असतो व्यावृत्तं स्वलक्षणं तत् सर्व स्थिरादपि व्यावृत्तम्, यथा बुद्ध्यादि, तथा चेदं शब्दादि स्वलक्षणमसदूपं न भवतीति / अमुना न्यायेन विशेषाऽसंस्पर्शात् स्वलक्षणेनान्वयः क्रियमाणो न विरुध्यते। यदि तर्हि स्वलक्षणेनैवान्वयः कथं सामान्यलक्षणविषयमनुमानम? तदेव हि स्वलक्षणमविवक्षितभेदं सामान्य लक्षण मित्युक्तम् 'सामान्येन भेदापरामर्शन लक्ष्यतेऽध्यवसीयते' इति कृत्वा। तदुवतम्"अतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रसाधनात्। सामान्यविषयं प्रोक्तं लिङ्ग भेदाप्रतिष्ठितः" / / इति तेन साहचर्यमपि | लिङ्गशब्दयोः स्वलक्षणेनैव कथ्यते। न चाप्यदर्शनमात्रेणास्माभिर्विपक्षे लिङ्गस्याभावोऽवसीयते, किं तर्हि? अनुपलम्भविशेषादेव। यच्चोक्तम्'शाबलेय' इत्यादि, तत्रेदं भवान् वक्तुमर्हति- 'शाबलेया बाहुलेयाऽश्वयोस्तुल्येऽपि भेदे किमिति तुरङ्गपरिहारेण गोत्वं शाबलेयादौ वर्तत नाश्वे' इति? स्यादेतत् किमत्र वक्तव्यम् ? गोत्वस्याभिव्यक्ती शाबलेयादिरेव समर्थो नाश्वादिः अतस्तत्रैव तद् वर्तते नान्यत्र / न चाय पर्यनुयोगो युक्तः 'कस्मात् तस्या भिव्यक्तौ शाबलेयादिरेव समर्थः' ? यतो वस्तुस्वभावप्रतिनियमोऽयम्; न हि वस्तूनां स्वभावाः पर्यनुयोगमर्हन्ति तेषां स्वहेतुपरम्पराकृतत्वात् स्वभावभेदप्रतिनियमस्येति / नन्वेव यथा शाबलेयादिरेव गोत्वाभिव्यक्तौ समर्थस्तथा सत्यपि भेद सामान्यमन्तरेणापि तुल्यप्रत्यवमर्शोत्पादने शाबलेयादिरेव शकतो न तुरङ्गम इत्यस्मत्पक्षो न विरुध्यत एव। तेन-- "तादृक् प्रत्यवमर्शश्च, विद्यते यत्र वस्तुनि। तत्राभावेऽपि गोजाते-रगोपोहः प्रवर्तते" / [तत्त्वसं० का० 1060] यचोक्तम्- 'इन्द्रियैः' इत्यादि, तदसिद्धम्, तथाहि-स्वलक्षणात्मा तावदपोह इन्द्रियैरवगम्यत एव, यश्वार्थप्रतिबिम्बात्माऽपोहः स परमार्थतो बुद्धिस्वभावत्वात् स्वसंवेदनप्रत्यक्षत एव सिद्धः, प्रसह्यात्माऽपि सामर्थ्यात् प्रतीयत एव 'न तदात्मा परात्मा' इति न्यायात्; अतः स्वलक्षणादिरूपमपोहं दृष्ट्वा लोकः शब्दं प्रयुक्त एट न वस्तुभूतं सामान्यम्, तस्याऽसत्त्वात् अप्रतिभासनाच्च / यदेव च दृष्ट्वा लोकेन शब्दः प्रयुज्यते तेनेव तस्य सम्बन्धोऽवगम्यते नान्येन अतिप्रसङ्गात्।यच्च'अगोशब्दाभिधेयत्वं गम्यतां च कथं पुनः' इति, अत"तादृक् प्रत्यवमर्शश्व, यत्र नैवास्ति वस्तुनि। अगोशब्दाभिधेयत्वं विस्पष्ट तत्र गम्यते" / [तत्त्वसं० का० 1063 ] यच्चोक्तम्- 'सिद्धश्वागौरपोहोत' इत्यादि, तत्र, स्वत एव हि गवादयो भावाः भिन्नप्रत्यवमर्श जनयन्तो विभागेन सम्यग् निश्चिताः तेषु व्यवहारार्थव्यवहर्तृभिर्यथेष्ट शब्दः सिद्धः प्रयुज्यते। तथाहि-यदि भिन्नं वस्तु स्वरूपप्रतिपत्त्यर्थभन्यपदार्थग्रहणमपेक्षते तदा स्यादितरेतराश्रय दोषः यावताऽन्यग्रहणमन्तरेणैव भिन्न वस्तु संवेद्यते; तस्मिन् भिन्नाकारप्रत्यवमर्शहेतुतया विभागेन 'गौर्गाः' इति च सिद्धे यथेष्ट संकेतः क्रियते इति कथमितरेतराश्रयत्वं भवेत्? यच्चोक्तम्-'नाधाराधेय' - इत्यादि, तत्र, न हि परमार्थतः कश्चिदपोहेन विशिष्टो-ऽर्थः शब्दरभिधीयते / तेनैव यतः प्रतिपादितमेतत्- 'यथा न किञ्चिदपि शब्दैर्वस्तु संस्पृश्यते, क्वचिदपि समयाभावात्' इति / तथाहि-शाब्दी बुद्धिबाह्यार्थविषयाऽपि सतीस्वाकार बाह्यार्थतयाऽध्यवस्यन्ती जायते, न परमार्थतो वस्तुस्वभावं स्पृशति यथातत्त्वमनध्यवसायात् / यद्येवम् कथमाचार्येणोक्तम्-- "नीलोत्पलादिशब्दा अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टान नाहुः" इति। “अन्तिरनिवृत्त्याह, विशिष्टानिति यत् पुनः। प्रोक्तं लक्षणकारेण, तत्रार्थोऽयं विवक्षितः" / / 1068|| "अन्यान्यत्वेन ये भावा, हेतुना करणेन वा। विशिष्टा भिन्नजातीय-रसङ्कीर्णा विनिश्चिताः" // 1066 / / "वृक्षादीनाह तान् ध्वान-स्तद्भावाध्यवसायिनः। ज्ञानस्योत्पादनादेत-ज्जात्यादेः प्रतिषेधनम् / / 1070|| "बुद्धी येऽर्था विवर्तन्ते, तानाह जननादयम्। निवृत्त्या च विशिष्टत्व-मुक्तमेषामनन्तरम्" / / 1071 / / [तत्त्वसं०का०] Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 353 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द अस्य तात्पर्यार्थः द्विविधो ह्यर्थः-बाह्यो, बुद्ध्यारुढश्च / तत्र बाह्यस्य न परमार्थतोऽभिधानं शब्दैः, केवलं तदध्यवसायिविकल्पोत्पादना- | दुपचारादुक्तग 'शब्दोऽर्थानाह' इति / उपचारस्य च प्रयोजनं जात्यभिधाननिराकरणमिति। अवयवार्थस्तु-'अन्यान्यत्वेन' इति अन्यस्मादन्यत्वं व्यावृत्तिस्तेनान्यान्यत्वेन हेतुना करणेन वा ये वृक्षादयो भावा विशिष्टा निश्चिता अन्यतो व्यावृत्ता निश्चिता इति यावत् : एतेन 'अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टान्' इत्यत्र पदे 'निवृत्ता' इति ('निवृत्त्या' इति) तृतीयार्थी व्याख्यातः। 'ध्वानः' इतिशब्दः / यस्तु बुद्ध्यारूढोऽर्थस्तस्य मुख्यत एव शब्दैरभिधानम् / 'अयम्' इति ध्वानः / अर्थान्तरनिवृत्तिविशिष्टत्वं कथमेषा योजनीयमित्याशङ्य 'निवृत्त्या विशिष्टत्वमुक्तमेषामनन्तरम्' इत्युक्तम्। एषामपि बुद्धिसमारूढानामर्थानामन्यतो व्यावृत्ततया प्रतिभासनादित्यभिप्रायः / ननु यदि न कश्चिदेव वस्त्वंशः शब्देन प्रतिपाद्यते तत्कथमुक्तमाचार्येण- "अर्थान्तरनिवृत्त्या कश्चिदेव वस्तुनो भागा गम्यते" इति, अर्थान्तरपरावृत्तदर्शनद्वारायातत्वात् बुद्धिप्रतिबिम्बकमर्थान्तरपरावृत्ते वस्तुनि भ्रान्तस्तादात्म्येनाऽऽरो पितत्व चोपचाराद् 'वस्तुनो भागः' इति व्यपदिष्टम् / ननु चार्थान्तरनिवृत्तिर्याह्यवस्तुगतो धर्मः, सा कथं प्रतिबिम्बाधिगमे हेतुभावं करणभावं वा प्रतिपद्यते येन 'निवृत्ता' इति ('निवृत्त्या' इति) उच्यत इति, उच्यते; यदि हि विजातीयाद् व्यावृत्तं वस्तु न स्यात् तदा न तत्प्रतिम्बिक विजातीयपरावृत्तवस्त्वात्मनाऽध्यवसीयतेतस्मादर्थान्तरपरावृत्तेर्हेतुभावः करणभावश्च युज्यत एव। 'नचान्यरूपमन्यादृक् कुर्याद् ज्ञानं विशेषणम्' इत्यादावपि, यदि ह्यन्यव्यावृत्तिरभावरूपा वस्तुनो विशेषणत्वेनाभिप्रेता स्यात् तदेतत् (तदैतत्) सर्व दूषणमुपपद्येत यावता वस्तुस्वरूपैवान्यव्यावृत्तिर्विशेषणत्वेनोपादीयते तेन विशेषणानुरूपेव विशेष्ये बुद्धिर्भवत्येव / तशाहि- अगोनिवृत्तियों गौरभिधीयते सोऽश्वादिभ्यो यदन्यत्वं तत्स्वभावैव नान्या; ततश्च यद्यप्यसौ व्यतिरेकेणागोनिवृत्तिः 'गौः' इत्यभिधीयते भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायाम् तथापि परमार्थतो गोरात्मगतैव सायथाऽन्यत्वम् नहि अन्य (अन्यत्वं) नाम अन्यस्माद्वस्तुनोऽन्यत्-अन्यथा तद वस्तु ततो भिन्नमित्येतन्न सिद्ध्येत् / तस्मात् विशेषणभावेऽप्यन्यव्यावृत्तेर्विशेष्ये वस्तुधीर्भवत्येव / अथ व्यतिरिक्तमेव विशेषणं लोके प्रसिद्धम्; यथा-दण्डः पुरुषस्य, व्यावृत्तिश्चाव्यतिरिक्ता वस्तुनः, तत् कथमसौ तस्य विशेषणम्? असदेतत्; नहि परमार्थेन किश्चित् कस्यचित् विशेषणम् अनुपकारकस्य विशेषणत्वायोगात्, उपकारकत्वे चाङ्गीक्रियमाणे कार्यकाले कारणस्यानवस्थानाद् अयुगपत्कालभाविनोविशेषणविशेष्यभावोऽनुपपन्नः, युगपत्कालभावित्वेऽपि तदानीं सर्वात्मना परिनिष्प”र्न परस्परमुपकारोऽस्तीति न युक्तो विशेषणविशेष्यभाव इतिसर्वभावानां स्वस्वभावव्यवस्थितेरयः शलाकाकल्पत्वात् कल्पनया अमीषां मिश्रीकरणम् / अतः परमार्थतो यद्यपि व्यावृत्तितद्वतोरभेदस्तथापि कल्पनारचित भेदमाश्रित्य विशेषणविशेष्यभावोऽपि भविष्यति / यचोक्तम्- 'यदा वाऽशब्दवाच्यत्वान्न व्यक्तीनाम-पोह्यता' इत्यादि, तत्र 'व्यक्तीनामवाच्यत्वात्' इत्यसिद्धम् / तथाहि-यद् व्यक्तीनामवाच्यत्वमस्माभिर्वर्णितं तत् परमार्थचिन्तायाम् न पुनः संवृत्यापि, तया तु व्यक्तीनामेव वाच्यत्वमविचारितरमणीयतया प्रसिद्धमिति कथं नासिद्धो हेतुः? अथ पारमार्थिकमवाच्यत्वं हेतुल्वेनोपादीयते तदाऽपोह्यत्वमपि परमार्थतो व्यक्तीनां नेष्टमिति सिद्धरााध्यता / यत्रोक्तम्- 'तदापोह्येत सामान्यम्' इत्यादि, तत्रापि 'अपोह्यत्वात्' इत्यस्य हेतोरसिद्धत्वमनैकान्तिकत्वं च, व्यक्तीनामेवा-- पोहस्य प्रतिपादितत्वात् / न चापोहेऽपि वस्तुता, साध्यविपर्यये हेतोर्बाधकप्रमाणाभावात्। यदपि- 'अभावानामपोह्यत्वं न' इत्यादि, तत्र, "नाभावोऽपोह्यते होव, नाभावो भाव इत्ययम्। भावस्तु न तदात्मेति, तस्येष्टवमपोह्यता" / / "यो नाम न यदात्मा हि, स तस्यापोह्य उच्यते। न भावोऽभावरूपश्च. तदपोहे न वस्तुता" || [तत्सर्व०का०१०८१-१०८२] 'नाभावः' इत्येवमभावो नापोह्यते येनाभावरूपतायास्त्यागः स्यात्, कि तर्हि? भावो यः स विधिरूपत्वादभावरूपविवेकनावस्थित इति सामादपोह्यत्वं तस्याभावस्येष्टत्वम् (ष्टम) तदेव स्पष्टीकृतम् 'यो नाम' इत्यादिश्लोकेन। 'तदपोहे' इति तस्याभावस्यैवमपोहे सति न वस्तुता प्राप्नोति / अत्रोभयपक्षप्रसिद्धोदाहरणप्रदर्शनेनानैकान्तिकतामेव स्फुटयति"प्रकृतीशादिजन्यत्वं, न हि वस्तु प्रसिद्ध्यति" / / "नातोऽसतोऽपि भावत्व-मिति क्लेशो न कश्चन" / (तत्त्वसं०का०१०८३-१०८४) तथाहि-प्रकृति-ईश्वर–कालादिकृतत्वं भावाना भवद्भिर्मीमांसकैरपि नेष्यत एव, तस्य च प्रतिषेधे सत्यपि यथा न वस्तुत्वमापद्यते तथा अपोह्यत्वेऽप्यभावस्य वस्तुत्वापत्तिर्न भविष्यतीत्यनेकान्तः। यदुक्तम्'तत्रासतोऽपि वस्तुत्वमिति क्लेशो महान् भवेत्' इति तदप्यनेनैवानैकान्तिकत्वप्रतिपादनेन प्रतिविहित-मिति दर्शयति–'नातोऽसतोऽपि' इत्यादिना / 'तदसिद्धौ न सत्ताऽस्ति, न चासत्ता प्रसिद्ध्यति' / / इति / अत्र अभावस्ययथोक्तेन प्रकारेणासिद्धावपि भावस्य सत्ता सिद्ध्यत्येव, तस्य स्वस्वभावव्यवस्थितत्वात् / या च भावस्य यथोक्तेन प्रकारेण सिद्धिः सैव सत्तेति प्रसिद्ध्यति। एतदेवोक्तम्"अगोतो विनिवृत्तश्च, गौर्विलक्षण इष्यते। भाव एव ततो नाय, गौरगौर्मे प्रसज्यते" / [तत्सर्व० का० 1085] 'भाव एव भवेत्' इति, एतन्नानिष्टापादनम् इष्टत्वात् / तथाहि-- अगोरूपादश्वादेर्गार्भावविशेषरूप एव विलक्षण इष्यतेनाऽभावात्मा; तेन भाव एव भवेत्, अगोतश्च गौलक्षण्यस्येष्टत्वादगोर्न गोत्वप्रसङ्गः / एतेन यदुक्तम्- 'अभावस्य च योऽभावः' इत्यादि, तत् प्रतिविहितम् / यत्रोक्तम्- 'न ह्यवस्तुनि वासना' इति, तत् असिद्धमनैकान्तिकं च / यतः"अवस्तुविषयेऽप्यस्ति, चेतोमात्रविनिर्मिता। विचित्रकल्पनाभेद-रचितेष्विव वासना"। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द ...) "ततश्च वासनाभेदाद, भेदः सद्रूपतापि वा। निराकारज्ञानाभ्युपगमेऽपि स्वगतं किशित् प्रतिनियतमनर्थेऽर्था-- प्रकल्प्यतेऽप्यपोहाना, कल्पनारचितेष्विव" / / ध्यवसायिरूपत्वं विज्ञानस्यावश्यमगीकर्तव्यमिति दर्शयति, 'तेषु' इति (तत्त्वसं० का०१०८६-१०८७) कल्पनोपरचितेष्वर्थेषु, 'तद्' इति तस्मात् तस्य वा हेतोयभिचारित्वं 'अवस्तुविषयं चेतो नास्ति' इति. एतदसिद्धम् / तथाहि- उत्पा- तद्व्यभिचारित्वम् / 'विधिरूपश्च शब्दार्थो येन नाभ्युपगम्यते' इति, द्यकथाविषयसमुद्भूतवस्त्वाकारसमारोपेण प्रवर्तत एव चेतः तथा अत्रापि न ह्यस्माभिः सर्वथा विधिरूपः शब्दार्थो नाभ्युपगम्यते-येनेतद् (चा)ऽनागतसजातीयविकल्पोत्पत्तये अनन्तरचेतसि वासनामाधत्त एव; भवताऽनिष्टत्वप्रसङ्गापादन क्रियते-किन्तुशब्दार्था (ब्दादा) ध्यवसायतः पुनरपि सन्तानपरिपाकवशात् प्रबोधकप्रत्ययमासाद्य तथाविधमेव यिनश्चेतसः समुत्पादात् संवृतो (सांवृतो) विधिरूपः शब्दार्थेऽभ्युपगम्यत चेतः समुपजायते, तद्वदपोहानामपि परस्परतो भेदः सद्रूपता च एवा तत्त्वतस्तुन किञ्चिद्वाच्यमस्ति शब्दानामिति विधिरूपस्तात्त्विको कल्पनावशाद् भविष्यतीत्यनैकान्तिकता। यय- 'शब्दभेदोऽप्यपाह- निषिध्यते:तेन सावृतस्य विधिरूपस्य शब्दार्थस्येष्टत्वात्वार्थाभिधाने निमित्तो न युक्तः' इति, अत्र विधिरूपे सत्यन्यव्यतिरेकस्य सामर्थ्यादधिगते वि (तेर्वि) धिपूर्वको “यादृशोऽर्थान्तरापोहः, (प्रतिबिम्बात्मकः)। वाच्योऽयं प्रतिपादितः / व्यतिरेको युज्यत एव / स्यादेतत् यदि विधिरूपः शब्दार्थाभ्युपगम्यते शब्दान्तरव्यपोहोऽपि, तादृगेवावगम्यते” (प्रतिबिम्बात्मकः।)। कथं तर्हि हेतुमुखे लक्षणकारेण “असम्भवोविधिः" [हेतु०] इत्युक्तम्? (तत्त्वसं० का० 1058) सामान्यलक्षणादेर्वाच्यस्य वाचकस्य वा असम्भवात्परमार्थतः,शब्दानां इति वाचकापोहपक्षेऽपि दूषणं विस्तरतः प्रतिपादितयुक्तंम द्रष्टव्यम्। विकल्पानां च परमार्थतो विषयासम्भवात् परमार्थमाश्रित्य विधरसम्भव 'अगम्यगमकत्वं स्यात्' इति, अत्र प्रयोगेऽपि यदि 'अवस्तुत्वात्' इति उक्त आचार्येण इत्यविरोधः / 'अपोहमात्रवाच्यत्वम्' इत्यादावपि सामान्येनोपादीयते तदा हेतुरसिद्धः यतः प्रतिबिम्बात्मनोर्वाच्य- एकमेवानीलानुत्पलव्यावृत्ताकारमुभयरूपं प्रतिबिम्बकं नीलोत्पलवाचकापोहयोर्बाह्यवस्तुत्वेन भ्रान्तैरवसितत्वात् सांवृतं वस्तुत्वमस्त्येव / शब्दादुदेतिनाभावमात्रम्, अतः शबलार्थाऽध्यवसायित्वमध्यवसायवअथ पारमार्थिकवस्तुत्वमाश्रित्य हेतु-रभिधीयते तदा सिद्धसाध्यता, शान्नीलोत्पलादिशब्दानामस्त्येवेति तदनुरोधात् सामानाधिकरण्यमुनहि परमार्थतोऽस्माभिः किञ्चिद्वाच्यं वाचकं चेष्यते। यत उक्तम्- पपद्यत एव / यचोक्तम्"न वाच्यं वाचकं चारित, परमार्थन किञ्चन। 'अथान्यापोहवद वस्तु वाच्यमित्यभिधीयते' इति,तत्रापि यदि हि क्षणभनिषु भावेषु, व्यापकत्ववियोगतः" / / व्यावृत्ताद् भावाद व्यावृत्ति मान्या भवेत् स्यात् तदा तद्वत्पक्षोदित(तत्त्वसं० का० 1060) दोषप्रसङ्ग : यावता नान्यतो व्यावृत्ताभावादन्या व्यावृत्तिरस्ति अपितु क्षणिकत्वेन सङ्केतव्यवहाराप्तकालव्यापकत्वाभावात् स्वलक्षणस्येति व्यावृत्त एव भावो भेदान्तरप्रतिक्षेपेण तन्मात्रजिज्ञासायां तथाऽभिधीयते; भावः / स्यादेतत् नास्माभिस्तात्त्विको वाच्यवाचकभावो निषिध्यते, तेन यथा जाती प्राधान्येव वाच्यायां पारतन्त्र्येण तद्वताऽभिधानात् किं तर्हि? तात्विकीमपोहयोरवस्तुतामाश्रित्य सांवृतमेव गम्यगमकत्वं तगतभेदानाक्षेपात तैः सह सामानाधिकरण्यादेरभावप्रसङ्ग उक्तः निषिध्यते न भाविकम् तेन (तेन न) हेतोर-सिद्धतापि (ता, नापि) तद्वदपोहपक्षे नावतरति, व्यतिरिक्तान्यापोहवतोऽनभिधानात् / न सिद्धसाध्यता प्रतिज्ञादोषो भविष्यति; द्वयोरपि हि सांवृतत्वे तात्त्विकत्वे ह्यस्मन्मते परपक्ष इव सामानाधिकरण्याभावः / तथाहि- 'नीलम्' वाऽऽश्रीयमाणे स्यादेतद् दोषद्वयमिति, नैवम्; हेतोरनैकान्तिकता- इत्युक्ते पीतादिव्यावृत्तपदार्थाध्यवसायिभ्रमरकोकिलाऽञ्जनादिषु प्रसक्तेः कल्पनारचितेषु हि महाश्वेतादिष्वर्थेषु तद्वाचकेषु च शब्देषु सशय्यमानरूपं विकल्पप्रतिबिम्बकमुदेति. तच्चोत्पलशब्देन कोकिलापरमार्थतो वस्तुत्वाभावेऽपि सांदृतस्य वाच्यवाचकभावस्य दर्शनात् / दिभ्यो व्यवच्छिद्यानुत्पलव्यावृत्तवस्तुविषये व्यवस्थाप्यमानं स्यादेतत्तत्रापि महाश्वेतादिषु सामान्य वाच्यं वाचकं च परमार्थतोऽस्त्येव परिनिश्वितात्मकं प्रतीयते; तेन परस्परं यथोक्तबुद्धिप्रतिबिम्बकापेक्षततो न तैर्व्यभिचारः, असदेतत्; सामान्यस्य विस्तरेण निरस्तत्वात्न याव्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभावान्नीलोत्पलशब्दयोर्विशेष्यविशेषणभावो न तेषु सामान्य वाच्यं वाचकं वा महाश्वेतादिष्वरस्तीति कथं ना- विरुध्यते, द्वाभ्यां वाऽनीलानुत्पलव्यावृत्तैकप्रतिबिम्बात्मकवस्तुप्रतिनैकान्तिकता हेतोः? स्यादेतत् यद्यपि तत्र वस्तुभूतं नास्ति सामान्य पादनादेकार्थवृत्तितया सामानाधिकरण्यं च भवतीति: परपक्षे तु वाच्यम् वाचकं (कं तु) महाश्वेतादिशब्दस्वलक्षणमस्त्येव, न; तद्व्यवस्था दुर्घटा। तथाहि-विधिशब्दार्थवादिपक्षे नीलादिशब्देन सर्वपदार्थव्यापिनः क्षणभङ्गस्य प्रसाधितत्वान्न शब्दस्वलक्षणस्य नीलादिस्वलक्षणेऽभिहिते 'किमुत्पलम् आहोस्विद अञ्जनम्' वाचकत्वं युक्तम्, क्षणभङ्गित्वेन तस्य सङ्केतासम्भवात् व्यवहारकालान- इत्येवमज्ञानं विशेषान्तरे न प्राप्नोति सर्वात्मना तस्य वस्तुनः न्वयाच्चेति प्रतिपादितत्वात्। प्रतिपादितत्वात्। एकस्यैकदैकप्रतिपत्रपेक्षया ज्ञाताऽज्ञातत्वविरोधान्न "तस्मात् तद्वयमेष्टव्यं, प्रतिबिम्बादि सांवृतम्। धर्मान्तरे संशयविपर्यासावित्युत्पलादिशब्दान्तरप्रयोगाकाशा तेषु तद् व्यभिचारित्वं, दुर्निवारमतः स्थितम्" / / 1064 / / प्रयोक्तुरपि न प्राप्नोति यदर्थमुत्पलादिशब्दोचारणम्-तस्य (तत्त्वसं० का०) नीलशब्देनैव कृतत्वात् / अथापि स्यात् तद् वस्त्वेकदेशेनाभिहितं 'द्वयम्' इति वाच्यं वाचक च, 'प्रतिबिम्बादि' इति आदिशब्देन | नीलशब्देन न सर्वात्मना; तेन स्वभावान्तराभिधानायापरः शब्दोऽ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 355 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द न्वेष्यते, असदेतत, न टेकस्य वस्तुनो देशाः सन्ति येनैक देशेनाभिधानं रयात् एकत्वानेकत्वयोः परस्परपरिहारस्थितलक्षणत्वात, इति यावन्तस्त एकदेशास्तावन्त्येव भवता वर तूनि प्रतिपादितानीति नैकमनेक सिद्धयेत् / स्यादेतत् न नीलशब्देन द्रव्यमभिधीयते किं तर्हि ? नीलाख्यो गुणः तत्समवेता वा नीलत्वजातिः, उत्पलशब्देनाप्युत्पलजातिरेवोच्यते न द्रव्यम: तेन भिन्ना भिधानादुत्पलादिशब्दान्तराकासा युज्यत एव / नन्वेवं परस्परभिन्नाथप्रतिपादकत्वेन नितरां नीलोत्पलशब्दयोर्न सामानाधिकरण्यम् बकुलोत्पलशब्दयोरिवैकस्मिन्नर्थे वृत्त्यभावात्। अथ नीलशब्दो यद्यपि गुणविशेषवचनस्तथापि तद्वारेण नीलगुणतजातिभ्यां सम्बद्धं द्रव्यमप्याह, तथोत्पलशब्देनापि जातिद्वारे (द्वारेण) तदेव द्रव्यमभिधीयत इति तयोरेकार्थवृत्तिसम्भवात् सामानाधिकरण्यं भविष्यति न बकुलोत्पलशब्दयोरिति, असदेतत्; नीलगुणतजातिसम्बद्धस्य द्रव्यस्य नीलशब्देन प्रतिपादनात् सर्वात्मना उत्पलश्रुतैर्वैयर्थ्यप्रसङ्गात् / स्योदतत् यद्यपि नीलशब्देन गुणतजातिमद् द्रव्यमभिधीयते तथापि नीलशब्दस्यानेकार्थवृत्तिदर्शनात् प्रतिपत्तुरुत्पलार्थ (\) निश्चितरूपा न बुद्धिरुपजायतेकोकिलादेरपि नीलत्वात्-अतोऽर्थान्तरसंशयव्यवच्छेदायोत्पलश्रुतेः प्रयोगः सार्थक एव, तदप्यसम्यक् प्रकृतार्थानभिज्ञतयाभिधानात / विधिशब्दार्थपक्षे कि सामानाधिकरण्यं न सम्भवतीत्येतदत्र प्रकृतम्, यदि चोत्पलशब्दः संशयव्यवच्छेदायैव च्याप्रियते न द्रव्यप्रतिपत्तये न तर्हि विधिः शब्दार्थ: स्यात् उत्पलशब्दन भ्रान्तिसमारोपिताकारव्यवच्छेदमात्रस्यैव प्रतिपादनात्,परस्परविरुद्ध चेदमभिधीयते- 'नीलशब्देनोत्पलादिक द्रव्यमभिधीयते अथं पं प्रतिपत्तुस्तत्र निश्चयो न जायते' इति, न हि यत्र संशयो जायते स शब्दार्थो युक्तःअतिप्रसङ्गात्, नापि निश्चयेन विषयीकृते वस्तुनि संशयोऽवकाशं लभते निश्चयाऽऽरोपमनसोबर्बाध्यबाधक भावात् / स्यादेतत् यद्यपि नीलोत्पलशब्दयोरे करिमन्नर्थे वृत्ति स्ति तदर्थयोस्तु जातिगु (योस्तु गु) णजात्यो रेकस्मिन् द्रव्ये वृत्तिरस्तीत्यतोऽर्थद्वारकमनयो: सामानाधिकरण्यं भविष्यति, तदेतदयुक्तम् अतिप्रसङ्गात एवं हि रूपरसशब्दयो रपि सामानाधिकरण्यं स्यात् तदर्थयो रूप रसयोरेकस्मिन् पृथिव्यादिद्रव्ये वृत्तेः / किञ्च-तर्हि 'नीलोत्पलम' इत्येकार्थविषया बुद्धिर्न प्राप्नोति एकद्रव्यसमवेतयोर्गुणजात्योभ्यां पृथक् पृथगभिधानात्; न चैकार्थविषयज्ञानानुत्पादे शब्दयोः सामानाधिकरण्यमस्तीत्यलमतिप्रसङ्गेन / अथापि स्यात् यदेव नीलगुण-तजातिभ्यां सम्बद्ध वस्तु न तदेवोत्पलशब्देनोच्यते; तेनोत्पलश्रुतिर्व्यर्था न भविष्यति / नन्वेवं भिन्नगुणजात्याश्रयद्रव्यप्रतिपादकत्वान्नीलोत्पलशब्दयोः कुतः सामानाधिकरण्यम् ? अथ यद्यपि यदेव द्रव्यं नीलशब्देनोच्यते-उत्पलशब्देनापि तदेव तथापि नीलशब्दो नोत्पलजातिसम्बन्धिरूपेण द्रव्यमभिधत्ते, किं तर्हि? नीलगुणतजातिसम्बन्धिरूपेणैव, तेनोत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वमस्याभिधातुमुत्पलश्रुतिः प्रवर्तमानानां (ना) नर्थिका भविष्यति, असदेतत्; न हि नीलगुणतजातिसम्बन्धिरूपत्वादन्यदेवोत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वं येन नीलतज्जातिसम्बन्धि रूपत्वाभिधाने द्रव्यस्योत्पलत्वजातिसम्बन्धिरूपत्वाभिधानं (नंन) भवेत, एकरमाद् द्रव्याद् द्वयोरपि सम्बन्धिरूपत्वयोरव्यतिरेकात् तयोरप्येकत्वमेवेत्ययुक्तमेकरू-पाभिधानेऽपररूपस्यानभिधानम्। भवतु वोत्पलत्वसम्बन्धि-रूपत्वं नीलतज्जातिसम्बन्धिरूपत्वादन्यत् तथाऽप्युत्पलश्रुतिर-नर्थिकैव / तथाहि-यत् तद् अनंशं वस्तु उत्पलजात्या सम्बद्धं तदेव नीलगुणतज्जातिभ्यां सम्बद्ध्यते, तच्चानंशत्वात सर्वात्मना नीलश्रुत्यैवाभिहितम् किमपरमनभिहितमस्य स्वरूपमस्ति यद-भिधानायोत्पलश्रुतिः सार्थिका भवेत्। उद्योतकरस्त्वाह- "निरंशं" 'वस्तु सर्वात्मना विषयीकृतं नांशेन' इत्येवं विकल्पो नावतरति, सर्वशब्दस्यानेकार्थविषयत्वात् एकशब्दस्य चावयववृत्तित्वात्" इति, असदेतत्; वाक्यार्थापरिज्ञा--नत एवमभिधानात् / तथाहि- 'प्रथमेनैव नीलशब्देन सर्वात्मना तत प्रकाशितम' इत्यस्यायमर्थो विवक्षितः--यादृशं तद् वस्तु तादृशमेवाभिहितम् न तस्य कश्चित् स्वभावस्त्यक्तः यदभिधानायोत्पलश्रुतियाप्रियेत निरंशत्वात् तस्य, इति वाक्छलमेतत्'कृत्स्नैकदेशविकल्पानुपपत्तिस्तत्र' इति, एवमन्येषामप्यनित्यादिशब्दानां प्रयोगोऽर्थकः, प्रयोगे वा पर्यायत्वमेव स्यात् तरु-- पादपादिशब्दवत / उक्तं च“अन्यथैकेन शब्देन, व्याप्त एकत्र वस्तुनि। बुद्ध्या वा नान्यविषय, इति पर्यायता भवेत्" / / 1 / / इति। अथ भवत्पक्षेऽप्येकेन शब्देनाभिहिते वस्तुनि भेदान्तरे संशयविपर्यासाभावप्रसङ्गः शब्दान्तराप्रवृत्तिप्रसङ्गश्च करमान्न भवति? संवत्या शब्दार्थाभ्युपगमान्नास्माकमयं दोषः। तथाहि-नीलशब्देनानीलपदार्थव्यावृत्तमुत्पलादिषूपप्लवमानरूपतया तेषामप्रतिक्षेपकमध्यवसितबाह्यरूपं विकल्पप्रतिबिम्बकमुपजायतेपुनरुत्पलश्रुत्या तदेवानुत्पलव्यावृत्तमारोपितबाहीक-वस्तुस्वरूपमुपजन्यते; तदेवं क्रमेणानीलानुत्पलव्यावृत्तमध्यवसितबाौकरूपं भ्रान्तं विकल्पप्रतिबिम्बकमुपजन्यत इति तदनुरोधात् सांवृतं सामानाधिकरण्यं युज्यत एव / यदुक्तम्- 'लिङ्गसङ्ख्यादिसम्बन्धोनचापोहस्य विद्यते' इति, अत्र वस्तु-धर्मत्वं लिङ्ग-सङ्ख्यादीनामसिद्धम् स्वतत्रेच्छाविरचितसङ्केत-मात्रभावित्वात् / प्रयोगः- यो यदन्वय-व्यतिरेको नानुविधत्ते नासौ तद्धर्मः, यथा शीतत्वमने:, नानुविधत्ते च लिङ्ग सङ्ग्यादिर्वरतुनोऽन्वय-व्यतिरेकाविति व्यापकानुपलब्धिः / न चायमसिद्धो हेतुः यतोयदि लिङ्गं वस्तुतो वस्तुस्यात्तदैकश्मिस्तटाख्ये वस्तुनि तटः' 'तटम्' इति लिङ्गत्रययोगिशब्दप्रवृत्तेरेकस्य वस्तुनस्रीरूप्यप्रसक्तिः स्यात् / न चैकस्य स्त्री-पुं-नपुंसकाख्यं स्वभावत्रयं युक्तम् एकत्वहानिप्रसङ्गात्, विरुद्धधर्माध्यासितस्याप्येकत्वे सर्वविश्वमेकमेव वस्तु स्यात्। ततश्च सहोत्पत्तिविनाश-प्रसङ्गः। किञ्च-सर्वस्यैव वस्तुन एकशब्देन शब्दान्तरेण वा लिङ्ग त्रय प्रतिपत्तिदर्शनात तद्विषयाणां सर्वचेतसां मेचकादि-- रत्नवच्छबलाभासताप्रसङ्गः / अथ सत्यपि लिङ्गत्रययोगित्वे सति सर्ववस्तूनां यदेव रूपं वक्तुमिष्ट प्रतिपादकेन तन्मात्रावभासान्येव विवक्षावशाचे तांसि भविष्यन्ति न शबलाभासानि; ननु यदि 'विवक्षावशादेकरूपाणि चेतांसि भवन्ति' इत्यङ्गीक्रियते तदा तानि त्र्यात्मकवस्तुविषयाणि न प्राप्नुवन्ति तदाकारशून्यत्वात्, शब्दवि Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द षये / योऽपि मन्यते "संस्त्यान-प्रसवस्थितिषु यथाक्रम स्त्रीपुंनपुंसकव्यवस्थाति (स्था" इति) तस्यापि तन्न युक्तम्; यतो यदि स्थित्याद्याश्रया लिङ्ग व्यवस्था तदा तटशृङ्खलादिवत् सर्वपदार्थेष्वविभागेन त्रिलिङ्गताप्रसक्तिः स्थित्यादेविद्यमानत्वात्-अन्यथा 'तट:' 'तटी' 'तटम्' इत्यादावपि लिङ्ग त्रयं न स्यात विशेषाभावात्इत्यतिव्यापिता लक्षणदोषः / व्यभिचारदर्शनाद् वाऽव्यापिता चअसत्यपि हि स्थित्यादिके शशविषाणादिष्वसद्रूपेसु (षु) 'अभावः' निरुपाख्यम् 'तुच्छता' इत्यादिभिः शब्दैः लिङ्ग त्रयप्रतिपत्तिदर्शनात् / इतश्चाव्यापिनीस्थित्यादिष्वेव प्रत्येकं लिङ्गत्रययोगिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् / तथाहि-प्रसव उत्पादः, संस्त्यानं विनाशः, आत्मस्वरूप च स्थितिः; तत्र प्रसवे स्थिति संस्त्यानयोरभावात् कथं 'उत्पादः''उत्पत्तिः' 'जन्म' इत्यादेः स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गस्य शब्दस्य प्रवृत्तिर्भवेत्? तथा, संस्त्याने स्थितीप्रसवयोरभावात् कथं 'तिरोभूतिः' 'विनाशः' 'तिरोभवनम्' इत्यादिभिःशब्दैर्व्यपदिश्यते 'संस्त्यानम्' इत्यनेन च? तथा, स्थितौ संस्त्यान-प्रसवयोर सम्भवात् 'स्थितिः' 'स्थानम्' 'स्वभावः' चेत्यादिभिः शब्दैः कथमुच्यते ? अथ स्थित्यादीनां परस्परमविभक्तरूपत्वात प्रत्येकमेषु लिङ्ग त्रययोगिता, ननु यद्येषां परस्परमविभक्तं रूपं तदैकमेव परमार्थतो लिङ्ग स्यात् न लिङ्ग त्रयम् / अन्यस्त्वाह- "स्त्रीत्वादयो गोत्वादय इव सामान्यविशेषाः" तत्र पक्षे सामान्यविशेषाणामभावा(वात्) स्त्रीत्वादीनामपि तद्रूपाणामभाव इत्यसम्भवि लक्षणम् / किञ्च- तेष्वेव सामान्यविशेषेष्वन्तरेणाप्यपरं सामान्यविशेष 'जातिः' 'भावः' 'सामान्यम्' इत्यादेः स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्ग स्य प्रवृत्तिदर्शनात् अव्यापिता च लक्षणस्य, न हि सामान्येष्वपराणि सामान्यानि “निःसामान्यानि" इति वैशेषिकसिद्धान्तात् / यदा तु सामान्यस्याप्यपराणि सामान्यानीष्यन्ते वैयाकरणः-यथोक्तम्"अर्थजात्यभिधानेऽपि, सर्वे जातिविधायिनः / व्यापारलक्षणा यस्मात्,पदार्थाः समवस्थिताः" / / (वाक्यप० तृ० का० श्लो०११) न हि शास्त्रान्तरपरिदृष्टा जातिव्यवस्था नियोगतो वैयाकरणैरभ्युपगन्तव्या, प्रत्ययाभिधानाऽन्वयट्यापारकार्योन्नीयमानरूपा हि जातयः न हि तासामियत्ता काचित, अतो यथोदितकार्यदर्शनात सामान्याधारा जातिः सम्प्रति ज्ञायते तथाभूतप्रत्ययशब्दनिबन्धनम्। 'व्यापारलक्षणा' इति अभिधानप्रत्ययव्यापारतो व्यवस्थितलक्षणा इत्यर्थः तदाऽनन्तरोक्तमेव दूषणम्- 'सामान्यस्याभावात्' इत्यादि / अपि च, न हि असत्सु शशविषाणादिषु जातिरस्ति वस्तुधर्मत्वात् तस्याः, इति तेषु 'अभावआदिशब्दप्रयोगो न स्यात् / तस्मादव्यपिनी लिङ्गव्यवस्थेति इच्छारचित-सङ्केतमात्रभाविन्येवेयं लिङ्ग त्रयव्यवस्थेति स्थितम् / सङ्ख्याया अपि वस्तुगतान्वयव्यतिरेकानुविधानाभावो नासिद्धः / तथाहि-सामायिक्ये (क्येव) न वास्तवी दारादिष्वसत्यपि वास्तवे भेद विवक्षावशेनोपकल्पित्वात्; अन्यथा बहुत्वैकत्वादिसङ्ख्या यस्तुगतभेदाभेदलक्षणा यदि स्यात् तदा 'आपः' 'दाराः' 'सिकताः' 'वर्षाः' इत्यादावसत्यपि वस्तुनो भेदे बहुत्वसङ्ख्या कथं प्रवर्तते? तथा, 'वनम्' 'त्रिभुवनम्' 'जगत्' 'षण्णगरी' इत्यादिष्वसत्यप्य-भेदेऽर्थस्यकत्वसङ्ख्या न व्यपदिश्येत; अतो नासिद्धता हेतोः / नाप्यनेकान्तिकः सर्वस्य सर्वधर्मत्वप्रसङ्गात्, सपक्षे भावाचन विरुद्धः। अत्र च कुमारिलो हेतोरसिद्धता प्रतिपादयन्नाह-दारादिशब्दः कदाचित् जातौ प्रयुज्यते कदाचित् व्यक्ती, तत्र यदा जातौ तदा व्यक्तिगत सङ्ख्यामुपादाय वर्तते व्यक्तयश्च वढयो योषितः,यदा तुव्यक्तौ प्रयुज्यते तदा तद्व्यक्त्वयवानां पाणिपादादीनां बहु-त्वसङ्ख्यामादाय वर्तत। वनशब्देन तु धवखदिरपलाशादिलक्षणा व्यक्तयस्तत्सम्बन्धिभूतवृक्षत्वजातिगतसङ्ख्याविशिष्टाः प्रतिपाद्यन्ते तेन 'वनम्' इत्येकवचन भवति जातिगतैकसंख्याविशिष्टद्रव्याभिधानात् अथवा-धवादिव्यक्तिसमाश्रिता जातिरेव 'वन' शब्देनोच्यते; तेनैकवचनं भवति जातेरेकत्वादिति। नन्वेवं 'वृक्षः' 'घटः' इत्यादावप्येकवचनमुच्छिन्नं स्यात् सर्वत्रैवास्य न्यायस्य तुल्यत्वात्। तथाहि-अत्रापि शक्यमेवं वक्तुम्-'जातौ व्यक्ती वा वृक्षादिश्चेत् प्रयुज्यते' इत्यादि। अथ मतम्-वृक्षादौ व्यक्तेरवयवाना च संख्याविवक्षानास्ति, यद्येवं न तर्हि वस्तुगतान्वयाद्यनुविधायिनी संख्या,विवक्षाया एवान्वयव्यतिरेकानुविधानात् ततश्च सैव 'दार:' इत्यादिषु बहुवचनस्य निबन्धनमस्तु भेदाभावेऽप्येकमपि वस्तु बहुत्वेन विवक्ष्यते इति नाऽसिद्धता हेतोः। यचोक्तम्-'वनशब्दो जातिसंख्याविशेषिता व्यक्तीराह' इति, तत्र,न जातेः संख्याऽस्ति द्रव्यसमाश्रितत्वादस्याः / अथ वैशेषिकप्रक्रिया नाश्रीयते तदा भावे संख्यायास्तया कथं धवादिव्यक्तियो विशषिता सिद्धयन्ति ? स्यादेतत् सम्बद्धसम्बन्धात् तत्सम्बन्धतो वा सिद्ध्यन्ति। तथाहि-यदा जातेर्व्यतिरेकिणी संख्या तदैकत्वसंख्यासम्बद्धया जात्या धवादिव्यक्तीना सम्बन्धात् पारम्पर्येण तया धवादिव्यक्तयो विशेष्यन्ते, यदा तु जातेरव्यतिरिक्तैव सङ्ख्या तदा साक्षादेव सम्बन्धात् तया विशेष्यन्त इतिजातिसङ्ख्याविशेषिताः सिद्ध्यन्ति,असदेतत्, यतो यदि सम्बद्धसम्बन्धात् सम्बन्धतो वा धवादिव्यक्तिषु वनशब्दस्य प्रवृत्तिस्तदेकोऽपि पादपो 'वनम्' इत्युच्येत प्रवृत्तिनिमित्तस्य विद्यमानत्वात् / तथाहि- बहवोऽपि धवादयो जातिसङ्ख्यासम्बन्धादेव 'वनम्' इत्युच्यते नान्यतः स च सम्बन्धः एकस्मिन्नपि पादपेऽस्तीति किमिति नताच्येत अथवा-- 'धवादिव्यक्तिसमाश्रिता' इत्यत्र पक्षे एकस्यापि तरोः 'वनम्' इत्यभिधानं स्यात्। तथाहि यैवासौ वनशब्देनजातिर्बहुव्यक्त्याश्रिताऽभिधीयते सैवैकस्यामपि धवादिव्यक्तौ व्यवस्थिता, ततश्च वनधियों निमित्तस्य सर्वत्र तुल्यत्वाद् एकत्रापि पादपे किमिति वनधीन भवेत्? क्रियाकालादीनां त्वसत्त्वादेवायुक्तं वस्तुधर्मत्वम, भवतु वा वस्तुधर्मत्वमेषां तथापि प्रतिबिम्बलक्षणस्यापोहस्य भ्रान्ति| (न्तैबा) ह्यव्यक्तिरूपत्वेनावसितत्वादध्यवसायववशाद् व्यक्तिद्वारको लिङ्गसङ्ख्यादिसम्बन्धो भविष्यति,तेन यदुक्तम् 'व्यक्तेश्चा-व्यपदेश्यत्वात्, तद्वारेणापि नास्त्यसौ' इति, तदनैकान्तिकम् संवृतिपक्षे चासिद्धम् Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 357 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द "व्यक्तिरूपावसायेन, यदि वाऽपोह उच्यते। तल लिङ्गाद्यमिसम्बन्धो, व्यक्तिद्वारोऽस्य विद्यते" || [तत्त्वसं० का०११४३ ] इति। 'अपाह उच्यते' इति 'शब्देन' इति शेषः, 'तद्' इति तस्मात्. 'अस्य' इत्यपाहस्य / 'आख्यातेषु न च' इति, अत्र आख्यातेष्वन्यनिवृत्तिर्न संप्रतीयते इत्यसिद्धम् / तथाहि-जिज्ञासिते करिमश्चिदर्थे श्रोतुर्बुद्धि (द्धे)निवेशाय शब्दः प्रयुज्यतेव्यवहर्तृभिः न व्यसनितया: तेनाभीष्टाथ'प्रतिपत्तौ सामर्थ्यादनभीष्टव्यवच्छेदः प्रतीयत एव, अभीष्टानभीष्टयोरन्यान्यव्यवच्छदरूपत्वात्। सर्वमेवाभीष्टं यदि स्यात् तदा प्रतिनियतशब्दार्थो न प्राप्नोति इति या च कस्यचिदर्थस्य परिहारेण श्रोतुः कचिदर्थे शब्दात् प्रवृत्तिः सा न प्राप्नोति; तस्मात् 'सर्वमेवाभीष्टम्' इत्येतदयुक्तम्, अत: 'पचति' इत्यादिशब्दानामनभीष्ट व्यवच्छेदः सामात स्फुटमवगम्यत एव"तथाहि--पचतीत्युक्ते, नोदासीनोऽवतिष्ठते। भुड ते दीव्यति वा नति, गम्यतेऽन्यनिवर्तनम्" / [तत्त्वसं०का० 1146] तेन 'पर्युदासरूपं हि निषेध्यं तत्र न विद्यते' इति यदुक्तम् तदसिद्धम्। यम- 'पचतोत्यनिषिद्ध तु,स्वरूपेणैव तिष्ठति' / इति / तत्र ववचनव्याधातः / तथाहि- 'पचति' इत्येतस्यार्थ 'स्वरूपेणैव' इत्यनेनावधारणे नावधारितरूप दर्शयता 'पचति' इत्येतस्यान्यरुपनिषेधेना-मस्थितिरिति दर्शितं भवति; अन्यथा 'स्वरूपेणेव' इत्येतदवधारण भवत्प्रयुक्तमनर्थकं स्यात् व्यवच्छेद्याभावात् / 'साध्यत्वप्रत्ययश्च' इति, अत्रापि यद्यपोहो भवता निरू (रु) पाख्यस्वभावतया गृहीतस्तत्कथमिदमुच्यते 'निष्पन्नत्वात' इति, न ह्याकाशोत्पलादीनां काचिदस्ति निष्पत्तिः सर्वोपाख्याविरहलक्षणत्वात् तेषाम् / स्थादेतत्यद्यप्यसौ निरुपाख्यः परमार्थतस्तथापि भान्तः प्रतिपत्तृभियाह्यरूपतयाऽध्यवसितत्वादसौ सोपाख्यत्वेन ख्याति; ननु यद्यसौ सोपाख्यत्वेन ख्याति तथाऽपि किमत्र प्रकृतार्थानुकूलं जातम्? वस्तुभिस्तुल्यधर्मत्वम्, एतेन यथा वस्तु निष्पन्नरूपं प्रतीयते तथाऽपोहोऽपि वस्तुभिस्तुल्यधर्मतयाख्याते (तो) निष्पन्न इव प्रतीयत इति सिद्ध 'निष्पन्नत्वात्' इति वचनम्। यद्येवं भवत्यै (त) व साध्य [ध्यत्व] प्रत्ययस्य भूताऽऽदिप्रत्ययस्य च निमित्तमुपदर्शितमिति न वक्तव्यमेतत् 'निर्निमित्तं प्रसज्यते' इति / यदपि 'विध्यादावर्थ राशौ च, नाऽन्याऽपोहनिरूपणम्' / इति परेणोधतम्, तत्र 'विध्यादेरर्थस्थ निषेध्यादपि व्यावृत्ततयाऽवस्थितत्वात् तत्प्रतिपत्ती सामर्थ्यादविवक्षितं नास्तिताऽऽदिनिषिध्यत इत्यस्त्येवात्र 'अन्यापोहनिरूपणम्' / 'नञश्चापि नञआयुक्तौ' इति, अत्रापि"नासौ न पचतीत्युक्ते, गम्यते पचतीति हि। औदासीन्यादियोगश्च,तृतीये नञि गम्यते" / / "तुर्ये तुतद्विविक्तोऽसौ. पचतीत्यवसीयते। तेनात्र विधिवाक्येन सममन्यनिवर्तनम्" / / [तत्त्वसं०का०११५७-११५८] 'तुर्ये' इति चतुर्थे "चतुरश्छयतौ आद्यक्षरलोपश्च" [पाणि० अ०५ पा० 2 सू० 51 पार्ति० सिद्धान्त० पृ० 266] इत्यनेन पूरणार्थ 'यत्' | प्रत्ययविधानात्। 'तद्विविक्तोऽसौ' इति औदासीन्यादिविविक्त (क्तः), विधिवाक्येन सममन्यनिवर्तनम्' इति यथा 'पचति इत्यादौ विधिवाक्ये सामर्थ्यादौदासीन्यादिनिवृत्तिर्गम्यते तथा द्वितीयेऽपि नञि इति सिद्धमत्राप्यन्यनिवर्तनम्। स्पष्टार्थं तु नचतुष्टयोदाहरणम्। 'चादीनां नव्योगो नास्ति' इति,अत्र“समुच्चयादिर्यश्चार्थः, कश्चिच्चादेरभीप्सितः। तदन्यस्य विकल्पादे-भवेत् तेन व्यपोहनम्" / / [तत्त्वसं० का० 1156] आदिशब्देना (न) 'वा' शब्दस्य विकल्पोऽर्थः, 'अपि' शब्दस्य पदार्थासम्भवानाऽ(र्थसम्भावनाऽ) न्ववसर्गादयः, 'तु' शब्दस्य विशेषणम्, 'एव' कारस्यावधारणमित्यादर्ग्रहणम् / 'तदन्यस्य' इति तस्मात् समुच्चयादन्यस्य, 'तेन' इति चादिना। 'वाक्यार्थेऽन्यनिवृत्तिश्च व्यपदेष्टुं न शक्यते' इति, अत्रापि कार्यकारणभावेन सम्बद्धा एव पदार्था वावयार्थः यतो न पदार्थव्यतिरिक्तो निरवयवः शबलाऽऽत्मा वा कल्माषवर्णप्रख्यो वाक्यार्थोऽस्ति, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तादृशस्यानुपलब्धेः पदार्थस्य चापोहरूपत्वं सिद्धमेव। तथाहि- 'चैत्र ! गामानय' इत्यादिवाक्ये चैत्रादिपदार्थव्यतिरेकेण बुद्धौ नान्योऽर्थः परिवर्तते चैत्राद्यर्थगतौ च सामर्थ्यादचैत्रादिव्यवच्छेदो गम्यते; अन्यथा यद्यन्यकांदिव्यवच्छेदो नाभीष्टः स्यात् तदा चैत्रादीनामुपादानमनर्थकमेव स्यात्। ततश्च न किञ्चित् कश्चिद् व्यवहरेदिति निरीहमेव जगत् स्यात्। 'अनन्यापोहशब्दादी वाच्यं न च निरूप्यते' इति, अत्र, नात्र भवदभिमतो जात्यादिलक्षणो विधिरूपः शब्दार्थः परमार्थतोऽवसीयते जात्यादेनिषिद्धत्वात्। “किन्तु विध्यवसाय्यस्माद, विकल्पो जायते ध्वनेः। पश्चादपोहशब्दार्थ-निषेधे जायते मतिः” / [तत्त्वसं० का०११६४] यद्यनपोहशब्दादपोहशब्दार्थनिषेधे मतिजार्यते इतीष्यते न त - पोहशब्दार्थोऽभ्युपगन्तव्यः तस्य निषिद्धत्वात्, असदेतत्; "स त्वसंवादकस्तादृग, वस्तुसम्बन्धहानितः। न शाब्दाः प्रत्ययाः सर्वे, भूतार्थाध्यवसायिनः" / / [तत्त्वसं० का० 1165] 'सः' इति अनन्यापोहशब्दादिः, 'असंवादकः' इति न संवदतीत्यसंवादकः, न विद्यते त्रा (वा) संवादो (संवादोऽस्येत्यसंवा) दकः / कस्मात्? 'वस्तुसम्बन्धहानितः' तथाभूतवस्तुसम्बन्धाभावात् पूर्व हि जात्यादिलक्षणस्य शब्दार्थवस्तुनो निषिद्धत्वात् / यद्येवं तर्हि कथमनन्यापोहशब्दादिभ्योऽपोहशब्दार्थनिषेधे मतिरुपजायत इति, उच्यते, वितथविकल्पाभ्यासवासनाप्रभवतया हि केचन शाब्दाः प्रत्यया असद्भूतार्थनिवेशिनो जायन्त एव इति न तद्वशाद् वस्तूनां सदसत्ता सिद्ध्यति / यच 'प्रमेयज्ञेयशब्दादेः' इति, अत्र कस्य प्रमेयादिशब्दस्यापोह्य नास्तीत्यभिधीयते? यदि तावदवाक्यस्थप्रमेयादिशब्दमाश्रित्योच्यते तदा सिद्धसाध्यता, केवलस्य प्रयोगाभावादेव निरर्थकत्वात् यतः श्रोतृजनानुग्रहाय प्रेक्षावद्भिः शब्दः प्रयुज्यते न व्यसनितया, न च केवलेन प्रयुक्तेन श्रोतुः कश्चित् सन्देह-विपर्यासनिवृत्तिलक्षणोड Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 358 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सह नुग्रहः कृतो भवेत्। तथाहि-यदि श्रोतुः कचिदर्थे समुत्पन्नी संशय- तदभ्युपगमे च सामर्थ्यात् साकारमेव ज्ञानमभ्युपगतं स्यात् आकारविपर्यासौ निवर्त्य निस्सन्दिग्धप्रत्ययमुत्पादयेत् प्रतिपादकः एवं व्यतिरेकेणान्यस्य स्वभावविशेषत्वेनावधारयितु-मशक्य-वात्, अतो तेनास्यानुग्रहः कृतो भवेत् नान्यथा। नच केवलेन शब्देन प्रयुक्तेन भवता 'स्वभावविशेषः' इति स एव शब्दान्तरेणोक्तः अस्माभिस्तु तथाऽनुग्रहः शक्यते कर्तुम, तस्मात् संशयादिनिवर्त्तने निश्वयोत्पादने 'आकारः' इति केवलं नाम्नि विवादः / ‘एवमित्थम्' इत्यादावपि धश्रोतुरनुग्रहात् शब्दप्रयोगसाफल्यमिति वाक्यस्थस्येवास्य प्रयोगः / 'एवमेतनवम्' इति वा 'प्रकारान्तरमारोपितमेवम्' इत्यादिशब्दै~अथ वाक्यस्थमेव ज्ञेयादिशब्दमधिकृत्योच्यते, तद् असिद्धभ, तत्र वच्छिद्यमानं स्फुटतरमवसीयते चेति नाव्यापिता शब्दार्थव्यवस्थायाः। हि वाक्यस्थेन प्रमेयादिशब्देन यदेव मूढमतिभिः संशयरथान मिप्यते एवं कुमारिलेनोक्तं दूषणं प्रतिविहितम्। तदेव निवर्त्यत इत्यतोऽ-सिद्धमेतत् 'प्रमेयादिशब्दानां निवर्त्य नास्ति' (उद्द्योतकरोक्तानामाक्षेपाणां प्रतिविधानम्)इति; अन्यथा यदि श्रोता न कृचिर्थ संशेते सत् किमिति इदानीमुद्द्योतकरेणोक्तं प्रतिविधीयते-तत्र युदक्तम- 'सर्वशपरस्मादुपदेशमपेक्षते? नि-श्चयार्थी हि परं पृच्छति अन्यथोन्मत्तः ब्दस्य कश्चार्थो व्यवच्छेद्यः प्रकल्पयते' इति, अत्रापि ज्ञेयादि-पदवत् स्यात्।यदिनाम श्रोतुराशङ्कास्थानमस्तितथापि शब्देन तन्त्र निवर्यंत केवलस्य सर्वशब्दस्याप्रयोगात् वाक्यस्थस्यैव नित्यं प्रयोग इति यदेव इत्येतच न वक्तव्यम्, श्रोतृ संस्कारायैव शब्दानां प्रयोगात् मूढमतेराशङ्कास्थानं तदेव निवर्त्य मस्ति।तथाहितदसंस्कारकं वदतो वक्तुः-अन्यथाउन्मत्तताप्रसक्तिः। तथाहि- "सर्वे धर्मा निरात्मानः,” सर्वे या पुरुषा गताः'। 'किं क्षणिकाऽनात्मादिरूपेण ज्ञेया भावाः, आहोश्विन्न' किं सामस्त्यं गम्यते तत्र,कश्चिदंशस्त्वपोह्यते" / / सर्वज्ञचेतसा ग्राह्याः उतन' इत्यादि-संशयोद्धती 'क्षणिकत्वादिरूपेण (तत्त्वसं० का० 1186) ज्ञेयाः सर्वधर्माः' तथा 'सर्वज्ञज्ञानविज्ञेयाः' इतिसंशयव्युदा- कोऽसावंशोऽपोह्यतेऽत्र इति चेत्, उच्यते-- सार्थ शब्दाः प्रयुज्यन्त इति / यदि(द) क्षणिकत्वाऽज्ञयत्वादि "केचिदेव निरात्मानो, बाह्या इष्टा घटादयः। समारोपितं तद् निवर्त्यते,क्षणिकत्वादिरूपेण तेषां प्रमाणसिद्धवात्। गमनं कस्यचिच्चैव, भ्रान्तैस्तद्विनिवर्त्यते"। अथ कि मनित्यत्वेन शब्दाः प्रमेयाः' इति आहोश्चिन्न' इति प्रस्तावे (तत्त्वसं० का०११८७) 'प्रमेयाः' इति प्रयोगे प्रकरणानभिज्ञस्यापि प्रतिपत्तुः 'प्रमेयाः' इति 'एकाद्यसर्वम्' इत्यादावपि यदि हि सर्वस्याङ्गस्य प्रतिषधो वाक्यकेवलं शब्दश्रवणात्प्लवमानरूपा शब्दादिबुद्धिरुपजायत एव। तद् स्थे सर्वशब्दे विवक्षितः स्यात् तदा स्वार्थोऽपोहः प्रसल्यते यावता यदि केवलस्य शब्दस्यार्थो नास्त्येव तत् कथमर्थप्रतिपत्तिर्भवति? नैव यदेव मूढधिया शङ्कितं तदेव निषिध्यत इति कुतः स्वार्थाकेवलशब्दश्रवणादर्थप्रतिपत्तिः किमिति वाक्येषपलब्धस्यार्थवतः पवादित्वदोषप्रसङ्गः? एवं व्यादिशब्देष्वपि वाच्यम् / यच्चोक्तम्शब्दस्य सादृश्येनापहृतबुद्धेः केवलशब्दश्रवणादर्थ प्रति- 'किं भावोऽथाभावः' इत्यादि, तत्रापि यथाऽसौ बाह्यरूपतया पत्त्यभिमानः। तथाहि-येष्वेव वाक्येषु 'प्रमेय' शब्दमुपलब्धवान् श्रोता भ्रान्तैरवसीयते न तथा स्थित इति बाह्यरूपत्वाभावान्न भावः, न तदर्थेष्वेव सा बुद्धिरप्रतिष्ठितार्था प्लवमानरूपा समुपजायते, तच चाभावो बाह्यवस्तुतयाऽव्य (ध्य) वसितत्वात् इति कथ 'यदि भावः घटादिशब्दानामपि तुल्यम् / तथाहि- 'किं घटेनोदकमानयामि, स किं गौः' इत्यादि (दे) विपक्षभाविनः 'प्रेषसम्प्रतिणत्योरभावः' उताञ्जलिना' इति प्रयोगे प्रस्तावानभिज्ञस्य यावत्सु वाक्येषु तेन इत्यादेवाभावपक्षभाविनो दोषस्यावकाशः? अथ पृथयत्यैकत्वा'घटेन' इति प्रयोगो दृष्टस्तावत्स्वर्थेषु आकाङ्गावती पूर्ववाक्या- दिलक्षणः कस्मान्न भवति? व्य-तिरको (काs) व्यतिरेकानुसारादेव प्रतिपत्तिर्भवतीति घटादिशब्दा (शब्दा इव) विशिष्टा- ऽऽश्रिताऽनाश्रितत्वादिवस्तुगतधर्माणां कल्पनाशिल्पिघटितचिर्थवचनाः प्रमेयादिशब्दाः। यदुक्तम्- 'अपोहकल्पनायां च' इत्यादि, ग्रहेऽपोहेऽसम्भवात् / यच्चोक्तम्- ‘क्रियारूपत्वादपोहस्य विषयो तत्र, वस्त्वेव ह्यध्यवसायवशाच्छब्दार्थत्वेन कल्पितं यद् विवक्षितं वक्तव्यः' इति, तदसिद्धम्; शब्दवाच्यस्यापोहस्य प्रतिबिम्बानावस्तु, तेन तत्प्रतीतो सामर्थ्यादविवक्षितस्य व्यावृत्तिरधिगम्यत त्मकत्वात् / तच प्रतिबिम्बकम् अध्यवसितबाह्यवस्तुरूपत्वाद् न एवेति नाव्यापिनी शब्दार्थव्यवस्था। यदेव च मूढमतेराशङ्कास्थानं प्रतिषेधमात्रम; अत एव 'किं गोविषयः अथाऽगोविषयतः (षयः)' तदेवाधिकृत्योक्तमाचार्यण- 'ज्ञे (अज्ञे) यं कल्पितं कृत्वा इत्यस्य विकल्पद्वयस्यानुपपत्तिः गोविषयत्वेनैव तस्य विधिरूपतयातव्यवच्छेदेन ज्ञेयेऽनुमानम्' [हेतु०] इति / 'ज्ञानाकारनिषेधाच' ऽध्यवसीयमानत्वात्।यचोक्तम्-केन ह्यगोत्वमांसक्तं, गोर्येनैतदइत्यादी ज्ञानाकारस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्ष-सिद्धत्वात् कथमभावः? पोह्यते' इति, अत्रापि, यदि हि प्राधान्येनान्यनिवृत्तिमेव शब्दः तथाहि-स्वप्नादिषु अर्थमन्तरेणापि निरालम्बनमागृहीतार्थाकार- प्रतिपादयेत् तदैतत् स्यात् यावतार्था (र्थ) प्रतिबिम्बकमेव शब्दः समारोपकं ज्ञानमागोपालमतिस्फुटं स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धम्। न च करोति, तद्गतौ च सामर्थ्यादन्यनिवर्तनं गम्यत इति सिद्धान्तानदेशकालान्तरावस्थितोऽर्थस्तेन रूपेण संवेद्यत इति युक्तं वक्तुम, भिज्ञतया यत् किञ्चिदभिहितम् / व्यतिरेकाऽव्यतिरेकादिविकल्पः तस्य तद्रूपाभावात्; न चान्येन रूपेणान्यस्य संवेदनं युक्तम् पूर्वमेव निरस्तः / यदुक्तम्-'किमयमपोहो वाच्यः' इत्यादि, तत्राअतिप्रसङ्गात् / किश-अवश्यं भवद्भिनिस्यात्मगतः कश्चिद् न्यापोहे 'वाच्यत्वम्' इति विकल्पो यद्यन्यापोहशब्दमधिकृत्याभिविशेषोऽर्थकृतोऽभ्युपगन्तव्यः येन बोधरूपतासाम्येऽपि प्रतिविषयं धीयते तदा विधिरूपेणेवासौ तेन शब्देन वाच्य इत्यभ्युपगमान्ना'नीलस्येदं संवेदनम् न पीतस्य' इति विभागेन विभज्यते ज्ञानमः | निष्टापत्तिः / तथाहि- 'किं विधिः शब्दार्थः आहोश्विदन्या Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 356 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सह पोहः' इति प्रस्तावे 'अन्यापोहः शब्दार्थः' इत्युक्ते प्रतिपत्तुर्यथो- वा न तद्व्यवहारकालेऽनुभूयते तस्य क्षणक्षयित्वेन चिरनिरुद्धत्वात् क्तप्रतिबिम्बलक्षणान्यापोहाध्यवसायी प्रत्ययः समुपजायते अर्थानु यच्च व्यवहारकालेऽनुभूयते न तत् सङ्केतकालेऽदृष्टम् अन्यस्यैव (र्थात् तु) विधिरूपशब्दार्थनिषेधः / अथ घटादिशब्दमधिकृत्य, तदानीमनुभूयमानत्वात्, न चान्यत्र सङ्केतादन्येन व्यवहारो युक्तः तत्रापि यथोक्तप्रतिबिम्बलक्षणोऽपोहः साक्षाद् घटादिशब्दरुप- अतिप्रसङ्गात, असदेतत्; यतो न परमार्थतो ज्ञानाकारोऽपि शब्दाना जन्यमानत्वाद् विधिरूप एव तैः प्रतिपाद्यते, सामर्थ्यात् त्वन्य वाच्यतयाऽभीष्टः येन तत्र सङ्केतासम्भवो दोषः प्रेर्यते; यतः सर्व एवायं निवृत्तेरधिगम इति नानिष्टाऽऽपत्तिः। न चाप्यलवस्थादोषः, साम शाब्दो व्यवहारः स्वप्रतिभासानुरोधेन तैमिरिकद्वयद्विचन्द्रदर्शनवद् दिन्यनिवृतेर्गम्यमानत्वात् न तु वाच्यतया / अवाच्यपक्षस्या भ्रान्त इष्यते, केवलमर्थशून्याभिजल्पवासनाप्रबोधाच्छब्देभ्योनङ्गीकृतत्वादेव न तत्पक्षभाविदोषोदयावकाशः। 'अपि चैकत्व ऽर्थाध्यवसायिविकल्पमात्रोत्पादनात् तत्प्रतिबिम्बकं शब्दानां नित्यत्व' -इ-यादावपि यदि पारमार्थिकैकत्वाद्युपवर्णनं कृतं स्यात् वाच्य मित्यभिधीयते जननात् न त्वभिधेयतया / तत्र यद्यपि तदा हास्यकरणं भवतः स्यात्; यदा तु भ्रान्तप्रतिपत्रनुरोधेन स्वस्यैवावभासस्य वक्तृश्रोतृभ्यां परमार्थतः संवेदनम् तथाऽपि काल्पनिकमेव तद् आचार्येणोपवर्णितं तदा कथमिव हास्यकरण तैमिरिकद्वयस्येव भ्रान्तिबीजस्य तुल्यत्वात् द्वयोरपि वक्तृश्रोत्रोमवतरति विदुषः किन्तु भवानेव विवेक्षितमर्थमावज्ञाय दूषयन् बर्बाह्यार्थव्यवस्थाध्यवसायः तुल्य एव / तथाहि-वक्तुरयमभिमानो विदुषामतीव हास्यास्पदमुपजायते। तस्माद्येष्वेव शब्देषु नञ्योगः' इत्यादावपि, न केवल यत्र नज्योगस्तत्रान्यविनिवृत्त्यंशोऽवगम्यते, वर्तत 'यमेवाहमर्थं प्रतिपद्येतमेवायं प्रतिपाद्यते' एवं श्रोतुरपियोज्यम्। यत्रापि हि नञ्योगो नास्तितत्रापि गम्यत एव' इति स्ववाचैवैतद् भवता एकार्थाध्यवसायित्वं कथं वक्तृ-श्रोत्रोः परस्परं विदितम् इति न प्रतिपादितम् 'स्वात्मैव गम्यते' इत्यवधारणं कुर्वता; अन्यथा वाच्यम्, यतो यदि नाम परमार्थतो न विदितम् तथापि भ्रान्तिबीजस्य ऽवधारणवैयर्थ्य-मेव स्यात् यतः 'अवधारणसामर्थ्यादन्यापोहोऽपि तुल्यत्वादस्त्येव परमार्थतः स्वसं विदितं प्रतिबिम्बकम् / गम्यते' इति र फुटतरमेवावसीयते। न च वन्ध्यासुतादिशब्दस्य बाह्य स्वप्रतिभासानुरोधेन च तैमिरिकद्वयवद्भ्रान्त एव व्यवहारोऽयमिति सुतादिकं वस्त्वन्यव्यावृत्तमपोहाश्रयो नास्तीति किमधिष्ठानोऽपोहो निवेदितम् तेनैकार्थाध्यवसायवशात् सङ्केतकरणमुपपद्यत एव न वाच्य इति वक्तव्यम्, यतोन तद्विषयाः शब्दा जात्यादिवाचकत्वेना- चाप्यानर्थक्यं संकेतस्य सङ्केतव्यवहारकालव्यापक त्व (त्वं) शङ्कयाः 'वस्तुवृत्तीनां हि शब्दानां किं रूपमभिधेयम्, आहोश्वित् प्रतिबिम्बे वक्तृश्रोत्रोरध्यवसायात् न परमार्थतः। यदुक्तम्प्रतिबिम्बम्' इत्याशङ्का स्यादपि, अभावस्तु वस्तुविवेकलक्षण एवेति "व्यापकत्वं च तस्येदमिष्टमाध्यवसायिकम्। तद्वृत्तीनां शब्दानां कथमिव वस्तुविषयत्वाशङ्का भवेत् इति निर्विषयत्व मिथ्यावभासिनो ह्येते, प्रत्ययाः शब्दनिर्मिताः" ||1212|| स्फुटमेव तत्र शब्दानां प्रतिबिम्बकमात्रोत्पादादवसीयत एव / अत [तत्त्वसं० का०] ततः स्थितमेतद्नशब्दस्याकल्पितोऽर्थः सम्भवति। एव ये सङ्केतसव्यपेक्षास्तेऽर्थशून्याभिजल्पाऽऽहितवासनामात्र- (संविद्वपुरन्यापोहवादिप्राज्ञाकरमतस्य उपन्यासः)-अपरस्त्वनिर्मितविकल्पप्रतिबिम्बमात्रावद्योतकाः, यथा वन्ध्यापुत्रादिशब्दाः, न्यथा प्रमाणयति-इह खलु यद् यत्र प्रतिभाति तत् तस्य विषयः, कल्पितार्थाभिधायिनः सङ्केतसव्यपेक्षाश्च विवादास्पदीभूता घटादि- यथाऽक्षजे संवेदने परिस्फुटं प्रतिभासमानवपुरात्मा नीलादिशब्दा इति स्वभावहेतुः / यद्वा परोपगतपारमार्थिकजात्याद्यर्था स्तद्विषयः, शब्द-लिङ्गान्वये च दर्शनप्रसवे बहिरर्थस्वतत्त्वप्रतिभिधायका न भवन्ति घटादिशब्दाः, सङ्केतसापेक्षत्वात्, कल्पितर्था भासरहितं स्वरूपमेव चकास्ति तत् तदेव तस्य विषयः। पराकृतभिधानवत् / न च हेतोरनैकान्ति-कता, क्वचित् साध्यविपर्यये बहिरर्थस्पर्श च संविद्वपुर न्यापोहः वस्तुनि शब्दलिङ्गवृत्तेरयोगात्। ऽनुपलम्भात् अशक्यसमयत्वात् अनन्यभाक्त्वाचेति ! पूर्व स्व तथाहि-जातितियोर्विषयः, व्यक्तिर्वा तद्विशिष्टा? तत्र नेतावदाद्यः लक्षणादी सङ्केतासम्भवस्य सङ्केतवैफल्यस्य च प्रसाधितत्वान्न हेतोः पक्षः, जालेरेवासम्भवात्। तथाहि-दर्शने व्यक्तिरेव चकास्ति,पुरः सन्दिाधविपक्षव्यतिरेकता। अथ यथा स्वलक्षणादौ सङ्केतासम्भवः परिस्फुटतयाऽसाधारणरूपानुभवात्। अथ साधारणमपि रूपमनुभूयते वैफल्यं च तथाऽपोहपक्षेऽपि, ततश्वाकृतसमयत्वात् तन्मात्रद्योत 'गौर्गाः' इति, तदसत् ; शाबलेयादिरूपविवेकेनाऽप्रतिभासनात् / न कत्वमपि शब्दानां न युक्तमित्यनैकान्तिकता प्रथमहेतोः। तथाहिन प्रतिबिम्बात्मकोऽपोहः वक्तृ-श्रोत्रोरेकः सिद्ध्यति, न ह्यन्यदीयं च शाबलेयादिरूपमेव साधारणमिति शक्यं वक्तुम, तस्य प्रतिपत्तिज्ञानमपरोऽग्दिर्शनः संवेदयते प्रत्यात्मवेद्यत्वा (त्वाद्) ज्ञानस्य, व्यक्ति (प्रतिव्यक्ति) भिन्नरूपोपलम्भात्। तथा च पराकृतमिदम्-- अज्ञानव्यतिरिक्तश्च परमार्थतः प्रतिबिम्बात्मलक्षणोऽपोहः ततश्च "सर्ववस्तुषु बुद्धिश्व, व्यावृत्त्यनुगमात्मिका। वक्तृश्रोत्रोरेवास्य सङ्केतविषयस्यासिद्धेः कुत्र सङ्केतः क्रियते गृह्येत वा? जायते ह्यात्मकत्वेन, विना सा च न युज्यते" / / न ह्यसिद्धे वस्तुनि वक्ता सङ्केतं कर्तुमीशः / नापि श्रोता ग्रहीतुम् "न चात्रान्यतरा भ्रान्ति-रुपचारेण वेष्यते। अतिप्रसङ्गात् / तथाहि- श्रोता यत्-प्रतिपद्यते स्वज्ञानारूढम- दृढत्वात् सर्वथा बुद्धे-र्धान्तिस्तद्भ्रान्तिवादिनाम्" / / र्थप्रतिबिम्बकं न तद् वक्त्रा संवेद्यते यच्च वक्त्रा संवेद्यते न च तत् [ श्लो० वा० आकृ० श्लो०५-७] इति। श्रोत्रा; द्वाभ्यामपि स्वावभासस्यैव संवेदनात्, आनर्थक्यं च तत्र 'ह्यात्मिका बुद्धिः' इति यदीन्द्रियबुद्धिमभिप्रत्योच्यते सङ्केतस्य। तथाहि-- यत् सङ्केतकाले प्रतिबिम्बकमनुभूतं श्रोत्रा वक्त्रा / तदुक्तम्, तस्या असाधारणरूपत्वात, नहि द्वयोर्बहि ह्या Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सह कारतया परिस्फुटमुद्भासमानयोस्तदभिन्न भिन्न वा दर्शनारूढ़ साधारणं रूपमाभाति / अथ कल्पनाबुद्धिह्याकारा अभिधीयते। तथाहि-यदि नाम अपास्तकल्पने दर्शने नजातिरुद्धाति कल्पना तु तामुल्लिखन्ती व्यवसीयते ‘गौरें :' इति,एतदप्यसत्; कल्पनाज्ञानेऽपि जातेरनवभासनात् / तथाहि-कल्पनाऽपि पुरः परिस्फुटमुद्भासमानं व्यक्तिस्वरूपं व्यवस्यन्ती हदि चाभिजल्पाकारं प्रतियते, न च तद्व्यतिरिक्तः वर्णाकृत्यक्षराकार शून्यः प्रतिभासो लक्ष्यते वर्णादिस्वरूपरहितं च जातिस्वरूपमभ्युपगम्यते, तन्न कल्पनावसेयाऽपि जातिः / यच्च क्वचिदपि ज्ञानेनावभाति तदसत, यथा शशविषाणम्, जातिश्च क्वचिदपि ज्ञाने परिस्फुटव्यक्तिप्रतिभासवेलाया स्वरूपेन नाभाति तन्न सती। अथापि शब्द-लिङ्गजे ज्ञाने स्वरूपेण सा प्रतिभाति तत्र सम्बन्धप्रतिपत्तेः, स्वलक्षणस्य च तत्रासाधारणरूपतया प्रतिभास-- नावसायात् सम्बन्धग्रहणासम्भवाच्च तन्न शब्दलिग भूमिः / ननु तत्रापिपरिस्फुटतरो व्यक्तेरेवाकारः शब्दस्य वा प्रतिभाति न तु वर्णाकाररहितोऽनुगतैकस्वरूपः प्रयोजनसामर्थ्यव्यतीतः कश्चिदाकारः केनचिदपि लक्ष्यते, शब्दलिङ्गान्वयं हि दर्शनमर्थक्रियासमर्थतयाऽस्फुटदहनाकारमाददानं प्रवर्तयति जनम्, तत् कथमन्यावभासस्य दर्शनस्याऽन्याकारो जात्यादिविषयः? यदि च जात्यादिरेव लिङ्गादिविषयः तथा सति जाते रथ क्रियासाम र्थ्यविरहादधिगमेऽपि शब्द-लिङ्गाभ्यां न बहिरर्थे प्रवृत्तिर्जनस्ये-ति विफलः शब्दादिप्रयोगः स्यात्। अथ जातेरर्थक्रियासामर्थ्यविरहेऽपि स्वलक्षणं तत्र समर्थमिति तदर्था प्रवृत्तिरर्थिनाम्, ननु तत् स्वलक्षणं लिङ्गादिजे दर्शन सदपि न प्रतिभाति, न चात्मान-मनारूढ़ेऽर्थे विज्ञान प्रवृत्ति विधातुमलम् सर्वस्य सर्वत्र प्रवर्तकत्वप्रसङ्गात्। यत तु तत्र प्रतिभाति सामान्यं न तद् दाहादियोग्यम्, यदपि ज्ञानाभिधानं तस्य फलं मत तदपि पूर्वमेवोदितमिति न तदर्थाऽपि प्रवृत्तिः साध्वी। अथ प्रथमं शब्दलिङ्गाभ्यां जातिरवसीयते ततः पश्चात्तया स्वलक्षणं लक्ष्यते तेन विना तस्या अयोगादिति लक्षितलक्षणया प्रवृत्तिर्भवत्, नैतदपि सम्यक् ; न ात्र क्रमवती:-पूर्व जातिराभाति पश्चात् स्वलक्षणमिति। किञ्च-जात्यापि स्वलक्षण प्रतिनियतेन वा रूपेण लक्ष्येत, साधारणेन वा? तत्र न तावदाद्यः पक्षः, प्रतिनियतरूपस्य स्वलक्षणस्य प्रतिपत्तेरसम्भवात; न हि शब्दानुमावेलायां जातिपरिमित प्रतिनियतं स्वलक्षणमुद्राति सर्वतो व्यावृत्तरूपस्याननुभवात्, अनुभवे वा प्रत्यक्षप्रतिभासाविशेषः स्यात् / न च प्रतिनियतरूपमन्तरेण जातिर्न सम्भवति,तत् कु तरतया तस्य लक्षणम् ? अथापि साधारणेन रूपेण तया स्वलक्षणं लक्ष्यते 'दाहादियोग्यं वह्निमात्रमस्ति' इति तदप्यसत; साधारणस्थापि रूपस्यार्थक्रियाऽसम्भवात् प्रतिनियतस्यैव रूपस्य तत्र सामोपलब्धेः ततश्च तत्प्रतिपत्तावपि कथं प्रवृत्तिः? पुनस्तेनापि साधारणेनापरं साधारण रूपं प्रत्येतव्यम् तेनाप्यपरमिति साधारणरूपप्रतिपत्तिपरम्परा निरवधिर्भवत; तथा चार्थक्रियासमर्थरूपानधिगतेर्वृत्त्यभाव एव। किञ्च यदि नाम जातिराभाति शब्दलिङ्गाभ्याम् व्यक्तेः किमायातम् येन सा तां व्यनक्ति? तयोः सम्बन्धादिति चेत,सम्बन्धस्तयोः किं तदा प्रतीयते,उत पूर्व प्रतिपन्नः? न तावत् / तदा भात्यसौ व्यक्तेरनधिगतेः केवलव हितदा जाति ति यदि तु व्यक्त्तिरपितदा भासेत तदा किलक्षितलक्षणेन? सैव शब्दार्थः स्यात् तदनधिगमे न तत्सम्बन्धाधिगतिः। अथ पूर्वमसौ तत्र प्रतीतः तथापि तदैवासौ भवतु; नोकदा तत्सम्बन्धेऽन्यदापि तथैव भवति अतिप्रसङ्गात्। अथ जातेरिदमेव रूपम्,यदुत विशेषनिष्ठता? ननु 'सर्वदा सर्वत्र जातिर्विशेषनिष्ठा' इति किं प्रत्यक्षेणावगम्यते, यद्वाऽनुमानेन? तत्र न तावत्प्रत्यक्षेण सर्वव्यक्तीनां युगपदप्रतिभासनान्नैकदातन्निष्ठता तेन गृह्यते, क्रमेणापि व्यक्तिप्रतीतौ निस्वधेय॑क्तिपरमारायाः सकलायाः परिच्छेत्तुमशक्यत्वात् तन्निष्ठता न जातेरधिग्न्तुं शक्या / कादाचित्के तु जातेय॑क्तिनिष्ठताऽधिगमे 'सर्वदा न तन्निष्ठता इत्युक्तम्। तन्न प्रत्यक्षेण जातेस्तनिष्ठता प्रतिपत्तुं शक्या। नाप्यनुमानेन, तत्पूर्वकत्वेन तस्य भावनाप्रवृत्तेः / तन्न जात्यपि तदभावे व्यक्तेरधिगमः कर्तुं शक्यः। किञ्च-यदि जातिरभिधानगोचरः तथा सति नीलत्दजातिरुत्प-- लत्वजातिश्च रामपि परस्परभिन्न प्रतीतमिति न सामानधिकरण्यं भवेत्। न परस्परविभिन्नार्थप्रतीतो तद्व्यवस्था 'घटापटः' इति दृश्यते / अथ गुणजाती प्रतिनियतभेकमधिकरण विभ्राते ततस्तद्वारेणैकाधिकरणता शब्दयोः / ननु गुणजातिप्रतीतौ शब्द-जायां न तदधिकरणमाभाति तस्य शब्दागोचरत्वात्, न चानुदासमानवपुरधिकरण सन्निहितमिति न समानाधिकरणताव्यवस्था अतिप्रसङ्गात. पुनरपि तदेव वक्तव्यम्- 'शब्दैरनभिधीय-मानमधिकरणं तदभिहितर्जात्यादिभिराक्षिप्यमाणं तदव्यवस्था-कारि' इति। तत्र च समाधिन सामर्थ्यायातमधिकरणं (मधिकर-णमेकाधिकरणता) शब्दयोः कर्तुमलम, घटपटशब्दयोरपि ता-भ्यामभिहिताभ्यामेकस्य भूतलादेराधारस्याऽऽक्षेपादेकार्थताप्र-सङ्गात् / तथ:-जातिपक्षे धर्मधर्मिभावोऽप्यनुपपन्न एव, यदि हि व्यक्तावाश्रिता जातिः प्रतीयते तदा तद्धर्मः स्यात्, यदा तु व्यक्तिः सत्यपि नाभाति शब्दजे ज्ञाने तदा जातरेव केवलायाः प्रतिभासनात् कथं जाति-जातिमतोधर्मधर्मिभावः? नहि नीलादिः केवलं प्रतीयमानः कस्यचिद्धर्मो धमी वा; यदापि प्रत्यक्ष द्वयं प्रतिभाति तदाऽपि भेदप्रतिभसे सति न धर्मधर्मिभावः, सर्वत्र तथाभाव-प्रसङ्गात्। अथ प्रत्यक्षे ताप्यं प्रतिभासे जाति-व्यक्तयोः तेनायमदोष इति चेत्, अत्रोच्यतेतादूप्येण विज्ञानमिति किं व्यक्तिरूपतया जातेरधिगतिः, अथ जातिरूपतया व्यक्तैरिति? तत्र यद्याद्यः पक्षः तथा सति व्यक्तिरेव गृहीता न जातिः। द्वितीयेऽपि जातिरूपाधिगतिरेव न व्यक्तरितिन सर्वथा धर्मिधर्मभावः। तन्न जातिः शब्दलिङ्ग योर्विषयः / / अथाकृतिविशिष्ता व्यक्तिस्तयोरर्थः, तदप्यसत, तस्यः प्रतिभासाभावात्, न हि शब्द लिङ्गप्रसवे विज्ञानेव्यक्ति(क्त) रूपतया प्रतिभाति, तदभावेऽपि तस्योदयात् अव्यक्ताकारानु भावाच / अथापि व्यक्तेरेवाकारद्वयमेतत् व्यक्तरूपमव्यक्तरूपं चेति। तत्र व्यक्तरूपमिन्द्रियज्ञानभूमिः,अव्यक्तंच शब्दपथः। ननुरूपद्वयंव्यक्तेः केन गृह्यते? नतावदभिधानजेन ज्ञानेन,तत्र स्पष्टरूपानवभासनात अस्पष्टमयंहितद Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द नुभूयते / नापीन्द्रियज्ञानेन व्यक्तैराकारद्वयं प्रतीयते, तत्र व्य-- क्ताकारस्यैट प्रतिभासनात्; न हि परिस्फुटप्रतिभासवेलायामविशदरूपाकरो व्यक्तिमारूढः प्रतिभाति; तत् कथं व्यक्तेरसायात्मा? अथ 'श्रुतं पश्यामि' इति व्यवसायाद् दृश्यश्रुतयोरेक्ता, ननु किं दृश्यरूपल्या श्रुतमवगम्यते, श्रुतरूपतया वा दृश्यम् ? तत्राद्ये पक्षे दृश्यरूपावभास एवन श्रुतगतिर्भवत्। द्वितीयेऽपि पक्ष श्रुतरूपावगतिरेव व्यक्तः न दृश्यरूपसम्भवः; तस्मात् प्रतिभासरहितमभिमानमात्रमिन्द्रियशब्दार्थयोरध्यवसानम् न तत्त्वम्, अन्यथा दर्शनवच्छाब्दमपि स्फुटप्रतिभार' स्यात्। अथ तत्रेन्द्रियसम्बन्धाऽभावाद्व्यक्तिस्वरूपावभासेऽपि प्रतिपत्तिविशेषः स्यात्, नन्वक्षैरपि स्वरूपमुद्रासनीयम्, तत्र यदि शब्दलिङ्गाभ्यामपि तदेव दीति तथा सतितस्यैवान्यूनातिरिक्तस्य ज्वरूपस्याधिगमे कथं प्रतिपत्तिभेदः? अन्यच्च, प्रत्यक्षेऽपि साक्षादिन्द्रियसम्बन्धोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातुं शक्योऽसौ तस्यातीन्द्रियत्वात,किन्तु-स्वरूपप्रतिभासात् कार्या (र्यात्। तच्च वस्तुस्वरूपं गद्यनुमानेऽपि भाति तथा सति तत एवेन्द्रियसम्बन्धः समुन्नीयताम। अथ तत्र परिस्फुटप्रतिभासाऽभावान्नाऽसावनुमीयते; ननु तदभावस्तत्राक्षसङ्गतिविरहात प्रतिपाद्यते तदभावश्च रम्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽयमितरतराश्रयदोषः / अथ व्यक्तिरूपमेकमेव नीलादित्वमुभयत्र प्रतीयते व्यवनाऽव्यक्ताकारौ तु ज्ञानस्यात्मानौ, तत्रोच्यते-- यदि तौ ज्ञानस्याकारी कथं नीलप्रभृतिरूपतया प्रतिभातः? तदूपतया च प्रतिभासनान्नीलाद्याकारावती, नहि व्यक्तरूपतामव्यक्तरूपता च मुक्त्वा नीलादिकमपरमाभाति, तदनवभासात् तस्याभाव एव / व्यक्ताव्यक्लेकात्मनश्व नीलस्य व्यक्ताकारवद् भेदः, नहि प्रतिभासभेदेऽप्येकता अतिप्रसङ्गात् तन्नाक्षशब्दयोरेको विषयः। किनयदि व्यक्तिः शब्द-लिङ्ग योरर्थः तथा सति सम्बन्धवेदन विनव ताभ्यामर्थप्रतीतितिर्भवेत् नहि तत्र तत् तयोः सम्भवति / व्यक्तिर्हि नियतदेशका लादशा (लदशा) परिगता न देशान्तरादिकमनुवर्तत नियतदेशादिरूपाया एव तस्याः प्रतीतेः तथा चैकत्रैकदा सम्बधानुभवेऽन्यस्यार्थस्य कथं प्रतीतिः? अथ व्यक्तीनामेकजात्युपलक्षिते रूपे सम्बन्धादनन्तरा भविष्यति, तदपि न युक्तम्, यतो जात्युपलक्षितमरूपं तासां भिन्नमेव लिङ्गादिगो चरः, तस्याभेदे पूर्वोक्तदोषात; तथा च सम्बन्धाननुभव एव स्यात् / किञ्चव्यक्ती सम्बन्धवेदनं प्रत्यक्षेण, अनुमानेन वा भवेत् प्रत्यक्षेण, तस्य पुरः स्थितरूपमात्रप्रतिभासनात् शब्दस्य वचनयोर्वाच्यवाचकसम्बन्धस्तेन गृह्यते / अर्थन्द्रियज्ञाना रूढे एव रूपे सम्बन्धव्युत्पत्तिर्दृश्यते'इदमेतच्छब्दवाच्यम्' अस्य वेदमभिधानम् इति, अत्र विचार:-'अस्येदं वाचकम्' इति कोऽर्थः-किं प्रतिपादकम, यदि वा–कार्यम्, कारणं वेति? तत्र यदि प्रतिपादकम् तत् किमधुनैव,यद्वाऽन्यदा? तत्र यद्यधुनोच्यते शब्दरूपमर्थस्य प्रतिपादकं विशदेनाकारणेति, तदयुक्तम; अक्षव्यापारेणाधुना विशदाकारेण नीलादेवभासनात्, ततश्चाक्षव्यापार एवाधुना प्रकाशकोऽस्तु न शब्दव्यापारः,तस्य तत्र सामर्थ्यांनधिगतेः / अथान्यदा लोचनपरिस्पन्दाभावे शब्दोऽर्थानुदासयति तदा किं तेनेवाऽऽकारणासौ तानानवभासयति, यद्वा-आकारान्तरेणेति विकल्पद्वयम् / यदि विशदेनाकारेण प्रतिपादयतीत्युच्यते, तदसत्, यतस्तदाप्यसौ चक्षुरादिभिरेव विशदेनाकारणोदास्यतेनशब्देन, तस्य तत्र सामर्थ्यादर्शनात् दर्शनाकाक्षणाका / यदि तु शब्देनेव सोऽर्थः स्वरूपेणेव प्रतिपाद्यते तदाऽस्य सर्वथा प्रतिपन्नत्वात् किमर्थ प्रवृत्तिः? नहि प्रतिपन्न एव तावन्मात्रप्रयोजना वृत्तिर्युक्ता, वृत्तेरविरामप्रसङ्गात्। अथ किञ्चिदप्रतिपन्न रूपं तदर्थं प्रवर्तनम्; ननु यदप्रतिपन्न व्यक्तिरूपं प्रवृत्तिविषयः तत् तर्हि न शब्दार्थ, तदेव च पारमार्थिकम् ततोऽर्थक्रियादणगात,नाव्यक्तम सर्वार्थक्रियाविरहात। अथ कालान्तरे रफुटेतरेणाकारेण व्यक्तीरुदद्योतयन्ति शब्दाः नन्वसावाकारस्तदा सम्बन्धव्युत्पत्तिकाले कालान्तर वा नेन्द्रियगोचरस्तत् कथं तत्र शब्दाः प्रवर्तमाना नयनादिगोचरेऽर्थ वृत्ता भविन्त? तन्नाध्यक्षतःसम्बन्धयेदनम। नाप्यनुमानेन, तदभावे तदनवतारात् / अथाप्यर्थापत्त्या सम्बन्धवेदनम् / तथाहि-व्यवहारकाले शब्दार्थो प्रत्यक्षेप्रतिभातः,श्रोतुश्च शब्दार्थप्रतीति चेष्ट्या प्रतिपद्यन्ते व्यवहारिणः तदन्यथानुपपत्त्या तयोः सम्बन्धं विदन्ति / अत्रोच्यते--सिद्ध्यत्येव काल्पनिकः सम्बन्धः। तथाहि--श्रोतुः प्रतिपत्ति सङ्केतानुसारिणी दृश्यते के (क) लिमाऽऽर्यादिशब्देभ्यो हि द्रविडाऽऽर्ययोविपरीततत्प्रतिपनिदर्शनान्न नियतः सम्बन्धो युक्तः / सर्वगते च तस्मिन सिद्धेऽपि न नियतार्थप्रतिपत्तिर्युक्ता / प्रकरणादिकमपि नियमहेतुः नियतार्थसिद्धौ सर्वमनुपपन्नम् / तथाहि-प्रकरणादयः शब्दधर्मः अर्थधर्मः प्रति-पत्तिधर्मो वा? शब्दधर्म तस्मिन् शब्दरूप नियतार्थप्रतिपत्तिहेतुरिष्ट स्यात्,तच्च सर्वार्थान् प्रति तुल्यत्वात् न युतलम / अर्थोऽपि न नियतरूपः सिद्ध इति न तद्धर्मोऽपि प्रकरणादिः। प्रतिपत्तिधर्मस्तु यदीष्यतेऽसौ तदा काल्पनिक एवार्थनियमः नतात्त्विकः स्यात् / तस्मात् सर्व परदर्शनं ध्यानध्यविजूम्भितम् मनागपि विचाराक्षमत्वात् / तदेवमवस्थितं विचारात् 'न वस्तु शब्दार्थः' इति, किन्तुशब्देभ्यः कल्पना बहिरसिंस्पर्शिन्यः प्रसूयन्ते, ताभ्यश्च शब्दा इति। शब्दानां च कार्यकारणभावमात्र तत्त्वम् नवाच्यवाचकभावः / तथाहि-न जाति-व्यक्त्योर्वाच्यत्वम्, पूर्वोक्तदोषात् / नापि ज्ञानतदाकारयोः, तयोरपि स्वेन रूपेण स्वलक्षणत्वात् अभिधानकार्यत्वाच / शब्दाद विज्ञानमुत्पद्यते न तु तत् तेन प्रतीयते, बहिराध्यवसायात् / कथ त_न्यापाहः शब्दवाच्यः कल्प्यते? लोकाभिमानमात्रेण शब्दार्थोऽन्यापोह इष्यते, लौकिकानां हि शब्दश्रवणात् प्रतीतिः,प्रवृत्तिः,प्राप्तिश्च बहिरर्थे दृश्यते। यदिलोकाभिप्रायोऽनुवय॑ते बहिरर्थस्तर्हि शब्दार्थोऽस्तु तदभिमानात नाऽन्याऽपोहःतदभावात्। अत्रोच्यते-बहिरर्थ एवान्यापोहः तथा चाह– “य एव व्यावृत्तः सैव व्यावृत्तिः" नन्वेवं सति स्वलक्षण शब्दार्थः स्यात्, तदेव विजातीयव्यावृत्तेन रूपेण शब्दभूमिरिष्यतेसजातीयव्यावृत्तस्य रूपस्य शाब्दे प्रतिभासाभावात्-यदि तर्हि विजातीयव्यावृत्तं शब्दर्विकल्पश्चोल्लिख्यते तथा सति तदव्यतिरेकात् सजातीयव्यावृत्तमपि रूप-मधिगतं भवेत्,न; विकल्पानामविद्यास्वभावत्वान्न हि ते स्वलक्षणसंस्पर्शभाजः यतस्तैः सर्वाऽऽकारप्रतीतिदोषः-केवलमभिमानमात्रम् Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 362 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द बहिराध्यवसायस्तदभिप्रायेण वाच्यवाचकभावः शब्दार्थयोरित्य (न्या) पोहः शब्दभूमिरिष्टः / परमार्थतस्तु शब्दलिङ्गाभ्यां बहिरर्थसंस्पर्शव्यतीतःप्रत्ययः केवलं क्रियत इति तत्संस्पर्श (M) भावेऽपि च पारम्पर्येण वस्तुप्रतिबन्धादविसंवादः / तथाहिपदार्थरयास्तित्वात् प्राप्तिः न दर्शनात,के शोन्दुकादेर्दर्शनेऽपि प्राप्त्यभावात् / अथ प्रतिभासमन्तरेण कथं प्रवृत्तिः? ननु प्रतिभासेऽपि कथं प्रवृत्तिः? तस्मिन्नप्यनर्थित्वे तदभावात् अर्थित्वे च सति दर्शनविरहेऽपि भ्रान्तेः सद्भावात् प्रतिबन्धाभा--वात्तु तत्र विसंवादः / यदा तु विकल्पानां स्वरूपनिष्ठत्वान्नान्यत्र प्रतिबन्धसिद्धिस्तदा स्वसंवेदनमात्रं परमार्थ (सत) त्वम्, तथापि कथं समयपरमाऽर्थविस्तरः। सम्म०१ काण्ड। (अधिकं 'सामण्णविसेस' शब्दे वक्ष्यते।) स्वार्थेनावगतसम्बन्धः शब्दः स्वार्थ प्रतिपादयति। सम्म०१काण्ड। (शब्दस्य पौगलिकत्वम् आगम' शब्दे द्वितीयभागे 71 पृष्ठ गतम्।) शब्दस्य बहिरर्थं प्रति प्रामाण्यम्एतेन यत्कैश्चित् शब्दस्य बहिरर्थ प्रति प्रामाण्यमपाक्रियते तदपास्तं द्रष्टव्यम्,तथाहि-ते एवमाहुः-प्रमेयं वस्तु परिच्छिन्नं प्रापयत्प्रमाणमुच्यते, प्रमेयं च विषयः प्रमाणस्येति प्रामाण्यं विषयवत्तया ध्याप्तम्, ततो यद्विषयवन्न भवति न तत्प्रमाणं, यथा--गमनेन्दी... वरज्ञानं, न भवति च विषयवत् शब्दं ज्ञानमिति, न वायमसिद्धो हेतुः, यतोद्विविधो विषयः-प्रत्यक्षः,परोक्षश्च / तत्र न प्रत्यक्षःशाब्दज्ञानस्य विषयो, यस्य हि ज्ञानस्य प्रतिभासेन स्फुटाभनीलाद्याकाररूपेण योऽर्थोऽनुकृतान्वयव्यतिरेकः सतस्य प्रत्यक्षः, तस्य च प्रत्यक्षस्यार्थस्यायमेव प्रतिपत्तिप्रकारः संभवदशामश्नुते, नापरः, तद्विषयं च तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि स्फुट प्रतिभासं ज्ञानं प्रत्यक्षम्, प्रत्यक्षज्ञेयत्वात् तन्न प्रत्यक्षोऽर्थोऽनेकप्रकारप्रतिपत्तिविषयो यः शब्दाप्रमाणस्यापि विषयो भवेत् / नापि परोक्षः, तस्यापि हि निश्चिततदन्वयव्यतिरेकनान्तरीयकदर्शनात् प्रतिपतिः, यथा धूमदर्शनात् वह्नः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् / न च शब्द-- स्यार्थे न सह निश्चितान्वयव्यतिरेकता प्रतिबन्धाऽभावात् / तादात्म्यतदुत्पत्त्यनुपपत्तेः, तथाहि-न बाह्यार्थी रूपं शब्दानां नापि शब्दो रूपमर्थानाम्, तथाप्रतीतेरभावात्, तत्कथमेषां तादात्म्यम्? येन व्यावृत्तिकृतव्यवस्थाभेदेऽपि नान्तरीयकता स्यात्, कृतकत्वानित्यत्ववत्, अपि च-यदि तादात्म्यमेषां भवे-ततोऽनलाचलक्षुरिकादिशब्दोचारणे वदनदहनपूरणपाटनादिदोषः प्रसज्येत / न चैवमस्ति, तन्न तादात्म्यं नापितदुत्पत्तिः, तत्रापि विकल्पद्वयप्रसत्तेः। तथाहि-वस्तुनः किं शब्दस्योत्पत्तिः उत शब्दावस्तुनः? तत्र वस्तुनः शब्दोत्पत्तावकृतसंकेतस्याऽपि पुंसः प्रथमपनसदर्शन तच्छब्दोच्चारणप्रसङ्गः, शब्दाद्वस्तूत्पत्तौ विश्वस्यादरिद्रताप्रस-क्तिः, तत एव कटककुण्डलाद्युत्पत्तेः, तदेवं प्रतिबन्धाभावान्न शब्दस्यार्थेन सह नान्तरीयकतानिश्चयः, तदभावाच्च न शब्दानिश्वितस्यार्थस्य प्रतिपत्तिः,अपितु-अनिव-र्तितशङ्कतया अस्ति न येति विकल्पितस्य, न च विकल्पितमुभयरूपं वस्त्वस्ति, यत्प्राप्यं सद्विषयः स्यात्, प्रवर्त्तमानस्य तु पुरु-षस्य तस्य तस्यार्थस्य पृथिव्यामनज्जनादवश्यमन्यत् ज्ञानान्तरं प्राप्तिनिमित्तमुपजायते,यतः किंचिदवाप्यते इति शाब्दज्ञानस्य विषयवत्त्वाभावः, तदसद्, विषयवत्त्वाभावासिद्धेः, परोक्षस्य तद्विषयत्वाभ्युपगमात् / यत्पुनरुक्तं न शब्दस्यार्थेन सहनिश्चिता-न्वयव्यतिरेकता, प्रतिबन्धाभावादिति तदसमीचीनमः वाच्यवा-चकभावलक्षणेन प्रतिबन्धान्तरेण नान्तरीयकता निश्चयात, शब्दो हि बाह्यवस्तुवाचकस्वभावतया तन्नान्तरीयकः, ततस्तन्नान्तरीयकतायां निश्चितायां शब्दाद निश्चितस्यैवार्थस्य प्रतिपत्तिर्न विकल्पितरूपस्य निश्चितं च प्रापयत् विषयवदेव शाब्दं ज्ञानमिति। स्यादेतत-यदि कास्तवसम्बन्धपरिकरितमूर्तयः शब्दास्तर्हि समाश्रयतु निरर्थकतामिदानीं संकेतः, स खलु सम्बन्धो यतोऽर्थ प्रतीति स चेद्वास्तवो निरर्थकः संकेतः, तत एवार्थप्रतीतिसिद्धेः, तदेतदत्यन्तप्रमाणमार्गानभिज्ञत्वसूचकम, यतो न विद्यमान इत्येव सम्बन्धोऽर्थप्रतीति निबन्धनम्,किंतु-स्वात्मज्ञानसहकारी,यथा प्रदीपः, तथाहि-प्रदीपो रूपप्रकाशनस्वभावोऽपि यदि स्वात्मज्ञानसहकारिकृतसाहायकस्ततो रूपं प्रकाशयति, नान्यथा, ज्ञापकत्वात्, न खलु धूमादिकमपि लिङ्ग वस्तुवृत्त्या वयादिप्रतिबद्धमपि सत्तामात्रेण वक़्यादेर्गमकमुपजायते, यदुक्तमन्यैरपि-"ज्ञापकत्वाद्धि सम्बन्धः, स्वस्व ज्ञानमपेक्षते / तेनासौ विद्यमानोऽपि, नागृहीतः प्रकाशकम् / / 1 / / सम्बन्धस्य चव परिज्ञानं तदावरण कर्मक्षयक्षयोपशमाभ्याम्, तौ च संकेततपश्चरणभावनाद्यनेकसाधनसाध्यौ; ततः तपश्वरणभा-वनासंकेतादिभ्यः समुत्पन्नतदावर कर्मक्षयक्षयोपशमानां श-ब्दादर्शाच केवलादप्यवैपरीत्येन वाच्यवाचकभावलक्षणः सम्बन्धोऽवगमपथमृच्छति, तथाहि-सर्वे एव सर्ववेदिनः समेरुजम्बूद्वीपादीनानगृहीतसंकेता अपि तत्तच्छब्दवाच्यानेव प्रतिपद्यन्ते, तैरेव तथाप्ररूपणात्, कल्पान्तरवर्तिभि-रन्यैरवं प्ररूपिता, इति तैरपि तथा प्ररूपिता इति चेत्, ननु तेषामपि कल्पान्तरवर्त्तिनां तथा प्ररूपणे को हेतुरिति वाच्यम् ? तदन्यैरेवं प्ररूपणादिचेत्, अत्रापि स एव प्रसङ्ग H / समाधिरपि स एवेति चेत्, ननुतर्हि सिद्धः सुमेर्वाद्यर्थानांतदभिधायकानांच वास्तवः सम्बन्धः सर्वकल्पवर्तिभिरपि सर्ववेदिभिस्तेषां सुमेर्वादिशब्दवाच्यतया प्ररूपणात्, अनादित्वात्संसारस्य, कदाचित् कैश्विदन्यथापि सा प्ररूपणा कृता भविष्यतीति चेत्न, अतीन्द्रियत्वेनात्र प्रमाणाभावात्, सर्वैरपि तथैव सा प्ररूपणा कृतेत्यत्रापि न प्रमाणमिति चेन्न, अत्र प्रमाणोपपत्तेः, तथाहि-शाक्यमुनिना संप्रति सुमेर्वा -दिकोऽर्थः सुमेर्वादिशब्देन प्ररूपितः,सच सुमेर्वादौ सुमेर्वादि-शब्दप्रयोगः संकेतद्वारेणाप्येतत् स्वभावतायां तयोर्नोपपद्यते, तत्स्वभावताभ्युपगमेच सिद्धनः समीहितम, अनादावपिकालेतयोस्तत्स्वभावत्वात्, तत्समानपरिणामस्य प्रवाहतो नित्यत्वात्, तत्र सम्बन्धाभ्युपगमात्, इत्थ चैतदङ्गीकर्त्तव्यम्, अन्यथा अनादित्वात्संसारस्य कदाचिदन्यतोऽपिधूमादेर्भावा, भविष्यतीत्येवंव्यभिचारशङ्काधूमधूमध्वजादिषुप्र Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द सरन्ती दुर्भिधारेत्यलं दुर्मतिविस्पन्दितेषु प्रयासेन / ननु यदि पारमार्थिक सम्बन्धनिबद्धस्वरूपत्वादिमे शब्दास्तात्त्विकार्थाऽभिधानप्रभाविष्णवः तर्हि दर्शनान्तरनिवेशिपुरुषपरिकल्पितेषु वाच्येष्येतेषां प्रवृत्तिपपोत, परस्परविरुद्धत्वेन तेषामर्थानां स्वरूपतोऽभावात्। यदपि च विनष्टमनुत्पन्नं वा तदापि स्वरूपेण न समस्तीति तत्राऽपि वाचो न प्रवर्तेरन। अपि च-यदि वाचां सद्भूतार्थमन्तरेण न प्रवृत्तिः तहिन कस्याश्चदपि वाचोऽलीकता भवेत, नचैतत् दृश्यते,तस्मात्सर्वमपि पूर्वोक्त मिथ्या / तदप्ययुक्तम्, इह द्विधा शब्दाः-मृषाभाषावर्गण)पादानाः, सत्यभाषावर्गणोपादानाश्च / तत्र ये मृषाभाषावर्गणोपादानाः ते तु तीर्थान्तरीयपरिकल्पिताः कुशास्त्रसंपर्कवशसमुत्थवासनासंपादितसत्ताकाः प्रधानरूपं जगत् ईश्वरकृतं विश्वम्, इत्येवमाकारास्तेऽनर्थका एवाभ्युपगम्यन्ते / ते हि बन्ध्याऽबला इव तदर्थप्राप्त्यादिप्रसवविकलाः केवल तथाविधसंवेदनभोगफला इति न तैय॑भिचारः / अथ तेऽपि सत्याभिमतशब्दा इव प्रतिभासन्ते तत्कथमय सत्यासत्यविवको निर्धारणीयः?, ननु प्रत्यक्षाऽऽभासमपि प्रत्यक्षमिवाऽऽभासत तत स्तत्रापि कथ सत्याऽसत्यप्रत्यक्षविवेकनिर्धारणम्?,स्वरूपविषयषर्यालोचनयेति चत, तथाहि- अभ्यासदशामापन्नाः स्वरूपदर्शनमात्रादेव प्रत्यक्षस्य सत्यासत्यत्वमवधारयन्ति, यथा मणिपरीक्षका मणः, अनभ्यासदशामापन्नास्तु विषयपर्यालोचनया यथा किमयं विषयः सत्य उताहो नेति', तथार्थक्रियासंवाददर्शनतः तद्गतस्वभावलिङ्गदर्शनतो वा सत्यत्वमवगच्छन्ति अन्यथा त्वसत्यत्वमिति। तदेतत स्वरूपविषयपर्यालोचनया सत्यासत्यत्वविवेकनिर्धारणमिहापि समानम् / तथाहिदृश्यन्ते एव कंचित् प्रज्ञातिशयसमन्विताः शब्दश्रवणमात्रादेव पुरुषाणां मिथ्याभाषित्वममिथ्याभाषित्वं वा सम्यक्अवधारयन्तः, विषयसत्यासत्यत्वपर्यालोचनायां तु किमेष वक्ता यथावदाप्त उत नेति। तत्र यदि यथावदाप्त इति निश्चितं ततो विषयसत्यत्वमितरथा त्वसत्यत्वम् / आलेतरविवेकोऽपि परिशीलनेन लिङ्ग तो वा कुतश्चिदवसेयो निपुर्णन हि प्रतिपत्रा भवितव्यम्। यदप्युक्तं यदपि च-विनष्टमनुत्पन्नं वा तदपि न स्वरूपेण समस्तीत्यादि, तत्रापि यदि विनष्टानुत्पन्नयोर्तिमानिकविद्यमानरूपाभिधायकः शब्दः प्रवर्तत तर्हि स निरर्थकोऽभ्युपगम्यत एव, ततो न तेन व्यभिचारः / यदा तु तेऽपि विनष्टानुत्पन्ने विनष्टानुत्पन्न तयाऽभिधत्ते शब्दस्तदा तद्विषयसार्वज्ञज्ञानमिव सद्भूतार्थविषयत्वात सप्रमाणम् / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् / अन्यथाऽतीतकल्पान्तरवर्तिपादिसर्वज्ञदेशना भविष्यच्छंखचक्रवादिदेशना च सर्वथा नोपपद्येत / तद्विषयज्ञाने शब्दप्रवृत्त्यभावात् / अथोच्येत, अनलेऽनलशब्दः तदभिधानस्वभावतया यमभिधेयपरिणाममाश्रित्य प्रवर्तत, स जले नास्ति जलाऽनलयोरभेदप्रसङ्गात् / अथ च प्रवर्तत संकेतवशाजलेऽप्यनलशब्दः तत्कथं शब्दार्थयोर्वास्तवः सम्बन्धः?. तदसत्, शब्दस्यानेकशक्तिसमन्वितत्वेनोक्तदोषानुपपत्तेः, तथाहि नाऽनलशब्दस्याऽनलवस्तुगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानविषय एवैकः स्वभावः,अपितु-समयाधानतत्स्मरणपूर्वकतया विलम्बितादिप्रतीतिनिबन्धनत्वेन जलवस्तुगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानस्थभावोऽपि, तथा तस्यापि प्रतीतेः, अन्यथा निर्हेतुकत्वेनतत्प्रतीत्यभावप्रसङ्गात् / ननु कथमेते शब्दा वस्तुविषयाः प्रतिज्ञायन्ते?, चक्षुरादीन्द्रियसमुत्थबुद्धाविव शाब्दे ज्ञाने वस्तुनोऽप्रतिभासनात्, यदेव चक्षुरादीन्द्रियबुद्धी प्रतिभासते व्यक्त्यन्तराननुयायी प्रतिनियतदशकालं तदेव वस्तु, तस्यैवार्थक्रियासमर्थत्वात्, नेतरत्परपरिकल्पित सामान्य विपर्ययात, नच तदर्थक्रियासमधू वस्तु शाब्दे ज्ञाने प्रतिभासते, तस्मादवस्तुविषया एते शब्दाः / तथा चात्र प्रमाणम्-योऽर्थः शाब्दे ज्ञाने येन शब्देन सह संस्पृष्टो नावभासतेन सः तस्य शब्दस्य विषयः, यथा गोशब्दस्याश्वः। नावभासते चेन्द्रियगम्योऽर्थः, शाब्दे ज्ञानेशब्देन संस्पृष्ट इति। यो हि यस्य शब्दस्यार्थः स तेन शब्देन सह संस्पृष्टः शाब्दे ज्ञाने प्रतिभाराते. यथा गोशब्देन गोपिण्डः, एतावन्मात्रनिबन्धन-त्वाद्वाच्यत्वस्येति / तदेतदसमीचीनम्, इन्द्रियगम्यार्थस्य शाब्द ज्ञाने शब्देन सहानवभासासिद्धेः, तथाहि-कृष्णं महान्तमखण्डं मसृणमपूवम पवष्फात् घटगानयेत्युक्तः कश्चित्तज्ज्ञानावरणक्षयोपशमयुक्तः तमर्थ तथैव प्रत्यक्षा पातिम शाब्दे ज्ञाने प्रतिपद्यते, तदन्यघटमध्ये तदानयनाय तं प्रतिभेदेन प्रवर्त्तनात्, तथैव च तत्प्राप्तेः / अथ तत्राप्यस्फुटरूप एव वस्तुनः प्रतिभासोऽनुभूयते, स्फुटाभश प्रत्यक्षम्, तत्कथं प्रत्यक्षगम्यं वस्तुशाब्दज्ञानस्य विषयः?, नैवदोषः, स्फुटास्फुटरूप-प्रतिभासभेदमात्रेण वस्तुभेदायोगात्, तथाहि-एकस्मिन्नेव नीलवस्तुनिदूरासन्नवर्त्तिप्रतिपतृज्ञाने स्फुटास्फुटप्रतिभासे उपलभ्येते, नच तत्र वस्तुभेदाभ्युपगमः, द्वयोरपि प्रत्यक्षप्रमणतयाऽभ्युपगमात्, तथेहाप्येकस्मिन्नपि वरतुनीन्द्रियजशाब्दज्ञाने स्फुटास्फुटप्रतिभासे भविष्यतः / नच तगोचरवस्तुभेदः / अथ वस्त्वभावेऽपि शाब्दज्ञानप्रतिभासाविशेषात्, सत्यपि वस्तुनिशाब्दज्ञानं न तद्याथात्म्यसंस्पर्शि तद्रावाभावयोरननुविधानात, यस्य हि ज्ञानस्य प्रतिभासो यस्य भावाभावावनुविधत्ते तत्तस्य परिच्छेदकम्, नच शाब्दज्ञानप्रतिभासो वस्तुनो भावाभावावनुविधत्ते, वस्त्वभावेऽपि तदविशेषात्, तन्न वस्तुनः परिच्छेकं शाब्दज्ञानम्, रसज्ञानमिव गन्धस्य / प्रमाणं चात्र, यज ज्ञान यदन्वयव्यतिरेकानुविधायि न भवति न तत्तद्विष यम, यथा रुपज्ञानं रसविषयम्, न भवति चेन्द्रियगम्यार्थान्वयव्यतिरेकानुविधायि शाब्दं ज्ञानमिति व्यापकानुपलब्धः, प्रतिनियतवस्तुविषयत्वं हि ज्ञानस्य निमित्तवत्तया व्याप्तम्, अन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावे च निमित्तवत्त्वाभावः स्यात्, निमित्तान्तरासंभवात् तेन तद्विषयवत्त्व निमित्तवत्त्वाभावात् विपक्षाद् व्यापकानुपलब्ध्या व्यावय॑मानमन्वयव्यतिरेकानुविधानेन व्याप्यते इति प्रतिबन्धसिद्धेःतदयुक्तम-प्रत्यक्षज्ञानेऽप्येवमविषयत्वप्रसक्तेः, तथाहि यथा जल-वस्तुनि जलोले खिप्रत्यक्षमुदयपदवीमासादयति, तथा जलाभावेऽपि मरौ मध्याह्नमार्तण्डमरीचिकास्वक्षणजलप्रतिभासमुदयमा-- Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सह नमुपलभ्यते ततो जलाभावेऽपि जलज्ञानप्रतिभासाऽविशेषात्। सत्यपि जले जलप्रत्यक्ष प्रादुर्भवन्न तद्याथात्म्यसंस्पर्शि, तद्भावाभावयोः अननुकारादित्यादि सर्व समानमेव / अत्र देशकालस्वरूपपर्यालोचनया तत्प्राप्त्यभावादिना च मरुमरीचिकासु जलोल्लेखिनः | प्रत्यक्षस्य भ्रान्तत्वमवसीयते, भान्तं चाप्रमाणम्, ततो न लेन व्यभिचारः, प्रमाणभूतस्य च वस्त्वन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात व्यभिचार एव तदेतदन्यत्रापि समानम, तथा हि-यथार्थदर्शनादिगुणयुक्तः पुरुष आपः,तत्प्रणीतशब्दसमुत्थं च ज्ञान प्रमाणम, नच तस्य वस्त्यन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वव्यभिचारसंभवः / यत्पुनरनाप्त प्रणीतशब्दसमुत्थं ज्ञानं तदप्रमाणम्। अप्रमाणत्वाच्च न तेन व्यभिचारः / यदपि च प्रमाणमुपन्यस्तं तदपि हेतोरसिद्धत्वान्न साध्यसाधनायालम, असिद्धता च हेतोराप्तप्रणीतशब्दर वस्तुव्यतिरेकाग प्रवृत्त्यसंभवात / रात्पुनरिदमुच्यते -शब्दः श्रूयमाणो वक्त्रभिप्रायविषय विकल्पप्रतिविम्य लत्यार्य-तया धूम इव वह्निमनुमापयति, तत्र स एव वक्ता विशिष्टार्थाभि -- प्रायशब्दयोराश्रयो धर्मी अभिप्रायविशेषः साध्यः, शब्दः साधनमिति / तदाह- “वक्तुरभिप्रेतं तु सूचयेवु” रिति स एव तथा प्रतिपद्यमान आश्रयाऽस्त्विति, तत्पापात्पापीयः, तथा प्रतीतेरभावात् ! न खलु कश्चिदिह धूमादिव वह्नि तत्कार्यतया शब्दादभिप्रायविषयं विकल्प - प्रतिबिम्बमनुमिमीते, अपि तु वाचकत्वेन बाह्यमर्थ प्रत्येति, देशान्तरे कालान्तरे च तथा प्रवृत्त्यादिदर्शनात् / नच देशान्तरादादपि तथा प्रतीतावन्यथा परिकल्पनं श्रेयः, अतिप्रसङ्ग प्राप्तः नानिधूमं जनयति किं त्वदृष्टः पिशाचादिरित्यस्याः अपि कल्पनायाः प्रसङ्गात / अपिच - अर्थक्रियाथीं प्रेक्षावान् प्रमाणमन्वेषयति, नचाभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिबिम्ब विवक्षितार्थक्रियासमर्थम्, किंतु-बाह्यमेव वस्तु, नच वाच्यम् - अभिप्रायविषयं विकल्पप्रतिबिम्ब ज्ञात्वा बाह्ये वस्तुनि प्रवर्ति-ष्यते तेनायमदोष इति, अन्यस्मिन ज्ञातेऽन्यत्र प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, नहि घटे परिच्छिन्ने पटे प्रवृत्तियुक्ता, एतेन विकल्पप्रतिबिम्बकं शब्दवाच्यमिति यत्प्रतिपन्नतदपि प्रतिक्षिप्तमवसेयन। तत्रापि विकल्पप्रतिबिम्बके शब्देन प्रतिपन्ने वस्तुनि प्रवृत्त्यनुपपत्तेः / दृश्यविकल्पावविकीकृत्य वस्तुनि प्रवर्तत इति चेत्, तथाहि-तदेव विकल्पप्रतिबिम्बकं बही रूपतयाऽध्यवस्यति ततो बहिः प्रवर्तते, तेनायमदोष इति, न तयोरेकीकरणासिद्धेः, अत्यन्तवैलक्षण्येन साधायोगात्, साधर्म्य चेकीकरणनिमित्तम्, अन्यथाऽतिप्रसगात्। अपि च कश्चैतावेकीकरोतीति वाच्यम, स एव विकल्प इति चेत्, न, तत्र बाह्यस्वरूपलक्षणानवभासात, अन्य-- था विकल्पत्वायोगादनवभासितेन चैकीकरणासंभवात्, अतिप्रसक्तेः। अथ विकल्पादन्य एव कश्चिद्विकल्प्यमेवार्थ दृश्यमि-त्यध्यवस्यति, हन्त तर्हि स्वदर्शनपरित्यागप्रसङ्गः एवमभ्युपगमे सति बलादात्मास्तित्वप्रसक्तेः, तथाहि निर्विकल्पिकम् न विकल्प्यमर्थं साक्षात करोति तदगोचरत्वात्, ततो न तत् दृश्यमर्थ विकल्पेन सहकीकर्तुमलम, नच देशकालस्वभावव्यवहितार्थविषयेषु शाब्दविकल्पेषु तद्विषये निर्विकल्पकसंभवः, तत्कथं तत्र तेन दृश्यविकल्पार्थकीकरणम्? ततो विकल्पादन्यः सर्वत्र दृश्यविकल्पावर्थावकीकुर्वन् बलादात्मैवोपपद्यते? नच सोऽभ्युपगम्यते, तस्माच्छब्दो बाह्यस्यार्थस्य वाचक इत्यकामेनापि प्रतिपत्तव्यम् / इतश्च प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा संकेतस्यापि कर्तुमशक्यत्वात्, तथाहि-येन शब्देन इदं तदित्यादिना सङ्केतो विधेयः तेन कि सङ्केतितेन उताऽसङ्केतितेन, न तावत्सङ्केतितेन अनवस्थाप्रसङ्गात्, तस्यापि हि येन शब्देन सङ्केतः कार्यः तेन किं सङ्केतितेन रतासंकेतितेनत्यादितदेवावर्तते / अथासंकेतितेन सिद्धस्तर्हि शब्दार्थयोस्तिवः सम्बन्ध इति। नं०। आचा एगे सुब्भिसद्दे, एगे दुन्भिसद्दे। (सू०४७x) 'सुभिसदि' त्ति शुभशब्दा मनोज्ञा इत्यर्थः 'दुब्भि' त्ति अशुभोमनोज्ञो यो न भवतीति। एवं च शब्दान्तरमत्रान्तर्भूतमवसेयम्। स्था० 1 टा०। द्विविधःशब्दः-- दुविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहा-भासासद्दे चेव, नो भासासद्दे चेव। भासासद्दे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-अक्खरसंबद्धे चेव, णो अक्खरसंबद्ध चेव। णो भासासहे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आउज्जसद्दे चेव, णो आउज्जसद्दे चेव। (सू०८१+) 'दुविह' त्यादि अस्य च पूर्वसूत्रेण सहायमभिसम्बन्धः / इहानन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रे देवानां शरीरं निरूपितं तद्वांश्च शब्दादिग्राहको भवतीत्यत्र शब्दस्तावन्निरूप्यते इत्येवं सम्बन्धायातस्यास्य व्याख्या, सा च सुकरैव-नवरं भाषाशब्दो-भाषापर्याप्तिनामकर्मोदयापादितो जीवशब्दः, इतरस्तु नोभाषाशब्दः, अक्षरसम्बद्धो वर्णव्यक्तिमान, नो अक्षरसंबन्धरित्वतर इति। आतोद्य-पटहादि तस्य यः शब्दः स तथा नोआतोद्यशब्दोवंशस्फोटादिरवः / स्था० 2 ठाः 3 उ० / (आताद्यशब्दभेदाः 'आउज्ज' शब्दे द्वितीयेभागे 26 पृष्ठे गताः।) दुविहा सद्दा पन्नत्ता, तंजहा–अत्ता चेव, अणत्ता चेव। एवमिट्ठा० जाव मणामा। (सू०५३४) स्था०२ ठा०३ उ०। दशविधः शब्दःदसविहे सद्दे पण्णत्ते, तं जहा-"नीहारि पिंडिमे लुक्खे, मिन्ने जज्जरिए इय। दीहे (र) हस्से पुहत्ते य, काकणी खिंखिणिस्सरे // 11 // " (सू०७०५) 'दसविहे' त्यादि- 'नीहारिसिलोगो' 1 निहारीघोषवान् शब्दो घण्टाशब्दवत, पिण्डेन निवृत्तः पिण्डिमो घोषवर्जितः, ढक्कादिशब्दवत्, रूक्षः काकादिशब्दवत्, भिन्नः कुष्ठाद्युपहतशब्दवत्, झर्झरितो जर्जरितो वा सतन्त्रीककरटिकादिवाद्यशब्दवत्, दीर्घः दीर्घवर्णाश्रितो दूर Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सह 365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्द श्रव्यो वा मेयादिशब्दवत्, ह्रस्वोह्रस्ववण्णाश्रयो विवक्षया लघुर्वा एतेन 'गुणत्वयोगात रूपादयो गुणा' इति निरस्तम्। सम्म० 2 काण्ड वीणादिशब्दवत्। 'पुहत्तेय' त्ति-पृथक्त्वे अनेकत्वे, कोऽर्थो ? नाना- 1 गाथाव्या० / अने०। “पोग्गलरूवा सद्दो, तह-त्थवत्ता तहा पयइए उ। या दिद्रव्ययोगे यः स्वरो यमलशादिशब्दवत् स पृथक्त्व इति, सचाइ चित्तधम्मा, तेणिह ववहारसिद्धि त्ति // 1 // " अने० १अधि० / 'काकणी' ति- सूक्ष्मकण्ठगीतध्वनिः काकलीति यो रूढः / 'सिंखिणी' नित्यः शब्दः / विशे०। (अत्रत्या वक्तव्यता ‘णमुकार' शब्दे चतुर्थभागे ति-किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका तस्याः स्वरोध्वनिः किङ्किणीस्वरः / स्था० 1822 पृष्ट गता।) (द्वाभ्यां स्थानाभ्यां शब्दा उत्पद्यन्ते इति सदुप्पाय' 10 ठा०३ उ८ / (एकरय शब्दस्य बहवोऽर्थाः तेच ववहार' शब्दे षष्ठभागे शब्दे वक्ष्यत / ) अथवा -शब्दे पुष्पशालाद्भद्रा ननाश। आचा०१ श्रु०३ प्रतिपादिताः।। नो मनोज्ञान् शृणुयात् नो मनोज्ञेषु शब्देषु रज्येतेति अ० 1 उ०। (प्रतिबद्धशय्यायां स्त्र्यादिशब्दं श्रुत्वा कस्यचिन्मोह उत्पपरिग्रहविरतेः प्रथमा भावना / आचा०२ श्रु०३ चू० / शब्दश्वाकाशस्य द्येत इत्यतो न साधुस्तत्र तिष्ठते इति पडिबद्धसिज्जा' शब्दे पञ्चमभागे गुणो न भवति; तस्य पौगलिकत्वात् आकाशस्यामूर्तत्वात् / सूत्र०१ 220 पृष्ठे गतम्।) (शब्देषु राग इति इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे 566 पृष्ट श्रु०१२ अ०। शब्दस्य हि गुणत्वसिद्धौ निराश्रयस्य गुणस्याऽसंभवादा- उक्तम् / ) "अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं,द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम् / श्रयभूतेन गुणिना भवितव्यं पृथिव्यादेश्च तद् गुगत्वनिषेधात्, अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लृप्तावतावकानां प्रतिभाप्रमादः // 14 // " इति परिशेषादाकाशाश्रयः शब्दस्तस्य चैकत्वं शब्दलिङ्गाविशेषाद सामान्यविशेषोभयात्मकस्य वस्तुनो वाच्यत्वम्। इति। स्या०। ('आगम' विशेषलिङ्गाभावाच ततो गुणत्वसिद्धौ शब्दस्यैकद्रव्यत्वसिद्धिः। ततश्च शब्दे 66 पृष्ठे दर्शितम्।) (भाषाद्रव्यग्रहणनिसर्गो 'भासा' शब्दे 5 भागे यथोक्तविशेषणात् गुणत्वसिद्धिरितीतराश्रयत्वान्न शब्दस्य गतः / ) ('पुट्ट सुणेइ सह' इति 'इंदिय' शब्दे 565 पृष्ठे द्वितीयभागे दृष्टान्तत्वसिद्धिः / (अथनानेन प्रकारेणैकद्रव्यत्वं शब्दस्य साध्यते, व्याख्यातम्) किंतु-कादाचित्कत्वाच्छब्दः कार्यम्, कार्यस्य च क्षणिकत्वनिषेधे छद्मस्थ आतोड्यमानान् शब्दान् शृणोतिअनाधारस्यासंभवात् समवायिकारणेन भवितव्यम्, पृथिव्यादेश्च छउमत्थे णं भंते ! मणूसे आउडिजमाणाइंसद्दाइंसुणेइ, तं जहासमवायिकारणत्वनिषधे आकाशस्यैव समवायिकारणत्वं तस्यैकत्व संखसराणि वा सिंगसदाणि वा संखिय७खरमुहिय० पोया पूर्ववत् द्रष्टव्यम् / अत एकद्रव्यत्वं शब्दस्य सिद्धमिति प्रतिषिद्ध्य पिरिपिरियासदाणि वा पणव०पडहभभाव्होरंभसदाणि वा मानकर्मत्वे एकद्रव्यत्वात् रूपादिवद् गुणः शब्दः सिद्ध इति न दृष्टान्ता मेरि झाल्लरिदुंदुभिसद्दाणि वा तयाणि वा वितयाणि वा घणाणि सिद्धिः / प्रतिषिध्यमानकर्मत्वं च शब्दः कर्मन भवति शब्दान्तरहेतुत्वादा वा झुसिराणि वा? हंता गोयमा !,छउमत्थेणं मणूसे आउडिज्जमाणाई काशवतशब्दान्तरहेतुत्व चाशब्दस्य कार्यत्वाव्यापकत्वाभ्यां सिद्धम् सद्दाइंसुणेइ, तं जहा–संखसहाणि वाळजाव झुसिराणि वा। ताई कार्य हि पूर्ववत्, समवायिकारणापेक्षं पृथिव्यादेश्च समवायिकारणत्व भंते ! किं पुट्ठाई सुणेइ? अपुट्ठाईसुणेइ? गोयमा ! पुट्ठाईसुणेइ, नो निषेधात्, व्योम्नस्तं प्रति समवायिकारणता शब्दस्य च प्रत्यक्षत्या अपुट्ठाई सुणेइ जाव नियमा छदिसिं सुणेइ। तहाणं भंते ! छउमत्थे न्यथानुपपत्त्या, सन्तानकल्पना सन्तानश्च शब्दान्तरहेतुत्वमन्तरेणा णं मणूसे किं आरगयाइं सद्दाइंसुणेइ, पारगयाइं सद्दाई सुणेइ? नुपपन्न इति नासिद्धौ हेतुदृष्टान्तौ / प्रतिषिध्यमानकर्मत्वं चेच्छादीनां गोयमा ! आरगयाइं सद्दाइंसुणेइ, नो पारगयाइंसद्दाइंसुणेइ। जहा कर्मत्वानधिकरणतयाऽध्यक्षप्रतिपत्तित एव सिद्धम् / एकद्रव्यत्वं च णं भंते! छउमत्थेमणूसे आरगयाइंसद्दाइंसुणेइणो पारगयाईसद्दाई यज्ञदत्तेच्छादीनां देवदत्तादावनुभवाभावतो व्यवस्थितमेव) असदेतत्। सुणेइ। तहाणं भंते ! केवलीमणूसे किं आरगयाइं सद्दाइंसुणेइ कार्यत्वस्य समवायिकारणप्रभवत्वेन शब्दादावसिद्धेर्न पूर्वोक्तप्रक्रिययाऽप्येकद्रव्यत्वसिद्धिः, अत एव शब्दान्तरहेतुत्वान्न कर्मत्व पारगयाइं सद्दाइंसुणेइ? गोयमा! केवली णं आरगयं वा पारगयं वा प्रतिषेधः शब्दस्य हेतुदृष्टान्तयोरसिद्धेः, नहि शब्दलक्षणस्य कार्यस्य सव्वदूरमूलमणंतियं सदं जाणइ पासइ,से केणऽटेणंतं चेव केवली निराधारस्य संभवे व्योम्नः समवायिकाणत्वेन शब्दान्तरहेतुत्वं शब्दस्य णं आरगयं वा पारगयं वा०जाव पासइ?गोयमा ! केवली णं वा समवाथिकारणत्वेन शब्दान्तरहेतुत्वं, तदयुक्तम् / न च पुरच्छिमेणं मियं पि जाणइ अमियं पि जाणइ, एवं-दाहिणेणं शब्दप्रत्यक्षताऽन्यथाऽनुपपत्त्या सन्तानकल्पना युक्तिसङ्गता, पञ्चत्थिमेणं उत्तरेणं उद्धं अहे मियं पिजाणइ, अमियं पिजाणइ, तामन्तरेणापि शब्दप्रत्यक्षतोपपत्तेः प्रतिपादनात्, एक द्रव्यत्वस्य सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली,सव्वओ जाणइ पासइ, प्रतिषिध्यमानकर्मत्वस्य चेच्छादिष्वध्यक्षत एव सिद्धौ गुणसमवायात् सव्वकालं जाणइपासइ, सव्वे भावे जाणइ, केवली, सव्वमानेपासइ गुणरूपताया अपि ततएव सिद्धे रनुमानोपपन्यासस्य वैयर्थ्य स्यात्। न केवली, अणंते णाणे केवलिस्स, अणते दसणे केवलिस्स, निव्युडे चाध्यक्षसिद्धेऽपि गुणत्वयोगे व्यवहारासाधनार्थं तदुपन्याससाफल्यं नाणे केवलिस्स निव्वुडे दंसणे केवलिस्स से तेण?णं जाव पासइ। तद्गुणत्वस्य समवायस्य वाऽध्यक्षप्रतिपत्तौ कदाचिदप्यप्रतिभासनाद् | (सू०१८५) Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्द 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दणय 'छउमत्थे णमि' त्यादि 'आउडिजमाणाई'ति-जुडबन्धने इति वचनात आजोड्यमानेभ्यः-आसम्बन्ध्यमानेभ्यो मुखहस्तदण्डादिना सह शङ्खपटहझल्लर्यादिभ्यो वा द्यविशेषेभ्यः आकुट्यमानेभ्यो वा एभ्य एव ये जाताः शब्दास्ते आजोड्यमाना आकुटयमाना एव वा उच्यन्ते अतस्तानाजोड्यमानानाकुट्यमानान्वा शब्दान् शृणोति / इह च प्राकृतत्वेन शब्दशब्दस्य नपुंसकनिर्देशः। अथवा- 'आउडिजमाणाई' | ति-आकुट्यमानानि परस्परेणाभिहन्यमानानि, 'सवाई' ति-शब्दानिशब्दद्रव्याणि शड् खादयः प्रतीताः नवरं 'संखिय' त्ति- शनि का ह्रस्वः शङ्खः 'खरमुहि' त्ति-काहला पोयामहती काहला, 'पिरिपिरिय' त्तिकोलिकपुटकाव नद्धमुखो वाद्यविशेषः। 'पणव' त्ति-भाण्डपटहो लघुपटहो वा तदन्यस्तु पटह इति, 'भभ'त्ति ढक्का, 'होरंभ' त्ति-रूढिगम्या 'भेरि' ति-महाढक्का, 'झल्लरि' त्ति-वलयाकारो वाद्यविशेषः, 'दुंदुहि' त्ति--देववाद्यविशेषः / अथोक्तानुक्तसंग्रहद्वारेणाह- 'तताणि वे' त्यादि ततानि-वीणादिवाद्यानितजनितशब्दा अपि तताः, एवमन्यदपि पदत्रय, नवरमयं विशेषस्ततादीनाम्-"तत वीणादिकं ज्ञेयं, वितत पटहादिकम्। घनं तु कास्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम्" // 1 // इति पुट्ठाइं सुणेइ इत्यादि तु प्रथमशते आहाराधिकारवदवसेयमिति 'आरगयाई' तिआरा-दागस्थितानिन्द्रियगोचरमागतानित्यर्थः, 'पारगयाइं लि-इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितानिति,' 'सव्वदूरमूलमणतियं' ति-सर्वथा दूर विप्रकृष्ट मूलं च निकटं सर्वदूरमूलं तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलोऽतस्तम् / अत्यर्थ दूरवर्तिनमत्यन्तासन्न चेत्यर्थः / अन्तिकम्-आसन्न तन्निषेधादनन्तिकम्, नमोऽल्पार्थत्वात् नात्यन्तमन्तिकम्-अदूरासन्नमित्यर्थः तद्योगाच्छब्दोऽप्यनन्तिकोऽतस्तम् अथवा- 'सव्य'ति, अनेन 'सव्वओ समंता' इत्युपलक्षितम्, 'दूर मूलं' ति–अनादिकमिति हृदयम 'अणंतिय' ति-अनन्तिकमित्यर्थः “मियं पि' ति-परिमाणवत् / गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादि, 'अमिय पि' ति-अनन्तमसंख्येयं वा, वनस्पतिपृथिवीजीवद्रव्यादि। 'सव्वं जाणई' इत्यादि / द्रव्याद्यपेक्षयोक्तम्। अथ कस्मात् सर्व जानाति केवलीत्याधुच्यते / इत्यत आह-- 'अणंते' त्यादि, अनन्त ज्ञानमनन्तार्थविषयत्वात्, तथा- 'निब्बुडे नाणे केवलिस्स' त्ति-निर्वृत-निरावरणं ज्ञान केवलिनः क्षायिकत्वाच्छुद्धमित्यर्थः वाचनान्तरे तु-- 'निव्वुड़े वितिमिरे विसुद्धे' त्ति-विशेषणत्यं ज्ञानदर्शनयोरभिधीयते, तत्र च-निर्वत-निष्ठागतं वितिमिरक्षीणावरणमत एव विशुद्धमिति। भ०५ श० 4 उ० / (वागद्रव्याणामादानम्, उत्सर्गो वा 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे विरतो गतम्।) 'आउद्देमाणे सद्देण घोसेण' आक्रुट्टयन अयोधनघात-प्रभवेण ध्वनिना पुरुषहुकृतिरूपेण वा तस्यैवानुनादेन। भ०६ 101 उ० / सदाइं अणेगरूवाइं अहिआसए / (सू०४) शब्दा अनेकरूपाः--वीणावेणुमृदङ्गादिजनिताः / तथा क्रमेलका- | रमिताद्युत्त्यापितास्ताश्चाविकृतमना अध्यासयति-अधिसहते। आचा० 1 श्रु०६ अ०२ उ० / सू०। प्रज्ञा० / प्रसिद्धौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०॥ एकदिग्व्यापिनि वर्णे, स्था० 10 ठा० 3 उ० / शब्द्यते-प्रतिपाद्यते वस्त्वनेनेति शब्दः, शब्दस्य यो वाच्योऽर्थः स एव येन तत्त्वतो गम्यते स नथ उपचारात शब्दः इत्युच्यते / नयभेदे, विशे०। (शब्दनयमतमिहैवानुपदं 'सघणय' शब्दे वक्ष्यते।) शाब्दमपि न सर्व प्रमाणम्, कि तर्हि ? आप्तप्रणीतस्यैवागमस्य प्रामाण्यात् / न चाहद्व्यतिरेकेण अपरस्याप्तता युक्तियुक्ता। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। सदसण न० (सद्दर्शन) शोभन दर्शनं सद्दर्शनम् / सम्यग्दर्शने, दर्श० 2 तत्त्व। सद्दकर पुं० (शब्दकर) रात्रौ महता शब्देनोल्लापे, स्वाध्यायादिकारके गृहस्थभाषाभाषके, असमाधिस्थानप्राप्ते च। स०२० सम० आ० चू०। सद्द करेति असंखडसवं करेति। आव० 4 अ०। सद्दकरण न० (शब्दकरण) शब्दः क्रियते यरिमन तत् शब्दकरणम्। आ० म०१ अ० / उदात्ताऽऽदिस्वरविशेषे, विशे०। सद्दकरणं नामज सद्देहिं पगडत्थं कीरति न पुण गोवित संकेतिगं, तंजधा-उप्पण्णे त्ति वा भूते त्ति वा विगते त्ति वा परिणाते त्ति वा / उदात्ता अनुदाताश्च / णिसीह पच्छण्णगोवितसंकेतितं / आ० चू०१ अ०। आ० म० / शब्दः क्रियते यस्मिन् तत्-शब्दकरणम् / उक्तं च- 'उत्ती उ सद्दकरण, पगासपाढं व सरविसेसो वा / तं निशीथं ति निशीथं भवति / इयमत्र भावना- यत् उत्पादाद्यर्थप्रतिपादकः / तथा महताऽपि शब्देन प्रतिपाद्यं तत् प्रकाशपाठात् प्रकाशो-पदेशाच्च शब्दकरणं नाम / आ० म०१ अ०। सद्दऽज्झयण न० (शब्दाध्ययन) शब्दशक्तिप्रतिपादके आचारागाध्ययनस्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य चतुर्थसप्तैककाध्ययने, आचा० 2 श्रु०२ 0 4 अ०। आव०। सद्दणय पुं० (शब्दनय) शप् आक्रोशे, शष्यते अवधीयते वस्त्वनेनेति शब्दः / तमेव गुणीभूतार्थमुख्यतया यो मन्यते स नयोऽप्युपचाराच्छब्दः, स चासौ नयश्च / अनु०। शपनं शपति वा असौ शप्यते वा तेन वस्त्विति शब्दः, तस्यार्थपरिग्रहादभेदोपचारात् नयोऽपिशब्द एव। स्था०७ठा० 3 उ० / सप्तसु नयेषु अन्यतमे नये, नं०। शब्दनयं लक्षयतिविशेषिततरः शब्दः, प्रत्युत्पन्नाश्रयो नयः। तरप्रत्ययनिर्देशा-द्विशेषिततमे गतिः।।३३|| 'विशेषिततर' इति-विशेषिततरः प्रत्युत्पन्नाश्रयऋजुसूत्राभिमतग्राही नयः शब्द इत्याख्यायते,यत्सूत्रम्- 'इच्छइ विसेसियतरं पच्चुप्पण्णं णओ सदो' त्ति ।अत्र तरप्रत्ययनिर्देशाद्विशेषिततमाधोवर्तिविषयत्वलाभाद्विशेषिततमे समभिरूढे एवंभूते वा गति तिव्याप्तिः। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवणय 367 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दणय ऋजुसूत्राद्विशेषमस्य स्पष्टयतिऋजुसूत्राद्विशेषोऽस्य, भावमात्राभिमानतः। सप्तभङ्गन्यर्पणाल्लिङ्ग-भेदादेर्वाऽर्थभेदतः॥३५।। ऋजुसूत्रादिति-अस्य-शब्दनयस्य ऋजुसूत्राद्विशेषः-उत्कर्षो / भावमात्रस्याभिमानात, अयं हि पृथुबुध्नोदराद्याकारकलितं मृन्मयं जलाहरणादिक्रियाक्षम प्रसिद्ध भावघटमेवेच्छति, शब्दार्थप्रधानत्वात्, 'घट' चेष्टायामिति शब्दार्थस्य भावघट एव योगान्नतु नामस्थापनाद्रव्यरुपास्त्रीस्तत्रोक्तार्थयोगात्। तथा चैतत्संवाद्याह भाष्यकार:"णामादयो ण कंभा. तक्कजा करणओ पडाइव्व। पच्चक्खविरोहाओ, तल्लिंगाभावओ वाऽवि // 1 // " नामस्थापनाद्रव्यघटाः घटत्वेन न व्यवहर्तव्याः, घटार्थक्रियाकारित्वाभावादघटत्वेन प्रतीयमानत्वात्, घटव्यवस्थापकधर्माभावाचेत्येतदर्थः / यद्वा-सप्तभङ्गचर्पणादस्य विशेषः, ऋजुसूत्रस्य हि प्रत्युत्पन्नोऽविशेषित एव कुम्भोऽभिप्रेतः,शब्दनयस्य तु (स एव सद्भावादिभिर्विशषिततरोऽभिमतइत्येवमनयोर्भेदः, तथाहि-स्वपर्यायैः पर (विशेषा वश्यकवृत्तितः) पर्यावरुभयैर्वाऽर्पितोऽयं कुम्भाकुम्भावक्तव्यो भयरूपादिभेदन सप्तभङ्गी प्रतिपद्यत इति / यद्भाष्यम्"अहवा पच्युप्पण्णो, उजुसुत्तस्साविसेसिओ चेव। कुंभी विसेसिअतरो, सम्भावादीहि सद्दस्स / / 1 / / सब्भावोसब्भावो-भयप्पिओ सपरपज्जवोभयवो। कुंभाकुंभावत्त-व्वोभयरूवाइभेवो सो / / 2 / / " त्ति / इह "कुंभाकुंभे" त्यादि / गाथापश्चार्द्धन षड् भङ्गाः साक्षादुपात्ताः सप्तमस्त्वादिशब्दात, तद्यथा-कुम्भः 1 अकुम्भः २अवक्तव्यः 3 'उभय' त्ति संश्थाऽसंश्चत्युभयम् 4 सन्नवक्तव्य इत्युभयं 5 तथा-ऽसन्नवक्तव्य इत्युभयम् 6 आदिशब्दसंगृहीतस्तु सप्तमः सन्नसन्नवक्तव्य इति 7. अत्रोभयपदस्य समभिव्याहृतपदार्थतावच्छेदकद्वयप्रकारकबुद्धिविषये शक्तावपि सभभिव्याहारत्रैविध्यात् आवृत्त्या त्रिविधोभयबोध इति न्यायमार्गः / सामान्यशक्तावप्युभयपदादेकदैव, समभिव्याहारविशेषमहिम्ना त्रिविधविशेषप्रकारको बोध इत्यनुभवमार्गः, तदेव स्याद्वाददृष्टसप्तभेदं घटादिकमर्थ यथाविवक्षितमेकेन केनापि भङ्गकेन विशेषिततरमसी शब्दनयः प्रतिपद्यते, नयत्वादृजुसूत्राद्विशेषिततरवस्तुगाहित्वाच्च। स्यावादिनस्तु संपूर्णसप्तभङ्ग्यात्मकमपि प्रतिपद्यन्त इति विशेषावश्यकवृत्तावुक्तम् / तत्रायं विचारावकाशः-किमियं सप्त-- भनी अर्थनयाश्रिता,उत शब्दनयाश्रिता? आद्ये तदेकतरभङ्ग विशेषणे कथभृजुसूत्राच्छब्दस्य विशेषिततरत्वम् अर्थतयाऽऽश्रितभङ्गस्य शब्दस्य नयाविशेषक-वादुभयेषां विषयविभागस्य दूरान्तरत्वात्। द्वितीयविकल्प च ऋजुसूत्राभिमतार्थपर्यायाविषयत्वेनाशुद्धव्यञ्जनपर्यायग्राहिणः कुतः शब्दस्य विशेषिततरार्थत्वम्, नहि तदविषयविषयकत्वं विशेषितशब्दार्थः, किं तु-तद्विषयताव्याप्यविषयकत्वमिति / नच ऋजुसूत्राभिमतसत्त्वमुप-मृद्यासत्त्वाख्यद्वितीयभङ्गोत्थापनाच्छब्दस्यर्जुसूत्राद्विशेषिततरचं वक्तुं युक्तम्, एवं सति ऋजुसूत्राभिमतं सत्त्वमुपमृद्यासत्त्वग्रहणव्यावृत्तस्य व्यवहारस्यापि ततो विशेषिततरार्थत्वापत्तेर्विशेध्यक भगानिधारक वचनापत्ते श्वे ति, तत्रायमस्माकं मनीषोन्मेषः यद्यप्यर्थपर्यायाश्रिता सप्तभङ्गी संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रैर्व्यञ्जनपर्यायाश्रिता शब्दसमभिरुदैवभूतैः “सम्मतौ” (ग्रन्थे) सूचिता तथाऽप्येतत्प्रकारद्वया - भिधानमर्थव्यञ्जनसाधारणं पर्यायसामान्याश्रितसप्तभङ्ग्या अनुपलक्षणम्, सा च स्वपरपर्यायाणां क्रमयुगपद्विवक्षावशान्नयद्वयेन शुद्धशुद्धतरपर्यायविवक्षया च नयत्रयेणापि संभवतीति ऋजुसूत्रशब्दप्रयुक्तसप्तभड़ ग्यां द्वितीयादिना व्यवहारर्जुसूत्रप्रयुक्तायां च तस्यां तृतीयादिना भङ्गेनर्जुसूत्राच्छब्दस्य विशेषिततरार्थत्वं युक्तम्। नचैवम्-ऋजुसूत्रकृत्सत्त्वापेक्षया सताग्राहिणो व्यवहारस्यापि ततो विशेषिततरार्थत्वप्रसहदूषणानुद्धारः संप्रदायाविरुद्धभङ्गविषयीभूतेनार्थेन विशेषिततरत्वस्याभिधित्राितत्वात्, संप्रदायश्चोत्तरोत्तरभङ्ग प्रवृत्तावुत्तरोत्तरनयावलम्बनेनैव दृष्टो नान्यथेति न कश्चिद्दोष इति। वा अथवालिङ्गभेदादेरर्थभेदाश्रयणादस्य-शब्दनयस्य ऋजुसूत्राद्विशेषः, तथाहि (तटःतटी तटम् इत्यादौ) अन्यलिङ्गवृत्तिशब्दस्य नान्यलिङ्गभेदलक्षणेन गुरुः गुरव इत्यादौ च वचनभेदलक्षणेन वैधयेणार्थभेदः स्पष्ट एवानुभवात्, एवमन्यकारकयुक्तं यत्तदेवास्य मतेऽपरकारकसम्बन्धं नानुभवति इत्यधिकरणत्वाद ग्रामोऽधिकरणाभिधानविभक्तिवाच्य एव न कर्माभिधानविभवत्यभिधेय इति, ग्राममधिशेते इति प्रयोगोऽनुपपन्नः / तथा पुरुषभेदेऽपि नैक बस्त्विति, एहि मन्ये रथेन यास्यसि नहि या स्यसि यातस्ते पितेति च प्रयोगो न युक्तोऽपि त्वेहि मत्यसे यथाहं रथेन यास्यामीत्येवं परभावेनैतन्निर्देष्टव्यम्. एवभुपग्रहणभेदोऽपि विरमतीत्यादिर्न युक्त आत्मार्थतया हि विरमत इत्यस्यैव प्रयोगस्य संगतेन चैवं लोकशारत्रविलोपः सर्वत्रैव नयमते तल्लोपस्य समानत्यादिति सम्मतिवृत्ती ध्यवरिथतम, यद्यपि ग्राममधिशेते इत्यादौ ग्रामोत्तर द्वितीयादिपदादधिकरणत्वादिप्रकारकप्रतीत्यर्थमधिकरणत्वादिविशिष्ट लक्षणैव स्वीकार्या नाम्नि तन्निरूढत्वसमानार्थमेवं च विशेषानुशासनमिति वक्तुं शक्यते, तथाप्युक्तविपरीतप्रयोगप्रामाण्याय- 'उपपदविभक्तेः कारक-विभक्तिबलीयसी' इत्यादिन्यायसाम्राज्यवानयं विशेष इति दिग्। उक्तयुक्त्या यथा अनेन ऋजुसूत्रमतं दूष्यते। तथाऽऽहसामानाधिकरण्यं चे--न्न विकारापरार्थयोः। भिन्नलिङ्गवचःसंख्या-रूपशब्देषु तत्कथम् // 35! सामानाधिकरण्यमिति चेत्-यदि विकारापरार्थयोः विकाराविकारार्थकशब्दयोः पलालं दहतीत्यादौ सामानाधिकरण्यभेका-- न्वयजननयोग्यत्वं नेष्टमृजुसूत्रनये चेत्? तर्हि भिन्नानि लिङ्गवचःसंख्यारूपाणि येषां तादृशेषु तटस्तटी तटगुरुः गुरुवः सच त्वं च यास्यथः कुरुले करोति इत्यादिषु कथं सामानाधिकरण्यं न कथंचिदित्यर्थः / यथाहि- त्वयाऽग्निष्टोमयाजी पुत्रोऽस्य जनिता' इत्युक्तं स्वीक्रियते कालभेदात् तथा लिङ्गादिभेदादर्थभेदः सुतरां स्वीकर्तव्य इत्युपदेशः। नयो०। स्या०। शब्दनयमाहसवणं सपइ स तेणं, व सप्पए वत्थु जं तओ सहो। तस्सत्थपरिग्गहओ, नओ विसद्दो त्ति हेउव्व // 2227 / / Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहणय 368 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दणय - - 15' आक्रोशे, शपनम् आह्वानमिति शब्दः, शपतीति वा आह्वयतीति शब्दः, शप्यते वा आहूयते वस्त्वनेनेति शब्दः, तस्य शब्दस्य यो वाच्योऽर्थस्तत्परिग्रहात्तत्प्रधानत्वान्नयोऽपि शब्दः, यथा कृतकत्वादित्यादिकः पञ्चम्यन्तः शब्दोऽपि हेतुः / अर्थरूप हि कृतकत्वमनित्यगमकत्वान्मुख्यतया हेतुरुच्यते, उपचारतस्तु तद्वाचकः कृतकत्वशब्दोऽपि हेतुरभिधीयते, एवमिहापि शब्दवाच्यार्थपरिग्रहादुपचारेण नयोऽपि शब्दो व्यपदिश्यत इति भावः। "इच्छइ विसेसियतर, पच्चुप्पन्न नओ सद्दो” इति नियुक्तिगाथादलव्याख्यानमाहतंचिय रिउसुत्तमयं,पच्चुप्पन्नं विसेसिययरंसो। इच्छद भावघडं चिय, जं न उनामादओ तिन्नि।।२२२८|| तदेव ऋजुसूत्रनयस्य मतमभीष्ट प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं वस्त्विच्छत्यसो शब्दनयः। कथंभूतं तदित्याह-विशेषिततरम्। कुत इद ज्ञायते? इत्याह यद्-यस्मापृथुबुध्नोदराद्याकारकलित मृन्मय जलाऽऽहरणाऽऽदिक्रियाक्षमं प्रसिद्धघटरूपं भावघटमेवेच्छत्यसौ न तु शेषान् नामस्थापनाद्रव्यरूपांस्त्रीन्घटानिति शब्दप्रधानो ह्येष नयः चेष्टालक्षणश्च घटशब्दस्यार्थः, घटचेष्टायाम्, घटते इति घटः इति व्युत्पत्तेः, ततश्च य एव जलाहरणादिक्रि यार्थमाचष्टे प्रसिद्धो घट स्तमेव भावरूपं घटमिच्छत्यसौ शब्दार्थोपपत्ते तु नामादिघटान घटशब्दार्थानुपत्तेः / अतश्चतुरोऽपि नामादिघटानिच्छत ऋजुसूत्राद्विशेषिततरं वस्त्विछत्यसौ एकस्यैव भावघटस्यानेनाभ्युपगमादिति। नामादिघटनिराकरणार्थमेव प्रमाणयन्नाहनामादओन कुंभा, तक्कजाकरणओ पड़ाइ व्व। पचक्खविरोहाओ, तल्लिंगाभावओवाऽवि॥२२२६।। नामस्थापना द्रव्यरूपाः कुम्भा न भवन्तीति प्रतिज्ञा जलाहरणादितत्कार्याकरणात्पटादिवत्, तथा प्रत्यक्षविरोधात, घटलिङ्गदर्शनाच्चेति / अघटरूपास्ते प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते इति प्रत्यक्षविरोधः जलाहरणादिकं घट लिङ्ग च तेषु न दृश्यते इति ततोऽनुमानविरोधोऽपीति / कथं ते नामादिघटव्यपदेशभाजो भवेयुरिति ऋजुसूत्रशिक्षणार्थमाहजइ विगयाऽणुप्पन्ना, पओयणाभावओनते कुंभा। नामादओ किमिट्ठा, पओयणाभावओ कुंभा॥२२३०।। यदि विगताः अनुत्पन्नाश्च त्वयाऽहो ऋजुसूत्रकुम्भा नेष्टाः प्रयोजनाभावात, तर्हि नामादयोऽपि कुम्भाः किमिष्टाः, प्रयोजनाभावस्य समानत्वान्, न खलु तैरपि कुम्भप्रयोजनं किमपि विधीयत इति / तदेवमृजुसूत्राच्छब्दनयस्य विशेषिततरमुक्तम्। अथवाअन्यथा तद् द्रष्टव्यं कथमित्याह अहवा पच्चुप्पन्नो, रिजुसुत्तस्साविसेसिओचेव। कुंभो विसेसिययरो, सब्भावाईहिँ सदस्स२२३१।। सम्मावासब्भावो, भयप्पिओ सपरपजओभयओ। कुंभाकुभावत्त-व्वोभयरूवाइभेओ सो // 2232 / / अथवा प्रत्युत्पन्नः ऋजुसूत्रस्याविशेषित एव सामान्येन कुम्भोऽभिप्रेतः शब्दनयस्य तु स एव सद्भावादिभिर्विशेषिततरोऽभिमत इत्येवमनयोर्भेदः ! तथाहि-स्वपर्यायैः परपर्यायः उभयपर्यायैश्च सद्भावेन असदावेन, उभयेन चार्पितो विशेषितःकुम्भः-कुम्भाकुम्भाऽवक्तव्योभयरूपादिभेदो भवतिसप्तभङ्गी प्रतिपद्यत इत्यर्थः, तद्यथा-ऊर्ध्वग्रीवकपालकुक्षिबुध्नादिभिः स्वपर्यायः सद्भावनार्पितो विशेषितः कुम्भः कुम्भो भण्यते, 'सन् घट' इति प्रथमो भङ्गो भवतीत्यर्थः / तथा पटादिगतैस्त्वक्त्राणादिभिः परपर्यायैरसद्भावेनार्पितो विशेषितोऽकुम्भो भवति सर्वस्याऽपि घटस्य परपर्यायैरसत्त्वविवक्षायाम्, असन् घट इति द्वितीयो भङ्गो भवतीत्यर्थः / तथा-सर्वोऽपि घटः स्वपरोभयपर्यायः सद्भावाऽसद्धावाभ्यां सत्त्वाऽसत्त्वाभ्यामर्पितो विशेषितो युगपद्वक्तुमिष्टोऽवक्तव्यो भवति, स्वपरपर्यायसस्थाऽसत्त्वाभ्यामेकन केनाऽप्यसांकेतिकेन शब्देन सर्वस्यापि तस्य युगपद्वक्तुमशक्यत्वादिति / एते त्रयः सकलादेशाः / अथ चत्वारोऽपि विकलादेशाः प्रोच्यन्ते। तत्रैकस्मिन्देशे स्वपर्यायसत्त्वेनान्यत्र तु देशे परपर्यायासत्त्वेन विवक्षितो घटः संश्चासंश्च भवति घटो घट श्व भवतीत्यर्थः / तथा एकस्मिन् देशे स्वपर्यायैः सद्भावेन सत्त्वेनार्पितो विशेषितोऽन्यत्र तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्या सत्चासत्त्वाभ्यां युगपदसांकेतिके नैकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः कुम्भः संश्चावक्तव्यश्च भवति, घटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्य घटत्वात्, देशे चावक्तव्यत्वादिति। तथा एकदेशे परपर्यायैरसद्धविनार्पितो विशेषितोऽन्यस्मिस्तु देशे स्वपरपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां सत्त्वासत्त्वाभ्यां युगपत्सांकेतिकेनैकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः कुम्भोऽसन्नवक्तव्यश्च भवति- अकुम्भोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देश तस्याकुम्भत्यात, देशे चावक्तव्यत्वादिति। तथा एकदेशे स्वपर्यायैः सद्भावेनार्पितः एकस्मिस्तु देशे परपर्याय रसद्भावेनार्पितः, अन्यस्मिस्तु देशे स्वपरोभयपर्यायैः सद्भावासद्भावाभ्यां युगपदेकेन शब्देन वक्तुं विवक्षितः कुम्भः संश्चासश्चावक्तव्यश्च भवतिघटोऽघटोऽवक्तव्यश्च भवतीत्यर्थः, देशे तस्य घटत्वात्, देशेऽघटत्वात्. देशे चावक्तव्यत्वा-दिति / इच च 'कुम्भकुम्भे' त्यादिना गाथार्द्धनषड्भङ्गाः साक्षादुपात्ताः सप्तमस्त्वादिशब्दाद् , तद्यथा-कुम्भः अकुम्भः अवक्तव्यः उभय'त्ति संश्वासश्चेत्युभयं, तथा सन्नवक्तव्यक इत्युभयं तथा असन्नवक्तव्यक इति चोभयम्, आदिशब्दसंग्रहीतस्तु सप्तमः सन्नसन्नवक्तव्यक इति। एवं सप्तभेदो घटः, एवं पटादिरपि द्रष्टव्यः / तदेवं स्याद्वाददृष्टं सप्तभेदं घटादिकमर्थ यथाविवक्षमेकेन केनापि भङ्गकेन विशेषिततरमसौ शब्दनयः प्रतिपद्यते, नयत्वात्, ऋजुसूत्राद्विशेषिततरवस्तुग्राहित्वाच्च, स्याद्वादिनस्तु संपूर्णसप्तभङ्गयात्मकमपि प्रतिपद्यन्त इति / अल विस्तरेणेति। अथवा लिङ्गवचने समाश्रित्य विशेषिततरं वस्त्विच्छति शब्दनय इति दर्शयन्नाहवत्थुमविसेसओ वा, जं भिन्नाभिन्नालिंगवयणं पि। इच्छइ रिउसुत्तनओ, विसेसिययरं तयं सद्दो॥२२३३।। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दणय 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दयंभवाइ 'वा' इति-अथवा भिन्नाऽभिन्नलिङ्गवचनमप्यविशेषतो यदृस्त्विच्छति / सद्दपरियारणा स्त्री० (शब्दपरिचारणा) शब्दश्रवणात वेदोषशभने, ऋजुत्रनयः, तद्विशेषिततरमिच्छति शब्दनय इति। प्रज्ञा० कुतः? इत्याह संप्रति शब्दपरिचारणां भावयितुकाम आहधणिभेयाओ भेओ,थीपुल्लिंगाभिहाणवच्चाणं। तत्थ णं जे ते सहपरियारगा देवा तेसिणं इच्छामणे समुप्पज्जइ, पडकुंभाणं व जओ, तेणभिन्नत्थमिटुंतं / / 2234 / / इच्छामोणं अच्छराहिं सद्धिं सद्दपरियारणं करित्तए, तएणं तेहिं देवेहि यतो-यस्मात्कारणात स्त्रीपुनपुंसकलिङ्गाभिधानवाच्यानामर्थानां मणसीकए समाणे तहेव० जाव उत्तरवेउब्वियाई रुवाइं विउव्वंति तटादीनां भेद एव न पुनरेकत्वं तटीत्यभिधानस्याऽन्योऽर्थो वाच्यः, तट विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तेसिं इत्यभिधानस्य त्वन्यः, तटमित्यभिधानस्यत्वपरः / कुतः? ध्वनिभेदा- देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा अणुत्तराई उच्चावयाई सद्दाई तथा गुरुर्गुरव इत्याद्येकवचनबहुवचनवाच्यानामर्थाना ध्वनिभेदादेव समुदीरेमाणीओ समु०२ चिटुंति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं भेदः / कषामिवे थाह पटकुम्भाऽऽदिध्वनिभेदात्पटकुम्भाद्यर्थानामिव तेन सद्धिं सद्दपरियारणं करेंति सेसंतंचेवजाव भुजो भुजो परिणमंति। तरमात्कारणात् लिङ्ग वचनं चाभिन्नार्थमेवेष्ट यादृशो ध्वनिस्तादृश (सू०३२६+) एवार्थोऽस्येष्ट इत्यर्थः / अन्यलिङ्ग वृत्तेस्तु शब्दस्य नान्यलिङ्गमर्थ 'तत्थ णमि' त्यादि कण्ठ्यम, नवरमदूरसमीपे स्थिस्था अनुत्तरान् वाच्यमिच्छत्यसो नाप्यन्यवचनवृत्तेः शब्दस्यान्यवचनवाच्य वस्त्व सर्वमनः प्रहादजनकतया अनन्यसदृशान् उछावचान--प्रबलप्रभिधेयमिच्छत्येष इति भावः। बलतरमन्मथोद्दीपकसभ्याऽसभ्यरूपान् शब्दान्, सूत्रे नपुंसकनिर्देशः अथ यदसौ मन्यते तत्सर्वमुपसंहृत्य दर्शयति प्राकृतत्वात्समुदीरयन्त्यस्तिष्ठन्ति, शेष तथैव। प्रज्ञा०३४ पद। तो भाव्वुच्चिय वत्थु, विसेसियमभिन्नलिंगवयणं पि। सद्दबंभ न० (शब्दब्रहान्) षट्भाषावाङ्मये ब्रह्मणि, अष्ट०२६ अष्ट०। बहुपज्जायं पि मयं, सद्दत्थवसेण सहस्स।।२२३५|| सवबंभवाइ पुं० (शब्दब्रह्मवादिन) शब्दसन्मात्रमिच्छति वैयाकरणे, नं०। ततः तस्मान्नामादिनिक्षेपे भावघटादिको भाव एव वस्त्वित्यसा सम्म० / अराऽऽह वैयाकरण:--न वाक् संस्पर्शरहिता काचित विच्छति, तदप्पि पूर्वोक्तनीत्या सद्भावादिभिर्विशेषित्तमभिन्नलिङ्ग वचन प्रतिपत्तिरस्ति शब्दाऽनुविद्धायास्तस्याः प्रतिभासनात् / यदि त... चाभ्युपैति, स्ववाचकध्वनीनामभिन्ने लिङ्गवचने यस्य तदभिन्नलिङ्गवचन तत्सं स्पर्शविकला साऽभ्युपगम्येत प्रकाशरूपताऽपि तस्या हीयेत वस्त्वसावभ्युपगच्छति, न पुनरेकस्यैवार्थस्य लिङ्ग त्रयवृत्तिशब्द वाग्रूपता हि शाश्वती प्रत्यवमर्शिनी च तदभावे न तस्याः किंचिदपर वाच्यत्वम्, एक वचनबहुवचनवृत्तिशब्दवाच्यत्वं वा मन्यत इत्यर्थः / रूपमवशिष्यते / तदुक्तम्- "वाक् रूपता चेत् व्युत्क्रामेदवबोधस्य सगभिरूढेन सहास्य मतभेदं दर्शयति इन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादि शाश्वती।न प्रकाशः प्रकाशेत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी" (वाक्य० प्र०का० बहुपर्यायमप्ये कमिन्द्रादिक शब्दनयस्य मतेन भवति / के न? श्लो० 125) इति / न च निरस्तोल्लेख स्वसंवेदनं व्यवहारविरचन.. शब्दस्येन्द्रादेरिन्दनादिको योऽर्थस्तद्वशेन एकस्मिन्नपीन्द्रादिके वस्तुनि चतुरमिति सविकल्पमम्युपगन्तव्यम्। असदेतत्, यतोऽध्यक्ष पुरः संनिहितमेव भावात्मानमवभासयति यावन्त इन्दनशकनपूरणादयोऽर्था घटन्ते तदशेनेन्द्रशक्रादि तत्रैवाक्षवृतेर्वागरूपता च न पुरः सन्निहितेति न सा तत्र प्रतिभाति। न च बहुपर्यायमपि तदस्तुशब्दनयो मन्यत इत्यर्थः। समभिरुढस्तु नैव मस्यत व्यापितया पदार्थात्मतया वा अर्थदेशे सन्निहिता वागिति तददर्शन इत्यनयोर्भद इति / उक्तः शब्दनयः। विशे०। सम्म०। आ० म०। आ० साऽप्यवभाति, वाचामर्थदशे सन्निधेरयोगात् / तथाहि-यदाऽक्षान्वय चू०। सूत्र० शब्दप्रधानो नयः शब्दनयः / शाकपार्थिवादिवत् समासः। संवेदने पुरस्थो नीलादिराभाति न तदा लद्देश एव शब्दात्मा वक्त्रमुख - शब्दप्राधान्येन अर्थमत्सु सूत्र०२ श्रु०७ अ०। शब्दसमभिरूद्वैवं भूतेषु देशस्य तस्यावभासनात् / नचान्यदेशतयो-पलभ्यमानोऽन्यदेशोनयेषु, उत्त० 2 अ० / आ० म० / सम्म० / स्या० / अष्ट / अनु० / ऽभ्युपगन्तुंयुक्तो नीलादेरपि तथाभावप्रसक्तेः / अतो वागविविक्तस्य विशे० ! रत्नाटक नीलादेरवभासनान्नार्थदशे वाकसन्निधिरिति न तत्संस्पर्शवत्यक्षमतिः / सहत्थ पुं०(शब्दार्थ) वाच्यवाचकयोः, विशे०। न च पदार्थात्मता वाचोयुक्ता, तत्त्वेनाप्रतिभासनात् / स्तम्भादिहि सद्ददव्यभेद पुं० (शब्दद्रव्यभेद) शब्दद्रव्याणा भेदने, प्रज्ञा०११ पद। शब्दाऽऽकारविविक्तः पुरः प्रतिभाति शब्दोऽप्यर्थ विविक्तस्वरूपेण (व्याख्या 'भारा' शब्दे पञ्चमभागे गता।) श्रोत्रज्ञानेऽवभातीति, न तयो रेक्यं प्रतिभासभेदतो भेदात / सद्दपरिणाम पुं. (शब्दपरिणाम) शब्दतया पुद्गलानां परिणामे, स्था० तथाऽप्यभेदेन क्वचित् भेदो भवेदित्यध्यक्ष शब्दविविक्तरूपादिविषय 10 ठा०३७०। शब्दपरिणामस्ततविततघनशुषिरभेदाचतुर्दा / सूत्र० न वाग-रूपतासंसृष्टम् / तत्र तस्य-असन्निधानात, व्यवहिताया 1 श्रु० 1 अ०० उ०1 अपि वाचः प्रतिभासे सकलव्यवहितभावपरंपरा,प्रतिभासताम् सद्दपरियारग पुं, (शब्दपरिचारक) शब्दादेवोपशान्तवेदोपतापे, स्था० अर्थसन्निधानेऽपि वा वाचो लोचनमतावर्थप्रतिभासेन तस्याः 2 छा० 4 उ०। ("दोसु कप्पसु देवा सद्दपरियारगा" इति 'कप्प' शब्दे प्रतिभासस्तदविषयत्वात्,नहि यो यदविषयः स सन्निहितोऽपि तत्र म ) एटे गए। प्रतिभाति, यथा आमरूपप्रतिपत्तौ तद्रसः अविषयश्च लोचनबुद्धेः Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 370 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सहबंभवाइ शब्द इति / लोचनबुद्विाऽर्थमनुसरन्ती रवविषयमेवाऽवभासयति नेन्द्रियान्तरविषयं सन्निहितमपि, यथा रसनसमुदवा मधुरादिप्रतिपतिरनदेवन परिमलादिकं, लोचनप्रभवप्रत्ययेनैव श्रुतिविषयशब्दप्रतिपत्ती नयनबुद्धिरे व सर्वाविषयग़ाहिका इतीन्द्रियान्तरपरिकल्पनावयय शब्दात्मकऽपि पदार्थेऽयुपगम्यमाने श्रुतिरेव शब्दपरिणतिमधिगच्छति लोचनं च रूपविवर्त पर्येतीत्यभ्युपगन्तव्यम, अन्यथैकमेवाक्षं विषययपञ्चक विषयीकरोतीति तत्राप्यक्षपशककल्पना विफलतामनुभवेत / तत्सकलमक्षवेदनं वाचकविकलं स्वविषयभेवावलोकयतीति निर्विकल्पकम।न-चार्थसन्निधानाद्वायः-सन्निधावप्यक्षान्तरवैफल्यप्रसक्तैः-लोचनमतो यदि नाम न शब्दसन्निधिजनिता शब्दाऽऽकारता तथाऽप्युपादानाद् बोधरूपतैव वाग्रुपताऽपि वाचकस्मृतिजनिता तत्र भविष्यति यतो यदि स्मरणजनितो चागरूपतोल्लेखरतदा स्पष्टलोचनप्रभवदृशो भिन्न एव भवेत् कारण विषयभन्दात / तथाहिलोचनव्यापारानुसारिणी दृग वर्तमानकालं रुपमा विशदायाऽधभासति / विकल्पस्तु शब्दस्मरणप्रभवोऽसन्निहितां वागरूपतामध्यवस्यति कथं न हेतुविषयभेदात्तयोर्भेदः? अथ वाकपरिष्वक्तं रूपमधिगच्छद् 'रूपमिदम्' इत्येकं संवेदनमध्यवस्यतिजन इति कथन तयारक्यम? नैतद,यतः--'रूपमिदम' इति ज्ञानेन वागरूपताऽऽपन्नाः पदार्था गृहोरन्, भिन्नवागरूपताविशेषणविशिष्टा वा? प्रथमपक्षे लोचनं वागमएताया न प्रभवतीति तदनुसारिण्यध्यक्षमतिरपि न तत्र प्रतिमती एन। कथासावर्थरूपापन्नां वागूपतामधिगन्तु क्षमेत्यन्यै थाक्षमलिनामोल्लेखात / अथ द्वितीयः पक्षस्तदापि नयनदृग तद्विषये शुर एव पुरो व्यवस्थिते प्रवर्तते न वाचि, तत्र चावर्त्तमाना कथं तद्विशिष्ट स्वविषयमुदद्योतयित् समर्था, न हि विशेषण भिन्नमनवभासयति तद्विशिष्टतया विशेष्यमयभारायति दण्डागहण इव दण्डिनम्। न च यद्यपि वाक दशि न प्रतिभाति, तथापि स्मृतौ प्रतिभा दही विशेषणमर्थश्य भिन्नज्ञानग्राह्यस्यापि विशेषणत्वापपत्तरिति यवतु वयम संविदन्तरप्रतीतस्य स्वातन्त्र्येण प्रतिभासनात, तदन्तरप्रतीयमानविशेषणत्वानुपपतिः / यतो नैककालगनेककालं वा शब्दस्वरूप स्वतन्त्रतया स्वग्राहिणि ज्ञाने प्रतिभासमानं विशेषणभावं प्रतिपहाते सर्वत्र तस्य तगायापत्तेः / नच शब्दानुरक्तरूपाद्यध्यक्षमतिरुदेतीति शब्दस्य विषारवं रूपादेश्व विशेष्यत्वं, यतो यदितदनुरखतना तत्प्रतिभारस्तदा शब्दरमाक्षवुद्धाल्पतिभासनान्न तदनुरक्तता। अथ धादिदेश शदवेदनं तदनुराता, तदपि न युक्त, निरस्तशब्दरान्निधीनां रूप-दीन रवज्ञाने प्रतिभासनात् / अथ तत्कालशब्दप्रतिभारास्तदनुरागः, न, नयनमृति संपादिव्यतिरिक्तशब्दप्रतिभासऽभायात, यतो न तुल्यकालमपि शब्द लाचनसंविदवभासयितुं क्षमा तरय तदविषरात्वात् / अथ शब्दानुषबतरूपस्मृतिदर्शनाद् तद्रूपस्य तस्य प्राक् दर्शनमुफ्यता सहि शब्दविविक्तमर्थ रूप प्रत्यक्षमधिगच्छति; वाचकं तु स्मृतिरुलिखतीति न तत्सस्पर्श मध्यक्ष मनु भवतीति निर्विकल्पकमासक्तम, अराया शब्दस्मरणासंभवादध्यक्षाभावो भवेत् / तथाहि-रादिवाकरसंगृष्टस्य सकलार्थरय संवेदन तथा सत्यर्थदर्शने तवाक्मृतिरता च रात्परिकरितार्थदर्शनभ नच कश्चिद वाक्सस्पर्शविकलमर्थमवगच्छति तमन्तरेण च न वाक्रमृतिः ता चान्तरेण न वागनुषक्तार्थदर्शन-भित्यर्थदर्शनाऽभावो भवेत् / ततोऽर्थदर्शनान्निर्विकल्पकमेव तदभ्युपरन्तव्यम् / यदि च-वाकसंसृष्टस्येवार्थस्य ग्रहणं तदाऽगृहीत-संकेतन्य बालकस्य तद्ग्रहण न भवेत् / अथ तस्यापि 'किम्' इति वागलेखाऽस्तीति तदनुषक्तद्ग्रहणं सविकल्पकम, नैतद्युक्तम् / तस्य किमपीति सामान्यस्यैव ग्रहणं भवेन्न विशेषस्येति न विशदावभासस्यार्थसंवेदनसंभवः। यदा च अश्वं विकल्पयतो गोर्दर्शनं परिणमति तदा तदा तद्वागपरिच्छदात् कथमवबोधस्य शास्वतीवागुरूपता? नहि तदा गोशब्दोल्लेखस्तदवबोधस्य संभवति / तत्संवेदनाभावाद्युगपद्विकल्पद्वयानुपपत्तेश्च / ततोऽध्यक्षमर्थसाक्षात्करणान्न वागयोजनामुपस्पृशतीति निराकृतम / “वाग्रुपता चेत् व्युत्क्रामेत्" इत्यादि लोचनाद्यध्यक्षे वाक्संस्पर्शायोगात् / यतः श्रोत्रग्राह्यां वैखरी वाचं - तावन्नयनजसंवेदनमुपस्पृशति तस्यास्तद्विषयत्वात्, नापि स्मृति वेषयां मध्यमा तामवंगमयति / तामन्तरेणापि शुद्धसंविदो भावात् / संहताशेषवर्णादिविभागा पश्यन्ती वागेव न भवति, बोधरूपता (पत्वात्। वर्णपदाद्यनुक्रमलक्षणत्वात् वाचः न तद्युक्ताप्रतिपत्तिर्विकल्पिका, अपितुनिर्विकल्पिकैव श्रुतिस्मृतिविषयवर्णपदानुक्रमोल्लेखशून्यत्वात् / यदिचाऽविकल्पकं संवदेनं किंचिन्नाभ्युपेयते तदा वासंस्मरणासंभवाद्विकल्परयाप्यसंभव एव स्यात्। अथ प्रथम संवेदनं तद वाचकस्मृतेरभावादविकल्पक तज्जनितवाचकस्मृतिसहकारीन्द्रियप्रभवं त्वभिधानाऽनुरक्तार्थावभासि द्वितीय सविकल्पकम, नैतदस्ति, यतः स्मृतिसचिवमपि लोचनं न वाचके तत संकेतसमयभाविनि प्रवृत्तिमदिति कथं तदविषये स्मृतिदर्शितऽपि वाचकानुषक्तेऽध्यक्ष प्रवृत्तिः, यतो न गन्धस्मृतिसहकारिलोचनमविषये परि मलादौ संवदेनं जनयत दृष्टं कि तु सन्निहित एव मलयजरूपे दर्शनं तु तत्सहचारिणि परिमलाऽऽदौ स्मृति जनयतीति न तत्तदुपसंविदो रूप हेतुविषयभेदात् / तथाऽत्रापि नयनसंवेदनं रूपमात्रसाक्षात्कारिभिन्नं तद्दर्शनापजनिसंत विकल्पज्ञानं वधनपरीताऽथोऽध्यवसायस्वभावभिन्नमेवेत्यविकल्पव मध्यक्ष सिद्धम्। (नैयाथिकादिसंमतं केवलसविकल्पकवादमुपन्यस्य निर्विकल्पकवादिना तस्याऽपि दूषणम् )स्यादेतत् यद्यपि वाचो नयनजप्रतिपत्त्यविषयत्वान्न तद्विशिष्टा-- दर्शनमध्यक्ष तथापि द्रव्यादेर्नयनादिविषयत्वात् तद्विशिष्टार्थाध्यक्षप्रतिपत्तिः सविकल्पिका भविष्यति। तथाहि नियतदेशादितया वस्तु परिदृश्यमानं व्यवहारोपयोगि अन्यथा तदसंभवाद् देशादिसंसर्ग रहितस्य च तस्य कदाचिदम्यननुभवात् यच देशादिविशिष्टतया नामोल्लेखाभावेऽपि वस्तु संगृह्णाति, तत्सविकल्पक विशेष विशेष्यभावेन हि प्रतीतिः कल्पना देशादयश्व नीलादिवत् तदवच्छेदका दर्शन प्रतिभान्तीति न तत्र शब्दसंयोज-पक्षभावीदोषः। एतदप्यसत, यतः..अध्यक्ष पुरोवर्ति नीलाटिकमवलाकयितुं समर्थन्न तदवष्टध भूतलं तदनवभासे च कथं तद्विशिष्टमर्थ तदवगन्तु Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 371 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ प्रभुः (भु) / यदपि तदनवष्टब्धं तत्र प्रतिभाति तदपि न तद्विशेषणमिति शुद्धस्यैव सकलस्य प्रतिभासनान्न विशेषणविशेष्यभावग्रहणमातथाहिदनि रूपमालाकश्च स्वस्वरूपव्यवस्थित द्वितयमाभाति. न तदव्यतिरिक्तं कालदिनादिकमिति। कथमप्रतिभासमानं तद्विशेषणं भवति सर्वत्र तदभावप्रसक्तः तेन 'देशादिभिर्विशिष्टस्य सर्वस्यार्थस्य संवेदनम' इति निरस्तम्-विशेषणभूतस्य कस्यचिदप्रतिभासनात् / यत्रापि स्थिराधेयदर्शनादधस्तादाधारमनुमिन्वन्ति तत्राऽपि नाऽनुमानावसेयमधिकरणमिन्द्रियविज्ञानविषयविशेषणम् नाऽपि तदवसायोऽक्षबुद्धेः स्वरूपमिति न विशेषणविशिष्टप्रतिपत्तिरक्षबुद्धिः। किं चसमानकालयो भावयाविशेषण विशेष्यभावं भिन्नकालयोर्वा अक्षबुद्धिवभासयति? न तावद्भिन्नकाल्योः तयोर्युगपत्तत्राऽप्रतिभासनात्-यदाहि विशेषण स्वादिक पूर्वमवभाति न तदा स्वाम्यादिकं विशेष्य, यदपि चोत्तरकालं दिवभाति न तदा स्वादिकम् असन्निधानादिति न तद्विशिष्टतयाऽध्यक्षेण तस्य ग्रहणम् / तथाहि-चक्षुयापारे पुरोव्यवस्थितश्चैत्र एव परिस्फुटमाभातीति तन्मात्रग्रहणान्न तद्विशिष्टत्वप्रतीतिः / न चाऽसन्निहितमपि विशेषणं स्मरणसन्निधापितमक्षबुद्धिरधिगच्छति स्मरणात्प्रागिव तदुत्तरकालमपि विशेषणासन्निधेस्तुल्यत्वान्न तत्र तदाऽप्यध्यक्षबुद्धिप्रवृत्तिरित्यपास्तविशेषणस्यार्थस्य साक्षात्करणं युक्तियुक्तम् / नापि तुल्यकालयोर्भावयोर्विशेषणविशेष्यभावमध्यक्षमधिगन्तुं समर्थं तस्यानवस्थितेः / तथाहि-अविशिष्टेऽपि दण्डपुरुषसंयोगे कश्चिद्दण्डविशिष्टतया पुरुष दण्डीति प्रतिपद्यते / / अपरस्तु-तत्रेव पुरुषविशिष्टतया दण्डोऽस्थति प्रतिपद्यते / असके तितविशेषणविशेष्यभावस्तु 'दण्डपुरुषो' इति स्वतन्त्र / द्वयमधिगच्छति / वास्तवे तु तस्मिन्योग्यदेशस्थप्रतिपत्तृणां दण्ड- / पुरुषरू पयोरिव तुल्याकारतयाऽवभासो भवेत् न चैवम् / तेन दण्डपुरुषस्वरूपमेव स्वतन्त्रमध्यक्षावसेयं विशेषणविशेष्यभावस्तु कल्पनाविरचित एव। येन हि दण्डोपकृतपुरुषजनिताऽर्थक्रिया प्रागुपलब्धा तदर्थी च, स तत्र विशेषणत्वेन दण्डविशेष्यत्वेन च पुरुष प्रतिपद्यले प्रधानत्वात् येन च पुरुषोपकृतदण्डेन फलमभ्युपेतं स तत्र दण्ड प्राधान्याद्विशेपमध्यवस्यति / अपरिगतफलोपकारस्य प्रथमदर्शन। स्वरूपमात्रनिभासात् ततोऽन्वयव्यतिरेकाम्यामवगतसामर्थ्य द्वयमासाद्या विशिष्टत्वप्रतिपत्तिः, प्रागवगते च सामर्थ्य नेन्द्रियस्य व्यापारस्तस्यासन्निहितत्वात् / न च व्यापाराऽविषये तत्प्रतिपत्तिजननसमर्थम न च पुरः सन्निहितेशेऽप्रवर्त्तमानमिन्द्रियं तत्रापि प्रतिपत्तिमुपजनयितुं समर्थ वर्नमानकालानीढनीलादिदर्शनप्रवृत्तस्य चिराऽतीतभावपरंपरादर्शनप्रवृत्तिप्रसक्तेः सकलातीतभावविषयस्मृतेरध्यक्षता भवेत् / तथास्वमोचरचारिणी स्मृतिरपि स्फुटमर्थ वर्तमानसमयमुद्धाराशिप्यतीति सर्वाःक्ष मतिः स्मृतिर्भवेत् / न च वर्तमानमर्थमध्यक्षभवादासयतीति किं तत्र स्मृत्या? यत्र हि दर्शनाऽनवतारस्तत्र स्मृतिपरिकल्पना फलवती स्पष्टदर्शनावतारे तु वर्तमानसमयभाविनि रूपादौ स्मृतिप्रवृत्तिरस नविनी विफला चेति न तत्परिकल्पनान्वेिवमतीत विशेषण दो रमतेश्य प्रतिष्यत इति किं तत्र विशसा | हि सन्निहितमेवार्थमवतरति, न च तदा विशेषणादयः सन्नि.. हितास्तानवल-बमाना निरालम्बनैव भवेत् ततो विशुद्धरूपमात्रप्रतिभासादध्यक्षसविनिरस्तविशेषणमर्थमवगमयति / विशेषणयोजना तु स्मरणादुपजायमाना अपास्ताक्षार्थसन्निधिमानसी / न च स्पप्रतिभासाद्वर्तमानार्थग्राहिणीति वक्तव्यम् / तामन्तरेणापि स्फुटमर्थप्रतिभासात् नच स्मृतिमन्तरेणाऽपि यदि विशदतनुरात्मा प्रतिभातीति न तस्य गाहिका स्मृतिः तह क्षव्यापारसद भावे सुखमन्तरेणापि विषयावगतिरस्तीति सुखमपि विषयग्राहि न स्यात् यतो निरस्तवहिरर्थसन्निधयो भावनाविर्भूततनवः सुखादयो नाविदकाः स्वग्रहणपर्यवसितस्वरूपत्वात्तेषामक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायिन्यो विशदसंविद एव यहिरथविभासिकाः पृथगवसीयन्ते सुखादिभ्यस्ता एवं तदवमासिकास्तद्वद्विकल्पोऽपि नार्थसाक्षात्करणस्वभाव इति। ननु यदि न पुरःस्थितार्थग्राही विकल्पः कथं ततस्तत्र प्रवृत्तिर्भवत? यदेव विशेषणादिक प्राक् तेनानुभूतं तत्रैव ततः प्रवृत्तिर्भवत, न हि स्वात्मानमनारूढे ऽर्थे प्रवृत्तिविधायि विज्ञानमुपलब्धम् अन्यथा शुक्लमर्थमवतरन्ती संविन्नीलार्थे प्रवर्तिका भवेत् / नच निर्विकल्पकमेव संवदेनं वर्तमानेऽर्थे प्रवृत्ति विधायि, विकल्पमन्तरेणापि सर्वत्र प्रवृत्तिप्रसक्तः / न च सुखसाधनत्वनिश्चयमन्तरेण पुरः प्रकाशनमात्रेण कश्चित्प्रवर्तत इति विकल्प एव पुरोव्यवस्थितार्थग्राही प्रवर्तकत्वात अक्षानुसारितया च स एवाऽध्यक्षमिति युक्तम्, पूर्वदृष्टनामा।दविशेषणग्राही निश्चय इति, एतदप्यसंगतम्, धूमग्राह्याध्यक्षव्यतिरिक्त स्पष्टावभासाग्न्यनुमानाकारस्येव विशददर्शनभृतोऽर्थाकाराद् व्यतिरिक्तविकल्पमत्युलिख्यमाना स्पष्टाकारस्य तदाऽननुभवात् / ततो बहिरर्थग्राहिण्यो विकल्पमतयोऽभ्युपगन्तव्या नपुनस्तदा विकल्पमतिः पूर्वदृष्टविशेषणमात्राध्यवसायिनी अपरा पुरोवर्तिविशदार्थावभासाध्य-- क्षसंविदपरैव भेदप्रतिभासाभावादिति, असदेतत; यतो यदि नाम पुरोवर्तिनमर्थ विकल्पमतिरुद्योतयितु प्रभवति तथाऽपि न तत्र प्रवृत्तिः, प्रवृत्तिविरचना चतुरार्थक्रियासमर्थरूपानवभासनात्तदवभासन यथक्रियार्थिनां प्रवृत्तिर्युक्ता : नचाऽयक्रियासम्बन्धं वर्त्तमानसमयसम्बन्धिन्यर्थे ताः प्रदर्शयितुं समस्त मानीं तस्या असन्निधानात अरान्निधौ च न तत्र सामाऽवपतिः पदार्थस्वरूपमात्राऽवसायात्। नच तत्स्वरूपमात्रावसायादव सामाऽवगतिः अतिप्रसङ्गात् / ततः पुरावर्तिनि प्रवर्तमानोऽपि न विकल्पः प्रवर्तकः / न च यतः पूर्वमर्थक्रियाप्रभवन्ती दृष्टा संप्रत्यपि तदर्थक्रियाऽर्थितया तदध्यवसायात प्रवृत्तिर्भविष्यति, यतो येन प्रागर्थक्रियानिर्वर्त्तिता तदेवेद पुरः प्रतिभातीति लन्निसाऽभावे कुतः सिध्यति? नवकल्पनैव तदध्यवसायिन्नि तन्निासः / यता न कल्पनाबुध्यध्यवसितं तत्त्वं परमार्थसद्व्यवहार मवारति प्रत्यक्षप्रतिभातस्यैव तद्व्यवहारावताराद्। तदभावे तदभावात नचाऽध्यक्षबुद्धस्तत्त्वावराायः प्रथमाऽक्षसन्निपातवेलायामेव नीलादिरूपतावत् तन्निर्भासोदयनसक्तेः / अतो ने कल्पनाध्यक्षविष-- यस्तत्वमाद्यदर्शनानधिगतत्वात्। राहकारिवं कल्याद यद्यपि आद्यदर्शनाऽव भासि Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 372 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ न तत्त्वं तथापि न तन्नास्ति, न हि तीक्ष्णांशुकरनिकरोपहतदृशा गर्भगृहाधनुप्रवेशानन्तरमप्रतिभासगाना अपि घटादयो भावाः स्वस्थीभूतनेत्राणां न प्रतिभान्ति, न च प्रागप्रतिभासनान्न सन्ति यथा च राहकारिधशात् पूर्वम प्रतिभाता अपि पश्चात्प्रतिभान्ति / तथाऽत्राप्यायदर्शनं शुद्धार्थावभासि यद्यपि तत्त्वं नानुभवति रम-- रणसहायाक्षप्रभवा तु प्रत्यभिज्ञातदनुभविष्यतीति। नतत्त्वस्याऽसत्त्वम् नाप्यक्षान्वयध्यतिरेकानुविधायिनी प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्षमिति / अवाच्यते- यद्यक्षप्रभवा संविदाद्या न तत्त्वमवभासयति पश्चादपि तदविषयत्वान्नाऽवभासयेत् / यथा ह्यक्षमविषयत्वान्नेकत्वे प्रतिपत्ति विदधाति तथा रमरणराहकृतमपि न तत्र ता विधास्यति अविपयथाऽविशेषात, न हि परिमलरमरणसहायमपि लोचनं गधे प्रतिपतिक दुपलब्धमिति न तत्त्वग्रहणमध्यक्षात्। किं च-किकुर्वाणा स्मृतिरिन्द्रियस्य सहकारित्वं प्रतिपद्यते? पूर्वाधरस्य ढोकनमिति चेत, ननु विनष्टऽप्यर्थे स्मृतिरुदयन्ती दृष्टति कथं तत्सन्निधापित पौर्वापर्य प्रवर्त्तमाना अध्यक्षधीः सत्यार्था भवेत्? अथ यदुपरतं वरतु तद्ग्राहिणी बुद्धिर्न सत्या-ऽर्थग्राहिणीति युक्तम्, अनुपरतं त्वर्थमवगच्छन्ती कथं सा न सल्यार्था? अयुक्तमेतत: यतः--स्मर्यमाणस्थार्थत्यानुपरतिः कुलोऽवगता? न स्मरणाद्व्युपरतेऽपि स्मृतिपरत्वे प्रवृत्तेरित्युक्तत्वात् / नच स्मरणोपनी तपौर्वापर्यस्य दर्शन प्रतिभासनात्तदप्रच्युतिः इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः / तथाहि-स्मर्यमाणस्यार्थस्यानस्तमयसिद्धेस्तदुपनीले तत्र दर्शनप्रवृत्तिःसिद्ध्यति / तत्सिद्धौ च स्मरणोपनीतस्याऽनस्तमयसिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयत्वम? अथ स्मृतिः संप्रति प्रतिभासविषयादागिन्न विषयमध्यवस्यन्ती निरालम्बना स्यात् / प्रतिभासविषयं तमेवार्थ मुल्लिखन्ती तु कथमसदर्थविषया? न: दर्शनगृहीतर्मवार्थमुल्लिखतीत्यत्र प्रमाणाभावान स्मरणोपनीतैकत्वाऽवभासिन्यध्यक्षमतिः सत्यार्थग्राहिणी सिद्धा। न च पुर्वदर्शनमेव पूर्वरूपसंगतमर्थमनुभवदेकत्वे प्रमाण यतो यदि पूर्वरूपतामथरयाद्यदर्शनमेवावभासयति तथा सति पूर्वापरैकत्वं तदेवावगमयिष्यतीति तत्र स्मृतिः प्रवर्त्तमानाध्या / न च तदपि पूर्वरूपता तरयाऽवभासयितु क्षम तरय सन्निहितमात्रविषयत्वात् / पूर्वरूपता हि पूर्व देशकालदशासम्बन्धिता पूर्व देशादीनां च तद्दर्शने अप्रतिमासनात न तत्संस्पर्शिरूपप्रतिभासस्तत्र संभवी न हि तदप्रतिभासे तसंवनिधपदार्थ रूपप्रतिभासः अन्यथा नीलताऽप्रतिभासेऽपि पीते नीलसम्बन्धिताऽवगतिर्भवत्। तत्रैकत्वग्राहिण्यध्यक्षमतिः / या 'दृष्टता प्रत्यक्षग्राह्या' इति परैरुच्यते तत्र दृष्टता यदि तदृशि प्रतिभातता तदा वर्तमानतेव। अथ पूर्वदृशि प्रतिभातता सदा पूर्वदृशोऽप्रतिभासने कथं तत्प्रतिभातताऽवभासःसंप्रति संवेदने? तत्र हि स्वदृष्टतया सन्निहित रूपमाभातीति सैव तत्र युक्ता, पूर्वदर्शनं तु प्रत्यस्तमित मिति तददृष्टताऽपि व्युपरतैवेति कथं सा वर्तमानदृशि प्रतिभासले? तदभ्युपगमें या तददृशा निरालम्बनप्रसक्तिः। न च पूर्वदृश्यमानता तत्र व्युपरता, दृष्टता तु तदैवोत्पन्नेति कथमसती येन तां प्रतीयती प्रत्यक्षमतिर्निरालम्बना भवेत् ? यतो यदि दृष्टता तत्र सन्निहिता भवेत तदा प्रथममागतो नीलाऽऽदिरूपतामिव तामप्यधिगच्छेतन चाऽधिगच्छतीति ज्ञानस्वभावोऽसाधारणतयाऽसौ नार्थस्वरूपमिति कुतोऽध्यक्षताऽवसे या? तथाहि-पूर्वदर्शनमनुस्मरन्नेव पूर्वदृष्टता व्यवहारी तत्राध्यारोपयति विस्मरणे तदनध्यवसायात यच स्मृतिरध्यवस्यति स्वरूपं न तदर्शनपथोपप्रयुक्तम् आकारभेदात् / न च तदर्शन--स्मरणे एक विषयं बिभतः "पूर्वदृष्ट पश्यामि" इत्यध्यवसायात् / यतः--कि मर्यमाणं दृश्यमानतया रूपं प्रतीयते,आहोस्विद् दृश्यमानं स्मर्यमाणतथति विकल्पद्वयम्? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तथा सति स्मर्थ माणं परिस्फुटतया रूपमाभातीति कथ तस्य परोक्षता? अथ द्वितीयस्तत्रापि दृश्यमानं स्मर्यमाणेन रूपेणाऽवभातीति सर्व परोक्ष भवेदिति न काचिदध्यक्षमतिः सत्याऽर्था स्यात्। अतोऽक्षधीवर्तमानमेव रूपं प्रत्यति, स्मृतिरपि तदसंस्प--शि परोक्ष रूपमिति न तयोरैक्यं प्रतिभासभेदस्य सर्वत्र भेदकत्वात्। तस्य च विशदाऽविशदरूपतयाऽवभासमानयोर्दृश्यरममाणयोः सद्भावात् कथं न भेदः? किञ्चि-यदि शुद्धर्मव दर्शन स्मृतिनिरपेक्षं पूर्वरूपताग्राहि, नन्वेवं भाविरूपताग्राहि प्रथमदर्शनं कि नोपेयते? नहि भाविभूतयोरसन्निहितत्वे विशेषः, यनैकत्राध्यक्षवृत्तिरपरत्र नेति भवेत्? नच 'पूर्वदृष्ट पश्यामि' इति व्यवसायात पूर्वरूपे एव दर्शनव्यापारः / 'पूर्वमेवेदं मया दृष्टम् इत्यध्यवसायाद् भाविरूपेऽपि दर्शनव्यापारप्रसयतेः / अतोऽपाकृतम् “इदानींतनमस्तित्व न हि पूर्वधिया गतम्" इति न च पूर्वदृशा तदाभाविकालतया असन्निधानादग्रहण संप्रति दर्शनकाले पूर्वरूपताया अप्यसन्निधेस्ततो ग्रहणप्रसक्तेः / यदि पुन विरूपतामप्य -ध्यक्षमनुभवति, 'पूर्वमवेदं मया दृष्टम्' इति व्यवहृतिदर्शनात् तर्हि प्रथमसंवेदनमेव मरणावधिरूपपरंपरामधिगच्छतीति तदैव मृतो भवेत्। न च मृतिसद्भावे मृतो भवत्युत्पत्तिसमये तु नासाविति कुतोऽयं दोषः / यतो यदि तदाऽसौ नाऽस्ति कथमसती सा दर्शन प्रतिभाति? तदप्रतिभासने तु कथं भाविरूपपरिगतो भावोऽवभातो भवेत् ? यदेव तत्र वर्तमान रूपमाभाति तदेवाध्यक्षमस्तुन भावि। यदि तु तदपि तदाऽध्यक्ष तदाद्याऽध्यक्ष एव मृत्युपाधेः सकलविषयस्य प्रतिभातरयाऽस्तमयात तद्विषयात्तदुत्तरकालभाविनी सर्वा मतिर्निविषया भवेत। किं च भाविभूतयोरध्यक्षविषयत्वे भिन्नमपि तदध्यक्षविषयं भवेदिति सर्वस्त्रिकालदर्शी भवेदिति "भविष्यश्चैषोऽर्थो न ज्ञानकालेऽस्तीति न प्रतिभाति" इति निराकृतं द्रष्टव्यम् / भावि-भूतकाले तावद भविष्यतो धर्माऽऽदेर्दर्शनकालेऽसतोऽपि प्रतिभासनात् / न चाभिन्नया भाविभूतरूपयोः प्रतिभासेऽपि भाविधादर्भिन्नत्वान्न प्रतिभासः / भेदनाध्यक्षप्रतिभासनाऽविरोधात्। दृश्यन्त एव हि भिन्नरूपा घटपटाऽऽदयोऽध्यक्षप्रतिभासमादधानास्तन्न भाविभूतरूपाऽध्यक्षावसेयेति स्मृतिविषयः / पूर्वरूपतादर्शनावभासिनोऽर्थन्य भाविरूपता चानुमानावसेया। तेन"नच स्मरणतः पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम।।" "वार्यते केनचिन्नापि, तदिदानी प्रदुष्यति।" (श्लो० वा० प्रत्यक्ष० श्लो० 235 / 2363) / इति निररतं, यतो यदि स्मरणादूर्ध्व वर्तमानरूपे इन्द्रियस्य प्रवनिमभिप्रेत तथा सति वर्तमानमात्र परिच्छे दान्न स्मरणो पढौ कितैकत्वग्रहः / अथ पूर्वरूपे तत्राऽपि यथा प्राक Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 373 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सदबं भवाइ स्मृतेर्दर्शनं पूर्वरूपतायामविषयत्वान्न प्रवर्तते तथा तदुत्तरकालभपि अविषयत्वाऽविशेषात् / “तदा प्रवर्त्तने चक्षुषो न दोषः" इत्यत्रापि / यासन्निहिते मरणोपढौंकिते नयन प्रवर्त्तते त विद्यमा-नवियत्वात्तदालम्बनं ज्ञानं निर्विषयं भवेदिति कथं न दोषः? तिमिरोपहतदशोऽप्य - रस्त्यदर्शनमेव दोषः / तचाऽत्राऽपि समानमिति कथं न दोषः? अथ वर्तमानस्मृत्त्युनरकाल तत्प्रवर्त्तमानमदुष्ट तर्हि नैकत्वप्रतीतिः / न च यदेव वर्तमान सदेव पूर्वमिति भेदाभावात्तत्त्वग्रहः अभेदस्यासिद्धेः नहि दृश्यमानस्मयं माणयोरभेदसिद्धः दृश्यमाने स्मृतेः र मर्यभाणे च / दृशोऽनवतारात / न च स्मरणोपनीते पूर्वरूपे दोषाभावेऽपीन्द्रियप्रवर्तन युक्तंधूगदर्शनोत्तरकालं स्मृत्युपस्थापिते पावकेऽपि दोषाभावादिन्द्रिय - प्रवृत्तिप्रसवतेः शक्यं यत्रापि वक्तुम्"नचाऽपि लिइता पश्चादिन्द्रियस्य प्रवर्तनम्। पार्यत केनचिन्नापि, तदिदानी प्रदुष्यति" / / 1 / / अथ प्रत्यक्षप्रतिभात' धूमात् स्पष्टावभासाद् व्यतिरिक्ता स्मृति... प्रभवाऽनुमितिर्भिन्नाकाराऽग्निमुल्लिखतीति न तत्र दृगवतारस्तहि विशददृगवसेय द् रूपादस्पष्टतया पूर्वरूपमुल्लिखन्ती स्मृत्युपजनिता प्रतिपसिन दृगुप दर्शितं रूपमवतरतीत्यभ्युपेयम्ततः स्मृतः पूर्वमुत्तरकालं वा पौर्यापर्यविदिक्ते वर्तमानकालमर्थ दृगवतरतीति नैकत्वग्राहिणी। ततो विकल्पविकलाध्यक्षमतिः सिद्धा। एकत्वप्रतिपत्तिस्तु स्मृतिकृतोदया पृथगेव पुर्वापर पविक्तरूपावभासिस्पष्टदृशः। अथ पोर्वापर्य दृशोऽप्रवृत्तेन तद्ग्रहात् सविकल्पाध्यक्षमतिः जा... तिगुणक्रियादीनां तु दर्शनविषयत्वात तद्विशिष्टार्थप्रतिपतिः सविकल्पिका भविष्यति, न, जात्यादेः स्वरूपानवभासनात् न हि व्यक्तिद्वययतिरिक्तवपुर्णाह्याकारतां बहिर्बिभ्राणा विशददर्शने जातिराभातीति न तदयोजनादध्यक्षमतिः सविकल्पिका। न चाम्र–वकुलादिषु “तरुस्ततः" इत्युलिखन्ती बुद्धिरामातीति नास्ति जातिर्विकल्पोल्लिख्यमानतयाऽपि महि ह्याकारत पा जाते नुदासनाद्प्रतीतिरेवतत्रापि तुल्याकारतां वचन वा बिभर्ति / न च शब्दः प्रतीतियां जातिन तरेण तुल्याऽऽकारता नानुभवति 'जातिर्जातिः' इत्यपरजातिव्यतिरेकेणापि गोत्वाऽऽदिसामान्यपु तथास्तुल्याऽऽकारतादर्शनात् / न च तेष्वप्यपरा जातिः इति? अनवस्थाप्रसवतेः / अथ तुल्याऽऽकारा प्रतिपत्तिर्यदि निनिमित्ता तदा सर्वदा भवेत न पा क्वचित् व्यक्तिनिमित्तत्वे आम्रादिष्विव घटादिष्वपि 'तरुस्तरुः' इति प्रतिपत्तिर्भवत् व्यक्तिरूपताया अत्राऽपि समानत्वाद, असदेतत, व्यक्तनिमित्तत्वेऽपि प्रतिनियतव्यक्तिनिमित्त वामालिप्रसहः / था हिताः प्रतिनियता एव कुतश्चिनिमित्तात् / प्रतिनियतजातिव्यञ्जकत्वं प्रतिपद्यन्ते तथा प्रतिनियतां तुल्याऽऽकारां प्रतिपति तत एव जनयिष्यन्तीति किमपरजातिकल्पनया? यथा वा गुड्च्यादयो भिन्ना एक जाति-मन्तरेणापि ज्वरादिशमनमेकं कार्य निर्वतयन्ति तथाऽऽनादय-स्तरुत्वमन्तरेणापि तत एव "तरुस्तरुः" इति प्रतिपत्ति जनयिष्यन्ति, नान्य इति व्यथा तेषु तरुत्वजातिकल्पना, रात्र, जातिर्दशन कल्पनाज्ञाने वा बहिराकारमाविभ्रती स्वेन वपुषा प्रतिभाति कल्पना, बुहावय-विशदाकारच्यक्तिरूपमन्तःशब्दोल्लेखं वाऽपहाय वर्णसंस्थान-व्यतिरिक्तजातिस्वरूपानवभासनात् / तन्नाऽप्रतीयमाना जातिः सती। नापि कस्यचिदविशेषणमिति न सद्योजनाविधायिनी अध्यक्षमतिरिति न सविकल्पिका / एवं गुणक्रियादीनामप्रतिभासनादसत्त्वमिति न तद्विशिष्टार्थग्रहाऽध्यक्ष सविकल्पकलामनुभवति। अथ निर्विकल्पकत्वेऽध्यक्षण शुद्धवस्तुग्रहणात् की ततो व्यवहतिः सा हि हेयोपादेययोर्दुःख-सुखसाधनत्वनिश्चये हानोपादानार्था दृष्टा नच निर्विकल्पकगध्यक्ष तन्निश्वयम्यम्, असदेतत्, यतो यद्यपि सविकल्पकमध्यक्ष तथापि कथं तदर्थिनां तत्र ततः प्रवृत्तिर्न हि निश्चयमा गत फलार्थिनः प्रवर्तन्ते अपितु-तजननयोग्यतावसायात सा चाऽसन्निहितकलानिश्चये न निश्चतु शक्या। न च परोक्ष सुखसाधनत्वं निश्चिन्वती मतिरध्यक्षतामनुभवति, अनुमितरप्यध्यक्षताप्रसक्तेः। परोक्षनिश्चयरूपताया अविशेषात् / न च निश्चयात्मकेनाध्यक्षेण वस्तु निश्चीयते। त प्रतिबद्धा च प्रागर्थक्रियोपलब्धा ततः पुरस्थार्थावसायात्। तत्र स्मृतिः प्रादुर्भवन्ती तत्राभिलाष जननात् प्रवृत्तिमुपजनयति निर्विकल्पकेऽप्यस्य समानत्वात् / तथाहि-प्रत्यक्षप्रतिभाते वस्तुनि पूर्वमर्थक्रियावगतेति ततमरणाव (णाद) भिलाषेण प्रवृत्तिर्भविष्यतीति कः स्वपरपक्षयोर्विशषः? अथ वस्तुस्वरूपप्रतिभासं दर्शनमर्थनियासम्बन्धाऽननुभवान्न प्रवृत्तिमुपरचयितुं क्षमम् / तत्सम्बन्धानुभव वा राविकल्पकं तद् भवेत् / न चाऽप्रवर्तकस्य प्रामाण्यम्- "प्रामाण्यं व्यवहारेण" इत्यत्र "व्यावहारिकस्य चैतत्प्रमाणस्य लक्षणमुक्तम्" इत्यभिधानात, असदतत: यतो न दर्शन केवल प्रमाण क्षणिकत्वादावपि तस्य भावात कि तु-अभ्यासपाट वादिसव्यपेक्षं यत्रांऽशे विधिप्रतिषधविकल्पद्वयं जनयत् पुरुष प्रवर्त्तयति तत्रारय प्रामाण्यमिति निश्चयापेक्षस्य प्रत्यक्षस्य व्यवहारसाधकत्वात् न प्रामाण्यक्षतिः, नन्वेवमपि यदि निश्चये सति प्रवृत्तिः तदभावे च नेत्यभ्युपगभस्तर्हि प्रवृत्तिकरणानिश्चय एव प्रमाण भवेत्। न च दर्शनगृहीतं नील निश्चिन्वन्नुपजायमानो विकल्पो गृहीतग्राहितया अप्रमाणम्, यतोऽर्थक्रियासम्बन्धित मुलिखती दर्शनाऽवगतस्यार्थस्य कल्पना प्रवृत्तिमारचयति। न च विशददशार्थक्रियासाधकता तरयावगतेति कथं कल्पना न भिन्नविषया? सर्वत्र च कल्पनैव प्रवृत्तिं विरचयति दर्शनाभावेऽप्यनुमानातप्रवृतिदर्शनाद दर्शनसद्भावेऽपि क्षणिकादी व्यवसायाभावात्। प्रवृत्तेरभावाद व्यवहारमुपरचयन्ती मतिः प्रमाणमिति निर्विकल्पिका सा प्रमाणम, किं तु-विकल्पिकैव / ननुन विकल्पस्याऽप्रामाण्यं कि त्वसो प्रत्यक्ष न भवति अनुमानताऽभ्युपगमात् / अथ लिङ्गजत्वाभावादपरोक्षमर्थ निश्चिन्वन् कथमनुमान विकल्पः? नैतत् यतो नापराक्षमेवार्थमसौ निश्चिनाति, अर्थक्रियासम्बन्धित्वस्य परोक्षस्याप्यध्यवसिते रतदभावे च प्रवृत्ते रयोगात् / सा च फलसंगतिः परोक्षानुमानग्राह्या दृश्यमान इव प्रदेशे परोक्षदहनसंगतिः / न च तत्र धमलिङ्ग सद्भावादनुमानावतारेऽपि फलसम्बन्धितायां लिङ्गाभावानाऽनुमानप्रवृत्तिः प्रतिभासमानरूपस्यैव लिङ्गत्वात् / तथाहिउपलभ्यमाने जलरूपे शीतस्पर्शादयस्तत्सह-चारिणो यदि निश्चेतु शावयाः कालान्तरस्थायितया तदा तत्र प्रवृत्तियुक्ता, रूपप्रतिभासमात्र Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 374 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ स्य तु तदवोदयान्न तदर्था प्रवृत्तिः सगता प्रवृत्ती वा तदविरतिप्रसक्तिः स्पर्शादीनां चैकसामा यधीनतयोपलभ्यमान रूप हेतुः स्थैर्यचोपलभ्यमान कालान्तरस्थितो लिङ्ग मिति कथं न निश्चयोऽनुमानम् ? नच सम्बन्धरमरणपक्षधर्मत्वनिश्चयादुपजायमानमनुमानमनुभूयते अत्र तु रुप्यपालाधनमन्तरेणापि नीलानुभवानन्तरं 'नीलमेतत्' इति निश्चयो झगित्युदेतीति नानुमानताऽस्य यतो न सर्वदाऽनुमितिस्त्रैरूप्यपर्यालाचनमपक्ष्य प्रवर्तते अत्यन्ताभ्यासात कदाचित्संबन्धस्मरणानपेक्षलिङ्ग स्वरूपदर्शनमात्रादुदयदर्शनात् धूमोपलम्भादभ्यासदशायामग्निप्रतिपत्निवल / अथाऽत्राविनाभावपर्यालोचनं प्रागासीदनबगतसम्बन्धस्यधूमदर्शनादेवाप्रतीतेस्तर्हि मन्दाभ्यासे प्रकृतेऽपि पर्यालोचनमस्त्येव- 'एवंजातीये पूर्वमप्यर्थक्रियोपलब्धा इदमप्येवं जातीय प्रतिभासमान रूपम् इति। अभ्यासदशायांतुरूपदर्शनादेव, पर्यालोचनमन्तरेणापि झगिति फलयोग्यता प्रतीयते इति व्यवस्थितमेतत दृश्यमान का धाम तत्फलयोग्यता साध्या तपसामान्य लिङ्ग मिति न प्रतिज्ञार्थकदशत्यमपि हेतोः अतो निश्चयः रवरूपावभासादुदयमासादयन्परोक्षमर्थक्रियायोग्यत्वं निश्चिन्वन्ननुमानमेवा व्यवहारोऽप्यत एव न प्रत्यक्षात / आह च"तद्दृष्टावेव दृष्टषु. संवित्सामर्थ्यभाविनः। स्मरणादभिलाषेण, व्यवहारः प्रवर्तते // 1 // " इति रमरणादनुमानरूपाद्वयवहारः प्रवर्तत इति अयमर्थः न न्व- / न्यगतचेतसोऽभ्यस्ते परिमलादावविकल्पाक्षमतेः प्रवृत्तिदर्शनात्यायन निर्विकल्पकं प्रवर्तकम् ? किं च - यद्यनुमितिर व वा हो सर्वदा प्रवृत्तिमारचयति तर्हि तत्र नाध्यक्ष प्रमाणमिति स्वसंवेदनमात्रमेवैकमध्यक्ष भवेत् तथा च– “रूपादिस्वलक्षणविषयमिन्द्रियज्ञानम् आर्यसत्यचतुष्टयगोचरं योगिज्ञानम्" इत्यादि चतुर्विधाध्यक्षोपवर्णनमसंगतमनुषज्येत। अथ निर्विकल्पकमध्यक्ष नार्थस्यार्थक्रियायोग्यतामधिगच्छति तदभावे न प्रवृत्तिरित्यप्रवर्तकत्वान्न बाह्ये प्रमाणग, तर्वानुमानमपि नार्थक्रियासंगतिमवभासयति तस्याऽवस्तुविषयत्वात् तथा च तदपि कथं प्रवर्तकम्? अथ तदध्यवसायितया तस्योत्पतेरयग्राहित्वाभावेऽपि प्रवर्तकता, असदेतत् तदध्यवसायित्वस्याप्यनुपपत्तेः / तथाहि-तदध्यवसायित्वं, तस्य किं ग्राहकाकारः, उत ग्राहाकार इति वक्तव्यम् ? यदि ग्राहकाकारस्तदा तस्य ग्राहकं स्वरूप न बाह्यमर्श सन्निधापयतीति न तदवध्यवसायोऽनुमानसाध्यः / अथ ग्रायाकारः सोऽपि नार्थस्वरूपसंस्पर्शीति कथं तदवगगे बाह्यार्थाध्य - यसितिरनुमानफलम्? तदेवमनुमितेः स्वसंवेदनमात्रपर्यवसितत्वानार्थप्रदर्शनद्वारेण प्रवर्तकता युक्ता। नन्वनुमाने सति प्रवृत्तिर्दृष्टा तदभावे सा न दृष्टति तत्कार्याऽसौ निश्चीयते तीभ्यासदशायां विकल्पविकले दर्शन सति प्रवृत्तिा प्रतिपदोचारं तत्र विकल्पना संवेदनेऽपि पुर:परिस्फुट प्रतिभासमात्रादेव प्रवृत्युपपरोस्तत्कार्याऽसौ कि न यवस्थाप्यते? अथानुमानादनभ्यासदशायां प्रवृत्तिरुपलब्धेति तदन्तरण सा कथं भवेत्? न, मन्दाभ्यासे अनुमानादेव प्रवृत्तिः, अन्य सदशाया तु पर्यालोचनलक्षणानुमान व्यतिरे के णापि .. दुदर्शनभात्रादेव समस्तु, तथा दर्शनात्, अन्यथाऽनभ्यारादशाया मनुमानात् प्रवृत्तिदर्शनात्सर्वदाऽनुमानस्यैव व्यवहृतिजनकत्व प्रत्यक्षेण लिङ्ग ग्रणाऽभावतरतन्निश्चयकृदपरमनुमानमभ्युपगन्तव्यं तत्राऽप्यनुमानान्तराल्लिङ्ग निश्चय इति तन्निश्चयकृदपरमनुमानमित्य-नवस्थाप्रसङ्ग तो न कदाचित् व्यवहतिर्भवेत् / ततोऽविकल्पकं दर्शनमभ्यासदशायां व्यवहारकृदभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा पूर्वोक्त-प्रकारेणानुमानाऽनवतारात्। न च पौर्वापर्येऽप्रवृत्तिमत् सन्निहितमात्राव-भास्यध्यक्षं कथं तादृग लिङ्गग्रहणक्षम यतोऽनभ्यासा-ऽवस्थायामनुमानात्प्राग्व्यवहारः पश्चात्त्वध्यक्षादभ्यासदशायामिति प्रर्यम्? यतः संवृत्या लिङ्गप्रतिबन्धग्राहि प्रत्यक्षमभिमतं, लोकस्य ह्येवमभिमानः तदेव-“साध्यप्रतिबद्ध लिङ्ग महं पश्यामि” इति तदभिमानाच लिङ्ग प्रतिबन्धग्राहाध्यक्ष व्यवहारकृदभ्युपेयते / परमार्थ-पर्यालोचनया तु न प्रत्यक्षानुमानभेदः नापि व्यवहारः संवेदनमात्रत्वात्सर्वप्रपञ्चस्य / स्वसंवेदनं च सकलविकल्पविकलमिति कथं स्वार्थनिर्णयस्वभाव ज्ञानं प्रमाणं सिद्धिमासादयेत्? (निर्विकल्पकमेवाध्यक्षमिति मतं प्रतिविधाय सविकल्पयाध्यक्षत्यमुपपाय च सिद्धान्तिना स्वार्थनिर्णयस्वभावज्ञानस्य प्रमाणसामान्यलक्षणत्वव्यवस्थापनम्) अत्र प्रतिविधीयते- 'स्वार्थनिर्णयस्वभाव प्रत्यक्षं न भवति' इत्येतत् किं तद्ग्राहकप्रमाणाभावादभिधीयते, आहोस्वित्तद्वाधकप्रमाणसद्भावात् तत्र न तावदाद्यः पक्षोऽभ्युपगमार्हः स्थिरस्थूलसाधारणस्य स्तम्भादेरर्थस्य बहिरन्तश्च सदद्रव्यचेतना वाहानेकधर्माक्रान्तस्य ज्ञानस्यैकदा निर्णयात्साशस्वार्थनिर्णयात्मनोऽध्यक्षस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात, तद्ग्राहकप्रमाणाभावोऽसिद्धः। (तथाहि- अन्तर्बहिश्व स्वलक्षणं पश्यलोकः स्थूलमेकं स्वगुणाऽवयवात्मक ज्ञानं घटाऽऽदिक च सकृत् प्रतिपत्त्याऽध्यवस्यति, न चेयं प्रतिपत्तिरनध्यक्षः विशदस्यभावतयाऽनुभूतेः। न च विकल्पाऽविकल्पयोर्मनसायुगपद्वृत्तः, क्रमभाविनोर्लधुवृत्तेर्वा एकत्वमध्यवस्यति जनः तत्रेत्यविकल्पाऽध्यक्षगत वैशा विकल्पे सांश (स्वांश) स्वार्थाध्यवसायिन्यध्यारोपयतीति वैशद्यावगतिः, एकस्यैव तथाभूतरवार्थनिर्णयाऽऽत्मनो विशदज्ञानस्यानुभूटेरननुभूयमानस्याप्यपरनिर्विकल्पकस्यपरिकल्पने बुद्धेश्चैतन्यस्यापरस्य परिकल्पनाप्रसङ्ग इति सांख्यमतमप्यनिषेध्यं स्यात् / किं चसविकल्पाऽविकल्पयोः कः पुनरैक्यमध्यवस्यति? न तावदनुभयो विकल्पेन आत्मन ऐक्यमध्यवस्यति, व्यवसायविकलत्वेनाभ्युपगमात, तस्यान्यथा भ्रान्तताप्रसगात् / नापि विकल्पो विकल्पेन स्वस्यैक्यमध्यवस्यति तेनाविकल्पस्याविषयीकरणात्, अन्यथ स्वलक्षणगोचरताप्राप्तेः अविषयीकृतस्य चाऽन्यत्राऽध्यारोपाभावात्, न ह्यप्रतिपन्नरज तः शुक्तिकायां रजतमध्यारोपयितुंरजतमेतदिति समर्थः। न च यथश्वरादिविकल्पस्तदविषयीकरणेऽप्यध्यवसिततद्वावउपजायते तथाऽत्राप्यध्यवसिता विकल्पस्वभावो विकल्पः सनुपजायत इति स तयोरेक्यमध्यवस्यति, उक्तोत्तरत्वात्। तथाहि-नतावदनुभव एवंरूपमात्मानमवगच्छति तेनाऽस्याऽर्थस्याऽविषयीकरणात 'एतदूपतया तस्यासिद्धेश्च / न हि मरीचिका जलरूपतयाऽध्यवसिता तदूपतयाऽसिद्धार्थक्रियोपयोगिन्युपलब्धा, एवमनुभवोऽपि विकल्परूपत्याऽध्यवसि Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबं भवाइ 375 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ तस्तथाऽसिद्धो नार्थक्रियापयोगि; नाऽतः किंचित्सिध्यति / नाऽपि विकल्पस्तस्या वस्तुविषत्वाऽभ्युपगमात् / यदि पुनर्विकल्पस्तदूपमात्मानमावस्येत तर्हि परमार्थविषयता तस्येति / "विकल्पाऽवस्तुनिर्भानाद्विसंवादादपप्लवः" इति असंगतं स्यात् / अत एव न विकल्पान्तरमपि तमध्यवस्थत् तस्याऽपि तुल्यदोषत्वात् / किं च - तयारक्य व्यवस्थतीत्यत्र यदि विकल्प निर्विकल्पकतया मन्यतेव्यवहारी सदा निर्विकल्यामेव सर्वं ज्ञानमिति विकल्पव्यपहारोच्छदादनुमानप्रमागाऽभाः / अथाऽविकल्प विकल्पतया तदा सविकल्पकमेव सव प्रमाणमिति अविकल्पप्रत्यक्षवादो विशीर्यत / यथाहि-प्रज्ञावराभिप्रायण मणिप्रभ या मणिज्ञानं, 'य एव मणिमया दृष्टः स एव प्राप्तः' इत्यभिभानिनः प्रत्यक्ष प्रमाणम अन्यथाऽभ्यासदशायां भाविनी दृश्य-- प्राययोरकत्वाध्यवसायात्प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति न भवेत् / अन्यस्य तन्निबन्धनस्य तत्राऽप्यभावात्-तथा सर्व निर्विकल्प विकल्प-स्वेन निशिचत्य सविकल्पकमेव सर्वं ज्ञानमिति यो व्यवहरति तस्य किमिति तदेव न प्रमाणः?, यथाहि-दृश्य प्राप्यारोपात्प्राप्यं तथा अविकल्पो विकल्पाऽऽरोपा द्वकल्पो भवेत, न्यायस्य समानत्वात् / अथ यथाप्राप्यमणिप्रभामणिप्रतिभासयारकत्वाध्यवसायऽपिन मणिप्राता तत्प्रतिभासस्य भावः- अन्यथा मणिः प्रतिभातो न प्राप्तः स्यात्-तथा सविकल्पाऽविवल्पयोरेकत्वाध्यवसायेऽपि निर्विकल्पकरय नाऽभावः नन्वैवं सांशर-यूलैक स्पष्ट प्रतिभासव्यतिरिक्तस्य निरं शक्षणिक परमाणुऽप्रतिभा सलक्षणनिर्विकल्पकानुभवस्यतदेव निर्णयप्रसक्तिः। अश विकल्पना वकल्पस्य सहस्रांशुना तारानिकरस्व तिरस्कारान्न स्था निर्णयस्तहिं विकल्पस्याप्यविकल्पेन तिरस्काराप्रतिभासनि यो न स्यात अथ विकल्पय बलीयस्वादविकल्पस्य च दुर्बलत्वात् तेन तस्य तिरस्कारः, ननु कुतो विकल्पस्य बलीयस्त्वम् ? प्रचुरविषयत्वात् इति चत, न, अविकल्पविषय एव प्रवृत्त्यभ्युपगमाद् अन्यथाऽस्य महातग्राहित्वा संभवात / निर्णयात्मकत्वात्तस्य तदात्मकत्वमिति चत? ननु तरय किं स्वरूपे निर्णयात्मकत्वम् उतार्थरूप? न तावत्स्वरूप "रचित्तचेतानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्” (न्याय-वि०१.. 10 इत्यस्य विराधात! एवमापे तत्र तस्य निर्णयात्मकत्वे चक्षुरादिज्ञान स्वपरयो स्तदात्मक के न भवेत? तथा च स्वाक्षाकाराध्य - वसायधिगमश्चक्षुरादिचेतसां सिद्ध इति केन कस्य तिरस्कारः? तन्न दिकल्पः स्वरूपे नि यात्मकोऽभ्युपगन्तव्यः। अथार्थ तस्य निर्णयात्मकल्यम्, नन्वेवमेकस्य विकल्पस्य निर्णयाऽनिर्णयस्वभाव रूपगयभायातमातच पररपर तद्वतश्च यद्येकान्ततो भिन्नमभ्युपगम्यते सनवायादरनभ्युपगमात्सम्बन्धाऽसिद्धेः बलवान विकल्पो निर्णयात्मफ-वाद' इत्यस्थासिद्धिः / न च रूपादीनामिव परस्परमंकसामर यधीनतालक्षणस्तथो संबन्धः तद्वता चाऽनिधूमयोरिव तदुत्पत्तिलक्षण इति वक्तव्यं स्वाऽन्युपगमविरोधात् / किं च-रादा विकल्पस्य कारणत्वं निर्णयाऽनिर्णस्याश्च कार्यत्व तदा विकल्पस्य पूर्वकालत्व, तयोश्चोत्तरहालत्ट, प्रज्ञा कराभिप्रायात्तु विपर्ययोऽपि मरणलिङ्गस्यारिष्टादेस्त कार्यतया प्राकभाचिनस्तेनाभ्युपगमात्। तथा च भिन्नकालस्य विकल्पस्य न निर्णयाऽनिर्णयाऽऽत्मकत्वमिति ज्ञानरूपताया अप्यभावः तद्विक लस्स गायन्तराभावात तयोश्व विकल्पस्वभावविकलतया निःस्थभावता। झानाद निन्नयोरनुपलम्भत्वेन गत्यन्तराभावात् / स्वयं तयारुपलम विवल्पादिन्ने ज्ञाने स्याताम्। एवं च सदनिर्णयात्मकं तत्तदेव, यच्या निर्णय स्वरूप तदपि तदेव / तथा च निर्विकल्पकस्य पृथगुपलम्भनियः स्यादिति पूर्वोक्तभव दूषणं धनरापनीले निर्णयात्मकेऽपि चक्षुरादि-ज्ञानमपि तथैव स्यादिति पूर्वोक्त एवापः तत्रापि रूपद्वयपाल्पनाया प्रकृतो दोषः, अनवस्था च / तन्न पर- परश्व भेदेकान्ता युवतः। अभदेवानाऽपित्राद्धयमेव तद्वान् वा भवेत् तथा चन प्रकृतसिद्धिः / अथ निर्णया निर्णयस्वभावयोरन्योन्यं तद्वतश्वमथचित्तादात्म्यम् तर्हि रात स्वात्मनि अनिर्णयात्मक बहिरर्थे च निर्णयस्वभावरूप तत्साधारणमात्मानं प्रतिपद्यते चेद्विकल्पः स्वरूपेऽपि सविकल्पकः प्रसक्तः, अन्यथा निर्णयस्वभावतादात्म्याऽयोगात् / न च स्वरूपमनिश्चिन्तन विकल्पोऽर्थ निश्चिनोति इतरथा गृहीतस्वरूपमपि ज्ञानमर्थग्राहक भव दिति न नयायिक मतप्रतिक्षेपः / न त नैयायिका-युपगमेन परगृहीतस्य खगृहीततादोषः, भवन्मतेऽपिपरनिश्वितस्य स्पनिश्चित-वप्रसक्तः। यथा चपरजातमननुभूतत्वान्नात्मनो विषयस्तथा विकल्पस्य स्वरूपमनिश्चितत्वान्नाऽऽत्मनो विषय इति समानं पश्यामः / न च तरयाऽपि विकल्पान्तरेण निश्चयः तरयाऽपि विकल्पान्तरेण निश्चयाऽऽपत्तेरनवस्थाप्रसक्तेः / नच विकल्पस्वरूपमनुभूतमपि क्षणिकत्वादिवदनिश्चितमर्थनिश्वायकं युक्तम / अनिश्चितस्यानुभवेऽपि क्षणिकत्ववत रवयमावस्थित्वात् / अव्यवस्थितस्य च शशशृङ्गादरिवान्यव्यव-- स्थापकन्यायागात / यथा च विकल्पस्य स्वाऽर्थनिर्णयात्मकत्वं तथा चक्षुरादिबुद्धीनाममि तद युक्तम् अन्यथा तासां तदाहकत्वायोगाल। अथ विकल्पस्थ बाहिरथे प्रवृत्तिरेव नास्तीति कथं तन्निर्णयात्मकः? न हि नीलज्ञान पीताऽप्रवृत्तिक तन्निर्णयात्मक वक्तु शक्यम्, प्रतिपत्रभिप्रायवशात् बां.देवांद्यार्थव्यवसायाऽऽत्मकत्वं विकल्पस्य परमार्थता निर्विषयत्वेऽपि शावण्यते, तदयुक्तम, यतः किमिद विकल्पस्य परमार्थता निर्विषयत्वम? यद्यात्मविषयत्वं तात्मविषयं निर्विकल्पकपि जान निविष्य -मित्यर्थनिर्णयाऽऽत्मकत्वाद्बलवान् विकल्प इति निर्विकल्प कानुभवस्य निर्णयस्तिरस्कारक इत्यसङ्ग तं स्यात्सविकल्पकरराव कस्यचिदभावादा मविषयस्य निर्विकल्पकस्यापि विकल्पवत्सविकल्पकस्येव वा भावात् न चैवं कस्यचित्प्रतिपत्तुरभिप्रायः / अथ साधारणस्यास्पष्टस्य स्वपरयोरविद्यमानस्याकारस्य शब्दसंसर्ग-योग्यस्य विषयीकरण निर्विषयत्वं,न, तस्य तत्र सम्बन्धाऽभावतो विषयीकरणाsसंभागत, शापि त-द्विषयीकरणे सर्वमपि ज्ञानं तथैव स्वविषयं विषयीकुर्यादिति, तदुत्पत्त्यादिसम्बन्धकल्पनमनर्थकमासज्येत / न च तादात्म्यलक्षारत तस्य सम्बन्धस्तदाकारे अविकल्पकत्वस्याऽविकल्पकल्देवा तदाकारत्वस्य प्रसक्तेः / तदुत्पत्तिसंबन्धवशात्तेन तद्ग्रहणम् इत्येतदप्ययुक्तं तदाकारस्य तज्ज्ञानोत्पादकत्वेन स्वलक्षणत्यप्राप्तरतज्ज्ञानरय सविषयताप्रसक्तिदोषात्।नचस्ववासनाप्रकृतिविभ्रमव Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदबंभवाइ 376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सदबंभवाइ शादतदुत्पन्नमतदाकारं च तत्तद्विषयीकरोति अक्षसमनन्तरविशेपात,अन्यस्थाप्युपजातस्य तथा स्वविषयीकरणप्रसक्तेः सर्वत्र तदाकारतदुत्पतिप्रतिबन्धकल्पनावैयर्थ्य प्रसक्तेः / अतस्तदाकारविषयीकरणासंभवाद्विकल्प्या भावतो दृश्य विकल्प्याधविकीकृत्य प्रवर्त्तत इत्युक्तमभिधानम् / ततो न बलवान् विकल्प इति कथं तेनाऽदिकल्पतिरस्कार इति अविकल्पकनिश्चयस्तदेव भवेत् नचैवम्-अतो ना विकल्पस्य विकल्पेन एकत्वाऽध्यवसायः / किंच-- विकल्पेऽविकल्पकस्यकत्वेनाध्यारोप इति कुतो निश्वीयते? अस्पष्टा- 1 स्वलक्षणग्राहिणि स्पष्ट स्वलक्षणग्राहित्वस्य प्रतीते स्तदध्यारापावगतिरिति चेत्, ननु यदि नाम तत्र तत्प्रतीतिः अविकल्पारोपस्तु कुतः? स्पष्टत्वादेरतद्धर्भस्य, तत्र दर्शनादिति चेत्, तद्धर्मः स्पष्टत्वादिरित्येतदेव कुतः? तत्र दर्शनादिति चेत्, अत एव विकल्पधोऽप्यस्तु अन्यथा विकल्पस्यापि मा भूत् / न च विकल्पव्यतिरेकेणाविकल्पमपरमनुभूयते यस्य स्पष्टत्वादिधर्मः परिकल्पेत एवमपि तत्र तत्परिकल्पने ततोऽप्यपरमननुभूयमानं विशदत्वादिधर्माधारं परिकल्पनीयमिति अनवस्थाप्रसक्तिः / अथ किंचित् ज्ञानं सविकल्पकमपरं निर्विकल्पक राश्यन्तराभावाद्विकल्पस्य चाऽर्थसामोदूतत्वासंभवान्न विशदत्वादिधर्मयोगः अविकल्पस्यापि तद्योगाभावे विशदत्वादिक न चिदपि भवेदित्यविकल्पस्येव तदभ्युपगन्तव्यम् / भवेदेतद्याद्यर्थसामर्थ्यप्रभवत्वेन वेशद्यादेयाप्तिः स्यात्तदभावे तन्न भवेत् / न चैवम्अर्थसामोद्भूतऽपि दूरस्थितपादपादिज्ञाने वैशद्यादेरभावाद्योगिप्रत्यक्ष चार्थप्रभवत्वाभावेऽपि च भावात् / न च तदप्यर्थसामोद्भूत तत्समानसमयस्य चिराऽतीतत्वादनुत्पन्नस्य चार्थस्य तद्ग्रहणानुपपत्तेः / तथाहि-प्रागसर्वज्ञःसन सुगतो विवक्षितक्षणे सर्वज्ञतामासादयंस्तत्समानसमयभाविना भावानाम्-तज्ज्ञानं प्रति अजनकत्वात्तेपांग्राहको न स्यात्, एवमुत्तरोत्तरतदविज्ञानक्षणा अपि स्वसमयार्थग्राहकान भवेयुः। चिरतरविनष्टस्य च भावकलापस्यासत्त्वेन तदकारणत्वान्न तं प्रति दाहकता भवेत्। अनुत्पन्नस्य च पदार्थसमूहस्य कारणत्वाऽसभवात्त प्रति ग्राहकता तस्य दूरोत्सारितैव। अथ चिरातीत भावि च तत्कारणमभ्युपगम्यत इति नाय दोषः; नन्वत्राऽप्यऽभ्युपगमे येन स्वभावेन तदनन्तरभाविकार्यमुत्पादयति तेनेव यदि सुगतज्ञान-मिदानीतनकालभावि जनयति तदैकस्वभावत्वान्नित्यादिवत कार्य-क्रमायोगात पूर्वमेवैतदप्युत्पद्येत। अथ समनन्तरप्रत्ययस्य सुगतज्ञानहेतोरिदानीमेय भावान्न पूर्वमुत्पत्तिः, असदेतत्, यत आलम्बनकारण चिरातीतसमयभावि तदेव तत्कार्यमुत्पादयितुं प्रभवति समनन्तरप्रत्ययस्त्विदानीभिति विरुद्धकारणसामर्थ्यानुविधायिनः कार्यस्योत्पत्तिरेय न भवेत्। अथान्येन स्वभावेन तर्हि सांशं तत्प्रसज्यत इति तदग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य सांशेकवस्तुग्राहकत्वेन सविकल्पकताप्रसक्तिः / एवं भाविकारणेऽपि वक्तव्यम् / तन्न योगिप्रत्यक्षमर्थसामर्थ्यप्रभवमभ्युपगन्तव्यम, अन्यथा ईक्तदोषप्रसक्तेः / तच तदप्रभवमपि यथा विशदम-अन्यथा प्रत्यक्षत्वानुपपत्तेः-तथा विकल्पज्ञानमर्थसामर्थ्याप्रभवमपि यदि विशद मतदा को विराधः? विकल्पस्य वैशद्यमेव विरोधः / तदुक्तम् ... "न विकल्पानुबुद्धस्य, स्पष्टार्थप्रतिभासिता। स्वप्नेऽपि स्मयत स्मार्त, न ('न च तत् तादृगर्थदृग।' पाटान्तरे।) च तत्ताविरोधकृत् // 1 // " इति चेत्, ननु स्वप्नावस्थायां पुरोवर्तिहस्त्याद्यवभासक ज्ञानमनुभूयते, अपरं तु स्मरणज्ञानम्। तत्र पूर्वोल्लेखतापजायमानस्य यदि वैशद्यवैकल्यं नैतावता सर्वविकल्पस्य पुरोवर्तिस्तम्भाधु-ल्लेखवतो वैशद्याभावस्तत्र तस्य स्वसंवदेनाध्यक्षतः प्रतीतः। न चाविकल्पकतदिति वक्तव्यं स्थिरस्थूरपुरोव्यवस्थितहस्त्याद्यवभासिनः स्वप्नदशाज्ञानस्याविकल्पकत्वे अनुमानस्यापि सांशवस्त्वध्यवसायिनो निर्विकल्पकत्वप्रसक्तेः विकल्पवार्ता-विरतिरेव स्यात् / अत एव- 'प्रथम निर्विकल्पकं निरंशवस्तुग्राहकं तदर्थसामोद्भूतत्वात् तदुत्तरकालभावि तु निर्विकल्पज्ञानप्रभवमर्थनिरपेक्षं सांशवस्त्वध्यवसायि सविकल्पकमशविदम, लघुवृत्तेस्तु निर्निकल्पकज्ञानवैशद्याध्यारोपात्, तत्राध्यक्षत्वाभिमानो लोकस्य' इति, एतदपि निरस्तं द्रष्टव्यम् / विकल्प एव पूर्वोक्तन्यायेन वैशद्योपपत्तेः, निर्विकल्पकस्य च निरंशक्षणिकपरमाणुमात्रावसायिनः कदाचिदप्यनुपलब्धेस्तत्र वैशद्यकल्पनाया दूरापास्तत्वात् / अथ संहृतसकलविकल्पावऽस्थायां पुरोवतिवस्तुनिर्भासि विशदमक्षप्रभवं ज्ञानमविकल्पकं संवेद्यत एव तथा चाध्यक्षसिद्ध एव ज्ञानानां कल्पनाविरह इति नात्र प्रमाणन्तरान्वेषणमुपयोगि। तदुक्तम्- 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढ, प्रत्यक्षेणैव सिद्धयति।' इत्यादि / तथा पुनरप्युक्तम्“सहृत्य सर्वतश्चिन्ता, स्तिमितेनान्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूपं, वीक्षते साऽक्षजा मतिः / / 1 / / " न हास्यामवस्थाया नामादिसयोजितार्थो ल्लखो विकल्पस्वरूपोऽनुभूयते / न च विकल्पानां स्वसंविदितरूपतयाऽननुभूयमानानामपि संभव इति विकल्पविकला साऽवस्था सिद्धा, असदेतत्; यतस्तस्यामवस्थायां स्थिरस्थूरस्वभावशब्दसंसर्गयोग्यपुरोव्यवस्थितगवादिप्रतिभासस्याऽनुभूतेः सविकल्पकज्ञानानुभव एव। न हि शब्दसंसर्गप्रतिभास एव सविकल्पकत्वं तद्योग्यावभासस्यापि कल्पनात्वाभ्युपगमात्, अन्यथा व्युत्पन्नसंकेतस्य ज्ञानं शब्दसंसर्गविरहात कल्पनावन्न स्यात्। नच पूर्वकालदृष्टत्वस्य वर्तमानसमयभाविनि संयोजनाच्छब्दोल्लेखाभावेऽप्यसदर्थग्राहितयाऽविशदप्रतिभासत्वात् तत् सविकल्पकम, पूर्वकालदृष्टत्वस्य पूर्वदर्शनाप्रतीतावपि व्यापकाप्रतीतो व्याप्यस्येव प्रतीत रसत्त्वाऽसिद्धः तत्सम्बन्धित्वग्राहिणोऽसदासिद्धेशद्याभावस्य तत्रानुपपत्तेः / शब्दसंसर्गयोग्यप्रतिभासस्य विशदतया विकल्परूपस्याप्यध्यक्षतोपपत्तेः शब्दयोजनामन्तरेणापि स्थिरस्थूरार्थप्रतिभास निर्णयात्मकं ज्ञानमध्यक्षमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा तस्य प्रामाण्यमेवानुपपन्नं भवेत्। तथाहि-यत्रैवांशे नीलाऽऽदौ विधिप्रतिषेधविकल्पद्वयं पाश्चात्यं तज्जनयति तत्रैव तस्य प्रामाण्यं तदाकारोत्पत्तिमात्रेण प्रामाण्ये क्षणिकत्वादावपि तस्य प्रामाण्यप्रसक्तेः क्षणक्षयानुमानवैफल्यमन्यथा भवेत् विकल्पश्च शब्दसंयोजितार्थग्रहणम् तत्संयोजनाच शब्दस्मरणमन्तरेणासंभविनी तत्स्मरणं च प्रावतनसन्निध्युपल Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 377 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ ब्धार्थदर्शनमन्तरेणानुपपतिमत, तदर्शन चाध्यक्षतः क्षणिकत्वादावित निश्चयजननमन्तरेणाऽसंभवि, निश्चयश्च शब्दयोजनाव्यतिरकेण नाभ्युपगम्यत इत्यध्यक्षस्य क्वचिदप्यर्थप्रदर्शकत्वाऽसंभवात प्रामाण्यं न भवेत् / तस्माच्छब्दयोजनमन्तरेणाप्यर्थनिर्णयात्मकमध्यक्षम - भ्युपगन्तव्यम् अन्यथा विकल्पाऽध्यक्षेण लिङ्ग स्याप्यनिष्णयात / अनुमानात् तन्निर्णये अनवरथाप्रसक्तेः, अनुमानस्याप्यप्रवृत्तितः सकलप्रमाणा देव्यवहारविलोपः स्यात् / अत एव- "अश्व विकल्पयतो गोदर्शमात् न तदा गांशब्दसंयोजना तस्यास्तदाऽननुभवात् युगपद्विकल्पद्वयानुतःत्तेश्च। निर्विकल्पकगोदर्शनसदभावस्तदा" इति निरस्तम गोशब्दसंयोजनामन्तरेणापि तद्दर्शनस्य निर्णयात्मकत्वात्, अन्यथाऽश्वविकल्पनाद् व्युत्थितस्य गवि क्षणिकत्ववत् शब्दस्मरणासंभवतः स्मृतिर्न भवेता अभ्युपगमनीयं चैतत् अन्यथा गोशब्दस्मरणस्यापि वि. ल्परूपत्वादारतच्छब्दस्मरणमन्तरेण तद्योजनारूपस्य तस्या ऽसंभवात् नत्रस्मरणमभ्युपगन्तव्यं तस्याऽपि चापरतच्छब्दरम-- रणमन्तरेण तथाभूतस्याऽनुपपत्तेरपरतच्छब्दरमरणमित्यनवस्थानान प्रथमशब्दस्मरणमिति न क्वचिद् विकल्पप्रसवो भवेत, अथापरशब्दस्मरणमन्तरेगापिशब्दस्मरणसभवान्नाऽनवस्था तर्हि प्रथमशब्दर मरण योजनं च व्यतिरकणाप्यश्वविकल्पनसमये गोदर्शनस्य नियाऽऽत्मनः संभवात कथमस्या विकल्परूपतासिद्धिमुपग? यापे- 'निरंशवस्तुसामोद्भूतत्वात प्रथमाक्षसन्निपातजं निरंशवस्तुग्राहि निर्विकल्पकम्' इति तदप्यसगतम: निरंशस्य वस्तुनोऽभावन तत्सामथ्योद्भूतत्वस्य निर्विकल्पकत्वहे तोस्तत्राऽसिद्धेः / न च यन्निरशप्रभव तन्निरंशग्राहि, निरंशरूपक्षणप्रभवस्याप्युत्तररुपक्षणस्य तद्ग्राहित्वा दर्शनात् / न च ज्ञानत्वे 'सति' इति विशेषणान्नायं दायः प्रत्यक्षप्रभवविकल्पस्य ज्ञानत्वेऽपि तदभावानुपपत्तेः उपपणा हिंसाविरतिदानचित्तस्वसंवेदनाध्यक्षप्रभवनिर्णयन पदग्रहणापपत्तेः निश्चय विषयीकृतस्य चानिश्चितरूपान्तराभावात् स्वर्गप्रापण - साभदिरपि तदगत्स्यनिश्चयात्,ता विप्रतिपत्तिर्न भवेत् अथानुभव स्येवायं यथावस्थितवस्तुग्रहणलक्षणः स्वभावविशेषो न विकल्परय तेनायमदोषस्तहि यथा दानचित्तानुभवः स्वसंवेदनाध्यक्षलक्षणः तद्गतं सदद्रव्यचेतनादिकं विषयीकरोति तथा स्वर्गप्रापणसामश्यमपि तत्स्वरूपात्यतिरिक्तत्वाद्विषयीकुर्यात्ततश्च सद्रव्यचेतनत्वादाविव तत्राऽपि विवादोन भवता न चासो नास्तीति शक्यं वक्तुं चावाकादेर तत्र विप्रतिपत्तिदर्शनात्। तथाहि- "यायजीवेत्सुखं जीव” इत्याद्यभिधानान्न स्वर्गः नापि सत्प्राप्तिहेतुः कश्चिद्भाव इति चार्वाकाः / नैव दानादिचित्तार स्वर्गः यदि नतो भवेत् तदनन्तरमेवासी भवेत् अन्यथा मृतात् शिखिनः केकायितं भवेत्तस्मात्ततो धर्मस्तस्माच्च स्वर्ग इति नैयायिकादयः / "इप्टानिष्टाऽर्थसाधनयोग्यतालक्षणी धर्माऽधामी" इति मीमांसकाः। उक्तं च-. 'शाबरे..' “य एव श्रेयस्करः स एव धर्मशब्देनाध्यत." (मीमांसाद 1-1 2 शाब० पृ०४) अनेन द्रव्यादीनामिटार्थसाधन योग्यता धर्म इति प्रतिपादितं शबरस्वामिना। भट्टाऽप्यतदेवाह . "श्रया हे पुरुषप्री'तैः, सा द्रव्यगुणकमभिः / चोदनालक्षणः साध्या, तस्मादेष्वेव धर्मता।।१।। एकामिन्द्रियकत्वेऽपि, न तादूप्येण धर्मला।। श्रेयः साधनता होषा, नित्यं वेदात्प्रतीयते। ताप्येण च धर्मत्वं, तस्मान्नेन्द्रियगोचरः।" (श्लो० वा० सू०२ श्लो० 161-13-14) इति। एवमनेकधा विवाददर्शनान्न विवादाभावः / स च स्वर्गप्रापणसा-. मध्यस्थमानचित्तादभेदे वस्तुस्वरूपग्राहिणा च स्वसंवेदनाध्य - होणाऽनुभव सदव्यचेतनत्वादाविव न युक्तः / अथ तच्चित्तादभिन्नं तत्प्रापणसामर्थ्य तद्गृहे गृहीतमेव, किंतु-स्वसंवेदनस्य “सर्वचित्तयत्तानामा मसवेदन" 'प्रत्यक्षमविकल्पकम' " (अत्र धर्मकीर्तिकृते न्याचबिन्दौ-"सर्वचितचत्तानामात्मसंवेदनम्" इत्येतावदेवसूत्रं दृश्यते-- 501 सू० 10 पृ० 11 / ततः- “प्रत्यक्षमविकल्पकम्” इत्यशस्त. सूत्रटीकानुसारी समुद्भतो बोद्धव्यः। साच टीकेयम् वर्तत... “तच ज्ञानरूप बदनमात्मनः साक्षाकारी निर्विकल्पकमभ्रान्तंच तस्मात प्रत्यक्षाम" -- पृ०११५०१४ाराहीकाटिप्यण्यपि यथा."तत् प्रत्यक्ष स्वसर्वदनरूप निर्विकल्पकं तत्र शब्दादियोजनाभावात् / कुतः। शब्दे संकेताभावात्। अभ्रान्तं च तद्विज्ञान स्वरूपेऽविपर्यस्तत्वाद बाधकामावाचेति" -- पृ० 3350 5.6 “सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षं निर्विकल्पकमिति”.. सिद्धिविकटी लि०५०५१५०२०1) इति वचनात् अविकल्पाध्यक्षत्यमिति तद् गृहीतस्यागृहीतकल्पत्वाद्विवादसंभवः तत्र आह च कीर्तिः--- 'पश्यन्नपि न पश्यति' इच्युच्यते / असदेतत; यतो यदि तत्सामथ्य निर्विकल्पकाध्यक्षविषयत्वाद गृहीतमप्यगृहीतकल्पं तर्हितचित्तमपि तत एव तथा भवेविशेपात तथा च. 'यद्दवानादिचित्तं तदहुजनसेव्यतानिबन्धनं यथा त्यागिनरपतिचित्त, दानादिचित्तं च विवक्षितम्' इत्याअनुमानमगमकम--आश्रयासिद्धत्वादिदोपात्-प्रसज्यत: अथात्र विकपोत्पाने दोषः, अरादतत, यतो यद्यहेतुको विकल्पः चित्तवत तासाभर्थेऽपि भव।। अथ न, तत्र चित्तेऽपि मा भूत अविशेषात् / अनुभवाद्विक पात्पत्तिनानिमित्तति चदुभयत्र स्यात् न वा कृचिदप्यनुभवस्याऽप्यविशेषात् नच चेताविकल्पप्रभव एवानुभवः समर्थः न तत्समयविकल्पोत्पत्ताविति वक्तव्यं यतो येन स्वभावेन तचित्तचतनादिकं स्वसंवेदनाध्यक्षभनुभवति, तेनैव चेत्तत्सामर्थ्य तथुभयत्रापि विकल्परततः प्रादुर्भवत् / अथ रूपान्तरण तयुभयरूपतकस्यानुभवस्यत्यविकल्पककान्तवादव्याघातः, नचकेनेव स्वभावेनाभयानुभवे पि तत्सामथ्ये न विकलामुत्पादयत्यनुभवः अशक्तेरन्यत्र तदुत्पादयति विपर्ययादिति वक्तव्यम्, एकरयशक्तेतरपद्यायोगात्। नचकत्र शक्तिरेवान्यत्राशक्तिस्तस्येतीश्वरस्यापि क्रममाविकार्यविधायिनः एकत्र शक्तिरवापरस्त्राशवितरिति, स्वभावभेदो न भवेदिति ननित्यकारणप्रतिक्षेपो भवेत् / अथनानुभवमात्राद्विकल्पप्रभवः अन्यथा नियात्मकानुभववादिनोऽपि विस्तीर्णप्रधट्टकादौ वर्णपदवाक्यादेः सकलस्य निर्णयात्मना अध्यक्षेणानुभवात् स्मरणविकल्पानुदयो न भवेत / अथार दर्शनपाटवा - सास प्रकरणाद्यायेक्षा तर्हा न्यत्राणि सातुल्यति। दशरद यता दर्शनस्य पाटवं सरचेतनाऽऽदी तद Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 378 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ महागयोग्यता तत्सामर्थ्य। अपाटवं तद्ग्रहणयोग्यता सच्च दर्शनस्य दृश्यर य च सांशतायामुपपत्तिमदिति कथं न सविकल्पकता? विकल्पजननाऽजनने तत्पटवाऽपाटवे अपि नाभ्युपगमनीय सां. शतापत्तिदोषादेव / अथाभ्यासादिसहाय दर्शन विकल्पमुत्पादयति, नन्वेवमपि यदेव सच्चेतनादी दर्शन तदेव चेत्, अन्यत्रो भयत्र विकल्पोत्पत्तिर्भवेत्, अन्यथा 'नित्यस्यापि सहकारिसचिवमेकदैकत्र अदूपं तस्याऽन्यत्रान्यदा सद्भावऽपि न त कार्यकरणं तदा तत्र' इति तस्य यद दूधमतदसंगतं भवेत्। किच-यदपरमपेक्ष्य कार्यजनकं चिद् दृष्ट तत् तत्सहकृत कार्य निर्वर्त्तयतीति युक्तं मृदादिवत कुम्भकाराधुपकृतम्। नचाभ्यासादिसहायमविकल्पकं कदाचिद्विकल्पमुपजनयद् दृष्टमिति कयंतस्थ सहकारिसचिवस्य विकल्पजनकताभ्युपगमः? अथ सतनादिविकल्पमविकल्पकमुत्पादयत् दृष्टमिति तदभ्युपगमः, स्थादेति यदि क्रमभाविहेतुफलभूतमविकल्पसविकल्पकं ज्ञानद्वयदसीयत न च तदवसीयते सांशयिकविकल्पस्वभावस्य सामान्य शपात्मकवस्तुग्राहिण: प्रथममेवोपजायभानरयेकर येव निश्चयात् / अशाप्यप्रतीयमानस्य कालभाविनोऽपरस्थाविकल्पस्याम्युपगम त्राप्यपरस्य तथाभूतस्थाभ्युपगम इत्यनवस्थाप्रराक्तिः। यदप्यदिकल्पकरयाभ्यासादिसहायविकल्पजनने प्रधट्टकारसरण दृष्टान्त्वनापन्यस्तं, तदप्ययुक्तम्, यतो वण्णादीना तज्ज्ञानाना च स्यक्तिभेदात दृढ संस्काराण्येव निश्चयात्मकान्यपि ज्ञानानि स्मतिजनकानि नाऽपराणीति प्रतिनियतविषयस्मतिसंभवान्न सकलप्रघट्टकार मादयः / अनिश्चयात्मकं तु ज्ञान क्षणिक वादावित न ऋचिवकल्पहेतुभवेत / इत्युक्तं प्राक / न च भवपक्षे सतना55दिस्वर्ग:भाषणशव यादीनां परस्पर तदनुभवानां च भेदः यनदमुत्तर समान भाई-सचेतनादितत्सामर्थयोरभेदे तदनुभवादेकस्वादुमयर सस्कार::रण वा भवेतनवा क्वचिदिति अन्यथा अनुभवस्य सापशिरिति सजिकल्पकत्वं भवेत् / तरमाद्यानवितादी सयतनत्वाविकात स्वर्गग्रापणसामर्थ्यमित्यम्युपगन्तव्यमा अथ तोतसो मूषिक विपदिकारवदनन्तरं फलस्यानुपलम्भात, अत कलसाधनादसामः यसमारोपाद्वा, तदनुभवेऽपि न विकल्पः / प्रमाणान्तरप्रवृत्तिःसप्रयोजनैवेति, एतदप्ययुवतम,--यतस्तत्वामर्थ्यस्य यत्फल सच्चे-तसा तदेव, उताऽन्यदिति? प्रथमपक्ष उभयत्र निश्चयाभावः फलादर्शनस्याविशेषात्। द्वितीयपक्षे घट पटवर तभेदः / यदप्यसामर्थ्यसमारोपात्तन्निश्चयानुत्पत्तिरिति तत्रापि तत्साम यानुभवो यद्यनिश्चितोऽप्यस्ति सर्व सर्वत्राऽनिश्चितमपि भवेत् इति सांख्यमताऽप्रतिक्षेपः / न च तत्सामर्थ्य तच्चेसोऽभिन्नमिति तदनुभवे तस्याप्यनुभवश्चन्द्रग्रहणेऽपि तदेकत्वाग़ हणतः तैमिरिकदर्शनेन व्यभिचारात्, तस्यापि ग्रहणमिति चेत्, न, भ्रान्तेरभातप्रसङ्गतः "कल्पनापोढमभ्रान्त प्रत्यक्षम्” (न्यायबि०१-४) इत्यत्राभ्रान्तग्रहणा5ऽनर्थक्यप्रसक्तेर्व्यवच्छेद्याभावात्। चन्द्रग्रहणमपि तत्रनास्तीति चेत्, न; एकत्वाप्रतिपत्तावपि तत्प्रतिभासदर्शनात्। एकस्य द्वित्वविशिष्टतया तस्य ग्रहणान्मरीचिकाजलज्ञानवत् भ्रान्तं तदिति चेत्, न द्वित्वे यथा विसंवादाभिप्रायात्तद्धान्त तथा चन्द्रमसि संवादाभिप्रायात्वि मिति तत्रा (न्ना) भ्रान्तं प्रमाणेतरव्यवस्थाया व्यवहार्यनुरोधतः सनाश्रयणात 'प्रमाण्यं व्यवहारेण, शाख माहनिवर्तनम्।' इति भवतैवाभिहितत्वात्। नचैकत्र ज्ञाने भान्तेतररूपद्वयमयुक्तं व्यवहारिणा तथाऽऽश्रयणाद् अन्यथैकचन्द्रदर्शनस्यापि चन्द्ररूपे प्रमाणता क्षणिकत्वे प्रमाणता' इति रूपद्वयं न स्यात क्षणक्षयेऽपि तत्प्रामाण्ये प्रमाणान्तरा प्रवृत्तिभवत्। चन्द्रमस्यप्यप्रमाणत्वे न किञ्चित् कृचित्प्रमाणभवेदिति सर्वप्रमाणव्यवहारलोपो भवेत् यस्य तु मतं दृश्यप्राप्ययोरेकत्वे अविसंवादाभिमानिनः प्रत्यक्ष प्रमाणम्, इतरस्यतयोर्विवके सत्यनुभूतेऽपि न प्रमाण तस्य चन्द्रदर्शने चन्द्रप्राप्त्यभिमानिनः किमिति चन्द्रमात्रे तन्न प्रमाणम? विवेकानध्यवसायिनस्तु यदि तदननुभूतेऽप्यकत्वे प्राण तर्हि यद्यथाऽवभासत तत्तथैव परमार्थसद्व्यवहारावतारि, यथा नील नीलतयाऽवभासमानं तथैव सद्व्यवहारावतारि अवम सन्ते च क्षणिकतथा सर्वे भावा इत्यनुमानमसंगतं हेतोरसिद्धताप्राप्तेः / अथ त प्रत्येतदनुमानमेव नोपादीयते तर्हि कं प्रत्येतदुपादेयम्? यस्त्योर्विवेक मन्यते तं प्रतीति चत, न; तं प्रत्यनुमानानर्थक्यात् तदन्तरेणापि तदर्थनिष्पत्तः / यच तं प्रति भाविनि प्रवर्तकत्वादनुमानं प्रमाण युक्तम् तत् “सर्वचित्तचत्तानाभात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्” इति वचनात्रवरूप भ्रान्त बहिरर्थे "भ्रान्तिपि सम्बन्धतः प्रमा” इति वचनाद्भ्रान्तमित्येकमेव कथं द्विरूपम्? किं च--यदि तस्य न प्रत्यक्ष प्रमाणमस्ति कथमनुमानप्रादुर्भावः? अस्ति चेत् तत्कि विषयमिति वाच्यम् ? साधनावभासि जलादिसाधनविषय प्राप्यावभासि प्राप्यार्थक्रियाविषयमिति चेत, ननु तदपि जलादिमात्र प्रमाणं स्वविषयकार्यजननसामर्थ्यादातप्रमाणम अन्यथा विवादाभावात शास्त्रप्रणयनं तदर्थमनर्थक भवदिति तदप्यशेनैव प्रमाण। यत्पुनरभ्यधायि-'दृश्यप्राप्ययारकत्वे विसंवादबुद्धिं प्रति प्रत्यक्षाऽऽभासम' इति तत्र दृश्यादिमात्रे तदाभासत्वे वस्तुदर्शनमुच्छिद्येत / अथात्र प्रमाणतदाभाराधर्मद्वयमेकत्राप्यभ्युपगम्यते प्रकृतेऽप्यभ्युपगम्यताम्। अथ तैमिरिकाज्ञानेनाप्रतीयमानमेकत्वं तस्येति कथ? ननु निश्चित शब्दे आने “एकस्यार्थस्व क्षस्वसतः स्वयम्। को न्यो न दृष्टो भागः : परीक्ष्यते / / 1 / ! नाचे भान्तिनिमित्तेन संयोजक गणान्तरम् / शुक्ती वा रजताका, रूस शिनात // 2 // " इति। अत्रच तात्पयार्थ:-यदर- भिरिमन्ननुभूयमाने तदनुभूयते यथा तीत स्वरूपम अभिन्न सानादेः चेतासः स्वर्गप्रापणसामर्थ्य तरय तता मेद सम्बन्धसिद. .१२.यदिव तत्प्राप्तेश्च सरतत प्राप्ति प्रत्यकारकत्वं च म निरस्य च वस्तुनो ऽध्यक्षेणानुभव अननुभूतापरांशाभावान्न पत्र प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः प्रयोजनवती। अयच नरमधामकाध्यक्षमा दिनानाधा, निश्चिते विपरीतसमारोपाभावात, दयाराममनसाध्यबाधकचात् / अविकल्पदर्शनानुभूते तु कान्तिानतिरोपसंभवागतयारी | Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 376 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सबभवाइ श्विता क्षणिकता तस्ये त्यपि कथम? अनुमानेन तत्रैव निश्चयात् तस्येत्येतदन्यत्रापि समानम् / तदेव निरशत्वे वस्तुनः तचित्तग्रहणे / तत्सामर्थ्यरस पि ग्रहणप्राक्तेविवादाभावस्तत्रैव भवेता नवमिति सांऽशवस्तुतयाभूतवस्तुग्राहकं प्रमाणमपि सांशं सत्सविकल्पवम् अपि ध-यदि निरंशवस्तु सामर्थ्याद्भुतत्वात्कल्पनापोटमध्यक्ष स्वसंवेदन तथाभूतवस्तुप्रभवत्वाभावात सवेदनग्राहि निर्विकल्पकंचन भवेत, अथ तादात्म्यं त तन्निमित,न, सचेतनादेरिव स्वर्गप्रापणसामध्यदिपि गृहणप्रसक्तेर तदविशेषात्। अथ न तादात्म्याद ग्रहणमेवाभिन्नस्थ, कि तु-तादात्म्य देव, असदेतत्: तादात्म्यादेव स्वरूपस्य ग्रह इत्यत्र प्रमाणाऽभावात् / अविकल्पक दर्शनं प्रमाण मिति वंत, न, सुषुप्ताऽवस्थायां तत्प्रसङ्गात तत्रापि चैतन्यसद्भावात् ! अन्यथा प्रबोधावस्था'वेज्ञान-मनुपादानम् अचेतनोपादानं वा भवेत् / न च तदनुरूपप्रबोधदर्श-नाजाग्रद्विज्ञानोपादानं तद्विप्रकृष्टदेशकालस्थापि कारणत्वे तैमि-रिकज्ञानस्यापि विप्रकृष्टदेशकालकारणप्रभवत्वसंभवात निरा-लम्बनता न भवत् / अतोऽव्यवहितं कारणमभ्युपगन्तव्यम्।नच सुषुप्तावस्थायां विकल्पानुत्पत्तेर्न तत्प्रसङ्गो विकल्पवशात तादातर सत्यपि तव-वस्थाया बायार्थेऽपि तत एव व्यवस्थाचप-तावकर- एव प्रमाणं भवत। किच-यहार्थप्रशवत्वात ज्ञानमर्शसंग्राहकं तहाँन्द्रियादरपिता एवं ग्राहक भवेत्तव्यतिरिक्तबाह्यार्थग्राहकत्वं चतस्याभ्युपेयते / तथाहि. "प्रमाणतोऽ प्रतिपत्ता प्रवृत्तिसामर्थ्यादर्थवत् प्रमाणम्" (वात्स्या भा० / पृ०१ पं०१ इत्यत्र भाष्ये प्रमातृप्रमेयाभ्यामर्था-न्तरमर्थसहकार्यर्थवत् प्रमाण नैयायिकैव्याख्यातम् / तेन न तत्प्रभवत्व तन्निमित्तम / तदभ्युपगमे या शब्दज्ञाने शब्दवत् तत्सम-वायिकारकर्णशल्य यछिन्ननभादेशाख्य श्रोत्रेन्द्रिय-तत्सम - वाययोरपि प्रतिमा स्यादित्याकाशसमवायविषयानुमानोप-न्यासो वैयथ्य मनुमबत, अध्यक्षसिद्धऽनुमानापन्यासप्रयासस्य वैफल्यात / न च समवायविषयाध्यक्षस्याऽविकल्पत्वेन तद्गृही-तस्याऽगृहीतरूपत्वान्नाऽयं दापः, शब्देऽप्यस्थ समानत्वात् यतो नैकमेकत्र निर्णयात्मकमपत्रान्यथेत्येकान्तवादिनो धक्तुंयुक्तम् / एवं रूपत-त्सामान्य समवायेष्वपि वाच्यम् / अथ न कारण-मित्येवार्थग्रहः, किंतु--योग्यतातः, नन्ववं किनिमित्त नर्थस्य ज्ञान प्रति कारणता परिकल्प्यते? अथन तदग्रहणान् थाऽनुपपत्ते--स्तत्प्रति तत्कारणतापरिकल्पनं कित्वन्क्यव्यतिरेकाभ्याम्- 'अर्थे सति तदवभासि ज्ञानमुपलब्धं तदभाव चन' इत्रन्ययस-तिरकनिबन्धनोऽन्यत्रापि हेतुफलभाव इति, असदेतत, यागिज्ञा-नस्य सकलातीतानागतपदार्थ-साक्षात्कारिणोऽतीतानागततत्प-दाभावेऽपि भावाभ्युपगमात्। न च सर्वेऽप्यतीताऽनागता भा.. वास्तदा सन्ति सर्वभावानां नित्यताप्रसक्तः निघतद्विपय तज जानन भवति 'सद पदर्गः कस्यचिदेकज्ञानावलम्बन अनेक त्वात्पश्चाङ्गुलियत इत्यनु मानविरोधात / एतेन “यस्य ज्ञान प्रतिभासस्तर तत्र तत्कारणल. निमित्तमभिधीयते, नत्वप्रतिभास-मानस्थ समवायादस्तनिमित्तः प्रतिभासो भवतु इत्यासजयितुं युक्तम्" इत्यधायनादिमत निरस्त योगेशानेऽकारणस्थापि प्रति--भासप्रतिपादनात्। तेजस चक्षः | रूपादीनां मध्ये रूपस्य व प्रकाशकत्वात् प्रदीचवत' तथा 'प्रामार्थप्रकाश चक्षुः तेजसत्वात प्रदीपवत' इति, एतदप्यत एव निररतम रूपप्रकाशकत्वं हि रूप ज्ञानजनकत्वं तच प्रदीपस्याऽसिद्ध तस्य रूपेवाज्ञानसंसर्गि:वात्। प्रयोगश्चात्र--प्रदीपस्तद्विानकारणं न गवति विषयत्वात यो हि यद्विषयो नासो तत्कारण यथा त्रिकालाशपभावविषययागिज्ञानस्यातीतादिकोऽर्थः, तथा च प्रदीपी विपया यथावतरूपज्ञान रयतरभान्न कारणमिति / तेजसत्वा सिद्धी च चक्षुषः प्राप्ताप्रि--काशकत्वदूरोत्सारितमव / अत एव.. "नाऽननुतान्वयव्यतिरेकं कारण नाकारण विषयः" इति सांगतमतमध्यपास्तम्ल्याहि के कारण विषय एव, उतकरणमव विपयः?, प्रथमपक्षपादिसविदां चक्षुराद्यपि विषयो भवेत, तशाच . यस्मिन सत्यपि यनावति तदतिरिक्तहत्वपक्षा यथा कुलालामा सत्यप्यपरकारकसगृहे अभवन् घट: कुललापेक्षः सत्यपि व रूपादा कदाचिन्न भवति 'रूपादिज्ञानम्' इत्यनुमानोपन्यासी व्यर्थः अध्यक्षत एव चक्षुराधिनतः। द्वितीयपक्षेऽपि भविष्यति रोहिण्युदयः कृत्तिकोदगादतीतक्षपायामिव' इत्यस्यानुमानस्य भावी रोहिण्युदया मन विषयोन स्थान हि भावी रोहि- Dयुदयः कृत्तिकोदयस्य पपस्या विकारणम् / अथ भावी राहि ज्युदयः प्रामाविनः piकीदारय कारण प्रशाकराभिप्रायण कार्यरय प्रागमाविवाद तर्हि 'अद्भरण्युदयः कृसिकादयात' इत्यनुमानमविषयं भवेत् / अथ भरायुदयोऽपि कृतिकादयस्य कारण तेनायमदोषः। ननु यन भावेन भरण्युदया। रिकादय---तब यदि शकटोदयादपि तदा याशिव याततोऽपि गावेत यया वा शकटोदया पाक साथ गादया पिसागययन अधा सतरा कृषिकोदर तहान्यतररयंव त: दीतिर्भवः। न चैवमिति न युक्तम्- 'कारणमव विषयः' इति पक्षायाम / अथ कारण श्वाकाराधायक विज्ञान विषय एवेति पक्ष: अबस्य प्रातः यतः किं कारणमेव तदाधायक तत्र, आहोरिवत् तत तः धायकवति विकल्पद्वयान तिवृत्तिः / प्रथमविकल्प कश (शा) न्दुकादिक्षानं कुतः कारणात् तदाकारमुपजायते? न तावदात्त स्य तत्कारणत्वानभ्युपगमात, अभ्युपगमे वा तस्यामान्ततापत्त:: न समनन्तरप्रत्ययात, तस्य तदाकारता (लाड) यांगात नेन्द्रिमादः अत एव हेतोः सन्न कारणमेव तामाधायकमिति पक्षान्यु यगमःमः नापि तरादाबायकमति पक्षोभ्युपान्तु युक्तः, इन्द्रिय स्थापि तदाधाय कतापत्तेस्तज्ञानविषयताप्रसक्तेः / अर्थस्य च सहिताना तब स्वा.काराधान शानस्य जडतीपर पतेः उत्तरार्थक्षणदेकदेशेन तदाबायकाय सांशताप्रसक्तः, समनन्तरप्रत्ययस्यता स्ना काराधारकत्वान जस्तापत्तिलक्षणा दा५ इति च समनन्तपत्थयाक्षिणा द्वारपिस्वाकासाकर तजमानस्य तन!5निरूपद्रयाऽ ऽपतः / प्राक्तनशानणस्यवतत्र स्वाकाराधायकस्य सामना तमाधान र पपूर्वरूपताप्रसवितरितिकारणरूपतेव श्यात तथा चपूर्वपूर्वक्षणानामप्यत प्रत तेरेकक्षणवर्ती सवा सानो मदिति प्रागादिव्याहारलोषः / किवदाकार तत 395 यदि मनन्त खस - प्रादु अतिसाययोन्यभिचारः इति नाथेऽपि प्रमा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 380 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ भवत् / तथा च-- “अर्थेन घटयेदेना, नहि मुक्त्वाऽर्थरूपताम् / तरमा प्रमयाधिगतः, प्रमाणं मेयरूपता" ||1|| इत्यसंगतमभिधानम्। सम्म०२ काण्ड 2 गाथाव्या०। अत्र च द्रव्यार्थिकमतावलम्बी शब्दब्रहावाद्याह भर्तृहरिः-- "अनादिनिधन बहा, शब्दतत्त्वं यदक्षरम्। विवर्ततऽर्थभावन, प्रक्रिया जगतो यतः॥” (वाक्यप० श्लो०१प्रथमका०) इति। अत्र च आदिरुत्पादः, निधन विनाशः, तदभावाद् 'अनादिनिधनम्।' 'अक्षरम्' इत्य-काराद्यक्षरस्य निमित्तत्वादनेन च विवत्तोऽभिधानरूपतया निदर्शितः। 'अर्थभावेन' इत्यादिना त्वभिधेयो विवर्तः / 'प्रक्रिया' इति भेदानामेव संकीर्तनम् 'ब्रह्म' इति पूर्वापरादिदिग्विधागर-हितम् अनुत्पन्नभविनाशियच्छब्दमय बहा ततश्चार्य रूपादिभा-वग्रामपरिणाम इति श्लाकार्थः / एतच्च शब्दस्वभावात्मकं ब्रहा प्रणवस्वरूपम् सच सर्वेषां शब्दानां समरतार्थानां यप्रकृतिः। अयं च वर्णक्रमको वेदस्तदधिगमोपायः प्रतिच्छन्दकन्यायन स्यावस्थितत्वात,तच्च परमं ब्रह्म अभ्युदयनिः श्रेयसफलधमानुगृहीतान्तः करणरवगम्यते / अत्रच प्रयोगों-ये यदाकारानु-स्यूतास्ते तन्गयाः यथा घटशराबोदश्चनादया मृवीकारानुगता मृण्मयत्वेन प्रसिद्धाः शब्दाकारानुस्यूताश्च सर्वे भावा इति स्वभावहेतुः / प्रत्यक्षत एव सर्वभावाना शब्दकारानुगमोऽनुभूयते। तथाहि-अर्थे ऽनुभूयमाने शब्दालेखानुगता एक राये प्रत्यया विभाव्यन्त / उक्तं च-. "न सोस्ति प्रत्ययो लोके, यः शब्दानुगमादृते। अनुविक्षामिव ज्ञान, सर्वशब्देन भासत।।" (याश्यप मो०१२४ प्रथमका०) इति। नेच वागूपताऽननुवध बाधस्य प्रकाशरूपताऽपि भवेत् तस्याय- | समर्शरूपत्वात् तदमाद तु तर याभावात बोधस्याप्यभावः, परामशाभाव प्रवृत्ता (यदिव्यवहाराऽपि विशीर्थत इति / आह च - "apपता बदव्य कम दवबाधस्य शाश्वती। न प्रकाश: प्रकाशन, साहि प्रत्यवर्शिनी।।" (चावय५० ला० 125 प्रथमका०) इति। ज्ञानाकारनिवन्धन चवस्तुना प्रज्ञप्तिरिति नैषां शब्दाकारानुस्यूतत्वमसिद्धतात व मात्रभावित्वात्तन्मयत्वस्य तन्मय--वमपि सिद्धमेव / अत एव अबध: ३त्यनदेन शब्दार्थसंबन्धो वैयाकरण:'सोऽयमित्यभिसंब-दूमकीकृतम्' इत्यादिना--ऽभिजल्पस्वरूप दर्शयद्धिः प्रतिपादितः। अत्र च पर्यावास्तिकामा जतिज्ञादिदोष उद्भाव्यते--किमत्र जगतः शब्दपरिणामरूपत्वाच्छ महत्वं साध्यते.उत शब्दात्तस्योत्पत्ते: शब्दभात्य यथा-- 'अन्नमया: प्राणाः' इति हेतौ 'मय' विधानात? न तावदायः पक्षः परिणामानुगपत्तेः / तथाहि- शब्दात्मक बहा रूपाचारमकता प्रतिपद्यमान वरूपपरित्यागेन वा प्रपद्येत, अ... परि मानवा? याद परिगेनाले पक्ष आश्रीयते तदा 'अनादि-- 'नाना' इत्यनेन यदविनाशिवायुपगत तस्य हानिप्रसक्तिः / माया अथाऽपरित्यागनेति पक्षस्तदा रूपस-- वेदनसमये बधिरस्य शब्दसंवेदनप्रसङ्गस्तदव्यतिरकात् नीलादि वत्। तथाहि-यद यदव्यतिरिक्तं तत्सवेदने संवेद्यते,यथा तत्स्वरूपम्, रूपाद्यव्यतिरिक्तश्च शब्दात्मेति स्वभावहेतुः / अन्यथा- भिन्नयोगक्षेमत्वात्तत्तदात्मकमेव न स्यादिति विपर्यये बाधकं प्रमाणम् / सम्म०१ काण्ड६गाथाव्या०॥ अथ यदाकारं यदुत्पन्न यदध्यवस्यतितत्र तत्प्रमाणं नन्वत्रापि यदाकार यदुत्पन्नं विज्ञानमेवार्थाध्यवसायं जनयति, उत तत्तमेव, आहोस्विजनयत्येवेति कल्पनात्रयम् / आद्यकल्पनायां कारणान्तरानेषेधाद्विकल्पवासनाऽपि तत्कारणं न भवेत् एवं च निर्विकल्पकबाधाद् यथा सामान्याऽवभासी विकल्पस्तथाऽर्थादेव तथाभूताद् भविष्यतीति किमन्तरालवर्तिनिर्विकल्पदर्शनकल्पनया? नचाऽविकल्परूपताविशेषऽपि दर्शनादेव विकल्पोत्पत्तिार्थाद्वस्तु-स्वाभाव्यादित्युत्तरं तस्य स्वरूपेणेवाऽसिद्धः / किं च-यथा (थाs) विकल्पादर्थादविकल्पदर्शनप्रभवस्तथा दर्शनादपितथाभूतात् तथाभूतस्यैवाविकल्पस्य प्रसव इति विकल्पवार्ताऽप्युपरतेव भवेत्। किं च-स्थिरस्थूराऽवभासि स्तम्भादिज्ञान यद्यविकल्पक कोऽपरो विकल्पो यस्तजन्यो भवेत्? अथ 'स्तम्भः स्तम्भोऽयम्' इत्यनुगताकारावभासि ज्ञानं विकल्पः सा-मान्यावभासित्वात तांद्यमप्यनेकावयवसाधारणस्थूलैकाकारस्तम्भावभारिरविकल्पः किं न भवेत् सामान्यावभासस्याऽत्राऽपि तुज्यत्वात्? अस्यापलापे- ऽपरस्याऽप्रतिभासनात् प्रतिभासविकल जगत्स्यात्। न च स्तम्भनतिभासात्प्राग निरंशक्षणिकैकपरमाऽणुगोचरमविकल्पकं ज्ञान पुरुषवत्प्रतिभाति तथाऽपि तत्कल्पने पुरुषपरिकल्पनाऽपि भवेदिति न सौगतपक्षस्यैव सिद्धिः। किं च-निरंशक्षणिकानेकस्तम्भादिपरमावाकाराद्य-नेक तद्विभर्ति स्वाऽऽत्मनितदा सविकल्पकमासज्येत अनेकानुविधानस्य विकल्पनान्तरीयकत्वात्। अथ भिन्न प्रतिपरमाऽण तदिष्यते भवेदेवमविकल्पकम किंतु- एकपरमाणुग्रहणव्यापार–वन्नाऽपरपरमाणुग्रहणाय व्याप्रियत इति तेषां परलोकप्रख्यताप्रसक्तिः , तद्वेदनैश्व तस्यावेदनभिति तस्याप्यभावः। न चैकैकपरमाणुनियतभिन्नं वेदनमविकल्पकम् अन्यविविक्र्तक-परमाणोगि दृशि अप्रतिभासनाद्विवादगोचरस्य तज्ज्ञानस्य विकल्पजनकत्वासिद्धेः / तन्न प्रथमपक्षो युक्तिसंगतः इतश्वायमसङ्ग तो यतो येन स्वभावेनाविकल्पकं दर्शन स्वजातीयमुत्तरं जनयति तेनैव यदि विकल्पं तहविकल्पो विकल्प: प्रसज्येत विकल्पो वाऽविकल्पः अन्यथा कारणभेदःकार्यभदविधायी न भवेत, स्वभावान्तरेण जनने सांशता-पत्तिरिति। अथ सत्तमेव जनयति तथा सति धारावाहिनिर्विल्पसंततिर्न भवेत्। अथ तत्तं जनयत्येवेति तृतीयपक्षाश्रयण तथा सति क्षणभङ्गादावपि निश्चय इतिन ज्ञान--सन्तती सत्त्वसमारोपः नच रागादयस्तन्निबन्धना इति तद्व्य-वच्छेदार्थमनुमितिर्ने रर्थक्य-मनुभवेत् / किं च-यदि व्यवसायवशात विर्विकल्पकस्य प्रामाण्यव्यवस्था तर्हि तदुत्पत्तिसारूप्यार्थग्रहणमन्तरेणाध्यवसाय एव प्रमाणं भवेत्। अथ तथाभूतानुभवमन्तरेण विकल्प एव न भवेत, असदेगत, तस्य तज्जन्यत्वाऽसिद्धेरुक्तविकल्पदोषानतिक्रमात् / किंव-यदि तदाकारादर्शनान्निएर्णयप्रभवस्तदा स्वलक्षणगोचरो निर्णयो भवेत, निर्णयवद्वा सामान्य विषयमविकल्पकमासज्यत अन्यथा स्मृतिसाझप्या Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 381 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सदबंभवाइ दर्शनस्र सारूप्यसाधनमयुक्तं भवेत्। अथार्थलेशमात्रानुकारि स्मरण तथापि स्वलक्षणविषयत्वं रमरणस्य सर्वथा तदनुकारित्वमविकल्पकरयाप्गसिद्धम्, अन्यथा तस्य जडतापत्तिरिति प्रतिपादनात् / तथा च- 'विकल्पो वस्तुनिर्भासाद्विसंवादादुपप्लव' इत्युक्ततया व्यवस्थितम्। अथ न लेशतोऽपि परमार्थस्तदनुकारी विकल्पः प्रतिपत्रभिप्रायवशात्तु तदभिधानमिति न स्वलक्षणगोचरत्वं निर्विकल्पकस्यापि व्यवहार्यभिप्रायवशत्तदनुकारित्वं न परमार्थतः “सर्वमालम्बने भ्रान्तम्" इत्यभिधानात् : ननु किमिति न परमार्थतोऽपि तदनुकारि तत्? सामान्यावभासादिति चेत्, नन्वसावपि कुतः? अनाद्यसत्यविकल्पवासनातः, नन्वेव न दर्शनं विकल्पजनकमिति, "यत्रैव जनयेदेना, वाऽस्य प्रभाणतः" इत्यसंगतवचो भवेत्। नच तद्वासनाप्रबोधविधायकत्वेन तदपि तद्धेतुः इन्द्रियार्थसन्निधानस्यैव तत्प्रबोधहेतुत्वात्। नच वासनाप्रभवत्वेनाक्ष जस्य भान्ततैवं भवेत् अर्थस्यापि कारणत्वेनानुमानवत् प्रमाणत्वात्। नच निर्विषयत्वाद् व्यवसायस्याऽप्रामाण्यम् अनुमानस्यापि तत्प्रसस्तेः प्रत्यक्षप्रभवविकल्पवत् तस्याप्यवस्तुसामान्यगोचरत्वात न च तद्ग्राह्यविषयस्यावस्तुत्वेऽप्यध्यवसेयस्य स्वलक्षणत्वात्। दृश्यविकल्पा (ल्प्या) वथविकीकृत्य ततः प्रवृत्तेरनुमानस्य प्रामाण्यं, प्रकृतविकल्पेऽप्यस्य समानत्वात् / अन्यथा-- “पक्षधर्मतोनिश्चयः प्रत्यक्षतः वचित्" इति कथं वचो युक्तं भवेत्?न च गृहीतग्रहणाद्विकल्पोऽप्रमाणं क्षणक्षयानुमानस्यापि तत्प्रसक्तेः, शब्दस्वरूपावभास्यध्यक्षावगतक्षणक्षय विषयत्वात् / नचाध्यक्षेण धर्मिस्वरूपग्राहिणा शब्दग्रहणेऽपि न क्षणक्षयग्रहणं विरुद्धधर्माध्यासतस्तदभेदप्रसक्तेः / प्रज्ञाकराभिप्रायेण तुलिङ्ग-लिङ्गिनोः साकल्येन योगिप्रत्यक्षतो व्याप्तिग्रहणे अनभ्यासदशायां प्राप्ये भाविन्यनधिगतार्थाधिगन्तृत्वाभावादनुमानं प्रमाण न भवेत् / अथानिर्णीतमनुमेयं निश्चिन्वत् प्रमाणमनुमानं तहनिश्चित नील निश्चिन्वन् विकल्पस्तथाविधः किं न प्रमाणम्? अथ समारोपव्यवच्छदकरणादनुमान प्रमाण तर्हि नीलविकल्पोऽपि तत एव प्रमाण भवेत् / न च सादृश्यादेव समारोपोयेन तत्राऽनीलसमारोपो न भवेत् किं तु-स्वागमाहितविकल्पाभ्यासवासनातोऽपि यथा- 'सर्वं सत्मिकम' इति साङ्यस्य एवं च नीलेऽनीलात्मकत्वसमारोपं व्यवच्छिन्दानो विकल्पः क्षणक्षयानुमानवत कथं न प्रमाणम्? दृश्यन्ते हि शुक्तिकारज्ज्वादिषु रजतसदिसमारोपास्तथाभूतविक-ल्पवशालिङ्गानुस्मरणमन्दरेणाऽपि निवर्तमानाः / अथ भवत्वसौ विकल्पः प्रमाणम, न च प्रमाणान्तरम् अनुमाने- | ऽन्तर्भावात्, न, अनभ्यासदशायां भाविनि प्रवर्तकत्वादनुमान प्रमाण मिष्टम, तच निश्चितत्रिरूपालिङ्गादुपजायते, निश्चयस्य चानुमानान्तवि त्रैरुप्यनिश्चयोऽप्यनुमानं तदपि निश्चितत्रैरुप्याहिङ्गात्प्रवर्तत इत्यनवस्थानात् अनुमानाप्रवृत्तिरेवेति कुतो विकल्परय तत्रान्तर्भावः? अथ पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकनिश्चायक लिङ्गग्य नानुमानं तर्हि प्रमाणान्तरस्याभावादध्यक्ष निर्णयात्मकं पक्षधर्मत्वादिनिश्च यः सिद्धः। अत एव– 'अनभ्याशदशायामनुमानम' 'अभ्यासदशायां तु दर्शनमेव प्रमाणम् न च तृतीयादशा विद्यते यस्यां | विकल्प प्रमाणं भवेत्' इति निरस्तम् अनभ्यासदशायामनुमानस्यैवतमन्तरेणाऽप्रवृत्तेस्तदपेक्षस्यैव तस्य प्रमाणत्वात् / न च भवतु प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तो विकल्पः तथापि न तदपेक्षं दर्शन प्रमाण स्वत एव तस्य प्रमाणत्वात् / अन्यथा विकल्पस्यापि विकल्पान्तरापेक्षया प्रमाणत्यादनवस्था दुष्परिहारा / अर्थविषयीकरणाद्विकल्पस्यायनिरपेक्षस्य प्रामाण्ये निर्विकल्पस्यापि तथैव प्रामाण्यं भविष्यतीति किं विकल्पापेक्षयेति वक्तव्यम्? यतः--संशयविपर्ययोत्पादकमपि दर्शनमवं प्रमाणं स्यात् / तथा च- तत्राप्यर्थ - क्रियार्थी प्रवर्तेत / अथ 'जले जलमेतत्' इति निर्णयविधायि प्रमाण तर्हि सिद्ध विकल्पापेक्षण तस्येति वरं विकल्प एव प्रमाणमभ्युगतस्तस्यैव प्रवृत्त्यादिव्यवहारसाधकतमत्वात् / यदपि 'अभ्यासदशायां दर्शनमेव विकल्पनिरपेक्षं प्रमाणम्' इति तत्र वक्तव्यं तत्प्रमाणम्? प्राप्ये भाविनि रूपादाविति चेततस्याविषयीकरणे तेनाऽयुक्तम् अन्यथा नीलज्ञानं पीते प्रमाणं स्याद्विषयीकरणे भावि विषयत्वं तस्यैव भवेत् तथा च'वर्तमानावभासि सर्व प्रत्यक्षम्' इति विरुध्येत। अथ वर्तमानविषयमपि भाविनि प्रवृत्तिविधानप्रमाण, न, अविषयीकृते प्रवर्तकत्वासंभवात् प्रवर्तकत्वेवा,शाब्दमपि सामान्यमात्रविषयं विशेष प्रवृत्ति विधारयतीति न मीमांसकमतप्रतिक्षेपो युक्तः / यदि वा (चा)-विषयेऽपि कुतश्चि निमित्ताद् ज्ञानं प्रवर्तकं तर्हि प्रत्यक्षपृष्ठभाविसामान्यमात्राध्यवसायिविकल्पस्य विशेषे प्रवर्तकत्वं भविष्यतीति न युक्तम् 'दृश्यविकल्प (ल्प्य) योरर्थयोरेकीकरणं तत्र प्रवृत्तिनिमित्तम्' इत्यभिधानम् / तन्न प्राप्ये तत्प्रमाणम् / दृश्यप्राप्ययो रेकत्वे तत्प्रमाणमिति चेत्कुत एतत्? व्यवहारिणां तत्राऽविसंवादाभिनायाद् अविसंवादि च ज्ञानं प्रमाणम् / तदुक्तम्- “प्रमाणमविसंवादि ज्ञानमर्थक्रियास्थिति-रविसंवादनम्" इति चेत; ननु तदेकत्व कस्य विषयः? दर्शनस्येति चेत्, न तस्य सामान्यविषयतया सविकल्पकत्वप्रसक्तेः / विकल्परयेति चेत्, न; अभ्यासदशायां विकल्पस्याऽनभ्युपगमात् / कथं च दृश्यप्राप्ययोरे कत्वं विकल्पस्यैव विषयों नाविकल्पस्य एकत्वस्यायोगादिति चेत् कथं विकल्पविषयः? अवस्तुविषयत्वात्तस्येति चेत्, दर्शनस्य को विषयः? दृश्यमानक्षणमात्रमिति चेत् ननु यदि तत्संचितपरमाऽणुस्वभावं तत्र दर्शने प्रतिभाति तदा सविकल्पत्वमिति प्राक् प्रतिपादितम्। विविक्तैकैकपरमाणुरूपं चेत्सर्वशून्यताप्राप्तेन काचिदभ्यासदशा यस्यां दर्शनं प्रमाण विकल्पविकलं भवेत् / यथा चानेकपरमाण्वाकारमेकं ज्ञान तथा-- दृश्यप्राप्ययोर्घटादिकमेकमिति तद्विषयं परमार्थतोऽभ्यासदशायां सविकल्पमध्यक्ष किमिति नाभ्युपगम्यते? अथाऽशक्यविवेचनत्वाचित्रप्रतिभासाऽप्येकैव बुद्धिः घटादिकस्तु चित्रो नैकस्तद्वि-- पर्ययात्: ननु किमिदं बुद्धेरशक्यविवेधनत्वम् ? यदि सहोत्पत्तिविनाशी तदन्याननुभवो वा तदभ्युपगम्यते तदैकक्षणभाविसन्तानान्तरज्ञानेषु भिन्नरूपतयोपगतेष्वपि तस्य भावादिन्यनैकान्तिको हेतुः / अथ सन्तानान्तराज्यपि नाभ्युपगम्यन्ते कथमवस्थादगाभ्युपगमः? व्यवहारेण तदभ्युपगमे तथैव स ताननानात्वोपगमादकान्तिकन्वं तदवाथ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 382 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दबंभवाइ मेव / नव प्रतिभासाऽद्वैतवादोपगमन तान्यपि पक्षी कि यन्त इति समानप्रत्ययोत्पत्तेः, तस्य भ्रान्तत्वे संवेदनेऽपि तत्प्रसक्तेः अथ सत्रोव नाऽनै कान्तिक: एक शाखाप्रमवावहे तोरपि विपक्षविपयपक्षीक .. स्वसंवेदने तदर्शनमिति न भ्रान्तम्, न; इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः / रणादनकान्तिकत्वाऽभावप्रसस्तेः / न चाऽवाऽऽमतागाध्यक्षण तथाहि-स्वसंवेदनस्थ सत्यत्वेतदर्शनमभान्तम् अतश्च तत्सत्यत्वमिति पक्षवाधनान पक्षीकरणसभवः प्रकृतेऽपि युगपद्धाविनां नानाधि-- कथं नेतरेतराश्रयदोषः? अथ बाधकासद्भावान्नाऽयं दोषः / तासन्तानानां भेदाऽवभासिस्वसंवेदनाऽध्यक्षेण बाधनादस्य स- सदृशपरिणामस्य किं बाधकमिति वक्तव्यम्? विशेषेरास्तस्य भेदे मानावात् / अानन्यवेधत्वमशक्यविवेचनत्वं तदपि सुखादिभिः सम्बन्धासि-द्धिः अगेदे विशेषा एव न तत्सद्भाव इति बाधकमिति चेत, गणतन्तानमाविमभिचारि। अशेषापि पक्षीकरणम, नन्वेयं न, एकान्तभेदाऽभेदपक्षस्य तत्रानिष्टस्त एत विशेषाः कश्चित् परस्पर परिणायामसिह यानभासते' इत्याहानुमानमवतं समानपरिणतिभाजः इत्यस्मदभ्युपगमात् / नच चित्रकविज्ञानवत हेतोरसिद्भतापाप्रेः / अथ भेदाभदायकलीन प्रतिभारानं सागमतसहि समानाऽसमानपरिणतिरेकत्वविरोधः 'यदेवाहमद्राक्ष- तदव स्पृशामि दृश्यप्राप्ययोरपि तदस्तीति कथं नैकत्ला? अथ नीलामिप्रतिमासाना आस्वादसामि जिध्रामि' इति प्रतीतेः, गुणिगुणि-नोरेकत्वप्रतीतेः न च नेवाय चित्रप्रतिभासात न नानात्वं तदात्मकस्य (अनदात्मकरस) वा यदेव रूपं दृष्टं तदेव कथं स्पृश्यते? इन्द्रि-यविषयसङ्करप्रसक्तेरिति उदगाहकस्यागावात, सर्वविकल्पातील तु तत्वमिति / अत्रापि वक्तव्यं चक्षुग्राह्यतास्वभावस्यैकस्य स्पर्शनादिविषयतः स्वभावायहोकत्वस्यैकान्तेन निषेधः साध्यस्दा सिद्धसाध्यता / अन्यथा विरोधात / तथाहि-दूरादिदेशं सहकारिणमासाथै कोऽपि भूरुहो चित्रप्रतिभासाऽभावात् कथंचि देकत्वस्य तु निषेधेऽसिद्धश्चित्र विशदतयेन्द्रियजे प्रत्यये प्रति-भासति स एव निकटादिदेशसचिवोप्रतिभासादिति हेतुः, यतःपीतादीना नीलप्रतिभासेनाविषयीकरण विशदतयेत्युपलब्धम् / न चाऽविशदं दर्शनमवस्तुविषयं तस्य सन्तानान्तरवदवभासस्तथापि माये न सन्तानान्तरनिषेधः, तेषां च वस्तुविषयतया प्रतिपादितत्वात्। नच चक्षुःप्रभवे प्रत्यये रूपम्व चकास्ति क्षणक्षये साधने ग्राह्यग्राहकभाव इति न सर्वविकरूपातील तत्तम / नाऽपरस्तद्वानिति वक्तव्यं,यतोऽत्रापि स्तम्भव्यपदेशार्ह रूपं किमेक विषयीकरणे तदाकारेणापि तद्ग्राहकाभावात नाऽपि नानात्वभिलारया प्रतिभाति, उताऽनेकांशपरमाणुसंचयमात्रम्? प्रथमपक्षे-अधोमध्ययोविरोधः स्वपरगाहकस्यैव तद्ग्राहकत्वात्, सर्वथा तदाकारत्वेनीलमात्र त्मिकैकरूपवद्रसाद्यात्मकैकस्तम्भप्रसिद्धिः / द्वितीयपक्षेऽपि किपीतमात्रं वा भवेदिति न चित्रप्रतिभासः / कथंचितदाकारत्वे सिद्ध कमनेकपरमाण्वाकारं चक्षुज्ञानम्. उतैकैकपरमाण्वाकारमनेकसविकल्पदर्शनम् / अथ सर्वविकल्पाऽतीले तरचे इदमप्यवक्तव्यं तर्हिन म?प्रथमपक्षे रूपाद्यात्मैकवस्तुसिद्धिप्रसक्तिः चित्रक ज्ञानवत् / परस्याऽपि परतो गतिः, किंतु- 'स्वरूपस्य स्वतो गतिः' इत्येतदपि न द्वितीयऽपि विविक्तज्ञानपरमाणुप्रतिभासस्या संवेदनात् सकलवक्तव्यं तथा च-विज्ञानाद्वैतमपि कुतः? नचान्यग्रहणविमुखज्ञान शून्यतानस क्तिरिति प्रतिपादितम् / एतेन क्रियावतो पि भावसंवेदनादेवमुच्यते अन्यत्राप्यस्य समानत्वात् / तदेवं चित्रप्रतिभासमयुपगच्छता चित्रगेकं ज्ञानमयुगन्तव्यमिति ! अभ्यासदशायामपि स्याध्यक्षविषयताप्रतिपादिता। न चैकस्य देशाद्देशान्तरप्रापिहेतुः क्रिया रावणयात्मवाभध्यक्ष सिदिमासादये।। न केनचित्प्रमाणेनावसातुं शक्येति वक्तव्यं पूर्वपर्याय-ग्रहणपरिणायदपि 'यद्यार्थग्रहण व्यवसायोऽविकल्पे तथा नामकरणजात्या... मगमुञ्चताऽध्यक्षेणोत्तरपर्यायग्रहणात्, यथा स्तम्भा-दावधोभागग्रहणदिविशिष्टार्थग्रहणं तत्पक्ष संभवि' इत्युच्यते, तदपि निरस्तं द्रष्यम, मत्यजतोर्खादिभागग्रहस्तेन अन्यथा सकलश-न्यतयुक्तत्टात् यदपि-- आशंगहण, स्य विकन्यस्वभावनान्तरीयकत्वात् / रादि होकेकपरमाणु "विशषणं विशेष्यं च,संबन्धं लौकिकी स्थितिम्। नियभिन्नदर्शने, तन्नाग क्रियेत तदा स्यादेतत, न बेचं स्प्लैक गृहीत्वा संकलय्येतत, तथा प्रत्येति नान्यथा // 1 / " प्रतिभासाभावप्रसक्तेः / यदपि जात्यादिविशिष्टग्रहणं प्रत्यक्षेऽसंभावि इत्युक्तं तदपि निरस्तं द्रष्टव्यम, चित्रपतङ्गस्येवैकानेकात्मनो वस्तुनः गादपि सदशपरिणामसामान्या युपगे सिद्धम, तथाभूतस्य तस्याऽध्यक्ष प्रथमतयैव प्रतिभासनात् एवंकल्पनाया दूराऽपास्तत्वाद्। यदपि-- प्रति गसरावेदनात् लशाभूतरयाऽपि तस्य निराकरणे "नो वेद भान्ति "संकेतस्मरणोपायं,दृष्ट संकल्पनात्मकम्। निगम" इत्यादेर तथा “अर्थन घटयेईनाम्" इत्यादेश्चाभिधान्गसंगतं पूर्वापरपरामर्श-शून्ये तच्चाक्षुषे कथम् // 1 // " भयेन / तथाहि शुक्ति का रजलयोः कथंचित्सदृशपरिणामाभावे इत्यभिधानं तदप्यसंगतं, संकेतकालानुभूतशब्दस्मरणम्न्तरेणापि रुपराधादर्शना-पानाद अयशातिपात / अथ भरी विकास तथा ध्यवसायात्मकरय ज्ञानस्याक्षप्रभवस्य प्रतिपादनात् / अन्यथा उलाभावेऽपि तद्दर्शन तथा तयोर्भविष्यति न च तयोस्तदर्शनं सत्यं सत्य.. विकल्पानुत्पतेरित्युक्तवात् / तरमात्पुरोवर्तिस्थिरस्थूरस्वगुण - रिणानस्य परमार्थतस्तराभावात इतरेतराश्रयदोषप्ररायतेः / तथाहि - पर्याय - साधारण स्तम्भादिप्रतिभासस्याक्षप्रभवस्य निर्णयात्मनः तत्परिणागरय परमार्थतस्तयोः सत्त्वे तद्दर्शनस्य सत्यता ततश्व स्वसंधेदनाध्यक्षताउनुभूतेः स्वार्थनिर्णयात्मक मध्यक्ष सिद्धम् / न तत्परिणामस्य पारमार्थिकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वमिति चेत? | चंदं मानसमेतव्यतिरेकेण निरंशैकपरमाणुग्राहिणो विकल्पस्य सादात रार्वभागोवेवमव्यवस्थापसजान / तथाहि-स्वसंवेदना- कदाचिदप्यननुभवात् / यदि चायं स्तम्भादिप्रतिभासो मानसो तिक मध्यक्ष था प्रर्य सिडिमारामा रोनिया-रतोऽस्य निवृत्तिर्भवत् / न चैवं क्षणक्षयित्वमनुमान' -15 पासवरा निभारासंवेदनार : Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दबंभवाइ 383 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दहि शतोऽध्यक्षप्रमाणसिद्धत्वान्न सविकल्पकत्वे साधकप्रमाणामाकः। तथा | सद्दल न० (शाबल) हरिते, "हरिअंसहल" पाइ० ना० 237 गाथा। अनुमानादपि सविकल्पकत्वमध्यक्षस्य नाऽसिद्धम्। तथाहि-यज्ज्ञानं सद्दवनिक्खेवपरिहारि पुं० (सद्रवनिक्षेपपरिहारिन्) सद्रवस्य निक्षेपः यद्विषयीकरोति तत्तन्निर्णयात्मकतया अनुमानमिवान्यादिकं सद्रवनिक्षेपस्तत् परिहर्तुं शीलं येषा ते सद्रवनिक्षेपपरिहारिणः / विषयीकराति च स्वार्थ मध्यक्षमिति / न चास्याध्यक्षबाधित- द्रवाऽग्राहिषु, आध०। कर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वं पक्षस्य चाऽध्यक्षबाधः सद्दवेहि पुं० (शब्दवेधिन) शब्दं लक्षीकृत्य विध्यति यः स शब्दवेधी। साध्यविपरीतार्था पस्थापकाध्यक्षस्य निषिद्धत्वात् / न च शब्दमनुसृत्य लक्ष्यवेधके, ज्ञा० 1 श्रु०१८ अ०। आचाo। 'तत्थ लग्गे स्वार्थविषयीकरण विज्ञानस्यासिद्धं प्राक् तस्य प्रसाधितत्वात अतो आराहिउँ कुलदेवयं, भणिओ य कुलदेवयाए पुत्त ! सद्दवेही भविस्ससिा' नाऽसिद्धो हेतुः / न च सपक्षावृत्तित्वादसाधारणाऽनै कान्तिकः दर्श०१ तत्त्व। स्वार्थनिर्णयात्मकत्वेन प्रसिद्धेऽनुमानेऽस्य वृत्तिनिशयात / न सहसत्तिक्कय पुं०(शब्दसप्तैकक) शब्दशक्तिप्रतिपादके आचाचानमानस्याप्यर्थविषयीकरणमन्तरेण तन्निश्चयस्वरूपता रामवति राङ्ग द्वितीय श्रुतर कन्धस्य सप्तककानां चतुर्थे आदितः पादशे समारोपव्यवच्छेदकत्वादेः प्रामाण्यनिमित्तस्य तत्र निषिद्धा वात् / अध्ययने रथा० 7 ठा० 3 उ० / (तच 'सद्दा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे तदन्तरेण प्रामाण्यस्यैवायोगात् / न च निर्णयात्मकार्थविषयी दर्शित) करणयोरनुमाने साहचर्यदर्शनेऽपि विपर्यये बाधक प्रमाणाभावतः / सद्दह धा० (श्रद्धा) अस्तीत्यात्मनः परिणामे, “श्रदो धो दहः" संदिग्धविपक्षध्यावृत्तिकत्वादन कान्तिकः तदुत्पत्तिसारूप्या ||RVIE||श्रदः परस्य दधातेर्दह इत्यादेशो भवति।सद्दहइ। “सदहमाणो देर्निर्णयस्वभावता व्यतिरिक्तस्यैकान्तवादे अर्थविषयीकरण जीवो" श्रद्दधाति। श्रद्दधानो जीवः / प्रा०४ पाद! निबन्धनस्य विज्ञानेऽसंभवात्। तदसंभवस्य च प्राक् प्रतिपादितत्वात् / सदहण न० (श्रद्धान) "स्वराणां स्वराः"||४५२३८||धातुषु स्वराणां ततो न संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकोऽपि / अत एव न विरुद्धः विपक्षवृत्तेरेव थाने स्वरा बहुलं भवन्ति। सद्दहण / सदहाणं / प्रा० सम्यक्त्वे, ध०२ विरुदत्वात्। ततोऽसिद्धविरुद्धानकान्तिकादिदोषविकलात भवत्यतः अधि०। आ०म० सामान्यतः (सूत्र०१ श्रु०१०। उ०।) प्रमाणीकरणे, साधनाद्विवक्षित-साध्यसिद्धिरिति न तत्साधक भावात्रिर्ण या संथा० / स्था०। अस्तीत्येवं प्रतिपत्ती, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सम्यग्दर्शन, त्मकाध्यक्षाऽभावः। पञ्चा० 11 विव० / नि० चू०। आ० म० / दशा० / विश० / नाऽपि तद्बाधकप्रमाणसद्भावात्तस्यैवासिद्धः / तथाहि-तद्वाधक-- सहहणाक प्प पुं० (श्रद्धानकल्प) श्रद्धानसामाचार्याम्, पं० मध्यक्षम् अनुमानं वा प्रकल्पेत् प्रमाणाऽन्तरानभ्युपगमात्। न तावदध्यक्ष भा०। “सदहाणा वि य दुविहा ओहनिसीह तहा विभागे य" पं० भा० तदाधक संभवति अविकल्पप्रसाधकस्य तस्य तद्वा-धकत्वात् / न च 5 कल्पा ( 'णिसीहकप्प' शब्दे चतुर्थभागे 2141 पृष्ठ एष कल्प उक्तः।) निरंशक्षणिकैकपरमाणुसंवेदनं स्वसंवेदनाध्यक्षतः सिद्धमिति प्राक् सद्दहमाण त्रि० (श्रद्दधान) स्वमतावतिशयेन रोचयति, सूत्र०२ श्रु० प्रतिपादितमिति नाध्यक्षं तद्वाधकम् नाऽप्यनुमानं तद्वाधकं संभवति अध्यक्षाप्रवृत्तौ तत्पूर्वकस्य तस्यापि तत्राऽप्रवृत्तेः / यदपि यद् यथा 1 अ० / प्रतीयमाने, आचा०२ श्रु० 102 अ०२ उ०। धo प्रतिपद्यमाने,ध०२ अधि०। आ०म०। सूत्र०। प्रतिभाति तत्तथा सद्व्यवहृतिमवतरति इत्यादिनिर्विकल्पकाध्यक्षप्रसाधकमनुमानमुपन्यस्त, तत्रापि प्रत्येक्षानुमाननिराकृतत्वं सद्दहाण त्रि० (श्रद्दधान) 'न श्रदुदोः' / / 8 / 1 / 12 / / इत्यन्त्यव्यपक्षदोषः, नामादिविशेषणोल्लेखविविक्ततया नाऽक्षमतिरुद्भातीति जनस्य न लुक। प्रा० / “स्वराणां स्वराः" ||8 / 4 / 238 // इति दीर्घः / हे तोररि द्धता च जातिगुणक्रि याद्यने क विशेषणविशिष्ट रि-थर - सम्यक्त्वे, प्रा० 4 पाद। स्थूरकारस्तम्भादिविषयाक्षजप्रत्ययस्यैकानेकस्वभावस्य विशेषण - सद्दहाणसुद्धि न० (श्रद्धानशुद्धि) अवितथमेतदिति श्रद्धाशुद्धे, आ० विशिष्टतया स्वसवेदनाध्यक्षतो निर्णयात, अस्य चप्राक् प्रसाधितत्वात। चू०६अ। यदपि 'विशेषणपरिष्वक्तवपुषः' संविदोऽध्यक्षत्वविरोधात् इत्युक्तं तदपि अस्याः षड्विधत्वमुपदर्शन्नाहप्रलापमात्र,स्वसंवदे नाध्यक्षप्रसिद्ध स्वरूपे विरोधाऽयोगात्, सा पुण सद्दहणा जा–णणा य विणयाऽणुभासणा चेव। अन्यथा तिप्रसड़ात्। सम्म०२काण्ड 1 गाथाव्या० स्था० ('एगावाइ' अणुपालणा विसोही, भावविसोही भवे छट्ठा।।१५८६|| शब्दे तृतीयभागे 37 पृष्ठे शब्दो ब्रह्मेत्यस्मिन्विषये भर्तृहरिमतमुप सा पुनः शुद्धिरेवं षड्विधा, तद्यथा--श्रद्धानशुद्धिः, ज्ञानशुद्धिश्च, दर्शितम्।) (पुनरधिक सामण्णविसेस' शब्दे वक्ष्यते / ) विनयशुद्धिः, अनुभाषणाशुद्धिश्चैव,तथा अनुपालनाविशुद्धिश्चैव सद्दबुद्धि मु०(शब्दबुद्धि) शब्दनिश्चये, विशे०। भावशुद्धिर्भवति षष्ठी / पाठान्तरं वा-'सोही सहहणे' त्यादि, तत्र सद्दमहप्पगास पुं० (शब्दमहाप्रकाश) शब्दैर्महान् प्रकाशः प्रसिद्धियस्य शुद्धिशब्दो द्वारोपलक्षणार्थः, नियुक्तिगाथा चेयमिति गाथासमासार्थः / स शब्दमहाप्रकाशः। शब्दात् प्रसिद्धे,सूत्र०१ श्रु०६ अ०। आव०६ अ०। सद्दमुच्छिय त्रि० (शब्दमूर्च्छित) शब्दगृद्धे, दश० 8 अ०। सद्दहि पुं० (शब्दधि) कर्ण है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदहिय 354 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दलापुत्त सद्दहिय अव्य. (श्रद्धाय) सूत्रार्थान्या सामान्येन प्रतिपद्येत्यर्थे, उत्त० 26 अ०। सद्दाऽऽउल त्रि० (शब्दाकुल) शब्देनाकुलं शब्दाकुलम् / बृहच्छब्दे, स्थ०१० ठा०३ उ० / 0 / ध०। सद्दाणुरूववाय पुं० (शब्दाणुरूपपात) शब्दाणूनां रूपर य च पातः शब्दाणुरूपपातः / आहानीयस्य श्रोत्र दृष्य च शब्दाऽणनां रूपस्य च पातने, पञ्चा०१ वि००। सद्दाणुवाई पुं० (शब्दानुपातिन्) शब्दं मन्यनभाषितादिकमभिष्वङ्ग हेतुमनुपतत्यनुसरति इत्येवंशीलः शब्दानुपाती / शब्दा नुपतनशीले,स्था०६ ठा०३ उ०। आव०। सद्दाणुवाय पुं० (शब्दानुपात) शब्दस्य -श्रुतकाशितादेरनुपातन-- श्रोत्रेणावतारण शब्दानुपातनम् / यथाविहितस्वगृहवृत्तिमाकारादिव्यवच्छिन्नभूप्रदेशाभिगहे, ध० 2 अधि० / देशावकाशि--- कवतातिचारे, उपा० 'सन्दाणुवाए' ति--स्वगृहवृतिप्राकाराद्यव-- लिछन्नभूप्रदेशाभिग्रहेबहिः प्रयोजनोत्पत्ती, तत्र स्वय गमनायो - गात् वृतिप्राकारादि प्रत्यासन्नवर्सिनो बुद्धिपूर्वक तमायुत्काशितादिशब्दकरणेन समवसितकान बोधयतः शब्दानुपातः, शब्द-- स्थानुपातनमुन्धारण तादृग येन परकीय श्रवणविवरगनुपतत्यसाविति। उपा० 1 अ०। ('देसावगासिय' शब्दे चतुर्थ भागे 2633 पृष्टे गतोऽयमभिग़हः।) सद्दाऽऽभास पुं० (शब्दाभास) शब्दनयाभारो, रत्ना० 7 परिक्षण (एतदाभासवक्तव्यता 'णयाभास' शब्दे चतुर्थभागे 1603 पृष्ट मतः।) यथा कालादिभेदेन ध्वनरर्थभदं प्रतिपद्यमानः शब्दः। राथा वभव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादिः तदनतस्यतमेव समर्थयमानरसदाभासः, यथा-वभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयो भिन्नकालाः शब्दाभिनमेवार्थमभिदधति भिन्नकालशब्दत्वात्, तादृक सिदान्यशब्दवत् इत्यादिः ! रया०। सद्दाऽऽययण न० (शब्दायतन) बौद्धपरिभाषिते शब्दाश्रये सूत्र०१ श्रु० 12 अ०॥ सद्दाल त्रि० (शब्दाल) नपुरे, “सहालं सिंजिरं कगिर पाइ० ना० 140 गाथा। सद्दालपुत्त पुं० (सद्दालपुत्र) पोलासपुरवासिनि कुम्भकार,रथा०। 'सहालपुजे' त्ति-सहालपुत्रः पोलासपुरवासी कुणकारजातीयो गोशालकोपासको भगवता वोधितः पुनः स्वमतग्राहणोद्यतेन गोशालकेन (अ) क्षोभितान्तःकरण:प्रतिपन्न प्रतिमश्च परीक्षकदेवेन भायामारणदर्शनलो भनप्रतिशः पुनरपि कृतालोचनस्तथैव दिवं गत | इति वक्तव्यताप्रतिबद्ध राहालपुत्र इत्यध्ययनग / स्था० १०टा० 3 301 उपा० गोलारापुरेमनगरे, राजे,1ि7 तत्थ णं पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नाम कुम्भकारे आजीविओवासए परिवसइ / आजीवियसमयंसि लद्धऽढे गहियहे पुच्छियट्टे विणिच्छियढे अभिगयढे अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते य अयमाउसो ! आजीवियसमए अढे अयं परमटे सेसे अणढे, त्ति आजीवियसमएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीवि-ओवासगस्स एक्का हिरण्णकोडी निहाणपउत्ता, एक्का वुड्डिपउत्ता, एक्का पवित्थरपउत्ता, एक्के वए दस गोसाहस्सिएणं वएणं, तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्तानामं भारिया होत्था। तस्सणं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्सनगरस्स बहिया पंच कुम्भकारावणसया होत्था / तत्थ णं बहवे पुरिसा दिण्णभइभत्तवेयणा कल्लाकल्लिं बहवे करए य-वारए य पिहडएय घडएय अद्धघडए य कलसए य अलिञ्जरए य जंबूलए य उट्ठियाओ य करेन्ति। अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभइभत्तवेयणा कलाकलिं तेहिं बहू हिं करएहि य० जाव उट्टियाहि य रायमग्गंसि वित्तिंकप्पेमाणा विहरन्ति / (सू०३६) सप्तमं सुगममेव / नवरम् 'आजीविओवासए' ति--आजीविकाःगोशालकशिष्याः तेषामुपासकः आजीविकोपासकः, लब्धार्थः श्रवणतो गृहीतार्थो बोधतः पृष्टार्थः संशये सति विनिश्चितार्थ उत्तरलाभे सति, 'दिण्णभइभत्तवेयण' त्ति-दत्त भृतिभक्तरूपंद्रव्यभोजनलक्षणं वेतनंमूल्य येषां ते तथा, 'कल्लाकल्लिं' ति-प्रतिप्रभातं बहून् करकान्वार्घटिकाः वारकाश्वगडुकान पितरकाःस्थालीः घटकान्-प्रतीतान् अर्द्धघटकांवघटाईभानान् कलशकान्-आकारविशेषवतो बृहद्घटकान अलिजराणि च-महदुदकभाजनविशेषान् जम्बूलकांश्चलोकलढ्यावसयान उष्ट्रिकांश्चसुरातैलादिभाजनविशेषान् / तएणं से सद्दालपत्ते आजीविओवासाए अन्नय कयाइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अन्तियं धम्मपण्णत्तिं उवसम्पज्जित्ता णं विहरइ / तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अन्तियं पाउन्भवित्था,तए णं से देवे अन्तलिक्खपडिवन्ने सखिंखिणियाइं० जाव परिहिए सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-एहिएणं देवाणुप्पिया ! कल्लं इहं महामाहणे उप्पन्नणाणदंसणधरे तीयपडुप्पन्नमणागय-जाणए अरहा जिणे केवली सव्यण्णू सव्वदरिसी तेलोक्वहियमहियपूइए सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिज्जे वन्दणिज्जे सक्कारणिजे संमाणणिज्जे कल्लाणं मङ्गलं देवयं चेइयं . जाव पज्जुवासणिज्जे / तच्चकम्मसम्पयासंपउत्ते, तं णं तुमं वन्देजा-हि० जाव पज्जुवासेज्जाहि। पाडिहारिएणं पीढकालगसिज्जासंMARELI Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दालपुत्त 385 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दालपुत्त वइत्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए / तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए० 4 समुप्पन्ने-एवं खलु मम धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते से णं महामाहणे उप्पन्नणाणदंसणधरे जाव तच्चकम्मसंपयासंपउत्ते सेणं कल्लं इह हव्वमागच्छिस्सइ / तए णं तं अहं वंदिस्सामि० जाव पज्जुवासिस्सामि पाडिहारिएणं 0 जाव उवनिमन्तिस्सामि। (सू०४०) 'एहिइ' त्ति-एष्यति, 'इह' ति-अस्मिन्नगरे, 'महामाहणे' ति-मा हन्मिन हन्मीत्यर्थः,आत्मना वा हनननिवृत्तः परं प्रति मा हन इत्येवमाचष्टे यः स माहनः स एव मनःप्रभृतिकरणादिभिराजन्म सूक्ष्मादिभेदभिन्नजीवहनननिवृत्तत्वात् महान्माहनो महामाहानः, उत्पन्ने-आवरणक्षयेणाविर्भूत ज्ञानदर्शने धारयति यः स तथा, अत एगातील पत्युः पन्नानागतज्ञायकः 'अरह' त्ति-अर्हन, महाप्रातिहार्यरूपपूजार्हत्वात्, अविद्यमानं वा रहः-एकान्तः सर्वज्ञत्वाद्यस्य सोऽरहाः, जिनो रागादिजेतृत्वात् केवलानिपरिपूर्णानि शुद्धान्यनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवली, अतीता-- दिज्ञानेऽपि सर्वज्ञान प्रति शङ्का स्यादित्याह सर्वज्ञः साकारोपयोगसामर्थ्यात, सर्वदर्शी अनाकारोपयोगसामर्थ्यादिति, तथा / तेलोकबहियमहियपूइए' त्ति-त्रैलोक्येन-त्रिलोकवारिसना जनेन 'बहिय' ति-समगैश्वर्याद्यतिशयसन्दोहदर्शनरामाकुलचेतसा हर्षभरनिभरण प्रवलकुतूहलबलादनिमिषलोचनेनावलोकितः 'महिय' त्ति- सेव्यतया वाच्छितः, पूजितश्च-पुष्पादिभिर्यः स तथा, एतदेव व्यनक्ति-सदवा मनुजासुरा यस्मिन् सदेवमनुजासुरस्तस्य लोकस्यप्रजायाः अर्चनीयः पुष्पादिभिःवन्दनीयः स्तुतिभिः, सत्करणीयः-आदरणीयः सन्माननीयोऽभ्युत्थानादिप्रतिपत्तिभिः, कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यमित्येवं बुद्ध्यापर्युपासनीय इति, 'तचकम्म' ति-तथ्यानि-सत्फलानिअव्यभिचारितया यानि कर्माणि-क्रियास्तत्सम्पदा-तत् समृद्ध्या यः सम्प्रयुक्तो-स तथा, 'कल्ल' मित्यत्र यावत्करणात् पाउप्पभायाए रयणीए' इत्यादिः 'जलन्ते सूरिए' इत्येतदन्तः प्रभातवर्णको दृश्यः,स चोत्क्षिप्तज्ञातवद् व्याख्येयः। तएणं कल्लं जाव जलन्ते समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए, परिसा निग्गया. जाव पज्जुवासइ, तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लद्धट्टे समाणे--एवं खलु समणे भगवं महावीरे 0 जाव विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वन्दामिजाव पज्जुवासामि,एवं सम्पेहेइ संपेहेइत्ता | बहाए जाव पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाइं० जाव अप्पमहग्घाऽऽभरणालकिय-सरीरे मणुस्सवग्गुरापरिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ साओ गिहाओ पडिणिक्खमित्ता पोलासपुरं नयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ णिग्गच्छित्ता जेणेव सहस्सम्बवणे उज्जाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करेइत्ता वन्दइरत्ता नमंसइ नमसइत्ता 0 जाव पज्जुवासइ / तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य महइ० जाव धम्मकहा समत्ता, सद्दालपुत्ताइसमणे भगवं सहावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-से नूणं सहालपुत्ता! कल्लं तुमं पुव्वावरण्हकाल-समयंसि जेणेव असोगवणिया. जाव विहरसि / तए णं तुब्भं एगे देवे अन्तियं पाउन्भवित्था। तए णं से देवे अन्तलिक्ख-पडिवन्ने एवं वयासी-हं भो सद्दालपुत्ता ! तं चेव सव्वं० जाव पज्जुवासिस्सामि, से नूणं सद्दालपुत्ता ! अढे समढे ? हंता अत्थि, नो खलु सद्दालपुत्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मंखलिपुत्तं पणिहाय एवं वुत्ते, तएणं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवा-सयस्स समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिप०४ एस णं समणे भगवं महावीरे महामहाणे उप्पन्नणाणदंसणधरे जाव तच्चकम्मसंपयासम्पउत्ते, तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वन्दित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढफलग जाव उवनिमन्तित्तए, एवं सम्पेहेइ संपेहेइत्ता उठाए उठेइ उठूइत्ता समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइ वंदइत्ता नमसइत्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते ! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया पञ्चकुम्भकारावणसया, तत्थ णं तुम्मे पाडिहारियं पीढ० जाव संथारयं ओगिण्हित्तां णं विहरइ / तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमढें पडिसुणेइ पडिसुणेइत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचकुम्भकारावणसएसु फासुएसणिज्ज पाडिहारियं पीढफलग० जाव संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरइ 1 (सू०४१) तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाहययं कोलालभण्डं अन्तोसालाहिंतो बहिया नीणेइनीणेइत्ता आयवसि दलयइ। तएणं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता ! एसणं कोलालभण्डे कओ? तएणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी- एस णं भन्ते ! पुट्विं मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निगिजइ निगिजइत्ता छारेण य करिसेण य एगयओ मीसिज्जइ मीसिज्जइत्ता चक्के आरोहिजइ, तओ बहवे करगा य० जाव उट्ठियाओ य कज्जति। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दालपुत्त 386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दालपुत्त तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-सद्दालपुत्ता ! एस णं कोलालभण्डे किं उट्ठाणेणं 0 जाव / पुरिसक्कारपरकमेणं कज्जति उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कारपरक्कमेणं कजति? तएणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासी--भन्ते! अणुट्ठाणेणं 0 जाव अपुरिकारपरक्कमेणं,नऽत्थि उट्ठाणे इवा० जावपरक्कमे इवा, नियया सव्वभावा।तएणं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता! जइणंतुभं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केलयं वा कोलालभण्डं अवहरेज्जा वा विक्खिरेज्जा वा भिन्देजा वा आच्छिन्देजा वा परिट्टवेज्जा वा अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरेजा, तस्सणं तुमं पुरिसस्स किं दण्डं वत्तेज्जासि? भन्ते! अहंणं तं पुरिसं आओसेञ्जावा हणेला वा बन्धेज्जा वा गहेज्जा वा तज्जेज्जा वा तालेज्जा वा निच्छोडेजा वा निन्भच्छेज्जा वा अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेजा। सद्दालपुत्ता! नो खलु तुब्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभण्डं अवहरइ वा जाव परिट्ठवेइ वा अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुजमाणे विहरइ,नो वा तुमं तं पुरिसं आओसेज्जसि वा हणिज्जसि वा जाव अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जासि, जइ नत्थि उट्ठाणेइवा० जाव परक्कमेइवा नियया सव्वभावा। अहंणं तुब्भ केइ पुरिसे वायाहयंजाव परिहवेइवा अग्गिमित्ताए वा० जाव विहरइ तुमंता तं पुरिसं आओसेसि वा० जाव ववरोवेसि तो जं वदसि नऽत्थि उट्ठाणेइ वा० जाव नियया सव्वभावा तं ते मिच्छा, एत्थ णं सद्दालपुत्ते आजीविओवासए सम्बुद्धे ।तएणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासएसमणं भगवं महावीरं वन्दह नमसइवंदित्ता नमंसित्ताएवं वयासी-इच्छामिणं भंते ! तुब्भं अन्तिए धम्मं निसामेत्तए। तएणं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्सतीसे य० जाव धम्म परिकहेइ। (सू०४२) 'वायाहयगं' ति-वाताहतं वायुनेषच्छोषमानीतमित्यर्थः 'कोलालभण्ड' ति–कुलालाः-कुम्भकारा तेषामिदं कोलालं तच्च तद्भाण्ड च-पण्यं भाजन वा कोलालभाण्डम्, एतत्किं पुरुषकारेणेतरथा वा क्रियेत इति भगवता पृष्टे स गोशालकमतेन नियतिवादलक्षणन भावितत्वात्पुरुषकारेणेत्युत्तरदाने च स्वमतक्षतिपरमता-- भ्यनुज्ञानलक्षण दोषमाकलयन् अपुरुषकारेण इत्यवोचत् / ततस्तदभ्युपगतनियतिमतनिरासाय पुनः प्रश्रयन्नाह-'सद्दालपुत्त' इत्यादि,यदि तव कश्चित्पुरुषो वाताहतं वा आममित्यर्थः, 'पक्केलयं व' त्ति पक्कं वा अग्निना कृतपाकम् अपहरेद्वा-चोरयेत् विकिरद्वा इतस्ततो विक्षिपेत् भिन्द्याद्वा काणताकरणेन, आच्छिन्द्याद्वा हस्तादुद्दालनेन, पाठान्तरेण विच्छिन्द्याद्वा विविधप्रकारेश्छेद कुर्यादित्यर्थः, परिष्ठापयेद्वा बहिर्नीत्वा त्यजेदिति टत्तेज्जासि' त्तिनिवर्तयसि 'आओसेजा व' ति–आक्रोशयामि वा मृतोऽसित्वमित्यादिभिः शापैरभिशपामि हन्मि वा दण्डादिना बध्नामि वा रज्ज्वादिना, तर्जयामि वा ज्ञास्यसिरे दुष्टाचार! इत्यादिभिर्वचनविशेषैः, ताडयामि वा चपेटादिना, निच्छोटयामि वा धनादित्याजनेन निर्भर्सयामि वा परुषवचनैः, अकाल एव च जीविताद्वा व्यपरोपयामि,मारयामीत्यर्थः / इत्येवं भगवास्तं सद्दालपुत्रं स्ववचनेन पुरुषकाराभ्युपगम ग्राहयित्वा तन्मतविघटनायाह'सद्दालपुत्त' इत्यादि, न खलु तव भाण्ड कश्चिदपहरति न च त्वं तमाशयसि यदि सत्यमेव नास्त्यु-थानाऽदि / अथ कश्चित्तदपहरति त्वं च तमाक्रोशयसि तत एवमभ्युपगमे सति यद्वदसिनास्त्युत्थानादि इति तत्ते मिथ्या, असत्यमित्यर्थः। तएणं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठ० जाव हियए जहा आणंदो तहा गिहिधम्म पडिविज्जइ, नवरं एगा हिरण्णकोडी णिहाणपउत्ता एगा हिरण्णकोडी बुड्डिपउत्ता एगा हिरण्णकोडी पवित्थरपउत्ता एगे वए दसगोसहस्सिएणं वएणं० जाव समणं भगवं महावीरं वन्दइ नमसइवंदित्ता नमंसित्ता जेणेव पोलासपुरे नयरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता पोलासपुरं नयरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव अग्गिमित्ता भारिया तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता अग्गिमित्तं भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे, तं गच्छाहि णं तुमं समणं भगवं महावीरं वन्दाहि 0 जाव पच्जुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पंचाऽणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि। तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासमस्स तह त्ति एयमढें विणएण पडिसुणेइ / तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तजोइयं समखुरवालिहाणसमलिहियसिंगएहिं जंबूणयामयकलावजोत्तपइविसिट्ठएहिं रययामयघण्टसुत्तरज्जु गवरक आणखइयनत्थापग्गहोग्राहियएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिकणगघण्टिय जालपरिगयं सुजायजुगजुतउज्जुगपसत्थसुविर Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दालपुत्त 387 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दालपुत्त इयनिम्मियं पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवह उवट्ठवेहित्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह / तए णं ते कोडुम्बियपुरिसा० जाव पञ्चप्पिणन्ति। तएणंसा अग्गिमित्ता मारिया व्हाया० जाव पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाइं० जाय अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा चेडियाचकबालपरिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहइत्ता पोलासपुरं नगरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ताजेणेव सहस्सम्बवणे उजाणे जेणेव समणे भगवं महावीरेतेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ताधम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ पचोरुहित्ता चेडियाचक्कवालपरिखुडाजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो० जाव वन्दइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे 0 जाव पञ्जलीउडा ठि(इ)या चेव पज्जुवासइ।तएणंसमणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य० जावधम्मंकहेइ।तएणंसा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए धम्म सोच्चा निसम्म हततुट्ठा समणं भगवं महावीरंवन्दइनमसइवंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी सद्दहामि णं भंते ! निग्गन्थं पाव-यणं० जाव से जहेयं तुब्भे वयह, जहाणं देवाणुप्पियाणं अन्तिए बहवे उग्गा भोगा. जाव पव्वइया नो खलु अहं तहा संचाएमि, देवाणुप्पियाणं अन्तिए मुण्डा भवित्ता० जाव अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खायइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामि, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबन्धं करेह। तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावगधम्मपडिवज्जइपडिवजित्तासमणं भगवं महावीरंवन्दइनमसइ वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसंपाउन्भूया तामेव दिसंपडिगया। तएणं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओ नयराओ सहस्सम्बवणाओ पडि निग्गच्छइ पडि निग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ / (सू० 43) 'तए णं सा अग्गिमित्ता' इत्यादि, ततः सा अग्निमित्रा भार्या सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य तथेति एतमर्थ विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य च स्नाता 'कृतबलिकर्माबलिकर्म लोकरूढं, कृतकौ-- तुकमङ्गलप्रायश्चित्ताकौतुकंमषीपुण्ड्रादिमङ्गलंदध्यक्षचन्दनादि एते एव प्रायश्चित्तमेव प्रायश्चित्तं दुःस्वप्नादिप्रतिघात-कत्वेनावश्यकार्यत्वादिति, शुद्धात्मा, वैषिकाणिवैषार्हाणि मङ्गल्यानि प्रवरवस्त्राणि परिहिता, अल्पमहा_भरणालंकृतशरीरा चेटिकाचक्र वालपरिकीर्णा, पुस्तकान्तरे यानवर्णको दृश्यते, स चैवं सव्याख्यानो-, ऽवसेयः- 'लहुकरणजुत्तजोइयं' लघुकरणेनदक्षत्वेन ये युक्ताः / पुरुषास्तैोजितं यन्त्रयूपादिभिः सम्बन्धितं यत्तत्तथा,तथा'समखुरवालिहाणसमलि हियसिंगएहिं' समखुरवालिधानीतुल्यशफपुच्छो समे लिखिते इव लिखितेशने यथोस्ती तथा ताभ्यां गोयुवभ्यामिति सम्बन्धः, 'जम्बूणयामयकलावजोत्तपइविसिट्टएहिं' जाम्बूनदमयो कलापौ ग्रीवाभरणविशेषौ योक्त्रे च-कण्ठबन्धनरज्जू प्रतिविशिष्टेशोभने ययोस्तौ तथा ताभ्यां, 'रययामयघण्टसुत्तरज्जूगवरकञ्चणखइयनत्थापग्गोग्गहियएहि रजतमय्यौरूप्यवि-कारौ घण्टे ययोस्तौतथा सूत्ररज्जुकेकाासिकसूत्रमय्यौ येवरकाञ्चनखचिते नस्ते-नासारज्जू तयोः प्रग्रहेण- रश्मिना अवगृहीतकौ च-बद्धौ यौ तौ तथा ताभ्याम्, 'नीलुप्पलकयामेलएहिं' नीलोत्पलकृतशेखराभ्याम्, 'पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिकणग-घण्टियाजालपरिगयं सुजायजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरइयनिम्मिय' सुजातंसुजातदारुमयं युगंयूपः युक्तं- सङ्गतम् ऋजुक-सरलं (प्रशस्तं) सुविरचितंसुघटितं निर्मित-निवेशितं यत्र तत्तथा, 'जुत्तामेव धम्मियं जाणप्पवरं उवहवेह' युक्तमेवसम्बद्धमेव भोयुवभ्यामिति सम्बन्ध इति। तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे 0 जाव विहरइ / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धऽढे समाणे-एवं खलु सद्दालपुत्ते आजीवियसमयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिद्धिं पडिवन्ने, तं गच्छामिणं सद्दालपत्तं आजीविओवासयं समणाणं निग्गन्थाणं दिलुि वामेत्ता पुणरवि आजीवियदिट्टि गेण्हावित्तए त्ति कट्ट एवं संपेहेइ संपेहेत्ता आजीवियसंघसम्परिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे जेणेव आजी-वियसभा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भण्डगनिक्खेवं करेइ आजीवियसभाए भंडगणिक्खेवं करेइत्ता कयवएहिं आजीविएहिं सद्धिं जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ / तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एज्जमाणं पासइ पासित्ता णो आढाई नो परिजाणाइ अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीढफलगसिज्जासंथारट्ठयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-आगए णं देवाणुप्पिया ! इह महामाहणे? तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-- के णं देवाणुप्पिया ! महामाहणे? तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-समणे भगवं महावीरे महामाहणे। से केणऽ?णं दे Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दालपुत्त 388 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दालपुत्त वाणुप्पिया ! एवं वुचइ-समणे भगवं महावीरे महामाहणे? एवं खलु सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महामाहणे, उप्पन्नणाणदंसणधरे. जाव महियपमूइए० जाव तच्चकस्ससम्पयासम्पउत्ते, से तेणऽतुणं देवाणुप्पिया एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे / आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे? के णं देवाणुप्पिया ! महागोवे? समणे भगवं महावीरे महागोवे / से केणतुणं देवाणुप्पिया ! 0 जाव महागोवे? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे खज्जमाणे छिज्जमाणे मिजमाणे / लुप्पमाणे विलुप्पमाणे धम्ममएणं दण्डे णं सारक्खमाणे संगोवेमाणे निव्याणमहावाडं साहत्थिं सम्पावेइ, से तेणद्वेणं सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महागोवे / आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महासत्थवाहे? के णं देवाणुप्पिया ! महासत्थवाहे? सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे, से केणटेणं? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे / संसाराऽडवीए बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे जाव विलुप्पमाणे धम्ममएणं पंथेणं सारक्खमाणे० निव्वाणमहापट्टणाभिमुहे साहत्थिं सम्पावेइ, से तेणटेणं सद्दालपुत्ता एवं वुधइ समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे / (उपा०) (भगवान् महावीरः महाधर्मकथी इति 'महाधम्मकही' शब्दे षष्ठे भागे 167 पृष्ठे उक्तम्।) आगए णं देवाणुप्पिया ! इह महानिजामए? के णं देवाणुप्पिया महानिजामए? समणे भगवं महावीरे महानिजामए, से केणऽटेणं०? एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसारमहासमुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे० जाव विलु० बुडमाणे निबुड्डमाणे उप्पियमाणे धम्ममईए नावाए निव्वाणतीराभिमुहे साहत्थिं सम्पावेइ से तेणढेणं देवाणुप्पिया ! एवं वुच्चइ-समणे भगवं महावीरे महानिजामए / तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मखलिपुत्तं एवं वयासी-तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! इयच्छेया० जाव इय निउणा इय नयवादी इय उवएसलद्धा इय विण्णाणपत्ता, पभूणं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए? नो तिणढे समढे / से केणतुणं देवाणुप्पिया ! एवं वुचइ-नो खलु पभू तुम्भे मम धम्मायरिएणं . जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए? सद्दालपुत्ता ! से जहा नामए केइ पुरिसे तरुणे जुगवंजाव निउणसिप्पोवगए एगं महं अयं वा एलयं वा सूयरं वा कुकुडं वा तित्तिरं वा वट्टयं वा लावयं वा कवोयं वा कविञ्जलं वा वायसं वा सेणयं वा हत्थंसि वा पायंसि वा खुरंसि वा पुच्छंसि वा पिच्छंसि वा सिङ्गसि वा विसाणंसि वा रोमंसि वा जहिं गिण्हइ तहिं तहिं निश्चलं निप्फंद धरेइ, एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहिं अट्ठेइ य हेऊहि य० जाव वागरमाणे हि य जहिं जहिं गिण्हइ तहिं तहिं निप्पट्ठपसिणवागरणं करेइ, से तेण?णं सद्दालपुत्ता ! एवं वुचइनो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं. जाव महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए। तएणं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मङ्खलिपुत्तं एवं वयासी- जम्हा णं देवाणुप्पिया ! तुभं मम धम्मायरियस्स . जाव महावीरस्स संतेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सब्भूएहिं भावे हिं गुणकित्तणं करेइ तम्हा णं अहं तुम्मे पाडिहारिएणं पीढ० जाव संथारएणं उवनिमन्तेमि नो चेव णं धम्मो त्ति वा तवो त्ति वा तं गच्छह णं तुम्भे मम कुम्भारावणेसु पाडिहारियं पीढफलग० जाव ओगिण्हित्ता णं विहरह / तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमढें पडिसुणेइ पडिसुणित्ता कुम्मारावणेसु पाडिहारियं पीढ० जाव ओगिण्हित्ता णं विहरहा तण णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य निग्गन्थाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे सन्ते परितन्ते पोलासपुराओ नयराओ पडिणिक्खमइ पोलासपुराओ नगराओ पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। (सू० 44) 'महागोवे' त्यादि, गोपो-गोरक्षकः स चेतरगोरक्षकेभ्योऽतिविशिष्टत्वान्महानिति महागोपः / 'नश्यत' इति सन्मार्गाच्च्यवमानान 'विनश्यत' इत्यनेकशो म्रियमाणान खाद्यमानान-गादिभावे व्याघ्रादिभिः छिद्यमानान्-मनुष्यादिभावे खड्गादिना भिद्यमानान् कुन्तादिना लुप्यमानान् कर्णनासादिच्छेदनेन विलुप्यमानान बाह्योपध्यपहारतः गा इवेति गम्यते, “निव्वाणमहावार्ड' तिसिद्धिमहागोस्थानविशेषं 'साहत्थे' त्ति-स्वहस्तेनेव रवहस्तेन, साक्षादित्यर्थः / महासार्थवाहालापकानन्तरं, पुस्तकान्तरे इदमपरमधीयते- "आगए णं देवाणुप्पिया ! इह महाधम्मकही? के णं देवाणु प्पिया ! महाधम्मक ही? समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। से केणटेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही? एवं खलु सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महइमहालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे जाव विलुप्पमाणे उम्मग्गपडिवन्ने सप्पहविप्पणट्टे मिच्छत्तबला-भिभूए अट्ठविहकम्मतमण्डलपडो Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दालपुत्त 386 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्दालपुत्त च्छन्ने बहहिं अट्ठहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य चाउरन्ताओ संसारकन्ताराओ साहत्थिं नित्थारेइ,से तेणट्टेणं सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीर महाधम्मकहि" त्ति, कण्ठ्योऽयं, नवरं जीवानां नश्यदादिविशेषणहेतुदर्शनायाह- 'उम्मग्गे' त्यादि, तत्रोन्मार्गप्रतिपन्नान्- आश्रितकुदृष्टिशासनान् सत्पथविप्रनष्टान्त्यक्तजिनशारगन, एतदेव कथमित्याह-मिथ्यात्वबलाऽभिभूतान्-- तथा अष्ट विधकर्मे व तमःपटलम्-अन्धकारसमूहः तेन प्रत्यवच्छन्नानिति। तथा निर्यामकालापके 'बुङ्माणे' त्ति-निमज्जतः 'निबुड्डमाणे' ति--नितरां निमज्जतः जन्ममरणादिजले इति गम्यते, 'उप्पियमाणे' त्ति-उत्प्लाव्यमानान् / 'पभु' त्ति-प्रभवः-समर्थाः, इतिच्छेकाः-इति एवमुपलभ्यमानाद्भुतप्रकारेण,एवमन्यत्रापि छेकाःप्रस्तावज्ञाः, कलापण्डिता इति वृद्धा व्याचक्षते, तथा इति दक्षा:-- कार्याणामविलम्बितकारिणः तथा इति प्रष्ठाः-दक्षाणां प्रधानावाग्मिन इति वृद्धरुक्त, क्वचित्- ‘पत्तट्टा' इत्यधीयते, तत्र प्राप्तार्थाःकृतप्रयोजनाः, तथा इति निपुणाः-सूक्ष्मदर्शिनः कुशला इति च वृद्धोक्तम्, इति नयवादिनोनीतिवक्तारः, तथा इत्युपदेशलब्धा लब्धाप्तोपदेशः, वाचनान्तरे इति मेधाविनः अपूर्वश्रुतग्रहणशक्तिमन्तः इति विज्ञानप्रप्ताः-अवाप्तसदोधाः। 'से जहे' त्यादि, अथ यथा नाम कश्चित्पुरुषः 'तरुणे' ति-वर्धमानवयाः वर्णादिगुणोपचितं इत्यन्ये, यावत्करणादिदं दृश्यम्- 'बलवं' सामथ्र्यवान् 'जगवं'युगंकालविशेषः तत्प्रशस्तमस्याऽस्तीति युगवान, दुष्टकालस्य बलहानिकरत्वात्तव्यच्छेदार्थमिदं विशेषणम्, 'जुवाणे' ति-युवा वयःप्राप्तः, 'अप्पायड्के' त्ति-नीरोगः 'थिरगहत्थ' त्तिसुलेखकवद् अस्थिराग्रहस्तो हि न गाढग्रहो भवतीति विशेषणमिदम् 'दढपाणिपाए' त्ति-प्रतीतं 'पासपिठ्ठन्तरोरुपरिणए, ति-पावों च पृष्टान्तर च तद्विभागौ ऊरू च परिणतौनिष्पत्तिप्रकर्षावस्थां गतो यस्य स तथा,उत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरिघनिभबाहु त्ति--तलयो:-तालाभिधानवृक्षविशेषयोः यमलयो:समश्रेणिकार्ययुगलं परिघश्च-अर्गला तन्निभौ तत्सदृशौ बाहू यस्य स तथा, आयतबाहुरित्यर्थः, 'घणनिचियबहट्टपालिखन्धे' त्तिधननिचितः-लत्यर्थं निविडो वृत्तश्चबर्तुलः पालिवत्-तडागादिपालीव स्कन्धो-अंशदेशो यस्य स तथा, 'चम्मट्टगदुहणमोट्टियसमाहयनिचिर गायकाए' त्ति चर्मेष्टकाइष्टकोशकलादिभृतधर्मकुतपरूपायदाकर्षणेन धनुर्धरा व्यायाम कुर्वन्ति द्रुघणो मुद्गरो मौष्टिकोमुष्टिप्रभाणः प्रोतचर्मरज्जुकः पाषाणगोलकस्तैः समाहतानि-- व्यायामकरणप्रवृत्तौ सत्यां ताडितानि निचितानि गात्राणि-अङ्गानि यत्र स तथा स एवंविधः कायो यस्य स तथा, अनेनाभ्यासजनितं सामर्थ्यमुक्त, 'लणपवणजइणवायामसमत्थे' त्ति-लवणं चअतिक्रमणं लवन च-उत्प्लवनं जविनव्यायामश्वतदन्यः शीघ्रव्यापारस्तेषु समर्थो यः स तथा, 'उरस्सबलसमागए' त्ति- अन्तरात्साहवीर्ययुक्त इत्यर्थः 'छए' त्ति-प्रयोगज्ञः 'दक्खे' त्तिशीघ्रकारी 'पत्तट्टे त्ति-अधिकृतकर्मणि निष्ठाङ्गतः प्राप्तार्थः, प्रज्ञ इत्यन्ये, 'कुसले' त्ति-आलोचितकारी 'मेहावि' त्ति--सकृद् दृष्टश्रुतकर्मज्ञः 'निउणे' त्ति-उपायारम्भकः 'निउणसिप्पोवगए' त्ति-. सूक्ष्मशिल्पसमन्वित इति, अजंवा छगलम् एलकं वाउरभं शूकरंवाचराहं कुर्कुटतित्तिरवर्तकलाव-ककपोतकपिञ्जलवायसश्येनकाः पक्षिविशेषा लोकप्रसिद्धाः 'हत्थंसिय' त्ति-यद्यप्यजादीनां हस्तो न विद्यते तथाप्यतनपादौ हस्त इव हस्त इति कृत्वा हस्ते वेत्युक्तं, यथासम्भवं चैषां हस्तपादखुरपुच्छपिच्छशृङ्ग विषाणरोमाणि योजनीयानि, पिच्छ:-पक्षावयव विशेषः,शृङ्गमिहाजैडकयोः प्रतिपत्तव्यं, विषाणशब्दो यद्यपि गजदन्ते रूढस्तथाऽपीह शूकरदन्ते प्रतिपत्तव्यः,साधय॑विशेषादिति, निश्चलम्-अचलं सामान्यतो निष्पन्दं-किञ्चिच्चलनेनापि रहितम्, 'आघवणाहिय'त्ति आख्यानैः प्रज्ञापनाभिः भेदतो वस्तुप्ररूपणाभिः 'सञ्ज्ञापनाभिः-सञ्ज्ञानजननैः विज्ञापनाभिः--अनुकूलभणितैः।। तएणं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील० जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छरा वइक्कन्ता,पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अनन्तरा वट्टमाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तियं धम्मपण्णत्तिं उवसम्पग्नित्ता णं विहरइ,तएणं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अन्तियं पाउन्भवित्था, तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सद्दालपुत्तं समणो-वासयं एवं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ, नवरं एक्के के पुत्ते नव मंससोल्लए करेइ० जाव कणीयसंघाएइ घायइत्ता० जाव आयञ्चइ। तए णं से सद्दालपुत्ते समणो-वासए अभीए० जाव विहरइ / तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणो-वासयं अभीयं 0 जाव पासित्ता चउत्थं पि सद्दालपुत्तं समणो-वासयं एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता ! समणोवासया अपत्थियपत्थिया० जाव न भञ्जसि तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्मसहाइया धम्मविइज्जिया धम्माणुरागरत्ता समसुहदुक्खसहाइया तं ते साओ गिहाओ नीणेमि नीणेमित्ता तव अग्गओ धाएमि घायइत्ता नवमंससोल्लए करेमि करेत्ता आदाणभरियंसि कमाहयंसि अद्दहेमि अद्दहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयञ्चामि, जहा णं तुमं अट्टदुहट्ट० जाव ववरोविज्जसि / तएणं से सदालपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए० जाव विहरइ / तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयंदोचं पितचं पिएवंवयासी हंभो!सद्दालपुत्ता!समणोवासया! तं चेव भणइ, तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवा-सयस्स तेणं देवेणं दोचं पितचं पि एवं वुत्तस्स समाणस्स एयअज्इ-ज्ञथिए०४ समुप्पन्ने एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिन्तेइ जे णं ममं जेटुं पुत्तं Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्दालपुत्त 360 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सद्धा अ०। जे णं ममं मज्झिमयं पुत्तं जे णं ममं कणीयसं पुत्तं० जाव प्रश्न०१आश्र० द्वार। आयचाई जाऽवि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया सद्ध न० (श्राद्ध) पितृक्रियायाम्, जी० 3 प्रतिः 4 अधि० / रा०। समसुहदुक्खसहाइया तं पि य इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता स्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदने, जं०२ वक्ष। ममं अग्गओ घाएत्तए,तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति सद्धम्मजाण न० (सद्धर्मयान) सद्धर्मरूपे यानपात्रे, पं० व०५ द्वार। कटु उद्धाइए जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियव्वं नवरं सद्धम्मबुड्डिजणग त्रि० (सद्धर्मवृद्धिजनक) सुन्दरधर्ममत्यत्पा-दके, अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ / सेसं जहा पञ्चा०६ विव०। चुलणपियावत्तव्वया, नवरं अरुणभूए विमाणे उववन्ने० जाव सद्धम्मपरंमुह त्रि० (सद्धर्मपराङ् मुख) दुर्गतौ पतन्तमा मान धा रयतीति धर्मः, संश्चासौ धर्मश्च सद्धर्मः क्षान्त्यादिकश्चरणकरणमहाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, निक्खेवओ। (सू० 45) उपा०७ धर्मो गृह्यते, तत्पराङ् मुखः / धर्मविमुखे, आव० 4 अ०। जी०। सद्धम्मपरिक्खा स्त्री० (सद्धर्मपरीक्षा) सम्यगधर्मपरीक्षायाम्, षो० सद्दालु त्रि० (शब्दवत्) "आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेरमणा मतोः" 1 विव० / “बालः पश्यति लिईध्यमाद्धार्वेचारयति सद्-वृत्तम् / ||8||156 // इति मतोः स्थाने आलु आदेशः। शब्दयुक्तेः, प्रा। आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षत सर्वयत्नेन / / 1 / / " इति! धः 1 अधिः / और ('धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 26 पृष्ठे व्याख्या गता। सद्दावाई पुं० (शब्दापातिन्) हैमवतवर्षवृत्तवेताढ्यपर्वते, स्था० सद्धम्मपरिणाम पुः / सद्धम्मपरिणाम) सहजपरिणमने, अष्ट० 8 10 ठा० 3 उ० भ० / देवविशेषे, स्था० / अष्ट! *दो सद्दावाती देवा / (सू०६२+) स्था०२ ठा० 3 उ०। सद्धा स्त्री० (श्रा, "श्रद्धर्द्धि मूर्धाऽर्धेऽन्ते वा" ||8/2041 / / इति सद्दावायवासी पुं० (शब्दापातिवासिन्) देवविशेष, स्था० / संयुक्तस्य ढोका। सङ्का। पक्षे-सद्धा। श्रद्धा। प्रा० / “न श्रदुदोः" *दो सद्दावायवासी साती देवा / (सू०१६२४) स्था०२ ठा०३ / / 8 / 1 / 12 / श्रद् उद् इत्येतयोरन्न्यव्यञ्जनस्य लुग ।प्रा० / उ०। इच्छायाम, "ईहा इच्छा वञ्छा सद्धा कामो य आसंसा" पाइ० ना० सद्दिही पुं० (सदृष्टि) सती-समीचीना दृष्टिर्यस्यासौ सदृष्टिः। 70 गाथा / स्वकीयेऽभिलाषे, पञ्चा० 2 विव० / प्रवर्धमानासम्यग्दृष्टी, प्रति० / स्थिरादिषु योगदृष्टिषु, द्वा० 23 द्वा० / नुष्ठानकरणे, आचा० 1 श्रु०१ अ०३ उ० / विशुद्धचित्तपरिणामे, सदिय त्रि० (शब्दित) शब्दः प्रसिद्धिः संजातो यस्य तच्छन्दितम। आव०६ अ० / तत्सङ्गाभिलाषे, दश०६ अ० / मिथ्यात्वमोहनीयप्रसिद्धे, ज्ञा० 1 0 1 अ० / ओ०। आकारिते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अः / कर्मक्षयोपशमादिजन्योदकप्रसादकमणिवचेतसः प्रसादजन्याम, ध० 2 अधिः / तत्त्वश्रद्धाने, संयमयोगविषये निजाभिलाषे, प्रश्न०१ संव० *शाब्दिक पुं० शब्दज्ञे, अनु०॥ द्वार। धर्मकरणाभिलाषे, उत्त०३ अ० / अथ श्रद्धाप्रवर धर्म इति जो जं जाणइ / तं जहा-सह सदिओ,गणियं गणिओ। अनु० / द्वितीय भावसाघोलिङ्गमुपसंहरन् प्रज्ञापनीयलक्षणं तृतीय भावसाधुसझुण्णइय वि० (शब्दोन्नतिक) उन्नतशब्दके, ज्ञा० 1 श्रु. 1 अ / लिङ्गं संबन्धय नाहजी एसा पवरा सद्धा, अणुबद्धा होइ भावसाहुस्स। सदुद्देसय पुं०(शब्दोद्देशक) शब्दोपलक्षित उद्देशकः शब्दोहे-शकः / एईए सब्भावे, पन्नवणिज्जो हवइ एसो॥१०५|| द्विस्थानकस्य तृतीये उद्देशके, स्था०५ ठा०१ उ०। एषा-चतुरङ्गा प्रवरा-वरेण्या श्रद्धा-धर्माभिलाषोऽनुबद्धा-असहुप्पाय पुं०(शब्दोत्पाद) शब्दोत्पती, स्था०। व्यवच्छिन्ना भवति-सम्पद्यते भावसाधोः-प्रस्तुतयते: एतस्याः दोहिं ठाणेहिं सद्दुप्पाए सिया। तं जहा-साहन्नताणं चेव पोग्ग श्रद्धायाः सद्भाव-सत्तायां प्रज्ञापनीयः-असद्ग्रहविकला भव-त्येष लाणं सहुप्याए सिया, भिजंताणं चेव पोग्गलाणं सझुप्पाए सिया। भावमुनिरिति। (सू०८१४) ननु किं चरित्रवतोऽप्यसदगहः सम्भवति? सत्यं संभव थपि 'दोही त्यादि द्वाभ्यां स्थानाभ्यां कारणाभ्यां शब्दोत्पादः स्याद् मतिमोहमाहात्म्यात-मतिमोहो पि कुत भवेत संहन्यमानानां च संघातमापद्यमानानां सतां कार्यभूतः इलिययतशब्दोत्पादः समापशाग्यर्थे वा षष्ठीति संहन्यमानभ्य इत्यर्थः विहिउज्जमवन्नयभय, उस्सग्गववायतदुभयनयाई। पुद्गलानां बायपरिणामानां यथा घण्टालालयोरेवं भिद्यमानानां सुत्ताइँ बहुविहाई, समए गंभीरभावाई।।१०६।। वियुज्यमानानां च यथा वंशदलानामिति / स्था०२ ठा०३ उ०।। विधिश्च-उद्यमश्च-भयं चोत्सर्गश्चापवादश्च तदुभयं सद्दूल पुं० (शार्दूल) सिंहपर्याय आटव्ये पशी, आव० 110 / "इल्ली चेति द्वन्द्वस्तस्य च स्वपदप्रधानत्वाद्, गतानिति प्रत्ये कमपुल्ली वग्यो सहला पुंडरीओय।" पाइ० ना० 44 गाथा।व्याघ्रविशेषे, / भिसंबध्यते, सूत्राणि च विशेष्याणि ततश्चैवं योज्यते Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धा 361 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सन्ना कानिचिद्विधिगतानि सूत्राणि सन्ति, यथा- "संयते भिक्खका-लम्मि, यथाभवत्येवमृजुभावादार्जवगुणादिति। ध० 20 3 अधि० 3 लक्ष० / असंभंतो अमुक्छिओं / इमेण कमजोएण, भत्तपाणं गवेसए / / 1 / / " | सद्धाजणण न० (श्रद्धाजनन) श्लाघने, सद्धाजणणं ति वा सला--घणं इन्सादीनि, कानिचिदुद्यमसूत्राणि यथा- "दुमपत्तएँ पंडुए जहा, निवडइ ति वा एगट्ठा / नि० चू० 1 उ० / राइगणाण अबए एवं मणुयाण जीवियं,समयं गो-यम! मा पमायए।।१।" सद्धाथिरया स्त्री० (श्रद्धास्थिरता) श्रद्धास्थैर्ये, पं०व०१द्वार। इत्यादीनि, वर्ण कसूत्राणि- 'रिद्वत्थ-मियसमिद्धा' इत्यादीनि प्रायो / सद्धाभंग पुं० (श्रद्धाभङ्ग) भक्तिनाशे, जी०१ प्रति०। ज्ञाताधर्मकथाधष, भयसूत्राणि- नरकेषु मासरुधिरादिकथनरूपाणि, सद्धामेत्तत्त न० (श्रद्धामात्रत्व) श्रद्धा-रुचिःसैव सामान्यभावे श्रद्धा उक्तं च- "नरए गुमसरुहि-राइ-वन्नणं जं पसिद्धिमित्तेणाभयहेउ इहर कार्यरहिता श्रद्धामात्रं तद्भावस्तत्त्वम् / केवलश्रद्धायाम, पञ्चा० 13 तेसिं, वउब्वियभावओन तयं / / 1 / / " इत्यादीनि, उत्सर्गसूत्राणि। यथा- | विव०। "इसिं छह लीवनिकायाणं नेव सयं दंड समारंभिज्जा” इत्यादि सद्धालु पुं० (श्रद्धालु) धर्मानुष्टानं निरन्तरं कार्यमेवेति श्रद्धासहि-ते, षट् जीवनिका-यरक्षाविधायकानि. अपवादसूत्राणि प्रायश्छेदग्रन्थ- धर्मानुष्ठानं निरन्तरं कार्यमव किंतु तत्कुर्वता सर्वशक्त्या विधौ गम्यानि, यद्वा-"नया लभिजा निउण सहाय,गुणाहियं वा गुणओ समं यतनीयम्, इदमेव च श्रद्धालोर्लक्षणम्। आहुश्च-- वा इस विपाधाइँ विवजयंतो, विहरिज कामेसु असज्जमाणो // 1 // " "विहिसारं चिअसेवइ, सद्धालू सत्तिमं अणुट्टाणं। इत्यादीनि, तदुभयसूत्राणि- येषूत्सर्गापवादौ युगपत्कथ्यते, यथा- दव्वाइ दोस निहओ, विपक्खवाय वहइ तम्मि / / 1 / / “अदृज्झाणाभा, सम्म अहियासियव्यओ वाही। तब्भा-वम्मि उ धण्णाणं विहिजोगो, विहिपक्खाराहगा सयाधण्णा। विहिणा, पडियारपवत्तणं नेयं / / 1 / / " इत्यादीनि एवं सूत्राणि बहुविधानि विहिबहुभाणी धण्णा, विहिपक्खअदूसगा धन्ना / / 2 / / स्वसमय-पररमय-निश्चय-ट्यवहार-ज्ञानक्रिया दिनानयमत- आसन्नसिद्धिआणं,विहिपरिणामो उहोइ सयकालं। प्रकाशकानि सभये-सिद्धान्ते गम्भीरभा--वानि-महामतिगम्याभि- विहिचाओऽविहिभत्ती, अभव्वजिअदूरभव्वाणं // 3 // " प्रामाणि सन्तीति शेषः। ध०२ अधि०। ततः किमित्याह सद्धिं अध्य० (सार्द्धम) समान युगपत्। एकत्रेत्यर्थे , नि० चू०२ उ०। तेसिं विसयविभाग, अमुणंतो नाणवरणकम्मुदया। सहेत्यर्थे, भ. 2 श० 5 उ० / आचा० / ज्ञा० / औ०। मुज्झइजीवा तत्तो, सपरेसिमसग्गहंजणई।१०७।। सद्धेअ त्रि० (श्रद्धय) नान्यथेत्यादीति भावनया शेये, आव० 4 अ०। लेषां सूत्राणां विषय विभागमयमस्य सूत्रस्य विषयोऽयं चामुष्येत्ये- | सन्तमस न० (सन्तमस) अन्धकारे "सन्तमसं अंधयारं धंतं तिमिरं वंरूपममुणन-अलक्षयन ज्ञानावरणकर्मण उदयाद्धेतोमुह्यति- ___ तमिस्सं च" पाइ० ना० 48 गाथा। माहगुपयाति जीवः-प्राणी ततः स्वपरयोरात्मनः परस्य च पर्यु- ] सन्तय न० (सन्तत) अविरामे, “सइ अविरयं अविरामं अणुवेलं संतयं पासकस्यासद्गहभसगोधं जनयति, जमालिवत् ( 'जमालि' शब्दे सया निच्च" / पाइ० ना०८७ गाथा। चतुर्थभागे सर्व वृत्तान्तम्।)। तत्कथा चाति-प्रतीतत्वान्न वितन्यत सन्दण पुं० (स्यन्दन) रथे, “संदणो रहो" पाइ० ना० 223 गाथा। सन्दाणिअ त्रि० (सन्दानित) बद्धे, "बद्धं संदाणिअंनिअलिअंच" ततश्व पाइ० ना० 167 गाथा। तं पुण संविग्गगुरू,परहियकरणुज्जयाणुकंपाए। सन्दिट्ठ न० (सन्दिष्ट) आत्महिते, “सन्दि8 अप्पाहिअं"।पाइ० ना० बोहिंति सुत्तविहिणा, पन्नवणिज्जं वियाणंता॥१०८|| 185 गाथा। तभूद पुनः शब्दार्थनं विनीतं च संविग्नाः-प्रतीतार्था गुरवः--पूज्याः सन्दिद्ध त्रि० (सन्दिग्ध) संशयिते, "सन्दिद्धं संसइअं" / पाइ० ना० परहितकरणोहताः-परोपकाररसिका अनुकम्पया-मा गमत् एष 185 गाथा। दुर्गतिमित्यनुग्रहबुद्ध्या प्रेरिता बोधयन्तिःप्रज्ञापयन्ति सूत्रविधिना सन्दुमिअ त्रि० (प्रदीप्त) उद्दीपिते,"उद्दीविअं उज्जालिअंपली-विअं आगमोक्तयुक्तिभिः प्रज्ञापनीयं प्रज्ञापनो चितं विजानाना जाण सन्दुमि” पाइ० ना०१६ गाथा। लक्षयन्तस्तदितरस्य सर्वज्ञनापि बोधयितुमशक्य-त्वादिति। सन्दोह पुं० (सन्दोह) गणे, संदोहो निउरम्बो। पाइ० ना०१८ गाथा। ततः-- सन्धुक्कि अ त्रि० (प्रदीप्त) उज्ज्वालिते, "सन्धुक्किअं उद्दीविअं सोऽवि असग्गहचाया, सुविसुद्धदसणं चरित्तंच। उज्जालिअंपलीविअ जाण" / पाइ० ना० 16 गाथा। आराहिउंसमत्थो, होइ सुहं उज्जुभावाओ।।१०।। सन्न त्रि० (सन्न) क्लान्ते, "सन्नं किन्नं सुठिअंउव्वायं नीसह किलंतं सोऽपि प्रज्ञापनीयमुनिः सुनन्दराजर्षिसदृशोऽसद्गृहत्यागान्नि- च" / पाइ० ना०७६ गाथा। जपरिकल्पितबोधमोचनात् सुविशुद्धमतिनिर्मल दर्शनसम्यक्त्वं सन्ना स्त्री० (संज्ञा) नामनि, “सन्ना गुत्तं च नाम अहिहाणं" पाइ० ना० चारित्रं-संयम शब्दात्-ज्ञानतपसी चाराधयितु समर्थो भवति सुखं / 161 गाथा। इति। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्नाम 362 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सपुरजणजाणवय सन्नाम धा० (आ-दृ) आदरे, "आदृडे : सन्नामः" ||8483 // आद्रियतेः सन्नाम इत्यादेशो वा भवति। सन्नामेइ। आदरेइ। आद्रियते। प्रा० 4 पाद। सन्नुम धा० (छाद) अपवारणे, 'छदेणेणुम-नूम-सन्नुम-ढक्को- | म्बाल-पव्वालाः ||14 // 21 // देण्यन्तस्यतेपडादेशा वा भवन्ति / सन्नमइ / छादयति / प्रा० 4 पाद। सपएस पु० (सप्रदेश) सविभागे, भ०६ 20310 / ('पर" शब्द | तृतीयभागे 22 पप स्वपदेशाऽप्रदेशत्वे दण्डकः।) सपंचचूल पू० / नाशाचूड़) सह पञ्चनिश्चूडामलित इनिगा तदुर . | पक्षपाहिले अाधाराड़े, आचा० 1 0 : 350 . सर्पसुलक त्रि० (सुलक) सपश्यस्थि , 03 आश्रद्वार। सपक्ख न० (सपना समानाः पक्षा: पाश्वर्या दिशो यस्मिन् तत् सपक्षम्। स्था : ला 330 समानपक्षे, समपावें , यथा भवति समश्रेण्या गच्छतील पर्थः ! 2032 समः / सर्वेषु पार्येषु-पूर्वा -पर-दक्षिणीतर तपेप्तिमयः। स प्र०२० पाहु० / सम्भ०।। स्वपक्ष पुं० नेहपार्श्वस्थादिषु, बृ० 1 उ० 2 प्रक०। सपक्खि त्रि० (सपक्ष; समानाः पक्षाः पावो दिशो यस्मिन तत्सपक्षम् / इहकारः प्राकृतप्रभवः / स्था० 4 ठा०३ उ०। पक्षाणां टाक्षणयामादि.. पायांना सदृशला समता सपक्षमित्यव्ययीभावः। समपार्वतया समे, स्था० 3 ठा० 1 उ० / महोषधिभेदे, स्त्री० / ती०६ कल्प। सपच्चवाय पुं० (प्रत्यापाय', संभाव्यमानाऽपाय, पिं० / स्था। सपञ्जवसिय त्रि० (सपर्यवसित) शान्ते, सपर्यवसितो लोको जगत्पलशे सर्वस्य विनाशराद्भावात / आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। सपज्जाय त्रि० (सपर्याय) नास्तिभावे, सपजाय त्ति या णतिय-भावदित आवजमाणभयो त्ति वा एगट्टा / आ० चू० 1 0 सपडाग वि० (सपताक) राह पताकया वतंत इति सचतकालका सहित, ज्ञा० 1 श्रु०१ : सप (प्प)डिकम्म न० (सप्रतिकर्मन्) प्रतिकर्मसहिते नशन "भत्तपरिन्नाऽजस तिचउविहाहारचायनिप्फन्नं / स (प्प) पडि-कम्म नियमा, जहा समाही विणिदिट्ट / / 1:" इति / स्था० 2 ठा०४ उ०। सपडिक्कमण पुं० (सप्रतिक्रमण) उभयकालकरणीयप्रतिक्रम-णसहित, सह प्रतिक्रमणेनाभयसन्ध्यामावश्यकेन्न यः स तथा, अन्येषां तु कारणनालप्रतिक्रमणमिति उक्तं 5-- “सपडिकमाणो धन्मो, पुरिमरस य पच्छिमरस यानि (णरस) णा" स्था०६ ठा०३ उ०। सपडिदिसि 2 प्रतिदिश) प्रतिदिशा विदिशा सम-साम, समातिदेवतावन, 6.4 टा०२८ सपमज्जिय अ.८.० (संप्रमृज्य) साप्रमार्जन कृत्यत्यय , 10 1 संव० सपरक्कम न० (सपराक्रम) पराक्रमः-सामध्ये सह पराक्रमेण वर्तत इति सपराक्रमः / पराक्रमयुक्ते अनशने, आचा० 1 0 8 अ० 1 उ०। (इदं च 'मरण' शब्द षष्ठभागे 114 पृष्ठे व्याख्यातमा) सपरसुय न० (स्वपरश्रुत) स्वसमयसमययोः द्वारा द्वा० सपरिग्गह त्रि० (सपरिग्रह) सह परिग्रहण-द्विपदचतुप्पदधनधान्याऽऽदिना वर्तत इति सपरिग्रहः / सूत्र० 2 भृ० 1 अ० / धनधान्यद्विपदचतुष्पदादिना वर्तमाने, तदभावेऽपि शरीरोपकर--णादी मूच्छावति च सूत्र०१ श्रु०१०४ उ०। सपरिमाण त्रि० (सपरिमाण, सह परिमाणन वर्तत इति सपरि-माणम्। सपरिच्छेद, सूत्र०१ श्रुः सपरियण त्रि० (सपरिजन) सह पारजनवर्तत इति सपरिजनः / भृत्यादिवर्गसहिते. ऊन 20 अ० सपरिया स्त्री०( " से शयाण स ! सपरिवार वि०रिवारकीयारिवारयोग्यासनपरिक-रिते 80 2204 अ०. सपरिसाग निक(सपाका सहपर्यदा वैयेषां वा ते सपर्षत्काः सदस्येषु, आ०म०१ अ०। सपरोवधाय पुं० (स्वपरोपघात) आत्मन्यसक्लेशे, जी०१ प्रति०। सपाउरण त्रि० (सप्रावरण) सप्राच्छादने, 101 अधि०। सपाडु गभंडधारि पुं० (सप्रादुकभाण्डधारिन्) यावन्मात्रमुपक रणभुपयुज्यते तावन्मात्र धरति शेषं परिष्ठापयति साधी, व्य० 5 उ०। सपाण त्रि० (समाय) सह प्राणैर्वर्तते इति सप्राणम् : सचित्ते दशा०२ अ०। सपाय स्वपात्र) आत्मनः संज्ञामात्रके, अप्पणिज्जो सग्णामत्तओ रूपाय भण्णात / नि०यू०३ उ०। सपायच्छित्त त्रि० (सप्रायश्चित्त) सह प्रायश्चित्तेन वर्त्तत इति सप्रायश्चितम् / प्रायश्चित्तयुक्ते, स्था०५ टा०२ उ०। व्य० / सपाव त्रि० (सपाप) “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक्" ||8/1 / 177 / / सपावं / अत्र प्रायोग्रहणान्न लुक् / पापस हेते, प्रा० १पाद। सपासंडि पु० [रवपाष (ख)नि जनपाषण्डिनि. णाम.. - रित्ताने परूवेति जिणक्यण चोरति भाडी चेवा नि० 016 321 सपिसल्लय पुं० [सपि (शाच सल्ला सह शिसहर पाचन पन्त इस्ते सपिसल्लयाः पिशाचेन राहिला. 21 द्वार! सपुरजणजाणवय नि० (सपुरजनजानपद) राह पुरजनेन जान-पदेन च जनपदसम्बन्धिजनन वर्तते यः स तथा। पुरजनजन--पदजनसमेते, भ० ११श०११ उ०। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सपुरोहिय 363 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सप्पि सपुरोहिय पुं० (सपुरोहिय) शान्तकर्मकारिसहित, प्रश्र०४ आश्र० द्वार। सपुव्वाऽवर त्रि० (सपूर्वापर) सह पूर्वेण–पूर्वाह्नकर्त्तव्येन अप-रेण या अपराह्णकर्त्तव्येन। यदिवा-पूर्वं यत्क्रियते अन्नादिकं तथा अपरं यत्क्रियते थिलपनभोजनादिकं तेन सह वर्त्तत इति सपूर्वा-परम् / दशा० 10 अ० / पूर्वेणाऽपरेण च सहिते, च० प्र०१६ पाहु०। सह पूर्वेण गङ्गादिना यदपरं महागङ्गादितत्सपूर्वापरम / गोशालकरीत्या पूर्वापरसहिते, भ०१५ श०। सपेहा स्त्री० (स्वप्रेक्षा) स्वेच्छायाम्, भ०३ श०३ उ०। सपोग्गल पुं० (सपुगल) कर्मादिपुद्गलवति जीवे, स्था०२ ठा०१ उ०। सप्प पु० (सप्र्प) सप्र्पतीति सर्पः / भुजङ्गे, आ० म०१ अ विशे० / यथाऽसावकदृष्टिभवत्येव गोचरगर्तन संयमकदृष्टिना भवितव्यम् / दश० 1 अ०। (सप्पकर्णकः गोसालग शब्दे तृतीय--भागे 1016 पृष्ठ गतः।। तथा सर्प इति यथाऽसावकदृष्टिर्भवत्येवं गोचरगतेन संयमकदृष्टिना भषितम्यामित्यर्थसूचकत्वादिति, अथवा- यथा द्राक् स्पृशन्न रापों बिल प्रविशत्येवं साधुनाऽप्य- नास्वादयता भोगतव्यमिति / दश०१ अ०। अश्लेषानक्षत्राधिपती देव, ज.० 7 वक्ष० : ०प्र० / अनु० . जी। सप्पइण्णत्त न० (सत्प्रतिज्ञत्व) प्रतिपन्न क्रियानिर्वाहणे, द्वा० 12 द्वार। सप्पकाल पुं० (स्वल्पकाल) मुहूर्तप्रहरादिकऽहोरात्रान्ते काले, धर्म०२ अधि०। सप्पच्छत्त न० (सर्पच्छत्र) अहिच्छत्राके, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। सप्पडक्क त्रि० (सर्पदष्ट) सर्पदशनमारिते.सप्पडको मारित-कोहो डिसेण भाविस्यति / नि० 0 1 उ०। सप्पडिदंड पुं० सप्रतिदण्ड) सद्वितीयदण्ड, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। सम्पत्तदाणपुटव न० (सत्पात्रदानपूर्व) सत्पात्रं साध्वादिः तस्मिन् दानपूर्वम् / साध्वादिभ्यो दानं दत्त्वेत्यर्थे, (क्रियाविशेषणमिदम्) ध० 2 अधि०। सप्पदट्ठ न० (सर्पदष्ट) सर्पदशने, बृ०५ उ०। (सर्पदशने माफ-पानविधिः 'माय' शब्दे षष्ठ भागे 446 पृष्ठ दर्शितः।) सप्पभ त्रि० (सप्रभ) सप्रभावे,स० / प्रभायुक्ते, स०। स्वप्रभ त्रि० स्वेन-आत्मना प्रभान्ति-शोभन्ते-प्रकाशन्ते चेति स्वप्रमाणि / स्वस्वरूपतः प्रभावत्सु, स०॥ सत्प्रभ त्रि० सती-शोभना प्रभा--कान्तिर्यस्य स सत्प्रभः / स्वरूपतः प्रभावति, दश०६ अ० / जं० / रा० / प्रज्ञा० जी० / आ० म० / देवानन्दकत्वादिप्रभावयुक्त, स्था० 4 ठा०२ उ०। सप्पभावसोहिय न० (स्वप्रभावसाहित्य) स्वस्य-आत्मनो भावः--तद्रूपं साहित्य तृप्तिः / परमामतृप्ती, द्रव्या०५ अध्या०। सप्पमाण त्रि० (शप्यमान) स्याद्वादे, द्रव्या० 5 अध्या० / आक्रोश्यमाने प्रश्न आश्रद्वार। सप्पलोद्धी पुं० (सर्पलुब्धिन्) सर्पग्राहके, बृ० 1 उ०३ प्रक०। सप्पविज्जा स्त्री० (सर्पविद्या) सर्पप्रधानायां परिव्राजकवि-द्यायाम, आ० म०१अ०। अंतरंजिया नाम पुरी, तत्थ भूयगुहं नाम चेतियं, तत्थ सिरिगुत्ता नाम आयरिया दिला। तत्थ बलसिरि नाम राया, तेसिं सिरिगु-ताणं थेराणं सड्डियरा रोहउत्ता नाम सीसो, अण्णगामे ठितओ। ततो सो उवज्झाय वंदओ एति, एगो य परिव्वायओ पोट्ट लोह–पट्टएण, बंधिउं जंबुडाल गहाय हिंडई / पुच्छितो भणइ-नाणेण पोट्ट फुट्टइ, तो लोहपट्टेण बद्ध, जबुडालं च जहा एत्थ जंबूदीवेणत्थि मम पडिवादि त्ति, ततो तेण पडहतो णीणावितो-जहा सुण्णा परप्पवादा, तस्य लोगेण पोट्टसालो चेव नामं कतं / सो पड़हतो रोहगुत्तेष वारिओ, अहं वादं देति ति / ततो सो पडिस हित्ता गतो आयरियसमास, आलोएइ--एवं मए पडहतो तिणिवारिओ आय-रिया भणति-दुल कयं, जतो सो विजाबलिओ वादे पराजितोऽवि विजाहिं उबट्टाइ त्ति तस्स इमाओ सत्त विज्जाओ, तं जहा-- विच्छुय सप्पे मूसग, मिई वराही य कायपोआई। एयाहिं विज्ञहिं, सो उ परिव्वायओ कुसलो 137 (भा०) व्याख्या-- तत्र वृश्चिकेति वृश्चिकप्रधाना विद्या गृह्यते, सर्पति सर्पप्रधाना, 'भूसग' त्ति मूषकप्रधाना, तथा मृगी नाम विद्या, मृगीरुपेणापघातकारिणी, एवं वाराही च, 'कागपोआई' ति-काकविद्या पोलाकीविद्या च, पोलाक्यः सकुनिका मण्यन्ते, एतासु विद्यासु, एताभिर्वा विद्याभिः स पारेवाजकः कुशल इति गाथार्थः।। आव० 4 अ० सप्पवित्तिपयावहा स्त्री० (सत्प्रवृत्तिपदावहा) प्रभाख्ययोगदृष्टी, दा० / अस्यां व्यवस्थितो योगी, त्रयं निष्पादयत्यदः। ततश्चेयं विनिर्दिष्टा, सत्प्रवृत्तिपदावहा।।२।। अस्यामिति-अस्यां प्रभाया व्यवस्थितो योगी त्रयमदोनिरोधसमाध्यकाग्रतालक्षणं निष्पादयति, साधयति ततश्वेय प्रभा सत्प्रवृत्तिपदावहा विनिर्देिष्टा सर्वः प्रकारैः प्रशान्तवाहिताया एव सिद्धः। द्वा० 24 द्वा०। सप्पसुगंधा स्त्री० (सर्पसुगन्धा) अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १पद। सप्पह पुं० (सत्पथ) सन्मार्गे, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। सप्पहविप्पणट्ठ न० (सत्प्रभविप्रनष्ट) त्यक्तजिनशासने, उत्त० 4 अ०। सप्पाडि हेर न० (सत्प्रातिहार्य) देवकृते तीर्थकृतानां शोभनप्रातिहार्ये “अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यां ध्वनिश्वामरमासन च। भामण्डल दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणम्" ||1|| कर्म० 1 कर्म। सप्पि न० (सप्पिस्) घृते, स्था० 4 ठा० 1 उ० / सूत्र० / Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्पि 364 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सबल प्रश्न० / दश०। आचा० / औ०। आ० म० / विकृतिभेदे, स्थान ठा०३ उ०। *सर्पि पुं० देवे, पुनर्वसुनक्षत्रे स्था०। दो सप्पी। (सू०६०+) स्था०२ ठा०३ उ० / सप्पिआसव पु० (सप्पिराश्रव) सपिरतिशाथिगन्धादिघृतम् एतत्स्वादोपमानवचना वैरस्वाम्यादिवत्तदाश्रयाः / लब्धिमत्पु... रुषविशेषेषु, पा० / औ०। सप्पिवास त्रि० (सत्पिपास) “समासे वा" ||8/2 / 67| शेषाऽऽ-- देशयोः समासे द्वित्वं वा भवति। सपिवासो। सप्पिवासो। सतृष्ण, प्रा०२ पाद। सप्पी स्त्री० (सप्पी) सर्पस्त्रियाम, दशा० 1 अ० / रा० / सप्पुर न० (सत्पुर) स्वनामख्याते पुर, यत्र वीरजिनप्रतिमा पूज्यते। ती० 43 कल्प०। सप्पुरिस पुं० (सत्पुरुष) संश्चासौ पुरुषश्च सत्पुरुषः / आप्तपुरुष,सूत्र०२ श्रु०६अ। तीर्थकरादिके, व्य० 10 उ०।महासत्त्वे, पं०व०१द्वार। "तंतह दुल्लहलंभ, विज्जुलताचंचलं मणूसत्तं / लभ्रूण जो पमायइ, सो कापुरिसो न सप्पुरिसो।" आ० म० 1 अ० / दाक्षिणात्यानां किं पुरुषाणामिन्द्रे, स्था० 2 ठा० 3 उ० / प्रज्ञा० / भ०। सफल त्रि० (सफल) सह फलेन कर्मबन्धेन वर्तत इति सफलम्। सकर्मणि,सूत्र०१ श्रु०८ अ० / चरितार्थे , जी०।१ प्रति० / फल-- वति, षो०८ विव०। सफाय न० (सफाय) अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १पद। सफिह त्रि० (सस्पृह) अभिलाषासहिते, द्वा०२२ द्वा०। सबर त्रि० (शबर) अनार्यदेशभेदे, तद्देशवासिनि म्लेच्छ, प्रश्र 1 आश्र० द्वार। सूत्र० / ज्ञा० ! प्रज्ञा० / आ० म० / प्रव० / आचाल! स्वनामख्याते जैमिनिप्रणीतसूत्रोपरिव्याख्याभाष्यकारके प्रधा-- नमीमांसके, सम्म०२ काण्ड। सबल पुं० (शबल) परमाऽधार्मिक, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०१ उ०। प्रायश्चित्तयुक्ते, दशाo! सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह-खलु थेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसंसबलापण्णता, कयरेखलुतेथेरेहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पण्णत्ता, इमे खलुथेरहिं भगवंतेहिं एक्कवीसंसबलापण्णत्ता, तं जहा-हत्थकम्मं करेमाणे सबले 1 मेहुणं पडिसेवमाणे सबले 2 रातीभोयणं जमाणे सबले 3 आहाकम्मं मुंजमाणे सबले 4 रायपिंडं भुंजमाणेसबले 5 कीयंपामिचंअच्छिचं अणिसिट्ठ आहद दिज्जमाणं भुंजमाणे सबले 6 अभि-क्खणं अभिक्खणं पडियाइक्खित्ताणं भुंजमाणे सबले७ अंतो छण्हं मासाणं गणतो गणं संकममाणे सबले 8 अंतो मासस्स तओ दगलेवं करेमाणे सबले 6 अंतो मासस्स ततो माइट्ठाणं करेमाणे सबले 10 सागारियपिंडं मुंजमाणे सबले 11 आउट्टि-याए पाणाइवायं करेमाणे सबले 12 आउट्टियाए मुसावायं करे-माणे सबले 13 आउट्टियाए अदिण्णादाणं गिण्हमाणे सबले 14 आउट्टिताए अणंतरहिताए पुढवीए ठाणं वानीसीहियं वा चेतेमाणे सबले 15 एवं ससणिद्धाए पुढवीए ससरक्खाए पुढवीए 16 एवं आउट्टियाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंताए लेलुए कोला-दासंसि वा दारुए जीवपइट्ठिए सअंडे सपाणे सबीए सहरिए सउस्से सउत्तिंगे पणगदगमट्टियमक्कडासंताणए तहप्पगारं ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा चेतेमाणे सबले 17 आउट्टियाए मूलभोयणं वा कंदभोयणं वा खंधभोयणं वा तयाभोयणं वा पवालभोयणं वा पत्तभोयणं वा पुप्फभोयणं वा फलभोयणं वा बीयभोयणं वा हरियभोयणं वा भुंजमाणे सबले 18 अंतो संवच्छरस्स दस दगलेवे करेमाणे सबले 16 अंतो संवच्छरस्स दस माइट्ठाणाई करेमाणे सबले 20 आउट्टियाए सीतोदगरउग्धाइ-एणं हत्थेण वा पत्तेण वा दव्वीए वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिगाहेत्ता भुंजमाणे सबले 21 एते खलु थेरहिं भगवंतेहिं एक्कवीसं सबला पन्नत्ता त्ति बेमि।।२।। असमाधिस्थानानि चाऽऽसेवमानः शबलो भवति / अथवा-शबलत्वस्थानेषु वर्तमानस्यासमाधिर्भवति अतोऽसमाधिस्थानपरिहराणाय शबलस्थानानि-शबलत्वकरणानि परिहर्तव्यानि इत्यनेन संबन्धेनाऽऽयातरयास्य शबलाध्ययनस्य व्याख्या प्रस्तूयते - 'सुयं मे आउसंतेणमि' त्यादि, व्याख्या प्राग्वत्। नवरं शबलं-कर्बुर चारित्रं यः क्रियाविशेषनिमित्तभूतैर्भवति ते शबला-स्तद्योगात्साधवोऽपि शबला इति व्यपदिश्यन्ते / तत्र शबलो द्रव्यभावभेदाद् द्विधा, तत्र द्रव्यस्यानुपयुक्तत्वादावशबलेनेहा-धिकारः स चैवम्- एकैकस्मिन् अपराधपदे मूलगुणवजें आधा-कर्मादी अतिक्रमो-व्यतिक्रमोऽतिचारोऽनाचारव, ततः सर्वरप्ये-तैः शबलो भवति / तत्रातिक्रमादीनां स्वरूपमिदम्यथाऽऽधा-कर्मादिसदोषवस्तुपरिभोगनिमन्त्रणे कृते सतितत्प्रतिश्रवणे प्रथमः, तदर्थ मार्गे गच्छति द्वितीयः तत्र गृहीते, तृतीयः, भोजनार्थ कलवग्रहणे सति चतुर्थः, एवं यथार्हप्रतिसेवान्तरेष्वप्यूह्यम्, मृ-लगुणेषु तु आदिभट्टै स्विभिः शबलो भवति / चतुर्थभङ्गेन तु सा-भङ्गः तत्रातिरिक्त एव भवति शुक्लपटदृष्टान्तवत्। यथा शुल्क-पट एकस्मिन् देश मलिनो भवति तदा तावन्मात्र एव धाव्यते, यदा च सर्वोऽपि मलिनो भवति तदा तु सर्वोऽपि स क्षारादिभिः सन्मिश्वः कृत्वा धाव्यते, यतोमलिनः पटः शोभतेऽपि न। अथ च शीतत्राणमपि न भवति, एवं चारित्रपटोऽपि देशसर्वमलिनः सन्न मोक्षसाधको भवति, इति कृत प्रसङ्गेना प्रस्तुतमनुसरामः, तद्यथा- 'हत्थकम्मं करेमाणे सबले' नि.. हस्तकर्म-वेदविका-रविशेषमुपशमं कुर्वन् उपलक्षणत्वात्यारयन्ननुजानन वा शबलो भवतीत्येकः 1 / तथा-मैथुनं प्रतिसेवमानोऽ-- Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबल 365 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सब्बोह तिक्रमव्यतिक्रमातिचारैत्रिभिः प्रकारेर्दिव्यादित्रिविध सेवमानः शबला नीवारश्यामाकादीनि, तथा-सह हरितैर्वर्त्तत इति सहरितं तस्मिन् भवति / / अनाचारमालम्बनस्तत्सेवी तु विराधक एव सालम्बन- सहरितानि दूर्वाप्रवालादीनि 'सउसे' ति-सहावश्यायेन वर्तत इति परवशादिना सतनया सेवमानो भवति शबलः, आल-म्बनानि तु सावश्याय तस्मिन् सावश्याये अवश्यायो नाम-नीहारः, तथा- 'सउदगे' छदगन्थटीकादिभ्योऽवसेयानि, परं तत्रापि न किंचिदणुन्नाय' इति ति-सह उदके न वर्तत इति सोदकं तस्मिन सोदके उदकं वचनात्तन्नोपदेशप्रवर्तकाऽत एव शबलः। तथा रात्रिभोजनं दिवा गृहीत भीमान्तरिक्षभेदादनेकप्रकारम् तथा- 'सोतिंगे' त्यादि उत्तिङ्गपनकोददिवा भुक्तमित्यादिभिश्चतुर्भङ्ग कै-रतिक्रमादिभिश्च भुजानः शबलः एवं कमृत्तिकामर्कटसन्तानेन सह वर्तत इति सोत्तिङ्गपनकोदक मृत्तिका - सालम्बन यतनया सान्नि-ध्यादिसेव्यपि शबल:३। तथा-आधाकर्म मर्कटसन्तानं तस्मिन् सात्तिङ्गपनकोदकमृत्तिकामर्कटसन्ताने, तत्र आधाय साधुप्राण-धानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतन वा पच्यते उत्तिड़ :-पिपीलि-कासन्तानकः पनको-भूम्यादौ उल्लीविशेष: चीयते वा गृहादिक वयत वा वस्त्रादिकं तदाधाकाम भुञ्जानः शबलः 4 / उदकमृत्तिका-अचिरादप्कायार्दी कृता मृत्तिका मर्कटसन्तानको-- तथा-'रायपिंड' ति-राजपिण्डो-नृपाहारः 5 / 'कीतपाभिच्चे' त्यादि लुतातन्तुजालं तदेवभूते स्थाने इतिगम्य तत्र स्थानकायोत्सर्ग उपवेशनं की द्रव्यादिना,साध्वर्थ मुद्धारानीतं प्रामित्यम्, आच्छि- वा 'सिज्ज व त्ति-शयनम्,' 'निसीहियं व' त्ति- स्वाध्यायस्थानं कुर्वन धतेऽनिच्छताः पि पुत्रादेः सकाशात् साधुदानाय गृह्यते तदाच्छद्य, शबल: 17 / तथा- 'आउट्टियाए' त्ति मूलेत्यादि मूलानि प्रती-तानि नानुज्ञातं सर्व-वामिभिः साधुदानाय इत्यनिसृष्ट भ-- क्तम आहृत्य तेषां भोजनं -भक्षणं परिभोगो वा मूलभोजनम्, एवं कन्द-भोजनं कन्दा दीयमानं स्वस्थानात साध्वर्थमभिमुखमानीय दानं भवतादेः, उत्पलकन्दादयः, त्वक् पिप्पलादीना, प्रवालानि करीरादीना, पत्राणि उपलक्षणत्वार परिवर्त्तनादिकमपीह द्रष्टव्यं तदुजानः 6 तथा- ताम्बलपत्राणि नागवल्ल्यादीना, फलानि आमादीनां, बीजानि 'अभिक्खणं' लि-अभीक्ष्णमसकृत्प्रत्याख्यायाऽश-नादि भुञ्जानः 7 / शाल्यादीनाम्, हरितानि पत्रशाकादीनाम्, 'भुंजमाणे' त्ति-भोजनं कुर्वन तथा- 'अंतो'ति-अन्त: षण्णां मासानामे-कतो गणादन्यं गाणं संक्रामन् शबलः 18 // तथा- 'अंतो' त्ति-अन्तर्मध्ये संवत्सरस्य दशोदकलेपान् शवलो निरालाबन इत्यर्थः, साल-म्बनस्तु ज्ञानादिपुष्टालम्बनयुक्तो कुर्वन् 16 / तथा . अतो' त्ति-अन्तःसंवत्सरस्य दश मायास्थानानि गणान्तर संक्रात 8 | तथा- 'अंतो'त्ति-अन्तः मासस्य त्रीन उदकलेपान कुर्वन् 20 / तथा- 'आउट्टिए' त्ति-आकुट्या सीतोदकच्याप्तन हस्तेन कुर्वन् उदकलेपश्च नाभिप्रमाणजलावगाहनमिलिहा तथा- 'अतो' त्ति- गलद्विन्दुना वा मात्रकेण वादा वा भाजनेन वा 'असणं वा' इति–अत्र अन्तमध्ये मासस्य त्रीणि मायास्थानानि तथाविधप्रयोजनमन्त- वा-शब्दोषादानात अशनं वा इत्यनेन पदेन सह चतुष्टयस्य सूचनारेणातिगढ-मातृस्थानानि (स्थानभेदाः) कुर्वन् 10 / तथा- 'सागारिय' तानि चामूनि अशनं पान खादिम स्वादिमम्, तत्र अशनम् ओद-नादि ति-सागारिको-वसतिदाता तत्पिण्डम् 11 / तथा 'आउट्टियाए पानं द्राक्षापानादि खादिम खरफलादि स्वादिम सुण्ठ-यादि, वा सर्वत्र पाणातिवायं करमाणे सबले' आकुट्टनमिति जानन् करोति आप-द्रहितो समुचये, प्रगृह्य भुजानः शबल इत्येकविंशति-तमः 21 एवं खल्वित्यादि वायत्करोति पृशवीगुण्डितेन हस्तादिना भिक्षा गृह्णाति उदकविलन्नाभ्यां निगमन वाक्यं पूर्ववदेव / इति ब्रह्म-विरचितायां जनहितायां वा हस्ताभ्यां भिक्षा गृह्णाति अग्निसंश्लिष्टं वाऽऽ-हारं गृह्णाति आत्मानं पर श्रीदशाश्रुतरकन्धटीकायां शबलनामक द्वितीयमध्ययनं समाप्तम्। दशा० च वायुना बीजति सचित्तफलबीजं कन्दादिकं वा गृह्णाति द्वीन्द्रियादि २अ०। संसक्त पथि व्रजति तन्मिश्र-माहारादिकं वा गृह्णाति,एवं सर्वत्र आकुट्या "वरिसतो दस मास---स तिन्नि दगलेवमाइठाणाइ। इन्युपेत्येति द्रष्टव्यम् 12 // तथा 'आउट्टि' त्ति-आकुट्या मृषावादं वदन आउट्टिया करेंतो, बहालियादिण्णमेहुण्णे / / 1 / / " 13 / तथा-आकुट्या अदत्तादान गृह्णन् 14 / तथा- आकुट्या निसि भक्तकम्मनिवपि-ड कीयमाई अभिक्खसंवरिए। अनन्तरिताया पृथिव्या स्थानं वा नैषेधिकी वा चेतयन कायोत्सर्गे कंदाइ भुजते, उदउ (दु) लहत्थाइगहणं च / / 2 / / स्वाध्यायभूमिं वा कुर्वन्नित्यर्थः 15 / तथा- एवमाकुट्या सस्निन्धायां सचित्तसिलाकोले, परविणिवाई (स) सिणिद्ध ससरक्खो। पृथिव्याम्, एवं सरजस्कायां पृथिव्यां 16 / तथा आकुट्या 'चित्तमं- छामासतो गणसं--कमं च करकम्ममिइ सबले / 3 / / ताए' ति-चितं जीवलक्षणं तदस्त्यस्यामिति चित्तवती सचित्ता आव०४ अ०। सजीवेत्यर्थः, तस्याम् एवंविधायां शिलायां; शिला नाम-महा-प्रमाणः सबालवच्छा रत्री० (सबालवत्सा) सह बालेन स्तनपायिना वत्सेन पाषाणः, एवं सर्वत्र नवरं 'लोलूई' ति-कोष्ठो लोकप्रसिद्धः स्त्रीत्वं / वर्तत इति राबालवत्सा / बालसहितायां स्त्रियाम्, ध०३अधि०। प्राकृतत्वात्, 'कोलावासंसि' त्ति-कोला-धुणास्तेषामा-वासः सबाहिरिय त्रि० (सबाहिरिक) प्राकारबहिर्वतिगृहपद्धतिरूपया कोलावासस्तस्मिन् कोलावासे दारी-काष्ठे जीव प्रतिष्ठिते बाहिरिकया सहिते बृ०१ उ०२ प्रक०। द्वीन्द्रियादिजीवाश्रयीभते, 'सअडे' ति--सह अण्डैर्वर्तत इति साण्ड सबीय न० (सबीज) बीजैः सह वर्तमाने, दशा० 2 अ० / सह बीजैःतस्मिन् साण्ड अण्डानि कीटिकादीनाम्, तथा-'सपाणे' त्ति-सह | शालिगोंधूमादिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः / एते सर्वेऽपि वनस्पतिप्राणर्वतत इति सप्राणं तस्मिन् सप्राणे प्राणा द्वीन्द्रिया-दयः, तथा- कायाः / सूत्र०१ श्रु०११ अ० / 'सबीए' त्ति-सह बीजे वर्तत इति सबीजं तस्मिन् सबीजे बीजानि- | सब्बोह पुं० (सद्धोध) निर्मलज्ञाने,षो०१३ विव०। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब्भत्ति 366 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम सडभत्ति स्त्री० (सद्भक्ति) सतां चातुर्वण्य स्थिताना भक्तिः / बाह्यप्रतिपत्तौ, प्रतिका सब्भाव पुं० (सद्भाव) सतां भावः सद्भावः / आव० 3 अ०॥ विद्यामानभावे, नं०। अस्तित्वे, सम्म०१ काण्ड। पञ्चा०। आव०। सत्त्वे, सम्यगदर्शन, ओध०। परमार्थे, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। निष्ठायाम, आ० चू०१ अ०। पदार्थ, स्था०६ ठा०३ उ०। सन्मार्ग,सूत्र०१श्रु०३अ०३ उ० / सत इव विद्यमानस्येव भावः सद्भावः स्थाप्यमानस्येन्द्रादेरनु-रूपाङ्गोपाङ्गचिह्नवाहनाहरणा-दिपरिकररूपो य आकारविशेषो यद्दर्शनात् साक्षात विद्यमान इवेन्द्रादिर्लक्ष्यते स सद्भावः / पिं०। हार्दे,तं० / अन्तश्चित्ताभिप्राये, तं० / अन्तर्वासनायाम्, 'हुं साहुसु सम्भाव' / प्रा०२ पाद। सब्भावट्ठावणा स्त्री० (सद्धावस्थापना) काष्ठाकर्मादिषु, आव श्यकक्रियां कुर्वतः एकादिसाध्वादिस्थापनायाम्, अनु०। सम्भावदंसण न० (सद्भावदर्शन) सत्-जिनाभिहितं प्रवचनं तस्य भावः सद्भावस्तस्य दर्शनम्-उपलम्भः सद्भावदर्शनम्। सम्यक्त्वे, विशे०। सब्भावण त्रि० (सद्भावन) प्रतिव्रतं पञ्चभिरीसिमित्यादिभि र्भावनाभिः सहिते, स्था० 8 टा०३ उ०! सब्भावदावण न० (सद्भावदापन) शल्योद्धरणे, आलोचनायाम, ओघ०। सब्भावपडिसेह पुं० (सद्धावप्रतिषेध) नास्त्यात्मा नास्ति पुण्यं पाप चत्यादिरूपे मृषावादभेदे, दश०४ अ०। सम्भाविक त्रि० (सद्भाविक) पारमार्थिके, दश०१ अ० / सद्भावझे, वृ० / 1302 प्रक०। सभिंतरबाहिरिय न० (साभ्यन्तरबाह्य) सहाभ्यन्तरं बाह्य यस्य येन वा तत्साभ्यन्तरबाह्यम् / अभ्यन्तरेण बाह्येन च सह व माने, सर्वाभ्यन्तरान् मण्डलात् परतस्तावन्मण्डलेषु संक्रमण यावत्सर्यबाह्यमण्डलं, सर्वबाह्याच्च मण्डलादर्वाक् मण्डलेषु तावत् संक्रमण यावत्सर्वा भ्यन्तरमिति / मण्ड० / सहाभ्यन्तरेण विभागेन बाह्येन च वर्तमाने, भ० 15 श०। सभिक्खु पुं० (सद्भिक्षु) अन्त्यव्यञ्जनस्य / / 8 / 1 / 11 / इति अन्त्यव्यञ्जनस्य लुक् / सद्भिक्षुः / सभिक्खूः / उत्तमसाधौ, प्रा० / १पाद। सबभूकडक्ख पुं० (सद्भूकटाक्ष) चक्षुर्दोषभेदे, महा० 3 अ०। सब्भूय त्रि० (सद्भूत) विद्यमाने वस्तुनि, विशे० / अननृते, आव०४ अ० / आ० म०। उपा०स०। सतां प्रकारेण भूते, ज्ञा०१ श्रु०१३अ०। सब्भूयगुणकित्तण न० (सद्भूतगुणकीर्तन) संवेगात्सद्भूतानां विधमानानां च गुणादीनां कीर्तने, षो०१ विव० / विद्यमानग्रहणस्वभावे, पक्षा०४ विधo! सभण्डमत्तोवगरण न० (सभाण्डमात्रोपकरण) स्वकीयभाण्डमात्राभाजनरूपपरिच्छदे शय्यादि गृहीत्वेत्यर्थे, सह भाण्डमात्रया | यदुपकरणं तत्तथा इति व्युत्पत्तेः / भ०१३ २०६उ०। सभय पुं० (सभय) त्राणरहिते अरण्यप्रदेशे, सूत्र०२ श्रु०अ०। सभ(ह)री स्त्री० (शफरी) “फो म-हौ / / 8 / 1 / 236 / / स्वरात्पर स्यानादेः फरय भही भवतः / सभरी। सहरी। भत्स्ये,प्रा० १पाद। सभ(ह)ल त्रि० (सफल) "फो भ-हौ" ||8/1 / 236 / / इति फस्य भहौ / सभलं / सहलं / फलेन सहिते, प्रा०१पाद। सभा स्त्री० (सभा) सद्भयः स्थानं सभा / नि० चू० 12 अ० / आस्थायिकायाम, भ०६।०३१ उ०। महाजनस्थाने,प्रश्न०३ संव० द्वार / बहुजनोपवशनस्थाने, प्रश्न० 5 संव० द्वार / चातुर्वेद्यादिशालायाम्, आचा० 2 श्रु०१ चू० 2 अ०२ उ० / भरतादिकथाविनोदेन यत्र लोकस्तिष्ठति सा सभा। अनु० / जनोपवेशनस्थाने, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। सूत्र० / सभा नाम ग्रामनगरादीनां तद्वासिलोकाऽऽस्थायिकार्थमागन्तुकशयनार्थ च कुड्याद्याकृतिः क्रियते / आचा०१ श्रु०२ अ०२ उ० / सन्तो भजन्ते तामिति सभा / पुस्तक वाचनभूमी, बहुजनसमागमस्थाने च / अनु०॥ सभाव पुं० (स्वभाव) स्वो भावः स्वभावः / सहजभावे, नि० चू०१ उ० / स्वभावस्यापर्यनुयोज्यत्वाद्विशेषस्याविनिगमनात् उक्तम"अतोऽनि:क्लेट्यत्यम्बु, सन्निधौ दहतीति च। अबग्निसन्निधौ तत्स्वाभाव्यादित्युदिते तयोः।" द्वा०२३ द्वा०। “निर्माय एव भावेन मायावांस्तु भवेत्वचित्। पश्येत्स्थपरयोर्यत्र, सानुबन्धहितोदयः।।१।।" पं० सू०३ सूत्र। सभावइ पुं० (सभापति) प्रज्ञाज्ञैश्वर्यक्षमामाध्यस्थ्यसंप सभेश्वरे, रत्ना०८ परि० 1 ( 'वाद' शब्दे षष्ठे भागे विस्तरो गतः। सभावओ अव्य० (सभावतस्) पुद्गलाननां मूर्नत्ववत् स्वकीया दावादित्यर्थे , भ० 12 श०२ उ०। सभावसंपण्ण त्रि० (स्वभावसम्पन्न) स्वभावेन पाकं विना सम्पन्नः सिद्धः / स्वभावसिद्ध द्राक्षादौ, स्था० 4 ठा०२ उ०। सभावहीण न० (स्वभावहीन) यत्र स्वभावोऽन्यथा स्थितोऽन्यथाऽभिधीयते तत्स्स्द भावहीनम् / सूत्रदोषभेदे, अनु० / यस्य योऽयं चात्मीयः स्वभावस्तेन तच्छून्यमभिधीयते यथा स्थिरो वायुरिति। बृ० 1 उ०१ प्रक०। समिक्खुग न० (सभिक्षुक) पञ्चदशे उत्तराध्ययने,स०३६ सम०। सम पुं० (शम) रागादिनिग्रहे, विशे० / स० / भरमच्छन्नाऽग्रेरिवानुदयावस्थायाम, कर्म० 4 कर्म० / अनन्तानुबन्धिनां कषायाणामनुदये, धo (1) समस्य स्वरूपनिरूपणम्शमः-प्रशमः अनन्तानुबन्धिना कषायाणामनुदयः स च प्रकृत्या कषायपरिणतेः कटुफलावलोकनाद्वा भवति, यदाह- “पयईए कम्माण, नाऊण वा विवागमसुहति। अवर विन कुप्पइ, उवसमओ सव्वकालं पि।।१।।" इति। अन्ये तु क्रोधकण्डूविषयतृष्णोपशमः शम इत्याहुः / अधिगतसम्यग्दर्शनो हि साधूपासनावान् कथं क्रोधकण्डा विषयतृष्णया च तरलीक्रियेत। ननु क्रोधकण्डूविषयतृष्णोपशमश्वेच्छमस्तर्हि श्रे Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 367 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम णिककृष्णादीनां सापराधे निरपराधेऽपि च परे क्रोधवता विषयतृष्णातरलितमनसां च कथं शमः? तदभावे च कथं सम्यकत्वसम्भवः इति चेत? मैवम, लिगिनि सम्यक्त्वे सति लिङ्गै रवश्यं भाव्यमिति नाय नियमः,दृश्यते हि धूमरहितोऽप्ययस्कारगृहेषु वह्निः भस्मच्छन्नस्य वा / भवत्येव / यदाह-“लिङ्गे लिङ्गीभवत्येव, लिङ्गिन्येवेतरत्पुनः। नियमस्य विपर्यासे, सम्बन्धो लिङ्गलिङ्गिनोः / / 1 // " इति। संज्वलनकषायोदयाद्वा कृष्णादीनां क्रोधकण्डु विषयतृष्णे। संज्वलना अपि के चन कषायास्तीव्रतया अनन्तानुबन्धिसदृशविपाका इति सर्वमवदातम्।।१।। ध०२ अधि०। चं० प्र०। (2) अष्टकेन शमस्य गुणकथनम्ज्ञानी हि ज्ञानात् क्रोधादिभ्य उपशाम्यति, अतः शमाष्टकं विस्तार्यत, तत्र आत्मनः क्षयोपशमाद्याः परिणतयः स्वभावपरिणामेन परिणमन्ति न तप्तादिपरिणतौ स शमः, नामशमस्थापनाशमौ सुगमौ, द्रव्यशमः परिणत्यसमाधौ प्रवृत्तिसंकोचो द्रव्यशमः आगमतः, शमस्वरूपपरिज्ञानी अनुपयुक्तो नोआगमतः मायया लब्धिसियादिदेवगत्याद्यर्थम उपकारापकारविपाकक्षमादिक्रोधोपशमत्वम् इत्यपि द्रव्यशमः / भावतः उपशमस्वरूपोपयुक्त आगमतः, नोआगमतो मिथ्यात्वमपहाय यथार्थभासनपूर्वकचारित्रमोहोदयाभावात् क्षमादिगुणपरिणतिः--शमः, सोऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदाद् द्विविधः। लौकिकं वेदान्तवादिनाम्, लोकोत्तरं जैनप्रवचनानुसारिशुद्धस्वरूपरमणैकत्वम्, आद्यनयचतुष्टये भावक्षमादिस्वरूपगुणपरिणमनहेतुः मनोवाकायसंकोच-विपाक चिन्तनतत्त्वज्ञानभावनादिः, अन्त्यनयत्रये क्षयोपशम क्षमादिः, शब्दनयेन क्षपक श्रेणिमध्यवर्तिसूक्ष्मकषायवतः, समभिरूढनयेन क्रोधादिशमः क्षीणमोहादिषु एवंभूतनयेन कषायशमः / अत्र भावना--चिन्तास्मृतिविपाकभयादिकारणतः। क्षयोपशमभावादिसाधनतः क्षायिकशमः साध्यः, एवं शमपरिणतिःकरणीया आत्मनो मूल स्वभावत्वात्, मूलधर्मपरिणमनं हि तेनैव कारणेन शुद्धात्मपदप्रवृत्तिः सङ्गत्यागात्मध्यानसंवरीचञ्चरीकत्वं करणीयम्विकल्पविषयोत्तीर्णः,स्वभावालम्बनः सदा। ज्ञानस्य परिपाको यः,सशमः परिकीर्तितः||१|| विकल्प इति-विकल्पः-चित्तविभ्रमः, तस्य विषयो विस्तारः,तेन उत्तीर्णो -निवृतः आत्मस्वादनतो वर्णादिषु निवृत्तविषयः स्वभावः अनन्तगुणपर्यायसम्यगज्ञानदर्शनचारित्रस्वरूपः तस्य आलम्बनः स्वभावालम्बन इत्यनेन आत्मस्वभावदर्शी, आत्मस्वभावज्ञानी,आत्मस्वभावरमणी, आत्मस्वभावविश्रामी, आत्मरवभावाऽऽस्वादी, शुद्धतत्त्वपरिणतः, ज्ञानस्य आत्मोपयोगलक्षणस्य यः परिपाकः प्रौढावसरः स शमः--शमभावलक्षणः परिकीर्तितः। अत्र योगस्य पञ्चविधत्वं प्रोक्तं हरिभद्रपूज्यैः अध्यात्मयोगः 1 भावनायोगः 2 ध्यानयोगः 2 समतायोगः 4 वृत्तिक्षययोगः 5 / तत्र अनादिपरभावम् औयिकभावरमणीयताधर्मत्वेन निर्धार्य तत्पुष्टिहेतुक्रियां कुर्वन् / अधर्म धर्मवृत्त्या इच्छन प्रवृत्तः स एव निरामयः निरसङ्गः शुद्धात्मभावनाभाविन्तातः करणस्य स्वभाव एव धर्म इति योगवृत्त्या अध्यात्मयोगः 1 / सर्वपरभावान् अनित्यादिभावनया विबुध्य अनुभवभावनया स्वरूपाभिमुखयोगवृत्तिमध्यस्थ आत्मानं मोक्षोपाये युजन् भावनायोगः / स एव पिण्डस्थपदस्थरूपातीतध्यानपारणत-रूपंकत्वी ध्यानयोगी भण्यते 3 / ध्यानबलेन भस्मीभूतमोहकर्मा तप्तत्वादिपरिणतिरहितः समतायोगी उक्तः 4 / तथा योगाधी-नकर्मो दयाधीना अनादिवृत्तिः जीवस्य तस्याः क्षयः-अभावः स्वरूपवृत्तिः वृत्तिक्षययोगी उच्यते 5 / एवं पञ्चयोगेषु समतायोगी साधने परिष्ठ इति ज्ञानस्य पूर्णावस्था शमः। अनिच्छन् कर्मवैषम्यं, ब्रह्मांशेन शमं जगत्। आत्माऽभेदेन यः पश्ये-दसौ मोक्षङ्गमी शमी।।। अनिच्छन् कर्मेति-कर्मवैषम्यम् ऊनाधिकत्वम् अनिच्छन् गतिजातिवर्णसंस्थानब्राह्मणक्षत्रियादिवैषम्यं ज्ञानवीर्यक्षयोपशमकार्यवैषम्यम अनिच्छन् उदयतः आवरणतः क्षयोपशमभेदे सत्यपि ब्रह्मांशेन चेतनालक्षाणेन,अथवा-द्रव्यास्तिकाऽस्तित्ववस्तुत्वसत्त्वाऽगुरुलघुत्वप्रमेयत्वचेतनत्वाऽमूर्त्तत्वाऽसंख्येयप्रदेशत्वपरिणत्या जगत्-चराचरम् आत्माभेदेन-आत्मतुल्यवृत्त्या; समानत्वेन यः पश्येत् सर्वजीवेषु समत्वं कृत्वा अरक्तद्विष्टत्वेन वर्तमानः असौ योगी मोक्षगामी सकलकर्मक्षयलक्षणावस्थां गच्छतीत्येवंशीलो भवति। यो हि सर्वजीवेषु जीवत्वतुल्यवृत्त्या रागद्वेषपरिणतिभपहाय आत्मस्वभावानुषगी असौ योगी मोक्षङ्गमी भवति। आरुरुक्षुर्मुनिों गं, श्रयन् बाह्यक्रियामपि। योगारूढः शमादेव, शुद्धयत्यन्तर्गतक्रियः।।३।। आरुरुक्षुरिति-आरुरुक्षुः-आरोहणेच्छु: मुनिः-भावसाधकः, प्रीतिभक्तिवचनरूपशुभसंकल्पेन अशुभसंकल्पान् वारयन् अराधको भवति, सिद्धयोगी तु रागद्वेषाभावेन उपशमीकृतार्थः, बाह्या क्रियांबाह्याचारप्रतिपत्ति श्रयन् अपि-अङ्गीकुर्वन् अपि शमादेवशुद्ध्यतिशमात्क्रोधाभावात् शुद्ध्यति-निर्मलीभवति। कथंभूतो मुनिः?योगारूढः योगे-- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रे आत्मीयसाधनरत्नत्रयीलक्षणे आरूढः, पुनः कथंभूतो मुनिः? अन्तर्गतक्रियः अन्तर्गता वीर्यगुणप्रवृत्तिरूपा क्रिया यस्य सः अन्तर्गतक्रियाः एवमभ्यन्तरक्रियावान रत्नत्रयपरिणतःशमात्क्षमाया मार्दवार्जवमुक्तिपरिणतिपरिणतो निर्मलो भवति / ध्यानवृष्टेर्दयानद्याः, शमपूरे प्रसर्पति। विकारतीरवृक्षाणां, मूलादुन्मूलनं भवेत् / / 4 / / ध्यानवृष्टरिति-ध्यानवृष्टः ध्यान-धर्मशुक्लाख्यम्, अन्तमुहूर्त यावत् चित्तस्य एकवावस्थानं ध्यानम्। उक्तं च--"अंतोमुत्तमित्तं, चित्तावत्थाणमेगवत्थुम्मि। छउमत्थाणझाणं, जोगनिरोहोजिणाणतु"॥१॥अत्र चनिमित्तरूपे Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 398 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम देवगुरुस्वरूपे अद्भुततादियुक्तचित्तैकत्वे धर्मध्यानमाज्ञाऽपाय- अचेतनपुद्रलस्कन्धज मूर्त च, तत् शमतारसेन सहजात्यन्तिकनिरुपमविपाकस्थानाख्यं, तत्र आज्ञाया निर्धारः सम्यग्दर्शनम् आज्ञाया चरितशमभावस्वरूपेण कथमुपमीयेत,दुर्लभो हिशमतारसः विश्वविश्वअनन्तत्वपूर्वापराविरोधित्वादिस्वरूपे चमत्कारपूर्वकचित्तविश्रामः शुभाशुभभावे परत्वेन अरक्तद्विष्टतया वृत्तिः शुद्धात्मानुभवः / उक्तं चआज्ञाविचयधर्मध्यानम् एवमपायादिकेष्वपि / निर्धारभासनपूर्वसानु "वंदिजमाणा न समुल्लसंति, हीलिजमाणा न समुज्जलंति। दंतेण चित्तेन भवचित्तविश्रान्तिः ध्यानम्, एवं शुक्लेऽपि ईदृग्ध्यानवृष्टः मेधात् दया चलंति धीरा, मुणी समुग्धाइयरागदोसा / / 1 / / बालाभिरामेसु दुहावहेसु, स्वपरभावप्राणाधातनरूपा भावदया, तबुद्धितल्लक्षणहेतुत्वात् स्वपर न तं सुहं कामगुणेसु रायं / विरतकामाण तवोधणाणं, जंभिक्खुणो द्रव्यप्राणरक्षणानिर्विषयत्वेन द्रव्यदयाऽपि दयात्वे न आरोपिता, सीलगुणे रयाणं // 2 // " इति / शमतास्वादिनां नरेशभोगा रोगाः, श्रीविशेषावश्यके गणधरवादाधिकारे इति। अतो द्रव्यदया तुकारणरूपा, चिन्तामणिसमूहाः कर्करव्यूहाः, वृन्दारका दारका इव भासन्ते अतः भावदया तुदया-धर्मः एवंविधाया दयानद्याः शमपूरे सकलकषायपरि संयोगजा रतिर्दुःखं, शमतैव महानन्द्रः / / णतिशान्तिः शमःरागद्वेषाभावः वचनधर्मरूपः-शमः तस्य पूरः, तस्मिन् शमसूक्तसुधासिक्तं, येषां नक्तंदिनं मनः। प्रसर्पति-वृद्धिमति सति विकाराः-कामक्रोधादयः अशुद्धात्म कदापि ते न दह्यन्ते, रागोरगविषोर्मिभिः // 7 // परिणामाः त एव तीरवृक्षाः तेषां मूलात् उन्मूलनं भवेत् उच्छेदनं भवेत्। अभाव इत्यनेन ध्यानयोगतो दयानदीपूरः प्रवर्द्धते, बर्द्धमानपूरश्च शमसूक्त इति-येषां महात्मनां मनः-चित्तं शमः कषायाभावः विकारवृक्षाणामुच्छेदनं करोत्येव। अयं हि आत्माविषयकषायविकार चारित्रपरिणामः तस्य सूक्तानि सुभाषितानि तान्येव सुधा-अमृतं तेन विप्लुतः स्वगुणावरककर्मोदयतः परिभ्रमति / स एव स्वरूपोपादानतः सिक्तम्- अभिषिक्तं नक्तदिनम्-अहोरात्रं ते रागो-रगविषोर्मिभिः तत्त्वैकत्वतया प्रवर्द्धमानशमपूरो विकारान् मूलात् उन्मूलयति। रागः-अभिष्वङ्गलक्षणः स एव उरगः-सर्पः तस्य विषस्य ऊर्मयः तैः ज्ञानध्यानतपःशील-सम्यक्त्वसहितोऽप्यहो। शमता सिक्ता न दह्यन्ते, जगद्जीवा रागाहिदष्टाः,विषोर्मिघूर्मिताः, तंनाऽऽप्नोति गुणं साधु-र्यमाप्नोति शमान्वितः॥५॥ भ्रमन्ति इष्टसंयोगानिष्टवियोगचिन्तया, विकल्पयन्ति बहुविधान् ज्ञानध्यानेति-ज्ञान-तत्त्वावबोधः, ध्यानं-परिणामस्थिरतारूपम्, अग्रशौचदिकल्पनाकल्लोलान्, संगृह्णन्ति अनेकान् जगदुच्छिष्टान् तपः-इच्छानिरोधः,शील ब्रह्मचर्य सम्यक्त्वंतत्त्वश्रद्धानम्, पदानाम् पुद्गलस्कन्धान्, याचयन्ति अनेकान् धनार्जनोपायान्, प्रविशन्ति कूपेषु, उत्क्र मता द्वन्द्वसमासात्, इत्यादिगुणोपेतः साधुः साधयति विशन्ति यानपात्रेषु, द्रव्याद्यहितं हितवत्मन्यमानाः,जगदुपकारितीर्थरत्नत्रयकरणेन मोक्षं स साधुः तं निरावरणगुणं केवलज्ञानादिगुणं नाप्नोति इरवाक्यश्रवणप्राप्तशमताधनाः स्वरूपानन्दभोगिनः स्वभावभासनस्वन प्राप्नोति यं गुणं शमान्यितः-शमताचरित्रमय आप्नोतिप्राप्नोति; भावरमणस्वभावानुभवनेन सदा असङ्ग मग्ना विचरन्ति आत्मगुणालभते इत्यर्थः / अत्र ज्ञानादयो गुणा निरावरणाऽमलकेवलज्ञानस्य नन्दनवने, अतः सर्वपरभावैकत्वं विहाय रागद्वेषविभावमपहाय परंपराकारणं शमः कषायाभावः,यथा-ख्यातसंयमः केवलज्ञानस्या- शमतावत्वेन भवनीयम्। सन्नकारणम् अस्वकरणसमीकरणकिट्टीकरणवीर्येण सूक्ष्मलोभं खण्डशः गजर्जज्ञानगजोत्तुङ्ग-रङ्गद्ध्यानतुरङ्गमाः। कृत्या क्षयं नीते सति निर्विकल्पसमाधौ अभेदरत्नत्रयीपरिणतिः जयन्ति मुनिराजस्य, शमसाम्राज्यसम्पदः ||8|| क्षीणमोहावस्थायां यथाख्यातचारित्री परमशभान्वितः ज्ञानावरण गर्जज्ज्ञानमिति-मुनिराजस्य शमसाम्राज्यसंपदोजयन्ति। कथंभूताः दर्शनावरणान्तरायक्षयं नयति, लभते च सकलामलके वलज्ञानं संपदः? गर्जज्ज्ञानगतोत्तुङ्गरङ्गद्ध्यानतुरङ्गमाः गर्जत् स्फुरद् ज्ञानकेवलदर्शनं परमदानादिधीः, अत एव क्षायौपशमिकज्ञानी यं न प्राप्नोति स्वपरावभासनरूपं तद्रूपा गजाः तैः उत्तुङ्गा-उन्नता रङ्गत्नृ यत् ध्यानं तं परमशमान्वितः प्राप्नोति, अत अव धीरा दर्शनज्ञाननिपुणा तद्रूपास्तुरङ्गमाअश्वा यासु ताः, इत्यनेन भासनगजध्यानाश्वशोभिता अभ्यस्यन्ति पूर्वाभ्यासम्, आश्रयन्ति गुरुकुलबासं रमन्ते निर्जने वने राज्यसंपदो निर्ग्रन्थस्वरूपभूपस्य जयन्ति, अतः शमतास्पदमुनीनां तेन आत्मविशुद्ध्यर्थी शमपूरणे उद्यतते॥५॥ स्वयम्भूरमणस्पर्धि वर्द्धिष्णुशमतारसः। महाराजत्वं सदैवजयति, अतः शमाभ्यासवता भवितव्यम् इत्युपदेशः। मुनिर्येनोपमीयेत, कोऽपिनासौ चराचरे॥६|| अष्ट० 6 अष्ट० "उपभो-गोपायपरो, वाञ्छति यः शमयितुं स्वयम्भू इति-स्वयम्भूरमणः-अर्द्धरज्जुप्रमाणः प्रान्तसमुद्रः, तस्य विषयमृगतृष्णाम्।धावत्याक्रमितुमसौ, पुरोऽपराह्ने निजच्छायाम्॥१॥" स्पर्डी स्पर्धाकारी, वर्द्धिष्णु:-वर्द्धमानः शमतारसः, शमता आचा०१ श्रु०२ अ०४ उ०। रागद्वेषाभावःतस्या रसो यस्य स एवंविधो मुनिः, त्रिकालाविषयी- *श्रम पुं० खेदे, विशे० / रा० / अध्वादिखेदे, विपा०१ श्रु० 4 अ01 अतीतकालरमणीयविषयस्मरणाभाववान्, वर्तमानेन्द्रियगोचरप्राप्त- *सम पुं० रागद्वेषरहिते, आतु० / दश० / विशे० / समोविषयरमणाभाववान्, अतीतकालमनोज्ञविषयेच्छाऽभाववान् मुनिः येन रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति / आव०६ अ०। उपमानेन उपमीयेत चराचरे विश्वे असौ कोऽपिन जगति, यतस्तत्सर्वम्, | मध्यस्थे, निन्दायां पूजायां च तुल्ये, स्था० 8 ठा० 3 उ० / Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 399 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम अरक्तद्विष्टत्या मध्यस्थे, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। सर्वत्र मैत्रीभावतुल्ये, अनु० / प्रेक्षणीयतुल्यतृणमणिमुक्तारूपे, प्रश्न० 5 संव० द्वार / अष्टगीचन्द्ररादृशे,जं० 2 वक्ष०। समभावोपेते, सूत्र०१ 202 102 उ०। आ० चू० / विषमोन्नतिवर्जे, जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। औ० / आचा० / सर्वत्र तुल्यरूपेण वर्तन, विशे० / सदृशे, नं०। उत्त० / सूत्र० / तुल्य', पञ्चा० 10 विव०। विशे०। सूत्र० / स्था०। ज्ञा० / औ०। (3) नैरयिकादीनां समाहारसमशरीरादिविषये पृच्छानेरइया णं भन्ते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सव्वे समु-- स्सासनीसासा? गोयमा ! नोइणढे समढे / से केणऽढेणं भंते ! एवं वुचइ नेरइया नो सव्वे समाहारा नोसव्वे समसरीरा नो। सवे समुस्सासनिस्सासा? गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा महासरीरा य,अप्पसरीरा य / तत्थ णं जे ते महासरीरा ते | बहुत-राए पोग्गले आहारेन्ति बहुतराए पोग्गले परिणामेंति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणामें ति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति। तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले आहारेंति अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति अप्पतराए पोग्गले उस्ससंति अप्पतराए पोग्गले नीससंति, आहच्च आहारेंति आहच्च परिणामेंति आहच्च उस्ससंति आहच्च नीससंति, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुचइ-नेरइया नो सव्वे समाहारा 0 जाव नो सव्वे समुस्सासनिस्सासा। नेरइया णं भंते! सव्वे समकम्मा? गोयमा ! णो इणढे समढे / से के णटेणं? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहापुव्वोववन्नगा य, पच्छोववन्नगा या तत्थ णं जे ते पुव्योववन्नगा ते णं अप्पकम्मतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं महाकम्मवरागा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं० नेरइया णं भंते ! सव्वे समवन्ना? गोयमा! नो इणढे समढे, से केणटेणं, तहेव | गोयमा ! जे ते पुव्वोववन्नगा ते णं विसुद्धवन्नतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोपवनगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा तहेव से तेणटेणं एवं० / नेरइया णं भंते ! सव्वे समलेस्सा? गोयमा ! नो इणढे समढे, से केणतुणं जाव नो सव्वे समलेस्सा? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुव्वोववन्नगा य, पच्छोववन्नगा य। तत्थ णं जे ते पुवोववन्नगा ते णं विसुद्धलेस्सतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा, सेतेणटेणं० / नेरइया णं भंते ! सव्वे समवेयणा? गोयमा ! नो इणढे समढे, से केणढेणं? गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- | सन्निभूया य, असन्निभूया या तत्थ णं जे ते सन्निभूया ते णं महावेयणा,तत्थ णं जे ते असन्निभूया तेणं अप्पवेयणतरागा, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ नेरइया नो सव्वे समवेयणा० जाव निस्साया। नेरइया सव्ये समकिरिया? गोयमा ! णो इणढे समढे, से केणद्वेणं? गोयमा! नेरइया तिविहा पण्णत्ता। तं जहा सम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मादिट्ठी तेसि णं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहाआरंभिया१परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अप्पच्च०४, तत्थ णं जे ते मिच्छादिट्ठी तेसिणं पंच किरियाओ कजंति-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया, एवं सम्मामिच्छादिट्ठीणं पि, से तेणटेणं गोयमा ! 0 नेरइया णं भंते ! सव्वे समाउया सव्वे समोववन्नगा, गोयमा ! नो इणढे समढे, से केणटेणं? गोयमा! नेरइया चउव्विहा पन्नत्ता, तं जहा- अत्थेगइया समाउया समोववन्नगा 1 अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगार अत्थेगइया विसमाउया समोववन्नगा 3 अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा 4 से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं 0 / असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा, जहा नेरझ्या, तहा भाणियब्वा, नवरं कम्मवन्नलेस्साओ परिवण्णेयवाओ, पुव्योववन्नगा महाकम्मतरागा अविसुद्धवन्नतरागा अविसुद्धलेसतरागा, पच्छोववन्नगा पसत्था, सेसं तहेव, एवं० जाव थणियकुमाराणं / पुढविक्काइयाणं आहारकम्मवन्नलेस्सा जहा नेरइयाणं / पुढविक्काइया णं भंते ! सव्वे समवेयणा? हंता समवेयणा, से केणतुणं भंते ! समवेयणा? गोयमा! पुढविक्काइया सव्वे असन्नी असन्नीभूया अणिदाए वेयणं वेदें ति से तेणट्टेणं०। पुढविक्काइया णं मंते ! सव्वे समकिरिया? हंता? समकिरिया, से केणटेणं? गोयमा पुढविक्काइया सव्वे माई मिच्छा दिट्ठी, ताणं णिययाओ पंच किरियाओ कजंति, तं जहा–आरंभिया० जाव मिच्छादसणवत्तिया, से तेणटेणं समाउया समोववन्नगा, जहा नेरइया तहा भाणियव्वा, जहा पुढविक्काइया तहा० जाव चउरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरझ्या नाणत्तं कि रियासु, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सटवे समकिरिया? गोयमा ! णो ऽतिणढे समढे / से केणट्टेणं, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, तं जहा--सम्मादिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी, तत्थ णं जे ते सम्मादिट्ठी ते दुविहा पन्नत्ता,तं जहा-अस्संजया य, संजयासंजया य। तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिणं तिन्नि Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 400 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम किरियाओ कजंति, तं जहा-आरंभिया परिग्गहिया माया- / भवधारणीयशरीरापेक्षया, उत्तरवैक्रियापेक्षया तु जघन्यमङ्गुलमवत्तिया, असंजयाणं चत्तारि, मिच्छादिट्ठीणं पंच, सम्मामि- संख्यातभागमात्रत्वम्, इतरतु धनुस्सहसमानत्वमिति,एतेन च कि च्छादिट्ठीणं पंच, मणुस्सा जहा नेरइया नाणत्तं जे महासरीरा समशरीरा इत्यत्र प्रश्न उत्तरमुक्तम्, शरीरविषमताऽभिधाने सत्याहाते बहुतराए पोग्गले आहारेंति आहच्च आहारेंति, जे अप्पसरीरा रोच्छ्रासयोर्वेषम्यं सुखप्रतिपाद्यं भवतीति शरीरप्रश्नर य द्वितीयअप्पतराए आहारेंति अभिक्खणं आहारेंति सेसं जहा नेरइयाणं रस्थानोक्तस्यापि प्रथमं निर्वचनमुक्तम् / अथाहारोच्छासजाव वेयणा / मणुस्सा णं भंते ! सव्वे समकिरिया? गोयमा! प्रश्नयोर्निर्वचनमाह- 'तत्थ ण' मित्यादि ये यतो महाशरीरास्ते णो ऽतिणढे समढे, से केणट्टेणं? गोयमा ! मणुस्सा तिविहा तदपेक्षया बहुतरान पुद्गलान् आहारयन्ति, महाशरीरत्वादेव,दृश्यते पन्नत्ता,तं जहा-सम्मट्टिी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी। हि लोके बृहच्छरीरो बह्वाशी स्वल्प-शरीरश्वाल्पभोजी, हस्तिशतत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-संजया, शकवत्, बाहुल्यापेक्षं चेदमुच्यते अन्यथा बृहच्छरीरोऽपि कश्चिदल्पअस्संजया, संजयासंजया य / तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा मश्नाति अल्पशरीरोऽपि कश्चिद्भरि भुङ्क्ते, तथाविधमनुष्यवत्, न पण्णत्ता, तं जहा-सरागसंजया य, वीयरागसंजया य / तत्थ णं पुनरेवमिह, बाहुल्यपक्षस्यैवाश्रयणात्,ते च नारका उपपातादिजे ते वीयरागसंजया ते णं अकिरिया, तत्थ णं जे ते सराग- सद्वेद्यानुभवादन्यत्रासद्वेद्योदयवर्तित्वेनैकान्तेन यथा महाशरीरा संजया ते दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-पमत्तसंजया य, अप्पमत्त-- दुःखितास्तीवाहाराभिलाषाश्च भवन्तीति / 'बहुतराए पोग्गले संजया य / तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया तेसि णं एगा माया- परिणामेति' त्ति-आहारपुद्गलानुसारित्वात्परिणामस्य बहुतरानिवत्तिया किरिया कज्जइ, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसि णं दो त्युक्तं, परिणामश्चापृष्टोऽप्याहकार्यमिति कृत्वोक्तः। तथा 'बहुतराए किरियाओ कजंति, तं जहा-आरंभिया य, मायावत्तिया य / पोग्गले उस्ससंति' त्ति-उच्चासतया गृह्णन्ति, 'निस्ससंति' त्तितत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिणं आइल्लाओ तिन्नि किरियाओ निःश्वासतया विमुञ्चन्ति, महाशरीरत्वादेव,दृश्यते हि बृहच्छरीरस्तकअंति, तं जहा-आरंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 / जातीयेतरापेक्षया बहूच्छासनिःश्वास इति, दुःखितोऽपि तथैव अस्संजयाणं चत्तारि किरियाओ कजंति-आरंभिया 1 दुःखिताश्व नारका इति बहुतरांस्तानुच्छसन्तीति। तथाऽऽहारस्यैव परिग्गहिया 3 मायावत्तिय 3 अप्पच्च० 4, मिच्छादिट्ठीणं कालकृतं वैषम्यमाह-'अभिक्खणं आहारेंति' ति-अभीक्ष्णं पंचआरंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अप्पच्च० 4, पौनःपुन्येन यो यतोमहा शरीरः स तदपेक्षया शीघ्रशीघ्र-तराहारग्रहण मिच्छादसण० 5, सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच किरियाओ 5 / इत्यर्थः, 'अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति' एते हि वाणमंतरजोतिसवेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं वेयणाए महाशरीरत्वेन दुःखित-तरत्वात् अभीक्ष्णम्-अनवरतमुच्छ्रासादि नाणत्तंमायिमिच्छादिट्ठी उववन्नगा य अप्पवेदणतरा, कुर्वन्तीति / तथा '(तत्थ णं) जे ते' इत्यादि ये ते, इह 'ये' अमायिसम्मट्ठिी उववन्नगा य,महावेयणतरागा भाणियव्वा, इत्येतावतैवार्थसिद्धौ यत्ते इत्युच्यते तद्भाषामात्रमेवेति, 'अप्पसरीरा जोतिसवेमाणिया। स्नलेस्सा णं भंते ! नेरइया सव्वे समाहा- अप्पतराए पोग्गले आहारेंति'त्ति-ये यतोऽल्पशरीरास्ते तदाहरणीयरगा? ओहियाणं सलेस्साणं सुक्कलेस्साणं, एएसिणं तिण्हं एक्को पुद्गलापत्तयाऽल्पतरान पुद्गलानाहारयन्ति, अल्पशरीर-त्वादेव गमो, कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं पि एक्को गमो नवरं वेदणाए 'आहच आहारेंति' त्ति-कदाचिदाहारयन्ति कदाचिन्ना-हारयन्ति, मायिमिच्छा-दिट्ठी उववन्नगाय अमायिसम्महिट्ठी। उववन्नगा महाशरीराहारग्रहणान्तरालापेक्षया बहुतरकालान्त-रालतयेत्यर्थः, भाणियव्वा / मणुस्सा किरियासु सरागवीयरागपमत्तापमत्ताणं 'आहच्च ऊससंति नीससंति' त्ति-एते ह्यल्पशरीर-त्वनैव भाणियव्वा / काउलेसाए वि एसेव गमो, नवरं नेरइए जहा ओहिए महाशरीरापेक्षयाऽल्पतरदुःखत्वाद् आहत्य कदाचित् सान्तरमित्यर्थः दण्डए तहा भाणियव्वा, तेउलेस्सा पम्हलेस्सा जस्स अस्थि उच्छासादि कुर्वन्ति, यच्च नारकाः सन्ततमेवोच्छा-सादि कुर्वन्तीति जहा ओहिओ दण्डओ तहा माणियव्वा / नवरं मणुस्सा सरागा प्रागुक्तं तन्महाशरीरापेक्षयेत्यवगन्तव्यमिति। अथवा अपर्याप्तकावीयरागा य न भाणियव्वा / गाहा-- “दुक्खाउए उदिने, आहारे लेऽल्पशरीराः सन्तो लोमाऽऽहारापेक्षया नाऽऽहारयन्ति अपर्याप्तककम्मवन्नलेस्सा य। समवेयण समकिरिया, समाउए चेव बोद्धव्वा त्वेन च नोच्छुसन्ति, अन्यदा त्वाहारयन्ति उच्छ्सन्ति चेत्यत ||1||" (सू०-२१) आहत्याहारयन्ति आहत्योच्छुसन्ति इत्युक्तम्, 'से तेणट्टेणं गोयमा ! 'नेरइए' इत्यादि व्यक्तं, नवरं 'महासरीराय अप्पसरीराय' इत्यादि, एवं वुच्चइ-नेरइया सव्वे नो समाहारे' त्यादि निगमनमिति / इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिकं, तत्रजघन्यम् अल्पत्वम-हुलासंख्येय- समकर्मसूत्रे- 'पुव्वोववन्नगा य पच्छोववन्नगा य' त्ति-पूर्वोत्पन्नाः भागमात्रत्वम्, उत्कृष्ट तु महत्त्वं पञ्चधनुःशतमानत्वम्, एतच | प्रथमतरमुत्पन्नास्तदन्येतुपश्चादुत्पन्नाः, तत्रपूर्वी-त्पन्नानामायुषस्तदन्य Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 401 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम कर्मणां च बहु तरवेदनादल्पकर्मत्वम्, पश्चादुत्पन्नानां च नारका - णामायुष्कादीनामल्पतराणां वेदितत्वात् गहाकर्मत्वम्, एतच्च सूत्र समानस्थितिका ये नारकास्तानङ्गीकृत्य प्रणीतम्, अन्यथा हि रत्नप्रभायामुत्कृष्ट स्थितेरिकस्य बहून्यायुषि क्षयमुपगते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यामेव रत्नप्रभायां दशवर्षसहस्र-स्थितिनरिकोऽन्यः कश्चिदु-पन्न इति कृत्वा प्रागुत्पन्नं पल्योपमा-युष्क नारकमपेक्ष्य विवक्तु शवयं महाकम्र्मेति? एवं वर्णसूत्रे पूर्वोत्पन्नस्याल्पं कर्म ततस्तस्य विशुद्धो वर्णः, पश्चादुत्पन्नस्य च बहुकर्मत्वादविशुद्धतरो वर्ण इति। एवं लेश्यासूत्रेऽपि,इह च लेश्याशब्देन भावलेश्या ग्राह्या, बाह्यद्रव्यलेश्या तु वर्णद्वारेणैवोको-ति / 'समवेयण' ति-समवेदनाः-समानपीडाः 'रान्निभूय' त्ति-सज्ज्ञासम्यग्दर्शनं तद्वन्तः संज्ञिनःसचिनो भूताःसंज्ञित्वं गतासंज्ञिभूताः। अथवा असंज्ञिनः संज्ञिनो भूताः संज्ञिभूताः, च्चिप्रत्यययोगात्, मिथ्यादर्शनमपहाय सम्यग्दर्शनजन्मना समुत्पन्ना इति यावत्. तेषां च पूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो मह-दुःखसङ्कटम, इदमकस्मादस्नाकमापतितं न कृतो भगवदर्हत्प्रणीतः सकलदुःखक्षयकरा विषयविषमविषपरिभोगविप्रलब्धचेतोभिर्द्धर्म इत्यतो महद् दुखं मानसमुपजायते अतो महावेदनास्ते, असंज्ञिभूतास्तु मिथ्यादृष्टयः, ते तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानन्तोऽनुपतप्ता-मानसा अल्पवेदनाः स्युरित्यके, अन्य त्वाः -संज्ञिनः-संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूतानारकत्वं गताः सज्ञिभूताः, ते महावेदनाः तीव्राशुभाध्य-वसायेनाशुभतरकर्मबन्धनेन महानरकेषूत्पादात्, असज्ञिभूतास्त्वनुभूतपूर्वासज्ज्ञिाभवाः, ते चासिज्ञत्वादेवात्यन्ताशुभाध्यवसायाभावात् रत्नप्रभायामनतितीव्रवेदननरकेपुत्पादादल्पवेदनाः, अथवा-- 'संज्ञिभूताः' पर्याप्तकीभूताः, असज्ञिनस्तु अपर्याप्तकाः, ते च क्रमेण महावेदना इतरे च भवन्तीति प्रतीयत एवेति / 'समकिरिय' ति-समाः तुल्याः क्रियाःकर्मनिबन्धनभूता आरम्भिक्यादिका येषां ते समक्रियाः, 'आरंभिय' त्ति-आरम्भः-पृथिव्यायुपमर्दः स प्रयोजन-कारणं यस्याः साऽऽरम्भिकी 1, 'परिगहिर' ति-परिग्रहोधर्मोपकरण-वर्जवस्तुस्वीकारोधर्मोपकरणमूर्छा च स प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी 2, 'मायावत्तिय' त्ति-माया-अनार्जवम् उपलक्षणत्वात्क्रोधादिरपि च सा प्रत्ययः--करणं यस्याः सा मायाप्रत्यया 3, 'अप्पचक्खाणकिरिय' त्ति-अप्रत्याख्यानेननिवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धादिकरणम / अप्रत्याख्यानक्रियेति 4, 'पंच किरियाओ कजंति' त्ति-क्रियन्ते, कर्मकर्तरि प्रयोगोऽयं तेन भवन्तीत्यर्थः, 'मिच्छादसणवत्तिय' त्ति-मिथ्यादर्शनं प्रत्ययोहेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया / ननु मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा: कर्मबन्धहेतव इति प्रसिद्धिः, इह तु आरम्भादयस्तेऽभिहिता इति कथ न विरोधः? उच्यते-आरम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगपरिग्रहो योगानां तद्रूपत्वात्, शेषपदैस्तु शेषबन्धहेतुपरिग्रहः प्रतीयत एवेति, तत्र सम्यगदृष्टीनां चतन एव. मिथ्यात्वाभावात् शेषाणां तु पश्चापि, सम्यग्मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वेनैवेह विवक्षितत्वादिति। 'सव्वे समाउया' इत्यादि प्रश्नस्य निर्वचनचतुर्भझ्या भावना क्रियते, निबद्धदशवर्षसहसप्रमाणायुग युगपच्चोत्पन्ना इति प्रथमभङ्गः 1. तेष्वेव दशवर्ष.. सहसस्थितिषु नरकेष्वेके प्रथमतरमुत्पन्ना अपरे तु पश्चादिति द्वितीयः 2. अन्यविषममायुर्निबद्ध के श्चिद्दशवर्ष-सहस्रस्थितिष कैश्चिच्च पञ्चदशवर्षसहसस्थितिषु उत्पत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः 3, कचित्सा. गरोपमस्थितयः केचित्तु दशवर्षसहस्रस्थितय इत्येवं विषमायुषो विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः 4, इह संग्रहगाथा-"आहाराईसु समा, कम्गे वन्न तहेव लेसाए / वियणाए किरियाए, आउयउवव त्ति चउभंगी / / 1 / / " 'असुरकुमाराणं भंते !' इत्यादिना असुरकुमारप्रकरणमाहारादिपदनवकोपेतं सूचितं तच्च नारक-प्रकरणवन्नेयम्, एतदेवाह- 'जहा नेरइया' इत्यादि, तत्राहारकसूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावनाविशेषेण लिख्यते-- असुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयशरीरापेक्षया जघन्यतोऽहुलासंक्येयभागमानत्वं, महाशरीरत्वं तूल्कर्षतः सप्तहस्तप्रमाणत्वम, उत्तरवैक्रियापेक्षया त्वल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽङलसंख्येयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तत्कर्षतो योजनलक्षमानमिति, तत्रैते महाशरीराबहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापेक्षया, देवाना ह्यसौ स्यात् प्रधानश्च, प्रधानापेक्षया च शास्त्रे निर्देशो वस्तूना विधीयते, ततोऽल्पशरीरग्राह्याहारपुद्गलापेक्षया बहुतरांस्ते तानाहारयन्तीत्यादि प्राग्वत्, अभीक्षणमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छसन्ति च इत्यत्र ये चतुर्थादेरपर्याहारयन्ति स्तोकसमकादेश्वोपर्युच्छ्रसन्ति तानाश्रित्या-भीक्ष्णमित्युच्यत, उत्कर्षतो ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपरि आहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युच्छुसन्ति तानङ्गीकृत्य एतेषामल्पकालीनाहारोच्वासत्वेन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वादिति, तथाऽल्पशरीरा अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति उच्छुसन्ति च अल्पशरीरत्वादेव, यत्पुनस्तेषां कादाचित्कत्वमाहारोच्छ्रासयोस्तन्महाशरीराहारोच्छासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालत्वात्,तत्र हि अन्तराले ते नाऽऽहारादि कुर्वन्ति तदन्यत्र कुर्वन्तीत्येवविवक्षणादिति, महाशरीराणामप्याहारोच्छ्रासयोरन्तरालमस्ति, किन्तु-तदल्पमित्यविवक्षणादेवाभीक्ष्णमित्युक्तं, सिद्धं च महाशरीराणां तेषामाहारोच्वासयोरल्पान्तरत्वम्, अल्पशरीराणां तु महान्तरत्वं, यथा सौधर्मदेवानां सप्तहस्तभानतया महाशरीराणां तयोरन्त क्रमेण वर्षसहरनद्वयं पक्षद्वयं च, अनुत्तरसुराणां च हस्तमानतया अल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रयस्त्रिंशदेव च पक्षा इति। एषां च महाशरीराणामभीक्ष्णाऽऽहारोरासाभिधानेनाल्पस्थितिकत्वमवसीयते, इतरेषां तु विपर्ययो वैमानिकवदेवेति, अथवा-लोमाहारापेक्षयाऽभीक्ष्णम्-अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायाम, उच्छृासस्तु यथोक्तमानेनापि भवन् परिपूर्णभवापेक्षया पुनः पुनरित्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां त्वल्पशरीरा लोमाहारतो नाहारयन्ति ओजआहारत एवाहरणात इति कदाचित्ते आहारयन्तीत्युच्यते. उच्छ्रासापर्याप्तकावस्थायां च नोच्छसन्त्यन्यदा तूच्छसन्तीत्युच्यते आहत्योच्छु Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 402 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम सन्तीति 'कम्मवन्नलेस्साओ (वि) परिवन्नेयव्वाओ' त्ति कमादीनि नारकापेक्षया विपर्ययेण वाच्यानि / तथाहि-नारका ये पूर्वो -- त्पन्नास्तेऽल्पकर्मकशुद्धतरवर्णशुभतरलेश्या उक्ताः, असुरास्तु ये पूर्वोत्पन्नास्ते महाकर्माणोऽशुद्धवर्णा अशुभतरलेश्याश्चेति / कथम ? ये हि पूर्वोत्पन्ना असुरास्तेऽतिकन्दर्पदध्मातचित्तत्वान्नारकाननेकप्रकारया यातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभ कर्म संचिन्वन्तीत्यतोऽभिधीयन्ते ते महाकर्माणः, / अथवा-ये बद्धायुषस्ते तिर्यगादिप्रायोग्यकर्मप्रकृतिबन्धनान्महाकणिः , तथा अशुभवर्णा अशुभलेश्याश्च ते. पूर्वोत्पन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्माणः शुभवर्णादयः शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति, पश्चादुत्पन्नास्त्वबद्घायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामबन्धगादशुभकर्मणामक्षीणत्वाच शुभवर्णादयः स्युरिति / वेदनासूत्र च यद्यपि नारकाणामिवासुरकुमाराणामपि तथापि तद्भावनायां विशेषः,स चायन-ये सज्ञिभूतास्ते महावे दनाः, चारित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तापात्, अथवा-सज्ञिभूताः संज्ञिपूमर्वभवाः पर्याप्ता वा ते शुभवेदनामाश्रित्य महावेदना इतरे त्वल्पवेदना इति / एवं नागकुमारादयोऽपि औचित्येन वाच्याः / / 'पुढविक्काइया णं भते ! आहारकम्मवन्नलेस्सा जहा नेरइया णं ति-चत्वार्यपि सूत्राणि नारकसूत्राणीव पृथिवीकायिकाभिलापेनाधीयन्त इत्यर्थः, के वल-माहारसूत्रे भावनवम्-पृथिवीकायिकानामड्डुलासंख्येयभागमात्र-शरीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वम् / इतरचेत आगमवचनादवसेयम् / 'पुढविक्का-इयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए' त्ति ते च महाशरीरालोमाहारतो बहुतरान पुद्गलानाहारयन्तीति उच्छुसन्ति च अभीक्ष्णं महाशरीर-त्वादेव, अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छासत्वमल्पशरीरत्वादेव, कादाचित्कत्वं च तयोः पर्याप्तकेत्तरावस्थापेक्षमवसेयम्॥तथा कर्मादिसूत्रेषु पूर्वपश्चादुत्पन्नाना पृथिवीकायिकानां कर्मवर्णलेश्याविभागो नारकैः सम एव, वेदनाक्रिययोस्तु नानात्वमत एवाह– 'असन्नि' त्ति-मिथ्यादृष्टयो-ऽमनस्का वा 'असन्निभूय' त्ति-असंज्ञिभूता असंज्ञिनां या जायते तामित्यर्थः, एतदेव व्यनक्ति 'अणिदाए' ति-अनिर्धारणया वेदनां वेदयन्ति, वेदनामनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्मपरिणतिरिय-मितिमिथ्यादृष्टित्वादवगच्छन्ति, विमनस्कत्वाद्वा मत्तमूञ्छितादिवदिति भावना / 'माईमिच्छादिट्टि' त्ति-मायावन्तो हि तेषु प्रायेणोत्पद्यन्ते, यदाह"उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गूढहिययमाइलो / सढसीलो य ससल्लो, तिरियाउं बंधए जीवो // 1 // " त्ति, ततस्ते मायिन उच्यन्ते। अथवामायेहानन्तानुबन्धिकषायोपलक्षणम्, अतोऽनन्तानुबन्धिकषायोदयवन्तोऽत एव मिथ्यादृष्टयोमिथ्यात्वोदयवृत्तय इति। 'ताण णियइयाओ' त्ति-तेषां पृथिवीकायिकानां नैयतिक्योनियता न तु त्रिप्रभृतय इति, पञ्चैवेत्यर्थः ‘से तेणढणं समकिरिय' ति-निगमनम्, 'जाव चउरिदिय' ति-इह महाशरीरत्वमितरच स्वस्वावगाहना-ऽनुसारेणावसे यम्, आहारश्च द्वीन्द्रियादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति। 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइय' ति-प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्णभाहारयन्ति उच्छ्रसन्ति चेति यदुच्यते तत्संख्यात-वर्षायुषोऽपेक्ष्येत्यवसेयं, तथैव दर्शनात, नासंख्यातवर्षायुषः,तेषां प्रक्षेपाहारस्य षष्ठ स्योपरि प्रतिपादितत्वात, अल्पशरीराणां त्वाहारोच्चासयोः कासाचित्कत्वं वचनप्रामाण्यादिति, लोमाहारापेक्षया तु सर्वेपासप्यभीक्ष्णमिति घटत एव, अल्पशरीराणां तु यत्कादाचित्कल्वं तदपर्याप्तकत्वे लोमाहा-- रोच्छासयोरभवनेन पर्याप्तकत्वे च तद्भावेनावसेयमिति। तथा कर्मसूत्र यत्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वमितरेषां तु महाकर्मत्वं तदारष्कादितद्रवर्वद्यकर्मापेक्षयाऽवसेयम् / तथा वर्णलश्यासूत्रयोर्यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णाद्युक्तं तत्तारुण्यात्पश्चादुत्पन्नानां चाशुभवर्णादिवाल्यादवसेयम्, लोके तथैव दर्शनादिति। तथा 'संजयासंजय'त्ति-देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपातादेर्निवृत्त-त्वादितरस्मादनिवृत्तत्वाचेति / 'मणुस्साणं जहा नेरइय' ति-तथा वाच्या इति गम्यम्, 'नाणत्न' ति-नानात्वं, भेदः पुनरयम-तत्र 'मणुस्सा णं भंते ! सर्व समाहारगा? इत्यादि प्रश्नः, 'नो इणढे समढे' इत्याधुत्तरं 'जाव दुविहा मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा महासरीरा य, अप्पसरीराय। तत्थणजे ते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारति. एवं परिणामेति ऊससंति नीससंति' इह स्थाने नारकसूत्रे 'अभिक्खणं आहारेति' इत्यधीतम्, इह तु 'आहथे' त्यधीयते, महाशरीरो हि देवकुर्वादि-मिथुनकाः,ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अट्ठमभत्तस्स आहारों' ति वचनात्, अल्पशरीरास्त्वभीक्षणमल्पं च, बालानां तथैव दर्शनात् संमूछिममनुष्याणामल्पशरीराणाननवरतमाहारसम्भवाच, यच्चह पूर्वोत्पन्नाना शुद्धवर्णादि तत्तारण्यात संमूच्छिमापेक्षया वेति / 'सरागसंजय' त्ति-अक्षीणानुपशान्तकषायाः 'वीयरागसंजय'त्ति-उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्च, 'अकि रिय'तिवीतरागत्वेनारम्भादीनामभावादक्रियाः, 'एगा मायावत्तिय' त्ति-अप्रमत्त - संयतानामेकैव मायाप्रत्या 'किरिया कजईत्ति क्रियते-भवति कदाचिदुडाहरक्षणप्रवृत्तानामक्षीणकषायत्वादिति, 'आरम्भिय'त्ति--प्रमत्तसंयताना च 'सर्वः प्रमत्तयोग आरम्भ' इति कृत्वाऽऽरम्भिकी स्यात्, अक्षीणकषायत्वाच्च मायाप्रत्ययेति। 'वाणमंतरजोइसर्वमाणिया जहा असुरकुमार'त्तितत्र शरीरस्याल्पत्वमहत्त्वे स्वावगाहनानुसारेणावसेये / तथा वेदनायामसुरकुमाराः 'सन्निभूया य असन्निभूयाय, सन्निभूया महावेयणा असम्भूिया अप्पवेयणा' इत्येवमधीताः, व्यन्तरा अपि तथैवाध्येतव्याः, यतोऽसुरादिषु व्यन्तरान्तेषु देवेषु असज्ञिन उत्पद्यन्ते, यतोऽत्रैवोद्देशके वक्ष्यति'असन्नीणं जहण्णेण भवणवासीसु उक्दो सेणं वाणमंतरेसु' शि, ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तयुक्तेरल्पवेदना भवन्तीत्य-वसेय, यत्तु प्रागुक्तं सज्ञिनः सम्यग् दृष्टयोऽसज्ज्ञिनस्त्वितरे इति तदवृद्धव्याख्यानुसारेण - वति, ज्योतिष्कवैमानिकेषु त्वसझिनो नोत्पद्यन्ते अतो ददनापदे तेष्वधीयते- 'दुविहा जोतिसियामायिमिच्छादिही उववन्नगा ये' त्यदि, तत्र मायिमिथ्यादृष्टयोऽल्पवेदना इतरेच महावेदनाःशुभवेदनामाश्रित्येति, एतदेय दर्शयन्नाह-न वर 'वेयणाए' इत्यादि / अथ चतुर्विशतिदण्डकमेव ले.. Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 403 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम श्याभेदविशेषणभाहारादिपदैनिरूपयन् दण्डकसप्तकमाह- 'सलेरसाणं भंत ! नेरइया सव्वे समाहारग' ति-अनेनाहारशरीरोच्छासकर्मवर्णलेश्या वेदनाक्रियोपपाताख्यपूर्वोक्तनवपदोपेतनारकादिचतुर्विशतिपददण्डको लेश्यापदविशेषितः सूचितः, तदन्ये घ कृष्णलेश्यादिविशेषिताः / पूर्वोक्तनवपदोपेता एव यथासम्भव नारकादिपदात्मकाः षड् दण्डकाः सूचिताः / तदेवमेतेषां सप्तानां दण्डकानां सूत्रसङ्गे पार्थ यो यथा अध्येतव्यस्त तथा दर्शयन्नाह... 'ओहियाण' मित्यादि, तत्राधिकानां पूर्वोक्तानां निर्विशेषणानां नारकादीनां तथा सलेश्यानाधिकृतानामेव शुक्लले श्यानां तु सप्तमदण्डकवाच्यानामेषां त्रयाणामेको गमः-सदृशः पाठः, सलेश्यः शुक्ललेश्यश्चेत्यवंविधविशेषणकृत एव तत्र भेदः, औधिकदण्डकसूत्रवदनयोः सूरमिति हृदयम्। तथा 'जस्सत्थि' इत्येतस्य वक्ष्यमाणपदस्येह सम्बन्धाद्यस्य शुक्ललेश्याऽस्तिसएव तद्दण्डकेऽध्येतव्यः, तेनेह पञ्चन्द्रियतिर्यशो मनुष्या वैमानिकाच वाच्याः नारकादीनां शुक्ललेश्याया अभावादिति, 'किण्हलेस्सनीललेसाणं पि एगो गमो' औधिक एक्त्यर्थः, विशेषमाह-नवरं 'वेयणा' इत्यादि, कृष्णलेश्यादण्डके नीललेश्यादण्डके च वेदनासूत्रे- "दविहा णेरइया पन्नतासन्निभूया य असन्निभूया य" त्ति, औधिकदण्डकाधीतं नाध्येतव्यम्, असंज्ञिना प्रथमपृथिव्यामेवोत्पादात्, 'असण्णी खलु पढमम्मि' ति वचनात्, प्रथमायां च कृष्णनीललेश्ययोरभावात्, तर्हि किमध्येतव्यमित्याह'मायिमिच्छादिट्टि उववन्नगा य' इत्यादि, तत्र मायिनो मिथ्यादृष्टयश्च महायेदना भवन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी स्थितिमशुभां ते निर्वर्त्तयन्ति, प्रकृष्टाया च तस्यां महती वेदना संभवति. इतरेषां तु विपरीतेति / तथा मनुष्यपदे क्रियासूत्रे यद्यप्यौधिकदण्डके 'तिविहा मणुस्सा पन्नत्ता, तं जहा-संजया 3, तत्थ णं जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सरागसंजया य, वीयरागसंजया य / तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य' ति पठितं. तथाऽपि कृष्णनीललेश्यादण्डकयो ऽध्येतव्यं, कृष्णनीललेश्योदये संयमस्य निषिद्धत्वात्, यच्चोच्यते'पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए' त्ति, तत्कृष्णादिद्रव्यरूपा द्रव्यलेश्याभङ्गीकृत्य न तुकृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनितात्मपरिणामरूपा भावलेश्याम्, एतच्च प्रागुक्तमिति, एतदेव दर्शयन्नाह- 'मणुरसे' त्यादि, तथा कापोतलोश्यादण्डकोऽपि नीलादिलेश्यादण्डकवदध्येतव्यो, नवरं नारकपदे वेदनासूत्रे नारका औधिकदण्डकवदेव वाच्याः , ते चैवम्'नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा- सन्निभूया य, असन्नि भूया य त्ति, असंज्ञिनां प्रथमपृथिव्यत्पादेन कापोतलेश्यासम्भवादत आह'काउलेस्साण वी' त्यादि / ( तेजोलेश्या पालेश्या च यस्य जीवविशेषस्यास्ति तमाश्रित्य यथाघेको दण्डकस्तथा तयोर्दण्डको भणितव्यौ, तदस्तिता चैवम्-नारकाणां विकलेन्द्रियाणां तेजोवायूना चाद्यास्तिर एव, भवनपतिपृथिव्यम्बुवनस्पतिव्यन्तराणामाद्याश्वतस्रःपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां षड्, ज्योतिषां तेजोलेश्या, वैमानिकानां तिस्रः प्रशस्ता इति, आह च"विण्हा नीला काऊ-तऊलेसा य भवणवतरिया। जोइससोहम्मीसा-ण लेउलेसा मुणेयव्वा / / 1 / / कप्पे सणकुमारे, माहिदे चेव बंभलोगे य। एएसु पम्हलेसा, तेण पर सुकलेस्सा उ॥२॥" तथा"पुढवीआउवणस्सइ-वायरपत्तेयलेस चारि। गढभयतिरियनरेसु, छलेसा तिन्नि सेसाणं / / 3 / / " केवलमौघिकदण्डके क्रियासूचे मनुष्याः सरागवीतरागविशेषणा अधीताः, इह तु तथा न वाच्याः, तेजः पालेश्यययोतिराग थाराम्भवात् शुक्ललेश्या यामेव तत्सम्भवात्, प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति, एतदेव दर्शयानाह.. 'ते उले सापम्हलेसे' त्यादि / 'गाई' ति-- उद्देशकादितःसूत्रार्थसड्ग्रहगतार्थाऽपि सुखबोधार्थमुच्यते-दुःखमायुश्चोदीर्ण वेदयतीत्येकत्वबहुत्वाभ्यां दण्डकचतुष्टयमुक्तम्, तथा 'आहारे त्ति 'नेरइया किं समाहारा?' इत्यादि, तथा 'किं रामकम्मा?' तथा 'किं समवन्ता?' तथा कि समलेसा? तथा 'किं समवेयणा?' तथा 'किं समकिरिया?' तथा कि समा--उया सभोववन्नग' ति गाथार्थः / भ०१श०२ उ०। (सर्वे द्वीप-कुमाराः समाहारा इति 'दीवकुमार' शब्दे चतुर्थभागे 2542 पृष्ठे गतम्।) (वाणमन्तराः सर्वं समाहाराः इति 'वाणमंतर शब्दे षष्ठे भागे गतम्।) नैरयिकादीनां समाहारस्वादिपृच्छाविषयकाणि सूत्राणि भगवतीसूत्रवदवसेयानि तानि चेहैवोक्तानि, अथ प्रज्ञापनाटीकायां विशेष इति कृत्वा सा प्रदर्श्यते - समशब्दः पूर्वार्द्ध प्रत्येकमपि सम्बध्यते, उत्तरार्द्ध प्रतिपदं साक्षा-- त्सम्बन्धित एवास्ति, ततोऽयमर्थः-प्रथमोऽधिकारः सर्वे समाहाराः सर्वे समशरीराः सर्वे समोच्छासा इति प्रश्नोपलक्षितः, द्वितीयः समकमाण इति तृतीयः समवण्णा इति,चतुर्थः समलेश्याका इति,पक्षमः समवेदनाका इति, षष्ठः समक्रिया इति, सप्तमः समायुष इति / अथ लेश्यापरिणामविशेषाधिकारे कथममीषामानामुपन्यासोपपत्तिः? उच्यते-अनन्तरप्रयोगपदे उक्तम्- 'कतिविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णसे, गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते तं जहा पयोगगई तत्तगई बधणदणगई उववा--यगई विहायोगई। तत्थजा सा उववायगई सा तिबिहा खिताबवायगई भवोववायगई नोभवोदवायगई, तत्थ भवोववायगई चउविहाने रइयभवोववायगई देवभयो बवायगई तिरिक्खजोणि-यभवोववायगई मणुस्सभवोववायगई इति / तत्र नारकत्वादिभवत्वे नोत्पन्नानां जीवानामुपपातसमयादारभ्य आहाराद्यर्शसम्भवोऽवश्यंभावी ततो लेश्याप्रक्रमेऽपि तेषाभूपन्याससूत्रम- 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायात्, प्रथम समाहारा इत्यादिप्रश्नोपलक्षितमर्थाधिकारमाह- 'नेरइया णं भंते ' इत्यादि प्रभसूर्य सुगम, भगवानाह- 'गोयमा' इत्यादि नायमर्थः समर्थः-नायमों युक्त्युपपन्न इति भावः, पुनः प्रश्नयति- 'से केणट्टेणमि' त्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः / अथ केनार्थेन-केन प्रयोजनेन केन प्रकारेणेति भावः, भदन्त ! एवमुच्यते नैरयिकाः सर्वे समाहारा इत्यादि? भगवान्ाह- 'गोयमे' Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 404 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम त्यादि.इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिक, तत्र जघन्यमल्पत्वम् अङ्गुलासङ्ग्ययभागमात्रत्वम, उत्कृष्ट महत्त्व पशुधनुः शतमानत्वम्, एतब गवधारणीयशरीरापेक्षया, उत्तरवैक्रियापेक्षया तु जघन्यमल्पत्वम अङ्गुलसङ्ख्यातभागमात्रत्वम् इतरद् धनुः सहस्रमानत्वम्, एतावता च किं समशरीरा इत्यस्य प्रश्नस्योत्तरमुक्तम् / अथ शरीरप्रश्रो द्वितीयस्थानोवतः तत्कथमस्य प्रथमत एव निर्वचनमुक्तम् ? उच्यतेशरीरविषमताभिधाने सति आहारोच्छासयोर्वषम्यं सुप्रतिपादित भवतीति द्वितीयस्थानोक्तस्यापि शरीरप्रश्नस्य प्रथम निर्वचनमुक्तम्। इदानीमाहरोच्छासयो निर्वचनमाह-. 'तत्थ णं' भित्यादि, तत्रअल्पशरीरमहाशरीररूपराशिद्वयमध्ये 'ण' मिति वावयालङ्कारे ये यतो गहाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान पुद्गलानाहारयन्ति महाशरीरत्वादेव, दृश्यते हि लोके बृहच्छरीरो बलाशी यथा हस्ती, अल्पशरीरोऽल्पभोजी शशकवत्, बाहुल्यापेक्ष चेदमुदाहरणमुपन्यस्यते, अन्यथा कोऽपिा बृह-- च्छरीरोऽप्यल्पमश्राति कश्चिदल्पशरीरोऽपि भूरि भुङ्क्ते तथाविधमनुष्यवत,नारकाः पुनरुपपातादिसवे द्यानुभावादन्यत्रा-- सवे द्योदयवर्तित्वादेकान्तेन यथा महाशरीराः दुःखितास्तीवाहाराऽभिलाषाश्च भवन्ति तथा नियमाद् बहुतरान्पुद्गलानाहारयन्ति तथा यहु तरान् पुद्गलान परिणामयन्ति, आहारपुद्गलानुसारित्वात परिणामरय,परिणामश्चापृष्टोऽप्याहारकार्यमित्युक्तः, तथा 'बहुतराए पुग्गले उरससंति' इति-बहुतरान् पुद्गलान् उच्छ्वासतया गृह्णन्ति 'नीससंति' इति-निःश्वासतया मुञ्चन्ति, महाशरीरत्वादेव, दृश्यन्ते हि बृहच्छरीरास्तज्जातीयेतरापेक्षया बहूच्छासनिः श्वासाइति, दुःखिता अपि तथैव, दुःखिताश्व नारका इति / आहारस्यैव कालकृतं वैषम्यमाह'अभिवखण' मित्यादि, अभीक्ष्ण-पौनः पुन्ये नाहारयन्ति,ये यता महाशरीरास्ते तदपेक्षया शीघ्रशीघ्रतराहारग्रहणस्वभावा इत्यर्थः, अभीक्ष्णम् उच्चसन्ति अभीक्ष्णं निःश्वसन्ति, महाशरीरत्वेन दुःखिततरत्वादनवरतमुच्छ्रासादि कुर्वन्तीति भावः, 'तत्थ ण जे ते' इत्या-दि, 'जे ते' इति इह ये इत्येतावतैवार्थसिद्धौ ये ते इति (यद्) उच्यते तद्भाषामात्रमेव, अल्पशरीरास्ते अल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, ये यताऽल्पशरीरास्ते तदाहारणीयपुद्रलापेक्षया अल्पतरान पुद्गलानाहारयन्ति, अल्पशरीरत्वादेवेति भावार्थः, 'आहच्च आहारयन्ति' इतिकदाचिदाहारयन्ति कदाचिन्नाहारयन्ति, महाशरीराहारग्रहणान्तरालापेक्षया बहुतरकालान्तरतयेत्यर्थः, 'आहच ऊससंति आहच्च नीससंति' एते हि अल्पशरीरत्वेनैव महाशरीरापेक्षया अल्पतरदुःखत्वात्, ‘आहच' कदाचित् सान्तरमित्यर्थः,उच्छ्रासादि कुर्वन्तीति भावः, अथवा अपर्याप्तिकाले अल्पशरीराः सन्तो लोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति उच्छासापर्याप्तकत्वेन च नोच्छुसन्ति, अन्यदा त्वाहारयन्ति उच्छृसन्ति चेत्यत आह- 'आहच आहारयन्ति आहच ऊससन्ति' इत्युक्तम् / 'रसे एएणद्वेणमित्यादि निगमनवाक्यं सुगमम् / संप्रति समकर्मत्वाधिकारमाह-- 'नेरइयाण' मित्यादि पुव्वोववन्नगा य पच्छोववन्नगाय' इति पूर्व-प्रथमम् पन्नाः पूर्वोपपन्नाः तत एव स्वास्र्थिकः क इति कप्रत्ययविधानात् पूर्वोपपन्नकाः, एवं पश्चादुपपन्नकाः, तत्र पूर्वोत्यन्नपश्चात् पन्नाना मध्ये ये पूर्वोत्पन्नास्तैर्नर-कायुर्नरकगत्यसातवेदनीयादिक प्रभूत निर्णिमल्पं विद्यत इति अल्पकर्मतरकाः इतरे तद्विपर्यायात महाक तरकाः, एतच समानस्थितिका ये नारकास्तानधिकृत्य प्रणीतमवसेयम्, अन्यथा हि रत्नप्रभायाम् उत्कृष्टस्थिते रकस्यबहून्यायुषि क्षयमिते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यामेव रत्नप्रभायां दशवर्षसहसस्थितिनगरकोऽन्यः कश्चिदुत्पन्नः स किं प्रागुत्पन्नं पल्योपमावशेषायुष नारकमपेक्ष्य वक्तुशक्यो यथा महाकर्मेति? वर्णसूत्रे-विशुद्धवर्णतरका' इति-विशुद्धतरवर्णा इत्यर्थः, कथमिति चेद,उच्यते-इह यस्मान्नैरयिकाण मप्रशरतवर्णनामकर्मणोऽशुभस्तीव्रोऽनुभागोदयो भवापेक्षः, तथा चोक्तम्"कालभवखेत्तवेक्खो उदओ सविवागअविवागो / " नन्यायपि तत्र भवविपाकानि उक्तानि तत्कथमप्रशस्तवर्णनामकर्मण उदयो भवापेक्षा वर्ण्यते? सत्यमेतत् तथाप्यसौ वर्णनाम- कर्मणोऽप्रशस्तस्योदयस्तीव्रानुभागोऽध्रुवश्च भवापेक्षः पूर्वाचायैर्व्यवहृतः, स पूर्वोतान्नैः प्रभूतो निर्जीर्णः स्तोकावशेषोऽवतिष्ठत, पुद्गलविधाकि च वर्णनाम, तेन पूर्वोत्पन्ना विशुद्धतरवर्णाः, पश्चादुत्पन्नैस्तु नाद्यापि प्रभूतो निजीर्ण इति त अविशुद्धतरवर्णाः, एतदपि समानस्थितिनैरयिक-विषयमवसेयम्, अन्यथा पूर्वोक्रारीया व्यभिचारसंभवात् 'एवं जहेव वन्ने भणिया' इत्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण यथैव वर्णे भणितास्तथैव लेश्यास्वपि वक्तव्याः, तद्यथा- 'नेरइयाणं भंते ! सव्वे समलेस्सा? गोयमा ! नो इण? समढे इत्यादि.सुगम चैतत्, नवरं पूर्वोत्पन्ना विशुद्धलेश्याः यस्मा पूर्वोत्पन्नः प्रभूतान्यप्रशस्तलेश्याद्रव्याणि अनुभूय अनुभूय क्षयं नीतानि तस्मात्ते विशुद्धलेश्याः इतरे पश्चादुत्पन्नतया विपर्ययादविशुद्धलेश्याः, एतदपि लेश्यासूत्र समानस्थितिक नैरयिकापेक्षमवसे यम्, समवेदनपदोपलक्षितार्थाधिकारप्रतिपाद–नार्थमाह- 'नेरइया भंते !' इत्यादि, समवेदनाः-समानपीडाः 'सन्निभूया य' इति संज्ञिनः-संज्ञिपञ्चेन्द्रियाः सन्तो भूतानारकत्वं गताः संज्ञिभूताः ते महावेदनाः तीव्राशुभाध्यवसायेनाशुभतरकर्मबन्धनेन महानरकेपुत्पादात्, असज्ञिनः-असझिापदोन्द्रियाः सन्तो भूता असज्ञिभूताः,असज्ञिनो हि तसृष्यपि गतिषूत्पद्यन्ते, तद्योग्यायुर्बन्धसंभवात,तथा चोक्तम्-"कइविहेण भते ! असन्निआउए पन्नते? गोयमा ! चउविहे असन्निआउए पन्नत्ते ? त जहा.नेरइयअसन्निआउए तिरिवखजोणियअसन्निआउए मणुस्रजोणियअसन्निआउए देवअसन्निआउए, इति,तत्र देवेषु नैयिकेषु च असङ्ग्यायुषो जघन्यतः स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः पल्योपमासंख्येयभागः, तिर्यक्षु मनुष्येषु च जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम उत्कर्षतः पल्योपमासंख्येयभागः, एवं चासज्ञिनः सन्ताये नरकषूत्पद्यन्तो तेऽतितीवाशुभाध्यवसाया-भावात् रत्नप्रभायामनतितीव्रवेदनेषु नरकेषूत्पद्यन्ते अल्पस्थि-तिकाश्चेत्यल्पवेदनाः, अथवा-सज्ञीभूताःपर्याप्तकीभूतास्त महावेदनाः पर्याप्तत्वादेव, असज्ञिनस्तु अल्पवेदनाः अपर्याप्ततया प्रायो वेदनाया असंभवात्। यदिवा- 'सन्निभूय' ति सज्ञा Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 405 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम समय-दर्शन ला एवाभरतीति संज्ञिनः संझिनो भूतायाताः संज्ञीभूताः संजिव प्राणा इत्यर्थ: ते महावे दनाः, तेषां हि यथा-वस्थित सर्यकः किम्मी पपाकमनुर मरतामहो महदुःखसंकटमिदमस्माकभापतितं - कृ.! भरावदह प्रणीतः सकलदुःखक्षयंकरोऽतिविषमविषय'बेषपरेभार्गाः।प्रलुब्धचेलोभिधर्म इत्येवं महद्दुःख मनस्युपजायते, ततो महा पदनाः, असंज्ञिनस्तु मिथ्यादृश्यः, ते तु स्वकृतकर्मफलमदमित्येव - जानत, अजानानाश्वानुपतप्तमानसा अल्पवेदना इति / अधुना समवि रिया इत्यधिकार विभावयिषुराह– 'नेरइया ण भते ! सब्वे समकिरिया' इत्यादि, समाः-तुल्याः क्रियाः-कर्मनिबन्धनभूता आर भक्या देका यात समक्रियाः 'चत्तारि किरियाओ कज्जति' इतिः क्रियन्त इति कर्मकर्तरि प्रयोगः तेन भवन्तीत्यर्थः, आरम्भःपृथिव्याापगईनं रा प्रयोजनं कारणं यस्याः सा आरम्भिकी परिगहिय' '-परिशहा-धर्मोपकरणवर्जवस्तुरचीकारः, धम्मोपकरणमूर्छा वा,स व प्रयोजनं यस्याः सा पारिग्रहिकी 'भायावत्तिया' इति--मायाअनार्जवमुपलक्षणत्वात् क्रोधादिरपि स च प्रत्ययः--कारण यस्यास्सा मायाप्रत्ययः 'अप्पचक्रवाणकि--रिया' इति-अप्रत्याख्यानेन-वृत्यभाव किया... कर्मवन्धकारणम्, अप्रत्याख्यानक्रियेति, नयइयाओं इति न्यतिक्या, नियता इत्यर्थः अवश्यंभावित्यात, सम्यादृष्टीना त्वनियताः, सयतादिषु व्यभिचारात्, 'मिच्छादसणवत्तिय' ति-निथ्यादन प्रत्ययः कारणं यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, ननु मिथ्यात्यावितिकषाययोगाः कर्मबन्धहेतव इति प्रसिद्धिः, इह तु आर-- भक्यादय तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः ? उच्यते-इहारम्भपरिगृहशरदाभ्या यागः परगृहीतो,योगाना सद्रूपत्वात, शेषपदैस्तुशेषा | बन्धहतब इ.सदोषः, सले समाउआ' इत्यादिः प्रश्रस्य या निर्वचनचतुर्भडी तद्भावना क्रियते-निबद्धदशवर्षसहस्रप्रमाणायुषो युगपोत्यना इति प्रामा भने:, पु एव दशवर्षसहस्रस्थितिषु नरकेषु एक प्रथमतरमुत्पन्नाः अपरे पश्चादिति द्वितीयः, अन्यैर्विषममायुर्निबद्ध कश्चिशवर्षर हस्रस्थितिषु कैश्चिच पञ्चदशवर्षसहरसस्थितिषु, उत्पत्तिः पुनर्थगपदिति तृतीयः केचित् सागरोपमस्थितयः, केचित्तुदशवर्षसहसस्पितय इ. व विषमायुषो विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः / संप्रति असुरकुभारा िदेषु आहारादिपदनवक विभावयिषुरिदमाह- 'असुरकुमारा से भरर ! 'सव समाहारा' इत्यादि, तत्रारिमन सूत्रे नारकसूत्रसमानऽपि भावना विशेषण लिख्यते- असुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयगरीरपक्षया जघन्यताऽङ्गुलासंख्येयभागमानत्वं महाशरीरत्वं तूरकर्षतः सप्तहस्तप्रमा गत्वम् उत्तरवक्रियापेक्षया तु अल्पशरीरत्व जधन्यतोऽतुलसंख्येयभागमान चम, उत्कर्षती महाशरीरत्वं योजनलक्षमानत्वमिति। ततहाशरीरा बहुतरान युदलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापक्षया, बवानां हि असौ संभवति, प्रधानश्च / प्रधानापेक्षया च शास्त्र निर्देशा वर-पूना, तताऽल्पशरीरमाह्याहारपुरलापेक्षया ये युगला बहुतरारते तानाहारयन्ति, बहुतरान्परिणाभयन्तीत्यादिपदत्रयव्या ख्यानं प्राग्वत, तथाऽभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छसन्ति, अत्र ये चतुदिरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेश्वोपर्युच्छसन्ति तानाश्रित्याभीक्षणमुच्यते, ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपाहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युवसन्ति तानगीकृत्यैतेषामल्पकालीनाहारोच्चासत्वन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वात्, तथाऽल्पशरी। अल्पतरान पुदलानाहारयन्ति उछ्सन्ति च अल्पशरीरत्वादेव, यत्पुनस्तेषा कादाचिकत्वमाहारोच्छासयोस्तन्महाशरीराहारोच्छासान्त.. रालापेक्षया बहुतभान्तरालत्वात्, तत्र हि अन्तराले ते आहारादिन कुर्वन्ति तदन्यत्र ते कुर्वन्तीत्येवं विवक्षणान्महाशरीराणामप्याहारा वासयारन्त-रालमस्ति किं तु तदल्पमित्यविवक्षितत्वादभीक्ष्णमि - रयुक्तं, सिद्धं च महाशरीराणां तेषामाहारोच्छ्रासयोरल्पान्तरत्वम्, अल्पशरीराणां तुमहान्तरत्वं, यथा सौधर्मादिदेवानां सप्तहस्तमानतया महाशरीराणां तयोरन्तरं वर्षसहस्रदय पक्षद्वयं च अनुत्तरसुराणां च हस्तमान-तयाऽल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि त्रयस्त्रिंशदेव च पक्षा इति, एषां च महाशरीराणामभीक्ष्णाहारोच्छ्रासाभिधानेनाल्पस्थिति करचमवसीयते इतरेषां तु विपर्ययः वैमानिकवदेवेति, अथवा--लोमाहारापेक्षयाऽभीक्ष्णम्--अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायामुच्यासस्तु यथोक्तमानेनापि भवन् परिपूर्णभवापेक्षया पुनः पुनरित्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां त्वल्पशरीरा लोमाहारतो नाहारयन्ति ओला (जआ) हारत एवाहरणात् ततस्ते कदाचिदाहारयन्तीत्युच्यते, अपर्याप्तकावस्थायां च नोच्छुसन्ति अन्यदा तूच्छसन्ति तत उच्यते आहाच्छ्रसन्ती-ति / / कर्मसूत्रमाह- 'असुरकुमारा णं भंते ! सव्व रामकम्मा' इत्यादि, अत्र नैरयिकसूत्रापेक्षया विपर्यासः, नैरयिका हि पूच्चों .त्पन्ना अल्पकम्र्माण उक्ता इतरे तुमहाकाण: असुरकुमारास्तु ये पूयोत्पन्नास्ते महाकणिः इतरेऽल्पकणिः , कथमिति चेद्, उच्यते-इहासुकुमाराः स्वभावा-दुद्वृत्तास्तिर्यसूत्पद्यन्ते मनुष्यंषु च, तिर्यत्पहामानाः केचिदेकेन्द्रियेषु पृथिव्यबवनस्पतिषू-पद्यन्ते केचित पञ्चेन्द्रियेषु, मनुष्येष्वपि चोत्पद्यमानाः कर्मभूमिकगर्भव्युत्क्रान्तिकम.. नुष्येषत्पद्यते न शेषेषु, षण्मासावशेषायुषश्च सन्तः पारभविकमा युबंधनन्ति, पारभविकायुर्बन्धकाले च या एकान्ततिर्यग्योनिकयोग्या एकान्तमनुष्ययोग्या वा प्रकृतयस्ता उपचिन्यन्ति, ततः पूर्वोत्पन्न महाकम्भरतराः, ये तु पश्चादुत्पन्नास्ते नाद्यापि पारभविकमायुर्वनन्ति नापि तिर्यग्मनुष्ययोग्याः प्रकृतीरुपचिन्वन्ति ततस्तेऽल्पकर्मतराः, एतदपि सूत्र समानस्थितिकसमानभवपरिमितासुरकुमारविषयमवसेयं, पूर्वोत्पन्नका अपि बद्धपारभविकायुषः पश्शदुत्पन्ना अपि अबद्धपार-- भविकायुषः स्तोककालान्तरिता ग्राह्याः, अन्यथा तिर्थगमनुध्ययोग्य.. प्रकृतिबन्धऽपि पूर्वोत्पन्नकात् पश्चादुत्पन्न उत्कृष्टस्थितिकोऽभिनवोपन्नोऽनन्तसंसारिकश्च महाकम्भतर एव भवति / वर्णसूत्र ये ते पूर्वात्पन्नकारते अविशुद्धवर्णतराः कथमिति चेदुच्यते--एतेषां हि भवापेक्षाः प्रशस्तवर्णनानः शुभस्तीबानुभाग उदयः स च पूर्वोत्पन्नानां प्रभूतः क्षय-.. Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम गत इति ते अविशुद्धतरवर्णाः, इतरे तु पश्चादुत्पन्नतया नाद्यापि प्रभू: निजी इति विशुद्धवाः, एतच्च समानस्थितिकासुर - कुमार विषय सूत्रन, एवं लेर साए वी' ति एवं वर्णसूत्रवत् लेश्या-- सूत्रमाणे प्रयतव्य,पूर्वोत्पन्नाः अविशुद्धलेश्या वक्तव्याः पवादुमनविशुद्धलेश्या इति गा का भावनेति चेदुच्यते इह अब नरनिगा च तथा भवस्वमान्यात लेश्यापरिणाम प-- लसमयात् प्रभृत्याभवक्षयाद् भवति, यतो वक्ष्यति तीये लत्या शके- ‘से नूप भत्ते ! कण्हलेर से नेरइएकाहलरसेसुने(इएस बनई कण्हलेस्से उध्वट्टई ?' “जालेर से उववजई तलर से 3-05" इति / अस्यायं भावार्थ पञ्चन्द्रियतिबन्योनिको मनुष्यों कारक पद्यमानो यथाक्रम तिर्यगायुपि मनुष्यायुपि वा क्षीण सरोकायु:संवदयमान जुराजनयदर्शनन विग्रह पिवर्तमाना नारक एक तस्य र कृष्णादिलश्योदयः पूर्व गदायुपि अन्तर्मुहूपशामुकरवरीमानस्य भवति, तथा चोक्तम्- “अन्तमुहतम्मि मा..अन्नारिमसंसए चेव लेस्साहि परियाहिं, जीवा वति पला ।।१।एव देवेष्यपि भावनीय, तथा लेश्याध्ययने ने यादिषु कृष्णादिलमानो जघन्यो कृपा च स्थितिरियमुक्ता"सवाससहरसाई, काऊएलिई जहनिया हाइ। ५.३६कामा तिनदही, पलियरस असंखभागं च / / 1 / / नालाए जहन्नाठेई, तिन्नुदही अखिमागपलिया सही उकासा, पलियरस असंखभाग च / / 2 / / हाएँ जहन्नटिई, दरा उदही असंखभागपलियं च। तिजीससागराइँ मुहत्तअहियाइँ उक्कोसा।।३।। नरइयाण, लेसाण ठिई उवन्निया इणमा। नाम परं बोचशमि, तिरियाणमणुस्सदेवा।।। अन्सामुना-दा, लेसाणा दिई जहिं जहिं जाउ। तस्याण नगणयावनिता केवल लेसंगा।" रसारण की.... मुहूर्त काल यावत लस्यानां स्थिति न्या कृतः बभवति, कासामित्याह जहि जहि जाउयारमन मोकन-निकायकादौसभूमिमनुष्यादौ चयाः peli अश्यारस्तासाम, एता हि क्वचित् काश्चिद भवन्ति, वृथिमहानरपतीनां कृष्नीलकापोततेजोरूपाश्चतस्रो लेश्याः, तेजा युधिश्चितुरिन्द्रियसंमछिमतिर्थपञ्चेन्द्रियमनुष्याणां कृष्ण[.. नाराकापीमास्तसः, गर्भजतिर्यकपश्शेन्द्रियाणां गजमनु-- न्याय व बडीति. नवं शुक्ललेश्याया अपि अन्तर्मुहूभिव दियात: प्राप्रोत्नत्यान्द्राधापुक्त-वर्जयित्वा केवलांशु बलेश्याशुक्लले यानिलि भाषः। तस्या इयं स्थितिः"नतइतुजला, उझोसा होइ पुवकोडी उ। न रिसाह जाणा, नायव्वा सुक्कलेस्साए // 1 // एनालिशित 73 ले साणा ठिई उवन्निया होइ। साण ठिई उदेवागंाशा स , हाइलिइ जहनिया हाइ मानारसियभागो, कोसा होइनायया / / 3 / / हाइवान, उकोसा चेव समय-ममहिया नालाइजह पलियासंखंच उक्सा 4|| जा नीलाइ ठिई खलु, उक्कोसा चेव समयमभहिया। काऊइ जहन्नेणं पलियासंखं च उक्कोसा।।५।। तेण परंवोच्छामि, तेउल्लेस्सं जहा सुरगणाणं भवणवइवाणमंतर-जोइसवेमाणियाण च।।६।। दसवाससहस्साई, तेऊए ठिई जहन्निया होइ। उकोसा दो उदही, पलियस्स असंखभागं च / / 7 / / जातेइ ठिई खलु. उन्कोसा चेव समयमब्भहिया। पम्हाइ जहन्नेणं, दसमुहुत्तहियाइं उक्कोसा।।८।।" दशसागरोपमाण्यन्तर्मुहुर्ताभ्यधिकान्युत्कृष्टति भावः, अन्तर्मुहूर्त चाभ्यधिकं यत्प्राग्भवभाव्यन्तर्मुहूर्त यच्चोत्तरभवभावि तद् द्वयमप्येक विवक्षित्वोक्तं, देवनैरथिकाणां हि स्वस्वलेश्या प्रागुत्तर-- भवान्तर्मुहूर्त्तद्वयनिजायुःकालप्रमाणावस्थाना भवति, तथा-"जा पम्हाइ ठिई खलु, उक्कोसा चेव समयमभहिया / सुधाएँ जहन्नेणं, तत्तीसुकोसमभहिया // 1 // " इति। ततोऽस्माल्लेश्या स्थिति-रिमाणात् प्रागुक्ता, तृतीयलेश्योद्दशवक्ष्यमाणसूत्रादवसीयते देवाना नैरयिकाणां च लश्याद्रव्यपरिणाम उपपातसमयादार-भ्याऽऽभवक्षयात् भवति इति पूर्वोत्पन्नै श्वासुरकुमारैःप्रभूतानि तीग्रानुभागानि लेश्याद्रव्याणि अनुभूयानुभूय क्षयं नीतानि स्तोकानि मन्दानुभावान्यवतिष्ठन्ते, ततस्ते पूर्वोत्पन्ना अटिशुद्धले श्याः पश्चादुत्पन्नास्तुतद्विपर्ययाद्विशुद्धलेश्याः / वयणाए जहा नेरइया' इति वेदनायां यथा नरयिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, तत्राप्यसज्ञिनोऽपि लभ्यमानत्वात, तत्र यद्यपि वेदनासूत्रं पाठतोनार-कागामिवासुरकुमाराणामपि तथापि भावनायां विशेषः स चायम्-ये सङ्घीभूतारते सम्यग्दृष्टित्वात् महावेदनाः चारित्र-विराधनाजन्यचिनसन्तापात्, इतरेतु-असञीभूता मिथ्यादृ-ष्टित्वादल्पवेदना इति, अवसेस जहा नेरझ्याणं ति-अवशेष क्रियासूत्रमायुः सूत्रं च यथा नैरपिकाणां तथा वक्तव्यम्, एतच्च सुगमत्वात् स्वयं परिभावनीयम्। 'एपमि' त्यादि, एवमसुरकुमा रोक्तेन प्रमाणेन नागकुमारादयोऽपि तावद्वक्तव्याः यादा स्तनि- तकुमाराः / 'पुढविकाइया' इत्यादि,पृशिवीकायिका आहारकर्मवर्ण लेश्याभिर्यथा नैरयिका उक्तास्तथा वाच्याः, पृथिवीकायि-कानामाहारादिविषयाणि चत्वारि सूत्राणि नैरयिकसूत्राणीवपृथिवीकायिकाभिलापेना भिधातव्यानीति भावः, केवलमाहारसूत्रे भावनैवम्-पृथिवीकायिकानामगुलासंख्येयभागमात्रश-रीरत्वेऽप्यल्पशरीरत्वमहाशरीरत्वे आगमवचनादवसेये, स चायमागमः- "पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणयाए चउट्ठाणवडिए" इत्यादि, तत्र महाशरीरा लोमाहारतो बह नरान् पुद्गलानाहारयन्त्युच्छ्रुसन्ति च अमीक्ष्णमाहारयन्त्यभीक्षणं चोच्छुसन्ति, महाशरीरत्वादेव, पशरीराणामन्याहाणेच्छासत्वम् अल्पशरीरत्वादेव, कादाचित्कल्वं चाहारोच्छ्रासयोः पर्याप्ततरावस्थापेक्षमिति / वेदनासूत्रमाह- 'पुढविकाइया णं भंते ! सब्वे समवेयणा' इत्यादि, 'असन्नी' ति-मिथ्यादृष्ट योऽमनस्क वा 'असन्निभूय' ति.-असंज्ञिभूता असज्ञिनां या जायते तामित्यर्थः, एतदेव व्यनक्ति- 'अणिययं' ति-अनियताम-अनिर्धारिता वेदयन्ते, वेदनामनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपात्ताशुभकर्मपरिण तिरियमि Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 407 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम त्यवगच्छन्ति मिथ्यादृष्टित्वादमनस्कत्वाद्वा मत्तमूञ्छितादिवदिति भावः / क्रिरासूत्रे- 'माइमिच्छादिहि' त्ति-मायावन्तो हि तेषु प्रायणात्पद्यन्त, यदाह-शिवशर्माचार्यः- "उम्मग्गदेसओ मग्गनासओ गढहिययमाइयो / सढसीला य ससल्लो, तिरियाउं बंधई जीवो / / 1 / / " तिसत मारिन उच्यन्ते / अथवा-माया इह समस्तानन्तानु - सन्धिकषायो लक्षण तत्तो मायिन इति, किमुक्तं भवति ? अनन्तानुबन्धिकषायोच्यवन्तः अत एव मिथ्यादृष्टयः, 'ताणं णियइयाओ' इतितषां-पृथिवी फायिकानां नैयतिक्योनियताः पञ्चेव, न तु त्रिप्रभृतय इत्यर्थ: ‘से एगणगुण मित्यादि, निगमनम् 'जाव चउरिदिया' इति, इह महाशरीरत्वाल्पशरीरत्वे स्वस्वावगाहनानुसारेणावसेये, आहारश्च दीन्द्रियादीन प्रक्षेपलक्षणोऽपीति, 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नरइया' इति प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्णमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्ट्रसन्तीति यदुच्यते तत्संख्यातवर्षायुषोऽपेक्ष्य तथैव दर्शनात्, न संख्यातवर्षायुषः, तेषां प्रक्षेपाहारस्य षष्ठस्योपरि प्रतिपादितलात, अल्पशरीराणां त्वाहारोच्छ्रासयोर्यत् कादाचित्कत्वं तदपर्याप्तावस्थायां लोमाहारोच्छ्रासयोरभवनेन पर्याप्तावस्थायां सद्भबनेन चार सेयं, कर्मसूत्रे यत् पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वम् इतरेषां तु महाकर्मत्वं यदायुष्कादि तद्भवेऽवद्यकांपेक्ष, वर्णलेश्यासूत्रयोरति यत्प.वोत्पत्रानां शुभवणांद्युक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नाना चाशुद्धवर्णादि बाल्यादवलयं, लोके तथा दर्शनादिति / तथा 'सेजयासंजया' इति-देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपातादेर्निवृत्तत्वात इतरण्मादनिवृत्तत्वात्। मनुष्यविषयं सूत्रमाह- 'मणुस्सा णं भंते ! सब्वे समाहारा' इत्यादि, सुगम नवरम् 'आहच आहारेंति आहच्च ऊससंति आहच्च नीर संति इति-महाशरीरा हि मनुष्या देवकुर्वादिमिथुनकारते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण अट्ठमभत्तरस आहारो' इति वचनात उच्छासनि: वारसावपि तेषां शेषमनुष्यापेक्षया अतिशुखित्वात् कादाचित्क, अल्पशरीरास्त्वभीक्ष्णमल्पं चाहारयन्ति, बालाना तथादर्शनात, समूच्छिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसंभताच, उच्छासनिःश्वासावप्यल्पशरीराणामभीक्ष्णं प्रायो दुःखबहुलत्वात, 'सेर जहा नरइयाण' मितिशेषकर्मवर्णादिविषयं सूत्रं यथा नैरपिकाणां तथाऽवसेय, नवरमिह पूर्वोत्पन्नानां शुद्धवर्णादित्वं ताराण्याद भावनीय, फ्रियासूत्रे विशेषमाह-नवरम् 'किरियाहिं मणुया तिविहा' इत्यादि, तर सरागसंयता-अक्षीणानुपशान्तकषाया वीतरागसंयता ... उपशान्तकायाः क्षीणकषायाश्च 'अकिरिया' इति वीतरागत्वेनार-. म्भादीनां क्रियाणामभावात्, ‘एगा मायावत्तिया' इति-अप्रमत्तसंयतानाम के व मायाप्रत्यया क्रिया 'कजई' त्ति-क्रियते भवति. कदाचिदुङ्गाहरक्षण प्रवृत्तानाम् अक्षीणकषायत्वात् 'आरंभिया मायावत्तिय ' इति प्रमत्तसंयतानां हि सर्वः प्रमत्तयोग आरम्भ इति भवन्यारम्भिकी क्रिया अक्षीणकषायत्वाच्च मायाप्रत्ययेति, 'सेस जहा नेरइयाण' मिति-शेषमायुर्विषयं सूत्रं यथा नैरयिकाणा तथा वक्तव्यं, तच्च सुगमत्वात स्वयं भावनीयम्। 'वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराण' मित्यादि, यथा 'असुरकुमारा सन्निभूया य असन्निभूया य तत्थ णं जे सन्निभूया ते महावेयणा असन्निभूया अप्पवयणा' इत्येवमधीता व्यन्तरा अपि तथैवाध्येतव्याः, यतोऽसुरादिषु व्यन्तरान्तेषु देवेष्वसंझिन उत्पद्यन्ते, तथा चोक्तव्याख्याप्रज्ञप्तौ प्रथमशते द्वितीयोद्देशके-"अरसन्नी ण जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु" इति-ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तमुक्तेरल्पवेदना भवन्तीत्यवसेयं, यत्तु प्रागव्याख्यानं कृतं संझिनः सम्यग्दृष्टयोऽसंज्ञिनस्त्वितरे इति, तदेवमपि घटते इति वृद्धव्याख्यानुसरणतः कृतमित्यदोषः 'एव' मित्यादि, एवमसुरकुमारोक्तप्रकारेण ज्योतिष्कवैमानिकानामपि वक्तव्यं, नवरं ते वेदनायामेवमध्ये तव्याः- 'दुविहा जोइसिया पन्नत्ता, तं जहामायिमिच्छद्दिट्टी उववन्नगा य०' इत्यादि, अथ कस्मादेवमधीयते यावता असुरकुमारवत्, 'असन्निभूया य' इति किन्नाधीयते ? उच्यते-तेष्वसचिन उत्पादाभावात्, एतदपि कथमवसेयम् इति चेत् ? उच्यतेयुक्तिवशात्, तथाहि-असङ्ग्यायुष उत्कृष्टा स्थितिः पल्योपमासंख्येयभागः, ज्योतिष्काणा च जघन्याऽपि स्थितिः पल्योपमसंख्येयभागः, वैमानिकानां पल्योपम, ततोऽवसीयतेनास्ति तेष्वसझी, तदभावाच्चोपदर्शितप्रकारेणैवाध्येतच्या नासुरकुमारोक्तप्रकारेणेति, तत्र मायिमिथ्यादृष्टयाऽल्पवेदना इतरे महावेदनाःशुभवेदनामाश्रित्येति / अथ चतुर्विशतिदण्डकमेव सलेश्यपदविशेषितमाहारादिपदैनिरूपयति- 'सलेसा णं भंते ! नेरइया' इत्यादि, यथा अनन्तरमौधिकोविशेषणरहितः प्राक् गम उक्तस्तथा सलेश्यगमोऽपि निरवशेषो वक्तव्यः यावद्वैमानिकः-वैमानिकविषयं सूत्रं, सलेश्यपदरूपविशेषणमन्तरेणान्यस्य विशेषणस्य क्वचिदप्यभावात् / अधुना लेश्याभेदकृष्णादिविशेषितान् षड्दण्डकानाहारादिपदैविभणिषुराह-- 'कण्हलेसाणं भंते ! नरइया' इत्यादि, यथा औधिकाविशेषणरहिताः आहारशरीरोच्छासकर्मवर्णलेश्यावेदनाक्रियोपपाताख्यैर्नवभिः पदैः प्राग नैरयिका उक्तास्तथा कृष्णलेश्याविशेषिता अपि वक्तव्याः नवरं वेदनापदे नैरयिका एवं वक्तव्याः 'माइमिच्छादिट्ठी उववन्नगा य अमायिसम्मादिट्टी उववन्नगा य' इति, न चौधिकसूत्रे इव 'सन्निभूया य' इति, कस्मादिति चेद, उच्यते इहासंज्ञिनः प्रथमपृथिव्यामेवोत्पद्यन्ते "असन्नी खलु पढम" मिति वचनात्, प्रथमायां च पृथिव्यां न कृष्णलेश्या, यत्र च पञ्चम्यादिषु पृथिवीषु कृष्णलेश्या न तत्रासंज्ञिन इति, तत्र मायिनो मिथ्यादृष्ट यश्च महावे दना भवन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्तिनी स्थितिमशुभां ते निर्वर्त्तयन्ति, प्रकृष्टायां च तस्यां महती वेदना इतरेषु विपरीतति। असुरकुमारादयो यावत् व्यन्तरास्तावद्यथा औधिका उक्तास्तथा वक्तव्याः, नवरं मनुष्याणां क्रियाभिविशेषः, तमेव विशेष दर्शयति- 'तत्थ णं जे ते' इत्यादि तत्र तेषु सम्यग्दृष्ट्यादिषु मध्ये ये ते सम्यग्दृष्टयस्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथासंयता असंयताः संयतासयताश्च, 'जहा ओहियाण' मितिएतेषां यथौधिकानामुक्तं तथा कृष्णलेश्यापदविशेषितानामपि वक्तव्यं, तद्यथा-संय Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम 408 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समंता तानां क्रिये--आरम्भिकी, मायाप्रत्यया च / कृष्णलेश्या हि समम / आकाशे, भ०२० श०२० / उत्त / सहेत्यर्थे, उत्त. प्रासंयतानां भवति नाप्रमत्तसंयतानां तेषां तु यथोक्तरूपे एव द्वे 16 अ आचा। क्रिय, संयतासंयताना तिस्रः-आरम्भिकी, पारिगहिकी, माया विषयसूचनाप्रत्यया च / असंयताना चतसः आरम्किी , पारिगहिकी, (1) शमस्थ स्वरूपनिरूपणम्। मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानक्रिया चेति / ज्योतिष्कवैमानिकारतु (2) अष्टकेन शमस्य गुणकथनम्। सासुतिसमुलेश्यासुन पृच्छयन्ते, किमुदत्तं भवति? दिवयं रात्र (E) नैरयिकादीनां समाहारसमशरीरादिविषये पृच्छ।। नवक्तव्यं, तासां तेष्वभावात्, यथा र कृष्णलेश्याविषय सूत्रम्मत समइकमंत त्रि० (समतिकामत) नानाप्रदेशान् उल्लङ्करति, उत्त तथा नीललेश्याविषयमपि वक्तव्यं, नानात्वाभावाद / एतदेवा-- 14 अ०। कल्प० भ०। 'एवं जहा किण्हलेसा विचारिया तहा नीललेर सा विचारया समइमा स्त्री० (समतिमा) शुष्कमण्डके, बृ० 1 उ० ३प्रक) / नीललेश्याविषयोऽपि सूत्रदण्डक एवमेव, केवलं कृष्णलश्यापदरथा समइय न० (समयिक) सम्यक्रशब्दार्थ , समित्युपसर्गः सम्यक् अयः नीललश्यापदमुचरितव्यमिति भावः, 'कापातलेर सा इत्यादि, समयः सम्यग-दयापूर्वकं जीवेषु प्रवर्त्तनं सोऽस्टास्तीति / पातलेश्या हि सूबतो नीललेश्येव नयिकभ्य आरभ्य यावढ्य - अतोऽनेकस्चरात् / / 7 / 2 / 6 / / ति इकप्रत्ययः / सामायिके, आ० म० 'तरास्तावद्वक्तव्या, नवरं कापोतलेश्यायां नरयिकावेदनासूचे 1 अ० / विशे०। यथापिकास्तमा तव्याः- 'नेरझ्या दुविहा पन्नत्तासन्निभूया य "हस्तिनागपुर सेन, पार परिवारा असनिन्याय' इ-वं धक्तव्या इति भावः, असम्झिनामपि प्रथम औत्पातिकाभवत ने मार्तडमडलम्।।८।। व्यमुत्पादात् तत्र च कापोतलेश्याभावात,तजालेमाविषय निर्यान्तिनकरितऽथ, दभदन्तोऽभ्यधत्त तान्। सूत्रमाह. 'तेउलेस्सा ण भते ! असुरकुमारा इत्यादि, इह नारक - भीरवः फेरखइन,शून्ये रबैरवरा अहाँ / / 6 / / तेजोवायुविकलेन्द्रियाणां तेजोलेश्या न संभवति ततः प्रथम अस्ति जीवि:मन्तश्चे--तन्निःसरत संप्रति। एतार रकुमार विषयं सूत्रमुक्तम्, अत एव तेजा वायु : कर्षितुं विक्रमस्वण्णं निकषोऽहं स एष वः / / 10 / / विकलेन्द्रियसूत्रमपि न वक्तव्यम्, असुरकुमारा अपि यथा प्रागोधात निर्भसिता अपि न ते, निर्जीवा इव निर्ययुः। उक्तास्तथा वक्तव्याः, नवरं वेदनापदे यथा ज्योतिष्कारतथा दमदन्तो चलित्वाऽथ, निजं नगरमागमत् / / 11 / / धक्तव्याः, 'सन्निभूया य असन्निभूया य' इति न वक्तव्याः,कि तु अथान्यदास निर्विद्य, कामभोगेऽग्रही व्रतम्। 'माइमिच्छहिट्टि उववन्नगा' अमाइसम्मदिट्टि उवचन्नगा इति निर्ममत्वन विहरं -श्वाययौ हस्तिनापुर।१२।। वक्तच्या इति भावः, असज्ञिनां तेजोलेश्यावत्सूत्पादाभावात, तस्थौ बहिः प्रतिमथा, सुमेरुरिव निश्चलः। पृथिव्यबवनस्पतयः तिर्यक पोन्द्रिया मनुष्याश्च यथा प्रा. राजवाट्यागतैर्दृष्टः, पाण्डवैः पशभिर्नतः।।१३।। गाजिकास्तथा वक्तव्याः नवरं मनुष्याः क्रियाभिर्ये संयतास्त प्रम तत्र दुर्योधनोऽन्वामाद ज्ञापित: केनविच सः / काश्चाऽप्रमत्ताश्च भणनीयाः,उभयेषामपि तेजोलेश्यायाः संभवात, "समा वीयरागाय नत्थि ति 'सरागसंजया वीअरागसंजयाय' इति स एष दमदन्तोऽह-मातुलिङ्गेन सोद्यतम्॥१४|| नवकतच्या इत्यर्थःधीतरामा तेजोलेश्यायः अराव सन्यरेकेक: क्षिा: सोऽश्मराशीकृतोऽश्मभिः / श्रीपदापन्यासस्य तेजोलेश्याया: समाजका Is: काव्यरत्यन्मादयो, दृषद्राशिममुं व्यधात् / / 15 / / पदोपन्यासस्य चायोगात, वाणमंतरा तेउलेसा हा राज्ञा विरूप सोऽभाणि, प्रस्तरास्तेऽपनिन्यिरे। असुकुमारा' इति तेऽपि 'माइमिच्छादिट्टी उववन्नगा अमाई महिताऽन्यज्य तलन,क्षमितश्चातिभक्तितः॥१६॥ सम्मादिट्टी उववन्नगा य' इत्येवं वक्तव्याः न.तु.. 'सन्निभूया य भवतः पाण्डुपुत्रेषु, धार्तराष्ट्रे च हन्तरि। असन्निभूया य इति, तेष्वपि तेजालश्यावत्सु मध्यऽसहिनामु... समो भावोऽभवत्तस्य,राजर्षेरुपरिद्वयोः // 17 // पादाभावात् 'एवं पम्हलेसा विभणियत्वा' इति, एवं-तजालश्या - आक०१०। क्तप्रकारण पदालश्याऽपि वक्तव्या, किमविशेषेण सर्वेयपि ? समइविकप्प ( (समालविकल्प) निजबुद प्रेक्ष पा) नत्याह-नवर जासिं अस्थि' इति नवरम् - अयं विषयः येषां 14 विवर नहाल३५:ऽस्ति तब्येव वक्तव्या, न शेषषु तत्र पान्द्रय तरना समउल्ल त्रिः (समतुल्य) सदृशाथे,स्था- 2 0 3 उ! मनः / मानिकानां चास्ति न शेषाणामिति तद्विषयमेवं तस्याः | समंजस त्रिक (रामवस) - 19 23.33 ललच्याऽपि तत्रैव वक्तव्या यथा पालेश्या साऽपि समंतओ अन्यः (समंसतस) सवासुदिदिया, आ० मा अल! पनि तष पालमा सर्वमपि तथैव धौधिकाना गम उक्तः, ___ जी / सूत्रः / प्रश्न : विधा० सः / / पचलत्या शुक्लारया र येषामरित तान साक्षादुर दयनि- 'नवरं | समंतभद्द पुं० (समन्तभद्र) बुद्ध शाक्यसिंहे. स्वानामख्यात विदुषि, पम्हालवसकलसाओ' इत्यादि सुगमम् / प्रज्ञा १७पर उ०। द्वा४ द्वा० / स्या। समनुगत, राc शब्दार्थ, भी श६ पदैरक्षः सा | समंता अव्य (समन्तात) सर्वत इत्यथे, भ०७ श०६ उ० / स्था०७ ठा० 3 उपर्ण सू०प्र०१०पाहु / निम्नान्न स्वाभावात विनिश्चिताणे, स्था० 10 ठा०३ उ० / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस 406 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समट्ट समंस 0 (समांश) समच्छेदे, स०६७ सम०॥ समक- समकालं व्यवच्छिद्यमानो बन्धोदयो यासां ताः समकव्यवचंदमंडलेणं एगसद्धिविभागविभाइएसमंसे पण्णत्ते, एवं सूरस्स वि। जिटामानबन्धोदयाः / मुगपद्वन्धोदयशालिनीषु कर्मप्रकृतिषु पं० सं० 3 (सू०-६१+) द्वार। 'चन्द्रमण्डले' चन्द्रविमानं णमित्यलंकृतौ 'एगसहि' ति-योजन. समगब्भसत्थ न० (समगर्भशास्त्र) प्रशमगर्भशास्त्रे, षो० 4 विव० रयकपष्टितमै नांगैर्विभाजित-विभागैर्व्यवस्थापित समाशंसमविभागं समग त्रि० (समग ) सम्पूर्णे, तं०। समस्ते, बृ० 1 उ०१ प्रकला परिपूर्णे, प्रज्ञप्त, न वि.माश, योजनस्यैकषष्टिभागानां षट्पञ्चाशाद्भागप्रमाण पशा०१४ विव०। औ० / दश० / प्रव० / दर्श०। प्रश्नः / सू० प्र०॥ वात्तस्यावशिस्य च भागस्याविद्यमानत्वादिति, ‘एवं सूरस्स वित्ति समन्विते, उत्त०८ अ०। निरवशेष, अनु०॥ (वं सूरियापि मण्डल वाच्यम्, अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागमात्रं हि ततन / समचउरंस न० (समचतुरस्र) समंनाभेरुपर्थधश्च सकलपुरुष-- सापरम्शान्त तस्याप्यस्तीति समांशतेति / स०६१सभ०। लक्षणोपेतावयवतया तुल्यम्, अन्यूनाधिकाश्वतस्रोऽस्रयो यस्य समंसु ना (श्रु) कूचरोमणि, प्रश्न०३ आश्र० द्वारा चितुरस्त्र, समं च तातुरस्रं च समचतुरस्त्रम्।तं०। तुल्यारोहपरिणाहे, समकडग न० समकटक) स्वनामख्याते नगरे, उत्त०१३ अ०। सम्पूर्णाङ्गावयवरवाहलाष्टशतोच्छ्ये, तुल्यारोहपरिणाहत्वेन समत्वात् समकम्म त्रि० सभकर्मन) कर्मसमे, भ०१श०२ उ०। पूर्णावयवत्वेन चतुरसत्वात्तस्य चतुरस्रं सङ्गतमिति पर्यायौ / भ० 14 श०० उ०1 प्रज्ञा० / कर्म०! जी०। चं० प्र० 1 अनु० / रामाः-- समकरण पुं० समकरण) झोषे, “झोसित्ति वा समकरण ति वा एमहा' शरीरलक्षणाक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसयो यस्य तत्समचतुरस्रम्, रा०० उ०। असस्त्विह चतुर्दिविभागोपलक्षिताः शरीरावयास्ततश्च सर्वेऽप्यवयवाः समकरणी स्त्री (समकरणी) तुल्यरेखाभेदे,यत्र प्रदेशे धरणकसहिता शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाव्यभिचारिणो यस्य न तु न्यूनाधिकप्रमाणाः / तुला ध्रियमा समा भवति तत्र प्रदेशे समतापरिज्ञानार्थमेका रेखा तुल्यशरीरलक्षणोपतावयवयुक्तेषु, स्था०६ ठा०३ उ०। भवतीभ्यर्थः / ज्यो०२ पाहु०। समचउरंससंठाण न० (समचरत्रसंस्थान) समाः-शास्त्रोक्तसमकिरिय त्रि, (समक्रिय) समानक्रिये, भ० 1 श० 2 उ०। लक्षणाविसंधादिन्यश्चतस्रोऽरायो यस्य तत्संस्थान पर्यङ्कासनापविष्टरय (अत्र दण्डकः 'सम्म शब्दे, अस्मिन्नेव भाग विस्तरतो गतः।) जानुनारन्तरम। संस्थानभेदे, कर्म०१ कर्म०। स०। चं० प्र०) उत्त० / समक्ख त्रि० (समक्ष) सम्मुखे, आ० म०१ अ०। आव० स्थान समचउरंससंठाणसंठिय त्रि० (समचतुरससंस्थानसंस्थित) समक्खाय पुं॰ (समाख्यात) कथिते, संथा०। प्रतिपादिते. सभचतुर। च तत्संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानं तेन संस्थिताः। समिक्खिय पुं(समीक्षित) समीहिते, पूर्व बुद्ध्या पर्यालोचिते, प्रश्न समचतुरस्रसंस्थानवत्सु,जी०३ प्रति० 4 अधि०। रा०! सू० प्र० २संव० द्वार समचक्कवालसंठिय त्रि० (समचक्रवालसंस्थित) समचक्रवाल समखुर त्रि० (समखुर) तुल्यशफे, 'समखुरवालिहाणं' समखुर समचक्रवालरूपसंस्थित संस्थान यस्य स तथेति विग्रहः / वृत्ते, चं० प्र० यालिधाना तुन्यशफपुच्छो / उपा०७ अ०1 4 पाहु। समखेत्त न० (समक्षेत्र) सम-स्थूलं न्यायमाश्रिस्य त्रिंश-मुहतभाग्य समच्छेय पु० (समच्छेद) भने, आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। क्षत्रमाकाशलक्षणं येषां तानि / स्था०६ ठा०३ उ० / यावत्प्रमाण समज न० (श्रमज) शरीरजले, प्रव० 40 द्वार।। क्षत्रमहोरात्रेण गभ्यते नक्षत्रस्तावत् क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रेण सह योग यान्ति समजोइभूय पुं० (समज्योतिर्भूत) समः-तुल्यो ज्योतिषाऽनि ना भूतो पन्ति तानि समक्षेत्राणि। चं० प्र०१०पासू० प्र०। इह यावत्प्रमाण जातो यः स तथा / अग्रिकल्पीभूते, विपा०१ श्रु०६ अ०भ० 1 दिश०। क्षत्रमहारात्रेण गम्यतस्र्येण तावत्प्रमाणं चन्द्रेण सह योगं यान्तिगच्छन्ति समज्जुणिंसु क्रिया (समार्जिवत्) गृहीतवति, भ० 28 श०१ उ०। सानि समक्षेत्राणि / सममहोरात्रप्रमितं क्षेत्र (ज्यो०६ पाहु०।) समन्जिणित्ता अव्य० (समय॑) शुभकर्मोपचयं कृत्वेत्यर्थे , सूत्र० 1 श्रु० चन्द्रयोगमधिकृत्याऽस्ति येषा तानि समक्षेत्राणि। तथाविधेषु ज्यातिष्क- 5 अ०१ उ०। चारक्षे त्रेषु, सू. प्र० 10 पाहु०। समज्जिय त्रि० (समर्जित) रागद्वेषाभ्यामुपागते. उत्त० 26 अ०! समग न० (समक) सार्द्धशब्दार्थ, व्य० 2 उ०। युगपदेककाले, दश० कचवरापनयने भ० 11 श०१० उ०। 4 अ० / प्रज्ञा / ज्ञा० / आ० म०। पुं०। वैतादयपर्वतेषु विद्याधरमनुष्येषु, समट्ठ त्रि० (समर्थ) प्रतिपत्तुं योग्ये,सूत्र०२ श्रु० 4 अ०। चं० प्र०ा ज्ञा० / आ० पू०१०। उपपन्ने, जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ० / भ० / सङ्गते, कर्मपुद्गलानां समगवोच्छिज्जमाणबंधोदया स्त्री० (समकव्युच्छिद्यमानबन्धो-दया) | सातिशये ज्ञानगम्यत्वात्। औ०। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समट्टिइ 410 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समण समट्टिइ त्रि० (समस्थिति) सममेवोत्पन्ने, भ०३४ श०१ उ०। समण पुं० (शमन) चिकित्सायाम, आव० 4 अ०। रोगप्रशमने, नि०५० / 20 उ०। औषधे, व्य०३ उ०॥ समण पुं० समिति समतया शत्रुमित्रादिषु अगति प्रवर्तते इति समणः प्राकृततया सर्वत्र 'समण' ति / स्था० 4 ठा० 4 उ० / अणत्यनेकार्थत्वाद्धातूना प्रवर्तते इति समणो निरुक्तिवशात् / सर्वत्र तुल्यप्रवृत्तिमति, भ० 1 श०१ उ० / स्था० / सूत्र० / अनु०। जह मम ण पिअंदुक्खं, जाणिआ एमेव सव्वजीवाणं / न हणइन हणावेइ अ,सममणई तेण सो समणो।।३।। यथा मम-स्वात्मनि हननादिजनितं दुःखं न प्रियमेवमेव सर्वजी-वानां / तन्नाभीष्टमिति ज्ञात्वा-चेतसि भावयित्वा समरतानपि जीवान्न हन्ति स्वयं, नाप्यन्यैर्घातयति, चशब्दात्-घतश्चान्यान्न समनुजानीत इत्यनेन प्रकारेण 'सममणति' त्ति--सर्वजीवेषु तुल्य वर्त्तते यतस्तेनासी समण इति गाथार्थः / अनु०। *समनस् पुं० सह मनसा शोभनेन निदानपरिणामलक्षणतापरहितेन च वर्तत इति समनाः, तथा-समानं स्वजनपरजनादिषु तुल्यं मनो यस्य सः समनाः / सर्वत्र समभावेषु, स्था० 4 ठा०४ उ०। तदेवं सर्वजीवेषु समत्वेन समणतीति समण इत्येकः पर्यायो दर्शितः, एवं समं मनोऽस्येति समना इत्यन्योऽपि पर्यायो भवत्येवेति दर्शयन्नाहणत्थिय से कोइ वेसो, पिओ असव्वेसुचेव जीवेसु। एएण होइ समणो, एसो अन्नोऽविपज्जाओ।।४।। नास्ति च 'से' तस्य क्वचिद् द्वेष्यः प्रियो वा, सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वाद, अनेन भवति सम मनोऽस्येति निरुक्तविधिना समना इत्येषोऽपि पर्याय इति गाथार्थः / अनु०। *श्रमण पुं० श्राम्यतीति श्रमणः / साधी, स्था० 4 ठा० 4 उ०। श्राम्यतिश्रममानयति पञ्चेन्द्रियाणि मनश्चेति श्रमणः / दर्श० 3 तत्त्व / पं० चू०। श्राम्यति-संसारविषयखिन्नो भवति तपस्यतीति वा नन्दादित्वात कर्तर्यनट् / श्रमणः / ध० 2 अधि० / “कृत्यल्युटो बहुलमिति" वचनात कर्तरि ल्युट्। दश० 1 अ०। श्रमुतपसि खेदे / आ० चू० 3 अ० / आव / श्राम्यतीति श्रमणः / विशे०। उत्त। स्था० 1 आचा०। सूत्र०॥ तदेव पूर्वोक्तप्रकारेण सामायिकवतः साधोः स्वरूपं निरूप्य प्रकारान्तरेणापि तन्निरूपणार्थमाहउरगगिरिजलणसागर-नहतलतरुगण समो अजो होइ। भमरमियधरणिजलरुह-रविपवणसमो असो समणो / / 5 / / स श्रमणो भवतीति सर्वत्र संबध्यते,यः कथंभूतो भवतीत्याह-उरगःसर्पस्तत्समः परकृताश्रयनिवासादित्येवं समशब्दोऽपि सर्वत्र योज्यते, तथा गिरिसमः परीषहोपसर्गनिष्प्रकम्पत्वात्, ज्वलनसमस्तपरतेजोमयत्वात् तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तः, सागरसमो गम्भीरत्वात ज्ञानादि रत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्र माच्च, नभस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात. तरुगणसमः सुखदुःखयोरदर्शितविकारत्वात, भ्रमरसमोऽनियतवृत्तित्वात, मृगसमः संसारभयोद्विग्नत्वात्, धरणिसमः सर्वखदसहिष्णुत्वात्, जलरुहसमः कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तदूर्ध्व वृतेः,रविसमः धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्याविशेषण प्रकाशकत्वात. पवनसमश्च सर्वत्राप्रतिबद्धत्वात्, स एवंभूतः श्रमणो भवतीति गाथार्थः। यथोक्तगुणविशिष्टश्च श्रमणस्तदा भवति यदा शोभनं मनो भवेदिति दर्शयतिसो समणो जइ सुमणो, भावेण जइण होइपावमणो। सयणे अजणे यसमो, समोअमाणाऽवमाणेसु॥६॥ ततः श्रमणो यदि द्रव्यमन आश्रित्य सुमना भवेत्, भावननश्चाश्रित्य यदि न भवति पापमनाः। सुमनस्त्वचिहान्येव श्रमणगुणत्वेन दर्शयतिस्वजने च-पुत्रादिके जने च-सामान्ये समोनिर्विशषः मानापमानयोश्च सम इति गाथार्थः / अनु०। पशा०।दश। “यः समः सर्वभूतेषु,सेषु स्थावरष च / तपश्चरति श्रद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः" ||1|| इति। दश१ अ०॥ श्रमणनिक्षेपःसमणस्स उ निक्खेवो, चउक्कओ होइआणुपुवीए। दव्वे सरीरभविओ, भावेण उसंजओ समणो।।१५३।। श्रमणस्य तु-तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु श्रमणेना धकार इति विशेषणार्थः, निक्षेपश्चतुर्विधो भवत्यानुपूर्या नामाऽऽ'देक मेण / नामस्थापने पूर्ववत् / द्रव्यश्रमणो द्विधा-आगमता, नो-आगमतश्च / आगमतो ज्ञातानुपयुक्तः, नोआगमतस्तुज्ञशरीरभव्य-शर रतद्व्यतिरिक्तोऽभिलापभेदेन दुमवदवसेयस्तं चानेनो-पलक्षयति / 'दध्ये सरीरभविओ' त्ति-भावश्रमणोऽपि द्विविध एव-आगमतो ज्ञानोपयुक्तः, नोआगमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः। तथा चाह-भावतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः। अस्यैव स्वरूपमाहजह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं। न हणइन हणावेइय, सममणई तेण सो समणो॥१५४।। नत्थिय से कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसुचेवजीवेसु। एएण होइसमणो, एसो अन्नो विपज्जाओ।।१५५|| तो समणो जइ सुमणो,भावेण य जइन होइ पावमणो। सयणे य जणे य समो, समो उमाणावमाणेसु॥१५६।। उरगगिरि जलण सागर-णहयलतरुगणसमो य जो होइ। भमरमिगधरणिजलरुह-रविपवणसमोजओ समणो।।१५७|| (गाथाचतुष्टयं सुगमम्।) विसतिणिसवाययंजुल-कणियारुप्पलसमेण समणेणं। भमरुंदुरुनडकुकुड-अद्दागसमेण होयव्वं / / 1 / / (प्र०) Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समण 411 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समण श्रमणन विषसमेन भवितव्य भावतः सर्वरसानुपातित्वमधिकृत्य तथा तिनिशसमेन मानपरित्यागतो नमेण वातसमेनेति पूर्ववत् / वज़ुलो--- वेतसरतत्रागन क्रोधादिविषाभिभूतजीवानां तदपनयनेन / एवं हि श्रूयते-- किल वेतसनवाप्य निर्विषा भवन्ति सर्पा इति / कर्णिकारसमेनेति तत्पुष्पवत्प्रकटेन अशुचिगन्धापेक्षया च निर्गन्धेनेति / उत्पलसदृशन प्रकृतिधवल नया सुगन्धित्वेन च, भ्रमरसमेनेति पूर्ववत् / उन्दुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया, नटसमेन तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तद्वेषकरणेन, कुर्कुटसमेन विभागशीलतया, स हि किल प्राप्तमाहार पादेन विक्षिप्यान्यः सह भुइक्ते इति, आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणाद्यनुवृत्तिप्रतिविम्बभा पन च। उक्तं च-“तरुणम्मि होइ तरुणा,थेरो थेरहिं डहरए डहरा / अदाओ विव रूपं,अणुयत्ताइ जस्स जं सील" / / 1 / / एवंभूतेन श्रमाणन भटितव्यमिति गाथार्थः / इरः किल गथा भिन्नकर्तृकी अतः पवनाऽऽदिषु न पुनरुवातदोष इति / सांप्रत तत्वभेदपर्यायव्याख्येति न्यायाच्छ मणस्यैव पर्यायशब्दानभित्सुिराह-- पव्वइय अणगारे, पासंडे चरग तावसे भिक्खू। परिवाइए यसमणे, निग्गथे संजए मुत्ते।।१५८|| प्रकर्षणजितो-गतः प्रवजितः। आरम्भपरिग्रहादिति गम्यते। अगारगृहं तदस्य स्तीत्यगारोगृही न अगारोऽनगारः / द्रव्यभावगृहरहित इत्यर्थः / पखण्डव्रतं तदस्यास्तीति पाखण्डी / उक्तं च- "पाखण्ड अतनित्याहुन्तद्यस्यास्त्यमलं भुवि।स पाखण्डी वदन्त्यन्ते, कर्मपाशाद्विनिर्गतः / / 2 / / " चरतीति चरकस्तप इति गम्यते / तपोऽस्यास्तीति तापसः / भिक्षणशीलो भिक्षुः,भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कति भिक्षः / परि समन्तात्पावर्जनेन व्रजति-गच्छतीति परिव्राजकः। चः समुचये। श्रमणः पूर्ववत / निर्गतो ग्रन्थान्निग्रन्थः बाह्याभ्यन्तरगन्थरहित इत्यर्थः / समेकीभावेनाहिंसादिषु यतः-प्रयत्नवान् संयतः। मुक्तो बाह्याभ्यन्तरण ग्रन्थनैवेति नाथार्थः। तिन्नेताई दविए, मुणीय खंतेय दंतविरए य। लूहे तीरहे विय, हवंति समणस्स नामाइं॥१५६।। तीर्णवांस्तीर्णः संसारमिति गभ्यतं / त्रायत इति त्राता धर्मकथादिना संसारदुःखेभ्य इति भावः, रागादिभावरहितत्वाद् / द्रव्यम्-द्रवति गच्छति तास्तान ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यम् / मुनिः पूर्ववत् / चः समुचये / साम्यतीति क्षान्तः-क्रोधविजयी एवमिन्द्रि-यादिदमनाहान्तः, विरत:-प्राणातिपातादिनिवृत्तः,स्नेहपरित्यागाद रूक्षः,तीरेखार्थोऽस्येति तीरार्थी संसारस्येति गम्यते / तीरस्थो वा सम्यक्त्वादिप्राप्तेः संसारपरिमाणात् एतानि भवन्ति श्रमणस्य नामानिअभिधानानोति गाथार्थः / निरूपितः श्रवणशब्दः / दश०२ अ०। स०। आ०म० / नं०। उत्त० / सूत्र० / अनु०। स्था० / रा०। जं०। दर्श०। सर्वत्राऽरक्तद्विष्टचित्ते, उत्त० 12 अ० स्था० / आचा० / सर्वत्र वासीचन्द्रनकल्पे, सूत्र०१ श्रु० 16 अ० 'निगंथ सक्क तावस-- गेरुसआजीव पंचहा समणा।' इति वचनात् पञ्चपाखण्डान्याश्रिते साधौ, अनु० / सूत्र०। ज०। पिं० / प्रश्न०। इदानी समण' ति चतुर्नवतं द्वारमाहनिग्गंथ सक्क तावस,गेरुय आजीव पंचहा सगणा।। तम्मि य निग्गंथा ते, जे जिणसासणभवा मुणिणो॥३८|| सक्का य सुगयसिस्सा,जे जमिला ते उतावसा गीया। जे धाउरत्तवत्था, तिदंडिणो गेरुया ते उ॥३६।। जे गोसालगमयमणु-सरंति भन्नंतिते उ आजीवा।। समणत्तणेण भुवणे,पंच वि पत्ता पसिद्धिमिमे।।४।। निर्गन्थाः शावयास्तापसा गेसक्या आजीवाश्च पञ्चधा पञ्चभेदाः श्रमणा भवन्ति तम्मि' ति प्राकृतत्वादेकवचनं, ततस्तेषु निर्ग्रन्थानां मध्ये निर्ग्रन्थास्त भण्यन्त ये जिनशासनभवाः-प्रतिपन्न-पारमेश्वरप्रवचना मुनयः-साधवः, तथा शाक्याः सुगतशिष्या बौद्धा इत्यर्थः, ये च जटिला-जटाधारिणो वनवासिपाखण्डिनस्ते तापसा गीता:-कथिताः, ये धातुरक्तवस्त्रास्त्रिदण्डिनस्ते तु गेरुकाः-परिव्राजका इत्यर्थः, तथा ये गाशालकमतमनुसरन्ति भण्यन्ते ते तु आजीवका इति। एते पशापि श्रमणत्वेन भुवने प्रशस्ति प्राप्ता इति। प्रव०६४ द्वार / दश०। आचा०। तपस्विनि, सूत्र०१ श्रु०२ अ०। स्था० / अनु०॥ साम्प्रतं श्रमणशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमुद्भावयन्नाहएत्थ वि समणे अणिस्सिए अणियाणे आदाणं च अतिवायं च मुसावायं च बहिद्धं च कोहंचमाणंच लोहंच पिज्जं च दोसंच इच्चेव। जओ जओ आदाणं अप्पणो पदोसहेऊ ततो तओ आदाणातो पुव्वं पडिविरते पाणाइवाया सिआ दंते दविए वो-सट्ठकाए समणे त्ति वच्चे // 2 // अत्राप्यनन्तरोक्ते विरत्यादिके गुणसमूहे वर्तमानश्रमणोऽपि वाच्यः / एतद्गुणयुक्तेनापि भाव्यमित्याह- निश्चयेनाधिक्येन वा श्रितो निश्रितः, न निश्रितोऽनिश्रितः क्वचिच्छरीरादावप्यप्रतिवद्धस्तथा न विद्यते निदानमस्येत्यनिदानो-निराकासोऽशेषकर्मक्षयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत, तथा दीयतेस्वीक्रियतेऽष्टप्रकार येन तदादानं कषायाः परिग्रहः सावधनुष्ठानं वा, तथाऽतिपातनमतिपातः प्राणातिपात इत्यर्थः, तं च प्राणातिपात ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदेवमन्यत्रापि क्रिया योजनीया। तथा मृषावादोऽलीकवादस्तं च, तथा 'वहिद्ध' तिमैथुनपरिग्रहीतौ च सम्यकपरिज्ञाय परिहरेत्। उक्ता मूलगुणाः, उत्तरगुणानधिकृत्याह क्रोधम्-अप्रीतिलक्षणं मानस्तम्भात्मकं मायां च परवञ्चनात्मिका लोभमूस्विभावं तथा प्रेमअभिष्वङ्गलक्षणं तथा द्वेष—स्वपरात्मनोबांधारूपमित्यादिकं संसारावतरणमार्ग मोक्षाध्वनो-ऽपध्वंसक सम्यक् परिज्ञाय परिहरेदिति / एवमन्यस्मादपि यतो यतःकर्मोपादानादइहामुत्र चानर्थहतोरात्मनोऽपायं पश्यति प्रद्वेषहेतूंश्च ततस्ततः प्राणातिपाता दिकादनर्थदण्डादानात् पूर्वमेव-अनागतमेवात्महितमिच्छ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समण 412 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समणपज्जु० न प्रतिविरतो भवेत् सर्वस्मादनर्थहेतुभूतादुभयलोकविरुद्धाद्वा / समणगुणविउ पुं० (श्रमणगुणविद्) श्रमणगुणान् वेत्तीति, विद्ज्ञाने, सावद्यानुष्ठानान्मुमुक्षुर्विरतिं कुर्यात्। यश्चैवंभूतो दान्तः शुद्धो द्रव्य- श्रमणगुणविद् / मूलोत्तरगुणज्ञातरि, नि० चू०१६ उ०। भूतो निष्प्रतिकर्मतया व्युत्सृष्टकायः स श्रमणो वाच्यः। सूत्र० 1 श्रु० | समणघाय पुं०(श्रमणघात) साधुमारके, “एस समणघाए' श्रम१६ अ० / 'अहिंसा सत्यमस्तेय, ब्रहाचर्यमलुब्धता।' इत्येत. घातको (गोशालकः) श्रभणयोस्तेजोलेश्याक्षेपलक्षणघ तदानात्। च्छ्रमणलक्षणम्। सूत्र०२ श्रु०६ अ०।तीर्थिक, सूत्र०२ श्रु०५ अ० / भ० 15 श०। यती, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। अनु०॥ स्था० / आचा०। तपस्युधुक्त, समणच्छण्ण पुं० (श्रमणच्छन्न) श्रमणवेषधारिणि अश्रमणे / नि० चू० निश्चलमनसि, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ / सूत्राद्वादशप्रकारत- 16 उ०। पोनिष्टतदेहे, सूत्र० 2 श्रु०६ अ० / कल्प० / जं० / स्था। तप:श्री- समणजोगमुक्कधुर पुं० (श्रमणयोगमुक्तधुर) परित्यक्तश्रम्णव्यापारे, समलिङ्गिते, स० / महातपस्विनि, ओ० / परमसभाध्युपते, आ. 01 उ०२ प्रक०। 01 अ० / परिव्राजकविशेषे, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 270 / समणत्त न०(श्रमणत्व) साधुत्वे, उत्त० 16 अ०। विदण्जिप्रभूतौ, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 3 उ० / मुक्त्यर्थ विद्यामान समणधम्म पुं० (श्रमणधर्म) श्राभ्यन्तीति श्रमणाः- साधव तेषां धर्मः साधी, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१3० / प्रव्रजिते, सूत्र०१ श्रु. 2 अ०३ क्षान्त्यादिलक्षणः श्रमणधर्मः / पा०। आव० 140 1 साधु धर्मे , आ० उ०। आम० / कृतमहाव्रताङ्गीकारे, तप: संसारखेदरूपा श्रमू चू० 4 अ / ओध०। खेदतपसोरिति धात्वर्थन युक्ते (आतु०१) साधौ, अनु० / सूत्र०। दसविहे समणधम्मे पण्णत्ते, तं जहा-खंती 1 मुत्ती 2 अज्जवे 3 उत्तः / द्वा० / पञ्चा० / 10 / जी० / मुनौ, उत्त० 1 अ० / (पशभिः मद्दवे 4 लाघवे 5 सच्चे 6 संयमे 7 तवेचियाए बंभचेरवासे 10 / स्थानः श्रमणो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवतीति महाणिज्जर' शब्द (सू०१४) 54 भागे 188 पृष्ठे गतम / ) तथावि-धबहुलाक सम्मत्या २०१०समः / स्था०। नं०। पञ्चायल०। दश०।। ति: गृहस्थपर्यायेऽपिलब्धश्रमणाभिधाने वीरस्वामिनि, अने० 1 अधिः! संथा। प्रश्र / (सभण शब्देऽस्मिन्नेव भागे अनुपदमेव पञ्चविधः भः / ज० / विशे० / कल्प० / “सभणे भीमभयभेरव ओराल अचलय श्रमणधर्म उक्तः / ) परीसहं सहइ त्ति कटु देवेहिं से णामं कयं समणे भगवं महावीरे।" समणपज्जुवासणा स्त्री० (श्रमणपर्युपासना) श्रमण (साधु) आचा० 2 श्रु०३ चू० / श्रमण-निक्षेपः-दवसभणा निन्हगादि शुश्रूषायाम, भ०1 भावसमणा जे सव्वविरएसु अहिंसादिसुयतन्ति। आ० चू०४ अ०। तहारूवं भंते ! समणं वा माहणं वा पज्जुवासमाणस्स किं फला स्वप्नपाठका इव चारणश्रमणादयः स्वप्नफलं कथयन्ति नवेति ? पज्जुवासणा?गोयमा! समणफला, सेणं भंते! समणे किं फले? प्रश्नः / अत्रोत्तरम्-- यथा स्वप्नपाठकाः स्वप्नफलं कथयन्ति तथा नाणफले, से णं भंते ! नाणे कि फले? विण्णाणफले, सेणं भंते ! चारणश्रमणा अपि, यथा-"मज्झिभउबरिमग वि.-गाउ ता विन्नाणे किंफले? पच्चक्खाणफले, सेणं भंते! पचक्खाणे किंफले? चविअनंदिसेणसुरो। अवयरिओतम्भे, तो सा चउदस नियइ सुमिणे संजमफले, सेणं भंते संजमे किंफले? अणण्हयफले, एवं अणण्हए / / 35 // एत्थ-तरम्भि नाणी, चारणसमणो समागओ तत्थ / विहिणा तवफले, तवे वोदाणफले, वोदाणे अकिरियाफले, से णं भंते ! पुष्टो रण्णा, सुमिणाण फलं कहइ एवं॥३६॥” इति / / 24 / / सेन०। अकिरिया किंफला? सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता, गोयमा! श्रवण पुं. विष्णुनक्षत्राके नक्षत्रभेदे, चं० प्र० 10 पाहु० / गाहा--- "सवणे णाणे य विण्णाणे, पच्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए समनस् पुं० मनःपर्यायज्ञानसहिते, कर्म० 4 कर्मः / भावसहिते, प्रश्न तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी"||१।। (सू०११२) 4 संव० द्वार। 'तहारूव' मित्यादि तथारूपम् उचितस्वभाव कञ्चन पुरुषं श्रमणं समणग पुं- (श्रमणक) श्रमण एव श्रमणकः / साधा औ०। वातपोयुक्तम्, उपलक्षणत्वादस्योत्तरगुणवन्तमित्यर्थः महनवसमणगपइ पुं०(श्रमणकपति) साधुसंघाधिपती, औ०। रवयं हनननिवृत्तत्वात्परं प्रति मा हनेति वादिनम्, उपलक्ष्णत्वादद समणगुण पुं० (श्रमणगुण) श्रमणाना गुणाः श्रमणगुणाः / मूलगु- मूलगुणयुक्तमिति भावः, वाशब्दो समुच्चये,अथवा श्रमा:-साधुः णोत्तरगुणेषु, तत्र पञ्च महाव्रतानि मूलगुणाः उद्गमोत्पादनैषणादयः माहनः-श्रावकः 'सवणफले' त्ति-सिद्धान्तश्रवणफला, 'गाणफले' अष्टादश शीलाङ्ग सहस्राणि च उत्तरगुणाः। नि० चू०१६ उ०। त्ति-श्रुतज्ञानफलम, श्रवणाद्धि श्रुतज्ञानभवाप्यते. 'विणणाणफले' समणगुणमुक्कजोगि पुं० (श्रमणगुणमुक्तयोगिन्) श्रमणानां गुणा ति-विशिष्टज्ञानफलं श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारिविज्ञान.. मूलोत्तरगुणरूपाः श्रमणगुणास्तैर्मुक्ताः परित्यक्तास्तद्रहिता ये योगा मुत्पद्यत एव, पच्चक्खाणफले' त्ति--विनिवृत्तिफलम, विशिष्टज्ञानो मनोवाक्कायव्यापारास्तेयस्यसन्ति सश्रमणगुणमुक्तयोगी। संयमदुर्बले हिपापं प्रत्याख्याति, संजमफले' त्ति-कृतप्रत्याख्यानस्य हि संयमो व्य०२ उ०। भवत्येव, 'अणण्हयफले' त्ति-अनाश्रवफलः, संयमवान् किल नवं कर्म-- Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणपज्जु० 413 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समणुण्ण नषादते, ' तवफल 'त्ति-अनाश्रवो हिलधुकर्मत्वारावस्यतीति, वयात्रायाणासुकादिदाने परिणामवशादबहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं 'वोदाणफरने 'ति-व्यवदानं कर्मनिर्जरणं तपसा हि पुरातनं कर्म च पापं कम्मति, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणत्वानिर्जरयति, अकिरियाफले 'त्ति-योगनिरोधफलं, कर्म निर्जरातो हि त। आह च-" परमरहस्समिसीणं, समत्तगणिपिडगझरियसाराणं। योगनिरोधं कुरुते, 'सिद्धिपज्जवसाणफले त्ति-सिद्धिलक्षण पर्थ- परिणामियं पमाणं, निच्छयमवलंबमाणाणं " // 1 // यथोच्यते-'संवसानफलकिलफलपर्यन्तवर्ति फलं यस्यां सा तथा।' गाह ति- धरणम्णि, असुद्ध 'मित्यादिनाऽशुद्ध द्वयोरपि दातृगृहीत्रोरहितायेति संग्रहगाथा, एतल्लक्षणं चैतद्-'' विषमाक्षरपादं वा ' इत्यादि तदग्राहकस्य व्यवहारतः संयमविराधनात्, दायकस्य च लुब्धकदृछन्दःशास्त्रप्रसिद्धमिति / भ०२श०५ उ०। ष्टान्तभावितत्वेनाव्युत्पन्नत्वेन वा ददतः शुभाल्पायुष्कतानिमित्तसमणभद्द पुं० श्रमणभद्र) चम्पायां जितशत्रुनृपस्यपुत्रे युवराजे, उत्त० त्वात , शुभमपि चायुग्ल्पमहितं विवक्षया, शुभाऽल्पायुष्कतानिमित्त२०। [दसमसगपरि(री)सह शब्दे चतुर्थभागे 2436 पृष्ठ कथा।] त्वं चाप्रासुकादिदानस्याल्पायुष्कताफलप्रतिपादकसूत्रे प्राक् चर्चितं, समणभृय पुं-(श्रमणभूत) श्रमणः-साधुः स इव यः सः श्रमणभूतो यत्पुनरिह तत्त्वंतत्केवलिगम्यमिति। तृतीयेसूत्रे, 'अस्संजयअविभूतशब्दस्यपमानर्थत्वाच्छ्रमणो निर्ग्रन्थस्तद्वद्यरत्तदनुष्ठानकरणात स रये त्यादिनाऽगुणवान पात्रविशेष उक्तः। फासुरण वा अफासुएण श्रमणभूतः साधुकल्पे, स० 11 सम० / एकादशीमुपासकप्रतिमा या' इत्यादिना तु प्रासुकाऽप्रासुकादेर्दानस्य पापकर्मफलता निर्जप्रतिपन्ने श्रावके, प्रश्न० संव० द्वार। ध० / उपा० / आo 101 राया अभावश्चोक्तः, असंयमोपष्टम्भस्योभयत्रापि तुल्यत्वात् , यश्च समणमाहणपडिलाभ पुं०(श्रमणब्राह्मणप्रतिलाभ) श्रमणेभ्यो ब्रा- प्रासुकादौ जीवधाताभावेन अप्रासुकादौ च जीवघातसद्भावेन हाणेभ्यश्च प्रतिलाभने, भ०७ श० 1 उ०। (तत्फलम् 'आउ' शब्दे विशेषः सोऽत्र न विवक्षितः, पापकर्मणो निर्जराया अभावस्यैव च द्वितीयभागे 13 पृष्ठे उक्तम्। विवक्षितत्वादिति, सूत्रत्रयेणापि चानेन मोक्षार्थमेव यद्दानं तचिन्तिसमणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुए- तम निर्जरायास्तत्रानपेक्षणीयत्वाद्, अनुकम्पौचित्ययोरेव चापेक्षसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कजति ? णीयत्वादिति / उक्तञ्च- " मोक्खत्थं जं दाण, तं पइ एसो विही गोयमा! एगंतसो निजरा कज्जइ, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जति। समक्खाओ। अणुकंपादाणं पुण, जिणेहि न कयाइ पडिसिद्ध' समणोवासगस्सणं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं // 1 // इति / भ० 8 श०६ उ० / अणेसणिज्जेणं असणपाण० जाव पडिलाभेमाणस्स किं कजइ? समणलिंग न०(श्रमणलिङ्ग) साधुलिङ्गे, आव०३ अ०। गोयमा! बहुतरिया से निजरा कज्जइ अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ। समणवरगंधहत्थि न०(श्रमणवरगन्धहस्तिन ) श्रमणगजकलभानां समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं अस्संजयअविरयपडि- यूथाधिपत्यपदमुद्वहमाने, बृ० 1 उ०२ प्रक०। हयपचक्खायपावकम्मं फासुएण वा अफासुएण वा एसणिज्जेण या | समणविंदपरिवद्धय पुं०(श्रमणवृन्दपरिवर्द्धक) श्रमणा एव श्रमणअणेसणिजेण वा असणपाण० जाव किं कजइ ? गोयमा ! एगंतसो | कारतेषां वृन्दस्य परिवर्द्धको-वृद्धिकारी श्रमणवृन्दपरिवर्द्धकः। श्रसे पावे कम्मे कजइनथिसेकाइ निजरा कजइ। (सू०३३२) मणसमुदायवर्द्धक, औ०।। 'समणे' यादि, ' किं कजइ'त्ति-किंफलं भवतीत्यर्थः, एत- | समणव्वय न०(श्रमणव्रत) साधुव्रते, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। सो नि-एकान्तेन तस्य श्रमणोपासकस्य। नत्थिय से 'त्ति-ना- समणसंघ पुं०(श्रमणसंघ) साधुसंघे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। स्ति चैतद् पत्' से ' तस्य पाप कर्म क्रियते-भवति अप्रासुकदाने समणसिज्जा स्त्री०(श्रमणशय्या) साधुवसतौ, ध०२ अधि०। इवेति, बहुतरिय 'त्ति-पापकर्मापेक्षया, ' अप्पतराए 'सि-अल्प- समणसीह पुं०(श्रमणसिंह) मुनिपुंगवे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। तरं निर्जरापेक्षया, अयमर्थः - गुणवते पात्राय अप्रासुकादिद्रव्यदाने | समणी स्त्री०(श्रमणी) प्रतिन्याम् , प्रव० 1 द्वार / नि० चू० / आर्यिचारित्रकायापष्टम्भ जीवघातो व्यवहारतस्तचारित्रवाधा च भवति, काया संयत्याम् , जी०१ प्रति०।" ईदूतोर्हस्वः "||8|3142 / / ततश्चचारित्रकायोपष्टम्भान्निर्जरा जीवघातदिश्च पापं कर्म, तत्र च आमन्त्रणे सौपरेऽनेनात्रेकारस्य ह्रस्वः। हे समणि / / प्रा० 3 पाद। स्वहतुसामत्पिापापेक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं समणुजाणणा स्वी०(समनुज्ञापना) अनुमोदने, पा० / '' समणुपापं भवति। इह च विवेचका मन्यस्ते, असंस्तरणादिकारणत एवा- जाणेमाणा" आचा०१ श्रु०८ अ० 1 उ०। प्रासुकादिवाने बहुतरा निर्जरा भवति नाकारणे, यत उक्तम्- 'संथ- समणुण्ण त्रि०(समनोज्ञ) एकसामाचारीप्रतिबद्धे, औ०। आचा० रंणम्मि असुद्ध, दोण्ह वि गेहंतदितयाण हियं। आउरदिट्टतेणं, तं चेव व्य० / सांभोगिक, नि० चू०५ उ०। आचा० / बृ० / चारित्रवति संहियं असंथरणे // 1 // " इति / अन्ये त्वाहुः-अकारणेऽपि गुण- | विग्ने, आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ०। अनुमोदिते, पा०। आचा०। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणुण्ण 414 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समणोवासग *स्वमनोज्ञ पुं० स्वमनोज्ञमात्मविशेषशब्दादिविषयं तत्साधनवस्तुनि। *समनुज्ञ पुं० संविज्ञविहारिभाविते, आचा०१ श्रु० 8 अ० 130 / स्था०। समणुण्णया स्त्री० (समनुज्ञता) परस्परोपसंपदि, व्य०४ उ०। समणुण्णा स्त्री० (समनुज्ञा) समिति संगता औत्सर्गिकगुणयुक्तस्वेनोचिता आचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा / आचार्यादित्वेन समनुज्ञापने, स्था० 3 ठा०३ उ०। तिविधा समणुन्ना पण्णत्ता,तं जहा-आयरियत्ताते, उवज्झायत्ताते, गणित्ताते। (सू० 174+) 'अणुन्न' त्ति-अनुज्ञानमनुज्ञा-अधिकारदानम्, आचर्यतेमर्यादावृत्तितया सेव्यत इत्याचार्यः, आचारे वा पञ्चप्रकारे साधुरित्याचार्यः, आह च- "पंचविह आयारं, आयसमाणा तहा पयासंता। आयार दसेन्ता, आयरिया तेण वुच्चंति।।१।।" तथा "सुतत्थविऊलक्खणजुत्तो गच्छस्स मे ढिभूओ य / गणतत्तिविप्पमुक्को, अत्थं वाएइ आयरिओ / / 2 / / " तद्भावस्तत्ता तया, उत्तरत्र गणा-चार्यग्रहणादनुयोगाचार्यतयेत्यर्थः, तथा उपेत्याधीयतेऽस्मादि-त्युपाध्यायः, आह च- “सम्मत्तनाणदंसणजुत्तो सुत्तत्थतदुभ-यविहिन्नू। आयरियठाणजोगो, सुत्त वाएइ उवझाओ।।१।।" इति / तद्भाव उपाध्यायता तया, तथा गणः-साधुसमुदायो यस्यास्ति स्वस्वामिसम्बन्धेनासौ गणीगणाचार्य स्तद्भावस्तत्ता तया, गणनायकतयेति भाव इति, तथा समितिसङ्गता औत्सर्गिक गुणयु-- क्तत्वेनोचिता आचार्यादितया अनुज्ञा समनुज्ञा, तथाहि-अनु -- योगाचार्यस्यौत्सर्गिकगुणाः-"तम्हा वयसंपन्ना" कालोचियगहियसयलसुत्तत्था। अणुजोगाणुण्णाए, जोगा भणिया जिणिदेहि // 1 // इह पर (रहा) मोसावाओ, पवयणखिंसाय होइ लोयम्मि। सेसाण वि गुणहाणी, तित्थुच्छेओ य भावेणं // 2 // " इति, गणाचार्योऽप्यौत्सर्गिक एवम"सुत्तत्थे निम्माओ, पियदढधम्मोऽणुवत्तणाकुसलो। जाईकुलसंपन्नो, गंभीरो लद्धिमंतो य॥१।। संगहुवग्गहनिरओ, कयकरणो पवयणाणुरागी य / / एवंविहो उ भणिओ, गणसामी जिण वरिंदे हिं / / 2 / / " अथैवंविधगुणाभावे अनुज्ञाया अप्यभावात् कथमन्या समनुज्ञा भविष्यतीति ? अत्रोच्यते--उक्तगुणानां मध्यात् अन्यतमगुणाभावेऽपि कारणविशेषात् सम्भवत्येवासौ, कथमन्यथा विधीयते- “जे या वि मंदित्ति गुरु विइत्ता,डहरे इमे अप्पसुए ति नचा / हीलति मिच्छ पडिवजमाणा, करति आसायण ते गुरूण // 1 // " इति। अतः केषाश्चित गुणानामभावेऽप्यनुज्ञा, समग्रगुणभावे तु समनुज्ञेति स्थितम्। अथवा-- स्वस्य मनोज्ञाः-समानसामाचारीकतया अभिरुचिताः स्वमनो-ज्ञाः सह वा मनोज्ञैर्ज्ञानादिभिरिति समनोज्ञाः-एकसाम्भोगिकाः साधवः, कथं त्रिविधा इत्याह- 'आचार्यतये' त्यादि भिक्षुक्षुल्लकादिभेदाः सन्तोऽपि न विवक्षिताः, त्रिस्थानकाधिकारादिति / स्था० 3 ठा० 3 उ० / मनोज्ञाऽऽहारतया लम्पटे, बृ०१ उ०२ प्रक०। समणुबद्ध न० (समनुबद्ध) अनवच्छिन्ने, ओघ०। प्रश्न० / रा०।। समणुबद्धवेरि त्रि० (समनुबद्धवैरिन्) अव्यवच्छिन्नवैरिभावे, भ० 13 श०६ उ०। समणुमणिय अव्य० (समनुमान्य) संभाष्येत्यर्थे , नि० चू० 1 उ० / समणुवासणा स्त्री० (समनुवासना) विधाने, आचा० 1 श्रु०२ अ० 1 उ०। सम्यग्विधाने, आचा० 1 श्रु०२ अ०४ उ०। समणुसह त्रि०(समनुसृष्ट) दत्ते,आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१० उ०। समणुसुविहिय त्रि० (समनुसुविहित) शोभनं विहितमनुष्ठानं येषां ते सुविहिताः, श्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविहिताः। श्रमणशब्देन सह विशेषणसमासः / शोभनानुष्ठानवत्सु साधुषु, व्य०१उ० / दश०। समणोवासग पु० (श्रमणोपासक) श्रमणानुपास्ते सेवत इति श्रमणोपासकः / दशा०१अ०। देशविरतेन सह यः श्रमणोपासनमहिम्ना प्रतिदिनप्रवर्द्धमानसंवेगो यावजीवं सूक्ष्मबादरादिभेदपरिज्ञानवान् भवति / भ०८ श० 5 उ० / सूत्र० / आव० / श्रा० / स्था)। श्रावके, स्था०। चत्तारिसमणोवासगापण्णत्ता, तं जहा-रायणिए समणोवासए महाकम्मे तहेव 4 / (सू०३२०) श्रमणोपासकश्रमणोपासिकासूत्राणि 'चत्तारि गम' त्ति-त्रिष्वपि सूत्रेषु चत्वार आलापका भवन्तीति। स्था० 4 ठा०३ उ०। (शेषपदानांव्याख्या स्वस्वशब्दे1) चत्तारिसमणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा-अम्मापिइसमाणे भाइसमाणे मित्तसमाणे सवत्तिसमाणे। (सू० 321) 'अम्मापिइसमाणे' त्ति-मातापितृसमानः, उपचारं विनासाधुषु एकान्तेनैव वत्सलत्वात्, भ्रातृसमानः अल्पतरप्रेमत्यात्तत्त्वविचारादौ निष्ठुरवचनादप्रीतेः तथाविधप्रयोजने त्वत्यन्तवत्सलत्वाच्चेति भित्रसमानः सोपचारवचनादिना प्रीतिक्षतेः, तत्क्षतौ चापापेक्षकत्वादिति समानः--साधारणः पतिरस्याः सा सपत्नी, यथा सा सपत्न्या इविशादपराधान वीक्षते एवं यः साधुषु दूषणदर्शनतत्परोऽनुपकारी च स सपत्नीसमानाऽभिधीयत इति। स्था० 4 ठा० 3 उ० / चत्तारिसमणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा–अद्दागसमाणे पडागसमाणे खाणुसमाणे खरकंटकसमाणे / (सू० 3214) 'अहाग' ति-आदर्शसमानो यो हि साधुभिः प्रज्ञाप्यमानानुत्सर्गापवादादीनागमिकान भावान् यथावत्प्रतिपद्यते सन्निहिता र्थानादर्शकवत् स आदर्शसमानः, यस्यानवस्थितो बोधो विचित्रदेशना वायुना सर्वतोऽपहियमाणत्वात् पताकेव स पताकासमान इति, यस्तु कुत्तोऽपि कदाग्रहान्न गीतार्थदशनया चाल्यते सोऽनमनस्वभाव-बाधत्वेनाप्रज्ञापनीयः स्थाणुसमान इति, यस्तु प्रज्ञाप्यमानो न केवलं स्वाग्रहान्न चलति अपि तु प्रज्ञापक दुर्वचनकण्टकैर्विध्यति स खरकण्टकसमानः, खरानिरन्तरा निष्ठुरा वा कण्टा:-कण्टका यस्मिस्तत् खरकण्ट ब Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणोवासग 415 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समतलपइया ब्लादिडालं खरणभिति लोके यदुच्यते तच्च विलग्नं चीवरं न पोसणमवि करिस्संति परं णो णियकुलकमाऽऽगयं लंधिस्संति केवलमविनाशित न मुशति अपि तु तद्विमोचकं पुरुषादिकं हस्ता- ते आराहिया णो विराहिया। अङ्ग। दिषु कण्टकैर्विध्यतीति / अथवा-खरण्टयति-लेपवन्तं करोतीति (श्रमणोपासकनिर्जरा ‘महाणिजरा' शब्दे षष्ठभागे 188 पृष्ठे व्यायत्तत्खरण्टम् -अशुच्यादि तत्समानो यो हि कुबोधापनयनप्रवृतं ख्याता।) श्रमणोपासका आनन्दादयः उपासकदशाभिहिता इति। संसर्गमात्रादेव दूषणवन्तं करोति, कुबोधकुशीलता दुष्प्रसिद्धि- स्था० 4 ठा०३ उ० / दानाधिकारे तु श्रूयते द्विविधाः श्रमजनक वेनोत्स्त्रप्ररूपकोऽयमित्यसदुषणोद्धावकत्वेन वेति। स्था०४ गोपासका:-संविग्रभाविताः, लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्चेति / टा०३ उ०। प्रति० / धन यथोक्तम्-- 'संविग्गभावियाणं, लुद्धयदिटुंतभावियाणं च / मुतूण कहं णं भंते ! समणोवासगा आराहियपक्खा भविस्संति। जंबू! खेत्तकाले, भावं च कर्हिति सुद्धुञ्छं' / / 1 / / इति। स्था० 3 ठा०१ चउव्विहा समणोवासगा बुझ्या-रायसमाणा पियसमाणा माय- उ०। (कृतसामायिकस्य श्रमणोपासकस्य प्रत्याख्यानभङ्गाः समाणा सवत्तिसमाणा / जे रायसमाणा भविस्संति ते साहूणं सामाइयकड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यन्ते।) साहुणीणं उवद्दवे आयबलेणं धणबलेणं कुंडंबलेणं णिवारणा समणोवासगधम्म पुं० (श्रमणोपासकधर्म) श्रमणानुपासते सेवन्त इति भविस्संति, तंसिमवि साहुसाहुणीणं असमंजसायारे दठूणं श्रमणोपासकास्तेच श्रमणोपासनतोऽभिगतजीवा-जीवस्वभावास्तएगते हक्कारिऊण महुराए भासाए कहिस्संति / भो भो महाणु- थोपलब्धपुण्यपापास्तेषां धर्मः / श्रावकधर्मे , सूत्र०२ श्रु०२ अ०। भागा ! सिरिसुहम्मं सामिं अपट्टपरंपरेणं अमुगे अमुगे एयारिसे / समणोवासगपडिमा स्त्री० (श्रमणोपासकप्रतिमा) श्रावकाभिछत्तीसगुणगणधारए पावभीरू आयरिए जाए / तेहिं एअस्स ग्रहविशेषेषु, पञ्चा०। गणस्स ठवणा किं अण्णगणमज्झे वि एरिसे गुणसंपन्नो आय अथ कियत्यः किमादिकाश्वता इत्यस्यामाशङ्कायामाहरिए उवज्झाए जाए तेहिं णियपदे तुमं पि आरोविया कहं एरि- समणोवासगपडिमा, एक्कारस जिणवरेहि पण्णत्ता। सपमायधरा जाया। सारणवारणचोयणाए कहमकुसला भवह, दंसणपडिमादीया, सुयकेवलिणा जतो भणियं / / 2 / / तुम्हेहिं पमायं वहंतेहिं अम्हाणं का गई भविस्सइ / तुम्हा णं जं व्याख्या-श्रमणोपारसकप्रतिमाः श्रावकाभिग्रहविशेषाः / एकादश किंचि वि लोयजइतं अम्हाणं थेरे बहु अत्थि। असणपाणखा- संख्यया जिनवरैरहद्भिः-प्रज्ञप्ता-उक्ताः दर्शनप्रतिमादिका:इमवत्थपडिग्गहं कंबलपायपुच्छणओसहभेज्जेणं / पीढफलग-- सम्यक्त्वाभिग्रहप्रभृतिकाः / एतदेव भद्रबाहुस्वामिवचनेन समसिज्जासंथारएहिं अम्हे णियरिद्धिसमुदएणं पडिलाभिस्सामो पुण र्थयन्निमाह-श्रुतकेवलिना- परिपूर्णश्रुतधरेण भद्रबाहुस्वामिनेतुम्हारिसेहिं महाणुभागेहिं पमाओ ण कायव्वो। तहावि ते ण त्यर्थः / यतो-यस्माद्भणितमुक्तम्, इति गाथार्थः / / 2 / / पञ्चा० 10 पडिवुज्झंति तओ महाणुभागा सावया णो णियगणस्स सामा- विव०। (ताश्च स्वरूपत 'उवासगपडिमा' शब्दे द्वितीयभागे 1066 यारिं चइस्संति। अक्खए वराडए पमुहे दसविहे पुव्वायरियाणं पृष्ठे उक्ताः / ) भागाणं ठवणा काऊण आवस्सए करिस्संति, परपासंडीणं पर- समणोवासिया स्त्री० (श्रमणोपासिका) श्राविकायाम्, स्था०। गणस्स समायारिलोवगाणं किरियाए फडाडोवं दठूण णो चत्तारि समणोवासियाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रायणिया णियगणस्स समाचारीए चइस्संति / ते महाणुभागा समणोवा- समणोवासिया महाकम्मा तहेव चत्तारि गमा। (सू० 3204) सगा हविस्संति / भरहवासे थोवा चेव रायसमाणा सव्वत्थ स्था० 4 ठा० 3 0 / उचियकरणसीला गुणाणुरागिणो अगुणे समज्जत्थभाविणो समण्णागय पुं० (समन्वागत) प्राप्तानां संयुक्ते, ग०१ अधि०। रत्ना० / दीहदंसिणो सगणे परगणे वा साहुदिट्ठीए दठूण बहुआनंदपू- नि० चू०। समनुप्राप्ते, रा०। रिया समुस्ससियरोमकूवा हरिसवसविसप्पमाणहियया अभि- समण्णाहार पुं० (समन्वाहार) समागमने, स्था० 4 ठा० 2 उ०। गमणवंदणनमंसणेणं पडिपुच्छणं पज्जुवासणाए पज्जुवासि- समण्णिय त्रि० (समन्वित) सहिते, आचा० 1 श्रु० 3 अ०२ उ०। स्संति, परंणो णियगणसामायारीए लेसमविचइस्संति ते महा- संयुक्ते, पो०१४ विव० / आव० / सूत्र०। रायतुल्ला। जहा राया णियरञ्जवित्तिं ण चइति तहा ते समणो- समतल न० (समतल) अविषमे,प्रश्न०५ आश्र० द्वार / अविषवासगा पुव्वायरियाणं गुणं संभणंता एगंतसो आराहगा सत्तट्ठ- मोन्नते, (पादादी) वाते, जी०३ प्रति० 4 अधि। भवग्गहाई नाइक्कमिस्संति। मायपियसमाणा विएरिसा चेव परं | समतलपइया स्त्री० (समतलपदिका) समतले द्वयोरपि भुवि विसेसोजे मायापियसमाणा ते गणवासियाणं आयरियाणं पा- विन्यरतत्वात्पदे पादौ यस्याः सा समतलपदिका / द्वाभ्यामपि सित्ता णिचसो अक्कोसिस्संति, पुत्तमिव असणपाणाइविहीए | पादाभ्यां भुवि लग्नायाम, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समता 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समभिण्णाण समता स्त्री० (समता) इष्टानिष्टेषु वस्तुषु विवेकेन तत्त्वधियाम्, पं०३० स्या० स्था० / भ० / विशे०। १द्वार / द्वा०। समत्थणा स्त्री० (समर्थना) विधौ, विशे०। व्यवहारकुदृष्ट्योच्चै-रिष्टानिष्टेषु वस्तुषु / समत्थिय त्रि० (समर्थित) उपपादिते, प्रतिः / कल्पितेषु, विवेकेन, तत्त्वधीः समतोच्यते।।२२।। समदंसि वि० (समदर्शिन्) समानदृष्टौ, “विद्याविनयसंपन्ने, ब्राहाणे गधि व्यवहारकुदृष्ट्या अनादिमत्या वितथगोचरया कुव्यवहारस्वास- हस्तिनि। शुनि चैव श्वपाके च, पण्डिताः समदर्शिनः।।१।" सूत्र०२ नयाऽविद्यापराभिधानया उच्चैरतीव कल्पितेषु इष्टानिष्टेषु इन्द्रि-- | श्रु०५ अ० / यमनःप्रमोददायिषु तदितरेषु च वस्तुषु शब्दादिषु विवेकेन लाने - | समपत्थर पुं० (समप्रस्तर) समपाषाणे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। वार्थान द्विषतस्तानेवार्थान प्रलीयमानस्य निश्चयतो नानिष्टं न विद्यते | समपद न० (समपद) द्वयोरपि पादयोः समत्वेन नैरन्तर्यणस्थापने किंचिदिष्टं वेत्यादि निश्वयालोचनेन तत्त्वधीरिष्टानिष्टत्वपरिहारेण योधस्थानभेदे, द्वावपि पादौ समौ नैरन्तर्येण स्थापयति / उत्त तुल्यताधीरुपेक्षालक्षणा समतोच्यते / यदुक्तम्- "अविद्याकल्पि - 4 उ०। तेषूधै-रिष्टानिष्टषु वस्तुषु / संज्ञानात्तद्व्युदासेन, समता समताच्यते समपदुक्खेव न० समप्र(तिक्षे) त्युत्क्षेप समः प्रत्युत्क्षेपः प्रति क्षेपो वा ||1 // " द्वा० 18 द्वा०। मुरजकंसतालाद्यातोद्यानां यो ध्वनिस्तल्लक्षणो नृत्यपाद-क्षेपलक्षणो समताल त्रि० (समताल) समशब्दः प्रत्येक संबध्यते तेन समा- वा यरिंमस्तत्समप्रत्युत्क्षेपं समप्रतिक्षेपञ्चेति। गेयभेदे, स्था०७ ठा० स्ताला-हस्तताला उपचारात्तद्वचोऽस्मिस्तत्समतालम्। तालैः सर्म, 3 उ०। स्था०७ ठा०३ उ० / गीतादिमानकलितानां समोऽन्यूनाधि- समपाद न० (समपाद) युद्धस्थानभेदे, “समपादद्वितो जुज्झत्ति तं कमातृकत्वेन यस्माद् ज्ञायते तत्समतालविज्ञानम्। कलाभेदे, जं०२ समपाद। अण्णे भणति जंएतेसिं चेव ठाणाणं जहासंभवं चलिय ठितो वक्ष०। स०। पासतो पिट्टतो वा जुज्झति। नि० चू०१ उ०। समतिणमणिलेट्ठुकं चण त्रि० (समतृणमणिलेष्टुकाञ्चन) समानि समपायपुया स्त्री० (समपादपुता) यस्यां पादौ पुती च स्पृशतः सा तुल्यानि तृणमणिलेष्टुकाञ्चनानि यस्य स तथा। निःस्पृहे, कल्प०१ __समपादपुता। स्था० 5 ठा० 1 उ०। समौ समतया भूलग्नौ पादौ च अधि०६क्षण। पुतौ च यस्यां सा। निषद्याभेदे, स्था०५ ठा० 1 उ० / समतिपवित्ति स्त्री० (स्वमतिप्रवृत्ति) आत्मबुद्धिपूर्विकायां चेष्टायाम, समपासि पुं० (समदर्शिन्) समम्-अविपरीतं पश्यतीत्येवं शीले, गट पञ्चा०७ विव०। १अधि। समतीरा स्त्री० (समतीरा) सम-गर्त्ताभावात् अविषमं तीरं- समप्पभ त्रि० (समप्रभ) समा-सदृशी प्रभा दीप्तिर्यत्र तत्तथा / तीरजलापूरितं स्थानंयासांताः समतीराः। अविषमतटासुनद्यादिषु, सनत्कुमारदेवलोके स्वनामख्याते विमाने,स०७ सम० / प्रश्न / रा०। जी०। समप्पिय त्रि० (समर्पित) ढोकिते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। समत्त त्रि० (समस्त) अत्रासमस्तग्रहणात् समस्तशब्दस्य न स्तस्य समभंग त्रि० (समभङ्ग) समो-दन्तुरो भङ्गश्छेदो यस्य भवति थकारः स्यात् / समत्तो / सम्पूर्णे, प्रा०1 आ० म०। उत्त० / प्रक०। तत्समभङ्गम्। अदन्तुरच्छेदे पत्रादौ, प्रव०४ द्वार। प्रश्नः / संघा०। विशे०। समभरघडता स्त्री (समभरघटता) समो न विषमो घटैकदेशमसमाप्त त्रि० सम्यक् प्रकारेण संपूर्णमधीतम् / पूर्णतां नीते, उत्त० 26 / नाश्रितत्वेन भरो-जलसमुदायो यत्र स समभरः / सर्वथा भृतो टा अ० / 0 / ज्ञा० / सूत्र० / संथा०। समभरः / समशब्दस्य सर्वशब्दार्थत्वात्, समभरश्वासौ घटश्चेति समत्तकप्प पुं० (समाप्तकल्प) व्यवस्थाभेदे, ध० 3 अधि० / साधु- समासः / समभरघट इव समभरघटस्तद्भावस्तत्ता / सर्वथा भृतपञ्चकविहारे, पं०व०४ द्वार। घटाकारतायाम, भ०१श०६ उ०। जी०॥ समत्तकप्पिय त्रि० (समाप्तकल्पित) पृथक्कल्पोपेते, व्य० 4 उ०। समभाव पुं० (समभाव) रागादिविहितवैषम्यविरहितपरिणामे पञ्चा० समत्तगणिपिडगब्भत्थसार पुं० (समस्तगणिंपिटकाभ्यस्तसार)। 5 विव० / मध्यस्थाध्यवसाये, पञ्चा० 11 विव० / रागद्वेषमध्यपरिपूर्णद्वादशाङ्गज्ञाततत्त्वे, जी०१ प्रतिः / वर्तिनि, आव० 5 अ०। समत्तगोल पुं० (समस्तगोल) संपूर्णगोले, भ० 11 श० 11 उ०। / समभिआवन्न त्रि० (समभ्यापन्न) अभिमुखं समापन्ने, सूत्र० : श्रु०४ समत्तदंसि (ण) त्रि० (सम्यक्त्वदर्शिन्) रागद्वेषरहिते, आचा- 1 श्रु० अ० 2 उ०। 2 अ०६उ०। समभिण्णाण न० (समभिज्ञान) सम्यगाभिमुख्येन परिच्छेदे, आचा० समत्तपइण्ण त्रि० (समाप्तप्रतिज्ञ) समाप्ताभिग्रहे, भ० 15 श० / 1 श्रु०६ अ० 3 उ० / गुरुसाक्षिगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाह, आचाः 1 श्रु० समत्थ पुं० (समर्थ) शक्ते, आचा० 1 श्रु० 1 अ०७ उ० / जं०। रा०।। 3 अ० 3 उ०। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभिभूय 417 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समभिरूढ समभिभूय त्रि० (समभिभूत) परिभूते, प्रश्र० 4 आश्र० द्वार। प्रतिज्ञा। अभिधानभेदाद्-वाचकध्वनिभेदादिति हेतुः / घटपटसमभिरूढ पुं० (समभिरूढ) वाचकं वाचकं प्रति वाच्यभेदं सम- स्तम्भादिशब्दवाच्यानामिवार्थानामिति दृष्टान्तः / तत एतदभिभिरोहयत्याश्रयति यः स समभिरूढः / स्था० 3 ठा० 3 उ० / प्रायेण घटादेः कुटकुम्भकलशादिकं पर्यायवचनं नास्त्येव, एकपर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समभिरोहयन् समभिरूढः। स्मिन्नर्थेऽनेकशब्दप्रवृत्त्यनभ्युपगमादिति। स्था०। पर्यायशब्दाना प्रविभक्तार्थाभिमन्तरिनयभेदे, स्या० / विशे०। अतिक्रान्तशब्दनयशिक्षणार्थमाहअथ समभिरूढनयमाह धणिभेयाओ भेओ, ऽणुमओ जइ लिंग वयणमिन्नाणं / जं जं सण्णं भासइ, तं तं चिय सममिरोहए जम्हा। घडपडवच्चाणं पिव, घटकुडवचाण किमणिट्ठो।।२२४०।। सणंतरत्थविमुहो, तओ तओ समभिरूढो त्ति॥२२३६।। हन्त ! यदि लिङ्गवचनभिन्नानां घटपटस्तम्भादिशब्दवाच्यानाया या संज्ञा घटादिलक्षणां भाषते-वदति तां तामेव यस्मात् मिवार्थानां ध्वनिमेदाद् भेदस्तवानुमतः, तर्हि घटकुटकुम्भकलसंज्ञान्तरार्थविमुखः कुटकुम्भादिशब्दवाच्यार्थनिरपेक्षः समभि शादिशब्दवाच्यानामर्थानां किमिति भेदा नेष्टः, ध्वनिभेदस्यात्रापि रोहति समध्यस्ते तत्तद्वाच्यार्थविषयत्वेन प्रमाणीकरोति, तत समानत्वात्। तस्मादस्मत्पथवर्तित्वं भवतोऽपि बलादापतितमिति। स्तरमाद् नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढो नयः / यो घटशब्द वसतिप्रस्थकादिविचारेऽप्यस्य पूर्वनयेभ्यो भेद वाच्योऽर्थस्तंकुटकुम्भादिपर्यायशब्दवाच्यं नेच्छत्यसावित्यर्थः इति। इति दर्शयन्नाहयदुक्तं नियुक्तिकृता 'वत्थुओ संकमणं, होइ अवत्थु आगासे वसइ त्ति य, भणिए भणइ किह अन्नमन्नम्मि। नए समभिरूढ़े' इति, तद्व्याख्यानार्थमाह मोत्तूणायसहावं, वसेज्ज वत्थु विहम्मम्मि? ||2241 / / दव्वं पजाओ वा, वत्थं वयणंतराभिधेयं जं। वत्थु यसइ सहावे, सत्ताओ चेयणा व जीवम्मि। न विलक्खणत्तणाओ, मिन्ने छायातवे चेव // 2242|| न तदन्नवत्थुभावं, संकमए संकरो मा भू // 2237 / / 'काऽसौ साध्वादिर्वसति?' इति पृष्ठे 'लोकग्रामवस त्यादौ वसति' न हि सदंतरवच्चं, वत्थु सदंतरत्थतामेइ। संसयविवज्जएग-त्तसंकराइप्पसंगाओ।।२२३८।। इति नैगमादिनयवादिनो वदन्ति / झजुसूत्रनयवादी तु वदति-- 'यत्रावगाढस्तत्राकाशखण्डेवसति। ततश्च ऋजुसूत्रेणैवं भणिते भणति द्रव्यं-कुटादि,पर्यायस्तु तद्गतो वर्णादिस्तलक्षणं प्रस्तुतघटादि समभिरूढः-नन्वात्मस्वभावं मुक्त्वा कथमन्यद् वस्त्वन्यस्मिन् वचनाद् यत-कुटादि वचनान्तरं तदभिधेयं यद् वस्तु न तदन्य विधर्मक आत्मविलक्षणे वस्तुनि वसेत् ? न कथञ्चिदित्यर्थः / तर्हि वस्तुभावं घटादिशब्दाभिधेयवस्तुभावं संक्रामति। कुतः ? इत्याह क्व वसति? इत्याह-सर्वमेव वस्त्वात्मस्वभावे वसति, सत्त्वात्, जीवे वस्तुनो वस्त्वन्तरसंक्रमे मा भूत् संकरादिदोष इति / एतदेव चेतनावत्। भिन्ने त्वात्मविलक्षणस्वरूपे वस्तुन्यन्यद् न वसति, यथा भावयतिनहि शब्दान्तरवाच्यं वस्तुशब्दान्तरवाच्यार्थ-रूपतामेति / छायाऽऽतप इति। एष त्रयाणामपि शब्दनयानामभिप्राय इति। एवं हि घटादौ पटाद्यर्थसंक्रमे किमयं घटः पटादिर्वा? इति संशयः अथ प्रस्थकविचारमधिकृत्याहस्यात्, विपर्ययो वा भवेत्, घटादावपि पटादिनिश्चयात्; पटादौ वा माणं पमाणमिटुं,नाणसहावो स जीवओऽणन्नो। घटाद्यध्यवसायादेकत्वं वा घटपटाद्यर्थानां प्राप्नुयात्; मेचकमणिवत् कह पत्थयाइभावं, वएज मुत्ताइरूवं सो // 2243 / / सकीर्णरूपता वा घटपटाद्यर्थानां भवेदिति। इयमत्र भावना-घटः कुट: नहि पत्थाइ पमाणं,घडो व्व भुवि चेयणाइ विरहाओ। कुम्भ इत्यादिशब्दात् पटस्तम्भादिशब्दादिव भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वाद् केवलमिव तन्नाणं, पमाणमिट्ठ परिच्छेओ / / 2244 / / भिन्नार्थगोचरानेव समभिरूढनयो मन्यते; तथाहि घटना घट इति इह यमानं तत् प्रमाणमेवेष्टम, प्रमीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति विशिष्टचेष्टावानों घट इति गम्यते, तथा 'कुट' कौटिल्ये, कुटनात् कृत्वा / प्रमाणं च परिच्छेदात्मकं जीवस्वभाव एव, स च जीवाकौटिल्ययोगात् कुटः, तथा 'उभ' 'उम्म' पूरणे, कुम्भनात् दनन्यः, अतः कथं मूर्तादिस्वभावम्, आदिशब्दादचेतनस्वभावं कुत्सितपूरणात् कुम्भ इति भिन्नाः सर्वेऽपि घट-कुटाद्याः / ततश्च प्रस्थकादिस्वभावं व्रजेदसौ,येन नैगमादयः काष्ठमयं प्रस्थादियदा घटाद्यर्थ कुटादिशब्दः प्रयुज्यते तदा वस्तुनः कुटादेस्तत्र कमानमिच्छन्ति ? तर्हि शब्दनयानां किं प्रस्थकादि प्रमाणम, किंवा संक्रान्तिः कृता भवति, तथा च सति यथोक्तसंशयादिदोष इति / न प्रमाणम् ? इत्याह-नहि-नैव काष्ठघटितं प्रस्थादिकं प्रमाततो घटकुटाद्यर्थानां भेदसाधनायैव प्रमाणयन्नाह णम्,चेतनादिरहितत्वात्घटपटलोष्टादिवत्, किंतु-तस्य प्रस्थ-कस्य घडकुडसहत्थाणं, जुत्तो भेओऽभिहाण भेआओ। ज्ञानं तज्ज्ञानंतदुपयोगस्तत्परिच्छेदः प्रमाण मानमिटम, तेनैव तत्त्वतः घडपडसद्दत्थाण व, तओ न पज्जायवयणं ति॥२२६६।। प्रमीयमाणत्वात्। 'परिच्छेया' इति पाठान्तरं वा, तेनैव परिच्छेदात्, घटकुटकुम्भादिशब्दवाच्यानामर्थानां भेद एव परस्परं युक्त इति / केवलज्ञानवत्। तस्मात् प्रस्थकज्ञानमेव प्रस्थक इति स्थितम्। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभिरूढ 418 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समय अत्र परमतमाशय परिहरन्नाहपत्थादओ वि तक्का-रणं ति माणं मई न तं तेसु / जमसंतेसु वि बुद्धी, कासइ संतेसु वि न बुद्धी / / 2245 / / तकारणं ति वा जइ, पमाणसिद्धं तओ पमेयं पि। सव्वं पमाणमेवं, किमप्पमाणं पमाणं वा // 2246 / / प्रस्थादयोऽपि मानमिति प्रतिज्ञा, तत्कारणात्-प्रस्थकज्ञानकारणत्वात्, यथा 'नङ्कलं पादरोग' इत्येवंभूता परस्य मतिः स्यात्। तदेतद् न, यतस्तेषु प्रस्थकादिष्वसत्स्वपि कस्यापि धान्यरा... श्यवलोकनमात्रेणापि कलनशक्तिसंपन्नस्य अतिशयज्ञानिनो वा प्रस्थकपरिच्छेदबुद्धिरुपजायते / कस्यापि पुन लिकरद्वीपाद्यायातस्य सत्स्वपि तेषु प्रस्थकपरिच्छेदबुद्धिर्न संपद्यते, इत्यनैकान्तिका एव काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रस्थकज्ञानजनने, इति कथं तत्कारणत्वात् ते प्रस्थकादिमानरूपा भवेयुः ? यदि वा-भवन्तु ते तत्कारणम्, तथापि न तत्कारणत्वेन तेषां प्रस्थादिमानरूपता, अतिप्रसङ्गादिति दर्शयति- 'तकारणं ति वे' त्यादि, यदि प्रस्थकज्ञानकारणतामात्रेणापि ते काष्ठमयप्रस्थकादयः प्रमाणमिष्टाः, तर्हि प्रमेयमपि प्रमाणं प्राप्नोति, प्रमाणाज्ञानकारणत्वात् / एवं च सति दधिभक्षणादीनामपि परम्परया तत्कारणत्वेन प्रमाणत्वात् किं नामाप्रमाणं स्यात् ? यदि च सत्यपि तत्कारणत्वेऽन्यत् सर्व दधिभक्षणादिकंन प्रमाणम्, तर्हि काष्टमयप्रस्थकादयोऽपि न प्रमाणम, अतः किं नाम प्रमाणं भवेत् ? न किञ्चित् / ततो विशीर्णा प्रमाणाप्रमाणव्यवस्था। तस्मात् प्रस्थकज्ञानमेव प्रस्थकप्रमाणं त्रयाणामपि शब्दनयानामिति। तथा-पञ्चानां-धर्माऽधर्माऽऽकाशजीवपुद्गलास्तिकायानां देशप्रदेशकल्पनायामस्य षष्ठीसभासादि नेष्टम्। किं तर्हि? देशी चासो देशश्चेत्यादि कर्मधारयमेव मन्यतेऽसौ नयः कुतः? इत्याहदेसी चेव य देसो, नो वत्थु वा न वत्थुणो मिन्नो। भिन्नो वन तस्स तओ, तस्स व जइ तो न सो भिन्नो / / 2247 / / एत्तो चेव समाणा-हिगरणया जुज्जए पयाणं पि। नीलुप्पलाइयाणं,न रायपुरिसाइसंसग्गो / / 2248|| धर्मास्तिकायादिको देश्येव हि देशो न पुनस्तस्माद् घटादिवारघट्टोऽत्यन्तभिन्न स्वतन्त्रवस्तुदेशः। अथ न स्वतन्त्रवस्तुदेशः किन्तु तत्संबन्धित्वादस्वतन्त्रोऽपि देशितो भिन्नो देश इति चेत् / तदप्ययुक्तम् / कुत? इत्याह-न वा देशिलक्षणाद्वस्तुनो भिन्नो--- ऽसौ देशः / अथ भिन्नस्तस्मादिष्यते सः, त_न्यस्यान्ये न विन्ध्यहिमवदादीनामिव सर्वथा संबन्धायोगाद न तस्य देशिन-- स्तकोऽसौ देशः / यदि पुनस्तस्य देशिनः संबन्धी देशोऽभ्युपग-- म्यते तर्हि घटादेः स्वस्वरूपवद् न स देशस्तस्माद् देशिनो भिन्नः किन्तु तदात्मक एवेति। अत एव विशेषणविशेष्यभूतानां सर्वेषां पदानां समानाधिकरणता-कर्मधारय एव समासो युज्यत इत्यर्थः,यथा नीलोत्पलादीनाम्, उपलक्षणं चेदम्-धवखदिर-पलाशदीनां द्वन्द्वोऽपि स्यात, नतु राज्ञः पुरुषो राजपुरुष इतिषष्ठ्या देसमासः, यतो भिन्नानामन्योन्यं संसर्गः संबन्धो न घटते, तथाहि-संबद्धवस्तुद्वयात् संबन्धो भिन्नो वा स्यादभिन्नो वा ? यदि भिन्नः, तर्हि संबद्धवस्तुद्वयाद भिन्नं स्वतन्त्रतृतीयमेव वस्तु तत् स्याद् नतु संबन्ध इति कथं तद्वशात् षष्ठ्यादिविभक्तिः? नहि विन्ध्यहिमवदादिभ्यो भिन्नो घटादिः संबन्धो भण्यते। नापितद्वशात् तेषां षष्ट्यादिविभक्तिः प्रवर्तते ।अथ संबद्धवस्तद्वयादभिन्नः संबन्धः, तर्हि नासौ षष्ट्या दिहेतुः, संबद्धवस्तुद्वयादव्यतिरिक्तत्वात, तत्स्वरूपवन, इत्यादि बहव वक्तव्यम्, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसड़ादिति अपरमपि समभिरूढनयाभिप्रायभेदं दर्शयन्नाह-- घडकारविवक्खाए, कत्तुरणत्थंतरंजओ किरिया। न तदत्थंतरभूए, समवाओ तो मओ तीसे / / 2246 / / कुंभम्मि वत्थुपज्जा-यसंकराइप्पसंगदोसाओ। जो जेण जं व कुरुए, तेणाभिन्नं तयं सव्वं / / 2250 / / 'घट करोति' इति घटकार इत्यस्यां विवक्षायां प्ररूपणायां यस्मात् तस्य घटकर्तुरनर्थान्तरमव्यतिरिक्ताघटकरणक्रिया, कर्तवैव घटकारे तस्याः समवायात्। 'तो' तितस्माद् न तदर्थान्तरभूते कर्तुर्व्यतिरिक्ते कुम्भे घटे तस्याः समवायः संश्लेषो मतः / कुतः? वस्तुपर्यायसंकरादिदोषप्रसङ्गात्-वस्तूनां ये पर्यायाधर्मास्तेषां परस्परं संकरः संकीर्णत्वमेकत्वं वा स्यात्, कर्तगतक्रियायाः कुम्भेऽपि समवायाभ्युपगमात् / ततश्च यः कुम्भकारादिर्येन क्रियाविशेषेण यत् कुम्भादिक कुरुते तेन क्रियाविशेषेण तत्क्रियारूप तयेत्यर्थः, सर्व तत् कर्तृकर्माद्यभिन्नं स्यात् तरमात् कर्तृगतक्रियाया न कर्मणि संक्रमः, किन्तु कुर्वन कारकः, कुम्भनादिभ्य एव कुम्भादय इति मन्यते समभिरूढ इति। उक्तः समभिरूढनयः / विशे० / नं० / आ० / चू० / आ० म० / (समभिरूढनयव्याख्या 'णय' शब्देऽपि चतुर्थभागे 1857 पृष्ठे गता।) (एतदाभासव्याख्या 'णयाभास' शब्दे चतुर्थभागे 1603 पृष्ठे गता।) दृष्टिवादस्य सूत्रभेदे, स० / अष्ट० / सूत्र० 1 अनु० / सम्म / स्था० / समभूमि स्त्री० (समभूमि) अविषमक्षितितले, आव०५ अ०। समय न० (समक) सममेव समकम्। सरसविरसादिष्वभिष्वङ्गादिविशेषरहिते, उत्त० 1 अ०। सहार्थे, उत्त० 4 अयुग-पदर्थे, व्य० 2 उ० / एककाले, प्रज्ञा०१ पद। विशे०। जं०। ज्ञा०। सम्यगीयते परिच्छिद्यते इति समयः / सम्म०१ काण्ड / सम्यक् प्रमाणान्तराविसंवादित्वेनायते परिच्छिद्यत इति समयः। सम्म० 2 काण्ड। सम्यगवैपरीत्येनायन्ते ज्ञायन्ते जीवादयोऽर्था अनेनेति समयः, सम्यगयन्ति गच्छन्ति जीवादयः पदार्थाः स्वस्मिन् रूपे प्रतिष्ठा प्राप्नुवन्ति अस्मिन्निति समयः / स्या० / सूत्र० / आ० म०1 आगमे, आचा०२ श्रु०२ चू०५ अ०। सूत्र० / अनु० / सिद्धान्ते, नं० / व्य० / विशे० / जैनागमे, विशे०। जिनादिसिद्धान्ते, स्था०३ ठा० 4 उ०। सम्म०। जी०। संथा। स्वसमयोऽर्हन्मतानुसारिशास्त्रात्मकः, परसमयः कपिलाद्यभिप्रायानुवर्तिग्रन्थरूपः, उभयसमयस्तूभयम-तानुगतशास्त्रस्वभावः, तत्रारयस्व-समयवक्त्तव्यतायामेवावतारः, स्वसमयपदार्थानामे Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय 416 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समय वात्र वर्णनात, यत्रापि परोभयसमयपदार्थवर्णनं तत्रापि स्वसमयवक्तव्यतै ट परोभयसमययोरपि सम्यगदृष्टिपरिगृहीतत्वेन स्वसमयत्वात, अत एव सर्वाध्ययनानामपि स्वसमयवक्तव्यतायामेवावतारः / उत्त० १अ०। दर्श०। आत्मीयप्रवचने, व्य०३ उ०।। सांख्यादीनां सिद्धान्ते, स्था०३ ठा०३ उ०। अवसरे, आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। कल्प० / रा०। ज्ञा० / विशिष्टकाले, आचा०२ श्रु०३ चू०। वं० प्र० / निर्विभागे सर्वसूक्ष्मकालांश, अनु० / विशे० / परमनिकृष्ट काले, आ० म०१ अ०। नं0! काल-विशेषे, नि०१ श्रु०१ वर्ग०१ अ० / स्था० / विशे० / आ० म०। 20 / अहोरात्रादिकालस्य विशिष्ट भागे भ०१श०० उ० / कल्प०। विपा०। सम्म० चं०प्र० / अनु०। समयप्ररूपणम्से किं तं समए ? समयस्स णं परूवणं करिस्सामि, से जहाना-मए तुण्णागदारए सिआ तरुणे बलवं जुग जुवाणे अप्पातं के थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणते तलजमलजु-यलपरिघणिभबाहू चम्मेट्ठगदुहणमुट्ठिअसमाहतनिचित (य) गत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए लंघणपवणजइण - वायामसमत्थे छे ए दक्खे पत्तढे कु सले मेहावी निउणे निउणसिप्पावगए एगं महतीं पडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय सयराहं हत्थमेत्तं ओसारेजा, तत्थ चोअएपण्णवयं एवं वयासीतेणं कालेणं तेणं समएणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडिआए वा पट्टसाडिआए वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ ? नो इण्डे समढे, कम्हा ? जम्हा संखेजाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं एगा पडसाडिआ निप्फज्जइ, उवरिलम्मि तंतुम्मि अच्छिण्णे हिडिल्ले तंतू न छिज्जइ, अण्णम्मि काले उवरिल्ले तन्तू छिज्जइ, अण्णम्मि काले हेट्ठिल्ले तन्तू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ। एवं वयंतं पण्णवयं चोयए एवं वयासीजेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडि आए वा पट्टसाडिआए वा उवरिल्ले तंतू छिण्णे से समए भवइ ? न भवइ / कम्हा? जम्हा संखेज्जाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे तंतू निप्फज्जइ, उवरिल्ले पम्हे अच्छिण्णे हेट्ठिल्ले पम्हे न छिज्जइ, अण्णम्मि काले उवरिल्ले पम्हे छिज्जइ, अणम्मि काले हेट्ठिल्ले पम्हे छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ / एवं वयंतं पण्णवयं चोअए एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तस्स तंतुस्स उपरिल्ले पम्हे छिण्णे से समए भवइ? न भवइ / कम्हा ? जम्हा अणंताणं संधायाणं समुद-यसमितिसमागमेणं एगे पम्हे निप्फज्जइ, उवरिल्ले संघाए अवि-संघाइए हेट्ठिले संघाए न विसंघाइजइ,अण्णम्मि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइजइ अण्णम्मि काले हिडिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ तम्हा से समए न भवइ / एत्तो वि अण्णं सुहुमतराए समए पण्णत्ते समणाउसो ! (सू०१३८x) अथ कोऽय समय इति पृष्ट सत्याह-समयस्य प्ररूपणांविस्तरवर्ती व्याख्या करिष्यामि, सूक्ष्मत्वात् संक्षेपतः कथितोऽपि नासौ सम्यक् प्रतीतिपथमवतरतीति भावः, तदेवाह- 'से जहानामए' इत्यादि, स कश्चित् यथानामकोयत्प्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः, 'तुण्णागदारए' सूचिकइत्यर्थः,स्यात्-भवेत्,यः किमित्याह-तरुणादिविशेषणविशिष्टः पटसाटिका पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा 'सयराह' झटिति कृत्वा हस्तमात्रमपसारयेत्-पाट-येदिति सण्टङ्गः, अथवा-'स' इति पूर्ववत् 'यथे' त्युपदर्शन, 'नामे' ति सम्भावनायाम्, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, ततश्च स कश्चि-देव तावत्संभाव्यते तुण्णागदारको यस्तरुणादिविशेषणः, स्यात्-कदाचित् पटसाटिका पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा झटिति हस्तमात्रमपसारयेत्-पाटयेदिति तथैव सम्बन्धः, तत्र तरुणः-प्रवर्द्धमा-नवयाः आह-दारकः प्रवर्द्धमानवयाः एव भवति, किं विशेष-णेन ? नैवम्, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात्, तस्य चासन्नमृत्युत्वेन विशिष्टसामानुपपत्तेः, विशिष्टसामर्थ्यप्रति-पादनार्थश्चायमारम्भः अन्ये तु वर्णादिगुणोपचितोऽभिनवस्तरुण इति व्याचक्षते, बलंसामर्थ्य तदस्यास्तीति बलवान, युग-सुषमदुष्षमादिकालः सोऽदुष्टो--- निरुपद्रवो विशिष्टबलहेतुर्यस्यास्त्यसौ युगवान्, कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्यविघहेतुरितीत्थं विशेषणम्, 'जुवाणो' त्ति-युवा-यौवनस्थः प्राप्तवया एष इत्येवम् अणति-व्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः बाल्यादिकालेऽपि दारकोऽभिधीयते अतो विशिष्टवयोऽवस्थापरिग्रहार्थमतद्विशेषणम्, अल्पशब्दोऽभाववचनः, अल्प आत-को-रोगो यस्य स तथा, निरातङ्क इत्यर्थः, स्थिर:- प्रकृतपट पाटयतोऽकम्पोऽग्रहस्तो हस्ताग्रं यस्य स तथा दृढं पाणिपादं यस्य, पावों पृष्ठ्यन्तरेच ऊरू च परिणते-परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा, सर्वावयवरात्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरि-घणिभबाह' तलौ तालवृक्षौ तयोर्यमलंसमश्रेणीकं यद् युगल-द्वयं परिघश्च-अर्गला तन्निभौ- तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा, आगन्तुकोपकरणज सामर्थ्य माह- चर्मेष्टका-दुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रकायःचर्मेष्टकया दुघणेन मुष्टिकेन च समाहतानि प्रतिदिनमभ्यासप्रवृत्तस्य निचितानि-निविडीकृ-तानि गात्राणि स्कन्धोरुपृष्ठादीनि यत्र स तथाविधः कायो-देहो यस्य स तथा, चर्मेष्टकादयश्व लोकप्रतीता एव, औरस्यबलसमन्वागतः-आन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः, व्यायामवत्ता दर्शयति- 'लड नप्लवनजवनव्यायामसमर्थ:-जवनशब्दः शीघ्रवचनः छेक:-प्रयोगज्ञः दक्षः-शीघ्रकारी प्राप्तार्थ:-अधिकृते कर्मणि निष्ठां गतः, प्राज्ञ इत्यन्ते, कुशलः-आलोचितकारी मेधावीसकृच्छुतदृष्टकर्मज्ञः निपुणः--उपायारम्भकः निपुणशिल्पो Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय 420 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समय पगतः--सूक्ष्मशिल्पसमन्वितः एवं विधो ह्यल्पेनैव कालेन साटिकां विशिष्टक्रिया-विशेषस्य कस्यचिद्दर्शयितुमशक्यत्वाद् एतोऽवि अण्ण पाटयतीति बहुविशेषणोपादानम् स इत्थंभूत एका महतीं पट-साटिका सुहुमत-राए समए' इति सामान्येनैवोक्तवानिति, एकरमादुपरितनपट्टसाटिकां वा पटसाटिकाया इयं श्लक्ष्णतरेति भेदेनो-पादानम्, गृहीत्वा पक्ष्म-च्छेदनकालादसंख्याततमोऽशः समय इति स्थितम् युगपदन्त'सयराह' मिति सकृत् झटिति कृत्वेत्यर्थः, हस्तमात्रमपसारयेत्- सवातविदारणहेतुपूर्वोक्तप्रयत्नविशेषसिद्धिश्च नगरादिप्रस्थिपाटयेदित्यर्थः,तत्रैवं स्थिते प्रेरकः-शिष्यः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापको- तानवरतप्रवृत्तपुरुषादेः प्रयत्नविशेषात् प्रतिक्षणे बहनभःप्रदेशान् गुरुस्तमेवमवादीत, किम् ? येन कालेन तेन तुण्णागदारकेण तस्याः विलच्याचिरेण वेष्टदेशप्राप्तिर्भावनीया, यदि पुनरसो क्रमेण के के पटसाटिकायाः पट्टसाटिकाया वा सकृद्धस्तमात्रमपसारित-पाटितमसौ व्योमप्रदेश लब येत् तदा असंख्येयोत्सपिण्यवसर्पिणीभिरेवेए-देश समयो भवति ? प्रज्ञापक आह-- नायमर्थः समर्थः- नैतदेवमित्युक्तं प्राप्नुयाद् 'अंगुल से ढीमित्ते उस्सप्पिणीउ असंखेज्जा' इत्याभवति, कस्मादिति पृष्ट उपपत्तिमाह-यस्मात् संख्येयानां तन्तूनां दिवचनादिति भावः / नचातीन्द्रियेष्वर्थेषु एकान्तन युक्तिनिष्ठ-व्यम् समुदयसमितिस-मागमेनेति पूर्ववद्, एकार्था वा सर्वेऽप्यमी सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्, उक्तंचसमुदायवाचकाः, पट-साटिका निष्पद्यते तत्र च 'उवरिल्ले' त्ति-उपरितने “आगमचोपपत्तिश्च, संपूर्ण विद्धि लक्षणम्। तन्तौ अच्छिन्ने अविदारिते 'हेडिल्ले' नि-आधस्त्यतन्तुर्न छिद्यते अतीन्द्रियाणामर्थाना, सद्भावप्रतिपत्तये / / 1 / / अतोऽन्यस्मिन् काले उपरितनस्तन्तुः छिद्यते अन्यस्मिन् काले आगमश्वाप्तवचन-माप्त दोषक्षयाद्विदुः / आधस्त्यः , तस्मादसौ समयो न भवतिएवं वदन्तं प्रज्ञापकं प्रेरक वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेत्वसम्भवात्।।२।। एवमवादीत्-येन कालेन तेन तुन्नागदारकेण तस्याः-पटसाटिकाया उपपत्तिर्भवेद्युक्ति-र्या सद्भावप्रसाधिका। उपरितन-स्तन्तुश्छिन्नः स समयः? किं भवतीति शेषः, अत्र प्रज्ञापक साऽन्वयव्यतिरेकादि-लक्षणा सूरिभिः कृता // 3 // " आ-ह-न भवतीति, कस्मात् ? यस्मात्संख्येयानां पक्ष्मणां लोके इति, निदर्शितं चेहोभयमपीत्यलं विस्तरेण / अनु० / स्था०। प्रतीतस्वरूपाणां समुदायेत्यादि सर्व तथैव यावत्तस्मादसौ समयो न एगे समए। (सू०४४४) भवति, एवं वदन्तं प्रज्ञापकमित्याद्युपरितनपक्ष्मसूत्रमपि तथैव परमनिकृष्टकाल उत्पलपत्रशतव्यतिभेददृष्टान्ताज्जरत्पटशाटिव्याख्येयम्, नवरमनन्तानां परमाणूनां विशिष्टकपरिणामा-पत्तिः कापाटनदृष्टान्ताद्वा समयप्रसिद्धादवबोद्धव्यः, स चैक एव वर्तसङ्घातः, तेषामनन्तानां यः समुदयः- संयोगस्तेषां समु-दयानां या मानस्वरूपोऽतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वे नाभावात् / अथवाअन्योऽन्यानुगतिरसौ समितिः. तासां समागमेन-एकवस्तुनिवर्तनाय असावेकस्वरूपेण निरंशत्वादिति / स्था० 1 ठा० / आचा० / कल्प० / मीलनेन उपरितनपक्ष्मोत्पद्यते, समुदायवा-चकत्वेनैकार्था वा निकासका जी० / तं०। राजनीतिशास्त्रे. बृ०३ उ०। सङ्केते, आ० म० समुदयादयः, तस्मादसावुपरितनैकपक्ष्मच्छे-दनकालः समयोन भवति, 1 अ०॥ पं०व०। सू०प्र०। चं० प्र० / ज्ञा० / विशे०। कर्म० / समितिकस्तर्हि समय इत्याह- ‘एतोऽवि अण्ण' मित्यादि, एतस्माद सम्यकशब्दाथें उपसर्गः, सम्यगयः समयः। सम्यग् दयापूर्वक जीवेषु विषये उपरितनैकपक्ष्मच्छेदनकालात् सूक्ष्मतरः समयः प्रज्ञप्तो हे श्रमण ! प्रवर्तन, विशे० / आचारे, अनुष्ठाने,आचा० १श्रु० 3 अ० 1 उ० / आयुष्मन्निति, अत्राह-ननु यद्यनन्तैः परमाणुसङ्घातैः पक्ष्म निष्पद्यते ते मुक्तिमार्गप्रवर्तने, विशेला नास्तिकादिसमयप्रतिपादनपरमध्ययनं समय च सङ्घाताः क्रमेण छिद्यन्ते तāकस्मिन्नपि पक्ष्मणि विदीर्यमाणे अनन्ताः एवेति / स०१६ सम०। सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमेऽध्ययने, आव०४ अ०॥ समया लगेयुः, एतच्चागमेन सह विरुध्यते, तत्रासंख्येयास्वप्युत्सर्पि-- साम्प्रतं निक्षेपावसरः, स च त्रिधा-ओघनिष्पन्नो, नामनिष्पन्नः, ण्यवसर्पिणीषु समयासंख्येयकस्यैव प्रतिपादनात, यत उक्तम्- सूत्रालापकनिष्पन्नश्च / तत्रौ घनिष्पन्नेऽध्ययनम्, तस्य च निक्षेप 'असंखेनासु णं भंते ! उस्सप्पिणीअवसप्पिणीसु केवइया समया आवश्यकादौ प्रबन्धेनाभिहित एव. नामनिष्पन्ने तु समय इति नाम, पण्णता ? गोयमा ! असंखेज्जा / अणंतासु ण भंते ! उस्सप्पिणी- तन्निक्षेपार्थ नियुक्तिकार आहअवसप्पिणीसु केवइया समया पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता' तदे- नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले कुतित्थसंगारे। तत्कथम् ? अत्रोच्यते-अस्त्येतत्, किन्तु-पाटनप्रवृत्तपुरुषप्र-यत्न- कुलगणसंकरगंडी, बोधव्यो भावसमए य / / 26 / / स्याचिन्त्यशक्तित्वात प्रतिसमयमनन्तानां सङ्घाताना छेदः संपद्यते, 'नाम ठवणा' इत्यादि, नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालकुतीर्थसंगारएवं च सत्येकस्मिन् समये यावन्तः सङ्घाताश्छिद्यन्ते तैरनन्तैरपि स्थूलतर कुलगणसङ्करगण्डीभावभेदात् द्वादशधा समयनिक्षेपः, तत्र नामएक एव सङ्घातो विवक्ष्यते, एवम्भूताः स्थू-लतरसङ्घाता एकरिम- स्थापने क्षुण्णे, द्रव्यसमयो द्रव्यस्य सम्यगयनं-परिणतिविशेषः पक्ष्मणि असंख्येया एव भवन्ति, तेषां चक्रमेण छेदने असंख्येयैः समयैः स्वभाव इत्यर्थः, तद्यथा-जीवद्रव्यस्योपयोगः पुद्गलद्रव्यस्य मूर्तत्वं पक्ष्म छिद्यते, अतो न कश्चिद्वि-रोधः, इत्थं च विशेषतः सूत्रे धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाह-दानलक्षणः। अथवा-यो यस्य अनुक्तमप्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा ग्रन्थान्तरैः सह विरोधप्रसङ्गात द्रव्य स्यावसरो-द्रव्यस्योपयोगकाल इति, तद्यथा- 'वर्षासु सूत्राणां च सूचामात्र त्वादिति, ततोऽसंख्येयैरेव समथैर्यथोक्तपक्ष्मणो लवणममृतं, शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते। शिशिरे चामलकरसो, घृत विदीर्यमाण-त्वाच्छास्थानुभवविषयस्य च समयप्रसाधक स्य / बसन्ते गुडश्चान्ते' ||1|| क्षेत्रसमयः-क्षेत्रम्-आकाशं तस्य समयः-- Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय 421 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समयपरिसुद्ध स्वभावः, यथा 'एगेण वि से पुण्णे, दोहि वि पुण्णे सयं पि माएजा। वा पभासिंति वा पभा–सिस्संति वा, कति सूरिया तविंसु वा० 3 कई लक्खसऍण दिपुण्णे, कोडिसहस्सं पि माएज्जा' / / 1 / / यदिवा-- णक्खत्ता जोयं जोइंसुवा' इत्यादिकानि प्रत्येकं ज्योतिष्कसूत्राणि, देवकुरुप्रभृतीनां क्षेत्राणामीदृशोऽनुभावो यदुत तत्र प्राणिनः सुरूपा तथा-'से केण?ण भंते ! एवं वुचइ जंबुद्दीवे दीवे गोयमा ! जंबूदीवेणं दीवे नित्यसुखिनो निर्वैराश्च भवन्तीति, क्षेत्रस्य वा परिकर्मणावसरः क्षेत्रसय मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं लवणस्स दाहिणेण० जाव तत्थ 2 बहवे इति, कालसमयस्तु सुषमादेरनुभावविशेषः उत्पलपत्रशतभेदाभि- जंबुरुक्खा जंबुवणा० जाव उवसोभेमाणा चिट्ठति से तेण-द्वेणं गोयमा ! व्यडयो वा कालविशेषः कालसमय इति, अत्र द्रव्यक्षेत्रकाल- एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे' इत्यादीनि प्रत्येकमर्थसूत्रा-णि च सन्ति, प्राधान्य विवक्ष या द्रव्यक्षेत्रकालसमयता द्रष्टव्येति कुतीर्थसमयः ततश्चैतद्विहीनं यथा भवत्येवं नीवाभिगमवक्तव्य-तया नेयमस्योद्देश पाखण्डिकानामात्मीय आगमविशेषः / तदुक्तं वाऽनुष्ठानमिति, संगार:-- कस्य सूत्रम्- 'जाव इमा गाह' त्ति-संग्रहगाथा। सा च–'अरहतसमयसंकेतस्तदुपः समयः संगारसमयः यथा सिद्धार्थसाराथिदेवेन वायर-विज्जूथणिया वलाहगा अगणी। आगरनिहिनइउवरागनिग्गमे पूर्वकृतसंगारानुसारेण गृहीतहरिशवो-बलदेवः प्रतिबोधित इति, बुढिवयणं च' / / 1 / / अस्याश्चार्थ-स्तत्राने न सम्बन्धेनायातो कुलसमय:-कुलाचारो यथा शकानां पितृशुद्धिः, आभीरकाणां जम्बूद्वीपादीनां मानुषोत्तरान्तानामर्थानां वर्णकस्यान्ते इदमुक्तम्- 'जावं मन्थनिकाशुद्धिः, गणसमयो यथा मल्लानामयमाचारो-यथा यो ह्यनाथो च णं माणुसुत्तरे पव्वए तावं च णं अरिंस लोएत्ति पवुचई'। मनुष्यलोक मला मियते सतः संस्क्रि-यते, पतितश्चोध्रियत इति संकरसमयस्तु उच्यत इत्यर्थः। तथा 'अरहते' ति जावं च णं अरहंता चक्कवट्टी० जाव सकरो-भिन्नजाती-यानां मीलकरतत्र च समयः-एकवाक्यता, यथा सावियाओ मणुया पागइभद्दया विणीया तावं चणं अस्सिलाए ति पवुचइ, समय ति, जावं च णं समयाइ वा आवलियाइ वा० जाव लोएत्ति पवुचइ, वाममार्गादाव-नाचारप्रवृत्ताव पि गुप्तिकरणमिति, गण्डीसमयो यथा शाक्याना भोजनावसरे गण्डीताडनमिति,भावसमयस्तु नोआगमत एवं जावं च णं बायरे विज्जुयारे बायरे थणियसद्दे जावं च णं बहवे उराला बलाहया संसेय त्ति, अगणि त्ति, जावं च णं बायरे तेउयाए जावं च णं इदमेवा-ध्ययनम्, अनेनैवात्राधिकारः शेषाणां तु शिष्यमतिवि आगराइ वा निहीइ वा नईइ वा उवराग त्ति, चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ काशार्धमु-पन्यास इति / सूत्र०१ श्रु०२ अ०। वा,तावं च णं अस्सि लोए त्ति पवु-चइ / उपरागो ग्रहणम् / 'निग्गमे समयंतर न० (समयान्तर) परसमये, पं०व०५ द्वार। युड्डिवयणं / ' त्ति-यावन्निर्गमादीनां वचनं प्रज्ञापनं तावन् मनुष्यलोक समयकप्प पुं० समयकल्प) सिद्धान्तविचारणायाम्, संथा०। इति प्रकृतम्, तत्र- 'जावं च णं चंदिमसूरियाणं 0 जाव तारारूवाणं समयकयपिंडणाम न० (समयकृतपिण्डनामन्) समयकृतपि अइगमण निग्गमण वुद्धि-निवुड्डी आघविजइ, तावं च ण अस्सि लोए त्ति ण्डनाम्नि, पिं० (व्याख्या 'पिंड' शब्दे पञ्चमभागे 617 पृष्ठे।) पवुच्चइ अतिगम-नमिहोत्तरायण, निर्गमनं दक्षिणायनं वृद्धिर्दिनस्य समयखेत्त न० समयक्षेत्र) समयः कालस्तद्विशिष्ट क्षेत्रं समय-क्षेत्रम्। | वर्द्धन, निवृद्धि स्तस्यैव हानिः / भ०२ श०६ उ०। मनुष्यक्षेत्र, स्था० 3 ठा० 4 उ० / मनुष्यलोके, स्था० 3 टा० 1 उ०। स०। समयचज्जा स्त्री० (समयचर्या) समयपरिभाषया उपक्रमे, विशे०। किमिदं भंते ! समयक्खेत्ते त्ति पवुचइ ? गोयमा ! अड्डाइजा समयज्झयण न० (समयाध्ययन) समयाख्ये सूत्रकृताङ्गस्य प्रथमे दीवा दो य समुद्दा एस णं पव्वइए समयखेत्ते त्ति पवुचइ / तत्थ अध्ययन, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ० / आ० चू०। णं अयं जंबुद्दीवे सव्वदीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वमिंतरे एवं समयणा (ण्णा) य पुं० (समयन्याय) आगमप्रामाण्ये, पञ्चा० 12 विव० / जीवा-मिगमवत्तव्यया ने यव्वा ०जाव अतरपुक्खरद्धं समयणिबद्ध न० (समयनिबद्ध) मनसा निबद्धे सङ्केते, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। जोइसविहूणं / / / समकनिबद्ध त्रि० सहितैरुपात्ते ज्ञाताङ्गसूत्रे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०| 'किमि' त्यादि ! तत्र समयः कालस्तेनोपलक्षित क्षेत्र समयक्षेत्रं, कालो समयणीइ स्त्री० (समयनीति) सिद्धान्तव्यवस्थायाम्, आव०१ अ०। हि दिनमासादिरूपः सूर्यगतिसमभिव्यङ्ग्यो मनुष्यक्षेत्र एव न परतः, समयण्णु त्रि० (समयज्ञ) सिद्धान्तविदि, पं० व०२ द्वार। आग-मज्ञ, परतो हि नादित्याः सञ्चरिष्णव इति। एवं जीवाभिगम-वत्तव्वया नेयव्य' षो०१५ विव० / आचा० त्ति / एषा चैवम्-- 'एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणमि' त्यादि। समयपरमत्थवित्थर पुं० (समयपरमार्थविस्तर) सम्यगीयन्ते परिच्छि'जोइसबिहूण' ति-तत्र जम्बूद्वीपादिमनुष्यक्षेत्रवक्तव्यताया द्यन्तेऽनेनार्था इति समय आगमस्तस्य परमः अकल्पितश्चासावर्थश्च जीवाभिगमोक्तायां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽप्यस्ति, ततस्तद्विहीन यथा समयपरमार्थस्तस्य विस्तरो रचनाविशेषः / सिद्धान्तस्याकल्पितार्थस्य भवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यता नेतव्येति, वाचनान्तरे तु-'जोइस- परमार्थरचनायाम, सम्म० 3 काण्ड। अट्टविहूण' इत्यादि बहु दृश्यते, तत्र-जंबुद्दीवेणं भंते! कइ चंदा पंभासिंसु | समयपरिसुद्ध त्रि० (समयपरिशुद्ध) शिष्टव्यवहारविशुद्धे, पश्चा० 4 विव०। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयपाहुड 422 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समवाइकारण समयपाहुड न० (समयप्राभृत) स्वनामख्याते ग्रन्थविशेषे, अट० 13 *समर पु० जनमरकयुक्ते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार / संग्रामे ज्ञा०१ श्रु०१ अष्ट। अ०। उत्त०। समयभणिय न० (समयभणित) सिद्धान्तप्रतिपादिते, दर्श० 1 तत्त्व। | सम त्रि० समत्वेन युक्ते, रकारः प्राकृतत्वात् / उत्त०२ अ० / शत्रुजयसमयय न० (समयज) अन्वर्थरहिते समय एव प्रसिद्ध नामनि, पिं०। पर्वतस्य मूलनायकोद्धारकर्तरि स्वनामख्याते साधौ, ती०१ कल्प। समयलुक्खया स्त्री० (समयरूक्षता) कालरूक्षतायाम, भ०७ श०६ उ०। | समरवहिय त्रि० (समरव्यथित) संग्रामे हते, भ०७ श०६ उ०। समयविउ त्रि० (समयविद्) आगभवेदिनि, षो० 12 विव० / भद्रबाहु- समरभड पुं० (समरभट) संग्रामभेदे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। प्रभृतिषु सिद्धान्तवेदिषु, पञ्चा० 4 विव०। समरसावत्ति स्वी० (समरसापत्ति) समे भावे रसोऽभिलाषो यस्यां सा समयविरुद्ध त्रि० (समयविरुद्ध) स्वसिद्धान्तविरुद्धे,विशे० / यथा समरसा सा चासावापत्तिश्च प्राप्तिरधिगतिरधिगम इत्यनर्थान्तरम् / षो० सांख्यस्यासत्कारणम्, कार्य सवैशोषिकस्येत्यादि। आ० म०१ अ०। 6 विव० / समतापत्ती, आगमाहितसर्वज्ञरूपोपयोगोपयुक्तस्य अनु० / यथा वैशेषिको व्रते प्रधानं कारणं जैनो वदति नास्ति जीव तपोयोगानन्यवृत्तैः परमार्थतः सर्वज्ञरूपत्वाबाह्यालम्बनाकारोपयुक्तइत्यादि। बृ०१ उ०१ प्रक०। त्वेन मनसोध्यानविशेषरूपाया तत्फलभूतायां वा समाप्तौ, षो० 2 विव०। समयविहाण न० (समयविधान) सिद्धान्तनीतौ, पं०व०४ द्वार। समरसीह पुं० (रामरसिंह) स्वनामख्याते भेदपाट (मेवाड) देशाधिपतौ, समयसण्णा स्त्री० (समयसंज्ञा) आगमपरिभाषायाम, 101 303 प्रक०। / ती०१६ कल्प। समयसब्भाव पुं० (समयसद्भाव) सिद्धान्तार्थे, आव० 4 अ०। समराइच पुं० (रागरादित्य) स्वनामख्याते राजनि, तचरित्रं श्रीसमयसागर पुं० (समयसागर) समयः-आगमस्तस्य सागर इव | __हरिभद्रसूरिकृतं समरादित्यचरित्रादवसेयम्। ध०२ अधि०। रत्नाकरः / स्वनामख्याते ग्रन्थभेदे, स्था० 2 ठा०३ उ०। समरीइय त्रि० (समरीचिक) बहिर्विनिर्गतकिरणजालसहिते, जी० 3 समयसिद्ध त्रि० (समयसिद्ध) आगमोक्ते.पञ्चा० 16 विव०। प्रति०। स०। रा०। औ०। समयसुन्दर पुं० (समयसुन्दर) सकलचन्द्रगणिशिष्ये, येन 1686 / समल्लीण त्रि० (समालीन) आसन्ने, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। आ० म०। संवत्सरे गाथासाहस्री विवादशतक दशवकालिकटीका चेति ग्रन्था समलेस्स त्रि० (समलेश्य) लेश्यया तुल्ये, भ०१ श० 2 उ०। (अत्र रचिताः / जै० इ०। दण्डकः 'सम' शब्देऽरिमन्नेव भागे गतः।) समयसो अव्य० (समयशस्) समयेनेत्यर्थे, क० प्र०१ प्रक०। समवण्ण त्रि०(समवर्ण) वर्णतस्तुल्ये, भ०१श०२ उ०। समया स्वी० (समता) समो रागद्वेषमध्यस्थस्तद्भावस्तत्ता। आ०म० (अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः1) 1 अ०। समभावे, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ० / सूत्र०ा आ० चू०।। समवतार पुं० (समवतार) सम्यगवतारणे, नि० चू०१उ०। आत्मपरतुल्यतायाम, सूत्र० 1 श्रु०२ अ०३ उ०। अरक्ताद्विष्टतायाम्, समवया त्रि० (समवयस्) सवयस्ये, सूत्र० १श्रु० 14 अ०। अष्ट० 14 अट० / सामायिके, रागद्वेषविरहे, रात्र०१ श्रु० 14 अ०। / समवसरण न० (समवसरण) अवसरणकरणे, ही०२ प्रका०। आ० चू०। आचा०माध्यस्थे, आचा०१ श्रु०८ अ०२३०। यो० वि०। औपपातिकदेवतानिमित्ते जिनधर्मदेशने, पञ्चा०२ विव०। समयाजोगि पु० (समतायोगिन) ध्यानबलेन भस्मीभूतमोह-कर्मातप्त- ('समोसरण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्याख्या वक्ष्यामि।) त्यादिपरिणतिरहिते योगिनि, अष्ट०६ अष्ट। समवसरणबिंबरूव न० (समवसरणबिम्बरूप) समवसरणे जिनधर्मसमताणुपेहि(ण) त्रि० (समतानुप्रेक्षिन) समतया प्रेक्षितुं शीलमस्येति / देशनार्थमोपपातिकदेवतानिर्मितानि तस्यैव बिम्बानिप्रतिकृतयसमतानुप्रेक्षी। प्रियद्वेष्यरहिते, सूत्र०१ श्रु०१० अ०। स्तेषामिव रूपं स्वभावो यस्य स समवसरणविम्वरूपः। विशिष्टरूपे समयातीय त्रि० (समयातीत) आगमादतिक्रान्ते, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। चतुर्मुख, पञ्चा०२ विव०। समयाणुभाव पुं० (समतानुभाव) कालविशेषसामर्थ्य भ०७श०६ अ०। समवाइकारण न०(समवायिकारण) सम्-एकीभावे अवशब्दः अपृथक्त्वे, समर त्रि० (शबर) “शबरे बो मः" ||8 / 1 / 258|| इत्यनेनात्र अव गतौ इण गतौ वा। ततश्चैकीभावेन अपृथग्गमन समवायः-संश्लेषः स बकारस्य मकारः / समरो। प्रा०। वन्यमनुष्यजातिभेदे, को० / अष्ट। विद्यतेयेषांतेसमवाधिनस्तन्तवः, यस्मात्तेषुपटः समवैति इति। समवायिनश्ते Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवाइकारण 423 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाण कारणं च समवायिकारणम्, तन्तुसंयोगास्तु कारणरूपद्रव्यान्त- समसहाव पुं० (समस्वभाव) समः-तुल्यःस्वभावःस्वरूप यस्य तत्तथा। रधर्मत्वेन पटाख्यकार्यद्रव्यान्तरवर्त्तित्वात्समवायिनस्त एव कारणम्। तुल्यरूपे, स०२३ सम० कारणभदे, विशे०। आ० चू०। ('कारण' शब्दे तृतीय-भागे 465 पृष्ठे | समसार त्रि० (शमसार) समप्रधाने, द्वा०२३ द्वा० / इदमुवतम् / / समसील त्रि० (शमशील) समस्वभावे, अष्ट० ३अष्टा समवाय पुं० समवाय) समवयनं समवायः। वणिजादीनां संघाते, पिं०। समसुहदुक्ख त्रि० (समसुखदुःख) विगतरागे, पं० चू० 3 कल्प। ओघ० / गोष्ठीना मलापके, आ० म०१ अ०। आचा० / समिति समसुहाकिरा स्त्री० (शमसुधाकिरा) क्रोधादिपरित्यागः समस्तदेव सम्यगवैत्याधिक्येन अयनमयः परिच्छे दो जीवाजीवादिविविध- सुधा-अमृतं तस्याः किरणं किरा-सेवनं यस्याः सा तथा / पदार्थसार्थस्य यस्मिन्नसौ सभवायः। समवयन्ति समवतरन्ति समिलन्ति शमतामृतमय्या दृष्टौ अष्ट०२ अष्ट०। नानाविधा आत्मादयो भावा अभिधेयतया यस्मिन्नसौ समवायः समसेढि स्त्री० (समश्रेणि) अविषमश्रेणौ, नं०। चतुर्थेऽहे . स०१ सम० / पा०। अनु० / नं० / स० / समस्सा स्त्री० (समस्या) समस्यते-संश्रिप्यतेऽनया। सम्-अस्-क्यः / से किं तं समवाए ? समवाएणं ससमया सूइजंति परसमया संक्षेपेण उक्तस्य श्लोकपदादेः परकृतेन स्वकृतेन वा अवशेषेण सूइजति ससमयपरसमया सूइज्जति 0 जाव लोगालोगा सूइ भागान्तरेण संघटनार्थ कृते प्रश्ने, वाच०। आ० म०१ अ०। जंति / समवाएणं एकाइयाणं एगट्ठाणं एगुत्तरियं परिवुड्डीए दुवा समा स्त्री० (समा) आत्मपरतुल्यतायाम्, दर्श०१तत्त्व। संवत्सरात्मके लसंगस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समणुगाइज्जइ,ठाणगसय कालविशेषे, व्य०३ उ०। स्था०। दो समाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-उस्सप्पिणी समा चेव, ओसस्स य बारसविहवित्थरस्स सुयणाणस्स जगजीवहियस्स प्पिणी समा चेव। स्था० 2 ठा० 1 उ०। भगवओ समासेणं समायारे आहिज्जति, तत्थ य णाणाविहप्प ('लोक' शब्दे षष्ठ भागे विस्तरो गतः।) गारा जीवाजीवा य वणिया वित्थरेण, अवरे वि अबहुविहा विसेसा समाइण्ण त्रि० (समाचीर्ण) भाद्रपदशुद्धचतुर्थीपर्युषणापर्वदाच-रिते, नरगतिरियमणुअसुरगणाणं आहारुस्सालेसा आवा-ससंख जी०१ प्रति०। आयप्पमाणउववायचवणउग्गहणोवहिवेयणाविहाण-उवओग समाउ त्रि० (समायुष) उदयापेक्षया समकालायुष उदये, भ० 26 जोगा इंदियक साया विविहा य जीवजोणी विक्खं भु श०१उ०। स्सेहपरिरयप्पमाणं विहिविसेसा य मंदरादीणं महीधराणं कुल समाउत्त त्रि० (समायुक्त) युक्ते, सूत्र०१ श्रु०१अ०३ उ०। औ०। गरतित्थगरगणहराणं सम्मत्तभरहाहिवाणं चक्कीणं चेव चक्कहर समाउय न० (समायुष्क) आयुषा तुल्ये, भ०६ श०१3०। हलहराण य वासाण य निगमा य समाए एए अण्णे य एवमाइ (अत्र दण्डकः 'सम' शब्देऽस्मिन्नेय भागे उक्तः।) एत्थ वित्थरेणं अत्था समाहिजंति / समवायस्स णं परित्ता समाउल त्रि० (समाकुल) सम्मिश्रे, जी०३ प्रति० 4 अधि० / ज०। वायणा० जाव से णं अङ्गयाए चउत्थे अंगे एगे अज्झयणे एगे रा०। उत०। सुयक्खंधे एगे उद्देसणकाले एगे समुद्देसनकाले एगे चउयाले समाओग पुं० (समायोग) सम्यग् आयोगः समायोगः / आव०१ अ०। पदसहस्से पदग्गेणं पण्णत्ता, संखेज्जाणि अक्खराणिक जाव तं० / स्थिरीभावे,स्था० 4 ठा० 4 उ०। चरणकरणपरूवणया आपविजंति / सेत्तं समवाए / (सू० समागम पुं० (समागम) परस्पर संबद्धतया विशिष्टकपरिणाम-समुदाये, 136) स०। अनु० / संयोगे, एकीभवने, समुदये, अनु०॥ संपर्क, व्य०६ उ०। प्राप्तौ, “समवाययवच्छेदो, तस्स हि होहिंति वासाणं। माढरगो-तस्स सूत्र०१ श्रु०७ अ०। इह, संभूतजतिस्स मरणम्मि” ति० / संबन्धविशेषे, आ० म०१ अ० / समागय त्रि० (समागत) एकीभूते, पं०व०३ द्वार। स्था०॥ अयुतसिद्धानामकार्याधारभूतानाम् इहेति प्रत्ययहेती सम्बन्धे, सम्म० समाण धा० (भुज) जेमने, “भुजो भुज-जिम-जेम-कम्माण्ह३ काण्ड / सूत्र० / स्या०। (अत्रत्या व्याख्या 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे समाण-चमढ-चड्डाः" ||8|4|110 / / इति भुजे: समाणादेशः / 2664 पृष्ठतो द्रष्टव्या। समाणइ। भुङ्क्ते / प्रा० 4 पाद। समविसम त्रि० (समविषम) अनुकूलप्रतिकूले शय्यासनादी, सूत्र०१ | *समाप धा० समाप्ती, "समापेः समाणः" |4|142 // इत्यनेनात्र ध्रु०२ अ० 2 उ०। समाप्नोतेर्वकल्पिकः समान आदेशः। समाणइ। समावेइ। प्रा० 4 पाद। समवेयण त्रि० (समवेदन) वेदनया तुल्ये, भ० 120 2 उ०। *समान त्रि० समे, नि० चू० 4 उ० / उत्त० / रा० / सदृशे, उत्त० 32 समसण्ण त्रि० (समसंज्ञ) तुल्यबद्धौ, आव०५ अ०। अ०। ज्ञा०। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाण 424 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समावत्ति *सत् त्रि० विद्यमाने, स्था०३ ठा०१ 30 / ज्ञा० / आचा०। प्रथा जी० / उत्त०। हा०। ('सामायारी' शब्दे अस्मिन्नेव भागे दशधा औत्तराहे आज्ञप्तिकेन्द्र, स्था०२ठा०३ उ०। सामाचारी वक्ष्यते।) समाणइत्ता अव्य० (समाप्य) समाप्ति नीत्येत्यर्थे, आव०५ अ०। समार-धा०(सम् आ रच्) निमणि, “समारचेरुवहत्थ-सारवसमाणकप्प पुं० (समाणकल्प) तुल्याध्यवसाये, कल्प०१ अधि०६ समार-केलायाः" |||4||| अनेन समारचे:समारादेशः समारइ। क्षण। समारचयति। प्रा०४ पाद। समाणी स्त्री० (सती) विद्यमानायाम्, प्रज्ञा०१५ पद / ज०। समारंभ पुं० (समारम्भ) उपादानहेतौ, आचा० 1 श्रु०१अ०१ उ० / समाणु अव्य० (समम्) “एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मना क्-एम्ब- परितापकरे व्यापारे, व्य०१ उ०। व्यापादने, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ पर-समाणु-ध्रुवु-म-मणाउं" ||4|418 / / अनेन अप-भंशेऽर्थे उ० / परपीडाकरोच्चाटनादिनिबन्धनध्याने, दशा० / त्रिविधः समासममः समाणु इत्यादेशः / सहाथै, समाणु / समम्। प्रा० 4 पाद। रम्भः मानसिकवाचिककायिकभेदात्, तत्र मानसिकः मन्त्रादिध्यासमादहमाण त्रि० (समादहत) शीतस्पर्श सहमाने, आचा० 1 श्रु०६ नम्,परमारणहेतोः प्रथमः समारम्भः परपीडाकरोच्चाटनादिनिबअ०२उ०। न्धनध्यानम् / वाचिको यथा आरम्भः परव्यापदनसमक्षुद्रविद्यादिसमादाण न० (समादान) ग्रहणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। परावर्तनासंकल्पसूचको ध्वनिरेव समारम्भः। परपरितापकरमन्त्रादिसमादाय अव्य० (समादाय) गृहीत्वेत्यर्थे, आचा० 1 श्रु० 3 अ० 1 परावर्त्तनम् / कायिको यथा आरम्भोऽभिघाताय यष्टिमुष्ट्यादिकरणं, उ०। सूत्र०॥ समारम्भः परितापकरो मुष्ट्याद्यभिघातः।दशा०६ अ० / अङ्गारकर्मणि, समादेज त्रि० (समादेय) ग्राह्ये, विशे०। पं० सू०१ सूत्र / "संकप्पो संरंभो, परितापको भवे समारंभो।" भ०३ समादेस पुं० (समादेश) निर्ग्रन्थानां साधूनां कृते औदृशिकभेदे, ध०३ श०३ 30 / स्था०नि० चू०। आचा०। उत्त०। सूत्र०। जीवोपमर्द,सूत्र० अधि०। 1 श्रु० 11 अ० / प्रस्थापने, विशे० / सेवने, सूत्र० 1 श्रु० 8 अ०। समाय पुं०(सयवाय) समवायनं समवायः, प्राकृतत्वेन वकार-लोपः। आचा० / ताड़ने, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। आचा०। स्था०। सम्यकपरिच्छेदे सद्धेतौ, ग्रन्थे च / समो रागद्वेषरहित्वा-दयो-गमन | समारंभमाण त्रि० (समारम्भमाण) समारम्भं कुर्वति, स्था० 10 ठा०३ समायः। आ०म०१ अ०। समो रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्म- उ० / जीवानां विनाशके, औ० / व्यापादयति, स्था० 6 ठा०३ उ०। वत्पश्यति, अयो-लाभ:-प्राप्तिरितिपर्यायाः। समस्यायः समायः। समो | संघट्टादीनां विषयीकुर्वति, स्था०५ ठा०२ उ०। हि प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानदर्शनचरणपर्या-यैर्निरुपमसुखहे तुभिः समारंभावण न० (समारम्भण) समनुज्ञाने, आचा० 1 श्रु०१ अ०२ उ०/ अधःकृतचिन्तामणिकल्पदुमैयुज्यते स एव समायः, आव०६ / समारंभि (न) त्रि० (समारम्भिन्) कृतसमारम्भे, कर्तरि, आचा०१ अ० / अनु० / सामायिके, आव० 6 अ० सूत्रका स्था० / चतुर्थेऽड़े , | श्रु०१ अ०५ उ०। स०१३६ सूत्र। समारंमित्ता अव्य० (समारभ्य) प्रज्ज्वाल्येत्यर्थे सूत्रः १श्रु०५ *समा(म)क न० युगपदित्यर्थे, भ०२६ श० 130 / मृषावादे, सूत्र० | अ० 1 उ०। १श्रु०८ अ०॥ समारोव पुं० (समारोप) अतस्मिन् तदध्यवसाये, अतत्प्रकारे पदार्थ समायकरण न० (समायकरण) समतासमागमपरिज्ञाननिमि- तत्प्रकारतानिर्णये, (रत्ना०१परि०।) यथा क्षणिके, अक्षणिकज्ञानम् / त्तरेखाकरणे, ज्यो०२ पाहु०॥ सम्म०१ काण्ड। समायरंत त्रि० (समाचरत) सेवमाने, प०व०१द्वार। कुर्वति, स्था०६ / समारोह पुं० (समारोह) सम्यक् क्लेशेनोर्ध्वगमने, आव० 4 अ०। ठा०३ उ०। समालवण न० (समालपन) अतिविषमत्वादल्पाक्षरैरसम्यग–वबोधे, समायरण न० (समाचरण) करणे, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० 3 उ०। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। समायरित्ता अव्य० (समाचर्य) कृत्वेत्यर्थे ,विपा० 1 श्रु० 1 अ०। समाव धा० (समाप) समाप्तिनयने, “समापेः समाणः" ||8|| समायरियव्व त्रि० (समाचरितव्य) सेव्ये, आव०६ अ०। १४२।अनेन पाक्षिकः समाणादेशः। तत्पक्षे–समावेइ / समापयति / समायाण न० (समादान) ग्रहणे, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। प्रा०४ पाद। समायार पुं० (समाचार) समाचरणं समाचारः। अनुष्टाने, आचा०१ श्रु० | समावडिय त्रि० (समापतित) समापन्ने, औ०। प्रश्न०। 1 अ०५ उ०। सूत्र० / स्था०। शिष्टाजनाचरिते क्रियाक-लापे, समावण्ण त्रि० (समापन्न) निष्ठानयने,आव०३ अ०। भा आचा० / अनु० / स्थान समागते, सूत्र०१ श्रु०३अ०३ उ०। सम्यगापन्ने, प्राप्ते, आचा० १श्रु० समायारग त्रि० (समाचारक) समाचरतीति समाचारकः / कर्त्तरि, / 5 अ०५ उ०। नं०1 आ० म०। समावत्ति स्त्री० (समापत्ति) अवधानेन मनस्तादात्म्यापादने, द्वा०२२ समायारी स्त्री० (समाचारी) समाचरणे, पं० व० 5 द्वार / व्य०। ती०। | द्वा० / प्रति० / पो०। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समावत्ति 425 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि मनोबिम्बप्रतिच्छाया, समापत्तिं परात्मनः। समासदोषः / अनु० / विशे०। क्षीणवृत्तिर्भवेद्ध्याना-दन्तरात्मनि निर्मितम्।।१।। समासिय त्रि० (समाश्रित) अभ्युपगवति, आ० म०१ अ०। द्वा०२२ द्वा०। समासिक न० द्वयोर्बहूना वा पदानां समसन--सलीनं समासस्त-निर्वृत्तं ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1630 पृष्ठे व्याख्यातमिदम्।) समासिकम्। समासजे नामनि, अनु० / यथा राज-पुरुषोऽयमिति। अत्र समाक्यंत त्रिः (समापतत्) एकीभावेनाभिमुखं पतति, दश०६ अ० तत्पुरुष समासे कर्तव्ये विशेषणसमासकरणं बहुब्रीहिसमासकरणम्। 3 उ०। यदिवाअत्र समासकरणं, यथा राज्ञः पुरुषोऽयमिति। आ० म० 1 अ०। समाविभाग पु० (समाविभाग) कालविभागे, ज्यो०६ पाहु०। समाहटु अव्य० (समाहृत्य) सम्यगुपादायेत्यर्थ, सूत्र० १श्रु० 8 अ०। समास पुं० (सभास) असुक्षपणे, असनभासः क्षेप इत्यर्थः, शोभनमसन सवाहड त्रि० (समाहृत) शुद्ध, आचा०२ श्रु० 10 1103 उ०॥ समासः / संसाराग्रहिर्जीवात् कर्मणो वा क्षेपणे, आ०म० 1 अ० / संक्षेपे, अङ्गीकृते सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सामान्ये, ओ०। सामायिके, विशे० / संशब्दः प्रशंसायाम, असु क्षेपणे, सयाहय त्रि० (समाहत) परस्परेणोपहते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अभिभूते, शोभनमसन संसारावहिर्जीवस्य जीवा-त्कर्मणो वा क्षेपणं समासः / प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। रा०। अमनोज्ञे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। अथवा-संशब्दः सम्यगर्थः सम्यगासः समासः। रागद्वेषरहितस्य समस्य समाहरण न० (समाहरण) गोपने, उपसंहरणे, सूत्र० 1 श्रु०५ अ० / वा आसः समासः। विशे०। 'अप्पक्खर समासो' त्ति-महार्थत्वेऽप्यल्पा- विरोतसिकाराहित्वेनादाने, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। भरत्वात्सा-मायिक समास उच्यते। 'अहवाऽऽसो सण' त्ति-अथवा-- | समाहाण न० (समाधान) विषयाद्यौत्सुक्यनिवृत्तिलक्षणे स्वास्थ्ये, असु क्षेपणे इत्यस्य धातीर्युत्पाद्यते। आकारश्चैह प्रश्लिष्टो द्रष्टव्यः, ततश्च / अनु० / आव०। सम्यगाख्याने, सूत्र०२ श्रु० 2 अ० / अनादिकालात्संहअसनमासो जीवात्कर्मणः क्षेप इत्यर्थः / णकारस्यानुस्वार- श्वेह लुप्तो त्यावस्थाने, धातूनामनेकार्थत्वात्। विशे० / वित्तसमाधाने, आ० चू०। दृश्यः समशब्दार्थमाह- 'महासणं सचे' त्ति-अव्य-यानामनेकार्थत्या तत्रोदाहरणम्न्महत्कर्मणोऽसनं समसनं समासः / वा इति अथवा, सच्छोभनमसनं णयरं सुदंसणपुरं, सुसुणाए सुजस सुव्वए चेव। समास: कर्मक्षेपणस्य शोभनत्वादिति / अथवा-सम्यगर्थे समर्थे वा पव्वज्ज सिक्खमादी, एगविहारे य फासणया।।१२६८।। संशब्दः / ततिकमित्याह- 'सम्मं समस्त वाऽऽसो' त्ति-सम्यक समस्य सुदंसण पुरं नगरं, सुसुणागो गाहावई, सुजसा से भञ्जा, सड्ढाणि ताण वा रागद्वेषरहितस्यासः कर्मक्षेप इति कृत्वा सामायिकं समासो भवति। सुबत्तो पुत्तो णाम सुहेण गम्भे अच्छितो, सुहेण जातो, एवं वड्डितो, एवं० विशे० / आ० चू०। (कथा 'चिलाईपुत्त' शब्दे तृतीयभागे 1188 पृष्ठे जाव जोवणत्यो संबुद्धो, आपुच्छित्ता पब्वइतोपडितो, एगल्लविहारपडिम गता।) संक्षेपे. नं०। आतु०। आच०। आ० म०। पञ्चा०रा०। विशे० / पडिवण्णो / सक्कपसंसा, देवेहिं परिक्खितो / अणुकूलेण धण्णो, उत्तः / पा० / स्था० / अनु० / 'समास' त्ति-संशब्दः प्रशंसायामसु कुमारबंभयारी एकेण, वितिएण को एआओ कुलसंताणच्छेदगाओ क्षेपणे / शोभनमसनम संक्षेपेण विस्तरवतः संकोचन समासः। पदाना- अधण्णोति?सो भगवं समो / एवं मातापिताणि से विसयपसत्ताणि मेकीकरणे, प्रश्न० 2 संव० द्वार। दसिताणि / पच्छा मारिजंतगाणि कलुणं कूवेंति, तहा वि समो। पच्छा से किं तं समासिए ? समासिए सत्त समासा भवंति, तं जहा- सव्व तुट्टा विउव्वित्ता दिव्वाए इत्थिगाए सविन्भमं, पलोइयं मुक्कदीहनी"दंदे अबहुधीही, कम्मधारए दिग्गू अ। तप्युरिसे अव्वईभावे, सासमवगढो तहा वि संजमे समाहिततरो, जातो णाणं उप्पण्णं जाव एक्कसेसे असत्तमे" ||1|| अनु०। सिद्धो। आ० चू० 4 अ०। आव०। द्वयोर्बहूनां पदाना वा समसन-संमीलनं समासः। अनु० / समाहार पुं० (समाहार) समानाहारे, प्रज्ञा०१७ पद 130 / (अत्र दण्डकः (द्वन्द्वादिपदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने।) 'सम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) समासओ अव्य० (समासतस) संक्षेपेणेत्यर्थे , नि० चू०१ उ०। कर्म०। / समाहारा स्त्री० (समाहारा) द्वादश्या रात्रितिथौ, जं०७ वक्ष० / ज्यो०। समासज्ज अव्य० (समासाद्य) प्राप्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु० अ०८ उ०। दक्षिणचरुकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, आ० चू०१ अ०। समासण न० (समासन) समानोपवेशने,आव० 4 अ०। आ० म०। बी०। जं०। आ० क० / स्था०। चं० प्र०। समासत्थ पुं० (समासार्थ) संक्षिप्तार्थे, आ० म०१ अ०। समाहि पु० (समाधि) समाधानं समाधिः / सम्यम्मा - समासदोस पुं० (समासदोष) समासव्यत्यये, आ० म०१ अ० / यत्र क्षमागविस्थाने, स० 20 सम० / रागद्वेषपरित्यागरूपे धर्म - समाराविधिः प्राप्त समासं न करोति, व्यत्ययेन वा करोति, तत्र ध्याने, सूत्र०१श्रु०२ अ०२ उ०। स्वास्थ्ये, आ०म०२ अ०। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि चेतः स्वास्थ्ये, स०३२ सम०। आचा०। आ० चू०। आव० / ध। नीरोगतायाम्, व्य०१ उ०। उत्त० / इन्द्रियप्रणिधाने, आचा०१७०६ अ० 4 उ० / योगे,उत्त०२ उ०। धर्मध्यानादिके. सूत्र० 1 श्रु०२ अ०३ उ० / सम्यगवस्थाने, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० सम्य-ग्दर्शनादिकाया | मोक्षपद्धतौ, सूत्र० 1 श्रु०१३ अ० / प्रशमवाहि-तायां ज्ञानादौ च / स्था० 4 ठा०१ उ० / एकाग्रे निरुद्ध चित्ते स–माधिरिति। द्वा०११ द्वा० / ज्ञानदर्शनचारित्रात्मके चित्तस्वास्थ्ये, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ० / प्रशस्तभावे, स्था० 2 ठा०३ उ० / समाधान समाधिः, स च द्रव्यभावभेदात् द्विविधः / तत्र द्रव्यस-माधिर्यदुपयोगात स्वास्थ्य भवति, येषां वा विरोध इति, भावस-माधिस्तु ज्ञानादिसमाधानमेव, तदुपयोगादेव परमस्वास्थ्ययो-गादिति, यतश्चायमित्थं द्विधा, अतो द्रव्यसमाधिव्यवच्छेदार्थ-माह-वरं-प्रधानं भावसमाधिमित्यर्थः, (ददतु ) / आव०२ अ०। प्रव० / सन्मार्गानुष्ठाने, ध० 3 अधि० / द्वा० / प्रशान्तवाहिता वृत्तेः, संस्कारात् स्यान्निरोधजात्। प्रादुर्भाव-तिरोभावौ, तद्व्युत्थानजयोरयम् // 23 // प्रशान्तेति-प्रशान्तवाहिता परिहृतविक्षेपतया सदृशप्रवाहपरि-- णामिता, वृत्तेर्वृत्तिमयस्य चित्तस्य निरोधजात् संस्कारात स्यात, तदाह"तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात्” (3-10) / कोऽय ? निरोध एवेत्यत आह- तद्व्युत्थानजयो निरोधजव्युत्थानजयोः संस्कारया: प्रादुर्भावतिरोवाभौ वर्तमानाध्वाभिव्यक्तिकार्य करणासामर्थ्यावस्था नलक्षणी, अयं निरोधः चलत्वेऽपि गुणवृत्तस्योक्तोभयक्षयवृत्तित्वान्चयेन चित्तस्य तथाविधस्थैर्य-मादाय निरोधपरिणामशब्दव्यवहारात् / तदुक्तम्- "व्युत्थाननि-रोधसंस्कारयोरभिभवप्रादुर्भावी निरोधक्षणचित्ताऽन्वयो निरोध-परिणाम” इति (3-6) / सर्वार्थतैकाग्रतयोः, समाधिस्तु क्षयोदयौ। तुल्यावेकाग्रताशान्तो-दितौ च प्रत्ययाविह।।२४।। सर्वार्थतति-सर्वार्थता-चलत्वान्नानाविधार्थग्रहणम् चित्तस्य विक्षेपोधर्मः: एकाग्रता एकस्मिन्नेवाऽऽलम्बने सदृशपरिणामिता तयोः क्षयोदयौ तु अत्यन्ताभिभवाभिव्यकिलक्षणी, समाधिरुद्रिक्तसत्त्वचित्तान्वयितयाऽवस्थितः; समाधिपरिणामोऽभिधीयते / यदुक्तम्"सर्वार्थतैकाग्रतयोः क्षयोदयौ चित्तस्य समाधिपरिणामः" इति ( 3-- 11) / पूर्वत्र विक्षेपस्याभिभवमात्रम्, इह त्वत्यन्ताभिभवोऽनुत्पत्तिरूपीऽतीताध्वप्रवेश इत्यनयोर्भेदः / इहा-धिकृतदर्शन तुल्यावेकरूपालम्बनत्वेन सदृशौ शान्तोदितौ अतीताध्वप्रविष्टवर्तमानाध्वस्फुरितलक्षणौ च प्रत्ययौ एकाग्रता उच्यते समाहितचित्तान्वयिनी। तदुक्तम्"शान्तोदितौ हि तु (तो तु) ल्यप्रत्ययौ चित्तस्यैकाग्रतापरिणामः" (312) / नचैव--मन्वयव्यतिरेकवस्त्वसंभवः, यतोऽन्यत्रापि धर्मलक्षणावस्थापरिणामा दृश्यन्ते / तत्र धर्मिणः पूर्वधर्मनिर्वृत्ताबुत्तरधर्मापत्तिर्धमपरिणामः, यथा-मूलक्षणस्य धर्मिणः पिण्डरूपधर्मपरित्यागेन घटरूपधर्मान्तरस्वीकारः / लक्षणपरिणामश्च यथा-तस्यैव घट-स्यानागताऽध्वपरित्यागेन वर्तमानाध्वस्वीकारः, तत्परित्यागेन वाऽतीताध्वपरिग्रहः / अवस्थापरिणामश्च यथा- तस्य घटस्य प्रथमद्वितीययोः क्षणयोः सदृशयोरन्वयित्वेन चलगुणवृत्तीनां गुणपरिणामनं धर्मीव शान्तोदितेषु शक्तिरूपेण स्थितेषु सर्वत्र सर्वात्मकत्वव्यपदेशेषु धर्मेषु कथञ्चिद्भिन्नेप्यन्वयी दृश्यते, यथा-पिण्डघटादिषु मृदेव प्रतिक्षणमन्यान्यत्वाद्विपरिणामान्यत्वम् / तत्र केचित्परिणामाः प्रत्यक्षेणैवोपलक्ष्यन्ते, यथासुखादयः संस्थानादयो वा / केच्चिानुमानगम्या, यथा-कर्मसंस्कारक्तिप्रभृतयः / धर्मिणश्च भिन्नाभिन्नरूपतया सर्वत्रानुगम इति न काचिदनुपपत्तिः / तदिदमुक्तम्- “एतेन भूतेन्द्रियेषु धर्मलक्षणावस्थापरिणामा व्याख्याः” (3-13) / “शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मानुपाती धर्मी" (3-14) "क्रमान्यत्वं परिणामान्यत्वे हेतु-रिति” (3-15) / / 24 / / (द्वा०) (25 श्लोकः 'सम्पवित्तिप-यावहा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) (26 श्लोकः 'परा' शब्दे पञ्चमभागे 546 पृष्ठ गतः।) स्वरूपमात्रनिर्भासं, समाधियानमेव हि। विभागमनतिक्रम्य, परे ध्यानफलं विदुः / / 27 / / स्वरूपेति-स्वरूपमात्रस्य ध्येयस्वरूपमात्रस्य निर्भासो यत्र तत्तथा। अर्थाकारसमावेशेन भूतार्थरूपतया न्यग्भूतज्ञानस्वरूपतया च ज्ञानस्वरूपशून्यतापत्तेः ध्यानमेव हि समाधिः / तदुक्तम्-"तदेवार्थमात्रनिर्भास स्वरूपशून्यमिव समाधिः” इति। (3-3) विभागमष्टाङ्गो योगः इति प्रसिद्धमनतिक्रम्यानुल्लङ्ग्य परे ध्यानफलं समाधिरिति विदुः / निराचारपदो ह्यस्या-मतः स्यान्नातिचारभाक् / चेष्टा चास्याखिलाभुक्त-भोजनाभाववन्मता॥२८॥ निराचारेति-अस्या दृष्टौ योगी नातिचारभाक् स्यात् तन्निबन्धनाभावात् / अतो निराचारपदः प्रतिक्रमाद्यभावात्, चेष्टा चास्यतददृष्टिमतोऽखिलाभुक्तभोजनाभाववन्मता आचारजेयकर्मा-भावात, तस्य भुक्तप्रायत्वात्, सिद्धत्वेन तदिच्छाविघटनात्। कथं तर्हि भिक्षाटनाद्याचारोऽत्रेत्यत आहरत्नशिक्षादृगन्या हि, तन्नियोजनदृग्यथा। फलभेदात्तथाचार-क्रियाऽप्यस्य विभिद्यते // 26 // रत्नेति-रत्नशिक्षादृशोऽन्या हि यथा शिक्षितस्य सतस्तन्नियोजनदृक, तथाऽऽचारक्रियाऽप्यस्य भिक्षाटनादिलक्षणफलभेदाद्विभिद्यते / पूर्व हि साम्परायिककर्मक्षयः फलम्, इदानीं तु भवापग्राहिकर्मक्षय इति। कृतकृत्यो यथा रत्न-नियोगादत्नविद्भवेत् / तथाऽयं धर्मसंन्यास-विनियोगान्महामुनिः // 30 // कृतकृत्य इति यथा रत्नस्य नियोगात् शुद्धदृष्ट्या यथेच्छव्यापा-- राणिग रत्नवाणिज्यकारि कृतकृत्यो भवेत् तथाऽयमधिकृतदृष्टिस्थो धर्मसंन्यासविनियोगात् द्वितीयापूर्वकरणे महामुनिः कृत-कृत्यो भवति। केवलश्रियमासाद्य, सर्वलब्धिफलान्विताम्। परंपरार्थ संपाद्य, ततो योगान्तमश्नुते / / 31 / / के वले ति-के वल श्रियं-के वलझानलक्ष्मीमासाद्य-प्राप्य सर्वल-विधफलान्वितां सर्वोत्सुक्यनिवृत्त्या परंपरार्थ यथा भव्य सम्यक्त्वादिलक्षणं संपाद्य ततो योगान्तं-योगपर्यन्तमश्नुते Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 427 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि प्राप्नोति। तत्रायोगाद्योगमुख्याद्भवोपग्राहिकर्मणाम् / क्षयं कृत्वा प्रयात्युच्चैः, परमानन्दमन्दिरम् / / 32 / / तत्रेति-तत्र योगान्ते शैलेश्यवस्थायाम् अयोगादव्यापारात् योगमुख्यात् भवोपग्राहिणां कर्मणां क्षयं कृत्वा उसलोकान्ते परमाऽऽनन्दमन्दिरं प्रयाति / द्वा० 24 द्वा०॥ साम्प्रतं समाधिरुच्यते तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यादिसमाधिमाहदव्वं जेण व दवेण समाही आहिअंच जं दव्वं / भावसमाहिचउविह-दसणनाणे तवचरित्ते / / 327 / / द्रव्यमिति द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिर्यथा मात्रकम, अवि-रोधि या क्षीरगुडादि, तथा येन वा द्रव्येणोपयुक्तेन समाधिरित्र-फलादिना तद् द्रव्यसमाधिरिति / तथा आहितं वा यद् द्रव्यं समता करोति तुलारोपितपलशतादिवत् स्वस्थाने तत् द्रव्यं समाधिरिति / उक्तो द्रव्यसमाधिः || भावसमाधिमाह-भावसमाधिः प्रशस्तभावविरोधलक्षणश्चतुर्विधः, चातुर्विध्यमेवाह-दर्शनज्ञानत-पश्चारित्रेषु एतद्विषयो दर्शनादीना व्यस्तानां समस्तानां वा सर्वथा अविरोध इति गाथार्थः / दश०६ अ०१ उ०। पा० / उत्त० / मोक्षे, सम्यग्ध्याने, सदनुष्टाने च। सूत्र०१ श्रु०३ अ० 3 उ०। स्था०। दसविहा समाही पण्णत्ता, तं जहा-पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे अदिण्णादाणवेरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे इरियासमिई मासासमिई एसणासमिई आयाणउच्चारपासवणखेलसिंघाणगपारिठ्ठावणियासमिई। (सू०११४) समाधानं समाधिः, समता सामान्यतो रागाद्यभाव इत्यर्थः, स चोपाधिभेदात् दशधेति। स्था० १०ठा०३ उ०। संथा०। अनु-ठाने,सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०। सम्यगमार्गानुष्ठाने, सूत्र०१ श्रु०१४ अ० / गुर्वादीना कार्यकारणद्वारेण चित्तस्वास्थ्योत्पादने, ज्ञा० 1 0 8 अ० / आ० क० / / 'समाहाण' शब्दे अस्मिन्नेव भागे कथा-नकम्।) शुभलेश्याध्यवसाये, दश०२ चू० / भारते वर्षे उत्सर्पि-ण्यां भविष्यति सप्तदशे तीर्थकर, स० 84 सम० / ति० / सत्तरसो रेवइजीवो समाही। ती०२ कल्प। समतायाम, प्रश्न०१ संव० द्वार। धर्मे समाधिः कर्तव्यः, सभ्यगाधीयते व्यवस्थाप्यते मोक्ष मार्ग वा प्रति येनात्मा धर्मध्यानादिना स समाधिः धर्मध्यानादिकः / स सम्यग ज्ञात्वा स्पर्शनीयः / नामनिष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकृदाह-- आयाणपदेणाऽऽघं, गोणं नामं पुणो समाहि त्ति। णिक्खिविऊण समाहिं, भावसमाहीइ पगयं तु // 103 / / णाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो उ समाहीए, णिक्खेवो छविहो होइ / / 104 / / पंचसु विसएसु सुभेसु,दव्वम्मित्ता भवे समाहि त्ति। खेत्तं तु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जो उ॥१०५।। भावसमाही चउव्विह, दंसणणाणे तवे चरित्ते य। चउसु वि समाहियप्पा, सम्मं चरणट्ठिओ साहू॥१०६।। आदीयते-गृह्यते प्रथमम्-आदौ यत्तदादानम् आदानं च तत्पदं च सुबन्तं तिडन्त वा तदादानपदं तेन 'आघं' ति नामास्याध्य-यनस्य, यस्मादध्ययनादाविदं सूत्रम्- "आधं मईम मणुवीइधम्म” इत्यादि, यथोत्तराध्यनेषु चतुर्थमध्ययनं प्रमादाप्रमादाभिधाय-कमप्यादानपदेन 'असंखय' मित्युच्यते, गुणनिष्पन्न पुनरस्या-ध्ययनस्य नाम समाधिरिति, यस्मात्स एवात्र प्रतिपाद्यते, तं च समाधिं नामादिना निक्षिप्य भावसमाधिनेह प्रकृतम् --अधिकार इति / समाधिनिक्षेपार्थमाह-नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, एष तु समाधिनिक्षेपः षडविधो भवति / तु शब्दो गुणनिष्पन्नस्यैव नाम्नो निक्षेपो भवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनार्थ इति / नामस्थापने सुगमत्वादनाहृत्य द्रव्यादिकमधिकृत्याह-पञ्चस्व-पि शब्दादिषु मनोज्ञेषु विषयेषु श्रोत्रादीन्द्रियाणां यथास्व प्राप्तौ सत्यां यस्तुष्टिविशेषः स द्रव्यसमाधिः,तदन्यथा त्वसमाधिरिति। यदिवा--द्रव्ययोर्द्रव्याणां वा सम्मिश्राणामविरोधिनां सतां न रसोपघातो भवति, अपितु रसपुष्टिः स द्रव्यसमाधिः / तद्यथाक्षीरशर्करयोर्दधिगुडचातुर्जातकादीनां चेति, येन वा द्रव्येणोपभु-क्तेन समाधिपानकादिना समाधिर्भवति तद् द्रव्यं द्रव्यसमाधिः। तुलादावोरोपितं वा यद द्रव्यं समतामुपैतीत्यादिको द्रव्यसमाधि-रिति / क्षेत्रसमाधिस्तु यस्य यस्मिन् क्षेत्रे व्यवस्थितस्य समाधि-रुत्पद्यते स क्षेत्रप्राधान्यात क्षेत्रेसमाधिः / यस्मिन् वा क्षेत्रे समा-धियावर्ण्यत इति। कालसमाधिरपि यस्य यं कालमवाप्य समा-धिरुत्पद्यते तद्यथा-शरदि गवां नक्तमुलूकानामहनि बलिभुजा, यस्य वा यावन्त काल समाधिर्भवति यस्मिन् वा काले समाधि-याख्यायते स कालप्राधान्यात कालसमाधिरिति / भावसमाधि त्वधिकृत्याह-भावसमाधिस्तु दर्शनज्ञानतपश्चारित्रभेदाच्चतुर्द्धा, तत्र चतुर्विधमपि भावसमाधि समासतो गाथापश्वार्धनाह-मुमुक्षुणा चर्यत इति चरणं तत्र सम्यक् चरणे चारित्रे व्यवस्थितः समुधुक्तः साधुः-मुनिश्चतुर्ध्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनज्ञान-तपश्चारित्ररूपेषु सम्यगाहितो-व्यवस्थापित आत्मा येन स रामा-हितात्मा भवति। इदमुक्तं भवति यः सम्यक्चरणे व्यवस्थितःस चतुर्विधभावसमाधिसमाहितात्मा भवति / यो वा भावसमाधिसमाहितात्मा भवति, ससम्यक्चरणे व्यवस्थितो द्रष्टव्य इति। तथाहिदर्शनसमाधौ व्यवस्थितोजिनवचनभावितान्तः करणो निवातशरणप्रदीपवन कुमतिवायुभिम्यिते, ज्ञानसमाधिना तु यथा यथाऽपूर्व श्रुतमधीते तथा तथाऽतीवभावसमाधावुद्यक्तो भवति। तथा चोक्तम्"जह जह सुयमवगाहइ, अइसयरसपस-रसंजुयमउव्व। तह तह पल्हाइ मुणी, णवणवसंवेगसद्धाए // 1 // " चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिःस्पृहतया निष्किशनोऽपि परं समाधिमाप्नोति, तथा चोक्तम्- "तण संथारणिसन्नो, ऽवि मुणि-वरो भट्टरागमयमोहो। जं पावइ मुत्तिसुह, कत्तो तं चक्कवट्टी वि? ||1 / / नैवास्ति राजराजस्य तत्सुखं नैव देवराजस्य / यत्सुख-मिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य" ||2|| इत्यादि, Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 428 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि तपःसमाधिनाऽपि विकृष्टतपसोऽपि न ग्लानिर्भवति तथा क्षुत् - ष्णादिपरीषहेभ्यो नोद्विजते, तथा अभ्यस्ताभ्यन्तरतपोध्यानाश्रितमनाः स निवार्णस्थ इव न सुखदुःखाभ्यां बाध्यत इत्येवं चतुर्विधभावसमाधिस्थः सम्यवचरणव्यवस्थितो भवति साधु-रिति। गतो नामन्निष्पन्नो निक्षेपः,साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेत सूत्रमुचरणीयं, तच्चेदम्आघं मईमं मणुवीय धम्म, अंजू समाहिं तमिणं सुणेह। अपडिन्न भिक्खू उसमाहिपत्ते, अणियाणभूतेसु परिव्वएज्जा / / 1 / / उड्ढे अहेयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिनभन्नेसु य णो गहेज्जा / / 2 / / सुयक्खायधम्भे वितिगिच्छतिण्णे, लाढे चरे आयतुले पयासु। आयं न कुज्जा इह जीवियट्ठी, चयं न कुज्जा सुतवस्सि भिक्खू / / 3 / / सव्विंदियाभिनिव्वुडे पयासु, चरे मुणी सव्वतो विप्पमुक्के / पासहि पाणे य पुढो वि सत्ते, दुक्खेण अट्टे परितप्पमाणे ||4|| अस्य चायमनन्तरसूत्रेण सह सम्बन्धः,तद्यथा-अशेषगारवपरिहारेण मुनिर्निर्वाणमनुसन्धयेदित्येतद्भगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः समाख्यातवान् एतच्च वक्ष्यमाणमाख्यातवानिति, 'आध' ति-आख्यातवान् काऽसौ?-मतिमान्-मननं मतिः-समस्तपदार्थ-परिज्ञानं तद् विद्यते यस्यासौ मतिमान् केवलज्ञानीत्यर्थः, तत्रा--सधारणविशेषणोपादानात्तीर्थकृद् गृह्यते, असावपि प्रत्यासत्ते–वीरवर्द्धमानस्वामी गृह्यते, किमाख्यातवान् ? धर्म-श्रुतचारित्रा-ख्यं, कथम्? अनुविचिन्त्यकेवलज्ञानेन ज्ञात्वाप्रज्ञापनायो-ग्यान पदार्थानाश्रित्य धर्म भाषते, यदि वाग्राहकमनुविचिन्त्य कस्यार्थस्यायं ग्रहणसमर्थः? तथाकोऽयं पुरुषः? कञ्च नतः? किं वा दर्शनमापन्नः? इत्येवं पर्यालोच्य, धर्मशुश्रूषको वा मन्य-न्ते, यथा-प्रत्येकमरमदभिप्रायनुविचिन्त्य भगवान् धर्म भाषते, युगपत्सर्वेषां स्वभाषापरिणत्या संशयापगमादिति, किं भूतं धर्म भाषते? ऋजुम्-अवक्र यथावस्थितवस्तुस्वरूपतिरूपणतो, न यथाशाक्याः सर्व क्षणिकाभ्युदगम्य कृतनाशाकृताभ्यागमदोष-भयात्सन्तानाभ्युपगम कृतवन्तः, तथा वनस्पतिमचेतत्वेनाभ्यु-पगम्य स्वयं न छिन्दन्ति तच्छेदनादावुपदेशं तु ददति, तथा कार्षापणादिक हिरण्यं स्वतो न स्पृशन्ति अपरेण तु तत्परिग्रहतः क्रयविक्रय कारयन्ति, तथा सांख्याः सर्वमप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वभाव नित्यमभ्युपगम्य कर्मबन्धमोक्षाभावप्रसङ्ग दोषभयादाविर्भावतिरोभावावाश्रितवन्त इत्यादिकौटिल्य भावपरिहा-रेणावळं तथ्यं धर्ममाख्यातवान्, तथा सम्यगाधीयते-मोक्ष सन्मार्ग वा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते-व्यवस्थाप्यते येन धर्मेणासी धर्मः समाधिस्तं समाख्यातवान् / यदिवा- धर्ममाख्यातवाँस्तत्समाधि च धर्मध्यानादिकमिति / सुधर्मस्वाभ्याह-तमिर्म-धर्म समाधि वा भगवदुपदिष्टं शृणुत यूयम्। तद्यथा न विद्यते ऐहिकामुष्मिकरूपा प्रतिज्ञाआकाङ्गा तपोऽनुष्ठानं कुर्वतो यस्यासावप्रतिज्ञो, भिक्षणशीलो भिक्षुः तुर्विशेषणे भावभिक्षुः, असावेव परमार्थतः साधुः, धर्म धर्मसमाधि च प्राप्तोऽसावेवेति। ('अणियाणभूतेसु परिव्व-एजा' अस्य पदस्य व्याख्या 'अणिदाणभूय' शब्दे प्रथमभागे 334 पृष्ठे गता।) तथा प्राणातिपातादीनि तु कर्मणो निदानानि वर्तन्ते, प्राणातिपातोऽपि द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदाचतुर्धा / तच क्षेत्रप्राणा-तिपातमधिकृत्याह-सर्वोऽपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञाप-कापेक्षयोर्ध्व मधस्तिर्यक क्रियते। यदिवाऊवधिस्तिर्यग्रूपेषु त्रिषु लोकेषु तथा प्राच्यादिषु दिक्षु विदिक्षु चेति, द्रव्यप्राणाति-पातस्त्वयंत्रस्यन्तीति त्रसा-द्वीन्द्रियादयो ये च स्थावराः पृथि-व्यादयः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः, कालप्राणातिपातसंसूचनार्थो वा दिवा रात्रौ वा प्राणाः-प्राणिनः, भावप्राणातिपातं त्वाहएतान् प्रागुक्तान प्राणिनो हस्तपादाभ्यां संयम्य--बद्धा उपलक्षणार्थत्वादरयान्यथा वा कदर्थयित्वा यत्तेषां दुःखोत्पादन तन्न कुर्यात्। यदिवाएतान प्राणिनो हस्तौ पादौ च संयतकायः सन्न हिंस्यात् / चशब्दादुच्छासनिः श्वासकासितक्षुतवातनिस-गर्गादिषु सर्वत्र मनोवाकायकर्मसु सयतो भवन् भावसमाधिमनुपा-लयेत्। तथा परैरदत्त न गृह्णीयादिति तृतीयव्रतोपन्यासः, अदत्तादाननिषेधाच्चार्थतः परिग्रहो निषिद्धो भवति, नापरिगृही-तमासेव्यत इति मैथुननिषेधोऽप्युक्तः। समस्तव्रतसम्यक्पाल-नोपदेशाच्च मृषावादोऽप्यर्थतो निरस्त इति॥ ज्ञानदर्शनसमाधिमधिकृत्याह- सुष्ठाख्यातः श्रुतचारित्राख्यो धर्मो येन साधुना-ऽसौ स्वख्यातधर्मा, अनेन ज्ञानसमाधिरुक्तो भवति, न हि वि-शिष्टपरिज्ञानमन्तरेण स्वाख्यातधर्मत्वमुपपद्यत इति भावः / तथा विचिकित्साचित्तविप्लुतिर्विद्वज्जुगुप्सा वा तां (वि] तीर्णः- अतिक्रान्तः 'तदेव च निःशङ्क यज्जिनः प्रवेदित' मित्येवं निःशङ्कतया नक्वचिचित्तविप्लुतिं विधत्त इत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपादितो भवति, येन केनचित्प्रासुकाहारीपकरणादिगतेन विधिनाऽऽत्मानं यापयति-पालयतीति लाढः,स एवम्भूतः संयमानुष्ठानं चरेद्-अनुतिष्ठेत, तथा प्रजायन्त इति प्रजाःपृथिव्यादयो जन्तवस्तास्वात्मातुल्यः, आत्मवत्त्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः एवम्भूत एव भावसाधुर्भवतीति / तथा चोक्तम्- “जह मम ण पियं दुक्ख, जाणिय एमेव सव्वजीवाणं / ण हणेइण हणावेइय, सममणई तेण सो समणो // 1 // " यथा च ममाऽऽक्रुश्यमानस्या-भ्याख्यायमानस्य वा दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मत्वा प्रजास्वात्मसमो भवति / तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रभूतं कालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी वा 'आय' कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात्। तथा-चयम्उपचयमाहारोपकरणादर्धनधान्यद्विपदचतुष्पदादेवा परिगृहलक्षणं संचयमायात्यर्थ सुष्टु तपस्वी सुतपस्वीविकृष्टतपोनिष्टप्तदेहो भि Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 426 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि कुन कुर्यादिति / / 3 / / (गाथापूर्वार्द्धव्याख्या 'इत्थी' शब्दे द्वितीय-भागे 6.14 पृष्टे गता।) सएवम्भूतः सर्वबन्धनविप्रमुक्तः सन् पश्य-अवलोकय पृथक् पृथिव्यादिषु कायेषु सूक्ष्मबादरपर्या–प्तकापर्याप्तकभेदभिन्नान सत्त्वान्--प्राणिनः अपिशब्दावनस्पति-काये साधारणशरीरिणोऽनन्तानध्येकत्वमागतान् पश्य, किं भूतान् ? दुःखेन-असातवेदनीयोदयरूपेण दुःखयतीति वा दुःखम् अष्टप्रकार कर्म तेनान्-िपीडितान् परिसमतात्संसार--कटाहोदरे स्वकृतेनेन्धनेन परिपच्यमानान-कथ्यमानान्, यदिवा-दुष्प्रणिहितेन्द्रियानाध्यानोपगतान्मनोवाकायैः परितन्यमानान् पश्यति सम्बन्धो लगनीय इति। अपि चएतेसु बाले य पकुव्वमाणे, आवट्टती कम्मसु पावएसु। अतिवायतो कीरति पावकम्म, निउंजमाणे उ करेइ कम्मं / / 5 / / आदीणवित्तीव करेति पावं, मंताउ एगंतसमाहिमाहु। बुद्धे समाही य रते विवेगे, पाणातिवाता विरते ठियऽप्पा / / 6 / / सव्वं जगं तू समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ णो करेजा। उट्ठाय दीणो य पुणो विसन्नो, संपूयणं चेव सिलोयकामी / / 7 / / आहाकडं चेव निकाममीणे, नियामचारी य विसण्णमेसी। एतेषु प्राग निर्दिष्टेषु प्रत्येकसाधारणप्रकारेषूपतापक्रियया बालवत् बालः अज्ञश्वशब्दादितरोऽपि संघट्टनपरितापनापद्रावणादिके-नानुष्ठानेन पापानि कर्माणि प्रकर्षण कुर्वाणस्तेषु च पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजन्तुषु गतः संस्ते नैव संघट्टनादिना प्रकारेणानन्तशः आवर्त्यते-पीड्यते दुःखभाग्भवतीति / पाठा-न्तरं वा-एवं तु वालेएवमित्युपदर्शन यथा चौरः पारदारिको वा असदनुष्ठानेन हस्तपादच्छेदान बन्धबधादीश्चेहावाप्नोत्येवं सामान्यदृष्टनानुमानेनान्योऽपि पापकर्मकारी इहामुत्र च दुःख--भाग्भवति, 'आउट्टति' त्ति क्वचित्पाठः, तत्राशुभान् कर्मविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेभ्योऽसदनुष्ठानेभ्यः 'आउट्टति' ति-नि--वर्त्तते, कानि पुनः पापस्थानानि येभ्यः पुनः प्रवर्त्तते निवर्त्तते वा इत्याशङ्कय तानि दर्शयति-अतिपाततः-प्राणातिपाततः प्राणव्यपरोपणाद्धेतोस्तचाशुभम्-ज्ञानावरणादिकं कर्म क्रियतेसमा-दीयते, तथा परांश्च भृत्यादीन् प्राणातिपातादौ नियोजयन्-व्या-पारयन् पापं कर्म करोति, तुशब्दान्मृषावादादिकं च कुर्वन कार-यंश्च पापक कर्म समुचिनोतीति / / 5 / / किं चान्यत्-आ-समन्ता–द्दीना-करुणास्पदा वृत्तिःअनुष्ठानं यस्य कृपणवनीपकादेःस भवत्यादीनवृत्तिः, एवम्भूतोऽपि पाप कर्म करोति, पाठान्तरं वा (आदीनभोज्यपि पापं करोतीति 'आईणभोइ' शब्द द्वितीयभागे 7 पृष्ठे गतम् / ) द्रव्यसमाधयो हि स्पर्शादिसुखोत्पादका अनेका-न्तिका अनात्यन्तिकाश्च भवन्ति, अन्ते चावश्यमसमाधिमुल्पा-दयन्ति, तथा चोक्तम्- “यद्यपि निषेव्यमाणा, मनराः परितुष्टि-कारका विषयाः / किम्पाकफलादनव-द्भवन्ति पश्चादतिदु-रन्ताः।।१।।" इत्यादि, तदेवं बुद्धः-अवगततत्त्वः स चतुर्विधऽपि ज्ञानादिके रतोव्यवस्थितो विवेके वा आहारोपकरण - कषायपरित्यागरूपे द्रव्यभावात्मके रतः सन्नेवभूतश्च स्यादित्याहप्राणानां दशप्रकाराणामप्यतिपातो-विनाशस्तस्माद् विरतः स्थितः सम्यगणार्गेषु आत्मा यस्य सः, पाठान्तरं वा-ठियचि ति-स्थिता शुद्धस्तभावात्मना अर्चिः-लेश्या यस्य स भवति स्थितार्चिः, सुविशुद्धस्थिरलेश्य इत्यर्थः / / 6 / / किंच-सर्व-चराचरं जगत्-प्राणिसमूह समतया प्रेक्षितु शीलमस्य स समतानुप्रेक्षी समताप-श्यको वा, न कश्चित्प्रियो नापि द्वेष्य इत्यर्थः तथा चोक्तम्- "नत्थि य सि कोइ वि (दि) स्सो, पिओ व सब्वेसु चेव जीवेसु।" तथा "जह मम ण पियं दुःख" मित्यादि-समतोपेतश्च न कस्यचित्प्रि-यमप्रियं वा कुर्यान्निःसङ्ग तया विहरेद, एवं हि सम्पूर्णभावस--माधियुक्तो भवति। कश्चित्तु भावसमाधिना सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीषहोपसर्गस्तर्जितो दीनभावमुपगम्य पुनर्विषण्णो भवति, वि--षयार्थी वा कश्चिद्गार्हस्थ्यमप्यवलम्बते, रससातागौरवगृद्धो वा पूजा सत्काराभिलाषी स्यात्, तदभावे दीनः सन् पार्श्वस्थादि-भावेन वा विषण्णो भवति, कश्चित्तथा सम्पूजन वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयेत्. श्लोककामी च-श्लाघाभिलाषी च व्याकरणगणित-ज्योतिषनिमित्तशास्त्राण्यधीते कश्चिदिति // 7 // किंचान्यत्-साधूनाधाय उद्दिश्य कृतं निष्पादितमाधाकर्मेत्यर्थः तदेवम्भू-तमाहारोपकरणादिक निकामम्अत्यर्थ यः प्रार्थयते स 'निका-ममीणे' इत्युच्यते / तथा निकामम्अत्यर्थम् आधाकर्मादीनि तन्निमित्त निमन्त्रणादीनि वा सरति-चरति तच्छीलश्च स तथा, एवम्भूतः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलाना संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावमेषते, सदनुष्ठानविषण्णतया संसारपावसन्नो भव-तीति यावत्, ('इत्थीसु' इत्यारभ्य परिगह' शब्दे पञ्चमभागे 556 पृष्टे गतम्।) तथा 'वेराणुविद्धे' इत्यादि 'धम्म' शब्दे 4 भागे 2676 पृष्ठे गतम्।) किंचान्यत्आयं ण कुज्जा इह जीवियट्ठी, असज्जमाणो य परिव्वएज्जा। णिसम्भभासीय विणीय गिद्धि, हिंसन्नियं वा ण कह करेजा // 10 // आहाकडं वा ण णिकामएज्जा, णिकामयंते य ण संथवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो // 11 // आगच्छतीत्यायो-द्रव्यादेलाभस्तन्निमित्तपादितोष्ट प्रकार-- Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 430 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहि कर्म लाभो वा तम, इह-अस्मिन् संसारे असयमजीवितार्थी भोगप्रधानजीविता त्यर्थः / यदिवा-आजीविकाभयात द्रव्यसञ्चयं न कुर्यात / पाठान्तरं वा-- 'छन्दणं कुज्जा' इत्यादि, छन्दः प्रार्थ-नाभिलाष इन्द्रियाणां स्वविषयाभिलाषो वा तत् न कुर्यात्, तथा असजमानः सङ्ग मकुर्वन् गृहपुत्रकलत्रादिषु परिव्रजेत्-उधुक्त-विहारी भवेत, तथा गृद्धिं- गाय विषयेषु शब्दादिषु विनीयअ-पनीय-निशम्य--अवगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य भाषको भवेत्, तदेव दर्शयति-हिंसयाप्राण्युपमर्दरूपया अन्वितायुक्तां कथां न कुर्यात्-न तत् बूथात् यत्परात्मनोरुभयोर्वा बाधकं वच इति भावः / तद्यथा- अश्नीत पिबत खादत मोदत हत छिन्त प्रहरत पचतेत्यादिकथां पापोपादानभूता न कुर्यादिति ।।१०|अपि च-साधूनाधाय कृतमाधाकृतमौद्देशिकमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवंभूत-माहारजातं निश्चयेनैव न कामयेत्-नाभिलषे तथाविधाहारादिकं च निकामयतः- निश्चयेनाभिलषतः पार्श्वस्थादीस्तत्सम्पर्कदानप्रतिग्रहसंवाससंभाषणादिभिः न संस्थापयेत्नोपबृहयेत्, तैर्वा सार्ध संस्तवं न कुर्यादिति / किञ्च- 'उरालं' तिऔदारिकं शरीरं-विकृष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुप्रेक्षमाणो धुनीयात्-कृशं कुर्यात् / यदि वा- 'उरालं' ति बहुजन्मान्तरसश्चितं कर्म तदुदार मोक्षमनुप्रेक्षमाणो धुनीयाद-अपनयेत्, तस्मिँश्च तपसा धूयमाने कृशीभवति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात, तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणःशरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः / सूत्र०१ श्रु० १०अ०। किञ्चाऽन्यत्इत्थीसु या आऽरय मेहुणाउ, परिग्गहं चेव अकुव्वमाणे। उच्चावएसुं विसएसुताई, निस्संसयं भिक्खु समाहिपत्ते / / 13 / / दिव्यमानुषतिर्यगपासु त्रिविधास्वपि स्त्रीषु विषयभूतासु यत् मैथुनम्अब्रह्म तस्माद् आ-समन्तान्न रतः-अरतो निवृत्त इत्यर्थः, तुशब्दात्प्राणातिपातादिनिवृत्तश्च तथा परिसमन्ताद् गृह्यते इति परिग्रहो धन्धान्यद्विपदचतुष्पदादिसंग्रहः तथा-ऽऽत्माऽऽत्मीयग्रहस्तं चैवाकुर्वाण: सन्नुचावचेषु-नानारूपेषु यदिवोच्चा-उत्कृष्टा अवचा जघन्यास्तेष्वरक्तद्विष्टः त्रायी-अ--परेषां च त्राणभूतो विशिष्टोपदेशदानतो निःसंशयनिश्चयेन परमार्थतो भिक्षुः-साधुरेवम्भूतो मूलोत्तरगुणसमन्वितो भावसमाधि प्राप्तो भवति, नापरः कश्चिदिति / उच्चावचेषु वा विषयेषु भावसमाधि प्राप्तो भिक्षुर्न संशयं याति नानारूपान विषयान न संश्रयतीत्यर्थः / / 13 / / (14 गाथा 'परिसह' शब्दे पञ्चमभागे 647 पृष्ठ उक्ता / ) किश्चान्यत्गुत्तो वईए य समाहिपत्तो, लेसं समाहटु परिव्वएजा। गिहं न छाए ण वि छायएजा, संमिस्सभावं पयहे पयासु // 15|| याचि वाचा वा गुप्तो वाग्गुप्तो-मौनव्रती सुपर्यालोचितधर्मसम्बन्धभाषी वेत्येवं भावसमाधि प्राप्तो भवति, तथा शुद्धां लेश्या तेजस्यादिका समाहृत्य-उपादाय अशुद्धा च कृष्णादि कामपहृत्य परिसमन्तासंयमानुष्ठाने व्रजेत् गच्छेदिति। किंचान्यत्-गृहम्-आवसथं स्वतोऽन्येन वा न छादयेदुपलक्षणार्थत्वादस्यापरमपि गृहादेरुरगवत्परकृतबिलनिवासित्वात्सस्कार न कुर्यात् / अन्यदपि गृहस्थकर्त्तव्यं परिजिहीर्षुराह-प्रजायन्त इति प्रजास्तासु-तद्विषये येन कृतेन सम्मिश्रभावो भवति तत्प्रजह्यात् / एतदुक्तं भवति-प्रव्रजितोऽपि सन् पचनपाचनादिकां क्रिया कुर्वन कारयश्च गृहस्थैः सम्मिश्रभाव भजते। यदि वाप्रजाःस्त्रिय-स्तासु ताभिर्वा यः सम्मिश्रीभावस्तम-विकलसंयमार्थी प्रजह्यात-परित्यजेदिति // 15 // ('जे केइ' 0 इत्यादि 16 गाथा 'अकिरि-याआय' शब्दे प्रथमभागे 126 पृष्ठे गता।) किंचान्यत्पुढो य छंदा इह माणवा उ, किरियाकिरियं च पुढो य वायं जायस्स बालस्स पकुव्व देहं, पवड्डी वेरमसंजतस्स / / 17 / / पृथक्-नाना छन्दः- अभिप्रायो येषां ते पृथक्छन्दा इह अस्मिन्मनुष्यलोके मानवा-मनुष्याः,तुरवधारणे,तमेव नानाभिप्राय-माहक्रियाऽक्रिययोः पृथक्त्वेन क्रियावादमक्रियावादं च समाश्रिताः तद्यथा- "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् / यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सु खितो भवेत् // 1 // " इत्येवं क्रियैव फलदायित्वनाभ्युपगताः क्रियावादमाश्रिताः, एवमेतद्वि-पर्ययेणाक्रियावादमाश्रिताः, एतयोश्चोत्तत्र स्वरूपं न्यक्षेण वक्ष्यते ते च नानाभिप्राया मानवाः क्रियाऽक्रियादिकं पृथग्वादमाश्रिता मोक्षहेतुं धर्ममजानाना आरम्भेषु सक्ता इन्द्रियवशगा रससातागौरवाभिलाषिण एतत्कुर्वन्ति,तद्यथा- 'जातस्य-उत्पन्नस्य बालस्य अज्ञस्य सदसद्विवेकविकलस्य सुखैषिणो देहम्-शरीरं 'पकुव्व' त्ति-खण्डशः कृत्वाऽऽत्मनः सुखमुत्पादयन्ति,तदेवं परोपघातक्रियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोऽप्यनिवृत्तस्य जन्मान्तर-शतानुबन्धि वैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षण वर्धत। पाठान्तरं वा-'जायाएँ बालस्स पगब्भणाए' बालस्य-अज्ञस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकम्पस्य या जाता प्रगल्भताधार्यतया वैरमेव प्रवर्धत इति सम्बन्धः / / 17 / (18 गाथा 'आउक्खय' शब्दे द्वितीयभागे 27 पृष्ठे गता।) किंचान्यत्जहाहि वित्तं पसवो य सव्वं, जे बंधवा जे य पिया य मित्ता। लालप्पवी सेऽवि य एइ मोहं, अन्ने जणा तंसि हरंति वित्तं / / 16 / / Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहि 431 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समाहिबहुल सीहं जहा खुडुमिगा चरंता, यान्यशुभानि कर्माणि तान्यत्यन्तं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानिदूरे चरंती परिसंकमाणा। दुःखो-त्पादकानि वर्तन्ते, तथा वैरमनुबध्नन्ति तच्छीलानि च वैरानुएवं तु मेहावि समिक्ख धम्म, बन्धीनि-जन्मशतसहसदुर्मोचानि, अत एव महद्भयं येभ्यः सकाशात्तानि दूरेण पावं परिवज्जएज्जा / / 20 / / गहाभयानीति, एवं च मत्वा मतिमानात्मानं पापा-निवर्तयेदिति / वित्त-द्रव्यजातं तथा पशवो-गोमहिष्यादयस्तान् सर्वान् जहाहि- पाठान्तरं वा 'निव्वाणभूएव परिव्वएज्जा' अस्या-यमर्थः-यथाहि निर्वृतो परित्यज तेषु ममत्वमा वृथाः, ये बान्धवा-मातापित्रादयः श्व-शुरादयश्व निव्यापारत्वात्कस्यचिदुपधातेन वर्ततेएवं साधुरपि सावधानुष्ठानरहितः पूर्धापरसंस्तुता ये च प्रिया मित्राणि सह पांसुक्रीडिता-दयस्ते एते परि-समन्ताद वजेदिति // 21 // तथा आप्तो-मोक्षमार्गस्तगामीगातापित्रादयः न कि चित्तस्य परमार्थतः कुर्वन्ति, सोऽपि च तद्गमनशील आत्महित-गामी वा, आप्तो वा प्रक्षीणदोषः सर्वज्ञस्तवित्तपशुबान्धवमित्रार्थी अत्यर्थपुनः पुनर्वा लपति लालप्यते तद्यथा-हे दुपदिष्टमार्गगामी मुनिः-साधुः मृषावादम्--अनृतमयथार्थ न ब्रूयात् मातः? हे पितरित्येवं तदर्थ शोकाकुलः प्रलपति, तदर्जनपरश्व सत्यमपि प्राण्युपधा-तकमिति, 'एतदेव मृषावादवर्जनम्' कृत्स्नं संपूर्ण मोहमुपैति / रूपवानपि कण्डरीकवत्, धनवानपि मम्मणवणिग्वत् भावसमाधि निर्वाण चाहुः, सांसारिका हि समाधयः-स्नानधन्यवानपि तिलकष्ठिवद्, इत्ये-वमसावप्यसमाधिभान मुह्यते (ति) भोजनादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादिता वा अनैकान्तिका नात्यन्तियच्च तेन महता क्लेशोनाप-प्राण्युपमर्दैनोपार्जितं वित्तं तदन्ये जनाः कत्वेन दुःखप्रतीकाररूपत्वेन वा असंपूर्णा वर्तन्ते, तदेवं मृषावादमन्येषा 'से' तस्यापहरन्ति जीवत एव मृतस्य वा, तस्य च क्लेश एव केवलं वा व्रतानामतिचारं स्वयमात्मना न कुर्यान्त्राप्यपरेण कारयेत्तथा पापबन्धश्चेत्येव मत्वा पापानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति // 16 // कुर्वन्तमप्यपरं मनोवाक्कायकर्मभिर्नानुमन्येन इति।।२२।। सूत्र०१ श्रु० 10 अ० आ० चू०। सामर्थ्य , आव० 6 अ०। शीले, स्था० 4 ठा०१ तपश्चरणोपा-यमधिकृत्याह-यथा क्षुद्रमृगा:-क्षुद्राटव्यपशवो उ०। (आहारविषयकसमाधिवक्तव्यता 'आहार' शब्दे द्वितीयभागे 522 हरिणजात्याद्याः चरन्तः-अटव्यामटन्तः सर्वतो बिभ्यतः परिशङ्कमानाः पृष्ठे गता।) (समाधिद्वारं 'समाहाण' शब्दे-ऽस्मिन्भागे गतम्।) सिंहं व्याघ्रं वा आत्मोपद्रवकारिणं दूरेण परिहत्य चरन्ति-विहरन्ति, एवं समाहिइंदिय पुं० (समाहितेन्द्रिय) संयतेन्द्रिये, सूत्र०१ श्रु० 2 अ०२ उ०। मेधावी--मर्यादावान, तुर्विशेषणे सुतरां धर्म समीक्ष्यपर्यालोच्य पापं समाहिकाम त्रि० (समाधिकाम) समाधिमभिलषति, व्य०१ उ०। कर्म-असदनुष्ठानं दूरेण मनोवाकायकर्मभिः परिहृत्य परिसमन्ताद्व्रजेत् समाहिजोय पुं० (समाधियोग) समाधिः-धर्मध्यानं तदर्थ तत्प्रधानो संयमानुष्ठायी तपश्चारी च भवेदिति, दूरेण वा पापंपापहेतुत्वा योगः-मनोवाक्कायव्यापारः / मनोवाक्कायव्यापारेण धर्मध्याने, सूत्र०१ त्सावद्यानुष्ठान सिंहमिव भृगः स्वहितमिच्छन् परिवर्जयेत्-परित्यजे - श्रु० 4 अ०१ उ०। दिति // 20 // समाहिट्ठाण न० (समाधिस्थान) समाधे-रागादिरहितचित्तस्य अपि च स्थानानि-आश्रयाः समाधिस्थानानि / पा०। प्रशान्ताश्रयेषु, स०१० संबुज्झमाणे उ णरे मतीमं, सम० / दशा० / चित्तसमाधिस्थानानि 'चित्तसमाहिट्ठाण' शब्दे पावाउ अप्पाण निवट्टएजा। तृतीयभागे 1183 पृष्ठे गतानि।) | हिंसप्पसूयाइँ दुहाई मत्ता, (ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानान्यपि स्वस्वस्थाने।) वेराणुबंधीणि महब्भयाणि // 21 // समाहिट्ठाय त्रि० (समाधिष्ठातृ) प्रभौ, आचा०। गृहपतौ,आचा०२ श्रु० मुसं न बूया मुणि अत्तगामी, १चू०७अ०१०। णिव्वाणमेयं कसिणं समाहिं। समाहिपडिमा सी० (समाधिप्रतिमा) समाधिः श्रुतचारित्रं च तद्विषया सयं न कुज्जा न य कारवेज्जा, प्रतिमा-प्रतिज्ञाभिग्रहः समाधिप्रतिमा / प्रतिमाभेदे, स्था० 3 ठा०१ करंतमन्नं पि य णाणुजाणे // 22 // उ० / समाधिप्रतिमा दशाश्रुतस्कन्धोवता द्विभेदाश्रुतसमाधिमननं मतिः सा शोभना यस्यास्त्यसौ मतिमान्, प्रशं सायां मतुप, प्रतिमा,सामायिकादिचारित्रसमाधिप्रतिमा च। स्था० 2 ठा०३ उ० / तदेवं शोभनमतियुक्तो मुमुक्षुर्नरः सम्यक् श्रुतचारित्राख्यं धर्म भावसमाधि चत्तारि पडिमाओ पण्णत्ताओ,तं जहा-समाहिपडिमा, उवहाया बुध्यमानस्तु-विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वाणस्तु पूर्व तावन्निषिद्धा- णपडिमा, विवेगपडिमा, विउसग्गपडिमा। (सू० 2514) चरणात् निवर्तेत, अतस्तदर्शयति-पापात्-हिंसानृतादिरूपात्कर्मण (व्याख्या 'पडिमा' शब्दे पञ्चमभागे 332 पृष्ठे गता।) आत्मानं निवर्तयेत्. निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीत्यतोऽ- | समाहिबहुल त्रि० (समाधिबहुल) चित्तस्वास्थ्यप्रचुरे,प्रश्न०३ सवं० शेषकर्मक्षयमिच्छन्नादावेव आश्रवद्वाराणि निसन्ध्यादित्यभिप्रायः / कि द्वार। समाधिस्तु प्रशमवाहिता ज्ञानादि वा। तत्प्रचुरे, स्था० 3 ठा० चान्यत्-हिंसा-प्राणिव्यपरोपणं तया ततो वा प्रसूतानि-जातानि 4 उ०। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाहिमरण 432 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समिइ समाहिमरण न० (समाधिमरण) भक्तपरिज्ञेगि तमरणपादपो-- पगमनानामन्यतमस्मिन् मरणभेदे,आचा० 1 श्रु० 8 अ० 1 उ०। समाहिय त्रि० (समाधित) शोभने, बीभत्से, दुष्ट च। सूत्र० 1 श्रु० 3 अ० १उ०। समाहित त्रि० सम्यगाहिते व्यवस्थापिते च। सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। समापिते, विशे० / शुभाध्यवसयासहिते, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०४ उ० ! सम्यगाख्याते,सूत्र०१ श्रु०६ अ०। धर्मादिध्यान-युक्ते, सूत्र० 1 श्रु० 2 अ०२ उ० / उपयुक्ते, आचा०२ श्रु० 4 चूला समाधि प्राप्ते, सूत्र० 1203 अ०४ उ०। आचा० / व्य० / आ० म०। समाधियुवते, संघा० 1 अधि०१ प्रस्ता०। समाहृत त्रि० गृहीत, आचा० 1 श्रु० 8 अ०५ उ० , सम्यग्व्यव स्थापिते,आचा०१ श्रु०८ अ०६ अ० आ० म०। समाहियच त्रि० (समाहितार्च) सम्यगाहिता-व्यवस्थापिता अर्चा-शरीर येन स समाहितार्चः / नियमितकायव्यापारे, अर्चा-लेश्या सम्यगाहिता लेश्या येन स समाहितार्चः / अतिविशुद्धाध्य-वसाये, यदि वा-अर्चाक्रोधाध्यवसायात्मिका ज्वाला। समा-हिता-उपशमिता अर्चा येन स तथा। अक्रोधने, आचा०१ श्रु०८ अ०६ उ०। समाहियप्प त्रि० (समाहितात्मन्) सम्यक्चरणे, चारित्रे व्यवस्थितः समुद्युक्तः साधुर्मुनिश्च चतुर्ध्वपि भावसमाधिभेदेषु दर्शनज्ञानतपश्चारित्ररूपेषु सम्यगाहितो व्यवस्थापितआत्मा येन स समाहितात्मा / ध्यानापादकगुणेषु उपयुक्तात्मनि, दश० 10 अ०। समाहियमण त्रि० (समाहितमनस्) समतुल्यं रागद्वेषाकलितमाहितमुपनीतमात्मनि मनो येन स तथा। समाहितात्ममनस्के, प्रश्र०१ संव० उत्त० 24 अ०। समागमे, स०। पंच समिईओ पण्णत्ताओ, तंजहा-इरियासमिई भासासमिई एसणासमिई आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिई। (सू०५+) तथा समितयः-सङ्ग ताः प्रवृत्तयः, तत्रेर्यासमितिः-गमने सम्यक सत्त्वपरिहारतः प्रवृत्तिः, भाषासमितिः-निरवधवचनप्रवृत्तिः, एषणासमितिः--द्विचत्वारिंशद्दोषवर्जनेन भक्तादिग्रहणे प्रवृत्तिः, आदाने-ग्रहणे भाण्डमात्रयोरुपकरणपरिच्छदस्य निक्षेपणे अवस्थापने समितिःसुप्रत्युपेक्षितादिसाङ्गत्येन प्रवृत्तिश्चतुर्थी, तथोच्चारस्यपुरीषस्य प्रश्रवणस्य-मूत्रस्य खेलस्य-निष्ठीवनस्य शिवाणस्य-नासिकाश्लेष्मणो जल्लस्य देहमलस्य परिष्ठाप-नाया-परित्यागे समितिः-स्थण्डिलादिदोषपरिहारतः प्रवृत्ति-रिति पञ्चमी। स०५ सम०। अट्ट समितितो पण्णत्ताओ, तं जहा-ईरियासमिति भाससमिती एसणासमिति आयाणमंडमत्तणिक्खेवणासमिती उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपारिद्वावणियासमिती मणसमिति वइसमिती कायसमिती। (सू०६०३) 'अट्ट समिई' त्यादि, सम्यगितिः-प्रवृत्तिःसमितिः, ईर्यायां-गमने समितिश्चक्षुापारपूर्वतयेतीर्यासमितिः,एवं भाषायां निरवद्यभा-षणतः, एषणायामुद्रमादिदोषवर्जनतः, आदाने-ग्रहण भाण्डमा-प्रायाःउपकरणमात्राया भाण्डस्य वा वस्त्राद्युपकरणस्य मृन्म-यादिपात्रस्य वा मात्रस्य च–साधुभाजनविशेषस्य निक्षेपणायां च समितिः सुप्रत्युपेक्षितप्रमार्जितक्रमेणेति, उच्चारप्रश्रवणखेलशिवाणजल्लानां पारिष्ठापनिकायां समितिः स्थण्डिलविशुद्धादिक्रमेण, खेलो, निष्ठीवनं शिवाणोनासिकाश्लेष्मेति, मनसः कुशलतायां समितिः, वाचोऽकुशलत्वनिरोधे समितिः, कायस्य स्थानादिषु समितिरिति / स्था०८ ठा०३ उ०। अट्ठसु वि समिईसु अ, दुबालसंगं अमोअरइ जम्हा। तम्हा पवयणमाया, अज्झयणं होइ नायव्वं // 456 / / 'अष्टास्वपि' अष्टसंख्यास्वपि समितिषु द्वादशाङ्ग प्रवचनं समवतरतिसंभवति यस्मात्, ताश्चेहाभिधीयन्त इति गम्यते, तस्मात्प्रवचनमाता प्रवचनमातरो वोपचारत इदमध्ययनं भवति ज्ञातव्यमिति गाथार्थः / गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः / उत्त०। (यः समितः स गुप्तः इति 'अब्भुट्ठाण' शब्दे, प्रथमभागे 663 पृष्ठे उक्तम्।) एषणासमितिमाहगवेसणाए गहणे य, परिभोगेसणा यजा। आहारमुवहिसिज्जाए, एए तिण्णि विसोहिए।।११।। उग्गमुप्पायणं पढमे, बिइए सोहेज एसणं / परिभोगम्मि चउकं तु, विसोहेज्ज जयं जई // 12 // गवेषणायाम्- अन्वेषणायां गृहणे च-स्वीकारे, उभयत्र प्राकत त्वादेषणेति संबध्यते, ततो गवेषणायाम षणा गहणे समाहिरय त्रि० (समाधिरत) ऐकान्तिकात्यन्तिकसुखोत्पादके समाधी रते. सूत्र०१ श्रु०१० अ०। समाहिराय पुं० (समाधिराज) सर्वयोगाग्रेसरत्वात (बौद्धमतेन) नैरात्म्यदर्शने, द्वा०२४ द्वा०। समाहिवीरिय न० (समाधिवीर्य) मनआदीनां समाधाने, नि० चू० / 1 उ०। समि त्रि० (शमिन्) शमोऽस्यास्तीति शमी / जितमनोवेगे, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। समिइ स्त्री० (समिति) सम् पूर्वस्येण गतावित्यस्य क्तिन्प्रत्यया-न्तस्य समितिर्भवति। समेकीभावेनेति:--समितिः / शोभनेकाग्र-परिणामस्य चेष्टायाम्, आव० 4 अ०। उत्त०। सूत्र०। दशा०। सम्यक् प्रवृत्ती, प्रश्न 1 संव० द्वार। संथा०। समितिरिति पश्चाना चेष्टानां तान्त्रिकी संज्ञा / ध० २अधि०। नि० चू० / प्रव० दश० 1 चतुर्विशतिसङ्ख्याके उत्तराध्ययने, स०३६ सम० / उत्त०। सम्य-वर्जने, प्राणातिपातवर्जन, ओघ० / स०। आचा० / स्था० / आव० / ज्ञा० / सम्यगगमने,सम्यक प्रवर्तन, Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिइ 433 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समिया चैषणा परिभोग-आसेवनं तद्विषयैषणा परिभोगैषणा च या, 'आहारी- समिक्ख अव्य० (समीक्ष्य) पर्यालोच्येत्यर्थे, आव० 4 अ०। सूत्र० / वहिसिज्जए'त्ति-वचनव्यत्ययात् आहारोपधिशय्यासुप्रतीतारचैता- केवलज्ञानेनार्थान् परिज्ञायेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। उवतरूपा एषणाः सूत्रत्याल्लिङ्गव्यत्ययात्तिस्रो वि-शोधयेत-निर्दोषा- | समिच अव्य० (समेत्य) ज्ञात्वेत्यर्थे, सूत्र०१श्रु०१२ अ०। मिलित्वेत्यर्थे, विदध्यात, पठ्यतं च-"गवेसणाए गहणेणं, परिभोगेसणाणि य / आ०म०१ अ०। आचा०। आहारमुवहिं सेज़, एए तिण्णि विसोहिय" ||११त्ति / इति अस्य च / समि (द्ध)ड त्रि० (समृद्ध) धनधान्यादिविभूतियुक्ते, चं० प्र० 1 पाहु० / गवेषणादिभिराहारादीनि त्रीणि विशोधयेदिति संक्षेपार्थः, कथं विशो- ज्ञा० / नि० / वृद्धिमुपगते, प्रज्ञा० 1 पद। उत्त० / पा० / व्य० / रा०। धयेत् ? इत्याह-उद्गभश्चोत्पादना च उद्गमोत्पादनमिति, समाहारस्त- प्रश्न० / आ० म० / चन्द्रगुप्तसमये पाटलिपुत्रे नगरे स्थिताना त्किमित्याह-विशोधयेदित्युत्तरेण सम्बन्धः / किमुक्त भवति- सुस्थिताभिधसूरीणां शिष्ये, पिं०('चुण्ण' शब्दे तृतीयभागे 1166 पृष्ठे आधाकर्मादिदोषपरिहारत उद्गमं धात्र्यादिदोषपरित्यागतश्वोत्पादना कथा।) शुद्धामादधीत 'पढमे' त्ति प्रथमायां गवेषणायां 'बीए' त्ति-द्वितीयायां समिड्ढय पुं० (समृद्धक) पक्षस्य षष्ठे दिवसे, ज्यो०४ पाहु०। ग्रहणैषणाय शोध-येत् शङ्कितादिदोषत्यागत एषणां-ग्रहणकालभा- | समिड्डयर पुं० (समृद्धतर) विशिष्टतरसंपदि, स्था० 4 टा०१ उ०। विग्राहा गतदोषान्वेषणात्मिका, परिभोगैषणायां चतुष्कं पिण्डशय्या- समि(ड्डि)द्धि स्त्री० (समृद्धि)"अतःसमृद्ध्यादौ वा" ||8/1 / 44|| वस्त्रपात्रात्मकम्, उक्तं हि- "पिंड सेज्ज च वत्थ च, चउत्थं पायमेव य' / अनेनादेरतः पाक्षिको दीर्घादेशः / तदभावे-समि-दी। प्रा० / ति-विशोधयेदिह चतुष्कशब्देन तद्विषय उपभोग उपलक्षितः, ततस्तं “इत्कृपादौ" ||1|128|| अनेन ऋत इत्त्वम्। प्रा० अहिंसायाम, विशोधयेदिति / कोऽर्थः ? उद्गमादि दोषत्यागतः शुद्धमेव चतुष्कं समृद्धिहेतुत्वेन समृद्धिरेवोच्यते / प्रश्न०१ संव० द्वार। सम्यक् प्रकारेण परिभुजीन, यदि बोगमादीना दोषोपलक्षणत्वात्, 'उग्गम' शि- ऋद्धी, संपदि, विभूतौ च / आव० 4 अ० / स्था०। उदगमदोषान् 'उप्पायणं' ति-उत्पादनादोषान् ‘एसण' त्ति-एषणादोषान् / समिय पुं० (शमिक) शम एव शमिकः / शमभावे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। विशोधयेत्, चतुष्कं च संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमकारणात्मकम्, समिय त्रि०(समित) सम्यगितः--प्राप्तो ज्ञानदिक मोक्षमार्गमसौ समितः / अद्वारधूमयोर्मोहनीयान्तर्गतत्वेनैकतया विवक्षितत्वाद् विशोधयेदुभयत्र प्राप्तज्ञानादिक, सूत्रं० 1 श्रु०१६ अ०। समितिभिः सहिते, सदायले, शोधनमपनयनं 'जय' ति-यतमानो यतिस्तपस्वी। व्याख्यायेऽपि च आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। ज्ञा०। संयते, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० पुनस्तस्या एव क्रियाया अभिधानमतिशयख्यापनार्थमिति सूत्रद्वयार्थः / 1 उ०। शुभेतरेषु रागद्वेषरहिते, आव०१ अ०। सम्यक् प्राप्ते, आव०४ इदानीमादाननिक्षेपणसमितिमाह अ०। युक्ते, आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ० / सदाचारानुष्ठायिनि, सूत्र०१ ओहोवहुवग्गहियं, भंडगं दुविहं मुणी। श्रु०१४ अ०। समायुक्ते. बृ०६ उ०। उत्त० / प्रमाणोपेता , पिं०। गिण्हतो विक्खिवंतो य,पउंजेज इमं विहिं / / 13 / / ज्ञा०। दशा०। भ० / 'समिया ण' ति-सम्यगिति प्रशंसाओं निपातस्तेन चक्खुसा पडिलेहित्ता, पमजिज्जा जयं जई। सम्यक्त्वे व्याकर्तुं वर्तन्ते, अविपर्यासास्त इत्यर्थः, सम्यञ्चः, आईए निक्खिविजावा,दुहओ व समिए सया।।१४|| समञ्चन्तीति वा समिता वा सम्यक् प्रवृत्तयः। भ० 2 श०५ उ०। समिती आहोवहुवग्गहियं ति-उपधिशब्दो मध्यनिर्दिष्टत्वात् डमरुकगु- णाम पंचहिं समितीहि समिता। नि० चू०२ उ०। उपयुक्ते, जं०२ पाग्रन्थिवद्भयत्र संबध्यते, तत ओघोपधिमौपग्रहिकोपधिं च भाण्डक- वक्ष० / प्रश्न० / सम्यग्वा मोक्षमार्ग गते, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। मुपकरण रजोहरणदण्डकादि द्विविधम्-उक्तभेदतो द्विभेदं मुनिः आव० / अट्टके, ध०३ अधि०। 60 / सप्रमाणे, भ०३ श०८ उ० / गृह्णन्नाददानो निक्षिपंश्च क्वचित् स्थापयन् प्रयुञ्जीत व्यापारयेदिम-.. निरन्तरे, स्था० 10 ठा०३ उ० पुं०1 गवेषणाया-मुदाहृते उपशमं नीते वक्ष्यमाणं विधिन्यायम् / तमेवाह-चक्षुषा-दृष्ट्या 'पडिलेहित्त' त्ति- (आचा०१ श्रु०६ अ० 5 उ०1) स्वनाम-ख्याते आचार्य, पिं०। प्रत्युपेक्ष्यावलोक्य प्रमार्जयेत्- रजोहरणादिना विशोधयेत् यतमानो वज्रस्वामिना मातुलके, आ० म० अ०। यतिस्ततः 'आईए' त्ति-आददीत-गृह्णीयात् निक्षिपेद् वा स्थापयेत् | *श्रमित त्रि० अभ्यासवत्सु, भ०२ श०५ उ०। 'दुहओव' त्ति-द्वावपि प्रक्रमादौधिकोप-ग्राहिकोपधी, यदिवा-द्विधाऽपि | समियदंसण पुं० (समितदर्शन) सम्यग इतं-गतं दर्शनं यस्य स द्रव्यतो भावतश्व समितः प्रक्रमा-दादाननिक्षेपणासमितिमान् सन् सदा- | समितदर्शनः / सम्यगदृष्टी, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ० सर्वकालमिति सूत्रद्वयार्थः / उत्त० 24 अ० / नैरन्तर्येण मीलनायाम्, समिया स्त्री० (शमिता) उपशमनतायाम्, आचा०१ श्रु०५ अ०५ उ०। अनु०। समुदये, स्था० 3 ठा०१ उ०। सम्यक समजसे, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०। समिइजोग पुं० (समितियोग) सत्प्रवृत्तिसम्बन्धे, प्रश्न० 4 संवा द्वार। | (अत्रत्या वक्तव्यता 'असमिय' शब्द प्रथमभागे 844 पृष्ठे। तथा 'लोगसार' समिइमा स्त्री० (समितिमा) समिता कणिका तथा निष्पन्ना समितिमा। शब्दे षष्ठे भागे गता।) मण्डके, पूपलिकायां च / बृ०१ उ०२ प्रक० / शमिता स्त्री० शमिनो भावः शमिता। शमे, आचा०१ 08 अ०८ उ०। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समिया 434 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय साम्य न० सर्वत्र समरूपतायाम्, आचा० 1 श्रु० 8 अ०८ उ०। आ० म०। उत्कृष्टताविधाने, स्था०३ ठा०१ उ०। मनने, व्य०४ उ० / स(श)मि(ता)का स्त्री० उत्तमत्वेन स्थिरप्रकृत्या समवती स्वप्रभोर्वा स्था०। कोपौत्सुक्यादिभावान् शमयत्युपादेयवचनतयेति शमिका। शमिता था। / समुक्त्तिण न० (समुत्कीर्तन) समुच्चारणे, अनु०। आ० चू० / संशब्दने, सर्वेषामिन्द्राणामभ्यन्तरपर्षदि, भ०३ श०१० उ०। विशे०। *समियाचार पुं० (सम्यगाचार) सम्यग-स्वशास्त्रविहितानुष्ठा- समुक्खित्त त्रि०(समुत्क्षिप्त) निसर्गार्थ समुत्क्षिप्ते, व्याप्ते, विपा०१ श्रु० नादविपरीत आचार:-अनुष्ठानं येषां ते सम्यगावाराः। सदाचारेपु साधुपु. 3 अ०॥ सूत्र०२ श्रु०५ अ०1 समुक्खिया स्त्री० (समुक्षिका) प्रातर्गृहाङ्गणे जलच्छटकदायिकायाम, समिताचार पुं० सम्यग् वा इतो व्यवस्थितः आचारो येषां ते समिताचाराः। / ज्ञा०१ श्रु० 8 अ०। सदाचारेषु भिक्षुषु, सूत्र०२ श्रु०५ अ०। समुग्ग पुं० (समुद्र) पात्रविशेषे, जी०३ प्रति०२ उ०। पक्षिविशेषे, जी० समियापरियाय पुं० (शमितापर्याय) शमिता शमोऽस्यास्तीति शमी, 3 प्रति०४ अ०। तद्भावः शमिता, पर्यायः-प्रव्रज्या शमितया पर्यायः प्रव्रज्याऽस्येति समुग्गनिमग्गगूढजाणु त्रि० (समुद्गनिमग्नगूढजानु) समुद्गस्येव समुद्रकबहुव्रीहिः। तथाविधे सुश्रमणे, आचा०१ श्रु०॥ पक्षिण इव निमने-अन्तःप्रविष्ट गूढे मांसलत्वादनुद्धते जानुनी अष्ठीवन्ता *सम्यकपर्याय पुं० सम्यक् पर्यायोऽस्येति सम्यकपर्यायः / साधु येषां ते तथा। समुद्कपक्षिण इव निगूढजानुनि पुरुषादौ, जी० 3 प्रति० 4 अधि। पर्यायवति साधौ, आचा० 1 श्रु०। समिला स्वी० (समिला) शकटोपकरणभेदे, आ० म०१ अ०। समुग्गपक्खि पुं० (समुद्गपक्षिण) समुद्गकवत्पक्षौ येषां ते समुसमिसंगलिया स्त्री० (शमीसङ्गलिका) शमी वृक्षविशेषस्तस्य द्रकपक्षिणः / समासान्त इन्प्रत्ययः। पक्षिभेदे, स्था० 4 ठा० 4 उ०। प्रज्ञा० / सूत्र० / जी01 “से किं तं समुग्णपक्खी? समुग्ग-पक्खी एगागारा सङ्गलिका–फलिका / शमीवृक्षफलिकायाम्, अणु०। पण्णत्ता, तेणं णऽस्थि इहं बाहिरएसु दीवसमुद्देसु भवति / सेत्तं समिहा स्त्री० (समिधा) काष्ठखण्डे, पिं०। काष्ठिकायाम्, भ०११ श०६ समुग्गपक्खी।" जी०टी०१ प्रति०। उ० / इन्धनभूते काष्ठे, अन्त०१ श्रु०१ वर्ग० 8 अ० / आचा० / नि०। समुग्गय न० (समुद्गक) अभिन्नावस्थे कापासीफले, ज्ञा०१ श्रु०१७ आ० म०। अ० / समुद्रक इव समुद्गकाः / सूतिकागृहे, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / समी स्त्री० (शमी) वृक्षविशेषे, अणु०। जं० / रा० / तैलाद्याधारविशेष, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकायाम्समीकत त्रि० (समीकृत) सम्यग् व्यवस्थापिते, सुदेयत्वेन व्यवस्थापिते, तैलसमुद्को सुगन्धितैलाधारौ / रा०। सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ०। समुग्घाय पुं० (समुद्धात) वेदनादिभिः सह एकीभायने प्राबल्यतया समीकरण न० (समीकरण) समानतानयेन, विशे०। निर्जरणे, प्रज्ञा०॥ समीखल्लय न० (शमीखल्लक) शमीसम्बन्धिनि पत्रपुटे,बृ० 1 उ०३ विषयसूचनाप्रक०। (1) गतिपरिणामविशेषः संग्रहणिगाथया चिन्त्यते। समीर पु०(समीर) वायौ, को०। (2) संग्रहणिगाथोक्तमर्थं स्पष्टयन् प्रथमतः समुद्धातसंख्याविषय समीरण न० (समीरण) सम्यगीरणं समीरणम्। प्रेरणे, आचा०१ श्रु०८ | प्रश्नसूत्रम्। अ०८ उ०। (3) चतुर्विशतिदण्डकमधिकृत्य एकैकस्य जीवस्य कति वेदनादयः समीरिय त्रि० (समीरित) प्रेरिते, आचा०१ श्रु०८ अ०८ उ० / पापेन समुद्घाता अतीताः कति भाविन इति चिन्तनम्। कर्मणा चोदिते, सूत्र० 1 श्रु०५ अ०२ उ०। (4) नैरयिकादेः प्रत्येकसमुदायरूपेण समुद्धातचिन्तनम्। समीव पुं० (समीप) सन्निधाने, षो०१६ विव०। (5) चतुर्विशतिदण्डकसूत्रैः कषायसमुद्घातं चिन्तयति। समीहा स्त्री० (समीहा) सम्यगुद्यमे, सूत्र० 1 श्रु०८ अ०। (6) मारणान्तिकसमुद्घातचिन्तनम्। समीहिय त्रि० (समीहित) इष्टे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। मीमांसिते, व्य० (7) नैरयिकाणा वेदनासमुद्घातचिन्तनम्। 3 उ०। (8) समुद्घातानां परस्परमल्पबहुत्वम्। समुइ पुं० (समुद्) स्वभावे, व्य०७ उ०। (6) कषायसमुद्घातगता विशेषवक्तव्यता। समुई (देशी) अभ्यासकरणे, बृ०१ उ० 2 प्रक०। (10) क्रोधादिसमुद्घातैः शेषसमुद्घातैश्च समवहतानामसमवहतानां च समुइय त्रि० (समुदित) समुदायाङ्गताप्राप्ते, विशे०। परस्परमल्पबहुत्वचिन्तनम्। समुइयसत्ति स्त्री० (समुदितशक्ति) अनन्तकारणमध्ये विद्य-मानायां / (11) यस्मिन् समुद्घाते वर्तमाना यावत् क्षेत्रं समुद्घातवशतो यैः द्वितीयायां सामान्यशक्ती, द्रव्या०१अध्या०।(समु-दितशक्तिः 'सत्ति' पुद्गलैव्याप्नोति तन्निरूपणम्। शब्देऽस्मिन्नेभागे गता।) (12) वैक्रियसमुद्घातविषयचिन्तनम्। विषय Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 435 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समग्घाय (1) गतिपरिणामविशेष एव समुद्घातश्चिन्त्यते, तत्र समुद्घातक्तव्यताविषये इयमादौ संग्रहणिगाथावेयणकसायमरणे, वेउव्वियतेयए य आहारे। केवलिए चेव भवे, जीवमणुस्साण सत्तेव।।१।। 'वेयणे' त्यादि,इह समुद्घाताः सप्त भवन्ति, तद्यथा- 'वेयणकसायमरणे' इति, वेदनं च कषायाश्च मरणं च वेदनकषायमरणं समाहारो द्वन्द्वस्तस्मिन् विषये त्रयः समुद्घाता भवन्ति, तद्यथा-वेदनासमुद्धातः कषायसमुद्घातो मरणसमुद्घातश्च, 'वेउव्विय' त्ति-वैक्रियविषयश्चतुर्थः समुद्घातः, तेजसः पञ्चमः समुद्घातः, षष्ठ आहार इति-आहारकशरीरविषयः,सप्तमः केवलिक:-केवलिषु भवति, 'जीवमणुस्साण सत्तेव' त्ति-सामान्यतो जीवचिन्तायां मनुष्यद्वारचिन्तायां सप्तैवसप्तपरिमाणाः समुद्घाता वक्तव्याः, न न्यूनाः, सप्तानामपि तत्र सम्भवात्, 'सत्तेव' त्ति-एवकारोऽत्र परिमाणे, वर्त्तते च परिमाणे एवशब्दः, यदाह शाकटायनन्यासकृत्- 'एवोऽवधारणपृथक्त्वपरिमाणेष्विति, शेषद्वारचिन्तायां तु यथासम्भवं वाच्याः, ते चाग्रे स्वयमेव सूत्रकृताऽभिधास्यन्ते इत्येष संग्रहणिगाथासंक्षेपार्थः / अथ समुद्धात इति कः शब्दार्थ? उच्यतेसमिति-एकीभावे, उत्प्राबल्ये, एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्धातः। केन सह एकीभावगमनमिति चेत्, उच्यते-अद्विनादिभिः, तथाहियदाऽऽत्मा वेदनादिस-मुद्घातगतो भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति, नान्यज्ञानपरिणतः, प्राबल्येन कथं घात इति चेत, उच्यते-इह वेदनादिसमुद्धातपरिणतो बहून वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदयावलिकायां प्रक्षिप्यानुभूय च निर्जरयति, आत्मप्रदेशैस्सह संक्तिष्टान् सातयतीति भावः, 'पुटवकयकम्मसाडणं तु निज्जरा' इनि वचनात्, तथाहि-वेदनासमुद्घातोऽसद्वैद्यकर्माश्रयः कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्माश्रयः, मारणान्तिकसमुद्घातः अन्तर्मुहूर्त शेषायुःकर्माश्रयः, वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घाता यथाक्रमं वैक्रियशरीरतैजसशरीराहारकशरीरनामकर्माश्रयाः, केवलिसमुद्घातः सदसद्वेधशुभाशुभनामोच्चनीचैर्गोत्रकर्माश्रयः, (प्रज्ञा०)(तत्र वेदनासमुद्धातगताऽऽत्मवक्तव्यता वयणासमुग्घाय' शब्दे षष्ठे भागे गता।) कषायसमुद्घातसमुद्धातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकर्मपुद्गलपरिशातं विधत्ते, तथाहिकषायोदयसमाकुलो जीवः प्रदेशान् बहिर्विक्षिपति तैः प्रदेशैर्वदनोदरादिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च देहमात्रं क्षेत्रमभिव्याप्य वर्तते, तथाभूतश्च प्रभूतान् कषायकर्मपुद्गलान् परिशातयति। (प्रज्ञा०, (इतोऽग्रे 'मारणंतियसमुग्घाय' शब्दे षष्ठे भागे 254255 पृष्ठे गतम्) (वैक्रियसमुद्धातवक्तव्यता 'वउब्वियसमुग्घाय' शब्दे षष्ठ भागे गता।) एवं तैजसाहारसमुद्धातावपि भावनीयौ, नवरं तेजससमुद्धातस्तेजोलेश्याविनिर्गमकाले तैजसनामकर्मपुद्गलपरिशात हेतुः, आहारकसमुद्घातगतस्त्वाहारशरीरनामकर्मपुद्गलान परिशातयतीति, केवलिसमुद्घातगतः केवली सदसāद्यादिकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, स | च यथा कुराते तथा विनयजनानुग्रहाय भाव्यते इति, केवलिसमुद्घातोऽटसामयिकः, तं च कुर्वन् केवली प्रथमसमये बाहल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तम् आत्मप्रदेशानांदण्डमारचयति, द्वितीयसमये पूर्वापरं दक्षिणोत्तरं वा कपाट, तृतीये मन्थानं, चतुर्थेऽवकाशान्तराणां पूरणं, पञ्चमेऽवकाशान्तराणां संहारं, षष्ठे मन्थः, सप्तमे कपाटस्य, अष्टमे स्वशरीरस्थो भवति, वक्ष्यति च– “पढमे समये दंड करेइ, बीए कवाडं करेई" इत्यादि, तत्र दण्डसमयात् प्राक् या पल्योपमासङ्घयेयभागमात्रा वेदनीयनाम-गोत्राणां स्थितिरासीत् तस्या बुद्ध्या असंख्येयभागाः क्रियन्ते, ततो दण्डसमये दण्ड कुर्वन् असंख्येयान् भागान् हन्ति, एकोऽसंख्येयो भागोऽवतिष्ठते, यश्च प्राकर्मत्रयस्यापि रसस्तस्याप्यनन्ता भागाः क्रियन्ते, ततस्तस्मिन् दण्डसमये असातवेदनीय 1 प्रथमवर्जसंस्थान६ संहननपञ्चका ११ऽप्रशस्तवर्णादिचतुष्टयो 15 पघाता १६ऽप्रशस्तविहायोगति 17 दुःस्वर 18 दुर्भगा १६ऽस्थिरा २०ऽपर्याप्तका २१ऽशुभा २२ऽनादेया २३व्यशःकीर्ति 24 नीचैर्गोत्ररूपाणां 25 पञ्चविंशतिप्रकृतीनामनन्तान भागान् हन्ति, एकोऽनन्तभागोऽवशिष्यते, तस्मिन्नेव चसमये सातवेदनीय१ दवेगति 2 मनुष्यगति 3 देवानुपूर्वी 4 मनुष्यानुपूर्वी 5 पञ्चेन्द्रियजाति 6 शरीरपञ्चको 11 पाङ्गत्रय 14 प्रथमसंस्थान 15 संहनन 16 प्रशस्तवर्णादिचतुष्या २०ऽगुरुलघु 21 पराघातो 22 च्छ्रास 23 प्रशस्तविहायोगति 24 त्रस 25 बादर 26 पर्याप्त 27 प्रत्येकाऽऽतपो 26 द्योत 30 स्थिर 31 शुभ 32 सुभग 33 सुस्वरा 34 ऽऽदेय 35 यशःकीर्ति 36 निर्माण 37 तीर्थकरो 38 च्चैर्गोत्ररूपाणा 36 मेकोनचत्वारिंशतः प्रकृतीनामनुभागोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेनोपहन्यते, समुद्धातमाहात्म्यमेतत्। तस्य चोदरितस्य स्थितेरसंख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्तभागस्य पुनर्यथाक्रममसंख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततो द्वितीये कपाटसमये स्थितेरसंख्येयान् भागान् हन्ति एकोऽवशिष्यते, अनुभागस्य चानन्तान भागान् हन्ति एक मुञ्चति / अत्राप्यप्रशस्तप्रकृत्यनुभागमध्यप्रवेशनेन प्रशस्तप्रकृत्यनुभागघातो द्रष्टव्यः, पुरप्येतत् समयेऽवशिष्टस्य स्थितेरसंख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य पुनर्बुद्ध्या यथाक्रममसंख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते ततस्तृतीये समये स्थितेरसंख्येयान् भागान् हन्ति, एकं मुञ्चति, अनुभागस्य चाऽनन्तान् भागान् हन्ति, एकमनन्तभागं मुञ्चति। अत्रापि प्रशस्तप्रकृत्यनुभागधातोऽप्रशस्तप्रकृत्यनुभा-गमध्यप्रवेशनेनावसेयः / ततः पुनरपि तृतीयसमयावशिष्टस्य स्थितेरसंख्येयभागस्यानुभागस्य चानन्ततमभागस्य बुद्ध्या यथाक्रममसंख्येया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततश्चतुर्थसमये स्थितेरसंख्येयान् भागान् हन्ति, एकस्तिष्ठति, अनुभागस्याप्यनन्तान् भागान् हन्त्येकोऽवशिष्यते, प्रशस्तप्रकृत्यनुभागधातश्च पूर्ववदयसे यः / एवं च स्थितिघातादि कुर्वतश्चतुर्थसमये स्वप्रदे-शापूरितसमस्तलोकस्य भगवतः केवलिनो वेदनीयादिकर्मत्रयस्थितिरायुषः संख्येयगुणा जाता, अनुभागस्त्वद्याप्यनन्तगुणः, चतुर्थसमयावशिष्टस्य च स्थितेरसंख्येयभा Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय गस्यानुभागस्य चानन्ततमभास्य भूयोऽपि बुद्ध्या यथाक्रम संख्यया अनन्ताश्च भागाः क्रियन्ते, ततोऽवकाशान्तरसंहारसमये स्थितः संख्येयभागान हन्ति, एक संख्येयभागं शेषीकरोति, अनुभागस्यानन्तान् भागान् हन्ति एकं मुञ्चति / एवमन्तेषु पञ्चसु दण्डादिसमयेषु प्रत्येक सामयिक कण्डकमुत्कीण, समये समये स्थितिकण्डकानुभागकण्डकघातनात्, अतः पर षष्ठसपयादारभ्य स्थितिकण्डकमनुभागकण्डक चान्तर्मुहर्तेन कालेन विनाशयति, प्रयत्नमन्दीभावात, षष्ठादिषु च समयेषु कण्डकस्य प्रतिसमयमेकैकं शकल तावदुत्किरति यावदन्तर्मुहुर्त - चरमसमये सकलमपि तत्कण्डकमुत्कीर्ण भवति। एवमान्तमोहूर्तिकानि स्थितिकण्डकान्यनुभागकण्डकानि च घातयन् तावद्वेदितव्यः यावत् सयोग्यवस्थाचरमसमयः, सर्वाण्यपि चामूनि स्थित्यनुभागकण्डकान्यसंख्येयान्यवगन्तव्यानीति कृतं प्रसङ्गेन। प्रकृतं प्रस्तुमः। (2) तत्र संग्रहणिगाथोक् तमर्थ स्पष्टयन प्रथमतः समुद्धात संख्याविषयं प्रश्नसूत्रमाहकति णं भंते ! समुग्धाया पण्णत्ता, गोयमा ! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा–वेदणासमुग्घाते 1 कसायसमुग्घाते 2 मारणंतियसमुग्धाते 3 वेउव्वियसमुग्घाते 4 तेयासमुग्घाते 5 आहारसमुग्घाते 6 केवलिसमुग्घाते 7 / वेदणासमुग्घाए णं भंते ! कति समइए पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जसमइए अतोमुहुत्तिते पण्णत्ते, एवं जाव आहारसमुग्घाते / केवलिसमुग्घाए णं भंते ! कति समइए पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्ट समइए पण्णत्ते / नेरझ्या णं भंते ! कति समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता,तं जहा-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्धाएमारणंतियसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्घाए। असुरकुमाराणं भंते ! कति समुग्धाया पण्णता? गोयमा ! पंच समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा.. वेदणासमुग्धाए कसायससमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउव्यि--- यसमुग्घाए तेयासमुग्घाए एवं जाव थणियकुमारा णं / पुढविकाइया णं भंते ! कति समुग्घाया पण्णत्ता ? गोयमा ! तिण्णि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए, एवं जाव चउरिंदियाणं, नवरं वाउकाइयाणं चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेदणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्धाए वेउव्वियसमुग्घाए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जाव वेमाणिया णं भंते? कति समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा-वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए वेउव्विय समुग्घाए तेयासमुग्घाए नवरं मणुस्साणं सत्तविहे समुग्धाए पण्णत्ते, तं | जहा-वेदणासमुग्घाए कसायसमुग्घाए मारणं तिय-समुग्घाए | वेउव्वियसमुग्घाए तेयासमुग्घाए आहारसमुग्धाए केवलिसमुग्धाए। (सू०३३१) 'कई ण' मित्यादि, कति-किंपरिमाणा णमिति वाक्याऽलंकार, 'भदन्ते' ति-भगवतो वर्द्धमानस्वामिन आमन्त्रणं, भदन्तत्वं च भगवतः परमकल्याणयोगित्वात्, यदिवा–भवान्तेति,द्रष्टव्यं, सकलसंसारपर्यन्तवर्तित्वात् अथवा-भयान्त!इहपरलोकादि-भदमिन्नसप्तप्रकारभयविनाशकत्वात्, समुद्घाताः- उक्त-शब्दार्थाः प्रज्ञप्ताः, भगवानाह'गोय' त्यादि, गौतम ! सात समुद्घाताःप्रज्ञताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घात इत्यादि, वेदनायाः समुद्घातो वेदनासमुद्घातः,एवं यावदाहारकसमुद्धात इति, केवलिसमुदघात इति-केवलिनः समुद्धाराः केवलिसमुद्घातः / सम्प्रति कः समुद्घातः, कियन्तं कालं यावद्भवतीत्येत-निरूपणार्थमाह-'वेयणे' त्यादि, सुगमं नवरं 'जावे' त्यादि, एव-मुक्तप्रकारेणाभिलापेनान्तर्मुहूर्तप्रमाणतया च समुद्घाताः क्रमेण तावद्वाच्याः यावदाहारकसमुद्घातः, एतेषड़प्यादा आन्तर्मुहू-र्तिकाः, केवलिसमुद्घातस्त्वष्टसामायिकः, स चानन्तरमेव भावितः एतानेव समुद्घातान् चतुर्विशतिदण्कक्रमेण चिचिन्तयि--पुराह- 'नेरइयाण' मित्यादि, नैरयिकाणामाद्याश्चत्वारः, तेषां तेजोलब्ध्याऽऽहारकलब्धिकेवलित्वाभावतः शेषसमुद्घातत्र-यासम्भवात्, असुरकु मारादीनां दशानामपि भवनपतीनां तेजोलेश्यालब्धिभावात् आद्याः पश समुद्घाताः, पृथिवीकायिकाप्कायिकतैजस्कायिकवनस्पतिकायिकद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणामाद्यास्त्रयः, तेषां वैक्रियादिलब्ध्यभावतः उत्तरेषां चतुर्णामपि समुद्घातानामसम्भवात्, वायुकायिक्रानामाद्याश्चत्वारस्तेषा वैक्रियलब्धिसंभवेन वैक्रियसमुद्घातस्यापि सम्भवात, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानामाद्याः पञ्च, केषांचित्तेषां तेजोलब्धेरपि भावात्, मनुष्याणां सप्त मनुष्येषु सर्वसम्भवात् व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामाद्याः पञ्च, वक्रियतेजोलब्धिभावात् उत्तरौ तु द्वौ न सम्भवतः आहारकलब्धिकेवलित्वाऽयोगात्। (3) सम्प्रति चतुर्विशतिदण्डकमधिकृत्य एकैकग्य जीवस्य कति वेदनादयः समुद्घाता, अतीताः कति भाविन इति चिचिन्तयिषुराहएगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स के वइया वेदणासमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि, कस्सइ नऽत्थि। जस्सत्थि तस्स जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा एवं असुरकुमारस्स वि निरंतरं० जाव वेमाणियस्स, एवं० जाव तेयगसमुग्घाए एवमेते पंच चउवीसा दंडगा। एगमे-गस्स णं मंते ! नेरइयस्स केवइया आहारसमुग्घाया अतीता ? कस्सइ अत्थि कस्सइनऽत्थि, जस्स अत्थितस्स जहण्णेणं एक्को वा दो वा उ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 437 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय कोसेणं तिण्णि, केवइया पुरेक्खडा, कस्सइ अत्थि कस्सइ नऽत्थि, जस्सऽत्थि जहण्णेणं एक्को वादोवा तिण्णि वा उक्कोसेणं चत्तारि, एवं निरंतरं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स अतीता वि पुरेक्खडा वि जहा नेरइयस्स पुरेक्खडा / एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीता? गोयमा ! नऽत्थि, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्यइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि एक्को,एवं०जाव वेमाणियस्स,नवरं मणूसस्स अतीता कस्सइ अत्थि, कस्सइ नत्थि,जस्सत्थि एक्को, एवं पुरेक्खडा वि। (सू० 3324) 'एगमेगरसणं भंते! इत्यादि, एकैकस्य सूत्रे मकारोऽलाक्षणिकः, भदन्त! नरयिकस्य सकलमतीतं कालमधिकृत्य 'केवइय' ति-कियन्तो वदनासमुद्घाता अतीता-अतिक्रान्ताः? भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, नारकादिस्थानानामनन्तशः प्राप्तत्वादेकैकस्मिँश्च नारकादिस्थानप्राप्तिकाले प्रायोऽनेकशो वेदनासमुद्घातानां भावात्, एतच्च बाहुल्योपक्षयोच्यते, बहवो हि जीवा अन-न्तकालमसंव्यवहारराशेरुद्वत्ता वर्तन्ते, ततस्तदपेक्षया एकैकस्य नैरयिकस्यानन्ता अतीता वेदनासमुद्घाता उपपद्यन्ते। ये तु स्तोककालमसंव्यवहारराशेरुवृत्तास्तेषां यथासम्भवं संख्येया असंख्येया वा प्रतिपत्तव्याः,केवलं ते कतिपये इति न विवक्षिताः। 'कवइया पुरेक्खड' त्ति इदं सूत्रं पाठसूचामात्र,सूत्रपाठस्त्वेवम्-'एगमेगस्स ण भंतं ! नेरइयरस केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा' इति, सुगम, नवरं पुरे अग्रे कृताः-तत्परिणामप्राप्तियोग्यतया व्यवस्थापिताः, सामर्थ्यात तत्कर्तृजीवेनति गम्यते, पुरस्कृता अनागतकालभाविन इति तात्पर्यार्थः / अत्र भगवानाह–कस्यापि सन्ति कस्यापिन सन्ति, यस्यापि सन्ति,तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, उत्कर्षतः संख्येया वा असंख्येया वा अनन्ता वा / इयमत्र भावनायो नाम विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरं वेदनासमुद्घातमन्तरेणैव नरकादुवृत्यानन्तरमनुष्यभवे वेदनारग्मुद्घातमप्राप्त एव सेत्स्यति तस्य पुरतो वेदनासमुद्घात एकोऽपि नास्ति, यस्तु विवक्षितप्रश्नसमयानन्तरमायुःशेषे कियत्कालं नरकभवे स्थित्वा तदनन्तरं मनुष्यभवमागत्य सेत्स्यति तस्य एकादिसम्भवः, संख्यातकालसंसारावस्थायिनः संख्याताः, असंख्यातकालसंसारावस्थायिनोऽसंख्याताः अनन्तकालसंसारावस्थायिनोऽनन्ताः, 'एव' मित्यादि, एवं नैरयिकावतप्रकारेणासुरकुमारस्यापि यावत् स्तनितकुमारस्य वाच्यम्, ततश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्य यावद्वैमानिकस्य। किमुक्तं भवति? सर्वेष्वपि असुरकुमारादिषु स्थानेषु अतीता वेदनासमुद्घाता अनन्तावाच्याः, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापिन सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया असंख्यया अनन्ता वा इति वाच्याः। भावनाऽपि पूर्वोक्तानुसारेण स्वयं परिभावनीया, एवं चतुर्विशतिदण्डक क्रमेण कषायसमुद्घातो मारणान्तिकसमुद्घातो वैक्रियसमुद्घातस्तैजससमुद्घातश्च प्रत्येकं, तत एव पञ्चचतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति / तथा चाह-'एवं जाव तेयगसमुग्घाए' इत्यादि, एवं वेदनासमुद्घातप्रकारेण शेषसमुद्घातेष्वपि प्रत्येक तावद्वक्तव्यं यावत्तैजससमुद्घातः, शेष सुगमम, 'एगमेगस्स ण' मित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य पाश्चात्य सकलमतीत कालमपेक्ष्य क्रियन्त आहारकसमुद्घाता अतीताः? भगवा-नाह- गौतम ! कस्यापि 'अत्थि' ति- अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचनो,यदाह शाकटायनन्यासकृत्- "अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचनेष्वि" ति, ततोऽयमर्थः-कस्यापि अतीता आहारक-समुद्घाताः सन्ति कस्यापि न सन्ति, येन पूर्व मानुष्यं प्राप्य तथाविधसामा यभावतश्चतुर्दशपूर्वाणि नाधीतानि, चतुर्दशपूर्वा-धिगमे वा आहारकलब्ध्यभावतः तथाविधप्रयोजनाभावतो वा आहारकशरीर न कृतं तस्य न सन्तीति,यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः एको वा द्वी वा उत्कर्षतस्तु त्रयो, नतु चत्वारः चतुष्कृत्यः कृताहारकशरीरस्य नरकगमनाभावात्. आह च मूलटी-काकारः-"आहारसमुग्धाया उक्कोसेणं तिन्नि, तदुवरि नियमा नरगं न गच्छइ जस्स चत्तारि भवन्ति" इति, पुरस्कृता अपि कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यो मानुष्यं प्राप्य तथा--विधसामर यभावतश्चतुर्दशपूर्वाधिगममाहारकसमुद्घातं चान्तरेण सेल्स्यतितरयन सन्ति, शेषस्य तु यथासम्भवं जघन्यतएको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारःतत ऊर्ध्वमवश्यं गत्यन्तरासंक्रमे–णाहारकसमुद्घातमन्तरेण च सिद्धिगमनभावात्, ‘एव' मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तेन प्रकारेण चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्य यावद्वैमानिकस्य सूवम, नवरं मनुष्यस्यातीता अपि पुरस्कृता अपि यथा-नैरयिकस्य पुरस्कृतास्तथा वाच्याः, अतीता अपि चत्वारः पुरस्कृता अपि चत्वार उत्कर्षतो वाच्या इत्यर्थः / सूत्रपाठश्चैवम्- 'एगमेगस्सणं मणूसस्स भंते ! केवइया आहा-रसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्तारि, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइनस्थि जस्स अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उझोसेणं चत्तारि' अत्र भावना-इह यश्चतुर्थवलमाहारकशरीरं करोति स नियमात् तद्भव एव मुक्तिमासादयति, न गत्यन्तरं, कथमेतदवसीयते इतिचेत् ? उच्यतेसूत्रपौर्वापर्य-पर्यालोचनात्, तथा यदि चतुर्थवेलमप्याहारकशरीरं कृत्वा गत्यन्तरं संक्रामेत ततो नैरयिकादावन्यतरस्यां गतौ उत्कर्षतश्चत्वारोऽप्याहारकस्य समुद्घाता उच्येरन, न चोच्यन्ते, ततोऽवसीयतेचतुर्थवेलमहारकशरीरं कृत्वा नियमात् तद्भव एवमुक्तो भवति, न गत्यन्तरगामी, तत्र यः प्रागाहारकशरीर कदाचिनापि न कृतवान् तस्यातीतमाहारक-समुद्घातो नास्ति, ततस्तदपेक्षयोक्तं 'कस्सइनत्थि' त्ति-यस्यापि सन्ति सोऽपि यदि पूर्वमकवारमाहारकशरीरं कृतवान् Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 438 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय तस्यैकोऽतीत आहारकस्य समुद्घातः द्वौ वारौ कृतवतो द्वौ, त्रीन वारान् कृतवतस्त्रयो,यश्चतुर्थवेलामाहारकशरीरं कृत्वा आहारकसमुद्घाताचतुर्थात्प्रतिनिवृत्तो वर्तते न चाद्यापि मनुजभवं विजहाति तस्य चत्वारः, पुरस्कृता अपि समुघाताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति / तत्र यश्चतुर्थवेलमाहारकशरीरं कृत्वा आहारकसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो, यदिवा-पूर्वमकृताहारकशरीरोऽपि, अथवा-एकवारकृताहारकशरीरोऽपि, यदिवा-द्विष्कृत्वःकृताहारकशरीरोऽपि, यदिवा-त्रिष्कृत्वःकृताहारकशरीरोऽपि तथा-विधसामायभावात् उत्तरकालमाहारकशरीरमकृत्वैव मुक्तिभवाप्स्यति तस्य पुरस्कृता आहारकसमुद्घातान सन्ति, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतएको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्वत्वारः तत्रएकादिसम्भवः पूर्वोक्तभावनानुसारेण स्वयं भावनीयः यस्तु पूर्वकालमेकवारमपि आहारकशरीरं न कृतवान्, अथ चोत्तरकालं तथाविधसामग्रीभावतो यावत्सम्भवमाहारकशरीरकर्ता तस्य चत्वारो न शेषस्य। सम्प्रति केवलिसमुद्धातविषयं दण्डकसूत्र-माह- 'एगमेगस्स ण' मित्यादि, एकै कस्य भदन्त ! नैरयिकस्य निरवधिकमतीत कालमधिकृत्य कियन्तः केवलिसमुद्धाता अतीताः ? भगवानाह'नत्थि' त्ति-नास्त्यतीत एकोऽपि केवलिसमुद्धातः, केवलिसमुद्धातानन्तरं ह्यन्तर्मुहूर्तेन नियमतो जीवाः परमपदमश्नुवते, ततो यद्यभविष्यत्केवलिसमुद्धातस्तर्हि नरकमेव नागभिष्यद्, अथ च सम्प्रति नरकगामिनो वर्तन्ते तस्मान्नास्त्येकस्याप्यतीतः केवलिसमुद्धातः, 'केवइया पुरेक्खड' त्ति-कियन्तः पुरस्कृताः केवलिसमुद्धाता इति प्रश्नः, भगवा-नाह- 'गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि' त्ति-इह केवलि समुद्धात एकस्य प्राणिन आकालमेक एव भवति, न द्विवाः, ततोऽस्तीति निपातोऽत्र एकवचनान्तो वेदितव्यः, ततश्चायमर्थःकस्यापि केवलिसमुद्धातः पुरस्कृतोऽस्ति, यो दीर्घतरेणापि कालेन मुक्तिपदप्राप्त्यवसरे विषमस्थितिकर्मा इति, कस्यापि नास्ति, यो मुक्तिपदमवाप्नुमयोग्यो योग्यो वा केवलि-समुद्घातमन्तरेणैव मुक्तिपदं गन्ता, तथा च वक्ष्यति- "अगंतूण समुग्घायमणंता केवली जिणा। जरमणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगइंगया।॥१॥” इति, इह अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गवचन इत्यविदितसिद्धान्तस्य बहुत्वाशङ्कापि कस्यचित् स्यात् ततस्त-दपनोदार्थमाह- 'जस्सअस्थि एको यस्यास्ति पुरस्कृतः केवलिसमुद्घातस्तस्य एको, भूयः संसाराभावात्, ‘एवं जाव वेमाणियस्स' त्ति एवं -नैरयिकगताभिलापप्रकारेण चतुर्विशतिदण्डकक्रममनुसृत्य तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकस्य सूत्रम्, तचेदम् एगमेगस्स णं भंते ! वेमाणियस्स केवइया केयलिसमुग्घाया अतीता ? गोयमा ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! करसइ अत्थि, कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एक्को' इति, तत्रय विशेषमाह-'नवर' मित्यादि नवरमयं विशेषःमनुष्यस्य केवलिसमुद्घातस्य चिन्तायामतीतः कस्याप्यस्ति कस्यापि नास्तीति वक्तव्यः, तत्र यः केवलिसमुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो वर्तत न | चाद्यापि मुक्तिपदमवाप्नोति तस्यास्त्यतीतः केवलिसमुद्धातः, ले च सर्वसंख्यया उत्कर्षपदे शतपृथक्त्वप्रमाणा वेदितव्याः कस्यापि नास्ति अतीतः केवलिसमुद्धातो, यो न समुद्घात गतवान्, तेच सर्व-संख्यया असंख्येया द्रष्टव्याः, शतपृथक्त्वव्यतिरेकेणान्येषां सर्वेषामप्यसम्प्राप्तकेवलिसमुद्घातत्वात्, अत्राप्यस्तीति निपातस्य सर्वलिङ्गवचनत्वात्, 'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि' इत्युक्तो बहुत्वाशङ्का स्यात्, ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-यस्य मनुष्यस्यातीतः केवलिसमुद्घातस्तस्य नियमादेको न द्वित्राः एकेनैव केवलिसमुद्घातेन प्रायः समस्तघातिकर्मणां निर्मूलका–पंकषितत्वात्, ‘एवं पुरेक्खडा वि' त्ति-एवम्- अतीतगतेन प्रका-रेण पुरस्कृता अपि केवलिसमुदघाता वाच्याः, ते चैवम्-'कस्सइ अस्थि, कस्सइ नत्थि जस्सत्थि एको' इति / अत्र भावना पूर्वो - क्तानुसारेण स्वयं भावनीया। (4) तदेवमतीतमनागतं च कालभधिकृत्य एकैकस्य नैरयिकादेवेदनादिसमुद्घात इन्ता कृता, सम्प्रति नैरयिकादेः प्रत्येकं समुदायरूपस्य तचिन्ता चिकीर्षुराहनेरइयाणं भंते ! केवइया वेदणासमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता, एवं जाव वेमा-णियाणं, एवं जाव तेयगसमुग्घाए, एवं एते वि पंच चउवीस-दंडगा, नेरइयाणं भंते ! केवइया आहारगसमुग्घाया अतीता? गोयमा! असंखेज्जा, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! असंखेज्जा, एवं०जाव वेमाणियाणं, णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसाण य इमं णाणत्तं-वणस्सइकाइयाणं भंते ! केवइया आहार-समुग्घाया अईया ? गोयमा ! अणंता मणूसाणं भंते ! केवइया आहारसमुग्घाया अईया ? गोयमा ! सिय संखेज्जा सिय असं-खेज्जा, एवं पुरेक्खडा वि / नेरइयाणं भंते ! केवइया के वलिसमु-पघाया अईया? गोयमा ! णत्थि, के वइया पुरेक्खडा?गोयमा! असंखेज्जा, एवंजाव वेमाणियाणं, णवरं वणस्सइमणूसेसु इमं नाणत्तं-वणस्सइकायाणं भंते ! केवइया के वलिसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! णत्थि,के वइया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता, मणूसा णं भंते ! केवइया केवलिसमुग्घाया अतीता ? गोयमा ! सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सत्तपुहुत्तं, केवतिया पुरेक्खडा? सिय संखेआ सिय असंखेज्जा। (सू०३३२) 'नेरझ्याण' मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां सर्वेषां समुदायेन भदन्त ! कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः ? भगवानाहगौतम ! अनन्ता, बहूनामनन्तकालसव्यवहारराशेरुदवृत्तत्वात्, कियन्तः पुरस्कृताः? अत्रापि प्रश्नसूत्रपाठः परिपूर्ण एवं द्रष्टव्यः 'नेरइयाणं भंते! केवइया वेयणासमुग्धाया पुरक्खडा' इति, भगवानाह गौतम! अनन्ताः, बहूनामनन्त Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 436 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय कालभाविसंसरावस्थानभावात्, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद् तानां नारकादिगमनासम्भवात्, कियन्तः पुरस्कृता इति प्रश्नः, वक्तव्यं यावद्वैमानिकाना यथा च वेदनासमुद्धातश्वतुर्विशतिदण्ड- भगवानाह-गौतम! असंख्येयाः, सर्वदा विवक्षितप्रश्नसमयभाविना कक्र मेण चिन्तितः तथा कषायमरणवैक्रियतैजसमुद्घाता अपि / मध्येऽसंख्यातानां भाविकेवलिसमुद्घातत्वात्, तथा केवलवेदसोपचिन्तनीयाः, तथा चाह- 'एवं जावतेयगसमुग्धाएं एवं च सतिएतान्यपि लब्धेः, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद् वैमानिबहुत्वविषयाणि पञ्च चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि भवन्ति, एतदेवाह- कानां सूत्रं, तथा चाह-‘एवं जाव वेमाणियाणं' अत्रैव विशेषमाह- 'नवर' 'एवमेए' वि य पंच चउव्वीसदंडगा इति, आहारकसमुद्धातचिन्ता मित्यादि, नवरंवनस्पतिकायिकेषु मनुष्येषु चेदं वक्ष्यमाणलक्षण कुर्वान्नाह- 'नेरइयाण' मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह- नानात्वम्, तदेवाह- 'वणप्फइकाइयाण' मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रं गौतम ! असंख्येयाः / इयमत्र भावना-इह नैरयिकाः सर्वदाऽपि सुप्रतीतम्, उत्तरसूत्रे निर्वचनम्-अनन्ताः, अनन्तानां भाविकेवलिसमुप्रश्नसमयभाविनः सर्वसंख्ययाऽप्यसंख्येयाः, तेषामपि मध्ये कतिपयाः द्घातानां तत्र भावात्, 'मणुस्साण' मित्यादि, अत्रापि प्रश्नसूत्रं सुगम, संख्यातीताः कृतपूर्वाहारकसमुद्घातास्ततोऽसंख्येया एव तेषामतीता- भगवानाह-गौतम! स्यात् सन्ति स्यान्न सन्ति। किमुक्तं भवति?-यदा हारसमुद्घाता घटन्ते, नानन्ता नापि संख्येयाः, एवं पुरस्कृता अपि प्रश्नसमये समुद्घातान्निवृत्ताः प्राप्यन्ते तदा सन्ति,शेषकालं न सन्ति, भावनीयाः। एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकानाम्, तत्र 'जइ अत्थि' त्ति-यदि प्रश्नसमये कृतकेवलिसमुद्घाता मनुष्यआह च-'एवं जाव वेमाणियाण' अत्रैव यो विशेषस्तं दिदर्शयिषुराह-- त्वमनुभवन्तः प्राप्यन्ते तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः 'नवर मित्यादि 'नवरं वनस्पतिकायिकचिन्तायां मनुष्यचिन्तायां च शतपृथक्त्वम्, एतावतामेककालमुत्कृष्टपदे केवलिना केवलिसमुद्नैरयिकापेक्षया नानात्वमवसेयम, तदेव नानात्वमाह- 'वणप्फइकायाण' घातासादनात् 'केवइया पुरेक्खड' त्ति-कियन्तो मनुष्याणां केवलिमित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्रसुगमम्, भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, अनन्ता- समुद्घाताः पुर-स्कृताः? भगवानाह-स्यात् संख्येयाः स्यादसंख्येयाः, नामधिगतचतुर्दशपूर्वाणां कृताहारकसमुद्घातानां प्रमादवशतः मनुष्या हि सम्मूञ्छिमा गर्भव्युत्क्रान्ताश्च सर्वसमुदिता उत्कृष्टपदे प्रागुउपचितसंसाराणां वनस्पतिषु भावात्, पुरस्कृता अनन्ताः अनन्ताना क्तप्रमाणास्तत्रापि विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां मध्ये कदाचित्केवनस्पतिकायादुद्वृत्य चतुर्दशपूर्वाधिगमपुरस्सरं कृताहारकसमुद्घाताना वलिसमुद्धाताः संख्येयाः, बहूनामभव्यानां भावात्. कदाचिदसभाविसिद्धिगमनभावात्, 'मणुस्सा णं भंते !' इत्यादि, अत्रापि प्रश्नसूत्रं ख्येयाः, बहूनां भाविकेवलिसमुद्धातानां भावात्। प्रतीतम्, भगवा-नाह-गौतम ! स्यादिति निपातोऽनेकान्तद्योती, (4) सम्प्रति एकैकस्य नैरयिकत्वादिभावेषु वर्तमानस्य, ततोऽयमर्थः-कदाचित् संख्येयाः, कदाचिदसंख्येयाः, कथमिति चेत्, प्रत्येक कति वेदनासनुद्धाता अतीताः कति उच्यते-इह सम्मूच्छिमगर्भव्युत्क्रान्तसमुदायचिन्तायाम् उत्कृ-ष्टपदे भाविन इति निरूपयितुकाम आहमनुष्या अङ्गुलमात्रक्षेत्र यावान् प्रदेशराशिस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमूलं तत् एगसेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणातृतीयवर्गमूलेन गुणित सत् यावत्प्रमाणं भवति एताव-त्प्रदेशप्रमाणानि समुग्घाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? खण्डानि धनीकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्यां श्रेणौ यावन्ति भवन्ति गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अत्थि जहण्णेणं एतावत्प्रमाणा एकहीनाः,ते चातीव शेषनारकादिजीवराश्यपेक्षया एक्को वा दो वा तिणि वा,उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा स्तोकाः, तत्रापि ये पूर्वभवेषु कृताहारकशरीरास्ते कतिपयाः, ते च अणंता वा, एवं असुरकुमारत्ते 0 जाव वेमाणियत्ते / एगमेगस्स कादाचित् विवक्षितप्रश्नसमये संख्येयाः, कदाचिदसंख्येयाः, तत णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया वेदणासमुग्घाया उक्तम्-- 'सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा' इति, अनागतेऽपि काले अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! विवक्षितप्रश्नसमयभाविना मध्ये कति संख्या एवाहारकशरीर- कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स सिय संखेज्जा मारप्स्यन्ति तेऽपि कदाचित् संख्येयाः कदाचिदसंख्येयाः, तत आह- सिय अणंता / एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स असुर'एवं पुरेक्खडा वि' ति एवं अतीतगतेन प्रकारेण वनस्पतिकायिकानां कुमारत्ते केवइया वेदणासमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणंता, मनुष्याणां च पुरस्कृता अपि आहारकसमुद्धाता वेदितव्याः, ते चैवम्- के वइया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, 'यणप्फइकाइयाणं भंते ! केवझ्या आहारगसमुग्धाया पुरेक्खडा? गोयमा! जस्सत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं अणंता।मणुस्साणं भंते! केवइया आहारसमुग्धाया पुरेक्खडा? गोयमा ! संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा, एवं नागकुमारत्ते वि० सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा' इति केवलिसमुद्घात-विषयं प्रश्न- जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा० वेयणासमुग्धाएणं असुरकुमारे सूत्रमाह-- 'नेरइयाणं भंते !' इत्यादि सुगमम, भगवा-नाह- गौतम ! न नेरइयाऽऽदिवेमाणियपज्जवसाणेसु भणितो तहानागकुमारासन्ति केचनानीता नैरयिकाणां केवलिसमुद्धाताः, कृतकेवलिसमुद्धा- | ऽऽदिया अवसेसेसु सट्ठाणेसु परट्ठाणेसु भाणितव्वा० जाव Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 440 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय वेमाणियस्स वेमाणियत्त / एवमेते चउव्वीसा-चउच्चीसं दंडगा भवंति। (सू०३३३)। 'एगमेगस्स ण' मित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरथिकस्य सकल-. मतीतकालमवधीकृत्य तदा तदा नैरयिकत्वे वृत्तस्य सतः सर्वसं--ख्यया कियन्तःवेदनासमुद्धाता अतीताः? भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, नरकस्थानस्यानन्तशः प्राप्तत्वादेकैकस्मिँश्च नरकभवे जघन्यपदेऽपि संख्येयानां वेदनासमुद्धातानां भावात्, 'केवइया पुरेक्खड'त्ति-कियन्तो भदन्त! एकैकस्य नैरयिकस्याऽऽससारमाक्षमनागत कालमवधीकृत्य नैरयिकत्वे भाविनः सतः सर्वसंख्यया पुरस्कृता वेदनासमुद्धाताः? भगवानाह- गौतम ! कस्सइ अत्थि' इत्यादि, तत्र य आसन्नमृत्युर्वदनासमुद्धातमप्राप्यान्तिकमरणेन नरकादुद्धृत्य सेत्स्यति तस्य नास्ति, नैरयिकत्वे भावी एकोऽपि पुरकृतो वेदनासमुद्धातः शेषस्य तु सन्ति, तस्यापि जघन्यतएको द्वौ वा त्रयो वा, एतच्च क्षीणशेषायुषां तद्भवजानामनन्तरं सेत्स्यतां द्रष्टव्यम्, न भूयो नरकेषूत्पत्स्यमानानां, भूयो नरके षूत्पत्तो जघन्यपदेऽपि संख्येयानां प्राप्यमाणत्वात / यदाह मूलटीकाकारः- 'नरकेषु जघन्यस्थितिषूत्पन्नस्थ नियमतः संख्यया एव वेदनासमुद्धाता भवन्ति,वेदनासमुद्धातप्रचुरत्वान्ना -रकाणामिति, उत्कर्षतः संख्येया असंख्येया वा अनन्ता वा, तत्र सकृत् नरकेषु जघन्यस्थितिषूत्पत्स्यमानस्य संख्येयाः, अनेक-शोदीर्घस्थितिषु असकृद्वा उत्पत्स्यमानस्य असंख्येयाः, अन-न्तशः उत्पत्स्यमानस्य अनन्ताः / 'एव' मित्यादि,एवम्-नैर-यिकगतेनाभिलापप्रकारेणासुरकुमारत्वेन तदनन्तरं चतुर्विंशतिद-ण्डकक्रमेण निरन्तरं तावद्वाच्यं यावद्वैमानिकत्वे, तचैवम्- 'एग-मेगस्स णं भंते ! नेरझ्यस्स असुरकुमाराओ केवइया वेयणासमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अनन्ता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइअस्थिकस्सइनत्थि, जस्स अस्थि जहनेण एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा' तत्रातीतसूत्रेऽनन्तशोऽसुरकुमारत्वस्य प्राप्तत्वादुपपद्यते तद्भावमापन्नरयानन्ता अतीता वेदनासमुद्धाताः, पुरस्कृत-चिन्तायां योऽनन्तरभवेन नरकादुवृत्तो मानुष्यं प्राप्य सेत्स्यति प्राप्तो वा परम्पपरया सकृदसुरकुमारभवन वेदनासमुद्धातं गमिष्यति तस्य नास्त्येकोऽपि पुरस्कृतोऽसुरकुमारत्वेन वेदनासमुद्घातः।यस्तुसकृदसुरकुमात्वं प्राप्तः सन् सकृदेव वेदनासमुद्घात गन्ता तस्य जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा शेषस्य शेषस्यसङ्ख्येयान् पारान् असुरकुमारत्वं यास्यतः संख्येयाः, असंख्येयान वारान् असंख्येया, अनन्तान् वारान् अनन्ताः। एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं सूत्रपाटस्तावद वक्तव्यो यावद्वैमानिकत्वविषय सूत्रम्, 'एगमेगरस ण' मित्यादि, एकैकस्य भदन्त! असुरकुमारस्य पूर्व नैरयिकत्वेन वृत्तस्य सतः सकलमतीतं कालमपेक्ष्य सर्वसंख्यया कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः ? भगवानाह-गौतम ! अनन्ता अतीताः, अनन्तशो नैरयिकत्वस्य प्राप्तत्वात्, एकैकस्मिँश्च नैरयिकस्य भवे जघन्यपदेऽपि संख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात, कियन्तः पुरस्कृताः ? स्यात् रान्ति स्यान्न सन्ति, कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति इति भावः / अत्रापीय भावनायो ऽसुरकु मारभवादुवृत्तो न नरकं यास्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुजभवं प्राप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकत्वावस्थाभाविनः पुरस्कृता वेदनासमुद्घातान सन्ति, नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्भवात्।यस्तु तद्भवादूर्ध्व पारम्पर्येण नरकं गतिष्यतितग्य सन्ति, तत्रापि कस्यचित्संख्येयाः, कस्यचिदसंख्येयाः, कस्यचिदनन्ताः। तत्र यःस कृजघन्यस्थितिषु मध्ये समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि रांख्ययाः,सर्वजघन्यस्थितावपि नरकेषु संख्येयानां वेदनासमुद्घातानां भावात् / वेदनाबहुलत्वान्नारकाणाम् / असकृद् जघन्यस्थितिषु, दीर्घस्थितिषु सकृदसकृद्वा गमने असंख्येयाः, अनन्तशो नरकगमने अनन्ताः / तथा एकेकस्य भदन्त ! असुर-कुमारस्यासुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तो वेदनासमुद्घाता अतीताः? भगवानाह-गौतम! अनन्ताः, पूर्वमप्यनन्तशस्तद्भावस्य प्राप्तत्वात्, प्रतिभवं च वेद-नासमुद्धातस्य प्रायो भावात्, पुरस्कृतचिन्तायां कस्यचित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, यस्य प्रश्नसमयादूर्ध्वमसुरकुमारत्वेऽपिवर्त्त-मानस्य नभावी वेदनासमुद्घातो नापि तत उद्धृत्य भूयोऽप्यसु-रकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्ति, यस्तु सकृत प्राप्स्यति तस्य जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया असंख्येया अनन्ता वा, संख्येयान् वारान् उत्पत्स्यमानस्य संख्येयाः, असंख्येयान्वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण नागकुमारत्वादिषु स्वस्थानेष्वसुरकुमारस्य निरन्तरं तावद्धक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे तथा चाह- 'एवं नागकुमारत्ते वि' इत्यादि, तदेवमसुरकुमाराणां वेदनासमुद्धातश्चिन्तितः, सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेशमाह- ‘एव' मित्यादि, उपदर्शिताभिलापेन यथा चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण असुरो नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितस्तथा नागकुमारादयोऽवशेषेषु समस्तेषु स्वस्थानपरस्थानेषु भणितव्या यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे, एवं चैतानि नैरयिकचतुविशतिदण्डकसूत्रादीनि वैमानिकचतुर्विशतिदण्डकसूत्रपर्यवसा गनि चतुर्विशतिः सूत्राणि भवन्ति / तदेवं चतुर्विशत्या चतुर्विशतिदण्डक - सूत्रैर्वेदना-समुद्धातश्चिन्तितः। (5) सम्प्रति चतुर्विशत्यैव चतुर्विशतिदण्डकसूत्रैः कषाय--समुद्धात चिचिन्तयिषुरिदमाहएगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया कसायसमुग्धाया अतीता? गोयमा ! अणंता, के वइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि एगुत्तरियाते. जाव अणंता / एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते के वइया कसायसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरे-क्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नस्थि, जस्स अत्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता, एवं 0 जाव Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 441 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय नेरइयस्स थणियकुमारत्ते, पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए नेतव्वं, एवं ०जाव मणुयत्ते, वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते, जोइसि--- यत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय असंखेजा सिय अणंता। एवं वेमाणियत्ते वि सिय असंखेज्जा सिय अणंता, असुरकुमारस्स नेरइयत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थिकस्सइ नत्थि जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता। असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते अतीता अणंता पुरेक्खडा एगुत्तरिया, एवं नागकुमारत्ते० जाव निरंतरं वेमाणियत्ते जहा नेरझ्यस्स भणितं तहेव भाणि-तव्वं, एवं० जाव थणियकुमारस्स वि वेमाणियत्ते, नवरं सव्वेसिं सट्ठाणे एगुत्तरियाए परट्ठाणे जहेव असुरकुमारस्स, पुढविकाइ-यस्स नेरइयत्ते० जाव थणियकुमारत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता / पुढविकाइयस्स पुढविकाइयत्ते० जाव मणूसत्ते अतीता अणंता पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अत्थि एगुत्तरिया, वाणमंतरत्ते जहा णेरइयत्ते / जोइसि-यवेमाणियत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि सिय असंखेज्जा सिय अणंता, एवं० जाव मणूसत्ते वि नेयव्वं / वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुर-कुमारा, णवरं सहाणे एगुत्तरियाए भाणितव्वे 0 जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते, एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा ! (सू०३३४) 'एगमेगरस ण' मित्यादि, तत्र नैरयिकस्य नैरयिकत्वविषयं प्रश्न-सूत्र सुगमम. पुरस्वृतचिन्तायां तु कस्यचित्सन्ति कस्य चिन्न सन्ति, तत्र यः क्षीणशेषायुः प्रश्नसमये भवपर्यन्ते वर्तमानः कषा-यमुद्घातमप्राप्त एव नरकभवादुवृत्यानन्तर पारम्पर्येण वासे त्स्यति न भूयो नरकवासगामी तस्य न सन्ति पुरस्कृता नैरयिकत्वे कषायसमुद्घाताः, शेषस्य तु सन्ति, तस्यापिजघन्यतएको द्वौ वा त्रयो वा, तेच क्षीणायुःशेषाणां तद्भवभाजामवसेयाः। उत्कपतः संख्येया असंख्येया वा अनन्तावा, तत्र संख्येयवर्षायुःशेषाणा संख्येयाः, असंख्येयवर्षायुःशेषाणामसंख्येयाः / यदि वा-- सकृद् जघन्यस्थितौ उत्पत्स्यमानानां संख्येयाः, असकृत् जघन्यस्थितो सकृदसकृद्दीर्घस्थितावुत्पत्स्यमानानामसंख्येयाः, अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः, तथा नैरयिकस्येवासुरकुमारत्वविषयेऽतीतसूत्र, तथैव पुरस्कृतसूत्रे 'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि' त्ति-यो नरकादुद्वृत्तोऽसुरकुमारत्वं न प्राप्स्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता असुरकुमारत्वविषयाः कषायसमुद्धाताः, यस्तु प्राप्स्यतितस्य सन्ति, ते च जघन्यपदे संख्येया जधन्यस्थितावप्यसुरकुमाराणां संख्येयानां कषायसमुद्घातानां भावात, लोभादिकषाय बहुलत्वात् तेषाम्, उत्कृष्टपदेऽसंख्येया अनन्ता वा, तत्र सकृद दीर्घस्थितावसकृजघन्यस्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानामसंख्येयाः, अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः / एवं नैरयिकस्य नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तरं ताव-द्रक्तव्यं यावत् स्तनितकुमारत्वे, तथा चाह- ‘एवं जावे' त्यादि, पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव, पुरस्कृतचिन्तायां तु करय-चित् सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यो नरकादुदत्ता न पृथिवीकायभवगामी तस्य न सन्ति, योऽपि गन्ता तस्यापि जघन्यपदे एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया असंख्येया वा अनन्ता वा, ते चैव-तिर्यक्पशेन्द्रियभवान् मनुष्यभवाद्देवभवाद्वा कषायसमुद्-घातसमुद्धतः सन्यएकवार पृथिवीकायिकेषुगन्ता तस्य एको द्वौ वारौ गन्तुौ, त्रीन वारान् त्रयः, संख्येयान् वारान् संख्येया, असंख्येयान वारान् असंख्येया, अनन्तान् वारान् अनन्ताः। तथा चाह'पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए नेयव्वं' ति-तथा-'एवं ताव मणूसत्ते' इतिएवं पृथिवीकायिकगतेनाभिलापप्रकारेण तावद् वक्तव्यं यावन्मनुष्यत्वे, तच्चैवम्- 'एगमेगरसणं भंते ! नेरइयस्स आउकाइयत्ते केवइया कसायसमुग्धाया अईया ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खड ? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णणं एक्को (वा) दो वा तिणि वा उकासेणं संखेज्जा असंखेजा वा अणंतावा' एवं यावन्मनुष्यसूत्रं, तत्राप्का-यादिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत्, द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वेति सकृत् जघन्यस्थितिक द्वीन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्यसंख्येयान् वारान् प्राप्तुकामस्य संख्येया, असंख्येयानसंयेया, अनन्तान् अनन्ताः। एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तिर्यक पञ्चेन्द्रियमनुष्यसूत्रविषया त्वेवं भावनासकृत्पशेन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य स्वभावत एवाल्पकषायस्य जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा शेषस्य संख्येयान्वारान तिर्यक्पश्चेन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य संख्यया, असंख्येयान्वारान् असंख्येया, अनन्तात् वारान् अनन्ताः / मनुष्यसूत्रेतुपुरस्कृतविषया भावनेयम्-यो नरकभवादवृत्तोऽल्पकषायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुद्घातमप्राप्त एव सिद्धिपुर गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य सन्ति, तस्यापि एकं द्वौ त्रीन् वारान् कषायसमुद्घातान प्राप्य सेत्स्यत एको द्वौ त्रयो वा संख्येयान् भवान, यदिवा-एकस्मिन्नपि भवे संख्येयान् कषायसमुद्घातान् गन्तुः संख्येया, असंख्येयान भवान् प्राप्तुकामस्यासंख्येयाः, अनन्तान् अनन्ताः / 'वाणमंतरते जहा-असुरकुमारत्ते' प्रागुक्तम्। किमुक्तं भवति? पुरस्कृतचिन्तायाम् एवं वक्तव्यम्- 'जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अणंता वा' इति नत्वेकोत्तरिका वक्तव्याः, व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जघन्यस्थितावपि संख्येयानांकषायसमुद्घातनां लभ्यमानत्वात, असंख्येयानन्तभावनाऽप्यसुरकुमारवत्, 'जोइसियत्ते' इत्यादि, ज्योतिकत्वेऽतीता अनन्ता वक्तव्याः, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, एतदपि प्राग्वद् भावनीयं, यस्यापि सन्ति तस्यापि कस्यचिदसंख्येयाः कस्यचिदनन्ताः, नतु स्यात् संख्येया इति वक्तव्यम्। कुत इति Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 442 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय चेत् ? उच्यते, ज्योतिष्काणां जघन्यपदेऽप्यसंख्येयकालायुष्कतया जघन्यतोऽपि असंख्येयानां कषायसमुद्धाताना लभ्यमानत्वात्, अनन्तशस्तत्र जिगमिषूणामनन्ताः, एवं वैमानिकत्वेऽपि पुरस्कृतचिन्तायां स्यादसंख्येयाः स्यादनन्ता इति वक्तव्यम्। भावना प्राग्वत्। तदेवं नैरयिकस्य स्वस्थाने परस्थाने च कषाय- समुद्धाताश्चिन्तिताः, सम्प्रत्यसुरकुमारेषु तान् चिचिन्तयिषुराह-'एगमेगस्स ण' मित्यादि, एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वे कषायसमुद्धाता अतीता अनन्ता भाविनः कस्यचित्सन्ति कस्य-चिन्न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुवृत्तो नरक न यास्यति तस्य न सन्ति,यस्तु यास्यति तस्य सन्ति / तस्यापिजघन्यतः संख्येयाः, जघन्यस्थितावपि संख्येयानां कषायसमुहातानां नरकेषु भावात्, उत्कृर्षतोऽसंख्येयाः अनन्ताबा, तत्र जघन्यस्थितिष्वसकृद्दीर्घस्थितिषु सकृदसकृद्वा जिगमिषोरसंख्येयाः, अनन्तशो जिगमिषोरनन्ताः, असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः / 'पुरेक्खडा एगुत्तरिया' इत्यादि, पुरस्कृतास्तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवे पर्यन्तवर्ती न च कषायसमुद्धात याता, नापि तत्र प्रभ्रष्टो भूयोऽसुरकुमारभवं लब्धा किन्त्वनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्य सन्ति, शेषस्य तु न सन्ति / यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्यो वा उत्कर्षतः संख्येयाः असंख्येया अनन्ता वा / तत्र एकादयःक्षीणायुःशेषाणां तद्भवभाजांभूयस्तत्रैवानुत्पत्स्यमानानामवगन्तव्याः, संख्येयादयो नैरयिकत्वे इव भावनीयाः। एव-मित्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण नागकुमारत्वे तत ऊर्ध्वं चतु-विंशतिदण्डकक्रमेण निरन्तरं यावद्वैमानिकत्वे वैमानिकत्वविषयं सूत्र, यथा नैरयिकस्य भणित तथैव भणितव्यम्। किमुक्तं भवति? नागकुमारत्वादिषु स्तनितकुमारपर्यवसानेषु पुरस्कृतचिन्तायां 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स अस्थि सिय संखेजा सिय असंखेजा सिय अता पृथिवीकायिकत्वादिषु मनुष्यत्वपर्यव-सानेषु 'जर अस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेण संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणता वा' व्यन्तरत्वे 'जस्सअस्थि सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अणता' ज्योतिष्कत्वे-'जस्स अत्थि सिय असंखेज्जा सिय अणंता' वैमानिकत्वेऽप्येवमेवेति वक्तव्यमिति, 'एवं जावे' त्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण असुरकुमारवम्नागकुमारस्य यावत्स्तनितकुमारस्य प्रत्येकं यावद् वैमानिकत्वेवैमानिकत्वविषयं सूत्रं तावद्वक्तव्यम् / अत्रैव विशेषमाह-नवरं सर्वेषा नागकुमारादीनां स्तनितकुमारपर्यवसानानां स्वस्थाने नियमतः पुरस्कृताएकोत्तरिकाः, परस्थाने यथैवासु-रकुमारस्य तथैव वक्तव्याः, 'पुढविकाइयस्स नेरइयत्ते' इत्यादि, पृथिवीकायिकस्य नैरयिकत्वे यावत् स्तनितकुमारत्वे अतीता अनन्ताः / अत्र भावना प्रागिव, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र यः पृथिवीकायभवादुवृत्तो नरकेष्वसु-रकुमारेषु यावत् स्तनितकुमारेषु न गमिष्यति किन्तु मनुष्यभवं प्राप्य सिद्धिं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य तु सन्ति यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यतः संख्येयाः, जघन्यस्थितावपि नरकादिषु संख्येयानां कषायसमुद्धाताना भावात्, उत्कर्षतोऽसंख्येया अनन्ता वा, ते च प्राग्वद् भावयितव्याः, पृथिवीकायिकत्वे यावन्मनुष्यत्वेऽतीतास्ते तथैव, भाविन एकोत्तरिकया वक्तव्याः, तेचैवम्– 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्स अस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिपिण वा उछोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा' ते च नैरयिकस्य पृथिवीकायिकत्व इव भावनीयाः, 'वाणमंतरत्ते जहा नेरइयत्ते' इति, व्यन्तरत्वे यथा नैरयिकत्वे तथा वक्तव्यम् / किमुक्तं भवति?-एकोत्तरिका न वक्तव्याः- किन्तु 'सिय संखेजा सिय असखेजा सिय अणता' इति वक्तव्यं, 'जोइसिय' इत्यादि, ज्योतिष्कत्वे वैमानिकत्वे चातीतास्तथैव, पुरस्कृता यदि सन्ति ततो जघन्यपदे असंख्येयाः उत्कृष्टपदे अनन्ताः, एवमप्कायिकस्य यावन्मनुष्यत्वे नेतव्य, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाना यथा असुरकुमारस्य, नवरं पुरस्कृतचिन्तायां सर्व स्वस्थाने एकत्तिरिकया वक्तव्यम्, परस्थाने यथा असुर-कुमारस्य सूत्रम्। सूत्रपर्यन्तं दर्शयति'जाव वेमाणियस्स वेमा-णियत्ते' इति-यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वेवैमानिकत्वविषयं सूत्रम्, एवमेते कषायसमुद्धातगताश्चतुर्विंशतिःचतुर्विंशतिसंख्याश्चतुर्विशतिदण्डकाः-२४ भणितव्याः / तदेवमुक्तश्वतुर्विशत्या चतुर्विशतिदण्डकसूत्रैः कषायसमुद्घातः। (6) सम्प्रति चतुर्विंशत्यैव चतुर्विंशतिदण्डकसूरैरिणान्तिकसमुद्घातमाहमारणंतियसमुग्घाओ सहाणे वि परट्ठाणे वि एगुत्तरियाए नेयव्वो० जाव वेमाणियस्य वेमाणियत्ते, एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा / (प्रज्ञा०) तेयगसमुग्घाए जहा मारणंतियसमुग्घाए, णवरं जस्सऽत्थि एवं एते वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणि-तव्वा / एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवझ्या आहा-रसभुग्धाया अतीता ? गोयमा ! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! णत्थि, एवं० जाव वेमाणियत्ते, नवरं मणूसत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा उक्कोसेणं तिन्नि,केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा कस्स अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं चत्तारि, एवं सव्वजीवाणं मणुस्साणं भाणियव्वं, मणू-सस्स मणूसत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्स-त्थि जहण्णेणं एको वादो वा तिणि वा उक्कोसेणं चत्तारि, एवं पुरेक्खडा वि, एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा० जाव वेमाणि-यत्ते / एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया केवलि-समुग्धाया अतीता? गोयमा! णत्थि, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! नत्थि, एवं० जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसत्ते अतीतानस्थि, पुरेक्खडा कस्सइ अत्थि कस्सइनस्थि, Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 443 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय जस्सत्थि इक्को, मणूसस्स मणूसत्ते अतीता कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि एक्को, एवं पुरेक्खडा वि। एवमेते चउ-वीसं चउवीसा दंडगा। (सू० 335) 'मारणतिए' त्ति-मारणान्तिकरसमुद्घातः पुरस्कृतचिन्तायां स्व-स्थाने परस्थाने वा एकोत्तरिकया नेतव्यो यावद्वैमानिकस्य वैमा निकत्वेवैमानिकत्वविषयं सूत्रम्-तच्चैवम्- 'एगमेगस्सणं भंते! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया मारणंतियसमुग्घाया अतीता ? गोयमा! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेण सखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणता वा' तत्र यो मारणान्तिक-समुद्घातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुद्वृत्तःअनन्तर पारम्पर्येण वा मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति न भूयो नरकगामी तस्य न सन्ति पुरस्कृता मारणान्तिकसमुद्घाताः, यः पुनस्तद्भवे वर्तमानो मारणान्तिकसमुद्धातेन कालं कृत्वा नरकादुद्वृत्तः सेत्स्यति तस्येकः पुरस्कृतो मारणान्तिकसमुद्धातः, यः पुनर्भूयोऽपि नरक मागत्य सर्वसंख्यया द्वौ मारणान्तिकसमुद्धातौ गन्ता तस्यद्वौ, एवं त्रिप्रभृतयोऽपि भावनीयाः, संख्येयान् वारान् नरकमागन्तुः संख्येयाः, असंख्येयान यारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः, एवमसुरकुमारत्वे आलापको वाच्यः, नवरमत्रैवं भावनायो नरकादुवृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य सेत्स्यति, यदिवा- तस्मिन् भवे मारणान्तिकसमुद्धातमगत्वा मृत्युमासाद्य ततोऽ-न्यभवे सिद्धि गन्ता तस्येव न सन्ति, शेषस्य त्वेकादिभावना प्रागिव, व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकेषु यथा नैरयिकस्य, (यथान-रयिकस्य) नैरयिकादिषु चतुर्विशतिस्थानेषु चिन्ता कृता तथा असुरकुमारादीनां वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण कर्तव्या, तदेवमन्यान्यपि चतुर्विशतिर्दण्डकसूत्राणि भवन्ति। तथा चाह'एवं एए चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा' इति. उक्तो मारणान्तिकसमुद्घातश्चतुर्विशतिदण्डकसूत्रैः / (वैकुटिवकसमुद्धातवक्तव्यता 'वेउब्वियसमुग्धाय' शब्दे षष्टे भागे गता।) सम्प्रति तैजससमुद्घातमतिदेशत आह– 'तेयगे त्यादि, तैजस-समुद्धातो यथा मारणान्तिकसमुद्घातस्तथा वक्तव्यः / किमुक्तं भवति? स्वस्थाने परस्थाने च एकोत्तरिकया स वक्तव्य इति, नवरं यस्य नास्ति-न सम्भवति तैजसमुद्घातस्तस्य न वक्तव्यः, तत्र नैरयिकपृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु न सम्भवतीति न वक्तव्यः, शेषेषु तु वक्तव्यः, स चैवम्- 'एगमेग-स्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते के वइया तेउसमुग्घाया अतीता ? गोयमा नत्थि, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! नत्थि, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयरस असुरकुमारत्ते के वइया तेयगरमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा अनन्ता वा' इत्यादिसूत्रोक्तं विशेषमुपजीव्य स्वयं परिभावनीयम् , अत्रापि सूत्र संख्यामाह- 'एव' मित्यादि, एवम्-मारणान्तिकसमुद्घातगतेन क्वचित् सर्वथा निषेधरूपेण च प्रकारेण एतेऽपि तैजससमुद्धात-गता अपि चतुर्विशतिः चतुर्विशतिका--दण्डका भणितव्याः। सम्प्रत्याहारकसमुद्धात चिन्तयन्नाह- 'एगमे गरस ण' मित्यादि, इह सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्तायामतीता जघन्यत-एको द्वौ वा उत्कर्षतस्त्रयश्च, पुरस्कृता जघन्यतएको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतश्चत्वारः,शेषेषु स्थानेषु अतीताः पुरस्कृताश्च प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च जघन्यत एको वा द्वौ वा त्यो वा उत्कर्षतश्चत्वारः। अवार्थे च कारणं प्रागेवोक्तम्, अत्रापि सूत्रसंख्यामाह- 'एव' मित्यादि, एवम्उपदर्शितेन प्रकारेण एते आहारकसमुद्धातविषयाश्चतुर्वि-शतिसंख्याका दण्डका वक्तव्याः, कियद्दूर यावदित्याह-याव-द्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रम्, तचैवम्-'एगमेगस्सणं भंते ! वेमाणियस्स वेमाणियत्ते केवइया आहार-समुग्घाया अतीता ? गोयमा ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा! नस्थि' इति / अधुना केवलिसभुद्धातमभिधित्सुराह-एगमेगरसणं भंते!' इत्यादि, अत्राप्ययं तात्पर्यार्थ:'सर्वेष्वपि स्थानेषु मनुष्यत्वचिन्ताव्यतिरेकेणातीताः पुरस्कृताश्च प्रतिषेद्धव्याः, मनुष्यवर्जेषु मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः प्रतिषेद्धव्याः,पुरस्कृतस्तु कस्याप्यस्ति कस्यापि नास्ति,यस्याप्यस्तितस्याप्येक एवेति वक्तव्यः, मनुष्यस्य मनुष्यत्वचिन्तायामतीतः कस्यापि- अस्ति करयापि नास्ति, यस्याप्यस्तितस्याप्येक एव एतच्च प्रश्नसमये केवलिसमुद्धातादुत्तीर्ण केवलिनमधिकृत्य, पुरस्कृतोऽपि कस्यापि अस्ति कस्यापि नास्ति, यस्याप्यस्ति तस्याप्येक इति वक्तव्यम् / अत्रापि सूत्रसंख्यामाह- 'एवमित्यादि एवम्-उपदर्शितेन प्रकारेण एते केवलिसमुद्धातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विंशतिसंख्याका दण्डका भवन्ति / तदेव सर्वसंख्यया एकत्वविषयाणां चतुर्विंशतिदण्डकसूत्राणामष्टषष्ट्यधिकशतं जातम् / एतावत्संख्याकान्येव बहुत्वविषयाण्यपि सूत्राणि भवन्ति। तान्युपदिदर्शयिषुराहनेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया वेदणासमुग्घाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! अणंता, एवं जाव वेमाणियत्ते, एवं सव्वजीवाणं माणितव्वं० जाव वेमाणि-याणं वेमाणियत्ते, एवं० जाव तेयगसमुग्घाए, णवरं उवउजिऊण नेयव्वं जस्सस्थिवेउव्वियतेयगा / नेरइयाणं मंते ! नेरइयत्ते के वइया आहारगसमुग्धाया अतीता? गोयमा! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! नत्थि, एवं जाव० वेमाणियत्ते, गवरं मणूसत्ते अतीता असंखेज्जा पुरेक्खडा असंखेज्जा एवं० जाव वेमाणियाणं / णवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीता अणंता पुरेक्खडा अणंता, मणूसाणं मणूसत्ते अतीता सिय संखेजा सिय असंखेजा, एवं पुरेक्खडा वि, सेसा सव्वे जहानेरइया, एवं एते चउवीसं चउदीसा दंडगा। नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया केवलिसमुग्धाया अ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 444 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय तीता ? गोयमा ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा? गोयम ! नत्थि, एवं० जाव वेमाणियत्ते, णवरं मणूसत्ते अतीता णत्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा, एवं० जाव वेमाणिया, नवरं वणस्सइकाइयाणं मणूसत्ते अतीता नत्थि, पुरेक्खडा अणंता, मणूसाणं मणूसत्ते अतीता सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि उक्कोसेणं सतपुहुत्तं, के वझ्या पुरेक्खडा? गोयमा! सिय संखेजा सिय असंखेज्जा, एवं एते चउव्वीसं चउव्वीसा दंडगा सव्वे पुच्छाए भणितव्वा जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। (सू० 336) 'नेरइयाण' मित्यादि, नैरयिकाणां विवक्षितप्रश्नसमयभाविनां सर्वेषां भदन्त ! पूर्व सकलमतीतं कालमवधीकृत्य यथासम्भव नैरयिकत्वे वृत्ताना सतां समुदयेन सर्वसंख्यया कियन्तो वेदना-समुद्धाता अतीताः ? भगवानाह--गौतम ! अनन्ताः, बहूनाभनन्तकालमसंव्यवहारराशेरुद्वृत्तत्वात्, कियन्तः पुरस्कृताः? एतच्च सूत्रं सूचामात्र, परिपूर्णस्तु पाठ एवम्-'नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवइया वेयणासमुग्घाया पुरेक्खडा?' इति। भगवानाह- गौतम ! अनन्ताः, बहूनामनन्तशो भूयोऽपि नरकेष्वागमनसम्भवात, एव' मित्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेणासुरकुमारत्वादिषु स्थानेषुक्रमेण तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वेवैमानिकत्वविषयं सूत्रम। तचेदम्- 'नेरइयाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया वेयणास-मुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! अणंता' इति, अत्र अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, सर्वसांव्यवहारिकजीवः प्रायोऽनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात्, पुरस्कृतास्त्वनन्ताः, प्रश्नसमयभाविना नैरयिकाणां मध्ये बहुभिरनन्तशो वैमानिक वस्य प्राप्स्यमानत्वात, एवमपान्तरालवर्तिष्वपि असुरकुमारत्वादिषु स्थानेषु भावना भावनीया, यथा च नैरयिकाणां नैरयिकत्वादिषु चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेणातीताः पुरस्कृताश्व वेदनासमुद्धाता भणिताः,एवं सर्वजीवानामसुरकुमारादीनां भणितव्याः, कियद् दूर यावदित्याह-यावद्वैमानिकानां वैमानिकत्वेवैमानिकत्वविषयाः, ते चैवम्- 'वेमाणियाणं भते! वेमाणियत्ते केवइया वेयणासमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयभा? अणंता' इति, एवं कषायमरणवै-क्रियतेजससमुद्धाता अपि नैरयिकादीनां वैमानिकपर्यवसानानां सर्वेषु नैरयिकत्वादिषु स्थानेषु चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्याः, तथा चाह- ‘एवं जावे' त्यादि, एवं-वेदनासमुद्धातगतेन प्रकारेण कषायादिसमुद्धाता अपि तावद्वक्तव्याः यावत्तेज-ससमुद्धातः, किमविशेषेण वक्तव्याः ? नेत्याह'नवर' मित्यादि, नवरमुपयुज्य--उपयोगं कृत्वा सर्व सूत्र बुद्ध्या नेतव्यम्। किमुक्तं भवति? -ये यत्र समुद्धाता घटन्ते ते तत्रातीताः पुरस्कृताश्च अनन्ता वक्तव्याः, शेषेषु च स्थानेषुप्रतिषेद्धव्याः। एतदेव वैविक्त्येनाह'जरस अत्थी' त्यादि, यस्य जीवराशेर्ने -रयिकादेरसुरकुमारादेश्च सन्ति वैक्रियतैजसमुद्घातास्ते तस्य वक्तव्याः शेषेषु पृथिव्यादिषु स्थानेषु प्रतिषेद्धव्या इति सामर्थ्य-लभ्यम, कषायमारणान्तिकसमुद्घाताः पुनः | सर्वत्रापि वेदना-समुद्घातवदाविशेषणातीताः, पुरस्कृताश्वानन्ता वक्तव्याः, नतु कापि निषेद्धव्याः / सम्प्रति आहारसमुद्भातविषयं सूत्रमाह- 'नरइयाण' मित्यादि, आहारकसमुद्धातो ह्याहारकलब्धौ सत्या-माहारकशरीरप्रारम्भकाले भवति, नान्यथा आहारकलब्धिश्वोपजायते, चतुर्दशपूर्वाधिगमे तेषां चतुर्दशानां पूर्वाणामधिगमो मनुष्यत्वावस्थायां नशेषायामवस्थायामिति मनुष्यत्ववर्जासु शेषास्ववस्थास्वतीताना पुरस्कृतानां चाहारकसमुद्धाताना प्रतिषेधः, मनुष्यत्वावस्थायामपि पूर्वमतीता असंख्येयाः,प्रश्नसमयभाविना नारकाणां मध्ये बहूनामसंख्येयाना नारकाणां पूर्व तदा तदा मनुष्यत्वमवाप्य अधिगतचतुर्दशपूर्वाणां प्रत्येकं सकृद् द्वि-विर्वा कृताहारकसमुद्धातत्वात्, पुरस्कृता अपि असंख्येयाः प्रश्नसमयभाविनां नारकाणा मध्ये बहुभिरसंख्येयारकैर्नरका-दुद्वृत्त्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा तदा मनुष्यत्वावाप्तौ चतुर्दश पूर्वाण्यधीत्य प्रत्येकमाहारकसमुधवातानामेकशो द्विस्त्रिश्चतुर्वा करिष्यमाणत्वात्, ‘एवं जाववेमाणियाण मिति, नैरयिकाणां चतु-विशतिदण्डक क्रमेण चिन्ता कृता, एवमसुरकुमारादीनामपि प्रत्येक चतुर्विशतिदण्डकामेण तावद्वक्तव्या यावद्वैमानिकाना, केवल यत्रास्ति विशेपस्तं दर्शयति-'नवर' मित्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकान। मनुष्यत्वचिन्तायामतीताः पुरस्कृताश्च प्रत्येक-मनन्ता वक्तव्याः, अनन्तानां पूर्वमधिगतचतुर्दशपूर्वाणां यथा-योगमेकशो द्विस्त्रिा कृताहारकसमुद्धातानां वनस्पतिष्ववस्थानात् अनन्तरमेव वनस्पतिकायादुद्वृत्त्यानन्तर्येण पारम्पर्येण वा मानुषत्वमवाप्य यथायोगमेकशी द्विरित्रश्चतुर्वाऽऽहारकसमुद्घातानां निर्वर्तयिष्यमाणत्वात, मनुष्याणा मनुष्यत्वावस्थायामतीताः पुरस्कृताश्च स्यात्संख्येयाः स्यादसंख्येयाः, कथमिति चेत्, उच्यते-ते हि प्रश्नसमयभाविनः उत्कर्षपदेऽपि सर्वस्तोकाः, श्रेण्यसंख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, ततो विवक्षितप्रश्नसमयभाविना मध्ये कदाचिदसंख्येयाः यथायोगं प्रत्येकमेकशो द्विरित्रश्चतुर्वा कृतकरिष्यमाणाहारकसमुद्घाताः प्राप्यन्ते / उपसंहारमाह- 'एव' मित्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण एते आहारकसमुद्धातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विशतिसंख्याका दण्डका वक्तव्याः! सम्प्रति केवलिसमुद्घातं चिन्तयति-'नरइयाण' मित्यादि, केवलिसमुद्घातोऽपि मनुष्यत्वावस्थायां भवति, न शेषास्ववस्थासु, नच कृतकेवलिसमुद्घातःसंसारं पर्यटति, केवलिसमुद्घातानन्तरमन्तरमुहूर्तेनावश्यं निःश्रेयसपदाधिगमात,ततो नारकाणां मनुष्यत्ववर्जासु शेषास्ववस्थास्वतीताः पुरस्कृताश्च केवलिसमुद्घाताः प्रतिषेशव्याः, मनुष्यत्वावस्थायामप्यतीताः प्रतिषेद्धव्याः, कृतके वलिसमुद् - धातानां नरके गमनाभावात्, भाविनश्च भवष्यिन्ति, प्रश्नसमयभाविना मध्ये बहूनामसंख्येयानां नारकाणां मुक्तिपदगमनयोग्यत्वात्, ततः पुरस्कृता असंख्येया इत्युक्तम्, ‘एव' मित्यादि, यथा नैरयिकाणां केवलिसमुद्घातचिन्ता कृता एवमसुरकुमारादीनामपि कर्तव्या, सा च तावत् यावत् वैमानिकानाम् / अत्रैव विशेषमाह- 'नवर' मि Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 445 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय त्यादि, नवरं वनस्पतिकायिकानां मनुष्यत्वावस्थाचिन्तायामतीताः प्रतिषेव्याः, कृतकेवलिसमुद्धाताना संसाराभावात्, पुरस्कृतास्त्वनन्ता वाव्याः,प्रश्नसमयभाविनां वनस्पतिकायिकानां मध्ये बहूनामनन्ताना वनस्पतिकायिकानां वनस्पतिकायादुवृत्यानन्तर्यण | पारम्पर्येण वा कृतकेवलिसमुद्धाताना सेत्स्यमानत्वात्, मनुष्याणां मनुष्यत्वावस्थाचिन्तायामतीताः कदाचित्सन्ति कदाचिन्न सन्ति, कृतकेवलिसमुद्घाताना सिद्धत्वभावादन्येषां चाद्यापि केवलिसमुद्धाताप्रतिपत्तः, यदाऽपि सन्ति तदाऽपि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः शतपृथक्त्वं, पुरस्कृताः स्यात्संख्येयाः स्यादसंख्येयाः, प्रश्नसमयभाविनां मनुष्याणां मध्ये कदाचित्संख्येयानां कदाचिदसंख्येनां यथायोगभानन्तर्येण पारम्पर्येण कृतकेवलिसमुद्धाताना सेत्स्यमानत्यात् / स्त्रसर्वसंख्यामाह-एवमुक्तेन प्रकारेण एते केवलिसमुद्भातविषयाश्चतुर्विशतिश्चतुर्विशतिदण्डकाः, तेच सर्वेऽपि पृच्छायां पृच्छापुरस्सरं भणितव्याः, कियडूरं यावदित्याह-वैमानिकानां वैमानिकत्वविषयं सूत्रम् / तच्चेदम् - 'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया केवलिसनुग्धाया अतीता ? गोयमा ! नत्थि, केवइया पुरेक्खडा ? गायमा ! नत्थि' इति / तदेवमुक्ता नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेष्येकत्वविशिष्टेषु बहुत्वविशिष्टषु च भूतभाविवेदनादिसमुद्धातसम्भवाऽसम्भवपुररसरं संख्याप्रमाणप्ररूपणा। (8) सम्प्रति तेन तेन समुद्घातेन यावत् केवलिसमुद्घातेन समुद्घातानामसमुद्घातानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुराहएतेसि णं भंते ! जीवाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणं तियसमुग्घाएणं वेउव्वियसमुग्धाएणं तेयगसमुग्धारणं आहारगसमुग्घाएणं केवलिसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसमुग्धाएणं समोहया के वलिसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा तेयगसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखेहुगुणा मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया अणंतगुणा कसायसमुग्घाएणं समोहया असंखिजगुणा वेदणासमुग्घाएणं विसेसाहिया असमोहया असंखिजगुणा। (सू०३३७) एतेसि णं भंते ! नेर--- इयाणं वेदणासमुग्धाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमु० वेउव्वियस० समोहयाणं असभोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइया मारणंतियसमुग्गाएणं समोहया वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखिजगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखिज्जगुणा,वेदणासमुग्धाएणं समोहया | संखिज्जगुणा असमोहया संखेजगुणा / एतेसि णं भंते! असुरकुमाराणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउव्वियसमुग्घाएणं तेयगसमुग्धाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा असुरकुमारा तेयगसमुग्धाएणं समोहया मारणंति-- यसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा वेदणासमुग्घाएणं समोहया असंखिजगुणा कसायसमुग्घाएणं समोहया संखिजगुणा वेउ-- व्वियसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा असमोहया असंखिज्ज-- गुणा एवं० जाव थणियकुमारा / एएसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंति यसमुग्धाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४? गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया संखिजगुणा वेदणासमुग्घाएणं समोहया विसे साहिया असमोहया असंखिज्जगुणा, एवं० जाव वणस्सइकाइया, णवरं सव्वत्थोवा वाउकाइया वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा कसायसमुग्घारणं समोहया संखिजगुणा वेदणासमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया असमोहया असंखेज्जगुणा / वेइंदिया णं भंते ! वेदणासमुग्धारणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्धारणं समोहयाणं असमोह-- याण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वथोवा बेइंदिया मारणंतियसमुग्वाएणं समोहया वेदणासमुग्धाएणं समोहया असंखेजगुणा कसायसमुग्घायएणं समोहया असंखेजगुणा असमोहया संखेनगुणा, एवं० जाव चउरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहया कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्धाएणं वेउव्वियसमुग्धाएणं तेयासमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा पंचिन्दियतिरिक्खजोणिया तेयासमुग्घाएणं समोहया वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखिज्जगुणा मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखिज्जगुणा वेदणासमुग्धाएणं समोहया असंखिज्जगुणा कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा असमवहता संखेजगुणा। मणुस्साणं मंते! वेदणासमुग्धाएणं समोहयाणं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउव्वियसमुग्घाएणं तेयगसमुग्धाएणं आहारगसमुग्घाएणं केवलिसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा०४ ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा आहारगसमुग्धाएणं समोहया केवलिसमुग्घाएणं समोहया संखिज्जगुणा तेयगसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहया Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय संखेज्जगुणा भरणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेजगुणा वेदणासमुग्घाएणं समे हया असंखेज्जगुणा कसायसमुग्धाएणं समो-- हया संखेनगुणा समोहया असंखेज्जगुणा वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं / (सू०३३८) 'एएसिण' मित्यादि, एतेषां प्राक् समवहताऽसमवहतत्वेन निरूपिताना भदन्त ! सामान्यतो जीवाना वेदनासमुद्धातेन यावत् केवलिसमुद्धातेन समवहतानामसमवहतानां च मध्ये कतरे कतरेभ्योऽल्याः कतरे करतेभ्यो बहुका:-संख्येयाऽसंख्येयादिगुणतया प्रभूताः,कतरे कतरैस्तुल्याः समसंख्याकाः / अत्रार्थे सूत्रे विभक्तिपरिणामः स्वयं योजनीयः,कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिकामनागधिकाः, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः,भगवानाह-गौतम! सर्वस्तोका जीवा आहारकसमुद्धातेन समुद्धताः, आहार-कशरीरिणो हि कदाचिदिहलोके षण्मासान यावन्न भवन्त्यपि यदापि भवन्ति तदापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, केवलमाहारकसमुद्घात आहारकशरीरप्रारम्भकाले न शेषकालं ततः स्तोका एव युगपदाहारकसमुद्घाताः प्राप्यन्ते इति सर्वस्तोका आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः,तेभ्यः केवलिसमुद्घातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, तेषामेककाल शतपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात्, यद्यप्याहारकशरीरिणः सत्तया समकालम् एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वमानाः प्राप्यन्ते तथाप्या (पि स्तोकानामा) हारकसमुद्घातसम्भवात् एककालमतिस्तोकाः प्राप्यन्ते इति न तेभ्यः केवलिसमुद्घातसमुद्धताना संख्येयगुणत्वविरोधः, केवलिसमुद्घातसमुद्धतेभ्यः तैजससमुद्घातेन समवहता:? असंख्येयगुणाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां देवानामपि च तैजससमुद्घातसम्भवात्, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः नारकवातकायिकानामपि वैक्रियसमुद्घातसम्भवात्, वातकायिकाश्च वैक्रियलब्धिमन्तो न स्तोकाः किन्तु देवेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः / कथमेतदिति चेत्, उच्यते-इह बादरपर्याप्तवायुकायिकाः स्थलचरपञ्चेन्द्रियेभ्योऽसंख्येयगुणाः, महादण्डके तथा पठितत्वात्, स्थलचरपञ्चेन्द्रियाश्च देवेभ्योऽप्यसंख्येयगुणाः, ततो यद्यपि बादरपयप्तिवायुकायिकानां संख्येयभागमात्रस्य वैक्रियलब्धिसम्भवः / यत उक्तम्- "तिण्ह ताव रासीणं वउव्वियलद्धी चेव नत्थि, बायरपज्जत्ताणं पि संखेजइभागमेत्ताणं" ति, तथापि संख्येयभागमात्रा वैक्रियलब्धिमन्तो देवेभ्योऽप्यसंख्येयगुणा भवन्ति, ततो नैरयिकाणां वायुकायिकानां च वैक्रियसमुद्घातसम्भवादुपपद्यन्ते तैजससमुद्घातसमुद्धतेभ्यो वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धता अनन्तगुणाः, कथम् ? उच्यते, इह निगोदजीवानामनन्तानामसंख्येयो भागः सदा विग्रहतौ वर्तमानः प्राप्यते, ते च प्रायो मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धता इति पूर्वेभ्योऽनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातसमुद्धता असंख्येयगुणाः, निगोदजीवानामवानन्तानां विग्रहगत्यापन्नेभ्योऽसंख्येयगुणानां कषायसमुद्घातसमुद्धतानां सदा प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता विशेषाधिका, तेषामेव निगोदजीवानामनन्तानां कषायसमुद्घातसमुद्धतेभ्यो मनाक् विशेषाधिकानां सदा वेदनासमुद्घातेन समुद्धततयाऽवाप्यमानत्वात्, तेभ्योऽपि एकेनापि समुद्घातेनासमुद्धता असंख्येयगुणाः, वेदनाकषायमरणसमुद्घातसमुद्धतेभ्यो निगोदजीवानामेवासंख्येयगुणानामसमवहतानां सदा लभ्यमानत्वात् / सम्प्रत्येतदेवाल्पबहुत्वं जीवविशेषेषु नैरयिकादिषु चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण यथायोगं चिचिन्तयिषुराह'नेरइयाण' मित्यादि प्रश्नसूत्र, भगवानाह-सर्वस्तोका नैरयिका मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः, मारणान्तिको हि समुद्धातो मरणकाले भवति, मरणं च शेषजीवन्नारकराश्यपेक्षयाऽतिस्तोकाना, न च सर्वेषां नियमाणानामविशेषेण मारणान्तिकसमुद्घातः, किन्तु कतिपयानाम्, 'समोहया वि मरति असमोहया वि मरंती' ति वचनात्। अतः सर्वस्तोका मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धताः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्धालेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः, सप्तस्वपि पृथिवीषु प्रत्येक बहूनां परस्परवेदनोदीरणाय निरन्त-रमुत्तरवैक्रियसमारम्भवसम्भवात् तेभ्योऽपि कषायसमुद्धातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, कृतोत्तरवैक्रियाणामकृतोत्तरवैक्रियाणां च सर्वसंख्ययोत्तरवैक्रियारम्भकेभ्योऽसंख्येयगुणानां कषायसमुद्घातसमुद्धतत्वेन प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्धातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, यथायोग क्षेत्रजपरमाधार्मिकोदीरितपरस्परोदीरितवेदनाभिः प्रायो बहूनां सदा समुद्धतत्वेन प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽप्येकेनापि समुद्धातेनासमवहताः संख्येयगुणाः, वेदनासमुद्धातमन्तरेणाप्यतिबहूनां सामान्यतो वेदनामनुभवतां सम्भवात् / सम्प्रत्यसुरकुमाराणामल्पबहुत्वमाह-एएसिण' मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, भगवानाह-- गौतम! सर्वस्ताकाः असुरकुमारास्तैजससमुद्घातेन समुद्धताः, तैजसो हि समुद्धातो महति कोपावेशे क्वचित् कदाचित्केषाञ्चिद्भवति, ततस्तेन समुद्धातेन समुद्धताः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो मारणान्तिकसमुद्घातेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः, तेभ्योवेदनासमुद्धातेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः, परस्परं युद्धादौ बहूनां वेदनासमुद्घातेन समुद्धतानां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽपि कषायसमुद्घातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, येन तेन वा कारणेन बहूनां कषायसमुद्धातगमनसम्भवात्, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्धातेन समुद्धता संख्येयगुणाः, परिचारणाद्यनेकनिमित्तमतिबहूनामुत्तरवैक्रियकरणाराम्भसम्भवात्, तेभ्योऽप्यसमवहता असंख्येयगुणाः बहूनामुत्तमजातीनां सुखसागरावगाढाना पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणानां केनापि समुद्धातेनासमवहतानां सदा लभ्यमानत्वात्। एव' मित्यादि, यथा असुरकुमाराणामल्पबहुत्वमुक्तमेवं सर्वेषा भवनपतीनां द्रष्टव्यं, यावत् स्तनितकुमाराणामिति / / सम्प्रति पृथिवीकायिकगतमल्पबहुत्वमाह-'एएसि ण मित्यादि, अत्र कषायसमुद्घातसमद्धताना Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 447 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय वेदनासमुद्धातसमुद्धतानां च संख्येयगुणत्वे असमवहताना चासं-- ख्येयगुणत्वे भावना स्वयं भावनीया सुगमत्वात्, ‘एव' मित्यादि, पृथिवीकायिकगतेन प्रकारेणाल्पबहुत्वंतावद्वक्तव्यं यावद्वनस्पतिका-यिकाः, वायुकायिकान् प्रति विशेषभिधित्सुराह-'नवर' मित्यादि, नवरं वातकाविकानामल्पबहुत्वचिन्तायामेवं वक्तव्यं सर्वस्तोका वातकापिका वैक्रियसमुद्धातेन समुद्धताः, बादरपर्याप्तसंख्येयभागस्य वैक्रियलब्धेः सम्भवात, तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्धातेन समुद्धता असंख्येयगुणाः, पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरभेदभिन्नानां सर्वेषामपि वातकायिकानां मरणसमुद्धातसम्भवात् तेभ्योऽपि कषायसमुद्धातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्धातेन समुद्धता विशेषाधिकाः, तेभ्योऽसमबहता असंख्येयगुणाः, सकलसमुद्धातगतवातकायिकापेक्षया स्वभावस्थानां वातकायिकानां स्वभावत एवासंख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात्। द्वीन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकाः द्वीन्द्रिया मारणान्तिकसमुद्धातेन समुद्धताः, प्रतिनियतानामेव प्रश्नसमये मरणसद्भावात्, तेभ्यो वेदनासमुद्धातेन समुद्धता असंख्येयगुणाः, शीतातपादिसम्पर्कतोऽतिप्रभूतानां वेदनासमुद्धातभावात, तेभ्यः कषायसमुद्धातेन समुद्धता असंख्येयगुणाः, अतिप्रभूततराणां लोभादिकषायसमुद्धातभावात्. तेभ्योऽप्यसमवहताः संख्येयगुणाः, 'एव' मित्यादि, एवं द्वीन्द्रियगतेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावचतुरिन्द्रियाः / तिर्यपञ्चेन्द्रियसूत्रे सर्वस्तोकास्तैजससमुद्धातेन समुद्धताः, कतिपयानामेव तेजोलब्धिभावात्, तेभ्यो वेदनासमुद्धातेनासमवहता असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्धातेन समवहताः असंख्येयगुणाः, प्रभूतानां वैक्रियलब्धेर्भावात, तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्घातन समवहता असंख्येयगुणाः, सम्मूछिमजलचरस्थलचरखचराणामपि सर्वेषां वैक्रियलब्धिरहिताना प्रत्येक पूर्वोक्तेभ्योऽसंख्येयगुणानां केषाश्चित् गर्भजानामपि वैक्रियलब्धिरहितानां वैक्रियलब्धिमतां च मरणसमुद्घातसम्भवात्, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्घातेन समुद्धता असंख्येयगुणाः, म्रियमाणजीवराश्यपेक्षया अपि अम्रियमाणानामसंख्येयगुणाना वेदनासमुद्घातभावात्,तेभ्यः कषायसमुद्घातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यसमवहताः संख्येयगुणाः। अत्र भावना प्रागिव मनुष्यसूत्रे सर्वस्तोका आहारकसमुद्घातेन समुद्धताः, अतिस्ता कानामककालमाहारकशरीरप्रारम्भसंभवात्, तेभ्यः केवलिसमुद्घातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, शतपृथक्त्वसंख्यया प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्यस्तैजससमुद्धातेन समवहताः संख्येयगुणाः, शतसहस्रसंख्यया तेषां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽपि वैक्रियसमुद्घातेन समुद्धताः संख्येयगुणाः, कोटिसंख्यया लभ्यमानत्वात्, तेभ्योऽपि मारणान्तिकसमुद्धातेन समवहता असंख्येयगुणाः समूर्छिममनुष्याणामपि तद्भावात् तेषां चासंख्येयत्वात्, तेभ्योऽपि वेदनासमुद्धातेन समुद्धताः असंख्येयगुणाः म्रियमाणराश्यपेक्षया असंख्येयगुणानाममियमाणानां तद्भावसम्भवात्. तेभ्यः कषायसमुद्धातेन समुद्धताः संख्यगुणाः, प्रभूततया तेषां प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्योऽप्यसमवहता असंख्येयगुणाः, सम्मूछिममनुष्याणामल्पकषायाणमुत्कटकषायिभ्योऽसंख्येयगुणानां सदा लभ्यमानत्वात्।व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका यथा असुरकुमारास्तथा वक्तव्याः / तदेवमुक्तं समुद्धताऽसमुद्धतविषयमल्पबहुत्वम्। (E) अधुना कषायसमुद्धातगतां विशेषवक्त व्यतामभिधित्सुराहकति णं भंते ! कसायसमुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-कोहसमुग्घाए माणसमुग्घाए मायासमुग्घाए लोहसमुग्घाए। नेरइयाणं भंते ! कति कसायसमुग्घाया पण्णत्ता, गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्घाया पण्णत्ता, एवं० जाव वेमाणियाणं / एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स केवइया कोहसमुग्धाया अतीता? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असं--- खेजा वा अणंता वा,एवं० जाव वेमाणियस्स, एवं जाव० लोभसमुग्घाए एते चत्तारि दंडगा। नेरइयाणं भंते ! केवइया कोहसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणंता, केवड्या पुरेक्खडा ? गोयमा ! अणंता, एवं जाव वेमाणियाणं एवं० जाव लोभसमुग्घाए, एवं एए वि चत्तारि दंडगा। एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणंता एवं जहा वेदणासमुग्घाओ भणितो तहा कोहसमुग्घातो वि निर-- वसेसं० जाव वेमाणियत्ते। माणसमुग्धाएमायासमुग्धाए विनिरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्धाए, लोहसमुग्धातो जहा कसायसमुग्घातो नवरं सव्वजीवा असुरादिनेरइएसु मोहकसाएणं एगुत्तरियाए नेयव्वा / नेरइयाणं भंते? नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणंता,केवइया पुरेक्खड़ा ? गोयमा! अणंता, एवं 0 जाव वेमाणियत्ते, नवं सहाणपरट्ठाणेसु सव्वत्थ भाणियव्या, सव्वजीवाणं चत्तारि विसमुग्धाया.जावलोभस--- मुग्घाओ 0 जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते / (सू०३३६)। 'कइण' मित्यादि, इद सामान्यतः कषायसमुद्धातविषयं चतुर्विशतिदण्डकक्रमगतं च सूत्रं सुप्रतीतं, सम्प्रत्येकैकस्य नैरयिकादेश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वैमानिकपर्यवसानस्य तद्ववक्तता-माह'एगमेगस्स णं भंते !' इत्यादि, अत्रातीतसूत्रं सुप्रतीतम्, पुरस्कृतसूत्रे'कस्सइ अतिथ करसइ नत्थि' त्ति-यो नरकभव-प्रान्ते वर्तमानः स्वभावत एवाल्पकषायः कषायसमुद्धातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुदवृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य कषायसमुद्धातमगत एव सेत्स्यति तस्य नास्ति पुरस्कृत एकोऽपि कषायसमुद्धातो, यस्यापि सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा.ते च प्रागुक्तस्वरूपस्य सकृत्कषायसमुदघातगामिनो वेदितव्याः, उत्कर्षतः संख्यया असंख्येया Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 448 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय अनन्ता वा,तत्र संख्येयं कालं संसारावस्थायेनः संख्येयाः, असंख्येयं कालमसंख्येयाः, अनन्तकालमनन्ताः / एवमसुरकुमारादिक्रमेण तावद वाच्यं यावद्वैमानिकस्य, 'एव' मित्यादि, एवं-चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण मानादिकषायसमुद्घातसमुद्धतास्तावद्वक्तव्या यावल्लोभसमुद्धातः / एवमेते चत्वारः चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति, एते चैकैकनैरयिकादिविषया उक्ताः / सम्प्रत्येतानेव चतुश्चतुर्विशतिदण्डकान् सकलनारकादिविषयानाह-- 'नेरइयाण' मित्यादि, अतीतसूत्रं सुप्रतीतं, पुरस्कृता अनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां नारकाणां मध्ये बहूनामनन्तकालमवस्थायित्वात्। एवं-नैरयिकोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकानां यथा चैषः क्रोधसमुद्धातश्चतुर्विशतिदण्डकक्रमेणोक्तः एवं मानदिसमुद्धाता अपितावद्द्वक्तव्या यावल्लोभसमुद्घातः / एवमेतेऽपि सकलनारकादिविषयाश्चत्वारश्चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति। साम्प्रतमेकैकस्य नैरयिकादे रयिकादिषु भावेषु वर्तमानस्य कतिक्रोधसमुद्धाता अतीताः कति भाविन इति निरूपयितुकाम आह'एगमेगस्स ण' मित्यादि, एकैकस्य भदन्त ! नैरयिकस्य विवक्षि-- तप्रश्नसमयकालात् पूर्व सकलमतीत कालमवधीकृत्य तदा तदाऽस्य नैरयिकत्वं प्राप्तस्य सतः सर्वसंख्यया कि यन्तःक्रोधसमुद्धाता अतीताः ? भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, नरकगतेरनन्तशः प्राप्तवात्, एककस्मिँश्च नरकभवे जघन्यपदेऽपि संख्येयानां क्रोधसमुद्धातानां भावात्, 'एवं जहे' त्यादि, एवमुपदर्शितेन प्रकारेण यथा वेदनासमुद्धातः प्राग भणितस्तथा क्रोधसमुद्धातोऽपि भणितय्यः, कथं भणितव्यः ? इत्याह-निरवशेष, क्रियाविशेषणमेतत्, सामस्त्येनेत्यर्थः / कियडूर यावद् भणितव्यमित्याह-यावद् वैमानिकत्वे, वैमानिकस्य वैमानिकत्व इत्यालापकम्। यावदित्यर्थः, स चैवम्- 'केवइया पुरेक्खडा? गोयमा। कस्सइ अत्थि कस्सइनस्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उन्मोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा,एवम–सुरकुमारत्ते० जाव वेमाणियत्ते, 'एगमेगस्सणं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तत्थ सिय संखेज्जा सिय असखेजा सिय अणंता / एव-मेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवइया कोहसमु-ग्घाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थिजस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेण संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवं नागकुमारत्ते० जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा असुरकुमारेसुनेरइया वेभाणियपजवसाणेसु भणिया तहा णागकुमारादिया सट्ठाणपरहाणेसु भाणियव्वा० जाव वेमाणियत्ते' इति, अस्यार्थः--कियन्तो भदन्त ! एकैकस्य नारकस्यासंसारमोक्षमनन्तं कालं मर्यादीकृत्य नरयिकत्वे भाविनः स(न्तः)तः सर्वसंख्यया पुरस्कृताः क्रोधसमुद्धाता ? | भगवानाह– 'कस्सइ अत्थि' इत्यादि, य आसन्नमरणः क्रोधसमुदा- | तमनासाद्यात्यन्तिकमरणेन नरकादुवृत्तः सेत्स्यति तस्य नास्ति नैरयिकत्वभाविन एकोऽपि पुरस्कृतः क्रोधसमुद्धातः, शेषस्य तु सन्ति। यस्यापि सन्ति तस्थापि जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा,एतच क्षाणशषायुषां तद्भवस्थानां भूयो नरकेषु उ (ध्वनु) त्पद्यमानानां वेदितव्यं, भूयो नरके षूत्पत्तो हि जघन्यपदेऽपि संख्येयाः प्राप्यन्ते, नैरयिकाणां क्रोधसमुद्धातप्रचुरत्वात्, उत्कृर्षतः संख्येया वा असंख्येथा वा अनन्ता वा / तत्र सकृन्नरकेषु जघन्यस्थितिकेषूत्पपत्स्यमानस्य संख्येया अनेकशः, यदि वा- दीर्घस्थितिकेषु सकृदपि उत्पत्स्यमानस्यासंख्येयाः, अनन्तशः उत्पत्स्यमानस्यानन्ताः, 'एव' मित्यादि, एवं नैरयिकोक्तप्रकारेणासुरकुमारत्वे तदनन्तरं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वविषय सूत्रम्, तचैवम्- 'एगमेगस्सण मंते! नेरइ-यरस वेमाणियत्ते केवइया कोहसमुग्घाया अईया ? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा' अत्राप्ययं भावार्थः-अतीत-चिन्तायामनन्ताः, अनन्तशो वैमानिकत्वस्य प्राप्तत्वात्, पुरस्कृतचिन्ताया योऽनन्तरभवे नरकादुवृत्तो मानुषत्वमवाप्य सेत्स्यति, प्राप्तौ वा परम्परया सकृद्वैमानिकभवं न क्रोधसमुद्धातं गन्ता तस्यैकोऽपि पुरस्कृतः क्रोधसमुसालो वैमानिकत्वे न विद्यते, यस्त्वसकृद्वैमानिकत्वं प्राप्तः सन् सकृदेव क्रोधसमुद्धातं याता तस्य--जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा, शेषस्य संख्यातान वारान वैमानिकत्वं प्राप्स्यतः संख्येयाः,असंख्येयान वारान् असंख्येयाः, अनन्तान वारान् अनन्ताः / 'एगमेगस्स ण' मित्यादि प्रश्नसूत्रे सुगम, 'गोयमा ! अणंता' इति, अनन्तशो नैरयिकत्वे प्राप्तस्य, एकैकरिमँश्च नैरयिकभवे जघन्यपदेऽपि संख्येयानां क्रोधसमुद्धाताना भावात, पुरस्कृताः कस्यचित्सन्तिकस्यचिन्न सन्ति। किमुक्तं भवति? योऽसुरकुमारभवादुद्वृत्तो न नरकं या-स्यति किन्त्वनन्तरं परम्परया वा मनुष्यभवमवाप्य सेत्स्यति तस्य नैरयिकावस्थाभाविनः पुरस्कृताः क्रोधसमुद्धाताः न सन्ति नैरयिकत्वावस्थाया एवासम्मवात, यन्तु तद्भवादूर्ध्व पारम्पर्येण नरकगामा तस्य सन्ति, तस्यापि कस्यचिसंख्येयाः, कस्यचिद-संख्येयाः, कस्यचिदनन्ताः। तत्र यः सकृजघन्यस्थितिकेषु नरकमध्येषु समुत्पत्स्यते तस्य जघन्यपदेऽपि संख्येयाः दशवर्षसहस्रप्रमाणायामपि स्थितौ संख्येयानां क्रोधसमुद्धातानां भावात् क्रोधबहुलत्वान्नारकाणाम्, असकृद्दीर्घस्थितिषु सकृद्धा गमनेऽसंख्येयाः, अनन्तशो नरकगमनेऽनन्ताः। तथा एकैकस्य भदन्त ! असुरकुमारण असुरकुमारत्वे स्थितस्य सतः सकलमतीतकालमधिकृत्य कियन्तः क्रोधसमुद्धाता अतीताः? भगवानाह–अनन्ताः अनन्तशोऽसुरकुमारभावस्य प्राप्तत्वात, प्रति-भवं च क्रोधसमुद्धातस्य प्रायो भावात्, पुरस्कृतचिन्तायां कस्यापि सन्ति कस्यापिन सन्ति, यस्य प्रश्नकालादूर्ध्वमसुरकुमारत्वेऽपि वर्तमानस्य न भावी क्रोधसमुद्धातो नापि तत उद्वृत्तो भूयोऽप्य-सुरकुमारत्वं याता तस्य न सन्ति,यस्तु सकृदसु Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 446 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय रकुमारत्वमागामी तस्य जघन्यपदे एको वा द्वौ वा त्रयो वा उत्क-र्षतः संख्येया असंख्येया अनन्ता वा, संख्येयान् वारान् आगा-मिनः संख्येयाः, असंख्येयान्वारान असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः / एवं चतुर्विशतिदण्डकक्रमण नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु असुरकुमारस्य निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकत्वे, तथा चाह- ‘एवं नागकुमारत्ते वी' त्यादि, तदवमसुरकु मारेषु क्रोधसमुद्धातश्चिन्तितः / / सम्प्रति नागकुमारादिष्वतिदेशमाह--'एव' मित्यादि, एवमुक्तेनाभिलापगतेन प्रकारेण यथा चतुर्विंशतिदण्डकक्रमेण असुरकुमारो नैरयिकादिषु वैमानिकपर्यवसानेषु भणितः तथा नागकुमारादयः समस्तेषु स्वस्थानपरस्थानेषु भणितव्याः यावद्वैमानिकस्य वैमानिकत्वे आलापकः, एटमेतानि नैरपिकचतुर्विशतिदण्डकादिसूत्राणि वैमानिकचतुर्विशतिदाङपर्यवसानानि चतुर्विंशतिः सूत्राणि वेदितव्यानि / तदेवं चतुविशतिदण्डकसूत्रैः क्रोधसमुद्घातश्चिन्तितः / / सम्प्रति चतुर्विशत्यैव चतुर्विशतिदण्डकसूत्रेनिसमुद्धातं मायासमुद्धात चाभिधित्सुरतिदेशमाह- 'माणसमुग्घाए मायासमुग्घाए निरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्घाए' इति -यथा-प्राक् मारणान्तिकसमुद्भातेऽभिहितं सूत्रं तथा मानसमुद्धाते मायासमुद्धाते च निरवशेषमभिधातव्यम् / तचैवम्'एगमेगस्सण भते! नेरझ्यस्स नेरइयत्ते केवइया माणसमुग्घाया अईया ? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहण्णेण एको वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा, एवमसुरकुमारते०जावा वेमाणियत्ते, एगमेगस्सणं भते! असुरकुमारस्स नेरइयत्ते केवइया माणसमुग्घाया अतीता? गोयमा ? अणता,केवइया पुरेक्खड़ा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जरसत्थिजहण्णेण एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेण संखेज्जा वा असंखेजा वा अणता वा,एवं नागकुमारत्ते०जाव वेमाणियत्ते, एवं जहा असुरकुमारे नेरइया वेमाणियपज्जवसाणेसु भणिया तहा नागकुमाराइया राहाणपरहाणेसु भाणियव्वा जावेमाणियस्स वेभाणियत्ते अस्यायमर्थः-अतीतेषु सूत्रेषु सर्वत्राप्यनन्तत्वं सुप्रतीतं, नैरयिकत्वादिस्थानानि प्रत्येकमनन्तशः प्राप्तत्वात्, पुरस्कृतचिन्तायां त्वेव नैरयिकस्य नरयिकत्वे भावना-यो नैरयिकः प्रश्नकालादूर्ध्व मानसमुद्धातमन्तरेण कालं कृत्वा नरकादुवृत्तोऽनन्तरं पारम्पर्येण वा मनुष्यभवमवाप्य सत्स्यतिन भूयो नरकमागन्ता तस्य न सन्ति पुरस्कृता मानसमुद्धाताः, यः पुनस्तद्भवे वर्त्तमानो भूयो वा नरकमागत्यैकं वारं मानसमुद्धातं गत्वा कालकरणेन नरकादुद्वृत्तः सेत्स्यति तस्यैकः पुरस्कृतो मानसमुद्धातः / एवमेव कस्यापि द्वौ कस्यापि त्रयः संख्येयान् वारान् नरकमागन्तुः संख्येयाः, असंख्येयान्वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः। नरयिकस्यैवासुरकुमारत्वे पुरस्कृतचिन्तायामियं भावना-यो नरकादुवृत्तो असुरकुमारत्वं न यास्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता मानसमुझाताः, यस्त्वेकं वारं गन्ता तस्य एको द्वौत्र्यादयो वा संख्येयान् वारान् / गन्तुः संख्येयाः,असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान अनन्ताः। एव तावद भणनीय यावत तिर्यक्पञ्चेन्द्रियत्वे पुरस्कृतचिन्ता, मनुष्यचिन्तायां चैवं भावना-यो नरकादुदृत्तो मनुष्यभवं प्राप्य मानसमुद्धातमगत्वा सत्रयति तस्य नास्त्येकोऽपि पुरस्कृतो मानसमुद्धातः, यस्तु मनुष्यत्वं गतः सन्नेकं वारं मानसमुद्धातं गन्ता तस्यैकोऽपरस्य द्वावन्यस्य त्र्यादयः संख्येयान्वारान् गन्तुः संख्येयाः,असंख्येयान्वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः।व्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकत्वेषु भावना यथा असुरकुमारत्वे यथा च नैरयिकस्य नैरयिकत्वादिषु चतुर्विशतिस्थानेषु भावना कृता तथा असुरकुमारादीनामपि वैमानिकपर्यवसानानां चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण कर्त्तव्या, यथा च मानसमुद्धातस्य चतुर्विशतिः सूत्राणि चतुर्विशतिदण्डक्क्रमणोक्तानि तथा मायासमुद्धातस्यापि चतुर्विशतिसूत्राणि चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण वक्तव्यानि, तुल्यगमकत्वात् / / अधुना लोभसमुद्धातमतिदेशत आह- 'लोभसमुग्धाओ जहा कसायसमुग्घाओ, नवरं सव्वजीवा असुराई नेरइएसु लोभकसाएणं एगुत्तरियाए नेतव्वा' इति / यथा प्राक् कषायसमुद्धात उक्तस्तथा लोभकषायोऽपि वक्तव्यः, नवरं तत्रासुरकुमारादीनां नैरयिकत्वे पुरस्कृतचिन्तायां स्यात् संख्येयाः, स्यादसंख्येयाः, स्यादनन्ता इत्युक्तम्, अत्र तु सर्वे जीवा असुरकुमारादयो नैरयिकेषु पुरस्कृतचिन्तायां चिन्त्यमाना एकोतरिकया ज्ञातव्याः, एकोत्तरस्य भाव एकोतरिका 'द्वन्द्वचुरादिभ्यो वुझि' ति चौरादेराकृतिगणतया बुजिति,एको द्वौ त्रय इत्यादिरूपा तथा, एकोत्तरतया इत्यर्थः / नैरयिकाणां निरतिशयदुःखवेदनाभिभूततया नित्यमुद्विग्नानां प्रायो लोभसमुद्धातासम्भवात्, सूत्रालापकश्चैवम्- 'एगभेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स नेरइयत्ते केवइया लोभसमुग्घाया अतीता ? गोयमा! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! करसइ अस्थि कस्सइनस्थि, जस्स अस्थि (जहणेणं) एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा। एगमेगरस णं भंते / नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवइया लोभसमुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता, एवं० जाव नेरइयस्सथणियकुमारत्ते। एगमेगस्सणं भत्ते ! नेरइ-- यस्स पुढविकाइयत्ते केवइया लोभसमुग्घाया अतीता ? गोयमा! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्सइ अत्थिकस्सइ नत्थि जस्स अत्थि जहण्णण एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेण संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणता वा, एवं० जाव मणूसत्ते वाण-मंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते। एणमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स जोइ-सियत्ते केवइया लोभसमुग्घाया अतीता ? गोयमा! अणता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि जहाणेणं एको वा दो वा तिण्णि वा उकोसेण सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता, एवं० जाव वेमाणियत्ते-ऽवि भाणियव्व। एगमेगस्सणं भंते ! असुरकुमारस्सनेरइयत्ते Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 450 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय केवइया लोभसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहण्णेण एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणता वा। एगमेगस्स ण भते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारते केवइया लोभसमुग्धाया अलीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खड़ा ? गोयमा! करसइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नागकुमारत्ते पुच्छा ? गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेजा सिय असंखेज्जा सिय अर्णता, एवं 0 जाव थणियकुमारत्ते / पुढविकाइयत्ते जाव वेमाणियत्ते जहा नेरयस्स भणित तहेव भाणियव्वं, एवं जाव थणियकुमारस्स वेमाणियते / एगमेगस्स भंते! पुढविकाइयरस नेरइयत्ते केवइया लोभसमुग्घाया अतीता? गोयमा! अणंता, केवइया पुरेक्खड़ा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइनस्थि जस्सत्थि जहण्णेण एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा अणंता वा। पुढविकाइयस्स असुरकुमारत्ते अतीता अणता, केवइया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि सिय संखेज्जा वा सिय असंखेजा वा सिय अणंता, एवं० जाव थणियकुमारत्ते पुढविकाइयत्ते अतीता अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि, जस्सस्थि जहण्णेणं एको वा दो वा तिणि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेज्जा वा अणता वा, एवं० जाव मणूसत्ते / वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारते, जोइसियत्ते माणियत्ते अतीता अणंता पुरेक्खडा, कस्सइ अस्थिकस्सइ नत्थि जस्सत्थि सिय संखेज्जा सिय असं-खेज्जा सिय अणता। एवं० जाव मणूसस्स वेमाणियत्ते / काणमंतरस्स जहा असुरकुमारस्स एवं जोइसियवेमाणियाणं पि अस्या यमर्थः-नैरयिकस्य नैरयिकत्वे अतीता लोभसमुद्धाता अनन्ताः अनन्तशो नैरयिकत्वस्य प्राप्तत्वात्, पुरस्कृतचिन्तायां कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र यः प्रश्नसमयादूर्ध्व लोभसमुद्-घातमप्राप्त एव नरकभवादुवृत्त्यानन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यतिनंच भूयो नरकमागामी नचागतोऽपिलोभसमुद्घातं गन्ता तस्य नैकोऽपि पुरस्कृतो लोभसमुद्धातः, शेषस्य तु भावी तस्यापि कस्यचिदेकः कस्यचिद्वौ, कस्यचित् त्रयः। एतच प्रश्नसमयादूर्ध्वमपि तद्भवभाजा सकृन्नरकभवगामिनां वा वेदतव्यम्, उत्कर्षतः संख्येया वा असंख्येया वा अनन्ता वा / तत्र संख्येयान् वारान् नरकभवमागामिनः संख्येयाः, असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः, अनन्तान वारान् अनन्ताः / तथा नै रयिकत्वस्यासुरकु मारत्वविषयेऽतीतसूत्रं तथैव भावनीयम्, पुरस्कृतसूत्रे- 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि'त्ति-यो नरकभवादुवृत्तो नासुरकुमारत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्त्यसुरकुमारत्वविषयाः पुरस्कृता लोभस-मुद्धाताः,यस्तु प्राप्स्यति तस्य सन्ति। तेच जघन्यपदेसंख्येयाः, जघन्यस्थितावप्यसुरकुमाराणां संख्येयाना लोभसमुद्धाताना भावात् लोभबहुलत्वात्तेषाम्, उत्कृष्टपदेऽसंख्येया अनन्ता वा तत्र सकृद्दीर्घस्थि तावसकृज्जधन्यस्थितिषु दीर्घस्थितिषु वा उत्पत्स्यमानानामवसेयम. अनन्तश उत्पत्स्यमानानामनन्ताः,एवं नैरयिकस्य नागकुमारत्वादिषु स्थानेषु निरन्तर तावद्वक्तव्यं यावत्स्तनितकुमारत्वे, त्था चाह-एवं जाव थणियकुमारते' पृथिवीकायिकत्वेऽतीतसूत्रं तथैव / पुरस्कृतचिन्तायां तु कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, तत्र नरक दुवृत्तो योन पृथिवीकायिकत्वं प्राप्स्यति तस्य न सन्ति, योऽपि गन्तात्स्य जघन्यपद एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतःसंख्येया असंख्येया अनन्ता वा। ते चैवम्तिर्यपञ्चेन्द्रियभवात् मनुष्यभवाद्वा लोभसमुद्धातेन समुद्धतः सन् य एक वारं पृथिवीं गन्तातस्य एकः द्वौ वारौगन्तु, त्रीन् वारान्गन्तुस्त्रयः, संख्येयान् वारान् संख्येयाः, असंख्ये-यान वारान् असंख्येयाः, अनन्तान वारान् अनन्ताः, एवं 0 जावमणूसत्ते' इति, एवं-पृथिवीकायिकगतेनाभिलापप्रकारेण तावद्वक्तव्यम्, यावन्मनुष्यत्वे / तचेवम्'एगमेगरसण भंते ! नेरइयस्स आउकाइयत्ते' इत्यादि, यावन्मनुष्यसूत्रं, तत्राप्कायिका-दिवनस्पतिपर्यन्तसूत्रभावना पृथिवीकायसूत्रवत्, द्वीन्द्रियसूत्रे पुरस्कृतचिन्तायां जघन्येन एको द्वौ वा त्रयो वेति, एतत् सकृत् वीन्द्रियभवं प्राप्तुकामस्य वेदितव्यम्, उत्कर्षण संख्या असंख्येया अनन्तावा, तत्र संख्येयान्वारान् द्वीन्द्रियभवं प्राप्नु-कामस्य संख्येयाः, असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः, अनन्तान् वारान् अनन्ताः / एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि भावनीये, तिर्यपश्चेन्द्रियसूत्रविषया स्वेवं भावना-सकृत्पश्चेन्द्रियभवं गन्तुकामस्य स्वभावत एवाल्पलोभस्य जघन्यतः एको द्वौ त्रयो वा, शेषस्य तूत्कर्षतः संख्येयान् वारान् तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियभवं गन्तुः संख्येयाः, असंख्येयान्वारान असंख्येयाः, अनन्तान्वारान् अनन्ताः / मनुष्यसूत्रेतु पुरस्कृतविषया भावना मूलत एवम्-यो नरकभवादुवृत्तोऽल्पलोभकषायः सन् मनुष्यभवं प्राप्य लोभसमुद्घातमगत्वा सिद्धिपुरं यास्यति तस्य न सन्ति पुरस्कृता लोभसमुद्धाता, शेषस्य तु सन्ति। यस्य सन्ति तस्यापि जघन्यतएको द्वौ वा त्रयो वा, ते च एकं द्वौ त्रीन् वा लोभसमुद्वातान् प्राप्य सेत्स्यतो वेदितव्याः / संख्येयादयः प्राग्वद् भावनीयाः / 'वाण-मंतरत्ते जहा असुरकुमारा' इति यथा नैरयिकस्यासुरकुमारत्वे पुरस्कृतविषये सूत्रमुक्तं तथा व्यन्तरेष्वपि वक्तव्यम् / किमुक्तं भवति-पुरस्कृतचिन्ता यामेव वक्तव्यम् 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि,जस्स अस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेजा सिय अणंता' इति,नत्वेकोतरिका वक्तव्या, व्यन्तराणामप्यसुरकुमाराणामिव जघन्यस्थितावपि संख्येयानां लोभसमुद्घातानां भावात्। 'जोइसियत्ते' इत्यादि ज्योतिष्कत्ये अतीता अनन्ताः, अनन्त-शो ज्योतिष्कत्वस्य प्राप्तत्वात्, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न सन्ति, एतद् प्राग्वद् भावनीयम् / यस्यापि सन्ति तस्यापि कस्यचिदसंख्येयाः, कस्यचिदनन्ताः, न तु जातुचित् संख्येयाः, ज्योतिष्काणां जघन्यपदेऽप्यसंख्येयवर्षायुष्कतया जघन्यतोऽप्यसंख्येयानां लोभसमुद्घाताना भावात् लोभबहुलत्वात्तज्जातेः / एवं वैमानिकत्वेऽपि पुरस्कृतचिन्तायां वक्तव्यम्, तदेवं स्वस्थाने परस्थाने चलोभसमुद्धातचिन्तितः। सम्प्रत्यसुरकुमारस्यतं चिचिन्तयिषुरिदमाह- 'एगमेग Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 451 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय स्स ण' मित्यादि एकैकस्य असुरकुमारस्य नैरयिकत्वे लोभसमुद्धाता अतीता अनन्ताः, नैरयिकत्वस्यानन्तशः प्राप्तत्वात, पुरस्कृताः कस्यचित्सन्ति कस्यचिन्न सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुवृत्तो न नरक याता नापि सकृद् गतोऽपि लोभसमुद्घातं गन्ता तस्य न सन्ति, यस्तु यास्यति तस्य जघन्यत एको हो त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया असंख्यया अनन्ताः / तत्र सकृन्नरकगामिनः एकादयो नैरयिकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावतः प्रायो लोभसमुद्घातस्यासम्भवात् / उक्तं च मूलटीकायाम्- "नेरइयाणं लोभसमुग्घया थोवा चेव भवन्ति, तेसिमिट्ठदव्वसंजोगाभावाओ एगादिसंभव" इति। संख्येयान्वारान् नरकंगन्तुः संख्येयाः, असंख्येयान् वारान् असंख्येयाः,अनन्तान् वारान् अनन्ताः / असुरकुमारस्यासुरकुमारत्वे अतीता अनन्ताः सुप्रतीताः, पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापि न रान्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवे पर्यन्तवर्ती न च लोभसमुद्घातं याता नापि तत उदृत्तो भूयोऽप्यसुरकुमारत्वं याता किन्त्वनन्तरं पारम्पर्येण वा सेत्स्यति तस्यन सन्ति, यस्य तु सन्ति तस्यापि जघन्यत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतः संख्येया असंख्येया अनन्ताः। तत्र एकादयः क्षीणायुः -शेषाणां तद्भवभाजा भूयस्तथैवानुत्पद्यमानानामवगन्तव्याः, संख्येयादया नैरयिकस्येव भावनीयाः / असुरकुमारस्य नागकुमारत्वेऽतीताः प्राग्वत्। पुरस्कृताः कस्यापि सन्ति कस्यापिन सन्ति, तत्र योऽसुरकुमारभवादुदवृत्तो न नागकुमारभवं गन्ता तस्य न सन्ति, शेषस्य तु सन्ति यस्यापि सन्ति तस्यापि स्यात् संख्येयाः, स्यादसंख्येयाः, स्यादनन्ता। तत्र सकृन्नागकुमारभवं प्राप्तुकामस्य संख्येयाः, जघन्य - स्थितावपि संख्येयानां लोभसमुद्घाताना भावात्, असंख्येयान् वारान् प्राप्तुकामस्य असंख्येया, अनन्तान् वारान् अनन्ताः / एवं यावत् स्तनितकुमारत्वे पृथिवीकायिकत्वे यावद्वैमानिकत्वे यथा नैरयिकस्य भणितं तथैव भणितव्यम् / एव-मसुरकुरस्येव नागकुमादेरपि तावद्वक्तव्य यावत्रतनितकुमारस्या वैमानिकत्वे-वैमानिकत्वविषयं सूत्रम्, तचैवम्'एगमेगस्सणं भंते ! थणियकुमारस्स वेमाणियत्ते केवइया लोभसमुग्धाया अतीता? इत्यादि, एवं एगमेगस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स नेर-इयत्ते इत्याद्यपि रसूत्रं पूर्वोक्तभावनानुसारेण स्वयं भावनीयम, तदेव नैरयिकादेरेकत्वविषयाः क्रोधादिसमुद्घाताः प्रत्येकं चतुर्विशत्या चतुर्विश, तिदण्डकसर्विचिन्तिताः / / सम्प्रति तानेव नैरयिकादिबहुल्वविषयान् चिचिन्तयिषुरिदमाह- 'नरइयाणं भंते!' इत्यादि, नैरयिकाणा भदन्त ! नैरयिकत्वे कियन्तः क्रोधसमुद्घाता अतीताः ? भगवानाह-गौतम ! अनन्ताः, अनन्तशो नेरयिकत्वस्य सर्वजीवैः प्राप्तत्वात, कियन्तः पुरस्कृताः ? गौतम ! अनन्ताः, प्रश्नसमयभाविनां मध्ये बहूनामनन्तशो नैरयिकत्वं प्राप्तुकामत्वात्, 'एव' मित्यादि, एवंनैरयिकगतेनाभिलापप्रकारेण चतुर्विशत्या चतुर्विशतिदण्डकसूत्रै निरन्तरं तावद्वक्तव्यं यावद्वमानिकस्यवैमानिकत्वे-वैमानिकविषयं सूत्रम्, तचैवम्-'वेमाणियाणं भंते ! वेमाणियत्ते केवइया कोहस-मुग्धाया अतीता ? गोयमा ! अणंता, केवइया पुरेक्खडा? गोयमा! अणता भावना प्राग्वद। यथा च क्रोधसमुद्धाताः सर्वेषु जीवेषु स्वस्थाने परस्थाने चातीताः पुरस्कृताश्वानन्तत्वेनाभि-हिताः तथा मानादिरामुद्धाला अपि वान्याः, तथा चाह-एव' मित्यादि, एवं -क्रोधसमुद्घातगतेन प्रकारेण चत्वारोऽपि रामदघाताः सर्वत्रापि स्वस्थानपरस्थानेषु वाच्याः, यावल्लोभसमुद्-धातो वैमानिकत्वविषय उक्तो भवति। स चैवम्- 'वेमाणियाण भंते ! वेमाणियत्ते केवइया लोभसमुग्धाया अतीता? गोयमा ! अणंता,केवइया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणता' सुगमम / तदेवं नैरयिकादिबहुत्वविषया अपि क्रोधादिरामुददाताः प्रत्येक चतुर्विंशत्या चतुर्विंशतिदण्डकसूत्रश्चिन्तिताः। (10) सम्प्रति क्रोधादिसमुद्धातैः शेषसमुद्धातैश्च समवहतानाम-- समवहतानां च परस्परमल्पबहुत्वमभिधित्सुः प्रथमतः सामान्यतो जीवविषय तावदाह-- एतेसिं णं भंते ! जीवाणं कोहसमुग्घाएणं माणसमुग्घाएणं माया-समुग्घारणं लोभसमुग्धारण यसमोहयाणं अकसायसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा० 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा अकसायसमुग्घाएणं समोहयाणं माणसमुग्घाएणं समोहया अणंता०, कोहसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया मायासमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया लोभसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया असमोहया संखेज्जगुणा / एतेसि णं भंते ! नेरइयाणं कोहसमुग्घाएणं माणसमुग्घाएणं मायासमुग्घाएणं लोभसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइया लोभसमुग्धाएणं समोहया, मायासमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा वा, माणसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, कोहसमुग्घाएणं संखेजगुणा, असमोहया संखेजगुणा / असुरकुमाराणं पुच्छा, गोयमा ! सव्वत्थोवा असुरकुमारा णं, कोहसमुग्घायाएणं समोहया माणसमुग्घाएणं समोहणया संखेज्जगुणा, मायासमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा। लोभसमुग्घाएणं समोहया संखेजगुणा असमोहया संखेजगुणा, एवं सव्यदेवा० जाव वेमाणिया। पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविकाइया माणसमुग्घाएणं समोहया, कोहसमुग्धाएणं समोहया,विसेसाहिया मायासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया लोभसमुग्घाएण य समोहणया विसेसाहिया असमोहणया संखेजा, एवं० जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा जीवा, णवरं माणसमुग्घाएणं समोहणया असंखेजा। (सू० 340) Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 452 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय - 'एएसिण' मित्यादि, एतेषां भदन्त ! जीवाना क्रोधसमुद्धाते न मानसमुद्धातेन मायासमुद्धातेन लोभसमुद्धातेन च समवहतानाम् / अकषायेणेतिकषायव्यतिरेकेण शेषेण समुद्धातेन समवहतानामसमवहतानां च कतरें कतरेभ्यः अल्पा वा बहवो वा ? 'अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम' इति न्यायात् पञ्चम्याः स्थाने तृतीयापरिणामनातु कतरे कतरेस्तुल्या वा, तथा कतरे कतरेभ्यो विशेषाधिकाः, एवं गौतमेन पृष्टे भगवानाह-गौतम ! सर्वस्तोका जीवा अकषायसमुद्धातेन कपायव्यतिरिक्तेन शेषवेदनादिसमुद्धातषट्के न समवहताः, कषायव्यतिरिक्तसमुद्धातमुद्धता हि क्वचित् कदाचित् केचिदेव प्रतिनियता लभ्यन्ते, ते चोत्कर्षपदेऽपि कषायमुद्धातसमवहतापेक्षया अनन्तभागे वर्तन्ते, ततः स्तो काः तेभ्यो मानसमुद्धातसमवहता अनन्तगुणाः, अनन्तानां वनस्पतिजीवानां पूर्वभवसंस्कारानुवृत्तितो मानसमुद्धात वर्तमानानां प्राप्यमाणत्वात्. तेभ्यः क्रोधसमुद्भातेन समवहता विशेषाधिकाः, मानापेक्षया क्रोधिनां प्रचुरत्वात्, तेभ्यो मायामुद्धातेन समवहता विशे-- षाधिकाः, क्रोध्यपेक्षया मायाविनां प्रचुरत्वात्, तेभ्योऽपि लोभसमुद्धातेन समवहता विशेषाधिकाः, मायाविभ्यो लोभवतामतिप्रभूतत्वात्, तेभ्योऽपि केनाप्यसमवहताः संख्येयगुणाः, चतसृष्वपि गतिषु प्रत्येक समवहतभ्योऽसमवहतानां सदा संख्येयगुणतया प्राप्यमाणत्वात् / सिद्धास्त्वे के न्द्रियापेक्षयाऽनन्तभागवर्तिन इति ते सन्तोऽपि न विवक्षिताः। एतदेवाल्पबहुत्वं चतुर्विशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयन्नाह - 'एएसि ण' मित्यादि सुगम, नवरं सर्वस्तोका नैरयिका लोभसमुद्धातेन समवहता इति, नैरयिकाणामिष्टद्रव्यसंयोगाभावात्प्रायो लोभसमुद्धातस्तावन्नोपपद्यते, येषामपि च केषाञ्चिद्भवति ते कतिपया इति शेषसमुद्धातसमवह-तापेक्षया सर्वस्तोकाः, असुरकुमारविषयाल्पबहुत्वचिन्तायां सर्वस्तोकाः क्रोधसमुद्भातसमुद्धता इति, देवा हि स्वभावतो लोभबहुलास्ततोऽल्पतरा मानादिमन्तः, ततोऽपि कदाचित्कतिपये क्रोधवन्त इति शेषसमुद्धातसमवहतापेक्षया सर्वस्तोकाः, 'एवं सव्वदेवा० जाव वेमाणिया' इति, एवम्-असुरकुमारगतेनाल्पबहुत्वप्रकारेण सर्वे देवा नागकुमारादयस्तावद्वक्तया यावद्वैमानिकाः / पृथिवीकायिकचिन्तायां सामान्यतो जीवपदे इव भावना भावनीया, समानत्वात्। 'एवं जावे' त्यादि, एवं-पृथिवीकायिकोक्तेन प्रकारेण तावद्वक्तव्यं यावत् तिर्यपञ्चेन्द्रियाः, मनुष्या यथा जीवाः, नवरमकषायसमुद्धातसमवहतापेक्षया मानसमुद्धातेन समवहता असंख्येयगुणा वक्तव्याः / (छाद्यस्थिकसमुद्धातवक्तव्यता 'छाउमत्थियसमुग्धाय' शब्दे तृतीयभागे 1354 पृष्टं गता।) (11) सम्प्रति यस्मिन् समुद्धाते वर्तमानो यावत् क्षेत्र समुद्धातवशतस्तैस्तैः पुद्गलैया प्नाति तदेतन्निरूपयति जीवे णं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छु भति तेहिं णं भंते ! पोग्गलेहिं के वइए खेत्ते अफुण्णे केव-तिते खेत्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं नियमा छद्दिसिं एवतिते खेत्ते अफुण्णे एवनिते खेत्ते फुडे / से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अप्फुडे केवइए फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवति-कालस्स अफुण्णे एवइयकालस्स फुडे / ते णं भंते ! पोग्गले केवइकालस्स निच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतो मुहुत्तस्स उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं / ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जातिं तत्थ पाणातिं भूयातिं जीवातिं सत्तातिं अभिहणंति वत्तेंति लेसेंति संघाएंति संघट्टेति परितावेंति किलामेंति उद्दवेंति तेहिंतो णं भंते ! से जीवे कतिकिरिए? गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। तेणं भंते ! जीवा तातो जीवाओ कतिकिरिया ?गोयमा ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया / से णं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि / नेरइए णं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं समोहते, एवं जहेव जीवे,णवरं णेरड्यामिलायो,एवं निरवसेसंजाय वेमाणिते एवं कसायसमुग्धाओ वि भणितव्यो / जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छु-भति तेहिं णं भंते ! पोग्गले हिं के वतिते खेत्ते अप्फुण्णे केवतिते खेत्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसिं एवति खेत्ते अफुण्णे एवतिते खेत्ते फुडे / से णं भंते ! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे केवइकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउस-मइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे, सेसं तं चेव० जाव पंचकिरियाओ! एवं नेरइए वि, णवरं आया मेणं। जहण्णेणं साइरेगं जोयणसहस्सं उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोअणाई,एगदिसिं एवतिते खेत्ते अफुण्णे एवतिते खित्ते फुडे / विग्गहेणं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइण वा चउसमइएण वा भन्नति, सेसं तं चेव० जाव पंचकिरिया वि। असुरकुमारस्स जहा जीवपदे, णवरं विग्गहो तिसमइओ जहा नेरइयस्स, सेसं तं चेव जहा असुरकुमारे एवं० जाव वेमाणिए, णवरं एगिदिए जहा जीवे निरवसेसं / (सू०३४२) 'जीवे णं भंते !' इत्यादि, जीवो णमिति वाक्यालङ्कारे, वेदना समुद्धाते वर्तमानः तस्मिन् समवहतो भवति, समवहत्य च यान पुगलान् वेदनायोग्यान स्वशरीरान्तर्गतान Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 453 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय निच्छुभइ' इति-विक्षिपति आत्मविश्लिष्टान करोतीत्यर्थः, 'तहिं / ' मिति-तैः पुद्गलैः कियत क्षेत्रमापूर्णम्, आपूर्णत्वमपान्तराले कियदाकाशपदेशाः सस्पर्शनऽपि व्यवहारत उच्यते, तत आह-कियत् क्षेत्रं स्पृष्टप्रतिप्रदेशापूरणेन व्याप्तम्, एवं गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवानाह'सरीरे' त्यादि नियमात्-नियमेन 'छद्दिसिं' ति-पदिशो यत्रापूरणे स्पर्शन या षड़ादेक्तद्यथा भवति एव विष्कम्भतो-विस्तरेण बाहल्यतःपिण्डतः शरीरप्रमाणभात्र, यावत्प्रमाणः स्वशरीरस्य विष्कम्भो यावत् प्रमाण च बाहल्यम् एतावन्मात्रमापूर्ण स्पृष्टं चेति वाक्यशेषः, तदेव निगमनद्वारेणाह-'एवइए खेत्ते अफुण्णे एवइए खेत्ते फुडे' इति, इह बदनासमुद्धातो वेदनातिशयात्, वेदनातिशयश्व लोकनिष्कुटेषु जीवानां न भवति, निरुपद्रवस्थानवर्तित्वात् तेषा, किन्तु-सनाड्या अन्तः, तत्र परोदीरणसम्भवात्, तत्र च षड्दिकसम्भव इति नियमाच्छद्दिसिमित्युक्तम, अन्यथा 'सिय तिदिसिं सिय चउदिसि सिय पचदिसि' मित्याधुच्यत। अथ स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्य-मेव क्षेत्रमापूर्ण स्पृष्ट च विग्रहगतो जीवस्य गतिमधिकृत्य कियद्-दूर यावद्भवति कियन्तं च कालमित्येतन्निरूपणार्थमाह-'से ण भंते !' इत्यादि, नपुंसकत्वे पुंस्त्वं प्राकृतत्वात्, तत्-अनन्त-रोक्तप्रमाणं णमिति प्राग्वद्, भदन्त ! क्षेत्र कालस्य इति-प्राकृ-तत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी, कियता कालेन पूर्ण कियता कालेन स्पृष्टम् / किमुक्तं भवति ? कियन्तं कालं यावत् स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्या क्षेत्र निरन्तर विग्रहगतो जीवस्य गतिमधिकृत्यापूर्ण स्पृष्ट च लभ्यते इति? भगवानाह– गौतम ! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा तिसमयेन वा विग्रहेण / किमुक्तं भवति?-एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा विग्रहेण यावन्मात्र क्षेत्रं व्याप्यते इयदूरं यावत् स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्यं क्षेत्र वेदनाजनन-योग्यैः पुद्गलेरापूर्णभृतं जीवस्य गतिनधिकृत्यावाप्यते, तत एतद्-गतमुत्कृष्टतस्त्रिसामयिकेन विग्रहेण यावन्मात्र क्षेत्रमभिव्याप्यते एतावदात्मविश्लिष्टर्वेदनाजननयोग्यः पुद्गलैरापूर्ण लभ्यते। इह चतुः-सामायिकः पञ्चसामयिकश्च विग्रहो यद्यपि सम्भवति तथापि वेदनासमुद्धातः प्रायः परोदीरितवेदनावशत उपजायते परोदीरिता च वेदना सनाड्यां व्यवस्थितस्य न बहिः, सनोडीव्यवस्थितस्य च विग्रह उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिक इति उत्क-र्षतोऽपि त्रिसामयिकेन विग्रहेणेत्युक्तं, न चतुःसामयिकेन पञ्च-सामयिकेन चेति। उपसंहारवावयमाह-एव इयकालस्स अफुण्णे एवइयकालस्स फुडे' एतावता उत्कर्षतोऽपि त्रिसमयप्रमाणेनेत्यर्थः, कालेनापूर्णमतावताकालेन स्पृष्टम् / किमुक्तं भवति?-विग्रहगतावुत्कर्षतः त्रीन् समयान यावत् त्रिभिश्च समयः यावन्मात्र व्याप्यते, इयन्ती सीमामभिव्याप्य स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्य क्षेत्र वेदनाजननयोग्यैः पुद्गलैरापूर्ण भृत च जीवस्य गतिमधिकृत्य व्याप्यते / अथवा- 'केवइयकालस्स' त्तिपष्ट्येव व्याख्येया, ततः स्वशरीरप्रमाणविष्कम्भबाहल्य क्षेत्र वेदनाजननयोग्यः पुद्गलेरापूर्ण भृतं च जीवस्य विग्रहगतिमधिकृत्य कियतः कालस्य सम्बन्धि कियन्तं कालं यावदवाप्यते इत्यर्थः। भगवा-नाह- | एकरसमयन द्विरनमयन त्रिसमयेन वा विग्रहेणाऽपूर्ण स्पृष्ट च लभ्यते इति वाक्यशेषः, तत एतावता उत्कर्षतः-त्रिसमयप्रमा-णस्य कालस्य सम्बन्धि यथोक्तप्रमाणं क्षेत्र वेदनाजननयोग्यैः पुगलैरापूर्णमेतावता कालस्य सम्बन्धिस्पृष्टमिति।सम्प्रति यावन्तं कालं वेदनाजननयोग्यान् पुद्गलान् विक्षिपति तावत्काल-प्रमाणप्रतिपादनार्थमाह- 'ते णं भंते !' इत्यादि, तान् वेदनाज-ननयोग्यान् पुद्गलान्, णमिति वाक्यालङ्कारे, भदन्त ! परमकल्या-णयोगिन् ! परमसुखयोगिन् ! वा पुद्गलान कियतः कालस्य सम्बन्धिनो विक्षिपति ? कियत्काल वेदनाजननयोग्यान् विक्षिपतीति भावः / भगवानाह-जघन्येनाप्यन्तर्मुहूर्तस्य सम्बन्धिन उत्कर्ष--तोऽप्यन्तर्मुहूर्तस्य, केवलं मनाक् बृहत्तरस्य सम्बन्धिनः विक्षिपति / कि मुक्तं भवतिये पुद्गला जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त यावद्वेदनाजननसमर्थाः तान् तथा तथा वेदनातः सन् स्वशरी-रगतानस्वशरीरादहिरात्मप्रदेशेभ्योऽपि विश्लिष्टान् विक्षिपति, यथाऽत्यन्तदाहज्वरपीडितः सन् सूक्ष्मपुद्गलान्, प्रत्यक्षसिद्ध चैतदिति, 'ते णं भंते !' इत्यादि, तेणमिति पूर्ववत्, भवान्त ! पुद्गला विक्षिप्ताः सन्तः शरीरसम्बद्धा असम्बद्धा वा 'जाई तत्थे' त्यादि प्राकृतत्वात् पुंस्त्वेऽपि नपुंसकता, यान तत्र वेदनासमुद्धा-तगतपुरुषसंस्पृष्ट क्षेत्रे प्राणान्-द्वित्रिचतुरिन्द्रिवान् शव कीटिका-मक्षिकादीन् भूतान् वनस्पतीन् जीवान-पञ्चेन्द्रियान् गृहगोधिकासप्पोदीन् सत्त्वान्-शेषपृथिवीकायिकादीन् अभिनन्तिअभिमुखमागच्छन्तो घन्ति वर्त्तयन्ति आवर्तपतितान् कुर्वन्ति लेशयन्ति-मनाक स्पृशन्ति सङ्घातयन्तिपरस्परं तान् संघातमा-पन्नान् कुर्वन्ति सइट्टयन्ति-अतीव सङ्घातविशेषमापादितान् कुर्वन्ति परितापयन्तिपीडयन्ति क्लमयन्तिमूपिन्नान् कुर्वन्ति अपद्रावयन्तिजीवितात्व्यपरोपयन्ति तेभ्यः पुद्गलेभ्यः तेषां प्राणादीनां विषये भदन्त ! सः-अधिकृतो वेदनासमुद्धातगतो जीवः कतिक्रियः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह -गौतम ! 'सिय तिकिरिए' इति, स्यात् शब्दः कथञ्चित्पर्यायः, कथञ्चित् कदाचित् कौश्चिच जीवानधिकृत्येत्यर्थः त्रिक्रियः / किमुक्त भवति?-यदा न केषाश्चित् सर्वथा परितापनं जीविताद् व्यपरोपणं वा कराति तदा सर्वथा विक्रिय एव, यदापि केषाञ्चित्परितापं मरणं वा आपादयति तदापि येषां नाबाधामुत्पादयति तदपेक्षया त्रिक्रियः, 'सिय चउकिरिए' इति-केषांचित्परितापकरणे तदपेक्षया चतु-ष्क्रिय इति, केषांचिदपद्रावणे तदपेक्षया पञ्चक्रिय इति // सम्प्रति तमेवाधिकृत वेदनासमुद्घातगत जीवमधिकृत्य तेषां वेदनासमुद्धातगतपुरुषपुद्गलस्पृष्टानां जीवाना क्रिया निरूपयति- 'ते ण भंते !' इत्यादि, तेवेदनामुद्धातगतपुद्गलस्पृष्टा णमिति पूर्ववद्, भदन्त ! जीवास्ततोवेदनासमुद्धातपरिगतान् जीवान् अत्र 'स्थानियपः कर्माधारयोः' इति स्थानिनं यपमधिकृत्य पञ्चमीयम्, अयमर्थः-तं वेदनासमुद्घातपरिगत जीवमधिकृत्य कतिक्रियाः प्रज्ञप्ताः ? भगवानाह-गौतम ! स्यात् त्रिक्रियाः, यदा न काञ्चित्तस्याबाधामापादयितुं प्रभविष्णवः, स्याचतुष्क्रियाः, यदा तपरितापयन्ति। दृश्यन्तेशरीरेण स्पृश्यमानाः परिताप Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय यन्ता वृश्चिकादयः स्यात् पञ्चक्रियाः ये त जीवितादपि व्यपरोपयन्ति, सिद्धारा प्रत्यक्षतः शरीरण स्पृश्यमाना जीविताच्यावयन्तः सदिय इति / सम्प्रति तेन वेदनासमुद्धातगतेन जीवेन व्यापाद्यमानीवर्येऽन्ये जीवाव्याधाधन्ते ये चान्यजीवापाद्यभाना वेदना समुद्धातगतन जीवन व्यापाद्यन्ते तानधिकृत्य तस्य वेदनासमुद्धातपरिगतस्य तेषां च समुद्धावगत जीवसभ्वन्धिपुगलस्पृष्टानां जीवानां क्रियानिरूपणार्थमाह-- से गं भते ! जीव ते य जीवा' इत्यादि, सः- अधिकती वेदनारामातगतो जोधः, ते च ददनारामुद्धातपरिगतजीवसम्बन्धिपुद्गलर वृताः अन्यापा जीया-नामपदर्शितन प्रकारेण यः परम्पराधातन परम्पराघातेन कतिक्रियाः प्रज्ञाप्ता: ? भगवानाह- गौतम ! स्यात् त्रिक्रिया इत्यादिपूर्ववत् भावयितव्यः एनमेव वेदनासमुद्धातमुक्तेन प्रकारण नैरयिकादिषु चतुर्विशतिस्थानेषु चिन्तयन्नाह- 'नेरइएण भत!' इत्यादि,एवम्-- उक्तेन पकारेण यथेव प्राक सामान्यतो जीवो वेदनासमुदातमधिकृत्य चिन्तितःवथा नरयिकोऽपि चिन्तयितव्यः, नवरं जीवाभिलाधस्थान नरयिकाभिलापः कर्तव्यः / यथा 'नेरइए ण नंते ! वेपणाममुग्धान माहए समाहणिता जे पोग्गले निच्छु-भई' इत्यादि, एवं निरवससं० नाय वमाणिए' इत्यादि, 'एवं निरवसेस जाव वैमाणिए' इति-एवं-- नरयिकोक्तेन प्रकारेण शेषेष्वपि स्थानेषु स्वस्वाभिलापपूर्वक निरवशेष तावद्वक्तव्यं यावद्वैमानिकाः-वैमानिकाभिलापः / तदेवमुक्तो वेदनारसमुद्धातः।। सम्प्रति कषायसमुद्धातं समानवक्तव्यत्वादतिदशतोऽभिधित्सुराह - ‘एवं कसायसमुग्धाओ वि भाणियच्यो' इति एव-- वेदनासमुद्धातगतेन प्रकारेण सामान्यतो जीवपदे चतुर्विशति-दण्डकक्रमण च कषायसमुद्धातोऽपि वक्तव्यः, सचैवम्-- 'जीवेण भंते! कसायसमुन्धारण समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभई' यान पुदलान शरीरान्तर्गतान् कषायसमुद्धातवशसभुत्थप्रयत्नविशेषाः स्वशरीराद बहिरात्मप्रदेशभ्योऽपि विश्लिष्टान् करोति, तहिणं भते : पोग्गलहिं केवइए खत्ते अप्फुण्णे केवइए खेत्ते फुडे? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्तं विक्खंभदाहल्लेण नियमा छडिसिं एवइए खेत आफुण्णे एवइए खेल कुडे' कपायसमुद्धातो हि प्रथमभुद्भवति त्रसजीवना, तेषामेव तीव्रतराध्यवमायसम्भवाद्, एकेन्द्रियाणां तुपूर्वभवानुवृत्तितः, त्रसजीवाश्च वसनाड्यां (1बहिः, सनाड्या बव्यवस्थितः स्वशरीरप्रमाण विष्कम्भबाहल्यं ६त्रमा भनिश्लिष्टः पुद्रलेः मृतं षड्दिक्त्वमवश्यमुपपद्या इति 'नियमा छडिसिमित्युक्त, एवइए खेत्ते अफुगणे एवइए रखेने फुड' इत्यादि, सर्व समानम् / / साति मरणसमुद्धातमभिधित्सुराह- 'जीवण भंते ! मारणतियसमुग्धाए' मित्यादि, इति पूर्ववत्, भदन्त ! कश्चिन्मारणान्तिकसमुहातेन समवहतः समवहत्य च यान पुदलान् तेजसादिशरीरान्तर्गतान निल्छुभई' इति विक्षिपति, आत्मप्रदेशेभ्या विश्लिष्टान कारति तदन्त ! पुदलैः कियत क्षेत्रमापूर्ण कियत क्षेत्र भतम ? भगवानाह- गौतम! विष्कम्भबाहल्यतः शरीरप्रमाणमायामतो जघन्यतः स्वशरीरा-तिरेकामुलासंख्येयभागमात्रं यदा तावन्मात्रे क्षेत्र उत्पद्यते उत्कर्षतोऽसंख्येयानि योजनानि एतच्च यदा तावति क्षेत्रे अन्यथा वा द्रष्टव्यम्। एकदिशि-एकस्यां दिशि नतु विदिशि स्वभावतो जीवप्रदेशानां दिशि गमनसम्भवात, एतावत क्षेत्रमापूर्णमतावत् क्षेत्र स्पृष्ट, जघन्यतः उत्कर्षतो वा आत्मप्रदेशैरपि एतावत् क्षेत्रस्य पूरणसम्भवात / सम्प्रति विग्रहगतिमधिकृत्यापूरणविषयं स्पर्शनविषयं च कालप्रमाणमाह-'सेणं भंते!' इत्यादि, तत उत्कर्षे–णायामतोऽनन्तरोक्तप्रमाणं भदन्त ! क्षेत्र विग्रहगतिमधिकृत्य 'केवइयकालस्स' त्ति-तृतीयार्थे षष्ठ्या भावात् क्रियता कालेना-पूर्ण कियता कालेन स्पृष्टम् / किमुक्तं भवति?विग्रहगतिमधि-कृत्य कियता कालेनोत्कर्षतोऽसंख्येययोजनप्रमाणं क्षेत्रमायामतः पुगलैरापूर्ण स्पृष्ट भवतीति, भगवानाह- गौतम! एकसमयेन वा द्विसमयेन वा त्रिसमयेन वा वतुःसमयेन वा विग्रहेणापूर्ण स्पृष्टम्, इह चञ्चसामयिकोऽपि वेग्रहः सम्भवति परं स कादाचित्क एव इति न विवक्षितः / इयमत्र भावना-उत्कृष्टपदे आयामतोऽसंख्ये-ययोजनप्रमाण क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्कर्षतः चतुर्भिः समयै-रापूर्ण स्पृष्ट वा भवतीति / अथ कथं चतुःसामयिकः पञ्चसामयिको वा विग्रहः सम्भवति ? उच्यतेत्रसनाड्या बहिरधस्तनभागादुपरितने भागे, यद्वा-उपरितनभागादधस्तने भागे समुत्पद्यमानो जीवो विदिशो वा दिशि दिशो वा विदिशि यदोत्पद्यते तदा एकेन समयेन त्रसनाडी प्रविशति, द्वितीयेनोपरि अधो वा गमन, तृतीयेन बहिनिःसरणं, चतुर्थेनदिशि उत्पत्तिदेशप्राप्तिः अयं चतुः सामयिको विग्रहः / एवं पञ्चसामयिकस्तुत्रसनाड्या बहिरेव विदिशो विदिशि उत्पत्तौ लभ्यते, तद्यथा-प्रथमसमये त्रसनाड्या बहिरेव विदिशो दिशि गमनं द्वितीये त्रसनाड्या मध्ये प्रवेशः, तृतीय उपर्यधा वा गमनं, चतुर्थे बहिनिस्सरणं,पञ्चमे विदिश्युत्पत्तिदेशगमनमिति। उपसंहारमाह'एवइयकालस्स अप्फुण्णे एवइयकालस्स फुडे' इति-एतावता कालेनापूर्णमेतावता कालेन स्पृष्टमिति, 'सेसं तं चेव जाव पंचकिरिए' इति अत ऊर्ध्वं शेष तदेव सूत्रम्-'तणं भंते ! पुग्गला निच्छूढा समाणा जाईतत्थ पाणाई' इत्यादि यावत् ‘पञ्चकिरिया' इति पदम् / तदेवं सामान्यतो जीवपदे मारणान्तिकसमुद्धातश्चिन्तितः, सम्प्रति एनमेव चतुविशतिदण्डकक्रमेण चिन्तयन् प्रथमतो नैरयिकातिदेशमाह- 'एव' मित्यादि, एवं सामान्यतो जीवपद इव नैरयिकेऽपि वक्तव्य नवरमयं विशेषः, सामान्यतो जीवपदे क्षेत्रमायामतो जघन्येनाडलासंख्येयभागमात्रमुक्तम्, इह तु जघन्यतः सातिरेक योजन-सहसम् / किमत्र कारणमिति चेत् ? उच्यते-इह नैरयिकानरकादुवृत्ताः स्वभावत एव पञ्चेन्द्रियतियेक्षु मध्ये उत्पद्यन्ने मनुष्येषु वा नान्यत्र, सर्वजघन्यचिन्ता चात्र क्रि यते, ततो यदा पातालकलशसमीपवती नै रयिक: पातालकलशमध्ये द्वितीये तृतीये वा त्रिभागे मत्स्यतयोत्पद्यते तदा पातालकलशठिक्करिकाया योजन-सहन मानत्वात्, यथोक्तं Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्घाय 455 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्घाय जघन्यमानं नातोऽपि न्यूनतरं कथंचनेति, उत्कर्षतोऽसंख्येयानि योजनानि, लानि सप्तमपृथिवीगतनारकापेक्षया भावनीयानि। अत्रैवोपसहारमाह- 'एगदिसि एवइए' इत्यादि, एकस्यां दिशि जघन्यत उत्कर्षतश्च एतावत् अनन्तरक्तप्रमाणं क्षत्रमापूर्णमेतावत् क्षेत्रं स्पृष्ट, विग्रहगतिमधिकृत्य विशेषमाह– “विग्गहेणे' त्यादि, विग्रहेणापूर्ण स्पृष्ट या वक्तव्यमेकसामयिकेन द्विसामयिकेन त्रिसामयिकेन वा, नन्वेतत् सामान्यतो जी यपदेऽप्युक्तं तत्कोऽत्र विशेषस्तत आह- 'नवरं चउसमइएण व ण भण्णइ' इति-नवर-मत्र सामान्यजीवपद इव चतुःसामयिकेनेति न भण्यते, नैरयिकाणामुत्कर्षतोऽपि विग्रहस्य त्रिसामयिकत्वात्, ते च त्रयः समया एवं भवन्ति, इह कश्चिन्नेरथिको वायव्यां दिशि वर्तमानो भरतक्षेत्रे पूर्वस्यां दिशि तिर्यपञ्चेन्द्रियतया मनुष्यतया वोपित्सुः प्रथम-समये ऊर्ध्वमागच्छति, द्वितीयसमये वायव्या दिशः पश्चमदिशं तृतीये ततः पूर्वदिशमिति। एवमसुरकुमारादिध्वपि यथायोगं त्रि-सभयविग्रहभावना कार्या / 'सेसं तं चेच जाव पंचकिरिया वि' इति-शेष सूत्रं तदेव वेदनासमुद्घातगतं, 'त णं भंते ! पोग्गला केवइया कालस्स निच्छुभंति ? गोयमा ! जहन्नेण वि अंतोमुहुत्तरस उक्कोसेण अतोमुत्तस्से' त्यादि तावद्वक्तव्यं यावदन्तिमं पद 'पकिरिया वि' इति / असुरकुमारविषये अतिदेशमाह-'असुरकुमाररस जहा जीवपदे' इति,यथा सामान्यतो जीवपदेऽभिहितं तथा असुरकुमारस्राप्यभिधातव्यम् / एतावता किमुक्तं भवति?-यथा जीवपदे आयामतः क्षेत्रं जघन्यतोऽड्डलासंख्येयभागमात्रम्, उत्कर्षतोऽसंख्येयानि यो जनानि तथा अत्रापि वक्तव्यम्। कथं जधन्यतोऽगुलासख्येयभागमात्रमिति चेत्, उच्यते-इहासुरकुमारादय ईशानदेवपर्यन्ताः पृथिव्यम्बुवनस्पतिष्वप्युत्पद्यन्ते, ततो यदा कोऽप्यसुरकुमारः रूक्लिष्टाध्यवसायी स्वकुण्डलायेकदेशे पृथिवीकायिकत्वेनोत्पित्सुर्भरणसमुद्धातमादधाति तदा जघन्येनायामतः क्षेत्रमडलासंख्येयभागप्रमाणमव प्यते इति यथा जीवपदे इत्युक्तं, ततोऽत्रापि विग्रहगतिश्चतुः सामायिकी प्राप्नोति, तत आह-नवरं विग्रहस्त्रिसामयिको यथा नरयिकस्य / शेषं सूत्रं तदेव यत् सामान्यतो जीवपदे / नागकुमाराविष्वतिदेशमाह- 'जहा असुरकुमारे' इत्यादि, यथा असुरकुमा-- रेऽभिहितमेवं नागकुमारादिषु तावद् वक्तव्यं यावद्वैमानिकविषयं सूत्रम्, नवरमेकेन्द्रियं पृथिव्यादिरूपे यथा जीवे सामान्यतो जीवपदे तथा निरवशेष वक्तव्यम्। किमुक्तं भवति? यथा जीवपदे चतुःसामयिकोऽपि विग्रह उक्तः तथा पृथिव्यादिष्वपि पञ्चसु स्थानेषु वक्तव्यः शेषं तथैवेति। तदेवमुक्तो मारणान्तिकसमुद्घातः। (12) साम्प्रतं वैक्रियसमुद्घातमभिधित्सुराहजीवे णं भंते ! वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहये समोहणित्ता जे पुग्गले निच्छु भति तेहिं णं भंते ! पोग्गलेहिं केवतिते खेत्ते अफुण्णे केव-तिते खित्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स संखेजतिभागं उक्कोसेणं संखिज्जाइंजोअणाइं एगदिसिं विदिसिंवा एवइए खित्ते अफुण्णे एवतिते खेत्ते फुडे / से णं भंते ! केवतिकालस्स अफुण्णे केवति-कालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिस-मइएण वा विग्गेहणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे, सेसं तं चेव० जाव पंचकिरिया वि, एवं नेरइए वि, णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं संखिज्जाइं जोअणाई एगदिसिं, एवतिते खेत्ते, केवतिकालस्स? तं चेव जहा जीवपदे, एव जहा नेरइयस्स तहा असुरकुमारस्स, नवरं एगदिसिं विदिसिं वा, एवं० जाव थणियकुमारस्स। वाउकाइयस्स जहा जीवपदे,णवरं एगदिसिं पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स निरवसेसं जहा नेरइयस्स, मणूसवाणमंतरजोइसियवेमाणियस्स निरवसेसं जहा असुरकुमारस्स। जीवे णं भंते ! तेय-गसमुग्घाएणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवतिते खित्ते अफुण्णे केवइए खेत्ते फुडे, एवं जहेव वेउव्विते समुग्घाते तहेव, णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं सेसं तं चेव एवं० जाव वेमाणियस्स,णवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स एकदिसिं एवतिते खेत्ते अफुण्णे एवइखित्तस्स फुडे / जीवे णं भंते ! आहारगसमुग्धातेणं समोहते समोहणित्ता जे पोग्गले निच्छुभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहिं केवइए खित्ते अफुण्णे केवइए खेत्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभबाहल्लेणं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाइंजोयणाई एगदिसिं एवतिते खेत्ते एग समइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे, ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स निच्छु भति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तस्स उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तस्स, ते णं भंते ! पोग्गला निच्छूढा समाणा जाति तत्थ पाणातिं भूयातिं जीवातिं सत्तातिं अभिहणंति० जाव उद्दवें ति, ते णं भंते ! जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए ते णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिया गोयमा ! एवं चेव, सेणं भंते ! ते यजीवा अण्णेसिं जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि, एवं मणूसे वि। (सू०२४३) 'जीव णं भंते ! वेउव्विए' इत्यादि प्राग्वद्, नवरमायामत उत्कर्षतः संरध्येयानि योजनानि। एतच्च वायुकायिकवर्जनैरयिकाद्यपेक्षया द्रष्टव्यं, ते हि वैक्रियसमुदधातमारभमाणास्तथाविधप्रयत्नविशेषभावतः संख्येयान्येव योजनान्युत्कर्षतोऽप्यात्मप्रदेशानांदण्डमारचयन्ति, नासंख्ययानि योज Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुग्धाय नानि। वायुकायिकास्तुजघन्यतो वा उत्कर्षतो वा अमुलासंख्येयभाग, तावत्प्रमाणं चोत्कर्षतो दण्डमारचयन्तम्तावति प्रदेशे तेजसादिशरीरपुद्गलान् आत्मप्रदेशेम्यो विक्षिपन्ति, ततस्तैः पुदगलैर्भूत क्षेत्रमायामत उत्कर्षतोऽपि संख्येयान्येव योजनान्यवाप्यन्ते। एतच्चैव क्षेत्रप्रमाणं केवलं | वैक्रियसमुद्धातसमुद्भवं प्रयत्नमधिकृत्योक्तम्, यदा तु कोऽपि वैक्रिय - समुद्घातमधिरूढो मरणमुपश्लिष्टः कथमप्युत्कृष्टदेशेन त्रिसामयिकेन विग्रहेणोत्पत्तिदेशमभिगच्छति तदा संख्यातीतान्यपि योजनानि यावदायामक्षेत्रमवसेयम् तावत्प्रमाण क्षेत्रापूरणं मरणसमुद्घातप्रयत्नसमुद्भवमिति सदपि न विवक्षितम् / 'एकदिसिं विदिसिं वा' इति-तल जघन्यत उत्कर्षता वा यथोक्तप्रमाणमायामक्षेत्रमेकस्यां दिशि विदिशि वा द्रष्टव्यम्, तत्र नैरयिकाणां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां वायुकायिकानां च नियमादेकदिशि नैरयिका हि परवशा अल्पर्द्धयश्च तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाश्वाल्पर्द्धय एव वायुकायिका विशिष्टचेतनाविकलास्ततस्तेषां वैक्रियसमुद्घातमारभमाणाना यदि पर तथा स्वाभाच्यादेवात्मप्रदेशदण्डविनिर्गमस्तेभ्यश्चात्मप्रदेशेभ्यो विश्लिष्य पुद्गलानां च स्वभावतोऽनुश्रेणिगमनं न तु विश्रेणितः ततो दिश्येव नैरयिकतिर्यक्पञ्चेन्द्रियवायुकायिकानामायाभताः क्षेत्रं द्रष्टव्यम्, न तु विदिशि, ये तु भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका मनुष्याश्च ते स्वेच्छाचारिणो विशिष्टलब्धिसम्पन्नाश्च भवन्ति ततस्ते कदाचित्प्रयत्नविशेषतो विदिश्यप्यात्मप्रदेशाना दण्ड विक्षिपन्तस्तत्र तेभ्य आत्मप्रदेशेभ्यः युगलान् विक्षिपन्तीति तेषामेकस्यां दिशि विदिशि वा प्रत्येतव्यम्। वैक्रियसमुद्घातगतश्च कोऽपि कालमपि करोति, विग्रहण चोत्पत्तिदेशमभिसर्पति ततो विग्रहगतिमधिकृत्य कालनिरूपणार्थमाह'से णं भंते !' इत्यादि, तत् भदन्त ! क्षेत्रं विग्रहगतिमधिकृत्योत्पत्तिदर्श यावत् 'केवइ-कालस्स' ति-तृतीयार्थे षष्ठी, कियता कालेनापूरण कियता कालेन स्पृष्टम्,?भगवानाह-गौतम ! एकसामयिकेन वा द्विसा - मयिकेन वा त्रिसामयिकेन वा विग्रहेण आपूर्ण स्पृष्टमिति गम्यते। किमुक्त भवति ?-विग्रहगतिमधिकृत्य मरणदशाया आरभ्य उत्पत्तिदेशं यावत् क्षेत्रस्यापूरणमुत्कर्षतः त्रिभिः समयैरवाप्यते न चतुर्थेनापि समयेन, वैक्रियसमुद्घातगतो हि वायुकायिकोऽपि प्रायस्त्रसनाड्यामेवोत्पद्यते, त्रसनाड्यां च विग्रह उत्कर्षतोऽपि त्रिसामयिक इति / उपसंहारमाह'एवइकालस्स' इत्यादि सुगमम्, 'सेस तं चेवे त्यादि अत ऊर्ध्व शेष सूत्र तदेव यत्प्राक वेदनासमुद्घाते उक्तम्, तच्च तावत् यावदन्तिमपदं 'पंचकिरिया वि' इति 'एवं नेरइएण वि' इत्यादि सूत्रं तु स्वयं भावनीयम्। यस्तु दिविदिगपेक्षया विशेषः स प्रागेव दर्शितः।। सम्प्रति तेजससमु घातमभिधित्सुराह-'जीवे णं भते ! तेयगसमुग्घाएण' मित्यादि, सुगम, नवरमयं तैजससमुद्घातश्चतुर्देवनिकायतिर्यक्पञ्चन्द्रियमनुष्याणां सम्भवतिन शेषाणां, तेच महाप्रयत्नवन्त इति तेषां तैजससमुदधातमारभमाणानां जघन्यतोऽपि क्षेत्रमायामतोऽमुलासंख्येयभागप्रमाणं भवति, न तु संख्येयभागमानम्-उत्कर्षतः संख्येययोजनप्रमाणम् / तच्च जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाण क्षेत्रं तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियवर्जानामेकरयां दिशि विदिशि वा वक्तव्यम्, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाणां तु दिश्येव / अत्र युक्तिः प्रागुक्तैवानुसतव्या, तथा चाह- ‘एवं जहा वेउव्वियसमुग्घाए' इत्यादि। त-देवमुक्तस्तैजससमुदघातः / / साम्प्रतमाहारकसमुद्घातं प्रतिपिणदयिषुराह-'जीवे ण भंते!' इत्यादि, एतच्च सूत्रं तैजरासमुद्घातवदावनीय, नवरमयमाहारकसमुद्घातो मनुष्याणां तत्राप्यधीतचुर्दशपूर्वाणांतत्रापि केषाश्चिदेवाहारकलब्धिमतां न शेषाणा, ते चाहारकसमुद्घातमारभमाणा जघन्यत उत्कर्षतो वा यथोक्तप्रमाणमायामतः क्षेत्रमात्मप्रदेशविश्लिष्टः पुद्गलैरापूरयन्त्येकस्यां दिशि, न तुविदिशि। विदिशि तु प्रयत्नान्तरविशेषादात्मप्रदेशदण्डविक्षेपः पुद्गलैरापूरण च / नच ते प्रयत्नान्तरमारभते प्रयोजनाभावात्, गम्भीरत्वाचेति। आहारकसमुद्घातगतोऽपिच कोऽपि कालं करोति विग्रहेण चोत्पद्यते विग्रहश्चोत्कर्षतस्त्रिसामयिक इति 'एगदिसिं एवइए खेत्ते फुडे' तथा 'एगसमइएण वा दुसमइएण वा' इत्यायुक्तम्। तथा मनुष्याणामेवायमाहारकसमुदधात इति चतुर्विशतिदण्डकचिन्तोपक्रमे 'एवं मणूसे वि' इत्युक्तम्, अस्यायगर्थ:-एवं सामान्यतो जीवपदे इव मनुष्येऽपि मनुष्यचिन्तायामपि सूत्रं वक्तव्यम, जीवपदे मनुष्यानेवाधिकृत्य सूत्रस्य प्रवृत्तत्वात, अन्येषामाहारकसमुद्घातासम्भवात्। तदेवं षण्णामपि छाद्यस्थिकानां समुद्घातानामारम्भे जघन्यत उत्कर्षतो वा यावत्प्रमाण क्षेत्रमात्मविश्लिष्टेः पुद्गलैर्यथायोगमौदारिकादिशरीराद्यन्तर्गतरापूरितं भवति तावत्प्रमाणमावेदितम् / प्रज्ञा०३६ पद। विशे० / भ० / स०। आ० चू०। आ० म०। पं० सं०। (13) अधुना समुद्घातद्वारविस्तर:तेसि णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया एण्णत्ता ? गोयमा ! तओ समुग्घाया पण्णत्ता,तं जहा-वेयणासमुग्धाए कसायसमुग्घाए मारणंतियसमुग्घाए। (सू०१३+) तत्र समुद्धाताः सप्त, तद्यथा-वेदनासमुद्धातः 1 कषायसमुद्धातः 2 मारणसमुद्धातः 3 वैक्रियसमुद्घातः 4 तैजससमुद्घातः५ आहारकसमुद्घातः 6 केवलिसमुद्धातश्च 7 / तत्र वेदनायाः समुद्धातो वेदनासमुदघातः, स चासातवेदनीयकर्माश्रयः१. कषायेण कषायोदयेन समुद्घातः कषायसमुद्घातः, स च कषायचारित्र-मोहनीयकर्माश्रयः 2, मरणे भवो मारणः, चासौ समुद्घातश्च मारणसमुद्घातः 3, वैक्रिये प्रारभ्यमाणे रामुद्धातो वैक्रियसमुद्घातः, स च वैक्रियशरीरनामकर्माश्रयः 4, (तैजसेन हेतुभूतेन समुघातस्तैजससमुद्घातः तैजसशरीरनामकर्माश्रयः) 5, आहारके प्रारभ्यमाणे समुद्घातः आहारकसमुद्घातः, स चाहारकशरीरनामकर्माश्रयः 6, केवलिनि अन्तर्मुहर्तभाविपरमपदे समुद्धातः केवलिसमुद्भातः 7 / (जी०) तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, तथाहि-वदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशाननन्तानन्तकर्मपरमाणुवेष्टितान् शरीराद्वहिरपि विक्षिपति, तैश्च प्रदेशैर्वदनजघनादिरन्ध्राणि कर्ण स्कन्धाद्यन्तरालानि चापूर्यायामतो विस्तरतश्च शरीरमा क्षेत्रमभिव्याप्यान्तर्मु Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुग्धाय 457 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुट्ठिय हर्ते यावदवतिष्ठते, तस्मिश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मयुद्- | प्रकर्षण छेदो-विनाशः समुच्छेदः / सर्वथा विनाशे, आ० म०१ अ०। लपरिशातं करोति, कषायसमुद्धातसमुंद्धतः कषायाख्यचारित्र- | समुच्छेयवाइ पुं०(समुच्छेदवादिन्) समुच्छेदं प्रतिक्षणं निरन्त-यनाश मोहनीयकर्मपुगलपरिशातं करोति। तथाहि कषायोदयसमाकुलो जीवः वदति यः स समुच्छेदवादी। अक्रियावादिभेदे, स्था०। तथाहि-वस्तुनः स्वप्रदेशान बहेविक्षिप्य तैर्वदनोदरादिरन्ध्राणि कर्णरन्धाद्यन्तरालानि सत्त्वं कार्यकारित्वकार्याकारिणोऽपि वस्तुत्वेखरविषाणस्यापि सत्त्वप्रसचापूर्यायामविण्तराभ्या देहमात्र क्षेत्रमभिव्याप्य वर्त्तते, तथाभूतश्च प्रभूत- डात, कार्य च नित्यं वस्तु क्रमेण न करोति नित्यस्येकस्वभावतया रुपायकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, एवं मरणसमुद्घातगत आयुःकर्मपु- कालान्तरभाविसकलकार्यभावप्रसङ्गात, न वेदेवं प्रतिक्षणं स्वभावान्तदलपरिशातं करोति / वैक्रियसमु-यातगतः पुनर्जीव स्वप्रदेशान रोत्पत्त्या नित्यत्वहानिरिति। यौगपद्येनापि न करोति अध्यक्षसिद्धत्वाशरीरादहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमानमायामतः संख्येययोज- द्योगपद्याकरणस्य। तस्मात् क्षणिकमेव वस्तु कार्य करोतीति। एवं चनप्रमाणं दण्ड निसृजति. निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीर- अर्थक्रियाकारित्वात्क्षणिकं वस्त्विति। अक्रियावादी चायमित्थमवसेयः, नामकर्मपुत्लान् प्राग्वद्धान् शातयति / तथा चोक्तम्- "वेउविय- निरन्वयनाशाभ्युपगमे हि परलोकाभावः प्रसजति, फलार्थिनां च समुग्धारण समोहणइ समोहणित्ता संखिज्जाई जोयणाइ दंड निसिरइ, क्रियास्वप्रवृत्तिरिति, तथा सकलक्रियासु प्रवर्तकस्यासंख्येयसमयनिसिरित्ता अहाबायरे पुग्गले परिसाडेइ" इति, तैजसाहारकसमुद्धाती संभव्यनेकवर्णोल्लेखवतो विकल्पस्य प्रतिसमयक्षयित्वे एकाभिसन्धिवेक्रियसमुद्घा तवदवसातव्यौ, केवल तेजससमुद्घातगतस्तैजसश- प्रत्ययाभावात् सकलव्यवहारोच्छेदः स्यात्, अत एवैकान्तक्षणिकारीरना-मकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, आहारकसमुद्घातगत आहारक- त्कुलालादेः सकाशादर्थक्रिया न घटत इति / तस्मात्पर्यायतो शरीरनामकर्मपुद्गलपरिशातं करोति, केवलिसमुद्घातसमुद्धतस्तु केवली वस्तुसमुच्छेदवत द्रव्यतस्तु न तथेति। स्था० 8 ठा०३ उ०1 स०। सदसवेंदनीयशुभाशुभनामोचनीचेर्गोत्रकर्मपुद्गलपरिशातं (करोति), समुजलण न० (समुज्वलन) कोपानिप्रकटने, आ० म०१ अ०। कवलिसमुदधातवर्जाः शेषाः षड़पि समुद्घाताः प्रत्येकमान्तर्भाहूर्तिकाः, समुज्जाय त्रि० (समुद्यात) निर्गते, विशे०। सम्यक् च पुनरावृत्त्या कवलिसमधातः। पुनरष्टसामयिकः उक्तं च प्रज्ञापनायाम-“वयणास- ऊर्ध्वं याते, कल्प०१ अधि०६ क्षण / जं०। सुग्घाएणं कइसमइए पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जसमइए अंतमुहत्ते, एवं समुट्ठाइ (न्) पुं० (समुत्थायिन्) सम्यगुत्थातुमभ्युद्यन्तु, शीलमस्येति जाव आहारगसमुग्घाए। केवलिसमुग्घाए ण भंते! कइसमइए पण्णत्ते ? समुत्थायी। सम्यगुद्यते, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। गोयमा !अट्टसम-इए पण्णत्ते / " इति, तदेवमनेकसमुद्घातसम्भवे समुट्ठाण न० (समुत्थान) सम्यकसंगतं चोत्तिष्ठतेऽस्मादिति समुत्थानम्। सूक्ष्मपृथिवी--कायिकानां तान् पृच्छति-'तेसिणं भंते! इत्यादि सुगम, निमित्ते, विशे० / समुट्ठाणं नाम-समं उहाणं सम-माचार्यादीनामुपनवर बक्रियाहारकतैजसकेवलिसमुद्घाताभावो वैक्रियादिलब्धभावात्। स्थापनम। आ० चू० 1 अ०। समुपस्थापने भूयस्तत्रैवाऽऽवासने,नं० / जी०१ प्रति० / विशे० / भ०।। समुट्ठाणसुय न० (समुत्थानश्रुत) सम्यगुत्थानं समुत्थानसमुपस्थापन समुग्घायकम्म न० (समुद्धातकर्मन) समुद्घात एव कर्मा समुद्-- भूयस्तत्रैवाऽऽवासनं तद्धेतुः श्रुतमुपस्थापनश्रुतम् / समुत्थानहेतौ बातकर्म / समुद्घातरूपक्रियायाम्, विशे०। श्रुतभेदे, पा०। नं०।ततः कार्ये निष्पन्ने समुत्थान-श्रुते परावर्त्यमानते समुच्चय पु० (समुच्चय द्वयाः कोट्योरेकत्रान्वये,"अयं न संशयः कोटे- कुलग्रामदेशादयः स्वस्थीभूय पुनर्निविशन्ते। व्य०१० उ०। रेक्यान्न च समुच्चयः।” नयो०। समुट्ठाय अव्य० (समुत्थाय) सम्यक् संयमानुष्ठानेनोत्थायेत्यर्थे आचा० समुच्चयबंध पुं० (सगुच्चयबन्ध) संगत उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उचयः 1 श्रु०६ अ०४ उ०। अभ्युपगम्येत्यर्थे आचा०१ श्रु०१ अ० 430 / समुच्चयः स एव बन्धः समुच्चयबन्धः। अल्लिकापनबन्ध-भेदे, भ०८ श० | समुट्ठिय त्रि० (समुत्थित) आश्रिते, जं० 4 वक्ष०। रा०। उत्पन्ने, स्था० 6 उ. 3 ठा० 3 उ०। सम्यक्-सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिताः / समुच्छलिय त्रि० (समुच्छलित) ऊर्ध्वमुत्थिते, आ० म०१ अ०। रा०। सत्साधुषु उद्युक्तविहारिषु, सूत्र०१२०१४ अ०। सम्यगारम्भपरिसमुच्छिन्न त्रि० (समुच्छिन्न) क्षीणे, स्था० 4 ठा० 1 उ०। त्यागेनोत्थिते, सूत्र० 1 श्रु०२ अ०२ उ०। अनुष्ठिते,सूत्र०१ श्रु०२ अ० समुच्छिन्नकि रिय त्रि० (समुच्छिन्नक्रिय) समुच्छिन्नाक्षीणा क्रिया 2 उ० / प्रज्ञा० / प्राप्ते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ० / संयमक्रियानुष्ठान कायिवयादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मॅिस्तत्तथा। तथाविधे प्रत्युद्यते,उत्त०१६ अ०। आचा०। सम्यक्-सततं संगतं वा संयमानुशैलेशीकरणे स्था० 4 ठा० 1 उ० / ग०। भ०। प्टानेनोस्थितः। नानाविधशास्त्रकर्मसमारम्भोपरते, आचा०१ श्रु०२ समुच्छेय पु० (समुच्छद) उत्पत्त्यनन्तरं सं-सामस्त्येन उत्-प्राबल्यन | अ०५ उ०। सम्यग्यो-गत्रिकेणात्थिते, आचा० 1 श्रु०३ अ०२ उ०। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुण्णइय 458 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुद्द समुण्णइय त्रि० (समुन्नयित) गर्विते, पिं०। समुत्तजालाकुलाभिराम पुं० (समुक्तजालाकुलाभिराम) मुक्ताफलयुक्तं यज्जालं गवाक्षस्तेन आकुलो व्याप्तोऽभिरामश्च / तस्मिन्, कल्प०१ अधि०३ क्षण। *समुत्थ त्रि० (समुत्थ) उद्भूते, आव०४ अ०। समुत्थिय त्रि० (समुत्थित) सम्यगुत्थितः समुत्थिः / चारित्रस्थे, पं० चू० १कल्प। समुदय पुं०(समुदय) उदयवर्तितत्वे, प्रश्र०३ आश्रद्वार। समुदाय पुं० परिवारोदितसमुदाये,औ०। पौरादिमीलने, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। समूहे, स०५५ सम० / त्रिचतुरादिमलके, ज्यो०२ पाहु० / भ०। विशे०। समुदाण न० (समुदान) प्रयोगक्रियैकरूपतया गृहीतानां कर्म-वर्गणानां सम्यक् प्रकृतिबन्धादिभेदेन देशसर्वोपघातिरूपतया च आदान - स्वीकरण समुदानं निपातनात्साधुः। स्था० 3 ठा०३ उ० / स्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थया स्वीकरणे, आचा० 1 श्रु०२ अ०१ उ०। आव०। भिक्षाटने, नि०१ श्रु० 3 वर्ग 4 अ०। उच्चा-वचकुलेषु भिक्षाचरणे, बृ० 1 उ०२ प्रक० / भिक्षासमूह, सूत्र०२ श्रु०१ अ० / बृ० / अणु० / आचा० / भिक्षायाम, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। समुदाणकम्म न० (समुदानकर्मन्) स्पृष्टनिधत्तनिकाचितावस्थ-या स्वीकरणं समुदानं तदेव कर्म समुदानकर्म, संपूर्वादाङ् पूर्वाच दाधातोल्युडन्तात्पृषोदरादिपाठेन आकारस्योकारादेशेन रूपम्। कर्मभेदे, आचा०१ श्रु०२ अ० 1 उ०। समुदाणकिरिया स्त्री० (समुदानक्रिया) कर्मोपादाने क्रियाभेदे, स्था० ('किरिया' शब्दे तृतीयभागे 533 पृष्ठे वक्तव्यता गता) समग्गमुपादान समुदाणं समुदाओ-अट्ठ कम्माणि तेसिं ज उपादाणं कज्जइ, सा समुदाणकिरिया, सा दुविहा-देसोवघाया समुदाणकिरिया, सव्वोवधाया समुदाणकिरिया। आव० 4 अ० / समुदानक्रिया तु यत्कर्मप्रयोगगृहीत समुदायावस्थं सत्प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशरूपतया यया व्यवस्थाप्यते सा समुदानक्रिया, सा च मिथ्यादृष्टेरारभ्य सूक्ष्मसंपरायं यावद्भवति। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। समुदाणचरग पुं० (समुदानचरक) समुदानेन शिक्षया तथाविधाभिग्रह पहिले साधौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। समुदाणिय पुं० (सामुदानिक) समुदानं नाम-उच्चावचकुलेषु भिक्षाग्रहण तत्र लब्धः सामुदानिकः / “अध्यात्मादिभ्य इकण ॥६:३७८॥(सू० सि०।) इति इकण् प्रत्ययः / बृ० 1 उ०२ प्रक०। आ० चू० / भैक्षणेयाञ्चायां भवः सामुदानिकः / स्था० 4 ठा०२ उ०1 इतस्ततो भिक्षाग्रहणे, भ०७ श०१ उ०। समुदाय पुं० (समुदाय) स्वामियोग्यादिसमस्तपरिवारे, रा० / समूहे, आ० चू०१ अ० / स्था०। इतस्ततो भिक्षायाम्, भ०७ श० 1 उ०। समुदायार पुं० (समुदाचार) यत्किञ्चनानुष्टाने, विपा० 1 श्रु०३ अ०। ज्ञा० / सूत्र०। औ०। समुदिण्ण न० (समुदीर्ण) सम्यगुदयं प्राप्ते, व्य०६ उ० / वि०। समुद्द पु० (समुद्र) सह मुद्रया मर्यादया वर्तते इति समुद्रः / अनु०॥ स०। "द्रेरो न वा" |चा।८०॥ अस्य पाक्षिकत्वादत्र रेफस्य लोपनिषेधो न / प्रा० / लवणादिके सागरे, को० / स० / प्रज्ञा० / जी०। सूत्र० / जलधौ, उत्त०७ अ०। जलराशौ / अनु० / समुद्रद्विस्थानकमाहअंतोमणुस्सखेत्तस्स दो समुद्दा पण्णत्ता, तं जहा-लवणे चेव कालोदे चेव / (सू० 111) / स्था०२ ठा० 4 उ०। त्रयः समुद्राःतओ समुद्दा पगईए उदगरसेणं पण्णत्ता, तं जहा-कालोदे पुक्खरोदे सयंभुरमणे / तओ समुद्दा बहुमच्छकच्छभाऽऽइन्ना पण्णत्ता, तं जहा-लवणे कालोदे सयंभुरमणे / (सू०१४६) प्रकृत्या स्वभावेनोदकरसेन युक्ता इति, क्रमेण चैते द्वितीयतृतीयान्तिमाः प्रथमद्वितीयान्तिमाः समुद्रा बहुजलचराः, अन्ये त्वल्पजलचरा इति / उक्तंच"लवणे उदगरसेसु थ, महोरया मच्छकच्छहा भणिया। अप्पा सेसेसु भवे, न य ते निम्मच्छया भणिया // 1 // " अन्यच्च"लवणे कालसमुद्दे, सयंभुरमणे य हुति मच्छाओ। अवसेससमुद्देसुं, न हुंति मच्छा य मयरा वा / / 1 / / नत्थि ति पउरभावं, पडुच न उ सव्वमच्छपडिसेहो। अप्पा सेसेसु भवे, न य ते निम्मच्छया भणिया।।२।।" इति / स्था० 3 ठा०१ उ०। चत्वारः समुद्रा:चत्तारि समुद्दा पत्तेयरसा पण्णत्ता, तं जहा-लवणोदए 1 वारुणोदे 2 खीरोदे 3 घओदे 4 / (सू०३८४) समुद्रसूत्र व्यक्त, नवरं एकमेकं प्रति भिन्नो रसो येषां ते प्रत्येक-रसाः, अतुल्यरसा इत्यर्थः, लवणरसोदकत्वाल्लवणः / पाठान्तरे तु लवणमिवोदकं यत्र स लवणोदः, निपातनादिति प्रथमः। वारुणीसुरा तया समान वारुणं वारुणमुदकं यस्मिन् स वारुणोदः चतुर्थः क्षीरवत्तथा घृतवदुदकं यत्र स क्षीरोदः पञ्चमः, घृतोदः षष्ठः, कालोदपुष्करो दस्वयम्भुरमणा उदकरसाः, शेषास्तु इक्षु-रसा इति / उक्तञ्च-"वारुणिवरखीरवरो, घयवर लवणो य होति पत्तेया / कालो पुक्खरउदही, सयंभुरमणो य उदगरसा / / 1 // " इति। स्था० 4 ठा०४ उ०1 __ सप्त समुद्राःणंदीसरवरस्स णं दीवस्स अंतो सत्त समुद्दा पण्णत्ता, Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुह 456 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुद्दपाल तं जहा-लवणे कालोदे पुक्खरोदे वारुणोदे खीरोदे घओदे खोतोदे / (सू०५८०४) स्था०७ ठा०३ उ०। सर्वद्वीपसमुद्राणामभ्यन्तरवर्ती जम्बूद्वीपस्तत्परिक्षेपी लवणसमुद्रस्तदनन्तरं धातकीखण्डाभिधानो द्वीपस्ततः कालोदः समुद्रः तदनन्तरं पुष्करवरा द्वीपः, अत ऊर्ध्वं दीपसदृशनामानः समुद्राः, ततः पुकरवरसमुद्रः, तदनन्तरं वरुणवरो द्वीपो वरुण-वरः समुद्रः, क्षीरवरी द्वीपः क्षीरोदः समुद्रः, घृतवरो द्वीपो घृतोदः समुद्रः, इक्षुवरो द्वीपो इक्षुवरः समुद्रः, नन्दीश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः समुद्रः,एतेऽष्टावपि च समुद्रा एकप्रत्यवताराः,एकैकरूपा इति भावः / अत ऊज़ द्वीपाः समुद्राश्च त्रिप्रत्यवताराः, तद्यथा-अरुण इति-अरुणोऽरुणवरः अरुणवरावभासः, कुण्डलः कुण्डलवर: कुण्डलवरावभासः, रुचको रुचकवरो रुचकवरावभास इत्यादि। एष चात्र क्रमः-नन्दीश्वरसमुद्रानन्तरम् अरुणो द्वीपोऽरुणः समुद्रः, ततोऽरुणवरो द्वीपोऽरुणवरः समुद्र इत्यादि, कियन्तः खलु नामग्राहं द्वीपसमुद्रा वक्तुं शक्यन्ते ? ततस्तन्नामसंग्रह-माह'आभरणवत्थे' त्यादि, गाथाद्वयम्, यानि कानिचिदाभ-रणनामानिहारार्द्धहररत्नावलिकनकावलिप्रभृतीनि,यानि च वस्त्रनामानिचीनांशुकप्रभृतीनि, यानि च गन्धनामानि-कोष्ठ-पुटादीनि,यानि चोत्पलनामानि-जलरुहचन्द्रोद्योतप्रमुखानि, यानि च तिलकप्रभृतीनि वृक्षनामानि, यानि च पद्मनामानिशत-पत्रसहस्रपत्रप्रभृतीनि यानि च पृथिवीनामानि-पृथिवीरत्नशर्करावालुकेत्यादीनि, यानि च मवाना निधीनां चतुर्दशानां चक्रवर्तिरत्नानां चुलहिमवदादिकाना वर्षधरपर्वतादीनां पद्मादीना हृदाना गङ्गासिन्धुप्रभृतीनां नदीनां फच्छादीनां विजयानां माल्यवदादीनां वक्षस्कारपर्वतानां सौधर्मादीनां कल्पानां शक्रादीनामिन्द्राणां देवकुरूत्तरमन्दराणामावासानांशकादिसम्बन्धिना मेरुप्रत्यासत्रादीनां कूटानां क्षुल्लहिमवदादिसम्बधिना नक्षत्राण कृत्तिकादीनां चन्द्राणां सूर्याणां च नामानि तानि सर्वाण्यपि द्वीपसमुद्राणां त्रिप्रत्यवताराणि वक्तव्यानि। यद्यथा-हारो द्वीपो हारः समुद्रः, हारवरो द्वीपो हारवरः समुद्रः; हारवरावभासो द्वीपो हारवरावभासः समुद्र इत्यादिना प्रकारेण त्रिप्रत्यवतारास्तावद् वक्तव्याः पावत् सूर्यो द्वीपः सूर्यस्समुद्रः, सूर्यवरो द्वीपः सूर्यवर-स्समुद्रः सूर्यवरावभासोद्वीपो सूर्यवरावभासः समुद्रः / उक्त च जीवाभिगमचूर्णी'अरुणाई दीवसमुद्दा तिपड़ोयारा' यावत् सूर्य-वरावभासः समुद्रः, ततः सूर्यवरावभासपरिक्षेपी देवो द्वीपस्ततो देवः समुद्रः, तदनन्तरं नागो द्वीपो नागः समुद्रः, ततो यक्षो द्वीपो यक्षः समुद्रः, ततो भूतो द्वीपो भूतः समुद्रः, स्थयम्भरमणो द्वीपः स्वयम्भूरमणः समुद्रः, एते पञ्च देवादयो द्वीपाः पञ्च देवादयः समुद्राः एकरूपाः,न पुनरेषां प्रत्यवतारः, उक्तं च जीवाभिगमचूर्णाहते पञ्च द्वीपाः पञ्च समुद्रा एक प्रकारा इति, जीवाभिगमसूत्रे उप्युक्तम्- “देवे नागे जक्खे भूए सयंभूरमणे य एक्के को चेव भाणियव्वो,तिपडोयारं नत्थि त्ति” इति / प्रज्ञा० 15 पद 1 उ० / अष्टमबलदेववासुदेवयो रामनारायणयोः पूर्वभवधर्माचार्ये, स०। ति०। अन्धवृष्णे र्धारिणीकुक्षिजे पुत्रे, स्था० 10 ठा० 3 उ० / (स चारिष्टने मेरन्तिकं प्रव्रज्य शत्रुञ्जयेऽनशनेन मृत्वा शत्रुजये सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां प्रथमवर्गे द्वितीयाध्ययने सूचितम्।) स्वनाम-ख्याते शाण्डिल्यशिष्ये,नं० / नेमिनाथस्य पितरि, पूर्ण नामास्य समुद्रविजय इति / कल्प०१ अधि०७ क्षण। समुद्दघोस पुं० (समुद्रघोष) स्वनामख्याते सूरौ, पिं०। समुद्दजाणी रखो० (समुद्रयानी) अब्धिगायां नावि, समुद्दजाणीए चेव __णावाए। नि० चू०१ उ०। समुद्दतरण न० (समुद्रतरण) समुद्रलङ्घने,“तपःप्रसादाद्वचसः प्रसादादर्तुश्च ते देवि ! तव प्रसादात्। साधुप्रसादाच पितुः प्रसादात्तीर्णो मया गोपदवत्समुद्रः / / 1 / / " ग०२ अधि०। समुद्ददगपूरग पुं० (समुद्रदकपूरक) जलधिवेलावर्धक चन्द्रे, कल्प० अधि०३ क्षण। समुद्ददत्त पुं० (समुद्रदत्त) शौर्यपुरनगरवासिनि शौर्यदत्तपितरि स्वनामख्याते मत्स्यबन्धके, विपा० 1 श्रु०८ अ० / चतुर्थवासुदेवस्य पूर्वभवे जीवे, ति० स०। 'माया' शब्द उदाहृते स्वनामख्याते सर्वाङ्गसुन्दरीभ्रातरि, आ० क० 1 अ०। आ० म०। आ० चू० धातकीखण्डभरते हरिषेणस्य राज्ञो भार्यायाः समुद्रदत्तायाः सुते, उत्त०६ अ०। समुद्दपाल पुं० (समुद्रपाल) स्वनामख्याते पालितपुत्रे,उत्त०२१ अ०। समुद्रपालनिक्षेपाभिधानायाह नियुक्तिकृतसमुद्देण पालियम्मि अ, निक्खेवो चउक्कओ दुहा दव्वे। आगमनोआगमओ, नो आगमओय सो तिविहो / / 423 // समुद्दपालियाऊ, वेयंतो भावओ उ नायव्यो। तत्तो समुट्ठियमिणं, समुद्दपालिज्जमज्झयणं॥४२४।। गाथाद्वयं प्रतीतार्थभव नवर समुद्रपालनिक्षेपप्रस्तावे यत्समुद्रेण पालित इत्युक्त तत्समुद्रपाल इत्यत्र समुद्रेण पाल्यते स्मेति समुद्रपाल इति व्युत्पत्तिख्यापनार्थमिति गाथाद्यार्थः / गतो नाम-निष्पन्ननिक्षेपः / सम्प्रति सूत्रालापकनिक्षेपावसरः स च सति 'सूत्रे' इति सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम्। तचेदम्चंपाए पालिए नाम,सावए आसि वाणिए। महावीरस्स भगवओ, सीसो सो उमहप्पणो / / 1 / / निग्गंथे पावयणे, सावए से वि कोविए। पोएण ववहारते, पिहुंडं नगरमागए // 2 // पिहुंडे ववहरंतस्स, वाणिओ देइ धूअरं। तं ससत्तं पइग्गिज्झ, सदेसं अह पत्थिए।३।। अह पालियस्स घरिणी,समुद्दम्मि पसवई। अह दारए तहिं जाए, समुद्दपालि त्ति णामए / / 4 / / खेमेण आगए चंप, सावए वाणिए घरं। संबड्डइ घरे तस्स, दारए से सुहोइए।।५।। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्दपाल 460 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुद्दपाल वावत्तरी कलाओ, सिक्खिए नीइकोविए। जोव्वणेण य अप्फुण्णे, सुरूवे पियदंसणे // 6 / / तस्स रूववई भज्ज, पिया आणेइ रूविणिं / पासाइ कीलए रम्मे, देवो दोगुंदओ जहा / / 7 / / अह अण्णया कयाई, पासायालोयणे ठिओ। वज्झममणसोभागं, वज्झं पासइ वज्झगं ||8|| तं पासिऊण संविग्गे, समुद्दपालो (इ) णमव्ववी। अहोऽसुभाण कम्माणं, निजाणे पावए इमं // 6 / / संबुद्धो सो तहिं भगवं,परं संवेगमागओ। आपुच्छ अम्मापियरो, पव्वइए अणगारियं / / 10 / / सूत्राणि दशइदमुत्तरं चाध्ययनं क्वचित्सोपस्कारतया व्याख्या--स्यतेचम्पायां चम्पाभिधानायां पुरि पालितो नाम सार्थवाह: श्रावकः श्रमणोपासकः आसीद्-अभूदा वणिगेव वाणिजो-वणिग्जातिमहावीरस्य भगवतः शिष्यो-विनेयः ‘स' इति सः तुर्विशेषणे, महात्मनःप्रशस्यात्मनः स च कीदृग् ? इत्याह-'निग्गथ' त्ति--नैर्गन्थनिर्गन्थसम्बन्धिनि 'पावयणि' ति–प्रव-चने श्रावकः 'स' इति-पालिता विशेषेण कोविदः-पण्डितो विकोविदः, कोऽर्थः, विदितजीवादिपदार्थः पोतेन व्यवहरन प्रवहणवाणिज्यं कुर्वन् 'पिहुंड' पिहुण्डनामकं नगरमागतः-प्राप्तः, तत्र च पिहुण्डे व्यवहरते तद्गुणाकृष्ट चेताः कश्चिद्वाणिजो ददाति-यच्छति 'धूयरं ति-दुहितरमुदढवाश्च तामसी स्थित्वा च तत्र कियन्तमपि काल ता ससत्त्वामित्यापन्नसत्त्वां परिगृह्य - आदाय स्वदेशमथानन्तरं प्रस्थितः-चलितः, तत्र चागच्छतोऽथ पालितस्य गृहिणी समुद्रे-जलधौ प्रसूते-गर्भ विमुञ्चति स्मेति शेषः / 'अर्थ' त्युपन्यासे, दारकः सुतस्तस्मिन्निति प्रसवने जातःउत्पन्नः 'समुद्रपाल' इति नामतो नामाश्रित्य क्रमेण चागच्छन् क्षेमेण--कुशलेनागतश्चम्पायां श्रावको वणिजो 'घर' ति चस्य गम्यमान-त्वाद् गृहं च स्वकीयं कृतं च तत्र वर्धापनकादि संवर्द्धते च गृहे-वेश्मनि तस्येति पालिताभिधानवणिजा दारकः स सुखोचितः सुकुमारः, एवं च प्राप्तः कलाग्रहणयोग्यतां द्विसप्ततिकलाश्च शिक्षितः शिक्षते वा पाठान्तरतः / जातश्च नीतिको विदो-नया-भिज्ञः 'जो व्वणेण य अप्फुण्णे' ति-चस्य भिन्नक्रमत्वात् यौवने-नापूर्णश्च परिपूर्णशरीरश्च,पठ्यते च–'जोवणेण य संपण्णे' त्ति-तत्र च संपन्नो-युक्तोऽत एव सुरूपः सुसंस्थानः प्रियदर्शनः-सर्वस्यैवानन्ददाता परिणयनयोग्यतां च तस्य विज्ञाय रूपवती-विशिष्टाकृति भाया पत्नी पिता पालितवणिगानय ति तथाविध-रूपिणी कुलादागमयति, रूपिणीनाम्नी परिणायितश्च तामसी प्रासादे क्रीडति रमते तया सह रम्ये-(अ) रतिहेतौ देवो दुगुन्दको यथा, अथ अन्यदा कदाचित् प्रासादालोकने उक्तरूपे स्थितः सन् वधमर्हति वध्यस्तस्य मण्डनानि-रक्तचन्दनकरवीरादीनि तैः शोभातत्कालोचितपरभागलक्षणा यस्यासौ वध्यमण्डन–शोभाकस्तं वध्य-वधार्ह कंचन तथाविधाकार्यकारिणं पश्यति बाह्य-नगरबहिर्वरिप्रदेश गच्छतीति बाह्यगस्त कोऽर्थो बहिर्निष्क्रामन्तम, यद्वा-वध्यगमिह वध्यशब्देनोप-चाराध्यभूमिरुक्ता तथाविधं वध्यं दृष्ट्वा संवेगः संसारवैमुख्यतो मुक्त्यभिलाषस्तद्धे-तुत्वात् सोऽपि संवेगस्त समुद्रपाल इदम्--वक्ष्यमाणमब्रवीत्, यथा-अहो अशुभानां कर्मणांपापानामनुष्टानानां निर्याणम्-अवसानं पापकम् अशुभमिदं-प्रत्यक्षं यदसौ वराको वधार्थमित्थं नीयले इति भावः, एवं परिभावयन संबुद्धः-अवगततत्त्वः स वणिकपुत्रस्तत्रेति तस्मिन्नेव प्रासादालोक ने भगवान्माहात्म्यवान् माहात्म्येऽपि भगवच्छब्दस्य दर्शनात्पर-प्रकृष्ट संवेगमागतस्ततश्वापृच्छय मातापितरौ 'पव्वए' ति-प्रावाजीत-प्रकर्षण गतवान्, कोऽर्थः ? प्रतिपन्नवान्, अनगारिता-निःसङ्गतामिति सूत्रदश-कार्थः। सम्प्रत्यनुवादोऽपि स्पष्टताहेतुाख्याङ्गमिति ख्यापनायैवोक्तमेवार्थमनुवदन् विशेष च वदन्नाह नियुक्तिकृत्चंपाए सत्थवाहो, नामेणं आसि पालगो नाम / वीरवरस्स भगवओ, सो सीसो खीणमोहस्स।।४२५|| अह अन्नया कयाई, पोएणं गणिमधरिम-भरिएणं / तो नगरं संपत्तो, पे (पि) हुंडं नामनामेणं / / 426 / / ववहरमाणस्स तहिं, पेहुंडे देइ वाणिओ धूयं / तंपिय पत्तिं घेत्त-ण णिग्गओ सो सदेसस्स / / 427 / / अह सा सत्थाहसुया, समुद्दमज्झम्मि पसवई पुत्तं / पियदसणसव्वंगं, नामेण समुद्दपालि त्ति / / 428|| खेमेणं संपत्तो,सो पालिय सावओ घरं निययं / धाइदसद्धपरिवुडो, अह वड्वइ सो उदहिनामो // 426|| वावत्तरि कलाओ, य सिक्खिओ नीइकोविदो जाहे। तो जोव्वणमप्फुन्नो, जाओ पियदंसणो अहियं / / 430 / / अह तस्स पिया पत्तिं, आणेई रूविणि त्ति नामेणं / चउसद्विगुणोवेयं, अमरवहूणं सरिसरूवं // 431|| अह रूविणी य सहितो, कीलइ सो भवणपुंडरीयम्मि। दोगुदगु व्व देवो, किंकरपरिवारिओ निश्च / / 432 / / अह अन्नया कयाई, ओलोयणसंठिओ सदेवीओ। बज्झं नीणिज्जंतं, अन्निजंतं जणसएहिं // 4333 // अह भणइ सन्निनाणी, भीओ संसारियाण दुक्खाणं। नीयाण पावकम्मा-ण हा जहा पावगं इणमो // 434 / / संबुद्धो सो भगवं, संवेगमणुत्तरं च संपत्तो। आपुच्छिऊण जणए, निक्खंतो खायजसकित्ती / / 425 / / गाथा एकादश व्याख्यातप्राया एव, नवरं 'वीरवरस्स' त्ति-नामतोऽन्येऽपि वीराः सम्भवन्ति, स तु भगवान् भावतोऽपि 'वीर' इति प्राधान्यख्यापकं वरग्रहणम्, अनेन भगवत्समकालतामप्यस्य दर्शयति- 'गणिमधरिमभरिएणं' ति-गणिम-पूगफलादि धरिमसुवर्णादि प्रियदर्शनानि-सकलजनाभिमतावलोकनानि सर्वाण्यङ्गानि शिरउरः प्रभृतीन्यस्येति प्रियदर्शनसर्वाङ्गस्तं 'धातीदसद्धपरिखुड' ति दशार्द्धधात्रीपरिवृत्तो दशार्द्ध च पञ्च ताश्च क्षीर--मजनम Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्दपाल 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुद्दपाल ण्डनक्रीडनाङ्का धात्र्यः उदधिनामा उदधिसमानार्थसमुद्रपदोप... लक्षिताभिधानः समुद्रपालनामेति यावत 'जोव्वणमप्फुपण' रािमकारोऽलाक्षणिकःजातः प्रियदर्शनोऽधिकमित्यतिशयेन सविशेषलावण्यहेतुत्वाद् यौवनस्य चतुषष्टिगुणा अश्वशिक्षादिकलाष्टकरहिताः कला एव विज्ञानापरनामिका उच्यन्ते, भवनपुण्डरीके- भवनप्रधाने पुण्डरीक शब्दस्येह प्रशंसावचनत्वात् वध्यं पश्यन्ती-ति शेषः / 'नीणिज्नत' ति-नीयमानं 'अणिज्जत' ति-अन्चीयमानम् अनुगम्यमानं जनशतरविवेकिमिरिति गम्यते, पठन्ति च- 'वज्झनीणिअंत,पेच्छति तो सो जणवाहिं' ति स्पष्टम् संज्ञी-सम्यग-दृष्टिः स चासौ ज्ञानी च संज्ञिज्ञानी भीतस्त्रस्तः सन् संसारिकेभ्यो दुःखेभ्य इति आर्षत्वाच्चसुव्यमत्ययः, किं भणति, इत्याह-नीचानां-निकृष्टानां, पापकर्मणां-- पापहेत्वनुष्ठानानां चौर्यादीनां 'हा' इति खेदे यथा पापकं फलमिति गम्यते, 'इणमो' ति-इदं-प्रत्यक्षम, किमुक्तं भवति यथाऽस्य चोरस्यानिष्ट फलं पापकर्मणां तथाऽस्मादृशामपीति नियुक्तिगाथैकादशकार्थः / प्रव्रज्य च यदसौ कृतवाँस्तदाह सूत्रकृत् - जहाय सङ्गत्थमहाकिलेसं, ___ महंतमोहं कसिणं भयाणगं / परियायधम्मच मिरोयएज्जा, वयाइँ सीलाई परिस्सहे य॥११॥ अहिसं सचं च अतेणगंच, तत्तो अबंभं अपरिग्गहं च। परिवञ्जियापंच महव्ययाई, चरिज धम्म जिणदेसियं विऊ // 12 // सव्वेहि भूएहिं दयाणुकंपे, खंतिक्खमे संजय बंभचारी। सावजजोगं परिवजयंतो, चरिज भिक्खू सुसमाहि इंदिए।१३|| कालेण कालं विहरिज्ज रहे, बलाबलं जाणिय अप्पणो य। सीहो य सद्देण ण संतसेन्जा, वयजोग सोचाण असब्भमाहु॥१४॥ उवेहमाणो उपरिव्वएजा, पियमप्पियं सव्वं तितिक्खएजा। ण सव्व सव्वत्थ ऽभिरोयएज्जा, न यावि पूर्य गरिहं च संजए॥१५।। अणेगछंदा मिहमाणदेहि, जे भावओ से पकरेति भिक्खू / भय भेरवा तत्थ उविंति भीमा, दिव्या मणुस्सा अदुवा तिरिच्छा।।१६।। परिस्सहा दुव्विसहा अणेगे, सीयंति जत्था बहुकायरा नरा। से तत्थ पत्ते न वहिज्ज भिक्खू, संगामसीसे इव नागराया।।१७।। सीयोसिणादंसमसगाय फासा, आतंका विविहा फुसंति देहं। अकुकुओतत्थ हि आसएजा, रयाइ खेवेज्ज पुरा कडाइं|१८|| पहाय रागं च तहेव दोसं, __मोहं च भिक्खू सययं वियक्खणे / मेरु व्व वाएण अकंपमाणे, परीसहे आयगुत्ते सहेजा।।१६।। अणुन्नए नावणए महेसी, नेया वि पूर्य गरहं च संजए। से उज्जुभावं पडिवज संजए, णिव्याणमग्गं विरए उवेइ|२०|| अरइरइसहे पहीणसंथवे, विरए आयहिए पहाणवं। परमट्ठपहे हि चिट्ठइ, छिण्णसोए अममे अकिंचणे // 21 / / विवित्तलयणाइँ भइज्जताई, निरोवलेवाइँ असंथडाइं। इसीहि चिण्णाइँ महाजसेहिं, काएण फासेज्ज परीसहाई॥२२॥ सण्णाणणाणोवगए महेसी, अणुत्तरं चरित्रं धम्मसंचयं / अणुत्तरे णाणधरे जसंसी, ओहावई सूरिए वंतलिक्खे // 23 // त्रयोदशसूत्राणि प्रायः सुगमान्येव, नवरं हित्वा-त्यक्त्व। संश्चासौ ग्रन्थश्च सद्ग्रन्थः प्राकृतत्वाद् बिन्दुलोपस्तं, पठन्ति च–'जहित्तु संग च' त्ति जहाय संग च' त्ति वा उभयत्र हित्वा सङ्ग स्वजनादिप्रतिबन्धं चः पूरणे निपातः, महान्क्ले शोयरमाद्यस्मिन् वा तं महाक्लेशम् 'महंतमोहंति-माहान्मोहःअभिष्वगो यरिमन् यतो वा तं तथाविध 'कसिणं' ति-कृत्स्नं कृष्णं वा कृष्णलेश्यापरिणामहेतुत्वेन भयानकं महाक्लेशादिरूप-त्वादेव विवेकिना भयावहम् / 'परियाय' ति-प्रक्रमात्प्रव्रज्यापर्यायस्तत्र धर्मः पर्यायधर्मस्तं, चशब्दः पादपूरणे, अभिरोयएज्ज' त्ति-आर्षत्वाद्ह्यस्तन्यर्थे सप्तमीततोऽभ्यरोचत-अभिरुचितवॉस्तदनुष्ठानविषयां प्रीतिं कृतवान् उपदेशरूपता चतन्त्र न्यायेन ख्यापयितुमित्थं प्रयोगः यद्वा-आत्मानमेवायमनुशास्ति यथा हे आत्मन् ! सङ्ग त्यक्त्वा प्रवाज्याधर्ममभिरोचयेद् भवानेवमुत्तरक्रियास्वपि यथासम्भव भावनीयम्। प्रव्रज्यापर्यायधर्ममेव विशेषत आह Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुद्दपाल 462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुद्दपाल प्रतानि महाव्रतानि शीलानिपिण्डविशुद्ध्याधुत्तरगुणरूपाणि परीषहानिति भीमसेनन्यायेन परिषहसहनानि च / एतदभिरुच्य तदनन्तरं च यत्कृतवास्तदाह-अहिंसां सत्यमस्तैन्यकं च 'तत्तो य बभं अपरिगह च' त्ति-ततश्च ब्रह्मचर्यमपरिग्रहं च प्रतिपद्य-अङ्गीकृत्य 'अबंभपरिगह च' इति तु पाठे परिवयं चेत्यध्याहार्य पञ्च महाव्रतानि-उक्तरूपाणि 'चरिजत्ति-प्राग्वदचरत् नाङ्गीकृत्यैव तिष्टोदिति भावः, धर्म श्रुतचारित्ररूपं जिनदेशित 'विउत्ति-विद्वान् जानानः। 'सव्वेहिं भूतेहिं' सुबव्यत्यात् सर्वेष्वशेषेषु प्राणिषु द्वययाहितोपदेशादिदानात्मिकया रक्षणरूपया वा अनुकम्पनशीलो दयानुकम्पी पाठान्तरतो दयानुकम्पो वा क्षान्त्या न त्वशक्त्या क्षमते प्रत्यनीकाद्युदीरितदुर्वचनादिकं सहत इति क्षान्तिक्षमः, संयत इति संयतः, स चासौ ब्रह्मचारी च संयतब्रह्मचारी पूर्व ब्रह्मप्रतिपत्त्यागत्वेऽपि ब्रह्मचारीत्यभिधानं ब्रह्मचर्यस्य दुग्नुचरत्वख्यापनार्थम्, अनेन च मूलगुणरक्षणोपाय उक्तः। 'कालेण कालं ति-रूढितः काले-प्रस्तावे, यद्वा-कालेन-पादोनपौरूष्यादिना कालमिति कालोचित प्रत्युपेक्षणादि कुर्वन्निति शेषः, राष्टे-मण्डले बलाबल सहिष्णुत्वासहिष्णुत्वलक्षणं ज्ञात्वाऽऽत्मनो यथा यथा संयमयोगहानिर्न जायते तथा तथेत्यभिप्रायः,अन्यच सिंहवच्छब्देन प्रस्तावाद्धयोत्पादकेन न समत्रस्यन्नैव सत्त्याचलितवान्, सिंहदृष्टान्ताभिधानं च तस्य सात्त्विकत्वेनातिस्थिरत्वादत एव वाग्योगम्-अर्थाद्दुःखोत्पादक 'सोच' त्ति-श्रुत्वा न-नैवासभ्यमश्लीलरूपम् 'आहु' त्ति-उक्तवान् / तर्हि किम-यमकरोदित्याह-उपेक्षमाणस्तमवधीरयन पर्यव्रजत तथा प्रियम-नुकूलमप्रियमननुकूलं 'सव्वं तितिक्खएज' त्ति-सर्वमतितिक्षतसोढवान्। किञ्च 'न सव्व' त्ति-सर्व वस्तु सर्वत्र स्थानेऽभ्यरोच-यत न यथा दृष्टाभिलाषुकोऽभूदिति भावः / यदि वा-यदेकत्र पुष्टालम्बनतः सेवितं नतत्सर्वमभिमताहारादि सर्वत्राभिलीष-तवान्,नचापि पूजा गहाँ वाऽभ्यरोचयतेति सम्बन्धः, इह च गा-तोऽपि कर्मक्षय इति केचिदतस्तन्मतव्यवच्छेदार्थ गर्हाग्रहणं, यद्वा-गर्हा-परापवादरूपा, ननु भिक्षोरपि किमन्यथाभावः सम्भवति?, येनेत्थमित्थं च तद्गुणाभिधानमित्याह- 'अणेग' त्ति-वृत्तार्द्ध तत्र च 'अणेग' त्ति-अनेके छन्दाः अभिप्रायाःसम्भव, न्तीति गम्यते, 'मिह' त्ति-मकारोऽलाक्षणिकः, इह जगति 'माण-वेहि' ति-सुब्ब्यत्ययान् मानवेषु 'ये' इति याननेकान् छन्दानुभावतस्तत्त्ववृत्त्यौदयिकादिभावतो वा स प्रकरोति भृशं विधत्ते 'भिक्खु' त्ति-अपिशब्दस्य गम्य मानत्वात् भिक्षुरपि-अनगारोऽपि सन् अत इत्थमित्थं च तद्गणभिधानमिति भावः / अपरं च'भयभेरवा' भयोत्पादकत्वेन भीषणास्तत्रेति ब्रह्मप्रतिपत्तौ 'उइंति' त्तिउद्यन्ति उदयं यान्ति पठ्यते च-'उति' त्ति- उपयन्ति भयभैरवा इत्यनेनापि गते-भीमा इति पुनरभिधानमतिरौद्रता ख्यापनायोक्तं, दिव्या इत्यादावुपसर्गा इति गम्यते। 'तिरिच्छत्ति तैरश्वाः तथा 'परीसह' ति-परीषहांश्च उद्यन्तीति सम्बन्धः, सीदन्ति–संयम प्रति शिथिलीभवन्ति 'जत्थ' ति यत्र येषूपसर्गेषु परीषहेषु च सत्सु 'से' इति-स तत्र | तेषु 'पत्ते त्ति-वचन-व्यत्ययात, प्राप्तेषु प्राप्तो वानुभवनद्वारेणायातो न(व्यर्थत् स्यात्) व्यथाभीतश्चलितो वा सत्त्वाद् भिक्षुः सन संग्रामशीर्षेयुद्धप्रकर्ष इव नागराजो-हरितराजः स्पर्शास्तृ-उपतापयन्ति अकुक्कय' त्ति आर्षत्वात् कुत्सितं कूजति-पीडितःसन्नाक्रन्दति कुकूजो न तथेत्यकुकूजः पठ्यतेच–'अकक्करित्ति-कदाचिद्वेदनाकुलि-तोऽपिन कर्करावितकारी, अनेन चानन्तरसूत्रोक्त एवार्थो विस्पष्टतार्थमन्वयेनोक्तः, एवंविधश्च स रजांसीव रजांसि जीव-मालिन्यहेतुतया कर्माणि 'खेवेज' त्ति-अक्षिपत् परीषहसहनादि-भिः क्षिप्तवान्, 'मोह' (म) इतिमिथ्यात्वहास्यादिरूपोऽज्ञानं वा गृह्यते, आत्मना गुप्त आत्मगुप्तः कूर्मवत् संकुचितसर्वाङ्गः अनेन परीषहसहनोपाय उक्तः, किञ्च 'न यावि पूर्य गरिहं च संजये' ति-न चापि पूजा गर्दा च प्रतीति शेषः असजत्-सङ्ग विहितवान्, तत्र च अनुन्नतत्व मनवनतत्वं च हेतुर्भावत उन्नतो हि पूजा प्रति अवनतश्च गहाँ प्रति सङ्ग कुन्नित्वन्यथेति भावः,पूर्वत्राभिरुचिनिषेध उक्तः इह तु सङ्गस्येति पूर्वस्माद्विशेषः,स इति–स एवंगुणःऋजुभावम्-आर्जव प्रतिपद्य-अङ्गीकृत्य संयतो निर्वाणमार्ग सम्यग्दर्शनादिरूपं विरतः सन्नुपैति विशेषेण प्राप्नोति, वर्तमाननिर्देश: इहोत्तरत्र च प्राग्वत्ततः स तदा कीदृशः किं करोतीत्याह-अरतिरती संयमासंयमविषये सहतेनताभ्यां वाध्यत इत्यरतिरतिसहः 'पहीणसंथवे' त्ति-प्रक्षीणसंस्तवःसंस्तवाहीणो वा संस्तवश्व पूर्वपश्चात्संस्तवरूपो वचनसवासरूपो वा गृहिभिः सह, प्रधानः स च संयमो मुक्तिहेतुत्वात यस्यास्त्यसौ प्रधानवान् परमः प्रधानोऽर्थः पुरुषार्था वाऽनयोः कर्मधारये परमार्थो मोक्षः, स पद्यते-गम्यते यैस्तानिपरमार्थपदानि सम्यग्दर्शनादीनि सु-व्यत्ययात् तेषु तिष्ठति अविराधकतयाऽऽस्ते 'छिन्नसोय'त्ति छिन्नशोकः छिन्नानि या श्रोतांसीव श्रोतांसिमिथ्यादर्शनादीनि येनासौ छिन्नश्रोताः,अतएव अममोऽकिञ्चनः, इह च संयमवि-शेषाणामानन्त्यातदभिधायिपदाना पुनः पुनर्वचनेऽपि न पौनरुक्त्य, तथा विविक्तलयनानिस्त्रयादिविरहितोपाश्रयरूपाणि विविक्तत्वादेव च 'निरोवलेवाई ति-निरुपलेपानि-अभिष्वङ्ग रूपोपलेपवर्जितानि भावतो द्रव्यतस्तु तदर्थं नोपलितानि असंसृतानि-वीजादिभिरय्याप्तानि अत एव च निर्दोषतया ऋषि-भिः-मुनिभिश्चीर्णान्यासेवितानि,चीर्णशब्दस्य तु सुचीर्ण प्रोषितव्रतमितिक्त्साधुता 'फासिज्ज' त्ति-अस्पृशत्-सोढवानित्यर्थः पुनः पुनः परीषहस्पर्शनाभिधानमतिशयख्यापनार्थम्, ततः स कीदृगभूदित्याह 'स' इति समुद्रपालनामा मुनिनिमिह श्रुतज्ञानं तेन ज्ञानम्-अवगमः प्रक्रमाद्यथावत् क्रियाकलापस्य तेनोपगतो युक्तो ज्ञानज्ञानोपगतः,पाठान्तरतः सन्ति-शोभनानि नानेत्य-नेकरूपाणि ज्ञानानि सङ्ग त्यागपर्यायधर्माभिरुचितत्वाद्यवबोधा-त्मकानि तैरुपगतः सन् नानाज्ञानोपगतः धर्मसञ्चयक्षान्त्यादियतिधर्मसमुदयम् 'अणुत्तर णाणधरि त्ति-एकारस्यालाक्षणिकत्वादनुत्तरज्ञानं केवलाख्यं तद्धारयत्यनुत्तरज्ञानधरः, पठ्यते च–'गुणुत्तरे णाणधरि' ति-तत्र च गुणोत्तरोगुणप्रधानो ज्ञानं प्रस्तावात् केवलज्ञानं तद्धरः, एकारस्यालाक्षणिकत्वाद् गुणोत्तर यज्ज्ञानं तदरो वाऽत एव यशस्वी 'ओभासइय'त्ति अवभासते--प्र-- Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुहपाल 463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समुयाय काशते सूर्यवदन्तरिक्षे यथा नभसि सूर्योऽवभासते तथा असाव-- प्ययमेव विधिर्वक्तव्यो नवरं पूर्व प्रवेदिते योगं कुर्वित्युक्तमत्र तु स्थिर प्युत्पन्नकेवलज्ञान इति त्रयोदशसूत्रार्थः। परिचितं कुर्विति वदति योगोत्क्षेपकायोत्सर्गो नन्द्याकर्षण प्रदक्षिणासम्प्रत्यध्ययनार्थमुपसंहरस्तस्यैव फलमाह त्रयविधिश्च न क्रियते, शेषः सप्तवन्दनकादिको विधिस्तथैव / अनु०। दुविहं खदेऊण य पुन्नपावयं, दश०। (अधिक जोगविहि' शब्दे चतुर्थभागे 1645 पृष्ठेउक्तम्) भोजे, ग०। निरंजणे सव्वओ विप्पमुक्के / जत्थ समुदे (द्दे) सकाले, साहूणं मंडलीइ अजाओ। तरित्ता समुहं व महाभवोघं, गोअम ! ठवेंति पाए, इत्थीरजंन तं गच्छं // 66|| समुद्दपाले अपुणागमं गए // 24!| यत्र-गणे समुद्देशकाले-भोजनसमये साधूनां मण्डल्याम् आर्याःद्विविध-द्विभेदं घातिकर्मभवोपग्राहिभेदेन पुण्यपापं-शुभाशुभ संयत्यः पादौ स्थापयन्ति मण्डल्यां समागच्छन्तीत्यर्थः, हे इन्द्र-भूते! प्रकृतिरूप निरञ्जनः-कर्मसङ्गरहितः पठ्यते च-'निरंगणो' त्ति तत् स्त्रीराज्यं जानीहि, नतं गच्छम्। अत्र समुद्देशशब्देन भोजनमुच्यते, अगेर्गत्यर्थन्वान्निरङ्गनः-प्रस्तावात् संयम प्रति निश्चलः शैलेश्य यत उक्तमोघनियुक्तिवृत्तौ / तथाहिवस्थाप्राप्त इति यावत्, अत एव सर्वत इति बाह्यादान्तराच प्रक्र "जइ पूण विआलपत्ता,य एव पत्ता उवस्सया ण लभे। मादभिष्वगहेतोस्तीत्वा-उल्लङ्ध्य समुद्रमिव अतिदुस्तरतया महाश्चासौ सुन्नघरे देउले वा, उजाणे वा अपरिभोगे" / / 1 / / भवौघश्च देवादिभवसमूहस्तं शेष स्पष्टमिति सूत्रार्थः। यदि पुनर्विकाल एव प्राप्तास्ततश्च तेषां विकालवेलाया वसतौ प्रविशता अमुमेवार्थ स्पष्टयितुमाह नियुक्तिकृत् प्रमादकृतो दोषो न भवति, 'य एव पत्त' त्ति-ये चैवाप्र-त्यूषस्येव प्राप्ताः काऊण तवचरणं, बहूणि वासाणि सो धुयकिलेसो। किं तु उपाश्रयं न लभन्ते ततः क्व समुद्दिशन्तु? शून्यगृहे देवकुले वा तं ठाणं संपत्तो, ज संपत्ता न सोयंति॥३५।। उद्याने वा अपरिभोगे लोकपरिभोगरहिते समुद्दिशन्तीति क्रियां वक्ष्यति सुगममेव, 'इति' परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत्। उक्तोऽनुगमः, संप्रति "आवायचिलिमिलाए, रणे वा णिब्भए समुद्दिसणं। नयास्तेऽपि प्राग्वद् / उत्त०२१ अ०। सभए पच्छन्नाऽसइ, कमढगकुरुयाय संतरिया।।१।।" अथ शुन्यगृहादौ सागारिकाणामापातो भवति ततः आपाते सीत समुद्दरवभूय त्रि० (समुद्ररवभूत) जलधिशब्दप्राप्ते, विपा० 1 श्रु०३ चिलिमिली जवनी च दीयते, 'रणे व' त्ति-अथ शून्यगृहादि अ०भ० सागारिकाक्रान्तं ततोऽरण्ये निर्भये समुद्दिशनं क्रियते, सभये अरण्ये समुद्दलिक्खा स्त्री० (समुद्रलिक्षा) द्वीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। प्रच्छन्नस्य वा असति-अभावे ततो वसतिसमीप एव कम-ठकेषु शुष्केन समुहवायग पुं० (समुद्रवाचक) वाचकवरे समुद्राख्ये आचार्य , आ० चू० लेपेन सबाह्याभ्यन्तरेषु लिप्तेषु भुञ्जतोऽकुरुकुचा पादप्रक्षालनादि १अ०। क्रियते, सान्तराः-सावकाशा बृहदन्तराला उपविश्य इदानीं भुक्त्वा समुद्दवायस पुं० (समुद्रवायस) चर्मपक्षिभेदे, जी०१ प्रति०। बहिः पुनर्विकाले वसतिमन्विषन्ती-त्यादि गाथाच्छन्दः // 66 / / ग०२ समुद्दविजय पुं० (समुद्रविजय) सौर्यपुरे दशदशाराणा मध्ये ज्येष्ठ दशारे अधि०। नेमिनाथस्वामिनः पितरि, उत्त०२२ अ० आ० चू० / स०ा आव०। समुद्धिय त्रि० (समुद्धत) सम्-एकीभावेनाविप्रतिपत्त्या उद्भूता आ०म०। अन्त०। आ० कादश०। समुद्धृताः / षो०१६ विव० / उत्क्षिप्तेषु, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। अट्ठारसयसहस्सा, सीसाणं आसि रिट्टनेमिस्स। समुपविट्ठ त्रि० (समुपविष्ट) सम्यक् परस्परानाबाधया उपविष्टाः। कण्हेण पणमियम्मि य,सिवा समुद्देण तणयस्स / / 8 / / सम्यस्थितेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि०। ति०। प्रव० / कल्प० / वासुदेवपितरि, आव०१ अ० / समुपेहिय अव्य० (समुपेक्ष्य) सम्यग दृष्ट्वेत्यर्थे, दश०७ अ०। समुद्दवीइ सी० (समुद्रवीचि) सागरतरङ्गे, तं०। समुप्पण्ण त्रि० (समुत्पन्न) जाते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ० / नि०। समुद्दसूरि पुं० (समुद्रसूरि) स्वनामख्याते कस्यचित्प्रतिष्ठाकल्प सिद्धे,प्रव० 35 द्वार। प्राप्ते, कल्प०१ अधि०१क्षण। विशेषस्य कर्तरि आचार्य, जीवा० 1 अधि० 13 गाथा टी०। समुप्पत्तुकाम वि० (समुत्पत्तुकाम) उत्पत्तुमिच्छौ, स्था० 4 ठा०२ समुद्विस्स अव्य० (समुद्दिश्य) सम्यगुद्दिश्य प्रतिज्ञायेत्यर्थे, आचा०२ उ० / भवितुकामे, स्था०५ ठा०१ उ०। श्रु०१चू०२ अ०१ उ०।अधिकृत्येत्यर्थे (आचा०) आश्रित्येत्यर्थे, समुप्पाय पुं० (समुत्पाद) प्रादुर्भाव, सूत्र०१ श्रु०१अ०३ उ०। आचा०१ श्रु०८ अ०२ उ०। समुप्पक्खमाण त्रि० (समुत्प्रेक्षमाण) निरूपयति, ज्ञा० १श्रु०१ अ०। समुद्दिस्सित्तए अव्य० (समुद्देष्टुम्) योगसामाचार्यव स्थिरपरिचितं समुवगय त्रि० (समुपगत) समीपमुपगते, व्य० 4 उ०। कुर्विदमिति वक्तुमित्यर्थे, स्था० 2 ठा० 1 उ०। समुब्भव पुं०(समुद्भव) उत्पत्तौ, विशे० / दशा०। समुद्देस पुं० (समुद्देश) व्याख्यायाम,व्य० 1 उ० / आ० म० / जीत०। समुन्भूय त्रि० (समुद्भूत) अतिप्रबलतयोत्पन्ने, स्था० 4 ठा० 1 उ० / शिष्येण हीनादिलक्षणोपेते अधीते गुरो निवेदिते स्थिरपरिचितं समुयाण न० (समुदान) भैक्षणे, याञ्चायाम, स्था० 4 ठा०२ उ०। कुर्विदमिति गुरुवचनविशेष, अनु० / समुद्देशविधिः-अङ्गादिसमुद्देशेऽ- | समुयाय पुं० (समुदाय) वृन्दे, अनु०। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुल्लाव 464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोयार समुल्लाव पु० (समुल्लाप) जल्पे, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। प्रमाणित, विपा० १श्रु०७०।आ०म०1 समुवट्ठिय त्रि० (समुपस्थित) सम्यगुपस्थिते, उत्त०२४ अ०। समुवसंपण्ण त्रि० (समुपसंपन्न) समिति-सम्यगृहवृत्या सर्वथा समर्पणरूपया उपपन्नः / सम्यक् सामीप्यमागते, ध०३ अधिक। समुवागय त्रि० (समुपागत) समायात, भ०११ श०१२ 30 / समुवेहमाण त्रि० (समुपेक्षमाण) पश्यति, आचा०१ श्रु०५ अ०। समुसरण न० (समवसरण) तीर्थकृता सदेवमनुजासुरायां पषदि, पिं० / (अत्रत्या वक्तव्यता 'पिड' शब्दे पञ्चमभागे गता।) समुस्सय पु० (समुच्छ्य) काये, आव० 5 अ० / सूत्र० / कर्मोप-चये, आचा० 1 श्रु० 4 अ०४ उ०। समुस्सिय त्रि० (समुत्सृत) सम्यगूर्वीकृत , रा०। समुह न० (सन्मुख) “मांसादेर्वा" ||1 / 26 / / इत्यनुस्वारस्य पाक्षिको लोपः / समुह / समुह / प्रा० / अभिमुखे, रा०। समुहा स्त्री० (श्वमुखिका)शुनो मुखं श्वमुखं, तस्येवाचरणं श्वमुखिका। कॉलेयकस्येव भषणे, 'समुहिं तुरिय चवलं धमतं ति' शुनो मुखं श्वमुखं तस्यैवाचरणं श्वमुखिका-कौलेयकस्येव भषण त्वरितचपलम्-अतिचटुलतया धमन् शब्द कुर्वन्नित्यर्थः / ज्ञा० 1 श्रु०७ अ०। समुहागय त्रि० (समुखागत) उद्भटवेषवति, “समुहागय ओसरिअं” पाइ० ना० 185 गाथा। समूसिय त्रि०(समुच्छ्रित) सम्यगज़ श्रितः समुच्छ्रितः। ऊर्ध्व व्यवस्थिते, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। समूसियरोमकूव त्रि० (समुच्छूितरोमकूप) समुच्छ्रितानि रोमाणि कूपेषु यस्येति समुच्छ्रितरोमकूपः। रोमाञ्चिते, ज्ञा० १श्रु०१ अ०। कल्प०। समूह पुं० (समूह) द्विवादिपरमाणूना संयोगे, आ० म० १अ०। समुदाये, विशे० / स्कन्धे, अनु०। सड़े, स्था० 3 ठा० 4 उ०। समूहीभूतानि बहूनीत्यर्थः / कल्प०१ अधि०३ क्षण। समेच्च अव्य० (समेत्य) ज्ञात्वेत्यर्थे , आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। समेमाण त्रि० (समयत्) समागच्छति, आचा०१ 208 अ०। समेय त्रि० (समेत) मिलिते, विशे०। समोडहमाण त्रि० (समुपदहत्) भस्मसात्कुर्वति, भ०८ श० / समोणय त्रि० (समवनत) ईषदवनते, आ० म०१ अ०। रा०। समोयरंत त्रि० (समवतरत्) सर्वतो विस्तरति, तं०। समोयार पुं० (समवतार) सम्यग् अविरोधेन वर्त्तनं समवतारः। अविरोधवृत्तितायाम्, अनु० / ('आणुपुव्वी' शब्दे द्वितीयभागे 134 पृष्ठे गता वक्तव्यता।) समवतारं निरूपयितुकाम आहसे किं तं समोयारे?, समोयारे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहा णामस--मोयारे ठवणासमोयारे दव्वसमोयारे खेत्तसमोयारे कालसमोयारे भावसमोयारे / नामठवणाओ पुव्वं वण्णिआओ० जाव से तं भवियसरीरदव्वसमोयारे / से किं तं जाणगसरीरभविअसरीर-वइरित्ते दव्वसमोयारे?, दव्वस० तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-आयसमोयारे परसमोयारे तदुभयसमोयारे। सव्वदव्वा विणं आयसमोआरेणं आयभावे समोयरंति, परसमोयारेणं जहा कुंडे वदराणि, तदुभय समोयारेणं जहा धरे खंभो आयभावे अ, जहा घड़े गीवा आयभावे अ। अहवा जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसमोयारे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-आयसमोयारे अ, तदुभ-यसमोयारे / चउसट्ठिआ आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोतारेणं वत्तीसिआए समोअरइ, आयभावे अवत्ती-सिआ आयसमोतारेणं आयभावे समोतरइ, तदुभयसमोतारेणं सोलसिआए समोअरइ आयभावे अ, सोलसिआ आयसमोआ-रेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोतारेणं अट्ठभाइआए समो-अरइ आयभावे अ,अट्ठभाइया आयसमोआरेणं आयभावे समो-अरइ तदुभयसमोआरेणं चउभाइआए समोअरइ आयभावे अ, चउभाइया आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमो-आरेणं अद्धमाणीए समोअरइ आयभावे अ, अद्धमाणी आयस-मोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमायारेणं माणीए समो-अरइ आयमावे असे तं जाणगसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसमोआरे / से तं णो आगमओ दव्वसमोयारे / से तं दव्वसमोयारे। से किं तं खेत्तसमोयारे?, खेत्तसमोयारे दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-आयसमोयारे अ,तदुभयसमोयारे य / भरहे वासे आयसमोयारे य आयभावे समोयारे अ, तदुभयसमोयारेणं जंबुद्दीवे समोयारेणं आयभावे य, जंबुद्दीवे आयसमोयारेणं आयभावे समोतरइ, तदुभयसमोतारेणं तिरियलोए समोतरइ आयभावे अ, तिरियलोए आयसमोतारेणं आयभावे समोअरइ तदुभयसमोतारेणं लोए समोतरइ आयभावे अ / से तं खेत्तसमोया (आ) रे / से किं तं कालसमोयारे? कालस० दुविहे पन्नते, तं जहा-आयसमोयारे अ, तदुभयसमोयारे य / समए आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं आवलियाए समोयरइ आयभावे अ, एवमाणापाणू थोवे लवे मुहुत्ते अहोरत्ते पक्खे मासे ऊऊ अयणे संवच्छरे जुगे वाससते वाससहस्से वाससतसहस्से वा पुव्वंगे पुव्वे तुडिअंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हूहूअंगे हूहूए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे णलिणंगे णलिगे अत्थनिउरंगे अत्थनिउरे अउअंगे अउए नउअंगे नउए पउअंगे पउए चूलि-अंगे चूलिया सीसपहेलिअंगे सीसपहेलिया पलिओवमे सागरो--वमे आयसमोयारेणं आयभावे समोवारइ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोयार 465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोयार सदुभयसमोतारेणं ओसप्पिणीउस्सप्पिणीसु समोतरइ आय-- भावे अ, ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ आयसमोयारेणं आयभावे समोयारेणं तदुभयसमोतारेणं पोग्गलपरिअट्टे समोअरइ आयभावे अ, पोग्गलपरिअट्टे आयसमोयारेणं आयभावे समोतरइ तदुभयसमोतारेणं तीतद्धाअणागतद्धासु समोअरइ आयभावेणं / तीतद्धा अणागतद्धाओ आयसमोआरेणं आयभावे समोआरेणं तदुभयसमोतारेणं सव्वद्धार समोतरइ आयभावे / से तं कालसमोयारे / से किं तं भावसमोयारे?, भावसमोयारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--आयसमोयारेणं तदुभयसमोतारेणं कोहे आयसमोतारेणं आयभावे समोयारेणं तदुभयसमोतारेणं माणे समोतारेणं आयभावे अ, एवं माणे, माया, लोभे, रागे, मोहणिज्जे, अट्ठ कम्मपयडीओ आयसमोयारेणं आयभावे / समोअरइ, तदु-भयसमोयारेणं छविहे भावे, समोतरइ आयभावे / एवं छविहे भावे, जीवे जीवत्थिकाए आयसमोयारेणं आयभावे समोअरइ तदुभयसमोयारेणं सव्वदव्येसु समोअरइ आयभावे या एत्थ संगहणीगाहा-"कोहे माणे माया, लोभे रागे य मोहणिजे अश्पगडीभावे जीवे,जीवत्थिकायदव्वा य" ||1|| से तं भावसमो--यारे। से तं समोतारे। (सू०१५३४) 'से कि त सभा घार' सादि, समवतरणं वस्तूनां स्वपराभयेष्वन्तभाविचिन्तन समवतारः, स च नामादिभेदात्षोढा, तत्र नामस्थापने सुचर्चित, एवं द्रव्यसमवतारोऽपि द्रव्यावश्यकादिवदभ्यूह्य वक्तव्यः, याधज्ज्ञशरीरभदाशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतार--स्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आत्मसमवतार इत्यादि, तत्र सर्वद्र-व्याण्यप्यात्मसमवतारेण चिन्न्यमानान्यानभाव स्वकीयस्वरूपे समवतरन्तिवर्तन्त, तदध्यशिरिक्तवान व्याहारतरतुपर-समवतारेण परभाव रामवतरन्ति यथा कुण्ड वदराणि, निश्चयतः सर्वाण्यपि वस्तूनि प्रागुक्तयुक्त्या स्वात्मन्येव वतन्ते, व्यवहारतस्तुस्वात्मनि आधारे च कुण्डादिके वर्तन्त इति भावः, तदुनयसमवतारेग तदुभयं वस्तूनि वर्तन्ते, यथा कटकुड्यदेहलीपट्टा-- दिसमुदायात्मके गृहे स्तम्भो वर्तते आत्मभावे चतथैव दर्शनादिति। एवं बुध्नोदरकपालात्मके घटे ग्रीवा वर्तते आत्मभावे चेति, आह-यद्येवमशुद्ध सदा पररामवतारा नारन्येव,कुड्यादी वृत्ता-नामपि बदरादीनां स्वात्मनि वृत्तेविद्यमानत्वत्सत्यं, किं तु तत्र स्वात्मनि वृत्तिविवक्षामवृत्वेि व तथापन्यासः कृतो. वस्तुवृत्त्या तु द्विविध एव समवतारः, अत एवाह / अशया-ज्ञशरीर सव्यशरीर-व्यतिरिक्तो द्रव्यसमवतारो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आत्मसमवतारस्तदुभयसमवतारच, अशुद्धस्य परसमवतारस्य कृप्यसाभवात, न हि स्वात्मन्यवर्तमानस्य वान्ध्येस्यैव परस्मिन् समधारो राज्यत इति भावः पूर्व चात्मवृत्तिविवक्षामात्रर्णव त्रविश्यमुक्तमि यभिहितम् 'चउराडिया आयसमोयारेण' मित्यादि सुवोधमा नवर चतुः-पष्टिका चतुष्पलमाना पूर्व निर्णीता ततश्चषा लघुप्रमाणत्वादरः पलमानत्यन बृहत्प्रमाणायां द्वात्रिंशतिकायां रामवतरतीति प्रतीतमेव, एवं वात्रिंशतिकाऽपि पोडशपलमानायां षोडिशिकायां षोडशिकाऽपि प्रात्रिशल्पलमानायामष्टभागिकायामष्टभागिकाऽपि चतुःषष्टिपलमानायां चतुर्भागिकाया चतुर्भागिकाऽप्यष्टाविंशत्यधिकशतपलमानायामर्द्धमाणिकायाम, एषाऽपि षट पञ्चाशदधिकपलशतद्वयमानायां माणिकायां समवतरति, आत्मसमवतारस्तु सर्वत्र प्रतीत एव। समाप्तो द्रव्यसमवतारः / / अथ क्षेत्रसमवतारं विमणिषुराह-‘से कि त खत्तसमायारे' इत्यादि, इह भरतादीना लोकपर्यन्तानां क्षेत्रविभागानां यथा पूर्व लघुप्रमाणरय यथोत्तरं बृहत्क्षेत्रे समवतारो भावनीयः / एवं कालसमवतारेऽपि समयादेः कालविभागस्य लघुत्वादावलिकादौ बृहति कायविभागे समवतारः सुबोध एव / आत्मसमवतारस्तु सर्वत्र स्पष्ट एव / / अथ भावसमवतारं विवक्षुराह-से किं तं भावसमोयारे' इत्यादि, इहौदयिकभावरूपत्वात्क्रोधादयो भावसमवतारेऽधिकृतास्तत्राहकारमन्तरेण कोपासा भवा-मानवानेव किल कुप्यतीति कापस्य माने समवतार उक्तः, क्षेपणकाले च मानदलिकं मायायां प्रक्षिप्य क्षपयतीति मानस्य मायायां समवतारः, मायादलि कमपि क्षपणकाले लाभे प्रक्षिप्य क्षपयतीति मायाया लोभे समवतारः,एवमन्यदपि कारणं परस्परान्तर्भावsभ्यहा सुधिया वाच्यं लोभात्मकत्वा रागस्य लोभो रागे समवतरति, रागाऽपि मोहमंदत्वान्गाहे, मोहोऽपि कर्मप्रकारत्वादष्टसु कर्मप्रकृति, वर्भप्रकृतयोऽस्यौद्धयिकापशगिकादिभाववृत्तित्वाषट् भावेषु, भावा अपि जीवाश्रितत्वाजीवे, जीवोऽपि जीवास्तिकायभेदत्वात् जीवास्तिकाये, जीवास्तिकायोऽपि द्रव्यभेदाबात्समस्तद्रव्यसमुदाये समवतरतीति, तदेष भावसमवतारो निरूपितः / अत्र च प्रस्तुते आवश्यक विचार्यभाणे सामायिकाद्यध्ययनमपि क्षायोपशमिकभावरूपत्वात्पूर्योक्लेष्वानुपातिभदषु त समक्तरतीति निरूपणीयमेव, शास्त्रकारप्रवृत्तेरन्यत्र तथैव दर्शनात्,तच सुखावसेयत्वादिकारणात्सूत्रेण निरूपित सोपयोगल्लार थानाशून्यत्वार्थ किचिद्वाय निरुपयामः। तत्र सामायिक चतुर्विशतिस्तव इत्याधुत्कीर्तनविषयत्वात्सामायिकाध्ययनमुत्कीर्तनानुपूा रामवतरति, तथा गणानानुपूया च / तथा हि-पूानुपूर्त्या गण्यमानमिदं प्रथमम,पश्चानुपूा तु षष्ठम, अनानुपूर्त्या तु व्यादिरथानवृत्तित्वादनियतमिति मागेवोक्तम, नाम्नि च औदयिकादिमानभेदात्यायामपि प्रागुक्तम् / तत्र साभायिकाऽध्ययनं श्रुतज्ञानरूपान क्षायापशनिक भापतित्वात् क्षायोपशमिकभाव-नाम्नि समक्तरति आह च भाषाकार-"छब्विह नामे भावे, खओवसमिए सुयं समोयरइ। सुयनाणावरणक्खआवसमरा तयं सव्वं / / 1 // " प्रमाणे च द्रव्यादिभते प्राइनिणीत जीवभावरूपत्वाद् भावप्रमाणे इद समवतरतीति / सपन व... "दव्याइच-उन्मयं, पभीयए जेणतं पमाणं ति। इणमज्झयण भातात्ति मा. माण समोपरइ।।१।।" भावप्रमाण च गुणनयसंख्याभेदरास्त्रिधा प्रोक्तम, त्रिय गुणसंख्याप्रमाणयोरेवावतारो नयप्रमाणे तु यद्यपि - 'आस: 5 सोसार नए नयविसारओ बूया' इत्यादि वचनात् कचि Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोयार 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण न्नयसमवतार उक्तः, तथाऽपि साम्प्रत तथाविधनयविचाराभा- भवान्तरे उपपन्नाः समोपपन्नकाः / (भ० ) विषमकालायुष्कोदयसमवाद्वस्तुवृत्त्याऽनवतार एव, यत इदमप्युक्तम् - 'मूढनइयं सुय कालिय तु कालभवान्तरोत्पत्तिमत्सु, भ० 26 श० 1 उ०। न नया समोयरंति' इहमित्यादि महामतिनाऽप्युक्तम-'मूढनय तु न समोसढ त्रि० (समवसृत) स्थिते, धर्मदेशनार्थ प्रवृत्ते, दश०५ अ० संपइ नयप्पमाणावआरो से' त्ति-गुणप्रमाणमपि जीवाजीवगुणभेदतो 2 उ० / सू० प्र० / आ० म०।। द्विधा प्रोक्तं, तत्रास्य जीवोपयोगरूपत्वाजीवगुणप्रमाणे समवतारस्त- समोसरण न० (समवसरण) सृ-गतौसम्यगेकत्र गमनं समवसरणम्। स्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतस्त्र्यात्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञान- निचये, सञ्चये,ओघ० / समवसरन्त्यवतरन्त्येष्विति समवसरणानि / प्रमाणेऽवतारस्तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदाचतुर्विधे प्रकृताध्य- विविधमतमीलकेषु, स्था० 4 टा० 4 उ०। सूत्र०। समवसरन्ति नाना यनस्याप्तोपदेशरूपतया आगमेऽन्तर्भावस्तस्मिन्नपि लोकिकलोकोत्तर- परिणामा जीवाः कथञ्चित्तुच्छतया येषु तानि समवसरणानि। समवसृतयो भेदभिन्ने परमगुरुप्रणीतत्वेन लोकोत्तरिके तत्रापि आत्मागमानन्तराग- वाऽन्योऽन्यभिन्नेषु क्रियावादादिमतेषु कथंचित्तुल्यत्वेन क्वचित्केषांमपरम्परागमभेदतस्विविधेऽप्यस्य समवतारः, संख्याप्रमाणेऽपि नामा- | चिद्वादिनामवताराः समवसरणानि / भ० 30 श० 1 उ० (चत्वारि दिभेदभिन्ने प्रागुक्ते परिमाणसंख्यायामस्यावतारः, वक्तव्यतायामपि वादिसमवसरणानि 'वाइसमवसरण' शब्दे षष्ठभागे गतानि।) स्वसमयवक्तव्यतायामिदमवतरति, यत्रापि परोभयसमयवर्णन क्रियते विषयसूचनातत्रापि निश्चयतः स्वसमयवक्तव्यतैव परोभयरामययोरपि सम्यगदृष्टि- (1) नामनिष्पन्ने तु निक्षेधे समवसरणमित्येतनाम तन्निक्षेपार्थ नियुक्तिः। परिगृहीतत्वेन स्वसमयत्वात,सम्यगदृष्टिहि परसमयमपि विषयविभागेन (2) समवसरणविषये सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेत सूत्रम्। योजयति न त्वेकान्तपक्षनिक्षेपेणेत्यतः सर्वोऽपि तत्परिगृहीतः रवरामय (3) समवसरणवक्तव्यताद्वारगाथा। एव, अत एव परमार्थतः सर्वाध्ययनानामपि स्वसमयवक्तव्यतायाम- (4) यत्र भगवान् धर्ममाचष्टे तत्र समवसरण नियमतो भवति उत वावतारः, तदुक्तम्-"परसमओ उभयं वा, सम्मविहिस्स ससमओ जेण। नेत्याशङ्कापनोदमुखेन प्रथमदारव्याख्यानम्। तो सव्वज्झयणाई, ससमयवत्तव्यनिययाई" / / 1 / / एवं चतुर्विशतिस्तवा- | (5) यत्र समवसरणं भवति तत्र सर्वत्रापि पूर्वोक्त एव नियोग उत न? दिष्वपि वाच्यमित्यलमतिविस्तरेणेति समाप्तः समवतारः / अनु०। इत्यतच्छङ्कासमाधानम्। उस्सण्णं सव्वसुयं, ससमयवत्तव्वयं समोयरइ। (6) समवसरणे भुवनगुरुरूपस्य त्रैलोक्यगतरूपेभ्यः सुन्दरतरत्वात् अहिगारो कप्पणाए, समोयॉरो जो जहिं एस / / 271 / / त्रिदशकृतप्रतिरूपकाणां किं सामान्यासामान्य (न्यत्वं वेन्त्या) उत्सन्न--सर्वकालं सर्वश्रुते स्वसमयवक्तव्यताया समवतरति, अथाधि- | चैत्याशङ्कानिरासः। कारो मूलगुणेषूत्तरगुणेषु वा अपराधमापन्नानां प्रायश्चित्तकल्पनायाम्। (7) समवसरणे स्थितानां देवनराणां मर्यादाप्रतिपादनम्। सम्प्रति यदुक्तं स्वसमयवक्तव्यतायां समवतरतितदिदानी सिंहाव- (8) समवसरणविषये द्वितीयद्वारप्रतिपादनम्। लोकितेनापवदति (E) समवसरणे कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रति पद्यन्ते। परपक्खं दूसित्ता, जम्हा उसपक्खसाहणं कुणइ। (10) कृतकृत्यो भगवान् समवसरणे तीर्थप्रणामं करोतीति किमिति णो खलु अदूसियम्मि, परे सपक्खंजसा सिद्धी।२७२।।। शानिरासः। परसमयवक्तव्यतायाभप्यवतरति, यस्मात् परपक्षं दूषयित्वा रवपक्ष- (11) व केन साधुना कियतो वा भूभागात्समवसरणे आगन्तव्यम्? साधन करोति, न खल्वदूषिते परपक्षे स्वपक्षस्याञ्जसा व्यक्ता प्रधाना अनागच्छतो वा किं प्रायश्चित्तम्? वासिद्धिर्भवति। ततः परसमयवक्तव्यतायामवतारः, तदेवमिदं कल्पा- (12) समवसरणे रूपपृच्छाद्वारप्रकटनम्। ध्ययनमुपक्रमे आनुपूर्यादौ यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र समवतारितम्। (13) असातावेदनीयाद्याः प्रकृतयो नाम्नो वाऽप्रशस्ताः कथं भगवतः वृ०१ उ०१प्रक०। दुःखदा न भवन्ति? इति शङ्कोच्छेदः / संप्रति निक्षेपमाह (14) समवसरणे युगपत्सवंशङ्कोच्छेदे गुणनिदर्शनम्। इक्किक तं चउहा, णामाऽऽईयं विभासितुं ओहे। (15) समवसरणे सर्वसंशयिना पारमेश्वरीवागशेषसंशयोन्मूलनेन भावे तत्थ उ चउसु वि, कप्पज्झयणं समोयरइ / / 274 / / स्वभाषया परिणमते। एकैकमध्ययनादिकं यथाऽनुयोगद्वारं नामादीनां भेदतश्चतुर्दा विभाष्य (16) भगवान येषु ग्रामनगरादिषु विहरति तेभ्यो वार्ता ये आनयन्ति तेभ्यो चतुष्यपि तत्र तेष्वध्ययनादिषु भावे भावविषये तु कल्पाध्ययनमिदं यत्प्रयच्छन्ति वृत्तिदानं प्रीतिदानं च चक्रवादयस्तदुपदर्शनम्। समवतरति / बृ०१ उ०१ प्रक० / (17) समवसरणे भगवान् प्रथमां संपूर्णपौरुषी धर्ममाचष्टे, अत्रान्तरे बलिः समोववण्णग पुं० (समोपपन्नक) विवक्षितायुष्वक्षय, समकमेव प्रविशति, कस्तं करोति? इति निदर्शनम् / Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण (18) समवसरणे भगवत्युत्थिते द्वितीयस्यां पौरुष्यामाद्यगण-धरोऽन्यो वा गणधरो धर्ममाचष्टे स्यान्मतिः किं कारणं द्वितीयस्यामपि पौरुष्यां तीर्थकर एव धर्म न कथयतीति? शङ्का तत्समाधाननिरूपणम् / (16) समवसरणकल्पः / (20) समवसरणरचनानिदर्शनम्। (21) समवसरणस्तवनिदर्शनम्। (22) समवसरणे रचनाभूमिप्रमाणम्। (23) प्रकीर्णकवार्ताः। (१)नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे समवसरणमित्येतन्नाम ___ तनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाहसमवसरणे वि छकं,सचित्ताचित्तमीसग दव्वे / खेत्तम्मि जम्मि खेत्ते, काले जं जम्मि कालम्मि // 116|| 'समवसरण' मित्यादि, समवसरणमिति सृगतावित्यतस्य धातोः समवोपसर्गपूर्वस्य ल्युडन्तस्य रूपम्, सम्यगेकीभावेनावसरणमेकत्र गमनं-मेलापकः समवसरणं तस्मिन्नपि न केवलं समाधी षडविधी नामादिको निक्षेपस्तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णे द्रव्यविषय पुनः समवसरण नो आगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्त सचित्ताचित्तमिश्रभेदात् त्रिविधम्। सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदाऽपदभेदाद् त्रिविधमेव,तत्र द्विपदानां साधुप्रभृतीनां तीर्थकृजन्मनिष्क्रमणप्रदेशादी मेलापकः, चतुष्पदाना गवादीनां निपानप्रदेशादी, अपदानां तु वृक्षादीनां स्वतो नास्ति समवसरणं विवक्षया तु काननादौ भवत्यपि, अचित्तानां तु द्वयणुकाद्यभ्रादीनां तथा मिश्राणां सेनादीनां समवसरणसद्भावोऽवगन्तव्य इति क्षेत्रसमवसरण तु परमार्थ तो नास्ति, विवक्षया तु यत्र द्विपदादयः समवसरन्ति व्याख्यायरा वा समवसरणं यत्र तत्क्षेत्रप्राधान्यादेवमुच्यते / एवं कालसमवसरणमपि द्रष्टव्यमिति।। __ इदानीं भावसमवसरणमधिकृत्याह-- भावसमोसरणं पुण,णायव्वं छव्विहम्मि भावम्मि। अहवा किरियअकिरिया,अन्नाणी चेव वेणइया / / 117 / / 'भावसमवसरण' मित्यादि, भावानामौदयिकादीनां समवसरणम -- एकत्र मेलापको भावसमवसरणम्। तत्रौदयिको भाव एकविंशतिभेदः, तद्यथा-गतिश्चतुर्दाकपायाश्चतुर्विधा एवं लिई त्रिविधं, मिथ्यात्वाज्ञानाऽसंयतत्वाऽसिद्धत्वनि प्रत्येकमेकैकविधानि, लेश्याः कृष्णादिभेदेन षविधा भवन्ति, औपशमिको द्विविधः सम्यक्त्वचारित्रोपशमभेदात् / क्षायोपशगिकोऽप्यष्टादशभेदभिन्नः, तद्यथा-ज्ञानं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायभेदाच्चतुर्धा, अज्ञानम्-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्ग भेदात विविधः, दर्शनचक्षुर चक्षुरवधिदर्शनभेदात् त्रिविधमेव, लब्धिनिलाभ-भोगापभोगवीर्यभदात्पञ्चधा,सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाः प्रत्येकमेकप्रकारा इति / क्षाधिको नवप्रकारः, तद्यथा-केवलज्ञानं केवलदर्शनं दानादिलब्धयः पा सम्यक्त्वं चारित्रं चेति। जीवत्वभव्यत्वाभत्वादिभेदात्पारिणाभिकरित्रविधः सान्निपातिकस्तु द्वित्रिचतुःपञ्चकसंयोगर्भवति, तत्र | द्विकसंयोगः सिद्धरय क्षायिकपारिणामिकभावद्वय सदावादवगन्तव्यः, त्रिकसंयोगस्तु मिथ्यादृष्टि सम्यगदृष्ट्यविरतानामादयिकक्षायोपशमिकपारिणागिकभावसद्भावादवगन्तव्यः, तथा भवस्थकेलिनोऽप्यादयिकक्षायिकपारिणामिकभावसद्भावाद्विज्ञेय इति, चतुष्कसंयोलोऽपि क्षायिक-सम्यगदृष्टीनामौदयिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावसद्भावात्तथौपशमिकसम्यगदृष्टीनामौदयिकौपशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिक भावसद्भावचेति, पशकसंयोगस्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुपशमश्रेण्या समस्तोपशान्तचारित्रमोहाना भावपञ्चकसड़ावाद्विज्ञेय इति / तदेव भावानां द्विकत्रिकचतुष्कपञ्चकसंयोगात्सम्भविनः सान्निपातिकभेदाः षड़ भवन्ति, अत एव त्रिकसंयागचतुष्कसंयोगगतिभेदात्पञ्चदशधाप्रदेशान्तरेऽभिहिता इति, तदेव षड्विधे भावे भावसमवसरणं भावमीलनमभिहितम्। अथवा-अन्यथा भावसमवसरण नियुक्तिकृदेव दर्शयति, क्रिया जीवादिपदार्थोऽस्तीत्यादिका वदितु शीलं येषां ते क्रियावादिनः, एतद्विपर्यस्ता अक्रियावादिनः, तथा अज्ञानिनो क्षाननिववादिनस्तथा वनयिका विनयेन चरन्ति तत्प्रयोजना वा वैनयिकाः,एषा चतुर्णामपि सप्रभेदानामापेक्ष कृत्वा यत्र विक्षेपः क्रियते तद्भावसमवसरणमिति, एतच स्वयमेव नियुक्तिकारोऽन्त्यगाथया कथ यिष्यति। साम्प्रतमेतेषामेवाभिधानान्वर्थतादर्शनद्वारेण स्वरूपमाविष्कुर्वन्नाहअस्थि त्ति किरियवादी, वयंतिणस्थि अकिरियवादीय। अण्णाणी अण्णाणं,विणइत्ता वेणइयवादी॥११॥ 'अत्यित्ती' त्यादि, जीवादिपदार्थसद्भावोऽस्त्यवेत्येवं सावधारणक्रियाभ्युपगमो येषां ते अस्तीति क्रियावादिनस्ते चैवं वादि-- त्वान्मिथ्यादृष्टयः, तथाहि-यदि जीवोऽस्त्येवेत्येवमभ्युपगम्यते ततः सावधारणत्वान न कथचिन्नास्तीत्यतः स्वरूपसत्तावत्पररूमपापत्तिरपि स्यात, एवं च नानेकं जगत् स्यान्न चैतद दृष्टमिष्ट वा। तथा नारस्येव जीवादिकः पदार्थ इत्येवं वादिनोऽक्रियावादिनः, तेऽप्यसद्भूतार्थप्रतिपादनामिथ्यादृष्टय एव,तथा ह्येकान्तेन जीवास्तित्वप्रतिषेधे कतुरभावान्नास्तीत्येतस्यापि प्रतिषेधरयाभावः, तदभावाच स्वास्तित्वमनिधारितमिति तथा न ज्ञानमज्ञानं तद्विद्यते येषां तेऽज्ञानिनः,ते ह्यज्ञानमेव श्रेय इत्येवं वदन्ति एतेऽपि मिथ्यादृष्ट्य एव, तथा 'ह्यज्ञानमेव श्रेय' इत्येत-दपि न ज्ञानमृते भणितु पार्यते, तदभिधानाच्चावश्यं ज्ञानमभ्यु-- पगत तैरिति / तथा वैनयिका विनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिमः भिलपन्तो मिथ्यादृष्यो यतो न ज्ञानक्रियाभ्यामन्तरण मोक्षावाप्तिरिति एपा व कियावाधादीनां स्वरूप तन्निराकरण चाऽऽचारटीकाया विरार प्रतिपादितनिति नेह प्रतन्यते। साम्प्रतमेतेषां भेदसंख्यानिरूपणार्थमाहअसियसयं किरियाणं, अकिरियाणं च होइ चुलसीति। अन्नाणी सत्तट्ठी, वेणइयाणं च वत्तीसा / / 116 / / 'अरिये' त्यादि, क्रियावादिनामशीत्यधिक शतं भवति, तचानया प्रकि यया, तद्यथा- जीवादयो नव पदार्था: प-- Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण रिपाट्या स्थाप्यते, तदधः स्वतः परत इति भेदद्वयं, ततोऽप्यधो नित्यानित्यभेदद्वयं, ततोऽप्यधस्तात्परिपाट्या कालस्वभावनियतीश्चरात्मपदानि पञ्च व्यवरथाप्यन्ते, ततश्चैवं चारणिकाप्रक्रमः, तद्यथा--अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः, तथा अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः एव, एवं परतोऽपि भङ्गकद्वयं सर्वेऽपि च चत्वारः कालेन लब्धाः , एवं स्वाभावनियतीवरात्मपदान्यपि प्रत्येकं चतुर एव लभन्ते, ततः पश्चाऽपि चतुष्कका विंशतिर्भवन्ति, साऽपि जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवादयोऽप्यष्टी प्रत्येक विशति लभन्ते, ततश्च नव विशतयो मीलिताः क्रियावादिनामशीत्युत्तरं शतं भवतीति। इदानीमक्रियावादिनान सन्त्येव जीवादयः पदार्था इत्येवमभ्युपगमवतामनेनोपायन चतुरशीतिरवगन्तध्या, तद्यथा--जीवादीन् पदार्थान सप्ताभिलिख्य तदधः स्वपरभन्दद्वयं व्यवस्थाप्य, ततोऽप्यधः कालयदृच्छानियतिस्वभावेश्वरात्मपदानि षड त्यवरथाप्तानि / भड़कानयनोपायस्त्वयम्-नास्ति जीवः स्वतः कालतः, तथा नास्ति जीवः परतः कालतः, एवं यदृच्छानियतिस्वभावश्चरात्मभिः प्रत्येकं द्वौ द्वौ भन्नको लभ्येते, सर्वेऽपि द्वादश, तऽपि ध जीवादिपदार्थससकेन गुणिताश्चतुरशीतिरिति / तथा चोक्तमम्फालरादृच्छानियति-स्वभावश्वरात्मतश्चतुरशीतिः / नास्तिकवादिगणमत, न सन्ति भावाः स्वपरसंस्थाः' / / 1 / / साम्प्रतमज्ञानिकानामज्ञानादेव विवक्षितकार्यसिद्धिमिच्छता ज्ञानं तु सदपि निष्फलं बहुदोषवचेत्येवमभ्युपगमवता सप्तषष्टिरनेनोपायेनावगन्तव्याः, जीवाजीवादीन नव पदार्थान परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त भङ्गकाः संस्थाप्याः,सत्त असत् सदसद् अवक्तव्यम् सदवक्तव्यम् असदवक्तव्यं सदसदववतव्यमिति। अभिलापस्त्वयम --सन जीवः को वेत्ति?, किंवा तेन ज्ञानि? १,असन जीवः, को वेत्ति? --किं वा तेन ज्ञातेन 2, सदसन जीवः का यत्ति? किंवा तेन ज्ञालेन? 3. अवक्तव्यो जीवः, को वेत्ति?, कि वा तेन ज्ञातन? 4. सदव-क्तव्यो जीवः, को वेत्ति?.--किंवा तेन ज्ञातन?५, असदक्तव्या जीवः को वेत्ति?,-किंवा तेन ज्ञातेन? 6. सदसदवक्तव्या जीवः, का वत्ति?, किं वा तेन ज्ञातेन?७, एवम जीवादिष्वपि सप्त भड़काः, सर्वेऽपि मिलितारित्रषष्टिः / तथाऽपरऽमी चत्वारो भड़काः, तद्यथा-राती भावोत्पत्तिः को वेत्ति?,-किं वा अनया ज्ञातया? 1, असती भावोत्पनिः को देत्ति?. किं वा अनया ज्ञातया?२. सदसती भावोत्पत्तिः को वेत्ति?, किं वा अनया ज्ञातया? 3. अवक्तव्या भावोत्पत्तिः को वेति?, किंवा अनया ज्ञातया? ४.सर्वेऽपि सप्तपष्टिरिति / उत्तरं भड़कत्रयमुत्पन्नभावा-वयवापेक्षमिह भावोत्पत्ती न सम्भवतीति नोपन्यस्तम् उक्त ध-- अज्ञानिकवादिमत, नवजीवादीन सदादि सप्तविधान् / भावा-त्पनिः रादसद, द्वेधा वाच्या च को वेत्ति / / 1 / / ' इदानी चैनयिकानां विनयादव, यानात परलोकमपीच्छता द्वात्रिंशदनेन प्रक्रमेण योज्यातद्यथासुर परियतिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु मनसा धाचा कायेन दानेन चतुर्विता विनयों विधेयः, सर्वेऽप्यष्टी चतुष्कका मिलिता द्वात्रिंशदिति। उक्तं च 'वैनयिकमतं विनय-श्वेतोवा-कायदानतः कार्यः / सुननृपतिय तिज्ञातिस्थविराधममातृपितृषु सदा ||1|| सर्वेऽप्येते क्रियाक्रियाज्ञानिवैनयिकवादिभेदा एकीकृतास्त्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि प्रावादुकमतशतानि भवन्ति / (सूत्र०) (क्रियावादिनां विषयः गाथाद्वयेन 'किरियावाई' शब्द तृतीयभागे 556 पृष्ठे उक्तः।) (2) साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारथिव्यं, तचेदम्चत्तारि समोसरणाणि माणी, पावाणिया जाइँ पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमासु चउत्थमेव / 1 / / 'चत्तारि' इत्यादि, अस्य च प्राक्तनाध्ययनेन सहाऽयं सम्बन्धः, ताथा-साधुना प्रतिपन्नभावमार्गेण कुमागाश्रिताः परवादिनः सम्यग परिज्ञाय परिहर्तव्याः,तत्स्वरूपाविष्करणं चानेनाध्ययनेनोपदिश्यते इति, अनन्तरसूत्रस्यानेन सूत्रेण सह संबन्धोऽयं, तद्यथा-संवृत्तो महाप्रज्ञो वीरो दोषणां चरन्नभिनिर्वृत्तः सन् मृत्युकालभिकाङ्गे देतत्केवलिनो भाषितं, तथा परतीर्थिकपरिहारं च कुर्यात्, एतच्च केवलिनो मतम्, अतस्तत्परिहारार्थ तत्स्वरूपनिरूपणमनेन क्रियते 'चचारी' ति संख्यापदमपरसंख्यानिवृत्त्यर्थ समवसरणानि परतीर्थिक भ्युपगमसमूहरूपाणि यानि प्रावादुकाः पृथक् पृथग्वदन्ति, तानि चामूनि अन्वर्थाभिधायिभिः संज्ञापदैनिदिश्यन्ते, तद्यथा-क्रियामस्तीत्यादिका वदितं शीलं येषां ते क्रियवादिनस्तथाऽक्रियां नास्तीत्यादिकां वदितु शील येषां तेऽक्रियावादिनः, तथा तृतीया वैनयिकाश्चतुर्थास्वज्ञानिका इति। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। (अज्ञानिनः 'अण्णणिय' शब्दे प्रथमभागे 486 पृष्ठ उक्ताः ।)(वैनयिकवादिनो 'वेणइय' शब्द षष्ठभागे उक्ताः / ) (अक्रियावादिनः 'अकिरियवाई' शब्दे प्रथ-मभागे 128 पृष्ठं गताः।) (आदित्यवक्तव्यता 'आइच्च' शब्दे द्वितीयभागे 3 पृष्ठे गता।) (अष्टाङ्ग निमित्तवक्तव्यता 'अट्ठगणि-मित्त' शब्दे प्रथमभागे 236 पृष्ठे उक्ता।) (क्रियावक्तव्यता 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 556 पृष्टऽस्ति।) (प्रत्यक्षवक्तव्यता ‘पयत्थ' शब्दे पञ्चमभागे 504 पृष्टे प्रतिपादिता।) (मनसा वक्तव्यता 'मण' शब्दे षष्ठभागे 74 पृष्ठे उक्ता।) (हेतुवक्तव्यता 'हेउ' शब्द वक्ष्यते।) (द्रव्यवक्तव्यता 'दव्य' शब्दे चतुर्थभागे 2465 पृष्ठे उक्ता।) (अस्मिन् विषये बौद्धमतप्रतिपादनम् 'बुद्ध' शब्दे पञ्चमभागे गतम्) तीर्थकृता सदेवमनुजासुरायां पर्षदि, पिं० / भ० / समवसरणं नाम पुष्पफलासवागरत्तयादिभिर्भगवतो विभूती। आ० चू० 1 अ०। तद्विधिश्चैवम्(३) साम्प्रतं समवसरणवक्तव्यतां प्रपञ्चतः प्रति पिपादयिषुरिमां द्वारगाथामाहसमोसरणे केवइया, रूव पुच्छ वागरण सोयपरिणामे / दाणं च देवमल्ले, मल्लाणयणे उवरि तित्थं / / 543 / / प्रथमं समवसरणविषयो विधिर्वक्तव्यः, ये देवा यत्प्राकारादि यद्विधं यथा कुर्वन्ति तथा वक्तव्यमिति भावः, 'केवइय' ति–कियन्तः सामायिकानि भगयति कथयति-मनु Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण प्यादयः प्रतिपद्यन्ते, कियतो वा भूभागादपूर्वे समवसरणे दृश्पूर्वे वा साधुना आग तव्यम्, 'रुव' त्ति-भगवतो रूपं व्यावर्णनीयं 'पुच्छ' त्तिकिमुत्कृष्टरूपतया भगवतः प्रयोजनमिति पृच्छा कार्या, उत्तरं च वक्तव्य, कियन्तो वा हृद्तं संशयं पृच्छन्तीति 'वागरण' ति–व्याकरणं भगवतो वक्तव्यम्, यथा युगपदेव संख्यातीतानामपि पृच्छाता व्याकरांतीति 'पुच्छवागरण' ति-एकं वा द्वारं पृच्छायां व्याकरणं तद्ववक्तव्यम् 'सोयपरिणामा' त्ति-श्रोतृपु परिणामः श्रोतृपरिणामः,रा च वक्तव्यो, यथा सर्व--श्रोतृणां भागवती वाक् स्वभाषया परिणमते, 'दानं च' त्तिवत्ति-दानं प्रीतिदानं च कियत्प्रयच्छन्ति चक्रवादयस्तीर्थकरप्रवृतिकथकेभ्य इति वक्तव्यम् / 'देवमल्ले' त्ति--गन्धप्रक्षेपाद्देवानां सम्बन्धिमाल्य देवमाल्यं बल्यादिकः करोति, कियत्परिमाणं वेत्यादि / 'मल्लाणयणे' ति. माल्यानयने यो विधिः असौ वक्तव्यः, 'उवरि तित्य ति-उपरि-पौरुष्याः, किमुक्तं भवति-पौरुष्या-मतिक्रान्तायां तीर्थमिति प्रथमगणधरोऽन्यो वा तदभावे देशनां करोतीत्येष द्वारगाथानामासार्थः / विस्तरार्थ प्रतिद्वारं वक्ष्यामः। तत्र। (४)नन्विदं समवसरणं यत्र भगवान् धर्ममाचष्ट तत्र निरामतो भवत्युत नेत्याशापनादमुखेन प्रथम द्वार व्याचिरख्यासुरिदमाहजत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ व देवो महिड्डिओ एइ। वाउदयपुप्फबद्दल-पागारतियं च अमिओगा / / 544 / / यत्र क्षत्र माग नगरे वा अपूर्वमभूतपूर्व समवसरणं भवति, तथा यत्र या भूतपूर्वसमवसरणे क्षेत्रे देवो महर्द्धिको एति-आगच्छति, तत्र किमित्याहबात रण्वाद्यपनोदाय उदकवाईल भाविरेणुसन्तापोपशान्तये, पुष्पवादलं पुष्पवृष्टि निनित्तं ततक्षितिविभूषणाय, वार्दलशब्द उदकपुष्पयोः प्रत्यकमभिसंबध्यते / तथा प्राकारत्रिक च सर्वमेतत् अभियोगमर्हन्तीत्याभियोग्या देवाः, कुर्वन्तीति वाक्यशेषः। अन्यत्र त्वनियमः। एवं तावत् सामान्येन समक्स-रणविधिरुक्तः। सम्प्रति विशेषेण प्रतिपादयतिमणिकणगरयणचित्तं, भूमीभागं समंततो सुरभि / आयोयणंतरेणं, करेंति देवा विचित्तं तु / / 545|| इह यत्र समवसरणं भवति तत्र योजनपरिमण्डलक्षेत्रमाभियोग्या देवाः संवर्तक वात विकुर्वि त्वा तेन विशुद्धरजः कुर्वति, ततः सुरभिगन्धोदकवृष्ट्या निहतरजस्तत आयोजनान्तरेण योजनपरिमाण भूमिभाग मण्यश्चन्द्रकान्तादयः कनकदेवकाञ्चन रत्नानि इन्द्रनीलादीनि, अथवा-स्थलसमुद्भवा मणयो जलसमुद्भवानिरत्नानि, तैश्चित्रं समन्ततः-सर्वासु दिक्षु सुरभि-सुगन्धिगन्धयुक्तं मणीनां सुरभिगन्धोदकस्य पुष्पाणां वाऽतिमनोहारिगन्धयुक्तत्वात् विचित्रम्-अपूर्व देवाःआभियोग्याः कुर्वन्ति। विंटट्ठाई सुरभि, जलथलयं दिव्वकुसुमनीहारिं। पइरंति समंतेणं,दसद्धवण्णं कुसुमवासं / / 546 / / आभियोगा देवाःप्रकिरन्ति समन्ततः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च / दशार्द्धवर्ण कुसुमवर्ष किविशिष्टमित्याह-वृन्तस्थायि वृन्तमधोभागे पत्राण्युपरि इत्येव स्थानशीलं सुरभिगन्धोपेतत्वात दिव्यकुसुमनिहारिदिव्यः -प्रधान:-कुसुमाना निर्हारी प्रबलो गन्धप्रसरो यस्मात्तदिव्यकसुमनिहारि। मणिकणगरयणचित्ते, चउद्दिसिं तोरणे विउव्वंति। सच्छत्तसालभंजिय-मकरद्धयचिंधसंठाणे / / 547 / / चतसृष्वपि दिक्षु मणिकरत्नविचित्राणि तोरणानि व्यन्तरदेवा विवन्ति / किं विशिष्टानीत्याह-छत्र प्रतीत, शालभलिकाः-स्तम्भपुत्तलिका 'मकर' ति मकरमुखोपलक्षण बजाः प्रतीताः चिहानिस्वस्तिकादीनि संस्थानमत्यद्भुतो रचनाविशेषः सन्ति शोभनानि छत्रशालभलिकानकरध्वजचिह्नसंस्थनानि येषु तानि तथोच्यन्ते। तिन्नि य पागारवरे, रयणविचित्ते तहिं सुरगणिंदा। मणिकंचणकविसीसग-विभूसिए ते विउट्वेंति / / 548|| तत्र समवसरणे ते वक्ष्यमाणाः सुरगणेन्द्रास्त्रीन प्रकारवरान रत्नविचित्रान् मणि काश्चनकपिशीर्षकविभूषितान विकुर्वन्ति / भावार्थ उत्तरगाथाया व्याख्यास्यते। सा चेयम्अभिंतर मज्झ बहि, विमाणजोइभवणाहिवकयाओ। पागारा तिन्नि भवे, रयणे कणगे य रयए य / / 546 / / अभ्यन्तरे मध्ये बहिर्विमानज्योतिर्भवनाधिपकृताः प्राकारास्त्रयो भवन्ति, ने कनके रजते च / यथाक्रम रत्नमयः कनकमयो रजतमय इत्यर्थः / एप भावार्थः / अभ्यन्तरप्राकारा रात्नस्त विमानाधिपतयः कुर्वन्ति,मध्यमः कनकेभवः कानकस्तं ज्योतिर्वासिनः कुर्वन्ति, बाह्यो रातजरत भवनपतय: कुर्वन्ति। मणिरयणहेमया विय, कविसीसा सव्वरयणिया दारा। सव्वरयणमय चिय, पड़ागधयतोरणविचित्ता।।५५०।। यथाक्रम मणिरत्नहेममयानि कपिशीर्षकाणि, तद्यथाप्रथमप्राकारे पशवर्णमणिमयानि कपिशीर्षकाणि तानि वैमानिकाः कुर्वन्ति, द्वितीये रत्नमयानि तानि ज्योतिष्का विदधते, तृतीये हेममयानि तानि भवनपतयः कुर्वन्ति, तथा सर्वरत्नमयानि द्वाराणि तानि भवनपतयः कुर्वन्ति, तथा सर्वरत्नमयान्येव मूलदलापेक्षया पताकाध्वजप्रधानानि तोरणानि विचित्राणि कनकस्वस्तिकादिभिश्चित्ररूपाणि तानि व्यन्तरदेवाः कुर्वन्ति। तत्तो य समतेणं, कालागुरुकुंदुरुक्कमीसेणं / गंधेण मणहरेणं, धूवघडीओ विउव्वन्ति / / 551 / / ततः समन्ततः-सर्वासु दिक्षु कृष्णागरुकुन्दुरुक्कमिश्रेण गन्धेन मनाहारिणा युक्ताः किं धूपघटिका विकुर्वन्ति, व्यन्तरदेवाः। उक्किट्ठिसीहनायं, कलयलसद्धेण सव्वओ सव्वं / तित्थयरपायमूले, करेंति देवा निवयमाणा // 552 / / तीर्थकरपादमूले निपतन्तो देवा उत्कृष्टिसिंहनादं कुर्वन्ति, उत्कृटिई पं विशेषप्ररितो ध्वनिविशेषस्तत्प्रधानः सिंहनादः उत्कृ ष्टिसिंहनादस्त तथा कलकलशब्देन समन्ततः-सर्वासु दिक्षु युक्तं सर्वमशेष कुर्वन्ति। Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 470 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण चेइदुमपीढछन्दग, आसणछत्तं च चामराओ य। जं चऽपणं करणिज्ज, करेंति तं वाणमंतरिया / / 553 / / अभ्यन्तरप्राकारस्य रत्नमयस्य बहुमध्यदेशभागे अशोकवरपादपो भवति, स च भगवतः प्रमाणात द्वादशगुणस्तरयाधस्तात्सर्वरत्नमय पीट तस्टा पीटरयापरि चैत्यवृक्षस्थाधो देवच्छन्दक तस्य अभ्यन्तरे सिंहासन रापादपीट स्फटिकमयं तस्योपरि छत्रातिच्छत्रमा चशब्दः समुचये, चामरे च उपयोः पार्श्वयाः यक्षहस्तगते, चशब्दात्-धर्मचक्र पनप्रतिष्ठित यच्चान्यगालोदका-दि करणीय तव्यन्तरदेवाः कुर्वन्ति, एप सर्वतीर्थकृता सर्वर - मवसरणन्यायोऽरिस्तुभगवतः समवसरणे अशोकपादप छत्रातिच्छत्रमीशानो विकुर्वितवान, चामरे चामरधारौ बलियमराविति सम्प्रदायः. (5) आह यत् (त्र) यत् समवसरणं भवति तत्र सर्वत्रापि-- पूर्वोक्ल एव नियोग उत नेत्यत आहसाहारण ओसरणे,एवं जस्थिड्डिमं तु ओसरइ। एक्को चिय तं सव्वं, करेइ भयणा उ इयरेसिं // 554|| साधारण सामान्यं यत्र सर्वे देवेन्द्रा आगच्छन्ति तस्मिन् साधारणरामवरारणे एवम उक्तप्रकारेण नियोगः (नियमः) यत्र पुनः ऋद्धिमान इन्द्रसामानिकादिः समवतरति तत्र एक एव तत प्रा-कारादि सर्व करोति 'भयगाउ इयरेसिं' ति--यदि इन्द्रा इन्द्रसा-मानिका वा कचिन्महर्द्धिका नायान्ति ततो भवनवास्यादय इतरे समवसरणं कुर्वन्ति, वा नवेत्येव भजना इतरेषाम्। सूरुदयपच्छिमाए, ओगाहंतीऍ पुव्वओ एइ। दोहि पउमेहि पाया, मग्गेण य होन्ति सत्तन्ने / / 555 / / एव दवनिप्पादित समवसरणो सूर्योदये प्रथमायां पौरुष्याग अन्यदा पश्विमायाम 'ओगाहात' नि--अवगाहमानायामागच्छ-न्त्यामिति भावः, पूर्वल:--पूर्वद्वारण एति-आगच्छतिः प्रविशतीत्यर्थः कथमित्याह-द्वयोः पहायोः सहसपत्रयोदैवपरिकल्पितयोः पादौ स्थापयन्निति वाक्यशेपः, 'मग्गेण य हान्ति सत्तन्ने' त्ति-मार्गतः पृष्ठतो भगवतः सप्तान्यानि पद्मानि मान्ति,तषां च यत् पश्चिम तत्पादन्यासंकुर्चतो भगवतः पुरतस्तिष्ठतीति। आयाहिणपुव्वमुहो,तिदिसिं पडिरूवगा उ देवकया। जेट्ठगणी अन्नो वा,दाहिणपुव्वे अदूरम्मि / / 556 / / स एवं भगवान पूर्वद्वारेण प्रविश्य 'आयाहिण' ति-चैत्यमप्रदक्षिणा कृत्या पूर्वाभिमुख उपविशति, शेषास्तु तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि तीर्थकराकृतीनि सिहासनादियुक्तानि देवकृतानि भवन्ति / शेषदेवादीनामप्यस्माकं कथयतीति प्रतिपत्त्यर्थ भगवतश्च पादभूलमे के न भणधरणाविरहितमेव। स च ज्येष्ठोऽन्यो वा? प्रायो ज्येष्ठ इति भावः,स च ज्येष्ठगणी अन्यो वा दक्षिणपूर्वे दिग्भागे अदूरे प्रत्यासन्ने भगवतो भगवन्तं प्रणम्य निषीदति इति क्रियाध्याहारः,शेषा गणधरा अप्येवमेय भगवन्तअभिनन्य तीर्थकरस्य मार्गतः पार्श्वतश्च निषीदन्ति। / भुवनगुरुरूपस्य त्रैलोक्यगतरूपेभ्यः सुन्दरतरत्वाद त्रिदशकृतप्रतिरूपकाणां किं साम्यमसाम्यं वेत्याशङ्कानिरासार्थमाहजे ते वेदेहि कया, तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स। तेसिंपि तप्पभावा, तयाणुरूवं हवइ रूवं / / 557 / / यानि तानि देवैः कृतानि जिनवरस्य तिसृषु दिक्षु प्रतिरूपकाणि तेषामपि तत्प्रभावात्तीर्थकरप्रभावात्तदनुरूपं तीर्थङ्कररूपानुरूपं भवति रूपमिति। तित्थातिसेससंजय-देवीवेमाणियाण समणीओ। भवणवइवाणमंतर-जोइसियाणं च देवीओ।।५५८|| तीर्थ गणधरः पूर्वद्वारेण प्रविश्य तीर्थकर त्रिकृत्वा वन्दित्या दक्षिणपूर्व दिग्भागे निषीदति,एवं शेषगणधरा अपि, नवरं ते तीर्थस्य मार्यतःपार्श्वेषु च निषीदन्ति। तदनन्तरं अतिशेषसंयता अति-शायिनःकेवल्यादयः संयता एव निषीदन्ति / किमुक्तं भवति- ये केवलिनस्ते पूर्वद्वारेण प्रविश्य भगवन्तं त्रिकृत्वः प्रदक्षिणीकृत्य नमस्तीर्थायेति भणित्वा तीर्थस्य प्रथमगणधरस्य शेषगणधराणां च पृष्ठतो निषीदन्ति, येप्यवशेषा अतिशायिनो मनःपर्यवज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्चतुर्दशपूर्वधरारत्रयोदशपूर्वधरा यावद्दशपूर्वधराः नवपूर्वधराः खेलौषधय आमर्पोषधयां जल्लोषध्यादयश्च तेऽपि पूर्वद्वारेणा प्रविश्य भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय प्रथमगणधररूपाय नमः के वलिभ्य इत्युक्त्वा केवलिनः पृष्ठतो यथाक्रम निषीदन्ति,येचाऽवशेषा अनतिशायिनः संयतास्तेऽपि पूर्वद्वारेणैव प्रवश्यि त्रिकृत्वो भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य वन्द्रित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्य इत्युक्त्वा अतिशायिना पृष्ठतो निषीदन्ति / वैमानिकानां देव्यः पूर्वद्धारेण प्रविश्य भगवन्तं त्रिकृत्वः प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्यो नमः साधुभ्य इति भणित्वा निरतिशायिना पृष्टतस्तिप्ठन्ति,न तु निपीदन्ति / श्रमण्यः पूर्वद्वारेण प्रविश्य तीर्थकरं त्रिकृत्यः प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यो नमोऽतिशायिभ्यो नमः शेषसाधुभ्य इति इत्युक्त्वा वैमानिकदेवीनां पृष्ठतस्तिष्ठन्ति न तु निषीदन्तिा भवनवासिन्यो व्यन्तर्यो ज्योतिष्क्यश्च दक्षिणद्वारेण प्रविश्य त्रिकृत्वः तीर्थकरं प्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा दक्षिणपश्चिमायां दिशि नेक्रतकोणे इत्यर्थः, तिष्ठन्ति न तु निषीदन्ति, भवनवासिनीना पृष्ठतो ज्योतिष्कदेव्यस्तासां पृष्ठतो व्यन्तर्यः। एतदेव सविशेष प्रतिपिपादयिषुरिदमाहकेवलिणो तिउण जिणं,तित्थपणामं च मग्गओ तस्स। मणमाई विनमंता,वयंति सट्ठाणसट्ठाणं / / 556 / / केवलिनस्त्रिगुणं त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जिन-तीर्थकर तीर्थप्रणामं च कृत्वा तस्य गणधरस्य मार्गतः पृष्ठतो निषीदन्ति क्रियाध्याहारः, 'मणमाई वी' त्यादि,मन आदयोऽपि मनः-पर्यायज्ञान्यवधिज्ञानिचतुर्दशपर्वधरा यावत्रवपूर्वधराः खेलौषध्यादिनिरतिशयसं यतवैमानिक देवीश्रमण्यस्तथा ज्योतिष्कभवनपतिव्यन्तरदेव्यः पूर्वक्रमेण तीर्थकरादीन नमन्त्यो व्रजन्ति स्वस्थानस्य स्वं स्थानमित्यर्थः भावार्थ: प्रागेवोक्तः। Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 471 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण भवणवई जोइसिया, बोधव्वा वाणमंतरसुरा य। वेमाणिया य मणुया,पयाहिणं जं च निस्साए / / 560 / / भवनपतयो ज्योतिष्का व्यन्तरसुरा एते पश्चिमद्वारेण प्रविश्य भगवन्त त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य वन्दित्वा नमस्तीर्थाय नमः केवलिभ्यो नमोऽतिशाथिभ्यो नमः शेषसाधुभ्यः इति भणित्वा यथोपन्यासमुत्तरपश्चिमे दिग्भागे निपीदन्तिा, तद्यथा- भवनपतीनां पृष्ठतो ज्योतिष्कास्तेषामपि पृष्ठतो व्यन्तरा-इति, तथा वैमानिका मनुष्याश्वशब्दात् स्त्रियश्च / अस्य चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, कि 'पयाहिण' ति-उत्तरद्वारेण प्रविश्य प्रदक्षिणाः कृत्वा तीर्थकरादीनभिवन्द्य उत्तरपूर्वे दिग्भागे यथोपन्यास निषीदन्ति, तद्यथा-वैमानिकानां पृष्ठतो मनुष्यास्तेषामपि पृष्ठतो मनुष्यस्त्रियः। इहैवं सम्प्रदायः-देव्यःसर्वा एव न निषीदन्ति देवा मनुष्या मनुष्यस्त्रियश्च निषीदन्ति इति, तथा विवृतं, 'जं च निस्साए' यः परिवारो यां च निश्रां कृत्वा समायातः स तत्पार्श्व एव तिष्ठति नान्यत्र / आ०म० अ०। अत्रान्तरे भाष्यादर्शषु केषुचिदेता गाथा दृश्यन्तेअणगारा वेमाणिय,वरं गणो सो गणी य पुव्वेणं / पविसंति विविहमणिरय--णकिरणनिकरेण दारेणं / / 1 / / जोइसियभवणवणयर-दयितालायत्तरूवकलियाओ। पविसंति दक्खिणेणं,पडायकयपंति कलिएणं // 2 / / जोइसियभवणवणयर-संसभमा-ललियकुंडलाहरणा। पविसंति पच्छिमेणं, वितुंगदिप्पंतसिहरेणं / / 3 / / समहिंदा कप्पोवग-देवा राया नरा य नारीओ। पविसंति उत्तरेणू, परमणियओहओहेणं / / 4 / / एताश्च द्वयोरपि चूोरगृहीतत्वात्प्रक्षेप (प्रक्षिप्त) गाथाः सम्भाव्यन्ते। उक्तार्थाः। बृ०१ उ०२ प्रक०। साम्प्रतमभिहितमेवार्थ भाष्यकारः पूर्वद्वारादि प्रवेशविसृष्टं स्पष्टतरं प्रतिपादयतिसंजय वेमाणित्थी, संजयपुव्वेण पविसिउं वीरं। काउंपयाहिणं पु-व्वदक्खिणे ठंति दिसिभागे॥११६|| संयता वैमानिकस्त्रियः संयत्यः पूर्वण-पूर्वद्वारेण प्रविश्य वीरं प्रदक्षिणं कृत्वा पूर्वदक्षिणे दिग्भाग तिष्ठन्तीति। जोइसियभवणवंतर-देवीओ दक्खिणेण पविसंति। चिट्ठति दक्षिणावर-दिसिम्मि तिगुणं जिणं काउं॥११७॥ ज्योतिष्कभवनव्यन्तरदेव्यो दक्षिणेन द्वारेण प्रविश्य त्रिगुणं प्रदक्षिण जिन कृत्वा दक्षिणापरदिग्भागे पूर्वक्रमेण तिष्ठन्ति। अवरेण भवणवासी, वंतरजोइससुरा य अतिगंतुं। अवरुत्तरदिसिभागे, चिट्ठति जिणं नमंसित्ता।।११८।। अपरेण-पश्चिमद्वारेण भवनवासिन्यो व्यन्तरज्योतिष्कसुराश्च अभिगत्यप्रविश्य जिन नमस्कृत्यापरोत्तरदिग्भागे वायव्यकोणे इत्यर्थः, पूर्वक्रमेण तिष्ठन्ति। समहिंदा कप्पसुरा, राया नरनारिओ उदिण्णेणं / पविसित्ता पुवुत्तर-दिसए चिटुंति पंजलिया।।११।। समहेन्द्रा महर्द्धिभिरिन्द्रैः सहिताः कल्पोपपन्ना देवा राजानो नराः सामान्यपुरुषा नार्यश्वउदीच्येनोत्तरेण द्वारेण प्रवश्यि भगवन्तं प्रणम्य प्राञ्जलयः पूर्वोत्तरदिगभागे तिष्ठन्ति / अभिहितार्थोपसंग्रहमाहएके किए दिसाए, तिगं तिगं होइ सन्निविटुं तु। आइचरमे विमिस्सा,थीपुरिसा सेसपत्तेयं // 561 / / एककस्या पूर्वदक्षिणादिकायां दिशि त्रिकं 2 भवति सन्निविष्ट'तद्यथापूर्वदक्षिणस्यां संयतवैमानिकदेवीश्रमणीरूप, दक्षिणापरस्यां भवनवासिज्योष्कव्यनारदेवीरूपम्, अपरोत्तरस्यां भवनपतिज्योतिष्कव्यन्तरदेवरूपम्, उत्तरपूर्वस्यां वैमानिकमनुष्यमनुष्यस्त्रीरूपमिति। आदिमे च त्रिके पूर्वदक्षिणदिगते चरमे च त्रिके पूर्वोत्तरदिग्गते विमिश्रा भवन्ति, स्त्रियः पुरुषाश्च तिष्ठन्ती-ति भावः / शेषे त्रिकद्वये प्रत्येक भवति, अपरादक्षिणे दिग्भागे केवलाः स्त्रियः एव अपरोत्तरे च दिग्भागे पुरुषा एवेति भावार्थः। (7) तेषां चेत्थं स्थितानां देवनराणामिय मर्यादाएतं महिड्डियं पणि-वयंति ठियमवि वयंति पणमंता। ण विजंतणा न विकहा, न परोप्परमच्छरो न भयं / / 562 / / ये अल्पद्धयो भगवतः समवसरणे पूर्वनिषण्णास्ते आगच्छन्तं महर्द्धिकं प्रणिपतन्ति / अथ महर्द्धिकाः प्रथम समवसरणे निषण्णास्ततः पश्चात् ये अल्पर्धिकाः समागच्छन्ति ते तान् पूर्वस्थितान् महर्धिकान प्रणिपतन्तो व्रजन्ति / तथा तेषां रिथतानां नापि यन्त्रणा, आयत्तता नापि विकथा, न च परस्पर मत्सरो, नापि विरोधिनामपि सत्त्वाना परस्पर भयं भगवतोऽनुभावात्। एतत् सर्व प्रथमप्राकारान्तरे व्यवस्थितम्। अथ द्वितीयप्राकारान्तरे तृतीयप्राकारान्तरे च किं व्यवतिष्ठते इत्याह-- बिइयम्मि होंति तिरिया, तइए पागारमंतरे जाण। पागारजढे तिरिया, वि होंति पत्तेयमीसा वा // 563 / / द्वितीये प्राकारान्तरे भवन्ति तिर्यञ्चस्तथा तृतीये प्राकारान्तरे यानानि, प्राकररहित: बहिरित्यर्थः / तिर्यशोऽपि भवन्ति, अपिशब्दात्मनुष्यदेवा अपि / ते च प्रत्येकं कदाचिद्भवन्ति कदाचि-त्तिर्यञ्च एव.कदाचिन्मनुष्या एव,कदाचिद्देवा एव,तथा कदाचिन्मिश्रा वा। एतेच प्रत्येकं, मिश्रा वा प्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्च वेदितव्याः / गतं समवसरणद्वारम्। (8) अधुना द्वितीयद्वारप्रतिपादनार्थमाहसव्वं च देसविरतिं, सम्मं वेच्छइ व होइ कहणा उ। इहरा अमूढलक्खो , न कहेइ भविस्सइ न तं च / / 464 // विरतिशब्द उभयत्रापि सम्बध्यते, सर्व-सर्वविरतिंदेशविरतिं सम्यक्त्वं वा ग्रहीष्यति / वाशब्दस्य व्यवहितः सम्बन्धः, ततः कथना-कथनं भगवतः प्रवर्तते 'इहर' त्ति इतरथा अमूढलक्ष्याः समस्तज्ञेयाविपरीतवेदनाः किं न कथयति? आह- यद्येवं समवसरणकरणप्रयासो विबुधानामनर्थकः, कृतेऽपि नियमतो कथनादित्यत आह- भविष्यति न तत्र यद्भगवति कथयति अन्यतमोऽप्यन्यतमत्सामायिकं न प्रतिपद्यत इति भविष्यत्कालनिर्देशस्त्रिकालोपलक्षकः / Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 472 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण (E) अथ कियन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते?, इत्येतदाह--- मणुए चउमन्नयर,तिरिए तिन्नि व दुवे व पडिवजे। जइ नत्थि नियमसो च्चिय, सुरेसु सम्मत्तपडिवत्ती / / 565|| मनुष्ये प्रतिपतरि चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत अन्यतरसा-- मायिकप्रतिपत्तिर्भवति, पाठान्तरं-'माणुओ चउमन्त्रयरं' तत्र मनुष्यश्चतुमिन्यतरत् प्रतिपद्यते इति व्याख्येयम्, तिर्य ड् त्रीणि वा सर्वविरतिवानिट्ने वा सम्यक्त्वश्रुतसामायिके प्रतिपद्यते इति / यदि नास्ति मनुष्यतिरवां कश्चित्प्रतिपत्ता ततो नियगत एव सरपसम्यवत्वप्रतिपत्तिर्भवति। सच भगवानित्थं धर्ममाचष्टे-- तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं / सव्वेसिं सन्नीणं, जोयणणीहारिणा भयवं // 566 // नभस्तीर्थाय प्रवचनरूपायेत्यभिधाय प्रणाम च कृत्वा कथयति प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य साधारणेन शब्देन अर्द्धमागधभाषात्मकेन / कषा साधारणेनेत्याह- सर्वेषाममरनरतिरक्षा संज्ञिनाम् / किं विशिष्ट न योजननिर्झरिणा-योजनव्यापिना भगवान्, किमुक्तं भवति- भगवती ध्वनिरशेषसमवसरणस्थसंज्ञि जिज्ञासितार्थ-प्रतिपत्तिनिबन्धन भवति भगवतः सातिशयत्वादिति। (10) ननु कृतकृत्यो भगवान् ततः किमिति तीर्थप्रणाम करोति?, उच्यतेतप्पुब्विया अरहया, पूइयपूया य विणयकम्मं च / कयकिच्चो विजह कहं, कहए नमए तहा तित्थं // 567|| तत्पूर्विका-प्रवचनरूपतीर्थपूर्विका अर्हता-तीर्थकरता प्रवचनविषयाभ्यासवशतस्तीर्थकरत्वप्ताप्नेः / यश्च यत उपजायते स तं प्रणमतीति भगवान् तीर्थ प्रणमति / तथा पूजितेन पूजा पूजितपूजा, सा चास्य कृता भवति। पूजितपूजको हि लोकः भगवॉश्च भुवनत्र-येऽपि पूज्यस्ततो यदि भगववता पूजितं भवति ततः सकलेऽपि जगति तत्पूजितं भवतीति प्रणमति, तथा विनयकर्म च वक्ष्यमा-णवेनयिकधर्मभूल कृतं भवति किमुक्तं भवति?-विनयभूलो धर्मो भगवता प्रज्ञापनीयस्तद्यदि प्रथम स्वयमेव भगवान् विनयं प्रयुड़े तो लोकः सम्यग विनयं प्रज्ञाप्यमानं प्रदले करोति / अथवा-यथा कृतकृत्योऽपि भगवान् कथां कथयति था तीर्थमपि नमति। आह-नन्विदमपि धर्मकथन भगवतः कृतकृत्यस्यायुक्तमेव, न, तस्य तीर्थकरनागकर्मविपाकप्रभावत्वात्। उक्तं च प्राक-तंच कहं वेइज्जई' इत्यादि। (11) क्व केन साधुना कियतो वा भूभागात्समवरारणे खल्वागन्तव्यम् ? अनागच्छतोवा किं प्रायश्चित्तमित्यत आहजत्थ अपुल्योसरणं, न दिट्ठपुव्वं व जेण समणेणं। वारसहिं जोयणेहिं, सो एइ अणागए लहुगा / / 568|| यत्र तत्तीर्थकरापेक्षया अपूर्वम्-अभूतपूर्व समवसरण न दृष्टपूर्व वा येन आगाणेन स द्वादशभ्यो योजनेभ्यः आगच्छति / अथ नागच्छति अवज्ञया ततोऽनागते सति 'लहुय' त्ति-चतुर्लघवःप्रायश्चित्तम्। गतं 'केवइय' तिद्वारम्। (12) अधुना रूपपृच्छाद्वारप्रकटनार्थमाहसव्वसुरा जइ रूवं अंगुट्ठपमाणयं विउव्वेज्जा। जिणपादंगुटुं पइ, न सोहए तं जहिंगालो // 566 / / अथ कीदृग् भगवतो रूपम्?, उच्यते-सर्वेसुरा अशेषसुन्दररूपनिर्मापणशक्त्या यदि अङ्गुष्ठप्रमाणकं रूपं विकुर्वीरन् तथापि जञ्जिनपादाङ्गुष्ट प्रति न शोभते यथा अङ्गारः। साम्प्रतं प्रसङ्ग तो गणधरादीनां रूपसंपदमभिधित्सुराह-- गणहर आहार अणु-त्तरा य जाव वणचक्किवासुबला। मंडलिया जा हीणा, छट्ठाणगया भवे सेसा / / 570 / / तीर्थकररूपाद्गणधराणा रूपगनन्तगुणहीन भवति, तीर्थकरेभ्यो गणधरा रूपेणान्तगुणहीना भवन्तीति भावः / गणधरेभ्यो रूपेण खल्याहारकदेहा अनन्तगुणहीना आहारकदेहेभ्यो रूपेणानन्तगुणहीनाः-'अणुत्तरा' अनुत्तरवैमानिकाः, एवं ग्रेवेयकाऽच्युतारणप्राणतानतराहसारमहाशुक्रलान्तकब्रह्मलोकमाहेन्द्रसनत्कुमारेशानसौधर्मभवनवासिज्योतिष्कट्यन्तरचक्र वर्तिवासुदेवबल देवमहामण्डलिकानामनन्तरानन्तरापेक्षया रूपेणानन्तगुणहीना अवगन्तव्याः। तथा चाह-- 'जाव वणचकिवासुबला। मंडलिया जाहीण' ति-याय व्यन्तरचक्रवर्तिवासुदेवबलदेवमाण्डलिकाः तावदनन्तगुणा हीनाः, 'छट्ठाणगया भवे सेस' ति-शेषा राजानो जनपदलोकाश्च षट्रस्थानगता भवन्ति / अनन्तभागहीना वा असंख्येयभागहीना वा संख्ये यभागहीना वा संख्ययगुणहीना वा असंख्येयगुणाहीना वा अनन्तगुणहीना वा इति। उत्कृष्टरूपताया भगवतः प्रतिपादयितुं प्रक्रान्तायामिदे प्रासङ्गिक रूपसौन्दर्यनिबन्धनं संहननादिप्रतिपादयन्नाहसंघयणरूपसंठा-णवण्णगइ सत्तसारऊसासा। एमाइऽणुत्तराई,भवंति नामोदया तस्स।।५७१।। संहननं-वजर्षभनाराचं रूपमुक्तलक्षणं संस्थान-समचतुरस्र वर्णो -- देहच्छाया गतिर्गमनं सत्ववीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमादिजन्य आत्मपरिणामः, सारो द्विधाबाहाः,आन्तरश्च / बाह्यो गुरुत्वम्,आन्तरो ज्ञानादि, उच्छासः प्रतीतः, तत एतेषां पदानां द्वन्द्वमेवमादीनि वस्तूनि आदिशब्दाद्रुधिरं गोक्षीराभमित्यादिपरिग्रहः, अनुत्तराणि तस्य भगवतो नामोदयान्नामकर्मोदयाद भवन्ति। आह-अन्यासा प्रकृतीना वेदना गोत्रादयो नाम्नो वाय इन्द्रिया-दयः प्रशस्ता उदया भवन्ति ते किमनुत्तरा भगवतः छद्मस्थकाले केवलिकाले वा भवन्ति कि वा नेति?. उच्यतेपयडीणं अन्नासु वि, पसत्थउदया अणुत्तरा होति। खयउवसमे विय तहा, खयम्मि अविकप्पमाहंसु // 572 / / 'अासु वि' ति-षष्ठ्यर्थे सप्तमी,अन्यासामपि प्रकृतीनाम् अपिशब्दानामोऽपि प्रशस्ता उदयावा उर्गोत्रादयो भवन्ति, किम् इतरजनस्येव? नेत्याह अनुत्तरा-अनन्यसदृशा इत्यर्थः। 'खओवसमे विय'ति-क्षयोपशमे सति ये दानलाभादयः कार्यविशेषा अपिशब्दादुपशमेऽपि ये केचन तेऽपि अनुत्तरा Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 473 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण भवन्तीति क्रियायोगस्तथा कर्मणः क्षये आत्यन्तिककर्मक्षय सति यिकज्ञानादिगुणसमुदयमविकल्पव्यावर्णनादिकल्पनातीत सर्वोत्तम- | माख्यातचन्तस्तीर्थकरगणधराः / (13) आह- असातवेदनीयाद्याः प्रकृतयो नाम्नो वाऽप्रशस्ताः कथ तस्यदुःखदान भवन्ति?, उच्यते अस्सायमाइयाओ,जा विय असुभा हवंति पयडीओ। निंबरसलवो व्व पए, न होंति ता असुहया तस्स / / 573 / / असात द्या वा अपि च प्रकृतयोऽशुभा भवन्ति, अपि निम्बरसलव इव लवो बिन्दुः पयसि क्षीरे न भवन्ति ता असुखदास्तस्य भगवतस्तीर्थकृतः / उक्तमानुषङ्गि कम्। प्रकृतं द्वारमधिकृत्य प्रांच्यते / तत्र कश्चिदाह उत्कृष्टरूपतथा भगवतः किं प्रयोजनमत आहधम्मोदएण रूवं, करेंति रूवस्सिणो वि जइ धम्म / गिज्झवतो य सुरूवो, पसंसिमो तेण रूवं तु / / 574|| धर्मस्यादयो धर्मोदयस्तेन रूपं भवतीति श्रोतारोऽपि धर्म प्रवर्तन्ते, तथा कुर्वन्ति रूपस्विनोऽपि-रूपवन्तो यदि धर्म ततः स शेषःसुतरा कर्तव्य इति श्रोतृबुद्धिः प्रवर्त्तते / तथा ग्राह्यवाक्यश्च सुरूषा भवति, वशब्दात् श्रोतृणा रूपाधभिमानापहारी अत एतः कारणर्भगवतो ni प्रशसामः। अथवा-पृच्छति भगवान् देवनरतिरश्वां प्रभूतसंशयिना कथं व्याकरण कुर्वन् संशयव्यवच्छित्तिं करोती त्युच्यते-युगपत्। किमित्याहकालेण असंखेण वि,संखाईयाण संसईणं तु / मा संसयवोच्छित्ती, न होज्ज कमवागरणदोसा / / 575|| यदि एकेकस्य परिपाट्या एकेक संशय छिन्यात ततः संख्यातीताना देवानां संशयिना संख्येयेनापि कालेन संशयव्यवच्छित्तिर्न स्यात, कुत इत्याह क्रमेण व्याकरणं क्रमव्याकरण स एव दोषः क्रमव्याकरणदोषस्तस्मात्तता युगपद व्याकरोति। (14) युगपद्व्याकरणे गुणमुपदर्शयति-- सव्वत्थ अविसमत्तं, रिद्धिविसेसो अकालहरणं च। सवण्णुपचओ वि य, अचिंतगुणभूइओ जुवगं // 576|| सर्वत्र-सर्वसत्त्वेषु समत्वम्-अविषमत्वं युगपत्कथनन भगवतो रागद्वेष हितस्य प्रथितं भवति, अन्यथा तुल्यकालसंशयिना युगपजिज्ञासुतयोपस्थितानां कालभेदकयने रागेतरगोचरचित्तवृत्तिप्रसङ्गः, सामान्यकेवलिना तत्प्रसङ्ग इति चेन्न तेषामित्थं देश-नाकरणायोगात। तथा अतिविशेष एव तावत् प्रथितो भवति यत् युगपत्सर्वेषामेव संशयिनामशेषसंशयव्यवच्छित्ति करोति / तथा अकालहरणं भवति भगवत युगपत् संशयोपनोदात् / क्रमेण कथनं तु कस्यचित संशयिनोऽनिवृत्तराशयस्यैव मरण स्यात, नच भगवन्तमप्यवाप्य संशयनिवृत्यादिफलहिताः प्राणिनो भवन्तीति युक्तम्। सर्वज्ञप्रत्ययोऽपि तेषामेवम्पजायते, यथा सर्वज्ञोऽयं हृद्ताऽशेषसंशयापनोदात् / न खल्वसर्वज्ञ एकका लमशेषसंशयापनोदायालमिति / क्रमव्याकरणे तु करयचिदनप्रमतर शयस्य सर्वज्ञप्रतीत्यभावः स्यात् / तथा अचिन्त्यगुणभूतिर- चिन्त्या गुणसम्पद्भगवतः स्वभाविकी, ततो यस्मादेते गुणा अतो युगपत्कथयति, गतं पृच्छा द्वारम्। (15) अधुना श्रोतृपरिणामः पर्यालोच्यते, तत्र यथा सर्वसंशयिना सापारमेश्वरी वागशेषसंशयोन्मूलनेन स्वभाषया परिणमते तथा प्रतिपादयतिवासोदयस्सव जहा,वन्नाई होंति भायणविसेसा। सव्वेसिं वि सभासा, जिणभासापरिणमे एवं // 577 / / वर्षोंदकस्य-वृष्टयुदकस्य वाशब्दादन्यस्य वा यथैकरूपस्य सतो भाजनविशेषातवर्णादयो भवन्ति, कृष्णसुरभिमृत्तिकाया स्वच्छ सुगन्धि रसवच भवति ऊपरे तु विपरीतम / एवं सर्वेषामपि श्रोतृणां स्वभाषया जिनभाषापरिणभते! तीर्थकरवाचः सौभाग्यगुणप्रतिपादनार्थमाह-- साहारणासवत्ते, तदुवओगे उगाहगगिराए। नय निव्विज्जइ सोया, किढिवाणियदासिओहरणा।।५७८|| साधारणा भगवतो वाणी अनेकप्राणिषु स्वभाषात्वेन परिणमनात, नरकादिभयरक्षणपरत्वात् असपत्ना-असदृशी-अद्वितीया, साधारणा चासौ असपत्ना साधारणाऽसपत्ना तरयामुपयोगस्तदुपयोग एव भवति श्रोतुःतुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् कस्याम्?, ग्राहयतीति ग्राहका सा चासो गीश्न गाहकगीस्तरयां ग्राहकगिरि, उपयोगे सत्यपि अन्यत्र निर्वेदो दृश्यते. तत आह-न च निर्विद्यते श्रोता, कथ मयमर्थः खल्ववगन्तव्य इत्याहकिदिवाणिग्दास्यु (को) दाहरणात, तचेदम्-'एगरस वाणियरस एगा किढी दासी, किढ़ी नामथेरी, सा गोसे कहाणं गया, तण्हाछुहाकिलता मज्झरहे आगया / अतिथोवाणि कट्ठाणि आणियाणि त्ति पिट्टिता, भुक्खि-यतिसिया पुणो पट्टविया। सा य वर्ल्ड कट्ठभारं गहाय ओगाहतीए पोरिसीए आगच्छति, कालोय जेट्टमासो, अह ताए थेरीए कटु-भाराओ एग कट पडियं, ताहे ताए ओणमित्ता तं गहिय / तं समयं च जोयणमीहारिणा सरण भयवं तित्थयरो धम्म कहेइ। सा थेरी तं सह सुणेती तहव ओणतासोउमादत्ता, उण्हं खुहं पिवासं परिस्समं च न विंदइ / सरत्यमणो तित्थयरोधम्म कहेउमट्टितो, थेरी गया। एवसव्वाउयं पि सोया, खिवेज्ज जइ हु सययं जिणो कहए। सीउण्हखुप्पिवासा, परिस्समभएवि अविगणंतो।।५७६।। भगवति कथयति भगवत्समीपवर्त्यव सन सर्वायुष्कमपि श्रोता क्षपयेत, यदि हुसततमनारत जिनः कथयेत्, किं विशिष्टः सन् इत्याहशीलाषणक्षुत्पिपासापरिश्रमभयान्यविगणयन् गत श्रोतृपरिणामद्वारम् / (16) सम्प्रति दानद्वारं भाव्यते, तत्र भगवान् येषु ग्रामनगरा दिषु विहरति तेभ्यो वार्ता ये खल्वानयन्ति तेभ्यो यत्प्रयच्छन्ति वृत्तिदानं प्रीतिदानं चक्रवादयस्तदुपदर्शयन्नाह-- वित्ती उसुधण्णस्स, वारसअद्धं च सयसहस्साई। तावइयं चिय कोडी, पीईदाणं तु चक्कीणं / / 580 / / वृतिस्तु वृत्तिरेव नियुक्तपुरुषेभ्यः सुवर्णस्य द्वादशशतसहसाणि अई च अत्रयोदशसुवर्ण लक्षा इत्यर्थ:, चक्र वर्तिना दीयते तथा एतावत्य एव कोटयः प्रीतिदानं चक्र वर्तिनः / Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 474 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण तत्रवृत्ति कालमानेन परिभाषिता नियुक्तपुरुषेभ्यो दीयते, प्रीतिदान यद्भगवदागमन निवेदिते परमहर्षान्नियुक्तेरभ्यो दीयते, तथा वृत्तिः-- | संवत्सरनियता प्रीतिदानमनियतमिति। एयं चेव पमाणं, नवरं रययं तु केसवा देंति। मंडलियाण सहस्सा, वित्ती पीइ (दाण) सयसहस्सा // 581 / / एतदेव प्रमाणं वृत्तिप्रीतिदानयोः केशवाना नवरं रजत-रूप्य केशवावासुदेवा ददति, तथा-माण्डलिकाना राज्ञामर्द्धवयोदशसंख्यानि सहरत्राणि रूप्यस्य वृत्तिदानं प्रीतिदानं शतसहस्राणि लक्षाणि अर्द्धत्रयो - दशसंख्यानि। किमेते एव महापुरुषाः प्रयच्छन्ति नेत्याहभत्तिविहवाणुरूवं, अन्ने वि य देंति इन्भमाईया। सोऊण जिणागमणं, नियुत्तमणिओइएसुवा / / 582 / / इभ्यो महाधनपतिरादिशब्दानगरग्रामभोगिकादिपरिग्रहः, अन्ये ऽपि च इभ्यादयो भक्तिविभवानुरूपं श्रुत्वा जिनागभनं ददति, केभ्यः ?, इत्याह-नियुक्तेभ्योऽनियोजितेभ्यो वा। अथ तेषामित्थं प्रयच्छता के गुणाः?, उच्यतेदेवाणुवित्तिभत्ती, पूयाथिरकरणसत्तअणुकंपा। सातोदयदाणगुणा, पभावणा चेव तित्थस्स / / 583 / / देवानुवृत्तिः कृता भवति, देवा अप्यनुवर्त्तिता भवन्ति, कथम्?, यतो,देवा भगवत्पूजा कुर्वन्ति, प्रवृत्तिकथके भ्यश्च दानं ददति, अतस्तेऽनुवर्तिता भवन्ति, तथा भक्तिर्भगवतः कृता भवति, पूजा च / तथा अभिनवश्रावकाणां स्थिरकरणं, तथा वातनिवेदकस्य सत्त्वस्थानुकम्पा कृता भवति, तथा सातोद्वयं सातावेदनीय कर्म एवमुपचीयते एते वृत्तिप्रीतिदानगुणा भवन्ति, तथा प्रभावना तीर्थस्यैवं कृता भवतीति, गतं दानद्वारम्। (17) अधुना माल्यद्वारमधिकृत्य प्रोच्यते, तत्र भगवान् प्रथमां संपूर्णपौरुषी धर्ममाचष्टे, अत्रान्तरे देवमाल्य प्रविशति; बलिरित्यर्थः / अथ कस्तं बलिं करोतीत्यत आहराया व रायमच्चो, तस्साऽसइ पउरजणवओ वा वि। दुब्बलिखंडियबलिछडिय-तंदुलाणाढयं कलमा / / 584 / / राजा-चक्रवर्तिमाण्डलिकादिः राजामात्यो वा अमात्योमन्त्री तस्य राज्ञोऽमात्यस्य वा अराति- अभावे नगरनिवासिविशिष्ट-लोकसमुदायः पार तत् करोति / ग्रामादिषु जनपदो वा। अत्र जनपदशब्देन तन्निवासी लोकः परिगृह्यते,स बलिः किविशिष्टः किंपरिमाणो वा क्रियते? इत्याह . 'दुर्बलि' इत्यादि, दुर्बलिकया ख (क)ण्डितानां बलीति वलिकया छटिताना तन्दुलाना, 'कलमा' इति-प्राकृतशैल्या कलमानाम् आढकं वतुःप्रस्थप्रमाण करोति। कि विशिष्टानामित्याहभाइय पुणाऽऽणियाणं, अखंडफुड़ियाण फलगसरियाण। कीरइ बली सुरा वि य, तत्थेव छुहंति गंधाई / / 585 / / भाजिता-ईश्वरादिगृहेषु वीननार्थमर्पिताः स्तेभ्यः प्रत्यानीताः पुनरानीता भाजिताश्च ते पुनरानीताश्च, तेषां किंविशिष्टानाम्? इत्याह अखण्डाः-सम्पूर्णावयवाःअस्फुटिताराजीरहिता अखण्डाश्च ते अस्फुटिताश्चेति विशेषणसमासस्तेषाम्, 'फलक-सरिताण' तिफकवीनितानाम् एवंभूतानामाढकः क्रियते / बलिः सिद्धः सुरा अपि च तत्रैव बलौ प्रक्षिपन्तिगन्धादीन् गतं देवमाल्यद्वारम्। आ० म०१ अ०। अधुना माल्यानयनद्वारम्, तमित्थं तन्दुलाढकपरिमाणं सिद्धं बलिमुपादाय राजादिरित्रदशगणपरिवृतो महता पटुपटहादितूर्यनिनादेन सकलमपि दिग्मण्डलमापूरयन्नागत्य पूर्वद्वारेण प्रवेशयति / आह च चूर्णिकृत्-"तं आढगं तदुलाण सिद्ध देवमलं राया या रायमचो वा गामो वाजणवआवा गहाय महया तूरियरवेणं देवपरिखुडो पुरच्छिमिलेणं दारेणं पविसई ति। बृ०१ उ०२ प्रक०। तस्मिंश्च प्रवेश्यमाने भगवानपि धर्मदेशना मुपसंहरतीत्याहबलिपविसणसमकालं, पुव्वद्दारेण ठाइ परिकहणा। तिगुणं पुरओ पाडण, तस्सद्धं अवडियं देवा / / 586 / / पूर्वद्वारेण बले रभ्यन्तरे-प्राकाराभ्यन्तरे प्रदेशनं बलिप्रवेशन तत्समकालं तिष्ठति-उपरमते धर्मकथना-धर्मकथा। किमुक्तं भवतिअभ्यन्तरे प्राकाराभ्यन्तरे यदा बलिः प्रविशति तदा भगवान् धर्मकथामुपसंहृत्य तूष्णीकोऽवतिष्ठते ततः स राजादिर्वलिव्यग्रहस्तो देवपरिवृतो भगवन्तं तीर्थकरं त्रिःकृत्वा प्रदक्षिणीकृत्य तं बलिं तत्पादान्तिके पुरतः पातयति तस्यार्द्धमपतितं देवा गृह्णन्ति। अद्धऽद्धं अहिवइणो, अवसेसं होइ पागयजणस्स। सव्वामयप्पसमणी, कुप्पइ नन्नो य छम्मासे / / 587 / / शेषस्य अर्द्धरयार्द्धमर्द्धार्द्ध तत् अधिपतेर्भवति; राज्ञ इत्यर्थः, अवशेष यद्वलेरास्ते तद्भवति कस्य? प्रकृतिषु भवः प्राकृतः स चासौ जनस्तस्य, च चैवरूपसामर्थ्यः, यद्येकमपि सिक्थं तत्संबन्धि यस्य शिरसि प्रक्षिप्यते तस्य पूर्वोत्पन्नो व्याधिः खलुपशमं याति, अपूर्वश्च षण्मासान् यावद् न भवति। तथा चाह-सर्वामय-प्रशमनः सूत्रे स्त्रीलिङ्ग निर्देशः प्राकृतत्वात् कुप्यति नान्यनषण्मासान् यावदित्थं बलौ प्रक्षिप्ते भगवान् प्रथमप्रकारादुत्तरद्वारेण निर्गत्य द्वितीये प्राकारान्तरे पूर्वस्यां दिशि देवच्छन्दके यथासुखं समाधिना व्यवतिष्ठते। (18) सम्प्रति 'उवरि तित्थ' ति द्वारमभिधीयते / भगक्त्युत्थिते द्वितीयस्यां पौरूष्यामाद्यगणधरोऽन्यो वा गणधरोधर्ममाचष्टे स्यान्मतिः किं कारणं द्वितीयस्यामपि पौरुष्यां तीर्थकर एव धर्म न कथयति?, तथा आहखेयविणोओ सीसगु-णदीवणा पच्चओ उभयओ वि। सिस्सायरियकमो वि य, गणहरकहणे गुणा होति / / 588 / / खेदविनोदः परिश्रमविनाशो भगवतो, भवति, तथा शिष्यगुणदीपनाशिष्यगुणप्रख्यापनाच कृता भवति तथा प्रत्यय उभयतोऽपि श्रोतृणमुपजायते, यथा भगवताऽभ्यधायि तथा गणधरेणापि, यदिवा--गणधरे तदनन्तरं तदुक्तानुवादिनि प्रत्ययः श्रोतृणां भवति, यथा नान्यथावाद्ययमिति, तथा शिष्याचार्यक्रमोऽपि दर्शितो भवति, आचार्यादृपश्रुत्य योग्यशिष्येण तदर्थान्वाख्यानं कर्त्तव्यमिति / एते गणधरकथने गुणा भवन्ति। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 475 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण आह स गणधरः क्व निपण्णः कथयति? उच्यतेराओवणीयसीहा-सणे णिविट्ठो व पायपीढ़े। जेट्ठो अन्नयरो वा, गणहारी कहेइ बीयाए // 586 / / राज्ञा उपनीत-राजोपनीतं तच्च तत् सिंहासनं च राजोपनीतसिंहासन तत्र तदा उपविष्टस्तदभावे तीर्थकरपादपीठे वा उपविष्टः स च ज्येष्ठः अन्यतरो वा गणम्-साध्वादिसमुदायलक्षणं धारयितुं शीलमस्येति गणधारी द्वितीयायां पौरुष्याम् कथयति। __ आह–स कथयन् कथं कथयतीति?. उच्यते-- संखातीते वि भवे, साहइ जंवा परो उ पुच्छिज्जा। नयणं अणाइसेसी, वियाणई एस छउमत्थो।।५६०।। संख्यातीतानपि असंख्येयानपीत्यर्थः, भवान् 'साहेई' इति देशीवचनमेतत कथयति, किमुक्त भवति?. --असंख्येयेषु भवेषु यद-भवत् भविष्यति; यदा-वस्तुजातं परः पृच्छेत् तत्सर्वं कथयति, अनेनाशेषाभिलाप्यपदार्थप्रतिपादनशक्तिरावेदिता, किं बहना?, नच-नैव णमिति वाक्यालंकारे, 'अनतिशेषी' अनतिशयी अवध्याद्यतिशयरहित इत्यर्थः, विजानाति यथा एष गणधरश्छद्मस्थ इति अशेषप्रश्नोत्तरप्रदानसमर्थत्वात्तस्य। एवं तावत्समवसरणवक्तव्यता सामान्येनोक्ता आ०म०१ अ०।०। अ०। (16) समवसरणकल्पः / नमिऊण जिणं वीरं, कप्पं सिरिसमवसरणरयणाए। पुवायरियकयाहिं, गाहाहिं चेव जंपेमि / / 1 / / वाऊ मेहा कमसो, जोअणभूमीहि सुरहिजलबुद्धिं / मुणिरयणभूमिरयणं, कुणंति पुण कुसुमवट्ठिवणा / / 2 / / पायारे ति अ कमसो, कुणंति वररुप्यकणयरयणमयं / कंचणवसुमणिकविसी-ससोहिआभवणजोइवणा / / 3 / / गाउयमेगं छस्सय-धणुहपरिछिन्नमंतरं तेसिं। अटुंगुलिक्करयणी, तित्तीसं धणुहबाहल्लं / / 4 / / पंचसयधणुचत्तं, चउदारविराइयाण वप्पाणं / सव्वप्पमाणमेयं, नियनिअहत्थेण य जिणाणं / / 5 / / सोवाणदससहस्सा,भूमीओ गंतु पढमपायारो। पण्णासधणुहपयरो,पुणो विसोवाणपणसहस्स।।६।। तत्थ वि बीओ वप्पो, पुव्वुत्तविही तयंतरे नेया। तत्तो तइओ एवं, वीससहस्सा य सोवाणो / / 7 / / दस पंच पँच सहस्सा,सव्वे हत्थु व्व हत्थवित्थिण्णा। बाहिरमज्झभिंतर, वप्पाण कमेण सोवाणं / / 8 / / तम्मज्झे मणिपीढं, भूमीओ सड्ढदुन्नि कोसुचं / दोधणुसयवित्थिन्नं, चउदारं धणुजिणधणुसमुह / / 6 / / सिंहासणाइचउरो, मणिपडिछिन्नाइ तेसु चउरूयो। पुव्वमहे ठाइ सयं, छत्तत्तयभूमिओ भव्वं / / 10 / / समहिअजोयणपिहुलो, तहा असोगो दुसोलसधणुचो। पडिबिंबत्तयपमुहं, किच्चं तु कुणंति वंतरिया / / 11 / / परिसाअग्गे आइसु, मुणिवरवेमाणिणीउ समणीओ। भवणवइजोइदेवी, देवा वेमाणियनरित्थी।१२॥ जोअणसहस्सदंडो, धम्मझओ फुडइ के उसंकिन्नो। दो जक्खचामरधरा, जिणपुरओ धम्मचक्क च / / 13 / / ऊसिअधयमणितोरण-अडमंगलपुन्नकलसदामाई। पंचलिअछन्नाई,पइदारं धूवघडियाओ॥१४॥ हेमसिअरत्तसामल-वणासरवयणजोइभवणवइ। पइदारं वसुवप्पे, पव्वाइ सुणंति पडिवारा / / 15 / / जयविजयादि अ अवरा, जिअगोरा रत्तकणयनीलाभा। देवी पुव्वकमेणं, सत्थकरा वंतिकण्णयमए|१६|| जडमउडमंडिआ तह,तुंवरुखंडंगपुरिससिरिमाली। बहिवप्पदारदोसु वि, पासेसुंठंति पइवप्पं / / 17 / / बहिवप्पे जाणाई, बीए स तु विभिन्नभावगया। तिरिआगमणमयत्थं,देइ स पुण रयणवप्पबहिं // 18|| बहिवप्पयारमज्झे, दो दो वावी वि डंति वटुंति। चउरंससमोसरणे, इग इग वावीउ कोणेसुं / / 16 / / उक्किट्ठिसीहनायं, कलयलसद्देण सव्वओ सव्व। तित्थयरपायमूले, करें ति देवा निवयमाणा / / 20 / / चेइदुमपीढछंदग, आसणछत्तं च चामराओ य। जं च ऽण्णं करणिज्जें, करें ति ते बाणमंतरिया / / 21 / / साहारणचउसरणे, एवं जच्छिड्डिमंत ओसरइ। इकु व्विअं तं सव्वं, करेइ भयणा उ इअरेसिं / / 22 / / सूरुदय पच्छिमाए, उग्गाहंतीइ पुव्वओ एइ। दोहि पउमेहि पाया, मग्गेण य हुंति सत्तन्ने / / 23 / / आदाइण पुव्वमुहो,तिदिसिं पडिरुवगाउ देवकाया। जिट्ठगणी अन्नो वा, दाहिणिपुव्वे अदूरम्मि॥२४।। जे ते देवेहि कया, तिदिसिं पडिरूवगा जिणवरस्स। तेसिंच तप्पभावा, तयाणुरूवं हवइ रुवं / / 25 / / इड्डि महड्डिय पडिवयं-ति विअमवि जंति पणमंता। न विजंतणा न विकहा, न परुप्परमच्छरो न भयं // 26 // तित्थपणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्देणं / सव्वेसिं सन्नीणं, जोअणनीहारिणा भयवं / / 27 / / जत्थ अपुट्योसरणं, अदिट्ठपुवव्वं व जेण समणेणं / बारसहि जोयणे हिं, सो एइ अणागमो लहुआ||२८|| साहारणासवंते, तदुवओगो अगाहगगिराए। नय निव्विज्जइ सोया, किढिवाणिअदासिआहरणा।।२६।। सव्वाउअंपि सोआ, भविज्ज जइ हु सययं जिणो कहइ। सीउण्हखुप्पिवासा, परीसहे अविगणंतो य॥३०॥ वित्तिउसवण्णस्स, बारस अद्धं च सयसहस्साइं। तावइयं चिय कोडि,पीइदाणं तु चक्किस्स // 31 / / Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण एयं चेव पमाणं, नवरं रयणं तु केसवा देंति। मंडलिआण सहस्सा, पीइदाणं सयसहस्सा / / 32 / / भत्तिविभवाणुरूवं,अन्नेऽवि य देंति इब्भमाईया। सोऊण जिणागमणं, निउत्तमणिओइएसुं वा॥३३॥ राया य रायमचो, तस्सासइ, पवरजणवओ वावि। दुब्बलिखेंडिअबलिछडिअ-तंदुलाणाढगं कलमा॥३४॥ भाइअमुणाणिआणं,अखंड फुडिआण फलगसरियाणं। कीरइ बलिं सुरा वि अ, तत्थेव छुभंति गंधाई // 35 / / वलिपविसणसमकालं, पुव्वद्दारेण ठाइ परिकहणा। तिगुणं पुरओ पाडण, तस्सद्धं अवडिअंदेवा / / 36|| अद्धद्धं अहिवइणो, अवसेसं होइ पागयजणस्स। सव्वामयप्पसमणी, कुप्पइ नऽण्णे अछम्मासा॥३७॥ राओवणीअसीहा-सणोवविट्ठो व पायपीढम्मि। जिट्ठो अन्नयरो वा, गणहारी करेइ वीआए॥३८॥ इअसमवसरणरयणा, कप्पो सुत्ताणुसारओ लिहिओ। लेसुद्देसेण इमो,जिणपहसूरीहि पढिअव्वो॥३६॥ ती० 44 कल्प / आ० चू० / वृ० / जिनप्रतिमाऽग्रे तत्प्रतिकृत्यनुकरणे, पक्षा०। (20) सच समयसरणादिरचनादिरूपः, अतः समवसरणरचना ताबहर्शयन्नाहवाउकुमाराईणं, आहवणं णियणिएहि मंतेहिं। मुत्तासुत्तीए किल, पच्छा तक्कम्मकरणं तु / / 12 / / धायुकुमारादीनामागमप्रसिद्धदेवविशेषाणामादिशब्दान्भेषकुमारादिपरिग्रहः, आहानं-संशब्दन कार्यमिति शेषः / करित्याह-निजनिः स्वकीयस्वकीयमन्त्रः प्रणवनमः पूर्वकस्वाहान्ततन्नामरूपेर्यथासम्प्रदायमागतः, मुक्ताशुक्त्या मुक्ताफलयोन्याकारया हस्तविन्यासमुद्रया, किलेत्याप्तसम्प्रदायराधकमाह्वानस्य वा अतात्विकत्वसूचकं तदतात्त्विकं चाहानेऽपि तेषां प्रायः आगमनासम्भवात् तत्संस्मरणस्येवेह विधेयत्वादिति। पश्वादाहानानन्तरं तत्कर्मकरणे तुतेपा प्रायःवायुकुमारमेधकुमारादिदेवानां यत्कर्म भूप्रमार्जनोदकसेचनादिरूपा व्यापारस्तस्य विधानमेव तुशब्द एवकारार्थः, पुनः शब्दार्थो वा। स चैवं दृश्यः पश्चात्पुनः इति गाथार्थः। एतदेव दर्शयितुमाहवाउकुमाराहवणे,पमज्जणं तत्थ सुपरिसुद्धं तु। गंधोदगदाणं पुण, मेहकुमाराहवणपुव्वं // 13 // वायुकुमाराहाने-मरुत्कुमारदेवरसंशब्दने कृते रातीति गम्य प्रमार्जन - भूमिशुद्धिरुप कर्त्तव्यं भवतीति गम्यत् / 'तो' ति समवसरणभूमी, सुपरिशुद्धं तु सर्वकचवराद्यपहरणेनातिशुद्धमेव, एते किल मयाऽऽहूता वायुकुमारदेवा भगवत्रामवसरणभुवं शोधयन्तीति कल्पनयेति हदयम्। गन्धोदकदानं सुरभिजलवर्पण पुनः शब्दः पूर्ववाक्यार्थापेक्षयोत्तरवाक्यार्थस्य विलक्षणताप्रतिपादनार्थः मेधकुमारावानपूर्व मेघकारिदेवसंशब्दनपुरस्सर स्वरागेवकार्य, भगवत्समयसरणे हि वायुकुमार मिशुद्धी कृताया रजः प्रशमनार्थ मेघकुमारा गन्धोदकवर्ष कुर्वन्तीति स्थिति। कल्पना तु पूर्ववदेवेति गाथार्थः / तथाउउदेवीणाहवणे, गंधड्डा होइ कुसुमदुट्टि त्ति। अग्गिकुमाराहवणे, धूवं एगे इह बेंति // 14 // ऋतुदेवीनां वसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमन्तशिशिराभिधानदेवतानामाहाने-संकीर्तने कृते सतिगन्धाढ्या-सद्गन्धगुणसमृद्धा, भवति-वर्त्तते विधेयेति गम्य, कुसुमवृष्टिर्दशार्द्धवर्णपुष्पवर्षः / इतिशब्दः समाप्त्यर्थे / ततश्च कुसुमवर्षकरणेनैव ऋतुदेवीकर्म परिसमाप्तं भवतीति भणित भवति / अग्निकुमाराहाने तैजसदेवसंकीर्त्तने कृते सति धूपंकालागुरुप्रभृतिकम् / एके–केचन आचार्या इह-समवसरणव्यतिकरे, बुवतेअग्निभाजनप्रक्षेप्यतया प्रतिपादयन्ति, अन्ये तु सामान्यतो देवाह्वाने यत आवश्यकटीकाकृतोक्तं धूपघटिका विकुर्वन्ति त्रिदशा एवेति गाथार्थः / तथावेमाणियजोइसभव-णवासिया हवण पुष्वगं तत्तो। पागारतिगण्णासो, मणिकंचनरुप्पवण्णाणं / / 15 / / वैमानिकाच-सौधर्भिकादयो ज्योतींषि च-चन्द्रादयो भवनवासिनश्वासुरादयस्तेषामाहानं-संशब्दन पूर्व-प्रथमं यत्र प्राकार-त्रयन्यासकरणे तत्तथा, क्रियाविशेषणमिदं, ततो धूपदानानन्तरं प्राकाराणांशालाना त्रिकस्य-त्रयस्य न्यासोन्यसनं प्राकारत्रि-कन्यासः, कर्तव्यो भवतीति शेषः / किंभूतानां प्राकाराणाम?, इत्याह-मणिकाञ्चनरूप्याणामिवरत्नस्वर्णकलधौतानामिव वर्णश्छाया येषां ते तथा तेषाम्, भगवतो हि समवसरणे वैमानिकादयो देवा अन्तर्मध्ये बहिश्च क्रमण मणिमयादीन् त्रीन् प्राकारान कुर्वन्तीति। इह च प्राकार इत्यस्य पदस्रा समासान्तभूतस्याप्यन्तर्वनिषष्ठन्ततामाश्रित्य मणिकाशनरूप्य वर्णानामित्येतत्पदविशेषणतया संबध्यते / अथवा-मणिकाञ्चनरूप्यवर्णानां द्रव्याणां सत्कः प्राकारत्रयन्यास इति गाथार्थः / तथावंतरगाहवणाओ, तोरणमाईण होइ विण्णासो। चितितरुसीहासणछ-त्तचक्कधयमाइयाणं च // 16|| गन्तरा एव व्यन्तरकास्तदाह्रानात-संशब्दनात, 'तोरणमाईण' त्तिइह मकारःप्राकृतशैलीप्रभवस्तेन तोरणादीनां द्वारावयववि-शेषप्रभृतीनाम् आदिशब्दात्-पीठदेवच्छन्दकपुष्करिण्यादिपरिग्रहो भवतिजायते-विन्यासो-रचना, तथा चैत्यतरुसिंहा-सनच्छत्रचक्रध्वजादीना च, तत्र चैत्यतरुरशोकवृक्षः अथवा-अचैत्यानि जिनप्रतिबिम्बानि तरुरशोकवृक्षःसिंहासनं-सिंहा--कृतियुक्तविष्टर छत्राण्यातपत्रयं चक्रधर्मचक्र, ध्वजाः-सिंहध्व-जचक्रध्वजमहेन्द्रध्वजगोपुरादिध्वजाच, आदिशब्दात-पद्मचामरपरिग्रहः, एतानि हि व्यन्तराः समवसरणे विदधति / यदाह-चेइदुमपीढछंदग, आसपछत्तं च चामराओ य / जे चऽन्न करणिज, करेंति तं वाणमंतरिया' // 1 // इति गाथार्थः / तथाभुवनगुरुणो य ठवणा, सयलजगपियामहस्स तो सम्म / उकिट्ठवण्णगोवरि, समवसरणबिंबरूवस्स।।१७।। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 477 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण भुवनगुरोश्च–त्रिभुवननायकरय पुनः स्थापना-अर्हतः स्थापना.न्यासः कर्तव्य इति शेषः / किंभूतस्य लोक पिता पूज्यः पिताम-हस्तु पूज्यतरः पितुरपि पूज्यत्वात्ततः सकलजगतः-समस्तभुवनजनस्य पितामह इव पितामहः सकलजगत्पितामहः / अथवा-सकलजगतो धर्मः पिता पालनाभियुक्त वात्तस्यापि भगवान् पिता भगवत्प्रभवत्याद्धर्मस्येति, पितुः पिता पितामहः, सकल--जगतः पितामहः इति विग्रहः, अतस्तस्य 'तो'त्ति-ततवैल्पतरु-सिंहासनादिन्यासानन्तरं सम्यग्-अवपरीत्येन, क रथापना कार्या?, इत्याह-उत्कृष्टवर्णकस्य प्रधानचन्दनस्योपरि उपरिष्टात-उत्कृष्टवर्णकोपरि किंभूतस्य भुवनगुरोः? समवसरणे जिनधर्मदेशनाभूमौ यानि देवतानिर्मितानि तस्यैव बिम्बानिप्रतिकृतयस्तेषामिव रूप स्वभाधो यस्य स समवसरणबिम्वरूपोऽतस्तस्य चतुर्मुखस्य विशिष्टरूपस्यैवेति गाथार्थः / तथाएयस्य पुव्वदक्खिण-भागेणं मग्गओ गणधरस्स। मुणिवसभाणं वेमा-णिणीण तह साहुणीणं च / / 18|| एतस्य -भुवनगुरोः पूर्वदक्षिणाया आग्नेयदिशो भागः एकदेशः पूर्वदक्षिणदिग्भागस्तेन करणभूतेन-हेतुभूतेन वा मार्गत:--पृष्ठतो गण--. धरस्यगणनायकस्य मुनिवृषभाणां सातिशयादियतिपुङ्गवानाम, तथा विमानिकदेवास्तेषामेता वैमानिन्यः अतस्तासां वैमानिनीना देवीना, तथति समुच्चयार्थरन्तेन स्थापना कार्येति संबध्यते। साध्वीनां-तपस्चिनीनां चशब्दः समुचयार्थ इति गाथार्थः। तथाइय अवरदक्खिणेणं,देवीणं ठावणा मुणेयव्वा / भवणवइवाणमंतर-जोइससंबंधिणीणं ति।।१६।। इति एवमेव यथा मुनिवृषभादित्रयस्यासंकीर्णतया स्थापना कृता एवं भवनपत्यादिदेवीत्रयस्यापि सा कार्येत्यर्थः, अपरदक्षिणेन अपरदक्षिणरयां दिशि साम्यर्थे ह्ययमेनप्रत्ययः, देवीनांसुरबधूनां स्थापनान्यासः 'मुणेयव्य'त्ति--ज्ञातव्या कर्त्तव्यतयेतिशेषः, भवनपतयो–देवालयविशेषनाथा असुरादयः, 'वाण--मंतर' त्ति–वनानाम्-उद्यानानामन्तराणि कुहराणि विशेषा वा धनान्तराणि तेषु भवा मकारवर्णागमाद्वानमन्तरा व्यन्तसः, ज्योतिषि ज्योतिश्चके भवा ज्योतिषा ज्योतींषि वा ज्योतिष्कदेवाः, एतेषां द्वन्द्वोऽतस्तेषां सम्बन्धिन्यः सत्कायास्तास्तथा तासान, इतिशब्दो द्वितीयपर्षदः समाप्तिप्रदर्शनार्थ इति गाथार्थः / तथाभवणवइवाणमंतर-जोइसियाणं व एत्थ देवाणं / अवरुत्तरेण णवरं, निद्दिट्ठा समयकेऊहिं / / 20 / / भवनपतिवानमन्तरा उक्तनिर्वचना 'जोइसिय' ति-ज्योतिषिज्योतिश्चक्रे जाता ज्योतिषिजा ज्योतिषि वा भवा ज्योतिषास्त एव ज्योतिषिकाः एषां द्वन्द्वोऽतस्तेषा भवनपतिवानमन्तरज्योतिषिकाणां वा, वाशब्दः समुच्चये, तद्भावना चैवम्-भवनपत्यादिदेवीनां स्थापना मन्तव्या, भवनपतिवानमन्तरज्योतिषिजानां च / अत्र समवसरणे देवाना--सुराणां किंविशिष्टयमुभयेषामपीत्यत आह-अपरोत्तरेणापरोत्तरस्यां दिशि। नवर केवलं निर्दिष्टा अभिहिताः। समयकेतुभिः-प्रवचनचिह्नभूतैरिति गाथार्थः। तथावेमाणियदेवाणं, णराण णारीगणाण य पसत्था। पुव्वुत्तरेण ठवणा, सव्वेसिं णियगवण्णेहिं / / 21 / / विमानेषु भवा वैमानिकास्ते च ते देवाश्च सुरा इति समासोऽतस्तेपान, थिा नराणाम नृणा, नारीगणानां मनुष्यस्त्रीसमूहानामिह च गणशब्दोपादानं पुरुषापेक्षया स्त्रीजनस्य बहुत्वख्यापनार्थ, चशब्दः समुचये, प्रशस्ता- मगल्या पूर्वोत्तरेण–पूर्वोत्तरस्यां दिशि स्थापनान्याराः काति शेषः / स्थापनाया एव विशेषार्थमाह--सर्वेषां-समस्ताना मनुष्य वर्णविशेषाभावाद्भवनपत्यादिदेवानां निजवणेः स्वकीय 2 शरीरच्छायाभिः तत्र भवनपतिव्यन्तराः पञ्चवर्णाज्योतिष्कारक्तवर्णाः, वैमानिकाः पुना रक्तपीतसितवर्णाः, विशेषः पुनः, काला-असुरकुमारा इत्यादेरागमादवसेयमा इति गाथार्थः / तथाअहिणउलमयाहिव-पमुहाणं तह य तिरियसत्ताणं। वितियंतरम्मि एसा, तइए पुण देवजाणाणं / / 22 / / अहिनकुलमृगमृगाधिपप्रमुखाणां-भुजगव हरिणसिंहप्रभृतिकानां, प्रमुखग्रहणादश्वमहिषादिपरिग्रहः 'तहय' त्ति समुच्चये, अथवा-तथैव तेनैव प्रकारेण देवानामिव निजवर्णविशिष्टतालक्षणेन, परस्परविरोधलक्षणन वा तिर्यकसत्त्वाना तिर्यग्योनिजन्तूनां द्वितीयान्तरे-द्वितीयप्रकारमध्ये एषा स्थापना कार्येति शेषः तृतीये-तृतीयप्राकारान्तरे पुनःशब्दो विलक्षणताख्यापनार्थः,देवयानाना-देववाहनानां करिमकरकेसरिकलपिकलहसाधाकारधारिणामिति गाथार्थः / अथ समवसरणविधि निगमयन् शेषदीक्षाविधिं दर्शयन्नाहरइयम्मि समोसरणे, एवं भत्तिविहवाणुसारेणं / सुइभूओ उपदोसे, अहिगयजीवो इह एइ / / 23 / / रचिते-स्थापिते समवसरणे-समयसिद्धे,एवम्-उक्तनीत्या भक्तिविभवानुसारेण-बहुमानऋझ्यानुरूप्येण शुचिभूतस्तु शौचप्राप्त एव द्रव्यतो भावतश्च, तर द्रव्यतःस्नातः श्रीचन्दनानुलिप्तगात्रः सितवसननिवसनः शुचि विद्यावलुप्तगात्रश्व, भगवतरतु विशुद्धयमानमानसः / प्रदोषेदिवेसाऽवसाने उपलक्षणात्वादस्य प्रशस्ततिथिकरणवारनक्षत्रयोगचन्द्रबललग्नादी अधिकृतजीवः प्रस्तुतसत्त्वो दीक्षणीय इत्यर्थः, इहाधिकृतसमवसरणदेशे एति--आगच्छतीति गाथार्थः। ततश्चभुवनगुरुगुणक्खाणं, तम्मीसं जायतिव्वसद्धस्स। विहिसासणमोहेणं, तओ पवेसो तहिं एवं // 24 // भुवनगुरा:-त्रिभुवनबान्धवस्य जिनस्य ये गुणा रागादिवरिवारविदारक व समस्तवस्तु स्तोमविषयविज्ञायकत्वनिखिलनादिनिकायकाभिनम्यत्वसद्भूतपदार्थप्रकाशकारी वाग्वादित्वशिव सुख नायक त्वतहानसामथ्यादयस्तेषां यदाण्यानम्। अभिधानं तत्तथा तस्माद्भुवनगुरुगुणाख्यानाद्धेतोः। तस्मिन् Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 478 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण भुवनगुरौ संजाततीव्रश्रद्धस्य समुत्पन्नोत्कटगुरुरुचेर्देवतात्येन प्रतिपत्तिं प्रतीति गम्यते अधिकृतजीवस्येति / प्रकृतं विधिसाधनमनुष्टानप्रकाशनं.यदुत जिनदीक्षायां प्रतिपन्नायां न तव कल्पते अन्यतीर्थिकदेवानामन्यतीर्थिकानां च वन्दनादि, कल्पते च जिनानां जैनमुनीना जैनागमस्य च वन्दनादि कर्तुमित्यादि / अथवा-तवाञ्जलो पुष्पाणि दास्यन्ते अक्षिस्थगनं च वस्त्रेण करिष्यते, तानि च पुष्पाणि त्वया अक्षुभितेन समवसरणमध्य-स्थापितजिनाभिमुखे निक्षेप्तध्यानि, आत्मा च ससुतधनादिर्गुरवे निवेदनीय इति, विधिः, ओघेन-सामान्येन विशेषतस्तु दीक्षा-दानावसरात्पूर्वमेव तद्विषयविधेराख्यातत्वात्। ततो विधिसाधनानन्तरं प्रवेशः-प्रवेशनं तस्मिन समवसरणे, एवं वक्ष्यमाण.. न्यायेनेति गाथार्थः। ततश्चवरगंधपुप्फदाणं, सियवत्थेणं तह च्छिठयणं च। आगइगइविण्णाणं, इम्मस्स तह पुप्फपाएण।।२५।। वरगन्धपुष्पदानं-सुगन्धिकुसुमानाम्, अथवा प्रधानाना वासाना पुष्पाणा चदानं वितरणं वरगन्धपुष्पदानमञ्जली कर्तव्यमरयेतियोगः। तथा सितवस्त्रेण शुक्लवाससा / तथा तेन प्रकारण अपीडोत्पादनलक्षणेन विद्वत्प्रसिद्धन वाक्योपयगात्रो वा तथाशब्दः, अक्षिरथगन लोचनावरणं कार्य ,चशब्दः समुच्चय, ततश्चासौ तानि कुसुगान्यावृताक्षा एव जिननाथाभिमुखं प्रक्षेपयितव्यः, गुरुणा चाधिकृतपुष्पपातलक्षणनिमित्तानुसारेण यथासम्प्रदायं शुभादितररमाद्वा भवादागतोऽयं, तथा दीक्षाराधनविराधनाभ्यां शुभेतरा वा गतिरस्य भविष्यतीति दीक्षादानार्थ तत्परिहारार्थं च परिज्ञानं विधेयम् / एतदेवाह-आगलिगतिविज्ञान शुभाशुभपूर्वजन्मानागतजन्मनां निर्णय कार्यम् / अथवा - गत्यागमनेनारस्वलिततरादियुक्तेन गतिविज्ञानमागामिभवज्ञानमागतिगतिविज्ञानम् / इह व्याख्याने समासितमपि गतिविज्ञाननित्यतत्पद प्राकृतत्वेनोत्तरत्र सम्बन्धनीयमिति, 'इमरस'ति-अस्य दीक्षाधिकृतजीवस्य, तथेति समुच्चये। अथवा-तथा-तत्प्रकारेण साम्प्रदायिकेन पुष्पपातेन-कुसुमपतनेन दीक्षणीयनरविहितेन। एतदर्थमव पूर्व पुष्पदानं तदजला कृतमासीतिदि। इह च रामवसरणमध्ये पुप्पपाताद्दीक्षाराधनाजनिता सुगतिस्तद्वहिः पाताच्च तद्विराधनाजनिता कुगतिर येत्यतावन्मात्रमतो ग्रन्थादवसीयते / शेषं तु ग्रन्थान्तराद्विशिष्टसा प्रदायाद्वाऽवसेयमिति गाथार्थः। अथ शुभाशुभगतिविज्ञानविषये मतान्तरं दर्शयन्नाह-- अभिवाहरणा अण्णे, णियजोगपवित्तिओ य के इत्ति। दीवाइजलणभेया, तहत्तरसुजोगओ चेव / / 26 / / अभिव्याहरणात-संशब्दनात दीक्षणीयेनान्येन वा दीक्षावसरे विहितात शुभाशुभार्थसंसूचकात् सिद्भिवृहीत्यादिरूपाद्, अथवा--इच्छा कारण तुम्हे अम्हं दसणपडिम सम्मत्तसामाइयं वा आरोवह इत्यादि, दीदाणीयाभिव्याहारात् 'आरोवेमि खमास-मणाण हत्थेण आराचिय' भेन्यादेाऽऽचार्याभिव्याहारादस्खलितादिगुणदोषानुगताद, अन्ये अपरे सूरयों दीक्षाराधनविराधनाजन्यशुभाशुभगतिपरिज्ञानमस्याधिकृतस्य कर्त्तव्यमित्याहुरिति गम्यम्, तथा निजयोगानामाचार्यसत्कमनःप्रभृतीना प्रवृत्तिः-प्रवर्त्तनं निजयोगप्रवृत्तिस्ततो निजयोगप्रवृत्तितः, चशब्दः समुच्चये, इतिशब्दस्योत्तरस्येह दर्शनादिति, एतत् केचिदपरे प्राहुरिति गम्यम् / इदमुक्तं भवति तदा यद्याचार्यस्य क्रोधलोभ-- मोहभयादिभिरव्याकुलं मनोयद्यदा वाच्यं तद्विषयाव्यक्तत्वादिगुणा च वाक् साध्वसाद्यनुपहतश्व कायः प्रवर्तत तदा शुभा गतिरिति / अन्यथाचाशुभा गतिरस्य ज्ञायत इति / तथा दीपादीनां दीपचन्द्रतारकादीनां यज्ज्वलन-दीपनं तस्य यो भेदो-विशेषः, स तथा तस्मात / इदमुक्तं भवति-यदितदा दीपादयः प्रवृद्धतेजसो भवन्ति तदाऽस्य शुभम, अन्यथा त्वशुभमिति / तथति समुच्चये, उत्तरे-दीक्षोत्तरकालभाविनो ये सुयोगाः-शुभव्यापारा दीक्षितगतास्ते उत्तरसुयोगास्तेभ्य एव चैवशब्दस्यावधारणार्थत्वात्केचिदिति प्रकृतामिति गाथार्थः / पञ्चा०२ विव०। सूत्रार्थयार्मेलने, अङ्गे श्रुतस्कन्धे, अध्ययने, नि० चू०। जे मिक्खू उद्देसे हेहिल्लाइं समोसरणाई अवाइत्ता उवरिमं सुयं वाएइ वायंतं वा साइज्जइ॥१७॥ नि० चू०१६ उ०। जिनरतवनरथानुयानपट्टयात्रादिषु बहूनां साधूनां मेलने स०१२ सम० / (समवसरणे सम्भोगविसम्भोगौ संभोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 206 पृष्ठे उक्तीः / ) ('अणुयाण' शब्दे प्रथमभागे ३७५पृष्ठे साधूनां संमेलक उक्तः / ) समवसरणं नाम कुलसमवायो गणसमवायः संघसमवायो वा। बृ० 1301 प्रक०। (21) अथ समवसरणप्रस्तावात्समवसरणस्तवमाहथुणिमो केवलिवत्थं, वरविजाणंदधम्मकित्तिऽत्थं / देविंदनयपयत्थं, तित्थयरं समवसरणत्थं / / 1 / / अवचूरि:-वयं 'थुणिमो' स्तुमः / कम? तीर्थङ्करे, केवलिनोऽवस्था यस्य रा केवल्यवस्थस्तम्। वराः-प्रधाना विद्यानन्दधर्मकीर्तिरूपा अर्था यस्य स वरविद्यानन्दधर्मकीर्त्यर्थस्तम्। अथवा-किमर्थ स्तुमः? वरविद्यानन्दधर्मकीर्त्यर्थम् / पुनः कथंभूतम्? देवेन्द्रनतं यत्पदं तीर्थकरपदवीरूपं तत्र तिष्ठतीति देवेन्द्रनतपदस्थस्तम् / समवसरणे तिष्ठतीति समवसरणस्थस्तम / अथवा-समवसरणे आस्था स्थितिर्यस्य स समवसरणस्थस्तम् तथा। पयडिअसमत्थभावो, केवलिभावो जिणाण जत्थ भवे / सोहंति सव्वओ तहि, महिमाजोयणमनिलकुमरा // 2 // अवयुरिः-प्रकटिताः-समस्ता भावास्त्रिभुवनान्तर्वर्तिनः स्तम्भकुम्भाम्भोरुहादिपदार्था येन स तथा। केवलिभावः-केवलित्व जिनानां यत्र स्थाने भवेत् तस्मिन् स्थान शोधयन्ति सर्वतः महींपृथिवीम् आयोजन-याजनमभिव्याप्य अनिलकुम(मा) रा-वायुकुमारः। वरिसंति मेहकुमरा, सुरहिजलं उउसुरा कुसुमपसरं। विरयंति वणा मणिकण-गरयणचित्तं महिअलं तो / / 3 / / अवचुरि:-मेयकुमारास्तत्रसुरभिजलवर्षन्ति। उउसुरा इति-ऋतर: षण्णामृतुनामधिष्ठातारः सुराःव्यन्तरा इत्यर्थः कुसुमप्रसरं वर्षन्नि, अधोमुखक्तान् Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 476 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण पुष्पप्रकरन कुर्वन्तीत्यर्थः / ततः ‘वणा' इति-वानमन्तराः मण- | यश्चन्द्रकान्ताद्याः, इन्द्रनीलादीनि रत्नानि। अयं भावः--मणि-कनकर- | नैश्चित्र महोतल रचयन्ति-पीठबन्धं कुर्वन्तीत्यर्थः / (22) समवसरणरचनामाहअभिंतरमज्झ बहि, तिवप्प मणि-रयण कणय-कविसीसा | रयणज्जुणरुप्पमया, वेमाणिअजोइभवणकया।।४।। अवचूरि:-अय भावः-अभ्यन्तरो वनो वैमानिककृतो रत्नमयो मणिक- / पिशीर्षकः 1 / मध्यमः प्राकारो ज्योतिष्ककृतोऽर्जुनसंज्ञसुवर्णमयो रत्नकपिशीर्षकः 2 / बहिर्षप्रो भवनपतिकृतो रूप्यमयः कनककपिशीर्षक:३। वट्टम्मि दुतीसंगुल, तित्तीसणुपिहुल पणसयधणुचा। छद्धणुसयइगकोसं-तरा य रयणमयचउदारा / / 5 / / अवचूरि:-अथ समवसरणं द्विधा स्यात्, वृत्तं चतुरस्र वा। तत्र वृत्ते समवसरणे चप्रत्रयभित्तयः प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशद् (33) धनुर्द्वात्रिंश (32) दगुलपृथुला भवन्ति। तथा त्रयाणामपि वप्राणामन्तराणि उभयपान्तरमिलनेन एककोश (1) षट्शत (600) धनुःप्रमाणानि भवन्ति / अत्र चतुर्विशत्याऽङ्गुलैर्हस्तो ज्ञेयः / चतुर्भिहस्तैर्धनुः / धनुःसहस्रद्वयन क्रोशः / कोशैश्चतुर्भिस्तुयोजनम्। तथा बहिर्वर्तीनि सोपानानि दशसहस (10000) मितानियोजनमध्ये नगण्यन्ते। ततः प्रथमवप्रादग्रे पञ्चाशद (50) घनुः प्रतरः / ततोऽग्रे पञ्चसहस्र (50000) सोपानानि तेषां च हस्तमानत्वाचतुर्भिर्भाग लब्धानि पञ्चाशदधिकानि द्वादशशतानि (1250) धनूंषि / ततो द्वितीयवप्रात् पञ्चाश (50) द्धनुः प्रतरः, ततः पुनः पञ्चसहस्र (5000) सोपानानां पञ्चाशदशिकानिद्वा, दश शतानि धनूंषि भवन्ति / ततस्तृतीयो वप्रः,ततः त्र योदश शतानि (1300) धषि गचा पीठमध्यम्। अथ तिस्रोऽपि वप्रभित्तयः प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशद् (33) धनुरेक (1) हस्ताऽष्टाङ्गुल (8) पृथुला भवन्ति / तत्र सर्वेषां धनुषा मिलने नवनवत्यधिकानि एकोनचत्वारिंशच्छतानि (3666) धनषि जातानि। तथा शेषाणि द्वात्रिंशदङ्गलानि त्रिगुणी क्रियन्ते भित्तित्रयभावात, षण्णवत्य (66) कुलानि जातानि। षण्णवत्याऽगु लेखेकं धनुर्भवति, हस्तचतुष्टयमितत्वाद्धनुषः / एवं चत्वारि सहस्राणि (4000) धनुषां जतानि। इत्थमेकस्मिन् पार्श्वे क्रोशद्वयमेवं द्वितीयेऽपि क्रोशब्दयमिति मिलितं वृत्तसमवसरणे योजनम् / / 5 / / चउरंसे इगधणुसय-पिहुवप्पा सड्डकोसअंतरिया। पढमबिआ बिअतइआ, कोसंतरपुव्वमिव सेसं / / 6 / / अवचूरि:-चतुरस्त्रे समवसरणे वप्रत्रयभित्तयः प्रत्येक शतधनु पृथुला ज्ञेयाः, तथा- 'सड्ड' त्ति-प्रथमद्वितीयवप्रयोरन्तरमुभयपार्श्वमिलनेन सार्द्धक्रोशः / 'बिअतइय' त्ति-द्वितीयतृतीययोश्चान्तरमुभयपामिलनेन क्रोशः। पुव्वमिव 'सेस'ति-शेष मध्यभित्योरन्तरमेक (1) कोशषट्- | शत (600) धनुःप्रमाणं पूर्ववद् वृत्तसमवसरणवद् ज्ञेयम् / अथात्रापि एकपाचे योजनार्द्ध मील्यते। तद्यथा-चतुरस्र बाह्यवप्रभित्तिर्योजनमध्ये न गण्यते / ततश्च बाह्यवप्रमध्यवप्रयोरन्तरं दश शतानि (1000) धनषि / द्वितीययवप्रभित्तिः शत (100) धनूषि। अभ्यन्तरवप्रमध्यवप्रयोरन्तरं पश्चदशशत (1500) धनुर्मानम् / अभ्यन्तरवप्रभित्तिः शत (100) धनुर्मानम् / अभ्यन्तरवप्रात् त्रयोदशशतानि (1300) धूनिषि गत्वा पीठमध्यम, एवम् एतन्मिलने चतुस्सहस्राणि धषि जातानि / तथा चक्रोशद्वयं भवति / एवं यथैकत्र पायें क्रोशद्वयं भवति तथा द्वितीयेऽपि। एवं चतुरस्रसमवसरणेऽपि योजनं मिलति स्म।।६।। सोवाणसहसदस कर-पिहुच गंतुं भुवो पढमवप्पो। तो पन्नाधणुपयरो, तओ असोवाण पणसहसा |7|| अवचूरिः-सोपानानि दश सहस्राणि करपृथुलानि उच्चानि च हस्तमात्रपृथुलोच्चानीत्यर्थः / भुवोभूमितो गत्वा प्रथमो वप्रः / ततः पञ्चाशद (50) धनूंषि प्रतरो रमणभूमिः समा भूमिरित्यर्थः। शेष सुगमम् / / 7 / / तो बियवप्पो पन्न (ना)ध-णुपयरसोवाणसहसपण तत्तो। तइओ वप्पो छस्सय-धणुइगकोसेहि तो पीढं / / 8 / / अवचूरिः-ततस्तृतीयो वप्रस्तस्य चान्तः षड्धनुःशतेनाधिकैकक्रोशेन प्रमितमिति गम्यम् / एक (1) क्रोशषट्शत (600) धनुः प्रमाणमित्यर्थः / पीट समाभूमिरस्ति॥८॥ चउदार तिसोवाणं, मज्झे मणिपीढयं जिणतणुच्चं / दोधणुसयपिहुदीहं, सवदुकोसेहि घरणिअला अवचूरि:-चतुर त्रिसोपानं सोपानत्रयान्वितम। समवसरणस्य मध्ये मणिमय पीठं जिनदेहपरिमाणेनोच्चं द्विशत (200) धषि पृथुलं दीर्घ च, तच्च धरणितलात् सार्द्धक्रोशद्वयेन भवति / / 6 / / जिणतणुबारगुणुच्चो, समहिअ जोयणपिहू असोगतरू। तयहो य देवछंदो, चउसीहासणसपयपीढा / / 10 / / अवचूरिः-"तिन्नेव गाऊआई, चेइअरुक्खो जिणस्स पढमस्स। सेसाण वारसगुणो,वीरे बत्तीस य धणूणि / / 1 // " वीराद् द्वादशगुण एकविंशतिधनुःप्रमाणो (21) भवति केवलोऽशोकस्तदुपरि शालवृक्ष एकादश (11) धषि / एवमुभयोर्मिलने द्वात्रिंशद्धषि (32) चैत्यद्रुमो भवति, वीरस्थति सम्प्रदायः / अत्र शालश्च श्री-वीरस्वामिनोऽभूत् / अन्येषां तीर्थकृता न्यग्रोधादयः। उक्तं च समवायाङ्ग-"चउवीसाए तित्थयराण चउवीस चेइअरुक्खा हुत्था। तं जहा"निगोह सत्तवन्ने, साले पिअए पिअंगु छन्नाहो। सरसे अ नागरुक्ख, माली अपिअंगुरुवरखे अ / / 1 / / तंदुग पाडल जंबू, आसत्थे खलु तहेब दधिवत्तो। नंदीरुक्खो तिलओ, अवंगरुक्खो असोगो अ॥२॥ चंपय बउलो अतहा, वेडसरुक्खो तहेव धवरुक्खा / Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 480 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 समोसरण सालो अ वद्धमाणस्स, चेइअरुक्खा जिणवाणं / / 3 / / " "धत्तीस धणुआई, चेइअरुक्खो अ बदमाणस्स। निच्चोअगो,उच्छन्नो सालरुक्खेणं / / 1 / / सच्छत्ता सपडागा, सवेइया तोरणेहि उववेआ। सुर असुरगरुलमहिया, चेइअरूक्खा जिणवराणं / / 2 / / " इदं प्रवचनसाराद्वारे सविस्तरमभिहितमस्ति / नित्यमतुरेव पुष्पादिकालो यस्येति नित्य कः / अवच्छन्नशालवृक्षणेति वच- / नादशाकोपरि शालवृक्षाऽपि कथंचिदस्तीति ज्ञायतइति / तथाऽशोकवृक्षस्याधस्तादेवच्छन्दके चत्वारि सिंहासनानि रापादपीठानि॥१०॥ तदुवरि चउ छत्ततिआ, पडिरूवतिगं तहट्ठचमरधरा / पुरओ कण-यकुसेसय-ठिअफालिअधम्मचक्कचऊ।।११।। अवचूरि:-तेषामुपरि चत्वारि छत्रत्रिकाणि छत्रातिच्छत्ररूपाणिमा तथा प्रतिरूपत्रिकं च व्यन्तरेन्द्रकृतं प्रभुप्रभावान्मुख्यरूपतुल्यमेव भवति / तथाऽष्टौ चामरधरा भवन्ति / एकैकरूपं प्रति द्वयो-योश्वामरधारकयोः सद्भावात् / तथा कनककुशेशयस्थितानि स्फाटिकानि धर्मचक्राणि चत्वारि सिंहासनपुरतो भवन्ति // 11 // झयछत्तमयरमंगल-पंचालीदामवेइवरकलसे / पइदारं मणितोरण-तिअधूवघडी कुणंति वणा / / 12 / / अवचूरिः-वप्रेषु प्रतिद्वारं ध्वजच्छत्रमकरमुखमझ लपाशाली -- प्पदामवदिपूर्णकलशान, मणिमयतोरणत्रिकाणि धूपघटीश्व कुर्वन्ति थानव्यन्तरा-व्यन्तरसुराः।।१२।। जोयणसहस्सदंडा, चउज्झया धम्ममाणगयसीहा। ककुभाइजुया सव्वं, माणमिणं निअनिअकरेणं / / 13 / / अवचरि:-धर्मध्वज मानध्वज 2 गजध्वज 3 सिंह यज 4 नामानश्चत्वारो ध्वजाश्चतुर्दिक्ष चतुर्ग---(चत्वारा ग) जसिंहला-ञ्छिता इत्यर्थः / 'ककुभाइजुय' त्ति लघुलघुतरध्वजादियुताः / ककुपशब्दन घण्टिकापताकिकाधुच्यते। सर्व चैतन्मान निजनि-जहस्तेन / / 13 / / पविसिअपुव्वाइ पहू, पयाहिणं पुव्वआसण निविट्ठो। पयपीढठवियपाओ, पणमिअतित्थो कहइ धम्म // 14 // अवचरि:--प्रदक्षिणया प्रविश्य 'पणमिअतित्था' नि-नमो तित्थ स्स' / इत्यादि जीतमर्यादया प्रणमितं तीर्थ धनुर्विधः सोयेन राः, प्रमाणी योजन यावत्प्रसरति यतो वप्राणामधस्ताद्गच्छन्तो जना: वन्ति / / 14 / / मुणि वेमाणिणि समणी, सभवणजोइवणदेविदेवति। कप्पसुरनरिस्थितिअं, ठंतिग्गैयाइविदिसासु।।१५।। अवचरिः-आग्नेयीनंतीवायवीशानीविदिक्षु यथोक्तं सभात्रय यथाक्रम पूर्वस्यो दक्षिणाया (णस्यां) पश्चिमायमुत्तरायां प्रविश्य पदक्षिणां दत्त्वा तिष्ठति / / 15 / / चउदेविसमणि उद्ध-ट्ठिआ निविट्ठा नरित्थिसुरसमणा। इय पण 5 सग 7 परिस सुणं-ति देसणं पढमवप्पंतो।।१६।। इय आवस्सयवित्ती-वुत्तं चुन्नीइ पुण मुणि निविट्ठा। दो वेमाणिणिसमणी,उड्डा सेसा ठिआ उ नव।।१७।। अवचूरिः--गाथाद्वयं स्पष्टम् / (नवर) मुनयो नि विष्टा उत्कुकुकासने नेति शेषः / वैमानिका देवी श्रमणीद्वयमूर्ध्वस्थिताः शेषा नव राभास्थिता उपविष्टाः / तथा चैतयो (गाथयोः) रक्षराणि (ज्येवम्)-- "अवसंसा संजया निरइरोसिआ पुरच्छिमेण चेव दारेण पविसिना भययंत तिपयाहिणं काउं वदित्ता नमो अइससिआण ति भणित्ता अइसेसि आण पिओ निसीअति / वेमाणिआ (णी) देवीओ पुरच्छिमेण चव दारेण पविसित्ता भयवंतं तिपयाहिणीकरित्ता नमो तित्थस्स नमो अइसेसिआणं नमो साहूणं ति भणित्ता निरइसेसिआणं पिट्टओ ठायति न निसीयंति। सगणीओ पुरिछिमेण व दारेण पविसित्ता तित्थयरं तिपयाहिण करित्ता वंदिता नमो तित्थस्स नमो अइसेसिआणं नमो साहूणं ति भाणिता येमाणिआणं देवी पिट्टओ ठायति न निसीयंति। भवणवासिणीओ देवीओ जोइसिणीओ वंतरीओ दाहिणदारेण पविसित्ता तित्थयरं तिपयाहिणीकरित्ता दाहिणपच्छिमेण ठायंति भवणवासिणीण पिट्टओ जोइसिणीओ तासिं पिट्ठओ वंतरीओ। भवणवासिदेवा जोइसिआ देवा वाणवंतरा देवा एए अवरदारेण पविसित्ता सं चेव विहिं काउं उत्तरपच्छिमेणं ठायति जहारांख पिडओ। वेमाणिआ देवा मणुरस्सा मणुरसीआ अ उत्तरणं दारेणं पथिसित्ता उत्तरपुर-च्छिमेण ठायति जहासंखं पिट्टओ" / एषा चूर्णिः / अश वृत्तिः। अत्र च मलटीकाकारण भवनपतिप्रभृतीना स्थान निषीदानं वा स्पष्टाक्षरैर्नोक्तम्, अबस्थानमेव प्रतिपादितम् / पूर्वाचार्योपदेशेन लिखितपट्टिकादिचित्रकर्मवलेन तु सर्वाश्चतस्र एव देव्यो न निषीदन्ति, देवाश्चत्वारः पुरुषाः स्त्रियश्च निषीदन्तीति प्रतिपादयन्ति केचनेत्यानं प्रसड़े न॥१३१७॥ बीअंतो तिरि ईसा-णि देवछंदो अजाण तइअंतो। तह चउरंसे दुदु वा-वी कोणओ वट्टि इक्किक्का / / 18 / / अवचूरिः द्वितीयवप्रान्तस्तिर्यञ्चः तत्रैवेशानकोणे प्रभार्विश्रामार्थदेवच्छन्दको रत्नमयः 'जाण' त्ति-यानानि वाहनानि भवन्ति तृतीयवप्रान्तः / तथा चतुरस्त्रे समवसरणे कोणे कोणे द्वे द्वे वाप्य। वृत्ते च समवसरणे कोणे कोणे एकैका वापी। 'बहिवप्पदारमझे, दो दवावी अ हुति कोणेसु।' इति च स्तोत्रान्तर पाठः / / 18|| पीअ-सिअ-रत्त सामा, सुर-वण-जोइ-भवणा रयणवप्पे। धणु दंड-पास गयह-त्थ सोम-जम-वरुण-धणयक्खा 16 अवचूरि:--अथ रत्नमये प्रथमवप्रे पूर्वादिद्वारचतुष्केऽपि क्रमेण द्वारपालदेवानां नामादिकमाह- सोम 1 यम 2 वरुण 3 धनदाख्याः 4 / यथाक्रम पीतादिवर्गाः / सुरादयः। धनुर्दण्डपाशगदाहस्ता द्वारपालाः॥१६॥ जय-विजया-ऽजिय-अपरा जिअत्तिसिय अरुणा-पीअ नीलाभा। बीए देवी जुअला, अभयंकुस-पास-मगरकरा।।२०।। तइअ बहि सुरा तु (बु) बरु, खटुंगि कवालजडमउडधारी। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोसरण 481 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्म पुव्वाइदारवाला, तंबरुदेवो अपडिहारो॥२१|| विकुर्वन्तीति समवायागादावभिप्रायोऽस्ति, तेनतदुपरिवर्तिनःसालसामन्नसमोसरणे, एस विही एइ जइ महिड्डिसुरो। वृक्षस्यापि तार्थव सम्भावना, न तु सार्द्ध चलनं प्रथमसमवसरण एव वा सव्वमिणं एगोऽविहु, स कुणइ भयणेयरसुरेसु // 22 // तद्विधानमिति / / 176 / / सेन०३ उल्ला० / तीर्थकृतां समवसरणाभावे अवचूरिः-गाथाद्वयं स्पष्टम् / 'सामन्नसमोसरणे' त्ति-एष विधिः चतुर्मूखत्वाभावेच कथं द्वादशपर्षदा व्यवस्थितिरिति, प्रश्नः-अत्रोत्तरमसामान्यसमवसरणे ज्ञेयः / / यदि महर्द्धिकः कश्चिदेव एति-आगच्छति समवसरणाभावेऽपि तीर्थकृतां द्वादशपर्षदामवस्थितिर्यथा समवसरणे तदा स एकोऽपि सर्वमिदं करोति, यदीन्द्रा नागच्छन्ति तदा भवनप- तथैवेत्यवसीयते / / 181|| सेन०३ उल्ला०। त्यादयः समवसरणं कुर्वन्ति वा न वा? इत्याह-'भयणेयरसुरेसु' त्ति- समोसरणतव न० (समवसरणतपस्) भाद्रपदषोडशभिरकाशइतरसुरेषु भजना, कोऽर्थः? कुर्वन्त्यपि न कुर्वन्त्यपीत्यर्थः / / 20 / ननिविकृतिकाचाम्लोपवासैर्यथाशक्तिकृतैः समवसरणपूजान्विते 21122 // तपोभेदे, पञ्चा०१६ विव०। पुव्वामजायं जत्थ उ,जत्थेइ सूरो महिड्डिमघवाई। समोसवेइत्ता अव्य० (समवसृत्य) खण्डशः कृत्वेत्यर्थे , सूत्र०१ श्रु०५ तत्थोसरणं नियमा,सययं पुण पाडिहेराई।।२३।। अ०२ उ०। अवचूरिः यत्र च तत्तीर्थङ्करापेक्षयाऽभूतपूर्व-समवसरण यत्र च महर्द्धिको महाडिको | समोहय त्रि० (समवहत) कृतसमुद्धाते, भ०१७ श०६ उ० / स्था० देव इन्द्रादिषु समेति समागच्छति तत्र समवसरणरवना नियमान्नि (अविशुद्धलेश्वः समवहतो देवो विशुद्धलेश्यं जानाति, न वा इति श्वयाद्भवति / आरमहाप्रातिहार्यादिकं पुनः सततं भवत्येवेत्यर्थः। तथा "विभंगणाण' शब्दे षष्ठभागे उक्तम्।) येन च श्रमणेन समवसरणमदृष्टपूर्वं तेन तत्र द्वादशयोजनेभ्य आगन्तव्यं सम्पक्खालि त्रि० (सप्रक्षालिन) संप्रक्षालयति कर्मरजः शोधयति इत्येवं स्यात् / अनागमने तु तस्य चतुर्लघवः प्रायश्चित्तं भवति / तदुक्तम् शीलः संप्रक्षाली कर्ममलशोधके, पा०। "जत्थ अपुव्वोसरणं, अदिट्ठपुव्वं च जेण समणेणं। बारसहि जोअणेहि, सम्म न० (शर्मन्) क्षेमे, नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ० रनमदामशिरो नमः स एइ अणागर लहुआ // 1 // " तथा प्रभुः प्रथमपौरुषी संपूर्णा // 8 / 1 / 32 / / इति पुंस्त्वं बाहुलकादत्र न। प्रा० / सम्यच् वि० समञ्चतीति सम्यक् / अविपरीते. स्या० 3 ठा० 4 उ० ! यावद्धर्ममाचष्टे / अत्रान्तरे बलिः प्रविशति, तं च बलिं प्रक्षिप्यमाणं सुसाधुनि, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। उत्त० / शोभने, युक्तिसंगते, सूत्र-२ देवादयःसर्वेऽपि यथोचितं गृह्णन्ति, सर्वामयप्रशमनश्च सः, तेन च श्रु०४ अ०। आचा०। उत्त० 1 अविपर्यास, आचा०१ श्रु०४ अ०२ उ०। पण्मासान्तरे नान्यः प्रकुप्यति रोगः / बलिक्षेपादनु प्रभुराधवप्रादुत्तरेण प्रशंसायाम,प्रव० 6 द्वार / विशे० / नं० / आव० / आ० म० / निर्गत्येशानादिशि देवच्छन्दकमति, गणधरव द्वितीयपौरुष्यां धर्ममा औचित्ये,स्था०५ ठा०१ उ०। यथावस्थिते, कल्प०३ अधि०६क्षण। वष्टेऽसंख्येयभवकथयिता इत्यादिविस्तरः श्रीआवश्यकादौ प्रोक्तोऽ तिविहे सम्मे पण्णत्ते, तंजहा-णाणसम्मे दंसणसम्मे चरित्तस्तीति / / 23 / / सम्मे।(सू० 1644) दुत्थिअसमत्थअस्थिअ-जणपत्थिअअत्थसत्थसुसमत्थो। सम्यग-अविपरीतं मोक्षसिद्धि प्रतीत्यानुगुणमित्यर्थः / स्था०३टा० इत्थं थुओ लहु जणं, तित्थयरो कुणउ सुपयत्थं / / 24 / / 430 / रा० / अष्टा जं०। (जं समग ति पासह तं भोण ति पासह शि अवचूरिः-दुःस्थिता-दुःखिता ये समस्ता अर्थिकजनायाचक मुणि शब्द पष्ठभागे व्याख्यातम।) लोकास्तेषां ये प्रार्थिता अर्थास्तेषां सार्थाः समूहास्तेषु समर्थः साम्य न०समस्य भावः साम्यम्। समतायाम, आतु० आ० मा इष्टानिसर्वमनोरथपूरकत्वात्। इत्थं स्तुतो लघुशीघ्रं जन भव्यलोकं तीर्थकरः एतारहिते तुल्यत्व, अष्ट०२१ अ५०। सुपदरस्थं मोक्ष पदस्थं रवपदस्थ वा करोत्वित्यर्थः // 24 // इति श्रीसमव | सात्म्य न० “पानाहारादयो यस्या-विरुद्धाः प्रकृतेरपि / सुखित्वाय च सरणस्तवस्य वचूरिः समाप्त / / कल्पन्ते, तत्सात्म्यमिति गीयते" / / 1 / / इत्युक्त-लक्षणे भोजनादौ,ध० (23) श्रीतीर्थकृतां समवसरणाभावे व्याख्यानावसरे चतुर्मुखत्वं १अधि०] म्यान्नवेति प्रश्रः, अत्रोत्तरम्-तीर्थकृतां दानशीलतपोभावे ति सम्मअ त्रि०(सम्मत) इष्टे, स०। श्लोकवृत्त्यनुसारेण समवसरणे देशनावसरे चतुर्मुखत्वं संभाव्यत इति सम्मअणणुपालणा स्त्री० (सम्यगननुपालना) पोषधव्रतस्य सम्यग।।५६।। सेनः 2 उल्ला० / 'वारसजोअणउसहे' इत्येतद्गाथानुसारण नारावन, आव०६अ। श्रीवृषभादितीर्थकृतां समवसरणमानमुत्सधाङ् गुलनिष्पन्नयोजनैरु- | सम्मइ पुं० (सम्मति) स्वनाभख्याते सिद्धसेनदिवाकररचिते अभयदेवरातोऽन्यथा वेति प्रश्नः, अनोत्तरम्-'बारसजोअण-उसहे' इत्यनया सूरिकृतवृत्तिसंवलिते प्रकरणग्रन्थे, आचा० / “स्फुरद्वागशुविध्वरम:गाथयात्संधाइ गुलयोजनेवृषभादितीर्थकृतां समवसरणमानं मतान्तरे- मोहान्धतमसोदयम् / वर्द्धमानार्कमभ्यर्च्य, यते सम्मतिवृत्तये / / 1 / / " णोक्त दृश्यते, परमस्या गाथायाः पारम्पर्य न ज्ञायते इति समवसरणा- सम्म०१ काण्ड। मिथ्यात्वकलङ्करहितायां शोभनायां मत्याम, स्त्री०। वचुणाविति // 26 // सेन०३ उल्ला०॥श्रीवर्द्धमानजिनस्य प्रथमसमवसरणे आचा० / प्रश्न० / विशिष्टाभिनिबोधिकज्ञाने, श्रुतज्ञाने, अवधिज्ञाने सालवृक्ष ऊर्ध्वमभूरिक वा सर्वदाऽपि सार्थेऽचलदिति? प्रश्नः | वा। सूत्र०१७०८ अ०। 'पामिच्च' शब्दे पञ्चमभागे 854 पृष्ठे उदाहृतायां अनोत्तरम्-रत्र भगवन्तस्तिष्ठन्ति यत्र च निषीदन्ति तत्र देवा अशोकवृक्ष देवराजकुटुम्बिनो दारिकायाम्, पिं०। का Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मग्ग 482 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त सम्मग्ग पुं० (सन्मार्ग) सम्यगविपरीते मार्गे सूत्र०१ श्रु०११ अ०। (10) सम्यक्त्वफलम् "ब्रहा लनशिरा हरिदृशि सरुग व्यालुप्तशिश्नो हरः, (11) कर्मक्षेत्रादिप्रपञ्चसारविचारपरित्यागेन सम्यक्त्वस्वरूपस्यैव सोऽप्युल्लिखितोऽनलोऽप्यखिलभुक् सोमः कलङ्काङ्कितः। प्रकाशने हेतुनिदर्शनम्। रव थोऽपि विसंस्थुलः खलु वपुः संस्थैरुपस्थैः कृतः, (12) सम्यक्त्वं मोक्षबीजम्। रान्मार्गस्खलनाद्भवन्ति विपदः प्रायः प्रभणामपि / / 1 / / " (13) सम्यकत्विभिः किं कर्तव्यमिति सूत्रेण निदर्शनम्। सूत्र०२ श्रु०६ अ०। (14) सम्यक्त्वावाप्ती यद्विधेयं तन्निदर्शनम्। सम्मग्गपइट्ठिय त्रि० (सन्मार्गप्रतिष्ठित) आप्ताक्तमार्गप्रवृत्ते, ग०१ / (15) यस्य चैषा लोकेषणा नास्ति तस्यान्याप्यप्रशस्ता मति स्ति। अधि०। अन्योऽपि तदनुसारी चतुर्दशपूर्व विदादिः सत्त्वहिताय परेभ्य सम्मचरणाटिंय त्रि० (सम्यकचरणास्थित) सम्यकचरणे चारित्रे आवेदयतीति निरूपणम्। व्यवस्थितः समुद्युक्तः। संयमसमुत्थिते, सूत्र० 1 श्रु० 10 अ० सम्मड (16) परमतव्युदासद्वारेण सम्यक्त्वमविचलम्। पुं० (सम्मर्द) “सम्मई-वितर्हि विच्छई छईि-कपई-मर्दिते दरय" (17) यदि नामकर्मपरिज्ञामुदाहरन्ति ततः किं कार्यम्। / / 6 / 2036 / / अनेन दस्रा डकारः / सम्मड्डो जनसंकुलत्वे प्रा०२ पाद। (18) दृष्टान्तदाष्टान्तिकगतमर्थनिरूपणम्। सम्मड्डिअ त्रि० (सम्मर्दित) “सम्भर्द-वितर्दि०"।८।२।३६॥ इत्यादिना (16) किं विगणय्येतत् कुर्यादिति निरूपणम्। डकारः। सम्यग् मर्दित, प्रा०२ पाद। (20) भावतमसि वर्तमानस्य सम्यक्त्वं नासीत्, नास्ति, न भावीति सम्मणोरह पुं० (सन्मनोरथ) उद्यतविहारविशेषसूत्राध्ययनाद्यभि- निरूपणम्। लापे,ध०३ अधिक। (21) सर्वेषां तीर्थकराणामयमाशय इति निरूपणम्। सम्मत्त न० (सम्यक्त्व) सम्यगित्यस्य भावः सम्यक्त्यम्। सम्यक् शब्दः / (22) श्रावकधर्मस्य मूलं सम्यक्त्वम्। प्रशंसार्थोऽविरुद्धार्थो वा। सम्यग--जीवः तद्भावः सम्यक्त्यमा कर्म०४ (23) अधुना प्रकृतयोजना। कर्मः / विशे०। आचा०।दर्श०। 'सम्म' ति सम्यक् शब्दः प्रशसार्थोs- (24) प्रकृतयोजनाव्यतिरेकनिदर्शनम्। विरुद्धार्थो वा / सम्यरजीववस्तद्भावः सम्यक्त्वं प्रशस्तो मोक्षाविरोधी (25) सम्यक्त्वातिचाराः। या। प्रथमसंवेगादिलक्षण आत्मधर्म इति यावत् / यदाहुः श्रीभद्रबाहु- | (26) श्रावकधर्मस्य सम्यक्त्वं मूलम्। स्वामिपाटा:--. "सेय सम्भत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणीयकम्माणुधेयणावस- (27) कथं सम्यक्त्वं भवतीति निदर्शनम्। माख्यसमुत्थो (त्थे) पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे।।" इत्यादि। | (28) क्षीणदर्शनोऽपि सम्यगदृष्टिः / वर्म० 4 कर्म। दर्शः / सम्यग्भावे,भ०६ श० 31 उ० / लत्त्वार्थ श्वद्धाने. (26) क्षायिक सम्यक्त्वं विशुद्धतरम्। आव०६अ। तत्पी नी, ध०३ अधि० / सम्यग्दर्शन, प्रश्न०५ संव० | (30) निसर्गादधिगमाद्वा सम्यक्त्वोत्पादः। द्वारा स्था० / मिथ्यात्वनाहनीयक्षयोपशमादिसमुत्शे जीवपरिणाम, (31) सम्यक्त्विनः सप्तमनरकपृथिव्यां गमनागमने निषिद्धे। प्रश्न०४ संब० द्वार / स्था०। प्रति०। उत्त० आव०। अटला ज्ञानदर्शन- | (32) स्वरूपतः कलतश्च सम्यक्त्वनिरूपणम्। चारित्राणां यत्परश्या प्रयोजनं तदात्मकत्वात सामयिके, आ०म०१ (33) आत्मपरिणामरूपत्वेन छद्मस्थेन दुर्लक्ष्यमिति छयस्थलक्षणम्। अ०: आचालातत्तत्यसद्दहाणं सम्मत" तत्त्वार्थानां सर्वविदुपदिष्टतया (34) सम्यक्त्वस्य प्रशमादिलिङ्गत्वम्। सन्माथिकानां जीनादिपदार्थानां श्रद्धानम् एतदेव सम्यक्त्यम पञ्चा० [1] इदानीम् 'एगविहाइदसविहं सम्मत्तं' ति १विवा एकोनपञ्चाशदधिकशततमं द्वारमाहविषयसूचना एकविह दुविह तिविहं, चतुहा पंचविह दसविहं सम्म। (1, एकविधादिसम्यक्त्वप्रतिपादकद्वारनिरूपणम। दव्वाइकारगाई, उवसमभेएहि वा सम्मं // 656|| (2 सम्मकत्वं कतिविधम्। एकविध विविध त्रिविध चतुर्धा पञ्चविधंदशविध सम्यक्त्वं भवतीति शेषः। (3, पवविधादिसम्यकत्वनिरूपणम्। तत्र एकविध तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षण सम्यक्त्वम्, एतच्चानुक्तमप्य(४) क्षायिकसमदर्शनविषयकसम्यक्त्वानिरूपणम्। विवक्षितोपाधिभेदत्वेन सामान्यरूपत्वादवसीयतेइत्यस्यां गाथायांन विवृतं, (5) नासाना पन्ननिक्षेपायातस्य सम्यक्त्वाभिधानस्य निक्षेपः। द्विविधादि तु न ज्ञायते इत्युल्लेखमाह- 'दव्वाइ' इत्यादि, द्विविधं ( भावसम्यकत्वप्रतिपादनम्। द्रव्यादिभेदतः, तत्र च 'दब्बति-सूचामात्रत्वाद् द्रव्यतो भावतश्च / द्रव्यतो (7. सम्यकत्वदाप्टोन्तिकयाजनीं। विशोधिर्विशेषेण विशुद्धिकृता भिथ्यात्वपुद्गला एव, भावतस्तुतदुपष्टम् रोप८ कमानी जे मनाः सम्यग्दर्शन अपने तति निदर्शनम्। जनितो जीवस्य जिनोक्ततत्त्वरुचिपरिणामः / आदिशब्दः प्रकारान्तरैरपि महामः सम्यक मुलक इत्यवासरे सम्यक्त्यनिरूपणम्। द्विविधत्वदर्शनार्थः, तेन नैश्वयिकव्यावहारिकभेदतः पौगलिकाऽपौगलिकभेद Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 453 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त तो नैसर्गिकाधिगमिकभेदतोऽपि च द्विविधमिति। तत्र यद्देशकालसंहननानुरूप यथाशक्ति यथावत्संयमानुष्ठानरूप मौनम्-अविकलं मुनिवृत्त तन्नैश्वयिकं सम्यक्तवं, व्यावहारिकं तु सम्यक्त्वं न केवलमुपशमादिलिङ्ग गम्यः शुभात्मपरिणामः, किंतु-सम्यक्त्वहेतुरपि। अर्हच्छासनप्रीत्यादिः कारण कार्योपचारात्सम्यक्त्वं तदपि हि पारंपर्येण शुद्धचेतसामपवर्गप्रापिहेतुर्भवतीति उक्तं च- "ज मोक्षं तं सम्म, तम्मिह होइ मोणं तु। निच्छयओ इयरस तु, सम्म सम्मत्तहेऊवि॥१॥" व्यवहारनयमतमपि च प्रमाणं तद्वलेनैव तीर्थप्रवृत्तेः, अन्यथा तदुच्छेदप्रसङ्गात, तदुक्तम्- 'जइ जिणमयं पवज्जह, ता मा ववहारनिच्छयं मुयह / ववहारनयोच्छेए, तित्थुच्छे ओ हु ओवस्स' // 1 // इति तथा अपनीतमिथ्यास्वभावसम्यक्त्वपुञ्जगतपुद्गलवेदनस्वरूपं क्षायोपशमिक पागलिक सर्वथा मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलानां क्षयोपशमाजात केवलजीवपरिणामरूपं क्षायिकमौपशमिक चा-पादलिक, नैसर्गिकाधिगमिके पुनरग्रे वक्ष्येते, तथा त्रिविध कारकादि कारकरोचकदीपकभेदतः 'उवसमभेएहि व' त्ति-वाशब्दः त्रैविध्यस्यैव प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः बहुवचनं च गुणार्थ, ततरित्रविधं चतुर्विधं दशविधं सम्यक्त्वमुपशमादभेदैर्भवतीति इदमुक्त भवति–औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिक भेदात् त्रिविधम, आपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनभेदाचतुर्विधम्, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकसास्वादनवेदकभेदात्पक्षविधम, एतदेव प्रत्येक निसर्गाधिगमभेदादृशविधभिति। कथं पुनर्द्विविधादिभेद सम्यक्त्वमित्याहसम्यग-अवैपरीत्येन आगमोक्तप्रकारेण न तु स्वमतिपरिकल्पितभेदैरिति भावः / अथैनामेव गाथां स्फुटतरं व्याख्यानयन्नाहएगविहं सम्मरुई, निसग्गभिगमेहिं तं भवे दुविहं / तिविहं तं खइयाई, अहवा विहु कारगाई य !!657 / / एकविधम्- एकप्रकारमुपाधिभेटाविवक्षया निर्भेदमित्यर्थः, सम्यग्रुचिः / सम्यगज्ञानराशयविपर्यासनिरासेन इदमेव तत्त्वमिति निश्चयपूर्विका जिनोदितजीवादिपदार्थेष्वभिप्रीतिः जिनोक्तानुसारितया तत्वार्थश्रद्धानरूपमेकविध सम्यक्त्वमिति भावः / तथा निसर्गाधिगमाभ्यां तत्सम्यक्त्वं भवेद् द्विविधं, तत्र निसर्गः स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्षस्तस्मात्सम्यक्त्वं भवति, यथा नारकादीनामधिगमो गुरूपदेशादिस्तरमात्सम्यक्त्वं भवतीति प्रतीतमेव / अयमभिप्रायः-तीर्थकराद्युपदेशदानमन्तरेण स्वत एव जन्तार्यत्कर्मोपशमादिभ्याजायते तन्निसर्गसम्यवस्वम्। यत्पुनस्तीर्थकराद्युपदेशजिनप्रतिमादर्शनादिबायनिभित्तोपष्टम्भवतः कर्मोपशमादिना प्रादुर्भवति तदधिगमसम्यक्त्वमिति, तथा त्रिविध तत्सम्यक्त्व क्षायिकादि, अथवा विविध कारकादि। तत्र क्षायिक-क्षायोपशमिके व्याख्यातुमाहसम्मत्तमीसमिच्छ-त्तकम्मखयओ भणंति तं खइयं / मिच्छत्तखओवसमा, खाओवसमं ववइसंति।।५८|| सम्यक्त्वभिश्रमिथ्यान्वकर्मक्षयागणन्ति तीर्थकरगणधराः / क्षायिक सम्यक्त्वं त्रिवेिधस्यापि, दर्शनमोहनीयस्य क्षयेणनिर्मलाच्छेदेन निवृत्त / क्षायिकम, अयमर्थः अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयानन्तरं मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वपुञ्जलक्षण त्रिविधे दर्शन-मोहनीयकर्मणि सर्वथा क्षीण क्षायिकं सम्यक्त्व भवतीति, तथा मिथ्यात्वमोहनीयकमेण उदीर्णस्य क्षयादनुदीर्णस्य चोपशमात्सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणाद्विष्कभितोदयस्वरूपाच क्षायोपशमिकसम्यवत्वं व्यपदिशन्ति-कथयन्ति। इदमुका भवति-यदुदीर्णमुदयमागतं मिथ्यात्वंतद्विपाकोदयेन वेदितत्वातक्षीणं-- निर्जीर्ण, यच्च शेषसत्तायामनुदयागतं वर्तते तदुपशान्तम् / उपशान्त नाम -विष्कम्भितोदयमपनीतमिथ्यास्वभावं च। मिथ्यात्वमिश्रपुजावाश्रित्य विष्कम्भितोदयं, शुद्धपुञ्जमाश्रित्य पुनरपनीतमिथ्यात्वस्वभावमित्यर्थः। तदेवमुदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेण, अनुदीर्णस्य चोपशमेन निवृत्तत्वात् त्रुटितरस शुद्धपुञ्जलक्षणं मिथ्यात्वमपि क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमुच्यते / शोधिता हि मिथ्यात्वपुद्गला अतिस्वच्छवस्त्रमिव दृष्टय॑थावस्थिततत्त्वरुच्यध्यवसायरूपस्य सम्यक्त्वस्यावारका न भवन्ति अतस्तेऽप्युपचारतः सम्यक्त्वमुच्यन्ते इति। प्रव०१४६ द्वार। श्रा०॥ (2) अथ तत्सम्यग्दर्शन कतिविधमत आहउवसामग सासायण, खओवसमियं च वेदगं खइयं / सम्मत्तं पंचविहं, जह लब्मइ तं तहा वोच्छं ||4|| सम्यक्त्वं पञ्चविधम, तद्यथा-औपशमिक सासादनं क्षायोपशमिवं वेदक क्षायिकं च / एतत्पञ्चप्रकारमपि यथा लभाते तथा वक्ष्यामि। उ०१ प्रक०। (3) संप्रति पञ्चविध सम्यक्त्वमाहवेययसम्मत्तं पुण, एयं चिय पंचहा विणिद्दिढं। सम्मत्तचरिमपोग्गल-वेयणकाले तयं होई॥९६२।। एतदेव-पूर्वोक्तं चतुर्विध सम्यक्त्वं वेदकसंयुक्तं पुनः पञ्चधापञ्चविष्य विनिर्दिष्ट-विशेषतः कथितं वीतरागैः। तच्च चेदकसम्यक्त्वं सम्यक्त्वपुञ्जस्य बहुतरक्षपितस्य चरमपुदगलानां वेद-कालेग्राससमये भवति / वेदयति-अनुभवति सम्यक्त्यपुदगलानीति वेदकोऽनुभविता तदनान्तर्भतत्वात्सम्यक्त्वमपि वेदकम्, यथा आदियत इत्याहारकं तथा वेद्यत इति वेदकम् / इदमत्र तात्पर्य क्षधक श्रेणिं प्रतिपत्रस्यानन्तानुबन्धिकपायच-तुष्टयमपि क्षपयित्वा मिथ्यात्वमिश्रपुजेषु सर्वथा क्षपितेषु सम्यक्त्वपुञ्जमप्युदीयोंदीर्यानुभवेन निर्जरयतो निष्ठितोदीरणीयस्य चरमगासेऽवतिष्ठमानेऽद्यापि सम्यक्त्यपुजपुदगलाना कियतामपि वेद्यमानत्वाद्वेदक सम्राकन्तमुपजायत इति / अत्राह-नन्वेवं सति क्षायोपशमिकेन सहारय को विशेषः? सम्यक्त्वपुञ्जपुद्गलानुभवस्योभयत्रापि समान.. त्यात,सत्य, किंत्वतदशेपोदितपुगलानुभूतिमत्प्रोक्तम्, इतरे तु उदितानुदितपुद्गलस्यैतन्मात्रः प्रकृतो विशेषः, परमार्थतस्तु क्षायोपशमिकमेवंद, चरमग्रासशेषाणां पुदगलानां क्षयाच्चरमग्रासवर्तिनां तु मिथ्यास्वभावापगमलक्षणस्योपशमस्य सद्भावादिति। अथ दशविधं सम्यक्त्वमाह.. एयं चिय पंचविह, निस्सग्गाभिगमभेयओ दसहा। अहवा निस्सग्गरुई, इचाइ जमागमे भणिअं॥६६३|| Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 454 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त एतदेवानन्तरादित पश्चविधं सम्यक्त्वं निसर्गाधिगमभेदाभ्यां दशधा भवति / क्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकसास्वादनवेदकाना प्रत्येक निसर्गतोऽधिगमतश्च जायमानत्वाशविधत्वमित्यर्थः / अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शनार्थः / निसगरुचिरुपदशरुचिरियादिरूपतया यदागम प्रज्ञापनादौ प्रतिपादितं तेन च दशविधत्वमवमन्तव्यम्। तदेवाहनिस्सग्गुवएसरुई, आणारुइसुत्त-वीय--रुइमेव। अहिगमवित्थाररुई, किरियासंखेवधम्मरुई॥६६४।। अत्र रुचिशब्दः प्रत्येक योज्यत, ततो निसर्गरुचिरुपदेशरुचिरिति द्रष्टव्यम् / अत्र निरार्गः-स्वभावस्तेन रुचिर्जिनप्रणीततत्त्वाभिलाषरूपा यस्य स निसर्गरुचिः, उपदेशोगुवादिभिर्वस्तुतत्त्वकथनं, तेन रुचिरुवतस्वरूपा यस्य स उपदेशरुचिः, आज्ञासर्वज्ञवचनात्मिका, तस्थां रुचिरभिलाषो यस्य स आज्ञारुचिः, 'सुत्तबीयरुइमेव ति-अत्रापि रुचिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यत, सूत्रमाचाराद्यङ्ग प्रविष्टम, अङ्गबाह्य षावश्यकदशवकालिकादि, तेन रुचिर्यस्य स सूत्ररुधिः बीजमिव बीजयदेकमप्यनेकार्थ-प्रबोधोत्पादक वचः, तेन रुचिर्यरय स वीजरुचिः, अनयोश्च पदयोः समाहारद्वन्द्वः, तेन नपुंसकनिर्देशः / एवेति समुच्चये। 'अहिगमवित्थाररुइ' त्ति अत्रापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबन्धः, ततोऽधिगमरुचिविस्ताररुचिश्च / तत्राधिगमो-विशिष्ट परिज्ञातं तेन रुचिर्यस्यासावधिगमरुचिः, विस्तारो-व्यासः सकल-द्वादशाङ्गस्य नवैः पर्यालोचन मिति भावः, तेनोपबंहिता रुविर्यस्य स विरताररुचिः, "किरियासंखेवधम्मराई' त्ति-सचिशब्द-स्यात्रापि प्रत्येकमभिसंबन्धात क्रियारुचिः, संक्षेपरुचिधर्मरुचिरिति द्रष्टव्यम् / तत्र क्रियासम्यक्सयमानुष्ठान, तन्त्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः, संक्षेपः-संग्रहस्तत्र रुचिर्यस्य, विस्तरार्थापरिज्ञा--नात् संक्षेपरुचिः, धर्मेऽस्तिकायधर्मे श्रुतधर्मादौ वा रुचिर्यस्य स धर्मरुचिः, यदिह सम्यक्त्यस्य जीवानन्यत्वेनाभिधान तद्गुणगुणिनोः कचिदनन्यत्वरख्या पनार्थमिति गाथाराक्षपाथः प्रव० 63 द्वार। संघा०। सम्म०(वेदकसम्यक्त्वं 'वदग' शब्द षष्ठभाग स्ति।) (सम्प्रति क्षायिकदर्शनमाहदसणमोहे खीणे, खयदिट्ठी होइ निरवसेसम्मि। केण उ सम्मो मोहो, पडुच पुव्वं तु पाणवणं / / 126 / / दर्शनमोह निरवशेषे विप्रकारेऽपि क्षीणे क्षयष्टिः क्षायिक सम्यग्दर्शन भवति, आह.-यन्मिथ्यात्वदर्शनं तन्मोहः स्यातस्य सम्यग्दर्शनमोह... कत्वात, यत्सम्यग्दर्शन तत्वेन कारणेन मोहः?,सूरिशह-पूर्वा प्रज्ञापना पतीत्य : किमुक्तं भवति-यथा मदनकोद्रवाणा निर्मदनी कृतानाग.. प्यादनः स एव मदनकोद्रवौदन इति व्यपदिश्यते तपा पूर्व समदन बाद तापि सम्यक्त्वपुरलाः, पूर्व मिथ्यात्वयुद्धला आसीरन च दर्शनमालकाः, अतः पूर्वभाव -प्रज्ञाधनामधिकृत्य तेऽपि दर्शन माह इति कादियो। बृ०१3०१प्रक० / सम्यग्दर्शनयुक्तोऽयमिति : अन ख पशलक्षणन दर्शनन तत्सहचारिताः सप्तषष्टिरपि भेदाःसूचिताः, सम्यक नीतिशुई स्थाद्, यदाहुः-- चउसदहणतिलिंग, दसविरगयतिसुद्धिपंचगावोस। अहपभावणभूराण-लक्खणपंचविहसजुतं / / 1 / / छटिवह जयणा गारं, छमावणमावि अंच छट्ठाण / इयसतसहिदसण-भेअविसुद्ध तु सम्मत्त / / 2 / / ___ "चउसद्दहण" तिपरमत्थसंथवो खलु,सुमुणिअपरमत्थजइजणनिसेवा। वावन्नकुदिट्ठीण य.वजणों सम्पत्तसद्दहणा / / 3 / / तिलिंग' तिसुस्सूसधम्मराओ, गुरुदेवाणं जहा समाहीए। वेयावच्चे नियमो, सम्मद्दिहिस्स लिंगाई।।४।। 'दसविणयं तिअरिहंत 1 सिद्ध चेइअ 3, सुए अ४धम्मे अ५ साहुवग्गे अ६ / आयरिअ१उवज्झाए८,पवयणेहदसणे१० विणओ।।१।। भत्तीपूआवन्न, (स्स) जणण नासणमवन्नवायस्स। आसायणपरिहारो,दंसणविणओ समासेणं / / 6 / / 'तिसुद्धि' त्तिमुत्तूण जिण मुत्तूण, जिणमयं जिणमयट्ठिए मुत्तू / संसारकत्तवरि, चितिज्जतं जग सेसं |7|| पचगयदोस'तिसका१कंखरविगिच्छा३.पसस४तह संथवो कुलिंगीसु। सम्मत्तस्सऽइयारा, परिहरिअव्वा पयत्तेणं / / 8 / / 'अट्टपभावण' तिपावयणी धम्मकही 2, वाई नेमित्तिओ 4 तवस्सी अ५ / विज्ञा६ सिद्धो अ७ कई८. अहेव पभावगा भणिआ / / 6 / / 'भूसण' त्तिजिणसासणे कुसलया१,पभावणारतित्थसेवणा३थिरया। भत्तीअ५ गुणा सम्म-तदीवया उत्तमा पंच / / 10 / / 'लक्खणपंचविहसंजुत्त' त्ति-लक्षणान्युक्तान्येवात्र गाथाऽपि। संबगो चिअ 1 उवसम 2, निव्वेओ 3 तह य होइ अणुकंपा 4 / अस्थिक्क चिग एए, सम्मत्ते लक्खाणा पंच / / 11 / / 'छविहजयण' त्तिनो अन्नतिस्थिए अ-नतिथिदेवे 2 य तह सदेवाई। गहिए कुतित्थिएहि, वंदामि 1 न वा नमसामि 2 // 12 / नेव अणालतो आ-लवेमि 3 नो सलवेमि 4 तह तेसिं। देमि न असणाईअं५, पेसमि न गंधपुप्फाई 6 / / 13 / / 'छ आगार' तिरायाभिओ य गणाभिओगो, बलाभिओगो असुराभिओगो। कतारवित्तो गुरुनिगहो अ, छ छिडिआऊ जिणसासणम्मि। 'छब्भावणभाविअंतिमूलं 1 दार 2 पइट्टाणं 3, आहारो 4 भायणं 5 निहीं 6 / दुकसविधम्मरस, सम्मत्त परिकित्तिअं / / 15 / / 'छट्ठाणं' ति.. अस्थि अ१ णिच्चो 2 कुणई 3, कयंच वेएइ४ अस्थि णिव्वाणं 5 / अस्थिअ अ मुक्खो वाओ 3, छरसम्मत्तस्स ठाणई।।१६।। अर्थतासां विषमपदार्थो यथापरमार्था जीवादयस्तेषां संस्तवःपरिचयः?. सुमुनितपरमार्था यतिजना आचार्यादयः तेषा सेवनं 2, व्यापन्नदर्शना--निहवा-दयः६ कुदर्शना:शावयादयः 4 तेषा वर्जन-त्यागः सम्मत्त-सहहणा' इति सम्यकत्वं श्रद्रो Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 485 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त यतेऽस्तीति प्रतिपद्यतेऽनेनेति सम्यक्त्वश्रद्धानं, न चागारमईकादेरपि परमार्थसंस्तवादिसम्भवाद् व्यभिचारिता शङ्कया तात्त्विकानामेलेपाम् इहाधिकृतत्वात, तस्य च तथाविधानार्मषामसंभवादिति / इह प्राकृतत्वाल्लिङ्ग मतन्त्रमिति स्त्रीत्वं? मूलद्वारगाथायां च चतुःश्रद्धानादिशब्दाना, चतुर्विध श्रद्धानं चतुःश्रद्धानं. त्रिविधं लिङ्ग त्रिलिङ्गम, दशविधी विनयो दशविनयः, त्रिविधा शुद्धिस्त्रिशुद्धिरित्यादि व्युत्पत्तिज्ञेया। रिलिङ्गे श्री तुमिच्छा शुश्रूषा, सद्बोधावन्ध्यनिबन्धनधर्मशास्त्रश्रवणवाञ्छत्यर्थः / सा च वेदाध्यादिगुणवत्तरुणनरकिन्नरगा नश्रवणरागादप्यधिकतमः सम्यक्त्वे सति भवति / यहाह- "युनो वैदग्ध्यवतः, कान्तायुक्तस्य कामिनोऽपि दृढम् / किन्नरगेय श्रवणादधिको धर्मश्रुती रागः / / 1 / / " इति 1 / तथा धर्मे चारित्रलक्षणे रागः, श्रुतधर्मरागस्य तु शुश्रूषापदनयोक्तत्वात्। स च कर्मदोषात्तदकरणेऽपि कान्तारातीतदुर्गतबुभुक्षाक्षामकुक्षिब्राह्माणघृतभोजनाभिलाषादप्यतिरिक्तो भवति / / तथा गुरवाधर्मोपदेशका देवाअर्हन्तस्तेषां वैयावृत्त्ये तत्प्रतिपतिविश्रामगाभ्यर्चनादा नियमोऽवश्यं कर्त्तव्यताड़ी कारः स च सम्यकत्ये सति भवतीति / तानि सभ्यगदृष्टः धर्म-धर्मिणोरभेदोपचारा सम्यवत्वरण लिङ्गानि, गभस्त्रिभिर्लिङ्गैः सम्यक्त्वं समुत्पन्नमस्तीति निश्चीयत इति भावः। वैयावृत्त्यनियमस्य च तपोभेदत्वेन चारित्रांशरूपत्वेऽपि सम्यकत्वे सत्येवावश्यंभावित्वेऽपि नाविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकाऽभावप्रयोजकतादाव्या, एतद्रूपचारित्रस्याल्पतमत्वेनाचारित्रतया विवक्षितत्वात्। संमृर्छनजानां संज्ञामात्रसद्भावेऽपि विशिष्टसंज्ञाऽभावादसंज्ञित्वव्यपदेशवदिति / उपशान्तमोहादिषु तु कृतकृत्यत्वादेषां साक्षादभावऽपि फलतया सद्भावान्न तेष्वप्येतेषां व्यभिचारः / वैयावृत्त्यनियमश्चापरिष्ट्रात श्राद्धविधिपाटन दर्शयिष्यत इति ततोऽवसेयः / दशविनये चैत्यान्यहत्प्रतिमाः, यवचन-जीवादि-तत्त्वं, दर्शनसम्यक्त्वं तदभेदोपचारात्तद्वानपि दर्शनमुच्यते / एतेषु दशसु भक्तिरभिमुखागमनासनप्रदानपर्युपास्त्यजलिबन्धाधा, पूजा-सत्काररूपा वर्ण:-प्रशंसा, तज्जननमुद्रासनम्, अवर्णवादस्याश्लाधाया वर्जन-परिहारः / आशातनाप्रतीपवर्त्तनं तस्याः परिहारः / एष दशरथानविषयत्वादशाविधो दर्शनविनयः, सम्यक्त्वे सत्यस्य भावात् सम्यक्त्वविनयः / त्रिशुद्ध्या जिन वीतराग जिनमतं स्यात्पदलाञ्छित जिनमतस्थितांश्च साध्वादीन मुक्त्वा शेषभेकान्तग्रस्तं जगदपि संसारमध्ये कचवरप्रायम्, असारमित्यर्थः, इति चिन्तया सम्यक्त्वस्य विशोध्यमानत्वादेतास्तिराः शुद्धय इति / पञ्च दोषा अग्रे मूल एव वक्ष्यमाणाः, अष्टप्रभावनायां--प्रभवति जैनेन्द्र शारानं, तस्य प्रभवतः प्रयोजकत्वप्रभावना सा चाष्टधा प्रभावकभेदेन / तत्र प्रवचन द्वादशाङ्ग गणिपिटक, तदस्यास्तीति प्रावचनी युगप्रधानागमः 1, धर्मकथा प्रशस्ताऽस्यास्तीति धर्मकथी, "शिखादित्वादिन" (शिखादिभ्य इन) (श्री सि०७-२-४) आक्षेपणी 1 विक्षेपणी 2 संवेगजननी 3 निवेदनी 4 लक्षणां चतुर्विधा जनितजनमनः प्रमोदा धर्मकथां कथयति सः२ बादिप्रतिवादिसभ्यसभापतिरूपायां चतुरड़ायां परिषदि प्रतिपक्षक्षेपपूर्वक स्वपक्षस्थापनार्थमवश्यं वदतीत वादी३. / निमित्तं- कालिकलाभालाभप्रतिपादक शास्त्र, तद्वत्त्यधीते वा नैमित्तिकः 4 तपोविकृष्टमष्टमाद्यस्यास्तीति तपस्वी 5, विद्याः-प्रझप्त्यादयस्तद्वान विद्यावान 6, सिद्धयोऽजनपादलेपतिलकगुटिकाकर्षणवैक्रियत्वभूतयस्ताभिः। सिद्ध्यति स्म सिद्धः७. कवते गद्यपद्यादिभिः प्रबन्धैर्वणनामिति कविर्गद्यपद्यप्रबन्धरचकः 8 / एते प्रवचन्यादयोऽटी, प्रभवती भगवच्छासनस्य यथायथ देशकालाद्यौचित्येन साहाय्यकरणात प्रभावकाः, अभवन्तं स्वतः प्रकाशकस्वभावमेव परयन्तीति व्युत्पत्तः तषां कर्म प्रभावना इत्थं च मलद्वारगाथायामष्टी प्रमावना सत्रेति समासः / भूषणपशवाजिनशासन हद्दर्शनविषये कुशलता--नैपुण्यं?, प्रभावनाप्रभावनागत्यर्थः / सा च प्रागटधाऽभिहिता, यत्पुनरिहापादानं तदस्याः स्वपरोपकारियन तीर्थकरनामक निबन्धनत्वन च प्राधान्यख्यापनार्थग / ध० 1 अधि० 13 गुण। (5) अधुना नामनिष्पन्ननिक्षेपायातररा सम्यक्त्वाभि धानस्य निक्षेपं चिकीर्षुराहनाम ठवणं सम्मं, दव्वसम्मं च भावसम्म च / एसो खलु सम्मस्स, निक्खेवो चउदिवहो होइ॥२१७।। अक्षरार्थः सुगमः,भावार्थ तुसुगम नामस्थापनाव्युदासेन द्रव्य-भावगते नियुक्तिकारः प्रतिपिपादयिषुराह अह दव्वसम्म एच्छा--णुलोमियं तेसु तेसु दव्येसु / कयसंखयसंजुतो, पउत्तजढभिण्णछिण्णं वा / / 218|| अथति -आनन्तटों, ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्त द्रव्यसम्यक्त्व.. भिसाह, जामिकम-इच्छा-चेतः प्रवृत्तिरभिप्रायस्तस्यानुलोभम अनु ल (त्र भवमच्छानुलो मिकं तच्च तेषु तेष्विच्छाभाधानुकल्यतामाक्ष द्रव्यषु कृताद्युपाधिभेदेन सप्तधा भवति, तद्यथाकृतम...अपूर्वमेव निदेर्शितं रथादि, तस्य यथाऽवयवलक्षणनिष्पत्ते यसम्यकर्तुतग्निमित्तचित्तस्वास्थ्योत्पत्तेः, यदर्थ वा कृतं तस्य शोभनाशकरणतया समाधानहेतुत्वाद्वा द्रव्यसभ्य१, एवं संस्कृतेऽपि याजा, तरथव रक्षादेर्भग्नजीपाढापरावयवसंस्कारादिति 2, तथा ययोद्रायाः संयोगो गुणान्तराधानाय नोपमाय उपभोक्तुर्वा मनःप्रीत्यै पयः शकरयोरिव त संयुक्तद्रव्यसम्यक 3, तथा यत्प्रयुक्तं द्रव्यं लाभहेतुत्वादात्मनः समाधानाय प्रभवति तत्प्रयुक्तद्रव्यसम्यक् 4, पाठान्तरं वा- 'उवउत्त' ति यदुपयुक्तम्- अभ्यवहृतं द्रव्यं मनःसमाधानाय प्रभवति तदुपयुक्तद्रव्यसम्यक ४.तथा जद-परित्यक्तं यद्वारादि तत्त्यक्तद्रव्यसम्यक् 5, तथा दधिभाजनादि भिन्न सत् काकादिसमाधानोत्पत्तभिन्नद्रव्यसम्यक 6, तथाऽधिकमासादिच्छेदाच्छिन्नसम्यक् 7, सर्वमप्यतत्रामाधानकारणत्वादृ द्रव्यसम्यक्, विपर्ययादसम्यगिति गाथार्थः। (6) भावसम्यक्प्रतिपादनायाहतिविहं तु भावसम्म, दंसण नाणे तहा चरित्ते य। दसणचरणे तिविहं,नाणे दुविहं तु नायव्वं // 216 / / त्रिवि भावसम्यक् -दर्शनज्ञानचारित्रभेदात्, पुनरप्ये के कं मदत आचर-तत्र दर्शनचरणे प्रत्येक त्रिविधे, तद्यथा Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त अनादिमिथ्यादृष्टरकृतत्रिपुञ्जस्य यथाप्रवृत्तकरणक्षीणशेषकर्मणो देशानसागरोपमकोटिकोटिस्थितिकस्यापूर्वकरणभिन्नग्रन्थेमिथ्या - स्वानुदयलक्षणमन्तरकरणं विधायानिवृत्तिकरणेन प्रथम सम्यक्त्वम्पादयत अपमिका दर्शनम् 1, उक्तंच-“ऊसरदेस दड्वेलयं च विउझाइ वणदयो पाप / इय मिच्छत्ताणुदए, उवसमसम्म लहइ जीवो / / 1 / / " उपशमग्यां चौपशमिकमिति 2, तथा सम्यक्त्वपुद्गलोपटभजनिताध्यवसायः क्षायोपशमिक 2. दर्शनमोहनीयक्षयात क्षायिकं 3, चारित्रमप्युपशनश्रेण्याभोपशमिकं 1, कषायक्षयोपशमात् क्षायोपशमिक चारित्रं 2, चारित्रमोहनीयक्षयात्क्षायिकं 3, ज्ञाने तु भावसम्यग द्विधा ज्ञातव्य, तद्यथा... क्षायोपशमिक क्षायिकं च / तत्र चतुर्विधज्ञानावरणीयक्षयोपशमात् मत्यादि चतुर्विध क्षायोपशमिकं ज्ञान, समस्तक्षयात्क्षायिकं केवलज्ञानमिति। तदेवं त्रिविधेऽपि भावसम्यवत्वे दर्शिते सति परश्चोदयति-यद्येवं त्रयाणामपि सम्यग्वादसम्भवे कथं दर्शनस्यैव सम्यक्त्ववादो रूढो? यदिहाध्ययने व्यावय॑ते, उच्यते तद्भावभाविन्यादितरयोः, तथाहि-मिथ्यादृष्टस्तेन स्तः, अत्र च सम्यक्त्वप्राधान्यख्यापनाय अन्धेतरराज-कुमारद्वयेन बालाङ्गनाद्यवबोधार्थ दृष्टान्तमाचक्षते-तद्यथा-उदयसेनराजस्य बीरसेनसूरसेनकुमारद्वयं तत्र वीरसेनोऽन्धः, स च तत्प्रायोग्या गान्धर्वादिकाः कला ग्राहितः, इतररस्व स्तधनुर्वेदो लोकलाध्या पदवीमगमत् एतच्च समाकर्ण्य वीरसेनेनापि राजा विज्ञप्तो यथाऽहमपि धनुर्वेदाभ्यास विदधे, राज्ञाऽपि तदाग्रहमअगम्यानुज्ञातः। ततोऽसौ सम्यगुपाध्यायोपदेशात प्रज्ञातिशयादभ्यासविशेषाच शब्दवेधी सञ्जज्ञे। तेन चारूढयौवनन स्वभ्यस्तधनुर्वेद - विज्ञानक्रियेणागणितचक्षुर्दर्शनसदसद्भावेन शब्दवेधित्वावष्टा भात्परबलापस्थाने सति राजा युद्धायादेशयाचितः। तेनापि याच्यमानेन वितरे / वीरसेनेन च शब्दानुवेधितया परानीके जजृम्भ, परेश्वावगतकुमारान्धमामूकतामालब्या-सौ जगृहे,सूरसेनेन च विदितवृत्तान्तेन राजानमापृच्छय निशितशरशतजालावष्टब्धपरानीकेन मोचितः। तदेवमभ्यस्तविज्ञानक्रियोऽपि चक्षुर्विकलत्वान्नालमभिप्रेतकार्यसिद्धये इति। एतदेव नियुक्तिकारो गाथयोपसंहर्तुमाहकुणमाणो विय किरियं, परिचयंतो वि सयणधणभोए। दितो वि दुहस्स उरं, न जिणइ अंधो पराणीयं / / 16 / / कुर्वन्नपि क्रिया परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान् दददपिदुःख–स्योरः न जयत्यन्धः परानीकमिति गाथार्थः। (7) तदेवं दृष्टान्तमुपदी दान्तिकमाहकुणमाणो वि नियत्तिं, परिचयंतो वि सयणधणभोए। दितो वि दुहस्स उरं, मिच्छविहीन सिज्झइ उ॥२५१।। कुर्वन्नपि निवृत्तिम्-अन्यदर्शनाभिहिता, तद्यथा-पक्ष यमा, पश्च नियमा इत्यादिकां तथा परित्यजन्नपि स्वजनधनभो गान पञ्चाग्नित आदिना पददपि दुःखस्योरः मिथ्यादृष्टिर्न सिध्यति। तुरवधारणे, नैव सिध्यति, दर्शनविकलत्वाद्, अन्धकुमारवत् असमर्थः कार्यासिद्धये। आचा०१ 704 अ०१ उ०। कर्म०। तदेव येन कर्मणा मुनिर्नव तत्त्वानि श्रद्दधाति मत सम्यक्त्वं,कि-विशिष्ट? 'खइयाइबहुभेय' ति–क्षायिकमादौ येषा / ते क्षायिकादयो बहवो भेदाः-प्रकारा यस्य तत्क्षायिकादि बहुभेदम् / इहादिशब्दावेदकापशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकग्रहणम् एतद्व्याख्यानगाथा:'खीण दसणमोहे, तिविहम्मि वि खाइयं भवे सम्म। वेयगमिह सव्वोइय, चरमिल्लयपुग्गलग्गासं / / 1 / / उवसमसेढिगयरस उ. होइहु उवसामियं तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं / / 2 / / उवसमसम्मत्ताउ, चइउं मिच्छ अपावमाणस्स। सासायणसम्मत्त, तयंतरालम्मि छावलियं / / 3 / / मिच्छत्त जमुइन्न, त खीण अणुइयं च उवसत। मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं / / 4 / / " इत्युक्तं सम्यक्त्वम् / कर्म०१ कर्म० / दश० / आ० म० / त्रिविधं सम्यक्त्वं क्षायिक क्षायोपशमिकमौपशमिकं च / कल्प०१ अधि०३ क्षण। कर्म०। [8] यत एवं ततः किं कर्तव्यमत आहतम्हा कम्माणीयं, जे तु मणोदसणम्मि पयएज्जा। दंसणवओ हि सफला-णि होति तवनाणचरणाई 222 / सम्मत्तुप्पत्ती सा-वएय विरए अणंतकम्मंसे / दंसणमोहक्खवए, उवसामंते य उवसंते / / 223 / / खवए य खीणमोहे, जिणे य सेढी भवे असंखेजा। तव्विवरीओ कालो, संखिजगुणाइसेढीए॥२२४।। आहारउवहिपूआ-इड्डीसु य गारवेसु कइतवियं / एमेव वारसविहे, तवम्मि न उ कइतवे समणो ||225|| यरमात्सिद्धिमार्गमूलास्पदं सम्यग्दर्शनमन्तरेण न कर्मक्षयः स्यात्तस्मात्कारणात् कर्मानीकं जेतुमनाः सम्यग्दर्शने प्रयतेत, तस्मिंश्च सति यद्धयति तद् दर्शयति-दर्शनवतो हितौ,यस्मात् सम्यग्दर्शनिनः सफलानि भवन्ति तपोज्ञानचरणान्यतस्तत्र यत्नवता भाव्यमिति गाथार्थः / प्रकारान्तरेणापि सम्यग्दर्शनस्य तत्पूर्वकाणां च गुणस्थानकानां गुणमाविर्भावयितुमाह- 'सम्मत्तुप्पत्ति' ति सम्यक्त्वस्योत्पत्तिः सम्यक्त्वोत्पत्तिस्तस्यां विवक्षितायामसंख्येयगुणश्रेणिर्भवदित्युत्तरगाथार्द्धान्ते क्रियामपेक्ष्य संबन्धो लगयितव्यः / कथनसंख्येयगुणा श्रेणिर्भवेदिति?, अत्रौ--च्यते--इह मिथ्यादृष्टयः देशोनकोटिकोटिकर्मस्थितिकाग्रन्थिकसत्त्वास्ते कर्मनिर्जरामाश्रित्य तुल्याः धर्मप्रच्छन्नोत्पन्नसंज्ञास्तेभ्योऽसंख्येयगुणनिर्जरकाः ततोऽपि पिच्छिषुः सन् साधु-समीपं जिगमिषुस्तस्मादपि क्रियाविष्टः प्रच्छंस्तताऽपि धर्म प्रतिपित्सुरस्मादपि क्रियाविष्टः प्रतिपद्यमानस्तस्मादपि पूर्वप्र--- तिपन्नोऽसंख्येयगुणनिरिक इति सम्यक्त्वोत्पत्तियाख्याता, तदनन्तरं विरताविरतिं प्रतिपित्सुः प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नानामुत्तरोत्तरस्यासंख्येयगुणा निर्जरा योज्या, एवं सर्वविरतावपीति ततोऽपि पूर्वप्रत्तिपन्नसर्वविरतेः सकाशात् 'अणतकम्मसे' त्ति पदैकदेशे पदप्रयोग इति, यथा भीमसे नो भीमः सत्यभामा भामा, एवमनन्तशब्दोपलक्षिता अनन्तानुबन्धिनः / ते हि मोहनीयस्यांशाः भागाः, तांश्चिक्षपयिषुरसंख्येयगुणनिर्जरकः, ततोऽपि क्षपकः, तस्मादपि क्षीणनन्तानुबन्धिक-- Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 487 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त षायः / एतदेव दर्शनमोहनीयत्रयेऽभिमुखक्रियारूढापवर्गत्रयमायोज्य, ततोऽपि क्षीणसप्तकात् क्षीणसप्तक एवोपसमश्रेण्यारूढोऽसंख्ययगुणनिर्जरकस्ततोऽप्युपशान्तमोहस्तस्मादपि चारित्रमोहनीयक्षपकस्ततोऽपि क्षीणमोहः, अत्र चाभिमुखादि त्रयं यथा संभवमायोजनीयमस्मादपि जिनो भवस्थकेवली तरभादपि शैलेश्यवस्थोऽसंख्येयगुणनिर्जरकस्तदेवं कर्मनिर्जराये असंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणनिष्पादितसंयमस्थानप्रन्योपात्त श्रेणिः सोत्तरोत्तरेषामसंख्येयगुणा, उत्तरोत्तरप्रवर्द्धमानाध्यवसायकण्डकोपपतैरिति। कालस्तुतद्विपरितोऽयागिके वलिन आरभ्य प्रतिलोमतया संख्येयगुणया श्रेण्या ज्ञेयः, इदमुक्तं भवति--यावत्कालेन यावत्कर्मायोगिकेवली क्षपयति तावन्मात्र कर्म सयोगिकेवली संख्येयगुणेन कालेन क्षपयति, एवं प्रतिलोमतया यावद्धर्मपिपृ-च्छिषुस्तावन्नेयमिति गाथाद्यार्थः। एवमन्तरोक्तया नीत्या दर्शनवतः सफलानि तपोज्ञानवरणान्यभिहितानि, यदि पुनः केनचिदुपाधिना विदधाति ततः सफलत्वाभावः / कश्वासावुपाधिस्तमाह आहारउवहिपूआ, इड्डीसु य गारवेसु कइतवियं / एमेव वारसविहे,तवम्मि न हु कइतवे समणो॥२२५।। आहारश्च उपधिश्व पूजा च ऋद्धिश्चामोषध्यादिका आहारोपधि... पूजयस्तासु निमित्तभूतासु ज्ञानचरणक्रियां करोति / तथा गारवषु त्रिषु प्रतिबद्धा यत्करोति तत् कृत्रिममित्युच्यते, यथा च ज्ञानचरणयोराहाराद्यर्थमनुष्ठानं कृत्रिमं सन्न फलवद्भवत्येवं सबाह्याभ्यन्तरे द्वादशप्रकारे तपस्यपीति। न च कृत्रिमानुष्ठायिनः श्रमणभावो न चाश्रगणस्थानुष्ठानं गुणवदिति / तदेवं निरुपधेर्दर्शनवतस्तपोज्ञानचरणानि सफलानीति स्थितमतो दर्शन यतितव्यम् / दर्शन च तत्त्वार्थ श्रद्धानं, तत्वं चोत्पन्नापगतकलङ्काशेषपदार्थसत्ताव्यापिज्ञानस्तीर्थकदभिर्यदभाषि। आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। कर्म०। प्रति०। (6) साम्प्रतं विशेषतो गृहिधर्मव्याख्यानावसरः, स च सम्यक्त्वमूलक इति प्रथम सम्यक्त्वं प्रस्तूय तदेव लक्षयतिन्याय्यश्च सति सम्यक्त्वे-ऽणुव्रतप्रमुखग्रहः। जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिः, शुद्धा सम्यक्त्वमुच्यते / / 21 / / सति-विद्यमाने सम्यक्त्वे-सम्यग्दर्शने चकारोऽत्रैवकाराथों भिन्नक्रमश्न, ततः सम्यक्त्वे सत्येवेत्यर्थो लभ्यते / अणुव्रतगुणवतशिक्षाव्रतानां ग्रहोऽभ्युपगमो न्याय्यः-उपपन्नः, नत्वन्यथासम्यक्त्वेऽसति, निष्फलत्वप्रसङ्गात्, यथोक्तम्- “सस्यानीवोषरक्षेत्रे, निक्षिप्तानि कदाचन / न व्रतानि प्ररोहन्ति, जीवे मिथ्यात्ववासिते // 1 // संयमा नियमाः सर्वे, नाश्यन्ते तेन पावनाः / क्षयकालानलेनेव, पादपाः फलशालिनः / / 2 / / " इति : सम्यक्त्वमेव दर्शयति- 'जिनोक्ते' इत्यादि, जिनोक्तेषु तत्त्वेषु जीवाजीवादिपदार्थेषु या शुद्धा-अज्ञानसंशयविपर्यासनिराकरणेन निर्मला रुचिः-श्रद्धानं सा 'सम्यक्त्वमुच्यत' जिनैरिति शेषः / तद्विशेषतो गृहिधर्म इति, पूर्वप्रतिज्ञात सर्वत्र योज्यम। नन्वित्थं तत्त्वार्थश्रद्धान सम्यक्त्वमिति पर्यवसन्नम्, तत्र श्रद्धानच तथेति प्रत्ययः, स च मानसोऽभिलाषः / नचायमपर्याप्तकाद्यवस्थाया--मिष्यते, सम्यक्त्वं तु तस्यामपीष्ट, षट्षष्टिसागरोपमरूपायाः साद्यपर्यवसितकालरूपायाश्च तस्यात्कृष्टस्थितेः प्रतिपादनादिति कथं नागमविरोधः? इत्यत्रोच्यतेतत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वस्य कार्य, सम्यक्त्वं तु मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यः शुभ आत्मपरिणामविशेषः आह ध-"से असंमत्ते, पसत्थसंमत्तमोहणीअकम्माणुवे अणावसमक्खयरमुत्थे पसमसंवेगाइलिङ्गे सुहे आय--परिणामे पण्णत्ते।" इद चलक्षणतमनरकेषु सिद्धादिष्वपि त्यापकम / इत्थं च सम्यक्त्ये सत्येव यथाक्तं श्रद्धानं भवति, यथोक्त श्रद्धाने च सति सम्यक्त्वं भवत्येवेति श्रद्धानवता सम्यक्त्वग्यावश्यम्भावित्वापदशनाय कार्ये कारणोपचारं कृत्वा तत्त्वेषु रुचिरित्यस्य तत्त्वार्थश्रद्धानमित्यर्थपर्यवसानं न दोषाय / तथा चोक्तम... "जीवाइनवपयत्शे, जो जाणइ तस्स होइ सम्मन / भावेण सहहते, अयाणमाणे वि सम्मत्तं / / 1 / / " ति। नन्वेदमपि शास्त्रान्तरेतत्त्वत्रया-- ध्यवसायः सम्यक्त्वमित्युक्तम् / यतः-"अरिहं देवो गुरुणो, सुसाहुणो जिणमयं पमाणं च / इचाइसुहो भावा, सम्मत्त बिति जगगुरुणा / / 1 / / " [इति कर्शन शास्त्रान्तरविरोधः? इति चेन्न, अत्र प्रकरणे जिनोक्ततत्त्वेषु रुचिरिति यतिश्रावकाणा साधारण सम्यक्त्वलक्षणमुक्तं, शास्त्रान्तरे तु गृहस्थानां देवगुरुधर्मेषु पूज्यत्वापास्यत्वानुष्ठेयत्व लक्षणोपयोगवशाद्देवगुरुधर्मतत्त्वप्रतिपत्तिलक्षण सम्यक्त्वं प्रतिपादितं. तत्रापि देवा गुरवश्च जीवतत्त्व, धर्मः शुभाशये संपर चान्तर्भवतीति न शारत्रान्तरविरोधः सम्यक्त्वं चार्हद्धर्मस्य मूलभूत यतो द्विविधं त्रिविधेनेत्यादिप्रतियत्या श्राद्धद्वादशव्रती सम्यक्त्वोत्तरगुणरूप-भेदद्वययुतामाश्रित्य त्रयोदशकोटिशतानि चतुरशीतिकोट्यः सप्तविंशतिः सहस्राणि देशते च द्वयुतरे भड़ाः स्युः / एषु च [कवल] सम्यक्त्वं विना च नैकस्यापि भगरय संभवः,अत एव 'मूलं दार' मित्यादि, षड़भावना वक्ष्यमाणा युक्ता एवति / ध०२ अधिक। [10] एतस्य फलं चैवमाहुः-- अंतोमुत्तमितं, पि फासि हुज जेहि सम्मत्तं / तेसिं अवड्डपुग्गल-परिअट्टो चेव संसारो॥१।। सम्मट्ठिी जीवो, गच्छइ नियमा विमाणवासीसु। जइन विगयसम्मत्तो, अहवन बद्धाउओ पुट्विं / / 2 / / जं सकइ तं कीरइ, जंच न सक्कइ तयम्मि सद्दहणा। सद्दहमाणो जीवो, वच्चइ अयरामरं ठाणं / / 3 / / शिष्यव्युत्पादनार्श चत्थभुपाधिभेदेन सम्यक्त्वभेदनिर्देशः, तेन कचित्केषाशिदन्त भविऽपि न क्षतिरित्युत्तराध्ययनवृत्तौ / यथा च नान्तविर तथाक्तमस्माभिः, तथापि नैतदरुतरत्वं सम्यक्त्वलक्षणं, रुबीना तत्तद्विषयभेदेन परिगणनस्याशक्यत्वात, रुचेः प्रीतिरूपत्वन वीतरागसम्यक्त्वेऽव्याप्तश्च / 'दसविहे सरागसम्मत्तदसणे पण्ण Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 488 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त ने' इति स्थानाङ्गसूत्रस्य स्वारस्येन सरागसम्यक्त्वस्यैव लक्ष्यत्वेन ब रागस्याननुगतत्वेन लक्ष्यभेदाल्लक्षणभेदोऽवश्यममुसरणीय इति / वस्तुता लक्षणमिह लिङ्ग व्यञ्जकमिति यावत् व्यञ्जकस्य च वहिव्यञ्जकधूमालोकवदननुगमेऽपि न दोषः / अत एव च-'नाणं च दसण चेव' इत्यादिना ज्ञानदर्शनचारित्रतपःप्रभृतीनामननुगतानामेव जीवस्वरूपव्यञ्जकत्वरूपजीवलक्षणत्वम्। उक्तलिङ्गं विनाऽपि लैगिकसदभावेऽप्यविरोधक्ष / यदाहुरध्यात्ममतपरीक्षायामुपाध्यायश्रीयशो विजयगणयः-'जंच जिअलक्खणं तं, उवइट्ट तत्थ लक्खणं लिङ्ग / तेण विणा सो जुल्लइ, धूमेण विणा हुआसु व्व / / 1 / / ' त्ति / एवं च रुच्यभावेऽपि वीतरागसम्यवत्वसद्भावान्नक्षतिः / व्यगचं त्वेकमनाविलसकलज्ञानादिगुणैकरसस्वभावं शुद्धात्मपरिणामरूपं परमार्थतोऽनाख्येयमनुभवगम्यमेव सम्यक्त्वम्। तदुक्तं धर्मबीजमधिकृत्योपदेशपदे-"पायमणक्खेअमिणं, अणुहवगम्मं तु सुद्धभावाणं / भवखयकर ति गराअं. बुहेहि सयमेव विष्णेयं / / 1 // " ति। स्वयमिति निजोपयोगतः, इक्षुक्षीरादिरसमाधुर्यविशेषाणामिवानुभवेऽप्यनाख्येयत्वात्। उक्तं च-"इक्षुक्षीरगुडादीना, माधुर्यस्यान्तरं महत्। तथापि न तदाख्यातु, सरस्वत्याऽपि पार्यते।।१।।" इति। यदि च धर्मबीजस्याप्येवमनुभवैकगम्यत्वं, का वार्ता तर्हि भवशतसहस्रदुर्लभस्य साक्षान्मोक्षफलस्य चारित्रैकप्राणस्य सम्यक्त्वरय ? इति शुद्धात्मपरिणतिस्वरूपे हि तत्र नातिरिक्तप्रमाणानां प्रवृत्तिः / उक्तं च शुद्धात्मस्वरूपमधिकृत्याचारसूत्रे– “सव्वे सराणि अट्टति, तक्या जत्थ ण विज्जइ, मइ तत्थ ण गाहिआ" इत्यादि, तदेतद् ज्ञानादिगुणसमुदायाझेदाभेदादिना विवेचयितुमशक्यमनुभवगम्यमेवेति स्थितम् / अत्र पद्ये-"न भिन्नं नाभिन्नाभयमपि नो नाप्यनुभयं, न वा शाब्दन्यायाद्भवति भजनाभाजनमपि। गुणासीनं लीनं निरवधिविधिव्यजनपदे, यदेतत्सम्यक्त्वं तदनुकुरुते पानकरसम् // 1 // न केनाप्याख्यातं न च परिचितं नाप्यनुमितं, न चार्थादापन्नं क्वचिदुपमित नापि विबुधैः / विशुद्ध सम्यक्त्वं न च हृदि न नालिङ्गितमधि, स्फुरत्यन्तोतिर्निरुपधिसमाधौ समुदितम्॥२॥” इत्यलं प्रसङ्गेन / प्रकृतमनुसरामः / निसर्गाधिगमयोरुभयोरप्येकमन्तरङ्ग कारणमाह- मिथ्यात्वपरिहाण्यैवमिथ्यात्वं जिनप्रणीततत्वविपरीतश्रद्धानलक्षण, तस्य परिहाण्यैव सर्वथा त्यागे त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानेनेति यावत / आह च'मिच्छत्तपडिक्कमण' 'तिबिहं तिविहेण नायव्वं' ति। ध०२ अधि०ा देवो दुर्लभः सम्यक्त्वपरिणाम इह इत्युक्तंतदावश्च यत्प्रतिपत्त्या मनागसन्नपि भवति तत्प्रतिपन्नाश्च येषां प्रतिपत्तिर्विधेया तद्धि बन्धकत्वेन वावबुध्य हेयास्तानुपदिदर्शयिषु सर्वस्यास्य शास्त्रस्य मूलबीजकल्पां देवादिद्वारपञ्चकप्रतिपादिकामिमां गाथामाहदेवो धम्मो मग्गो, साहू तत्ताणि चेव सम्मत्तं / तट्विवरीयं मिच्छ-त्तदंसणं देसियं समए।।५।। दीव्यते-स्तूयते च कश्चित्पूर्वभवशुभपरंपरोपात्ततीर्थकृन्नामकर्मोदयतो नमना त्रिविष्टपाधिपसुरेश्वरमाधिपतिभिरिति देवः, सम्यक्त्वमिति-- पूर्वपदस्येह संबन्धादेवकारस्य च पूर्वपदस्थस्य ततश्व भण्यमानविशेषणकदम्बकयुक्त एव सम्यक्त्वं भक्तीति गम्यते इत्थंभूतदेवताविशेषप्रतिपत्तौ च प्रायः सम्यक्त्वमुदेत्यतः कारणे कार्योपचरादित्थमुपन्यास इत्येवं सर्वपदेष्वपि भावनीयम्। दुर्गतिगर्तादिप्रपतनाद्धारपतीति धर्मः सर्ववित्प्रणीतो हिंसादि-लक्षणः सोऽपि सम्यक्त्वमितिमोक्षलक्षणमहानगरस्य मार्ग इव पन्था इव मार्गः सम्यग्ज्ञानादि, सोऽपि सम्यग्ज्ञानदर्शनचरित्रैमोक्ष, साधयन्तीति साधवः तेऽपि च सर्वदिदुपदिष्टत्वेन यथावस्थितवस्तुस्तोमस्वरूपाविर्भावकानि तत्कानि जीवादीनि तानि च सम्यक्त्वं भवतीति योज्यम् / सर्वत्र चकारोऽनुक्तसमुच्चयार्थः। एवकारोऽवधारणार्थस्तौ च यो जितावेव / तद्विपरीतं मिथ्यात्वदर्शनमिति-इत्थंभूतदेवधर्ममार्गसाधुतत्त्वविपरीत विपर्ययत्वं स चाज्ञप्रणीतल्वेन शिवसौख्यसाधनं प्रत्यनर्हत्वात् मिथ्यादर्शनं विपरीतदर्शनमिति यावदिति, दर्शितं समय-सिद्धान्ते तीर्थकृद्गणधरादिभिरिति आद्यद्वारगाथासमासार्थः / दर्श० 4 तत्त्व। पं० सं०। कर्म०। औपशमिकसम्यक्त्वं तूपशमश्रेण्या प्रथमसम्यक्त्वलाभे वा भवति जीवस्य। उक्तं च-"उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामिय तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्म / / 1 / / ननु क्षायोपशमिकापशमिकसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः?, उच्यते क्षायोपशमिके मिथ्यात्वदलिकवेदनं विपाकतो नास्ति प्रदेशतः पुनर्विद्यते,औपशमिके तुप्रदेशतोऽपि नास्तीति विशेषः। कर्म० 3 कर्म० / सूत्र० / ('किरयावाइ' शब्दे तृतीयभागे 556 पृष्ठे कालादिवादिनां वक्तव्यता गता।) (11) कर्मक्षेत्रादिप्रपञ्चसारविचारपरित्यागेन सम्यक्त्व स्वरूपस्यैव प्रकाशने हेतुमाहसुयसायरो अपारो, आउं थोवं जिया य दुम्मेहा। तं किं पसिक्खियव्वं, जं कज्जकरं व थोवं च / / 3 / / श्रुतमङ्गादिभेदभिन्न जिनागमः तदेव सागरः श्रुतसागरः, अपारोऽपर्यन्तोऽतिबहुत्वात् आयुर्जीवितं स्तोकं-स्वल्पम्, जीवाः-प्राणिनः चशब्दः पुनरर्थस्ततः किमित्याह-तत् किमपि शिक्षित-व्यमभ्यसनीय यत् कार्यकरममुष्यवृत्त्यैव प्रयोजननिष्पादकं तत्, अयमर्थः-श्रुतसागरोऽपारो निःसीमा आयुरपि तदधिगमहेतुकं स्वल्पं, सांप्रतपुरुषापक्षया प्रायो वर्षशतान्तर्गतत्वात्, जीवाश्च पुनस्तदयतारे दुर्मेधसः तदवगमहेतुबुद्धिविकलाः पूर्वपुरुषापेक्षयाऽल्पमति-वादित्यवधार्य यदेवार्थक्रियाकारि अल्पं च तदेवाङ्गीकार्यमिति गाथार्थः / सम्यक्त्वस्यैव दुर्लभत्ववर्णनद्वारेणैकान्ततः कार्यकारितामाहमिच्छत्तमहामोहड-न्धयारमूढाण एत्थ जीवाणं / पुण्णेहि कह वि जायइ, दुलहँ सम्मत्तपरिणामा ||4|| महांश्चा सौ मो हश्च महामो हो मिथ्यात्वमेव महामोह: तस्मातेन वाऽन्धकारं सम्यक्त्वस्यावरण तस्मिन् तेन च मूढाः मिथ्यात्व महामोहान्धकारमूढास्तेषाम्, अत्रेत्यस्मिन् जिनशासने चतुई शरज्ज्वात्मके वा लोके जीवानां भटयप्राणिनां पु Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 486 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त ण्यैः सम्यग्दर्शनाचरणक्षयोपशमसमुत्थैः कथमपि महता कष्टन जायतेसमुत्पद्यते दुर्लभो दुराप एव सम्यक्त्वपरिणामो मिथ्यात्वापगमेन यथावस्थितवस्तुस्टरूपानुष्ठानलक्षणः, अयमभिप्रायः-अनाद्यनन्तके पर्यटतां भव्यप्राणिनामपि मिथ्यात्वमोहमोहितानां सकलमलकल-- इविकलशिवसुखतरुबीजं ततः सम्यक्त्वपरिणाम एव दुर्लभः, यतः-. "राजन्ति भतिविपुलं सुरसंपदश्व,नागेन्द्रचन्द्रपदमुत्तमसौख्यहेतुः / मातङ्ग तुरग रथसन्ततिश्च, नायों वराश्च कुचकुम्भभरावखिन्नाः / / 6 / / अन्यच चारु यदिहास्त्ति शुभ शुभाना, संसारपारगमनैककरं विमुच्य। सद्दर्शनं जिनगुरुप्रतिपत्तिहेतुः, नैवास्ति दुर्लभमहो भुवनेऽखिलेऽपि 117 // " दर्श०४ तत्त्व। इदमेव निदर्शनमङ्गीकृत्योपदिशन्नाहइय सव्वेण वि सम्मं, सक्कं अप्पत्तियं सइ जणस्स। नियमा परिहरियव्वं, इयरम्मि सतत्तचिंतातु // 17 // इति-- श्रीमद्वीरवर्द्धमानस्वामिना चेत्यर्थः सर्वेणापि-समस्तेनापि जिनभवनानि विधानार्थिना-संयमार्थिना वा न कतरेणैवेत्यर्थः अप्रीतिक परिहर्तव्यमिति योगः, कथं सम्यगभावशुद्ध्या, किंभूतं तदित्याह-शक्य शय यपरिह रमेव न स्वशक्यमपि तस्य परिहर्तुमशक्यत्वादेवाशक्यानुहानापदंशरूपत्वात् 'अप्पत्तिय'-ति अप्रीतिरेवाप्रीतिक सकृत सदा सर्वकाल जनस्यलोकरय नियामाच्च तथा परिहर्तव्यं वर्जनीयमितरस्मिन्नशक्रस्परिहारे प्रीतिके स्वतत्त्वचिन्ता तु स्वस्वभावपर्यालोचनमेव विधयम् / दर्श०१ तत्त्व। इदानी सम्यक्त्व एक आदराधानाय दृष्टान्तदान्तिकोपदर्शन-पूर्वक सम्यक्त्वमाहात्म्यवर्णनद्वारेणोपदिशन्निमा गाथामाहकुणमाणो विहिकिरियं, परिच्चयंतो वि सयणधणभोए। दितो वि दुहस्स उरं, न जयइ अंधो पराण्णीयं / / 15 / / व्याख्या--कुर्वन्नपि-विदधानोऽपि क्रिया-प्राणापहारकारिप्रहरणप्रक्षेपादिका परित्यजन्नपि स्वजनधनभोगान्तत्प्रतिबन्धे हि सम्यग्व्यापारासंभवान्न साध्यसिद्धिः संभवति, ततस्तत्प्रतिहार इहोच्यते, दददपि दुःखस्योरः न जयत्यन्धः परानीकं परसैन्यं परम्पराभवकारि समरमूलकारणनयनरहितत्वात्तस्येत्यक्षरार्थः / दर्श०४ तत्त्व। (12) सम्यक्त्व मोक्षबीजमसम्मं च मोक्खबीअंतं पुण भूअत्थसद्दहणरूवं। पसमाइलिंगगम्म, सुहाय परिणामरूवं तु / / 1028 / / सम्यवरांच मोक्षबीज वर्त्तते, तत्पुनः स्वरूपेण भूतार्थश्रद्धानरूपं तथा प्रशमादिलिङ्गगम्यमेतत्। शुभात्मपरिणामरूपं जीवधर्मा इति गाथार्थः / तम्मि सइ सुहं नेअं, अकलुसभावस्स हंदि जीवस्स। अणुबंधो य सुहो खलु, धम्मपवत्तस्स भावेण ||1026 / / तस्मिन सति सुखं ज्ञेयं-सम्यक्त्वे कलुषभावस्य हन्दि जीवस्य शुद्धाशयन्य, अनुबन्धश्च शुभः खलु तस्मिन् सति धर्मप्रवृत्तस्य भावेनपरमार्थेन ते गाथार्थः। भूअत्थसद्दहाणं, च होइ भूयत्थवायगा पायं। सुअधमाओ सो पुण, पहीणदोसस्स वयणं तु / / 1030 / / भूतार्थ श्रद्धानं च सम्यक्त्वं भवति भूतार्थवाचकात् प्राय इति श्रुतधम्मदि-आगमात्। स पुनः प्रक्षीणदोषस्य वचनमेवेति गाथार्थः। पं०व० 4 द्वार। (नयेषु मिथ्यात्वसम्यक्त्व 'णय' शब्दे चतुर्थभागे 1867 पृष्ठे उक्तग।) अनभिकान्त्तसंयोगस्य भावतमसि वर्तमानस्य सम्यक्त्वलाभो नास्तीन्युक्तम्। (13) तदेव सूत्रानुगमायातेन सूत्रेण दर्शयतिसव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता न हंतव्वा न अजावेयव्वा न परिचित्तव्वा न परियावेयव्वा न उद्दवेयच्या, एस धम्मे सुद्धे निइए समिच लोयं खेयण्णेहिं पवेइए, तं जहा-- उट्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा उवट्ठिएसु वा अणुवट्ठिएसु वा उवरयदंडेसु वा अणुवरयदंडेसु वा सोवहिएसु वा अणोवहिएसु या संजोगरएसु वा असंजोगरएसु वा, तचं चेयं तहा चेयं अस्सिं चेयं पवुचइ / (सू० 1264) सर्वेऽपि प्राणिनः पर्यायशब्दावेदिता न हन्तव्याः दण्डकशादिभिः नाज्ञापयितव्याः प्रसहाभियोगदानतः, न परिग्राह्या भृत्यदासदास्यादिगमत्वपरिगहतः, न परितापयितव्याः शारीरमानसपीडोत्पादनतः, नापद्रावयितयाः प्राणव्यपरोपणतः एषः-अनन्तरोक्तो धर्म:, दुर्गत्यर्गलासुगतिसोपानदेश्यः / अस्य च प्रधानपुरुषार्थत्वाद्विशेषणं दर्शयति-शुद्धः-पापानुबन्धरहितः न शाक्यधिग्जातीनामिवैकेन्द्रियपञ्चेन्द्रियवधानुमतिकलङ्काङ्कितः तथा नित्यः-अप्रच्युतिरूपः, पञ्चस्वपि विदेहेषु सदाभवनात, तथा शाश्वतः शाश्वतगतिहेतुत्वात्, यदिवा नित्यस्वाच्छाश्वतो, नतु नित्यं भूत्वा न भवति, भव्यत्ववत्, अभूत्वा च नित्यं भवति घटाभाववदिति, अयं तु त्रिकालवस्थायीति, अमुच लोकजन्तुलोकदुःखसागरावगाढ़ समेत्यज्ञात्वातदुत्तरणाय खेदः जन्तुदुःखपरिच्छेतृभिः प्रवेदितः-प्रतिपादित इति, एतच्च गौतमस्वामी स्वमनीषिकापरिहारेण शिष्यमतिस्थैर्यार्थ वभाषे। एनमेव सूत्रोक्तमर्थ नियुक्तिकारः सूत्र ___संस्पर्शकेन गाथाद्वयेनदर्शयतिजे जिणवरा अईया, जे संपइ अणागए काले / सटवे वि ते अहिंसं, वदिंसु वदिहिंति वि वदिति // 226 / / छप्पिय जीवनिकाए, णो वि हणे णोऽवि अहणाविज्ज / नोऽवि अ अणुमन्निज्जा, सम्मत्तस्सेस निज्जुत्ती।।२२७।। गाथाद्वयमपि कण्ठ्यम् / तीर्थक रोपदेशश्च परोपकारितया तत्स्वाभाव्यादेव प्रवर्त्तमानो भास्करोदय इव प्रबोध्य विशेषनिरपेक्षतया प्रवर्तते, तहाथेत्यादिना दर्शयति--'तं जहा-उट्रिएसु वा' इत्यादि, धर्मचरणायोाता उत्थिता-ज्ञानदर्शनचारित्रोद्योगवन्तः, तद्विपर्ययेणानुस्थिताः तेषु निमित्तभूतेषु तानुद्दिश्य भगवता सर्ववेदिना त्रिजगत्पतिना धर्मः प्रवेदितः, एवं सर्वत्र लगयितव्यम, यदिवा-उत्थि Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 460 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त तानुत्थितेषु द्रव्यतो निषण्णानिषण्णेषु, तत्रैकादशसु गणधरेषुत्थितेष्वेव धीरवर्द्धमानस्वामिना धर्मः प्रवेदितः, तत उपस्थिता धर्म शुश्रूषवो जिघृक्षवो वा तद्विपर्ययणानुपस्थितास्तेष्विति / निमित्तसप्तमी चेयम्यथा 'चर्मणि द्वीपिन हन्ती' ति, ननु च भावोपस्थितेषु चिलातिपुत्रादिष्विव धर्मकथा युक्तिमती अनुपस्थितेषु तु कं गुणं पुष्पाणि?, अनुपस्थितेष्वपीन्द्रनागादिषु विचित्रत्वात्कर्मपरिणतेः क्षयोपशमापादनाद गुणवत्येवेति यत्किञ्चिदेतत्, प्राणिन आत्मानं वा दण्डयतीति दण्डः,स च मनोवाका यलक्षणः, उपरतो दण्डो येषां ते तथा, तद्विपर्ययेणानुपरतदण्डः, तेषूभयरूपेष्वपि। तत्रोपरतदण्डेषु तत्स्थैर्यगुणान्तराधानार्थ देशना,इतरेषु तूपरतदण्डत्वार्थमिति / उपधीयते-संगृह्यत इत्युपधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिः, भावतो माया। सह उपधिना वर्तन्त इति सोपधिकास्तद्विपर्ययेणानुपधिकारतेष्विति, संयोगः-सम्बन्धः पुत्रकलत्रमित्रादिजनितस्तत्र रताः संयोगर-तास्तद्विपर्ययेणेकत्वभावनाभाविता असंयोगरतास्तेष्विति, तदेवमुभयरूपष्वेपि यद्भगवता यदिशनाऽकारि तत तथ्य-सत्यमे-तदिति, चशब्दो नियमार्थः, मध्यमेवैलदगवद्वचनम् / यथाप्ररूपितवस्तुसद्भावात्तथ्यता वचसो भवतीत्यतो वाच्यमपि तथैवेति दर्शयति-तथा चैतद्वस्तु यथा भगवान् जगाद। यथा-सर्वे प्राणा न हन्तव्या इत्यादि, एवं सम्यग्दर्शनं श्रद्धानं विधेयम्, एतच्चास्मिन्नेव मौनीन्द्रप्रवचने सम्यग्मोक्षमार्गविधायिनि समस्तदम्भप्रबन्धोपरते प्रकर्षणोच्यते प्रोच्यत इति, न तु यथा अन्यत्र 'न हिस्यात्सर्वभूतानी' त्यभिधायान्यत्र वाक्ये यज्ञपशुवधाभ्यनुज्ञानात् पानरबाधेति। (14) तदेवं सम्यक्त्वस्वरूपमभिधाय तदवाप्तौ यद्विधेय तदर्शयितुमाह-- तं आइत्तु न निहे न निक्खिवे जाणित्तु धम्मं जहा तहा, दिटेहिं निव्वेयं गच्छिज्जा, नो लोगस्सेसणं चरे। (सू०१२७) तत-तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनमादाय-गृहीत्वा तत्कार्याकरणतो 'न निह ति-न गोपयेत् तथाविधसंसर्गादिनिमितोत्थापितमिथ्यात्वोऽपि जीवसामर्थ्यगुणान्न त्यजेदपि, यथा वा शैवशाक्यादीना गृहीत्वा व्रतानि पुनरपिव्रतेश्वरयागादिविधिना गुरु-समीपे निक्षिप्योत्प्रव्रजनम, एवं गुर्वादः सकाशादवाप्प सम्यग्दर्शन न निक्षिपेतन त्यजेत, किं कृत्या? - यथा तथाऽवस्थित धर्म ज्ञात्वा श्रुतचारित्रात्मकमवगम्य, वस्तूनां वा,धर्म- रवभावमबुध्येति। तदवगमे तु किं चापर कुर्यादित्याह- 'दिवहिं' इत्यादि दृष्टरिष्टानिष्टरूपैर्निर्वेदं गच्छेद-विराग कुर्यादित्यर्थः, तथाहि--शब्दः श्रुतैः रसैरास्वदितैर्गन्धैराघ्रातैः स्पर्शः स्पृष्टः सद्धिरेवं भावयेत -यथा शुभेतरतापरिणाभवशाद्भवतीत्यतः कस्तेषु रागो द्वषो वति / किं च-'नो लायस्स' इत्यादि, लोकस्य-प्राणिगणस्यैषणाअन्वेषणा इष्टषु-शब्दादिपु प्रतिरनिएषु तु हेयबुद्धिस्तां न चरत-न विदयात। (15) यस्य चैषा लोकेषणा नास्ति तस्यान्याप्यप्रशस्ता मतिनास्तीति दर्शयतिजस्स नत्थि इमा जाई अण्णा तस्स कओ सिया ? दिटुं सुयं मयं विण्णायं जं एवं परिकहिजइ,समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जाई पकप्पंति। (सू० 128) यस्य मुमुक्षोरेषा ज्ञातिः-लोकैषणाबुद्धिः नास्ति-न विद्यते, तस्यान्या सावद्यारम्भप्रवृत्तिः कुतः स्यात्?, इदमुक्तं भवति-भोगच्छारूपां लोकैषणा परिजिहीर्षा व सावद्यानुष्ठानप्रवृत्तिरुपजायते, तदर्थत्वात्तस्या इति, यदिवाइमा-अनन्तरोक्तत्वात् प्रत्यक्षा सम्यक्त्वज्ञातिः प्राणिनो नहन्तव्या इति वा यस्य न विद्यते तस्यान्या अविवेकिनी बुद्धिः कुमार्गसावधानुष्ठानपरिहारद्वारेण कुतः स्यात्? शिष्यमतिस्थैर्यार्थमाह-'दिट्ठ' मित्यादि, यदेतन्मया परिकथ्यते तत्सर्वज्ञेः केवलज्ञानावलोकेन दृष्ट, ततः शुश्रूषुभिः श्रुतं, लघुकर्मणा भव्यानां मतं, ज्ञानावरणीयक्षयोपशमाद्विशेषेण ज्ञातं विज्ञातम्, अतो भवताऽपि सम्यक्त्यादिके मत्कथिते यत्नवता भवितव्यमिति / ये पुनर्यथोक्तकारिणो न स्युः ते कथम्भूता भवेयुरित्याह- 'समेमाणा' इत्यादि, तस्मिन्नेव मनुष्यादिजन्मनिशाम्यन्तोगायेनात्यर्थमासेवां कुर्वन्तः, तथा प्रलीयमानाः-मनोज्ञेन्द्रियार्थेषु पौनःपुन्येनैकेन्द्रियद्वीन्द्रियादिका जाति प्रकल्पयन्ति-संसाराविच्छित्तिं विदधतीत्यर्थः। यद्येवमविदितवेद्याः साम्प्रतक्षिणो यथा जन्मकृतरतय इन्द्रियार्थेषु प्रलीनाः पौनःपुन्येन जन्मादिकृतसन्धाना जन्तवस्ततः किं कर्त्तव्यमित्याह अहो अ राओ य जयमाणे धीरे सया आयथपण्णाणे पमत्ते बहिया पास अप्पमत्ते सया परिक्कमिजासि त्ति बेमि। (सू०१२६) अहश्व रात्रि च सतमान एव यत्नवानेव मोक्षाध्वनि धीर:-परीषहोपरार्गाक्षोभ्यः सदा--सर्वकालम् आगतं-स्वीकृतं प्रज्ञानं -सदसद्विवको यस्य स तथा,प्रमत्तान्-असंयतान् परतीर्थिकान्वा धर्माद्वहिर्व्यवस्थितान् पश्य, ताश्च तथाभूतान् दृष्ट्वा किं कुर्यादित्याह- 'अप्पमन' इत्यादि, अप्रमत्तः सन् निद्राविकथादिप्रमादरहितोऽक्षिनिमेषोन्मेषादावपि सदोपयुक्तः पराक्रमेथाः कर्मरिपून मोक्षाध्वनि वा / इतिरधिकारसमाप्तौ, ब्रवीमीतिपूर्ववत् / इति सम्यक्त्वाध्ययने प्रथमोद्देशकटीका परिसमाता। उक्तः प्रथमोद्देशकः। साम्प्रतं द्वितीयव्याख्या प्रतन्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इह अनन्तरोद्देशके सम्यग्वादः प्रतिपादितः, स च प्रत्यनीकमिथ्याधादव्युदासेनात्मलाभ लभते, व्युदासश्वन परिक्षानमन्तरेण, परिज्ञानं च न विचारमृतं, अतो मिथ्यावादभूततीर्थिकमतविचा-रणायेदमुपक्रम्यते, अनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्येदमा-दिसूत्रम्-'जे आसवा' इत्यादि, यदिवेह सम्यक्त्वमधिकृतं, तच्च सप्तपदार्थश्रद्धानात्मकम्, तत्र मुमुक्षुणाऽवगतशखपरिज्ञाजीवा-जीवपदार्थेन संसारमोक्षकारण निर्णतव्ये, तत्र संसारकारणमारस्रवस्तद् ग्रहणाच बन्धग्रहणं, मोक्षकारणं तु निर्जरा तद्ग्रहणाच्च संवरस्तत्कार्यभूतश्व मोक्षः सूचितो भव Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 461 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त तीत्यत आश्रवनिर्जरे संसारमोक्षकारणभूते सम्यक्त्वविचारायाते दर्शयितुमाह जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा ते आसवा, जे अणासवा ते अपरिस्सवा जे अपरिस्सवा ते अणासवा,एए पए संबुज्झमाणे लोयं च आणाए अभिसमिचा पुढो पवेइयं / (सू० 130) 'य' इति सामान्यनिर्देशः, आश्रवत्यष्ट प्रकारं कर्म ये रारम्भस्त आरस्रवाः, परिः--समन्तात्त्रवति-गलतियैरनुष्ठानविशेषेस्ते परिरावाः, य एवारस्रवाः कर्मबन्धस्थानानि त एवपरिस्रवाः-कर्मनिर्जरास्पदानि। इदमुक्तं भवति--यानि इतरजनाचरितानि स्रगगनादीनि सुखकारणतया तानि कर्मबन्धहतुत्वादास्रवाः, पुनस्तान्येव तत्त्वविदा विषयसुखपराइमुखानां निःसारतया संसारसरणिदेश्यानीति कृत्वा वैराग्यजनकानि अतः परिस्रवाः-निर्जरास्थानानि। सर्ववस्तूनामनैकान्तिकतां दर्शयितुमैतदेव विपर्ययेणाह- 'जे परिस्सवा' इत्यादि,य एव परिश्रवाः-निर्जरास्थानानि-अर्ह साधुतपश्चरणदशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानादीनि तान्येव कर्मोदयावष्टब्धशुभाध्यवसायस्य दुर्गतिमार्गप्रवृत्तसार्थवाहस्य जन्तोमहाशात नावतः सातद्धिरसगारवप्रवणस्यास्रवा भवन्ति-- पापोपादानकारणानि जायन्ते। इदमुक्तं भवति-यावन्ति कम्मनिर्जरार्थ संयमस्थानाति तद्वन्धनायासंयमस्थानान्यपि तावन्त्येव,उक्तं च"यथाप्रकारा यावन्तः, संसारावेशहेतवः / तावन्तस्तद्विपर्यासानिर्वाणसुखहेतवः / / 1 / " तथाहि-रागद्वेषवासितान्तः करणस्य विषयसुखोन्मुखस्य दुष्टाशयत्वात्सर्व संसाराय, पिचुमन्दरसवासितास्यस्य दुग्धशकैरादिकट कत्वापत्तिवदिति / सम्यग्दृष्ट स्तु विदितसंसारोदन्वतः न्यकृतविषयाभिलाषस्य सर्वमशुधि दुःखकारणमिति च भावयतः सजतसंवेगस्येतरजनसंसारकारणमपि मोक्षायेति भावार्थः / पुनरेतदेव गतप्रत्यागतसूत्रं सप्रतिषेधमाह- 'जं अणा-सवा' इत्यादि, प्रसज्यप्रतिषेधस्य क्रियाप्रतिषेधपर्यवसानतया परिसवा इत्यनेन सह सम्बन्धाभावात् पर्युदासाऽयम, आस्रवेभ्योऽन्यऽनास्रवाः-व्रतविशेषाः, तेऽपि कार्मोदयादशुभाध्यवसायिनोऽपरिस्रवाः कर्मणः, कोणार्यप्रभृतीनामिवेति, तथाऽपरिस्रवाः-पापोपादानकारणानि के नचिदुपाधिना प्रवचनापकारादिना क्रियमाणाः कणवीरलताभ्रामकक्षुल्लकस्येवानाखवाः कर्मबन्धनानि न भवन्ति, यदिवा–आसवन्तीत्यायवाः, पचाद्यच एवं परिख बन्तीति परिसवाः, अत्र चतुर्भगिका-तत्र मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैर्य एव कभणामासवाः-बन्धकाः त एवापरेषां परिस्रवाः-निर्जरकाः, एउच प्रथमभङ्गपतिताः सर्वेऽपि संसारिणश्चतुर्गतिकाः, सर्वेषां प्रतिक्षणमुभयसद्धाकत, तथा ये आस्रवास्तेऽपरिखवा इति शून्योऽयं द्वितीयभङ्ग को, बन्धस्य शाटाविनाभाविवाद, एवं यऽनारसवास्ते परिस्रवाः एते चायोगिकेवलिनस्तृतीयभङ्ग पतिताः, चतुर्थ भड़पतितास्तुसिद्धाः, तेषामनारसवत्वादपरिस्रवत्वाचेति, अत्र चाद्यन्तभगको सूत्रोपात, तदुपादाने च मध्योपादानस्यावश्यंभावित्वात् मध्यभ कद्वयग्रहणं द्रष्टव्यमिति / यद्येवं ततः किमित्याह... 'एए पए' इत्यादि, एतानि-अनन्तशक्तानि पद्य-गम्यते येभ्योऽयस्तानि पदानि, तद्यथा-- ये आरखवा इत्यादीनि,परस्य चार्थावगत्यर्थ शब्दप्रयोगादेतत्पदवाच्यान श्व सम्यग- अविपर्यासन बुध्यमानस्तश लोकंजन्तुगणमानवद्वारायातेन कर्मणा बध्यमानं तपश्चरणादिना च मुच्यमानमाज्ञयातीर्थकर - प्रणीतागमानुसारेणाभिसमेत्य-आभिमुख्येन सम्यक् परिच्छिद्य चशब्दो भिन्नक्रमः पृथक् प्रवदितं चाभिसमेत्य पृथगासवोपादानं निर्जरोपादान चेत्येतच ज्ञात्वा को नाम धर्माचरणं प्रति नोद्यच्छदिति?, कथं प्रवेदितमिति ?, तदुच्यते, आस्रवस्तावज्ज्ञानप्रत्यनीकतया ज्ञाननिहवेन ज्ञानान्तरायण ज्ञानप्रद्वेषण ज्ञानात्याशातनया ज्ञानविसंवादेन ज्ञानावरणीयं कर्म बध्यते,एवं दर्शनप्रत्यनीकतया यावद्दर्शनावसंवादेन दर्शनावरणीयं कर्म बध्यते, तथा प्राणिनामनुकम्पनतया भूतानुकम्पनतया जीवानुकम्पनतया सत्त्वानुकम्पनत्वेन बहूनां प्राणिनामदुःखोत्पादनाया अशोचनतया अजूरणतया अपीडनतया अपरितापनतया सातावेदनीय कर्मा बध्यते, एतद्विपर्ययाचासातावेदनीयमिति / तथाऽनन्तानुवन्ध्युत्कटतया तीव्रदर्शनमोहनीयतया प्रबलचारित्रमोहनीयसद्धावान्मोहनीय कर्म बध्यते, महारम्भतया महापरिग्रहतया पोन्द्रियवधात कुणिमाहारेण नरकायुकं बध्यते, मायावितया अनृतवादेन कुटतुलाकूटमानव्यवहारात्तिर्यगायुर्बध्यते, प्रकृतिविनीततया सानुक्रोशतया अमात्सर्यान्मनुष्यायुष्कं, सरागसंयमेन देश-विरत्या बालतपसा अकाभनिजरेया देवायुष्कमिति,कायर्जुतया भावर्जुतया भावजुतया अविसंवादनयोगेन शुभनाम बध्यते, विपर्ययाच विपर्यय इति, जातिकुलबलरूपतपः श्रुतलाभैश्वर्यमदाभावादुःोर्गोत्रं, जात्यादिमदात् परपरिवादाच नीचैर्गोत्रं, दानलाभभागोपभोगवीयन्तिरायविधानादान्तराधिक कार्म बध्यते। एते ह्याखवाः।। साम्प्रतं परिश्रवाः प्रतिपाद्यन्तेअनशनादि सबाह्याभ्यन्तरंतप इत्यादि, एवमास्रवकनिर्जरकाः सप्रभेदा जन्तवो वाच्याः, सर्वेऽपि च जीवादयः पदार्था मोक्षावसाना वाच्याः / एतानि च पदानि सम्बुध्यमानस्तीर्थकरगणधरैलोकमभिसमेत्य पृथक् पृथक् प्रवेदितम्। (15) अन्योऽपितदाज्ञानुसारी चतुर्दशपूर्वविदादिः सत्त्वहि ताय परेभ्य आवेदयतीत्येतद्दर्शयितमाहआघाइनाणी इह माणवाणं संसारपडिवण्णाणं संबुज्झमाणाणं विन्नाणपत्ताणं, अट्टावि संता अदुवा पमत्ता अहा सबमिणं ति बेमि। (सू० 131) ज्ञान सकलपदाविभावकं विद्यते यस्यासी ज्ञानी स आख्यातिआचष्ट इहति प्रवचने केषां?-मानवानां, सर्वसंवरचारित्रार्हत्वात्तेषाम्, अथवापलक्षण चैतद्देवादीनां, (त्रापि केवल्यादिव्युदासाय विशेषणमाह'संसार' इत्यादि, संसारंचतुर्गतिलक्षणं प्रतिपन्नाः संसारप्रतिपन्नाः, तत्रापि ये धार्म भोत्स्यन्ते ग्रहीष्यन्ते च मुनिसुव्रतस्वामिघोटकदृष्टान्तेन तेषामेवाख्यातीत्येतद्दर्शयति- 'सम्बुध्यमानानां' यथोपदिष्टं धर्म सम्य- गवबुध्यमानाना, छदास्थेन त्वज्ञातबुध्यमानेतिरविशेषेण यादृगभूताना कथयितव्यं तान् सूत्रेणैव दर्शयति- 'विज्ञानप्राप्ताना' हिताहितप्राप्तिपरिहारः सवसाया-विज्ञान तत्प्राप्ता विज्ञान-प्राप्ताः, समस्त Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 462 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त पर्याप्तिभिः पर्याप्ताः, संज्ञिन इत्यर्थः, नागार्जुनीयास्तु पटन्ति"आघाइधम्म खलु से जीवाणं, तं जहा-संसारपडिवन्नाणं माणुसभवस्थाण आरंभविणईणं दुक्खुव्वेअसुहेसगाणं धम्मसवणगवे सयाण सुस्सूसमाणाणं पडिपुच्छमाणाणं विण्णाणपत्ताण” एतच्च प्रायो गतार्थमेव, नवरमारम्भविनयिनामित्यारम्भविनयः--आरम्भाभावः स विद्यते येषामिति मत्वर्थीयस्तेषामिति / यथा च ज्ञानी धर्ममाचष्टे तथा दर्शयति'अट्टा वि' इत्यादि, विज्ञान प्राप्ता धर्भ कथ्यमानं कुतश्चिन्निमित्तादार्ता अपि सन्तः चिलातिपुत्रादय इव, अथवा-प्रमत्ता विषयाभिष्वङ्गादिना शालिभद्रादय इव तथाविधकर्मक्षयोपशमापर्यथा प्रतिपद्यन्ते तथाऽऽचष्ट यदिवाऽऽर्ताः-दुःखिनःप्रमत्ताः-सुखिनः, तेऽपि प्रतिपद्यन्ते धर्मं किं पुनरपरे?, अथवा-आर्त्ताः-रागद्वेषोदयेन प्रमत्ता विपयैः, तेच तीर्थका गृहस्था वा संसारकान्तारं विशन्तः कथं भवतां विज्ञातज्ञेयाना करुणास्पदानां रागद्वेषविषयाभिलाषोन्मूलनाय न प्रभवन्ति / एतच्चान्यथा मा मंस्था इति दर्शयितुमाह- 'अहासच' मित्यादि, इदं यन्मया कथित कथ्यमानं च तद्यथा-सत्यं याथातथ्यमित्यर्थः इत्येतदहं ब्रवीमि, यथा दुर्लभमवाप्य सम्यक्त्वं चारित्रपरिणाम वा प्रमादो न कार्यः आचा० 1 श्रु० 4 अ० 2 उ० / (धर्मविषयवक्तव्यता 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2687 पृष्ठे उक्ता।) (13) परमतव्युदासद्वारेण सम्यक्त्वमविचलं प्रतिपादयता रात्सहचरित ज्ञानं तत्कलभूता च विरतिरभिहिता, सत्यपि चास्मिंस्त्रये न | पूर्वोपात्तकम्मों निरवद्यतपोऽनुष्ठानमन्तरेण क्षयो भवतीत्यतस्तदधुना प्रतिपाद्यत इत्यनेन सम्बन्धेनायतस्यास्यो देशकस्यादि सूत्रम्उदेहि णं बहिया य लोग,से सव्वलोगम्मि जे केइ विष्णु, अणु-वीए पास निक्खित्तदंडा,जे केइ सत्ता पलियं चयंति, नरा मुयच्चा धम्मविउ त्ति अंजू, आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा, एवमाहु सम्म-त्तदं सिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स कु सला परिण्णमुदाहरंति इय कम्मं परिण्णाय सव्वसो। (सू० 134) योऽयमन्तरं प्रतिपादितः पाण्डिलोक एनं धद्विहिर्व्यवस्थितमुपेक्षस्वतदनुष्ठानं मा अनुमस्थाः , चशब्दोऽनुक्तसमुच्चयार्थः, तदुपदेशमभिगमनपर्युपासनदानसंस्तवादिकं च मा कृथा इति / यः पाषण्डिलोकोपेक्षकः स कं गुणमवाप्नुयादित्याहे- 'से सव्व-लोए' इत्यादि, यः पापण्डिलोकमनार्यवचनमवगम्य तदुपेक्षां विधत्ते स सर्वस्मिँल्लाकमनुष्यलोके ये फेचिद्विद्वांसस्तभ्योऽग्रणी-विद्वत्तम इति स्यात, लोके केचन विद्वांसः सन्ति? येभ्योऽधिकः स्यादित्यत आह'अणुवीई' इत्यादि, ये केचन लोके निक्षिप्तदण्डाः-निश्चयेन क्षिप्तो निक्षिप्तः परित्यक्तः कायमनोवाड़ गयः प्राण्युपधातकारी दण्डो यैस्ते विद्वांसो भवन्त्येव एतदनुविचिन्त्य पर्यालोच्य पश्य-अवगच्छ। के चोपरतदण्डा इत्यत आह- 'जे केई' इत्यादि, ये केचनावगतधर्माणः सत्त्वाः-प्राणिनः 'पलित' गिति कर्म तत्त्यजन्ति, य चापरसदा भूत्वाऽष्ट प्रकार कर्म घन्ति ते विद्वांस इत्येतदनुविचिन्त्यअक्षिनिमीलनेन पर्यालोच्य पश्य-विवेकिन्या मत्याऽवधारय / के पुनरशेषकर्मक्षयं कुर्वन्ति? इत्यत आह–'नरे' इत्यादि नराः-मनुष्यास्त एवाशेषकर्मक्षयायलं नान्ये, तेऽपि न सर्वे अपि तु मृतार्तामृतेव मृता संस्काराभावा-दर्चा शरीरं येषां ते तथा, निष्प्रतिकर्मशरीरा इत्यर्थः, यदिवा-अर्चा-तेजः, सच क्रोधः, सच कषायोपलक्षणार्थः, ततश्चाय-- मों -मृता-विनष्टा अर्चा कषायरूपा येषां ते मृतार्चाः, अकषायिण इत्यर्थः किं च धर्मम्-श्रुतचारित्राख्यं विदन्तीति धर्मविदः, इति हेतो. यत एव धर्मविदोऽत एव ऋजवः-कौटिल्यरहिताः / स्यादेतत्किमालम्ब्येतद्विधेयमित्यत आह–'आरंभज' मित्यादि, सावधक्रियानुष्ठानमारम्भस्तस्माजातमारम्भज, किं तद्?-दुःखमिदमिति सकलप्राणिप्रत्यक्षं. तथाहि-कृषिसेवावाणिज्याद्यारम्भप्रवृत्तो यच्छारीरमानस दुःखमनुभवति तद्वाचा-मगोचरमित्यतः प्रत्यक्षाभिधायिनदमुक्तम् / 'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येतदनुभवसिद्धं दुःखं ज्ञात्वामृताचा धर्मविद ऋजवश्व भवन्तीति। एतच्च समस्तवेदिनो भाषन्त इति दर्शयति- 'एव' मित्यादि, एवम्-पूर्वोक्तप्रकारेण आहुः उक्तवन्तः, के एव-माहुः? समत्वदर्शिनः-सम्यक्त्वदर्शिनः समस्तदर्शिनो वा, यदुद्देशकादेरारभ्योक्त तदेवमुचुरित्यर्थः, कस्मात्त ऊचुरित्याह-'ते सव्वे' इत्यादि, यस्मात्ते सर्वेऽपि सर्वविदः 'प्रावादिकाः' प्रकर्षण मर्यादया वदितु शील येषां ते प्रावादिनः त एव प्रावादिकाः-यथावस्थितार्थस्य प्रतिपादनाय वावदूकाः, दुःखस्यशारीरमानसलक्षणस्य तदुपादानर य वा कर्मणः कुशला-निपुणास्तदपनोदोषायवेदिनः सन्तः ते सर्वेऽपि ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय हेयार्थस्य प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्ति, 'इतिः' उपप्रदर्शने, इत्येव पूर्वोक्तनीत्या कर्मबन्धोदयसत्कर्मताविधानतः परिज्ञाय सर्वशःसवः प्रकारैः कुशलाः प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्ति, यदिवा-मूलोत्तरप्रकृतिप्रकारैः रावैः परिज्ञायेति मूलप्रकारा अष्टौ उत्तरप्रकृतिप्रकारा अष्ट पक्षाशदुत्तरं श-तम्, अथवा-प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशप्रकारः, यदिवा उदय--प्रकारर्बन्धसत्कर्मताकार्यभूतैरागामिबन्धसत्कर्मताकारणैश्च कर्म परिज्ञायेति, ते चामी उदयप्रकाराः, तद्यथा-मूलप्रकृतीनां त्रीण्युदयस्थानानि, अष्टविध सप्तविध चतुर्विधमिति, तत्रापि कर्मप्रकृतीयोगपद्येन वेदयतोऽष्टविधं, तच कालतोऽनादिकमपर्यवसितमगव्यानां, भव्यानां त्वनादिसपर्यवसितं सादिसपर्यवसितं चेति, मोहनीयोपशमे क्षये वा सप्तविधं, घातिक्षये चतुर्विधमिति ।।साम्प्रतमुत्तरप्रकृतीनामुदयस्थानान्युच्यन्ते-तत्र ज्ञानावरणीयान्तराययोः पक्षप्रकार एकमुदयस्थानं, दर्शनावरणीयस्य द्वे,दर्शनचतुष्कस्योदयाच्चत्वारि अन्यतरनिद्रया सह पञ्च, वेदनीयस्य सामान्येनैकमुदयस्थप्नं सातमसात वेति, विरोधाद्यौगपद्योगदयाभावः, मोहनीयस्य सामान्येन नवोदयरथानानि, तद्यथा-दशनव अष्टौ सप्तषट्पञ्च चत्वारिद्वे एकंचेति, तत्र-दश मिथ्यात्वं 1 अनन्तानुबन्धी क्रोधोऽपत्याख्यानः प्रत्याख्यान्नावरणः संव्व Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 463 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 लनश्चेत्येतत्क्रोधचतुष्टयम् 5 एवं-मानाऽऽदिचतुष्टयमपि योज्यम् अन्यतरो वेदः 6 हास्यरतियुग्म अरतिशोकयुग्मं वा 8 भयं 6 जुगुप्सा 10 चेति,भयजुगुप्सयारन्यतरभावे नव, द्वयाभावेऽष्टौ, अनन्तानुबन्ध्यभाव सप्त, मिथ्याचाभावे षट्, अप्रत्याख्यानोदयाभावे पञ्च, प्रत्याख्यानावरणाभावे चत्वारि, परिवर्त्तमानयुगलाभावे संज्ज्वलनान्यतरवेदादये सति द्वे, वेदाभाचे एकमिति, आयुषोऽप्यकमेवीदयस्थानं चतुर्णामायुपामन्यतरदिति, नाम्नो द्वादशोदयस्थानानि, तद्यथा-विंशतिः एकविंशतिः चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिः षड्विंशतिः सप्तविंशतिः अष्टाविंशतिः एकोनत्रिंशत् त्रिंशत् एकत्रिंशत् नव अष्टो घेति, तत्र संसारस्थानां सयोगिना जीवानां दशोदयस्थानानि नाम्रो भवन्ति अयोगिनां तु चरमद्यमिति / अत्र च द्वादश ध्रुवोदयाः कर्मप्रकृतयः, तद्यथा-तैजस-कार्मणे शरीरे 1-2 वर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टयम्, 6 अगुरुलघु७ स्थिरम् 8 अस्थिर शुभम् 10 अशुभं 11 निर्माण 12 मिति। तत्र विंशतिरतीर्थकरकेवलिनः समुद्धातगतस्य कार्मणशरीरयोगिनो भवति, तद्यथा--मनुष्यगतिः 1 पञ्चेन्द्रियजातिः२ असं 3 बादरं 4 पर्याप्तकं 5 सुभगम् 6 आदय 7 यशःकीर्तिरिति र ध्रुवो-दय 12 सहिता विंशतिः२०, एकविंशत्यादीनि तूदयस्थानानि एकत्रिंशत्पर्यन्तानि जीवगुणस्थानभेदादनेकभेदानि भवन्ति. तानि चेह ग्रन्थगौरवभयात् प्रत्येकं नोच्यन्त इत्यत एकैकभेदावेदनं क्रियते, तत्रैकविंशतिः गतिः 1 जातिः 2 आनुपूर्वी 3 त्रसं 4 बादरं 5 पर्याप्तापर्याप्तयोरन्यतरत् 6 सुभग दुर्भगयोरन्यतरत 7 आदेयानादेययोरन्यतरत् 8 यशः कीय॑यशः कीयोरन्यतरत् 6, एताश्च नव ध्रुवोदय 12 सहिता एकविंशतिः 21, चतुर्विशतिस्तु तिर्यग्गतिः 1 एकेन्द्रियजातिः 2 औदारिकं 3 हुण्डसंस्थानम् 4 उपघातं 5 प्रत्येकसाधारणयोरन्यतरत् 6 स्थावर 7 सूक्ष्मबादरयो-रन्यतरत 8 दुर्भगम् 6 अनादेयम् 10 अपर्याप्तकं 11 यशःकीर्त्ययशः कीत्यारन्यतर 12 दिति / तत्रैवापर्याप्तकापनयने पार्याप्तकपराघाताभ्यां प्रक्षिप्ताभ्यां पञ्चविंशतिः 25, षड्विंशतिस्तु याऽसौ के वलिनो विशतिरभिहिता सैबौदारिकशरीराङ्गोपाङ्गद चान्यतरसंस्थानाधसंहननोपधातप्रत्येकसहिता वेदितव्या मिश्रकाययोगे वर्तमानस्य २६,सैव तीर्थकरनामसहिता के वलिसमुद्घातवतो मिश्रकाययोगिन एव सप्तविंशतिः 27, सैव प्रशस्तविहायोगतिसमन्विताऽष्टाविंशतिः 28 तत्र तीर्थकरनामापनयने उच्छास 1 सुस्वर २पराधात 3 प्रक्षपे सति त्रिंशद्भवति 30 तत्र सुस्वरे निरुद्ध एकोनत्रिंशत् 26 सैव त्रिशतीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् 31, नवोदयस्तुमनुष्यगतिः १पशेन्द्रियजातिः 2 त्रस 3 बादरं 4 पर्याप्तकं 5 सुभगम् 6 आदेयं 7 | यशःकीर्ति 8 स्तीर्थकरमिति , एता आयोगितीर्थकरकेवलिनः,एता एव तीर्थकरनामरहिता अष्टाविति 8. गोत्रस्यैकमेव सामान्ये नोदयस्थानम, उचनीचयोरन्यतरद् यौगपद्येनोदयाभावो विरोधादिति / तदेवमुदयभेदैरनेकप्रकारतां कर्मणः परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञामुदाहरन्तीति। (17) यदि नाम कर्मपरिज्ञामुदाहरन्ति ततः किं कार्यमित्याहइह आणाकंखी पंडिए अणिहे,एगमप्पाणं संपेहाए धुणे सरीरं, | कसेहि अप्पाणं,जरेहि अप्पाणं-जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थइ / एवं अत्तसमाहिए अणिहे, विगिंच कोहं अविकंपमाणे / (सू० 135) इह-अस्मिन् प्रवचने आज्ञामाकाजितुं शीलमस्येति आज्ञाकाङ्सी सर्वज्ञोपदेशनुष्ठयी, यश्चैवम्भूतः सपण्डितो विदितवेधः अस्निहो भवति, स्निहातेश्लिष्यतेऽष्ट प्रकारेण कर्मणेति स्निहो न स्निहोऽस्निहः, यदिवा-स्निह्यतीति स्निहो रागवान् यो न तथा सोऽस्निहः उपलक्षणार्थत्याचास्य रागद्वेषरहित इत्यर्थः / अथवा-निश्चयेन हन्यत इति निहतः भावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मभिः,यो न तथा सोऽनिहतः इह प्रवचने अशाकाजी पण्डितो भावरिपुभिरनिहतो, नान्यत्र, यशानिहतः स परमार्थतः कर्मणः परिज्ञाता / यश्चैवम्भूतः स किं कुर्यादित्याह'एगमप्पाण, मित्यादि, सोऽनिहतोऽस्निहो वा आत्मानमेकं धनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रशरीरादिव्यतिरिक्तं संप्रेक्ष्यपर्यालोच्य धुनीयाच्दरीरक, सम्भावनायां लिङ्, सर्वस्मादात्मानंव्यतिरिक्तं पश्यतः सम्भाव्यतएतछरीरविधूननमिति / तच कुर्वता संसारस्वभावैकत्वभावनैवंरूपा भावयितव्येति"संसार एवायमनर्थसारः, कः कस्य कोऽत्र स्वजनःपरोवा? सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परेच, भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः।।१।। विचिन्त्यमेतद्भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात्। स्वकर्मभिमन्तिरिय ममैव, अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् // 2 // सदेकोऽहं न मे कश्चित, नाहभन्यस्य कस्यचित्। न तं पश्यामि यस्याहं, नासौ भावीति यो मम॥३॥" तथा"एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम्। जायत म्रियते वैक, एको याति भवान्तरम्॥१॥" इत्यादि,किंच--'कसेहि अप्पाणं जरेहि अप्पाणं परव्यतिरिक्त आत्मा शरीरं तत् कष्टतपश्चरणादिना कृशं कुरु,यदिवा-कष-करमै कर्मणेऽलमित्येवं पर्यालोच्य यच्छक्रोषि तत्र नियोजयेदित्यर्थः, तथा जरशरीरकं जरीकुरु, तपसा तथा कुरु यथा जराजीर्णमिव प्रतिभासते, विकृतिपरित्यागद्वारेणात्मानं निःसारतामापादयेदित्यर्थः, किमर्थमित्येतदिति। चेदाह- 'जहा' इत्यादि,यथा जीर्णानि-निःसाराणि काष्ठानि हव्यवाहो हुतभुक्मनाति-शीघ्रं भस्मसात् करोति, दृष्टान्त प्रदर्श्य दान्तिकमाह- 'एव' अत्तरामाहिए एवम्-अनन्तरोक्तदृष्टान्तप्रकारेणात्मना समाहितः आत्मसमाहितः, ज्ञानदर्श नचास्त्रिोपयोगेन सदोपयुक्त इत्यर्थः, आत्मा वा समाहितोऽरयेत्यात्मसमाहितः,सदाशुभव्यापारवानित्यर्थः, आहिताम्यादिदर्शनादार्षत्वाद्वा निष्ठान्तस्य परनिपातः, यदिवाप्राकृते पूर्वोत्तरनिपातोऽतन्त्रः, समाहितात्मेत्यर्थः। अस्निहःस्नेहरहितः संस्तपोऽग्निना कर्मकाष्ट दहतीति भावार्थः। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 464 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त (18) एतदेव दृष्टान्तदान्तिकगतमर्थ नियुक्तिकारो गाथयोपसञ्जिघृक्षुराहजह खलु झुसिरं कट्ठ,सुचिरं सुक्कं लहुँ डहइ अग्गी। तह खलु खवंति कम्म, सम्मचरणे ठिया साहू ||234 / / गतार्था / अत्र चारिनहपदेन रागनिवृत्तिं विधाय द्वेषनिवृर्त्ति विधित्सुराह- "विगिच कोह' मित्यादि,कारणेऽकारणे वाऽतिफराध्यवसायः क्रोधः तं परित्यज, तस्य च कार्य कम्पनं तत्प्रतिषेध दर्शयति-अधिकम्पमानः। (16) किं विगणय्यैतत्कुर्यादित्याहइमं निरुद्धाउयं संपेहाए,दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो | फासाइंच फासे, लोयं च पास विफंदमाणं,जे निव्वुडा पायेहिं कम्मे हिं अणियाणा ते वियाहिया, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंजलिज्जासि त्ति बेमि / (सू०१३६) इदं-मनुष्यत्वं निरुद्धायुष्कं-निरुद्ध-परिगलितमायुष्कं सम्प्रेक्ष्यपर्यालोच्य क्रोधादिपरित्यागं विदध्यात्, किं च.--'दुक्ख' मियादि क्रोधादिना दन्दह्यमानस्य यन्मानरां दुक्खमुत्पद्यते तानीहि, तजनितकर्मविपाकापादितं चागामि दुःखं सम्प्रेक्ष्य क्रोधादिकं प्रत्याख्यानपरिज्ञया जानीहि, परित्यजेरित्यर्थः आगामिदुःखस्वरूपमाह'पुढो' इत्यादि, पृथक् सप्तपनरकपृथिवीसम्भवशीतोष्णवेदनाकुम्भीपाकादियातनास्थानेषु स्पर्शान-दुःखानि, चः समुच्चये, न केवलं | क्रोधाध्मातस्तस्मिन्नेव क्षणे दुःखमनुभवतीत्यगामीनि पृथक् दुःखानि / स्पृशद्-अनुभवेत,तेन चातिदुःखेनापरोऽपि लोको दुःखित इत्येतदाह-'लोय च' इत्यादि, न केवलं क्रोधादिविपाकादात्मा दुःखान्यनुभवति, लोकं च शारीरमानसदुःखापन्नं विस्पन्दमानमस्वतन्त्र-- मितश्वेतश्च दुःखप्रतीकाराय धावन्तं पश्य-विवेकचक्षुषाऽवलोकय / ये त्वेवं न ते किम्भूता भवन्तीत्यत आह.- 'जे निबुडा' इत्यादि, ये तीर्थकरोपदेशवासितान्तःकरणा विषयकषायाग्न्युपशगानिवृताःशीतीभूताः पापेषु कर्मसु अनिदानाः- निदानरहितास्ते परमसुखास्पदतया व्याख्याताः, औपशमिकसुरखभाक्त्वेनप्रसिद्धा इत्यर्थः, यत एवं ततः किमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यरमादागद्वेषाभिभूतो दुःखभाग्भवति तस्मादतिविद्वान विदितागमसद्धावः सन्न प्रतिराज्वले:-क्रोधागिना..मान नोद्दीपयेः, कषायोपशमं कुर्वित्यर्थः / इतिरधिकारपरिसमाप्ती, बीमीति पूर्ववत्,सम्यक्त्वाध्ययने तृतीयोद्देशकटीका समाप्तेति। उक्तस्तृतीयोद्देशकः। साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-इहानन्तरोद्देशक निरवा लपोऽभिहित,तचाविकल सत्संयमव्यवस्थितस्य भवती यतः संयमप्रतिपादनाय चतुर्थाशक इत्यनेन सम्वन्धे-नायातस्यास्थोद्देभस्यादि सूत्रम् आवीलए पवीलए निप्पीलए जहित्ता पुव्वसंजोगं हिच्चा उवसम, तम्हा अविमणे वीरे, सारए समिए सहिए सया जए, दुरणुचरो मग्गो वीराणं अनियट्ठगामिणं, विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दविए वीरे, आयाणिज्जे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि। (सू० 137) आङ्गीषदर्थे ईषत्पीडयेद् अविकृष्टन तपसा शरीरकमापीड्येद् एतच्च प्रथमप्रव्रज्याऽवसरे, तत ऊर्द्धमधीतागमः परिणतार्थसद्भावः सन् प्रकर्षण विकृष्टतप सा पीडयेत्प्रपीडयेत्, पुनरध्यापितान्तेवासिवर्गः संक्रामितार्थसारः शरीर तितिक्षुर्मासार्द्धमासक्षपणादिभिः शरीरं निश्चयेन पीडयेन्निपीडयेत. स्यात्-कर्मक्षयार्थ तपोऽनुष्ठीयते। स च पूजालाभख्यात्यर्थेन तपसा न भवत्यतो निरर्थक एव शरीरपीडनोपदेश इत्यतोऽन्यथा व्याख्या-यते-कम्मैव कार्मणशरीरं वा आपीडयेत्प्रपीडयेन्निष्पीडयेत, अत्रापीषदादिका प्रकर्षगतिरवसेया, यदिवा-आपीडयेत्कर्म अपूर्दकरणादिकेषु सम्यग् दृष्ट्यादिषुगुणस्थानकेषु, ततोऽपूर्व करणानिवृत्तिबादरयोः प्रपीडयेत्, सूक्ष्मसम्परायावस्थायां तु निष्पीडयेत्, अथवा-आपीडनमुपशमश्रेण्यां, प्रपीडनं क्षपक श्रेण्या निष्पीडनं तु शेलंश्यवस्थायामिति / किं कृत्वैतत्कुर्यादित्याह- 'जहित्ता' इत्यादि, पूर्वः संयोगः पूर्वसंयोगोधनधान्यहिरण्यपुत्रकलत्रादिकृतस्तं त्यक्त्वा, यदिवा-पूर्वः असंयमोऽनादिभवाभ्यासात्तेन संयोगः पूर्वसयोगस्तं त्यक्त्वा 'आवीलये' दित्यादिसम्बन्धः, किं च- 'हिचः' इत्यादि, हि गतावित्यरगात् पूर्वकाले क्त्वा हित्वा- गत्या किं तत?-उपशमम्इन्द्रियनो-इन्द्रियजयरूपं सयम वा गत्वाप्रतिपद्यापीडयेदिति वर्तते / इद-मुक्त भवति-असंयम त्यक्त्वा संयम प्रतिपद्य तपश्चरणादिनाऽऽल्मानं कर्म वाऽऽपीडयेत् प्रपीडयेन्निष्पीडयेदिति, यतः कर्मापीडनार्थमुपशमप्रतिपत्तिस्तत्प्रतिपत्तौ चाविमनस्कतेत्याह-'तम्हा' इत्यादि, यरमात्कर्मक्षयायासंयमपरित्यागस्तत्परित्यागे चावश्यंभावी संयमस्तत्र च न चित्तवैमनस्यमिति, तस्मादविमना विग भोगकषायादिष्वरतो वा मनो यस्य स विमना यो न तथा सोऽविमनाः, कोऽसौ?, वीरः-कर्मविदारणसमर्थः, अविमनस्कत्वाच यत्स्यात्तदाह- 'सारए' इन्यादि, सुष्ट्या-जीवनमर्यादया संयमानुष्टाने रतः स्वारतः, पञ्चभिः समितिभिः समितः, सह हितेन सहितो ज्ञानादिसमन्वितो वा सहितः, रादा- सर्व-कालं सकृदारोपितसंयमभारः संस्तत्र यतेत--यत्नवान भवेदिति / किमर्थ पुनः-पौनःपुन्येन संयमानुष्ठानं प्रत्युपदेशो दीयते? इत्याह- 'दुरनुचरो' इत्यादि, दुःखेनानुचर्यते इति दुरनुचरः, कोऽसौ?-मार्गः-संयमानुष्ठानविधिः, केषां? वीराणाम्--अप्रमत्त - यतीना, किम्भूतानामित्याह-- 'अणियट्ट' इत्यादि, अनिवर्तोमोक्षरतत्र गन्तुं शील येषां ते तथा तेषामिति, यथा च तन्मार्गानुचरणं कृतं भवति तदर्शयति- "विगिंच' इत्यादि, मांसशोणितंदप्र्पकारि विकृष्टतपोऽनुष्ठानादिना विवेचय-पृथक्कुरु, तद्धास विधेहीति यावत्, एवं वीराणां मार्गानुचरणं कृतं भवतीति भावः / यश्चैवम्भूतः स के गुणमवाप्नुयादित्याह– 'एस' इत्यादि, एष- मांसशोणितयोरपनेता पुरि शयनात् पुरुपः द्रवः-संयमः स विद्यते यस्यासौ द्रविकःमत्वर्थीयष्टन, Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 465 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त द्रव्यभूतो वा मुक्तिगमनयोग्यत्वात्, कर्मरिपुविदारणसहिष्णुत्वतीर इति, मांसशाणितापचयप्रतिपादनाच तदुत्तरेषामपि मेद-आदीनामपचय उक्त एवं द्रष्टव्यः, नद्भावभावितत्वात्तेषामिति / किं च- 'आयाणिजे' इत्यादि, स वीराणां मार्ग प्रतिपन्नः मांसशोणितयोरपनेता मुमुक्षूणामादानीयो-ग्राहा अदेयवचनश्च व्याख्यात इति / कश्चैवम्भूत इल्याह-- 'जे धुणइ' इत्यादि, 'ब्रह्मचर्ये' संयम मदनपरित्यागे वोषित्वा यः समुच्छ्रयं-शरीरकं कॉपवयं वा तपश्चरणादिना धुनातिकृशीकरोति स आदानीय इति विविध-माख्यातो व्याख्यात इति सम्बन्धः। (20) उक्ता अप्रमत्ताः, तद्विधर्माणस्तु प्रमत्तानभिधित्सुराहनित्तेहिं पलिच्छिन्नेहिं आयाणसोयगढिए बाले, अव्वोच्छिन्नबंधणे अणभिक्कंतसंजोए तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो नत्थि त्ति बेमि। (सू० 138) नयत्यर्थदेशम्-अर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्तीति नेत्राणिचक्षुरादीनीन्द्रियाणि तःपरिच्छिन्नैः यथास्वं विषयग्रहणं प्रति निरुद्धः सद्भिरादानीयोऽपि भूत्वोषित्वा ब्रह्मचर्ये पुनर्मोहोदयादादानस्रोतो गृद्धःआदीयते--सावद्यानुष्ठानेन स्वीक्रियत इत्यादानंकम्भ संसारबीजभूत तस्य स्रोतांसि-इन्द्रियविषया मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोना वा तेषु गृद्धः-अध्युपपन्नः स्यात्, कोऽसौ?-'बालः' अज्ञः रामद्वेषमहामोहाभिभूतान्तः करणः / यश्वादानस्रोतोगद्धः स किम्भूतः स्यादित्याह- 'अव्योच्छिन्नबंधणे' इत्यादि, अव्यवच्छिन्नं जन्मशतानुवृत्ति बन्धनम्-अष्टप्रकार कर्म यस्य स तथा, किं च- 'अणभिक्कत' इत्यादि, अनभिक्रान्तःअनतिलजितः संयोगोधनधान्यहिरण्यपुत्रकलबादिकृतोऽसयमसंयोगो वा यनासाटनभिक्रान्तसंयोगः तस्य चैवम्भूतस्येन्द्रियानुकूल्यरूपे मोहात्मके या तमसि वर्त्तमानस्यात्महित मोक्षोपायं वाऽविजानत आज्ञायाः-तीर्थकरोपदेशस्य लाभो नास्तीत्येतदहं ब्रवीमि तीर्थकरवचनापलब्धसद्भाव इति, यदि वाआज्ञाबोधिः सम्यक्त्वम्, अस्तिशब्दशायं निपातरित्रकालविषयी, तेनायमर्थः-तस्यानभिक्रान्तसंयोगस्य भावतमसि वर्तमानरय बोधिलाभो नासीन्नास्ति न भावीति। एतदेवाहजस्स नत्थि पुरा पच्छा मज्झे तस्स कुओ सिया?, से हु पन्ना-णमंते बुद्धे आरंभोवरए, संममेयं ति पासह, जेण बंध वहं घोरं परियावं च दारुणं परिलछिंदिय बाहिरगं च सोयं, निक्कम्मदंसी इह मचिएहिं, कम्माणं सफलं दळूण तओ निजाइ वेयवी। (सू० 136) यस्य कस्यचिदविशेषितस्य कदिानस्रोतोगृद्धस्य बालस्या-- व्यवच्छिन्नबन्धनस्यानभिक्रन्तसंयोगस्य ज्ञानतमसि वर्तमानस्य पुरा-- पूर्वजन्मनि बोधिलाभो नास्तिसम्यक्त्वं नासीत् 'पश्चा-दपि' 'एष्येऽपि जन्मनि न भावि मध्यमध्यजन्मनि तस्य कुतः स्यात् इति?. एतदुक्तं भवति--यस्यैव पूर्व बोधिलाभः संवृत्तो भविष्यति वा तस्यैव वर्तमानकाले भवति, येन हि सम्यक्त्वमास्वादितं पुनर्मिथ्यात्वोदयात्तत्प्रच्यषते तस्यापार्द्धपुद्गलपरावर्तेनापि कालेनावश्यं ततसद्भावात्, न ह्ययं सम्भवो रितप्रच्युतरय सम्यक्त्वस्य पुनरसम्भवएवेति। अथवा-निरुद्धेन्द्रियोऽपि आदानसोतो गृद्ध इत्युक्तः, तद्विपर्ययभूतस्य त्वतिक्रान्तसुखस्मरणमकुर्वतः आगामि च दिव्याङ्गनाभोगमनभिकाङ्गतो वर्तमा-- नसुखाभिष्वङ्गोऽपि नैव स्यादित्येतद्दर्शयितुमाह- 'जस्स नत्थि' इत्यादि, यस्य भोगविपाकवेदिनः पूर्वभुक्तानुस्मृति स्ति नापि पाश्चात्यकालभोगाभिलाषिता विद्यते तस्य व्याधिचिकित्सारूपान् भोगान भावयतो मध्येवर्तमानकाले कुतो भोगेच्छा स्यात्?, मोहनीयोपशमान्नेव स्यादित्यर्थः / यस्य तु त्रिकालविषया भोगेच्छा निवृत्ता स किम्भूतः स्यादित्याह- ‘से हु' इत्यादि, 'हुः' यस्मादर्थे, यस्मान्निवृत्तभोगाभिलाषस्तस्मात्स प्रज्ञानवान्-प्रकृष्ट ज्ञान प्रज्ञानं-जीवाजीवादिपरिच्छेत्तृ तद्विद्यते यस्यासौ प्रज्ञानवान्, यत एव प्रज्ञानवानत एव बुद्धःअवगत-तत्त्वो, यत एवम्भूतोऽत एवाह-'आरंभोवरए सावधानुष्ठानमारम्भस्तरमादुपरत आरम्भोपरतः / एतच्चारम्भोपरमणं शोभनमिति दर्शयन्नाह.. 'सम्म' मित्यादि, यदिदं सावद्यारम्भोपरमणं सम्यगेतत्शोभनमेरात सम्यक्त्वकार्यत्वाद्वा सम्यक्त्वमेतदित्येव पश्यत--एवं गृह्णीत यूयमिति / किमित्यारम्भीपरमण सम्यगिति चेदाह-'जेण' इत्यादि, येन कारणेन सावद्यारम्भप्रवृत्तो बन्धं निगडादिभिः वधं कशादिभिः घोरप्राणसंशयरूपं परितापशारीरमानसं दारुणम्-असह्यमवाप्नोत्यत आरम्भोपमरमणं सम्यग्भूतं कुर्यात् / किं कृत्वेत्याह- 'पलिच्छिन्दि' इत्यादि, परिच्छिन्द्य-अपनीय, किं तत्?-स्रोतः- पापोपादानं, तच्च बाहा धनधान्यहिरण्यपुत्रकलादिरूप हिंसाद्याश्रवद्वारात्मकं वा, चशब्दादान्तरं च रागद्वेषात्मक विषयपिपासारूपं वेति, किंच-'णिक्कम्मदसी' त्यादि, निष्क्रान्तः कर्मणो निष्कमिोक्षः संवरो वा तं द्रष्टु शीलमस्येति निष्कर्मदर्शी, इहेतिसंसारे मर्येषु मध्ये य एव निष्कर्मदशी स एव बाह्याभ्यन्तरस्रोतसश्छेत्ते ति स्यात्। किमभिसन्ध्य स बाह्याभ्यन्तरसंयोगस्य छेत्ता निष्कर्मदर्शी वा भवेत् इत्यत आह- 'कम्माण' इत्यादि, मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगैः क्रियन्ते-बध्यन्त इति कर्माणि-ज्ञानावरणीयादीनि तेषा सफलत्वं दृष्ट्वा स वा निष्कर्मदर्शी वेदविद्वा कर्मणां फलं दृष्ट्वा तेषां च फलंज्ञानावरणीयस्य ज्ञानावृत्तिः दर्शनावरणस्य दर्शनाच्छादनं वेदनीयस्य विपाकोदयजनिता वेदनेत्यादि, ननु च न सर्वेषां कर्मणां विपाकोदयमिच्छन्ति, प्रदेशानुभवस्यापि सद्भावात् तपसा च क्षयोपपत्तेरित्यतः कथं कार्मणां सफलत्वं?, नैष दोषो, नात्र प्रकारकात्रयंमभिप्रतम्, अपितु द्रव्यकात्यंतचास्त्येव तथाहि यद्यपि प्रतिबन्धव्यक्ति न विषाकोदयस्तथाप्यष्टानामपि कर्मणा सामान्येन सोऽस्त्येवेत्यतः कर्मणा सफलत्वमुपलभ्यते. तस्मातकर्मणस्तदुपादानादास्रवाद्वा निश्चयेन याति निर्यातिनिर्गच्छति, तन्न विधत्त इति यावत्, कोऽसौ?-'वेदविद्' वे Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त द्यते सकल चराचरमनेनेति वेदः-आगमस्तं वेत्तीति वेदवित, सर्वज्ञोप- बलामिओगेणं देवयाभिओगेणं गुरुनिगहेणं वित्तिकतारेणं से देशवीत्यर्थः। अ सम्मत्ते पसत्थसम्मत्त मोहणीअकम्माणुवेअणोवसमख[२१] न केवलस्य ममैवायमभिप्रायः, सर्वेषामेव तीर्थकरा- यसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पन्नत्ते। __णामयमाशय इति दर्शयितुमाह श्रमणामुपासकः श्रमणोपासकः श्रावक इत्यर्थः, श्रमणोपासकः पूर्वमय जे खलु भो ! वीरा ते समिया सहिया सयाजया संघडदेसिणो आदावेव श्रमणोपासको भवन-मिथ्यात्वात् तत्त्वार्थाश्रब्धानरूपाआओवरया अहातहं लोयं उवेहमाणा पाईणं पडीणं दाहिणं त्प्रतिक्रामतिनिवर्त्तते न तन्निवृत्तिमात्रमत्राभिप्रेत' किं तर्हि? तन्निवृत्तिउईणं इय सञ्चंसि परि (चिए) चिढिसु, साहिस्सामो नाणं वीराण द्वारेण सम्यक्त्वं तत्त्वार्थश्रद्धानरूपम्, उपसामीप्येन प्रतिपद्यते, समियाणं सहियाणं सयाजणाणं संगडदंसीणं आओवरयाणं सम्यक्त्वमुपरांपन्नस्य सतः न 'से तस्य कल्पते-युज्यते अद्यप्रभृति अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही?, पासगस्स न सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकालादारभ्य किन कल्पते अन्यतीर्थिकाश्वरकपरिव्राविजइ नत्थि त्ति बेमि। (सू० 140) जकभिक्षुभौतादीन अन्यतीर्थिकदैवतानि रुद्रविष्णुसुगतादीनि अन्ययदिवा उक्तः सम्यग्वादो निरवद्यं तपश्चारित्रं च, अधुना तत्फ- तीर्थकपरिगृहितानि वा अर्हत् चैत्यानि वा अर्हत्प्रतिमालक्षणानि यथा लमुच्यते- 'जे खलु' इत्यादि, खलुशब्दो वाज्यालङ्कारे, ये कच- भीतपरिगृहीतानि वीरभद्रमहाकालादीनि वन्दितुं वा नमस्कर्तु वा / तत्र नातीतानागतवर्तमानाः 'भो' इत्यामन्त्रणे, वीस:- कर्मविदार धन्दनम्-अभिवादनं नमःकरणं-प्रणामपूर्वकं प्रशस्तध्वनिभिर्गुणो सहिष्णवः समिताः समितिभिः सहिता ज्ञानादिभिः सदा यताः त्कीर्तन को दोषः स्यात्?, अन्येषां तद्रक्तानां मिथ्यत्वादिस्थिरीकरसत्यमेन संघडदंसिणो त्ति-निरन्तरदर्शिनः शुभाशुभस्य आत्मापरताः णादिरिति, तथा पूर्वम्-आदावनालप्तेन सता अन्यतीर्थि-कैस्तानेवापापकर्मभ्यो यथा तथा अवस्थितं लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं कर्मलोक लप्तुं वा संलप्तुं वा, तत्र सकृत् संभाषणमालापन पौनः पुन्येन संलपनम्। वोपेक्षमाणाः-पश्यन्तः सर्वासु प्राच्यादिषु दिक्षु व्यवस्स्थिता इत्येवं- को दोषः स्यात्ते हि तप्ततरायोगोलककल्पाः खल्वासनादिक्रियायां प्रकाराः 'सत्य' मिति-ऋतंतपः संयमोवा तत्र परिचिते-स्थिरे तस्थुः- नियुक्ता भवन्ति तत्प्रत्ययः कर्मबन्धः, तथा तेन वा प्रणयेन गृहागमनं स्थितवन्तः, उप-लक्षणार्थत्वात् त्रिकालविषयता,द्रष्टव्या तत्रातील कालं कुर्युः अथ च श्रावकस्य स्वजनः परिजनोवा अगृहीतसमयसारस्तैरसह अनन्ता अपि सत्ये तस्थुः,वर्तमाने पञ्चदशसु कर्मभूमिषु सडख्यया- संबन्धं यायादित्यादि प्रथगालप्तेन त्वसंभ्रम लोकापवादभयात्कीदृशस्तिष्ठन्ति अनागते अनन्ता अपि स्थास्यन्ति, तेषां चातीतानागतवत्त- स्त्वमित्यादि वाच्यमिति, तथा तेषामन्यतीर्थिकानामशनघृतपूर्णादि मानानां सत्यवतां यज्ज्ञानयोऽभिप्रयास्तदहं कथयिष्यामि भवतां शृणुत पानं-द्राक्षापानादि खादिमंत्रपुषफलादि स्वादिमककोललबङ्गादि दातुं यूयं, किम्भूतानां तेषां? वीराणामित्यादीनि विशेषणानि गतार्थानि। वा अनुप्रदातुं वान कल्पते इति / तत्र सकृत् दानं पुनः पुनरनुप्रदानकिम्भूतं ज्ञानमिति चेदाह-किं प्रश्न अस्ति-विद्यते?, कोसा? उपाधिः- मिति, किं सर्वथैव न कल्पत इति?, न अन्यथा राजा-भियोगेनेतिकर्मजनितं विशेषणं, तद्यथा-नारकस्तिर्यग्योनः सुखी दुःस्वी सुभगा राजाभियोग मुक्त्वा बलाभियोग मुक्त्वा देवताभियोग मुक्त्वा गुरुनिदुर्भगः पर्याप्तकोऽपर्याप्तक इत्यादि, आहोस्विन्न विद्यत इति परमतमा- गहेण गुरुनिग्रहं मुक्त्वा 'वित्तिकंतारे. ' त्ति-वृत्तिकान्तारं मुक्त्वा / शडक्य त ऊचुःपश्यकरय-सम्यग्वादादिकमर्थ पूर्वोपात्तं पश्यतीति पश्यः एतदुक्तं भवति-राजाभियोगादिना ददन्नपि न धर्ममतिक्रामति इह स एव पश्यकस्तस्य कर्मजनितोपाधिन विद्यते, इत्येतदेनुसारेणाहमपि चोदाहरणानि 'कहं रायाभियोगेण देंतो नातिचरति धम्म' तत्रोदाहरणम्ब्रवीमि न स्वमनीषिकयेति। गतः सूत्रानुगमः तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थीदे- 'हत्थिणापुरे नयरे जिसत्तू राया कत्तिओ सेट्टी नेगमसहस्सप्ढमासणिओ शको नवविचारातिदेशात समाप्तं सम्यक्त्वाध्ययनं चतुभिति! आचा० सावगवन्नगो एवं कालो वाइ, तत्थ य परिव्वायगो मास मारोण स्वमति तं 1 श्रु०४ अ०४ उ०। ['तए ण से आणंदे गाहावई' इत्यारभ्य पाठः सव्वलोगो आढई, कत्तिओ नाढाइ। ताहे से सो गेरुओ पाओसमावन्नो 'आणंद' शब्दे द्वितीयभागे 110 पृष्ठ गतः।) [पसत्थे खित्ते इत्यादि पाठः छिद्याणि मग्गइ, अन्नया रायाए निमंतिओ पारणए नेच्छइ / बहुसो राया 'अणुव्वय' शब्दे प्रथम--भागे 417 पृष्ठे गतः।] ['अहाछंद'शब्दे प्रथमभागे निमंतइ ताहे भणइ-जइ नवरं मम कत्तिओ परिवेसेइ तो नवरं जेममि / 565 पृष्ठ यथाछन्दाचरणसभ्यक्त्वफलमुक्तम्। रायाभणेइएवं करेमि। राया समणूसौ कत्तियस्स घरंगओ। कत्तिओ भणइ [22] यस्मात् श्रावकधर्मस्य तावत् मूलं सम्यक्त्वंतरभात् सदिसह, राया भणइ-गेरुयस्सपरिवेसेहि। कत्तिओभणइनवट्टइ अम्हंतुम तदगतमेव विधिमभिधातुकाग आह.. विसयवासित्ति करेभि चिंतेइ यजइपबइओहोतो तो न एवं भवत पच्छाऽणेण तत्थ समणोवासओ पुवामेव मिच्छत्ताओ पडिकमइ, सम्मत्तं परि-येसिय। सो परिवेसिजते अंगुली चालेइ। किहते?, पच्छा कत्तिओ तेण उवसंपज्जइ / (आव०) नन्नत्थ रायाभिओगेणं गणाभिओगणं | निव्वएण पव्वइओ। नेगमसहस्रपरिवारो मुणिसुव्वयसमीवे वारस अगाणि Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 467 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त पढिओ वारस वरिसाणि परियाओ सोहम्मे कप्पे सक्को जाओ सो परिष्वायगो तेण अभिओगेण आभिओगिओ एरावणो जाओ। पेच्छिय सकं पलाइओ, गहिउसको विलग्गो। दो सीसाणि कयाणि। सक्का वि दो जाया। एवं जावइयाणि सीसाणि विउव्वइ तावइयाणि सक्को वि सक्वरूपाणि विउवइ / ताहे नासिउमारद्धो सकेणाहओ पच्छा ठिओ। एवं रायाभियोगेणं देंतो नाइक्कमइ, कित्तिया एयारिसया होहिंति जे पव्वइस्संति तम्हान दायव / गणाभिओगेण वरुणो रहमुसले निउत्तो एवं का वि सावगो गणाभियोगेण भत्तं दवाविज्जा देंतो वि सो नातिचरइ धम्म बलाभिओगो वि एवमेव, देवयाभिओगेणं देतो नाइक्कमइ / जहा -एगो गिहत्थो सावगो जाओ, तेण वाणमंतराणि चिरपरिचियाणि उज्झियाणि एगा तत्थ वाणमंतरी पओसमावन्ना गावीरक्खगोपुत्तो तीएवाण-मंतरीए गावीहिं समं अवहरिओ। ताहे उइन्ना साहइ तज्जती-किं ममं उज्झसिन | व ति! सावगो भणतिनवरि मा ममं धम्मविराहणा भवउ। सा भणइ नम अञ्चेहि। सो भणइजिणपडिमाणं अवसाणे ठाहिं आमं ठामि। तेण ठविया। ताह दारगो गावीओ य आणीयाओ एरिसा कत्तिया होहिंति तम्हा न दायव्वं / दवाविजंतो नाइचरति / गुरुनिग्गहेण भिक्खूवासगपुत्तो सावगं धुयं मग्गइ। ताहे ताणि न देंति सो कवडसड्डत्तणेण साधू सेवइ / तस्स भावतो उवगयं पच्छा साहेइ। एएण कारणेण पुव्वं दुषंमि इयाणिं सडभावा सावगो। साहू पुच्छइ तेहिं कहियं, ताहे दिन्ना धूया। सोसावगो जुयगं घरं करइ। अन्नया तरन्स मायापितरो भत्त भिक्खुगाण करेंति। ताई भणति अन एकसि वकाहि / सो गतो भिक्खुएहि विजाए अभिमंतिऊण फलं दिन्नं / ताए वाणमंतरीए अधिट्टिओ घरं गओ तं सावगधूयं भणइ-- भिक्खुगाण भत्तं देमो / सा नेच्छइ, दासाणि सयणे य आरद्धो सजेतु। साविया आयरियाणं गतुं कहेइ। तेहिंजोगपडिभेओ दिनो, सो से पाणिएण दिन्नां सा वाणमंतरी नट्ठा। साभाविओ जाओ पुच्छइ, कह वत्ति? कहिए पडिसेहेइ। अन्ने भणंति-तीए मयणमिजाए सो पाविओ तो साभावितो जाओ। भणइ-अम्मापिउछलेण मना विवंचितुत्ति किर फासुयं साहूण दिन्नं एरिसया केत्तिया आयरिया होहेति तम्हा परिहरेजा। वित्तिकंता - रेणं देज्जा-सोरट्टगो सड्डो उज्जेणिं वच्चइ दुक्काले तच्चन्निएहिं सम तस्स पत्थयणं खीण। भिक्खुगेहिं भन्नइ-अम्ह एहिं वहाहि पत्थायणं तो तुज्झ वि दिजिहिति तेण पडिवन्नं अन्नया तस्स पोट्टसरणी जाया। सो चीवरेहि वेढिओ तेहिं अनुकंपाए सो भट्टारगाणं नमोक्कार करेंतो कालगओ देवो वेमाणिओजाओ। ओहिणा तचनियसरीरं पेच्छइ ताहे स भूसणेण हत्थेण परिवेसेइ, सड्डाणोहावणा आयरियाण आगमणं कहणं च, तेहिं भणिय जाह अग्गहत्थं गेण्हिऊण भणह-नमो अरहताणं ति बुज्झगुज्झगा 2 तेहिं गंतूण भणियो संबुद्धो वंदित्ता लोगस्स कहेइ जहा नत्थि एत्थ धम्मो तम्हा परिहरेजा। आव०६ अ०। आव०॥दर्श०। (23) अधुना प्रकृतं योजयतिएयमिह सद्दहतो, सम्मट्ठिी तओ अ नियमेण / भवणिव्वेयगुणाओ, पसमाइगुणासओ होति।।४।। एतदनन्तरोदित जीवाजीवादीह लोके प्रवचने वा श्रवधान एवमेवेद- मित्यान्तिःकरणतया प्रतिपद्यमानः सम्यग्दृष्टिरभिधीयते अविपरीतदर्शनादिति तकश्च नियमेनासावश्यन्तया भवनिवेदगुणात्-संसारनिवेदगुणन प्रशमादिगुणाश्रयो भवति, उक्तलक्षणानां प्रशमादिगुणानामाधारो भवति। भवति चेत्थं ज्ञाने संसारनिर्वेदगुणस्तस्माच प्रशमादयः प्रतीतमेतदिति। (24) अस्यैव व्यतिरेकमाहविवरीयसद्दहाणे, मिच्छाभावाउ णत्थि केइ गुणा। अणमिणिवेसो तु कया-इ होइ संमत्तहेऊ वि / / 8 / / विपरीतश्रद्धाने उक्तलक्षणानां जीवादिपदार्थानाम् अन्यथा श्रद्धाने मिथ्याभावान्न सन्ति केचन गुणाः सर्वत्रैव विपर्ययादिति भावः, विपरीतश्रद्धानेऽप्यनभिवेशस्तुएवमेवैतदित्यनध्यवसायस्तु कदाचित्कस्मिंश्चित्काले यद्वा कदाचिन्न नियमेनैव भवति-सम्यक्त्वहेतुरपि जायते, सम्यक्त्वकारणमपि यथेन्द्रनागादीनामिति / श्रा०। (25) पञ्चातिचाराःसम्मत्तस्स समणोवासएणं इमे पंच अइआरा जाणिअव्वा न समायरियव्वा, तं जहा-संका 1 कंखा 2 वितिगिच्छा 3 परपासंडपसंसा 4 परपासंडसंथवे 5 / 'सम्मत्तस्स समणोवासएणं' इत्यादि सूत्रम्। अस्य व्याख्यासम्यक्त्वस्य प्राग्निरूपितस्वरूपस्य श्रमणोपासकेनश्रावकेण एते वक्ष्यमाणलक्षणाः, अथ वा-अमी ये प्रक्रान्ताः पञ्चेति संख्यावा-चकः,अतिचारामिथ्यात्वमोहनीयकर्मादयादात्मनोऽशुभाः परिणामविशेषा इत्यर्थः / यैः सम्यक्त्वमतिचरति ज्ञातव्याः ज्ञप-रिज्ञया, न समाचरितव्याः-नासेव्या इति भावार्थः / तद्यथेत्युदाहरणप्रदर्शनार्थः / शङ्का काक्षा विचिकित्सा परपाषण्डप्रशंसा परपाषण्डसंस्तवश्चेति / आव० 6 अ० / ध० / (शङ्कादयो स्वस्वस्थाने व्याख्याताः।) (26) श्रावकधर्मस्य सम्यक्त्वं मूलम्समणोवासगधम्मस्स मूलवत्थु सम्मत्तं / श्रमणोपासकधर्मस्य किं पुनर्मूलवस्तु इति?, अत्रोच्यते सम्यक्त्वं, तथा चाह ग्रन्थकारः- 'एयस्से' त्यादि सूत्रम् अस्य पुनः श्रमणोपासकधर्मस्य पुनः शब्दोऽवधारणार्थः, अस्यैव शाक्यादिश्रमणोपासकधर्म सम्यक्त्वाभावात् न मूलवस्तु सम्यत्वं, वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु मूलभूतं द्वारभूतं च तद्वस्तु च मूलवस्तु, तथा चोक्तम्- "द्वारं मूलं प्रतिष्ठानमाधारो भाजनं निधिः / द्विषट्कस्यास्य धर्मस्य, सम्यक्त्वं परिकीर्तितम्॥१॥" सम्यक्त्वं प्रशमादिलक्षणम / उक्तं च-"प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं सम्यक्त्व" मिति (तत्त्वा० भाष्ये 1 अ०२ सू०) (27) कथं पुनरिद भवतीत्यत आहतन्निसग्गेणं वा, अविगमेण वा इमं च सम्मत्तं / 'तन्निसग्गेण वा अधिगमेण वे' त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्यातन्मूलवस्तुभूत सम्यक्त्वं निसर्गेण वा अधिगमेनवा भवति इति क्रिया। तत्र निसर्गःस्वभावः अधिगमस्तु यथावस्थितपदार्थपरिच्छेद इति, आह-मिथ्यात्वमोहनीयक Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 468 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त मक्षयोपशमादेरिदं भवति, कथमुच्यते निसर्गेण वेत्यादि?, उच्यते-स किंचिदाई यस्त्रम् आतपशोषात्समस्तजनक्षये सुतरामेव शुद्धं भवति, एव क्षयोपशमादिनिसर्गाधिगमजन्मेति न दोषः उक्तं च-'ऊसरदेसं एवमौ पचारिकसम्यक्त्वरूपा ये शुद्धपुदलास्तत्परिक्षया पारमार्थिकदड्डि-ल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प। इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्म रुचिरूपं सम्यग्दर्शनमपि सुतरां निर्मल भवति। लहइ जीवो।।१।। जीवादीणमधिगमो, मिच्छत्तस्स तु खओवसमभागे। अपरमपि दृष्टान्तमाहअधिगमसम्म जीवो, पावेइ विसुद्धपरिणामो / / 2 / / ' इति / अल सेसन्नाणावगमे, सुद्धयरं केवलं जहा नाणं। प्रसङ्गेनेति / इह भयोदधौ दुष्प्रापां सम्यक्त्वादिभावरत्नावाप्ति विज्ञायो- तह खाइयसम्मत्तं, खओवसमसम्मविगमम्मि // 1322 / / पलब्धजिनप्रवचनसारेण श्रावकेण नितरामप्रमादपरेणातिचारपरि- यथेह शेषस्य क्षायोपशमिकस्य मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्यापगमेऽप्यन्यत् हारवता भवित-व्यमित्यस्यार्थस्योक्तस्यैव विशेषख्यापनायानुक्त- क्षायिकं शुद्धतरं केवलज्ञानलक्षणं ज्ञानान्तरं प्रादुरस्तिन पुनरज्ञो भवति शेषस्य चा-भिधानायेदमाह ग्रन्थकार:- 'पञ्चातिचारविशुद्ध' मित्यादि जीवः, तद्वत् क्षायोपशमिकसम्यक्त्वविगमेऽप्यपरं विशुद्धतरं क्षायिक सूत्रम्, इदं च सम्यक्त्वं प्राग् निरूपितशङ्कादिपश्चातिचारविशुद्धमनु- सम्यग्दर्शनान्तरमुपजायते, नत्वदर्शनीभवति जीवः। पालनीयमिति शेषः / आव०६ अ०। आ० चू० / ति०! (26) ननु कथं पुनः क्षायिकं सम्यक्त्वं विशुद्धतरं, क्षायोपशुमिकं (28) क्षीणदर्शनोऽपि सम्यगदृष्टिः। प्रेरकः प्राह त्वविशुद्धमित्याहखीणम्मि दंसणतिए, किं होइ तओ ति दसणाईओ। निव्वलियमयणकोइव-भत्तं तिल्लाइ मीसियं मदए। भण्णइ सम्मदिट्ठी, सम्मत्तखए कओ सम्मं / / 1318|| न तु सोऽवाओ निव्वलि-यमीसमयकोद्दवच्चाए।।१३२३॥ ननु मिथ्यात्वादिकदर्शनत्रिके क्षीणे किं तकोऽसौ क्षपकस्त्रिदर्शनातीतो तह सुद्धमिच्छसम्म-त्त पुग्गलामिच्छमीसिया मिच्छं। भवति?, न मिथ्यादृष्टिः, मिथ्यात्वस्य क्षीणत्वात् न मिश्रः सम्यग- होज परिणामओ वा, सोऽवाओ खाइए नत्थि।।१३२४।। मिथ्यादृष्टिः सम्यमिथ्यात्वाभावान्न च सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वासत्त्वादि- इह निर्वलिता-निर्मलनीकृताः शोधिता ये मदनकोद्रवास्तन्निर्वृत्तं त्येवं प्राप्नोति? इत्यर्थः / आचार्य आह– भण्यतेऽत्रोत्तरम्-दर्शनत्रिके यद्भक्तमोदनस्तत्तैलादिविरुद्धद्रव्यमिश्रितं भुज्यमानं मदयेद्विक्रिया क्षीणे विशुद्धसम्यग्दृष्टिः भवत्यसौ / पुनरपि परः प्राहननूक्तं मया गमयेदेव भोक्तारम् / न पुनः सोऽपायोऽस्ति क्व सति? निर्वलितमिश्रसम्यक्त्वक्षये सति कुतोऽयं सम्यग्दृष्टिः? न घटत एवेत्यर्थः / मदनकोद्रवत्यागे सति। इदमुक्तं भवति यः शोधितान् शुद्धाशुद्धस्वरूसूरिराह पान् वा मदनकोद्रवान्न भुइक्ते तस्योक्तस्वरूपो मदनलक्षणोऽपायोन निव्वलियमयणकोद्दव-रूवं मिच्छत्तमेव सम्मत्तं / भवत्येव, तथा तेनैव प्रकारेण शुद्धं च तन्मिथ्यात्वं शुद्धभिथ्यात्वम् खीणं न तु जो भावो, सद्दहणालक्खणो तस्स / / 1319 / / अपूर्वकरणाध्यवसायेनापनीतमिथ्यात्वभावमित्यर्थः / तदेवोपचारतः सो तस्स विसुद्धयरो, जायइ सम्मत्तपोग्गलक्खणओ। सम्यक्त्वं शुद्धमिथ्यात्वसम्यक्त्वं तस्य पुद्गलाः शुद्धमिथ्यात्वसम्यदिहि व्व सुबहसुद्ध-न्भपटलविगमे मणूसस्स // 1320 / / क्त्वपुद्गलाः शोधितमदनकोद्रवस्थानीयाः विरुद्धतैलादिद्रव्यकल्पने जह सुद्धजलाणुगयं, वत्थं सुद्धं जलक्खए सुतरं। मिथ्यात्वेन मिश्रिताः सन्तस्तत्क्षण एव मिथ्यात्वं भवति, कुतीर्थिकसम्मत्तसुद्धपोग्गल-परिक्खए दंसणं चेवं // 1321 / / संसर्गतद्वचः श्रवणादिजनितपरिणामाद्वा क्लिष्टबहुरसीकृता मिथ्याहन्त ! यः सम्यक्पदार्थश्रद्धानुरूपो जीवस्य भावः-परिणामः स एव त्वरूपतां प्रतिपद्यन्ते। ततस्तथैव मिथ्यादृष्टिभूत्वा पुनः संसारनीरधिं तावन्मुख्यतः सम्यक्त्वमुच्यते, यस्तु शोधितमिथ्यात्वपुद्गलपुञ्जः स बंभ्रमीति। स चैवभूतोऽपायः क्षायिकसम्यक्त्वे नास्ति, सर्वानर्थमूलानां तत्त्वतो मिथ्यात्वमेव केवलं सम्यक्तत्त्वश्रद्धानरूपस्य जीवभावस्या- शुद्धानामशुद्धाना वा मिथ्यात्वपुद्रलानां क्षपितत्वेनासत्त्वात् / तस्मात् शुद्धमिथ्यात्वपुजवदनावारकत्वादुपचारतः सम्यक्त्वमुच्यते / एवं च शुद्धतर क्षायिकसम्यक्त्वम्, मलीमसंच क्षायोपशमिकम्। अत एतदपसति यदाच्छादितमदनकोद्रवरूपं मिथ्यात्वमेव सदुपचारतः सम्यक्त्वं मेऽपि क्षायिकसम्यक्त्वभावान्नादर्शनी जीवः, किंतु प्रत्युत विशुद्धसम्यप्रसिद्धम्, तदेव तस्य क्षपकस्य क्षीणं न तु यस्तत्त्वश्रद्धानलक्षणो जीवस्य गदर्शनीति स्थितम् / विशे०। ध०। भावः। स च तस्य तत्व श्रद्धानभाव औपचारकसम्यक्त्वरूपे सम्यक्त्वपुद- (30) अथ तस्य चोत्पादे द्वयी गतिर्निसर्गः, अधिगमश्चेति। गलपुञ्ज क्षपिते प्रत्युत विशुद्धतरो जायते, यथा श्लक्ष्णशुद्धाऽभ्रपट तास्तद्भेदाँश्चाहलविगमें मनुष्यस्य लोचनद्वयरूपा दृष्टिः, स्वच्छाभ्रपटलसदृशो हि निसर्गाद्वाऽधिगमतो, जायते तच्च पञ्चधा। सम्यक्त्वपुदगलपुजः, स च क्षपितोऽभ्रपटलमिव दृष्टर्यच्च यावच मिथ्यात्वपरिहाण्यैव, पञ्चलक्षणलक्षितम्।।२२।। र प्रदानपरिणामस्य विघातक एव, ततोऽनर्थरूपे तस्मिन् क्षपितेऽ- निसर्गादधिगमाद्वां तत् सम्यक्त्वं जायते-उत्पद्यते, तत्र निसर्गः अमरलागः लोचनद्वयीव तत्त्वश्रद्धानपरिणतिर्निर्मलतरैव भवति।। स्वभावो गुरूपदेशादिनिरपेक्ष इति भावः / अधिगमः-गुरूपदेशः यथादृष्टान्तान्तरमाह- 'जहे' त्यादि। यथा सुधौत शुद्धं निर्मलीकृतं जनानुगतं / ___ वस्थितपदार्थपरिच्छेद इति यावत्। Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 466 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त तथाहि-योगशास्त्रवृत्ती"अनाद्यनन्तसंसारा-ऽऽवर्तवर्तिषु देहिषु। ज्ञानदृष्ट्यावृत्तिवेद-नीयान्तरायकर्मणाम् / / 1 / / सागरोपमकोटीना, कोट्यस्त्रिंशत्परा स्थितिः। विशतिगोत्रनाम्नोश्च, मोहनीयस्य सप्ततिः / / 2 / / ततो गिरिसरिदूत्राव-घोलनान्यीयतः स्वयम्। एकाब्धिकोटिकोट्यूना, प्रत्येकं क्षीयते स्थितिः / / 3 / / शेषाब्धिकोटिकोट्यन्तः,स्थितौ सकलजन्मिनः। यथाप्रवृत्तिकरणा-द्ग्रन्थिदेश समियूति / / 4 / / रागद्वेषपरीणामो, दुर्भेदो ग्रन्थिराच्यते। दुरुच्छेदो दृढतरः, काष्ठादेरिव सर्वदा / / 5 / / गुन्थिदेशं तु संप्राप्ता, रागादिप्रेरिताः पुनः। उत्कृष्टबन्ध्योग्याः स्यु-श्वतुर्गतिजुषोऽपि च॥६।। युग्ममतेषां मध्ये नु ये भव्याः, भाविभद्राः शरीरिणः / आविष्कृतः परं वीर्य-मपूर्यकरणे कृते / / 7 / / अतिक्रामन्ति सहसा, तं ग्रन्थिं दुरतिक्रमम्। अतिक्रान्तमहाऽध्वानो, घट्टभूमिमिवाध्वगाः / / 8 / / अथानिवृनिकरणा-दन्तरकरणे कृते। मिथ्यात्वं विरलं कुर्य-वेदनीयं यदग्रतः / / 6 / / आन्तर्मुहूर्तिकं सम्य-ग्दर्शनं प्राप्नुवन्ति यत्। निसर्गहतुकमिदं, सम्यगश्रद्धानमुच्यते॥१०॥ गुरूपदेशमालप्य, सर्वेषामपि देहिनाम्। यत्तु सम्यक्त्वश्रद्धानं, तत्स्यादधिगमं परम्॥११॥ यमप्रशमजीवातु-बीज ज्ञानचरित्रयोः / हेतुस्तपः श्रुतादीनां, सद्दर्शनमुदीरितम्।।१२।। श्लाघ्यं हि चरणज्ञान--विमुक्तमपि दर्शनम्। न पुननिचारित्रे, मिथ्यात्वविषदूषिते॥१३॥ ज्ञानचारित्रहीनोऽपि, श्रूयते श्रेणिकः किल। सम्यग्दर्शनमहात्म्या-तीर्थकृत्त्वं प्रपत्स्यते॥१४॥ इति अत्राह-मिथ्यात्वमोहनीयकर्मक्षयोपशमादेरिदं भवति, कथमुच्यते निसर्गादधिगमाद्वा तज्जायत इति?, अत्रोच्यते-स एव क्षयापशमादिनिसर्गाधिगमजन्मेति न दोषः / उक्तं च-“ऊसर-देशं दडि लयं च विज्झाइवणदवो पप्प / इय मिच्छस्साणुदए, उवसमसम्म लहइ जीवो ||1|| जीवादीणमधिगमो, मिच्छत्तस्स उखआवसमभावे। अधिगमसम्म जीवा,पावइ विसुद्धपरिणामो" / / 2 / / इति / कृतं प्रसङ्गेनेति / ध०२ अधि०। पं० सं०। आ० म०। (31) सप्तमनरकपृथिव्यां सम्यक्त्विनो गमनागमने निषिद्धेआगमणं पि निसिद्ध, चरिमा उ एइ जं तिरिक्खेसु / सुरनारगा य सम्म-विट्ठी जं यन्ति मणुएसु // 431|| चरमायाः-सप्तमपृथिव्या न केवलं गमनमपित्वागमनमपि गृहीतसम्यक्त्वस्यागमे निषिद्धम्, यतस्तस्या उद्धृत्य सर्वोऽप्येत्यागच्छति तिर्यक्ष्वेव न मनुष्येषु "सत्तममहिनेरइया तेऊवाऊ अणंतख्वट्टा / न य पावे माणुस्सं" इति वचनादिति सुरनारकाश्च सम्यक्त्वसहिता यस्मान्मनुष्येष्वेवायान्ति अतः सामर्थ्यात्तिर्यग्गतिगामिनः सप्तमपृथ्वीनारकामिथ्यात्वसहिता एवागच्छन्तीति गाथार्थः / विशे०। ध०। (32) सम्यक्त्वादिश्रावकधर्म वक्ष्य इत्युक्तं, तत्र-- सम्यक्त्वं तावत् स्वरूपतः फलतश्च निरूपयन्नाहतत्तत्थसद्दाहणं,सम्मत्तमसग्गहोण एयम्मि। मिच्छत्तखओवसमा, सुस्सस्साई उहोंति दढं / / 3 / / व्याख्या- तत्त्वार्थानां सर्वविदुपदिष्टतया परमार्थिकाना जीवादिपदार्थानां श्रद्धानमेतदेवमेवेतिप्रत्ययः। तत्त्वेन वा भावतोऽर्थानां श्रद्धानं तत्त्वार्थश्रद्धानम्। तत्किमित्याह-सम्यगितिप्रशंसाओं निपातः, समञ्चतीति वा सम्यक, तद्भावः सम्यक्त्वमित्यस्य स्वरूपमभिहितम् / अथास्यैव दोषविशेषनिवृत्तिरूपे फलमाह-अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं निह्नवानामप्यस्तीति तेषामपि सम्यक्त्वं स्यादित्याशक्याह-असद्ग्रहोऽशोभनाभिनिवेश आप्तवचनबाधितार्थपक्षपात इत्यर्थः / 'न' नैव, यथोक्तश्रद्धानविरुद्धत्वात् असद्ग्रहस्य भवतीति गम्यते / एतस्मिन्ननन्तराभिहितलक्षण सम्यक्त्वे सति। ततो निहवानां कथं तदिति / अथ कस्मादयमिह सति न भवतीत्याह--मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वमोहनीयकर्मदलिकस्य क्षयेणोदीर्णस्य विनाशेन सहोपशमो विपाकोदयापेक्षया विष्कम्भितोदयत्वं मिथ्यात्वक्षयोपशमस्तस्माद्धेतोः। उपलक्षणत्यादस्य क्षयादुपशमाच्चेत्यपि द्रष्टव्यम् / मिथ्यात्वोदयो ह्यसद्ग्रहहेतुः / मिथ्यात्वाकर्मोदयश्च सम्यक्त्वे सतिनास्तीत्यसद्ग्रहाभावोऽत्रेति भावः / के पुनरिह सति गुणा भवन्तीत्याह--शुश्रूषादयो धर्मशास्त्रश्रवणेच्छाप्रभृतयो वक्ष्यमाणाः। तुशब्दः पुनःशब्दार्थः / भवन्ति जायन्ते। मिथ्यात्वक्षयोपशमादेरवानेनापि सम्यक्त्वस्य फलमभिहितम्। ननु मिथ्यात्वोदयेऽपि ते केचन संभवन्तीत्याह-दृढमतिशयेन यादृशैस्तैः सम्यक्त्वमभिव्यज्यत इति भावः / अतिशायितां च तेषां दर्शयिष्यामः / ननुतत्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वमित्युक्तम् / श्रद्धानं च तथेति प्रत्ययः / स च मानसोऽभिलाषः / न चायमपर्याप्तकाद्यवस्थायामिष्यते / सम्यक्त्वं तु तस्यामभीष्ट, षट्षष्टिसागरोपमरूपायाः साद्यपर्यवसितकालरूपायाश्च तस्योत्कृष्टस्थितेः प्रतिपादनादिति कथं नागमविरोधः? इत्यत्रोच्यतेतत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वस्य कार्य, सम्यक्त्वं कार्य, सम्यक्त्वं तु मिथ्यात्वक्षयोपशमादिजन्यो रुचिरूप आत्मपरिणामविशेषः। आह च"से य सम्मते पसत्थसम्मत्त-मोहणीयकम्माणुयेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते" / अत एवामनस्काना सिद्धादीनां तदिष्यते। इह च सम्यक्त्वे सत्येव यथोक्त्वं श्रद्धानं भवति, यथोक्तश्रद्धाने च सति सम्यक्त्वं भवत्येवेति श्रद्धानवतां सम्यक्त्वस्यावश्यंभावित्वोपदर्शनाय कार्ये कारणोपचारं कृत्वा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वमिति / ननु मिथ्यात्वोदयजन्यत्वेनासद्ग्रहस्य सम्यक्त्ये सति तत्क्षयोपशमाद्युक्तोऽसद्ग्रहाभावः, शुश्रूषादिगुणानां तु ज्ञानचारित्रांशरूपत्वेन ज्ञानावरणीयचारित्रमोहनीयवीर्यान्तरायकर्मक्षयोपश्पामालभ्यत्वान्न युक्तः सम्यक्त्वसद्भावमात्रे तद्भाव इति। अत्रोच्यते-सम्यक्त्वहे तोमिथ्यात्वक्षयोपशमस्याक्सरे ज्ञानावरणानन्तानुबन्धिकषायलक्षणचारित्रमोहनीयादिकर्मणामपि क्षयोपशमोऽवश्यमेव भवतीति कृत्वा सम्यक्त्वे सति ते भवन्तीत्यभिधीयते यथा केवलज्ञानावरण Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 500 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त क्षयलभ्यमपि केवलज्ञानं कषायक्षये लभ्यत इत्यभिधीयते / आह च-- "केवलियनाणलंभो नण्णत्थखए कसायाण" यथा वा मिथ्यात्वक्षयोपशमलभ्यमपि सम्यक्त्वमनन्तानुबन्धिरूपचारित्रमोहनीयोदये न लभ्यत इत्यभिधीयते। आह च-"पढमिल्लुयाण उदए, नियमा संजोयणा कसायाणं / सम्मइंसणलंभ, भवसिद्धिया वि न लहति / / 1 / / " ननु वैयावृत्त्यनियमस्य तपोभेदत्वेन चारित्रांशरूपत्वात् सम्यक्त्वसद्भावे चावश्यंभावित्वादविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकाभावः प्राप्नोतीति / नैवम,वैयावृत्त्यनियमरूपचारित्रस्याल्पतमत्वेनाचारित्रतया विवक्षितत्वात् / यथा संमूर्छनजानां संज्ञामात्रसद्भावेऽपि विशिष्ट संज्ञाया अभावादसंज्ञित्वमिष्टम् / विरतत्वं हि महाव्रताणुव्रतादिरूपानल्पचारित्रसद्भाव एवेष्यते। यतो न कार्षापणमात्रधनेन धनवान्, एकरावेन वा गोमानिति / ननु सम्यक्त्वे सति शुश्रूषादयो भवन्तीति न युक्तं व्यभिचारित्वात् / तथाहि-उपशान्तमोहादीनां सम्यक्त्वसद्भावेऽपि न शुश्रूषादयो भवन्ति, सकलविकल्पकल्लोलमालाविकलत्वेन निस्तरङ्गमहामकराकराकारत्वात्तदन्तःकरणस्येति। अत्रोच्यते-यद्यपि शुश्रूषादय उपशान्तमोहादीनां साक्षान्न भवन्ति, कृतकृत्यत्वादिति, तथापि फलतो भवन्ति,तद्भावस्य तत्फलत्वादिति कुतो व्यभिचारः? श्रावकधर्माधिकाराधा,यच्छ्रावकावस्थायां सम्यक्त्वं तदाश्रित्य शुश्रूषादयस्तु भवन्ति दृढमित्यभिहितमतो न दोष इति गाथार्थः / / 3 / / शुश्रूषादयस्तु भवन्तीत्युक्तम्, अथ तानेवाहसुस्सूस धम्मराउ, गुरुदेवाणं जहासमाहीए। वेयावचे णियमो, वयपडिवत्तीए (इ) भयणा उ||४|| व्याख्या-श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा / हस्वत्वं तु प्राकृतशैलीवशात्। सद्बोधावन्ध्यनिबन्धनधर्मशास्त्रश्रवण्णवाञ्छेत्यर्थः / सा च वैदग्ध्यादिगुणवत्तरुणनरकिन्नरगानश्रवणरागादप्यधिकतमा सम्यक्त्वे सति भवति / यदाह-"यूनो वैदग्ध्यवतः, कान्तायुक्तस्य कामिनोऽपि दृढम् / किन्नरगेयश्रवणादधिको धर्मश्रुतौ रागः / / 1 / " तथा धर्मः श्रुतचारित्रलक्षणः / तत्र श्रुतधर्मरागस्य शुश्रूषापदेनैवोक्तत्वादिह धर्मरागश्चारित्रधर्मरागोऽभिप्रेतः / स च कर्मदोषात्तदकरणेऽपि कान्तारातीतदुर्गतबुभुक्षाक्षामकुक्षिब्राह्यणघृतपूर्णभोजनाभिलाषादप्यतिरिक्तोऽत्र भवति। तथा गुरवो धर्मोपदेशका आचार्यादयः, देवाश्चाराध्यतमा अर्हन्तो गुरुदेवास्तेषाम्। इह च गुरुपदस्य पूर्वनिपातो विवक्षया गुरूणां पूज्यतरत्वख्यापनार्थः / न हि सद्गुरूपदेशं विना सर्वविद्देवाधिगम इति भावः / यथासमाधियथासमाधानानतिक्रमण। इह चाव्ययीभावसमासादपि तृतीयया अलोपः प्राकृतत्वात्, असमासाद्वा / व्यावृत्तस्य भावः कर्म वा वैयावृत्त्यं तस्मिन् तत्प्रतिपत्तिविश्रामणाभ्यर्चनादौ / नियमोऽवश्यकर्तव्यताङ्गीकारः। स च सम्यक्त्वे सति भवतीति प्रक्रमः / एतेषां च शुश्रूषादीनां यथोत्तरं हेतुफलभावोऽवसेयः / अथ यथा शुश्रूषादयोऽत्र भवन्ति, तथा कि व्रतान्यपि भवन्तीत्याशङ् क्याह-व्रतानाम्-अणुव्रतादीनां प्रतिपत्तिरङ्गीकरण व्रतप्रतिपत्तिः। तुशब्दस्य पुनरर्थस्येह सम्बन्धात्तस्यां व्रत प्रतिपत्तौ तु पुनर्भजना-विकल्पना भवति / सम्यक चे सति व्रतानि कदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्नेति भाव इति गाथार्थः / / 4 / / (33) भजनाकारणमेवाहजंसा अहिगयराओ, कम्मखओवसमओ ण य तओ वि। होइ परिणामभेया, लहुं ति तम्हा इहं भयणा / / 5 / / यद्-यस्मात्कारणात्सा व्रतप्रतिपत्तिः अधिकतरात सम्यक्त्वप्राप्तिनिमित्तभूतकर्मक्षयोपशमापेक्षया समर्गलतरात्कर्मक्षयोपशमतः चारित्रमोहनीयकर्मक्षयोपशमाद्भवति, ननु सम्यक्त्वलाभावसर एवासी कुतो न भवतीत्याह-न चनैव / तको वित्ति--तकोऽनि सोऽपि यदेव सम्यक्त्वप्रतिपत्तिहेतुः कर्मक्षयोपशमो भवति नतदैव व्रतप्रतिपत्तिहेतभूतस्तदधिकतरोऽपीत्यपिशब्दार्थः / अन्ये तु 'तओ उ' इति पठन्ति, तत्र व्याख्या--न च-नैवतकः पुनर्भवति जायते। कुतः पुनरेवमित्याहपरिणामभेदात्तथा भव्य-त्वहेतुकात्माध्यवसायविशेषाद्विशिष्टतरपरिणामनिबन्धनत्वात्त-स्येति भावः 'लहुति' ति-लध्विति शीघ्रमेव / सम्यक्त्वनिबन्ध-नक्षयोपशमानन्तरमेवेत्यर्थः। तस्मात्-ततः कारणादिह व्रतप्रतिपत्तौ भजना-विकल्पना / शुश्रूषादिषु पुनर्नियमः इयमत्र भावना यद्यपि ग्रन्थिभेदादेव सम्यक्त्वमुदेति, तत्र च व्रतप्रतिपत्तिमेवोपादेयतरामध्यवस्यति, तथापि यावत्यां कर्मस्थितौ सत्यां सम्यक्त्वलाभो भवति, न तावत्यामेव व्रतप्रतिपत्तिरपि तत्त्वतो भवतीति गाथार्थः। इदमेवाहसम्मापलियपुहुत्तेऽ--वगए कम्माण भावाओ होति। वयपभितीणि भवणव-तरंडतुल्लाणि णियमेण // 6 / / 'सम्म' त्ति-सूचनात्सूत्रमिति न्यायात् सम्यक्त्वलन्धादनन्तरं पल्योपमानामागमप्रसिद्धानां कालपरिमाणविशेषलक्षणानां पृथ-कत्वं द्विप्रभृतिनवान्तसंख्यालक्षणं पल्योपमपृथक्त्वं तस्मिन्। अपगते-अपेते वेदित इत्यर्थः / केषां पल्योपमपृथक्त्वमित्याह-कर्मणां ज्ञानावरणादीनाम्। इह च कर्मस्थितेरिति वाच्ये स्थितेः-स्थितिमतां चाभेदविवक्षया कर्मणामित्युक्तम् / यतो मोहनीयादिकर्मणां सगरोपमकोटीकोटीसप्तत्यादिकायाः स्थितेमध्यात्को-टीकोट्यादिकां स्थिति यथाप्रवृत्तिकरणेन क्षपयति तावद्यावदे-का पल्योपमासंख्येयभागोना सागरोपमकोटीकोटीशेषा / ततो ग्रन्थिभेदेन सम्यक्त्वं लभते। ततः शेषकर्मस्थितेः पल्योपम-पृथक्त्वे क्षपिते सत्यणुव्रतानि लभत इत्यागममुद्रा / ततः किमित्याह-भावतः परमार्थवृत्तिमाश्रित्य,द्रव्यतः पुनरतिदीर्घराया मपि कर्मस्थितौ महाव्रतान्यापि भवन्ति। तदुक्तम्- 'सव्वजि-याणं जम्हा, सुत्ते गेविजगेसु उववाओ। भणिओ जिणेहि सो न य, लिंग मोत्तुं जओ भणियं / / 1 / / जे दंसणवायण्णा, लिंगरगहणं करिति सामन्ने / तेसिं पिय उववाओ, उक्कोसो जाव गेविजा // 2 // ' 'होति त्तिभवन्ति-जायन्ते। कानीत्याहवृतप्रभृतीन्यणुव्रतादीनि। स्वरूपतः किंविधानितानित्याहभवार्णवतरण्डतुल्यानिसंसारसागरोत्तरणद्रोणादिकल्पानि। नियमेनावश्यंभावेन। Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त तदुक्तम्'सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुत्तेण सावओ होज्जा। चरणोवसमखयाण, सागरसखंतरा होति / / 1 / / " पल्यापमपृथक्त्वादिवेद्यस्य च कर्मणो हासोऽनुक्रमेण स्थाद्वीर्योलासात्करणान्तरप्रवृत्तेरतिशीघ्रकालेन वा। तदुक्तम्- "एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु। अन्नयरसेढिवज, एगभ-वेणं च सव्वाई |1||" ननु यदा सम्यक्त्वयुक्त एव नवपल्योपमातिरिक्तस्थितिकदेवेषुत्पद्यते, तदा देवभवे विरतेरभावात्, कथं 'सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुत्तेण सावओ होजा' इत्येतद् घटते? अत्रोच्यते- तस्यामवस्थायां यावती स्थिति क्षपयति यावतीमन्यां बध्नाति.ततो देशोनसागरोपमकोटीकोटीरूपाया अधिकृतकर्मस्थितेः पल्योपमपृथक्त्वस्य नापगमो भवतीति न देवभवादौ देशविरतिलाभः स्यादिति न विरोधः / तदेवं सम्य-वत्वलाभेऽपि व्रतप्रतिपत्तौ भजनेति स्थितमिति गाथार्थः। पञ्चा० 1 विव० / ध०। (सम्यगदृष्टयूँनार्द्ध-पुद्गलपरावर्तः संसारः 'संसार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) इदानीं "सम्मत्ताईणुत्तम -गुणाणलाहंतर तुउकोसमि" त्वेकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमं द्वारमाहसम्मत्तम्मि उलद्धे, पलियपुहुत्तेण सावओ होज्जा। चरणोवसमखयाणं,सायरसंखंतरा होंति॥१३९८|| यावत्यां कर्मस्थितौ सम्यक्त्वं लब्धं तन्मध्यात्पल्योपमपृथवत्वलक्षणे स्थितिखण्डे क्षपिते श्रावको देशविरतो भवेत्ततश्चरणोपशमक्षयाणामन्तरा संरख्यातानि सागरोपमाणि भवन्ति / इयमत्र भावना-देशविरतिप्राप्त्यनन्तरं संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषु चारित्रमवाप्नोति, ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपितेषु उपशमश्रेणि प्रतिपद्यते, ततोऽपि संख्यातेषु सागरोपमेषु क्षपकश्रेणिर्भवति. ततस्तद्भवे मोक्ष इति। एवमप्रतिपतितसम्यक्त्वस्य देवमनुष्यजन्मसुसंसरणं कुर्वतः अन्योन्यमनुष्यभवे देशविरत्यादिलाभो भवति / यदिवा-तीव्रशुभपरिणामवशात् क्षपितबहुकर्मस्थितेरेकस्मिन्नपि भवेऽन्यतरश्रेणिवर्जान्येतानि सर्वाण्यपि भवन्ति, श्रेणिद्वयं त्वेकस्मिन् भवे सैद्धान्तिकाभिप्रायेण न भवत्येव किं त्वेकैवोपशमश्रेणिः क्षपक श्रेणिर्वा भवतीति। उक्तं च- "एवं अप्परिवडिए,सम्मत्ते देवमणुअजम्मेसु। अन्नयरसेढिवज,एग भवेणं च सव्वाई॥१॥"प्रव०२४६ द्वार। श्रा०ानं०। सम्यक्त्वे सम्यवत्विनः / 'जात्यन्धस्य यथा पुंसश्चक्षुर्लाभ शुभोदये / सदृर्शन तथैवास्य, सम्यक्त्वे सति जायते // 1 // आनन्दो जायतेऽत्यन्तं, सात्विकोऽस्य महात्मनः। सद्बोध्यपगमे यद्वद्, व्याधितस्य सदोषधम् ||शा कर्म०५ कर्म०। श्रा०। (34) इदं च सम्यक्त्वमात्मपरिणामरूपत्वाच्छास्थेन दु लक्ष्यमिति लक्षणमाहतं उवसमसंवेगा-इएहि लक्खिजई उवाएहिं। आयपरिणामरूवं, बज्झेहिं पसत्थजोगेहिं / / 53|| तत्सम्यक्त्वमुपशमसवेगादिभिरिति उपशान्तिः-उपशमः संवेगो- | मोक्षाभिलाषः आदिशब्दान्निर्वेदानुकम्पास्तिक्यपरिग्रहः, लक्ष्यतेचियते एभिरुपशमादिभिर्बाःि प्रशस्तयोगैरिति संबन्धः, बाह्यवस्तुविषयत्वाद्वाहाः प्रशस्तयोगाः- शोभनव्यापारास्तैः, किं विशिष्ट तत्सम्यक्त्वम् ? आत्मपरिणामरूपम्-जीवधर्मरूपमिति। तथा चाहइत्थव परिणामो खलु, जीवस्स सुहो उहोइ विन्नेओ। किंमलकलंकमुक्कं,कणगं मुवि सामलं होइ॥५॥ अत्र च सम्यक्त्वे सति किं परिणामोऽध्यवसायः खलुशब्दोऽवधारणार्थः,जीवस्य शुभ एव भवति-विज्ञेयो नत्वशुभः / अथवा-किमत्र चित्रमिति। प्रतिवस्तूपमामाह-कि मलकलडरहितं कनकं भुवि ध्यामलं भवति, न भवतीत्यर्थः / एवमत्रापि मलकलङ्कस्थानीय प्रभूतं क्लिष्ट कर्म ध्यामलत्वतुल्यस्त्वशुभपरिणामः,स प्रभूते क्लिष्ट कर्मणि क्षीणे जीवस्य न भवति। प्रशमादीनामेव बाह्ययोगत्वमुपदर्शयन्नाहपयई वा कम्माणं, वियाणिओवा विवागमसुहं ति। अवरद्धे विन कुप्पइ, उवसमओ सव्वकालं पि॥५५।। प्रकृत्या वा सम्यक्त्वाणुवेदकजीवस्वभावेन वा कर्मणां कषायनिबन्धनानां विज्ञाय वा विपाकमशुभमिति / तथाहि-कषायाविष्टोऽन्तर्मुहूर्तेन यत्कर्म बध्नाति तदनेकाभिः सागरोपम-कोटाकोटिभिरपि दुःखेन वेदयतीत्यशुभो विपाकः / एतत् ज्ञात्वा किम् अपराद्ध्येऽपि न कुप्यति? अपराध्यत इति अपराद्धयः-प्रतिकूलकारी तस्मिन्नपि कोपं न गच्छत्युपशमतः-उपशमेन हेतुना सर्वकालमपि यावत्सम्यक्त्वपरिणाम इति। तथानरविबुहेसरसुक्खं, दुक्खं चिय भावओय मन्नतो। संवेगओन मुक्खं,मुत्तूणं किंचि पत्थेइ।।५६|| नरविबुधेश्वरसौख्य,चक्रवर्तीन्द्रसौख्यमित्यर्थः, अस्वाभाविकत्वात् कर्मजनितत्वात्सावसानत्वाच दुःखमेव भावतः परमार्थतो मन्यमानः संवेगतः संवेगेन हेतुना न मोक्षं स्वाभाविकजीवरूपमकर्मजमपर्यवसानं मुक्त्वा किंचित्प्रार्थयते-अभिलषतीति। नारयतिरियनरामर-भवेसु निव्वेयओ वसइदुक्खं / अकयपरलोयमग्गो, ममत्तविसवेगरहिओ वि॥५७।। नारकतिर्यगरामरभवेषु सर्वेष्वेव निर्वेदतो-निवेदने कारणेन वसति दुःखम् / किं विशिष्टः सन्? अकृतपरलोकमार्गः- अकृतसदनुष्ठान इत्यर्थः / अयं हि जीवलोके परलोकानुष्ठानमन्तरेण सर्वमे-वासारं मन्यते इति / ममत्वविषवेगरहितोऽपि तथा ह्ययं प्रकृत्या निर्ममत्व एव भवति विदिततत्त्वत्वादिति। तथादठूण पाणिनिवहं, भीमे भवसागरम्मि दुक्खत्तं। अविसेसओऽणुकंपं, दुहा वि सामत्थओ कुणइ / / 58|| दृष्टा प्राणिनिवह- जीवसंघात - क्व भीमे - भयानके भवसा Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 502 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्त गरे-संसारसमुद्रे दुःखात - शारीमानसैर्दुःखैरभिभूतमित्यर्थः; अविशेषतः-सामान्येनात्मीयेतरविचाराभावेनेत्यर्थः / अनुकम्पाम्-दयां द्विधापि-द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यतः प्राशुकपिण्डा-दिदानन, भावतोमार्गयाजनंया सामर्थ्यतः स्वशक्त्यनुरूप करोतीति। मन्नइ तमेव सच्चं, निस्संकं जं जिणेहि पन्नत्त। सुहपरिणामो सव्वं, कंखाइविसुत्तियारहिओ॥५६।। मन्यते-प्रतिपद्यता तदेव सत्यं निःशङ्क-शङ्कारहितं यजिनैः प्रज्ञप्तयतीर्थकरैः प्रतिपादितं शुभपरिणामः सन् साकल्ये नानन्तरोदितसमस्तगुणान्वितः सर्व-समस्तं मन्यते, न तु किचिन्मन्यते किंचिन्नति भगवत्यविश्वासायोगात्। पुनरपि सएप विनिष्यते। किविशिष्टः सन? काहादिविश्रोतासिकारहित: कावा अन्योन्यदर्शनगाह इत्युच्यते, आदिशब्दाद्विचिकित्सापरिग्रहः, विश्रोतसिका तु संयमशस्यमङ्गीकृत्याध्यवसायसलिलस्य विश्रोतो-गमनमिति। उपसंहरन्नाहएवंविहपरिणामो, सम्मदिट्ठी जिणेहि पन्नत्तो। एसोय भवसमुई,लंघइथोवेण कालेण॥६०। एवंविधपरिणाम इत्यनन्तरोदितप्रशमादिपरिणामः सम्यग्दृष्टिर्जिनः प्रज्ञप्त इति प्रकटार्थः / अस्यैव फलमाह-एष च भवसमुद्र लड्डयतिअतिक्रामति स्तोकेन कालेन। प्राप्तवीजत्वादुत्कृष्टता-ऽप्यपार्धपुद्गलपरावान्तःसिद्धिप्रातरिति / (श्रा०।) [एवंविधमेव सम्यक् वम् इत्येतत्प्रतिपादितम् मउण शब्द षष्ठ भागे। ब "जइ जिणमयं पवजह,ता मा ववहारनिच्छए मुबह / ववहारनयुच्छेए,तित्थुच्छेओजओऽवस्स / / 1 // " इत्यादीनि / वाचकमुख्येनोक्तम्- ''तत्त्वार्थ श्रद्धान सम्यदर्शन' (तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् 1-2] (35) तदपि प्रशमादिलिङ्गमेवेति दर्शयन्नाहतत्तत्थसद्दहाणं, सम्मत्तं तम्मिपसममाईया। पढमकसाओवसमा-दविक्खया हुंति नियमेण॥६२॥ तत्त्वार्थश्रद्धानं-सम्यक्त्व तस्मिन्प्रशमादयोऽनन्तरोदिताः प्रथमकषायोपशमाद्यपेक्षया भवन्ति नियनेन / अयमत्र भावार्थ:-न ह्यनन्तानु- 1 बन्धिक्षयोपशमादिमन्तरेण तत्त्वार्थश्रद्धान भवति। सति च तत्क्षयोपशमे तदुदयवधः सकाशादपेक्षयाऽस्य प्रशमादयो विद्यन्त एवेति तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यक्त्वमित्युक्तम् / श्रा० / तच्च सम्यक्त्व शुभारमपरिणामरूपमस्मदीयानामप्रत्यक्ष केवलं लिड्ने लक्ष्यते / अत आह-सम्यक्त्वं कीदृशं भवति? पवेति-पञ्चभिः शमसंवेगनिदानु-कम्पास्तिक्यरूपैलक्षणैलि लक्षितम्- उपलक्षित भवति एभिलक्षणैः परस्थं परोक्षमपि सम्यक्त्वं लक्ष्यत इति भावः / ध० 2 अधि० / सम्यक्त्वद्वार निश्वयव्यवहारमाया विधारस्तंत्र व्यवहारनयो मन्यते भिध्यादृष्टिरज्ञानी च सरावल्यास प्रतिपद्यमानको भवति,नतु सम्यक्त्वज्ञानसहितः निश्चयनया तु ब्रूते सम्यगदृष्टिानी च / सम्यक्ज्ञाने प्रतिपद्यतेन तु मिथ्यादृष्टिज्ञानी / आ० म०१ अ०। (केषु द्रव्येषु मध्ये पर्यायषु वा सम्यक्त्वमिति'सामाइय' शब्दे वक्ष्यते।) सद्दर्शन तथै-वास्य सम्यक्त्वे सति जायते / कर्म०५ कम०। याः प्रथमसम्यक्त्वस्य लाभकाले अन्तरकरणप्रविष्टस्यावस्थिताध्यवसायस्य सम्यक्त्वादिलब्धयो भवन्ति ता अनाकारोपयोगेऽपि भवन्ति / विशे। (सम्यक्त्वपालनाद् दृष्टान्तीकृतसंप्रतिनृपाख्यानकं संपइ शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम्।) मिच्छत्तं दमिऊणं, सम्मत्तम्मि धणि अहिगारो। कायव्वो बुद्धिमया, मरणसमुग्घायकालम्मि / / द०५०। सम्यक्त्वं च दयादानक्रियामूलं प्रकीर्तितम् / द्रध्या० 6 अध्या०। 'सम्यक्त्वशीलतुम्बायां, भवाब्धिस्तीर्यले सुखम् / ते दधानो मुनिजम्बुः,स्त्रीनदीषु कथं वुडेत् / / 1 / / " कल्प० 2 3 धि० 5 क्षण / (सम्यकदृष्टिमिथ्यादृष्टित्वे दण्डकः दिदि शब्द चतुर्थभागे 2511 पृष्ट गतः।) दर्शनमोहनीयकर्मभेदे, यदुदया- नः सम्यग-जिनप्रणीत त श्रद्धते तदिति। कर्म०६ कर्म०प० स० : सम्यक्त्वमचलं विधेयम, न तापसादीनां कष्टतपःसेविनामष्टगुणैश्वर्यमदीक्ष्य दृष्टिमोहः कार्य इति प्रतिपादनपरे (स्था आचारप्रथम श्रुतरकन्धस्य चतुर्थेऽध्ययने, स्था० 6 ठा० 3 उ० / स० / आव० / यथा सिद्धपञ्चाशिकायामनन्त - कालच्युतसम्यात्वादिविशेषणविशिष्टा एवैकस्मिन् समयेऽष्टोत्तर शत सिध्यन्तीत्युक्तं तथा च सति ऋषभादयः सर्वेऽष्टोतरशतमनन्त - कालच्युतसम्यकत्वादिविशेषणविशिष्टा एव अन्यथापिठा? विशिष्टा एव चेत्तदा ऋषभदेवस्यानन्तकालच्युतसम्यक्त्वमन्यथा वा? अनन्तकालच्युतसम्यक्त्वं चेत्तदा ऋषभदेवस्य त्रयोदश भवा एव कथं? पूर्वमपि सम्यक्त्वलाभात्, अन्यथापि वेति पक्षश्चेत्तदा सिद्धपञ्चाशिकादिग्रन्थैरसह कथं संवादः? आश्चर्यकृत्त्वेन चेत्तदा तदाश्चर्य किमुत्कृष्टावगाहनया तीर्थकृत्त्वेन वा संख्यातकालपतितत्वादिना वा? त्रिधाऽपि वेति व्यक्त्या प्रसाद्यमिति, प्रश्नः? अत्रीत्तरम -एकस्मिन समयेऽष्टोत्तर सिध्यन्तस्सर्वेऽप्यनन्तकालच्युतसम्यक्त्वादि-विशेषणविशिष्टा एवं सिध्यन्तीत्यक्षराणि यदि सिद्धपञ्चाशिकादिषु भवन्ति तदा बाहुबलेः षड्लक्षपूर्वप्रमाणायुषोऽपवृत्तिरिव श्रीऋषभदेवस्यापि सिद्धिराश्चर्यकृ त्वेन समर्थनीया, एवं तदधिकारे यद्यदसंभवि तत्सर्वमाश्चर्य एवान्तर्भावनीयम्॥१६३|| सेन०२ उल्ला०ा सिद्धानां ज्ञानदर्शनचारित्रवीर्याण्यनन्तानि प्रोक्तानि तत्कथ घटते तेषां पृथक् पृथगेकैकसद्भावात् तयाक्त्या प्रसाद्यमिति प्रश्नः? अत्रोत्तरम् -ज्ञानादीनां चतुण्ण तदावरणकर्मपुद्गलानामनन्तानां क्षयातेषामप्यानन्त्यं घटन एव, यदुक्तम्"ज्ञानादयस्तु भावाः,प्राणमुक्तोऽपि जीवति स है। तस्मात्तज्जीवत्वं, नित्यं सर्वग्य जीवस्य / अनन्त केवलज्ञान, ज्ञानावरणात पात! अनन्त दर्शनं चापि, दर्शनाबरणक्षयात :स क्षायिके शुद्धसम्यक्त्व-चारित्रे माहनिग्रहात। अनन्तसुखवीर्ये च, वेद्यविध्नक्षयात क्रमात्॥३॥ आयुषः क्षीणभावत्वात्, सिद्धानामक्षया स्थितिः। नामगोत्रक्षयादेवा-ऽनन्ताऽमूर्ताऽवगाहना / / 4 / / " Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्त 503 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्तपरक्कम इति / / 57 / / सेन० 3 उल्ला० / दर्शनसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः? येन द्वयोरप्यतीचाराः,परमार्थतः परस्परं केचन सदृशा एव दृश्यन्ते,तेन तयाळक्त्या भेदः प्रसाद्य इति प्रश्नः? अत्रोत्तरम्-दर्शनसम्यक्त्वयोर्वस्तुगत्याऽभेदेऽपि कथञ्चिन्निः शङ्कित्वाद्यभाव एव सम्यक्त्वातिचार उच्यते, शङ्कादिसद्भावस्तु दर्शनातिचार इति व्यक्तं प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ / षष्ठं द्वारे॥३८० सेन०३ उल्ला०। सम्मत्तं- न० (सम्यक्त्वाङ्ग) सम्यक्त्वप्रधानस्याङ्गीभूते सम्यक्त्व फलनैव फलपति, प्रति सम्मत्तकारण-त्रि० (सम्यक्त्वकारण) सम्यक्त्वं कारणमस्येति / सम्यक्त्वजन्ये,पं० सं०१ द्वार। सम्मत्तकिरिया-स्त्री० (सम्यक्त्वक्रिया) सम्यक्त्वं-तत्त्वश्रद्धानं तदेव जीवव्यापारत्वान्क्रिया सम्यक्त्वस्य क्रिया सम्यक्त्वक्रिया। सम्यग्दर्शने वा सति क्रिया सम्यक्त्वक्रिया। स्था०२ ठा०१ उ०। क्रियाभेदे, यया सम्यग्यर्शनयोग्याः कर्मप्रकृतीः सप्तसप्ततिसङ्ख्याः पध्नाति सा सम्यक्त्वक्रिया अभिधीयते। सूत्र०२ श्रु०२ अ० / सम्मत्तणाणचरणाणुवाई- त्रि० (सम्यक्त्वज्ञानचरणानुपातिन्) सम्यक्त्व - सर्शन झानं- सद्बोधरूपं चरणम् - आगमानुसारि ब्रियानुष्ठानं सम्यकत्वं च ज्ञानं चेति एकवद्भा, वात्तान्यनुपततीत्येवं शलः सम्यक्त्वज्ञानचरणानुपाती। मोक्षमार्गानुगे दर्श० 4 तत्त्व। सम्मत्तदंसि(ण)- त्रिः (सम्यक्त्वदर्शिन्) सम्यक् तत्त्वं सम्यक्त्वं तद्दी / परमार्थ दर्शिनि, आचा०१ श्रु०२ अ०६ उ० सम्भत्तपज्जव- पुं० (सम्यक्त्वपर्यव) सम्यक्त्वपरिणामविशेष, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। सम्मत्तपरक्कम- न० (सम्यक्त्वपराक्रम) सम्यक्त्वे सति वर्द्धमानगुणैः कर्मशत्रुजयलक्षण: पराक्रमी-बलं यस्मिस्तत् सम्यक्त्वपराक्रम् / उत्तराध्ययनग्ना-कोनत्रिंशेऽध्ययने, उत्त०१८ अ०। ज्ञानादीनि मुक्तिमार्गत्वेनोक्तानि संवेगादिमूलानि अकर्मतावसानानि तानीहोच्यन्ते। अस्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि व्यावर्ण्य नामनिष्पन्ननिक्षेपोऽभिधेयः, स च नामपूर्वक इत्येतन्नामनिर्देशायाह नियुक्तिकृत् - आयाणपएणेयं,सम्मत्तपरक्कमति अज्झयणं। गुण्णं तु अप्पमायं, एगे पुण वीयरागसुयं / / 503 / / आदीयत इत्यादानम् -आदिः प्रथममित्यर्थः, तच्च तत्पदं चनिराकाङ्गतया र्थगमकत्वेन वाक्यमेवादानपदं तेन, उपचारतश्चेह तदभिहितमपि तथोक्तं तल आदानपदाभिहितेन प्रक्रमान्नाम्न 'इद' मिति प्रस्तुतं सम्यक्त्वपराक्रमम् इति-उपप्रदर्शने, उच्यत इति शेषः, 'अध्ययन' प्रागुक्तनिरुक्त, वक्ष्यति हि- "इह खलु सम्मत्तपरक्कमे णामऽज्झयणे पण्णत्ते'' त्ति, गुणैर्हि निर्वृत्तं गौणम्, तुः-अवधारणे गौणमेव, अप्रमाद इत्युपलक्षणत्वाद् अप्रमादश्रुतम्, एके पुनर्वीतरागश्रुतं, कोऽर्थः?-संवगादयोऽत्र वर्ण्यन्ते, तद्रप एव च तत्त्वतोऽप्रमाद इति तदभिधायि श्रुतरूपत्वादप्रमादश्रुतमिति ब्रुवते, अन्ये त्वप्रमादोऽपि वीतरागताफल इति तत्प्राधान्याश्रयणतो वीतराश्रुतमिति गाथार्थः / / अत्र चादानपदनामः सूत्रान्तर्गतत्वा सूत्रस्पर्शिकनियुक्तरेव तत्र व्यापार इति तदुपेक्ष्य वीतरागश्रुतनाम च तस्य केषाञ्चिदेवाभिमतत्वात् 'मध्यग्रहणे आद्यन्तौ गृहीतादेव भवत' इति न्यायतो वा द्वयमप्यनादृत्याप्रमादश्रुतनिक्षेपमभिधातुमाहनिक्खेवो अपमाए, चउव्विहो दुविहो उ होइ दवम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो / / 504|| जाणगभवियसरीरे, तव्वइरित्ते अमित्तमाईसु। भावे अन्नाणअसं-वराईसु होइ नायव्वो।।५०५।। निक्खेव्वो असुअम्मि, चउक्कओ दुविहो य होइ दवम्मि। आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो।।५०६|| जाणगभवियसरीरे, तव्वइरिते असो उपंचविहो। अंडयबोंडयवालय-वागय तह कीडए चेव / / 507 / / भावसुअंपुण दुविहं, सम्मसुअंचेव होइ मिच्छसुयं / अहियारो सम्मसुए, इहमज्झयणम्मि नायव्वो॥५०८।। गाथापञ्चक प्रायः प्रतीतार्थमेव, नवरम् 'अमित्तमाईसु' ति-अमित्राः शत्रवः आदिशब्दाद्-व्यालादिपरिग्रहस्तेषु योऽप्रमादः स तद्व्यतिरिक्तोऽप्रमाद उच्यते,द्रव्यत्वं चास्य तथाविधाप्रमादकार्याप्रसाधकत्वात् द्रव्यविषयत्वाद्वा, भाव इति-भावे विचार्ये अज्ञानंमिथ्याज्ञानमसंवरःअनिरुद्धाश्रवता, आदिशब्दात्-कषायपरिग्रहः, एतेषु प्रक्रमादप्रमादःएतजय प्रति सदा साव-धानतारूपो भवति ज्ञातव्यः / तथा 'सो उ पंचविधो' त्ति-स इति तत्-तद्व्यतिरिक्तसूत्रं तुः-पुनरर्थे पञ्चविधंपञ्चप्रकार,पञ्च-विधत्वमेवाह- अण्डज-हंसाद्यण्डकेभ्यो यज्जायते यथा क्वचि-त्पट्टसूत्रं, पौण्डकं (वोण्डज) यद्वमनितिन्दुकोद्भवं यथा कास-सूत्रम्, बालजं यदूरणकादिकेशोत्पन्नं यथोर्णासूत्रम्,वाकजं-सनाऽतस्यादिवाकेभ्यो यज्जायते यथा सनसूत्रम्, कीटजं च यत्तथाविधकीटभ्यो लालात्मक प्रभवति यथा पट्टसूत्रम्, तथा सम्यक्श्रुतम्अङ्ग प्रविष्टादि मिथ्याश्रुतं-कनक-सप्तत्यादि, अधिकार:-प्रकृतं सम्यकश्रुतेन, सुब्ब्यत्ययात्तृतीयार्थे सप्तमी, इह-अध्ययने ज्ञातव्यःअवबोद्धव्यः, तद्रूपत्वादस्येति गाथा-पचकार्थः। सम्प्रति गौणतामेवास्य नाम्नो वक्तुमाहसम्मत्तमप्पमाओ, इहमज्झयणम्मि वण्णिओ जेणं / तम्हेयं अज्झयणं, णायव्वं अप्पमायसुअं॥५०६।। 'सम्मत्त ति-सुब्यत्ययात्सम्यक्त्वे उपलक्षणत्वाज्ज्ञानादिषु चाप्रमाद उक्तन्यायेन संवेगादिफलोपदर्शनतः काक्वा तदनुष्ठानं प्रत्युद्यमदर्शनेन वा 'इहमज्झयणम्मि' त्ति इहाध्ययने वर्णितो येन तस्मादेतदध्ययन ज्ञातव्यम्, अप्रमादश्रुतम्-अप्रमादश्रुतनाम-कमिति गाथार्थः / गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः। सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तबेदम्सुयं में आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नामज्झयणे समजेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइयं जं सम्म सद्दहित्ता पत्तइत्ता रोयइत्ता फासित्ता पाल Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्तपरक्कम 504 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्तपरक्कम इत्ता तीरित्ता कित्तइत्ता सोहइत्ता आराहित्ती आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिज्झंति बुज्झंति मुचंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति / / 1 / / श्रुतम् - आकणितं मे -मया आयुष्मन्निति शिष्यामन्त्रणम्, एतच सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रत्याह, तेनेतियः सर्वजगत्प्रतीतः, तेनापि कीदृशनेत्याह-भगवता-समग्रैश्वर्यादिमता प्रक्रमान्महावीरेण एवमितिवक्ष्यमाणप्रकारेण आख्यात-कथितं, तमेव प्रकारमाह -इह-अस्मिन | जगति जिनप्रवचने वा, खलु-निश्चित सम्यक्त्वमिति गुणगुणिनोरनन्यत्वात्सम्यक्त्वगुणान्वितो जीवस्तस्य सम्यक्त्वे याक्तरूपे सति पराक्रमः-उत्तरोत्तरगुणप्रतिपत्त्याकारिजयसामर्थ्यलक्षणा वर्ण्यतेऽस्मिन्निति सम्यक्त्वपराक्रम नामाध्ययनमस्तीति गम्यते / नन्वेवमिदमपि गोणमेव नाम तत्किमिति नियुक्तिकृताऽऽदानपदेनतदुक्तग? इतरे तु गौणे इति, सत्यमेतत्.किन्तु नाम्नोऽनेकविधत्वसूचनार्थ नियुक्तिकृतेत्थमुक्तं न त्वस्य गौणत्वव्यवच्छेदार्थम, तच्च केन प्रणीतमित्याह-श्रमणेन-श्रामण्यमनुचरता धर्मकाय यामास्थितेनेत्यर्थ :, भगवता महावीरेण काश्यपन प्रवेदितस्वतः प्रवेदितमेव भगवता ममेदमाख्यातमित्युक्तं भवति / अनेन वक्तृद्वारेण प्रस्तुताध्ययनरय माहात्म्यमाह। नन सुधर्मस्वामिनोऽपि श्रुतकेवलित्वातदद्वारेणाप्यस्य प्रामाण्यं सिध्यत्येव तत्किमेवमुपन्यासः? उच्यते-लब्धप्रतिष्ठेरपि गुरुपदिष्ट गुरुमाहात्म्यं च ख्यापयद्भिः सूत्रमर्थश्चाख्येय इतिख्यापनार्थमेवमुपन्यासः / इत्थं वक्तृद्वारेणास्य माहात्म्यमभिधाय संप्रति फलद्वारेणाह- यदिति-प्रस्तुताध्ययन सम्यग्-अवैपरीत्येन श्रद्धाराशब्दार्थोभयरूपं सामान्येन प्रतिपद्य प्रतीत्य-उक्तरूपमेव विशेषत इत्थति निश्चित्य, यदा-संवेगादिजनितफलानुभवलक्षणेन प्रत्ययेन प्रतीतिपथमवतार्य, रोचायेत्वातदभिहितार्थानुष्ठानविषयं तदध्ययनादिविषयं वाऽभिलाषमात्मन उत्पाद्य, संभवति हि कृचिद् गुणवत्तथाऽवधारितेऽपि कदाचिदरुचिरित्येवमभिधान, 'फासित्त' त्ति तदुक्तानुष्ठानतः स्पृष्ट्वा पालयित्वा-तद्विहितानुष्ठानस्यातीचाररक्षणेन तीरयित्वा-तदुक्तानुष्ठान पारं नीत्या कीर्तयित्वा-स्वाध्यायविधानतः संशुद्ध्य-शोधयित्वा तदुक्तानुष्ठानस्य तत्तदगुणस्थानावाप्तित उत्तरोत्तर- शुद्धिप्रापणन आराध्य-यथावदुत्सर्गापवादकुशलतया यावज्जीवं तदर्थासवनेन एतत् सर्व स्वमनीषिकातोऽपि स्यादत आह-आज्ञया-गुरुनियोगात्मिकया अनुपाल्य-सततमासेव्य, यद्वा-स्पृष्ट्वा योगत्रिकेण मनोवाकायलक्षणेन, तत्र मनसा-सूत्रार्थोभयचिन्तनेन वचसा-वधनादिना कायेनभङ्ग करचनादिना, एवं पालनाराधनयोरपि योगत्रयं वाच्यम्,पालयित्वा परावर्तनादिनाभिरक्ष्य तीरयित्वा-अध्ययनादिना परिसमाप्य कीनयित्वा-गुराविनयपूर्वकमिदमित्थं मयाऽधीतमिति निवेद्य शोधयित्वागुरुवदनुभाषणादिभिः शुद्धं विधाय आराध्य-उत्सूत्रप्ररूपणादि | परिहारेणाबाधयित्वा शेषं प्राग्वन्नवरम् आज्ञयेति जिनाज्ञया, उक्त, हि''फासिय जोगतिएणं, पालियमविराहिय च एमेय। तीरियमंतं पाविय, किट्टिय गुरुकहण जिणमाणा / / 1 / / '' एवं च कृत्वा किमित्याह-बहवः अनेक एव जीवाःप्राणिनः सिद्ध्यन्ति-इहवागमसिद्धत्वादिना, बुध्यन्तेघातिकर्मक्षयेण, विमुच्यन्तेभवोपग्राहिकर्मचतुष्टयेन, ततः परिनिर्वान्तिकर्मदावानलोपशमेन अत एव सर्वदुःखाना-शारीरमान तानाम् अन्तपर्यन्तं कुर्वन्ति मुक्तिपदावाप्त्येति सूत्रार्थः। उत्त० पाई० 26 अ०॥ सम्प्रति विनेयानुग्राहार्थ सम्बन्धाभिधानपुरस्सरं प्रस्तु ताध्ययनार्थमाहतस्स णं अय? एवमाहिजइ,तं जहा-संवेगे 1 निव्वेए 2 धम्मसद्धा 3 गुरुसाहम्भियसुस्सूसणया 4 आलोअणया 5 निंदणया 6 गरहणया 7 सामाइए 8 चउवीसत्थएवंदणे 10 पडिक्कमणे 11 काउस्सग्गे 12 पचक्खाणे 13 थयथुइमंगले 14 कालपडिलं हणया 15 पायच्छित्तकरणे 16 खमावयणे 17 सज्झाए 18 वायणया 16 पडिपुच्छणया 20 परियट्टणया 21 अणुप्पे हा 22 धम्मक हा 23 सुत्तस्सआराहणया 24 एगग्गमणसंनिवेसणया 25 संजमे 26 तवे 27 बोदाणे 28 सुहसाए 26 अपडि-बद्धया 30 विचित्तसयणासणसेवणया 31 विणियट्टणया 32 संभोगपचक्खाणे 33 उवहिपचक्खाणे 34 आहारपचक्खाणे 35 कसायपच्चक्खाणे 36 जोगपञ्चक्खाणे 37 सरीरपच्चक्खाणे 38 सहायपचक्खाण्णे 36 भत्तपच्चक्खाणे 40 सम्भावपचक्खाणे 41 पडिरूवणया 42 वेयावच्चे 43 सव्वगुणसंपुन्नया 44 वीयरागया 45 खंती 46 मुत्ती 47 मद्दवे 48 अजवे 46 भावसच्चे 50 करणसचे 51 जोगसच्चे 52 मणगुत्तया 53 वयगुत्तया 54 कायगुत्तया 55 मणसमाहारणया 56 वयसमाहारणया 57 कायसमाहारणया 58 नाणसंपन्नया 56 दंसणसं-पन्नया ६०चरित्तसंपन्नया 61 सोइंदियनिग्गहे 62 चक्खिदियनिग्गहे 63 घाणिंदियनिग्गहे 64 जिन्भिंदियनिग्गहे 65 फासिं दियनिग्गहे 66 कोहविजए 67 माणविजए 65 मायाविजये 66 लोभविजए 70 पिज्जदोसमिच्छादसणविजए 71 सेलेसि 72 अकंमया 73 / एतस्य सम्यक्त्वपराक्रमाध्यनस्य श्रीमहावीरेण पाकममों व्याख्याते, तद्यथा-संवेगा मोक्षाभिलाष: 1, निससारद्विरक्तता 2, धर्मे श्रद्धा धर्म शधिः 3. गुरुतत्त्वोपदमा बस्य गुरोः, साधर्मिणः समानधर्मकर्तुश्च शुश्रूषणा-सेवा , आलोचना गुरोरगे पायाना प्रकाशनम, 5, निन्दना-आत्मसाक्षिकमात्मना निन्दा 6, गर्हणा-अपर लोकानां पुरतः स्वदोषप्रकाशनम् 7, सामायिकं - शत्री मित्रे साम्यम् 8, चतुर्विशतिस्तवो 'लो गर जो- यगर' इत्यादि चतुर्विंशतिजिननामपठनम् 6, वन्दनं-द्वादशा-व-वन्दनेन गुरो Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्तपरक्कम 505 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मत्तपरक्कम वन्दना 10, प्रतिक्रमण-पापान्निवर्त्तनम् 11, कायोत्सर्गोऽतीचारशुद्ध्यर्थ कायस्य व्युत्सर्जनं कायममत्ववर्जनम् 12, प्रत्या-ख्यानं - मूलगुणोत्तरगुणधारणम् 13, स्तवस्तुतिमङ्गलं , स्तवः शक्रस्तवपाठः, स्तुतिरुर्वीभूय जघन्येन चतुष्टयस्तुतिकथन, मध्यमेनाष्टस्तुतिकथन, उत्कृष्टन 108 अष्टोत्तरशप्तस्तुतिकथनम्, स्तवश्च स्तुतयश्च स्तवस्तुतयः, स्तवस्तुतय एव मङ्गलं स्तवस्तुतिमङ्गलम् 14, कालप्रतिलखना कालस्य व्याघातिप्रभृतिकालचतुष्टयस्य प्रतिलेखना प्ररूपणा कालग्रहणरूपा कालप्रतिलेखना 15, प्रायश्चित्तकरणलग्नस्य पापस्य निवृत्त्यर्थ तपसः करणम् 16, क्षमापना अपराधक्षामणम् 17, स्वाध्यायश्वतुर्विधो वाचनादिकः 18, वाचना-गुरुसमीपे सूत्राक्षराणां ग्रहणम् 16, प्रतिपृच्छना- गुरोः पुरतः संदेहस्य पृच्छनम् 20, परिवर्तना सूत्र-पाठस्य मुहुर्मुहुर्गुणनम् 21, अनुप्रेक्षा-सूत्रस्य चिन्तनम 22, धर्मकथाधर्मसंबद्धाया वार्ताया कथनम् 23, श्रुताराधना-सिद्धान्तस्याराधना 24, एकाग्रमनः सनिवेशना, चित्तस्यैकस्मिन् प्रधाने ध्येयवस्तुनि स्थिरीकरणम् 25, संयम-आश्रवाद्विरति-रूपः 26, तपोद्वादशविधम् 27, व्यवदान-विशेषणावदानं कर्मशुद्धिर्यवदानं कर्मणां निर्जरा 28, सुखशात-सुखस्य विषयसुखस्य शातं-शातनं स्पृहानिवारणम् 28, अप्रतिबद्धता-नीरागत्वम् 30, विविक्तशयनासनसेवनास्त्रीपशुपण्डकादिरहि-तशयनासनानामासेवना 31, विनिवर्त्तनापञ्चेन्द्रियाणां विषयेभ्यो विशेषेण निवर्त्तनम 32, संभोगप्रत्याख्यान - संभोग एकमण्डलीभोवतृत्वं, तस्य प्रत्याख्यानं, गीतार्थावस्थायां जिनकल्पाचारगृहणेन परिहारः संभोगप्रत्याख्यानम् 33, उपधिप्रत्याख्यानरजोहरणमुखवस्त्रिका विहायाऽन्योपधिपरिहारः 34, आहारप्रत्याख्यानंसदोषाहारपरिहार: 35, कषायप्रत्याख्यानं क्रोधादिपरिहारः 36, योगप्रत्याख्यान-मनोवाक्कायानां व्यापारी योगस्तस्य प्रत्याख्यानं परिहारः 37, शरीरप्रत्यार यान प्रस्तावे समागते शरीरस्यापि व्युत्सर्जनम् 38, साहाय्यप्रत्याख्यान साहाय्यकारिणां परिहारः 36, भक्तपानप्रत्याख्यानमनशनग्रहणम 40, सद्भावप्रत्याख्यानं-सद्भावेन पुनरकरणेन परमार्थवृत्त्या प्रत्याख्यान सद्भावप्रत्याख्यानम् 41, प्रतिरूपता-प्रतिः सादृश्ये, ततः प्रतिः स्थविरकल्पिमुनिसदृशो रूपं वेषो यस्य स प्रतिरूपः, प्रतिरूपस्य भावः प्रतिरूपता, स्थविरकल्पिसाधुयोग्यवेषधारित्वम् 42, वैयावृत्त्यव्यावृतो गुर्वादिकार्येषु व्यापारवान, तद्भावो वैयावृत्त्यं साधूनामाहाराद्यानयनसाहाय्यम् 43, सर्वगुण-संपन्नताज्ञानादिगुणसहितत्वम् 44, वीतरागता-रागद्वेषनिवारणम् 45, क्षान्तिः क्षमा 46. नुक्तिनिर्लोभता 47, मार्दवमानपरिहारः 48, आर्जवंसरलत्वं 46, भावसत्यमन्तरात्मनः शुद्धत्वम् 50, करणसत्यप्रतिलेखनादिक्रियाविषये निरालस्यम् 51, योगसत्यंमनोवाक्काययोगेषु सत्यं योगसत्यम् 52, मनागुप्तित्वमनसोऽशुभपदार्थानोपनम् 53, वचोगुप्तित्वंवचसोऽशुभपदार्थानोपनम् 54, कायगुप्तित्वंकायस्याशुभव्यापारादोपनम् 55, मनःसमाधारणा-मनसः शुभस्थाने स्थिरत्वेन स्थापनम 56, वचः समाधारणावचनस्य शुभकार्य स्थापनम् 57, कायस माधारणा-कायस्य शुभकार्ये स्थापनम् 58, ज्ञानसं-पन्नताश्रुतज्ञानसहित्वम् 56 दर्शनसंपन्नत्व सम्यक्त्वसहित-त्वम् 60. चारित्रसंपन्नत्वं यथाख्यातचारित्रयुक्तत्वम् 61, श्रोत्रेन्द्रियनिग्रहः 62, चक्षुरिन्द्रियनिग्रहः 63, घ्राणेन्द्रियनिग्रहः 64, जिहेन्द्रियनिग्रहः 65, स्पर्शेन्द्रियनिग्रहः 66 क्रोधविजयः ६७.मानविजयः ६८.मायाविजयः 66, लोभविजयः 70, प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शनविजयः, प्रेय्य-प्रेमरागरूप, द्वेषोऽप्रीतिरूपः, मिथ्यादर्शन-सांशयिकादि, तेषा विजयः, प्रेय्य च द्वेषश्च मिथ्यादर्शनं च प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शनानि,तेषां विजयः प्रेय्यद्वेषमिथ्यादर्शन विजयः 71, शैलेशी चतुर्दशगुणस्थानस्थायित्वम् 72, अकर्मता-कर्मणामभावः 73 / उत्त० 26 अ०। अथ संवेगादिधर्मान् फलतोऽभिधित्सुरिदमाहअह भंते ! संवेगे निव्वेए गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया आलोयणया निंदणया गरहणया खमावणया सुयसहायता विउसमणया भावे अप्पडिबद्धया विणिवट्टणया विवित्तसयणासणसेवणाया सोइंदियसंवरे 0 जाव फासिंदियसंवरे जोगपच्चक्खाणे सरीरपच्चक्खाणे कसायपच्चक्खाणे संभोगपच्चक्खाणे उवहिपच्चक्खाणे भत्तपच्चक्खाणे खमाविरागया भावसच्चे जोगसच्चे करणसच्चे मणसमण्णाहरणया वयसमन्नाहरणया कायसमन्नाहरणया कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसलविवेगे णाणसंपन्नया दंसणसंप० चरित्तसंप० वेदणअहियासणया मारणंतियअहियासणया एएणं भन्ते! पया किंपज्जवसाणफला पण्णत्ता? समणाउसो ! गोयमा ! संदेगे निव्वेगे जाव मारणंतिय अहियासणया एएणं सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता, समणाउसो ! (सू०६००) 'अहे' त्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः ‘संवेए' ति संवेजनं संवेगोमोक्षाभिलाषः निव्व एति-निर्वेदः-संसारविरक्तता गुरुसाहम्भियसुस्सूसणय ति-गुरूणां-दीक्षाद्याचार्याणा साधर्मिमकाणां चसामान्यसाधूना या शुश्रूषणता-सेवा सा तथा 'आलोयण' त्ति-आअभिविधिना सकलदोषाणां लोचना- गुरुपुरतः प्रका-शना आलोचना सैवालोचनता निंदणय त्ति-निन्दनम्-आत्म-नैवात्मदोषपरिकुत्सनं 'गरहणय' त्ति-गर्हण -परसमक्षमात्मदो-षोद्भावनं 'खमावणय' त्ति परस्यासन्तोषवतः क्षमोत्पादनम् 'विउसमणय' ति-व्यवशमनतापररिमन क्रोधान्निवर्त्तयति सति क्रोधोज्झनम, एतच क्वचिन्न दृश्यते, 'सुयसहायय' ति-श्रुतमेव सहायो यस्यासौ श्रुतसहायस्तद्धावस्तत्ता, 'भाव अप्पडिबद्धय' ति-भावे-हासादावप्रतिबद्धता-अनुबन्धवर्जन 'विणिवट्टणय' नि-विनिवर्त्तनं-विरमणमसंयमस्थानेभ्यः 'विवित्तसयणासणसेवणयत्ति-विविक्तानि-स्त्र्याद्यसंसक्तानि यानि शयनासनानि उपलक्षणत्वादुपाश्रयश्च तेषां या सेवना सा तथा श्रोत्रेन्द्रियसंवरादयः प्रतीताः 'जोगपचक्खाणे' त्ति-कृतकारितानुमतिलक्षणानां मनःप्रभृतिव्यापाराणां प्राणातिपातादिषु प्रत्याख्यानं निरोधप्रतिज्ञान योगप्रत्याख्यान, 'सरीरपच्चक्खाणे' त्ति-शरीरस्य प्रत्याख्या Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मत्तपरक्कम 506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्महसण नम् - अभिष्वङ्ग प्रतिवर्जनपरिज्ञानं शरीरप्रत्याख्यानम, 'कसायपच्चक्खाणे' त्ति-क्रोधादिप्रत्याख्यानं-तान् न करोमीति प्रतिज्ञानम् 'संभोगपच्चक्खाणे' त्ति-समिति-संकरण स्वपरलाभमीलनात्मकेन भोगः सम्भोगः-एकमण्डलीभोक्तृक्त्वमित्येकोऽर्थः तस्य यत् प्रत्याख्यान-जिनकल्पादिप्रतिपत्या परिहारस्तत्तथा, 'उवहिपच्चक्खाणे' ति-उपधेरधिकरय नियमः भक्तप्रत्याख्यानं व्यक्तम, ‘खम' ति-क्षान्तिः 'विरागय त्ति वीतरागतारागद्वेषापगमरूपा भावसच्चे' त्ति भावसत्यं-शुद्धान्तरात्भतारूपं पारमार्थिकावितथत्वमित्यर्थः 'जोगसच्चे' त्ति-योगा:-मनोवाकायास्तेषा सत्यम्अवितथत्वं योगसत्यम्, 'करणसचे'ति-करणे-प्रतिलेखनादौ सत्य-यथोक्तत्वं करणसत्यम्, 'मणसमन्नाहरणय' त्ति-मनसः समिति-सम्यक् अन्वितिस्वावस्थानुरूपेण आडिति-मर्यादया आगमा-भिहितभावाभिव्याप्त्या वा हरण-सड़ क्षेपण मनःसमन्वाहरणं तदेव मनःसमन्वाहरणता, एवभितरे अपि, 'कोहविवेग' त्ति-क्रोधविवेकः-कोपत्यागः तस्य दुरन्ततादिपरिभावनेनोदयनिरोधः 'वेयणअहियासणय' त्ति-क्षुधादिपीडासहनम्, मारणंतिय-अहियासणय' त्ति कल्याणमित्रबुद्ध्या मारणन्तिकोपसर्गसहनमिति / भ०१७ श०३ उ०। एस खलु सम्मत्तपरकमस्स अज्झयणस्य अढे समणेणं भगवया महावीरेणं आघविए पन्नविए परूविए दंसिए निदंसिए उवदंसिए त्ति बेमि। सम्मत्तपरक्कमज्झयणं सम्मत्तं। एष-अनन्तरोक्तः खलु-निश्वये-सम्यक्त्वपराक्रमस्याध्ययन-स्य / अर्थ:-अभिधेयः श्रमणेन भगवता महावीरेण 'आघविए' ति-आर्षत्वाद आख्यातः-सामान्यविशेषपर्यायाभिव्याप्तिकथनेन प्रज्ञापितःहेतुफलादिप्रकाशनात्मकप्रकर्षज्ञापनेन प्ररूपितः-स्वरूपकथनेन दर्शितःनानाविधभेददर्शनन निदर्शितः-दृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्शितः उपसंहारद्वारेण, इदमपि चूर्णिमाश्रितमेव / इतिपरिसमाप्ती,अधीमीति पूर्ववत्, गतोऽनुगमः,सम्प्रति नयाः, तेऽपि तथैव / उत्त० पाई०२६ अ०। सम्मत्तवाय- पुं० (सम्यक्त्ववाद) परस्परसव्यपेक्षकालादिरूपे सम्यग्वादे,सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। सम्मत्तविसुद्धया-स्त्री० (सम्यक्त्वविसुद्धता) स्थिरत्वे, सम्यक्त्वविसुद्धौ, स०। सम्मत्तसद्दहण- न० (सम्यक्त्वश्रद्धान) सम्यक्त्व श्रद्धीयतेऽस्तीति प्रतिपद्यतेऽननेति सम्यक्त्वश्रद्धानम् / सम्यक्त्वास्तिक्ये, ध०२ 1 अधि०। सम्मत्तसामाइय - न० (सम्यक्त्वसामायिक) सम्यक्त्वमुक्तरूप मेव सामायिकं सम्यक्त्वसामायिकम्। सामायिकभेदे, विशे० इमे च तत्पर्यायाःसम्मदिवि अमोहो, सोही सब्भावदंसणं वोही। अविवजओ सुदिट्ठी-एवमाई निरुत्ताई।।२७५४|| विशे० / (एषां पदाना व्याख्या तत्तच्छब्देषु।) (अस्य सर्वा वक्तव्यता 'सामाइय' शब्दे वक्ष्यामि।) सम्मत्तसुद्धि - स्त्री० (सम्यक्त्वशुद्धि) सम्यक्त्वशौचे, आव० योगाः संगृह्यन्ते, तत्थ उदाहरणगाहासागेयम्मि महाबल, विमलपहे, चेव चित्तकम्मे य। निप्फत्ति छट्ठमासे, भूमीकम्मस्स करणं च।।१२६७।। अस्या व्याख्या कथानकोदवसेया, साएए महबलो राया अत्थाणीए दूओ पुच्छिओ-कि नत्थि मम जं अन्नेसिं रायाणं अत्थि त्ति? चित्तसभ त्ति, कारिया, तत्थ दो वि चित्तकरावप्रतिमौ विख्यातौविमलः, प्रभाकरश्व / तेसिं असद्धेणं अप्पिया, जव-णियंतरिया चिंतेइ, एगेण निम्भवियं, एगेण भूमी कया, राया तस्स तुट्टो, पूइयो य पुच्छिओ य। प्रभाकरो पुच्छिओ भणइ-भूमी कया. नताव चित्तेमि ति, रया भणइके रिसया भूमी कय ति? जव-णिया अवणीया, इयरं चित्तकम्म निम्मलयर दीसइ, राया कुविओ, विन्नविओ-पभा एत्थ संकत त्ति, तं छाइयं, नवरं कुटुं तुह्रण एवं चेव अच्छउ त्ति भणिओ, एवं सम्मत्तं विसुद्धं कायव्वं, तेनैव योगाः संगृहीता भवन्ति 12 / आव० 4 अ०। आ० क०। सम्मत्तोवरि -अव्य० (सम्यक्त्वोपरि) सम्यक्त्वलाभकाल-स्योर्ध्व, पञ्चा० 10 विव०। सम्मद्द-पु० (सम्मर्द) संघर्षे, स्था० 3 ठा० 4 उ० भ०॥ सम्मईसण- न० (सम्यग्दर्शन) दर्शनमोहनीयभेदानां क्षयजसम्यकुत्वलक्षणे दर्शनभेदे, स्था० 7 टा० 3 उ० / मिथ्यात्वमोहनीयकर्माणुवेदनोपशमक्षयक्षयोपशमसमुत्थे आत्मपरिणामे, भ० 8 10 2 उ० / आ० म०। ('दंसण' शब्दे चतुर्थभागे 2426 पृष्ठे अस्य भेदद्वयं गतम्!) तत्त्वार्थश्रद्धाने, स्था०। स्वप्नदर्शनकाले भगवान् सरागसम्यग्दर्शनीति सरागसम्य ग्दर्शनं निरूपयन्नाहदसविधे सरागसम्मईसणे पन्नत्ते, तंजहा-"निसमा १वते सरुई 2, आणरुती 3 सुत्त 4 वीतरुतिमेव 5 / अभिगम 6 वित्थाररुती 7, किरिया 8 संखेव धम्मरुती १०॥१॥"(सू०७५१) ‘दसविहे' त्यादि, सरागस्य-अनुपशान्ताक्षीणमोहस्य यत्सम्यग्दर्शनं-तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा, अथवा-सराग च तत्सम्यग्दर्शनं चेति विग्रहः,सराग सम्यग्दर्शनमस्येति वेति, निसग्ग' गाहा रुचिशब्दः प्रत्येक योज्यते, ततो निसर्गः-स्वभावस्तेन रुचिः-तत्त्वाभिलाषरूपाऽस्येति निसर्गरुचिनिसर्गतो वा रुचिरिति नि-सर्गरुचिः, या हि जातिस्मरणप्रतिभादिरूपया स्वमत्याऽवगतान् सद्भूतान् जीवादीन् पदार्थान् श्रद्दधाति स निसर्गरुचिरिति भावः, यदाह- "जो जिणदिट्ट भावे, चउविहे (द्रव्यादिभिः) सद्दहाइ सयमेव / एमेव नन्नहत्ति य, निसागराइ तेि नायव्यो Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मईसण 507 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मईसण / / 1 / / " इति। तथोपदेशो - गुर्वादिना कथनं तेन रुचिर्यस्येत्युपदेशरचिः तत्पुरुषपक्षः स्वयमूहाः सर्वत्रेति, यो हि जिनोक्तानेव जीवादीनान तीर्थकरशिष्यादिनोपदिष्टान् श्रद्धत्ते स उपदेशरुचिरिति भावः। यत आह"ए चेव उ भावे, उवइटे जो परेण सद्दहइ / छउमत्थेण जिणेण व. उवएसगई मुणेयव्यो / / 1 // " इति / तथाऽऽज्ञासर्वज्ञवचनात्मिका तथा रुचिर्यस्य स तथा, वा हि प्रतनुरागद्वेषमिथ्याज्ञानतयाऽऽचार्यादीनामाज्ञयैव कुग्रहाभावा-जीवादि तथेति रोचते माषतुषादिवत् रा आज्ञारुचिरिति भावः, भणितं च- "रागो दोसो मोहो,अन्नाणं जरस अवगय होइ। आणाए रोयता,सो खलु आणारुई होइ / / 1 / / " इति। 'सुतबीयरुईमव ति-इहापि रुचिशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धात् सूत्रेण - आगमन रुचिर्यस्य स सूत्ररुचिः, यो हि सूत्रागममधीयानस्तनवासप्रविशादीनां सम्यक्त्वं लभते गोविन्दवाचकवत् स सूत्ररुचिरिति भावः, अभिहित च-' जो सुत्तमहिजतो. सुएण ओगाहई उ सम्भत्तं / अंगण याहिरेण य, सो सुत्तरुइत्ति नायव्वो।।१।।" इति। तथा बीजमिव, बीज यदेकमप्यनेकार्थप्रतिबोधोत्पादकं वचस्तेन रुचिर्यस्य स बीजरुचिः, यस्य होकेनापि जीवादिना पदेनावग-तेनानेकेषु पदार्थषु रुचिरुपैति स बीजरुचिरिति भावः, गदितं च- "एगपएणेगाई पयाई, जो परसरई उ सम्मत्ते। उदए व तिल्ल बिंदू, सो बीयराइ ति नायथ्यो / / 1 / / '' इति, एवे' ति समुचये, / तथा अभिगमवित्थाररुइ'त्ति-इहापि प्रत्येक रुचिशब्दः सम्बन्धनीयः, तत्राभिगमो-ज्ञानं ततो रुचिर्थस्य सोऽभिगमरुचिः, येन ह्याचारादिकं श्रुतमर्थतोऽधिगतं भवति सोऽभिगमरुचिः, अभिगमपूर्वकत्वात्तद्रुवेरिति भावः, गाथाऽत्र-''सा होइ अभिगमरुई, सुअनाण जस्स अत्थओ दिव / रक्षारस अंगाई, पइन्नयं दिहिवासा य / / 1 / / इति / तथा विस्तारो-व्यासस्ततो रुचिर्यस्य स तथेति, येन हि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां सर्वपर्यायाः सर्वैयप्रमाणैाता भवति स विस्ताररुचिः, ज्ञानानुसारिरुचित्वादि ति, न्यगादि च- "दव्वाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा / सव्वाहि नयविहीहिं, वित्थाररुई मुणेयव्यो॥१॥” इति। तथा क्रिया-अनुष्ठानं रुचिशब्दयोगात् तत्र रुचिर्यस्य स क्रियारुचिः / इदमुक्तं भवति-दर्शनाद्याचारानुष्ठाने यस्य भावतो रुचिरस्तीति स क्रियारुचिरिति, उक्तंच- "नाणेणदसणेण य, तवे चरिते य समिइगुत्तीसु। जो किरियाभावरुई, सो खलु किरियारुई होइ॥१॥" इति। तथा संक्षेपः-संग्रहस्तत्र रुचिरस्येति संक्षेपरुचिः, यो ह्यप्रतिपन्नकपिलादिदर्शनो जिनप्रवचनानभिज्ञश्व संक्षेपेण चिलातिपुत्रवदुपशमादिपदत्रयेण तत्त्वरुचिमयाप्नोति स संक्षेपरुचिरिति भावः / आह च-"अणभिग्गहियकुदिट्टी, संखेवरुइ त्ति होइ नायथ्यो / अवि सारओ पवयणे, अणभिगहिओ य सेसेसु // 1 // " इति / तथा धर्म - श्रुतादौ रुचिर्यस्य स तथा, थो हि धर्मा-स्तिकार्य श्रुतधर्मा चारित्रधर्म च जिभोक्तं अद्धत्ते स धर्मरुचि-रिति शेयः, यदगादि- "जो अस्थिकायधम्म, सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च / सहइ जिणाभिहियं, साधम्मरुइ ति नायव्वो // 1 // " इति। स्था० 10 ठा०३ उ०। सूत्र०।०। आ० म०। ('सम्मत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे भेदा उक्ताः।) 'द्वारमूलं प्रतिष्ठानमाधारी भाजन निधिः / षट्कस्यास्य च धर्मस्य, सम्यग्दर्शनमिष्यते।।१।।" आ० चू० 6 अ०। आचा०। दृष्ट्वा ज्ञात्वा च सम्यक् पन्थानमासेव्य च कृतं नान्यथा, तथा चाऽऽहसम्मइंसणदिट्ठी, नाणेण यसुठू तेहिं उवलद्धी। चरणकरणेण पहओ, निव्वाणपहो जिणिंदेहि / / 110|| व्याख्या-समग्दर्शनन-अविपरीतदर्शनेन दृष्टः, ज्ञानेन च सुष्ठुयथाऽवस्थितः तैरहदितिः , चरणं च करणं चेत्येकवद्भावस्तेन प्रहतःआसेवितः निर्वाणपथः- मोक्षमागों जिनेन्द्रेः / तत्र व्रतादि चरणं, पिण्डविशुद्ध्यादि च करणं, यथोक्तम्- "वयसमणधम्म-संजमवेयावच्चं च बभगुत्तीओ। णाणादितियं तव को-व निग्गहाई चरणमेयं ||1|| पिंडविराोही समिई, भावण पडिमा य इंदियनिरो हो / पडिलेहणगुत्तीओ, अभिग्गहा चेव करणं तु॥२॥" इति गाथार्थः। आव० १अ०। सम्यग्दर्शनप्राप्त्युपायमाहबंधद्वितीपमाणं,सामित्तं चेव सव्वपगडीणं। को केवइयं बंधइ, खवेइ वा केत्तियं होइ / / 5 / / सम्यक्त्ववकर्मणां क्षयत उपशमतः क्षयोपशमतश्योपजायत, यादयश्च त्रयः प्रकारा बद्धानां कर्मणां नाबद्धानामिति प्रथमतो बन्धनस्थितिप्रमाण जघन्यत उत्कर्षतश्च वक्तव्यम् / तच्चैवम्-ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयान्तसयाणां त्रिंशत्सागरोपकोटीकोट्या उत्कृष्ट स्थितिपरिमाणं मोहनीयस्य सप्ततिसागरोपमकोटाकोट्यः, नामगोत्रयोर्विशतिसागरो पमकोटीकोट्यः आयुष-स्त्रिंशत्सागरोपमाणि तथा जघन्य वेदनीयस्य द्वादशमुहूर्ता नाम-गोत्रयोरष्टौ शेषाणामन्तर्मुहूर्तम, तथा सर्वप्रकृतीनां सत्तामधिकृत्य स्वामित्वं वक्तव्यं, तचैवम्-मिथ्यादृष्टिसास्वादनमिश्राविरतसम्यगदृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहा अष्टानामपि प्रकृतीना स्वामिनः मोहनीयवानां सप्ताना क्षीणमोहावेद्यायुर्नामगोत्राणां सयोग्ययोगिकेवलिनः तथा कः कियत् बध्नातीति वक्तव्यं तत्र मिथ्यादृष्टयोऽप्रमत्तान्ताः सप्तविधबन्धका वा अष्टविधबन्धका वा अपूर्वकरणानिवृत्तिबादराः सप्तविधबन्धक्यः, सूक्ष्मसंपरायाः षविधबन्धकाः उपशान्तमोहक्षीणमोहसंयोगिकेवलिनः सातावेदनीयकबन्धका अबन्धका अयोगिकेवलिनः, तथा को वा कियान क्षपयतीति वक्तव्यं तत्र मिथ्यादृष्ट्य उपशान्तमोहपर्यन्ता अक्षीणाष्टप्रकृतिकाः, क्षीणमोहाः क्षीणं मोहनीयमिति अक्षीणसप्तप्रकृतिकाः सयोग्ययोगिकेवलिनः क्षीणघातिकर्माणः। अथ कस्य कर्मणः उत्कृष्टायां स्थितौ कस्य नियमत उत्कृष्टा स्थितिः कस्य वा भजनयेत्यत आहआउमवजा तु ठिई, मोहोकोसम्मि होइ उक्कोसो। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मइंसण 508 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मइंसण मोहविवज्जुक्कोसो, मोहो सेसो उ भइयव्वो / / 66|| मोहोत्कर्ष मोहनीयरयोत्कृष्टायां स्थितौ सत्यां नियमतः आयुर्वजत्वात् शेषाणां कर्मणामुत्कृष्टा स्थितिर्भवति, मोह विवर्जस्य ज्ञानावरणीयादेरुत्कर्षे -उत्कृष्टायां स्थिती मोहोमोहनीयं शेषाश्च प्रकृतयों भक्ताः- विकल्पिताः कदाचिदुत्कृष्टस्थितिका भवन्ति कदाचिन्नेति भावः / तत्र सर्वेषां कर्मणामुत्कृष्ट स्थितौ वर्तमानः प्रबलमोहाऽऽच्छादितत्वान्न किमपि सम्यग्दर्शन लभते, उक्तं च-"अट्टण्ह वि पगडीणं, उकोसठिईए उवट्टमाणो उ। न लभति सम्मईसणमिच्छत्तण वि मोहा उ // 1 // " किं तु सप्तानामायुर्वर्जानामभ्यन्तरकोटीकोट्या वर्तमानाः। तथा चाहअंतिमकोडाकोडी-ऍ होइसव्वासि कम्मपगडीणं। पलियामसंखभागे,खीणे सेसे हवइगंठी||१८|| आयुर्वर्जाना सर्वासां कर्मप्रकृतीनामन्तिमायां कोटीकोट्यां स्थितायां तत्रापि पल्योपमस्यासंख्येयतमे भागे क्षीणे शेष स्थितिदलिके सति सम्यग्दर्शनलाभो भवति, केवलं तदानीं सम्यग्दर्शनलाभान्तरायात्ततः कर्कशधनरूढगुपिलवल्कग्रन्थिरिव दुर्भेदो घनरागद्वेषपरिणामरूपी गन्धिर्भवति। ततस्तस्मिन् भिन्ने प्रतिपत्तव्यं,तस्य च भेदः करणवशात्। अथकरणवक्तव्यतामाहतिविहं च होइ करणं,अहापवत्तं तु भव्वभव्वाणं / भवियाण इमे अन्ने,अपुवकरणा नियत्ती य||६|| करणं नाम परिणामविशेषस्तत्त्रिविधं-त्रिप्रकारं भवति। तद्यथा-प्रथम यथाप्रवृत्ताख्यं भव्यानाम, अभव्यानां च साधारणम् / भव्याना पुनरिमे द्वे अन्ये करणे अपूर्वकरणमनिवृत्तिश्चानिवृत्ति-करणं च। सांप्रतमेतेषामे त्रयाणां करणानां कालविभागमाहजा गंठी तप्पढम, गंठीसमतित्थतो भवे वीयं / अनियट्टी करणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे / / 100|| यावद् ग्रन्थिस्तावत् प्रथमं यथाप्रवृत्ताख्यं करणं ग्रन्थिं समतिक्रामतो भिन्दनस्येत्यर्थः पुनरपूर्वकरणम्, अनिवृत्तिकरण तु सम्यक्त्वपुरस्कृतं येन सम्यक्त्वपुरस्कृतस्तस्मिन् जीवे सम्यक्-त्वाभिमुखे इत्यर्थः / अथ यावत् ग्रन्थिस्तावन्निर्गुणस्य सतः कथं कर्मशराशेः क्षपणम्? उच्यते गिरिसरित्प्रस्तरदृष्टान्तात्। ततस्तमेव दृष्टान्तं तत्प्रसङ्गतः शेषकरणयोरपि। दृष्टान्तानभिधित्सुरिगाथामाहनदिपहजरवत्थजले, पिपीलिया पुरिसकोद्दवा चेव। सम्महसणभे, एते अट्ठ उ उदाहरणा // 101 / / करणवशात्सम्यग्दर्शनलाभे एतान्यष्टावुदाहरणानि तद्यथा- 'नदि' त्ति-गिरिनदीप्रस्तरोदाहरणं पथदृष्टान्तः ज्वरोदाहरणं वस्त्रोदाहरण जलोदाहरणं पिपीलिकोदाहरणं पुरुषोदाहरणं कोद्रवोदाहरणम् / तत्र प्रथमतो गिरिसरित्प्रस्तरोदाहरणं भावयति गिरिसरियपत्थरेहि, आहरणं होइ पढमए करणे / एवमणाभोगियकरण-सिद्धितो खवण जा गंठी / / 1021 गिरिसरित्प्रस्तरेरुदाहरण-दृष्टान्तःप्रथमे यथाप्रवृत्ताख्ये करणे भवति, तच्चैवम्- यथा गिरिसरित्प्रस्तरा-गिरिसदुपलावेगतो घर्षणघोलनादिना केचिद्वर्तुला भवन्ति केचित्तस्रा एवमनाभोगकरणसिद्धितो यथाप्रवृत्तकरणप्रभावतः सुदीर्घाया अपि कर्मस्थितेस्तावत् क्षपणं यावत् ग्रन्थिरिति। अथानिवृत्तिकरण सम्यक्त्वपुरस्कृते जीवे भवतीत्युक्तम्, तत्सम्यक्त्वं कथलभते? उच्यते-उपवेशतः स्वयं वा। तथा चात्र पथदृष्टान्तःउवएसेण सयं वा, नट्ठपहो कोइ मग्गमोतरति। जरितो य ओसहेहि,पउणइ कोइ विणा तेहिं / / 103|| नष्टपथः कोऽपि पुरुष उपदेशेनान्यं दृष्ट्वा तस्योपदेशेन मार्गमवतरति कश्चिन्मार्गानुसारी प्रज्ञतया स्वयमेवोहापोहं कृत्वा, एवमिहापि सम्यग्दर्शनमाचार्यादीनामुपदेशतो लभते / कश्चित् स्वयमेव जातिस्मरणादिना अत्रैवज्वरदृष्टान्तमाह-ज्वरितोऽपि कश्चिदोषधः प्रगुणतिप्रगुणीभवति कश्चित्पुनस्तैरौषधैर्विना एव-मेय। एवमत्रापि कस्यचिद्दर्शनमोह आचार्याधुपदेशतोऽपगच्छति, कस्यचित्पुनरेवमेव मार्गानुसारितया तत्त्वपर्यालोचनतः / इह ज्वरस्थानीयो दर्शनमोहः औषधस्थानीय आचार्याधुपदेशः / इह यस्तत्प्रथमतया क्षायोपशमिकसम्यक्त्वदृष्टिरुपजायते सोऽपूर्वकरणवशात् मिथ्यात्वदलिक त्रिधा करोति, तद्यथामिथ्यात्वम्,सम्यग्मिथ्यात्वम्, सम्यक्त्वं च। अथ वस्त्रदृष्टान्तं जलदृष्टान्तं चाहमइलदरसुद्धसुद्ध, जह वत्थं होइ किंचि सलिलं च / एसेव य दिटुंतो, दसणमोहम्मि तिविहम्भि।।१०४।। यथा किंचिद्वस्त्रं सलिलं वा मलिनं भवति, किंचिद्दरशुद्धमीषद्विशुद्धं, किंचित् शुद्धम्, एष एव दृष्टान्तो दर्शनमोहे त्रिविधे भावनीयः। तदप्यपूर्वकरणवशात्किचित् शुद्ध सम्यक्त्वरूपं, किंचिदीषद्विशुद्धं सम्यग्मिथ्यात्वरूपं, किंचित्तथैव मलिनं मिथ्यात्वरूपं स्थितमिति भावः / अत्राह कथमभव्यास्तस्मिन् पथि देशेऽवतिष्ठन्ते कथं वा ततः प्रतिपतन्ति, भव्या वा कथं ग्रन्थिं विभिद्य ततः परतो गच्छन्ति उच्यते। पिपीलिकादृष्टान्तात् तमेवाह अहभावेण पसरिया, अपुव्वकरणेण खाणुमारूढा। चिट्ठति तत्थ काइ, पिवीलिका काइ उड्बंति // 105 / / पञ्चोरुहणट्ठा खाणु, आतो चिट्ठन्ति तत्थ एवावि। पक्खविहू णतो पिवीलियाउ उड्डंति उसपक्खा / 106 / काश्चित्पिपीलिका यथाभावेन अनाभोगतः प्रसरिताविलान्निर्गत्य इतस्ततो गन्तुं प्रवृत्ताः / काश्चित्पुनरपूर्वकरणेन स्थाणुमारूढास्तासामपि मध्ये काश्चित्तत्र स्थाने चैव तिष्ठन्ति याः पक्षविहीना। काश्चित्संजातपक्षास्तत उड्डयन्ते-ऊर्ध्वमाकाशेन गच्छन्ति। उत्तरार्द्धस्यैव व्याख्यानार्थमनन्तरगाथा पचोरुहणट्ठा' इत्यादि, काश्चित्पक्षविहीनाः Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मइंसण 506 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मइंसण पिपीलिकाः स्थाणी प्रत्यवरोहणार्थ तत्रैव स्थाणावेव तिष्ठन्ति, अपिशब्दात्प्रत्यारोहन्ति चायास्तु सपक्षास्ता उड्डीयन्ते। इह पिपीलिकानामितस्ततः प्रसर यथा प्रवृत्तकरणतः,स्थाण्वारोहण मपूर्वकरणतः,उडयनमनिवृत्तकरणात्। एवमत्रापि ग्रन्थिदेशगमनं यथाप्रवृत्तिकरणेन, ग्रन्थिभेदनमपूर्वकरणतः, सम्यग्दर्शनमनिवृत्तिकरणेन / यथा च काश्चित पिपीलिकाः पक्षविहीनत्वात् स्थाणावेव स्थिताः स्थित्वा च ततः प्रत्यवतीर्णास्तथा कोऽपि मन्दाध्यवसायतया तीव्रविशोधिरहितोऽपूर्वकरणेन ग्रन्थिभदमाधातुमुद्यतः समुच्छलितधनरागद्वेषपरिणामस्तत्रैव तिष्ठति स्थित्वा च पुनः पश्चात्ततः प्रतिनिवर्तते। अस्मिन्नेवार्थे पुरुषदृष्टान्तमाहजह वा तिण्णि मणूसा, सभयं पंथं भएण वचंता। वेलाइक्कमतुरिया,वयंति पत्ता य दो चोरा॥१०७॥ तत्थेगो उ निउत्तो,एगो बद्धो अतित्थितो एक्को। कमगतिअहापवत्तं, मिन्नतरं धावणं तइए।।१०८|| वाशब्दो दृष्टान्तान्तरसमुच्चये,यथा त्रयो मनुष्या सभयं पन्थानं भयेन पाठान्तरक्रमेण जन्तो वेलातिक्रमत्वरिताः संध्यासमापतनेन गमने वेलातिक्रमतस्त्वरमाणा व्रजन्ति। अत्रान्तरे चोभयपार्श्वतः प्राप्तौ पाणिकृपाणकरालौ द्वौ चोरौ तौ च हक्कयन्तावेवमाक्षिपतः क्व यास्यथ यूयं मरणमेव युष्माकमिदानीं समापतितमिति। तत्रैकः पुरुषस्तौ समापतन्ती दृष्ट्वा प्रथमत एव निवृत्तः, एकः पुनर्द्वितीयो हक्काश्रवणत उद्गीर्णकृपाणदर्शनतश्च भयेन शोचंस्तत्रैव स्थितः,एकस्तृतीयः पुनः परमसाहसिकः प्रत्युगी-खड्गस्ती द्वावपि चोरौ पश्चात्कृत्य तत्स्थानमतिक्रान्तौ / इह या त्रयाणामपि पुरुषाणां प्रथमतः क्रमेण गतिः सा यथाप्रवृत्तिक-रणं यत्पुनस्तद्वयं भिन्नं तत इतरदपूर्वकरणाद-पूर्वकरणम्,यत्तु तत्परतो धावनं तत् तृतीय निवृत्ताख्ये करणे द्रष्टव्यम्। तदेवं दृष्टान्तद्वयमपि विधाय सांप्रतमुपनयमाहएवं संसारीणं, जोएअव्वाइँ तिन्नि करणाई। भवसिद्धिसलद्धीण य,पक्खालपिवीलिया उवमा।। 106 / / एवम्-अमुना दृष्टान्तगतेन प्रकारेण यानि त्रीणि करणानि प्रागभिहितानि तानि सर्वाणि संसारिणां योजयितव्यानि तत्र पिपीलिकादृष्टान्तमधिकृत्य प्रागेव योजिताः,नवर याः पक्षवत्यः पिपीलिका उक्तास्ताभिरुपमा भवसिद्धिसलब्धिकानां द्रष्टव्या। भवैः सिद्धिर्येषां ते भवसिद्धिकाः कतिपयभवमोक्षगामिन इत्यर्थः, तेऽपि कदाचित्प्रतिपतन्ति, तत आह-सलब्धिः-उत्तरोत्तरविशुद्धाध्यवसायप्राप्तिर्येषां ते सलब्धिकास्ततो विशेषणसमासस्तेषाम् / किमुक्तं भवति-सपक्षपिपीलिका इव केचित्संसारिणो भवसिद्धिकाः सलब्धिकाः स्थाणोरिय ग्रन्थिदेशादपि परतो गच्छन्ति,के चित्पुनरभव्या भव्या या केचन पक्षविहीनपिपीलिका इव स्थाणोरिव ग्रन्थिदेशात्प्रतिपतन्ति / पुरुषदृष्टान्तमधिकृत्यैवं योजनापुरुषस्थानीयाः संसारिजीवाः, कर्मक्षपणस्थानीयः पन्थाः, भयस्थानीयो ग्रन्थिः, द्वौ चोरौ रागद्वेषौ, यस्तु मन्दप . ! राक्रमो न पुरतो न मार्गतः किं तु भयेन तत्रैव स्थितस्तत्सदृशे ग्रन्थिदेशे वर्तमानो भव्योऽभव्योऽवा। स च तत्र संख्येयमसंख्येयं वा कालं तिष्ठति। तत्र स्थितस्य को लाभ इति चेत्? उच्यते-श्रुतलाभः / तथा चाहदठूण जिणवराणं, पूअं अन्नेण वावि कज्जेण / सुयलंभो उ अभव्ये, हविज्ज थंभेण उवणीतं / / 110 / / यस्तम्भेन उपनीतं उपनयं प्रापितस्तस्मिन् अभव्येतुशब्दाव्ये च भवति श्रुतलाभो द्रव्य श्रुतलाभः / कथमितिचेदत आह- 'दट्-ठूणे' त्यादि,स हि ग्रन्थिकसत्त्वो भव्योऽभव्यो वा भगवतां जिन-वराणां पूजां दृष्ट्वा अहो कीदृशं तपसः फलमिति परिभाव्य तद-र्थिकतया अन्येन वा कार्येन स्वर्गसुखार्थित्वादिना प्रव्रज्यामभ्यु-पगच्छति,ततःसामायिकादिद्रव्यश्रुतलाभः, ग्रन्थौ चैव कियन्तं कालं स्थित्वा पुनः पश्चात्प्रतिनिवर्तत, येनाप्यनिवृत्तिकरणतः सम्यक्त्वमासादितं तस्यापि द्वौ प्रकारौ केचित्परिणामतोवर्द्धन्ते केचित् हानिमुपगच्छन्ति। तत्र ये हानिंगच्छन्ति ले प्रलिपतन्ति, इतरे श्रावकत्वादीनि लभन्ते। तत्र जघन्यतः समकमेव, यत उक्तम्- "सम्मत्तचरित्ताइ जुगवं पुव्वं च सम्मत्तं"। उत्कर्षतः पुनरेवम्समत्तम्मि उलद्धे, पल्लपुहत्तेण सावओ होजा। चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होति।।१११।। एवं अप्पडिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु / अन्नयरसेढिवजं, एगभवेणं च सव्वाई।।११२|| सम्यक्त्वे लब्धपल्यपृथक्त्वेन-पल्योपमपृथक्त्वेन श्रावको देशविरतो भवति, ततश्चरणोपशमक्षयाणामन्तराणि संख्यातानि सागरोपमाणि भवन्ति। इयमत्र भावना-देशविरतिप्राप्त्यनन्तरं संख्यातेषु सागरोपमेषु गतेषु चरणलाभस्तदनन्तरं भूयः संख्यातेषु सागरोपमेषु गतेषूपशमश्रेणिलाभस्ततोऽपि परतः संख्येयेषु सागरोपमेष्वतिक्रान्तेषु क्षपकश्रेणिस्ततस्तद्भवे मोक्षः एवममुना प्रकारेणाप्रतिपतितसम्यक्त्वे देवमनुजजन्मसु वर्तमानस्य प्रति-पत्तव्यम्। यदिवा- अन्यतरश्रेणिवर्जमुपशमश्रेणिपर्ज क्षपकश्रेणिवर्ज वा एकभवन सर्वाणि देशविरत्यादीनि प्रतिपद्यते। श्रेणिद्वयप्रतिपत्तिस्त्वेकस्मिन् भवे न भवति, यत उक्तम् 'मोहोपशम एकस्मिन, भवे द्विः स्यादसंततः / यस्मिन् भये तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न" // 1 // संप्रति यदुक्तं प्राक् मिथ्यात्वमपूर्वकरणेन त्रिधा करोति तत्र कोद्रवदृष्टान्तमाहअप्पुव्वेण तिपुंज, मिच्छं काऊण कोद्दवोवमया। तिन्नि वि अवेदयंतो, उवसासगसम्मदिट्ठीऊं।।११३।। कोद्रवोपमया-कोद्रवदृष्टान्तेन अपूर्वकरणेन मिथ्यात्वं त्रिपुञ्ज कृत्वाऽनिवृत्तिकरणेन तत्-प्रथमतया क्षायोपशमिक सम्यक्त्वमासादयति, ततः परिणामवशतः कालान्तरेण मिश्र मिथ्यात्वं वा गच्छति, यत्पूर्वकरणमारोऽपिमन्दाध्यवसायतया मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्तुमसमर्थः स निवृत्तिक Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मदसण 510 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मइंसण रणम्पगतोऽन्तरकरणं कृत्वा तत्र प्रविष्टो न किंचिदपि वेददयते, सच त्रीण्यपि त्रयाणामन्यतमदप्यवेदयमाने उपशमकः / सम्यग्-दृष्टिरुच्यते कोद्रवोपमयेत्युक्तम्। अतस्तामेव कोद्रवोपमा भावयतिजह मयणकोद्दवा उ, दरनिब्बलिया य निव्वलीया य। एमेव मिच्छ मीसं,सम्मंबा होति जीवाणं / / 114 // यथा कोद्रवास्त्रिविधा भवन्ति, तद्यथा-मदनकोद्रवा दरनिर्बलिताईषदपगतमदनभावानिर्बलिताः-सर्वथापगतमदनभावाः एवं जीवानां मिथ्यात्वं त्रिधा भवति-मिथ्यात्वम्, मिश्रम्-सम्यग्मिथ्यात्वं, सम्यक्त्वं वा। कालेणुवक्कमेण व, जह नासति कोद्दवाण मदभावो। अहिगमसम्म नेस-ग्गियं च तह होइजीवाणं॥११५| यथा कोद्रवाणां मदनभावः केषांचित्कालेन एवमेवापगच्छति केषांचित् गोमयादिभिरुपक्रमतः, एवं केषांचित् जीवानामुपक्रमसदृशमधिगमसम्यक्त्वं भवति, केषांचित् कालेन स्वत एवापगतमदनभावे कोद्रवाणा सदृशं नैसर्गिकसम्यक्त्वम्, किमुक्तं भवति-केषांचिदधिगमतो मिथ्यात्वपुद्गलाः सम्यक्त्वीभवन्ति, केषांचित स्वत एव तथापरिणामविशेषभावतः। एतदेव स्पष्टयतिसोऊण अहिसमेचा, करेइसोवट्टमाणपरिणामो। मिच्छे सम्मामिच्छे, मीसे वियपोग्गले समयं / / 126|| श्रुत्वा के वलिप्रभृतीनां वाचोऽभिसमेत्य वा जातिस्मरणा दिना सम्यक्त्वमवगम्य सोऽपूर्वकरणे वर्तमानो वर्द्धमानपरिणामः समकम्एककालं मिथ्यात्वपुद्गलान् त्रिधा करोति / तद्यथा- 'मिच्छे' इतिमिथ्यात्वपुद्गलान्, सम्यगमिथ्यात्वपुरलान्, सम्यक्त्वपुद्गलानिति। अथैषां पुगलानां परस्परं संक्रमो भवति किं वा नेति? उच्यते-भवति इति ब्रूमः। तथा चाहमिच्छत्ताओमीसो, मीसस्स उहोज संकमो दोसुं। संम्मे मिच्छेवासं, सम्मामिच्छंच पुणमीस॥११७|| मित्थात्वात् -मिथ्यात्वदलिकात् सम्यगदृष्टिः प्रवर्द्धमानपरिणामःपुद्गलानाकृष्य मिश्रे उपलक्षणमेतत् सम्यक्त्वे च संक्रमयति, मिश्रस्य पुद्गलानां संक्रमो द्वयोर्भवति, यद्यथा-सम्यक्त्वे मिथ्यात्वे च। तत्र सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वे संक्रमयति, मिथ्यादृष्टिमिथ्यात्वे सम्यक्त्वान्- सम्यक्त्वदलिकान् पुनः पुद्गलान् मिथ्यात्व संक्रमयति। न पुनः मिश्रमिति। सांप्रतममुमेवार्थ प्रकारान्तरेणाहमिच्छताओ अहवा, मीसं सम्मंच कोई संकमति। मीसाओ वा सम्मं,गुणवुड्डी हायतो मिच्छं।।११८ अथवेत्युक्तस्यैवार्थस्य भणनप्रकारान्तरद्योतने मिथ्यात्वानमिथ्यात्वदलिकान् पुद्गलानाकृष्य कश्विन्मिश्र सम्यक्त्वं च संक्रमयति। यदिवा-कश्चिद् गुणैर्वृद्धिर्यस्य स गुणवृद्धिः प्रवर्द्धमानपरिणामः सम्यगदृष्टिरित्यर्थः, मिश्रान-मिश्रदलिकान् पुद्गलानादाय सम्यक्त्व संक्रमयति, हायको-हीनपरिणामो मिथ्यादृष्टिरित्यर्थः, मिश्रान पुद्गलानाकृष्य मिथ्यात्व संक्रमयति। मिच्छत्ता संकंती, अविरुद्धा होंति सम्ममीसेतु। मीसातो वा दुन्नि वि,ण उसम्मा परिणमे मीसं // 11 // मिथ्यात्वात् पुद्गलसंक्रान्तिः सम्यक्त्वमिश्रयोरविरुद्धा, मिश्रतो व? सभ्यग्मिथ्यात्वतो वा पुगलानादायद्वावपि संक्रमयति, तद्यथा-मिथ्यात्व सम्यक्त्वं च यथोक्तमनन्तरं सम्यक्त्वात्सम्यक्त्वदलिकात्पुनः पुद्गलानादाय न मिश्र मिश्रभावं परिणमति। हायंते परिणामे, ते पुण मीसे उपोग्गले सम्मा। नय सोहिया सि बिजति,केईजेदाणि वेएज्जा।१२०|| सम्मत्तपोग्गलाणं,नच देउंसो य अंतिमंगासं। पच्छाकडसम्मत्तो,मिच्छत्तं चेव संकमति॥१२१॥ यस्य तु सम्यग्दर्शनलाभे हीयमानपरिणामः स तस्मिन् हीयमाने परिणामे न मिश्रान् पुद्गलान् तुशब्दात्-मिथ्यात्व पुद्गलाश्च सम्यक्त्वपुद्गलान करोति, न च 'से' तस्य शोधिताः केचिदन्ये पुद्गला विद्यन्ते यानिदानीमधिकृतसम्यक्त्वपुञ्जनिष्ठाकाले वेदयेत, ततः सम्यक्त्वपुद्गलानामन्तिमग्रासं वेदयित्वा पश्चात्कृतसम्यक्त्वोऽपि मिथ्यात्वमेव संक्रामति। मिच्छत्तम्मि अखीणे,ते पुंजी सम्मदिट्ठिणो नियमा। खीणम्मि उमिच्छत्ते, दुएकपुंजोवखवगोवा।।१२२।। अक्षीणे मिथ्यात्वे ये सम्यग्दृष्टयस्ते नियमात् त्रिपुञ्जिनः क्षीणे तु मिथ्यात्वे द्विपुञ्जी मिथ्यात्वपुञ्जस्य क्षीणत्वात्, एक पुजी या मिश्रपुजक्षये, यदिवा-क्षपकः सम्यक्त्वं पूजस्यापि क्षये तदेव त्रयाणामपि पुञ्जानां दृष्टान्तेन निर्णयः स्वतः स्वरूपंच प्यावर्ण्यताम्। सांप्रत पुञ्जयस्याप्यवेदनतः औपशमिकसम्यगदृष्टिमाहउवसमसेढिगयस्स, होति उउवसामियं तु सम्मत्तं। जोवा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छोलहइ सम्म // 123 // उपशमकश्रेणिगतस्य भवति सम्यक्त्वमौपशमिकम्, यो वा अकृतत्रिपुञ्जः-अपूर्वकरणे पुजत्रयकरणतस्तत्र क्षपकोऽपि दर्शनसप्तकस्यापूर्वकरणमारूढः पुजत्रयं न करोति। ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमाहअक्षपितमिथ्यात्वोयल्लभते सम्यक्त्यं तदौपशमिकं सम्यक्त्वमिति। एतौ द्वावप्यौपशमिकसम्यग्दृष्टी सम्यक्त्वमौपशमिकमन्तर्मुहूर्तमनुभूय तदनन्तरमवश्यं प्रतिपततः। तत्र दृष्टान्तद्वयमाहबाही असव्वछिन्नो, कालावेक्खं कुरु व्व दवदुमो। उवसामगाण दोण्ह वि,एते खलु होति दिटुंता // 124|| यथा व्याधिरसर्वच्छिन्नः कालापेक्षं क्रियाविशेषण में तत् कालगपेक्ष्येत्यर्थः, पुनरुद्भवति / दग्धो वा दुमः कालापेक्षं यथा Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मइंसण 511 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मदा कुरं मुश्चात / एवमुपशमितमपि मिथ्यात्वं कालमपेक्ष्य पुनरुद्रिक्ती भवतीति द्वयोरपि प्रतिपातः तथा चाह-द्वयोरप्युपशमिकयोरेतौ भवतो दृष्टान्तौ, तत्रापशमश्रेणिगत औपशमिकसम्यग्दर्शनी देशप्रतिपातेन वा प्रतिपतति सर्वप्रपितातेन वा, इतरोऽवश्यमेव सर्वप्रतिपातेन प्रतिपतति; मिथ्यात्वं गच्छति इत्यर्थः। तत्र दृष्टान्तमाहआलंबणमलहंति,जह सट्ठाणं न मुंचए हलिया। एवं अकयतिपुंजो, मिच्छंचिंय उवसमी एति॥१२५।। इह या तृणादिषु सुखप्रदेशेन सर्वतोऽग्रेतनं स्थानं परिच्यवतोऽग्रेतनं स्थानं संक्रामति, अन्यथा पश्चाद्वलते,स इलिका यथा पुरत आलम्बनमलभमाना स्वस्थानं न मुञ्चति एवमकृतत्रिपुञ्जो गत्यन्तराभावात् मिथ्यात्वमेवोपशमयति। इयमत्र भावना-द्विविधस्तत्प्रथमतया सम्यग्दर्शनप्रतिपत्ता अतिविशुद्धो मन्दविशुद्धश्च / तत्र यः अतिविशुद्धः सोऽपूर्वकरणमारूढो मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जी-करोति कृत्वा चानिवृत्तिकरणे प्रविष्टस्तत्प्रथमतया क्षायोपशमिकं सम्यग्दर्शनमासादयति सम्यक्त्वपुजोदयात् / यस्तु मन्दविशुद्धः सोऽपूर्वकरणमप्यारूढस्तीव्राध्यवसायाभावात् न मिथ्यात्वं त्रिपुञ्जीकर्तुमलम्, ततोनिवृत्तिकरणमुपगतोऽत्र करणं कृत्वा तत्र प्रविष्टस्तत्प्रथमतया औपशमिकसम्यग्दर्शन तु भवति, अन्तरकरणं चान्तर्मुहूर्तप्रमाणमतस्तदद्धाज्ञये अन्येषां पुद्गलानामभावतो मिथ्यात्वमेति। एतदेवाहखीणम्मि उदिन्नम्मि, अणुइज्जतेयसेसम्मिच्छत्ते। अंतोमुहुत्तकालं,उवसमसम्मलहइजीवो // 126 / / अनिवृत्तिकरणे प्रविष्टस्य यत् मिथ्यात्वमुदीर्णमुदयाव लिकाप्रविष्ट तस्मिन् क्षीणे शेषे च मिथ्यात्वेऽपान्तराले उत्तरकरणतोऽनुदीयमानेऽन्तर्मुहूर्नकालमौपशमिकं सम्यक्त्वं जीवो लभते मिथ्यात्वदर्शनवेदनाभावात् / सोऽपि कथमित्यत आहऊसरदेसंदवि-लयंच विज्झाइवणदवो पप्प। इय मिच्छत्त (स्स) अणुदए, उवसमसम्मं मुणेयवं१२७ यथा वनदवः ऊषरं देश-तृणादिरहितं प्रदेश दग्धं वा प्राप्य विध्मापयति, इति-एवमन्तरकरणे प्रविष्टस्य मिथ्यात्वपुद्गलाभावान्मिथ्यात्वस्यमिथ्यादर्शनस्याऽनुदयावेदनं ततस्तस्मिन्सत्यौपशमिकं सम्यक्त्वं ज्ञातव्यम्। किंचजिल्ली (म्ही) भवंति उदया, कम्माणं अस्थि सुत्तउवदेसो / उदवावादी सायं, जह नेरइया अणुभवंति / / 128|| द्विविधेऽप्यौपशमिकसम्यग्दृष्टौ शेषाणामपि कर्मणामुदयात् जिल्लीभवन्तिन चैतद्ववचनमात्रं यतोऽस्त्येव तत्र ग्रन्थान्तर रूपे साक्षादुपदेशो यथा-नरयिका उपपातादौ सातमनुभवन्तीति। एनामेव दर्शयतिउववाएण व सायं, नेरइओ देवकम्मुणा वावि। अज्झवसाणनिमित्तं, अहवा कम्माणुभावेणं // 126 / / नरयिक उपपातेन सातमनुभवति, किमुक्तं भवति-उपपातकाले सातं वेदयते | तदानीं हि न तस्य क्षेत्रजा वेदना न परस्परोदीरितानपि परमाधामिकोदीरितेति / अथवा-देवकर्मणादेवक्रियया सातमनुभवति, देवो हि कश्चित् महर्द्धिकः पूर्वभवस्नेहतः तत्र गत्वा कस्यापि किंचित्कालं वेदनामुपशमयति ततः सातं वेदयते। अथवा-अध्यवसाननिमित्तं तथाविधशुभाध्यवसायप्रवृत्तिनिमित्तं सातमासादयति यथा सम्यग्दर्शनं लभमानः, सम्यग्दर्शनलाभे हि जात्यन्धस्य चक्षुलाभ इव जायते महान प्रसाद इति। अहवा कम्माणुभावेणं' ति, अथवा-तीर्थकरजन्माद्यधिकृत्य यः कर्मणां सातवेदनीयप्रभृतीनां शुभानामनुभव:अनुभवनमुदयेन वेदनं तेन सातमनुभवति, तथाहि-भगवतां तीर्थकृता जन्मनि दीक्षादिने च तत्प्रभावतो नरकेऽप्यालोको जायते, नैरयिकाणामपि शुभकर्मोदये प्रसरति सातमिति / अथ मिथ्यादृष्टियंदा सम्यक्त्वं संक्रामति तदा स तत्समयं कतिज्ञानानि लभते-उच्यते द्वे त्रीणि वा। तथा चाहविभंगी उ परिणमं, सम्मत्तं लहति मतिसुतोहीणि। तयभावम्मि मतिसुते, सुतलंभ केइ उभयं ति // 130 / / विभङ्गी-विभङ्गज्ञानी सम्यक्त्वं परिणमयन् तत्समये मतिश्रुतावधीन् लभते, तदभावे -तस्य विभङ्ग स्याभावे मिथ्यादर्शनी सम्यक्त्वं परिणमयन् तत्काल मतिश्रुते-मतिज्ञानश्रुतज्ञाने लभते, केचित्पुनः श्रुतलाभं भजन्ति-विकल्पयन्ति यस्याधीतं श्रुतं सलभते श्रुतज्ञानमितरो नलभते इत्याचक्षते इति भावः। तथाहि-ये स्वयंभूरमणसमुद्रे मत्स्यास्ते प्रतिमासं स्थितान् मत्स्यान् उत्पलानि वा दृष्टे हापोहादि कुर्वन्तो जातिस्मरणतः सम्यक्त्वमासादयन्ति आभिनिबोधिकज्ञानं च, ये तु श्रुतज्ञानं तत्रासादयन्त्य-नधीतश्रुतत्वात् ये त्वधीतश्रुतास्ते त्रीण्यपि युगपदासादयन्ति। एतद् दूषयितुमाहअन्नाणमती मिच्छे, जबम्मि मतिणाण तं जहा एति। एमेव य सुयलंभो, सुयअन्नाणे परिणयम्मि॥१३१।। यथा मिथ्यात्वे त्यक्ते मतिरज्ञानस्वरूपा मतिज्ञानतामेति एवमेव श्रुतज्ञाने परिणतोपगते श्रुतलाभो भवति / किं च ते प्रष्टव्याः सम्यक्त्वलाभसमये श्रुतज्ञानमस्ति किं वा न? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तर्हि तस्याज्ञानित्वान्मिथ्यादृष्टित्वप्रसङ्गः। अथ नास्ति तर्हि श्रुताज्ञानमपि के वलमाभिनिबोधिक ज्ञानं स्यान्न चैतदुपपन्नं श्रुतज्ञानमन्तरेण केवलस्याभिनिबोधिकज्ञानस्याभावात् 'जत्थमतिनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मतिणाणं। दो वि सयाइ अण्णोन्नसमणुगयाइ' इति वचनादिति / तदेवमुक्तमौपशमिकं सम्यक्त्वम्। बृ०१ उ०१प्रक०। आ० चू०। सम्मसणजोग-पुं० (सम्यगदर्शनयोग) तत्त्वार्थश्रद्धानसंबन्धे, षो० 11 विव०। सम्मदा-स्त्री० (सम्मा ) दुष्प्रत्युपेक्षणाभेदे,यत्र च वस्त्रस्य मध्यप्रदेशे सवलिता कोणा भवन्ति यत्र वा प्रत्युपेक्षणीयोपधिवेण्टिकायामेवोपविश्य प्रत्युपेक्ष्यते सा सम्मदति। स्था०६ठा०३ उ०11०1 पं० व०। उत्त०। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मतिट्टि 512 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मद्दिट्टि सम्महिट्टि-पुं० (सम्यग्दृष्टि) सम्यगिति प्रशंसार्थः दर्शनमदृष्टि: पदार्थपरिच्छित्तिः। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। स्था०। प्रज्ञा० / आव० / सम्यग-अविपरीता दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्त स सम्यग्दृष्टि / नं०। सम्यग्दर्शनधरे,पञ्चा० 8 विव०। आतु०। प्रति०। सम्यग्दर्शनिनि, प्रश्न०५ संव० द्वार। सम्यग्दृष्टिस्वरूप लिङ्गत आहसुस्सूसधम्मराओ, गुरुदेवाणं जहासमाहीए। वेयावच्चे णियमो, सम्मद्दिट्ठिस्स लिगाई।।५।। श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा धर्मशास्त्रविषया गेयरागिनरकिन्नरगयशुश्रूषाधिका जिज्ञासोत्तरकालभाविनी / इह च ह्रस्वता प्राकृतत्वात्। तथा धर्मरागःकुशलानुष्ठानानुरागः सामग्रीवैकल्यात्तदकरणेऽपि चेतसोऽनुबन्धः कान्तारातीतदरिद्रब्राहाणहविःपूर्णभोजनाभिलाषातिरिक्तः / तथा गुरुदेवानाधर्माचार्यपरमाराध्यानाम्, यथासमाधिस्वसमाधानानतिक्रमेण न पुनरसद्ग्रहणेन वैयावृत्त्ये व्यावृ (पृ) तभावे तत्कर्मणि वा नियमो नियोगोऽवश्यं मयैतद् गुरुकार्य देवकार्य वा कर्तव्यमित्यभिनिवेशलक्षणों गुणज्ञ श्रद्धालुमनुष्यचिन्तामणिवैयावृत्त्यनियमाधिकः। इह चशब्दो लुप्तो द्रष्टव्यः। किमित्याह-सम्यग्दृष्टरविरतसम्यग्दर्शनिनो जीवस्य लिङ्गानिलक्षणानि भवन्ति ग्रन्थिभेदेन तत्त्वे तीव्रभावात्। इति गाथार्थः / पञ्चा० 3 विव० संप्रति सम्यग्दृष्टेः स्वरूपमाहसम्मद्दिट्ठी जीवो, उवइ8 पवयणं तु सद्दहइ। सद्दहइ असब्भावं, अजाणमाणो गुरुनियोगा।॥२४॥ 'सम्मद्दिहि' त्ति-सम्यग्दृष्टिीवो गुरुभिरुपदिष्ट प्रवचनं नियमात्यथावत् श्रद्धत्ते, एवं तुरेवकारार्थो, भिन्नक्रमश्चा यः पुनः सम्यदृगदृष्टिरपि असद्भावम्-असद्भुत प्रवचनं श्रद्दधाति सोऽवश्यमजानन् स्वयं सम्यक्परिज्ञानविकलः सन् / यदागुरोस्तथाविधसम्यकपरिज्ञानाविकलस्य मिथ्यादृष्ट्वा जमालिप्रख्यस्य नियोगादाज्ञापारतन्त्र्यात्, नान्यथा। क० प्र०६प्रक०। अपुनर्बन्धकोत्तरं सम्यग्दृष्टिर्भवतीति तत्स्वरूपमाहलक्ष्यते ग्रन्थिभेदेन, सम्यग्दृष्टिः स्वतन्त्रतः। शुश्रूषाधर्मरागाभ्यां,गुरुदेवादिपूजया / / 1 / / लक्ष्यते इति-ग्रन्थिभेदेन-अतितीव्र रागद्वेषपरिणामविदारणेन स्वतन्त्रतः-सिद्धान्तनीत्या सम्यग्दृष्टिः लक्ष्यते / सम्यग्दर्शनपरिणामात्मनाऽप्रत्यक्षोऽप्यनुमीयते / शुश्रूषाधर्मरागाभ्यां तथा गुरुदेवादिपूजया त्रिभिरेतैर्लिङ्गः, यदाह- "शुश्रूषाधर्मरागश्च, गुरुदेवादिपूजनम्। यथाशक्ति विनिर्दिष्ट, लिङ्गमस्य महात्मभिः।।१।।' भोगिकिन्नरगेयादि-विषयाधिक्यमीयुषी। शुश्रूषाऽस्य न सुप्तेश-कथार्थविषयोपमा।।२।। भोगीति- भोगिनो-यौवनवैदग्ध्यकान्तासन्निधानवतः कामिनः किन्नरादीना गायकविशेषाणां गेयादौ-गीतवर्णपरिवर्ताभ्यासकथाकथनादौ विषयः-श्रवणरसस्तस्मादाधिक्यम-अतिशयम ईयुषी- / प्राप्तवती किन्नरगेयादिजिनोक्तयोर्हेत्वोस्तुच्छत्वमहत्त्वाभ्यामतिभेदोपलम्भात् / अस्य सम्यग्दृष्टः शुश्रूषा भवति / न परं सुप्तेशस्य सुप्तनृपस्य कथार्थविषयः संमुग्धकथार्थश्रवणाभिप्रायलक्षणः तदुपमा तत्सदृशीअसंबद्धतत्तदज्ञानलवफलायास्तस्या दौर्वेदग्ध्यबीजत्वात्। अप्राप्ते भगवद्वाक्ये, धावत्यस्य मनो यथा। विशेषदर्शिनोऽर्थेषु, प्राप्तपूर्वेषु नो तथा / / 3 / / अप्राप्त इति-अस्य-सम्यग्दृशः अप्राप्ते-पूर्वमश्नुते भगवद्वाक्येवीतरागवचने यथा मनो धावति-श्रोतुमनुपेरतेच्छ भवति। यथा विशेषदर्शिनः सतः प्राप्तपूर्वेष्वर्थेषु धनकुटुम्बादिषु न धावति / विशेषदर्शननापूर्वत्वभ्रमस्य दोषस्य चोच्छेदात्। धर्मरागोऽधिको भावा द्रोगिनः स्त्र्यादिरागतः। प्रवृत्तिस्त्वन्यथापि स्या-त्कर्मणो बलवत्तया।।४।। धर्मराग इति-धर्मरागश्चारित्रधर्मस्पृहारूपः अधिक:-प्रकर्षवान् भावतः-अन्तःकरणपरिणत्या भोगिनो-भोगशालिनः स्त्र्यादिरागतो भामिन्याद्यभिलाषात् / प्रवृत्तिस्तुकायचेष्टा तु अन्यथापिचारित्रधर्मप्रातिकूल्येनापि व्यापारादिना स्यात् / कर्मणश्चारित्र-मोहनीयस्य बलवत्तया नियतप्रबलविपाकतया। तदलाभेऽपि तद्राग-बलवत्त्वं न दुर्वचम्। पूयिकाद्यपि यद्भुङ्क्ते, घृतपूर्णप्रियो द्विजः / / 5 / / तदिति-तदलाभेऽपि कथंचिदन्यथाप्रवृत्त्या चारित्राप्राप्तावपि। तद्रागबलवत्त्वं चारित्रेच्छाप्राबल्यं स्वहेतुसिद्धम्। न-नैव द्रुर्वच-दुरभिधानम्। यद्-यस्मात्तथाविधविषमप्रघट्टकवशात् / पूयिका-द्यपि पूर्य-नाम कुथितो रसस्तदस्यास्तीति पूयिकम्। आदिशब्दाद्-रूक्षं पर्युषितं च वलचनकादि / किं पुनरितरदित्यपिशब्दार्थः / घृतपूर्णाः प्रिया-वल्लभा यस्य स तथा। द्विजो-ब्राह्मणो भुङ्क्ते -अभाति यदत्र द्विजग्रहण कृत तदस्य जातिप्रत्ययादेव अन्यत्र भोक्तुमिच्छाया अभावादिति। अन्येच्छाकालेऽपि प्रबलेच्छाया वासनात्मना न नाश इति तात्पर्यम्। गुरुदेवादिपूजाऽस्य, त्यागात्कार्यान्तरस्य च। भावसारा विनिर्दिष्टा, निजशक्त्यनतिक्रमात् / / 6 / / गुर्विति-अस्य सम्यगदृशः गुरुदेवादिपूजा च कार्यान्तरस्यत्यागभोगादिकरणीयस्य त्यागात्-परिहारात् निजशक्तेः स्वसामर्थ्यस्यानति (क्रमात्) लङ्घनादनिगूहनात्। भावसारा भोक्तुः स्त्रीरत्नगोचरगौरवादनन्तगुणेन बहुमानेन प्रधाना विनिर्दिष्टा प्ररूपिता परमपुरुषैः / स्यादीदृक्करणे चान्त्ये, सत्त्वानां परिणामतः। त्रिधा यथाप्रवृत्तं त-दपूर्व चानिवर्ति च / / 7 / / स्यादिति-ईदृगुपदर्शितलक्षणं सम्यक्त्वं चान्त्ये करणे "जाते सतीति' गम्यम् / स्याद्-भवेत् तत् करणं सत्त्वाना-प्राणिना परिणामतः त्रिधात्रिप्रकार यथाप्रवृत्तम् अपूर्वम् अनिवर्ति चेति। ग्रन्थिं यावद्भवेदाद्यं, द्वितीयं तदतिक्रमे / भिन्नग्रन्थेस्तृतीयं तु, योगिनाथैः प्रदर्शितम्||८|| गन्थिमिति - आद्यं यथाप्रवृत्त करणं गुन्थिं यावद्भवे त्, Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मदिट्ठि 513 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्महिट्टि - द्वितीयमपूर्वकरणं तदतिक्रमे-ग्रन्थ्युल्लङ्घ ने क्रियमाणे, तृतीयं त्यनिवर्तिकरणं भिन्नग्रन्थेः कृतग्रन्थिभेदस्य योगिनाथैस्तीर्थकरः प्रदर्शितम्।। पतितस्यापीति नामुष्य, ग्रन्थिमुल्लङ्ग्य बन्धनम् / स्वाशयो बन्धभेदेन, सतो मिथ्यादृशोऽपि तत् / / 6 / / पतितस्यापीति-अमुष्य-भिन्नग्रन्थेः पतितस्यापि तथाविधसंक्लेशात् सम्यक्त्वात परिभ्रष्टस्यापि / न-नैव ग्रन्थिंग्रन्थिभेदकालभाविनी कर्मस्थितिन उल्लङ्चातिक्रम्य सप्ततिकोटीकोट्यादिप्रमाणस्थितिकतया बन्धन-ज्ञानावरणादिपुगलग्रहणं तत्तस्मान्मिथ्यादृशोऽपि सतो भिन्नग्रन्थेः बन्धभेदेनाल्पस्थित्या कर्मबन्धविशेषेण / स्वाशयः शोभन: परिणामः बाह्यासदनुष्ठानस्य प्रायः साम्येऽपि बन्धाल्पत्वस्य सुन्दरपरिणामनिबन्धनत्वादिति भावः। तदुक्तम्"भिन्नगन्थेस्तृतीय तु, सम्यग्दृष्टरतो हि न। पतितस्याप्यतो बन्धो, ग्रन्थिमुल्लङ्घ्य देशितः / / 1 / / एट सामान्यतो ज्ञेयः, परिणामोऽस्य शोभिनः / मिथ्यादृष्टरपि सतो, महाबन्धविशेषतः / / 2 / / सागरोपमकोटीना, कोट्यो मोहस्य सप्ततिः / अभिन्नग्रन्थिबन्धोऽयं न त्वेकोऽपीतरस्य तु / / 3 / / तदत्र परिणामरय, भेदकत्वं नियोगतः। बाह्य त्वसदनुष्टान, प्रायस्तुल्यं द्वयोरपि / / 4 / / " ''बंधेण न बोलइ कयाइ" इत्यादिवचनानुसारिणा सैद्धान्तिकाना मतमेतत। कार्मग्रन्थिकाः पुनरस्य मिथ्यात्वप्राप्तावुत्कृष्टस्थितिबन्धमपीच्छन्ति. तेषामपि मते तथाविधरसाभावात्तस्य शोभनपरिणामत्वे न विप्रतिपत्तिरिति ध्येयम्। एवं च यत्परैरुक्तं, बोधिसत्त्वस्य लक्षणम्। विचार्यमाणं सन्नीत्या, तदप्यत्रोपपद्यते॥१०॥ एवं चेति-एवं-भिन्नग्रन्थेमिथ्यात्वदशायामपि शोभनपरिणामत्वे च यत परैः--सौगत: बोधिसत्त्वस्य लक्षणमुक्तं, तदपि सन्नीत्यामध्यस्थवृत्त्या विचार्यमाणम् अत्र सम्यग्दृष्टावुपपद्यते। तप्तलोहपदन्यास-तुल्या वृत्तिःक्वचिद्यदि। इत्युक्तेः कायपात्येव, चित्तपाती न स स्मृतः।।११।। तति-तप्तलाहे यः पदन्यासस्तत्तुल्याऽतिसकम्पत्वात् वृत्ति:कायचेष्टा क्वचिद् गृहारम्भादो यदि परम् इत्युक्तेः इत्थ वचनात, कायपात्यव स सम्यग्दृष्टिः न चित्तपाती रमृतः / इत्थं च कायपातिन एव बाधिसत्त्वः' इति लक्षणमत्रोपपन्न भवति / तदुक्तम्-''कायपातिन एवं साधिसत्वाः परोदितम / न चित्तपातिन-स्ताव-देतदत्रापि युक्तिमत // 1 // परार्थरसिको धीमान, मार्गगामी महाशयः / गणरागी तो ति. सर्व तुल्य जयोपि // 12 // परार्थेति- परार्थर निकः- परोपकारचित्राः धीमान-बुद्ध्यनुगतः मार्गगामी-कल्याणप्रापकपथयायी महाशयः-स्फीतचित्तः गुणरागीगुणानुरागवान तथेति-बोधिसत्त्वगुणान्तरसमुच्यार्थः / इत्यादि शास्त्रान्तरोक्तम् सर्व तुल्यं-समम् द्वयोरपि-सम्यग्दृष्टिबोधिसत्त्वयोः। अन्वर्थतोऽपि तुल्यतां दर्शयतिबोधिप्रधानः सत्त्वो वा, सदोधि वितीर्थकृत्। तथाभव्यत्वतो वोधि-सत्त्वो हन्त सतां मतः / / 13 / / बोधीति-बोधिः-सम्यग्दर्शन तेन प्रधानः सत्त्वो वा। सताम-साधूनाम्, हन्तेन्यामन्त्रणे बोधिसत्त्वो मतः-इष्टः / यदुक्तम्-'यत्सम्यग्दर्शन बोधि-स्तत्प्रधानो महोदयः / सरचोऽस्तु बोधिसत्त्वस्तत्तरमाअन्तेति पूर्ववत् / / 1 // ' वा-अथवा सदोधिः-तीर्थकरपदप्रायोग्यसम्यक्त्वसमेतः / तथा भव्यत्वतो-भावितीर्थकृद्-यस्तीर्थकृद्भविष्यति स बोधिसत्त्वः / तदुक्तम-"वरबोधिसमेतो वा,तीर्थकृयो भविष्यति / तथा भव्यत्वतोऽसौ वा, बोधिसत्त्वः सतां मतः।।१॥" भव्यत्वं नाम-सिद्धिगमनयोग्यत्वम् अनादिपारिणामिको भावः। तथा भध्यत्व चैतदेव कालनैयत्यादिना प्रकारेण वैचित्र्यमापन्न एतद्भेदे एव च बीजसाध्यादि (सिद्ध्यादि) फलभेदोपपत्तिः / अन्यथा तुल्यायां योग्यतायां सहकारिणोऽपि तुल्या एव भवेयुः तुल्ययोग्यतासामाक्षिप्तत्वात्तेषानिति सद्धोधेर्योग्यताभेद एव पारंपर्येण तीर्थकरत्वनिबन्धनमिति भावनीयम्। तत्तत्कल्याणयोगेन,कुर्वन् सत्त्वार्थमेव सः। तीर्थकृत्त्वमवाप्नोति, परं कल्याणसाधनम्॥१४॥ तत्तदिति-तस्य तस्य कल्याणस्य परिशुद्धप्रवचनाधिगमातिशायिधर्मकथाऽविसंवादिनिमित्तादिलक्षणस्य योगनव्यापारण कुर्वन - विदधानः / सत्त्वार्थमेव मोक्षबीजाधानादिरूपं नत्वात्मम्भरिरपि रस सद्बोधिमान् तीर्थकृत्त्वमवाप्नोतिलभते परं-प्रकृष्टम् कल्याणसाधन भव्यसत्त्वशुभप्रयोजनकारि स्वजनादिभदोडिधीर्षणया सदोधिप्रवृत्तिस्तु गणधरपदसाधनं भवतीति द्रष्टव्यम् / यत उक्तम्- "चिन्तयत्येवमेवेतरवजनादिगततुयः। तथा-ऽनुष्ठानतः सोऽपि, धीमान्गणधरोन्मवेत्।।१।।" संविग्नो भवनिर्वेदा-दात्मनिःसरणं तु यः। आत्मार्थसंप्रवृत्तोऽसौ, सदा स्यान्मुण्डकेवली॥१५॥ सविग्न इति-संचिग्नः "तर ये धर्मध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देवे रागद्वेषमोहातिमुको / साधी सर्वगन्धसंदर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चला योऽनुरागः / / 1 / / इति काव्योक्तलक्षणसवेगभाक। भवनर्गुण्यात संसारकैरमार आत्मनिःसरण तु-जरामरणादिदारुणदहनात्स्वनिष्काम पुन: यश्चिन्तयतीति गम्यते / आत्मार्थसंप्रवृत्तः स्वप्रयोजनमा प्रतिसाद चित्तोऽसौ सदानिरन्तरं स्याद्-भवेत् / मुण्डकेवलीद्रव्यभावमा धनप्रधानस्तथाविधबारातिशयशून्यः केवली पीठमहापीठवत् / ( (सम्भाशयव शिष्टत्वमिति सिट्ठ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्ष्यो। Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मद्दिट्टि 514 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मदिद्विगुणट्ठाण एतदेवाहमिथ्यादृष्टिगृहीतं हि, मिथ्यासम्यगपि श्रुतम्। सम्यग्दृष्टिगृहीतं तु, सम्यग्मिथ्येति नः स्थितिः॥२६॥ मिथ्यादृष्टीति-मिथ्यादृष्टिगृहीत हि सम्यगपि श्रुतमाचारादिक मिथ्या भवति, तं प्रति तस्य विपरीतबोधनिमित्तत्वात् / सभ्यग-दृष्टिगृहीतं तु मिथ्यापि श्रुतं वेदपुराणादिकं सम्यक्, तं प्रति तस्य यथार्थबोधनिमित्तत्वात्। इति नः-अत्माकं स्थितिः-सिद्धान्तमर्यादा। प्रमानिमित्तत्वमात्रमेतदभ्युपगतं न तु प्रमाकरणत्वमिति चेन्न, स्वदुक्तं प्रमाकरणत्वमेव प्रमाणत्वमिति सर्वेषां प्रमाणामनभ्युपगमात। तात्पर्य वः स्वसिद्धान्तो-पजीव्यमिति चेन्मतिः। ननु युक्त्युपजीव्यत्यं, द्वयोरप्यविशेषतः॥३०॥ तात्पर्यमिति-वो-युष्माकं स्वसिद्धान्तोपजीव्यस्वसिद्धान्त-पुरस्कार तात्पर्यम्, तथा चान्यागमानुपजीव्यतात्पर्ये सकलवेदप्रामाण्याभ्युपगमनिवेशान्न दोष इति चेद्-यदि तव मतिः, ननु तदा द्वयोरप्यावयोरविशेषतो युक्त्युपजीव्यत्वम्, अयं गावः - अन्यागमानुपजीव्यत्वं हान्यागमा (म) संवादित्वं चेत्तत्संवादिनि स्वाभिप्रायेऽव्याप्तिरयोक्तिका तदसंवादित्व चेदस्माकमपि तात्पर्यमयौक्तिकागमासंवाद्येव, सर्वस्यैव भगवद्वचनस्य युक्तिप्रतिष्ठितत्वात मिथ्याश्रुततात्पर्यस्यापि स्याद्वादसंगयुक्त्यैव गृह्य-माणत्वात्। यतःउद्भावनमनिग्राह्य,युक्तेरेव हि यौक्तिके / प्रमाण्ये च न वेदत्वं,सम्यक्त्वं तु प्रयोजकम् / / 31 / / उद्भावनमिति -याक्तिके ह्यर्थे युक्तेरेवोद्धावनमनिग्राहामनिग्रहस्थानम् अन्यथा निग्रहाभिधानात् / यद्वादी- "जो हेउवायपक्खम्मि हेतुओ आगमे अ आगमिओ। सो समयप्पन्नवओ, सिद्धातविराहगो अन्नो 1 // 1 // इति अथ वेदत्वमेव प्रामाण्यप्रयोजकमित्यभ्युपगमे यावद्वेदप्रमाण्याम्युपगमः स्यादित्यत आह-प्रमाण्ये च वेदत्वं च प्रयोजकं किंतु सस्थत्वगेव, लोकशब्दस्याप्यविसंवादिनः प्रमाणत्वादिति श्रद्धामात्रमेतदिति न किंचिदेतत्। शिष्टत्वमुक्तमत्रैव, भेदेन प्रतियोगिनः। तमानुभविकं बिभ्रत्, परमानन्दवत्यतः // 32 // शिष्टत्यमिति-अतः परोक्तशिष्टलक्षणनिरासात। अत्रैव सम्यग-दृष्टावेव / उक्तम् अंशत: क्षीणदोषत्वम् / शिष्टत्वम्। परमानन्दवति दुर्भेदमिथ्या मोहनीयभेदसमुत्थनिरलिशयानन्दभाजने / शिष्टत्वलिङ्गाभिधानमेन / प्रतियोगिनो दोषरय क्षीयमाणर भेदेन तं भेदभानुभाविक सकलजनानुभवसिद्धं विभ्रत् / भवति हि अयमरमात शिष्टतराऽयममारिछपातम इति सार्वजनीनो व्यवहारः। स चाधिकरतापेक्षयाऽधिकतराधिकतमदोषक्षयविषयतयाऽनुपपद्यते / परेषा तु न कथंचित् सर्वेषा वेदप्रामाण्याभ्युपगमादौ विशेषाभावात। / एलेन वेदविहितार्थानुष्ठातृत्व मित्यकि निस्तरम् / यावतदेकदेशविकल्याभ्यामसंभवारिया प्त्योः प्रसङ्गाच्च / यत्त्वदृष्टसाधनताविषयकमिथ्याज्ञानाभाववत्त्व शिष्टलक्षणमुच्यते तत्त्वस्मदुक्तशिष्टत्वव्यञ्जकमेव युक्तमाभाति, न तु परनीत्या स्वतन्त्रलक्षणमेव / गङ्गाजले कूपजलत्व'रोपानन्तरमिदं कूपजलं नादृष्टसाधनमिति भ्रमवतः कूपज़ल एव गङ्गाजल-त्वारोपानन्तरमिदं गङ्गाजलमदृष्टा (ष्ट) साधनमितिभ्रमवतो गङ्गाजले उच्छिष्टत्वारोपानन्तरं नादृष्टसाधनमिति भ्रमवतश्चाशिष्टत्ववारणायादृष्टसाधनतावच्छेदकरूपपुरस्कारेण निषेधमुखेनादृष्टसाधनतापिरोधिरूपापुरस्कारेण चादृष्टसाधनताविषयकत्वविवक्षायामपि स्वापादिदशायां बौद्धादावतिव्याप्तेरेतावदग्रहेऽपि सर्वत्र शमादिलिङ्गेन शिष्टत्यव्यवहाराच्चेति किमनया कुसृष्ट्या / द्वा० 15 द्वा० / यो० वि० / दर्श०। रांप्रति सम्यगदृष्टिस्वरूपमाविर्भावयंस्तस्य फलमाहएवंविहपरिणामो, सम्मदिट्ठी जिणेहिं पन्नत्तो। एसो उ भवसमुई, लंघइ थोवेण कालेण / / 51 / / एवं विधपरिणामः-उपशमादिलिङ्गयुक्तः तया-विशुद्ध-बुद्धितया सम्यगदृष्टिर्जिनः प्रज्ञप्तः-प्ररूपितः, एष एव च भवसमुद्र-संसारार्णव लड्डयति स्तोकेनापि कालेनेति गाथार्थः / एवं सम्यक्त्वस्याप्येकस्य शिवसुखसाधनाबन्धवर्णनायां कस्यचिदत्यन्तप्रमादवत एकान्तेनात्रैवास्थाबन्धो मा भवत्विति बुद्ध्या सम्यगदृष्टरपि तपसोऽबहुफलत्वप्रतिपादनाय गाथाद्वय-माहसमद्दिट्ठिस्स वि अवि-रयस्स न तवो बहूफलो होइ। हवइ हु हत्थिन्हाणं,बुंदं छिययं व तं तस्स / 52 / / सम्यग्दृष्टरपि न केवलं मिथ्यादृष्टरित्यपिशब्दार्थः, अविरतस्यविरतिरहितस्य तेनैवतपो बहुफलं भवति-जायते। हिशब्दश्चै-वार्थः,ततो हस्तिस्नानमिव-बुन्दा छितमिव वा। यथाहि-हस्ती प्रथम जलेन स्नान विधाय पुनधूल्यावगुण्ठति बुन्दाछितं पुनरेकेन देशेनाकृष्य पुनर्द्धितीयेन पूर्यते एवं सम्यग्दृष्टरपि विरतिरहितस्यैकतस्तपसोपार्जितं शुभमन्यतोऽविरत्या सावधचरणरूपया हार्यते जीवोपमादिगुरुकर्मबन्धहेतुत्वादिति। तथा च-- चरणकरणेहि रहिओ, न सिज्झई सुद्धसम्मदिट्ठी वि। जेणागमम्मि सिट्ठो,रहंधपंगूण दिटुंतो // 53 // चरणकरणाभ्यां-वक्ष्यमाणस्वरूपाभ्यां रहितस्त्युक्तो न सिध्यति न कर्माभावं करोति, सुष्टु-अतिशयेन सम्यग्दृष्टिरपि येन कारणेनागमे भगवदावश्यकनिर्युक्तौ शिष्टः-प्रतिपादितः, रथान्धपग्वादिदृष्टान्तउदाहरणम् / दर्श०५ तत्त्व / सम्यगितिप्रशंसायाम, सम्यक्-प्रशस्ता मोक्षाविरोधित्वात् दर्शनं दृष्टिरथ्यांना जीवादीनामिति गम्यते सम्मग्दृष्टिः / आ०म०१ अ०। सम्यगिति प्रशसार्थः, दर्शन-दृष्टिः सम्यगअविपरीता दृष्टिःसम्यग्दृष्टिः / सम्यक्त्वे, स्त्री० / विशे० / स्था०। सम्मदिद्विगुणट्ठाण- न० (सम्यग्दृष्टिगुणस्थान) द्वितीयगुण-स्थाने, अविरतसम्यग् दृष्टिगुणस्थानत्वेनेद व्याख्यातम्। आचा० 1 श्रु०३ अ० 4 उ०। Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मबिट्ठिदेव 515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मसुय सम्मदिहिदेव-पुं० (सम्यगदृष्टिदेव) सम्यग्दृष्टयश्च देवाश्चदेव्यश्चत्येकशेषाद्देवाः / यक्षाम्बाप्रभृतिषु अर्हत्पाक्षिकेषु देवेषु, ध०२ अधिक। सम्मद्दिट्ठिय-९० (सम्यगदृष्टिक) सम्यग्-अविपरीता दृष्टिः-दर्शन रुचिस्तत्त्वानि प्रति येषां ते सम्यग्दृष्टिकाः / मिथ्यात्वमोहनीयक्षायोपशमजसम्यगदृष्टी, स्था०१ ठा०। सम्मप्पणयिमग्ग-पुं० (सम्यक्प्रणीतमार्ग) सम्यग्दृष्टि-भिर्गणधरादिभिः सम्यग्वा यथावस्थितवस्तुतया च निरूपणया प्रणीते सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्रं चेति त्रिविधे भावमार्गे, "तवसंजमप्पहाणा, गुणधारी जे वयंति सब्भावं। सव्वजगजी वहिय, तमाहु सम्मप्पणीयमिण।।११।सूत्र १श्रु० ११अ०। सम्मब्भावाणुगत-त्रि० (सम्यग्भावानुगत) अविपरीतत-यैदपर्यसंगते, पञ्चा०१६ विव०। सम्ममिच्छद्दिट्ठि-पुं० (सम्यग्मिथ्यादिष्टि) सम्यक्च मिथ्या च दृष्टिर्येषा ते सम्यगमिथ्यादृष्टयः / येषामेकस्मिन्नपि वस्तुनितत्पर्याय वा मतिदौर्षल्यादिना एकान्तेन सम्यक्परिज्ञानमिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं तथैकान्ततो विप्रतिपत्तिस्तेषु, नं० शतकबृहच्चूर्णा- ''जहा नालिकेरदीववासिस्स खुहाइयस्स वि एत्थ समागयरस ओयणाइए अणेगविहे ढाइए, तस्स उवरि न रुई न य निंदा, जओ तेण सो ओअणाइओ आहारो न कयावि दिहो नावि सुओ एवं सम्ममिच्छद्दिद्विरस वि जीवाइपयट्ठाणं उवरिं न य रुई नावि निंद' त्ति। नं० / स०। स्था० / आव०॥ सम्भय-वि० ( सम्मत) अप्रतिषिद्धे, आचा०१ श्रु०८ अ० 1 उ०। तेषु तेषु कार्येषु प्रयोजनेषु इष्ट, व्य०३ उ० / तत्कृतकार्यस्य सम्मतत्वात,नि० 1 श्रु०१ वर्ग 1 अ०। भ० / जी०। 'पामिच्च' शब्द पञ्चमभागे 854 पृष्ठे उक्तस्य देवराजनाम्नः कुटुम्बिनो भायार्याः सारिकायाः पुत्रे, पिं०।। सम्मयसञ्चा- स्त्री० (सम्मतसत्या) सकललोकसम्मततया प्रसिद्ध भाषाभेदे, ध० 3 अधि० / प्रज्ञा० / सम्मतसत्या या सकललोकसांमत्येन सन्यतया प्रसिद्धा, कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समानेऽपि पङ्कसंभवत्वे आगोपालजना अरबिन्दमेव पङ्कजं मन्यते न शेषमित्यरविन्दे पङ्कजमिति। प्रज्ञा०११ पद। सम्मरुइ-स्त्री० (सम्यगुरुचि) सम्यग्ज्ञाने, संशयविपर्या रानिरासेन इदमेव तत्त्वमिति निश्चयपूर्विकायां जिनोदितजीवादिपदार्थेष्वभिप्रीती, जिनोक्तानुसारितया तत्त्वार्थश्रद्धानरूपे सम्यक्त्वे, प्रव० 146 द्वार। सम्मसुद्ध -त्रि० (सम्यक्शुद्ध) तत्त्वतो निर्मले, पञ्चा० 2 विव०। सम्मसुय-न० (सम्मक्श्रुत) सम्यगदृष्टिपरिगृहीत यथावस्थितार्थे वा श्रुतज्ञाने, विशे०। अंगाणंगपविटुं, सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छसुयं / आसज्ज उ सामित्तं, लोइऍ लोउत्तरे भयणा / / 527 / / इहाङ्ग प्रावष्टभाचारादि श्रुतम् अनङ्ग प्रविष्ट चावश्यकानि श्रम, पलत | द्वितयमपि स्वामिचिन्तानिरपेक्ष स्वभावेन सम्यक्श्रुतम् / लौकिकं तु भारतादि प्रकृत्या मिथ्याश्रुतम् / स्वामित्वमासाद्य स्वामित्वचिन्तायां पुनलांकिके भारतादौ लोकोत्तरे चाचारादी भजनाविकल्पनाऽवसेया। सम्यगदृष्टिपरिगृहीतं भारताद्यपि सम्यगश्रुतं सावभाषित्वभवहेतुत्वादि यथावस्थिततत्त्वस्वरूपबोधतो विषयविभागेन योजनात. मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतं त्वाचाराद्यपि मिथ्याश्रुतम् अयथावस्थितबोधतो वैपरीत्यन योजनादिति भावार्थ इति। विशे० / कर्म० / आ० चू० / बृ०॥ नं०। से किं तं सम्मसुयं? 2, जं इमं अरहतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तेलुक्कनिरिक्खियमहियपूइएहिं तीयपडुप्पण्णमणागयजाणएहिं सव्वष्णूहिं सव्वदरिसीहिं पणीयं दुवालसंगं गणिपिडगं, तं जहा-आयारो 1 सूयगडो 2 ठाणं 3 समवाओ४ विवाहपन्नती 5 नायाधम्मकहाओ 6 उवासगदसाओ७ अंतगडदसाओ 8 अणुसरोववाइयदसाओ पाहावागरणाई 10 विवागसुयं 11 दिट्ठवाओ य 12 इचेअंदुवालसंग गणिपिडगं चोइसपुव्विस्स सम्मसुयं अमिण्णदसपुट्विस्स सम्मसुयं तेण तेण परं मिण्णेसु भयणा सेत्तं सम्मसुयं / (सू०४०) अथ किं तत्सम्यक्श्रुतम्? आचार्य आह-सम्यक्श्रुतं यदिदमर्हन्द्रिः अशोकाद्यष्टमहाप्रातिहार्यरूपा पूजामहन्तीत्यर्हन्तः तीर्थकराः तैरहद्भिः ते चाहन्तः कैश्चित शुद्धद्रव्यास्तिकनयमतानुसारिभिरनादिसिद्धा व मुक्तात्मानोऽभ्युपगम्यन्ते। तथा च ते पठन्ति- "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः / ऐश्वर्य चैव धर्माश्व, सह सिद्ध चतुष्टयम्॥१॥" इत्यादि एवंरूपाश्चापि ते बहव इष्यन्ते-स्थापनादिद्वारेण च विशिष्टा पूजामर्हन्ति ततोऽर्हन्तोऽप्युच्यन्ते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-भगवद्भिः भगः-समग्रैश्वर्यादिरूपः। उक्तं च-''ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपरय यशसः श्रियः / धर्मस्याऽथ प्रयत्नस्य, षण्णा भग इतीङ्गना ||1||" मगो विद्यते येषां ते भगवन्तः तैर्भगवद्भिः / इहानादिसिद्धानां रूप-मात्रमपि नोपपद्यते किं पुनः समग्र रूपम् अशरीरत्वात्, शरीरस्य च रागादिकार्यतया तेषां रागादिरहितानामसंभवात्, ततो भगवद्भिरित्यतन परपरिकल्पितानादिसिद्धार्हद्व्यवच्छेदमाह। अथ मन्येथाः / अनादिशुद्धा अध्यहन्ता यदा स्वेच्छया समग्ररूपादिगुणोपेतं शरीरमार-चन्तित तेऽपि भगवन्तो भवन्ति, ततः कथं तेषां व्युदास इत्याशङ्काप-नोदनाथ भूयोऽपि विशेषणान्तरमाह-उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः-उत्पन्न ज्ञान-केवलान दर्शन-केवल-दर्शनं धरन्तीत्युत्पन्नज्ञानदर्शनधराः, "लिहादिभ्य" इत्यच प्रत्ययः / न च येऽनादिविशुद्धाः ते उत्पन्नज्ञान-दर्शनधरा भवन्ति, 'ज्ञानमप्रतिघं यस्ये" त्यादि वचनविरोधात्, तत उत्पन्नज्ञानद-शंभधार रितिविशेषणेन तेषां व्यवच्छेदो भवति, ननु यद्येवं तहि उत्पन्न नदर्शनधररित्येतावदेवास्तामलं भगवद्भिरिति विशेषणोपादानेन तदयुवतम - उत्पन्नज्ञानदर्शनधरा हि सामान्यकेवलिनोऽपि भवन्ति, न च तेषामवय, समग्ररूपादिसंभवस्ततस्तत्कल्पानहतो मा ज्ञासिसुरमी विनेयजमा हरि समग रूपादिगुणप्रतिपत्त्यर्थ भगवद्भिरिति विशेषणोपादानम्, तदेवं शुद्ध Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मसुय 516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मामिच्छत्त द्रव्यास्तिकनयमतानुसारिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदः कृतः। संप्रति सामायिकादिबिन्दुसारपर्यवसानं नियमात्सम्यक्श्रुतम्, ततोऽधोमुखपर्यायास्तिकनयमतानुसारिपरिकल्पितमुक्तव्यवच्छेदार्थ विशेषणा- परिहान्या नियमतः सर्व सम्यक्श्रुतं तावद्वक्तव्यं यावदभिन्नदशपूर्विणः न्तरमाह-त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजितः त्रयो लोकाः त्रिलोकाः संपूर्णदशपूर्वधररय, संपूर्णदशपूर्वधरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग्दृष्टरेव भवनपतिव्यन्तरविद्याधरज्योतिष्कवैमानिकाः, त्रिलोका एव त्रैलोक्य न मिथ्यादृष्टः तथास्वाभाव्यात्, तथाहि-यथाऽभव्यो ग्रन्थिदेशमुपाभेषजायदित्वात् स्वार्थे ध्यणप्रत्ययः, निरीक्षिताश्च ते महिताश्च ते गतोऽपि तथास्वभावत्वान्न ग्रन्थे दमाधातुमलम्, एवं मिथ्यादृष्टिरपि पूजिताश्च ते निरीक्षितमहितपूजिताः, त्रैलोक्येन निरीक्षितमहित- श्रुतमवगाहमानः प्रकर्षतोऽपि तावदवगाहतेयावत्किञ्चिन्यूनानि दशपूजिताः त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजिताः तत्र निरीक्षिता मनोरथपर- पूर्वाणि भवन्ति, परिपूर्णानि तु तानि नावगाढुं शक्नोति तथास्वभावपरासंपत्तिसंभवविनिश्चयसमुत्थसम्मदविकाशिलोचनैरालो किताः त्वादिति, 'तेण परं भन्नइ भयणा' अत्र 'तेण' त्ति-व्यत्ययोऽप्यासामिति महिता यथावस्थिताऽनन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेनभावस्त प्राकृतलक्षणवशात्पञ्चम्यर्थे तृतीया, ततोऽयमर्थः-ततः संपूर्णदशपूर्ववेनार्चिताः-पूजिताः सुगन्धिपुष्पप्रकरप्रक्षेपादिना द्रव्यस्तवेन, तत्र धरत्वात्पश्वानुपूर्व्याः परं भिन्नेषु दशसु पूर्वेषु भजनाविकल्पना कदाचिसुगमता अपि पर्यायास्तिकनयमतानुसारिभिः त्रैलोक्यनिरीक्षित त्सम्यक्श्रुत कदाचिन्मिथ्याश्रुतमित्यर्थः / इयमत्र भावनासम्यग्दृष्टः महितपूजिता इष्यन्ते, तथा चाह स्वयंभूः-"देवागमनभोयानचामरा प्रशमादिगुणगणोपेतस्य सम्यकश्रुतं यथावस्थितार्थतया तस्य सम्यक्दिविभूतयः / मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान् // 1 // " परिणमनात्, मिथ्यादृष्टे स्तु मित्याश्रुतम्, विपरीतार्थतया तस्य इति / ततस्तद्व्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-अतीतप्रत्युत्पन्नाना परिणमनात्, 'सेत्त' मिथ्यादि, निगमनं तदेतत् सम्यकश्रुतम्। नं०। गतशेर्नचाऽतीतानागतज्ञाः सुगताः संभवन्ति तेषामेकान्तक्षणिकत्वा-यु सम्माण-पुं० (सम्मान) स्तुत्यादिभिर्गुणोन्नतिकरणे, आव० 5 अ०1 पगमन सर्वथातीतानागतयोरसत्त्वाद्, असतां च ग्रहणासंभवात् इत्यव प्रति०। ध० तथाविधे उचितप्रतिपत्तिकरणे, भ०१४ 203 उ०। बहु वक्तव्यं तच्च प्रायः प्रागेवोक्तमन्यत्र च धर्मसंग्रहणिटीकादाविति ज्ञा० / स्था०। दशा० / वस्त्रपात्रादिपूजने, स्था०७ठा० 3 उ०। पञ्चा०। ध०। प्रव० / औ०। नोच्यते, इह व्यवहारनयमतानुसारिभिः कश्चित् ऋषयोऽप्यतीतप्रत्युत्प सम्माणइत्ता-अव्य० (सम्मानयित्वा) प्रतिविशेषेण सम्मान कृत्वेत्त्यर्थे, नानागतज्ञा इष्यन्ते तथा च तद् ग्रन्थः- "ऋषयरसंयतात्मानः, स्था०३ ठा०१ उ०। फलमूलानिलाशनाः / तपसैव प्रपश्यन्ति, त्रैलोक्यं सचराचरम् / / 1 / / सम्माणणिज्ज -त्रि० (सम्माननीय) जिनोचितप्रतिपत्तिविशेषे, भ० अतीतानागतान्भावान वर्तमानांश्च भारत ! ज्ञानालोकेन पश्यन्ति, 10 श० 5 उ०। चं० प्र० / बहुमानविशेषे,औ० / वस्त्रादिभिर्वा पूजनीये, त्यक्तसङ्गा जितेन्द्रियाः / / 2 / / " इत्यादि। ततः तद्व्यवच्छेदार्थमाह ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। रार्वः सर्वदर्शिभिः- ते तु ऋषयः सर्वज्ञाः- सर्वदर्शिनश्च न भवन्ति, तत सम्माणवत्तिय-पुं० (सम्मानप्रत्यय) स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणं सम्मानः, स्तेषां त्युदासः / तदेवं द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयमतव्यवच्छेद तथा मनसः प्रीतिविशेष इत्यन्ये सुब्वयत्त्ययो निमित्त यस्येति / फलतया विशेषणसाफल्यमुक्तम, विचित्रनयमताभिज्ञेन तु अन्यथापि सम्माननिमित्ते, ल०। रा०। विशेषणसाफल्यमुक्तम्, न कश्विद्विरोधः / प्रणीतम्-अर्थकथनद्वारेण सम्माणिय-त्रि० (सम्मानित) तथाविधया वचनादिप्रतिपत्त्या पूजिते. प्ररूपितम्, किं तदित्याह-द्वादशाङ्ग श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्याङ्गानीनी औ01 अभ्युत्थानादिभिः पूजिते, कल्प० 1 अधि०३ क्षण। वाङ्गानि द्वादशाङ्गान्याचारादीनि यस्मिन्ततद्वादशाङ्ग 'गणिपिडग' ति सम्माणियदोहला-रत्री० (सम्मानितदोहदा) प्राप्तस्याभिलषितार्थस्य गणो गच्छो गुणगगोवाऽस्यास्तीतिगणी-आचार्यःतस्य पिटकमिव पिटक भोगात् (भ० 11 श० 11 उ०1) वाञ्छितार्थसम्माननात् (विपा० सर्वस्वमित्यर्थः, गणिपिटकम्। अथवा-गणिशब्दः परिच्छेदवचनोऽ 1 श्रु०२ अ०१) सम्प्राप्ताभिलाषायामन्तर्वन्याम्, कल्प०१ अधि० प्यस्ति। तथा चोक्तम्-"आयारम्मि अहीए, जं नाआ होइसमणधम्मो ४क्षण। उ। तम्हा आयारधरो, भन्नइ पढमं गणिट्टाणं // 1 // " ततश्च गणिना पिटक सम्माणुसव्वविरइअहक्खायचारित्तघायकर-पुं० (सम्यगणुसर्वगणिपिटकं, परिच्छेदसमूह इत्यर्थः। तद्यथा-'आयारा' इत्यादि पाठसिद्धं विरंतियथाख्यातचारित्रघातकर) 'सम्म ति-सम्यक्त्वं च 'अणुसव्वयावद् दृष्टिवादः अनङ्गप्रविष्टमप्यावश्यकादि तत्त्वतोऽहत्प्रणीत- विरई' ति-विरतिशब्दस्य प्रत्येक संबन्धात् अणुविरतिश्च देशविरतिः त्वात्परमार्थतो द्वादशाङ्गातिरिक्तार्थाभावाच द्वादशाइग्रहणेन गृहीतं सर्वविरतिश्च, यथाख्यात-चारित्रं च सम्यगणुसर्वविरतियथाख्यातचाद्रष्टव्यम्, एवं च द्वादशाङ्गादि सर्वमेव द्रव्यास्तिकनयमतापेक्षया रित्राणि तेषां धातोविनाशः सम्यगणुसर्वविरतियथाख्यातचारित्रघातस्तं तदभिधेयपञ्चास्तिकायभाववन्नित्यं स्वाग्यसंबन्धचिन्ताया च स्वरूपेण कुर्वन्तीत्येवंशीलाः सम्यगणु-सर्वविरतियथाख्यातचारित्रविघातकराः। चिन्त्यमानं सम्यक श्रुतं, स्वामि-संबधचिन्ताया तु सम्यगदृष्ट : कषायेषु, कर्म०१ कर्म०। (अनन्तानुबन्धिनः कषायाः सम्यक् घातकर सम्यक श्रुतं मिथ्यादृष्ट मिथ्याश्रुतम, एतदेव श्रुतपरिमाणतो व्यक्तं इति 'कसाय' शब्दे तृतीयभागे 368 पृष्ठे गतम्।) दर्शयति-इत्येतद् द्वादशाङ्ग गणिपिटकम्। यश्चतुर्दशपूर्वी तस्य सकलमपि / सम्मामिच्छत्त- न० (सम्यगमिथ्यात्व) स्म्यक्त्व मिथ्यात्त्व Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मामिच्छत्त 517 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सम्मावाय मिथ, कर्म 1 कर्मः। 40 सं० / मिथ्यात्त्वपुद्गला एव ईषद् विशुद्धाः सम्यमिथ्यात्वव्यपदेशभाजः / कर्म०६ कर्म० / यदुदयात्पुनर्जिनप्रणीत तत्त्वं न सम्यक् श्रद्धत्ते नापि निन्दतिमतिदौर्बल्यादिना सम्यक् असम्यक् वा एकान्तेन निश्वयाकरणतः सम्यक् श्रद्धानैकान्तविप्रतिपत्त्ययोगात् तत्सम्यगमिथ्यात्वम्। कर्म०६ कर्म०। प्रज्ञा०। (दृष्टान्तोपन्यासः इहैव 'सम्ममिच्छद्दिहि' शब्देऽस्ति।) सम्मामिच्छादसण-न०(सम्यमिथ्यादर्शन) सम्यगमिथ्या वरूप दर्शनभेदे, रथा-७ ठा०३ उ०। सम्मामिच्छादिद्विगुणट्ठाण-न०(सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुण-स्थान) सम्यक् च मिथ्या च दृष्टियस्यास सम्यमिथ्यादृष्टिस्तस्य गुणस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम्। द्वितीयगुणस्थानवर्तिनि साधौ, कर्म० / इहानन्तराभिहितविधिना लब्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेन औषधिविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीयं मिथ्यात्वमाहनीय कर्म शोधयित्वा त्रिधा कराति, तद्यथा-शुद्धमद्धविशुद्धम-विशुद्धं चेति। स्थापना-तत्र त्रयाणां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्द्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति तदा तदुदयाजीवस्याईविशुद्ध जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुहूर्त कालं स्पृशति, तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति कर्म० 2 कर्म० / पं० सं०1 दर्श०। सम्मावाइ-पुं०(सम्यग्वादिन) सम्यग वदितुं शीलं रवभावो यस्य स सभ्यगवादी। सन्यग्वादशीले, प्रति०।। सम्मावाय-पु० सम्यग्वाद) सम्यग-रागद्वेषपरिहारण वदन बादः सम्यग्वादः / रागादिपरित्यागेन यथार्थवदने, आ० म०१ अध० सामायिके, तस्य तथात्वात्। आ० चू०१०। सम्यक् यथास्थितवदनात्। आवः। सामाइयं समइयं, सम्मावाओ समास संखेवो। अणवजं च परिण्णा, पच्चक्खाणे य ते अट्ठ॥८६॥ 'सामायिकम् इति-रागद्वेषान्तरालवर्ती समः-मध्यस्थ उच्यते, 'अय' गताविति. अयनम् अयः-गमनमित्यर्थः, समस्य अयः समायः स एव विनयादिपाठात् स्वार्थिकठक्प्रत्ययोपादानात् सामायिकम्, एकान्तोपशान्तिगमनमित्यर्थः, समयिक-समिति सम्यक्-शब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगयः समयः-सम्यग-दयापूर्वक जीवेषु गमनमित्यर्थः, समथोऽस्यास्तीति, 'अत इनिटनी (पा०५-२-११५) इति ठन् समयिक सम्यग्वादः-रादिविरहः सम्यक् तेन तत्प्रधानं वा वदनं सम्यग्वादः, रागादिविहरेण यथावद् वदन- मित्यर्थः / समासः- 'असु' क्षेपण इति, असनम् आसः-क्षेप इत्यर्थः, संशब्दः प्रशंसार्थः शोभनमसनं समासः, अपवर्गे गमनमात्मनः कर्मणो वा जीवात् पदत्रयप्रतिपत्तिवृत्त्या क्षेपः समासः / संक्षेपः-सक्षेपण-संक्षेपः स्तोकाऽक्षरं सामायिकं महार्थ च द्वादशापिण्डार्थत्वात्। अनवद्यं चेति-अवयं-पापमुच्यते नास्मिन्नवद्यस्तीत्यनवध सामायिकमिति, परिः-समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परिक्षा सामायिकमिति! परिहरणीय वस्तु वस्तु प्रतिआख्यानं प्रत्याख्यानं च त एते सामायिकपर्यायां अष्टाविति गाथार्थः / आव०१अ० | अथ सम्यगवाद कालिकाचार्यकथा"पुरी तुरिमिणी तत्र, जितशत्रुर्नराधिपः। भद्राङ्ग जो द्विजो दत्तः, कालिकाचार्ययामिजः / / 1 / / दत्तश्च भद्यपो धूर्तः, प्रारेभे सेवितुं नृपम्। अभवद्वाहको राज्ये, भेदयित्वाऽथ सन्निधिमारा। राजानं पञ्जर क्षिप्त्वा, स्वयं राजा बभूव सः। अनेकानिष्टवानयागान्, कालिकार्योऽन्यदायरामत्।३।। प्रणन्तुं तमगादत्तो-पृच्छद्यागफलं ततः। गुरुराख्यदहो धर्मः, करुण्यादपरोन हिमा पुनः पृष्ट गुरु: स्माह, हिंसा दुर्गतिहेतवे। सेर्प्य मत्तोऽवदद्दत्तः, स्पष्टदुष्टाशयो गुरुन्॥५!! यदि वेत्सि तदाचार्य!, प्रश्नस्य वितरोत्तरम्। निःशङ्कोऽथ गुरुः स्माह, यागानां नरकः फलम्।।६।। ततो दत्तः क्रुधाऽवादी-दाचार्य ! प्रत्ययोऽत्र कः। गुरुरूचे प्रत्ययोऽसा-वितः सप्तमवासरे।।७।। पक्ष्यसे शुनकुम्भ्यां त्वं, दत्तोऽथ सविशेषरुट् / ऊचे कः प्रत्ययोऽत्रापि, गुरुरूचे निशम्यताम्॥८|| कुर्वतो राजपाटी ते,वदने सप्तमे दिने। तुरङ्गमसुखोरिक्षप्तः, प्रवेक्ष्यत्यशुचर्लवः।।६।। सोऽथातिकुपितोऽवादी-त्तवाचार्य ! कथं मृतिः / गुरुरुचे चिरं कृत्वा, व्रतं यास्याम्यहं दिवि।।१०।। अथोतस्थौ गुरोः पश्चा-हत्तश्चिते व्यचिन्तयत्। यन्ममाख्यदसावस्य, तत्करिष्येऽष्टमेऽहानि॥११॥ ततः प्रविश्य सौधान्त-दत्तस्तस्थौ दिनानि षट्। षष्ठोऽपि दिवसरतेन, ज्ञातः सप्तम इत्यथ / / 12 / / मानिशोधयन सायं, तलारक्षररक्षि यत्। निशान्त मालिकः कोऽप्या- गच्छन् संज्ञातुरोऽभवत्।।१३।। व्युत्सृज्य राजमार्ग द्राग, पिधाय कुसुमैरगात्। दत्तोऽपि निर्ययौ राज-पाटिकां सप्तमेऽहनि।।१४।। मार्गे चाश्वखुरोत्क्षिप्त-स्तस्यास्येऽगाल्लवो शुचेः। तेनाभिज्ञानतो ज्ञातं, मृत्युरद्य स्फुट मम॥१५।। प्रधानैश्चेति संकेतः,कृतोऽग्रेऽस्तीति दुर्मदम्। धृत्वाऽमुं स्थापनीयोऽत्र, राजा प्राकृत एव सः।।१६।। दत्तः सौधान्तरे नष्ट, यवलेऽथ सपद्यपि। मनः संकेतमज्ञासी-त्प्रधानैरिति शतितम्।।१७।। ततः सौध विशंस्तैरा-धृतो मौलः कृतो नृपः। राज्ञा तेनाथ दुष्टः स, क्षिप्तः कुम्भ्यां शुनैः सह॥१८|| अधः प्रज्वालितो वह्नि-स्तापातरथ सश्वभिः। खण्डमानोऽभवन्मृत्वा, रौद्रध्यानेन नारकः॥१६॥" आ० के० 1 अ० / (''सम्मावायं कहे इ'' इत्यादिसूत्रम् ‘विक्खेवणी' शब्दे षष्ठभागे गतम्।) सम्यग् अविपरी Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मावाय 518 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सगंकड तो वादः सम्यग्वादः / यथावस्थितवस्त्वाविर्भावने, आचा० 1 श्रु० 4 अ०१ उ० / (एतच्चाऽऽचारागीयसम्यक्त्वाध्ययने उक्तमरमाभिः 'सम्भत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे दर्शितमा) सम्यग-अविपरीतो वादः सम्यग्वादः। दृष्टिवाद, स्था०१० ठा० उ०। सम्मिस्स-त्रि०(सम्मिश्र) विस्फुटितत्वचि, आचा० 2 श्रु०१ चू०१ अ० 8301 सम्मूढमण-त्रि०(संमूढमनस्) तत्त्वान्तरे भ्रान्तचित्ते. आव० 4 अ०। सम्मिस्सभाव-पुं०(समिश्रभाव) अस्तित्वनास्तित्वापगमे, सूत्र० 1 श्रुक 12 अ०। सम्मुइ-पुं०(सम्मुकि) महापदमतीर्थकृत्समकालिकैरवतजतीर्थकृतः सिद्धार्थस्य पितरि. ति०। समुच्छ-पु०(सम्पूर्छ) सम्मूर्छन सम्मूर्छः / गर्भो पपातव्यतिरेकेणैवमेव प्राणिनामुत्पादे, जी०१ प्रति०। सम्मुच्छय-पुं०(सम्मूछेज) सम्पूर्छनाजातः सम्भूर्छजाः / शलभपिपीलिकामक्षिकाशालिकादिषु, आचा०१ श्रु०१ अ०६ उ० / त्रसेषु, दश० 4 अ० / स्था० / पद्मिनीश्टडाटकपाढाशैवलादिषु वनस्पतिषु, आचा० 1 श्रु०१ अ०५ उ०। सम्मुच्छिम-पु०(सम्मूर्छिम) 'मूर्जा' मोहसमुच्छ्राययोः, संमूर्छन सम्मूर्छा भावे घञ्प्रत्ययः / तेन निवृत्ताः सम्मूर्छिमाः।नं०। संमूर्छन्ति इलि संमूर्छिमाः। प्रसिद्धवीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधतृणादयः, न चैते न संभवन्ति दग्धभूमावपि संभवात् ! दश० 4 अ० / दग्धभूमौ बीजासत्त्वेऽपि ये तृणादय उत्पद्यन्ते ते संमूर्छिमाः / स्था०६ ठा० 3 उ०। सम्मूर्च्छन्ति तथाविधकर्मोदयाद् गर्भमन्तरेणवोत्पद्यन्ते इति सम्मूर्छिमाः / अनु०। अगर्भव्युत्क्रान्तिजेषु,प्रज्ञा० 21 पद / सम्मूर्छिमानां स्त्र्यादिभेदो नास्ति / स्था० 3 ठा०१ उ० / अनु० / भ० / व्यजनादिजन्ये वायुकाये, स्था० 5 ठा०३ उ०! आ०म० सम्मेदसेल-पुं०(सम्मेदशेल) स्वनामख्याते विन्ध्यगिरिशिखरभेदे, यत्र ऋषभवासुपूज्यनमिवीरवास्तीर्थकराः विंशतिः सिद्धाः, आ० म० 1 अ० ज्ञा०। सम्मेयसेलसिहर-पुं०(सम्मेदशैलशिखर) पर्वतविशेषकूटे, पञ्चा० 16 दिव०। सम्मेल-न०(सम्मेल) परिजनसम्मानभक्ते, गोष्ठीभक्ते, आधा०२ शु० १च०१ अ०४ उ०। गोष्ट्यां च। नि० चू० 11 उ०॥ सम्मोह-पुं०(सम्मोह) मूढतायाम्, स्था० 4 ठा०। किंकर्तव्यतामूढता- | याम्,अनु०। विशे०। आव० / संनिपातोपहतस्येव सर्वतोऽनध्यवसाये, द्वा०१३ द्वा०। समुह्यतीति सम्मोहः। मूढात्मनि देवविशेष, स्था० 1 ठा० / सम्मोही-स्त्री०(साम्मोही) संमुह्यन्तीति सम्मोहाः मूढात्मानो देवविशषास्तषामिय साम्मोही। भावनाभेदे, ध०३ अधि०।। संप्रति सांमोहीमाहउम्मग्गदेसणाम-रगदूसणामग्गविप्पंडीवत्ती। मोहेण य मोहित्ता, संमोहं भावणं कुणई |461|| उन्मार्गदशना 1 उन्मार्गदूषणा 2 मार्गविप्रतिपत्तिकश्च भवतीति वाक्यशेषः, मोहन च यः स्वयं मुह्यति एवं कृत्वा च पर मोहयित्वा सामोहीं भावनां करोति। इति नियुक्तिगाथासमासार्थः / बृ० 1 उ० 2 प्रक० / ग०। प्रव०॥ चउहिं ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताए कम्मं पगरेंति, तं जहाउम्मग्गदेसणाए मग्गंतराएणं कामासंसप्पओगेणं भिजा नियाणकरणेणं / (सू० 354+) समुह्यतीति संमोहो मूढात्मा देवविशेष एव तद्भावस्तत्ता तस्यै सम्मोहतायै सम्मोहत्वाय सम्मोहतया वेति उन्मार्गदेशन सम्यग्दर्शनादिरूपभावमार्गातिक्रान्तधर्मप्रकथनेन मार्गान्तरायेण मोक्षाध्वप्रवृत्ततद्विप्रकरणेन कामाशंसाप्रयोगेणशब्दादावभिलाषकरणेन भिज्ज' तिलाभागृद्धिस्तेन निदानकरणमेतस्मातपः प्रभृतिश्चक्रवादित्व मे भूयादिति निकाचनाकरण तेनेति / स्था० 4 ठा०४ उ० / सय-न० (शत) दशावृत्तदशसंख्यायाम्, तत्संख्येय च। अनु०॥ * स्वक-त्रि० / आत्मीये, विशे० / सूत्र० / ज्ञा० / आचा० / भ० / स्वकीये, विशे०। देहगृहादौ, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। सयओवभोग-पुं०(सततोपभोग) नैरन्तर्येणोपभांगे, नि० चू० 130 / सयं-अव्य०(स्वयम्) आत्मनेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०। आव०। आचा। पञ्चा० / उत्त०। स्था०। परोपदेशमन्तरेणेत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु०१३ अ०। स०। पा० / नि० चू०। भ० / प्रश्र०। विपा० / आचा० / सयंकड-त्रि०(स्वयंकृत) आत्मना कृते, भ० / जीवाः स्वयंकृतं दुःखं वेदयन्तिरायगिहे नगरे समोसरणं, परिसा निग्गया० जाव एवं वयासीजीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेइ? गोयमा! अत्थेगइयं येएइ अत्थेगइयं नो वेएइ, से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं नो वेएइ? गोयमा! उदिन्नं वेएइ अणुदिन्नं नो वेएइ, से तेणद्वेणं एवं वुच्चइ-अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगतियं नो वेएइ, एवं चउव्वीसदंड-एणं० जाव वेमाणिए / / जीवा णं भंते ! सर्यकडं दुक्खं वेएन्ति? गोयमा ! अत्थेगइयं वेयन्ति अत्थेगइयं णो वेयन्ति,से केणटेणं? गोयमा ! उदिन्नं वेयन्ति नो अणुदिन्नं वेयन्ति से तेणटेणं, एवं० जाय वेमाणिया।। जीवे णं भंते ! सयंकडं आउयं वेएइ? गोयम ! अत्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं नो वेएइ जहा दुक्खेणं दो दडंगा तहा आउएण वि दो दंडगा एगत्तपुहुत्तिया, एगत्तेणं० जाव वेमाणिया पुहुत्तेण वि तहेव / / (सू०२०) Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंकड 516 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयंपव्वजा 'रायगिह' इत्यादि पूर्ववत्, जीवे णमित्याहि तत्र सयकडं दुक्खं, ति यत्परकृतं तन्न वेदयतीति प्रतीतमेवातः स्वयंकृतमिति पृच्छति स्म 'दुक्खं, ति सांसारिक सुखमपि वस्तुतो दुःखमिति दुःखहेतुत्वाददुःखंकर्म वेदयतीति,काकुपाठात् प्रश्नः, निर्वचनं तु यदुदीर्ण तद्वेदयति | अनुदीर्णस्य हि कर्मणो वेदनमेव नास्ति तस्मादुदीर्णं वेदयति नानुदीर्ण, न च बन्धानन्तरमवोदेति अतोऽवश्यं वेद्यमप्येक वेदयत्येकं न वेदयति इत्येवं व्यपदिश्यत, अवश्यं वेद्य-मेव च कर्म "कडाण कम्माण णमोक्खो अस्थि'' इति वचनादि-ति। एवं 'जाव वेमाणिए' इत्यनेन चतुर्विंशतिदण्डकः सूचितः, स चैदम्- 'नेरइए णं भंते ! सयंकड' मित्यादि। एवमकत्वेन दण्डकः, तथा बहुत्वेनान्यः, स चैवम - ‘जीवा से भंते ! सयंकडं दुक्खं वे देती' त्यादि तथा 'नेरइया णं भंते ! सयंकडं दुबरख मित्यादि, नन्चेकत्वे योऽर्थो बहुत्वेऽपि स एवेति किं बहुत्वप्रश्नेन? इति, अत्रोच्यते-क्वचिद्वस्तुनि एकत्वबहुत्वयोरर्थविशेषी दृष्टो यथा सम्यक्त्वादेः एक जीवमाश्रित्य षट्षष्टिसागरोपमाणि साधिकानि स्थितिकाल उक्तो नानाजीवानाश्रित्य पुनः सद्धिा इति, एवमत्रापि संभवेदिति शङ्कायां बहत्वप्रश्नो न दुष्ः, अव्युत्पन्नमतिशिष्यव्युत्पादनार्थत्वावति / अथायुः प्रधानत्वान्नारकादिव्यपदशस्यायुराश्रित्य दण्डकद्वयम-एतस्य चेयं वृद्धाक्तभावना-यदा सप्तमक्षितावायुर्बद्ध पुनश्च कालान्तरे परिणामविशषात्तृतीयधरणीप्रायोग्य निर्वर्तितं वासुदेवेनेव तत्तादृशमङ्गीकृत्योच्यते-पूर्व-बद्ध कश्चिन्न वेदयति, अनुदीर्णत्वात्तस्य,यदा पुनर्यत्रैव बद्ध तत्रैवोत्पद्यते तदा वेदयतीत्युच्यते, तथैव तस्योदितत्वादिति। भ०१ श०२०। सयंकरण-न०(र वयङ्करण) साक्षात्परेण कारण, सयकरणं नामकारव मित्यर्थः / नि००१ उ० / आत्मनः कस्यचिद्विवक्षितस्य कार्यस्य निर्वर्तने, उत्त०६ अ०नि० चू०।। सयंगहिय-त्रि०(स्वयगृहीत) आत्मना प्रतिपन्ने, पञ्चा०५ विव०॥ सयंगहियलिङ्ग-स्त्री०(स्वयंगृहीतलिङ्ग) केनाप्याचार्येण अदत्तलिङ्ग आत्मनैवात्तसाधुवेष, आव० 4 उ०। सयंगाह-पुं०(स्वगाह) स्वयमात्मना गृह्णातीति स्वयंग्रहाः स्वयंगृह्णत्सु, व्य०१3०। प्रभ। सयंजय-पुं०(शतंजय) लोकोत्तररीत्या त्रयोदशे दिवसे. जं०७ वक्षः। श०७ उ०। जम्बूद्वीप द्वीपेऽतीतायामुत्सर्पिण्या जाते प्रथम कुलकरे, स्था० 10 ठा० 3 उ० सयंत-त्रि०(श्रयमाण) प्रतिपदं लभमाने, भ०१३ 106 उ० / सयंपभ-त्रि०(स्वयंप्रभ) स्वयमादित्यादिनिरपेक्षरत्नबहुलतया प्रभाप्रकाशो यस्य स स्वयप्रभः / हैमपर्वत, च० प्र०५ पाहु० / सू०प्र० / ज० / स० / षट्षष्टितमे महाग्रहे, स्था०२ ठा०२ उ०। कल्प० / सू० प्र० / चं०प्र० / भारते वर्षेऽतीतायामुत्सर्पिण्या जाते चतुर्थे कुलकरे, रथा०७०३ उ०। स०। भारते वर्षे भविष्यति चतुर्थे कुलकरे, स्था० ७ठा० 3 उ० स०। चित्रकनकाख्यदिक्कुमार्यावासे दिग्गजेन्द्रदक्षिकूटे, द्वी० / भारते वर्ष उत्सर्पिण्यां भविष्यति चतुर्थे तीर्थकरे, 'चउत्थो पोहिलजीवो सयं पभो' ती० 20 कल्प। तुरिमिण्यां नगर्या जितशत्रुराजस्य बलादाक्रमके राजनि, ति० / कल्प०। आ० चू० / कल्पना ऋषभपूर्वभव-जीवस्य ललिताङ्गदेवस्य भार्यायाम, स्त्री०। आ०म० 1 अ० संघा०। आव०॥ सयपरिहार-पुं०(वयंपरिहार) स्वयमाचारकथनेन असदाचारः परिहारे, 501 अधि०। (स्वयंपरिहार इति अस्य कथनेन परिहारोऽसदाचारस्य संपादनीयः स च 'असदायार' शब्दे प्रथमभागे 840 पृष्ठे गतः। सयंपव्वज्जा-स्त्री०(स्वयंप्रव्रज्या) आचार्यमन्तरेण स्वयमेव लिङ्गग्रहणे, अङ्ग। तनिषेधो यथापरं जं जंबू ! पव्यावणविहीए बहिया जे इगिहत्था अत्थसाभिलासिएहिं पासत्थेहिं सुत्तत्थं गहिया वेरग्गभइया / परंपरागयसाहूण साहुणीणं बहुअरे पमाए दठूण सयमेव पव्वइस्संति,सयमेव मुंडाविस्संति, सयमेव वत्थपत्ताइ गिण्हिस्संति, गुरूणं अणणुण्णाए सिरे लोअं करिस्संति, सयमेव तवोकम्म उवसंपग्नित्ताणं विहरिस्संति, सयमेव भिक्खाए भिक्खं करिस्संति। ते जंबू ! पासंडमइया दिट्ठिए वि दिट्ठा महामिच्छत्तकारिणो मिच्छत्तपरियायवडगा सम्मत्तपरियायहायगा। दुरायारा निद्धंधसा भासिणो अह नाणपन्ना अह संजमाराहगा अम्हे गुणसंपन्ना अम्हे सुद्धजिणमइया एवं भासंता मम परंपरागयसाहुसाहुणणिं हीलंता निदंता खिंसंता बहुभवपरंपराऽणुबद्धा अणंतखुत्तो संसारे भमिहिस्संति / पावमइया तेसिं निण्हवाणं सावयसाविया कुमयमई दिट्ठिराएणं गहिया संता अबोहिपविट्ठाअणंतखुत्तो संसारे सुसुद व्व परिअडिस्सतिजिबू! णत्थत्थि संदेहो। तए णं अजजंबू जायसंसए जायकाउहले उट्ठाय उद्वित्ता एवं वयासीकहं णं भंते ! तेसि सजमकिरिया तवोकम्मे निप्फले होइ। संजमं पासंता वि संजमविराहगा भणिया / एवं खलु जंबू ! ते अभिमाणगहिया कल्प सयंजल-न०(शतंजल) एरवते वर्तमाने चतुर्दशे जिन,प्रव०७ द्वार। ज० ! शकलोकपालस्य वरुणस्य विमाने, भ०३श०७ उ०। कहिणं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो वरुणस्स महारन्नो सयंजले नामं महाविमाणे पन्नत्ते, गोयमा ! तस्स णं सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स पचच्छिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाई जहा सोमस्स तहा विमाणरा-यहाणीओ भाणियव्वाओ० / जाव पासायव.सया णवरं नामं नाणत्तं ! (सू०१६७४) भ०३ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंपव्वजा 520 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयंपव्वज्जा एवं पुच्छिया मम साहूहिं एवं भासिस्संति / परंपरागए साहुणो।। तेसिं पाविट्ठमइयाणं सुमहुराए भासाए एवं पु-च्छिस्संति-भो भो महाणुभागा ! तुम्हाणं को गणो?का साहा? किं कुलं? को गुरू? कस्स धम्मायरियस्स परं-पराए तुमे संजमो गहिओ? केण दिक्खिया? कस्स अणुण्णाए उद्देससमुद्देसे संदिसंति? यं सुत्तत्थधारगा जाया के ण महाणु भागेण कालग्गहणविही दंसिया? कस्स गुरुणो अंगीकारेणं दुवालसावत्तवंदणं विहियं? कस्स य परियाए से णं विहारो वट्टइ? केणायरिएणं दुविहसिक्खं गहिया? तओ ते एवं भासिस्संति-तुम्हारिसाणं अम्हारिसे हिं आलावो संलावो न कप्पइ-तुम्हे हीणारिया पंडुरपडपाउरणा पासत्थविहारिया ओसन्नविहारिया धणकणगाइधारगा अम्हे एगंतसाहू सुद्धायारपालगा अम्हाणं का य पडिसिद्धी, जहा-हंसकागाणं तुरगखराणं महिसगइंदाणं सूरकायराणं समवाओ ण होति,तहा तुम्हाणं अम्हेहिं पडिवादो कओ। तओ तुब्मं तिया विसावयसाविया एयं वइस्संतिसव्ये एए संजया महाणुभामा मलमलिणसरीरा निल्लोहा अरसविरसाहारिणो एए पासत्था हट्ठा बलियसरीरा अवियारभासगा एएसिं का पडिसिद्धी, तेसिं पुरओ एवं कहित्ता चिट्ठिस्संति / पुणो जंबू ! मम परंपराए पोसहसालाए पमायं चइत्ता एके महाणुभावसूरिणो गणपडिधारगा संजमेसु वटुंता पुच्छिस्संति-तेसिं रिसिवेसे दठूण भो भो महागुभागा! तुम्हाणं को गुरू? को गणो? का साहा? किं कुलं जाव केणायरिएणं दुविहं सिक्खं माहिया? जंबू ! एवं ते पुच्छिया कोवेणं धमधमंता मिसिमिसेमाणा सम्मुहं वइस्संति-तुम्हाणं को गणोजाव केणायरिएणं दुविह-सिक्खं तुमे गहिया / तओ ते जंबू ममाओ परंपरा गहिऊण कहिस्संति / देवाणुप्पिया! अम्हाणं अमुगअमुगे० जाव अमुगाऽऽयरिएणं दुविहसिक्खं गाहिया। तेसिं महाणुभामाणं मयहरणं परंपराए अहमेव धर्म वयमाणा विहरामो। तओ जंबू ! ते परंपराऽऽगमरहिया एवं कहिस्संति-जाणिया मो तुम्हे, तुम्हाणं गणो वि जाणिओ जाव दुविहसिक्खा वि गाहिया सा वि जाणिया / ते पमादपरा अम्हेहिं दिट्ठा पंडुरपडपाउरणा परिग्गहधारिणो गया इव निरंकुसा घट्टा मट्ठा चिटुंति,ते तुम्हेहिं कहं मोइया? तेसिं मंडलिए तुम्हे आवस्सयाइं करणीयं कहं न कुणइ? आहारं पुढो कहं कूणह? कहं सेयपडधारगा? तुमे कहं मलमलिणगत्ता? तेहिं पासत्थ विहारीहिं दिक्खिया कओ तुम्हे साहू? कओ तुम्हे संजमाराहगा? कओ तुम्हाणं किरिया फले? किं निंवरुक्खे अंबफलानि होंतीति / एवं भासेमागा परूवेमाणा जंबू ! महामिच्छत्तनिवेसियदिहिया बहु पावं समजणित्ता बहूणं सावयसा वियाणं मिच्छत्ते ठावयंता अणंतकाले संसारे परियडिस्संति। तओ पुणो विमम परंपरागया एवं कहिस्संति-तो तुम्हाणं को गुणो? तुमं समं पुच्छिया कहं विसम बूहओ, अम्हाणं जारिसी परंपरा अस्थि सा पच्छा कहिस्सामो तुमे बज्झरहत्थ तओ ते भणिस्संति-अम्हाणं सीमंधरो गुरू सीमंधरसामिस्स सम्मुहं होऊण वयाणि पडिवजियाणि / सव्वे केवलिणो गुरू, सव्वे सिद्धा गुरुणो, सव्येसिं सिद्धाणं सव्वेसिं केवलिसमक्खं अम्हं सामाइचरित्तं पडिवज्जियं चतुद्दसरज्जूहिं पासमाणेहिं अम्हे विपासिया अम्हाणं संजमकिरिया वि पासिया, सुत्तपरक्खं पवड्डामो,अम्हाणं सुविसुद्धा किरिया,णो एयारिसाणं हीणायरियाणं सामायारीए अम्हे वट्टामो / एगंतसो सव्वन्नूभासियं करिस्सामो णो के सिं पि गणसामायारीए अम्हे वड्डामो, एगंतसो सव्वन्नूभासियं करिस्सामो णो केसिं पि गणसामायारीए अम्हाणं पओअणं / सुत्तस्स पक्खं आराहेमो मोक्खमग्गं पयडीकरिस्सामो, जिणाणाए आराहगा भविस्सामो जहा पत्तेयबुद्धेहिं करकंडुअनग्गतिदोम्मुहनमिपमुहेहिं के सिं गुरूणं समीवे संजममागहियं / पत्तेयबुद्धाणं को गणो? का साहा? किं तुब्भं? ते कहं कुलगणगुरुबाहिरा विराहिया विया-हिया भगवया तं बज्झरहत्थ। तओ पुणो वि जंबू ! ममं परंपरागया अणगारा तेसिं पाविट्ठाणं पडुत्तरदाणेणं मलिमुहे करिस्संति / जहा रे रे पासंडिया तुमे पत्तेय-बुद्धाणं सयंसंबुद्धाणं महाणुभागाणं पाडि सिद्धिं कुणइ / तुमे तत्तुलणाए वयाई पालह / तेसिं महाणुभागाणं देवयाहिं रयहरणाइलिंगे दिन्ने पुव्वभवअब्भसियं सुअंतेसिं पयडीहूअं / जाइसरणे पुव्वभवसंभरित्ता पुव्वभवगुरुपायमूलं संजमं गहियं, तमेव संजमुच्चारेणं तमेव पुव्वगुरुं अंगीकरित्ता संजमं पालियं / पुव्वभवे धम्मायरियाणं समीवे उद्देस-समुद्देस-अणुण्णा-अणुओगा संदिसाविआ। अंगोवंगाणं कालियसुअस्स उक्कालियसुयस्स जाव दिट्ठिवायस्स जोगोवहाणेणं आसायणाविरहियाणं तेसिं पुव्यभवअब्भसियं पुव्व-भवाओ अहियरं सुअंलहिऊण पव्वइया / अक्खलियस्सअणाणोवओगेणं तमेव गुरुं मणसीकरेमाणा ते कहं विराहिया हॉति? परं एरिसा वि लिंगपवयणेणं असाहम्मिया बूझ्या सोह-म्माओ परंपरधारगा गणी ते महाभागा संजमिया संता एगे चउम्मुहचेइयहरे परोप्परं मिलिया वि परतत्तिनिवारगा जाया / अप्पगवे सिणो णो गणपडिणीगधारगा णो सिस्ससिस्सणीणं दिक्खाए पयट्ठा Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंपव्वज्जा 521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयंपव्वज्जा णे / आयरियउवज्झायवोयणायरियथेरपवत्तगरायणियपूआपरमपूआसिरिपूआइ पइट्ठायणाए बूइया अक्खलिअचरित्ता,णो गिहत्थीणं आवजगा,णो लोगस्स रंजणाए उट्ठिया, णो अप्पपसंसं परनिंदं कुणंता, णो परघररक्खणपरा, णो णिच्चादेसणाकुसला,णो अप्पथुति-कारगा। तेसिं महाणुभागाणं पाडिसिद्धं कियमाणा तुमे तुम्हाणं सावयसावियाइ सव्वे मिच्छादिट्ठिया भवह / अनाथिहरिके सिपमुहा अन्ने देवयादत्तलिङ्गा पव्वइया णो तेहिं गणहिती मंडिया / एयारिसाणं मयहराणं तुलणा पवट्टमाणा एगंतपावदिट्ठिया तुमं ति निद्धाडिया संता मिसमिसेमाणा सायारसगारविया कुमयमयालिवासिणो संसारे परिवडंति अवोहिकलुसकदा चिट्ठति / पुणरवि ते एवं भासिस्सति अम्हाणं वायपडिवाए न किं पि पओ-यणं / अम्हे पावभीरू, अप्पणो कजं साहेमो किं वारण किं जुइवाए कियमाणे ण किंचि कुसलत्तणं हवइ एवं भासंता ते आयरियाणं पडिकूला अणारिया एव भवंति / कलहकोहणसीला ते सीलं पालंता वि कुसीला / अज्जमग्गं मुहे बूअमाणा वि अणज्जा, उम्मग्गपइआ तेसिं दसणं पि दिद्विमिच्छत्तजणयं / एवं जंबू ! ते पास-डिया पुवायरियपडणीया उवज्झायपडणीया आयरियउवज्झायाणं परंपराए पडिणीया। चाउव्वणस्स समण-संधस्स पडिणीया, एरिसाणं महाणुभागाणं गीयत्थाणं अणवकं खा अयसका अकित्तिकारका बहूहिं असब्भावणाहि मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा, उप्पाएमाणा तवतेणिया सुत्ततेणिया अत्थतेणिया तदुभयतेणिया समणस्स भगवओ महावीरस्स आणाए बहिया संघबहिया सयमेव मुंडे भवित्ता मम गणपरंपराणं साहूणं साहुणीणं आयारवंताणं आयारं दठूणं पुच्छित्ता सिक्खित्ता तेणियं करंता अभिमाणं धरंता ण वाहका भविस्संति / कहिस्संति अम्हाणं अमुगो गच्छो तेसिं सीसस्स सीसा वइस्संति अम्हाणं धम्माय-रिएणं निद्दिटुं तं करिस्सामो / अम्हाणं अमुगरिसीहिंतो गणपरंपरा पवट्टिया। तस्स पदाऽणुक्कमेणं अम्हे विपुव्य-पट्टधारगा अम्हे विजोगवाहगा आलोअणादायगा चाउव्वण्णस्स समणसंघस्स अण्णो वि गणवासी आयरिय-उव्वज्झायसीसो जो अम्हाणं मिलिस्सइ। अम्हाणं मंडलीए पवेसं करिस्सइ सो वि जिणाणाए आराहगो भविस्सइ : एयं बुअंताणं ण को वि तारिसे तित्थयरस्स समो | आयरिओ। सारणचोयणकुसलो भविस्सित्ता तेसिं पाविट्ठाणं निद्धाडिस्सइ / तेसिं सावए कलहकरे दठूण तुसिणीए चिट्ठिस्संति / णो पमायमवि वइस्सति / तेसिं पाविट्ठाणं सुत्तत्थे अत्थलोभेण दाइस्संति। ते वि विराह-गा भविस्संति। अविहीए सुत्तत्थपाढगाणं बोहिनासो त्ति / परं जंबू ! विक्कमवच्छराओ पच्छा सोलसवाससए वइकते पन्नासवासमझे गणे एगे केइ महाणुभागा सूरिणो पमायं पमुत्तूणं संजमधरा भारवसहा इव जिण-पन्नत्ते मग्गे उहिस्संति। तेसिं अबलं गहिऊ ण निरालंबणाणं निच्छोडिस्संति। कओ रेपाविट्ठा? तुम्हाणं गणो कओ? केहिं तुमे पाढिया? केहिं तुमं अणुण्णा गहिऊण जोगे वहणे? केहिं तुम्हाणं उद्देससमुद्देसे संदिसाविए? आगासे कुसुमं केरिसं होइ? वज्झाए पुत्ता के रिसा हुति? ससविसाणे के रिसे होइ? तहा तुमे वि गुरुपरंपराबाहिरा कओ साहू? तया के वि तब्भत्तिया सावयसा-विया तेसिं सूरीणं नाऊण नियणियगणपरंपराए सामा-यारिं ठाइस्संति। के विदूरभविया तेसिं परम्मुहो होऊण परगणस्स सामायारिं गहिस्संति / के वि कुग्गहग्गहग-हिया अणंतकालदुक्खगमणसीला णो तेसिं मोइस्संति णो परिहरिस्संति सेवं भंते ! सेवं भंते तमेव सच्चं णिस्संकं जं णिणेहि पवेइयं / हंता जंबू ! तमेव सञ्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं / कहं आगासमंडलाओ निवडिया इव भासह अम्मापिउणं संजोए अ संताणे भवति किं अन्नहा वि भवति हि? पवेइयं हंताजंबू! तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं / कहं णं भंते ! तेसिं सावयसाविया सम्मत्तमूला ण दुवालस वयाइं धरि-स्संति णो वा ते वयधारगा आराहगा वा हविजा / एवं खलु जंबू ! पुट्विं जेसिं पासे वयाणि पडिवजियाणि तेसिं पासे वयाणि पत्थि, तेसिं आलोयणा णो तेसिं सम्मत्तधारणं तओ सावयसावियाणं कहं समत्तगुणे भवति? वयगुणे भवति? आलोयणगुणे भवति? कओ एमवीयगुणे सावयाणं भवंति तेहिं सावएहिं परंपरागयं सावयकुलं भंडियं / एवं खलु जंबू ! महाणुभावेहिं सूरिवरेहिं मिच्छत्तकुलाओ उस्सग्गववाएणं पडिबोहि-ऊण जिणमए टाविया, वत्तीसअणंतकायभक्खणाओ वारिया महुमज्जमसाइ वावीस अभक्खणाओ णिसेहिया सम्मत्तमूलाई दुवालस वयाई गाहिया जीवाऽजीवाई नवपरूवणा सिक्खाविया चाउद्दसट्ठपुण्णमासिणीसु पोसहपडिपुण्णपालणा य ठाविया / कुदेवकुगुरुकुधम्माओवारियालोइयलोउत्तरदेवगुरुसंबंधमिच्छताओ णिसेहिया। णि Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंपव्वजा 522 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयंभुकड यणियगणसामायारीए समणसंघमज्झे आरोविया / तेसिं भावणाए परिग्गहिया संता अप्पणो आयारे हीलंता पासंडिअज्जयपज्जएहिं सा सामारी सुसेविया पालिया फासिया तीरिया याऽऽयारे पसंसंता ते वि तारिसा चेव, जहा पासत्थाणं संसग्गीए किट्टिया सा सेवमाणा ण कयावि दुट्ठा / परं जंबू! तेसिं / सुसाहू विणस्सइ तहा चोरपल्लीए वसंता माहणा विहीणगा विणयं संताणिएहिं महाभगाणं सूरीणं निरीहाणं पट्टपरंपराए के इ मुंचंति / तहा तेसिं संसग्गीए बहुलोगाणं उवद्दयो भविस्सइ, मणणायमे सिढिलकिरिए दठूण सगसामायारि चइस्संति / जम्मि रायकुले तब्भत्तिया वि सावया पहाणपुरिसे किजंति, ताणं पासंडियाणं किरियाण फडाडोवं पासित्ता तेसिं दुट्ठवयणेणं अणुक्कमेणं तं रायकुलमविक्खयं भविस्सइ / णूणं जहा पढमा अणुमोदणं करता हु कुलक्कम लंघित्ता पमादपराणं पमादे वाही कोढपमुहा उववजमाणा तं सरीरं भासुरं दीसति तओ आलोइत्ता तं गणं हीलंता जिंदंता खिंसंता गरिहित्ता। कहं ते पच्छा अणुक्कमेणं हत्थंगुलिया ओगलंति पायंगुलिया ओगलंति कुलक्कमओ भट्ठा आराहया हवंति? कहं तेसिं पासंडियाणं नासा ओगलति पूअरुहिरे कलेवरे छरति तहा तब्भत्तिअणुराएणं किरियाए फडाडोयं अणुमन्निऊण कुलक्कमागयगणसामायारी धणकणगाइरिद्धिमंता भवंति पच्छा ते यि असंभाणिया दोण्हमलंघिया? कहं ते वि पासंडिया णिचकालं तारिसी किरिया क्खाणिया अपसंखाणिया भवन्ति / जंबू ! तेसिं संसग्गीए णो पवटुंता चिट्ठिस्संति। जंबू ! ते वि पासंडिया पुव्वकिरियाडम्बरं कल्लाणे भविस्सइ / तन्मत्तियाणं सेवं मंते ! सेवं भंते ! अङ्ग। दंसित्ता तेसिं मुद्धरूवयाणं विमोह-इत्ता पुरिसदुगं ति। तिगं० सयंपालण--न०(स्वयंपालन) आत्मनैव सेवायाम्, पञ्चा०५ विव०। जाव किरिया फडाडोवं करिस्संति / पच्छातीया हसणसीला सयंपालणा-स्त्री०(स्वयंपालना) आत्मनैव प्रत्याख्याताहारपालकोउहलसीला कलहसीला भूइकम्मसीला। जोइसविज्जामंत नायाम्, पञ्चा०५ विव०। तंतसीला कम्मणमोहणवसीकरणाइपओगेणं सावयसावियाणं सयंबुद्ध-पुं०(स्वयंबुद्ध) स्वयमात्मनैव बुद्धस्तत्त्व ज्ञातवान् / पा०। आवज्जगा गीयनायनट्टविहीए नारीजणमोहगा सव्वपाणाइवाय अपरोपदेशेन सम्यगवरबोधिप्राप्त्यो मिथ्यात्वनिद्रापगमेन सम्बोधनं मुसावायअदत्तादाणमेहुणपरिग्गहकोहमाणमायालो भपिज्ज प्राप्ते, रा०। कल्प०। आ० म०। औ० (प्रत्येकबुद्धेभ्य एषा बाध्युपधिदोसकलहअब्भक्खाणअर इपेसुन्नपरिवायमायामोसमिच्छा श्रुतलिङ्ग कृतो विशेषः पत्तेयबुद्ध' शब्दे पञ्चमभागे 424 उक्तः।) दंसणसल्लइन्चेइयाइं अट्ठारस पावट्ठाणाई सेवमाणा भविस्संति। सयंबुद्धसिद्ध-पुं०(स्वयंबुद्धसिद्ध) स्वयंबुद्धेषु सत्सु सिद्धेषु, पा०। श्राधा अप्पत्थुर्ति पसंसमाणा परेसिं शिंदणपरा सङ्कसंगहे कुसला एवं ध० प्रज्ञा०ा ला नं जंबू ! जहा सूअगडंगस्स बीयए सुअक्खंधे पुंडरीकज्झयणे स्वयंभु-पुं० स्वयं(भ)| स्वयं भवतीति स्ययंभूः / विष्णौ, ब्रह्माण, सूत्र० चत्तारि पुरिसा पुंडरियं घेत्तकम्मा णो पराए णो हव्वाए जाव 1 श्रु०१ अ०३ उ० / देवेषु, सूत्र०१ श्रु०६ अ० नं० स्वयं भवनात तहा ते विजयभासाभासयमाणा जाणियव्वा / जंबू ! जद्दिआहो स्वयंभुः / जीवे, भ०२० श०२ उ० / स्वयम्-आत्मनैव परोपदेशतेसिं सामायारी पयडिस्सइतद्दिआहो इहेव भारहे वासे पडोयारे निरपेक्षतयाऽवगततत्त्वा भवतीति स्वयंभूः। स्वयंसम्वुद्धे, स्या)। भारते भविस्सइ / महारायमरणाणि अभक्खभक्खणाणि धणकणग वर्षेऽवसर्पिण्या जाते तृतीयवासुदेवे,ति० / प्रव० / तृतीयदेवलोकस्थे रयणसंतसारसावतेयनासणाणि कुलबहूण मिच्छकुले गमणाणि स्वनामख्याते विमाने,नपुं० स०६ समका णिस्संततीओ उच्छालिस्संति / एवमाइए उवद्दये उट्ठिस्संति भरहे। तए णं से जंबू अज्जसुहम्म एवं वयासी-कहं णं भंते ! सयंभुकड-त्रि० स्वयम्भु(म्भू)] कृत स्वयं भवतीति स्वयम्भुर्विष्णुरन्यो तब्मत्तियाणं एवं भविस्मइ ! अन्नेसिमवि एवं भविस्सइ? एवं वा तत्कृतः / विष्णुकृते, 'सयंभुणा कडे लोए' सूत्र० 1 श्रु०१ अ० खलु जंबू ! तब्भत्तियाण वि अभत्तियाण वि। से केणतुणं भंते ! 3 उ०। (अस्य व्याख्या कडवाइ' शब्दे तृतीयभागे 204 पृष्ठ गता।) एव वुच्चइ / जंबू ! जहा केइ गामागरणगरणिगमखेडकव्वडमडं स्वयंभूनिर्मितजगद्वादिनो भणन्तिवदोणमुहपट्टणे सिया तव्वासिएणं एगेणं पररटे विणासे कर "आसीदिदं तमोभूत-मप्रज्ञातमलक्षणम्। तद्दोसेणं पररट्ठिया रायाणो सन्नद्धबद्धकवया चाउरंगिणीए सेणाए अप्रतळमविज्ञेयं,प्रसुप्तमिव सर्वतः।।१।। सन्निहिया आगया। जुज्झेजिणित्ता तव्वासिया सव्वे विणासिज्जंति। तरिमन्नेकार्णवीभूते, नष्टस्थावरजङ्ग मे। तहा तेसिं कुमयमईणं संसग्गाओ वि बहूगं चित्ते मलिणे भावि- नष्टामरनरे चैव,प्रणष्टोरगराक्षसे / / 2 / / स्सइ। जइ वि संठाणसामायारीसु दहव्वा तह वि मणे कलुस- कवलं गहरीभूते,महाभूतविवर्जित Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंभुकड 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयंभुमहावर अचिन्त्यात्माः विभुस्तत्र, शयानस्तप्यते तप।।३।। तत्र तस्य, शयानस्य, नाभेः पां विनिर्गतम्। तरुणरविमण्डलनिभं, हृद्यं काञ्चनकर्णिकम्।।४।। तस्मिन् पो स भगवान्, दण्डी यज्ञोपवीतसंयुक्तः। ब्रह्मा तत्रोत्पन्न-स्तेन जगन्मातरः सृष्टाः / / 5 / / अदितिः सुरसंघानां, दितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम्। विनता विहङ्गमानां, माता विश्वप्रकाराणाम् / / 6 / / कः सरीसृपाणां, सुलसा माता च नागजातीनाम्। सुरभिश्चतुष्पदाना-मिला पुनः सर्वबीजानामिति॥७॥" एवमुक्तक्रममेतदनन्तरो दितं वस्तु अलीकं भान्तज्ञानादिभिः प्ररूपितत्वात्। प्रश्र०२ आश्र० द्वार। स्वयंभुदत्त-पुं० [स्वयम्भु(म्भू)दत्त| स्वनामख्याते काञ्चनपुरवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, ध०२०। स्वयंभुदत्तकथा पुनरेवम्"जलहिजलनेहपुन्ने,-सुमेरुदंड सुजोइकतिल्ले। जंबुद्दीव दीवे, इहऽस्थि कंचणपुरं नयरं / / 1 / / तत्थासिवासिओ जिण-मएण सिट्टी सयंभुदत्तु त्ति। पायं परिवजियपउ-र तिव्वआरंभसंरभो।।शा उल्लसिरनिरंतर अं-तरायवसओनतरस संपडइ। आजीविया विनिरव-ज अप्पसावजवित्तीए|३|| तत्तो अनिव्वहंतो, आरंभइ जाव करिसणं एसो। कूरमाहदोसणं ताजाया तत्थ ऽणावुट्ठी।।४।। तीए वसेण अविरल-रलरोलाउलियइभसंदोहं। जणियजणदुक्खलक्खें, दुभिक्खं निवडियं घोरं / / 5 / / तत्थ य सयंभुदत्तो, तयणु अकामो अनिव्वहतोय। वसहाण वाहणणं, आरंभइ जीवणोवायं / / 6 / / तेण वि दुभिक्खवसा, जाव न निव्वहइ ताव केणावि। महया सत्थेण सभ,चलिओ देसतराभिमुहं / / 7 / / दूरपहमइकते,सत्य आवासिए अरन्नम्मि। तो मुक्तपक्कहक्का-चिलायधाडी समावडिया ||8|| तो भल्लसिल्लवावल-मुहप्पहरणकरा समरधीरा। रात्थसुहडा वितीए,सद्धिं जुज्झम्मि संलग्गा।६।। खंडियपयंडसुहडं-विहडियरणरहसनस्सिरनरोह / उप्पिच्छ सत्थनाहं.दारुणमाओहणं जायं।।१०।। पवलबलेनखणेणं,तेण समहलभिल्लनिवहेण।। कलिकालेण वधम्मो,सत्थो गलहत्थिओ सयलो।।११।। चित्तूण सारमत्थं,सुरूवरामाजणं मणुस्सेय। संदिग्गहण य तओ,चिलायसेणा गया पल्लिं / / 12 / / सो विहसयभदत्तो गयसव्वस्सो पलायमाणो या धणवंतु त्ति विचिंतिय, गहियो मिल्लेहिं दुडेहिं / / 13 / / निद्दयकसवायनिवाय-बंधणाईहिताडिओ विदढं। सो इच्छइ जावन किं चिदेयद्दव्व तओ तेहिं / / 14 / / पइदिण पुन्नोवाइय, चिलायकीरंत तप्पणविहीए। चामुडाए पुरओ,उवहारत्थं स उवणीओ।।१५।। रे रे वणिया! जइजी-वियव्वमहिलससि ता बहुं दविणं / अज्जवि मन्नसु अम्ह,कालमुहं जासि किमकाले।।१६।। एवं तेजपता,सयंभुदत्तं न जाव खग्गेण। निहणंतिताव सहसा,समुट्टिओ वहलहलबोलो।।१७।। भो चयह चयह एयं, वरागमणुसरह वेरिचारमिणं। थीवालबुड्डविद्धं-सकारिणं मा विरावेह॥१८|| एसा हम्मइ पल्ली, डज्झंति इमाइँ सयलगेहाई। इय उल्लावं सोउं, सयंभुदत्तं विमुत्तूण / / 16 / / पवणजइणा जवेणं, सुमरिय चिरवइरिसुहडसपाया। चामुंडाभवणाओ, ते भिल्ला झत्ति नीहरिया / / 20 / / जाओ अज्जेव अहं, अज्जेव य सयलसंपयं पत्तो। इय चिंतंतो तुरियं, सयंभुदत्तो अवक्रतो।।२१।। भीसणचिलायभयतर-लिओय गिरिकुहरमज्झमज्भेणं। वहलतरुवल्लिपडला-उलेण अपहेण वचंतो।।२२।। कसिणभुयगेण डक्को, उम्पन्ना वेयणा महाघोरा। परिचिंतियं च तेण,इत्ताहे नणु विणस्सामि॥२३।। जइ कह वि चिलाएहिं, परिमुक्को ताकयंततुल्लेण। डसिओ भुयंगमेणं, अलंघणिज्जं अहह दिव्वं / / 24 / / अहवा जम्मो मरणेण, जुव्वणं सहजराइसयराह। संजोगोय विओगे-ण जायए किमिह सोगेणं // 25|| इय चिंतंतो जा कि चि, सणियं सणियं स अग्गओ जाइ। ता तिलयतरुस्स अहे, चारणसमणं नियच्छेइ॥२६।। विसमभुयंगमविस विह रियरस सरणं तुम मम मुणिंद!। इय भणिरो मुणिपुरओ, विचेयणो झत्ति सोपडिओ॥२७।। मुणिविहियगरुल अज्झयण,सरणवसजायआसणपकंपो। मुणिणो वरदाणपरो, गरुलवई तत्थ संपत्तो।।२८।। तो तिमिरं पिव दिवसयर-किरणहणियं तयं महाहिविसं। तह सुत्तविबुद्धव, उहिओ सो वि पडुदेहो।।२६।। अह अज्झयणसमतीइ, गरुलनाहोपयंपए हिट्ठो। भुणिपवरवरसुवरं आह इमो धम्मलाहोते।३०।। तंदठ्ठ मुणिमणीहं, नमिय सटाणं गओ गरुलनाहो। तुट्टो सयंभुदत्तो,वितं मुणिं पइइम भणइ॥३१।। भयव ! भर्मत भीसत्थ,सावयकुलसंकुडाइअडवीए। गुरुपुन्नेणं नूणं,तुहजोगो मह इहंजाओ।।३।। जइ मुणिवरिंद!नतुमं, इह हुतो फुरियगुरुयकारुन्नो। अइदुट्ठरुट्टविसहर-विसविसो तो मरंतो ह॥३३।। तामह पसिऊण मणि-दचंदखयरिंदविंदनयचरण!| आरंभदभसरं-भवज्जियं देसु पव्वज्ज॥३४।। तो समयभणियविहिणा, गुरुणा, पटवाविओ इमो सुइरं। पालियवयं सुहम्म, पत्तो गमिही सिव कमसो॥३५।। कृपालोर्जीवानां ततिषु हृदयालोर्जिनमते, स्वयंभूदत्तस्य प्रकटमिति वुद्ध्वा सुचरितम्। निरारम्भे भावे कुरुत मनसो वृत्तिमतुलां, सदा तीव्रारम्भान् परिहरत हे श्रावकजनाः॥३६।। इति स्वयंभुदत्तकथा / ध० 202 अधि०६ लक्ष०। सयं (भू) भुभद्द-पुं० [स्वयं(भू)म्भुभद्र] स्वयम्भुरमणद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ पाह०/च०प्र० सयं (भू) भुमहाभद्द-पुं० स्वय(म्भू)म्भुमहाभद्र] स्वम्भूरमणद्वीपदेवे, चं०प्र० 20 पाहु० / सू० प्र० सयं(भु)भुमहावर-पुं० सयं(भु)भूमहावर स्वयम्भूरमणसमुद्राधिपतौ देवे, सू०प्र०१६ पाहु०। चं० प्र०॥ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंभूरमण 524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयग्घी सयंभूरमण-पुं०(स्वयम्भूरमण) स्वयं भवन्तीति स्वयंभुवो देवास्ते वरणीयादिना कर्मणा व्यवस्थापिते,सूत्रे०१ श्रु०२ अ०३ उ०॥ यत्रागत्त्य रमन्तीति स स्वयम्भूरमणः / उत्त० 11 अ०। स्था०। अनु० | सयकित्ति-पुं०(शतकीर्ति) भारते वर्षे उत्सर्पिण्या भविष्यति दशमे, उत्त० संथा०। आव० अर्द्धरज्जुप्रमाणे प्रान्तसमुद्रे, अष्ट०६ अष्टा / शतकजीव तीर्थकरे,ती०२० कल्प०। प्रव०। स०। सू०प्र०। जी सयक्कउ-पुं०(शतक्रतु) शतं क्रतूना-प्रतिमानाम-अभिग्रहविशेषाणां सयंभूरमणे दीवे सयंभूरमणभद्दसयंभूरमणमहाभद्दा य इत्थ श्रमणोपासकपञ्चमप्रतिमारूपाणां वा यस्याऽसौ श्तक्रतुः / भ० 3 श० दो देवा महिड्डिया। (सू० 1854) 2 उ० / उपा०। प्रज्ञा०। द्वी०। शकेन्द्रे, 'वज्जपाणी पुरंदरे सयकाऊ . स्वयंभुरभणे द्वीपे स्वयंभूभद्रस्वयंभूरमणमहाभद्रौ स्वयंभूरमणे समुद्रे सहस्सक्खे' शतं क्रतवः श्राद्धपञ्चमप्रतिमारूपा यस्य स शतक्रतुः / इदं स्वयंभूवरस्वयंभूमहावरी। जी०३ प्रति०२ उ०। प्रज्ञा हि कार्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया, तथाहि-पृथिवीभूषणनगरे प्रजापालो नाम सयं भूरमणोद-पुं०(स्वयम्भूरमणोद) स्वयम्भूरमणस्वामिनः राजा कार्तिकनामा श्रेष्ठी। तेन श्राद्धप्रतिमानां शतं कृतं ततः शतक्रतुरिति समुद्रे, जी०। ख्यातिः। कल्प०१ अधि०१क्षण / जी०। सयंभूरमणं णं दीवं सयंभूरमणोदे नामं समुद्दे वट्टे वलया० सयग-पुं०(शतक) पुष्कलीत्यपरनामके श्रावके, स्था०६ ठा०३ उ०। जाव असंखेजाइंजोयणसतसहस्साई परिक्खे-वेणं०जाव अट्ठो ती०। प्रव०। ('संख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 38 पृष्ठे कथोकता / ) शतगोयमा! सयं भूरमणोदए उदये अत्थे पत्थे जच्चे तणुए प्रमाणग्रन्थे, षट्सुकर्मग्रन्थेष्वन्यतमे शतके, कर्म०/ फलिहवण्णाभे पगतिए उदगरसेणं पण्णत्ते, सयंभुरमणवरसयं "यो विश्वविश्वभविनां भवबीजभूतं, भुरमणमहावरा इत्थ दो देवा महिड्डिया से सं तहेव०जाव कर्मप्रपञ्चमवलोक्य कृपापरीतः। असंखेजाओ तारागणकोडिकोडिओ सोभं सोभिंसु वा सोभंति तस्य क्षयाय निजगाद सुदर्शनादिवा सोभिस्संति वा / (सू०१८५४) रत्नत्रयं स जयतु प्रभुवर्धमानः / / 1 / / स्वयंभूरमणसमुद्रस्यादक पुष्करीदसदृशम्। जी० 3 प्रति० 4 अधि० / अग्रायणीयपूर्वा-दुद्धृत्य परोपकारसारधिया। सयंभूवर-पुं०(स्वयम्भूवर) स्वयम्भूरमणोदसमुद्रस्य स्वनामके देवे, येनाभ्यधायि शतकः,स जयतु शिवशर्मसूरिवरः / / 2 / / सू०५० 16 पाहु०। चं०प्र० अनुयोगधरान पूर्वान्, धर्माचार्यान्मुनीस्तथा नत्वा / सयंवर-पुं०(स्वयंवर) स्वयमात्मना वरो वरणम / कन्यया आत्मनैव स्वोपज्ञशतकसूत्र, विवृणोमि यथाश्रुतं किंचित् // 3 // स्वपतेर्वरणे, वाचा आ०म०(द्रौपद्याः स्वयंवरवक्तव्यता 'दुवई शब्दे कर्म०१ कर्म। चतुर्थभागे 2586 पृष्ठ गता।) सम्प्रति शतगाथाप्रमाणत्वेन यथार्थनामक सयंवाइ-पुं०(स्वयवादिन) तृतीयदेवलोकविमानभेदे, स०६ सम०। शतकशास्त्रं समर्थयन्नाह - विशालपुरराजस्य सोमप्रभस्य पुत्रे, दर्श०१ तत्त्व। देविंदसूरिलिहियं, सयगमिणं आयसरणट्ठा।।१००। सयसं-पुं०(शतांश) शतभागस्यवस्तुनः शततमेंऽशे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०| देवेन्द्रसूरिणा करालकलिकालपातालतलावमज्जद्विशुद्धधर्मधुरोसयंसंबुद्ध-पुं०(स्वयंसंबुद्ध) स्वयमपरोपदेशेन सम्यग्वखोधिप्राप्त्या द्धरणधुरीणश्रीमज्जगच्चन्द्रसूरिचरणसरसीरुहचञ्चरीककल्पेन लिखितबुद्धा मिथ्यात्वनिद्रायगमसम्बोधेन स्वयंसम्बुद्धाः / जी०१ प्रतिका मक्षरविन्यासीकृत कर्मप्रकृतिपञ्चसंग्रहबृहच्छतकादिशास्त्रेभ्र इतिशेषः / तीर्थकृत्सु, लका सयंसबुद्धाणं'। तथा भव्यत्वादिसा-मग्रीपरिपाकतः किमित्याह-शतक शतगाथाप्रमाणमिदमधुनैव व्याख्यात स्वरूपम् / प्रथमसम्बोधेऽपि स्वयोग्यताप्राधान्यात् त्रैलोक्याधिपत्यकारणा- किमर्थमित्याह-आत्मस्मरणार्थमात्मस्मृतिनिमित्तमिति / / 10011 चिन्त्यप्रभावतीर्थकरनामक योगेन चापरोपदेशेन स्वयम्-आत्मनैव (कर्म०) श्रीमद्देवेन्द्रसूरिविरचिता स्वोपज्ञशतकटीका समाप्ता / कर्म०५ सम्यम्बरबोधिप्राप्त्या बुद्धा मिथ्यात्वनिद्रापगमसम्बोधेन स्वयंस- कर्म बुद्धाः। न वै कर्मणो योग्यताऽभावेतत्र क्रिया क्रिया, स्वफलाप्रसाध- सयग्ग्सो-अव्य०(शताग्रशस्) शतसंख्यभेदैरित्यर्थे, बृ०१ उ०३ प्रका कत्वात्, अश्वमापादौ शिक्षापक्त्याद्यपेक्षया। सकललोकसिद्धमेत- सूत्राशतपरिमाणेनेत्यर्थे भ०२५ श०६ उ०। दिति नाभव्ये सदाशिवानुग्रहः, सर्वत्र तत्प्रसङ्गाद्, अभव्यत्वा सयग्गु-पुं०(शतगु) सुरभिनामके वनस्पतिभेदे, आचा०२ श्रु०१ चू० विशेषादिति भावनीयमा ल० / औ०। कल्प० / १अ०८ उ01 सयकम्म-न०(स्वाककर्मन् / स्थानुष्ठित पापे कर्मणि "जत्थ पाणा | सयग्घी-स्त्री०(शतघ्री) महायष्टी,महाशिलासु या उपरिधान पातिताः विसन्नासि, किच्चंती सयकामणा'' सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सत्यः शतानि पुरुषाणां घन्तीति / ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। औ०। प्रज्ञा०। सयकम्मकप्पिय-त्रि०(स्वककर्मकल्पित) स्वकीयन ज्ञाना- प्रश्न०। राजीव शतघ्न्या हि यत्राविशेषरूपाः। उत्त०६ अग Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयण 525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयदुबार सयण-न०(शयन) शय्यते एष्विति शयनानि। वसतिषु, आचा०१ श्रु०६ अ०१3० शय्यते स्थीयते उत्कुटुकासनादिभिरस्मिन् / आश्रयस्थाने, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। खटायाम्, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। पर्यादौ, स्थ०८ ठा०३ अ० शय्यायाम्, उत्त०१ अ०। प्रश्नका धा धातूलीपर्थङ्के, प्रवरपटोपधानयुक्ते, सूत्र०१श्रु०२ अ०३ उ०ा तूलादिशयनीये, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। संस्तारके, सूत्र०२ श्रु०१अ०। स्था। आव०। स्वापे, प्रश्र०४ संव० द्वार। उत्त० तं०('संथार' शब्देऽस्मिन भागे 150 पृष्ठे संस्तारपौरिषीप्रस्तावे शयनविधिरुक्तः।) (अजा' शब्दे प्रथमभागे 221 पृष्ठे च गता।) साम्प्रतं श्रावकस्य रात्रिविषयं यद्विधेयं तदर्शयन्नाहगत्वा गृहेऽथ कालेऽर्ह-द्गुरुस्मृतिपुरस्सरम् / अल्पनिद्रोपासनं च, प्रायेणाब्रह्मवर्जनम्॥६७।। अथेति-स्वाध्यायानन्तर्य, गृहे गत्वा काले-अवसरे रात्रेः प्रथमे यामेऽर्द्धरात्रे वा शरीरसात्म्येन, निजगृहे स्वकीयपुत्रादीनां पुरतो धर्मदशनाकथनेन निद्रावसरे जात इत्यर्थः / अल्पनिद्राया उपासनं-सेवन, विशेषतो गृहिधर्मो भवतीति सम्बन्धः / यतो दिनकृत्ये - 'काऊण स / यणवग्गस्स, उत्तम धम्मदेसण। सिजाठाणं तु गंतूणं, तओ अन्नं करे इमं / / 1 / / '' इति / अत्र निद्रति विशेष्यम्, अल्पेति विशेषण, विशेषणस्य चात्र विधिः, सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणगुपसंक्रामत इति न्यायात्, निद्रेति विशेष्यं, तेन न तत्र विधिः, दर्शनावरणकर्मोदयेन निद्रार्याः स्वतः सिद्धत्वात्। 'अप्राप्ते हि शास्त्रमर्थव' दिति (निद्राया अल्पत्वे विधिरित्यवसेयम्।) कथं निद्रां कुर्यादित्याह- अर्हदितिअर्हन्तः-तीर्थकरा गुरवोधर्माचार्यास्तेषां स्मृतिः-मनस्यारोपणं पुरस्सरापूर्व यस्य तत्तथा, क्रियाविशेषणमिदम्, उपलक्षणं चैतत् चतुः शरणगमनदुष्कृतगर्हा सुकृतानुमोदना सर्वजीवक्षमणप्रत्याख्यानकरणाष्टादशपापस्थानवर्जनपञ्चनमस्कारस्मरणप्रभृतीना-न ह्येतद्विना श्रावकस्य शयन युक्तम्, तत्र देवस्मृतिः- 'नमो वीअरायाणं, सवण्णूणं तेलोकपूइयाणं जहडिअवत्थुवाईण' मित्यादि। गुरुस्मृतिश्च 'धन्यास्ते ग्रामनगरजनपदादयो, येषु मदीयधर्माचार्या विहरन्तीत्यादि.' चैत्यवन्दनादिना वा नमस्करण स्मृतिः, यदाह दिनकृत्ये-"सुमिरित्ता भुवणनाहे" ति, वृत्तौस्मृत्वा धातूनामनेकार्थत्वाद्वन्दित्वा, भुवननाथान-जगत्प्रभन, चत्यवन्दना कृत्वेत्यर्थः / (ध०) (चतुःशरणगमनम् 'चउसरण' शब्द तृतीयभागे 1058 पृष्टे गतम्।) सुकुतानुमोदन चेत्थम्-'अहवा सव्वं चिअ वी-अरायवयणाणुसारि जं सुकय / कालत्तए वितिविहं,अणुमोएमो तयं सव्वं / / 1 / / ' इत्यादि। सर्वजीवक्षमणं यथा-'खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसुवेरं मज्झं न केणइ।१।।' इत्यादि। प्रत्याख्यानं च चतुर्विधाहारविषयं ग्रन्थिसहितेन सर्वव्रतसङ्गे परूपदेशाबकाशिकव्रतस्वीकरण च, यदुक्तं दिनकृत्ये- "पाणिबहमुसाऽदत्तं'' इत्यादि गाथाद्वयं प्राग लिखितमेव, तथा शेषपापस्थानवर्जन यथा'तहा कोहं च माणं च, मायं लोभं तहेव य। पिज़ दोसं च वजेमि, अब्भक्खाण तहेव य।।१।। अरई रइपेसुन्न, परपरिवायं तहेवय। मायामोसं च मिच्छत्त, पावट्ठाणाणि वजिमो / / 2 / / ' इति तथा'जइ मे हुज्ज पमाओ, इमस्स देहस्सिमाइ रयणीए। आहारमुवहिदेह, सव्व तिविहेण वोसिरि।।१।। नमस्कारपूर्वकमनया गाथया त्रिःसाकारानशनस्वीकरणं पञ्चनमस्कारस्मरणं च स्वापावसरे कार्य, ततो विविक्तायामेव शय्यायां शयितव्यं, नतु रत्रयादिसंसक्तायाम्, तथा सति सतताभ्यस्तत्वाद्विषयप्रसङ्ग स्योत्कटत्वाच वेदोदयस्य पुनरपि तद्वासनया बाध्येत जन्तुः, अतः सर्वथोपशान्तमोहेन धर्मवैराग्यादिभावनाभावितेनैव च निद्रा कार्ये ति स्वापविधिः / तथा 'प्रायेण' इति बाहुल्येन, गृहस्थत्वादस्य अब्रहामैथुनं तस्य वर्जनत्यजनं, गृहस्थेन हि यावज्जीव ब्रह्मव्रतं पालयितुमशक्तेनापि पर्वतिथ्यादिबहुदिनेषु ब्रह्मचारिणैव भाव्यम् / ध०२ अधि०। * सदन-न० अङ्गग्लानौ, ध०१अधि०। गृहे, रा० * स्वजन-पुं०। मातापितृभ्रात्रादिके, आचा०१ श्रु०१ अ०७ उ०। आ०म० / पुत्रपितृव्यादौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। स०। आचा०। पूर्वापरसंस्तुते मातापितृव्यश्वशुरादिके, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ० / पितृमातृपत्नीपक्षोद्भवाः पुसा स्वजनाः। ध०२ अधिक। सूत्र०ा प्रश्नका सयणकाल-पुं०(शयनकाल) स्वापावसरे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०) सयणकिडग-पुं०(स्वजनक्रीडक) स्वजनादिना क्रीडाकारके, सूत्र० १श्रु०४ अ०१ उ०। सयणवग्ग-पुं०(स्वजनवर्ग) स्वकीयलोके, पञ्चा०८ विव०। सयणविरहिय-त्रि०(स्वजनविरहित) भ्रात्रादिबन्धुविवर्जित, पं०चू० ४द्वार। सयणविहि-पुं०(शयनविधि) शयनं स्वापः तद्विषयको विधिः / स्वप्नविधौ, ज०। (शयनविधिः कला' शब्दे तृतीयभागे 377 पृष्ठे उक्तः / ) सयणाइजुत्त-त्रि०(स्वजनादियुक्त) स्वजनहिरण्यादिसमन्विते, पं० व०१ द्वार। सयणासण-न०(शयनासन) पल्यङ्कादीनि शयनानि पीठिकादीनि आसनानि / पल्यङ्कपीठिकादिषु,बृ०१ उ०२ प्रक० / प्रश्रा जीता सयणिज-त्रि०(शयनीय) पर्यङ्के, कल्प०१ अधि०२ क्षण : सू० प्र० / जंग। विपान सयदुबार-न०(शतद्वार) जम्बूद्वीपे भारते वर्षे वैतादयगिरिपादमूले पुण्ड्रजनपदप्रधाने नगरे, यत्र महापद्मस्तीर्थकृदुत्पस्यते। स्था०६ ठा०३ उ०। अन्तती०। ति० भ० Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयधणु 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयाउ सयधणु-पुं०(शतधनुष) जम्बूद्वीपे ऐरवते वर्षे आगमिष्यन्त्या -- | सययब्भास-पुं०(सतताभ्यास) नित्यमेव मातापितृविनयादिवृत्ती, ध० मुत्सर्पिण्या भविष्यति अष्टमे कुलकरे, स०। ति०। जम्बूद्वीपे भारत 1 अधि० वर्षे उत्सर्पिण्यां भविष्यति नवमे कुलकरे, स्था०१० ठा०३ उ०। सयरह-पुं०(शतरथ) भारते वर्षेऽतीतायामवसर्पिण्या जाते दशमे बलदेवस्य रेखत्यां जाते पुत्रे, नि०१ श्रु०५ वर्ग 10 अ०। (स चारि- कुलकरे, स०। ष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य सिद्ध इति तिरयावलिकायाः पञ्चमे वर्गे दशमेऽ- सयराह-(देशी) युगपदर्थे, त्वरितेच। आ०म०१ अाझटित्त्यर्थे, अनुन ध्ययने सूचितम्।) आ०म०। प्रश्न सयपइया-स्त्री०(शतपदिका) स्वेदजजन्तुभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ० सयरि-स्वी०(सप्तति) सप्तावृत्तदशसंख्यायाम, 'सयरिं मासाणं' ५उन महा०१०। सयपत्त-न०(शतपत्र) पत्रशतसंख्योपेते पदमे / चं० प्र०१ पाहु। सयरिसह-पुं०(शतवृषभ) त्रयोविंशतितमे अहोरात्रमुहूर्ते, च०प्र० आ०म० सी०। जं०। रा०। ओघ०। प्रज्ञा०ा शत्रुञ्जये, ती०१ कल्प। 10 पाहुन सू०प्र०। प्रज्ञा०। स०ा औ०। रा०| सयल-त्रि०(शकल) सम्पूर्णे, विशे० सयलजगजीवहियं / ' कल्प० सयपव्व-न०(शतपर्वन) बहुपर्वे वंशजातीये वनस्पती, आचा०१ श्रु० 1 अधि०५ क्षण। 1 अ०५ उ० सयलजगप्पियामह-पुं०(सकलजगत्पितामह) सकलजगतः समस्तसयपाग-न०(शतपाक) शतकृत्वो यत्पत परावरौषधै रसेन सह शतेन भुवनजनस्य पितामह इव पितामहः सकलजगत्पितामहः / अथवावा कार्षापणानां पवित्रमे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। शतं पाकाना- सकलजगतो धर्मः पिता पालनानियुक्तत्वात्तस्यापि भगवान् पिता मौषधिक्वाथाना वा पाको यस्य, औषधिशतेन वा सह पच्यते यत भगवत्प्रभवत्वाद्धर्मस्येति पितुः पितापितामहः / सकलजगतः पितामह शतकृत्वः पाको यस्य, शतेन वा रूपकाणां मूल्यतः पच्यते यत्रतच्छत- इति विग्रहः / तीर्थकृति, "भुवणगुरुणो य ठवणा सयलजगपियामहस्स पाकम् / स्था०४ ठा०१ उशतवारं नवनबौषधरसेन पक्कानि। अथवा- तो सम्म" पं०सं०। यस्य पाके शतं सौवर्णा लगन्ति तत्। शतद्रव्यैः पक्के तैलादौ, कल्प०१ सयलसमाहियसिद्धि-स्त्री०(सकलसमाहितसिद्धि) निखिलेप्सितार्थअधि०३क्षण। निष्पत्ती, पञ्चा०६ विव० सयपोरागकिमिय-पुं०(शतपर्वककृमिक) इक्षुपर्वकृमिषु, जी०३ प्रति० सयलादेश-पुं०(सकलादेश) समग्ररूपतया प्रतिपादने, रत्ना०४ परि०। 1 अधि०२ उ० (सकलादेशस्वरूपम् 'सत्तभंगी' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) सयबल-पुं०(शतबल) ऋषभपूर्वभवजीवस्य वैताख्यपर्वते गान्धारविषये सयलिंदियविसयभोगपञ्चंत-पुं०(सकलेन्द्रियविषयभोगप्रत्यन्त) जातस्य महाबलस्य राज्ञः पितामहे, आ०चू०१ अ०। आतु०। आ०म०। अशेषभोगपर्यन्ते, श्रा०। सयमिसय-स्त्री०(शतभिषज्) शततारे वरुणदेवताके स्वनामख्याते सयवसह-न०(शतवृषभ) अहोरात्रस्य त्रयोविंशे मुहूर्ते, कल्प०१ अधि० नक्षत्रभेदे, जं०७ वक्ष०। स्था०1 सू०प्र० स०। ६क्षण। जं०। ज्यो। सयमाण-त्रि०(स्वपत्) शयाने, "अंजयं सयमाणो य पाणा भूयाइँ- सयवार-पुं०(शतवार) शतश इत्यर्थे, 'तं किहि वंकेहि लोअणेहिं हिंसई" दश०४ अ०। आचा०॥ जोइज्जउ सयवार प्रा०४ पाद। सयमारंभवजण-न०(स्वयमारम्भवर्जन) अष्टम्यां प्रतिमायां श्रावक- सयसहस्स-न०(शतसहस्र)लक्षे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ० स्था०। ज्ञा०ा जंग कर्तव्ये, साक्षादारम्भनिषेधे, 'वजइ सयमारंभ सावन कारवेति पेसेहि। अनु० वित्तिणिमित्तं सुव्वयगुणजुत्तो अट्ट जा मासा' इति / उपा० 1 अ० सयसहस्सपत्त-न०(शतसहस्रपत्र) लक्षदलोपेते पो, औ०। सयमास-पुं०(स्वकमास) स्वकीयमासे, नि०चू०२० उ०! सयसामत्थाणुरूव-त्रि०(स्वकसामर्थ्यानुरूप) निजशक्त्यनुसारे, सयमुह-न०(शतमुख) स्वनामख्याते नगरे, यत्र गुणचन्द्रः श्रेष्ठी चन्द्रिकया ___ पञ्चा०१८ विवा भार्यया सहासीत्। पिं०। सयसाहस्सिय-त्रि०(शतसाहसिक) लक्षप्रमाणे, कल्प० 1 अधि० सयय-न०(शतत) अनवरते, आचा०१ श्रु०८ अ०४ उ०। उत्ता ५क्षण। * शतक-पुं० उत्सर्पिण्यां भविष्यतो दशमतीर्थकृतः पूर्वभवजीवे सया-अव्य(सदा) सर्वकाले, आचा०१ श्रु०१४ अ०१ उ०। स्था०। स्वनामख्याते श्रावके.स०६४ सम०। तिन दश०। सूत्र०। आव०॥ नित्यं शब्दार्थ, भ०३ श०३ उ०। स्था। सातत्ये, सययबंध-पुं०(सततबन्ध) शततं बन्धः सततबन्धः / नामनामवतोरै- चं०प्र०२० पाहुका प्रवाहतोऽपर्यवसिते काले, स्था० 10 ता०३ उ०। कार्य समासो बहुलमिति समासः / यथा विस्पष्ट पटुः विस्पष्टपटुरित्यादौ। सयाउ- पुं० (शतायुष) जम्बूद्वीपे भारते क्षेत्रे अतीतायानिरन्तरबन्धकाले बन्धे, कर्म०५ कर्म०। मुत्सर्पिण्या जाते द्वितीये कुलकरे, स्था० 10 ठा०३ उ०। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयाउ 527 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयासिव ति०। स०। सुराविशेष, शतबारानपि शोधिताऽपिया स्वरूपं न जहाति।। उच्छीर्षस्थितविषधस्य योजनशतस्थायि वैद्यः किं कुरुते? तस्माद् जी०३ प्रति०४ अधि०। जंग सुस्थं कुरु / तेनोक्तम्- कथं पुनरेतत् संपद्यते? ततो दूतेनोक्तम्सयागुत्त-त्रि (सदागुप्त) सर्वकालं प्रहरणादिभी रक्षिते, जी०३ प्रति० उज्जयिनीनगरीसत्का बलिष्ठा इष्टका भवन्ति, ताभिः कौशाम्ब्याः प्राकार 3 अधिo कारय / उज-यिन्याश्वातिदूरे कौशाम्बी, ततो गन्त्र्यादिवाहनैरिष्टका सयाज(य) य-त्रि०(सदायत) सर्वकालं प्रयत्नपरे, दश०४ अ०। आनेतु न शक्यन्ते / अतः पदातिपुरुषप्राचुर्याच्चण्डप्रद्योतेन तान् आचा० दशल। आचा परम्परया व्यवस्थाप्य हस्ताद् हस्तसंचारेणेष्टका आनाय्य कारितः सयाजला-स्त्री०(सदाजला) सदा-सर्वकालं जलम् उदक यस्यां सा कौशाम्बयाः प्राकारः। ततो मृगापत्या प्रोक्तम्-धान्यजलतृणादिकं यथा तथा। सदा जलाभिधानायां नरकनद्याम्, “सयाजला नाम नदी भिदुग्गा नगरीमध्ये प्रचुरं भवति तथा कारय। ततो रागान्धत्वेन नष्ट-बुद्धिना तेन पविजला लाहविलीणतत्ता।'' सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०। सर्व तत् तथैव कारितम् / ततो रोधकशय्यायां तस्यां नगर्या संजातायां सयाणिय-पं०(शतानीक) कौशाम्ड्या नगर्याः स्वनामख्याते राजनि व्यभिचरिता मृगापतिश्चण्डप्रद्योतस्य / ततो नगरीद्वारे समायातो उदयनपितरि, विप:०१ श्रु०५ अ०। आचा०। विशे०। अत्रैव भरतक्षेत्रे विलक्षीभूतस्तिष्ठत्यसौ / ततो मृगापत्या चिन्तितम्-पुत्रराज्योपद्रवयमुनानदीकूले पूर्वदिग्वधूकण्ठनिवेशितमुक्ताफलक-ण्ठिकेव कौशाम्बी व्यतिकरे निश्चिन्ता संजाताऽहं तावत्, ततो धन्यास्ते ग्रामनगरादिप्रदेशा नाम नगरी / तत्र च सहस्रानी कराजसूनुः स्व-कुलमहासरः सरसि येषु भगवान महावीरो विचरति, धन्यश्च स एव लोको यस्तत्पादरजोजायमानः शतानीको नाम राजा। तस्य च चेटकराजदुहिता श्रीमहावीर- रञ्जितभालतलः सततं तदन्तिकोपासीनस्तद्वचः पीयूषवृष्टिभिर्निर्वाजिनक्रमकमलमधुकरी च भुवनाति-शायिरूपा मृगापति मपट्ट- प्यमानः काल निर्वाहयति, तद् यद्यत्र कथमपि भगवान् समागच्छति, महादेवी / अन्यदा च शतानीकनरपतिना निजमनः कुविकल्प- ततोऽवलोकितातिदुरन्तसंसारवैरस्याऽहमप्येतत् करोमि प्रव्रज्या संभाविताऽलीकापराधेन स्वनगरीनिवासिनस्तोषितसाकेतपुर- चाऽभ्युपगच्छामि / एतच तदाकूत विज्ञाय समागतस्तत्र भगवान् / प्रतिष्ठितसुरप्रियाभिधानयक्षावाप्सवरस्य निरपराधस्यैवैकस्य चित्रकर- मृगापतिश्चण्डप्रद्योतश्च तत्र वन्दनार्थमुपगतः। धर्मकथावसाने च मृगापत्या स्याऽड्गुष्टप्रदेशिन्योरा छदितम्। ततस्तेन 'निरर्थकमपमानितोऽहम्' व्रतग्रहणार्थ चण्डप्रद्योतो मुत्कलापितः / तेनापि भगवल्लज्जया तस्याश्च इति गादं प्रकुपितेनोपायं विमृश्य स्त्रीलोलत्वादतिवलिष्ठत्वायोज- सदेवमयाऽसुरायाः परिषदो लजमानेन सा मुत्कलिता, प्रव्रजिता च / यिनीनिवासिनश्चण्डप्रद्योतनरनाथस्य चित्रफलके वरलब्धतया यथाव- विशे०। भ०। कल्पका ती०। आ०क० / वासजनपदे कौशम्ब्या राज्ञः स्थितं मृगापतिरूपं प्रदर्शितम् / ततस्तेनातिमदनपरवशेन तद्याचनाय शतानीकस्य जयन्तीनाम भगिन्या-सीत् / बृ०२ उ०। संथा०। आव०) शतानीकान्तिके दूतः प्रेषितः। स च शतानीकेन वाढमपमान्य निर्भय आ०चूला च विसर्जितः ततस्तद्वचनाकर्णनप्रकुपितश्चण्डप्रद्योतो महाबलैरनेक- सयाथिमिय-स्त्री०(सदास्तिमित) अविरहितं प्रशान्ते, पं० सू०४ सूत्र भटकोटिस्वामिभिर्बद्धमुकुटैश्चतुर्दशभिर्भूपालैः महता स्वबलेनच सह सयामग-पुं०(श्यामक) गर्दभिल्लराजादनन्तरशकराजाच्च पूर्वमप्रचलितः शतानीकस्योपरि / तं च तथा महाबलभरेणाऽऽगच्छन्तं श्रुत्वा, भिषिक्ते भारतप्रधानराजे, तिला आत्मानं चाल्पसामग्रीकं ज्ञात्वा हृदयसट्टेन संजातातीसाररोग: सयालि-पुं०(सदालि) भारते आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्या भविष्यतोऽष्टापञ्चत्वमुपगतः शतानीकः / ततो मृगापत्या चिन्तितन्धिड् मम रूपम्, दशतीर्थकरस्य संवरस्य पूर्वभवजीवे, ती०२० कल्प०। स० यदर्थ मद्भर्तुस्तावद मरणमागतम् / न चैतावता स्थास्यतीदम, किन्तु सयावरी-त्रि० (शतावरी) बल्लीभेदे, ध०३ अधि०। प्रव०। त्रीन्द्रिभवकोटीष्वप्यतिदुरवापं श्रीमन्महावीरोपदेशतः सुचिरमनुपालितं मम यजीवभेदे, उन०३६ अ०॥ शीलाभरणमपि विलुप्येत लग्रम् / तस्मादुपायमत्र चिन्तयामि, इति विमृश्यन्त्याः स्वबुद्धिलब्धसम्यगुपायया चण्डप्रद्योतस्यागच्छतो सयावियडभाव-पुं०(सदाविकटभाव) सर्वकालं प्रकटभावे, 'सयाविदूरस्थितस्यैव निरूपितः सम्मुखो दूतः / तेन च गत्वा मृगापतिवचनात् यडभावे असंसत्ते जिइंदिए।' दश०८ अका प्रोक्तम्, यथा-राजन् ! मृगापतिर्भाणयति-यद्भर्तरि मृते स्वाधीनैव सयासव-त्रि०(सदाश्रव) आश्रवतीषत्क्षरति जल यैस्ते आश्रवाःतावत् तवाहम, परं किन्त्वद्यापि राजा वाल एवायमुदायननामा मत्पुत्रः / सूक्ष्मरन्ध्राणि सन्तो विद्यमानाः सदा वा-सर्वदा वा आश्रवा यस्य स ततो यारय सुस्थमकृत्वैवाऽहं त्वया सह गच्छामि, तदा सीमाल सदाश्रवः। आश्रवैः सदा सहिते, भ०१श०६ उ०। राजादिभिरसौं परिभूयते / तरमादिहेव दूरे स्थितोऽमुं सुस्थं कुरु।। *शताश्रव-त्रि०ा शतसंख्या आश्रवा यस्य सः। शतसंख्यकाश्रवोपेते. अथास्मिन्नकृतेऽप्येवमेवाऽर्वाग मद्देशसीमायां समेष्यसि, तदा विषादि- | भ०१श०६ उ० प्रयोगतो मरिष्यामि / ततश्चण्डप्रद्योतेनोक्तम्-मथि विद्यमाने न सयासिय-पुं०(सदाशिव) सदा शिवमस्येति सदाशिवम् / ल०। षो। कोऽप्यस्य संमुखमप्यवलोकयिष्यति / ततो दूतेनोक्तम् -नैवम्, यत परब्रहाणि, शैवोपास्ये परतत्त्वे, द्वा०२ द्वा०। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयामोक्ख 528 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सयामोक्ख-न०(सदासौख्य) नित्यसुखे, अपवर्ग, आव०६ अ०। पक्षा सय्ह-त्रि०(सह्य) 'हो ह्योः' / / 8 / 2 / 124 // इति ह्यशब्देहकारय कारयोर्व्यत्ययो वा / सहनीये, प्रा०२ पाद। सयोग-पुं०(सयोग) योगेन सहितः / संसारी जीवभेदे, स्था०२ मा 4 उ! सर-पुं०(शर) वाणे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। अस्त्रे, प्रव० द्वार! ध०| संथा। आ०म०। औ०। सूत्र० स०॥ * सरस्-ना स्वयं सम्भूते जलाशये, अनुला स्था०। प्रज्ञा०नि० चू०। भ०। औ०। रा०। प्रश्र०। उत्त ज्ञा०। बहूनि केवलानि पुष्पावकीर्णानि सरासीत्युच्यन्ते, प्रज्ञा०२ पद। *स्वर्-अव्य०। स्वर्लोक, देवलोके, गा०| *स्वर-पुंग। शुद्धेष्वकाराद्यक्षरेषु, पुं०। "अवरखरसरणेण सरा'' 'वृ' शब्दोपताययोः, अक्षराणां व्यञ्जनानां स्वरणेन संशब्दनेन स्वरा अकारादयः प्रोच्यन्ते। अथवा-अक्षरस्य चैतन्यस्य स्वरणात संशब्दनात् स्वराः,शब्दोचारणमन्तरेणाऽन्तर्विज्ञानस्य बोद्धमशक्यत्वात्, शब्दे च स्वरसद्भावादिति। विशेष सुद्धा वि सरंति सयं, सारंति य वंजणाइँ जं तेणं / होंति सरा न कयाइ वि, तेहि विणा वंजणं सरइ।४६२॥ वंजिज्जइ जेणत्थो, घडो व्व दीवेण वंजणं तो तं। अत्थं पायेण सरा, वंजंति न केवला जेणं // 463 / / शुद्धाः केवला व्यञ्जनरहिता अपि अकारादयः रवराः स्वयमेव स्वरन्ति-शब्दयन्ति विष्णुप्रमुखं वस्तु, व्यञ्जनानि चैते संयुक्ताः सन्तः स्वरयन्ति, उच्चारणयोग्यानि कुर्वन्ति यतः, तेन कारणेन स्वरा भवन्त्येते / न हि कापि तैः स्वरौ विना व्यञ्जनस्य स्वरणम - अर्थप्रतिपादनं दृश्यते / नापि परगमने पिण्डीभूतानि व्यजनानि स्वरैर्विनोच्चारयितुं शक्यन्ते, अतो व्यञ्जनरवरणादप्यते स्वरा उच्च्यन्त इति भावः / व्यज्यते प्रकटीक्रियते प्रदीपनेव घटादिरों - ऽनेनेति कृत्वा व्यञ्जनमभिधीयते व्यञ्जनसाहाय्यविरहिता यतः केवलाः स्वरा प्रायो न कदाचिद् बाह्यमर्थ व्यञ्जयन्ति, अपनीत-व्यञ्जन हि वाक्यं न विवक्षितार्थप्रतिपादनायाऽलं दृश्यते, यथा-'सम्यगदर्शन-- ज्ञानधारित्राणि' इत्यत्र वाक्ये व्यञ्जनापगमे एते स्वरा समवतिष्ठन्ते'अ-अ-अ-अ-अ-आ-अ-आ-इ-आ-इ' / न चैत विवक्षितमर्थ प्रतिपादयितुं समर्थाः / अकारेकारादयः केवला अपिविष्णमन्मथादिकमर्थ प्रतिपादयन्तीति प्रायोग्रहणम्। अत्राह नन्वकारादयो विष्णुप्रतीनां संज्ञा एव। एवं च सति यथा केवलेन स्वरेण संज्ञा, तथा संकेतवशात् केवलेन व्यञ्जनेनाप्यसो भविष्यति तत्कथं पूर्वगाथायामुक्तम्- 'न कयाइवि तेहि विणा वंजणं सरइ इति? सत्यम्. तत्राऽयमभिप्रायःस्वरैः केवलैरपि काचित काचित संज्ञा दृश्यते, व्यवनैस्तु सर्वथा लद्रहितैर्न काचित संज्ञा वक्ष्यत इति / तदेवमक्षरं वर्ण इति पर्यायी सामान्यवर्णवाचकी, स्वरो या जनमित्येतो तु प्रत्येक वर्णविशेषवाचकामिति / विशला सकलजनात्यप्रकृतिमा भीरतादिगणायलकले झाला. अन् / विशे०। सूत्रका रथा। तं०। रा० ज० 'स्व' पासपीः स्वरः / स्वनिविशेष, अनु० सत्त सरा पण्णत्ता, तं जहा-"सज्जे रिसभे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे / धेवते चेव णिसाते, सरा सत्त विया-हिता / / 1 / / " एएसिणं सत्तण्हं सराणं सत्त सरट्ठाणा पण्णत्ता, तं जहा सजं तु अग्गजिब्भाते, उरेण रिसभं सरं। कंठुग्गतेण गंधारं, मज्झजिब्भा तु मज्झिमं / / 2 / / णासाए पंचमं बूया, दंतोट्टेण य धेवतं / मुद्धाणेण य णिसातं, सरट्ठाणा वियाहिता / / 3 / / सत्त सरा जीवनिस्सिता पण्णत्ता,तं जहासज्जं रवति मयूरो, कुक्कुडो रिसहं सरं। हंसो णदति गंधारं, मज्झिमं तु गवेलगा // 4 // अह कुसुमसंभवे काले, कोइला पंचमं सरं। छटुं च सारसा कोंचा, णिसायं सत्तमं गता।।५।। सत्त सरा अजीवनिस्सिता पण्णत्ता, तं जहासज्जं रवति मुइंगो, गोमुही रिसभं सरं / संखो णदति गंधारं, मज्झिमं पुण झल्लरी॥६॥ चउचलणपतिट्ठाणा, गोहिया पंचमं सरं / आडंबरो रेवतितं, महाभेरी य सत्तमं / / 7 / / एतेसि णं सत्तसएणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तं जहासजेण लभति वित्तिं, कतं च ण विणस्सति। गावो मित्ता य पुत्ता य,णारीणं चेव वल्लभो / / 8 / / रिसभेण उ एसज्जं, सेणावचं धणाणि य। वत्थगन्धमलंकारं, इथिओ सयणाणि य / / 6 / / गंधारे गीतजुत्तिण्णा, वज्जवित्ती कलाहिता। भवंति कतिणो पन्ना, जे अन्ने सत्थपारगा।।१०।। मज्झिमस्सरसंपन्ना, भवंति सुहजीविणो। खायती पीयती देती, मज्झिमं सरमस्सितो।।११।। पंचमस्सरसंपन्ना, भवंति पुढवीपती। सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणणातगा / / 12 / / रेवतस्सरसंपन्ना,भवन्ति कलहप्पिया। साउणिता वग्गुरिया, सोयरिया मच्छबन्धा य॥१३॥ चंडाला मुट्ठिया सेवा, जे अन्ने पावकम्मिणो। गोघातगाय जे चोरा, णिसायं सरमस्सिता॥१४॥ एतेसिं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णत्ता, तं जहा-सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे / सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पण्णत्ताओ,तं जहामंगी कोरव्यीया, हरी य रयणी य सारकता य। छट्ठीय सारसी णाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा।।१५।। मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पण्णत्ताओ, तं जहाउत्तरगंदा रयणी, उत्तरा सदरासमा। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सर आसोकंताय सोवीरा, अभीरु हवति सत्तमा॥१६॥ गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणातो पणत्ताओ तं जहाणंदीति खुदिमॉ पूरि-मा य चउत्थी य सुद्धगंधारा। उत्तरगंधारा तित, पंचमिता हवति मुच्छा उ॥१७॥ सुलुत्तरमायामा, सा छट्ठी णियमसो उ णायव्या। अह उत्तरायता को-डिमातसा सत्तमी मुच्छा।।१८।। सत्त सराओं को सं-भवंति? गेयस्स का भवति जोणी? कति समता उस्सासा? कति वा गेयस्स आगारा?|१६| सत सराणाभीतो, भवंति गीतं च रू (रु) यजोणीतं / पादसमा ऊसासा, तिन्नि य गीयस्स आगारा / / 20 / / आइमिउ आरभंता, समुव्वहंता य मज्झगारम्मि। अवसाणे तज्ज बिंतो, तिन्नि य गेयस्स आगारा।।२१।। छद्दोसे अट्ठगुणे, तिन्नि य वित्ताउँदो य भणितीओ। जाणाहि ति सो गाहिइ,सुसिक्खिओ रंगमज्झम्मि।२२। भीतं दुतं रहस्सं,गायंतो मा तगाहि एत्तालं। काकस्सरमणुनासं च होंति गेयस्स छद्दोसा / / 23 / / पुन्नं 1 रत्तर चअलं-कियं 3 च वत्तं 4 तहा अविग्धुढे 5 / मधुरं 6 सम 7 सुकुमारं 8, अट्ठ गुणा होति गेयस्स।२४। उरकंठसिरपसत्थं, च गेज्जते मउरिमिअपदबद्धं / समतालपडुक्खेवं, सत्त सरसीहरं गीयं / / 25 / / निहोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं / उवणीयं सोवयारं च, मियं मधुरमेव य / / 26 / / सममद्धसमं चेव, सव्वत्थ विसमं च जं। तिन्नि वित्तप्पयाराई, चउत्थं नापलब्भती / / 27 / / सकता पागता चेव, दुहा भणितीउ आहिया। सरमंढलम्मि गिज्जते, पसत्था इसिभासिता।।२८|| केसी गायति मधुरं, केसी गायति खरं च रुक्खं च / केसी गायति चउरं, केसि विलंबं दुतं केसी // 26 // विस्सरी पुण के रिसि? सामा गायइ मधुरं,काली गायइ खरं च रुक्खं ज। गोरी गायति चउर, काण विलंबं दुतं अंधा // 30 // विस्सरं पुण पिंगला। तंतिसम तालसम,पादसमलयसमं गहसमं च / नीससिऊससियसमं, संचारसमा सरा सत्त॥३१|| सत्त सरा य ततो गामा, मुच्छणा एकवीसती। ताणा एगूणपण्णासा, सम्मत्तं सरमंडलं // 32 // (सू०५५३) इति सरमंडलं समत्तं / / सुगम चंद, नवर स्वरणानि स्वराः-शब्दविशेषाः, 'सज्जे त्यादि श्लोकाः, षड्भ्यो जातः षड्जः, उक्तं हि-"नासां कण्ठमुरस्तालु, जिहां दन्तांश्च संश्रितः / षडभिः सञ्जायते यस्मात्तस्मात् षड्ज इति स्मृतः।।१।।" तथा ऋषभो- वृषभस्तद्वद् यो वर्तते स ऋषभ इति। आह च- "वायु: समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः, न त्यृषभवद यस्मात्, तस्मादृषभ उच्यते।।१।।" तथा गन्धो विद्यते यत्र सगन्धारः स एव गान्धारो, गन्धवाहविशेष इत्यर्थः / अभाणि हि-''वायुः समुत्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः। नानागन्धावहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना / / 1 / / " तथा मध्ये कायस्य भवो मध्यमः,यदवाचि- ''वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहृदिसमाहतः / नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुत // 1 // " तथा पञ्चानां षड्जादिस्वराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पञ्चमः / अथवा-पञ्चसु नाभ्यादिस्थानेषु मातीति पञ्चमः स्वरः यदभ्यधायि'वायुः समुत्थितो नाभे-रुरः(हत्) कण्ठशिरोहतः / पञ्चस्थानोत्थितस्याऽस्य, पञ्चमत्वं विधीयते॥१|| तथा अभिसन्धयते-अनुसन्धयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवशाधैवतः, यदुक्तम्-'अभिसन्धयते यस्मादेतान पूर्वोत्थितान स्वरान्। तस्मादस्य स्वरस्यापि,धैवतत्व विधीयते / / 1 / / '' पाठान्तरेण रैवत-श्चैवेति, तथा निषीदन्ति स्वरा यस्मिन् स निषादः,यतोऽभिहितम्- "निषीदन्ति स्वरा यस्मान्निषादस्तेन हेतुना। सर्या श्वाभिभवत्येष, यदादित्योऽस्य दैवतम् / / 1 / / " इति, तदेवं स्वराः सप्त 'वियाहिय' त्ति-व्याख्याताः / ननु कार्य हि कारणायत्तं जिह्वा च स्वराणां कारण सा चासंख्येयरूपा ततः कथं स्वराणां संख्यातत्वमिति, उच्यते-असंख्याता अपि विशेषतः स्वराः सामान्यतः सर्वेऽपि सप्तस्वन्तर्भवन्ति। अथवा-स्थूलस्वरान् गीत-चाऽऽश्रित्य सप्त उक्ताः, आह च- "कजं करणायत्तं, जीहा य सरस्सता असंखेजा / सरसंखमसंखेजा, करणरसासंखयत्ताओ / / 1 / / सत्त य सुत्तनि-बद्धा, कह न विरोहो? तओ गुरू आह। सत्तणुवाई सव्वे, वायर-गहणं च गेयं वा / / 2 / / " इति। स्वरान्नामतोऽभिधाय कारणतस्तन्निरूपणायोपक्रमते - 'एएसिण' मित्यादि, तत्र नाभिसमुत्थः स्वरोऽविकारी आभोगेन अनाभोगेन वा यं प्रदेश प्राप्य विशेषमासादयति तत्स्वरस्योपकारकमिति स्वरस्थानमुच्यते, 'सज्ज' मित्यादि श्लोकद्वयं ब्रूयादिति सर्वत्र क्रिया,षड्जंतु प्रथमस्वरमेव अग्रभूता जिह्वा अग्रजिह्वा जिह्वाग्रमित्यर्थः, तया यद्यपिषड्जभणने स्थानान्तराण्यपि व्याप्रियन्ते अग्रजिह्वा वा स्वरान्तेषु व्याप्रियते तथापि सा तत्र बहुतरव्यापारवतीति कृत्वा तया तमेव ब्रूयादित्यभिहितम्, उरोवक्षस्तेन ऋषभस्वर, 'कंटुग्गएण' ति-कण्ठश्वासावुग्रकचउत्कटः कण्ठोग्रकस्तेन कण्ठस्य वोग्रत्वं यत्तेन कण्ठोग्रत्वेन कण्ठाद्वा यदुद्गतम्-उद्गतिः स्वरोद्गमलक्षणा क्रिया तेन कण्ठोद्गतेन गन्धारं, जिह्वाया मध्यो भागो मध्यजिह्वा तया मध्यमं, तथा दन्ताश्चओष्ठौ च दन्तोष्ठं तेन धैवतं रैवतं वेति / 'जीवनिस्सिय' त्ति-जीवाश्रिताः जीवेभ्यो वा निःसृतानिर्गताः, 'सज' मित्यादिश्लोकः, 'नदति-रौति 'गवेलग' ति-गावश्च एलकाश्च- ऊरणका गवेलकाः, अथवा-गवेलका ऊरणका एव इति, 'अह कुसुम' इत्यादिरूपकं गाथाभिधानम्, "विषमाक्षरपादं वा, पादैरसमंदशंध Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर 530 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सर वित। तन्नेऽस्मिन् सदसिद्ध, गाथेति तत् पण्डितै यम् / / 1 / / " इति चनात्, 'असे' ति-विशेषार्थः, विशेषार्थता चैवम् - यथा गवेलका अविशेषेण मध्यम रवर नदन्ति न तथा कोकिलाः पञ्च-मम, अपितु कसुमसम्भवे काल इति, कुसुमानां बाहुल्यतो वन-स्पतिषु सम्भवो स्मिन स तथा तर, मधावित्यर्थः / अजीवनि-रिसय ति-- तथैव स्वर जीवप्रयोगादेत इति / 'राज्ज' मित्यादि श्लोकः, मृदङ्गो-मर्दलः गोमुखी-काहला यतस्तरसा मुखे गो-शृङ्ग मन्यद्वा क्रियत इति, 'चउ' इत्यादि श्लोकाः चतुर्मिश्चरणैः प्रतिष्ठानं भुवि यस्याः सा तथा. गोधा भणा अवनद्धेति गोधिका वाद्यविशेषो दईरिकेति यत्पर्यायः आडम्बरःपटहः राप्तममिति निषादम्। 'एएसिण मि' त्यादि, सत्त' ति-स्वरभेदात् पगारव-रलक्षणानि यथा स्तंफलं प्रति प्रापणाट्यभिचारीणि रवररूपाणि "वरित तान्नेत फलत आह- 'सज्जेणे' त्यादि श्लोकाः सप्त, षड्जेन साभते वृत्तिम अयमर्थः-षड़जरयेद लक्षणं- स्वरूपमस्ति येन वृर्ति-जीवन गोपाइजस्वरयुवतः प्राणी, एतच्च मनुष्या-पेक्षया लक्ष्यते, मनुष्यक्षत्वादररोति, कृतं च न विनश्यति तस्येति शेषः निष्फलारम्भो न मातीत्यर्श:, गानो मिराणि च पुत्राश्च भवन्तीति शेषः। पराज' ति- हो एवर्य पन्धारे गीतयुक्तिज्ञाः धर्यवृत्तयः प्रधानजीविकाः लाभिरश्रियाः कादरा: -काट्यकारिणः प्राज्ञाः-सरोधाः, ये च उक्तेभ्यो ! पीतयुक्तिज्ञादिभ्यो ऽन्ये शास्त्रपारगा:-धनुर्वेदादि-पारगामिनस्ते गवन्तीति, शकुनेनश्येनलक्षणेन चरन्ति-पापर्द्धि कुर्वन्ति शकुनान् वा निन्ति शाकुनिकाः,वागुरामृगबन्धनं तया चरन्तीति वागुरिकाः, शूकरण शुकरवधार्थं चरन्तीतिशूकरान् वाघ्नन्तीति शौकरिकाः, मौष्टिका मल्ला इति, 'एतेषा' मित्यादि, तत्र व्याख्यानगाथा-'सज्जाइ तिहा गामो, ससमूहो मुच्छनाण विन्नेओ। ता सत्त एकमेक्के, तो सत्त सराण इगवीसा ||1|| अन्नन्न-सरविसेसे, उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया / कत्ता व मुच्छिओ इव, कुणई मुच्छ व सो व ति / / 2 / / ' कर्ता वा मूर्छित इव करोति, मच्छन्निव वा स कर्तेत्यर्थः, इह च मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिमूर्च्छनाना रवरविशेषाः पूर्वगते स्वरप्राभृते भणिताः, अधुना तु तद्विनिर्गतभ्या 'भरतवैशाखिलादिशारत्रेभ्यो विज्ञेया इति। 'सत्त सरा कओ' गाहा, इह बत्वारः प्रश्नाः,तत्र कुत इति स्थानात् का योनिरिति का जातिः तथा वाति समया येषु ते कतिसमयाः, उच्छवासाः किंपरिमाणकाला इत्यर्थः,तथाऽऽकाराः आकृतयः स्वरूपा-णीत्यर्थः, 'सत्तसरा' गाहा प्रश्ननिर्वचनार्था स्पष्टा, नवरं रुदितं योनिः-जातिः समानरूपतया यस्य तद् रुदितयोनिकं, पादसमया उच्छासा यावद्भिः समयैः पादौ वृत्तस्य नीयते तावत्समया उच्छवासा गीते भवन्तीत्यर्थः। आकारानाह-'आई' गाहा आदौप्राथम्ये मृदु कोमलमादिमृदु गीतमिति गम्यते,आरभमाणाः, इह समुदित-त्रयापेक्षं बहुवचनमन्यथा एक एव आकारो द्वयमन्यद् वक्ष्यमाण-लक्षणमिति, तथा समुद्रहन्तश्च महतां गीतध्वनेरिति गम्यते, मध्य-कारे-मध्यभागे, तथा अवसाने च क्षपयन्तो गीतध्वनि मन्द्रीकुर्वतरखयो गीतस्याकारा भवन्ति, आदिमध्यावसानेषु गीतध्वनिः / मृदुतारमन्द्रस्वभावः क्रमेण भवतीति भावः / किं चान्रत् - 'छद्दोसे' दारगाहा, षट् दोषा वर्जनीयाः,तानाह- 'भीयं' गाहा-भीत-स्तमान 1 द्रुतत्वरित 2 'रहस्सं तिहस्वस्वरं लघुश-ब्दमित्यर्थः, पाठान्तरेण 'उपिच्छ' श्वासयुक्तं त्वरितं चेति उत्ता-लम्-उप्राबल्यार्थ इत्यतितालमस्थानतालं वा, तालस्तु कंसिकादिशब्दविशेष इति 4 ! काकस्वरंश्लक्ष्णाश्रव्यस्वरम् अनुनासं चसानुनासिक नासिकाकृतस्वरमित्यर्थः, किमित्याह- गायन गानप्रवृत्तस्त्वं हेगायन ! मा गासीः, किमिति? यत एते गेयस्य षट् दोषा इति / अष्टौ गुणानाह- "पुन्न' गाहा-पूर्ण स्वरकलाभिः 1 रक्तं गेयरागेणानुरक्तस्य 2 अलङ्कृतमन्यान्यस्वरविशेषाणां स्फुटशुभानां करणात् 3 व्यक्तमक्षरस्वरस्फुटकरणत्वात् 4 'अविघुटुं' विक्रोशनमिव यन्न विस्वर 5 मधुरं-मधुरस्वरं कोकि-लारुतवत् 6 समंतालवंशस्वरादिसमनुगत 7 सुकुमार ललितं ललतीव यत् स्वरघोलनाप्रकारेण शब्दस्पर्शनेन श्रोत्रेन्द्रिस्य सुखोत्पादनाद्वेति 8, एभिरष्टाभिर्गुणैर्युक्तं गेयं भवति / अथवा विडम्बना। किंचान्यत्- 'उर' गाहाउरःकण्ठशिरःसु प्रशस्त-विशुद्धम्, अयमों - यधुरसि स्वरो विशालस्तत उरो विशुद्ध, कण्ठे यदि स्वरो वर्तितोऽस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्ध,शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धम्, अथवा-उरः कण्ठः शिरः सुश्लेष्मणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु-प्रशस्तेषु यत्तत्तथेति, चकारो गेयगुणान्तरसमुच्चये, गीयतेउच्चार्यती गेयमिति सम्बध्यते, किं विशिष्टमित्याह?-मृदुकंमधुरस्वरं रिभितंयत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् स्वरो रङ्गतीव घोलनाबहुलमित्यर्थः, पदबद्धंगेयपदैनि-बद्धमिति, पदत्रयस्य कर्मधारयः, समतालपदुक्खेम' ति-सम-शब्दः प्रत्येकं सम्बध्यतेतेन समास्ताला-हस्तताला उपचारात् तद्रवो यरिंमस्तत्समतालं, तथा समः प्रत्युत्क्षेपः प्रतिक्षेपो वामुर - जकंशिकाद्यातोद्यानां यो ध्वनिस्तल्लक्षण: नूत्यत्पादक्षेपलक्षणो वा यस्मिस्तत्समप्रत्युत्क्षेप समप्रतिक्षेपवेति, तथा- 'सत्तसर-सीभर' तिसप्तस्वराः 'सीभर' ति-अक्षरादिभिः समा यत्र तत् सप्तस्वरसीभर,ते चामी- 'अक्खरसमं 1 पयसमं 2 तालसमं 3 लयसमं 4 गहसमं च 5 / नीससिऊससियसमं 6 सञ्चारसमं 7 सरा सत्त / / 1 // " ति, इयं च गाथा स्वरप्रकरणोपान्ते 'तंतिसम' मित्यादिरधीताऽपि इहाक्षरसममित्यादि व्याख्यायते, अनुयोग-द्वारटीकायामेवमेव दर्शनादिति, तत्र दीर्घ अक्षरे दीर्घः स्वरः क्रियते, ह्रस्वे ह्रस्वः, प्लुते प्लुतः, सानुनासिके सानुनासिकः तदक्षरसम, तथा यद्गेयपदनामिकादिकमन्यतरबन्धेन बद्ध यत्र स्वरे अनुपाति भवति तत्तत्रैव यत्र गीते गीयते तत्पदसममिति, यत्परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्त्ति भवति तत्तालसमं, शृङ्ग दार्वाद्यन्यतरमयेनाङगुलिकोशकेनाहतायास्तन्त्र्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरतो गातुर्यद्यं तल्लयसमं, प्रथमतो वंशतन्त्र्यादिभिर्यः स्वरो गृहीतस्तत्सम गीयमानं ग्रहसमं निःश्वसितोच्छुसितमानभनतिक्रामतो यद्य तन्निःश्वसितोच्छसितसम, तैरेव वंशतन्त्र्यादिभिर्यदङ्गुलिसञ्चारसमं गीयते तत्सञ्चारसम, गेयं च सप्त स्वरास्तदात्मक मित्य Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर 531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरणय र्थः / यो गेये सूत्रबन्धः स एवमष्टगुण एवं कार्य इत्याह-'निहोस सिलोगो.' -तत्र निर्दोषम्- "अलियमुवघायजणयं" इत्यादि द्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहित 1 सारवद् अर्थेन युक्तं हेतुयुक्तम् अर्शग-मककारणयुक्तम् 3 अलकृतं - काव्यालङ्कारयुक्तम् 4 उपनी-तम्-उपसंहारयुक्तं 5 सोपचारम्-अनिष्ठुरा-विरुद्धा लज्जनीया-भिधानं सोत्प्रासं वा 6 मितं पदपादाक्षरैः नापरिमितमित्यर्थः 7 मधुरं त्रिधाशब्दार्थाभिधानतो 8 गेयं भवतीति शेषः / 'तिन्नि य वित्ताई' ति-यदुक्तं तद्व्याख्या- 'सम' सिलोगो, तत्र- समं पादै-रक्षरैश्च, तत्र पादैश्चतुर्भिरक्षरैस्तुगुरुलघुभिः अर्द्धसमं त्वेकतरसमं, विषमं तु सर्वत्र पादाक्षरापेक्षयेत्यर्थे :, अन्य तु व्याचक्षते- सम-यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसम यत्र प्रथमतृतीययो-र्द्वितीयचतुर्थयोश्च समत्वं, तथा सर्वत्र-सर्वपादेषु विषगं च-विष - साक्षर-यद् यरमाद् वृत्तं भवति ततस्त्रीणि वृत्तप्रजातानिपदाप्रका-राः, अत एव चतुर्थं नोपलभ्यत इति। 'दोन्नि य भणिइओ' ति-अग्य त्याख्या - राकटा सिलोगो, भणितिः-भाषा 'आहिया' - आख्याता स्वरमण्डले - षड्जादिस्वरसमूहे. शेष कण्ठ्यम् / की-दृशी स्त्री कीदृशं गायतीतिप्रश्रमाह- 'केसी' गाहा-'केसि त्ति-कीदृशी 'खरं' / ति-खरस्थानं रूक्ष-प्रसिद्ध चतुरं-दक्षं विलम्ब-परिमन्थरं द्रुतंशीघ्रमिति, विस्सरं पुण 'केरिसि' त्ति-गाथाधि-कमिति, उत्तरमाह'सामा' गाहा कण्ठ्या , 'पिंगल' त्ति-कपिला, 'तंति गाहा तन्त्रीसमवीणादितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितं च, शेषं प्राग्वत्, नवरंपादो-वृत्तपादः, तन्त्रीसममित्यादिषु गेयं सम्बन्धनीय तथा गेयस्य स्वरानर्थान्तरत्वादुक्तम् 'संचारसमा सरा सन्तति-अन्यथा सञ्चारसममिति वाच्य श्यात. 'तंतिसमा तालसमे' त्यादि वेति, अयं च स्वरमण्डलस पार्थः, 'सत्त सरा' रािलागो, तता तन्त्री तानो भण्यते, तत्र षड्जादिः स्वरः प्रत्येकं राप्तभिस्ता-नैर्गीयत इत्येवमेकोनपञ्चाशत्तानाः सप्ततन्त्रिकायां वीणायां भवन्तीति, एवमेकतन्त्रीकायां त्रितन्त्रकियां च कण्ठेना पि गीयमाना एकोनपञ्चाशदेवेति / स्था०७ ठा०३ उ०। उत्त०। आ०म०। प्रव० जी०। तं० प्रज्ञा०। जीवाजीवविनस्वरस्वरूपफलाभिधायके शास्त्रे, नपुं०। स० 31 सम० * स्मर-पुं०। "पक्ष्म-श्म-म-स्म-झां म्हः" ||8||74 // इति काचित्कत्वादत्र न / स्मरः / सरो। प्रा० "अधो म-न-याम्" पापा२७८|| इति मलोपः। प्रा०। कन्दर्प, अष्ट०२२ अष्टका * सृ-धा० / गतौ, "ऋवर्णस्यारः" ||234 / / इति सृधातोः ऋवर्णस्यारः। सरइ। प्रा०४ पाद। * स्मृ-धा०। आध्याने, "स्मरेः झर झूर०" |8474 / / इत्यस्य पक्षे / सरइ। स्मरसि / प्रा०४ पाद। सरअ-पुं०स्त्री०(शरद्) "शरदादेरत्" ||1|18|| इति अन्त्यव्य जनस्य अत्। प्रा०। "प्रावृट-शरत्तरणयः पुंसि / / 8 / 1 / 31 / / इति वा पुंस्त्वम्। आश्विनकार्तिकमासात्मके ऋतौ, प्रा०१पाद। सरउ-स्त्री०(सरयु) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणस्यां भारते वर्षे गङ्गासङ्गतायां महानद्याम् / स्था०१० ठा०३ उ० / या अयोध्यायाः | सन्निकटे वहति। स्था०५ ठा०३ उ०॥ सरक्ख-त्रि०(सरजस्क) सक्षारे, बृ०३ उ०। रजसोपण्ठिते. उना 17 अ०। सभस्मनि, ओघ०। * सरक्ष-त्रिका रक्षा-भस्म, सह रक्षया वर्तत इति सरक्षम / सभरमनि, पिं०। आ०म०। सरक्खधूलि-स्त्री०(सरक्षधूलि) सह रजसा श्लक्ष्णधूलिरूपेण - इति सरजस्का, सा चासौ धूलिश्चेति। रजः सहितधूलो, सरक्खामोस-पुं०(सरजस्कामर्श) सह पृथिव्यादिरजसा युक्तं गदराला तरय आमर्शः-तत् संस्पर्शः। रजोयुक्तवस्तुस्पर्श आव०४ अ० सरग-पुं०(शरक) अग्रिनिर्मन्थनदारुणि, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० शरिम: कृते शूपदिौ; आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०११ उ०। सरगय-न०(स्वरगत) गीतमूलभूतानां षड्जन षभादिस्वराणां झाने, ज०२ वक्ष०। ज्ञा० / स० सरघ-पुं०(सरघ) मधुमक्षिकायाम्, सूत्र०२ श्रु०३ अ०) सरहाण-न०(स्वरस्थान) नाभिसमुत्थस्वरोऽधिकारी आभोगे। अनाभोगेन वा यं प्रदेश प्राप्य विशेषमासादयति तत् स्वरस्योप. कारकमिति स्वरस्थानम्। स्वराणां विशेषापादके स्थाने, स्था० 8 ठार 3 उ० / अनु०॥ "नासाए पंचमं बूया, दंतो?ण य धेवय / मुद्धाणेण य णेसायं, सरढाणा वियाहिया' (इतीयं 'सर' शब्देऽस्मिने व भागे व्याख्याता।) सरड-पुं०(शरट) कृकलाशे, ओघ०। प्रज्ञा०। आ०क० / प्रश्नका 'सरडकयमालियाए' शरटैः कृकलाशैः कृता माला सग मुण्डे वक्षसिता येन तत्तथा। उपा०२ अ०। सरडुअ-न०(सरडुक) अबद्धास्थिके फले, आचा०२ श्रु०१ चू०१ 330 8 उ०ा बृ०। सरडुफल-न०(सरडुफल) अबद्धास्थिकफले, ध०२ अधि०। आचा। नि० / चू०। सरण-न०(शरण) आश्रये, उत्त०१ अ०। रागादिपरिभूताश्रितसत्ववात्सल्ये, आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०३ उ०। तं० प्रश्न०। नानाविधोपद्रवोपद्रुतानां रक्षास्थाने, त्राणे, भ०१ श०१ उ०। कल्प० / प्रश्न०। सूत्र०। संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादि-पीडितानां समाश्वासनस्थानकल्पे तत्त्वचिन्तारूपेऽध्यवसाने, रा०। आचा०। "जन्मजरामरणभयैरभिभूते व्याधिवेदनाग्रस्ते / जिनवरवचनादन्यन्नास्ति शरणं क्वचिल्लोके // 1 // " स्था०४ ठा०१ उ० जी० / तृणमयवासरिकादौ, अनु० भ० प्रश्न०। गृहे, आचा०१ श्रु०५ अ० 5 उ०। सूत्र * सरण-न। गमने, उत्त० 16 अ आचा० *स्मरण-न० पूर्वोपलब्धार्थानुस्मृतौ, हा०१६ अष्ट०। सूत्र०। मनसि धारणे, पञ्चा०१ विव०। ज्ञा० / सरणय-पुं० (शरणद) शरण त्राणमज्ञानो पद्रवो पद्रुतानां तद्रक्षास्थानं तच परमार्थतो निर्वाणं तद्ददातीति शरणदः / Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरणय 532 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरविजय तीर्थकृति, स०१ सम०। रा०। भाजी0। ध०। 'शरणदेभ्यः' इह शरणं- | सरपाहुड-न०(स्वरप्राभृत) पूर्वगते स्वराधिकारप्रतिणदकेऽधिभयार्त्तत्राणं तच्च संसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडिताना कारविशेषे, स्था०७ ठा०३ उ०। दुःखपरंपरासंक्लेशविक्षोभतः समाश्वासनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूप- सरप्पमाण-न०(सरःप्रमाण) सर एवोक्तलक्षणं प्रमाण महा-कल्पादेनि मध्यवसानम्, विविदिषेत्यन्ये, अस्मिश्च सतितत्त्वगोचराः शुश्रूषाश्रवण- सरःप्रमाणम् / गोशालकमतप्रसिद्ध कालमानभेदे, भ० 15 20 / ग्रहणधारणाविज्ञानेहापोहतत्त्वाभिनिवेशाः प्रज्ञागुणा भवन्ति, तत्त्व- / ('गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1023 पृष्ठे वक्त-व्यतोक्ता।) चिन्तामन्तरेण तेषामभावात् / संभवन्ति तामन्तरेणापि तदाभासाः न सरभ-पुं०(शरभ) परासरेति पर्याये अष्टापदे महाकायाटव्यपशुवि-शषे, पुनः। स्वार्थसाधकत्वेन भावसाराः। तत्त्वचिन्तारूपं च शरण भगवद्भ्य यो हस्तिनमपि पृष्ठे समारोपयति / प्रश्न०१ आश्र0 द्वार / राजा एव भवतीति शरण ददतीति शरणदाः। ध०२ अधि०। प्रश्र० / कल्प० भ०। ज्ञा०ाव्या सरणिज्ज-त्रि०(स्मरणीय) क्षुद्रोपद्रवविद्रावणादिकृते तद्गुणानु- | सरभस-त्रि०(सरभस) सहर्षे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। चिन्तनादिनोपबृंहणीये, संघा०१ अधि०१ प्रस्ता०। आ०म०। सरमंडल-न०(स्वरमण्डल) षड्जादिस्वरसमूहे, अनु० / स्था०। ('सर' सरणी-स्त्री०(सरणी) मार्ग,"पंथोमग्गो सरणी'' पाई० ना०५२ गाथा। शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽस्य स्वरूपं गतम्।) सरण्ण-त्रि०(शरण्य) शरणे साधुः शरण्यः। शरणदातरि,ध०३ अधि०। सरमह-पुं०(सरोमह) विशिष्ट काले सरसः पूजायाम, आधा०२ श्रु० सरतल-न०(सरस्तल) पानीयेन भृतं तडागं सरस्तस्य तलम् - १चू०१ अ०३ उ०। उपरितनोभागः सरस्तलाम् / जी०३ प्रति० 4 अधि०। उपरिभागा- | सरमाण-त्रि०(स्मरत्) अयमीदृश इति जानाने, व्य०४ उ०। आचा०। वच्छिन्ने सरसि, भ०६ श०७ उा पुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ सरय-पुं०(सरक) गुडधातकीसिद्धे मद्ये, प्रश्न०५ संवद्वार। वेति' वृत्तवर्णकः / अत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति-रिति नितिं जलपूर्ण * शरक-पुं०। निर्मन्थनकाष्ठे, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ० सरो ग्राह्यमन्यथा वातोद्भूयमानो वा जलत्वेन विवक्षितः समभावो न * शरद-स्त्री० / कार्तिकमार्गशीर्षयोः, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। ज्यो०। भ०। स्यादित्यर्थः / जं०१ वक्ष०1रा०। स्था०। सू० प्र०। सरयरयणीकरसोमवयणा कल्प०१ अधि०३ क्षण। सरद-पुं०स्त्री०(शरद) प्राकृते पुंस्त्वम् / कार्तिकमार्गशीर्षयोः, भ० सररुह-न०(सरोरुह) "ओतोऽद् वाऽन्योन्यप्रकोष्ठातोद्यशिरोवे७ श०३ उ01 अनु०। ज्ञा० / आश्विनकार्तिकमासात्मके ऋतौ, वाच० / दनामनोहरसरोरुहे क्तोश्च वः / / 8 / 1 / 156|| इति ओतोऽत्वं वा / सररुह प्रावृ०।८।१।३१। प्रा०१ पाद। सरोरुहं / कमले, प्रा०१ पाद। सरदहतलायसोसणया-स्त्री०(सरोहूदतडागशोषणता, सरसः-स्वयं सरल-त्रि०(सरल) देवदारुवृक्षे, जं०२ वक्ष० / आचा०। प्रज्ञा० / भ०। सम्भूतजलाशयविशेषस्य हृदस्य-नद्यादिषु निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य अवक्रे, आक० 1 अ० 'सरलास्तत्र छिद्यन्ते, कुब्जास्ति-ष्ठन्ति तडागस्य-कृत्रिमजलाशयविशेषस्य परिशोषणं यत्तत्तथा तदेव पादपाः।" ध०र०२ अधिo प्राकृतत्वात् स्वार्थिकताप्रत्यये सरो-हृदतडागपरिशोषणता / श्रा० / सरलक्खण-न०(स्वरलक्षण) यथास्वरफलं प्रति प्रापणाव्यभि-चारिणि उपा०ा भ० / गोधूमादिवापनार्थ सरआदिशोषणरूपे करणेन उपभोग स्वरस्वरूपे, स्था०६ ठा०३ उ०। (तानि च सप्त 'सर' शब्देऽस्मिन्नेव परिभोगव्रतातिचारलक्षणे कर्मादाने, आव०६ अ०।१०। सरसः शोषः भागे दर्शितानि।) सरः शोषः धान्यादिवपनार्थ सारणीकर्षणं, सरोग्रहणं जलाशया सरवण-न०(शरवन) स्वनामख्याते शरप्रधाने सन्निवेशे, यत्र गोबहुलस्य न्तराणामुपलक्षणं तेन सिन्धुह्रदतडागादिपरिग्रहः / यतः सरःशोषः ब्राह्मणस्य गोशालायां गोशालको जन्म लेभे / भ० 15 श० / संथा। सरःसिन्धुहृदा-देरम्बुसंप्लवस्तत्र अखातं सर, खातं तु तडागमित्य आ० म०। आ० चू०। स्था०। नयोर्भेदः / इह हि जलस्य तद्गताना त्रसानां तत्प्लावितानां च षण्णां सरवत्त-न०(शरपत्र) बृहदिषिकायाम्, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। जीवनिका-यानां बध इति दोषः / ध०२ अधि० / पञ्चा०। ध० 20 / सरवर-न०(सरोवर) महति सरसि,"सरिहिं न सरवरेहिं न वि उज्जासरपंति-स्त्री०(सर:पङ्क्ति ) एकपङ्क्त्यां व्यवस्थितेषु बहुषु सरःसु, णवणेहिं," प्रा० ढुं० 4 पाद! रा०। आचा० भ०। प्रज्ञा०ा सरसा पद्धतौ, नं०। यौकस्मात् सरविजय-पुं०(स्वरविजय) स्वरः पादकीशिवादीकृतरूपस्तस्य सरसोऽन्यस्मिन अन्यस्मादन्यत्र संचारकपाटकनोदकं संचरति सा विजयस्तत्सम्बन्धी शुभाशुभनिरूपणाभ्यासः। स्वरविद्यायाम, यथासरःपक्तिः / प्रश्र०५ संव० द्वार / निचू०। जी० / 0 / अनु०॥ 'गतिस्तारास्वरो वामः, पादक्याः शुभदः स्मृतः / विपरीतः प्रदेशे तु, स्था०। ज्ञा०। स एवाभीष्टदायकः / / 1 / / ' इत्यादि, तथा "दुर्गास्वरत्रयं स्यात्, ज्ञातव्यं सरपण्णी-स्त्री०(शरपर्णी) मुजे, स्था०५ ठा०३ उ०। शाकुनेन नैपुण्यात्। चलिविलशब्दः सकलः, सुमध्यमो वर्चलो विफलः सरपाय-पुं०(शरपात) शरा-इषवः पात्यन्ते-क्षिप्यन्ते येन इति | ||1||" इत्यादि। 'सरस्स विजयं जो विजाहिं न जीवइ से भिक्खू / ' शरणतः / धनुषि, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। उत्त०१५ अ० आव०। Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरव्व 533 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरिकप्प सरव्व-त्रि०(शरव्य) शरलक्ष्ये, द्वा०२७ द्वा०। उत्त०। औ०। सरस-त्रि०(सरस) रुधिरादियुक्ते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। रा०। रसोपेते, स०प रक्तचन्दनविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१अ०। 'सरसचंद-णाणुलित्तगत्ते," सरसेन सुरभिणा च गोशीर्षचन्दनेन च अनुलिस गात्रं यस्य स तथा / कल्प०१ अधि०३ क्षण। सद्यस्के, कल्प०१ अधि०१ क्षण। आव० 'सरसरुहिरमसावलित्तगत्ते' सरसाम्यां रुधिरमासाभ्यामवलिप्त गात्रं यस्य तत्तथा / उत्त०२० अ०। सरसंचित-त्रि०(शरसञ्चित) शरजालसंचिते, शरशताकुले, सूर० 1 श्रु०३ अ०१ उ०। सरसपारिजायग-न०(सरसपारिजातक) अम्लानसुरद्रुमविशे-षकुसुमे, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग०८ अग सरसय-त्रि०(शरशत) शराणां शतं प्रत्येकं येषु ते शरः शतानि। प्रत्येक शराणां शतेन परिपूर्णेषु, रा०। सरसयवत्तीसतोरणपरिम-डिया' शराणां शतं प्रत्येक येषु तानि शरशतानि तानि च तानि द्वात्रिंशत्तोरणाणि च वाणाश्रयाः शरशतद्वात्रिंशत्तोरणानि तैर्मण्डिताः शरशतद्वात्रिंशत्तोरणमण्डिताः / जी०३ प्रति०४ अधि० भ०। सरसर-पुं०(सरसर) सर्पगतेरनुकरणे, भ०१५ श०। ज्ञा०ा लौकि क नुकरणभाषायाम्, उपा०२ अ०। सरसरपंति-स्त्री०(सरःसरःपङ्क्ति ) परस्पर संलगेषु बहुषु सरस्सु, आचा०२ श्रु०१ चू०३ अ०३ उ०। येषु सरस्सु पड्क्त्या व्यवस्थि-तेषु एकस्मात सरसोऽन्यरिमन तस्मादन्यत्रैवं संचारकपाट के नोदक सञ्चरति / जं०१ वक्ष०ा जी०। नि० चू०। प्रज्ञा०। अनु० भ०। सरसी-स्त्री०(सरसी) महति सरसि, औ०। महान्ति सरांसि सरसीत्युच्यते / औ० / पिं० "पुक्खरिणी दीहिया सरसी' पाइ० ना० 130 गाथा। सरस्सई-स्त्री०(सरस्वती) भद्रनन्दीकुमारमातरि, ऋषभपुरनग- | रराजस्य धनवाहस्य भार्यायाम्, विपा०२ श्रु०२ अ०ा भारत्याम्. को०। भणितो, उपा०२ अ० दशा'यस्याः संस्मृतिमात्राद्, भवन्ति मतयः सुदृष्टपरमार्थाः। वाचश्चबोधविकलाः, सा जयतु सरस्वती देवी।।१।।" पो०१ विव०ा स्था०४ ठा०१ उ० भ० "सव्वसुयसमूहमती, वामकरे गाहेयपात्थया देवी / जक्खकुहु-डीसहिया, देतु अविग्घ ममं नाणं।" पं०भा०५ कल्प। गीतरते-मिगन्धेर्वेन्द्रस्याग्रमहिष्याम, "नमः श्रीवर्द्धमानाय, श्रीपार्श्वप्र-भवे नमः / नमः श्रीमत्सरस्वत्यै, सहायेभ्यो नमो नमः" ||1|| ज्ञा०१ श्रु०४ वर्ग 1 अ०। स्वनामख्याते नदीभेदे, ती०२५ कल्प। सरस्सईकं ठाभरण-न०(सरस्वतीकण्ठाभरण) विंशतिव्याकरणेष्वन्यतमे व्याकरणे, कल्प०१अधि०१क्षण। इन्द्रभूतिसहगते विदुषि, पु०। कल्प०१ अधि०६ क्षण। सरस्सईलद्धप्पसाय-पुं०(सरस्वतीलब्धप्रसाद) इन्द्रभूतिसहगते | पण्डिते, कल्प०१ अधि०६ क्षण। सरसोस-पुं० (सरःशोष) जलाश्रयशोषणे, ध०२ अधिका('सर दहतलावसोसणया' शब्दे इहैव व्याख्यातम्।) सरहस्स-नि०(सरहस्य) रहस्ययुक्ते,'सरहस्साणं वेयाणं' कल्प० 1 अधि०१क्षण। सरहा-स्त्री०(सरघा) मधुमक्षिकायाम्, "अल्पमधमं पणस्त्री, क्रूरं सरघां नटीश षट् क्षुद्रान्।" इति। स्था०६ ठा०३ उ०। सरहि-पुं०(शरधि) तूणीरे, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। सराग-पुं०(सराग) सह रागेणाभिष्वङ्गलक्षणेन यः स सरागः / स्था० 8 ठा०३ उ०। अनुपशान्तक्षीणमोहे. स्था० 10 ठा०३ उ०। मायालोभलक्षणेन रागेण सहिते, भ०१७ श०२ उ०। अपरिपाकप्राप्तयोगे ध०२ अधि०। सूत्र०। सरागत्थ-पुं०(सरागस्थ) सह रागेण वर्त्तत इति सरागः स्वभाव स्तस्मिन् तिष्ठतीति तत्तथा। स्वभावस्थे, सूत्र०१ श्रु०३ अ०३ उ०) सरागदंसणाऽऽरिय-पुं०(सरागदर्शनार्य) सह रागेणाभिष्वङ्ग-लक्षणेन यः स सरागः, स एव संयमः सरागस्य वा साधोः संयमो यः स तथा कर्मधारयः / स्था०६ ठा०३ उ०॥ सरागदर्शनिनि, प्रश्र०१ आश्र० द्वार। सरागसंजम-पुं०(सरागसंयम) सकषायचारित्रे, स्था० 4 ठा०४ उ० (सरागसंयम द्विविधमिति 'चरित्तधम्म' शब्दे तृतीयभागे 1146 पृष्ठे गतम्।) सरागसम्मईसण-पुं०(सरागसम्यग्दर्शन) सरागस्य अनुपशान्ताक्षीणमोहस्य यत्सम्यगदर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्तथा। अथवा सराग च तत्सम्यग्दर्शनं चेति विग्रहः / सराग सम्यग्दर्शनमस्येति वेति / सम्यग्दर्शनभेदे, स्था०१० ठा०३ उ०। ('सम्मईसण' शब्दे-ऽस्मिन् भागे दशविधत्वमस्य गतम्।) सराव-पुं०(शराव) मल्लके, बृ०३ उ० / आव० सरासण-पुं०(शरासन) न० / शरा अस्यन्ते क्षिप्यन्ते अस्मिन्निति शरासनः / इषुधौ, जी०४ प्रति०१ उ०। धनुषि, रा०ा औ०। जं०। "कौयड गंडीवं धम्म धणुहं सरासणं चावं।'' पाइ०ना० 37 गाथा। सरासणपट्टिया-स्त्री०(शरासनपट्टिका) धनुर्यष्टौ, बाहुपट्टिकायां च / विपा०१ श्रु०२ अ सरिआ-स्त्री०(सरित्) नद्याम्,' स्त्रीयामादविद्युतः / / 8 / 1 / 15 / / इति अन्ते आत्वम्। प्रा०ा नद्याम्, 'सरिआ तरंगिणी णिण्णया गई पाइ०ना० 28 गाथा। सरिठ-अव्य०(स्मृत्वा) अनुचिन्त्येत्यर्थे, पञ्चा०५ विवाजा नि००/ सरिकप्प-पुं०(सदृक्कल्प) समानस्थितकल्पस्थापनाकल्पादिविविधकल्पकतरि, बृ०६ उ० आहारउवहिसेज्जा, उग्गमउप्पादणेसणा सुद्धा। जो परिगिण्हति णिययं,उत्तरगुणकप्पिओ स खलु / / 366 // Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारेकम 534 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर यः आहारोपांधशय्या उद्गमोत्पादनैषणाशुद्धा-नियतं निश्चित प्रवन रिति स खलु उत्तरगुणकल्पिको मन्तव्यः / सरिसवमाणचलण-त्रि०(सदृशापमानपरण) सदृशं युक्तमुपमान एतषु सदृशकल्पेनेह किं कर्तव्यमित्याह ययोस्तो सदृशापमानौ एवंविधा घणा यस्य स तथा1 तुल्यापमानपदे, सरिकप्पेसरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्टतरए वा। कल्प०१ अधि०२ क्षण साहुहि" संथर्वं कुज्जा, णाणीहि चरित्तगुत्तेहि।३६७।। सरिसवय-पुं०(सर्षपक) सिद्धार्थक, साल सदककल्पः स्थतकल्पः स्थापनाकल्पादिर्विविधः, कल्पकता सरिसवया णं भंते ! किं भक्खेयव्वा, अभक्खेयव्वा? गोयमा! कावन्दः- समानसामाचारीकः तुल्यचारित्रः समानसामायिकादि- भक्खेयव्वा वि अभक्खेयध्वा वि। यिनः, विशिष्टतरी चा-तीव्रतरशुभाध्यव सायविशेषेणोत्कृष्टतरषु एकत्र सदृशवयसः-समानवयसः अन्यत्र-सषणः-सिद्धा-र्थकाः। ज्ञा० सयभस्थानकाण्डकेषु वर्तमाना ईदृशा ये ज्ञानिनश्चारित्रगुतावतः संस्तथं- 1 श्रु०५ अ०। शुकशब्दे, अनु०॥ अपरिचयभक संघासादिकं कुर्यात्। सरिसिया-स्त्री०(सदृशी) समानायाम्. भ०१५ 2011 उ! सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्टतरए वा। सरिसु-पुं०(देशी) वृक्षविशेषे, 102 क्षण। आदिश भत्तपाणं, सतेण्ण लाभेण वा तुज्झे / / 368|| सरिहा-स्त्री०(सरिका) मुक्तः सल्यान, आज द्वार। 4. सदृशकल्पः रुदृक्छन्दस्तुल्यचारित्रो विशिष्टतरो वा तेनैवविधन | *शरिका-स्त्री० लधुशपत्र, शरपान आदि०२ श्रुस चू०१ गुना जानीतं भक्तपानम् आददीत / स्वकीयेन वा आत्मीयलाभेन ! अ०११ उ०। यद होनतरसायन गृह्णीयात् / तदवमुक्ता छेदोपस्थापनीय सरीर-न०(शरीर, यंते प्रतिक्षणं शिरारुभावं विभाति शरीरम् / - परियति / वृ०४. उन प्रज्ञा०२१ पद।" पूभाभजिटिपटिकडिशाण्डिसिप ईरः' इति नारेच्छ- त्रिसदृक्ष) "दृशः क्विप्टक्सकः" ॥१।१४२सा इति ईरप्रत्ययः / म० 1 अ०। देहे. आलम०१ अ०। काये, आ० चू०५ दुधातोः सवर्णस्य रिरादेशः। प्राof "छोऽक्ष्यादौ" ||8/2 / 17 / / इति अ०। शरीरावाः शरीरं वपुः कायो देहः कलेवरमित्यादयः / विशे०। मर छत्वम्, प्रा० "अतः समृद्ध्यादौ वा" 11811144 // इति बोन्दिस्तनुः शरीरमित्यनर्थान्तरम् / आ०म०१ अ० प्रश्न०। कर्म०। आदेरकारस्थ दो यासारिच्छो। सरिच्छो। समाने, प्रा। "सरिसो पं०स० प्रज्ञा०ा आवा समा सरिच्छो' पाइना०७४ गाथा। विषयसूचीरिच्छंद-पुं०(सदृषछन्द) समानसामाचारीके, बृ०६ उ०। (1) केषां कति शरीराणि। रिशय-त्रि०(सदृक् त्वच) सदृशी-सदृग्वर्णा त्वग येषान्ते तथा / रा०ा / (2) औदारिकादिशरीराणां नैरयिकादिषु संभवतश्चिन्तनम् / अदृशच्छविपु. 11011 उ०। सदृगुचिषु, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग (3) औदारिकशरीरमधिकृत्य बद्ध-मुक्तशरीरनिरूपणम् (4) वैकुर्विकशरीरनिरूपणपृच्छा। रित्ता- स्मत कन्तथितरि "नो पुवरयं पुचिन्दकीलियं सरिता (5) कति आहारकशरीराणि। भवः१०टा०३० (6) तैजसशरीरविषय सूत्रम्। सरिरूप-त्रि०(सदगुरूप) "टुशः किवि" ति अत इत्त्वम सम्पनरूपं. | (7) नैरयिकादिविशेषणविशेषितानि शरीराणि / प्रा०पदे। cj असुरकुमाराणां पृथिवीकायिकानां च शरीराणि। परेवा -त्रि०(सदावर्ण) "दृशःक्विप्-टक्सकः" ||6/1 / 142 / / 6) संग्रहगाथा। इति दृशकतो ऋतो रिरादेशः / समानवणे, प्रा०। (10) शरीरमूलभेदानां विधिद्वारेण प्रतिपादनम् / सरिव्वय-त्रि०(सदृग्ययस्) सदृक्-समान वयो येषां ते तथा / 20 (11) जीवस्पृष्टानि वैक्रियादिशरीराणि। सवयस्के, अन्त०१ श्रु०३वर्ग१ अग (12) कतिमहालयानि पृथ्वीशरीराणि / सरिस-विसदृशा समाने, सूत्र०२ शु०५ अ०। विशे०। भा पञ्चा० (13) औदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतः, अवस्था . नि यौ। समानाकारे, रा०ा तुल्ये, उत्त०१ अ० अनु०॥ निरूपणम्। दृतिहटमामान्यरुप स्था०२ ठा०२ उ०ा जंग सरिसभंडमत्तोवगरणे' / (14) एकेन्द्रियादीनां क्रमेण है- निरूपमा सदृशी भण्डमात्रा प्रहरणा शोकादिरूपा उपकरणं च कङ्कटादिकं यस्य स (15) चैकुर्विकादिशरीराणां सं पादन तथा। भाg N06 10 'सरिसो समो'' पाइ० ना०७४ गाथा (16) आहारकशरीरस्थ पच्छादिः। सरिसय-40(सभाका समाने, भ०७ श०८ उ०। अन्ततः (17) तजसशरीरपृच्छादिः। सरिसव-प०(सरामप, उर:पारसर्पभुजपरिसर्पभदाद् द्विविध पञ्चेन्द्रिय- (18) औदारिकशरीरस्य पुगलचयनम् / तिरांश्च, स०३४ सम (16) द्रव्यप्रदेशोभयैरल्पबहुत्वम्। *सर्षष-पुणसिद्धारक, भ०६ श०७ उकास्था। ज्ञान प्रशासनिक (20) नेरयिकादीनां शरीरोत्पत्तिः। Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 535 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर (21) शरीराधिकारात् दण्डकन शरीरोत्पत्तिनिरूपणम् / (22) लोकश्च शरीरिशरीराणां सर्वत आश्रयस्वरूपः। (23) शरीरबन्धनप्रकारः / (24) शरीरनिर्माणस्वरूपं तत्र नाड्यादिसंख्या वेदनानुभवप्रकारश्च / (25) शरीरस्यासुन्दरत्वम्। (26) विशेषतः शरीराशुभत्वम् / (27) शरीराणा वर्णादि। (28) आत्मा शरीरं स्पृष्ट्वा निर्याति। (1) केषां कति शरीराणिकति णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए वेउव्विए आहारए तेयए कम्मए / (सूत्र०१७६४) 'कइणं भंते ! सरीरा पण्णत्ता,' इत्यादि उत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिक्षणं शीर्यन्त इति शरीराणि तानि भदन्त ! कति-क्रियत्-संख्याकानि, णमिति वाक्यालङ्कारे, प्रज्ञप्तानि, भगवानाह-पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि तान्येव नामत आह- 'आरालिए' इत्यादि, अमीषां शब्दार्थमात्रमग्रे वक्ष्यामस्तथाऽपि स्थानाशून्याथे किश्चि-दुच्यते-उदार प्रधान प्राधान्य वास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्यानुत्तरसुरशरीरस्थाप्यनन्तगुणहीनत्वात् / अथवा-ओरालं नाम विस्तरवत्, विस्तरवत्ता चास्यावस्थितस्वभावस्य सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात्, वैक्रिय चैतावदवस्थितप्रमाणं न लभ्यते, उत्कर्षतोऽप्यवस्थितप्रभाणस्य पञ्चधनुःशतप्रमाणत्वात्, तच्च तावत्प्रमाणं सप्तम्यां नान्यत्र, यत्तूत्तरवैक्रिय योजनलक्ष-प्रमाण न तदवस्थितमाभववर्तित्वाभावात, ततो न तदपेक्षा, आह च चूर्णिकृत्- "ओराल नाम वित्थरालं विसालं ति जं भणिय होइ, कह? साइरेगजोयणसहस्समवट्टियप्पमाणमोरालिय अन्नमेहहमेत्तं नत्थि त्ति, विउव्वियं होजा, तं तु अणवट्ठियप्पमाणं; अवट्ठिय पुण पंचधणुसयाइं अहे सत्तमाए. इमं पुण अवट्ठियप्पमाणं साइरेगं जोयणसहस्सं' वनस्पतीनामिति / अथवा-उरलंविरलप्रदेश न तु धन स्वल्पप्रदेशापचितत्वात् बृहत्त्वाच मेण्डवत्। यदिवा ओरालसभयपरिभाषया मांसास्थिस्नायवाद्यवबद्धं, सर्वत्र स्वार्थिक इकप्रत्ययः / इहो - दारमेव औदारिक पृषोदरादित्यादिष्टरूधनिष्पत्तिः / प्राकृतत्वात्'ओरालिय' मिति: उक्तं च"तत्थोदारभुराल, उरलं ओरालमेव विष्णेयं / आरालियं ति पढम, पडुच्च तित्थेसरसरीरं / / 1 / / भण्णइ य तहोरालं, वित्थरवत वणस्सई पप्प / पगईए नन्थि अण्णं, एहहमित्त विसाल ति।।२।। उरलं थेवपएसो-वचिय ति महल्लगे जहा भिण्ड। मसट्टिण्हारुबद्ध, ओराल समयपरिभासा // 3 // " तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्या भव वाक्रयम् / उar च-"विविहा विसिट्ठगा वा, किरिया तीए उजं भव तमिह पाया पुण, नारगदेवाण पगईए।।१।।" अथवा-वैकुर्विक-मिति संस्कार तत्र विकुर्व इति सिद्धान्तप्रसिद्धोऽयं धातुः, विकुर्वणं विधि : क्रिया इत्यर्थः / तननिवृत वैकुर्विकम् २,तथा चतुर्दशपूविदा काया। योगबलेनाहियते इत्याहार-कम् 3, तेजसो विकारस्तैजस 4 का.... जात कर्मजमिति 5 / नन्बोदारिकादीना शरीराणामित्शमुन। किञ्चिदस्तिप्रयोजन-मुत यथाकथञ्चिदेष प्रवृत्त इति? उच्यत- अ५५.. . ब्रूमः / किं तदिति चेत्? उच्यते-परम्परप्रदेशसी परम्पर वन प्रदेशबाहुल्यं च, तथा हि- औदारिकाद्वैक्रियस्य प्रदेशसभ्य वा यादप्याहारकस्य, आहारकादपि तेजसस्य, तेजसादाम कामगःतथा औदारिकाद् वैक्रियस्य वर्गणासु प्रदेशबाहुल्य, बनियादा कस्याहारकादपि तैजसस्थ, तेजसादपि कार्मणस्येति। (2) एतान्येव शरीराणि नैरयिकादिषु सम्भवतश्चिन्तयतिनेरइयाणं भंते ! कति सरीरया पण्णता? मांगा सरीरया पण्णत्ता, तं जहा-वे उदिवए ते यए असुरकुमाराण वि० जाव थणियकुमाराणं / पुढविकाइ.स भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! तओ सरीरया पर तं जहा-ओरालिए तेयए कम्मए, एवं वाउकाइयवजं . चउरिदियाणं / वाउकाइयाणं भंते! कति सरीरया पा गोयमा ! चत्तारिसरीरया पण्णत्ता? तं जहा-ओरालिए वेउनियन तेयए कम्मए। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि। मणुस्सा भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! पंच सरीरया पvi तं जहा-ओरालिए वे उटिवते आहारए ते यए का वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं, जहा नारगाणं। (सू०१७६ 'नेरइयाण भंते! केवझ्या सरीरा पण्णत्ता' इत्यादि, पाठसिद्ध, शरीर...', च जीवानां द्विविधानि, तद्यथा-बद्धानि, मुक्तानि च / तर य चिन्ताकाले जीवैः परिगृहीतानि वर्तन्त तानि बद्धानि, यानि च पूर्वमा परित्यक्तानि तानि मुक्तानि, तेषावद्धानां मुक्तानां च परिमा. मिया द्रव्यक्षेत्रकालैः प्ररूपणीयम्, तत्रद्रव्यैरभव्यादिभिः क्षेत्रण श्रेणिप्रतरादि.-, कालनावलिकादिना। (3) तत्रौदारिकशरीरमधिकृत्याह-बद्धानि मुक्तानि सकिकेवइया णं भंते ! ओरालियसरीरया पणता? गोयः।। दुविहा पण्णत्ता? तं जहा-बद्धिलया, य मुकिल्लया य / तत् जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी सप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजा लोगा,ता णं जे ते मुक्केलया ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीओस... प्पिणीहिं अवहीरंति कालतो,खेत्ततो अणंता लोगा अभवसिद्धि एहिंतो अणंतगुणा सिद्धा (ण) णंतभागो। (सू० 1774) Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 536 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर केवइया णं भंते ! ओरालियसरीरया पण्णत्ता' इत्यादि, इह प्राकृ- | न तप्पमाणाई, तो किं तेसिं हिट्ठा हाजा उकार होजा? भन्नइ-कयाइ तलक्षणवशादिलप्रत्ययः कप्रत्ययश्च स्वार्थे , ततः बद्धिलया' इति हेटा कयाइ उवरि हों ति कयाइ तुल्लाई न निच्चकाल तापमाणाई" बद्धानीत्यर्थः, 'मुशिल्लया इतिमुक्तानीत्यर्थः, तत्र बद्धा- इति / अपरः प्राह-कथं मुक्तानि यथोक्तानन्तसंख्यापरिमाणान्यसङ्ख्ययानि / असख्येयत्वमेव प्रथमतः कालता निरूपयति- न्युपपद्यन्ते? यतो यदि तावदोदारिका देशरीराणि यावदविकलानि तावद् असं खिज्जाहिं' इत्यादि, प्रतिसमयम के कशरापहारक अस- गृह्यन्ते ततरतेषामनन्तकालमवस्थानाभावादनन्तत्वं न घटते, यदि 'ययाभिरुत्सापियवसापिणीभिरनवयवशोऽपहियन्त, किमुत ानन्तमपि कालमवस्थानं भवेत् ततोऽनन्तेन कालन तत्तच्छरीरगणभवति?- असङ्ख्ययासु उत्सर्पिण्यवसप्पिणीषु यावन्तः समया- नादनन्तानि भवेयुः यावताऽनन्तं कालमवस्थान नास्ति, पुद्गलानामुस्तावत्प्रमाणानि बद्धान्यौदारिकशरीराणि वन्ते / इदं कालतः स्कर्षतोऽप्यसंख्येयकालावस्थानाभिधानात् / अथ च ये पुद्गला परिमाणम् / क्षेत्रत आह-खेत्तओ असंखेना लोगा, इति-क्षेत्रतः जीवैरौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता अतीताद्धाया तेषः गहणं तर्हि सर्वऽपि परिसङ्घ यानमसंख्येया लोकाः / एतदुक्तं भवति सदाध्यपि बद्धा पुद्गलाः सर्वैरपि जीवैः प्रत्येकमौदारिकत्वेन गृहीत्वा मुक्ता इति सर्वपुगलन्यौदारिक शरीरणि आत्मीयात्मीयावगाहनाभिराकाशप्रदेशेषु ग्रहणमापन्नम्, तथा च सति यदुक्तम्- गसिद्रिोभ्योऽनन्तगुणानि परस्परमपिण्डीभावेन क्रमेण स्थाप्यन्ते, तदानीं तैरेवमास्तीर्य सिद्धानामनन्तभागमात्राणीति सद विक्ष यते, सर्वजीवेभ्योऽन्न्तानन्तमागैरसंख्यया लाका अवाप्यन्ते / इह एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशे गुणकारेणानन्तगुणत्वरय प्रसक्तत्वादेले चे? उच्यते- इह मुक्तानाकेकौटारिकशरीरस्थापनया असख्येया लोका व्याप्यन्ते परं पूर्वाचार्या मौदारिकशरीराला विकलानामेव केवलानां ग्रहण नाप्यौदारिकत्वेन आत्मीयावगाहनास्थापनया प्ररूपणां कुर्वन्ति, ततो-ऽपसिद्धान्तदोषो गृहीत्वा मुक्ताः पुनलाः, तेषामुक्तदोषप्रसङ्गात्, किंतुयच्छीरमौदरिक मा प्रापदित्यस्माभिरपि तथैव प्ररूपणा क्रियते। आह च चूर्णिकारोऽपि जीवेन गृहीत्वा मुक्तं तत् विशरारुभावं बिभ्राणमनन्तभेदभिन्नं भवति से "जइ वि इसके पएसे सरीरमेगं ठविजइ तोऽवि असंखेज्जा लोगा भवति चानन्ता भेदा भवन्ता यावत्ते पुद्गला औदारिकपरिमाणं न जहति किन्तु अवसिद्धतदोसपरि-हरणथमप्पणियाहिं ओगाहणाहिं ठविजंति" तावत्प्रत्येकमोदारिकशरीरव्यपदेशं लभन्ते, ये पुनरौदारिकपरिणाम इति, आह-नन्वनन्ता जीवास्ततः कथमसख्येयान्यौदारिकशरीराणि? त्यक्तवन्तस्तेन गण्यन्ते, तत एवमेकस्यापि शरीरस्यानन्तानि शरीराणि उ-च्यते-इह द्विविधा जीवाः-प्रत्येकशरीरिणः, अनन्तकायिकाश्च। तत्र जातानि, एवं सर्वशरीरेष्वपि भावनीयम्। तथा च सत्येकैकस्य शरीरस्याय ते प्रत्येकशरीरिणस्तेषां प्रतिजीवमेकै कौदारिकशरीरमन्यथा नन्तभेदभिन्नत्वादेकस्मिन्नपि समये प्रभूतान्यनन्तानि शरीराण्यवाप्रत्येकशरीरत्वायोगात ये त्वनन्तकायिकास्तेषामनन्तानामनन्ता प्यन्ते, तेषां चासंख्येयकाल-मवस्थानम्, तेन चासंख्येयेन कालेनानामेकैकम्मेदारिकशरीरमतः सर्वसंख्ययाऽपि असंख्येयान्यौदारिक न्यानि जीवैर्विप्रमुक्तान्यसंख्येयान्यवाप्यन्ते, तान्यपि च प्रत्येकमनन्तशरीराणि, मुक्तान्योचारकशरीराणि अनन्तानि। तचानन्तत्वं काल भेदभिन्नानि, तेषु च मध्ये तावता कालेन यान्यौदारिकशरपरिणाम क्षत्रद्रव्यानरूपयनि- 'अणताहि' इत्यादि, कालतः परिमाण प्रतिसमय विजहति तानि परित्यज्यन्ते शेषाणि गण्यन्ते / तत एवं मुक्तानि मकैकशरीरापहारे नन्ताभिसत्रापिण्यवसर्पिणीभिः सर्वा-त्मनाप यथोक्तप्रमाणानन्तसंख्याकान्यौदारिकशरीराण्युपपद्यन्ते इति : न ह्रियन्ते। किमुक्त कतति?- अनन्तासु उत्सर्पिण्यवसप्पिणीप यावन्तः सभयास्तावत्-प्रमाणानीति, क्षेत्रतः परिमाणमनन्ता लोकाः, अनन्ता चैतत्वमनीपिकाविजृम्भित, यत आह चूर्णिकृत् "नवि अविगलाणमेव लोक्प्रभाणेष्वाकाशखण्डषु यावन्तः आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा केवलाण पि गहण एवं न य ओरालियगहणमुक्काण सव्वपुग्गलागं, किन्तु नीत्यर्थः, द्रव्यतः परिमाणमभवसिद्धिकभ्यः अभव्येभ्योऽनन्तगुणानि। जं सरीरमोरालिकं जीवेण मुक्कं तं चेव अणतभेयभिन्नं च होइ जाव ते यद्येवं तर्हि सिद्धराशिप्रमाणानि भविष्यन्ति, तत आह-सिद्धानाम युग्मला त जीवनिव्वत्तिय ओरालियसरीरकायप्पओग न मुचंति न ताव नन्तभाग: अनन्तभागमात्राणि : ननुद्वयोरपि राश्यारभवसिक्षिकसिद्धि अण्णपरिणामेणं परिणमति ताई पत्तेयं सरीराइं भण्णन्ति एवमक्केजस्म रूपयोर्मध्ये पठ्यन्ने प्रतिगततसन्यग्दृष्टयः तत् किं तद्राशि प्रमाणानि ओरालियसरीरस्स अणंतभेयपिन्नत्तणओ अगताई चेट रजिया - भवयुः? उच्यते - यदि तत्प्रमाणानि स्युस्तर्हि तथैव निर्देशः क्रियेत सरीराइं भवति" इत्यादि, आर-शमे कैकारीग्द्रागा - मोरलेन सुखप्रतिपत्तिकतप्रतिक्षा हि भगवन्त आर्यश्यामाः, ततस्तथा निर्देशा- व्यवह्रियते? उच्यते-लवण-:, लने, तथाहि - बार्यन / भावादवसीयतेन तदाशिप्रमाणानि / ननु तर्हि तेषां प्रतिपतितसम्य . द्रोणोऽपि लवणमाढकोऽपि / सायदेका दिन गदृष्टीनामघस्तान दियरुपरि वा? उच्यते-कदाचिदधरस्तात्कदाचि- एवंमिहापि सकलमप्यौदारिकशरीरमुच्यते बाद माप लदेव देशोऽपि दुपरि, कदाधिकापि अनियतप्रमाणत्वात, न तु सर्वकाल यावदनन्तभागोऽपि शरीरमिति / यात्राभिप्राय इति चत्? उच्यतेतत्प्रमाणानीति / आह च चूर्णकृत् .. "ता कि पारवडिय सम्मद्दिष्टि- इह यथा लक्षणपरिणामपरितः स्तोको बहुवा पुद्गलसंघातो लवणमुच्यत रासिप्पमाणाई होला? तसिं दोण्ह वि रासीणं, मज्झं पढिज्जति त्ति तथादारिकशरीरयोग्यपुद्गलसंघातोऽपि औदारिकत्वेन परिणतः काउ? भण्णइजइस पमाणाई हों ताइ तो तेसिं चेव निद्देसो होतो तम्हा स्तोको वा बहुर्वा औदारिकशरीरव्यपदेशं लभते। अथवा-भवति स Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 537 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर मुदायैकदेशेऽपि समुदायशब्दोपचारः यथा-अगुल्यग्रे स्पृष्ट स्पृष्टी मया | __ वैपरित्यनोत्तरपार्श्व सङ्घात्येते, एवं च किं जातम्? अधस्तनं लोकार्ध देवदरा इत्यादौ, तत उपचारान्न काश्चद्दोषः / ननु यद्येवं काय देशोनचतरज्जु-विस्तारं सातिरेकसप्तरज्जूच्छ्रयम् / उपरितनमर्द्ध तान्यनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यौदारिकशरीराण्येकस्मिन् लोके- विरज्जुविस्तार देशोनसप्तरज्जूच्छ्रयं, तेन उपरितनमर्द्ध बुद्ध्या ऽवगाढानि? उच्यते-प्रदीपप्रकाशवत्, तथाहि-यथैकस्यापि प्रदीपस्या- | गृहीत्वाऽधरतनस्यार्द्धस्योत्तरपार्वे सङ्घात्यते, तथा च सति सातिरेकचींषि सकलभवनावभासीनि भवन्ति, अन्येषामनेकषां प्रदीपानामीषि सप्तर 7 जू यो देशोनसप्तरज्जुविस्तारो घनो जातः, अतः सप्तरज्जूतत्रैवानुप्रविशन्ति, परस्परमविरोधात. तथौदारिकाण्यपि, एमपशरी- नामुपरियदधिक सरापरिगृह्य ऊर्ध्वाध आयतमुत्तरपाचे सङ्घात्यते,ततो रेष्वपि मुक्तेष्यायोज्यम्। ननु द्रव्यक्षेत्रे विहाय किमिति प्रथमतः कालेज विम्तरतोऽपि परिपूर्णाः सप्त रज्जवो भवन्ति, एवमेष लोको घनीक्रियते. प्ररूपणा कृता? उच्यते-कालान्तरावस्थायितया पुद्गलेषु शरीरोपचारी बनीकृताश्च सप्तरज्जुप्रमाणो भवति। यत्र च वचन घनत्वेन सप्तरज्जुनान्यथा ततः कालो गरीयान् इति प्रथमतस्तेन प्ररूपणा / उक्ता- प्रमाणता न पूर्यत तत्र बुद्ध्या परिपूरणीयम् एतच पट्टिकादौ लिखित्वा ग्यौदारिकाणि / दर्शयितव्यम् / सिद्धान्ते च यत्र कचनापि श्रेणेः प्रतरस्य वा ग्रहणं तत्र (सम्प्रति वैक्रियसूत्रमाह सर्वत्राप्येवं घनीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणस्याव सातव्यं, मुदताकेवतियाणं भंते ! वेउव्वियसरीरया, पण्णता? गोयमा ! दुविहा न्योपारिकवद् भावनीयानि। पण्णत्ता, तं जहा-बधेल्लया य, मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते (5) कति आहारकशरीराणि - बद्धलगा ते णं असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओ- केवतिया णं मंते ! आहारगसरीरया पण्णत्ता? गोयमा? दुविहा, सप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेज्जातो सेढीओ पणत्ता, तं जहा-बद्धेल्लया य,मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धलगा पयरस्स असंखेजतिभागो। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता ते णं सिय अत्थि सिय नत्थि,जइ अत्थि जहण्णेणं एक्को वा दो अणंताहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो जहा वा तिण्णि वा उक्कोसेणं सहस्सपुहुत्तं / तत्थ णं जे ते मुक्के ल्लया ओरालियस्स मुक्केलया तहेव वेउव्वियस्स वि भाणियव्वा / ते णं अणंता जहा ओरालियस्स मुकिल्लया तहेव भाणियव्वा / (सू०१७७+) (सू०१७७+) 'केवतिया णं भंते !' इत्यादि, बद्धान्यसंरव्ययानि, तत्र काललः परिमाणं / आहारकविषयं सूत्रं 'केतिया णं भंते ! आहारगसरीरगा' इत्यादि, प्रतिसमयमकं कशरीरापहारे सामस्त्येनासंख्ययाभिरुत्सर्पिण्यव- 'बद्धानि सिय अस्थि सिय नत्थि' इति अस्तीति निपातो बहुवचनगर्भः सर्पिणीभिरपहियन्ते / किमुक्तं भवति?- असंख्येयासूत्सर्पिण्य- कदाचित् सन्ति ! कदाचित् नरान्तीत्यर्थः। यस्मा-दन्तरमाहारकशरीरटसर्पिणीषु यतन्तः समयास्ताचलप्रमाणानीति, क्षेत्र तो संरत्ये याः स्य जघन्यत" समयः उत्कर्षतः षण्मासाः उक्त च-"आहारगाइँ श्रेणयस्तासा श्रेणीनां परिमाण प्रतरस्यासंख्येयो भागः / किमुक्त लोए,छम्मारो जा न होति वि कयाइ। उक्कोसेणं नियमा, एक समयं भवति?प्रतरस्यासंख्येयतम भागे यावत्यः श्रणयरतासुच श्रेणिषुयावन्त जहन्नेणं / / 1 / / " इति / यदाऽपि भवन्ति तदाऽपि जघन्यतः एकं द्वे वा आकाशप्रदेशारतावत्प्रमाणानि बद्धानि वैक्रियशरीराणीति / अथ उत्कर्षतः सहस्रपृथक्त्वं, मुक्तान्यौदारिकवत्। श्रेणिरिति किमभिधीयते? उच्यते-घनीकृतस्य लोकस्य सर्वतः सप्तर (6) तैजसशरीरविषयं सूत्रमाहज्जुप्रमाणस्ययामतः सर्वरज्जुप्रमाणा मुक्तावलिरिवैकाकाशप्रदेश- केवतिया णं भंते ! तेयगसरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पक्तिः / कथं पुनर्लोको घनीक्रियते? कथं वा सप्तरज्जप्रमाणो भवति पण्णता, तं जहा- बद्धेलगा य, मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते इति चेत् ? उच्यते-इहलोके ऊधिश्चतुर्दशरज्जु-प्रमाणाऽधस्ताद्वि- बद्धेल्लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं स्तरतो देशोनसप्तरज्जुप्रमाणः एकरज्जर्मध्यभागे लोकप्रदेशे अवहीरंति कालतो,खेत्तओ अणंता लोगा, दव्यओ सिद्धेहिंतो बहुमध्यदशभागे पञ्चरज्जुरुपरि एका रज्जुलाकान्ते, रज्जाव परिमाण अणंतगुणा सव्वजीवाणंतभागूणा / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते स्वयम्भरमणसमुद्रभ्य पूर्ववेदिकान्तादारभ्यापरवेदिकान्तं यावत, एवं णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति प्रमाणस्य लोकस्य वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषाकारस्य कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा, दव्वओ सव्वजीवे हितो बुद्ध्या त्रसनाड्या दक्षिणभागवय॑ धोलाकखण्डमधोदेशोनत्रिरज्जुवि- अणंतगुणा जीववग्गस्साणंतभागे / एवं कम्मगसरीराणि वि स्तारमतिरिक्तसप्तरज्जूच्छ्य परिगृह्य त्रसनाड्या उत्तरपार्वे ऊर्ध्वाधा- माणितव्वाणि। भागविपर्यासन सनात्यते, ऊध्र्वभागोऽधः क्रियते अधाभागस्तूध्वमिति / 'क्वइया ग भंते! तेयगरसरीरया' इत्यादि, तत्र बद्धान्यनन्तानि, अनन्तत्वं सङ्घात्यते इति। तत ऊर्ध्वलाक त्रसनाड्या दक्षिणभागवर्तिनी ये देखण्डे काल-क्षेत्रद्रव्यर्निरूपयति-'अणंताहि' इत्यादि, कालतः परिमाणमनन्तोकूर्पराकारसंस्थित प्रत्यक देशानादचतुष्टयरज्जूच्छ्ये ते बुद्ध्या समादाय न्सप्पिण्यवसप्पिणीसमयप्रमाणानि क्षेत्रतोऽनन्तलोकप्रमाणाकाशखण्डप्रदेश Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर परिमाणानि, द्रव्यतः परिमाण सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि। तैजसं हि शरीर सर्वसंसारिजीवानां प्रत्येकं, संसारिणश्च जीवाः सिद्धभ्योऽनन्तगुणाः | ततस्तैजसशरीराण्यपि सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति। 'सव्वजीवअणतभागूणा' इति सर्वजीवानां योऽनन्ततमो भागस्तेनोनानि / इयमत्र भावना-सिद्धानां तैजसशरीरं न विद्यते, सवशरीरातीतत्वात्, तेषाम, सिद्धाश्च सर्वजीवानामनन्तभागे, ततस्तेनोनानि सर्वजीवानामनन्तभागोनानि भवन्ति / मुक्तानि अनन्तानि / तदेवानन्तत्वं कालक्षेत्रद्रव्यैः प्ररूपयति-'अणंताहिं' इत्यादि कालक्षेतसूत्रे प्रागवत् द्रव्यतः परिमाणं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि / कथमिति चेत्? उच्यते- इह एककस्य संसारिजीवस्य एकैकं तैजसशरीरं, तानि च जीवैर्विप्रमुक्तानि सन्ति प्रागुक्तयुक्तेरनन्तभेदभिन्नानि भवन्ति, तेषां चासंख्येयं काल थावदवस्थानं तावता च कालेन जीवैर्विप्रभुक्तान्यन्यानि तैजसशरीराणि प्रतिजीवमसंख्येयानि अवाप्यन्ते, तेषामपि प्रत्येक प्रागुक्तयुक्त्या अनन्तभेदभिन्नतेति भवन्ति सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि। तत्कि जीववर्गप्रमाणानि भवेयुरत आह- 'जीववग्गस्स अर्णतभागे' इति-जीववर्गस्यानन्तभागप्रमाणानि, जीववर्गप्रमाणानि कस्मान्न भवन्तीति चेत्? उच्यते-यदि एकैकस्य जीवस्य सर्वजीवराशिप्रमाणानि किश्चित्समधिकानि वा भवेयुर्येन सिद्धानन्तभागपूरणं भवति ततो जीववर्गप्रमाणानि भवन्ति, वर्गो हि तेनैव राशिना तस्य राशेर्गुणने भवति यथा चतुष्कस्य चतुष्केन गुणने षोडशात्मको वर्ग इति। न चैकैकस्य जीवस्य सर्वजीवप्रमाणानि किशित्समधिकानि वा तैजसशरीराणि किन्त्वतिस्तोकानि, तान्यपि असंख्येयकालावस्थायीनीति, तावता कालेन यान्यप्यन्यानि भवन्ति तान्यपि स्तोकानि; कालस्य स्तोकत्वात्, ततो जीववर्गप्रमाणानि न भवन्ति, किन्तु जीववर्गस्यानन्तभागमात्राणि / अनन्तभागप्रमाणतायां च पूर्वाचार्यप्रदर्शितमिदं निदर्शनम्-सर्वजीवास्तत्ववृत्त्या अनन्ता अपि असत्कल्पनया दशसहस्राणि, तेषा च दशसहस्राणा वर्गो दश कोट्यः, तैजसशरीराणि च मुक्तान्यसत्कल्पनया दशलक्षप्रमाणानि, ततः सर्वजीवेभ्यः किल शतगुणानीति सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणान्युक्तानि / जीववर्गस्य च शततमे भागे वर्तन्ते, ततो जीववर्गस्यानन्तभागमात्राणि / एवं कार्मणशरीराण्यपि बद्धानि मुक्तानि च भावनीयानि, तैजसैः सह समानसंख्यत्वात् / उक्तान्योधिकानि पञ्चापि शरीराणि। (7) संप्रति नैरयिकादिविशेषणविशषितानि शरीराणि चिन्त्यन्तेनेरइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धलगा य, मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि, तत्थ णं जे ते मुक्केलगा ते णं अणंता जहा ओरालियमुक्केल्लगा तहा भाणियव्या / नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउव्वियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं / जहा-बद्धलगा य, मुक्के लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो / तासि णं सेढीणं विक्खंभसूइअंगुलपढमवग्गमूलं बितियवग्गमूलपडुप्पण्णं अह व णं अंगुलबितियवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीतो तत्थ णं जे ते मुक्के लगाते णं जहा आरालियस्स मुक्के लगा तहा भाणियव्वा / नेरइयाणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-बद्धेलया य, मुक्केल्लया य / एवं जहा ओरालिए बद्धेल्लगा य भणिया तहेव आहारगा वि भाणियव्वा तेयाकम्मगाइ जहा एएसिं चेव वेउब्वियाई। (सू०१७८) 'नरइयाणं भंते !' इत्यादि, नैरयिकाणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि न सन्ति, भवप्रत्ययतस्तेषामौदारिकशरीरासम्भवात्, मुक्तान्योधिकमुक्तोदारिक शरीरवत् / वैक्रियाणि बद्धानि यावन्तो नैरायकास्तावत्प्रमाणानि, तानि चासंख्ययानि / तदेवासख्येयत्यं कालक्षेत्राभ्या प्ररूपयति-'असंखेजाहि' इत्यादि, कालतः पारमाण प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्येनासंख्येयाभिरुत्सपिण्ययसपिणीभिरपहियन्ते / किमुक्तं भवति? असंख्येयासूत्सपिण्यवसप्पिणीषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानि, क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयः, असंख्ययासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति भावः / अथ प्रतरऽपि सकले असंख्येयाः श्रेणयो भवन्ति प्रतरस्याद्धभागे त्रिभागादौ च / ततः कियत्संख्याकास्ताः श्रेणय इत्याशङ्कयां विशेषनिद्धरिणार्थमाह-प्रतरस्यासंख्येयभागः / किमुक्त भवति? - प्रतरस्यासंख्येयतमेभागे यावत्यः श्रेणयस्तावत्यः परिगृह्यन्ते, इदमन्यद्विशेषतरपरिमाणम्-'तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई' इत्यादि, तासां श्रेणीना विष्कम्भतो-विस्तारमधिकृत्य सूचिः-एकप्रादेशिकी श्रेणिरड्गुलप्रथमवर्गमूल द्वितीयवर्गमूलगुणितम्। इयमत्र भावना-इह प्रज्ञापकेन घनीकृतः सप्तरज्जुप्रमाणो लोकः पट्टिकादौ स्थापनीयः, श्रेणिश्च रेखाकारेण दर्शनीया, दर्शयित्या चैवं प्रमाणं वक्तव्यम्- अगुलप्रमाणमात्रस्य प्रदेशस्य क्षेत्रस्य यावान् प्रदेशराशिस्तस्यासंख्येयानि वर्गमूलानि भवन्ति, तद्यथा-प्रथम वर्गमूलं, तस्यापि यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयं वर्गमूलं, तस्यापि यद् वर्गमूलं तत् तृतीय वर्गमूलम्-एवमसंख्ययानि वर्गमूलानि भवन्ति। तत्र प्रथम यद्वर्गमूलं तद् द्वितीयेन वर्गमूलेन गुण्यत, गुणिते च सति यावन्तः प्रदेशा भवन्ति तावत्प्रदेशात्मिका सूचिर्बुद्ध्या क्रियते, कृत्वा च विष्कम्भतो दक्षिणोत्तरायततया स्थापनीया, तया च स्थाप्यमानया यावत्यः श्रेणयः स्पृश्यन्ते तावत्यः परिगृह्यन्ते। तत्रेद निदर्शनम् - अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिस्तत्त्वतोऽसंख्यातोऽप्यसत्कल्पनया षट्पशाशदधिके द्वे शते कल्प्येते, तयोः प्रथम वर्गमूलं षोडश द्वितीयं चत्वारस्तृतीय द्वौ / तत्र द्वितीयेन वर्गमूलेन चतु Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 536 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर कलक्षणेन प्रथम वर्गमूलं षोडशलक्षणं गुण्यते जाताः चतुःषष्टिः, एतावत्यः श्रेणयः परिगृह्यन्ते। अमुमेवार्थ प्रकारान्तरेण कथयति-'अहव ण' मित्यादि अथवेति प्रकारान्तरे, णमिति वाक्यालङ्कारे, अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेर्द्वितीयस्य वर्गमूलस्यासत्कल्पनया चतुष्कलक्षणस्य यो धनस्तावत्प्रमाणः, इह यस्य राशेर्यो वर्गः स तेन राशिना गुण्यते ततो घनो भवति, यथा द्विकस्याष्टौ। तथाहि-द्विकस्य वर्गश्चत्वारस्ते द्विकन गुण्यन्ते जाता अष्टाविति, एवमिहापि चतुष्कस्य वर्गः षोडश ते चतुष्केण गुण्यन्ते ततश्चतुष्कस्य घनो भवति। तत्रापि सैव चतुषष्टिरिति, प्रकारद्वयेऽप्यथाभेदः / इहायं गणितधर्मो यद्वहु स्तोकेन गुण्यते, ततः सूत्रकृता प्रकारद्वयमेवोपदर्शितम्, अन्यथा तृतीयोऽपि प्रकारोऽस्ति अड्गुलबिइयवग्गमूलं पदमवग्गमूलपडुप्पण्ण' मिति। अन्ये त्वाभदधतिअडगुलमात्र-क्षेत्रप्रदेशराशेः स्वप्रथमवर्गमूलेन गुणने यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रमाणया सूच्या यावत्यः स्पृष्टाः श्रेणयस्तावतीषु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि नैरयिकाणां बद्धानि वैक्रिय सरीराणीति, मुक्तान्यौदारिकवत् / आहारकाणि बद्धानि न सन्ति, तेषा तलब्ध्यसम्भवात्। मुक्तानि पूर्ववत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि वैक्रियवत् मुक्तानि पूर्ववत्। (8) असुरकुमाराणां पृथिवीकायिकाना च शरीराणिअसुकुमाराणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! जहा नेरइयाणं ओरालियसरीरा भणिता तहेव एतेसिं भणितव्वा / असुकुमाराणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहाबद्धलगा य, मुक्केलगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजाओ सेढीतो पयरस्स अअंखेजतिभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स संखेजतिभागो। तत्थ णं जे ते मुक्के लगा ते णं जहा आरालियस्स मुक्के लगा तहा भाणियव्वा, आहारगसरीरगा जहा एतेसिंचेव ओरालिया तहेव दुविहा भाणियव्वा / तेयाकम्मगसरीरा दुविहा वि जहा एतेसिं चेव विउव्विया, एवं जाव थणियकुमारा। (सू० 176) पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरगा पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धलगा य, मुक्केलगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंतिकालतो,खेत्ततो असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्के लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो अणंता लोगा, अमवसिद्धिएहिंतो अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागे / पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउव्वियसरीरगा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्के लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं णत्थि। तत्थ णं जे ते मुक्के-लगा ते णं जहा-एएसिं चेव ओरालिया तहेव भाणियव्वा / एवं आहारगसरीरा वि। तेयाकम्मगा जहा एएसिं चेव ओरालिया। एवं आउकाइयतेउकाइया वि। वाउकाइयाणं भंते ! केवतिया ओरालियसरीरा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहाबद्धलगा य मुक्केल्लगा य, दुविहा वि जहा पुढविकाइयाणं ओरालिया। वेउव्वियाणं पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहाबद्धेल्लगा य, मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा पलियोवमस्स असंखेज्जइभागमेत्तेणं कालेणं अवहीरति नो चेव णं अवहिया सिया। मुक्केल्लगा जहा पुढविकाइयाणं, आहारयतेयाकम्मा जहा पुढवीकाइयाणं / वणप्फइकाइयाणं जहा पुढविकाइयाणं णवरं तेयाकम्मगा जहा ओहिया तेयाकम्मा / बेइंदियाणं भंते ! के वइया ओरालिया सरीरगा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-बद्धेल्लया य, मुक्केलया य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा असखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो,तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेजाओ जोयणकोडीकोडीओ असंखेजाई से दिवग्ग-मूलाई / बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धलगेहिं पयरो अव-हीरति, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालतो, खेत्ततो अंगुलपयरस्स आवलियाते य असंखेज्जतिभागपलि भागेणं / तत्थ णं जे ते मुक्के लगा ते जहा ओहिया ओरा-लियमुक्केल्लगा, वेउव्विया आहारगा य बद्धिलगा णत्थि। मुकिल्लगा जहा ओहिया ओरालियमुक्के लगा, तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेव ओहिया ओरालिया, एवं जाव चउरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव, नवरं वेउव्वियसरीरएस इमो विसेसो। पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! केवइया वेउव्वियसरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, बद्धेल्लया य, मुक्केल्लया य। तत्थगंजे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा, जहाअसुरकुमाराणं,णवरंतासिणंसेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जइभागो, मुक्केल्लगा तहेव। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 540 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर मणुस्साणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरगा पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-बद्धेल्लगा य मुक्के लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा। जह-प्रणपदे संखेज्जा संखेज्जाओ कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स हिट्ठा, अहव णं छट्टो वग्गो अहवणं छण्णउईछे यणगदाइरासी, उक्कोसपए असंखिजा / असंखि-जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो रूवपक्खित्तेहिं मणुस्से हिं सेढी अवहीरइ। तीसे सेढीए आकासखेत्तेहिं अवहारो मग्गिजइ असंखेज्जा असंखेज्जाहि उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालतो, खेत्ततो अंगुलपढमवगमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं,तत्थणं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा ओरालिया ओहिया मुक्के लगा। वेउदिव्याणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- बद्धलगा, मुक्के लगा। तत्थ णं जे ते बद्धेलगाते णं संविज्जा, समए समए अवहीरमाणे 2 संखेजेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेवणं अवहीरिया सिया, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा ओरालिया ओहिया, आहारगसरीरा जहा ओहिया, तेयाकम्मगा जहा एतेसिं चेव ओरालिया। वाणमंतराणं जहा नेरइयाणं ओरालिया आहारगा य। वेउव्वियसरीरगा जहा नेरइयाणं, नवरं तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेज्जजोअणसयवग्गपलिभागो पयरस्स, मुक्के लया जहा ओरालिया, आहारगसरीरा जहा असुर-कुमाराणं तेयाकम्मया जहा एतेसि णं चेव वेउव्विता। तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई वि छप्पन्नंगुलसयवग्गपलिभागो पयर-स्स,वेमाणियाणं एवं चेव, नवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबितियवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पन्नं अहव णं अंगुल-तइयवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ,सेसं तं चेव। (सू०-१९०४) सरीरपयं सम्मत्तं / / 12 / / असुरकुमाराणामौदारिकशरीराणि नैरपिकवत, वैक्रियाणि बद्धान्यसंख्येयानि, तदेवासंख्ययत्वं कालक्षेत्राभ्यां प्ररूपयति-सत्र कालसूत्र पागवत्, क्षेत्रता संख्येयाः श्रेणयः,असंख्येयासु श्रेणिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः,ताश्च श्रेणयः प्रतरस्यासंख्येयो भागः, प्रतरासंख्येयभागप्रमिता इत्यर्थः, तत्र नारकचिन्तायामपि प्रतरासंख्ययभागप्रमिता उक्ताः / ततो विशेषतरं परिमाणमाह- 'तारिस ज' मित्यादि, तासा श्रेणीनां परिमाणाय या विष्कम्भसूचिः सा अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः संबन्धिनः प्रथमवर्गमूलस्य संख्येया भागः / किमुक्तं भवति-अङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्य यत्प्रथमवर्गमूलं षोडशलक्षणं तस्य संख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशा असत्कल्पनया पञ्च षड्वा तावत्प्रदेशात्मिका श्रेणिः परिमाणाय विष्कम्भसूचिरवसातव्या. एवं च नैरयिकापेक्षयाऽमीषां | विष्कम्भसूचिरसंख्येयगुणहीना। तथाहि-नैरयिकाणा श्रणिपरिमाणाय विष्कम्भसूचिरगुलप्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नं यावद् भवति तावत्प्रदेशात्मिका द्वितीयं च वर्गमूलं तत्त्वतोऽसंख्यातप्रदेशात्मकं ततोऽसंख्येयगुणप्रथमवर्गमूलप्रदेशात्मिका। नैरयिकाणां च सूचिरमीषां त्वड्गुलप्रथमवर्गमूलसंख्ययभागप्रदेशात्मिके ति, युक्तं चैतत्. यस्मान्महादण्डके सर्वेऽपि भवनपतयो रत्नप्रभानरयिकेभ्योऽप्यसंख्येयगुणहीना उक्तास्ततः सर्वनैरयिकापेक्षया सुतरामसंख्येयगुणहीना भवन्ति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरयिकवत, तेजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, यथा चासुरकुमारणामुक्तं तथा शेषाणामपि भवनपतीनां वाच्यं, यावत्स्तनितकुमाराणाम् / पृथिव्यप्तेजःसूत्रेषु बद्धान्यौदारिकशरीराणि असंख्येयानि, तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकशरीरापहारे सामस्त्येनासंख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतः परिमाणचिन्तायामसंख्येया लोका:-आत्मीयादगाहनाभिरसंख्येया लोका व्याप्यन्ते, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धोदारिकवत, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, वातकायस्याप्यौदारिकशरीराणि पृथिव्यादिवत्, वैक्रियाणि बद्धान्यसंख्येयानि, तानि च प्रतिसमयमेकैकशरीरपहारे पल्यापमासंख्येयभागेन निःशेषतोऽपहियन्ते। किमुक्तं भवति?पल्योपमासंख्येयभागे यावन्तः समयास्तावत्प्रमाणानीति न पुनरभ्यधिकानि स्युः, तथाहि- वायुकायिकाश्चतुर्विधाः, तद्यथा-सूक्ष्मा, बादराश्च एकैके द्विधाः-पर्याप्ता, अपर्याप्ताश्च / तत्र बादरपर्याप्तव्यतिरिक्ताः शेषास्थयोऽपि प्रत्येकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणाः, ये तु बादरपर्याप्तास्ते प्रतरासंख्येयभागप्रमाणाः, तत्र त्रयाणा राशीना वैक्रियलब्धिरेव नास्ति, बादरपर्याप्तानामपि संख्येयभागमात्राणां लब्धिः न शेषाणाम्। आह च चूर्णिकृत्-"तिण्हं ताव रासीणं वेउब्वियलद्धी चेव नस्थि, बायरपजत्ताणं पि संखेजइभागमत्ताणं लद्धी अस्थि ति। ततः पल्योपमासंख्येयभागसमयप्रमाणा एव पृच्छासमये वायवो वैक्रियवर्तिनाऽवाप्यन्ते नाधिका इति / इह केचिदाचक्षतेसर्वे वायवो वैक्रियवर्त्तिन एव, अवैक्रियाणां चेष्टाया एवासम्भवात्, तदसमीचीन, वस्तुगतेरपरिज्ञानात्, वायवो हि स्वभावाचलास्ततोऽवैक्रिया अपि ते वान्ति इति प्रतिपत्तव्यं वाताद्वायुरिति व्युत्पत्तेः / आह च चूर्णिकृत्"जेण सव्येसु चेव लोगागासेसु चला वायवो वायंति तम्हा अवेउब्विया वि वाया वायतीति चित्तव्य' मिति, मुक्तानि वैक्रियाण्यौधिकमुक्तवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, वनस्पतिकायिकचिन्तायामादौरिकाणि पृथिव्यादिवत्, तैजसकार्मणान्यौधिकतैजसकार्मणवत्। वीन्द्रियसूत्रे बद्धान्यौदारिकशरीराणि असंख्येयानि, ततः कालतः परिमाणचिन्तायामसख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते असंख्यातासूत्साप्पिण्यवसप्पिणीषुयावन्तः समयास्तावत् Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 541 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर प्रमाणीनीति भावः / क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयोऽसंख्यातासु श्रेणिषु यावन्तः आकाशत्रदेशास्तावत्प्रमाणानीत्यर्थः, तासा श्रेणीनां परिमाणविशेषनिरिणार्थमाह - प्रतरासंख्येयभागः-प्रतरस्यासख्ये यभागप्रमिता असंख्येयाः श्रेणयः परिगृह्यन्त इति भावः / प्रतरासंख्ये सभागो नै रयिक भवनपतीनामपि प्रतिपादितस्तला विशेषतरपरिमाणनिरूपणार्थ सूचीमानमाह- 'तासि णं सेढी गित्यादि, तासां श्रेणीनां परिमाणावधारणाय या विष्कम्भसूची सा असंख्येयायोजनकोटीको (ष्ट्यः) टी असंख्येयायोजनकोटीकोटिप्रमाणा इत्यर्थः / अथवेदमन्यद्विशेषतः परिमाणम्-'असंखेज्जाइ सेढिवग्गमूलाई' इति-एकस्याः परिपूर्णायाः श्रेणेर्यः प्रदेशराशिस्तस्य प्रथम वर्गमूल द्वितीयं तृतीयं च वर्गमूलं यावद-संख्येयतम वर्गमूलम् / एतानि सर्वाण्यप्र्यकत्र सङ्कल्प्यन्ते, तेषु च सङ्कल्पितेषु यावान् प्रदेशराशिर्भवति तावत्प्रदेशात्मिका विष्कम्भसूचिरवसेया / अत्र निदर्शनम्- श्रेणौ किल प्रदेशा असंख्याता अप्यसत्कल्पनया पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्चशतानि षट्त्रिंशदधिकानि ६५५३६.तेषां प्रथम वर्गमूल द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके 256 द्वितीयं षोडश 16 तृतीयं चत्वारः 4 चतुर्थ द्वी 2, एतेषां च सङ्कलने जाते द्वे शते अष्टसप्तत्याधके 278, एतावता किलासत्कल्पनया प्रदेशानां सूचिरिति / अथैते द्वीन्द्रियाः किं प्रमाणभिरवगाहनाभिरास्तीर्यमाणाः कियता कालेन सकलं प्रतरमापूरयन्ति? उच्यते- अड् गुलासंख्येयभागप्रमाणाभिरवगाहनाभिः प्रत्यावलिकाऽसंख्येयभागमेकैकावगाहनारचनेनासंख्येयाभिरुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरापर्यन्ते / इयमत्र भावना-एकैकस्मिन्नावलिकायाः असंख्ययतमे भागे एकैका अड़ गुलासंख्येयप्रमाणा अवगाहना रच्यते, ततोऽसंख्येयाभिरुत्सप्पिण्यवसाप्पिणीभिः सकलमपि प्रतरं द्वीन्द्रियशरीरैरापूर्यत / एतदेवापहारद्वारेण सूत्रकृदाह-'वेइंदियाण' मित्यादि द्वीन्द्रियाणां सम्बन्धिभिरौदारिकशरीरैर्बद्धैः प्रतरमसंख्येयाभिरुत्सप्पिण्यवसप्पिणीभिरपहियते. अत्र प्रतरमिति क्षेत्रतः परिमाणम्, उत्सप्पिण्यवसप्पिणीभिरिति कालतः। किंप्रमाणेन पुनः क्षेत्रेण कालेन वा अपहरणमत आह-'अंगुलपयरस्स आवलियाएय असंखज्जइभागपलिभागेणं' ति अड्गुलमात्रस्य प्रतरस्य एकप्रादेशिक श्रेणिरूपर असंख्येयभाग-प्रतिभागप्रमाणेन खण्डन इदं क्षेत्रविषयं परिमाणम् / कालपरिमाणमावलिकाया असंख्येयभाग-प्रतिभागेनासंख्येयतमेन प्रतिभागेन। किमुक्तं भवति? एकेन द्वीन्द्रियेणाङ्गुलासंख्येयभागप्रमाणं खण्डमावलिकाया असंख्येयतमेन भागेनापह्रियते, द्वितीयेनापि तावत्प्रमाणं खण्डं तावता कालेन, एवमपहियमाणं प्रतरं द्वीन्द्रियैः सर्वरसंख्ययाभिरुत्सप्पिण्यवसप्पिणीभिः सकलमपहियते इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत, तेजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत्, वैक्रियाणि पुनर्बद्धानि तेषां न सन्ति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, एवं त्रिचतुरिन्द्रियाणामपि तिर्यक् पञ्चेन्द्रियाणां बद्धानि मुक्तानि चौदारिकाणि द्वीन्द्रियवत वैक्रियाणि बद्धानि असंख्येयानि। तत्र कालतः परिमाणचिन्तायामस ख्ययाभिरुत्साळण्यवसप्पिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसंख्येयासु श्रणिषु यावन्तः आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि, तासां च श्रेर्णानां परिमाण प्रत-रस्यासंख्येयो भागः / तथा चाह-'जहा असुरकुमाराण' मिति, यथा असुरकुमाराणां तथा वक्तव्यं, नवरं विष्कम्भसूचिपरिमाणचिन्ताया वाडगुलप्रमाणवर्गभूलस्य संख्ययो भाग उक्तः, इह त्यसंख्येयो भागो वक्तव्यः। किमुक्तं भवति-अडगुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशेः यत्प्रथमं वर्गमूल तस्यासंख्येयतम भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रदेशात्मिका सूचिः परिगृह्यते, तावत्या च सूच्या याः श्रेणयः स्पृष्टास्तासु श्रेणिषु यावन्तः आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानि तिर्यकपञ्चेन्द्रियाणा बद्धानि वैक्रियशरीराणि। उक्तं च-अडगुलमूलासंख्येभागप्पमिया उहों ति सेढीओ। उत्तरविउव्वियाण तिरियाणं सन्निपजाणं / / 1 / / " मुक्तान्यौ-धिकमक्तवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत, मुक्ता न्यौधिकमुक्तवत् / मनुष्याणां बद्धान्यौदारिकशरीराणि स्यात्-कदाचित् संख्येयानि कदाचिदसंख्येयानि / कोऽत्राभिप्रायः इति चेत्? उच्यतेइह द्वये मनुष्याः-गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, सम्मूछिमाश्च। तत्र गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सदावस्थायिनो,न स कश्चित्कालोऽस्ति यो गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यरहितो भवति, सम्मूच्छिमाश्च कदाचिद्विद्यन्ते कदाचित्सर्वथा तेषामभावो भवति, तेषामुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त्तायुष्कत्वात्, उत्पत्त्यन्तरस्य चोत्कर्षतश्चतुर्विशतिनुहूर्तप्रमाणत्वात्, ततो यदा सर्वथा सम्मूछिममनुष्या न विद्यन्ते किन्तु केवला गर्भव्युत्क्रान्तिका एव तिष्ठन्ति तदा स्यात् संख्येयाः, संख्येयानामेव गर्भव्युत्क्रान्तिकाना भावात, महाशरीरत्वे प्रत्येक शरीरत्वे च सति परिमितक्षेत्रवर्तित्वात् / यदा तु सम्मूछिमास्तदा असंख्येयाः, सामूच्छिमानामुत्कर्षतः श्रेण्यसंख्येयभागवर्तिनभः प्रदेशराशिप्रमाणत्वात्, तथा चाह- 'जहन्नपदे संखेजा' इत्यादि, जघन्यपदनामयत्र सर्वस्तोकाः मनुष्याः प्राप्यन्ते, आह-किमत्र सम्भूछिमाना ग्रहणमुत गर्भव्युत्क्रान्तिकानाम् ? उच्यते गर्भव्युत्क्रान्तिकानाम्, तेषामेव सदाऽवस्थायितया सम्मूर्चिछमविरहे सर्वस्तोकतया प्राप्यमाणत्वात्, उत्कृष्टपदे तूमयेषामपि ग्रहणं, यदाह मूलटीकाकारः- "सतराणां ग्रहणमुत्कृष्टपदे,जघन्यपदे गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केवलानां ग्रहण" मिति, अस्मिन् जघन्यपदे संख्येया मनुष्याः तत्र संख्येयक संख्ये यभेदभिन्नमिति न ज्ञायते कियन्तस्ते इति विशेषसंख्यां निर्धायति-संख्येयाः कोटीकोट्यः, अथवा-इदमन्यत् विशेषतरं परिमाणम् 'तिजमल-पयस्सउवरिं चउजमलपयरस हेट्ठा' इति, इह मनुष्यसंख्याप्रतिपादकान्येकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि, वक्ष्य-माणानि, तत्र समयपरिभाषया अष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां यमलपद-मिति संज्ञा। चतुर्विशत्या चाङ्कस्थानः त्रीणि यमलपदानि लब्धानि, उपरि पञ्चाङ्कस्थानानि तिष्ठन्ति / अथ च यमलपदमष्टभिरङ्कस्थानस्ततश्चतुर्थ यमलपदं न प्राप्यते तत उक्त त्रयाणां यमलपदानामुपरिपश्चभिरङ्कस्थानवर्द्धमानत्वात् चतुर्थस्य च यमलपदस्याधस्तात्त्रिभिरङ्कस्थानहीनत्वात्। अथवा-द्वौ द्वौ वर्गो समुदितौ एकं यमलं, चत्वारो वर्गाः समुदिता द्वे यमले षड् वर्गाः समुदितास्त्रीणि यमलपदानि, अष्टौ वर्गाः समुदिताश्चत्वारि Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 542 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर यमलपदानि / तत्र यस्मात् षण्णां वर्गाणामुपरि वर्तन्ते सप्तमस्य च वर्गस्याधस्तात् तत उक्तम्-त्रियमलपदस्योपरि चतुर्यमलपदस्याधस्तादिति / त्रियमलपदस्येति-त्रितयानां यमलपदानां समाहारखियमलपदंतस्य, तथा चतुर्णा यमलपदानां समाहारश्चतुर्य-मलपद तस्य, सम्प्रति स्पष्टतरं संख्यानमुपदर्शयति-'अहव णं छट्ठ-वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो' इति-अथवेति पक्षान्तरे, णमितिवा-क्यालङ्कारे, षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गेण प्रत्युत्पन्नोगुणितः सन्यावान् भवति तावत्प्रमाणा जधन्यपदे मनुष्याभ, तत्र एकस्य वर्ग एक एव, सच वृद्धिंन गत इति वर्गो नगण्यते, द्वयोर्वर्गश्चत्वार एष प्रथमो वर्गः४ चतुर्णा वर्गः षोडश एष द्वितीयो वर्गः 16, षोडशानां वर्ग द्वेशते षट्पञ्चाशदधिके एष तृतीयो वर्गः 256, द्वयोः शतयोः षटपञ्चाशदधिकयोर्वर्गः पञ्चषष्ठिः सहस्राणि पञ्च शतानि षट्त्रिं-शदधिकानि, एष चतुर्थो वर्गः 65536, एतस्य वर्गश्चत्वारि कोटीशतानिएकोनत्रिंशत्कोट्यःएकोनपञ्चाशल्लक्षाः सप्तषष्टिः सहस्राणि द्वे शते षण्णवत्यधिक एष पञ्चमो वर्गः 4264667266, उक्तं च"चत्तारि य कोडिमया, अउणत्तीसं च होन्ति कोडीओ। अउणावन्नं लक्खा, सत्तट्ठी चेव य सहस्सा।।१।। दो य सया छण्णउया, पंचमवग्गो समासओ होइ / एयस्स कतो वग्गो, छट्ठो जो होइ तं वोच्छं / / 2 / / " एतस्य पञ्चमस्य वर्गस्य यो वर्गः स षष्ठो वर्गः, तस्य परिमाणमेक कोटीकोटीशतसहस्रं चतुरशीतिः कोटीकोटीसहस्राणि चत्वारि सप्तषष्ट्यधिकानि कोटीकोटीशतानि चतुश्चत्वारिंशत्कोटीलक्षाणि सप्तकोटीसहस्राणि त्रीणि सप्तस्य-धिकानि कोटीशतानि पञ्चनवतिर्लक्षाः एकपञ्चाशत्सहस्राणि षट् शतानि षोडषोत्तराणि, 18446744073706551616 एष षष्ठो वर्गः, उक्तंच"लक्खं कोडाकोडी, चउरासीइभवे सहस्साइं। चत्तारि य सत्तट्ठा, होति सया कोडिकोडीणं // 1 // चउयाल लक्खाइं.कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा। तिण्णि सया सत्तयरी, कोडीण हुंति नायव्या // 2 // पंचाणउई लक्खा, एकावन्नं भवे सहस्साइ। छसोलसुत्तरसया, एसो छट्ठो हवइ वग्गो॥३॥” इति। एष षष्टो वर्गः पञ्चमवर्गेण गुण्यते, गुणितेच सति यावान् राशि-भवति तावत्प्रमाणा जघन्यपद मनुष्याः, ते च एतावन्तो भवन्ति, 7628162514-64337563543650336 एतान्येकोनत्रिंशदङ्क- / स्थानानि, एतानि च कोटी कोट्यादिद्वारेण कथमपि अभिधातुं न शक्यन्ते, ततः पर्यन्तवर्त्तिनोऽङ्कस्थानादारभ्य अङ्क-स्थानसंग्रहमात्रं पूर्वपुरुष प्रणीतेन गाथाद्वयेनाभिधीयते-'छ त्तिण्णि तिण्णि सुण्णं पंचेव य नव य तिण्णि चत्तारि। पंचेव तिण्णि नवपंच सत्त तिण्णेव (तिण्णि) तिचउछट्टो।।१।। दो चउ इमो पंच, दो छक्कएक्कगं च अट्ठव। दो दो णव सत्तेव य, ठाणाई उवरि हुंताई // 2 // " छ त्तिन्नि तिन्नि सुन्न, पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारिश पंचेय तिणि नव पञ्च सत तिन्नेव तिन्नेव।।१।। चउ छहो | चउ एको, पण छक्केकगे य अट्ठव। दो दो नव सत्तेव य, अंकट्ठाणा परा हुंता // 2 // " इत्यनुयोगद्वारवृत्तौ) अथवाऽयमङ्कस्थानप्रथमाक्षरसग्रहः 'छत्तितिसु पण नव ति च पातणपस ति ति चउ छंदो। च (एप)उ दो छ ए अबे बेणसपढमक्खरसन्तियट्ठाणा / / 1 / / ' एतेषामेव एकोनत्रिंशदङ्कस्थानानां पूर्वपुरुषैः पूर्वाङ्गैः परिसंख्यानं कृतं तदुपदर्शयति-तत्र चतुरशीतिर्लक्षाणि पूर्वाङ्ग चतुरशीतिर्लक्षाश्चतुरशीतिर्लक्ष-गुण्यन्ते ततः पूर्व भवति, तस्य परिमाणम्- सप्ततिः कोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशत्कोटिसहस्राणि 70560000000000, एतन भागो हियते तत इदमागतम्एकादश पूर्वकोटीकोट्यो द्वाविंशतिः पूर्वकोटिलक्षाणि चतुरशीतिः पूर्वकोटीसहस्राणि अष्टादशोत्तराणि पूर्वकोटीशतानि, एकाशीतिः पूर्वलक्षाणि पक्षनवतिः पूर्वसहस्राणि त्रीणि षट्पञ्चाशदधिकानि पूर्वशतानि, अत ऊर्ध्व पूर्वैर्भागो न लभ्यते ततः पूर्वाङ् र्भागहरणम् तत्रेदमागतम्-एकविंशतिः पूर्वाङ्गलक्षाणि सप्ततिः पूर्वाङ्गसहस्राणि षट् एकोनषष्ट्यधिकानि पूर्वाङ्गशतानि, तत ऊर्ध्वं च इदमन्यत् उतरितेमवतिष्ठतेशशीतिर्लक्षाणि पञ्चाशत् सहस्राणि त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि मनुष्याणामिति 112284118/8165356 / 2170656 / तथा च पूर्वावार्यप्रणीता अत्र गाथाः"मणुयाण जहन्नपदे, एक्कारस पुव्वकोडिकोडीउ। बावीसकोडिलक्खा, कोडिसहस्साइँ चुलसीई।।१।। अट्ठव य कोडिसया, पुव्वाण दसुत्तरा तओ हों ति। एकासीईलक्खा, पंचाणउई सहस्साई॥२॥ छप्पण्णा तिन्नि सया, पुव्याणं पुव्ववणिया अण्णे। एतो पुव्वंगाई, इमाइँ अहियाइँ अण्णाइँ / / 3 / / लक्रवाई एगवीसं, पुव्वंगाणं सयरिसहस्सा य। छच्चेवेगूणवा, पुव्वंगाणं सया होति // 4 // तेसीयसयसहस्सा, पण्णासं खलु भवे सहस्साई। तिणि सया छत्तीसा, एवइया अविगला मणुया // 5 // " इति, इमामेव संख्यां विशेषोपलम्भनिमित्तं प्रकारान्तरेणाह-'अहव ण छण्णउईछयणगदायी रासी' इति अहवणे-त्ति-प्राग्वत्, षण्णवतिच्छेदनकानियो राशिर्ददाति सषण्णवतिच्छेदनकदायी राशिः / किमुक्तं भवति? यो राशिरर्द्धनार्द्धन छिद्यमानः षण्णवति वारान् छेदं सहते पर्यन्ते च सकलमेकं रूप पर्यवसितं भवति स षण्णवतिच्छेदनक-दायी राशिरिति, कः पुनरेवंविधइति चेत्? उच्यते-एष एव षष्ठो वर्गः पञ्चमवर्गगुणितः, कोऽत्र प्रत्यय इति चेत्? उच्यते-इह प्रथमवर्गश्छिद्यमानो द्वे छेदनके ददाति, तद्यथा-प्रथमच्छेदनकं द्वौ द्वितीयमेकमिति, द्वितीयो वर्गश्चत्वारि छेदनकानि, तत्र प्रथममष्टौ द्वितीयं चत्वारस्तृतीयं द्वौ चतुर्थमेक इति, एवं तृतीयवर्गोऽष्टौ छेदनकानि प्रयच्छति, चतुर्थः षोडश, पञ्चमो द्वात्रिंशतं, षष्ठश्चतुःषष्टिम्। स चैवं पञ्चमवर्गेण गुणितः षण्णवतिः,कथमेतदवसेयमिति चेत्? उच्यते-इह यो यो वर्गो येन येन वर्गेण गुण्यते तत्र तत्र तयोर्द्वयोरपि छेदनकानि प्राप्यन्ते, यथा प्रथमवर्गेण गुणिते द्वितीयवर्गेण षट्, तथाहिद्वितीयो वर्गः षोडशलक्षणः प्रथमवर्गेण चतुष्करूपेण गुण्यते जाता चतुःषष्टिः, Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 543 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर तस्याः प्रथम छेदनक द्वात्रिंशत्. द्वितीय षोडश. तृतीयभष्टौ, चतुर्थ चत्वारः पञ्चमं द्वौ, षष्ठम् एक इति। एवमन्यत्रापि भावनीयम्। तत्र पञ्चमवर्गे द्वात्रिंशच्छेदन कानि, षष्टे चतुःषष्टिः / ततः पञ्चमवर्गेण षष्ठे वर्गे गुणिते घण्णवतिच्छेदनकानि प्राप्यन्ते / अथवा-एकं रूपं स्थापयित्वा ततः षण्णबतिवारान द्विगुणद्विगुणीक्रियते, कृतं च सत याद तावत्प्रमाण राशिर्भवति ततोऽवसातव्यम् एष षण्णतति-च्छेदनकदायीराशिरिति। तदेव जघत्यपदमभिहितम् / इदानीमुत्कृष्ट पदमाह- 'उक्कोसपए असंखेज्जा' इत्यादि, उत्कृष्टपदेये मनुष्या भवन्ति ते असंख्येयाः,तत्रापि कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकमनुष्यापहारे सामस्त्येनासंख्येयाभिरुत्सप्पि-ण्यवंसपिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतो रूपे प्रक्षिप्ते मनुष्यैरेका श्रेणिः परिपूर्णाऽपहियते / किमुक्तं भवति? उत्कृष्टपदे ये मनुष्यास्तेषु मध्य एकस्मिन्नसत्कल्पनया रूपे प्रक्षिप्ते सकलाऽपि श्रेणिरेका-ऽपह्रियते, तस्याश्च श्रेणेः क्षेत्रकालाभ्यामपहारमार्गणा कालतस्तावदसंख्येयाभिरुत्सप्पिण्यवसप्पिणीभिः क्षेत्रतोऽड्गुलप्रथ-मवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलप्रत्युत्पन्नम्। किमुक्तं भवति? अगुल-मात्रक्षत्रप्रदेशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वय-प्रमाणस्तस्य यत्प्रथम वर्गमूलमसत्कल्पनया षोडशलक्षणम्, ततस्तृतीयेन वर्गमूलेनासल्कल्पनया द्विकलक्षणेन गुण्यत, गुणिते च सति यावान् प्रदेशरासिर्भवति असत्कल्पनया द्वात्रिंशत एतावत्प्रमाणैः खण्डैरपहियमाणा यावत् श्रेणिनिष्ठामियति तावत् मनुष्या अपि निष्ठामुपयान्ति / आहकथमेकस्याः श्रेणेर्यथोक्त-प्रमाणैः खण्डैरपहियमाणायाः असंख्येया उत्सर्पिण्यवसपिण्यो लगन्ति? उच्यते-क्षेत्रस्यातिसूक्ष्मत्वात्, उक्तं च च सूत्रेऽपि- ''सुहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयर हबइ खेतं / अंगुलसेढीमेत्ते, उस्सप्पिणओ असंखेज्जा / / 1 / / ' इति मुक्तान्यौधिकमुक्तयत् वक्रियाणि बद्धानि संख्येयानि, गर्भव्युत्क्रान्तिकानामेव केषाचित् वैक्रियलब्धिसंभवात् मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् आहारकाण्यौघिकाहारकवत, तैजसकामणानि बद्धानि बद्धौदारिकवत्, मुक्तान्योघिकमुक्तवत्, व्यन्तराणामौदारिकाणि यथा नैरयिकाणां वैक्रियाणि बद्धान्यसंख्येयानि / तत्र कालतः परिमाणचिन्तायां प्रतिसमयमेकैकापहारे असंख्येयाभिरुत्सप्पिण्यवसापिणीभिरपहियन्ते, क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयः, असंख्यातासु श्रेणिषुयावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति भावः। ताश्च श्रेणयः कियत्य इति चेत्? उच्यते-प्रतरस्यासंख्येयो भाग, प्रतरासंख्ययभागप्रमिता इत्यर्थः, तथा चाह-'वेउव्वियसरीरा जहा नेरइयाण' भितिवैक्रियशरीराणि व्यन्तराणां यथा नैरयिका-णाम्,केवलं सूच्यां विशेषः / तथा चाह-'नवर' मित्यादि, नवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्वक्तव्येति शेषः, सा च सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता / कथं सुप्रसिद्धेति चेत्? उच्यते-इह महादण्डके पञ्चेन्द्रियतिर्यग्नपुंसकेभ्योऽसंख्येयगुणहीना व्यन्तराः पठ्यन्ते, तत एषां विष्कम्भसूचिरपि तिर्यक्रपञ्चेन्द्रियविष्कम्भसूचेरसंख्येय-गुणहीना वक्तव्या इति, आह च मूलटीकाकारोऽपि-"जम्हा महा-दंडए पंचिंदियतिरियनपुंसएहितो असंखेजगुणहीनावाणमंतरा पढिनति, तम्हा विक्खंभसूइ वि तेहिंतो असंखेज्जगुणहीणा चव भाणियव्वा' इति, सम्प्रति प्रतिभाग उच्यतेप्रतिभागो नाम खण्डम् ‘संखेज्जजोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स' इति संख्येययोजनशतवर्गप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणे अपहरणे वा इति वाक्यशेषः / इयमत्र भावना-असंख्येययोजनशतवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डे यदि एकैको व्यन्तरः स्थाप्यते ततस्ते सकलमपि प्रतरमापूरयन्ति,यदि वा-यद्येकैकव्यन्तरापहारे एकेकसंख्येययोजनशतवर्गप्रमाणं श्रेणिखण्डमपह्रियते तत एकत्र व्यन्तराः निष्ठां यान्ति परतः सकलं प्रतरमिति। मुक्तान्यौधिकमुक्तवत् आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानिबद्धवैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्। ज्योतिष्काणामौदारिकाणि नैरयिकवत्, वैक्रियाणि बद्धान्यसंख्येयानि / तत्र कालतो मार्गणायां प्रतिसमयमेकैकापहारे सामस्त्येनासंख्येया-भिरुत्सप्पिण्यवसपिणीभिरपहियन्ते / क्षेत्रतोऽसंख्येयाः श्रेणयः, ताश्च श्रेणयः प्रतरासंख्येयभागप्रमिताः / तथा चाह- 'जोइसियाणं एवं चेव' इति, नवरमित्यादिना विशेष दर्शयतिनवरं तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिवक्तव्येति शेषः। इयमपि सुप्रसिद्धत्वान्नोक्ता, कथ-मियं सुप्रसिद्धति चेत् ? उच्यते-यस्मान्महादण्डके व्यन्तरेभ्यो ज्योतिष्काः संख्येयगुणा उक स्तित एतेषां विष्कम्भसूचिरपि तेषां विष्कम्भसूचेः संख्येयगुणा द्रष्टव्या। तथा चाह- मूलटीकाकारः-'जम्हा वाणमंतरेहितो जोइसिया संखिज्जगुणा पढिज्जति, तम्हा विक्खंभसूई वितेसिं तेहिंतो संखेज्जगुणा चेव भवति,' इति नवरं प्रतिभागे स्पष्टतरो विशेषस्तमेवाह-विछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स' इति षट्पञ्चाशदधिक-शतद्वयाङ्गुलवर्गप्रमाणः प्रतिभागः प्रतरस्य पूरणेऽपहरणे च / अत्रापीय भावना-षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयागुलवर्गप्रमाणे श्रेणिखण्डे यद्येकैको ज्योतिष्कोऽवस्थाप्यते ततस्ते सकलमपि प्रतरमापूरयन्ति, यदिवायोकैकज्योतिष्कापहारेरेण एकैकं षट्पञ्चाशदधिकशावयागुलवर्गप्रमाणं श्रेणिखण्डमपहियते तत एकत्र ज्योतिष्काः परिसमाप्तिमुपयान्ति अपरत्र सकलं प्रतरमिति. एवं च ज्योतिष्काणां व्यन्तरेभ्यः संख्येय-गुणहीनः प्रतिभागः संख्येयगुणाभ्यधिका सूचिः / पञ्चसग्रह पुनः षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाण एव प्रतिभाग उक्तो न तु षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयवर्गप्रमाणः, तथा च तद्ग्रन्थः "छप्पन्नदोसयंगुलसूइपएसेहि भाइयपयरं / जोइसि-एहि हीरइ" इति, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्, आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि वैक्रियवत्, मुक्तान्यौधिकमुक्तवत्। वैमानिकानामौदारिकाणि नैरयिकवत् वैक्रियाणि बद्धानि असंख्येयानि,तत्र कालतो मार्गणा ज्योतिष्कवत्, क्षेत्रतो मार्गणाऽसंख्येयाः श्रेणयः किमुक्तं भवति? असंख्येयासु श्रेणिषु यावन्त आकोशप्रदेशास्तावत्प्रमाणानीति, तासां च श्रेणीनां परिमाणं प्रतरस्यासंख्येयो भागः, प्रतरासंख्येय भागप्रतिमा ग्राह्या इत्यर्थः। तत्र प्रतरासंख्येयभागो नैरयिकादिमार्ग___णायामपि गृहीत इति विशेषतरं परिमाणं प्रतिपादयति-'तासिण' मित्यादि, Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 544 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर भाग प्रणीनां विष्कम्भसूचिरडगुलद्वितीयवर्गमूल तृतीयवर्गमूलअन्युपान्। एतदुक्तं भवति-अड्गुलमात्रक्षत्रप्रदेशराशेरसत- कल्पनया / षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्य यद् द्वितीयं वर्गमूलम्, असत्कल्पनया चतुष्कलक्षणं, तत्ततीयेन वर्गमूलन, असत्कल्पनया द्विकरूपेण गुण्यते गुणिते च सति यावान् प्रदेशराशिर्भवति, असत्कल्पनया अष्टी तावत्प्रदेशात्मिकया विष्कम्भसूच्या परिमिताः श्रेणयः परिग्रायाः / तत्रापि ता एव अष्टौ श्रेणय इति प्रकारद्वयेऽप्यभेिदः / आहारकाणि नैरयिकवत्, तैजसकार्मणानि बद्धानि बद्धवेक्रियवत्, मुक्तान्याधिकमुक्तवत्। प्रज्ञा०१२ पदा भ०। (6) संग्रहःविहिसंठाणपमाणे, पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगो। दव्वपएसऽप्पबहुं, सरीरओगाहणऽप्पबहुं / / 1 / / 'विहिसंठाणपमाणे' इत्यादि प्रथम विधया-भेदाः शरीराणां वक्तव्याः, तदनन्तरं संस्थानानि ततः प्रमाणानि, तदनन्तरं, कतिभ्यो दिग्भ्यः शरीराणां पुद्गलोपचयो भवतीत्येवं पुद्गलचयनं वक्तव्यं, ततः कस्मिन् शरीरे सति किं शरीरमवश्यंभावीत्येवंरूपः परस्परसंयोगो वक्तव्यः, ततो द्रव्याणि च प्रदेशाश्च द्रव्यप्रदेशाः ते च द्रव्याणि च प्रदेशाश्व द्रव्यप्रदेशाः। 'समानानामेकशेषः' इत्येक-शेषस्तैरल्पबहुत्वं वक्तव्यम् / किमुक्तं भवति?- द्रव्यार्थतया प्रदेशार्थतया द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया च पश्चानामपि शरीराणामल्पबहुत्वमभिधातव्यमिति,ततः पञ्चानामपि शरीराणामवगाहनाविषयमल्पबहुत्वं वाच्यमिति गाथासंक्षेपार्थः। (10) तत्र यथोद्देशं निर्देश इति प्रथमतो विधिद्वारम भिधित्सुरादौ शरीरमूलभेदान् प्रतिपादयतिकतिणं मंते! सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! पंच सरी-रया पण्णत्ता,तं जहा- ओरालिए 1 वेउव्विर 2 आहा-रए 3 तेयए / कम्मए 5 | (2674) 'कइण भंते!' इत्यादि, कति-किंपरिभाणानि णमिति वाक्या-लङ्कारे, / भदन्त:शीर्यन्ते-प्रतिक्षणं विशरारुभावं बिभ्रतीति शरी-राणिशरीराण्येव शरीरकाणि, तथा स्वार्थ कप्रत्ययः, भगवानाह - गौतम! पञ्च शरीराणि प्रज्ञप्तानि मया अन्यैश्च शेषैः तीर्थकृद्भिः, तान्येव नामत आह-'ओरालिए' इत्यादि उदार प्रधान, प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीराण्यधिकृत्य, ततोऽन्यस्यानुत्तरशरीर-स्याप्यनन्तगुणहीनत्वात, यद्वा-उदारं सातिरेकयोजनसहस्रमान-त्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणं, बृहत्ता चास्य वैक्रिय प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथा उत्तरवैक्रिय योजनलक्षमानमपि लभ्यते / उदारमेव औदारिक विनयादिपाठा-दिकण, तथा विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्या भवं वैक्रियम् / तथाहि-तदेकं भूत्वा अनेकं भवति, अनेक भूत्वा एकं, तथा अणु भूत्वा महद्भवति महन्च भूत्वा अणु तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति भूमिचरं भूत्वा खचरं, तथा दृश्य भूत्वा अदृश्यं भवति अदृश्य भूत्वा दृश्यमित्यादि, लय द्विविधम्-औपपातिकं, लब्धिप्रत्ययं च / तापपातिकमुपपातजन्मनिर्मितं तच्च देवनार-काणां, लब्धिप्रत्ययं तिरमनुष्याणां, तथा 'आहारए' इति-आहारक चतुर्दशपूर्वविदा तीर्थकरस्फ तिदर्शनादिकं तथाविधप्र-योजनोत्पत्तौ सत्या विशिष्टलब्धिवशादाहियते-निवर्त्यते इत्या-हारकम्, कृहुशल मिति वचनात् कर्मणि वुञ , यथा पादहारक इत्यत्र / उक्तं च- "कजम्मि समुप्पण्णे, सुयकेवलिणा विसिह-लद्धीए। जं एत्थ आहरिजइ, भणितं आहारगं तं तु // 1 // " कार्यं चेदम्- "पाणिदयरिद्धिदसण-सुहुभपयत्थावगहणहेउवा। संस-यवोच्छयत्थं, गमणं जिणषायमूलम्मि॥२॥" तर वैक्रियशरीरापेक्षयां अत्यन्तशुभं स्वच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुद्गलसमूहघटनात्मकं, तेज इति-तैजस तेजसः-तेजःपुद्गलानां विकारस्तैजसं 'विकार' इत्यण, तत ऊष्मलिङ्ग भुक्ताहारपरिणमनकारणं, तद्वशाच्च विशिष्टतप, समुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्यविनिर्गमः उक्तं च-" सस्वरस उम्हसिद्ध, रसाइआहारपाकजणगं च / तेयगलद्धिनिमित्तं च तेयग होइ नायव्वं / / 1 // " 'कम्मए' इति-कर्मणो जातं कम्मजम्। प्रज्ञा०२१ पद। (11) जीवस्पृष्टानि वैक्रियादीनि शरीराणिचत्तारि सरीरगा जीवफुडापण्णत्ता,तं जहा-वेउदिवए आहारए तेयए कम्मए। 'चत्तारी' त्यादि व्यक्तं, किन्तु जीवेन स्पृष्टानि-व्याप्तानि जीवस्पृष्टानि, जीवेन हि स्पृष्टान्येव वैक्रियादीनि भवन्ति, नतुयथा औदारिक जीवमुक्तमपि भवति मृतावस्थायां तथैतानीति / स्था०४ ठा०३ उ०। (12) कति महालयानि पृथ्वीशरीराणिके महालए णं मंते ! पुढविसरीरे पन्नत्ते? गोयमा ! अणंताणं सुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहुमवाउसरीरे, असंखे जाणं सुहुमवाउसरीराणं जावतिया सरीरा से एगे सुहुमतेउसरीरे, असंखेजाणं सुहुमतेउकाइयसरीराणं जावति-या सरीरा से एगे सुहुमे आउसरीरे, असंखेजाणं सुहुमआउक्काइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे सुहमे पुढविसरीरे, असंखेजाणं सुहुमपुढविकाइयसरीराणं जावइया सरीरा से एगे बादरवाउसरीरे, असंखेज्जाणं बादवाउक्काइयाणं जावइया सरीरा से एगे बादरतेउसरीरे, असंखेजाणं बादरतेउकाइयाणं जावतिया सरीरा से एगे बादरआउसरीरे, असंखेज्जाणं बादरआउसरीरे जावतिया सरीरा से एगे बादरपुढविसरीरे, एमहालए णं गोयमा ! पुढविसरीरे पन्नत्ते / (सू०६५२४) 'केमहालएण' मित्यादि, अणताणंसुहुमवणस्सइकाइयाणं जावइया सरीरा से एगे सुहमवाउसरीरे त्ति-इह यावद्ग्रहणेनासंख्यातानि शरीराणि ग्राह्याणि अनन्तानामपि वनस्पतीनामेकाद्यसंख्येयान्तशरीरत्वाद अनन्ताना च तच्छरीराणामभावात् प्राक् च सूक्ष्मवनस्पत्यवगाहनाऽपेक्षया सूक्ष्मवाय्वथगाहनाया असंख्यातगुणत्वेनोक्तत्वादिति, 'असंखेजाण, मि Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 545 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर त्वादि, 'सुहमवाउसरीराण' ति-वायुरेव शरीर येषां ते तथा सूक्ष्माश्च ते वायुशरीराश्व-वायु कायिकाः सूक्ष्मवायुशरीरास्तेषामसंख्येयाना "सुहुमवाउक्काइयाण' 'ति-क्वचित्पावःस च प्रतीत एव, 'जावइया सरीर' त्ति-यावन्ति शरीराणि प्रत्येकशरीरत्वात्तेषामसंख्येयान्येव 'से एगे सुहुमे तेउसरीरे' त्ति-तदेकं सूक्ष्मतेजः शरीरं तावच्छरीरप्रमाणमित्यर्थः / भ०१६ 203 उ (13) संप्रत्यौदारिकशरीरस्य जीवजातिभेदतो ऽवस्थाभदतश्च भेदानाभेधित्सुराहओरालि सरीरेणं भंते ! किंसंठिते पन्नत्ते? गोयमा ! णाणासंठाणसठिते पण्णत्ते, एगिदियओरालियसरीरे किं संठिते पण्णत्ते?, गोयमा ! णाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते, पुढविकाइयएगिदिय-ओरालियसरीरे किंसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं सुहमपुढवीकाइयाण वि, बादराण वि एवं चेव, पज्जत्ताऽपज्जत्ताण वि एवं चेव / आउक्काइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! थिवुकबिंदुसंठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं सुहुमबादर-पज्जत्तापज्जत्ताण वि, तेउक्काइयएगिंदियओर लियसरीरेणं भंते ! किंसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! सूईकलावसंठाणसंठिते पण्णत्ते ? एवं सुहुमबादरपज्जत्तापज्जत्ताण वि, वाउकाइयाण वि, पडागासंठाणसंठिते, एवं सुहबादरपज्जत्तापज्जत्ताण वि, बणप्फइकाइयाण णाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं सुहुमबादरपज्जत्तापज्जत्ताण वि। बेइंदिय-ओरालियसरीरेणं भंते ! किंसंठाणसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं पज्जत्तापज्जताण वि, एवं तेइंदियचउरिंदियाण वि। पंचिंदियतिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिते पण्णत्ते, तं जहासमचतुरंससंठाणसं ठिते०जाव हुंडसंठाणसंठिते वि, एवं पञ्जत्तापजत्ताण वि 3, संमुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचिंदिय ओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि, आब्भवकं - तियतिरिक्खजोणियाण वि पंचिं दियतिरिक्खजोणिय ओरालियसरीरेणं भंते ! किं-संठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! छविहसंठाणसंठिते पण्णत्ते, तं जहा-समचउरंसे०जाव हुंडसं ठाण-संठिते, एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि 3, एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ओरालियसरीरेणं भंते ! किं संठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिते पण्णत्ते, तं जहासमचउरंसेजाव हुंडे, एवं पञ्जत्तापज्जत्ताण वि, संमुच्छिम जलयरा हुंडसंठाणसंठिता, एतेसिं चेव पज्जत्ता वि अपजत्तगा वि,एवं चेव गब्भवक्कं तियजलयरा छव्वि-हसंठाणसंठिता, एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि, एवं थलयराण वि णव सुत्ताणि, एवं चउप्पयथलयराण वि, उरपरिसप्पथलयराण वि, भुयपरिसप्पथलयराण वि, एवं खहयराण वि णव सुत्ताणि, नवरं सव्वत्थ सम्मुच्छिमा हुंडसंठाणसंठिता भाणितव्वा, इयरे छसु वि। मणूसपंचिंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किं संठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिते पण्णत्ते, तं जहासमचउरंसे०जाव हुंडे, पज्जत्तापज्जत्ताण वि एवं चेव, गब्भवकंतियाण वि एवं चेव, पज्जत्तापजत्ताण वि एवं चेव। सम्मुच्छिमाणं पुच्छा गोयमा? हुंडसंठाणसंठिता पण्णत्ता। (सू० 268) 'ओरालियसरीरे णं भंते !' इत्यादि, नानासंस्थानसंस्थितं जीवजातिभेदतः संस्थानभेदभावात, एकेन्द्रियौदारिकशरीरे नानासंस्थानसंस्थितता पृथिव्यादिषु प्रत्येक संस्थानभदात्, सत्र पृथिवीकायिकानां सूक्ष्माणां बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकशरीराणि मसूरचन्द्रसंस्थानसंस्थितानि, मसूरोधान्यविशेषः तस्य चन्द्रःच द्राकारमर्द्धदल तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितानि, अप्काशिकानां सूक्ष्मादिभेदतः चतुर्भेदानानौदारिकशरीराणि स्तिबुकबिन्दुरस्थानसस्थितानि, स्तिबुकाकारा यो बिन्दुर्न पुनरितस्ततो वातादिना विक्षिप्तः स्तिबुकबिन्दुस्तस्येव यत्रास्थान तेन संस्थितानि, तैजसकायिकानां सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भेदानामौदारिकशरीराणि सूचिकलापसंस्थानसंस्थितानि, वायुकायिकाना सूक्ष्मादिभेदतश्चतुर्भदानाभादारिकशरीराणि पताकासंस्थान-संस्थितानि, वनस्पतिकायिकाना सूक्ष्माणा बादराणां पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येकमौदारिकशरीराणि नानासंस्थानसंस्थितानि, देशकालजातिभेदतः तेषां संस्थानानाम्नेक भवभिन्नत्वात, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणा प्रत्यक पर्याप्तानामपर्याप्तानामौदा - रिकशरीराणि हुण्डसंस्थानसस्थितानि, तिर्यक्पश्चेन्द्रियौदारि-कशरीर सामान्यतः षनिवसंस्थानसंस्थिततम्, तदेवोपदर्शयति- 'समचउरससंठाणरांटिए' इत्यादि, यावत्करणात्- 'नागाह-परिमण्डलसंटाणसंटिए साइसंठासंठिए वामणसटाणसठिए खुजसंठाणसंठिए हुण्डसंठाणसलिए इति परिगहः, तत्र समाः-सामुद्रिकशास्त्रोक्तप्रमाणलक्षणाविसंवादि न्यतस्त्राऽस्रयः- चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यस्य तत्समचतुर, समासान्ताऽचप्रत्ययः,समचतुरसंचतत्सस्थानं च समचतुरससंस्थानं तेन संस्थित संमचतुरस्रसंस्थानसंस्थितं, तथा न्यग्रोधवत्परिमण्डलं यस्य तत् व्यग्रोधपरिमण्डलं यथा न्यग्रोधउपरि सम्पूर्णप्रमाणोऽधस्तुहीनः तथा यत्संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णप्रमाणम् अधस्तुन तथा तन न्यग्रोधपरिमण्डलम, तथा आदिरिहोत्सेधाख्यो नाभेरधस्तनो देहभागो Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर गृह्यते. ततः सह आदिना-नाभेरधस्तनभागेन यथोक्तप्रमाणलक्षणेन वर्तते इति सादि, यद्यपि सर्व शरीरमादिना सह वर्तते तथापि सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्त्या विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्नः आदिरिह लभ्यते, तत उक्तं यथोक्तप्रमाणलक्षणनति / इदमुक्तं भवति-यत संस्थानं नाभेरधःप्रमाणोपपन्नमुपरि च हीनं तत्सादिरिति, अपर तु साचीति पउन्ति, तत्र साचीप्रवचनवेदिना शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानं तत्साचिसंस्थान, यथा शाल्मलीतरोः स्कन्धः काण्डमतिपुष्ट मुपरितना तदनुरूपा न महाविशालता तद्वदस्यापि संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु नेति / तथा पत्र शिरो ग्रीव हस्तपादादिक च यथोक्त-प्रमाणलक्षणोपेतम उर उदरादिय मडभ तत्कुरूजसंस्थानं, यत्र पुनरुरउदरादिप्रमाणलक्षणोपेतं हस्तपादादिक हीनं तद्बामनसंस्थान, यत्र तु सर्वेऽप्यवयवाः प्रमाणलक्षणपरिभ्रष्टास्तद् हुण्डसंस्थान, समासः सर्वत्रापि पूर्ववत्, एवं 'पज्जत्तापजताण वि' इति, एवम् - उक्त प्रकारेण सामान्यतस्तिर्यक - पद्रियाणाभिव पर्याप्तानामपर्याप्तानां च प्रत्येकं सूत्रं वक्तव्य, तदेवमेतानि त्रीणि सूत्राणि, एवमेव च सामान्यतः सम्फूर्लिछमतिर्यकपञ्चेन्द्रियाणामपि त्रीणि सूत्राणि वक्तव्यानि,नवर तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु हुण्ड संस्थानसं स्थितमिति वक्तव्यम, सम्मच्छिमाणामविशेषण सर्वेषामपि हुण्डसंस्थानभावात् / त्रीणि सामान्यतो गर्भजतिर्यक् - पशान्द्रियाणामपि, नवर तेषु त्रिष्वपि सूत्रेषु 'छव्विहसंठाणसटिए पण्णत्ते'' इत्यादि वक्तव्यम। गर्भजेषु समचतुरस्रादिसंस्थानानामपि सम्भवात, तद-वमेले सामन्यतस्तिर्यकपशेन्द्रियविषया ना आलापकाः अनेनेव क्रमर्णव जलचरतिर्यकपझेन्द्रियाणा सामान्यतः खलाराणां वसुपदस्थलचराणामुरः परिसर्पस्थलचराणां भुजपरिसप्पस्थलचरागा खचरतिर्यक्पोन्द्रियाणां च प्रत्येकं नव 2 सूत्राणि वक्तव्यानि / सर्वसंख्यया तिर्यपक्षेन्द्रियाणां त्रिषष्टिः 63 सूत्राणि मनुष्याणां नव सर्वत्र सम्मछिमेषु हुण्डसंस्थानं च वक्तव्यमितरत्र षडपि संस्थानानि / लदेवमुक्तान्यौदारिक भेदानां संस्थानानि। प्रज्ञा० 21 पद (अवगाहना 'आगाहणा' शब्दे प्रथमभाग 602 पृष्ठे गता।) (14) सम्प्रति क्रमेण वैक्रियस्य शरीराण्यभिधित्सुराहवेउव्वियसरीरे णं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा ! दुविधे पण्णत्ते,तं जहा- एगिदियवे उब्वियसरीरे य, पंचिं दियवेउव्वियसरीरे य / जति एगिदियवेउव्वियसरीरे किं वाउक्काइयएगिं दियवेउव्वियसरीरे, अवाउक्काइयएगिंदियवेउव्विय - सरीरे ? गोयमा ! वाउक्काइयएगिदियवेउव्वियसरीरे नो अवाउक्काइयएगिदियवेउव्वियसरीरे / जइ वाउक्काइयएगिं० वेउवियसरीरे किं सुहमवाउक्काइयए० वेउव्वियसरीरे बायरवाउक्काइयएन्वेउव्वियसरीरे? गोयमा ! नो सुहुमवाउक्काइय एगिं दियवे उब्वियसरीरे बादरवाउक्काइयएगिदियवेउव्वियसरीरे / जइ बादर-वाउक्काइय-एगिंदिय-वेउव्वियसरीरे किं पज्जत्तबादर-वाउक्काइय-एगिंदिय-वेउव्वियसरीरे, अपनत्तबादरवाउक्काइय एगिं दियवे उदिवायसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तबादरवाउक्काइय-एगिं दिय-वेउव्वियसरीरे नोअपज्जतबाद-रवाउक्काइयएगिंदिय-वेउव्वियसरीरे, जति पंचेंदियदेउव्वियसरीरे किं नेरइयपंचिंदियदेउब्वियसरीरे०जाव किं देवपंचिंदियवेउब्वियसरीरे? गोयमा! नेरइयपंचिंदियवेउ-व्विय सरीरे जाव देवपंचिदियवेउब्वियसरीरे वि, जइ नेरइयपंचिं दियवे उदिवयसरीरे किं रयणप्पभापुढ विनेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरे वि०जाव किं अधेसत्तमा-पुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरे? गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरे वि०जाव अधेसत्तमापुढ विनेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरे वि, जइ रयणप्पभापुढविनेरइयवेउव्वियसरीरे किं पजत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयवेउटिवयसरीरे अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिं दियवे उब्वियसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरे अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरे, एवं जाव अधेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणितव्यो / जइ तिरिक्खजोणियपंचिं दियवे उब्वियसरीरे किं समुच्छिमपंचिं दियतिरिक्ख-जोणियवेउव्वियसरीरे गम्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्ख ०वेउव्वियसरीरे? गोयमा ! नो समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्ख वेउव्वियसरीरे गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्ख वेउदिवयसरीरे,जति गब्भवकंतियपंचिं-दियतिरिक्ख०वेउव्वियसरीरे किं संखेजवासाउयगभवक्कं तियपंचिं दियवे उब्वियसरीरे असंखिज्जवासाउयगब्भकंतियपंचिंदियतिरिक्ख वेउव्वियसरीरे? गोयमा! संखेज्जवासाउयगब्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख ०वेउव्वियसरीरे, नो असंखिञ्जवासाउयगम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्ख०वेउव्वियसरीरे। जइ संखिजवा०गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्ख०वेउब्वियसरीरे किंपज्जत्तगसंखि०गब्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउब्वियसरीरे अपज्जत्तगसं खिज्ज०गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउव्वियसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तगसंखिज्ज० गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउब्वियसरीरे नो अपज्जत्तगसंखिज० गब्भवक्कं तियपंचिंदियतिरिक्ख ०वे उव्वियसरीरे, जइ संखेजवासा०किं जलयरगब्भव-कं तियपंचिं दियतिरिक्ख० वेउब्वियसरीरे थलयरसंखिज्ज० गब्भवकं-तियपंचिंदियतिरिक्खन्वे उटियसरीरे खहयरसंखिजवा० गब्भवकं तियपंचिंदियतिरिक्खजो० वेळब्वियसरीरे? गोयमा! जलयरसंखिज्ज० गमवक्रतियपंचिंदि Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 547 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर यतिरिक्ख० वेउव्वियसरीरे वि थलयरसंखिज्ज० गभवकतियपंचिं दियतिरिक्ख०वे उदिवयसरीरे वि खहयरसंखिजगब्भवक्कतियपंचिंदियतिरिक्ख०वेउव्वियसरीरे वि, जइ / जलयरसंखिज्जवासाउयग०किंपज्जत्तगजलयरसंखिज० गब्भवकं तियपंचिंदियतिरिक्खजो०वेउटिवयसरीरे अपज्जत्तगजलयरसंखिज्जवा० गब्भवतियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउव्वियसरीरे य? गोयमा ! पञ्जत्तगजलयरसंखिज्ज० गडभव-कं तियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउव्वियसरीरे नो अपज्जत्त-गसंखिज० जलयरगब्भवकतियपंचिंदियतिरिक्ख० वेउवि-यसरीरे। जति थलयरपंचिं दिय०जाव सरीरे किं चउप्पय०जाव सरीरे किं परिसप्पन्जाव सरीरे? गोयमा ! चउप्पय०जाव संखिज्जा परिसप्प०जाव सरीरे, एवं सव्वेसिं णेयव्वंजाव खहयराणं पज्जत्ताणं नो अपज्जत्ताणं / जति मणूसपंचिंदि-यवेउव्वियसरीरे किं समुच्छिममणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे गम्भवतियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा! णो समुच्छिममणूसपंचिंदियवेउब्वियसरीरे गब्भवक्कंतियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे / जइ गब्भवतियमणूसपंचिंदियदेउव्वियसरीरे किं कम्मभूमगगब्भवक तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे अकम्मभूमग गब्भवकंति-मणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे अंतरदीवगगब्भवक्कंतियमणूस-पंचिंदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा ! कम्मभूमगगब्भवकतियमणूसपंचिंदियवेउब्वियसरीरे णोअकम्मभूमग० णो अंतरदीवग०जइ कम्मभूमगगब्भवतियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे किं संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे, असंखिज० कम्मभूमगगब्भवकं तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा ! संखेज्ज० कम्मभूमगगडभवक्कं -तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे नो असंखेज्ज० कम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे, जति संखेज्ज० कम्मभूमगगब्भववंतियमणूसपंचिंदियवेउव्यियसरीरे, किं पञ्जत्तयसंखेज० कम्मभूम० मणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे अपज्जत्तगसंखिज्ज० कम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसपंचिंदियवेउटिवयसरीरे? गोयमा ! पञ्जत्तगसंखिज्ज० कम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे नो अपञ्जत्तग-संखेज्ज० कम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे / जइ देवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे किं भवणवासिदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे जाव वेमाणियदेवपंचिदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा ! भवणवासिदेवपंचिदियवेउव्वियसरीरे वि०जाव वेमाणियदेव पंचिं दियवेउव्वियसरीरे वि / जइ भवणवासिदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे किं असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे०जाव थणियकुमारभवणवासिदेवपंचिदियवेउटिवय-- सरीरे? गोयमा ! असुरकुमार०जाव थणियकुमारवेउब्वियसरीरे वि। जइ असुरकुमारदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे किं पज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचिदियवेउदिायसरीरे अपत्तजग-- असुरकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा ! पञ्जत्तगअसुरकुमार-भवणवासिदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे वि अपज्जत्तगअसुर-कुमारभवणवासिदेवपंचिदियवेउविटायसरीरे वि, एवं० जाव थणियकुमाराण दुगतो भेदो, एवं वाणमंतराणं अट्ठविहाणं जोतिसियाणं पंचविहाणं / वेमाणिया दुविहा कप्पोवगा, कप्पातीता य / कप्पोवगा वारसविहा तेसिं पि एवं चेव दुहतो भेदो,कप्पातीता दुविहा गेवेज्जगाय, अणुत्तरोववाइया य। गेवेजगा णवविहा अणुत्तरोववाझ्या पंचविहा, एतेसिं पज्जत्तापज्जत्ताभिलावेणं दुगतो भेदो भाणियव्वो। (सू०२७०) 'वेउध्वियसरीरेण भंते !' इत्यादि, वैक्रियशरीर मूलतो द्विभेदम्एकेन्द्रियपशेन्द्रियभेदाल, तत्रैकेन्द्रियरा वालकायरय तत्रापि बादग्ग्य तत्रापि पर्याप्तस्य, शेषस्य बैंक्रियलब्ध्यरसम्भवात् / उक्त च-"तिण्हं ताव रासीण घेउदिवयलद्वी चेव नत्थि, बायजत्ताण पि संखेजइभागमेवाणं' अत्र 'तिण्ह' तित्रयाणा पर्याप्तापर्याप्तस्क्ष्मापर्याप्तबादररूपाणाम्। पवेन्द्रियचिन्तायामपि जलघरचतुष्पदोरः परिसर्पभुजपरिसप्रवचरान मनुष्यांश्च गईट्युत्क्रान्तिकान संख्ययवर्षायुषी मुक्रवा शषाणाप्रतिपो भवस्वभावतया तषा वैक्रियलब्ध्यसम्भवात् / उक्ता नदाः / (15) संस्थानान्यांभेधित्सुराहवेउव्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते, वाउकाइयएगिंदियवेउव्वियसरीरेणं भंते ! किंसंठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा! पडागासंठाण-संठिते पण्णत्ते, नेरइयपंचिंदियवेउव्वियसरीरेणं भंते ! किंसंठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा! नेरइयपंचिंदिय-वेउव्विय-सरीरे दुविधे पण्णत्ते, तंजहाभवधारणिज्जे य, उत्तरवेउव्विए या तत्थ णंजे से भवधारणिजे से णं हुंड-संठाणसंठिते पण्णत्ते, तत्थ णं जे से उत्तर-वेउव्यिते से वि हुंडसंठाणसंठिते पण्णत्ते / रयणप्पभापुढ-विनेरइयपंचिंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किं संठाणसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! रयणप्पभापुढ विनेरइयाणं दुविधे सरीरे पण्णत्ते, तं जहाभवधारणिज्जे य, उत्तरवेउव्विए य / तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे सेणं हंडसंठाणसंठिते,जे से उत्तरवेउव्विते से विहुंडे, एवं जाव Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर अधेसत्तमापुढावनेरइयवे उव्वियसरीरे / तिरिक्खजोणिय- रगसरीरे गब्भवकं तियमणूसआहारगसरीरे? गोयमा ! नो पंचिंदियवेउव्वियसरीरे णं भंते ! किं संठाणसंठिते पण्णते? सम्मुच्छिममणूसआहारगसरीरे, गब्भवतियमणूसआहारगगोयमा ! णाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं जलयरथलयरखहय- सरीरे जइ गब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे किं कम्मभूमगगराण वि, थलयराण वि चउप्पयपरिसप्पाण वि उरपरिसप्पभुय- व्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे अकम्मभूमगगब्मवक्कं तियपरिसप्पाण वि / एवं मणूसपंचिंदियवेउव्वियसरीरे वि। असुर- मणूसआहारगसरीरे अंतरदीवगगब्भवक्कं तियमंणूसआहारकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियवेउब्वियसरीरेणं भंते ! किंसंठिते गसरीरे ? गोयमा ! कम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे पण्णत्ते? गोयमा! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते, नो अकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूस आहारगसरीरे नो अंतरतं जहा-भवधारणिज्जे य, उत्तरवेउव्विते य / तत्थ णं जे से दीवगगब्भवकं तियमणूसआहारगसरीरे, जइ कम्मभूमगगब्भभवधाराणज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिते पण्णत्ते, तत्थ णं वकं तियमणूसआहारगसरीरे, किंसंखेज्जवासाउयकम्मभूभगजे से उत्तरवेउव्विते से णं णाणासंठाणसंठिते पण्णत्ते एवं०जाव गन्भवक्कं तियमणूस आहारगसरीरे, असंखेज्जयासाउयकम्मथणियकुमार-देवपंचिंदियवेउव्वियसरीरे। एवं वाणमंतराण वि, भूमगगब्भवकं तियमणूसआहारगसरीरे, गोयमा ! संखिज्जणवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जंति, एवं जोतिसियाण वि वासाउयकम्मभूमगगब्मवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे, नो ओहियाणं, एवं सोहम्मे कप्पे जाव अच्चुयदेवसरीरे, गेवेज्ज असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवकं तियमणूसआहारगसरीरे, कप्पातीतवेमाणियदेव-पंचिंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! जति संखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवकं तियमणूसआहारगकिंसंठिते पण्णत्ते? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरीरे, किं पज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवकं तियमसरीरे, से णं समचउरंस-संठाणसंठिते पण्णत्ते, एवं अणुत्तरोव णूस आहारगसरीरे? अपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगवाइयाण वि। (सू०२७१) ब्भवकं तियमणूस आहारगसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तसंखेज्जवा साउयकम्मभूमगगभवक्कं तियमणूस-आहारयगसरीरे, नो 'वेउब्वियसरीरेण भंते !' इत्यादि सुगम, नवरं नरथिकाणा भव अपज्जत्तकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूस-आहारगसरीरे, जइ धारणीयमुत्तरवैक्रियं च हुण्डसंस्थानमत्यन्तक्लिष्टकोदशवशात. पज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारतथाहि- तेषा भवधारणीयं शरीरं भवस्वाभवत एव निर्मूलविलुप्त गसरीरे? किं सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगपक्षोल्पाटितसकलग्रीवादिरोमपक्षिसंस्थानवदतीव बभित्सं हुण्ड गब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे मिच्छद्दिहिपज्जत्तगसंखेजसंस्थान, यदप्युत्तरवैक्रियं तदपि वयं शुभं करिष्याम इत्यभिसन्धिना वासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमणूसआहारगसरीरे, सम्माकर्तुमारब्धमपि तथाविधात्यन्ताशुभनामकर्मोदयवशादतीवाशुभतर मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमुपजायते इति हुण्डसस्थानम्। तिर्यक्पञ्चेन्द्रियाण मनुष्याणां च वक्रियं मणूसआहारगसरीरे?, गोयमा ! सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासानानासंस्थानसंस्थितमिच्छावशतः प्रवृत्तेः दशविधभवनपतिव्यन्तर उयकम्मभूमगगब्भवक्कं तिय-मणूस आहारगसरीरे, मिच्छदिज्योतिष्कसौधमाद्यच्युतपर्यवसानवैमानिकाना भवधारणीय भवस्य द्विपजत्तसंखेजवासाउय-कम्मभूमगगब्भवतियमणूसआहारभावतया तथाविधशुभनामकर्मोदयवशात् प्रत्येकं सर्वेषा समचतुरस्त्र गसरीरे नो सम्मामिच्छ-द्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मसंस्थानम, उत्तरवैक्रियं त्विच्छानुरोधतः प्रवृत्तेर्नानासस्थानसंस्थित, भूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे जइ सम्मबिट्ठिपज्जत्तगगैवयकाणामनुसरोपपातिनां चोत्तरवैक्रियं न भवति, प्रयोजनाभावाद / संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे, उत्तरवैक्रिय ह्यत्र गमनागमननिमित्तं परिचारणानिमित्तं या क्रियते, न किं संजयसम्म विट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगढभचैतेषामे तदस्ति / यत्तु भवधारणीयमेतेषां तत्समचतुरससंस्थान वक्कं तियमणूस आहारगसरीरे, संखेज० कम्मभूमगगढभवक्कं - संस्थितमिति / उक्तानि स्थानानि / (वै क्रियशरीरस्यावगाहना तियमणूसआहारगसरीरे, असंजतसम्मद्दिहिपज्जत्तसंखेज'ओगाहणा' शब्दे 3 भागे 78 पृष्ठे गता।) वासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे संजया(१६) संप्रत्याहारकशरीरस्य प्रतिपिपादयिषुराह संजयसम्म विहिपञ्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगआहारगसरीरे णं भंते ? कतिविधे पन्नत्ते? गोयमा ! एगागारे ब्भवक्कं तियमणूसआहारगसरीरे? गोयमा ! संजयसम्मद्दिट्ठिपण्णत्ते, जइ एगागारे किं मणूसआहारगसरीरे, अमणूसआहार-- पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणूसगसरीरे? गोयमा ! मणूसआहारगसरीरे नो अमणूसआहारग- आहारगसरीरे, नो असंजतसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासासरीरे जइ मणूसअ, हारगसरीरे किं सम्मुच्छिममणूसआहा- | उयमणूसआहारगसरीरे, नो संजतासंजतसम्मदिहिआहा Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 546 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर रगसरीरे जइ संजतसम्मद्दिट्ठिपज्जतगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमणूसआहारगसरीरे, किं पमत्तसंजतसम्मविट्ठिमणूसआहारगसरीरे, अप्पमत्तसंजतसम्मतिट्ठिसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमणूसआहारगसरीरे? गोयमा ! पमत्तसंखेज्जयासाउयसम्मदिद्विपमत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूस-आहारगसरीरे, नो अप्पमत्तसंखेज्जमासाउयसम्मद्दिष्टिपमत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्वंतियमणूस आहारगसरीरे, जइ अप्पमत्तसंखेज्जवासाउयसम्मतिट्ठिपमत्तसं-खेजवासाउयकम्मभूमगमणूसआहारगसरीरे, किं इड्डिपत्तप्पमत्तसंखेजवासाउयसम्मद्दिठिकम्मभूमगसंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियमणूस आहारगसरीरे, अणिड्डिपत्तपमत्तसंखेजवासाउयकम्मभूमगसंखेञ्जवासाउयगडभवक्कं तियआहारगसरीरे, गोयमा ! इड्डिपत्तप्पमत्तसंखेजवासाउयसम्मद्दिट्ठिपमत्तसंखेञ्जवासाउयकम्मभूममगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, नो अणिड्डिपत्तपमत्तसंखेज्जवासाउयसम्मद्दिछिपमत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमणूसआहारगसरीरे, आहारगसरीरेणं भंते ! किं संठिते पण्णत्ते / गोयमा ? समचउरंसठाणसंठिते पण्णत्ते। (सू० 273+) 'आहारगसरीरेण भंते ! कइविहे पन्नत्ते' इत्यादि सुगम, नवरं 'संजय' त्ति- 'यन्' उपरमे, संयच्छन्ति स्म सर्वसावघयोगेभ्यः सम्रागुपरमन्ति स्मति संयताः, 'गत्यर्थनित्याकर्मका' दिति कर्तरि वतप्रत्ययः, सकलचारित्रिणः, असंयता-अविरतसम्यगदृष्टयः संयतासंयतादेशधिरतिमन्तः, तथा पमत' नि-प्रमाद्यन्ति स्म माहनीयादिकमोदयप्रभावलः सज्वलनकषायनिद्राधन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म प्रमत्ताः, पूर्ववत् कर्तरि क्तप्रत्ययः, ते च प्रायो गच्छवासिनस्तेषां कचिदनुपयोगसम्भवात, तद्विपरीता अप्रमताः, ते च प्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धि-कयथालन्दकल्पिकप्रतिमाप्रतिपन्नास्तेषां सततोपयोगसम्भवात / इह जिनकल्पिकादयो लब्धि नोपजीवन्ति, तेषां तथाकल्प - त्यात, येऽपि च गच्छवासिन आहारकशरीरं कुर्वन्ति तेऽपि तदानी लब्ध्यपजीवन्नोत्सुक्यभावतःप्रमादवन्तो, मोचनेऽपिच प्रभादवन्तः, आत्मप्रदेशानामादारिकशरीरे सर्वात्मनोपसहरणेन व्याकुलीभावात / आहारकशरीरे चान्तर्मुहर्तावस्थानं, ततो यद्यपि तन्मध्यभागे कियत्कालं मनाक विशुति भावतः कार्मगन्धिकैरप्रमत्ततोपर्यते तथापि सलब्ध्युपजीवनेन प्रमत्त एवेत्यप्रत्तस्य 'नो अपमत्तसंजए' इत्यादिना प्रतिषेधः कृतः 'इडिपत्त त्ति-ऋद्धीःआमर्पोषध्यादिलक्षणाः प्राप्तः ऋद्धिप्राप्तस्तद्विपरीतोऽवृद्धिप्राप्तः, ऋद्धीश्च प्राणोति प्रथमतो विशिष्टमुत्तरोत्तरमपूर्वापूर्वार्थप्रतिपादकं श्रुतमवगाहमानः श्रुतसामर्थ्यतस्तीव्रती-व्रतरशुभभावनामधेरोहन अप्रमत्तः सन्। उक्त च'अवगाह' च स श्रुत-जलधिं प्राप्रोति चावधिज्ञानम। मा सपा प वा / कोष्टादिबुद्धिर्वा / / 1 / / धारणयक्रियसों-पधिताधा वाऽपि लश्चयसास्य / प्रादुर्भावन्ति गुणतो, बलानि वा मानसादीनि / / 2 / " अत्र "स' इति अप्रमतसंयतः गानलपर्यायमिलि-मानसाः-मनसः सन्धि: पर्याया-विषया यस्य तन्मानसपर्या मनःपर्यायज्ञा.. गित्यर्थः, कोष्टादिबुद्धिा इत्यात्रादिशब्दात पदानुसारिधीजपरि. मा: / सिसोहि यः परमतिशयरूपाः प्रवचने प्रतिपाद्यन्ते, inया-कोप्ठबुद्धिः 1, पदानुसारिबुद्धि-२, बीजबुद्धि 3 | त्रि कोष्टक इय धारा का बुद्धिराचार्यमुखाद्वितिमा विस्थानी ध सूत्रों धारयति : किंगपि तयोः कालान्तरे गलाते सा कोष्ठबुद्धिः 5. या पुगरेकमपि सूत्रपदमवधार्य शेषगश्रुतमपि तदवस्थमेव श्रुतभवगाहत सा पदानुसारिणी 2, या पुनरेकर्मथपर तथाविधमनुसृत्य शेषम मपि यथा- स्थितं प्रदूतमर्थमवगाहो सा वीजवुद्धिः 3. सा च सर्वोत्तमप्रकर्षापा भगवतां गणभृताम् ! से हि उत्पादादिपदप्रथमवधार्य सकलगपि द्वादशाङ्गात्मक प्रवचनमभिसूत्रयन्ति तथा वारणासक्रिय सॉषध्यश्च तनावश्व चारण वैक्रिय सर्वोपहिता, / -गगग सद्विद्यते येषा ते चारणा. 'ज्योत्सादिभ्योऽ' इति याययः, तत्र गमनमन्येषामपि मुनीनां विद्यते तो विशेषणा गयानुपपत्त्या वरणभिह विशिष्ट गगनगभिगृहातेअब एक बालिशायने मत्वर्थीयः, यथा-रूपवती कन्या इत्यत्र / तोऽसमर्थ:-अतिशाविवरणसमर्थावारणाः, आह व भाष्यकृत गायटीकायाम् “अतिशयचरणाच्चारणाः / अतिशयगमनादि (ययं सेव (1) विविधा जमाचारणाः, विद्याचारणा / तत्र ये पारिवानिशेषगावत: समुदतगमनविषयलब्धिविशेषास्ते जजाबारा से पुनर्विद्यागशतः समुत्पन्नाममनलव्यतिशयारले विशावारणा: जड़ाबारणाच रुचकवरतीय यावत् मन् समर्थाः, दिया वारणा नन्दीश्वरम् / तत्र जलाचारणा यत्र कुत्रापि गन्तुमिच्छघरतका रविकरानपि निश्रीकृत्य गच्छन्ति, विधाचारणारत्वेवमेव / जावारणायकवरतीय गच्छन् एकेनैवोत्पातेन गच्छति, प्रतिनि मारमा नन्दीश्वरमायाति द्वितीयेन स्वस्थानम्, यदि पुन र शिखर जिगमिषुस्तहि प्रथमेनैवोत्पातेन परायचनमधिरोहति प्रमिनियमास्तु प्रथगनैवोत्पातेन नन्दनवनमागच्छति द्वितीयेन स्वस्थानगिति, जाचरिणो हि चारित्रातिशयप्रभावतो भवन्ति, ततोलाजीवनेन औत्सुक्यभावतः प्रमादसम्भवाच्चारित्रातिशयनिबन्धना लब्धिः परिहीयते ततः प्रांतेनिवर्तमानो द्वाभ्यामुत्पाताभ्यां स्वनुमायाति विद्याचारः पुनः प्रथमेनोत्पातेन मानुषोत्तरं पर्वतं गच्छति द्वितीयेन तु नन्दीश्वरं, प्रतिनिवर्तमानस्त्वेकेनैवोत्पातेन स्वस्थानमायातीति / तथा स एवोचं गच्छन् प्रथमोत्पातेन नन्दनवनं गछति / द्वितीयेनोत्पातेन परावन, प्रतिनिवर्तमानस्स्कैनैवोत्पाते स्वस्थामायातीति विद्याचारणो विद्यावशतो भवति, विद्या च परिणील्यमाना स्फुटा रफुटतरोपजायते, अतः प्रतिनिवर्तमानस्य शक्त्य Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 550 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर विशारामनादेकेनोत्पातेन रवस्थानाऽऽगमनमिति। उक्तंच णं भंते ! किंसंठिएपण्णत्ते? गोयमा! णाणासंठाणसठिए पण्णत्ते, "अइसयचरणसम था, जंघाविजाहि चारणा मुणओ। एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! किं संठिए पण्णत्ते? गोयमा ! जघाहि जाइ पढ़गो, नीसं काउ रविकार वि।।१।। णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते, पुढविकाइयएगिंदियतेयगसरीरेणं एगुप्पाएप गओ, रुयगवरम्मि उ तओ पडिनियत्तो; भंते? किंसंठिए पण्णत्ते गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिते पण्णत्ते, विइएणं नंदीसर-मिहं तओ एइ तइएणं / / 2 / / एवं ओरालिय-संठाणाणुसारेण भाणितव्वं०जाव चउरिदियाण वि। नेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किं संठिते पण्णत्ते? गोयमा ! पढमेण पंडगवणं, विइउप्पाएण नंदणं एइ। जहा वेउव्वियसरीरे, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाणां तइउप्पारण तआ, इह जंघाचारणो एइ॥३॥ जहा एते सिं चेव ओरालियं ति, देवाणं भंते ! किं संठिते पढमेण माणुसोत्तर- नग स नंदिरसर तु विइएम। तेयगसरीरे पण्णते? गोयमा ! जहा वेउटिवयस्स०जाव एइ तओ तइगण, कय वइयचंदणा इहई॥४॥ अणुत्तरोववाइय त्ति। (सू० 274) पढमेण नंदनवणे, वियउप्पारण पंडगवणम्मि। 'तयगरारीरेणं भंते !' इत्यादि, इह तैजसशरीर सर्वेषामवश्य भवति एइ इह तइएणं, जा विाचारणो होइ // 5 // " ततो यथा एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियगत औदारिकशरीरभेदा भणितस्तथा तथा सर्व-विड्मूत्रादिकमौषधं यस्य स सर्वोषधः / किमुक्तं भवति? | चतुरिन्द्रियान यावत् तेजसशरीरभेदोऽपि वक्तव्यः पवेन्द्रियतैजससस्य * मूत्रं विट श्लेष्मा शरीरमलो वा रोगोपशमसमर्था भवति स शरीरचिन्तायां चतुर्विध पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरम, नैरयिकतिर्यगमनुष्य - सर्वोषधः, आदिशब्दादाम(षध्यादिलब्धिपरिग्रहः / एताश्च ऋद्धीरप्रमत्तः देवभेदात, तत्र नैरयिकतैजसशरीरचिन्तायां यथा प्राक वैक्रियशरीरे सन्न प्राप्य पक्षात प्रमत्तो भवति, तेनैवेह प्रयो-जनन् तत उक्तम् पर्याप्ताऽपर्याप्तविषयतया द्विगतो भेद उक्त-स्तथाऽत्राप्ति वक्तव्यः, स 'इडिपत्तपमत्तसंजये' त्यादि, आह-मनुष्य- स्याहारकशरीरगित्युक्ते चैवम-'जई नेरइयपंबिंदियतेयगसरीरे किं रराणप्पभापुढविनेरइयसामादमनुष्यस्य नाहारकशरीर-मित्यवसीयते ततः कस्मादुच्यते पचिंदियतेयगसरीरे०जाव किं अहेसत्तमापुढविनेरइयपंचिंदियतेय'नो अमणुस्साहारगसरीर' इत्यादि? निरर्थकत्वात, उच्यते इह विविधा गसरीरे? गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे विजाव विनयाः, तद्यथा-उदघटितज्ञा, मध्यमबुवयः, प्रपश्चितज्ञाश्च / तत्र ये अहे-सत्तमापुढविनेरइयपंचिंदियतेयगसरीरे वि, जइ रमणप्पभापुढउदघटितज्ञा मध्यमबुद्धयो वा ते यथोक्तं सामर्थ्यमवबुध्यन्ते, ये पुनर- विनेरइयपंचिंदियतंगसरीरे किं पज्जत्तगरयणप्पभे' त्यादि, पञ्चेन्द्रियद्याप्यव्युत्पन्नत्वात् न यथोक्तसामर्थ्यावगमकुशलारत प्रपक्षितगेवाय - तिर्थयोनिकाना मनुष्याणां च यथा प्रागोदारिकशरीरभेः उक्तस्तथा गन्तुमीशते नान्यथा, ततस्तेषामनुग्रहाय सामथ्र्यलब्धस्यापि विपक्ष- अत्रापि वक्तव्यः, स चैवम्- “तिरिक्खजोणिय-पंचिंदियलेयगसरीरेण निषधस्याभिधानं, महीयासा हि परमकरुणापरीतन्वात अविशषण भंत! कवि पण्णते?' इत्यादि, देवानां यथा वैक्रियशरीरभेद उक्तसर्वेषामनुग्रहाय प्रवर्तन्ते, ततो न कश्चिद्दोषः / (प्रज्ञा०) (आहार - स्तथा भणितव्यः, स चैवम्- 'जइ देवपंचिंदियतयगसरीर किं भवणकशरीरस्य कतिमहालयाऽवगाहनेति ओगाहणा' शब्दे तृतीयभाग 81 वासिदेवपंचिंदियतेयगसरीरे' इत्यादि, यावत् सर्वार्थसिद्धदेवसूत्रम् / पृष्ठे उक्तम्।)*(अत्रार्थे मोयपडिमा' शब्दो द्रष्टव्याः।) उक्तो भेदः / / सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमाह- 'तेयगसरीरेणं भंते! (17) सम्प्रति लैजसस्य तान्यभिधित्सुराह किंसलिए पण्णत्ते?' इत्यादि, सुगमम् इह जीवप्रदेशानुरोधितैजसंशरीर तेयगसरीरे णं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे ततो यदेव तस्यां 2 योनाबौदारिकशरीरानुरोधेन वैक्रियरिरानुरोधन पण्णते, तं जहा-एगिं दियतेयगसरीरे०जाव पंचिं दिय- च जीवप्रदेशानां संस्थानं तदेव तैजसशरीरस्थापि इति प्रागुक्ततेयगसरीरे / एगिंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते? मेक द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यपधेन्द्रियमनुष्यगतमीदारिकसंस्थान गोयमा ! पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइय०जाव नैरयिकदेवेषु वैक्रियसस्थानमतिदिष्टमिति / गत संस्थानम् / (तेजवणस्सइकाइयएगिंदियसरीरे, एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो सानामवगाहनामानम् 'ओगाहणा' शब्दे तृतीयभागे 81 पृष् गत-म्।) भणितो तहा तेयगस्स वि०जाव चउरिदियाणं / पंचिंदिय- (कति कार्मणशरीराणि इति 'कम्मय' शब्दे तृतीयभागे 340 पृष्ठे गतम !) तेयगसरीरे णं भंते ! कतिविधे पण्णत्ते? गोयमा ! चउविहे (18) सम्प्रति पुदलचयनमाहपण्णत्ते, तं जहा-नेरइयतेयगसरीरे०जाव देवतेयगसरीरे / ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसिं पोग्गला चिजंति? नेरइयाणं दुगतो भेदो भाणितव्वो, जहा वेउब्वियसरीरे / गोयमा ! निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाधायं पडुच सिय तिदिसिं सिय पंचिंदिययिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा ओरालियसरीरे चउद्दिसिं सिय पंचदिसिं / वेउव्वियसरीरस्सणं भंते ! कतिदिसिं भेदो भाणितो तहा भाणियच्चो / देवाणं जहा वेउव्यिय-सरीरभेदो पोग्गला चिखंति? गोयमा! णियमाछदिसिं। एवं आहारगसरीरस्स भाणितो तहा भाणितव्यो,०जाव सव्वट्ठसिद्धदेव ति। तेयगसरीरे | वि। तेयाकम्मगाणं जहा ओरालियसरीरस्सं। ओरालियसरीरस्सं Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 551 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला उवचिजति? गोयमा ! एवं चेव०जाव कम्मगसरीरस्स, एवं उवचिज्जंति, अवचिज्जंति। जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स वेउव्वियसरीरं, जस्स वेउव्धियसरीरंतस्स ओरालियसरीर? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउव्वियसरीरं सिय अस्थि सिय नस्थि, जस्स वेउव्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि / जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं, जस्स आहारग-- सरीरं तस्स ओरालियसरीरं? गोयमा! जस्स ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं णियमा अ-थि / जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं ? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं नियमा अस्थि, जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, एवं कम्मगसरीरं पि। जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं, जस्स | आहारगसरीरंतस्स वेउव्वियसरीरं? गोयमा ! जस्स वेउव्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरंणत्थि, जस्स वि आहारगसरीरं तस्स विवेउब्वियसरीरंणत्थि। तेयाकम्मातिं जहा ओरालिएण समं तहेव आहारगसरीरेण वि समं तेयाकम्मगतिं चारेयव्वाणि / जस्सणं भंते! तेयगसरीरं, तस्स कम्मगसरीरं, जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयगसरीरं? गोयमा ! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं णियमा अत्थि,जस्स वि कम्मगसरीरं तस्स वि | तेयगसरीरं णियमा अत्थि। (सू०२७६) 'रालियसरीररस भतः' इत्यादि, ओदारिकशरीरस्य / मिति वाययालङ्कार, भदन्त ! कई दिसि इति पशभ्यर्थे द्वितीया पहुंचने चैकवचनं प्राकृतत्वात, ततोऽयमर्थः-कतिभ्यो दिन्यः समागत्य पुद्गलाश्चीयन्न, कर्मकर्तर्यय प्रयोगः, स्वय चयनमागच्छन्तीत्यर्थः / भगवानाह-'नेयाघातेनव्याघातस्याभावो निर्व्याघातमव्ययीभावः तेन वा तृतीयाय' इति विकल्पनाम्विधानान्नात्रामभावः 'छरिसिं' तिपड़भ्यो दिग्भ्यः / किनुक्त भवति? यत्र रानाड्या मध्ये हिर्क व्यवस्थितर यादारिकशरीरिणो नेकापि दिग् अलोकन व्याहला धर्तले सत्र नियघि ते व्यवस्थितस्य नियमात षड्भ्यो दिग्भ्यः पुद्रलानामागमन व्यापातम् अलोकेन प्रतिस्खलन प्रतीत्य 'सिय तिदिसि ति-स्यात्कदाचित्तिसभ्यो दिग्भ्यः स्याचतसृभ्यः स्यात् पञ्चभ्यः, कथमिति चेत्? उच्यते-सूक्ष्मजीवस्यौदारिकशरीरिणो यत्रोचं लोकाकाशं न विद्यते नापि तिर्यक पूर्वदिशि नापि दक्षिणदिशि तस्मिन रातोंर्ध्व प्रतरे आग्रेयकोण रूप लोकान्त व्यवस्थितस्याधः पश्चिमोत्तर-रूपान्यस्तिसभ्या दिग्भ्यः पुद्गलापचयः, शेषदिकत्रयस्यालोकेनव्याप्तत्वात, पुनः स एव सूक्ष्मजीव ओदारिकशरीरी पश्चिमां दिशमनुसृत्य तिष्ठति तदा पूर्वदिगस्याधिका जातेति चतसृभ्यो दिग्भ्यः पुगलानामागमनम् / यदा पुनरधो द्वितीयादिप्रतरे गतः पश्चिमदिशमवलम्च्य तिष्ठति तदा ऊर्ध्वदिगप्यधिका लभ्यते केवला दक्षिणैव दिगलोकेन व्याहतेति पञ्चभ्या दिग्भ्यः युगलानामागमन, वैक्रियशरीरमाहारकशरीर च सनाढ्या मध्य एव सम्भवति नान्यति तयोरपि पुद्गलचयो नियमात् पड्भ्यो दिग्भ्यः। तंजस-काणे सर्वसंसारिणा ततो यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन षड्भ्यो दिग्न्यो व्याघातं प्रतीत्य पुनः स्यात् त्रिदिग्भ्यः स्याचतुर्दिग्भ्यः स्यात् पश्चदिग्भ्यः तथा तेजसकार्मणयोरपि द्रष्टव्यः / यथा चयस्तथा उपचयोऽपचयश्च वक्तव्यः / तत्र उपचयः -प्राभूत्येन चयः अपचयोहासः शरीरभ्यः पगलानां विचटनमिति यावत्। उक्त युगलचयनम् / इदानीं शरीरसंयोगमाह- 'जस्स ण भंते !' इत्यादि यस्यौदारिकं तस्य वैक्रिय स्यादस्ति स्यान्नास्ति / य औदारिकशरीरी सन वैक्रियलब्धिमान पंक्रियमारभ्य तत्र वर्तते तस्यास्ति, शेषस्य नास्तीति भावः / यस्य वैक्रियशरीरं तस्यौदारिकशरीरं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, देवनारकाणा वैक्रियशरीरवतामोदारिकशरीरं नास्ति, तिर्यग्मनुष्याणां तु वैक्रियशरीरवलामरतीति भावार्थः, आहारकशरीरेणापि राह चिन्तायां यस्यौदारिकशरीर तस्याहारकशरीरं रयादस्ति स्यान्नास्ति, य औदारिकशरीरी पत्शपूर आहारकलब्धिमान आहारकशरीरमारभ्य वर्तते तरयास्ति शेषस्य नारतीत्यर्थः / यस्य पुनराहारकशरीरं तस्यौदारिकशरीरं नियमादस्ति, औदारिकशरीरविरहे आहारक्तलब्धे रप्यसम्मधात्। तेजसशरीरण राह चिन्तायां यस्यौयदारिकशरीरं तस्य नियमात्तै जसशरीर, तेजराशरीरविरहे औदारिकशरीसराम्भ पात्।यस्य पुनस्तेजराशरीरं तस्योपारिक स्यादस्ति स्यान्नारित, देवनैरयिकाणा नास्ति तिर्थमनुष्यामरतीति भावः / एवं कार्मणशरीरेणापि सह चिन्ता कर्तव्या, जसकामणकाः सहचारित्वात् / / सम्प्रति वैक्रियशरीरस्याहारकशरीरादिभिः सह संयोगचिन्ता कुर्वन्नाह-'जरस भंते !' इत्यादि, यस्य वैक्रियशरीरं न तस्याहारकशरीरं यस्याहारकशरीरं न तस्य वैक्रियशरीर, समकालमनयारेकस्यासम्भवात, तेजसकार्मणे यथौदारिकशरीरेण सह चिन्तिते तथा वैक्रियशरीरेणापि सह चिन्तयितव्ये, आहारकशरीरेणापि सह तथैव / तेजसकार्मणयोस्तु परस्परमविनाभावित्वात, यस्य तेजसतस्य नियमात कार्मण यस्य कार्मणं तस्य नियमात तेजसम्। गत संयोगद्वारम्। (16) इदानीं द्रव्यप्रदेशोभयैरल्पबहुत्वमभिधित्सुराहएतेसिणं भंते ! ओरालियवेउव्वियआहारगतेयगकम्मगसरीराणं दव्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दव्वट्ठपएसट्ठयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा आहारगसरीरादध्वट्ठयाते वेउव्वियसरीरा दव्वट्ठयाए अ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 552 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर संखेजगुणा, ओरालियसरीरा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा तेयाकम्मगसरीरा दो वि तुल्ला दव्वट्ठयाते अणंतगुणा, पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा आहारगसरीरा पदेसड्ढयाए वेउव्वियसरीरा पदेसट्ठयाए असंखेजगुणा, ओरालियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, तेयगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, कम्मगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, दवट्ठपदेसट्ठयाए सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दव्वट्ठयाते वेउव्वियसरीरा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा / ओरालियसरीरा दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा ओरालियसरीरेहिंतो दव्वट्ठयाएहितो आहारगसरीरा पदेसट्ठयाए अणंतगुणा वेउव्वियसरीरा पदे सट्टयाए असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरा पदे सट्टयाए असंखेज्जगुणा / तेयाकम्मा दो वि तुल्ला दव्वट्ठयाए अणंतगुणा, तेयगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, कम्मगसरीरा पदेसट्ठयाए अणंतगुणा। (सू०२७७) एतेसिणं भंते ! ओरालियवेउव्वियआहारगते यगक म्मगसरीराणं जहणियाए ओगाहणाए उक्कोसियाए ओगाहणाए जहण्णुक्कोसियाए ओगाहणाए कतरे कतरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, तेयाकम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसेसिया वे उव्वियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा, आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा, उक्कोसियाए ओगाहणाए सव्वत्थोवा आहारगसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा ओरालियसरीरस्स उक्को सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा, वेउव्वियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखेजगुणा, ते याकम्मगाणं दो वि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा, जहण्णुक्कोसियाते ओगाहणाते सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा तेयाकम्माणं दोण्ह वि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसेसिया वेउव्वियसरीरस्स जह-णिया ओगाहणा असंखेजगुणा। आहारगसरीरस्स जहणियाहिंतो ओगाहणाहिंतो तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा विसेसिया, ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखेज्जगुणा, वेउव्वियसरीरस्स णं उक्कोसिया ओगाहणा संखेजगुणा, तेयाकम्माणं दोण्ह वितुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखिज्जगुणा। (सू०२७८) 'रसिक भते!' इत्यादि, सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि द्रव्यार्थतया, शरीरमात्रद्रव्यसंख्यया इत्यर्थः, उत्कृष्टपदंऽपि तेषां सहस्रपृथक्त्वस्य प्राप्यमाण वात, 'उकोसेण उ जुगवं पुहुतमेत्तं सहस्साण' मिति वचनात् नभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि, सर्वेषां नरपि काणां सर्वेषां च देवानां कतिपयतिर्यपञ्चेन्द्रियमनुष्यबादरवायुकायिकाना च वैक्रियशरीरसम्भवात्, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणानि, पृथिव्यतेजोवायुवनस्पति-द्वित्रिचतुरिन्द्रियतिर्यक्पक्षेन्द्रियमनुष्याणामौदारिकशरीरभावात, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिशरीराणां च प्रत्यकमसंख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वात, तेभ्योऽपि तजसकार्मणशरीराणि द्रव्यार्थतयाऽनन्तगुणानीति, सूक्ष्मबादरनिगोदजीवानागनन्तानन्तानां प्रत्येक तैजसकार्मणशरीरभावात्, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यानि, परस्पराविनाभाक्त्विादेकस्याभावऽन्यस्याप्यभावात् / प्रदेशार्थचिन्तायां सर्वस्तोकान्याहारकशरीराणि सहरम्पृथक्त्वमात्रशरीरप्रदेशानामल्पत्वाल, तेभ्योऽपि वैक्रियशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि / इह यद्यपि वैक्रियशरीरयोग्यवर्गणाभ्यः आहारकशरीरवर्गणाः परमाण्वपेक्षया अनन्तगुणास्तथापि स्तोकाभिर्वर्गणाभिराहारकशरीरं निष्पद्यते हस्तमात्रत्वादतिप्रभूताभिक्रियशरीरवर्गणाभिक्रियम् उत्कर्षतः सातिरेकलक्षयोजनप्रमाणत्वात्, अतिस्तोकानि याहारकशरीराणि सहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् अतिप्रभूतानि वैक्रियशरीराणि असंख्येयश्रेणिगताकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् तत उपपद्यन्त आहारकशरीरेभ्यः प्रदेशार्थतया वैक्रियशरीराण्यसंख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्ययगुणानि, असंख्येयलोकाकाशप्रदेश-प्रमाणतया तेषां लभ्यमानत्वेन तत्प्रदेशानामतिप्रभूताना सम्भवात, तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, द्रव्यार्थतयाऽपि तेभ्यस्तेषामनन्तगुणत्वात, तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतया अनन्तगुणानि, तैजसवर्गणाभ्यः कार्मणवर्गणानां परमाण्वपेक्षयाऽनन्तगुणत्वात् / द्रव्यार्थप्रदेशार्थचिन्तायां 'सव्वत्थोवा आहारगसरीरा दवट्टयाए वेउब्वियसरीरा दव्यद्वयाए असखेजगुणा ओरालियसरीरा दव्वट्टयाए असंखेजगुणा इत्यत्र भावना प्रागुक्ताऽनुसर्त्तव्या, तेभ्यो द्रव्यार्थतयौदारिकशरीरेभ्य आहारकशरी-- राणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, औदारिकशरीराणि सर्वसंख्ययाऽप्यसंख्येयलोकाशप्रदेशप्रमाणानि, आहारकशरीरयोग्यवर्गणायां त्वेककरयामप्यभव्येभ्योऽनन्तगुणाः परमाणव इति, तेभ्योऽपि वैक्रियशरी-राणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि, तेभ्योऽप्यौदारिकशरीराणि प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणानि / अत्र भावना प्रागेव कृता, तेभ्योऽपि तेजस्कार्मणाने द्रव्यार्थतया अनन्तगुणानि अतिप्रभूतानन्तसंख्यो-पेतत्वात्, तेभ्योऽपि तैजसशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि, अनन्तपरमाण्वात्मिकाभिरनन्ताभि (वर्ग-णाभि) रेकैकस्य तैजस-शरीरस्य निष्पाद्यत्वात, तेभ्योऽपि कार्मणशरीराणि प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणानि / अत्र कारणं प्रागेवोक्तम् / तदेवं पशानामपि शरीराणां द्रव्यप्रदेशो भयेरल्पवहुत्वमुक्तम् / / इदानीं जघन्योत्कृष्टोभयावगाहनाविषयमल्पबहुत्वमाह- 'एएसि / ' मित्यादि रावस्तीका औदारिकशरीरस्य जघन्याऽवगाहना, अडगुला Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 553 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर संख्येयभागमात्रमाणत्वात्, तैजसकार्मणयोर्जघन्यावगाहना द्वयोरपि | परस्परं तुल्या। औदारिकजधन्यावगाहनातौ विशेषाधिका / कथमिति चत? उच्यते-इह मारणान्तिकसमुद्घातेन समवहतस्य पूर्वशरीरात यदहिर्विनिर्गतं तैजसशरीर तस्याऽऽयाम-बाहल्यविस्तारैरवगाहना चिन्त्यते इत्युक्तं प्राक्, तत्र यस्मिन् प्रदेशे उत्पत्स्यन्ते सोऽपि प्रदेश आदारिकशरीरावगाहनाप्रमितोऽगुलासंख्येयभागप्रमाणो व्याप्तः, यदप्यपान्तरालमतिस्तोक तदपि व्याप्तमित्यौदारिकजघन्यावगाहनाता विशेषाधिका, त्तोऽपि वक्रियशरीरस्य जघन्यावगाहना असंख्येयगुणा, अडगुलासंख्ययभागस्यासंख्येयभेदभिन्नत्वात ततोऽप्याहारक - शरीरस्य जघन्यावगाहनाऽसंख्येयगुणा, देशोनहस्तप्रमाणत्वात् / उत्कृष्टावगाहनाचिन्तायां सर्वस्तोका आहारकशरीरस्योत्कृष्टाऽवगाहना हस्तमात्रत्वात, ततोऽप्यौदारिकशरीरस्य उत्कृष्टावगाहना संख्येयगुणा, सातिरेकयोजनसस्रप्रमाणत्यात्, ततोऽपि वैक्रियशरीरस्योत्कृष्ठावगाहना संख्येयगुणा, सातिरेकयो जनलक्षमानत्वात, तैजसकार्मणयोरुत्कृष्टावगाहना द्वयोरपि परस्परं तुल्या वक्रियशरीरोत्कृष्टावगाहनातोऽसंख्येयगुणा, चतुर्दशरज्ज्वात्मकत्वात, जघन्योत्कृष्टावगाहनाचिन्तायाम्-आहारकशरीरस्य 'जहण्णि-याहिंतो ओगाहणाहिंता तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा विसेसा-हिया' इति, दशन समधिकत्वात् शेष सुगमम्, अनन्तरमेव भावितत्वात्। प्रज्ञा० 21 पद। (अल्पबहुत्वम् ‘अप्पाबहुय' शब्द प्रथमभागे 271 पृष्ठे, गतम।) (शरीरमेवात्मेति 'तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण)शब्दे चतुर्थभागे 2172 पृष्ठ उक्तम्।) (शरीरमाश्रित्याहारकत्वानाहारकत्वचिन्तनम् 'आहार' शब्द द्वितीयभागे 515 पृष्ठे गतम्।) (20) नैरयिकादीनां शरीरोत्पत्तिःणेरइयाणं चउहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिता, तं जहा-कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं, एवं०जाव वेमाणियाणं णेरइयाणं चउहिं ठाणेहिं निव्वत्तिते सरीरे पण्णत्ते,तं जहा-कोहनिव्वत्तिए०जाव लोभनिव्वत्तिए, एवं०जाव वेमाणियाणं ! (सू०३७१) शरीरस्योन्पत्तिनिवृत्तिसूत्राणा दण्डकद्वयं, कण्ट्यं चैतत्, नवर क्रोधादयः कर्मबन्धहेतवः, कर्म च शरीरोत्पत्तिकारणमिति कारणकारणे कारणोपचारात् क्रोधादयः शरीरोत्पत्तिनिमित्त निमित्ततया व्यपदिश्यन्त इति। 'चउहिं ठाणेहिं सरीरे' त्याद्युक्तम्, क्रोधादिजन्यकर्मनिवर्तितत्वात् क्रोधादिभिर्निर्वर्तितं शरीरमित्युपदिष्टम्, इह चोत्पत्तिरारम्भमात्र, निवृत्तिस्तु निष्पत्तिरिति / स्था०४ ठा०४ उ०। 21) शरीराधिकारात् शरीरोत्पत्तिं दण्डकेन निरूपयन्नाहनेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया,तं जहा-रागेणं चेव, दोसेण चेव०जाव वेमाणियाणं, नेरइयाणं दुट्ठाण-निव्वत्तिए, सरीरगे पण्णत्ते, तं जहा-रागनिव्वत्तिए चेव, दोस-निव्वत्तिए चेव०जाव वेमाणियाणं / (सू०७५४) ‘नेरइयाण' मित्यादि, कण्ठ्यं, किन्तु या रागद्वेषजनितकर्मणा शरीरोत्पत्तिः सा रागद्वेषाभ्यामेवेति व्यपदिश्यते. कार्ये कारणोपवारादिति, 'जाव वेमाणियाण' ति दण्डकः सूचितः / शरीराधिकाराच्छरीरनिवर्त्तनसूत्र, तदप्येवं; नवरमुत्पत्तिः आरम्भमात्र निर्वर्तना तु निष्ठानयनमिति ! स्था० 2 ठा०१ उ०। (केषां शरीराणां कतिविध करणमित्युक्तम् 'करण' शब्दे तृतीयभागे 360 पृष्ठे / ) (शरीरतया द्रव्यगहाणं 'दव्य' शब्दे चतुर्थभागे 2464 पृष्ठ गतम्।) ('जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1526 पृष्ठे सुरा नैरयिकाश्च तिसृषु शरीरेषु वर्तन्ते इत्युक्तम।) (22) लोकश्च शरीरिशरीराणां सर्वत आश्रयस्वरूप इति नारकादिशरीरिदण्डकेन शरीरप्ररूपणायाहणेरइयाणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-अब्भतरगे चेव, बाहिरगे चेव / अब्भतरए कम्मए, बाहिरए वेउदिवए / एवं देवाणं भाणियव्यं / पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाअभंतरगे चेव, बाहिरगे चैव / अब्भं-तरगे कम्मए, बाहिरगे ओरालियगे, जाव वणस्सइका-इयाणं / बेइंदियाणं दो सरीरा पण्णत्ता, तं जहा-अब्भंतरए चेव, बाहिरए चेव / अब्भंतरगे कम्मए, अद्विमंससोणितबद्धे, बाहिरए, ओरालिए ०जाव चउरिदियाणं / पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-अब्भंतरगे चेव, बाहिरगे चेव / अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणियण्हारुछिराबद्धे, बाहिरए ओरालिए। मणुस्साण वि एवं चेव / विग्गहगइसमावन्नगाणं नेरइ-याणं दो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-तेयए चेव, कम्मए चेव / निरंतरं०-जाव वेमणियाणं। (सू०७५४) 'णेरइयाण' मित्यादि, प्रायः कण्ठ्यं नवरं शीर्यतेअनुक्षणं चयापचयाभ्यां विनश्यतीति शरीरं तदेव शटनादिधर्मतयाऽनुकम्पितत्वात् शरीरक ते च द्वे प्रज्ञप्ते जिनः, अभ्यन्तः-मध्ये भवमाभ्यन्तरम्, अभ्यन्तरत्व च तस्य जीवप्रदेशः सह क्षीरनीरन्यायेन लोलीभवनात्। भवान्तरगतावपिच जीवस्यानुगतिप्रधानत्वादपवरकाद्यन्तःप्रविष्टपुरुषवदनतिशायनामप्रत्यक्षत्वाचेति, तथा बहिर्भवं बाह्यम्, बाह्यता चास्य जीवप्रदेशः कस्यापि केषुचिदवयवेष्वव्याप्तेर्भवान्तराननुयायित्वान्निरतिशयानामपि प्रायः प्रत्यक्षत्वाचेति। तत्राभ्यन्तरं 'कम्मए' त्ति-कार्मणशरीरनामकर्मोदयनिवयमशेषकर्मणां प्ररोहभूमिराधारभूतम्, तथा संसार्यात्मानां गत्यन्तररांक्रमणे साधकतम तत् कार्मणवर्गणास्वरूपम्, कर्मव कर्मकमिति, कर्मकग्रहणे च तेजसमपि गृहीतं द्रष्टव्यम्, तयोरव्यभिचारित्वेनैकत्वस्य विवक्षितत्वादिति। एवं देवाण भावियव्वं' ति-अयमों-यथा नैरयिकाणां शरीरद्वयं भणितमेवं देवानाम् असुरादीनां वैमानिकान्तानां भणितत्यम्, कार्मण-वैक्रिययोरेवतेषां भावात्, चतुर्विशतिदण्डकस्य च विवक्षि Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 554 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर तत्वादिति / 'पुढवी त्यादि, पृथिव्यादीनां तु बाह्यमौदारिकमऔदारिकशरीरनामकर्णोदयादुदारपुद्गलनिर्वृत्तमौदारिक कवलमे - के न्द्रियाणामस्थ्यादिविरहितम् वायूनां वैक्रियं यत्तन्न विवक्षित प्रायिकत्वात् तस्येति / 'बेइंदियाण' मित्यादि, अस्थिमांसशोणितेर्बद्धनद्धंयत्तत्तथा, द्वीन्द्रियादीनामौदारिकत्वेऽपि शरीरस्यायं विशेषः / 'पचंदिए' इत्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्थड्मनुष्याणा पुनरयं विशेषो यदस्थिमांसशोणितस्नायुशिराबवमिति। अस्थ्यादयस्तु प्रतीता इति, प्रकारान्तरेण चतुर्विशतदण्डकेन शरीरप्ररूपणामेवाह 'विगहे' त्यादि, विग्रहगतिः-वक्रगतिर्यदा विश्रेणिव्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं गन्तव्यं भवति तदा या स्यात्ता समापन्ना विग्रहगति-समापन्नास्तेषां द्वे शरीरे, इह तैजसकार्मणयोर्भेदन विवक्षेति, एवं दण्डकः शरीराधिकारात्। रथा०२ डा०१ उ०ा अनुग (23) शरीरबन्धनप्रकार:नेरइयाणं तओ सरीरगा पण्णता, तं जहा-वेउव्विते तेयए कम्मए। असुरकुमाराणं तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-एवं चेव, एवं सटवेसिं देवाणं, पुढवीकाइयाणं ततो सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिते तेयए कम्मते, एवं वाउकाइयवज्जाणं जाव चउरिदियाणं / (सू०२०७) 'नरइयाण मित्यादि, दण्डकः कण्ठ्यः , किन्तु एवं 'सव्वदेव्याणं तियथा असुराणां त्रीणि शरीराणि एवं नागकुमारादिभवनपति - व्यन्तरज्यातिष्कवैमानिकानाम,' 'एवं वाउकाइयवजाण' ति-वायुना हि आहारकवर्जानि चत्वारि शरीराणीति तद्वर्जनमवं पञ्चेन्द्रियतिरवामपि चत्वारि मनुष्याणां तु पञ्चापीति त इह न दर्शिताः स्था०३ ठा० 4 उ०। (24) शरीरानेमागस्वरूप तत्र नाड्यादिसंख्यां शरी साक्षशा दर्शयतीत्याहआउसो ! जंपि य इमं सरीरं इ8 कंतं पियं मणुन्नं मणा-मं मणभिरामं थिज्जं वेसासियं संमयं बहुमयं अणुमयं भंडकरंडगसमाणं रयणकरंडओ विव सुसंगोवियं चेलपेडा विव सुसंपरिवुडं तिल्लपेडा विव सुसंगोवियं मा णं उण्हं मा णं सीयं मा णं वाला मा णं खुहा मा णं पिबासा मा णं चोरा मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तिय-संनिवाइयविविहा रोगायंका फु संति त्ति कटु एवं पियाई अधुवं अनिययं असासयं चयावचइयं विप्पणासधम्मंपच्छाव पुराव अवस्स विप्पचइयव्वं / एयस्स वि याई आउसो ! आणुपुव्वेणं अट्ठारस य पिट्ठकरंडगसंधीओ बारस पंसलिया करंडा छप्पंसलिए कडाहे विहत्थिया कुच्छी चउरंगुलिया गीवा चउपलिया जिब्भा दुप्पलियाणि अच्छीणि चउकवालं सिरं वत्तीमं दंता सत्तंगुलिया जीहा अद्भुट्ठपलियं हिययं पणवीसं पलाई कालिजं दो अंता पंच वामा पण्णत्ता, तं जहा-थूलंते य तणुयंते या तत्थ णं जे से थूलते ते णं उच्चारे परिणमइ, तत्थ णं जे से तणुयंते ते णं पासवणे परिणमइ। दो पासा पण्णत्ता, तं जहा-वामे पासे य, दाहिणे पासे या तत्थणं जे से वामे पासे से सुहपरिणामे, तत्थ णं जे से दाहिणे पासे से दुहपरिणामे। आउसो ! इमम्मि सरीरए सट्ठि संघिसयं सत्तुत्तरं धम्मसयं तिन्नि अट्ठ दामसयाई नव ण्हारुसयाई सत्त सिरासयाई पंच पेसीसयाइं नव धमणीओ नवनउई च रोमकू वसयसहस्साई विणा के समंसुणा सह केसमंसुणा अद्भुट्ठाओ रोमकूवकोडीओ आउसो ! इमम्मि सरीरए सर्टि सिरासयं नाभिप्पभवाणं उड्डगामिणीणं सिरमुवगयाणं जाओ रसहरणीओ त्ति वुच्चंति, जाणंसि निरुवघाएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं च भवइ, जाणं सि उवघाएणं चक्खुसोयघाणजीहाबलं उवहम्मइ। आउसो ! इमम्मि सरीरए सट्ठिसिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीणं पायतलमुवगयाणं जाणं सि निरुवधाएणं जंघाबलं भवइ, ताणं चेव से उवघाएणं सीसवेयणा अद्धसीसवेयणा मत्थससूले अच्छीणि अंधिजंति।। (सू०२४) 'आउसो ! ज' इत्याद्यालापकसूत्रम्, हे आयुष्मन् ! य :पि च इदं शरीरंवपुः इटम इच्छाविषयत्वात् कान्तं कमनीयत्वात् प्रिय प्रेमनिबन्धनन्त्वात् मनसा ज्ञायतेउपादीयते इति मनोज्ञम मनसा अम्यते गम्यत इति मनोमं मनसोऽभिरामं मनोभिरामं सनत्कुमारचक्रिवत् स्थैर्य स्थैर्यगुणयोगात् वैश्वासिकं-विश्वासस्थानं संमतं तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् बहुमत बहुष्वपि कार्येषु बहुर्वाऽनल्प-तयाऽस्तोकतया मतं बहुमतं अनु विप्रियकरणात् पश्चान्मतमनुमतं भण्डकरण्डकसमानम्आभारणभाजनतुल्यमादेयमित्यर्थः / रत्नकरण्डक इव सुसंगोपित वस्त्रादिभिः चेलपेटेववस्त्रमज्जूषेव सुष्ठुसंपरिवृतं निरुपद्रवेस्थाने निवेशित गृहस्थावस्थास्थशालिभद्रवपुर्वत्, तैलपेटेवतैलगोलिकेव सुसंगो-पित भङ्ग भयात् 'तेल्ल-केला इव सुसंगोविय' ति-पाठान्तरं तैलकेला-तैलाश्रयो भाजनविशेषः-सौराष्ट्रप्रसिद्धः सा च सुष्टुसंगोप्या संगोपनीया भवत्यन्यथा लुठति ततश्च हानिः स्यादिति, सूत्रेणैव हेतून दर्शय-तीत्या' - 'मा ' गाशब्दो निषेधार्थः, णं वाक्यालङ्कार।अथवा-'माण' ति मा इदं शरीरमिति व्याख्येयम्, ततः सर्वेऽपि उष्णादयो मा स्पृशन्तु छुपन्तु, भवन्त्यित्यर्थः 'ति कटु' इति कृत्वा, अथवा-इत्यभिसंधाय पालितमिति शेषः, तत्रोष्मत्वं ग्रीष्मादावुष्णत्वं शीतशीतकाले शीतत्वं व्यालाः-स्वापदाः सप्र्पा वा क्षुधाबुभुक्षा पिपासातृषा चौरानिशाचराः दंशाः-मशकाः एते विकर नेन्द्रियज Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 555 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर न्तुविशेषाः, वातिकपत्तिकश्लैष्मिकसांनिपातिका विविधाः रोग्यतङ्काः रोगा:-कालसहा व्याधयः आतङ्कास्ते एव सद्योघातिनः ‘एवं पियाई / ति-एवम्-उक्तप्रकारेण अपि चेति अभ्युच्चये, 'आइंति-वावयालङ्कार, इदं शरीरं न एवम् अधुवं सूर्योदरावन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यंभागि, अनियतं सुरूपादेरपि कुरूपादिदशनात् हरितिलकराजसुततिक्रमकुमारशरीरवत अशाश्वत क्षण क्षण प्रति विनश्वरत्वात् सनत्कुमारशरीरवत, चावचइयं ति-इष्टाहारोपभोगतया धृत्युपष्टम्भादौदारिकवर्गणापरमाणूपचयाच्चयः तदभावे तद्विचटनादपचयः चयापचयो विद्यते यस्य तचयापचयिक: पुष्टिगलनस्वभावमित्यर्थः / करकण्डूप्रत्यकबुद्धवैराग्यह-तुवृषभशरीरवत, विप्रणाशी-विनश्वरो धर्मःस्वभावो यस्य तद विप्रणाशधर्भम् ‘पच्छा व त्ति-पश्चाद्विवक्षितकालात् परतः 'पुरा थ' नि-विवक्षितकालात् पूर्वञ्च, यद्वा-पच्छा पुरा य त्ति पाठे तु विवक्षितकालस्य पश्चात्पूर्वं च, सर्वदैवेत्यर्थः, अवश्यम् विप्पचइयव्यं, तिविप्रत्यक्तव्य: त्याज्यमित्यर्थः / एयस्स वियाई ति-एतस्य एतस्मिन्नपि च वा वपुषः वपुषि मा 'आई' ति-वाक्यालंकारे 'आउसो' हे आयुष्मन ! आनुपा-अनुक्रमेण अष्टादशपृष्टिकर - ण्डकस्य-पृष्ठिवशस्य संधयी ग्रन्थिरूपा भवन्ति, यथा वं शस्य पब्वाणि तेषु चाष्टादशसु सन्धिषु मा मादशभ्यः सनिधभ्या द्वादश पाशुलका निर्गत्योभयपाश्वा वावृत्त्य वक्षःस्थलमध्योर्ध्ववर्त्य-स्थीनि लगित्वा पलकाकारतया परिणमन्ति, अत आह- हारस० शरीरे द्वादश पांशुलिकारूपाः करण्डका-वंशका भवन्ति, तथा 'छप्पंसु०' तस्मिन्नेव पृष्ठिवशे शेषषट्सधिभ्यः षट् पाशुलिका नित्य पार्श्वद्वयमावृत्य हृदयस्योभयतो वक्षः पञ्जरादधस्ताच्छिथिलकुक्षेस्तूपरिात्परस्परासमिलितास्तिष्ठन्ति / अयं च कटाह इत्युच्यत द्वे वितस्ती कुक्षिर्भवति चतुरङ्गुलप्रमाणा ग्रीवा भवति, जौल्येन- मगधदेशप्रसिद्धपलेन चत्वारि पलानि जिह्वा भवति, अक्षिमा - सगोलको द्वे पले भवतः, चतुर्भिः कपालैरस्थिखण्डरूपैः शिरो भवति, भुखेऽशुचिपूर्ण प्रायो द्वात्रिंशद्दन्ता-अस्थिखण्डानि भवन्ति, 'सत्तंगु०' जिला-मुरखान्यन्तरवर्तिमासखण्डरूपा दैध्ये-णात्मागुलतः सप्ताडगुला भवति, 'अट्ट हृदयान्तरवर्तिमां-सखण्ड सार्द्धपलत्रयं भवति, 'पणवि' का लेज, वक्षोऽन्तYढ-मांसविशेषरूपं पशविंशतिः पलानि स्युः,द्वे अन्त्र प्रत्येकं पञ्चपश्चवामप्रमाणे प्रज्ञप्ते जिनैः, तद्यथा-स्थूलान्न तन्वन्त्रं (च)। तत्र यत् स्थूलान्त्रतेनोचारः परिणमति, तत्र च यत्तन्यन्त्र सन प्रश्रवणं-मुत्रं परिणमति, 'दो पा' द्वे पार्श्वे प्रज्ञप्ते,तद्यथा-वामपार्श्व,दक्षिणपार्श्व च / तत्र तयोर्मध्ये यत् वामपाय तत् शुभपरिणाम भवति। तत्र च यत दक्षिणपार्श्वतद दुःखपरिणाम भवति। तथा 'आउसो' हे आयुष्मन! अस्मिन शरीरे षष्टिः संधिशतं ज्ञातव्यं, तत्र संधयःअडगुलाद्यस्थिखण्डमेलापकस्थानानि 'सत्तुरे' सप्तोत्तर-मर्मशत भवति, तत्र-मम्माणि शतानि कावियरकादीनि तिन्नि त्रीणि अस्थि दामशतानि हलमालाशतानि भवन्ति नव न्हारुय सयाई ति-स्नायूनाम्- | अस्थिबन्धनशिराणा नव शतानि 'सत्त०' सप्त शिराशतानि-स्नसाशतानि, पञ्च पेसीशतानि 'नव ध०' नव धमन्यो रवसहनाड्यः 'नव०' नवनवति, रोगधे शतसहस्राणि रोम्णांतनूरुहाणां कूपा इव कूपा रोमकूपाः रोभर धाणीत्यार्थः तेषां नवनवतिर्लक्ष इति विना केशश्मश्रुभिः, केशश्मश्रुभिः सह पुनः सा स्तिस्रो रोमकूपकोट्यो भवन्ति मनुष्यशरीर इति / अथ पूर्वोक्तानि शिरासप्तशतानि कथं भवन्ति इति सूत्रेणेवाहआयुसो० ! हे आयुष्मन् ! शरीरे 'सट्टि' इह पुरुषशरीरे नाभिप्रभवाणि शिराणां रनसाना सप्त शतानि भवन्ति, तत्र षष्ट्यधिकं शतं शिराणां नाभिप्रमाणाम ऊध्र्वगागिनीना शिरस्युपागतानां भवन्ति, यास्तु राहरिण्य इत्युच्यन्ते जाणंसि त्ति यासामूर्ध्वगामिनीनां शिराणां 'स' तरय जीवस्य निरूपघाते-नानुग्रहणे चक्षुः १श्रोत्र रघ्राणं ३जिला बलं व भवति, यारा'स तस्रा उपघातेन-विघातेन चक्षु श्रोत्रघ्राणजिवाबलमुपहन्यते। तथा 'आउसो' 0 हे आयुष्मन् ! अस्मिन् शरीरे षष्ट्याधिक शत 160 शिराणां नाभिप्रभावणा; आभे रुत्पन्नानामित्यर्थः / अधोगामिनीनां पादतल उपगताना प्राप्ताना भवति यासां निरुपघातेन जहावलं भवति तासा चैव 'स' तस्य जीवस्य उपधातन विकारप्राप्तेन शीर्षवदनासर्वम-स्तकपीडा अर्द्धशीर्षवेदना मस्तकशूलं च भवति अग्छिणि, त्ति-अक्षिणीलोचने 'अंधिजंति' त्ति-अन्धीभवत इत्यर्थः / आउसो ! इमम्मि सरीरए सट्ठिसिरासयं नाभिप्पभवाणं तिरियगामिणीणं हत्थतलमुवगयाणं जाणं सिनिरुघवाएणं बाहुबलं हवइ ताणं चेव से उवघाएणं पासवेयणा पुट्टिवेयणा कुच्छिवेयणा कुच्छिसूलं हवइ / आउसो ! इमस्स जंतुस्स सट्ठिसिरासयं नाभिप्पभवाणं अहोगामिणीणं गुदपविट्ठाणं जाणं सि निरुवघाएणं मुत्तपुरीसावाउकम्मं पवत्तइ ताणं चेव उवघाएणं मुत्तपुरीसावाउनिरोहेणं अरिसा खुब्भंति पंडुरोगो भवइ / आउसो ! इमस्स जंतुस्स पणवीसं सिराओ पित्तधारिणीओ सिंभधारिणीओ दस सिराओ सुक्कधारिणीओ सत्त सिरासयाइ पुरिसस्स तीसूणाई इत्थियाए वीसुणाई पंडगस्स, आउसो ! इमस्स जंतुस्स रुहिरस्स आढयं वसाए अद्धाढयं मत्थुलिंगस्स पत्थो मुत्तस्स आढयं पुरीसस्स पत्थो पित्तस्स कुडओ सिंभस्स कुडवो सुक्कस्स अद्धकुडवो जं जाहे दुटुं भवइ तं ताहे अइप्पमाणं भवइ, पंचकोटे पुरिसे छकोट्ठा इत्थिया नवसोए पुरिसे इक्कारससोया इत्थीया, पंचपेसीसयाई पुरिसस्स तीसूणाई इत्थीयाए वीसूणाई पंडगस्स। (सू०१६) तथा 'आउसी०!' हे आयुष्मन् अस्मिन् प्रत्यक्षे शरीरे षष्ट्यधिकं शतं शिराणां नाभिप्रभवाणां तिर्यग्गामिनीनां हस्ततले उपागतानां भवति यासा निरुपघातेन-निरुपद्रवेण बाहुबलं भवति, तासां चैव से तस्य उपधातेन-उपद्रवेण पार्श्ववेदना पृष्ठिवेदना कुक्षिवेदना कुक्षिशूलं च भवति, तथा 'आउसो०' हे आयुष्मन्! अस्य-जन्तोः षष्ट्यधिक शत तस्य पाठवेदना कुक्षिवेट * तथा आउसो Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर शिराणां नाभिप्रभवाणाम् अधोगामिनीनां गुदं प्रविष्टानां भवति, यासां निरुपघातेनोपद्रवाभावेन मूत्रपुरीषवातकम्म प्रश्रवणकर्म विष्ठाकर्म वायुकर्म प्रवर्त्तते, मूत्रादिकं सुखेन कर्तुं शक्यत इत्यर्थः, तासां चैव गुदप्रविष्टशिराणामुपघातेन मूत्रपुरीषवातनि-रोधी भवति, निराधेन असि गुदाइकुरा 'हरस' इति लोकाक्तिः क्षुभ्यन्ति-क्षोभं यान्ति; परमपीडाकरं रुधिरं मुञ्चन्तीत्यर्थः भव-भावनोक्तकालर्षिवत पाण्डुरोगश्च भवति, तथा 'आउसो०' हे आयुष्मन! अस्य जन्तोः पञ्चविंशतिः शिराः 'सिंभधारिणि' त्ति-श्लेष्मधारिण्यो भवन्ति, 'पंच० पञ्चविंशतिः शिराः पित्तधा-रिण्यः, दश शिराः शुक्रधारिण्यः, 'सत्त सि०' पुरुषस्योक्तप्रका-रेण सप्तशिराशतानि भवन्ति, कथं? शरीर ऊर्ध्व गामिन्यः 160 अधोगामिन्यः 160 तिर्यगगामिन्यः 160 अधोगामिन्यो गुदप्र-विष्टाः 160 श्लेष्मधारिण्यः 25 पित्तधारिण्यः 25 शुक्रधारिण्यः 10 एवं सर्वाः 700 शिरा भवन्ति पुरुषाणा शरीरे इति / 'तीसू०' पुरुषाक्ता यास्ताः त्रिंशदूनाः स्त्रिया भवन्ति; सप्तत्यधिकानि षट्शतानि भवन्तीत्यर्थः 670 वीसू०' पुरुषोक्ता यास्ताः विंशत्यूनाः पण्डकस्य, अशीत्यधिकानि षट्शतानि भवन्तीत्यर्थः 680 // अथ शरीर रुधिरादिमानमाह- 'आउ०' हे आयुष्मन ! अस्य जन्तोः रुधिररयाढकं भवति,वसाया अढिकं, 'मत्थुलिगस्से ति-मस्तक भेजकस्य फिप्फिसादेर्वा प्रस्थः मूत्रस्याढकंपुरीषस्य प्रस्थः पित्तस्य कुडवः श्लेष्मणः कु डवः शुक्र स्यार्द्धकुडवो भवति, एताच-ढक प्रस्थादिमानं बालकुमारतरुणादीनाम् दो असईओ पसई, दो पसईओ य सेइया होइ। चत्तारि सेइयाओ कुलओ चत्तारिकुलओ पत्थो चत्तारि पत्था आढग इत्यात्मीयात्मीयहस्तेनानेतव्यमिति, 'जं जाहे०' यत् रुधिरादिकं यदा दुष्ट भवति तत्तदाऽतिप्रमाण भव-ति / अयमाशय:-उक्तमा नस्य शुक्रशोणितादेहींनाधिक्यं स्यात्त-तत्र वातादिदूषितत्वेनावसेयमिति / 'पंच०' पञ्च कोष्टः पुरुषः पुरुष-स्य पञ्च कोष्ठकाः भवन्तीत्यर्थः, षट्कोष्ठा स्त्री, कोष्ठकस्वरूपं सम्प्रदायादवगन्तव्यमिति / नव श्रात्रः पुरुषः तत्र वर्णद्वय 2 चक्षुईयर घ्राणद्वय 2 मुख 7 पायू पस्थ : लक्षणेन पुरुषः स्यात्। एकादशश्रीत्रा स्त्री भवति पूर्वोक्तानि नव स्तनद्वययुक्तानि नव स्तनद्वययुक्तानि एकादश श्रोत्राणि स्त्रीणां भवन्तीति एतन्मानुषीणामुक्तं गवादीनां तु चतुस्तनीनां त्रयोदश 13 शूकर्यादीनामष्टस्तनीना सप्तदश नियाघाते. एवं व्याघाते पुनरेकस्तन्य अजाया दश 10 त्रिस्तन्याश्च गोदशेति, 'पंच० पुरुषस्य पञ्चपे-शीशतानि भवन्ति 500 त्रिशदूनानि स्त्रियाः 470 विंशत्यूनानि पञ्चपेशीशतानि नपुंसकस्य 480 / उक्तं शरीरस्वरूपम्। (25) अथार येवासुन्दरत्व दर्शयन्नाहअभितरंसि कुणिमं, जो परियत्तेउ बाहिरं कुजा। तं असुई दट् ठूणं, सया वि जणणी दुगुंछिज्जा / / 1 / / (83) | 'अम्भितरंसी' ति-शरीरमध्यप्रदेश 'जो' त्ति-यत कुणिमम्-अपवित्रं | मांसं वर्तते तन्भासं परियत्तेउ' त्ति-परावर्त्य परावर्त्त कृत्वा यदि बहिःबहिर्भागे कुर्यात, तदा तन्मासम् असुइ अशुचि-अपवित्रं दृष्ट्वा स्वका अपिआत्मीया अपि अन्या आस्ता स्वजननी-स्वाम्बा 'दुगुछिज' ति-जुगुप्सा कुयात् हा ! कि मयाऽपवित्रं दृष्टमिति / माणुस्सयं सरीरं, पूइयमं मंससुक्कहड्डेणं / परिसंठवियं सोहइ, अच्छायणगंधमल्लेणं // 2 / / (84) 'माणुस्सय' मानुष्यक-मनुष्यसंबन्धि शरीरं-वपुः पूइयम' तिपूतिमत: अपवित्रमित्यर्थः। परि० परिसमन्तात्सर्वत्र सम्यग् स्थापितंरक्षितं केन मांसशुक्रहड्डेन हड्डु देश्यमस्थिवाचीति परि-संठवियं' तिविभूषितं सत सोहइ इति-शोभते केन आच्छादनगन्धमाल्येनतत्राच्छादन-वस्त्रादि गन्धः-कर्पूरादिः माल्य-पुष्पमालादिः / इमं चेव य सरीरं सीसघडीमे यमज्जमंसट्ठियमत्थुलुंगसोणियवालुंडयचम्मकोसनासियसिंघाणयधीमलालयं अमणुन्नगं सीसघडीमंजियं गलतनयणं कन्नुट्ठगंडतालुयं अवालुयाखिल्लचिक्कणंचिलिचिलियं दंतमलमइलं वीभच्छदरिसणिज्जं अंसलगबाहुलगअंगुली अंगुट्ठगनहसंधिसंघायसंधियमिणं बहुरसियागारं नालखंधच्छिराअणेगण्हारुबहुधमणिसंधि-नद्धं पागडउदरकबालं कक्खनिक्खुडं कक्खगकलियं दुरंतं अद्विधमणिसंताणसंतयं सवओ समंता परिसवंतं च रोमकूवेहिं सयं असुइं सभावओ परमदुग्गंधि कालिज्जयअंतपित्तजरहिययफोप्फ सफे फसपिलिहोदरगुज्झकु णिमनवच्छिड्डधिविधिवंतहिययं दुरहिपित्तसिंभमुत्तोसहाययणं सव्वओ दुरंतं गुम्झोरुजाणुजंघापायसंघायसंधियं असुइ कुणिमगंधिं, एवं चिंतिज्जमाणं बीभच्छदरिसणिज्जं अधुवं अनिययं असाययं सडणपडणबिद्धसणधम्मं पच्छा व पुरा व अवस्स चइयव्वं निच्छयओ सुछ जाणएणं आइनिहणं एरिसं सव्वमणुयाण देह एस परमत्थओ सभावो / (सू०-१७) 'इमं चेव य' इत्यादि गद्यम्, इदमेव च मनुजशरीरं-वपुःशीर्षघ-टीव मस्तकहड्ड मेदश्च अस्थिकृत् चतुर्थो धातुरित्यर्थः / मल्ला च शुक्रकरः षष्ठो धातुरित्यर्थः, मासं च पललं तृतीयो धातुरित्यर्थः अस्थि च कल्पं पक्षमा धातुरित्यर्थः, मस्तुलुङ्गश्च मस्तकस्नेहः शोणितं च रुधिरं द्वितीयो धातुरित्यर्थः, बालुण्डक श्च अन्तरशरी-रावयवविशेष: चर्मकोश छविकोशः नाशिकासिङ्घाणश्च घ्राणमल्लविशेषः धिग्मलंच अन्यदपि शरीरोद्भवं निन्द्यमलं तानि तेषामालयं गृहमित्यर्थः, अमनोज्ञक मनोज्ञभाववजित शीर्षघटी-करोटिका तया भञ्जितम्आक्रान्तमित्यर्थः, गलन्नयनं यत्र तद् गलन्नयनं कर्णोष्ठगााडतालुकम् 'अबालुया इति-लोकोक्त्या अवालुखिलश्च 'खील' इति जनोक्तिः ताभ्यां चिक्कणं पिच्छल-मित्यर्थः, 'चिलिचिलियमि' ति - चिगचिगायमानं घविस्थादौ दन्ताना मलं दन्तमलं तेन मइल' त्तिमलिन मलीमसमित्यर्थ, बीभत्संभयंकरं दर्शनमाकृतिरवलोक - Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 557 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीर नं वा रोगादिना कशावस्थायां यस्य वपुषस्तद्बीभत्सदर्शनम् 'अंसलग' | त्ति-अंशयोः स्कन्धयोः 'बाहुलग' त्ति बाहोर्भुजयोः अङ्गुलीनां - करशाखानाम अड् गुढग' ति-अड गुष्ठयोरड्गु -लयो खानां महाराजानां ये संघयस्तेषां संघातेन समूहेन सन्धित-मिदं वपुः बहु०' बहुरसिकागारम 'नालखं०' नालेन स्कन्धशि-राभिः-अंसधमनीभिः 'अणेगन्हारु' नि-अनेकस्नायुभिः अस्थि-बन्धनशिराभिः बहुधर्मानभिरनेकशिराभिः संधिभिरस्थिमेलाप-कस्थानैश्च, 'नद्धं ति-नियन्त्रित प्रकटं सर्वजनदृश्यमानम् उदर-कपालं जठरकडहल्लकं यत्र तत् प्रकटोदरकपाले कक्षैव दोर्मूलमेव निष्कुटम्-कोटरं जीर्णशुष्कवृक्षवद् यत्र तत्कक्षनिष्कुष्ट कक्षायां गच्छन्तीति कक्षोगा अधिकारातद्गतकुत्सितबालास्तैः कलितं सदा सहित कक्षागकलितम्,यद्वा-कक्षायां भवाः काक्षकास्तद्गतकेश-लतास्ताभिः कलितं, 'दुरंत ति-दुष्टोऽन्तो विनाशः प्रान्तो वा यस्सं तद् दुरन्तंदुप्पूरं वा अस्थिधमन्योः सन्तानेन परपरया 'सतयं' ति-व्याप्त यत्तदस्थिधमनिसन्तानसन्ततं. स सर्वतःसर्वप्रकारैः समन्ततः सर्वत्र रोमकूपैः-रोमरन्धैः परिश्रवत् गल-गलत् सर्वत्र सच्छिद्रघटवत् चशब्दादन्यैरपि नासिकादिरन्ध, परिश्रवत्, 'सयं' ति-स्वयमेव अशुचिअपवित्रं सभावउ' त्ति-स्वभावेन परमदुष्टगन्धीति 'कलिज्जयअंतपित्तजरहिययफोप्फ-सफेफसपिलिह'त्ति-प्लीहागुल्मः 'उदर' ति-जलोदरं गुह्यकुणिम मांसनबछिद्राणि यत्र तत्तथा (थि) धिवि (थि) धिवंत ते-द्रि-गद्रिगायमानं 'हिययं' त्ति-हृदयं यत्र तत्, परमयावत हृदयं नव छिद्राणि तु-नयनद्वयकर्णद्वयनासिकाद्वयजिह्नाशिश्नापानलक्षणानि 'दुरहि त्ति-दुर्गन्धानां पित्तसिम्भमूत्रलक्षणानामोषधानामायतनंगृहं सर्वोषधायतनं रोगादावस्मिन् सर्वोषधप्रक्षेपात, सर्वत्र-सर्वभागे दुष्टोऽन्तो विनाशः प्रान्तो यस्य तत् सर्वतो दुरन्तम् 'गुज्झो०' गुह्योरुजानुजङ्गापादसंघातसंधितमुप-स्थसक्थिनलकीलनलकिनीक्रमणपरस्परमीलनसमूहसीवितम् अशुचिकुणि-मस्यअपवित्रमासस्य गन्धो यत्र तदशुचिकुणिमगन्धि, 'एवं चि०' एवम्पूर्वोक्तप्रकारेण चिन्त्यमानं बीभत्सदर्शनीय-भयंकररूपम् 'अधुवं अनिययं असासयं चे' तिपदत्रयव्याख्या पूर्ववत्, 'सडण' शटनयतनदिध्वंसनधर्मम् तत्र शटनं कुष्टादिनाऽडगुल्यादेः, पतनं बाहादेः खड्गछेदादिना विध्यसनं सर्वथा क्षेयः एतेधाः -स्वभावा यस्य तत्तथा 'पच्छा व पुरा व अवस्स चइयव्वं' ति-पूर्ववत् 'निच्छ०' निश्यतः सुष्ट भृशं त्वं 'जण' त्ति-जानीहि एतन्मनुष्य-शरीरम् 'आइनिहण' तिआदिनिधनं सा दिसान्तमित्यर्थः ईदृशं पूर्ववर्णित वक्ष्यमाणं वा सर्वमनुजानां समस्तमनुष्याण देहः-शरीरम् एषः पूर्वोक्तः शरीरस्य परमार्थतः-तत्त्वतः स्वभावः। (26) अथ विशेषतः शरीरादेः अशुभत्वं दर्शयतिसुक्कम्मि सोणियम्मि य, सभूओ जणणिकुच्छिमज्झम्मि। तं चेव अमिज्झरसं, नवमासे धुंटियं संतो / / 8 / / 'सुक्कम्मि' इत्यादि 'सुकं०' जननीकुक्षिमध्ये-मातृजठरान्तरे शुक्रे वीर्य शोणिते-लोहिते चशब्दादेकत्र मिलिते सति प्रथम संभूतः उत्पन्नः तदेवामध्यरसंविष्टारसं 'घुठिय' ति-पिबन सन्नव मासान यावत् स्थित इति। जोणीमुहनिप्फिडिओ,थणगच्छीरेण वडिओ जाओ। पगई अमिज्झमइओ, कह देहो धोइउं सक्को / / 86|| यो निमुखनिम्फिटितः-स्मरमन्दिरकुण्डनिर्गतः 'थणगं' तिप्राकृतत्वादनुस्वारःस्तनकक्षीरेण वर्द्धितः-पयोधरदुग्धेन वृद्धिं गतः प्रकृत्याऽमेध्यमयो जातः, एवंविधो देहः कथं 'धोइउ' ति-धौतुं - क्षालयितुं शक्यः? तं०। (शेषवक्तव्यता 'इत्थी' शब्दे द्वितीयभागे 604 पृष्ठे गता / ) 'रसासृगमासमंदोऽस्थिमञाशुक्रान्त्रवर्चसाम् / अशुचीनां पदंकायः. शुचित्वं तस्य तत् कुतः।।१।। अष्ट 16 अष्ट०। नारकादिशरीराणि बीभत्सान्युदारणि च दृष्ट्वापि न केवलदर्शनं स्कभ्नातीति शरीरप्ररूपणाय 'नेरइयाण' मित्यादिसूत्रप्रपञ्चः णेइयाणं सरीरगा पंचवण्णा पंचरसा पण्णत्ता, तं जहाकिण्हाजाव सुकिल्ला, तित्ता० जाव मधुरा,एवं निरंतरं० जाव वेमाणियाणं / सू०(३६५४) 'रइयाण' मित्यादि, कण्ठ्यं नवरं पञ्चवर्णत्वं नारकादिवेमानिकान्ताना शरीराणां निश्चयनयात्, व्यवहारतस्तु एकवर्णप्राचुर्य्यात् कृष्णादिप्रतिनियतवर्णी वेति 'जाव सुकिल्ल' ति 'किण्हा नीला लोहिया हालिदा सुकिल्ला य० जाव महुर' त्ति तित्ता कडुया कसाया अंबिला महुरा जाव वेमाणियाणां ति / चतुर्विशतिदण्डकसूत्राणि / स्था० ५ठा०१उन (27) शरीराणां वर्णादिओरालियसरीरे पंचवन्ने पंचरसे पण्णत्ते, तं जहा-कि-हे० जाव सुकिल्ले, तित्ते० जाव महुरे एवं०जाव कम्मगसरीर सव्वे वि णं बादरबों दिधरा कलेवरा पंचवण्णा पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा। (सू०३६५+) तथा सर्वाण्यपि बादरबोन्दिधराणि पर्याप्तकत्वेन स्थूराकारधारीणि कलेवराणि शरीराणि मनुष्यादीनां पञ्चादिवर्णादीन्यवयवभेदेनेति अक्षिगोलकादिषु तथैवापलब्धः / 'दो गंध' त्ति सुरभिदुरभिभेदात् / 'अट्ठफास' त्ति-कठिनमृदुशीतोष्णगुरुलघुस्निग्धरूक्षभेदादिति, अबादरबान्दिधराणि तुन नियतवर्णादिव्यपदेश्यानि, अपर्याप्तत्वेनावयवविभागाभावादिति / स्था० ५टा०१ उ०। (कस्मादोदारिकादेः शरीरा-त्कति क्रियाः इति 'किरिया' शब्द तृतीयभागे 536 पृष्ठे गतम् / ) "पाणीयसत्थग्गिसंभमेहिं च देहतरसंकमणं करेइ जीवो मुहुत्तेण।'' महा०६अ। (ओदनादयो वनस्पतगोऽनिकायत्वेन वक्तव्याः रयुरिति 'अगणिजीवसरीर' शब्द प्रथमभागे 156 पृष्ठे गतम् / ) (निर्ग्रन्थानां शरीरद्वारम् ‘णिग्गंथ' शब्दे चतुर्थभागे 2036 पृष्ठे गतम्।) ('सम' शब्द रिमन्नेव भागे 363 पृष्ठे नैरयिकादयः समाहाराः समशरीरा इत्यु-क्तम्।) (पृथिवीकायस्य सूक्ष्मबादरशरीराणि पुढवी Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीर 558 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीरदोब्बल्ल काइय' शब्द पक्षमभागे उक्तानि / ) 'शरीरं धर्मसंयुक्त, रक्षणीयं निर्वाणं गन्तुरिति। अथ-वा-शरीरकं देशतः संवर्ध्व-हस्ताटिसङ्कोचनेन, प्रयत्नतः / शरीराच्छ्वते धर्मः, पर्वताल्सलिलं यथा / / 1 / / " इति सर्वतः सर्वशरीर-सङ्कोचनेन पिपीलिकादिवदिति आत्मनश्व संवर्तन शरीरस्य धर्मोपग्राहिता / स्था०५ठा० ३उ०। सूत्र०। धo। आचालन कुर्वन शरीरस्य निवर्तनं करोतीत्याह-एवं 'निव्वदृयिता ण' ति-तथैव (शरीराश्रयेण जीवभेदः 'जीव' शब्दे चतुर्भभागे 1524 पृष्ठ उक्तः।) निवर्त्य-जीवप्रदेशेभ्यः शरीरकं पृथक्कृत्येत्यर्थः, तत्र देशेनेलिकागतो, (28) आत्मा शरीर स्पृष्ट्वा निर्याति निर्जरणे च कर्मणो देशतः सर्वथा सर्वेण गेन्दुकगतौ / अथवा-देशतः शरीरं निर्वात्मनः पादादिवा भवान्तरे सिद्धौ वा गच्छतः शरीरान्निर्याणं भवतीति सूत्रपञ्चकेन तदाह- निर्याणवान, सर्वतः सर्वाङ्ग निर्याणवानिति / अथवा-पञ्चविधदोहिं ठाणेहिं आता सरीरंफुसित्ता णं णिज्जाति, तं जहा-देसेण वि शरीरसमुदायापेक्षया देशतः शरीरम् औदारिकादि निवर्त्य तैजसकाण आता सरीरंफुसित्ता णं णिज्जाति, सव्येण वि आया सरीरगं फुसित्ता स्वादायैव, तथा सर्वेण सर्व शरीरसमुदायं निवर्त्य निर्याति, णं णिज्जाति एवं फुरित्ता, एवं फुडित्ता, एवं संवट्टतित्ता, एवं सिध्यतीत्यर्थः। स्था० २ठा०४ उ०। निव्वट्टतित्ता। (सू०६७) पुट्विं पेयं पच्छा पेयं भिउरधम्म विद्धंसणधम्म अधुवं 'दोही' त्यादिकं कण्ठ्यं, नवरद्वाभ्या प्रकाराभ्यां देसणवि शि-देशनापि अणितियं असासयं चयोवइयं विपरिणामधम्म पासह / कतिपयप्रदेशलक्षणेन केषाश्चि प्रदेशानां मिलिकाग-त्योत्पादस्थान (सू०१४७+) गच्छता जीवेन शरीराद्विहिः क्षितत्वात, आत्मा-जीवः, -शरीर-देहं आचा० १श्रु०५अ०२उ०। (इदं लोगसार' शब्दे षष्ठे भागे व्याकृतम् / ) स्पृष्ट्वा-श्लिष्ट्वा निर्याति शरीरान्मरणकाले निःसरतीति, 'सवेण वित्ति- "आत्मानं सर्वता रक्ष्यं, प्राहुर्धर्मविदो जनाः / यदिदं चैव शरीरं, सर्वेण - सर्वात्मना सर्वेर्जीवप्रदेशैः कन्दुकगत्योत्पादरथानं गच्छता धर्मस्याद्यं हि साधनम् / / 1 / / जीवन् भद्राण्यवाप्नोति, जीवन पुण्यं करोति शरीराद् बहि:प्रदेशानामप्रक्षिप्त-त्वादिति, अथवा-देशेनापि- च। मृतस्य देहनाशोऽस्ति, धर्मव्युपरमस्तथा // 2 // " संघा०१अधि० देशतोऽप्यपिशब्दः सर्वेणापीत्य-पेक्षः, आत्मा-शरीरं कोऽर्थः? शरीरदेश १प्रस्ता० / वर्तमानचतुर्विशतितीर्थकृतां 'पउमाऽऽभा वासुपुञ्जा रत्ते' पादादिकं स्पृष्ट्वाऽवयवा-न्तरेभ्यः प्रदेशसंहारानियांति, स च संसारी, ति रक्तादिवाण विभागः किं शरीरेषु दृश्यमान उत ध्यानाद्यर्थ 'सर्वेणापि' सर्वतया-ऽपि, अपिदेशेनापीत्यपेक्षः, सर्वमपि शरीर स्पृष्ट्वा कल्पनामात्रमिति प्रश्नः? अत्रोत्तरम् -एतगाथोक्तवर्ण विभाग - निर्यातीति भावः, स च सिद्धः, वक्ष्यति च- पायणिज्जाण णिरएसु स्तीर्थकृतां शरीरगतो ज्ञेय इति / / 346 / / सेन० ३उल्ला०। उववज्जती त्या-दि, यावत सव्वंगणिजासिद्धेसुति-आत्मना शरीरस्य / सरीरकाय-पुं०(शरीरकाय) कायभेदे, आव०१अ०। (सच काय शब्दे स्पर्शन सति स्फुरणं भवतीत्यत उच्यते- एवमित्यादि, एवमिति-दोहिं तृतीयभागे 445 पृष्ठे औदारिकादिभेदात्पञ्चधोक्तः।) ठाणेहिं त्याद्यभिलापसंसूचनार्थः, तत्र देशेनापि कियद्भिरप्यात्मप्रदेश- | सरीरग-न०(शरीरक) शरीरमेव शरीरकं स्वार्थे कः। आत्मनो रिलिकागतिकाले 'सव्वेण वि' त्ति-सव्वैरपि गेन्दुकगतिकाले शरीर भोगायतने, स्था० १ठा०। (पशधा शरीराणि 'सरीर' शब्दे अस्मिन्नेव 'फुरित्ता णं ति-स्फोरथिवा सरमन्दं कृत्वा नियाति, अथवा-शरीरकं / भाग उक्तानि।) अनुकम्पितादिधर्मोपेते शरीरे, स्था० १टा०। भट! देशतः शरीरदेशमित्यर्थः, स्कारयित्वा पादादि-निर्याणकाले. सर्वतः- अनु सर्वे शरीर स्फोरयित्वा सर्वाङ्ग निर्याणावसर इति। स्फोरणाच्च सात्मकत्व सरीरजडु-पुं०(शरीरजड) शरीरक्रियायामनिपुणे, व्य० १०उ०। आव० स्फुट भवतीत्याह- एवमित्यादि, एव गितितर्थव देशेन- आत्मदेशन भला अनु०। ('जड्डु' शब्दे चतुर्थभागे 1386 पृष्ठेऽयं विस्तरेणोक्तः।) शरीरक 'कुडिया णं' ति-सचेतनया स्फुरणलिङ्ग तः स्फुट कृत्वा सरीरणाम-न०(शरीरनामन्) शरीरनिबन्धने नामकर्मभेदे, यदुदइलिकागती, सर्वेण सर्वा-त्मना स्फुटं कृत्वा गेन्दुकगताविति। अश्वा / यादोदारिकादिशरीरं करोति / तच पशधा औदारिकवैकियाहाशरीरकं दशतः-सा-मक्तया रफुट कृत्वा पादादिना निर्माणकालसर्तमः रकतजसकार्मणशरीरभेदात् / प्रव० 216 द्वार / श्रा०। कमे०। स० सर्वाङ्ग-निर्याणपरताव इति / अथवा-'फुडित्ता' स्फोटयित्वा विशीर्ण शरीरपर्याप्त्येव सिद्धे, स०। (एतत्प्रयोजनं ‘णामकम्म' शब्दे चतुर्थभागे कृत्वा, तत्र देशतोऽक्ष्यादिविघातेन, सर्वतः सर्वविशरणेन देवदी- 1666 पृष्ठे उक्तम्।) पादिजीववदिति / शरीरं सात्मकतया स्फुटीकुर्वस्तरसंवर्शनमपि सरीरणिध्वत्ति-स्त्री०(शरीरनिवृत्ति) औदारिकादिपक्षाविधशकश्चित्करोतीत्याह- 'एव' मित्यादि 'एव' मिति-तथैव सवइत्ताणं ति- रीरनिष्पत्ती, भ० 16. श० ८उ०। (चतुर्थभागे 2120 पृष्ठ उक्तैषा।) संवर्त्य-सङ्गाच्य शरीरकं देशेनेलिकागती शरीरस्थित-प्रदेशः, राण सरीरथामावहारविजढ-त्रि०(शरीरस्थामापहाररहित) शरीरग्य सर्वात्मना गन्दुकग ग रामिप्रदशाना शरीर-स्थितत्वानियतीति / -शाम - प्राणस्तथाऽपहारोऽपलपन तेन विजढो-रहितः शरीर अथवा-शरीरक शरीरिणभुपचाराधण्ड-रोगाण्डपुरुषवत, त्रि देशतः | रथामापहाररहितः / दैहिकबलवियुक्त, व्य०३उ०। संकलन संसारिणा नियमाणस्यपादादिगतजीवप्रदेशसंहारा, सर्व तरतु - सरीरदोब्बल-न०(शरीरदौर्बल्य) वपुषो दौर्बल्ये, दर्श० ३तत्त्व : Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीरदोस 556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सरीरोगाहणा सररिदोस-पुं०(शरीरदोष) ज्वरशूलादिभिः शरीरदौष्ट्ये, द्वा० २७द्वा०। | सरीरसंपया-स्त्री०(शरीरसंपद) विशिष्टशरीरतारूप गणिसंपद्-भेद, सरीरपओगबंध-पुं०(शरीरप्रयोगबन्ध) औदारिकादिशरीराणां / स्था० ८ठा० 3 उ०। (गणिसंपया' शब्दे तृतीयभागे 826 पृष्ठे गता वीयन्तिरायक्षयोपशपादिजनितव्यापारेण शरीरपुद्गलोपादाने शरीर- वक्तव्यता।) प्रयोगस्य बन्धे च। भ० ८०६उ०। सरीरसक्कार-पुं०(शरीरसत्कार) देहविभूषायाम, पञ्चा० 6 विव० सरीरपचक्खाण-न०(शरीरप्रत्याख्यान) शरीरस्याभिष्वड़प- | सरीरसकारपोसह-पुं०(शरीरसत्कारपोषध) देशतः शरीर रीवर्जनप्रतिज्ञाने, भ०१७२०३उ०। प्रस्तावे समागते शरीरस्थापि सत्कारस्येकतरस्थाकरणे, सर्वतस्तु सर्वस्यापि तस्याकरणे, ध० व्युत्सर्जने, उत्तम २अधि०। आव० सरीरपचक्खाणेणं भंते ! जीवे किंजणयइ? सरीरपचक्खाणेणं | सरीरसक्कारसंगय-त्रि०(शरीरसत्कारसङ्गत) देहविभूषानुगते, पञ्चा० सिद्धाई सयगुणत्तं निव्वत्तेइ / सिद्धाइसयगुणसंपन्नेणं जीवे ___विव० लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ // 38 // सरीराणुगय-त्रि०(शरीरानुगत) व्यञ्जनादिजन्ये शरीराश्रये वायुकाये, है भगवान ! शरीरप्रत्याख्यानेन-शरीरव्युत्सर्जनन जीवः किलाभे स्था० ५टा० 370 जनयतिः? गुरुराह-शरीरप्रत्याख्यानेन सिद्धातिशयगुणत्वे निर्य- सरीरि-पुं०(शरीरिन) शरीरमस्यास्तीतिशरीरी। संसारिजीवभेदे, स्था० नयति-कोऽर्थः? सिद्धाना ये अतिशयगुणाः-सर्वोत्कृष्टगुणास्तेषां भावः २ठा० 4 उ० सिद्धातिशयगुणत्वं यता हि सिद्धान नीलाः नलोहिताः न हारिद्राःने / सरीरोगाहणा-स्त्री०(शरीरावगाहना) शरीराणामाधारभूतैकक्षत्रे, शुवला इत्यादय एकत्रिंशद्गुणास्तद्वत्त्वं प्रापोतीत्यर्थः, प्राप्तसिद्धाति- स्था० ४ठा० १उ०॥ येषु प्रदेशेषु शरीरमवगाढम्। स०। भ०। शयगुणी जीवा लोकागं मोक्षमुपगतः सन् सुखी भवति / यद्यपि प्रकारान्तरेण पृथिवीकायिकावगाहनाप्रमाणमाहयागप्रत्याख्यानन शरीरप्रत्याख्यानः समागतः तथापि मनोवाक्योग- पुढविकाइयस्स णं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता? शरीरस्य प्राधान्यख्यापनार्थ पृथक उपादानम / उत्त० 26 अ०। गोयमा ! से जहानामए रन्नो चाउरंतचक्कवट्टि-स्स वन्नगर्पसिया (एततफलम् 'मरण' शब्दे पष्ठभागे 11 पृष्ठे विरुष्टीकृतम्।) तरुणी बलवं जुग जुवाणी अप्पायंका वन्नओ०जाव निउणसरीरपज्जति-स्वी०(शरीरपर्याप्ति) यया शीतीभृतमाहारं रसासृग्मांस- सिम्पोवगया नवरं चम्मेद्वदुहणमुट्ठियसमाहयणिचियगत्तकाया न मे दोऽस्थिमज्जाशुक्र लक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमर्यात्, प्रव० भण्णति सेसं तं चेव जाव निउणसिप्पोवगया तिक्खाए २३१द्वार / प्रज्ञा०ा कर्म०पं०सं० नं० वइरामईए सण्हकरणीए तिक्खेणं वइरामएणं वट्टावरएणं एगं सरीरबंध-पुं०(शरीरबन्ध) समुद्रघाते सति विस्तारितसङ्कोचित महं पुढविकाइयं जतुगोलासमाणं गहाय पडिसाहरिय 2 जीवप्रदेशसम्बन्धविशेषवशात्तैजसादिशरीरप्रदेशानां बन्धविशेषे, भ० पडिसंखिविय पडिसंखिविय ०जाव इणमेव त्ति कटु तिस८श०६उन त्तक्खुत्तो उप्पीसेज्जा तत्थ णं गोयमा! अत्थेगतिया पुढवि-क्कइया सरीरबन्धणाम-न०(शरीरबन्धनाभन) औदारिकशरीरपुद्गलाना आलिद्धा अत्थेगइया पुढविक्काइया नो आलिद्धा अत्थे-गइया पूर्वबद्धानां बध्यमानानां च सम्बन्धकारणे नामकर्मभदे, स० ४२सम०। संघाट्टि (ट्ठि) या अत्थेगइया नो संघट्टि (ट्ठि) या अत्थे-गइया परियाविया अत्थेगइया नो परियाविया अत्थेगइय उद्द-विया सरीरभेय-पुं०(शरीरभेद) शरीरस्य-भेदो विनाशः / (तस्मिन) अत्थेगइया नो उद्दविया अत्थेगइया पिट्ठा अत्थेगइया नो पिट्ठा, शरीरविनाशे, उत्त०३६अ। आचा०) पुढविकाइयस्स णं गोयमा ! एमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता। सरीरवक्कंति-स्त्री०(शरीरव्युत्क्रान्ति) दिव्यशरीरत्यागे, "भव-वक्तीए (सू०६५३४) सरीरवनंतीए कुच्छिसि गठभत्ताए वकंत' कल्प०१अधि०१क्षण : 'पुढवी' त्यादि, 'वन्नगपेसिय' ति चन्दनपेशिका तरुणीति सरीरवग्गणा-स्त्री०(शरीरवर्गणा) औदारिकादिशरीरप्रायोग्य प्रवर्द्धगानवयाः बलवं' ति सामर्थ्यवती 'जुगव' ति सुपमदुष्पमादि वर्गणायाम्, पं० सं०५द्वार। ('वग्गणा' शब्दे षष्ठभागे साऽदर्शि।) विशिएकालवती 'जुवाणि ति वयःप्राप्ता 'अप्पायंक' तिनीरागा सरीरविउस्सग्ग-पु०(शरीरव्युत्सर्ग) नारकायुष्कादिहे तूना 'वन्ना' ति अनेनेदं सूचितम् थिरग्गहस्था दढपाणिपायपिटुं मिश्गदृष्टित्वादीनां त्यागे, औ०। तरोरुपरिणए' त्यादि, इह वर्ण के 'चम्मे हदुहणे ' त्याद्यप्यधीतं सरीरवोच्छेयण-न०(शरीरव्यवच्छेदन) देहत्यागे, स्था०६ठा० 330 तदिह न वाच्यम्, एतस्य विशेषणस्य स्त्रिया असम्भवात, अत सरीरसंघायण-न०(शरीरसंघातन) औदारिकाविशरीरपुद्गलानां एवाह वम्मदहण नट्टियसमाहयनिचियगतकाया न भन्नइ'त्ति गृहीतानां शरीररचनायाम, स०४२सम०। तत्र च चर्मेट कादीनि व्यायामक्रियायामुपकरणानि तैः स Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरीरोगाहणा 560 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सलद्धिजोग माहतानि व्यायामप्रवृत्तावत एव निचितानि च-घनीभूतानि गात्राणिअगानि यत्र स तथा, तथाविधः कायो यस्याः सा तथेति, तिक्खाए' त्ति परुषायां वइरामईए ति वज़मय्यां सा हि नीरन्ध्रा कठिना च भवति'सण्हकरणीए' त्ति श्लक्ष्णानि-चूर्णरूपाणि द्रव्याणि क्रियन्ते यस्यां सा लक्षणकरणी-पेषणशिला तस्यां 'वट्टावरएण' ति वर्त्तकवरेण-लोष्टकप्रधानेन 'पुढविकाइयं' ति पृथिवीकायिकसमुदयं 'जतुगोलासमाणं' ति डिम्भरूपक्रीडनकजतुगोलकप्रमाण, नातिमहान्तमित्यर्थः, 'पडिसाहरिए' त्यादि इह प्रतिसंहरणं शिलायाः शिलापुत्रकार संहृत्य पिण्डीकरण प्रतिसंक्षेपणं तु शिलायाः पततः संरक्षणम् / अत्थगइय' त्ति सन्ति एके-केचन आलिद्ध' ति आदग्धाः शिलायां शिलापुत्र के वा लग्नाः 'संघट्टिय'त्ति-सङ्घर्षिताः परिताविय' ति पीडिता 'उद्दविय' त्ति मारिताः, कथम्? यतः पिट्ट त्ति पिष्टाः 'एमहा-लिय' त्ति एवं महतीति महती चातिसूक्ष्मेति भावः, यतो विशिष्टा-यामपि पेषणसामग्यां केचिन्न पिष्टा नैव च छुप्ता अपीति। अत्थे-गइया संघट्टिय' त्ति प्रामुक्तम। भ० 16 श०३ उ० सरीरोवहि-पुं०(शरीरोपधि) शरीररूपायामुपधौ, स्था० १ठा०। सरीसिव-पुं०(शरीसृप) गोधादिषु भुजोरुभ्यां सर्पणशीलेषु तिर्यक्षु, ज्ञा० १श्रु०१अ01 आच०। सूत्र सरूप-त्रि०(स्वरूप) आत्मरूपे, हा० ३१अष्ट०। स्वभावे, पञ्चा० १६विव० सरूवि (ण)-पुं०(सरूपिन्) सह रुपेण मूर्त्या वर्त्तत इति समा-सान्त इनप्रत्यये सरूपी / संस्थानवर्णादिमति सशरीरे जीवे, स्था० २टा० 170 / मा सरोरुह-(सरोरुह) कमले, "सरोरुहं पुंडरीअं' पाइ० ना० १०गाथा। सरोस-त्रि०(सरोष) क्रुद्धे, सूत्र० १श्रु०५अ०२उ०। सलक्खण-न०(स्वलक्षण) लक्ष्यते तदन्यव्यपोहेनाबधार्यते वस्त्वनेनति लक्षणम् / स्वञ्च तल्लक्षण च स्वलक्षणम् / असाधारणधर्म, यथा जीवस्योपयोगः, यथा वा प्रमाणस्य स्वपरावभासकज्ञानत्वम् / स्था० १०टा०३उन * सलक्षण-पुं० लक्षणजे कवौ, दश० २अ० सलक्खणकारणहे उदोस-पुं०(स्वलक्षणकारणहेतुदोष) हेतु - दोषविशेषे, स्था०। सलक्खणकारणहेउदोसे। (सू०७३४) तथा लक्ष्यते तदन्यव्यपोहेनावधार्यत वस्त्वनेनेति लक्षणम, स्वं च | तल्लक्षण चस्वलक्षणं यथा जीवस्योपयोगो यथा वा प्रमाणस्य स्वपरावभासकज्ञानत्वम् 5, तथा करोति कारणं परोक्षार्थनिर्णय-निमित्तमुपपत्तिमात्रं यथा निरुपमसुखः सिद्धो ज्ञानानाबाधप्रकर्षात, नात्र किल सकललोकप्रतीतः साध्यसाधनधानुगतो दृष्टान्तोऽस्तीत्युपपत्तिभात्रता, दृष्टान्तसद्भावेऽस्यैव हेतुव्यपदेशः स्यात् / तथा-हिनोति गमयतीति हेतुः साध्यसद्भावभावतदभावा- भावलक्षणः, ततश्च स्थलक्ष णादीनां द्वन्द्वः, तेषां दोषः, स्वलक्षण-कारणहेतुदोषः। इह कारणशब्दः छन्दोऽथ द्विर्बद्धो ध्येयः / अथवा-सह लक्षणेन यौ कारणहेतू तयोर्दोष इति / विग्रहः / तत्र लक्षणदोषोऽव्याप्तिरतिव्याप्तिर्वा, तत्राव्याप्तिर्यथायस्यार्थस्य सन्निधानासन्निधानाभ्यां ज्ञानप्रतिभासभदस्तत्स्वलक्षणमिति इदं स्वलक्षणलक्षणम्, इदं चेन्द्रिययत्यक्षमेवाश्रित्य स्यात् न योगिज्ञानम्, योगिज्ञाने हि न सन्निधानासन्निधानाभ्यां प्रतिभासभेदोऽस्ती-त्यतस्तदपेक्षया न किञ्चित्स्वलक्षणं स्यादिति। अतिव्याप्तिर्यथा अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणम्, इह चार्थोपलब्धिहेतुभूताना चक्षुर्दध्योदनभोजनादीनामानन्त्यैन प्रमाणेयत्ता न स्यात्। अथवा-दाष्टान्तिकोऽर्थो लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं दृष्टान्तस्तदोषःसाध्यविकलत्वादिः, तत्र साध्यविकलता यथा-नित्यः शब्दो मूर्त्तत्वाद, घटवद् / इह घटे नित्यत्वं नास्तीति कारणदोषः / साध्यं प्रति तद्व्यभिचारो यथा- अपौरुषेयो वेदो वेदकारणस्याश्रूयमाणत्वादिति, अश्रूयमाणत्वं हि कारणान्तरादपि सम्भवतीति / हेतुदोषोऽसिद्धविरुद्धानैकान्तिकत्वलक्षणः, तत्रा-सिद्धो यथाऽनित्यः शब्दश्चाक्षुषत्वाद्घटवदिति, अत्र हि चाक्षुषत्वं शब्दे न सिद्ध, विरुद्धो यथा-नित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवद, इह घटे कृतकत्वं नित्यत्वविरुद्धमनित्यत्वमेव साधयतीति, अनेकान्तिको यथा-नित्यः शब्दः प्रमेयत्वादाकाशवत्। इह हि प्रमेयत्वमनित्येष्वपि वर्त्तते ततः संशय एवेति / स्था० १०टा० ३उ०। सलद्धिजोग-पुं०(स्वलब्धियोग) स्वकीयायाः प्राप्तेऽर्ह , ध० अथ स्वलब्धियोग्यतामाहदीक्षावयःपरिणतो, धृतिमाननुवर्तकः / स्वलब्धियोग्यः पीठादिज्ञाता पिण्डैषणादिवित्।१३६। दीक्षावयोभ्यां परिणतः संप्राप्तश्विरप्रव्रजितः पूर्णपर्यायश्चेत्यर्थः। धृतिमान् संयमे सुस्थः अनुवर्तकः सर्वमनोऽनुवृत्ति कर्ता पीठादिज्ञातः कल्पपीठनियुक्तिज्ञाता पिण्डै षणादिवित्प्रतीतार्थः ईदृशः स्वलब्धियोग्यः स्वस्य स्वकीया लब्धिः प्राप्तिस्तस्या योग्यः-अहाँ भवति, पूर्व गुरुपरीक्षिता वस्त्रादि, लब्धिरासीत् इदानी स्वय वस्त्रादिपरीक्षितु योग्यो जात इति भावः। अस्यैव विहारविधिमाहएषोऽपि गुरुणा सार्द्ध, विहरेदा, पृथग्गुरोः। तद्दत्तार्हपरीवारो-ऽन्यथा वा पूर्णकल्पभाक् / / 140 / / एषोऽपि-स्वलब्धिमान आस्तां गुरुलब्धिपरतन्त्र इत्यपिशब्दार्थः, गुरुणा-स्वल ध्यनुज्ञाचार्येण सार्द्धम् अमा विहरेत्-ग्रामाद्नामान्तर गच्छेत् / अत्रापवादमाह-गुरोः पूर्वोक्ताद्वेति पक्षान्तरे पृथक् भिन्नतया विहरेत, कीदृशः सन्नित्याह-तहत्तार्हप-रीवारस्तेन-गुरुणा दत्तः-अर्पितः अझै-योग्यः परीवार:-परि-च्छदो यस्य स तथा, तत्रापवादमाहअन्यथेति गुरुदत्तयोग्यपरिवाराभावे, वेति पक्षान्तरे, पूर्णकल्पभाक् पूर्ण समाप्त कल्पं व्यवस्थाभेदं भजतीति तथा समाप्त कल्पेन विहरतीत्यर्थः / ध०३अधि० Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलभ 561 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सल्ल सलभ-पुं०(शलभ) पतड़े, स्था०६ठा०३उ०। आचाका सलभपईवबाइ(ण)-पुं०(शलभप्रदीपवादिन) वादिनः शलभतुल्यान / कुर्वति प्रदीपकल्पे प्रतिवादिनि, यथैक एतन्नामेन्द्रभूतिना सह गतः। कल्प०१अधि०७ क्षण। सललिय-न०(सललित) यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीव तत् सह ललितेने सललितम् / यदिवा-यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्पर्शनमतीत सूक्ष्मभुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत् सललितम् / जी० ३प्रति० ४अधिक। रा०। समाधुर्ये (त्रि०) ओघालालित्योपेते, औ०। सुप्रसन्नतोपेते, विपा० 1 ०२अ०॥ सलह-पुं०(शलभ) पतङ्ग, पाइ० ना०२६२ गाथा। सलोगा-स्त्री०(शलाका) नेत्रादौ (नि० चू० १उ०। णण्णतरकट्ठघटिता | गलाना: ग०२अधि० / स०ा नि० चू०।) अञ्जनार्थवौ, सूत्र०१ श्रु० 4102 उ०। शल्ये, पथमा सलागा पक्खिविज्जइ' प्रथमा शलाकाएकः सर्षपः प्रक्षिप्यते / अनु०। कस्यचिद् वस्तुनोऽने कभेदज्ञापनार्थ कोष्ठकरेखासु 24 तीर्थकराः 12 चक्रिणः 6 बलदेवाः 6 वासुदेवाः 6 प्रतिवासुदेवाश्चेति त्रयः षष्टिः शलाकापुरुषाः। ती० २०कल्प। सलाघण-न०(श्लाधन) प्रशंसायाम्, 'उवबूहण त्ति वा पसंस ति वा | सद्धाजणण ति वा सलाघण त्ति वा एगट्टा' नि० 0 130 / सलाहा-स्त्री०(श्लाघा) 'क्षमा-लाघा-रस्नेऽन्त्यव्यञ्जनात् / 8 / 2 / 101 / / इति लकारात् पूर्वोऽकारः / प्रशंसायाम्, प्रा० २णादा सलाहणिज्ज-त्रि०(श्लाघनीय) श्लाघ्ये, प्रशस्ये, विपा० १श्रु०६अol सलिंग-न०(स्वलिङ्ग) रजोहरणगोच्छकादिधारित्वे, श्रा० / रय हरणमुहपुत्तियापडिग्गहादिधारणं सलिंग भण्णति। नि० चू० 130 / सलिंगसिद्ध-पुं०(स्वलिङ्ग सिद्ध) स्वलिङ्गे - रजोहरणादिरूपे व्यवस्थिताः सन्तोये सिद्धास्ते स्वलिङ्गासिद्धाः। नं०। प्रशाला द्रव्यलिङ्ग प्रतीत्य रजोहरणगोच्छकादिधारिषु सिद्धेषु, पा०ा धol सलिल-न०(सलिल) उदके, सूत्र० १श्रु०१२ अ०ा पाइ० ना०ा जले, ज्ञा०१श्रु०४ अगषोला प्रश्ना दर्शा औ०) "लो लः" // 814308|| इति पैशाच्यामपि लस्य ल एव / सलिलं / प्रा०४ पाद। सलिलकुंड-न०(सलिलाकुण्ड) षष्ठीतत्पुरुषः, गङ्गादिनदीनां प्रपातकुण्डेषु, प्रभवकुण्डेषु च / स्था०। सव्वे विणं सलिलकुंडा दस जोयणाइं उव्वेहेणं पण्णत्ता। (सू०७७६x) 'सलिलकुंड' ति-सलिलानां -गङ्गादिनदीनां कुण्डानि- प्रपातकुण्डानि प्रभवकुण्डानि च सलिलाकुण्डानीति। स्था० १०ठा० 330 / सलिलरासि-पुं०(सलिलराशि) समुद्रे, "रयणायरो सलिलरा-सि।" पाइ०८गाथा। सलिलविल-न०(सलिलविल) निझर, भ०७२०६उ० सलिला-स्त्री०(सलिला) गङ्गादिमहानदीषु, स०१३८ समता (जम्बूद्वीपे यावत्यः सलिलास्तावयः 'जम्बूद्वीव' शब्दे चतुर्शभागे 1375 पृष्टे दर्शिताः।) सलिलावई-स्त्री०(सलिलावती) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे सीतोदाया महानद्या दक्षिणे चक्रवर्तिविजये, स्था० ८ठा० ३उ०। जम्बूद्वीपे अपरविदेहे सलिलावतीविजये वीतशोकायां राजधान्यां महाबलाभिधानो राजा / स्था० ७ठा० ३उवा ज्ञा० / आ०मा सलिलुच्छय-पुं०(सलिलोत्सव)प्लाविते, "पव्यालिअंआउं-वालिअं च सलिलुच्छयं जाण'' पाइ० ना०७८ गाथा। सलिलोदगवासि-पुं०(सलिलोदकवर्षि) सलिलाः शीतादिमहानद्यस्तासामिव यदुदकं रसादिगुणसाधात् तस्य वर्षः। महानदीजलकल्पे वृष्ट्युदके, 'दिव्वं सलिलोदगं वासं वासइ।' भ०१५श०। सलेस-त्रि०(सलेश्य) लेश्यया सहितः। संसारिणि, स्था० २टा०४ उ०। सल्ल-न०(शल्य) शल्यते-बाध्यतेऽनेनेत्ति शल्यम्। द्रव्यतस्तोम-रादौ, भावतो मायादौ, स्था। तओ सल्ला पण्णत्ता, तं जहा-मायासल्ले णियाणसल्ले मिच्छादसणसल्ले / (सू० 1524) शल्यते-बाध्यते अनेनेति शल्यं द्रव्यतस्तोमरादि, भावतस्तु इर्द त्रिविधं-मायानिकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यम्, एवं सर्वत्र नवरं नितरां दीयते-लूयतेमोक्षफलमनिन्द्यब्रह्मचर्यादिसाध्यं कुशल-कर्मकल्पतरुवनमनेन देवयादिप्रार्थनपरिणामनिशिताशिनेति निदानं, मिथ्याविपरीतं दर्शन मिथ्यादर्शनमिति / स्था० ३ठा० ३उ०। ('मरण' शब्दे षष्ठे भागे 136 पृष्ठ 142 पृष्ठ च एतद्विस्तर उक्तः।) पापानुष्ठाने, तजनिते कर्मणि, सूत्र०१श्रु०१५अ०। उत्ता अपराधलक्षणे मोक्षगमनव्याघातकारिजात कर्मणि च / व्य० १उ०। शल्यभेदाःअत्थेगे गोयमा ! पाणी, जेरिसमवि कोडिं गए। ससल्ले चरती धम्म, आयहियं नावबुज्झइ॥१६॥ ससल्लो जइ वि कट्ठुग्गं, घोरवीरं तवं चरे। दिव्वं वाससहस्सं पि, ततो वीतं तस्स निप्फलं // 16|| सल्लं पि भन्नई पावं,जन्नालोइयनिंदियं / नगरहियं न पच्छित्तं, कयं जं जह य भाणियं / / 17 / / मायाडंभमकत्तव्यं, महापच्छन्नपावया। अवजमाणायारं च, सल्लं कम्मट्ठसंगहो // 18 // असंजमं अहम्मंच, निसीलव्वत्तभावियं / सकलुसत्तमसुद्धी य, सुकयनासो तहेव य / / 16 / / Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्ल 562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सल्लुद्धरण दुग्गइगमणमणुत्तारं, दुक्खे सारीरमाणसे / अव्वोच्छिन्ने य संसारे, विगोवणया महंतिया / / 20 / / केसिं विरूवरूवत्तं, दारिदं दोग्गइं गया। हाहा भूयं सवेयणया, परिभूयं पि जीवियं // 21 // निग्घिणत्तं सकूरत्तं, निद्दयनिक्कमिया विय। निल्लज्जं गूढदहियत्तं, वंकविवरीयचित्तया।॥२२॥ रागदोसो य मोहो य, मिच्छत्तं घणचिक्कणं। संमग्गणासो य तहा, एगे संसित्तमेव य / / 23 / / आणाभंगमबोही य, ससल्लत्तं भवे भवे। एवमादी य सल्लस्स, नाभे एगट्ठिए बहु / / 24 / / जेणं सल्लियहियस्स, एगस्सि बहु भवंतरे। सध्वंगोवंगसंधीओ, पसलंती पुणो पुणो॥२५।। ये य दुविहे समक्खाए, सल्ले सुहुभे य बायरे। एक्कक्के तिविहे जेए, घोरग्गुग्गतरे तहा॥२६|| घेरा चउव्विहा माया, घोरगं माणसंजुयं / माया लोभे य कोहे य, घोरगुग्गतरे मुणे / / 27 / / सुहुभवायरभेएणं, सप्पभेयं पितं मुणी। अरइं समुद्धरे खिप्पं, ससल्लो णेव सो खणं / / 2 / / खुड्डुलगि त्ति अहिपोए, सिद्धत्थतुल्ले सिही। संपलग्गे खयं णेइ, गरपुरे विज्झाडई // 26 // एवं तणु तणुयरं, पावसल्लमणुट्ठियं / भवभवंतरकोडीओ, बहुसंतावपदं भवे // 30 // भयवं! सुदुद्धरे एस, पावसल्ले दुहप्पए। उद्धरियं पिण याणंती, बहवे जह उद्धरिजई // 31 / / गोयम ! निम्मूलमुद्धरण, नियमे तस्स भासियं / सुदुद्धरिस्स वि सल्लस्स, सव्वंगोवंगभेदिणो।।३।। सम्मइंसणं पढम, सम्मन्नाणं बिइज्जियं। तइयं च सम्मचारित्त-मेगभूयमिमं तिगं // 33 / / खेत्तीभूते वि जे जित्ते, जे गूढे दंसणं गए। जे अट्ठीसुं ठिए केई, जे त्थिमज्झंतरं गए। सव्वंगोवंगसंखुत्ते, जे अभिंतरबाहिरे। सल्लंती जेण सल्लंती, तं निम्मूलं समुद्धरे ||35|| (महा०) ताणि सल्ले भवित्ताणं, सव्वसल्लं विवजिए। जे धम्ममणुचिढेजा, सव्वभूयप्पकं पिया।।३६।। तस्स तं सफलं होजा, जम्मजम्मंतरेसु वि / विउला संपयरिद्धी य,लभेजा सासयं सुहं / / 40|| महा०१अ०॥ तिन्नि सल्ल महाराय, अरिंस देहे समुट्ठिया। वायमुत्तपुरीसाणं, पत्तं वेगं न धारए / / ओघo 'त्रयःशल्या महाराज ! अस्मिन् देहे समुत्थिताः। वायमूत्रपुरीषाणां, प्राप्तं वेगं न धारयेत्।।१।। पं० चू० १कल्प०।" "उद्ध-रियसव्वसल्लो, सिज्झइ जीवो धुयकिलेसो" द०प०नि०चू०('मरण' शब्द षष्ठभागे 135 पृष्ठे विस्तरः।) सल्लइ-स्त्री०(सल्लकी) स्कन्धबीजवनस्पतिभेदे, सूत्र० १श्रु० १अ० 330 स्था०। आचा०। आ०म०। उत्त० गजप्रियाख्ये वृक्षविशेषे, प्रज्ञा० १पद। सल्लइपत्त-न० (सल्लकीपत्र) शल्लक्याख्यवृक्षविशेषदले, ज्ञा० १श्रु० ७अ०। सल्लकत्तण-न०(शल्यकर्तन) कृन्ततीति कर्त्तनं शल्यानिमायाशल्यादीनि तेषां कर्त्तनं शल्यकर्त्तनम् / मायादिशल्यच्छेदके, आव०४ अ०॥ तद्भावितानां हि भावशल्यानिव्युच्छेदमायान्तीति। औ०। आ०म० भ०। ज्ञा०ा उपा०। धा शल्यपापानुष्ठानं तज्जनितं वा कर्म तत्कतयतिछिनत्ति तच्छल्यकर्तनम्। सूत्र० १श्रु० 140 सल्लग-न०(सल्लग) रगे लगे संवरणे / शोभनं लगनं संवरणमिन्द्रियसंयमरूपं सलगस्तद्भावः / इन्द्रियसंवरणे,सूत्र०२श्रु० २अ० * शल्यग-न०। शल्यवच्छल्यं मायानुष्ठानकार्य गायति-कथयति शल्यगम्। मायापरिज्ञाने, सूत्र०२श्रु०२ अ०। आ०म०ा प्रश्न०। सल्लगहत्त-न०(शल्यकहत्त्य) शल्यस्य हत्या-हननमुद्धारइत्यर्थः शल्यहत्या तत्प्रतिपादकम् शल्यहत्त्यम्। शल्योद्धारवैद्यकशास्त्र, विपा० १श्रु०७अ०। स्था० सल्लुद्धरण-न०(शल्योद्धरण) शल्यानां मायाशल्यादीनां समुद्धरणकरणत्वाच्छल्योद्धरणम् / पा०। शल्यकर्त्तने, कण्टका-युद्धारे,पश्चा० 16 विव०। ग०। आलोचनायाम्, ओघof आलोयणा वियडणा, सोही सब्भावदायणा चेव। निंदण गरिह विउट्टण, सल्लुद्धरणं ति एगट्ठा / / 761 / / आलोचना विकटना शुद्धिः सब्भावदायणा णिंदण गरहणा विउट्टणं सल्लुद्धरणं चेत्येकार्थिकानीति। एत्तो सल्लुद्धरणं, वुच्छामि धीरपुरिसपन्नत्तं / जं नाऊण सुविहिया, करेंति दुक्खक्खयं धीरा 762 ओघ०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे 405 पृष्ठे गता।) (कण्टकोद्धरणम् 'कंटयाइउद्धरण' शब्दे तृतीयभागे 170 पृष्ठे गतम्।) (अन्यथाकरणे प्रायश्चित्तं 'पच्छित्त' शब्दे पश्चमभागे 130 पृष्टे प्रतिपादितम्।) (प्रतिसेवनां कृत्वाऽऽलोचयेत् इति पडिसेवणा' शब्दे पञ्चमभागे 363 पृष्ठे गतम्।) भोगो अणेसणाणीए, समियत्तं भावणाण भावणया। जह सत्तिं चाकरणं, पडिमाणं पडिग्गहाणं च / / 33 / / भोगो भोजनम् अनेषणीये कल्पेऽशनादौ विषयभूते इत्यष पिण्डवि. शुद्धिलक्षण उत्तरगुणेऽतिचारः / तथा असमितत्वमप्रयत्न इति शेषसमितिचतुष्टये भावनानां महाव्रतरक्षणोपायभूतानां पञ्चविंशतेरनुप्रक्षाणां वा द्वादशानां किमित्याह-अभावनता प्राकृतत्वेन ताप्रत्ययस्यस्वार्थिक Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लुद्धरण 563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सवण त्वादभावना अभावनस्य वाऽविद्यमानभावनस्य भावोऽभावनताऽनासेवनमिति भावनातिचारः / तथा यथाशक्ति च यथाबलं व अकरणमसेवा, प्रतिमानां भिक्षुप्रतिमानां मासिक्यादीनाम् अभिग्रहाणां च द्रव्यादिनियमानां चशब्दाद्विविधतपश्चेति ततः प्रतिमा-भिग्रहाणामतिचार इति। एते इत्थऽइयारा, ऽसद्दहणादी य गुरुयभावाणं / आभोगाणाभोगा-दि सेविया तह य ओहेणं // 34 // एतऽनन्तरोक्ताः ' एत्थ' ति-एतेषु यथाक्रम मूलगुणोत्तरगुणेषु अतिचारा-अतिक्रमाः, तथा अश्रद्धनादयश्चअश्रद्धानविपरीतप्ररूपणादयश्च भावानां जीवादिपदार्थानाम् अतिचारा इति प्रकृतम् / किं विधा इत्याह - 'गुरुग' ति-गुरुकाः पृथिवीसंघहनादिभ्यः सकाशान्महान्तः, सद्धर्ममहाद्रुममूलकल्पसम्यक्त्वदूषकत्वादेषाम् एते च सर्वेऽपि आभोगानाभोगादिसेविता आभोगानाभोगादिकृताः, तत्राभोगोऽकर्तव्यमिदमिति ज्ञानम्, अनाभोगस्त्वज्ञानम्, आदिशब्दात्सहसाकारभयरागद्वेषादिपरिग्रहः / तथा चेति समुच्चये। ओघेनाभोगानाभोगादिविशेषाभावेनोपयुक्तगमनागमनादिना / अथवा-ओघेनलोकप्रवाहेण। अथवा-तथा चेत्येवंस्थिते, ओघेनसामान्येन सामरत्येनेति यावत् आलोचयेदिति योग इति गाथार्थः। ततः किमित्याहसंवेगपरं चित्तं, काऊणं तेहि तेहिँ सुत्तेहिं। सल्लाणुद्धरणविवा-गदंसगादीहि आलोए।।३५।। संवेगपर-भवभयप्रधानं, मोक्षं प्रति प्रचलनवद्वा चित्तंमनः कृत्याविधाय / कै रित्याह-तैस्तैः प्रवचनप्रसिद्धः। सूत्र-क्यिविशेषः / किंविधैः? शल्यानुद्धरणेऽकृत्यकरणभावशल्याप्रकाशने यो विपाकोदुष्टपरिणामस्तं दर्शयन्ति यानि तानि तथा, तदा-दिभिः-तत्प्रभृतिभिः आदिशब्दाच्छल्योद्धरणगुणसंदर्शकसूत्र-परिग्रहः आलोचयेद गुरवे निवेदयत्। आलोचकोऽतिचारानिति प्रकृतम, अथवा-आलोचयेदिति आलोचयेदगुरुः शिष्यमिति गाथार्थः / अथ शल्यस्यैव लक्षणमाहसम्मं दुच्चरितस्स, परसक्खिगमप्पगासणं जंतु। एयमिह भावसलं, पण्णत्तं वीयरागेहिं // 36 / / सम्यग्भावतः दुश्चरितस्य-दुष्कृतस्य परसाक्षिक-गीतार्थाध्यक्षम् / अप्रकाशनम-अप्रकटनम्, यत्तु-यत्पुनः एतद् दुश्चरिताप्रकाशनम् इह शल्यविचारे भावशल्यं द्रव्यशल्येतरत् प्रज्ञाप्त-प्ररूपितं वीतरागैःजिनैरिति गाथार्थः। शल्यानुद्धरणविपाकदर्शकादिभिः सूत्ररित्युक्तमथ तदर्शनाय गाथाद्वयमाहण वितं सत्थं व विसं, दुप्पउत्तो व कुणति वेतालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो व पमादिओ कुद्धो / / 37 / / जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धितं उत्तिमढकालम्मि। दुल्लहबोहीयत्तं, अणंतसंसारियत्तं च / / 3 / / नापि-नैव तमपाय कराताति योगः। शस्त्रं वा खङ्गापि कतृभूतम विष वा हलाहलं दुष्प्रयुक्तो वा दुःसाधितो वा करोति-विधत्ते / वेतालःपिशाचः यन्त्रं वा शतधन्यादि दुष्प्रयुक्त- दुर्व्यापारितम्, सो वा भुजङ्गः प्रमादितोऽतगीतः कुदः-कुपितः सन्निति वाशब्दो विकल्पार्थः / यमपाय कराति-विधने यावशल्यं-दुश्चरितम् / अनुद्धतमनाकृष्टं जीवदेहात् उत्तमार्थ:-प्रधानप्रयोजनं-पण्डितमरणं समस्तानुष्ठानशेखर-कल्पत्वात्तस्य कालः-अवसर उत्तमार्थकालस्तस्मिन् / शस्त्रादीनि ह्येकभविकमेव मरणं कुर्वन्ति, एतचानन्त-जन्ममरणपरम्पराम, अत एवाहदुर्लभबोधित्वमसुलभजिनधर्मताम्। अनन्तसंसारिकत्व-मनन्तमवभाक्त्वम् / चः समुच्चये। सम्यक्त्वचरणभ्रष्टो युत्कर्षणापार्धपुद्गलपरावतप्रमाणसंसारभाजनं भवतीति, भावशल्योद्धारगुणसंदर्शकसूत्राणि पुनरेवम्-"आलोयणापरिणओ सम्म काऊण सुविहिओ काला उक्कोस तिणि भवे, तूण लभेच निव्वाणं // 1 // " इत्यादीनीति गाथाद्वयार्थः / पञ्चा०१५विव०। सल्लमुद्धरिउकामेणं, सुपसत्थे य सोहणे दिणे / तिहिकरणमुहुत्तनक्खत्ते, जोगे लग्गे ससीबले // 41 / / कायच्वायं विलक्खमणं, दस दिणे पञ्च मङ्गलं / परिजवियव्वं अट्ठसयं, सयहा तदुवरिं अहयं करे / / 42 / / अट्ठमभत्तेण पारित्ता, काऊणायंबिलं ततो। चेइयसाहू य वंदित्ता, करिज क्खंतमरिसियं / / 43 / / जे केइ दुछ संलत्ते, जस्सुवरि दुछ चिंतियं / जस्स य दुठु कयं जेण, परिदुख व कयं भवे / / 4 / / तस्स सव्वस्स तिविहेणं, वाया मणसा य कम्मुणा। णीसलं सव्वभावेणं, दाउं मिच्छा मि दुक्कडं / / 4 / / पुणो वि वीयरागाणं, पडिमाओ चेइयालए। पत्तेयं संथुणे वंदे, एगग्गो भत्तिनिब्भरो॥४६|| वंदितुं चेइए सम्म,छट्ठभत्तेण परिजवे / इमं सुयदेवयं विजं, लक्खहा चेइया लहे / / 47|| उवसंतो सव्वभावेणं, एगचित्तो सुनिच्छओ। आउत्तो अव्ववक्खित्तो, रागरइअरइवजिओ॥४८|| महा०१० सव-न०(शव) मृतशरीरे, 'कुणवं सवं च मडयं' पाइ० ना० 158 गाथा। सवण-न०(शपन) अभिधाने, आक्रोशे, स्था०३ठा० 330 / *श्रवण-ना वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंसृष्टार्थग्रहणरूपे उपलब्धिविशेषे, आ०म० अ० अभिलापप्लावितार्थग्रहणस्वरूपे उपलब्धिविशेषे, अनु०। आ०म०। कर्णे, "सवणा कण्णा'' पाइ० ना० 251 गाथा। (दाभ्यां स्थानाभ्यामात्मा शब्दं शृणोति इति 'इंदिय' शब्दे द्वितीयभागे 556 पृष्ठे गतम्।) श्रवण-विषयीकरणे, द्रव्या० १०अध्या०) आकर्णने, पशा० १विव०। साधुसमीपे जिनागमाकर्णने, पचा० १विवाधा सूत्रका उत्ता Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवण 564 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सवहसाविय सम्प्रति श्रवणविधिप्रतिपादनार्थमाह यास्पद च वित्तसंघात इत्यसारता तीर्थकरभाषिताकर्णनोद्भवाथ निद्दाविगहापरिव-जिएहि गुत्तेहि पंजलिउडेहि। संवेगोदयो जातिजरामरणरोगशोकाधुपद्रवव्रातरहितापवर्गहतव इति भत्तिबहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं / / 707 / / सारता, अतः श्रोतव्यं जिनवचनमिति अभिकंतेहि सुभा-सियाइँ वयणाइँ अत्थसाराई। अधवाविम्हियमुहेहि हरिसा-गएहि हरिसं जणंतेहिं // 701 / होइ दढं अणुराओ, जिणवयणे परमनिव्वुइकरम्मि! निद्राविकथापरिवर्जितैः परिवर्जितनिद्राविकथैरित्त्यर्थः, गुप्तै: सवणाइँ गोयरो तह, सम्मदिट्ठिस्स जीवस्स।।५।। मनोवाक्कायगुप्तैः 'पंजलिउडेहिं' इति-निष्टान्तस्य प्राकृतत्वात्परनिपात यद्वा-किमनेन निर्गतः एव भवति-जायते दृढम्-अत्यर्थमनु-रागःइति कृतप्राञ्जलिभिः भक्तिः- यथोचिता बाह्या प्रतिपत्तिर्बहुमानम्- प्रीतिविशेषःक्व? जिनवचन-तीर्थकरभाषिते किंविशिष्ट परमनिर्वृत्तिकरेआन्तरः प्रीतिविशेषस्तत्पूर्वम् उपयुक्तैः श्रवणैकनिष्ठस्ततो गुरुमुखाद्वि- उत्कृष्ट समाधिकरणशीले किं गोचरोऽनुरागो भवति इत्यगहनिर्गतानि वचनानि सुभाषितानि शब्दार्थदोषरहितानि तथा अर्थसाराणि श्रावणादिगोचरः-श्रवणश्रद्धानानुष्ठानविषय इत्यर्थः, तथा तेन प्रकारेण विपुलाथसमन्वितानि अभिकाङ्क्ष दिरपूर्वापूर्वश्रवणतो हर्षागतैरागतहर्षे - कस्येत्यत्राहसम्यग्दृष्टः जीवस्य प्रक्रान्तत्वात् श्रावकस्येत्यर्थः अतोऽसौ रित्यर्थः, हर्षोत्कर्षवशादेव विस्मितमुखैस्तथा अन्येषां संवेगकरणादिना श्रवणे प्रवर्त्तत एव, ततश्च शृणोति इति श्रावक इति युक्तमिति हर्ष जनयद्भिः श्रोतव्यम् / एवं च तैः शृण्वद्भिर्गुरोरतीव परितोषप्रकारेण गाथाभिप्रायः / श्रा०। दशा०। आचा०। 'सवणे नाणफले' प्रव० रद्वार। प्रकृष्टेन आपाद्यते। कर्ण, श्रोत्रोपलब्धिरूपे निर्वृत्तिरूपे च शब्दग्रहणेन्द्रिये, ग०३अधिo ततः किमित्याह औ०। स्वनामख्याते विष्णुदेवताके ( अनु०) त्रितारे नक्षत्रभेदे, स्था० गुरुपरितोसगएणं, गुरुभत्तीए तहेव विणएणं / ३ठा० ४उ०|ज्यो०। सूत्रा जा स०। सू०प्र०। इच्छियसुत्तत्थाणं, खिप्पं पारं समुवयंति // 706 / / * सवन-न०। कर्मसु प्रेरणे, 'पू' प्रेरणे इति वचनात्। सू०प्र० १०पाहु०। सवणया-स्त्री०(श्रवणता) श्रूयतेऽनेनेति श्रवणमेकसामयिकः।सामागुरुपरितोषगतेन-गुरुपरितोषप्रकारेण, प्रकृष्टन गुरुपरितोषेणेत्यर्थः, न्यार्थावग्रहरूपोऽर्थावग्रहरूपो बोधपरिणामस्तद्भावश्च श्रवणता / सोऽपि कथमित्याह-गुरुभक्त्या -आन्तीतिविशेषरूपया तथैव विनयेन श्रवणभावे, श्रवणार्थे, भ०६ श०३१ उ०ा स्था०। औ०। च देशकालाद्यपेक्षया यथोचितप्रतिपत्तिकरणलक्षणेन, किमित्याहसम्यक्सद्धावप्ररूपणयाईप्सितसूत्रार्थयोः क्षिप्रं-शीघ्रंपारं समुपयान्ति। सवणसंवच्छर-पुं०(सक्नसंवत्सर) सवनं कर्मसु प्रेरणम् 'पू' प्रेरणे इति आ०म० १अ स्था०ा पं०व०। विशेष वचनात,। तत्प्रधानः संवत्सरः सवनसंवत्सरः। कर्मसंवत्सरापरनामके संवत्सरभेदे, कम्मो ति सावणो त्ति य, उउ त्ति यतस्स नामाणि। सू०प्र० श्रवणविधिमाह १०पाहु। मूयं हुंकारं वा, वाढक्कारपडिपुच्छवीमंसा। सवण्ण-त्रि०(सवर्ण) सदृशे, स्था० १०ठा० ३उ०। तत्तो पसंगपारा-यणं च परिणिट्ठसत्तमए / / 565 / / सवत्ती-रत्री०(सपत्नी) समानः-साधारणः पतिरस्याः सा सपत्नी। मूकमिति-मूकं शृणुयात्। इदमुक्तं भवति-प्रथमवाराश्रवणे सयतगात्रः स्वपत्त्युद्धितीयभार्यायाम्, स्था० ४ठा० ३उ०। सन्तूष्णीमाश्रितः सर्वमवधारयेत्। द्वितीयवारयातु हुंकारं दद्याद्-वन्दन सवध-पुं०(सपथ) इदमित्थमेव करिष्यामि इति निश्चितवाक्ये, प्रा० कुर्यादित्यर्थः, तृतीये श्रवणे वाढंकारं कुर्यादेवमेतन्नान्यथेति ब्रूयादित्यर्थः, ४पाद। चतुर्थे तुगृहीतपूर्वापरसूत्राऽभिप्रायो मनाक् प्रतिपृच्छां कुर्यात्कथमेतत्? सवयणणिराक़य-त्रि०(स्ववचननिराकृत) आत्मीयवचनैरेव खण्डिते इति, पञ्चमे तुमीमांसां विदध्यात्तत्र मातुमिच्छा मीमासा प्रमाणजिज्ञासेति वाक्ये, यथा यदह वच्मि तन्मिथ्येति। स्था० १०ठा० 330 यावत्, ततः षष्ठे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चाऽस्य भवति, सप्तमे सवस-त्रि०(स्ववश) स्वतन्त्रे, प्रश्र०१आश्र० द्वार। श्रवणे परिनिष्ठा भवति। एतदुक्तं भवति-गुरुवन्दनभाषत एव सप्तमवा सवसयण-न०(शवशयन) श्मशाने, नि०चू०१२उ०। रायामिति / तदेवं शिष्यगतः श्रवणविधिरुक्तः। विशे० न०। च०प्र०। सवह-पुं०(शपथ) "पो धः" ||8/1/231 / / इति पस्य वः / प्रा०। जिनवचनश्रवणस्य सारतामुपदर्शयन्नाह "नावात्पः" / / 8 / 1 / 17 / / इतिपस्य लुक् न भवति। सवहो / प्रा० न वितं करेइ देही,ण य सयणो णेय वित्तसंघाओ। वाक्यविशषे, ज्ञा० १श्रु०१अ०) जिणवयणसवणजणिया, जं संवेगाइया लोए।।४।। सवहसादिय-त्रि०(शपथश्रा(शा)पित) शपथान् देवगुरुद्रोहिका नापि तत्करोति देहो नचस्वजनोनच वित्तसंघातः जिनवचनश्रवण- भविष्यसि त्व यदि विकल्प नाख्यासीत्यादिकान्वाक्यविशेषान् श्रापिता जनिता यत्सवेगादयो लोके कुर्वन्ति। तथा ह्यशाश्वतः प्रतिक्षणभड्गुरो श्रोत्रेन्द्रियोपसमभिहिताः, शपथैर्वा श्रापिताः शपथश्रापिताः, शपथदेहः शोकायासकारणं क्षणिकसंगमश्च स्वजनः अनिष्ठितायासव्यवसा- शापिता वा / शप्तेषु आक्रुष्टषु, ज्ञा० १श्रु०१ अ०) Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाय 565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्व सवाय-पुं०(सवाद) सह वादेन सवादः / वादसहिते, सूत्र०२श्रु०७अ० / सवियारसमाहि-पुं०(सविचारसमाधि) सावच्छेदवस्त्वालम्बने समाधौं, * सद्वाद-पुं० शोभनभारत्याम, सूत्र०२२०७अ०। द्वा०। (सच 'जोश' शब्द चतुर्थभागे 1626 पृष्ठे।) *सद्वाच्-स्त्री० शोभनवचने, सूत्र०२ श्रु०७अ०। सवियारि (ण)-न०(सविचारिन्) सविचारेण वर्तत इति सविचारि / सवार-न०(सवार) प्रभाते, बृ० 130 २प्रक०। सर्वधनादित्वादिन् समासान्तः / अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्ते, स्था०४ठा० सवित-त्रि०(शपयत्) इदं चेद परुत्परारि वा भविष्यति इत्थंभूत-वासि १उ०। ग० श्रावयति, औं सविसाण-त्रि०(सविषाण) सशृङ्गे, निर्ग्रन्थीभिः सविषाणे आसने सविअविजाणुगय-पुं०(स्वविद्यविद्यानुगत) स्वा आत्मीया विद्या नोपवेष्टव्यम्। तत्र सविषाणं नाम, यथा कपाटस्योभयतः शृङ्गे भवतः यत्र स्वविधा परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तया स्वविद्यया अनुगता: मिसिकादौ पीटफलके वा विषाणं शृङ्ग भवति। वृ०५७०। सविसेस-त्रि०(सविशेष) सह विशेषेण वर्तते इति सविशेषम्। सोत्तरगुणे, युक्ताः न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति। लोकोत्तरागमयुक्तेषु, उत्त०७अ०नि०चू०। 'सओवसंता अममा अकिचणा, सविजणाणाणुगया जससिणो। दश० सविसेतर-त्रि०(सविशेषतर) बृहत्तरे, नि० चू०१उ०। ६अ। सविहोड-त्रि०(सविहोढ) सजुगुप्सनीय, बृ० १७०२प्रक०। सविट्ठा-स्त्री०(श्रविष्टा) धनिष्ठापरपर्याय नक्षत्रभेदे, चं०प्र० १०पाहु०॥ सपीरिय-त्रि०(सवीर्य) वीर्यशक्त्युपेते, सूत्र० १श्रु० ८अ, सू०प्र० सवेंटय-त्रि०(सवृन्तक) नालयुक्ते, बृ०५उ० सवित्तिय-त्रि०(सवृत्तिक) चैत्यप्रतिबद्भगृहक्षेत्रादिवृत्तिभागिषु, बृ० 130 सवेयग-पुं०(सवेदक) स्त्र्यादिवेदयुक्ते, भ०१७श० २उ०। स्त्रीवेदाधु२प्रक० दयवति, स्था० २ठा० ३उ०। संसारिणि, स्था० २ठा० ४उ०। सवियप्पसमाहि-पुं०(सविकल्पसमाधि) संप्रज्ञातसमाधौ, द्वा० सव्व-पुं०(शर्व) शिवे रुद्रे, वाचा २०द्वा०ा ('जाग' शब्दे चतुर्थभागे 1626 पृष्ट विस्तरो गतः।) * सर्व-त्रि० सृ गतौ स्त्रियतेऽसौ स्त्रियतेऽनेनेति वा सर्वम्, विशे०। सविया-पुं०(सवितृ) आदित्ये, आ०म० अ०। (आदित्यादेव दिग्विभाग "सर्वत्र लवरामचन्द्रे"||२|७६॥ इति। रलोपे द्वित्त्वम् / प्रा०। अशेषे, इति 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठे दर्शितम् / ) हस्तनक्षत्रे, सूत्र० १श्रु० ११अ०। उत्त। अपरिशेषे, नि० चू० १उ०। आचा० हस्तनक्षत्रस्य सविता देव इति हस्तोऽपि सविता। अनु०। समरते,पा०। पञ्चा०। दश०। औ०। प्रश्न आ०म०। दर्श०। सकले, दो सविया। (सू०९०+) स्था० २ठा० ३उ०। आ०चू० १अ०। विश्वशब्दार्थे, स्था० १०ठा० ३उ०। सवियार-पुं०(सविचार) विचरणं विचारः। अर्थाद् व्यञ्जने व्य-जनादर्ये चतारि सव्वा पण्णत्ता, तं जहा-णामसवए ठवणसव्वए मनः प्रभृतियोगानां चान्यस्मादन्यस्मिन् विचरणम्। भ० २५श०७०। आएससव्वए णिरवसेससव्वए। स्था०४ठा० १उ०। आव०। सह विचारण वर्ततइति सविचारः / अर्थव्यञ्जनयोगसंक्रमे, आव० (व्याख्या 'सर' शब्दे) सर्वत्र ककारः स्वार्थिको द्रष्टव्यः / विशे०। 4 अ० दर्शक। सविस्तरे, आह च चूर्णिकृत्- 'सवियारो त्ति वित्थिन्नो' अथ सर्वशब्द व्याचिख्यासुराहबृ०१उ०२प्रक० किं पुण तं सामइयं, सव्वसावजजोगविरइ त्ति। * सविकार-त्रि० भूचेष्टादिसहिते, तं०। सिय एस तेण सव्वो, तं सव्वं कइविहं सव्वं? |3484 // सवियारवयणवज्जण-न०(सविकारवचनवर्जन) सशृङ्गारभ-णितानां किं पुनस्तद् यथोक्तशब्दार्थ सामायिकम्, इत्यत्राह-सर्वसाववर्जने, ध। द्ययोगविरतिरिति / अथ सर्व इति कः शब्दार्थः? उच्चते- 'सृगतौ' सवियारजंपियाई, नूणमुईरंति रागग्गि // 40 // इत्यस्य धातोः सियते स इति स्रियतेऽनेनेति औणादिके वप्रत्यये सर्वः सविकारजाल्पतानि - सशृङ्गारभणितानि नूनंनिश्चितमुदीरयन्त्युद्दीप- पदार्थो वस्तुनितुवाच्ये तत् सर्व वस्त्विति भवति कतिविधं पुनरिदं सर्व यन्ति रागाग्निमतस्तानि न बूते इति शेषः। उक्तं च- "जं सुणमाणस्स भवति? इति गाथार्थः। कह, सुट् ठुयर जलइ माणसे मयणो / समणेण सावरण वि, न सा कहा अथ 'कतिविधं सर्वम्,' इति प्रश्नोत्तरमाहहोइ कहियव्दा।।१।।" उपलक्षण चैतत् द्वेषानलमप्युद्दीपयन्ति केषांचि- नामंठवणा दविए, आएसे चेव निरवसेसं च। दित्यतोऽनर्थदायकानि मित्रसेनस्येव सविकारजल्पितानि न भाषणी- तह सव्वधत्ता सवं, च भाव सव्वं व सत्तमयं // 3485|| यानि / ध०र०२अधि० लक्ष०। (मित्र-सेनकथा 'मितसेण' शब्दे नामसर्वम्, स्थापनासर्वम्, द्रव्यसर्वम्, आदेशसर्वम्, निरवशेषसर्वम्, षष्ठभागे गता।) तथा सर्वधत्तासर्वम, भावसर्व च सप्तमकम्, इति नियुक्ति- गाथार्थः / Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्व 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वओभद्द तत्र नामस्थापनासर्व सुगमम्, द्रव्यसर्व तु ज्ञभव्यशरीरव्यतिरिक्त व्याचिख्यासुराहकसिणं दव्यं सव्वं, तद्देसो वा विवक्खयाऽभिमओ। दव्वे तद्देसम्मि य, सव्वा सव्वे चउभंगा॥३४८६।। सव्वासवे दव्वे, देसम्मि य नायमंगुलीदव्वं / संपुण्णं देसोणं,पव्वं पव्वेगदेसोय // 3487 / / इहागुल्यादिद्रव्यं यदा कृत्स्नं सर्वैरपि निजावयवः परिपूर्ण विवक्ष्यते तदा सर्वमुच्यते / एवं तस्याङ गुल्यादिद्रव्यस्म पदिक देशा निजावयवपरिपूर्णत्वविवक्षया सर्वोऽभिमतः ! बाशयात्रा- पिशब्दार्थ व्याख्यात / एतदेव चाडगुल्यादिद्रव्यं तद्देशो कायदा आरिपूर्णतया विवक्ष्यते तदा प्रत्येकमसर्वत्वं द्रष्टव्यम्। ततश्चद्रव्य तोच सर्वारसर्वत्वेन विविक्षित स्तुर्भङ्गो-भङ्गचतुष्टयं भवति, तद्यथा-द्रव्यसर्व दशोऽपि सर्वः, न्य सर्व देशोऽसदः देशः सर्वो द्रव्यमसर्वम्, देशाऽसर्वो द्रव्यामप्यपमिति। अत्र द्रस्य सर्वत्वेऽसर्ववेच देशस्थापि सर्वत्वेऽसर्वत्केच प्रथाक्रमं ज्ञातमुदाहरणम्, तद्यथा- अड्गुलिद्रव्यं संपूर्ण विवक्षित द्रव्यसर्वमुच्यते, तदेव देशोन विवक्षितं द्रव्यारावमभिधीयत, पर्व पुनःसंपूर्ण विवक्षित देशसर्व विवक्षितम, पर्वेकदेशस्तु देशासमिति। उक्त द्रव्यसर्वम / (विशे०।) (आदेशवक्तव्यता 'आएसमयय' शब्दे द्वितीयभागे 47 पृष्ठे उक्ता।) निरवशेषसर्वमाहदुविहं तु निरवसे सं,सव्यासेसं तदेकदेसो य। सव्वासेसं सध्दे, अणिमिसनयणा जहा देवा।।३४८६।। तद्देसा परिसेसं,सव्ये असुरा जहा असियवण्णा। जह जोइसालया वा, सव्वे किर तेउलेस्सागा॥३४६०॥ निरवशेषं चुनधिधम्-विवक्षितसर्ववस्तुनिरवशेष, तद्देशनिर-वशेष यात्रि सर्वनिरवशेष यथा-सर्वेऽनिमिषनयना देवाः। इहा- निमिषनयनन्यनपरिशेषेरबाय वेधुनते सनिमिषत्यस्तावादिति।। उद्देशापरिशषं तु या सध्यसितवण:-कृष्णा असुराः, यथा ! मोतिकालया देवाः सर्व किल तजालेश्या-काः / इहासुस ज्यातिष्यालयाश्व देवाः सभस्तदेवानां प्रत्येकमेक- देश वर्त-त. तेषु सर्वेषु राथासंख्यं कृष्णवर्णत्वं तेजोलश्यायुक्तत्वं च वर्तत इति देशापरिशेष मन्तव्यमितिः अथ सर्वधत्तासर्वमाह... जीवाजीवा सव्वं, तं धत्ते तेण सव्वधत्त त्ति। सवे वि सव्वधत्ता, सव्वं जमओ परं णन्नं // 3461|| इह सवस्मिन्नापेल के सदस्ति तत् सर्व जीवाश्चाऽजीबाच, तत सर्व धते धारोनोमन सा विवक्षा निपातनात सर्वधत्ता, सेव चह जीवाजीवरूपा शिया सबंधत्ता सर्वमुच्यते / यस्माद्यतो जीवाजीवसशिद्वपाल परं नान्यत किाशदस्तीति। आह-ननुद्रव्यसवेस्थादेशसर्वस्य निरवशेषसर्वस्य सर्वधत्ता सर्वस्य च कः प्रतिविशेष:? इत्याहअह दव्वसव्वमेगं, दव्वाधारं ति भिन्नमन्ने हिं। एगाणेगाधारो-वयारभेएण चादेसं // 3462 // भिण्णमसेसं जमिहे-गजाइविसयं ति-सव्वधत्ताओ। भिन्ना य सव्वधत्ता, सव्वाधारो त्ति सव्वेसिं // 3463 / / अथ 'द्रव्यसर्वादीना भेद उच्यते' इति शेषः / तत्र द्रव्यर्व तावदेकद्रव्याधारमुक्तमित्यन्येभ्यो भिन्नम्, तेषां तद्रूपत्वाभावात्। आदेशसर्व त्वकानेकद्रव्याधारमिति कृत्वा तथोपचारभेदेन च 'भिन्नमन्ये-यः' इति वर्तत इति। अशेषसर्वमपि सर्वधता सर्वस्मात् पूर्वोक्ताभ्यां च भित्रम्, यस्मादेकजातिविषयं तदिति / सर्वधत्ताऽपि सर्वेभ्यः पूर्वेभ्यो भिन्ना सर्ववस्त्वाधारत्वादिति। अथ भावसभाहकम्मोदयस्सहावो, सव्वो असुहो सुहो य ओदइओ! मोहोवसमसहा सव्वो उवसामिओ भावो॥३४६४|| कम्मक्खयस्सहावो, खइओ सव्वो य मीसओ मीसो। अह सव्वदध्वपरिणइ-रूवो परिणामिओ सय्यो / / 3465 / / ननु सप्तर्विधसर्वमध्यात् केनात्राधिकारः? इत्याहअहिगयमसेससव्वं, विसेसओ सेसयं जहाजोगं। गरहियमवज्जमुत्तं, पावं सह तेण सावजं / / 3466 / / 'इह सर्वसावधं योग प्रत्याख्यामि' इति संबन्धाद निरवशेषसर्व विशेषताऽधिकृतम् , शेषकं तुषड्विधं सर्वं यथायोग यद्यत्र युज्यते तत तत्र योजनीयमिति। तदेवं 'करणे भए य अंत सामाइ-सव्वए' इत्यादि। विशेल। आचाग आ०म०। आ०चू० न०। स्था०। सव्वअंजणगमय-त्रि०(सजिनकमय) अञ्जनकः कृष्ण रत्नविशेषस्तन्मयाः सर्व एवानन्यमयत्वेन सर्वथैवाञ्जनमयाः सञ्जिनमयाः / परमकृष्णेषु स्था०४ठा०२उ०। सव्वउय-त्रि०(सर्व क) सर्वर्तुसम्भवे, औ० स० सव्वओ- अव्य०(सर्वतस्) सर्वैः प्रकाररित्यर्थे, स्था० ३टा० 430: आचा। सूत्र०। जी०। दशा०। कल्प०। रा०। विपा०। 'सव्वओ समन्ता सपरिवखुरी' सर्वतः रार्वासु दिक्षु समन्तात् सर्वेरेवात्मप्रदेशैः सर्व विशुद्धस्पर्द्धकैः, उक्तं च चूर्णा- सव्वओ त्ति सव्वास दिसि विदितासु समंता इति सव्वायप्पएसेसुसव्वेसुवा विसुद्धफडगेसु' इति अत्र रतीयार्थ सप्तमी। नं०॥ सव्वओगुत्त-त्रि०(सर्वतोगुरा) सर्वप्रकारतयन्द्रियन डालरूपया गुप्तागुप्ते, आचा० 1205 अ० सव्वओभव-न०(सर्वतोभद्र)सवावस्यसुरवं, "पा ५५०८ओ इघरलाए - भई वो सबओभहो"पं००१ कल्प० दशमदत कल्पन्दस्या ध्युतस्य पारियानिके विमाने, स्था० १०टा०३उ०। प्रवला जाऔग महाशुदेवलोके स्वनामख्याते (स० १३सम०) यक्षभेदे, पुं०। प्रज्ञा० १पद। दृष्टिवादग्य स्वनामके सूत्रे, सासर्वतोभद्राणि मुखानियस्य। चतुरियुक्ते गहभदे, ना प्रतिष्ठादौ पूज्यदेवतानां मण्डलभेदज्योतिपोक्ते शुभाशुभ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वओभद्द 567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वकामगुणिय ज्ञानार्थे चक्रभेदे, अलङ्कारोक्तबन्धभेदात्मके चित्रकाय्ये च / सर्वतो- | सव्वंगसुंदर-न०(सर्व्वङ्ग सुन्दर) निखिलावयवप्रधाने, स०। सर्वाङ्गानि भद्रमस्य। निम्बवृक्ष, पुंग नाम्नार्या तटयोषिति स्त्री० शुभाशुभज्ञानार्थ सुन्दराणि यतस्तयोर्विशेषात्सर्वाङ्गसुन्दरः। चित्रतपोविशेषे, पुं०। पञ्चा०। चक्रभेदे, न० आ०म० अ०। स्वनामख्याते भारतवर्षीये पुरे यत्र ___ अथ सर्वाङ्गसुन्दरादितपोविशेषान् विवृण्वन्नाहबृहस्पतिदत्तनामा ब्राह्मणकुमार आसीत्। विपा०१श्रु०५ उ०। अट्ठोवासा एगं-तरेण विहिपारणं च आयामं / सव्वओ(तो)भद्दपडिमा-स्त्री०(सर्वतोभद्रप्रतिमा) दशसु दिक्षु सव्वंगसुन्दरो सो, होइ तवो सुक्कपक्खम्मि॥३०॥ प्रत्येकमहोरात्रकायोत्सर्गे अहोरात्रदशकप्रमाणे, प्रतिमाभेदे, स्था० खमयादभिग्गहो इह, सम्म पूया य वीयरागाणं / स्टा०३उ०। औ० (सा च ‘महासव्वओभद्दपडिमा' शब्दे षष्ठे भागे दाणं च जहासत्तिं, जइदीणाईण विण्णेयं // 31 // उपपादिता।) अष्टावुपवासाः प्रसिद्धाः कथमेकेन पारणकदिनेनानन्तरं व्यवपडिमाए सव्वभद्दाए, पणछसत्तट्ठनवदसेक्कारा। धानमेकान्तर तेनैकान्तरेण / विधिपारणं च प्रत्याख्यानस्पर्श-नादितह अड नव दस एक्का-रस पण छ सत्तय तहेक्कारा।।१५५१।। विधानयुक्तं भोजनं च आयाममाचामान्लमागमसिद्ध यत्र तपोविशेषे पण छ सत्तग अडनव, दस तहग सत्तट्ट नव दसेक्कारा। सर्वाङ्गसुन्दरोऽसौ भवति। तवो त्ति-तपोविशेषः शुक्लपक्षे प्रतीते इति। पण छ तह दस एक्कार--पण छ सत्त ? नव व य तहा।।१५५२|| तथा क्षाम्यतीति क्षमस्तद्भावः क्षमता क्षान्तिस्तदादौ क्षान्तिमार्दवार्जवाछ ग सत्त ड नव दसगं, एक्कारस पंच तह नवग दसगं / दावभिग्रहो नियमः क्षमताद्यभिग्रहः इह तपसि विधेयो भवति / तथा एक्कारस पण छक्कं , सत्तट्ट य इह तवे हुंति // 1553 / / सम्यग्भावतः पूजा चाभ्यर्चनं वीतरागाणां, दानं च यथाशक्ति तिन्नि सया वा णउया, इत्थुववासाण होति संखाए। यतिदीनादीनां विज्ञेयमिति व्यक्तमिति गाथाद्वयार्थः / पञ्चा० 16 विव०॥ पारणया गुणवन्ना, भद्दाइतवा इमे भणिआ / / 1554 / / सव्वंगसुंदरी-स्त्री०(सर्वाङ्गसुन्दरी) सर्वेष्वङ्गेषु सुन्दरीति / गजपुरे प्रतिमायां सर्वभद्रायां, सर्वतोभद्रतपसीत्यर्थः, पञ्च षट् सप्त अष्टौ नव शड्स श्राद्धस्य सुतायाम्, आ०म०१अ०। आ०चू०। ('माया' शब्दे षष्ठे दश एकादश उपवासा इति प्रथमलता, अष्टौ नव दश एकादश पञ्च षट् भागे एतद्वक्तव्यतोक्ता।) सप्तेति द्वितीया, एकादश पञ्च षट् सप्त अष्टी नव दशेति तृतीया, सप्त अष्टौ सव्वंगिय-त्रि०(सर्वाङ्गीण) सर्वाङ्गाणि व्याप्नोति / सर्वावयवव्यानव दश एकादश पक्ष डिति चतुर्थी , दश एकादश पक्ष षट् सप्त अष्टो पके,'तत्थय सव्वंगिओ पुरिसोदीसइ / आ०म० अ०। अत्र-"सर्वानवेति पञ्चमी, घट सात अष्टो नव दश एकादश पक्षेति षष्ठी, नव दश गादीनस्येकः" ||8 / 2 / 151 / / सर्वाङ्गात् सर्वादः पथ्यङ्गेत्यादिना एकादश पञ्च षट् सप्त अष्ट्राविति सप्तमी। स्थापना चेयम विहितस्येनस्य स्थाने इक इत्यादेशः / सर्वाङ्गीणम्। सर्वगात्रे, प्रा० २पाद। जिनका ज्याना अत्र च सर्वसंख्यया त्रीणि शतानि द्विनवत्युत्तराणि उपवासानां भवन्ति सव्वभंतरय-पुं०(सर्वाभ्यन्तरक) सर्वात्मना-सामस्त्येनाभ्यन्तरः एकोनपञ्चाशच पारणकानामुभय सर्वाभ्यन्तरः। स एव सर्वाभ्यन्तरकः प्राकृतलक्षणात् स्वार्थे कप्रत्ययः। मीलने चत्वारि शतान्ये कचत्वा सर्वात्मनाऽभ्यन्तरे, "एस गंजंबूदीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सव्वभंतरए।" रिंशदधिकानि दिनानां भवन्तीति जी०३प्रति० ४अधि। तदेवमेतानि भद्रादीनि भद्रमहाभद्र सव्वकणगामय-त्रि०(सर्वकनकमय) सर्वात्मना कनकमये, जी० भद्रोत्तरसर्वतोभद्ररूपाणि चत्वारि ३प्रति० 4 अधि०। 67810 11/5 तेषां-सि भणितानि / ग्रन्थान्तरे सव्वकम्म-पुं०(सर्वकर्मन्) पक्षस्य सप्तमतिथिदिवसे, जं० १वक्ष०ा 610 1156. पुनरमन्यन्यथाऽपि दृश्यन्ते, एतेष्वपि सव्वकम्मक्खयउवसम-पुं०(सर्वकर्मक्षयोपशम) निखिलज्ञानावरणाचतुर्युतपस्सु प्राग्वत्पारणकभेदतः प्रत्येकं चातुर्विध्यंद्रष्टव्यं दिनसर्वसंख्या दिघातिकर्मणां विगमविशेषे, पञ्चा० रविव०। च यथायथमानेतध्येति / प्रव० 271 द्वार। सव्वकम्मावह-पुं०(सर्वकर्मावह) सर्वपापोपादानभूते आचा० १श्रु० सव्वओसहाययण-न०(सर्षों षधायतन) देहे, रोगादावस्मिन् [अ०१3०। सर्वोषधप्रक्षेपात्। तं० सव्वकाम-त्रि०(सर्वकाम) सर्वाभिलाषे, आ०चू० १अ०। सव्वंकस-वि०(सर्वकष) सर्वकषति कष-खच् / पापे, आव०१० सव्वकामगुणिय-त्रि० (सर्वकामगुणित) सर्वे कामगुणाः सव्वंग-न०(सर्वाङ्ग) सर्वशरीरे, 'सव्वंगओ दाहो' सर्वाङ्गः, सर्व- कमनीयपर्यायाः विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा / शरीरव्यापी दाहः / तंग रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाः सन्तः संजाता वा यत्र तत्सर्वकामगु Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वकामगुणि 568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सवग्घ णेतम् / ज्ञा० १श्रु० ८अ०। सर्वे कामगुणा-अभिलाषविषय-भूता अर्पिताः सम्पन्ना यस्य स सर्वकामसमर्पितः ! इच्छामात्रेऽभिलषिरसादयः सजाता यत्र तत्सर्वकामगुणितम् / भ० १५श01 आ०म०| तोपार्जके, स हि यान्यान् कामान कामयते तेऽस्य सर्वे सिद्ध्यन्तीति आकासर्वाभिलपणीयरसादिसम्पन्ने, "जहा सब्धकामगुणियं पुरिसो यावत्। सूत्र०१श्रु०१अ०३उण मात्तू भायण कोइ ओ० सव्वकाल-पुं०(सर्वकाल) अताताना तवत्तमानकालेषु, 20 / प्रश्न। सव्वकामविरत्तया-सी०(सर्वकामविरक्तता) सानिनि, सव्वकालिया-स्त्री०(सार्वकालिका) सर्वकालेषु भवा सार्वकालिका। आ०१अदा समस्तविषयवैमुख्य, स० ३२सम० अका ध० २अधिला अतीतादिना कालन निवृत्तायाम्, आव० ३अ० सर्वकामविरक्ततामाह सव्वकि रिया-स्त्री०(सर्वक्रिया) धर्मलोकाश्रित समस्तव्यापारे, उजेगी देवलासुय, अणुरत्तालोअणाय पउमरहो। "वित्तिव्वोच्छेयम्मि य, गिहिणो सीयति सव्वकिरिया।" पञ्चा० संगयओमणुमइआ, असिअगिरिअद्धसंकासा॥१३०६।। 4 विवा अमृदु तयिनीय भूपतिर्देवलागुतः। सव्वक्कसुद्धि-स्त्री०(सद्वाक्यशुद्धि) शोमनापामा-भीयायां वाराशुद्धी, दश० ८अ 'सवकसिमपार म और तु बुद्ध परिवहर ममाहिती राजो. नाम्नानुरक्तलोचना / / 1 / / सथा।" दश०७ अ० केशान दिन्यस्तयन्ती सा, राज्ञः पलितमन्यदा। सव्वक्खरसण्णिवाइ(ण)-पुं०( सविसन्निवातिन् सर्वे 5 ते दर. साऽऽक्षेपविख्यौ, स्वाभिन ! दुतः समागतः / / 2 / / अक्षरसन्निपाताश्च तत्संयोगाः, सदया थाऽक्षराणः सन्निपालाः सर्वाक्षरनसभा 16. वासी पश्या यह न किम? सन्निपाताः। ते 2न्तिाः अमिलायानन्तत्वात् यस्य ज्ञेयत्या सन्ति स माऽर्मदूतोऽय, पलिताख्यो निरीक्ष्यताम् / / 3 / / सर्वाक्षरसन्निपाता। सर्वाक्षरसंयोगविदि, भ०१श०१उ० तं निरीक्ष्याधुति चक्र, राजाऽस्मत्पूर्वजाः पुस / *श्रव्याक्षरसन्निवादिन-पुं० श्रव्याणि - श्रवणसुखकारीःण अक्षराणि अदृष्टमलिताः प्रापु-दीक्षा धिग्मा प्रमद्वरम् / / 4|| साङ्गत्येन नितरा वादतुं शीलमस्येति श्रध्याक्षरसन्निवादी / भ०१० सुतं पदारथं राज्ये, न्यस्याभूतापसः स्वयम। 170/ स्वान अक्षरादिसंयोगा विद्यन्त 4षा ले तथा स्वार्थिक इन्प्रत्यादवी संगतको दासः, प्रेष्याणुमातका तथा / / 5 / / योपादानात्। विदितसवालवाइमर्य, रा०पदा० ३उ० र कलप्रज्ञाप नीयभावपरिज्ञानकुशले, जं०१०। रा०। औ०' सवाण्यप्यसितगिरि, प्रथयुस्तापसाश्रमम् / सव्वक्खरसण्णिवाझ्या-स्त्री०(सर्वाक्षरसन्निपातिका) सर्वाक्षराणा दासो दासी च कालन, तावत्प्रव्रज्य जग्मतुः / / 6 / / सन्निपातोऽवतारो यस्यामस्ति, सर्वे चाऽधारसन्निपाताः संयोगाः सन्ति गर्भः समपि नख्यातो, देव्या वृद्धिं गतोऽथ सः। यस्यां सा सर्वाक्षरसन्निपातिका। सकलवादमा-जिनका उपा० अयशोभीरुणा राज्ञा, प्रच्छन्न धारिऽथ सा11 २अ०। औ नुवाना मृता देवी, जाता तु दहिताऽद्रता। सव्वखुड्डाय-त्रि०(सर्वक्षुद्रक) सर्वेभ्यः क्षुद्रकः सर्वक्षुद्रकः / दीर्घत्त्व अनीस्तन्यभन्यास, तापसीनामवर्द्धत || प्राकृतत्वात्। सर्वलधौ, "अयं च णं जंबूदीवे सव्वखुड्डाए' औ०। जी०। सोपतानाम्नकाशा, माधावनमासद: सव्वग-वि०(सर्वग) सर्व गच्छति-जानातीति सर्वगः / सर्वझे, सर्वे गत्यर्था विशाम्यनिस्मपितरं, साऽटवीतः सदागतम्। ज्ञान इति वचनात। स्या०। पावन स्या: स Fis, विषमा विषाः खलु। सव्वगुणपसाहण-न०(सर्वगुणप्रसाधन) सकलगुणावहे तपोविशर्ष, पञ्चा० १विव०। ( 'तव' शब्दे चतुर्थभागे 2003 पृष्ठे गता वक्तव्यता।) दध्यावन्याराश्लेट, घर खालोटजदाराणि: 111011 सव्वगुणसंपण्णया-त्रि०(सर्वगुणसम्पन्नता) ज्ञानादिग्णसहितत्वे, पतितोऽचिन्तयत्पाप- मत्रैव फलितं हहा। उत्त० 26 अ० नामुष्कं ज्ञायते स्न, प्रबुद्धो जातिमस्मरत् / / 11 / / सव्वगुणसमिद्ध-स्त्री०(सर्वगुणसमृद्ध शांचापशा . सर्वकामविरक्ताख्य, बभाषेऽध्ययन तथा। स्फीते, रा०। दत्ता सताऽपि साध्वीना, स सिद्धः साऽपि निर्वृता / / 1 / / सव्वगा-स्त्री०(सर्वमा) उतार दिया "वं सविस्तर्योगाः संगृह्यन्ते। आ००४ अ०। प्रश्न स्तव्यायां दिकमार्याम, स्था० र 30 सव्वकामविरय-धि सर्वकामविरत) समस्तशब्दादिविषयेभ्यो नियत | सव्वगोत्ताधगय-त्रि०(सर्वगोत्रापगत) सबस्न दुर्गाबाद पग- सूत्र श्रु०१३ अ०। सव्वकामसमिद्ध-त्रि पर्वकामसमृद्ध)पक्षस्य पश्चदशानां दिवसानाषष्ठ | सव्वग्ग-न०(सर्वाग) सर्वसंख्यायाम, ज्यो०२ पाहु०। आचाof दिवसे. जं०७०१० स्थकपर्वतदेवे, चं० प्र०१०पाहुाद्वी०। सवग्घ-न०(सर्वघ्न) सर्वघातिनि, तच्च केवलज्ञानावरणं केवलसव्वकामसमप्पिय-पं०(सर्वकामसमर्पित) सर्व कामा अभिलाषा , दर्शनावरणं च / पं०सं०३द्वार। औ० Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वधाइ 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वजगुज्जोयग सव्वघाइ-त्रि०(सर्वघातिन) सर्वघात्यं केवलज्ञानांदिलक्षण गुणं सर्वथा घातयन्तीत्येवं शीलानि सर्वघातीनि णिन् / ज्ञानदर्शनावरणीयरसस्पर्द्धकेषु, पं० सं०५ द्वार। स०। सव्वघाइणी-स्त्री०(सर्वघातिनी) सर्वस्वविषयघातिनीषु कर्मप्रकृतिषु, कर्म०५कर्म०। (एताश्च 'काम' शब्द तृतीयभागे 265 पृष्ठे सप्रपञ्चमभिहिताः।) सव्वघाइरस-त्रि०(सर्वरसघाति) स्वविषयं ज्ञानादिकं सकल मपि छातयति स्वकार्यसाधन प्रत्यसमl करोति इति सर्वरसघाति / ज्ञानादिगणनाशके, पं० सं०३द्वार। सध्वजंबूणयामय-त्रि०(सर्वजाम्बूनदमय) सर्वात्मना जाम्बूनदमय, जी. ३प्रति० 4 अधिक। सव्वजगवच्छल-त्रि०(सर्वजगद्वत्सल) पृथिव्यादीनां सर्वभूताना रक्षणादना वान्सल्यकर्तरि, प्रश्न० ५संव० द्वार / सव्वजगहिय-पु०(सर्वजगद्धित) सर्वस्मिन जगति ये जीवास्तेभ्यो हित पथ्यम् तद्रक्षणतस्तदुपदेशदानतो वा। सूत्र०१श्रु०११अ०उपदेशनात सर्वप्राणिलोकस्य हितकारिणि, षो०१४विव० सव्वजगुञ्जोयग--पुं०(सर्वजगदुद्द्योतक) सर्व समस्तं जगत्- लोकाऽलोकात्मकगुद्द्योतयति-प्रकाशयति केवलज्ञानदर्शनाभ्यामिति सर्वजगदुद्द्यातकः। जिने, नं। सव्वजगुजोयगस्स। (3) "सर्वजगदुद्द्योतकस्य" सर्व -समस्तं जगत्-लोकालोकात्मकमुद्द्योतयति- प्रकाशयति केवलज्ञानदर्शनाभ्यामिति सर्वजगदुद्योतकः, सस्य भद्रायुष्यक्षमसुखहितार्थहितैराशिपी ति विकल्पेन चतुर्थीविधानात् षष्ठ्यपि भवति, यथा आयुष्यं देवदत्ताय आयुष्यं देवदत्तस्य, अनेन ज्ञानातिशयमाह / ननु विशेषणं तदुपादीयते यत्सम्भवति, 'सम्भवे व्यभिचार च विशेषण' मिति वचनात, न च सर्वजगदुद्द्योतकत्वं सम्भवति, प्रमाणेनाग्रहणात्। तथाहि-सर्वजगदुद्द्योतकत्वं भगवतः किं प्रत्यक्षेण प्रतीयते? उतानुमानेन, आहोश्विदागमेन, उताहो उपमानेन, अथवा-अथापत्त्या? तत्र न तावत्प्रत्यक्षेणभगवतश्विरातीतत्वात् / अपि च-परविज्ञानं सदेव प्रत्यक्षाविषयः, अतीन्द्रिय वात्, ततस्तदात्वेऽपि न प्रत्यक्षेण ग्रहणम / नाप्यनुमानेन तद्धि लिग लिङ्गि सम्बन्धग्रहणपुरस्सरमेव प्रवर्त्तते / लिङ्ग लिङ्गिसम्बन्धग्रहणं च किं प्रत्यक्षेण उतानुमानेत? तद्धि लिङ्ग लिङ्गि सम्बन्धग्रहणपुरस्सरमेव प्रवर्तते, लिङ्ग लिगिसंबन्धग्रहण च किं प्रत्यक्षेणानुमानेन वा तत्र न प्रत्यक्षेण, सर्ववेदनस्यात्यन्तपरोक्षतया प्रत्यक्षेण तस्मिन्नगृहीत तेन सह लिङ्ग स्याविनाभावनिश्रयायोगात / न चानिश्चितविनाभाव लिङ्ग लिङ्गि नो गमकम्, अतिप्रसङ्गात्, यतः कुतश्चिद्यस्य तस्य वा प्रतिपत्तिप्रसक्तेः, नाप्यनुमानेन लिङ्ग लिङ्गि सम्बन्धग्रहणम, अनवस्थाप्रसङ्गात्। तथाहि-तदप्यनुमान लिङ्ग लिङ्गिसम्ब न्धग्रहणतो भवेत, ततस्तत्रापिलिङ्गलिङ्गि सम्बन्धग्रहणमनुमानान्तरात्कर्त्तव्यम, तत्रापि चेयमेव वार्तेत्यनवस्था / नाप्यागमतः सर्ववदनविनिश्चयः, स हि पौरुषेयो वा स्यादपौरुषेयो त्रा? पौरुषेयोऽपि सर्वज्ञकृतो, रथ्यापुरुषकृतो वा? तत्र न तावत् सर्वज्ञकृतः, सर्वज्ञासिद्धौ सर्वज्ञकृ तत्वस्यैवाविनिश्चयात् / अपि च-एवमभ्युपगमे सतीतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, तथाहि-सर्वज्ञसिद्धौ तत्कृतागम-सिद्धिः, तत्कृतमसिद्धौ च सर्वज्ञसिद्धिः / अथ रथ्यापुरुषप्रणीत इति पक्षस्तर्हि नस प्रमाणमुन्मत्तकप्रणीतशास्त्रवत्, अप्रमाणाच तस्मान्न सुनिश्चितसर्वज्ञसिद्धिः, अप्रमाणात्प्रमेयासिद्धेः, अन्यथा प्रमाणपर्यषणं विशीर्यंत / अथापौरुषेय इति पक्षस्तर्हि ऋषभः सर्वज्ञो वर्द्धमानस्वामी सर्वज्ञ इत्यादिरर्थवादः प्राप्रोति, ऋषभायभावेऽपि भावात्। तथाहि-सवकल्पस्थायी आगमः, ऋषभादयस्त्वधुनातनकल्पवर्तिनः तत ऋषभाद्यभावेऽपि पूर्वमप्यस्यागमस्यैवमेव भावात्कथमेतेषामृषभादी-नामभिधानं तत्र परमार्थसत्? तस्मादर्थवाद एषः, न सर्वज्ञप्रतिपादन-मिति / अपि च-यद्यपौरुषेयागमाभ्युपगमस्तर्हि किमिदानीं सर्वज्ञेन?, आगमादेव धर्माधर्मादिव्यवस्थासिद्धेः, तस्मात् नागमगम्यः सर्ववेदी, नाप्युपमानगम्यः, तस्य प्रत्यक्षपूर्वकत्वात्। तथाहि-प्रत्यक्षप्रसिद्ध-गोपिण्ड-स्य यथा गौः तथा गवय इत्यागमाहितसंस्कारस्याटव्यां पर्यटतो गवयदर्शनानन्तरं तन्नामप्रतिपत्तिरुपमानं प्रमाणं वर्ण्यत, न चैकोऽपि सर्वज्ञः प्रत्यक्षसिद्धो येन तत्सादृश्यावष्टम्भेनान्यस्य विवक्षितपुरुषस्योपमानप्रमाणतः सर्वज्ञ इति प्रतीतिर्भवत् / नाप्यथोपत्तिगम्यः, सा हि प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरीकृतार्थान्यथानुपपत्त्या प्रवर्त्तते, न च कोऽप्यर्थः सर्वज्ञमन्तरेण नोपपद्यते, तत्कथमर्थापत्तिगम्यः? तदेवं प्रमाणपञ्चकावृत्तरभावप्रमाणमेव सर्वज्ञ क्रोडीकराति / उक्तं च- प्रमाणपञ्चकं यत्र, घरतुरूपे न जायते / वस्त्वसत्तावबोधार्थ , तत्राभावप्रमाणता।।१।। अपि च-सर्व वस्तु जानाति भगवान् केन प्रमाणेन? कि प्रत्यक्षेण उत यथासम्भवं सर्वैरव प्रमाणैः, तत्र न तावत्प्रत्यक्षेण, देशकालविप्रकृष्टषु सूक्ष्मेष्वमूर्तेषु च तस्याप्रवृत्तेः, इन्द्रियाणामगोचरत्वात् / यदि पुनस्तत्रापीन्द्रिय व्याप्रियेत तर्हि सर्वः सर्वज्ञो भवेत्, अथन्द्रियप्रत्यक्षादन्यदतीन्द्रिय प्रत्यक्षतस्यास्ति तेन सर्वं जानातीति मन्येथाः, तदप्ययुक्तम, तस्यास्तित्वे प्रमाणाभावात् / न च प्रमाणमन्तरेण प्रमेयसिद्धिः, सर्वस्य सर्वेष्टार्थसिद्धिप्रसक्तेः। अथवा-अस्तु तदपि तथापि सर्वमेतावदेव जगति वस्तु इतिन निश्चयः, न खल्वतीन्द्रियमप्यवधिज्ञानं सर्ववस्तुविषयं सिद्धम, तदपरिच्छिन्नानामपि धर्माधर्मास्तिकायादीना सम्भवाद्, एवं केवलज्ञानापरिच्छिन्नमपि किमपि वस्तु भविष्यतीत्याशङ्काऽनतिवृत्तन सर्वविषय कवलज्ञानं वक्तुं शक्यम्। तथा चकुतः सर्वज्ञस्यापि स्वयमात्मनः सर्वज्ञत्वविनिश्चयः? अथयथायथंसवैरेव प्रमाणः सर्ववस्तुजानातीतिपक्षः, नन्वेवं सति य एवागमे कृतपरिश्रमः स एव सर्वज्ञत्वं प्राप्नोति, आगमस्य प्रायः सर्वार्थ-विषयत्वात्, तथा चकः प्रतिविशेषोवर्द्धमानस्वाम्यादौ? येन स एव प्रमाणमिष्यतेन जैमिनिरिति। अन्यत्र-यथाऽवस्थितसकलवस्तुवेदी सर्वज्ञ इष्यते, ततोऽशुच्यादिरसानामपि यथावस्थिततया संवेदनादशुच्यादिर Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वजगुज्जोयग 570 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वजगुज्जोयग सारवादप्रसङ्गः, आह च- "अशुच्यादिरसास्वादप्रसङ्ग श्वानि-वारितः'' किं च-कालतोऽनाद्यनन्तः संसारः, जगति च सर्वदा विद्यमानान्यपि वस्तून्यनन्तानि, ततः संसारं वस्तूनि च क्रमेण विदन् कथमनन्तेनापि कालेन सर्ववेदी भविष्यति? उक्तं च- क्रमेण वेदनं कथ मिति, अत्र प्रतिविधीयते-तत्र यतावदुक्तम्- 'सर्वजग-दुयोतकत्वं भगवतः केन प्रमाणेन प्रतीयते?' इत्यादि, तत्रागम-प्रमाणादिति बूमः / स चागमः कथचिन्नित्यः प्रवाहतोऽनादित्वात्, तथाहि यामेव द्वादशाङ्गी कल्पलताकल्पा भगवान् ऋषभस्वामी पूर्वभवेऽधीतवान, अधीत्य च पर्वभवे इहभवेच यथा-वत्पर्युपास्य फलभूतं केवलज्ञानमवाप्तवान्, तामेवोत्पन्न - केवलज्ञानः सन् शिष्येभ्य उपदिशति, एवं सर्वतीर्थकरेष्वपि द्रष्टव्यम्, ततोऽसावा -गमोऽर्थरूपापेक्षया नित्यः / तथा च वक्ष्यति- ''एस। दुवालसगी न कयाविनासी न कयाविन भवई न कयानि न भविस्सइ, धुवा नीया सासया अक्रया अव्वया अव्वाबाहा अवाट्टया निचा'' इति, अस्मिश्चागमें यथा संसारी संसारं पर्यटति यथा कर्मणामभिसमागमः / यथा च तपःसंयमादिना कर्मणामपगमे कवलाभिव्य-क्तिः तथा सर्व प्रतिपाद्यते, इति सिद्ध आगमात्सवः / यदुप्युक्तम्-'स पौरुषेयो वा' इत्यादि, तत्रार्थतोऽपौरुषेयः, सचन सर्वज्ञप्रकाशितत्वादेव प्रमाणं, किन्तु कथञ्चित् स्वतोऽपि, नि-श्चिताविपरीतप्रत्ययोत्पादकत्वात्, ततो नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, सर्वज्ञप्रणीतत्वावगमाभावेऽपि निश्चिताविपरीतप्रत्ययोत्पादकतया तस्य प्रामाण्यनिश्चयात, ततः सर्वज्ञसिद्धिः, अथैवमागमात् सर्वज्ञः सामान्यतः सिद्ध्यति न विशेष - निर्देशेन यथाऽयं सर्वज्ञ इति, ततः कथं सर्वज्ञकालेऽपि सर्वज्ञोऽयमिति व्यवहारः? उच्यते-पृष्टचि-न्तितसकलपदार्थ-प्रकाशनात् / तथाहियद्यद्भगवान् पृच्छ्य-ते यच यच्च स्वचेतसि पृष्टा चिन्तयति तत्तत्सर्व प्रत्ययपूर्वमुप-दिशति, ततोऽसौ ज्ञायते यथा सर्वज्ञ इति। तेन यदुच्यते भट्टेन- 'सर्वज्ञोऽसाविति ह्येतत्. तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः। तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञानरहितैर्गम्यते कथम्? ||11 // ' इति, तदपास्तं द्रष्टव्यम्, पृष्टचिन्तितसकलपदार्थप्रकाशनेन तस्य सर्वज्ञत्वनिश्चयात्। नन्वेवं व्यवहारतो निश्चयो न निश्चयतः,निश्चयतो हि तदा सर्व्ववेदी विदितो भवति यदा तज्ज्ञेयं सर्वं विदित्वा सर्वत्र संवादो गृह्यते, न चैतत्कर्तुं शवयम्। अर्थकत्र संवाददर्शनादन्यत्रापि सवादी द्रष्टव्यः, एवं तर्हि मायावी बहुजल्पाकः सर्वोऽपि सर्वज्ञः प्राप्नोति, तस्याप्येकदेशसंवाददर्शनाद / आह च-''एकदेशपरिज्ञानं, कस्य नाम न विद्यते? न होक नास्ति सत्यार्थ, पुरुषे बहुजल्पिनि।।१।।" तदयुक्तम्, व्यवहारतोऽपि निश्चयस्य सम्यगनिश्चयत्वात्, वैयाकरणादिनिश्चयवत् / तथाहि-वैयाकरणः कतिपयपृष्टशब्दव्याकरणादयं सम्यग्वैयाकरण इति निश्चीयते, एवं पृष्टचिन्तितार्थ-प्रकाशनात् सर्वज्ञोऽपि। न चैव मायाविनोऽपि सर्वज्ञत्वप्रसङ्गः, मायाविनि सर्वेषु पृष्टपु चिन्तितेषु चार्थेषु संवादायोगात्, निपुणेन च प्रतिपत्ता भवितव्यम् / अथ वैयाकरणोऽन्यन वैयाकरणेन सकल- | व्याकरणशास्त्रार्थसंवादनिश्चयतोऽपि ज्ञातुं शक्यते / ननु सर्वज्ञोऽप्यन्येन सर्वज्ञेन यथावत् ज्ञातुं शक्यत एवेति समानम् / अथ तदानीमन्येन सर्वज्ञन निश्चयतो विज्ञायताम् इदानीं तु सकथं ज्ञायते? उच्यते-इदानीं तु सम्प्रदायादव्याहतप्रवचनार्थप्रकाशनाच / यदप्यवादीत- ऋषभः सर्वज्ञो वर्द्धमानस्वामी सर्वज्ञ इत्यादिरर्थवादः प्राप्नोतीत्यादि तदप्यसारम्, आगमो ह्ययं कल्पः-यो यः सर्वज्ञः उत्पद्यते तेन तेन तत्तत्कल्पवर्तिनां तीर्थकृतां सर्वेषामप्यवश्यं चरितानि वक्तव्यानि, ततो, न ऋषभाद्यभिधानमर्थवादः। यदप्यभिहितम्- 'नाप्युपमानप्रमाणगम्य' इत्यादि, तदप्ययुक्तम्, एकं सर्वज्ञ यदा व्यवहारतो यथावद्विनिश्चित्यान्यमपि सर्वज्ञ व्यवहारतः परिज्ञाय एषोऽपि सर्वज्ञ इति व्यवहरति तदा कथं नोपमानप्रमाणविषयः? अर्थापत्तिगम्योऽपि भगवान, अन्यथाऽऽगमार्थस्य परिज्ञानासम्भवात्, न खल्वतीन्द्रियार्थदर्शनमन्त-रेणागमस्याथर्थोऽतीन्द्रियः पुरुषमात्रेण यथावदवगन्तुं शक्यते, तत आगमार्थपरिज्ञानान्यथाऽनुपपत्त्या सर्वज्ञोऽवश्यमभ्युपगन्तव्यः। एतेन यदुक्तं प्राक्'किमिदानीं सर्वज्ञेन? आगमादेव धर्माधर्मव्यवस्थासिद्धे' रिति, तत्प्रतिक्षिप्तमवसेयं सर्वज्ञमन्तरेणागमार्थस्यैव सम्यक्परिज्ञानासम्भवात्। यचोक्तम्- 'सर्व वस्तु जानाति भगवान् केन प्रमाणेने 'त्यादि, तत्र प्रत्यक्षेणेतिपक्षः, तदपि च प्रत्यक्षमतीन्द्रियमवसेयम्, ननु तत्राप्युक्तम्'तस्यास्तित्व प्रमाणाभावादि' ति, उक्त मिदमयुक्तं तूक्तम्, तदस्तित्वेऽनुमानप्रमाणसद्भावाद्, तचानुमानमिदंयत्तारतम्यवत् तत्सर्वान्तिमप्रकर्षभाक्, यथा परिमाण, तारतम्यवचेदं ज्ञानमिति। न चायम-सिद्धो हेतुः, तथाहि-दृश्यते प्रतिप्राणिप्रज्ञामेधादिगुणपाटवतारतम्यं ज्ञानस्य, ततोऽवश्यमस्य सर्वान्तिमप्रकर्षण भवितव्यम्, यथा परिमाणस्याकाशे. सन्तिमप्रकर्षश्च ज्ञानस्य सकलवस्तुस्तोमप्रकाशकत्वम्। अथ यद्विषयः तरतमभावः सर्वान्तिमप्रकर्षोऽपि तद्विषय एव युक्तः, तरतमभावश्रेन्द्रियाश्रितस्य ज्ञानस्योपलब्धः, ततः सर्वान्तिमप्रकर्षोऽपि तस्यैवेति कथमतीन्द्रियज्ञानसम्भवः? इन्द्रियाश्रितस्य च ज्ञानस्य प्रकर्षभावेऽपि न सर्वविषयता, तस्य सूक्ष्मादावप्रवृत्तेः / अथोच्यते-मनोज्ञानमप्यतीन्द्रियज्ञानमुच्यते, तस्य च तरतमभावः शास्त्रादौ दृष्ट एव। तथाहि-तदेव शास्त्र कश्चित झटित्येव पठति अवधारयति च, अपरस्तु मन्द, बोधतोऽपि कश्चिन्मुकुलितार्थावबोधनपरोविशिष्टावबोधः एवमन्यास्वपि कलासु यथायोग मनोविज्ञानस्यतारतम्य परिभाव्यते, ततः तस्य सर्वान्तिमः प्रकर्षः सर्वविषयो भविष्यति / तदसद्, यतो मनोविज्ञानस्यापि तरतमभावः शास्त्राद्यालम्बन एवोपलब्धः, ततः प्रकर्षभावोऽपि तस्य शास्त्राद्यालम्बनएव युक्त्योपपद्यते न सर्वविषयः, न खल्वन्यविषयोऽभ्यासोऽन्यविषयं प्रकर्षभावमुपजनयति, तथाऽनुपलब्धेः / उक्तं च- "शास्वाद्यभ्यासतः शास्त्रप्रभृत्येवावगच्छतः। साकल्यवेदनं तस्य, कुत एवागमिष्यति? ||11 // ' अत्रोच्यते-इह तावदिन्द्रियज्ञानाश्रितः तरतमभावो न ग्राह्यः, अतीन्द्रियप्रत्यक्षसाधनाय हेतोरुपन्यासात्, तथाहि सकलवस्तुविषयमतीन्द्रियप्रत्यक्षमिदानी Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वजगुज्जोयग 571 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वजगुज्जोयग साधयितु मिष्ट, ततः तरतमभावोऽपि हेतुत्वेनोपन्यस्तोऽतीन्द्रियज्ञानस्यैव वेदितव्यः, अन्यथा भिन्नाधिकरणस्य हेतोः पक्षधर्मत्वायोगात, साक्षाचातीन्द्रियग्रहणं न कृतं, प्रस्तावादेव लब्धत्वात् / अतीन्द्रियं च ज्ञानभिन्द्रियानाश्रितं सामान्येन द्रष्टव्यम. तेन मनोज्ञानमपि गृह्यते / यदप्युम्तम्- 'मनोज्ञानस्यापि तरतम-भावः शास्त्राधालम्बन एवेति प्रकर्षभादाऽपि तद्विषय एव युक्त' इति, तदप्यसमीचीन, शारत्राद्यतिक्रान्तस्यापि तरतमभावस्य सम्भवात्। तथाहि-योगिनः परमयोगमिच्छन्तः प्रथमतः शास्त्रमभ्यसितुमुद्यतन्ते, यथाशक्ति च शारत्रानुसारेण सकलमप्यनुष्ठानमनुतिष्ठन्ति, मा भूत्किमपि क्रियावैगुण्यं प्रमादाद्योगाभ्यासयोग्यताहानिति कृत्वा, ततो निरन्तरमेव यथोक्तानुटानपुरस्सरं शास्त्रमभ्यस्यता शुद्धचेतसां प्रतिदिवसमभिवर्द्धन्ते प्रज्ञामधादिगुणाः, ते वाभ्यासादभिवर्द्धमाना अद्यापि स्वसंवेदनप्रमाणेनानुभूयन्ते ततो नासिद्धाः, ततः शनैः शनैरभ्यासप्रकर्षे जायमाने शास्त्रसन्दर्शितापायाः वचनगोचरातीताः शेषप्राणिगण-संवेदनागम्या: सिद्धिपदसम्पद्धेतवः सूक्ष्मसूक्ष्भतरार्थविषया मनाक् समुल्लसतस्फुटप्रतिभासा ज्ञान विशेषा उत्पद्यन्ते, ततः किश्चिदूनात्यन्तप्रकर्षसम्भवे भनसाऽपि निरपक्षमत्यादिज्ञानप्रकर्षपर्यन्तोत्तरकालभावि केवलज्ञानादर्वाक्तनं सवितुरुदयात प्राक् तदालोककल्पमशेषरूपादिवस्तुविषयं प्रातिभ ज्ञानगुदयते, लय स्पष्टाभतयेन्द्रियप्रत्यक्षादधिकतर, न चदमसिद्ध, सर्वदर्शनष्वप्यध्यात्मशास्त्रेषु तस्याभिधानात् / अथ प्रथमती मनःरगपेक्ष-मभ्यासमारब्धवान, अभ्यासप्रकर्षे तूपजायमाने / कधमनोऽपि नालम्बते?, उच्यते-अत्यन्ताभ्यासप्रकर्षवशता मनोनिरपेक्षमपि शक्तत्वात्। तथाहि-तरणशिक्षितुकामः प्रथम तरण्डमपेक्षते, तलाऽभ्यासप्रकर्षयोगतः तरणनिष्णातस्तरण्डमपि परित्यजति, एवं योग्यपि वेदितव्यः / ततः सर्वोत्कृष्टप्रकर्षसम्भवेऽतीव स्फुट-प्रतिभासं सकललोकालोक विषयमनुपममबाध्यं के वलज्ञान-मुदयते, ततो यदुक्तम्-' शास्त्राद्यभ्यासतः शास्त्रप्रभृत्येवावगच्छत ' इत्यादि, तदत्यन्तमाध्यात्मशास्त्रयाथात्म्यवेदिगुरु-सम्पर्कबहिर्भूतत्व-सूचकमवसेयम्। रयादेतत् तारतम्यदर्शनादेस्तुज्ञानस्य प्रकर्षसम्भवानुमान, स तु प्रकर्षः सकलवस्तुविषय इति कथं श्रद्धयम्? न खलु लड्ड नमभ्यासतः तारतम्यवदप्युपलभ्यमान सकललोक-विषयमुपलभ्यते, तदसद्, दृष्टान्तदा -न्तिकयोंर्वषम्यात्। तथाहि- नलडनमभ्यासादुपजायते, किन्तु बलविशेषतः तथाहि-समानेऽपि गरुत्मच्छाखामृगशावकयोरभ्यासे न समान लवनम्, उक्त च- ''गरुत्मच्छाखामृगयो-लडनाभ्यारासम्भवे / समानेऽपि समानत्वं, लङ्घनस्य न विद्यते // 1 // ' अपि चपुरुषयोरपि द्वयोः समानप्रथमयौवनयोरपि समानेऽप्यभ्यासे एकः प्रभूत लघयितु शवनोति, अपरस्तु स्तो कम्, तस्माद्वलसापेक्षं लड़ने नाभ्यासमात्रहेतुकम, अभ्यासस्तु केवल देहवैगुण्यमारमपनयति, तच्च बलं वीर्यान्तरायकर्मक्षयोपशमात, क्षयोपशमश्च जातिभेदापक्षी द्रव्यक्षत्राद्यपेक्षी च। ततो यस्य याव-द्वलं तस्य तावदेव लङ्घनमिति तन्न सकललोकविषयं, जीवस्तुशशाङ्क वइस्वरूपेण सकल-जगत्प्रकाशन स्वभावः, केवलभावरणघनपटलतिरस्कृतप्रभावत्वात्न तथा प्रकाशते / उक्तं च- "स्थितः शीताशुवजीवः, प्रकृत्या भावशुद्धया / चन्द्रिकावच्च विज्ञानं, तदावरणमभवत् / / 1 / / ' ततो यथा प्रचण्डनैर्ऋतपवनप्रहता धनपटलपरमाणवः शनैः शनैनिः स्नेहीभूयापगच्छन्ति, तदपगमनानुसारेण च चन्द्रस्य प्रकाशो जगति वितनुते, तथा जीवस्यापि रागादिभ्यः चित्त विनिवर्य कायवाक्र्चासु संयतस्य सम्यक्शास्त्रानुसारेण च यथावस्थित वस्तुपरिभावयतो ज्ञानादिभावनाप्रभावतो ज्ञानावरणीयादिका परमाणवः शनैः शनैनिः-स्नेहीभूयात्मनः प्रच्यवन्त, कथमेतत्प्रत्ययमिति चेत्? उच्यते-इहाज्ञानादिनिमित्तक ज्ञानावरणीयादि कर्म, ततः तत्प्रतिपक्ष-ज्ञानाद्यासेवनेऽवश्यं तदात्मनः प्रच्यवते। उक्तं च"बंधइ जहेब कम्म, अन्नाणाईहिं कलुसियमणो उ। तह चेव तस्विवक्खे, सहावओ मुच्चई जेण / / 1 / / " ज्ञानावरणीयकर्मपरमाणुप्रच्यवनानुसारेण चात्मनः शनैः शनैज्ञानमधिकमधिकतरमुल्लसति, यदा तु ज्ञानादिभावनाप्रकर्ष वशे नाशेषज्ञानावरणीयादिकर्म परमाण्वपगमः तदा सकलाभ्रपटलविनिर्मुक्तशशाङ्क इव आत्मा लब्धयथा-वस्थितात्मस्वरूपः सकलस्यापि जगतोऽवभासकः, ततो ज्ञानस्य प्रकर्षः सकललोकविषयः / अथवा-सर्वं वस्तु सामान्येन शास्त्रेऽपि प्रतिपाद्यते यथा पशास्तिकायात्मको लोकः, आकाशास्तिकायात्मकश्वालोकः किञ्चिद्विशेषतश्च ऊर्वाधस्तिर्यगलोकाकाशानां सविस्तर तत्राभिधानात्. शास्त्रानुसारेण च ज्ञानाभ्यासः। ततः तरतमभावोऽपि ज्ञानस्य सकलवस्तुविषय एवेति प्रकर्षभावः तद्विषयो न विरुध्यते, लखनं तु सामान्यतोऽपि न सकललोकविषयमिति कथमभ्यासतः तत्प्रकर्षः सकललोकविषयो भवेत्? स्यादेतद्-यद्यपि सामान्यतः शास्त्रानुसारेण सकलवस्तुविषयं ज्ञानमुपजायते तथाऽप्यभ्यासतः तत्प्रकर्षः सकलवरतुगताशेषविशेषविषय इति कथंज्ञार्यत? नात्र किश्चित् प्रमाणभस्ति, न चाप्रमाणक वचा विपश्चितः प्रतिपद्यन्ते, विपश्चित्ताक्षितिप्रसङ्गात् / तदसत, अनुमानप्रमाणसद्भावात् तच्चानुमानमिदम्-जलधिजलपलप्रमाणादयो विशेषाः कस्यजित्प्रत्यक्षाः, ज्ञेयत्वात् घटादिगतरूपादिविशेषवत, ज्ञेयत्वं हि ज्ञानविषयतया व्याप्तम्, न च जलधिजलपलप्रमाणादिरूपेषु विशेषेषु प्रत्यक्षमन्तरेण शेषानुमानादिज्ञानसम्भवः, तथाहि-न ते विशेषा अनुमानप्रमाणगम्याः, लिङ्गाभावात्। नाप्यागमगम्याः, तस्य विधिप्रतिषेधमात्रविषयत्वात् / नाप्युपमानगम्याः, तस्य प्रत्यक्षपुररसरत्वाद् / उक्तं च- "न चागमेन यदसौ, विध्यादिप्रतिपादकः / अप्रत्यक्षत्वतो नैवोपमानस्यापि सम्भवः / / 1 / / " नाप्यर्थापत्तिविषायाः, सा हि दृष्टः श्रुतो वाऽर्थो यदन्तरेण नोपपद्यते यथा काष्ठस्य भरमविकारोऽग्नेर्दाहकशक्ति-मन्तरेण तद्विषया वर्ण्यते, न च दृष्टः श्रुतो वा कोऽप्यर्थः तान् विशेषान्तरेण नोपपद्यते, ततो नापत्तिगम्याः / न चैते विशेषाः स्वरूपेण न सन्ति, विशेषान् विना सामान्यस्यैवासम्भवात्, न च वाच्यमत एव सामान्यस्यान्यथानुपपत्तेरापत्तिगम्याः, नियतरूपतयाऽनवगमात्, प्रातिनैयत्यमेव च विशेषाणां स्वस्वरूपम्, अन्यथा विशेषहानेः सामान्यरूपताप्रसङ्गात्। न च Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वजगुजोयग 572 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वजगुजोयग तेषां ज्ञेयत्वमेवासिद्धमिति वाच्यम्, अभावप्रमाणव्यभिचारप्रसङ्गात् / तथाहि-यदि केनापि प्रमाणेन न ज्ञायन्ते तर्हि-'प्रमाणपञ्चकं यत्र, वस्तुरूपे न जायते / वस्त्वसत्तावबोधार्थं , तत्रभावप्रमाणता / / 1 / / इति वचनादभावप्रमाणविषयाः स्युः, अभावाख्य च प्रमा-णमभावसाधनमिष्यते / अथ च ते विशेषाः स्वरूपेणैवावतिष्ठन्ते, ततोऽभावप्रमाणव्यभिचारप्रसङ्गः, तस्माद्विपक्षव्यापकानुप-लब्ध्या विशेषाणां ज्ञेयत्वं प्रत्यक्षविषयतया व्याप्यत इति प्रति-बन्धसिद्धिः / स्यादेतत्ज्ञेयत्वादिति हेतुर्विशेषविरुद्धः, तथाहि-घटादिगतारूपादिविशेष! इन्द्रियप्रत्यक्षेण प्रत्यक्षा उपलब्धाः, ततः तज्ज्ञेयत्वमिन्द्रियप्रत्यक्षविषयतया प्रत्यक्षत्वेन व्याप्तं निश्चितं सत् जलधिजलपलप्रमाणादिष्वपि विशेषेषु प्रत्यक्षत्वमिन्द्रिय-प्रत्यक्षविषयतां साधयति, तच्चानिष्टमिति / तदयुक्तम्, विरुद्ध-लक्षणासम्भवात्, तथाहि-विरुद्धो हेतुः तदा भवति यदा बोधक नोपजायते, 'विरुद्धोऽसति बाधके ' इति वचनाद्, अत्रच बाधकं विद्यते, यदि हि इन्द्रियप्रत्यक्षविषयतया प्रत्यक्षत्वं भवेत ततोऽस्मादृशामपि से प्रत्यक्षा भवेयुः, न च भवन्ति, तस्मादस्मादृशैः प्रत्यक्षत्वेना-संवदेनमेव तेषामिन्द्रियप्रत्यक्षविषयत्वसाधने बाधकमिति न विशेषविरुद्धःा अन्यःप्राह-न विशेषविरुद्धता हेतोदूष-णम्, अन्यथा सकलानुमानोच्छे दप्रसङ्गात्, तथाहि-यथा धूमो - ऽग्नि साधयति, अग्निप्रतिबद्धतया महानसे निश्चितत्वात्, तथा तस्मिन् साध्यधर्मिण्यग्न्यभावमपि साधयति, तेनापि सह महानसे प्रतिबन्धनिश्चयात्, तद्यथा-नात्रत्येनाग्निना अग्निमान् पक्तो धूम-बत्त्वात, महानसवत्,ततश्चैवं न कश्चिदपि हेतुः स्वात्, तस्मात् न विशेषविरुद्धता हेतोर्दोषः। आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपि- "यदि विशे-षविरुद्धतया क्षितिर्ननु न हेतुरिहास्ति न दूषितः / निखिलहेतुप-राक्रमरोधिनी, न हि न सा सकलेन विरुद्धता / / 1 / / ' यचोक्तम्- अथवा अस्तु तदपि तथापि, सवेमेतावदेव जगति वस्त्विति न निश्चय इत्यादि तदप्पसारं, यतोऽवधिज्ञानं तदावरणकर्मदेशक्ष-योत्थं ततोऽतीन्द्रियमपि तन्न सकलवस्तुविषय, केवलज्ञानं तु निर्मूलसकलज्ञानावरणकर्मपर / माण्वपगमसमुत्थं ततः कथमिव तन्न सकलवस्तुविषयं भवेत? न हातीन्द्रियस्य देशादिविप्रकर्षाः प्रतिबन्धकाः, न च केवलप्रादुर्भाव आवरणदेशस्यापि सम्भवः, ततो यद्वस्तु तत्सर्वं भगवतः प्रत्यक्षमेवेति भवति सर्वज्ञस्यैवमात्मनो निश्चयः-एतावदेव जगति वस्त्विति / यदप्युक्तम्- 'अशुच्यादिरसास्वादप्रसङ्ग इति, तदपि दुरन्तदीर्घपायोदयविजृम्भि-तम्, अज्ञानतो भगवत्यधिक्षेपकरणात्, यो हि यादृगभूतोऽशुच्या-दिरसो येषां च प्राणिनां यादृगभूतां प्रीतिमुत्पादयति येषां च विद्विषं तत्सर्वं तदवस्थतया भगवान् वेत्ति, ततः कथमशुच्यादिरसास्वादप्रसङ्गः? अथ यदि तटस्थतया वेत्ति तर्हि न सम्यक्, सम्यक् चेत् यथास्वरूप वेत्ता तर्हि नियमात् तदास्वादप्रसक्तिः / उक्तं च- / "तटस्थत्वेन वेद्यत्वे, तत्त्वेनाऽवेदनं भवेत्। तदात्मना तु वेद्यत्वेऽशुच्यास्वादः प्रसज्यते / / 1 / / " तदसत्, भवान् हि सकम्मा करणाधीनज्ञानः ततो रसं यथावस्थितमवश्यं जिह्वेन्द्रियव्यापार-पुरस्सरमास्वादत एव जानाति, भगवास्तु करणव्यापारनिरपेक्षो-ऽतीन्द्रियज्ञानी ततो जिहेन्द्रियव्यापारसम्पाद्या-स्वादमन्तरेणैव रसं यथावस्थित तटस्थतया सम्यग् वेत्तीति न कश्चिद्घोषः। एतेन पर-रागादिवेदने रागित्वादिप्रसङ्गापादनमप्यपास्तमवसेयं, पररागा-दीनामपि यथावस्थिततया तटस्थेन सत्तावेदनात् / यदप्युक्तम् - 'कालतोऽनादिरनन्तः ससार' इत्यादि तदप्यसम्यग, युगपत्स-वदनाद्, न च युगपद् सर्ववेदनमसम्भवि, दृष्टत्वात् / तथाहि-सम्यगजिनागमाभ्यासप्रवृत्तस्य बहुशो विचारितधर्माधर्मा-स्तिकायादिस्वरूपस्य सामान्यतः पशास्तिकायविज्ञानं युगपदपि जायमानमुपलभ्यते, एवमशेषविशेषकलितपशास्तिकायविज्ञानमपि भविष्यति / तथा चायमों ऽन्यैरप्युक्तः- "यथा सकलशास्त्रार्थः, स्वभ्यस्तः प्रतिभासते / मनस्यैकक्षणेनैव, तथाऽनन्ता-दिवेदनम् // 1 // " यदप्युच्यते-'कथमतीत भावि वा वेत्ति? विनष्टानुत्पन्नत्वेन तयोरभावा' दिति, तदपि न सम्यक्, यतो यद्यपीदानीन्तनकालापेक्षया ते असती, तथापि यथाऽतीतमतीते कालेऽवतिष्ट यथा च भावि (वाय॑ति) वर्त्तिष्यते तथा ते साक्षात्करोति ततो न कश्चिद्दोषः / स्यादेतत्-यथा भवद्भिर्ज्ञानस्य तारतम्यदर्शनात्प्रकर्षसम्भवोऽनुमीयते तथा तीर्थान्तरीयैरपि, ततो यथा भवत्सम्मततीर्थकरोपदर्शिताः पदार्थराशयः सत्यता-मश्नुवते तथा तीर्थान्तरीयसम्मततीर्थकरोपदर्शिता अपि सत्यतामश्नुवीरन्, विशेषाभावाद्, अन्यथा भवत्सम्भततीर्थकरोपदर्शिता अपि असत्यतामश्नुवीरन् / अथ तीर्थान्तरीयसम्मततीर्थकरो-पदिष्टाः पदार्थराशयोऽनुमानप्रमाणेन बाध्यन्ते ततो न ते सत्याः तदयुक्तम्, अनुमानप्रमाणेनातीन्द्रियज्ञानस्य बाधितुमशक्यत्वात, आह च- "अतीन्द्रियानसंवेद्यान् पश्यन्त्यारेण चक्षुषा / ये भावान वचनं तेषां नानुमानेन बाध्यते // 1 // अथ सम्भवति जगति प्रज्ञालवोन्मेषदुर्विदग्धाः कुतळशास्त्राभ्याससम्पर्श तो वाचालाः तथाविधाद्भुतेन्द्रजालकौशलवशेन दर्शितदेवागमन-भोयान्चामरादिविभूतयः कीर्तिपूजादिलब्धुकामाः स्वयमसर्वज्ञा अपि सर्वज्ञा वयमिति ब्रूवाणाः, तत एतावदेव न ज्ञायते यदुत- तेषां सर्वोत्तमप्रकर्षरूपमतीन्द्रियज्ञानमभूत्, यदि पुनर्यथोक्तस्वरूपम-तीन्द्रियज्ञानमभविष्यत् तर्हि वचनमपि तेषां नाबाधिष्यत, अथ च दृश्यते बाधा ततस्ते कैतवभूमयो न सर्वज्ञा इति प्रतिपत्तव्यम् / तदेतदर्हत्यपि समानम्, न समानम्, अर्हद्वचसि प्रमासंवाददर्शनात्। उक्त च-"जैनेश्वरे हि वचसि, प्रमासंवाद इष्यते / प्रमाणबाधा त्वन्येषामतो द्रष्टा जिनेश्वरः / / 1 // ' अथ पुरुषमात्र समुत्थं प्रमाणमतीन्द्रियविषये न साधकं नापि बाधकमविषयत्वात्, समानकक्षतायां हि बाध्यबाधकभावः, तथा चोक्तम्-" समानविषया यस्माद्बाध्यबाधकसंस्थितिः। अतीन्द्रिये च संसारी, प्रमाण न प्रवर्तते / / 1 / / " ततः कथमुच्यते-अर्हतो वचसि प्रमा-संवाददर्शन प्रमाणबाध्यत्वमन्येषामिति? तदपि न सम्यक् , यतो न भगवान केवलमतीन्द्रियमरमादृशामशक्यपरिच्छेदमेवोपदि-शति, यदि पुनः तथाभूतमुपदिशेत् तर्हि न कोऽपि तद्वचनतः प्रवर्तेत, अतीन्द्रियार्थ वचः Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वजगुज्जोयग 573 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वणयविसुद्ध सर्वेषामेव विद्या परस्परविरुद्धच, ततः कथं तद्वचनतः प्रेक्षावतां प्रवृत्तिः? गवानेव सर्वज्ञो न सुगतादिरिति स्थितम् / नं०। ततोऽवश्यं परान प्रतिपादयता भगवता परैः शक्यपरिच्छेदमप्युपदेष्टव्यं, | सव्वजिण-पुं०(सर्वजिन) सर्वतीर्थकृति, दर्श० ४तत्त्व। शक्यपरिच्छेदेषु चार्थेषु भगवदुक्तेषु यत्तथा-प्रमाणेन संवदेन नत्तद्विषयं सव्वजिणसासणग-त्रि०(सर्वजिनशासनक) सर्जिनैः शिष्यन्ते साधकं प्रमाणमुच्यते, विपरीतं तु बाधकम् / अस्ति च भगवदुक्तेषु प्रतिपाद्यन्ते यानि तानि सर्वजिनशासनानि तान्येव सर्वजिनशाशक्यपरिच्छेदेष्वर्थेषु प्रमासंवादः। तथाहि-घटादयः पदार्था अनेकान्ता- सनकानि। सर्वतीर्थकरप्रज्ञप्तेषु, प्रश्न० १संव० द्वार। त्मका उक्ताः, ते च तथैव प्रत्यक्षतोऽनुमानतो वा निश्चीयन्ते मोक्षोऽपि सव्वजिणाणाविमुह-त्रि०(सर्वजिनाज्ञाविमुख) सकलसर्वविदुपदेशच परमानन्दरूपशाश्वतिकसौख्यात्मक उक्तः, ततः सोऽपि युक्त्या विराधके, दर्श० 4 तत्त्व। सङ्गतिमुपपद्यते, यतः संसारप्रतिपक्षभूतो मोक्षः संसारेजन्मजरामरणा सव्वजोग-पुं०(सर्वयोग) समस्तव्यापारे, पचा०७विव० दिदुःखहेतवो रागादयः ते च निर्मूलमपगता मोक्षावस्थायामिति न मोक्षे सव्वजोणिय-त्रि०(सर्वयोनिक) सर्वा योनय उत्पत्तिस्थानानि येषां दुःखलेशस्यापि सम्भवः / न च निर्मूलमपगतारागादयो भूयोऽपिजायन्ते, सत्त्वाना ते सर्वयोनिकाः / सर्वगतिभाक्षु, आचा० १क्षु० [अ० १उ०। ततः तत्सौख्य शाश्वतिकमुपवर्ण्यते, ननु यदि न तत्र रागादयस्तहि न सर्वा हि योनयः-संवृतविवृतोभयशीतोष्णोभयसचित्ताचित्तोभयरूपाः / तत्र मत्तकामिनीगादालिङ्गनपीनस्तना-पीडनवदनचुम्बनकराघातादि सूत्र०२श्रु०४ अ० प्रभवं रागनिबन्धनं सुखं, नापि द्वेष-निबन्धनं प्रबलवैरितिरस्कारा सव्वज्ज-त्रि०(सर्व) हृइति अस्य लुक् / केवलज्ञानिनि, प्रा०२पाद। पादनप्रभवं, नापि मोहनिबन्धनमहङ्कारसमुत्थमात्मीयविनीतपुत्र - सव्वज्जुइ-स्त्री०(सर्वद्युति) आभरणादिसम्बन्धिन्यां समस्तद्युतौ, भातृप्रभृतिबन्धुवर्गसहवाससम्भवं च, ततः कथमिव स मोक्षो विपा० १श्रु०६ अग जन्मिनामुपादेयो भवति? आह च- "वीतरागस्य न सुखं, योषिदालिङ्ग * सर्वजुति-स्त्री० उचितेष्टवस्तुघटनायाम, विपा० १२०६अकल्पका नादिजम्। वीतद्वेषस्य च कुतः, शत्रुसेनाविमईजम्? / / 1 / / वीतमोहस्य रा० भन न सुखमात्मीया-भिनिवेशजम् / ततः किं तादृशा तेन, कृत्यं मोक्षण जन्मि-नाम्?।२।।" अपि च-क्षुदादयोऽपि तत्र सर्वथा निवृत्ता इष्यन्ते, सव्वज्जुय-पुं०(सर्वर्जुक) सर्व : प्रकारैः ऋजुः प्रगुणो विवक्षित मोक्षगमनं प्रत्युत्कुटिलः। सर्वर्जुसंयमे, सद्धर्मे च / सूत्र० १श्रु० 110 ततोऽत्यन्तबुभुक्षाक्षामकुक्षेर्यद् विशिष्टाहार भोजनेन यद्वा ग्रीष्मादी उ० पिपासापीडितस्य पाटलाकुसुमादिवासितसुगन्धि-शीतसलिलपानेनोपजायते सुखं तदपि तत्र दूरतोऽपास्तप्रसरमिति न कार्यं तेन, सव्वट्ठ-पुं०(सर्वार्थ) सर्वे च तेश्र्थाश्व सर्वार्थाः। आचा० १श्रु० अ० तदेतदतीवासमीचीनम्, यतो यद्यपि रागादयः प्रथमतः क्षणमात्रसुख 5 उ०। अशेष प्रयोजनेषु, आचा०२श्रु० 20 / बाह्याभ्यन्तरे दायितया रमणीयाः प्रतिभासन्ते तथापि ते परिणामपरम्परयाऽनन्त धनधान्यकलत्रममत्वादी अशेषप्रयोजनीयवस्तुनि,सूत्र० १श्रु० 210 दुःखसहननरकादिदुःखसम्पातहेतवः, ततः पर्यन्तदारुणतया विषान्न २उ०। एकोनत्रिंशत्तमेऽहोरात्रमुहूर्ते, ज्यो० २पाहु०। जं० / सू०प्र० / कल्प भोजनसमुत्थमिव न रागादिप्रभवं सुखमुपादेयं प्रेक्षावतां भवति / प्रेक्षावन्तो हि बहुदुःखमपहाय यदेव बहुसुखं तदेव प्रतिपद्यन्ते। यस्तु सव्वट्ठसिद्ध-पुं०(सर्वार्थसिद्ध) पञ्चानामनुत्तरविमानानां मध्यमे, स्तोकसुखनिमित्तं बहुदुःखमाद्रि-यते स प्रेक्षावानेव न भवति, किन्तु अणु०। स०। स्था०। प्रज्ञा०। एकोनत्रिंशेऽहोरात्रमुहूर्ते, स० ३०सम०। कुबुद्धिः, रागादिप्रभवमपि च सुखमुक्तनीत्या बहुदुःखहेतुकम्, अपवर्ग कल्प सुखं चैकान्तिकात्यन्तिकपरमानन्दरूपं, ततः तदेव तत्त्ववेदिनामुपादेयं, सव्वट्ठसिद्धिय-पुं०(सर्वार्थसिद्धिक) सर्वार्थसिद्धविमान-वासिनि देवे, न रागादिप्रभवमिति / यदि पुनर्यदपि तदपि सुखमभिलषणीयं भवतः स०। औला ऐरवते वर्षे भविष्यति षष्ठे तीर्थकरे, प्रव०७द्वार। तर्हि पानशौण्डानां यत् मद्यपानप्रभवं यच्च गर्ताशूकराणां पुरीषभक्षणस सव्वट्ठाण-न०(सर्वस्थान) शय्याभोजनमन्त्रादिस्थानेषु, विशे०। मुत्थ यच रक्षरनां मानुषमांसाभ्यवहारसम्भवं यच्च दासस्य सतः सव्वणट्ठ-त्रि०(सर्वनष्ट) सर्वप्रकारैर्विनाशमापन्ने, विशे०। स्वामिप्रसादादिहेतुकं यदपि च पारसीकदेशवासिनो मात्रादिश्रो- सव्वणय-पुं०(सर्वनय) सर्वेषु नैगमादिनयेषु, उत्त० अ०। णीसङ्गमनिबन्धनं तत्सर्वं भवतो द्विजातिभवे सति न सम्पद्यते इति सव्यणयमय-न०(सर्वनयमत) द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिक ज्ञाननपानशौण्डाद्यप्यभिलषणीयम् / अपि च-नरकदुः खमप्राप्तस्य न यक्रियानयसंमते, पञ्चा० १२विव०। तद्वियोगसम्भवं सुखमुपजायते ततो नरकदुः खमप्यभिलषणी-यम्। / सव्वणयविसुद्ध-त्रि०(सर्वनयविशुद्ध) सर्वे निरवशेषास्ते च ते नयाश्च (अथ-विशिष्टमेव सुखमभिलषणीयमिति 'मोक्खमग्ग' शब्दे षष्ठभागे सर्वनयास्तेषां विशुद्धं निर्दोषतया संमतम्। उत्त०। 20 // सर्वनयसम्मते, गतम् / ) तदेवं भगवदुपदिष्टेषु शक्यपरिच्छेदेष्वनुमेयेषु च यथाक्रम दश०१अ०। "तं सव्वणयविसुद्ध, जं चरणगुण-डिओ साहइ'' आव० प्रत्यक्षाऽनुमानसंवाददर्शनात् मोक्षाऽदिषु च युक्त्योपपद्यमानत्वा- ६अ। Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वणयसमूहमय 574 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सवण्णु सव्वणयसमूहमय-त्रि०(सर्वनयसमूहमय) द्रव्यास्तिकादिन यसंघातात्मके, दर्श०४तत्त्व। सव्वणाडय-पुं०(सर्वनाटक) समस्तनाट्यकर्तृषु, कल्प०१अधिक ५क्षण। सवणाण-न०(सर्वज्ञान) सर्वं जानातीति सर्वज्ञानम् / केवलज्ञाने, विशे०। सर्वपरिपूर्णज्ञानम्। क्षायिकज्ञाने केवलज्ञाने, विशे०। सव्वणाणावरणिज्ज-न०(सर्वज्ञानावरणीय) सर्वज्ञानं केवलाख्यभावृणोतीति सर्वज्ञानावरणीयम्। केवलज्ञानावरणे, आदित्यकल्पकवलज्ञानरूपस्य जीवस्याच्छादकतया सान्द्रमेघवृन्दकल्पं हि तत / स्था० २ठा० 40 सव्वणास-पुं०(सर्वनाश) सर्वात्मना नाशे, विशे०। प्रश्न०। सव्वणीइ-स्त्री०(सर्वनीति) समस्तनैगमादिनये, हा०१ अष्ट। सव्वण्णु-पुं०(सर्वज्ञ) सर्व जानातीति सर्वज्ञः। ल०। पं० सं० 1 द्वार। ध०। सर्वसमस्तं, द्रव्यप्रदेशपर्यायरूपं वस्तु जानाति विशेषग्रहणतः समस्तावरणक्षयाविर्भूतकवलं संवेदनेनावबुध्यत इति सर्वज्ञःाला "ज्ञो णत्वेऽभिज्ञादौ" ||8/1 / 56 / / इति कृतणत्त्वस्य ज्ञस्य अत उत्त्वम् / प्रा०ा अनु० वस्तुस्तोमस्य विशेषतयाऽनुज्ञापके, भ० 10 १उ०। विशे०। सूत्र०ा उपा०। आव०ा स्था०। (एतद्विषये 'अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 522 पृष्ठे अत्त' शब्दे च 466 पृष्ठे गता वक्तव्यता।) "रागाद्वा द्वेषाद्वा, मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम्। यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् / / 1 / / '' इति वचनात्। प्रणेतुश्व निर्दोषत्वमुपपादितमेवेति सिद्ध आगमादप्यात्मा। “एगे आया" इत्यादिवचनात, तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमैः सिद्धः प्रमाता प्रमेय चानन्तरमेव बाह्यर्थसाधने साधितम्, तत्सिद्धौ च 'प्रमाणं ज्ञानम्'तच्च प्रमेयाभावे करय ग्राहकमस्तु निर्विषयत्वात्, इति प्रलापमात्रम् कारणमन्तरेण क्रियासिद्धेरयोगाद, लवनादिपु तथादर्शनात्। यच्च अर्थसमकालमित्याद्युक्तम् तत्र विकल्पद्वयः / स्वीक्रियत एव / अस्मदादिप्रत्यक्ष हि समकालार्थाऽऽकलनकुशलं स्मरणमतीतार्थस्य ग्राहकम् शब्दानुमाने च त्रैकालिकस्याऽऽप्यर्थस्य परिच्छेदके निराकारं चैतद्वयमपि। नचातिप्रसङ्ग : रसज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषवशादेवास्य नैयत्येन प्रवृत्तः शेषविकल्पानामस्वीकार एव तिरस्कारः / प्रमितिस्तु प्रमाणस्य फलं स्वसंवेदनसिद्धैव / नानुभवेऽप्युपदेशापेक्षा फलं च द्विधा, आनन्तर्यपारम्पर्यभेदात्, तत्राऽऽनन्तर्येण सर्वप्रमाणानामज्ञाननिवृत्तिः फलम्, पारम्पर्यण केवलज्ञानस्य तावत्फलमौदासीन्यम, शेषप्रमाणानां तु हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः / इति सुव्यवस्थित प्रमात्रादिचतुष्टयम्। ततश्च- 'नासन्नसन्नसदस-नचाप्यनुभयात्मकम्। चतुष्कोटिविनिर्मुल्क, तत्त्वमाध्यात्मिका विदुः / / 1 / / ' इत्युन्मत्त भाषितम् / किञ्च-इदं प्रमात्रादीनामवास्तवत्वं शून्यवादिना वस्तु-वृत्त्या तावदेष्टव्यम्। तच्चासी प्रमाणात अभिमन्यते, अप्रमाणाद्वा? न तावदप्रमाणात, तस्याऽकिचित्करवात्। अथ प्रमाणात, तन्न / अवास्तवत्वग्राहकं प्रमाणं सांवृतम्, असावृतम् वा स्यात? यदि सांवृतम, कथं तस्मादवास्तवाद् वास्तवस्य शून्यवादस्य सिद्धिः? तथा तदसिद्धौ च वास्तव एव समस्तोऽपि प्रमात्रादि-व्यवहारः प्राप्तः / अथ तद् ग्राहकं प्रमाणं स्वयमसांवृतम्, तर्हि क्षीणा प्रमात्रादिव्यवहाराऽवास्तवत्वप्रतिज्ञा, तेनैव व्यभिचारात / तदेव पक्षद्वयेऽपि 'इतोव्याघ्र इतस्तटी' इति न्यायेन व्यक्त एव परमार्थतः स्वाभिमतसिद्धिविरोधः / स्या०। स्था०। नं०। वीर एव सर्वज्ञः-सुगतादयोऽपि सौगतादिभिः सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारिण इष्यन्ते. तत्कि सुगतादिः सकलवस्तुस्तोमसाक्षात्कारीति प्रतिपद्यतामस्माभिः, किया भगवद्वर्द्धमानस्वामीति तदवस्थ एव निश्चयाभावः? स्यादेतत-किमत्र संशयन? यस्य पादारविन्दयुगलं प्रणिनंसवो दिवौकसः परस्परमहमहमिकया विशिष्टविशिष्टतरविभूतिद्युतिपरिकलिताः शतसहस्रसङ्ख्येन विमाननिवहने सकलमपि नभोमण्डलमाच्छादयन्तो महीमवतीर्य पूजादिकमातन्वन्ति स्म स भगवान् वर्द्धमानस्वामी सर्वज्ञो न शेषाः सुगतादयः, मनुष्या हि मूढमनरका अपि सम्भाव्यन्ते न देवाः, ततो यदि शेषा अपि सुगतादयः सर्वज्ञा अभविष्यन् तर्हि तेषामपि देवाः पूजामकरिष्यन, न च कृतवन्तस्तस्मान्न ते सर्वज्ञाः। तदेतत्स्वदर्शनानुरागतरलितमनस्कतासूचकम्, यतो वर्द्धमानस्वामिनो दिवः समागत्य देवास्तथा पूजां कृतवन्त इत्येतदपि कथमवसीयते? भगवत-चिरातीतत्वनेदानीं तनावग्राहकप्रमाणाभावात्। सम्प्रदायादवसीयते इति चेत्, ननु सोऽपि सम्प्रदायो न धूर्तपुरुषप्रवर्तितः-किन्तु सत्यपुरुषप्रवर्तित एवंति कथभवगन्तव्यम? तद्ग्राहक-प्रमाणाभावात, नचाप्रमाणक वयं प्रतिपक्षमाः, मा प्रापदप्रेक्षावत्ताप्रसङ्गः। अन्यच्च मायाविनः स्वयमसर्वज्ञा अपि जगति स्वस्य सर्वज्ञभावं प्रचिकटयिषवस्तथादिधेन्द्रजालवशादर्शयन्ति देवानितस्ततः सञ्चरतः, स्वस्य च पूजादिक कुर्वतः,ततो देवागमदर्शनादपि कथं तस्य सर्वज्ञत्वनिश्चयः? तथा चाह भावल्क एव स्तुतिकारः समन्तभद्रः- 'देवागमनभायान-चामरादिविभूतयः / मायाविष्वपि दृश्यन्ते, नातस्त्वमसि नो महान्।।१।। भवतु वा वर्द्धमानस्वामी सर्वज्ञः तथापि तत्सत्कोऽयमाचारादिक उपदेशो न पुनः केनापिधूर्तेन स्वयं विरचय्य प्रवर्तित इति कथमवसेयम? अतीन्द्रियत्वेनैतद्विषये प्रमाणाभावात् / अथवा-भवत्वेषोऽपि निश्चयो यथा अयमाचारादिके उपदेशो वर्द्धमानस्वामिन इति, तथापि तस्योपदेशस्यायमों नान्य इतिन शक्यः प्रत्येतुम्. नानार्था हि शब्दा लोके प्रवर्तन्ते, तथादर्शनात, ततोऽन्यथाऽप्यर्थसम्भावनायां कथं विवक्षितार्थनियम-निश्चयः? अथ मन्येथास्तदात्वे तत एव सर्वज्ञात् साक्षाच्छ्रवणतो गौतमादेरर्थनियमनिश्चयोऽभूत्तत आचार्यपरम्परयेदानीमपि भवतीति, तदप्ययुक्तम्, यतो नाम गौतमादिरपि छद्मस्थः, छद्मस्थस्य च परचेतोवृत्तिरप्रत्यक्षा, तस्या अतीन्द्रियत्वेनैतद्विषये चक्षुरादीन्द्रियप्रत्यक्षपढ़तेरभावात, अ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 575 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु प्रत्यक्षायां च सर्वज्ञस्य विवक्षायां कथमिदं ज्ञायते एष सर्वज्ञस्याभिप्रायाऽनेन चाभिप्रायेण शब्दः प्रयुक्तो नाभिप्रायान्तरेण? तत एवं सम्यक परिज्ञानाभावात यामेव वर्णावलीमुक्तवान् भगवान तामेव के वला पृष्ट तो लग्रो गोलमादिरभिभाषते, न पुनः परमार्थत - स्तस्योपदेशरयार्थभवबुध्यते / नं०। (प्रपञ्चतः सार्वज्ञाक्षेपप्रतिक्षेपी 'केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे 643 पृष्ठे प्रतिपादिती 1) वीतरा-गादि सर्वज्ञा, न मिथ्या बुवत ततः। यस्मात्तस्माद् वचस्तेषां, तथ्यंभूतार्थदर्शनम्॥१॥ ०१उ०१प्रक०। तथा च तद्वचनम्-"सर्व पश्यतु वामा वा, तत्त्वमिष्ट तु पश्यतु / कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य नः कोपयुज्यते / / 1 / / ' तथाः- "तस्मादनुष्ठानगतं, ज्ञानमस्य विचार्यताम् / प्रमाण दूरदर्शी-चेदेत गृध्रानुपास्महे ||1||" तन्मतव्यपोहार्थभनन्तविज्ञानमित्यदुष्टमेव / विज्ञानान्त्यं विना एकस्याऽप्यर्थस्य यथावत्परिज्ञाना भावात्। तथा चार्षम्-"जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणाइ से एग जाणइ" तथा "एको भावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तन दृष्टाः / सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा,एको भावः सर्वथा तेन दृष्टः 11 // " इति। ननुतर्हि अवाध्यसिद्धन्तमित्यपार्थकं यथोक्तगुणयुक्तस्याय्यभिचारिवचनत्वन तदुक्तसिद्धान्तस्य बाधाऽयोगात्। न / अभिप्रायाऽपरिज्ञानात् / निर्दोषपुरुषप्रणीत एव अबाध्यः सिद्धान्तो नापरेऽपौरूषेयाद्याः, असम्भवादिदोषाघ्रातत्वात् इति ज्ञापनार्थम्, आत्ममात्रतारकमूकाऽन्तकृत्केवल्यादिरूपमुण्डकेवलिनो यथो-क्तसिद्धान्तप्रणयनाऽसमर्थस्य व्यवच्छेदार्थ वा विशेषणमेतत् / स्या०। (''सर्वज्ञो मुख्य एवैकस्तत्प्रतीतिश्च यावताम् / सवैऽपि ते तमापन्ना, मुख्य, सामान्यतो बुधाः // 1 // " इति सर्वतीर्थिक-संमतानां सार्वइयं कुतक्क' शब्दे तृतीयभागे 582 पृष्ठे साधि-तम्।) सर्व सर्वतत्त्वस्वरूपाभिन्नमात्मानं जानाति वेत्तीति सर्व-ज्ञः / आत्मज्ञिनि, अष्ट० 4 अष्टका अथ सर्वज्ञतां साधयतितथाहि-ये देशकालस्वभावविप्रकर्षवन्तः सदुपलम्भकप्रमाणविषयभावमनापन्ना भावा न ते प्रेक्षावतां सद्व्यवहारपथावतारिणः यथा नाकपृष्ठादयस्तथात्वेनाभ्युपगमविषयाः। तथा च समस्तवस्तुविस्तारव्यापिज्ञानरांपत्समन्वितः पुरुष इति सद्व्यवहारप्रतिषेधफलानुपलब्धिः / नचासिद्धौ हेतुः। तथाहि- सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानाऽङ्गनाऽऽलिङ्गितः पुरुषः प्रत्यक्षसमधिगम्यो वा अभ्युपगम्येत, अनुमानादिसंवेद्यो वा? न तावदध्यक्षगोचरः,प्रतिनियतसंनिहितरूपादिविषयनियमितसाक्षात्करणस्वभावा हि चक्षुरादिकरणव्यापारसमासादितात्मलाभा ज्ञप्रयो न परर-थं संवेदनामात्रमपि तावदालम्बितुं क्षमाः किमिङ्ग! पुनरनाद्यनन्तातीतानागतवर्तमानसूक्ष्मादिस्वभावसकलपदार्थसाक्षात्कारि संवदेन-विशेष, तदध्यासितं वा पुरुषम्। अविषये चक्षुरादिकरणप्रवर्तितस्य ज्ञानस्य प्रवृत्यसम्भवात्? सम्भवे वाऽन्यतमकरणप्रवर्ति - तस्यापि ज्ञानस्य रूपादिसकलविषयग्राहकत्वेन संम्भवात्, शेषन्द्रियपरिल्पना व्यर्था। नच सूक्ष्मादिसमस्तपदार्थग्रहणमन्तरेण प्रत्यक्षेण तत्साक्षात्करणपवृत्तज्ञानग्रहणम् / ग्राह्याग्रहणे तद्ग्राहकत्वस्यापि तद्गतस्य तेनाग्रहणात् / तदग्रहे च तद्धर्माध्यासितसंवेदनसमन्वितस्थापि न प्रत्यक्षतः प्रतिपत्तिः। नाप्यनुमानतः सकलपदार्थज्ञप्रतिपत्तिः, अनुमानं हि निश्चितस्वसाध्यधर्मधर्मिसंबन्धाद् हेतोरुदयमासादयत्प्रमाणतामाप्नोति, प्रतिबन्धश्च समस्तपदार्थज्ञसत्त्वेन स्वसाध्येन हेतोः किं प्रत्यक्षेण गृहाते. उतानुमानेन / न तावदध्यक्षेण, अध्यक्षस्यात्यक्षज्ञानवत्सत्त्वसाक्षात्करणाक्षमत्वेन तदवगतिनिमित्तहेतुप्रतिबन्धग्रहणे - ऽप्यक्षमत्वात्। नानवगतसंबन्धिना तद्गतसंबन्धावगमो विधातुं शक्यः। नाप्यनुमानेन तद्गतसंबन्धावगमः। तथाभ्युपगमेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषद्रयानतिवृत्तः / नचागृहीत-प्रतिबन्धाद्धेतोरुपजायमानमनुमान प्रमाणताभासादयति। तथा धर्मिसंबन्धावगमोऽपि न प्रत्यक्षतः। अनक्षज्ञानवत्प्रत्यक्षेऽक्षप्रभवस्याध्यक्षस्याप्रवृत्तेः / प्रवत्तौ वाऽध्य-क्षेणैव सर्वविदः संवेदनात्, अनुमाननिबन्धनहेतुव्यापारणं व्यर्थम् / नचानुमानतोऽप्यनक्ष ज्ञानवतोऽवगमः / हेतुपक्षधर्मतावगममन्तरेणानुमानस्यैव धर्भिग्राहकस्याप्रवृत्तेः / नचाप्रतिपन्नपक्षधर्मत्वो हेतुः प्रतिनियतसाध्यप्रतिपत्तिहेतुरिति नानुमानतोऽपि सर्वज्ञप्रतिपत्तिः। किंच-सर्वज्ञसत्तायां साध्यायां त्रयीं दोषजाति हेतु तिवर्त्तते असिद्धविरुद्धानैकान्तिकलक्षणम् / तथाहि-सकलज्ञसत्त्वे साध्ये किं भावधर्मों हेतुः, उताभावधर्मः, आहोस्विदुभयधर्मः। तत्र यदि भावधर्मः, तदाऽसिद्धः / अथाभावधर्मः तदा विरुद्धः / भावे साध्ये अभावधर्मस्याभावाव्यभिचारित्वेन विरुद्धत्वात्। अथोभयधर्मः, तदोभयाव्यभिचारित्वेन सत्तासाधनेऽनैकान्तिकत्वमिति न सकलज्ञसत्त्वसाधने कश्चित् सम्यग् हेतुः सम्भवति / अपि च-यद्यानयतः कश्चित् सकलपदार्थज्ञः साध्योऽभिप्रेतः, तदा तत्कृतप्रतिनियतागमाश्रयणं नोपपन्नं भवताम् / अथ प्रतिनियत एक एवार्हन् सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते, तदा तत्साधने प्रयुक्तस्य हेतोरपरसर्वज्ञस्याभावेन दृष्टान्तानुवृत्त्यसंभवादसाधारणानैकान्तिकस्वादसाधकत्वम्। किंचयत एव हेतोः प्रतिनियतोऽर्हन सर्वज्ञः तत एव बुद्धोऽपि स स्यादिति कुतः प्रतिनियतसर्वज्ञप्रणीतागमाश्रयणमुपपत्तिमत्? इति न कश्चित् सर्वज्ञसाधको हेतुः / अथ सर्वे पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वादग्न्यादिवदिति तत्साधनहेतुसद्भावः तदसत् यतोऽत्र किं सकलपदार्थसाक्षात्कार्येकज्ञान-प्रत्यक्षत्वं सर्वपदार्थानां साध्यत्वेनाऽभिप्रेतम्, आहोस्वित् प्रतिनियतविषयानेकज्ञानप्रत्यक्षत्वमिति कल्पनाद्वयम् / यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः प्रतिनियतरूपादिविषयग्राहकानेकप्रत्ययप्रत्यक्षत्वेन व्याप्तस्याग्न्यादिदृष्टान्त-धर्मिणि, प्रमेयत्वलक्षणस्य हेतोरुपलम्भाद्धेतुविरुद्धत्वसाध्यविकलदृष्टान्तदोषद्वयाघ्रातत्वात, अथ द्वितीयः, सोऽप्यसङ्गतः सिद्ध साझ्यतादोषप्रसगात्। तथा प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्य-स्यमानं, किमशेषज्ञेयय्यापिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिलक्षणमभ्युपगम्यते, उत अस्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वव्यक्तिस्वरूपम्, आहो-स्वित् उभयव्यक्तिसाधारणसामान्यस्वभावमिति विकल्पाः। तत्र यदिप्रथमः पक्षः, सनयुक्तः, विवादाध्या Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु सतरादार्थषु तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्यासिद्धत्वात् / सिद्धत्वे वा साध्यस्यापि हेतुवत सिद्धत्वात् व्यर्थ हेतूपादानम्, तथाभूतप्रमाणप्रमेयत्वस्य दृष्टान्तऽग्न्यादिलक्षणेऽसिद्धेः संदिग्धान्वयश्च हेतुः स्या-त्। अथास्मदादिप्रमाणप्रमेयत्वं हेतुः तदा तथाभूतप्रमाणप्र-मेयत्वस्य विवादगोचरेष्वतीन्द्रियेष्वसंभवादसिद्धो हेतुः / सिद्धौ वा ततस्तथाभूतप्रत्यक्षत्वसिद्धिरेव स्यात्, तत्रचाविवाद इति न हेतूपन्यासः सफलः / अथोभयप्रमेयत्वव्यक्तिसाधारण प्रमेयत्वसामान्यं हेतुरिति पक्षः, सोऽप्यसङ्गतः, अत्यन्तविलक्षणातीन्द्रियेन्द्रियविषयप्रमाण-प्रमेयत्वव्यक्तिद्वयसाधारणस्य सामान्य-स्यासम्भवात्; नहि शाबलेयकर्कव्यक्तिद्वयसाधारणमेकं गोत्वसामान्यमुपलब्धमिति प्रमेयत्वसामान्यलक्षणो हेतुरसिद्ध इति नानुमानादपि सर्वज्ञसिद्धिः। नापिशब्दात् / यतः शब्दोऽपि तत्प्रतिपादकोऽभ्युपगम्यमानः किं नित्यः,उतानित्य इति कल्पनाद्वयम्। न तावत् नित्यः, सर्वज्ञबोधकस्य नित्यस्यागमस्याभावात्। भावेऽपि तत्प्रतिपादकत्वेन तस्य प्रामाण्यासम्भवात् ,कार्येऽर्थे तत्प्रामाण्यस्य व्यवस्थापितत्वात् / अथानित्यस्तत्प्रतिपादक इति पक्षः, सोऽपि न युक्तः। यतोऽनित्योऽपि किं तत्प्रणीतः स तदवबोधकः, अथ पुरुषान्तरप्रणीत इति विकल्पद्वयम्। तत्रनसर्वज्ञप्रणीतः रा तदवबोधक इतिपक्षोयुक्तः इतरेतराश्रयदोष-प्रसङ्गात्। तथाहि-तत्प्रणीलत्वे तस्य प्रामाण्यम्, ततः तस्य तत्प्रतिपादकत्वमिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम्। नापि पुरुषान्तर-प्रणीतस्तदवबोधकः तस्योन्मत्तवावयवदप्रमाणत्वात्। तन्न शब्दादपि तस्य सिद्धिः / नाप्युपमानात् तत्सिद्धिः। यत उपमानोपमेय-योरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनं तदभ्युपगम्यते। नचोपमानभूतः कश्चित् सर्वज्ञत्वेन प्रत्यक्षतः सिद्धः, येन तत्सादृश्यादन्यस्य सर्व-ज्ञत्वमुपमानात् साध्यते। सिद्धी वा प्रत्यक्षत एव सर्वज्ञस्य सिद्धत्वान्नोपमानादपि तत्सिद्धिः। सर्वज्ञसद्भावमन्तरेणानुप-पद्यमानस्य प्रमाणषट्कविज्ञातस्यार्थस्य कस्यचिदभावात नार्थापत्तेरपि सर्वज्ञसत्त्वसिद्धिः / नचागमप्रामाण्यलक्षणस्यार्थस्य तभन्तरेणानुपपद्यमानस्यतत्परिकल्पकत्वम् / अतीन्द्रिये स्वर्गाद्यर्थे तत्प्रणीतत्वनिश्चयमन्तरेण तस्य प्रामाण्यानिश्चयात्। अपौरुषेयत्वादपि तत्प्रामाण्यसंभवात् कुतस्तस्य तमन्तरेणानुपपद्यमानता, तनापत्तितोऽपि तत्सिद्धिः। अभावाख्यस्य तु प्रमाणस्याभावसाधकत्वेन व्यापारातनतत्सद्भावसाधकत्वमान चोपमानार्थापत्यभावप्रमाणानां भवता प्रामाण्यमभ्युपगम्यते इति न तभ्यस्तसिद्धिः। तदुक्तम्"सर्वज्ञो दृश्यते ताव-न्नेदानीमस्मदादिभिः। दृष्टो न चैकदेशोऽस्ति, लिङ्गं वा योऽनुमापयेत्॥११७।। नचागमविधिः कश्चि-न्नित्यः सर्वज्ञबोधकः / नच मन्त्रार्थवादाना, तात्पर्यमवकल्पते / / 11 / / नचागमेन सर्वज्ञ-स्तदीयेऽन्योन्यसंश्रयात्। नरान्तरप्रणीतस्य, प्रामाण्यं गम्यते कथम् / / 116 // " (श्लो० वा० सू०२) ___ इत्यादि / ततो 'ये देशकाल' इत्यादिप्रयोगे नासिद्धो हेतुः / सद्व्यवहारनिषेधश्च, अनुपलम्भमात्रनिमित्तः। अनेकधाऽनेन अन्यत्र प्रवर्तित इत्यत्रापि तन्निमित्तसद्भावात् प्रवर्त्तयितुं युक्तः / अथ 'यथाऽस्माकं' तत्सद्धावावेदकं प्रमाणं नास्ति तथा भवतां तदभावावेदकमपि नास्तीति सद्व्यवहारवदभावव्यवहारोऽपि न प्रवर्तयितव्यः। तथाहि-गर्वविदोsभावः किं प्रत्यक्षसमधिगम्यः, प्रमाणान्तरगम्यो वा? तत्र न तावत्प्रत्यक्षसमधिगम्यः यतः प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावावेदकमभ्युपगम्यमानम्, 'किं सर्वत्र सर्वदा सर्वः सर्वज्ञोन' इत्येवं प्रवर्तते, उत क्वचित्कदाचित् कश्चित् सर्वज्ञो नास्तीत्ये-वमिति कल्पनाद्वयम्। तत्र यदि सर्वत्र सर्वदा सर्वः सर्वज्ञो नेति प्रत्यक्षस्य प्रवृत्तिः, तर्हि न सर्वज्ञाभावः, तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वात् / नहि सकल-देशकालव्यवस्थितपुरुषपरिषत्साक्षात्करणमन्तरेण तदाधारम-सर्वज्ञत्वमवगन्तुं शक्यम्। तत्साक्षात्करणे च कथं न तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वमिति, नाद्यः पक्षः। द्वितीयेऽपि पक्षे न सर्वथा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति न प्रत्यक्षात् सर्वज्ञाभावसिद्धिः। अथ न प्रवर्तमान प्रत्यक्षं सर्वज्ञाभावसाधकम् किंतु निवर्तमानम्। ननु पदि निखिलदेशकालाधारसकलपुरुषपरिषदाश्रितानन्तपदार्थ-संविद्व्यापकम, कारणं वा तत् स्यात्, तदा तन्निवर्तमान तथाभूतं सर्वज्ञत्वं व्यावर्तयेत्, नान्यथा / तथाभूतनिवृत्तौ तन्निवृत्तेरसिद्धः। तथाभ्युपगमे वा स एव सर्वज्ञ इति न तेन तन्निषेधः। किंचप्रत्यक्ष-निवृत्तियदि प्रत्यक्षमेव, तदा स एव दोषः / अथप्रत्यक्षादन्या तदा-ऽसौ प्रमाणमप्रमाणं वा / अप्रमाणत्ये, नातः सर्वज्ञाभावसिद्धिः। प्रमाणत्वे नानुमानत्वम्: सर्वात्मसंबन्धिन्याः तन्निवृत्तेर्यथासंख्य-मसिद्धानकान्तिकत्वदोषद्वयसद्भावात्। नचतुच्छा तन्निवृत्तिः तदभावज्ञापिका / तुच्छायाः केनचित् सहप्रतिबन्धाभावेन सर्व-सामर्थ्यविरहेण च ज्ञापकत्वासम्भवात्। तन्न प्रवर्तमान, निवर्त्तमानं वा प्रत्यक्ष तदभावं साधयति। प्रमाणान्तरगम्यत्वेऽपि तद-भावोन तावदनुमानगम्यः / तदभावसाधकानुमानाभावात् / अथ विवादाध्यासितः पुरुषः सर्वज्ञो न भवति, वक्तृत्वात्, रथ्यापुरुष-वदित्यमानं तदभावसाधकम् / नन्वत्र किं प्रमाणान्तरसंवादिनो-ऽर्थस्य वक्तृत्वं हेतुः, उत तद्विपरीतस्य, आहोस्वित् वक्तृत्वमात्र-मिति वक्तव्यम् / यदि प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वादिति हेतुः, तदा विरुद्धो हेतुः। तथाभूतवक्तृत्वस्य सर्वज्ञ एव भावात् / अथ प्रमाणा-न्तरविसंवादिनोऽर्थस्य वक्तृत्वादिति हेतुः, तदासिद्धसाधनम् / तथाभूतस्य वक्तुरसर्वज्ञत्वेनास्माभिरभ्युपगमात्।अथ वक्तृत्वमात्रं हेतुः। न। तस्य साध्यविपर्ययेण सर्वज्ञत्वेनानुपलब्धेन सहानवस्थानलक्षणस्य तदव्यवच्छेदस्वभावेन च परस्परपरिहार-स्वरूपस्य च विरोधस्याभावात् न ततो व्यावृत्तिसिद्धिरिति न स्वसाध्यनियतत्वम्, तदभावान्न स्वसाध्यसाधकत्वम् / अथ सर्वज्ञो वक्ता नोपलब्ध इति ततो व्यावृत्तिसिद्धिः, न; सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्यासंभवात्। सर्वज्ञ एव वक्तृत्वमात्मन्युपलप्स्यते, सर्वज्ञान्तरेण वा तत्तत्र संवेदिष्यते इति न सम्भवः सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य। अथ सर्वज्ञस्य कस्य चिदभावात् सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवः / ननु सर्वज्ञाभावः कुतः सिद्धः / अन्यतः प्रमाणात् चेत् / तत एव तदभावसिद्धरस्य वैयर्थ्यम् / अत Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 577 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु एवानुमानादिति न वक्तव्यम् / इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गात / सिद्धेऽतोऽनुमानात सर्वज्ञाभावे, सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भसंभवसामर्थ्यात् हेतोर्विपक्षतो व्यावृत्तिः स्यात् तस्य च विपक्षादव्यावृत्तस्य तत्साधकत्वमिति व्ययतमितरेतराश्रयत्वम् / भवतु वा सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भसंभवः, तथापि सकलपुरुषचेतोवृत्तिविशेषाणामसर्वज्ञेन ज्ञातुमशक्तेरसिद्धः सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भ इतिन ततो विपक्षव्यावृत्तिनि-श्वयो वक्तृत्वस्यति कुतः संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकाद् हेतोस्तदभा-वसिद्धिः। नापि स्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भात् तद्व्यतिरेकनिश्चयः, तस्य स्वपितृव्यपदेशहेतुनाऽप्यनेकान्तिकत्वात् / नचैवंभूतादपि हेतोः साध्यसिद्धिः तथाऽभ्युपगमे न कश्चित्सर्वज्ञाभावमवबुध्यते वक्तृत्वात, रथ्यापुरुषवदिति तदभावावगमाभावस्थापि सिद्धिः स्यात्। अथान्यत्रापि हेतावयं दोषः समान इति सर्वानुमानोच्छेदः। तदयुक्तम्। अन्यत्र विपक्षव्यावृत्तिनिमित्तस्यानुपलगभव्यतिरेकेण बाधकप्रमाणस्य सद्भावात् / नचात्रापि तस्य सद्भाव इतिशक्य वक्तुमातदभावस्य हेतुलक्षणप्रस्तावे वक्ष्माणत्वात किंच-सर्वज्ञप्रतिपादकप्रमाणाभावे तस्यासिद्धत्वात् तदभावसाधनायोपन्यस्यमानः सर्वोऽपि हेतुराश्रयासिद्ध इति न तस्मादभावसिद्धिः। अथ तद्ग्राहकत्वेन प्रमाणं प्रवर्तत इत्याश्रयासिद्धत्वाभावः, तर्हि तत्साधकप्रभाणबाधितत्वात् पक्षस्य न तत्साधनाय हेतुप्रयोगसाफल्यमिति नानुमानावसेयः सर्वज्ञाभावः। अपौरुषेयत्वस्य प्राक्तनन्यायेनासिद्धत्वात्, सर्वज्ञप्रणीतत्वानभ्युपगमे शब्दस्य पुरुषदा - षसंक्रान्त्याऽप्रामाण्यात् न ततोऽपि तदभावसिद्धिः। नच तदभावाभिधायकं किशिद्धेदवाक्य श्रूयते, केवलं तद्भावावेदकवेदवचनोपलब्धिरविगानेन समस्ति-'अपाणिपादो जवनो ग्रहीता,पश्यत्य-चक्षुः स शृणोत्यकर्णः। सव्वेत्ति विश्वं नहि तस्य वेत्ता, तमाहुरा यं पुरुष महान्तम् / (श्वेताश्व०३।१६) तथा हिरण्यगर्भ प्रकृत्य "सर्वज्ञ' इत्यादि। नच स्वरूपेऽर्थे तस्याप्रामाण्यम् तत्र तत्प्रामाण्यस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् : तन्न शब्दादपि तदभावसिद्धिः। नाप्युपमानात्तदभावावगमः / यत उपमानमुपमानोपमेययोरध्यक्षत्ये सादृश्यालम्बनमुदेति, अन्यथा''तरमाद्यत् स्मर्यते तत्स्यात्, सादृश्येन विशेषितम्। प्रमेयमुपमानस्य,सादृश्यं वा तदन्वितम्।" (श्लो० वा० सू०५ उपमान० श्लो०३७) इत्यभिधानात प्रत्यक्षेणोपमानोपमेययोरग्रहणे उपमेये स्मरणासंभवात्; कथं स्मर्यमाणपदार्थविशिष्टं सादृश्यं, सादृश्यविशिष्ट वा स्मर्यमाणं वस्तु उपमानविषयः स्यात् / तस्मादिदानींतनोपमानभूताशेषपुरुषप्रत्यक्षत्वम्, उपमेयाशेषान्यकालमनुष्यवर्गसाक्षात्करणं चावश्यमभ्युपगमनीयम्। तदभ्युपगमे च स एव सर्वज्ञ इति कथं उपमानात् तदभावावगमो युक्तः। अतो यदुक्तम्"राज्जातीयैः प्रमाणैस्तु, यज्जातीयार्थदर्शनम्। दृष्ट संप्रति लोकस्य, तथा कालान्तरेऽप्यभूत् // " इति। (श्लो० वा०सू०२ श्लो०११३) तन्निरस्तम्। उपमानस्योक्तन्यायेनात्रवस्तुन्यप्रवृत्तेः / नाप्यर्थापत्तितस्तदभावावगमः, तरयाः प्रमाणत्वेऽनुमानेऽन्तर्भूतत्वात् / तथाहि-' दृष्टः श्रुतो वाऽर्थोऽन्यथा नोपपद्यत' इत्यदृष्टार्थकल्पनाऽर्थापत्तिः / नचासावथोऽन्यथानुपपद्यमानत्वानवगमे अदृष्टार्थपरिकल्पनानिमित्तम्। अन्यथा स येन विनोपपद्यमानत्वेन निश्चितस्तमपि परिकल्पयेत् येन विना नोपपद्यते तमपि वा न कल्पयेत्। अनक्गतस्यान्यथाऽनुपपन्नत्वेनार्थापत्त्युत्थापकरयार्थस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वे सत्यप्यदृष्टार्थपरिकल्पकत्वासंभवात्। संभवे वा लिङ्गस्याप्यनिश्चितनियमस्य परोक्षार्थानुमापकत्वं स्यादिति, तदपि नार्थापत्त्युत्थापकादर्थाद्भिद्येत। स चान्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः, तस्यार्थस्य न भूयो दर्शननिमित्तः सपक्षे। अन्यथा लोहलेख्यं वजं पार्थिवत्वात्, काष्टवदित्यत्रापि साध्यसिद्धिः स्यात् / नापि विपक्षे तस्यानुपलम्भनिमित्तोऽसौ / व्यतिरेकनिश्चायकत्येनानुपलम्भस्य पूर्वमेव निषिद्धत्वात्, किन्तविपर्यये तद्वाधकप्रमाणनिमित्तः / तच बाधकं प्रमाणमर्थापत्तिप्रवृत्तेः प्रागेवानुपपद्यमानस्यार्थस्य तत्र प्रवृत्तिमदभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथाऽपित्त्या तस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमेऽभ्युपगम्यमाने यावत्तस्यान्यथाऽनुप-पद्यमानत्वं नावगतम्, न तावदर्थापत्तिप्रवृत्तिः; यावच नतत्प्रवृत्तिः, न तावदर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्यान्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगम इतीतरेतराश्रयत्वान्नार्थापत्तिप्रवृत्तिः। अत एव यदुक्तम् "अविनाभाविता चात्र, तदैव परिगृह्यते। न प्रागवगतत्यवं, सत्यप्येषा न कारणम् / / तेन संबन्धवेलाया, संबन्ध्यन्यतरो ध्रुवम्। अपित्त्येव मन्तव्यः, पश्चादस्त्वनुमानता।" (श्लो० वा० सू० 5 अर्थापत्ति० श्लो०३०।३३) इत्यादि। तन्निरस्तम्। एवमभ्युपगमेऽर्थापत्तेरनुत्थानस्य प्रतिपादितत्वात्। सच तस्य पूर्वमन्यथाऽनुपपद्यमानत्वावगमः किं दृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणसंपाद्यः, आहोस्वित् स्वसाध्यधर्मिप्रवृत्तप्रभाणसंपाद्य इति। तत्र यद्याद्यः पक्षः तदाऽत्रापि वक्तव्यम् / किं तत् दृष्टान्तध-र्मिणि प्रवृत्तं प्रमाणम्, साध्यधर्मिण्यपि साध्यान्यथाऽनुपपन्नत्वं तस्यार्थस्य निश्शाययति, आहोस्थित दृष्टान्तधर्मिण्येव / तत्र यद्याद्यः पक्षः तदाऽर्थापत्त्युत्थापकस्यार्थस्य, लिङ्गस्य वा स्वसाध्यप्रतिपादनव्यापार प्रतिन कश्चिद्विशेषः / अथ द्वितीयः सन युक्तः। नहि दृष्टान्तधर्मिणि निश्चितस्वसाध्यान्यथाऽनुपपद्य-मानत्वोऽर्थोऽन्यत्र साध्यधर्मिणि तथा भवति। नच तथात्वेनानिश्चितः स साध्यधर्मिणि स्वसाध्यं परिकल्पयतीति युक्तम्, अतिप्रसङ्गात। अथ लिङ्गस्य दृष्टान्तधर्मिप्रवृत्तप्रमाणत्ववशात्सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चयः, अर्थापत्त्युत्थापकस्य त्वर्थस्य स्वसाध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तात्प्रमाणात्सर्वोपसंहारेणादृष्टार्थान्यथाऽनुपपद्यमानत्वनिश्चय इति लिङ्गार्थापत्त्युत्थापकयोर्भेदः। नास्मातेदादर्थापत्तरनुमानं भेदमासादयति। अनुमानेऽपि स्वसाध्यधर्मिण्येव विपर्ययाद्धेतुव्यावर्त्तकत्वेन प्रवृत्तं प्रमाण सर्वोपसंहारेण स्वसाध्यनियतत्वनिश्चायकमभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वादित्यस्य हेतोः पक्षीकृतवस्तुव्यतिरेकेण दृष्टान्तधर्मिणोऽभावात्कथं तत्र प्र Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 578 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु वर्तमानं बाधकं प्रमाणमनेकान्तात्मकल्वनियतत्वमवगमयेत् सत्त्वस्य? नच साध्यधर्मिणि दृष्टान्तधर्मिणि च प्रवर्त्तमानेन प्रमाणेनार्थापत्त्युस्थापकस्यार्थस्य, लिङ्गस्य च यथाक्रमं प्रतिबन्धो गृह्यत इत्येतावन्मात्रेणापत्त्यनुमानयोर्भेदोऽभ्युपगन्तुं युक्तः / अन्यथा पक्षधर्मत्वसहितहेतुसमुत्थादनुमानात्तद्रहितहेतुसमुत्थमनुमानं प्रमाणान्तर स्यादिति प्रमाणषट्कवादो विशीर्येत / नियमवतो लिङ्गात्परोक्षार्थप्रतिपत्तरविशेषात् न ततस्तद्भिन्नमित्यभ्युपगमे, स्वसाध्याविनाभूतादर्थादर्थप्रतिपत्तेरविशेषादनुमानादर्थापत्तेः कथं नाभेदः? तदेवं प्रमाणत्वेऽर्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावात; अनुमानस्य च सर्वज्ञाभावप्रतिपादकस्य निषेधात्तन्निषेधे चार्थापत्तेरपि तदभावग्राहकत्वेन निषेधान्नार्थापत्तिसमधिगम्योऽपि सर्वज्ञाभावः / अभावाख्य तु प्रमाणमप्रमाणत्वादेव न तदभावसाधकम् / प्रमाणत्वेऽपि किमात्मनोऽपरिणामलक्षणं तत, आहोस्विदन्यवस्तुविज्ञानलक्षणमिति / तत्र यद्यात्मनोऽपरिणामलक्षण तदभावसाधकमिति पक्षः स न युक्तः, तस्य सत्त्वनाभ्युपगते परचेतोवृत्तिविशेषेऽपि सद्भावेनानैकान्तिकत्वात् / अथान्य विज्ञानलक्षणमिति पक्षः, सोऽप्यसंबद्धः। यतःसर्वज्ञत्वादन्यद्यदि किशिज्ज्ञत्वं तद्विषयज्ञानं तदन्यज्ञानं, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्: किं सकलदेशकाल - व्यवस्थितपुरुषाधार किञ्चिज्ज्ञत्वम् अभ्युपगम्यते , आहोस्वित् कतिपयपुरुषव्यक्तिसमाश्रितमिति? तत्र यदि समस्तदेशकालाश्रितपुरुषाधार किञ्चिज्ज्ञत्वं तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानं तत्सर्वज्ञाभावप्रसाधकम, तदयुक्तम। सकलदेशकालव्यवस्थितपुरुषपरिषत-साक्षात्करणव्यतिरेकेण तदाधारस्य किश्चिज्ज्ञत्वस्य विषयीकर्तुमशक्तेन तद्विषयस्य तदन्यज्ञानस्य सर्वज्ञाभावावगम-निमित्तत्वं युक्तम्। सर्वदेशकालव्यवस्थिताशेषपुरुषसाक्षात्करणे च स एव सर्वदर्शीति न तदभावाभ्युपगमः श्रेयान् / अथ कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थित किचिज्ज्ञत्वं तदन्यत् तद्विषयं ज्ञानंतदन्यज्ञानं सर्वज्ञाभावावेदकम्, तदप्ययुक्तम्। तज्ज्ञानात् तदभावावगमे कतिपयपुरुषव्यक्तिव्यवस्थितस्यैव सर्वज्ञत्वस्याभावः सिद्ध्येत्, न सर्वत्र सर्वदा सर्वपुरुषेषु। तथा च सिद्धसाधनम्। अस्माभिरपि कुत्रचित्कस्यचिद्रथ्यापुरुषादेरसर्वज्ञत्वेनाभ्युपगमात्। अथ सर्वज्ञत्वादन्यस्तदभावस्तद्विषयं ज्ञानं तदन्यज्ञानम्, तदाऽत्रापि किं सर्वदा सर्वत्र सर्वः सर्वज्ञो न इत्येवं तत्प्रवर्तते, उत कुत्रचित्कदाचित्कश्चित् सर्वज्ञो न इत्येवम्।तत्र नाद्यः पक्षः। सकलदेशकालपुरुषासाक्षात्करणे तदाधारस्य तदभावस्यावगन्तुमशक्यत्वात्, प्रदेशाप्रत्यक्षीकरणे तदाधारस्य घटाभावस्येव, तत्साक्षात्करणे च तदेव सर्वज्ञत्वमिति न तदभावसिद्धिः / अथ द्वितीयः पक्षः / तदा न सर्वत्र सर्वदा सर्वज्ञाभावसिद्धिरिति तदेव सिद्धसाधनम् / प्रमाणपञ्चकनिवृत्तेस्तदभावज्ञानमित्यादि सर्व प्रतिविहितमिति नाभावप्रमाणादपि तदभावावगमोऽभ्युपगन्तुं युक्त इत्यादि यत्, तदप्यविदितपराभिप्रायस्य सर्वज्ञवादिनोऽभिधानम्। यतो नारमाकमतीन्द्रियसर्वज्ञादिपदार्थबाधकं प्रत्यक्षादिप्रमाणं स्वतन्त्र प्रवर्तत इत्यभ्युपगमः। अतीन्द्रियेषु स्वतन्त्रस्य प्रत्यक्षादिप्रमाणस्य भवदभिहितप्राक्तनदोषदुष्टत्वेन प्रवृत्त्यसंभवात् / किन्तुप्रसङ्ग साधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितं यथार्थमभि धानमुद्ब्रहद्भिर्मीमांसकैः। अत एव तदभिप्रायप्रकाशनपरं भगवतो जैमिने: सूत्रम-सत् सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत्प्रत्यक्षम् / / 4 / / इति / यतो नानेनापि सूत्रेण स्वातन्त्र्येण प्रत्यक्षलक्षणमभ्यधायि भगवता। किन्तु-लोकप्रसिद्धलक्षणलक्षितप्रत्यक्षानुवादेन तस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते / नचैतदत्रापि वक्तव्यम्, कतरस्य प्रत्यक्षस्य धर्म प्रत्यनिमित्तत्वं विधीयते,अस्मदादिप्रत्यक्षस्य, सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य वा। अस्मदादिप्रत्यक्षस्य तदनिमित्तत्वप्रतिपादने सिद्धसाधनम् / सर्वज्ञप्रत्यक्षस्य भवन्मतेनाप्रसिद्धत्वाच्छशविषाणस्येव कथं तं प्रत्यनिमित्तताविधिः / अथापि स्यात् परेण तस्याभ्युपगतत्वात्, तं प्रत्यानिमित्तत्वं तत्प्रसिद्ध्यैवोच्यते / तदयुक्तम् / परीक्षापूर्वकत्वेनाभ्युपगमस्य स्थितत्वात्। तत्पूर्वकश्चेत् परस्याभ्युपगमः, तदा भवतोऽपि तस्य तद्भावः, परीक्षायाः प्रमाण-रूपत्वात् / प्रमाणसिद्धं च न परस्यैव सिद्धम् / प्रमाणसिद्धस्य सर्वरवाभ्युपगमनीयत्वात्। अथ प्रमाणव्यतिरेकेण परेण सर्वज्ञप्रत्यक्षमभ्युपगतम्, तदाऽसौ प्रमाणाभावादेव नाभ्युपगमो युक्तः। नच प्रमाणाभ्युपगतस्यास्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणस्य सर्ववित्प्रत्यक्षस्यतं प्रत्यनिमित्तत्वं विधातुं युक्तम् 'यतोऽस्मदादिप्रत्यक्षविलक्षणत्वं सर्ववितप्रत्यक्षस्य धर्मादिग्राहकत्वेनैव, तचेत्प्रमाणतोऽभ्युपगतं, कथं तस्यतं प्रत्यनिमित्तत्यमुपपद्येत। तद्ग्राहकप्रमाणवाधितत्वात्। किञ्चायं परस्परविरुद्धोऽपि वाक्यार्थः स्यात, प्रमाणतो धर्मादिग्राहक सर्ववितप्रत्यक्षं यत्प्रसिद्ध तद् धर्मादिग्राहकं न भवतीति / यतो न प्रसङ्गसाधने आश्रया-सिद्धत्वादिदूषणं क्रमते। नहि प्रमाणभूलपराभ्युपगमपूर्वकमेव प्रसङ्ग साधनं प्रवर्तते / किं तर्हि यद्यर्थाभ्युपगमदर्शनपूर्वकम् / अल एव प्रसङ्ग साधनस्य विपर्ययफलत्वम् / विपर्ययस्य च अतीन्द्रियपदार्थविषयप्रत्यक्षनिषेधफलत्वम्, तन्निषेधे च किं प्रत्यक्षस्य धर्मिणो निषेधः, अथ तद्धर्मस्य प्रत्यक्षत्वस्येति? पूर्वस्मिन् पक्षे हेतूनामाश्रयासिद्धतेति प्रतिपादितम्, उत्तरत्र प्रत्यक्षत्वनिषेधे प्रमाणान्तरत्वप्रसक्तिः , विशेषप्रतिषेधस्य शेषाभ्यनुज्ञानलक्षणत्वात्, इति न प्रेर्यभ्। यतो विशेषनिषेधे तस्य विशेषरूपत्वेन सत्त्वस्यैव प्रतिषेधः / नच धर्मासिद्धत्वादिदोषः। यद्यर्थस्याभ्युपगतत्वात्। कथं पुनरस्त्र प्रसङ्गः, विपर्ययो वा क्रियते इति चेत् / तदुच्यते-सार्वज्ञ प्रत्यक्ष यद्यभ्युपगम्तये तदा तत् धर्मग्राहकं न भवति, विद्यमानोपलम्भनत्वात्। नचासिद्धो हेतुः। तथाहि-विद्यमानोपलम्भनमतीन्द्रियार्थजप्रत्यक्ष, सत्संप्रयोगजत्वात्, अस्याप्यसिद्धतोद्भावने एवं वक्तव्यम्। विवादगोचरं प्रत्यक्ष सत्संप्रयोगजं, प्रत्यक्षत्वात्। तच्छब्दवाच्यत्वाद्वाऽस्मदादिप्रत्यक्ष सर्वत्र दृष्टान्त इति प्रसङ्गः। विपर्यस्त्वेवम्-तद्धर्मग्राहकं चेत् न विद्यमानोपलम्भनम्, अविद्यमानत्वात् धर्मस्य। अविद्यमानोपलम्भनत्वेन सत्संप्रयोगजम्। असत्संप्रयोगजत्वे न प्रत्यक्षं,नापितच्छब्दवाच्यम् / प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेणैव यधर्थोपक्षेपेण वार्त्तिककृताऽप्यभिहितम्"यदि षड्भिः प्रमाणैः स्यात्, सर्वज्ञः केन वार्यते।। एकेन तु प्रमाणेन,सर्वज्ञो येन कल्प्यते। नून स चक्षुषा सर्वान्, रसादीन् प्रतिपद्यते।। Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 576 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु यज्जातीयः प्रमाणैस्तु, यज्जातीयार्थदर्शनम। दृष्ट संप्रति लोकस्य, तथा कालान्तरेऽप्यभूत् " (श्लो० वा०सू० २श्लो०१११।११३) पुनरव्युक्तम्"येऽपि सातिश्या दृष्टाः, प्रज्ञामेधादिभिर्नराः। स्तोकस्तोकान्तरत्वेन, नत्वतीन्द्रियदर्शनात् / / 1 / / यत्राप्यतिशयो दृष्टः, स स्वार्थानतिलवनात्। दूरसूक्ष्मादिदृष्टा स्या-न्न रूपे श्रोत्रवृत्तिता॥" (श्लोवा०सू० २श्लो०११४) इत्यादि तेनात्रापि स्वतन्त्रानुमानाभिप्रायेणाश्रयासिद्धत्वादिदूषणम्, उपमानोपन्यासवुद्ध्या वा शेषोपमानोपमेयभूतपुरुषपरिषत्साक्षात्करणे उपमानं प्रवर्त्तते इत्यादि दूषणाभिधानं च। सर्वज्ञवादिनः स्वजात्याविष्करणमात्रकमव / अतोऽतीन्द्रियसर्वविदो न प्रत्यक्ष प्रवृत्तिद्वारेण निवृत्तिद्वारेण वा भावसानिमित्यादि सर्वमभ्युपगमवादान्निरस्तम्। यच्चानुमानेन सर्वज्ञाभावसाधने दूषणमभिहितम् / किं प्रमाणान्तरसंवाद्यार्थस्य वक्तृत्वादित्यादि, तद्भूभादग्न्यनुमानेऽपि समानम् / तथाहि-तत्रापि वक्तुं शक्यते; किं साध्यधर्मि संबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्तः, उत दृष्टान्तधर्मिसबन्धी? तत्र यदि साध्य-धर्मिसंबन्धी हेतुः,तदा तस्य दृष्टान्तेऽसंभवादन्वयदोषः / अथ दृष्टान्तधर्मिसंबन्धी; सोऽसिद्धः / दृष्टान्तधर्मिधर्मस्य साध्यधर्मिण्यसंभवात् / अथोभयसाधारणं धूमत्वसामान्य हेतुः, तदा तस्य विपक्षेऽननौ विरोधासिद्धेः, संदिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वेन स्व-साध्यागमकत्वम् / अथ विपक्षेऽग्री धूमस्यानुपलम्भाद्विरोधासिद्धेः न सन्दिग्धविपक्षव्यावृत्तिकत्वम्। नन्वत्रापि वक्तुं शक्यम् / सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्यासम्भवादनग्रो देशान्तरे कालान्तरे वा केनचित् धूमस्योपलम्भात्, तदुपलब्धिमतः कस्यचिदभावात् सर्वसंवन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभव इति चेत्, केन पुनः प्रमाणेनानग्रौ धूमसत्त्वग्राहकपुरुषाभावः प्रतिपन्नः। यद्यन्यतः प्रमाणात्, तत एवानगेधूमस्य व्यावृत्तिसिद्धेर्व्यर्थ सर्वसंबन्ध्यनुपलम्भलक्षणस्य विपक्षे धूमविरोधसाधकस्य प्रमाणस्याभिधानम्। अथ तथाभूतानुपलम्भात् तदभावावगमः। ननु तथाभूतपुरुषाभावे तदनुपलम्भसंभवस्तत्संभवाच तथाभूतपुरुषाभावसिद्धिरितीतरेतराश्रयत्वात् न सर्वसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य संभवः। संभवेऽपि तस्यासिद्धेर्न विपर्यये विरोधसाधकत्वम्। अथात्मसंबन्धिनोऽनुपलम्भस्य धूमत्वलक्षण-हेतोर्विपक्षात् व्यावृत्तिसाधकत्वम्। न तस्य परचेतोवृत्तिविशेषैर-नैकान्तिकत्वात्। अथानुपलम्भव्यतिरिक्तधूमलक्षणस्य हेतोर्विपयये बाधकं प्रमाणमस्ति, नतु वक्तृत्वलक्षणस्य / किं पुनस्तदिति वक्तव्यम् / अग्निधूमयोः कार्यकारणभावलक्षणप्रतिबन्धग्राहक मिति चेत्, कः पुनरसौ कार्यकारणभावः? किंवा तद्ग्राहक प्रमाणम? अग्निभाव एव धूमस्य भावस्तदभावे चाभाव एवासी; तद्ग्राहकं च प्रमाणे प्रत्यक्षानुपलम्भ स्वभावम् / ननु किचिज्ज्ञत्वस्य तद्व्यापकस्य वा रागादिमत्त्वस्य भावे एव वक्तृत्त्वस्य भावः स्वात्मन्येव दृष्टस्तदभावे वाऽभाव एवोपलादावविगानेनानुपलम्भतो ज्ञात इति कथं न विपर्यये सर्वज्ञत्वे, वीरातगत्वे वा वक्तृत्वलक्षणस्य हेतो-बधिकं कार्यकारणभावलक्षणप्रतिबन्धग्राहकं, प्रत्यक्षानुपलम् भाख्य प्रमाणम्, दर्शनादर्शनशब्दवाच्यं युक्तम् / नच दर्शनादर्शनशब्दवाच्यस्यास्मदभ्युपगतप्रमाणस्य प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दवाच्यस्य वा भवदभिप्रेतस्य कश्चिद्विशेषः प्रकृतहेतुसाध्यप्रतिबन्धसाधने उपलभ्यते। अथ किशिज्ज्ञत्वरागादिमत्त्वसद्भावेऽपि स्वात्मनि न तद्धेतुक वक्तृत्वं प्रतिपन्नम्, किन्तु वक्तुकामताहेतु-कम, रागादिसद्भावेऽपि वक्तुकामताऽभावेऽभावाद्वचनस्य। नन्वेवं व्यभिचारे, विवक्षाऽपि न वचने निमित्त स्यात्, तत्राप्यन्यविवक्षा-यामन्यशब्ददर्शनात्। अन्यथा गोत्रस्खलनादेरभावप्रसङ्गात् / अथार्थविवक्षाव्यभिचारेऽपि शब्दविवक्षायामव्यभिचारः। न स्वप्नावस्थायामन्यगतचित्तस्य वा शब्दविवक्षाभावेऽपि वक्तृत्व-संवेदनात्। न च व्यवहिता विवक्षा तस्य निमित्तमिति परिहारः / एवमभ्युपगमे, प्रतिनियतकार्यकारणभावाभावप्रसङ्गात् सर्वस्य तत्प्राप्तेः, तन्न वक्तुकामतानिमित्तमप्येकान्ततो वचन सिद्धम् व्यतिरेकासिद्धेः / अन्वयस्तु किञ्चिज्ज्ञत्वेन, रागादिमत्त्वेन वा वचनस्य सिद्धो न वक्तुकामतया / अथ किञ्चिज्ज्ञत्वाद्यभावे, सर्वत्र वक्तृत्वं न भवतीत्यत्र प्रमाणाभावान्नासर्वज्ञवक्तृत्वयोः कार्यका-रणभावलक्षणः प्रतिबन्धः सिद्धयति / तर्हि वयभावे धूमःसर्वत्र न भवतीत्यत्रापि प्रमाणाभावस्तुल्य इति न प्रतिबन्धग्रहः / अथा-न्यभावेऽपि यदि धूमः स्यात्तदाऽसो त तुक एव न भवेदिति सकृ-दप्यहेतोग्नेस्तस्य न भावः स्यात् / दृश्यते च महानसादावग्नित-इति नानग्नेधूमसद्भाव इति प्रतिबन्धसिद्धिः / ननु यथेन्धनादेरेकदा समुद्भूतोऽपि वहिरन्यदाऽरणितो मण्यादेर्वाभवन्नुपलभ्यते, धूमो वा वह्नित उपजायमानोऽपि गोपालघटिकादौ पावकोद्भूतधूमादप्युपजायते इत्यवगमस्तदा कदाचिदग्न्यभावेऽपि भविष्यतीतिं कुतः प्रतिबन्धसिद्धिः। अथ यादृशो वहिरिन्धनादिसामग्रीत उपजायमानो दृष्टो न तादृशोऽरणितो मण्यादेर्वा, धमोऽपि यादृशोऽग्नितउपजायते न तादृश एव गोपालघटिकादावग्निप्रभवधूमात्। अन्यादृशात्तादृशभावे तादृशत्वमहेतुकमिति न तस्य कृचिदपि प्रतिनियमः स्यात् / अहेतोदेशकालस्वभावनियमायोगादिति नाग्निजन्यधूमस्य तत्सदृशस्य वाऽनग्नेर्भावः / भावे वा तादृशधूमजनकस्याग्निस्वभावतैवेति न व्यभिचारः तदुक्तम्"अनिस्वभावः शक्रस्य, मूर्द्धा यद्यग्निरेवसः। अथानग्निस्वभावोऽसौ, धूमस्तत्र कथं भवेत्" / / 1 / / इत्यादि। तदेतदक्तृत्वेऽपि समानम् / तथाहि-यदि सर्वज्ञ वीतरागे व वचनं स्यादसर्वज्ञाद्रागादियुक्ताद्वा कदाचिदपि न स्यादहेतोः सकृदप्यसंभवात्, भवति च तत्ततः। अतो न सर्वज्ञे तस्य तत्सदृशस्य वा संभव इति प्रतिबन्धसिद्धिः / अथ देशान्तरे, कालान्तरे वाऽसर्वज्ञकार्यमेव वचनं न सर्वज्ञप्रभवमिति न दर्शनादर्शनप्रमाणगम्यम् / दर्शनस्येयद्व्यापारासंभवाद, अदर्शनस्य च प्रागेवैवंभूतार्थग्राहकत्वे Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 580 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु न निषिद्धत्वात्। तर्हि सर्वदाऽग्निप्रभव एव धूमोऽग्न्यभावे कदाचनापिन भवतीत्यत्रापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितवर्तमानार्थग्राहकत्वेनाप्रवृत्तेः, अनुपलम्भस्यापि तद्विविक्तप्रदेशविषयप्रत्यक्षस्वभावस्यात्र वस्तुनि व्यापारासंभवात्, न कार्यकारणभावलक्षणः प्रतिबन्धः प्रत्यक्षानुपलम्भसाधन: स्यात्। नाप्यनुमानतोऽपि प्रकृतः प्रतिबन्धः सिद्धिमासादयति इतरेतराश्रयानवस्थादोषप्रसङ्गस्य प्रदर्शितत्वात्। न चान्यत्प्रतिबन्धप्रसाधकं प्रमाणमस्तीति प्रसिद्धानुमानस्यापि सवज्ञाभाववेदकानुमाननिरासयुक्त्युपक्षेप-मिच्छतोऽत्राभावः प्रसक्तः / अथ प्रसिद्धानुमाने साध्यसाधनयाः प्रतिबन्धः, तत्प्रसाधकं च प्रमाण किशिदस्ति, तर्हि स एव प्रति-बन्धः किञ्चिज्ज्ञत्ववक्तृत्वयोः, तत्प्रसाधकं च तदेव प्रमाणं भविष्यतीति सिद्धः प्रतिबन्धः किञ्चिज्ज्ञत्ववक्तृत्वयोरग्निधूमयोरिवाअत एव व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयको यत्र दयत तत्प्रसङ्गसाधनमिति तल्लक्षणस्य युष्मदभ्युपगमेनात्र सद्भावात् भवत्येवातोऽनुमानात् सर्वज्ञाभावसिद्धिः / पक्षधर्मताभावप्रतिपादनं च यत्प्रकृतप्रसङ्ग साधने प्रतिपादितं, तदभ्युपगमवादान्निरस्तम / तत्र पक्षधर्मताया हेतोरभावेऽपि गमकत्वस्य सिद्धत्वात् / शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमान्निरस्त इति न प्रत्युचार्यदूषितः / अतोऽयुक्तमुक्तं सर्वज्ञवादिना यथा तत्साधकप्रमाणाभावात् न तद्विषयः सद्व्यवहारः, तथा तदभाववादिना मीमांसकादीनां तदभावग्राहकप्रमाणाभावादेव न तदभावव्यवहार इति प्रसङ्गसाधनस्य तदभावसाधकस्य समर्थितत्वात्। अथ यदभ्यासविकलचक्षुरादिजनितं प्रत्यक्षं तद्धर्मादिग्राहकं न भवतीति प्रसङ्ग साधनात्सिद्ध्यति,न पुनरन्यादृग्भूतम् / चोदनावदन्यादृशस्य धर्मग्राहकत्वाविरोधात्। ननु किं तज्ज्ञानं प्रतिनियतचक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम्, उताभ्यसजनितं, आहोस्वित् शब्दजनित, किंवाऽनुमानप्रभावितम्।तत्र यदि चक्षुरादिप्रभवम्। तदयुक्तम्। चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभवस्य तज्ज्ञानस्य धर्मादिग्राहकत्वायोगात् / अत एव यदिषड्भिः इत्याद्युक्तं दूषणमत्र पक्षे / अथाभ्यासजनितं तदितिपक्षः। तथाहि-ज्ञानाभ्यासात्प्रकर्षतरतमादिप्रक्रमेण तत्प्रकर्षसम्भवे तदुत्तरोत्तराभ्याससमन्वयात्सकलभावातिशयपर्यन्तं संवेदनमवाप्यत इति। तदपि मनोरथमात्रम् / यतोऽभ्यासो हि नाम कस्यचित्प्रतिनियतशिल्पकलादौ प्रतिनियतोपदेशसद्भाव-वतो जन्मतो जनस्य संभाव्यते, नतु सर्वपदार्थविषयोपदेशसंभवः। नच सर्वपदार्थविषयानुपदेशज्ञानसंभवः, येन तज्ज्ञानाभ्यासात्सकलज्ञानप्रप्तिः / तत्संभवे वा सकलपदार्थविषयज्ञानस्य सिद्धत्वात्किमभ्यासप्रयासेन। किंच-तदभ्यासप्रवर्तकं ज्ञानं यदि चक्षुरादिप्रतिनियतकरणप्रभवमप्यन्येन्द्रियविषयरसादिगोचरम्, अतीन्द्रियार्थगोचरं च स्यात्, तदा पदार्थशक्तेः प्रतिनियतत्वेन प्राणसिद्धाया अभावात्, प्रतिनियतकार्यकारणभावाभावप्रसक्तिसद्भावात् सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः / अथाभ्याससहायानां चक्षुरादीनामपि सर्वज्ञावस्थायामतीन्द्रियदर्शनशक्तिः,नच व्यवहारोच्छेदः, अस्मदादिचक्षुरादीनामनभ्यासदशायां शक्तिप्रतिनियमादरमदादय एव व्यवहारिण इति। एतदप्यसमीचीनम्। न खल्वभ्यासे सत्यप्यन्यतो वा हेतोः कस्यचिदतीन्द्रियदर्शनं चक्षुरादिभ्य उपलभ्यते, दृष्टानुसारिण्यश्च कल्पना भवन्तीति। किंच- सर्व पदार्थवेदने चक्षुरादिजनितज्ञानात्तदभ्यासः, तत्सहायंच चक्षुरादिकं सर्वज्ञावस्थाया सर्वपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानं जनयतीति कथमितरतराश्रयमेतत्कल्पनागोचरचारि चतुरचेतसो भवत इति न द्वितीयोऽपि पक्षो युक्तिक्षमः / अथ शब्दजनितं तज्ज्ञा-नम् / ननु शब्दस्य तत्प्रणीतत्वेन प्रामाण्ये सर्वपदार्थविषयज्ञान-संभवः, तज्ज्ञानसंभवे च सर्वज्ञस्य तथाभूतशब्दप्रणेतृत्वमितीतरेतराश्रयदोषानुषङ्गः। अत एवोक्तम्- "नर्ते तदागमात सिद्धयेत नच तेनागमो विना।" इति। (श्लोक० वा० सू० २श्लो० 142) नच शब्दजनित स्पष्टाभमिति न तज्ज्ञानवान् सकलज्ञ इत्यभ्युपगम्यते। एवं च प्रेरणाजनितज्ञानवतो धर्मज्ञत्वम् / अत एवोक्तम- 'चोदना हि भूत भवन्तम्' इत्यादि। तन्नतृतीयपक्षोऽपि युक्तिसङ्गतः। अनुमानजनितज्ञानेन तु सर्ववित्त्वे न धर्मज्ञत्वम्। धर्मादेरतीन्द्रियत्वन तज्ज्ञापकलिङ्गत्वेनाभ्युपगम्यमानस्यार्थस्यतेन सह संबन्धासिद्धेः / असिद्धसंबन्धस्य चाज्ञापकत्वान्न ततो धर्माद्यनुमानम्, इत्यनुमानजनित ज्ञानं न सकलधर्मादिपदाविदकम्। किंचतथाभूतपदार्थज्ञानेन यदि सर्वविदभ्युपगम्यते, तदाऽस्मदादीनामपि सर्ववित्त्वमनिवारितप्रसरम् / भावाभावो-भयरूपं जगत् प्रमेयत्वादित्यनुमानस्यास्मदादीनामपि भावात्, अस्पष्ट वाऽनुमानमिति तज्जनितभ्याप्यवैशद्यसंभवान्न तज्ज्ञानवान् सर्वज्ञो युक्तः। अथानुमानज्ञानं प्रागविशदमपि तदेवाशेषपदार्थ-विषय पुनः पुनर्भाव्यमानं भावनाप्रकर्षपर्यन्ते योगिज्ञानरूपतामासादयद्वैशद्यभाग भवति। दृष्ट चाभ्यासबलाज्ज्ञानस्या-नक्षजस्यापि कामशोकभयोन्मादचौरस्वप्राद्युपप्लुतस्य वैशद्यम् / नन्वेवं तज्ज्ञानवदतीन्द्रियार्थविद्विज्ञानस्याप्युपप्लुतत्वं स्यादिति तज्ज्ञानवतः कामाद्युपप्लुतपुरुषवद्विपर्यस्तत्वम्। अथ यथा रजोनीहाराद्यावरणावृतवृक्षादिदर्शनमविशदम्, तदावरणापाये वैशद्यमनुभवति, एवं रागाद्यावारकाणां विज्ञानावैशद्यहेतूनामपाये सर्वज्ञज्ञानं विशदतामनुभविष्यतीति। असदेतत्। रागादीनामावरणत्वासिद्धेः / कुड्यादीनामेव ह्यावारकत्वं लोके प्रसिद्ध न रागादीनाम तथाहि- रागादिसद्भावेऽपि कुड्याद्यावरणकाभावे विज्ञानमुत्पद्यमान दृष्टम्, रागाद्यभावेऽपि कुड्याद्यावारकसद्भावे न विज्ञानोदय इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां कुड्यादीनामेवावरणत्वावगमो, नरागादीनामिति न रागादय आवारका इति न तद्विगमोऽपि सर्वविद्विज्ञानस्य वैशद्यहेतुः। किंच-सर्ववदनं सर्वज्ञज्ञानेन किं समस्तपदार्थग्रहणम्, उत शक्तियुक्तत्वम्, आहोस्वित् प्रधानभूतकतिपयपदार्थग्रहणम्। तत्र यद्याद्यः पक्षः तत्रापि वक्तव्यम्। किं क्रमेण तद्ग्रहणम्, आहोस्विद्द्योगपद्येन। तत्र यदि क्रमेण तद्हणम्। तदयुक्तम्। अतीतानागतवर्तमानपदार्थानामपरिसमाप्तेस्तज्ज्ञानस्याप्यपरिसमाप्तितः सर्वज्ञताऽयोगात्। अथ युगपत् अनन्तातीतानागतपदार्थसाक्षात्कारि तद्वेदनमभ्युपगम्यते / तदप्यसत्। परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रति Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवण्णु 581 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु भासासंभवात्। संभवे वा न कस्यचिदर्थस्य प्रतिनियतस्य तद्ग्रा-हक स्यादिति किं तज्ज्ञानेन, अस्मदादिभ्योऽपि व्यवहारिभ्यो हीनतर इति कथं सर्वज्ञः। किंच-यदि युगपत् सर्वपदार्थग्राहकं तज्ज्ञानं, तदैकक्षणे एव / सर्वपदार्थग्रहणात, द्वितीयक्षणे किश्चिज्ज्ञ एव स्यात्, ततश्च किं तेन तादृशा किशिज्ज्ञेन सर्वज्ञत्वेना नचानाद्यनन्तसंवेदनस्य परिसमापिः, परिसमाप्तौ वा कथमनाद्यनन्तता। किंच-सकलपदार्थसाक्षात्करणे परस्थरामाऽऽदिसाक्षा करणमिति रागादिमानपि स स्याद्विट इय / अथ रागादिसंवेदनमत्र नास्ति, न तर्हि सकलपदार्थसाक्षात्करणम् / तन्न प्रथमः पक्षः / अथ शक्तियुक्तत्वेन सकलपदार्थसंवेदनं तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते / तदपि न युक्तम्। सर्वपदार्थावदने तच्छक्तेातुमशक्तेः, कार्यदर्शनानुमेय वाच्छक्तीनाम्। किंच-सर्वपदार्थज्ञानपरिसमाप्तावपीयदेव सर्वमिति वथंपरिच्छेदशक्तिः। अथ वेदनाभावादभावो-ऽपरस्थति सर्वसंवेदनम्। अवेदनादभावोऽपरस्येतिकुलो निश्चयः। तदपेक्षया तस्यापलब्धिलक्षणप्राप्तत्वात् / तथाभूतानपलब्ध्याऽभावनिश्चय इति चेत। एवं सति स एवंतरेतराश्रयदोषः / सर्वज्ञत्वनिश्चये तदभावनिश्चयः तदभावनिश्चये च सर्वज्ञत्वनिश्चय इति नैकस्यापि सिद्धिः। तन्न द्वितीयोऽपि पक्षः / अथ यावदुपयोगि प्रधानभूतपदार्थजातं तावदसौ वेत्तीति तत्परिज्ञानात्सकलज्ञः,तदपि सर्वपदार्थावदने नियमेन न संभवति / सकलपदार्थव्यवच्छेदेन तेषामेव प्रयोजननिर्वर्तकत्वमिति सकलपरिज्ञानमन्तरेणशक्यसाधनमिति न तृतीयोऽपि पक्षो युक्तः / किंच-नित्यसमाधानसंभवे विकल्पाभावात्कथं वचनम् / वचने वा विकल्पसं भवात् समाधानविरोधान्न समाहितत्वमिति भ्रान्तच्छाद्मस्थिकज्ञानयुक्तः स स्यात्। कथं वाऽतीतानागतग्रहणम् अतीतादः स्वरूपस्यासंभवात् / असदाकारग्रहणे च तैमिरिकज्ञानवत्प्रमाणत्वं न स्यात्। अथातीतादिकमप्यस्ति, एवं सत्यतीतादित्वादेरप्यभाव एव इति सर्वज्ञव्यवहारोच्छदः। अथ प्रतिपाद्यापेक्षया तस्याभावः। तदप्ययुक्तम् / नहि विद्यमान वापेक्षया तदैवाविद्यमानं भवति / तस्यानुपब्धेरविद्यमानत्वमेवेति चेत् / तदनुपलब्धिरेवास्तु कथमविद्यमानम् / नह्यन्यस्याभावेऽन्यस्याप्यभावः / अतिप्रसङ्गात / तस्यासावविद्यमानत्वन प्रतिभातीति चेत् स तर्हि भ्रान्तः / असद्विकल्पसंभवात् / तरयासद्विकल्पस्य विषयीकरणात्सर्वज्ञोऽपि भ्रान्त एवेति कथं सर्ववित्। अथ विकल्पस्यापि स्वरूपेऽभ्रान्तत्वमेव, तेन तस्य वेदनं सर्वज्ञज्ञानमनान्तम् / एवं तर्हि स्वरूपसाक्षात्करणमेव केवलं, कथमतीताद्यविद्यमानसाक्षात्करणम्। ततश्चातीता-नागतपदार्थाभावात्तत्साक्षात्करणासंभवान्न तद्ग्रहणात्सर्वज्ञः / किंच-स्वरूपमात्रवेदने तन्मात्रस्यैव विद्यमानत्वात्तद्वेदनेऽद्वैतवेदनात् न सर्वज्ञव्यवहारः। तदावे वा सर्वः सर्ववित स्यात् / अथापि स्यात्, सत्यस्वप्नदर्शनवदतीतानागतादिदर्शनम्, ततो व्यवहार इति / तदप्ययुक्तम् / सत्यस्वप्नदर्शनस्य स्वरूपमात्रवेदन न सत्यासत्यविभागः किन्त्वानुमानिकः / सत्य - स्वप्नस्वरूपसंवेदनस्य तन्मात्रपर्यवसितत्वात् / किंच-अतीतानागतकालसंबन्धित्वात्पदार्थानामतीतानागतत्वम्,तद्धि भवत्किमपरातीतानागतकाल-संबन्धादतीतानागतत्वमभ्युपगम्यते, आहो-स्वित् रखत एव / यद्यपरातीतानागतकालसंबन्धात्कालस्यातीतानागतत्वम्, तदा तस्याप्यपरातीतानागतकालसंबन्धादतीतानागतत्वं, तस्याप्यपरस्मादित्यनवस्था। अथातीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धात्कालस्यातीतानागतत्वम्, तेनायमदोषः / ननु पदार्थक्रियाणामपि कुतोऽतीतानागतत्वम। यद्यपरातीतानागतपदार्थक्रियासद्भावात्; तदाऽत्रापि सैवानवस्था। अतीतानागतकालसंबन्धात्पदार्थक्रियाणामतीतानागतत्वं तर्हि कालस्याप्यातीतानागतपदार्थक्रियासंबन्धादतीतानागतत्वमिति व्यक्तमितरतराश्रयत्वम्।तन्त्र प्रथमः पक्षः। अथ स्वरूपतएव कालस्यातीतानागतत्वं, तदा पदार्थानामपि स्वत एवातीतानागतत्वमस्तु, किमतीतानागतकालसंबन्धित्वेन। तच्च पदार्थस्वरूपमस्मदादिज्ञानेऽपि प्रतिभातीति नातीतानागतपदार्थग्राहित्येनास्मदादिभ्यः सर्वज्ञस्य विशेषः / अपिचसंबन्धस्यान्यत्र विस्तरतोनिषिद्धत्वान्न कस्यचित्केनचित्संबन्ध इत्यतीतानागतादि-संबद्धपदार्थग्राहिज्ञानमसदर्थविषयत्वेन भ्रान्तं स्यादिति न भ्रान्तज्ञानवान सर्वज्ञः कल्पयितुं युक्तः / भवतु वा सर्वज्ञः, तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञैतुिं न शक्यते। तद्ग्राह्यपदार्थाज्ञाने तद्ग्राहकज्ञानवतः केनचित्प्रमाणेन प्रतिपत्तुमशक्तेः। तदुक्तम्सर्वज्ञोऽयमिति ह्येत-तत्कालेऽपि बुभुत्सुभिः / तज्ज्ञानज्ञेयविज्ञान-रहितैर्गम्यते कथम्? कल्पनीयास्तु सर्वज्ञा, भवेयुर्बहवस्तव। य एव स्यादरसर्वज्ञः,स सर्वज्ञ न बुध्यते॥ (श्लोव्वा०सू० 2 लो० 134 / 135 / ) नच तदपरिज्ञाने तत्प्रणीतत्वेनागमस्य प्रामाण्यमवगन्तुं शक्यम् / तदनवगमे च तद्विहितानुष्ठानं प्रवृत्तिरप्यसङ्गता। तदुक्तम्"सर्वज्ञो नावबुद्धश्चेद्येनैव स्यान्न तं प्रति। तद्वाक्यानां प्रमाणत्वं, मूलाज्ञानेऽन्यवाक्यवत् // " इति। (श्लो० वा० सू० २श्लो० 136) तदेवं सर्वज्ञसद्भावग्राहकस्य-प्रमाणस्याभावात्, तत्सद्भायबाधकस्य चानेकधा प्रतिपादितत्वात्, सर्वज्ञाभावव्यवहारः प्रवर्त्तयितुं युक्तः / तथाहि-ये बाधकप्रमाणगोचरतामापन्नास्ते असदिति व्यवहर्त्तव्याः,यथा अड्गुल्यग्रे करियूथादयः, बाधकप्रमाणगोचरापन्नश्च भवदभ्युपगमविषयः सकलपदार्थसार्थसाक्षात्कारीत्यसद्यवहारविषयत्वं सर्वविदोऽभ्युपगन्तव्यमिति पूर्वपक्षः। (उत्तरपक्षः सर्वज्ञसत्तासाधनम्)अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुक्तम्- ये देशकालस्वभावव्यवहिताः प्रमाणविषयतामनापन्ना न ते सद्व्यवहारगोचरचारिणः इत्यादि। तदुक्तम् / सर्वविदि प्रमाण विषयत्वस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् असिद्धो हेतुस्तदविषयत्वलक्षणः / यदप्यभ्यधायि / न तावदक्ष संभवज्ञानसंवेद्यस्तद्भावः अक्षाणां प्रतिनियतविषयत्वे न तत्सा क्षात्क रणव्यापारासंभवात् / तत् सिद्धमेव साधितम् / यदप्य क्तम् / नाप्यनुमानस्य तत्र व्यापारः / तद्धि प्रतिबन्धग्रहण पक्षध Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 582 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु मंताग्रहणे च हेतोः प्रवर्तते / नच प्रतिबन्धग्रहणं प्रत्यक्षतस्तत्र संभवतीत्यादि।तद्धूमादेसन्यादिप्रभवत्वानुमानेऽपि समानम्। अथान्यादेः प्रत्यक्षत्वात्तत एव तत्प्रभवत्वकार्यविशेषत्वयोधूमादौ प्रतिबन्धसिद्धिः / ननु धूमस्य किमग्निस्वरूपग्राहकप्रत्यक्षेण पावकपूर्वकत्वमवगम्यत, उत धूमस्वभावग्राहिणेति कल्पनाद्वयम्। तत्र न तावदाहाः पक्षः पावकरूपग्राहिप्रत्यक्ष तत् स्वभावमात्रग्रहणपर्यवसितमेव, न धूमरूपप्रवदनप्रवणम्। तदप्रवेदने च न तदपेक्षया तेन वः कारणत्वावगमः / नहि प्रतियोगिस्वरूपाऽग्रहणे तं प्रति कस्यचित्कारणत्वमन्यद्वा धर्मान्तर माहीत शक्यम् / अतिप्रसङ्गात्। अथ धूमस्वरूपप्रतिपत्तिमता प्रत्यक्षण तस्य चित्रभानु प्रति कार्यत्वस्वभावं तत्प्रभवल्वं गृहात / ननु तस्यापि पावकस्वरूपग्राहकत्वेनाप्रवृत्तेस्तदग्रहाणे सदप कार्यत्व धूमस्य कथमवगमविषयः / अथानिधूमद्यस्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षाण तयोः कार्यकारणभावनिश्चयः / तदप्यसगतमाद्वयग्राहिण्यपि ज्ञाने तयोः स्वरूपमेय भाति, न पुनरगेधूमं प्रति कारणत्वम: धूमस्य वा तं प्रति कार्यत्वम्। नहि पदार्थद्वयस्य स्वस्वरूपनिष्ठस्यैकज्ञानप्रतिभासमात्रेण कार्यकारभावप्रतिभासः। अन्यथा घटपटयोरपि स्वस्वरूपनिष्ठयोरेकज्ञानप्रतिभासः क्वचिदस्तीति तयोरपि कार्यकारणभावावगमप्रसङ्गः। अथयस्य प्रतिभासानन्तरं यत्प्रतिभास एकज्ञाननिबन्धनस्तयोस्तदवगम इति नाय दोषः / तदपि घटप्रतिभासानन्तरं पटप्रतिभासे क्वचित ज्ञाने समानम / नच क्रमभाविपदार्थद्वयपतिभासमन्वय्येक ज्ञानमिति शक्यं वक्तुम् / प्रतिभासभेदस्य भेदनिबन्धनत्वात्। अन्यत्रापि तद्भदव्यवस्थापितत्वाद्दरग। स च क्रमभाविप्रतिभासद्वयाध्यासितज्ञाने समस्तीति कथं न तस्य भेदः। नचेकमेव ज्ञान जन्मानन्तरक्षणादिकालमास्त-इति भवतामभ्युपगमः / तदुक्तम्- 'क्षणिका हिसा, न कालान्तरमास्ते इति / अथ वहिधुमस्वरूपदयग्राहिज्ञानद्वयानन्तरभाविस्मरणसहकारीन्द्रिय सविकल्पकज्ञान जनयति, तत्र तवयस्य पूर्वापरकालभाविनः प्रतिभासात् कार्यकारणभावनिश्चयो भविष्यति। तदप्यसङ्गतम्। पूर्वप्रवृत्तप्रत्यक्षद्वयस्य तत्राव्यापारात्तदुत्तरर-मरणरय च पदार्थमात्रग्रहणऽप्यसामथ्याचक्षुरादीनां च तदवगमज्ञानजननेऽशक्तेः / शक्ती वा प्रथमाक्षसन्निपातबलायामेव तदवगमज्ञानोत्पत्तिप्रसङ्गात्, अकिश्चित्करस्य स्मरणादेरन पेक्षणीयत्वात। परिमलस्मरणसव्यपेक्षस्य लोचनस्य सुरभिचन्दनगित्यविषये गन्धादी ज्ञानजनकत्वस्येव, तत्रापितजनकत्वविरोधात्। अथ ततरमरणसध्यपेक्षलोचनव्यापारानन्तरं कार्यकारणभूते एत वस्तुनी इत्येतदाकारज्ञानसंवेदनात्कार्यकारणभावावगमः सविकल्पक प्रत्यक्षनिबन्धना व्यवस्थाप्यते / नन्वेवं परिमलस्मरणसहकारिचक्षुष्यापारानन्तरभावी सुरभि मलयजमिति प्रत्ययः समनुभूयत इति परिमलस्यापि चक्षुर्जप्रत्ययविषयत्वं स्यात् / अथ परिमलस्य लोचनाविषयत्वात् नायं प्रत्ययस्तजः, किन्तुगन्धसहचरितरूपदर्शनप्रभवानुमानस्वभावः / तदेतत्प्रकृतेऽपि कार्यकारणभाव लोचनाविषयत्वं समानम् / प्रत्यशरय तु तदध्यवसायिनोऽपरं निमित्त कल्पनीयम् तत्र प्रत्यक्षतः राधिकल्पकादपि धूमपावकयोः कार्यकारणत्वावगमः ! मानसप्रत्यक्ष तु तदवगमनिमित्तं भवता नाभ्युपगम्यते। अपि च-कार्यकारणभावः सर्वदेशकालावस्थिताखिलधूमपावकव्यक्तिक्रोडीकरणे नावंगतोऽनुमाननिमित्ततामुपगच्छति। नच प्रत्यक्षरयेयति वस्तुनि सविकल्पकस्य, निर्विकल्पकस्य वा व्यापारः संभवतीत्यसकृत्प्रतिपादितम / किंच-न कारणस्य प्राग्भावित्वमात्रमेव बौद्धानामिव कारणत्वं, येन तस्य कारणस्वरूपाभेदात्तत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभावस्य कारणत्वस्याऽप्यवगमः केवल कार्यदर्शनादुत्तरकालं तन्निश्चीयते, किं तु-कारणस्य कार्यजननशक्तिः कारणत्वम् / सा च शक्तिर्न प्रत्यक्षावसेया, अपितु कार्यदर्शनसमवगम्या भवता परिकल्पि-ता। तदुक्तम्- ''शक्तयः सर्वभावना कार्यार्थापत्तिगोचराः।" (श्लोव्वा०सू०५ शून्य०श्लो०२५४) ततः कथं प्रत्यक्षात्कारणस्य कारणत्वावगमः। अथ कार्यादव कारणस्य कारणत्वावगमो भवतु, किनश्छिन्नम् / ननु कार्यात्कार में कारणत्वावगमे नुमानाच्छपत्यवगमः, तत्र च तदपि कार्य लिङ्ग गूतं यदि कारणशक्तिमवगमयति, तदाशक्तिकार्ययोः प्रतिवन्धग्रहणमभ्युपगन्तव्यम् / सच प्रतिबन्धावगमो न प्रत्यक्षादिति प्रतिपादितम्। अनुमानात्तदवगमे इतरेतराश्र-यानवस्थादोषावतारोऽत्रापि समानः। अर्थापत्तेस्त्वनुमानऽन्तर्भावः प्रतिपादित इति न प्रसिद्धानुभानस्यापि प्रवृत्तिर्भवदभिप्रायेण / अथ वहिगतधर्मानुविधानात् धूभस्य तत्पूर्वकत्वं कुतश्वित्प्रमाणात्प्रसिद्धमिति धूमत्वस्य तत्पूर्वकत्वव्याप्तिसिद्धिः। अन्यथा धूमादग्न्यसिद्धेः सकललोकप्रसिद्धव्यवहाराभावः / अनुमानाभावे प्रत्यक्षतोऽपि व्यवहारासम्भवात् / तर्हि वचनविशेषस्यापि यदि विशिष्ट कारणपूर्वकत्वं तत एव प्रमाणात्प्रसिद्धम्, विवादाध्यासिते वचने वचनविशेषत्वात्साध्येत तदा कोऽपराधः। तदप्युक्तम् - 'पक्षधर्मत्वनिश्चये सति हेतोरनुमान प्रवर्तते, नच सर्ववित् कुतश्चित्प्रमाणासिद्धः' इत्यादि। तदप्ययुक्तम् / यतो यदि सर्वविदो धर्मित्वं क्रियेत, तदा तस्यासिद्धत्वात्स्यादप्यपक्षधर्मत्वलक्षण दूषणम्, यदा तु वचनविशेषस्य धर्मित्वं तस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्वं साध्यत्वेनोपक्षिप्तम, तदा तत्र तद्विशेषत्वादिलक्षणो हेतुरुपादीयमानः कथमपक्षधर्मः स्यात् / नचापक्षधर्मादपि हेतोरुपजायमानमनुमानं प्रमाणं भवताऽभ्युपगच्छता पक्षधर्मत्वाभावलक्षणं दूषणमासञ्जयितुं युक्तम् / अन्यथा"पित्रोच वाहाणत्वेन, पुरब्राह्मणताऽनुमा। सर्वलोकप्रसिद्धवान, पक्षधर्भमपेक्षते / / 1 / / " इत्याद्यपक्षधर्महेतुसमुत्थानुमानप्रामाण्यप्रतिपादनं भवतोऽव्ययुक्त स्यात् / यदप्यभ्यधायि- 'सर्वज्ञसनाया साध्यायां बची दोपजाति हेतु तिवर्तते' इत्यादि। तत्र स्यादप्ययं दोषः, यदितत्सत्ता साध्यत्वेनाभ्युपगम्यते, यावता पूर्वोक्तप्रकारेण वचनविशेषस्य विशिष्टकारणपूर्वकत्व साध्यमित्युक्तम् तत्र चास्य दोषस्योपक्षेपोऽयुक्तएव / यदप्यभ्यधायियद्यनियतः कश्चित्सकलपदार्थज्ञःसाध्योऽभिप्रेत इत्यादि / तदप्य - सङ्गतमेव। यतो नारमाभिः प्रतिनियत एव कश्चित्सर्वज्ञोऽनुमानात्साध्यत, Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 583 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु किन्तु-विशिष्ट कारणपूर्वकत्वं विशिष्ट शब्दस्य / तय स्वसाध्यव्याप्तहेतु बलात्साध्यधर्मिणि सिद्धिमोसादयद् हे तुपक्षधर्मत्वव - लात्प्रतिनिय सर्वज्ञपूर्वकत्वेनैव सिद्धिमासादयति / नच तत एव इतोरन्यस्यापि सर्वज्ञस्य सिद्धेः,अन्यागमाश्रयणमपि भवतां प्रसज्यते इति दूषणम्। अन्यागमानां दृष्टविषय एव प्रमाणविरुद्धार्थप्रतिपादकत्वेनाप्रामाण्यस्य व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात, कथं तत्प्रणेतृणामपि सर्वज्ञत्वसिद्धिः / यच्चान्यदभिहितम्। न कश्चित्सर्वज्ञप्रतिपादकः सम्यग् हेतुः संभवति। तदप्यसङ्गतम्। तत्प्रतिपादकस्य सम्यगहेतोर्वधनविशेषत्वादेः प्रतिणदयिष्यमाणत्वात् / यच्चान्यदभिहितम् / सर्वे पदार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वादग्न्यादिवदित्यत्र यदि सकलपदार्थग्राहिमत्यक्षत्वं साध्यमित्यादि। तदप्यसङ्गतम्। एवं साध्यविकल्पनेऽग्न्यादेरप्यनुमानान्न सिद्धिः स्यात् / तथाहि-अत्राप्येवं वक्तुं शक्यते / यदि प्रतिनियतसाध्यधर्मिधर्मो वह्निः साध्यत्वेनाभिप्रेतस्तदा तद्विरद्धेन दृष्टान्तधर्मिणि तद्धमिधर्मेण पावकेन व्याप्तस्य धूमलक्षणस्य हेतोरसिद्धत्वात विरुद्धो हेतुः स्यात्, साध्यविकलश्च दृष्टान्तः। अथ दृष्टा-तधर्मिधर्मः साध्यधर्मिणि साध्यते, तदा प्रत्यक्षादिविरोधः / अथो भयगतं वह्निसामान्यं, तदा सिद्धसाध्यता दोषः / तथा प्रमेयत्वमपि हेतुत्वेनोपन्यस्यमानमित्यादि यदुक्तम्, तद् धूमत्वलक्षणेऽपि हेतौ समानम् / तथाहि-अत्रापि किं साध्यधर्मिधर्मो हेतुत्वेनोपात्तः, उत दृष्टान्तधमिधर्मः, अथोभयगतं सामान्यम् / तत्र यदि साध्यधर्मि-धर्मो हेतुः स दृष्टा तधर्मिणि नान्वेतीत्यनन्वयो हेतुदोषः। अथ दृष्टान्तधर्मिधर्मः स साध्यधर्मिण्यसिद्ध इत्यसिद्धताहेतुदोषः। अथोभयगतं सामान्यं तदपि प्रत्यक्षाऽप्रत्यक्षमहानसपर्वतप्रदेशविलक्षणव्यक्तिद्वयाश्रितं न संभवतीति हेतोरसिद्धता तदवस्थिता। अथ पर्वतप्रदेशाश्रिताग्नितद्भूमव्यक्तेस्तरकालभाविप्रत्यक्षप्रतीयमानत्वेन न महानसोपलब्धधूमव्यक्त्याइत्यन्तवलक्षण्यमिति नोभयगतसामान्याभावः। ननूभयगतसामान्यप्रतिपत्तौ ततोऽनुमानप्रवृत्तिस्तत्प्रवृत्ती च तदर्थक्रियार्थिनस्तत्र प्रवर्तमानस्य प्र यक्षप्रवृत्तिस्तस्यां च सत्यामत्यन्तवैलक्षण्याभावस्तद्व्यक्तेः, तत्सद्भावे चोभयगतसामान्यसिद्धितस्तदनुमानप्रवृत्तिरिति चक्रकदूषणवकाशः। अथ कण्ठक्षीणतादिलक्षणधर्मकलाप साधयन्नि महानसपर्वतप्रदेशसङ्गतधूमव्यक्त्योरत्यन्तवैलक्षण्यमित्युभयगतसामान्यसिद्धौ न धूमानुमाने हेत्वसिद्धतादिदोषः, तर्हि वाच्याविसंवादादिधर्मकलापसाधर्म्यस्य वचनविशेषव्यक्तिद्वयेऽप्यत्यन्तवैलक्षण्यनिवत्तंकरय सद्भावेन कथं न तद्विशेषत्वसामान्यसंभवः। प्रमेयत्वं तु यथा प्रकृतसाध्ये हेतुर्भवति तथा प्रतिपादयिष्यामः, आस्ता तावत् / यत्तु नापि शब्दात्तत्सिद्धिरित्यादि प्रतिपादितम्। तत्सिद्धसाध्यतादोषाघ्रातत्वान्निरस्तम् / यदप्युक्तम्- ये देशकालेत्यादिप्रयोगे नासिद्धो हेतुरिति। एतदप्ययुक्तम्। अनुमानस्य तदुपलम्भस्वभावस्य प्रतिपादविष्यमाणत्वेनानुपलम्भलक्षणस्य हेतोः परप्रयुक्तस्यासिद्धत्वात्। अत एव सद्व्यवहारनिषेधश्चानुपलम्भनिमित्तोऽनेनेत्याद्यसारतया स्थितम्। अथ यथाऽस्माकं तत्सद्भावावेदकं प्रमाणं नास्ति, तथा भवतां तदभावावेदकमपि नास्तीत्यादि यावत्प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण सर्वमेव सर्वज्ञप्रतिक्षेपप्रतिपादकं युक्तिजालमभिहितमिति, यदुक्तम्। तदप्यचारु। यतः'सर्वज्ञो दृश्यते तावन्नेदानीम्' (श्लोव्वा०सू०२श्लो०११७) इत्यादिना तत्सद्भावोप लम्भकप्रमाणपञ्चकनिवृत्तिप्रतिपादनद्वारेण यदभावाख्यप्रमाणप्रवृत्तिप्रतिपादनं तत् तद्भावावेदकस्वतन्त्राभावाख्यप्रमाणाभ्युपगमव्यतिरेकेणासंभवद्भवतां मिथ्यावादिता सूचयति / यदप्यवादि / तथाच -प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण भगवतो जैमिनेः सूत्रमित्यादि / तदप्यसङ्गतम् / यतः प्रसङ्ग साधनस्य, तत्पूर्वकस्य च विपर्ययस्य व्याप्यव्यापक-भावसिद्धी यत्र व्याप्याभ्युपगमो व्यापकाभ्युपगमनान्तरीयकः, व्यापकनिवृत्तितो व्याप्यनिवृत्तिरवश्यंभाविनी च प्रदर्श्यते, तत्र यथाक्रम प्रवृत्तिः / अत्र तु प्रत्यक्षत्वस्य सत्संप्रयोगजत्वेन,तस्य च विद्यमानोपलम्भनत्वेन, तस्यापि धर्मादिकं प्रत्यनिमित्तत्वेन क्वव्याप्यव्यापकभावावगमः, येन प्रसङ्गतद्विपर्यययोः प्रवृत्तिः स्यात्। ननूक्तमेवैतत् स्वात्मन्येव सत्यमुक्तम्, नतु युक्तमुक्तम् / अयुवतता च सर्व चक्षुरादिकरणग्रामप्रभव प्रत्यक्षं सन्निहितदेशकालपदार्थान्तरस्वभावाविप्रकृष्टप्रतिनियतरूपादिग्राहकं सर्वत्र सर्वदा चेतिन व्याप्यव्यापकभावग्राहक प्रमाणमस्ति, विपर्ययश्चोपलभ्यते / योजनशतविप्रकृष्ट - स्यार्थस्य ग्राहक संपातिगृध्रराजप्रत्यक्षं रामायणभारतादौ भवत्प्रमाणत्वेनाभ्युपगते श्रूयते, तथेदानीमपि गृध्रवराहपिपीलिका-दीना चक्षुःश्रोत्रघ्राणजस्य प्रत्यक्षस्य यथाक्रम रूपशब्दगन्धादिषु देशविप्रकृष्टषु प्रवृत्तिरुपलभ्यते। तथा कालविप्रकृष्टस्याप्यतीतकालसंबन्धित्वस्य, पूर्वदर्शनसंबन्धित्वस्य च स्मरणसव्यपेक्षलोचनादिजन्यप्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षग्राह्यत्वं पुरो व्यवस्थितेऽर्थे भवताऽभ्युपगम्यते / अन्यथा"देशकालादिभेदेन, तदाऽस्त्यवसरो मितेः।" (श्लो० वा० सू०४, श्लो० 233) 'इदानींतनमस्तित्वं, नहि पूर्वधिया गतम्।।" (श्लो० वा० सू० श्लो० 234) इत्यादिवचनसंदर्भण प्रत्यभिज्ञाप्रत्यक्षस्यागृहीतार्थाधिगन्तृत्वं पूर्वापरकालसबन्धित्वलक्षणनित्यत्वग्राहकत्वं च प्रतिपाद्यमानमसङ्गतं स्यात्। अथातीतातीन्द्रियकालसंबन्धित्वं, पूर्वदर्शनसबन्धित्वं वा वर्तमानकालसंबन्धिनः पुरोव्यवस्थितस्यार्थस्य यदि चक्षुरादिप्रभवप्रत्यभिज्ञानेन गृह्यते, तदा- "संबद्ध वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिभिः / " (श्लो० वा० सू० 4 श्लो०८४) इति वचनं विरुद्धार्थस्यात्। तथाऽतीन्द्रियकालदर्शनादेवर्तमानार्थविशेषणत्वेन ग्रहणेऽतीन्द्रियधर्मादरपि ग्रहणप्रसङ्गात् प्रसङ्गसाधनतद्विपर्यययोरप्रवृत्तिः स्वयमेव प्रतिपादिता स्यात्, नत्वयमेवात्र दोषः। कालविप्रकृष्टार्थग्राहकत्वेन इन्द्रियजप्रत्यक्षस्य प्रतिपादयितुमस्माभिरभिप्रेत इति कस्यात्रोपालम्भः। अथ वर्तमानकालसबद्ध विशेष्ये पुरोवर्त्तिनि व्यापारवचक्षुस्तद्विशेषणभूतेऽतीन्द्रियेऽपि पूर्वकालदर्शनादौ प्रवर्तते। अन्यथा चक्षुयापारानन्तरं पूर्वदृष्ट पश्यामीति विशेष्यालम्बनं प्रत्यभिज्ञान नोपपद्येत / नागृहीतविशेषणाविशेष्ये बुद्धिरुपजायते, दण्डाग्रहण इव दण्डिबुद्धिः। नच धर्मादावयं न्यायः संभवतीति चेत् / ननु धर्मादः किमतीन्द्रियत्वाचक्षुरादिना Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 584 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु ऽग्रहणम्, उत अविद्यमानत्वात्, आहोस्वित् अविशेषणत्वात्। तत्र नाद्यः पक्षः। अतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेहणाभ्युपगमात्। नाप्यविद्यमानत्वात भाविधर्मादरिवातीतकालादेरविद्यमानत्वेऽपि प्रतिभासस्य भावात् / अथाविशेषणत्वाद्धर्मादरप्रतिभासः / तदप्यसङ्गतम् / सर्वदा पदार्थजनकत्वेन, द्रव्यगुणकर्मजन्यत्वेन च धर्मादेः सर्वपदार्थविशेषणभावसंभवात् / अतीतातीन्द्रियकालादेरिव तस्यापि विशेष्यग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणसंभव इति कथं धर्म प्रत्यनिमित्तत्वप्रसङ्गसाधनस्य, तद्विपर्ययस्य वा संभवः / तथा प्रश्नादिमन्त्रादिद्वारेण संस्कृत चक्षुर्यथा कालविप्रकृष्टपदार्थग्राहकमुपलभ्यते, तथा धर्मादरपि यदि ग्राहकं कस्यचित्स्यात. तदा न कश्चिद्दोषः / अपि च-अनालोकान्धकारख्यवहितस्य मूषिकादेर्नक्तचरवृषदंशादेश्वक्षुर्यथा ग्राहकमुपलभ्यते, तथा यद्यतीन्द्रियातीतानागतधर्मादिपदार्थसाक्षात्कारि कस्यचित्तदेव स्यात्, तदाऽत्रापि को दोषः / नच जात्यन्तरस्यान्धकारव्यवहितरूपादिगाहकं चतुर्दृष्ट, न पुनर्मनुष्यधर्मण इति पतिसमाधानभत्राभिधातुंयुक्तम्। मनुष्यधर्मणोऽपि निर्जीविकादेव्यविशेषादिसंस्कृतं चक्षुः समुद्रजलादिव्यवहितपर्वतादिग्रहणे समर्थमुपलभ्यत इति धर्मादरपि देशकाल - स्वभावविप्रकृष्टस्य कस्यचित्पुरुषविशेषस्य पुण्यादिसंरकृतं चक्षुरादि ग्राहक भविष्यतीति न कश्चित् दृष्टस्वभावव्यतिक्रमः / अथ चक्षुरादेः करणस्य प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेनान्यकरणविषयग्राहकत्वे स्वार्थातिक्रमो व्यवहारविलोपी स्या-त् / ननु श्रूयत एव चक्षुषा शब्दश्रवण प्राणिविशेषाणाम, 'चक्षुः श्रवसो भुजङ्गा' इति लोकप्रवादात / मिथ्या स प्रवाद इति चेत्। नैतत्। प्रवादबाधकस्याभावात्, कर्णच्छिद्रानुपलब्धेश्व / नच दन्दशूकचक्षुषो जात्यन्तरत्वादित्युत्तरमत्रोपयोगि। अन्यत्रापि प्रकृष्टपुण्य-संभारजनितसर्वविचक्षुषि समानत्वात्। तदेवं धर्मादिसमस्तपदार्थग्राहकत्वेन चक्षुरादिजनित प्रत्यक्षस्य विरोधात्, न प्रत्यक्षत्वसत्संप्रयोगजत्वादेव्याप्यय्यापकभावसिद्धिरिति न प्रसङ्गविपर्ययोः प्रवृत्तिरिति न ततस्तत्प्रत्तिक्षेपः / एतेन 'यदि षभिः प्रमाणैः स्यात सर्वज्ञः १-श्लो० वा०सू०२ श्लो०१११। इत्यादि वार्त्तिककृत्प्रतिपादित प्रसङ्गसाधनाभिप्रायेण युक्तिजालमखिलं निरस्तम्। व्याप्तिप्रतिषेधस्य पूर्वोक्तप्रकारेण विहितत्वात् / यच्च किं प्रमाणान्तरसंवाद्यर्थस्य वक्तृत्वादित्यादि, तधूमादान्यनु-मानेऽपि समानम। तथाहि-अत्रापि वक्तुं शक्यम्, किं साध्यधर्मिसंबन्धी धूमो हेतुत्वेनोपन्यस्त इत्यादि यावत्सिद्धः प्रतिबन्धोऽसर्वज्ञत्ववक्तृत्वयोरग्निधूमयोरिवेति पर्यन्तम्। तदप्ययुक्तम्। यतोऽसर्वज्ञत्ववक्तृत्वयोरिव नाग्निधूमयोः कार्यकारणत्वप्रतिबन्धस्य, तद्ग्राहकप्रमाणस्य वा भावः / नहि वह्निसद्भावे धूमो दृष्टस्तदभावे च न दृष्ट इत्येतावता धूमस्याग्निकार्यत्वमुच्यते, किन्तु / 'कार्य धूर्मो हुतभुजः,कार्ये धर्मानुवृत्तितः।" नचासो दर्शनादर्शनमात्रगम्यः, किन्तु विशिष्टात्त्यक्षानुपलम्भाख्यात्प्रमाणात् / प्रत्यक्षमेव प्रमाण प्रत्यक्षानुपलम्भशब्दाभिधेयम्, तदेव कार्यकारणाभिमतपदार्थविषयं प्रत्यक्षम्, तद्विविक्तान्यवस्तुविष-यमनुपलम्भशब्दाभिधेयम्, कदाचिदनुपलम्भपूर्वक प्रत्यक्ष तद्भावसाधकं, कदाचित्प्रत्यक्षपुर: सरोऽनुपमम्भः / तत्राद्येन येषां कारणाभिमतानां सन्निधानात् प्रागनुपलब्धं सळूमादि, तत्सन्निधानादुपलभ्यते, तस्य तत्कार्यता व्यवस्थाप्यते। तथाहि-एता-वद्धिः प्रकारैधूमोऽग्निजन्यो न स्यात्, यद्यग्रिसन्निधानात्प्रागपि तत्र देशे स्यात्, अन्यतो वाऽऽगच्छेत्तदन्यहेतुको वा भवेत्, तदेतत्सर्वमनुपलम्भपुरस्सरेण प्रत्यक्षेण निरस्तम्। एतेन प्रागनुपलब्धस्य रासभस्य कुम्भकारसन्निधानान्तररमुपलभ्यमानस्य तत्कार्यता स्यादिति निरस्तम् / तथाहि-तत्रापि यदि रासभस्य तत्र प्रागसत्त्वम्, अन्यदेशादनागमनम्, अन्याकारणत्वं च निश्चेतुं शक्येत, तदा स्यादेव कुम्भकारकार्यता; केवलं तदेव निश्चेतुमशक्यम् / एवं तावदनुपलम्भपुरस्सरस्य प्रत्यक्षस्य तत्साधनत्वमुक्तम् / तथा प्रत्यक्षपुरस्सरोऽनुपलम्भोऽपि तत्साधनों येषां सन्निधाने प्रवर्तमान तत्काय दृष्ट, तेषु मध्ये यदैकस्याप्यभावो भवति तदा नोपलभ्यते तत्तस्य कारणमितरत्कार्यम्। नचाग्निकाष्ठादिसन्निधाने भवतो धूमस्यापनीते कुम्भकारादावनुपलम्भोऽस्ति अन्गादौ त्वपनीते भवत्यनुपलम्भः। एवं परस्परसहितौ प्रत्यक्षानुपलम्भावाभिमतेष्वेव कार्यकारणेषु निःसन्दिग्धं कार्यकारणभावं साधयतः। सर्वकालं चाग्निसन्निधाने भवतो धूमस्यानग्निजन्यत्वं कदाचित्सदसतोरजन्यत्वेनाहेतुकत्वेनादृश्यहेतुकत्वेन वा भवेत् / तत्र न तावत्प्रथमः पक्षः / असतो जन्यत्वात् / सदेव च न जन्यते इति त्वदभिप्रायात्, सत एव जन्यमानत्वानुपपत्तेः, कार्यत्वस्य च कादाचित्कत्वेन सिद्धत्वात् / नाप्यहेतुकत्वम् / कादाचित्कत्वेनैवाहेतुत्वे तदयोगात नाप्यदृश्यहेतुकत्वम् धूमस्याग्न्यादिसामा यन्वयव्यतिरेकानुविधानात् / अथापि स्यात्, अदृश्यस्यायं स्वभावो यदग्न्यादिसन्निधान एव धूम कर्पूरोर्णादिदाहकाले सुगन्धादियुक्तं च करोति नान्यदेति, तत्किमग्निमन्तरेण कदाचिद् धूमोत्पत्तिर्दृष्टा, येनैवमुच्यते। नेति चेत्, कथं नाग्निकायों धूमः तद्भावे भावात् / धूमोत्पत्तिकाले च सर्वदा प्रतीयमानोऽग्निः, काकतालीयन्यायेन व्यवस्थित इत्यलौकिकम्। अथ स एवादृश्यस्वभावो यदग्निसन्निधान एव धूम करोति / ननु यद्यग्निना नासावुपक्रियते, किमग्निसन्निधानात्न पूर्वं पश्चात् वा धूमं विदधाति, नचान्यदा करोतीति तस्य तज्जन्यस्वभावसव्यपेक्षस्य धूमजनने तदेव पारंपर्येणाग्निजन्यत्वं धूमस्य। किंच- यथा देशकालादिकमन्तरण धूमस्यानुत्पत्तेस्तदपेक्षा प्रतीयते, तथाऽग्निमन्तरेणापिधूमस्यानुत्पनिदर्शनात्तपेक्षा केन वार्यते, तदपेक्षा च तत्कार्यतैव। यथा चादृश्यभावे एव धूमरय भावाद् तज्जन्यत्वमिष्यते, तथा सर्वदाग्निभावे (व धूमस्य भावदर्शनात्तज्जन्यता किं नेष्यते यावतां च सन्निधाने भाषो दृश्यते तावतां हेतुत्वं सर्वेषां मित्यग्न्यादिसामग्रीजा यत्वाद् धूमस्य कुतोऽग्निव्यभिचारः / न चायं प्रकारोऽसर्वज्ञत्ववक्तृत्वयो: संभवति / असर्वज्ञत्वधर्भानुविधानस्य वचने अदर्शनात् तथाहियदि सर्वज्ञत्वादन्यत्पर्युदासवृत्त्या किञ्चिज्ज्ञत्वम-सर्वज्ञत्वमुच्यते, तदा तद्धर्मानुविधानादर्शनान्न तज्जन्यता वचनस्य / नहि किचिज्ज्ञत्वतरतमभावात् वचनस्य तरतभाव उपलभ्यते / तथाहि Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवण्णु 585 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु किशिज्ज्ञत्वं प्रकृष्टमत्यल्पविज्ञानेषु कृम्यादिषु / नच तेषु वचनप्रवृत्तेरुत्कर्ष उपलभ्यते / अथ प्रसज्यप्रतिषेधवृत्त्या सर्वज्ञत्वाभावाऽसर्वज्ञत्वं तत्कार्य तु वचनम्, तदा ज्ञानरहिते मृतशरीरे तस्योपलम्भः स्यात्; नच कदाचनापि तत्तत्रोपलभ्यते। ज्ञानातिशयवत्सु च सकलशारखव्याख्यातृषु वचनस्यातिशयभावो दृश्यते इति ज्ञानप्रकर्षतरतमाद्यनुविधानदर्शनात् तत्कार्यता तस्य, धूमरयेवाग्न्यादिसामग्रीगतसुरभिगन्धाधनुविधायिनो यथोक्तप्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां व्यवस्थाप्यते / अत एव कारणगतधर्मानु विधानमेव कार्यस्य तत्कार्यताक्गमनिमित्तं, न पुनरन्वयव्यतिरेकानुविधामात्रम्। / तदुक्तम्"कार्य धूमो हुतभुजः, कार्ये धर्मानुवृत्तितः।" इति। यच यत्कार्यत्वेन निश्चित तत् तदभावे न कदाचिदपि भवति, अन्यथा तद्धतुकमेव तम्स स्यादिति सकृदपि ततो न भवेद् भवति च; यद्यत्र निश्चिताविसवावं वचनं, तत् तदविसंवादिज्ञानविशेषादित्यात्मन्येवासकृनिश्चितमिति नान्यतस्तस्य भावः।। तेन ''यद्यस्यैव गुणदोषा-नियमेनानुवर्तते। तन्नान्तरीयकं तत्रया-दलो ज्ञानोद्भव वचः / / 1 / / अथ यदि नामाविसंवादिज्ञानधर्मानुकरणतोऽविसंवादि वचनमेकं तत्प्रभवं यथोक्तप्रत्यक्षानुपलम्भतोऽवगतं, तदन्यतो न भवति तथाप्यन्यवचनस्य तद्धर्मानुकरणतो नतत्कार्यत्वसिद्धिरिति तस्यान्यतोऽपि भावसंभवात्कुतो व्यभिचारः / न / ईदृगभूतं वचनमीदृक्षज्ञानतः सर्वत्र भवतीति सकृत्प्रवृत्तप्रत्यक्षतोऽवगमात् / ननु सकलव्यक्त्यनुगततिर्यक्सामान्यानभ्युपगमे यावन्ति तथाभूतव-चांसि तानि सर्वाणि प्रत्यक्षीकरणीयानि तथाभूतज्ञानकार्यतया / अन्यथैकस्यापि वचस्तव्याप्ततयाऽप्रत्यक्षीकरणे तेनेव व्यभिचारी हेतुः स्यात् / नचैतावप्रत्यक्षीकरणसमर्थ प्रत्यक्षम्। तस्य सन्निहितविषयत्वात्। नचान्येषां स्वलक्षणानामनुमानात साध्यधर्मेण व्याप्तिग्रहणम्। अनवस्थाप्रसड़ात् / तदयुक्तम्। यतः प्रत्यक्ष तथाभूतज्ञानसन्निधान एव तथाभूतवचनभेदात् प्रतिपद्यैष्वतथाभूतवचनव्यावृत्तं रूपमतथाभूतज्ञानव्यावृत्तज्ञानजन्यमित्यवधारयति यथाऽत्र; तथाऽन्यत्रापि देशकालादी तथाभूतज्ञानजन्यमवेत्यप्य-वधारयति / अन्यथात्रापि तथाभूतज्ञानजन्यतया न प्रत्यक्षणावधार्येत / एवं हि तथाभूताऽतथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतपचनस्य प्रतीतिः स्यात, न तथाभूतज्ञानजन्यतयैव / प्रतीयते च तथाभूतज्ञानजन्यतया तथाभूतं वचनम्, तस्मादन्यत्रान्यदा च तथाभूतज्ञानादेव तथाभूतवचनमिति कुतो व्यभिचारः / यश्च तद्रूपमन्यतो व्यावृत्तमवधारयितुं शक्नोति तस्यैव तदनुमानम् ; यथा वाष्पादिविलक्षणधूमावधारणेऽग्न्यनुमानम्। किंच तिर्थक-सामान्यवादिनोऽपि गोपालघटिकादौ धूमसामान्यस्याग्निमन्तरेणापि दर्शनात व्यभिचाराशयाऽग्निनिय तधूमसामान्यावधारणेनैव तदनुमानम् / अग्निनियतधूम सामान्यावधारणं चानि-संवद्धधूमव्यक्त्यवधारणपुरस्सरमेव / नच सर्वदेशादावगिसंबद्धधूमव्यक्तिविशिष्टस्य धूमसामान्यस्य केनचित्प्रमाणेनावधारण संभवति / नच महानसादावग्निनियतधूमव्यक्तिविशिष्ट धूमसामान्य प्रतिपन्नमन्यत्रानुयायि व्यक्तेरनन्वयात् / यच धूमसामान्यमनुयायि, तन्नाग्न्यव्यभिचारि / तस्मात् सामान्यव्याप्तिग्रहणवादिनामपि कथं विशिष्टधूमसामान्यं सर्वत्राग्निना व्याप्त प्रतिपन्नमिति तुल्यं चोद्यम / अथ विशिष्टधूमस्यान्यत्राग्रिजन्यत्वे न किञ्चि-बाधकमस्ति तदेवेदमिति च प्रतीतेः तत्सामान्य प्रतीतमिष्यते। अस्माकमपि तदेवेदं धचनमिति प्रत्ययस्योत्पत्तेस्तत्प्रतिपन्नमिति सदृशपरिणामलक्षणसामान्यवादिनो जैनस्य, भवतो वा को विशेषोऽत्र वस्तुनीति, यत्किञ्चिदेतत् / तेनाग्निगमकत्वेन धूमस्य यो न्यायः सोऽत्रापि समान इति विशिष्टज्ञानगमकत्वं विशिष्टशब्दस्याभ्युपगन्तव्यम्। अथ ज्ञानविशेषग्रहणे प्रवृत्तं सविकल्पकं, निर्विकल्पकं वा ततो भिन्नमभिन्न वा ज्ञानं न वचनविशेषे प्रवर्तते / तस्य तदानीमनुत्पनत्वेनासत्वात् / तदप्रवृत्तेन च ज्ञानविशेषस्वरूपमेव तेन गृह्यते, न तदपेक्षया तस्य कारणत्वम्। वचनविशेषग्राहकेणापितत्स्वरूपमेव गृह्यते, न पूर्व प्रति कार्यत्वम् कारणस्यातीतत्वेनाग्रहणात् / नाप्युभयग्राहिणा भिन्नकालत्वेन तयोरेकज्ञाने प्रतिभासनायोगा-त्। अत एव स्मरणमपि न तयोः कार्यकारणभावावेदकम्। अनुभवा-नुसारेण तस्य प्रवृत्त्युपपत्तेः अनुभवस्य चात्र वस्तुन्नि निषिद्धत्वा-त्। असदेतत् / यतः कार्यस्य न तावदसावनुत्पन्नस्यैव कार्यत्वं धर्मः / असत्त्वात् तदानीम्। नाप्युत्पन्न - स्यात्यन्तभिन्नं, तत्तद्धर्मत्वादेव / तथा कारणस्यापि कारणत्वं कार्यनिष्पत्त्यनिष्पत्त्यवस्थाया न भिन्नमेव। नापितयोः कार्यकारणभावः संबन्धोऽन्योऽस्ति, भिन्नकालत्वादेव संबन्धस्य च द्विष्ठत्वाभ्युपगमात्। ततरतत्स्वरूपग्राहिणा प्रत्यक्षेण तदभिन्नस्वभाव-धर्मरूपं कारणत्वं कार्य चं च गृहाते एव क्षयोपशमवशाता यत्रतुस नास्तितत्र कार्यदर्शनादपि नतन्निश्चीयते, यता नाकार्यकारणयोः कार्यकारण-भावः संभवति। नापि तेनाभिन्ना उत्तरकालं तयोः कार्यकारणता कर्तु शक्या विरोधात् / नापि भिन्ना तयोः स्वरूपेणाकार्यकारणताप्रसङ्गात्। नापि स्वरूपेण कार्यकारणयोरर्थान्तरभूतकार्यकारणभावस्वरूपसंबन्धपरिकल्पनेन प्रयोजनम्। तव्यतिरेकेणापि स्वरूपेणैव कार्यकारणरूपत्वात्। नच भिन्नपदार्थग्राहि प्रत्यक्षद्वयं, द्वितीयाग्रहणे तदपेक्ष कार्यत्वं कारणत्वं वा ग्रहीतुमशक्तमिति वक्तु युक्तम् / क्षयोपशमवतां धूममात्रदर्शनेऽपि वह्निजन्यतावगमस्य भावात्। अन्यथा बाष्पादिवलक्षण्येन तस्यानवधारणात्, ततोऽनलावगमाभावेन सर्वव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गात् / कारणाभिमतपदार्थग्रहणपरिणामापरित्यागवता, कार्यस्वरूपग्राहिणा च प्रत्यक्षेण कार्यकारणभावावगमे न कश्चिद्दोषः / न च कारणस्वभावावभास प्रत्यक्षं न कार्यस्वरूपावभासयुक्तम, प्रतिभासभेदेन भेदोपपत्तेरिति प्रेरणीयम् / चित्रप्रतिभासिज्ञानस्य नीलप्रतिभासापरित्यागप्रवृत्तपीतादिप्रतिभारयेकत्यवत्प्रकृतज्ञान-स्यापि तदविरोधात ।नच चित्रज्ञानरयाप्येकत्वमसिद्धमितिवक्तुंयुक्तम्।तथाऽभ्यु Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवण्णु 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु पगमे नीलप्रतिभासस्यापि प्रतिपरमाणुभिन्नप्रतिभासत्वेन भिन्नत्वात. एकपरमाण्यवभासस्य चाऽसंवेदनात्प्रतिभासमावस्याप्यभाव-प्रसङ्गात्सर्वव्यवहाराभावः स्यात्। अतः प्रत्यक्षमेव यथोक्तप्रकारेण सर्वोप- 1 संहारेण प्रतिबन्धग्राहकमनुमानवादिनाऽभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा प्रसिद्धानुमानस्याप्यभावः स्यात् / अथेयतो व्यापारान् प्रत्यक्ष कर्तुमसमर्थम, तस्य सन्निहितविषयबलोत्पत्त्या तन्मात्रग्राहकत्वातातर्हि प्रत्यक्षेण प्रतिबन्धग्रहणाभावेऽनुमानेन तद्ग्रहणेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषसद्भावादनुमानाप्रवृत्तिप्रसगतो व्यवहारोच्छेदभयादवश्यमनुमानप्रवृत्तिनिबन्धनाविनाभावनिश्वायकमपरमस्पष्टसर्वपदार्थविषयमूहाख्य प्रमाणान्तरमभ्युपगन्तव्यम्। अन्यथा सर्वमुभयात्मकं वस्त्विति कुतोऽनुमानप्रवृत्तिमर्मीमांसकस्या ततोऽसर्वज्ञत्वरागादिमत्त्वसाधने वक्तृत्वलक्षणस्य हेतोः प्रतिबन्धस्य, तत्साधकप्रमाणस्य च प्रसिद्धानुमान इवाभावान्न प्रसङ्ग साधनानुमानप्रवृत्तितः सर्वज्ञाभावसिद्धिः ! विपर्ययेण वचनविशेषस्य व्याप्तत्वदर्शनाद्विपर्ययसिद्धिरेव ततो युक्ता। यच सर्वज्ञज्ञानं किंचक्षुरादिजनितमित्यादि पक्षचतुष्टयमुत्थाप्य चक्षुरादिजन्यत्वेन चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन धर्मादिग्राहकत्वायोगरतज्ज्ञानस्य दूषणमभ्यधायि / तदप्यसङ्गतम् धर्मादिग्राहकत्वाविरोधस्य चक्षुरादिज्ञाने प्राक् प्रतिपादितत्वात् / अभ्यासपक्षे तु यत् दुषणमभ्यधायिन सकलपदार्थविषय उपदेश संभवति, नापि समस्तविषयोऽभ्यास इति। तदपिन सम्राक। "उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" (त० अ० ५सू० 26) इति सकलपदार्थविषयस्योपदेशस्य सामान्यतः संभवात् / नचास्याप्रामाण्यम्, अनुमानादिप्रमाणसंवादतः प्रामाण्यसिद्धेः / अनुमानादिप्रवर्तनद्वारेण चैतदर्थाभ्यासे कथं न सकलविषयाभ्याससंभवः / यदपि, नथ समस्तपदार्थविषयमनुपदेशज्ञानंसंभवतीत्युक्तम् / तदप्यचारु। सर्वमनेकान्तात्मक सत्त्वादित्यनुमाननिबन्धनव्याप्तिप्रसाधक प्रमाणस्य सकलपदार्थविषयस्य संभवात / अन्यथाऽनुमानाभावस्य प्रतिपादितत्वात्। नच तज्ज्ञानवत एव सर्वज्ञत्वाद व्यर्थोऽन्यासः। सामान्यविषयत्वेनास्पष्टरूपस्यैवास्य ज्ञानस्य भावात। अभ्यासजस्य च सकलतद्गतविशेषविषयत्वेन स्पष्टत्वान्न तदभ्यासो विफलः / यदपि तदभ्यासप्रवर्तकं चक्षुरादिजनितं यद्यतीन्द्रियविषयमित्याद्यवादि तदपि प्रतिक्षिप्तम् / अतीन्द्रियार्थग्राहकत्वस्यान्येन्द्रियविषयग्राहकत्वस्य च प्राक्प्रतिपादनाव्यवहारोच्छेदाभावस्य चदर्शितत्वात्। अतीन्द्रियेऽपि च कालादौ विशेषणभूते चक्षुरादेः प्रवृत्तिप्रतिपादनाचेतरेतराश्रयत्वदोषस्याप्यनवकाशः पूर्वपक्षप्रतिपादितस्य / शब्दज्ञानजनितज्ञानपक्षे तु इतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गापादनमप्ययुक्तम् कारणपक्षे तदसंभवात् / अन्यसर्वज्ञप्रणीतागमप्रभवत्वेन ज्ञानस्य कथमितरेतराश्रयत्वम्। तदागमप्रणेतुरष्यन्यसर्वज्ञप्रणीतागमपूर्वकत्येऽनवस्था स्यात् / सा चेष्यत एव, अनादित्वादागमसर्वज्ञपरम्परायाः / यदप्यवादि। शब्दजनितं ज्ञानमस्पष्टाभ, तज्ज्ञानवतः कथं सकलज्ञत्वमिति। तदप्यसङ्गतम्। नहि शब्दजनितेन ज्ञानेनाभ्यासानासादितवेशद्येन सकलज्ञोऽभ्युपगम्यते, येनायं दोषः रयात, किन्त्वभ्यासासादित- | सकलविशेषसाक्षात्कारित्वलक्षणनर्मल्यवता / अत एक प्रेरणाजनितं ज्ञानमरगदादीनामप्यतीतानागतसूक्ष्मादिपदार्थविषयमरतीति सर्वज्ञत्वं स्यादिति यदुक्तम, तदपि निरस्तम् / अभ्यासजस्य स्पष्टविज्ञानस्य सकलपदार्थविषयस्यास्मदादीनामभावात्, लिङ्गजनितत्वेऽपि तज्ज्ञानस्यातीन्द्रियधर्मादि पदार्थसंबन्धानवगमात्। लिङ्गस्यानवगतरराध्यसंबन्धस्य च तस्य, धर्मादिसाध्यानुमापकत्वासंभवादित्यादि, यत्, तदप्यसङ्गतम् / अवगतधर्माद्यतीन्द्रियसाध्य संबद्धस्य हेतोः प्रसिद्धत्वात् / तथाहि-स्वविषयग्रहणक्षमस्य ज्ञानस्य तदग्राहकत्व विशिष्टद्रव्यसंबन्धपूर्वकम्, पीतहत्पूरपुरुषज्ञानस्येव। सर्वमनेकान्तात्मकमिति सकलसामान्यविषयस्य च ज्ञानस्य तद्गताशेषविशेषग्राहकत्वं च सुप्रसिद्धमिति भवति पौद्गलिकातीन्द्रियधर्मादिसिद्धिरतो हेतोः / यदप्युक्तम् / अनुमानज्ञानेन सकलज्ञत्वाभ्युमगमेऽस्मदादीनामपि तत्स्यात्, भावनाबलात्तद्वैशधे तु कामादिविप्लुतविशदज्ञानवत इवासर्वज्ञत्वं तज्ज्ञानस्य तद्वदुपप्लुतत्वप्राप्तेरिति / तदप्यचारु / यतो भावनाबलाज्ज्ञानं वैशद्यमनुभवतीत्येतायन्मात्रेण दृष्टान्तस्योपानत्वात् न सकलदृष्टान्तधर्माणां राध्यधर्मिण्यासज्जनं युक्तम् / तथाऽभ्युपगमे सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तेः। नचानुमानगृहीतस्यार्थस्य भावनावलाद्वेशद्य, तत्प्रतिभासिन्यभ्यासजे ज्ञानेऽनुभवतो वैपरीत्यसंभवः, येन तदवभासिनो ज्ञानस्य कामाद्युपप्लुतज्ञानस्येवोपप्लुतत्वं स्यात् / यदप्यभ्यधायि। रनोनीहाराद्यावरणापाये वृक्षादिदर्शनवद्रागाधावरणाभावे सर्वज्ञज्ञान वैशद्यभाग भविष्यति, नच रागादीन्गमावारकत्व सिद्धमित्यादि / तदप्यसङ्गतम् / कुड्यादीनामप्यन्वयव्यतिरेकाभ्यामावारकत्वासिद्धेः / तथाहि-सत्यस्वप्रप्रतिभासस्थार्थग्रहणे, न कुड्यादीनामावारकत्वम् / निश्छिद्रापवरकमध्यस्थितेनापि भाव्यतीन्द्रियार्थस्यान्तरावरणाभावे प्रमाणान्तरसंवादिन उपलम्भात्। कुड्यादीनां त्वावरणत्वे तदर्शनमसंभाव्येव स्यात्। तथा प्रतिभासेनादृष्टार्थेऽपि कुड्यादीनां नावारकत्वम् / यच्च प्रातिभं ज्ञानं जागदवस्थाया, शब्दलिङ्गाक्षव्यापाराभावेऽपि श्चो भ्राता मे आगन्ता इत्याद्याकारमुत्यद्यमानमुपलभ्यते तत्र कुड्यादीनां कथमावारकत्व, कथं वा विज्ञानस्य नातीन्द्रियविशषभूतश्चस्तनकालाद्यवभासकत्वम्,अनिन्द्रियजस्य च ज्ञानस्य बाह्यसूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारित्वं न सिद्धम्। येन सर्वज्ञज्ञानस्यानक्षजत्वे बाह्यातीन्द्रिया-दिसकलपदार्थसाक्षात्करणं स्पष्टत्वं चन स्यादित्यादि प्रेर्येत / अत एव सकलपदार्थग्रहणस्वभावस्य ज्ञानस्य इद्रियादिजन्यत्वकृत एव प्रतिनियतरूपादिग्राहकत्वनियमोऽवसीयते। प्रतिभादौ तदजन्ये तस्याभावात् सकलज्ञज्ञानं धातीन्द्रियमिति कर्थ 'येऽपि सातिशया दृष्टाः' इत्यादिः तथा 'यत्राप्यतिशयो दृष्टः' (श्लोक वा० स० २,श्लो 114) इत्यादि च दूषणं तत्र क्रमते / नहि शब्दज्ञानस्याशेष-ज्ञेयज्ञानस्वभावस्य कश्चित्प्रतिनियता रूपादिकः स्वार्थः संभवति इत्यसकृदावेदितम्। अथ रागादीनामावारकत्वेऽपि क थमात्यन्तिक :, कथ वाऽभ्य- स्यमानमप्यविशदं ज्ञानं, लवनोदकतापादिवत्प्रकृष्ट - प्रकर्षावस्था वेशद्यं चाऽवापोतीति / नैतत्प्रेयम् / यदि रागादी Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 587 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु नामावारकत्वादिस्वरूपंन ज्ञायेत नित्यत्वमाकस्मिकत्वं वा तेषां स्यात, तद्धेतूना वा स्वरूपापरिज्ञानं नित्यत्वं वा संभाव्येत, तद्विप-क्षस्य वा स्वरूपतोऽज्ञानम् अनभ्यासश्च स्यात्। तदेतन्न स्यादपि, यावता रागादीना ज्ञानावरणहेतृत्वेनावरणस्वरूपत्वं सिद्धम् नच तेषां नित्यत्वम्। तत्सद्भावे सर्वज्ञज्ञानस्य प्रतिपादयिष्यमाणप्रमाणनिश्चितस्याभावप्रसङ्गात् / नाप्याकस्मिकत्वम्. अत एव / न चैषामुत्पादको हेतुविगतः / मिथ्याज्ञानरय तजनकत्वेन सिद्धत्वात् / नच तस्यापि नित्यत्वम् / अन्यथाऽविकलकारणस्य मिथ्याज्ञानस्य भावे प्रबन्धप्रवृतरागादिदोषसद्धात् तदावृतत्वन सर्वविद्विज्ञानस्य भावः स्यादिति एव स दोषः / आकस्मिक त्वेऽपि मिथ्याज्ञानस्य हेतुव्यतिरेकणापि प्रवृतेरत - कार्यभूतरागादीनामपि प्रवृत्तिरिति पुनरपि सर्वज्ञज्ञानाभावोऽहेतुकस्य व मिथ्याज्ञानस्य देशकालपुरुषप्रतिनियमाऽभावोऽपि स्यादिति ने चेतनाचेतनवि-भागः नच तत्प्रतिपक्षभूतस्योपायस्यापरिज्ञानम् / मिथ्यात्वधिप-क्षस्वेन सम्यग्ज्ञानस्य निश्चितत्वात् / तदुत्कर्ष मिथ्याज्ञानस्यात्य-न्तिकः क्षयः / तथाहि-यदुत्कर्षतारतम्याद यस्यापचयतारतम्यं तस्य विपक्षप्रकर्षावस्थागमने भवत्यात्यन्तिकः क्षयः, यथाषण - स्पर्शस्य तथाभूतस्य प्रकर्षगमने शीतस्पर्शस्य तथाविधस्येव स-म्यग्ज्ञानोपचयतारतम्यानुविधायी च मिथ्याज्ञानापचयतरतमादिभाव इति तदुत्कर्षे ऽस्यात्यन्तिक क्षयसद्भावात् तत्कार्यभूतरागाानुत्पत्तेरावरणाभावः सिद्धः / रागादिविपक्षभूतवैराग्याभ्यासाद्वा रागादीनां निर्मूलतः क्षय इति कथं नावरणाभावः / नच लसनो दकतापादिवदभ्यस्यमानस्यापि सम्यगज्ञानवैराग्या-दर्न' पर प्रकर्षप्राप्तिरिति कुतस्तद्विषये मिथ्याज्ञानाभावाद्रागादेरात्यन्तिको नुत्पत्तिलक्षणः क्षयलक्षणो वाऽभाव इति वक्तुं युक्त-म् / यतो लड्डनं हि पूर्वप्रयत्नसाध्यं यदि व्यवस्थितमेव स्यात् तदोत्तरप्रयत्नस्यापरापरलङ्ग नातिशयोत्पत्ती व्यापारात्, भवेलड्डनस्याप्यनपेक्षितपूर्वातिशयसद्भावप्रयत्नान्तरस्य प्रकर्षावाप्तिः। न चैवम्। अपरापरलङ्ग नातिशयप्रयत्नम्य पूर्वपूर्वातिशयोत्पादन एवोपक्षीणशक्तित्वात्। अथैतत्स्यात्, यदि तत्रापि पूर्वप्रयत्नो-त्पादितोऽतिशयो न व्यवस्थितः स्यात्, तत्किमिति प्रथममेव यावल्लङ्घयितव्यं तावन्न लङ्घयति तल्लङ्घनाभ्यासापेक्षणात् पूर्वप्रय-नाहितातिशयसद्भावेऽपिन लड्नुनप्रकर्षप्राप्तिरिति यथा तस्य व्यवस्थितोत्कर्षता तथा ज्ञानस्यापि भविष्यति / नायतः श्लेष्मादिना प्राक्शरीरस्य जाड्याधावल्लवयितव्य न तावद्-व्यायामानपनीतश्लेष्माऽनासादितपटुभावः कायो लड्यते। अ-भ्यासासादितश्लेष्मक्षयपटुभावस्तु यावल्लङ्क यितव्यं तावलड्डयतीत्यभ्यासस्तत्र सप्रयोजनः / ज्ञानस्य तु योऽभ्याससमासादितोऽतिशयः सोऽतिशयान्तरोत्पत्तौ पुनः प्राक्तनाभ्यासापेक्षो न भवतीत्युत्तरोत्तराभ्यासानामपरापरातिशयोत्पादने व्यापारात्. न व्यवस्थितोत्कर्षतेति भवति ज्ञानस्य परप्रकर्षकाष्ठा / उदकतापे तु अतिशयन क्रियमाणे तदाश्रयस्यैव क्षयात् नातिताप्यमानमप्युदकसग्निरूपतामासादयति। विज्ञानस्य त्वाश्रयोऽत्यभ्यस्य-मानेऽपि तस्मिन् न क्षयमुफ्यातीति कथं तस्य व्यवस्थितोत्क-पता / नच विज्ञानमपि प्राक्तनाभ्यासादासादितातिशयं पूर्वमेव विनष्टम, अपराभ्यासादन्यदतिशयवदुत्पन्नमिति कथं पूर्वाभ्यास-समासादितोऽतिशयो नाभ्यासान्तरापेक्षः; येन व्यवस्थितोत्कर्षता तस्यापि न स्यादितिवक्तुंयुक्तम् / तत्र पूर्वाभ्यासजनितस-स्कारस्योत्तरत्रानुवृत्तः / अन्यथा शास्त्रपरावर्त्तनादिवैयर्थ्यप्रसङ्गा-त्। नापि यदुपचयतारतम्यानुविधायी यदपचयतरतमभावस्तस्य तद्विपक्षप्रकर्षगमनादात्यन्तिकः क्षय इत्यत्र प्रयोगे श्लेष्मणा व्यभिचार उद्भावयितुं शक्यः किल / निम्बाद्यौषधोपचारयोगात्प्रकर्षतारतम्यानुभववतस्तरतमभावापचीयमानस्यापि श्लेष्मणो नात्यन्तिकक्षय इति / यतस्तत्र निम्बाद्यौषधोपयोगस्यैवनोत्कर्षनिष्ठा आपादयितुं शक्या। तदुपयोगेऽपि श्लेष्मपुष्टिकारणानामपि तदेवा-सेवनात्। अन्यथौषधोपयोगाधारस्येव विनाशः स्यात् / चिकित्सा-शाखस्य च धातुदोषसाम्यापादनाभिप्रायेणैव प्रवृत्तेः, तत्प्रति-पादितौषधोपयोगस्योद्रिक्तधातुदोषसाम्यविधाने एव व्यापारो, नपुनस्तस्य निर्मूलने / अन्यथा दोषान्तरस्यात्यन्तक्षये मरणा-वाप्तेरिति न श्लेष्मणा तथाभूतेनानैकान्तिको हेतुः। नच सम्यग्ज्ञान-सात्मीभावेऽपि पुनर्मिथ्याज्ञानस्यापि संभवो भविष्यति तदुत्कर्ष इव सम्यग्ज्ञानस्येति वक्तुं युक्तम् / यतो मिथ्याज्ञाने, रागादी वा दोषदर्शनात्, तद्विपक्षे च सम्यग्ज्ञानवैराग्यलक्षणे गुणदर्शनात्तत्र पुनरभ्यासप्रवृत्तिसंभवात प्रकृष्टऽपि मिथ्याज्ञानरागादावुत्पद्येते एव सम्यग्ज्ञानवैराग्ये / नैवं तयोः प्रकर्षावस्थायां दोषदर्शनं, तत्र तद्विपर्यये वा गुणदर्शनं, येन पुनस्तत् सात्मीभावेऽपि मिथ्याज्ञान-रागादेरुत्पत्तिः संभाव्यते / नचानक्षजस्य ज्ञानस्य सर्ववित्संबन्धिनः कथं प्रत्यक्षशब्दवाच्यतेति वक्तुं युक्तम्। यतोऽक्षजत्वं प्रत्यक्षस्य शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तमेव, न पुनः शब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् / तन्निमित्तं हि तदेकाश्रितमर्थसाक्षात्कारित्वम् / अन्यद्धि शब्दस्य व्युत्पत्ती निमित्तम्, अन्यत्र प्रवृत्तौ / यथा गोशब्दस्य गमनं व्युत्पत्ती, गोपिण्डाश्रितगोत्वं प्रवृत्तौ निमित्तम्। अन्यथा यदियदेव व्युत्पत्ति-निमित्तं तदेव प्रवृत्तावपि, तदा गच्छन्त्यामेव गवि गोशब्दप्रवृत्तिः स्यात्, न स्थितायाम्। महिष्यादौ च गमनपरिणामवति गोशब्दः प्रवर्तेत / तथाऽत्रापि प्रवृत्ति निमित्तसद्भावात्प्रत्यक्षव्यपदेशः संभवत्येवा यद्वायदेव व्युत्पत्तिनिमित्तं तदेव प्रवृत्तावप्यस्तु, तथापि तच्छब्दवाच्यतायास्तत्र नाभावः। तथाहि-अश्नुते सर्वपदार्थान ज्ञानात्मना व्याप्रोतीति व्युत्पत्तिशब्दसमाश्रयणादक्ष आत्मा, तमाश्रितमुत्पाद्यत्वेन तं प्रति गतमिति प्रत्यक्षमिति व्युत्पत्तेः, अभ्युपगमवादेन चाभ्यासवशात्प्राप्तप्रकर्षण ज्ञानेन सर्वज्ञ इति प्रतिपादितम् / नत्वस्माकमयमभ्युपगमः, किन्तु ज्ञानाद्यावारकघातिकर्मचतुष्टयक्षयोद्भूताशेषज्ञेयव्याप्य - निन्द्रियशब्दलिङ्गसाक्षात्कारिज्ञानवतः सर्वज्ञत्वमभ्युपगम्यते / यच्चोक्तम् - यद्यतीतानागतवर्तमानाशेषपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानेन सर्वज्ञस्तदा क्रमेणातीतानागतपदार्थवेदने पदार्थानामानन्त्यात् न ज्ञानपरिसमाप्तिरिति। तदयुक्तम्। तथाऽनभ्युपगमात्। शास्त्रार्थे क्रमेणानुभूतेऽप्यत्यन्ताभ्यासान्न क्रमेण संवेदनमनुभूयते; तद्वदत्रापि स्या Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 588 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु त / यदप्यभ्यधायि। अथ युगपत्सर्वपदार्थवेदकं तज्ज्ञानमभ्युपगम्यते / तदा परस्परविरुद्धानां शीतोष्णादीनामेकज्ञाने प्रतिभासासंभवात; सभवेऽपीत्यादि। तदप्ययुक्तम् / यतः परस्परविरुद्धानां किमेकदाsसंभवः, किंवा संभवेऽप्येकज्ञानेऽप्रतिभासन भवता प्रतिपादयितुमभिप्रेतम / तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः / जलाऽनलादीनां छायाऽ5तपादीनां चैकदा विरुद्धानामपि संभवात्। अथै-कत्र विरुद्धानामसंभवः तदाऽसंभवादेव नैकत्र ज्ञाने तेषां प्रतिभासो; न पुनर्विरुद्धत्वात् / विरुद्धानामपि तेषामेकज्ञाने प्रतिभाससंवेदनात् / एतेन विरुद्धार्थग्राहकस्य च तज्ज्ञानस्य न प्रतिनियतार्थग्राहकत्वं स्यादित्याद्यपि निरस्तम्। छायाऽऽतपादिविरुद्धार्थग्राहिणोऽपि ज्ञानस्य प्रतिनियतार्थग्राहकत्वसंवेदनात्। यचोक्तम्-यदि युगपत्सर्व-पदार्थग्राहकं तज्ज्ञानं तदैकक्षण एव सर्वपदार्थवेदनात् द्वितीयादिक्षणे किशिज्ज्ञ एव स स्यादित्यादि / तदप्यत्यन्तासबद्धम् / यतो यदि द्वितीयक्षणे पदार्थाना तज्ज्ञानस्य चा-भावः स्यात्, तदा स्यादप्येतत्, नचैतत्संभवति तथाऽभ्युपगमे द्वितीयक्षणे सर्वपदार्थाभावात्सकल-संसारोच्छेदः स्यात। यदप्यभ्यधायि / अनाद्यनन्तपदार्थसंवेदने तत्संवेदनरयापरिसमाप्तिरित्यादि। तदप्ययुक्तम् अत्यन्ताभ्यस्तशास्त्रार्थज्ञानस्येव युगपदनाद्यनन्तार्थग्राहिणस्तज्ज्ञानस्यापि परिसमाप्तिसंभवात् / अन्यथा भूतभविष्यत्-सूक्ष्मादिपदार्थग्राहिणः प्रेरणाजनितज्ञानस्यापि कथं परिसमाप्तिः। तत्राप्यपरिसमाप्त्यभ्युपगमे, 'चोदना भूतं भवन्त भविष्यन्तम्' इत्यादिवचनस्य नैरर्थक्य स्यादिति / यदपि, परस्थरागादिसंवेदने सरागः स्यादित्यादि। तदप्यसङ्गतम्। नहि परस्थरागादिसंवेदनादागादिमान् भवति / अन्यथा श्रोत्रियद्विजस्यापि स्वप्रज्ञानेन मद्यपानादिसंवेदनान्मद्यपानदोषः स्यात् / अथाप्यरसनेन्द्रियज तज्ज्ञानमिति नायं दोषः, तर्हि सर्वज्ञज्ञानमपि नेन्द्रियजमिति कथमशुचिरसास्वाददोषस्तत्रासज्येत / नच रागादिसंवेदनाद्रागीति लोक व्यवहारः, किन्त्वङ्गनाकामनाद्यभिलाषस्वसंविदितस्याशिष्टव्यवहारकारिणः स्वात्मस्वभावस्योत्पत्तेः / नचासो तत्रेति कथं स रागादिमान्। यदपि, अथ शक्तियुक्तत्वेन सर्वपदार्थवेदनमित्यादि / तदप्यचार / यथोपलब्धिलक्षणप्राप्ते सन्निहितदेशादावनुपलब्धेरपरमत्र नास्तीति इदानीं तनानामियत्ता निश्चयः, तथा सर्वज्ञरयापि स्वशक्तिपरिच्छदात् / अन्यथा घटादीनामपि क्वचित् प्रदेशेऽभावनिश्चयेऽपरप्रकारासंभवात्सकलव्यवहारविलोपः स्यात् अथ यावदुपयो गिप्रधानपदार्थजातमित्याद्यप्ययुक्तम्। सकलपदार्थज्ञत्वप्रतिपादनात्। अत एव''ज्ञा झये कथमज्ञः स्या-दसति प्रतिबन्धरि। सत्येव दाह्ये नह्यनिः, क्वचित् दृष्टो न दाहकः / / 1 / / " इति। अत्र यदुक्तम, किं सर्वज्ञत्वात्, अथ किश्चिज्ज्ञत्वादिति, नोभ-यथापि हेतुः / यदि तावत् सर्वज्ञत्वादिति हेत्वर्थः परिकल्प्यते, तदा प्रतिज्ञार्थकदेशो हेतुरसिद्ध एव / कथं हि तदेव साध्यं तदेव हेतुः। अथ किञ्चिज्ज्ञत्वादिति हेतुः, तदा विरुद्धता स्यात् / कथं हि किञ्चिज्ज्ञत्वं / सर्वज्ञत्वेन विरुद्ध सर्वज्ञत्वं साधयेत् / अथ ज्ञत्वमात्र हेतुः / तदाऽनैकान्तिकः।ज्ञत्वमात्रस्य किञ्चिज्ज्ञत्वेनाप्यविरोधा-दिति। तदपि निरस्तम्। सामान्येन सर्वज्ञत्वादित्यस्य हेतुत्वात्, विशेषेण तज्ज्ञत्वस्य साध्यत्वात्, सामान्यविशेषयोश्च भेदस्य कथञ्चित्प्रतिपादयिष्यमाणत्वात्। सामान्येन सर्वज्ञत्वस्य चानु-मानव्यवहारिणं प्रति साधितत्वात् एतेन सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वादित्यत्र प्रयोगे प्रमेयत्वहे तोर्यद् दूषणमुपन्यस्त पूर्वपक्षवादिना तदपि निरस्तम् / सर्वसूक्ष्मान्तरितपदार्थानां व्याप्तिप्रसाधकेनानुमानप्रमाणेन वा एकेन सामान्यतः प्रमेयत्वस्य प्रसाधितत्वात् / यच्च प्रधानपदार्थपरिज्ञानं न सकल-पदार्थज्ञानमन्तरेण संभवतीति तत् सर्वज्ञ वचनामृतलवास्वादसंभ-वो भवतोऽपि कथञ्चित्संपन्न इति लक्ष्यते। तथाहि तद्वचः"जो एग जाणइ" (आचा० १श्रु० ३अ० 430 122 सू०) इत्यादि। तन्मतानुसारिभिः पूर्वचार्यरप्ययमर्थो न्यगादि-एको भावस्तत्त्वतो येन दृष्टः, सर्वे भावाः सर्वथा तेन दृष्टाः / सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टा, एको भावस्तत्त्वतस्तेन दृष्टः॥१॥ अस्या-यमर्थः-नासर्वविदा कश्चिदेकोऽपि पदार्थस्तत्त्वतो द्रष्टुं शक्यः / एकस्यापि पदार्थस्यानुगतव्यावृनधर्मद्वारेण साक्षात्पारपर्येण वा सर्वपदार्थसंबन्धि-स्वभावत्वात्। तत्रवभावावेदने च तस्यावेदनमेव परमार्थतः ततस्तज्ज्ञानं स्वप्रतिभासमेव वेनीति नार्थी विदितः स्यात्, केवलं तत्राभि मानमात्रमेव लोकस्य / अथ संबन्धिस्वभावता पदार्थस्य स्वरूपमेव न भवति, यत्केवलं प्रत्यक्षप्रतीत सन्निहितमात्रं स एव वस्तुस्वभावः। संवन्धिता तु तत्र परिकल्पि-तैव पदार्थान्तरदर्शन-संभवतया। तथा चोक्तम्"निष्पत्तेरपराधीन-मपि कार्य स्वहेतुना। संबध्यते कल्पनया, किमकार्य कथञ्चन?''||१|| इति। तदेतदयुक्तम् / एवं हि परिकल्प्यमाने स्वरूपमात्रसंवेदना दद्वैत-मेव प्राप्तम् ततः सर्वपदार्थाभावे व्यवहाराभावः। अथ व्यवहारोच्छेदभयात् पदार्थसद्भावोऽभ्युपगम्यते, तर्हि सर्वपदार्थसंबन्धिताऽपि साक्षात् पारंपर्येण च पदार्थस्वभावोऽभ्युपगन्तव्यः / अन्यथा साक्षात्पारंपर्येण वाऽन्यपदार्थजन्यजनकतालक्षणसंबन्धिताऽभ्युपगमे, तद्व्यावृत्त्यनुगतिसंबन्धिताऽनभ्युपगमे च पदार्थस्वरूपस्याप्यभावः तत्पदार्थपरिज्ञाने च तद्विशेषणभूता तत्संबन्धिताऽपिज्ञातैव। अन्यथा तस्य तत्परिज्ञानमेव न स्यात्, तत्परिज्ञाने च सकलपदार्थपरिज्ञानमस्मदादीनामनुमानतः, सर्वज्ञस्य च साक्षात् तज्ज्ञानेन सकलपदार्थज्ञानम्। लोकस्तु प्रत्यक्षेण कथञ्चित् कस्यचित् प्रतिपत्ता। तथाहि-धूमस्याप्यनिजन्यतया प्रतिपत्ती बाष्पादिव्यावृत्तधूमस्वरूपप्रतिपत्तिः, अन्यथा व्यवहाराभावः। तथा नीलादिप्रतिभासस्य बाह्यार्थसंबन्धितयाऽप्रतिपत्तौ बाह्यार्थाप्रति-पत्ती बाह्यार्थाप्रतिपत्तिरेव स्यात् / तस्मात् संबन्धितयैव पदार्थस्वरूपप्रतिपत्तिः। तच संबन्धित्वं प्रमेयमनुमानेन प्रतीयतेऽभ्यासदशायामरमदादिभिः,यत्र क्षयोपशमलक्षणोऽभ्यासस्तत्र तस्य प्रत्यक्षतोऽपि प्रतिपतिरिति कथं न प्रधानभूतपदार्थ वेदने सकलपदार्थवेदनम् / एकवेदनेऽपि सकलवेदनस्य प्रतिपादितत्वात् / विकल्पाभावेऽपि मन्त्राविष्टकुमारि-कादिवचनवन्नित्यसमाहितस्यापि वचनसंभवाद; विकल्पाभावे कथं वचनमित्यादि निरस्तम् / दृश्यते चात्यन्ताभ्यस्ते Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 586 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु विषये व्यवहारिणां विकल्पनमन्तरेणापि वचनप्रवृत्तिरिति कथं ततः सर्वज्ञास्य छानस्थकज्ञानासजनं युक्तम् / यदप्युक्तम्-अतीतादेरसत्त्वात् कथं तज्ज्ञानेन ग्रहणम्, ग्रहणे वाऽसदर्थग्राहित्वात | तज्ज्ञानवान भ्रान्तः स्यादित्यादि / तदप्ययुक्तम् / यतः किमतीतादरतीतादिकालसंबन्धित्वेनासत्त्वम्, उत तज्ज्ञानकालसंबनिधत्वेन / यद्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनेति पक्षः / स न युक्तः / वर्तमानकालसबन्धिल्वेन वर्तमानस्येव तत्कालसंबन्धित्वेनातीतादेरपि सत्त्वसंभवात् / अथातीतादेः कालस्याभावात् तत्संबनिधनोऽप्यभावः, तदसत्त्वं च प्रतिपादितं पूर्वपक्षवादिना-ऽनवस्थेतरेतराश्रयादिदोषप्रतिपादनेन / सत्यं प्रतिपादितं नच सम्यक / तथाहिनास्माभिरपरातीतादिकालसंबन्धित्वादस्यातीतादित्वम-'भ्युपगम्यते, येनानवस्था स्यात, नापि पदार्थानामतीतादित्वेन कालस्यातीतादित्वम, येनेतरेतराश्रयदोषः, कि तुस्वरूपत एवातीतादिसमयस्यातीतादित्वम / तथाहि-अनूभूत-वर्तमानत्वसमयोऽतीत इत्युच्यते, अनुभविष्यद्वर्त्तमानत्वश्चानागतः, तत्संबन्धित्वात् पदार्थस्याप्यतीतानागत्वे अविरुद्धे / अथ यथाऽतीतादेः समयस्य स्वरूपेणैवातीतादित्वं तथा पदार्थानामपि तद्भविष्यतीति व्यर्थस्तदभ्युपगमः / एतचाऽत्यन्तासङ्गतम् नोक-पदार्थधर्मस्तदन्यत्राग्यासञ्जयितुयुक्तः। अन्यथा निम्बाद-सिक्तता गुडादावष्यासञ्जनीया स्यात्, नच साऽत्रैव प्रत्यक्षसिद्धेत्यन्यत्रासजने तद्विरोध इत्युत्तरम् / प्रकृतेऽप्यस्योत्तरस्य समानत्वात / भवतु पदार्थधर्म एवातीतादित्वं, तथापि नास्माकमभ्युपगमक्षतिः। विशिष्टपदार्थपरिणामस्यैवातीतादिकालत्वे-नेष्टः, "परिणामवर्तनादि (वर्तना विधि) परापरत्व'' (प्रश मर० प्र० श्लोक 218) इत्याद्यागमात् / तथाहि-स्मरणविषवत्वं पदार्थ-स्यातीतत्वमुच्यते / अनुभवविषयत्व वर्तमानत्वं, स्थिरावस्था-दर्शनलिङ्गबलोत्पद्यमानकालान्तरस्थाय्यय पदार्थ इत्यनुमान-विषयत्वं धर्मोऽनागतकालत्वमिति। तेन यदुच्यते-यदि स्वत एव कालस्यातीतादित्वं, पदार्थस्यापि तत् स्वत एव स्यादिति परेण तत्सिद्धं साधितम् / तदतीतादिकालस्य सत्त्वान्न तत्कालसंब-धित्वे नातीतादे: पदार्थस्याऽसत्त्वम् / वर्तमानकालसबन्धित्वेन त्वतीतादेरसत्त्वप्रतिपादनेऽभिमतमव प्रतिपादितं भवति / नातीतकालसंबन्धित्वसत्त्वमेवैतज्ज्ञानकालसंबन्धित्वमस्माभिरभ्युपगम्यते। नचैतत्कालसंबन्धित्वेनासत्त्वे स्वकालसबन्धित्वेनाप्यतीतादेरसत्त्वं भवति / अन्यथैतत्कालसंबन्धित्वस्याप्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनासत्त्वात् सर्वाभावः स्यादिति सकलव्यवहारोच्छेदः / अथापि स्यात्, भवत्वतीतादेः सत्त्व, तथापि सर्वज्ञज्ञाने न तस्य प्रतिभासः, तज्ज्ञानकाले तस्यासन्निहितत्वात्। सन्निधाने वा तज्ज्ञानावभासिन इव वर्तमानकालसंबन्धिनोऽतीता देरपि वर्तमानकालसंबन्धित्वप्राः / नहि वर्तमानस्यापि सन्निहितत्वेन तत्कालज्ञानप्रतिभासित्वं मुक्त्वाऽन्यद्वर्तमानकालसंबन्धित्वम्। एवमतीतादेस्तज्ज्ञानावभासित्वे वर्तमानत्वमेवेति वर्तमानमात्रपदार्थज्ञानवानस्मदादिवन्न सर्वज्ञः स्यात् / किंच-अतीता देस्तज्ज्ञानकालऽसन्निहितत्वेन तज्ज्ञानेऽप्रतिभासः / प्रतिभासे वा स्वज्ञानसंबन्धित्वेन तस्य ग्रहणात् तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातिरूपताप्रसक्तिः / एतदसंबद्धम् / यतो यथाऽस्मदादीनाम-सन्निहितकालोऽप्यर्थः सत्यस्वप्रज्ञाने प्रतिभाति। नचासन्निहितस्य तस्यातीतादिकालसंबन्धिना वर्तमानकालसंबन्धित्वं; नापि स्वकालसंबधित्वेन सत्यस्वप्रज्ञाने तस्य प्रतिभासनात् तदग्राहिणो ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वम्। यत्र हान्यदेशकालोऽर्थोऽन्यदेशकालसंबन्धित्वेन प्रतिभाति सा विपरीतख्यातिः। अत्र त्वतीतादिकालसंबन्ध्यतीतादिकालसंबन्धित्वेनैव प्रतिभातीति न तत्प्रतिभासिनोऽर्थस्य तत्कालसंबन्धित्वेन वर्तमानत्वं; नापि तद्ग्राहिणो विज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वम् / तथा सर्वज्ञज्ञानेऽपि यदाऽतीतादिकालोऽर्थोऽतीतादिकालसंबन्धित्वेन प्रतिभाति, तदा कथ तस्यार्थस्य वर्तमानकालसंबन्धित्वम्, कथं वा तज्ज्ञानस्य विपरीतख्यातित्वमिति। यथा वा विशिष्टमन्त्रसंस्कृतचक्षुषामडगुष्ठादिनिरीक्षणेनान्यदेशा अपि चौरादयो गृह्यमाणान तद्दशा भवन्ति, नापि तज्ज्ञान तद्देशादिसंबन्धित्वमनुभवति, तथा सर्वविद्विज्ञानमप्यसन्निहितकालं यद्यर्थमवभासयति, स्वात्मना तत्कालसंबन्धित्वमननुभवदपि, तदा को विरोधः, कथं वा तस्यातीतादेरर्थस्य तज्ज्ञानकालत्वमिति / नच सत्यस्वप्रज्ञानेऽप्यतीताद्यर्थप्रतिभासे समानमेव दूषणमिति न तदृष्टान्तद्वारेण सर्वज्ञज्ञानमतीताद्यर्थना-हक व्यवस्थापयितु युक्तमिति वक्तुं युक्तम् / अवि संवादवतोऽपि ज्ञानस्य विसंवादविषये विप्रतिपत्यभ्युपगमे, स्वसंवेदनमात्रेऽपि विप्रतिपत्तिसद्धावादतिसूक्ष्मेक्षिकया तस्यापि तत्स्वरूपत्वास भवात्सर्वशून्यताप्रसगात, तन्निषेधस्य च प्रतिपादयिष्यमाणत्वादतो न युक्तमुक्तम्, अथ प्रतिपाद्यापेक्षयेत्यादि न भ्रान्तज्ञानवान् सर्वज्ञः कल्पयितुं युक्त इति पर्यन्तम्। यदप्युक्तम् -भवतु वा सर्वज्ञस्तथाप्यसौ तत्कालेऽप्यसर्वज्ञातुं न शक्यते इत्यादि / तदप्यसंगतम्। यतो यथा शकलशास्त्रार्थापरिज्ञानेऽपि व्यवहारिणा सकलशास्त्रज्ञ इति कश्चित्पुरुषो निश्चीयते; तथा सकलपदार्थापरिज्ञानेऽपियदिकेनचित् कश्चित् सर्वज्ञत्वेन निश्चीयते, तदा को विरोधः। युक्तं चैतत्। अन्यथा युष्माभिरपि सकलवेदार्थापरिज्ञाने कथं जैमिनिरन्यो वा वेदार्थज्ञत्वेन निश्चीयते / तदनिश्चये च कथं तद्व्याख्यातार्थानुसरणादग्रिहोत्रादावनुष्ठाने प्रवृत्तिरिति यत्किञ्चिदेतत् 'सर्वज्ञोऽयमिति ह्येतत्' इत्यादि। तदेवं सर्वज्ञसद्भा-वग्राहकस्य प्रमाणस्य ज्ञत्वप्रमेयत्ववचनविशेषत्वादेर्दर्शितत्वात् तदभावप्रसाधकस्य च निरस्तत्वात, ये बाधकप्रमाणगोचरतामा-पन्नास्तेऽसदिति व्यवहर्तव्या इति प्रयोगहेतोरसिद्धत्वात्, ये तु निश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्वे सति सदुपलम्भकप्रमाणगोचरास्ते सदिति व्यवहर्त्तव्याः, यथोभयवाद्यप्रतिपत्तिविषया घटादयः, तथाभूतश्च सर्ववित इति भवत्यतः प्रमाणात्सवज्ञव्यवहारप्रवृत्तिरिति / अथापि स्यात् स्वविषयाविसंवादिवचनविशेषरय तद्विषयाविसंवादिज्ञानपूर्वकत्वमात्रमेव भवता प्रसाधितम् / नचैतावतानन्तार्थसाक्षात्कारिज्ञानवान् सर्वज्ञः सिद्धिमासादयति / सकलसूक्ष्मादिपदार्थसार्थसाक्षात्कारि-ज्ञानविशेषपूर्वकत्वे हि वचनविशेषस्य सिद्धे तज्ज्ञानवतः सर्वज्ञत्वसिद्धिः स्यात् / नच Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 560 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सवण्णु तथा भतज्ञानपूर्वकत्वं वबनविशेषस्य सिद्धम् / अनुगानादिज्ञानादपि स्वविषयाविसंवादिवचनविशेषरय संभवात् / नच तथाभूतज्ञानवान् सर्वज्ञो भवद्भिरभ्युपगम्यत इत्येतद्हृदि कृत्वाऽऽह सूरि:- "कुसमयविसासणं'' इति / सम्यक् प्रमाणान्तराविसंवादित्वेनेयन्तेपरिच्छिद्यन्ते इति समयाः, नष्ट मुष्टिचिन्तालाभालाभसुखासुखजीवितमरणग्रहोपरागमन्त्रौषधशक्त्यादयः पदार्थाः, तेषां विविधमन्यपदार्थकारणत्वेन कार्यत्वेन चानेकप्रकार शासनं प्रतिपादकम्; यतः शारानं कु:पृथ्वी तस्या इव। अयमभिज्ञायः-ज्ञत्वप्रमेयत्वादेरनेकप्रकारस्य प्रतिपादितन्यायेन सर्वज्ञसत्त्वप्रतिपादकस्य हेतोः सद्भावेऽपि तत्कृतत्वेन शासनप्रामाण्यप्रतिपादनार्थ सर्वज्ञोऽभ्युपगम्यते, तस्य चान्यतो हेतोः प्रतिपादनेऽपि तदागमप्रणेतृत्वं हेत्वन्तरात्पुनः प्रतिपादनीयं स्यादिति हेत्वन्तरमुत्सृज्य प्रतिपादनगौरवपरिहारार्थ वचनविशेष-लक्षण एव हेतुस्तत्सद्भावावेदक उपन्यसनीयः। स चानेन गाथासूत्रावयवेन सूचितः / अत एव संस्कृत्य हेतुः कर्त्तव्यः। तथाहि-यो यद्विषयाविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरकपूर्वको वचन विशेषः, स तत्साक्षात्कारिज्ञानविशेषप्रभवः। यथाऽरमदादिप्रवर्तितः पृथ्वी काठिन्यादिविषयस्तथाभूतो वचनविशेषः। नष्टमुष्टिविशेषादिविषयाविसंवाद्यलिङ्गानुपदेशानन्वयव्यतिरेकपूर्वकवचनविशेषश्चायं शासनलक्षणोऽर्थ इति। न चात्राविसंवादित्वं वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोविशेषणमसिड्म / नाष्टमुष्ट्यादीनां वचनविशेषप्रतिपादितानां प्रमाणान्तरसस्तथैवोपलब्धे-- रविसंवादसिद्धेः। योऽपि क्वचितचनविशेषस्य तत्र विसंवादो भवता परिकल्प्यते, सोऽपि तदर्थस्य सम्यगपरिज्ञानात् सामग्रीवैकल्यान्न पुनर्वचनविशेषस्यासत्यार्थत्वात्। नच सामग्रीवैकल्यादेकनासत्यार्थत्वे सर्वत्र तथात्वं परिकल्पयितुं युक्तम्। अन्यथा प्रत्यक्षस्यापि द्विचन्द्रादिविषयस्य सामग्रीवकल्येनोपजायमानस्यासत्यत्वसंभवात् समग्रराामग्रीप्रभवस्याप्यसत्यत्वं स्यात् / अथाविकलसाभग्रीप्रभवं प्रत्यक्ष विकलसामग्रीप्रभवात्तस्माद्विलक्षणमिति नायं दोषः। तदत्रापि समानम् / तथाहि-सम्यगज्ञाततदर्थाद्वचनाद्यन्नष्टमुष्ट्यादिविषयं विसंवादिज्ञानमुत्पद्यते तत्सम्यगवगततदर्थवचनोद्भवाद्विलक्षणमेवा यथा च विशिष्टसामग्रीप्रभवस्य प्रत्यक्षस्य न वचिद् व्यभिचार इति तस्याविरांवादित्वम् तथाऽवगतसम्यगर्थवचनोद्भवस्यापि नष्टमुष्ट्यादिविषयविज्ञानस्येति सिद्धमत्राविसंवादित्वलक्षणं विशेषणं प्रकृतहेतोः। नाप्यलिङ्ग पूर्वकत्वं विशेषणमसिद्धम् / नष्टमुष्ट्यादीनामस्मदादीन्द्रियाविषयत्वेन तल्लिङ्गत्वेनाभिमतस्याप्यर्थस्यास्मदाद्यक्षाविषयत्वान्न तत्प्रतिपत्तिः / प्रतिपत्तौ वाऽस्मदादीनामपि तल्लिङ्गदर्शनाद्वचनविशेषमन्तरेणापि ग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिः स्यात्। नहि साध्यव्यापलिग निश्चयेऽग्न्यादिप्रतिपत्तौ वचनविशेषापेक्षा दृष्टा, न भवति चास्मदादीना वचनविशेषमन्तरेण कदाचनापि प्रतिनिय-तदिक्प्रमाणफलाद्यविनाभूतग्रहोपरागादिप्रतिपत्तिरिति तथाभूत-वचनप्रणेतुरतीन्द्रियार्थविषयं ज्ञानमलिङ्गमभ्युपगन्तव्यमित्यलिङ्गपूर्वकत्वमपि विशेषणं प्रकृतहेता सिद्धम्। नाप्ययमुपदेशपरम्पयाऽतीन्द्रियार्थदर्शनाभावेऽपि प्रमाणभूतः प्रबन्धेनानुवर्तत इत्यनुपदेशपूर्वकत्वविशेषणासिद्धिरिति वक्तुं युक्तम्। उपदेशपरम्पराप्रभवत्वे नष्टमुष्ट्यादिप्रतिपादकवचनविशेषस्य वक्तुरज्ञानदुष्टाभिप्रायवचनाकौशलदोषैः श्रोतुर्वा मन्दबुद्धित्वविपर्थस्तबुद्धित्वगृहीतविस्मरणः प्रतिपुराधं हीयमानस्यानादी काले भूलतश्चिरोच्छेद एव रयात। तथाहि- इदानीमपि केचित् ज्योतिःशास्त्रादिकमज्ञानदोषादन्यथोपदिशन्त उपलभ्यन्ते, अन्ये सम्यगवगछन्तोऽऽपिदुष्टाभिप्रायतया, अन्ये वचनदोषादव्यक्तमन्यथा चेति।तथा श्रोतारोऽपि केचिन्मन्दबुद्धित्वदोषादुक्तमपि यथा वन्नावधारयन्ति, अन्ये विपर्यस्तबुझ्यः राम्रागुपदिष्टमप्यन्यथाऽवधारयन्ति, केचित् पुनः सम्यक्परिज्ञातभपि विस्मरन्तीत्येवमादिभिः कारणैः प्रतिपुरुष हीयमानस्य, एतावन्तंकालं यावदागमनमेव न स्याचिरोच्छिन्नत्वे नागच्छति च। तस्मादन्तराऽन्तरा विच्छिन्नः सूक्ष्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानवता केनचिदभिव्यक्त इयन्त कालं याक्दागच्छतील्यभ्युपगमनीयमिति नानुपदेशपूर्वकत्वविशेषणासिद्धिः। नाप्यन्वयतिरेकाभ्यां नष्टमुष्ट्यादिकं ज्ञात्वा तद्विषयवचनविशेषप्रवर्तनं कस्यचित् संभवति, येनानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणासिद्धिः स्यात्। यतो नान्वयव्यतिरेकाभ्यां ग्रहोपरागौषधशक्त्यादयो ज्ञातुं शक्यन्ते / प्रावृट्समये शिलीन्ध्रोज्दवत् ग्रहोपरागादीनां दिक्प्रमाणफलकालादिषु नियमाभावात्। द्रव्यशक्तिपरिज्ञानाभ्युपगमेऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां यावन्ति जगति द्रव्याणि तान्येकत्र मीलयित्वा एकस्य रसकल्कादिभेदेन, कर्षादिमात्राभेदन, बालमध्यमाद्यवस्थाभेदेन, मूलपत्राद्यवयवभेदेन, प्रक्षेपोद्धाराभ्यानेकोऽपि योगो युगसहरप्रेणापि न ज्ञातुं पार्यते, किमुतानेक इति कुतस्ताभ्यामौषधशक्त्यवगमः / तेन नानन्वयव्यतिरेकपूर्वकत्वविशेषणस्यासिद्धिः / नापि नष्टमुट्यादिविषयवचन-विशेषस्यापौरुषेयत्वात् विशिष्टज्ञानपूर्वकत्वस्यासिद्धरसिद्धः प्रकृतो हेतुः / अपौरुषेयस्य वचनस्य पूवमेव निषिद्धत्वात् / नाप्य-साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेऽपि प्रकृतवचनविशेषस्य संभवादनैकान्तिकः / सविशेषणस्य हेतोर्विपक्षे सत्त्वस्य प्रतिषिद्धत्वात्। अत एव न विरुद्धः। विपक्ष एव वर्तमानो विरुद्धः। नचास्य पूर्वोक्त-प्रकारेणावगतस्वसाध्यप्रतिबन्धस्य विपक्षे वृत्तिसंभवः। अथ भवतु ग्रहोपरागाभिधायकवचनस्य तत्पूर्वकत्वसिद्धिः, अतो हेतोः। तत्र तस्य संवादात् / धर्मादिपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिस्तु कथम्? तत्र तस्य संवादाभावात्। न। तत्रापि तस्य संवादात् / तथाहि-ज्योतिः शारत्रादेहोपरागादिक विशिष्टवर्णप्रमाणदिग्वि-भागादिविशिष्ट प्रतिपद्यमानः प्रतिनियतानां प्रतिनियतदेशवर्त्तिनां प्राणिना प्रतिनियतकाले प्रतिनियतकर्मफलसंसूचकत्वेन प्रतिपद्यते। उक्तं चतत्र "नक्षत्रग्रहपञ्जर-महर्निशं लोककर्मविक्षिप्तम्। भ्रमति शुभाशुभमखिलं, प्रकाशयत् पूर्वजन्मकृतम् / / 1 / / " अतो ज्योतिः शारखं ग्रहो परागाऽऽदिक मिव धधर्मावपि Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 561 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वण्णु प्रमाणान्तरसंवादतोऽवगमयति / तेन ग्रहोपरागादिवचनविशेषस्य धर्माऽधर्मसाक्षा कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धम, तत्सिद्धी सकलपदार्थसाक्षात् कारिज्ञानपूर्वकत्वमपि सिद्धिमासादयति ।नहि | धर्माधर्मयोः सुखदुःखकारणत्वसाक्षात्करणं सहकारिकारणाशेषपदार्थतदाधारभूतसमस्तप्राणिगणसाक्षात्करणमन्तरेण संभ-वति। सर्वपदार्थाना परस्परप्रतिबन्धादेकपदार्थसर्वधर्मप्रतिपत्तिश्च सकलपदार्थप्रतिपतिनान्तरीयका प्राक् प्रतिपादिता / अतो भवति सकलपदार्थसाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वसिद्धिरतो हेतोर्वचनविशेष-स्य / तत्सिद्धी च त प्रणेतुः सूक्ष्मान्तरितदूरानन्तार्थसाक्षात्कार्यतीन्द्रिय-। ज्ञानसम्पत्समन्वितस्य कथं न सिद्धिः। नाप्येतद्वक्तव्यम्। साध्योक्तिदावृत्तिवचनयोरनभिधानातन्यूनतानामाऽत्र साधनदोषः। प्रतिज्ञावचनेन प्रयोजनाभावात् / अथ विषयनिर्देशार्थ प्रतिज्ञावचनम् / ननु स एव किमर्थः। साधर्म्यवत्प्रयोगादिप्रतिप-त्यर्थः। तथाहि-असति साध्यनिर्देशे या वधनविशेषः स साक्षात्का-रिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते किमयं साधर्म्यवान् प्रयोगः, उत वैधयेवा-निति न ज्ञायेत / उभयं ह्यत्राशक्येत वचनविशेषत्वन साक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वे साध्ये साधर्म्यवान, असाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकत्वेन वचनाविशेषत्वे साध्ये वैधय॑वानिति हेतुविरुद्धानेकान्तिकप्रती-तिश्च न स्यात् / प्रतिज्ञापूर्वके तु प्रयोगे शब्दविशेषः साक्षात्कारि-ज्ञानपूर्वकः शब्दविशेषत्वादिति हेतुभावः प्रतीयते / असाक्षात्का-रिज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वादिति विरुद्धता / चक्षुरादिकरणज-नितज्ञानपूर्वको वचनविशेषत्वादित्यनैकान्तिकत्वम्। हेतो व वरूप्यं न गम्येत / तस्य साध्यापेक्षया व्यवस्थितः। सति प्रतिज्ञानिर्देशेऽ-धयये समुदायोपचारात् साध्यधर्मी इति पक्ष इति तत्र प्रवृत्तस्य वचनविशेषत्वस्य पक्षधर्मत्वम्: साध्यधर्मसामान्येन च समानोऽर्थः सपक्ष इति तत्र वर्तमानस्य सपक्षे सत्त्वम्, न सपक्षोऽसपक्ष इत्यसपक्षेऽप्यसत्त्वं प्रतीयते तदिदमनलोचिताभिधानम् / तथाहि-यो वचनविशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इति एतावमात्रमभि-धाय नैव कश्चिदास्ते, किन्तुहेलोर्धर्मिण्युपसंहारं करोति। तत्र यदि वचनविशेषश्चार्य नष्टपुष्ट्यादिविषयो वचनसंदर्भ इति ब्रूयात, तदा साधर्म्यवत्प्रयोगप्रतीतिः। अथासाक्षात्कारिज्ञानपूर्वकश्चेत्यभिदध्यात्,तदा वैधय॑वत् इति संबन्धवचनपूर्वकात्पक्षधर्मत्ववचनात् प्रयोगद्वयावगतिः, विवक्षितसाध्यावगतिश्च / हेतुविरुद्धानकान्ति-का अपि पक्षधर्मत्ववचनमात्रेण न प्रतीयन्ते तदा तु संबन्धवचन-मपि क्रियते तदा कथमप्रतीतिः / तथाहि-यो वचन विशेषः स साक्षात्कारिज्ञानपूर्वक इत्युक्ते हेतुरवगम्यते विधीयमानेनानूधमानस्य व्याप्तेः / यो वचन विशेषः सोऽसाक्षात्कारिझानपूर्वक इत्युक्त विरुद्धः। विपर्ययव्याप्तेः यो वचनविशेषः स चक्षुरादिजनित-ज्ञानपूर्वक इति अनैन्तिकाध्यवसायः व्यभिचारात्। तथा त्रैरुप्य-मपि हेतोर्गग्यत एव / यतो व्याप्तिप्रदर्शनकाले व्यापको धर्मः साध्य-तया अवगम्यते। यत्र तुव्याप्यो धर्मो विवादास्पदीभूते धर्मिण्युपसंहियते स समुदायैकदेशतया पक्ष इति तत्रोपसंहृतरय व्याप्यधर्म-स्य पक्षधर्मत्वावगतिः। सा च व्याप्तिर्यत्र धर्मिण्युपदयते स साध्यधर्म सामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः प्रतीयत इति सपक्षे सत्त्वमप्यवगम्यते / सामर्थ्यात (च) हि व्यापकनिवृत्ती व्याप्यनिवृत्तिर्यत्रा-वसीयते सोऽसपक्ष इति असपक्षेऽप्यसत्त्वमपि निश्चीयते इति नार्थः प्रतिज्ञावचनेन। तदाह धर्मकीर्तिः यदि प्रतीतिरन्यथा न स्यात् सर्व शोभेत, दृष्टा च पक्षधर्मसंबन्धवचनमात्रात् प्रतिज्ञावचनमन्त-रेणापि प्रतीतिरिति कस्तस्योपयोगः। तदा च प्रतिज्ञावचन नैरर्थ-क्यमनुभवति तदा तदादृत्तिवचनस्य निगमनलक्षणस्य सुतरामनुपयोग इति न प्रतिज्ञाद्यवचनमपि प्रस्तुतसाधनस्यन्यूनतादोषः, केवल तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य स्वसाध्याविनाभूतरय हेतोः स्वसाध्यधर्मिण्युपसंहारमात्रादेव सिद्धत्वात् / अर्थादापन्नस्य स्व-शब्देन पुनरभिधानं निग्रहस्थानमिति प्रतिज्ञादिवचनं वादकथाया क्रियमाणं तद्वक्तुर्निग्रहमापादयति उपनयवचनं तु हेतोः पक्षधर्म-त्वप्रतिपादनादेवलब्धमिति तस्यापि ततः पृथक प्रतिपादने पुन-रुक्ततालक्षण एव दोष इति न तदनभिधानेऽपि न्यूनं साधनवा-क्यम्, ततः सर्वदोषरहितत्वात्साधनवाक्यस्य भवत्यतः प्रकृत-साध्यसिदिः / स्वसाध्याविनाभूतश्च हेतुः साध्यधर्मिण्युपदर्शयितव्यो वादकथायामित्यभिप्रायवता आचार्येण गाथासूत्रावय-वेन तथा-भूतहेतुप्रदर्शन कृतमिति / तथाहि- समयविशासनम् इत्यनेन गाथासूत्रावयववचनेन स्वसाध्यव्याप्तस्य हेतोः साध्य-धर्मिण्युपसंहारः सूचितः। हेतोश्च स्वसाध्यव्याप्तिः प्रमाणतः सर्वोपसंहारेण प्रदर्शनीया। तच्च प्रमाणं व्याप्तिप्रसाधकं कदाचित् साध्यधर्मिण्येव प्रवृत्तं ता तस्य साधयति, कदाचित् दृष्टान्तधर्मि-णि / यत्र हि सर्वमनेकान्तात्मक सत्त्वादित्यादौ प्रयोगे न दृष्टा-न्तधर्मिसद्भावः, तत्र व्याप्तिप्रसाधकं प्रमाण प्रवर्त्तमान साध्य-धर्मिण्येव सर्वोपसंहारेण हेतोः स्वसाध्यव्याप्ति प्रसाधयति / यत्र तु प्रकृतप्रयोगादौ दृष्टान्तधर्मिणोऽपि सत्त्व तत्र दृष्टान्तधर्मिण्यपि प्रवृत्तं तत्प्रमाणं सर्वोपसंहारेणैव तस्याः प्रसाधकमभ्युपगन्तव्यम् / अन्यथा दृष्टान्तधर्मिणि हेतोः स्वसाध्यव्याप्तावपि साध्यधर्मिणि तस्य तदव्याप्ती न ततस्तत्र तत्प्रतिपत्तिः स्यात् / दृष्टान्तधर्मिण्येव तेन तस्य व्याप्तत्वात,बहियाप्त विद्यमानाया अपि साध्यधर्मिणि साध्यप्रति-पत्तावनुपयोगात् सादृश्यमात्रस्याकिञ्चिकरत्वात् / अन्यथा शुक्लं सुवर्ण सत्त्वाद्रजतवदित्यत्रापि शुक्लत्वप्रतिपत्तिः स्यात्। अथात्र पक्षस्य प्रत्यक्षबाधन, प्रत्यक्षबाधितकर्मनिर्देशान-न्तरप्रयुक्तत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वं वा दोषः / तदयुक्तम्। बाधाऽविनाभावयोर्विरोधात्। तथाहि-सत्येव साध्यधर्मिणि साध्ये हेतुर्वर्तत इति तस्यतदविनाभावः, तत्प्रतिपादितसाध्य-धर्माभावश्व प्रमाणतो बाधा। साध्यधर्मभावाऽभावयोश्चैकत्र धर्मिण्येकदा विरोध इति नैतदोषादस्य साधनस्य दुष्टत्वम्, किन्तु साध्यधर्मिणि साध्यधर्माविनाभूतत्वेनानिश्चयः / स च बहिव्याप्तिमात्रेण हेतोः साध्यसाधकत्वाभ्युपगमेऽन्यत्रापि समान इति नानुमानात्वचिदपि साध्यनिश्चयः स्यात्। अतो दृष्टान्तधर्मिणि प्रवृत्तेन प्रमाणेन व्याप्त्या हेतोः स्वासाध्याविनाभावो निश्चयः / स च निश्चिताविनाभावो यत्र धर्मिण्युपलभ्यते तत्र Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वण्णु 562 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वदंसण 57 स्वसाध्यमविद्यमानप्रमाणान्तरबाधन निश्चाययति, यथाऽत्रैव विशासन विध्वंसक यतोऽतो द्वादशाङ्गमेव जिनानांशासनमिति भवत्यतो सर्वज्ञमात्रलक्षणे साध्ये वचनविशेषलक्षणे साध्यधर्मिणि तद्वि- विशेषणात् सर्वज्ञ-विशेषसिद्धिरिति। सम्म० १काण्ड। शेपत्वलक्षणो हेतुः। प्रतिबन्धप्रसाधकं चास्य हेतोः प्रागेव दृष्टा- सव्वण्णुत्त-न०(सर्वज्ञत्व) सर्वेषां शान्तोदिताव्यपदेश्यधर्मत्वेन स्थिताना न्तधर्मिणि प्रमाणं प्रदर्शितमित्यभिप्रायवत्त वाचार्येणापि 'कुस- यथावद्विवेकजज्ञाने, तदुक्तम् - सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातिमात्रस्य मयविसासणं' इति सूत्रे कुरित्यनेन दृष्टान्तसूचन विहितम. न च सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञत्वम्। सत्त्वपुरुषान्यथाख्यातिमात्रस्वभावापक्षवचनाद्युपक्षेपः सूचितः / ननु भवत्वस्माद्धेतोर्यथाक्तप्रकारेण धिष्ठातृत्वे, द्वा०२६द्वा० सर्वज्ञमात्रसिद्धिर्न पुनस्तद्विशेषसिद्धिः / तथाहि-यथा नष्टमुट्या- सव्वण्णुदंसण-न०(सर्वज्ञदर्शन) सर्वज्ञागमे, सूत्र० १श्रु०२१० 370 / दिविषयवचनविशेषस्यार्हत्सर्वज्ञप्रणीतत्वं वचनविशेषत्वात् सिध्धति, सव्वण्णुप्पवाय-पुं०(सर्वज्ञप्रवाद) सर्वज्ञवाक्ये, आचा०१श्रु० 510 तथा बुद्धादिसर्वज्ञपूर्वकत्वमपि तत एव सेत्स्यतीति कुतस्तद्विशेष ६उ० सिद्धिः / नच नष्टमुष्ट्यादिप्रतिपादको वचनविशेषोऽर्हच्छासन एवेति वक्तुं सवण्णु भासिय-त्रि०(सर्वज्ञभाषित) समस्तवित्प्रणीते, हा० युक्तम् / बुद्धशासनादिष्वपि तस्योपलम्भादित्याशडक्याहसरिः 26 अष्ट / तीर्थकराभिहिते, द्वा० १७द्वा०। सिद्धत्थाणं इति अस्यायमभिप्रायः-प्रत्यक्षानुमानादिप्रमाणविषयत्वेन सव्वण्णुमय-न०(सर्वज्ञमत) सर्ववेदिप्रवचनविषये, पशा० ७विव०। प्रतिपादिताः शासनेन ये ते त-द्विषयत्वेनैव तैर्निश्चिता इति सिद्धास्ते जिनशासनविषये, पञ्चा०६विव०॥ च-अर्थ्यन्त इत्यर्था उच्यन्ते, तेषां शासनं प्रतिपादकमर्हत्सर्वज्ञ सव्वण्णुवयण-न०(सर्वज्ञवचन) सत्यवक्तृवीतरागवचने, दश० 40 शासनमेव, नबुद्धादिशासनम्। अतो वचनविशेषत्वलक्षणस्य हेतोस्तेष्वसिद्धत्वात् कुतस्तेषामपि सर्वज्ञत्वम् येन विशेषसर्वज्ञात्वसिद्धिर्न स्यात्। सव्वतंतसिद्धत-पुं०(सर्वतन्त्रसिद्धान्त) सर्वतन्त्राऽविरुद्धे स्वयथा चागमान्तरेण प्रत्यक्षादिविषयत्वेन प्रतिपादितानामर्थानां तन्त्रेऽधिकृतेऽर्थे , सूत्र० १श्रु० १२अ०। यथा स्पर्शनादीनीन्द्रियाणि तद्विषयत्वं न संभवति, तथाऽत्रैव यथास्थानं प्रतिपादयिष्यते। अथवा स्पर्शादय इन्द्रियार्थाः प्रमाणैः प्रमेयस्य ग्रहणं समानम्। तथा चोक्तम्सिद्धार्थानामित्यनेन हेतुसंसूचनं विहितमाचार्येण / सिद्धाः प्रमाणान्त संति पमाणाइँ पमे-यसाहगाई तु सव्वतंतो उ। रसंवादतो निश्चिता येऽर्था नष्टमुष्ट्यादयस्तेषां शासन प्रतिपादकम्, यतो थेज्जवई वसुमई, आपा य दवा चलो वाऊ / / 1 / / द्वादशाङ्गं प्रवचनमतो जिनाना कार्यत्वेन संबन्धिःतेनायं प्रयोगार्थः सन्ति प्रमाणानि-प्रत्यक्षादीनि प्रमेयसाधकानि यथा-स्थैर्यवती पृथ्वी, सूचितः / प्रयोगश्च प्रमाणान्तरसंवादि यथोक्तनष्ट मुष्ट्यादिसूक्ष्मा- (पृथ्व्याः चलाऽचत्वविचारः 'भूगोल' शब्दे षष्ठे भागे गतः। 'लोक' शब्दे न्तरितदूरार्थप्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तेर्जिनप्रणीतं शासनम्। अत्र च च पञ्चमे भागे गोलक कल्पना च ।)आपो द्रवाः, चलो वायुरेष सूक्ष्माद्यर्थप्रतिपादकत्वान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणस्य हेतोर्जिनप्रणीतत्व- सर्वतन्त्रसिद्धान्तः सर्वेषु तन्त्रेषु अस्यार्थस्य सिद्धत्वात्। बृ० १3०१प्रकला लक्षणेन स्वसाध्येन व्याप्तिः साध्यधर्मिण्येव निश्चितेति तन्निशायक- सव्वतवणिजमय-त्रि०(सर्वतपनीयमय) सर्वात्मना तपनीय - प्रमाणविषयस्येह दृष्टान्तस्य प्रदर्शनमाचार्येण न विहितम् / तदर्थस्य रूपसुवर्णमये, जी०३प्रति०४अधि०। रा० दशा तद्व्यतिरेकेणैव सिद्धत्वात् / यथा चार्थापत्तेः साध्यधर्मिण्येव व्याप्ति- सव्वतुरियसहसण्णिणाय-पुं०(सर्वतूर्यशब्दसन्निनाद) सर्वत्निश्चयाद दृष्टान्तव्यतिरेकेणापितदुत्थापकादर्थादुपजायमानायाः सर्वज्ञ- र्यशब्दानां मीलने महाघोष, भ० १श० 130 प्रतिक्षेपवादिभिर्मीमांसकैः प्रामाण्यमभ्युपगम्यते, तथा प्रकृतादन्यथा- सव्वतूवर-पुं०(सर्वतूवर) समस्तकषायद्रव्ये, रा०) ऽनुपपत्तिलक्षणाद्धेतोरुपजायमानस्याऽस्याऽनुमानस्य तत् किं नेष्यते? सव्वत्तया-स्त्री०(सर्वात्मता) सर्वेष्वात्मनः परिणामेषु, उपा० 20 // प्रतिपादितश्वार्थापत्तेरनुमानेऽन्तर्भावः प्रागिति भवत्यतो हेतोः प्रकृत- सर्वसामर्थ्य, सूत्र०२२०१०) साध्यसिद्धिः / अत एव पूर्वाचार्यहेतुलक्षण-प्रणेतृभिरेकलक्षणो हेतुः सव्वत्थ-अव्य०(सर्वत्र) समस्तदेशे इत्यर्थे, पशा० ६विवा अन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम्। समस्तकाले, सर्वस्यामवस्थायामपीत्यर्थे, सूत्र० १श्रु०३अ०४ उ01 नाऽन्यथाऽनुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् / / 1 / / समस्तेषु द्रव्यक्षेत्रादिषु, पञ्चा०६विवा इत्यादिवचनसंदर्भेण प्रतिपादितम् इति मन्वानेनाचार्येणापि न | सव्यत्थया-स्त्री०(सर्वार्थता) चलत्वान्नानाविधार्थग्रहणे 'सदृष्टान्तसूचन विहितमत्र प्रयोगे। कुसमयविशासनमिति चात्र ध्या-रख्यान | वार्थतेकाग्रतयोः, समाधिस्तु क्षयोदयौ।" द्वा० 24 द्वा०। बुद्धादिशासनानामसर्वज्ञप्रणीतत्वप्रतिपादकत्वेन व्याख्येयम्। तथाहि- सव्वत्थविसम-न०(सर्वत्रविषम) सर्वपादेषु विषमाक्षरे वृत्ते, स्था० ७ठा० कुत्सिताः प्रमाणबाधितैकान्तस्वरूपार्थप्रतिपादकत्वेन, समयाः ३उ० कपिलादिप्रणीतसिद्धान्तास्तेषां सन्ति (सूत्र०१ श्रु०१अ० 1301) पञ्च सव्वदंसण-न०(सर्वदर्शन) सर्व-सम्पूर्ण दर्शनं सर्वदर्शनम्। क्षायिकमहब्भूया०७ इत्यादि वचनसंदर्भेण दृष्टष्टविषये विरोधाधुद्रावकत्वेन | सम्यक्त्वे, विशे०। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वदंसि 563 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वपुप्फ० सव्वदंसि(ण)-पुं०(सर्वदर्शिन) सर्व जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टु सव्वधत्ता-स्त्री० पसर्व(हिता)धत्ताब सर्वजीवाजीवाख्यं वस्तु धत्त शीलमस्येति सर्वदर्शी / सूत्र० १श्रु०६अ० भ०। रा०ा अना- निहितमस्यां विवक्षायामिति सर्वहिता। ननु दधातेहीति शब्दादे-शाद् कारोपयोगासामर्थ्यात्। (उपा० अ०। सर्वस्य वस्तुस्तामस्य सामान्य- हितं भवितव्यं कथं धत्तमित्युच्यतेप्राकृते देशीपदस्थाविरुद्धत्वान्न दोष / रूपतया द्रष्टरि, भ० १श० १उ०। स्था०। कल्प०। केवलदर्शनन अथवा - धत्त इति डित्थवदव्युत्पन्न एव यदृच्छाशब्दः / अथवा-सर्व एकेन्द्रियद्वीन्द्रियजीवादिज्ञातरि, अनु०॥ सूत्रा सर्व प्राणिगणमात्मव- दधातीति सर्वधं निरवशेषवचनं सर्वधमात्तमागृहीतं यस्या विवक्षायां सा त्पश्यतीति सर्वदर्शी ! आत्मसाम्यदर्शिनि, उत्त०१५अ०। सर्वधत्ता एवमपि निष्ठान्तस्य न पूर्वनिपातः। 'जातिकालसुखादिभ्यः सव्वदरिसि-पुं०(सर्वदर्शिन्) सर्वज्ञ, ध०२अधि०| परवचनम्' इति परनिपात एवा सर्वग्राहके, सर्वग्रहीतरि, आव० 10 // सव्वदव्व-न०(सर्वद्रव्य) धर्मास्तिकायादिषु भ० १२श० ५उ०। * सर्वधात्तृ-त्रि० सर्वधमात्ता सर्वधाता / निरवशेषे, आव०१०॥ सव्वदा-स्त्री०(सर्वदा) सर्वकाल इत्यर्थे, ल० भ० आ०म० सव्यदिसाग-त्रि०(सर्वदिक्क) सर्वा दिशो यत्र तत्सर्वदिकम् / सर्वदि- | सव्वधत्तासव्व-पुं०(सर्वधत्तासर्व) जीवाजीवविवक्षारूपे सर्व-शब्दार्थे, गवच्छिन्ने, विशे। विशे०। आ०म० सव्वदी(द्दी)वसमुद्द-पुं०(सर्वद्वीपमुद्र) अशेषद्वीपसमुद्रेषु, सू० प्र० | सव्वधम्म-पुं०(सर्वधर्म) समस्तेषु अनुष्ठानरूपेषु स्वभावेषु, सूत्र० १श्रु० १पाहु०। ८अ०। सर्वेषु क्षान्त्यादिषु धर्मेषु, उपा०१अ०। सव्वदुक्ख-त्रि०(सर्वदुःख) समस्तशारीरमानसादिभेदभित्रेषु असातेषु, सव्वधम्मपरिभट्ठ-त्रि०(सर्वधर्मपरिभ्रष्ट) सर्वधर्मेभ्याक्षान्त्यादिभ्यः ध० ३अधिका आसेवितेभ्योऽपि यावत् प्रत्यननुपालनात लौकिकेभ्योऽपि गौरवादिभ्यः सव्वदुक्खप्पहीण-पुं०(सर्वदुःखप्रहीण) प्राकृतत्वात्प्रकर्षेण परिभ्रष्टः-सर्वतश्च्युतः। कृतधर्मात्परिच्युते, दश० 10 // हीनानिहानि गतानि प्रक्षीणानि वा सर्वदुःखानि यस्मिन्, यद्वा - सव्वधम्माणुवत्तण-त्रि०(सर्वधनुिवर्तन) सर्व धर्म क्षान्त्यादिसर्वदुःखाना प्रहीण प्रक्षीण वा यस्मिस्तत्तथा। सिद्धक्षेत्रे, उत्त०२८अ०॥ रूपमनुवर्तत इति तदनुकूलाचारतया स्चीकुरुत इत्येवंशीलो यः स तथा। दुःखानि शरीरमानसानि तानि प्रहीणानियस्य सतथा। कल्प०१अधि० समस्तक्षमादिधर्माऽऽचरणशीले, उत्त० ७अ०। 6 क्षण। मुक्ते, मोक्षे च / ध०३अधि०। आतु० ज०। सव्वपगइ-स्त्री०(सर्वप्रकृति) राज्ञोऽशदशसु नैगमादिनगरवास्तसव्वदुक्खप्पहीणमग्ग-पुं०(सर्वदुःखप्रहीणमार्ग) सर्वदुःख-प्रहीणो __ व्यप्रजायाम्,कल्प०१अधि० ५क्षण। मोक्षस्तत्कारण मार्ग:-पन्थाः / ध०३ अधि० / आव० औला सव्वपत्थार-पुं०(सर्वप्रस्तार) समस्तसहापद्रवीभूते, व्य०१3०। सकलाशर्मक्षयापाये, भ० ३३श०६उ०। सव्वपरिण्णाचारि(ण)-पुं०(सर्वपरिज्ञाचारिन) सर्वतः सर्व-कालं सव्वदुक्खविमोक्ष-पुं०(सर्वदुःखविमोक्ष) सर्वाण्यशेषाणि बहुभि सर्वपरिज्ञया द्विविधयापि चरितु शीलभस्येति सर्वपरिज्ञाचारी। भवरुधचितानि दुःखकारणत्वाद् दुःखानि कर्माणि तेभ्यो विमोक्षो - विशिष्टज्ञानान्वित, सर्वसंवरचारित्रोपेते च। आचा० १श्रु० 2106 उ०। विमोक्षणं, विमोचनम् / सूत्र० १श्रु०११ अ० निर्वाणे, सूत्र० १श्रु० सव्वपाणभूयजीवसत्तसुहावह-त्रि०(सर्वप्राणभूतजीवसत्त्व३अ०२उगवर्मक्षये, स० सुखावह) सर्वे विश्वे ते प्राणाश्च द्वीन्द्रियादयो भूताश्च तरवो जीवाश्म सव्वदुक्खहर-त्रि०(सवदुःखहर) मोक्षहेतौ, पं०व०४द्वार। पञ्चेन्द्रियाः सत्त्वाश्च पृथिव्यादय इति द्वन्द्वे सति कर्मधारयस्ततरतपा सव्वदुह-न०(सर्वदुःख) समस्तशारीरमानसदुःखे, दश०२चुला सुख शुभ वा आवहतीति सर्वप्राणभूतजीवसत्त्वसुखावहम् / सर्वेष सव्वदूरमूल-न०(सर्वदूरमूल) सर्वथा दूर-विप्रकृष्टं मूलं च निक प्राणादीनां संयमप्रतिपादकत्वात्सुखहेतो, आव० 4 अ०। स्था०। सर्वदूरमूलं तहोगाच्छब्दोऽपि सर्वदूरमूलः। अत्यर्थदूरवर्तिनि अत्त्यर्थासन्ने सव्वपावणिवित्ति-स्त्री०(सर्वपापनिवृत्ति) अशेषावद्यानुष्ठानव्युपरतो, वा 'सव्वदूरगलमणंतिय सव्वं जाणइ पासई / भ०५श० ४उ०। हा०२५अष्टा सव्वदेवसूरि-पुं०(सर्वदेवसूरि) वृद्धगच्छप्रथमसूरौ, ग०३अधिका सव्वपावपरिवज्जिय-त्रि०(सर्वपापपरिवर्जित) सर्वाऽमङ्ग लै रहित, सव्वदेसघाइणी स्त्री०(सर्वदेशघातिनी) सर्व-समस्तं देशस्वा-वीर्यगुण कल्प०१अधि० ३क्षण। चन्तीत्येवंशीला सर्वदशघातिन्यः / तथाविधासु कर्मप्रकृतिषु, कर्म० सव्वपुप्फवत्थगंधमल्लालङ्कार-पुं०(सर्वपुष्पवस्त्रगन्धमाल्यालङ्कार) ४कर्मा गन्धा:-वासा माल्यानि-पुष्पदामानि अलङ्कारा आभरणविशेषाः ततः सव्वद्धा-स्त्री(सर्वाद्धा) अतीतानागतवर्तमानकालस्वरूपे अद्धाकाल समाहारो द्वन्द्वरततः सर्वशब्देन सह विशेषणसमासः / समस्तपुष्पादी, भेदे, अनु०॥ रा०। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वप्पग 594 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वलोयपर सव्वप्पग-पुं०(सर्वात्मक) सर्वत्राप्यात्मा यस्यासौ सर्वात्मकः / लोभे, सव्वभूमिया-स्त्री०(सर्वभूमिका) सर्वप्रासादभूमिकासु, विपा० १श्रु सूत्र० १श्रु०१६ अ०। सर्वस्वरूपे, सूत्र० १श्रु० १अ० 230 // ६अ। सव्वप्पगुण-पुं०(सर्वात्मगुण) येषां परमाणनां समस्तानां परमा- सव्वभूय-पुं०(सर्वभूत) सर्वेषु त्रसेषु स्थावरेषु च जीवेषु,उत्त० 20 अ०। ण्यपेक्षया अल्पे गुणाः स्तोका अंशा विभागास्तेषु परमाणुषु, क० प्र० आतु। १प्रक०। सव्वभूयप्पभूय-त्रि०(सर्वभूतात्मभूत) सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतासव्वप्पभा-स्त्री०(सर्वप्रभा) उत्तररुचकपर्वतवास्तव्याया दिक्कु- / __ त्मभूतः / सर्वभूतानामात्मवद्दर्शके.दश० 4 अ०। मार्याम्, आ०क०१अ० ज०। आ०चू०। आ०म०| सव्वभूयसुहावह-त्रि०(सर्वभूतसुखावह) सर्वप्राणिहिते. दश०६अ० सव्वफलिहमय-त्रि०(सर्वस्फटिकमय) सर्वात्मना स्फटिकमये, जी० सव्वभोम-पुं०(सार्वभौम) सर्वासु क्षिप्राद्यासु चित्तभूमिषु सभवन्ति इति ३प्रति० ४अधिo सार्वभौमाः। तदुक्तम् एतेतु जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः। सार्वभौमा सव्वफाससह-त्रि०(सर्वस्पर्शसह) परीषहरूपाणां सर्वेषां ___ महाव्रतेषु यमादिषु, द्वा०२१ द्वा० / शीतोष्णदेशमशकतृणादिस्पर्शानां सहिष्णौ, सूत्र०१श्रु० 4 अ०२ उ०। सव्वमंगलभेय-पुं०(सर्वमङ्गलभेद) सकलकल्याणप्रकारे, कल्प० सव्वबंध-पुं०(सर्वबन्ध) सर्वात्मना बन्धे, यथा क्षीरनीरयोः / भ० १अधि० ३क्षण। ও 20 730| सव्वमिच्छोवयारा-स्त्री०(सर्वमिथ्योपचारा) सर्व एव पिथ्योपचारा सव्वबल-न०(सर्वबल) समस्तहस्त्यादिसैन्ये, जी०६ प्रति० 4 अधि०। / मातृस्थानगर्भाः क्रियाविशेषा यस्यां सां सर्वमिथ्योपचारा / सर्वाशेन मरा०ा कल्प०। विपा० मिथ्योपचारयुक्तायामाशातनायाम्, ध० २अधि०। सव्वबाहाविणिम्मुत्त-त्रि०(सर्वबाधाविनिर्मुक्त) एकान्त-सुरवसंगते, सव्वमित्त-पुं०(सर्वमित्र) अपश्चिमदशपूर्वधरे साधौ, ति०। हा०३१ अष्टा सव्वय-पुं०(सद्व्यय) पुरुषार्थोपयोगिनि वित्तविनियोगे, द्वा० १२द्वा०। सव्वबुद्ध-त्रि०(सर्वबुद्ध) सर्वतीर्थकरे, दश० ६अ०। * सव्रत-पुंगशोभनव्रते, स्था० ३ठा० २उ०। सव्वन्भन्तर-त्रि०(सर्वाभ्यन्तर) सर्वमध्यवर्तिनि, सू०प्र० 1 पाहु०। सव्वरयण-पुं०(सर्वरत्न) महानिधिभेदे, स्था० हटा० 3 उ०ा जगप्रवक। आ०चूला दर्श०। (रयणाई सटवरयणे चउद्दसपवराई चक्क- वहिस्स औ०० उप्पजति य एगिदियाइ पंचिंदियाइं ति तल्लक्षणं 'णिहि' शब्दे चतुर्थभागे सव्वभत्ति-स्वी०(सर्वभक्ति) सर्ववस्तुप्रकारे, सर्वा भक्तयः प्रकारा येषा 2151 पृष्ठे व्याख्यातम्।) तानि तथा। सर्वप्रकारोपेतेषु, स्था० 6 ठा०३ उ०। सव्वरयणकूड-न०(सर्वरत्नकूट) मानसोत्तरपर्वतस्य स्वनाम-ख्याते सव्वभाव-पुं०(सर्वभाव) सर्वपरिणामे, रथा०६ठा०३उ०ा शक्त्यनुरूप तृतीये कूटे, स्था०४ठा०२उ०। स्वल्पसंरक्षणादी, दश० 8 अ०। सर्वप्रकारे रपर्शरसगन्धरूपज्ञाने, सव्वरयणा-स्त्री०(सव्वरत्ना) उत्तरपाश्चात्यस्य रतिकरपर्वतस्य "सव्वभावेणं जाणइ पासई'' स्था० 10 ठा०३ उ०। केवलज्ञान पश्चिमदिशि ईशानागमहिष्या बसुमित्रायाः राजधान्याम्, स्था०४टा० साक्षात्कारे, भ०८ श०२उ०। स्था०। २उ०। ती०जी०। द्वा०। सव्वभावविउ-पुं०(सर्वभाववित) भारते वर्षे आगमिष्यन्त्या सव्वरयणामय-त्रि०(सर्वरत्नामय) सर्वरत्नाः सामस्त्येन रत्न-मया मुत्सर्पिण्या भविष्यति द्वादशे तीर्थकर, सम नत्वेकदेशे इति सर्वरत्नमयाः। समस्तरत्नमयेषु, जी०३प्रति०४अधि०| सव्वभावाहिट्ठाइत्त-न०(सर्वभावाधिष्ठायित्व) सर्वेषां गुणपरिणानानां सर्वात्मना रत्नमये, जी०३प्रति०४अधिा दर्श०। स्वामिवदाक्रमणे, सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सव्वरस-न०(सर्वरस) सविकृतिके, पञ्चा० 16 विव०॥ सर्वज्ञत्वं च। द्वा०२६द्वा० सवराग-पुं०(सर्वराग) समस्तविषयाभिमुख्यहेतुभूतात्मपरिणासव्वभासाणुगामि(ण)-त्रि०(सर्वभाषानुगामिन्) सर्वभाषा आर्याऽनार्या ___ मविशेष, औ०। अमरवाचोऽनुगच्छन्ति-अनुकुर्वन्ति तद् भाषाभाषित्वात स्वभाषयैव वा | सव्वरी-स्त्री०(सर्वरी) रात्रौ, बृ० 130 ३प्रकला लब्धि विशेषात् तथाविधप्रत्ययजननात / अथवा-सर्वभाषा: सव्वल-पुं०(षड्बल) भल्ले, प्रश्र० १आश्र० द्वार। संस्कृतप्राकृतमागध्याद्या अनुगमयन्ति-व्याख्यान्तीत्येव शीला ये ते सव्वलोय-पुं०(सर्वलोक) सर्वः-खल्वस्तिर्यगूलभेदभिन्नः सर्वश्वासौ तथा / समस्तभाषाविशारदेषु, औ०। रा०। लोकश्च सर्वलोकः / त्रैलोक्ये, ल०। धo। आव०। स-स्थावरभेदैर्भिन्ने सव्वभियार-त्रि०(सव्यभिचार) सह व्यभिचारेण वर्तते इति सव्यभि प्राणिगणे, सूत्र० १श्रु०५अ०२ उ०। सर्वजने, स०३० सम०। चारः / व्यभिचाराख्यहेतुदोषसहिते, दश० 10 // सव्वलोयपर-पुं०(सर्वलोकपर) सर्वजनात्प्रकृष्ट, 'सव्वलोय-परे तेणे सव्वभूइ-स्त्री०(सर्वभूति) सर्वसम्पदि, विपा०१श्रु०६ अ० महामोह पकुव्वइ' स०३० सम०। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वलोयपरि० 565 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वसत्त सव्वलोयपरियावण्ण-त्रि०(सर्वलोकपर्यापन्न) उपपातसमुद्घातस्व स्थानः सर्वलोके वर्तमाने, भ०३४ श० १उ०। सव्वलोयसारंग-न०(सर्वलोकसारङ्ग) सर्वस्मिन्नपि लोके सारमङ्गं स्वरूपं यस्य तत् सर्वलोकसारङ्गम्। चतुरङ्गे, तस्य सर्वलोकसाररूपत्वात्। "नासेइ अगीयत्थो चउरंग सव्वलोयसारंग।" व्य० ३उ०। सव्ववइरामय-त्रि०(सर्ववजमय) सर्वात्मना वजमये, जी०३ प्रतिक ४अधिन सव्ववाइ-पुं०(सर्ववादिन) कपिलकणादाक्षपादसौद्धोदनिजैमिनि प्रभृतिमतानुसारिषु समस्तवादिषु, सूत्र० १श्रु०१अ० १उ०। सव्ववाय-पुं०(सर्ववाद) सर्वस्मिन् बौद्धादिके वादे, सूत्र० १श्रु०६अ। सव्ववार-न०(सर्ववार) बहुशः शब्दार्थे , सूत्र० १७०६अ। सव्वविग्गहिय-पुं०(सर्वविग्रहिक) विग्रहो वक्त्रं लघु इत्यर्थस्तदस्यास्तीति विग्रहिकः / सर्वथा विग्रहिकः सर्वविग्रहिकः। सर्वसंक्षिप्ते, भ०१३ श०४ उ० सव्ववित्थाराणंतय-न०(सर्वविस्तारानन्तक) सर्वाकाशास्तिकायरूपेऽनन्तकभेदे, स्था०१०ठा०३ उ०। सव्वविभूइ-स्त्री०(सर्वविभूति) समस्तस्वस्वाभ्यन्तरवैक्रियकरणादिबाह्यरत्नादिसंपदि, रा०। कल्प० म० जी०। समस्तशोभायाम्, कल्प०१अधि०५क्षण! सव्वविभूसा-स्त्रील(सर्वविभूषा) यावच्छक्तिस्फारोदारशृङ्गारकरणे, रा। सव्वविमुक्क-पुं०(सर्वविमुक्त) सिद्धे, आचा० २श्रु०४चूला सव्वविरइ-स्त्री०(सर्वविरति) सर्वसंयमे, कर्म०१ कर्म०। सव्वविरइवाइ-१०(सर्वविरतिवादिन) आत्मानं सर्वविरतिमत्त्वेन ख्यायके, विश एतदेवाहसव्वं ति माणिऊणं, विरई खलु जस्स सव्विया नत्थि। सो सव्वविरइवाई, चुक्कति देसं च सव्वं च / / 2684|| 'सव्व' ति-अस्योपलक्षणत्वात्सर्व सावद्ययोग प्रत्याख्यामि त्रिविधं त्रिविधेनेत्येव भणित्वा-अभिधाय विरतिः- सावद्य-योगान्निवृत्तिः खलु यस्य सर्विका सर्वा नास्ति प्रवृत्तकरिम्भानुमतिसद्भावात्सर्वविरतिवादी ‘चुक्कइ'त्तिनाशयति देशं च 'सव्वं च' ति-देशविरतिं सर्वविरतिंच प्रतिज्ञाताकरणादिति नियुक्तिगाथार्थः / विशे०। सव्वविरइसामाइय-न०(सर्वविरतिसामायिक) सर्वविरतिरेवसामायिके मिति / सामाधिकभेदे, विशे०। तत्पर्यायाःसामाइयं समइयं, सव्भावाओ समाससंखेवो। अणवजं च परिन्ना, पच्चक्खाणं च ते अट्ठा / / विशे०। (वक्ष्यते एषा पदानां तत्तच्छब्देषु व्याख्या। सर्वेव वक्तव्यता 'सामाइय' शब्दे वक्ष्यते।) सव्वविसनिवारणी-स्त्री०(सर्व विषनिवारणी) सर्वप्राणातिपातविरतिप्रभृतिसंपूर्णपापनिवारिण्या विद्यायाम,"सव्वं पाणाइवायं पचक्खाइ अलियवयणं च / सव्वमदिन्नादाणं, अव्वंभपरिगहं स्वाहा / / 1270 ॥"इति तन्मत्रः, आव०४ अ०। (अस्य मन्त्रस्य व्याख्या 'पडिक्कमण' शब्दे पञ्चमभागे 267 पृष्ठे गता।) सव्ववेइ(ण)-पुं०(सर्ववेदिन्) सर्वज्ञ, न०। सव्ववेरामय-त्रि०(सर्ववज्रमय) सर्वात्मना वज्रमये, रा० सव्वस-न०(सर्वस्व) सर्वसारे, षो०२ विव०। नि० चू०। सव्वसंकम-पु०(सर्वसंक्रम) 'चरमट्टिईए रइयं, पइसमयमसंखिए पएसग्गं / तावुभइ अंतपगई, जाव त्ति य सव्वसंकमओ' इत्युक्तलक्षणे संक्रमभेदे, पं०सं०५ द्वार। सव्वसंका-स्त्री०(सर्वशङ्का) सर्वविषये शङ्काभेदे, यथाऽस्ति वा धर्मो नास्ति वा यथा वा सर्वमिदं प्राकृतनिबद्धत्वात्सर्वमिद शास्त्रमसमञ्जसमित्यादि। प्रव०६ द्वार। नि० चूला ('संका' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 35 पृष्ठेऽस्य वर्णनमुक्तम्।) सव्वसंगम-पुं०(सर्वसङ्गम) समस्तस्वजनमेलापके, कल्प०१ अधि० ५क्षण। सव्वसंगातीत-त्रि०(सर्वसङ्गातीत) वीतरागे, औ०। सव्वसंगावगय-त्रि०(सर्वसङ्गापगत) अपगतद्रव्यभावसङ्गे, दश० 10 / सव्वसंजम-पुं०(सर्वसंयम) सर्वात्मना मनोवाकायसंयमने, रा०। "सव्वसंजमतवसुचरियफलनिव्वाणमग्गेणेति''सर्वसयमः सर्वात्मनामनोवाक्कायसंयमनं तस्य सुचरितस्य वा आशंसादिदोषरहितस्य तपसो यत्फलं निर्वाणं तन्मार्गेण / किमुक्तं भवति- सर्वसंयमेन सुचरितेन च तपसा निर्वाणग्रहणमनयोः निर्वाणफलत्वख्यापनार्थम्। रा०। सव्वसंपया-स्त्री०(सर्वसम्पत्) समस्तसम्पद्विधात्र्या देव्याम, यत्तदर्थ तपः क्रियते रूढितो तत् गम्यम्। पञ्चा०१६विव०॥ सव्वसंपयाकरी-स्त्री०(सर्वसम्पत्करी) भिक्षाचर्याभेदे, हा०। यतिानादियुक्तो यो, गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः। सदानारम्भिणस्तस्य, सर्वसम्पत्करीमताशा यतिः-साधुस्तस्य सर्वसम्पत्करी मतेति क्रिया, तदा तस्मिन काजे भिक्षाकाले इत्यर्थः / उपयोग कालोचितप्रशस्तव्यापारं कृत्वाविधाय निर्दोषा गवेषणेषणादिदोषरहिता सर्वसंपत्करीत्यर्थः / हा० 5 अष्ट / ध०। पक्षा। सव्वसंभम-पुं०(सर्वसम्भ्रम) सर्वोत्कृष्ट सम्भने, सर्वोत्कृष्टसम्भ्रमश्व स्वनायकविषयकबहुमानख्यापनपरा स्वनायकसंपादनाय यावच्छ. क्तिप्रत्वरिता त्वरितवृत्तिः / जी०३प्रति० 4 अधि०। रा०। समस्तप्रमोदकृतोत्सुक्ये, भ०८ श०३३ उ०। कल्प। सव्वसत्त-पुं०(सर्वसत्त्व) सर्वप्राणिषु, ध० 3 अधि०। समस्तदेहिषु, पश्चा०६विव०। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वसत्ते० 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वसमिद्धि सव्वसत्तेवंभाववाइ-पुं०(सर्वसत्त्वैवंभाववादिन) नार-तीह कश्चिद भाजन सत्त्व इति वचनात्सर्वजीवानां मोक्षयोग्यतावादिषु, ल०। सव्वसमण्णागयपण्णाण-पुं०(सर्वसमन्वागतप्रज्ञान) सर्वाणि समन्वागतानि प्रज्ञानानि यस्यात्मनः स सर्वसमन्वागतप्रज्ञानः। सर्वावबोधविशेषानुगते सर्वेन्द्रियज्ञानेः पटुभिर्यथावस्थितविषय-ग्राहिभिरविपरीतैरनुगते, आचा० १श्रु०१अ०७उ०। रा०| सव्वसमाहिवत्तियागार-पुं०(सर्वसमाधिप्रत्ययाकार) पौरुषीप्रत्याख्यानापवादे, ध०। कृतपौरुषीप्रत्याख्यानस्य समुत्पन्नतीव्रशूलादिदुःखतया सजातयोरातरौद्रध्यानयोः सर्वथा निरासः सर्वसमाधिरतस्य प्रत्ययः कारणं स एवाकारःप्रत्याख्यानापवादः सर्वसमाधिप्रत्ययाकारः / समाधिनिमित्तमौषधपथ्यादिप्रवृत्तावपूण्ायाभपि पौरुष्यां भुङ्क्ते तदा न भङ्ग इत्यर्थः, वैद्यादि कृतपौरुषीप्रत्याख्यानोऽन्यस्यातुरस्य समाधिनिमित्त यदा अपूण्णायामपि पौरुष्या भुङ्क्ते तदा न भगः, अर्द्धभुक्ते त्वातुरस्य समाधी मरणे चोत्पन्ने सति तथैव भोजनस्य त्यागः सार्द्धपौरुषीप्रत्याख्यान पौरुषीप्रत्याख्यान एवान्तर्भूतम्। ध०२अधिक। पद्या! सव्वसमिद्धि-स्त्री०(सर्वसमृद्धि) परब्रह्मत्वप्राप्ती, अष्ट०। सर्वा-समग्रा समृद्धिः-संपदा सर्वसमृद्धिः। तत्र नामसमृद्धिः उल्लापनरुपा जीवस्याजीवस्य / स्थापनासमृद्धिः शक्तिरूपा / द्रव्यसमृद्धिः धनधान्यादिरूपा। शक्रचक्र्यादीना लौकिका, लोकोत्तरा पुनः मुनिलब्धिसमृद्धिरूपा। "आमोसहिविप्पोसहि, खेलोसहिजल्लमोसही चेव / सं भिन्नमोयउजुमई, सव्वोसहि चेव बोधव्वा / / 1 / / चारणआसी-विसकेवला य मणनाणिणो वपुव्वधरा। अरिहन्ता चक्कधरा, बलदेवा वासुदेवा य॥२॥" इयादिलब्धयः-ऋद्धयः तत्र केवलज्ञानादि-शक्तिलोकोत्तरा भावर्द्धिः, संसम्यक् प्रकारेण ऋद्धिः समृद्धिः सर्वा चासो समृद्धिश्च सर्वसमृद्धिः। अत्र साधनानवच्छिन्नात्मतत्त्वसंपन्मनाना या तादात्म्यानुभवयोग्या समृद्धिः अवसरः नयाश्च प्रस्थकदृष्टान्तभावनथा तत्कारणेषु तद्योग्यषु तदुच्यते, तेषु तपोयोगिषु आद्याः, तद्गुणेषु सापेक्षेषु अन्त्या इति। अत्र प्रथमम आत्मनि समृद्धिपूर्णत्वं भासते तथा कथयतिबाह्यदृष्टिप्रचारेषु, मुद्रितेषु महात्मनः। अन्तरेवावभासन्ते, स्फुटाः सर्वाःसमृद्धयः॥१।। बाह्यदृष्टिप्रचारेषु इति-महात्मनः- स्वरूपपररूपभेदज्ञानपूर्वक - शुद्धात्मानुभवलीनस्य सर्वसमृद्धयः स्फुटा:-प्रकटा: अन्तरेव-आत्मान्त एव-स्वरूपमध्ये एव भासन्ते, यतः स्वरूपानन्दमयोऽहं, निर्मलाऽखण्डसर्वप्रकाशकज्ञानवानहम् इन्द्राद्यद्धय औपचारिकाः अक्षयानन्तपर्यायसंपत्पात्रोऽहम्, इति स्वसत्ताज्ञानोपयुक्तस्य स्वात्मनि भासन्ते / कीदृशेषु सत्सु? वाह्यदृष्टि प्रचारेषुमुद्रितेषु सरसु. बाह्या दृष्टिःविषयसचारामिका तस्याः प्रचाराः-विस्तारामुद्रितेषु राधिोपुन हि इन्द्रियप्रचारचलोपयोगः कर्ममलषटलाचण्ठिताप्यात्मसंपद ज्ञायते इत्यनेन बहिर्गमनमुपयोगस्य न कर्त्तव्यमिति। समाधिनन्दनं धैर्य, दम्भोलिः समता शची। ज्ञानं महाविमानं च, वासवश्रीरियं मुनेः / / 2 / / समाधिरिति-मुनेः-स्वरूपज्ञानानुभवलीनस्य साधोः इयम् - उच्यमाना वासवस्य-इन्द्रस्य श्रीः-लक्ष्मीः; शोभा वर्तते / अत्र मुनेः पवित्ररत्नत्रयीपात्ररूपेन्द्रस्य समाधिः-ध्यानध्याताध्ये यैकत्वेन निर्विकल्पानन्दरूपः समाधिः स एव नन्दन वनं, हरेः नन्दनवनक्रीडा सुखाय उक्ता, साधाः समाधिक्रीडा सुखाय, तत्राप्यौ-पाधिकात्मीयकृतो महान भेदः / स च अध्यात्मभावनाज्ञेयः। अस्य धैर्य वीर्याकम्पता औदयिकभावाक्षुब्धतालक्षणं वजंदम्भोलिः पुनः समता-इष्टानिष्टेषु संयोगेषु अरक्तद्विष्टता सर्वेऽपि पुद्गलाः कर्करचिन्तामण्यादिपरिणताः जीवाश्व भक्ताऽभक्तातया परिणताः ते सर्वे न मम भिन्नाः, एतेषु का रागद्वेषपरिणतिरित्यवलोकनेन समपरिणतिः-समता सा शची स्वधर्मपत्नी ज्ञानस्वपरभाव-यथार्थावबोधरूप विमानसर्वावबाधकर महाविमानम, इत्यादिपरिवृतः मुनिः वज्रीव भासते / उक्तं च योगशास्त्रे'पुंसामय नलभ्य, ज्ञानवतामव्ययं पदं भूतम् / यद्यात्मन्यात्मज्ञान मात्रमेतत्समाधिहितम् / / 1 / / श्रयते सुवर्णभावं, सिद्धिरसस्पर्शतो यथा लोहम् / आत्मध्यानादात्मा, परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति // 2 / / ' विस्तारितक्रियाज्ञान-चमच्छत्री निवारयन। मोहम्लेच्छमहावृष्टिं, चक्रवर्ती न किं मुनिः / / 3 / / विस्तारितेति-मुनिः-समस्तास्रवविरतः द्रव्यभावसंवररतः किं चक्रवर्ती न? अपि तु अस्त्येव / किं भूतः? विस्तारितक्रियाज्ञानचच्छत्रः, क्रिया च ज्ञानं च क्रियाज्ञाने चर्मचछत्रं च चर्मच्छत्रे क्रियाज्ञाने एव चर्मच्छत्रे क्रियाज्ञानचर्मच्छत्रे विस्तारित क्रियाज्ञानचर्मच्छत्रे येन सः, विस्तारित इत्यनेन सत्कियोद्यतःसम्यग्ज्ञानो-पयुक्तः। मोह एव म्लेच्छ: तस्य महती वृष्टिः तां निवारयन् मोहम्लेच्छा उत्तरखण्डाद्यास्तत्प्रयुक्तमिथ्यात्वदैत्यकृता कुवासनावृष्टिः स्वशुद्धसम्यग्दर्शननिवारितकुवासमाचयः मुनिः भावचक्रवतींव भासते। नवब्रह्मसुधाकुण्ड-निष्ठाधिष्ठायको मुनिः। नागलोकेशवदाति, क्षमा रक्षन् प्रयत्नतः // 4|| नवब्रहोति-मुनिः-भेदज्ञानगृहीतात्मध्यानः, नागलोकेशवत्-उरगपतिवत् भाति / किं कुर्वन्? क्षमापृथ्वीक्रोधापहरणपरिणतिः वचनधर्मात्मिका क्षमा ता रक्षन् धारयन् इति / उरगपतेः क्षमाधारकत्वं लोकोपचारतः, नहि रत्नप्रभाद्या भूमयः केनचित् धृता, उपमा तु महत्वज्ञापिका सागर्थ्यज्ञापिका च। पुनः कथंभूतो मुनिः? नवं यद् ब्रह्मज्ञानं तदेव सुधा तस्याः कुण्डः, निष्ठास्थितिः तस्या अधिष्ठायकः, इत्यनेन् तत्त्वज्ञानामृतकुण्डस्थैर्यरक्षक इति। मुनिरध्यात्मकैलाशे, विवेकवृषभस्थितः / शोभते विरतिज्ञप्ति-गङ्गागौरीयुतः शिवः / / 5 / / मुनिरध्यात्म ति-अत्र श्लोक त्रये महादवकणब होप - मानम औपचारिकम् / नहि ते के लाशगङ्ग।सष्टिक रणोद्यता: Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वसमिद्धि 567 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वसिद्ध किंतु लोकोक्तिरषा, तेन श्लेषालंकारार्थ हि वाक्यपद्धतिः, न सत्या। सव्यसरीरगय-त्रि०(सर्वशरीरगत) सर्वदेहव्यापके, दर्श०४ तत्त्व। मुनिः-तत्त्वज्ञानी अध्यात्मम्-आत्मस्वरूपैकत्वं तद्रूपे कैलाशे आस्थाने, सव्वसव्वण्णुसंमय-त्रि०(सर्वसर्वज्ञसंमत) सर्वेषां सर्वज्ञान सम्मतम्विवेकः-स्वपरविवेचनं स एव वृषभ:-बलीवर्दः, तत्र स्थितः, विरतिः- इष्ट सर्वसर्वज्ञसम्मतम, सर्वच तत् सर्तज्ञसम्मतं च सर्व-सर्वज्ञसम्मतम। चारित्रफलास्रवनिवृत्तिः, ज्ञप्तिः-ज्ञानकला शुद्धोपयोगता एव प्रवचनतत्वे, स० गङ्गागौरी,ताभ्यां युतः शिवः-निरुपद्रवः, उपचारात्-शिवः-रुद्रो भासते, सव्वसह-त्रि०(सर्वसह) परिषहोपसर्गसहिष्णौ, आचा० २श्रु०४ चू०। रुद्रस्य गङ्गायुतत्वं विद्याधरत्वे पार्वतीमनोरञ्जनाय विक्रियाकाले सवसावज्जविरय-त्रि०(सर्वसावधविरत) सर्वसपापयोगनिवृत्ते, वाच्यम्। पं०सू० १सूत्र। ज्ञानदर्शनचन्द्रार्क-नेत्रस्य नरकच्छिदः। सवसाहणणाबंध-पुं०(सर्व संहननाबन्ध) सर्वेण सर्वस्य वा सुखसागरमनस्य, किं न्यूनं योगिनो हरेः॥६॥ क्षीरनीरादीनामिव बन्ध, भ० ८२०६उ०। ज्ञानदर्शनेति-योगिनः-रत्नत्रयपरिणतस्य हरेः-कृष्णात् किं न्यून? न सव्वसाहु-पुं० पस(सा)(श्रव्य)(व्य)साधुब स्थविरकल्पिकिमपि / किंभूतस्य योगिनः?-ज्ञानदर्शनचन्द्रार्क नेत्रस्य, ज्ञानं - कादिभेदभिन्नेषु मोक्षसाधकेषु मुनिघु, ध०२अधिका सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषावबोधः, सामान्यविशेषात्मके नमो लोए सव्वसाहूणं। वस्तुनि सामान्यावबोधः दर्शनं, ते एव चन्द्राों नेत्रे यस्य स तस्य। हरेः 'साहूण' ति-साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिमाक्षमिति साधवः समता चन्द्रार्कनेत्रत्वं तुलोकोक्तिरेव / पुनः किंभूतस्य योगिनः?-नरकच्छिदः- वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुक्तिन्यायात्साधवः, यदाह-'निव्याणनरकगतिनिवारकस्य हरस्तुनरकाभिधानशत्रुविदारकस्य, सुखसागर- साहए। जोए, जम्हा साहेति साहुणो / समा य सव्वभूएसु, तम्हा ते मनस्यकृष्णार्थे इन्द्रियजसुखलीलासमुद्रमग्नत्वं, योगिनः सुख सम्यग- भावसाहुणो / / 1 // सहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधव ज्ञानदर्शनचारित्रसमाधिनिष्पन्नं तस्य सागरः तत्र मग्नस्य, आध्यात्मि- निरुक्तरेव, सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रभत्तादयः पुलाकादयो कसुखपरिणामभाजनस्य साधोः केन सह न्यूनता?न केनापि इति। जिनकल्पिक प्रतिमाकल्पिकयथालकन्दकल्पिकपरिहारविशुद्धिया सृष्टिब्रह्मणो बाह्या, बाह्यापेक्षावलम्बिनी। कल्पिकस्थविरकल्पिकस्थितकल्पिकस्थितास्थितकल्पिककल्पाती तभदाः प्रत्येकबुद्धस्वयंबुद्धवृद्धबोधितभेदाः भारतादिभेदाः सुखमदुःखमुनेः परानपेक्षान्त-र्गुणसृष्टिस्ततोऽधिका / / 7 / / तादिविशषिताः वा साधवः सर्वसाधवः। सर्वग्रहणं च सर्वेषा गुणवतामया सृष्टिब्रह्मण इति-या सृष्टिः-रचना ब्रह्मणो विधातुः सा बाह्या विशेषनमनीयताप्रतिपादनार्थम्, इद चाहहादिपदेष्वपि बोद्धव्यं न्यायस्थ लोकोक्तिरूपा असत्या, पुनः बाह्यावा अपेक्षा तस्या अवलम्बिका, मुनेः समानत्वादिति। अथवा-सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हितासास्तेिचते साधवश्व, स्वरूपसाधनसिद्धिमानस्य अन्तः-मध्ये आत्मनि व्यापकरूपा, गुणानां सार्वस्य वाऽर्हता न तुबुद्धादेः साधवः सार्वसाधवः, सर्वान् वा शुभयोगान् सृष्टिः-रचना गुणप्रागभावप्रधृत्तिपरिणतिरूपा, बाह्यभावतः अधिका। साधयन्ति-कुर्वन्ति सान्विाऽर्हतः साधयन्ति तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति कथभूता गुणसृष्टेिः? परानपेक्षा, परेषाम् अनपेक्षा अपेक्षारहिता पराश्रया प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयनिराकराणादिति सर्वसाधवः सार्वसाधवो वा। लम्बनविमुक्त' स्वरूपावलम्बनपरा गुणरचना सा सर्वतोऽधिका इति। अथवा- श्रव्येपु श्रवणाहेषु वाक्येषु। अथवा-सव्यानिदक्षिणान्यनुकूलानि रत्नस्विभिः पवित्रा या, स्रोतोभिरिव जाह्नवी। यानि कार्याणि तेपु साधवो निपुणाः श्रव्यसाधवः सव्यसाधवो वाऽतसिद्धयोगस्य साऽप्यह-त्पदवी नदवीयसी॥८|| स्तेभ्यः "नमो लोए सव्वसाहूणमिति' वचित्पाठः तत्र सर्वशब्दस्य रत्नरित्रभिरिति-सिद्धयोगस्याष्टाङ्गयोगसाधनसिद्धस्य साधोः, साऽपि देशसर्वतायामपि दर्शनादपरिशेषसर्वतोपदर्शनार्थभुच्यते, लोके-मनुष्यअर्हत्पदवी ज्ञग्नाद्यनन्तचतुष्टयत्मिकाष्टप्रातिहार्यान्विता जगद्धर्मोप- लोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नम इति / एषा च नमनीयता कारिणी न दयोयसी, न दूरा इत्यर्थः / किंभूता पदवी? त्रिभिः रत्नैः मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात् / आह च-"असहाएँ सहायत्तं, सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रः पवित्रा / का इव? स्रोतोभिः-प्रवाह: जाह्नवी- करेंति मे संजम करेंतस्स। एएण कारणेणं, नमामिहंसव्वसाहूणं / / 1 / / '' गङ्गा इव, इलि त्रैलोक्याइतपरमार्थदायकत्वाद्यतिशयोपेता अर्हत्पदवी इति। भ०१श० १उ०। दशा० साधकपुरुषस्य यथार्थमार्गा पतस्य न दवीयसी, आसन्ना एव इति / एवं सव्वसाहुवंदण-न०(सर्वसाधुवन्दन) समस्तसाधुवन्दने. पर्युषणायां सर्वमपि औपाधिकं अपहाय स्वीयरत्नत्रये साधना विधेया, येन सर्वा सर्वसाधुवन्दनं कर्तव्यम्। कल्प०१ अधि०१क्षण। ऋद्धयो निष्पद्यन्ते। अष्ट० २०अष्ट। सव्वसिणेह-पुं०(सर्वस्नेह) मात्रादिसम्बन्धहेतौ स्नेहे, औ०। सव्वसमुदय-पुं०(सर्वसमुदय) स्वस्वाभियोग्यादिसमस्तपरिवारे, | सव्वसिद्ध-पुं०(सर्वसिद्ध) सर्वे च ते सिद्धाश्च, सर्व वा सिद्ध साध्यं येषां ते जी०३ प्रति०४ अधि०। रा०ा पौरादिमीलने, भ०६ श० ३३उ०। सर्वसिद्धाः। तीर्थङ्करसिद्धादिभेदभिन्नेषु सिद्धेषु, आव०५अ०। आ०५०। महाजनमेलके, कल्प० १अधि०५क्षण। विपा०। लवादश जाधला आचालन सू०प्र० Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वसिद्धा 568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सव्वाव(वंति)त्ति सव्वसिद्धा-स्त्री०(सर्वसिद्धा) पञ्चम्यां दशम्यां च रात्रितिथौ, ज्यो० लोकाऽऽकाशे, विशे०। नं०॥ ४पाहु० / चं०प्र०। सव्वागासपएसग्ग-न०(सर्वाकाशप्रदेशाग्र) सर्वाकाशस्यलोकालोका.. सव्वसिरी-स्त्री०(सर्वश्री) वीरतीर्थे अपश्चिमश्राविकायाम, "दुप्पसहो काशस्य प्रदेशाः- निर्विभागा भागाः सर्वाकाशप्रदेशाः तेषामग्रंपरिमाणं सूरी, फरगुसिरी अज्जा, नाइलो सावओ, सव्वसिरी साविया, एस सर्वाकाशप्रदेशाग्रम्। सर्वाकाशप्रदेशैरनन्तशो गुणिते, न०। अपच्छिमो सको।" ती० 20 कल्प। ति०। सव्वागाससे ढि-स्त्री०(सर्वाकाशश्रेणि) सर्वाकाशस्य बुझ्या चतुरससव्वसुइ-त्रि० (सर्वशुचि) सर्वतःशुचौ, (पवित्रे सर्वशुचिः श्रावकः प्रतरीकृतस्य प्रदेशपक्तौ, भ०१२श० १उ०। (आ०क० 4 अ०1) 'सुइ' शब्दे उदाहरिष्यते।) सव्वाणुभूइ-स्त्री०(सर्वानुभूति) भारते वर्षे भविष्यति पञ्चमे तीर्थकरे, सव्वसुण्णया-रत्री०(सर्वशून्यता) सर्वेषां भावानामभावे, सा च बौद्धानां ति०। 'पढमो दढाउजीवो सव्वाणुभूई" ती०२०कल्पा प्रव०। गोशालेन समता / अनुग भस्मसात्कृते श्रीवीरजिनशिये, स्था० 10 ठा० 330. ('गोसालग' सव्वसुविण-पुं०(सर्वस्वप्न) समस्तस्वप्नमहास्वप्नोभयेषु. शब्दे तृतीयभागे 1024 पृष्ठे वक्तव्यता गता।) कइणं भंते ! सव्वसुविणा पण्णत्ता, गोयमा ! वावत्तरि सव्वाणुलोमया-स्त्री०(सर्वानुलोमता) गुरोः सर्वेषूपदेशेषु अप्रतिकूलसव्वसुविणा पण्णत्ता। (सू०-५७८४) तायाम्, व्य०१3०। ('विणय' शब्दे षष्ठभागे 1152 पृष्टगता वक्तव्यता।) द्वाचत्वारिंशत्स्वप्नाः, त्रिंशन्महास्वप्नाः, सम्मिलिता द्वास पतिः सव्वाणु वत्तय-पुं०(सर्वानुवर्त्तक) सर्वाननुवर्तयतीति सर्वानुवर्तकः। सर्वस्वप्नाः। भ०१६ श०६उ० कल्पा सर्वमनोऽनुवृत्तिकर्त्तरि, ध०२अधि। सव्वसुहप्पभव-पुं०(सर्वसुखप्रभव) सर्वस्य सुखस्योत्पादकारणं, व्य० सव्वातिहि-पुं०(सातिथि) साधौ, अनु०। 10 उ०। सव्वादर-पुं०(सर्वादर) समस्तयावच्छक्तितोलने, रा० / जी०। सव्वसूयग-पुं०(सर्वसूचक) सूचकानुसूचकादिकथितस्य स्वय- सर्वाचितकृत्यकरणे, विपा० १श्रु०६० मुपलब्धस्य च अमात्यकथके सामन्तराजपुरुषे,व्य०१3०। सव्वादि-पुं०(सर्वादि) समस्तवस्तुस्तोममूले. नि०चू०११ उ०। सव्वसुहुम-त्रि०(सर्वसूक्ष्म) सर्वथा सूक्ष्मे, भ० 1620370 / * सद्वादिन-पुं० सन शोभनो वादी सद्वादी। आत्मास्तित्ववादिनि, सव्वसुहुमतर-त्रि०(सर्वसूक्ष्मतर) सर्वेषां मध्ये अतिशयेन सूक्ष्मे, नि०यू०११ उ०1 स्वार्थिककप्रत्यये सूक्ष्मतरकोऽप्यत्र / भ०१६ श०३उ०। सव्वाबाहारहिय-त्रि०(सर्वाबाधारहित) शारीरमानसाबाधामुक्ते, षो० सव्वसेट्ठ-त्रि०(सर्वश्रेष्ठ) सर्वप्रधाने, सूत्र० १श्रु०६अ। 15 विवा सव्वसेय-त्रि०(सर्वश्वेत) सर्वात्मना श्वेते, रा०। सवामगंध-पुं०(सर्वामगन्ध) आमं च गन्धश्च आमगन्धं समाहारद्वन्द्वः सव्वसो-अव्य०(सर्वशस्) सर्वैः प्रकारैरित्यर्थे, उत्त०६अ०नि००। सर्व च तदामगन्धं च सर्वामगन्धम् / कारर्नेनापरिशुद्धे, पूतिदोषण दुष्टे आचा०सूत्र। च / " सव्वामगधं परिणाय णिरामगंधे परिवएज्जा।" आचा० १श्रु० सव्वसोक्ख-त्रि०(सर्वसौख्य) आनन्दे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। २अ०५उ०। ('आमगंध' शब्दे द्वितीयभागे 286 पृष्ठे व्याख्या गता।) सव्वसोक्खा-स्त्री०(सर्वसौख्या) समस्तसौख्यदायां स्वनामख्या- 1 सव्वामरपूइय-त्रि०(सर्वाभरपूजित) सकलदेवमहिते, ध०२अधिक। तायां देव्याम्, यस्याः समस्तगृहिसौख्यविवृद्ध्यर्थं तपः क्रियते तच्च सव्वाय-पुं०(सद्वाद) सन्-शोभनो वादः सद्वादः / परेः सह शोभने दिगम्यम् / पञ्चा०१६ विवा वादे, "काऊण पोतणम्मि सव्वायं णिवुत्तो भगवं" बृ० 6 उ०। सव्वस्स-न०(सर्वस्व) समस्तद्रव्ये, स्था०३ ठा० 130 // सव्वस्सहरणं सवारक्खिय-पुं०(सर्वारक्षिक) सर्वाः प्रकृतयो रक्षति यः स पायं / नि० चू० 1301 सर्वारक्षिकः / राज्ञः कुम्भकारादीनां प्रकृतीनां रक्षके, नि०चू० ४उ०। सव्वहा-अव्य०(सर्वथा) सर्वैः प्रकारैरित्यर्थे, पक्षा०६विव०ा द्वा०।। सव्वा(वंति)वत्ति-स्त्री०(सर्वापत्ति) सर्वेणातपेनापत्तिापत्तिर्यस्य जिला प्रश्रका सव्वहि' इत्यपि भवति। सर्वथा। सर्वस्मिन्निति वा तदर्थः / क्षेत्रस्य सा सर्वापत्तिः / सर्वातपव्याप्ते, सर्वापत्तिं स्पृशन् किं क्षेत्र क०प्र०२ प्रका स्पृशति / भ० सव्वहाकयकिच-पुं०(सर्वथाकृतकृत्य) सर्वथा सर्वैः प्रकारैः कृतं कृत्यं से नूणं भंते ! सव्वंति सव्वावंति फुसमाणकालसमयंयेन स तथा। निष्ठितार्थे / पं०सू०२ सूत्र। सि जावतियं खेत्तं फु सइ तावतियं फु समाणे पुढे त्ति सव्वागास-पुं०(सर्वाकाश) सर्व च तदाकाशं च सर्वाकाशम। लोकाऽ- | वत्तव्वं सिया? हंता गोयमा ! सव्वति०जाव वत्तव्वं सिया / तं Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वाव(वंति)त्ति 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 ससंधिय भंते ! किं पुढे फुसइ अपुढे फुसइ?, जाव नियमा छद्दिसिं। इन्द्रियाणि च स्पर्शानादीनि तैरभिनिर्वृत्तः। संवृतेन्द्रिये, जितेन्द्रिये च। (सू०५०x) सूत्र०१श्रु० १०अ०॥ 'से णूण' मित्यादि 'सव्वंति' ति-प्राकृतत्वात्, सर्वतः-सर्वासु दिक्षु। | सविड्डि - स्त्री०(सर्वद्धि) समस्तच्छत्रादिराजचिह्नरूपायामाभर'सव्वावंति' त्ति-प्राकृत्वादेव सर्वात्मना सर्वेण वाऽऽतपेनापत्तिः-व्याप्ति- णादिसंबन्धिन्यां वा कान्ता, कल्प०५ अधि०५ क्षण। भ०। रा०। औ०। र्यस्य क्षेत्रस्य तत्सर्वापत्तिः / अथवा-सर्व क्षेत्रम्, इतिशब्दो विषयभूत | सव्विया-स्त्री०(सर्विका) सर्वा स्वार्थेऽकच्। सर्वाशब्दार्थ, विशे०। क्षेत्र सर्व न तु समस्तमेवेत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः तथा सर्वेणाऽऽत- | सव्वुक्कड-पुं०(सर्वोत्कट) प्रकृष्टदण्डराज्यस्तेनदेशादिके सर्वोत्तमे, पेनापोव्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सपिम्, इतिशब्द: सामान्यतः सर्वेणातपेन स्था०५ठा०३उ०। व्याप्तिनं तु प्रतिप्रदेशं सर्वेणत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः / अथवा-सह सव्वुक्किट्ठ-त्रि०(सर्वोत्कृष्ट) स्वभावेन सुन्दरे, दश०७अ०। व्यापेन-आतपव्याप्त्या यत्तत्सव्यापम्, इतिशब्दस्तु तथैव 'फुसमाण- सव्वुत्तमट्ठाण-न०(सर्वोत्तमस्थान) परमपदे, पं०व०१ द्वार। कालसमयं ति-स्पृश्यमानक्षणे। अथवा-स्पृशतः-सूर्यस्य स्पर्शनायाः सव्वुत्तमपुण्णणिम्माण-न०(सर्वोत्तमपुण्यनिर्माण) निर्मीयतेऽनेनेति कालसमयः स्पृशत्कालसमयस्तत्र आतपेनेति गम्यते, यावत्क्षेत्रं स्पृशति निर्माणम् / सर्वोत्तम पुण्यनिर्माणमस्येति / सर्वोत्तमपुण्यनिर्मित, षो० सर्य इति प्रकृत तावत्क्षेत्र स्पृश्यमानं स्पृष्टमिति वक्तव्यं स्यादितिप्रश्नः, 15 विव० हन्तेत्याद्युत्तरम, स्पृश्यमानस्पृष्टयोश्चैकत्वं प्रथमसूत्रादवगन्तव्यमिति। सव्वुत्तमपुण्णसंजुत्त-त्रि०(सर्वोत्तमपुण्यसंयुक्त) अत्यन्तप्रभ०१श०६उन कृष्टतीर्थकरनामादिलक्षणशुभकर्मसंयुक्ते, पञ्चा०७ विव०। सव्वावत्था-स्त्री०(सर्वावस्था) सरागवीतरागादिसमस्तपर्यायेषु, पञ्चा० सव्वेय-त्रि०(सर्वेजस्) सर्वतश्चले, भ० 25 श०४ उ०) १६विव० सव्वेसणा-स्त्री०(सर्वेषणा) सर्वाहाराादगमोत्पादनग्राोषणा-याम, सव्वाऽवरोह-पुं०(सर्वाऽवरोध) सर्वान्तःपुरे, औला कल्प आचा० 1 श्रु०६ अ०२ उ०। सव्वासि(ण)-पुं०(सर्वाशिन) सर्वमश्नाति इत्येवंशीलः सर्वाशी। / सवो उय-न०( सर्वतुक) कुसुमसंछन्ने, विपा० १श्रु०१ अ०। पहुभक्षय, व्य०१ उदा ''सव्वोउयसुरभिकुसुमपरिवरियसिरया' सर्वनुकसुरभिकुसुमैर्वृता सव्वाहिवइ-पुं०(सर्वाधिपति) स्वदेशेऽन्यत्र वा सर्वत्र प्रभवति।सार्वभौम, वेष्टिता शिरोजा यस्याः सा तथा / भ० 6 श०३उ०। जी०। प्रज्ञा०। स्था० ४ठा० 430 // सव्वोदग-न० (सर्वोदक) सर्वतीर्थनद्याधुदके, जी०३प्रति० ४अधिका सटिवदियकायजोगजुजणया-स्त्री०(सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनता) सर्वतीर्थसम्भवे जले, ज्ञा०१श्रु० 10 सर्वेन्द्रियाणां काययोगस्य च योजनता- प्रयोजनव्यापारणं सर्वेन्द्रिय- सव्वोवयार-पुं०(सर्वोपचार) सर्वेषु प्रकारेषु, षो०६ विव०। काययोगयोजनता / कायविनयभेदे, ग० १अधि०। सव्योसह-न०(सर्वोषध) सर्वस्मिन् विण्मूत्रादिके औषधे, नं०। सविदियगायपल्हायणिज-त्रि०(सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीय) सर्वाणी- सव्वोसहि-पुं०(सौषधि) सर्वे विण्मूत्रकेशनखादयः 'मोव' शब्दः न्द्रियाणि गारंच प्रह्लादयतीति सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयम्। वैशद्यहेतो, पढमानस्थो दृष्टव्वः। उक्ताऽनुक्ताश्च औषधयो यस्य स तथा / ग० जं० वक्ष जीका स्मस्तेन्द्रियशरीरव्यापारकारिणि, कल्प०१अधिक 2 अधिक। सर्वएव विण्मूत्रकेशनखादयोऽवयवाः 'मोव' शब्दः पढ़मानस्थो दृष्टव्वः। सुरभयो व्याध्यपनयनसमर्थत्वादौषधयो यस्यासी सर्वोषधिः / सर्दिवदियजोगजुजणया-स्त्री० (सर्वेन्द्रिययोगयोजनता) सर्वेषामि- अथवा-सर्वा आमोषध्यादिका औषधयो यस्यैकस्यापि साधोः स न्द्रियाणा योगा व्यापाराः सर्वे वा ये इन्द्रिययोगास्तेषां योजनता करणं तथा। ऋद्धिविशेषशालिनि, विशे०। आ०म०। प्रव०। आ००। सर्वेन्द्रिययोगयोजनता / कायविनयभेदे, स्था०७टा० ३उ०। सर्वेषामि- सस-पुं०(शश) शशनं शशः। घजिप्रत्यये तथारूपम्। चं० प्र०२०पाहु०। न्द्रियाणा प्रयोगे, भ० 3540 १उ०। सू०प्र०। आटव्ये चतुष्पदजातिविशेषे, प्रश्न० २आश्र०) द्वार। रा०ाज्ञा० सविदियणिव्वत्ति-स्त्री०(सर्वेन्द्रियनिर्वृत्ति) सर्वेषामिन्द्रियाणां / ससंक-पुं०(शशाङ्क) चन्द्रे, बृ० १३०३प्रक०। निष्पत्ती, भ०१६श० उ० ('णिव्वत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 2120 पृष्ठे | ससंकिय-त्रि०(सशङ्कित) शङ्कन शङ्कितं सह शङ्कित यस्य येन वा स वक्तव्यता गता।) तथा। किं ब्रजानि कि वा नत्येवंरूपशङ्कोपेते, व्य० २उ० सटिवदियसमाहिय-त्रि०(सर्वेन्द्रियसमाहित) शब्दादिभिरनाक्षिप्ते, | ससंधिय-त्रि०(ससंधित) उपहते सीविते, कृतथिग्गले वस्त्रे, आ०म० दश०५अ०१उ० शब्देषु रागद्वेषावगच्छति, दश० अ०। १अग सर्दिवदियामिणिच्वुड-पुं०(सवेन्द्रियाभिनिवृत) सर्वाणि च तानि | १...'मोव' शब्दः पढमानस्थो दृष्टव्यः। ३क्षण। Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससंभमोवत्तिया 600 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 ससि ससरक्खपाणिपाय-पुं०(ससरजस्कपाणिपाद) सचेतनादिरलोगुण्ठिपादे, दशा० 110 / आव-।"ससरक्खपाणिपाओ भवइ / ससरक्खपाणिपाए सह सरक्खेण ससरक्खे अथंडिल्ला थंडिल्लं संकमंतो ण पमजइ थलिल्लाओ वि अथंडिल्लं कण्हभोमादिसु विभासा / ससरक्खपाणिपाए ससरक्खेहिं हत्थेहि भिक्खं गेण्हइ 1 अहवा- अणंतरहियाए पुढवीए निसीयणाइ करेंतो ससरक्खपाणिपादो भवति'। आव०४ अ०। ससरक्खमोस-पुं०(ससरजस्कामर्ष) अप्रमृज्य रजोयुक्तस्य स्पर्शन, आव० 4 अ०। (व्याख्याऽस्य 'आमोस' शब्दे द्वितीय-भागे 262 पृष्ठे गता।) ससरीरि (ण)-पुं०(सशरीरिन्) सह यथासम्भवं पञ्चविधशरीरेण ये ते। इन् समासान्तविधेः सशरीरिणः। संसारिषु, स्था०२ठा० 4 उ०। म०। ससलोमय-न०(शशलोमज) शशलोम्नो जाते सूत्रे, स्था० ४ठा० 3 उ०। ससल्ल-त्रि०(सशल्य) शल्यसहिते, 'अहो भयवं सव्वलक्खणसम्पन्नो किं तु ससल्लो पलोयतेण दिट्ठो कण्णेसु तेण वाणिएण भन्नइ' / आ०म० १अग ससंभमोवत्तिया-स्त्री०(ससम्भ्रमोपवर्तिका) ससंभ्रमं व्याकुलचित्ततया प्रवर्त्ततया पवर्त्तयति क्षिपति या सा तथा। सत्त्वरकार्यकारिण्यां चेट्याम्, भ०६श० ३३उ०। ससक्कसारा-रत्री०(सशक्रसारा) रतिकरपवतानां मध्यगस्य वैश्रवण प्रभस्य पर्वतस्य उपरि दक्षिणदिग्वर्त्तिन्या राजधान्याम्, द्वी०। ससग-पुं०(शशक) खरगोश इति ख्याते आटव्यपशी, प्रज्ञा०१ पद। अस्मिन् भरतार्द्ध वनवासिन्यां नगर्या जितशत्रोः राज्ञः पुत्रे सुकुमालिकाभातरि, बृ०४० नि०चूला ससण-पुं०(श्वसन) श्वसिति प्राणित्यनेनेति / श्वसनः / धायौ, नं०।। निश्वासे, न०। नाशिकायाम, स्त्री०। औ०। ससणिद्ध-त्रि०(सस्निग्ध) शीतोदकादिस्तिमिते, आचा० २श्रु०१चू० १अ०६ उ०। बिन्दुरहिते आर्द्र हस्तादौ, औ०। ईसिं उल्ला ससणिद्धा। नि०यू०१३ उ०। ससत्ति-स्त्री०(स्वशक्ति) स्वसामध्ये, ध० २अधि०। पञ्चा०। ससबिन्दु-पुं०(शशबिन्दु) वल्लीवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १पद। ससमय-पुं०(स्वसमय) अर्हन्मतानुसारिशास्त्रात्मके ( उत्त० 101) सिद्धान्ते, सम्म०२काण्ड / अनुग ससमयकुसल-पुं०(स्वसमयकुशल) स्वसिद्धान्तनिपुणे, प्रभ०५संव० / द्वार। ससमय(ण्णु)ण्ण-पुं०(स्वसमयज्ञ) स्वसमयं जानातीति स्वसनयज्ञः / गीतार्थे , तादृशेनैव भिक्षायां प्रवेष्टव्य गोचरप्रदेशादौ पृष्टः सन् सुखेनैव भिक्षादोषानाचष्ट। आचा० १श्रु०२१०५ उ०। ससमयपण्णवग-पु०(ससमयप्रज्ञापक) जैनसिद्धान्तप्रज्ञापके, पं०५० ४द्वार। (अत्रत्या वक्तव्यता 'वक्खाण' शब्दे षष्टभागे गता।) ससमयपरसमइय-पुं०(स्वसमयपरसमयिक) स्वसिद्धान्तपर-- सिद्धान्तौ यत्र स्तः स स्वसमयपरसमयिकः। स्वपरसमयनिबद्धे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। राग ससमयपरसमयविय-पुं०(स्वसमयपरसमयवित्) स्वसमयं परसमय बत्ति इति स्वसमयपरसमयवित्। स्वपरशास्त्रज्ञे, स हि परेणाक्षिप्तः सुखेन स्वं पक्ष परपक्षं च निर्वाहयति। आचा० १श्रु० 10 120 ससमयपय-न०(स्वसमयपद)जीवाद्यर्थप्रतिपादके पदे, अनु० ससमयवज-त्रि०(स्वसमयवर्ज) स्वसिद्धान्तशून्ये, दश०३अ०॥ ससय-पुं०(शशक) लोमटकाकृतौ आटव्यजीवे, प्रज्ञा०१० पद। विपा०। सुकुमालिकाभ्रातरि जराकुमारपौत्रे जितशत्रोः स्वनामख्याते पुत्रे, निच्०७ उ०। ससरक्ख-वि०(ससरजस्क) सचित्तरजोयुक्ते, आचा० २२०१चू० / 9.150 6.51 सावसविशेषे, जी०१प्रतिका ससहर-पुं०(शशधर) चन्द्रे, पाइ० ना०। ससा-स्त्री०(स्वस) "स्वस्रादेर्डा" ||3|35|| इति डाप्रत्ययः। प्रा० भगिन्याम, सूत्र० १श्रु०३अ०२उ०। ससागरंता-रत्री०(ससागरान्ता) समुद्रान्तायाम्, प्रश्न० ५आश्र० द्वार / ससागरिय-त्रि०(ससागरिक) सस्त्रीके, आचा०२ ०१चू० अ० ३उ०॥ ससार-त्रि०(ससार) सञ्जातसारे, 'ससाराओ ओसहीओ' इत्यालपेत् / सराराः संजाततन्दुलादिसारा इत्येवमालपेत्। दश०७अ०। ज्ञानदर्शनचारित्रसारवति, ओघ01 ससि (ण)-पुं०(शशिन्) "शषोः सः" ||8||306 // इति शशयांसः। प्रा० / चन्द्रे, आ०म० 110 / प्रश्नकादश। स्था०। ज्ञा०औ०। सम्प्रति चन्दस्य लोके शशीति यदभिधानं प्रसिद्ध तरयान्वर्थतावगमनिमित्तं प्रश्नं करोतिता कहं ते चंदे ससी आहिते ति वदेज्जा? ता चंदस्स णं जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो मियंके विमाणे कंता देवा कंताओ देवीओ। कंताई आसणसयखंभभंडमत्तोवगरणाइं अप्पणा वि णं चंदे देवे जोतिसिंदे जोतिसराया सोमे कंते सुभे पियदसणे सुरूवे ता एवं खलु चंदे ससी चंदे ससी आहितेति वदेजा। (सू० 1054) 'ता कह ते' इत्यादि, ता इति पूर्ववत्, कथं-केन प्रकारण केना-वर्थनेति भावः, चन्द्रः शशीत्याख्यात इतिवदेत? भगवानाह-'ताचंदस्सण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत् / चन्द्रस्य ज्योतिषेन्द्रस्य ज्योतिषराजस्य मृगाङ्के मृगचिह्न Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससि 601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सहजबुद्धिपरिणाम विमाने अधिकरणभूते कान्ताः कमनीयरूपा देवा कान्ता देव्यः कान्तानि ससुर-पुं०(श्वशुर) पत्नीपितरि, पतिपितरि च / अनु० / च आसनशयनस्तम्भभाण्डमात्रोपकरणानि आत्मनाऽपि चन्द्रो देवो ससुरकुलरक्खिया-स्त्री०(श्वशुरकुलरक्षिता) श्वशुरकुले पालितायां ज्योतिषेन्द्रो-ज्योतिषराजः सौम्यः अरौद्राकारः कान्तः-कान्तिभान स्त्रियाम्, औ० सुभगः-सौभाव्ययुक्तत्वात् वल्लभो जनस्य प्रियं-प्रेमकारि दर्शनं यस्य ससोहग्गगुणसमूसिय-त्रि०(ससौभाग्यगुणसमुच्छ्रित) ससौभाग्यं स प्रियदर्शनः शोभनम- अतिशायिरूपम् अङ्ग-प्रत्यगावयवसन्निवेष गुणसमुच्छ्रितं च ससौभाग्यगुणसमुच्छ्रितम् / सौभाग्यगुणयुक्ते, भ० विशेषो यस्य स सुरूपः। 'ता' ततः एवं खलु अनेन कारणेन चन्द्रः शशी 6 श०३३ उ०॥ चन्द्रः शशीत्याख्यात इति वदेत् / किमुक्तं भवति?-सर्वात्मना सस्स-न०(शस्य) खलकवर्तिनिशालिबीह्यादिधान्ये, सूत्र०२ श्रु०२उ०॥ कमनीयत्वलक्षणमन्दर्थमाश्रित्य चन्द्रः शशीति व्यपदिश्यते / कया व्युत्पत्येति, उच्यते- इह 'शश' कान्तावितिधातुरदन्तश्चौरादिकोऽस्ति, बृ०। स्था। चुरादयो हि धातवोऽपरिमिता न तेषा-मियत्ताऽस्ति, केवलं यथालक्ष्य - सस्सवई-स्त्री०(शस्यवती) शस्यं यस्यां भूमौ विद्यते सा शस्यवती। भनुसतव्याः। अत एक चन्द्रगोमी चुरादिगणस्यापरिमिततया परमार्थतो शस्यसंपन्नाया धरित्र्याम नि०चू० 20 उ०। यथालक्ष्यमनुसरणमवगम्ये द्वित्रानेव चुरादिधातून पठितवान् न भूयसः। सस्सामिवायण-न०(स्वस्वामिवाचन) स्वम्- आत्मीय सचित्तादि ततो णिगन्तस्य शशन शश इतिघञ्प्रत्ययेशश इति भवति।शशोऽस्या- स्वामी राजा तयार्वचनम्। स्वस्वामिनोः सम्बन्धप्रतिपादने, 'छट्ठी स्तीति शशी स्वविमानवास्तव्यदेवदेवीशयनासनादिभिः सह कमनीय- सस्सामिवायणे'' अनुश स्था०। कान्तिकलित इति भावः। अन्ये तु व्याचक्षते शशीति सह श्रिया वर्त्तते सस्सिय-पुं०(सास्यिक) सस्येन चरतीति सारियकः / कृषीवले, 70 इति सश्रीः प्राकृतात्वाच्च शशीति रूपम्। चं०प्र०२० पाहु०। सू०प्र०। / ३उन औ०। आ० भ०। स्था०। चान्द्रमासे, नि०चू० 20 उ०। सस्सिरीय-त्रि०(सश्रीक) सह श्रिया वचनार्थशोभया यत्तत्सश्रीकम् / ससिकूड-न० (शशिकूट) जम्बूद्वीपे दक्षिणरुचकवरपर्वलस्य पश्चमे कूटे, स्था० 8 ठा० 3 उ०। शोभायुक्ते, भ०६ श०३३ उ०। औ०। ज्ञा०। स्थाल ठा०३ उ०। जी०। कल्पना अनुप्रासाद्यलक्षारोपेतरचात्सशोभे, जं०२ वक्ष०ा अन्तः। ससिणिद्ध-त्रि०(सस्निग्ध) सह स्निग्धेन वर्त्तत इति सस्निग्धः। / सस्सिरीयरूवग-त्रि० (सश्रीकरूपक) सश्रीकाणि रूपकणियत्र तानि स्निग्धता चेह बिन्दुरहिता नतु रोहितोदक्रमेण सम्मिश्रिता। दश०४ अ०। सश्रीकरुपकाणि / जी०३ प्रति०३ अधि०। सशोभरूपकेषु, भ०६० अगलदुदकबिन्दुके, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०७ उ०। 33 उ०। ससित्थ-त्रि०(ससिक्थ) भक्तपुलकोपेते, पञ्चा०५ विव०॥ सह-अव्य०(सह) सार्द्ध शब्दार्थे, षो०८ विव०उत्तका आचा०। आव०/ ससिभूसण-पुं०(शशिभूषण) प्रभासतीर्थ श्रीचन्द्रप्रभप्रतिमाथाम. रथाला जी०। युगपच्छब्दार्थे, सवा सम्बन्धेन सहशब्दः सम्बन्धवाची। 'प्रभास शशिभूषणः श्रीचन्द्रप्रभश्चन्द्रकान्तिमणिमयः। ती० 43 कल्प। आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०॥ त्रि०। सर्वप्रकारैः समर्थे जीत०। सूत्र०। ससिया-स्त्री० (शशिका) शशस्त्रियाम, प्रश्न०१ संव० द्वार। ओ०। युगलिकमनुष्यजातिभेदे, भ०६ श०७ उ०। जला ससिराय-पु०(शशिराज) स्वनामख्याते राजनि, यो हि मनोवाकार्यः सहआसित-न०(सहासित) स्त्रीभिः सहकासने निषदने, नि०यू० 1 उ०) खेद कृत्वा नरकं गतः। नं०। चन्द्रे, औ०। सहकर-पुं०(सहकर) संघाते, रा० ससिरिय-त्रि०(सश्रीक) सशोभे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० जी० ज०। रा०| सू०प्र० / सः। सहकार-पुं०(सहकार) चूते, कल्प० 1 अधि० 3 क्षण। ससिसयल-F०(शशिशकल) चन्द्रखण्डे, औ०। त० जी०। सहकारि(ण)-पुं०(सहकारिन्) कारणसहायके, सम्म०२ काण्ड / ससिसोमाकार-त्रि०(शशिसौम्याकार) शशिवत् सौम्याकार, भ०११ आवन श०११ उ० झा०। शशिवदरौद्राकारे, 'ससिसोमाकारकतप्पिय' सहज-त्रि० (सहज) स्वाभाविके, द्वा० शशीवत् सौम्य आकारः कान्तं-कमनीय प्रियं-प्रेमावहं च दर्शन च सहजप्पमलत्त-न०(सहजाल्पमलत्त्व) सहज-स्वाभाविक यदल्पयेषांत तथा। त। मलत्वं तदिति। गाढतरमिथ्यात्वे, द्वा० 12 द्वा०। ससिह-पुं०(नशिख) केशानां धारके, व्य०४उ०। अमुण्डितशिरस्के, सहजबुद्धिपरिणाम-पुं०(सहजबुद्धिपरिणाम) स्वभावसम्पन्नेऽकुव्य०१उ०। पिं० समयश्रवणसंपन्ने मतिस्वभावे, सवा सहजात्- स्वभावसम्पन्नान्न ससुइय-पुं० ( स श्रुतिक) हेयो पादेयपरिहारप्रवृत्तिज्ञे, आचा० / कुसमय श्रवणसम्पन्नाद् बुद्धिपरिणामान्मतिस्वभावात संशयो जातो येषा 1 श्रु०५अ03 उ०। ते सहजबुद्धिपरिणामसंशयिताः सन्देहजाताश्च सहजबुद्धिपरिणामससुय-त्रि०( नसुत) पुत्रसहिते, उत्त०१४ अ०। संशायताश्च य ते तथा। तेषां श्रमणानामिति प्रक्रमः / स०१३७ सम०। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहजभाव 602 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सहस्सकमल सहजभाव-पुं०(सहजभाव) स्वभावे, द्रव्या० 12 अध्या०। परोपदेशनिरपेक्षायां जातिस्मरणप्रतिभादिरूपायां मातै, प्रज्ञा० १पद। सहण-न०(सहन) भयाभावान्मर्षणे, ज्ञा० १श्रु०१ अ० 'सह समइयाए' आचा०१ श्रु०१ अ०१ उ०॥ सहत्थ-पुं०(स्वहस्त) स्वकीये करे, स्था०२ ठा० 10 // सहसंमइ-पुं०(सहसंमति) आकस्मिकक्रियायाम, भ० 25 श०८ उ०। सहत्थपाणाइवायकि रिया-स्त्री०(स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया) अविमृश्य कारित्वे. 'पुवि अपासिऊणं' छूढे पायम्मिजं पुणो पासे। नय स्वहस्तेन स्वप्रमाणान्निर्वेदादिना परप्राणान् वा क्रोधादिना निपात-- तरइ निअत्तेउं, पायं सहसाकरणमेयं / / 1 / / इति तल्लक्षणात् / ध० यतः स्वहस्तप्राणातिपातक्रिया। स्वहस्तेन प्राणिघातक्रियायाम, स्था० 2 अधि० / व्य०। स्था०। (सहसाकारप्रतिसेवनावक्तव्यता 'मूलगुणठा० 10 // पडिसेवणा' शब्दे षष्ठे भागे पञ्चसु समितेषु सामितिषु भाविता! सहत्थपारियावणिया-स्त्री०(स्वहस्तापरितापनिकी) स्वहस्ते न (सहसानाभोगादिषु प्रायश्चित्तम् पडिक्कमणारिह शब्दे पञ्चमभागे 320 स्वस्य परस्य तदुभयस्य वा परितापना दशा वोदीरणाद्या क्रिया पृष्ठे उक्तम्।) परितापनाकारणमेव वा सा स्वहस्तपारितापनिकी। भ०। स्वहस्तेन सहसक्कारपडिसेवणा-स्त्री०(सहसाकारप्रतिसेवना) प्रतिसेवनाभेदे, स्वदेहस्य परदेहस्य वा परितापनं कुर्वतः स्वहस्तपारितापनिकी / नि०० 1 उ०। (सहसाकारप्रतिसेवनावक्तव्यता मूलगुणपडिसेवणा पारितापनिक्याः क्रियाया भेदे, भ०३ श०३ उ०। स्था०। आ०चू०। 'शब्दे षष्ठे भागे गता।) सहदेव-पुं०(सहदेव) माद्रयां जाते पाण्डुपुत्रे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०1 सहसब्भक्खाण-न०(सहसाभ्याख्यान) सहसाऽनालोच्य अभ्यासहदेवी-स्त्री०(सहदेवी) औषधिभेदे, ती०६ कल्प / अवसर्पिण्यां ख्यानम् / असद्दोषाध्यारोपणं चौरोऽयमित्याद्यभिधानं सहसाभ्याजातस्य चतुर्थचक्रिणः सनत्कुमारस्य मातरि, स। आव०। ख्यानम् / घ०२ अधि० आव०। ध०र०। अविमृश्य क्लङ्कनरूपे सहभुत्त-न०(सहभुक्त) स्त्रीभिः सहेकभाजने भुक्ते, नि०चू० १उ० मृषावादविरतेर्द्वितीयेऽतिचारे, ध०२ अधि० / उपा०। पश्चा०। सहमाण-त्रि०(सहमान) गरुके. अनतिपातिनि च। सहमाणेस य कमेण | सहसा-अव्य०(सहसा) अकरमादर्थे, ज्ञा०१ 09 अ० ग० प्रव०। कायव्वं' / व्य० 10 स्था०। अनुपयोगे, व्य०१उ०। पूर्वापरमपर्यालोच्येत्त्यर्थे, व्य० १उ०। सहम्म-पुं०(सधर्म) समानधर्मशीलतायाम, व्य०५ उ०। सहसाकलंकण-न०(सहसाकलङ्कन) सहसाऽनालोच्य कलङ्कनं सहय-त्रि०(सहज) स्वभावराम्पन्ने, स०। उत्पत्त्या सहैव जाते, आचा० कलङ्करय करणम् / सहसाऽभ्याख्याने असदोषस्यारोपणे, प्रव०६ द्वार। 1 श्रु०२ अ०३ उ०। ज्ञा सहसागर-पुं०(सहसाकार) सहसा करणं सहसाकारः / अतिप्रवृत्तसहयर-j०(सहचर) सहाये, स्था० 4 ठा०३ उ०। स्त्रियाम् सहचरी। योगानिवर्त्तने, पं०व० २द्वार। अकस्मात्करणे, स्था० 10 ठा०३उ० ना०१ 06 अन आव० श्रा०। 'आलुंपसहसाकारे विणिवट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो सहरिय-त्रि०(सहारत: सह हरितैर्वर्तत इति सहरितम् / दूर्वाप्रवाला-- आचा० 1 श्रु०३ अ०१ उ०। (एकद्वव्यता 'लोगविजय शब्दे षष्ठभागे दिसहित, दशा०२ अ आचा गत।) सहरिस-त्रि०(सहप) सप्रमोदे, पञ्चा०६ विव०। सहसासव-न०(सहसाशव) स्वनामख्याते उज्जयच्छलोपरिशंदे. सहवासिय-त्रि०(सहवासिक) एकगृहवासिनि, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / 'सहसासवं ति तित्थं करं-जरुक्छेण मणहरं सम्म। तत्थ य नुरयायारा, सहसंऽबवण-न०(सहसानधन) समस्तचूतवृक्षसमुदाये, मथुराया नगर्या पाहाणा तेसि दो भाया' // 1 // ती०३ कल्प। बहिः सहस्राऽऽम्रवनमुद्यानम, शा०२ श्रु० 16 अ०। नागपुरस्य बहिः सहसुद्दाह-पुं०(सहसोद्दाह) सहसा-अकस्माद्दाहः प्रकृष्टोद्दाहः सहस्रामवनमुद्यानम् / ज्ञा०२ 05 वर्ग 16 अ०। 'काम्पिल्यपुरे सहसोद्दाहः / सहस्राणां वा लोकस्योद्दाहः सहसोद्दाहः। अकस्मादुत्पन्ने सहसंऽबवणे उज्जाणे' उपा०५ अ०। पालासपुरंणाम नगरं सहसंऽबवणं बहुलोकोद्दाहे. स्था० १०ठा०३ उ०) उजाणं' उपा०७ अ०। अन्ता वोरजिनवर्जाः सर्वे तीर्थकराः सहस्रामवने सहस्स-न०(सहरा) दशशतसंख्यायाम, तत्संख्येयेषु च / अनु०। उद्याने निष्क्रान्ताः। आ०म०१ अ०। आ०चूला नि०चू०। प्रज्ञा०ा जलाप्राचुर्ये , स्था० 8 ठा०३ उ०। कल्प०। सहस्रात्पर सहसंबुद्ध-पुं०(सहसंबुद्ध) सह आत्मनैव सार्द्धमनन्योपदेशत इत्यर्थः, यावदनन्तसंख्यायाम, आ०म०१ अ०॥ सम्यक्-यथावद् बुद्धः / हेयोपादेयापेक्षणीयवस्तुतत्वविदितवादिनि | सहस्संतरिय-त्रि०(सहसान्तरित) सहस्रेण कृतान्तरे,सूत्र० 1 श्रु० जिने, भ०१ श०१ उ०। 1 अ०३ उम सहसंमइ-रत्री०(सहसंमति सहा-सा या सगता मतिः सा सहरांमतिः। | सहस्सकमल-पुं०(सहस्रकमल) विमलगिरी, ती०१ कल्प। Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्सक्ख 603 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सहाव सहस्सक्ख-पुं०(सहस्राक्ष) सहस्रमक्ष्णां यस्यासौ सहस्राक्षः। शके, इन्द्रे, | अ०। परलोकसाधनद्वितीये, दश०२ 0 / इन्द्रस्य हि किल मन्त्रिणा पक्ष शतानि सन्ति तदीयाना / सहायकिच-न०(सहायकृत्य) मित्रादिकृते सहायकर्मणि, ज्ञा०१ श्रु० चाक्षणामिन्द्रप्रयोजन व्यावृत्ततया इन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात् 15 अ० . सहस्राक्षत्वमिन्द्रस्य प्रज्ञा०२ पद। आ० म०। कल्प० भ० / उपा०। सहायग-पु०(सहायक) परस्परेण साहाय्यकारिणि, भ०१० श०४ उ०। सहस्सजोहि-पुं०(सहत्रयो धिन्) मल्लानां सहस्रेण सहकाकिन्येव सहायपचक्खाण-न०(सहायप्रत्याख्यान) साहाय्यकारिणां परिहार, युद्धकारके, आव०४ अ०। उत्त०२६ अ० सहस्सपत्त-न(सहस्रपत्र) सहस्रदलकलितेमहापद्म, ज०१ वक्ष०। रा०। तत्फलम्कल्पका आ०मा जी०। प्रज्ञा०। औ०। शत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प। सहायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ? सहायपचक्खाणेणं सहस्सपाग-न०(सहस्रपाक) सहस्रं कृत्वोऽपरापरौषधीरसेन सह शतेन एगीभाव जणयइ। एगीभावभूएयणं जीवं ए गत्तं भावेमाणे अप्पसद्दे वा कापिणानां पक्के तैलघृतादौ, औ०। उपा०। अप्पझंझे अप्पकलहे अप्पकसाए अप्पतुमंतुमे संजमबहुले संवरबहुले सहस्सफणि (ण)-पुं०(सहस्रफणिन्) त्रैकारपर्वते फणसहस्र कलिते समाहिए यावि भवइ॥३॥ पार्श्वनाथे, तो०४३ कल्प। सहायाः-साहाय्यकारिणः सनाटकस्य साधवस्तेषां प्रत्याख्यानं सहस्सरस्सि-पुं०(सहस्ररश्मि) यद्यपि सहस्रशब्दो दशशतसङ्ख्याया वर्तते साहाय्यप्रत्याख्यानं तेन साहाय्यप्रत्याख्यानेन हे भगवान् ! जीवः किं तथापीहानन्तसंख्यायां वर्तते। आ०म०१ अ०। सहसं रश्मयो यस्य फलं जनयति / गुरुराह- हे शिष्य ! साहाय्यप्रत्याख्यानेन एकीभावं 5: / सूर्य, अनु०। ज्ञा०रा० जनयति एकीभावभूतश्चैकत्वं प्राप्तो जीवः एकाग्रं भावयन एकावलम्बनत्वं सहस्सहुत्त-अव्य०(सहस्रकृल्वस्) "कृत्वसो हुत्तं" / / 2 / 158|| इति चाभ्यरयन् अल्पशब्दः अल्पजल्पको भवति / अल्पझज्झो भवतिवारार्थस्य कृत्वसुच प्रत्ययस्य स्थान हुत्तादेशः / सहसवारे, प्रा० 2 अविद्यमानझज्झोऽविद्यमानवाक्कलहो भवति पुनरल्पकषायो भवति, पाद। अल्पकलेहोऽविद्यामानरोषशूचकवचनो भवति, तथा- अल्पतुमंतुमो सहस्साउल-त्रि०(सहसाकुल) सहस्रेषु मन्मथभावेन परिभ्रममाएं, तक भवति- अविद्यमान तुमन्तुमम् इति त्वं त्वम इति वाक्यं यस्य स सहस्साणीय-पुं०(सहरसानीक) रवनामख्याते कौशाम्बीनगरीराजे, अल्पतुमंतुमः, त्वम् एव एतत्कार्य कृतवान् त्वम् एव सदा अकृत्यकारो विशे०। वरी से इत्यादि प्रलपन न करोति / पुनः साहा–रयप्रत्याख्यानेन सहस्सार-पुं०(सहस्रार) सहस्रमुखे, आ०चू०६ अ० स्थानशब्दो- संयमबहुलो भवति संयमः सप्तदशविधः स बहुलः प्रचुरो यस्य स क्तसमस्तक्क्तव्यताके अष्टमदेवलोके, स्था०१० ठा०३ उगा तदिन्द्रे सम्बरबहुलस्तादृशो भवति / स च पुनः समाधिबहुलो भवति च: विशे०। प्रज्ञा। उत्तराहाणां सहस्रारकलास्येन्द्रे, स्था०२ ठा०३ समाधिश्चित्तस्वास्थ्यं तेन बहुलः समाधिबहुलः समाधिप्रधानो भवति / उ० अनु०। औ० पुनः समाहितश्चापि भवति ज्ञानदर्शनवांश्च भवतीत्यर्थः / उत्त० 26 अ० सहस्सारवळि सय-न०(सहस्रारावतंसक) अष्टमदेवलोक स्थे सहाव-पुं०(स्वभाव) स्वो भावः / आत्मीये भावे, न० सूत्र०। नि०चू० स्वनामख्याते विमाने, स०१८ सम० धम्मो त्ति सहावो त्ति एगट्टा / नि०चू०२० उ०ा यो० बिं०। अनु० धर्मे, सहस्सिक-पुं०(साहसिक) सहसा-अवितर्का भाषणे ये वर्तन्ते ते स्था० 6 ठा०३ उ०। आव०। विशे०। स्वकीयोत्पत्तौ, सूत्र० 1 श्रु० साहसिकाः। अविमृश्य कारिषु, प्रश्र०२ आश्र० द्वार। 1 अ०३ उ०। उत्पादव्ययध्रौव्यपरिणामे, विशे० अनेक निसर्ग, स्था० सहा-स्त्री०(सभा) "ख-घ-थ-ध-भामा" ||1187|| इति भस्य। २ठा०१उ०ा पं०वा सूत्र०ा सहभावे धर्मे, द्रव्या०११ अध्या० स्था०। हः / प्रा० ग्रामजनसमवायस्थाने, व्य०१ उ०। (अस्य वर्णक: द्रव्याणां प्रकृती , द्रव्या० 12 अध्या०। 'वत्थू वसइ सहावे, सत्ताओ 'लवणसमुह' शब्दे षष्ठभागे गतः।) वयण व्व जीवम्मिान विलक्खणम्मि तणओ, भिन्ने छायातवे चेव / / 1 / / * सखा-(सखिन्) सुविभक्तिः / वालक्यस्ये, स्था०३ ठा०४ उ०। स्था०३ ठा०२ उ०। (स्वभावादेव जगत् इति 'किरियावाई' शब्द समानभोजनपाने गाढतमस्नेहे, जी०३ प्रति०४ अधि०। सखिशब्दो तृतीयभागे 555 पृष्ठे दर्शितम्। यो०बि०। नान्तः सुविभक्तौ सखेति रूपम्। ततः खस्य हत्ये। "टा-ङस् अत्रैव परमतमाशक्य परिहरन्नाहडेरदादिदेवा तु ङसेः" / / 8 / 3 / 26 / / इतिस्त्रियां वर्तमानानाम्नः परेषा स्वभाववादापत्तिश्चे-दत्र को दोष उच्यताम्। टाडसडीनां स्थाने प्रत्येकम् अत् आत् इत् एत् इत्येते चत्वार आदेशा तदन्यवादाभावश्चे-न तदन्यानपोहनात्।।७।। भवन्ति / सही। सहीआ। सहीइ। सहीए। प्रा० 3 पाद। स्वभाववादापत्तिः... ''कः" कण्टकानां प्रकरोति तेक्ष्ण्य, विचित्रभाव * स्वधा-अव्य०। पितृभ्यां दाने, प्रति०। मृगपक्षिणा च / स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं, न कामचारोऽस्ति कुतः सहाय-त्रि०ा सहाय, शिष्य, उत्त०३२ अ०। सहचारिणि, ज्ञा०१ श्रु० / प्रयत्नः // 1 // Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहाव 604 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सहाववाई एवंलक्षणो यः स्वभाववादस्तस्यापत्तिः प्रसङ्ग स्तत्स्वभावात्कार्यात्पत्त्यभ्युपगमे चेद्यदि ब्रूषे आचार्य ! अवस्वभाववादापत्तौ को दोष? उच्यताम्-भण्यताम् / तदन्यवादाभावः- कालादिशेषकारणापलापः चेत- यदि ब्रूषे आचार्य ! न-नैव, तत्-परोक्तम् / कुत इत्याहतदन्यानपोहनात्-तस्मात्तत्स्वाभाव्याद्येऽन्ये कालादयस्तेषामनपोहनाद- अनिराकरणात, तेषामपि कारणत्वेनाभ्युपगमात। एतदेव भावयन्नाहकालादिसचिवश्वाय-मिष्ट एव महात्मभिः। सर्वत्र व्यापकत्वेन, न च युक्त्या न युज्यते / / 76|| कालादिसचिवश्व-कालादिसहायः पुनः अयम्-स्वभाव इष्ट एवसंमत | एव महात्मभिः-सिद्धसेनमल्लवादिप्रभृतिभिरस्मत्स्वयूथ्यः। / कथमित्याह-सर्वत्र कार्ये व्यापकत्वेन कास्न्यवृत्त्यो सम्मतिप्रभृतिशास्त्रेषु न चेष्टमात्रमेवेद कि तु युक्तियुक्तमपीत्याह- नवनैव युक्त्याउपपत्त्या न युज्यते किन्तु पुज्यत एव। तथाहितथात्मपरिणामात्तु, कर्मबन्धस्ततोपि च / तथा दुःखादि कालेन, तत्स्वभावादृते कथम् // 8 // तथात्मपरिणामात्तु-- तत्प्रकारात्मपरिणतेरेव कर्मवन्धः कर्मोपादानं संपद्यते ततोऽपि ध-कर्मबन्धाच तथा दुःखादि-तत्प्रकारसुखदुः खलक्षणं कार्यमुज्जृम्भते। कालेनग्रीष्मवर्षादिरूपेण तत्स्वभावा-दृते-तत्स्वभाव विना कथम्- केन प्रकारेण? नैवेत्यर्थः। तत्स्वाभाव्ये तुसतिरवपरिणामादेवोपात्तकर्मतथाविधकालबलेन सुखदुःखभागात्मा भवतीति। एवं च तत्स्वाभाव्याधीने सति सर्वस्मिन् कार्येवृथाकालादिवादश्चे-न्नतीजस्य भावतः। अकिंचित्करमेतच्चे-न्न स्वभावोपयोगतः / / 1 / / वृथा-विफलः कालादिवादस्तत्स्वाभाव्यविलक्षणकारणाभ्युपगमः चेद्-यदि ब्रूषे.न-नव एतद्यदुक्त परेण / कुत इत्याह- तद्रीजस्यकालादिबीजस्य तच्छक्तिरूपस्य भावतः सत्त्वात् तत्स्वाभाव्याधीनतायामपि कार्याणाम् अकिंचित्करम्- कार्याकारि / एतत्कार्यादि-- बीजं चेत्- यधुच्यते परेण न--नैद / एतत्कुत इत्याह- स्वभावोपयोगतः- स्वभावे सर्वभावाना कार्येषु स्वत एव प्रवर्त्तमाने उपयोगतः कालादिबीजाना सहकारित्वन व्यापारान्मृद इव घटपरिणता वक्रचीवरादीनामति। एतदेव भावयतिसामग्यः कार्यहेतुत्वं, तदन्याभावतोऽपि हि। तदभावादिति ज्ञेयं, कालादीनां नियोगतः // 12 सामाया:- समग्रसयोगलक्षणायाः कार्थहेतुत्व सामान्येन घटादिसाध्यनिमित्तत्वम् / तदन्याभावतोऽपि हि तस्य परिणामिकारणस्य यान्यन्यानि सहकारिकारणानि तेषामभावतोऽभावात् कि पुनः परिणामिहेतोरभाव इत्यपि हि शब्दार्थ / तदभावात्-कार्याभावात् इतिअस्मात्कारणात् ज्ञेयम्-अवगन्तव्यम्. प्रस्तुतमपि कार्य कालादीनां सहकारिणां नियोगतो-व्यापारात् तत्स्वाभाव्ये सत्यपि न पुनरन्यथेति / प्रस्तुतमेवाश्रित्याहएतचान्यत्र महता, प्रपञ्चेन निरूपितम्। नेह प्रतन्यतेऽत्यन्तं, लेश्तस्तूक्तमेव हि // 83|| एतच्च-एतत्पुनः सामग्या:--कालादिकायाःकार्यहेतुत्वम् / अन्यत्रशास्त्रवार्तादिसमुचयादिषु महता-वृहता प्रपञ्चेन निरूपित-चर्चित यतः ततो न नैवेह शास्त्र प्रतन्यते-विस्तार्यते अत्यन्तमतीवालेशतस्तुसंक्षेपेण पुनरुक्तमेव हि-दर्शितमेव हि / यो० बिं०। सहावफुल-त्रि०(स्वभावफुल्ल) स्वभावसिद्धे विकसिते, दश०१ अ०। सहाववाइ-पुं०(स्वभाववादिन्) अस्त स्वभावः करणत्वेनाशषस्य जगतः स्वभावः, स्वभाव इति कृत्वा; तेन हि जीवााजीवभव्यत्वमूर्त-त्वादीनां स्वरूपानुविधानात् इत्येवं स्वभावकारणिकवादिषु. सूत्र०१ श्रु०११ अ०१ स्था०। (पुण्यपापे अनभ्युपगच्छतः स्वभाववादिना मतं 'तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण)' शब्दे 4 भागे 2172 पृष्ठे विस्तरतो गतम्।) इह सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते, तथाहि- मृदः कुम्भो भवति न पटादिः, तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न कुम्भादिः, एतच्च प्रतिनियतभवन न तथा स्वभावतामन्तरेण घटाकोटीसण्टङ्कमाटीकते, तस्मात् सकलमिदं स्वभावकृतमवसेयम्। अपिच-आस्तामन्यत् कार्यजातम् इह मुद्रपक्लिरपि न स्वभावमन्तरेण भवितुमर्हति, तथाहि-स्थालीधनकालादिसामग्रीसम्भवेऽपि न काङ्कटुकमुगाना पक्तिरुपलभ्यते, तस्माद्-- यद यद्भावे भवति यदभावे च न भवति तत्तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायि तत्कृतमिति स्वभावकृता मुगपक्तिरप्येष्टध्या / ततः सकलमेवेद वस्तुजातं स्वभावहेतुकमवसेयमिति। नं०। यदाहुः स्वभाववादिनःइह सर्वे भावाः स्वभाववशादुपजायन्ते इति, तदपि प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम्, उक्तरूपाणां प्रायस्तत्रापि समानत्वात्. तथाहि- स्वभावों भावरूपो वा स्यादभावरूपोवा? भावरूपोऽप्येकरूपोऽनेकरूपो वेत्यादि सर्व तदवस्थमेवात्रापि दूषणजालमुपढौकते / अपि च यः स्वो भावः स्वभावः, आत्मीयो भाव इत्यर्थः, स च कार्यगतोवा हेतु-भवेत् कारणगतो वा? न तावत्कार्यगतो, यतः कार्ये परिनिष्पन्ने सति स कार्यगतः स्वभावो भविष्यति, नानिष्पन्ने, निष्पन्ने च कार्ये कथं स तस्य हेतुः? यो हि यस्यालब्धलाभसम्पादनाय प्रभवतिस तस्य हेतुः कार्य चपरिनिष्पन्नतया लब्धात्मलाभम्, अन्यथा तस्यैव स्वभावस्याभाव-प्रसङ्गात्. ततः कथं स कार्यस्य हेतुर्भवति? कारणगतस्तु स्वभावः कार्यस्य हेतुरस्माकमपि सम्भतः, स च प्रतिकारणं विभिन्नस्तेन मृदः कुम्भो भवति न पादिः, मृदः पटादिकरणस्वभावाभावात् तन्तुभ्योऽपि पट एव भवति नघटादिः, तन्तूनां घटादिकरण स्वभावाभावात्। ततो यदुच्यते-- 'मृगः कुम्भ भव-- १--'कान' शब्दोद्रष्टव्यः। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहाववाई 605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साइजणा ति न पटादि' रित्यादि तत्सर्वं कारणगतस्वभावाभ्युपगमे सिद्ध- अ०३उ० साध्यतामष्ययासीनमिति न नो बाधामादधाति / यदपि चोक्तम्- | सहोढ-त्रि०(सहोढ) सदृशे, नि०चू० 15 उ०। समोष, ज्ञा०१ श्रु० 'आस्तामन्यत्कार्यजात मित्यादिः तदपि कारणगतस्वभावाङ्गीका- 2 अ०। बृ०॥ रेण समीचीनमेवावसेयम् / तथाहि- तेकाङ्कटकमुगाः स्वकारणवश- | सहोयर-पुं०(सहोदर) समातृके भ्रातरि, जी०३ प्रति०४ अधि०। अन्त०। तस्तथारूपा एव जाता ये स्थालीन्धनकालादेसामग्रीसम्पर्कऽपि न आ०म० पाकमश्नुवते इति / स्वभावश्च कारणादभिन्न इति सर्वं सकारणमवेति सहोयरी-स्त्री०(सहोदरी) समातृकायां भगिन्याम्, जी०३ प्रति० स्थितम् / उक्तं च- "कारणगओ उ हेऊ केण व निट्टो त्ति नियय ४अधिका कजस्स? न यसो तओ विभिन्नो,सकारण सव्वमेव तओ'' ||१||नं०। सा-पुं०(श्रा) श्राति-पचति तत्त्वार्थश्रद्धानं निष्ठा नयतीतिश्राः। श्राद्धिनि, सूत्र०। ('णियई' शब्देऽपि चतुर्थभागे 2085 पृष्ठे वक्तव्यता।) "श्रद्धालुता श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम् / ' सहावसुह-न०(स्वभावसुख) सहजात्यन्तिकैकान्तानन्दे, अष्ट० स्था०४ ठा०४ उ०। 2 अष्ट * स्वा-स्त्री०। स्वकीयायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०| सहावहीण-न०(स्वभावहीन) वस्तुनः प्रत्यक्षादिप्रसिद्ध स्वभाव * वन्-पुं०। कुरकुरे,श्वनशब्दस्य सा साणौ इति प्रयोगो भवतः, प्रा० / मतिरिच्यान्यथावचने, यथा शीतोऽग्रिमूर्तिमदाकाशमित्यादि। आ०म० साअड्ड-धा०(कृष) विलेखने, "कृषेः कड-साअड्वाश्चाणच्छायञ्छा--- अ०। विशे० इञ्छाः / / 8 / 4 / 187 / / इति कृषः साअड्डाऽऽदेशः / साअड्वइ / कर्षति। सहावावेयगामि(ण)-त्रि०(स्वाभावाद्वैतगामिन्) स्वभावस्य यत् प्रा०४ पाद। अद्वैतमेकत्वं स्वभावाद्वैतम् / तत्र गमनशीले, अष्ट० 17 अष्ट०। साअर-पुं०(सागर) समुद्रे, साअरो व्य खीरोओ। प्रा०। सहिण-त्रि०(श्लक्ष्ण) सूक्ष्मे, नि०चू०७ उ०। आचा०। मसृणे, नि०चू० साइ-पुं०(साति) सातिशयेन द्रव्येण परस्य हीनगुणस्य द्रव्यस्य संयोगे, 20 उ०। सूत्र० २श्रु० 2 अ०भ०। सहिणकल्लाण-न०(श्लक्ष्णकल्याण) श्लक्ष्णानि--सूक्ष्माणि च तानि * सादि-न०। आदिरिहोत्सेधाख्यनाभेरधस्तनो देहभागो गृह्यते। वर्णच्छव्यादिभिश्व कल्याणानि शोभनानि वा सूक्ष्मकल्याणानि / सूक्ष्म सहादिना नाभेरधस्तनकायलक्षणेन वर्तते इति सादि / अनु०॥ शोभने च वस्त्र, आचा०२श्रु०१ चू०५ अ०१ उ०। उत्सेधबहुले संस्थानभेदे, नं०। स्था०। यद्धि नाभितोऽधश्चतुरससहिणहु-पुं०(सहिष्णु) सोढुं समर्थे , नि०चू०४ उ०। आवा लक्षणयुक्तमुपरि च तदनुरूपं न भवति। भ०१४ श०७ उ०। इह यद्यपि सहिय-त्रि०(सहित) मिलिते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। समन्विते, सर्वशरीरमादिना सह वर्त्तते तथाऽपि सादित्वविशेषणान्यथाऽनुपपत्त्या आचा०१ श्रु०५ अ०४ उ०। ज्ञा०। आचा०ा युक्ते, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। विशिष्ट एव प्रमाणलक्षणोपपन्न आदिरिह लभ्यते, तत उक्तम्-उत्सेधस्था० भ०। सह हितेन वर्त्तत इति सहितः। परमार्थभूतैर्हितः (सूत्र० बहुलमिति / इदमुक्तं भवति- यत्सस्थानं नाभेरधः प्रमाणोपपत्रमुपरि १श्रु०१६ अ०1) ज्ञानादिभिः समन्विते, सूत्र०२ श्रु०१अ आचा। च हीनं तत्सादीति। जी०१ प्रति०। पं०सं० आ०चूला इन्द्रियचतुष्टयोपेते. प्रश्न० 1 आश्र० द्वार। आचा०, त्रयोदशे * साचि-न०। अपरे तु साचीति पठन्ति, तत्र साचीति प्रवचनवेदिनः महाग्रहे, स्था०। चं०प्र०ा कल्प०। सू०प्र०ा जंगा सूत्रा शाल्मलीतरुमाचक्षते, ततः साचीव यत्संस्थानम्, यथा शाल्मलीतरोः दो सहिया, स्था०२ठा०३ उ०। स्कन्धकाण्डमतिपुष्टमुपरि च न तदनुरूपा महाविशालता तद्वदस्यापि * स्वहित-त्रि०। स्वस्मै हितः स्वहितः / परमार्थानुष्ठानविधायिनि, संस्थानस्याधोभागः परिपूर्णो भवति उपरितनभागस्तु हीन इति। जी० सूत्र०१श्रु०४ अ०१ उ०। आत्महिते, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२उ०। 1 प्रति पं०सं० सहियव्व-त्रि०(सोढव्य) मर्षणीये, आचा०१ श्रु०२अ०६उ०। * स्वाति-पुं०। वायुदेवताके (जी०१ प्रति०ी) नक्षत्रभेदे, स्था०२ ठा० सहिबाय-पुं०(सखिवाद) सखेत्येवंवादे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। 3 उ०ा हारीतगोत्र बलिसहशिष्ये श्यामार्यगुरौ, "हारियगोत्तं साइंच सहिहेउ-पुं०(सखिहेतु) मित्रनिमित्ते, स०३० सम०। वंदामो" बलिसहस्यापि शिष्यं हारीतगोत्रं स्वातिनामानं वन्दे / तं०। सहु-त्रि०(सह) समर्थे, नि०चू०१ उ०। हैमवतनामकर्मभूमिवृत्तवैताढ्य पर्वतस्य श्रद्धावतीनाम्रोऽधिष्टायके देवे, सहेउ-त्रि०(सहेतु) सह हेतुनाऽन्वयव्यतिरेकरूपेण वर्तत इति सहेतुः। | स्था०३ ठा०१ उ० सूत्र०२ श्रु०१ अ०सकारणे,नि०यू०२० उ०। साइजोग-पुं०(सातियोग) अविश्रम्भसम्बन्धे सातिशयेन वा द्रव्येण सहेउ-अव्य०(सहित्वा) समर्थो भूत्वेत्यर्थे, दश०३ अ० निरतिशयस्य योगे तत्प्रतिरूपकरणे, भ०१२ श०५ उ०॥ * सोढुम् -अव्य० समर्थो भवितुमित्यर्थे , 'सक्का सहेउ' दश०६ | साइजणा-रत्री० (स्वादना) सेवायाम, स्था० 3 ठा० 3 उ० / Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साइजणा 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागपाग अभिव्यञ्जने, प्रतिबन्धविधाने, विशे०। अभ्युपगमे, आचा०२ श्रु० अपरस्य द्रव्यस्य सप्रयोगः। रा०। सहातिशयेन संप्रयोगो-योगः / यदिवा१ चू० अ०३उ०कर्मबन्धारवादने, सातिज्जणा दुविहा--अणुमोयणे, सातिशयेन द्रव्येण कस्तूरिकादिनाऽपरस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिकारावण, य। नि०चू० १उ०। सम्प्रयोगः / दशा०६अ। ज्ञा० लोकवञ्चनार्थे द्रव्यान्तरसंयोगे, 'सोहोइ साइज्जत्तए-अव्य०(स्वादयितुम्) भोक्तुमित्यर्थे , औ०। साइजोगो, दव्वं जं बुहियअण्णदव्वेसु / दोसगुणा वयणेसु य, अत्थसइज्जमाण-त्रि०(स्वादमान) अनुमनने व्य० 1 उ०। विसंवायणं कुणइ // 1 // रा० दशा०। साइसपज्जवसिय-त्रि०(सादिपर्यवसित) सहादिना वर्तत इति सादि। सइज्जिया-स्त्री० |स्वादि(साइजि)ता] साइज धातुरास्वादने, ततः उपभुज्यमानो यस्तत्सम्बन्धिन्या प्रमार्जनायाम्, 'साइजिया पमज्जण' तथा पर्यवसानं पर्यवसित भाव क्तः प्रत्ययः / सह पर्यवसितेन वतन्त इति सपर्यवसितम्। न० आद्यन्तसहिते श्रुतभेदे, नं०। त्ति। कल्प०३ अधि० 6 क्षण। साइसुय-न०(सादिश्रुत) पर्यायास्तिकनयमते सादिसहिते श्रुतभेदे, साइणी-स्त्री०(शाकिनी) व्यन्तरीभेदे, प्रतिका सूत्र। विशा साइदत्त-पुं०(स्वातिदत्त) चम्पावास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राहाणे, आ० साउ-त्रि०(स्वादु) रसनासुखदे, उत्त०३२ अ०। म०१ अ०। आ०चूक ('वीर' शब्दे षष्ठभागे स्वातिदत्तब्राहाणवक्तव्यता साउणिय-पुं०(शाकुनिक) शकुनैश्चरति शाकुनिकः। प्रतिला शकुनान् गता।) हन्तीति शाकुनिकः / शकुनिबधोपजीविनि, अनु०। प्रभा स्था०। साइपुत्त-पुं०(स्वातिपुत्र) शौद्धोदनि ध्वजीकृत्त्यासन्मार्गप्रकाशके साउफल-त्रि०(स्वादुफल) स्वादूनि फलानि येषां ते स्वादुफलाः रा०। आचार्य , आचा० 1 श्रु०२ अ०५ उ०। मिष्टफलेषु, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ० जी०। साइबंध-पुं०(सादिबन्ध) यः पूर्वं व्यवच्छिन्नः पश्चात्पुनरपि भवति सः साउय-त्रि०(स्वादुक) स्वादुभोजनवति, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। अनु०। सादिबन्धः। कर्मबन्धभेदे, कर्म०५ कर्मा * सायुष्-पुं०। सहायुषा वर्तन्त इति सायुषः। संसारिजीवेषु, स्था० साइबहुल-त्रि०(सातिबहु) सातिशयेन द्रव्येण परस्य हीनगुणस्य २ठा०१उ०॥ द्रव्यसंयोगः सातिस्तबहुलः। तत्करणप्रचुरे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०) साएय-पुं०(साकेत) अयोध्यायाम, स्था० 10 ठा० 3 उ०। 'कोसलारसु साइबुद्ध-पुं०(सातिबुद्ध) भरतवर्षे उत्सर्पिण्या भविष्यति चतुर्विश साकेयं नाम नगरं' / प्रज्ञा०१ पद / आ०का आ०म०। साकेत नगर तीर्थकरे, सा कोशलाजनपदः / प्रव०॥ 275 द्वार। आ०म० / सूत्र०। ('अउज्झा' शब्दे साइम-त्रि०(स्वादिम) स्वद आस्वादन इत्यरय च स्वाद्यते इति प्रथमभागे 34 पृष्ठ कल्प उक्तः / ) स्वादिमम् / आव० 6 अ०। स्वदनं स्वादस्तेन निर्वृत्त तथैवेदमिति साक्खिण्-पुं०(साक्षिन्) गौणादित्वाद्रूपनिष्पत्तिः ! प्रा० / अनुभवस्वादिमम् / एलाफलकर्पूरलवङ्गपूगीफलहरीतकीनागरादिके आहा कारिणि, पाइ० ना० रभेदे, प्रव०४ द्वार। पिं०। स्था०। आचा०। आ०चू०। पञ्चा०। (स्वा साग-पुं०(शाक) पूर्वदेशप्रसिद्ध पक्ववस्तुलादिके, सूत्र०१ श्रु० 4402 दिगस्वरूप पच्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागे 105 पृष्टे गतम्।) उ०। रथा०। नि०चूला सू०प्र०ा शाकस्तक्र सिद्ध इति / म०७ 20 साइय-न०(सादिक) सहाऽऽदिना वर्तत इति सादिकम। आदिना सहिते, 10301 उत्त०४ अ० सादिको लोक इति प्रपञ्चना / तथा चाहुः-''आसीदिद सागडायण-पुं०(शाकटायन) शकटर्षिगोत्रापत्ये, नं०। कल्पका ('आग' तमोभूत-मप्रज्ञातमलक्षणम् / अप्रतर्यमविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्वतः शब्दे द्वितीयभागे 53 पृष्ठे विस्तरो गतः।) // 1 // ' तस्मिन्नेकार्णवीभूते, नष्टे स्थावरजङ्गमे / इत्यादि / आचा० सागडि-पुं०(शाकटि) शकटनन्दने स्थूलभद्रे, बृ० 130 3 प्रक०। 1 श्रु०८ अ०१ उ०। सागडिय-पुं०(शाकटिक) शकटानां गन्त्रीविशेषाणां समूह, भ० 15 श०। साइरेग-त्रि०(सातिरेक) साधिके, स्था० 6 ठा० 3 उ०। शकटेश्वरति शाकटिकः। शकटवहनोपजीविनि, आ०५०६अ०। साइसंठाण-न०(सादिसंस्थान) राह आदिना नागेरधस्तनभाग-रूपण गन्त्रीवाहके, उत०५ अ०। स्था०| यथोवतप्रमाणयुक्तेन वर्मत इति सादि। सर्वमपि हि शरीर रादि, ततः / सागणिउवस्सय-पुं०(साग्निकोपाश्रय) अग्निसहिते उपाश्रय, आचा० राादित्वविशेषणान्यथानुपपत्तेरादिरिह विशिष्टो ज्ञातव्यः। तच संस्थान 2 श्रु०१ चू०२ अ० 1 उन चेति / संस्थानभेदे, यन्नाभेरधो यथोवतप्रमाणयुक्तमुपरि च हीन | सागपत्त-न०(शाकपत्र) वृक्षविशेषपत्रे, प्रभ०१ आश्र० द्वार तत्सादिसंस्थानम्। कर्म०१ कर्म! पं०सं०! सागपाग-पुं०(शाकपाक) मूलादिशाकपचने, 'सुफणिं च सागपागाएँ, साइसंपओय-पुं०(सातिसंप्रयोग) सातिशयेन द्रव्येणकरसारिकादिना | आगलगाईदगाहरणं।" सूत्र०१श्रु०१ अ०१ उ०। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागमापेक्ख 607 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागार सागमापेक्ख-त्रि०(स्वागमापेक्ष) स्वागमानुकारिणि, ध०१ अधिक। सागरवट-पुं०(सागरवड) मत्स्यविशेषे, जी०१ प्रति०। सागय-न०(स्वागत) शोभनमागमने, भ०२ श०१ उ०। आ० म०1 सागरवर-पुं०(सागरवर) स्वयम्भूरमणे, आव०२अ०। आ० चू०। सागरवरमंभीर-पुं०(सागरवरगम्भीर) सागरवरः-स्वयम्भूरमणासागर-पुं०(सागर) समुद्र, तंग औ०ा प्रश्ना दर्शाद्वी अन्तला ओपन ख्यसमुद्रः परीषहोपसर्गाद्यक्षोभ्यत्वात्तस्मादपि गम्भीरः / परीषहा आव०। 'एग च ण मह सागरम्मि वीईसहस्सकलिय। स्था० 10 ठा० यक्षोभ्ये सागरवद्गम्भीरे, 'सागरवरगम्भीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु।' 3 उ०। अन्धकवृष्णेर्धारण्यां जाते पुत्रे, अन्त०। स्था०। (स च ध०२ अधिक दशन अरिष्टनेमेरन्तिके प्रवृज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इत्यन्तकृशानां प्रथमवर्गस्य सागरवरमेहलाहिवइ-पुं०(सागरवरमेखलाधिपति) सागर एव वरा तृतीयेऽध्ययने सूचितम्।) धातकीखण्डभरतक्षेत्रजे हरिषेणस्य राज्ञः मेखला काशी यस्याः सा सागरवरमेखला पृथ्वी तस्या अधिपतयो ये ते समुद्रदत्तासम्भवे पुत्रे, उत्त०६ अ०) जिनदत्तस्य भद्रायां भार्याया जाते तथा राजसु, भ० 12 श०६ उ० आत्मजे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०॥ ऐरखतवर्षे भविष्यति पञ्चमे तीर्थकरे, | सागरसेण-पुं०(सागरसेन) मुनिसेनभ्रातरि स्वनामके मुनौ, आ०चू० प्रव०७ द्वार। जम्बूद्वीपे मालववक्षस्कारपर्वतस्य पञ्चमकूटे, जं०४ वक्षः। 10 / ('उसभ' शब्दे तृतीयभागे 1137 पृष्ठे ललिताङ्गदेववक्तसप्तमवलदेववासुदेवयोः पूर्वभवधर्माचार्ये, स०ातिका व्यतायामुक्ताऽस्य वक्तव्यता।) सागरकूड-न०(सागरकूट) जम्बूद्वीपे मन्दरपर्वतस्य नन्दनवनस्य सप्तमे | सागरोपम-न०(सागरोपम) सागरेणोपमाऽस्मिस्तत् / स्था० 2 ठा० माल्यवतश्च पञ्चमे कूटे, स्था० 10 ठा०३ उ०। ४उ० दशभिः कोटिकोटिभिर्गुणिते पल्योपमकाले, आ०म०१ अ०। सागरचंद-पुं०(सागरचन्द्र) द्वारवत्त्यां नगर्या निषधस्य पुत्र बलदेवपौत्रे, अने। विशेष स्थान प्रव० जी०। प्रश्न जं०। 'एएसि य पल्लाण, विशे० आमला दर्शा आ०चून रा० साकेतनगरे चन्द्रावतंसकस्य कोडाकोडी हवेज दसगुणिआ / तं सागरोवमस्स उ, एगरस भवे परीराज्ञः सुदर्शनागर्भजे पुत्रे, आ०म०१अ०। दर्श०। ('अणणुओग' शब्दे माण / / 1 / / " ज०२ वक्ष०ा उद्धाराऽद्धाक्षेत्रभेदात् त्रिधा। ति०। ज्यो०। प्रथमभागे 288 पृष्ठे कथा गता।) मुनिचन्द्रपुत्रे स्वनामख्याते साधी, भ०। अनु०। स्था०। (पल्योपभस्वरूपं पलिओवम' शब्दे पञ्चमभागे स्था०४ ठा०४ उ०। 723 पृष्ठे गतम।) सागरदत्त-पुं०(सागरदत्त) चम्पायां नगर्यामुदुम्बरदत्तस्य पितरि स्वनाम सागवच-न०(शाकवर्चस्) यत्र शाकः शटित्वा वक़रूपं बिभर्ति तस्मिन ख्याले सार्थवाहे, विपा०१ श्रु०७ अ०। स्था० कौशाम्ब्यां कुर्कुटयुद्ध स्थाने, नि०यू० ३उ०। आचा० दर्शक स्वनामख्याते श्रेष्टिपुत्रे, उत्त०१३ अ०('बंभदत्त' शब्दे पश्चभागे सागविहि पुं०(शाकविधि) शाकप्रकारे, उपा०१ अ०। ('आणंद' शब्दे कथोक्ता।) जिनदत्तसार्थवाहमित्रे स्वनामख्याते सार्थवाहे, ज्ञा०१ द्वितीयभागे 110 पृष्ठेऽस्य सूत्रम्।) श्रु०२०। ('अंड' शब्दे प्रथमभागे 51 पृष्ठे कथोक्ता।) सुकुमालि- सागार-न०(साकार) सह आकारैर्गाह्यभेदैर्वर्त्तत इति साकारम्। सविशेष कापती श्रेष्ठिन, पिं०। ('उद्देसिय' शब्दे द्वितीयभागे 818 पृष्ठे ज्ञाने, सम्म०१ काण्ड। विशेषग्रहणप्रवणे ज्ञाने, 'सागारे से णाणे अणागारे कथोक्ता।) भारते वर्षे पद्मिनीखण्डनगरे स्वनामख्याते सार्थवाहे, ती० दसणे' सम्म०२ काण्ड। भादर्शक। कर्मा सहाकारेण जातिवस्तुप्रति६ कल्प। ('अस्सावबोहि' शब्दे प्रथमभागे 860 पृष्ठे कल्पोऽयं दर्शितः / ) नियतग्रहणपरिणामरूपेण "आगारो उ विसेसो" इति वचनाद्विशेषेण साकेत नगरेऽशोकदत्तस्य स्वनामख्याते पुत्रे, आ०क० 1 अ०। वर्तन्त इति साकाराणि। अयमर्थ:- वक्ष्यमाणानि चत्वारि दर्शनान्यना('माया' शब्दे षष्ठभागे 251 पृष्ठे कथोक्ता।) तृतीयबलदेवस्य पूर्वभव काराणि, अमुनिच पक्ष ज्ञानानि साकाराणि। तथाहि-सामान्यविशेषाजीवे. स०। त्मक हिसकलं ज्ञेय वस्तु, कथमिति चेदुच्यते-दूरादेव हि शालतमालसागरदत्ता-स्त्री०(सागरदत्ता) पञ्चदशस्य तीर्थकरस्य निष्क्रमणशि तालवकुलाशोकचम्पककदम्बजम्बूनिम्बादि-विशिष्व्यक्तिरूपतयाऽविकायाम्, स० नवधारित तरुनिकरमवलोकयतः सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं सागरपविभत्ति-न०(सागरप्रविभक्ति) सागराकाराप्रविभागदर्शक यदपरिस्फुट किमपि रूपं चकास्ति तत्सामान्यरूपमनाकारं दर्शनमु च्यते / 'निर्विशेष विशेषाणामग्रहो दर्शनमुच्यते " इति वचनप्रामानाट्यभेदे, राका ण्यात / यत्पुनस्तस्यैव निकटीभूतस्य तालतमालशालादिव्यक्तिसागरपोय-पुं०(सागरपोत) 'पच्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागे 117 पृष्टे रूपतयाऽवधारित तमेव महीररूगहसम्मुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिप्रतीतिउदाहृते स्वनामख्याते सार्थवाहे, आव०६ अ०। आ००। जनक परिस्फुट रूपमाभातितद्विशेषरूपं साकार ज्ञानम्। अप्रमेयप्रभावसागरमह-पुं०(सागरमह) सागरोद्देशके उत्सवे, आचा०१ श्रु०१ अ० परमेश्वरप्रवचनप्रवीणचेतसः प्रतिपादयन्ति, सह विशिष्टाकारेण वर्तत 10 // इति कृत्वा। तदेवं प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणाबाधितप्रतीतिवशात् सर्वमपि सागरय-पुं०(सागरक) तितिक्खा' शब्दोक्ते चतुर्थभागे 2241 पृष्ठे वस्तुजातं सामान्यविशेषरूपद्वयात्मकं भावनीयमिति / / 11 / / अग्निकपर्वतकसहचरदारके, आव०४ अ०। आ०चू०। कर्म०४कर्म। Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागार 608 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारिय साकारभिदानीमाहमहतरयागाराई, आगारहि जुरंतु सानारं। आगारविरहि पुण, भणियमणागारनामं ति।।१९७|| किं तु अणाभोगो इह, साऽऽगारो अहव दुन्नि भणिअव्वो। जेण तिणाइ खिविज्जा, मुहम्मि निवडिज्ज वा कहवि॥१६८|| इय कयआगारदुर्ग, पिसेसआगाररहिअमणॉगारं। दुब्भिक्खवित्तिकंता-र गाढरोगाइए कुजा // 166 / आ-मर्यादया मर्यादाख्यापनार्थमित्यर्थः, क्रियन्तविधीयन्ते इत्याकाराः, अनाभोगसहसाकारमहत्तराकारादयः, अयं महानयमतिशयेनमहान्महत्तरः अतिशये तरप्तमपाविति / महत्तर एवाकारा महत्तराकारः स आहियेषा, ते च ते आकाराक्ष, तैर्युक्तं साकारम .. भिधीयते / कोऽर्थः? भुजिक्रिया प्रत्याख्यानेन मया निषिद्धा,परमन्यत्र महत्तराकारादिभिर्हेतुभूतैरेतेभ्योऽन्यत्रेत्यर्थः / एतेषु सत्सु भुजिक्रियामपि कुर्वतो न भङ्ग इति।यत्र भक्तपरित्यागं करोति तत् साकारमिति / प्रव०४ द्वार / आ००। ऋषभदेवस्य एकादशे पुत्रे, कल्प० १अधि०७ क्षण। * सागार-पुं०। सह अगारेण गृहेण वर्तत इति सागारः / गृहस्थ, आ०म० १अ०प्रव०ा स्था०। सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानभेदे, भ०७ श०२०। सागारकड-त्रि०(साकारकृत) प्रत्याख्यानभेदे, आव०। साम्प्रतं साकारद्वारं व्याचिख्यासुराह- - मयहरगागारेहिं, अन्नत्थ वि कारणम्मि जायम्मि। जो भत्तपरिचायं, करेइ सागारकडमेयं // 1574 / / अयं च महानयं च महान् अनयोरतिशयेन महान महत्तरः, आक्रियन्त इत्याकाराः / प्रभूतवं विधाकारसत्ताख्यापनार्थ बहुवचनमतो महतराकारहेतुभूतैरन्यत्र वा अन्यस्मिश्वानाभागादी कारणजाते सति भुजिक्रियां करिष्येऽहमित्येवं यो भक्तपरित्यागं करोति साकारकृतमेतदिलि गाथार्थः। "अवयवत्थो पुण-सह आगारेहिं सागारं, आगारा उवरि सुशाणुगमे भण्णिहिति / तत्थ महत्तरागारेहिं महलपयोयणेहि, तेण अभत्तट्ठो पचक्खातो।ताहे आयरिएहि भण्णति अमुगंगामं गंतव्वं / तेण निवेइय जथा मम अज्ज अब्भत्तट्टो, जति ताव समत्थो करेतु जातु य। ण तरति अण्णो भत्तट्टितो अभत्त-ट्टितो वा , जो तरति सो वच्चतु : णधि अण्णो तस्स वा कजस्स असमत्थो ताहे तस्स चेव अभत्तट्टियस्स गुरू विसज्जयन्ति। एरिसस्स तं जेमंतस्स अणभिलासरस अभत्तट्टितणिज्जरा जा सा से भवति गुरुणिओएण ! एवं उस्सूरलंभे वि विणस्सति अचंतं विभासा। जति थोवं ताथे जे णमोक्कारइत्ता पोरुसिइत्ता वा तेसिं विसजेजा, जेण वा पारणइत्ता जे दा असहू विभासा / एवं निलाणकजेसु अण्णतरे वा कारणे कुलगप्पसङ्घकजादिविभासा / एवं जो भत्तपरित्याग करति सागारकडमेत” ति। गतं साकारद्वार। आव०६ अ०॥ यत्चया नात्मार्थीकृतं किन्त्वाचार्या एतस्य विज्ञायका इति बुद्धया परिगृहीत तत्साकारकृतम् / व्य०७ उन सागारिओग्गह-पुं०(सागारिकावग्रह) सहागारेण-गेहेन वर्त्तत इाते सागारः स एव सागारिकः तस्यावग्रहः। वसतिदातुर्गहे, भ०१६ श०३ उ० प्रतिक आचा०। सागारिय-पु०(सागारिक) अगारं-गृह सह तेन वर्त्तते, स सागारिकः। शय्यातरे, स्था०५ ठा०३ उ०! नि० चू०। 'नामस्थापनाद्रव्यभावभंदाचतुर्विधः सागारिकनिक्षेपः, स च सागारिकनिक्षेपः' 'वसहि' शब्दे षष्ठभागे सागारिकोपाश्रयवसतिप्रस्तावे दर्शितः।) मैथुने, आवा०१ श्रु० अ०३ उ०। सागारिकेन भाटकप्रदानेन क्रीतेऽवग्रहःसागारिए उवस्सयं वक्कएणं पउंजेज्जा, से य वकइयं वएज्जाइमम्मि य इमम्मि य ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंति / से सागारिए पारिहारिए, से य णो वएज्जा, वक्कइए वएज्जा इमम्मिय 2 ओवासे समणा निग्गंथा परिवसंति। से सागारिए पारिहारिए दो विते वदेजा-अयंसि अयंसि ओवासे समणा णिग्गंथा परि-- वसंतु।दो विते सागारिया परिहारिय!|१८||सागारिए उदस्सयं विकिणिज्जा। से य वक्कइयं वदेजा-इमम्मि य इमम्मि य ओवासे समणा निग्गंथा परिवति / से सागारिए परिहारिए, से य नो एवं वएजा, वकइए य वएज्जा-अयंसि अयंसि ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंतु, से सागारिए परिहारिए। दो वि ते वएज्जाअयंसि अयंसि ओवासे समणा णिग्गंथा परिवसंतु दो वि ते सागारिए परिहारिए ||16|| व्य०७ उ०॥ सागारिकः शय्यातर उपाश्रयमवक्रयेण कियत्काल भाटकप्रदानेन प्रयुञ्जीत-व्यापारयेत्। स च सागारिकोऽवक्रयिक भाटकेन प्रतिग्राहिक वदेत्-अस्मिन् अस्मिन् अवकाशे श्रमणा निर्गन्थाः परिवसन्ति, तरमादेतत्परिहारेण त्वया भाटकेन ग्रहीतव्यम्, एवमुक्ते-स सागारिकतया परिहार्यः परिहर्तव्यः। अथ तेन पूर्वस्वामिना सागारिकेण सर्वमपि भाटकेन प्रदत्तं ततो न किमपि वदेत, केवलमवक्रयिको वदेत्-अस्मिन अवकाशे श्रमणा-निर्ग्रन्थाः वसन्तु तदा अवक्रयिकः सागारिकः शय्यातर इति परिहार्यः- परिहर्त्तव्यः। अथ द्वावपि वदेता यथा पूर्वस्वामिनोक्तमेतावत्येकदेशे श्रमणा वसन्तु तावत्यमातः साधून दृष्टाऽवक्रयिको यादेतावति मदीयेऽपि प्रदेशे तिष्ठन्तु / एवम-वक्रयिकसूत्रमपि भावनीय तदा द्वावपि भावनीये / तदा द्वावपि तौ सागारिकौशय्यातराविति परिहार्याविति सूत्रद्वयाक्षरार्थः / सम्प्रति भाष्यकार:वक्कइयसालठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। दियरातो असिवा पुण, भिक्खगते भुंजणगिलाणे // 477|| वैक्रयेण-कियत्काल भाटकप्रदानेन निर्वृत्ता वैक्रयिकी सा चासौ शाला च वैक्रयिकशाला तद्रूपे स्थाने / शालाग्रहणमुपलक्षणं तेनापद्वारिकास्थाने वा गृहे वा इत्यपि द्रष्टव्यम, यदि तिष्ठन्ति साधवस्तदा तेषां प्रायश्चित्तं चत्वारोमासा अनुद्धातागुरवो भवन्ति / यतस्तत्र इमे दोषाः-सा शाला अपद्वारिका वा पूर्व संयतानां दत्त्वा पश्चात्कोऽपिग्र Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारिय 606 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारिय हसाय रूपकान ददाति / भमेमां शालामपद्वारिका गृहं वा कियत्काल भाटकन प्रयच्छ। ततः स रूपकलोभेन संयतान निष्काशयेत, यदि वारात्री वा उभयत्रापि निष्काशने रपर्द्धकयतेराचार्यस्य वा प्रत्येक प्रायश्चित्त चतुर्गुरुकम, रात्री निष्काशनं च स्वापदद्विविधस्तेनतोऽशिवापनंविनाशप्राप्तिरित्यर्थः, अन्या च वसतिं मार्गयतामप्यलभमानानां जनगऱ्या, योतषां शुभं कर्म ततः पूर्वोपाश्रयादपि न निष्क्राश्येरन् , अन्यां वा वसतिं लभरन। 'भिक्खगय' त्ति-संयता एक वसरियालं मुक्त्वा शेषा भिक्षार्थ गताः पश्चात् स एकाकी वसतिपालो निष्काश्येत भुंजण' त्तिभोक्तुकामा वा निष्काश्येरन, तत्र चोभयत्रापि जनगीं / ग्लानो वा कोऽपि वर्तते सो काण्डे निष्काशितः कथं क्रियेत / तदेवं शालामधिकृत्योक्तम्। इदानीमुपलक्षणव्याख्यानसूचितापद्वारिका गृहं च क्रयिकमधिकृत्योक्तदोषयोजनां साक्षादाहओवरि व गिहं वा, विक्कएण पञ्जए। पउत्ते तत्थ वाघातो, विणासगरहा धुवा / / 478 // अपद्वारिका सागारिकगृह वा यत् शय्यातरो विक्रयेण प्रयोजयति तत्र स्थाने तदेव पूर्वोक्त प्रायश्चित्तम्, यतो विक्रयेण प्रयुक्त तत्र गृहादौ बलादकाण्डनिष्काशने सूत्रार्थव्याघ्रातो। रात्रौ निष्काशने स्वापदस्तनर्विनाशः अन्यवसत्यलाभे भिक्षागतादिनिष्काशने वा धुवा लोके गरे / एतच्च सर्व प्रागेव भावितामिति न भूयो भाव्यते। एगदेसम्मि वा दिन्ने, तन्निस्सा होजतेणगा। रसालओ व्व गिद्धा वा, सेहमादी उजं करे।।४७६।। शालाया अपद्वारिकाया गृहस्य वा एकदेशे दत्ते अन्तरा कटके प्रक्षिप्ते यदि तिष्ठन्ति तद तन्निश्रयाः- संयतनिश्रयाः स्तेनकाः-चौरा भवेयुः। सयतेषु कायिकमिगतेषु स्तेनाः प्रविश्य गृहस्थानां भाण्डकमपहरेयुः। अथवा-रसाल रसवत् यत् तत्र द्रव्यं तद्गृद्धाः शैक्षकादयो वा यत्कृत्य तत्कुर्युः, ततो गृहस्थेन संयता वा शवयन्ते, यथा-नून-मेतैरस्मद्भाण्डमपहृतम्। अथवा -एतेषा द्वारेण स्तेनैरपहृतम्, यदि वा एतेरेव-संयते: कस्यापि दुःस्थितस्य सम्प्रदत्तमिति एवं शङ्का-यां स विनाशं वा कुर्यात्। यदि वा-राजकुल अन्यत्र वा नीत्वा ग्राम--बृहत्पुरुषपाचे कर्षण तत्र भूयसी जनगहेति। पेहावियारसज्झादि,जे य दोसा उदाहिया। अच्छते ते भवे तत्थ, वयए भिण्णकप्पता।।४८०।। ये दोपाः पूर्व कल्पाध्ययन-मद्योदकधान्यशालादिषु सागारिक वा उपाश्रये प्रेक्षाय विचारभूमौ स्वाध्यायादौ वा अभिहितास्ते तत्र शालादीनामेकदेशे तिष्ठति भवेयुः / अथैतद्दोषभयादन्यत्र व्रजति तर्हि भिन्नकल्पतादोष मासकल्पे वर्षाकालकल्पे वा अपरिपूणे एव सति निर्गमात्। सम्प्रति भिक्षागतेष्वेतद्व्याख्यानार्थमाहभिक्खं गतेसु वा तेसु, निग्गते बेंति णीह मे। णीणिए वावि पाले णं, उवहिस्साऽसियावणा।।४८१।। भिक्षा गतेषु वा तेषु साधुषु अवक्रयी भाटकेन ग्रहीतशालादिको बूते यथा निर्गच्छत न्यूयं मम गृहात्तदा भिक्षाटनव्याघातः, तत्कालगन्य-- | वसत्यलाभे गर्दा, सूत्रार्थव्याघातश्च / भिक्षा गतेषु पश्चादागत्य वसतिपालं निष्काशयन्ति, तस्मिन निष्काशने णमिति वाक्यालङ्कारे, उपधेः स्यादशिवपान-स्तेनैरपहरण विस्मरणतो वाऽनशनमिति / अहवा भरियभाणा उ, आगते जइ णिच्छुभे। भत्तपाणविणासो उ, भुंजाणे सागते इमे // 482 / / अथ भक्तभृतभाजनान् आगतान यदि निष्काशयति तदा गृहीत-- भक्तपानविनाशः / गतं भिक्षागतद्वारम्। अधुना भोजनद्वारगाह / अथ भुजानेषु स विक्रयी समागतस्तदा इमे वक्ष्यमाणा दोषाः। तानेवाहजिता अट्ठिसरक्खा वि, लोगो सव्वो विबोहितो। पगासि सेय अन्नेसिं, हीला होइपवयणे // 483|| साधून साधुक्रियया भुञ्जानान् दृष्ट्वा स विपरिणतभावो ब्रूते--जिता एतैरस्थिरारजस्वा अपि कापालिकास्तेभ्योऽप्यमी हीनाचारा इति भावः / तथा लोकः स्वोऽप्येतैः पारणकैरिवैकत्र भुञ्जानैर्वाटितो विट्टालितो न केवलं न एवं तत्र बूते किं त्वन्येषामपि जनानां स प्रकाशयति / प्रकाशिते चाऽन्येषां प्रवचनस्य हीला भवति / तदेवम् 'भुंजण' तिव्याख्यातम। अधुना ग्लानद्वारमाहसीयवायाभितावेहि, गिलाणो जंतु पावई। अमंगलं मउक्खित्ते, ठाणमण्णे विनोदए।।४८४|| शीतेन वातेन अभितापेन वा ग्लानो यत आगाढादिपरितापनं प्राप्नोति तन्निष्पन्नम् स्पर्धकपतेराचार्यस्य वा प्रायश्चित्तम् / तथा तैर्निष्काशितैग्लान उत्क्षिप्तस्तस्मिन् उत्क्षिप्ते वसतिमन्या मार्गयतां मृतोऽयमित्यमङ्गलमिति कृत्वा मारिस्पृष्टोऽयमिति भयेन वा अन्योऽपि कश्चित रथानं न ददाति। गहिते उत्थाणरोगेणं, अच्छंते णीणियम्मि वा। वोसिरंतम्मि उड्डाहो, धरणे चाऽऽतविराहणा॥४८५।। तथा ग्लाने उत्थानरोगेण -अतीसाररोगेण गृहीते तिष्ठति निष्काशिते वाऽतीसारदोषः / तथा चाहव्युत्सृष्ट उड्डाहः। धरणे चात्मविराधनामरा।' गाढतग्लानस्य वा भवेत्। उपसहारमाहएए दोसा जम्हा, तहि यं होति उठायमाणाणं / तम्हा नो ठायव्वं, वक्कयसालाएँ समणेहिं / / 486 / / यस्मात्तत्र वकयशालादौ तिष्ठतामेो-अनन्तरोदिता दोषा भवन्ति तस्मात्तस्या वक्रयशालायामुपलक्षणमेतत् वक्रयापद्वारिकायां वक्रय / गृह वा श्रमणेन स्थातव्यम्। अत्र परस्यावकाशमाहएवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवातो उ असति वसहीए। बहिया विय असिवादी, कारणे तो न वच्चंति // 487 / / यदि नाम वक्र यशालादौ न स्थातव्यं तर्हि सूत्रमधिकृतगफ लम / सूत्रे वक़ ये ऽपि श्रमणानामवस्थानानु ज्ञानात / सरिराह नेट सत्रमफलं यतोऽस्य सूत्रस्य निपातोऽवकाशा Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारिय 610 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारिय वसतेरन्यस्या अभावे बहिरपि निर्गच्छतामशिवादिक कारणं ततो न व्रजन्ति; किंतु-तत्रैव वक्रयशालादौ तिष्ठन्ति। तत्र यतनामाहएएहि कारणेहिं,ठायंताणं इमो विही तत्थ। छिंदंति तत्थ कालं, उदुबद्धे वासवासे वा / / 488|| एतैः- अनन्तरोदितरन्यवसत्यलाभे बहिरशिवादिलक्षण रतत्र वक्रयशालादौ तिष्ठतामयं वक्ष्यमाणो विधिः / तमेवाहतत्र कालं छिन्दति ऋतुबद्धे वर्षावासे वा। इयमत्र भावना ऋतुबद्धे शय्यातरं प्रति भण्यते-- यदि संपूर्ण मास ददासि, वर्षाकाले भण्यते- यदि चतुरो मासान ददासि तर्हि तिष्टामोऽथ न ददासि तर्हि न तिष्ठामः। एतदेवाहमासचउमासियं वा, न वि निच्छोढव्वॉ अम्ह नियमेणं। एवं छिन्नठियाणं, वक्कइतो आगतो हुन्जा // 486 / / ऋतुबद्धे काले मासं, वर्षाकाले चतुर्मासं नियमन वयं न निष्काशयितव्याः / एवं छिन्नकाले शय्यातरेण तथैव प्रतिपन्ने तिष्ठन्ति / तेषां च तथा तिष्ठता वक्रयिक:-क्रयेण ग्राही आगतो भवति। दिन्नो व सूनएणं, अहवा लोभा सयं पि देवाहि। अणुलोमिज्जइताहे, अर्देति अणुलोमें वक्कइतं / / 460|| शय्यातरो वरसतिंदत्वा प्रवसितः, पश्चात्पुत्रस्य समीपेक्क्रयी समागतः। स ब्रूते यत्र संयतास्तिष्ठन्ति तांभाटकेन प्रयच्छ, सा वसतिर्दत्ता सूनकेनपुत्रेण। अथवा-शय्यातरः प्रभूतभाटकलोमेन स्वयमपि वैकयिणो दद्यात, दत्त्वा च निष्काशयेत्। तत्र यद्यन्या वसतिलभ्यते तर्हि न तत्र स्थातव्यम्। अन्यत्र स धर्मकथया अनु-लोम्यते-अनुकुलः क्रियते / अथ स धर्मकथयाऽनुलोमो न भवति, तर्हि यस्तस्याऽर्हतो गरीयान् पितामहमातामहप्रभृतिकस्तेनानुलो-मीक्रियते। अथैवमपि स न ददाति स्थातुं तर्हि तस्मिन्नददति वैक्र-यिकमुक्तप्रकारेणानुलोमयेत्। तम्मिवि अति ताहे, छिन्नमछिन्ने वयंति उडुबद्धे। वासासुय ववहारो, उदुबद्ध कारणे जाते।।४६१|| तस्मिन्नप्यवक्रयिणि पूर्वप्रकारेणानुलोम्यमानेऽप्यददति ऋतुबद्धे काले छिन्नेवा परिपूर्णे अपरिपूर्ण वा अवधौ निगच्छन्ति / वर्षाकाले यद्यन्यः कोऽपि साधूनामनुकम्पको न विद्यते यो वसतिं प्रयच्छति तर्हि गत्वा राजकुले व्यवहारः कर्त्तव्यः, न केवलं वर्षासु किं तु ऋतुबद्धेऽपि कारणे जात सति कर्तव्यः। कारणजातमेव पृच्छतिकिं पुण कारणजातं, असिवोमादी उ बाहि होजाहि। एएहि कारणेहिं, अणुलोमऽणुसद्विपुव्वं तु / / 462 / / किं पुनः कारणजातं यद्वशात् ऋतुबद्धेऽपि काले व्यवहार आश्रीयते ? अशिवौमौदयांदिकमादिशब्दात्-म्लेच्छपरचक्रादिभयपरिग्रहः, बहिः कारणजातं भवेत / तत एतैः कारणैः ऋतुबद्धेऽपि काले पूर्वमनुशिट्याऽप्यनुलोमनं क्रियते।। कथं क्रियते इत्याह-- सगिं जपंति रायाणो, सगिं जपंति धम्मिया। सगिं जंपति देवा वि, तुं पिताव सगिं वद / / 463 / / सजल्पन्ति राजानः, सकृजल्पन्ति धार्मिकाः, सकृजल्पन्ति देवा अपि, त्वमपि तावत्सकृद्वद / ततः स्वयमुक्त्वा कथमकस्मादस्मान् निष्काशयसि। अणुलोमिए समाणे, तं वा अन्नं व जइ उ देजाहि। अण्णो वऽणुकंपाए, देजाही वक्कयं तस्स / / 4641 एवमुक्तप्रकारेणानुलोमिते सति तामन्यां वा यदि वसतिं दद्यात्। यदि वा-अन्योऽनुकम्पया तस्य वक्रय-भाटकं दद्यात्। अन्नं व देज वसहिं, सुद्धमसुद्धं च तत्थ ठायंति। असती फरुसा विजइ न णिमो दाऊण को तंसि / / 465|| अन्यां वा वसतिमन्योऽनुकम्पया दद्यात् किं विशिष्टामित्याह-शुद्धामशुद्धा वा शुद्धां विशुद्ध्य विशुद्धिकोटिरहिताम् शुद्धां विशुद्ध्य विशुद्धिकोटिदुषितां वा तत्र तिष्ठन्ति अथ स तामन्यां वा वसतिं न ददाति, नापि कोऽप्यन्यो भाटकं शुद्धामशुद्धा वसतिम, तदा असति एकस्याप्युक्तरूपस्य प्रकारस्थाभावे स परुष्यते परुषीक्रियते / कथमित्याह- त्वं छिन्नकाला वसतिं दत्त्वा संप्रत्यसंपूर्ण एव काले अस्मान्निष्काशयसि न निर्गच्छामः कस्त्वं वसतिं दत्त्वा सांप्रतमसि? "दत्त्वा दानमनीश्वर' इति वचनात्। अथ किञ्चिद्वक्तव्यं तर्हि राजकुले गच्छामः एवं परुषितो यदि तिष्ठति ततः सुन्दरम् / अथ न तिष्ठति तदा राजकुले गन्तव्यम्। तथा चाहरायकुले ववहारे, चाउम्मासं तु दाउ निच्छुभति। पच्छाकडो य तहियं, दाऊणमणीसरो होति / / 466 / / राजकुले गत्त्वा व्यवहारः क्रियते / कथमित्याह- चातुर्मासं दत्त्वा एषोऽस्मान्निष्काशयति / तत्र राजपुरुषैः "दत्त्वा दानमनीश्वरो भवति" इति न्यायमनुसरद्धिः पश्चात्कृतः। पच्छाकडो भणेज्जा, अच्छउ भंडइ इहं निवायम्मि। अह यं करेसि अण्णं. तुभं अहवा वि तेसिं तु ||497|| स उक्तप्रकारेण राजकुले पश्चात्कृतः सन् ब्रूयात्-इह यत्र यूयं तिष्ठथ तत्र निवाते भाण्डक्रयाणक तिष्ठतु; अन्यथा कोषिष्यति, युष्माकं पुनरन्या वसतिं करोमि। अथवा-तेषां क्रयाणकानां योग्यमन्यत् स्थानं करोमि। असती अण्णाते जं, ताहें उवेहा न पचणीयत्तं / ठायंति जत्थ जंपति, चोए कम्मादि तहि दोसा / / 468|| एवमुक्ते यदाऽन्या वसतिः प्राप्यते तदा तत्र गन्तव्यम्। अथान्या वसतिनास्ति तदा अन्यस्या वसतेरभावे उपेक्षा कर्त्तव्या। किमुक्तं भवति-- तदन्यां वसति क्रीत्वा ददाति अविशोधिकोटिकृतां वा तदा तत्रापि स्थातव्य; न पुनस्तत्रैवा स्माभिः स्थातव्यमित्याग्रहपरतया तस्य प्रत्यनीकत्वमुत्पादनीयम्। स हि प्रत्यनीकीकृतः सन् साधु-नामन्यवसतिदायकस्य वा प्रतिकूलमाचरेत्। अत्र चोदको जल्पति-यत्र तिष्ठन्ति साधवस्तत्र कर्मादयः --आधाकदियो दोषाः, आदि-शब्दान्मिश्रक्रीतादिदोषपरिग्रहः। Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारिय 611 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारिय अत्र सूरिराहभण्णइ निंताण बहिं, बहिया दोसा बहूतरा हुँति / वासासु हरियपाणा, संजमें आयादकंठादी।।४६६।। भण्यते-अत्रोत्तरं दीयते-ऋतुबद्धे काले निर्गच्छतां तत्र यदि बहिबहुतरा दोषा अशिवायुपद्रवलक्षणा भवन्ति / वर्षाकाले निर्गच्छता संयमविराधना, आत्मविराधना / स तत्र यत् हरितकायोपमर्दन द्वीन्द्रियादिप्राणाक्रमाणं वा सा संयमे संयमस्य विराधना / कण्टकादिभिरात्मविराधना / तदेव छिन्ने काले तिष्ठता विधिरुक्तः / अथ कालच्छेदो न कृतः अथ च वर्षाकालो वर्तते, अथवा- ऋतुबद्धे काले बहिरशिवादि आगाढं कारणं तदा अन्यस्यां वसतो गन्तव्यं, न पुनः शय्यातरं प्रति किमपि वक्तव्यम्। अथान्या शुद्धा वसतिर्न प्राप्यते तदा विशोधिकोटिदुषितायां स्थातव्यम्, तरया अप्यलाभे अविशोधिकोटिदूषितायामपि स्थातव्यमिति।। सम्प्रति सागारिकावक्रयिकयोश्शय्यातरत्वचिन्तां कुर्वन्नाहसो चेव होइ, इतरो तेसिं वागंतु मोत्तु जइ दिन्नो। अह पुण सव्वं दिन्नं, तो देंतो वक्कयी इतरो॥५००।। उच्यते--शालगृहस्य वा अपद्वारिकाया वा अर्द्धत्रिभागो वा विक्रयेण दत्तशेष संयतानां दत्तम्, यथा-अत्र यूयं तिष्ठथेति, तत्र च साधव सर्वेऽपि, मान्ति स एव स्वामी शय्यातरो भवति / अथ पुनः तेन पूर्वस्वामिना सर्वमपिशालादि भाटकेन प्रदत्तं तदा निर्गच्छतः साधून दृष्ट्वा यदि वक्रयी ब्रूते मा निरच्छत यूयभहं युष्माकमवकाशं दास्यामि तर्हि सोऽवकाश ददानो वक्रयी इतर:-शय्यातरः। अह पुण एगपदेसे, भणेज अच्छह तहिन मायंति। वक्कति उबेति इत्थं, अच्छह नो खित्तभंडेणं // 501 / / अथ तं पूर्वस्वामी भणेत्, यथा-यूयमस्मिन्नेके प्रदेशे तिष्ठथ तत्र च साधो न मान्ति, नतोऽमातः साधून दृष्ट्वा तत्र वक्रयिकोऽनुकम्पया बूत-अत्र तिष्ठत यूय न किमपि नःअस्माक भाण्डेन क्षिप्तेन प्रयोजनम्। तहियं दो वितराऊ, अहवा गेण्हेज्ज णागयं कोइ। दुलह अञ्चग्यतरं, णाउ तहिं संकमइ तस्स / / 502 / / तत्रानन्तराक्ते प्रकारे द्वावपि शय्यातरौ / अथवा--कोऽपि चिन्तयति यदा भाण्डमेष्यति तदा बहवः क्रयिका भविष्यन्ति, ततोऽत्यर्धतरा महार्घशाला भविष्यति। यदि बहुकेनाऽपि अल्पेन दुःखेन लप्स्यते ततो दुर्लभामत्यर्घतरां च शाला ज्ञात्वा अनागते साधूना-मनागमनकाले एवं भाटकप्रदानेन गृह्णाति / एतच साधुभिरागतैतिम्, यथा- शाला भाटकेनामुकस्यायत्ता जाता। ततस्तं गत्वायाचन्त, सोऽपि ब्रूयातजाव नागच्छते भंडं, ताद अच्छह साहवो। एवं वक्कइतो साहू, भणंतो होइ सारितो / / 503|| यावनागरछति भाण्ड तावत्साधवो यूयं तिष्ठथ, एवं वक्रयिकशय्यातरी भवति। देसं दाऊण गतो, गलमाणं जइ छएज्ज वकाइतो। अण्णो अणुकंपाए, ताहे सागारितो सो सिं // 504 / / पूर्वस्वामी शालादेर्देशमेकं दत्त्वा क्वाप्यन्यत्र गतः, वर्षाकाले च स देशो गलति / ततस्तं गलन्तं प्रदेश वक्रयिकोऽन्यो वाऽनुकम्पया छादयति तदा स तेषां साधूना सागारिकः-शय्यातरः। एतदेव सविस्तर भावयतिमुत्तूणं साधूणं, गहियत्थो वा गहिउ पउसियम्मि। हेट्ठा उवरिम्मि ठिते, मीसम्मि पडालिववहारो॥५०५|| साधूनामवकाशं मुक्त्वा तेन पूर्वस्वामिना शय्यातरेण वक्रयोभाटक गृहीतः, गृहीत्वा च प्रोषितः / तस्मिन् प्रोषिते अधस्ताद्वक्रयिकस्य भाण्डमुपरिमाले साधवः, अथवा अधस्तात् शालायां स्थिताः साधवः उपरिमाले वक्रयिकस्य दत्तम् एतन्मिश्रमुच्यते / एवं मिश्रे रुपे मिश्रे स्थिताना यदा अधस्तात् शालायां साधव उपरिमाले बक्रयिकरथ भाण्ड तदा पडाली गलति, भाण्डस्योपरीति न काचित्साधूनां क्षतिः / अथ वक्रयिकस्य भाण्डमधस्तात् शालायाम्, उपरिमाले तिष्ठन्ति साधवः पडाली च गलति तदा वक्रयिकश्चिन्तयति उपरिमाले पडाली गलति तत्र साधूनां कष्टम, मम तु भाण्डमधस्तात् शालायां ततो न विनश्यतीति एवं चिन्तयित्वा पडाली न छादयति / तत्र यहान्योऽपि कश्चित् न छादयति तदा व्यवहारः कर्त्तव्यः। व्यवहारेण छादयितव्या इति। एतदेवाह-. हेट्ठाकयं वक्कइएण भंडं, तस्सोवरि वावि वसंति साहू। मंडं न मे उल्लइ मालबद्धे, नोतंछयंतम्मि भवे विवातो॥५०६|| अधस्तात् शालायां कृतं वक्रयिकेण भाण्ड, तस्य भाण्डस्यापरिमाले वसन्ति साधवः, ततो न मे भाण्डमस्मिन्मालबद्धे आर्यततेनेति गम्यते इति विचिन्त्य न तां पडाली छादयतीति भवेद्विवादोव्यवहारो जायते। कथमित्याहवक्कइयछएयव्वे, ववहारकयम्मिवक्कइंति। अकयम्मिय साहीणं, रेति तरंदाइयं वावि।।५०७।। यदि पूर्व वक्रयकाले एवं वागन्तिको व्यवहारः कृतः यः वक्रयिके छादवितव्यमिति तदा वक्रयिक साधवोऽनुकूलेन प्रतिकूलेन वा वचसा ब्रुवते, यथा-त्वया छादयितव्या पडालीति / अथ न कृतस्त-थारूपा वागन्तिकव्यवहारस्तत्राह-- अकृते यथोक्तरूपे वागन्तिक व्यवहार स्वाधीनं शय्यातर ब्रुवत, यथा-छादयतपडालीमिति। अथ स शय्यात्र: क्रापि प्रोषितो भवेत् तदा तस्य शय्यातरस्य दावाद वा गोत्रिणं बुवते.. मजयंते (अछज्जते) च दाऊणं, सयं सेजायरे घरं। अणुसट्ठाई अणिच्छंतं, ववहारेण छायए।।५०८।। अथ शय्यातर: माद्यति न छादयति तदा अन्यः कशिदयखंत, ततो ये न सा पडाली छादिता सोऽपि शय्यातरा भवति / अथान्यः कश्चित् छादयिता न विद्यते तदा शय्यातरः स्वयं गृहं दत्त्वा प्रमादेन नाच्छादयतीति अनुशिष्टिरनुशासनं क्रिय-- Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारिय 612 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड त. आदिशब्दात-धम्मकथा चातथापि छादयितुमनिच्छन्तं व्यवहारण येन गृह दत्तं तेन छादनमपि कर्तव्यम् / न च पूर्वमाच्छादन विचारित न धारमाकमकितनानां किचिदरित थेन छादयाम इत्येवं राजकुलेऽपि गत्वा व्यवहारकरणेन छादयत्। तदेवमवक्रयसूत्र भावितम्। इदानी कयिकसूत्रमतिदेशतो व्याख्यानयतिएसेव कमो नियमा, कइयम्मि वि होइ आणुपुटवीए। नवरं पुण णाणत्तं, उव्वत्ता गेण्हती सो उ।।५०६।। य एव क्रमोऽवक्रयिकेऽभिहितः स एव क्रमो नियमात कयिके, यथाऽवक्रयिकशय्यातरत्वचिन्ता कृता तथा तयव रीच्या कयिकेऽपि / कर्तव्येति, नवरं पुनर्वक्रयकात् क्रयिकस्य नानात्वमिदम्-- वक्रयिकः कियत्कालं मूल्यप्रदानतो गृह्णाति, स तु क्रयिकः पुनरुवात्वेन गृह्णाति यावज्जीव मूल्यप्रदानत आत्मसत्ताकीकरोति / व्य०७ उ०॥ सागारियपिंड-पुं०(सागारिकपिण्ड) सह अगारेण-गृहेण वर्तत इति साऽगारः, स एव सागारिक: सागारिक:-शय्यातरस्तरग पिण्ड आहारः / शय्यातरपिण्डे, रस्तकगृहपिण्डे च। सूत्र० १श्रु०६ अ०। “सामारिय च 'पण्ड छ, तं विज़ परिजाणिया।" सागारिकः शय्यातरः तस्थ पिण्ड जुगुप्सितं हीनं वर्णयितुं वा तदेतत्सर्व विद्वान् परिहरेत् / सूत्र०१ श्रु० 6 अ०। 'सागारियपिड भुंजमाणे अणुग्घाइओ भवइ / स्था०२ ठा० 1 उ०। सा यत्र बहवः सागारिकास्तत्रैकः कल्पाकत्वेन रथापनीयःएगे सागारिए पारिहारिए दो तिन्नि चत्तारि पंच सागारिया पारिहारिया, एगं तत्थं कप्पागं ठवइत्ता अवसेसे निव्विसेज्जा / / 13 / / अथास्य सूत्रस्य कः संबन्धइत्याह नियुक्तिकार:जहुत्तदोसेहि विवजिया जे, उवस्सगा तेसु जता वसंता। एगं अणेगे व अणुन्नवित्ता, वसंति सामि अह सुत्तजोगे // 243 / / राश्याक्त:- बीजधिकरादिभिरभावकाशताप-नोपविजिला यो उपाश्रयारलेषु रातयो वरान्त एक वा अनेकानधा गृहस्वामिनाऽनुज्ञाध्य वसन्तीत्यनेन सूत्रेण प्रतिपाद्यते। अथायं पूर्वस्त्रैः सहारय सूत्रस्य योगः-- रवन्ध / अनेन संबन्धेनायातस्यारस (13 सूत्रस्य) व्याख्या-एक: नागारिका वसति स्वामी परिहारं परित्यागमहतीति व्युत्पत्त्या पारिहारिको भिक्षागृहणे परिहर्त्तव्य इत्यर्थः / यथा चेक: सागारिक: गाहाकिस्तथा दौत्यश्वात्वारः पश सागारिकाः पारिहारिकाः नपा बहनाभाव गृह प्रवेष्टव्यमिति भावः। अथ रात्रेणेव सूत्रभपवति... ''एणं समय पागं'' इत्यादि बहुजनसाधारणे देवकुलादी स्थिताः सूत्रं तेषु बहुप सगारिकपुनःग, यन सागारिकतया स्थापिलेन शेष-गृहेषु प्रवेष्ट्र Fea कल्पक स्थापयित्वा शेषेषु सागारिककुलषु निर्विशयुरिति असिजाँयरो व काहे, परिहरियव्दो व से तस्स // 243 / / दोसा वो तस्स, कारणजाए व कप्पती कम्मि। जयणाए वा काए, एगमणेगेसु घेत्तव्यो / / 244 / / सागारिक इति पदमेकार्थिकनामभिः प्ररूपणीयम्। कः पुन: सागारिको भवतीति चिन्तनीयम् ? कदा वा शय्यातरो भवति? कतिविधो वा 'से' तस्य पिण्डः अशय्यातरो भवति? कदा भवति? कस्य वा संयतस्य राबन्धी स सागारिकः परिहर्तव्यः? के वातस्य सागारिकपिण्डस्य ग्रहणे दोषाः? कस्मिन् वा कारणजातेऽसौ कल्पते? कया वा यतनया स पिण्ड एकस्मिन् वा सागारिके अनेकेषुवा द्वित्र्यादिषु सागारिकेषु ग्रहीतव्य इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः। सागारिकस्य नामादिप्ररूपणा। अथ व्यासार्थ प्रति द्वारमभिधित्सुराहसागारियस्स णामो, एगऽट्ठाणाणवजणा पंच। सागारिय सेज्जायर-दाता यतरे धरे चेव // 245 / / सागारिकस्य नामानि-शक्रेन्द्रपुरन्दरादिवदेव कार्याणि नानाव्यजनानि पृथगक्षराणणि पञ्च भवन्ति, तद्यथा- 1 सामारिकः, 2 शय्याकरः, 3 शय्यादाता, 4 शय्यातरः, 5 शय्याधरश्चेति / अर्थतेषामेव व्याख्यानमाहअगम करणादगारं, तस्स हजोगेण होइसाऽगारी। सेज्जाकरणा सेञ्जा-करो उदाता तु तद्दाणा।।२४६।। गोवाइऊण वसहि, तत्थ वि तेणाइरक्खिओ तरइ। तद्दाणेण भवोधं, तरतिय सेज्जातरो तम्हा॥२४७।। जम्हा धारइ सिजं, पडमाणिं छज्जलेपमाईहिं। जंवातीऍ धरती-तरगा आर्यधरो तम्हा॥२४८| न गच्छन्तीत्यगमा वृक्षास्तैःकृतमगार पृषोदरादित्वात् रूपनिष्पत्तिः। तेनाऽगारेण सद्यस्य योगो विद्यते स सागारिकः। सर्वध-नादेराकृतिगणत्वान्नत्वर्थीयः इकप्रत्ययः। यतश्चासौ शय्यां प्रतिश्रयं करोति अतः शय्याकरः। तस्याः शय्याया दानाच शय्यादाता भण्यते। यतश्च अशिवे सति गोपायितु-संरक्षितुं तरति शक्नोति ततः शय्या तरः। यथा-तत्र तस्या शय्यायां स्थितान् साधून स्तेनादिप्रत्यपायात् रक्षितुं तरति ततोऽसौ शय्यातरः / अथवा-तस्याः शय्याया दानन भवौघ-संसार प्रवाहन्ति अतः शय्यातर उच्यते। यस्माच शय्या पतन्तीं छादनलेपनाभ्यामादिशब्दात्- स्थूणादानादिभिः धारयति अतः शय्याधरः, यद्वा- तथा शय्यया साधूनां वितीर्णया नरकादात्मानं धारयतीति शय्याधरः / गतं सागारिकद्वारम्। अथ कः पुनः साऽगारिको भवतीति प्रश्रस्य निर्वचनमाहसेज्जायरो पभू वा, पभुसंदिट्ठो व होइ कायव्वो। एगमणेगे च पभू, पभुसंदिट्ठो वि एमेव / / 246 / / शय्यातरः प्रभु प्रभुसंदिष्टो वा कर्तव्यो भवति / तत्र प्रभुरुपाश्रयस्वामी प्रभुसंदिष्टस्तु तेनैव प्रभुणा यः कृतः प्रमाणतया निर्दिष्टो यः प्रभुः स एको वा स्यादनेको वा भवति। विस्तरार्थ भाष्यकृतिमणिपुराह सागारिओ त्ति को पुण, काहे वा कतिविहो व से पिंडो। / Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 613 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड अमुमेवार्थ विशेषत आहसागारियसंदिटे, एगमणेगे चउक्कभयणा तु। एगमणेगे वजा, णेगेसु उ वजए एक्क // 250 / / सागारिके सदिष्ट च एकानेकपदनिष्पन्ना चतुष्कभजना कर्त्तव्या। सा धेयम-एकः प्रभुरेकं सन्दिशति एष प्रथमो भङ्गः। एकः प्रभुरने-कान् सदिशति इति द्वितीयः, अनेके प्रभव एक सदिशन्ति इति तृतीयः, अनेके प्रभवोऽनेकान् संदिशन्ति इति चतुर्थः। अत्र चैतेषु वा अनेके वा शय्यातरा वाः , अपवादपदे पुनरनेकेषु शय्यातरेष्वेक सागारिक स्थापयित्वा वर्जयत, शषषु तु प्रविशेत् / एतदुपरिष्टाद्वय-क्तीकरिष्यते। अथ कदा सागारिको भवतीति प्रश्ररय प्रतिवचनमाहअणुन्नविय उवग्गह, गुरुपायगयस्य अतिगते विन्ने / सज्झाए भिक्खत्ते, णिक्खित्ते भाणे एक्केको // 251 / / अत्र नंगमनयाश्रिता बहव आदेशाः, सूत्रके आचार्यदेशी ब्रूते / क्षेत्रे प्रत्युपेक्षित सति यदाऽवग्रहोऽनुज्ञापितस्तदा सागारिको भवति। अपरो ब्रूते-यदा गुरूणां पायें उपयोग कृत्वा भिक्षा पर्यटितुलनाः, अपरो बूत.. यदा भोवतुमारब्धम. अन्यो भणति-भाजनेषु विशिषु एको बूतं यदा देवसिकमावश्यकं कृतम्। पढमे बितिए ततिए, चउत्थ जामे य होज वाघातो। निव्वाघाए भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा / / 252 / / अपरो भापति रात्री प्रथमे यामे गते सति शय्यातरो भवति, तदपरो द्वितीये यामे गते, अन्यरतृतीये यामे गते, अपरोऽभिधत्त वतुर्थे याम गत सति / आचार्यः प्राह-एते सर्वेऽप्यनादेशाः कुत इत्याह .. अनुज्ञा - पितावग्रहा निक्षिप्ताः तेषु दिवस एवं व्याधातो भवेत, व्याघाताचान्या वसतिम् अन्यद्वा क्षेत्र गताः कस्यासौ शय्यातरो भवतु? आवश्यका-- दिषु चतुर्थयामपर्यन्तषु वसतिव्याघातेन बोधिकरतेनादिभयन वा अन्यत्र संक्रामतः कः शय्यातरो भवितुमर्हति? आदेशः पुनस्यनिर्व्याघाताभावे यद्यन्यां वर-तिं न गताः तत्रैव रात्रावुषिताः ततो भजना कर्तव्या। स च शय्यातरो भवेत, इतरा वा अन्यतरो वा, उभयं वा। इदमेव भावयतिजइ जग्गंति सुविहिया, करेंति आवासगं च अन्नत्थ। सेज्जातरेण होती, सुत्ते व कए व सो होती॥२५३॥ यदीत्यभ्युपगमे एताश्चतुरोऽपि प्रहरान सुविहिताः शोभनानुष्ठानाः साधवो यदि जाग्रति प्राभातिकं चावश्यकमन्यत्र गत्वा कुर्वन्ति तदा स मूला पाभरास्वामी शय्यातरो न भवति किं तु सुप्ते वा शयने कृते सति, कृतं वा प्रा नातिकावश्यके शय्यातरो भवति। अथ शय्यातर-गृहे रात्री सुप्त्वा प्राभातिकप्रतिक्रमण तत्रैव कुर्वन्ति तदा परिस्फुट स एव शय्यातर इति। अन्नत्थ वसेऊणं,आवासगचरममण्णहिं तु करे। दोन्नि वि तरा भवंति, सत्थादिसु इहरहा भयणा / / 254|| अन्यत्र स्थानेषु सुप्त्वा चरमं प्राभातिकप्रतिक्रमणमन्यत्र कुर्वन्ति तदा यस्यावग्रह रात्रा सुप्ता यदवग्रहे च प्रामातिकप्रतिक्रमण कृतं ती द्वावपि शय्यातरी भवतः / इदं प्रायः सार्थादिषु प्रभवति आदिशब्दा... चौराऽवस्कन्दभयादिपरिग्रहः / इतरथा तु ग्रामादिषु वराता भजना-- विकल्पना। तामेवाहअसइ वसहीऍ वीसु, वसमाणाणं तहिं तु भयितव्वा। तत्थ ण तत्थ व वासे, छत्तच्छायं तु वजंति / / 255 / / यत्र संकीर्णाया वसती सर्वऽपि साध्या न मान्ति तत्र वा अन्यस्यां वसती वराता साधूनां शय्यातरा भक्तव्याः। तत्र हि साधवः पृथक् वसती उषिल्या द्वितीयदिने सूत्रपौरुषीं कृत्वा समागच्छन्ति, ततो द्वावपि शय्यातरौ / अथ मूलवरातिमागम्य तत्र पौरुषों कुर्वन्ति, तत एक एव मूलवसतिदाता शय्यातरः / लाढाचार्याभिप्रायः पुनरयम-शेषाः साधवः तथा मूलवसती, अन्यत्र वा प्रतिवरान्तुन तेषा संबन्धिनां सागारिकेने.. हाधिकारः, किन्तु सकलगच्छस्य छत्रकल्पर-वावार्यस्तस्य यां वर्जयन्ति मोलशय्यातरगृहमित्यर्थः, इति विशेपचूगिनिशीथचारभिप्रायः / मूलचण्यभिप्रायस्तु पुनस्तत्र विस्तीर्णाया वसदेरभावे विश्व वसती वसतां शरयातरा भजनीयाः, यदि संरतरन्ति ततः सर्वेऽपि शय्यातराः, परं हियन्ताम् / अथ न संस्तरन्ति तत एक शय्यातरकुल निर्विशन्ति शेषाणि परिहरन्ति / तत्राप्यसंस्तरणे द्वित्र्यादिक्रमेण तावद्वक्तव्य यावद्यस्य वसतावा-चार्यः स एको वर्जनीयः शेषाः सर्वेऽपि निवेशनीयाः / तथा-- 'तत्थव वासे' इत्यादि किलैकस्याचार्यस्य बहव आचार्याः श्रुत्यर्थमुपपन्ना--स्तत्रैकरयां दसताठमानाः पृथक पृथक वसतिषु स्थिताः सन्तस्तत्र मूलाचार्यसमीपे अन्यत्र वा आत्मीयासु वसतिषु वसन्ति, सर्वेषामपि शय्यातराः परिहर्तव्याः / असन्तरण तु पाक्तप्रकारेण तावद्वक्तव्य यावच्छत्रच्छायां वर्जयन्ति मूलाचार्याः शय्यालरमित्यर्थः / गतं कदा सागारिक इति द्वारग। अथ कतिविधः शय्यातरपिण्ड इति द्वारमाह-- दुविह चउव्विह छव्विह, अट्ठविहो हो ति बारसविहो उ। सिज्जातरस्स पिंडो, तद्विवरीतो अपिंडो // 256 / / द्विविधा वा चतुर्विधी वा षड्विधो वा अष्टविधो वा द्वादशविधो वा शय्यातरस्य पिण्डो भवति। तद्विपरीतः शय्यातरपिण्डो न भवति। अथैनामेव गाथा विवृणोतिआहारोवहि दुविहो, विदु अण्णे पाणओ उवग्गहिओ। असणादी चउरो ओ-हुवग्गहे छव्विहो एसो।।२५७।। असणे पाणे वत्थे, पादे सेञ्जादिया य चउरटुं। असणादि वत्थदोसु,वादिचउक्काति वारसगं / / 258|| द्विविधः शरयातरपिण्डो भवति, तद्यथा- आहारः, उपधिश्च / विदुन्नि' द्विगुणितो चत्वारो भवन्तीति कृत्वा चतुर्विधः शय्यातरपिण्डः पुनरयम्-अन्नं पानम् औपग्रहिकोपकरणं वेति / तथा- अशना - दयश्चत्वार आधिकोपधिरौपग्रहिकोपधिश्चेति षद्धिधः / अन्नं पान वरख पात्रं शय्यादयः शूचीपिप्पलकनखखनिकाकर्णशोधनरूपा-- Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 614 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड श्चत्वार इत्यष्ठविधास्तथा अशनादीनि वस्त्रादीनिशूय्यादीनि चेति त्रीणि चतुष्कानिद्वादश भवन्ति। तद्यथा-अशन १पान 2 खादिम 3 स्वादिम 4. वस्त्रं 5 पात्रं 6 कम्बल 7 पादप्रोञ्छनं व शूची६ पिप्पलको 10 नखच्छेदनक 11 कर्णशोधनक 12 चेति। तणडगलखारमल्लग-सेज्जासंथारपीढलेवादी। सिज्जातरपिंडो सो, ण होति सेहो य सो अहिओ // 256 / / तृणडगलक्षारमलकशय्यासस्तारकपीठलेपादिशब्दात-तत्प्रमुखा-- दिक च एव शय्यातरपिण्डो न भवति / यदि शय्यातरस्य पुत्रादिः क्षा वस्त्रपात्रसहितः प्रबजितुमुपतिष्ठते तदा सागारिकपिण्डो न भवति। अपरः प्राह- यदा निर्गन्तुकामैः पात्राद्युपकरणमुद्गाहितं तदा अशय्यातरः। अन्यो बूते यदा वसतेनिर्गता भवन्ति तदा, परो भणति यदासागारिकरयावग्रहा निर्गताः, एको ब्रूते-सूर्यागमे निर्गताना प्रथम-पौरुष्या गतायाम, अपरो ब्रूते-तृतीयस्याम्, तदन्यः प्राह यावदिवसं दिवससकाश्चतसः पौरुष्यस्तावतः कालादूर्ध्वमशय्यातरः। एते सर्वेऽप्यनादेशाः। सिद्धान्तः पुनरयम्आपुच्छिय उग्गाहिय, वसहीओ निग्गतोग्गहे एगो। पढमादीया दिवसं, वुच्छे वजेज्जऽहोरत्तं // 260 / / 'बुच्छे वज्जेज्ज होरत्त' ति यस्यां वसतौ उषितास्ततो यस्यां वेलायां निर्गताः तत ऊर्ध्वमहोरात्र यावद् गृहे अशनादिक वर्जयेयुः ततः परन्तु कल्पते, आपृच्छादिषु तु सागारिकावग्रहनिर्गताः तेष्वादेशेषु यदि कथमपि गमनविघ्नमुत्पन्नं ततो भूयोऽपि तरयामेव वसतौ स्थितेषु कथमशय्यातरो भवितुमर्हति? ये पुनः प्रथमादिप्रहरविभागेनाशय्यातरमिच्छन्ति तेषां सूर्यास्तमनविनिर्गताना रात्री प्रथमादिपौरुषीविभागेनाशय्यारः प्राप्नोति, लच्च न प्रयुज्यते। कुत इति चेदुच्यतेअग्गहणं जेण णिसि, अणंतरेगंतरे दुहिं च ततो। गहणं तु पोरिसीहिं चोदग एते अणादेसा / / 261 / / येन हेतुना निशि रजन्यामस्माकं भक्तयानादेरग्रहणं, तथा किं-चिदनन्तरमेकान्तरादिभिर्वा पौरुषीभिः शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमिच्छन्ति। हे नादक ! ते एते सर्वेऽप्यनादेशाः / आदेशः पुनरयम्- संध्यायां दिवा निर्गताना रजन्याश्चतुरो यामान शय्यातरस्ततः परं सूर्योद्गमे अशय्यातरः / एवं जघन्यतः उक्तम्। उत्कर्षतः पुनरित्थम्सूरत्थमनगयाणं, दोण्हं रयणीण अट्ट जाम भवे। देवसियमज्झ चउ दिण-णिग्गते बितियम्मि सा बेला / 262 / / सूर्यास्तमनसमये रात्रौ निर्गतानामेषां परं यं चाहोरात्रंशय्यातरो भवति, ततो द्वयो रजन्योरष्टौ यामाः दैवसिकाच, रजनीद्वयमध्यवर्त्तिनश्वत्वारो माः, एवं द्वादशानां यामानामन्ते उत्कर्षतः अशय्यातरो भवति / एष एक आदेशः / द्वितीयः पुनरयम् 'दिणनिग्गए बितियाम्स सा बेल' त्ति सूर्योदये दिवा यदि निर्गतास्तथा द्वितीये दिनेतस्यामेव वेलायां शय्यातरः एवमहोरात्र वर्जितं भवति / गतं शय्यातरः कदेति द्वारम्। अथ शय्यातरः कस्य परिहर्तव्य इति द्वारनिरूपणायाहलिंगत्थस्स उ वज्जो, तं परिहरतो व भुंजतो वा वि। जुत्तस्स अजुत्तस्सव, रसावणो तत्थ दिटुंतो / / 263|| लिङ्ग स्थस्य-साधुलिङ्गधारिणस्तं शय्यातरपिण्डं परिहरतो वा भुजानस्य वा साधुगुणैर्युक्तस्य वा अयुक्तस्य वा शय्यातरी वावर्जनीयः, तत्र रसापणो मद्यहट्टो दृष्टान्तः। यथामहाराष्ट्रदेशे रसापणे मद्य भवतु वा मा वा तथापि तत्परिज्ञानार्थं तत्र ध्वजो मध्ये अरोप्यते तं ध्वज दृष्ट्वा सर्वे भिक्षाचरादयः परिहरन्ति / एवमस्माकमपि साधुगुणैर्युक्तो वा भवतुमा वा परं रजोहरणध्वजो दृश्यते इति कृत्वा लिङ्गस्थस्यापि शय्यातरः परिहियते। अथ के दोषा इति द्वारमाहतित्थंकरपडिकुट्ठो, आणा अन्नायउम्गमें न सुज्झे। अविमुत्ति अलाघवया, दुल्लमसिज्जाएँ वुच्छेओ / / 264 / / तीर्थङ्करैः प्रतिकुष्टो निषिद्धः शय्यातरपिण्डः। अथ तं गृह्णातीति तेषामाज्ञा न कृता भवति 'अन्नाय' त्ति-आज्ञातोऽथ मासं निवासवशात् आज्ञास्वरूपतया नशुद्ध्यति प्रत्यासन्नतया तत्रैव पुनः पुनः भैक्षपानादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमोऽपि न शुद्ध्यति / अविमुक्तिनामस्वाध्यायश्रवणादिना आवर्जितः शय्यातरो दुग्धदध्यादिप्रणीतं द्रव्यं ददाति, तद्ग्रहणलोलुपतया तद्गृहं न विमुञ्चति। अलाघवता तु विशिष्टाहारलाभेनोपचितगलकपोलतया शरीरलाघवं प्रचुरवस्त्रादिलाभेनोपकरणलाघवं चन भवेत्, दुर्लभाच शय्या भवति। येन किल शय्या दत्ता तेनाहाराद्यपि देयमिति भयाद्भूयः शय्यामगारिणो न प्रयच्छन्तीति भावः / व्यवच्छेदश्चविनाशः शय्यायाः क्रियते। अथवा-भक्तपानादिप्रतिषेधइह व्यवच्छेदशब्देनोच्यते, एष नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव प्रतिपदं विवृणोतिपुरपच्छिमवज्जेहिं, अविकम्मं जिणवरेहि लेसेणं / भुत्तं विदेहपच्छिय, ण य सागरियस्स पिंडो उ॥२६५।। पूर्वस्तीर्थकरः ऋषभस्वामी पश्चिमः श्रीमन्महावीरस्तद्वर्जे : अजितादिभिर्मध्यमजिनवरैर्विदेहजैः तीर्थकरैराधाकर्मादिलेशेन सूत्रादेशतो भुक्तं भोक्तुमनुज्ञातमिति भावः / नच-नैव सागारिकस्यानुज्ञातम् / इयमत्र भावना- मध्यमतीर्थकृताच ये साधवस्तेषां यस्यैव योग्यमाधाकर्म कृते तस्यैव न कल्पते, शेषाणां तु कल्पते इति, तैराधाकर्म भोजनमपि कथंचिदनुज्ञात न पुनः शय्यातरपिण्डः 'सेज्जायरपिंडवा, उब्भामे वाय पुरिसजिट्ने या किइकम्मस्स य करणा, चत्तारि अनाहिया कप्या।।१।।" इति तैर्वचनात्। अथाज्ञाद्वारमज्ञातद्वार चाहसव्वेसि तेसि आणा, तप्परिहारी ण गेण्हती ण कया। अण्णायं च ण जुञ्जति, तहिं वि तो गेण्हती तत्थ / / 266 / / Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 615 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड सर्वेषामपि तेषा तीर्थकृतां तत्परिहारिणां शय्यातरपिण्डप्रतिषेधकारिणामाज्ञा तत्पिण्ड गृह्णता न कृता भवति। तथा यवैव गृहे स्थितस्तत्रव भिक्षां गृह्ण तो न युज्यते-नघटते, न शुद्ध्यतीत्यर्थः / अज्ञातस्य तस्य यदुक्तं भैक्षग्रहणं तदज्ञातमिति व्युत्पत्तेः। अथ शुद्धिद्वारमाह-. बाहुल्ला गच्छस्स उ, पढमालियपाणगादिकज्जेसु। सज्झाय करण आ-ट्टियाकरण उग्गमेगतरे // 237 / / गच्छस्य यद वाहुल्य--साधूनां प्राचुर्य तस्माद्धेतोः प्रथमालिका-- पानकोषधादिकार्येषु पुनः पुनः प्रविशन्तस्तथा स्वाध्यायश्रवणेन करणेन च यथोक्तक्रियाकलापानुष्ठानेन आवर्तिता आवर्जिता उद्गमदोषाणामेकतरान कुयुः / (बृ०) अथ दुर्लभशय्याद्वारमाहभिक्खापयरणगहणं, दोगचं अण्ण आगमेण देमो उ। पयरण णत्थि ण कप्पति, असाहु तुच्छे य पण्णवणा / / 271 / / यस्यापि श्रेष्टिनो गृहे पञ्चशतिको गच्छो वर्षासुस्थितः / स च शय्यातरो गृहमनुष्याणामादिशति-यदि साधवो गृहात्तुच्छर्भाजनैर्निर्गच्छन्ति ततो महदमडल स्यात्, अतो दिने दिनेऽमीषां प्रथममेव भिक्षा दातत्या, ततस्ते साधवः सर्वेऽपि तस्मिन् गृहे प्रतिदिनं प्रथमतः प्रतरणभिक्षा गृह्णन्ति, ततश्च शय्यातरस्य कालान्तरेण दौर्गत्यदरिद्रता। अन्येषां च साधूनां तत्र गमनं श्रेष्टिनम् वदन्ति-याचते। स प्राह-विद्यत वसतिः पर न प्रयच्छामः / साधुभिरक्तः-किं कारणं न प्रयच्छति, स प्राह . प्रतरण प्रथमदातव्यभिक्षारूपं नास्ति। साधवो ब्रवते-न कल्पते अस्माकमचरण ग्रहीतुम / स प्रतिबुवते- असाधु-अमङ्गलमिदं यन्मम गृहात्तुच्छे जननिर्गच्छन्ति। ततस्तस्य साधुभिः प्रज्ञापना कृता आयुष्मन्निदमेव भवतः परममजलं यदेवं साधूनां वसतिरुपयुज्यते अनया हि दत्तया भवता सर्वमपि भक्तपानादिक दत्तमेव भवति / इत्थं प्रज्ञापितः स तेषां वसति प्रदत्तवान, एवं दुर्लभा शय्या भवति। अथ व्यवच्छेदद्वारमाहथल देउलिया ठाणं, सति कालं दह्र दट्ठु तहि गमणं / निग्गएँ बसही भंजेण", अण्णे उभामगा उद्धा / / 272 / / कस्यापि ग्रामस्य मध्ये स्थलम्, तत्र ग्रामे मिलित्वा देवकुलिका कारिता, तत्र साधवः सन्ति / ते च तत्रोचतरे देवकुले स्थितास्तत्काल भिक्षायां देवकुलं दृष्ट्वा दृष्ट्वा तत्र तेषु कुलेषु भिक्षार्थ गच्छन्ति तत्रैकमपि कुलं ते तां भिक्षां गृह्णन्ति समुद्धरन्ति, एवं च निर्विन्नाः सर्वेऽपि गृहस्थाः / ततो निर्गतेषु साधुषु वसतेर्देवकुलिकायास्तैर्भञ्जन क्रियते, माम् अन्येऽप्यागतास्तापयिष्यन्तीति। इतश्चान्यस्मिन्नीदृशे स्थलग्रामे अनेके साधवो देवकुलिकाया स्थिताः, ते च भगवन्तो निःस्पृहा वहिमि चोदभ्रामकभिक्षाचर्यां गच्छन्ति स्वाध्यायपराश्च तिष्ठन्ति। ततस्ते गृहस्था आवृत्ताः संभूय तान् साधून्निमन्त्रयन्ति / साधवो ब्रुवते-बालवृद्धादीनां कार्थ ग्रहीष्यामः, एवं घृतादिदुर्लभद्रव्यमपि सुलभं भवति। नच शय्याया ध्यवच्छदो जायते / गत दोषा वा के तस्येति द्वारम्। अथ कारणजाते कस्मिन् कल्पते इति द्वारगाथामाह दुविहे गेलणम्मी, निमंतणे दव्वदुल्लमे असिवे / ओमोयरियपओसे, भवे य गहणं अणुन्नायं / / 273 / / द्विविध- आगाढे अनागाढ च 1 ग्लानत्वे. तथा निमन्त्रणे 2 दुर्लभद्रव्ये 3 अशिव 4 अवमोदर्थे 5 प्रदेषे वा राजद्विष्ट 6 भये वा बोधिकस्तेनादिसमुत्थे 7 एवं सप्तसु कारणेषु शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम्। एष नियुक्तिगाथार्थः। साम्प्रतमेनामेव विवृणोतितिपरिरयमणागाढे, आगाढ़े खिप्पमेवगहणं तु। कजम्मि बंदिया जे,छिणंतिणय बिंति उ अकप्पं / / 274|| त्रिपरिरयं-- त्रीन वारान परिभ्रमणं तदनागाद अग्लानत्वे कर्त्तव्यं, यदि तथापि ग्लानप्रायोग्य न लभ्यते ततः परमेकपरिहाण्या मासलघुप्राप्ताः शय्यातरपिण्ड गृह्णन्ति। आगाढे तु ग्लानत्वे क्षिप्रमेव ग्रहण कार्यम्। तथा शय्यातरेण भवतपानमस्मद्गृहे गृहीत एवं वन्दितानिमन्त्रिताः सन्तो भणन्ति कार्ये समुत्पन्ने ग्रहीष्यामः नचब्रुवते युष्मदीयं भक्तपानमस्माकं न कल्पते। जंवा असहीणं तं,भणंतितं देहि तेण णे कर्ज। णिब्बंधे चेव सयं,घेत्तूण पसंगै वारेति॥२७५|| यद्वा यदद्रव्यं तस्य गृहे अस्वाधीनं नास्तीत्यर्थः, तद्भणन्ति; याचन्त इत्यर्थः / यथा अमुकं द्रव्यं प्रयच्छत तेनास्माकं गुरुतरं कार्यम् / अथ शय्यातरा निर्बन्धमतीवाग्रहं करोति ततः सकृद् एकवारं गृहीत्वा भूयः प्रसङ्ग निवारयन्ति। दुल्लभदव्वं च सिया, संभारघयादि घेप्पती तं तु। ओमसिवे पणगादिसु, जतिऊणमसंथरे गहणं / / 276 / / दुर्लभद्रव्यं वा संभारघृतादिक शय्यातरगृहे स्यात्, संभारो बहुद्रव्यसंयोगर-तत्प्रधान घृतं संभारघृतम् / आदिशब्दात् -शतपाकतैलादि, तच्च ग्लानादिनिमित्तं शय्यातरगृहे गृह्णन्ति अवमौदर्याऽशिवयोरसंस्तरण पञ्चकहान्या यतित्वा मासलघुप्राप्ताः शय्यातरकुले ग्रहणं कुर्वन्ति / उवसमणहूँ पदुट्टे, सत्थो जा लब्भते व ताणं व। अच्छंता पच्छण्णं, गेण्हति भये विएमेव / / 277 / / प्रद्विष्टस्य राज्ञ उपशमनार्थ तिष्ठन्तो, यद्वा- राज्ञा निर्विषया आज्ञप्ताः सन्तो यावतत्र सार्थो न लभ्यते तावत्प्रच्छन्नं तिष्ठन्तः शय्यातरकुले भक्तपानं गृहन्ति; मा पर्यटतो राजा वा राजकीया वा ईक्षेरन्निति कृत्वा, भयं बोधिकस्तेनादिप्रभवंतत्र बहिमिषु भिक्षां गन्तुं न शक्यते, स्वग्रामे च न लभ्यते। अत एवमेव शय्यातरकुले गृह्णन्ति। अथ कया यतनया ग्रहीतव्यम् इति द्वारमाहतिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं मग्गिऊण कडयोगी। दव्वस्स य दुलभया, सागारियसेवणा दव्ये / / 278|| स्वक्षेत्रे सकोशयोजनाभ्यन्तरे स्वग्रामपरग्रामयोस्विकृत्वस्त्रीन् वारान् चतसृष्वपि दिक्षु 'पुट्ट ति' भैक्ष दुर्लभद्रव्यं वा मार्गयित्वा यदिन प्राप्नोति ततः कृतयोगी गीतार्थो द्रव्वस्य शुद्धमक्तपानादेः दुर्भलतां मत्वा सागारिकद्रव्यस्य सेवनाशय्यातरविषयो विधिः / Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड अथानेकशय्यातरविषयं विधिमाहणेगेसु पियापुत्ता, सवत्ति वणिए घडो वए चेव। एएसिंणाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए।।२७६ / / अनेकेषु शय्यातरेष्चमी भदाः पितापुत्रौ सपत्न्यो वा वणिजो वा घटावागाष्ठी व्रजा वा-गाकुलम एतेषां द्वाराणां नानात्वं विभाग वक्ष्यामिप्ररूपयिष्यामि यथानुपूर्त्या। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति- . पितपुत्ते थेरया य, अप्पभुदोसा य तम्मि उ पउसिए। जेट्ठाइअणुण्णवणा, पाहुणए जं विधिग्गहणं / / 280|| यदि पिता पुत्रश्च द्वावपि प्रभूतत उभावप्यनुज्ञापयितथ्यौ / अथ पिता स्थविर इति कृत्वा चशब्दात्पुत्रोऽप्यतिबाल इति कृत्वा यदाऽप्रभुरतदा / नानुज्ञापनीयः / दोषाश्वानुज्ञापनाया निष्काशनादयः प्रभुकृता भवन्ति। अथ स प्रभुः प्राषितस्ततस्तरोव यो ज्येष्ठादिः आदिशब्दादनुज्येछादयो वा तेषामनुज्ञापना कर्तव्य / प्राघूर्णको वा यस्तस्याभ्यर्हितः सोऽनुज्ञापनीयः सर्वत्र / यद्विधिना ग्रहणं तदेवानुज्ञात भगवद्भिर्नाविधिनेति अथैनामेव व्याख्यानयतिदुप्पबिइपिया पुत्ता, जीहँ होंति पभू ततो भणइ सव्वे / णातिकमंति जं वा, अपुभं व प व तं पुव्वं // 281 / / द्विप्रभृतयः अनियताः पिता पुत्र यत्र प्रभवो भवन्ति तत्र सर्वेऽपि तान् मिलितान् भणन्ति अनुज्ञापयन्ति / य वा प्रभुमप्रभु वा नातिक्रामन्ति - प्रमाणयन्ति तं पूर्वमनुज्ञापयन्ति। अप्पहु लहुओ दियणिसि, पभुणिच्छूढे विणासगरिहा य। असहीणम्मिपभुम्मि उ,साहीणजेट्ठादणुण्णवणा // 282 // यद्यप्रभुमनुज्ञापयन्ति तता मासलघु प्रभुश्व समागतो दिवा निष्काशयति चतुर्गुरु, रात्रौ निष्काशिता स्तेनस्वापदादिभिर्विनाशं प्राप्नुपन्ति, अन्यत्र वसतिमलभमाना लोकतो मर्हामासादयन्ति। तथा किं थूयं शोभनैः कर्मभिर्निर्धाटिताः प्रथममपि न प्रयच्छाम इति। प्रभुः पिता नस्वाधीनः किं तु प्रोषितस्ततो यः स्वाधीनो ज्येष्ठादिपुत्रः आदिशब्दादनुज्येष्ठादिकोऽपि यः प्रभुः स अनुज्ञापयितव्यः। अथ सर्वे प्रभवः ततो शुगपत्ते सर्वेऽप्यनुज्ञापनीयाः।। पाहुणयं च पउत्थे, भणंति मित्तं व णातगं वा मे। तं पि य आगतमेतं,भणंति अमुएण णे दत्तं // 283|| की प्राषिते सति प्राघूर्णको यस्तस्याभ्यर्हितः समायातः स च मित्र मतदीयं ज्ञातकं वा-स्वजनं भणन्ति--अनुज्ञापयन्ति / तं च प्रभुमा मात्रमेव भणन्ति-अमुकेन युष्पन्मित्रादिना अस्माकमिदं प्रदत्तम्। स वाभीषनामग्रहणे कृते न निर्धाटयति। अप्रभुविषयं विधिमाहअप्पभुणा उवदिण्णे, भण्णति अच्छासु जा पभू एति। पत्ते उ तस्स कहणं, सो उ पमाणं न ते इतरे / / 204 / / अप्रभुरनुज्ञापितो भणति- अहं न जानामि, ततः साधवो भणन्ति यावत्प्रभुरागच्छति तावद्वयं तिष्ठामः, एवमनुज्ञापितेनाप्रभुणा वितीर्ण प्रतिश्रये यदा प्रभुः प्राप्तो भवति तदा तस्याप्ययथाभूतं कश्थायितव्यम्। कथिते च स ददाति वा निष्काशयति, एवमत्र प्रमाणं न ते पूर्वानुज्ञापिता इतरे अप्रभवः। एवमुक्तेन स्वामिना यद्वसतेहाणं तदेवानुज्ञातमिति। इय एसाऽणुण्णवणा, जतणा पिंडो पभुस्स उववज्जे / सेसाणं तु अपिंडो, सो वि य वज्जो दुविहदोसा // 285 / / सा चैवमुक्तप्रकारेण एषा प्रतिश्रयानुज्ञापनायां यतन प्रोक्ता अथ शय्यातरपण्डिपरिहारेण यतनाऽभिधीयते यःप्रभुः शय्यातर इति कृत्वा तद्गृहे पिण्डो वयः, शेषाणामप्रभूणाम् अपिण्डः-शय्यातरपिण्डो न भवति परं सोऽपि द्विविधदोषात् भद्रकान्तकृतदोषपरिहारार्थ वर्जनीयः गतं पितापुत्रद्वारम्। अथ सपत्नीद्वारमाह-- एगे महाणसम्मि, एक्कतो उक्खित्तै सेसपडिणीए। जेट्ठाएँ अणुण्णवणा, पउत्थेसुँ य जेट्ठ जाव पभू / / 286|| शय्यातरे प्रोषिते सति यास्तदीयाः पत्न्यस्तासां यद्भोजनं तत्र चतुभड़ी एकत्र राह्ममेकत्र भुक्तम् 1 एकत्र राद्धं विष्वक भुक्तम् 2 विष्वक राममेकत्र भुक्तम, 3 विष्वक राद्धं विष्वक् भुक्तम् / 4 तत्र 'एगे महाणसम्मी एक्कतो' त्ति-एकस्मिन् महानसे एकतो भुक्तमिति प्रथमभङ्गो गृहीतः, 'उक्खित्त' त्ति-एकत इति पदमनुवर्तते एकतःएकस्मिन् स्थाने उत्क्षिप्तं भोजनभूमिकां नीतं भुक्तमिति यावत् अर्थादापत्रं विष्वक राद्धम्, एतेन तृतीयभन उपात्तः / द्वितीयचतुर्थ-- भड़ो पुनरवर्जनीयाविति कृत्वा न गृहीती। 'सेसपडिणीए' त्ति-यदेकत्र राह्ममेकत्र भुक्तं तत्र भुक्तशेष यद्यपि शेषसपत्नीभिः स्वाहं प्रत्यानीत तथापि भद्रकप्रान्तदोषपरिहारार्थ वर्जनीयम / प्रभो प्रोषिते मदीया ज्यष्ठभार्या वसतिमनुज्ञापयते। अथ सा न सुतमती ततो ज्येष्ठा प्रिया पुत्रवती, द्वयोर्वा पुत्रवत्योर्या ज्येष्ठपुत्रा यः पुत्रो वा प्रभुर्या वा स्वयं गृहे प्रभुः-प्रामणभूता सा अनुज्ञापनीया। एषा चिरंतनगाथा। अथैनामेव विवृणोतितम्मि य अस्साहीणे जेठेपु(त्त)तमाया व जा व से इट्ठा। अह पुत्त माय सव्वा, वी(इ)ट्ठो जेट्ठो पभू वा वि / / 287|| तस्मिन गृहस्वामिन्यस्वाधीनेऽसंनिहिते ज्येष्ठा भार्या पुत्रमाता वा या वा 'से' तस्य गृहपतेरिष्टा वल्लभा सा वसतिमनुज्ञापनीया / अथ सर्वा अपि पुत्रामातरः अभीष्टाश्च ततो यस्याः पुत्रो ज्येष्ठस्तामनुज्ञापयन्ति ! अथ ज्येष्ठपुत्रो न प्रभुः ततः कनिष्ठोऽपि यस्याः पुत्रः प्रभुः सा अनुज्ञापयितव्या। . पिण्डग्रहणे विधिमाहअसहीणे पभुपिंडं, वजिंती सेसए तु भद्दादी। साहीणे जहिँ भुंजइ, सेसेसु वि भद्दपंतेहिं // 28 // अस्वाधीने गृहस्वामिनि या पत्नी प्रभुस्तस्याः पिण्ड साधवो वर्जयन्ति / शेषसपत्नीगृहेषु न शय्यातरपिण्ड परं भद्रकप्रान्तकृता दोषा भवन्ति; अतस्तासामपि पिण्डः परिहर्त्तव्यः। अथ स्वाधीनः शय्यातरःततोयरया गृहेभु Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 617 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिड डक्ते तत्र शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा वर्जयन्ति, शेषाण्यपि सपत्नीगृहाणि भद्रकान्तदोषपरिहारार्थ वर्जयन्ति। एगत्थ रंधणे भुं-जणे य वजेति भुत्तसेसं पि / एमेव वीसु रद्धे, जति जहिं तु एगट्ठा // 286 / / एकत्र रन्धनन एकत्र भुक्तमित्यादि चतुर्भङ्गयां यत्रकत्र रन्धनं भोजन वा तत्र भुक्तशेषमपि वर्जयन्ति / प्रथमभड़े इत्यर्थः एवमेव विष्वक राद्धेऽपि यत्रकत्र भुञ्जते तत्र भुक्तशेषमपि न गृह्णन्ति तृतीयभाई इति भावः / एवमस्वाधीनभर्तृकाणां विधिरुवतः। अथ स्वाधीनभर्तृकाणां यो विधिस्तमाहणिययं च अणिययं वा, जहिं तरी मुंजती उ तं वजं / सेसासु विण य गिण्हति, मा छोभगमादि भद्दाई // 260 / / नियतं वा यत्र शय्यातरो भुङ्क्ते तद्गृहं वर्जनीयम्, नियतं नाम | यदेकस्य एव गृहे प्रतिदिन भुङ्क्ते अनियतं तु वारकेण सर्वासामपि - भुक्ते, शेषपत्नीगृहेषु यद्यपि शय्यातरपिण्डो न भवति तथापि न गृह्णन्ति / मा भद्रकप्रान्तकृताच्छोभ कादयो दोषा भवेयुः स च प्रज्ञापकः भोजनं शेषपत्नीगृहे न भद्रकशय्यातरः कुर्यात् / मम गृहे तावदमी न गृह्णन्ति अत एवमपि दत्त्वा पुण्यमुपार्जयामीति बुद्ध्या यस्तु प्रान्तः सद्वेष यायात् अहं दुष्टधर्माण इमे, यदि भदीयगृहे न कल्पते तत एतासां मदीयपत्नीन्ग गृहे कश्यं कल्पत इति प्रद्विष्टश्च प्रतिश्रयात निष्काशयत्। गतं सपत्नीद्वारम् / अथ वणिगद्वारमाहदोसु वि अव्वोच्छिण्णे, सव्वं जं तम्मि जं च पाउग्गं / खंधे संखडि अडवी, असतीय घरम्मि सो चेव / / 261 // कोऽपिशयातरा देशान्तरं गन्तुकामो नगरादेहिः स्थितो वर्त्तते, तस्य चयोरपि गृहयोरन्तहादहिग हे बहिहाद् बाह्याभ्यन्तरगृहे भक्तादिकमव्यवच्छिन्नं यदानीयत तत् न कल्पते। अथासौ शय्या - तरस्ततः रथानात् प्रस्थितः ततो यो निर्गच्छति तस्मिन् सर्वं तदिवसनीतमन्यदिवसनीतं च भक्तपानं कल्पते। सर्वस्मिन्नपि त्यक्ते मा भूदतिप्रसङ्ग इत्याशङ्कयाह- यच्च प्रायोग्यं–प्रान्तजनयोग्यं तत्प्रापणीयं प्रासुकं चेत्यर्थः, 'खंधे' त्ति-- स्कन्धप्रदेशयोग्य कृत्वा बहिमिषु व्यवहरन शय्यातरः साधूनां दधिदुग्धादिकं दद्यात् ‘संखडि' त्ति- संखडिं कुर्वन् साधूनामपि दद्यात् / अडवि' ति- अटवीं वा काष्ठच्छेदनादिनिमित्त गृहीतशम्बलो गच्छन् साधून दृष्ट्वा तन्मध्यात् तेषामपि दद्यात्, एतेषु त्रिष्वपि न कल्पते। 'असई य घरम्मि सो घेव' ति-यदि शय्यातरः सपुत्रपशुबान्धवो गृहे नास्ति किं तु देशान्तरं प्रोषितः तदा देशान्तरस्थितोऽपि स एव तत्र शय्यातरो नान्य इति नियुक्तिगाथासमासार्थः / अथैनामेव विवरीषुराहनिग्गमगाइ, वहिट्ठिएँ, अंतोखेत्तस्स वजए सव्वं / बाहिं तद्दिणणीए, सेसेसु पसंगदोसेण // 262 / / शय्यातरो वाणिज्येन देशान्तरं गन्तुकामो निर्गमकः, प्रस्थान च शुभमुहूर्ते क्रियते इत्यादिकारणेन नगरादेवहिर्गत्वा सक्रोशयोजन- / क्षेत्रस्याभ्यन्तर बहिर्वा स्थितो भवेत्। यद्यतः क्षेत्राभ्यन्तरे स्थितः तदा सर्व तदिवसान्थदिवसनीतं शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा वर्जयेत्। अथासौ क्षेत्राहिः स्थितः ततस्तद्दिवसनीतं शय्यातरपिण्डः शेषदिवसनीतं तु यत्परिवासितम्, यदा- तत्रैवोपस्कृतं तन्न शय्यातरपिण्डः पर तदपि प्रसङ्गदोषेण मा भद्रकप्रान्तकृतदोषाणां प्रसङ्गो भवेदिति कृत्वा न गहीतव्यम्। ठितो जया खेत्तबहिं सगारो, भत्तादिय तस्स दिणे दिणे य। अच्छिण्णमाणिज्जति णिज्जतीय, गिहा तदा होति तहिं वि वजे / / 263|| यदा क्षेत्राबहिः स्थितस्तदा तस्य भक्तादिकमव्यवच्छिन्नं दिने दिने गृहाबहिरानीयते, बहिःस्थानाच गृहे नीयते; तत्सर्वमपि सागारिक-- पिण्डो भवति तत्र स्थितस्य वर्जनात्। बहिट्ठिएँ पट्टिओ य, सयं व संपत्थिया उ गेण्हंति। तत्थ उभद्दगदोसा, ण होंति ण य पंतदोसाओ // 294|| शय्यातरः क्षेत्रागहिः स्थितो यस्या वेलायामग्रतो गन्तुं प्रस्थितः स्वयं वा साधुः, पूणे मासकल्पे सप्रस्थिताः तद्दिवसात् यद्यन्यत्र वसन्ति तदा सर्वमपि प्रायोग्य भक्तं पान गृह्णन्ति / कुत इत्याह-तत्र तस्यां वेलायां गृह्यमाणे भद्रक दोषा प्रान्तदोषाश्च न भवन्ति / पुनर्ग्रहणाभावादिति भावः / अथ स्कन्धपदं संखडिपदमटवीपद च व्याख्यातिअंतो बहि कच्छउडिया-दिववहरंतो पसंगदोसाओ। देउल जन्नगमादी, कट्ठा दंडं विवच्चंते // 265 / / क्षेत्रस्यान्ते बहिवां शय्यातरः कक्षापुटिकादि:- कक्षा प्रदेशे पुटा यस्य स कक्षापुटिको-गृहीतोभयमोदक इत्यर्थः / आदिशब्दात्-- कौतुकिकादिर्वा, बहिमिषु व्यवहरन् साधूनां दधिदुग्धादिक दापयति / तत्र क्षेत्ररयान्तरतदिननीतमन्यदिननीतं च शय्यातरपिण्डः / बहिः पुनस्तदिवसनीतं शय्यातरपिण्डः, शेषदिवसनीतं न शय्यातरपिण्डः परं भूयः प्रसङ्गदोषान्न गृह्यते / एवं तद् देवकुलतडागयज्ञादिकं संखडी कुर्वतः काष्ठादिनिमित्तं शम्बलं गृहीत्वा अटवीं व्रजतः, क्षेत्रान्तर्दीयमानं शय्यातरपिण्डः / क्षेत्रबहिस्तद्दिवसानीतं शय्यातरपिण्डः न द्वितीयदिवसानीतं, परं तदपि नं गृहीतव्यम्, मा भूयः रांखड़ीकरणमटवीगमनं वा साधूना दानार्थ कुयादिति कृत्वा। अथ गृहे असन् स एव शय्यातर इति पदं व्याचष्टेमुत्तूण गेहं तु सपुत्तदारो, वाणिजमातिजति कारणेहिं। सयं च अण्णं च वएज देसं, सेज्जातरो तत्थ स एव होति // 266|| मुक्त्या--परित्यज्य गेहं साधूनामपयित्वेत्यर्थः, सपुत्रदारः शय्यातरी वाणिज्यादिभिः कारणयदि स्वकमन्यं वा देशं व्रजति तत्रापि स एप शय्यातरो भवति न पुनर्दूरदेशान्तरस्थितस्य शय्यातरत्वमपगच्छतीति / गत वणिगद्वारम। Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 618 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड घटाद्वारमाहमहतरअणुमहतरए, ललियासणकडुयदंडपतिए य। एतेहि परिग्गहिया, होति घड़ा तो तदा काले // 267|| महत्तरोऽणुमहत्तरको ललितासनिकः कटुको दण्डपतिकश्चेति, एतैः / पञ्चभिः परिगृहीतास्तदा पूर्वकाले गोष्ट्यो भवन्ति बभूवरित्यर्थः। अथामूनेव महत्तरादीन् व्याख्यानयतिसव्वत्थ पुच्छणिज्जो, महत्तरो जिट्ठमासणधुरे य।। ठइयं तु असन्निहिए, ऽणुमहत्तरतो धुरे वाति / / 268|| सर्वत्र सर्वेषु गोष्ठिकार्येषुत्पद्यमानेषु सर्वैरपि गोष्ठैः पुरुषैः प्रच्छनीयः, यस्य च ज्येष्ठ महत्तरत्वमासीनानां धुरि च सर्वै रवस्थाप्यन्ते स महतरस्ततस्तरिमन मूलमहत्तरे असंनिहिते यस्तत्र सर्वैरपि प्रच्छनीयः धुरि च प्रथमं तिष्ठति,सः अणुमहत्तरः। (वृ०) ('ललिआसण' शब्दे षष्ठ भागे गता ललितासनवक्तव्यता।) एतेषां महत्तरादीनां यद्देवकुले सत्तादिकं तस्य कथमनुज्ञापना विधेयेत्याहउल्लोमाणुण्णवणा, अप्पभदोसा य एक्कओ पढमं / जिहादिअणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं // 300 / / महत्तरक्रममुल्लड्घ्य यद्युल्लोमं व्यतिक्रमेणानुज्ञापनां करोति तदा मासलघु प्रभुदोषाश्च निष्काशनादयो भवेयुः / अतः सर्वेऽप्येकतो मिलिताः प्रथममनुज्ञापनीयाः / अथ सर्वे मिलिता नावाप्यन्ते ततो ज्येष्ठमहत्तरस्य, तदभावे यथाक्रम महत्तरादीनामनुज्ञापना विधेया। अथ महत्तरादीनामेकोऽपि गृहे न प्राप्यते ततो यस्तेषामभ्यर्हितः प्राघूर्णकस्तभवज्ञापयन्ति। एवंविधेन हि विधिना यदुपाश्रयस्य ग्रहणं तदेवानुज्ञापना विधिग्रहणम् / अमुमेवार्थ स्पष्टरमाहउल्लोम लहु यदि पणम्मि, तेणक्कहि पिंडिए अणुण्णवणा। असहीणे जिट्ठादि व, जइव समाणा महतरं वा // 301 / / यदि महत्तरादिकमध्यत्यासेनानुज्ञापयति तदा मासलघु, तेनैकत्र पिण्डिताना-मिलितानां पञ्चानामप्यनुज्ञापना कर्तव्या / अथ सर्वेऽप्येकतो मिलिता अस्वाधीना न प्राप्यन्ते इत्यर्थः, ततो ज्येष्ठमह... त्तरादेह तु गत्वा अनुज्ञापना विधेया / यदिवा-यांस्विधप्रभृतीन तत्र समस्वाधीनान् पश्यन्ति तावत्तेषामनुज्ञापनां कुर्वन्ति / महत्तरं वा एकमप्यनुज्ञापयन्ति, अस्य प्रमाणभूततया सर्वेषामनतिक्रमणीयत्वातं। गतं घटाद्वारम्। व्रजहारमाहबाहिं दोहणवाडग, दुद्धदहीसप्पितक्कणवणीति / आसन्निम्मि ण कप्पति, पंचयए उप्परि वुच्छं / / 302 / / कस्यचिद्धि शय्यातरस्य संबन्धी ग्रामावहिर्वा दोहनवाटको भवेत्, तस्मिन दुग्धदधिसर्पिस्तकनवनीताख्याने पञ्चकानिद्रव्याणि भवन्ति / एतत्पञ्चकमासन्ने क्षेत्राभ्यन्तरे दीयमानं न कल्पते शय्यातरपिण्डत्वात / अर्थतानि दुग्धादीनि क्षेत्रस्योपरि बहिर्वर्त्तन्ते ततस्तद्विषयं ग्रहणविधिमहं वक्ष्यामि। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनिज्जंतं मोत्तूणं, वारगभयदिवसए भवे गहणं। छिण्णं भतीय कप्पति, असतीय घरम्मि सो चेव // 303 / / गोकुलानि दधिदुग्धादिपञ्चक शय्यातरगृहे यन्नीयते स शय्यातर-पिण्डो भवति / अतस्तद् दुग्धादि नीयमानं मुक्त्वा यदन्यत्तत्रैव गोकुले परिभुज्यते तन्न भवति शय्यातरपिण्डः, परं तद्दधि भद्रकप्रान्तदोषपरिहारार्थिनो गृह्यते, यस्मिन पुनर्दिवसे भृतकस्य-गोपालस्य वारकरतस्मिन् दुग्धादिकं शय्यातरस्यापश्यतो ग्रहणं भवेत्, न पश्यतः / तथा भृतिमि गोपालकस्य दुग्धचतुर्थभागादिपरिभाषितादि च सदैव देवसिकी वृत्तिः, तथा छिन्न-विभक्तं यद्-दुग्धादिकं तद्गोपालसत्कमिति कृत्वा कल्पते ग्रहीतुं यदि शय्यातरो न पश्यति / तथा यदि साधूनां शय्यां समर्प्य शय्यातरः-सपुत्रदारो वजिकायां गच्छेत् ततो गृहे अविद्यमानोऽपि स एव शय्यातरो भवति। ____ अथास्या एव विषमपदानि विवृणोतिबाहिरखेत्ते छिण्णे, वारगदिवसे सती य छिण्णे य। सो व ण सागरिपिण्डो, वज्जो पुण दिट्ठिभद्दादि॥३०४।। स क्रोशयोजनक्षेत्रस्य बहिर्व्यवच्छिन्नो विभागः शय्यातरगृहे न नीयते, गोपालकवारकदिवसे वा यः सोऽपि गोपसत्कः प्रतिदिवसल्भ्यो वा कृत्या छिन्नो यो दुग्धचतुर्थभागादिरूपो विभागः स एष सर्वोऽपि सागारिकपिण्डो न भवति, पर भद्रकप्रान्तदोषा दृष्ट सति मा भूत्तदिति शय्यातरस्य पश्यतः-- सोऽपि वर्जनीयः। अथ यदुक्त सूत्रे 'एग तत्थ कप्पाग ठवइत्ता अवसेसे निविसेज्जा तद्विभावयिषुराहएगं ठवेंति विसए, दोसा पुण भदिए य पंते य। णिस्साए वा छु भणं, विणासगरहं च पावंति।।३०५।। यहानेकेषु शय्यातरेषु इतरेण एक सागारिकं स्थापयन्ति शेषानिर्विशन्ति- उपभुञ्जते ततो भद्रकप्रान्तविषया दोषा भवन्ति / भद्रको निर्दिश्यमानशय्यातरस्य निश्रया तदीयभक्तपानमध्ये प्रक्षेपयति, मम गृहे तावदमी न गृह्णन्ति अतो मदीयमिदं भवद्भिः संयताय दातव्यमिति कृत्वा / यस्तु प्रान्तः स एक एव अस्थाप्यमानः प्रद्वेषं यायात्, प्रद्विष्टश्व वसतेर्निष्काशनं कुर्यात् / निष्काशिताश्च स्तेनस्वापदादिभिर्विनाश लोकाद्वा गर्हामासादयन्ति / कारणे पुनरेकमपि स्थापयन्तो निर्दोषाः। किथमित्याहसद्देहि वा वि भणिया, एगट्ठ वि ताण निविसेमाणं / गणदेउलमादीसु तु, दुक्खं खु विवजिउं बहुगा // 306 / / 'वा' शब्दः उत्सर्गपदे तावन्न कल्पते एकः सागारिक: स्थापयि - तुम्, द्वितीयपदे तु कल्पते / अपिशब्दः पक्षान्तरस्य सूचनार्थः / ये श्राद्धाः साधुसमाचारीकोविदास्तैः साधवो भणिताः, 'आर्याः / एक शय्यातर स्थापयित्वा शेषानिर्विशत, मा सर्वानपि परिहरत, एवमुक्ता एक स्थापयित्वा शेषानिर्विशन्ति / अथवा- गणं बहुजनसमूह गत्वा सासान्याद् देवकुलसभादौ स्थिताः अनुक्त अप्येक Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 616 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड स्थापयित्वा शेषानिर्विशन्ति / कुत इत्याह- 'दुक्खं दुष्करं तत्र बहून् वजयितुम्। गिण्हंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जहरूई तेसिं। एकेऽत्थ परीमाणं, संतमसंते य से दव्वे // 307 / / यद्वा-ते सर्वेऽपि शय्यातरा अनुग्रहार्थिनः ततो यथा तेषां रुचिरुपजायते तथा धारके गृह्णन्ति, तत्र च एके उपस्कृते अत्र परिमाण ज्ञातव्यम् / किं परिमितायामुपस्क्रियते उतापरिमितायामिति / तदपि द्रव्यं तस्य गृहे तत्र देशे वा सद्-विद्यमानं यदि पूर्वपरिणामेण द्रव्यभु-- परकुर्वन्ति तदा कल्पते अन्यथा भजनीयम्। एवं तस्य शय्यातरस्य द्रव्ये सम्यगुपयोगो दातव्यः / बृ०२ उ०॥ सागरिकपिण्डं गृह्णाति भुङ्क्ते चजे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियपिंडं गिण्हइ गिण्हतं वा साइजइ('साइजइ'आस्वादने धातुः॥४५|| जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियपिंडं भुंजइ भुंजंतं वा साइजइ // 46 / / 'सागारिओ से वातरो तस्स पिंडो ण भोत्तव्वो, जो वा भुजति तस्स मासलहुं / ' नि०यू० 2 उ०) सागारिककुलमज्ञात्वाऽनुप्रविशतिजे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियकुलं अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुव्यामेव पिण्डवायपडियाए अणुपविसइ अणुपविसंतं वा साइजइ॥४८|| जे भिक्खू वा भिक्खुणी वा सागारियणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा ओभासिय जाइय जायंतं वा साइज्जइ॥४६॥ 'सागारिओ पुववण्णिओ कुल-कुलकुडुंब भिक्खाकालाओ पुष्वंपु-वदि पुच्छा अपुव्वगवेसणं तं साहुसमीवे अपुच्छिऊण पविसन्तस्स मासलधु / नि०यू०२ उ०। सागारिकपिण्डो बहिर्निर्हतः संसृष्टःनो कप्पइ निग्गंथाण वा निगंथीण वा सागारियपिंडं बहिवा अनीहडं असंसर्ट वा पडिगाहित्तए॥१४॥ नो कप्पइ निग्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा सागारियपिण्डं बहिया अनीहडं संसट्ठ पडिगहित्तए।।१५।। अथास्य (सूत्रद्वयस्य 14-15) सम्बन्धमाहअंतो नूण न कप्पइ, णिक्कासिओ कपई उ मा एवं। पत्तेयविमिस्सं वा,पिंडे गेण्हेज्ज तो सुत्तं // 308 / / नुनमन्तर्गृहाभ्यन्तरे पिण्डो न कल्पते, गृहादहिनिष्काशितस्तु कल्पते, एवं विचिन्त्य मा प्रत्येक संसृष्टविमिश्र वा संसृष्ट पिण्ड गृह्णीयात् / अत एतत्सूत्रमारभ्यते। वक्ष्यमाणसूत्रद्वयस्याप्ययमव संबन्धो द्रष्टव्यः, अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (सू०१४-१५) व्याख्या। नो कल्पते निग्राना वा निर्ग्रन्थीनां वा सागारिकपिण्ड बहिर्वाटकादनिहतमनिष्काशितमसंसृष्ट / वा अन्यदीयपिण्डेः सहामीलितं, संसृष्टम-अन्यदीयपिण्डैः समीलितं प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रार्थः। अथ भाष्यतिस्तर: वाडगदेउलियाए, इच्छादंतम्मि गहणे तह चेव / णीसट्ठमणीसट्टे, गहणागहणे इमे दोसा।।३०६।। शय्यातरवाटकरय मध्ये काचिदेवकुलिका, तस्यां यद्वा-नमन्तरं तदर्थ वाटकवास्तव्या अगारिणः संखडी कुर्वन्ति। तत्र च भिक्षाचरेभ्यो दातुं तेषामिच्छा समजनि, ततो वाटकवास्तव्यजने ददति दातुमुपस्थिते ग्रहण तश्रव मन्तव्यं यथा पूर्वसूत्रे अभिहितम् / तथा निसृष्टं नामयद् वल्यादिक वानमन्तरस्य निवेदितम्। अनिसृष्टं तु तद्विपरीत तयोर्ग्रहणे अग्रहणे चामी वक्ष्यमाणा दोषा भवन्तीति संग्रहगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवृणोतिउप्पत्तियं वा वि धुवं च भोज, तस्सेव मज्झम्मि उवागडस्स। समस्सिते सागॉरचोलगम्मि, अण्णेहि सो चेव उ तस्स पिंडो॥३१०।। तरयेव- सागारिकस्य वाटकरय मध्ये वानमन्तरमुद्दिश्य भोज्यंसंखडिर्भवत, तचीत्पत्तिकं वा स्यात् ध्रुवं वा। औत्पत्तिकं नामपर्वतिथिमन्तरेणाकस्मिकम, ध्रुव तु पर्वतिथिभावि। अथ नवम्यां दशम्यां वा तत्रान्य श्रोलकेः सम मपि श्रितो यः सागारिकश्चोल्लकस्तस्मिन् संखड्या दीयमाने स एव शय्यातरस्य पिण्डो भवति। अस्य निवेदितस्य वा ग्रहणे तावदिमे दोषाःभद्दो तन्नीसाए,पंतो घेप्पति दठूणं भणइ। अंतोघरे ण इच्छह, ऽहो गमणं दुट्ठधम्मो त्ति / / 311 / / यः सागारिको भद्रकः स तन्निश्रया वानमन्तरनिवेदनाव्याजेनान्यदप्यात्मीयमाहारजातं तत्र प्रक्षिपेत्। यस्तु प्रान्तः स तथा गृह्यमाणं दृष्ट्वा भणति-अन्तर्गृह-गृहाभ्यन्तरे दीयमानतदीय पिण्ड नेच्छथ, इह पुनरेवं दीयमानस्य ग्रहणं कुरुध्वम्, अहो दुष्टधर्माणो यूयमिति तथैतदोषभयान गृहन्ति / ततः किं भवतीत्याहतेसु अगिण्हतेसुय, चिंता परिसाएँ से समुप्पेजा। को जाणइ किं एते,साहू घेत्तुंण इच्छंते // 212 / / तेषु साधुषु तं शय्यातरभक्त-निवेदनापिण्डमगृह्णमाणेषु तस्याः संखडीकारिण्याः पर्षदि चिन्ता समुत्पद्येत, यथा को जानातिको नामामुमर्थ सम्यग वेत्ति किमेते साधव इदं शय्यातरसत्कमाहारजातं ग्रहीतु नेच्छन्ति। नूणं से जाणंति कुलं व गोत्तं, . आगंतुओ सो य तहिं सॉगारो। भूणग्घ सोयं च ततो घएव्वए, जं अम्ह इच्छंति ण सेज्ज दातुं 1213 / / / नूनं 'से' तस्य शय्यास्वामिनो जानन्त्यमी कु लं वा गोत्रं वा, यथाय नीचकुलोत्पन्नो हीनगोत्रो वेति / स च सागारिक स्तर गामादावागन्तुकः अता न तदीयं कुलादि तत्र कोऽपि वेत्ति / Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 620 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड यद्वा ते गृहस्थाश्चिन्तयेयुः-भ्रूणघ्नो बालमारकोऽयं शुभं वा शुचि समाचरता रूपमरय नास्ति; ततएव तदीयं पिण्डत्यक्त्वा यदमी अस्माकं चोल्लकं ग्रहीतुमिच्छन्ति न शय्यादातुः सम्बन्धि तत्। ततः सागारिक इत्थं चिन्तयेत्ओभासिओ णेहि सवासमझे, चंडालभूतो य कतोऽहमेहिं / गृहे वि णिच्छंति असाधुधम्मा, अतो परं किं च करेज अण्णं // 214 // अपभ्राजितोऽहममीभिः श्रमणकैः स्ववासमध्ये-स्वकीयसहवासिजनमध्ये चण्डालभूतश्च कृतोऽहममीभिः मुण्डः, गेहेऽपिच मदीय नेच्छन्त्यमी असाधुधर्माण: पिण्डं ग्रहीतुम, अतः परं किंचान्यदपरं कुर्युः / यत्कर्तुं योग्यं तदमीभिः कृतमिति भावः। ततश्चराओ दिया साहूँ वि निग्गसेज्जा, एगस्सणेगाण वसेजछेदं। अद्धाण णितिंव अलंमें जंतु, पावेज्जतं वा वि अगिण्हमाणो॥३१५।। रात्री दिवा वा साधून् प्रतिश्रयान्निष्काशयेत, एकस्य वा तस्यैव गच्छरय अनेकेषांवा बहूनां गच्छानां शय्यादानस्य व्यवच्छेदं कुर्यात् / ततोऽध्वनि वहमाना निर्गच्छन्तो वा साधवस्तदीयदोषेण वसति-मलभमाना यत् परितापनादिकं प्राप्नुयुः ततस्ते शय्यातरचोल्लकमगृह्णानाः यत्परितापनादि प्राप्नुवन्ति, तन्निष्पन्नं तेषां प्रायश्चित्तमिति भावः / एवमसंसृष्ट-1 पिण्डविषयशेष उक्तः। अथ संसृष्टपिण्डविषयान्ाहससट्ठस्स ग्गहणे, तदियं दोसा इमे पसज्जंति। तन्नीसाऍ अभिक्खं,संखडिकारावणं होज्जा / / 316 / / यद्यन्यदीयचोलक: संसूट सागारिकपिण्डं गृह्णन्ति तदा तत्रेते दोषाः प्रसञ्जन्ति / तन्निश्रया यद्यन्यदीयपिण्डसंसृष्टो मदीयपिण्डोऽमीषा कल्पते तत इत्थं कृत्वा भूयो दापयिष्यामीत्यालम्बनेन वाटकवास्तव्याजनैरभीक्ष्णं संखडीकारापणं भवेत। अल म्ह पिंडेण इमेण अजा!, भुंजेण आणेति जहा स इत्थ। साहू वि नेच्छंति इमस्स दोसा, __ अम्हे वि वजेसु ण को वि एसो॥३१७।। अथ भूयो यथैष सागारियः अत्र पिण्डमानयतीत्येवमर्थ साधयो गृहस्थान बुवते- आर्य ! अलगस्माकमनेन संसृष्टपिण्डेनेति,ततरते अगारिणश्चिन्तयेयुः-अस्य सागारिकरय दोषाः, यदि साधवोऽमु पिण्डं अच्छन्ति ततो वयमपि दानग्रहणादिव्यवहारमनेन सह वर्जयामः यतो न काऽप्यष विशेषतो ज्ञायते आगन्तुकत्वात्। अगम्मगामी किलवोऽहवाऽयं, बोंदी व हुज्जा सि सुणादिणा वा / दोसा बहू तेण जहिं सगारा, ___पिंडं गए तत्थ उ णाभियच्छे / / 318|| अथवा योऽगम्यगामी क्लीवो वा-नपुंसको वा भविष्यति वोन्दीकायादिपालना 'से' तस्य शय्यातरपिण्डस्य शुनकादिना कृता भवेत्, एवमादयो बहवो दोषा यतो भवन्ति, तेन यत्र संखडीकरणे सागारिकः स्वकीय पिण्ड नयति तत्र प्रथमत एव नैवाभिगच्छेत्। बहिर्निर्गतः सागारिकपिण्डः बहिर्निर्हतोऽसंसृष्टःनो कप्पइ निग्गंथाणं व निग्गंथीणं वा सागारियपिण्डं बहिया नीहडं असंसट्ठ पडिग्गाहित्तए / / 16 / / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीणं वा सागारियपिंड बहिया नीहडं संसर्ट पडिग्गाहित्तए।।१७|| अस्य व्याख्या प्राग्वत् नवरं सागारिकपिण्डो वाटकादहिनिष्काशि(निष्काशित इति दन्त्यान्योऽपि धातुः ।)तोऽसंसृष्टोऽन्यपिण्डेन सममसंमीलितो न कल्पते, संसृष्टस्तु कल्पते इति। अथ भाष्यम्बहिया उ असंसट्टे, दोसान हुचेव मोत्तु संसट्टे। संसट्ठमणुन्नायं, पच्छउसागारिओ मा वा।।३१६।। सागारिकवाटकादहिनिष्काशिते असंसृष्ट गृह्यमाणे ते एवं पूर्वसूत्रोक्ता भद्रकान्तदोषाः, पर मुक्त्वा संसृष्ट, तत्र दोषा न भवन्तीति भावः / अत एव यदाटकादहिर्निष्काशितं तदत्र सूत्रे अनुज्ञातम्. सागारिकः पश्यतु वा मा वा इदं पुरस्ताद्व्यक्तीकरिष्यते। नीसट्ठमसंसट्ठो, विय पिंडो किमुपरेहिं संसट्ठो। अप्पत्तियपरिहारी,सौगारदिट्ठ परिहरंति॥३२०॥ निसृटो नाग- बहिनिष्काशय वानमन्तरस्य निवेदितः, यस्य वा याचकादेरर्थाय निष्काशितस्तस्मै प्रदत्तः, स यद्यप्यन्ट शोलकर-- संसृष्टस्तथाऽप्यपिण्डो न सागारिकपिण्डः किं पुनः परैरन्यैश्चोल्लकैः सम संसृष्टः स सुतरां सागारिकपिण्डो न भवतीत्यर्थः / परम अप्रीतिकपरिहारिणः सन्तः सागारिकदृष्ट परिहरन्ति। इदमेव सापवादमाहअहिट्ठस्स उगहणं,असती तव्यजितेण दिट्ठस्स। दिट्टे विपत्थियाणं, गहणं अंतो व बाहिं वा॥३२१|| प्रथम सागारिकण सकुटुम्बेनादृष्टस्य ततोऽसंज्ञिसस्तरणाभाव तद्वर्जित तमेक सागारिकं वर्जयित्वा शेषकुटुम्बेन दृष्टस्य संसृष्टस्य पिंडस्य ग्रहणमनुज्ञातम् / अथ ते साधवो ग्रामान्तरं प्रस्थितास्ततः सागारिकेणापि दृष्टस्य संसृष्टस्य वा तस्यान्तर्बहिर्वा सर्वत्र गृहणमनुज्ञातम् / पुनर्गहणाभावेन भद्रकप्रान्तदोषाणामभावात् / पाहुणगा वा बाहिं, घेत्तुमसंसट्टगं च वच्चंति। अंतो वा उभयं पी,तत्थ पसंगादओ णस्थि / / 322 / / अथवा प्राघूर्णकाः साधवः के चित्तत्र समायाताः, ते व तं गाम व्यतीत्याग तो गन्तुकामा वाट कादनिनिष्कासित Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 621 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड कालेन च। द्वितीये कारापणे त एव चत्वारो गुरवस्तपागुरुकाः, तृतीय अनुमोदनालक्षणस्थाने त एव चतुर्गुरुकाः कालगुरवो भवन्ति। किंचअम्हच्चयं छूढमिणं किमट्ठा, तं केण उत्ते कहिते जतीहिं। ते चेव तोयादिपवत्तणेया, असिट्ठतेणेव असंखडादी॥३२६।। अस्मदीयं तदिद द्रव्यं किमर्थ केनान्यत्र प्रक्षिप्तम्, इत्थं संखडिकारिभिः साक्षेपमुक्तो रक्षपालो ब्रवीति- यतिभिरिदमेकत्र मीलितम्, एवं कथिते सति त एव स्पर्शादय उदकस्पर्शनभण्डनादयो दोषाः। अथ ते भद्रकास्ततः साधुहस्तेन पवित्रीभूतमिदमिति मत्वा प्रवर्तनं कुर्युः / अथासौ रक्षपालो न कथयति ततोऽशब्द-अकथिते तेनैव रक्षपालेन समं संखड कुयुः / आदिशब्दाद्वधो वा बन्धं वा ते तस्य कुर्वन्ति / यत एते दोषाः ततो नासंसृष्ट कर्त्तव्यं कारयितव्यं क्रियमाणमनुमोदयितव्यं चंति। निसृष्टमसंसृष्टमपि गृहीत्वा समुद्दिश्य च व्रजन्ति, तदभावे अन्त-- वोटकाभ्यन्तरे वर्तमानमुभयमपि प्राघूर्णकाः साधवो गृह्णन्ति / प्रथम संसृष्टं तदप्राप्ती च असंसृष्टमपीत्यर्थः / कुत इत्याह-तथैवंविधे प्राघूर्णकानां ग्रहणे प्रसङ्गादयो दोषाः भद्रकमान्तकृताः पुनर्गहणाभावान्न सन्ति / तन्निश्रया भूयः सखडीकारापणम आदिशब्दात-निष्काशनादिपरिग्रहः / अथ 'संसट्टाणुन्नायं' इत्यादिपदानां भावार्थ गाथात्रयेणाहजो उ महाजणपिंडे-ण मेलितो बाहि सागारियपिंडो। तस्स तहिं अपभुत्ता, ण होति दिटे वि अवियत्तं / / 323|| जं पुण तेसिं चिय भा-यणेसु अविमिस्सियं भवे दव्वं / तं दिस्समाणगहियं, करेन्ज अप्पत्तियं पहुणो // 324|| जं पुण तेण अदिढे, दुघाय गहणं तु होति संसहे। तहियं ताणि कहेजा, ण याविण य आयरो तत्थ / / 325|| यस्तु सागारिकपिण्डो महाजनपिण्डेन सह वाटका बहि मीलितः स साधूना कल्पते / कुत इत्याह- तस्य सागारिकस्य तत्राप्रभुत्वात्, महाजनस्यैव च प्रभुत्वात् / दृष्टऽपि सागारिकस्य नाप्रीतिक भवति / यत्पुनद्रव्यं तेषामेव शय्यातरमानुषाणां भाजनेष्विति मिश्रितमसंसृष्टं भवति तत् दृश्यमानं गृही संस्थापयेदिति भावः। यदा-साधुभिरिद पवित्रीकृतमिति नत्वा भद्रकास्तस्यान्नादेः स्वगृहे स्थापन कुयुः / अथ ते प्रान्ताः ततो घातं या बन्ध वा कुपिताः सन्तः संयतानां कुर्युः / एते तावत स्वयंकरणे दोषा अभिहिताः। अथ स्वयं संसृष्ट कर्तुमरामर्थाः अन्यैः कारयन्ति, यो वा कोऽप्यन्यत्प्रक्षिपति तमनुमोदयन्ति तत इमे दोषाःकारावणमन्नेहिं, अणुमोदणउग्गमादिणो दोसा। दुविहे वतिक्कमम्मि, पायच्छित्तं भवे तिविहं // 326 / / अन्यैः कारापणे कुर्वत वा अनुमोदने ऊष्मादयो दोषा भवन्ति, ऊप्मा नाम-तेनात्युष्णद्रव्येण तस्य रागिणो हस्तादौ परितापः। आदिशब्दाद्यदि द्रव्यमसो तत्र प्रक्षिपति स तेन सहासंखडं कुर्यात्, तस्मात् मदीयं स्पृशत्येवमादला दोषाः / अव च द्विविध व्यतिक्रमे लौकिकलोकोत्तरिकमर्यादातिक्रमरूपे प्रायश्चित्तं त्रिविधं भवति। तथैकं स्वयं करणे, द्वितीयं कारापणे, तृतीयमनुमताविति। इदमेवोत्तरार्द्ध व्याचष्टे-- लोउत्तरं च मेरं, अतिचरई लोइयं च मेलेत्ता। अहवा सयं परेहि य, दुविहा उ वतिक्कमो होति॥३२७|| पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि गुरुगातवेण कालेणं / वितियम्मि य तव गुरुगा, कालगुरू होंति ततियम्मि।।३२८|| | सागारिकचोलकमितरेषां चोलकैः समं मीलयन लोकोत्तरिकी भर्यादाम "न कल्पते सागारिकपिण्डोऽसंसृष्टः कर्तुमिति भगवदा - लक्षणां'' लौकिकी च न मीलनीया अरमा कं चोल्लका इत्येवंरूपां मर्यादामतिचरति-अतिक्रामतीत्यर्थः / अथवा-स्वयंकरण परश्व क्रियमाणस्य रवादनमित्येवं द्विविधो व्यतिक्रमो भवति तत्र प्रथमस्थाने स्वयंकरणलक्षणे चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यामपि गुरुकाः, तद्यथा-तपसा अथ द्वितीयपदमाहअद्धाणणिग्गयादी, पविसंता वावि अहव ओमम्मि। अणुमोदणकारावण, पभुणिक्खंतस्स वा करणं // 330 / / अध्वना निर्गता: आदिशब्दाद- अशिवादिनिर्गताः, अध्वनि वा प्रविशन्तः, अथवा--अवमौदर्ये वर्तमानाः संसृष्ट पिण्ड कुर्वतः अनुमोदनं ततः कारापणमपि प्रतिसेवन्ते / यो वा प्रभुर्बलवान् राजगणसम्मतो वा निष्क्रान्तः- प्रतिपन्नदीक्षितस्ततः स्वयमपि करणं भवतीति संग्रहगाथासमासार्थः / अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते-साधवो विप्रकृष्टादध्वनो निर्गतास्तं वा प्रविशन्तोऽवमौदर्य वा अन्यत्र पर्याप्तमलभमानास्तत्सागारिकसत्कं द्रव्यं स्निग्धं शरीरोपष्टम्भकं मत्वा प्रथमं तावदन्यं संसृष्ट कुर्वन्तमनुमादयन्ति। अथान्यः संसृष्ट कुर्वन्न प्राप्यतेततः कारयेयुरपि। कथमित्याहपुराण सागं च महत्तरं वा, अन्नं व गाहेति तहिं च वोहुँ। सागारिओ वा वि विगोवितो जो, सपिंडमण्णेसु तु संदधाति॥३३१|| पुराण-पश्चात्कृत , तदप्राप्तौ प्रतिपन्नाणुव्रतं श्रावक, तदभावे यस्तत्र महत्तरस्तमन्यं वा प्रमाणभूतं तत्रान्यपिण्डेषु सागारिकपिण्ड प्रक्षेप्नु ग्राहयन्ति-प्रज्ञापयन्तीत्यर्थः / यो वा सागारिक्रो विकोविदोविशेषेण साधुसमाचारीकुशलस्स स्वकीय पिण्डमन्येषु संदधातिमिश्रयतीत्यादि। संमिस्सियं वाऽवि अमिस्सियं वा, गिण्हति गीता इतरे विमिस्सं। कारेंतदिटुं च अगोवितेसु, दि8 व तप्पच्चयकारि गीता / / 332 / / यदि सर्वेऽपि गीतार्थाः ततः सन्मिश्रितंसागारिकपिण्डंगृह्णन्ति नाससृष्टम्। अथवा-ससृष्टन प्राप्यते विकोविदाश्च गीतास्तत्रन सन्तिततोऽदृष्ट-यथा Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 622 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड ते न पश्यन्ति तथा पुराणादिना संसृष्ट कारयन्ति / अथादृष्ट कार्यमाणे तेषामप्रत्यय उत्पद्यते, यथैतैः सागारिकपिण्ड एवासंगृष्ट आनीतः ततरतत्प्रत्ययकारिणो गीतार्थास्तैदृष्टमपि संरसृष्ट कारयन्ति। अथ'पभुनिक्खंतस्स वा करण' मिति पदं व्याख्यातिजो उजिओ आसि य भूतपुव्वं, तप्पक्खिओ रायगणच्छिओ वा। सवीरिओ पक्खिवती इमं तु, वोत्तूण किं अच्छइ एस बीसु // 333 / / यस्तत्र ग्रामे पूर्वमूर्जित्तो-बलवान् प्रभुवोऽधिपतिरासीत्, सत्याक्षिको वा-तस्य हितैषी राजगणान्वितो वा राजसंमता मल्लादिगणसम्मतो वा आसीत. एवंविधोऽपि यः सवीर्य:-शक्तिमान् भाजनभेदादयों दोषास्तस्य न भवन्तीति भावः, स एनं सागारिक-पिण्डगन्यपिण्डेषु प्रक्षिपति। परमिदं वचनमेवमुक्त्वा, यथा किमेष पृथक् पृथक तिष्टतीति / सागारिकपिण्डाहतिकासूत्रम्-. सागारियस्स आहडिया सागारिएणं पडिग्गाहित्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गहेत्तए / 16 / / सागारियरस आहडिया सागारिएणं अपडिग्गहित्ता, तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गहेत्तए // 20 // अथास्य सूत्रस्य कः संबन्ध इत्याह-- नीहडसोंगारिपिंड-स्स विवक्खो आहडो अहउ जोगो। णीहडसुत्ते पुणरवि, जोगो संसट्टओ णाम।।३३४।। 'नीहड' नाम-पूर्वसूत्रे निर्हतः सागारिकपिण्ड उक्तः, इह तु तद्विपक्षे / आहृत उच्यते-अथैष प्रस्तुतसूत्ररय योगः-संबन्धः, तथा इतः सूत्रादनन्तरं पुनरपि निर्हतसूत्रं भविष्यति, ततोऽयं सूत्रत्रयस्य संबन्धः संदंशको नाम मन्तव्यः। किमुक्तं भवति-आहडो निहत-रतत्र अवसाने भूयोऽपि निहतसूत्रम्। एष ईदृशः संबन्धः संदशः पूर्वापरसूत्रद्वयन संदंशकेन च गृहीतत्वात् सदंशक इत्यभिधीयते। अनेन वक्ष्यमाणसूत्रस्याप्यत्रेव संबन्धोऽभिहित इत्यनेन संबन्धन आयातस्यारय (16-20) व्याख्याआहृतिका प्राहणकं सागारिकस्य गृहे कुतोऽपि गृहान्तरादागता , सा च सागारिकेण प्रतिगृहीता-स्वीकृता। ततस्तास्या मध्याद दद्यात् नो से' तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्रहीतुम् // 16 // सागारिकस्याहृतिस्सागारिकणा-प्रतिगृहीता न स्वीकृता तस्या मध्यादृद्यादेवं 'से' तरय कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्र (20) सक्षेपार्थः / साप्रत नियुक्तिविस्तरःआहडिया उ अभिधरा, कुलपुत्तगभगिणिमट्टिगालित्ते। दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य होइ आहडिया।।३३५।। अभिशब्दः पृथगर्थवाचकः ततश्चाभिगृहादपरस्माद्वेश्मनो यदि शिष्ट खाद्यकद्रव्यमागतं सा आहृतिका भण्यते / सा चैवं संभवति-कश्चित् / कुलपुत्रकः कचिद् ग्रामे परिवसति।तस्य चान्यदा प्राघूर्णकः समायातः, तदर्थ विविधग्-अतिशायि द्रव्यमुपस्कृतम। कुलपुत्रस्य च भगिनी तत्रैव गामे परिणीता तदर्थ स्वकीयभार्याहस्ते धृत-पूरादिकं प्रषयति, सा च भगिनी तदानीं मृत्तिकालिप्तहस्ता ततस्ता भ्रातृजाया ब्रवीति स्थापय त्वमिदममुकत्र प्रदेशेऽहमिदानीमक्षणिका तिष्ठामीति / सा चाहृतिका चतुर्धा, तद्यथा-द्रव्याहृतिका क्षेत्राहृतिका कालाहृतिका भावाहृतिका चेति। अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवरीषुराह-- आएसट्टविसेसे, सति काले भगिणि संभरित्ता थे। भजिं भजाहत्थे, कुलओ पेसेति भगिणीए / / 336 / / आदेशः-प्राघूर्णकस्तदर्थ घृतपू(र)पलपनश्रीप्रभृतेः खाद्यकद्रव्यस्य विशेपे संजाते काले-भोजनदेशकाले भगिनी स्वसारं स्मृत्व' भार्याहस्तैर्जिका प्राघूर्णकं कुलजः कुलपुत्रको भगिनीनिमित्त प्रेषयति. एषा आहृतिकोच्यते। अस्यां च चत्वारो भङ्गास्तद्यथा द्रव्यतः प्रतिगृहीतः न भावतः, भावतः प्रतिगृहीता न द्रव्यतः, द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि प्रतिगृहीता, नापि द्रव्यतो नापि भावतः प्रतिगृहीता। अथ यथाक्रम भावनामाहउच्छंगे अणिच्छाए, ठविया दव्वगहिताण पुण भावे। एत्थ पुण भद्दपंता, अवियत्तं चेव घेप्पते // 337 / / वावारमट्टियऽसुई, लित्ते हत्थे उ विइयओ भंगो। दोसु वि गहिए तइओ, चउत्थभंगे उपडिसेहो // 338 / / यदर्थ सा भर्जिका प्रेषिता सा भगिनी तत्रान्तरमपि केनापि कारणेन च रुष्टा सती भातृजायया समर्म्यमाणामर्पितां न गृह्णाति, ततस्तया तदुत्सड़े अनिच्छयापि सा भर्जिका स्थापिता,एषा द्रव्यतः प्रतिगृहीता - पुनर्भावतः इयं च शय्यातरपिण्डो न भवति, भावतोऽत्र अगृहीतत्वात्, परमत्र भद्रकप्रान्तदोषा भवन्ति / भद्रकस्तन्निश्रया प्रक्षेपं, प्रान्तस्तु निष्काशनं वसतिव्यवच्छेदादि कुर्यादिति भावः। अप्रीतिकं चैवं गृह्यमाणे भवति, किमेष मदीयः पिण्डो न भवति येनैवं मम इदं गृह्णन्तिा तथा सा भगिनी यदा कमपि दलनपेषणादिव्यापार कुर्वाणा मृत्तिकया वा अशुच्या वा लिप्तहस्ता भवति, तदा ब्रवीति स्थापय त्वममुकत्र प्रदेशे एषा भावतः प्रति-गृहीता, न द्रव्यत इति द्वितीयो भङ्गः / तृतीये तु भरे द्वाभ्यामटि द्रव्यभावाभ्यां प्रतिगृहीता / चतुर्थभने द्वाभ्यामपि द्रव्यभावाभ्या प्रतिषेधः / कि मुक्तं भवति-सा भगिनी रुष्टा सती बलादर्यमाणामपि ता भर्जिका हस्ताभ्यामपि न स्पृशतीति / सः चाहतिका द्रव्य-- क्षेत्रकालभावभेदाच्चतुर्विधा / पुनरेकैका द्विविधा-छिन्ना, अच्छिन्ना च। अर्थता एव भावयतिसंकप्पियं च दव्वं, दिट्ठा खेत्तेण कालतो छिन्नं / दोसु उपसंगदोसा, सागारिऍ भावतो दुविहो // 336 / / यद द्रव्यं संकल्पिते यथा अमुकं घृतपूरादिकं तत्र गृहे नेतव्यम् वाशब्दस्यानुक्त प्रकारान्तरद्योतकत्वात्तत्र गृहे यतनार्थ पृथक रस्थापितं तदु भयमपि द्रव्यतश्छिन्नम् / या पुनराहृतिका रस्वगृहमानीयमाना सागारिके न दृष्टा सा क्षेत्रतरित्रा। तथा Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 623 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड अमुकरयां वे लायां नेतव्यमिति निर्दिष्ट द्रव्य कालतश्छिन्नम् / उपलक्षणमिदं तेन नेष्यामीति तत्र भावो-निवृत्तस्तद्भावच्छिन्नम् / अच्छिन्ना त्वाहृतिका चतुर्धाप्येतद्विपरीता। तथा द्वयोर्भङ्ग यो-द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावतः, नापि द्रव्यतो नापि भावतः प्रतिगृहीतत्येवंलक्षणयोर्न सागारिकपिण्डः, परं प्रसङ्गदोषान्न गृह्यते / 'भावओ' त्ति भावतः प्रतिगृहीता न द्रव्यत इत्येवंरूपो यो भङ्गः, पश्चाद् द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि प्रतिगृहीता इत्येवलक्षणो द्विविधः प्रतिगृहीतो भगः-एतयोः सागारिकपिण्ड इति कृत्वा न कल्पते। अर्थनामेव नियुक्तिगाथा व्याच - संकप्पियं वा अहवेगपासे, सागारिदि8 अमुगं तु वेलं / नियट्ठभावेन मुगं अदिट्ठ, ___काले न निदेसे अछिन्नभावे // 340 यत् घृतपूरादि तत्र गृहे नयनाय संकल्पितम् / अथवा--यदेकपार्थे विष्वक स्थापित तदेतत् द्रव्यतश्छिन्नम्। सागारिकेण स्वगृहमानीयमानं यत् दृष्ट तत् क्षेत्रतछिन्नम् / अमुकस्यां मध्याह्लादिलक्षणाया वेलाया नेतव्यमिति निर्दिष्ट कालतश्छिन्नम् / यत्र न तेषामिति भावो निवृत्तस्तदावतश्छिन्न व्याख्यातम् / अथाच्छिन्नं व्याख्याति-'अमुगं' इत्यादि, यद् द्रव्यममुक नेतव्यमिति न सकल्पितं न वा पृथक् स्थापित तद् द्रव्यतोऽच्छिन्नम् / या वाऽऽहृतिका सागारिकेण नीयमाना न दृष्टा तत्क्षेत्रतोऽच्छिन्नम् / काले अच्छिन्नं यत् प्रतिनियतायां वेलायां निर्देशो नास्ति / भावे अच्छिन्नं तु यदद्यापि नेष्यामीति भावः अव्यवच्छिन्नो न निवर्त्तते इत्यर्थः। अथात्रैव ग्रहणविधिमाहभावोजावन छिन्नइ, विपरिणतोगेण्हमो त्ति खेत्तं तु। खेत्ते विहोतिगहणं, अदितु वि विप्परिणतम्मि॥३४१॥ भावो यावदद्यापि न व्यवच्छिद्यते, तावन्न कल्पते, यदातुन नेष्यामीति भावो विपरिणतो व्यवच्छिन्नस्तदा क्षेत्रच्छिन्नं तुन कल्पते इति भावः / अर्थतदेव भावयति- 'खेत्ते वि' इत्यादि क्षेत्रच्छिन्नस्यापि ग्रहणं भवति, यदि स तद् द्रव्यं नयन्नपान्तराले न नेष्यामीति परिणतो भवति, तत्त्वसागारिकणादृष्टमदृश्यमानं ग्रहीतव्यम्। ततःपुरतो पसंगपंता, अवियत्तं चेवपुव्वभणियं तु। वितियततियाउ पिंडो, पढमचउत्था पसंगेहिं // 342 / / अथ सागारिकस्य पुरतो गृह्णन्ति ततो भद्रकः प्रसङ्ग तन्निश्रया तत्र प्रक्षेप, प्रान्तश्च निष्काशनादिकं कुर्यात् / अप्रीतिकं च पूर्वभणितं तस्य तथा पश्यतो गृह्यमाणे भवति, ततः पुरतो न गृहीतव्यम् / तथा द्वितीयतृतीयौ भङ्गौ शय्यातरपिण्ड इति कृत्वा परिहर्तव्यो, प्रथमचतुर्थी तु शय्यातरपिण्डः परं प्रसङ्ग दोषभयात्तावपि परिहर्त्तव्यो। अथाचार्यो विनयवर्गव्युत्पादनार्थमाक्षेपपरिहारी निरूपयितुकाम इदमाहकप्पइ अपरिग्गहिया, णिक्खेवे चउदुगं अजाणता। जाणंता वि य केई, संमोहं कातु लोभा वा // 343|| के चिदाचा निक्षेपचतुष्क स्य द्रव्यतः प्रतिगृहीता न भावत इत्यादिलक्षणं भड़ चतुष्टयस्य द्विक प्रथमचतुर्थभङ्ग द्वयमाश्रित्य इदं सूत्रप्रवृत्तमित्येवंविधमवजानतोऽपि तदर्थ केचिदगीतार्थानां संमोहं कृत्वा लोभात खुवते कल्पते सागारिकेणापरिगृहीता आहृतिका। इदमेव स्पष्टयतिजं आहडं होइ परस्स हत्थे, जंनीहडं वावि परस्स दिन्नं / तं सुत्तछंदेण वयंति केई, कप्पं ण मे सुत्तमसुत्तमेवं / / 441 / / यदाहृत प्राघूर्णकं शरयातरगृहमानीय परस्य हस्ते भवति, एतेन प्रस्तुतभव सूत्रं गृहीतं सागारिकगृहान्निष्काशितं परस्य दत्तम्। अनेन वक्ष्यमाणसूत्रमुपात्तम् / तदेवंविधं द्रव्यं सूत्रच्छन्देन-सूत्राभिप्रायेण कल्प्यं-कल्पनीय न-नैव, चेद्यदि आचार्य एवमस्मदुक्तं मन्यसे ततः सूत्रमसूत्रमेव प्राप्नोति अप्रमाणामित्यर्थः, एवं केचिदाचार्यदेशीया वदन्ति। अत्र सूरिः प्रतिवचनमाहसुत्तं पमाणं जति इच्छितं ते, ण सुत्तमत्थं अतिरिच जाति। अत्थो जहा पस्सतिभूतमत्थं, तं सुत्तकारीहंतहा णिबद्धं // 342 / / यदि ते तव सूत्रं प्रमाणत्वेनेष्टमनुमतं तत इदमप्यक्षिणी निमील्य विचारयन्तु देवानांप्रियाः सूत्रं तावदर्थ-व्याख्यानमतिरिच्य न याति-न प्रवर्त्तते, तावदुच्यते इत्यर्थः / एष एवार्थो नियुक्ति-भाष्यादिरूपो यथायेन प्रकारेण भूतं-सद्भूतमर्थमभिधेयं पश्यति, सूत्रकारिभिरपि गणधरस्थविरैः सूत्रं तथा तेनैवाभिप्रायेण निबद्धमवसातव्यम्। अमुमेवार्थ दृढयतिछाया जहा छायवतो णिबद्धा, संपट्ठिए जाति ठितेय ठाति। अत्थो जहा गच्छति पज्जवसु, सुत्तं पि अत्थाणुचरं तहेव // 343 / / छाया प्रतीता सा यथा छायावतः पुरुषादेर्निबद्धा परतन्त्रा सती तस्मिन् संप्रस्थित याति, स्थित च तस्मिन् साऽपि तिष्ठति, यथाऽत्रापि / पुरुषस्थानीयोऽर्थो येषु भइ कादिविषयेषु प्रकारेषु गच्छति / सूत्रमपि छायास्थानीयं तस्यैवार्थस्यानुचरं सत्तथैव तेषु तेषु पर्यायषु गच्छति। इदमेव स्पष्टतरमाहजं केणई इच्छइ पज्जवेण, अत्थेण सेसेहि उपजवेहिं। विहीव सुत्ते तहि वारणा वि, उभे य इच्छंति विकोवणट्ठा // 344 / / अर्था -व्याख्यान विधिर्येन के नचित् पर्यायेण यत्सूत्रग हीतुमिच्छतिन शेष रपरै: पर्याय स्तत्र स एव प्रमाण यितव्यो Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 624 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड न शेषा इति वाक्यशेषः / यथेहैव सूत्रे यथा भावेन परिणते आनेतरि यदि सागारिको नपश्यतिततः कल्पते प्रतिग्रहीतु द्रव्यम। एतेन पर्यायणार्थम्आहृतिकामिच्छति न शेषेरपि परिणतक्षेत्रच्छिन्नतादिभिःपयायः / एवमत्रापीप्सितेऽनीप्सिते चवस्तुनिसूत्रकारः कथं सत्रं वध्नीयादित्याहविधिर्वा तत्र सूत्रे वक्तव्यः / यथात्रैवाह-तिकासूत्रे द्वितीय आलापके बारणा वा प्रतिषेधः, यथैवेह वधबन्धे आलापके उभयं वा विधिप्रतिषेधरूपं कचिदेकत्रापि सूत्रे शिष्यमतिविकाशनार्थ सूरय इच्छन्ति। यथा- "कप्पइ निग्गथीण पक्के तालपलंबे भिन्ने पडिग्गाहित्तये से वि विहिभिन्ने, ना चेव णं अवि-हिभिन्ने' / / 5 / / (वृ) (सूत्रस्यास्य व्याख्या 'पलंय' शब्दे पक्षमभाग 714 पृष्ठे गता।) अपिचउस्सग्गओ णेव सुतं पमाणं, ण वाऽपमाणं कुसला वयंति। अंधो हि पंगुं वहते स वावि, कहेइ दोण्हं पि हिताय पंथं // 345 / / तत्र उत्सर्गत:-- सामान्येन श्रुत-सूत्रं नैव प्रमाण न वा अप्रमाणम, किन्तुपूर्वापराविरुद्धवृद्धस प्रदायागते नार्थेन युक्तं प्रमाणम् . अन्यथा पुनरप्रमाणमित्येवं कुशलास्तीर्थङ्करगणधरा वदन्ति। तथाहि-यथ किल कश्चिदन्धो देशान्तरं गन्तुमनाः स्वयं मार्गम-पश्यन पड्गुं गन्तुमशक्त चक्षुष्भत्तया स्कन्धे विन्यस्य वहति, स चापिपगुयोरप्यात्मनस्तस्य वा हिताय गर्ताप्रपाताद्युपद्रवर-क्षणाय पन्थान मार्ग कथयति / एबमर्थनाप्रबोधितं सदन्धस्थानीय सूत्रम्, तद्यदि पड्गुस्थानीयमर्थमात्मन उपरि कृतं वहति, तदा सोऽप्यर्थः सूत्रनिश्रयागतान सम्यग विषयविभागदर्शनतया निष्प्रत्यपायं मुक्तिमार्गमुपदिशति / इत्यतोऽर्थसण्यापेक्षमेव सूत्रं प्रमाणमिति रिथतम्। अथ 'जाणता वि य केई, संमोहं कातु लोभा वा' इति पश्चार्द्ध व्याचष्टअप्पसुया जे अविकोवियावा, ते मोहइत्ता इमिणा सुएण तेसिं पगासो वितमंतमेति, निसाविहंगेसु व सूरपादा।।३४६।। टे अल्पश्रुता अधीतस्वल्पसूत्रा ये वा अविकोविदा अगीतास्तिान अनेन सूत्रेण मोहयित्वा विजानन्तोऽपि लोभबहुलतया सागारिकरयाहृतिकापिण्डग्राहयन्तीति वाक्यशेषः / तेषां चैवं मोहिताना प्रकाशप्रस्तुतसूत्रार्थः कथ्यमानोऽपि तमस्तमायते प्रबलान्धकारतया परिणमते, यथा निशाविहगाउलूकाद्यास्तेषु सूर्यस्य पादाः-- किरणाः प्रकाशरूपा अतिमहान्धकारीभवन्ति / आह--यद्यवं ततः कल्पत सागारिकणापरिगृहीता आहलिकति प्रस्तुलसूत्र कथ नीयते? अत्रोच्यतेअह भावविपरिणए, अदि सुयं तु तम्मि उपउत्थे। नीहडियाए पुरओ, संछोभगमाइणो दोसा।।३४७।। यस्तमोहृतिका प्रहिणोति-नयति वा तस्मिन् भावं स्वयमेव विपरिणते न प्रहेष्यामिन नेष्यामीति वा विपरिणाममापन्ने कल्पते। यद्वा-तेन तथा गच्छता श्रुतं यस्य सकाशमहमिदं नयामि स प्रोषितो ग्रामान्तरं गतः, ततस्तरिमन् प्रोषिते राति स नेता न नयामीति परिणतः, अत्रान्तरे साधवः समायाताः, ततः सागारिकेणादृष्ट कल्पते प्रतिग्रहीतुम् / अत्र सुत्रनिपातः / तथा वक्ष्यमाणसूत्रे भणिष्यमाणाया निहतिकायां सागारिकस्य पुरतो गृह्यमाणाया सछोभकः प्रक्षेपक आदिशब्दानिष्काशनशय्याव्यवच्छेदादयश्च दोषा भवन्ति / अतः सागारिकस्य पुरतः सा न गृहीतव्या। अथ कशं रा तत्राहृतिकानयने विपरिणमतीत्युच्यतेनीयं पि से ण घेच्छिति, धम्मो व जतीण होति दिंतस्स। बसणब्भुदओ वा सिं, भंडणकम्मे य अद्धण्णा / / 348|| मया तत्र नीतमप्ये तत् घतपूरादिकं स न ग्रहीष्यति, यद्वायतीनामेवविधं द्रव्य ददतो मम धर्मो महान भवति। अथवा येषा समीपे तन्नीयते तेषां स्वजनमरणधनहरणादिकं व्यसनं शोककारणमजनिष्ट, अभ्युदयो वा कोऽप्युत्सवविशेषस्तेषां वर्त्तते, भण्डन-वाक्कलह इदानीं महता भरेण वर्तते / कर्मणि कृष्यादी ते अध (न्याः) नाः- अक्षणिकाः सन्ति, तता नीतमपि नामी ग्रहीष्यन्ति। इति भावम्मिणियत्ते, तेहिं अदिट्ठस्स कप्पती गहणं। छत्तादिणिग्गतेसुव, कप्पति गहणं जहिं सुत्तं // 348 / / इत्यनन्तरोवतप्रकारेण भावे निवृत्ते सति येषां समीपे तन्नीयते तैः शय्यातरमानुषैरदृष्टस्य कल्पते ग्रहणम् / यद्वा- क्षेत्रकालादौ निर्गतषु राहणं कल्पते, एवं यत्र सूत्रमवतरति य एष विषयस्तूक्त इति। सागारियस्स नीहडिया परेण अपरिग्हित्ता तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिग्गाहत्तिए / / 21 / / सागारियस्स नीहडिया परेण पडिग्गहित्ता तम्हा दावए एवं से कप्पइ पडिग्गहित्तए।।२२।। अस्य संबन्धस्य प्रागेवोक्तत्वात् व्याख्याऽपि प्राग्वत्,नवरं सागारिकद्रव्यं यदन्यत्र नीयते सा निहृतिकेत्युच्यते / सा यस्य समीपे प्रेषिता तेन प्रतिगृहीता न कल्पते। अथ भाष्यविस्तरःपढमचउत्थो पिंडो, बितिओ ततिओ य होति तु अपिंडो। पुरतो वि विवज्जेजा, भद्दगपंतेहि दोसेहिं // 350|| निहतिकायामपि द्रव्यतः प्रतिगृहीता नभावत इत्यादयश्चत्वारो भङ्गाः, नवरमत्र प्रथमचतुर्थी भङ्गौ शय्यातरपिण्डः, एकत्र भावतो परत्र तु द्रव्यतो भावतश्व प्रतिगृहीतत्वात / द्वितीयस्तृतीयश्च भङ्गो न भवति शय्यातरपिण्डः, सागारिकरय पुरस्तादपि द्वितीयतृतीयभङ्गो भद्रकप्रान्तकभयात वर्जयेयुः / तत्र भद्रकस्तन्निश्रया प्रक्षेप कुर्यात्। यस्तु प्रान्तकः स इदं ब्रूयात्केणावि अभिप्पाए-ण दिजमाणं पिणेच्छियं पुट्वि। अम्हे ओभावेंता, पुरओ वियणे पडिच्छंति // 351 / / किं तं न होति अम्हं, खेत्तंतरियं व किंचि मम दोसं / Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 625 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड सुव्वत्तसोत्तिगादिव, चरेंति जतिणो वि डंभेणं / / 352 किमवमिदानीमस्माकं सत्कं न भवति क्षेत्रान्तरमागतमिति कृत्वा कल्पते, तदप्यसङ्गतम, यत् क्षेत्रान्तरितमपि सदोषं भवति, तदमी सुव्यक्तश्रोत्रिया इव-धिग्जातीया इव यतयोऽपि सन्तो दम्भेन चरन्ति / किमुक्तं भवति-धिग्जातीयाश्च अशूद्रान्नव्रतमिति कृत्वा शूद्रगृहे न समुद्दिशन्ति परं तन्दुलादीनि गृह्णन्ति, तथा तेषा-मशूद्रान्नव्रते दम्भः, एवममीषामपि शय्यातरपिण्डपरिहारादेव्रतं न भद्रकं लक्ष्यते। अथाहृतिका निर्हतिका वा पापकारणेन गृह्यत इत्याहदुविहे गेलण्णम्मि, णिमंतणादव्वदुल्लभे असिवे। ओमोदरिऍ पओसे, भए य गहणं अणुण्णायं // 353 / / अरय व्याख्या प्राग्वत्। अत्र निमन्त्रणापदं विशेषतो भावयतिणिब्बंधणिमंतंते, भणंति भजिंदलाहिजा एसा। तंपुण अविगीतेसुंगीया इतरं पिगेण्हंति॥३५४|| शय्यातर महत निर्बन्धन निमन्त्रयमाण साधवो भणन्ति, यत्ते चैषा भर्जिका प्रहेणका आहृतिका वा तां प्रयच्छ तत्पुनराहतिकाया निर्हतिकाया वा राहणमगीतार्थाः कुर्वन्ति।ये तु गीतार्थास्ते-इतरमपिसागारिकपिण्डमपि गृह्णन्ति। णेच्छंतमगीतं ते-णेव य सुत्तेण पत्तिए बेंति। सच्छंदेणण भणिमो, फुडवियडमिण भणति सुत्तं // 355 / / अथ गीतार्था आहृतिका निर्हतिका वा नेच्छन्ति गृहीतुंततः तेनैव सूत्रेण प्रत्यये ब्रुवन्ति / अथ आचार्या वयं स्वच्छन्देनस्वाभिप्रायेण न भणामः किं तु रफुटविकटमतीव व्यक्ताक्षरमिदमेव सूत्रं भणति। यथा कल्पते सागारिणः प्रतिगहीता आहतिका परेण च प्रतिगृहीता निर्हतिकेति। अपि च- . जंतं जगप्पदीवे-हिंपणीयं सव्वभावपण्णवणं। ण कुणति सुतं पमाणं,णसो पमाणं पवयणम्मि॥३५६|| ततः सकलत्रिलोकीप्रसिद्ध जगत्प्रदीपैर्भगवद्भिस्तीर्थकरैः प्रणीत सर्वेषामुत्सर्गापवादनिशयव्यवहारादीनां भावप्रज्ञापनाप्ररूपणा / यत्तथाविधं श्रुतं यः कश्चित्प्रमाणं न करोति नासौ प्रवचने चतुर्वर्णसतमध्ये प्रमाणं भवति। अमुमेवार्थमन्योक्तिभङ्गया दृढयतिजस्सेव पभावुम्मि-लिताइँ तं चेव हयकतग्घाइं। कुमुदाइँ अप्पसंभा-वियाइँ चदंउवहसंति॥३५७।। यस्यैव प्रभावेणोन्मीलितानि-प्रबुद्धानि तमेव चन्द्र कुमुदान्युपहसन्ति इस संयः कथंभूतानीत्याह-हतकृतघ्नानि, हतशब्दो निन्दावाचकः कृतघ्नतया पायानीत्यर्थः / आत्मानं संभावयन्ति, वयमेव शोभनानि नामीत्यभिमन्यन्ते तच्छीलानि च यानि तान्यात्मसंभावितानि, एवंविधानि पग्मोपकारिणमपि चन्द्र वयमतीवावदातानि भवांस्तु. सकलङ्कत्वान्न तथेति स्वकीयश्वेतप्रभापटलेनोपहसन्तीयुटाते / एवं ! मार्या भवन्तोऽपि यस्येव प्रभावेणोन्मीलितविवेकलोचनाः संजाताः तदेव श्रुत सांप्रतमप्रमाणयन्तो हतकृतघ्ना इव लक्ष्यन्ते। ते एवं प्रज्ञापिताः सन्तः प्रतिपद्यन्ते, सूत्राशातनापातकतया अगीतार्थाः। अथाहृतिकादिग्रहणसूत्रम्सागारियस्स अंसियाओ अविभत्ताओ अव्वोछिन्नाओ अव्वोगडाओ अनिज्जूढाओ तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिग्गाहित्तए |23|| सागारियस्स अंसियाओ विभत्ताओवोच्छिन्नाओ वोगडाओ निज्जूढाओ तम्हादावए, एवं से कप्पइपडिग्गाहित्तए॥२४|| अथास्य सम्बन्धमाहछिन्नममत्तो कप्पति, अच्छिन्न ण कप्पति अह तुजोगे। पत्तेगंवा भणितो,इयाणिसाहारणं भणिमो॥३५८|| आहृतिका निर्हतिका पिण्डवदंशिका पिण्डोऽपि सामारिकेण छिन्नममत्वो न ममायमिति न भावान्निर्वर्तितः कल्पते अच्छिन्नममत्वस्तु न कल्पते। अथैष योगः संबन्धः / यद्वा-प्रत्येकमेककस्यैव सागारिकस्य सत्कं पिण्डमाश्रित्य विधिर्भणितः, इदानीं तु सागा-रिकस्यान्येषां च साधारण पिण्डमधिकृत्य विधि भणामः, अनेन संबन्धेनायात्रस्यास्य (23-24) व्याख्यासागारिकस्य या अंशिका तस्या अन्येषामशिकाभ्योऽविभक्ताया अव्यवच्छिन्नाया अव्याकृताया अनिगूढाया मध्यात्कश्विद्भक्तपान दद्यात्, नो 'से' तस्स साधोः कल्पते प्रतिग्रहीतुम् / / सागारिकस्य अंशिकादि-भक्तव्यवच्छिन्ना व्याकृता निगूढा च यरमाद्राशेर्भवति तस्माद् दद्यात् एवं 'से' तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति सूत्रसंक्षेपार्थः। अथ नियुक्तिविस्तर:सागारियस्स असिय, अविभत्ता खेत्तजं ततो जेसु / खीरे मालाकारे, सॉगारदिट्ठ परिहरंति ||356 / / सागारिकस्यांशिका अविभक्ता न कल्पते। सा च क्षेत्रे वा भोज्येषु वा क्षीर वा मालाकार वा संभवति। अत्र सागारिकदृष्ट सर्वत्रापि परिहरन्तीति नियुक्तिगाथासमासार्थः। अथैनामेव विवरीषुः सूत्रस्य विषभपदानि तावद्विवृणोतिअसो त्ति व भागो त्ति व, एगटुं पुंज एव अविभत्तं / कयभागो वि ण सव्वो, विच्छिजति सा अवोच्छिन्ना // 360 / / अंश इति वा भाग इति वा एकार्थपदौ अंशएवाशिका स्वार्थ कः प्रत्ययः / तत्र यावान् सागारिकादीनां साधारणवोल्लकैरुपस्कृतः तावानद्याप्यखण्डपुज एव / अथाशेन भाागादिविवक्षा कृता सा अंशिका अविभक्तेल्युच्यते। यत्र सुभागा पर मुलराशिकृतो भागोऽपि न सांध्यवच्छिद्यते सा व्यवच्छिन्ना। अध्वगडाओ तुडभे, ममं तु वा जा ण ताव णिदिसति। तत्थेव अछग्गुमाणी, होति अणिच्छूहिया अंसा // 361 / / सर्वेषामपि भागा: स्थापिताः परमेष भागस्तव एष पुनमें - मेत्येव यत्र भाग न निर्दिशति सा अव्याकृताऽभिधीयते / या Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड तु निर्दिष्टा प्रसाद्यापि न ततोऽन्यत्र नीयते सा अंशिका, तत्रैव तिष्ठन्ती अनिगूढा भवति / एवंविधा न कल्पते प्रतिग्रहीतुमिति। अथ क्षेत्रद्वारंव्याचष्टसीताइजन्नो पहुगादिमा वा, जे कप्पणिज्जा जतिणो भवंति। सालीफलादीण व विक्कयम्मि, पडेज तेल्लं लवणं गुलो वा // 362 / / सागारिकस्यान्ये पञ्च साधारणे क्षेत्रे सीताया-हलपद्धतिदेवताया यज्ञः-पूजा भवेद, तत्र शाल्यादिद्रव्यं यदुपस्कृतं पृथुकादयो वा ये तत्र क्षेत्रे ते यतीनां कल्पनीया भवन्ति / यद्वा-तत्र शालीनांकल्माषादीना फलादीनां-चिर्भटादीनाम्, आदिशब्दात्-गोधूमादिप्रभृतीनां धान्यानां विक्रीयमाणानां विक्रये तैलं वा लवणं गुडो वा पतेत् एषा सर्वाऽपि क्षेत्रविषया सागारिका। अथांशिकायन्त्रद्वारमाहजंते रसो गुलो वा, तेल्लं चक्कम्मि तेसुवा जंतु। विकिजंते पडितं,पवत्तणंते य पगयं वा॥३६३।। यन्त्रमपि सागारिकस्यान्यैः सह साधारणं स्यात्. तच द्विधा इक्षुयन्त्रं तैलयन्नं च। तत्र च इक्षुयन्त्र कोल्ले कास्यरसौ गुडो वा भवेत्, तिलयन्त्रं वक्रमुच्यते, तत्र तैलं तिलातसीसर्षपादीनां भवेत्। तैस्तदा रसदेषु विक्रीयमाणेषु यत्तन्दुलघृतवस्खादिकमापतति। अथवा-यन्त्रस्य प्रवर्त्तते प्रथमप्रारम्भे अन्ते वा-परिसमाप्तौ यत्ते संभूय प्रकृत-प्रकरणं कुर्वन्ति एषा यन्त्रविषया अंशिका।। अथ भोज्यक्षीरद्वारे व्याख्यानयति - गणगोहिमादिभोज्जा, भोत्तुव्वरितं च तत्थ जं किंचि। भातुगमादीण पओ, अविभत्तं जंच गोवेणं // 36 // गणो-मल्लादिगणरूपः गोष्ठी-महत्तरादिपुरुषपञ्चकपरिगृहीता यज्ञःयागः आदिशब्दाद्- अन्यस्यापि महाजनस्य साधारणानि यानि भोज्यानि संखड्यः, यद्वा-किंचित् मोदकप्रभृतिक तत्र भुक्तोद्वरितद्रव्यम् एषा भोज्यविषया सागारिकाऽशिका / तथा सागारिकसंबन्धिना भ्रातृव्यादीनां पयो- दुग्धं यावदद्यापि सागारिकेण सहाविभक्तम्, यद्वादुग्ध-वृत्त्यच्छिन्नं सागारिकदुग्धमध्यादद्यापि गोपेनाविभक्तम् / एषा क्षीरविषया सागारिकांशिका। मालाकारद्वारमाहपुप्फपणिएण आरा-मिगाण पडियेण जाव उ विरिक्कं / पक्खेवगादिसँमुहं, अवियत्तादी य पुव्वुत्ता॥३६५।। पुष्पाणां पणितेन-विक्रयेण यदारामिकाणां मालिकानां धृतादिक पतित तदारामस्वामिना सागारिकेण यावदद्यापि न विरिक्त भवेदेषा अपि सागारिकांशिका / अथवा-क्षेत्रादिमालाकारान्तरेषु द्वारेषु यदि सागारिकस्य संमुख पश्यतस्तदीयायामंशिकागामविभक्तायां साधको भवतादिक गृहन्ति, तदा भद्रककृताः प्रक्षेपकादयः, प्रान्तकृताः पुनरप्रीतिकादयः पूर्वोक्ता दोषा मन्तव्याः। मालाकारद्वारं प्रकारान्तरेणाऽऽह... अहवा वि मालकार-स्स अंसियं अविणयंति भोज्जेसुं। सो य सॉगारो तेसिं, तं पिण इच्छति अविभत्तं // 366 / / अथवा-मालाकारस्य पुष्पावचयमादिभिर्यनिष्ठामंशिकां भोज्येषु शालिदाल्यादिषु यावत्तस्याभाव्यं तावन्मात्रमगारिणः प्रागेवापनयति, सच मालाकाररतेषां साधूनां सागारिकोऽतो यावदसौ मालाकारांशिका अविभक्ता तावत्तामपि ग्रहीतुं नेच्छन्ति। द्वितीयपदमाहगेलनमाईसुय कारणेसु, मादिप्पसंगो ण य सव्वे गीता। गिण्हंति पुंजा अवरेडियातो, तस्सऽण्णतो वा वि विरेडियाओ॥३६७।। ग्लानत्वावमौदर्यादिषु कारणेषु संस्तरणाभावे मा प्रथमत एव शय्यातरपिण्डग्रहणे अतिप्रसङ्गो भवेदिति कृत्वा न चैते सर्वेऽपि गीतार्था अतः प्रथममविरक्तादन्यैः समं साधारणान्पुञ्जान् ततोऽन्यस्मादपि विरक्तात्तस्य सागारिकस्य सत्कान् पुञ्जान् गृह्णन्ति। बृ० 2 उ० (चैत्यवक्तव्यता पूया' शब्दे पञ्चमभागे गता।) शय्यातरपिण्डस्तीर्थकृभिः प्रतिक्रुष्ट इति शय्यातर . पिण्डद्वारमाह-- तित्थंगरपडिकुट्ठो, आणाअण्णात उग्गाण सुज्झे। अविमुत्ति अलाघविता, दुल्लभसेज्जा विउच्छेदो॥३०१।। आद्यन्तवर्जमध्यमविदेहजैश्व तीर्थकरैराधाकर्म कथंचित्कर्तुमनुज्ञातम्, पुनः शय्यातरपिण्डस्तु स्तैरपि प्रतिकुष्ट इति कृत्वा वर्जनीयोऽयम् ‘आण' त्ति तं गृह्णता तीर्थकृतामाज्ञा कृता न भवति 'अण्णाये' ति यत्र स्थितस्तत्रैव भिक्षां गृह्णता आज्ञा तेषां सेविता न स्यात्,'उग्गमा न सुज्झे' त्ति-आसन्नादिभावतः पुनःपुनस्तत्रैव भैक्षपानकादिनिमित्तं प्रविशत उद्गमदोषा न शुद्धयेयुः स्वाध्यायश्रमणादिना च प्रीतः शय्यातरः क्षीरादिस्निग्धद्रव्यं ददाति / तच्च गृह्णतोऽविमुक्तिगाद्धाभावो न कृतः स्यात्, शय्यातरतत्पुत्रभातृबन्धुतादिभ्यो बृह्यकरण स्निग्धाहारं च गृह्णतः उपकरणशरीरयोलाघवं न स्यात्, तत्रैव वाऽऽहारादि गृह्णतः शय्यातरवैमनस्यादिकरणात् शय्या दुर्लभा स्यात्, सर्वथा तद्वयवच्छेदो वा स्यात्, ततस्तत्पिण्डो वर्जनीयः। अथ द्वितीयपदमाहदुविहे गेलणम्मि, निमंतणे दव्वदुल्लभे असिवे। ओमोदरियपओसे, भए य गहणं अणुण्णातं // 302 / / द्विविधे-अगाढानागाढम्लानत्वे शय्यातरपिण्डोऽपि ग्राह्यः। तत्रागाढे, क्षिप्रमेव, अनागाढे पश्चकपरिहाण्या मासलधुके प्राप्ते सति निमन्त्रणे शय्यातरनिर्बन्धे सकृत् गृहीत्वा पुनः पुनः प्रसङ्गो निवारणीयः। दुर्लभे च क्षीरादिद्रव्ये अन्यत्रालभ्यमाने, तथा अशिवे अवमोदयें राजप्रद्वेधे तस्करादिभये च शय्यातरपिण्डस्य ग्रहणमनुज्ञातम। अत्र दुर्लभद्रव्यग्रहणविधिमाहतिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसिं जोयणम्मि कडजोगी। Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 627 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड दव्वस्स य दुल्लभता, सागारिणिवेसणा ताहे / / 303 / / त्रिकृत्वः स्वक्षत्रे चतुर्पु दिक्षु सक्रोशयोजने गवेषितस्थापिधृतादेव्यस्य / अथवा-दुर्लभता भवति तदा सागारिकपिण्डनिषेवणं कर्त्तव्यम् / गत सागारिकपिण्डद्वारम् / बृ०६ उ०। ध०पञ्चा०। सामारिकस्य आदेशादन्तर्वगडायां विधिमाहसागारियस्स आएसे अंतोवगडाए भुंजइ णिट्ठिए णिसिट्टे (निसट्टे इति पुस्तकान्तरे / ) पाडिहारिए; तम्हा दावए, णो से कप्पति पडिगाहित्तए।।१।। सागारियस्स आएसे अंतोवगडाए भुंजइ णिहिए णिसिट्टे अपा-डिहारिए ; तम्हा दावाए, एवं से कप्पति पडिग्गाहित्तए 2 / / सागारियस्स आएसे बाहिं वग्गडाए भुंजइ णिहिए णिसिट्टे पाडिहारिए, तम्हा दावाए, एवं से नो कप्पति पडिग्गाहित्तए|३| सागारियस्स आएसे बाहिं यगडाए मुंजइ णिहिए णिसिट्टे अपाडिहारिए तम्हा दावाए एवं से कप्पति पडिग्गाहित्तए / / 4 / / सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा भतिण्णए वा अंतोवगडाए भुंजइणिहिए णिसिद्धेपाडिहारिएतम्हादावाएणो से कप्पति पडिगाहित्तए / / 5 / / सागारियस्स दासेइ वा पेसेइ वा भयएइ वा अंतोवगडाए भुंजइ णिट्ठिए णिसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए से कप्पति पडिग्गाहित्तए।।६।। सागारियस्सदासेइवा पेसेइ वा भयएइ वा बाहिं वगडाए भुंजति णो णिट्ठिए णिसिटे पाडिहारिए तम्हा दावए णो से कप्पति पडिगाहित्तए।।७। सागारियस्सदासेइ वा पेसेइवा भयएइ वा बाहिं वगडाए वा भुजइ णिट्ठिए णिसिढे अप्पाडिहारिए तम्हा दावए एवं से कप्पति पडिगाहित्तए।।८।। व्य०९ उ01 सागारिको नाम शय्यातरस्तस्यादेश आयासकर आदेशः। यदि वाआदिशति इति आदेशः / अथवा-आदेशत इति शब्दसंस्कारस्तस्य व्युत्पनिमग्रे वक्ष्यामः / स च नायको मित्रं प्रभुः परतीर्थिको वाष्टव्यः / वगडा नाम परिक्षेपस्तस्यान्तमध्ये भुक्ते पदार्थान-ओदनादीन, किविशिष्टानित्याह-निष्ठितान-निष्ठां नीतान् निसृष्टान्-प्रातिहारिकान सागारिकान- सागारिकभुक्तशेषान् तस्मात्- परिनिष्ठितादिमध्यात् दापयति न 'से' तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुम् / / 11 / एवं शेषाण्यपि त्रीणि सूत्राणि भावनीयानि एवं चत्वार्यादेशविषयाणि चत्वारि दासादिविषयाणि / इह यत्र यत्र प्रातिहारिक तत्र तत्र सागारिकपिण्ड इति न कल्पते / यत्र यत्र पुनरप्रातिहारिकं तत्र तत्र न सागारिकपिण्ड इति कल्पत / प्रथम-तृतीयपञ्चमसप्तमसूत्रेषु सागारिकपिण्ड इति कृत्वा न कल्पत द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमसूत्रेषु न भवति सागारिकपिण्ड इति कल्पते / केवल भद्रकान्तदोषतो वज्र्यत इति सूत्राष्टकभावार्थः / व्य०६ उम ( आएस' शब्दे द्वितीयभागे 46 पृष्ट भाष्यकृत्कृता विषमपदव्याख्या गता। संप्रति नियुक्तिविस्तरःआएसदासभइए, अट्ठहि सुत्तेहिं मग्गणा जत्थ। सागारियदोसेहिं, पसंगटोसेहि य अगज्यो / / 3 / / आदशा-यथोक्तरूपः दासः--आजन्मावधि किकरः, भृतकः .. कियत्काल मूल्येन धृतः। आदेशश्च दासश्च भृतकश्व आदेशदासभृतक तत्र च पिण्डस्याष्टभिः सूत्रैः मार्गणा कृता। यत्र सागारिकदोषः प्रसनदोषैश्व भद्रकप्रान्तककृतैरगाह्यो भवति। __साम्प्रतमष्टानामपि सूत्राणां विभागमाहतत्थादिमाई चउरो, आएसे सुत्तमादिया। दो चेव पाडिहारी, अपाडिहारी भवे दोण्णि / / 4 / / तत्र तेषामष्टानां सूत्राणां मध्ये आदिमानि चत्वारि सूत्राणि आदेशे प्रागुक्तस्वरूपे आख्यातानि। तत्रापि द्वे सूत्रे प्रातिहारिणि द्रष्टव्ये द्वे च सूत्रे अप्रातिहारिणि। प्रथमतृतीये प्रातिहारिणि, द्वितीय चतुर्थे अप्रातिहारिणि / अन्तो बहिं वा पि निवेसणस्स, आवस्सएणं ठविए सगारो। भत्तं न एयस्स विसेसजुत्तं, तम्मी दलंते खलु सुत्तबंधो // 5 // निवेशन-गृह तस्यान्तर्बहिर्वा स्थिते सागारिकेशय्यातरे यदि आदेश एव आदेशक:-प्राघूर्णकस्तेन वा सह स्थिते यद्भक्तं विशेषयुक्तविशेषतो निष्ठां नीतं तन्न एतस्य प्राघूर्णकस्य संबन्धि, किंतु सार 'रेकस्यततस्तस्मिन् ददति सूत्रसंबन्धः-- सूत्रोपनिपातः / प्रातिहारिकभोजितया तस्मिन ददति प्रथमे तृतीये च सूत्रे न कल्पते सागारिकपिण्डत्वात, द्वितीये चतुर्थ चाप्रातिहारिकभोजितया कल्पते। तदायत्वात्केवल भद्रकप्रान्तदोषप्रसङ्गतो न गृह्यते। एतदेवाहदोण्ह सागायरियस्स,दोसा दोण्हं पसंगतो दोसा! भद्दगपंतादीया, होन्ति य इमे उ मुणेयव्वा / / 5 / / द्वयोः प्रथमतृतीययाः सूत्रयोः सागारिकस्य दोषान्-शय्यातरपिण्डत्वान्न कल्पते इति भावः / द्वयाद्वितीयचतुर्थयोः प्रसङ्ग तो दोषाः भद्रकप्रान्तादिकाः आदिशब्दादतिभद्रकातिप्रान्तादि-परिग्रहः , तेच इमे-वक्ष्यमाणा भवन्ति। तानेवाहएएण उवाएणं, गेण्हति भद्दे उग्गमेगतरं। पंतो दुदिधम्मा, विणासगरिहादिय निसिं वा।।६।। भद्रकश्चिन्तयति- साधवः एतेनोपायेन मदीयं पिण्ड गृह्णन्ति / ततः चिन्तरित्या उद्गमदोषाणामेकतरं दोषं कुर्यात्। यस्तु प्रान्तः स पापीयान दुर्दृष्टधर्मा तद्गृहं पिण्डग्रहणतो दिवा निशि वा कोपावेशतो विनाः कुर्यात, गहाँ वा दिवानिशमिति। सुत्तम्मि कप्पइ त्ति य, बुत्ते किं अत्थतो निसेहेह। एगयरदोसें कालिय, सुत्तनिवातो इमेहिं तु / / 7 / / सूत्रे कल्पते इत्युक्ते किं यूयमर्थतो निषेधयत ? सूरिश Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 628 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड ह--एकतरदोषात भद्रकदोषात्, प्रान्तदोषप्रसङ्गाद्वा इत्यर्थः / यधेवं सूत्रे करमात्कल्पते इत्युक्तमत आह- अधिकृतस्य-कालिकसूत्रस्य निपातः प्रवर्त्तमानमेभिर्वक्ष्यमाणैः कारणैः एतच ज्ञायते व्याख्यानात कालिकसूत्रं च व्याख्यानप्रधानम् ! तथा चाऽऽहजं जह सुत्ते भणियं, तहेव तं जइ विआलणा नत्थि। किं कालियाणुओगो, दिट्ठो दिट्ठप्पहाणेहिं / / 8 / / यहाथा सूत्र कालिके भणितम् / तद्यदि तथैव प्रतिपत्तव्यं न पुनर्वि-- चारणा कारिदरित तर्हि दृष्टिप्रधानैः युगप्रधानैरित्यर्थः किं करमाका - लिकानुयोगो दृष्टः, तस्मादस्ति विचारणा, सा वात्र प्रामुक्तस्वरूपेति। तत्र यदुक्तोऽस्माभिः कारणः कालिकसूत्रनिधाा इति तानि कारणान्याहअद्दिट्ठस्स उ महणं, अहवा सागारियं तु वज्जेत्ता। अन्नो पेच्छउ मा वा, पेच्छंते वावि वचंता / / / यदि केनापि सागारिकसत्केन यत् दीयमानं न दृश्यते तदस्यादृश्यस्य ग्रहणं भवति / अथवा-सागारिक-शय्यातरं वर्जयित्वा अन्यो दीयमान प्रेक्षता वा मा वा / अथवा-सागारिके प्रेक्षमाणे व्रजन्तोन तिष्ठनिक, कवलं दानवेलायां तदृष्टिः परिहियते। तत उक्तं सूत्रे कल्पते इति।। तदेवमादेशविषयं सूत्रचतुष्टयं भावयति-- दासभइगाण दिज्जइ, उक्खित्तं जत्थ भत्तयं निययं / तम्मि वि सो चेव गमो, अंतोबाहिं वदे तम्मि / / 10 / / दास भृतिकादिसत्रचतुष्टय ऽपि प्रथमसूत्र तृतीयसूत्र र प्रालिहा . 'स्वभजना तस्मिन् दापयति सागारिकपिण्ड इति कृत्वा नकाते रात्र पुनद्वितीये चतुर्थ व सूत्रे दासभृतकानामुरिक्षा हस्तोपाटित नियल भक्तक दीयते दत्तं च तैः स्वगृहं नीयते, तस्मिन्नपि दासतकादी निवेशनस्यान्तर्बहिर्वा ददति तत्र सूत्रेराव गमः-प्रकारः कल्पते वस्तुतः, पर भद्रकान्तादिदोषप्रसङ्ग तो न गृहाते / यदा तु केनापि रागारिकः सकेन र रादि वा सागारिक मुक्या अन्यः प्रेक्षतांधा तदा गृहाते / यहात ताई 'सागारिधरस आदेसे वापिरोया) दासं वागयो।'' इम्पनेन एकारण यचार्येव सूत्राणि करमान्न कृतानि / उच्यन्तेनिययाऽनिययविसेसो, आएसो होइदासभयगाणं / अचियमणच्चिए वा, विसेसकरणं पयत्तो वा / / 11 / / आदेशदामभृतःकाना भवति नियतानां नियतकालियः / तथा आदेश: पिदाचिदागच्छति, कतररथानियत दीयते, सास मृल्कान नियतम् / तथा आदेशरणार्थित... सत्कारपुरका दीयते, दारसवान सत्कराकरणतोऽनचितम तथा आदेशस्य भोजन विधिसंपादनाय महाप्रयत्नः संभाग विधीयते, दारभूतकानांतुन तादृशः प्रयत्न इति, दासभृतकसूत्रचतुष्टयादेशस्तचतुष्टयाद्विश्लेषकरणपृथक्करणम्। सागारिकस्य एकचुल्ल्या पक्वान्नग्रहणे विधिमाहसागारियणायए सिया सागारियस्स एकवगडाए अंतो एगपयाए सारियं चोपजीवइ तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहेत्तए। सागारियनायए सिया सागारियम्स एगवगडाए अंतो अभिनिपयाए सागारियं च उवजीवइ तम्हा, दावए णो से कप्पति पडिग्गाहित्तए ||10|| सागारियणायए सिया सागारियस्स एगवगडाए बाहिं सागारियस्स एगपयाए सागारियं च उवजीवइ तम्हा दावए णो से कप्पति पडिगाहित्तए|११|| सागारियणायए सिया सागारियस्स एगवगडाए बाहिं सागारियस्स अभिनिपयाए सागारियं च उवजीवइ, तम्हा दावए णो से कप्पति पडिगाहित्तए / / 12 / / सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स अभिणिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवे-साए अंतो सागारियस्स एगपयाए सागारियं च उवजीवइ,तम्हादावए,णो से कप्पति पडिगाहित्तए // 13 / / सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स अभिणिव्वगडाए एगदुवाराए एगणिक्खमणपवेसाए सागारियस्स अमिनिपयाए सागारियं च उवजीवइ, तम्हा दावएणो से कप्पति पडिगाहित्तए ||14|| सागारियस्सणायए सिया सागारियस्स अभिणिव्वगडाए एगदुवाराए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं एगफ्याए सारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए नो से कप्पइ पडिगाहित्तए।।१५।। सागारियस्स णायए सिया सागारियस्स अभिनिव्वगडाए एगदुवा-राए एगनिक्खमणपवेसाए बाहिं अमिणिप्पयाए सागारियं च उवजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पति पडिगाहित्तए।।१६।। 'सागारियरस' त्यादि अस्य संबन्धप्रतिपादनार्थमाहनीसह अपडिहारी, समणुण्णाओ ति मा अइपसंगा। एगपए परपिंडं, गेण्हे परसुत्तसंबंधो // 13|| निसृष्टो-दत्तोऽप्रतिहारिपिण्डः, समनुज्ञात इति विचिन्त्य मा अतिप्रसड़त एकस्यां चुल्ल्यां शय्यातराव्यतिरिक्तस्यापिण्ड गृह्णीयादिति परसूत्रस्यपरविषयसूत्राष्टकस्य संबन्धः / अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (6) व्याख्या--सागारिकज्ञातकः-सागारिकस्वजनः रथात, सागारिकस्य एगवगडाए' एकस्मिन् गृहे सागरिकस्यान्तरे तम्या प्रजाया-चुल्ल्यां सागारिक चोपजीवति तरमाद्धापयेत्न से तस्य साधोः कल्पते प्रतिग्राहयितुं सागारिकासलचुरल्याहारलवणाधुपजीवनतस्तस्य शय्यातरपिण्डरय शय्यातरसत्व वाल।।। एवं शेषाण्यपि सप्त सूत्राणि भावनीयानि। पाठः पुनस्तेषामेवभ-- 'सागारियनायए (इदं सूत्रसप्तकं मूलं उक्तमपि तौकारानु - राधात्पुनरुपातम् / ) सिया सागारियर स गवगड़ गए अन्तो एमपयाए सागारियं चोवजीवई, तम्हा दायए, नो से पइप Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड डिगाहेत्तर / सारियनायए (पुस्तकान्तरे सागारिय इति पाठः। सिया सारियरस एग वगडाए अन्तो अपिनिपयाए सारियं चावजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहेत्तए 10 सारियनायए सिया सारियस्स एगवडाए बाहि पापया" सारियं चोवजीवइ, ता हा दावार, नोरा कप्पड़ पडिगाहेत्तए 11 / सारियनायए सिया सारियरस एगबगलाए वाहि अभिनिपयाए सारियं चोवजीवइ,तम्हा दावए, नो रोकपपइपडिगाहत्तर 12 / सारियन या सिया सारियरस अभिनियगडाए एगदुदाराए एगान--- क्रवमापसेस ए अन्तो एगपयाए सारियं चावजीवइ. सम्हा दाव', नो से कापइ पडिगाहेत्तए 13 / सारियनायए सिया सारियस्स अभिनिव्वगडाए गदुवाराए एगनिक्खमपवेसाए अभिनिपयाए सारियं चोवजीवइ, तम्हा सावर, ना से कप्पइ पडिगाहेतए 14 / सारियनायए सिया सारियरस अभिनिव्वगड ए एगदुवाराएएग-निवखमणपवेसाए बाहि गपया र सारिशं पबिजोवइ, रम्हा दाबए, ना से कंप्यइ पडिगा हेतए 15 / सारियनाराए सिया सारियर स अभिनव्वगडाएएगदुवारा एगनिक्खमणपवसाए बाहि अभिनि-पयारसारियं चोवजीवइ, तम्हा दावए, नो से कप्पइपडिगाहत्तए 16 / अत्र अभिनिदगडाए पृथग्गहे एकद्वार एक निष्क्रमणप्रवेशे कनिवेशनान्तर्वर्तित्वत्तथा। अभिनिपयाए' इति अभिप्रत्येक नियताविकता प्रजचुल्ली अभिनिप्रजा तस्यां शेष सुगमम / संप्रति भाष्य विस्तर:पुरपच्छास्थुतो वा, वि नायगो उभयसंथुतो वाथि / ऍगवगडाएँ धरं तु, पयाउ चुल्ली समक्खाया / / 14 / / झाः का नाम-पूर्व स्तुता, यदि का-पश्वात्तस्तुतः / अथवाभयसंरतुतः स्वजनपूर्वसंस्तुतः, स्वजनपूर्वसंस्तुतो नाममातापितृपक्षावली पश्च सरतुदो भापिक्षगतः उभयसस्तुत:-तथाविधनात्रानबन्धविशषभावतः रायपक्षवत्ती एकवगडा नामक गृह प्रजातु-चुली जगार यात्रा कण लायत कानाध्यतिरस्यामिति प्रजेति यापन। एगपए अभिनिपए, अट्ठहि सुत्तेहि मग्गणा जत्थ। सागारियदोसेहिं, पसंगदोसेहिय अग्गज्झं।।१५।। एकस्यां प्रन यामभिनिप्रजायां प्रत्येक विविक्ताया प्रजायामष्टभिः सूत्रः घेण्डस्य माणा यत्र येषु सूत्रेषु प्रथमतृतीयपञ्चमसप्तमरूपेषु सागारिकदाद्विती पचतुर्थधाष्टमरूपेषु अथ प्रसङ्ग दोषर्भक्तपानमग्राह्यम् / आइल्ला चउरो सुत्ता, चउस्सालगविक्कतो। पिहगरेसुं चत्तारि, सुत्ता एक्कनिवेसणे।।१६।। आदिमानि त्वारि सूत्राणि एकगृहविषयाणि चतुः-- शाल्यासपक्षातः चतुःशालादायव द्वयोः कुटुम्बयोरवस्थानघटनात्, अन्तिमानि चत्वारि सूत्राणि पृथग्गृहेषु तान्यप्यकस्मिन् निवेशने एकस्मिन्परिक्षेपे। सागारियस्स दोसा, चउसुं चउसु पसंगदोसा य। भद्दगपंतादीया, चउसु पि कमेण नायव्या / / 17 / / चतुप प्रधम नृतीयपञ्चमसप्तमरूपषु सूत्रेषु सागारिकस्यदाषाः शया राण्डग्रह झवास्तत्रज्ञालच्या इत्ययः / चतुः द्वितीयचतुर्थ- - पाष्टमादिरूपेषु सूत्रेषु प्रसङ्गदोषाश्चतुर्वपि सूत्रेषु यथोक्तक्रमण ज्ञातव्याः, भद्रकप्रान्तादिकाः-भद्रकान्तादिकता आदिशब्दस्तरतमविशेषपरिग्राहकः। अथ कथं प्रथमतृतीयादिषु चतुई सूत्रेषु शरयातरदोषाः कथ वा अत्र प्रसङ्गदापास्तत्र आह दारुगलोणे गोरस, सूवोदगअंबिले य सागफले। उवजीवइ जं सागा-रि एगपऍ वा वि अभिनियए|१८|| दारु-काष्ठ लवण गोरसं च प्रतीतं सूपोदकं मुद्राथदकमाम्लशाकफलानि च प्रतीतानि च, यस्मात् सामारियांमति अध्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात, सागारिकस्य सत्का अनेकस्यां प्रजायां प्रत्येक विविपताया वा प्रजायामुपजीवति तेन कारणेन सागारिकदोषाश्च प्रसजन्ति। एतेन 'सागारिथ च उपजीवति इति व्याख्यातम मादेकां चुली प्रतिपद्यन्ते तत आहभीयाई करभयस्स, अंतो बाहिं च होज्ज एगपया। अभिनियए विन कप्पइ, पक्खेवगमादिणो दोसा / / 16 / / भीतानि चुल्लीकरणभयात् गाथाया पष्ठी पञ्चम्यर्थ संबन्धविक्षाया का षष्ठी यस्मारचुल्लीकरणभयात्तानि तेन कारणेनान्तर्बहिर्वा धामका प्रजा.. चुल्ली भवति। अभिनिप्रजायां तु सत्यां यद्यपि सागारिकसत्कमुपजीव्यते तथापि निर्भिन्नचुजीकतया यत् गृह्यते सत्तेषामेव भवतीति सागारिकदोषा न भवन्ति / तथा प्रसङ्गदोपतो न कल्पते / तथा च आह-अभिनि. प्रजायामपिन कल्पते, यता भद्रकप्रान्तकृताः प्रक्षपादया दोषाः भद्रकः प्रक्षेपादीन दोधान कारयेत. प्रान्ताविनाशप्रभृतीन दोषान् कारयेत् / तानेवाहजं देसी तं देमो, एए घेत्तुं न इच्छते अम्हं / अहवा वि अकुलजो त्ति य, गेण्हति अदिट्ठमादीयं / / 20 / / भद्रका सा-य: प्रभूतं देहि यद्ददासि सद्य तव दास्यामः / यात तऽर-मार मह नेल्छन्ति गृहीतुम. गाथायामेकवचन प्राकृतत्वात्। एवं गद्रककृताः प्रक्षेपादया दोषाः / अथवा-प्रान्तो ब्रूते- अकुलजा एते इति कृत्वा अदृष्टादिक महन्ति एवं गहीं करोति प्रान्तो विनाशमपि। अत्रैवापवादमुपदर्शयतिबिइयपदें ऽदिट्ठगहणं, असती तं वजिएण दिट्ठस्स। दिढे विपत्थियाणं, गहणं अन्तो व बाहिं वा॥२१॥ द्वितीयपदन- अपवादपदेन यदि न केनापि दीयमानं दृष्ट तदाऽस्य दृष्टस्य ग्रहणग / अथ सर्वथा केनाप्यदृष्ट न प्राप्यते तदा तदभावे-तद्वर्जितेन दृष्टस्य ग्रहणम् / तथा प्रस्थितानां गन्तुं चलितानां सागारिकेण दृष्टऽपि दर्शनऽपि अन्तर्बहिवा ग्रहण भवति। सागारिकस्य चक्रिकादिशालाविषयमासागारियस्स चक्कि यासाला साहारणवक यपउत्ता, तम्हा दावए, णो से कप्पति पडि गाहित्तए / / 17 / / सागारियस्स चक्कियासाला णिस्साहारणवक्कयपउत्ता दावए Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड एवं से कप्पति पडिगाहित्तए॥१८॥ सागारियस्स गोलियसाला साहारणवकियपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पति पडिगाहित्तए ||16 / / सागारियस्स गोलियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहित्तए।।२०।। सागारियस्स बोधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पति पडिगाहित्तए।।२१।। सागारियस्स बोधियसाला निस्साहारणवक्यपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए |22|| सागारियस्स दोसियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए // 23 // सागारियस्स दोसियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पइपडिगाहित्तए ||24|| सागारियस्स सोत्तियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ||25|| सागारियस्स सोत्तियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए।।२६।। सागारियस्स बोडियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए।।२७।। सागारियस्स बोडियसाला निस्साहारणवकयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए / / 28|| सागारियस्स गंधियसाला साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए ||26! सागारियस्सगंधियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्तातम्हा दायए, एवं से कप्पइ पडिगाहित्तए // 30 / / सागारियस्स सोडियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, नो-से कप्पइ पडिगाहित्तए ||31|| सागारियस्स सोंडियसाला निस्साहारणवक्कयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहित्तए // 62 / सागारियस्स चक्कियसाला साहारणवधुय-पउत्ता तम्हा दावए, नो से कप्पइ पडिगाहित्तए।३३।। सागारियस्स चक्कियसाला निस्साहारणवधुयपउत्ता तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहित्तए॥३४॥ अस्य सूत्रस्य संबन्धमाहसाधारणमेगपय-त्ति किच तहियं निवारियं गहणं! इदमवि समाण्णं चिय, साहारणसालसुयजोगो।।२२।। अनन्तरसूत्रेष्वेकस्यां प्रजायां साधारणमिति कृत्वा तच ग्रहण निवारितम् इदमपि च वक्ष्यमाणं साधारणशालासु सामान्यशालासु सामान्यसाधारणमतो निषिध्यत्ते अनेन संबन्धेनायातस्यास्य (सू०१७) व्याख्या-सागारिकस्य शय्यातरस्य चक्रिकाशालातैलविक्रयशाला इत्यर्थः, सागारिकेणात्मना सह साधारणा वक्रयप्रयुक्ता यत्तस्यां शालाया प्रक्षिप्यते, यश्च तस्य लाभात्सागारिकेण साधारण इत्यर्थः / तस्मात्-शालाया मध्यात् यत्साधूचितं तैलादिकमन्यो दापयति तत् 'से' तस्य साधोर्न कल्पते इति प्रथमसूत्रार्थः / / 17 / / तथा सागारिकस्य वक्रिकाशाला-तैलयन्त्रशाला सा निस्साधारणवक्रयप्रयुक्ता न किमपि सागारिकसाधारण तत्र भाण्डं प्रक्षिप्तमस्तीति भावः, तस्मात् निस्साधारणवक्रयशालामध्यात् दापयति एवं से' तस्य साधाः कल्पते प्रतिग्रहीतुम, एष द्वितीयसूत्रार्थः // 18|| एवं कौलिकशालाबोधिकशालादौषिकशाला सौत्रिकशालागन्धिकशालासूत्राण्यपि भावनीयानि / (व्य०।) संप्रति चक्रिकादिशब्दव्याख्यानार्थमाह-- तिल्लियगोलियलोणिय,दोसिय सुत्तियबोहिय कप्पासे। गंधिय सोडियसाला, जा अण्णा एवमादीओ // 23 // चक्रिका नाम-तैलिकास्तैलविक्रयकारिणः, एवं गोलिका लावणिका दौषिकाः सौत्रिकाः बोधिका काप्पासाः। गन्धिकाशालाः शौण्डिकशाला अन्या अपि च या एवमादिका गन्धप्रधाना सा गन्धिकशालेत्युच्यते। ववहारे उद्देस-म्मि नवमए जत्तिया भवे साला। तासि परिपिंडियाणं, साहारणवज्जिए गहणं // 24|| व्यवहारे नवमे उद्देशके यावत्यः शाल्पः-शालासूत्राणि भवन्ति-विद्यन्ते तासां सर्वासा परिपिण्डतानामयं तात्पर्यार्थः, यत्र साधारणमविभक्त क्रयाणकं तत्र प्रतिषेधः साधारणवर्जिते तु ग्रहणम्। संप्रति साधारणशब्दशालाशब्दव्याख्यानार्थमाह-- साहारणसामन्नं, अविभत्तमछिन्न संघडेगहूँ। साल त्ति आवणो त्ति य, पणियगिह चेव एगहुँ / / 25 / / साधारण-सामान्यम्-अविभक्तमच्छिन्न संस्कृतमिति एकार्थम्, एते सर्वेऽपि शब्दा एकार्थिका इत्यर्थः, शाला इति वा आपण इति वा पणितगृहमिति वा एकार्थः। साहारणा उसाला, दव्वे मीसम्मि आवणे भंडे / साहारणओ पत्ते,छिन्नं वोच्छं अछिन्नं वा / / 23 / / साधारणा तु शाला भण्यते, मिश्रे द्रव्ये सति / किमुश्त भवतिअन्यस्यापि तिला एकत्र निश्रयित्वा पील्यन्ते पीलयित्वा च एकत्र विक्रीडन्ति / अथवा- साधारणेनावक्रयेण युक्ते आपणे भाण्ड वा क्रयाणके साधारणशाला गवति। तथा छिन्नमछिन्नं या वक्ष्य एष गाथासंक्षेपार्थः। सांप्रतमेनामेव विवरीषुः प्रथमतो द्रव्यमिश्रे इति व्याख्यानयतिपीलंति एक्कतो वा, विक्कति य एक्कतो करिय तेल्लं / अहवा विवक्कएणं, साहारणवक्कयं जाण / / 27 / / अन्यस्यान्यस्य तिलान् एकत्र समीलयित्वा पीलयन्ति ततो विक्रीणन्ति। अथवा-पृथक् पृथक् तिलान् पीलयित्वातैलं कृत्वा एकत्र विक्रीणन्ति, तदेवं द्रव्ये मिश्रे साधारणवक्रयप्रयुक्ता शाला व्याख्याता / अथवाअन्यथा साधारणवक्रयप्रयुक्तेति व्याख्यानयति / अथा-वक्रयेणभाटकेन या साधारणशाला प्रयुक्ताव्यापरिता तत्र तल्लभ्यते भाण्डक-- Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 631 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड तत् शय्यातरस्यान्येषां च साधारणमिति साधारणवक्रयप्रयुक्तं जानीहि / अत्र यथा कल्पतं यथावान कल्पते तथा प्रतिपादयतिपीलिय घरेडियम्मि, पुव्वगमेणं तु गहणमहिछे। एगत्थ विक्कयम्मी, अमेलिया दिट्ठमन्नत्थ / / 28|| अन्यस्यान्यस्य तिलानेकत्र मीलयित्वा पीलयित्वा च तैले विरेचितेविभक्तीकृते पूर्वगमेन-पूर्वप्रकारेण शय्यातरेणादृष्ट ग्रहणं भवति, दृष्ट तु न कल्पते / मा प्रक्षेपक कुर्यादितो हेतोः, अन्यत्र ज्ञातं तु कल्पत एव, तथा पृथक् तिलान् पीलयित्वा च एकत्र विक्रीणन्ति तत एकत्र विक्रय यावन्मूल्यं मिलितम्-अविभक्त-मित्यर्थस्तावन्न कल्पते इत्यर्थः / अमीलिते मूल्यकरणेन विभक्तीकृते सागारिकेण अदृष्ट स तु कल्पते / दृष्ट प्रक्षेपदोषसंभवात्। अन्यत्र पुनः स्वयोगेन नीतं निःशङ्क कल्पते। साम्प्रतमापणं साधारणवक्रयप्रयुक्तं व्याख्यानयतिजो उ लाभगभागेण, पउत्तो होति आवणो। सो उ साहारणो होइ, तत्थ घेत्तुं न कप्पइ॥२६॥ यस्तु सागा रिकण लाभभागेन त्रिभागादिना आपणः प्रयुक्तो भवति | साधारणो भवत्यापणस्ततस्तत्र ग्रहीतुन कल्पते। साम्प्रतं भाण्ड साधारण वक्रयप्रयुक्त व्याख्यानयति-- छेदे वा लाभो वा, सागारितो जत्थ होइ आभागी। तं तु साधारण जाण, सेसमसाहारणं होइ॥३०|| यत्र भाण्डर छेद लाभे वा सागारिकोऽर्द्धन त्रिभागादिना वा आभागी भवति / तत भाण्ड साधारणं-साधारणवक्रयप्रयुक्तं जानीयात्, एतद्व्यतिरिक्तं शेष भाण्डमसाधारणं भवति। साधारणे वा भाण्ड यावत् तं न विभज्यते तावत्सागारिकपिण्डः, विभक्ते तु कल्पते / तत्रापि प्रक्षेपदोषप्रसङ्ग तो दृष्ट न कल्पते, अदृष्ट तु कल्पते। यदा तु सा शाला भाटकप्रदानेन गृहीता कालेन मया तवैतावत् दातव्यं नच भाण्डं शय्यातरेण सहच्छन्द लाभे वा त्रिभागादिना साधारणम् / तत्राप्यसाधारणे अदृष्ट कल्पते, दृष्ट तु प्रक्षेपदोषप्रसङ्गता नेति। ___ संप्रति छिन्नं वोच्छं अछिन्न वे' ति व्याख्यानार्थमाहसच्चित्ते अञ्चित्ते, मीसेण य जा पउंजए साला। तं दव्वमन्नदव्वे-ण होइ साहारणं तं तु // 31 // सचित्तेन आचत्तेन गाथायां सप्तमी तृतीयार्थे प्राकृत्वेन मिश्रेण च प्रयुज्यते शाला। किं विशिष्टन सचित्तादिनेत्यत आह-द्रव्येण, तावद् द्रव्यं नाम-रत् शालायां प्रक्षिप्तमस्ति। अन्यत् द्रव्यं तद्-व्यतिरिक्त द्रव्यम् / इयमत्र भावना-यत् शालायां प्रक्षिप्तं सचित्तं मिश्र वा कर्पासादि तस्य त्रिभागादि दातव्यम् / यदि वा-यन्निष्प-द्यते कासादिभ्यो वस्त्रादिकमन्यत्तस्य त्रिभागादि दातव्यमिति तद्भवति साधारणमच्छिन्नं द्रव्यम्, तन्न कल्पते / सम्प्रति छिन्नं द्रव्यं तत् कल्पते। सम्प्रति छिन्नमाह तद्दव्वमन्नदव्वे-ण वा विछिन्ने वि गहणमविट्ठो। मा खलु पसंगदोसा, संछोभभयं व मुंचेजा // 32 // तद द्रव्यं यत शालायां प्रक्षिप्तम्, अन्यद्रव्य-तद्वयतिरिक्तम एतावता कालेन द्रव्यं मयैतावद्दातव्यमित्येव तद् द्रव्येण अन्यद्रव्येण छिन्नेऽपि-- विभक्तीकृतेऽपि ग्रहणमदृष्ट शय्यातरेण कल्पते, न तु दृष्ट। कुत इत्याहमा खलु प्रसङ्ग दोषाः स्युरिति कृत्वा। एतदेव संछोभो नाम-प्रक्षेपस्तकुर्यात, भृति वा मूल्य मुञ्चत् यावदुपयु-ज्यते साधूनां सावद दत्स्व द्रव्य भृतिमध्यात पातनीयमिति। जंपियन एइ गहणं, फलकप्पासो सुरादि वा लोणं / फासं पि उ सामन्नं,न कप्पए जं तहिं पडियं // 33 // यदपि चाप्रासुकतया ग्रहण नागच्छति,तद्यथा-फलमाम्रादि। कप्पासः सुरादिरादिशब्दात्सरजस्कादिग्रहणं लवणम्, एतान्य-प्राशुकान्यपि कदाचित्कारणे गृह्यन्ते / तत एवमुक्त प्राशुकभपि तु वस्त्रादि यत्तत्र शालायां शय्यातरेण सह साधारण तत्तु कल्पते। तदेव दीषिकशालामधिकृत्य दर्शयति-- अंडजबोंडजवालज, वागज तह कीडजाण-वत्थाणं। नाणादिसागयाणं, साधारणवज्जिते गहणं॥३४॥ अण्डजाना--अण्डजसूत्रमयाणां वाण्डजाना-कप्पसिकसूत्रमयाणां वालजाना-कम्बलाना वल्कलजानां-शत्वम्मयाना कीटजाना वस्त्राणां नानादेशागतानां प्रयोजने समापतिले साधारणवर्जिते सागारिकेण सह साधारणरहिते आपणे ग्रहणं भवति दोषाभावात् / दृष्टादृष्टविभाषा प्राग्वत्। (व्य) सागारिकस्यौषधयः-- सागारियस्स ओसहीओ संथडाओ तम्हा दावए, णो से कप्पति पडिगाहित्तए।।२७।। सागारियस्स ओसहीओ असंथडाओ तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहित्तए।।२।। (व्य०) सागारिकस्य-शय्यातरस्य औषधयो गोरसवत्या संस्तृताः साधारणास्तस्य तन्मध्याद्दापयति सपकारो नो कल्पत 'से' तस्य साधोः प्रतिग्रहीतुम्॥२७|था सागारिकस्योषधयः असंस्तृता असाधारणास्तस्माद्दापयति एवं 'से' तस्य कल्पते प्रतिग्रहीतुमेवमामफलसूत्रद्वयमपि भावनीयम्। संप्रति भाष्यप्रपञ्चस्तत्रौषधिप्रतिपादनार्थमाहगोरसगुलतेल्लघता-दिओसहीतो व होंति जा अण्णा। सूयस्स कट्ठलेण तु, ता संथडऽसंथडा हुंति॥३६|| सूतस्य काष्ठलयने इन्धनगृहे ये गोरसगुडतैलघृताद्या औषधयोऽन्या वायाः सन्तिता द्विविधाः सागारिकेण सह संस्तृताः साधारणा असंस्तृता वा असाधारणा वा भवन्ति। कथं पुनः साधारणास्तत आहधुव आवाह विवाहे, जण्णे सड्ढे य करडुगे चेव / विविहाओ"ओसहीओ, उवणीता भत्तसूवस्स // 37 / / Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियपिंड 632 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सागारियपिंड जं दड्डविदड्ड या, जो वा तह भत्तसेस उद्धारो। लभइ जइ सूवकारो, अविरिकं तं पि हुन लद्धा // 38 // ध्रुवं-सर्वकालमुपस्करं करोति सूधकारो भोजिकानाम्, आवाहा दारकपक्षिणां वीवाहो वधूपक्षिणां यज्ञो नागयज्ञादि / श्राद्धधिग्जातिजनप्रतीतं करडुक-मृतकभक्षणम् इन्द्रमहादिरोषु सूपकार आनीयते। तस्य भक्तरतस्य सूपकारस्य विविधा औषधयः पूर्वभणिता उपनीता-ढौकितास्तत्र यत् दग्धमीषत् दग्धं विदग्ध वा-प्रभूत दग्ध यो वातत्र भक्त शेषस्योद्धारो भक्तशेष यत्तत्रोद्वरितमित्यर्थः, तद्यदि लभते सूपकारस्त्ततस्तरकल्पले / अविरक्तम्-अविभक्तीकृतं तदपि दाधविदग्धादि हु-निश्चित गृहीतुं दातुंवा न लभते ततस्तद् न कल्पत एतदेवाह-- अविरिको खलु पिंडो, सो चेव विरेइतो अपिंडो उ। भद्दगपंतादीया, धुवा उदोसा विरिक्के वि॥३९।। अविरक्तः( अविरिक्तः / -अविभक्तीकृतः खलु भवति पिण्डः सागारिक-पिण्डः, स चैव विरचितः-विभक्तीकृतः भवति अपिण्ड:सागा-रिकपिण्डो न भवति, इति भावः / यद्येवं तर्हि स ग्राहाः, तत आह-विरक्तेऽपि, ध्रुवा भद्रकप्रान्तादिका दोषास्तस्मात्तत्रापि सागारिकसत्का असागारिकण सह संस्तृतारताः खलु न कल्पन्ते. (27 स० ध्या०) / यास्त्वसस्तृता सूतस्य सूपकारस्य संबन्धितया जातास्ताः कल्पन्ते / तदेवमौषधिसूत्रद्वयं भावितम्। अधुना आमफलसूत्रद्वयं भावयतिसागारियस्स अंबफला संथडाओ तम्हा दावए, णो से कप्पति पडिगाहित्तए।।३१।। सागारियस्स अंबफला असंथडाओ तम्हा दावए, एवं से कप्पति पडिगाहित्तए।।३२॥ वल्ली वा रुक्खो वा, सागारियसंतिओ भइज्ज परं / तेसिं परिभोगकाले, समणाण तहिं कहं भणियं / / 4 / / वली वा सागारिकसत्को वृक्षोवा सागारिकसंबन्धी परस्यावग्रह भजेत। तत्र तेषां वल्लीवृक्षाणां फलपरिभोगकाले श्रमणानां कथं भणितम्? किं कल्पतं किं वा न कल्पते? इति एष गाथासंक्षेपार्थः। साप्रतमेनामेव व्याचिख्यासुः प्रथमतो वृक्षवल्लीव्याख्यानमाह-- फणसंबचिंचतलना-लिकेरमादी हवंति फलरुक्खा। लोमसिय तउसमुद्दिय, तंबोलादी य वल्लीतो॥४१॥ पनस आम्र विशा-चिञ्चतिका 'आँबिली' इत्यर्थः / ततस्तालो नालिकेरी इत्येवमादिका भवन्ति फलवृक्षाः / लोमसिका पुषिका ताम्बूलिका इत्येवमादिका वल्ल्यः। तदेव वृक्षा वल्ल्यश्चोक्ताः। संप्रति एतेष्वपरिमितस्य व्याख्यानमाहपरोग्गहं तु सालेणं, अक्कमेज्ज महीरुहो। छिंदामि त्ति य तेणुत्ते, ववहारो तहिं भवे // 42 // महीरुहा-वृक्ष आम्रादिसागारिसत्कः शालया-शाखया, गाथायां पुस्त्वं प्राकृतत्वात् / विवर्द्धमानः परगृहमाक्रमेत , तत्र परोते-इयं शाखा पदीयगृहमाक्रामति ततश्छिनधि एवं तेनोक्ते व्यवहारस्तत्र भवेत्। कथमित्याहसागारियस्स कहियं, केवतिओ उग्गहो मुणेयव्यो। ववहारो तह छिन्नो, पासायगडे बिती तिरिए।।४३।। सागारिकस्य-शय्यातरस्य कियान् अवग्रहो ज्ञातव्य इति व्यवहारकारिभिश्चिन्तितम्, ततः शास्त्रं परिभाव्य व्यवहारे ऊर्ध्वाधरित्तर्यग्भेदतश्छिन्नः, ततः ऊध्र्वतोऽवग्रहस्य परिमाणे प्रासादो यावत्प्रमाणमूर्ध्व प्रासादस्योक्तं तावदूर्ध्वमवग्रह इत्यर्थः अधोऽवग्रहप्रमाण पालनीयप्रमाणमित्यर्थः, तिर्यग् वृत्तिः। एतदेवाहउड्डूं अहो य तिरियं, परिमाणं तु वत्यूँणं / खायमूसिय मीसं वा, तं वत्थु तिविहोदियं / / 4 / / ऊर्ध्वमधरितर्यपरिमाण वास्तूनां भवति, तच वास्तु निधोदितम्। तद्यथा-खातमुच्छ्रितं मिश्रं च--खातोच्छ्रितम्। (व्य०) (अत्र त्या व्याख्या 'पासाय' शब्दे पञ्चमभागे गता।) एवं छिन्ने उ ववहारे, परो भणइ सारियं / कप्पेमि हंते सालाई, ततो भणइ सारिते / / 471 / एवम् - उक्तेन प्रकारेण व्यवहारे छिन्ने परः सागारिक भणतिकल्पयामि छिनद्मि अहं तवाम्रादिवृक्षसत्कं शाखादि आदिशब्दात्प्रशाखापल्लवादिपरिग्रहः। तत आह सागारिकःमा मे कप्पेहि सालाइं, दाहं ते फलनिक्कयं / तत्थ छिन्ने अच्छिन्ने वा, सुत्तसाफल्लमाहितं // 48 // मामामवृक्षस्य शाखादि मा कल्पयत ते फलानि निष्क्रयं दास्यामि / तत्र एतावन्ति फलानिदातव्यानीति छिन्त्र सामान्यतः फलानि दातव्यानि इत्यछिन्न तत्र छिन्ने अच्छिन्ने वा यथायोग सूत्रद्वयस्य साफल्यमाख्यातम। तत्र पर आहसाहूणं व न कप्पइ, सुत्तमाहु निरत्थयं / गेलद्धाणओमेसु, गहणं तेसि देसियं // 49l केचिदाहुः सूत्रद्वयमिदं निरर्थकं यतः साधूनामामाणि सचित्तत्वान्न कल्पन्ते। आचार्य आह-तेषामामफलाना ग्लानत्वे अध्वनि शेषभिक्षाया अलाभे अवौदार्येच ग्रहण देशितं-कथित महर्षिभिरतो न निरर्थकमिति। अविरिकसारिपिंडो, विरिक्का वि य सारिदिट्ठ न वि कप्पे। अद्दिहसारिएणं, कप्पंति य ताहे घेत्तुं जे / / 5 / / अविरिक्तान्यपि च सागारिकेण दृष्टानि न वैकल्पन्त, लतादृष्टानि सागारिकेण ग्रहीतु कल्पन्ते 'जे' इति पादपूरणे / उपसंहारमाहएवं अत्तट्ठाए; सयं परूढाण वा वि भणियमिणं / इणमण्णो आरंभो; समणट्ठा वा वि एतम्मि / / 51 / / एवमुक्तप्रकारेणात्मार्थगारोपितानां स्वयं वा प्ररूढानामिदमनन्तरोक्तं भणितम् / व्य०६ उ० (अत्रत्या विशेष वक्तव्यता आधाकम्म' शब्दे द्वितीयभागे 242 पृष्ठे गता।) Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागारियागार 633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सातवाहण सागारियागार-पुं०(सागारिकाकार) सहागारेण-गृहेण धर्तत इति | साणुकोसया-स्त्री०(सानुक्रोशता) सदयतायाम, आ०स्था०। सागारः स एव सागारिको गृहस्थः / स एवाकारः प्रत्याख्यानहेतुः ___ सानुकम्पतायाम्, भ०८ श०६ उ०। विशे०। गारिकाकारः / सागारिकं वर्जयित्त्वेत्त्यर्थे, पञ्चा०५ विव०। 'सागारि- | साणुणाय-पुं०(सानुनाद) यत्र जल्पता प्रतिशब्द उत्तिष्ठते तस्मिन् प्रदेशे, यागारेणं' सह गारेण वर्तत इति सागारः स एव सागारिको गृहस्थः, स | विशेष एवाकारः प्रत्याख्यानापवादः सागारिकाकारस्तस्मादन्यत्र, गृहस्थ- | साणुदयबंधिणी-रत्री०(स्वानुदयबन्धिनी) स्वस्यानुदय एव बन्धो समक्ष हि साधनां भोक्तुं न कल्पते, प्रवचनाद्यपधातसंभवात् / यत विद्यत यासाता: स्वानुदयबन्धिन्यः। कम्म' शब्दे तृतीयभागे 274 पृष्ठ उक्तम्- 'छकायदयावंतो, विसंजओ दुलह कुणइ बोहिं / आहारे नीहारे, दर्शितासु तथाविधकर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वार। दुर्ग(गुं)छिए पिंडगहणे य॥१॥' ततश्च भुजानस्य यदि सागारिक: साणुप्पग-न०(सानुप्रग) प्रत्यूषवेलायाम, बृ०१ उ०२ प्रकला चतुर्भागाकश्चिदायाति, स च यदि चलस्तदा क्षणं प्रतीक्षते, अथ स्थिस्तदा वशषचरमायां पौरुष्याम्,नि० चू०१० उ०। स्वाध्यायादिव्याघातो मा भूदिति ततः स्थानादन्यत्रोपविश्य भुञ्जान- साणुप्पगभिक्खा-स्त्री०(सानुप्रगभिक्षा) सानुप्रगे-प्रत्यूषवेलायां या ग्यापि नैकाशनभङ्गः। गृहस्थस्यापि येन दृष्ट भोजनं न जीर्यति तत्प्रमुखः लभ्यते भिक्षा सा सानुप्रगभिक्षा / प्रातः कालिक्यां भिक्षायाम्, बृ० सागारिको ज्ञातव्यः। प्रव० 4 द्वार / ध०। १उ०२ प्रक० सागारोवओग-पुं०(साकारोपयोग) आकारसहिते, प्रज्ञा०।२८ पद। साणुप्पास-त्रि०(सानुप्रास) अनुप्राससहिते, अनु०। (व्याख्या 'उवओग' शब्दे 2 भागे 860 पृष्ठे गता।) साणुबंध-त्रि०(सानुबन्ध) निरुपक्लिष्ट कर्मणि, 'अमायोऽपि हि साडग-न०(शाटक) परिधानवस्त्रे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अगवस्त्रमात्रे, विधा० भावेन, माय्येव तु भवेत् क्वचित् / पश्येत्स्वपरयोर्यत्र, सानु बन्ध१ श्रु०७ अ०1 भ० ज्ञा हितोदयम् ॥१॥'ध०३ अधिका साडण-न०(सातन) अङ्गोपाङ्गाना विशरणे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१७०। साणुबंधदोस-पु०(सानुबन्धदोष) निरुपक्लिष्टकर्मलक्षणे दोषे, षो० साडण्णा-स्त्री(साटना) उत्सर्गे त्याजने, आव०५ अ०। 12 विदा साडिया-स्त्री (साटिका) परिधानवस्त्रे, अनु०॥ साणुभव-पुं०(स्वानुभव) रवीयज्ञानप्रसरे, "स्वकीयश्रुतचिन्तोत्तरोत्यसाडी-स्त्री०(शाटी) शटति गच्छति इति शाटी। पयसि, प्रव०४ द्वार। नभावनाज्ञाने, ''श्रुताब्धेः संप्रदायाच, ज्ञात्वा स्वानुभवादपि / ध० साडीकम्म-न०(शाकटिककर्मन) शकटानां घटनविक्रयवाहनरूपे, 1 अधि। उपा० 1 अ० भा शाकटिकत्वेन जीवने, तत्र गवादीनां बन्ध-बधादयो साणुराग-पु०(सानुराग) अनुरक्ते, तथाविधानुरागयुक्तत्वेनाप्रशदोषा इति का न उपभागपरिभोगव्रतातिचारत्वं तस्य। पञ्चा०१ विव०। स्तदृष्टी, महा०३ अ०॥ भ० / श्रा०ा आव०, शकटानां तदङ्गानां चक्रोध्वर्यादीनां स्वयं परेण वा साणुलट्ठियागाम-पुं०(सानुयष्टिकाग्राम) स्वनामख्याते ग्राम, यत्र वृत्तिनिमित्त निष्पादने, विक्रयवाहने च / ध०२ अधि०। "शकटाना छवास्थविहारेण विहरन वीरजिनः भद्रप्रतिमया तस्थौ। आ०म० 10 // दिङ्गाना, घग्नं खेटनं तथा। विक्रयश्चेति शकठजीविका परिकीर्तिता आ० चू |1||' प्रव०६ द्वार। सात-न०(सात) सौख्य, चं०प्र०२० पाहु०। सू०प्र० सुखे, उत्त० साडोल्लय-न०(शाटोलक) उत्तरीयवस्त्रे, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ० १अगसुखहेतौ, उत्त०२ अ०। प्रश्न सातत्त-न०(सातत्त्य) नैरन्तर्ये, स्था०१० ठा०३ उ०॥ साण-पुं०(श्वन) श्वनशब्दस्य साणादेशः। कुकुर, उत्त०१ अाआचा०। अनु० / उत्तः। दश० : नि०चू० / भ०। आचा० सातवाहण-पुं०(सातवाहन) स्वनामख्याते नृपभेदे, ती०५२ कल्प० आ० 0 / तचरित्रं त्वेवम्-अथ प्रसङ्गतः परसमयलोकप्रसिद्ध साण-पुं०। छुरिकादितक्ष्ण्योत्तेजके मसृणापाषाणे, अष्ट०१५ अष्ट। सातवाहनचरित्रशेषमपि किंचिदुच्यते-श्रीसातवाहने क्षितिं रक्षति आ०म० पाइ० ना० पञ्चशतवीराः प्रतिष्ठानगरान्तस्तथा वसन्ति स्म पश्चाशनगराद्वाहः / साणंदसमाहि-पुं०(सानन्दसमाधि) सुखप्रकाशमयस्य सत्त्वस्योद्रेका इतश्च तत्रैव पुरे एकस्य द्विजस्य सूनुर्दप्पोद्धतः शूद्रकाख्यः समजनि। धिक्यात्तथाविधे समाधी, द्वा०२० द्वा०। स च युद्धश्रमं दर्पण कुर्वाणः पित्रा स्वकुलानुचितमिति प्रतिषिद्धो नासाणय-न०(शाणक) शणवल्कनिष्पन्ने, आचा०२ श्रु०१ चू०५ उ० स्थात्। आन्येधुः-सातवाहननृपतिः वापलाखूदलादिपुरान्तर्वर्त्तिवीर१ उ०। स्था। वृ०॥ पञ्चाशदन्वितः पञ्चाशद्धस्तप्रमाणां शिलां श्रमार्थमुत्पाटयन दृष्टः, पित्रा साणि-स्त्री०(शाणी) शणसूत्रमय्यां शाटिकायाम् दश०५ अ० १उ० समं गच्छता द्वादशाब्ददेशीयेन शूद्रकेण केनापि वीरेणाङ्गुलचतुष्टयं, साणुक्कोस-कि०(सानुक्रोश) सहानुक्रोशेन वर्त्तत इति सानुक्राशः। सदये, केनचित्षडडगुलान्यपरेण त्वङगुलान्यष्टी शिला भूमितस्तत्रोत्पाटिता उत्त-२२ अ० मही जानिना त्याजानुनीता इत्यवलोक्य शूद्रकः स्फूर्जितदूर्जिल Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाहण 634 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सातवाहण मवादीत्- भो-भो भवत्सु मध्ये किं शिलामिमां मस्तकं न कश्चिदुद्धर्तुमीष्टे / तेऽपि सदर्पमवादिषुर्यथा त्वमेवोत्पाटय यदि समर्थ-- म्मन्योऽसिा शूद्रकस्तदाकर्ण्य शिला वियति तथोच्छालयांचकार यथासा दूरमर्द्धमगमत्-पुनरवादि शूद्रकेनयो भवत्स्वलंभूष्णुः स खल्विमा निपतन्तीं बिभर्तु / सातवाहनादिवीरैर्भयोद्धान्तलोचनैरूचे स एव सानुनयम् / यथा भो ! महाबल ! रक्ष रक्षास्माकीनान् प्राणानिति / स पुनस्तां पतयालु तथा मुष्टिप्रहारेण प्रहतवान् यथा सा त्रिखण्डतामन्य भूत्। तत्रैक शकल योजनत्रयोपरिन्यपतत्, द्वैतीयिकं च खण्ड नागदे तृतीयं तु प्रतोलीद्वारे.चतुष्पथमध्ये न पतितमद्यापि तथैव वीक्ष्यमाणास्ते जनाः, तद्बलविलसितचमत्कृतचेताः क्षोणिनेता शूद्रक सुतरा सत्कृत्य पुराऽऽरक्षकमकरोत् / शस्त्रान्तरेण प्रतिषिध्य दण्डधारकस्य तस्य दण्डनेवायुधमन्वाज्ञासीत्। न च शूद्रको बहिश्वरान् पुरमध्ये प्रवेष्टुमपिन इनवान्, अनर्थनिवारणार्थन / अन्यदा स्वसौधस्योपरितले शयानः सातवाहनः क्षितिपतिर्मध्यरात्रे शरीरचिन्तार्थमुत्थितः, पुराहिः परिसरे रुणं रुदितमाकर्ण्य तत्प्रवृत्तिमुपलब्धं कृपाणपाणिः परदुःखिहृदयतया गृहान् निरगमत्। अन्तराले शूद्रकेणाऽवलोक्य सप्रश्रयं प्रणतः पृष्टश्च महानिशायां निर्गमनकारणम् धरणीपतिरवादीत-अयं बहिः पुरः परिरारं करुणक्रन्दित स्वनिः श्रवणध्वनिपथिकीभावमनुभविन्नस्ति, कारणं ज्ञातुं प्रजननीति राज्ञोक्ते शूद्रको व्यजिज्ञपत-देव ! तीक्ष्यपादः स्वसौधाल करणाय पादाववधार्यतामहमेव तत्प्रवृत्तिमानध्यामात्याभिधाय वसुधानायकं व्यावृत्त्य स्वयं रुदितध्यन्यानुसारेण पुरावहिर्गन्तु प्रवृत्तः / पुरस्ताद् व्रजन दत्तको गोदावर्याः स्रोतसि तद् रुदनमश्रौषीत् / ततः परिकरबन्धं विधाय शूद्रकस्ती| यावत्सरितो मध्य प्रयाति तावत्ययः पूरालाव्यमानं नरमेकं रुदन्तं वीक्ष्यवभाषे-भोः रत्वं किमर्थं च रादिक्षीत्यभिहितः। स नितरां रुदति निबन्धं केनापि मदरसा विधृतादम्यादन्याशय सद्यः कृपाणिकामेवाऽवाहयामास शूद्रकः / तदनु विरोमात्र दकस्योद्धर्तुः करतलमारोहत् / लघुतया रच्छिरः प्रक्षर द्रुधिरः मालोज्य शूदको विशादमापनश्चिन्तयति स्म। धिग्मामप्रहर्तरि परिणामतरक्षकं चेत्यात्मानं निन्दन वजाहत इव क्षणं मूर्छितस्तस्थौ ! न सावितचैतन्यश्विरमचिन्तयत्कथमिवंतत् बदुश्चेष्टितमवनिपतये निवेदयिष्यामि इति लज्जितमनास्तथैव / काष्ठश्चितां विरचय्य तत्र जालनं प्रज्वाल्य तच्छिरः सह गृहीत्वा यावदचिषि प्रवेष्ट प्रववृते तावत्तेन मरतन निलगदे भी महापुरुष ! किमर्थमित्थं व्यवसीयते, भवता यावदह शिसभात्रमेवारिम संहिकेयवत्सदा तद् वृथा मा विषीद, प्रसीद मां राज्ञः समीपमुपनयंति तद्वचनं निशभ्य चमत्कृतचित्तः प्राणित्यमिति महा: शूद्रकस्तच्छिरः पट्टांशुकवेष्टित विधाय प्रातस्सातवाहनदुधा रात, अच्छदथ पृथवीनाथः / शूद्रकः! के मिदम् ? सोऽप्यवोचत पद ! साध्य यस्य क्रन्दितध्वनिर्देवेन रात्री शुश्रुवे, इत्युक्त्वा तस्य प्रागुवा मृतकलभावेदयत् / पुना राजा तमव | भस्तकमाक्षीत / मोः कस्या ?मर्थ यात्र भवदागमन मिति ? | तेनाभिदधे महाराज ! भवतः कीर्त्ति समाकर्ण्य करुणरुदितव्याजेनात्मान ज्ञापयित्वा त्वामहमुपागमम्, दृष्टश्च भवान् कृतार्थे मेऽद्य चक्षुक्षी जाते, इति / का कलां सम्यग् वेत्सीति राज्ञा पृष्ठतेनोक्तम्-देव ! गीतकलां वेझिं। ततो राज्ञ आज्ञया निरवगीतं गीतं गातु प्रचक्रमे। क्रमेण तद्गानकलया मोहिता सकलाऽपि नृपतिप्रमुखा परिषत्। स च मायासुरनामकोऽसुरस्तां मायां निर्मायमहीपतेर्महिषी महनीयरूपधेयां अपजिहीर्षुरुपागतो बभूवा न च विदितचरमेतत्कस्यापि। लोकस्तु शीर्षमात्रदर्शनात्तस्य प्राकृतभाषया 'सीसुला' इतिव्यपदेशः कृतः। तदनु प्रतिदिन तस्मिन्नपि तुम्बुरौ मधुरतरं गायति सति श्रुतं तत् स्वरूपं महादेव्या, दासीमुखेन भूप विज्ञाप्य तच्छीर्ष स्वान्तिकमानायितम्, प्रत्यहं तमजिज्ञपत् राशी। दिनान्तरे रात्रौ प्रस्तावमासाद्य सद्य एवापहरति स्म तां मायासुरः, आरोपयामास च ताम्। घण्टाबलम्बिनामनि स्वविमाने। राज्ञी च कराणं क्रन्दितुमारेभे। अहोऽहं केनाप्यपाहिये / अस्ति कोऽपि वीरः पृथिव्यायो मा मोचयति। तच दलाभिख्येनचोरेण श्रुत्वाधाविन्या समुत्पत्य च तद्विमानघण्टा पाणिना गाढम वधार्यत / ततस्तत् पाणिनावष्टब्धे विमानं पुरस्तान्न प्राचालीत्। तदनु चिन्तितं मायासुरेण। किमर्थ विमानमेतन्न सपति।यावदद्राक्षीत्तं वीरं हस्तावलम्बितघण्टात्। ततः खड्नेन तद्धस्तमच्छिन्दत्, पतितः स पृथिव्याम्। स चासुरः पुरः प्राचलत्। ततो विदितदेव्यपहारवृत्तान्तः क्षितिकान्तः पञ्चाशतमेकाना वीरानादिशत्, यत्पट्टदेव्याः शुद्धिः क्रियता, केनेयमपहृतेति। ते प्रागपि शूद्रकं प्रत्यसूयापराः प्रोचुः-महाराज ! शूद्रक एव जानीते / तेनैव तच्छीर्षकमानीतं, तेनैव च देवी जहे, ततो नृपतिस्तस्मै कुपितः शूलारोपणमाज्ञपयत् / तदनु देशरीतियशात्तं रक्तचन्दनानुलिप्ता शकटेशायित्वेन सह गाढ बध्वा शूलायै यावदाजपुरुषाश्चेलुस्तावत्पञ्चाशदपि वीराः संभूय शूद्रकमवोचन् / भो महावीर ! किमर्थमेव दिदण्डेव मियते भवान्, 'अशुभस्य कालहरणमि' ति न्यायात् मार्गय नरेन्द्रात् कतिपयदिनावधिम्, शोधय सर्वत्र देव्यपहारिणम्। कमकाण्ड एव स्वकीयां वीरत्वकीर्तिमपनयसि। तेनोक्तम्-गम्यतां तर्हि उपराज, विज्ञपयतामेतमर्थ राजा / तैरपि तथाकृते प्रत्थानायितः शूद्रकः क्षितीन्द्रेण / तेनापि स्वमुखेन विज्ञप्तिः कृतामहाराज। दीयताम् अवधिः, यन विचिनोमि प्रतिदिशं देवीम्, तदपहारिणं च / राज्ञा दिनदशकमवधिर्दत्तः शूदकगृहे च सारमेयद्वयमासीत्तत्सहचारि, नृपतिरवदत्एतद्भषणयुगलं प्रतिभूयमस्मत पावें मुश्च स्वयं पुनर्भवान् देव्युदन्तोपलब्धये हिण्डतां महीमण्डलम्, सोऽप्यादेशः प्रमाणमित्युदीर्यवान् प्रतस्थे / भूचक्रशक्रस्तत्कौलेयकद्वन्द्वशृङ्खलाबद्धं रवशय्यापादयोरबध्नात् / शूद्रकस्तु परितः पर्यट्यमानोऽपि यावत् प्रस्तुतार्थस्य वार्तामात्रमपि कापि नोपलेभे तावदचिन्तयत्, अहो मभेदमपयशः प्रादुरभूद्यदयं स्वामिद्रोही मध्ये भूत्वा देवीभुपाजीहरदिति / न च वापि सिदिशुद्धिलब्धा तरयास्तन्मरणमेव मम शरणमिति विमृश्य दारुनिश्चितामरचयत, ज्वलन चाज्यालयत्,यावन्मध्ये प्राविशत्, तावताभ्यां नका Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाहण 635 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सातवाहण भ्यां देवताधिष्ठिताभ्या ज्ञातम् / यदस्मदधिपतिनिधनापन्नोऽस्तीति।। मामित्थं व्यडम्बयत, अहं च प्रसारितरसनसमुद्रान्तः संवरतो जलचततो दैवतशक्त्या-शृङ्खलानिर्गतौ गतौ तत्र, यत्रासीद्शूद्रकरचिता चिता। रादीन् व्यवहरन प्राणयात्रा करोमि, इति श्रुत्वा शूद्रकोऽप्यभाणीत्, अहं दशनैः काष्ठमाकृष्य शूद्रकंबहिर्निष्काशयामासतुः। तेनाप्यकस्मात ता तस्यैव महीभृतो भृत्यः शूद्रकनामा, तामेव देवीमन्वेष्टुमागतोऽस्मि / विलोक्य विस्मितमनसा निजगदे-रे पापीयांसौ ! किमेतत कृतं तेनोक्तमेवं चेत्तर्हि मा माचयत / यथाऽहं सह भूत्वा तं दर्शयामि तां च भवद्भ्याम्? यत् राज्ञो मनसि विश्वासनिरासो भविष्यति यत्प्रतिभुवावपि देवीम् / तन स्वस्थानं परितो जातुषं दुर्ग कारितमस्ति तच निरन्तरं तेनात्मना सह नीताविति / भषणाभ्यां बभाषे। धीरो भव, अस्मद्दर्शिता प्रज्वलदेवास्तं ततस्तदुलड्घ्य मध्ये प्रविश्य तं निपात्य देवी दिशमनुसर सरभसम्। का चिन्ता तवेत्यभिधाय पुरोभूय प्रस्थिती, तेन प्रत्याहर्त्तव्या, इत्याकर्ण्य शूद्रकस्तेन कृपाणेन तत् काष्ठबन्धनानि छित्त्वा सार्द्ध क्रमात प्राप्तौ कोलापुरम् / तत्रस्थं महालक्ष्मीदेव्या भवन प्रविष्टौ / तं पुरोधाय देवतगणपरिवृतः प्रस्थाय प्राकारमुल्लङ्घ्य तत्रथानान्तः तत्र शूद्रकस्तां देवीमभ्यर्च्य कुशस्त्रस्तरासीनस्त्रिरात्रमुपावस।। प्राविशत / देवतगणाश्वावलोक्य मायासुरः स्वसैन्यं युद्धाय प्रागियाय। अनुप्रत्यक्षीभूय भगवती महालक्ष्मीस्तमवोचत्-वत्स ! किं मृगयसे ? तस्मिन्पक्षतामक्षिते स्वयं योद्धमुपतस्थे। ततः क्रमेण शूद्रकस्तेनासिना शूद्रकणो-क्रम-स्वामिनि ! सातवाहनमहीपालमहिष्याः शुद्धिमावद तमवधीत / ततो घण्टावलम्बविमानमारोप्यदेवी , देवतगणेस्सह काऽऽस्ते केनयमपहृता? श्रीदेव्योदित-सर्वान् यक्षराक्षसभूतादिदेव प्रस्थितः प्रतिष्ठान प्रति; इतश्च दशदिनमवधीकृतमनागतभवगत्य गणान् समील्य तत्प्रवृत्तिमहं निवेदयिष्यामि, परं तेषां कृत त्वया जगत्यधिपतिाहृतवान् अहो न मम महादेवी, न च शूद्रकवीरो नापिच बल्युपहारादि प्रगुणी कृत्य धार्यम् / यावच्च ते कणेहत्य बलादुपभुज्य तो रसनालिही, सर्त मयैव कुबुद्धिना विनाशितमिति शोचन् सपरिच्छद प्रतीता न भवेयुस्तावत् त्वया विस्तरेणेक्षणीयाः, ततः शूद्रकस्तेषां देवानां एव प्राणत्यागं चिकीर्षुः पुरादहिश्चितामरचयचन्दनादिदारुभिः / यावत् तर्पणार्थ कुण्ड विरचय्य होममारेभे। मिलिताः सकलदैवतगणा: स्वा क्षणादाशुशुक्षणिं क्षेप्स्यति परिजनश्चिती तावदर्भापक एको स्वा भुक्तिमग्निभुखेन जगृहे, तावत्तद्धोमधूमः परभरः प्रापतत स्थान देवगणमध्यात समयासीत, व्यजिज्ञपत्सप्रश्रयम् / देव ! दिष्ट्या वर्द्धसे यत्र मायासुरोऽभूत् / तेनापि परिज्ञातलक्ष्म्यादिष्टशूद्रकहोमरवरूपेण महादेव्यागमनेन / तन्निशम्य श्रवणरम्यं नरेश्वरः स्फुरदानन्दकन्दलिप्रेषितः स्वभ्राता कोल्लासुरनामा होमप्रत्यूहकरणाय / समागतश्च वियति तहृदयः ऊर्द्धमवलोकयन्नालुलोके नभसि दैवतगणं शूद्रकं च / अयमपि कोलासुरः स्वसेनया समः / दृष्टश्च दैवतगणैश्चकिंतभूतैः, ततो भषणी विमानादुत्तीर्य राज्ञः पादावपतत्, महादेवी च / अभिननन्द सानन्द दिव्यशक्त्य युयुधाते दैत्यैः सह / क्रमान् मारितौ च तौ दैत्यैः / ततः मदिनीन्दुः शूद्रकम्, राज्यार्द्ध चैव तरमै प्रादित / सोत्सवमन्तनगर प्रविश्य श्रुतशू द्रकचारुचरितः सह महिष्या राज्यश्रियमुपबुभुजे शूद्रकः स्वयं योद्ध प्रावृतत् / क्रमेण दण्डव्यतिरिक्तप्रहरणान्तराभावाहण्डेनैव बहून् निधनं नीतवानसुरान्। ततो दक्षिणबाहुं दैत्यारतस्य महाभुजः / इत्थंकार नानाविधान्यवदातानि सातक्षितिपालस्य कियन्ति नाम ध्यावर्णयितुं पार्यन्ते। स्थापिता चानेन गोदावरीसरित्तीरे महालक्ष्मी चिच्छिदुः। पुनर्वामहस्तेन दण्ड्युद्धमकरोत्तस्मिन्नपि छिन्ने दक्षिणाध्रि प्रासादः, अन्यान्यपि यथार्ह देवता निनिवेशितानि तत्तत्स्थानेषु / राज्य पोपात्तदण्डो योदधु लग्नः / साऽपि दैत्यैलूनः ततो वामपदधृत चिरं भुजति जगतीजानावन्यदा कश्चिद्वारुभारहारकः कस्यचिदणिजः यष्टिरयुध्यत, तमपि क्रमादच्छिन्दन्नसुराः / ततो दन्तैर्दण्डमादाय युयुधे वीथौ प्रत्यह चारूणि दारूण्याहृत्य विक्रीणीत रम। दिनान्तरे च तरिमततस्तैर्मस्त्कमच्छेदि। अथ कबन्धतृप्ता दैवगणास्तं शूद्रकंभूमिपतित ननुपेयुषि वणिजा तद्भगिनी पृष्टा भवद्धाताऽद्य नागतो मदीथ्याम, तया शिररकं दृष्ट्वा, अहो अस्मद्भुक्तिदातुर्वराकस्य किं जातमिति परितप्य बभाण, श्रष्ठिन? मत्सोदर्यः स्वर्गिषु संप्रति प्रतिवसति। वणिग् अभाणीत्, योद्धुं प्रवृत्ताः / कोल्लासुरममारयन् ततः श्रीदेव्या अमृतेनाभिपिच्य कथमिव साऽवदत्कङ्कणबन्धादारभ्य विवाहप्रकरणे दिनचतुष्टय नरः पुनरनुसंहिताइ चक्रे शूद्रकः, प्रत्युञ्जीवितश्च, सारमेयावपि पुनर्जीवितो, स्वर्गिष्विव वसन्तमात्मानं मन्यते / तत्तदुत्सवालोकनकौतूहलादेवी च प्रसन्ना सति तस्मै खड्गरत्नं प्रददौ। अनेन त्वमजेयो भविष्यसीति त्ताकर्ण्य राजाप्यचिन्तयत्, अहो अहं किन्न स्वर्गिषु वसामि, चतुर्ध्वपि च वरं व्यतरत् / ततो महालक्ष्म्यादिदैवज्ञगणैः सह सातवाहनदव्याः दिनेष्वनवरतं विवाहोत्सवमय एव स्थास्थाभीति विचार्य चातुर्वण्ये शुद्ध्यर्थ समग्रमपि भुवन परिभ्राम्यन् प्राप्तः शूद्रको महार्णवम्। तत्र चैक या या कन्यां युवतिं वा रूपशालिनी पश्यति शृणोति स्म वा तां ता वटतरुमुच्चैस्तर निरीक्ष्य विश्रमार्थमारुरोह, यावत्पश्यति तच्छाखाया सोत्सवं पर्यणेषीत् / एवं च भूयस्यनेहसि गच्छति लोकैश्चिन्तितमहो लम्बमानमधःशिरसं काष्ठकीलिकापवेशितोर्ध्वपादं पुरुषकम / स च कथं भाव्यमनपत्यैरव सर्ववर्णैः स्थेयम्, सर्वकन्यास्तावद्राव मदान्मदिष्णुर्मदग्रजः प्रतिष्ठानाधिपतेः सातवाहनस्य महिषीं रिरसुर- विवाढा। योषिदभावे च कुतः संततिरिति / एवं प्रतिपन्नेषु लोकेषु पाहरत सीतामिव दशवदनः / सा च पतिव्रता तं नेच्छति, तदनु मया विवाहयाटिकानाम्नि गामे वास्तव्यः एको द्विजः पीठजादेवीप्रोक्ताऽग्रेजन्मान युज्यते परदारापहरणं तव। "विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि, माराध्य व्यजिज्ञपद्भगवति। विवाहकस्मिदपत्यानां कथं भावीति / परस्त्रीषु रिरसया। कृत्वा कुलक्षय प्राप, नरक दशकन्धरः / / 1 / / " दव्योक्तम्-त्वद्भवनेऽहमात्मानं कन्यारूपं कृत्वाऽवतरिष्यामि / इत्यादिवा गभर्निपिद्धः कुद्धो मह्य मायासुराऽस्था दटशाखाया टडित्या | यदा मा राजा प्रार्थयत तदा तस्मै दयाशंषमहं लमिध्य / तथैव राज Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवाहण 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साम तां रूपवतीं श्रुत्वा विप्रमयाचत। सोऽपि जगाद। दत्ता मया परं महाराज ! | सातिजोगजुत्त-त्रि०(सातियोगयुक्त) अशुभमनोयोगयुक्ते, आव० तत्रागत्य मत्कन्योबोदव्या। प्रतिपन्न राज्ञा। गणकदत्ते लग्ने क्रमाद्विवाहाय 4 अ० प्रचलितः, प्राप्तश्च तं ग्राम स्वकुलं च नृपतिः, देशाचारानुरोधाद्वधू- | सातिजणा-स्त्री०(स्वादना) कर्मेबन्धास्वादे, नि० चू०१ उ०। वरयोरन्तराले जवनिका दत्ता। अञ्जलीयुगंधरीलाजैर्नृपतिर्लनवेलायां | सातिणक्खत्त-न०(स्यातिनक्षत्र) वायुदेवताके नक्षत्रभेदे सका तिरस्करणीमपनीय यावदन्योन्यस्य शिरसि लाजान् विकरीतुं प्रवृत्ती स्वातिनक्षत्र कतितारकम्तदनु किल हस्तलेपो भविष्यतितावद्राजाता रौद्ररूपां राक्षसीमिवैक्षिष्ट / सातिणक्खत्ते एगतारे पण्णत्ते / (सू०१४) स०१ सम०। ते च लाजाः कठिनपाषाणकर्कररूपा राज्ञः शिरसि लगितु लग्नाः। सातोवभोग-त्रि०(सातोपभोग) सातस्य-सातवेदनीयस्र कर्मणो भोगो क्षितिपतिरपि किमपि वैकृतमिदमिति विभावयन् पलायत / तावत्सा / यत्र तत्सातोपभोगम् / सुखस्थाने,कल्प०१ अधि०३ क्षण | पृष्ठलऽनाश्मशकलानि वर्षन्ती प्राप्ता। ततो नरपति गह्रदं प्राविशन्नि- 1 सादंडी-स्त्री०(सादण्डी) कन्दविशेषे, भ०७श०३ उ०॥ जजन्मभूमिम्, तत्रैव च निधनमानशे इति / अद्यापि सा पीठजा देवी सादि-त्रि०(सादि) आदियुक्ते, उत्त०१ अ० प्रतोल्या बहिरास्ते निजप्रासादस्था। शूद्रकोऽपि क्रमेण कालिकादेव्या सादिय-त्रि०(सादिक) सहादिनामायया वर्तत इति सादिकम् / समाये, रवरूपं विकृत्य वापी प्रविष्टया करुणरसितेन विप्रालभ्यत, निष्क्राम रात्र०१ श्रु०८ अ०। णार्थ प्रविशन् पतितस्य तस्य कृपाणस्थ कूपद्वारे तिर्यक्यतनाच्छिन्नाङ्गः | सादिवीससाकरण-न०(सादिविश्रसाकरण) रून्द्रिव्याणां च पश्चातामानश्च / महालक्ष्या हि वरवितरणावसरोऽस्मादेव कौक्षेयकात्तू व्यणुकादिप्रक्रमेण भेदसंघाताभ्यां स्कन्धत्वापत्तौ, सूत्र०१ श्रु०१ अ० अदिष्टात्प्राप्तिर्भवित्रीत्यादिष्टमासीत् / ततः शक्तिकुमारो राज्येऽभि १उन षिक्तः सातवाहनायती, तदन्तरमद्यापि राजा न कश्चित्प्रतिष्ठाने प्रविशति सादिव्व-न०(सादिव्य) देवताप्रयुक्ते अस्वाध्यायिके, प्रव० 254 द्वार। धीरक्षेत्रे इति / अत्र च यदसंभाव्य क्तचिद्भवेत् तत्र पररामय एव मन्तव्यो सादीणगंगा-स्त्री०(सादीनगङ्गा) गोशालकपरिभाषितः सप्तमहाहेतुः, यन्नासंगतवाग उनो जैनः / इति प्रतिष्ठानकल्पः / सातवाहन गङ्गात्मके परिमाणभेदे, भ०१५ श०। चरित्रलेशश्च / विरचितः श्रीजिनप्रभसूरिभिः / 'चक्रे प्रतिष्ठानकल्पः साधग-त्रि०(साधक) निवर्तक, पं० सू० 1 सूत्र। श्रीजिनप्रभसूरिभिः / सातवाहनभूपस्य, कथांशश्व प्रसङ्गतः।।१।।" ती० सापाणि-पुं०(स्वकपाणि) स्वहस्ते, 'सापाणिणा असिणा छिदित्ता 33 कल्प० / आ० चू०। (सातवाहन कथा 'दित्तचित्त' शब्दे चतुर्थभागे कमडलुं पक्खिवित्तए / भ० 14 108 उ०। 2518 पृष्टे गता1) साबर-पुं०(शाबर) शबररूपधारिशिवप्रोक्ते मन्त्रे, आ० म० अ०। साता-स्त्री०(साता) सुखरूपायां वेदनयाम्, प्रज्ञा०३५ पद। साबाधा-स्त्री०(साबाधा) सह आबाधया। अनुदयकालन सह वर्तमाने, साताकम्म-न० (सातकर्गन्) बन्धदशाना दशमेऽध्ययने, स्था० प्रव०१द्वार। १०ठा०३ उछ। तच्च विच्छिन्नमिदानी नोपलभ्यते स्था०१०टा० साभरग-(साभरक) देशीवचनात. (बृ० 1 0 1 प्रक०) सुराष्ट्राया ३उन दक्षिणस्यां दिशि समुद्रद्वीपे प्रचलिते रूपके. द्वावुत्तरापथे ए को रूपकः : सातागारव-न० (सालगोरख) सुखशीलतायाम्, सूत्र०१ श्रु०८ अ०।। वृ०३ उ०) सातागारवणिहुय-त्रि०(सातगौरवनिभृत) सुखशीलतार्थमनुद्युक्ते, साभाविय-त्रि०(स्वाभाविक) स्वस्मिन् भावे भवः स्वभाविक: प्राकृते, सूत्र० 1 श्रु० 8 अ०॥ सूत्र०१ 101 अ०१ उ०। अकैतवकृते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०! आ०म०। सातासाता-स्त्री०(सातासाता) सुखदुःखात्मिकायां वेदनायाम, प्रज्ञा० साभिग्गह-त्रि०(साभिग्रह) अभिग्रह, अभिगृधन्त इ-यभिग्रहाः 35 पदा प्रतिज्ञाविशेषाः, सहाभिग्रहेण वर्तन्त इति साभिग्रहाः / गृहीताभिग्रहेषु, / सातासायपरितावणमय-त्रि०(सातासातपरितापनमय) सातं च आव०६ अ०। नि० 00 / सुखमसातं परितापनं च दुःखजनिलोपताप एतन्मयमेतदात्मकम् / साम-न०(सामन्) सर्वेषामपि जीवानां प्रिये, विशे० / आ० म०। प्रियवचनादौ, स्था०३ ठा०३ उठा ज्ञा०ा विपा०। प्रेमोत्पादने विपा० सुखदुःखमये,प्रश्न०३ आश्रद्वार। 1 श्रु०३ अ०। साम मित्ती। सर्वजीवेषु मैत्री साम भण्यते। विशे० / स्था० सातासोक्ख-न०(सातसौख्य) आहादरूपे सौख्ये, जी०४ प्रतिक सामनि, स्था० ।"परस्परोपकाराणां दर्शनं 1 गुणकीननम् 2 / ३उन सम्बन्धस्थ समाख्यान ३-मायत्था सम्प्रकाशनम् / / 1 / / ' अस्मिन्नेव *साति-(साति) अविश्रा, प्र०२ आय द्वार / कृतेदभावाभविष्यतीत्याश योजनमायतिः सम्प्रकाशनमिति / वाचा *स्वाति-स्त्री०। नक्षत्रभदे, सू०प्र० १०पाहु०। पेशलया साधुतवाहमिति चाप्पणम्। इति सामप्रयोगः, साम पञ्चविध सातिजोग-पुं०(सातियोग) भायाविशषे, स०। स्मृतम् / / 2 / / स्था०३ ठा०३ उ०। आ० म० Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम 637 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामंतकिरिया सामनिक्षेपः-- नक्खेवो सामम्मि य, चउव्विहो दुट्विहो यहोइ दव्वम्मि। आगम नोआगमओ, नोआगमओ य सो तिविहो // 480 / / जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते अ सक्कराईसुं। भावम्मि दसविहं खलु, इच्छा मिच्छाइयं होइ / / 481 / / इच्छा मिच्छा तहक्कारो, आवस्सिआ अ निसीहिआ। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा॥४८२।। उवसंपया य काले, सामायारी भवे दसविहाउ। एएसिं तु पयाणं, पत्तेयपरूवणं वुच्छं // 483|| आयारे निक्खेवो, चउक्कओ दुविहो य होइ नायव्यो। आगम नोआगमतो, नोआगमतो य सो तिविहो॥४८४|| जाणगसरीरभविए, तव्वइरित्ते य नामणाईसुं। भावम्मिदसविहाए, सामायारीइ आयरणा।।४८५।। 'निक्खेवो' इत्यादि गाथाः षट् प्रायः प्रतीतार्थाः / सूत्रव्याख्याने च काश्चिव्याख्यास्यन्ते,नवर तद्व्यतिरिक्तं च' ज्ञशरीरभव्यशरीव्यतिरिक्त च। द्रव्यसाम--शकरादिषु, आदिशब्दात्क्षीरादिपरिग्रहः, ततश्च शर्करारदधिगुडादीनां यत्परस्परमविरोधेन व्यवस्थानम्, भावे साम दशविध खल अवधारणे, दशविधवामिथ्यादिक सामाचारीस्वरूवमिति गम्यते, भावसामत्व चास्य ताचिकस्य क्षायोपशमिकादिभावरूपत्वात् परस्परमविरोधेन चावस्थानात् तथा प्रत्येकप्ररूपणां वक्ष्ये इति प्रतिज्ञामभिधाय यत्प्ररूपणानभिधानं तदावश्यकनिर्युक्ता कृतत्वात्, तद्राथयोरेव चैककर्तृकत्वेनेह लिखितत्वान्न दुष्टमिति भावनीयम्। स्त्रक्रमोहनं तु यथाविधं सर्वेषां सदा कृत्यत्वेन पूर्वापरभावरयाभावप्रदर्शनार्थम् / उत्त०२६ अ०। आ० म०। सामं समं च सम्मं, इगमवि सामाइअस्स एगट्ठा। नाम ठवणा दविए, भावम्मि अ तेसि निक्खेवो // 1030|| महुरपरिणाम सामं, सम्म तुला सम्म खीरखंडजुई। दोरे हारस्स चिई, इगमे आइंतु दव्वम्मि।।१०३१॥ इह सामं समं च सम्यक् 'इगमवि' देशीपदं वापि प्रदेशार्थे वर्तते, सम्पूर्णशब्दावयवमेवाधिकृत्याऽऽह सामायिकस्यैकार्थिकानिः अमीषा निक्षेपमुपदर्शपन्नाह-नामस्थापनाद्रव्येषु, भावे च नामादिविषय इत्यर्थः, तेषां- सामप्रभृतीना निक्षेपः, कार्य इति गम्यते / स चायम-नामसाम | स्थापनासाम द्रव्यसाम, भावसाम च / एवं समसम्यक्पदयोरपि द्रष्टव्यः / तत्र नामस्स्थापने क्षुण्ण एव, द्रव्यसामप्रभृतींश्च प्रतिपादयन्नाह-- 'महुरे' त्यादि, इहोचतो मधुर-परिणाम द्रव्य-शर्करादि द्रव्यसाम समं 'तुला' इति भूतार्था लोच-नायां समं तुलाद्रव्यं, सम्यक् क्षीरखण्डयुक्तिःक्षीरखण्डय जनं द्रध्यसम्यगिति, तथा 'दोरे' इति सूत्रदवरके मौक्तिकान्येवाधिकृत भाविपर्यायापेक्षया, हाररय- मुक्ताकलापस्य चयनं चितिः-- प्रवेशन द्रव्येक(व्यक)म, अत एवाह...'एयाई तुदम्गि ' त्ति-एतान्युदाहरणानि द्रव्यविषयाणीति गाथाद्वयार्थः / साम्प्रत भावसामादि प्रतिपादयन्नाहआओवमाइ परदु-क्खमकरणं 1 रागदोसमज्झत्थं 2 / नाणाइतिगं३ तस्सा-इपोअणं 4 भावसामाई / / 1032 / / आत्मोपमया--आत्मोपभानेन परदुःखाकरण भावसामेति गम्यते, इह चानुस्वारोऽलाक्षणिकः / एतदुक्तं भवति-आत्मनीव परदुःखाकरणपरिणामो भावसाम, तथा रागद्वेषमाध्यस्थ्यम्' अनासेवनया रागद्वेषमध्यवर्तित्वं सम, सर्वत्राऽऽत्मनस्तुल्यरूपेण वर्तनमित्यर्थः / तथा ज्ञानदित्रयमेकत्र सम्यगिति गम्यते, तथाहि- ज्ञानदर्शनचारित्रयोजन सम्यगेव, मोक्षप्रसाधकत्वादिति भावना, तस्य इति सामादि सम्बध्यते, आत्मनि प्रोतनम्- आत्मनि प्रवेशनम् इकम् उच्यते,अत एवाऽऽह'भावसामाई' भावसामादावेतान्युदाहरणानीतिगाथार्थः / आव०१ अ०॥ आ० चू०। सामवेदे, विपा०१ श्रु०५ अ०। सप्तमदेवलोकविमानभेदे, स०] *श्याम-त्रि०। कृष्णे, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। प्रज्ञा०। श्यामवर्णत्वाच्छ्यामम्। आकाशे, भ०२० 202 उ०। परमाधार्मिकविशेषे, यो हि रज्जुहस्तप्रहारादिभिः शातनपातनादि करोति, वर्णतश्च श्याम इति। स०१४ सम०) साडण पाडण तोडण, बंधण रज्जुल्लयप्पहारेहिं / सामा णेरइयाणं, पवत्तयंती अषुण्णाणं // 72 / / तथा अपुण्यवताम-तीव्रासातोदये वर्तमानाना नारकाणां सामाख्याः परमाधार्मिका एतचेतच्च प्रवर्त्तयन्ति / तद्यथा-शातनम्-अङ्गोपाङ्गानां छेदनम, तथा पातन-निष्कुटादधोवनभूमौ प्रक्षेपः, तथा प्रतोदनम्शूलादिना तोदन-व्यधनंसूच्यादिना नासिकादौ वेधः, तथारज्ज्वादिना कूरकर्मकारिणं बध्नन्ति, तथा तादृग्विधलताप्रहारेस्ताडयन्त्येवं दुःखोत्पादनं दारुणं सातनपातनवेधनबन्धनादिकं बहुविधं प्रवर्तयन्तिव्यारयन्तीति / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। प्रश्न। सामइय-पुं०(सामयिक) समयः-सांख्यादीनां सिद्धान्तस्तदाश्रितः सामयिकः / समयसिद्धान्तिते, स्था० 3 ठा० 3 उ०। मगधजनपदे वसन्तपुरणामे स्वनामख्याते कुटुम्बिनि, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। सामइयसण्णा-स्त्री०(सामयिकसंज्ञा) सिद्धान्तसङ्केतितभाषायाम्, नि० चू० १उन सामंत-पुं० न०(सामन्त) समीपे, स्था० 10 ठा०३ उ०। ज्ञा० नि०। संनिकृष्ट, पं० प्र०१ पाहु० / भ०। सामंतकिरिया-स्त्री०(समन्तक्रिया) सामन्तोपनिपातिन्यां क्रियायाम, सा च द्विधा-देशसामन्तक्रिया, सर्वसामन्तक्रिया चेति / प्रेक्षकान् प्रति यत्रैकदेशेनागमो भवति असंयतानां सा देशसामन्तक्रिया। सर्वसामन्तनिया यत्र सर्वतः समन्तात प्रेक्षकाणामागमो भवति सा सर्वसामन्तक्रिया / आ० 0 4 अ०। अहवा समन्तादनुपतन्ति पमत्तसजयाण अन्नपाणं प्रति अवंगुरित संपात्तिमा सत्ता विणस्संति। आव० 4 अ०। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामंतभद्दसूरि 638 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्ण सामंतभद्दसूरि-पुं०(सामन्तभद्रसूरि) चन्द्रकुलमूलस्य चन्द्रसूरेः कालिकाचार्यः / जै० इ०। शिष्ये, 'पूर्वगतश्रुतजलधिस्तस्मात् चन्द्रगुरोः सामन्तभद्रसूरीन्द्रः।' ग० सामण-त्रि०(श्रामण) श्रमणानामयं श्रामणः / श्रमणसंबन्धिनि, आव० 3 अधि। 1 अन आ०म० सामंतसिंह-९०(सामन्तसिंह) अणहिलपट्टननगरस्य सप्तमे चौलु- | सामणि-पुं०(श्रामणि) श्रमणस्यापत्यं श्रामणिः / श्रमणेन परस्त्रियाक्यवंशीये राजनि, ती० 25 कल्प०। मुत्पादिते पुत्रे, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। सामंतोवनिवाइय-न०(सागन्तोपनिपातिक) अभिनयभेदे, रा०। सामणिय-त्रि०(श्रामणिक) श्रमणानां सम्बन्धिनि, दश० 10 // स्थान सामण्ण-न०(श्रामण्य) श्रमणस्य भावः श्रामण्यम्। संपूर्णसंयमे, सूत्र० सामंतोवणिवाइया-स्त्री०(सामन्तोपनिपातिकी) समन्तात सर्वत 2 श्रु० 6 अ०। चारित्रे, उत्त०१८ अ०। दश०। षड्जीवनिकायरूप उपनिपातो जनमीलकस्तस्मिन् भवा सामन्तोपनिपातिकी / क्रिया श्रमणभावे, दश०४ अ० श्रमणत्वे, कल्प०३ अधि०६ क्षण। सकलयतिभेदे,स्था०२ ठा०१ उ०। आ० चू० सामन्तोवनिवाइया किरिया दुविहा समाचारे, दर्श०५ तत्त्व। उत्ता साधुत्वे, उत्त०२ अ०। व्रते, अवद्यहेतुपण्णत्ता, तं जहा- जीवसामंतोबनिवाइया, अजीवसामंतोवनिवाइया। त्यागो हि व्रतम्। रागद्वेषायेव तत्त्वतस्तद्धेत् उक्तनीतितश्चन स्त्रीभ्यः परं सामंतोवणिवाइया सम्मंतादणुपततीति सामंतोषणिवाइया सा दुविधा तन्मूलमिति। उत्त०२ अ० ("सव्युत्तमलाभाणं सामन्नं चेव लाभमन्नति।" अजीवजीवसामन्तोवणिवाइया / जधा एगस्स संडोतं जणो पालेएति। 'संथार' शब्देऽस्मि-नेव भागे 153 पृष्ठे व्याख्यातम्।)"श्रामण्यस्य जधा जधा पलोएति, तहा तहा सो हरिस गच्छति, एवं अजीवे फलं मोक्षः प्रधान-मितरत्पुनः। तत्त्वतोऽफलमेवेह, ज्ञेयं कृषिफ्लालवत विरहकम्मादिसु। आ० चू० 4 अ०। आव०। / / 1 / / " पं० सू० 4 सूत्र सामकंति-त्रि०(श्यामकान्ति) श्यामा कान्तिर्यस्येति / श्यामले, प्रव० निक्षेपः२६ द्वार। सामण्णपुथ्वगस्स उ, निक्खेवो होइ नामनिप्फन्नो। सामकरिल्ल-न०(श्यामकरील) प्रियङ्गोः प्रत्यग्रे कन्दले, अणु०। सामण्णस्स चउक्को, तेरसगो पुव्वयस्स भवे / / 152|| सामकोह-पुं०(श्यामक्रोध) नमिजिनसमकालि के रक्त जिने, श्राम्यतीति श्रमणः, श्राम्यति-तपस्यति तद्भावः श्रामण्यं, तस्य पूर्व'नमिजिणचंदो भरहे. एरवए सामकोहजिणचंदो। एगसमएण जाया, दरा कारणं श्रामण्यपूर्व तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति संज्ञायां कन्। श्रामण्यकारणं वि जिणा अरिसणी जोगा'। तिन च धृतिः, तन्मूलत्त्वात्तस्य, तत्प्रतिपादकं चेद-मध्ययनमिति भावार्थः / सामग-त्रि०(श्यामक) (सॉमा) धान्ये, आचा०१ श्रु०८ अ०६ अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः, कोऽसौ? अन्यउ०। सूत्रा स्याश्रुतत्वात् श्रामण्यपूर्वकमित्ययमेव, तु शब्दः सामान्यविशेषवन्नान सामग्ग-धा०(श्लिष) आलिङ्गने, "श्लिषेः सामग्गावयासपरि विशेषणार्थ, श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम्, श्रामण्यं पूर्व चेनि विशेषः, अन्ताः " ||8|4|160 / / इति लिष्यतेः सामग्गादेशः / सामगइ तथा चाह- श्रामण्यस्य चतुष्ककस्त्रयोदशकः पूर्वकस्य भवेनिक्षेप इति श्लिष्यति / प्रा०४ पादा गाथार्थः / दश० 2 अ०। समानस्य भावः सामान्यम् / साम्य, विशे०। सामग्गिय-न०(सामग्रय) समग्रतायाम्, 'तस्स भिक्खुस्स भिक्खुणीए (साभ्यविषयो विस्तरः णाण शब्दे चतुर्थभागे 1640 पृष्ठे गतः / ) या सामिग्गिय ज सव्वट्टेहिं समिते सया जए' ति। आचा०२ श्रु०१ चू० अविकल्पायां सत्तायामत्र सामान्यम् / विशे०। ('तच्चजाई' शब्दे चतुर्थ१ अ०१ उ०। सामायं समग्रता यदुद्गमोत्पादनग्रहणैषणा -संयोजना भागे 1437 पृष्ठे प्रतिपादितम् / ) अत्यन्तव्यावृत्ताना पिण्डाना यत. प्रमाणाद्वारधूमकारणैः सुपरिशुद्धस्य पिण्डस्योपादानं सम्पूर्णो कारणाद अन्योऽन्यस्वरूपानुगमः प्रतीयते तदनुवृत्तिप्रत्ययहेतुः भिक्षुभावः / आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०१ उ०। सामान्यम्। तच्च द्विविधम् परमपरं च। तत्र परं सत्ता, भावो, महासामान्यसामचंद्र-पुं०(श्यामचन्द्र) भरतजसुपार्श्वजिनसमकालिके एरवतजे मिति चोच्यते द्रव्यत्वाद्यवान्तरसामान्याऽपेक्षया महाविषयत्वात् / तीर्थकरे, तिन अपरसामान्य च द्रव्यत्वादि एतच्च सामान्यविशेष इत्यपि व्यपदिश्यते। सामच्छ-न०(सामर्थ्य) "सामाोत्सुकोत्सवे वा" || चा२।२२।। इति / तथाहि-द्रव्यत्वं नवसु द्रव्येषु वर्तमानत्वात् सामान्यम्. गुणकर्मभ्यो संयुक्तस्य च्छो वा / प्रा० / शक्ती, वीये, आ० चू० 1 अ०। व्यावृत्तत्वात विशेषः, ततः कर्मधारये सामान्यविशेष इति। एवं द्रव्यत्वाद्यसामच्छण-(देशी) पंर्यालोचने, बृ०१ उ० 3 प्रक० / आ० म०नि० चू०। पेक्षया पृथिवीत्यादिकमपरं, तदपेक्षया घटत्वादिकम्। एवं चतुर्विशलौ गुणेषु सामञ्ज-पुं०(श्यामार्थ) स्वातिशिष्ये हारीलगोत्र स्थविरे, 'हारियगुर वृत्तेर्गुणत्वं सामान्यं, द्रव्यकर्मभ्यो व्यावृत्तेश्च विशेषः / एवं गुणत्वापेक्षया ई. अंदामो हारिय व सामज / " नं० / अयमेन प्रज्ञापनाकारकः रूपत्वादिकम, तदपेक्षया नीलत्वादिकम / एवं परम कार्गसु व निात Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्ण 636 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्ण कर्मत्वं सामान्यम्, द्रव्यगुणेभ्यो व्यावृत्तत्वाद् विशेषः / एवं कर्मत्यापेक्षया उत्क्षणत्वादिकं ज्ञेयम्। तत्र सत्ताद्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तर कया युवतया? इति चेद, उच्यते-न द्रव्यं सत्ता, द्रव्यादन्येत्यर्थः; एकद्रव्यवत्त्वादएकैकस्मिन् द्रव्ये वर्तमानत्वादित्यर्थः, द्रव्यत्व-वत्-यथा द्रव्यत्वम्नवसुद्रव्येषु प्रत्येक वर्तमानं द्रव्यं न भवति, किन्तु सामान्यविशेषलक्षणं द्रव्यत्वमेव; एवं सत्ताऽपि वैशेषिकाणां हि अद्रव्यं वा द्रव्यम्, अनेकद्रव्य वा द्रव्यम् / तत्राऽद्रव्यं द्रव्यम्-आकाशः, कालो, दिगाऽऽत्मा, मनः, परमाणवः, अनेकद्रव्यं तु-व्यणुकादिस्कन्धाः , एकद्रव्यं तु-द्रव्यमेव न भवति, एकद्रव्यवती च सत्ता, इति द्रव्यलक्षणविलक्षणत्वाद् न द्रव्यम्। एवं न गुणः-सत्ता; गुणेषु भावाद, गुणत्ववत्। यदि हि सत्ता गुणः स्याद् न तर्हि गुणेषु वर्तेत; निर्गुणत्वाद् गुणानाम् / वर्तते च गुणेषु सत्ता, सन् गुण इति प्रतीतेः। तथा सत्ता-कर्म, कर्मसु भावात् कर्मत्ववत्। यदि च सत्ता कर्म स्याद्न तर्हि कर्मसु वर्तेत; निष्कर्मत्वात्, कर्मणाम् : वर्तते च कर्मसु भावः, सत् कर्मेति प्रतीतेः, तस्मात् पदार्थान्तरं सत्ता / स्या० / जात्यादिकल्पनारहिते वस्तुमात्रे, विशे० / वस्तुनः समाने परिमाणे, स्था०१ठा०।एकप्रकारे, आ० चू०१अणद्रव्यत्वजीवत्वाजीवत्वादिके, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। विशे०। आ० चू०। आ० म०। (सामान्यलक्षणम् अर्पितम्, अनर्पितं 'लक्खण' शब्दे षष्ठभागे गतम्।) तत्र सामान्य द्विविधम्-परम्, अपरं च / परं च सत्ताख्यम्, तच त्रिषु द्रव्यगुणकर्मसु पदार्थेष्वनुवृत्तिप्रत्ययस्यैव कारणत्वात् सामान्यमेव न विशेषः / अपरंतु द्रव्यत्वगुणत्वकर्मत्वादिलक्षणम्, तच स्वाश्रयेषुद्रव्यादिष्वनुवृत्तिप्रत्ययहेतुत्वात् सामान्यमित्युच्यते, स्वाश्रयस्य च विजातीयेभ्यो व्यावृत्तप्रत्यय-हेतुतया विशेषणात् सामान्यमपि सद्विशेषसज्ञा लभते तथाहि-द्रव्यादिषु 'अगुण' इत्यादिका येयं व्यावृत्तबुद्धिसत्पद्यते तां प्रत्ये-षामेव हेतुत्वं नान्यस्य न ह्यगुणत्वादिकमपरमस्ति। अपेक्षाभेदाचैकस्य सामान्यविशेषभावो न विरुद्ध्यते। यद्वा सामान्यरूपता मुख्यतो विशेषसंज्ञा तूपचारतो विशेषाणामिव द्रव्यत्वादीनामपिव्यावृत्तबुद्धिनिबन्धनत्वात् सामान्यस्य चेन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधाय्यनुगताकारप्रत्ययग्राह्यत्वादध्यक्षतः प्रसिद्धिः। तथा अनुमानाच / तथाहि-व्यावृत्तेषु खण्डमुण्डशाबलेयादिष्वनुगताकारः प्रत्ययस्तद्व्यतिरिक्तानुगताकारनिमित्तनिबन्धनः,व्यावृत्तेष्वनुगताकारप्रत्ययत्वात्।योयो व्यावृत्तेब्वनुगताकारः प्रत्ययः स तद्व्यतिरिक्तानुपतनिबन्धनो यथा चर्मचीरकम्बलेषु नीलप्रत्ययः, तथा चायं शाबलेयादिषु गौरिति प्रत्ययस्तस्मात्तद्व्यतिरिक्तानुगतनिमित्तनिबन्धन इति / तथाहि- नेदमनुस्यूताकारज्ञानं पिण्डेषु निर्हेतुकं कादाचित्कत्वात् / न शाबलेयादिपिण्डनिबन्धनं तेषां व्यावृत्तरूपत्वात् अस्य चाऽनुगतरूपत्वात् / यदि चेदं पिण्डमात्रप्रभवं स्यात् तदा शाबलेयादिष्विव कर्कादिष्वपि 'गोर्गौः' इत्युल्लेखनोत्पद्यते पिण्डरूपतायास्तेष्यप्यविशेषात् / अथवा- इह दोहाद्यर्थ-क्रिया निबन्धनेवेव तेषु 'गौ\ः' इति प्रत्ययहेतुता न तदर्थक्रियाभावेऽपि वत्सादौ गोबुद्धिप्रवृत्तेः, महिष्यादौ तत्सद्भावेऽपि चाप्रवृत्तेः / नच दुष्टकारणप्रभवत्वं विशदं, किंचार्थक्रियाया अपि प्रतिव्यक्तिभेदे कुतोऽनुगताकारज्ञानहेतुता अभेदे सिद्धमनुगतनिमित्तनिबन्धनत्वमस्य ज्ञानस्य / नचास्य बाधितत्त्यं सर्वदा सर्वत्र सर्वप्रमातृणां शाबलेयादिष्वनुस्यूतप्रत्ययोत्पत्तेः। नच दुष्टकारणप्रभवत्वं, विशदनेत्राणामप्यनुस्यूताकारस्याक्षजप्रत्यये प्रतिभासनात्। नच संशयविपर्ययानध्यवसायरूपतयाऽस्योत्पत्तिः तद्वैपरीत्येनास्य प्रतिभासनात् / नचैवंभूतस्यापि प्रत्ययस्याप्रमाणता स्वलक्षणविषयस्यापितस्याऽप्रमाणताप्रसक्तेः / न च प्रतीयमानस्याप्यनुगतप्रत्ययस्यापलापः शक्यते कर्तुं सर्वप्रत्ययापलापप्रसक्तेः / तस्मादनुगतप्रत्ययनिमित्तत्वात् सामान्यसद्भावः सिद्धः / अत्र प्रतिविधीयते-यत्तावदुक्तमध्यक्षप्रत्ययादेव सामान्य प्रतीयत इति तदयुक्तम्, शाबलेयादिव्यतिरेकेणापरस्यानुगताकारस्याक्षजप्रत्यये सामान्यस्याप्रतिभासनात्, नह्यक्षव्यापारेण शाबलेयादिषु व्यवस्थितं सूत्रकण्ठे गुण इव भिन्नमनुगताकारं सामान्य केनचिल्लक्ष्यते 'गौः' 'गौः' इति विकल्पज्ञानेनापि त एव समानाकाराः शाबलेयादयो बहिर्व्यवस्थिता अवसीयन्ते अन्तश्च शब्दोल्लेखः, न पुनस्तद्भिन्नमपरं गोत्वं, तन्न निर्विकल्पकेन सविकल्पकेन वाऽध्यक्षेण सामान्य व्यवस्थापयितुं शक्यम्। यदपि कार्यभूतानुगतप्रत्ययेनानुमानतः सामान्यव्यवस्थापनं तदप्यसङ्गतं तस्य प्रत्ययहेतुत्वेन प्रमाणतो निश्चयात् / तथाहि-अनुगताकारज्ञानस्य निमित्तस्यासंभवाकेनचित् निमित्तेन भाव्यं, इत्येतावन्मानं सिद्ध्यति। तच्च सामान्यमन्यद्वेति न निश्चयो भवताम् / कार्यान्वयव्यतिरेकाभ्यां च कारणत्वावधारण, पिण्डानां च विज्ञानजन्मनि ततः सामार्थ्य विशेषप्रत्यये सिद्धमिमि। इहापि तेषामेव सामर्थ्यप्रकल्पनं, न सामान्यस्य तस्य क्वचिदपि सामानवधारणात् / तथाहि-पिण्डसद्भावे अनुगताकारं ज्ञानमुपलभ्यते तदभावे न इति वरमध्यक्षप्रत्ययावसेयानां तेषामेव तन्निमित्ततो कल्पनीया। यदपि पिण्डानामविशिष्टत्वात् प्रतिनियमो न स्यात् तजन्मनि' इत्यभिधानं, तदप्यसङ्गतम्: यतो यथा पिण्डादिरूपतयाऽविशेषेऽपितन्तूनामेव पटजन्मनि हेतुत्वं न कपालादीनां, तथा शाबलेयादीनामेव 'गौः 'गोः' इति ज्ञानोत्पादने सामर्थ्य भविष्यति, न कयाचिद् युक्त्या न कादीनाम् / यथा वा गुडूच्या एव ज्वरादिशमने सामर्थ्य प्रतीयतेन दध्यादेः वस्तुरूपतयाऽविशेषेऽपि तथा प्रकृतेऽपि भविष्यतीति न पर्यनुयोगो युक्तः। किञ्च-सामान्यं परेण मूर्तमभ्युपगम्यते अमूर्त वा? यद्यमूर्त नसामान्य स्यात्रूपवत्, अथमूर्त, तथा चनसामान्य घटादिवत्। तथा यदि अनशं सामान्यमभ्युपगम्यते, तर्हि न सामान्यमनशत्वात् परमाणुक्त्। साशत्वेऽपि न सामान्य घटवत्। किं च यदि पिण्डेभ्यो भिन्नं सामान्य भेदेनैवोपलभ्यते घटादिभ्य इव पटः / न चैकान्ततो व्यक्तिभ्यः सामान्यस्यभेदे 'गोर्गोत्वम्' इतिव्यपदेशोपपत्तिः संबन्धाभावात्, समवायस्य तत्संबन्धत्वेन निषेत्स्यमानत्वात् व्यक्तिभ्यस्तस्याभेदे अन्यत्राननुयायिस्वान्न सामान्यरूपता पिण्डस्वरूपवत्।नच भेदेन व्यक्तिभ्यस्तस्यानुपलक्षणं Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्ण 640 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्ण भिन्न प्रतिभासविषयत्वादसिद्ध, बुद्धिभेदस्य व्यक्तिनिमित्तत्वेन प्रतिपादनात्। किंच-यदि सामान्यबुद्धिय॑क्तिभिन्नसामान्यनिवन्धना भवत तदा व्यक्त्यग्रहणेऽपि भवेत, अश्वबुद्धिवद्गोपिण्डाग्रहणेन च कदाचत्तथा भवेत्, ततो न व्यक्तिव्यतिरिक्तसामान्यसद्भावः / अथ आधारप्रतिपत्तिमन्तरेणाधेयप्रतिपत्तिर्न भवतीति तद्गहे एव, तद्ग्रहो नाभावाद अन्यथा कुण्डा द्याधारप्रतिपत्तिमन्तरेण बदराधेयस्य अप्रतिपत्तेः तस्याऽप्यभाव एक स्यात, न बदराऽऽदेः प्रतिनियताधारमन्तरेणापि स्वरूपेणोपलब्ध भायः गोत्वादेस्तु प्रतिनियतपिण्डोपलम्भमन्तरेण स्वरूपेण कदाचना प्यनुपलब्धेरभाव एव / तन तदग्रहे तदबुध्यभावादित्यत्र सामान्याभिव्यञ्जकपिण्डग्रहणे एव तदभिव्ययसामान्यबुद्धिसदभावात् प्रकाशग्रहण एव गृह्यमाणघटादिसत्ववत, सामान्यस्यापि सत्त्वमिति यदुक्तं तन्निरस्त भवति। सम्म० 3 काण्ड / ('णेगम' शब्दे चतुर्थभागे 2157 पृष्ठे सामान्यस्यैवैकस्य सत्त्वम् / ) सामान्यविशेषौ वक्ष्यमाणलक्षणावादिर्यस्य सदसदाद्यनेकान्तस्य तत्तदात्मक तत् स्वरूप वस्त्विति / एवं च केवलस्य, सामान्यस्य विशेषस्य तदुभयस्य वा स्वतन्त्रस्य प्रमाणविषयत्वं प्रतिक्षिप्त भति / अथैतदाकर्ण्य कणमिडिपीडिता इव योगाः सगिरन्ते / नन्वही जनाः! केनंद सुहृदा कर्णपुटविटङ्कितमकारि युष्माकम, स्वतन्त्री सामान्यविशेषौ न प्रमाणभूमिरि ति। सर्वगतं हि सामान्य गोत्वादि, तद्विपरीतास्तु शबलशाबलेयबाहुलेयादयो विशेषाः, ततः कथमे-षामेक्यमाकर्णयितुमपि सकर्णैः शक्यम्? तथा च सामान्यविशेषावत्य-न्तभिन्नी, विरुद्धधर्माध्यस्तत्वात्, यावेवंतावेवम्, यथा पाथः पावको, तथा-चैती, तस्मात्तथा, ततो न सामान्यविशेषात्मकत्वं घटादेर्घटते / तदेतत्परमप्रणयपरायणप्रणयिनीप्रियालापप्रायं वासवेश्मान्तरेक राजत / तथाहि- यदिदं सर्वगतत्वं सामान्यस्य न्यरूपि, तत कि व्यनितसर्व - पतत्वभ? सर्वसर्वगतत्वं वा स्वीकृत्य? यदि प्राक्तनम, लदा तर्णका-पाददेश तदविद्यमानं वर्णनीयम् अन्यथा व्यक्तिसर्वगतत्वध्याघातात् / तरोत्पन्नायां च व्यक्तौ कुतस्तत्तत्र भवेत्? किं व्यक्त्या सहवात्पद्येत व्यक्त्यन्तराद्वा समागच्छेत्? नाद्यः पक्षः। नित्यत्वेनास्य स्वीकृतत्वात्। द्वितीयपक्षे तु ततस्तदागच्छत पूर्वव्यक्ति परित्यज्यागच्छ त? आपरित्यज्य वा? प्राचिकविकल्प प्राक्तनव्यक्तेनिः सामान्यताऽs - पत्तिः / द्वितीयपक्षे तु किं व्यक्त्या राहैवागच्छत ? केनचिशेन वा? आद्य शाबलेयेऽपि बाहुलेयोऽयमिति प्रतीतिः स्यात् / द्वितीयपो तु सामान्यस्य सांशताऽऽपत्तिः, सांशत्ये चास्य व्यक्तिवदनित्यत्वप्राप्तिः। अथ विचित्रा वस्तूनां शक्तिः यथा मन्त्रादिसंस्कृतमसमुदरस्थ व्याधिविशेषं छिनत्ति, नोदरम्, तददिहापि सामान्यस्वदेशी शक्तिः, यशा- स्वहेतुभ्यः समुत्पागानेऽर्थे पूर्वस्थानादचलदेव तत्र वा इति चल, स्यादत विम, योकान्तेनैक्यं सामान्यरय प्रमाणेन प्रसिद्ध स्यात, नचम तस्यातचता विचारयितुमुपक्रान्तत्वात्। तथाहि-- यः अस्य लेकर कीयंत तदा भिन्नदशकालास व्यक्तियु वृतिर्न स्यादिति / राम-वभाव-दादालम्बनमात्रेणवेयमुत्पाद्यते, तदा किममुना सामान्येन? कितरा वाऽन्येनापि भूयसा वस्तुना परिकल्पित्न? एवैव काचित् पद्मनि धीयमाना व्यक्तिरभ्युपगम्यताम् / सा हि तथास्टभावत्वात् तथा तथा प्रथिष्यत इति लाभाभिलाषुकस्य मूनोच्छेदः / तन्न व्यक्तिसर्वगतत्वगेतस्य संङ्ग तिगोचरीभावमभजत / नापि सर्वसर्वगतत्वम्, खण्डमुण्डादिव्यक्त्यन्तरालेऽपि तदुपलम्भ प्रसङ्गात / अव्यक्तत्वात्तत्र तस्यानुपलम्भ इति चेत्, व्यक्तिष्वात्मनोऽप्यनु-- पलम्भोऽत एव तत्रास्तु / अन्तराले व्यक्त्यात्मनः सदाबावेदकप्रमाणाभावात, असत्त्वादेवानुपलम्भे सामान्यस्यापि सो सत्त्वादेव तत्रास्तु विशेषाभावात् / किश-प्रथमव्यक्तिसमाकलनवेलामा तदभिव्यक्तस्य सामान्यस्य सर्वात्मनाऽभिव्यक्तिर्जातव अन्यथा व्यक्ताव्यक्तस्वभावभेदेनानेकत्वानुषङ्गादसामान्यस्वरूपतऽऽपत्तिः ! तस्मादुपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य स्वव्यक्त्यन्तराले सामान्यस्थानुपलम्भादसत्त्वम्, व्यक्तिस्वात्मवत्। अपिच-अव्यक्तत्वात् तत्र तस्यानुपलम्भरतदा सिध्येद्, यदिव्यक्त्यभिव्यङ्ग्यता सामान्यस्य सिद्धा स्यात, न चैवम्-नित्यैकरूपस्यास्याभिव्यक्तिरेवानुपपत्तेः / तथाहि- व्यक्तिरुपकारं कञ्चित्कुर्वती सामान्यमभिव्यञ्जयेत्, इतरथा वा। कुर्वती चेट, कोऽनया तस्योपकारः क्रियते। तज्ज्ञानोत्पदानयोग्यता चेत, सा तता भिन्ना, अभिन्ना वा विधीयेत / भिन्ना चेत्, तत्करणे साम न्यस्य न किश्चितकृतमिति तदवस्थाऽस्यानभिव्यक्तिः। अभिन्ना चेत् तत्करा सामान्यमेव कृतं स्यात्. तथा चानित्यत्वप्राप्तिः। तज्ज्ञानं चदुपकारः तर्हि कथं सामान्यस्य सिद्धिः? अनुगतज्ञानस्य व्यक्तिभ्य एव प्रादुर्भावात् / तत्सहायस्यास्यैवात्र व्यापार इत्यपि श्रद्धामात्रम; यल यदि घटोत्पत्तौ दण्डाद्युपेतकुम्भकारवद् व्यक्त्युपेतं सामान्यमनुगतज्ञानोत्पचौ व्याप्रियमाणं प्रतीयत, तदा स्यादेतत. तच्च ना प्त्येव ! - किश्चिद कुर्वत्याश्च व्यञ्जकत्वे विजातीयव्यक्तेरपि व्यञ्जकत्वप्रसनः तलाव्यक्तत्वात् तत्र तस्यानुपलम्भः, किन्त्वसत्त्वादेव, इति न सर्वसर्वगतमध्ये तद् भवितुमर्हति; किन्तु-प्रतिव्यक्ति कथचिदिभिन्नम् कथञ्चित्तदात्मकत्वाद, विसदृशपरिणामवत्। यथैव हि काचित व्यक्तिरुपलभ्यमाना व्यक्त्यन्तराद्विशिष्टा विसदृशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते, तथा सदृशपरिणामात्मकसामान्यदर्शनात् समानेति, तेनाय समानो गौः, सोऽनेन समान इति प्रतीतेः / नच व्यक्तिस्वरूपादमित्रत्वान सामान्यरूपताच्याघातोऽस्य, रूपादे-रप्यत एव गुणरूपताध्याघातप्रसङ्गात् / कश्चिद व्यतिरेकस्तुरूपादेरिव सदृशपरिणामस्याप्पस्त्येव / ननु प्रथमव्यक्तिदर्शन-वेलायां कथं न सामानप्रत्ययोत्पति:? तत्र सदृशपरिणामस्य भावादिति चेत्, तवापि विशिष्टप्रत्ययोत्पत्ति तदानीं करमान्न स्याद्? वैसदृश्यस्यापि भावात् / परापेक्षत्वात् तस्याप्रसङ्गाऽन्यत्रापि तुल्यः। समानप्रत्ययोऽपि हि परापेक्षः, परापेक्षामन्तरेण क्वचित कदाचिदयभावात, अणुमहत्त्वादिप्रत्ययवत् / विशेषा अपि कान्तन सामान्याद विपरीतधर्माणी भवितुमर्हन्ति, यतो यदि सामान्य सर्वगतं सिद्धं भवेत ततातेषामध्यापकत्वेन ततो विरुद्धधमा :यासः स्यात,न चैवम्... सामान्यस्य विशेषाणां च कश्चित्परस्पराव्य िरेकेणैकान क रूपतयाऽवस्थितत्वात / विशेषेभ्यो व्यतिरिक्त्यादि Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्ण 641 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्ण सामान्यमप्र ने कमिष्यते, सामान्यात्तु विशेषाणामव्यतिरेकातेऽप्यकरूपा इति। एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहनयार्पणात सर्वत्र विज्ञेयम्। रत्ना०५ परि०। सम्मा सामन्यविशेषयोरन्योन्यानुविद्धस्वरूपत्वदर्शनम्सामण्णम्मि विसेसो, विसेसपक्खे य वयणविणिवेसो। दव्वपरिणाममन्नं, दाएइ तयं च णियमेइ / / 1 / / सामान्येऽस्तीत्येतस्मिन् विशेषो द्रव्यमित्ययं, तथा विशेषपक्षे च वटादावस्तीत्येतस्य वचनस्य नाम-नामवतोरभेदात्सत्तासामान्यस्य विनिवेशः-प्रदर्शन द्रव्यपरिणतिमन्या सत्ताख्यस्य द्रव्यरय पृथिव्याख्या परिणतिमन्यां सत्तारूपापरित्यागेनैव वृत्ता दर्शयति--विशेषाभावे सामान्यस्याप्यन्यथाभावप्रसक्तेः.यद्यदात्मक तत्तदभावेन भवति. घटाद्यन्यतमविशेषाभावे मृद्वद्विशेषात्मकं च सामान्यमिति तदभावे तस्याप्यभावः, तथा तक च विशेषम्, द्वितीयपक्षे सामान्यात्मनि नियमयति विशेषः सामान्यात्मक एव तदभावे तस्याप्यभावप्रसङ्गाद्यतः सामान्यात्मकस्य विशेषस्य सामान्याभावे घटादेरिव मृदभावे न भावो युक्तः / (सामान्यविशेषयोरकान्तभेदं वदतां दोषाऽऽपत्तिप्रकटतम) न च विशेषाव्यतिरिक्तं सामान्यमेकान्ततः, तस्माद्वा विशेषान्नियमतो भिन्न इत्यभ्युपगन्त्व्यम्। अध्यक्षादिप्रमाणविरोधादित्याह-- एगंतणिव्विसेस, एगंत विसेसियं च वयमाणो। दव्वस्स पज्जवे प-जवा य दवियं णियत्तेइ॥२॥ एकान्तेन निर्गता विशेषा यरमात्सामान्यात तद्विशेषविकलं सामान्य बदन तद् द्रव्यस्य पर्यायानृजुत्वादीन् निवर्तयति ऋजुवक्रतापर्याप्तिकाडगुल्यादिद्रव्यस्याध्यक्षादिप्रमाणप्रतीयमानस्य विनिवृत्तिप्रसक्तेरध्यक्षादिप्रमाणबाधापत्तिः तथैकान्तविशेषसामान्यरहितं वदन् परिभ्यो विशेषेभ्यो द्रव्यं निवर्तयति एवं चागुल्यादिद्रव्यव्यतिरिक्त ऋजु-प्रक्रतादिविशेषस्य प्रत्यक्षस्याद्यवगतस्य निवृत्तिप्रसक्तिः / नचाबाधिता. माणविषयीकृतस्य तथा--भूतस्य तस्य निवृत्तिर्युक्ता, सर्वभावनिवृत्तेप्रसक्तेः अन्याभावाभ्युपगमस्यापि तन्निबन्धनत्वात तत्प्रतीतस्य प्यभावे सर्वव्यवहाराभाव इति प्रतिपादितम् / अत्राह'सामाण्णनि' इत्यादि-काण्ड नारब्धव्यम् मुक्तार्थत्वात् यतो न तावनेन वर चनेकान्तात्मक प्रतिपाद्यते एगदवियम्मि' (प्र०कालगा० 31) इत्यादिना 'इहरा समूहसिद्ध' (प्र० का०गा०२७) इत्यादिना च तस्य प्रतिपा देतत्वात्, तथा- 'उप्पायहिइभंगा, हंदि दवियलक्खणं एयं। (प्र०कागा०२) इत्यनेन लक्षणद्वारेण सर्वस्य सतः अनेकान्तात्मकन्यं प्रदर्शितमेव अर्थप्रमाणविषयवाक्यनिरूपणार्थमिदं प्ररतूयत तदपि नराम्रक'सवियप्पणियप्पमि' (प्र० का० गा०३५) इत्यादिना तस्यापि निरुपितत्वात, वाक्यस्य च वस्तुत्वात तन्निरूपणे तस्यापि निरूपितत्वान् न तन्निरूपणार्थमप्येतत् पुनरुक्तम् एवमेतत् किन्तु प्रमेयप्राधान्न तद्ग्राहकस्य प्रमाणस्यापि निरूपणमित्येतत्प्रदर्शनद्वारेण तत्प्रतिपादकवाक्यावतारः प्राग विहितः, इह त्वविद्यमानप्रमेयस्य प्रमाणस्थ प्रमाण वासाभवात प्रमाणविणारेणप्रमेयनिर: पामिति / प्रदर्शनद्वारेणैतद्वाक्यावतारः इत्यदोषः / यद्वा--अनेकान्तपक्षोक्तदोषपरिहारोऽनेकधा व्यवस्थाप्यत इति न कश्चिद्दोषः : 'सामन्नम्मी' त्यादिसूत्रसंदर्भविरचने। सामान्यविशेषाऽनेकान्तात्मकवस्तुप्रतिपादकं वचनभातस्य इतरस्येत्येतदेव दर्शयन्नाहपच्चुप्पन्नं भावं, विगयभविस्सेहि जं समाणेइ। एयं पडुच वयणं,दव्वंतरणिस्सियं जं च / / 3 / / प्रत्युत्पन्नं भावं वस्तु वर्तमानपरिणाम विगतभविष्यद्यां पर्यायाभ्या यत्समानरूपतया नयति-प्रतिपादयति वचः तत्प्रतीत्य वचनसमीक्षितार्थवचनं, सर्वज्ञवचनमित्यर्थः, अन्यच्चानाप्तवचनम्। ननु वर्तमानपर्यायस्य प्रागपि सद्भावे कारकव्यापारवैफल्य क्रियागुणव्यपदेशानां च प्रागप्युपलम्भप्रसङ्गश्च, उत्तरकालं च सद्भावे विनाशहेतुव्यापारनैरथक्यम्, उपलब्ध्यादिप्रसङ्गश्चाततो यद्यदैवोपलम्भादिकायत्तत्तदैव, न, प्रागनपश्चात् तदर्थक्रियालक्षणसत्वविरहे वस्तुनोऽभावात्असदेतत्; तस्य प्रागसत्वे दलस्येत्ययोगत् न चात्मादि द्रव्य विज्ञानादिपर्यायोत्पत्ती दलं तस्य निष्पन्नत्वात् न च निष्पन्नस्यैव पुनर्निष्पत्तिः अनवस्थाप्रसङ्गात न च तत्र विद्यमान एवज्ञानादिकार्योत्पत्तिस्तत्रेति सम्बन्धाभावतोऽप्यव्यपदेशाभावप्रसङ्गात्, समवायसम्बन्धप्रकल्पनाया, तस्य सर्वत्राविशेषात्तद्वदाकाशादावपि तत् स्यात्। अथात्मादि द्रव्यमेव तेनाकारणे - त्पद्यत इति नादलोत्पत्तिः कार्यस्य भवत्येवमुत्पत्तिः किं त्वात्मद्रव्य पूर्वमप्यासीत् पश्चादपि भविष्यति, मत्सर्वावस्थासु तादात्म्यप्रती-- तेरन्यथा पूर्वोत्तरावस्थयोस्तत्प्रतिभापो न भवेत् / न चैकत्वप्रतिभासो भ्रान्ता बाधकाभावे भ्रान्त्यसिद्धेः / नचार्थक्रियाविरोधो नित्यत्वे बाधकः, अनित्यत्वे एव तस्य बाधकत्वेन प्रतिपादनात् / नचोत्पादविनाशयोरपि तत्र प्रतिपत्तावेकान्ततो नित्यन्वमेध, परिणामनित्यतया तस्य नित्यत्वात; अन्यथा खरविषाणवत् तस्याभावप्रसङ्गात् / न चैवं तस्य विकारित्व-प्रसङ्गो दोषाय, अमीष्टत्वात् न च नित्यत्वविरोधस्तथैव तत्तत्त्वप्रतीतेः न च तस्य तथात्वप्रतिपत्निन्तिः बाधकाभावादित्युक्तत्वात् / अथ ज्ञानपर्यायादात्मनो व्यतिरके देनोपलम्भः स्यादव्यतिरक पर्यायमात्र द्रव्यमानं वा भवेत् व्यतिरेकाव्यतिरेकपक्षरतु विरोधाघ्रातः, अनुभयपक्षस्त्वन्योन्यव्यवच्छे दरूपाणा मे कनिषेधेनापरविधानदसड़तः, असदेतत्-व्यतिरेकाच्यतिरेकपक्षस्याभ्युपगमास नद व्यतिरेकपक्षभावी तद्व्यतिरेकेणोपलब्धिप्रसङ्गो दोषः, एकज्ञानव्यतिरेकेण ज्ञानान्तरेऽपि तस्य प्रतीय तिरेकणोपलम्भस्य सद्भावात् अव्यतिरेकोऽपि ज्ञानात्मकत्वेन तस्य प्रतीतेः, नच व्यतिरेकाव्यतिरेकयोरन्योन्यपरिहारेणावस्थानाद विरोधोऽबाधितप्रमाणविषयीकृते वस्तुतत्त्व विरोधासभवात्; अन्यथा संशयज्ञानस्यैकानेकरूपस्य वैशापेकण ग्राह्यग्राहकसवित्तिरूपस्य बुद्ध्यात्मनश्चैकानेकस्वभावस्य सौगतेन का प्रतिपादनमुपपत्तिमद्भवेत्, यदि प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुतत्त्वे विरोधः सगच्छतेत्यादि पूर्वमेव प्रतिपादितम्, वर्तमानपर्यायस्यान्वयिद्रव्यद्वारेण त्रिकालास्तित्वप्रतिपादक प्रतीत्य वचनमिति सिद्ध 'परमाण्वारम्भकद्रव्यात कार्यालय काणकादि दव्यान्तरं वेशैषिकाभिप्रायतस्तेन नि:सन संयन्त्रमा Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्ण 642 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्ण कारणं परमाण्वादि यत्प्रतिपादयति तदपि प्रतीत्य वचनग, थाहत्र्यणुकरूपा ये परमाणवः प्रादुर्भूता व्यणुकतया प्रच्युताः परमाणुरूपतया अविचलितस्वरुपा अभ्युपगन्तव्याः, अन्यथा तद्रूपतयाऽनुत्पादिप्राक्तनरूपताऽपगमो न स्यात् परमाण्ववस्थावत प्राक्तनरूपानपगमे वा नोत्तररूपतयोत्पत्तिस्तदवस्थावत् / परमाणुरूपतयाऽपि विनाशात्पत्यभ्युपगमे पूर्वोत्तरावरथयोः निराधारविगमप्रादुर्भावप्रसक्तिः मच तदवस्थयारवाधाररथम, तयोस्तदानीमसत्त्वात / न च पूवारावस्थयोर्द्रव्यविनाशप्रादुर्भावयोः कारणस्याऽविनाशप्रादुर्भावा ततस्तस्यैकान्ततो हिमवद्विन्धयोरिवभेदप्रसक्तेः / न च कारणाश्रितस्य कार्यद्रव्यस्योत्पत्ते य दोषः, तयोर्युतसिद्धिः कुण्डबदरवत पृथगुपलब्धिप्रसक्तेः। अयुतसिद्धावपि कार्योत्पत्तो कारणस्याप्युत्पत्ति - प्रसक्तिः अन्यथाऽयुतसिद्ध्यनुपपत्तेः। अथायुताश्रयसमवायित्वमयुलसिद्धिः, सा च कार्योत्पत्ती कारणानुत्पत्तावपि भवत्येव न समवायासिद्धावयुलसिध्यसिद्धेः नचायुतसिद्धित एव समवायसिद्धिः, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः / नचाध्यक्षतः समवायसिद्धनायं दोषः, तन्वात्मकपटप्रतिभासमन्तरेणाध्यक्षप्रतिपत्तावपरसमवायाप्रतीतः- 'इह सन्तुषु पटः' इत्यत्रापिप्रत्यये 'इह तन्तुषु' इति प्रतिपत्तिस्तन्त्वालम्बना पटः' इति प्रतिपत्तिः,पटालम्बनासंवेद्यत इति नापरसमवायप्रतिभासः। न च 'इह तन्तुषु पटः' इति लौकिकी प्रतिपत्तिः किंतु 'पटे तन्तयः' इति / नचान्यथाभूतप्रतिपत्त्याऽन्यथाभूतार्थव्यवस्था / नचानुमानादपि समवायप्रसिद्धिः, प्रत्यक्षाभावे तत्पूर्वकस्य तस्य तत्राऽप्रवृत्तः / अनुमानपूर्वकस्य तु तस्यानवस्थादिदोषाघातत्वात् तत्राप्रवृत्तिरित्यनेकशः प्रतिपादित न पुनरुच्यते इति व्यवस्थितमेतत् / तथाभूतवस्तुप्रतिपादकर्मवापूर्ववचनम का लप्रतिपादकं तु नाप्तवचनम् / / अथवा-एकद्रव्यादन्यत द्रव्यं द्रव्यान्तर तस्मिन्निः सृतमबद्ध संबद्ध यत्तदपि प्रतीप वचनम, राथा- दीर्घतरगलिद्रव्यमपेक्ष्य ह्रस्वतरगडगुष्ठकद्रव्यमिति वचः / हस्वदीर्धादिकारतु स्वधर्म एव द्रव्यान्तर विषयाभिव्यङ्गराः पित्तव पुत्रादिना / / यद्वा-- गोत्वसदृशपरिणतियुक्तात शाबलेयद्रव्याद तत्सदृशपरिणतियुक्तं बाहुलंयादि द्रव्यान्तरम्, तस्मिन्निश्रितसंबद्ध वाचकत्वन 'गोः' इति यद्वचनं तदपि प्रतीत्य वचनम्।न पुनः केवलतिर्यक्रसामान्यविशयतद्वदुभयादिप्रतिपादकमसद्भूतार्थप्रतिपादकत्वादुपित्तवाक्यचत / ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायस्य स्वकालवदतीतानागतकालयोः सत्य अतीतानागतकालयोर्वर्तमानकालताऽऽपत्तेः अन्यथा तद्रूपतया गया - स्तत्सत्त्वासंभवात काल्यायोगात तस्य तद्विशितानुपपतेः। थाभूतार्थप्रतिपादक वचनमप्रतीत्य वचनमवत्याशङ्कयाह-- दव्वं जहा परिणयं, तहेव अस्थि त्ति तम्मि समयम्मि। विगयभविस्से हि उप्प-जवेहि भयणा विभयणा वा ||4|| दाग- चतनाचलन, सभासदाकारार्थमहारपत्रया, रूपारा या परिसार वर्तमान समय लवास्ति विमतभविष्यादिस्तुपर्याय जना . जागा स्नाशकत्व विभजना विगता भजनानानात्व, कथंचिता शब्दस्य काचिदर्थस्य तत् ततः प्रत्युत्पन्नपर्यायस्य विगः भविषादयां न सर्वथैकत्वगितिकथं तत्प्रतिपादकवचस्याप्रतीत्यैव वचतेति भावः। ननु घटादेरर्थस्य कैः पर्यायैरस्तित्वमनस्तित्वं चेत्यहपरपञ्जवेहि असरिस-गमेहि णियमेण णिचमवि नत्थि। सरिसेहि वि वंजणओ, अत्थि ण पुणऽत्थपञ्जाए।।५।। वर्तमानपर्यायव्यतिरिक्तभूतभविष्यत्पर्यायाः परपर्याया तैर्विसदृशगमैर्विजातीयज्ञानग्राद्धैर्नियमेननिश्चयेन नित्यसर्वदा नास्ति तद् द्रव्यम्, तैरपि तदा तस्य सद्भावे अवस्थासंकीण्णताप्रसक्त / सदृशेस्तु व्यञ्जनतः सामान्यधर्म : सद्रव्यपृथिवीत्वादिभिः विशेषात्मकेश्व शब्दप्रतिपाद्यैरस्ति सामान्यविशेषात्मकस्य शब्दवाच्यत्वात्। सामान्यमात्रस्य तद्वाच्यशब्दादप्रवृत्तिप्रसक्तेः, अर्थक्रियासमर्थस्रा तेनानुक्तत्वात, सामान्यमात्रस्य च तदुक्तस्यार्थक्रियाया अनि यतकत्यात्, विशेषमन्तरेण सामान्यस्यासंभवात्। सामान्यप्रतिपादनद्वारण लक्षणया विशेषप्रतिपादनमपि शब्दात् न संभवति, क्रमप्रतिपत्तेरसंवेदनात्; विशेषाण त्वानन्त्यात, संकेतासम्भवतः शब्दावाच्यत्वम् परस्परव्यावृत्तसामान्यविशेषयोरप्यवाच्यत्वमुभयदोषप्रसङ्गात्। ततः उभयात्मकवस्तुगुणप्रधानभावेन शब्देनाभिधीयत इति सदृशैर्व्यञ्जनतोऽस्तीत्युपपन्न, न पुनर्नवार्थपर्यायः ऋजुसूत्राभिमतार्थपर्यायेण तदरिन अन्योन्यव्यावरावस्तुस्वलक्षणग्राहकत्वात् तस्य। अयं चार्थः पूर्वसू एव प्रदर्शित इत्यन्यथा गाथासूत्र व्याख्येयम्-अन्यवस्तुगताः पर्याया विसदृशसदृशतया द्विप्रकाराः, तत्र विसदृशैर्विवक्षितो घटादिर्नवास्ति / सदृशैस्तु कश्चिदुक्तवदस्ति, कैश्चिन्नेति तात्पर्यार्थः। ननु प्रत्युत्पन्नपर्यायण भावस्यास्तित्वनियमे एकान्तवादात्तिरित्याहपच्चुपण्णम्मि विप्प-जयम्मि भयणागई पडइ दव्व / जं एगगुणाईया, अणंतकप्पागमविसेसा // 6 // वर्तमानेऽपि परिणामे स्वपररूपतया-सदसदात्मरूप / अधमध्योर्धादिरूपेण च भेदाभेदात्मकतां च भजनागतिमासा दयति द्रव्यं, यत् एक गुणकृष्णत्वादयोऽनन्तप्रकारास्तत्र गुणविशेषाःतेषां च मध्ये केनचिद् गुणविशेषेण युक्त तत्. तथाहि-कृष्णं द्रव्यं तद द्रव्यान्तरण तुल्यमधिकं ऊन वा भवेत् प्रकारान्तराभावात् प्रथमपक्षे सर्वथा तुल्यत्वे तदेकत्वापत्तिः, उत्तरपक्षयोः संख्येयादिभागगुणवृद्धिहानिभ्यां षट्स्थानकप्रतिपत्तिरवश्यंभाविनी। स्यादेतत-पुद्गलद्रव्यरय लादृगभूतापरयुगलद्रध्यापक्षया अनेकान्तरूपता युक्ता प्रत्युत्पन्ने त्यालद्रव्यपर्याय कथमनेकान्तरूपता? न आत्मपर्यायस्यापि ज्ञानादेस्तत्तद्ग्राह्याक्षियाऽनेकान्तरूपता पुगलवन्न विरुध्यते, तथा द्रव्यकषाययोगपयोगज्ञानदर्शनचारित्रवीर्यप्रभेदात्मकत्वादात्मनः पुद्गलवदनेकान्तर पता आर्षे - प्रतिपादितव। 'कइविहे णं भंते ! आया पण्णते? गोयमा ! अट्टविहे, तं जहा दविए आया' (भगवती सू०श त०१२, उ० 101) इत्यादि। इतवानेकान्तात्मकता आत्मनः प्रतिपत्तव्यत्या:कोवं उप्पायंतो, पुरिसो जीवस्स कारओ होई। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्ण 643 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णपुविया तत्तो वि य भइयचो, परम्मि सयमेव भइयव्वो // 7 // वदति, संभवति ब्राहाणे विद्याचरणसंपदिति। तच्छलवादी-ब्राह्मणत्वस्य कोपपरिणतिमुदयं पुरुषो जीवस्य परश्रवप्रादुर्भाव निवर्तको भवति, हेतुतामारोप्य निराकुर्वन्नभियुक्ते-यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपद् भवति तन्निमित्तस्य कर्मण उपादानात्। कोपपरिणाम समासाद्यमानश्च पुरुषः तर्हि व्रात्येऽपि सा भवेत् / व्रात्येऽपि ब्राह्मण एवेति औपचारिक प्रयोगे ततः परभव जीवाद्विभजनीयो भिन्नो व्यवस्थापनीयः, कार्यकारण- मुख्यप्रतिषेधैन प्रत्यवस्थानम्। स्या०। योम॒त्पिण्डष्टवत्कथंचिढ़ेदात्, अन्यथा कार्यकारणभावाऽभावप्रस- सामण्णणय पुं०(सामान्यनय) नामात्मादिपदार्थानामेकत्वस्याभिमगात न चार ततो भिन्न एव परस्मिन्भवे स्वयमेव पुरुषो भजनीयः, न्तरि सामान्यवादिनि नये,स्याका तदुक्तम- "निर्विशेष हि सामान्यं, आत्मरूपतया अभेदन व्यवस्थाप्यत इति भावः, घटाद्याकारपरि- भवत् खरविषाणवत्। सामान्यरहितत्वे न, विशेषास्तद्व-देव हि१॥" णतमृद्दव्य गत्कदाचिदभिन्नः, कदाचिद्भिन्न इत्यनेकान्तः! यदा-- ततः सिद्धे सामान्य विशेषाऽऽत्मन्यर्थे प्रमाणविषये कुत एवैकस्य कोपपरिणत्मिन्यस्मिन् जीव उत्पादयन्पुरुषः कारको भवति। ततोऽसौ परमब्रह्मणः प्रमाणविषयत्वम्? यच प्रमेयत्यादित्यनुमानमुक्तम्, कोपकारकत्येन विभजनीयः, कोपपरिणतियोग्यजीवे कारकोऽन्यत्रा:- तदप्ये ते नवापास्तं बोवव्यम् ; पक्षस्य प्रत्यक्षबाधितत्वेन हेतोः कारक इति कालात्ययापदिष्टत्वात्। यच तत्सिद्धौ प्रतिभासमानत्वं साधनमुक्तम्, द्रव्य गुणादिभ्योऽनन्यत् तेऽपि द्रव्यादनन्य एवेत्ये तदपि साधनाऽऽभासत्वेन न प्रकृतसाध्यसाधनायालं; प्रतिभासमानत्व तदनेकान्तं मृष्यमाणा आहुः हि निखिलभावानां स्वतः, परतो वा? न तावत् स्वतः, घटपटमुकुटशरूपरसगन्धफासा, असमाणग्गहणलक्खणा जम्हा। कटादीना स्वतः प्रतिभासमानत्वेनासिद्धेः / परतः प्रतिभासमानत्वं चतम्हा दव्वाणुगया, गुण त्ति ते के इ इच्छंति ||8|| पर विना नोपपद्यते, इति / यच्च परमब्रह्मविवर्तवर्तित्वमखिलभेदानारूपरसगन्धस्पर्शा असमानग्रहणलक्षणा यस्मात्ततो द्रव्याश्रिता गुणा मित्युक्तम्, तदप्यन्वेत्रन्वीयमानद्वयाविनाभावित्वेन पुरुषाद्वैत प्रतिबइति केचन वैशेषिकाद्याः स्वयूथ्या वा सिद्धान्तानभिज्ञा अभ्युपगच्छन्ति। ध्नात्येव / नच घटादीनां चैतन्यान्वयोऽप्यस्ति मृदाद्यन्वयस्यैव तत्र तथाहि- गुणा द्रव्याद् भिन्नाः, भिन्नप्रमाणब्राह्यत्वात् भिन्नलक्षणत्वाच, दर्शनात्। ततो न किञ्चिदेतदपि, अतोऽनुमानादपि न तत्सिद्धिः। किञ्चस्तम्भात् कुम्भवत / नचासिद्धो हेतुः. द्रव्यस्य 'यमहमद्राक्ष तमेव पक्षहेतुदृष्टान्ता अनुमानोपायभूताः परस्परं भिन्नाः, अभिन्ना वा? 20स्पृशामि' इत्यनुसधानाध्यक्षग्राह्यत्वाद्रूपादीनां, च प्रतिनियतेन्द्रिय- द्वतसिद्धिः / अभेदे त्वेकरूपताऽऽपत्तिः / तत् कथमेतेभ्योऽनुमानमात्माप्रभवप्रत्ययावसेयत्वात दार्शन स्पार्शनं च द्रव्यम्' इत्याद्य-भिधानाद- नमासादयति? यदि च हेतुमन्तरेणापि साध्यसिद्धिः स्यात्, तर्हि समानग्रहणता द्रव्यगुणयोः सिद्धा / तथा विभिन्न लक्षणत्वमपि द्वैतस्यापि वाइमात्रतः कथं न सिद्धिः? तदुक्तम्- ''हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद्, "क्रियावत् गुणवद् समवायिकारणं द्रव्यम्' (वैशेषिकद०१-१-१५) द्वैत स्याद हेतुसाध्ययोः / हेतुना चेद विना सिद्धि-द्वैतं वाङ्मात्रतो न "द्रव्याश्रयगुणवान् संयोग-विभागेष्वकारणमनपेक्षः" (वैशेषिक द०१- किम् ? / / 1 / / ' ''पुरुष एवेद सर्वम्" इत्यादेः, सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म 1-16) इति वचनात् सिद्धम् / सम्म०३ काण्ड / बहूना प्राणिनां इत्यादेश्वागमादपि न तसिद्धिः, तस्यापि द्वैताविनाभावित्वेन अद्वैत साधारणे, पञ्चा०६ विवा प्रति प्रामाण्यासम्भवात्, वाच्यवाचकभावलक्षणस्य द्वैतस्यैव तत्रापि सामण्णओविणिवाइस न०(सामान्यतोविनिपातित) अभिनयभेदे, दर्शनात्। तदुक्तम- 'कर्मवैत फलद्वतं, लोकद्वतं विरुध्यते। विद्याइआम०१30 जंग विद्याद्वरां न रयाद्, बन्धमोक्षद्वय तथा.॥१॥" ततः कथमागमादपि सामण्णकिरिया स्त्री०(सामान्यक्रिया) अस्ति भवति विद्यते इत्यादि तत्सिद्धिः? ततो न पुरुषाऽद्वैतलक्षणमेकमेव प्रमाणस्य विषयः / इति रूपायां क्रियायाम, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सुव्यवस्थितः प्रपञ्चः / स्या०। सामण्णगुण पुं०(सामान्यगुण) सर्वद्रव्यवर्तिषु गुणेषु, अथ रूपर सामण्णणिसेह पुं०(सामान्यनिषेध) निर्विशेषतया निवारणायाम, पशा० सगन्धस्पशा रूपिद्रव्यवृत्तेर्विशेषगुणास्तथा संख्यापरिमा (णानि) णे 11 विव० पृथकत्व संयोगविभागीपरत्वापरत्वे इत्येते सामान्यगुणाः। सूत्र०१ श्रु० सामण्णपरिपाग पुं०(श्रामण्यपरिपाक) सर्वचारित्रपरिपाके, औ॥ 12 अ० सामण्णपु दिवया रत्री०(श्रामण्यपूर्विका) श्रामण्यस्य पूर्व कारणं सामण्णगुणपसंसा स्त्री०(सामान्यगुणप्रशंसा) लोके लोकोत्तरा- श्रामण्यपूर्व तदेव श्रामण्यपूर्वकमिति संज्ञायां कन्। श्रामण्यकारक विरुद्धविनर दाक्षिण्यसोजन्यादिगुणस्तुतौ, पञ्चा०६ विवा धृतिस्तन्मूलत्वात्तस्य तत्प्रतिपादक चंदमध्ययनम, दश०। दशवैकासामण्णग्गहण न०(सामान्यग्रहण) सामान्यमेव वस्तु तदेव गृह्यतेऽनेनेति लिकस्य द्वितीयऽध्ययने, दश ग्रहणम् / दश्ने, सम्म० 2 काण्ड। अत्र वक्तव्यतासामण्णच्छल न०(सामान्यच्छल) न्यायप्रसिद्ध छलभेदे, यथाऽहो नु | कहं नु कज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारए। खल्वसौ ब्राहाणो विद्यावरणसंपन्न इति ब्राहाणस्तुति-प्रसङ्गे कश्चिद् / पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसंगओ?||१|| गण Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णपुब्विया 644 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णपुब्विया इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्र व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति तत्परिज्ञाननिबन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते तत्रापि कत्यह कदाऽहं कथमहमित्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते-कथं नु कुर्याच्छामण्यं यः कामान्न निवारयति? कथं-केन प्रकारेण, नुः क्षेपे, यथा कथं नु स राजा यो न रक्षति? कथं नु स वैयाकरणो योऽपशब्दान् प्रयुक्ते, एवं कथ नु स कुर्यात् श्रामण्य-श्रमणभावं यः कामान् ने निवारयति-न प्रतिषेधतं? किमिति न करोति? तत्र 'निमित्तकारणहेतुष सर्वासा विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्' इति वचनात्, कारना-पदे पदे विषीदन संकल्पस्य वशङ्गतः कामानिवारणनेन्द्रियाद्यपराधपदापेक्षया पदे पदे विषीदनात्संकल्पस्य वशगतत्वात् (अप्रशस्ताध्यवसायः संकल्पः) इति सूत्रसमासार्थः / दश०२ अ०॥ (कामादीना स्वरूप स्वस्वस्थाने।) आयावयाहि चय सोगमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं / छिंदाहि दोसं विलज्जए रागं, एवं सुही होहिसि संपराए॥५॥ संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थम् आतापय-आतापना कुरा ‘एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति न्यायाद् यथानुरूपमूनोदर तादेरपि विधिः, अनेनात्मसमुत्थदोषपरिहारमाह- तथा त्यज सौकुमार्यपरित्यज सुकुमारत्वन, अनेन तूभयसमुत्थदोषपरिहारम, तथाहि- सौकुमार्या - कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च प्रार्थनीयो भवति, एवमुभयारोवनेन कामानप्राग्निरूपितस्वरूपान क्रामउल्लङ्घय, यतस्तैः क्रान्तैः क्रान्तमेष दुःख भवति, इति शेषः, कामनिबन्धनत्वाद् दुःखस्य। खुशब्दोऽवधारणे / अधुनाऽऽन्तरकामक्रमणविधिमाह-- छिन्धि द्वेष व्यपनय राग सम्यग्ज्ञानवलेन विपाकालांचनादिना, व? कामेष्विति गम्यते। शब्दादयो हि विषया एव कामा इति कृत्वा / एवं कृते फलमाह-एवम्- अनेन प्रकारेण प्रवर्तमानः, किम? सुखमस्यास्तीति सुखी भविष्यसि, व? संपराये-- संसारे, यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी भविष्यसि, संपरायपरीषहोपसर्गग्राम इत्यन्ये / कृत प्रसङ्गे नेति सूत्रार्थः / किं च संयमगेहान्मनस एवानिर्गमनार्थमिदं चिन्तयेत् यदुतपक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं दुरासयं / नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे / / 6 / / प्रस्कन्दति - अध्यवस्यन्ति ज्वलितम्-ज्वालामालाकुलं न मुर्मुरादि पर कम्? ज्योतिषन्- 'अग्नि-धूमके तुम-घूमचिहं धूमध्वज नालका दुरासदा-दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदस्तं, kahaniiH / शब्दलापालनचेच्छन्ति- नच वाञ्छन्ति वान्तं भाजपानमा, तिपगिलिगम्यते। के? नागा इति गम्यते किं पिमिटा इत्याह - बाले जाया:--- सम्पन्ना अगन्धने।नागानां हि भेदद्वयं गानाश्व, अगन्धनाश्च / सन्थ मागामजे डसिएमतेहिं आकड़िया तं विवागनुहाओ आदिसते, अगं अदि मरणमज्वर 24 वंतमावियति / उदाहरणं द्रुमपुष्पिकायामुक्तमेव / उप सहाररस्त्येवं भावनीयः-याद तावत्तिर्यशोऽप्यभिमानमात्रादपिजीवित परित्यजन्ति, न च वान्तं भुञ्जते तत्कथमहं जिनवचनाभिज्ञो विपाकदारुणान् विषयान् वान्तान् भोक्ष्ये? इति सूत्रार्थः। अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणम्-'यदा किल अरिडणेभी पटवइओ तया रहणेमी तस्स जेहो भाउओ राइमई उवयरइ, जइ णाम एया मम इच्छिज्जा, सा वि भगवई निविण्णकामभोगा, णायं वतीए-जहा एसो मम अज्झोववण्णो, अण्णया य तीए महुघयसंजुत्ता पेला पीया, रहनेमी आगओ, मयणफलं मुह काऊण य तीए वत, भणियं च-एय पेज पियाहि / तेण भणिय-कहं वन्तं पिज्जइ? तीए भणिओ-जइ न पिजइ वंत तओ अहं पि अरिट्ठनेमिस्रामिणा वंता कह पिविउमिच्छसि? तथा ह्यधिकृतार्थसंवाद्येवाहधिरत्थु ते जसो कामी, जो तं जीवियकारणा। वंतं इच्छसि आवेउं, सेयं ते मरणं भवे / / 7 / / तत्र राजीमतिः किलैवमुक्तवती--धिगस्तु-धिक् शब्दः कुत्सायाम्,अस्तु-भवतुते-तव,पौरुषमिति गम्यते, हेयशस्कामिनिति सासूर्य क्षत्रियामन्त्रणम् / अथवा-अकारप्रश्लेषादयशस्कामिन् धिगस्तु तव, यस्त्वं जीवितकारणात- असंयमजीवितहेतोः वान्तमिच्छस्यापातुं परित्यक्तां भगवता अभिलषसि भोक्तुम, अत उत्क्राननमर्यादस्य श्रेयस्ते मरणं भवेत् शोभनतर तव भरणं, न पुनरिदमकायासेवनमिति सूत्रार्थः / तओ धम्मो से कहिओ, संबुद्धो पव्वइओ य / राईमई वि तं बोहऊणं पव्वइया / पच्छा अन्नया कयाइ सो रहनेमी वारवईए भिक्खं हिंडिऊण सामिसगासमागच्छन्तो वासवद्दलएण अब्भाहओ एक गुह अणुप्पविट्टो / राईमई वि सामिणो वंदणाए गया। वंदित्ता पडिस्यमागच्छड्। अंतरे य वरिसिउमाढत्तो, तिताय (भिन्ना) तमेव गुहमणुप्पविट्ठाजत्थ सो रहनेमी, वत्थाणि य पविसारियाणि, ताहे ती अंगपचंग दिव, सो रहणेमी तीए अज्झोववन्नो, दिट्ठो अणाए इंगियागारफुसलाएय णाओ असो भावो एयस्स। ततोऽसाविदमवोचतअहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो। मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुणो चर // 8 // जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। बायाबिद्ध व्व हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि / / 6 / / तीसे सो वयणं सोचा, संजयाइ सुभासियं / अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ॥१०॥ एवं करंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा। विणियटृति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ! ||15|| त्ति बेमि। अहं च भो गराज्ञः- उग्र से नस्य, दुहिते ति गम्यते त्वं च भवसि अन्धकवृष्णे : समुद्रविजयस्य, सुत इति गम्यत, अता मा एक क --प्रधानकु ले आवा गन्धन भूत, पाच- 'जह Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णपुव्विया 645 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णपुव्विया न सप्पतुल्ला होमु त्ति भणियं होइ' अतः संयमं निभृतश्वर-सर्वदुःखनिवारण क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति सूत्रार्थः / किञ्च-यदि त्वं करिष्यसि भावम्-अभिप्राय: प्रार्थनामित्यर्थः, व?-या या द्रक्ष्यसि / नारीः-- स्वियः, तासु तासु एताः शोभना एताश्चाशोभना अतः सेवे काममित्येवं तं भाव यदि करिष्यसि ततो वाताबिद्ध इव हड:-वातप्रेरित इवाबद्धभूलो वनस्पतिविशेषः अस्थितात्मा भविष्यसि, सकलदुःखक्षयनिबन्धनषु संयमगुणेष्व(प्रति) बद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्वेतश्च पर्यटिष्यसीति सूत्रार्थः / तस्याः-राजीमन्याः असौ-रथनेमिः वचनम्- अनन्तरोदितं श्रुत्वा-आकये, किंविशिष्ायास्तस्याः?-संयतायाः-प्रव्रजिताया इत्यर्थः, किंविशिष्टं वचनम्। सुभाषितम्-संवेग-निबन्धनम्, अकुशेन यथा नागो- हस्ती एवं धर्म संप्रतिप दितः- धर्मे स्थापित इत्यर्थः, केन? अड्कुशतुल्येन वचनेन। 'अङ्कुसैन जहा नागो' त्ति-एत्थ उदाहरण-वसंतपुरं नयर, तत्थ एगा इ.भण्हुया नदीए ण्हाइ. अन्नो य तरुणो तं दटूण भणइ'सुण्हायं ते पुच्छइ, एसा नइपवरसोहियतरङ्गा। एए य नदीरुवखा, अहं व पाएसुते पडिओ॥१॥ ताहे सा पडिभणइ- 'सुहया होउ नई ते. चिरं च जीवतु जे नईरुक्खा। सुण्हाय पुच्छयाणं, घत्तीहामो पियं काउं / / 1 / / ' सोय तीसे घर वा दार वा णयाणइ, तीसे य बितिजि-याणि चेडरूवाणि रुक्ख पलोयताणि अच्छति, तेण ताणं पुप्फफलाणि सुबहूणि दिण्णाणि पुच्छियाणिर. का एसा? ताणि भणन्ति-अमुगस्स सुण्हा, सो य तीए विरह न लहति, तओ परिवाइयं ओलग्गिउमादत्तो, भिक्खा दिन्ना। सा तुट्टा भणइ-किं करेमि आलगाए फलं? तेण भणिया- अमुगस्स सुण्ह मम कर भणाहि, तीए गन्तूणं भणिया, अमुगो ते एवं गुणजातीओपुच्छई, ताए रुहाए पउल्लगाणि धोवन्तीए मसिलित्तएण हत्थेण पिट्ठीए आहया, पंचंगुलिय उद्वियं, अवदारण निच्छूढा, गया तस्स साहइ--णाम पि सा तव ण सुणेइ, तेण णायं--कालपंचमीए अवदारेण अइगतव्यं / अइगओ य, असोगणियाए मिलियाणि सुत्ताणि य जावपासावणागएण ससुरेण दिवाणि, ते णाय-ण एस मम पुत्तो. पारदारिओ कोइ। पच्छा पायाओं तेण णेउरंग हियं, चेइयं च तीए सो भणिओ-णास लहु,आवइकाले साहेज करे जासि, इयरी गंतूण भत्तारं भणइ-एत्थ धम्मो असोयवणिय बचानो, गंतूग सुत्ताणि, खणमेत्तं सुविऊणं भत्तारं उट्टवेइ भणइ य-एयं तुज्झ कुला पुरुवं? ज णं मम पायाओ ससुरो णेउरं कड्डइ, सो भणइसुवसुपभाए लन्भिहिति। पभाए, थेरेण सिट्ट, सोय रुट्टो भणइ विवरीओ थेरो ति। थेगे भणइ.- मया दिट्टो अन्नो पुरिसो, विवाए जाए सा भणइअहं अप्पा सोहयामि एवं करेहि, तओ व्हाया कयबलिकम्मा गया जक्खघरं / तस्स जक्खस्स अतरेणं गच्छतो जो कारगारी सो लगइ, अकारगारी नीरारइ, तओ सो विडपियतमतो पिसायरूव काऊण णिरंतर घणं कंटे गण्हइ. तओ सा गंतृणं तं जक्खं भणइ- जो मम | मायापिउदिनओ भनारो तं च पिनायं मोत्तूण जइ अन्नं पूरिसं जाणामि तो मे तुम जाणिज्जसि त्ति, जक्खो विलक्खो चिंतेइ-एस य (पास) करिसाइं धुत्ती मतेइ? अहग पिवंचिओ तीए, णत्थि सइत्तणं खुधुत्तीए, जाब जक्खो चिंतेइ ताव सा णिप्फिडिया / तओ सो थेरो सव्वलोगेण विलक्खी कओ, हीलिओ य तओ थेररस तीए अधिईए णिहा पट्टा, रन्नो यकन्ने गयं, रन्न सद्दाविऊण अंतेउरवालओ कओ, अभिसेक्कं च हत्थिरयण वासघरस्स हेट्ठा बद्ध अच्छइ। इओ य एगा देवी हस्थिमिंठे आसत्ता, णवरं हत्था चोवालयाओ हत्थेण अवतारेइ. पभाए पडिणीणेइ एवं वच्चइ काला / अन्नया य एगाए रयणीए चिररस आगया हत्थिमिठण रुडण हल्थिसकलाए आया। सा, भणइ-एयारिसो तारिसा यण सुय्वइ, मा मज्झ रूसह, तथेरो पिच्छइ. चिंतिय य णेण-एवं पि रक्खिज्जमाणीओ एयाओ एवं ववहरंति, किं पुण ताओ सदा सच्छंदाओ ति? सुत्तो, पभाए सव्वलोगो उढिओ, सो ण उद्वेइ,रन्नो कहिय, रन्ना भणियं-सुवउ। चिरस्स य उढिओ पुच्छिओ य,कहिय सव्वं, भणइ-जहा एगा देवीण याणामि कयरा वि / तओ राइणा भण्डहत्थी कारावि भणियाआ-- एयरस अचणिय काऊण ओलण्डेह, तओ सव्वाहि ओलंडिओ एमा णेच्छइ, भणइ य-अहं बीहमि,तओ रन्ना उप्पलेण आहया, मुच्छिया पडिया, रन्ना जाणियं-एसा कारि त्ति / भणियं च णेण-मत्तगये -- आरुहंतीए, भंडमयस्स गयस्स वीहीहि / तत्थ न मुच्छियसकलाहया, एत्थमुच्छियउप्पलाहया / / 1 / / " तओ सरीर जोइयं जाव सकलापहारो दिवो तओं परुट्टण रण्णा देवी मिठो हत्थी य तिण्णि वि छिन्नकडए बडावियाणि, भणिओ य मिंठो-एत्थ बाहेहि हन्थि, दोहि य पासेहिं ते (3) लुग्गाहा उट्टिया, जाव एगो पाओ आगासे ठबिओ, जणो भणइ-किं एअतिरिआ जाणइ? एयाणि मारियवाणि, तह वि राया रोसं न मुयइ, जाव तिणि पाया आगासे कया, एपेण ठिओ, लोगेण कओ अक्कन्दो किमयं हत्थिरयाणं विणासिज्जइ? रण्णा मिठो भणिओ-तरसि णियत्तेउ? भणइ-जइ दुयगाणं पि अभयं देसि; दिप्णं,तओ तेण अंकुसेण नियत्तिओ हत्थि' त्ति। दार्शन्तिक-योजना कृतैवेति सूत्रार्थः / / 10 / / एवं कुर्वन्ति संबुद्धा-बुद्धिमन्तो बुद्धाः सम्यग दर्शनसाहचर्येण-दर्शनकीभावेन वा वुद्धाः संबुद्धा-विदितविषयस्वभावाः सम्यग्रदृष्टय इत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते पण्डिताः प्रविचक्षणाः। तत्र पण्डिताः सम्यग्ज्ञानवन्तः प्रविचक्षणाः चरणपारणामवन्तः / अन्ये तु व्याचक्षते- संबुद्धाः सामान्येन बुद्धि-मन्तः पण्डिता वान्तभोगासेवनदोषज्ञाः प्रविचक्षणा अवद्यभीरव इति,किं कुर्वन्ति?--विनिवर्तन्ते भोगेभ्यः विविधम्अनेक प्रकारैरनादिभवाभ्यासबलेन कदर्थ्यमाना अपि मोहोदयेन (वि) निवर्तन्ते भोगेभ्यो-विषयेभ्यः, यथा क इत्यत्राह- यथाऽसौ पुरुषोत्तमः-रथनेमिः / आह- कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वम् ? यो हि प्रव्रजिताऽपि विषयाभिलाषीति उच्यते- अभिलाषेऽप्यप्रवृत्तेः, कापुरुषस्त्वभिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति। अपरस्त्वाह-दशवैकालिक नियतश्रुतमेव, यत उक्तम्- ''णायज्झयणाहरणा, इसिभासियमो Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णपुध्विया 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस पइन्नयसुया य। एए होति अणियया, णिययं पुण सेसमुस्सन्नं / / 1 / / '' भ्रान्ततापत्तेः / अर्थसामर्थ्यजन्यत्वादनापत्तिरिति चेत्। न अस्य तत्कथमभिनवोत्पन्नमिदमुदाहरणं युज्यते इति? उच्यते- एवम्भू- विकल्पकेऽपि तुल्यत्वात्। क्वचिद्व्यभिचारदर्शनादतुल्यत्वमिति तार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि भावाद्,उत्सन्नग्रहणाचादोषः, प्रायोनियतं न चेत्। न तस्य निर्विकल्पकेऽपि भावात्। न तन्नः प्रमाणं, तदाभातु सर्वथा नियतमवेत्यर्थः / ब्रवीमिति न स्वमनीषिकया किन्तु सत्वादिति चेत्। विकल्पकेऽपि तुल्यः परिहारः। अर्थधर्मातितीर्थकरगणधरोपदेशेन। उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्वदिति। दश०२ अ०। रिक्तशब्दभावतोऽस्यार्थसामर्थ्यजन्यत्वानुपपत्तिरिति चेत् / सामण्णभाव-पुं०(सामान्यभाव) सामान्यरूपतायाम, विशे। न। बोधनियतार्थतादिभिर्व्यभिचारात् / न ते, अर्थादन्यतो सामण्णलक्खण-न०(सामान्यलक्षण) लक्षणभेदे, विशेला (तत्स्व- भावादिति चेत् / शब्दोऽपि तद्योग्यद्रव्येभ्यः, इति समानः रूपम् 'लक्खण' शब्दे षष्ठभाग गतम्।) समाधिः। सामाण्णविसेस-पुं०(सामान्यविशेष) पृथिवीत्वं जलत्वं कृष्णत्वं न चेत्यादि / न चैतद्विज्ञानमनन्तरोदितं, भ्रान्तमिति युज्यते / कुत नीलत्वमित्याद्यवान्तरसामान्यरूपे,आ० म०१ अ०। सामान्यानि इत्याह- घटादिसन्निधौ सति, अविकलतदन्यकारणानां संपूर्णाविजातीयेभ्यो व्यावर्त्तनाच विशेषाः इति सामान्यविशेषाः। स्वस्वा- लोकादिकारणानामित्यर्थः / सर्वेषामेव 'प्रमातृणाम्' इति सामर्थ्यधाराविशेषेषु अनुगताकारप्रत्ययवचनहेतुषु द्रव्यत्वादिषु, आ० म० गम्यम्, अविशेषेण सामान्येन भिक्षुपासकादीनामपि, उपज यमानत्वात् १अ०। सूत्र०ा अनुवृत्तव्यावृत्तावबोधहेतुभूतेसामान्ये, स्था०७ ठा०३ उ०। कारणात् / भ्रान्तमेतदधिकृतज्ञानम्। कुत इत्याह-विकल्पकत्वादिति यचोक्तं- (कैश्चित्) एतेन सामान्यविशेषरूपमपि प्रति- चेत् / एतदाशङ्क्याह-अभ्रान्तं तर्हि कीदृगिति एतर वाच्यम् / क्षिप्तमवगन्तव्यमित्यादि। तदप्ययुक्तम्-सामान्यविशेषरूपस्य निर्विकल्पकमिति चेत् अभ्रान्तम् / एत-दाशङ्कयाह-न, तस्यादि वस्तुनोऽनुभवसिद्धत्वात्,तथाहि-घटादिषु घटो घट इति निर्विकल्पकस्य, निर्विकल्पकत्वेन हेतुना, भ्रान्ततापत्तेः, स्वरूपमेव सामान्याकारा बुद्धिरुत्पद्यते, मार्तिकस्ताम्रो राजत इति भ्रान्तिनिबन्धनम्, एतच्चास्यापि विद्यते एवेत्यभिप्रायः / अर्थसामर्थ्य - विशेषाकारा च, पटादि न भवतीति / न चार्थसद्भावोऽर्थ-- जन्यत्वाद् निर्विकल्पकस्य, अनापत्तिरिति चेद्भ्रान्तताया इति प्रक्रमः / सद्भावादेव निश्चीयते, सर्वसत्त्वानां सर्वज्ञत्वप्रसङ्गात, सर्वा- एतदाशक्याह- न, अस्य अर्थसामर्थ्यजन्यत्वस्य, विकल्पकेऽपि थानामेव सद्भावस्याविशेषात् / किं तर्हि? अर्थज्ञानसद्भावात्। तुल्यत्वात, एतदप्यर्थसामर्थ्यजन्यमेवेत्यर्थः / क्वचिच्छात्रमनोराज्यज्ञानं च सामान्यविशेषाकारमेवोपजायत इति अतोऽनुभवसिद्ध- विकल्पादौ, व्यभिचारदर्शनात् कारणात, अतुल्यमिति चेद् न त्यात् सामान्यविशेषरूपं वस्त्विति। ह्यसावर्थसामर्थ्यजन्य इति / एतदाशझ्याह-न, तस्य क्वचिद् अधिकारान्तरमधिकृत्याह-यच्चोक्तेमित्यादिना / यद्योक्तं पूर्वपक्ष- व्यभिचारस्य, निर्विकल्पकेऽपि भावात्। न हि तदपि सर्वमर्थसामर्थ्य - ग्रन्थे- एतेन सामान्य विशेषरूपमपि प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यमित्यादि / जन्यम् / न तत्- अर्थसामर्थ्याजन्यम्, नोऽस्माकं, प्रमाणम्, कुत तदप्ययुक्तम् / कुत इत्याह- सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनोऽनुभव- इत्याह-तदाभासत्वात् प्रमाणाभासत्वात्, इति चेत्। एतद शङ्क्याहसिद्धत्वात् / एतदेवाह- तथाहीत्यादिना, तथाहि-घटादिषु पदार्थेषु, विकल्पकेऽपि तुल्यः परिहारः अर्थसामर्थ्याजन्यं विकल्पकमपि न न घटोघट इत्येवं साभान्याकारा बुद्धिरुत्पद्यते तथा मार्तिको मृदादिनिवृत्तो प्रमाणं तदाभासत्वदिवेति। अर्थधर्मास्तिरिक्तश्चाऽसौ शब्दश्वेति विग्रहः, मार्तिकः, ताम्रविकारस्तामः, रजतविकारो राजतः, इति विशेषाकारा सद्भावतः कारणात्, अस्य विकल्पस्य, अर्थसामर्थ्यजन्यत्वानुपपनिरच बुद्धिरुत्पद्यते, पटादिर्वा न भवतीत्येवम् / इयं च-वस्तुतत्त्वव्यव- सम्भव एवेति चेत्- उक्तं च धर्मकीर्तिना-''न ार्य श्ब्दाः सन्ति स्थानिबन्धनमित्यधि-कृत्याह- न चेत्यादि / नचाऽर्थसद्भायोऽर्थ- तदात्मानो वा,येन तस्मिन् प्रतिभासेरन्' इति / एतदाशडक्याह-न। सद्भावादेव कारणात्, निश्चीयते। कुत इत्याह- सर्वसत्त्वानां सर्वज्ञत्व- बोधनियतार्थतादिभिः आदिशब्दात्-कुशलतादिपरिग्रहः व्यभिचारात्प्रसङ्गात, प्रसङ्गश्च सर्वार्थानामेव भवनोदरवर्तिना सद्भावस्याविशेषात् / अर्थसामर्थ्यजन्यत्वानुपपत्तेरिति / न, ते बोधादयः, अर्थादन्यतः किं तर्हि? अर्थज्ञानसद्भावाद् अर्थसद्भावो निश्चीयते / यदि नामैव, ततः समनन्तरादेर्भावादिति चेत्। एतदाशड्क्याह-शब्दोऽपि तद्योग्यद्रव्येभ्यः किमित्याह-ज्ञानं च सामान्यविशेषाकारमेवोपजायत इति निदर्शितम्। शब्दप्रायोग्यद्रव्येभ्योऽन्येभ्य एव, इत्येवं, सामानः-तुल्यः, समाधिः-- अतोऽनुभवसिद्धत्वात् कारणात, सामान्यविशेषरूपं वस्त्विति। परिहारः। अनेन च "अयमर्थासंस्पर्शी संवेदनधर्मोऽर्थेषु तनियोजनात् न चैतद्विज्ञानं भ्रान्तमिति युज्यते, घटादिसन्निधावविकल- '' इत्यपि प्रत्युक्तम्, अनभ्युपगमादिति। तदन्यकारणानां सर्वेषामेवाविशेषेणोपजायमानत्वात्। भ्रान्त- | न चैतदभ्युपगमात्रम्, तावत्संघातजस्यैव तथार्थग्रहणस्वमेतत्, विकल्पकत्यादिति चेत् / अभ्रान्तं तर्हि कीदृग्? इति / भावत्वात्, अविगानकस्तथानुभवसिद्धेः, एवमेव व्यवहारवाच्यम् / निर्विकल्पकमिति चेत्।नातस्यापि निर्विकल्पकत्वेन | दर्शनादिति; तथाहि- एतदिन्द्रियद्वारानुसार्यव विज्ञानमा Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 647 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस विष्टाभिलापम् 'अहिरहिः' इति योजकं दर्शकं च धारावाहि तथा व्यवहारबीजं प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धमेव / न चेहान्यदेवदर्शनम्, अन्य एव च विकल्पः, विकल्पेनाऽदर्शनात्, दर्शनेन चाविकल्प-- नात्, तयोरसहवृत्तेरुपादानादिभावात् / इत्येकमेवेदमिति॥ न चेत्यादि / न चैतत्- शब्दोऽपि तद्योग्यद्रव्येभ्य इति यदुक्तमेतत, अभ्युपगमम त्रम्, अपि तु सापपत्तिकमित्यभिप्रायः। कुतं इत्याहतावदित्यादि। तावत्संघातजस्यैव रूपालोकमनस्कारचक्षुः शब्दसंधातजस्थैव विकल्पज्ञानस्य' इति प्रक्रमः, तथा तेन निश्चितप्रकारेणाग्रहणस्वभाव वात / एतचैवमर्थग्रहणस्वभावत्वम्, अविगानतः-अविगानेन तथा-नेन प्रकारेणाऽनुभवसिद्धेः, अनुभवसिद्धिश्चैवमेव व्यवहारदर्शनादिति एतदेव निदर्शनेनाह- तथाहीत्यादि। तथाहीत्युपदर्शन; एतद्- वक्ष्माणम्, इन्द्रियद्वारानुसार्येव तद्व्यापाराऽभावेऽभावात्. विज्ञानम्। कि विशिष्टमित्याह-आविष्टाभिलापं प्रविष्टशब्द शब्दसन्मिश्रमित्यर्थः किपिशिष्टमित्याह-अहिरहिः-सर्पः सर्प इत्येवं योजकंशब्दस्य, दर्शक चार्थर येन्द्रियव्यापारेण, धारावाहि तथासन्तान-प्रवृत्तम् / एतदेव विशेष्यते व्यवहारवीजमिति। ततस्तथाविधव्यवहारसिद्धः, प्रतिप्राण्य - नुभवसिद्ध व प्राणिन प्राणिनं प्रतितत्तद्- द्रष्ट्रपेक्षया प्रतिप्राणि, प्रतिग्रामभिवालाभवत्, अनुभवसिद्धमेव नेह कस्यचिद् विगानमिति / न हत्यादि न चेह प्रस्तुते ज्ञाने, अन्यदेव दर्शन निर्विकल्पकम, अन्य एव च विक पो निश्चयात्मकः / कुत इत्याह- विकल्पेनादर्शनात् / कान्तादिविकल्प तथानुभवसिद्धभतत, दर्शनेन चाविकल्पनात्, अनभिप्रेत तृणादिदर्शन एतदपि सिद्धमेव। तथा, तयार्दर्शनविकल्पयाः असहवृत्तेयुपदवृत्तरित्यर्थः / कुत इत्याह- उपादानादिभावात : अवग्रहादिक्रमेणोपादानोपादेयभावादित्यर्थः, इत्येवम्, एकमेवेदमधिकृतं विज्ञानमिति। स्यादेतत, सविकल्पाविकल्पयोर्विज्ञानयोः स्वभावमेदेऽपि प्रतिभासभेदेन युगपवृत्तेर्विमूढः प्रतिपत्ता तमपश्यन्नैक्यं व्यवस्यति, न तु तथा तत्, अन्यत्रानयोर्योगपोऽपि भेददर्शनात, अतीताद्यर्थगतविकल्पेनापीन्द्रियज्ञानतो रूपादिग्रहणसिद्धेः / न च स विकल्पो रूपाद्येव गृह्णातीति शक्यं कल्पयितुम्, तस्यातीताद्यर्थाभिधायकत्वत्यागतो वर्तमानार्थयोजनेन प्रवृत्तिप्राप्तेः। नापि वर्तमानार्थाभिधानसंसर्गी तदाऽपरो विकल्पः समस्ति, द्वयोर्विकल्पयोः सममप्रवृत्तेः, अविगानेन तथानुभवाभावात् / अतोऽत्र प्रत्युत्पन्नविषयग्रहणकाले दृश्यमानार्थनामाऽग्रहः स्पष्ट एव। तन्नामग्रहणसम्भूता च कल्पना, तन्नामग्रहाभावे कल्पनाऽभावः। इति सिद्धमविकल्पक-मिन्द्रियज्ञानम्, अतोऽन्य एव च विकल्प इति न क्वचिदनयोरैक्यम्, न्यायानुपपत्तेः, भिन्नजातीयत्वादिति / इतश्चैतदेवम् / अन्यथा स्वाभिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानय॑वसीयन्त इति प्राप्तम्।। पराभिप्रायमाह- स्यादेतदित्यादिना / स्यादेतदथैव मन्यसे, सविकल्पाविकल्पपोर्विज्ञानयोः सामान्येन, स्वभावभेदेऽपि स ति, प्रतिभाराभेदेन हतुना युगपद वृत्तेः कारणात, विभूढ प्रतिपत्ता पुरुषः, तमपश्यन्स्वभावभेदम, ऐक्यं व्यवस्यति तयोः सविकल्पाविक ल्पयोः, न तु तथा तत न पुनस्तदैवयमेव / कुत इत्याह. अन्यत्र जातिभेदे, अनयोः सविकल्पाविकल्पयोः, योगपद्येऽपि सति, भेददर्शनात् / एतदेवाह-अतीताद्यर्थगतविकल्पेनापि प्रमात्रा, इन्द्रि ज्ञानतःइन्द्रियज्ञानेन, रूपादिग्रहणसिद्धेः / कस्येत्याह-- अन्यस्याश्रुतत्वात्। तरगव प्रभातुः / न चेत्यादि। न च स विकल्पोऽतीताद्यर्थगतः, रूपाद्येव गृह्णाति 'चारमानिकम्' इति प्रक्रमः इत्येवं, शवयं कल्पयितुम् / कुतो न शक्यमित्याह--तस्येत्यादि। तस्यातीताद्यर्थगतविकल्पस्य, अतीताद्यभिधायकत्वत्यागतोऽतीतादिवाचकशब्दादित्यागतः / वर्तमानार्थयोजननेति। वर्तमानोऽर्थोऽभिधेयो यस्य' अभिधायकस्य' इति प्रक्रमः स वर्तमानार्थस्तद्योजनेन प्रवृत्तिप्राप्तेः कारणात् / नापीत्यादिना / नापि वर्तमानार्थाभिधानेन संसृज्यते तच्छीलश्चेति विग्रहः, तदा तरिमन्नेव काले, अपरो विकल्प: समस्तिविद्यः / कुत इत्याह- द्वयोर्विकल्पयोः समं युगपत, अप्रवृत्तेः कारणात् / अप्रवृत्तिश्चाविगानेनाऽविप्रतिपत्त्या, तथा तेनर समकालभावेनाऽनुभवाभावात् / अत इत्यादि / अतः स्थितमेतत, प्रत्युत्पन्न विषयग्रहणकाले दृश्यमानार्थनामाऽग्रहः स्पष्ट एव / यदि नामयं ततः किमित्याह-तन्नामग्रहणेन संभूता तन्नामग्रहणसंभूता, एवंभूता च कल्पना। ततः किमित्याह-- तन्नामग्रहाभावे कल्पनाभाव इति कृत्या, सिद्भमविकल्पकमिन्द्रियज्ञानम् / अत इन्द्रियज्ञानात, अन्य एव च विकल्प इत्यवं, न क्वचित सजातीयादी, अनयोर्दर्शनविकल्पयोः एषयग-एकभावः, न्यायानुपपत्तेः, इयं चोक्त्वा सर्वगर्भ त्वाह-भिन्नजातीयत्वात् / सामान्यनेव दर्शनविकल्पयोरिति 'इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्' इति शेषः / अन्यथैवमनभ्युपगमे, स्वाभिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्त इति प्राप्त, व्यवसीयन्ते, प्रतीयन्त इत्यर्थः / कीदृशा इयाह-- स्वाभिधानेन्यादि। स्वाभिधानमेव विशेषण व्यवच्छेदकत्वात् तरिमन्नपेक्षा यपामर्थानाभिति विग्रहः। अस्त्येवमपि को दोष इति चेत्। निवृत्तेदानीमिन्द्रियज्ञानवार्ता, अभिधानविशेषस्मृतेरयोगात्, सति ह्यर्थदर्शनेऽर्थसन्निधौ दृष्ट शब्दे ततः स्मृतिः स्यात्, अग्निधूमवत् / न चायमशब्दमर्थ पश्यति, अपश्यन् न शब्दविशेषमनुस्मरति, अननुस्मरन्न योजयति, अयोजयन्न प्रत्येति, इत्यायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः। अभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयत्यान्तरं संस्कार, तेन स्मृतिः, नार्थदर्शनादिति चेत् / न / तत्संबन्धस्यास्वाभाविकत्वात्, समयादर्शनऽभावात्, पुरुषेच्छातोऽर्थानां स्वभावापरावृत्तेन समयकालोत्पत्तिः, स्वभावस्य परावृत्तौ च तस्य तादात्म्यात्, अन्यस्यासमयदर्शिनोऽपि स्यात्, न हि प्रतिपुरुषमर्थान Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 648 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस मात्मभेदः, नैरात्म्यप्रसङ्गात्, आत्मस्थितेरभावात्। तस्माद-- विशिष्ट स्वभावान्तरानुत्पत्तेः कारणात्, न समयकालोत्पत्ति:-न समययमशब्दसंयोजनमेवार्थ पश्यति दर्शनादिति। काले स्वभाविकत्वेन शब्दार्थसंबन्धस्य प्रादुर्भाव इत्यर्थः / दोषान्तराभिअस्तु-- भवत्येतत्, एवमपि को दोष इति चेत् / एतदा शङ्कयाह- धित्सयाऽभ्युपगम्यापि स्वभावान्तरपरावृत्तिमाह-स्वभावस्य परावृत्ती निवृत्तेत्यादि। निवृत्तेदानीमिन्द्रियविज्ञानवार्ता / कस्माद् निवृत्ते त्याह-- च सत्याम्, अन्यस्यासमयदर्शिनोऽपि स्यात् स्मृतिसंर कारप्रबोधः, अभिधानविशेष इत्यादि। अभिधानविशेषो योऽर्थस्तदानीं ग्राहास्तस्य अर्थप्रतीतिवेति शेषः, न केवलं समयदर्शिन इत्यपिशब्दार्थः / कस्मादियो वाचकः शब्दस्तत्र स्मृतिस्तस्याः स्मृतेरयोगात्। कथमयोग इत्याह-- त्याह- तरयतादात्म्यात्। स स्मृतिसंस्कारप्रबोधकः, अर्थप्रतीतिहेतुको सति ह्यर्थदर्शन इत्यादि / यस्माद् व्यवहार-काले सत्यभिधेयार्थदर्शने वा आत्मा स्वभावोऽस्येति तदात्मा, तदात्मनो भावस्तादात्म्य, तदभिधायिन्यभिधाने स्मरण भवति। तत्रापि न सर्वस्य शब्दस्येत्याह ब्राह्मणादेराकृतिगणत्वात्ष्या / अथोच्यते-समयदर्शिनं प्रति स्वभावः, अर्थसंनिधी संकेतकाले, दृष्ट शब्द इति, तत इत्यर्थदर्शनात्, स्मृतिः न पुनरदृष्टसमयं प्रति, इत्यत आह-नहीत्यादि। न हि पुरुषं पुरुष प्रति, स्याद् नान्यथा / निदर्शन हि- अग्निधूमवत / यथाऽग्निधूमयोः अर्थानाम्, आत्मभेदः- स्वभावभेदः, भवति। कुत इत्याह-नैरात्म्य प्रङ्गात्। अयमभि-प्रायः-पुरुषच्छानामानन्त्यात्, तदनुवा निश्चयधर्थाः संबन्धज्ञस्याग्निदर्शने धूमे स्मृतिर्भवति, धूमदर्शने चाग्नी स्मृतिः, स्युस्तदा तेषा नैःस्वभाव्यमेव स्यात्, एकस्यानेकस्वभावागवात्। स्यात् तद्वदत्राप्यवसेयम्। स्यान्मतम्अर्थ तर्हि दृष्ट्वा शब्द स्मरिष्यतीत्याह। न मतम्- भवतु सामयिकस्वभावस्याभावः, अन्योऽपि तयति-रिक्तो चायमित्यादि / न खल्वयं सविकल्पकप्रत्यक्षवादी, शब्दरहितमर्थ वस्तुसत्स्वभावोऽस्यास्त्येव, अतो नैरात्म्यप्रसङ्गो न भविष्यतीत्याहपश्यति, स्वाभिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्त इति आत्मस्थितेरभावादिति। उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तद्व्यतिरेकेणान्यस्य नियमात् / ततः को दोष इत्याह- अपश्यन् न शब्दविशेषमनुस्मरति स्वभावस्यानुपलम्भादित्यभिप्रायः / अथवा नन्वेव सति बहुतरस्वभाव'नियमेन' इति शेषः, यस्मादर्थदर्शनं शब्दविशेषरमृतेर्हेतुः, सा च तेन सिद्धिरेव, तत्किमुच्यते-नैरात्म्यप्रसङ्गात्? इत्याह-अल्मस्थितेरव्याप्ता, कारणं निवर्तमान कार्य निवर्तयति। भवतु नामैव ततः को दोष भावात् / पुरुषाणां स्वाभिप्रायवशेनैकत्र विरुद्धस्यापि स्वभावस्याइति आह- अननुस्मरन्न योजयति अत्रापि शब्दविशेषानुस्मरण ऽभ्युपगमसंभवात्, न चैकस्य विरुद्धनिकस्वभावो युक्त इति मन्यते स्मृतियोजनाया: कारण, तदभावात् कार्याभावः / अत्रापि को दोषः इति तदेवं स्मृत्यसंभवेन निर्विकल्पता प्रतिपाद्योपसहरन्नाह - तस्मादिचेदाह-- अयोजयन्न प्रत्येति योजनं ह्यर्थप्रतीतेः कारणमित्यत्रापि त्यादि। यस्मादेवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण शब्दविशेषस्मृतिर्न संभवति, कारणानुपलब्धिरेवेति तस्मादायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः, न चेष्यते। तस्मादयं प्रतिपत्ता, अशब्दसंयोजनमेवार्थं पश्यति, अविद्यमानं शब्दतरमान्नेन्द्रियज्ञाने शब्दकल्पना संभवतीति। अथापि स्याद् नार्थदर्शनात संयोजनं यस्यार्थस्येतिविग्रहः / कुत इत्याह- दर्शनान् / अयमस्मृतिः, किं तर्हि? योग्यदेशावस्थितादेवार्थात स्मृतिरित्याह स्यार्थो यस्मादयं प्रतिपत्ताऽर्थमुपलभते, तस्मादशब्दसंबोजनमेवार्थ अभिपतन्नेवेत्यादि / अभिपतन्नभिमुखीभवन् / काऽसावित्याह- अर्थो पश्यतीति / निश्चीयते। रूपादिको विषयः / किं करोति? प्रबोधयति- कार्य निर्वर्तनं किञ्च-विकल्पात्मकत्वेऽस्य निश्चयात्मकमिदमित्यनेकप्रमा-- प्रत्यनुकूलयति। कं प्रबोधयति? आन्तर संस्कारं शब्दस्मृतिवासनाख्यं, णवादहानिः, तेनैव वस्तुनो निश्चयात् नित्यत्वादी भ्रान्त्यतेन अर्थाभिपातमात्रेण, सा स्मृतिः, तेन वा कारणेन, स्मृतिः, नुपपत्तेः। अनेकधर्मके वस्तुन्यन्यतरधर्मनिश्चयात् तदन्यनिश्चनार्थदर्शनादिति चेत्, तथा च नान्ध्य,जगतः, विकल्पकत्वं चेन्द्रियज्ञान याय प्रमाणान्तरसाफल्यमिति चेत्। एकधर्मविशिष्टस्यापि निश्चये स्योपपत्रमिति मन्यते। अर्थाभिघातस्य स्मृतिजनकत्वं निराकुर्वन्नाह सर्वधर्मवत्तया निश्चयात्, प्रमाणान्तरस्य निश्चितमेव विषयीन। तत्संबन्धस्येत्यादि / यदेतदुक्तम्-अभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयन्यान्तरं कुर्वतः स्मृतिरूपानतिक्रमात्, एक धर्मद्वारेणापि तद्वतो संस्कार-मिति / तन्न / कुत इत्याह-तत्संबन्धस्य तयोः शब्दार्थयोः निश्चयात्मना प्रत्यक्षेण विषयीकरणे सकलधर्मोपकारकशक्त्यसबन्धस्तत्संबन्धस्तस्य, अस्वाभाविकत्वात् पौरुषेयत्वादित्यर्थः / मिन्नात्मनो निश्चयात् / न ह्यन्य एवान्योपकारको नाम / ततो कथमवसंयमित्याह- समयादर्शने संकेतस्याग्रहणे सति, अभावात् यदेवास्यैकोप-कारकत्वेन निश्चयनम्, तदेव तदन्योपकारस्मृतिसंस्कारप्रबोधस्य, अर्थप्रतीतेवेति वाक्यशेषः / एतदुक्तं भवति- कत्वेनापि न चासत्युपकार्योपकारकभावे तव्यवस्थाऽतिप्रसययोः स्वाभाविकः संबन्धो न तयोः समय प्रति काचिद-पेक्षा, यथा / गतो युक्ता / चक्षुरूपयोः, विपर्ययस्त्वत्र, इति नाकृत्रिमत्वं संबन्धस्यति / तत्रतत् किशोत्यादि / किश अयमपरो दोषः- विकल्पात्म्कत्येऽस्य स्यात् समयादुत्तरकालं स्वाभाविकः शब्दार्थसंबन्धो न पूर्वम, अतः प्रत्यक्ष स्य, निश्चयात्मक मिदमित्ये व विकल्पा मकत्येन कृतसमयस्याभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयत्यान्तरं संस्कारमित्याह-पुरुष- हेतुना / यदि नामेवं ततः किमित्याह- अनेक प्रमाणादहानि:च्छातःसकाशात्, अर्थाना स्वभावापरावृत्तेः पूर्वस्वभावपरित्यागेन | प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणवादहानिः। कुत इत्याह- ननैव नि Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 646 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस श्वयात्मना प्रत्यक्षेण, वस्तुनो निश्चयात् कारणात / यथोक्तनिश्चयेऽपि किमित्याह-- नित्यत्वादी धर्म , भ्रान्त्यनुपपत्तेरिति / पराभिप्रायमाहअनेक धर्म के प्रस्तुनि नित्यत्वादिधर्मापेक्षया, अन्यतरधर्मनिश्चयाद् यथोचितप्रत्यक्षेणे, पदन्यनिश्चयायधर्मान्तरनिश्वयार्थ , प्रमाणान्तरसाफल्यमनुम नादिसाफल्यमिति चेत् / एतदाशड्क्याह-- नैकेत्यादि। न-नैतदेवम् कुत इत्याह- एक-धर्मविशिष्टस्यापि वस्तुनः' इति प्रक्रमः / निश्चये सति किमित्याह- सर्वे च ते धर्माश्च सर्वधमस्तेिऽस्य वस्तुनो विद्य-त इति सर्वधर्मवत् तद्भावः सर्वधर्मवत्ता तया, निश्चयात्। एवं च प्रमाणेत्यादि / प्रमाणान्तरस्याऽनुमानादेः, निश्चितमेव 'धर्मान्तरम्' इति प्रक्रमः, विषयीकृर्वतः सतः, स्मृतिरूपानतिक्रमात्, 'अनेक प्रमाणवादहानिः' इति वर्तते, एकधर्मविशिष्टस्यापि निश्चये सर्वधर्मवत्तयः निश्वयादिति यदुक्तं तदुपदर्शयन्नाह- एकधर्मत्यादि। एकधर्मद्वारेणापि तद्वतो-धर्मवतो वस्तुनः. निश्चयात्मना प्रत्यक्षण संविकल्पकेन, विषयीकरणे सति / किमित्याह-सकलाश्च ते धर्माश्च तेषामुपकारिकाश्च ताः शक्तयश्चति विग्रहः, ताभ्योऽभिन्नश्वासावारमा चेति समासस्तस्थ, निश्वयात् कारणात्, सर्वधर्मवत्तया निश्चयः। एतत्समर्थनार्यवाह--हि इत्यादि। न यस्मात्, अन्य एव धर्मी वस्त्वात्मा' इति प्रक्रनः , अन्योपकारको नाम धर्मान्तरोपकारको नाम, कि तहि? रा एव, धर्मिण एकत्वादिति हृदयम् / ततो यदेवाऽस्य तस्तुनो धर्मिण!:, एकापकारकत्वेनान्यतरधर्मापेक्षया,निश्चयनं तदेवान्योप-कारकत्वन धमान्तरोपकरकत्वेनापि, निश्चयनम्, अन्यथा तदेकत्वहानिरिति गर्भः / न चासत्यु कार्योपकारकभावे तद्व्यवस्था वस्तुनो धर्मधर्मिव्यवस्था अतिप्रसङ्गामः कारणात्. युक्ता। अतिप्रसङ्गश्च तद्वद् धर्मान्तराद्यपेक्षयाऽपि धादिभावप्रसङ्गः निमित्ताभावावि शेषादिति।। न चोपकारिकाः शक्तयस्ततो भेदमनुभवन्ति, असत्युपकारेऽस्येमाः शक्तय इति संबन्धायोगात्, आधाराधेयंभावस्यापि तन्निबन्धनत्वात्, अन्यथा कल्पनामात्रं स्यात्, तथा च शक्तीनामनवस्था / ततः स्वात्मैवाऽस्याशेषधर्मोपकारिकाः शक्तयः, तस्य सर्वधर्मोपकारकत्वेन निश्चये तदुपकार्या आप धर्मा निश्चिता एव, तन्निश्चयनान्तरीयकत्वादुपकारकनिश्चयस्य, न हि ये यदपेक्षस्थितयस्ते तदनिश्चये तथा निश्चीयन्ते, स्वस्वामित्ववदिति। एवमपि सविकल्पकप्रत्यक्षानुपपत्तिरिति। न चेत्य दि / न चोपकारिकाः शक्तय उपकारकसबन्धिन्यः, तत उपकारवाद् धर्मिणः, भेदमनुभवन्ति / कुत इत्याह- असत्युपकारे उपकारक संबन्धिनि, अस्योपकारकस्य धर्मिणः, इमाः शक्तयः इत्येवं एबन्धाऽयोगात, अयोगश्च निमित्ताभावेन / आधाराधेयभावः संबन्धी भविष्यलगत्याशडापोहायाऽऽ--आधाराधेयभावस्थापि कुण्डबदरादाहरणा देसिद्धस्य, तन्निबन्धनत्वाद - उपकारनिबन्धनत्वात. तथाहि "तनधर्म गां बदराणामपतनस्वभावाधानेनापकारक कुण्ड बदराणामिति भावनीयम्। इत्थं चत-दङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथेत्यादि। अन्यथैवमनभ्युपगमे, कल्पनामात्र स्याद् आधाराधेयभावः / न चैतदेवमित्युपकारसिद्धिः। तथाचेत्यादि। तथाचैवं चोपकारसिद्धौ सत्या, शक्तीनामनवस्थायकाभिः शक्तीभिः शक्तीनामुपकरोति ता अपि ततो भिन्ना इति तत्राप्ययमेव वृत्तान्त इत्यनवस्था / ततस्तस्मात्, स्वात्मैवास्योपकारकस्य धर्मिणः, अशेषधर्मोपकारिकाः शक्त्य इति यतश्चैवम्, अतस्तस्यापकारकस्य धर्मिणः, सर्वधर्मोपकारकत्वेन निश्वये सति! किमित्याह- तदुपकार्या अपि विवक्षितोपकारकोपकायां अपि, धर्मा निश्चिता एव / कुत इत्याह-तन्निश्चयनान्तरीयकत्वात उप-कार्यधर्मनिश्वयनान्तरीयकत्वात्, उपकारकनिश्चयस्य तदपेक्षम-स्योपकारकत्वमिन्यर्थः / एतत्स्पष्टनायैवाह-न हीत्यदिन यस्मात ये भावाः यदपेक्षस्थितयः प्रकृत्या ते भावाः, तदनिश्चयेऽपेक्षाऽनिश्चये, तथा निश्चीयन्ते तपक्षकन्वेन निश्चीयन्त नहि। निदर्शनमाह-स्वस्वामित्ववत् / स्वं च स्वामी च स्वस्वामिनी तद्भावः स्वस्वामित्वं तद्वत् 'स्वमस्य, अस्य स्वामी' इतीतरेतर--प्रतिपत्तिनान्तरीयकी स्वस्वामिप्रतिपत्तिः / उपसंहरनाह-- एवमपि अनेकप्रमाणवादहानितोऽपि, सविकल्पकप्रत्याक्षानुपपत्तिरिति अत्रोच्यते-यदुक्तम्- सविकप्पाविकल्पयोर्विज्ञानयोः स्व.-. भावभेदेऽपि प्रतिभासभेदेन युगपवृत्ते रित्यादि तदयुक्तम्, एकविषययोः सविकल्पाविकल्पयोर्युगपद् वृत्त्यसिद्धेः, तद--- विकल्पपूर्वकत्वात् तद्रिकल्पस्य, अन्यथाऽस्याहेतुकत्यापत्तिः, तथा च सदा सदसत्त्वप्रसङ्गः / सोऽपि तत्पूर्वक एवेति चेत् / कथमनयोर्युगपद् वृत्तिः? प्रबन्धापेक्षयेति चेत् / कथमाद्याविकल्पादुभयजन्म? तत्तत्स्वभावत्वादिति चेत् / कथं कारणभेदो भेदहेतुः? यदि न, ततः को दोष इति चेत् / प्रधानादीनामनिषेधप्रसङ्गः / ते तथाभावजनका इति चेत् ततः को दोष इति वाच्यम् / नैकस्मादने कजन्म इति चेत् / कथं न? तत्तत्स्वभावत्वेन संक्रान्त्या तदयुक्तेरिति चेत् / तदभावे तद्युक्तिरित्यद्भुतम् / ततोऽसद्भावादनद्भुतमिति चेत् / तत्तथाभावतोऽभवदसद् भवति, इत्यद्भुतमेव इति परिभाव्यतामेतत्। एतदाशङ्कयाह - अत्रोच्यत-यदुक्तम्- सविकल्पाविकल्पयोनियोः स्वभावभेदऽपि प्रतिभासभेदन युगपवृत्तेरित्यादि, पूर्वपक्षे तदयुक्तम। कुत इत्याह– एकविषययोः सविकल्पाविकल्पयोः। किमित्याह- युगपद् वृत्त्यसिद्धेः / असिद्धिश्च तदविकल्पपूर्वकत्वाद् विवक्षितकविषयाविकल्पपूर्वकत्वात, तद्विकल्पस्यसामान्येन विवक्षितकविषयविकल्पस्य। अन्यथा अतन्पवित्वे, अन्य विकल्पस्य, अहेतुकत्वापत्तिस्तदपरहेत्वयागाता तथा च सदासर्वकालं, सदसत्वप्रसङ्गोऽधिकृतविकल्पस्य, 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं ता हतारन्यानपक्षणात इति वचनात / सोऽप्यधिक्तविकल्पः तत्पूर्वक Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 650 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस एव, विवक्षितकविषयाविकल्पपूर्वक एव इति चेत् / एतदाशङ्कयाह-- कथमनयोः अविकल्पविकल्पयोः, युगपवृत्तिः / प्रबन्धापेक्षयति चेद युगपदवृत्तिः / चेद् युगपवृत्तिः / एतदाशङ्कयाह- कथमित्यादि। कथकेन प्रकारेण, आद्यं च तदविकल्पं चेति विग्रहस्तरमात्, उभयजन्मसविकल्पाविकल्पजन्मा तत्तदित्यादि। तस्याद्याविकल्पस्य, तत्स्वभावत्वात् सविकल्पाविकल्पजननस्वभावत्वादुभयजन्म, इति चेत / एतदाशङ्याह- कर्श कारणभेदो भेदहेतुः कार्याणानिति शपः, नेय, तदभावेऽपि तद्भेदसिद्धेरित्यभिप्रायः। यदि न कारणभेदो भदहेतुः, ततः को दोष इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- प्रधानादीनाम् / आदिशब्दातपरमपुरुषग्रहः, अनिषेधप्रसङ्गो दोषः, ते प्रधानादयः, तथाभावजनकास्तथाभावेन-तत्तथाभवनलक्षणेन जनका महदादेरिति चेत्। एतदाश याह ततः को दोष इति वाच्यम् / नैकस्मादनेकजन्म तत्तद्भावेन दोष इति चेत। एतदाशडक्याह - कथं न एकरमादनेकजन्म तत्तत्स्वभावत्वन तस्य प्रधानादेस्त-स्वभावत्वेन, तथाभावतोऽनेकजन्मस्वभावत्वेनत्यर्थः, संक्रान्त्या हतुभूतया, तत्तद्भावेन तदयुवतस्तत्तत्स्वभाववायुक्तनकस्मादनेकजन्मेति चेत् / एतदाशङ्कयाह. तदभावेसंक्रान्त्यभाव, तदेकान्तनिवृत्त्या तद्युक्तिस्तत्तत्स्वभावत्वयुक्तिः, इत्यदभुतमाश्चर्यमेतत् / ततः कारणात्, असद्धावाद- असतो भावेन, अनद्भुतमनाश्चर्यनिति चेत / एतदाशड् याह-- ततथाभावतः तस्य | कारणस्य तथाभावन कार्यभातेन, अभवदेकस्मादनेकमसद भवति तुच्छातुच्छपतिपत्त्या, इत्यदभुतमेवेति परिभाव्यतामतत्, न ह्यसत सद भवति, अतिप्रसङ्गादित्यभिप्रायः। न चानयोः स्वभावभेद एव, तत्त्वत एकविषयत्वात्, विक-- ल्पस्यापि पारम्पर्येण तद्वस्त्वालम्बनत्वात्, तदुत्थज्ञानोपादानत्वात्, तत्स्वभावानुकारातिरेकेण तदुपादानत्वायोगात्। न च तदतीतमित्यनालम्बनम् , अविकल्पस्यालम्बनत्वात् / न च तद्भावकाले तद्भावः, तदसदुदयाभ्युपगमात् / न चैवमपि न | तदतीतता, तदा तदसत्त्वेन तदुपपत्तेः / न च तदाकारतादिना भेदः, द्वयोरपि तदाकारतासिद्धेः, तस्य प्रतिभावनियमात्, बोधामूर्त्तत्वरूपतया तत्तुल्याकारताऽयोगात्, स्वाकारस्य तु विकल्पेऽपि भावात्, तस्यापि तन्निश्चयात्मकत्वेन तदनुगुणत्वात् / इति व्यवहारतः स्वभावभेदाभावः। न चेत्यादि / न चानयोः प्रक्रमात सविकल्पाविकल्पयोःप्रस्तु-- तज्ञानयाः, स्वभावभेद एवंका तेन / कुत इत्याह-तत्त्वतः-परमार्थन, एकविषयत्वात् / कथमेत समित्याह- विकल्पस्यापि पारम्पयेण तद्वस्त्वालम्बनत्वात् / एतत परतानि विकल्पस्य गृहीतग्राहित्वाभ्युपगमन स्वदर्शने त्ववाहापायमान, इति सामान्येनैव तद्वरत्वालम्बनत्वमाह / सत्यज्ञानोपादानत्वात विवक्षित-विषयोत्थाऽविकल्पज्ञानोपादानत्दाद विकल्परा : गादि नामैवं लतः किमित्याह- तत्स्वभावत्यादि। तत्स्वभावानुकारातिरकेण तद्-स्थज्ञानस्वभावानुकारा तिरेकेण, विकल्पस्येति प्रक्रमः, तदुपादानत्वायोगात् तदुत्थज्ञानोयादानत्वायोगाद् विकल्पस्य। न ह्यमृत्स्वभावमुदकं मृदुपादानम्, अपितु घट एव, तत्स्वभावानुकारादिति भावनीयम्। दोषान्तरपरिजिहीर्षयाऽऽह-न चेत्यादि / न च तद्विषयवस्तु अतीतमिति कृत्वा क्षणेकत्वेन, अनालम्बन प्रक्रमाद्विकल्पस्य, किन्त्वालम्बनमेव / कुत इत्याहअविकल्परयालम्बनत्वात अतीतत्वेऽपीत्यभिप्रायः। न च तद्भावकालेअविकल्पभावकाले, तद्भावो विषयवस्तुभावः / कुत इत्या ह-तदसदुदयाभ्युपगमात् तस्मिन् विषयवस्तुन्यसत्युदयाभ्य पगमात, प्रक्रमादविकल्पस्य / न चैवमपि तदसदुदयेऽपि, न तदर्ततता- न विषयवस्त्वतीतता। कुत इत्याह तदा विकल्पोदयकाले, तदसत्त्वेनविषयस्त्वसत्त्वेन, तदुपपत्तेः-अतीततोपपत्तेः / न च तदाकारतादिनाविषयवस्त्वाकारतादिना, आदिशब्दादानन्तर्यादिग्रहः भेदः सविकल्पाविकल्पयोरिति प्रक्रमः / कुत इत्याह -द्वयोरपि अनयोः तदाकारताऽसिद्धेर्विषयवस्त्वाकारताऽसिद्धेः, तस्याकारस्य प्रतिभावनियभाद, भावं भावं प्रति नियमात् / न ह्यन्यभावाऽऽकारोऽन्यभावे भवति, तदेवत्वप्रसगादित्यर्थः / तत्तुल्याकारतैव तदाकारता, इत्यप्यसदित्यावेदयन्नाहबोधेत्यादि / बोधाऽमूर्तत्वरूपेण हेतुनाऽविकल्पज्ञानस्य, तत्तुल्याकारताऽयोगाद-विषयवस्तुतुल्याकारतायोगात् / स्वाकार एव तदाकारतेत्यप्ययुक्तमित्याह- स्वाकारस्य तु विकल्पेऽपि भावात् नद्यविकल्प एव स्वाकारः, अपितु-विकल्पेऽपि। तदनुगुणत्वत्दाकारतत्यपि रामानमित्यावेदयन्नाह-तस्यापीत्यादि। तस्यापि विकल्पस्य, तन्निश्वयात्मकत्वेनविषयवस्तुनिश्चयात्मकत्येन, तदनुगुणत्वाद बोधापेक्षया विषयवस्त्वनुगुणत्वात्, इत्येवं व्यवहारतः स्वभावभेदाभावः / निश्चयतस्तु प्रतिव्यक्ति अयं विद्यत एवेति। यचोक्तम्-विमूढःप्रतिपत्ता तमपश्यन्नैक्यं व्यवस्यति, न तु तथा तदिति / एतदप्ययुक्तम्, अनालोचिताभिधा नत्वात् विचाराक्षमत्वात्, तथाहि-कः पुनरत्र प्रतिपत्ता, यस्य तत्स्वमावभेदादर्शनाद् विमोहः, ऐक्यव्यवसायो वा ! न तावदेक उभयद्रष्टा, अनभ्युपगमात् / न च सविकल्पाविकल्पे विज्ञाने एव, तयोर्विमोहासिद्धेः, स्वसंवेदनरूपत्वेन स्वस्वभावदर्शनात्, इत्थमपि विमोहे तदनुच्छेदापत्तिः, उपायाभावात्। न चानयोरैक्यव्यवसायः, मिथोभेदाभ्युपगमात, स्वविषयनियतत्वेन तथाप्रतिभासानुपपत्तेः, एवमपि तदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्। यत्रोक्तं पूर्वपक्षग्रन्थे-विमूढः प्रतिपत्ता तमपश्यन्नक्यव्यवस्यति, न तु तथा तदिति / एतदप्ययुवतम् / कुत इत्याह- अनालोचिताभिधशनत्वात / अनालो चिताभिधानत्वं च विधाराक्षमत्वात् / विचार क्षमत्वमुपदर्शयन्नाह- तथाहीत्यादि / तथाहि कः पुनरस प्रतिपत्ता भवतोऽभिप्रेतः, यस्य तत्स्वभावभेदादर्शनाद् हेतोः, विमोहः, 'क्यव्यवसायो वा ? न तावदेक आत्मा, उभयोः सविकल्पाविकल्पयो प्रया! कुत इत्याह.. अनभ्युपगमात एवं विध कस्य / न च सविकल्प: Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 651 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस दिकल्पे ज्ञाने एव प्रतिपत्तॄणी कुत इत्याह- तयोः-- सविकल्पावि-- कल्पज्ञानयोः, विमा हासिद्धेः, असिद्धिश्च स्वसंवेदनरूपत्वेन हेतुना ताभ्यां स्वस्वभावदर्शनादिति / इत्थमपिस्वस्वभावदर्शनऽपि सति, विमोहे तदनुच्छेदापतिः-मोहानु च्छेदापत्तिः / कुत इत्याह- उपायाभावात् / न हि स्वसंधेद नरूपे कदाचिदन्यथा भवत इत्युपायाभावः / चेत्यादि। न चानयोः सविकल्पाविकल्पयोर्विज्ञानयोः ऐक्यव्यवसायः। युति इत्याह-- मिथः- परस्परं, भेदाभ्युपगमात् / यदि नामैवं ततः / किमित्याह- स्वविषयनियतत्वेन हेतुना, तथाप्रतिभासानुपपत्तेः-- एक्यप्रतिभासानुपपनः / प्रतिभासश्च व्यवसाय इति। एवमपितथाप्रतिभासानुपपत्तावपि, तदभ्युपगमे ऐक्यव्यवसायाभ्युपगमे अतिप्रसगात् शशविषाणादिव्यवसायापत्तेः। स्यादेतत्, एक्यव्यवसायस्तदपरो विकल्प एव,व्यवसायस्स परिच्छेदात्मकत्वात्। स किं विषय इति वाच्यम् / तदुभयविषय इति चेत् / कथमेतत्प्रतिभासी तद्विषयः? तत्प्रतिभासित्वे वा कथमैक्यं व्यवस्यति? न चात्यन्तभिन्नयोस्तथाव्यवसाये निमित्तम् / भ्रान्त एवाऽयमिति चेत् / तदन्यैवंविधभावे कथं नेतरयोर्भेदव्यवसायः? व्यवसाय एवेति चेत्। न, तथायुक्त्यनुभवाभावेन वाङ्मात्रत्वात् / एतेन 'अन्यत्राऽनयोर्योगपद्येऽपि भेददर्शनात्, इत्यादि प्रत्युक्तम्, तत्त्वतस्तुल्ययोगक्षेमत्वात्। स्यादतदिल्यादि। स्यादेतत्, ऐक्यव्यवसायोऽधिकृतः , ताभ्यां सविकल्पाविकल्पविज्ञ भ्यामपर:-अन्यो विकल्प एव / कुत इत्याहव्यवसायस्य परिर छेदात्मकत्वात् / एतदाशङ्कयाह- रा किं विषयो विकल्पः, इति वाच्यम् / तदुभयविषयः- सविकल्पाविकल्पविज्ञानोभयविषय इते चेत् / एतदाशक्याह-कथमेतत्प्रतिभासी सविकल्पाविकल्प विज्ञानाऽप्रतिभासी सन्, तद्विषयः सविकल्पाविकल्पज्ञानविषयः? तत्प्रतिभासित्वे वा–सविकल्पाविकल्पविज्ञानप्रतिभासित्वे वा सते, कथमक्यं व्यवस्यति परिच्छिन्नति? तद्भेदव्यवसायरूपत्वादित्यर्थः / न चेत्यादि / न चात्यन्तभिन्नयोजातिभेदन, सविकल्पाविकल्प विज्ञानयोरिति प्रक्रमः, तथाव्यवसायः, ऐक्यन व्यवसाये निमित्तं गेलपीतयोरिव भ्रान्त एवायम्परो विकल्प इति चेत्। एतदाशड्क्याह- तदन्येत्यादि / तस्माद् भ्रान्तादन्योऽभ्रान्त एवंविध उभय विषयस्तस्य भावे राति कथं न इतरयोः सविकल्पाविकल्पविज्ञानयोः, भेदर वसायस्तदन्येन? न ह्यन्यस्मिन सत्यरूपेऽसत्यस्य भ्रान्ततेति हृदयम्। व्यवसाय एवेति चेत् अन्येनेतरयोः / इत्येतदाशड्याहनेत्यादि। न-नैतदवम्, तथायुक्त्यनुभवाभावेन हेतुना, वाडमात्रत्वादर्थशून्यत्वादधिकृतवचसः / युक्त्यभावश्चेह स्वलक्षणसामान्यलक्षणगोरकत्राप्रतिभासनात्, अनुभवस्य चासंकीर्णोभयग्राहिणोऽभावादिति। एतेनेत्यादि / एतेनानन्तरोदितेन दूषणजातेन 'अन्यत्राऽनयोयोगपद्येऽपि भददर्शनात् ' इत्यादि पूर्वपक्षोक्तं, प्रत्युक्तम्-निराकृतम् ।कृत इत्याह सत्वतः- परमार्थ तः, तुल्ययोगक्षेमत्वादिति। किक्षा -अनयोभिन्न विषयत्वेन तथापि जन्माऽयुक्तम्, अन्यदर्शनस्यान्यविकल्पानिमित्तत्वात्, निमित्तत्वे वाऽतिप्रसङ्गात्, नीलदर्शनादपि पीतादिविकल्पापत्तेः, तदभाव प्रसङ्गात्, निश्चयबलाद्धि, तद्भावसिद्धिः स चेदन्यदर्शनादप्यन्यविषयः, अप्रमाणिकाऽन्यसत्तेति विश्वस्य नीलमात्रतापत्तिः। भिन्नदर्शनविषयाः, पीतादय इति चेत् न / तेषामनिश्चयात्मकत्वेन तथातानधिगतेः, न च तन्निश्वयात् तदधिगतिर्युक्ता, तस्यान्यतोऽपि भावेन तत्प्रतिबन्धासिद्धेः। स पारम्पर्येण तद्दर्शनसामोद्भूत एव, सदाऽतद्दर्शिनोऽभावादिति चेत् / न। इत्थं सर्वत्राऽनाश्वासेनाऽसमनसत्वापत्तेः, सन्निहितार्थदर्शनबलोत्पन्ननिश्चयादपि पारम्पर्येणार्थान्तरदर्शनशक्तिजत्वाऽऽरेकातः प्रवृत्त्वाद्ययोगात् / समानविषययोः पुनरनयोर्भावस्तथा भवन्नपि न नो बाघायै, अक्रमेणाऽप्रवृत्तेः। एवं च'अतीताद्यर्थगतविकल्पेनापीन्द्रियज्ञानतो रूपादिग्रहणसिद्धेः' इत्यादि यावद् 'भिन्नजातीयत्वात्' इत्येतद् व्युदस्तमवसेयम, अक्रमप्रवृत्तावतीतादिविकल्परूपादिग्रहणयोरस्य साफल्योपपत्तेः, अन्यथा वाङ्मात्रत्वात्। किञ्चेत्यादिनाऽभ्युचयमाह-किञ्च, अनयोः सविकल्पाविकल्पज्ञानयोरुदाहृतयोः भिन्नविषयत्वेन हेतुना, जातिभेदतः, तथापि प्रक्रमात्क्रमेणापि यथकजातीययोस्तथापि, जन्मायुक्तमघटमानकम् / कुत इत्याह-- अन्यदर्शनस्यरूपादिदर्शनस्य, अन्य विकल्पानिमित्तत्वादअतीताद्यर्थगतविकल्पानिमित्तत्वात्. निमित्तत्वे वाऽतिप्रसङ्गत् / एनमेवाह--नीलदर्शनादपि सकाशात.पीतादिविकल्पापत्तेः / यदि नामेय ततः किमित्याह- तदभावप्रसङ्गात्-पीताद्यभावप्रसङ्गात् / एतदेव स्पष्टयति- निश्चयेत्यादिना / निश्चयबलाद् यस्मात्, तद्भावसिद्धिःपीतादिभावसिद्धिः. स चेद निश्चयः, अन्यदर्शनादप्यन्यविषयो भवति, अप्रगाणिकाऽन्यसत्ता, इह लावत्प्रक्रमादन्यत्पीतादि, ततश्चाप्रमाणिका पीतादिसतेति कृत्वा, विश्वस्य सर्वस्य नीलमात्रतापत्तिः, यावत् किञ्चित् सत तत्सर्व नीलमिति पीतादिनिश्चयस्तु नीलदर्शनादेवेति न्यायोपपत्तेः भिन्नदर्शनविषयाः- पीलादिदर्शनविषयाः, पीतादय इति चेत्। एतदाशड्क्याह-नत्यादि। न--नैतदेवं तेषां दर्शनानाम्, अनिश्चयात्मकत्वेन हेतुना. तथा तानधिगतेः पीतादिरूपतया भिन्नताऽनधिगतेः / न चेत्यादि / नच तन्निश्वात-पितादिनिश्चयात, तदधिगतिदर्शनाना तथा भिन्नताधिगतियुक्ता / कुत इत्याह-तस्य सामान्येन निश्चयस्य, अन्यतोऽपिदर्शनान्तरादपि, भावेनहे तुना, तत्प्रतिबन्धासिद्धेः पीतादिदर्शनभेदेन सह पीतादनिश्चयस्य प्रतिबन्धासिद्धेः / स पीतादिनिश्चयः, पारम्पर्येण तदर्शनसाम ोद्भुत एव- पीतादिदर्शनसामोद्भूत एव / कुत इत्याह- सदाऽतद्दर्शिनः-पीताद्यदर्शिनः अभावादिति चेत् / एतदाशड्क्याह- नेत्यादि। न-नैतदवम हत्यमेवं, सर्वत्रानाश्वासेन हेतुना। किमित्याह - असम Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 652 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस जसत्वापत्तेः / एनामेवाह- सन्निहितार्थदर्शनबलोत्पन्ननिश्चयादपि / सकाशात, पारम्पर्येणार्थान्तरदर्शनशक्तिजत्वाऽऽरेकातः-आशडातः कारणात्, प्रवृत्त्याद्ययोगात्, आदिशब्दात-प्राप्तिपरिग्रहः। एवं तावद भिन्न विषययोः सविकल्पाविकल्पज्ञानयोर्योगपद्यमसंभव्येव निदश्य | साम्प्रतमिदमाह-समानेत्यादि। समानविषययोः पुनरनयोः सविकलाविकल्पज्ञानयोर्भावः,तथा हेतुफलभावेन, भवन्नपि अहिरहि: इत्यादौ, ननो बाधायैनास्माकं बाधार्थम्। कुत इत्याह-अक्रमेणाप्रवृत्तेः-अवग्रहकल्पादविकल्पादवायकल्पसविकल्पभावेन क्रमेण प्रवृत्तेरित्यर्थः / एवं चत्यादि। एवं सति अतीताधर्थगतविकल्पेनापि प्रमात्रा, इन्द्रियज्ञानतो रूपादिग्रहणसिद्धेः' इत्यादि पूर्वपक्षोक्त यावद् 'भिन्नजातीयत्वात्' इत्येतद्, व्युदस्तमपाकृतमवसेयम्। कुतइत्याह-अक्रमप्रवृत्तौ सत्याम्, अतीतादिविकल्परूपादिग्रहणयोरस्यपूर्वपक्षोक्तस्य, साफल्योपपत्तः अन्यथाऽक्रमप्रवृत्तिमन्तरेण वाडवात्रत्वादिति। आह यद्यत्र क्रमः, कथं न संलक्ष्यत इति? उच्यते-उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् कालसौक्ष्म्यात्, छद्मस्थप्रमातुरनाभोगबहुलत्वात्, अदृष्ट प्रतिबन्धात, वस्तुनोऽनेकधर्मत्वात्, यथाक्षयोपशममबोधप्रवृत्तेः, तस्य च तत्तद्धेतुभेदतो वैचित्र्यादिति। आह-यद्यत्र सविकल्पाविकल्पविज्ञानद्वये, क्रमः, कथन संलक्ष्यते? इति। उच्याले-उत्पलपत्रशतव्यतिभेदवत् कालसौक्ष्म्याद न संलक्ष्यत इति। किमेतदेवमिन्याह-- छद्मस्थप्रमातुरनाभोगबहुलत्वात्। अनाभोगबहुलत्वचादृष्टकर्मप्रतिबन्धात, तथा, वस्तुनः प्रमेयस्यानेकधर्मकत्वात, तथा विभमादिनिबन्धनत्वेन यथाक्षयोपशम यस्य यथा क्षयापशमस्तथाऽवबोधप्रवृत्तः, तस्य च क्षयोपशमस्य, तत्तद्धेतुभेदतो द्रव्यादिभेदन, वैचित्र्यात प्रामान सलक्ष्यत इति। आह-यदि कालसौम्यादत्र क्रमाऽलक्षणम् / एवं तर्हि 'सरः' इत्येवमादिकयोर्वर्णयोरुच्चारणे नितरां कालसौक्ष्म्यमित्यक्रमग्रहणं स्यात् / तथाच क्रमालक्षणात् श्रुतिभेदो न भवेत्, यथा सरो रस इति / इतश्च न भवेद्-युगपदगोचरीभूतविषयेन्द्रियवतोऽविच्छेदेन सर्वोपलब्धौ क्रमपक्षेऽप्यक्रमस्यैव दर्शनात्, स हि वंशादिवादयितूरूपं पश्यति, तदैव ततः शब्दं शृणोति, नीलोत्पलादिगन्धं जिघ्नति, कर्पूरादे रसमास्वादयति आसनादिस्पर्शस्पृशति, चिन्तयति च किञ्चित्, इति तत्त्वतोऽस्यानवरतं सर्वपरिच्छित्तिः / एवं यावदत्राप्ययुगपत्पक्षेऽपि समाश्रीयमाणे पञ्चभिर्विज्ञान य॑वधानेऽपि क्रमभावि सत् तेषामे कै कं विज्ञानमविच्छिन्नमिव प्रतिभाति, तथानुभूतेः। यदैतदेवम्, तदा कथमन्यविज्ञानावृत्तौ वर्णयोर्न सकृच्छुतिः, इत्यविच्छिन्नमेकघनीभूतायतवर्णाकारं दर्शनं न भवति; न च भवति तथाऽप्रतीतेः, इति यत्र क्रमस्तत्र कालसौक्ष्म्येऽप्युपल- | भ्यत एव / न च प्रतीतिं विहाय पदार्थतत्वव्यवस्थापनोपायः, इति यथाप्रत्ययं युगपद्विज्ञानप्रवृत्तिन्यायविदाऽङ्गीकर्तध्या, अन्यथोक्तवद् न्यायोच्छेदप्रसङ्गादिति। आह-यदि कालसौक्ष्म्यादत्र अधिकृते सविकल्पाविक ल्पज्ञानद्वये, क्रमालक्षणम् एवं तर्हि 'सर' इत्येवमादिकयोर्वर्णयोः, आदिशब्दाद्-- रसादिग्रहः, उचारणे नितरां कालसौक्ष्म्यम्, अव्यवधानेनाच्चारणात्, इत्यक्रमग्रहणं सरवर्णयोः स्यात् / तथा चेत्यादि / तथा च सति क्रमालक्षणात कारणात्, श्रुतिभेदः- श्रवण-भेदो भवेत्, यथा सरो रस इति द्विवर्णविषयः / इतश्च न भवेच्छुति-भेदः / कुन इत्याहयुगपदित्यादि। युगपदेकदैव, गोचरीभूतविषयाणि च तानीन्द्रियाणि चेति विग्रहः, तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वान्, तस्याऽविच्छेदेन प्रबन्धवृत्त्या, सर्वेषां प्रक्रमाद्विषयाणामुपलब्धिः, सर्वोपलब्धिः, अस्यां सर्वापलब्धी सत्याम्। किमित्याह-क्रमपक्षेऽपि विज्ञानविषये, अक्रमस्येव दर्शनात् एत-देवाक्रमदर्शनमाह-स हीत्यादिना / सहि युगपद्गोचरीभूतविषयेन्द्रियवान्, वंशादिवादयितू रूपं पश्यति, तदैव ततः वंशादेवादयितुः सकाशात्, शब्द शृणोति, तथा, नीलोत्पलादिगन्धं जिनति, तथा कर्पूरादे रसमास्वादयति, एवमासनादिस्पर्श स्पृशति, चिन्तयति च किश्चिन्मनसा, इत्येवं, तत्त्वतोऽस्य युगपद्गोचरीभूतविषरन्द्रि यवतः प्रमातुः। किमित्याह- अनवरतं सर्वपरिच्छित्तिः अनवरतसर्वपरिच्छित्तिरेव, युगपदेवेन्द्रियविषयसंबन्धसिद्धेः। एव तत्त्वव्यवस्थिते सति, यावदत्रापि युगपदनुभवेऽपि तात्विके, अयुगपत्पक्षऽपि समाश्रीयमाणं किमित्याह पञ्चभिर्विज्ञानैर्व्यवधानेऽपि सति अधिकृतन्यायेन, क्रमभावि सद् भवत, तेषां षण्णां विज्ञानानाम्, एकैकं विज्ञान शब्दादिगांचरादि, अविच्छिन्नमिवयुगपदिव. प्रतिभाति / कुत इत्याह-- तधानुभूतेः-- अविच्छेदनानुभूतेः। प्रकृतयोजनामाह-यदेत्यादि। यदैतदेवमनन्तरोदितम्, तदा कथमन्यविज्ञानावृत्तावपान्तराले, वर्णयोः सरादिरूपयाः, न सकृच्छुतिर्न युगपच्छ्रवणमिति। एतदेवाह- अविच्छिन्नम- एकदैव एकधनीभूतश्चासावायतवर्णश्चति विग्रहः, सदाकार दर्शन न भवति / स्यादेतदभवत्येव, इत्याशङ्कानिरासार्थमाह-न च भवति। कुन इत्याहतथाऽप्रतीतेः / इत्येवं, यत्र क्रमस्तत्र कालसौम्येऽप्युपलभ्यत एव यथाऽधिकृतवर्णयोः / न च प्रतीति विहायपरित्यज्य, पदार्थ तत्त्वव्यदस्थापनोपायः, इत्येवं, यथाप्रत्यययथानुभव, युगपद्विज्ञानप्रवृत्तिः षडपेक्षया प्रस्तुतद्वयापेक्षया था, न्यायविदा प्रमात्रा, अङ्गोकर्तव्या, अन्यथैवमनभ्युपगमे, उक्तवद् यथोक्तं तथा न्यायोच्छे इप्रसङ्गात् प्रतीतिबाधेन न्यायानुपपत्तेस्तस्यापि प्रतिबीजवादित्यभिप्राय इति / अत्रोच्यते-यत्किशिदेतत्, वर्णयोः सावयवत्वेनोक्तदोषानुपपत्तेः, सराऽऽदयो हि वर्णाः सावयवत्वे रानेकक्षणलब्धवृत्तयः, तथोपलब्धितस्तत्तत्स्वभावत्वात्, अन्यथा तदनुपपत्तेः, न क्षणिक ज्ञानग्राह्याः, तस्य परमाणुव्य Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 653 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस तिक्रान्तिमात्रत्वेनात्यन्तसूक्ष्मत्वात्, तदनुभवस्य तत्त्वेनैवावग्दिर्शिनाऽनुपलक्षणात्, तथाऽप्रतीतेः इति पूर्ववर्णज्ञानेनो-- तरवर्णज्ञानस्य मिश्रणाभावात्, उभयोः प्रदीर्घस्थूरोपयोगरू-- पत्वात; तथा आलम्बनजातिभेदात्, तत्तत्स्वाभाव्यात्, तथाक्षयोपशमयोगात्, दृढानुभवसिद्धेः, अविगानेन तथा-वेदनात् कोटिसङ्ग स्याप्रयोजकत्वात्, तदीर्यतरस्करणात्, इत्थमपि तथापादनेऽतिप्रसङ्गात्, नीलपीतज्ञानयोरपि तद्भावेन क्वचिन्मिश्रणप्रसङ्गात् / इति कथं सकारादाविवाविच्छिन्नमेकधर्माभूतायतवर्णाकारं दर्शनं भवेत्? सकारादौ तु कालादिभेदेऽपि प्रभूततरधर्मप्रत्त्यासत्तेर्भवति, तथानुभवादिति। एतेनाऽलातचक्रादिदर्शनं प्रत्युक्तम्, प्रत्यवयवं प्रदीर्घस्थूरोपयोगादिविपर्ययात्, अन्यथा तत्रापि तथादर्शनानुपपत्तेः। अत्रोच्यते-यत्किञ्चिदेतत्, असारमित्यर्थः। कुत इत्याह-वर्णयोः-सराऽऽदिलक्षणयोः, सावयवत्वेन हेतुना, उक्तदोषानुपपत्तेः / एतदेव प्रकटयति- सरादय इत्यादिना / सरादयो हि वर्णाः सावयवत्वेन जातिभेदतः, अनेकलक्षणलब्धवृत्तयो वर्तन्ते / कुत इत्याह -तथोपलब्धितः अनेकक्षणवृत्तित्वेनोपलब्धेः, उपलब्धिश्च तत्तत्स्वभावत्वात तयोरुपलब्धवर्णयो स्तत्स्वभावत्वात अनेकक्षणवृशिनोपलब्धिस्वभावात् / इत्थं चैतदडीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा तदनुपपत्तेः एवमनभ्युपगमे, वर्णापलब्ध्ययोगादित्यर्थः / यत एवम्, अतो न क्षणिकज्ञानग्राह्याः / कुत इत्याह-तस्य क्षणस्य, परमाणुमात्रव्यति-क्रान्तिमात्रत्वेन परमाणुव्यतिकान्तिकाल एकः क्षणो मत इति न्यायेनाऽत्यन्तसूक्ष्मत्वात्। तदनुभवस्यक्षणानुभवस्य तत्त्वेनैवक्षणानुभवत्वेनैव, अवाग्दर्शिना प्रभात्रा, अनुपलक्षणा, अनुपलक्षणं च तथा तत्त्वेनैवाऽप्रतीतः / इत्येवं पूर्ववर्णज्ञानेनसकारादिज्ञानेन, उत्तरवर्णज्ञानस्यरेफादिज्ञानस्य, मिश्रणाऽभावात् कारणात, कथं सकारादाविवाविच्छिन्नमेकघनीभूतायतवर्णाकार दर्शन भवेदिति योगः / मिश्रणाभावश्च उभयोनियोः सकारादिगोचरयाः, प्रदीर्घम्थूरोपयोगरूपत्वात् तथालम्बनजातिभेदात्, भिन्नजातीयौ सकाररेफाविति कृत्वा, तथा तत्तत्स्वाभाव्यात् तयोर्वर्णापयोगयोस्तत्स्वाभाव्याद-मिश्रण स्वाभाव्यात्। एतच्च तथाक्षयोपशमयोगात् तेन मिश्रणाभावशानजनकवत्प्रकारेण, क्षयोपशमयोगात्। एतद्योगश्व दृढानुभवसिद्धेः, इयमप्यविगानेन तथावेदनाद् दृढानुभवरूपेण वेदनात्। कोटिसङ्गर वर्णज्ञानसंबन्धिनः, प्रयोजकत्वात् / प्रभूततराऽसङ्गेन तद्वीर्यतिरस्करणात तयोवर्ण ज्ञानयोर्वीर्य प्रदीर्घस्थूरोपयोगलक्षणं सामर्थ्य तेन तिरस्करणात कोटिसङ्गस्य / इत्थमप्येवमपि कोटिसङ्ग स्य तद्वीर्यतिरस्करणेऽपि , तदापादने प्रक्रमाद् मिश्रणापादने अतिप्रसड़ात। एनमवाह- नीलपीतज्ञानयोरपि तद्भावेनकोटिसङ्गभावेन क्वचिच्चित्रपट्यादी, मिश्रणप्रसङ्गात नचैतदेवम्, इत्येवं, कथं सकारादाविव सजातीयव्यक्तिरूपम् अविच्छिन्नमेकदैव एकघनीभूतायतवर्णाकारं दर्शन भवेत नैव भवति, निमित्ताभावात्। सकारादौ तु सजातीये तथैकावयवित्वेन कालादिभेदेऽपि, आदिशब्दादजातिग्रहः / प्रभूततरधर्मप्रत्यासत्तेर तथैकारम्भकत्वेन भवत्येकघनीभूतायतवर्णाकारदर्शनम् / कुत इत्याह - तथानुभवात् / एकधनीभूतायतवर्णाकारदर्शनत्वेनाऽनुभवादिति / एतेनानन्तरोदितेन, अलातचक्रदर्शनं प्रत्युक्तम्। कथमित्याहप्रत्यवयवम अवयवमवयवं प्रति अलातचक्रसंबन्धिनं, प्रदीर्घस्थूरोपयोगादिविपर्ययात् अप्रदीर्धसूक्ष्मोपयोगभावात् एवं चतत्र भवति तन्मिश्रणमित्यर्थः। अन्यथैवमनभ्युपगमे, तत्राप्यलातचक्रे, तथा दर्शनानुपपत्तः प्रत्यवयवं प्रदीर्घस्थूरोपयोग-भावेन तन्मिश्रणाभावेनेति भावः / न चैवं सर्वक्रमोपलम्भनिबन्धनं सविकल्पाविकल्पयोः, अविकल्पे क्षणिकत्वेन जात्यादिभेदेऽपीहादेस्तदितरवैकल्यादिति / या च युगपगोचरीभूतविषयेन्द्रियवतोऽविच्छे देन सर्वो पलब्धिरुक्ता, साऽसिद्धा, द्रव्येन्द्रियविषययोगेऽप्य वग्दिर्शिनः प्रतिबन्धकसामर्थ्येन तावतां विज्ञानानामेकदाऽनुदयात्, तथाऽननुभूतेः, प्रतीत्यभावात्, युक्त्यनुपपत्तेः, उपादानायोगात्, एकोपादानतोऽने कासिद्धेः, भिन्नोपादानत्वे तदत्यन्तभेदेनानुसन्धानायोगात्, अस्य चानुभवसिद्धत्वात् / एवं च क्रमपक्षेऽप्यक्रमस्यैव दर्शनादित्ययुक्तम्, तथाननुभवात्, एकदैक ज्ञानसंवेदनात्, कालसौक्ष्म्यविभ्रमतस्तथाऽप्रतीते। प्रकृतयोजनायाह- न चैवं यथाधिकृतवर्णयोः, सर्वनिरवशेष सावयवत्वादि, क्रमोपलम्भनिबन्धनम् / कयो रित्याह- सविकल्पाविकल्पयोः प्रस्तुतविज्ञानयोः। कुत इत्याह-अविकल्पे क्षणिकत्वेन अवग्रहस्य क्षणिकत्वात् / जात्यादिभेदेऽपीहादेः, सविकल्पत्वेन आदिशब्दात्-प्रतिभासग्रहः, तदितरवैकल्यात् प्रदीर्धस्थूरोपयोगरूपवैकल्यादिति / या चेत्यादि / या च युगपद्रोचरीभूतविषयेन्द्रियवतः प्रगातुः, अविच्छेदेन सर्वोपलब्धिरुक्ता पूर्वपक्षग्रन्थे, साऽसिद्धा। कुत इत्याह- द्रव्येन्द्रियविषययोगेऽपि निर्वृत्त्युपकरणरसादिसंबन्धेऽपि, अगिदर्शिनः प्रमातुः, प्रतिबन्धकसामर्थेन हेतुना कर्मसामर्थ्यन, तावतां विज्ञानानां षण्णाम्, एकदैकस्मिन् काले, अनुदयात्- अनुत्पादात्, अनुदयश्च तथाननुभूतेः एकदाभावनाननुभूतेः / अननुभूतिश्च प्रतीत्यभावात्। प्रतीत्यभावश्च युक्त्यनुपपत्तेः / युक्त्यनुपपत्तिश्व उपादानायोगात / उपादानायोगश्च एकोपादानतोऽनेकासिद्धेः स्वतः परतश्च / भिन्नापादानत्वे तेषां षण्णामत्यन्तभेदेन सन्तानान्तरवदनुसन्धानायोगात 'भया रूप दृष्ट, शब्दः श्रुतः' इत्यनुसंधानायोगात् / अस्य चानुसन्धानस्यानुभवसिद्धत्वात् / यदि नामैवं ततः किमित्याह-एवं च 'क्रमपक्षेऽप्यक्रमस्यैवदर्शनात्' इत्ययुक्तं पूर्वपक्षोक्तम्। कुत इत्याहतथाननुभवात्। अक्रमदर्शननाऽननुभवात। अननुभवश्व एकदैकज्ञान Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 654 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस संवदेनात, इति कल्पनान्तरबाधिका युक्तिः / अत एवाह- काल - सौक्ष्म्यविधमतः कारणात्, तथाऽप्रतीतेः-एक दैकज्ञानसंवेदनत्वेनाऽप्रतीतेः विभ्रमाद् युगपत्प्रवृत्तेरित्यर्थः। किञ्च-कुतोऽयममीषामत्यन्तभेदे युगपत्सर्वानुभव इत्यवगमः? न तेभ्य एव, प्रत्यर्थनियतत्वात् इतरेतरानवगमात्, अवगमे स्वरूपहानिप्रसङ्गात्, ज्ञानान्तरालम्बनत्वापत्तेः, तस्यापि चायोगात्, युगपद्भावात्, प्रतिबन्धविरहात्, इतरेतरालम्बनत्वानुपपत्तेः, युक्तिभिरयोगात्, स्वभावभेदप्रसङ्गात्, तथा च तदयोगादिति / न चान्यतः, एकस्य तदालम्बनत्वाभावात्, तेषां भिन्नजातीयत्वात्। अत एवैकाकरणादतदुत्पन्नात् तत्परिच्छित्यसिद्धेः, तदाकारत्वायोगात्, योगेऽपि मेचकरूपतापत्तेः, तत्सारूप्याभावात्, तेषामसङ्कीर्णत्वात्, एवमप्यवगमेऽतिप्रसङ्गात्, तत एव सर्वार्थावगमापत्तेः, तथाऽनुभवाभावात, इत्यनवगताभिधानमेतद् / यदुत- 'युगपत्सर्वानुभवः' इति / चित्रज्ञानवत्परामर्शा विकल्पात् तदवगम इति चेत् / न / अस्याप्ययोगात् / तथानुभवसिद्धत्वात् कथमयोग इति चेत् स्वकृतान्तप्रकोपात् / कथमात्र तत्प्रकोप इति चेत् / यथोक्तं प्राक् / परामर्शविकल्पोऽन्य एवेति चेत् / न / ततस्तदवगम इति यत्किञ्चिदेतत् / क्रमानुभवोऽपि कथं गम्यते? इति चेत्। अन्ययिन्यात्मनि सुखेनैव, तस्यैव तथा-भावात्, चित्रस्वभावत्वात्, बोधान्वयोगपपत्तेः, तदावरणविगमात्, क्रमानुभवाविरोधात्, तथामनोवृत्तेः। इति न युगपत्सर्वथा सविकल्पाविकल्पज्ञानभावः। दूषणान्तरमाह-किश्वेत्यादिना। किशायमपरो दोपः- कुतोऽयममीप घण्णां विज्ञानानाम्, अन्यन्तभेदे सति, युगपत्सर्वानुभव इत्येवंभूतः, अवगमः-परिच्छेदः, न तेभ्य एव षड्भ्यो विज्ञानेभ्यः / कुत इत्याहप्रत्यर्थनियतत्वात् तेषाम, तथाहि- रूपादिविषयत्वेन नियतानि तानि / यदि नामैवं ततः किमित्याह-- इतरेतरानवगमात् / न रूपज्ञाने रसादिज्ञानमवगम्यते,नापि तैस्तत्, इतीतरेतरानवगमः / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अवगमे स्वरूपहानिप्रसङ्गात् / यदेव रूपज्ञानं रसादिज्ञानान्यवति तदेव सदालम्बनत्वात् तदाकारतया रूपानता परित्यज्यान्यथा (दिवगमः,एवं रसादिज्ञानेष्वपि याजनीयम्, गर्भ स्वरूपहानिप्रसङ्गः / एतदेवाह-ज्ञानान्तरालम्बनत्वापत्तेः न ह्येतदालादनं तदवगमयतीति भावः / यदि नामैवं ततः किमित्याह - तस्यापि चायागात तस्यापि च ज्ञानान्तरालम्बनत्वस्य, अयोगात् / अयोगश्च युगपद्भावात रूपरसादिज्ञानानां युगपदावे दोषमाह- प्रतिबन्धविरहात् तादात्म्यतदुत्पत्त्ययागन / दोपान्तरमाह- इतरेतरालम्बनत्यानुपपत्त: रुपज्ञानस्य रसान्तरालम्बनल्यानुभपतेः, रसादिज्ञानस्य च रुपज्ञानान्तरालम्बनत्वानुपपतः / अनुपपत्तिश्च युक्तिभिरयोगात्। युक्तमयोगश स्वभावभदप्रसङ्गात्। रूपज्ञान हि रसादिज्ञानान्तरालम्बनमालम्च्य च।। न चैतदुभयं स्वभावाभेदे इति स्वभावभेदः / यदि नामैवं ततः किमित्याहतथा--च तदयोगादिति। स्वभावभेदे च रूपादिविज्ञानायोगात्. ततस्तद्व्यतिरिक्तेतरविकल्पद्वारेण इति 'न तेभ्य एवाऽमीषा युगपत्सर्वानुभव' इत्यवगमः, इत्येतत् स्थितम्। अन्यतो भविष्यतीत्याशङ्कापनोदायाहन चान्यत इत्यादि। न चान्यतोऽमीषा युगपत्सर्वानुभव इत्यवगमः / कुत इत्याह- एकस्यत्यादि / एकस्यान्यस्य, तदालम्बनत्वाभावात् अधिकृतषविज्ञानालम्बनत्वाभावात्। अभावश्च तेषां भिन्नजातीयत्वात् षण्णा विज्ञानानाम् / यदि नामैवं ततः किमित्याह-अतएवैककारणात्। न हि भिन्नजातीया रूपादय एकं पृथग्जनज्ञान कुर्वन्ति / न चैतदुत्पन्न तत्परिच्छेदकमित्येत-दाह-अतदुत्पन्नादित्यादि / तेभ्यः / षड्भ्यो विज्ञानेभ्यः, उत्पन्नं तदुत्पन्नं, न तदुत्पन्नमतदुत्पन्नं तस्मात, एकरमादिति प्रक्रमः / तत्परिचिछत्यसिद्धेः षड्ज्ञानपरिच्छित्यासिद्धेः, असिद्धिश्व तदाकारत्वायोगात् / उपचयमाह-योगेऽपि कथञ्चित्, तदाकारत्वस्य मेचकरूपतापत्तेरधिकृतग्राहकज्ञानस्य। यदि नामैवं ततः किमित्याहतत्सारूप्याभावात्। तै यज्ञानैः षड्भिः सारूप्याभावत् मेचकरूपस्य ग्राहकज्ञानस्य / अभावश्च तेषामसंकीर्णत्वात् ज्ञेयज्ञानानाम् / न च सारूप्याभावे तदवगमो न्याय्य इत्येतदाह- एवमपीत्यादि एवमपि सारुप्याभावेऽपि, ज्ञानज्ञेययोरवगमेऽभ्यु--पगम्यमाने, अतिप्रसङ्गात् / अतिप्रसङ्गश्च,तत एव सर्वार्थावगमानुभवाच्च, इत्येवम्, अनवगताभिधानमतत् पूर्वपक्षवचनं,यदुत 'युगपत्सर्वानुभवः' उक्तदत्तद्योगपद्याज्ञानादिति। चित्रज्ञानवदित्यादि। चित्रज्ञानवदिति निदर्शनम्,यथा चित्रज्ञाने सामर्थ्याच्चित्रावगमः,तथा परामर्शविकल्पात्-षड़ज्ञानगतात्, तदवगम, प्रक्रमादमीषां युगपत्सर्वानुभवावगम इति चेत् / एतदाशडक्याह-नाऽस्याऽप्ययोगात् चित्रज्ञानस्य। तथेत्यादि। तथा चित्रज्ञानत्वेनानुभवसिद्धत्वात् कारणात्,कथमयोग इति चेत् चित्रज्ञानस्य ! एतदाशक्याह- स्वेत्यादि / स्वकृतान्तप्रकोपात्-- स्वसिद्धान्तविरोधादयोगः / कथमत्र तथानुभवसिद्धौ,तत्प्रकोप इति चेत् / एतदाशक्याह- यथोक्तं प्राक्-पूर्वम् 'एकस्यानेकालम्बनत्वाभावात्, इत्यादिना परामर्शविकल्पोऽनन्तरप्रस्तुतः, अन्य एव तथाविधानुभवनिमित्तोन षड्ज्ञानगत इति चेत् / एतदाशक्यह-न तत, परामर्शविकल्पादन्यस्मात् तदवगमः प्रक्रमादमी युगपत्सर्वानुभवावगमः, इत्येवं, यत्किश्चिदेतदनन्तरोदितम् : सयंमेवासारमित्यर्थः / क्रमानुभवोऽपि रूपाकिज्ञानगत इति प्रक्रमः, कथ गम्यल इति चेत. तत्क्रमग्राह्यान्यद विज्ञानान्तरं न विद्यत एवेत्य-भिप्रायः / एतदाशड्क्याह- अन्वयिन्यात्मनि सुखेनैव गम्यते, एतदेवाह-तस्यैव प्रक्रमाद्रूपादिज्ञानानुभवितुरात्मनः, तथा-भावाद्- रसादिज्ञानरूपेण भावात तत्तथाभावश्च चित्रस्वभावात ; अनुवृत्तिव्यावृत्तिस्वभावत्वादित्यर्थः / एतच्च बोधान्वयोपपत्तेः,न व्यावृत्तिमन्तरेणान्वय इत्युपपत्तिः / युत्ययन्तरमाह-तदावरणविगमात्-क्रमानुभवज्ञानावरणधिगमात्। न चायमसिद्ध इत्याह- क्रमानुभवाविरोधात् कारणसाकल्यने Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 655 - अभिधानराजेन्द्रः -- भाग 7 सामण्णविसेस त्यर्थः / अटिरोधश्च तथामनोवृत्तः युगपज्ज्ञानानुपपत्तित्वेन मनोवृत्तः कारणात / प्रक्रान्तोपसंहारमाह- इति न युगपदित्यादिना / इत्यवान युगपत्सविकल्पाविकल्पज्ञानभावः। परमाप्तवचनविरुद्धश्चायम्, "अस्थानमेतम्, यद् द्वे चित्ते युगपदुत्पद्येयाताम्" इति वचनप्रामाण्यात् / अन्यार्थमेतदिति चेत् / कोऽस्यार्थ इति वाच्यम् / भिन्नजातीयेनेति चेत् / न / अधिकृतज्ञानयोरपि तत्त्वात्। भिन्नालम्बनेनेति चेत् / न। तयोरपि त्वन्मते भावात् / कथं पुनर्भाव इति चेत्। रसादिगतचित्तस्यापि रूपदर्शनाभ्युपगमादिति / न चाविकल्पकेनेति, पञ्चानां प्ररूपणात् / न चात एव न दे, छलमात्रत्वात्। न चेहैव न्याय्यो भरः, अस्थानप्रयासत्वात् / न च नास्थानप्रयासः, द्वयोरुपलक्षणत्वात्, अन्यथा यत्र पञ्च न तत्र द्वे इत्यतिकौशलमाप्तस्य, त्र्यादीनामपि प्रतिषेधापत्तेः। उपचयमाह-- परमाप्तवचनविरुद्धश्चायं परमाप्तो-भगवान् वृद्धस्तद्वचनविरुद्धश्च, अयं युगपत्सविकल्पाविकल्पज्ञानभावः। एतदे वाहअस्थानमित्यादिना। अस्थानमिति-एतन्न न्यायस्थानं यद् द्वे चित्ते द्वे ज्ञाने, युगपदेकदा, उत्पद्येयाताम्, इत्येवं वचनप्रामाण्यात् कारणात परमातवचनावरुद्ध इति / अन्यार्थमेतत् परमाप्तवचनमिति चेत् / एतदाशक्य ह-कोऽस्य परमाप्तवचनस्यार्थ इति वाच्यम्। भिन्नजातीये न द्वे चित्ते युगपदुत्पद्ये यातामिति चेत् / एतदाशक्याह- न, अधिकृतज्ञान्योरपिसविकल्पाविकल्पयोः, तत्त्वात्-भिन्नजातीयत्वात / भिन्नालम्बने न द्वे चित्ते युगपदुत्पद्येयातामिति चेत्। एतदाशङ्बयाह-न / तयोरपि भिन्नालम्बनयोरपि, त्वन्मतेत्वत्पक्षे, भावात् / कथं पुनर्भावा भिन्नालम्बनयोर्मत्पक्षे, इति चेत् / एतदाशड्क्याहरसादिगतचि तस्यापि प्रमातुः, रूपदर्शनाभ्युपगमात् / अभ्युपगमञ्च "अतीता-द्यर्थगतविकल्पेनापि रूपादिग्रहणसिद्धेः' इति वचनात्। न चा विकल्पकेनेति द्वे चित्ते युगपदुत्पद्येयातामिति। कुत इत्याह-पञ्चानां प्ररूपणात्। स हि वंशादिवादयितुः रूपं पश्यतीत्यादिना ग्रन्थेन, नचात एव--पञ्चप्ररूप्णादेव, न द्वे! कुत इत्याह-छलमात्रत्वात् / यत्र पञ्च तत्र द्वे अपि भवत इते कृत्वा / न चेहैव प्रक्रमाच्छलादी, न्याय्यो भरस्तथाविधाऽऽस्थारूपः। कुत इत्याह- अस्थानप्रयासत्वात् / न च नास्थानप्रयास एषः, फिन्त्वस्थानप्रयास एव।कुत इत्याह-द्वयोरुपलक्षणत्वात पञ्चादीनाम् / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा उपलक्षणत्वानभ्युपगमे,यत्र पश्चन तत्र द्वे इत्यतिकौशलमानस्य, इत्युपहासवचनम् / अत एव आह-त्र्यादीनामपि प्रतिषेधापत्तः कारणात्। स्यादेतत्, अलमनेन वाग्जालेन, सविकल्पेनोत्पद्यते इति वचनार्थात् / न, अत्र प्रमाणाभावात्, तद्विवक्षाया अत्यक्षत्वात् बाधकवचनाभावात्, भावेऽपि तदर्थनिश्चयायोगात विनेयानुगुण्यतोऽन्यथापि तद्वचनप्रवृत्तेः / साऽऽभिप्रायिक्येवेति चेत्, कस्तस्याभिप्राय इति के एतद्वेद? यो युक्तिबाधितो न स स इति चेत्। कः पुनरसौ भवतोऽभिप्रेतः? विकल्पद्यायुगपद्भाव इति चेत् / का खल्वन्यथा युक्तिबाधा? इति कथनीयम् / तथानुभव एवेति चेत्। सोऽविकल्पकद्रयेऽपितुल्य एवेत्युक्तम्। न च विकल्पयोरसदंशानुवेधतश्चित्ततैव युक्ता / न च तत्स्वसंविदो वस्तुत्वेनायमनपराधः, तत्तद्व्यतिरिक्तेतरविकल्पदोषापत्तेः अन्यथा तदयोगात् / इति यत्किञ्चिदेतत् / अतः सामान्येनैवोभयचित्त-प्रतिषेधोपपत्तेः, आप्तवचनप्रामाण्यात, तथानुभवभावतः सिद्धमिन्द्रियगारानुसार्येव विज्ञानमाविष्टाभिलापम् 'अहिरहिः' इत्येवमादि। स्यादेतदलमनेन वाग्जालेनान्तरोदितेन, सविकल्पेन उत्पद्यते द्वे चित्ते युगपदिति वचनार्थात, कारणात् अलमनेन / एतदाशङ्कयाह- न अत्र वचनार्थे , प्रमाणाभावात् / अभावश्च तद्विक्षाया अत्यक्षत्वात्अतीत्याक्षमिन्द्रिय वर्तत इत्येत्यक्षातगावस्तरमात्परोक्षत्वादित्यर्थः / अत्यक्षापि वचनान्तरावसेया भविष्यतीत्याह-बाधकवचनाभावात्। अविकल्पयोगपद्याभिधायि बाधकं वचनम्, अत्र न च तदस्तीति गर्भः / उपचयमाह- भावेऽपीत्यादिना। भावऽपि बाधकवचनस्य 'पञ्च बाह्यविज्ञानानि भिक्षवः ! युगपदुत्पद्यन्ते' इत्यादेः। किमित्याह- तदर्थनिश्चयायोगात् / अविकल्पज्ञानानां युगपद्भावस्तदर्थस्तन्निश्चया-योगात्, अयोगश्व विनयानुगुण्यतः-शिष्यानुगुण्येन, अन्यथापि श्रीत शब्दार्थ विहायाऽपि, तद्वचनप्रवृत्तेः-- आप्तवचनप्रवृत्तेः, ब्राह्मणमृतजायाऽभृतवचनवत् / सेत्यादि। सा तद्वचनप्रवृत्तिः, आभिप्रायिक्येव अभिप्रायेण निर्वृत्ता आभिप्रायिकी अभिप्रायस्तथार्थदर्शनमिति चेत् / एतदाशड्क्याह कस्तरय आप्तस्याऽभिप्रायः अर्थयाथात्म्यमधिकृत्य किमविकल्पयोगपद्यमेव,उत विकल्पयोगपद्यमिति? क एतद्वेद-क एतजानाति? न ह्यसौ पृथगजनप्रज्ञाविषय इत्यर्थः / य इत्यादि / योऽभिप्रायो युक्तिबाधितो-युक्तिविरहितः, न स स इति-नासौ तदभिप्रायः, अर्थयाथात्म्यमधिकृत्येति प्रक्रमः, इति चेत्। एतदाशङ्कयाह-कः पुनरसौ अभिप्रायः, भवतोऽभिप्रेत? विकल्पेत्यादि / विकल्पद्वयायुगपद्भावोऽभिप्रायः 'अस्थानमेतत्' इत्यादिसूत्र इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- का खल्वन्यथा विकल्पद्वययुगपद्भावे, युक्तिबाधा? इत्येतत् कथानीयम् / तथा विकल्पद्वययोगपद्येन, अनुभव एव युक्तिबाधेति चेत्। एतदाशङ्क्याह-सोऽविकल्पद्वयेऽपि योगपचुनाऽननुभवः तुल्य एवेत्युक्तं प्राक। किंच-कुतोऽयममीषामत्यन्तभेदे युगपत् सर्वानुभव इत्यवगमः? इत्यादिना सूत्रेण / उपचयमाह-न चेत्यादिना। न च विकल्पयोरसदंशानुवधतः कारणात्, अविद्यमानप्रतिभासित्वाभ्युपगमेन, चित्ततैव युक्ता यदसत्प्रतिभासि तदसदेवेति भावनीयम् / पराभिप्रायमाह-न वेत्यादिना / न च तत् स्वसविदो विकल्पस्य स्वसंविदः, वस्तुत्वेन हेतुना, अयमसदंशानुवेधतश्चित्तताऽयोगलक्षणः, अनपराधोऽदोषो न च। कुत इत्याह- तदप्यतिरिचते-तरविकल्पदोषापत्तेः तस्याः स्वसचि Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस दस्तदव्यतिरिक्तेतरविकल्पदोषापत्तेः- असदशव्यतिरिक्ताव्य - तिरिक्तविकल्पदोषप्रसङ्गात-सा हि स्वसंविदसदंशाद वि कल्पानुवेधकाव्यतिरिक्ता वा स्यादव्यतिरिक्ता वा? व्यतिरिक्तत्वे तस्येति सङ्गायोगः / अव्यतिरिक्तत्वे तस्यापि वस्तुता , स्वसंविदो वाऽवस्तुतेत्यादि / अन्यथैवमनभ्युपगमे, तदयोगात्- तत्स्वसंविदोऽयोगात्, तथाहि-यदि सा ततो न व्यतिरिक्ता, नाप्यव्यतिरिक्ता, न विकल्प एवेति कुतस्तरवसवित? इत्यालोचनीयम्। इत्येवं, यत्किचिदसारमेतद यदुत-- 'तत्स्वसंविदो वस्तुत्वेनायमनपराधः' इति / अपान्तरालपूर्वपक्षमधिकृत्योपसंहारमाह-अत इत्यादिना। अलोऽस्मात् कारणात, सामान्यनैवोभयचित्तप्रतिषेधोपपत्तेः / प्रक्रमादधिकृतसूत्रे 'अस्थानमेतत-' इत्यादी सविकल्पाविकल्पोभयचित्तप्रतिषेधापपत्तेः / किमित्याह-आप्तवचनप्रामाण्यात कारणात्। तथा, अनुभवभावत एकचित्तरूपत्वेनानुभवभावतः, सिद्धे-प्रतिष्ठितम्। किमित्याह-इन्द्रियद्वारानुसार्ये व विज्ञानम, ईहादिक्र मेंणाऽऽविष्टाभिलापम 'अहि-रहिः' इत्येवमादि। आदिशब्दात्तदन्यैवंविधपरिग्रह, तदपि सिद्धमित्यर्थः / न चेदं नेन्द्रियनिमित्तं, तद्भावभावित्वानुविधानात्, अन्धादेरनुत्पत्तेः / इन्द्रियादविकल्पजन्म तत इदमिति तदनुत्पत्तिरिति चेत्। ना आद्यविद्युत्संपातादौ तद्भावेऽपि तदभावात् / स मानसाभावतोऽभावो नाक्षव्यापाराभावत इत्यतोऽदोष इति चेत्। नात्र किश्चिदुभयसिद्धं प्रमाणात् / इति यत् किश्चिदेतत् / तथाविधविकल्पानुत्पत्तिरेव प्रमाणमिति चेत् / न / अस्या एव विवादगोचरापन्नत्वात् / अत एवैतन्निर्णीतेरयमदोष इति चेत् / नाचक्षुयापाराभावेऽप्यस्याः समानत्वादिति। इहैवोपचयमभिधातुमाह-नचेत्यादि। न चेद नेन्द्रियनिमित्तं किं तर्हि, इन्द्रियनिमित्तमेव / कु त इत्याह- तद्भावभायित्त्वानु विधानाल इन्द्रियभावभावित्वानुकरणात् / तदेवाह- अन्धादे रनुत्पत्तेः / आदिशब्दाद्- अव्यापृतेन्द्रियग्रहः / इन्द्रियादित्यादि / इन्द्रियात सकाशात्, अविकल्पजन्मा-अविकल्पोत्पादः, ततोऽविकल्पात, इद विज्ञानमाविष्टाभिलापम्, इत्येवं तदनुत्पत्तिरन्धादेर्विवक्षितविज्ञानानुत्पत्तिरिति चेत्। एतदाशङ्कयाह-आधविद्युत्संपातादी। आदिशब्दात्तदन्याभुतदर्शनग्रहः / तद्भावेऽपि-इन्द्रियादविकल्पजन्मभावेऽपि तदभावात--आविष्टाभिलापविज्ञानाभावात्। स मानसाभावतः स्वविष - यानन्तरविषयसहकारीन्द्रियज्ञानजनितमान साभावेन, अभावः. आविष्टाभिलापविज्ञानाभावः / नाक्षव्यापारामावतानेन्द्रियव्यापाराभावेन, इत्यतोऽरमात् कारणात्,अदाषः आद्यविद्युत्संपातादी तद्भावेऽपि तदभावात्' इत्ययमनपराध इति चेत् / एतदाशङ्कयाह - नात्र 'समानसाभावतः' इत्यादौ, किशिदुभयसिद्ध वादिप्रतिवादिप्रतिष्ठितम, प्रमाणमक्षव्यापारापोहेन मानसनिबन्धनत्वव्यवस्थापकम, इत्येवं, यत्किशिदेतदसारमित्यर्थः / तथाविवेत्यादि। तथाविधविकल्पानुपानि रेवाविष्टाभिलापविज्ञानानुत्पत्तिरेवे-त्यर्थः / प्रमाणमक्षव्यापाराभा-वेन मानसनिबन्धनत्वव्यवस्थापकमिति चेत्। एतदाशङ्कयाह... न अस्या एव तथाविधविकल्पानुत्पत्तेरेव, विवादगोचरापन्नत्वात् विप्रतिपत्तिविषयत्वादिति योऽर्थः / अत एवेत्यादि। अत एव तथा-विधविकल्पानुत्पत्तेरेय सकाशात्, एतन्निीतेः 'स मानसाभावतोऽभावो नाक्षव्यापाराभादतः' इत्येतन्निश्चयात् कारणात्, अयमनन्तरोदितः'न, अस्या एव विवादगोचरापन्नत्वात्' इत्यदोषोऽनपराध इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- न, चक्षुर्व्यापाराभावेऽप्यस्याः, अत एव तन्निर्णीतेः, समानत्वात्--तुल्यत्वादिति / तथाहि-अत एव तथाविधविकल्पानुपपत्तेरेव सकाशात्, एतन्निर्णीतः सोऽक्षव्यापाराभावतोऽभावो नमानसाभावत इत्येतन्निश्चयात् कारणात्, इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् तुल्यत्वमिति भावनीयम्। किञ्च-इदमपि मानसं तद्विषयमात्रग्राहकत्वेन न तदिन्नशक्तिकमिति / किञ्चानेन, निरंशैकस्वभावत्वाच्च वस्तुनोऽनुभवोऽपि न पटीयानपटीयांश्च युज्यते अत्यन्ताऽसत उत्पादेन सर्वथा हेत्वनन्वयतोऽभ्यासवासने च; अन्यथाऽसंपूर्णवस्तुग्रहणमपि स्यात्, तथा च न निरंशैकस्वभावमेवैतत् / न चान्यथाऽपटीयस्त्वादि, अनुभवस्य तन्मात्रग्रहणत्वात, तदतिरिक्तरूपान्तराभावात, अन्येनोपकाराद्ययोगादिति / एवमभ्यासवासनोपगमाद् नात्यन्तासत एवोत्पादः, सत्यस्मिस्तयोर्याङ्मात्रत्वात्, तदात्वातिरेकेणाऽऽकालं तदभावात्, पूर्वस्मादत्यन्तभिन्नत्वात् तथापि तदभ्यासादावतिप्रसङ्गात्। इतीन्द्रियजमेवैतत्, अभ्युच्चयमाह- किश्वेत्यादिना / किशा-इदमपि मानसं स्वविषयानन्तरेत्यादिलक्षणवत्, तद्विषयमात्रग्राहकत्वेन प्रक्रमादक्षज्ञानविषयमात्रग्राहकत्वेन हेतुना, स्वलक्षणमात्रग्राहकत्वे-नेत्यर्थः, न तद्भिन्नशक्तिकं नाक्षज्ञानभिन्नशक्तिकमिति। किशा-नेन परिकल्पितेन, तथाविधविकल्पोत्पत्तौ समानमेतदक्षज्ञानेनेति भावः / पक्षन्तरपरिजिहीर्षयाह-निरंशैकस्वभावत्वाच्च कारणात, वस्तुनः अनुभवोऽपिप्रक्रमात्तदनुभवः, न पटीयानपटीयांश्च युज्यते, निरंशैक्स्वभावाद् वस्तुनस्तथाविधैकस्वभावस्यैवास्य भावात; तदेतद्भेदोऽपि न तथाविधविकल्पोत्पत्त्यनुत्पत्तिनिमित्तमिति प्रकृतयोजना / तथा, अत्यन्तासत उत्पादन हेतुना, अनुभवस्य सर्वथा हेत्वनन्वयतः कारणान, तत्तथाभावाभावेनाऽभ्यासवासने च 'अनुभवस्य न युज्यते' इति वर्नत, पौनः पुन्यकरणमभ्यासः, पूर्वानुभूतसंस्कारानुवेधश्च वास्ना, नैते अत्यन्तासत उत्पादे भवत इति भावनीयम् / इत्थं चैतदङ्ग कर्तव्यमित्याह- अन्यथा एवमनभ्युपगमे, असंपूर्णवस्तुग्रहणमपि स्यात् अनुभवापटीयस्त्वादिभावेन / यदि नामैव ततः किमित्याह-तथा च न निरंशैकस्वभावमेवैतद वस्तु, किन्तु--साशानेकन्वभावनिति / न चान्योक्तं प्रकारं विहाय, अपटीयस्त्वादि, आदिशब्दालाटीयत्वगहः. Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस अनुभवस्याधिकृतस्य / कुत इत्याह- तन्मात्रग्रहणत्वाद् वस्तुमाग्रहणस्वरूपत्वात्, अनुभवस्य, तदतिरिक्तरूपान्तराभावात् तन्मात्रग्रहणतत्त्वातिरिक्तरूपान्तराभावात् / अभावश्चान्येन वस्तुव्यतिरिवतेनापकाराद्ययोगात् ततश्च वस्तुग्रहणभेदकृतमेवापटीयस्त्वाद्यस्येति सांशाने क स्वभावमेतदिति स्थितम् / एवमभ्यासवासनोपगमात् कारणात् / कि मित्याह- नात्यन्तासत एवोत्पादः / कुत इत्याहसत्यस्मिन् अत्यन्तासत उत्पादे, तयोरभ्यासवासनयोः, वाड्मात्रत्वात्। वाड्मात्रत्वमेवाह- तदात्वातिरेकेण तदाभावातिरेकेण, आकाल - यावदपिकालस्तावदपि, तदभावादत्यन्तासत उत्पद्यमानस्याभावात, अभावश्च पूर्वमादत्यन्तभिन्नत्वात् अत्यन्तासत उत्पद्यमानस्य, तथाप्येवमपि, तदभ्यासादौ तस्यानुभवस्याभ्यासवासनाभावे; अतिप्रसङ्गादनुभवान्तरस्याप्यभ्यासादिशून्यस्य तद्भावप्रसङ्गात्। इतीन्द्रियजमेवैतद् विज्ञानमाविष्टाभिलापम् 'अहिरहिः' इत्येवमादीत्यधिकारोपसंहारः एतच्चानेकधर्मके वस्तुनि ज्ञानावरणाच्छादितस्य प्रमातुस्तथाविधक्षयोपशमभावत उभयोस्तथास्वभावत्वेनावग्र हेहावायधारणरूपं प्रवर्तत इति। अनेकधर्मकत्वं च वस्तुनोऽनेकविज्ञानजनकत्वात्, योग्ययोगिभिर्भेदेनोपलब्धेः, अन्यथा तदभेदप्रसङ्गात्, द्वयोरपि तत्तन्निमित्तत्वात, तद्भावभावित्वानुविधानात् / मरावल्पभावे महद्दर्शनमनिमित्तमिति चेत् / न / अल्पस्यैव तन्निमित्तत्वात्, तदभावेऽभावात्, विप्रकर्षाद्युपप्लवात् , तत्तत्स्वभावत्वात्, अन्यथा तदनुपपत्तेः, ततस्ततोऽन्यत्वाच, स्वभावभेदेन व्यावृत्तेः, अन्यथा तदेकत्वप्रसङ्गात्, तदन्यत्वहेतुत्वेनाविशेषात्, अन्यत्वस्य चाकल्पितत्वात्, कल्पितत्वे तत्वतस्तदभावापत्तेः। एतचेत्यादि। एतच्चाधिकृतज्ञानम्, अनेकधर्मके वस्तुनि घटरूपादौ, ज्ञानावरणाच्छादितस्य प्रमातुर्जीवस्य, तथाविधक्षयोपशमभावतो द्रव्यादिनिमित्तचित्रक्षयोपशमभावात्, उभयोः प्रमातृविषययोः, तथास्वभावत्वेन चित्रग्राह्याग्राहकस्वभावत्वेन हेतुना, अवग्रहेहावायधारणारूपं प्रवर्तत इति ग्रहणकवाक्यसमुदायार्थः। अवयवार्थ तु स्वयमेवाह-ग्रन्थकार:-अनेकधर्मकत्वं च वस्तुन इत्यादिनाग्रन्थेन। अनेकधर्मकत्वं च वस्तुनो घटरूपादेः / कुत इत्याह-अनेकविज्ञानजनकत्वात्-अनेकेषां विज्ञानजनकमनेकविज्ञानजनक तद्भावस्त- | स्मात् / एकेनैव स्वभावेनैवं भविष्यतीत्याह-योग्ययोगिभिः प्रमातृभिः, भेदेनोपलब्धेः संपूर्णाऽसंपूर्णधर्म साक्षात्करणेन दर्शनादित्यर्थः / / अन्यथैवमनभ्युपगमे, तदभेदप्रसङ्गाद्- योग्ययोगिनोरभेदप्रसङ्गात्।। प्रसङ्गश्व द्वयोरपि योग्ययोगिनोः, तत्तन्निमित्तत्वात्-तस्या उपलब्धेस्तनिमित्तत्वात अधिकृतवस्तुनिमित्तत्वात्। तन्निमित्तत्वं च तद्भावभावि- | त्वानुविधानात- अधिकृतवस्तुभावभावित्वानुकरणात् / अतन्त्रमेत- | दर्वागदशामिन्येतदेवाह-मरावित्यादिना। मरौ विषये, अल्पभावेऽल्पस्य छगणादेः सत्तायां, महद्दर्शनं महतो वत्सादेरिव दर्शनम्, अनिमित्तम्, अल्पस्याप्रतिभासनेन निमित्तत्वायोगादिति चेत्। एत-दाशङ्कयाह-न, अल्पस्यैव छगणादेः, तन्निमित्तत्वामहद्दर्शननिमित्तत्वात्। तन्निमित्तत्वं च तदभावेऽभावात्, अल्पाऽभावेऽभावाद्, महद्दर्शनस्य / कथमिदमतत्प्रतिभासीत्याह- विप्रकर्षाद्युपप्लवात् विप्रकर्षादेशविप्रकर्षः, आदिशब्दात्-तथाविधज्ञानावरणक्ष-योपशमपरिग्रहः, ताभ्यामुपप्लवाद् भ्रान्तेः / उपप्लवश्व तत्तत्स्व-भावत्वात् तस्य विप्रकर्षादः तत्स्वभावत्वादुपप्लवजननस्वभावत्वात्। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याहअन्यथा तदनुपपत्तेः, अन्यथैवमनभ्युपगमे, तदनुपपत्तेरुपप्लवानुपपत्तेः, न ह्यसावन्यनिमित्तोऽऽनिमित्तो येति भावनीयम् / मूलसाध्य एव हेत्वन्तरमाह-ततस्ततोऽन्यत्वाच्च / ततस्ततः सजातीयेतरादेर्विचित्राद वस्तुनः, अन्यत्वाच्चभिन्नत्वाच कारणात्. अनेकधर्मक वरित्वति / यदि नामैव ततः किमित्याह- स्वभावभेदेन व्यावृत्तेः ततस्ततः / किमित्येतदेवमित्याह-अन्यथा एवमनभ्युपगमे, स्वभावभेदमन्तरेण ततस्ततो व्यावृत्त्यभ्युपगम इत्यर्थः, तदेकत्वप्रसङ्गाद्व्यावर्त्यमानैकत्वप्रसङ्गात्। प्रसङ्गश्च तदन्यत्य-हेतुत्वेनाविशेषात् तस्य वस्तुनो व्यावृत्तिमतः अन्यत्वहेतुत्वेन अविशेषाद् व्यावय॑मानानाम्, तद्धि तेभ्योऽन्यत्, तदन्यत्वस्य च त एव हेतवः, यदेव चैकमपेक्ष्य तदन्यत्वं तदेवापरमपि न चैतत् तदभेदमन्तरेणेति हृदयम्। किमनेन कल्पितेनेत्याशङ्कानिरासायाह-अन्यत्वस्य चाकल्पितत्वात् तस्य व्यावृत्तिमतो व्यावय॑मानेभ्यः / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याहकल्पितत्वे तदन्यत्वस्य तेभ्यः, तत्त्वतः-परमार्थतः, तदभावापत्तेस्तस्य व्यावृत्तिमतोऽभावापत्तेः, व्यावय॑मानाऽनन्यत्वेन। स्वहेतुत एव तत्तदन्येभ्योऽन्यत्वकस्वभावं भवतीति चेत् / न / पटान्यत्वैकस्वभावान्यत्वे पटवत् कटादीनां तदावापत्तेः, तथास्वभावादन्यस्वभावत्वात्, अचित्रस्यानेकान्यत्वैकत्वायोगे तचित्रतयै कान्तैकत्वाभावात्, पारम्पर्येणानेकजन्यजनकत्वाच्च, अन्यथा सद्भावासिद्धेः, परम्पराहेतुतोऽपि भावात् तथाविधतावभावित्वोपपत्तेः पुष्कलस्य चानन्तरेणाप्ययोगात् तदा तद्भावाभावादिति / अनन्तरजन्यत्वमेव परम्पराजन्यत्वमिति चेत् / न / परम्पराजनकानामनन्तरजनकत्वायोगात्, तत्स्वभावादिभेदात् तद्भेदेन च तत्तजनकत्वे न तदेव तत्। पराभिप्रायमाह- स्वहेतुत एव तद् वस्तु प्रस्तुतम्, तदन्येभ्यो व्यावर्त्यमानेभ्यः, अन्यत्वकस्वभावम् / अन्यत्वमेवैकः स्वभावो यस्य तत्तथा भवतीति चेत्। एतदाशङ्कयाह- नेत्यादि। नैतदेवम्। कुत इत्याह-पटान्यत्वकस्वभावान्यत्वे पटान्यत्वमेवैकः स्वभाको यस्य वस्तुनोऽधिकृतस्य तत्पटान्यत्वैकस्वभावं तस्मादन्यत्वं पटान्यत्वकस्वभावान्यत्वं तरिमन् पटान्यत्वैकस्वभावान्यत्वे सति पटवदिति निदर्शनम्, कट Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 658 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस शकटादीनां भावानां तद्भावापत्तेः- पटभावापत्तेः आपत्तिश्व तथास्वभावात् पटान्यत्यैकस्वभावादधिकृतवस्तुनः अन्यस्वभावत्वात् कटादीनां पटभावापत्तिः, पटकटादिसमुदायान्यत्वैकत्वभावं कथं पटान्यत्वकस्वभावमुच्यत इत्युच्यते-- अचित्रस्यानेकान्यत्वैक-- त्वायोगात्। तथा चाह-अचित्रस्वेत्यादि। अचित्रस्य विवक्षितवस्तुनः, एकस्वभावस्य अनेकान्यत्वैकत्वायोगे, अनेकेभ्यः पटादिन्यः अन्यत्वमनेकान्यत्वंतस्यैकत्वमनेकान्यत्वैकत्वम, तस्यायोगे, उक्तवत्तदेकत्वप्रसङ्गेन तस्मिन् सति तचित्रतया विवक्षितवस्त्वेकस्वभावस्य चित्रतया। किमित्याह-एकान्तैकत्वाभावात्। विवक्षितवस्तुनः, एकस्वभावस्येति प्रक्रमः। हेत्वन्तरमाह-पारम्पर्येणानेकजन्यजनकत्वाच्च अनेकधर्मकत्वं वस्तुन इति। पारम्पर्येणैकादिव्यवधानापेक्षया, जन्यश्च जनकश्च जन्यजनकः अनेकेषां जन्यजनकः, अनेकजन्यजनकस्तद्भावस्तस्मात्। इत्थं चैतदगीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा एवमनभ्युपगमे, तद्भावासिटेरधिकृतवस्तुभावासिद्धेः / असिद्धिश्च परम्पराहेतुतोऽपि सकाशात्, भावादधिकृतवस्तुनः, न हि पितामहाद्यभावेऽपि पौत्रादिभाव इति भावनीयम् / इहैव युक्तिमाह- लथाविधतद्भावभावित्वापत्तेः / तथाविधर्मकादिव्यवधानवच्च तत् तद्भावभावित्वं च परम्पराकारणभावभाधित्वं चैतदेवोपपत्तिस्ततः। एलदप्यङ्गीकर्तव्यमित्याह-पुष्कलस्य च तद्भावभावितस्य, अनन्तरेणापि कारणेन, सहायोगात् / अयोगश्च तदा कारणादिकाले, तद्भावाभावात्-कार्यादिभावाभावात् अन्यथा जन्यजनकत्वाभावः सव्येतरगाविषाणवदिति। अनन्तरजन्यत्वमेव कार्यस्य परम्पराजन्यत्वमिति चेत्। एतदाशङ्ख्याह-न परम्पराजनकाना हेतूनाम्, अनन्तरजनकत्वायोगात् / अयोगश्च स्वभावादिभेदात्, स्वभावभेदः प्रतीतः, आदिशब्दात्- कालभेदपरिग्रहः / तद्भेदेन च-स्वभावादिभेदेन च, तत्तजनकत्वे तेषामनन्तरपरम्पराहेतूना, तज्जनकत्वेप्रक्रमाद् विवक्षितकार्यजनकत्ये। किमित्याह-न तदेव तत् नानन्तरजन्यत्वमेव परम्पराजन्यत्वमिति निगमनम्। एवं जनकत्वेऽपि योजनीयमिति तच्चित्रस्वभावता, सुखदुः खादिहेतुत्वाच्च, स्वभावभेदेन सुखादिजनकत्वात्, तेषां चाहादादिरूपत्वेन ज्ञानादन्यत्वात्, तत्स्वरूपेण बाह्यावेदनात्, ज्ञानभावेऽपि क्वचित्तदभावात्, तथानुभवसिद्धत्वात्। अज्ञानत्वे कथममीषामनुभवः? इति चेत् / सत्त्वादिवत्कथञ्चिज्झानाभेदाद, तदुदग्रत्वेन तथा तज्ज्ञानरञ्जनात्, उभयोस्तत्स्वभावत्वात, युगपत्प्रवृत्त्यवि,रोधात, सुखादिज्ञाने तथानुभवसिद्धत्वात्, तत्तद्वचनसिद्धेश्च 'आविर्भावतिरोभावधर्मकं वस्तु न कृतार्थे प्रकृतिप्रवृत्तिः, तद्विरागात् तवृत्तिसंक्षयाच' इति वचनप्रामाण्यात् / तथा 'अनित्यता सर्वसंस्कृताना, दुःखता सर्वसाश्रवाणां, शून्यानात्मकते सर्वधर्माणाम्, अविकारिणी तथावा' इति वचनप्रमाण्याच्चेत्यनेकधर्मकं वस्तु / एवमित्यादि / एवम्-उक्तनीत्या, जनकत्वेऽपि योजनीयम् / पारम्पर्येणानेकजनकत्वादधिकृतवस्तुनः, अन्यथा तद्भावासिद्धेःततोऽनकभावासिद्धेः परम्पराहेतुतोऽपि भावादनेकेष ग। एव शषमपि स्वधिया योजनीयम् / इत्येवं,तचित्रस्वभावतातस्थ वस्तुनश्चित्रस्वभावता / अनेकधर्मकत्वमित्यर्थः / हेत्वन्तरमाह-सुखदुः खादिहेतुत्वाच अनेकधर्मकं वस्तु / कथमेतदेवमित्याह.. स्वभावभेदन सुखादिजनकत्वाद्वस्तुनः / आदिशब्दाद्-दुःख-महज्ञानादिग्रहः / ने ते तत्कृतज्ञानतोऽन्य, इत्याशङ्कापोहायाह- तेषां च सुखादीनामह्लादादिरूपत्वेन हेतुना, आहादरूपं सुखम्, परितापरूपं दुःखम्, असंवित्स्वभावो मोह इति कृत्या। किमित्याह-ज्ञानादन्यत्वात् / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह- तत्स्वरूपेण आह्लादादिलक्षणेन ज्ञानेनव, बाह्यावेदनात / इतश्चैतदेवम्- ज्ञानभावेऽपि क्वचिद्विरक्ताऽऽदौ, तदभावादाबादाद्यभावात: अभावश्च तथाऽनुभवसिद्धत्वात: आह्वादाधभावेनापि भाववेदनादित्यर्थः / अज्ञानत्वे सति, कथममीषा सुखादीनाम्, अनुभव इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- सत्त्वादिवत् / इति निदर्शनम् / आदिशब्दाद्-ज्ञेयत्वादिग्रहः कथञ्चित् ज्ञानाभेदात्; तथाहि-नसत्त्वमेव ज्ञानम्, सत्त्वमात्रत्वे ज्ञानस्य सर्वत्र ज्ञानप्रसङ्गः / अथ च ज्ञाने न तदात्मीयमनुभूयत इति / युक्त्यन्तरमाह- तदुग्रत्वेन सुखघुदग्रत्वेन, तथे कलोलीभावेन, तज्ज्ञानरञ्जनात्- सुखादिज्ञानरञ्जनात् / एतच्चैवमित्थमित्याह.- उभयोः सुखादिज्ञानयोः, तत्स्वभावत्वात् रज्यरञ्जकस्वभावत्वात्। अत एव युगपत्प्रवृत्त्यविरोधात, सुखादीनां ज्ञानस्य चेति प्रक्रमः / अविरोधश्च सुखादिज्ञाने, तथा कथचिदिन्नसुखादिवेदकत्वेन, अनुभवसिद्धत्वात् कारणात् अमीषामनुभव इति योगः। हेत्वन्तरमाह-तत्तद्वचनसिद्धेश्च हेतोः / अनेकधर्मक वस्तु / तस्मिस्तस्मिन् सांख्यादिवचने यथासिद्धं तत् तथाभिधातुमाहआविवित्यादि / आविर्भावः-प्रकटभावः, तिरोभावस्त्वप्रकटभावः, एतद्धर्मकं वस्तु प्रधानाख्यम्, इत्यनेकधर्मकता / तथा न कृतार्थे पुसि प्रकृतिप्रवृत्तिमहदादिभावेन,तद्विरागात्- पुरुषविरागात्, तवृत्तिसंक्षयाचप्रकृतिवृत्तिसंक्षयाच ततश्चाविरक्ते प्रवृत्तिः, विरक्ते वृत्तिसंक्षयश्च, पुरुषोऽपि विरक्तश्चाविरक्तश्चेत्यनेकधर्मकता, इति वचनप्रामाण्यात् / तथा, अनित्यता नश्वरता,सर्वसंस्कृतानां सर्वकृतकानां, दुःखता बाधायुक्तता, दुःख-परिणाम-दुःखसंस्कार-दुःखापेक्षया यथासंभवं सर्वसाश्रवाणां सर्वरागादिक्लेशवताम, शून्यानात्मकते तत्त्वतस्तुच्छरूपे,सर्वधर्माणां व्यावृत्तिद्वारपरिकल्पितानामनित्यदुःखादिधर्मतोऽनेकधर्मकता, तथा, अविकारिणी उपादाननिमित्तकृतविकारशून्या, तथाताबुद्धता तथाभावरूपा प्राग्विकारभावेनानेकधर्मता, इति वचनप्रामाण्याच इत्येवम्, अनेकधर्मकं वस्तु / एते च सर्व एव वस्तुनोऽनेकविज्ञानाद्युपाधिभेदभिन्नाः स्वभावहेतुभेदा इति गमकाः, तथाहि-अनेकविज्ञानजनकत्वंतत्स्वभावः, सच कथञ्चित् तद्भिन्नयाइनेकधर्मकतया व्याप्तः, अन्यथा ततस्ततोऽन्यत्वाद्यभावः / एवं षेष्वपि हेतुषु भावनीयमिति। इह च ज्ञानावरणाद्याच्छादितश्छद्मस्थः प्रमाता, बोध Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस विशेषदर्शनात्, तस्याहेतुकत्वेऽप्ययोगात, सदाभावादिप्रसङ्गात्, बोधमात्रस्याहेतुत्वात्, भेदकाभावे विशिष्टत्वाभावात्, न्यायतोऽतिप्रसङ्गात् / तद्भावे च तस्यैवावरणात्वात्; इति | तथाविधनयनपटलादिकल्पं तज्ज्ञानविशेषकारि विरुद्धचेष्टादि-निमित्तं ततोऽन्यत्तदिति तत्त्ववादक्षयोपशमभावश्चास्य कालपरिणत्या विशिष्टानुष्ठानतश्च तत्तत्स्वभावतया नयनपटलादिहासरूपः प्रतिप्राण्येव यथोचितं तथाविधचित्रावबोधलिगावसे यः। तस्मि श्च सति तत्सामर्थ्यत एव विषयस्स तज्ज्ञेयत्वपरिणतिभावात, विषयिणोऽपि तज्ज्ञातृत्वपरिणत्युपपत्तेः,उभयोस्तथास्वभावत्वात्, अन्यथा तदनुपपत्तेः, अतिप्रसङ्गात्, नयनपटलादिह्रास इव स्थूरावबोधादि, तदानुरूप्यत आविद्वदङ्गनासिद्ध तथाविध-वस्तुग्राह्येवाऽवग्रहेहावायधारणारूपं मतिज्ञानसंज्ञितमिन्द्रियज्ञानमुपजायते, "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्" इति वचनात्। इह चेत्यादि। इह चानेकधर्मके वस्तुनि, जगति वा। कि, मित्याहज्ञानावरणाद्याच्छादितः तत्पुद्गलप्रतिबद्धसामर्थ्यः, छद्मस्थः प्रमाता प्राणी। कुत एतदेवमित्याह-बोधविशेषदर्शनात्-बोधभेदोपलब्धेः, इह वस्तुनि तस्य बोधविशेषस्य, अहेतुकत्वे सति, अयोगात्, अयोगश्च सदाभावादिप्रसङ्गात् / आदिशब्दाद्- अभाव--ग्रहः / बोधमात्रस्याऽहेतुत्वाद् बोधविशेष प्रति, भेदकाभावे-तदन्यवस्त्वभावे, विशिष्टत्वा- | भावाद्बोधमात्रस्य, न्यायतोऽतिप्रङ्गात् सर्वबोधविशिष्टत्वापत्त्या। तद्भावे च भेदकभावे च तस्यैव भेदकरय, आवरणत्वात् इत्येवं, तथाविधनयनपटलाऽऽदिकल्पं तथाविधं स्वच्छं नैकान्ततो बोधविघातकारि, नयनपटलं प्रतीतम्, आदिशब्दात्-श्रोत्रादिमलग्रहः, एतत्कल्पम्एतत्तुल्यं,तज्ज्ञानविशेषकारितस्य छद्मस्थप्रमातु बर्बोधविशेषकरणशीलं | क्षयोपशमतो भावाभावाभ्याम्, इति ज्ञानावरणव्यापार उक्तो वेदितव्यः / विरुद्धचेष्टादिनिमित्तमित्यनेनतु आदिशब्दात्-क्षिप्तचारिखमोहनीयादिव्यापार इति, ततश्छद्म-स्थप्रमातुः, तबोधादेर्वा, अन्यदर्थान्तरभूतं, तत् ज्ञानावरणादिकर्म, इति तत्त्ववादः / क्षयोपशमभावश्चास्य कर्मणः, कालपरिणत्या मन्दानुभावस्य, विशिष्टानुष्ठानतश्च तीव्रविपाकस्य / अथवा-कालपरिणत्या विशिष्टानुष्ठानतश्चेति समुच्चयपक्षः / तत्स्वभावतया तस्य कर्मणः, तत्स्वभावतयाकालपरिणत्यादिक्षयोप- / शमस्वभावतयेत्यर्थः, नयनपटलाटिहासरूपः क्षयोपशमभावः, तदेकान्तानिवृत्तेः, इत्थं निदर्शनमिति भावनीयम, प्रतिप्राण्येव प्राणिन प्राणिनं प्रति प्रतिप्राण्येव, यथोचितमिति क्रियाविशेषणम्, यस्य य उचितस्तथाविधचित्रावबोधलिङ्गावसेयः, तथाविध उच्चावचादिभेदेन चित्रावबोधस्तत्तद्विषयभेदत एतल्लिङ्गावसेयः क्षयोपशमभावः / तस्मिश्च सति क्षयोपशमभावे, तत्सामर्थ्यत एव-क्षयोपशमभावसामर्थ्यत एव, अवग्रहादिरूपमिन्द्रियज्ञानमुपजायत इतियोगः। कथमित्याह-विषयस्य घटरूपादेः, तज्ज्ञेयत्वपरिणतिभावाद्- विवक्षितेन्द्रियज्ञानज्ञेयत्वपरिणतिभावात, विषयिणोऽप्यधिकृतेन्द्रियज्ञानस्य, तज्ज्ञातृत्वपरिणत्युपपत्तेः-प्रस्तुतविषयज्ञातृत्वपरिणत्युपपत्तेः। उपपत्तिश्व उभयोर्विषयज्ञानयोः, तथास्वभावत्वात्तज्ज्ञेयत्वतज्ज्ञातृत्वभवनस्वभावत्वात्, अन्यथा तत्तत्स्वभावत्वमन्तरेण, तदनु-पपत्तेः-विषयविषयिणोस्तज्ज्ञेयत्वतज्ज्ञातृत्वपरिणत्यनुपपत्तेः 1 अनुपपत्तिश्चातिप्रसङ्गात् तत्तत्स्वभावतामन्तरेण तज्ज्ञ-यत्वतज्ज्ञातृत्वभावे तद्गत्तदन्तरापत्याऽतिप्रसङ्ग इति भावनीयम्। नयनपटलादिहास इवेति निदर्शनम्। स्थूरावबोधादि, आदिशब्दात् तथाविधचेष्टाग्रहः / तदानुरूप्यतः-प्रक्रमात् क्षयोपशमभावानुरूप्येण, आविद्वदङ्गनादिसिद्धमविप्रतिपत्त्या, तथाविधवस्तुग्राह्यवतज्ज्ञेयत्वपरिणतवरतुग्राह्येव, न त्वविषयं सदाभावादिप्रसङ्गेन, अवग्रहेहावायधारणारूप परिस्थूरजातिभेदेन, मतिज्ञानसंज्ञितं स्वतन्त्रे, इन्द्रियज्ञानमुपजायते, सविकल्पमेव इन्द्रियज्ञानता चाऽस्य ''तदिन्द्रियानिन्द्रियानिमित्तम्' इति वचनात् / तन्मतिज्ञानम्, इन्द्रियानिन्द्रिय-निमित्तम् / अनिन्द्रियं मनः / एतन्निमित्तम् / इति सविकल्पकमेतत्। अवग्रहस्वरूपाभिधित्सयाऽऽहतत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियर्दिषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः / अवगृहीते विषयार्थकदेशात् शेषानुगमनेन निश्चयविशेषजिज्ञासाचेष्टा ईहा। अवगृहीते विषये सम्यगसम्यगिति गुणदोषविचारणाव्यवसायापनोदोऽवायः / धारणाप्रतिपत्तिः, यथास्वं मत्यवस्थानम्, अवधारणं च न चैकत्वाद् बोधस्येह चातुर्विध्याभावः, सर्वथैकत्वासिद्धेः क्रमेण भावात्, संपूर्णभवनेऽनियमात् दृश्यत एवेहाद्यभावेऽपि क्वचिदवग्रहमात्रम्, तथा निरवायेहा, अनिर्धारणश्चावायः, तथा तदनुभवसिद्धेः / अत एवैकत्वमपि कथशिदेकाधिकरणत्वात् तत्रैव प्रवृत्तेः तवेद्यधर्माणामितरेतरानुवेधात् तथा च यदिदं तदा दृष्टमपि नोपलक्षितम्, ईषल्लक्षितमपि न सम्यग्ज्ञातम् तदि-दानीमवधारितम्, इइत्यस्ति व्यवहारः / न चायं भ्रान्तः, अविगानेन प्रवृत्तेः / अत इदमेकाऽनेकमन्वयव्यतिरेकवद् दीर्घमपि कालसौक्ष्म्यात् तथावभासत इति। तत्राव्यक्तमित्यादि तत्रेति पूर्ववत्, अव्यक्तमस्फुटम्, आलोचनावधारणमितियोगः। तदेव विशिष्यतेयथा-स्वमिति यथात्मीयम इन्द्रियैः स्पर्शनादिभिः विषयाणांस्पर्शादीनां यथात्मीयं यो यस्य विषय इत्यर्थः, आलोचनावधारणमिति आइमर्यादायां, लोचनंदर्शनम्। एतदुक्तं भवतिमर्यादया सामान्यस्यानिर्देश्यस्य स्वरूपनामादिकल्पनारहितस्य, दर्शनम-आलोचनं तदेवा-वधारणमालोचनावधारणम्, एतदवग्रहोऽभिधीयते, अवग्रहणमवग्रह इत्यन्वर्थयोगादिति / एवमवग्रहं कथयित्वा ईहास्वरूपंकथयन्नाह-अवगृहीत इत्यादि।अवगृहीत इत्यनेनक्रमं दर्शयति। Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 660 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस अवगृहीते सामान्ये, ईहा प्रवर्तते। तामाह-विषयार्थकत्यादि। विषयः. स्पादिः, स एवाऽर्थ(य)माणत्वादों विषयार्थः, तस्यैकदेशः सामान्यमनिर्देश्यादिरूपम्, तस्माद् विषयार्थकदेशात् परिच्छिन्नादनन्तरं स्पर्शमात्रग्रहे तस्य सर्पमृणालस्पर्शसाधाच्छेषानुगमनेन सद्भूता-सद्भूतोष्णत्वादिविशेषत्यागोपादानाभिमुख्यरूपेण न संशय इव सर्वात्मपरिकुण्ठचित्तभावतोऽननुगमनेन। किमित्याह-निश्चयविशेषजिज्ञासाचेष्टति / निश्चीयतेऽसाविति निश्चयः मृणालस्पर्शादिः, स एव विशेष्यतेऽन्यस्मादिति विशेषः तस्य ज्ञातुमिच्छा जिज्ञासा तया चेष्टाबोधः स्वतत्त्वात्मव्यापाररूपा, ईहोच्यते / एवमीहामभिधायाऽवायमभिधातुमाह-अवगृहीत इत्यादि। अनेनापि क्रममाचष्टे / अवगृहीते विषये स्पर्शसामान्यादौ,ततः सम्यगसम्यगिति, मृणालस्पर्श इत्येवमादानाभिमुख्यं सम्यक् तत्र तद्भावानुगुण्यात; न अहिस्पर्श इत्येवं परित्यागाभिमुख्यम-सम्यक्, तत्र तद्भाववैगुण्यात् / इति एवमीहाया प्रवृत्ताया सत्याम, ततः किमित्याह-गुणदोषविचारणाव्यवसायापनोदः-अवाय इति / इह मृणाले, साधारणो धर्मो गुणः, तत्रासंभवी तु दोषः, तयोर्विचारणामार्गणा तया व्यवसायो-विमलतरबोधः स एवापनोदः- मृणालस्पर्श एवेति निश्चयादपनुदति तत्रेहामिति कृत्वाऽवाय इत्ययमेवंविधोऽपनोदोऽवाय इति, अवैतीत्यवायः-निश्चयेन परिच्छिनत्तीत्यर्थः / एवमयायमभिधायाधुना धारणामभिधित्सयाऽऽह-धारणेत्यादि / धारणेति लक्ष्य, प्रतिपत्तिरुपयोगाप्रच्युतिः / यथा--स्वमिति / यथाविषयं यो यः स्पर्शादिविषयः मृणालस्पर्शानुभवस्याऽनाश इत्यर्थः, तथा मत्यवस्थानमित्युपयोगान्तरेऽपि शक्तिरूपाया मतेः कृचिदवस्थानम्, तथाऽवधारण चेति कालान्तरानुभूतविषयगोचरं स्मृतिज्ञानमिति भावः / एवमेतेनाविच्युलिवासनास्मरणरूपा त्रिविधा धारणेत्युक्तं भवति / न चेत्यादि। न चैकत्वादवबोधस्याऽवबोधसामान्यापेक्षया, इह मतिज्ञाने इन्द्रियप्रत्यक्षे, चातुर्विध्याभावोऽवग्रहादिभेदेन / कुत इत्याह- सर्वथैकतवासिद्धेः अवबोधस्य। असिद्धिश्च क्रमेण भावादवग्रहादीनाम्, तथा संपूर्णभवनेऽवग्रहादारभ्य धारणान्तभवने अनियमात् कारणात्। अधिकृतोपदर्शनायाह- दृश्यत इत्यादि / दृश्यत एव लोके, ईहाद्यभावेऽपि, आदिशब्दादवायादिग्रहः क्वचिद्देवदत्तादौ, अवग्रहमात्रम् तथा निरवायेहा दृश्यते क्वचित्,निर्धारण श्वावायो दृश्यते क्वचित, तथा तदनुभवसिद्धेः केवलत्वेनाऽवग्रहादीनामनुभवसिद्धे कारणात, न चातुर्विध्याभावः / अत एव तथा तदनुभवसिद्धरेव, एकत्वमप्यवग्रहादीनाम् / युक्तिमाह- कथंचिदेकाधिकरणत्वात्। तत्तद्धर्मग्रहणेन। अत एव आह-तत्रैव प्रवृत्तेः अवग्रहादिगृहीत एवेहादिप्रवृत्तेः, कथञ्चिदिति वर्तत / एतत्रपष्टनायैवाह-तद्वद्यधर्माणाम्--अवग्रहादिवेद्यस्वभावानाम्, इतरेतरानुवेधात्-अन्योन्यानुवेधात् / एतदेव भावयति- तथाचेत्यादिना / तथाच वदिद सदा-तस्मिन् काले दृष्टमपि सदिति, अनेनावग्रहव्यापारमाह। नोपलक्षितं न सामीप्येन तदितरधर्मालोचनया लक्षितम् | अनेनेहाव्यापारनिषेधमाह / तथेषल्लक्षितमपीहया, न सम्यगज्ञातमवायरूपेण, तदिदानीं यद् न सम्यग् ज्ञातं तत्सांप्रतम्, अवधारितं सम्यग्विज्ञाय चेतसि स्थापितम्, इत्यस्ति व्यवहारस्तद्वेद्य-धर्माणामितरेतरानुवेधव्यवस्थापकः / न चाय व्यवहारो भान्तः / कुत इत्याह अविगानेन प्रवृत्तेः कारणात् / प्रकृतयोजनया निगमनमाह- अत इत्यादिना। अतोऽस्मात्कारणात्, इद मतिज्ञानसंज्ञितमिन्द्रियज्ञानम्, एकानेकमवग्रहादिसमुदायात्मकत्वेन, अन्वयव्यतिरेकवदनुवृत्तिव्यावृत्तिस्वभावं दीर्घमप्यवग्रहादिक्रमभावित्वेन, कालसौम्याद्धेतोः तथावभासते प्रक्रमाद् युगपदिवावभासते, नतुयुगपदेवेत्यर्थः। आह-एवमपि तत्तद्धर्मावग्रहणादेः सर्वेषामवग्रहादित्वप्रसङ्गः। न, स्थूरेतरधर्मालम्बनावरणभेदतः क्रमभवनेन तथाप्ररूपणात्, तत्त्वतस्त्वयमदोष एव / एवं चावग्रहादिभावे तत्तद्धर्मबोधात् केषाञ्चित् तथास्वभावत्वेनाक्षरानुगतबोधबोध्यत्वात्, तेष्वन्यथा नीलादाविव पीतादित्वेन बोधाप्रवृत्तेः क्षयोपशमसामर्थ्यतोऽक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रहणाविरोधात्, तथा-विधानुभवस्यान्यथानुपपत्तेः, स्वसंवेद्यत्वेन प्रतिक्षेपायोगात् सन्न्यायत एव सिद्धं सविकल्पकं प्रत्यक्षमिति। आह-एवमप्यवग्रहादिभावे, तत्तद्धर्मावग्रहणादेः, आदिशब्दाततत्तद्धर्मासमर्थपर्यालोचनादिग्रहः, सर्वेषामधग्रहादीनां मतिभेदानाम्, अवग्रहादित्वप्रसङ्गोऽन्वर्थयोगेन, आदिशब्दादीहादिग्रहः। एतदाशङ्कयाह नेत्यादि / न-नैतदेवम्।कुत इत्याह-स्थूरेतरधर्मालम्बनावरणभेदतः कारणात्, स्थूरेतराश्च ते धर्माश्च स्थूरेतरधर्माः, इतरेसूक्ष्माः , ते एवालम्बनम्, एतबावरण चेति विग्रहः, तयोर्भदस्तस्मात्, क्रमभवनेन तथाप्ररूपणादवग्रहादित्वेन प्ररूपणात; तथाहि- स्थूरधर्मालम्बनोऽवग्रहः, सूक्ष्मधर्मालम्बना ईहादयः, एवमन्यदवग्रहावरणम्, अन्यचेहादेः, इह चावरणग्रहणं क्षयोपशमोपलक्षणमवसेयम् / इत्थमुपन्यासस्तु भिन्नमेव तद् बोधावारकमिति निदर्शनार्थम्, क्रमभवनं तु प्रसाधितमेव, इत्यतस्तथाप्ररूपणं न्याय्यमेवेति भावनीयम्। तत्त्वतस्त्वयं सर्वेषामव-ग्रहादित्वप्रसङ्गः, अदोष एवान्वर्थयोगतस्तथाघटनादिति। एवं चोक्तनीत्या, अवग्रहादिभावे सन्न्यायत एव सिद्धं सविकल्पक प्रत्यक्षमिति योगः / कुत इत्याह-तत्तद्धर्मबोधात्-वस्तुसदादिधर्मबोधात् / तथा, केषांचिद्धर्माणां तथास्वभावत्वेन हेतुना, अक्षरानुगतबोधबोध्यत्वादीहादिगोचराणा,विशिष्टमनोऽनुगतत्वोपलक्षणमेतत्। यदि नामैवं ततः किमित्याह-तेषु अक्षरानुगतबोधबोध्येषु धर्मेषु अन्यथा नीलाऽऽदाविव वस्तुनि पीतादित्वेन रूपेण, बोधाऽप्रव्रत्तेः कारणात्। कुतस्तत्राक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रहणमित्याशड्कानिरासायाहक्षयोपशमेत्यादि। क्षयोपशमसामर्थ्यतः कारणात्, अक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रहणाविरोधात्; स हि क्षयापशम एव तादृशो यो भाषाद्रव्याणि ग्राहयतीत्यर्थः / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यनित्याहतथा-विधानुभवस्य अक्षरानुगतबोधरूपस्य, अन्यथाक्षरप्रायोग्यद्रव्यग्रह-- Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 661 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस णमन्तरेण, अनुपपत्तेः कारणात् / अस्य च स्वसंवेद्यत्वेन हेतुना, प्रतिक्षेपायोगात / किमित्याह- सन्न्यायत एवउक्तनीत्या सिद्ध सविकल्पक प्रत्यक्षमिति। एतेन यत्परेणाभ्यधायि-'इतश्चेतदेवम्, अन्यथा स्वाभिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्त इति प्राप्तम, अस्त्वेवमपि को दोष इति चेत्, एतदाशङ्कय निवृत्तेदानीमि-- न्द्रियज्ञानवार्ता अभिधानविशेषस्मृतेरयोगात्, इत्यादि। तदपि परिहतमवगन्तव्यम्, अभिधानविशेषयोजनासिद्धेः वाच्यतद्वोधयोरेव तत्स्वभावत्वात् / न हि सर्वत्रैव स्मृत्यपेक्षो वाच्ये वाचकप्रयोगः, तथाऽननुभवात्, अन्तर्जल्पाकारबोधोपलब्धेः, प्रयोगे उच्चार्यमाणस्य शब्दान्तरत्वात्, तस्यापि तद्रलेनैव प्रवृत्तेः, तदसंपृक्तबोधवताऽनुच्चारणात् / प्रष्ट्रा व्यभिचार इति चेत् / न, तस्यापि प्रश्रामिलापसंपृक्तबोधत्त्वात्, अन्यथा प्रश्नाभावात् वस्तुनश्चानेकस्वभावत्वेन तस्याप्यभिधेयत्वात्, सर्ववस्तूनामेव प्रायस्तथा तथा सर्वशब्दवाच्यस्वभावत्वात्, तत्तद्रव्याद्यपेक्षक्षयोपशमभेदतस्ततस्ततस्तत्र तत्राविलम्बितादिप्रतीतिभावात्, अविगानेन तथा व्यवहारसिद्धः, अस्य चान्यथाऽयोगात्, निमित्तानुपपत्तेः। एतेन-अन्न्तरोदितेन न्यायेन, यत्परेण-पूर्वपक्षवादिना, अभ्यधायि-अभिहितं पूर्वपक्षग्रन्थे। यदभ्यधायि तदाह--'इतश्चैतदेवम् अन्यथा स्वाभिधानविशेषणापेक्षा एवार्था विज्ञानैर्व्यवसीयन्त इति प्राप्तम् , अस्त्वेवमपि को दोष इति चेत्, एतदाशक्य निवृत्तेदानीमिन्द्रियज्ञानवार्ता, अभिधानविशेषस्मृतेयोगादित्यादि' व्याख्यातमेवैतदितिन व्याख्यायते / तदपि परिहतमवगन्तव्यम् / कथमित्याह- अभिधानविशेषयोजनाऽसिद्धेः कारणात्। असिद्धिश्च वाच्य तद्बोधयोरेव-अर्थतज्ज्ञानयोरेव, तत्स्वभावत्वात् प्रक्रमात् स्मृत्यनपेक्षाभिधानविशेषप्रवर्तनस्वभावत्वात् / अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह-नहीत्यादि। न यस्मात्सर्वत्रैव वाच्य इति योगः, स्मृत्यपेक्षो वाचकप्रयोगः / कुतो नेत्याहतथा स्मृत्यरक्षप्रयोगरूपत्वेन, अननुभवात् कारणात् / कथमननुभव इत्याह- अन्तर्जल्पाकारबोधापलब्धेः / इह प्रक्र मे तत्त्वतोऽस्यैव स्मृतित्वादित्यर्थः। तथा चाह- प्रयोगेभाषाविषये, उच्चार्यमाणस्य शब्दस्य, शब्दान्तरत्वात्, अन्तर्जल्पाऽऽकारबोधशब्दमधिकृत्य, तस्याऽपि प्रयोगे उच्चार्यमाणस्य शब्दान्तरस्य, तद्वलेनैवाऽन्तर्जल्पाकारबोधशब्दसामर्थ्यनैव, प्रवृत्तेः / कुत एतदेवमित्याह--तदसंपृक्तबोधवताशब्दासंपृक्तबोधवता; अविकल्पबोधवतेत्यर्थः, भाणकेनेति प्रक्रमः। किमित्याह-अनुच्चारणात् कारणात्, प्रष्ट्रा पुरुषेण व्यभिचारः, स हि तदसपृक्तबोधवान् तत्पृच्छन् समुच्चारयति, अन्यथा प्रश्नायोगस्तदज्ञानादेवेति चेत्। एतदाशड्क्याह-न। तस्यापि प्रष्टु, प्रश्नाभिला- | पसपृक्तबोधवत्त्वात / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा एव मनभ्युपगमे, अविकल्पबोधवतः प्रश्नाभावात् तस्मात्किञ्चिज्जानन् किञ्चिदजानानस्तत्रैव पृच्छ-तीति भावनीयम् / वस्तुनश्च वाच्यस्य, अनेकस्वभावत्वेन हेतुना, तस्यापि प्रश्नशब्दस्य अभिधेयत्वात् कारणात् / अभिधेयत्वं च सर्ववस्तूनामेव, प्रायो बाहुल्येन अनभिलाप्यधर्मान विहाय, तथा चित्रसमयादियोगेन, सर्वशब्दवाच्यस्वभावत्वात्। एतदव लेशतः प्रकटयतितत्तदित्यादिना। तच्च तत् तद्रव्य च तत्तद्र्ध्यमुदकादि, आदिशब्दात्-क्षेत्रकालादिग्रहः, तत्तद्रव्याद्यपेक्षत इति तत्तद्रव्याद्यपेक्षः तत्तद्रव्याद्यपेक्षश्चासौ क्षयोपशमभेदश्च भेदोविशेष इति विग्रऽहस्तस्मात् / ततस्ततः प्रक्रमाच्छब्दान्नीरोदकादेः, तन्न तत्रोदकादौ वस्तुनि, अविलम्बितादिप्रतातिभावात्, अविलम्बिताअव्यवहिता, यथा नीरशब्दाद्दाक्षिणात्यस्योदकार्थे तत्प्रतीतिः, विलम्बिता तु तस्यैवान्यदेशमागतस्य अन्यथा समयग्रहणे उदकशब्दात् तत्रेति,इयमादिशब्देन गृह्यते / अन्या च चित्रा सत्येतरादिरूपेति प्रतीतिभावश्च, अविगानेन तथाविलम्बितादित्वेन, व्यवहारसिद्धः कारणात्, अस्य च व्यवहारस्य, अन्यथा सर्ववस्तूनामेव प्रायस्तथा सर्वशब्दवाच्यस्वभावतामन्तरेण, अयोगात्। अयोगश्च निमित्तानुपपत्तेः, तथाहि-किमत्रान्यन्निमित्तम्, तत्तत्स्वभावतामन्तरेण? अनिमित्तस्य च सदाभावादिदोष इति भावनीयम् / एवं च सर्वशब्दानामपि प्रायो यथोक्तं सर्ववस्तुवाचकत्वमिति / क्षयोपशमानुरूपा च छद्मस्थानां प्रतीतिः। इति न समं सर्वथा वा तदवसायः / न ह्यनेक प्रदीपावभासितेऽपीन्द्रनीलादौ मन्दलोचनादीनां सर्वाकारं समो वा तद्बोधः, तथाऽननुभवात्, निमित्तभेदात्।नचासौ न तन्निमित्तः, तद्भावे भावात, तदभावे चाभावादिति। दीपमण्डलादिदर्शनाद् व्यभिचार इति चेत्। न। तस्य तन्निमित्तत्वेऽपि भ्रान्तत्वात, आन्तरदोषवैगुण्येनोत्पत्तेः, तद्विकलेनादर्शनात्; इन्द्रनीलादिधर्माणां तु तदन्यवेदिनाऽपि वेदनात्, सूक्ष्मधर्मद्रष्ट्राऽपि स्थूराणां ग्रहणात्, तथाप्रतीतेः। न चैवं दीपदिद्रष्ट्रा तद् गृह्यते, इति दोषविजृम्भितमेतत् / एवं च सर्वशब्दानामपि नीरोदकादीनां,यथोक्तम्-प्रायस्तथा सर्ववस्तुवाचकस्वभावत्वेन, इह प्रायोग्रहणाद् मृषाभाषावर्गणोत्थवन्ध्यशब्दव्यवच्छेदः, एवं यथोक्तम्, सर्ववस्तुवाचकत्वं सर्वशब्दानामपि / क्षयोपशमानुरूपा च छद्मस्थानां विशेषणान्यथानुपपत्त्या प्रमातॄणां, प्रतीतिरिति कृत्वा, न सम-न युगपत्, सर्वथा वा सर्वैर्वा प्रकारैरविलम्बितादिभिः, तदवसायःप्रक्रमाद्वाच्यवस्तुस्वभावावसायः। अमुवेवार्थ दृष्टान्तद्वारेणोपदर्शयन्नाह न हीत्यादिना / न यस्मादनेकप्रदीपावभासितेऽपीन्द्रनीलादौ रत्नविशेषे, मन्दलोचनादीनां प्रमातृणाम, आदिशब्दाद्-अमन्दलोचनादिग्रहः / सर्वाकारं तत्प्रदीपावभासापेक्षया, समा वा तुल्यो वा, तद्बोधः-इन्द्रनीलादिबोधः / कुतो नेत्याह Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 662 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस तथाऽननुभवात् सर्वाकारसमत्वेनाऽननुभवात्। अननुभवश्च निमित्तभदात् __ सर्वमेवासमञ्जसम, अनिबन्धनत्वात्, इत्ययुक्तैकान्ततः प्रदीपावभासितेन्द्रनीलादिज्ञेयधर्मभेदादित्यर्थः। न चासावसर्वाकारो- शुष्कतानुसारिणी सूक्ष्मेक्षिका, अनया हि भवदध्यक्षलक्षणऽसमश्चित्रस्तद्बोधः, न तन्निमित्तोनिन्द्रनीलादिनिमित्तः / कुत इत्याह- | मप्य-संभव्येवेति वक्ष्यामः। तद्भावे-प्रस्तुतेन्द्रनीलादिभावे, भावात्, तदभावे चाभावादिति / न दोषादित्यादि / दोषात् सकाशात्, असद्दर्शनसिद्धेः कारणात्, तद्भावभावित्वमात्र नियमेन तन्निमित्तत्वे निमित्तमित्याह-दीप- सर्वधर्मदर्शनमेव, सत्त्वादिदर्शनमित्यर्थः, दोषजमस्त्विति चेत्। एतदामण्डलादिदर्शनात् आदिशब्दाद्-गुजादिग्रहः, व्यभिचाररसद्भाव- शङ्कयाह-अदोषजं तर्हि कीदृग दर्शनम्, यदपेक्षयैतद्दोषजमित्यर्थः / भावित्वस्य नियमनिमित्तत्वे, उक्तं च-- "मयूरचन्द्रकाकार, नीलला- निर्विकल्पेन ज्ञानेन, निरंशवस्तुग्रहणमदोषज दर्शनमित्यभिप्रायः / हितसनिभम्। संपश्यन्ति प्रदीपादेर्मण्डलं मन्दचक्षुषः // 1 // " इत्यादीति एतदाशक्याह- न तत्रापि यथोदिते दर्शने, उक्तवद् यथोक्तम्चेत् एतदाशङ्कयाह-न, तस्य मण्डलादिदर्शनस्य, तन्निभित्तत्वेऽपि.- दोषादसद्दर्शनसिद्धेरित्यादि, तदाशङ्काऽनिवृत्तेः-दोषजाशङ्कानिवृत्तेः। प्रदीपनिमित्तत्वेऽपि, भ्रान्तत्वात् कारणात् / भ्रान्त व वान्तरदाबाद एकरय वस्तुनः, अनेकस्वभावत्वविरोधात् कारणात्, तस्याऽन्याय्यनयनरोगाद वैगुण्यम् आन्तरदोषवैगुण्यं तेन प्रधानहेतुना, उत्पत्तेः / त्वादनेकस्वभावत्वस्य, तन्निवृत्तिनिर्विकल्पेननिरंशवस्तुग्रहणे दोषजाएतच्चैवमेवेति द्रव्यन्नाह- तद्विकलेन-आन्तरदोषविकलेन, द्रष्ट्रति शङ्कानिवृत्तिः, तदायसंभवादिति चेत्! एतदाशड्क्याह-किं तदेकमेकसामथ्यात, अदर्शनाद् दीपे सत्यपि दीपमण्डलादेः, इत्यान्तरदोषवे- स्वभाव निरशं, यद्भावरांभवेन तदर्शनमदोषजं स्यादिति। लिमत्रोच्यते, गुण्यस्य प्रधानता।मा भूदिन्द्रनीलादावप्येवमिति व्यतिरेकमाह-इन्द्र वस्तुस्वलक्षणमेवैया मेकस्वभावम् / एतदाशक्याह-न, तस्य नीलाद्रिधर्माणां तु अनेकदीपावभासिताना, तदन्यवेदिनापिधर्मान्तर स्वलक्षणस्य, स्थूराकारेणोवादिलक्षणेन प्रतिभासते तच्छीलं चेति वेदिनापि प्रमात्रा, वेदनात् / एतदेवाह- सूक्ष्मधर्मद्रष्ट्राऽपि प्रभात्रा, विग्रहस्तस्य पटादेरित्यर्थः असत्त्वात् कारणात्, संचयात्मकत्वेन्गस्थूराणा ग्रहणात्। ग्रहणं व तथाप्रतीतेः, सत्संस्थानादिधर्मग्रहणसंगतैव ऽणूनां चाप्रतिभासनात, इत्यादेबहालम्बनवादिनैकानेकस्वभावमेततत्कान्त्यादिप्रतीतिरिति भावनीयम् / न चैव दीपाद्रिष्ट्रा पुरुषेण, दङ्गीकर्तव्यमिति योगः। तथा, अणूनां चाप्रतिभासनादिति सिद्धमेव न अविशेषत एव तद् दीपमण्डलादि गृह्यते / इति दोषविजृम्भितमेतद् ह्यणवः पृथग्जनविज्ञाने प्रतिभासन्ते, तत्समूहः प्रतिभासत इत्थेतन्निदीपमण्डलादिदर्शनमिति। रासायाह-समूहस्य प्रक्रमादणुसमूहस्य, अद्रव्यसत्त्वादपरमार्थसत्त्वात् / तद्व्यतिरिक्तोऽद्रव्यसन, तएव तु सन्त इत्येतद्व्यपोहायाह-तेषामेव दोषादसद्दर्शनसिद्धः सर्वधर्मदर्शनमेव दोषजमस्त्विति चेत्। अणूना, तत्त्वेसमूहत्वे, तद्वदणुवत्, अनुपलम्भात; तथाहि-अणव एव अदोषजं तर्हि कीदृक् ? निर्विकल्पेन निरंशवस्तुग्रहणम् / न / समूहः, ते चाऽदृश्या इति। समुदायदृश्यस्वभावा इति समूह उपलभ्यन्त तत्राप्युक्तवत्तदाशङ्काऽनिवृतेः / एकस्याने कस्वभावत्व इत्यप्यसदित्याह-समुदायदृश्यस्वभावत्वे प्रक्रमादणूनाम्। किमित्याह-- विरोधात्, तस्यान्याय्यत्वात् तन्निवृत्तिरिति चेत् / किं तदेक अनेकस्वभावत्वप्रसङ्गात्। प्रसङ्गश्च प्रत्येकमदृश्यस्वभावत्वात्। अणूना मेकस्वभावम्? किमत्रोच्यते? वस्तुस्वलक्षणमेव / न, तस्य तेभ्य एव समुदितेभ्या भेद इत्यत्रापि दोषमाह-तत्तद्भेदे तेभ्यः-प्रत्येकमस्थूराकार-प्रतिभासिनोऽसत्त्वात्, अणूनां चाप्रतिभासनात् , दृश्यस्वभावेभ्यः, तद्भेदे समुदायदृश्यस्वभावाऽणुभेदेऽभ्युपगम्यमाने, समूहस्याद्रव्यसत्त्वात्, तेषामेव तत्त्वे तद्वदनुपलम्भात्, तदनणुत्वप्रसङ्गात तेषां समुदायदृश्यस्वभावानामनणुत्वप्रसङ्गात् / समुदायदृश्यस्वभावत्वेनैकस्वभावत्वप्रसङ्गात्, प्रत्येकमदृश्य प्रसङ्गश्च समुदायदृश्यस्वभावतया कारणेन। अन्यथा प्रत्येकत्वेनादृश्यस्वभावत्वात्, तत्तद्भेद तदनणुत्वप्रसङ्गात् समुदायदृश्यस्वभाव स्वभावतया, योगिभिरप्यदर्शनात् / ततश्च समुदाय-दृश्यस्वभावा अपर तया अन्यथा योगिभिरप्यदर्शनात, तथापि तदणुत्वकल्पनेऽति एवैते भावा; नाणव इति भावार्थः। आह च- तथापि-योगिभिरप्यप्रसङ्गात्, अन्याणूनां समुदायादर्शनेऽपि तद्भावप्रसङ्गात्, दर्शनेऽपि, तदणुत्वकल्पने समुदायदृश्यस्वभावानामणुत्वकल्पने। तैस्तद्वेददर्शने चानेकस्वभावतापत्तेः, तेषामेवायोगिभिरन्यथा किमित्याह- अतिप्रसङ्गात् / प्रसङ्गश्च अन्याणूना प्रत्येकमदृश्यस्यदर्शनात् अन्यथाऽन्यतरविज्ञानस्थाविषयत्वप्रसङ्गात, दृष्टेष्ट भावानाम्, समुदायादर्शनऽपि सति, तद्भावप्रसङ्गात्-समुदायभावप्रसविरोधात्, मिन्नसंस्थानबुद्ध्यसिद्धेः, तत्त्वतोऽणुसमुदाया गात / तैरित्यादि / तैः योगिभिरिति प्रक्रमः, तद्भेददर्शने च तेषां विशेषतस्तदयोगात् अस्याश्चातुभवसिद्धत्वात् प्रतिक्षेपायोगात, समुदायदृश्यस्वभावानामेव भेददर्शन च प्रत्येकदर्शन चाभ्युपगरामाने, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्, विशेषहेत्वभावात्, तत्त्वव्यवस्थानुपपत्तेः। अनेकस्वभावतापत्तेस्तेषाम् / आपत्तिश्च तेषामेव योगिभेददर्शनइति बाह्यालम्बनवादिनैकाने कस्वभावमेव तदङ्गीकर्तव्यम्। गोचराणाम, अयोगिभिरन्यथादर्शनात् ; समुदायत्वेन दर्शनादित्यर्थः इत्थं तत्राप्यनुपप्लुतप्रमात्रविगानसंवेद्याः स्वभावाः वस्तुसन्तः, चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा एवमनभ्युपगमे, अन्यतरविज्ञानस्य, तदन्ये पुनर्नेति, तथालोक नुभवसिद्धेः, अन्यथा तद्बाधया योगिविज्ञानस्यायोगिविज्ञानस्य का, अविषयत्वप्रसङ्गात् तदात्म्बनरचना Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस वाभावेन / न चाय न्याय्यः प्रसङ्गः इत्याह- दृष्टष्टविरोधात् / अयोगिज्ञानाविषयत्व दृष्टविरोधः, योगिज्ञानाविषयत्वे चाभ्युपगमविरोध इति भवः / दोषान्तरमाह-भिन्नसंस्थानबुद्ध्यसिद्धेः अणुसमुदायाविशेषण घटशरावादिबुदध्यसिद्धरित्यर्थः / अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह- तत्त्वतःपरमार्थेन, अणुसमुदायाविशषतः कारणात्, तदयोगाद् भिन्नसंस्थानायागेन तदबुद्ध्ययोगात / यदि नामैवं ततः किमित्याह-अस्याश्च भिन्नसस्थानबुद्धेः, अनुभवसिद्धत्वात् अत एव प्रतिक्षेपायोगात्, अयोगश्च सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्, अनुभवप्रतिक्षेपे सति।नचासावनुभवमात्रविषय इत्याह-विशेषहेत्वभावात् अनुभवस्याणुसमुदायमात्रालम्बनत्वेन। सर्वत्रानाश्वासे च तत्त्वव्यवस्थानुपपत्तेर्विसंवादिबोधाशङ्कया, इति-एवं, बाह्यालम्बनवा देना सर्वेण, एकानेकस्वभावमेन तदालम्बनम्, अङ्गीकर्तव्यमित्याह- तत्रापि एवंभूत आलम्बने, अनुपप्लुतप्रमात्रविगानस्वेद्याः स्वभावा धर्माः, वस्तुसन्तः-परमार्थसन्तः, इन्द्रनीलादौ स्थूरादिधर्मवर, तदन्ये पुनर्नउपप्लुतप्रमातृविगानसंवेद्या दीपमण्डलादिवदिति / कुत एतदेवमित्याह तथालोकानुभवसिद्धेः कारणात्। अन्यथैवमनभ्युपगमे, तद्वाधयालोकानुभवबाधया, सर्वमेवासमञ्जसम् / दत इत्याह-अनिबन्धनत्वाद् नियामकाभावात्। इत्येवमयुक्तैकान्ततः शुष्कतर्कानुसारिणी जातिवादप्रधाना, सूक्ष्मेक्षिका। किमित्ययुक्तेत्याह-- अनया यस्माच्छुष्कतर्कानुसारिण्या सूक्ष्मेक्षिकया, भवदध्यक्षलक्षणमपि--भवतोऽध्यक्षलक्षणं 'प्रत्यक्ष कल्पनापोढम्' इत्याद्यपि, असंभव्येवेति वक्ष्यामः। अतोऽनेकस्वभावे वस्तुनि क्षयोपशमानुरूपप्रतिपत्तावुक्तवदन्तर्जल्पाकारबोधसिद्धरभिधानविशेषस्मृत्ययोगोऽबाधक एव / यदपि क्वचिद् वच्योपलब्धौ तद्वाचकविशेषास्मरणं तदप्यनेकवाचकवाच्यत्वेऽस्य तथाविधावरणभावाद् विकल्पबोधवत एव, अमिलापाद्यसंसृष्टबोधेनाननुस्मरणात् तथाप्रतीतेरिति। एवं च 'सति ह्यर्थदर्शनेऽर्थसन्निधौ दृष्ट शब्दे ततः स्मृतिः स्यात्, अग्निधूमवत्' इति नैकान्तसुन्दरम्,तदर्थस्यामिलापासंसृष्टबोधेनादर्शनात्, तथास्वभावत्वात्, शब्दान्तरस्मृतौ चोक्तवददोषात्। एवं च 'नचायमशब्दमर्थ पश्यति इति विचारणीयम्। यदिशब्दानास्कन्दितमिति। तदसिद्धम, केवलस्यैव दर्शनात्। अथाविकल्पज्ञानेन ततः सिद्धसाध्यता, शब्दार्थस्य तेनादर्शनात्। एवं च 'अपश्यंश्च न शब्दविशेषमनुस्मरति' इत्येतदपि विचारास्पदमेव / यदि येनैव संसृष्टविज्ञानस्तमेव नानुस्मरतीति सिद्धसाध्यता तस्य तदा तेनैव विद्यमानत्वात् / अथ तत्प्रतिबद्ध शब्दान्तरमिति / तदसिद्धम, तस्य सति क्षयोपशमे तद्दर्शनात् स्मरणोपपत्तेः / एवम् 'अननुस्मरन्नयोजयति' इत्यप्ययुक्तम्, तद्विज्ञानसंसृष्टस्य तथा योजनात्, इतरस्यापि तत्संभवाविरोधात। एवम् 'अयोजयन्नप्रत्यति'हस्वप्यसांप्रतमेव, शब्दान्तरमधिकृत्यायोजयतोऽपि प्रतीते,तद्वयसिक्तेमतक्तवद्योग एव 'इत्यायातमान्ध्यमशेषस्य जगतः' इत्युक्तिमात्रम्, विवक्षिताभिधेयार्थशून्यत्वात्, उक्तवत्तदयोगादिति। एवं प्रासनिकमभिधाय प्रकृतमुपक्रमत-अत इत्यादिना / अतोऽनेकरवभावे वस्तुन्युक्तनात्या व्यवस्थिते, क्षयोपशमानुरूपप्रतिपत्ती सत्याम, उक्तवयथोक्त तथा, अन्तर्जल्पाकारबोधसिद्धेः कारणात्, अभिधानविशेषस्मृत्ययोगोऽबाधक एव, स्मृतेरेवान्तर्जल्पाकारबोधरूपतयाऽप्रवृत्तिप्रसङ्गादिति हृदयम्। दोषान्तरपरिजिहीर्षयाह- यदपि क्वचिद् वाच्योपलब्धो सत्या, तद्वाचकविशेषास्मरणं किमिदमित्यादि सामान्यवाचकप्रवृत्तावेव, तदप्यनेकवाचकवाच्यत्वेऽस्य वस्तुनः, तथाविधावरणमावाद-वाचकविशेषस्मरणावरणभावात् विकल्पबोधवत एवअस्मृतिपूर्वकशब्दसंपृक्तबोधवत एवेतार्थः / कुतइत्याह-अभिलापाद्यसंसृष्टवोधेन आदिशब्दाद्विशिष्टमनः परिग्रहः,अननुस्मरणात् कारणात्। अननुस्मरणच तथाप्रतीतः, न ह्यवग्रहमात्रात् स्मृतिः, एवं च कृत्वा सति ह्यर्थदर्शन-अर्थसन्निधौ दृष्ट शब्दे ततः स्मृतिः स्यादनिधूमवदिति पूर्वपक्षोदितम्, नैकान्तसुन्दरम् / कुत इत्याह- तदर्थस्यशब्दार्थस्य, अभिलाषासंसृष्टबोधेनादर्शनात् / अदर्शनं च तथा स्वभावत्वात्अभिलाषाससृथ्वोधनादर्शनस्वभावत्वात्। शब्दान्तरस्मृतौ च वाचकविशेषस्मृती च उक्तवद् यथोक्तम्-तथा-विधावरणभावादित्यादि तथा, अदोषात्। एवं च कृत्वा न चायमशब्दमर्थं पश्यतीत्येतत्पूर्वपक्षोदितं विचारणीयम्। किमुक्तं भवति-अशब्दमिति? यदि शब्दानास्कन्दितमिति / तदसिद्धम् / कुत इत्याह- केवलस्यैव तच्छदानास्कन्दितस्य, दर्शनात्। अथाविकल्पज्ञानेनाशब्दमर्थ पश्यति। एतदाशक्याह-ततः सिद्धसाध्यता। कुत इत्याह- शब्दार्थस्य तेन अतिकल्पज्ञानेनाऽदर्शनाता ततश्च विकल्पज्ञानन सशब्दमर्थ पश्यतीति भवति। अयमेव च शब्दार्थ इति भावः। एवं चापश्यश्च न शब्दविशेषमनु-स्मरतीत्येतदपि पूर्वपक्षोपन्यस्तं, विचारास्पदमेव। किमुक्तं भवति-न शब्दविशेषमनुस्मरति? यदि येनैव शब्दविशेषेण संस्पृष्टविज्ञानः प्रमातातमेव शब्दविशेष नानुस्मरतीति, एवं सिद्धसाध्यता। कुत इत्याह-तस्य शब्दविशेषस्य, तदा तेनैव ज्ञानेन, वेद्यमानत्वात् तद्बोधाविनिगिन / अथ तत्प्रतिबद्धमपक्रमाद दृश्यवस्तुप्रतिबद्धं शब्दान्तरम्, न शब्दविशेषमनु - स्मरतीति / एतदधिकृत्याह- तदसिद्धम् / तस्य शब्दान्तरस्य, सति क्षयोपशमे तज्ज्ञनावरणकर्मणः, तद्दर्शनादन्यायप्रापितशब्दार्थदर्शनात, स्मरणोपपरो:- स्मरणसंभवात् / एवमननुस्मरन्न योजयतीत्यपि पूर्वपक्षोक्तम्, अयुक्तम्। कुत इत्याह-तद्विज्ञानसंसृष्टस्यशब्दस्येति प्रक्रमः / तथा-वाचकत्वेन,योजनात्, इतरस्यापि तत्प्रतिबद्धशब्दान्तरस्य तत्संभवाविरोधाद- योजनासंभवाविरोधात् / 'एवमयोजयन् न प्रत्येतीत्यपि पर्वप्रक्षवचः, असांप्रतमेवअशोभनमेव / कुत इत्याहशब्दान्तरमधिकृत्य तत्प्रतिबद्धम्, अयोजन्तरेऽपि प्रतीक्षेः प्रक्रमाद् Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस वस्तुनः, इति तद्व्यतिरिक्तेन तु प्रक्रमाद् विज्ञानससृष्टन, उक्तवद्यथोक्तम तथा, योग एव, इत्येवम, आयातमान्ध्यमशेषस्य जगत इत्युक्तिमात्रम्-- वचनमात्रम् / कुत इत्याह-विवक्षिताभिधेयार्थशून्यत्वात् / शून्यत्वं चोक्तवद्- यथोक्तं तथा तदयोगाद्- विवक्षितार्थायोगादिति। यत्पुनरेतदाशङ्कितम्-अभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयत्यान्तरं संस्कारं, तेन स्मृतिनार्थदर्शनात् ' इति / एतदर्थतः साध्येव, क्षयोपशमस्य द्रव्यादिनिमित्तत्वाभ्युपगमात्, तदनुसारेण तत्प्रवृत्तिसंभवात् / यत्पुनरिदमुक्तम्- 'न, तत्संबन्धस्याऽस्वाभाविकत्वात्' इति / एतदसाधु, उक्तवदस्वाभाविकत्वासिद्धेः, वक्ष्यमाणत्वाच्चापोहाधिकारे ।अतः समयाऽदर्शने - भावादित्ययुक्तम् / तस्य क्षयोपशमव्यञ्जकत्वात्, तगावे तु तदभावेऽपि भावात्, क्वचित् तथोपलब्धेः, अन्यथा सदा तदपेक्षा स्यात् / एव च पुरुषेच्छातोऽर्थानां स्वभावापरावृत्तेरित्यादि यावदशब्दसंयोजनमेवार्थ पश्यति दर्शनात् / इति / एतन्निर्विषयमेव, अत्र ह्यनेकस्वभावतापत्त्या वस्तुनो नैरात्म्यमिति परं दूषणम् / एतच्चैकानेकस्वभावतयाऽस्य तत्त्वतोऽदूषणमेव, अन्यथा तदसत्त्वप्रसङ्गादित्युक्तप्रायम् / अतो विरोधिशब्दवाच्यत्वेऽपि तत्तत्स्वभावतया तथोपलब्धेन कश्चिद् दोषः। यत्पुनरित्यादि। यत्पुनरेतदाशङ्कित परेण। किमित्याह-'अभिपतन्नेवार्थः प्रबोधयत्यान्तरं संस्कार, तेन स्मृति र्थदर्शनादिति / एतदर्थतः अर्थमधिकृत्य, साध्वेवशोभनमेवा कथमित्याह-तदनुसारेणअर्थाभिषतनानुसारेण, तत्प्रवृत्तिसंभवात्-क्षयोपशमप्रवृत्तिसंभवा-दिति / यत् पुनरिदमुक्तंपूर्वपक्षग्रन्थ एव-न तत्संबन्धस्याऽस्वाभाविकत्यात इति / एतदसाधु-अशोभनम् / कुत इत्याह-- उक्तवद् यथोक्त प्राक सर्ववस्तूनामेव प्रायस्तथा तथा सर्वशब्दवाच्यस्वभावत्वादित्यादिना' तथा, अस्वाभाविकत्वासिद्धेस्तत्संबन्धस्य वक्ष्यमाणत्वाचापोहाधिकारे तदसाध्वि-ति / अतः समयादर्शनऽभावादिति यदुक्तम, तदयुक्तम्। कुत इत्याह- तस्य समयस्य, क्षयोपशमव्यजकत्वात् तदावे तुक्षयोपशमभावे तु तदभावेऽपि-समयाभावेऽपि, मावाद्- शब्दविशेषस्मृतेरिति प्रक्रमः / शब्दविशेष-स्मृतिग्रहणं थाऽत्र प्रतिपत्त्युपलक्षण वेदितव्यम् / भावश्च क्वचिद् विशिष्टक्षयोपशमवति प्रमातरि, तथोपलब्धेः समयाभावेऽपि शब्दविशेषस्मृत्युपलब्धेः / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याहअन्यथेत्यादि। अन्यथा-क्षयोपशमभावेऽपि, समयापेक्षाभ्युपगमे सदासर्वकालं, तदपेक्षा स्यात्-समयापेक्षा स्यात्, ततश्च सदा संकेताकरणाच्या व्यवहाराभावः / एवं च 'पुरुषेच्छातोऽर्थानां स्वभावाऽपरावृत्तेरित्यादि पूर्ववचनं यावदशब्दसंयोजनमेवार्थं पश्यति दर्शनात्' इत्येतत्, निविषयमद कुत इत्याह-- अत्रेत्यादि / अत्र यस्माद्, अनेकस्वभावतापत्त्या वस्तुनो नैरात्म्यमिति पर दूषणमुक्तम् / एतच दूषणभेकोनेकस्वभावतयाऽस्य वस्तुनस्तत्त्वतोऽदूषणमेव, अन्यथैवमनभ्युपगमे, तदसत्त्वप्रसङ्गाद् वस्तुनोऽसत्त्वप्रसङ्गात. इत्युक्तप्राय प्रायेणोक्तम्, अतो विरोधिशब्दवाच्यत्वेऽपि सति. वस्तुन इति प्रक्रमः, ततत्स्वभावतया कारणेन,तथोपलब्धेः--विरोधिशब्दवाच्यत्वेनोपलब्धः, नित्यानित्यादिशब्दप्रवृत्तितया न कश्चिद् दोष इति प्रस्तुताधिकारनिगमनम्। स्यादेतत्, अनलशब्दो ह्यनले तदभिधानस्वभावतयायमभिधेयपरिणाममाश्रित्य प्रवर्तते, स जले नास्ति, जलानलयो-- रभेदप्रसङ्गात, प्रवर्तते च समयाजलेऽनलशब्दः, तथाप्रतीतेः। इति कथमनयोस्तिवो योगः? इति / उच्यते-शब्दस्यानेकस्वभावत्वात्, न ह्यनलशब्दस्याऽनलगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानस्वभाव एवैकः स्वभावः, अपि तु तथाविलम्बितादित्वेन जलगताभिधेयपरिणामापेक्षी तदभिधानस्वभावोऽपि, तथा तत्प्रतीतेः, तद्वैचित्र्येण दोषाभावात्, क्षयोपशमवैचित्र्यतस्तथाप्रवृत्तेः,अन्यथा अहेतुकत्वेन तदभावप्रसङ्गादिति / एतेन तथानुभवसिद्धेन शब्दार्थक्षयोपशमस्वभाववैचित्र्येण, एतदपि प्रत्युक्तम्, यदुक्तम्- 'शब्देन्द्रियार्थयोर्भेद एव, अव्यापूतेन्द्रियस्याऽन्यवाङ्मात्रेणैवेन्द्रियार्थाविभावनात्, इन्द्रियादेव च शब्दार्थाप्रतीतेः' इत्यादि। नखल्वऽव्यापृतेन्द्रियोऽपि तत्क्षयोपशमयुक्तः अन्यवाङ्मात्रेण न विभावयत्येवेन्द्रियार्थम्, तदर्णमानचिह्नादिनिश्चितेः, तदन्यतुल्यजातीयमध्येऽपि भेदेन प्रवर्त्तनात्, क्वचित्तत्प्राप्तेस्तथा निवेदनात्, तथाऽस्पष्ट तु तत्साक्षात्कारेणाक्षव्यापारवैकल्यात्, न त्वतद्विषयत्वेन / एवमिन्द्रियादपि क्वचित्तथाविधक्षयोपशमभावे, सङ्केतमन्तरेणापि भवति शब्दार्थविभावनम्, तथान्तर्जल्पाकारादिबोधसिद्धेः, लोकानुभवप्रामाण्यादिति। स्यादेतदित्यादि / स्यादेतत्, अनलशब्दो ह्यनलेऽभिधेये तदभिधानस्वभावतया-अनलाभिधानस्वभावतवेन, यमभिधेयपरिणाममाश्रित्य प्रवर्तते, वास्त्वं स जले नास्ति परिणामः / कुत इत्याह-- जलानलयोरभेदप्रसङ्गात् तदेकाभिधेयपरिणामभावेन। यदि नामैवं ततः किम्? इत्याह-प्रवर्तते च समयात्- सङ्केतेन, जले अनलशब्दः। कुर इत्याह-- तथाप्रतीतः समयद्वारेण प्रवृत्ति-प्रतीतेः, इत्येवं कथमनयोः प्रक्रमाद् वस्तुवाचकयोः, वास्तवो योगस्तात्त्विकः सम्बन्धः? इति। एतदाशइक्याह- उच्यते तत्र परिहारः, शब्दस्यानेकस्वभावत्वात् शब्दग्रहण वस्तूपलक्षणम् / उभयोरनेकस्वभावत्वात्, अनयोवस्तिवो योग इतेि। अम्मेवार्थ प्रकटयालाह-नानलेत्यादि। न यस्माद, अनलशदस्याडनलगताभिधेयपरिणामापेक्षी अनलगतमभिधेयपरिणाममपेक्षते तच्छीलश्नइति विग्रहः, तदभिधानस्वभाव एव--अनलाभिधानम्वभाव एव. एक Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस स्वभावः, अपि तु तथाविलम्चितादित्वेन समयापेक्षितस्मृतिपूर्वकत्वेन, जलगतभिधेयपरिणामापेक्षी, तदभिधानस्वभावोऽपिजलाभिधानस्वभावोऽपि / कुत इत्याह तथा तत्प्रतीत:-तथा-विलम्बितादित्वेन जलप्रतीतेरिति / तद्वैचित्र्येण-प्रक्रमादनलशब्दस्वभाववैचित्र्येण, दोषाभावात्पूर्वोक्तदोषनिवृत्तेरित्यर्थः / क्षयोपशमवैचित्र्यतः कारणात, तथाप्रवृत्तेः- जलेऽनलशब्दसमयप्रवृत्तेः। अन्यथैवमनभ्युपगमे, अहेतुकत्वेन. तदभावप्रसङ्गात्-तथा प्रवृत्त्यभावप्रसङ्गादिति। एतेनाऽनन्तरोदितेन, तथानुभवसिद्धेनोक्तनीत्या, समयाद् जलेऽप्यनलशब्दात, प्रतीतिभावतः संवेदनसिद्धेन शब्दार्थक्षयोपशमानां स्वभाववैचित्र्येण, किमित्याह- एतदपि प्रत्युक्तम् / यदुक्तं परैः, किं तदित्याहशब्देन्द्रियार्थयोः शब्दश्चेन्द्रिय च शब्देन्द्रिये, तयोरी -विषयो तयोर्भेद एव / कुत इत्याह-- अव्यावृतेन्द्रियस्य पुंसः, अन्यवाग्मात्रेणैव-अन्यस्माद् वाग्मानं तेनैव, इन्द्रियार्थाऽविभावनात्- इन्द्रियार्थाऽदर्शनाद्, विभावनंदर्शन, तथाहि-प्रतीतमेतत्, न शब्दादेव पश्यतीति।तथेन्द्रियादेव च सकाशात्, शब्दार्थाप्रतीतेनहि पनस पश्यन्नप्यकृतसमयो वाह्नकः पनसमित्यवतीत्यादि। आदिशब्दात्-"अन्यदेवेन्द्रियग्राह्य-- मन्यः शब्दस्य गोचरः / शब्दात् प्रत्येति भिन्नाक्षो, न तु प्रत्यक्षमीक्षते" / / 1 / / इत्याद्येतत् समानं गृह्यते, इत्येतदपि प्रत्युक्तम् / यथा प्रत्युक्तम्, तथा मन्दमतिहिताय मनागुपप्रदर्शयन्नाह-नखल्वित्यादिना। न खलुनैव, अव्यापृतेन्द्रियोऽपि पुमान् / किं विशिष्ट इत्याह- तत्क्षयोपशमयुक्तः-प्रक्रमात्, इन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमयुक्तः, अन्यवाइमात्रेण हेतुना, - विभावयत्येव-न पश्यत्येव, मत्याभोगेनेन्द्रियार्थम. "द्वी प्रतिषेधौ प्रकृतमर्थं गमयतः" इति कृत्वा, किं तु विभावयत्येव / कुत इत्याह-तपूर्णमानचिह्नादिनिश्चितेः तस्येन्द्रियार्थस्य, वर्णः-कृष्णादिः, मानं-प्रमाणं महदल्पादि, चिह्न खण्डादि,आदिशब्दात्-मसृणत्वादिग्रहः, एतन्निश्चितः / तथाहि-कृष्णं महान्तं खण्ड मसृणमपूर्वमपवरकाद् घटमानयेत्युक्ते तज्ज्ञानावरणक्षयोपशमयुक्तः पुमानध्यक्षमिवमत्यातथैव प्रतिपद्यते। कथमेतदेवम्? इत्याह-तदन्यतुल्यजातीयमध्येऽपि तदाऽऽनयनाय तं प्रति भेदेन प्रवर्तनात्। न ह्यसौ तथा भोगशून्यः प्रवर्तत इति भावनीयम्। तथा क्वचित् प्रतिबन्धाभावे, तत्प्राप्तेः प्रक्रमात् / तस्यान्यवाइमात्रोक्तस्य प्राप्तः, तथा निवेदनात्-तथाऽन्यवाड्मात्रबोधितत्वन निवेदनात्, नैव-न विभावयति इन्द्रियार्थमिति। तथाऽस्पष्ट तु तद्विभावनम्, साक्षात्कारेणाऽक्षव्यापारवैकल्यात्, नत्वेतद्विषयत्वेनन पुनरिन्द्रयार्थाविषयत्वेन, प्रणिधानव्यापारेण तत्रेन्द्रियव्यापारादिति। एवमिन्द्रियादपि सकाशात् क्वचित् न सर्वत्र, तथाविधक्षयोपशमभावे सङ्केतानपेक्ष-शब्दार्थविभावनफलक्षयोपशमभावे, सङ्कतमन्तरेणाऽपि, किमित्याह-- भवति शब्दार्थविभावनम् / कुत इत्याह- तथाऽन्तजल्पाकारादिबोधसिद्धेः किमिदमित्यालोचयतस्तदिदं पूर्वोक्तलिङ्गवत् पनसमिति बोधसिद्धेरित्यर्थः, सिद्धिश्च लोकानुभवप्रा-- माण्यादिति। स्यादेतत्, इत्थमनेकस्वभावत्वे वस्तुनोऽनेकस्यैवाऽनेकप्रमातृभिरवसायः, तथाहि-यदि य एव तत्स्वभाव एकावसायस्य निमित्तं स एवापरावसायस्य, ततस्तयोरैक्यं सर्वथैकनिमित्तत्वात, इतरेतरस्वात्मवत्, तदभेदेऽपितदवसायभेदे, तदेकस्वभावतापत्तिः, तदन्यकार्याणामपि तत्तथातयाऽविरोधादिति / अत्रोच्यते-एकान्तवादिन एवायं दोषः नानेकान्तवादिनः तस्य ह्यचित्रमेवैकम्। न चानेककार्यजननैकस्वभावतां विहाय ततोऽनेकं भवति, अनेककार्यजनने च नाचित्रमेकत्वं, तद्भावेऽपि कात्स्न्ये नैकेन तद्ग्रहात् तदपरावसायग्रहणप्रसङ्गः,तस्य तज्जननस्वतत्त्वस्याऽन्यथा ग्रहणायोगात्, तत्सावधिकत्वात् न निरवधिकं ग्रहणं तद्ग्रहणमिति भावनीयम् / मलसामर्थ्यात् तदग्रहणं, तदग्रहणमेव सर्वथैकत्वात्, अन्यथाऽस्य ग्रहणाग्रहणप्रसङ्गः,तथा च सत्यस्मन्मतानुवाद एव गृह्यमाणागृह्यमाणयोरेक त्वविरोधादिति / तच्चित्रतयैव कथंचित् तद्ग्रहणादेकस्याप्यनेक प्रमातृभिरवसायः, नान्यथा, इत्युक्तदोषानतिवृत्तेरित्यलं प्रसङ्गेन। स्यादतत्, इत्थम्-उक्तनीत्याऽने कस्वभावत्वे, वस्तुनःइन्द्रियादिः, नैकरयेवाऽनेकप्रमातृभिरवसायः / एतदेव भाव-यतितथाहीत्यादिना / तथाहि- यदि य एव तत्स्वभावो वस्तुस्वभावः, एकावसायस्येति-एकस्य प्रमातुरिति प्रक्रमः, अवसाय एकावसायस्तस्य, निमित्ते स एवाऽपराऽवसायस्य प्रमात्रन्तरावसायस्य, ततस्तयोरवसाययोरेक्यम् / कुत इत्याह- सर्वथैकनिमित्तत्वात्, अधिकृतवस्तुस्वभावकत्वेन इतरेतरस्वात्मवदिति निदर्शनम् / एतच्च 'यतः स्वभावतो जातमेकम्' इत्यादिना त्वयाऽव्युक्तमेव / तदभेदेऽपितत्स्वभावाभेदेऽपि, तदवसायभेदे-एकाऽपरप्रमात्रवसायभेदे, तदेकस्वभावतापत्तिः-तस्य वस्तुनः एकस्वभावतापत्तिः। कुत इत्याह-तदन्यकार्याणामपि- तस्माद् विवक्षितस्वभावादन्ये तदन्ये स्वभावा इति प्रक्रमः, तेषा कार्याणि-सदादिविज्ञानादीनि तत्कार्याणि तेषामपि, तत्तथा तया-तस्य वस्तुनः, तथाता एकजातीयविज्ञाना-पेक्षया एकस्वभावा अनेक कार्यजननैकस्वभावता, तया, सामान्येनाऽप्येकस्वभावापेक्षया सदाद्यनेकविज्ञानादिकार्यजननैकस्वभावतया, अविरोधात् तदेकस्वभावतापत्तिरिति। एतदाशड्क्याह- अत्रोच्यते-एकान्तवादिन एवायमनन्तरोदितः- 'ततस्तयोरैक्यम्' इत्यादिलक्षणो दोषः नानेकान्तवादिनः।कुतएतदित्याह-तस्येत्यादि।तस्य एकान्तवादिनः, यस्मात्, चित्रमेवेकमेकान्तैकरूपम् / यदि नामेवं ततः किमित्याहन चानेककार्यजननकस्वभावतां विहाय तत एकस्मात्, इह प्रक्रमे, अधिकृतकस्वभावात्, अनेक भवत्येकापरविज्ञानादि। यदि नामैवं ततः किमित्याह- अनेककार्यजनने वा नाऽचित्रमेकत्वम् / अनेकगर्भकत्वस्य सर्वथैकत्वविरोधात्। दोषान्तरमाह-तद्भावेऽपीत्यादिना। तद्भावेऽपि-अचित्रकस्वभावेऽपि, कात्स्न्ये नसामस्त्येन,एकेन प्र Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस मात्रा, तद्ग्रहात्-अधिकृतस्वभावग्रहात, तदपरावसायग्रहणप्रसङ्ग:तस्मात-एकस्मात् प्रमातुरपर प्रक्रमात्,प्रमातार एव तदपरे तेपामयसायाः-ज्ञानाति तेषां ग्रहणम्-अवगमस्तत्प्रसङ्ग इति समासः / कुत इत्याह-तस्यत्यादि। तस्याऽधिकृतस्वभावस्य, किं विशिष्टस्यत्याहतज्जननस्वतत्त्वस्य अपरावसायजननस्वभावत्वस्य, अन्यथा तदपराऽवसायग्रहणमन्तरेण, ग्रहणाऽयोगात्, अयोगश्च तत्सावधिकत्वात्, - तदपरावसायजननस्वभावो ह्यसाविति तत्सावधिकः / यदि नामैवं ततः किमित्याह-न निरवधिक ग्रहणं तदपराऽवसायजननस्वभावविकलं ग्रहणम्, तद्ग्रहणं तदपरावसायजननस्वभावग्रहणमिति भावनीयमेतत् / परभिप्रायमाह-मलसामर्थ्याद् हेतोः तदग्रहणम्- अपरावसायाख्यावध्यग्रहणम् / एतदाशङ्कयाऽऽह- तदग्रहणमेवतस्याधिकृतरयभावस्याऽग्रहणमेव। कुत इत्याह-सर्वथैकत्वात् एक एव ह्यसौ तदपराऽवसायजननस्वभाव इति, तदग्रहणेऽग्रहणमिति गर्मः। इत्थं चैतदगीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा एवमनभ्युपगमेतदवधिग्रहणानभ्युपगमे, अस्य स्वभावस्य, ग्रहणाऽग्रहणप्रसङ्ग / समान्येन ग्रहणात् अवधिमत्तयाऽग्रहणात्। यदि नामव ततः किमित्याह-तथा च सतिएवं च सति, अरमन्मतानुवाद एव तचित्रताविधानेन, अत एवाह-- गृह्यमाणाऽगृह्यमाणयोर्धर्मयोः, एकत्वविरोधादिति / एवं तच्चित्रतयैवस्वभावचित्रतथैव, कशंचित् केनचित् प्रकारेण, तद्ग्रहणात्- अधिकृतस्वभावग्रहणात, एकस्याऽपि वस्तुनः, सामान्येन अनेकप्रमातृभिरवसायः , नान्यथा। कुत इत्याह-उक्तदोषानति वृत्तेः 'ततस्तयारक्यम्' इत्याधुक्तदोषानतिवृत्तेः, इत्यलं प्रसनेनेति। यत्रोक्तम्-किञ्च विकल्पात्मकत्वेऽस्य 'निश्चयात्मकमिदम्' इत्यनेकप्रमाणवादहानिः, तेनैव वस्तुनो निश्चयात्, नित्यवादी भान्त्यनुपपत्तेः, अनेकधर्मके वस्तुन्यन्यतरधर्मनिश्चयात्, तदन्यनिश्चयाय प्रमाणान्तरसाकल्यमिति चेत्, इत्याशय'नैकधर्मविशिष्ट स्यापि निश्यचे सर्वधर्मवत्तया निश्चयात्, प्रमाणान्तरस्य निश्चितमेव विषयीकुर्वतः स्मृतिरूपानतिक्रमात्, एकधर्मद्वारेणाऽपि तद्वतो निश्चयात्मना प्रत्यक्षेण विषयीकरणे सकलधर्मोपकारकशक्त्यभिन्नात्मनो निश्चयात्' इत्यादि, तदप्ययुक्तम् / छद्मस्थज्ञानस्येत्थमप्रवृत्तेः, ज्ञेयतज्ज्ञानक्षयोपशमानां तथास्वभावत्वादित्युक्तप्रायम्, केवलिनां तु तथानिश्चयः,प्रमाणान्तराभावश्च, इति न कश्चिद्घोषः / आहएवमप्यने कस्वभावतया ततस्तथानियतात् कथमनन्तानां केवलिनां तदविकलात्मग्राहकज्ञानभावः, एकत्र कास्योपयोगित्वेन तत्तज्जननस्वभावत्वात्, अपरस्यापि तद्भावापत्तेर्हेत्वविशेषादिति, न, हेत्वविशेषासिद्धेः, ज्ञानिनोऽन्यत्वात्, अधिकृतवस्तुनश्च विचित्रत्वात्, तत्तज्ज्ञान्यपेक्षया तत्र तत्र तदा तदाऽविकलात्मग्राहक ज्ञानाभिव्यञ्जकात्मकत्वेनै कत्र कास्न्योपयोगित्वादिति / न चैवम-परस्यापि तद्भावापत्तिः, अधिकृतवस्तुनस्तथात्वविरोधादिति सूक्ष्मधिया भावनीयम् / एकान्तकस्वभाववस्तुवादिनस्त्वेष दोषोऽनियारितप्रसर एव, तद्भेदनिबन्धनाधिकृतवस्तुवैचित्र्यानुपपत्ते रिति / किश्चनिर्विकल्पकेनाऽपि प्रत्यक्षेणैकस्वभावे वस्तुनि परिच्छिन्ने कथं नाऽनेक प्रमाणवादहानिरिति चिन्त्यम्? प्रत्यक्षस्यानिश्चयरूपत्वाचिन्तितमेवैतत् / यत्रोक्तं पूर्वपक्षे-- किश विकल्पात्मकत्वेऽस्येत्यादि / यावदेकधर्मद्वारेणाऽपि तद्वतो निश्चयात्मना प्रत्यक्षेण विषयीकरणे सकल-- धर्मोपकारकशक्त्यभिन्नात्मनो निश्चयादित्यादि, तदप्ययुक्तम्। कुत इत्याह-छदारथज्ञानस्यत्थमप्रवृत्तेः कारणात्, अप्रवृत्तिश्च ज्ञेयतज्ज्ञानक्षयोपशमाना त्रयाणामपि, तथास्वभावत्वात् चित्रतयाउसर्वधर्मवत्तया निश्चयनिबन्धस्वभावत्वात्, इत्युक्तप्राय प्रायेणोक्तम् / केवलिनां तु क्षीणसकलावरणाना, तथानिश्चयः-सकलधभवत्तया निश्वयः, प्रमाणान्तराभावश्च केवलिनामनुमानाद्यभावश्चेति / न कश्चिद् दोष : / आह- एवमपि केवलिनां तु तथा-निश्चयतेऽपि सति, अनेकस्वभावतया, ततो वस्तुनः, तथानियतात्- समग्रानेक-स्वभावतया नियतात्, एकस्वभावत्वविकल्पादित्यर्थः / कथमनन्तानां प्रभातॄणां केवलिनां वृषभादीनाम्, तद्विकलात्मकग्राहकज्ञानभावः तस्यानेकस्वभावतया तथानियतस्य वस्तुनोऽविकलो य आत्मा, तद्ग्राहकज्ञानोत्पादस्ततः कथम्? नैवेत्यर्थः / कथं नेत्याह- एकत्रेत्यादि / एकत्रऋषभादिज्ञाने, कान्योपयोगित्वेन हेतुना, तत्तजननस्वभावत्यात्-- अधिकृतवस्तुन ऋषभादिज्ञानजननस्वभावत्वात्, नान्यथा ततस्तथा तदुत्पाद इति भावनीयम्। यदि नामैवं ततः किमित्याह-अपर-स्यापि वर्द्धमानादिज्ञानस्य, तद्भावापत्तेः-ऋषभादिज्ञानापत्तेः / कथमित्याहहेत्वविशेषादिति। ऋषभादिज्ञानजननस्वभावह्यधिकृतं वस्तुतद्धेतुस्ततस्तस्याऽपि तद्वत्तद्भावापत्ते, अतो न ततोऽनन्तानां तदविकलात्मग्राहकज्ञानभाव इति / उक्त च यतः- 'स्वभावतो जातम्' इत्यादि, असर्वज्ञतावा सर्वेषामन्योन्यमधिकृतवस्तुनोऽनुत्पत्तितस्तदनधिगमःदिति पराभिप्रायः। एतदा-शङ्कयाह-नेत्यादि। न-नैतदेवम्,यदभ्यधायि परेण, कुत इत्याह-हेत्वविशेषासिद्धेः / कथमसिद्धिरित्याह-ज्ञानिनोऽन्यत्वाद् वर्द्धमानादेः, द्वयमिहज्ञानहेतुः-जीवः, अधिकृतवस्तु च। न चैतदप्येकरूपमेवेत्याह-अधिकृतवस्तुनश्च अनेकस्वभावतया तथानियतस्य विचित्रत्वात। ततः किमित्याह-तत्तज्ज्ञान्यपेक्षया-ऋषभवर्द्धमानादिज्ञान्यपेक्षया, तत्र तत्र सिद्धाथवनऋजुपालिकातीरादौ क्षेत्र, तदा तदा सुषमदुःषमादुः पमसुषमान्तादौ काले, अविकलात्मग्राहकज्ञानाभिव्यकात्मकत्वेन एवंभूतेनात्मना, एकत्र ऋषभादिज्ञाने. कारन्योपयोगित्वात-- सामस्त्येनोपयोगित्वादिति। न चेत्यादि। न चैवम्-उक्तेन प्रकरण, अप-- Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 667 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस स्याऽपि वर्धमानादिज्ञानस्य तद्भावापत्तिः- ऋषभादिज्ञान त्वापत्तिः / कुत इत्याह- अधिकृतवस्तुनः अनेकस्वभावतया तथानियतस्य उक्तयद विचित्रस्य, तथात्वावराधात् तत्तज्ज्ञान्यपक्षया इत्यादित्वविरोधात् / तथाहि- ऋजुपालि कातीरादौ दुष्षमसुषमान्ते च वधमानादिज्ञान्यपक्षया अविकलात्मग्राहकज्ञानाभिव्यञ्जकात्मकत्वेन एव एकत्र ऋषभादिज्ञाने,अस्य कालन्यापयोग इति वर्धमानादिज्ञानाऽभावे तथात्वविरोधः / एवमन्यापेक्षयाऽप्यतिसूक्ष्मधिया भावनीयमेतद् अतिगहनत्वा-दिति। एकान्तेत्यादि। एकान्तकस्वभाववस्तुयादिनस्तु बोद्धादेः, एष दोषः-अनन्तानां तदविकलात्मग्राहकज्ञानाऽभावलक्षण अनिवारितप्रसर एव / कथमित्याह- तद्भेदनिबन्धनाअनन्तज्ञानभेदनिबन्धना, अधिकृतवस्तुवैचित्र्यानुपपत्तेः उक्तवद् अधिकृतवस्तुवैचित्र्यमेवाऽत्र कारणमिति। दूषणान्तरमाह-किश्चेत्यादिना। किश-निर्विकल्पकनाऽपि प्रत्यक्षेण भवदभिमतेन, एकस्वभावेएकान्तकस्वभावे, वस्तुनि भवदभिमते परिच्छिन्ने सति कथं नाऽनेकप्रमाणवादहानिरिति। चिन्त्यम् / प्रमेयान्तराभावेन प्रमाणान्तराभावाद् हानिरेवेत्यर्थः / पराभिप्रायमाह-प्रत्यक्षस्य निर्विकल्पकस्य, अनिश्चयरूपत्वात् कारणाद् चिन्तितमेवैतद्। यदुक्त भवता न च एतद् अपूर्वमिति उपदर्शयन्नाहआह च न्यायवादी-न प्रत्यक्षं कस्याचिद् निश्चायकम्, तद् यमपि गृह्णापि तं न निश्चयेन, किं तर्हि? तत्प्रतिभासेन / तच्च यत्रांशे पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुं शक्नोति तत्रैव प्रमाण्यमात्मसात्कुरुते, यत्र तु भ्रान्तिकारणसद्भावाद् अशक्त तत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते, समारोपव्यवच्छेदार्थमिति भ्रान्तिव्युदासाय प्रमाणान्तरप्रवृत्तिरिति। आह च न्यायवादी धर्मकीर्तिर्वातिके, किमाह? इत्याह-न प्रत्यक्ष कस्यचित् पदार्थस्य निश्वायकम, तद्द्यमपि पदार्थ गृह्णाति त न निश्चयेन 'एवमेतद्' इत्येवंरूपेण, किं तर्हि? तत्प्रतिभासेन आदर्शवत्गृह्यमाणाऽऽकारण तच्च एवंभूतं प्रत्यक्षम्, यत्रांशे वस्तुगते, पाश्चात्यं निश्चयंजनयितु शक्नोति नीलादौ तत्रैवाऽशे प्रामाण्यमात्मसात्कुरुते नीलादौ / यत्र तु अंशेऽनित्यादौ, भ्रान्तिकारणसद्भावात् कारणात्, अशक्त पाश्चात्य निश्चयं जनयितुम्, तत्रांशे प्रमाणान्तरं व्याप्रियतेऽनुमानम् / किमर्थमित्याह-समारोपव्यवच्छेदार्थपरिकल्पितसमारोपव्यवच्छेदार्थम्, इत्यवं भ्रान्तिव्युदासायसमारोपव्युदासाय,प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः- अनुमानप्रवृत्तिः / इत्येवं पूर्वपक्षमाशङ्कयाहअत्रोच्यते-यदुक्तम्- 'न प्रत्यक्ष कस्याचिद् निश्चायकम्' इति, अत्र कोऽयं निश्चयो नाम? स्वालम्बनोऽध्यवसाय एवेति चेत्, नाऽयं तदाकारोत्पत्तिव्यतिरेकेण। अस्त्वेवततः को दोषः? इति चेत्, नासौ-न प्रत्यक्षेऽपि, कथमनिश्चयिकं तत् ? वस्तु मात्रप्रतिभासनाद् इति चेत्, अवस्तुप्रतिभासा तर्हि निश्चयः / न / तत्रैव दृढः प्रत्यय इति चेत्, कथं तदाकारशून्यस्तत्रेति। किञ्च-किं पुनरस्य दयम् किं निर्विकल्पकसमनन्तरत्वम्? किं वा वासनाजन्म? उताऽध्यवसिततद्धावता? आहोस्वित् ध्वनियोगः? न तावद् निर्विकल्पकसमनन्तरत्वम्, तदपरानविल्पकेन व्यभिचारात् निर्विकल्पकसमनन्तराद् निर्विकल्पकोत्पत्तेः / नाऽपि वासनाजन्म,निर्विकल्पकस्याऽपि तत उत्पत्तेः,तत्-तत्समनन्तराऽव्यतिरेकात् / नापि अध्यवसिततद्भवता, अतदाभेन तत्परिच्छेदायोगात् तत्त्वतस्तदनुपपत्तेः। नाऽपि ध्वनियोगः, तत्तादात्म्याद्ययोगतस्तदसिद्धेः, तद्युक्तस्यापि तदाकारोत्पत्तिप्रधानत्वादिति / न च सैव के वला अनिश्चयः, स्वालम्बनपरिच्छेदात् न च न सोऽपि, तत्त्वतः तत्स्वभावतया ततस्तद्वोधोपपत्तेः। न च मूककल्पत्वाद् नेति, बोधस्याऽनिश्चयत्वविरोधात् / न चाऽस्पष्टतया नेति, तस्याः स्पष्टताऽभ्युपगमादिति। अत्रोच्यते-- यदुक्तमित्यादि / यदुक्तमादौ-'न प्रत्यक्ष कस्यचिद् निश्चायकम् इति / अत्र व्यतिकरे कोऽयं निश्चयो नाम? स्वाऽऽलम्बनाध्यवसायः-स्वविषयपरिच्छेद एवेति चेत् / एतदाशङ्कयाह- नायं यथोदिताध्यवसायः, तदाकारोत्पत्तिव्यतिरेकेण स्वालम्बनाऽऽकारोत्पत्तिव्यतिरेकेण, अस्त्वेवम्-भवतु स्वालम्बनाकारोत्पत्तिरेव निश्चयः, ततः को दोष इति चेत् ? एतदाशङ्ख्याह-नासौ स्वालम्बनाकारोत्पत्तिः, न प्रत्यक्षेऽपि, किंतर्हि अस्त्येव। अतः कथमनिश्चायक तत् प्रत्यक्षम् ? भवदभिप्रेतनिश्चयलक्षणोपपत्तेनिश्चायकमेव इत्यर्थः / वस्तुमात्रप्रतिभासनाद् अनिश्चायक तद् इति चेत्। एतदाशङ्कयाऽऽह-अवस्तुप्रतिभासी तहि निश्चयः तताऽनिश्चय इति गर्भः। नाऽवस्तुप्रातभासी, किंतु तत्रैव वस्तुनि, दृढः प्रत्ययो निश्चयः इति चेत्। एतदाशङ्कयाह-कथं तदाकारशून्योवस्त्वाकारशून्यस्तन्मात्रप्रतिभासनेनतत्रेतिवस्तुनीति। अभ्युच्चयमाह-किञ्चेत्यादिना / किं पु, नरस्य प्रत्ययस्य दाढ्यम् ? किं निर्विकल्पकसमनन्तरत्वम् , निर्विकल्पकं समनन्तरा यस्येति विग्रहस्तद्भावो निर्विकल्पकसभनन्तरत्वं तत्? किंवा-वासनाजन्म वासनातो जन्म तत? उताऽध्यवसिततद्धावता-अध्यवसितः-परिच्छिन्नः तद्भावोऽवस्तुभावो ये नेति विग्रहस्तद्भावोऽध्यवसिततद्भावता? अहोस्वित् ध्वनियोगः-शब्दसम्बन्धः प्रत्ययदाळमिति? एवं विकल्पचतुष्टयमुपन्यस्याऽऽह-न तावद निर्विकल्पक-समनन्तरत्वं प्रत्ययदाढयम्। कुत इत्याह-तदंपरनिर्विकल्पके-न व्यभिचारात्, तस्माद् अधिकृतप्रत्ययाद अपरं च तन्निर्विकल्पकं च तेनाऽनैकान्तिकत्वात्। एतत्प्रकटनायैवाऽऽहनिर्विकल्पकसमनन्तरात्सकाशात्, प्रबन्धेन निर्विकल्पकोत्पत्तेः / नाऽपि वासनाजन्म प्रत्ययदायम् / कुत इत्याह-निर्विकल्पकस्यापि तता वासनातः, उत्पत्तेः कारणात् उत्पात्तश्च तत्- तत्समनन्तराऽव्यतिरेकात् तस्यावासनायाः तत्समनन्तराऽव्यतिरेकात निर्विकल्पकसमन Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस न्तराव्यतिरेकात् समनन्तराच्च अविकल्पकजन्मेति भावना / | नाऽप्यध्यवसिततद्भावता प्रत्ययदाढयम् / कुत इत्याह- अतदाभेनअवस्त्याकारेण ज्ञानेन, तत्परिच्छेदाऽयोगाद्-वस्तुपरिच्छेदाऽयोगात्, अयोगश्च तत्त्वतः परमार्थतः तदनुपपत्तेः-अध्यवसिततद्भावतानुपपत्तेः नाऽतदाभं तत्परिच्छेदकम् ; नचाऽतो न,अध्यवसिततदावतेति भावनीयम् / नाऽपि ध्वनियोगः- प्रत्ययदायम् / कुत इत्याहतत्तादात्म्याद्यऽयोगतः तस्य-प्रत्ययस्य,तेनध्वनिना तादात्म्वाद्ययोगतः-तादात्म्यमेकत्वम् आदिशब्दात-- तदुत्पत्तिग्रहः, तदसिद्धेःध्वनियोगासिद्धेः,तथा तद्युक्तस्याऽपिध्वनियुक्तस्याऽपि प्रत्ययस्यति प्रक्रमः, तदाकारोत्पत्तिप्रधानत्वाद् विषयाकारोत्पत्तिप्रधानत्वादिति। न चेत्यादि / न च सा एव-तदाकारोत्पत्तिः, केवला ध्वनियोगरहिता, अनिश्चयः- अपरिच्छेदः / कुत इत्याह- स्वालम्बनपरिच्छेदात्स्वविषयपरिच्छेदात्, केवलयाऽपि न च-न सोऽपि-स्वालम्बनपरिच्छेदः, तत्त्वतः-परमार्थेन / कुत इत्याह- तत्स्वभावतयास्वालम्बनपरिच्छेदस्वभावतया, ततः स्वालम्बनात्,तद्बोधोपपत्तेः-- विवक्षितालम्बनबोधोपपत्तेः, अन्यथा तदुत्तरक्षणवत् ततो भावेऽपि अबोधरूपतैवेति हृदयम् / न चेत्यादि / न च मूककल्पत्वात् केवलायास्तदाकारोत्पत्तेरिति प्रक्रमः,नेति-न निश्चयरूपता। कुत इत्याहबोधस्थाऽनिश्चयत्वविरोधात, बोधो निश्चयोऽवगम इति तुल्याऽर्थाः / न चेत्यादि / न चाऽस्पष्टया कारणेन, नेति-न निश्चयरूपता, केवलायास्तदाकारोत्पत्तेरिति प्रक्रमः / कुत इत्याह-तस्याः तदाकारोत्पत्तेः, स्पष्टताऽभ्युपगमादिति। यच्चोक्तम्- "तच्च यत्रांऽशे पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुं शक्नोति तत्रैव प्रमाण्यमात्मसात्कुराते"। एतदप्ययुक्तम्, तस्य निरंशत्वाभ्युपगमात्, अन्यथा परसिद्धान्तापत्तिः। व्यावृत्तयोंऽशा इति चेत् / न / तासां परमार्थतस्तदव्यतिरिक्तत्वेन तन्मात्ररूपत्वात्, तस्यैव त्रैलोक्यव्यावृत्त्येकस्वभावत्वादिति। कथं च निश्चयस्य विकल्पात्मकत्वात् तत्त्वतो निर्विषयत्वात् तद्विषयता युक्ता? येनोच्यते "यत्रांशे पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुं शक्नोति" इति / स ततो भवतीति तन्निश्चय इति चेत्।न। अतिप्रसङ्गात् नीलादि पश्यतः क्वचित् भिन्नजातीयविकल्पाभ्युपगमात्, तस्य च ततो भावात्, अन्यथा अहेतुकत्वापत्तेः / संवादको निश्चय इति चेत् / न / अप्राप्यदेशगतजलादिनिश्चयेन व्यभिचारात् / न च संवादनशक्तिरेव संवादनमित्यदुष्टम, शक्तेरप्रत्यक्षत्वात् कार्यमन्तरेण तद्भावानवगतेः,न च ततोऽनन्या शक्तिरिति तदवगतावेव तदवगतिः, तदाभासतोऽप्रवृत्तिप्रसङ्गात् तच्छ क्त्यवगमापत्तः, न च तदाभासत्वतो न तच्छक्त्यवगमः, तेनाऽपि आत्मवेदनात् तस्याश्च तदनन्यत्वात्, न च सम्यग् निश्चयशक्तेरेवाऽवगतिरिति युक्तम्, तत्त्वतो वचनमात्रत्वात् तथा-प्रतीप्रत्यभावात, इति। एवं च तत्रैव प्रामाण्यमात्मसात्कुरुत इति वचनमात्रम्। यचोक्तं पूर्वपक्षग्रन्थे एव- 'तच्च यत्रांशे पाश्चात्यं निश्यं जनयितु शक्नोति तत्रैव प्रामाण्यमात्मसात्कुरुते। एतदप्ययुक्तम्। कुत इत्याहतस्य प्रक्रमात् प्रमेयवस्तुनः, निरंशत्वाऽभ्युपगमात्, अन्यथा एवमनभ्युपगमे, परसिद्धान्तापत्तिस्तत्सांशतापत्त्या इत्यर्थः / व्यावृत्तयोऽशा इति चेत्, तथाहि-त्रैलोक्यव्यावृत्तं तदिति। एतदाशङ्कयाह-न। तासां व्यावृत्तीनाम,परमार्थतस्तदव्यतिरिक्तत्वेन-वस्त्वव्यतिरिक्तत्वेन हेतुना, तन्मात्ररूपत्वाद्-वस्तुमात्ररूपत्वात्। एतदेव स्पष्टयन्नाह-तस्यैव वस्तुनः, त्रैलोक्यव्यावृत्तिरेव एकः स्वभावो यस्य तत् तथेति विग्रहस्तद्रावस्तस्मादिति / दोषान्तरमाह- कथञ्चेत्यादिना / कथं च निश्वयस्य विकल्पात्मकत्वात् कारणात्,तत्त्वतः- परमार्थन निर्विषयत्वात्, तद्विषयतावस्तुविषयता युक्ता, येनोच्यते 'यत्रांशे पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुं शक्नोति' इति,नहिएतद्-अतद्विषयत्वे चारु। सतत इत्यादि। स-निश्चयः, ततो वस्तुनः भवतीति कृत्वा तन्निश्चयो-वस्तु-निश्चय इति चेत् / एतदाशक्याह-न / अतिप्रसङ्गात् / एनमेवाह-नीलादि पश्यतः प्रबन्धन क्वचिद् अर्थान्तरावगमे, भिन्नजातीय-विकल्पाभ्युपगमात-स्मार्तपीता-विकल्पाभ्युपगमात्, तस्य च विकल्पस्य,ततो नीलादिदर्शनाद्भावात् / अन्यथा एवमनभ्युपगमे, अहेतुकत्वापत्तेस्तस्याऽतिप्रसङ्ग इति / निश्चयमेवाऽधिकृत्य, प्रकारान्तरमाह-संवादको निश्चय इति चेत्। एतदाशक्याह-न। अप्राप्यदेशगतजलादिनिश्चियेन व्यभिचारात. स हि निश्चयोऽसंवादकश्च / न च संवादनशक्तिरेव संवादनमित्यदुष्टम्, किं तु दुष्टमेव / कुत इत्याह--शक्तेरप्रत्यक्षत्वात्। यदिनामैवं ततः किमित्याह-कार्यमन्तरेण संवादनादिरूपम्, तद्भावानवगतेः-शक्तिभावानवगतेः। न चेत्यादि। न च ततो निश्चयात्, अनन्या शक्तिरिति कृत्वा तदवगतावेवनिश्चयावगतावेव, तदवगतिः- शक्त्ययगतिः / कुत इत्याह- तदाभासतोनिश्चयाभासतः / किमित्याहअप्रवृत्तिप्रसङ्गात्। प्रसङ्गश्च-तच्छक्त्यवगभापत्तेः-तदाभासशक्त्यवगमापत्तेः / न चेत्यादि। न च तदाभासत्वतः कारणात्, न तच्छक्त्यवगमोन तदाभासशक्त्यवगमः, किन्तु अवगम एव / कुत इत्याह- तेनाऽपि तदाभासे न, आत्मवेदनात् कारणात् / यदि नामैवं ततः किमित्याहतस्याश्च तदाभासशक्तेः, तदन्यत्वात्-तदाभासाऽनन्यत्वात् / न चेत्यादि / न च सम्यग् निश्चयशक्तेरेवाऽवगतिरिति युक्तम् / कुत इत्याह- तत्त्वतो वचनमात्रत्वाद्, वचनमात्रत्वं च तथा सम्यग् निश्चयशक्त्यवगमरूपेण प्रतीत्यभावादिति / एवं च यथोक्तनीत्या, तत्रैय प्रामाण्यमात्मसात्कुरुते इति वचनमात्र निरर्थकमित्यर्थः / इतश्च वचनमात्रम्- "यत्र तु भ्रान्तिकारणसद्भावाद् अशक्तं तत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते" इत्याद्युपन्यासात् / तथाहि यदि तत्क्वचिद् अशक्तं पाश्चात्यं निश्चयं जनयितुमेवं तर्हि अशक्तमेव, सर्वथैकत्वात् एकस्य चैकस्वभावत्वेन शक्तत्वाऽ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस शक्तत्वविरोधात्, कथञ्चिद् अविरोधेऽप्यभ्युपगमविरोधात, भिन्नांशविषयनिश्चयभावाभावयोस्तु न तस्य किञ्चिद् इति कथं क्वचिद् प्रामाण्यमात्मसात्कुरुत इति? नैवं सन्नारोपव्यवच्छेदार्थमपि प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः, न्यायतः समारोपस्यैवाऽयोगात्, सजातीयेतरविविक्तैकस्वभावस्य वस्तुन इन्द्रियज्ञाने प्रतिभासनात्, रूपादिनिश्चयज्ञानवत् तन्निबन्धननिश्चयज्ञानानां तमन्तरेणैव प्रवृत्तिसम्भवात् / तथाहि- यद् रूपादिदर्शनानन्तरमलिङ्ग निश्चयज्ञानं भवति तत्कथमसति समारोपे मवत् तद्व्यवच्छेदविषयम्? इतश्च वचनमात्रम्-'यत्र तुभ्रान्तिकारणसद्भावाद् अशक्ततत्र प्रमाणान्तरं व्याप्रियते' इत्याधुपन्यासात् पूर्वपक्षगन्ध एव। इहैव भावनार्थमाहतथाहीत्यादिना। तथाहि-यदि तत् प्रक्रमाद् अविकल्पम,क्वचिदशक्त पाश्चात्यं निश्चय जनयितुम, एवं तर्हि अशक्तमेव एकान्तेन। कुत इत्याहसर्वथैकत्वात् कारणात्, एकस्य च वस्तुनः, एकस्वभावत्वेन हेतुना, शक्तत्वाऽशक्तत्वविरोधात् / तथाहि- एकमेकस्वभावं यदि शक्त शक्तमेव, अथाऽशक्तमशक्तमेवेति भावनीयम्। कथञ्चिद् अविरोधेऽपि निमित्तभेदेन शक्तत्वाऽशवतत्वस्य, अभ्युपगमविरोधाद् अनेकान्तवादोषत्या / अथ भिन्ना अस्यांऽशा इति / एतद् व्यपो हायाऽहभिन्नांशेत्यादि / भिन्नौ च तौ प्रत्यक्षादिति प्रक्रमः, अंशौ च भिन्नांशौ, तौ विषयो ययोस्तौ भिन्नांश-विषयो भिन्नांशविषयौ च तो निश्चयौ चेति विग्रहः, तयोर्भावाऽभावौ, तयोः, पुनर्न तस्य प्रत्यक्षरय, किञ्चिद् इति एवम्,कथं क्वचित् प्रामाण्यमात्मसात्कुरुत-इति। नैवमित्यादि। नैवम्उक्तेन प्रकारेण, समारोपव्यवच्छेदार्थमपि प्रमणान्तरप्रवृत्तिः / कुत इत्याह--न्यायतोन्यायेन समारोपस्यै–व अयोगात्, अयोगश्च सजातीयेतरविविक्तैक-स्वभावस्य वस्तुन इन्द्रियज्ञाने प्रतिभासनात् कारणात्, रूपादिनिश्चयज्ञानवदिति निदर्शनम् / तन्निबन्धननिश्चयज्ञानानाम् - अधिकृतवस्तुनिबन्धननिश्चयज्ञानानाम्, तमन्तरेणसमारोपमन्तरणैव,प्रवृत्तिसंभवात कारणात्, न समारोपव्यवच्छेदार्थमपि प्रमाणान्तरप्रवृत्तिः, अनित्यत्वादिनिश्चयानामपि सामारोपव्यवच्छे दमन्तेणैव भावप्रसङ्गादित्यर्थः / अधिकृतार्थभावनायैवाऽऽह-तथाहीत्यादि। तथाहि इति-उपप्रदर्शने / यद् रूपादिदर्शनाऽनन्तरम्- अव्यवधानेन अलिङ्गम्-लिङ्गरहितम्, निश्चयज्ञानं भवति प्रक्रमाद् रूपादिविषयमेव, तत्कथमसति समारोपे अरूपादिविषये भवद्- उत्पद्यमानम, तद्व्यवच्छेदविषयसमारोपव्यवच्छेदविषयम, नैव समारोपाभावेन तद्व्यवच्छेदाऽयोगादिति। स्यादेतद, असमारोपविषये भावात् तद्व्यवच्छेदविषयम्, यत्र हि अस्य समारोपो भवति यथा स्थिरः सात्मक इति था, न तत्र निश्चयो भवति, तद्विविवेक एव चान्यापोह इति तदपि तन्मात्रा ऽपोहगोचरमेव, न वस्तु स्वभावनिश्चयात्मकमिति / एतदपि यत्किञ्चित, वाङ्मात्रत्वात्। स्यादेतद् असमारोपविषये भावात्तदव्यच्छेदविषयमितिसमारोपस्य विषयः समारोपविषयः न समारोपविषयोऽसमारोपविषयः तस्मिन् समारोपशून्य इत्यर्थः, भावाद्- उत्पत्तेः कारणाद् अधिकृतनिश्चयज्ञानस्य, तद्व्यवच्छेदविषयमिति / एतद्भावनाये-वाह-यत्र पदार्थे, हिशब्दोऽवधारणे, अस्य पुरुषस्य, समारोपो भवति, यथा स्थिरः सात्मक इति वायं पदार्थः / नतत्र निश्चयो भवति अनित्यत्वादिनिश्चयस्तधाथात्म्यविषयः, तद्विवेक एव च-समारोपविवेक एव च, अन्यापोहः तद्व्यवच्छेदः, इति-एवम्, तदपि अधिकृतनिश्चयज्ञानम्, तन्मात्रापाहगोचरमेव समारोपापोहमात्रगोचरमित्यर्थः / न वस्तुस्वभावनिश्चयात्मक-न स्वलक्षणनिश्चायकमिति योऽर्थः / एवं पूर्वपक्षमाशङ्याहएतदपि यत् किश्चिद्-असारम्, कुत इत्याह-वाङ्मात्रत्वात् वाच्याऽर्थशून्यत्वात्। यत्तावदुक्तम्-"असमारोपविषये भावाद्" इत्यत्र समारोपाभावेऽस्य वृत्तिरुक्ता, अयं च समारोपाभावो यदि प्रसज्ज्य-- प्रतिषेधरूपः, न क्वजिदस्य वृत्तिस्तस्य तुच्छत्वात्, तत्त्वत इत्थमेव इदमिति चेत् कथमतुच्छप्रतिभासं रूपादिनिश्चयज्ञानम्? तुच्छप्रतिभासमेव तद इति चेत्, अनुभवविरोधःरूपादिप्रतिभासस्य वेद्यमानत्वात, अन्यथा तदनाकारत्वेन वेदनाऽयोगादिति / अथ पर्युदासरूपः, कथं न वस्तुस्वभावनिश्चयात्मकं तत्? तत्रैव प्रवृत्तेर्न तत् तदा इति चेत्, कथमसमारोपविषयेऽस्य भावः? अयमस्यैव आत्मा न त्वन्य इति चेत्,स्वात्मन एव तदितरविकलस्य तत्त्वकल्पनायामतिप्रसङ्ग:स्वलक्षणज्ञानस्याऽपि तत्त्वेन तद्भावापत्तेरिति। एतदेव दर्शयति- यत्तावदुक्तमित्यादिना। तत्र यत्तावदुक्तम्पूर्वपक्षग्रन्थे ''अरसमारोपविषये भावाद'' इत्यत्र ग्रन्थे, समारोपाभावे अस्य निश्चयस्थ वृत्तिरुवता, एतद् ऐदपर्यम् / यदि नामैवं ततः किमित्याऽऽहअयं च समारोपाऽभावो यदिप्रसज्ज्यप्रतिषेधरूपः समारोऽपाभवनमात्रलक्षणः / ततः किमित्याह-न क्वचित् अस्य निश्चयस्य, वृत्तिः / कुत इत्याह-तस्य प्रसज्ज्यप्रतिषेधरूपस्य समारोपाऽभावस्य, तुच्छत्वात्असत्त्वादित्यर्थः / तत्त्वत इत्यादि / तत्त्वतः-परमार्थेन, इत्थमेवेदं न क्वचित् अस्य वृत्तिः इति चेत् / एवदाशक्याह-- कथमतुच्छप्रतिभासं रूपादिवरत्वाऽऽकार रूपादिनिश्चयज्ञानम्? तुच्छेत्यादि। तुच्छप्रतिभासमेव, तत्- रूपादिनिश्चयज्ञानम्, इति चेत् / एतदाशडक्याहअनुभवविरोधः। एवं कथमित्याह-रूपादिप्रतिभासस्यरूपादिनिश्चयज्ञाने वेद्यमानत्वात्, अन्यथा एवमनभ्युपगमे, तस्य-रूपादिनिश्चयज्ञानस्य, अनाकारत्वेन हेतुना। किमित्याह-वेदनाऽयोगाद, तद् हि अनाकार कस्य वेदनम्? इति भावनीयम्। एवं प्रसज्ज्यपक्षे दोषम Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 670 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस भिधाय पक्षान्तरे दोषमभिधातुमाह-अथ पर्युदासरूपः प्रस्तुतः समारोपाभावः। एतदाशक्याह-कथन वस्तुस्वभावनिश्चयात्मकं तद् रूपादिनिश्चयज्ञानम्? तत्रैव-रूपादावेव प्रवृत्तः,न तद् रूपादि,तदा निश्चयज्ञानकाले इति चेत् / एतदाशक्याह-कथमसमारोपविषयेसमारोपाभावे पर्युदासात्मके, अस्य-रूपादिनिश्चयज्ञानस्य, भावः? अयमित्यादि। अयम्- असमारोपविषयः, अस्यैव अधिकृतनिश्चयज्ञानस्य आत्मा, नतु अन्यो-व्यतिरिक्तः, इति चेत्। एतदाशड्क्याहस्वात्मन एव ज्ञानसंबन्धिनः, तदितरविकल्पस्यविषयविकलस्य, तत्त्वकल्पनायांविषयत्वकल्पनायाम, उक्तनीत्या / किमित्याहअतिप्रसङ्गः / कथमित्याह-स्वलक्षणज्ञानस्याऽपि तत्त्वेन तदितरविकलत्वेन हेतुना, तद्भावापत्तेः-- असमारोपविषयभावापत्तेः-निश्चयज्ञानत्वापत्तेरित्यर्थः। यचोक्तम्-'यत्र हि अस्य समारोपो भवति यथा स्थिरः सात्मक इति वा, न तत्र निश्चयो भवति" एतदप्ययुक्तम् परमार्थे न तस्याऽस्थिरानात्मकस्यैव ग्रहणात् तत्र रूपादाविव समारोपप्रवृत्त्ययोगात् / स्यादेतत्, नहि तथा गृहीतोऽपि भावस्तथैव प्रत्यभिज्ञायते, क्वचिद्भेदे व्यवधानसंभवात् यथा शुक्तेः शुक्तित्वे / यत्र तु प्रतिपत्तुर्धान्तिनिमित्तं नास्ति तत्रैव अस्य दर्शनाऽविशेषेऽपि स्मार्तो निश्चयो भवति, समारोपनिश्चययोर्बाध्यबाधकभावाद् इति / एतदप्यसत्, निरंशे तथा गृहीते क्वचिद् व्यवधानं क्वचित् न इत्यपन्यायत्वात् भेदाभावेन तत्त्वत एक निश्चयज्ञानप्रसङ्गात्, न खलु रूपे एव तदेकस्वभावनिबन्धनानि भूयांसि निश्चयज्ञानानि। यचोक्तम्- अधिकृतपूर्वपक्षग्रन्थे- “यत्र हि अस्य समारोपो भवति यथा स्थिरः सात्मक इति वा, नतत्र निश्चयो भवति" एतदपि अयुक्तम्। कथमित्याह-परमार्थन वस्तुस्थित्या, तस्य पदार्थस्य, अस्थिराऽनात्मकस्यैव ग्रहणाद, नान्यत् तस्य रूपमिति कृत्वा / ततः किमित्याहतत्र अस्थिरत्वादौ, रूपादाविव समारोपप्रवृत्त्ययोगाद्, नहि रूपेरूपतया गृहीत समारोपः / स्यादेत-दित्यादि। स्यादेतद्, नहि तथा स्वरूपेण, गृहीतोऽपि भावः पदार्थः तथैव प्रत्यभिज्ञायते-निश्चयज्ञानेन गम्यते। कथमित्याह-क्वचिद् भेदे भावविशेषे, व्यवधानसभवात् प्रत्यभिज्ञानस्य समा रोपेण इति भावः / निदर्शनमाह- यथा शुक्तेः- शीप्रकद्रव्यस्य, शुक्तित्वे व्यवधानसंभवः प्रत्यभिज्ञानं प्रति रजतसमारोपेण, यत्र तु भावभेदे पदार्थे, प्रतिपत्तुः पुरुषस्य, भ्रान्तिनिमित्तं सादृश्य नास्ति, तत्रैव-भावभेदे, अस्यपुरुषस्य, दर्शनाऽविशेषेऽपि-उभयत्र यत तत्त्वं तद दृश्यते इति दर्शनाऽविशेषस्तस्मिन्नपि सति, स्मार्ता निश्चयो भवतीति गृहीतग्राही। किमेतदेवमित्याह समारोपनिश्चययोर्बाध्यबाधकभावात्, समारोपो बाध्यः, निश्चयो बाधकः इति। पूर्वपक्षमाशक्याह-एतदपिअनन्तरोदितम्, असद्-अशोभनम् / कुत इत्याह- निरंश इत्यादि। निरशे वस्तुनि तथा निरंशतया गृहीते,वचिद् व्यवधानं क्वचिद् न इति अपन्याय-त्वाद, एतद् अपि असत्, अपन्यायत्वं च भेदाऽभावेन हेतुना निरशत्वेन, तत्त्वतः-परमार्थन, एकनिश्चयज्ञानप्रसङ्गात् निबन्धनैक-- त्वेन। एतद्भावनायैवाह-नखल्वित्यादि। न खलु-नैव, रूपे एव आलम्बन तदेकरवभावनिबन्धनानि तद्रूपमेव एकः स्वभावो निबन्धनं येषा तानि तथा, भूयासि-प्रभूतानि, प्रक्रमाद् जातिभेदनधिकृत्य निश्चयज्ञानानि रूपरसादिलक्षणानि,किं तर्हि प्रभूतानि अपि व्यक्तिभेदाऽपेक्षया रूपज्ञानानि एव? एवं भेदाऽभावेन तत्त्वतः एकनिश्चयज्ञानप्रसङ्गः। दूषणान्तरमाहकिंच-असौ भावः स्वप्रत्यभिज्ञानजनने व्यवधानसम्भवस्वभावो वा स्याद्, न वा? उभयथाऽपि क्वचिद् भेदे व्यवधानसंभावाद्, इत्यपि अयुक्तम्, यथाक्रमं सर्वत्रैव तत्सम्भवाऽसम्भवापत्तेः, अन्यथा एकस्वभावत्वविरोधात् अतन्निबन्धनत्वे च निश्चयानां न तेभ्यस्तत्तत्त्वव्यवस्था, इत्वफला तत्कल्पना, एवं च"यथा शुक्तेःशुक्तित्वे" इत्यनुदाहरणमेव, भवन्नीत्या तदयोगात् शुक्तिकाया अपि अक्षज्ञानेन नीलादिवत् तत्त्वेनैव ग्रहणात्। किंच, असौ भावः- पदार्थः, स्वप्रत्यभिज्ञानजननेस्वनिश्चयज्ञानजनने, व्यवधानसंभवस्वभावो वा स्याद् न वा? इति द्वयी गतिः / उभयथाऽपि पक्षद्वयेऽपि वचिद् भेदे व्यवधानसभावाद् इति अयुक्तम्। कुत इत्याह-यथाक्रमम्-यथासंख्यम, सर्वत्रवक्वचिद् इत्येतद्व्युदासेन सर्वत्रेव वस्तुनि, तत्संभवाऽसंभवापत्तेः-तस्य व्यवधानस्य, संभवश्वासंभवश्व तत्संभवासंभवौ, तयोरापत्तिः, तत एतदुक्तं भवति-यदि असा भावः स्वप्रत्यभिज्ञानजनने व्यवधानसंभवस्वभावस्ततस्तत् सभवत्येव सर्वत्र व्यवधानम्, न चेद्, न संभवत्येव इति हृदयम्। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा एकस्वभावत्वविरोधात्, एकस्वभावो हि स्वप्रत्यभिज्ञानजनने व्यवधानसंभवैकस्वभावः, तदसंभवैकस्वभावो वा, अन्यथा तच्चित्रस्वभावता एव इति भावनीयम् / अतन्निबन्धनत्वे चविव-क्षितभावानिबन्धनत्वे च निश्चयानाम् / किमित्याह-न तेभ्यो निश्चयेभ्यः, तत्तत्वव्यवस्थाविवक्षितभावतद्भावव्यवस्था, इति एवम् अफलानिष्प्रयोजना, तत्कल्पना प्रक्रमाव्यवधानसंभवकल्पना, एवं च सति "यथा शुक्तेः शुक्तित्वे" इत्यनुदाहरणमेव / कथमित्याहभवन्नीत्यात्वदर्शनाऽनुसारेण,तदयोगात्-प्रक्रमाद् व्यवधान-संभवायोगात्, अयोगश्च शुक्तिकाया अपि अक्षज्ञानेन-इन्द्रियज्ञानेन, नीलादिवद् इति निदर्शनम्, तत्त्वेनशुक्तिकात्वेन एव ग्रहणात्। इत्थमेव इदमिति चेत्, क थं व्यवधान सम्भवः? ततस्तन्निश्चयानुत्पत्ते रिति चेत्, सैव तावत्कि मिति चिन्त्यम् ? निश्चयान्तरोत्पादाद् इति चेत्, कथमनुभवान्तराद् निश्चयान्त रोत्पादः? तत्-तत्स्वभावत्वाद् इति चेत्, अनु Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 671 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस भवान्तरवद् न तस्य तत्त्वम्, तत्त्वे वा ततस्तदुत्पादे व्यवहारनियमोच्छेदः, एवं हि नीलाऽनुभवजन्योऽपि तन्निश्चयः पीताद्यनुभवस्य तत्स्वभावतया तज्जन्योऽपि सम्भाव्यत एव / एवमन्यत्राऽपि इति न न्यायविदस्ततो व्यवहारे नियमतः प्रवृत्तिर्युक्ता सर्वत्राऽऽशङ्कानिवृत्तेरिति, न अनिवृत्तिः सर्वत्र / बीजाभावाद् वैधhण साधाऽसिद्धेः, साधाच समारोप इति। इत्थमेव इदमिति चेत् / तत्त्वेनैव ग्रहणमित्यर्थः / एतदाशडक्याह-कथ व्यवधानसंभवः? नहि तस्य व्यवधानजनकत्वमित्यर्थः। ततः शुक्तिकाज्ञानाद् इन्द्रियजात्, तन्निश्च याऽनुत्पत्तेः-शुक्तिकानिश्चयाऽनुत्पत्तेः, व्यवधानसंभव इति चेत् / एतदाशड्क्याह- सैव तावद् निश्चयाऽनुत्पतिः, किं केन कारणेन? इति चिन्त्यम्, निश्चयान्तरोत्पादाद् रजतनिश्चयोत्पादात् इति चेत्, तन्निश्चयाऽनुत्पत्तिः / एतदाशड्ययाहकथमनुभवान्तरात्, शुक्तिकानुभवरूपात् निश्चयन्तिरोत्पादा रजतनिश्चयोत्पादः? तस्य शुक्तिकाऽनुभवस्य, तत्स्वभावत्वाद्-रजतनिश्चयोत्पादनरवभावत्वात, इति चेत्। एतदाशक्याह-अनुभवान्तरवद्रजतानुभववद् इत्यर्थः,न तस्य-शुक्तिकाऽनुभवस्य, तत्त्वंशुक्तिकानुभवतत्त्वम्, तत्त्वे वा-शुक्तिकाऽनुभवतत्त्वे वा, ततः शुक्तिकाउनुभवात, तदुत्पाद--निश्चयान्तरोत्पादे। किमित्याह- व्यवहारनियमोच्छेदः / एनमेव भावयन्नाह– एवं हीत्यादि / एवं यस्मात्, नीलानुभवजन्योऽपि तन्निश्चयो-नीलनिश्चयः पीताद्यनुभवस्य, तत्स्वभावतया नीलनिश्चयजननस्वभावतया, तज्जन्योऽपि-पीताद्यनुभवजन्योऽपि सम्भाव्यत एव, विजातीयशुक्तिकाऽनु--भवाद्-विजातीयरजत निश्चयोपपत्तेः, एवमन्यत्रापि रक्तादि-निश्चये, इति एवम्, नन्यायविदः पुरुषस्य, ततो निश्चयात, व्यवहारे प्रस्तुते, नियमतो-नियमन, प्रवृत्तियुक्ता। कुतो न युक्ता इत्याह- सर्वत्र विकल्पे, उत्थापकं प्रति आशङ्कानिवृत्तेः कारणात, न अनिवृत्तिराशङ्काया इति प्रक्रमः / कुत इत्याह-सर्वत्र बीजा-भावात् आशङ्काबीजाभावात्, किन्तु निवृत्तिरेव / प्रस्तुतभेवाऽऽह-वैधर्मेण हेतुना, साधासिद्धेः सर्वत्र / यदि नामैव ततः किमित्याह-साधम्याच्च- समारोप इति / अस्ति च शुक्तिकारजतयोः तद् इत्यभिप्रायः। यद्येवम्, स्थिरेतरादीनां किं साधर्म्यम्? क्व वा तेषां ग्रहणम्? येन अस्थिरादिषु तत्समारोपः / सदृशाऽपराऽपरोत्पत्तिविप्रलम्भात् अयमिति चेत्, किमिदं सजातीयेतरविविक्तैकस्वभावानां भावानां सादृश्यम्? कथं वा सदपि एतत् तदेकग्राहिणा ज्ञानेन गम्यते? तेषामेव तत्स्वभावतया तथा ग्रहणेन इति चेत्। आकालं तदेकग्रहणे कुतोऽयं नमस आप्तवादः? अनेकभिन्न-- कालभावग्रहणे च एकेन अपैति क्षणिकता / तथाविधभावाऽनुभवसामर्थ्यजनिश्चयात् तदवगम्यत इति चेत्, न युक्त-मस्य इमामक्र मागतामवगमश्रियं प्रतिपत्तुम, तत्पूर्व क्षणानां च न्यायतस्तद्रीजाभाव उक्तः। तथानुभवसिद्धत्वात् सर्व भद्रकमिति चेत्, न खलु अनुभव इत्येव तत्त्वव्यवस्थाहेतुः, न्यायबाधितस्य तदनुपपत्तेः, अस्य च उक्तवत् न्यायबाधितत्वात क्षणिकत्वेन तथाऽसम्भवाच्च / एतेन "यत्र तु प्रतिपत्तुभ्रान्तिनिमित्तं नास्ति तत्रैव अस्य दर्शनाविशेषेऽपि पाश्चात्यो निश्चयो भवति समारोप-निश्चययोबर्बाध्यबाधकभावात्" इति यदुक्तम्, तदपि प्रत्युक्तमेव, सर्वथैकस्वभावत्वे वस्तुनो दर्शने चेत्थममिधानाऽयोगात्, एकत्र भ्रान्तिनिमित्तसम्भवे सर्वत्र तदापत्तेः तत्तदेकस्वभावत्वतत्त्वात्, अन्यथा यत्र भ्रान्तिनिमित्तं न यत्रच अस्ति, अनयोः कथञ्चिद्भेद इति बलात् तदनेकस्व-भावता, शुक्तिकादावपि तन्नियमाऽभावाच, अतन्निबन्धनत्वे च निश्चयानां न तेभ्यस्तत्तत्त्वव्यवस्था इत्युक्तम्। एतदाशडक्याह-यद्येवम्, स्थिरेतरादीनां-नित्याऽनित्यादीनाम् 'किं साधर्म्यम् ? लक्षणभेदाद् न किञ्चिद् इत्यर्थः / क्व वा तेषां ग्रहणम्? नित्यानामभावेन तदयोगात्, येनाऽस्थिरादिषु भावेषु आदिशब्दाद्अनात्मादिग्रहः, तत्समारोपोनित्याऽऽत्मादिसमारोपः,सदृशाऽपरापरोत्पत्तिप्रलम्भात् कारणात्, अयमिति-आत्मादिसमारोपः, इति चेत् / एतदाश ड क्याह- किमिदं सजातीयेतरविविक्तेक स्वभावानां भावानाम्- अत्यन्तविलक्षणाना-मित्यर्थः, सादृश्यम्? न किञ्चित् / कथं वा सद् अपि एतत् सादृश्यम्, तदेकग्राहिणा तेषां भावानामेकग्रहणशीलं तदेकग्राहि तेन ज्ञानेन गम्यते? तदनेकग्रहणनान्तरीयकत्वात् तदवगमस्य न गम्यते इत्यर्थः। तेषामेवेत्यादि / तेषामेव भावानाम्, तत्स्वभावतया-सदृशस्वभावतया तथाग्रहणेनसदृशग्रहणेन, इति चेद् गम्यते। एतदाशङ्कयाह- आकालं यावदपि कालस्तावदपिसर्वकालमित्यर्थः, एकग्रहण सति कुतोऽयं "तेषामेव तत्स्वभावतया'' इत्यादिलक्षणः, नभसः-आकाशात् आप्तवादः? अनेकभिन्नकालभाव-ग्रहणे च एकेन प्रक्रमाद् ज्ञानेन। किमित्याह-अपैति क्षणिकता भावानामिति / तथाविधेत्यादि / तथाविधभावानुभवसामर्थ्यजनिश्चयात्- संतानप्रवृत्तान्त्यक्षणभावानुभववीर्योत्पन्ननिश्चयाद् इति भावः, तत्- सादृश्यम्, अवगम्यते इति चेत् / एतदाशङ्कयाह-न युक्तमस्य निश्चयस्य, इमामक्रमाऽऽगतामन्वयाभावेन, अव-गमश्रियंपदार्थतया विसदृशबोधरूपा प्रतिपत्तुम्, यदाह कश्चित्- "असत्सङ्गाद् दैन्यात् प्रखलचरितैर्वा बहुविधैरसद्भूतैर्भूतिर्यदि-भवति भूतेरभवनिः / सहिष्णोः सबुद्धेः परहितरतस्योन्नतिमतः, परा भूषा पुंसः स्वविधिविहितं वल्कलमपि // 1 // " स्वविधिश्च क्षणिकस्य परतो निरपेक्षिता इति भावनीयम्। तत्पूर्वक्षणानां च--विवक्षितक्षणभावानुभवपूर्वक्षणानां च, न्यायतोन्यायेन, निरन्वयनश्वरतया, तद्वीजाभावो-विवक्षितक्षणबीजाभावः, उक्तः प्राग नित्यानित्यवस्तुनिरूपणाधिकारे एकान्त इत्यादिना ग्रन्थेन। तथेत्यादि। तथाऽनुभवसिद्धत्वात-सदृशत्वेनानुभवसिद्धत्वात् कारणात्, स Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 672 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस थमस्तदुक्तम्, भद्रकमिति चेत् / एतदाशङ्कयाह- न खलुनैव अनुभव इत्येव एतावता अंशेन तत्त्वव्यवस्थाहेतुः / कथं न? इत्याह- | न्यायबाधितस्य अनुभवस्य तदनुपपत्तेः तत्त्वव्यवस्थाहेतुत्वानुपपत्तेः, नीत्या द्विचन्द्रानुभवादौ तथाऽभ्युपगमादिति / यदि नामैवं ततः | किमित्याह- अस्य नप्रक्रान्तसदृशानुभवस्य उक्तवद् यथोक्त तथा न्यायबाधितत्वात् क्षणिकत्वेश हेतुना तथा पदार्थ-बोधानुभवरूपेणासम्भवाच्च, तथाहि-निश्चयानुभवोऽपि क्षणिक एव इति भावना। एतेन इत्यादि / एतेन-अनन्तरोदितेन वस्तु-जातेन, "यत्र-तु | प्रतिपत्तुभ्रान्तिनिमित्तं नास्ति तत्रैव अस्य दशनाविशेषेऽपि वाश्मात्या निश्चयो भवति, समारोपनिश्चययो-बध्यिबाधकप्रवाद'' इति यदुक्तम् / तत् किमित्याह- तदपि प्रत्युक्तमेव / कथमित्याहसर्वथैकस्वभावत्वे वस्तुनो वाह्यस्य दर्शन च तस्य इत्थं यथोक्तं तथा अभिधानाऽयोगात्, अयोगश्च एकत्र वस्तुनि, भ्रान्तिनिमित्तसम्भवे सति, सर्वत्र तदापत्तेः-भ्रा-न्तिनिमित्तसम्भवापत्तेः, आपत्तिश्च तत्तदेकरवभावत्वतत्त्वात्-तस्य वस्तुनो भ्रान्तिनिमित्तसम्भवकस्वभावत्वरूपत्वात्। अन्यथेत्यादि। अन्यथा-एवमनभ्युपगमे,यत्र वस्तुनि भ्रान्तिनिमित्तम, न घटपटादौ, यत्र च अस्ति शुक्तिकारजतादों; अनयोः वस्तुनोः, कथञ्चित् स्वभावभेदः, वस्त्वभेदेऽपि स्वसत्ताभेदः, इति-एवम्, बलात् तदने कस्वभावता; तस्य-वस्तुनः, सामान्य नाऽने कस्वभावता, तदेकान्तैकस्वभावत्वे तु न एतद् उत्पद्यते इति / उपपत्त्यन्तरमाहशुक्तिकादावपि-शुक्तिकारजतादौ अपि, तन्नियमाऽभावाच्च-प्रक्रमाद् भ्रान्तिनिमित्तसम्भवस्वभावत्वनियमाऽभावाच्च, बलाद् तदनेकस्वभावता इति वर्तते / तथाहि-न शुक्तिकादौ, अपि सर्वस्य समारोप एव कस्यचिद् दर्शनाद् अनन्तरं शुक्तिकानिश्चयः, अपरस्य तदा तत्रैव समारोप इति न एतद् एकान्तकस्वभावत्वे वस्तुन इति भावनीयम् / अतद्- इत्यादि। तद्-वस्तु, निबन्धनकारणम्, येषां ते तन्निबन्धना न तन्निबन्धना अतन्निबन्धनास्तगावस्तस्मिन्, अतन्निबन्धनत्वे च-- अवस्तुनिबन्धनत्वे इत्यर्थः / केषामित्याह-निश्चयानां न तेभ्योनिश्चयेभ्यः, तत्तत्त्वव्यवस्थावस्तुतत्त्वव्यवस्था,इति उक्तं प्राक्।। एवं च यत्र स्वत एव निश्चयः स प्रत्यक्षः, यत्र तु न सोऽनुमेय | इति सन्न्यायप्राप्तिः, अन्यथाऽसमञ्जसत्वात् / न चैवं सविकल्पकप्रत्यक्षवादिनोऽपि अनेकस्वभावत्वाद् वस्तुनः क्षयोपशमवैचित्र्येण तथानिश्चयप्रवृत्तौ कश्चिद् दोषः, निरुपचरिततन्निबन्धनभावात् / दृश्यते च कथञ्चिद् एकत्र एव एकाऽनेकप्रमात्रपेक्षः शब्दलिङ्गाऽध्यक्षैः प्रतीतिभेदः, तथाहि-अत्र निकु ज्जे वह्निरस्तीति शब्दतस्तथाविधदेशमात्रावच्छिन्नमनिसामान्य प्रतीयते, धूमदर्शनात् तु विशिष्ट देशावच्छिन्नस्तद्विशेषः, अध्यन्न-तस्तु विशिष्टतरो ज्वालादिरित्याऽऽगोपालाङ्गनाप्रसिद्धत्वाद् अत्याज्य एव इति। एवं च सन्न्यायसिद्धे प्रमाणानां वस्तुविषयत्वे यदुक्तं पुरस्तान् "नहि अन्य एव अन्योपकारको नाम'' इत्यादि, तदयुक्तमेव / परमार्थतो निर्विषयत्वात्। न च वस्तु अपि तदेकमनेकधर्मोपकारकशक्तिमद् इष्यते जैनेः, एकाऽमेक-स्वभावत्त्वाऽभ्युपगमात् पृथग्भूतधर्म्यसिद्धेः / इति कृतमत्र प्रसङ्गेम॥ एवं च यत्रांऽशे वस्तुज्ञानसंबन्धिाने नीलादौ, स्वत एव निश्चयः समारोपट्यवच्छेदमन्तरेण, स प्रत्यक्षोऽशः, यत्र तु अनित्यत्वादी, सोऽनुमेय इति सन्न्यायप्राप्तिः। कुत इत्याह- अन्यथाऽसमज-सल्वात् इत्येतच निदर्शितमसकृत / यदि नामैवं ततः किमित्याह- न चैवं सविकल्पकप्रत्यक्षवादिनोऽपि वादिनः, अनेकस्वभावत्वाद् वस्तुनः, क्षयोपशमवैचित्र्येण हेतुना, तथानिश्चयप्रवृत्तौ अनन्तरोदितक्रमण कश्चिद् दोषः, कथं नदोषः? इत्याह-निरुपचरिततन्निबन्धनभावाद्वास्तवप्रवृत्तिनिबन्धनभावादित्यर्थः। अमुमेवाऽर्थमुपदशयति-दृश्यते चेत्यादिना / दृश्यते च कथञ्चिद् एकत्रैव वस्तुनि, एकाऽनेकप्रमात्रपेक्षः शब्दलिङ्गाऽध्यक्षैः-आगमानुमानप्रत्यक्षैः प्रतीतिभेदः, तथाहि- 'अत्र निकुञ्ज वह्निरस्ति' इति शब्दतः-शब्दात् तथाविधदेशमात्राऽवच्छिन्न सद् अग्निसामान्य प्रतीयते,धूमदर्शनात् तु विशिष्टदेशावच्छिन्नस्तद्विशेषः-अग्निविशेषः पूर्वसामान्यापेक्षया, अध्यक्षतस्तु प्रत्यक्षेण पुनः, विशिष्टतरा ज्वालादिः प्रतीयते इति, आगोपालाङ्गनाप्रसिद्धत्वात् कारणात, अत्याज्य एष प्रतीतिभेद इति / एवं च सन्न्यायसिद्धे सति, प्रभाणाना-प्रत्यक्षादीनां वस्तुविषयत्वे यदुक्तं पुरस्तात् पूर्वपक्षग्रन्थे'नहि अन्य एवअन्योपकारको नाम" इत्यादि / तत् किमित्याहतदयुक्तमेव परमार्थतो निर्विषयत्वात् तस्य उक्तस्य। न चत्यादि / न च-वरत्वपि तद्- एकं सद्- अनेकधर्मोपकारकशक्तिमद् इष्यते वैशेषिकैरिव जैनैः / कुत इत्याह-एकानेकस्वभावत्वाभ्युपगमात् कारणात्, पृथग्भूतधर्म्यऽसिद्धधर्मधर्मिस्वभावत्वाद् वस्तुनः, इति कृतमत्र प्रसङ्गेन। यच्चोक्तम्-"समारोपनिश्चययोर्बाध्यबाधकभावाद" इति, एतदप्ययुक्तम् / परनीत्या समारोपनिश्चययोर्भ दाऽसिद्धेः समारोपस्यापि निश्चयत्वात्, तदभावभावित्वस्य च उभयत्राविशेषात्, पौर्वापर्यस्य च अनियामकत्वात् क्वचित् तस्याऽपि तुल्यत्वात् / अनित्यादिप्रतिपत्तावपि पुनर्नित्यादिनिश्चयोपलब्धेः वस्तुन एव पारम्पर्येण तद्भावाद्, तदन्यतराऽपरनिमित्तत्वे तदितरत्र तन्निमित्तत्वानाश्चासात्, विशेष-हेत्वभावात् अनित्यस्यापि अर्थक्रियायोगादिति निर्लोठयिष्यामः। यच्चोक्तमधिकृतपूर्वपक्षे-"समारोपनिश्चययोर्बाध्यबाधकमा-वाद" इत्येतदपि अयुक्तम् / कथमित्याह- परनीत्या समारोपनिश्चययोमैदासिद्धः,असिद्धिश्वसमारोपस्याऽपि शुक्तिकादौ रजतादिरूपस्य निश्चयत्वात्, तथाहि-शुक्तिकायां रजतनिश्चय एव समारोपः, तदभावभावित्वस्य च-शुक्तिकाद्यभावभावित्वस्य चशब्दाततदनुभवोपादानप्रस्य च, उभयत्र समाक्षेपे निश्चये नाटिशेषात्, नहि Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 673 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस अत्र अन्यत् समारोपस्यापि उपादानम्, अपि तु-अधिकृतानुभव एव पौर्वापर्यस्य च पूर्व समारोपः पश्चान्निश्चय इत्येवंभावस्य च अनियामकत्वाद् भेदे प्रति, तथा क्वचिद् तस्यापि पौर्वापर्यस्य तुल्यत्वात् / एतदेवाह- अनित्यादिप्रतिपत्तावपि सत्यां तथागत वचनादेः, पुनार्नेत्यादिनिश्वयोपलब्धः कपिलादिवचनादेः, वस्तुन एव सकाशात तस्या नित्यादिनिश्चयोपलब्धेः पारम्पर्येण भावात्, तदाश्रयत्वाद् वचनप्रवृत्तः। यद्वा-वचनमन्तरेणाऽपि स्वत एव कृचिदेवंभावात्, तथाहिवस्तुनि अनित्यत्वविकल्पोऽपि भवति, नित्यत्वविकल्पोऽपि भवतीति लौकिकमतत् / एवं च सति तदन्यतरापरनिमित्तत्वे तयोः- समारोपनिश्चययोरन्यतरल्य-समारोपस्य, अपरनिमित्तत्वे अभ्यु-पगम्यमाने, तदितरत्र अपि निश्चये, तन्निमित्तत्वानाश्वासात्-अधिकृतवस्तुनिमित्तत्वाना श्वासात्। इह तावद् अनित्यादिप्रतिपत्तिर्वस्तुनिमित्ता इति भवतो मतम्, इहापि अनाश्वासः, तत्तुल्ययोगक्षेमाया नित्यादिनिश्चयोपलब्धेः अतन्निमित्तत्वाभ्युपगमाद इति भावः / अनाश्वासश्वविशेषहेत्वभावाद् द्वयोरपि, तथा--दर्शनानन्तरभावित्वेन नित्यस्य सत्ता एव असंभविनी, क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियायोगाद् इति। विशेषहेतुनिराचिकीर्षया आहअनित्यस्यापि निरन्वयक्षणस्थितिधर्मिणः, अर्थक्रियाऽयोगाद इत्येतद निर्लोटयिष्यामः पुरस्ताद, अत एतद् अपि अयुक्तमिति स्थितम्।। किञ्च-समारोपव्यवच्छेदभावाविशेषाद् अनुमानविकल्पवत् कथं रूपादिविकल्पो न प्रमाणम् ? समुद्भूतसमारोपव्यवच्छेदेन अभावादिति चेत् / न / क्वचित् तथाऽपि भावदर्शनेन अविरोधात्, शुक्तिकाशकलादौ रजतादिसमारोपव्यवच्छेदेन तद्भावात् न च-नसोऽपि रूपादिविकल्पः तन्मात्रहेतुत्वात,न च तत्त्वत एक स्याऽपि तदितरनाशनेन प्रवृत्तिः,नाशस्य निर्हेतुकत्वाऽभ्युपमात् तदभाव एव तद्भावोपपत्तेः / लिङ्गलिनिसम्बन्धस्मरणादिनाऽप्रवृत्तेरिति चेत्, कोऽयं गुणे भवतो दोषाभिनिवेशः? वस्तुसमारोपाभावेऽय उपयोगात्, न च- | नाऽसौ रूपादिविकल्पस्याऽपि तदभावे तत्प्रवृत्त्यनुपपत्तेः इति नानयोर्विशेषः। स खलु गृहीतग्राही एव, प्रत्यक्षप्रतिभासिनोऽर्थस्य परामर्शात्,नहि अनुमानविकल्पोऽपि नैवमिति परिभाव्यतामेतत्। अभ्युचयमाह- किश्वेत्यादिना / किंच-समारोपव्यवच्छेदभावा- | विशेषात, कारणात्, अनुमानविकल्पवद इति दृष्टान्तः, कथं रूपादिविकल्पो न प्रमाणं प्रमाणलक्षणयोगेऽपिः एतदाशङ्कयाहसमुद्भूतसमारोपव्यवच्छेदेन अभावाद् इति चेत् / न हि अयमनुमानविकल्पवत् समुद्भूतसमारोपव्यवच्छेदेन भवति। एतदाशङ्क-याहम. यादि / न, वचिद्-वस्तुनि, तथापि-समुद्भूतसमारोपव्यवच्छदेनाऽपि भावदर्शनेन-उत्पाददर्शनेन हेतुना, रूपादिविकल्पस्य | अविरोधात प्रमाणत्वस्य / एतदेवाऽऽह-शुक्तिका-शकलादौवस्तुनि, रजतादिसमारोपव्यवच्छेदेन तद्भावात्-शुक्तिकादिविकल्पभावात् / नचेत्यादि। न च न सोऽपि-शुक्ति-काविकल्पो रूपादिविकल्पः, किन्तु रूपादिविकल्प एव / कुत इत्याह-तन्मात्रहेतुत्वाद्-रूपादिमात्रहेतुत्वात. न च तत्त्वतः-परमार्थेन, एकस्याऽपि-अनुमानविकल्पस्य रूपादिविकल्पस्य वा; तदितरनाशनेनसमुद्भूतसमारोपनाशनेन, अञ्जसा प्रवृत्तिः। कुतो न इत्याह नाशस्य निर्हेतुकत्वाऽभ्युपगमात्तथा तदभावे एव-समारोपाऽभावे एव, तद्भावोपपत्तेः- अनुमानादिविकल्पभावोपपत्तेः / इहैव परिहारान्तरमुपन्यस्यन्नाह- लिङ्ग लिङ्गिसंबन्धस्मरणादिना प्रकारेण, अप्रवृत्तेः कारणाद् इति चेत्, रूपादिविकल्पो न प्रमाणमिति प्रक्रमः / एतदाशङ्ख्याह- कोऽयं गुणे भवतो दोषाभिनिवेशः? ननु लिङ्ग लिङ्गि संबन्धस्मरणादिप्रवृत्तिमन्तरेण तद्भवनं गुणः / प्रस्तुतसमर्थनाय आह--वस्तुसमारोपाऽभावे अस्य अनुमानविकल्पस्य उपयोगात्, न च-नासौ रूपादिविकल्पस्यापि वस्तुसमारोपाभावे उपयोगः, किन्तु अस्त्येव / कुत इत्याह-- तदभावे-वस्तुसमारोपा-भावोपयोगाभावे समारोपभावेन, तत्प्रवृत्त्यनुपपत्तेः-रूपादिविकल्प-प्रवृत्त्यनुपपत्तेः, अस्ति च प्रवृत्तिरिति नानयोरनुमानविकल्परूपादि-विकल्पयोर्विशेषः, अतः कथमनुमानविकल्पवद्रूपादिविकल्पो न प्रमाणमित्याख्येयमेतत् / प्रस्तुतमाचिख्यासुराह- स खल्वित्यादि। स खलु-प्रक्रमाद् रूपादिविकल्पः / किमित्याह- गृहीतग्राही एव / कुत इत्याह-प्रत्यक्षप्रतिभासि नोऽर्थस्य रूपादेः, परामर्शात कारणात्, स हि तमेव स्पृशति नाधिकं परिच्छिनत्ति, अतो न प्रमाणमिति / एतदाशङ्ख्याह-नहीत्यादि / नहि अनुमानविकल्पोऽपि नैवम्, किं तर्हि एवमेव-गृहीतग्राही एव, इत्यादि परिभाव्यतामेतत् / स्वभावहेतो सुज्ञानमेव कृतकस्य एव अनित्यत्वात्, कार्यहतौ अपि वह्निजन्यस्वभावो धूमः, तत्त्वेनप्रत्यक्षेण प्रतिभासंते, अन्यथा तत्प्रतिभासाभाव एवेति भावनीयम्। नहि प्रत्यक्षं भागश उत्पद्यते, निरंशत्वात्, सत्यं न उत्पद्यत इति / अनुमानविकल्पपरामर्शालम्बनमपि तत्र गृहीतमेव केवलं गृहीतेऽपि येष्वाकारेषु, न तदनन्तरमेव निश्चयोत्पत्तिर्भूयसा व्याप्तिदर्शनात्तु भवति, तद्विषय एव अनधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वात, प्रमाणमनुमानविकल्पो नेतर इति, यत्किञ्चिदेतत्, अनालोचिताभिधानत्वात्। अनालोचिताभिधानत्वं च ग्राह्ये आकाराभावात् सर्वथा एकस्वभावत्वाभ्युपगमात् परिकल्पितानामसत्वात् तत्त्वेन, तत्सत्त्वे नियमतोऽतिप्रसङ्गात तथा युक्तितो व्याप्त्यसिद्धेः अतद्भावस्य कथञ्चिद् भेदनिमित्तत्वात्, अन्यथा तदयोगाद्। नहि अभेदवत एव अनित्यत्वस्य स्वात्मना व्याप्तिः, न च भिन्नयोरेव हिमवविन्ध्ययोः तथाऽनधिगतार्थाधि Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 674 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस गन्तृत्वाभावात्, वस्तुरूपस्य अध्यक्षत एव अभिगमात्, स्वाधिगमस्य च इतरत्रापि भावात्, तदन्यस्य च इतरत्रापि अभावादिति / एवं प्रवर्तकत्वादि अपि अस्य समानमितरेण, तत्रापि रूपादिनिश्चयादेव प्रवृत्तेः / व्यवहारे प्रमाणमेवाऽयमिति चेत्, क्व तर्हि अप्रमाणमिति? रूपादावेव इति चेत्,कुतोऽयं तत्राऽकारणो द्वेषः? प्रागेव तदधिगमादिति चेत्, समानोऽयं त्वन्नीत्या अनित्यत्वादी, तथापि न तद्वत् तदर्शनमिति चेत्, न तर्हि प्राक् तद्वत् तदधिगमोऽन्यथा रूपादिनिश्चयवत् स्यात् तदा एवाऽयं निमित्ताविशेषात्, तदधिगमस्यैव तत्त्वतस्तन्निमित्तत्वात् वाधकानुपपत्तेः विशेषेण भावात् एकान्तैकत्वात्, अन्यथा तदनुपपत्तेः। तथा च आह-न हि प्रत्यक्ष भागशो-भागेन उत्पद्यते, कुत इत्याह-. तस्य निरंशत्वात्-सुलक्षणमेतद् इति निरंशम्, सत्यं नोत्पद्यते भागशः प्रत्यक्षम् , इति- अस्मात् अनुमानविकल्पपरामर्शाऽऽलम्बनम् अपि, तत्र वस्तुनि, गृहीतमेव-प्रक्रमाद् प्रत्यक्षेण, केवलं गृहीतेऽपिसति, येषु आकारेषु-अनित्यत्वादिषु, न तदनन्तरमेव-न दर्शनाऽनन्तरमेव, निश्चयोत्पत्तिः, भूयसा--बाहुल्येन, व्याप्ति दर्शनात्तु-अविनाभावदर्शनन पुनर्भवति, तद्विषय एवअनित्यत्वादिविषय एव, अनधिगतार्थाधिगन्तृत्वात् कारणात्, प्रमा-णमनुमानविकल्पो नेतरो-रूपादिविकल्प इति / एतदाशङ्कयाह यत् किञ्चिदेतत्-अनन्तरोदितमसारमित्यर्थः / कुत इत्याह- अनालोचिताभिधानत्वात् कारणात्, अनालोचिताभिधानत्वं च ग्राह्ये वस्तुनि आकाराभावात्, अभावश्च सर्वथा--एकान्तेन, एकस्वभावत्वाभ्युपगमाद् वस्तुन इति, परिकल्पितास्ते इति / एतदपोहाय आह- परिकल्पितानाम्- आकाराणाम्, असत्त्वात् तत्त्वेन, तत्सत्त्वेपरिकल्पिताऽऽकारसत्त्वे, नियमतो –नियमेन, अतिप्रसङ्गात् परिकल्पनया विरोध्याऽऽकारभावेनतथा युक्तितो न्यायतः, व्याप्त्यसिद्धेः कारणात्, असिद्धिश्च तद्भावस्यव्याप्ति-भावस्य,कथश्चिद् भेदनिमित्तत्वात् व्याप्यव्यापकयोरिति प्रक्रमः किमित्येतदेवमित्याहअन्यथा-एवमनभ्युपगमे, व्याप्यव्यापकयोः एकान्ताभेदादी इत्यर्थः, तदयोगात्- व्याप्तिभावायोगात् / एतदेव भावयति- नहीत्यादिना न यस्मात्, अभेदवत एव एकान्तै-कस्य एव इत्यर्थः, अनित्यत्वस्य स्वात्मना अनित्यत्वेन एव व्याप्तिः,अनित्यत्वस्य अनित्यत्वेन व्याप्तिरिति व्यवहाराऽयोगाद् / न च भिन्नयोरेव एकान्तेन हिमवद्विन्ध्ययोरिति भावनीयम्। तथा अनधिगतार्थाऽधिगन्तृत्वाऽभावाद् अनुमानविकल्पस्य। अभावश्च वस्तुरूपस्य अध्यक्षत एव-प्रत्यक्षेण एव इत्यर्थः, अधिगमात्, ततश्च आत्मानमेव अधिगच्छति अनुमानविकल्प इति पराभ्युपगमः। एनमेवाधिकृत्य आह-स्वाधिगमस्य च इतरत्रापि रूपादिविकल्पे भावात्, तदन्यस्य च अनधिगतस्य, इतरत्राऽपि अनुमानविकल्पेऽपि अभावात्, इति अनालोचिताऽभिधानत्वमिति / एवं प्रवर्तकत्वादि अपि अस्य प्रक्रमाद अनुमानविकल्पस्य समानम्, इतरेण रूपादिविकल्पेन / कुत इत्याह-तत्राऽपिरूपादिविकल्पे सति, रूपादिनिश्चयादेव प्रवृत्तेरिति, व्यवहारे-प्रवृत्त्यादिरूपे, प्रमाणमेवाऽय, रूपादिविकल्प इति चेत् / एतदाशङ्कयाह-वतर्हि अप्रमाणमिति? रूपादौ एव इति चेत् अप्रमाणम, कुतोऽयं तत्र रूपादौ, अकारणो द्वेषः? प्रागेव अविकल्पेन, तदधिगमात्रूपाद्यधिगमात् इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- समानोऽयम्-अधिगमः, त्वन्नीत्या अनित्यत्वादौ अनुमेये तथाऽपि एवमपि, नतद्वद्-रूपादिवद् तद्दर्शनम्-नित्यत्वादिदर्शनमिति चेत्। एतदा-शक्याह-न तर्हि प्राग् अविकल्पेन, तद्वद्-रूपादिवत्, तदधि-गमः-अनित्यत्वाद्यधिगमः, अन्यथा यदि स्यात, ततो रूपादि-निश्चयवत्, स्यात्, तदा एवाय नित्यत्वादिनिश्चयः / कुत इत्याह-निमित्ताऽविशेषात् अविशेषश्च तदधिगमस्य एव अविकल्पेन रूपाद्यधिगमस्य एव, तत्त्वतः-परमार्थेन, तन्निमित्तत्वात-अनित्यादिनिश्चयनिमित्तत्वात्, बाधकानुपपत्ते: रूपादिनिश्चयानुमानेन, तथा च आह-अविशेषेण भावात् रूपाद्यधिगमवद् अनित्यत्वाद्यधिगमत्वेन भावात्, भावश्च एकान्तैकत्वात् अधिकृताधिगमस्य / इत्थं च एतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा तदनुपपत्तेः / एकान्तै-कत्वाऽनुपपत्तेरधिकृतानुभवस्य रूपादिनिश्चयवत् स्यात् तदा एव अयमिति स्थितम्। दूषणान्तरमभिधातुमाहकिश्च-अयमधिकृ ताधिगमः किं स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभावः? उतसमारोपजननस्वभावः? आहोस्विद्-उभयजननस्वभावः? उताहो-अनुभयजननस्वभाव इति? यदि स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभावः, निरवकाशः समारोपः, न चासौ अन्यनिमित्तोऽनिमित्तो वा / अथ समारोपजननस्वभावः, कुतोऽस्माद् निश्चयजन्म, अतत्स्वभावभावे अतिप्रसङ्गात् / उभयजननस्वभावत्वे विरोधः,न्यायाऽविरोधेऽपि अभ्युपगमबाधा। अनुभयजननस्वभावत्वे तदुभयाभावः, तथा च प्रतीतिविरोध इति / एकान्तेन च निर्विकल्पकप्रत्यक्षवादिनो न न्यायतो रूपादिनिश्चयाऽनुमान-निश्चययोर्भ द इति सूक्ष्मधिया भावनीयम्। कि होत्यादि। किश-अयमधिकृताधिगमः अविकल्परूपः, किं स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभवः? उतसमारोपजननस्वभावः? आहोस्विद् उभयजननस्वभावः? उताहो-अनुभयजननस्वभाव इति? किश्चातः? सर्वथाऽपि दोष इति। आह च-यदि स्वगृहीतनिश्वयजनन स्वभावः / ततः किमित्याह-निरवकाशः समारोपः तन्निमित्ताधिगमस्य स्वगृहीतनिश्चयजननस्वभाव चात्, न च असौ-समारोपः अन्यनिमित्तोऽनिमित्तो वा, किं तर्हि : अधिकृताधिगमनिमित्त एव, तदा अन्यस्य अभावात्। अथ समारोपजनन Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 675 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस स्वभावोऽधिकृताधिगमः, कुतोऽस्माद् निश्चयजन्म? कथं च न स्याद? इत्याह- अतत्स्वभावात्- अधिकृताधिगमात्, समारोपजनस्वभावत्वेन भावनिश्चयजन्मनः अतिप्रसङ्गात्, तद्वद् निश्चयान्तरभादेन / उभयजननस्वभावत्वेस्वगृहीतनिश्चयसमारोपोभयजननस्वभावत्वे विरोधः, न्यायाविरोधेऽपि तत्तथाचित्रस्वभावतया अभ्युपगमबाधा-- अनेकान्तवादापत्तेः / अनुभयजननस्वभावत्वे अधिकृताधिगमस्य / किमित्याह- तदुभयाऽभावो निश्चयसमारोपोभयाभावोऽस्तु इति आरेकाऽपाहायाऽऽह-तथा च एवं च सति प्रतीतिविरोधः, तदुभयस्य तथावेदनात, इति-एवमुक्तनीत्या.एकान्तेन निर्विकल्पप्रत्यक्षवादिनो वादिनः, न न्यायतः-उक्तनीत्या, रूपादिनिश्चयाऽनुमाननिश्चययोर्भेद इति-एतद्, सूक्ष्मधिया भावनीयम्। कथं तर्हि अनुमानविकल्पो नाऽनन्तरम्? सन्न्यायतोऽ-- क्षज्ञानेन तद्विषयानधिगतेः। वस्तुनोऽनेकधर्मत्वात् क्षयोपशमवैचित्र्याद् इत्युक्तप्रायम् / अतो न निर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षम्। आह- यदि एवम्, कथं तर्हि अनुमानविकल्पो न अनन्तरंदर्शनस्य इति प्रक्रमः ? एतदाशझ्याह-सन्न्यायतः-तत्त्वनीत्या, अक्षज्ञानेनअविकल्पेन, तद्विषयानधिगते:-अनुमानविकल्पविषयानधिगतेः कथं कस्यचिद् अधिगतिः, कस्यचिद् न इत्येतदपि युक्तिमदिति? एतदाशङ्कयाह- वस्तुनोऽनेकधर्मत्वात् एतदपि युगपदेव प्रायशः इत्याह.. क्षयोपशमवैचित्र्याद इत्येतदउक्तप्रायम् / प्रायेण उक्तम् अता न निर्विकल्पकमेप प्रत्यक्षमिति निगमनम्। लक्षणायोगाच, 'प्रत्यक्ष कल्पनापो ढमभ्रान्तम्" इति लक्षणम्, न चैतद् न्याय्यं परनीत्याऽनेकदोषापत्तेः, कल्पनापोढत्वस्य अव्यापकत्वात्, कल्पनायामपि स्वसंविदः प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात्, तस्याश्च तदव्यतिरिक्तत्वात्, व्यतिरिक्तत्वेऽधिकृतविशेषणायोगात्, तत्त्वतो व्यवच्छेद्यानुपपत्तेः अवस्तुत्वात् कल्पनायाः। स्वसंविदा तत्त्वेतरविकल्पाभ्यां दोषापादनमयुक्तमिति चेत् / न / तदवस्तु तत्त्वेन विकल्पधियोऽभावप्रसङ्गात्, स्वसं विन्मात्रस्यैव भावात्, असत्योपरागायोगात् क्लिष्टताऽसिद्धेरिति। तथा लक्षणाऽयोगाच ननिर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षमिति / लक्षणाऽ- ! योगमाह- "प्रत्यक्ष कल्पनापोढमभ्रान्तम्" इति लक्षणं परकीयम, न च एतद् न्याय्यम् / कुत इत्याह- परनीत्या अनेकदोषापत्तेः अस्य लक्षणस्य, आपत्तिश्च कल्पनापोढत्वस्य लक्षणत्वेन उपन्यस्तस्य अव्यापकत्वात् / अव्यापकत्वं च कल्पनायामपि स्वसविदः परेण / प्रत्यक्षत्वाभ्युपगमात्, कल्पनाऽपि स्वसंवित्ताऽधिष्ठानार्थे विकल्पनाद् इति / तस्याश्च कल्पनायाः, तदव्यतिरिक्तत्वात्- स्वसंविदव्यतिरिक्तत्वात् / इत्थं चैतत् अङ्गीकर्तव्यमित्याह-व्यतिरिवतत्वे कल्पनायाः, स्वसंविदोऽभ्युपगम्यमाने। किमित्याह- अधिकृतविशेष गायोगारा, अयोगश्च तत्त्वतः-परमार्थन, व्यवच्छेद्यानुपपतेः सर्वस्या एव रवसविदः कल्पनापोढत्वात् / अत्राह-अवस्तुत्वात् कल्पनाया स्वरांविदा सह तत्वेतरविकल्पाभ्यां तत्त्वाऽन्यत्वविकल्पाभ्यामित्यर्थः, दोषापादनमनन्तरादितमयुक्तमिति चेत्। एतदाशझ्याह-न नैतद् एवम, तदवर तुत्वंन तस्याः- कल्पनायाः अवस्तुत्वेन हेतुना / किमित्याहविकल्पधियः कल्पनाबुद्धेः अभावप्रसङ्गात्, प्रसङ्गश्च स्वसंविन्मात्र एव भावात, सर्वत्र 'इयमेव कल्पना उपरक्ता विकल्पधीः' इत्यपि अराद / इति आवेदयन्नाह- असत्याः कल्पनायाः अवस्तुत्वन / किमित्याह- उपरागायोगात् स्वसंविदेवक्लिष्टा विकल्पधीः, इत्यपि अयुक्तिमद्, इत्याह-क्लिष्टताऽसिद्धेरिति स्वसंविन्मात्रत्वेन, अतः स्थितमेतत्, न च एतद् न्याय्यमिति। किञ्च-एकान्तवादिनः सर्वथा कल्पनाऽपोढत्वे कल्पनाऽपोढकल्पनातोऽपि अपोढत्वात् कल्पनाऽपोढत्वलक्षणायोगः। प्रत्यक्षसामान्य लक्षणविषय इति चेत्।न। तस्य ततो व्यतिरिक्तेतरविकल्पायोगात्, व्यतिरिक्तत्वे न तदध्यक्षलक्षणम्, अव्यतिरिक्तत्वे तु उक्तवल्लक्षणायोगः1 निरूपणाऽनुस्मरणविकल्पाभ्यामविकल्पकं स्वभावविकल्पेन तु सविकल्पकमिति चेत् / न / विरोधात्, अन्यथा अनेकान्तापत्तेः स्वाभ्युपगमपरित्यागादिति। दूषणान्तरमाह- किशोत्यादिना / किञ्च, एकान्तवादिनो वादिनः एकान्तेन कल्पनापोढमेतत्, ततश्च सर्वथा कल्पनापोढत्वे सति / किमित्याह- कल्पनापोढकल्पनातोऽपि अपोढत्वात् कारणात्, कल्पनापोढत्वलक्षणाऽयोगः, तत्र तद्योग्यताऽभावादिति / प्रत्यक्ष-- सामान्यम् अप्रत्यक्षव्यावृत्तिरूपम् लक्षणविषय इति चेत् तत्र तद्योगता इति भावः / एतदाशडक्याह-न,तस्य- प्रत्यक्षसामान्यस्य,ततःप्रत्यक्षात्। किमित्याह-व्यतिरिक्तेतरविकल्पा-यामयोगात्। आह चव्यतिरिक्तत्वे प्रत्यक्षात् तत्सामान्यस्य न तदध्यक्षलक्षण तद्व्यतिरिक्ततासामान्यलक्षणत्वात्, अव्यतिरिक्तत्वे तु प्रत्यक्षात् तत्सामान्यस्य, उक्तव यथोक्तं तथा। किमित्याह-लक्षणाऽयोगः तत्र तद्योग्यताऽभावाद् इति / अत्राह-निरूपणाऽनुस्मरणविकल्पाभ्याम्-एवंभूतमेतद् इति, तदात्वे आयत्यां चैतद्गोचराभ्यामविकल्पकमेतत्, स्वभावविकल्पेन तु कल्पनापोढस्वभावत्वलक्षणेन सविकल्पकमेव इति चेत् / एतदा-. शङ्कयाह- न, विरोधात् 'अविकल्पकं सविकल्पकं च' इति विरोधः. अन्यथा निमित्तभेदतो विरोधमन्तरेण। किमित्याह- अनेकान्तवादापत्तेः / ततः किमित्याह- स्वाभ्युपगमपरित्यागाद् नेति योगः। एवमभ्रान्तत्वविशेषणमपि असङ्गतमेव, परनीतितो व्यवच्छेद्याऽयोगात्। इन्दुद्वयादिज्ञानं व्यवच्छेद्यमितिचेत्।न।तस्याऽभ्रान्तत्वात्, एतच लक्षणोपपत्तेः तस्याऽपि तत्प्रकाशकस्वभावहेतुजत्वतश्च भ्रान्तताऽसिद्धेः, अन्यथा तदयोगात, तस्य चाऽनुभवसिद्धत्वात्, न च बहिस्तद्विषयानुपलब्ध्या तत्सिद्धिः, तद्ग्रहणस्वभाव-- Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस धिया तद्विषयानुपलब्ध्यसिद्धेः, अन्यथाऽनुपलब्धौ तद्भावा-- ऽसिद्धरतिप्रसङ्गात्। न चाऽतैमिरिकस्याऽपि तत्प्रत्ययप्रसङ्गः, तस्य तिमिरतदन्यहेतुजन्यस्वभावत्वात्, अतैमिरिकाणां च तदभावात् तथा लोकप्रसिद्धेः / न च बाधातोऽस्य भ्रान्तता, बाधाऽसिद्धः भिन्नकालविषयप्रत्ययेन तदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्, क्वचिद् अभ्रान्तस्याऽपि असदिौ तदन्यतो बाधोपलब्धेश्च / न चाऽनर्थक्रियाकरणतः, अप्राप्यदेशगतजलादिज्ञानेन व्यभिचारात्,संविन्मात्रार्थक्रियाविधाने चास्य इतरत्रापि तद्भावात् तथाप्रतीतेः, न च लोकप्रतीतितः, अभ्युपगमविचाराद् तेन च तदप्राप्तेः, तस्य च इहाधिकृतत्वादिति अलमनया लोकागमानुभवविरुद्धया अतिसूक्ष्मेक्षिकया उक्तवत् सर्वत्र असमञ्जसतापत्तेः / यस्तु लोकादिसापेक्षः तस्यैव तद्भेदस्य विददङ्गनादिलोकप्रतिष्ठितत्वात् अविगानतस्तथाऽप्रतीतेः तद्व्यवस्थाकारिसदागमभावाद् उक्तदोषाभाव इति। एवं यथा कल्पनापोढत्वविशेषणम्. तथा अभ्रान्तत्वविशेषणमपि असंगतमेव / कुत इत्याह- परनीतितो व्यवच्छेद्याऽयोगात् / इन्दुद्वयादिज्ञानम्-आदिशब्दाद्-वियत्के शज्ञानादिग्रहः, व्यवच्छेद्यमिति चेत् / एतदाशङ्कयाह-न, तस्य इन्दुद्वयादिज्ञानस्य अभ्रान्तत्वात्, एतच्चाऽभ्रान्तत्वं तल्लक्षणोपपत्तेः-अभ्रान्तलक्षणोपपत्तेः, उपपत्तिश्च तस्याऽपि इन्दुद्वयादिज्ञानस्य,तत्प्रकाशकस्वभावत्वेन-- इन्दुद्वयादिप्रकाशकस्वभावत्वेन, तादृक्फलजननस्वभावहेतुजत्वतश्च इन्दुद्वयादिज्ञानजननस्वभावहेतुत्पन्नत्वेन च अस्य भान्तताऽसिद्धेः, अन्यथा-एवमनभ्युपगमे, तदयोगात्- इन्दुद्वयादिज्ञानाऽयोगात, तस्य च इन्दुद्वयादिज्ञानस्य अनुभवसिद्धत्वात् / न च बहिर्वियदादौ, तद्विषयाऽनुपलब्ध्याइन्दुद्वयादिज्ञानविषयाऽनुपलब्ध्याकारणेन, तत्सिद्धिः-भ्रान्ततासिद्धिः / कुत इत्याह-तद्ग्रहण - स्वभावधिया-बहिस्तद्विषयग्रहणस्वभावधिया ; इन्दुद्वयादिग्रहणस्वभावबुद्ध्या इत्यर्थः तद्विषयानुपलब्ध्यसिद्धेः-इन्दुद्वयादिज्ञानविषयानुपलब्ध्यसिद्धः, तद्ग्रहणस्वभावा हि तद्गृह्णात्येव, अन्यथा तत्स्वभावताऽयोगः / अन्यथेत्यादि / अन्यथा अतद्ग्रहणस्वभावया धिया इति प्रक्रमः, अनुपलब्धिः बहिस्तद्विषयस्य इति प्रक्रम एव इत्यन्यथानुपलब्धिस्तस्याम् / किमित्याह- तदभावाऽसिद्धेः- बहिस्तद्विषयाऽभावाऽसिद्धेः इन्दुवयाद्यभावासिद्धेरित्यर्थः / कुत इत्याह- अतिप्रसङ्गात्-पटादिग्रहणस्वभावया धिया घटो न गृह्यत इति तस्यापि अभावप्रसङ्गाद इत्यर्थः / न चेत्यादि। न च अतैमिरिकस्याऽपि प्रक्रमात् / प्रमातुः तत्प्रत्ययप्रसङ्गः-इन्दुद्वयादिप्रत्ययप्रसङ्गः, तदस्ति इति कृत्वा / कुत इत्याह- तस्ये-त्यादि / तस्य-इन्दुद्वयादिप्रत्ययस्य तिमिरसहायतदन्यहेतुजन्य-स्वभावत्वात् तिमिरसहायचक्षुरादिजन्यस्वभावो हि इन्दुद्वयादिप्रत्ययः / यदि नामैवं ततः किमित्याह-अतैमिरिकाणां च प्रमातृणाम्, तदभावात्-तिमिराऽभावात, ततश्च कारणवैकल्यात कार्याऽभाव इति स्थितम् / इत्थं च एतदङ्गीकर्तव्यमित्याह तथा लोकप्रसिद्धेः अतैमिरिकाणां तिमिराऽभावेन न इन्दुद्वयादिप्रत्यय इति लोकप्रसिद्धेः / न चेत्यादि / न च बाधातः कारणात्, अस्य इन्दुद्वयादिज्ञानस्य इति प्रक्रमः भ्रान्तता / कुत इत्याह-बाधासिद्धेः तस्यैव तिमिराऽपगमे एकेन्द्वादिज्ञानभावतो बाधा। इत्यारेकानिरासाय आहभिन्नेत्यादि। भिन्नौ कालविषयौ यस्य स भिन्नकालविषयः, एवंभूतश्चासौ प्रत्ययश्व इति विग्रहस्तेन, तदभ्युपगमेबाधाऽभ्युपगमे / किमित्याहअतिप्रसङ्गात्-सर्व एवंभूतः तदन्यस्य बाधक इति अतिप्रसङ्गः। दोषान्तरमाह-क्वचिदित्यादिना / क्वचिद् मन्दमन्दप्रकाशादौ. अभ्रान्तस्याऽपि प्रक्रमाद् ज्ञानस्य, असदिौ-- असपादिविषयस्य, तदन्यतो भ्रान्ताद्ज्ञानाद् इति प्रक्रम एव। किमित्याह-बाधोपलब्धेश्व तथा रज्जुचलनादेः सर्पज्ञाने न तदसर्पज्ञानस्य, इति नाऽलौकिकमेतद् अतो भावनीयमिति / दोषान्तरमभिधातुमाह-न चेत्यादि / न घ अनर्थक्रियाकरणतोऽस्य भ्रान्तता इति वर्तते। कुत इत्याह-अप्राप्यदेशगतजलादिज्ञानेन व्यभिचाराद्इति भावितार्थमतत्। संविन्मात्राऽर्थक्रियाविधाने च अस्य-अनन्तरोदितज्ञानस्य। किमित्याह-इतरत्राऽपि प्रक्रमाद् इन्दुद्वयादिज्ञानेऽपि, तद्भावात्- संविन्मात्राऽर्थक्रियाविधानभावाद, भावश्च तथाप्रतीतेः / न चेत्यादि / नचलोकप्रतीतितोऽस्य भ्रान्तता इति प्रक्रमः / कुत इत्याह-- अभ्युपगमविचारात / यदि नामैत ततः किमित्याह- तेन च- अभ्युपगमेन, तदप्राप्तः- उक्तवद् भ्रान्तताऽप्राप्तेः, तस्य च-अभ्युपगमस्य, इह-प्रक्र मे अधिकृतत्वात्, ततश्चततो यत् सिद्ध्यति तत् तत्त्वम्, अतोऽन्यद् अतत्त्वमित्यलमनया एवंभूतया, लोकाऽऽगमाऽनुभवविरुद्धया अतिसूक्ष्मेक्षिकया। किमित्यत आह- उक्तवद्- यथोक्तं तथा, सर्वत्र असमञ्जसतापत्तेः, अतो जातिरियमिति प्रतिपत्तव्या सर्वत्र तत्त्वेन। यस्तु लोकादिसापेक्षोलोकाऽऽगमाऽनुभवसापेक्षो वादी इति गम्यते, तस्य उक्तदोषाऽभाव इति संबन्धः / कथमित्याह-एतद्भेदस्य-प्रक्रमाद् भान्तेतरज्ञानभेदस्य, आविद्वदङ्गनादिलोकप्रतिष्ठितत्वात् कारणात्, एतत्-प्रतिष्ठितत्वं च अविगानतस्तथा भ्रान्तेतरत्वेन प्रतीतेः, तथा तव्यवस्थाकारिसदागमभावाद्-- अधिकृतैतद्भेदव्यवस्थाकारिसर्वज्ञप्रणीतागमभावादित्यर्थः, उक्तदोषाऽभावः जातियुक्तिर्धान्तेतरज्ञानयोः समत्वाऽऽपादनमुक्तो दोषस्तदभावः, उपन्यस्तहेत्वन्यथानुपपत्तिरिति। दूषणान्तराभिधित्सयाऽऽह-- किश-निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमित्यत्र न प्रमाणं,तेनैव तदनधिगते : अर्थविषयत्वात् तस्य च ततोऽन्यत्वात्, तथाहि न तन्निर्विकल्पकत्वमेव तदर्थः, न चानों विषयः, न चाऽविषयेऽधिगतिरिति न तत्रास्य प्रमाणता, अतिप्रसङ्गात् / उभयं विषय इति चेत् / न। उभयोस्तलक्ष Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 677 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस णायोगात् स्वनिर्विकल्पकत्वस्य तदकारणत्वात्, अकारणस्य चाऽविषयत्वात्, अन्यथा अभ्युपगमविरोधात्। एतेन स्वसंविदितत्वं प्रत्याख्यातम्। किश्चेत्यादि / 'केंच-निर्विल्पकं प्रत्यक्षम् इति-अत्रार्थ न प्रमाणम् / कुत इत्याह- तेनैव-प्रत्यक्षेण, तदनभिगते:- तस्य निर्विकल्पकस्य अनधिगतेः, अनधिगतिश्च अर्थविषयत्वात्प्रत्यक्षस्य,तस्य च-अर्थस्य, ततः-प्रत्यक्षाद् अन्यत्वात्. प्रस्तुतैदपर्यमाह- तथाहीत्यादिना। तथाहि- न तद निर्विकल्पकत्वमेव-अधिकृत-प्रत्यक्षनिर्विकल्पकत्वमेव, तदर्थः-प्रत्यक्षाऽर्थः,न च अनर्थो विषयः- ''रूपाऽऽलोकमनस्कार-चक्षुद्यः संप्रवर्तते। विज्ञानं मणिसूर्याऽशुगोशकृय इवाऽनलः ||1||'' इति वत्तनात्, न च अविषये अधिगतिः, अपन्यायाद, इतिएवम, नतत्र-निर्वेकल्पकत्वे, अस्य-प्रत्यक्षस्य प्रमाणता।कुतइत्याहअतिप्रसङ्गात्-विषयलक्षणाऽयोगेन प्रमाणताभ्युपगमे सर्वत्र प्रमाणतापनिरिति अतिप्रसङ्गः, उभयम्-स्वनिर्विकल्पकत्वार्थोभयम्, विषयः प्रत्यक्षरय इति चेत् / एतदाशड्क्याह-न / उभयोः-स्वनिर्विकल्पकत्वार्थयोः तल्लक्षणाऽयोगात्-विषयलक्षणाऽयोपात्, अयोगश्च स्वनिर्विकल्पक न्यस्यतदकारणत्वात्प्रत्यक्षाऽकारणत्वात्, अकारणस्य च अविषयत्वा / / इत्थं चैतद् अड्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथाभ्युपगमविरोधात् / विरोधश्च "नाऽकारण विषयः" इति वचनप्रामाण्यात्, तदयं नोभयं विषय इति / एतेनेत्यादि / एतेन-अनन्तरादितेन, स्वस वेदितत्वं प्रत्याख्यात प्रत्यक्षस्य इति प्रक्रमः। अनेन विषयाऽवेदनप्रसङ्गात् सर्वथैकस्वभावत्वाद्,निर्वि-- षयतापत्तेः / न च स्वसंवेदनमेव विषयवेदनम्। तयोः कालादिभेदात्, तद्वेदनस्यैकत्वाभावात् तच्चित्रताप्रसङ्गादित्येकस्वभावत्ववस्तुवादिनः, अन्याऽवेदनप्रसङ्ग एव / एवं च सति स्वनिर्विकल्पकत्ववेदनात, तत्सामर्थ्यतस्तत्पृष्ठभावी विकल्पः स्वतस्तद्विषय एव स्यात् रूपादिविकल्पवत्, न च भवति तथाऽप्रतीतेः, न च तमन्तरेण, तत्तथाताव्यवस्थितिरतिप्रसङ्गादिति, एतेन यदाह न्यायवादी"प्रत्यक्ष कल्पनापोडं, प्रत्यक्षेणैव सिद्ध्यति। प्रत्यात्मवेद्यः सर्वेषां, विकल्पो नाम संश्रयः / / 1 / / संहृत्य सर्वतश्चिन्तां, स्तिमितेनाऽनन्तरात्मना। स्थितोऽपि चक्षुषा रूप-मीक्षते साऽक्षजा मतिः॥२॥ पुनर्विकल्पयन् किञ्चि-दासीन्मे कल्पनेदृशी। इति वेत्ति न पूर्वोक्ता-वस्थायामिन्द्रियाद् गतौ // 3 // " इत्यादि,तदपाकृतमवसेयम्, उक्तवत्प्रत्यक्षेणैव असिद्धेः | तदेकस्वभावत्वविरोधादिति। इहैव उपचसमाह- अनेन-स्वसंविदितेन प्रत्यक्षेण / किमित्याह- | विषयाऽवेदनप्रसङ्गात्, प्रसङ्गश्च सर्वथा एकस्वभावत्वाद् अस्य। एवमपि | को दोष इत्याह-निर्विषयतापत्तेः स्वसंविदितत्वेन / न चेत्यादि। न च स्वसंवेदनमेव विषयवेदनम् / कुत इत्याह- तयोः- स्वविषययोः, कालादिभेदात आदिशब्दात-स्वरूपग्रहः / यदि नामैव ततः किमित्याहतद्वेदनस्यतयोः स्वविषययोर्वेदनं तद्वेदनं तस्य / किमित्याहएकत्वाऽभावात् उभयवेदनेन, अत एव तचित्रताप्रसङ्गाद् इत्येवमेकस्वभावत्ववस्तुवादिनो वादिनः / किमित्याह-अन्याऽवेदनप्रसङ्गः एवस्वव्यतिरिक्तविषयाऽवेदनप्रसङ्ग एव इत्यर्थः, एवं च सतिस्वनिविकल्पकत्ववेदनात् कारणात्, तत्सामर्थ्यतः-स्वनिर्विकल्पकत्ववेदनसामर्थ्येन हेतुना, तत्पृष्ठभावी विकल्पः- प्रक्रमात् सामान्येन प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पः, स्वतः-आत्मना एव समारोपव्यवच्छेदमन्तरेण, तद्विषय एव स्यात्-स्वनिर्विकल्पकत्ववेदनविषय एव भवेत् रूपादिविकल्पवद् इति; निदर्शनम् / नच भवति स्वत एव, तथाऽप्रतीतेः कारणात्, न च तमन्तरेण विकल्पम्, तत्तथाताव्यवस्थितिः-तस्य प्रत्यक्षस्यतथाताव्यवस्थितिः स्वनिर्विकल्पकत्ववेदनभावव्यवस्थितिः स्वसंविदितत्वव्यवस्थितिरित्यर्थः / कथं न इत्याह- अतिप्रसङ्गात् विषयान्तरविषयवेदनाऽभावप्रसङ्गादिति, एतेनअनन्तरादितेन, यदाह न्यायवादी धर्मकीर्तिवार्तिक- "प्रत्यक्षमित्यादि" तदपाकृतमवसेयमिति योगः-प्रत्यक्ष प्रस्तुतम्, कल्पनापोढमित्येतत् प्रत्यक्षेणैव सिध्यति। कथमित्याह-प्रत्यात्मवेद्यो यस्मात् सर्वेषां प्रमातृणाम्, विकल्पो नामसंश्रयः शब्दानुविद्ध इत्यर्थः / / 1 / / तथा संहृत्य सर्वतश्चिन्ता विकल्परूपाम्,स्तिमितेन अन्तराऽऽत्मना-प्रसन्ननियापारेण, स्थितोऽपि सन्, चक्षुषा रूपमीक्षतेपश्यति, यथा बुद्ध्या सा अक्षजा मतिः / / 2 / / ईक्षित्वा पुनर्विकल्पयन् किंचित् पश्चाद् आसीद् मे कल्पना ईदृशी एवंभूता इति वेति, न पूर्वोक्तावस्थायां चक्षुषा रूपेक्षणलक्षणायाम्, इन्द्रियाद् गती 13|| इत्यादि यदाह न्यायवादी तद् अपाकृतम्-अपास्तमवसेयम्। कथमित्याह-उक्तवत्-यथोक्तं तथा, प्रत्यक्षेण एव असिद्धेः-प्रत्यक्षेणैव सिध्यति इत्यस्य असिद्धेः, असिद्धिश्च तदेकस्वभावत्वविरोधात् तस्य प्रत्यक्षस्य-एकस्वभावत्वविरोधात् स्वविषयपरिच्छेदकत्वेन इति भावितार्थमतदिति। सामान्यसिद्धावनुमानप्रामाण्य निरस्यतिन चानुमानमत्र प्रमाणम्, अस्य स्वलक्षणत्वात् अनुमानस्य च सामान्यसक्षणालम्बनत्वात्, न चेदं परपक्षे चारु, गमकलिङ्ग ऽसम्भवात् स्वभावकार्याऽसिद्धेः स्वभावस्य तादात्म्येन तत्त्वात् तद्वत् तदग्रहणात्, तद्ग्रहे साध्यप्रतिपत्तेः, तदप्रतिपत्ती तद्ग्रहणाऽयोगात् एकान्तैकत्वात्, तथाग्रहे मोहाऽभावात्, भावे वा निवृत्यनुपपत्तेः उपायाऽभावादिति। अनेन शिंशपादिप्रतिपत्तौ वृक्षाऽप्रतिपत्तिः प्रत्युक्ता, तुल्ययोगक्षेमत्वात्,अन्यथा कथञ्चित् तद्भेदापत्तेः / व्यावृत्तिभेदोऽभ्युपगम्यत एव इति चेत्, न तर्हि तदेकस्वभावता। सोऽपार-मार्थिक इति चेत्, किमर्थमस्योप Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साम विरोस 678 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस न्यासः? व्यवहारार्थमिति चेत् कीदृशोऽसता व्यवहारः? | परमार्थतो भ्रान्त इति चेत्, न तत्त्वतः साध्यसाधनभाव इति। एतेन "सर्व एव अयमनुमानाऽनुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्मधर्मिन्यायेन'' इत्येतदपि प्रत्युक्तम्, अस्य तावदाऽ-- प्रतिबद्धत्वात्, तस्य एकत्वेन अतथाभूतत्वात् नीलात् नीलपीतबुद्ध्याकारतुल्यत्वात् परप्रतिपादनोपायत्वानुपपत्तेरतिप्रसङ्गादिति न स्वभाव-हेतोस्तदवगतिः। नचेत्यादिनच अनुमानगर प्रक्रमाद निविदा प्रत्यक्षस्य माणमा कुतइत्याह / अस्य प्रत्यक्षरथ रवाना वा / यदि नानव . किमित्याह- जनुभानस्य च सामान्यलक्ष नात्यान, तत् कथम अन्याःम्बनमन्यत्र प्रमाण भवति? यणान्तरमाह-न मित्यादि। नचाइदम् अनुमानम्, परपक्षे-एकान्तकस्वभाववादियक्ष, पर म जाला सभवात, असंभवश्व स्वभावकार्याऽसिद्धेः .. "अभाव कार्य च स्वभावकार्ये लिये इति प्रक्रमः तयोरसिद्धः, असिद्धिश्च स्वभावस्य सत्त्वादेः तादात्म्येन--साध्यात्म्येन हेतुना, तत्त्वात् -स. यन्वात्। यदि नामैवं ततः किमित्याह-तद्वत साध्यवत्, उदाहणात - स्वभाऽग्रहणात् / इत्थं चैतद अलीत यमित्याहतदा हे एचभावा लाध्यप्रतिपत्तेः / नान्यथा इदांमत्या. तदप्रति. तीसाध्या प्रतिमा तदग्रहणाऽयोगात-स्वभावग्रहागाश्यांगात, अयोगश्च एका कमात् प्रक्रमात् साध्यहेत्वोः / मोहव्यावृत्त्यर्थमपि 3,त्य प्रवृत्तिरयुक्तः इत्याह-तथाग्रह- एकत्वेन ग्रहे मोहाऽभावात्, भावे या लयाग्रह विमोहस्थ किमित्याह-निवृत्त्यनुपपत्तेः, अनुपपत्तिश्च जासभावात्त स्वरूपग्रह पि तन्मोहस्य निवृत्ती 3 उपाय इति? ... अनन्तरोविन शिशपादिप्रतिपत्ता सत्या वृक्षाप्रतिपत्ति: जन्युक्ता ! कुतियाह तुल्यायोगमवा-शिश:वस्थस्य वृक्षा-वाद स्थय / अन्य यादि। अन्यथा एकमनभ्युपगम कथंचितदात शिववृत्तवार्भशपत्तः, यावृत्तिभेदोऽभ्युपगम्यत तव शिंशपा.वृक्षत्वर! शारवाचिकृत इनित्यत्वकृतकत्वयोर्वा इति चेत् / एतदाशङ्कयाह--न ताहं लदक-स्वभावताशिंशपादः एकस्वभावता, सव्यावृमि मदः, अपारमार्थिक इति च / एतदाशयाह--किमर्थमस्य अपारमार्थिकरय उपन्यासः? व्यवहारार्थमिति चेत् / एतदाशङ्कयाह... कीदृशा सता व्यवहारः? परमार्थता भान्त इति चद् व्यवहारः / सदा व्याह नया:-परमार्थन, साध्यसाधनभाव भान्तहाविधरावादिति / एतेन इत्यादि / एतन- अनन्तरादितन, "सर्व एव अयमा बुद्धमा सढनधर्मधामन्यायन इत्येतपि भवता उक्त प्रत्युक्तमा कुत इत्याह-- अस्थतावद बुद्ध्याऽऽरूदस्य धर्मनिभावर२६, 12 प्रतिबद्धत्पाद वरत्वप्रतिबद्ध दात अप्रतियस्वं च तस्य अर्थस्य, एक वेन-एकस्वभावत्वेन हतना अलथाभूतन्यात धर्मधर्मितया अभूतत्वात् / रादि नामैनं ततः किमिन्याह-नीलात् सकाशात्, नीलपीतबुद्ध्याऽऽकारतलगन्दार बुद्ध्या ऽरूढधर्मधर्मिभावस्य ततोऽभावादित्यर्थः, ततः परप्रतिपादनोपायत्वाऽनुपपत्तेः, तद सदरूपतया नाऽसत उपायत्दन 1 इत्याह- अतिसङ्गात्-असत उपायत्ये सर्वसिद्ध्यापत्त्या अतिप्रमा.. इत्येवमुक्त् नीतः असिद्धेर्न स्वभावहेतोः सकाशात्, तदवगतिः-प्रक्रमात् प्रत्यक्षनिर्विकल्पकत्वाऽवगतिः। सामान्यसिद्धी कार्यहेतुता निरस्त्यतिएवं न कार्यहेतोरपि, तन्निर्विकल्पकत्वकार्यत्वेन कस्यचिद् असिद्धेः, सदा एकेन एकवेदनात्, सत्कार्यत्वस्य च तदवधिकत्वात् तदग्रहणे तथा अग्रहणात, अन्यथा न्यायाऽयोगात् / तत्तत्स्वभावत्वतः तथाग्रहणेऽतिप्रसङ्गात्, अन्यतरदर्शनात् अन्यतरदर्शनात त्यतराऽवगमापत्तेः तथा विशिष्टस्य ग्रहणात्, अभ्युपगमे अनुभवविरोधात, अविनाभावग्रहणमन्तरेण तदयोगात्, लोके तथोपलब्धेः तस्य च परपक्षेऽभावात्, ज्ञानानां प्रतिनियताऽर्थत्वात् तत्तथाऽभावतोऽनुसन्धानाऽयोगात्, तथाविधविल्पकस्याऽपि असिद्धेः, तस्याऽपि क्षणिकत्वात्, तथा तत्तन्निश्चयाऽनुपपत्तेरित्यत्राऽपिबुद्ध्यारूढधर्मधर्मिन्यायतोऽपि अधिकृतव्यवहाराऽभावः, उक्तवद् न्यायतस्तदयोगात्, योगेऽपि अभिलषितार्थाऽसिद्धिरेव। अर्थस्याऽर्थगमकत्वाऽभ्युपगमात् तत्तथातायां च निश्चयाऽभावात्, तस्य तद्विषयत्वाऽनभ्युपगमात्, पारम्पर्यतस्तत्तद्भावे प्रमाणाऽभावात्, परनीतितस्तदसिद्धेरिति। एतेन धूमात् अग्न्यनुमानं निषिद्धम्, समानयुक्तित्वादिति / यस्य पुनरन्वयव्यतिरेकवत् एकाऽनेकस्वभावं निश्चयात्मकमेव प्रत्यक्षं तस्य उक्तदोषाऽभावः, सर्ववानुपचरितनिबन्धनभावात्, प्रतीतिसचिवतचित्रस्वभावतया तदविरोधात् इत्यलं प्रसङ्गेना एवमित्यादि / एवं न कार्यहतोरपि सकाशात् तदवगतिरिति प्रक्रमः युतो न इत्याह - तन्निर्विकल्पकत्वकार्यत्वेनप्रत्यक्षनिर्विकल्पकत्यकार्यत्वेन कस्यचित् पदार्थस्य, असिद्धेः कारणात्, असिद्धिश्व सदासर्वकालम, एकन ज्ञानेन इति सामर्थ्यम. एकवदनाद -एकवार : यद्येवं ततः किभित्याह- तत्कार्यत्वस्य च प्रक्रमात् प्रत्य..कलाकन्वकार्थत्वस्य च / किमिरसा -- तदबधिक का- नाम विधिनत्वात / एवमपि किमित्या महाविवक्षिताऽ: हाति: किमित्याह- तथा तदवधिकत्वेन अग्रहणात् / इत्य च एतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अनयथा--एवमनभ्युपगमे, न्यायाऽयोगात, अयोगश्चतत्तत्स्वभावत्वतः, तस्य-विवक्षितकारणकार्यत्वस्य तत्त्वभावतातः-तदवधिकरवभावत्वतः तज्जन्यत्वेन,तथा तदवधिकत्वेन ग्रहण सति। किमित्याहअतिप्रमात / ततः किमित्याह-अन्रातरदर्शनाद् हेतुफलयोः। किमित्याह Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस अन्यतराऽवगमापत्तेः हेतुफलयोरेव, आपत्तिश्च तथा इतरेतराऽवधिकत्वेन, विशिष्टस्य तत्स्वभावतया ग्रहणात् / अस्त्वेवमित्यधिकृत्य आह-अभ्युपगमे-अधिकृतग्रहणस्य अनुभवविरोधात्, विरोधश्च अविनाभावग्रहणमुभयगतमन्तरेण, तदयोगात-तथाविशिष्टस्य ग्रहणाऽयोगात्,अयोगश्च लोके तथोपलब्धेः अविनाभावग्रहणमन्तरेण संबन्धिनः संबन्ध्यन्तरविशिष्टतया अग्रहणोपलब्धेः / अविनाभावग्रणात्, एतदेव भविष्यति इत्याह-तस्य च-अविनाभावग्रहणस्य परपक्षे अभावात्, अभावश्च ज्ञानानां प्रतिनियताऽर्थत्वात् क्षणिकत्वेन, यथोक्तम्- "एकमर्थ विजानाति, न विज्ञानद्वयं यथा। विजानाति न विज्ञानमेकमर्थद्वयं तथा // 1 // " इत्यादि / तत्तथेत्यादि। तस्य-हे तुज्ञानस्य, तथा फलज्ञानत्वेन, अभावतः कारणात् / किमित्याह-अनुसन्धानाऽयोगात् 'अत इदम्' इत्यनुसन्धानम्, तथाविधविकल्पस्याऽपि तत्पृष्ठभाविनः असिद्धेः, असिद्धिश्च तस्याऽपिविकल्पस्याऽपि, क्षणिकत्वात्, स्वसंविनिष्ठितत्वेन, ततश्च तथा इतरेतराऽवध्यनुसन्धानत्वेन, तत्तन्निश्चयाऽनुपपत्तेः प्रक्रमात् तस्य कस्यचित्, तन्निश्चयः तन्निर्विकल्पकत्व-कार्यत्वनिश्चयः तत्तन्निश्चयः तस्य अनुपत्तिः ततः, न कार्यहतोरपि तदवगतिरिति क्रियायोगः / अत्राऽपिकार्यहतौ अपि, बुद्ध्यारूढधर्मधर्मिन्यायतोऽपि अधिकृतव्यवहाराऽभावः-अनुमानाऽनुमेयव्यवहाराऽभावः। कुत इत्याह-उक्तवत् यथोक्तं तथा, न्यायतो-न्यायेन, तदयोगात्-अधिकृतव्यवहाराऽयोगात्, योगेऽपि बुद्ध्यारूढधर्मधर्मिन्यायेन अधिकृतव्यवहारस्य अभिलषिताऽर्थाऽसिद्धिरेव / कुत इत्याह- अर्थस्य अर्थगमकत्वाऽभ्युपगमात् / यदि नामैवं ततः किमित्याह-तत्तथातायां च अर्थाद् अर्थगमकतायां च निश्चयाऽभावात्, अभावश्च तस्य-अर्थस्य, तद्विषयत्वाऽभ्युपगमाद्विकल्प-विषयत्वाऽनभ्युपगमात्, पारम्पर्यतः-पारम्पर्येण, तत्तद्भावे तस्य विकल्पस्य तस्माद्-अर्थाद् भावे / किमित्याह- प्रमाणाऽभावात्. अभावश्च परनीतितः--परनीत्या, तदसिद्धेः-प्रमाणासिद्धेः, स्वलक्षणात्-स्वलक्षणज्ञानं ततो विकल्प इति। नहि एवं स्वलक्षणसामान्यलक्षणाऽऽलम्बन परनीत्या प्रमाणमस्ति, इति भावनीयम्, एवमभिलषिताऽर्थाऽसिद्धिरेव इति / एतेनेत्यादि। एतेन–अनन्तरोदितेन, धूमाद् अग्न्यनुमानं निषिद्धम् / कुत इत्याह-समानयुक्तित्वाळूमाद् अग्न्यनुमानस्य। न च अयं सर्वस्यैव वादिनो दोष इत्याह-यस्य पुनरित्यादि। यस्य पुनर्वादिनः, अन्वयव्यतिरेकवद् नित्यानित्यमित्यर्थः, अत एव एकाऽनेकस्वभावं निश्चयात्मकमेव प्रत्यक्षम्- 'इदम्- इत्थमिति' तस्य उक्तदोषाऽभावः, निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमित्यत्र न प्रमाण तेनैव तदनधिगतेः, अर्थविषयत्वाद् इत्येवमादयः, उक्ता दोषाः तदभावः / कथमित्याह-सत्र-सविकल्पकादौ निरूप्ये। किमित्याह- अनुपचरितनिबन्धनभावात-तात्त्विकनिबन्धनभावादित्यर्थः / अत एव आह प्रतीत्यादि / तस्य प्रत्यक्षस्य, चित्रस्वभावता स्वविषयग्रहणरूपाविच्छिन्नार्थग्रहणस्वभावसंवेदनवेदनेन तच्चित्रस्वभावता, प्रतीतिसचिवा चासौ तथाप्रतीतेः तच्चित्रस्वभावताच इति विग्रहः, तया प्रतीतिसचिवतच्चित्रस्वभावतया कारणेन, तद्विरोधात्- प्रक्रमाद् उक्तदूषणविपक्षतः, सविकल्पकत्वादौ तेनैव तदनधिगत्याद्यविरोधात्, अविरोधश्व पूर्वपक्षग्रन्थाऽनुसारतः प्रतिपक्षोपन्यासेन स्वतन्त्रनीत्या स्वयमेव भावनीय इति अलं प्रसङ्गेन। अस्तु वा निर्विकल्पकमपि प्रत्यक्षम्, तत्र असाधारणमेव वस्तु प्रतिभासते इत्येतद् अयुक्तम्, न्यायाऽनुभवविरोधात् / तत्प्रतिभासो हि निश्चयबलेन व्यवस्थाप्यते, अन्यथा तदयोगात, भावतस्तेनैव तदनधिगतेस्तथा अनुभवाऽभावात्, एवमपि तत्कल्पने अतिप्रसङ्गापत्तेः नियामकाऽभावादिति / न च द्राग्दर्शनात् तन्निश्चयः अपि तु सदादिमात्रस्य, अतः प्रथमाऽक्षसन्निपाते तदेव प्रतिभासत इति एतत् युक्तम्, सितेतरादिषु अपि क्षिप्रादिदर्शने तावन्मात्रनिश्चयात्, न च तत्र तदग्रहणमेव, तथा अनुभवविरोधात्, नच अन्यथाग्रहणेऽन्यथानिश्चयोत्पादः प्रमाणाऽभावात्। न च सन्नपि अयं न्याय्यः असमञ्जसत्त्वापत्तेः, न च वैभ्रमिक एवं अयम्, तद्भावभावित्वोपलब्धेः। अवग्रहादपि अयमयुक्त इति चेत् / सत्यम्, अदोषस्तु तन्मात्राऽनभ्युपगमात् / एवमपि दृष्टबाधा इति चेत् / न / अन्तरालाऽवायत एव तद्भावात् / कथमेतत् अवगम्यत इति चेत्? अवग्रहबोधस्य अल्पत्वात् / यदि नामैवं ततः किमिति चेत्? नाऽसौ विशिष्टाध्यवसायबीजम्, यस्तु भवति सोऽवान्तराऽवायरूपः, अवायबहुत्वात्। एवं सद्रव्याद्यनेकस्वभावं वस्तु तदितरधर्माऽऽलोचनेन समानधर्मव्यवच्छे दतः तद्वोधपूर्वकत्वात्, तदितरबोधस्य तथाऽनुभवतस्तत्तथास्वभावत्वाऽवगमात्, प्रथममेव विशेषाऽग्रहणात् इन्द्रियद्वारेणैव तथाऽर्थविशेषप्रतिपत्तिः,सकललोक सिद्धत्वात् / अन्यथा तदनुपपत्तेः, द्राग्दर्शने क्वचिदभावात् शीघ्राऽवगमस्याऽपि दीर्घत्वात् कालसौक्ष्म्यादिति / वस्तुनोऽनेकस्वभावात् सर्वेषां सदा भावात, अन्यथा तदनुपपत्तेश्चित्राऽऽस्तरणवद् एकदैव किं नाऽर्थविशेषप्रतिपत्तिः? येन 'एतदेवम्' इति ग्रहीतुः क्षयोपशमाऽभावादित्युक्तप्रायम् / इहैव उपचयमाह-अस्तुवा इत्यादिना। अस्तुवा-भस्तुवा, निर्विकल्पकमपि प्रत्यक्षम् , तत्र निर्विकल्पके प्रत्यक्षे, असाधारणमेवसजातीयेतरविविक्तमेव, वस्तुरूपादि, घटादि, प्रतिभासते। इति-एतद् अयुक्तम्अघटमानकम् / कुत इत्याह-न्यायाऽनुभवविरोधात्-न्यायप्रधानोऽनुभवो न्यायाऽनुभवः तेन विरोधात् / अथवा न्यायोयुक्तिः,अनुभवः--प्रत्यक्षम्, ताभ्यां विरोधाता एनमेवाऽऽह-तत्प्रतिभासो हि इत्यादिना। तत्प्रतिभासोहि Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 680 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस प्रत्यक्षाऽऽकारो यस्माद् निश्चयबलेन व्यवस्थाप्यते, अन्यथा निश्चयबलमन्तरेण, तदयोगाद् व्यवस्थाऽयोगात्, अयोगश्च भावतः परमार्थन, तेनैवनिर्विकल्पकप्रत्यक्षेण, तदनधिगतेः- प्रत्यक्षाऽऽकारस्याऽनधिगतेः, अनधिगतिश्च तथा स्वाऽऽकारगृहणतया अनुभवाभागात, एवमार्च-अनुभवाऽभावेऽपि, तत्कल्पने--तेनैव तदधिगतिकल्पन, अतिप्रसङ्गापत्तः प्रतिभासान्तरकल्पन-या इति भावः / 5 चैतद अङ्गीकर्तव्यमित्याह- नियामकाऽभावादिति, अतः स्थितमेतद अयुक्तमिति। न चेत्यादि। न च द्रागदर्शनात्-शीध्रदर्शनान, तन्निश्वरा:पक्रमाद् असाधारणटस्तुनिश्चयः, अपि तु- सदाधिमा स्य नियमः, अत:- अस्मात् कारगात. प्रथमाऽक्षसन्निपात अवग्रहणकाल तदेव सामान्य प्रतिभासते, इति एतद् युक्तम् / उपपत्यन्तरगाहरितेतरादिष्वपि क्षिप्रादिदर्शने आदिशब्दाद्-मन्ददर्शनग्रहः, तावन्मात्रनिश्चयात-सदादिभात्रनिश्चयात्, न च तत्र क्षिप्रादिदर्शन, तदग्रहणमेव-- सदा-दिभात्राग्रहणमेव / कुत इत्याह- तथा सदादिमात्रनिश्चयत्वेन अनुभवविरोधात्, न च अन्यथाग्रहणे--सितेतरादित्वन ग्रहणे इत्यर्थः, अन्यथा सदादिमावत्वेन निश्चयोत्पादः / कुत इत्याह-प्रमाणाऽभावात्। न च सन्नपि अयम् अन्यथा ग्रहणे अन्यथा निश्च--योत्पादो न्याय्यः / कुत इत्याह-असमञ्जसत्वापत्तेः सितेतरा-दिव्यवस्थाभावेन, न च वैभ्रमिक एव अय-प्रक्रमाद् द्रागदर्शनेन निश्चयः सदादिमात्रस्य / कुत इत्याह- सद्भावभावित्वोपलब्धेः- सदादिमात्रभावभावित्वोपलब्धेः, अग्रहाद् अपि अनिर्देश्यसदा-दिमात्रगोचराद्। अयं सदादिनिश्चयः न शब्दाऽरूषितत्वेन युक्त इति चेत् . एतदाशङ्कयाह- सत्यम, एवमता, अदोषस्तु तन्मात्राद् अवगृहमात्रात् अनिर्देश्यसदादिमागोचरात, अनभ्युपगमात् ५५...दिमावनिश्यस्य / एवमपि दृष्टबाधा इति चततदननारमेव भाला अधिकृतनिश्चयस्य, इत्यभिप्रायः / एस्दाशझ्याह-- न. अन्तरालाऽवायद एक गेयत्वाद्यपेक्षया सदसदीहात्तरकालभाविनः सकाशान, तब सदादिमात्रनिश्चयभावात, शब्दाऽरूपिता धाऽन . न्तरभार्थः एव असिवय इत्यर्थः / कथमतद-अनन्तरादितमवगम्य इति चेत् एतदाशाह अवग्रहाधस्य प्रक्रमाद नैश्चयिकाऽ - वग्रहसंबन्धिनः / किमित्याह.- अल्पत्वाद् अनवबोधव्यावृत्तिमात्ररूपत्वेन ! यदि नामैव ततः किमिति चत्? एतदाशझ्याऽऽह-नाऽसौ अल्पबा धरूपः सन् विशिष्टाऽध्यवसायबीजम्, नहि अणुमात्राद व्यणुकादिभावः, यस्तु भवति विशिष्टाऽध्यवसायबीज सोऽवान्तराऽवायरूपः शब्दाऽरुक्तिबोधस्वलक्षणः / कुत एतद एवमित्याह - अवायबहु वात कालक्षयोपशमादिभदन, अतः प्रथमाऽक्षसन्नियात तदेव प्रतिभासत नि ! स्थितम्, एवम्-उक्तनीत्या, सद्रव्याद्यनकस्वभाव वर मनिन्द्रयद्वारेण एव तथाऽथ विशेषप्रतिपत्तिरिति योगः ! कथमित्या..... सदद्रव्याद्यनेकस्वभाव वस्तुप्रायशो निदर्शितमेव / तथा निदर्शयिष्यामः ततश्च सद्-द्रव्याद्यनेकस्वभावे वस्तुनि सति।। किमित्याह- तदितरधर्माऽऽलोचनेन, ते-अन्यायिनः, इतरेव्यतिरेकिणः, ते च इतरे च तदितरे, तदितरे व ते शर्माश्च तेषमालोचनंस्वरूपनिरीक्षणमिति विग्रहः, तेन समानधर्मव्यवच्छेदता नेयत्वादिव्यवच्छेदेन व्यवच्छेदश्च तद्वोधपूर्वकत्वात्-समानधर्मबोधपूर्वकन्वात्, तदितरबोधस्य सत्त्वादिविशेषधर्मबोधस्य एतच्च अस्य तथाऽनुभवतः इत्थं क्रमाऽनुभवेन, तथास्वभावत्वाऽवगमाद् तस्तुनः / इत्थं चेतद अङ्गीकर्तव्यमित्याह- प्रथममेव-आदौ एव, विशेषाऽग्रहणात् सर्वत्र / किमित्याह-इन्द्रियद्वारेण एव तथा समानधर्मग्रहणपुरस्सर अर्थविशेषप्रतिपत्तिः / इत्थं चैतद् अङ्गीकर्तव्यमित्याह- सकलले कसिद्धत्वात कारणात,अन्यथा उक्तप्रकारख्यतिरेकेण,तदनुपपरोः- अर्थविशेषप्रतिपत्त्यनुपपत्तेः, अनुपपत्तिा द्रागदन चिद् वित्संपातादौ, अभावाद् अर्थविशेषप्रतिपत्तेः / अन्यत्र भावध्यति इत्यारेकानिरासाय आह-. शीघ्राऽवगमरयाऽपि लोकदृष्ट्या दीर्घत्वात् तत्त्वदर्शनेन, दीर्घत्वं च कालसौक्ष्म्यात्, इझते इन्द्रियद्वारेण एव तथाऽर्थविशेषप्रतिपत्तिरिति क्रिया। आह-वस्तुनाऽनेकस्वभावत्वाद् भवन्नीत्या सर्वेषा स्वभावां सदा भावात् त्वन्नीत्या एय,अन्यथा तस्य वस्तुनः, तदनुपपत्त:- अनंकस्वभावत्वाऽनुपपत्तः / किमित्याह-चित्राऽऽस्तरणवद् इति निदर्शनम, एकदा एव-एकस्मिन् एव काले, किं न अर्थविशेषप्रतिपत्तिः सन्निधानाऽविशेषेऽपि इति गर्भः? येन एतद्-अनन्तरोदितम्, एवं तदितरधर्माऽऽलोचनादित्वेन इति / एतदाशब्याऽऽह-ग्रहीतुः क्षयोपशामाऽभावाद एतद- एवमित्युक्तप्राय प्रायेण उक्तं प्राक। एवम्, ईहादे:-कथञ्चिद् अनधिगताऽर्थाऽधिगन्तृत्वात्, एकाऽधिकरणत्वात्,बोधवृद्ध्युपपत्तेः, अलोचिताऽधिगमात्, तत्स्थैर्यसिद्धेः तथाऽनुभवभावात्, प्रतिक्षेपाऽयोगात्,बाधकानुपपत्तेः न्यायत एव व्यवस्थितं प्रामाण्यम्। परवमित्यादि। एवम्-उक्तनीत्या, ईहादेः-मतितिशेषजातस्य न्यायत एव व्यवस्थित प्रामण्यमिति योगः / हेतूनाह-कथचिद् अनधिगताऽभाऽधिगन्तृत्वाद- अवग्रहबोधाऽपेक्षया, तथा एकाऽधिक रणत्वाततद्वरतुटत्त्वाऽपेक्षया, तथा बोधवृद्ध्युपपत्तेः-- अर्थाऽनुभवभावेन, तथा आलाचिताऽधिगमाद-दृष्टपरिच्छेदेन, तथा तत्स्थैर्यसिद्धेः--बोधाऽवस्थानेन तथा अनुभवभावात्-अविच्युतिरूपधारणाया, ता प्रतिक्षेपाऽयोगात - अधिकृतानुभवस्य, अयोगश्च बाधकाऽनुधप: चिट ग्रहणमपि यथायोग योजनीयम्। एवं न्यायत एव व्यवस्थितTITH... ईहादेरिति प्रक्रमः। तथा सद्रव्याद्यनेकस्वभावत च यस्तुमस्तथाऽनुभवसिद्धत्वादिति। किं हि सत्त्वाद् अन्य द्रव्यादि इति चेत् ? प्रतीतमेतद; यत् तस्मिन् गृहीतेऽपि कथञ्चिद् गृह्यत इति / नैवंविधं किञ्चिद् अवगच्छाम इति चेत्, किं न भवति भवतः क्वचिद् घटादौ सन्मात्रग्रहेऽन्याग्रहः ? किं तद्द्यद्भूयो गृह्यत इति चेत्? ननुबालादिसिद्धं तदनुविद्धमेव विशिष्टं मृद्र्पादि। न तत् तत्सत्त्वतोऽन्यद् एव इति Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 681 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस चेत्, सत्यमेतत्, किन्तु तन्मात्रमपि न भवतीति / तथाs, प्रतीतेनिश्चयाऽनुभवेन अविगानत एव एकत्र सन्मृदूपाऽऽकारवेदनात, सन्मात्राद् एव एतदनुपपत्तेरतिप्रसङ्गात्, रूपमात्राद् रूपरसादिनिश्चयापत्तेः / न च सत्त्वाऽऽकारयोरपि अभेद एव, अनेकदोषप्रसङ्गात्, तथाहि-घटसत्त्वं तावद् एकं तस्य मृदूपाद्यत्मकत्वे एकत्यहानिः, तदनभ्युपगमे प्रतीतिबाधा / तथा एकत्वेऽपि कस्य असौ आकार इति वाच्यम्? न रूपसत्त्वस्य, त्वगिन्द्रियेणाऽपि ग्रहणात्, तस्य च रूपाऽविषयत्वात् तथाऽप्रतीतेः, तत्सत्त्वस्य च तत्वात् न स्पर्शसत्त्वस्य,चक्षुषाऽपि उपलब्धेः स्पर्शात् तत्सत्त्वभेदप्रसङ्गात् रूपेऽपि अनुगमोपपत्तेः, अन्यथा अनुभवविरोधात्, न च उभयसत्त्वस्य तदेकत्वाऽयोगात् इन्द्रियसङ्करप्रसङ्गात, लोकविरोधापत्तेः असमञ्जसत्वादिति। न च तयोराकारयोर्भे द एव तथा प्रतीत्यभावात्, तत्त्वत उभयाऽयोगात् तत्सत्त्वैकत्वक्षतेः, तथा च अभ्युपगमविरोधादिति। तथा तद्रत्याद्यनेकस्वभावता च वस्तुना-न्यायत एक्च्यवस्थिता। कममित्याह- तशाऽनुभवसिद्धत्वात् अवग्रहादिप्रकारेण अनुभवसिद्धत्यादिति। कि हि सत्त्वाद् अन्यद्अर्थान्तरमूलं, द्रव्यत्वादि इति चेत्? एतदाशङ्कयाह-प्रतीतमेतद्द्यत्तस्मिन-सत्त्वे, गृहीतेऽपिसति कथंचिद व गृहाते इति नैवविध किञ्चिद्यत्तस्मिन् गृहीतऽपि कथञ्चिद्न गृह्यत इति. तद् अगच्छाम इति चेत् / एतदाशङ्कयाह-किं न भवति भवतः क्वचिद्घटा दीवस्तुनि, सन्मात्रग्रहे सति, अन्य ग्रहोवस्त्वन्तराऽग्रहः? किं तवस्तु, यद भयः पुनः -सन्मात्रग्रहोत्तरकाल गृह्यत इति चेत् / एतादशड्क्याऽऽह- ननु इति-अक्षमायाम, बालादिसिद्धं तदनुविद्वमेव-स-मात्राऽनुविद्वमेव विशिष्ट मृद्पादि, न तद मृदूपादि, तत्सत्त्वतः- सन्मात्रसत्त्वाद्, अन्यद् एव इति चेत् / एतदाशङ्कयाहसत्यमेतद्, अन्यद् एव न किन्तु तन्मात्रमपिसन्मात्रमपि न भवति। कुत इत्याह-तथा-सन्मात्रत्वेन अप्रतीतः, अप्रतीतिश्व निश्चयाऽनुभवेन अवग्रहो तरकालम, अविगानतः अविगानेन एव, एकत्र वस्तुनि / किमित्याह- सन्मृदूपाऽऽकारवेदनात् / यदि नामैवं ततः किमित्याह-- सन्मात्राद् एव एकस्वभावात, एतदनुपपत्तेः -सन्मृद्-रूपाकारवेदनाऽनुपपत्तः अनुपपत्तिश्च अतिप्रसङ्गात्, अतिप्रसङ्गश्च रूपमात्रात सकाशत्, रूपरसादिनिश्चयापत्तेः सन्मात्राद् इव विजातीयनिश्वयन्यायन इहेवदोषान्तरमधिकृत्य आह.न चेत्यादि न च सत्त्वाऽऽकारयोः अपि इह अधिकृतयोः, अभेद एव एकान्तन / कुत इत्याह--अनेकदोषप्रसङ्गात् / एनमेव आह -तथाहि इत्यादिना / तथाहि- ''घटसत्त्वं तावद एक निरंश स्वलक्षणम्' इत्यविचारितरमणीयेन भवदभ्युपगमन, तस्य मृदपाद्यात्मकत्वे सकललोकाऽनुभवसिद्ध अभ्युपगम्यमाने एकत्वाहानिः मृदादिशाबल्येन, तदनभ्युपगमे मृद्रूपाद्यात्मकत्वाऽनभ्युपगमे, प्रतीतिबाधा मृदुपादिप्रतीतेः, तथा एकत्वेऽपि सत्त्वाऽऽकारयोरिति प्रक्रमः, कस्य असो आकारः रूपादिसत्त्वाऽपेक्षया इति वाच्यम् ? किश्च अतः? सर्वधा अणि दोष इत्याह-नरूपसत्त्वस्य असौ आकारः / कुत इत्याहत्वगिन्द्रिोण अपि ग्रहणात कारणात् / यद्येव ततः किमित्याह-तस्य च त्वगिन्द्रियस्य रूपाऽविषयत्वात्, अविषयत्वं च तथा त्वगिन्द्रियरय रूपविषयत्वेन अप्रतीतेः, तत्सत्त्वस्य च रूपसत्त्वस्य च, तत्त्वात् रूपत्वात्, एवं न स्पर्शसत्त्वस्य असौ आकार इति गम्यते। कुत इत्याहचक्षुषा अपि उपलब्धेः कारणात्। ततः किमित्याह-स्पर्शात् सकाशात्, तत्सत्त्वभेद-प्रसङ्गात् स्पर्शसत्त्वभेदप्रसङ्गात्, प्रसङ्गश्च रूपे अपि अनुगमोपपतेः। इत्थं च एतत् इत्याह- अन्यथा एवमनभ्युपगमे अनुभवविरोधात, चक्षुषा तदुपलब्धिरिति अनुभवः,नच उभयसत्त्वस्य रूपस्पर्शसत्त्वस्य, असौ आकार इति प्रक्रमः। कुत इत्याह-तदेकत्वाऽयोगात, तस्य आकारस्य एकत्वाऽयोगात्, उभयाऽव्यतिरेकेण योगे अपि इन्द्रियसंकरप्रसङ्गात् विषयसाङ्कर्ये ण, संकरे च लोकविरोधाऽऽपत्तेः, एवमसमञ्जसत्वादिति ! न च इत्यादि। न च तयोराकारयोः चक्षुरत्वग्गाह्ययोः, भेद एव एकान्तेन / कुत इत्याह तथा भेदगर्भतया, प्रतीत्यभावात स्पर्शनात् अपि 'सोऽयं यो दृष्टः' इत्यवगमात्, तथा तत्त्वतः उभयाऽयोगात् तदभ्युपगमेन तथा च आह-तत्सत्त्चैकत्वक्षतेः घटसत्चैकत्वक्षतरित्यर्थः, तथा च एवं च,अभ्युपगमविरोधात वस्तुनोऽनेकस्वभावत्वाऽऽपत्त्या न च तयोराकारयोः भेद एव इति स्थितम् / एवं बौद्धमतवक्तव्यतामधिकृत्य एतत् उक्तम्। . अधुना वैशेषिकमतमुररीकृत्य आहन च एतेभ्योऽन्य एव घटः, अवग्रहणप्रसङ्गात् अरूपाद्यात्मकत्वात्, तत्तवृत्तौ अपि तत्तद्प ताऽनापत्तेः, इत्थमपि तद्--- ग्रहणे इन्द्रियाणां स्वधर्माऽतिक्रमात्। कथमतिक्रम इति चेत्? चक्षुरादेररूपादिग्रहणात् / एवमपि को दोष इति चेत्? ननु रसादिग्रहणापत्तिः, प्रतीतिबाधिता इयमिति चेत्, तदतिरि-- क्ततद्गृहे का प्रतीतिः? न तेभ्य एकत्वबुद्धिरिति चेत्, ततः किमिति वाच्यम्? अस्ति इयमिति चेत्, न खलु अस्यां विगानम्, य एतन्निमित्तः (स) स तेभ्योऽन्य इति चेत्, संख्यायाः तद्भावप्रसङ्गः। न सा तदनाश्रिता इति चेत्, एवमपि तत्त्वतोऽन्या एव / यदि नामैवं ततः किमिति चेत्? तन्निमित्तैकबुद्धिः सा तद्विशेषणभूता इति चेत्, कथमेतत् विनिसीयत इति ? एकोऽयमिति व्यवसायादिति चेत्, न असौ सदादिभिन्नप्रतिभासीति तथाऽननुभवात् / एवमपि तत्कल्पनेऽतिप्रसङ्गात् तदन्तरापत्ते निराकरणाऽयोगात, अननुभवाऽविशेषादिति तदेकत्वपरिणामनिबन्धन एव अयम् / तेषामेव एकाउने Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 682 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस कात्मकत्वाद् भेदाभेदभावात्, तथास्वभावत्वाद्विरोधाऽनुपपत्तेः, प्रतीतिसिद्धत्वाद् बाधाभावादिति / सद्रव्याद्यनेकस्वभावे वस्तुनि वस्तुमात्रग्राहि एव अवग्रहकल्पमविकल्पकमङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथा उक्तदोषाऽनतिवृत्तिः। एवंभूते च अस्मिन् आवयोरविवाद एव, एवं विधाऽवग्रहस्य अस्माभिरप्यभ्युपगमत्वात्, न च अत्र कश्चिद्दोषः, अपि तु शुक्तिकादौ अपि क्वचिद् रजतादिनिश्चयस्यन्यायत एव आपत्त्या गुणः,तस्य हि अवग्रहोत्तरकालमीहाप्रवृत्तस्य तथाविधसमानधर्मोपलब्धुरेव असत्क्षयोपशमभावतो भावाद्, अन्यथा उक्तवत् तदयोगादिति। नचेति-नच एतेभ्यः सन्मृद्रपाकारेभ्यः, अन्य एवघटः एकान्तेन। कुत इत्याह-अग्रहणप्रसङ्गाद्घटस्य, प्रसङ्गश्व अरूपाद्यात्मकत्वात, एतच सन्मृद्पाकारेभ्योऽन्यत्वाऽभ्युपगमेन, उपन्यासश्च एवम.. चक्षुर्गहणाउनुगुण्येना तत्तवृत्तौअपि इत्यादि। तेषां सन्मृद्पाऽऽकाराणां तस्मिन घट वृत्तौ अपि सामान्यद्रव्यगुणाना यथासंभवंतवृत्त्यभ्युपगमेन द्रव्यवृत्तो कारणद्रव्येषुस एव वर्तते इति कृत्वा! किमित्याह-तत्तद्रूपताऽनापत्तेःतस्य घटस्य तद्पताऽनापत्तेः सन्मृद्पाऽऽकाररूपताऽनुपपत्तः / इत्थमपि इत्यादि / इत्थमपि-एवमपि तत्तद्पताऽनापती अपि, तद्ग्रहणेघटग्रहणे अभ्युपगम्यमाने। किमित्याह-- इन्द्रियाणा स्वधर्माऽतिक्रमः-स्वमर्यादापरित्यागः, कथमतिक्रमः इति चेत? एतदाशङ्कचाह-चक्षुरादेः आदिशब्दात्त्वगिन्द्रियग्रहः, अरूपादिग्रहणाद्, घटादिग्रहणाद् इत्यर्थः / एवमपि को दोष इति चेत्? द्विविधं हि द्रव्यम्दार्शन, स्पार्शन च / रूपादिप्रतीतेः तदामित्वेन तदवसानत्वाद इत्यभिप्रायः / एतदाशड्क्याह-- ननु रसादिग्रहणाऽऽपत्तिः रसादेरपि घटवद् अरूपादित्वात् सार्वेन्द्रियं च एवं द्रव्यं प्राप्नाति, रसादिप्रतीतेरपि तगामित्वेन तदवसानत्वाद् इति भावनीयम् / प्रतीतिबाधिता इयं रसादिग्रहणाऽऽपत्तिः इति चेत् / एतदाशड्-क्याह-तदतिरिक्तद्ग्रहे प्रक्रमाद्पादिव्यतिरिक्तघटग्रहे का प्रतीतिः? ननु किमनया? नतेभ्यो रूपादिभ्यः एकत्वबुद्धिः, अनेकत्वाद् अमीषामिति चेत् / एतदाशड्- | क्याऽऽह- ततः किमिति वाच्यम्? किमपि,अत्राऽस्ति च इयमेकत्वबुद्धिरिति चेत् / एतदा-शक्याह- न खलु अस्यामेकत्वबुद्धी विगानम्,यः कश्चित्: एतन्निमित्तम्--एतस्या एकत्वबुद्धः आलम्बनम्, (स) स इति स घटः,तेभ्यो रूपादिभ्योऽन्य इति चेत् / एतदाशड्क्याहसंख्यायाः एकसंख्यायाः, एकत्वबुद्धिनिमित्तत्वेन तद्भावप्रसङ्ग:घटभाव--प्रसङ्गः, न सा संख्या, तदनाश्रिताघटाऽनाश्रिते इति चेत्। एतदाशड्क्याह-- एवमपि तदाश्रितत्वेऽपि, तत्त्वतः-परमार्थेन, अन्या एव सन्मृद्पाऽऽकारेभ्य इति / यदि नामैव ततः किमिति चैत / एतदाशड्क्याह- तन्निमित्तासदादिभिन्नसंख्यानिमित्ता एकत्वबुद्धिः, सा | संख्या, तद्विशेषणभूता प्रस्तुता एकाऽवयवविशेषणभूता, इति चेत् / एतदाशड्वयाह-कथमेतद् विनिश्चीयते यदुत सा तद्विशेषणभूता इति? एकोऽयमिति व्यवसायाद् इति, चेद् विनिश्चीयते इति। एतदाशक्याहनाऽसौ व्यवसायः, सदादिभिन्नप्रतिभासी इति / कुत इत्याह- तथा सदादिभिन्न प्रतिभासित्वेन अननुभवात, एवमपि तथा अननुभवेऽपि, तत्कल्पनेसदादिभिन्नाऽवयविकल्पने अतिप्रसङ्गात् अतिप्रसङ्गश्च तदन्त-रापत्तेः-तत्रैव अवयव्यन्तरापत्तेः आपत्तिश्च निराकरणाऽयोगात् तदन्तरस्य, अयोगश्च अननुभवाऽविशेषाद् द्वयोरपि इति, इत्येवं तदेकत्वपरिणामनिबन्धन एव अयं प्रक्रमात् सन्मृद्रव्याऽऽकारैकत्वपरिणामनिबन्धन एवायम्, एकोऽयमिति व्यवसायः। तेषामेव सदादीनामेकाऽनेकत्मकत्वात्, एतच्च भेदाऽभेदभावात्, अयं च तथास्वभावत्वात्, तथास्वभावत्वे व विरोधाऽनुपपत्तेः अनुपपत्तिश्च प्रतीतिसिद्धत्वात् / नहि प्रतीतिरेव सिद्धौ निमित्तमित्याशङ्काऽपोहाय आहबाधाभावादिति तदेकत्वपरिणामनिबन्धन एव अयम्, इति एवं सद्दव्याघनेकस्वभावे वस्तुनि। किमित्याह-- वस्तुमात्रग्राहि एव अवग्रहकल्पमविकल्पकमगीकर्तव्यम् / किमित्याह-अन्यथा उक्तदोषाऽनतिवृत्तिः, उक्तदोषाः "न्यायाऽनुभवविरोधाद्' इत्येवमादयः तदनतिवृत्तिः, एवं भूते च अस्मिन् अविकल्पके। किमित्याह-आवयोः-तव ममच, अविवाद एव। कुत इत्याह-एवंविधाऽवग्रहस्य अविकल्पकस्य अस्माभिः अभ्युपगतत्वात, न चाऽत्र अभ्युपगमे कश्चिद् दोषः, अपि तु शुक्तिकादौ अपि,आदिशब्दाद मरीचिकाग्रहः, वचिद् रजतादिनिश्चयस्य आदिशब्दाद जलनिश्चयग्रहः, न्यायत एव आपत्त्या गुणः / न्यायत एव आपत्तिमाह- तस्य इत्यादिना / तस्य हि शुक्तिकादौ रजतादिनिश्चयस्य, अवग्रहोत्तरकालमीहाप्रवृत्तस्य सतः / कस्य इत्याहतथाविधसमानधर्मोपलब्धुरेव शुक्तिकादिरजतादिसमानधर्मोपलब्धुरेव प्रमातुर्नान्यस्य, असत्क्षयोपशमभावतः-असत्क्षयोपशमभावेन भावात्, अन्यथा एवमनुभ्युपगमे, उक्तवत्यथोक्तम्- "शुक्तिकाया अपि अक्षज्ञानेन नीलादिवत् तत्त्वेन एव ग्रहणाद्" इत्यादि तथा अयोगाद् इति। यच्च उच्यते- "गृहीतग्राहित्वाद्विकल्पोऽप्रमाणम्" इति, एतदपि अयुक्तम् / स्वमतविरोधात्,निर्विकल्पक ज्ञानेन स्वलक्षणस्य गृहीतत्वाद्विकल्पस्य तद्ग्राहित्वानुपपत्तेः, तत्प्रतिभासशून्यत्वात्, एवमपि तत्तथाताऽभ्युपगमे अतिप्रसङ्गात्, नीलविकल्पस्य पीतग्राहित्वापत्तेः पारम्पर्येण तत्तजनकत्वाविशेषात्,उपलब्धपीतनीलद्रष्टुरपि तद्भावादिति। यच्च उच्यत परैः- "गृहीतग्राहित्वाद् विकल्पः अप्रमाणम्' इति एतदपि अयुक्तम् / कथमित्याह- स्वमतविरोधाद, विराधश्च निर्विकल्पकज्ञानेन स्वलक्षणस्य गृहीतत्वात, विकल्पस्यतग्राहित्याऽनुपपत्तेः- स्वलक्षणग्राहित्वाऽनुपपत्तेः, अनुपपत्तिश्च लत्प्रतिभासशून्यत्वात, स्वलक्षणाऽऽकारशून्यत्वादित्यर्थः / एवमपि तत्प्रतिभास Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 683 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस शून्यत्वेऽपि सनि, तत्तथाताऽभ्युपगमे--विकल्पस्य तदाहित्वाभ्युपगम अतिप्रसङ्गात. अतिप्रसङ्गश्व नीलविकल्पस्य पीतग्राहित्वाऽऽपत्तः / नारसी पारम्पर्येण अपि तज्जन्यः इत्याशङ्काऽपोहाय आह- तत्तजनकत्या- | ऽविशेषात, तस्य पीतस्य नीलविकल्पजनकत्वाऽविशेषात्। एतदभावनाय एव आह - उपलब्धपीतनीलद्रष्टुरपि प्रमातुः, तावात नीलविकल्पभावात,तदपि अयुक्तमिति स्थितम्।। न च गृहीतग्राहि ज्ञानमप्रमाणमेव,एकत्र नीलादौ अनेकप्रमा-- | तृज्ञानानां प्रमाणत्वाऽभ्युपगमात्, तेषां चान्योऽन्यं गृहीतग्राहित्वात्, अन्यथा तद्ग्रहणानुपपत्तेः, तथा अगृहीतग्राहिज्ञानाऽसम्भवात् सर्ववस्तूनां सर्वबुद्धस्सदा ग्रहणात्, तेषां सर्वज्ञत्वादन्यथा तत्तत्त्वायोगात्, एकसन्न्तानाऽपेक्षया च गृहीतग्राहिज्ञानाऽसम्भव एव, सर्वेषां सर्वदा अगृहीतग्रहणादिति। दूषणान्तरमाह- नत्र इत्यादिना / न च गृहीतग्राहि ज्ञानमप्रमाणभेव एकान्तेन भक्तः। कुत इत्याह एकत्र नीलादी अनकप्रमादज्ञानानां प्रमाणत्वाऽभ्युपगमात परेणापि, तेषां च अधिकृतज्ञानानाम् अन्योऽन्य परस्परं गृहीतग्राहित्वात / इत्थं च एतदङ्गीकर्तव्यमित्याह अन्यथा तद्ग्रहणाऽनुपपत्तेः-अधिकृतनीलादिग्रहणाऽनुपपत्तेः / तथा इत्यादि। तथा अगृहीर-ग्राहिज्ञानाऽराभवात , असंभवश्च सर्ववस्तूनां नीलादीनाम्, सर्वबुद्धैः सदा ग्रहणात्, ग्रहणं च तेषां बुद्धानां सर्वज्ञत्वादिति,अन्यथा तत्तत्त्वाऽयोग त-तेषः सर्वज्ञत्वाऽयोगात्। एकसन्तानत्यादि। एकसन्तानाऽपेक्षया अवगृहीतग्रहिज्ञानासंभव एव तस्य अर्थस्य च क्षणिकत्यात, सर्वेषां ज्ञानानाम, सर्वदासर्वकालम, अगृहीतप्रणातद्वयोरपि क्षणिकत्येन इति,यद्वा तदभावे भावात अभिधानमात्र ग्रहणमिति अग्रहीतग्रहणमिति। स्यादेतद्, न तत्त्वतो गृहीतग्राहित्वेन अस्य अप्रामाण्यम्, अपि तु अविषयत्वेन इति / कथमयमविषय इति वाच्यम्? यदनेन वेद्यते न तदस्तीति चेत्, व तन्नास्तीति? किं तत्रैव उच्यते, उताहो बहिरिति? यदि तत्रैव कथं वेद्यते,वेद्यमानं वा कथं न तत्रेति चिन्त्यम्? अथ बहिः, अविकल्पके ऽपि समानः प्रसङ्गः,तेनाऽपि वेद्यमानस्य बहिरभावात् स्वरूपस्यैव वेदनात्। तदहिस्थतुल्य-रूपमित्यदोष इति चेद्, केयं तत्तुल्यरूपतेति वाच्यम् ? किं तत्साधारणरूपभावः? उताहो तत्तद्ग्रहणस्वभावता इति / न तावत् साधारणरूपभावः, चेतनाऽचेतनत्वेन तद्वैलक्षण्यसिद्धेः, सामान्यवेदनेन तदप्रामाण्यप्रसङ्गाच / तत्तद्ग्रहणस्वभावतातदङ्गीकरणे च विकल्पज्ञानेऽपि तुल्यः परिहारः, तस्यापि तद्ग्रहणस्वभावताऽभ्युपगमात्। तथाविधग्राह्याभावादस्य कुतस्तद्ग्रहणस्वभावतेति चेत्। न, तथाविधग्राह्यभाये प्रमाणाभावात्, प्रत्यक्षस्य स्वलक्षणविषयत्वेन तत्राप्रवृत्तेः, अनुमानस्याप्युपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थविषयत्वात् तस्य च तदभावाभ्युपगमात् / न हि साधारणं रूपमुपलब्धिलक्षणप्राप्तमिष्यते भवद्भिः, तदवस्तुत्वप्रतिज्ञानात्, अनीदृशानुपलब्धेश्वाभावनिश्चायकत्वानुपपत्तेः / एतेन तदाधकप्रमाणप्रवृत्तिः प्रत्युक्ता, उक्तवत्प्रत्यक्षादेस्तद्वाधकत्वायोगान् / युक्त्या, तदयोगो बाधक इति चेत् / न / विकल्पानुपपत्तेः / युक्तिर्हि प्रमाणमप्रमाणं वा स्यात्? प्रमाणं चेत् / न प्रत्यक्षादेरन्यदिति, अत्र चोक्तो दोषः। अप्रमाणत्वे तु तदाधकत्वानुपपत्तिः, अतिप्रसङ्गात्। स्यादतद् न त त्यता गृहीतग्राहित्वेन हेतुना, अस्य विकल्पस्याप्रामाण्यम्, अपित्वविषयत्वेनेति। एतदाशङ्कयाह-कथमयं विकल्पोऽविषय इति वाच्यम्? यदनेन वेद्यते विकल्पेन नतदस्तीति अविषय इति चेत। एतदाशड्क्याह-क्वतद् नास्ति यदनेन वेद्यते, किं तत्रैव विकल्पे, उत बहिरिति? यदि तत्रैव विकल्प एव नास्ति. कथं तेन वेद्यते? वेद्यमानं या कथं न तत्र विकल्पे इति चिन्त्यम्। द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याहअथ बहिः यदनेन वेद्यते न तदस्तीति। एतदाशड्क्याह-अविकल्पकेऽपि समानः प्रसङ्गोऽविषयत्व-प्रसङ्गः कथमित्याह तेनापि अविकल्पकेन वेद्यमानस्य बहिर-भावात्; अभावश्च स्वरूपस्यैव वेदनात्। तदित्यादि। तदविकल्पकं वेद्यमानबह:- स्थतुल्यरूपं विषयतुल्यरूपम् , इत्यस्माददाप इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- केयं तत्तुल्यरूपता बहिःस्थतुल्यरूपता? इति वाच्यम् / किं तत्साधारणरूपभावो बहिःस्थसामान्यरूपभादोऽविकल्पकस्य, उत तद्ग्रहणस्वभावताबहिः स्थग्रहणस्वभावतेति? किश्चातः? उभयथाऽपि दोषः तथा चाह-- न तावत् साधारणरूपभावः तत्तुल्यरूपता। कुतइत्याह-चेतना-चेतनत्वेन हेतुना तद्वैलक्षण्यसिद्धेः तयोरविकल्पक-बहिःस्थयो_लक्षण्यसिद्धेः। दोषान्तरगाह- सामान्यवेदनेन हेतुना साधारणरूपभावतः तदप्रामाण्यप्रसङ्गाच्च अविकल्पकस्याप्रामाण्यप्रसङ्गाच्चनतत्साधारणरूपभावस्ततुल्यरूपतेति। तत्तद्ग्रहणस्वभावतातदङ्गीकरणे चतस्याविकल्पकस्य तद्ग्रहास्वभावताबहिः स्थग्रहणस्वभाभावता तस्यास्तदङ्गीकरणं-तत्तुल्यरूपताङ्गीकरणमिति विग्रहः, तस्मिन् / किम् ? इत्याह- विकल्पज्ञानेऽपि तुल्यः परिहारः तत्तदहिःस्थतुल्यरूपमित्ययम् / कुतः? इत्याहतस्यापि विकल्पज्ञानस्य तद्ग्रहणस्वभावताभ्युपगमात्-बहि:स्थग्रहणस्वभावताभ्युपगमात् / तथाविधेत्यादि / तथाविधग्राह्याभावात्... विकल्पज्ञानग्राह्याभावादस्यविकल्पज्ञानस्य कुतस्तद्ग्रहणस्वभावता-बहिःस्थग्रहणस्वभावतेति चेत्। एतदाशङ्कयाह-न, तथाविधग्राह्याभावेविकल्पज्ञानग्राह्याभावे प्रमाणाभावात् / अभावश्व प्रत्यक्षस्य तावत् स्वलक्षणविषयत्वेन हेतुना तत्र तथाविधग्राह्याभावेप्रवृत्तेः, अनुमानस्याप्यनुपलब्धि रूपस्योपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थविषयत्वात / ततः किम्? इत्याह- तस्य तथाविधग्राह्यस्य तद Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 684 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस भावाभ्युपगमाद- उपलब्धिलक्षणप्राप्तार्थविषयत्वाभावाभ्युपगमात् / एतद्भावनायैवाह- नहि साधारण रूपं विकल्पग्राहामुपलब्धिक्षण - प्राप्तमिष्यते भवद्भिः / कुत इत्याह- तदवस्तुत्वप्रतिज्ञानात- तस्य साधारणरूपस्यावस्तुत्वप्रतिज्ञानात्, अनीदृशा-नुपलब्धेश्चानुपलब्धिलक्षणप्राप्तानुपलब्धेश्च / किमित्याह-अभावनिश्चाय-कत्वानुपपत्तेः तथाभ्युपगमात्। एतेनेत्यादि। एतेन-अनन्तरोदितेन तथाविधग्राह्याभावे प्रमाणाभावेन। किमित्याह-तद्बाधकप्रमाणप्रवृत्तिः-प्रत्युक्ता तस्भिस्तथाविधग्राह्य बाधकप्रमाणप्रवृत्तिनिराकृता / कुत इत्याहउक्तवत् यथोवतं तथा प्रत्यक्षादेः प्रत्यक्षानुमानद्वयस्य तद्बाधकत्वायोगात- तथाविधग्राह्यबाधकः / त्वायोगात् / युक्त्या तदयोगस्तथाविधग्राह्यायोगः साधारणरूपयोग इत्यर्थः 'बाधक इति चेत्। एतदाशड्याह-न, विकल्पानुपपत्तेः / अनुपपत्तिश्चयुक्तिर्हि प्रमाणमप्रमाण वा स्यात्? किशातः? उभयथापि दोष इत्याह-प्रमाणं चेत् / न प्रत्यक्षादेरन्यदिति, अत्र चोक्तो दोषः, प्रत्यक्षस्य स्वलक्षणविषयत्वेन ताप्रवृत्तरित्यादिः 1 अप्रमाणत्वे तुयुक्तेः, किमित्याह-- तदाधकत्वानुपपत्तिः-तथाविधग्राह्यबाधकत्वानुपपत्तिः। कुत इत्याह-अतिप्रसड़ात् स्वलक्षणस्यापि युक्तिबाधितत्वोपपत्तेः, अविषयेऽपीयं प्रवर्तत इति भावना / एवं विकल्पज्ञानस्यापि कस्यचित् प्रामाण्यमङ्गीकर्तव्य'मत्यदंपर्यम्। इत्थमनभ्युपगमे दोषमाहअखिलविकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनश्च तत्सामोत्थं वचनमपि तादृगे वेति सुस्थिता तत्तत्त्वनीतिः / न हि भ्रान्तमात्मनो भ्रान्ततामवैति,द्विचन्द्रज्ञानादावात्मनि भ्रान्तताधिगमव्यपोहेन चन्द्रद्वयाद्यधिगतिदर्शनात्, तत्स्थानोपजातवचसोऽपि स्वभान्तताभिधानपरित्यागेन चन्द्रद्रयाद्यभिधानात्, इति सकलमेव शास्त्रज्ञानाभिधानं भ्रान्तिमात्रम्, इति कथं ततस्तत्त्वनिश्चय इनि चिन्त्यम्? तथाहि अस्य नित्याऽऽत्मादिविकल्पवत् कृतकृत्वादिलिङ्ग द्वारायाता अनित्याऽनात्मादिविकल्पा अपि भ्रान्ता एव,इति कथं तेभ्यस्तनिश्चितिः? निश्चितौ वा कथं न नित्यादावपि,तद्रिकल्पानामपि ततो भावात् ? अखिलविकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनञ्च किमित्याह-तत्सामोत्थंनिःशेषविकल्पज्ञानभ्रान्ततासामर्थ्यात्थं वचनमपि तादृगेवभ्रान्तमेव, इति-एवं सुस्थिता तत्तत्त्वनीतिस्ताभ्यां भ्रान्तविकल्पज्ञानवचनाभ्या तत्त्वनीतिरित्युपहसति, न सुस्थिते-त्यर्थः / कथमित्याह- न ही यादि। न यस्मात भ्रान्तं ज्ञानमिति प्रकमः, आत्मनो भ्रान्ततामवैति / कुत इत्याह-द्विचन्द्रज्ञानादौ आदिशब्दान्-मायाजलज्ञानग्रहः, आत्मनिस्वरूपे भ्रान्तताधिगमव्यपोहेन चन्द्रद्वयाद्यधिगतिदर्शनात, आदि- | शब्दान्-मायाजलग्रहः, तत्स्थामोपजातवचसोऽपिभ्रान्तज्ञानसामर्थ्योपजात-वचनस्यापि स्वभ्रान्तताभिधानपरित्यागेन चन्द्रद्वयाद्यभिधानात, इत्येवं सकलमेव शास्त्रज्ञानाभिधानं भ्रान्तिमात्रमिति करवा / कथं ततः शास्त्रज्ञानाभिधानात् तत्त्वनिश्चयइति चिन्त्यम ? नैव तत्त्वनिश्चय इति / एतद्भावनायैवाह- तथाहीत्यादि / तथावस्याखिलविकल्पज्ञानभान्ततावादिनो नित्याऽऽत्मादिविकल्पवदिति निदर्शनम्, कृतकत्वादिलिङ्ग द्वारायाताऽनित्याऽनात्मादिविकल्पा अपि भ्रान्ता एव नाभ्रान्ताः, इत्येवं कथं तेभ्यो भ्रान्तविकल्पेभ्यस्तनिश्चितिरनित्याऽनात्मादिनिश्चितिः? निश्चितौ वा तेभ्योऽनित्याऽनात्मादेः कथं न नित्यादावपि निश्चिताः? कुत इत्याह-तद्रिकल्पानामपिनित्यात्मादिविकल्पानामपि ततो वस्तुनो भावात्। स्यादेत्स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पाः,तथापि केषाञ्चिदेव तत्प्रतिबद्धजन्मनां विकल्पानामतत्प्रतिभासित्वेऽपि वस्तुन्यविसंवादः,मणिप्रभायामिव मणिभ्रान्तेः, नान्येषाम, तद्भेदप्रसवे सत्यपि यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य किञ्चित्सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपात, दीपप्रभायामिव मणिबुद्धेः, इति संवादिभ्य एव तन्नि-- श्चितिनसिंवादिभ्यः। स्यादेतदित्यादि। स्यादेतदथैवं मन्यसे-स्वलक्षणदर्शननाहिता या वासना तया कृतं विप्लवरूपं येषां ते तथाविधाः सर्व एव विकल्पाः सामान्येन, तथाप्येवमपि व्यवस्थिते सति केषाशिदेगनित्याऽनात्मादिरूपाणां तत्प्रतिबद्धजन्मनावस्तुप्रतिबद्धजन्मनां विकल्पानामतत्प्रतिभासित्वेऽपिवस्त्वप्रतिभासित्वेऽपीत्यर्थः, किमित्याहवस्तुन्यनिसंवादः / निदर्शनमाह- मणिप्रभायामिव विषयभूतायां मणिभ्रान्तः कुक्षिकादिविवरोपलम्भेन, नान्येषां नित्याऽऽत्मादिविकल्पानाम्, तद्भेदप्रसवे सत्यपि वस्तुभेदादुत्पादे सत्यपीत्यर्थः, यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य, कथमित्याह-- किञ्चित्सामान्यग्रहणेन सदृशापरा परहेतुना विशेषान्तरसमारोपाद् हेतोः, 'नान्येषाम्' इति वर्तत / निदर्शनमाह-दीपप्रभायामिव विषयभूतायां मणिबुद्धेः कुञ्चिकादिविवरोपलम्भनेव, इत्येवं संवादिभ्य एव विकल्पभ्यस्तनिश्चितिरभिप्रेततत्त्वनिश्चिति संवादिभ्यः। इत्थं पूर्वपक्षमाशङ्कयन्नाह-- एतदप्यसत्,अविचारितरमणीयत्वात् / तत्र यत्तावदुक्तम् 'स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पाः' इति / अत्र किमिदं स्वलक्षणदर्शनं नाम? का वा तदाहिता वासना, यत्कृतविप्लवरूपाः? सर्व एव विकल्पाः इति / वस्त्वनुभवः स्वलक्षणदर्शनम्, तदाहितवासना तु तथाविधविकल्पजनन-शक्तिः ? यद्येवम् ,कथं निरंशवस्तुविषयात् निरंशानुभवात् तथा-विधविकल्पजननशक्तीनां प्रभूतानां सम्भवः? कथं वैकस्या एवा-नेकविकल्पजन्म? समुत्पद्यन्ते च स्वलक्षणदर्शनानन्तरं नित्याऽनित्यादिविकल्पाः, क्रमेणैकस्य, अक्र मेण चाने क प्रमातुणाम् न चैते शक्तिभेदैकानेकजनकत्वे विना। न च भूयसामपि निरंशवस्तुविषयनिरंशानु-भवानां तत्त्वतस्तत्त्वे विशेषः, रूपादिस्वलक्षणा Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस नामिव / तन्न तेषामिवैकस्य बहूनां वाऽनन्तरं पारम्पर्येण वा | तथाविधफलभेदोऽमीषां न्याय्य इति भाव्यमेतत् / का चेयं तथाविधविकल्पजननशक्तिः , किं तदुत्तरं मानसम्, उतान्यैव काचित्? यदि मानसम्, कथं स्वलक्षणादस्वलक्षणजन्म? अस्वलक्षणं च विकल्पः, असदाकाररूपत्वात् / न स्वसंवित्तिस्तत्रास्वलक्षणम्, अपि तु बहिर्मुखावभास एवेति चेत् / न खलु साततोऽन्या, इति कथं नास्वलक्षणम्? असन्नसौ, सा तु सती,स्वसंविदितत्वादेवेति चेत् / कथमसौतन्मात्रतत्त्वा विकल्प इति चिन्त्यम्? असदाकारानुवेधादिति चेत् / कथमसताऽनुवेधो नाम? स निर्विषयत्वादसत्, न तु तथाप्रतिभासेनेति चेत् / न स्वसंवित्तिस्तथाप्रतिभासनादन्या,इत्यस्वलक्षणत्वमेव / एवं पूर्वपक्षनाशङ्कयाह- एतदपि-असत्-अशोभनम् / कुत इत्याहअविचारितरमणीयत्वात् कारणात् / एतदेवाह-तत्या-दिना / तत्र यतावदुक्तमादौ 'स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृत-विप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पाः' इति एतत् / अत्र किमिदं स्वलक्षणदर्शनं नाम? का वा तदाहिता-स्वलक्षणदर्शनाहिता वासना, यत्कृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पा इति ? अवाह वस्त्वनुभवः शुद्धः स्वलक्षणदर्शनम्, तदाहितवासना तु तथाविध-विकल्पजननशक्तिः, तथाविधस्य संवादिनोऽसंवादिनश्च / एत-दाशङ्कयाह-यद्येवम्, कथं निरंशवस्तुविषया निरंशानुभवात्तथाविधविकल्पजननशक्तीनां प्रभूतानां संभवः सामान्येन? कथं वैकस्या एव शक्तेरनेकविकल्पजन्म? को वा किमाह? न चैत–देवम, इत्याशङ्कानिरासायाह-समुत्पद्यन्ते च स्वलक्षणदर्शनानन्तरं नित्यानित्यादिविकल्पाः क्रमेणैकस्य प्रभातुः सांख्यादेबों - द्धादिमतप्रतिपत्त्या, अक्र मेण चानेकप्रमातृणां सौख्यबौद्धादीनां नित्यानित्यादिविकल्पाः। शक्तिभेदश्चैकानेकजनकत्वं चेति विग्रहः, ते चैते, एते विना, क्रमाक्रमपक्षद्वयेऽपीति। एतदेवाह-न चेत्यादि। न च भूयसामपि क्रमपक्षे / केषामित्याह-निरंशवस्तु-विषयनिरंशानुभवानां तुल्यस्वलक्ष्णानुभवानामित्यर्थः / किमि-त्याह- तत्त्वतः-परमार्थेनः तत्त्वे-तद्भाः रुपादिस्वलक्षणानुभवत्व इत्यर्थः,विशेषो भेदः। कि तर्हि? सर्व एवैते-रूपादिस्वलक्षणानु-भवा एवेति / इहैव निदर्शनमाहरूपादिस्वलक्षणानामिव 'एकस्य प्रमातुः' इति प्रक्रमः, तथाविधानुभवनिबन्धनानामिति,तथाहि-क मेणापि रूपादिस्वलक्षणानि स्वाकारमनुभवं कुर्वाणानि न रूपा-दिस्यलक्षणत्वेन विशिष्यन्त इति। प्रकृतयोजनामाहतत्- तस्माद न तेषामिव-रूपादिस्वलक्षणानामिय 'एकस्य प्रमातुः, इति प्रक्रमः, बहूनां वा प्रमाणामनन्तरं बहूना पारम्पर्येण वैकस्य तथाविधफलभेदो भिन्नजातीयविज्ञानादिकार्यभेदो मीषा निरंशवस्तुविषयनिरंशानुभवाना न्याय्य इति भाव्यमेतद्-भावनीयमेतत् / एतदुक्तं भवति-यथा तेषां रूपादि- स्वलक्षणानां न रसादिफलभेदो न्याय्यः, एवमनित्याऽनात्मकवस्त्वनुभवानामपि न नित्याऽऽत्मादिविकल्पजननशक्त्याख्यः फलभेदो न्याय्यः / इहैवाभ्युचयमाह- का चेयमित्यादिना / का चेयं तथाविधविकल्पजननशक्तिर्भवतोऽभिप्रेता? किं तदुत्तरं प्रक्रमादविकल्पप्रत्यक्षोत्तरं मानस स्वविषयानन्तरेत्यादिलक्षणम्, उतान्यैव काचिदालयगता? उभयथापि दोषमाह-यदि मानसम्, कथं स्वलक्षणाद् मानसात् स्वलक्षणजन्म विकल्पोत्पादः? विकल्पास्व-लक्षणत्वमाह-- अस्वलक्षणं च विकल्पो भवन्नीत्या। कुत इत्याह-असदाकाररूपत्वात्असदाकारो विकल्पबुद्धिप्रतिभासोऽस्व-लक्षणत्वाभ्युपगमात् स एव रूपं यरय रा तथा तद्धावस्तस्मात् न स्वसंवित्तिरतत्र विकल्पेऽस्वलक्षणम्, अपि तु बहिर्मुखावभास एवास्वलक्षणमिति चेत् / एतदाशड्क्याह-न खलु सा स्वरावित्तिस्ततो बहिर्मुखावभासादन्या, इत्येवं कथं नास्वलक्षणम्?-अस्वलक्षणमेव / असन्नसौ बहिर्मुखावभासः, सा तु स्वसंवित्तिः सतीविद्यमाना, स्वसंविदितत्वादेव कारणादिति चेत् / एतदाशइक्याह-कथमसौ स्वसंवित्तिस्तन्मात्रत्त्यास्वसंवित्तिमात्रतदावा विकल्प इति चिन्त्यम्, न तत्र स्वलक्षणातिरिक्तोंऽश इति कृत्वा / असदाकारानुवेधाद-सौविकल्प इति चेत्। एतदाशड्क्याह-कथमसता आकारणानुवेधो नाम स्वसंविदः?-नैवेत्यर्थः / स आकारो निर्विषयत्वात् कारणादसंस्तुच्छः, न तु तथाप्रतिभासनेन-न पुनर्बहिर्मुखावभासप्रतिभासनेनासन्निति चेत् / एतदाशड्क्याह- न स्वसंवित्तिरधिकता तथाप्रतिभासनाद् बहिर्मुखावभासप्रतिभासनादन्याऽर्थान्तरभूतेति कृत्वाऽस्वलक्षणत्वमेव स्वसंविदः। . तस्य विभ्रमरूपत्वात् नदन्याऽनन्यत्वकल्पनैवायुक्तेति चेत्। कोऽयं विभ्रम इति कथनीयम्? अनिरूप्यस्वरूपस्तत्त्वतोऽसद्रूप इति चेत् / कथमयं स्वसंवित्तिभेदक इति वाच्यम् ? न तत्त्वत इति चेत् / उत्सन्नो विकल्पः / अस्त्विति चेत् / प्रतीत्यादिबाधा / चेतनैव तथाभूता विकल्प इति चेत् / किं भूतेति चिन्त्यम्? असदाकारेति चेत् / अस्वलक्षणमेवेयम्, असदाकारत्वात्।नस्वसंवित्तिस्तत्रा-स्वलक्षणम् अपितु बहि-- र्मुखावभास एवेति चेत् / न खलु सा ततोऽन्येति समानं पूर्वेण, इति यदि मानसं कथं स्वलक्षणाद-स्वलक्षणजन्म साधीयः? इति। कथं वा निर्विकल्पकत्वेनाभिन्नात् भिन्नविकल्पसस्भवः? हि नीलादिमात्रात् क्वचिद्रसादिभावः तथाऽदर्शनात् / न चात्र किश्चिद्भेदकम्, अनभ्युपगसात् / अभ्युपगमेऽपि ततोऽतिशयासिद्धेरिति निवेदयिष्यामः। तस्य बहिर्मुखावभासप्रतिभास्य विभ्रमरूपत्वात्कारणात् तदन्याऽन्यत्वकल्पनैव तथा स्वसंवित्याऽन्यानन्यत्वकल्पनैवायुक्तेति चेत् / एतदाशङ्कयाह- कोऽयं विभ्रमो यद्रूपत्वादन्याऽनन्यत्वकल्पनाऽयोग इति कथनीयम? अनिरूप्यं स्वरूपं यस्य वैतथ्येन स तथा तत्त्वतः परमार्थतोऽसद्रूप इति चेत् / एतदाशङ्कयाह-कथमयं विभमोऽ Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस सलाम. सन् स्वरावित्तिभेदक इत्येतद् वाच्यम् ? न तत्त्वत इति चेत् स्वसांयेत्तिभेदकः एतदाशङ्कयाह-उत्सन्नो विकल्पः अविशिष्टस्वसंविनिमात्रभावेन / अस्त्विति चेद विकल्पाभावः / एतदाशङ्कयाहप्रतीत्यादिबाधा, आदिशब्दाद-भावेतरभेदबाधाग्रहः। चेतनैवतथाभूता विशिष्टा विकल्प इति चेत / एतदाशङ्कयाह- किं भूता तथाभूतेति चिन्त्यम्? असदाकारा असन्नाकारो यस्याः सा तथेति चेत्। एतदाश याह-अस्वलक्षणमेवेयं चेतना, असदाकारत्वात्ानस्वसंवित्तिरतत्र चेतनायामस्वलक्षणम्, अपितु बहिर्मुखावभास एवास्वलक्षणमिति चेत् / एतदाशङ्कयाह- न खलु नैव सा चेतना स्वसंवित्तिस्ततो बहिर्मुखावभासादन्येति समानं पूर्वेण 'कथं नास्वलक्षणम्, इत्यादिनोक्तेन। इत्येव यदि मानसं कथं स्व-लक्षणादस्वलक्षणजन्म साधीयः--शोभनतरम्?नैवेत्यर्थः / कथं वेत्यादि / कथं वा निर्विकल्पकत्वेनाभिन्नाद् मानसाद भिन्नविकल्पसंभवो विकल्पकत्वेन / कथं च न स्यादित्याह-न हि नीलादिमात्राद्वस्तुनोऽन्यरहितात् क्वचिद् रसादिभावः। आदिशब्दादगन्धादिग्रहः / कथं न रसादिभाव इत्याह- तथाऽदर्शनात् / न चात्र मानसाद् विकल्पजन्मनि किञ्चिद् भेदकमस्ति।कुत इत्याह- अनभ्युपगमात् / अभ्युपगमेऽपि सति भेदकस्य वासनादेः, ततो भेदकादतिशयासिद्धेरिति निवेदयिष्याम ऊर्ध्वम् / गतो मानसपक्षः। विकल्पान्तरेणाहअथान्यैव काचित् / काऽसाविति वाच्यम्? अनादिमदालयगतशक्तेः स्वलक्षणदर्शनसहकारिभावतो विशेषकरणम्, तथाहि-सा तदनुभवं प्राप्याक्षेपेण तथाविधविकल्पजननस्वभावोपजायत इति स्वलक्षणदर्शनाहितेत्युच्यते। अत एव न भिन्नविकल्पसम्भवाभावः, तथाविधशक्तिसहकारित्वेन तदनुभवस्य तदविरोधादिति / एतदपि यत्किश्चित्,तस्य तत्सहकारित्वासिद्धेः, ततस्तस्या उपकाराभावात्, अनुपकार्योपकारकयोश्च सहकारित्वायोगात्। द्विविधो हि वः सहकारार्थः परम्परातिशयाधानेन सन्ताने विशिष्टक्षणोत्पादनलक्षणः,पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पन्नैककार्यक्रियालक्षणश्च / न चानयोरेकोऽपि सम्भवति, क्षणिकत्वेन परस्परातिशयाधानायोगात् / अतिशय उपकार इत्यनर्थान्तरम् / न चासावन्यतोऽन्यस्य, विकल्पायोगात्। द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह- अथान्यैव काचित् तथाविधविकल्पजननशक्तिः। एतदुररीकृत्याह-काऽसाविति वाच्यम् ? अनादिमती चासावालयगतशक्तिश्चेति विग्रहः, तस्याः स्वलक्षणदर्शनसहकारिभावतः-प्रवृत्तिविज्ञानसहकारिभावत इत्यर्थः, विशेषकरणमतिशयकरणं सा / एतदेव भावयतितथाहीत्यादिना / तथाहि- साऽनादिगदालयगतशक्तिस्तदनुभवं प्राप्यस्वलक्षणदर्शनमारााद्य, अक्षेपेणाव्यवधानेन, तथाविधविकल्पजननस्वभावा-अनित्यादिविकल्पजननस्वभावोपजायत इति कृत्वा स्वलक्षणदर्शनाहितेत्युच्यते / अत एव __ कारणात् न भिन्न विकल्पसंभवाभावः, किंतर्हि? संभव एव। कुत इत्याहतथाविधशक्ति-सहकारित्वेन हेतुना तदनुभवस्यस्वलक्षणानुभवस्य प्रवृत्तिविज्ञानस्येत्यर्थः तदविरोधादिति प्रक्रमाद् भिन्न विकल्पसंभवाविरोधात् शक्तिरस्योपादानमित्यभिप्राय इति। एतदाशङ्काह-एतदपि यत किञ्चित् / कथभित्याह- तस्य स्वलक्षणानुभवस्य तत्सहकारित्वासिद्धः-प्रस्तुतशक्तिसहकारित्वासिद्धेः / असिद्धिच ततोऽधिकृतानुभवात्। तस्याः शक्तेः, किमित्याह-उपकाराभावात्। यदि नामैवं ततः किमित्याह- अनुपकार्योपकारकयोश्च भावयोः सहकारित्वायोगात्। एनमेवाह-द्विविधो हि वो-युष्माकं सहकारार्थः / द्वैविध्यमाहपरस्परातिशयाधानेन क्षणपरम्परया संताने प्रबन्धे विशिष्टक्षणोत्पादनलक्षणो विवक्षित-कार्ययोग्यताकारीत्यर्थः, तथा पूर्वस्वहेतोरेवोपादानादेः रागोत्पन्नैककार्यक्रियालक्षणश्च समग्रोत्पन्नानामेककार्यक्रियाऽन्त्यानां विवक्षितकार्योत्पत्तिः सैव लक्षणं यस्य सहकारार्थस्य स तथेति समासः / न चेत्यादि / न चानयोः- सहकारार्थयोरेकोऽपि संभवति / कुत इत्याह-क्षणिकत्वेन हेतुना परस्परातिशयाधानायोगात्। एतदेव भावयति-अतिशय उपकार इत्यनान्तरम् / न चासावतिशयोऽन्यतः सकाशादन्यस्य / कथं नेत्याह- विकल्पाऽयोगात्। तदनुभवो हि तच्छक्तेरनुत्पन्नायाः, उत्पन्नायाः, निरुद्धाया एव वोपकुर्यात् ? न तावदनुत्पन्नायाः, तस्या एवासत्त्वात्, असतश्चोपकाराकरणात् / नाप्युत्पन्नायाः, तस्या अनाधेयातिशयत्वात्, क्षणादूर्ध्वमनवस्थितेः / द्वाभ्यामप्येकीभूय तदन्यकरणमेवातिशयाधानम्, तदेव चोपकार इति चेत् / न, उपादानकारणविशेषाधानमन्तरेण ततः कार्यविशेषासिद्धेः। न चैककालभाविनाऽन्यतो भवन्त्या अन्यत एव भवता तस्या अतिशयाधानम्, तन्निबन्धनस्य तत्कृतविशेषासिद्धेः। तदभ्युपगमे च तत्राप्ययमेव वृत्तान्तः, एवं निबन्धनपरम्परायामपि वाच्यम्, इत्यत्राणं निबन्धनपरम्परा। एनमेवाह-तदनुभवो हीत्यादिना। तदनुभवोऽधिकृतस्वलक्षणानुभवो यस्माच्छक्तेरनादिमदालयगतशक्तेरनुत्पन्नाया उत्पन्नाया निरुद्धाया एव वोपकुर्यादिति संभविनो विकल्पाः / न तावदनुत्पन्नाया उपकरोति तदनुभवः / कुत इत्याह- तस्या एव शक्तेरसत्त्वात् / न चासावनुत्पन्नाऽस्ति / यदि नामैवं ततः किमित्याह-असतश्च सामान्येनोपकाराकरणात् / नाप्युत्पन्नाया उपकरोति तदनुभवः / कुत इत्याह- तस्या उत्पन्नाया निष्पन्नत्वेनानाधेया-तिशयत्वात्। एतच्च क्षणादूर्ध्वमनवस्थितेः कारणात् / द्वाभ्यामपि शक्त्यनुभवा भ्यामेकीभूय तदन्यकरणमेव विशिष्टशक्तिकरणमेवातिशयाधानम्, तदेवचान्यकरणमुपकार इति चेत्। एतदाश-क्याह-नेत्यादि। न नेतदेवम्। कुत इति युक्तिमाह-उपादानकारणविशेषाधानमन्तरेण इह तावदधिकृतशक्तिविशेषाधानं विना, ततो विवक्षितानुभवात्, कार्यविशेषासिद्धेः प्रस्तुतविकल्पकार्यभेदासिद्धेरिन्यर्थः / न Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 687 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस चैककालभाविना शक्त्या सहानुभवेनान्यतो भवन्त्याः शक्तेरन्यत एव किमित्याह-तत्त्वव्यवस्थानुपपत्तिः / कुत इत्याह-अतथाविधस्वभावास्यहेतोर्भवताऽनुभवेन तस्याः शक्तेरतिशयाधान न्याय्यम्' इति शेषः / नामपि भावाना तथाविधस्वभावत्वाभिधानाविरोधात् / ततः कुत इत्याह-- तन्निबन्धनस्य अधिकृतशक्त्युपादानस्य तत्कृत- किमित्याह-एवं च सहेतुकनाशापत्तिः / कथमित्याह- स्वहेतुपरम्परातः विशेषासिद्धर्विवक्षितानुभवकृतविशेषासिद्धेः। तदभ्युपगमे च सामान्येन सकाशात तथास्वभाव एवासावुत्पन्नो भावः पदार्थो योऽकिश्चित्करमपि निबन्धनस्य तत्कृतविशेषाभ्युपगमे च तत्रापि तन्निबन्धनेऽयमेवा- नाशहेतुमपेक्ष्य नश्यति इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् तथारवभावपर्यनुनन्तरोदिता 'नोपादान-कारणविशेषाधानमन्तरेण ततः कार्यविशेषा- योगासिद्धरुक्तनीत्या। असिद्भिश्चाचिन्त्यशक्तित्वात्स्वभावस्य। इत्थं सिद्धेः' इत्यादिवृत्तान्तः। एवमुक्तनीत्या निबन्धनपरम्परायामपि चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथा त्वत्पक्षेऽपि स्वहेतुपरम्परात एवं सा वाच्यम् / इति एवम्, अत्राण निबन्धनपरम्परा अनादावपि संसारे कस्यापि शक्तिस्तथास्वभावोत्पन्नेत्यस्मिन्नपि, तुल्यत्वात् पर्यनुयोगस्य / इति निबन्धनस्योक्तनीत्या विशेषाधानायोगादिति भावनीयम। सर्वत्र 'न, अनुपकारिणोऽपेक्षाऽयोगात्' इत्यतो यथायोग 'न' इति क्रिया स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिस्तथास्वभावोत्पन्ना याऽनु- योजनीया। नापि निरुद्धायाः 'शक्तेरुपकरोति तदनुभवः' इति प्रक्रमः / पकारिणमपि तदनुभवं सहकारिणमपेक्ष्य विशिष्ट कार्यजन- कुत इत्याह-तस्या एवं निरुद्धायाः शक्तेरसत्त्वात्, असतश्च तुच्छस्य यत्यतो न दोष इति चेत् / न / अनुपकारिणोऽपेक्षाऽयोगात्। चोपकार-करणात् / न चेत्यादि / न च प्रकारान्तरेणोक्तप्रकारत्रयातदभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्, तत्तथाविधस्वभावाधायकहेतो- तिरिक्तेनोपकारकरणं संभवति वस्तुतस्तस्यैवाभावात् / एवं रप्यस्थानपक्षपातित्वापत्तेः, स्वभावापर्यनुयोगस्य च प्रमाणो- तावताद्यपक्ष-उपन्यासक्रमप्राधान्यात् 'परस्परातिशयाधानेन संताने पपन्नस्वभावविषयत्वात् / स्वपरिकल्पनागर्भवाङ्मात्रोदित- विशिष्टक्षणात्पादनलक्षणः' इत्यस्मिन, सहकारार्थाभाव इति। स्वभावविषयत्वे तु तत्त्वव्यवस्थानुपपत्तिः, अतथाविधस्व- एतेन पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पन्नैककार्य क्रियालक्षणोऽपि भावानामपि तथाविधस्वभावत्वाभिधानाविरोधात् / एवं च सहकारार्थो निषिद्धः, तत्त्वतः प्रथमसहकारार्थाविशेषात्, सहेतुकनाशापत्तिः, 'स्वहेतुपरम्परातस्तथास्वभाव एवासावु- 'स्वहेतुपरम्परात एव साशक्तिस्तथास्वभावोत्पन्ना' इत्यादिना त्पन्नो भावो योऽकिञ्चित्करमपि नाशहेतुमपेक्ष्य नश्यति' इत्यपि तु सुतरामभेदात्, प्रत्येकं तत्तथाविधकार्यजननसमर्थ-- वक्तुं शक्यत्वात्, स्वभावपर्यनुयोगासिद्धेः, अचिन्त्यशक्ति- स्वभावेतरविकल्पदोषापत्तेश्च / प्रथमपक्षे किमन्योन्यापेक्षया? त्वात्, अन्यथा त्वत्पक्षेऽपि तुल्यत्वादिति। नापि निरुद्धायाः, एकत एव तत्सिद्धेः। द्वितीयपक्षे चापेक्षायामपि तदसिद्धेः, तस्या एवासत्त्वात्,असतश्चोपकाराकरणात्। नच प्रकारान्तरेणो- प्रत्येकमतत्स्वभावत्वात्। पकारकरणं संभवति / एवं तावदाद्यपक्षे सहकारार्थाभाव इति। एतेनेत्यादि / एतेन-अनन्तरोदितेन,पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पन्नैक स्वहेत्वित्यादि / स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिरधिकृता तथा- कार्यक्रियालक्षणोऽपि सहकारार्थः प्राग् निदर्शितस्वरूपो निषिद्धः। कुत स्वभावोत्पन्ना,याऽनुपकारिणमपि तदनुभवमधिकृतस्वलक्षणानुभव इत्याह-- तत्त्वतः-परमार्थन,प्रथमसहकारार्थाविशेषात् / अस्य सहकारिणमपेक्ष्य विशिष्ट कार्य जनयत्यधिकृतविकल्पाख्यम्, अतो न सहकारार्थस्य परस्परातिशयाधानेन संताने विशिष्टक्षणोत्पादनलक्षणः दोष इति चेत् अधिकृतः / एतदाशड्क्याह- न, अनुपकारिणः तदनु- प्रथमः,तदयमपि पूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पन्नैककार्यक्रियालक्षणः सदा भवस्य / किमित्याह- अपेक्षाऽयोगात्। तदभ्युपगमेऽनुपकारिणो- संतानापक्षयैवंभूत एव, तस्य कार्यस्य विशिष्टक्षणोत्पादजलक्षणत्वाsपेक्षाऽभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्, तद्वद् विश्वापेक्षापत्तेः / तत्तथाविधेत्यादि। दिति भावनीयम्। 'स्वहेतुपरम्परात एव सा शक्तिस्तथास्वभावोप्तन्ना' तस्याः शक्तेस्तथाविधस्वभावाधायकोऽनुपकारिणमपि लदनुभवं इत्यादिना त्वनन्तरोदितग्रन्थेन सुतरामभेदात्-द्वयोरपि सहकारार्थयोः सहकारिणमपेक्ष्य विशिष्ट कार्य जनयतीत्येवंविधस्वभावाधायकवासी फलाभेदादितिगर्भः / दोषान्तरमाह- प्रत्येकमित्यादिना / प्रत्येकहेतुश्चेति समासः, तस्यापि, किमित्याह-अस्थानपक्षपातित्वापत्तेः नेति मेकमेकं प्रति, तेषां समयोत्पन्नानां तथाविधं विशिष्ट यद् विवक्षितं विज्ञाक्रियायोगः। उक्त च-"अस्थानपक्षपातश्च, हेतोरनुपकारिणि अपेक्षाया नादि कार्य तज्जननसमर्थस्वभावश्चेतरश्चातज्जननसमर्थस्वभावश्चेति नियुक्ते यत्, कार्यमन्याविशेषतः ||1||" इत्यादि / स्वभावा- विकल्पाभ्या दोषास्तदापत्तेश्च कारणाद् 'द्वितीयोऽपि सहकारार्थी पर्यनुयोगस्य च न स्वभावः पर्यनुयोगमर्हति इत्यस्य / किमित्याह- निषिद्धः' इति क्रिया। एतदुक्तं भवतिपूर्वस्वहेतोरेव समग्रोत्पन्नैककार्यप्रमाणोपपन्नस्वभावविषयत्वात् प्रतीतिसचिवस्वभावविषयत्वा- क्रियालक्षणो द्वितीय सहकारार्थः / तत्र ये समग्रा उत्पन्नास्ते प्रत्येक दित्यर्थः, स्यपरिकल्पनागर्भश्वासी वाड्मात्रोदितस्वभावश्चेति समासः, तथाविधकार्यजननसमर्थस्वभावाः स्युः, नवा तथाविधकार्यजननसमर्थस एव विशेषो यस्य स्वभावपर्यनुयोगस्य स स्वपरिकल्पनागर्भवाड्- स्वभावा इति द्वयी गतिः। तत्र प्रथमपक्षेप्रत्येकं ते तथाविधकार्यजननमात्रोदितस्वभावविषयस्तस्य भावस्तस्मिन् पुनरस्याभ्युपगम्यमाने. | समर्थस्वभावा इत्यस्मिन्, किमन्योन्यापेक्षया? एकत एव तथाविधका Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 688 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस यंजननसमर्थस्वभावात् समगात, तत्सिद्धेस्तथाविधकार्य संसिद्धेः, अन्यथा तत्तत्स्वभावत्वानुपपत्तिरिति हृदयम्। द्वितीयपक्षे च-प्रत्येक ते न तथाविधकार्यजननसमर्थस्वभावा इत्यस्मिन / कि भित्याह-- अपेक्षायामपि सत्या,यसिद्धेः- विवक्षितकार्यासिद्धेः / असिद्धिच प्रत्येकमतत्स्वभावत्वात समग्राणाम। न हि प्रत्येक तैलाजननस्वभावाः सिकताणवः परस्परापेक्षयाऽपि तैल जनयन्ति, तदतत्स्वभावत्वविरोधादिति। तेषामत एव प्रत्येकत्वाभावादप्रत्येकत्वत एव तत्स्वभावत्वाददोष इति चेत् / न / अनेकतः सर्वथैकभवनासिद्धेः, तद्भिन्नस्वभावत्वात्,अन्यथाऽनेकत्वायोगात् / एवं चेतरेतरस्वभाववैकल्येन तत्रानुपयोगात्। तत्स्वभावविकलस्तद्रूपो न स्याद्,नातत्कार्य इति चेत् / न। तत्स्वभावविकलस्य तत्कार्यत्वविरोधात्,तजननैकस्वभावादेव ततस्तदुत्पत्तेः,अन्यतस्तदभावात्, तस्यापि तत्त्वेऽन्यत्वाभाव इति निरूप्यतां सम्यग, अन्यथा कार्यकत्वानुपपत्तिः, समगुस्यैव तस्योत्पत्ते:, अनेकजन्यत्वे च तदयोगात्, सर्वेषां तज्जनकत्वाद्, एकभाविनोऽपरभावासिद्धेः तद्वैयर्थ्यप्रसङ्गात्, समग्रजनकत्वेऽप्येकस्यापि जनकत्वाद्, अन्यथा समग्रजनक त्वविरोधाद्, भेदशस्तद्भावापत्तेः, अन्यतज्जनकत्वे च कुतस्तत्स्वभाववैकल्यम्? इति यत्किञ्चिदेतत् / तेषामित्यादि। तेषां समग्रोत्पन्नाना समग्राणाम; किमित्याह-अत एवं हेतोः, प्रत्येकत्वाभावात् कारणात्, अप्रत्येकत्वत एव--अप्रत्येकत्वेनैव समग्रतयेत्यर्थः, तत्स्वभावत्वात् तथाविधकार्यजननरामर्थरवभावत्वाददोष इति चेदनन्तरविकल्पयुगलकोपनीतः। एतदाशङ्कयाहनानेकेत्यादिना। ननैतदेवम्। कुत इत्याह-अनेकतोऽनेकेभ्यः समग्रेभ्यः, सर्वथैकभवनासिद्धेर्निरंशभवनासिद्धेरित्यर्थः / असिद्धिश्च तद्भिन्नस्वभावत्वात-तेषाभनेकेषां भिन्नस्वभावत्वात्। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह अन्यथा एवमनभ्युपगमेऽभिन्नस्वभावत्वादनेकत्वायोगात्। एवं चेत्यादि / एवं चानेकत्वे सति इतरेतरस्वभाववैकल्येन न य एवैकस्य स्वभावः स एवापरस्य, तदभेदप्रसङ्गादितीतरेतरस्वभाववैकल्य तन, तत्र सर्वथैकभवने, अनुपयोगाद् नानेकतः सर्वथैकभवनमिति / तत्स्वभावविकलस्तस्य विवक्षितस्य कस्यचित् तथाविधकार्यजननसमर्थस्य समगस्य स्वभावस्तत्स्वभावस्तेन विकलो रहितोऽपरः समग्र एव तत्स्वभावविकलः सः, तद्रूपोऽधिकृतसमग्रान्तररूपः, न स्याद्-न भवेत् तद्वैकल्येन, नातल्कार्यो न समग्रान्तराकार्यः, किन्तु तत्कार्य एव,रामग्रान्तरवत्, तस्यापि तज्जननस्वभावत्वादिति चेत् / एतदाश- | झ्याह- नेत्यादि / न-नैतदेवम् / कुत इत्याह--तत्स्वभावविकलरय विवक्षितसमग्रतथाविधकार्यजननसमर्थस्वभावविकलस्य समग्रान्त - रस्येति प्रक्रमः / किमित्याह-तत्कार्यत्वविराधात्-समग्रान्तरकार्यत्व विरोधात् / विरोधश्च तज्जननैकस्वभावादेवतथाविधकार्यजनकस्वभावादेव, ततः प्रथमसमग्रात, तदुत्पत्तेस्तथाविधकार्योत्पत्तेः, अन्यतः समगान्तरात्, तदभावादन्योत्पन्नकार्थाभावात्,तत एवोत्पन्न तदिति किमन्यस्मादुत्पादेन? सोऽपि तज्जननस्वभाव इत्येवं तज्जनयतीत्याशङ्कानिरासायाह-तस्यापि अन्यस्य समग्रान्तरस्य, तत्त्वे तजननैकस्वभावत्वे / किमित्याह.- अन्यत्वाभावः तत्स्वभावस्य तत्त्वादिति निरूप्यतां सम्यक् / अन्यथैवमनभ्युपगमे, किमित्याह-कार्यकत्वानुपपत्तिः। कुत इत्याह-समग्रस्यैव-अखण्डस्यैव, तस्य कार्यस्योत्पत्तेः / यदि नाभव ततः किमित्याह- अनेकजन्यत्वे 8 सति कार्यस्य, तदयोगात्-समग्रोत्पत्त्ययोगात्। अयोगश्च सर्वेषां समग्राणां तज्जनकत्वाद्विवक्षितैककार्यजनकत्वात्। किमेव न समग्रोत्पत्तिरित्याह-एकभाविनः इति, एकरमाद् भवितुं शीलमस्येत्येकभावि कार्य गृह्यते तस्य, किमित्याह-अपरस्मादभावोऽपरभावः, भवन भाव उत्पादः,तदसिद्धः / असिद्धिश्च तद्वैयर्थ्यप्रसङ्गादपरवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। नैको जनकः समग्रा एव जनका इत्यसद्ग्रहव्यपोहायाह- समग्रजनकत्वेऽपि साते, किमित्याहएकस्यापि जनकत्वात् / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा एवगनभ्युपगमे, समग्रजनकत्वविरोधात्, नैकाद्यभावे सामन्यमिति भावनीयम् / यदि नामैवं ततः किमित्याह- भेदशः भेदैः, तद्भावापत्तेःकार्यभावापत्तेः, न तत्रैकोऽप्यजनकः, न चाशजनक इति कृत्वा / अथान्योऽपि तदेव जनयति यदेकेन जनितमित्यत्राह- अन्यतजनकत्वे च अन्यस्यापि समग्रस्य तज्जनकत्वे समग्रान्तरजनकत्वं चाभ्युपगम्यमाने / किमित्याह- कुतस्तत्स्वभाववैकल्यं समग्रान्तरस्वभाववैकल्यम्? नैव, तजन्यजनकत्वान्यथानुपपत्तेः उक्त - "उत्पद्यते यदेकरमा दनशं नान्यतोऽपि तत् / समग्रभावे सामग्या, नैक कार्य सुनीतितः / / 1 / / " इति यत् किञ्चिदेतत्-'तत्स्वभावविकलस्तद्रूपो न स्याद् नातत्कार्यः, इति। हेतुभेदात् फलभेद इति चापन्यायः। तथा च सत्ययमेव खलु भेदो भेदहेतुर्वा भावानां यदुत विरुद्धधर्माध्यासः कारणभेदश्वेत्युक्तिमात्रम्, भावार्थशून्यत्वात् , सामग्रययोगात्, समग्रेभ्यस्तद्भेदाभेदासिद्धेः, तत्त्वतः समग्रमात्रत्वात् / तदुपादानादिभेदेन तद्भेद इति चेत् / ना तत्स्वभावभेदमन्तरेण तद-- सिद्धेः, तद्भेदे चानेकस्वभावतापराधः, अन्यथोभयोस्तुल्यतापत्तेस्तत्कार्ययोरपि तुल्यता, सामस्त्येनोभयजननस्वभावादुभयादुभयप्रसूतेः,तत्तथात्वकल्पनायास्तद्वैचित्र्यापादनेनायोगात् / इति प्रपञ्चितमेतदन्यत्र, नेह प्रतन्यते इति परमते सहकारार्थासिद्धेरशोभनस्तदुपन्यास इति परिचिन्त्यतामेतत्। दोपान्तरमाह-हेतुभेदात् सकाशात् फलभेद इति चापन्यायः, तथानेकैकभावेन। तथा च सति 'अयमेव खलु भेदो भेदहेतुर्वा भावानां, यदुतविरुद्धधर्माध्यासो भेदः, कारणभेदश्च भेदहेतुः, इत्युक्तिमात्रम् / कुत इत्याह- भावार्थशून्यत्वात्। भावार्थशून्यत्वं च सामग्ययोगात् / अयोग Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 686 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस जश्व समग्रेभ्यः सकाशात्, तद्भेदाभेदासिद्धेस्तस्याः सामाया भेदाभेदाभ्यामसिद्धेः, तत्त्वतः-परमार्थतः, समग्रमात्रत्वात् सामग्या इति। तदुपादानादिभेदेनतेषां समग्राणामुपादननिमित्तभेदेन, तद्भेदः- / सामग्रीभेदः तथाहि-रूपाऽऽलोकादिसामन्यामेकत्र रूपमुपादानमालोकादयो निमित्तम्, अपरत्रालोकादय उपादानं रूपं निमित्तमिति सामग्रीभेद इति चेत् / एतदाशङ्कयाह- नेत्यादि / न-नैतदेवम् / कुत इत्याह-तत्स्वभावभेदमन्तरेण तेषां समग्राणां स्वभावभेदमन्तरेण, तदसिद्धेः सामग्रीभेदासिद्धेः उक्तं च- "रूपं येन स्वभावेन, रूपोपादानकारणम्। निमित्तकारणं ज्ञाने, तत् तेनान्येनवा भवेत्?||१|| यदि तेनैव विज्ञान,बोधरूपंनयुज्यते। अथान्येन बालाद्प, द्विस्वभावं प्रसज्यते / / 2 / / इति / तद्भेदे च- स्वभावभेदे च, समाग्राणामनेकस्वभावताऽपराधो महानय-मेकान्तकस्वभाववादिनः / अन्यथेत्यादि। अन्यथैवमनभ्युपगमे, उभयोः समग्रयो रिति सामग्युपलक्षणम् / किमित्याह-तुल्यतापत्तेः कारणात्, तत्कार्ययोरपि रूपाऽऽलोकादिरूपयोः, तुल्यता / कुत इत्याह- सामस्त्येनोभयजननस्वभावात् / उभयादेक स्व-भावात् समग्रोभयात्, उभयप्रसूतेरुभयभावात् / तत्तथात्वेत्यादि। तस्याधिकृतस्वभावद्वयस्य तथात्वकल्पनायाभिन्नजातीयोभयजननकस्वभावत्वकल्पनायाः, तद्वैचित्र्यापादनेनाधिकृतस्वभावद्वयवैचित्र्यापादनेन हेतुना, अयोगात्; तथाहि-नाचित्रात् स्वभावद्वयाचित्रद्वयभावः, भवन्नपि द्वयभावोऽचित्रादेक-स्वभावतया तुल्य एव स्यादिति प्रपञ्चितमेतदन्यत्रानेकान्तसिद्धौ,नेह प्रतन्यते। इति एवं,परमले सहकरासिद्धेः कारणात्, अशोभनस्तदुपन्यासःसहकायुपन्यास इति परिचिन्यतामेतत्। भिन्नविकल्पसंभवाभावोऽपि न्यायतस्तदवस्थ एव, तदनुभवस्याने कशक्तिसहकारित्वविरोधात्, एकस्वभावत्वात्, तस्य चानित्याद्यन्यतमविकल्पशक्तिसहकारित्वतत्त्वात् : अन्यथा तदेकस्वभावत्वासिद्धेः / एकान्तकस्वभावत्वे च कथमस्य नित्यादिविकल्पशक्तिसहकारिभावः? इति चिन्त्यम्। न हि नीलविज्ञानजन्मसहकारिस्वभावं नीलं कदाचिद् रसा-- दिविज्ञानजन्मसहकारितां प्रतिपद्यते, तत्तत्त्वविरोधादिति। भिन्नविकल्पसंभवाभावोऽपि निमित्तान्तराभावेन पूर्वोक्तः, न्यायतस्तदवस्थ एव / कुत इत्याह- तदनुभवस्यप्रस्तुतस्वलक्षणानुभवस्य, अनकशक्तिसहकारित्वविरोधात् / विरोधश्चैकस्वभावत्वात् / तस्य चेकस्य स्वभावस्यानित्याद्यन्यतमविकल्पशक्तिसहकारित्वतत्त्वात सहकारित्वस्वभवत्वात्। अन्यथैवमनभ्युपगमे तदेकस्वभात्वासिद्धेःतस्यानुभवस्यैक स्वभावत्वासिद्धेश्चित्रशक्तिसहकारिभावेन एकान्तकविभावन्दे चकमस्यानुभवस्य नित्यादि विवल्पशक्तिसहकारिभावः? इति चिन्त्यम् नैवानित्यादिविकल्पशक्ति विहाय सहकारिभाव इत्यर्थः। / असुमेवार्थ निदर्शननाह-नहीत्यादिना। न यस्माद् नीलविज्ञानजन्म सहकारिस्वभावं नीलं कदाचित् रसादिविज्ञानजन्मसहकारिता प्रतिपद्यते। किं न प्रतिपद्यते? इत्याह-तत्तत्वविरोधात् तस्य नीलस्य नीलविज्ञानजन्मसहकारिस्वभावत्वं तत्त्व तद्विरोधादिति / अनेनानेकशक्तिसहकार्ये कस्वभावत्वकल्पना प्रत्युक्ता, अनेकगर्भस्य तस्यैकत्वायोगात्, अतिप्रसङ्गात,निबन्धनव्यवस्थाभावात्, विश्वस्यैकनिबन्धनतापत्तेः इति 'स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पा:' इति वचनमात्रमेव। अनेनानेकशक्तिसहकार्यकस्वभावत्वकल्पना प्रत्युक्ता कथमित्याहअनेकगर्भस्य तस्य अधिकृतस्वभावस्य, एकत्वायोगात् / अनेकगर्भश्वानेकशक्तिसहकार्यकस्वभाव इति परिभावनीयम् / योगेऽप्यतिप्रसङ्गात् सर्वस्य सर्वसहकारिकल्पनया। ततश्च निबन्धनव्यवस्थाऽभावात् 'नेदमस्य करणम्' इति / व्यवस्थाभावे च विश्वस्यैकनिबन्धनतापत्तेः ‘अनेककार्यकरणकस्वभावत्वादेकस्य' इत्यपि वक्तु शक्यत्वात्। इति 'अनन्तरोदिता कल्पना प्रत्युक्ता' इति क्रियायोगः। इति-एवं 'स्वलक्षणदर्शनाहितवासनाकृतविप्लवरूपाः सर्व एव विकल्पाः' इति वचनमात्रमेव, अभिप्रेतार्थशून्यत्वादिति गर्भः। तत्प्रतिबद्धजन्मत्वासिद्धेश्व, तथाहि-कस्तेषां वस्तुना प्रतिबन्धः? इति वाच्यम् / न तादात्म्यम्,तद्देशादिभेदात् , अनभ्युपगमाचं / न तदुत्पत्तिः, तदसरूपत्वात्, तदनन्तराभावाच / पारम्पर्येण तत्तदुत्पत्तिरिति चेत्।न। विहितोत्तरत्वात्, तत्तद्भावेऽपि तन्निमित्तत्वाविशेषात् नित्यादिविकल्पेभ्योऽपि तनिश्चितिसिद्धेः, वस्तुनस्तथात्वप्रसङ्गात्, अनेकान्तापत्तेरिति। न च न नित्यादि-विकल्पानामपि तत्प्रतिबन्धः, तेषामपि तद्भेदप्रसवाभ्युपगमात्, 'नान्येषाम् तद्भेदप्रसवे सत्यपि' इत्याधुपन्यासात्। तद्भेदप्रसवश्वार्थभेदादुत्पादः। स चानित्यादिविकल्पानामिवामीषां तत इति / तत्कथं न तेभ्यस्तनिश्चितिः? इहैवोपपत्त्यन्तरमाह-तत्प्रतिबद्धजन्मत्वासिद्धेश्ववस्तुप्रतिबद्धजन्मत्वासिद्धेश्च 'विकल्पानाम्' इति प्रक्रमः / तथाहि इत्युपप्रदर्शने / करतेषामधिकृतविकल्पानां वस्तुना सह प्रतिबन्धः? इति वाच्यम् / न तादात्म्यं प्रतिबन्धः, तद्देशादिभेदाद्-वस्तुदेशादिभेदात्। आदिशब्दात्कालस्वभावादिग्रहः। अनभ्युपगमाच। न हि परेणापि वस्तुविकल्पयोस्तादात्म्यमभ्युपगम्यते। न तदुत्पत्तिः प्रतिबन्धः, विकल्पाना वस्तुना / कुत इत्याह तदसरूपत्वातवस्त्वसरूपत्वाद् विकल्पानाम् / उपपा - न्तरमाह-तदनन्तराभावाच्चवस्त्वनन्तरा-भावाच्च कारणादिति। पारम्: येण स्वलक्षणज्ञानव्यवधानजेन, तत्तदुत्पत्तिःतस्माद्वस्तुनो विकल्पोत्पत्तिरिति चेत् एतदाशड्क्याह-न, विहितोत्तरत्वात् परदर्शने निमित्तान्तराभावेन विहितोत्तरमेतत् 'कथं वा निर्विकल्पकत्वेनाभिन्ना भिन्नवि Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 660 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस कल्पसंभवः?' इत्यादिना ग्रन्थेन / इतश्चैतद् न तत्तद्भावेऽपि वरतुनी विकल्पभावेऽपि, तन्निमित्तत्वाविशेषाद- वस्तुनिमित्तत्वाविशेषात्, नित्यादिविकल्पेभ्योऽपि सकाशात, तनिश्चितिसिद्धेर्वस्तुनिश्चितिसिद्धेः कारणात्। किमित्याह-वस्तुनस्तथात्वप्रसङ्गात्, नित्यत्वादिप्रसङ्गात् अनेकान्तापत्तेरिति, ननैतदेवमिति क्रिया। न चेत्यादि। न च न नित्यादिविकल्पानामपि, तत्पतिबन्धोवस्तुप्रतिबन्धः, किन्तु प्रतिबन्धा एव / कुत इत्याह-तेषामपि नित्यादिविकल्पानाम, तद्भदप्रसवाभ्युपगभादवस्तुभेदप्रसवाभ्युपगमात / अभ्युपगमश्च 'नान्येषाम, तद्भदप्रसवे सत्यपि' इत्याधुपन्यासात् प्राक् / तद्भेदप्रसवश्व कः? उच्यते-- अर्थभेदादुत्पादः स्वलक्षणादित्यर्थः / स चेत्यादि / स चानित्यादिविकल्पानाभिवामीषा नित्यादिविकल्पानाम्, तत इति वस्तुनः। तत्तस्मात्, कथं न तेभ्यो नित्यादिविकल्पेभ्यः, तनिश्चितिर्वस्तुनिश्चितिः? इति। ननूक्तमत्र 'यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य किश्चित्सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपात्' इति / उक्तमिदम्, अयुक्तं तूक्तम्, इतस्त्राप्युक्तन्यायतुल्यत्वात्, 'अनित्यादिविकल्पानामपि नित्यादिरूपयथादृष्टविशेषनिश्चयपरित्यागेनावस्थाभेदग्रहणतो विशेषान्तरसमारोपेण प्रवृत्तेः' इत्यपि वक्तुं शक्यत्वात् / नित्यस्य भेदाभेदविकल्पद्वारेणावस्थाभेद एवायुक्त इति चेत् / न / ततस्तद्भेदाभेदविकल्पाप्रवृत्तेः, अवस्थानामुत्प्रेक्षितत्वात्, तथा-तत्त्वानामपि समचित्रनिम्नोन्नतसमारोपवत् तथासमारोपहेतुत्वाविरोधः, आन्तरदोषसाम ात्, तस्य चासद्दर्शनवासनारूपत्वात्, नित्यप्रमातुरपि तत्स्वभावत्वतोऽनित्यस्याभेदवासनावत् तथावासनोपपत्तेः / इतीतरत्राप्युक्तन्यायतुल्यत्वमिति। आह-ननूक्तमत्र प्राक् , 'यथादृष्ट विशेषानुसरणं परित्यज्य किशित्सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपाद् न तेभ्यस्तनिश्चितिः' इति / एतदाशङ्कयाह-- उक्तमिदम, अयुक्त तूक्तम् / कथमित्याहइतरत्रापि प्रक्रमाद्वस्त्वनित्यत्वादी, उक्तन्यायतुल्यल्वात् 'यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य' इत्यादिरुक्तो न्यायः, अस्य तुल्यत्वात / तुल्यत्वमेवाह-- अनित्यादिविकल्पानामापीत्यादिना / तत्र 'यथा-- दृष्पविशेषानुसरणं परित्यज्य' इत्यादि भगवन्तरणाधिकृतपक्षविपक्षे यो जयति-अनित्यादिविकल्पानामधीति न के बलं नित्यादिविकल्पानाम, नित्यादिरूपयथादृष्टविशेषनिश्चयपरित्यागेन नित्यादिरूपस्य यथादृष्ट विशेषो नित्यादिरूपएक तनिश्चयपरित्यागेन / परित्यागश्यावस्थाभेदग्रहणलोऽवस्थाभेदग्रहणात् कारणात, विशेषान्तरसमारोपेणाभेदसमारोपेण, प्रवृत्तोरनित्यादिविका पानामपि। इत्यपि--एवमपि, वक्तुं शक्यत्वात, नात्र जिहा तर डोइरः / नित्य त्यादि / नित्यस्य वस्तुनः, भेदाभेदविकल्पद्वारेणएतन्नुखेनेत्यर्थः, अवस्थाभेद एवायुक्तोऽघटमानकः, तथाहितास्ततो भेदेन वा स्युः, अभेदेन वा? भेदे 'अस्यताः' इति कः संबन्धः? अभेदेऽवस्थातैवारसी, अवस्था वा, इति नित्यस्यावस्थाभेदाभाव इति चेत् / एतदाशजयाहनेत्यादि / न-नैतदेवम्, ततो नित्याद् वस्तुनः, तद्भेदाभेदविकल्पाप्रवृत्तेः--तासामवस्थानां भेदाभेदविकल्पाप्रवृत्तेः अप्रवृत्तिश्वावस्थानामुत्प्रेक्षितत्वात-अवस्तुत्वादित्यर्थः / तथातत्त्वानाम पेउत्प्रेक्षिततद्भावानामपि अवस्थानाम' इति प्रक्रमः, समचित्रनिम्नोन्नतसमारोपवदिति निदर्शनम्, समचित्रे निम्नोन्नतसमारोप इति विग्रहः तद्वत्,तथा समारोपो भेदसमारोपस्तद्धेतुत्वाविरोधस्तथातत्त्वानामप्यवस्थानामिति / कुत इत्याह- आन्तरदोषसामात् कारणात्, तस्य चान्तरदोषस्य, असद्दर्शनवासनारूपत्वात्-असद्दर्शनवासनाऽनित्यादिदर्शनवासना तद्रूपत्वात्, नित्यप्रमातुरपि तत्स्वभावत्वतोऽसद्दर्शनवासनास्वभावत्वेन, अनित्यस्य प्रमातुः, अभेदवासनावदिति निदर्शनम्, 'तत्स्वभावत्वतः' इति योज्यते, तथावासनोपपत्तेर्भेदप्रकारेण वासनोपपत्तेः / इति एवम्, इतस्त्रापि वस्त्वनित्यत्वादौ, उक्तन्यायतुल्यत्वमिति निगमननिदर्शनमेतत्। किञ्च-'यथादृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य, इत्यत्र' तथा दृष्टो नान्यथा' इत्यत्र न प्रमाणम् / प्रत्यक्षमेवात्र प्रमाणमिति चेत्। न तत्कस्यचित् निश्चायकम् / तथ्यमपि गृह्णाति न तन्निश्चयेन, किं तर्हि? तत्प्रतिभासेन / स चैवंभूत एव नान्यथेति ऋतेऽतीन्द्रियार्थदर्शितामतिशयश्रद्धां वा न विनिश्चयोपायः / न तदेव, संप्रमुग्धमूककल्पत्वात् / नानुमानम्, तथाविधलिङ्गासिद्धेः। न चान्यत्, अनभ्युपगमात् / अनित्यतादिरूपस्यैव वस्तुनि विद्यमानत्वात् स एवमूतो नान्यथेति चेत्। कुतस्तत्रास्यैव विद्यमानतासिद्धिः? इति वाच्यम् / तत्तथाप्रत्यक्षप्रतिभासादेवेति चेत् / सोऽयमितरेतराश्रयदोषोऽनिवारितप्रसरः / कथं वा तत्तत्प्रतिभासत्वे तन्नीलत्वादिवत्तदनिश्चयः? किञ्चित्सामान्यग्रहणेन विशेषान्तरसमारोपादिति चेत् / किमत्यन्तभेदिनां सामान्यम्? सदृशापरापरोत्पत्तिरिति चेत् / प्रतिनियतैकग्राहिज्ञानतत्त्ववादे कुतोऽस्याः खल्ववगमः? न हि कथञ्चिदेकस्यानेकग्राहिणो विज्ञानस्याभावे 'केनचित् सदृशोऽयम्' इति भवति, अतिप्रसङ्गात्, रूपग्रहणस्यापि रसग्रहणसदृशतापत्तेः। एवं च व्यवस्थानुपपत्तिः। नरूपज्ञानं रसज्ञानोपादानमतोऽयमदोष इति चेत् / न / न भवति, क्वचित्तथाभावोपपत्तेः, रूपज्ञानसमनन्तरभाविनो रसज्ञानस्य तदनुपादानत्वेऽनुपादानत्वप्रसङ्गात् / किं वा- तत्तथाभावाभावेऽत्यन्तासत एव भवतोऽस्योपादानचिन्तया? तत्तथाभावे चानिवारितोऽन्वयः। एतेन सदा सत्त्वोपलम्भः प्रत्युक्तः, तत्त्वतस्तस्यापि सादृ-- Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 691 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस श्यनिबन्धनत्वात् तस्य चोक्तवद् ग्रहणायोगात् आन्तरतद्विकल्पबीजस्याप्रमाणत्वात्, तथापि तत्कल्पनायाश्चेतरत्रा पि तुल्यत्वादित्युक्तप्रायम्। इहैव दूषणान्तरमाह- किश्चेत्यादिना। किञ्च–'यथा दृष्टविशेषानुसरणं परित्यज्य' इत्यत्र तथादृष्टोऽनित्यादिरूपत्वेन, नान्यथा-न नित्यादिरूपत्वेन, इत्यत्र न प्रमाणम्- नास्मिन् विषये प्रत्यक्ष प्रवर्तते, नाप्यनुमानमित्यर्थः / प्रत्यक्षमेवात्र 'तथादृष्ट' इति विषये प्रमाणमिति चेत्। एतदाश ड्क्याह-न तदित्यादि-न तत्,प्रत्यक्ष कस्यचिद् वस्तुनो निश्वायकम् / तथ्यमप्यर्थविशेषं गृह्णाति न तत् निश्चयेन 'एवमेतत्' इत्येवरूपेण। किं तर्हि? तत्प्रतिभासेन तदाकारेण ग्राह्याकारणेत्यर्थः / सचेत्यादि। स च प्रतिभास एवंभूत एव-अनित्यादिरूप एव, नान्यथेति न नित्यादिरूपः, इति-एवम्, ऋते-विना, अतीन्द्रियार्थदर्शितामतिशयश्रद्धा वा न विनिश्चयोपायः / न तदेव प्रत्यक्ष विनिश्चयोपायः / कुत इत्याह- संप्रमुग्धमूककल्पत्वात् तस्य संप्रमुग्धो हि मूकः स्वप्रतिभासमपि न विनिश्चिनोतीति लौकिकमेतत् / अतोऽत्र न प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति। अनुमा नंतर्हि भविष्यतीत्याशङ्कानिरासायाहनानुमानम् अत्र प्रमाणम्' इति प्रक्रमः कुत इत्याह- तथाविधलिङ्गासिद्धेः स एवंभूत एवेत्याद्यर्थाविनाभूतलिङ्गासिद्धेः / न चान्यत् 'अत्र मानम्' इति प्रक्रमः कुत इत्याह- अनभ्युपगमात् अन्यस्य मानस्य / अनित्यत्वादिरूपस्यैव वस्तुनि रूपादौ विद्यमानत्वात् कारणात्, रा प्रतिभासः, एवं भूतोऽनित्यादिरूप एव नान्यथेति न नित्यादिरूप इति चेत् / एतदाशक्याह- कुतस्तत्र वस्तुनि, तस्यैवानित्यत्वादिरूपस्यैव,विद्यमानतासिद्धिः? इत्येतद् वाच्यम् / तत्तथेत्यादि तस्मिन वस्तुनि तथाऽनित्यादिरूपतया प्रत्यक्षप्रतिभासः प्रत्यक्षाकारस्तत्तथाप्रत्यक्षप्रतिभासस्तस्मादेवेति चेत् तस्यैव विद्यमानतासिद्धिरिति / एतदाशक्याह- सोऽयमितरेतराश्रयदोषोऽनि-- वारितप्रसरः तथाहि अनित्यत्वादिरूपता वस्तुनः प्रत्यक्षप्रतिभासबलेन,सो पि तथा वस्तुनोऽनित्यत्वादिरूपतया, इतीतरेतराश्रयदोषः कयं वेत्यादि / कथं वा तस्य प्रत्यक्षस्य, तत्प्रतिभासत्वे प्रक्रमादनित्यत्वाद्याकारत्वे,तन्नीलत्वादिवत् तस्य वस्तुनो नीलत्वादिवदिति निदर्शनं व्यतिरेकेण तदनिश्चयोऽनित्यत्वाद्यर्थानिश्चयः। किक्षित स्मान्यग्रहणे नापरसदादिग्रहणे नेत्यर्थः, विशेषान्तरसमारोपात् सर्वसदादिसमारोपादिति चेत् तदनित्यत्वाद्यनिश्चयः / एतदाशड्क्याह-किमत्यन्तभेदिनां सामान्य वस्तूनाम्' इति प्रक्रमः। सदृशापरापरोत्पत्तिरिति चेत् प्रस्तुतसामान्यम् / एतदाशडक्याहप्रतिनियतैक ग्राहिज्ञानतत्त्ववादे क्षणिकत्वेन कुतोऽस्याः सदृशापरापरोत्पत्तेः खल्ववगमः? नैवेत्यर्थः। एतदेव भावयति-न हीत्यादिना। न हि कथशिदकस्यानेकग्राहिणो विज्ञानस्याभावेऽन्वयिन इत्यर्थः, 'केनचित् सदृशोऽयम्' प्रक्रमाद् ‘भावः' इति भवति / किं न भवति? इत्याह- अतिप्रसड़ात् / एनमेवाह--रूपग्रहण स्यापि रसग्रहण - सदृशतापत्ते., तेन त्दग्रहणाविशेषादिति भावः / एवं जातिपसड़े राति | व्यवस्थानुपपत्तिः / न रूपज्ञानं रसज्ञानोपादानम्, यथा रूपज्ञानोपादानमेव, अतोऽयमतिप्रसङ्ग दोषोऽदोष इति चेत् / एतदाशडक्याह--न-न भवति रूपज्ञान रसज्ञानोपादानम्, किन्तु भवत्यपि क्वचित सामान्येन तथाभावोपपत्तेः रूपज्ञानस्य रसज्ञानोपादानभावोपपत्तेः / एतदेवाह-रूपज्ञानसमनन्तरभाविनो रसज्ञानस्य तदनुपादानत्वे.-रूपज्ञानानुपादानत्वे,अनुपादानत्वप्रसङ्गात् / न तदपरं ज्ञानमुपादानम, न च-न भवति रूपज्ञानानन्तरं रसज्ञानमिति भावनीयम / किं वा तत्तथा-भावाभावे तस्य-रूपज्ञानस्य तथा रसज्ञानतथा भावाभावे, अन्वयानभ्युपगमेनात्यन्तासत एव भवतः, अरय-रसज्ञानस्य, उपादानचिन्तया, परमार्थतः सर्वत्रारात् सद् भवतीति कृत्वा? तत्तथाभावे च तस्य रूपज्ञानस्य तथाभावे च रसज्ञानभावे चाभ्युपगम्यमाने सति / किमित्याह- अनिवारितोऽन्वयः बलादापद्यत इत्यर्थः / एते नेत्यादि / एतेनानन्तरो दितेन, सदा सत्त्वोपलम्भः प्रत्युक्तः / कथमित्याह- तत्त्वतः-परमार्थतः, तस्यापि सदासत्त्वोपलम्भस्य, सादृश्यनिबन्धनत्वात् / यदि नामैवं ततः किमित्याह- तस्य च सादृश्यस्य, उक्तवद् यथोक्तम्- 'प्रतिनियतैकग्राहिज्ञानतत्ववादे' इत्यादि तथा ग्रहणायोगात्. आन्तरतद्विकल्पबीजस्य-असद्दर्शनवासनाख्यनित्यत्वादिविकल्यबीजस्य, अप्रमाणत्यात, नैतदग्राहक प्रमाणमस्ति; तथापि प्रमाणाभावेऽपि, तत्कल्पनायाश्वान्तरतद्विकल्पबीजकल्पनायाश्च, इतरत्रापि प्रक्रमादनित्यत्व भी, तुल्यत्वादियुक्तप्रायम्-प्रायेणोक्तम् 'आन्तरदोषसामात' इत्यादिना ग्रन्थेन। प्रकारान्तरेण पूर्वपक्षयन्नाहएवं प्रदीपप्रभोदाहरणं सर्वत्रगत्वादनुदाहरणमेव / न च दीपप्रभाया मण्यर्थेन प्रतिबन्धः, अस्ति च मणिप्रभायाः। न चैवमनित्येतरादिविकल्पानां केषांचिदेव वस्तुना प्रतिबन्धो नान्येषाम्, इति वैषम्यमपि दान्तिकेन / अयोनिशोमनस्कारपूर्वकत्वान्नित्यादिविल्पानां न वैषम्यमिति चेत् / न / अस्यापि तुल्यत्वात, अनित्यादिविकल्पानामप्येवंभूतभावस्य वक्तुं शक्यत्वात्, उभयत्र तन्नियामकत्वानुपपत्तेः, निबन्धनाविशेषादिति। अतः स्थितमेतत्-'अखिलविकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनश्च तत्सामोत्थं वचनमपि तादृगेव' इति दुःस्थिता तत्त्वनीतिः। पूर्वपक्षान्तरमधिकृत्याह-- एवमित्यादि / एवमुक्तनीत्या, प्रदीपप्रभोदाहरणं परप्रणीतं, सर्वत्रगत्यात् कारणाद् विपक्षेऽप्युपनयकरणेन, किमित्याह अनुदाहरणमेवा अभ्युच्चयमाह-नचेत्यादिना। नचदीपप्रभाया मण्यर्थेन सह प्रतिबन्धोऽस्ति, अस्ति च मणिप्रभाया इत्युभयसिद्धमेतत् / न चैवभनित्येतरादिविकल्पानामनित्यनित्यादिविकल्पानाम्, केषाशिटेवानित्यादिविकल्पानामेव, वस्तुना प्रतिबन्धो नान्येषां नित्यादिविकल्पानाम्, किं तर्हि? अविशेषेण, 'नान्येषां तद्भेदप्रसवे सत्यपि इत्यादिवचनात, इत्येवं, वैषम्यमपि. दार्शन्तिकेन। अयोनिशीमनस्कारपूर्वकत्वाद् नित्यादिविकल्पानां सर्वथा वस्तुशून्यत्वादित्यर्थः, न वैषम्य Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 692 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस मिति चेद दाान्तिकेन, एतदाशङ्कयाह--न, अस्यापि तुल्यत्वात्। एतदेवाह.. अनित्यादिविकल्पानामपि पराभिगतानाम, एवं भूतभावस्य-अयोनिशोमनस्कारपूर्वकत्वभावस्य, वक्तु शक्यत्वात् तथाहि- अनित्यादिविकल्पा एवायोनिशोमनस्कारर्पूका वस्त्वसंस्पर्शिनः, सतोऽसत्त्वानापत्त्या, असतश्च सद्भावविरोधेन वस्तुन एवंभूतस्यासंभवात्, इति बाधकप्रमाणवृत्तिः, अतः स्थितमेतत् अनित्यादिविकल्पानामप्येवंभूतभावस्य वक्तु शक्यत्वात् इति / उभयत्रेत्यादि. उभयत्र नित्यादिविकल्पपक्षेऽनित्यादिविकल्पपक्षे च,तन्नियामकत्वनुपपत्तेः तस्यायोनिशोमनस्कारर्पवकत्वस्य नियामकत्वानुपपत्तेः / अनुपपत्तिश्च निबन्धनाविशेषात्। निबन्धनाविशेषश्व सर्वेषां तद्भेदप्रसवत्वेनेति। अतः स्थितमेतत् अखिल-विकल्पज्ञानभ्रान्ततावादिनश्च तत्सामोत्थ- विकल्पसामोत्थं वचनमपि तादृगेवभ्रान्तमेव, इत्येवं दुःस्थिता तत्त्वनीतिः।। भ्रान्तिज्ञानवन्तोऽपि कामलिप्रभृतयः शङ्खादी संस्थानादितत्त्वनिश्चयनिबन्धनं दृश्यन्त एवेति चेत् / न / तेषां तत्राभ्रान्तत्वात् ; अन्यथा पीतवर्णादिवत्तत्त्वनिश्चयनिबन्धनाभावः / विकल्पज्ञानमपि स्वसं वित्तावभ्रान्तमेवेति चेत् / क्व तर्हि भ्रान्तम् ? इति वाच्यम्। कल्पनायामिति चेत्।न। तस्यास्तदव्यतिरेकात्; अन्यथा विकल्पज्ञानायोगात, स्वसंवित्तेर्भेदकासिद्धेः, बोधमात्राद्-बोधमात्रभावात्, तदतिरिक्तदोषानभ्युपगमात् / अभ्युपगमे च तदस्तुत्वेन तद्योगजविकारकल्पनाया वस्तुत्वापत्तेरिति। भ्रान्तीत्यादि। भ्रान्तिज्ञानवन्तोऽपि कामलिप्रभृतयःप्रमातारः, शादी प्रमेये,संस्थादितत्त्वनिश्चयनिबन्धनं दृश्यन्त एवेति चेत् ततश्च तद भ्रान्त च ज्ञानं, तत्त्वनिश्वयनिबन्धनं च, एवमनित्यादि-विकल्पा अपि भविष्यन्ति, इत्याह- नेत्यादि / न, तेषां कामलि-प्रभृतीना, तत्र शङ्गादिसस्थानादितत्त्वनिश्चयनिबन्धनाभावः, अभ्रान्तत्वात् / इत्थं चैतङ्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा पीतवर्णादौ यथा पीतवर्णादौ तथा, तत्तत्त्वनिश्चयनिबन्धनाभावः-शनादि-संस्थानादितत्त्वनिश्चयनियन्धनाभावः, सर्वथा भ्रान्तत्वादिति भावना / विकल्पज्ञानमपि स्वसंवित्तौ, किमित्याह-अभ्रान्तमेवेति चेत् ततश्च किलोक्त-दोषानुपपत्तिः, इत्याशङ्क्याह-क्व तर्हि भ्रान्तम्? इति वाच्यम् / कल्पनायामिति चेद् भ्रान्तमा अत्राह न, तस्याः कल्पनायाः, तदव्यातिरेकात्-स्वसवित्त्यव्यतिरेकात् / इत्थं चैतदित्याह- अन्यथा व्यतिरेके सति स्वसवित्तेः कल्पनायाः, विकल्पज्ञानायोगात् / अयोगश्च स्वसंवित्तश्चिद्रुपायाः, भेदकासि रञ्जकासिद्धेः / असिद्धिश्च बोधमात्रात सकाशात् कारणगतात, बोधमात्रभावात्। तत्कार्ये तदेव दोषसंपृक्तं विकल्पज्ञानमित्येतन्निरासायाह- तदतिरिक्तदोषानभ्युपगमात्-- बोधमात्रातिरिक्तदोषानभ्युपगमात्। अन्युपगमे च तदतिरिक्तदोषाणां, तद्वस्तुत्वेनदो (षा)षवस्तुत्वेन हेतुना, 'तद्योग-जविकारकल्पनाया-दोषयोगजविकारकल्पनायाः, वस्तुत्वापत्तेः' न, तेषा तत्राभ्रान्तत्वात् इत्यतो नेति / क्रियायोग इति। आह-- अस्तु दोषजं वस्तुत्वमस्याः, शङ्खपीतादिप्रतिभासतुल्यं तु तत्, संस्थानादितत्त्वनिश्चयकल्पा तु स्वसंवित्तिरिति / यदि नामैवम्, ततः किम्? इति वाच्यम् विकल्पज्ञानस्याप्यभ्रन्तता। एवमपि का भवत इष्टसिद्धिः? ननु ततस्तत्त्वनीतिभावः। अनिश्चयात्मिकायाः कथमसौ? हन्त ! कल्पनानुवेधात् / स खलु नित्यत्वादिकल्पनयाऽपि / इति विपक्षसाधारणत्वात् नेष्ट सिद्ध्यर्थमेवेत्ययुक्त एव / न च निरंशवस्तुवादिनो यथोक्तकल्पनैव संभवति, तदेकस्वभावत्वेन कल्पनाबीजायोगात्, स्वभावभेदमन्तरेण हेत्यभेदतः फलभेदसिद्धेः। आह-अस्तु दोषज वस्तुत्वम् अस्याः-कल्पनासाः / शङ्ख - पीतादिप्रतिभासतुल्यं तु तद्-वस्तुत्वम्, संस्थानादितत्त्वनिश्चयकल्पा तु स्वसवित्तिरिति / एतदाशङ्कयाह-यदि नामैवं, ततः किम्? इति वाच्यम् / विकल्पज्ञानस्याप्यभ्रान्तता। एतदाशङ्कयाह- एवमपि का भवत इष्टसिद्धिः? ननु ततः- अभ्रान्तायाः स्वसं वित्तः, तत्वनीतिभाव इतीष्टसिद्धिः। एतदाशङ्कयाह-अनिश्चयात्मिकायाः स्वसंवितेः, कथमसौ तत्त्वनीतिभावः? हन्त ! कल्पनानुवेधात् / एतदाशङ्कयाह- स खलुकल्पनानुवेधः, नित्यत्वादिकल्पनयाऽपि-सह, इति--विपक्ष-साधारणत्वात् कारणात्, 'नेष्टसिद्ध्यर्थ-मेव' इति कृत्याऽयुक्त एवेति किचिदनेन / अभ्युच्चयमाह-न च निरंशवस्तुवादिनः परस्य, यथोक्तकल्पनैव संभवति / इत्याह-तदेकस्वभावत्वेननिरंशवस्तुन एकस्वभावत्वेन हेतुना कल्पनाबीजायोगात् / अयोगश्च स्वभावभेदमन्तरेणप्रक्रमादविकल्प-ज्ञानवस्तुनः, हेत्वभेदतः कारणात्, फलभेदासिद्धेः / फलभेदश्चाविकल्पज्ञानात् कल्पनेति भावनीयम् ! भवतोऽपि कथमेकं भ्रान्ताभ्रान्तम्? इति चेत् / चित्रस्वभावत्वेन तथात्वाविरोधात्, तत्त्वत एकत्वासिद्धेः, दोषसाम •पयोगात्, अविगानतस्तथा तत्प्रतीतेरिति / अतोनिर्विकल्पकवद् विकल्पकमप्यक्षव्यापारानुसारि यथावस्थितवस्तुविषयमविगानतः स्पष्टतुल्यविनिश्रयं सत्क्षयोपशमजन्म बाधविज्ञानरहितमवगमादिफलमभान्तमेष्टव्यम्, अन्यथोक्तवत् तत्तत्त्वनिश्चयाभावः / इति विकल्पकत्वेऽपि न भ्रान्तमधिकृ तविज्ञानमिति / अतः सामान्य विशेषरूपवस्तुसिद्धिरिति। भवतोऽपि कथमेक प्रक्रमात् कामलिशङ्खपोतज्ञान भ्रान्ताभ्रान्तम? इति चेत् / एतदाशडक्याह चित्रस्वभावत्वेन अधिकृतज्ञानस्य, तथात्वाविरोधाद-भान्ताभ्रान्तत्वाविरोधात्, तत्वतः-परमार्थेन, एकत्वासिद्धेरेकानेकत्वादित्यर्थः / हेतुभेदमाह-दोषसामोपयोगात कामलस्य सामर्थ्याद्धि तत् तथा, तदभावेऽभावात्। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह अविगानतःअविगानेन लोके, तथा दोषजत्वेन, तत्प्रतीतेः-शङ्खपीतज्ञानप्रतीतेरिति नि Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 663 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस लाठ्यानुषङ्गि कम्-प्रकृतमाह- अतो निर्विकल्पकवत इति निदर्शनम्। विकल्पकमप्यभान्तमेष्टव्यमिति गोगः / किंविशिष्टमित्याह-अक्षव्यापारानुसारि--अक्षव्यापारानुसरणशीलम्, यथावस्थित-वस्तुविषयं सामान्यविशेष रूपवस्तुगोचरम्, अविगानतोऽविगानेन, स्पष्टतुल्यविनिश्चयं प्रमात्रन्तरमधिकृत्य, सत्क्षयोपशमजन्म-विशिष्टक्षयोपशमोत्पादम, बाध वेज्ञानरहितं तथा अनुभवदाढयन, अवगमादिफलं परिच्छित्तिप्रवृत्तिप्राप्तिफलमर्थमधिकृत्य, अभ्रान्तमेष्टव्यम् / अन्यथा-- तदनिष्टा, उक्तवद् यथोक्तं तथा, तत्तत्त्वनिश्चयाभावोयथावस्थितवस्तुतत्त्वनिश्चयाभावः, प्रत्यक्षस्यानिश्चायकत्वात्, विकल्पाना व मिथो विरुद्धानामपि प्रवृत्तरिति। इति-एवं, विकल्पकत्वेऽपि सति, न भ्रान्तमधिकृतविज्ञान सामान्यविशेषावसायरूपमिति / अतः-अस्माद् विज्ञानाद, सामान्याविशेषरूपवस्तुसिद्धिरिति। यचोक्तम्- 'एकं सामान्यमनेके विशेषाः' इत्यादि। तदप्ययुक्तम्,तथानभ्युपगमात् / न हि यथोक्तस्वभावं सामान्यमभ्युपगम्यतेऽस्माभिः, युक्तिरहितत्वात्, तथाहि-तदेकादिस्वभावं सामान्यमने के षु-दिग्देश-समयस्वभावभिन्नेषु विशेषेषु सर्वात्मना वा वर्तेत, देशेन वा? न तावत्सर्वात्मना, सामान्यानन्त्यप्रसङ्गात्, विशेषाणामनन्तत्वात्, एकविशेष-- व्यतिरेकेण वाऽन्येषां सामान्यशून्यतापत्तेः, आनन्त्ये चैकत्वाविरोधात् / नापि देशेन, सदेशत्वप्रसङ्गात् / न च गगनवद् व्यापित्वात् वर्तत इति ब्रूम इत्यकलजन्यायानुसारि चेतोहरं वचः;अविचारितरमणीयत्वात, कास्न्यदेशव्यतिरेकेण वृत्त्यदर्शनात् / उभयव्यतिरेकेण नभसो वृत्तिरिति चेत् / न,असिद्धत्वात्,नभसः सप्रदेशत्वाभ्युपगमात्, निष्प्रदेशत्वे चानेकदोषप्रसङ्गात्, तथाहि-येन देशेन विन्ध्येन सह संयुक्तं नमः, हिमवन्मन्दरादिमिरपि किं तेनैव, आहोस्विदन्येनेति? यदि तेनैव,विन्ध्यहिमवदादीनामेकत्रावस्थानप्रसङ्गः, निष्प्रदेशैकाकाशसंयोगान्यथानुपपत्तेः / अथान्येन, आयातं तर्हि सदेशत्वमाकाशस्य। यच्चोक्तम् - 'एकं सामान्यमनेके विशेषाः' इत्यादि मूलपूर्वपक्षे / तदप्ययुक्तम / इत्याह- तथाऽनभ्युपगमात् / एतदेवाह- न हीन्यादिना / न हि यथोक्तस्वभावमेकादिधर्मकं सामान्यमभ्युपगम्यतेऽस्माभिः / कुत इत्याह.. युक्तिरहितत्वात् / एतदेवाह-तथाहितदकादिस्वभावं सामान्यम् एकं, नित्यं निरवयवं, निष्क्रिय च, अनेकेषु दिग्दर्शसमयस्वभावभिन्नेषु विशेषेषु घटादिषु, सर्वात्मना वा वर्तेत, देशेन चा? नताबत सर्वात्मना वर्तते। कुत इत्याह-सामान्यानन्त्यप्रसङ्गात्। प्रसङ्गश्च विषाणामनन्तत्वात् / दोषान्तरमाह-एकविशेषव्यतिरेकेण याऽन्य विशेषाणाम, किमित्याह- सामान्यशून्यतापत्तेः एक त्रैव सामान्यवृत्तेरिति। आनन्त्ये च सामान्यानाम्, एकत्वविराधाद् न तावत् सर्वात्मनेति / नापि देशेन वर्तत ‘सामान्यं विशेषेषु' इति प्रक्रमः, सदेशत्वप्रसङ्गात् सामान्यस्य / न च गगनवदिति दृष्टान्तः, व्यापित्वात् कारणात्, वर्तत इति ब्रूमः, इत्यकलङ्कन्यायानुसरि चेतोहरं वचः। कुत इत्याह-अविचारितरमणीयत्वात्। एतदेवाह- कास्न्यदेशव्यतिरेकेण वृत्त्यदर्शनाल्लोक। उभयव्यतिरेकेणकात्स्न्यदेशोभयव्यतिरेकेण, नभसःआकाशस्य, वृत्तिरिति चेद् भावेष्वाधेयादित्वेन / एतदाशङ्कयाह- न, असिद्धत्वात अधिकृतनभोवृत्तेः / असिद्धिश्च नभसः सप्रदेशत्वाभ्युपगमार्जनः / यदा च सप्रदेश नभः, तदा देशकास्न्याभ्यां नियोगतोऽस्य वृत्तिः, उभयनिमित्तभावात्। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-निष्प्रदेशत्वे च नभसः, अनेकदोषप्रसङ्गात् / एतदेव भावयति-तथाहीत्यादिना / तथाहीत्युपप्रदर्शन / येन देशेन विन्ध्येन सह पर्वतेन संयुक्तं नमः, हिमवद-मन्दरादिभिरपि पर्वतैः, किं तेनैव देशेन, आहोस्विदन्येन? इति / किश्चातः? उभयथापि दोष इत्याह -यदि तेनैव, ततो विन्ध्यहिमवदादीना पर्वतानाम्,एकत्र देश, अवस्थानप्रसङ्गः। कुत इत्याहनिष्प्रदेशं च तदेकाकाशं च तेन संयोगस्तदन्यथानुपपत्तेरिति / अथान्येन। एतदाशङ्कयाह-आयातं तर्हि सप्रदेशत्वमाकाशस्य, तथाऽभ्युपगमात्। स्यादेतददेशत्वात् वियतो यथोक्तविकल्पासंभवः,तत्रैकस्मिन्नेव तेषामवस्थितत्वात् / इदमप्ययुक्तम्, वस्तुतः पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेः / न च सर्वव्यापिनो विन्ध्यादय इति, येन 'तस्मिन्नेव तेषामवस्थितत्वात्' इति सफलं भवेदिति / अतो यत्र विन्ध्यभावो यत्र चाभाव इत्यनयोर्नभोभागयोरनन्यत्यम्, अन्यत्वं वेति वाच्यम्य? किचातः? यद्यनन्यत्वम्, किमु सर्वथा,आहोस्वित्कथञ्चित् / यदि सर्वथा, हन्त ! तर्हि यत्र विन्ध्यभावस्तत्राप्यभावः स्यात्, तदभाववन्नभोभागाव्यतिरिक्तत्वात्, तद्भाववन्नभोभागस्य विपर्ययो वा / अथ कथञ्चित्, अनेकान्तवादाभ्युपगमात् स्वकृतान्तप्रकोपः / अथान्यत्वम्। किं सर्वथा, उत कथञ्चित्? यदि सर्वथा, अन्यतरस्यानभोभागत्वप्रसङ्गः, सर्वथा भेदान्यथानुपपत्तेः / अथ कथश्चित, स्वदर्शनपरित्यागदोष इति। स्यादेतद्भागानभ्युपगमाद् व्योम्नो यथोक्तदोषानुपपत्तिरिति / अभ्युपगममात्रभक्तो देवानांप्रियः सुखै धितो नोपपत्तिप्राप्तानपि भागानवगच्छतीति; ननु विशिष्टभावभावाऽभावगम्या एव भागा इत्यवगमे निवेश्यतां चित्तमित्यलं प्रसङ्गेन। एतेन नित्यव्यापिनिर्देशसामान्यवृत्तिरपि प्रत्युक्ता। स्यादेतददेशत्वावियत-आकाशस्य यथोक्तविकल्पासंभवः। तत्र--वियति, एकस्मिन्नेव निष्प्रदेशे, तेषां विन्ध्यादीनाम्,अवस्थितत्वात् / एतदाशङ्कयाह-इदमप्ययुक्तम्, वस्तुतः-परमार्थतः, पूर्वोक्तदोषानतिवृत्तेःविन्ध्यहिमवदादीनामेकत्रावस्थानादिप्रसङ्गः पूर्वोक्तो दोषः, तदनति Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 664 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस वृत्तः / एनमेव प्रकारान्तरेण समर्थयन्नाह-नच सर्वव्यापिनो विन्ध्यादय इति येन 'तस्मिन्नेकस्मिन्नेव तेषामवस्थितत्वात्' इति सफलं भवेत्।। अता यत्रेति देशे विन्ध्यभावः, यत्र चाभावः, इत्यन-योर्नभोभागयोराकाशदेशयोः, किमित्याह- अनन्यत्वमन्यत्व वेति वाच्यम् ? किञ्चातः / यद्यनन्यत्वम् किं सर्वथा, आहोस्वित् कथञ्चित्? यदि सर्वथाऽनन्यत्वम्, हन्त ! तर्हि यत्र विन्ध्यभावस्तत्राप्यभावः स्यात् / कुत इत्याह-तदभाववन्नभोभागाव्यतिरिक्तत्वात-विन्ध्याभाववन्नभोभागाव्यतिरिक्तत्वात्, तद्भाववन्नभोभागस्यविन्ध्यभाववन्नभो - भागस्य, विपर्ययो वा, यत्राभावस्तत्रापि भावप्राप्तेः / अथ कथशिदनन्यत्वम् एतदाशडक्याह- अनेकान्तवादाभ्युपगमात् स्वकृतान्तप्रकोपः-स्वसिद्धान्तविरोध इत्यर्थः / द्वितीयं विकल्पमधित्याहअथान्यत्वम् अधिकृतनभोभागयोः, किं सर्वथाऽन्यत्वम्, उत कथञ्चित्? यदि सर्वथाएकान्तेनान्यत्वम् / ततः किमित्याह- अन्यतरस्य यत्र विन्ध्यभावो यत्र चाभाव इत्यनयोरेकस्य इत्यनयोरेकस्य किमित्याहअनभोभागत्वप्रसङ्गः / कुत इत्याह- सर्वथा भेदान्यथाऽनुपपत्तेः सर्वधर्मवलक्षण्ये हि सर्वथा भेदः तस्मिश्च सत्येकस्य भावरूपता, अपरस्य साऽपि न, इत्येतदेव भवतीति भावना। अथ कथञ्चिदन्यत्वमधिकृतनभोभागयोरित्यत्राहस्वदर्शनपरित्यागदोषः, एकान्तदर्शनं हि परस्य स्वदर्शनं तत्परित्यागदोष इति स्यादेतद् भागानभ्युपगमाद व्योम्नःआकाशस्य, यथोक्तदोषानुपपत्तिरित्येदधिकृत्याह- अभ्युपगममात्रभवतो देवानांप्रियो, मूर्ख इत्यर्थः, सुखैधितः--शारणग्रहणपरिश्रमायागेन सुखवर्धितः, नोपपत्तिप्राप्तानपि विन्ध्यभावभावाऽभावाम्या भागानागच्छतीति / एतद्भावनायेवाह- ननु विशिष्टभावभावाऽभावगम्या एव भागाः-विशिष्टभावोऽन्यव्यावृत्ततया विन्ध्यभाव एव तद्भावाऽभावगम्या एव भागा व्योम्नः। न हि निर्भाग परमाणौ कार्यस्य व्याणुकादेः कृचिद भावाः क्वचिद् नेति स्वदर्शनस्थित्यप्यवगमे निवेश्यतां चित्तमित्यलं प्रसङ्गेन / एतेनेत्यादि / एतेनैकसामान्यवृत्तिनिराकरणेन, नित्यव्यापिनिर्देशसामान्यवृत्तिरपि प्रत्युक्ता विशेषेषु, नित्यस्यैकस्वभावतया कालभिन्नासु व्यक्तिषु वृत्त्ययोगः, व्यापिनः सर्वगतत्वेन निर्देशस्य देशाभावेनेति भावनीयम्। आह-अनुभवसिद्धत्वात् सामान्यस्य न युज्यते सहृदयतार्किकस्य तत्प्रतिक्षेपेणात्मानमायासयितुम् , आयासस्य निष्फलत्वात्, तथाहि-यदि सनातनं वस्तुसद् व्याप्येकमनवयवं सामान्यवस्तु न स्यात् न तदा देशकालस्वभावभेदभिन्नेषु घटशरावोष्ट्रिकोदश्चनादिषु बहुषु विशेषेषु सर्वत्र 'मृद् मृद्' इत्यमिन्नौ बुद्धिशब्दौ स्याताम् / न खलु हिमतुषारकरकोदकाङ्गारमुर्मुरज्वालानलझञ्झामण्डलिकोत्कलिकापवनखदिरोदुम्बरबदरिकादिष्वत्यन्तभिन्नेषु बहुषु विशेषेष्वेकाकारा बुद्धिर्भवति, नाप्येकाकारः शब्दः प्रवर्तत इति। अतोऽस्य यथोक्ताऽभिन्नबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनस्य वस्तुसतः सामान्यस्य | सत्त्वमाश्रयितव्यमिति। आह परः, अनुभवसिदत्वात् सामान्यस्य, विशेषेषु तुल्यबुद्धि-भावेन, न युज्यते सहृदयतार्कि कस्य भावाशून्यस्य, तत्प्रतिक्षेपेणसामान्यप्रतिक्षेपेण, आत्मानमायासयितुम् / कुतो न युज्यत इत्याहआयासस्य निष्फलत्वात् / एतदेवाह- तथाहीत्यादिना / तथाहीति पूर्ववत् / यदि सनातनं नित्यम्; वस्तुसत्- अपरिक-ल्पितम, व्यापिविशेषव्यापनशीलम्, एकं-स्वरूपेण, अनवयवम्- अवयवरहितम, सामान्यवस्तु न स्यात्, ततः किं रयादित्याह- न तदा देशकालस्वभावभेदभिन्नेषु, केष्वित्याह-घटशरावोष्ट्रिकोदश्चनादिषु उदञ्चनोलोट्टकः, आदिशब्दादलिञ्जरादिग्रहः, बहुषु विशेषेषु सर्वत्र 'मृद् मृद' इत्येवं अभिन्नौ तुल्यावेकरूपावित्यर्थः कावित्याह- बुद्धिशब्दों स्याताम्। किमिति न स्यातामित्याह-नखल्वित्यादि। नैव 'हिमतुषारकरकोदकानि च इत्यनेन जलभेदानाह, 'अङ्गारमुर्मुरज्वालानलाश्च' इत्यनेन त्वग्निभेदान्, 'झञ्झामण्डलिकोत्कलिकापबनाश्च' इत्यनेन वायुभेदान, 'खदिरो-दुम्बर--बदरिकादयश्च' इत्यनेन च वनस्पतिभेदानाह, आदिशब्दः प्रत्येक धारादिसंग्रहार्थः एते चत्यन्तभिन्नेषु, जाति-भेदापेक्षया बहुषु, विशेषेषु भेदेषु, एकाकारा बुद्धिर्भवति, तथाऽननुभवात् / नाप्येकाकारः शब्दः प्रवर्तत इति 'मृद् मृद्' इत्यादिशब्दवत् / अतोऽस्य सामान्यस्येति योगः / यथोक्तं च तद् 'मृद् मृद' इत्यादिरूपतयाऽभिन्नं च तद् बुद्धिशब्दद्वयं चेति विग्रहः, प्रवृत्तिनिबन्धनंप्रवृत्तिकारणम्, तस्य वस्तुसतः पारमार्थिकस्य सामान्यस्य सत्त्वमाश्रयितव्यमिति। पुनराशङ्कयाह-- अत्रोच्यते-न खल्वस्माभिर्यथोक्तबुद्धि-शब्दद्यप्रवृत्तिनिबन्धनं निषिध्यते / किं तर्हि? एकादिधर्मयुक्तं परपरिकल्पितं सामान्यमिति / तच यथा विशेषवृत्त्ययोगेन न घटां प्राञ्चति तथा लेशतो निदर्शितमेव, प्रपञ्चतस्त्वन्यत्र वृत्त्ययोगसंख्यादिव्यभिचारतद्वत्प्रत्ययप्रसङ्गादिना युक्तिकलापेन निराकृतमिति नेह प्रयासः। एतदाशड्वयाह-अत्रोच्यते न खल्वस्माभिः जनैः, यथोक्त-बुद्धिशब्दद्वय प्रवृत्तिनिबन्धनं निषिध्यते / किं तर्हि? एकादिधर्मक परपरिकल्पितं सामान्यमिति-सामान्यं निषिध्यते / तचैकादिधर्मकं सामान्यम्, यथा विशेषवृत्त्ययोगेन हेतुना,न घटा प्राञ्चतिन घटन गच्छति,तथा लेशतो निदर्शितमेव, प्रपशतस्त्वन्यत्र स्याद्वादकुचो द्यपरिहारादौ, वृत्त्ययोगश्च संख्यादिव्यभिचारश्च तद्वत्प्रत्यय प्रसङ्गादिश्वेति समासः,तेन, के नेत्याह- युवितक लापेन उपपत्तिसंघातेन, निराकृतमिति कृत्वा,नेह प्रयासो-नेह प्रयत्नविशेषः। तत्र वृत्त्ययोगो दर्शित एव। 'यदेकबुद्ध्यकशब्दप्रवृत्ति निमित्त तत् सामान्यम्' इत्यभ्युपगमे संख्यादिभिर्व्यभिचार:-एकसंख्याऽपि भवत्येकबुद्ध्येकशब्दप्रवृत्तिनिमित्तम् ; आदि-शब्दात्-तत्समवायच,न चासौ सामान्यमिति व्यभिचारः / तथा भावेऽपि सामान्यस्य विशेषेषु तद्वत- प्रत्ययप्रसङ्गः 'एकसामान्यवन्तो विशेषाः' इति प्रत्ययः प्रा-- Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 665 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस प्राप्नाति, न समानाः' इति / आदिशब्दाद्-विशेषविनाशे तत्र तत्कवलग्रहणप्रसङ्ग : / इति संक्षेपगर्भार्थः / इत्यलं प्रसङ्गेन। आह- किं पुनर्यथाक्तबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनम्? इति। उच्यते-अनेकधर्मात्मकानां वस्तूनां तथाविधः समानपरिणाम इति / न चात्र सामान्यवृत्तिपरीक्षोपन्यस्तविकल्पयुगलप्रभवदोषसंभवः, समानपरिणामस्य तद्विलक्षणत्वात्, तुल्यज्ञानपरिच्छेद्यवस्तुरूपस्य समानपरिणामत्वात्, अस्यैव च सामान्यभावोपपत्तेः समानानां भावः सामान्यमिति यत्तत्समानैस्तथा भूयत इत्यन्वर्थयोगात्, अर्थान्तरभूतभावस्य च तद्व्यतिरेकेणापि तत्समानत्वेऽनुपयोगात्, अन्यथा समानानामित्यभिधानाभावादयुक्तैव तत्कल्पना / समानत्वं च भेदाविनाभाव्येव, तदभावे सर्वथैकत्वतः समानत्वानुपपत्तेः / इति तथाविधः समानपरिणाम एव समानबुद्धिशब्दद्रयप्रवृत्तिनिमित्तम्। आह-किं पुनर्यथोक्तबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिबन्धनम? इति। उच्यते-- अनेकधर्मात्मकाना सत्त्वज्ञेयत्वाद्यपेक्षया, वस्तूनां घटशरावाष्ट्रिकादचनादीनाम्, तथाविधो 'मृद् मृद' इत्यभिन्नबुद्धि-शब्दद्वयप्रवर्तकः, समानपरिणाम इति / न चात्र समानपरिणामे, सामान्यवृत्तिपरीक्षायामुपन्यस्तं च तद् विकल्पयुगलकं च तथाहि-तदेकादिस्वभावं सामान्यमनेकषु दिग्दशसमयस्वभावभिन्नेषु विशेषेषु सर्वात्मना वा वर्तते, देशेन पा' इत्येतत्, नत्प्रभवश्व ते दोषाश्व सामान्यानन्त्यादयः, तेषां संभवो न छ / कुत इत्याह- सनानपरिणामस्य तद्विलक्षणत्वात् एकादिधर्मकसामान्यविलक्षणत्वात / वेलक्षण्यमेवाह-तुल्येत्यादिना / तुल्यज्ञानपरिच्छद्य च द् वस्तुरूपं चेति विग्रहस्तस्य, समानपरिणामत्वात् / अस्यैव-समानपरिणामस्य, सामान्यभावोपपत्तः / उपपत्तिश्च, समानाना भावः सामान्यमिति यत् तत्समानस्तथा भूयत इति कर्तरि षष्टी, इत्येवमन्वर्थयोगात् / नायं परपक्ष इत्याह अर्थान्तर-भूतभावस्य च संबन्धपक्षे सनानाना राबन्धिनः, तद्व्यतिरेकेणापि भावव्यतिरेकेणापि तदर्थान्तरत्वेन, तत्समानत्वे-तेषां समानानां समानत्वे, प्रकृत्यैवेति भावः, किमित्याह- अनुपयोगात् अधिकृतभावस्य, तमन्तरेणेव ते रागाना इति कृत्वा / अन्यथैवमनभ्युपगमे तमन्तरेण तदसमानत्वे प्रकृत्या समानानाम् इत्यभिधानाभावात्, अयुक्तैव लत्कल्पना-अधिकृतभावकल्पना / 'समानानां भावः' इत्येतत्संबन्धिनां समानानामिति कृत्वा / उपचामाह-समानत्वं च-तुल्यत्वं च भेदाविनाभाव्येव अथमनेन समानः' इति नीतः / तदभावे-भेदाभावे, सर्वथैकत्वतः कारणात : किमित्याह- समानत्वानुपपत्तिः / इति एवम्,तथाविधो 'मृद् मृद' इत्यभिन्नबुद्धिशब्दद्वयप्रवर्तकः, समानपरिणाम एव समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिमित्तमिति स्थितम् / आह- यथा असमाना अपीन्द्रियादयस्तथास्वभावत्वाद् रूपज्ञानाद्येककार्यकारिणः, तथैतेऽपि भावास्तथाविधसमानपरिणामविकला अपि तथाविधबुद्ध्यादिहेतवः किं नेष्यन्ते ? उच्यते-असमानेभ्यः समानबुद्ध्याद्यसिद्धेः, तन्निबन्धनस्वभाववैकल्यात्, तथाहि-न चक्षुरादिषु समानबुद्ध्यादिभावः तथाऽप्रतीतेः / रूपज्ञानाद्येककार्यकारित्वं चात्रानर्थकमेव, सिद्धसाधनत्वात्। को हिनाम तथाऽसमानेभ्योऽपि तथैकं कार्य नेच्छति ? तथाविधसमानपरिणामविकलास्तु समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिहेतवो न भवन्ति,न तथाविधैककार्याः इत्यभिदधति विद्वांसः / ततश्चानेन न किञ्चिदुपद्रूयते, असमानेभ्यः समानबुद्ध्याद्यसिद्धेः। आह-- यथाऽसमाना अपीन्द्रियादय:- इन्द्रियमनस्काराऽऽलोकरूपादयो जातिभेदेन, तथास्वभावत्वाद्पादिज्ञानजननस्वभावत्वात् कारणात् रूपज्ञानादि,आदिशब्दात्-रवसंसता--विन्द्रियादिकार्यग्रहः, एतदेककार्यकारिणः, तथतेऽपि भावा घट-शरावा-ष्ट्रिकोदश्चनादयः, तथाविधसमानपरिणामविकला अपि: तात्विकसभानपरिणामविरहिता अपीत्यर्थः, तथाविधतुझ्यादि-हेतवः-समानबुद्धिशब्दद्वयहेतवः, कि नेष्यन्ते ? एतदाशङ्कयाह-- उच्यते.. अस मानेभ्यः जातिभेदेन, समानबुद्धयाद्यसिद्धेः-समान-बुद्धिशब्दद्वयानुपपत्तेः / असिद्धिश्च, तन्निबन्धनस्वभाववैकल्यात्। समानबद्ध्यादिनिबन्धस्वभाववकल्यात् / एतदवाह- तथाहि-न चक्षुरादिषु विषयषु, समानबुट्यादिभावो विषयत्वेन / कुत इत्याह- तथाऽप्रतीतः चक्षुरादिषु विषयत्वेन समानबुद्धयाद्यप्रतीतः, नीलादिष्विव समानष्यिाते व्यतिरेकेण भावना / रूपज्ञानाद्यक कार्यकारित्वं चात्र व्यतिकर, अनर्थकमेव / कुत इत्याहसिहरा धनत्वात / एतदेवाह- को हि नाम वादी,तथा असमानेभ्योऽपि विशिष्टसमानपरिणामापेक्षया, तथैकं कार्य-सामग्रीजनकत्वेनैक कार्य नेच्छति? तथाविधसमानपरिणामविकलाः पुनश्चक्षुरादयः समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिहेतवा न भवन्ति, न तथाविधैककार्या-स्तथाविधैककार्या भवन्स्यवेत्यर्थः, इत्यभिदधति विद्वांसा जैनाः। ततश्चानेनानन्तरोदितेन, न किश्चिदुपद्रूयते / कुत इत्याह-- असमानेभ्यः- चक्षुरादिभ्यः, सामानबुझ्याद्यसिद्धेः तत्सिद्धौ च नो बाधेति भावना। नासिद्धिः प्रधानेश्वरादिकार्यत्वसमानपरिणामविकलेभ्योऽपि भावेभ्यः 'प्रधानादिकार्याः प्रधानादिकार्याः' इति केषाञ्चित्समानबुद्धयादिसिद्धेः / न / तस्याः सङ्केतसंमोहहेतुत्वात्, आविद्वदङ्ग नादीनामविशेषेण समानपरिणामवदावेष्विवाक्षदर्शनत एव तदप्रवृत्तेः। तथाक्षदर्शनमपि न तत्रार्थयाथात्म्यतः, अपितु-जन्मान्तरवासनात इति चेत् / तत्रापि किं निमित्तम् ? इति, वाच्यम् / जन्मान्तरवासनैवेति चेत् / अनवस्था / अनादित्वात् तद्वासनाया अयमप्यदोष इति चेत् / न / अना Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 666 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस दितथाक्षदर्शनादर्थयाथात्म्यसिद्धेः अन्यथाऽतिप्रसङ्गात्, रूपाद्यक्षदर्शनस्यापि तत्रार्थयाथात्म्यत एतदिति निश्चयाभावात्, उक्तवद्वासनाकल्पनोपपत्तेः। इत्यलं प्रसङ्गेन। आह-नासिद्धिः 'असमानेभ्यः समानबुद्ध्यादेः' इति प्रक्रमः / कुत इत्याह- प्रधाने--श्वरादिकार्यत्वसमानपरिणामविकलेभ्योऽपि भवद्दर्शननीत्या. भावेभ्यो महदादिभ्यः, 'प्रधानादिकार्याः प्रधानादिकार्याः' इत्येवं केषाश्चित् साख्यादीनाम्, समानबुद्ध्यादिसिद्धेः / एतदाशङ्याह-नेत्यादि। न-नैतदेवम्, तस्याः समानबुद्ध्यादिसिद्धेः, संकेतसंमोहहेतुत्वात्-असच्छास्त्रसंकेतसंमोह-निबन्धनत्वात् / कथमेतदेवमित्याह- आविद्वदङ्ग नादीनां प्रमातृणाम्, अविशेषेणसामान्येन, समानपरिणामवद्भावेष्विव घटशरावोष्ट्रिको-दञ्चनादिषु, अक्षदर्शनत एव तदप्रवृत्तेः 'प्रधानादिकार्याः' इति समानबुद्ध्याद्यप्रवृत्तेः, अक्षदर्शनतश्चाविशेषेण घटादिषु समानबुस्यादिसिद्धिः / आहतथाक्षदर्शनमपि समानतया, नतत्र घटादौ,अर्थयाथात्म्यतः-अर्थयाथात्म्यभावेन, अपितु-जन्मान्तरवासनात इति चेत्। एतदाशड्क्याहतत्रापि जन्मान्तरे, किं निमित्तम्? इति वाच्यम् / जन्मान्तरवासनैवेति चेद् निमित्तम् / एतदाशक्याह- अनवस्था तत्राप्युक्तदोषानतिवृत्तेः / अनादित्वात्तद्वासनायाः-तथाक्षदर्शनवासनायाः, अयमपिअनवस्थालक्षणः, अदोष इति चेत / एतदाशक्याह- नेत्यादि / न-नैतदेवम, अनादि च तत् तथाक्षदर्शनं च,प्रक्रमात् समानतयाऽक्षदर्शन चेति विग्रहस्तस्मादनादितथाक्षदर्शनात्, किमित्याह- अर्थयाथात्म्यसिद्धेः अनादितथाभावेन। इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याह-अन्यथातिप्रसङ्गात एवमनभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गात्। एनमेवाह-रूपाद्यक्षदर्शनस्यापि रूपादेरक्षैर्दर्शन रूपाद्यक्षदर्शनं तस्यापि,अर्थयाथात्म्यतोऽर्थयाथात्म्यात्, एतदितिनिश्चयाभायात्। अभावश्च,उक्तवद् यथोक्तं तथा, वासनाकल्पनोपपत्तेः 'रूपाद्यक्षदर्शनमपि न तत्रार्थयाथात्म्यतः, अपि तुजन्मान्तरवासनातः' इत्यादेरपि वक्तुं शक्यत्वात्, इत्यलं प्रसङ्गेन बुद्ध्याकार एवायमिति चेत् / कोऽस्य हेतुः? इति वाच्यम् / तदेककार्यकारिणामतत्कारिभेद इति चेत् / न इन्द्रियादिमिर्व्यभिचारात् / न रूपज्ञानाद्येककार्यमिह गृह्यते, अपि तुसमानजातीयक्षणोत्पादस्तेषामतत्कारिभेदोऽत्र विवक्षित इति चेत्।न। सर्वेषामेवासौ विद्यते, रूपज्ञानादिभावेऽपीन्द्रियादिसमान-जातीयक्षणोत्पत्तेः, इति तैरेव व्यभिचारात्। बुद्ध्याकार एवायं-समानाकारो घटादिगतः, इति चेत् / एतदाशझ्याह-कोऽस्य हेतुः? इति वाच्यम् / तदेककार्यकारिणामिह प्रक्रमे, मृदबुद्ध्याख्यैककार्यकारिणां पटशरावोष्ट्रिकोदशनादीनाम, अतत्कारिभेदः अतत्कारिभ्योहिम-तुषारकरकादिभ्यो भेदोऽतत्कारिभेदः, इति चेदस्य हेतुः / एतदाशङ्कयाह-नेत्यादि।न-नैतदेवम्, इन्द्रियादिभिर्व्यभिचारात्, इन्द्रिय-मनस्काराऽऽलोकाद्यस्तदेककार्यकारिणोऽतत्कारि भिन्नाः, न च यथोक्तबुद्धयाकारहेतवः। आह-न रूपज्ञानादि, आदिशब्दाद्-रसज्ञानादिग्रहः, एककार्यमिह गृह्यते येन तदेककार्यकारित्वमिन्द्रियादीनां भवति; अपि तु-समानजातीयक्षणोत्पाद एक कार्यमिह गृह्यते,तेषां समानजातीयककार्याणाम्, अतत्कारिभ्यः-समानजातीयककार्याकारिभ्यो भेदः, अत्र प्रक्रमे, विवक्षित इति चेत् / एतदाशङ्क्याहनेत्यादि। न-नैतदेवम् / कुत इत्याह-सर्वेषामेव इन्द्रियादीनाम्, असौ समानजातीयक्षणोत्पादो विद्यते, कथ-मित्याह-रूपज्ञानादिभावेऽपि सति इन्द्रियादिसमानजातीयक्षणोत्पत्तेः कारणात्,तैरिन्द्रियादिभिः, व्यभिचारात् / न हीन्द्रियादीनामपि समानजातीयक्षणोत्पादः, अतत्कारिभेदश्च न विद्यते, तथापि न ते समानबुद्ध्याकारहेतव इति तैरेव व्यभिचारः। तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिनामतत्कारिभेद इह गृह्यत इति चेत् / न। तस्य तेभ्यो भेदाऽभेदविकल्पानुपपत्तेः, भेदे तेषामिति संबन्धाभावः, तादात्म्याद्यसिद्धेः,भेदमात्रत्वात, वस्तुत्वापत्तेश्च / अभेदे त एव ते / इति कथमसमानास्तद्धेतवो नाम? न हि रसादिभ्यः समानो रूपबुद्ध्याकारः, तथाननुभवात्, व्यवस्थानुपपत्तेश्च / नान्य एव तत्तद्वेदः, अपितु-त एव तत्स्वभावा इति, अतस्त एव तद्धेतवो नान्ये, अतत्स्वभावत्वादिति चेत् / तेषामेवासौ स्वभाव इति कुतः ? स्वहेतुभ्य उत्पत्तेः / न अन्येषामपि तत्प्रसङ्गात, तेषामपि स्वहेतुभ्य एवोत्पत्तेः / न,तथाविधेभ्यस्तेषां यथाविधेभ्य एषामिति चेत् / किमिदं तथाविधत्वम्? तुल्यकार्यकृजनकत्वम्। नेदं तत्तुल्यसामर्थ्यमन्तरेण / तदङ्गीकरणे चाङ्गीकृत एव मदीयोऽभ्युपगमः, अतुल्यसामर्थ्यभ्यस्तुल्यसमानजातीयकार्यानुत्पत्तेः, इन्द्रियादिषु तददर्शनात् / तदतुल्यसामर्थ्य निबन्धनमेतत् / अतोऽन्यत् तत्तुल्यसामर्थ्यकारणमिति सन्न्यायः। तुल्यसामर्थ्यमेव च नो भावानां समानपरिणाम इति परिभाव्यतामेतत्। तुल्येत्यादि। तुल्यं चतत् समानजातीयकार्य चेति विग्रहः, तदुत्पादयितुं शीलास्तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिनस्तेषाम्, अतत्कारिभेदः, इहाधिकारे,गृह्यत इति चेत्। एतदाशड्क्याह-न. तस्य अतत्कारिभेदस्य,तेभ्यः-तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिभ्यः भेदाऽभदविकल्पानुपपत्तेः / एनामेवाह-भेद इत्यादिना / भेदे तुल्यसमानजगतीयकार्योत्पादिभ्योऽतत्कारिभेदस्याभ्युपगम्यमाने, तेषां 'तुल्यसभानजातीयकार्योत्पादिनां भेदः' इत्येवं, संबन्धाभावः। कुत इत्याह-तादात्म्याद्यसिद्धेः तुल्यसमाजातीयकार्योत्पादिनामतत्कारिभेदस्य च तादात्म्याद्यसिद्धेः,आदिशब्दात् तदुत्पत्तिपरिग्रहः / असिद्धिश्च भेदमात्रत्वात् कारणात् तादात्म्यासिद्धिः, वस्तुत्वापत्तेश्च भेदस्य तदुत्पत्त्यसिद्धिः। द्वितीयविकल्पमधिकृत्याह-अभेदे तुल्यसमानजातीयकार्यो - त्पादिभ्योऽतत्कारिभेदस्याभ्युपगम्यमाने / किमित्याह- त एवं ते Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 667 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिन एव ते-केवलाः, न तदतिरिक्त किश्चित् / इति-एवं, कथमसमानाः प्रकृत्या, तद्धेतवः- समानबुद्ध्याकारहेतवो नाम? एतदेव प्रकटयति नेत्यादिना / न हि रसादिभ्यः प्रकृत्याऽसमानेभ्यः, समानो रूपबुद्ध्याकारः / कुतो न हीत्याहजथाननुभवात-समानरूपबुद्ध्याकारतयाऽननुभवाद् रसादीनाम्, एतत्कल्पाश्च तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिन इन्द्रियादय इष्यन्त इत्यर्थः / दोषान्तरमाह-व्यवस्थानुपपत्तेश्च अननुभवेऽपि समानबुद्ध्याकारपरिकल्पने रसादिभेदाभावप्रसङ्गादिति भावः। आह- नान्य एवं तत्तद्भेदः तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिभ्योऽतत्कारिभेदः, अपि तु-त एव तुल्यसमानजातीयकार्योत्पादिनः, तत्स्वभावाः-प्रक्रमादधिकृतबुद्ध्याकारजननस्वभावाः, इत्यतः कारणात् , त एव-विशिष्टास्तुल्यसमानजाती कार्योत्पादिनो घट-शरावोष्ट्रिकोदश्चनादय इत्यर्थः, तद्धेतवः-प्रक्रमा-दधिकृतबुद्ध्याकारहेतवः, नान्य इन्द्रियादयः / इत्याह- अतत्त्स्वभावत्वात् सोऽधिकृतबुद्ध्याकारहेतुः, स्वभावो येषा ते तत्स्वभाव नतत्स्वभावा अतत्स्वभावास्तद्भावस्तस्मात्, इति यदिन्द्रियादीनाम / एतदाशङ्कयाह-तेषामेव-घटादीनाम्, असो स्वभावः-- प्रक्रमादधिकृतबुद्ध्याकारजननस्वभावः, इति एतत्, कुतः? अत्राह.. स्वहेतुभ्यः सकाशात, उत्पत्तेर्विशिष्टभ्य इति पराकूतम् / एतदनादृश्य सामान्यमेव गृहीत्वाह-नेत्यादि / न-नैतदेवम्, अन्येषामपीन्द्रियादीनान, तत्प्रसङ्गादधिकृतबुद्ध्याकारजननस्वभावत्वप्रसङ्गात् / प्रसनश्च, तेषामप्यन्येषामिन्द्रियादीनाम्, किमित्याह- स्वहेतुभ्य एवोत्पत्तेः / न हि तेऽप्यन्यहेतुका अहेतुका वति भावनीयम्। नतथाविधेभ्यस्तेषामित्यन्येषामिन्द्रियादीना, यथाविधेभ्य एषामधिकृतबुझ्याकारहतूनां घटादीनाम, इति चेत् / एतदाशक्याह-किमिद तथाविधत्वतद्धेतूनामिति? अत्राह-तुल्यकार्यकृजनकत्वंतुल्यकार्यकरणशीलास्तुल्यकार्य--कृत इह प्रक्रमे तावद्द्घटादयस्तेषां जनकास्तद्धतव इति प्रक्रमः, तद्भावस्तुल्यकार्यकृज्जनकत्व तथाविधत्वमिति / एतदाशक्याहनदं तुल्यकार्यकृज्जनकत्वम्, तत्तुल्यसामर्थ्यमन्तरेण तेषां तद्धेतूनां तुल्यसामर्थ्य विना। यदि नामेवं ततः किमित्याह- तदङ्गीकरणे च तत्तुल्यसामाङ्गीकरणे च, अङ्गीकृत एव मदीयोऽभ्युपगमः, तुल्यसामर्थ्यस्थैव समानपरिणामत्वात्। एतदेव विपक्षवाधाभिधानेनाभिधातुमाह कथमगीकृतएवम दीयोऽभ्युपगमः, अतुल्यसामथ्र्येभ्य इन्द्रियादिभ्यरतुत्यरामानजातीयकार्यानुत्पत्तेः / न रूपादिज्ञानंककार्यकारिभ्योऽपीन्द्रियादिभ्यः वसंतती तुल्यानि समानजातीयकार्याण्युपपद्यन्त, यदुतसाणीन्द्रियाण्येव मनस्कारा वेत्यादीति भावना। आह च -इन्द्रियादिषु अतुल्यसामथ्र्येषु, तददर्शनात् तुल्यसमानजातीय कार्यादर्शनादिति, भावितमतम / यदि नामवं ततः किमित्याह- तदतुल्यसामयनिबधनम्-इन्द्रियादीनामतुल्यसामर्थ्यनिबन्धनग. एतत्-तुल्यसमान जातीयका दर्शनम् / अताऽन्यत्-प्रक्रमात् तुल्यसमानजातीयकार्यदर्शनं गृहाते, एतच्चेह मृद्रपमात्रतयाऽधिकृतघट-शराबोष्ट्रि का... दशनादिविषय- मेवावगन्तव्यम्,तत्तुल्यसामर्थ्यकारण मिति घटादीनां तुल्यसामर्थ्यकारणम्, अतुल्यसामर्थ्येभ्यो हिमादिभ्य एव मृदूपता ऽयोगात, इति सन्न्यायः, अन्वयव्यतिरेकबलप्रतिष्ठितत्वात् तत्तुल्यसामथ्र्यस्थ / एवमपि काऽवेष्टसिद्धिरित्याह-तुल्यसामथ्यमेव च नः अरमाकम, भावानां घटादीनाम्, समानपरिणामः, इति परिभाव्यता.. मेतत। एतदुक्तं भवति येषामेव भावानां पिण्डादीनां तुल्यं सामर्थ्य त एवं घटादीन मृदूपमात्रतया तुल्यान् सामानजातीयान कुर्वन्ति, नान्य हिमादयः, घटादिष्वेव व 'मृद् मृद' इति समानाकारा बुद्धिरुत्पत, न हिमादिषु, अतस्तात्विकसमानपरिणामनिबन्धनेयमिति सूक्ष्मधियाऽ5 - लोचनीयम। अविषय एवायं बुद्ध्याकारोऽनादिवासनादोषादुपप्लव इति चेत् / केयं वासना नाम?-किं बोधमात्रम्, उतान्यदेव किञ्चित्? यदि बोधमात्रम्, अनुत्तरज्ञानेऽपि तथाविधाकारापत्तिः, तस्यापि बोधमात्रभावाद्, अनिष्टं चैतत्, तत्र तदनभ्युपगमात्। अथान्यदेव किञ्चित् / तदेवास्य विषय इति कथमविषयो नाम? अवस्त्वेव तदिति चेत् / कथं ततः स आकारः? इति वाच्यम् / अहेतुक एवायमिति चेत् / सदातद्वावादिप्रसङ्गः। विशिष्ट बोधरूपं वासना न बोधमात्रमिति चेत् / किंकृतमस्य वैशिष्ट्यम् ? इति वाच्यम्। अनादिहेतुपरम्पराकृतमिति चेत्।नातत्रापि तन्मात्राविशेषात् / समुद्रोभिवद् यतस्तदेव तदिति चेत्। न तस्यापि वाग्वादिना विना तत एवाभावात्। अनागमो वाय्वादिकल्प इति चेत् / न। तदभावेऽपि क्वचित्तदावोपपत्तेः। स्वविक्षोभोद्भवसमुद्रोभितुल्यः स इति चेत् / स एव तदा कुतः। इति वाच्यम् / तस्यैव तत्स्वभावत्वादिति चेत् / न / तदविशेषेण सदा समुद्रोर्मिप्रसङ्गात्। तस्य तत्क्षणविशेषत्वाद-प्रसङ्ग इति चेत् ।न। तस्य तन्मात्रत्वेन विशेषत्वासिद्धः / ऊर्मिजननस्वभावत्वं विशेष इति चेत् / न स्वभावः स्वभाववतोऽन्य इति तन्मात्रत्वमेव / तन्मात्रत्वेऽपि तभेदवद्वेद एवेति चेत् / न / तादृशस्यास्याप्रयोजकत्वात्, तत्तद्भावेऽतिप्रसङ्गात्, तत्स्वभा-वानामपि केषाञ्चित् तथाभेदाद् नित्यतया फलभेदापत्तेः। आह . विषय एव. अनालम्बन एव, अयं--प्रक्रान्ता 'मृद मृद' इति समान। बुद्ध्याकारः / कुतः किमात्मको वाऽयमित्याह-- अनादिवासनादोषात् अयमुप्लवः स्वरूपेण इति चेत् / एतदाशङ्कयाह केयं वासना नाम? किं बोधमात्र निर्विशेषमेव, उतान्यदेव किश्चिद् बोधाद भिन्न वस्तु? उपयथाऽपि दोषमाह गदि बोधमा निर्विशेषणमेव वासना / ततः किमित्याह... अनुत्तरज्ञानेऽपि भगवत: तथाविधाकारापतिः, प्रामार मृद मृद' इति सामानबुद्ध्याकारापत्तिः, वृत्त इत्याह..तस्यापि अ Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 668 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस नुत्तरज्ञानस्य, बोधमात्रभावात्, एतदेव वासनेति बोधादबोधवन्नान्याकारानुत्तरज्ञानजन्मेति; अनिष्ट चैतत् / कुत इत्याह-तत्र अनुत्तरज्ञाने, तदनभ्युपगपमात्-तथाविधाकारानभ्युपगमात्। द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह-अथान्यदेव किश्चित् वस्तु वासनेति / एतदाशक्याह-- तदेव अन्यत् किश्चिद्वासनाख्यम, अस्याधि-कृतबुद्ध्याकारस्य विषयः, इति-एवम्, कथमविषयो नामायं बुद्ध्याकारः? अवस्त्वेव तदिति चेदन्यत् किञ्चिद्वासनाख्यम्। एतदाशङ्कयाह--कथं ततः वस्तुतः, स आकारोऽधिकृतबुद्ध्याकारः? इति वाच्यम्। अहेतुक एवायं युझ्याकार इति चेत् / एतदा-शक्याह-सदा तद्भावादिप्रसङ्गः नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वेति नीतः। विशिष्ट बोधरूपं वासना, नच बोधमात्रमविशिष्टमिति चेत, ततश्च किल यथोक्तदोषाभाव इति / एतदाशड्क्याह- किंकृतमस्य बोधरूपस्य, वैशिष्ट्यमिति वाच्यम् / अनादिहेतुपरम्पराकृतमिति चेत्। एतदाशङ्कयाह-न, तत्रापि अनादिहेतुपरम्परायाम, तन्मात्राविशेषादयोधरूपमात्राविशेषात् / स बुद्ध्याकार:- समुद्रोमिवदिति निदर्शनम्. यतो बोधरूपात्. तदेव बोधरूप. तद्वैशिष्ट्यम्, इति चेत्। एतदाशङ्कयाहन.तस्यापि समुद्रोर्मेः, वाग्वादिना विक्षोभकारणेन, विना, तत एव समुद्रमात्रात्, अभावात्। ततश्च दृष्टान्त-दार्शन्तिकयोषध्यमित्यर्थः। अनागभस्तीर्थिकसंबन्धी, वाय्वादिकल्प इति चेत् ततो न वैषम्यमित्यभिप्रायः / एतदाशङ्कयाह- न, तदभावेऽपि अनागमाभावेऽपि, कचिद् बालविकल्पादौ, तद्भावोपपत्तेः प्रक्रमादधिकृतबुद्ध्याकारोपपत्तेः / स्वेत्यादि / स्वविक्षोभादुद्रबोयस्य समुद्रोमें : स तथा, स्वविक्षोभोगवश्वासी समुद्रोमिश्वति समासः, तेन तुल्यः स इतिचेत्प्रस्तुतबुद्ध्याकारः। एतदाशङ्याह-स एव स्वविक्षोभोद्भवः समुद्रोर्मिः, तदा तस्मिन्नेव काले, कुतः? इतिःवाच्यम्। तस्यवेत्यादि। तस्यैव समुद्रस्य, तत्स्वभावत्वात्तदोर्मिजननस्वभावत्वात्, इति चेत् स एव तदेति / एतदाशक्याहनेत्यादि / न-नैतदेवम्, तदविशेषण-समुद्राविशेषेण हेतुना, सदा समुद्रोमिप्रसङ्गात, तन्मात्रनिबन्धनो ार्मिः, विशिष्टं च भेदकाभावेन परस्य तन्मात्रत्वमिति भावना / तस्येत्यादि / तस्य स्वविक्षोभोद्भवसमुद्रोमिहेतोः समुद्रस्य, तत्क्षणविशेषत्वात-समुद्रक्षणविशेषत्वात् अप्रसङ्ग इति चेत् सदोमिप्रसङ्गोऽनन्तरोदितः, स एव क्षणस्तत्स्वभावो नान्ये तत्क्षणा इत्यभिप्रायः। एतदाशड्क्याह-न, तस्य समुद्रक्षणस्य, तन्मात्रत्वेन समुद्रक्षणमात्रत्वेन हेतुना, विशेषत्वासिद्धः / ऊर्मिजननस्वभावत्वं विशेष इति चेत, तथाहि- न सर्वे तत्स्वभावाः,सर्वेभ्य ऊर्मिभावापत्तेः, न चेयम्, तथाऽदर्शनादिति भावनेति / एतदाश क्याह- न स्वभाव इत्यादि। नस्वभावः स्वभाववतः सकाशात, अन्य इति कृत्वा, तन्मात्रत्वमेव, समुद्रक्षणमात्रत्वमे व ततश्च 'ऊर्मिजननस्वभावत्वं विशेषः इति वचनमात्रमेव / तन्मात्रत्वेऽपि-समुद्रक्षणमात्रत्वेऽपि, तद्भेदवत्-समुद्रक्षणभेदवत, भेद एवेति चेद् विशेष एवोर्मिजननस्वभावस्य क्षणस्येति / एतदाशडक्याह-न, तादृशम्य तुल्यस्वरूपभेदमात्रहेतोः, अस्य क्षणभेदस्य अप्रयोजकत्वात स्वभावभेदेनो- मिजनन प्रति / एतदेवाह-तत्तद्भावेतस्य भेदमात्रस्य तद्भावे स्वभावभेदेनोर्मिजननं प्रति प्रयोजकत्वादित्यर्थः, किमित्याह- अतिप्रसङ्गात्। एनमेवाह- तत्स्वभावानामपि केषाञ्चित् पदार्थानां तथा भेदात् तुल्यस्वरूपभेदमात्रहे तुतया भेदात्,नित्यतयानित्यस्वभावत्वेन फलभेदापत्तेः समुद्रोमिवद-नित्यभावविलक्षणफलभेदापत्तेरित्यतिसूक्ष्मधिया भावनीयम्। न नित्यता केषाञ्चिदपि। किं न? इति वाच्यम् / नतद्धेतुस्तथाभूताद् हेतोस्तस्येव यदिति चेत् / न / मोक्षहेतोः कैश्चित् तथाविधत्वाभ्युपगमात्, अहेतोरपि तथाभावकल्पनाऽविरोधात्, अस्याप्यर्थक्रियोपपत्तेः, तत्करणस्वभावत्वात्, अनित्यत्वादेः सर्वतः- सर्वार्थक्रियाभावेनेहाप्रयोजकत्वात् ; तत्करणस्वभावत्वस्य च प्रयोजकत्वात्, तद्वैचित्र्येण परोदितदोषासिद्धेः, क्रमयोगपद्यार्थक्रियाकरणस्वभावत्वात्, तस्य च पर्यनुयोगायोगात; अन्यथा समानत्वात्, इति समुद्रोभिकल्पश्वाधिकृतो बुद्ध्याकारः, स यदैवं नयुज्यते / स्वसंवेदनसिद्धश्च प्रतिप्रमातृ, अतो यथोक्तनिबन्धन एव, इति युक्तमभ्युपगन्तुम्, अन्यथा तदुच्छेदापत्तेः इति तथाविधः समानपरिणाम एव समानबुद्धि-शब्दद्वयप्रवृत्तिनिमित्तम्।। अत्राह-न नित्यता केषाश्चिदपि भावानाम्। एतदशक्य ह- किं न? इति वाच्यमान तद्वेतुः-नित्यभावहेतुः, तथाभूताद्-नित्यभावजननस्वभावजनस्वभावादिति योऽर्थः हेतोः-कारणात्, तस्येवप्रक्रमादूर्मिजननस्वभावसमुद्रक्षणस्येव, यदिति चेत्, ऊर्मिजननन्चभावो हि समुद्रक्षण ऊर्मिजननस्वभावसमुद्रक्षणजननस्वभावात्, समुदक्षणादुत्पन्न इति विद्यतेऽस्य तथाभूतो हेतुः, नैवं नित्यभावजननस्वभावजननस्वभावो हेतुरस्ति, तन्नित्यत्व-विरोधादित्यभिप्रायः / एतदःशड्क्याहनेत्यादि। न-नैतदेवम्, मोक्षहेतोर्विशिष्टज्ञानादेः, कैश्चिद् नैयायिकादिभिः, तथाविधत्वाभ्युपगमाद् नित्यभावजननस्वभावत्वाभ्युपगमात्, तथा, अहेतोरपि-अविद्यमानहेतोरप्यनाद्यण्वादेः, किमित्याह-तथाभाबकल्पनाविरोधात्- तथाभावोनित्यभावरतत्कल्पनाविरोधात तथाहि- अहेतुरेव कश्चित् स स्वभावः सन् नित्य इति किमत्र थूणम्? नियस्यक्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोध इत्याशङ्कापोहायाह-अस्यापि अधिकृतनित्यस्य, अर्थक्रियोपपत्तेः। उपपत्तिश्च, तत्करणस्वभावत्वात्अर्थक्रियाकरणस्वभावत्वात् / अयं चात्र प्रधान इति विपक्षे बाधामाहअनित्यत्वादेः 'इहार्थक्रियायामप्रयोजकत्वात्' इति योगः। अप्रयोजकत्वं च, सर्वतः सर्वार्थक्रियाभावेनान ह्यनित्य इत्येव सर्वा भावः सर्वामर्थक्रिया करोति, नित्य इत्येव वा, तथाऽदर्शनात् / अतो यो यदर्थक्रियाकरणस्वभावः स तां करोतीति तत्करणस्वभावत्वमेवात्र प्रयोजकमिति। अत एवाह- तल्करणस्वभावत्वस्य च--अर्थक्रियाकरणस्वभावत्वस्य च, प्रयोजकत्वात, 'इह' इति वर्तते, तथाहि-यतोऽर्थक्रियाकरणस्वभावः, अतोऽर्थक्रिया करोति, किमत्रानित्यत्वादिना? सत्यप्यस्मिन् पर्वतःवा Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 696 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामण्णविसेस थक्रियाऽसिद्धेरिति / तथा, तद्वैचित्र्येण-स्वभाववैचित्र्येण, परादितदोषासिद्धेः क्रम-योगपद्याभ्याभर्थक्रियाविरोध इति परोदितो दोपस्तदसिद्धेः / असिद्धिश्व, क्रम--योगपद्यार्थक्रियाकरणस्वभावत्वात् / ततश्च क्रमसाध्य क्रमेण करोति,योगपद्यसाध्यं योगपद्येन। इति न कश्विद् दोषः, तथास्वभावत्वात्। तस्य च स्वभावस्य, पर्यनुयोगायोगात् / इत्थ चतदङ्गीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा समानत्वात् ऊर्मिजननस्वभावत्वपरिकल्पितस्वभावस्थापि पर्यनुयोगप्राप्तः, इति-एवम्, समुद्रोर्मेरप्यभावापत्तेः, समुद्रोर्मिकल्पश्चाधिकृतो बुद्ध्याकारः समानबुद्ध्याकारः, स यदेवम-उक्तनीत्या, न युज्यते, स्वरांवेदनसिद्धश्च प्रतिप्रमातृ, प्रमालार प्रमातारं प्रति / अतः-अस्मात् कारणात्, यथोक्तनिबन्धन एवतथाविधसमानपरिणामनिबन्धन एव, इति युक्तमभ्युपगन्तुम्, अन्यथैवमनभ्युपगमे, तदुच्छेदापत्तेः-समानबुद्ध्याकारोच्छदापत्तेः। इति–एवम्, तथाविधो वास्तवः, समानपरिणाम एवं समानबुद्धिशब्दद्वयप्रवृत्तिनिमित्तमिति नेगमनम्। यद्येवम्, कथं क्वचित् तद्व्यतिरेकेणाप्यस्य प्रवृत्तिः? ननु चास्येत्ययुक्तम्, वस्तुनिबन्धनस्य तद्व्यतिरेकेण कदाचिदप्यप्रवृत्तेः, तथातद्दर्शनस्य च तदाभासविषयत्वेनाविरोधात्, अन्यथा प्रत्यक्षस्याप्यविषयत्वापत्तिः। इति समानपरिणाम एव सामान्यम् यद्यवमित्यादि / यद्येवम कथं वचित्-प्रधाने-श्वरादिकार्यत्वादी, तव्यतिरेकेणापि-प्रधाने-श्वरादिकार्यत्वव्यतिरेकेणापि, अस्येतिप्रक्रमात समानबुद्धि-शब्दद्वयस्य, प्रवृत्तिर्भवतीति यथोक्तं प्रागिति। एतदाशङ्कया। नन्वित्यादि। ननुव 'अस्य' इत्ययुक्तम्। कथमित्याह-. वस्तुनिबन्धनस्य समान-बुद्धिशब्दद्वयस्य, तद्व्यतिरेकेण-वस्तुव्यतिरेकेण, कदाचिदप्य-प्रवृत्तेर्घट-शरावादिष्विव हिमाझारादिष्वदर्शनादिति भावना / तथातद्दर्शनस्य च संकेतविप्रलम्भद्वारेण समानबुद्धिशब्दद्वरदर्शनस्य च, प्रधानेश्वरादिकार्यत्वादी, तदाभासविषयत्वेनसमान- बुद्धिशब्दद्वयाभासविषयत्वेन, अविरोधात् / इत्थं चैतदड़ीकर्तव्यमित्याह- अन्यथा एवमनभ्युपगमे, प्रत्यक्षस्यापि निर्विकल्प - कस्य, किमित्याह- अविषयत्वापत्तिः अविगानेन तथाऽनुभवादेरधिकृतयुद्ध्याकारेऽपि भावात्, तस्य च निर्विषयत्वात्, न चैतदेवम् / इतिएवम, समानपरिणाम एव सामान्यमिति महानिगमनम्। यतश्चैवम्, अतो न य एवासावेकस्मिन् विशेषे स एव विशेषान्तरे। किं तर्हि ? समानः / इति कुतः सामान्यवृत्तिविचारोदितभेदद्वयसमुत्थापराधावकाशः? इति / न चैवं सति पर-- स्परविलक्षणत्वाद् विशेषाणां समानबुद्धिशब्दद्यप्रवृत्त्यभावः, सत्यपि वैलक्षण्ये समानपरिणामसामर्थ्यतः प्रवृत्तेः, असमान-- परिणामनिबन्धना च विशेषबुद्धिरिह / इति यथोतिबुद्धिशब्दद्यप्रवृत्तिः। तथा चोक्तम्"वस्तुन एव समानः, परिणामो यः स एव सामान्यम्। असमानस्तु विशेषो, वस्त्वेकमनेकरूपं तु / / 1 / / " ततश्च तद्यत एव सामान्यरूपमत एव विशेषरूपम्, समानपरिणामस्याऽसमानपरिणामाऽविनाभूतत्वात्,यत एव च विशेषरूपमत एव सामान्यरूपम्, असमानपरिणामस्यापि समानपरिणामाविनाभावादिति / न चानयोर्विरोधः, अन्योऽन्यव्याप्तिव्यतिरेकेणोभयोरसत्त्वापत्तेः, उभयोरपि स्वसंवेदनसिद्धत्यात्, संवेदनस्योभयरूपत्वात् उभयरूपतायाश्च व्यवस्थापितत्वात्। यतश्चेत्यादि, यतश्चैवम्, अतो न य एवासौ समानपरिणामः एकस्मिन् विशेषे घटादी, स एव विशेषान्तरेशरावादौ। किं तर्हि? समानः / इत्येवम्, कुतः सामान्यवृत्ति विचारोदितं तद्भेदद्वयं च देशकास्न्यरूपं विकल्पद्वयमिति विग्रहः,तत्समुत्थाश्च तेऽपराधाश्च सदेशत्वप्रसङ्गादयस्तेषामवकाशः कुतः?-नैव, समानपरिणामस्य तद्विलक्षणत्वादिति / न चैवमित्यादि। न चैवं सति,परस्परविलक्षणत्वाद् विशेषाणां घटशरावादीनाग, समानबुद्धिशब्दद्वय प्रवृत्त्यभावः, हिमागारादीनामिव / कुत इत्याह-सत्यपि वैलक्षण्ये समानपरिणामसामर्थ्यतः प्रवृत्तेः कारणात्, समानबुद्धि-शब्दद्वयस्येति। व्यतिरेकमाह असमानपरिणामनिबन्धना च विशेष-बुद्धिरिह प्रक्रमे घट शरावादिबुद्धिवत् / इति एवम्, यथोदितबुद्धि-शब्दद्वयप्रवृत्तिः सामानबुद्धि-शब्दद्वयप्रवृत्तिरित्यर्थः। तथा चोक्तमिति अधिकृतार्थप्रसाधकं ज्ञापकमाह-वस्तुन एव घटादेः समानः परिणामो यो मृदादिः स एव सामान्यम्। असमानस्तु विशेष ऊर्ध्वतादिः / वररवेकमनेकरूपतु सामान्यविशेषोभयरूपमपि तदनेकत्वतोऽनेकरूपमित्यर्थः / ततश्चेत्यादिना मूलपूर्वपक्षग्रन्थं परिहरतिततश्च तद् वस्तु घटादि,यत एव सामान्यरूपं मृदाद्यात्मकतया, अत एव कारणात्, विशेषरूपमूर्खादिरूपापेक्षया / कुत इत्याह-समानपरिणामस्य प्रस्तुतस्य, असमानपरिणामाविनाभूतत्वाद्-विशेषपरिणामाविनाभूतत्वादित्यर्थः / यत एव च कारणात्,विशेषरूपमूर्खाद्यपेक्षया,अत एव सामान्यरूपं मृदाद्यात्मकतया / भावनामाह- असमानपरिणामस्थापि ऊर्ध्वादिरूपस्य, समानपरिणामाविनाभावाद्-मृदादिपरिणामाविनाभावादिति / न चानयोः समानाऽसमानपरिणामयोः विरोधः / कुत इत्याह-अन्योन्यव्याप्तिव्यतिरेकेण उभयोः समानाऽसमानपरिणामयोः, असत्त्वापत्तेः / आपत्तिः प्राक् प्रदर्शितव, तथा, उभयोरपि स्वसंवेदनसिद्धत्वात्तथानुभवभावेन। अतएवाह-संवेदनस्योभयरूपत्वात् सामान्यविशेषोभयापेक्षया, उभयरूपतायाश्व संवेदनस्य, व्यवस्थापितत्वादधः 'नचानयाविरोधः' इति क्रियायोगः। यचोक्तम्- 'सामान्यविशेषो भयरूपत्वे सति वस्तुनः सकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारनियमोच्छेदप्रसङ्गः' इत्यादि। तदपि जिनमतानभिज्ञतासूचकमेव केवलम्,न पुनरिष्टार्थ Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामण्णविसेस 700 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामत्थजोग्गया प्रसाधक मिति / न हि 'मधुरकलङ्डुकादिविशेषानन्तरं एवमधिकृतोदारणापेक्षया भावार्थमभिधाय पूर्वपक्षोपन्यस्तभेदापेक्षया सर्वथैकस्वभावमेकमनवयवं सामान्यम्' इत्यभिदधति जैनाः। प्रक्रान्तनिगमनायाह-यथोक्तसंवेदनेत्यादि। यथोक्ते च ते संवेदनाअतः किमुच्यते- 'न विषं विषमेव मोदकाद्यभिन्नसामान्या- भिधाने च तयोः संवद्याभिधेया इति विग्रहः, एवंभूता एव च विषाऽऽदयः, व्यतिरेकात्' इत्यादि? किं तर्हि ? समानपरिणामः / स च तथाहि-. 'सत् सत्' इति विषादयः संवेद्यन्ते, अभिधीयन्ते च, तथा भेदाविनाभूतत्वाद् न य एव विषादभिन्नः स एव मोदकादिभ्योऽपि, 'विषमोदकः इत्येवं चेति प्रतीतमेतत् / अन्यथा यथोक्तसंवेदनासर्वथा तदेकत्वे समानत्वायोगात्। भिधानसंवेद्याभिधेयत्वाभावे, यथोक्तसवेदनाद्यभावप्रसङ्गात्. आदियत्रोक्तं पूर्वपक्षग्रन्थे, 'सामान्यविशेषाभयरूपत्वे सति, वस्तुनो- शब्दाद्-यथोक्ताभिधानग्रहः अतो यद्यपि द्वयमपि विष मोदकश्चेति घटादेः,सकललोकप्रसिद्धसंव्यवहारनियमोच्छेदप्रसङ्ग' इत्यादि, उभयरूपं-सामान्यविशेषरूपम्, तथापि विषार्थी प्रमाता विष एव तदपि, कि मित्याह- जिनमतानभिज्ञतासूचकमेव केवलम, न प्रवर्तते / कुत इत्याह- तद्विशेषपरिणामस्यैवविषविशेषारिणामस्यैव, पुनरिष्टार्थप्रसाधक वस्त्वनुपपनिरिष्टोऽर्थ इति न तत्प्रसाधकमा तत्समानपरिणामाविनाभूतत्वाद्--विषसमानपरिणामाविनाभूतत्वात्, न कथमित्याह-नहीत्यादि। न यस्माद् मधुरकलङ्कादिविशेषाना- तु मोदके-- पुनर्मोदके। कुत इत्याह-- तत्समान-परिणामाविना-- तरमभिन्नम, सर्वथकस्वभावमेकमनवयव सामान्यमित्यभिदधति भावाऽभावात-मोदकसमानपरिणामाविनाभावाभावात, तविशेषपरिजैना.... भणन्त्यार्हताः / अतः किमुच्यतेऽनभ्युपगतोपालम्भप्रायम, णामस्येति विषविशेषपरिणामस्येति। अत उक्तन्यायात, प्रयासमात्रका.... 'न विषं विपरच, मोदकाधभिन्नसामान्याव्यतिरेकात' फला प्रवृत्तिनियमोच्छेदचोदना पूर्वपक्षसंबन्धिनीति। यादि? कि तर्हेि? समानपरिणामः सामान्यमित्यभिदधति जैना इति। एतेन 'विषे भक्षिते मोदकोऽपि भक्षितः स्यात्' इत्याद्यापि समानपरिणामः, किमित्याह भेदाविना -भूतत्वात कारणात, नय प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम्, तुल्ययोगक्षेमत्वादिति / यचापरेणाएव विषादभिन्नः स एवमोदकादिभ्याऽपि / कथं नेत्याह - सर्वथा तद त्ये प्युक्तम्- 'सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः' इत्यादि। समानपरिणामैकत्वे, समानत्वायोगात्। न ह्येक समानमिति भावना / तदपि कूटनटनृत्तभिवाविभावितानुष्ठानं न विदुषां मनोहरस्यादेतत् समानपरिणाभस्यापि प्रतिविशेषमन्यत्वादसमा- मित्यप-कर्णयितव्यम्, वस्तुतः प्रदत्तोत्तरत्वात्सामान्यनपरिणवत्तावानुपपत्तिरिति। एतदप्ययुक्तम, सत्यप्यन्यत्वे विशेषरूपस्य वस्तुना सम्यग्व्यवस्थापितत्वात्। समानासमानपरिणामथोर्मिन्नस्वभावत्वात, तथाहि-समान- एतेनेत्यादि, एतेनानन्तरोदितेन ग्रन्थेन, 'विषे भक्षिते मोदकोऽपि धिषणाध्वनिनिबन्धनस्वभावः समानपरिणामः,तथा विशिष्ट- भक्षितः स्यात्' इत्यपि पूर्वपक्षोक्त प्रतिक्षिप्तमवगन्तव्यम्, तुल्ययोगबुद्धयभिधानजननस्वभावस्त्वितर इति यथोक्तसंवेदना- क्षेमत्वादिति / यच्चापरेणाप्युक्तम्- 'सर्वस्योभवरूपत्वे तद्विशेषनिराभिधानसंवेद्याभिधेया एव च विषादय इति प्रतीतमेतत्, अन्यथा कृतेः / ' इत्यादि / तदपि कुटनटनृत्तमिवेति निदर्शनम्, अविभावितायथोक्तसंवेदनाद्यभावप्रसङ्गात्। अतो यद्यपि द्वयमप्युभयरूपम्, नुष्ठानं दर्शनभावार्थपरिज्ञानशून्यत्वेन, न विदुषा मनोहरमिति कृत्वा, तथापि विषार्थी विष एव प्रवर्तते, तद्विशेषपरिणामस्यैव अपकर्णयितव्यं-न श्रोतव्यम् / कुत इत्याह-वस्तुतः दत्तोत्तरत्वात। तत्समानपरिणामाविनाभूतत्वात्, न तु मोदके, तत्समानपरि- तथा, सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनः सम्यग्व्यवस्थापितत्वात्। अने०३ णामाविनाभावाभावात् तद्विशेषपरिणामस्येति / अतः प्रयास- अधिo मात्रफला प्रवृत्तिनियमोच्छेदचोदनेति। सामत्थ न०(सामर्थ्य) समर्थस्य भावः सामर्थ्यम्।र्वीर्ये, आ० म०१ अ०॥ स्थादेतदित्यादि / मादलद, अवं मन्यस, समानपरिणामस्थापि बले, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० 'चेट्ठा सत्ती सामत्थं ति य जोगस्स हवति मृदाद्यात्मकस्य, प्रतिविशेध, विशषं विशेष प्रति घटशरावादिलक्षणभ, पञ्जाया / ' 0 50 १अ० बलं ति वा वीरिय ति वा सामत्थ ति या अन्यत्वात् कारणात्, असमानपरिणामवदिति निदशनम, तद्रावानुप- एगट्ठा। नि० चू०११ उ०। आ० चू०वीर्येणापि र्यस्य साभत्थ पत्तिः- समानपरिणामभावानुपपत्तिरिति / एतदाशड़ क्याह-- एतदप्य- समत्थशब्दा वा युक्तवाचकः वीर्ययुक्त इत्यर्थः / नि० चू० 2 उ०। युक्तम् / कथमित्याह-सत्यारान्यत्वं सभानपरिणामस्थ प्रतिविशेषम्, साधुध्यसनपरित्राणबले,पञ्चा०२ विवला पर्यालोचन,व्य०६ उ०। समानाऽसमानपरिणामयोतक्तलक्षणयोः, भिन्नस्वभावत्वात्। भिन्नस्व- पञ्चा०। भावत्वमेवाह-तथा-हीत्यादिना तथाहीत्युपप्रदर्शन / समानधिषणा | समत्थजोगपुं०(सामर्थ्ययोग) शास्त्रोक्तेक्षपकश्रेणीद्वितीय अपूर्वकरणध्वनिनिबन्धनस्वभावस्तुल्यबुद्धिशदहतुस्वभावः समानपरिणामः यत्तः भाविनि योगे. षो०१५ विव०। शास्त्रीयेऽतिशक्तौ योगे, द्वा० 16 द्वा०। खलुघटशरावादिषु मृद मृद इत्यविशेषेण भवतोधिषणा -ध्वनीः तथा ('जोग' शब्दे चतुर्थभागे 1627 पृष्ठ व्याख्यात्-मेतत्!) विशिष्टबुवयभिधानजननस्वभावास्त्वतरोऽसमानपरिणामः, यतः खलु | सामत्थजोग्गया स्त्री०(सामर्थ्ययोग्यता सामानफल साधकन्वरूपेण घटादिष्तेव घटः शरावम्' इत्यादिविशेषण भवतो बुद्ध्यभिधाने इति। सामर्थ्यन योग्यतायाम, पो० 12 विव०॥ Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामपाय 701 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय (3) सामपाय-पु०(श्यामपाद) कस्मिंश्चिदाचार्ये, कर्म०४ कम०। विषयसूचनासामपुव्वग-त्रि० (सामपूर्वक) प्रेमोत्पादकवचनपुररसरे दानादी, पञ्चा० (1) सामाधिकस्वरूपम्। 6 विव० (2) समाथिकलक्षणम्। साममुही-स्त्री०(श्याममुखी) श्यामलकान्तिमुख्या स्त्रियाम्, आ० म० समभावः सामायिकम्। १अ० श्रावकर य सामायिककरणविधिः / सामय-धा०( प्रतीक्ष) "प्रतीक्षेसामय-विहीर-विरमालाः" कृतसामायिकः श्रावकः साधुरिव भवति। / / 84 / 13 / / इति प्रतीक्षतेः सामयादेशः / सामयइ / प्रतीक्षते / प्रा० / (6) सामायिकाध्ययननियुक्तिनिरूपणम् / 4 पाद। (7) सामायिकाध्ययनस्यानुयोगद्वारनिरूपणम्। सामलय-पुं० श्यामलक) वनस्पतिविशेषे, जी०३प्रति०४ अधिका (8) सामायिक पुर कतिद्वारमित्याशक्य निर्दिष्टदृष्टान्तस्योपनयः। सामलया-रखी०(श्यामलता) प्रियङगुलतायाम ज्ञा०१ शु. 17 अ० | (6) सामायिक उपक्रमादिद्वारणि / प्रज्ञा०। पिं०। जा (10) प्रथमाध्ययनस्य सामायिकत्वम्। (11) कोपक्रमे सामायिकमवतरति। सामलि-स्त्री०(शाल्मलि) सेमरनामके वृक्षविशेषे, सूत्र० १श्रु०६ अ० जी०। आचा। स्था०। तं०। 'सामलिवोंडघणनिचियच्छडिया' (12) प्रमाणेन ज्ञानगुणे सामायिकावतारनिरूपणम्। शाल्मली वृक्षविशेषः / स च प्रतीत एव तस्य वोण्डंफलं तद्वत् छेटिता (13) आत्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदतोऽपिलोकोत्तरागमस्त्रिविधः, अपि अतिशन नमिताः शाल्मलीवोण्टघननिचितरपतिलाः / जी०३ तत्र व सामायिकमवतरति। प्रति०४ अधि०। तर (14) नयप्रमाणे न सामायिकमवतरति। सामलेर-पुं० शाबलेय) शबलाया गोरपत्ये, अनु०॥ (15) आसीतं पूर्व सामायिकस्य नयेष्ववतारः। (16) संख्याप्रमाणे सामायिकमवतरति न वा? सामवण्ण-त्रि०(श्यामवर्ण) श्यामले, प्रव०२६ द्वार। (17) सामायिकाध्ययनं स्वसमयवक्तव्यतानियतम्। सामवेय-पुं०(सामवेद) गानप्रतिबद्धे वेदे,उत्त०२२ अ०। (18) सामायिकाध्ययनस्यार्थाधिकारः / सामहत्थि(ण)-पुं०(श्यामहस्तिन्) श्रमणस्य भगव / / महावीरस्य स्व (16) सामायिकसमवतारः। नामख्यातेऽनगारे, भ०१० श०४ उ०। (अत्रत्या वक्तव्यता लागतो सग' (20) अथानुगमलक्षणं तृतीयमनुयोगद्वारं संबन्धोपदर्शनपूर्वकं निरूपितम्। शब्दे चतुर्थभागे 2224 पृष्ठे गता।) (21) नामनिष्पन्न निक्षेपमभिधित्सुरध्ययनस्य विशेषनामनिक्षेपः। सामा-स्त्री०(श्यामा)"शषोः सः" ||81260 // इति शस्य सः। प्रा०। (22) अत्राक्षेपपरिहारौ। "अधो म-न-याम्" ||8278 / / इति यलुग्वा / प्रा० / | (23) सूत्रालापकनिक्षेपस्यावसरप्रतिपादनम्। षोडशवार्षिक्यां, श्यामवर्णायां वा स्त्रियाम्, 'सामागायइ महुरं' / स्था०७ (24) चतुर्विधस्य सामायिकस्य क्रियाकारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकथनम्। ठा०३ उ०। अनु० / शक्रलोकपालस्य सोममहाराजस्यागमहिष्याम्, (25) श्रुतसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शन। स्था०४ ठ०१ उ०। रात्रौ, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। सिन्धुदत्तपुत्र्यां (26) सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनम्। ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाम, उत्त०१३ अ० अनु०। प्रियङ्गुवल्ली विशेषे, (27) चतुर्विधसामायिकनिरूपणम्। प्रज्ञा० 1 पद। ज्ञा० विमलस्य त्रयोदशतीर्थकरस्य मातरि,सला प्रव०। (28) सामायिकोदाहरणे कथानकम् / सम्भवस्य जिनस्य प्रवर्तिन्याम, सका आव०॥ ति०। ती०। प्रय०। (26) द्विविधसामायिकस्वरूपनिरूपणम् / सुप्रतिष्ठिते नगरे सिंह सेनस्य राज्ञो भार्यायाम, स्था०१० ठा०३ उ०। (30) सामायिकस्यद्वारसंग्रहः / आचा०। श्रीपद्मप्रभस्य अच्युतापरनाम्न्या शासनदेव्याम् सा च / (31) तत्रोद्देशादिद्वारप्ररूपणा। श्यामवर्णा नारवाहना चतुर्भुजा वरदवाणान्वितदक्षिणकरद्वया कार्मुका (32) कुतः सामायिक निर्गनमत्राक्षेपपरिहारौ। भययुतवाम्पाणिद्वया च। प्रव०२७द्वार। (33) मूलद्वारनयः सहामीषा भेदप्रतिपादनम। सामाइय-10(सामायिक) रागद्वेषविरहितः समस्तस्य प्रतिक्षण- (34) विस्तरार्थ भाष्यम्। मपूर्वापूर्वकर्मनिर्जराहेतुभूताया विशुद्धेरायो-लाभः समायः स एव (35) करय जीवस्य किं सामायिकम्। सामायिकम्।विशे०। 'सामायिकम् ' इति समानां-ज्ञानदर्शन-चारित्राणां (36) गृहस्थसामायिकमपि परलोकार्थिना कार्यम् / आयः-समायः,समाय एव सामायिक, विनयादिपाठात् स्वार्थे ठक् / (37) कतिविध सामायिकम। आह सम्यशब्दस्तत्र पठ्यते तत्कथं समाये प्रत्ययः? उच्यते- (38) श्रुतसामायिकभेदकथनम्। 'एकदेशविकृतमनन्यवद्भवती' तिन्यायात्, तच सावद्य-योगविरतिरूपं (36) सम्यक्त्वादिसामायिकभेदनिरूपणम् / ततश्च सर्वमप्येतच्चारित्रम् अविशेषतः सामायिकम् / आव० 10 // (40) कतिराान्तरं सामायिकम्। ('सम्मावत्य' शब्देऽस्मिन्नेव भार्ग अस्यैकार्थिकान्युक्तानि) ('राजम' / (41) कि सामायिकमिति निरूपणार्थ द्वारगाथात्रयम् / शब्देऽस्मिन्नेव भाग किनामसामायिकमिति किशिदुक्तम।) (42) ऊ व लोकादिक्षे त्रमङ्गीकृत्य सम्यक्त्वा दिसामाशि - Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 702 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय कानां लाभादिभावनिरूपणम् / (43) कस्यां दिशि किं सामायिकम्। (44) वक्ष्यमाणनियुक्तिगाथाप्रस्तावना / (45) कालद्वारनिरूपणम्। (46) गतिद्वारम्। (47) मिश्रशब्दभावार्थः,व्यवहारनिश्चयनयमतविचारश्च / (48) आहारकपर्याप्तकद्वारम् / (46) सुप्तजन्मद्वारद्वयनिरूपणम्। (50) स्थितिद्वारनिरूपणम्। (51) वेद-संज्ञा-कषायद्वारत्रयप्रतिपादनम्। (52) आयुर्ज्ञानद्वारद्वयनिरूपणम्। (53) योगोपयोगशरीरद्वारत्रयनिरूपणम। (54) कथं पुनरौपशमिकसम्यक्त्वं जीवस्याभ्युपगन्तव्यम्। (55) कथ पुनरस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभेऽवस्थितपरिणामत्वम्। (56) 'ओरालिए चउक्क' इत्यादिगाथाव्याख्या। (57) संस्थानादिद्वारत्रयम्। (58) लेश्याद्वारनिरूपणम्। (56) परिणामद्वारप्रतिपादनम्। (60) वेदनासमुद्धातकर्मद्वारद्वयम्। (61) निर्वेष्टनोदर्तनद्वारद्वयम्। (62) आश्रवकरणद्वारनिरूपणम्। (63) अलङ्कारशयनाऽऽसनस्थानचक्रमणद्वारकदम्बकव्याख्यानम् / (64) परस्यातिप्रेर्यनिपुणत्वमवलोक्य सूरिकृताऽतिनिपुणत्वेन तत्प्रति विधानं प्रतिपादितम्। (65) मानुषत्वे लब्धेऽपि एतैः कारणैः दुर्लभ सामायिकमनुकम्पा दिभिरवाप्यते। (66) कि कारणं तीर्थकरः सामायिक भाषते। (67) गणधराः केन कारणेन सामायिकश्रवणं कुर्वन्ति / कियचिरमिति कालद्वारम्। (68) श्रुतवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपतितश्रुतसामायिकस्य च निरूपणम्। (66) यस्य नयस्य यत्सामायिक मोक्षमार्गत्वेनानुमत तदर्शनस्वरूपमनु मतगारम्। (70) कस्माजीव एव सामायिकं प्राप्नोति नाजीवादिः / (71) एकरिमन्नपि महाव्रतादिके चारित्रसामायिक नियुक्तिकृतः साक्षात __ सर्वद्रव्योपयोगदर्शनम्। (72) द्वितीयस्य द्रव्यार्थिकनयस्याभिप्रायनिदर्शनम्। (73) सामायिकस्य वैशेषिकलक्षणेन प्रतिपादनम्। (74) सामायिकपदव्याख्याने सूत्रम्। (75) विनयद्वारप्रतिपादनम्। (76) चालनाप्रतिपादनमा (77) ओघ-भवजीवितयोविवरणम्। (78) आलोचनादीनि समायिकवत एव भवन्ति / (76) प्रकीर्णकवार्ता। (1) सामायिकस्वरूपमाहसामाइय छेय परिहा-र सुहुम अहखाय देस जय अजया। चक्खु अचक्खु ओही, केवल सण अणागारा॥१२॥ समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो लाभः समायः समाय एव सामायिक विनयादः // 7 / 2 / 166 / / आकृतिगणत्वादिकण्प्रत्ययः यद्वा समो रागद्वेषविप्रमुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत्पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः / समस्यायः समायः / समो हि प्रतिक्षणमपूर्वनिदर्शनचरणपर्यायैर्भवाटवीभ्रमणसंक्लेशविच्छेदकैर्निरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकामधेनुकल्पद्रुमोपमैयुज्यते, समाय एव सामायिक मूलगुणानामाधार भूत सर्वसावद्यविरतिरूपं चारित्रम् / यदाह वाचकमुख्यः- 'सामायिकं गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम् / न हि सामायिकहीनावरणादिगुणान्विता येन // 1 // तस्माजगाद भगवान्, सामायिकमेव निरुपमोपायम्।शारीरमानसाने-कदुःखनाशस्य मोक्षस्य ||2 // " यद्यपिच सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिक तथापि छेदादिविशेषर्विशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते / प्रथम पुनरविशेषणात सामान्यशब्द एवावतिष्ठते 'सामायिकमिति'' / तच द्विधा इत्वर, यावत्कथिकं च / तत्रत्वरम्-भाविव्यपदेशान्तरत्वात् स्वल्पकालम, तच प्रथम-चरमतीर्थकरतीर्थे भरतैरवतेषुयावदद्यापिशैक्षकस्य महाप्रतानि नारोप्यन्ते तावद्विज्ञेयम् / आत्मनः कथां यावद्यदास्ते तद्यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः / यावत्कथमेव यावत्कथिकम् एतच भरतैरवतेषु प्रथमचरमवर्जमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनां महाविदेहतीर्थकरमुनीनां चावसेयम, तेषामुपस्थापनाया अभावात्। कर्म०४ कर्म०। आ०म० "सव्वमिण सामाइयं, छेयाइविसेसियं पुण विभिन्नं / अविरोसियसामइयं, ठियमिह सामन्नसन्नाए।।१।। सावजजोगविरइ.त्ति तत्थ सामाइयं दुहा तं च। इत्तरमावकहं ति य,पढम पढमऽतिमजिणाणं / / 2 / / तित्थेसु अणारोविय-वयस्स सेहस्स थेवकालीय। सेसाणमावकहिय, तित्थेसु विदेहयाणं च // 3 // " ननु चेत्वरमपि सामायिक करोमि-'भदंत ! सामायिक यावज्जीवमि' त्येवं यावदायुरागृहीतं, तत उत्थापनाकाले तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञालोपः। 'नणु जावज्जीवाए, इत्तिरिय पि गहियं सुर तस्स / होइ पइण्णालोवो,जहाऽऽवकहियं सुयं तस्स ||1||" उच्यते-ननुप्रागेवोक्तंयत् सर्वमेवेद चारित्रमविशेषतः सामायिक, सर्वत्रापि सर्वसावद्ययोगविरतिसद्भातात्, केवलं छेदादिविशुद्धिविशेषैर्विशिष्यमाणगर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते ततो यथा यायत्कथिक सामायिकछेदोपस्थापनं वा परमविशुद्विविशेषरूपसूक्ष्मसंपरायादि चारित्रावाप्तौ न भनमारचन्दति तथेत्वरमपि सामायिक विशुद्धिविशेषरूपच्छेदोपस्थापनावाप्तौ नैव भङ्गं प्राप्नोति। यदि हि प्रव्रज्या परित्यज्यत तर्हि तदङ्ग आपद्यते, नतुतस्यैव विशुद्धिविशेषावाप्तौ। उक्तंच-"नणुभणियंसव्वंचिर', सामइयमिण Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 703 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय विसुद्धितो भिन्न / सावाजविरइमइय, को वयलो वो विसुद्धीए / / उन्निक्खमत भंगो, जो पुण तं चिय करेइ सुद्धयर / सन्नामेत्तविसिट्ट. सुहुमं पि व नस्रा का भंगो / / 2 / / " पं०सं०१ द्वार / आव०। सर्वसावद्यपरित्यागनिरवद्यासेवनरूपे व्रतविशपे, ध०र०२ अधिक। (2) सामयिकमाहसामाइयं नाम, सावज्जजोगपरिवजणं-निरवज्जजोगपडिसेवणं च। "सिक्खा दुविहा गाहा, उववायठिई गई कसाया य। बंधंता वेयंता, पडिवजा इक्कमे पंच / / 1 / / सामाइअम्मि उकए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं कुजा।।।। सव्वं ति भाणिऊणं, विरई खलु जस्स सव्विया नत्थि। सो सव्वविरइवाई, चुक्कइ देसं च सव्वं च // 3 // " सामाइयस्स समणोवायस्स इमे पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा,तं जहा-मणदुप्पणिहाणे वइदुप्पणिहाणे कायदुप्पणिहाणे सामाइयस्स सइ अकरणया सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया / समो-रागद्वेषवियुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्यायः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्व निदर्शनचरणपर्यायैर्निरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमयुज्यते,स एव समायः प्रयोजनमस्य क्रियानुष्ठानस्येति सामायिक, सामाय एव सामायिकम् / नामशब्दोऽलङ्कारार्थः, अवयंगर्हितं पापं, सहावद्येन सावधः योगोव्यापारः कायिकादिस्तस्य परिवर्जनपरित्यागः कालावधिनेति गम्यते / तत्र मा भूत सावद्ययोगपरिवर्जनमत्रमपापव्यापारासेवनशून्यमित्यत आह-निरवद्ययोगप्रतिसेवनं चेति, अत्र सावद्ययोगपरिवर्जनवन्निरवद्ययोगप्रतिसेवने - ऽप्यहर्निशं यत्नः कार्य इति दर्शनार्थम् / चशब्दः परिवर्जनप्रतिसेवनक्रियाद्वयस्य तुल्यकक्षतोद्भावनार्थः / आव०६ अ० आर्जरौद्रध्यानपरिहारेण धर्मध्यानकरणेन शत्रुमित्रकाञ्चनादिषु समतायाम, धo आतु०। सूत्र० / धo (3) तत्राद्यं शिक्षापदव्रतमाहसावद्यकर्ममुक्तस्य, दुर्व्यानरहितस्य च / समभावो मुहूर्त तद्-व्रतं सामायिकाह्वयम्॥३७।। सावद्यम्- वाचिकं कायिकं च कर्म,तेन मुक्तस्य तथा दुर्ध्यानम्आर्तरौद्ररूपं तेन रहितस्य प्राणिनः मनोवाकायचेष्टापरिहार विना सामायिकं न भवतीति विशेषणद्वयं तादृशस्य मुहूर्त घटिद्वयकाल यावत् गोऽसौ समभावो-रागद्वेषहेतुषु मध्यस्थभावस्तत् सामायिकाह्वयं व्रतं ज्ञेयम्। ध०२ अधिo उपदेशान्तरमाह उवणीयतरस्स ताइणो, भयमाणस्स विविक्कमासणं। सामाइयमाहु तस्स जं, जो अप्पाणभएण दसए।।१७।। उप-सामीप्येन नीतः-प्रापितो ज्ञानादावत्मा येन स तथा अतिशयेनोपनीत उपनीततरस्तस्य, तथा तायिनः- परात्मोपकारिणः त्रायिणो वा-सम्यक्पालकस्य, तथा भजमानस्यसेवमानस्य विविक्तम् - रत्रीपशुपण्डकविवर्जितम्, आस्यते-स्थीयते यस्मिन्निति तदासनवसत्यादि,तस्येवम्भूतस्य मुनेः सामायिकम् समभावरूपं सामायिकादिचारित्रमाहुः सर्वज्ञाः,यद्-यस्मात् ततश्चारित्रिणा प्राग्व्यवस्थितस्वभावेन भाव्यम्, यश्वात्मानं भये-परीषहोपसर्गजनितेन दर्शयत्- तदीगर्न भवेत् तस्य सामायिक-माहुरिति सम्बन्धनीयम्। सूत्र० १श्रु०.२ अब (4) श्रावकस्य सामायिककरणविधिःसामाइयं सावरण कथं कायव्वं ति? इह सावगो दुविहो–इडिपत्तो, अणिड्डिपत्तो या जो सो अणिड्डिपत्तो सो चेतियघरे साधुसमीपे वा घरे वा पांसधसालाए वा जत्थ वा बिसमति अच्छतेवा निव्वावारो सव्वत्थ करेति तत्थ, चउसुटाणेसु णियमा कायव्वं / चेतियघरे साधुमूले पोसधशालाए घरे आवासग करेंतो त्ति, तत्थ जति साधु-सगासे करेति तत्थ का विधी? जतिपरं परभय नत्थि जति वि य केणइ सम विवादोणस्थि जति कस्सइ ण धरेइ मा लेण अंछवियं-छियं कजिहिति, जति य धारणगं दळूण न गेण्हति मा णिजिहिति, जति वावारंण वावारेति, ताधे घरे चेवसामायिक कातूणं वरति / पंचसमिओ तिगुत्तो इरियाउवजुत्ते जहा साहू भासाए सावल्लं परि-हरंतो एसणाए कट्ठ लेटुवा पडिलेहिउँ पमजेतुं एवं आदाणे णिक्खेवणे,खेलसिंघाणे ण विगिचति,विगिचंतो वा पडिलेहेतिय पमज्जति य जत्थ चिट्ठति तत्थ वि गुत्तिरोधं करेति / एताए विधीए गत्ता तिविधेण णमित्तु साधुणो पच्छा सामाइयं करेति, 'करेमि भन्ते ! सामाइयं सावज जोग पच्चक्खामि दुविधं तिविधणं जाव साधू पज्जुवासामि त्ति कातूणं / पच्छा इरियावहियाए पडिक्कमति। पच्छा आलोएत्ता वंदति आयरियादी जधा रातिणिया / पुणो वि गुरु वदित्ता पडिलेहित्ता णिविट्टो पुच्छति पढति वा। एवं चेतिया-इएसु विजदा स गिहे पोसधसालाएवा आवासाए वा तत्थ णवरिगमणं णत्यि,जो इड्डिपत्तो (सो) सव्विड्डीए एति तेण जणस्स उच्छाहो वि आदित्ता य साधुणो सुपुरिसपरिगहेणं, जति सो कयसामाइतो एति ताधे आसहत्थिमादिणा जणेण य अधिकरणं वट्टत्ति, ताधे ण करेति। कयसामाइएण य पादेहिं आगतव्वं तेणं ण करेति,आगतो साधुसमीये करति,जति सो सावओ तोण कोइ उट्टेति। अह अहाभहओ ता आहितो होतुति भण(ण)ति, ताध पुव्वरइयं आसणं कीरति, आयरिया उहिता य अच्छति / तत्थ उठेतमणुढेते देसा विभासितव्वा / / पच्छा सो इड्डिपत्तो सामाइयं करेइ अणेण विधिणा-'करेमि भन्ते !सामाइयं सावजं जोग पच्चक्खामि दुविधं तिविधेण जाव नियम पज्जुवासामि' त्ति, एवं सामाइय Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 704 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय काउपडिकतो वंदित्ता पुच्छति, सोय किर सामाइयं करेंतो मउड अवणेति कंडलाणि णाममुहं पुप्फतंबोलपावारणमादी वोसिरति / एसा विधी सामाइयस्स।" आह--सावघयोगपरिवर्जनादिरूपत्वात सामायिकरय कृतसामायिकः श्रावको वस्तुतः साधुरेव, सकरमाद इत्वरं सर्वसावद्यसोगप्रत्याख्यानमेव न करोति त्रिविध त्रिविधेनेति? अत्रोच्यते--सामान्येन सर्वसावा योगर याम्यानम्यागारिणोऽसम्भवादारम्भेष्तनुमतेरव्य -- वरिछन्नत्वात. कनकादिषु चाऽऽत्मीयपरिग्रहादनिवृत्तेः, अन्यथा सामायिकोत्तरकालगपि तदाहसडातसाधुशावकोश्न प्रपशेन भेदाभिधानात् / आव०६ अ०1 पं० त०ा पशाला (5) तशा चाह ग्रन्थकारः सिक्खा दुविधा गाहा, उववात ठिती गती कसाया य / बंधता वेदेन्ता, पडिवज्जा इक्कमे पंच / / 1 / / इह शिक्षाकृतः साधुश्रावकयोर्गहान विशेषः सा चशिक्षा द्विधा --- आसेवनाशिक्षा, ग्रहणशिक्षा च / आसेवनाप्रत्युपेक्षणादिक्रियारूपा, शिक्षा-अभ्यासः, तत्रासेवनाशिक्षामधिकृत्य सम्पूर्णामेव चक्र वालसामाचारी सदा पालयति साधुः / श्रावकस्तु न तत्कालमपि सम्पूर्णागपरिज्ञानादसम्भवाच। ग्रहणशिक्षा पुनरधिकृत्य साधुः सूत्रतोऽर्थतव जयन्येनाष्टौ प्रवचनमातर उत्कृष्टतस्तु बिन्दुसारपर्यन्तं गृह्णातीति आवकरतु सुत्रतोऽर्थतश्व जघन्येनाष्टौ प्रवचनगातर उत्कृष्टतरतु षड्जीवनिकायां सावदभयतोऽर्थतस्तु पिण्डैषाणां यावत न तु तागपि सूत्रता निरवशेषा-- मर्शत इति सूत्रप्रामाण्याच्च विशेषः / तथा चोक्तम्.. "सामाइयम्भि तु कते. समणो इव सावओ हवइ जम्हा ! एतण कारणेणगसो रामाइयां कुन्जा / / 1 / / " इति. गाथासूत्रं प्राग व्याख्यातमता, लेशतस्तु व्याख्यायले -सागायिक प्रागनिरूपितशब्दार्श, तुशब्दोऽवधारणार्थः,सामाथिक एव कान शेषकाल श्रमण इव-साधुरिव श्रावको भवति यस्मात, एतेन कारणेन बहुशः - अनेकशः सामासिकं कुर्यादित्यत्र श्रगण इव चोक्तं न तु शगण एवेति, यशा समुद्र इव तडागः न तु समुद्र एवेत्यभिप्रायः / तथोपपाते विशेषकः, साधुः सर्वार्थसिद्धे उत्पद्यते श्रावकस्त्वत्युते परमोपपातेन अत्यन्गेन तु द्वावधि सौधर्म एवेति / तथा चोक्तम् 'अविराधितररा0 - रस साधुणो सावगर स उ जहाणो / सोहारो उवदातो, मणि भो तेलोकदसीहि / / 1 / / ' तथा स्थितिौदेका साधोरुस्कृष्टा थरित्रंशत्सागरोपमाणिजहन्या तु पल्योपमपृथक्त्वमिति श्रावकरयतूत्कृष्टा द्वाविंशतिः सागारोपमाणि जघन्या तु पल्योपमिति। तथा गतिर्भदिवा, व्यवहारतः साधुः पशस्वपि गच्छति, तश्या च कुरटारकुरुटौ नरकं गतौ कुणालादृष्टाग्लनेति श्रूयले. श्रावकर बतास्पुन सिद्धगताविति। अन्ये / व्याचक्षते-- साधुःसुरगत मा च, श्रावक तुचतसृष्वपिन तथा धायाश्न विपाः , साधुः कषायोदयमाश्रित्य संज्वलनापेक्षया चतुरित्रद्वयकामयादयवान अष्टकपायोदवाश्च भवति / यदा द्वादशकषायवांस्तदाऽनन्तानुबन्धवजा गृह्यन्ते, एते चाविरतस्य विज्ञेया इति / यदा त्वष्टकषायोदयवान् तदा अनन्तानुबन्धि अप्रत्याख्यानकषायवर्जा इति; एते च विरताविरस्य। तथा बन्धश्च भेदकः, साधुर्मूलप्रकृत्यपेक्षया अष्टविधबन्धको वा सप्तविधवन्धको वा षड्विधबन्धको वा एकविधबन्धको वा। उक्तंच"सत्तविधबंधगा हुति, पाणिणो आउवज्जगाणं तु। तह सुहुमसंपरागा, छव्विहबंधा विणिट्टिा / / 1 / / मोहाउयवजाणं, पगडीण ते उबंधगा भणिया : उपसंतखीणगोहा, केवलिणो एगविधबंधा / / 2 / / ते पुण दुसमयठितिय-स्स बंधगा ण पुण संपरागरस। सेलेसीपडिवण्णा, अबंधगा होति विण्णेया।।३।।" आवकास्तु अष्टविधबन्धको वा सप्तविधबन्धको वा / तथा वेदना-- कृतो भेदः, साधुरष्टाना सप्तानां चतसृणां वा प्रकृतीना वेदकः, श्रावकस्तु नियमादष्टानामिलि / तथा प्रतिपत्तिकृतो विशेषः, साधुः पञ्च महाव्रतानि प्रतिपद्यते,श्रावकस्त्वेकममुव्रत द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च वा। अथवा-साधुः सकृत् सामायिक प्रतिपद्य सर्वकाल धारयति, श्रावकस्तु पुनः पुनः प्रतिपद्यते इति। तथाऽतिक्रमो विशेषकः, साधुरेकव्रतातिक्रमे पञ्चव्रतातिक्रमः, श्रावकस्य पुनरेकस्यैव, पाठान्तरं वा / किं च इतरश्च सर्वशब्दं न प्रयुक्ते, भा भूद्देशविरतेरप्यभाव इति। आह च– 'सामाइयम्मि उकए' 'सव्वं ति भाणिऊणं' गाहा,सर्वमित्यभिधाय सर्व सावध योगं परित्यजामीत्यभिधाय विरतिः खलु यस्य सर्वा-निरवशेषा नास्ति, अनुमतेर्नित्यप्रवृत्तत्वादिति भावना, स एवंभूतः सर्वविरतिवाटी 'चुक्कइ' त्तिभश्यति देशविरतिं सर्वविरतिं च प्रत्यक्षमषावादित्वादिन्य--भिप्रायः / पर्याप्त प्रसङ्गेन। प्रकृतं प्रस्तुम इदमपि च शिक्षापदव्रत-मतिचाररहितमनुपालनीयमित्यत आह... 'सामाइयरस सन'गो' (गहा) सामायि.. कस्य श्रमणोपासकेनामी पश्चातिचारा ज्ञातव्या न समाचरितव्याः, तहाथा मनोदुष्प्रणिधानम् प्रणिधान-प्रयोग: दुष्ट प्रणिध नं दुष्प्रणिधानं मनसो दुष्प्रणिधानं मनोदुष्प्रणिधानम्, कृतसामायिकस्स गृहसत्केतिकर्तव्यता सुकृतदुष्कृतपरिचिन्तनमिति। उक्त च-"स'माइयं ति (तु) कातुं, घरचिन्तं जो तु चिंतये सङ्घो। अट्टवसट्टमवगतो, 'निरत्थयं तस्म सागइयं // 1 // " वाग्दुष्प्रणिधानं कृतसामायिकग्यासर निष्ठुरसावद्यवाकप्रयोग इति / उक्तं च- "कडसामइओ पुव्व बुद्धीए पहिलूग भासेज्जा / सइणिरवज्ज वयणं,अण्णह सामाइयण भवे / / 2 / / '' काय - दुष्प्रणिधानं कृतसामायिकस्याप्रत्युपेक्षितादिभूतलादौ करचरणादीनां देहा वयमानामनिभृतस्थापनमिति / उक्तं च- "अणिरिक्खिया पज्जिय, थठिल्ले ठानमादिसेवेन्तो / हिंसाभावे विणसो, कडसामइओ पमादाओ।।१।।'' सामायिकस्य स्मृत्यकरणं सामायिकस्य सम्बन्धिनी वा स्मरणा-स्मृतिः उपयोगलक्षणा तस्या अकरणम्अनासेवनमिति / एतदुक्त भवति--प्रबलप्रमादवान् नैव स्मरः यस्यां माया माया म सामाजिक वनयं कृतं न कृतमिलिना। स्मृतिगल। Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 705 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय मोक्षसाधनानुष्ठानमिति। उक्तं च- "ण सरइपमारना, जा साभार कदा तु कायव्य / कतमकतं वा तस्स हु, कयं पि विफल तय णेय !!1!!' सामायिकस्यानवस्थितस्य करणमनवस्थित-करणम, अनारशामल्पकाल या करणानन्तरमेव त्यजति, यथा कशिद वाऽनवस्सिा करातीति / उक्त च- "कातूण तक्रमणं चिय. पारा कर जधिकार। अप शिरा सानाइयं, अगा-दरातो नतं सुद्ध / / 2 / / उपर सातिचार प्रथम शिक्षापदवम्। आव०६ अाधा पञ्चाका (सानायके / आकारान सन्ति इति पञ्चक्याण' शब्दे पञ्चमभागे 104 पृष्ठ गला (श्रावकरय सामयिकादिग्रहणविधिः 'अणुव्वय' शब्दे प्रथमभाग 4 17 इष्ट गता।) इह भावको द्विविधः-ऋद्धिप्राप्तः, अनृद्धिकश्च याऽसर. वनासकः स चैत्यगृ साधुसमीपे वा गृहे वा पौषधशालायां वा यत्र विश्रा.-. ति, नयापारने, तर सर्वत्रय तत्करोति, चतुर्यु रमाने मानयाधम तान-चत्यगृह साधुसमीपे पौषधशालायां स्वगृहे द, यक जाण नसति साधुसमीपे करोति, सदाऽयं विधिः-यदि पर नारि दिनावि समं विवादो नास्ति, यदिकस्यागि द्रव्य नधास्थतिमा भनकता कपिकर्षिका, यदिच धारणकं दृष्टा न गृह्णाति मा भूड, यदि च व्याह न करोति, तदा स्तगृह एव सामायिक कृत्वा व्रजति / पञ्च समित-रित्रगाः-ईर्यायामुपयुक्तः, यथा साधुवाय सावधं परिहरन् एषण या काष्ठ वा लेष्टु वाऽनुशाप्य प्रत्युपेक्ष्य प्रमृज्य च गृह्णन्, एव–मादाने निक्षेपे च, तथा खेलसिंधाणादीन विधेचयनि / विवेचयं श्च स्थाण्डिल प्रत्ते जभाटिंचायत तितितत्रापि मानि! करोति। अनेन विधिना गाना त्रिविधेन साधूवरवा साम्गयिकं करोति"करेमिभते ! एक माइयं सा जोग धबचरामि जाट सह पज्जवासाभि विहं लिविहा' इमामासाहाजईपिथिकायाः प्रतिक्रामति, पश्शदालोच्य वन्दते आचर्यादीन यथा-रात्निकतया, पुनरपि गुरु वन्दित्या प्रत्युपेक्ष्य निविष्टः पृच्छति वा पठति वा / एवं चैत्येष्वपि। यदा तु स्वगृहे पौषधशालायां वा तदा गमनं नास्ति / यः पुनः ऋद्धिप्राप्तः सर्वाऽऽपाति, नि जनस्यास्था भवति, आदृताश्च साधवः सुपुरुषपरिग्रहेण भवन्तिा चदि त्यसो कृतसामायिक एति, तदाश्वहस्त्यादिभिरधिकरण स्यात्तच्च न वर्तते कर्तुमित्यसो तन्न करोति / तथा मालसामायिकन्न पादाभ्यामेवागन्तव्यमिति च तन्न करोति। तथा यद्यसो शवकरस्तदा तं न कोऽप्यभ्युत्तिष्ठति / अथ यदा भद्रकस्तदा पूजाकृता भदस्विति पूर्वरचितमासनं क्रियते, आचार्या श्वोरिथला एवासते / मोत्थानानुत्थानकृता दोषा भूवन्। पश्चादसावृद्धिप्राप्तश्रावकः सामायिक करोति / कथम्? "करमि भंते ! सामाइयं सावजं जोगं पचक्खामि दुविहं तिविहेणं जाव नियम पज्जुवासामि''इत्यादि / एवं सामायिक कृत्वां प्रतिक्रान्तो वन्दित्वा पृच्छति वा पठति वा / स च किल सामायिक कुर्वन् मुकुट कुण्डले नाममुद्रां चापनयति / पुष्पताम्बूलप्रावारादिकं च व्युत्सुजतीत्येष विधिः सामायिकस्येति / पञ्चा०१ विव०। श्रा०ाधा आ० चू। (6) अथ सामायिकाध्ययनमत्र व्याख्येयं तस्य चानेके अधिकारा अन्यत्र गतास्तानिह संसूचयन् तत्र तत्राऽऽगतान् दर्शयामि। सामायिक | नियोक्तः / तर यथादश निर्देश इति न्यायात प्रथमतोऽधिकतावश्य कायध्ययनसामायिकाख्योपोद्धातनियुक्तिमभिधिसुराहसामायियनिज्जातं दोच्छ उवएसियं गुरुजणेण / आयरियपरम्परए-ण आगयं आणुपुव्वीए1101 सामायिकरय निर्गक्तिः सामायिक नियुक्तिस्ता वक्ष्ये / कर अतामिन्याह-उपासामीप्येन टेशिता उपदेशिता ता केन रुजनन नीर्थकरगणधरलक्षणान नरुपदेशनकालादारभ्य आचार्यपारपर्येणामताभ * सद परपरको द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यपरंपर।'' पुरुषपारंपयेण डावानामानयनमा अत्र चासमोझार्थ कथानकं नाथाविवरणसामाप्ती वक्ष्यामः / भावपरंपरकस्त्वियमेव उपाद्धातनियुक्तिवार्य पारंपयेणागतेति / कथमाचार्यपारंपर्येणागतामिति चेदत आहआनुपूपिरिपाट्या, तद्यथा-जम्बूस्वामिना भवनानीला ततोऽपि शय्यंभवादिभिरिति अथवा-जिनगणधरेभ्य आरम्य आशा पारंपर्यणागतां पश्चात्स्वकीयगुरुजनेनोपदेशितामिति। आ०म०१अ आवर: (7) सामायिकस्य अनुयोगद्वाराणि। सामायिकाध्ययनस्य चत्वारि द्वाराणि इत्यःअणुओगद्दाराई, महापुरस्सेव तस्स चत्तारि। अणुओगो त्ति तदत्थो, दाराई तस्स उ मुहाई।।६०७।। तस्य च -सामायिकाध्ययनस्य महाप्रस्य द्वाराणीवचत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्तितत्रानुयोगः किमुच्यते? इत्याह-तदर्थः-अध्ययनार्थः आह-नन्वनुयोगो व्याख्यानमुच्यते, तत्कथं तदेवाध्ययनार्थ उच्यते? सत्यम्, किन्तु व्याख्यानेऽप्यध्ययनार्थः कथ्यते. अतोऽभेदोपचारात तदपि तथोच्यत इत्यदोषः / द्वाराणि पुनस्तत्प्रवेशमुखानि। अर्थतामेव पुरकल्पनां द्वारकल्पना चार्थवती दर्शयन्नाहअकयद्दारमनगरं, कएगदारं पिदुस्खसंचारं। चउमूलद्दारं पुण, सपडिद्दारं सुहाहिगमं / / 608|| अकृलद्वार नगर संततप्राकारवलयवष्टितमनगरमेव नवति' जनप्रवेश - निर्गमामाधान / तथा-कृतैकद्वारमपि हस्त्यश्वरथजन--संकुलत्याद दुःखसंचार जायते, कार्यातिपत्तये च भवति / कृत--चतुर्मूलं प्रतोलीला तु सप्रतिद्वार सुखाधिगमम्-सुखनिर्गमप्रवेशं भवति, कार्यानतिपत्तरः च संपद्यते इति। (8) तथा किम्? इत्याशङ्कय निर्दिष्टदृष्टान्तस्योपनयमाहसामाइयमहपुरमवि, अकयद्दारं तहेगदारं वा। दुरहिगर्म चउदारं, सपडिदारं सुहाहिगमं / / 606 / / एवं सामायिकमहापुरमप्यर्थाधिगमोपायभूतद्वारशून्यमशक्याधिगमन कृतैकानुयोगद्वारमपि कृच्छ्रण द्राघीयसा चकालेनाधिगम्यते विहितसप्रभेदोपक्रमादिद्वारचतुष्टयं पुनरयत्नेनाऽल्पीयसा च कालेनाधिगम्यत इति। (E) कानि पुनस्तान्यनुयोगद्वाराणि? इत्याहताणीमाणि उवक्कम-निक्खेवाऽणुगमनयसनामाई। Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय छत्ति दुदु विगप्पाइँ , पभेयओऽणेगभेयाई 1910 // तानि-चैतान्यननुयोगद्वाराणि, तद्यथा-उपक्रमो वक्ष्यमाणभेदादिस्वरूपः, निक्षेपः-अनुगमः,नयश्चेत्ये तैनामभिः सनामानि साभिधानानीति / पञ्चमं द्वारोपन्यासद्वारं समाप्तम् / अथ 'तब्भेय' त्ति तद्भेदद्वारमाह-'छत्ती' त्यादि इह यथासङ्ख्यं सम्बन्धः उपक्रमः षविकल्पः, निक्षेपस्त्रिभेदः, अनुगमो द्विभेदः,नयोऽपि द्विभेदः / प्रभेदतस्तूपक्रमादयोऽनेकभेदाः। एषां च भेदप्रभेदानां स्वरूपं पुरस्ताद् विस्तरेण वक्ष्यते। इति षष्ठं तद्भेदद्वारम् / विशे०। (10) प्रथमाध्ययनस्य सायायिकत्वम्तत्थ पढम अज्झयणं सामाइयं, तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तं जहा-उवक्कमे 1, निक्खेवे 2, अणुगमे 3, नए 5, (सू० 56x) / तत्र-तेषु अनन्तरोद्दिष्टेषु षट्सु अध्ययनेषु मध्ये प्रथमम्- आद्यम् अध्ययन सामायिकम्, आधुपन्यासश्चास्य निःशेषचरणादिगुणाधारत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वात्, उक्तं च- "सामायिकं गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम्।न हि सामायिकहीना-श्वरणादिगुणान्विता येन / / 1 / / तस्माजगाद भगवान्, सामायिक-मेव निरुपमोपायम् / शारीरमानसाने-कदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥सा" तत्र बोधादेरधिकम् | अयन-प्रापणमध्ययनं प्रपञ्चतो वक्ष्यमाणशब्दार्थ , सामायिकमित्यत्र यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति स रागद्वेषवियुक्तः समः तस्याऽऽय:प्रतिक्षणं ज्ञानादि-गुणोत्कर्षप्राप्तिः समायः, समो हि-प्रतिक्षणमपूर्वः ज्ञानदर्शनचरण-पर्यायैर्भवाटवीभ्रमणहेतुसक्लेशदिच्छेदकैर्निरुपमसुखहेतुभिः संयुज्यते, समायः प्रयोजनमस्याध्ययनस्य ज्ञानक्रियासमुदायरूपस्येति सामायिकम्, समाय एव सामायिकम, तस्य सामायिकस्य, 'णमि' ति वाक्यालङ्कारे, 'इमे' त्ति-अमूनि-वक्ष्यमाणलक्षणानि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति, तत्राध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः, द्वाराणीव द्वाराणि महापुरस्येव सामायिकस्यानुयोगार्थ व्याख्यानार्थ द्वाराण्यनुयोगद्वाराणि,अत्र नगरदृष्टान्तं वर्णयन्त्याचार्याः,यथा हि-अकृतद्वारं नगरमनगरमेव भवति, निर्गमप्रवेशोपायाभावतोऽनधिगमनीयत्वात्। कृतैकद्विकादिद्वारमपि दुरधिगम कार्यातिपत्तये च भवति,चतुर्मूलद्वार तुप्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च सम्पद्यते, एवं सामायिकपुरमप्यर्थाधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगम स्याद्. एकादिद्वारानुगतमपि दुरधिगम भवेत्. सुप्रभेदचतुर्धारानुगत तु सुखाधिगमं भवति, अतः फलवाँस्तदधिगमार्थो द्वारोपन्यासः कानि पुनस्तानीति तद्दर्शनार्थमाह-'तद्यथे' त्यादि। तत्रोपक्रमणम्-दूरस्थस्य वस्तुनस्तैस्तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपमानीय निक्षेपयोग्यताकरणमुपक्रमः, उपक्रान्तं हि-उपक्रमान्तर्गतभेदैविचारितं हि निक्षिप्यतेनान्यथेति भावः। उपक्रम्यते वा-निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गुरुवायोगेनेत्युपक्रमः। अथवा-उपक्रम्यते अस्मिन् शिष्य श्रवणभावे सतीत्युपक्रमः / अथवाउपक्रम्यते अस्माद्विनीत–विनयविनयादित्युपक्रमः, विनयेनाराधितो हि गुरुर्निक्षेपयोग्यं शास्त्रं करोतीति भावः, तदेव करणाधिकरणापादान- / कारकैर्गुरुवाग्यागादयोऽर्था भेदेनोक्ताः, यदि त्वेको प्यन्यतरोऽर्थः करणादिकारकवाच्यत्वेन विवक्ष्यते तथापि न दोषः / एवं निक्षेपण शास्त्रादेर्नामस्थापनादिभेदैर्व्यसनव्यवस्थापन निक्षेपः, निक्षिप्यतेनामादिभेदैर्व्यवस्थाप्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निश्पः, वाच्यार्थविवक्षा तथैव / एवमनुगमनसूत्रस्यानुकूलमर्थ-कशनमागमः। अशवअनुगम्यते- व्याख्यायते सूत्रमनेनास्मिन्नस्मादिति बाऽनुगमः, वाच्यार्थविवक्षा तथैव। एवं नयनं नयो नीयते-परिच्छिदाते अनेनास्मिनस्मादिति वा नयः, सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकोशग्राहको बोध इत्यर्थः / अत्र चोपक्रान्तमेव निक्षेपयोग्यतामानीतमेव निक्षिप्यन इत्युपक्रमानन्तरं निक्षेप उपन्यस्तः, नामादिभेदैनिक्षिप्तमेव चानुग-यत इति निक्षेपानन्तरमनुगमः, अनुगम्यमानमेव च नयैर्विचायत नान्यथेति तदनन्तरं नय इति यथोक्तक्रमेणोपन्यासः फलवानिति / अनु०॥ (11) क्वोपक्रमे सामायिकमवतरति। तत्र षड्नाम्नि क्षायोप--शमिक भावे सामायिकस्याध्ययनस्यावतार इति दर्शयन्नाह.... छव्विहनामे भावे,खओवसमिए सुयं समोयरइ। जं सुयनाणावरण-क्ख ओवसमजं तयं सव्वं / / 145|| अनुयोगद्वाराध्ययने षड्नाम्न्यौदयिकादयःषड् भावा / पठ्यन्ते तत्र च क्षायोपशमिके भावे सर्वमप्याचारादि श्रुतं समवतरति यद्-यस्मात् सर्वमपि तत् श्रुतं श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमादेव जायते, नान्यतः, तस्मात क्षायोपशमिक एव भावे समवतरति / अत इदं सामायिकाध्ययनमपि श्रुतविशेषरूपत्वात् क्षायोपशमिक एव भावे समवतरति. नान्यत्रेत्यादुवतं भवति / इत्युक्तं संक्षेपतो नाम। (12) साम्प्रतं प्रमाणमभिधित्सुराहदव्वाइचउन्भेयं, पमीयए जेण तं पमाणं ति। इदमज्झयणं भावो-त्ति भावमाणे समोयरइ / / 146|| द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावभेदाच्चतुर्विधं प्रमेयम्, प्रमेयचातुर्वध्याच प्रमाणमपि चतुर्विधम्-द्रव्यप्रमाणम्, क्षेत्रप्रमाणम्, कालप्रमाणम्, भावप्रमाणं चेति / द्रव्यादिक चतुर्विधं प्रमेयं प्रमीयतेऽनेनेति कृत्वा / तत्रेदं सामायिकाध्ययनं श्रुतज्ञानविशेषत्वेन जीवपर्यायत्वाञ्जीवभावत्वाद् भावप्रमाणे समवतरति। आह-ननु भावप्रमाणमपि त्रिविधम् गुणप्रमाणम्, नयप्रमाणम्, संख्याप्रमाणं चेति / तत्र सामायिक व समवतरति? इति। उच्यते-गुणप्रमाणे / ननु गुणप्रमाणमपि द्विविधम्जीवगुणप्रमाणम्, अजीवगुणप्रमाणं च। तत्र सामायिक क समदतरति? इति / उच्यते-जीवानन्यत्वेन जीव-गुणप्रमाणे / ननु जीवगुणोऽपि त्रिविधः-ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् / तत्र व सामायिकस्यावतार:? उच्यते-बोधात्मकत्वात् ज्ञानगुणे / ननु ज्ञानमपि प्रत्यक्षाऽनुमानोपमानाऽऽगमभेदाचतुर्विधम् तत्र वेदमवतरति? इति। उच्यते-आगमे। ननु सोऽपिलौकिकलाकोत्तरभेदाद् द्विविधः लोकोत्तरोऽपि सूत्रार्थोभयरूपित्वात् त्रिविध एव तत् वेदं समवतरति? इति। उच्यते-सूत्रार्थोभयभेदात् त्रिविधेऽपि लोकोत्तर आगमे समवतरति तत्स्वभावात्-तत्स्वरूपत्वादिति। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 708 . मिनराजेन्द्रः - भाग 19 सामाइय एतदेवाहजीवाणाण्णत्तणाओ, जीवगुणे बोहभावओ नाणे। लोउत्तरसुत्तत्थो-भयागमे तस्स भावाओ // 147 / / व्याख्यातार्थव। (13: आह-नन्चारमागमानन्तरागमपरम्परागमभेदलोऽनिलोकः / 'गरिवविधः तत् कदमयतरति? इत्याशङ्कयाहसुयओ गणहारीणं, तस्सिस्साणं तहाऽवसेसाणं / एवं अत्ताणंतर-परंरागमपमाणम्मि९ि४८|| अत्थे| उतित्थंकर-गणहर-सेसाणमेवमेवेदं / यया जीवगुणादिष्वस्यावतारः, एवमात्मानन्तरपरम्परागमप्रमाणेऽ- | प्यारो मन्तव्यः कथम्? इत्याह--सूत्रतो गणधराणामिदमात्मागमः, वितासूत्रस्य निर्वसितत्यान, अत आत्मन एव सकाशादागमनमस्येति त्या तारेछष्याणां तु जम्बूवाम्यादीना सामायिकसूत्रमनन्तरागमः, पादेवाणघराचागमनमागमोऽस्येति हेतोः। तथाऽदशेषाणां प्रभवरायभव.दीनामेतत् सूत्रं परंपरागमःसूरिपरम्परयाऽऽगमनमागमोऽस्येतियुवतः / तद सूत्रता यथासख्येन गणधरादीनामात्मगमादित्ययोजना कृता / / 6.48 / / अर्थेनाप्येवमेवेदं सामायिक यथासंख्येन तीर्थकरगणधर शेषजम्बू-प्रभृतीनामारमागमानन्तरागमपर रागनत्वेन वक्तव्यमिति. (14) ननु नयनप्रमाणे खमवतारोऽस्य भवति, न था? इत्या . शक्य नाथोतरामाह.. मूढनयं ति संपइ,नयप्पमाणेऽवयारो से / / 946 'मूढनइयं सुर्य कालियन नया रामोयरति इह इति वचनाद् मूढनयं चिरन्तनमुनिभिः शिव्यामोहभयाद् निषिद्धनयविचार सम्प्रति श्रुतम्, अतो नयप्रमाण नाऽस्यावतार इति। (15) आह ननु कियतः कालादर्थात् कालिकश्रुतेन नयविचारो निषिद्धः? इत्याहआसी पुरा सो नियओ,अणुओगाणमपुहुत्तमावम्मि। संपइ नत्थि पुहुत्ते, होज्ज व पुरिसं समासज्ज / / 650 / / पुरा-पूर्व चरणकरणधर्मकथागणितद्रव्यानुयोगलक्षणानां चतुर्णामनुयोगानामपृथग्भावे प्रतिसूत्रं चतुर्णामप्यवतारे स नयावतारो नियतो निश्चित असीत् / साम्प्रतं पुनरनुयोगानां पृथक्त्वे- 'कालियसुयं च इसिभा-सियातिइया य सूरपन्नत्ती। सव्वो य दिहिवाओ, चउत्थओ होइ अणुओगो // 1 // " इति वचनात् पार्थक्येन व्यवस्थापने सति नास्त्यसौ नयावतारः। किं सर्वथा? न इत्याह-भवेवा प्राज्ञपुरुषविशेष समासाद्य कोऽपि कियानपीति। इदमुक्तं भवति-श्रीमदार्यरक्षितसूरीन् यावदेकैकस्मिन् सूत्रेऽनुयोगचतुष्टयव्याख्यानम्, नयविचारश्च विस्तरेणाsऽसीत् / ततश्च तैरेव श्रीमदार्यरक्षितसूरिभिर्विचारबाहुल्याद् मुह्यतः शिष्यानवलोक्य चत्वारोऽप्यनुयोगा भेदेन व्यवस्थापिताः, तद्यथाकालिक श्रुते चरणकरणानुयोग एवं व्याख्येयः, उत्तराध्ययनादिषु धर्मकथानुयोगः,सूर्यप्रज्ञप्त्यादिषुगणितानुयोगः, दृष्टिवादे द्रव्यानुयोगः / नयविचारश्वाऽर्वाक् प्रायो निषिद्धः। इति न सामायिकस्य प्रायो नयेष्व " स्माममा तबलरती न जाइयातसंखामा कालिय-सुयपरिमाणे परित्तपरिण। सुयओ तदत्यओ पुण,भणियं तमर्णतपञ्जा...|| संख्या नाम...थापना-द्रव्य--क्षेत्रकालौ-यय-पश्मिन भेदाऽनुयोगद्वारेवरचा प्रोक्ता / तत्र संख्यामाने-राख्याप्रमाणे निवार्यमा कालिक श्रुतपरिमागो एतदवतरति / तत्र कालिकश्रुतपरिमाणं द्विविधन्--सूत्रतः, अर्थतश्च। तत्र सूत्रता सामायिकाध्ययन परीतं सड़ख्याताक्षरादि नियतपरिमाणम् / तस्य सामायिकस्यार्थस्तदर्थस्ततः पुनरनन्तपर्यायत्वादनन्तपरिमाणं भणितमिति / तदेवं प्रमाणमप्युक्तं संक्षेपतः। (17) अथवक्तव्यतामभिधित्सुराह... समओ जो सिद्धंतो, सो सपरोभयगओ तिविहभेओ। तत्थ इमं अज्झयणं, ससमयवत्तव्वया निययं / / 952|| यः सिद्धान्तः स तावद् समय उच्यते / स च त्रिविधः स्वसमयपरसमयो-भयसमयभेदात् / अत एव वक्तव्यताऽनुयोगदारेषु त्रिविधा पोस्ता स्वसमयत क्तव्यता,परसमयवक्तव्यता, स्वपरोभयवक्तव्यता चति / तत्रंद सामायिकाध्ययनं स्वसमयवक्तव्यतानियतम् स्वसमयस्यैदेह प्रतिपाद्यमानत्वादिति। न केवलमिदमध्ययनम्, किन्तु सर्वाण्यप्यध्ययनानि स्व समयवक्तव्यतानियतान्येव / कुतः? इत्याहपरसमओ उभयं वा,सम्मद्दिट्ठिस्स ससमओ जेणं। तो सव्वज्झयणाई,ससमयवत्तव्वनिययाई / / 953|| यतः परसमयः उभयसमयो वा सम्यग्दृष्टः स्वसभय एव. यथाव-द्विषयविभागेन व्यवस्थापनात्। ततो यद्यपि केषुचिदध्ययनेषु परोभयसमयवक्तव्यताऽपि श्रूयते,तथापि तानि सर्वाण्यपि स्वसमयवक्तव्यतानियतान्येव, सम्यग्दृष्टिपरिगहात्, एतच्च पूर्वमनेवाशोभावितमेवेति। किञ्चमिच्छत्तमयसमूह, सम्मत्तं जं च तदुवगारम्मि। वट्टइ परसिद्धंतो, तो तस्स तओ ससिद्धंतो / / 654|| मिथ्यात्वानाकान्तक्षणिकत्वा-क्षणिकत्ववादिसौगतादिमताना यःसमूहः-समुदायः स्यात्पदलाञ्छितः, स एव यस्मात् सभ्यक्त्वं, नान्यत् / यस्माच्च तस्य-स्वसमयस्योपकारस्तदुप-कारस्तस्मिन् वर्तते परसिद्धान्तः, परसिद्धान्तव्यावृत्त्यैव स्वसि-द्धान्तसिद्धेः असमञ्जसवादित्वं परसिद्धान्तानां दृष्ट्वा स्वसिद्धान्ते स्थैर्यसिद्धेश्चेति। ततस्तस्मात्तस्य सम्यगदृष्टस्तकः परसिद्धान्तः स्वसिद्धान्त एव। तदेव सम्यग्दृष्टे: सर्वोऽपि विषयविभागेन स्थापितः स्वसिद्धान्त एव,इति सर्वाण्यप्यध्ययनानि स्वसमयवक्तव्यतानियतान्ये वेति स्थितम् / तदेवमभिहिता वक्तव्यता। (18) अथार्थाधिकारमभिधित्सुराहसावजजोगविरई, अज्झयणस्थाहिगार इह सो य। Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 708 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय भण्णइ समुदायत्थो, ससमयवत्तव्वया देसो / / 655 / / इह सावद्ययोगविरतिः-सामायिकाध्ययनस्यार्थाधिकारः, स च | समुदायार्थो भण्यत इति प्रागप्युक्तमेव / स एव च स्वसमयवक्तव्यतायाः सम्पूर्णाया एकदेशोऽभिधीयत इति / उक्तोऽर्थाधिकारः। (16) अथ समवतारमभिधित्सुराहअहुणा य समोयारो, जेण समोयारियं पइद्दारं। सामाइये सोऽणुगओ, लाघवओ जो पुणो वचो ||656 / / अधुना समवतारोऽवसरप्राप्तः / चकारो भिन्नक्रम, तद्यथा-स च 'लाधवउ' त्ति-लाघवमाश्रित्य लाघवार्थमित्यर्थः,अनुगतः पूर्वमेवगतः-- अतिकान्तः पूर्वमवाभिहित इत्यर्थः / कथम्? इत्याह-येन यस्मात् प्रतिद्वार सामायिकाध्ययन समवतारितमेव / ततो नेदानीं पुनरपि सभवतारो वाच्यः, तद्व्यापारस्याऽऽध्ययनसमवतारणलक्षणस्य प्रतिद्वारमनिष्ठितत्वात् / एतदुक्तं भवति-अधुना षष्ठ उपक्रमभेदः समवतारः प्रस्तुतः, स च लाघवार्थ सामायिकस्य प्रतिद्वार समवतारितत्वात् पूर्वमेवाभिहितः इति न पुनरप्यत्रोच्यते, पौनरुक्त्यप्रसङ्गात इति विशे० आ०म०। आ० चू०। (20) अथानुगमलक्षण तृतीयमनुयोगद्वारं सम्बन्धोपदर्शनपूर्वकमाह-- संपयमोहाईणं, संनिक्खित्ताणमणुगमो कजो। सोऽणुगमो दुविगप्पो, नेओ निज्जुत्तिसुत्ताणं / / 671 / / ओघादीनां निक्षिप्तानां सतां साम्प्रतमनुगमस्तद्व्याख्यानरूपः कार्य इत्यानुगमस्यावसरः / स च द्विविधः नियुक्त्यनुगमः, सूत्रानुगमश्च / छन्दोऽनुवृत्त्या च कयाचिदित्थं व्यत्ययोपन्यासः। इत्थं च पुनर्द्रष्टव्य:सूत्रानुगमः, निर्युक्त्यनुगमश्चेति। तथा चानुयोगद्वारेऽप्युक्तम्- ''अणुगमे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सुत्ताणुगमे, निज्जुत्तिअणुगमे या निज्जुत्तिअणुगर्म तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे. उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे, सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिअणुगमे य।" इति। विशेष (21) अथ नामनिष्पन्न निक्षेपमभिधित्सुरध्ययनस्य विशेषनाम तन्निक्षेपं चाहसामाइयं ति नाम, विसेसविहियं चउव्विहं तं च। नामाइनिरुत्तीए, सुत्तप्फासे व तं वोच्छं॥८६२॥ प्रस्तुताध्ययनस्य सामायिकमिति विशेषविहितं नाम / तच्च चतुर्विधम् / कथम्? इत्याह- नामादि-नामसामायिकम्, स्थापनासामायिकम, द्रव्यसामायिकम्, भावसामायिक चेति। एतच्चार्थनिरूपणतो वक्ष्येऽहम् / व? इत्याह- निरुक्तौ 'उद्देसे निद्देसे य निग्गमे' इत्याद्युपोद्घातनियुक्तिगतगाथाद्वयपर्यन्ते भवागरिस-फासणनिरुत्ती, इति यद् नियुक्तिद्वारं तत्रार्थतोऽभिधास्य इत्यर्थः। यदि वानिर्युवत्यनुगमभेदरूपायामेव सूत्रस्पर्शिकनियुक्तौ वक्ष्य इति। (22) अत्राक्षेपपरिहारौ प्राहइह जइ कीस निरुत्ते, तत्थ व भणियमिह भण्णए कीस? निक्खेवमित्तमिहइं, तस्स निरुतीऍ वक्खाणं / / 663|| आह-यद्यापीदं चतुर्विध विशेषनाम भणनीयत्वेनावर परप्राप्सम, ता किमुच्यते-निरुवत्यादौ वक्ष्ये? अथ तत्र वक्ष्यते,तहात्र किमर्थमुध्यत? अत्रोत्तरमाह- 'निक्खेवे' त्यादि, इह नामादिनिक्षेपमात्ररयव भणना वसरः, स च नामादिचातुर्विध्यभणनादुक्त एव. निरुवा तु तदर्थी निरूपयिष्यत इत्यदोषः। पुनरप्यन्यथाऽऽक्षिप्य परिहरतितो कीस पुणो सुत्ते,सुत्तालावो तओ न तन्नाम। इह उण नाम नत्थं, तं वक्खायं निरुत्तीए ||664|| हन्त ! यदि निरुक्ता सामायिक व्याख्यारात तर्हि व राभि भदन्तः सामायिकम्' इत्यादि किमिति पुनरपि सूत्रे व्याख्यायत? नेयम्, यत... सूत्रालापक एव तकोऽसौ व्याख्यायते न पुनस्तन्नान व्याख्यानन, इह पुनर्नामादिभेदैः सामायिकनामन्यस्त तच निरुक्ती व्याख्यातम, हॉल विषयविभागात् सर्व सुस्थमिति। पुनः प्रेर्थभुत्थाप्य परिहरति इह पुण कीस न भण्णइ, जं निक्खेवो इमो स निज्जुत्ती। निज्जुत्ती वक्खाणं,निक्खेयो नासमेत्तं तु / / 665|| नन्विहैव निक्षेपद्वारे किमिति न भण्यते-नव्याख्यायते--सामा-विकम. येन निरुक्तौ व्याख्यायते? अत्रोच्यते- यद्यस्मादसौ निक्षेपः प्रस्तुत तत्र च प्रस्तुते व्याख्यानस्य कोऽवसरः? 'स निज्जुत्ति' ति--रापुनर्वक्ष्यमाणा नियुक्तिरुपोद्धातनियुक्ति-द्वाररूपत्वाद् नियुक्तिः / यार, नाम सा नियुक्तिः तथापि तत्र व्याख्यानस्य किमायातम? इत्याह-- 'निज्जुत्तिवक्खाण' ति-नियुक्तिरनुगमभेदत्वाद् व्यार यानात्मिकैट भवति अतो युक्तं तस्यां व्याख्यानम् / निक्षेपोऽपि तर्हि व्याख्यानरूपा भविष्यति, इत्याह-'निक्खेवो नासमेत्तं तु' ति-निक्षेपस्तु नामादिन्यासमा त्रात्मक एव वर्तते,न तु व्याख्यानरूपः,अनुगमस्मैट तद्रूपत्वात् / अतः कोऽत्र निक्षेपे व्याख्यानावसरः ? इति पुनरपि परमतमाशङ्कय प्रतिविधातुमाहनणु निज्जुत्ति अणुगमे, भणिया एसा वि नासनिज्जुत्ती। सच्चमियं निज्जुत्ती, इयं तु निक्खेवमित्तस्स / / 666|| ननु यदि निर्युक्तावेव व्याख्यानमिष्यते भवद्भिः, तहत्रापि बमोटर यदुत-एषाऽपि नियुक्त्यनुगमे न्यासनियुक्तिर्भणिला,अयमपीह प्रस्तुतो निक्षेपो वक्ष्यमाणे नियुक्त्यनुगमे निक्षेपनियुक्तित्वेन भणिष्यत इत्यर्थः। इदमुक्तं भवति-अनुगमो द्विविधो वक्ष्यते, तद्यथा-- सूत्रानुगमः, निर्युक्त्यनुगमश्च / नियुक्त्यनुगमस्थिविधोऽभिधास्यतेनिक्षेपनियुक्त्यनुगमः, उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः, सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमश्चेति / यथा- “से किं तं निक्खेवनिजुत्तिअणुगमे? निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे अणुगए, वक्खमाणे य"। एतदपि वक्ष्यते। तत्रायमर्थः-अत्रैव प्रागावश्यकसामायिकादिपदानां नामस्थापनादिनिक्षेपद्वारेण यद् व्याख्यानं कृतम्, तेन निक्षेपनिर्युक्त्यनुगमोऽनुगतः प्रोक्तो-द्रष्टव्यः, सूत्रालापकानां निक्षेपप्रस्तावे पुनर्वक्ष्यते च। तदेवमेतेनेषोऽपि निक्षेपो निक्षेपनियुक्तित्वेनाऽनुगमे प्ररूप्यमाणेऽभिधा Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 706 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय स्थते। अतः किमुच्यते--'नेह व्याख्यानम् किन्तु-निरुक्तावेव इति? तदेवभतिनिपुः परस्य प्रभवलोक्याऽभ्युपगमपूर्वकभुत्तरमाह- 'सच्च' मित्यादि, सत्यम्' इयमपि प्रस्तुतनिक्षेपलक्षणा नियुक्तिः, किन्त्वियं. निक्षेपमात्रस्र नामस्थापनादिनिक्षेपस्वरूपनिरूपणायव, न विशेषार्थस्यत्यर्थः निरुक्तौ तु "सम्मरिट्ठि अमोहो,सोही सब्भावदसणं याही' इत्यादिना ग्रन्थेन शब्दार्थादि-विचारः करिष्यत इति भावः।। अथला--कि- नेन बहुना प्रोक्तेन? अतिगहनं प्रकरणमिदम्, अतः सर विशेष वेषयविभागतात्पर्यमुच्यते, तथा चाहनिक्खेवे मित्तमिह वा,अत्थवियारो य नासजुत्तीए। सहगओ य निरुत्ते, सुत्तप्फासम्मि सुत्तगओ।।६६७|| अथवा- इह निक्षेपद्वार सामायिकस्य नामादिनिक्षेपमात्रमेवोच्यते तदर्थनिरूपणमासमव च निक्षेपनियुक्तिी निर्दिश्यते। नेरु-क्तस्तु शब्दमविर मोलमतिनिधुक्त्यन्तर्गत नियुक्तिद्वारे-'सम्मदिष्टि / अमोहो' इत्यादिना ग्रन्धन शब्दार्थविचार: करिष्यत इत्यर्थः / सूत्रस्पर्श कुसूत्रत विचार: सूत्रस्पर्शिक-नियुक्तो सूबालापद्वाराऽऽयातस्य सामारिकस्था नविचारः क्रियत, न साभाविकानाम्न इत्यर्थः / एवं विषयविभाग- 154.. सर्व समान समिति : तदेवमभिहितो का निचलाश निक्षा (26, अब सूत्राला पकनिक्षगरमावसरः, तत्राह-- जो सुत्तपयत्रासो, सो सुत्तालावयाण निक्खयो। इह पत्तलक्खणो सो,निक्खिप्पइन पुण किं कज्ज ||668|| मुत्तं येनपावइ, इस सुत्तालावयाण कोऽवसरो? सुत्तागुमने काहिइ, तण्णासं लाघवनिमित्तं / / 666 'करोम भने : सामाइयं त्यादिराजा दाना यो नामरथापनादिरूपेण सास: स मामलापकनिक्षेपः। सो एलक्षण:- प्राप्तावसर एव, न पुननिक्षिप्यते-न पुनः सत्रालापकः, इदानीमन निक्षिप्यत इति भावः / किकार्यकस्मा द्वतो:? इत्याह-सूत्रमेव तावदिदानीं न प्राप्नोति, अतः सत्रालापकान, मिह निक्षेपे कर्तव्ये काऽवसरः? इदमुक्त भवतिसूत्रानुगम एव सूत्रमुच्चारयितव्यम उच्चारितेच सूत्रे तदालापकविभागः नदविभाग च नान्नक्षपः। अतः सूत्राभावात् कः सूत्रालापकानामिह निक्षेपथरसर ? तहि कदा तन्निक्षपा विधयः? इत्याह--सूत्रानुगमे प्राप्त कोरिष्यात लाघवार्थ सूरेस्तन्निक्षपामति / अ र्वापरासंबद्ध समाशसक्य परिहरति.. इह जइ पत्तो यि तओ,न नस्सए कीस भण्णए इहई। दाइजइ सो निक्खे--वमेत्तसामण्णओ नवरं / / 670|| नन्विह प्रामा सशविदितकोऽसा भूनालापकनिक्षपानन्यस्यतेन विधीयते तत्र किम भण्यते-- 'सूत्रालापकनिक्षेपच इत्येव निक्षेपत्तीयभारत्वेन किमर्थमिहोपन्यर यते? अनुगमेऽपि किमिति न प्रयते? इति भावः / सत्यम, किन्त्योघनिष्पन्नादिना निक्षेपेण सह निक्षपमात्रसाम्यात नवरं-केवल दय॑त एवाऽयमत्र, न तूपन्यस्थते, ग्रन्थगौरवमया: / इति। विश०| (24) चतुर्विधस्य सामायिकस्य क्रिया-कारकभेदपर्यायैः शब्दार्थकथनं निर्वचन निरुक्तिः। तत्र सम्यक्त्व सामायिकनिरुक्तिमभिधित्सुराहसम्मतिट्ठि अमोही,सोही सब्भावदंसणं बोही। अविवजओ सुदिट्ठी, एवमाई निरुत्ताई।।२७८४॥ सम्यग् इति-प्रशंसार्थः,दर्शन दृष्टिः, सम्यग-अविपरीता दृष्टिः सम्यग्दृष्टिः अर्थानाम-इति गम्यते। मोहनं मोहो वितथग्राहः, न मोहः अमोहः-अवितथग्राहः / शोधनं शुद्धिर्मिथ्यात्वमलापगमात् सम्यक्त्वं शुद्धिरुच्यते। सत्-जिनाभिहितं प्रवचनम्,तस्य भावः सद्भावः तस्य दर्शनम-उपलम्भः,सद्भावदर्शनम् / बोधन बोधिरित्यौणादिक इन परमार्थबोधः / अतरिंमस्तदध्यवसायो विपर्ययो न विपर्ययोऽविपर्ययस्तत्त्वाध्यवसाय इत्यर्थः / सुशब्दः प्रशंसायाम्, शोभना दृष्टिःसृदृष्टिः / इत्येवमादीनि सम्यग्दर्शनस्य निरुक्ता-नीति। (25) श्रुतसामायिकनिरुक्तिप्रदर्शनायाह.. अक्खर सन्नी सम्म, साईयं खलु सपज्जवसियं च। गमियं अंगपविट्ठ, सत्त वि एए सपडिवक्खा // 2785 / / इयं च पीठ व्याख्यातत्वाद् न विवियते। देशविरतिसामायिकनिरुक्तिमाहविरयाविरई संबुड-मसंबुडे बालपंडिए चेव / देसिक्कदेसविरई, अणुधम्मोऽगारधम्मो य / / 2786 / / विरमणं विरतम्,न विरतिरविरतिः, विरतं चाविरतिश्च यस्यां निवृत्ती सा विरताविरतिः / संवृतासंवृताः-- स्थगितास्थगिताः परित्यक्तापरित्यक्ताः सावद्ययोगा यस्मिन् सामायिके तत संवृताऽसंवृतम् / एवमुभयव्यवहारानुगतत्वाद् बालपण्डितम् / देशः प्राणातिपातादिः,एकदेशस्तु वृक्षच्छेदनादिस्तयोविरमण-विरतिर्यस्या निवृत्ती सादेशैकदेशविरतिः / बृहत्साधुधर्मापेक्षयाऽणुः-अल्पो धर्मोऽणुधर्मा देशविरतिलक्षणः / न गच्छन्तीत्यगा-वृक्षास्तैः कृतमगारं-गृहम, तद्योगादगारो गृहस्थस्तद्धर्मश्चेति। (26) सर्वविरतिसामायिकनिरुक्तिमुपदर्शयन्नाहसामाइयं समइयं, सम्मावाओ समाससंखेवो। अणवजं च परिन्ना, पचक्खाणं च ते अट्ठा / / 2787 / / समो राग-द्वेषरहितत्वाद् मध्यस्थः, अयनमयो गमनमित्यर्थः समस्यायः समायः स एव सायायिकमेकान्तप्रशमगमनमित्यर्थः। सामायिकमिति- 'सम्' इति सम्यक्शब्दार्थ उपसर्गः, सम्यगयः समयः, सम्यग दयापूर्वकं जीवेषु विषये गमन प्रवर्तनमित्यर्थः, समयो ऽस्थास्तीति सामयिकम् / ' सम्मावाउ' त्ति-सम्यगशब्देनेह रागद्वेषविरह उच्यते,तेन तत्प्रधानो वादो वदनं सम्यगवादो रागादिविरहेण यथावद् वदनमित्यर्थः। 'समास' त्ति-संशब्दः प्रशंसा-याम्, असु क्षेपणे, शोभनमसनं संसाराद् बहिर्जीवस्य जीवात् कर्मणो वा क्षेपणं समासः। अथवा-संशब्दः सम्यगर्थः,सम्यगासः समासः। रागद्वे Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 710 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय परहिस्य समस्य वा आसः समासः / 'संखेवो' त्तिसंक्षेपणं संक्षेपः सामायिकमुच्यते, महार्थस्यापि स्तोकाक्षरत्वादस्येति। 'अणवलं' तिअवयं-पापं नास्मिन्नवद्यमस्तीत्यनवा सामायिकम् / 'परिण' त्तिपरितः- समन्ताज्ज्ञानं पापपरित्यागेन परिज्ञा सामायिकम् / 'पचक्खाणं' ति-प्रति हरणीयं वस्तु आख्यानं गुरुसाक्षिकं निवृत्तिकथनं प्रत्याख्यानम् / एतेऽष्टौ सामायिकपर्यायाः। इति नियुक्तिगाथाचतुष्ट-'" यार्थः / विशेष 'सामाहयं समइयं' इत्यादिचारित्रनिरुक्तेस्तु व्याख्यानं साक्षादेवाहराग-द्दोसविरहिओ, समो त्ति अयणं अओत्ति गमणं ति। समयागमो समाओ, स एव सामाइयं होइ॥२७९२॥ सम्ममओ समउत्तिय, सम्मंगमणं ति सवभूएसु। सो जस्स तं समइयं, जम्मि य भेओवयारेण // 2763|| रागाइरहो सम्मं, वयणं वाओऽभिहाणमुत्ति त्ति। रागाइरहियवाओ, सम्मावाओ त्ति सामइयं // 2794|| अप्पक्खरं समासो, अहवाऽऽसोऽसण महासणं सव्वा। सम्मं समस्स वासो,होइ समासो त्ति सामइयं // 2795 // संखिवणं संखेवो, सो जं थोवक्खरं महत्थं च। सामइयं संखेवो,चोद्दसपुव्वत्थपिंडो ति॥२७९५|| पावमवझं सामा-इयं अपावं ति तो तदणवज्जं / पावमणं तिन जम्हा, वञ्जिजइ तेण तदसेसं // 2767|| पावपरिचायत्थं,परितो नाणं मया परिण्ण त्ति। पइवत्थुमिहक्खाणं, पचक्खाणं निवित्ति त्ति।।२७६८|| विशेष रागदोसविरहिओ,समो त्ति अयणं अओ त्तिगमणं ति। समगमणं ति समाओ,स एव सामाइयं नाम // 3377 / / अहवा भवं समाए, निवत्तं तेण तम्मयं वा वि। जं तप्पओयणं वा, तेण व सामाइयं नेयं // 3478|| अहवा समाई सम्म-तें नाण चरणाई तेसु तेहिं वा। अयणं अओ समाओ,स एव सामाइयं नाम॥३४७६।। अहवा समस्स आओ, गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो। अहवा समाणमाओ, नेओ सामाइयं नाम // 3480 / / प्रागपि निरुक्तिद्वारे प्रायश्चर्चितार्थाः,सुगमाश्चेति। अथवा अन्यथा व्युत्पत्तिरित्याहअहवा सामं मित्ति, तत्थ अओ तेण होइ सामाओ। अहवा सामस्साओ, लामो सामाइयं नाम।।३४८१।। सम्ममओवा समओ, सामाइयमुभयविद्धि भावाओ। अहवा सम्मस्साओ,लाभो सामाइयं होइ॥३४५२।। अथवा-सर्वजीवेषु मैत्री-साम भण्यते,तत्र साम्नि अयोगमनम् साम्ना वाऽयो गमनं-वर्तनं सामायः। अथवा-साम्न आयो-लाभः सामायः स एव सामायिक नामेति। अथवा सम्यगर्थसंशब्दपूर्वको-ऽयं धातुः, सम्यग् अयनंवर्तनं समयः, समय एव स्वार्थिक कञ्च-त्ययोपादानादु भयत्र वृद्धिभावाच सामायिकम् / अथवा-सम्यगायो-लाभः समायः, स एव सामायिकम् / अथवा-समस्य भावः साम्यम् साम्यस्यायो निपातनात् सामायः, स एव सामा-यिकमिति। अथवा अन्यथा निरुक्तविधिरुच्यत इत्याहअहवा निरुत्तविहिणा, सामं सम्मं समं च जं तस्स। इकमप्पए पवेसण-मेयं सामाइयं नेयं // 3483|| अथवा-निरुक्तविधिना बहुव्युत्पत्तिकमेतत् सामायिकं ज्ञेयं ज्ञातव्यमिति कथम्? इति / अत्रोच्यते- इकशब्दो देशीयचनः क्वापि प्रवेशार्थे वर्तते / आत्मोपमया परेषां दुःखस्याकरणं सामेह गृह्यते तस्य साम्न इकं यदात्मनि प्रवेशनम् नकारस्यायादेशनिपातनात्, तत् सामायिकम् / तथा सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयस्य परस्परं योजन सम्यगिहोच्यते, निर्वाणसाधकत्वेन तद्योगस्यैव परमार्थतः सम्यग्रूपत्वात्, तस्य सम्यग्दर्शनादिरूपस्य सम्यग्-इत्येतस्यात्मनि यत् इकंप्रवेशनम् यकारादेरयादेशनिपातने सकारस्य च दीर्घत्वे, तत् सामायिकम्।तथा-रागद्वेषमाध्यस्थ्य-मात्मनः सर्वत्र तुल्यरूपेण वर्तन समभुच्यते, तस्य समस्यात्मनि यत् इक-प्रवेशनम्, समशब्दादयागमे सकारस्य दीर्घत्वेतत् सामायिकमिति। विशेष स्थाo|आवाआ०म०| श्रा०। आ०चूला (सामायिकसंयमव्याख्या 'संजम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता) ("सामं सम०" (1030) इत्यादिगाथया सामायिकशब्दस्यकार्थिकानि 'साम' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तानि / ) (कि यन्ति सामायिकानि मनुष्यादयः प्रतिपद्यन्ते इति 'समोसरण' शब्देऽस्मिन्नेवभागेगतम्।) (दमदन्त उदाहरणकथा 'दमदन्त' शब्दे चतुर्थभागे 2456 पृष्ठे गता।) सामायिकशब्दयोजना चैवं द्रष्टव्या- इहाऽत्मन्येव साम्न इकं निरुक्तनिपातनात् [यद् यल्लक्षणेनानुपपन्नं तत् सर्व निपातनात् सिद्धमिति] साम्नो नकारस्याऽऽय आदेशः, ततश्च सामायिकम्,एवं समशब्दस्याऽऽयादेशः समस्य वा आयः समायः स एव सामायिकमिति,एवमन्यत्रापि भावना कार्येति कृतं प्रसङ्गेन। साम्प्रतं सामायिकपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाहसमया सम्मत्त पस-स्थ संति सुविहिअ सुहं अनिंदं च / अदुगुंछिअमगरिहिअं,अणवजमिमेऽवि एगट्ठा।।१०३३।। व्याख्या-निगदसिद्धव। आह-अस्य निरुक्तावेव 'सामाइयं समइय' मित्यादिना पर्यायशब्दाः प्रतिपादिता एव तत् पुनः किमर्थमभिधानमिति? उच्यते-तत्र पर्यायशब्दमात्रता,इह तुवाक्यान्तरेणार्थनिरूपणमिति, एवं प्रतिशब्दमभिदतोऽनन्ता गमा अनन्ताः पर्याया इति चैकस्य सूत्रस्येति ज्ञापितं भवति, अथवा-ऽसम्मोहार्थं तत्रोक्तावप्यभिधानमदुष्टमेव इत्यत एवोक्तम्- 'इमेऽवि एगट्ट' त्ति एतेऽपि तेऽपीत्यदोषः। Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 711 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय (नामनिष्पन्नसामायिकरय चातुर्विध्यम 'णिक्खेव' शब्दे चतुर्थ-भागे 2027 पृष्ठ गतम्) (27) चतुर्विध सामायिकम् णामठवणाओ पुव्वं भणिआओ। दव्वसामाइए वितहेव, जाव से तं भविअसरीरदव्वसामाइए / से किं तं जाणयसरीर... भविअसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए? जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए पत्तेयपोत्थयलिहियं / से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए / से तं णोआगमओ दव्वसामाइए / से तं दध्वसामाइए / से किं तं भावसामाइए? भावसामाइए दुविहे पणत्ते,तंजहा-आगमओ अ; नोआगमओ अ। से किं तं आगमओ भावसामाइए? आगमओ भावसामाइए, जाणए उवउरी 1 से तं आगमओ भावसामाइए / से किं तं नोआगमओ भावसामाइए? नोआगमओ भावसामाइए "जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णिअमे तवे। तस्स सामाइअं होइ,इइ केवलिभासि।।१।। जो समो सव्यभूएसु, तसेसु थावरेसु अ। तस्स सामाइयं होइ,इइ केवलिभासियं // 2 // " (अनु०) से तं नोआगमओ भावसामाइए। से तं भावसामाइए। (सू०-१५४+) 'जरा साम णिओ अप्पा' इत्यादि यस्य सत्त्वस्य सामानिकःसहित आत्म्। सर्वकाल व्यापारात् क्व?-संयमे मूलगुणरूपे, नियमे-- उत्तरगुणसमूहात्मके तपसि-अनशनादौ तस्येत्थंभूतस्य सामायिक भवतीत्येत क्वलिभाषितमिति श्लाकार्थः। जो समो' इत्यादि,यः समः सर्वत्र मंत्री भावातुल्यः सर्वभूतेषु- सदजीवेषु बसेषु स्थावरेषु च तस्य सामायिक / वतीत्य तदपि कपलिभाषिम्, जीवेषु च समत्वं स्यमसान्निध्यप्रतिपादनापूर्वश्लोकपिलभ्यते, किंतु जीवदयामूलत्वासस्थित प्राधान्य पनायगृथगुपादानमिति। (अनु०) इह च ज्ञानकिवारूप सानाविकाध्ययनं नोमतो भावसामायिकं भवत्येव, ज्ञानक्रियासमुदाय आगमस्यकदेशवृतित्वात नोशब्दस्य च देशवचनन्वाद्, एवं च सति सामायिकवतः साधोरपीह नोआगमतो भावसामायिकत्वेनापन्यासो न विरुध्यत, सामायिकतद्वतीरभेदोपचारादिति भावः। नामनिष्पन्ना निक्षेपः रामाप्तः। (28) एप्दाहरणानि। सामायिक तावत्"इहास्ति भरतक्षेत्र, नगरं हस्तिशीर्षकम् / सुवृतरङ्ग मुदत्ताध, हस्तिशीर्षविवोन्नतम् / / 1 / / दमदन्तः प्रभूस्तत्र,धरित्रीधदपुङ्गवः! सौन्दयोग शोर्यात विषमायुधदपहृत् // 2 // इतः पुरंगजपुर यद् दृष्ट्वा मन्यते जनः / साक्षात्तु स्वर्ग एवाय, वार्डवान्याभिधायिनी / / 2 / / राज्य युधिष्ठिरस्तत्र, विधत्ते शकवविवि। चतुर्भिबान्ध्यलोक पालैरिव पुरस्कृतः / / 4 / / विषया इव जीवस्य दमन्तस्य तेऽरयः। सोऽन्यदागारागृह.जरासंधस्य सन्निधौ ||5|| पाण्डवास्तेऽथतद्देशं मुमुषुः पुयुषुस्तथा। राजनीतिरियं राज्ञां, बलवत्सु छलं बलम्॥६॥ तदाकर्ण्य ससरम्भः,सौघेण महाबलः। दमदन्तः क्षताराति-दन्तिदन्तः समागमत् // 7 // ' आ०क० १अ०। आ०चू०। (शेषा कथा 'समइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) पुनः सामायिकस्यैव स्वरूपनिरूपणायाहसमभावो सामाइयं, तणकंचणसत्तुमित्तविसउत्ति। णिरभिस्संगं चित्तं, उचियपवित्तिप्पहाणं च / / 5 / / समभावो मध्यस्थाध्यवसायः / सामायिकमुक्तनिर्वचनं भवति / किंविषयोऽसौ समभाव इत्याह-तृणकाञ्चने प्रतीते हेयोपादेयेऽजीवरूपे तदन्य हे योपादेयाचेतनवस्तूपलक्षणभूते / शत्रुमित्रे च प्रतीत एवाप्रीतिप्रीतिनिबन्धने सचेतने तदन्यैवभूतवस्तूपलक्षणभूते; विषयो गोचरो यस्यासौ तृणकाञ्चनशत्रुमित्रविषयः / इतिर्वा-क्यार्थसमाप्ती / किमुक्तं भवति? निरभिष्वङ्ग-रागद्वेषलक्षणा–भिष्वङ्गवर्जितं चित्तं मनः सामायिक भवतीति प्रकृतम् / एवंविध-मेव चित्तं सामायिकमिति मन्यमाना बाह्यप्रवृत्तिमकिञ्चित्करी केचित्कल्पयन्ति, अतस्तच्छिक्षगार्थमाह.. उचितप्रवृत्तिप्रधानं सच्चेष्टासारम्,निरभिष्वले हि चित्ते सति नाय उचितव प्रवृत्तिर्जायते,साभिष्वङ्गचित्तकार्यत्वाद्भावतोऽनुचितप्रवृत्तेः / इदं चोक्तम-नेन वीतरागाणां परोपकारप्रवृत्तिर्न समभाव सामायिक बाधते' इति / चशब्दः समुच्चयार्थः / इति गाथार्थः / / 5 / / पञ्चा० 11 विव० (26) द्विविधं सामयिकम्सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-इत्तरिए य, आवकहिए य / (सू०१४७४) सामायिक पूर्वोक्तशब्दार्थतच्च इत्वर यावत्कथिक च / तत्रे--त्वरम्-- भाविव्यपदेशान्तरत्वात् स्वल्पकालम्,तच्चाद्यचरमतीर्थ-करकालयोरेव यावदद्यापि महाव्रतानि नारोप्यन्ते तावच्छिष्यस्य संभवति.आत्मनः कथां यावदास्ते तद् यावत्कथं-यावज्जीव-मित्यर्थः,यावत्कथमेव यावत्कथिकम् / एतच्च भरतैरावतेष्वाद्य-चरमवर्जमध्यमतीर्थकरसाधूना महाविदेहतीर्थकरयतीनां च संभवति। अनु०॥ पं०चूला तेषामुपस्थापनाया अभावत्। पञ्चा०११ विव०॥ द्विविध सामायिकम्दुविहे सामाइए,पण्णत्ते, तं जहा-अगारसामाइए चेव, अणगारसामाइए चेव। (सू०८४४) 'दुविहे' त्यादि समानां-ज्ञानादीनामयो-लाभः समायः स एव सामायिकमिति तद् द्विविधम्-- अगारवदनगारस्वामिभेदाद देशसर्वविरतीत्यर्थः / स्था०२ ठा०३ उ०। (30) सामयिकस्योद्देशादीनि द्वाराणि वक्तव्यानि तत्रोपोद्धात दर्शनायाहउद्देसे १निद्देसे 2, निग्गम 3 खित्ते य 4 काल 5 पुरिसे ६अ। Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 712 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय कारण 7 पच्चय लक्खण 6, नए 10 समोआरणा 11 ऽणुमए 12 // 40 // किं 13 कइविहँ 15 कस्स 15 कहिं, 16, केसु 17 कहं 18 केच्चिरं 19 हवइ कालं। कइ 20 संतर २१मविरहि 22, भवा२३ऽऽगरिस२४फासण२५निरुत्ती२६ // 141 / / उद्देशो वक्तव्य; एवं सर्वेषु क्रिया योज्या / उद्देशनमुद्देशः- सामान्याभिधानमध्ययनमिति 1 / निर्देशनं निर्देशः विशेषाभिधानं सामायिकमिति 2 // तथा निर्गमनं निर्गमः 3 / कुतोऽस्य निर्गमनमिति वाच्यम्, क्षेत्रं वक्तव्यम् कस्मिन् क्षेत्रे? 4 / कालो वक्तव्यः कस्मिन् काले ?5 / पुरुषश्च वक्तव्यः कुतः पुरुषात् ? 6 / कारणं वक्तव्यं किं कारणं गौतमादयः शृण्वन्ति ? 7 / तथा प्रत्याययतीति प्रत्ययः स च वक्तव्यः, केन प्रत्ययेन भगवतदमुपदिष्टम् ? को वा गणधाराणां श्रवण इति / तथा लक्षणं वक्तव्यं श्रद्धानादि / तथा नया-नैगमादयः 10 / तथा तेषामेव समवतरणं वक्तव्यं यत्र संभवति, वक्ष्यति च'मूढणइयं सुयं कालियंतु' इत्यादि 11 / अनुमतम् इतिकस्यव्यवहारादेः किमनुमतं-सामायिकमिति, वक्ष्यति-'तवसंजमो अणुमओ' इत्यादि 12 / कि समायिकम्? 'जीवो गुणपडिवण्णो' इत्यादि वक्ष्यति 13 / कतिविधं सामायिकम्? 'सामाइयं च तिविहं, सम्पत्तसुयं तहा चरित च' इत्यादि प्रतिपादयिष्यते 14 / कस्य सामायिकमिति, वक्ष्यति'जस्स सामाणिओ अप्पा' इत्यादि 151 व सामायिकम्, क्षेत्रादाविति,वक्ष्यति'खेत्तकालदिसिगतिमविय' इत्यादि 16 / केषु सामायिकमिति,सर्वद्रव्येषु वक्ष्यति-'सव्वगतं सम्मत्त सुए चरित्तण पज्जवा सव्वे' इत्यादि 17 / कथमवाप्यते? वक्ष्यति-'माणुस्सखित्तजाइ' इत्यादि 18 कियचिरं भवति? कालमिति, वक्ष्यति- 'सम्मतस्स सुयस्स य, छायट्ठी सागरोवमाइ ठिती' इत्यादि 16 कति इति कियन्तः प्रतिद्यन्ते? पूर्वप्रतिपन्ना वेति वक्तव्यम्, वक्ष्यति च- 'सम्मत्तदेसविरया,पलियस्स असंखभाग--मित्ता, उ इत्यादि २०१सान्तरम् इति सह अन्तरेण वर्तत इति सान्तरम् किं सान्तरं, निरन्तरं वा? यदि सान्तरं किमन्तरं भवति? वक्ष्यति-- 'कालमणतं च सुते, अद्धापरियट्टगोय देसूणो।' इत्यादि 21 / अविरहितम् इति अविरहितं कियन्तं काल प्रतिपद्यन्त इति, वक्ष्यति'सुतसम्मअगारीणं, आवलिया संखभाग' इत्यादि 22 तथा भवाइति कियतो भवानुत्कृष्टतः खल्ववाप्यन्ते 'सम्मत्तदेसविरता, पलियस्स असंखभागमित्ता उ। अट्ट भवा उचरित्ते' इत्यादि 23 / आकर्षणमाकर्षः, एकानेकभवेषु ग्रहणानीति भावार्थः 'तिण्ह सहस्सपुहुत्तं, सयपुहुत्तं च होति विरईए। एगभवे आगरिसा' इत्यादि, 24 / स्पर्शना वक्तव्या, कियत्क्षेत्रं सामायिकवन्तः स्पृशन्तीति, वक्ष्यति- 'सम्मत्तचरणसहिआ,सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं। इत्यादि 25 / निश्चिता उक्तिनिरुक्तिर्वक्तव्या- 'सम्मद्दिट्ठि अमोहो, सोही सम्भावदसणे बोही।' इत्यादि,वक्ष्यति 26 / अयं तावगाथादयसमुदायार्थः / अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं प्रपञ्चेन वक्ष्यामः। अत्र कश्चिदाह- पूर्वमध्ययनं सामायिक तस्यानुत्तोद्वारचतुष्टयमुपन्यस्तम्, अतस्तदुपन्यास एव उद्देशनिर्देशाधुक्तौ, तथौघनामनिष्पन्ननिक्षेपद्वयेच,अतः पुनरनयोरभिधानमयुक्तमिति ।अत्रोच्यते- तत्र हि अत्र द्वारद्रयोक्तयोरनागतग्रहणं द्रष्टव्यम्, अन्यथा तद्ग्रहणमन्तरेण द्वारोपन्यासादय एवन स्युः। अथवाद्वारोपन्यासादि-विहितयोस्तत्राभिधानमात्रमिह त्वर्थानुगमद्वाराधिकारे विधानतो लक्षणतश्च व्याख्या क्रियत इति / आह-यद्येवं निर्गमो न वक्तव्यः, तस्यागमद्वार एवाभिहितत्वात्, तथा च 'आत्मागम' इत्याधुक्तम्, ततश्च तीर्थकरगणधरेभ्य एव निर्गतमिति गम्यते इति। उच्यतेसत्यं कि तु इह तीर्थकरगणधराणामेव निर्गमोऽभिधीयते, कोऽसौ तीर्थकरो गणधराश्चेति वक्ष्यते-वर्धमानो गाँतमादयश्चेति। यथा च तेभ्यो निर्गतं तथा क्षेत्रकालपुरुषकारणप्रत्यक्षविशिष्टमित्यतोऽदोष इति। आहयद्येव लक्षणं न वक्तव्यम् उपक्रम एव नामद्वारे क्षायोपशमिकभावेऽनतारितत्वात्,प्रमाणद्वारे च जीवगुणप्रमाणे आगमे इति। उच्यते-तत्र निर्देशनात्रत्वात्, इह तु प्रपञ्चतोऽभिधानाददोषः / अथवा-तत्र श्रुतसामायिकस्यैवोक्तम्, इह तु चतुर्णामपि लक्षणाभिधानाददोषः। आह-नयाः प्रमाणद्वार एवोक्ताःकिमिहोच्यन्ते? स्वस्थाने च मूलद्वारे वक्ष्यमाणा एवेति। उच्यते-प्रमाणद्वारोक्ताएवेह व्याख्यायन्ते। अथवाप्रमाणद्वाराधिकारात्तत्र प्रमाणभावमात्रमुक्तम् इह तु स्वरूपावधारणमवतारो वाऽऽरभ्यते,एते च सर्व एव सामायिकसमुदायाथमात्रविषयाः प्रमाणोक्ता उपोद्घातोक्ताश्च नयाःसूत्रविनियोगिनः मूलद्वारोपंन्यस्तनयास्तु सूत्रव्याख्योपयोगिनएवेति। आह-प्रमाणद्वारे जीवगुणः सामायिकं ज्ञानं चेति प्रतिपादितमेव, ततश्च किं सामा-यिकमित्याशङ्कानुपपत्तिः / उच्यते-जीवगुणत्वे ज्ञानत्ये च सत्यपि किं तज्जीव एव आहोस्विद् जीवादन्यदिति संशयः तदुच्छित्यर्थमुपन्यासाददोषः। आहनामदारे क्षायोपशमिकं सामायिकमुक्तं तत्तदावरणक्षयोपशमालभ्यत इति गम्यत एव,अतः कथं लभ्यत इत्यतिरिच्यते, न, क्षयोपशमलाभस्यैवेह शेषाङ्गलाभचिन्तनदिति। एवं यदुपक्रमनिक्षेपद्वारद्वयाभिहितमपि पुनः प्रतिपादयति अनुगमद्वारावसरे तदशेष,निर्दिष्टनिक्षिप्तप्रपञ्चव्याख्यानार्थमिति / आह-उपक्रमःप्रायः शास्त्रसमुत्थानार्थ उक्तः, अयमप्युपोद्धातः शास्त्रसमुद्धातप्रयोजन एवेति कोऽनयोर्भेदः? उच्यतेउपक्रमा घुद्देशमात्रनियतः,तदुद्दिष्टवस्तुप्रबाधनफलस्तुप्रायणोपोद्धातः अनुगमत्यात् इत्यलं विस्तरेण प्रकृतमुच्यते। तत्रोद्देशद्वारावयवार्थप्रतिपादनायेदमाहनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले समासे उद्देसे। उद्देसुद्देसम्मि अ, भावम्मि अहोइ अट्ठमओ // 142 // तत्र नामोद्देशः-यस्य जीवादेरुद्देश इति नाम क्रियते, नाम्नो वा उद्देशः नामोद्देशः / स्थापनोद्देशः-स्थापनाभिधानम्।उद्देशन्यासोवा, द्रव्ये इति द्रव्यविषय उद्देशो द्रव्योद्देशः, सच आगमनोआगम ज्ञशरीरेतरव्यतिरिक्तः द्रव्यस्यद्रव्येण द्रव्येवाउद्देशोद्रव्योद्देशः, द्रव्यस्य-द्रव्यमिदमिति, द्रव्येण Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 713 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय द्रव्यपतिरयमिति, द्रव्ये-सिंहासने राजा,चूते कोलिलः, गिरौ मयूर इति / एवं क्षेत्रविषयोद्देशोऽपि वक्तव्यः, एवं कालविषयोऽपीति / 'समासःसंक्षेपस्तद्विषय उद्देशः समासोद्देशः, स च अङ्ग श्रुत-स्कन्धाध्ययनेषु द्रष्टव्यः / तत्र अङ्गसमासोद्देशः- अङ्गम्, अङ्गी तदध्येता तदर्थज्ञ इत्येवमन्यत्रापि योजना कार्या। उद्देश:-अध्य-यनविशेषः तस्य उद्देश उद्देशोद्देशः,तद्विषयश्च उद्देश इति, सचोटे-शोद्देशोऽभिधीयते-उद्देशवान् तदध्येता तदर्थज्ञो वेति / भावविष-यश्च भवति उद्देशः अष्टमक इति,स चाय--भावः भावी भावज्ञो वेति गाथार्थः / आव० १अ०॥ (31) उद्देशादीनि द्वाराणि। अथ प्रेरकः प्राहदारोवन्नासाइसु, निक्खेवे ओहनाम निप्फन्ने। उद्देसो निद्देसो, भणिओ इह किं पुणग्गहणं / / 976|| आह-नन्वसावावश्यकशास्त्रस्य प्रथममध्ययनं सामायिकम्, तस्य च चत्वार्यनुयोगद्वाराणि, इत्यादिना द्वारोपन्यासादिषु प्रक्रमेषु / यदि वाओघनिष्पन्ननामनिष्पनयो निक्षेपयोः सामान्यनामरूप उद्देशः, विशेषनामरूपश्च निर्देशोऽनेकशः-प्रोक्त एव; किमर्थमिहोपोद्धातनिर्युक्तौ पुनरपि तयोर्ग्रहणम्? इति। अत्रोत्तरमाहइह विहियाणमसागय-गहणं तत्थनहा कहं कुणउ। तेसिंगहणमकाउं, दारनासाइकज्जाइं॥९७७।। इहोपोद्धाते आद्यद्वारद्वयविहितयोरेवोद्देश-निर्देशयोस्तत्र द्वारोपन्यासादौ शास्त्रकृताऽनागतमेव ग्रहणं कृतम्, अन्यथा हि तयोः सामान्यविशेषनामरूपयोरुद्देशनिर्देशयोस्तत्र ग्रहणमकृत्वा कथं निराश्रयाणि द्वारोपन्यासादिकार्याणि करोतु? इति। प्रतिविधानान्तरमाहअहवा तत्थुडेसो, निहेसो विय कओ इह तेसिं। अत्थाऽणुगमावसरे,विहाणवक्खाणमारद्धं ||17|| अथवा-तत्र द्वारोपन्यासादौ सामान्यविशेषाभिधानरूप उद्देशो, / निर्देशश्च कृतं इत्युपगमच्छामः केवलमिहार्थानुगमावसरेऽर्थव्याख्याप्रस्तावे तयोः पूर्वविहितयोरुद्देशनिर्देशयोर्विधानतोभेदतो व्याख्यानमारब्धमित्यदोष इति / अन्ये तु ब्रुवते। किम्? इत्याहअने उ विसेसमिहं, भणंति नोइसबद्धमेयं ति। जाणावियमायणं, समासदारावयारेणं // 976|| अन्ये तु पूर्वविहितयोरपीह विशेषमाचक्षते नोद्देशकबद्धमिदमध्ययनमित्येतज्ज्ञापितं किल / कुतः ? अङ्ग श्रुतस्कन्धाध्ययन-- समासद्वारावतारात्। इदमत्र हृदयम्- "नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले समासे उद्देसे। उद्देसुद्देसम्मि य, भावम्मि य होइ अट्ठमओ।।१॥" इति पुरस्तादिहैव वक्ष्यमाणगाथायामुद्देशोऽष्टविधोऽभि-धास्यते, तथा एमेव य निद्देसो' इत्यादिगाथायां निर्देशोऽपि चाष्टविधो वक्ष्य, ते / तत्र च समासद्वारे संक्षेपाभिधायकं नाम समासोद्देश इति व्याख्यास्यते,तद्यथा-- अङ्गम, श्रुतस्कन्धः अध्ययनम्, उद्देश इत्यादि।तत्रेदंसामायिकाध्ययनं किलाध्ययनोददेशो भवति,न तूद्देशोद्देशः, उद्दशरहितत्वात्। एतच तत्र व्याख्यास्यते / तदत्रोद्देशनिर्देशयोरष्टविधत्वमणनेन षष्ठ समासद्वार--- मायातम् / अनेन चसमासद्वारेण विचार्यमाणेदमध्ययनमुद्देशरहितमिति ज्ञापितम् / एतच्चेहोद्देशनिशाभणनेन निर्मूलस्य समासद्वारस्यैवाऽऽभावात् किल न ज्ञायतेति। एतच्च यत्किञ्चिदेव,इति दर्शयतिअंगाइपण्हकाले, कालिय सुयमाणसमवयारे य। तमणुद्देसयबद्धं भणियं चिय इह किमब्भहियं?||१०|| आवश्यकं किमङ्गम्, अङ्गानि? इत्यादि, प्रश्रकाल एव कालिकश्रुतपरिमाणसंख्यावतारे चाध्ययनसंख्यावतारात्, नोद्देशकः नोद्देशकाः इति निषेधाच्च तत् सामायिकाध्ययनमुद्देशकबद्धं न भवतीति भणितमेव, इह किमभ्यधिकमज्ञातं ज्ञायते? तस्माद्यत्किञ्चिदेवेदम्। अत एतयोरिह भणनं व्याख्यानार्थमेवेति स्थितम् / तदेवं कृतोद्देशनिर्देशविषया चालना, प्रत्यवस्थानं च // अथ निर्गमनं निर्गमः / स च कुतः सामायिकम् निर्गतम्? इत्येवंरूपो वक्ष्यते। (32) अत्राक्षेपपरिहारौ प्राहनणु निग्गमो गउ चिय,अत्ताणंतरपंरपरागमओ। तित्थयराईहिंतो, आगयमेयं परंपरया // 18111 ननु पूर्वमार्गमद्वार एवात्माऽनन्तरपंरपरागमतस्तीर्थकरादिभ्यः परम्परया समागतमेतत् सामायिकमित्यभिधानात् तीर्थकरादिभ्यो निर्गमनमस्य, इत्यवगतत्वाद् गतार्थ एव निर्गमः, किं पुनरिहोपात्तः? इति। परिहारमाहइह तेसिं चिय मण्णइ,निद्देसो निग्गमो जहा तं च / उवयातं तेहिंतो,खेत्ताइविसेसियं बहुहा।।१२|| तेषामेव तीर्थकरीदानां सामान्यो देशमात्रेण प्रागवगतानामिह विशेषाभिधानरूपो निर्देशो भण्यते, यथा श्रीमन्महावीरतीर्थकरादेतत् सामायिकमर्थतो निर्गतम्, सूत्रतस्तुगौतमादिगणधरेभ्यो निर्गतम्, तथा निर्गमश्वेह मिथ्यात्वादिरत्यादितमसस्तेषां तीर्थकरादीनामत्रोच्यते 'अवरविदेहे गामस्स चिंतओ' इत्यादिना ग्रन्थेना तथा, तच्च सामायिकं बहुधा-अनेकशः क्षेत्रकालपुरुष-कारणप्रत्ययविशेषितं तेभ्यस्तीर्थकरादिभ्यो यथोपयातमागतम्, तच्चेह भण्यत इति विशेषः। अथ लक्षणद्वारविषयमाक्षेपमाह-- अज्झयणलक्खणं नणु,खओवसमियं गुणप्पमाणे वा। नाणागमाइगहणे, भणियं किमिहं पुणो गहणं / / 183|| लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणम्, तच्च-'सद्दहण जाणणा खलु' इत्यादिना सामायिकस्य सावद्ययोगविरत्यादिकं वक्ष्यति। अत्र परः प्रेरयति-नन्वध्ययनस्याऽस्य क्षायोपशमिको भावो लक्षणम्, इति प्रागुपक्रमभेदरूपे षड्नाम्नि क्षायोपशमिके भावे समवतारादर्थापत्त्या भणितमेव। अथवा Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 714 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय गुगप्रमाण ज्ञानमिदम्, तत्राध्यागमः इत्याद्यभिधानादिदं क्षायोपशामकभावरूप लक्षामापत्याऽभिहितमेव? आगमस्य क्षायोपशमिकभावलक्षणत्वात् किमिहानुगर्भ लक्षणस्य पुनर्गहणा? इति। परिहारमाह - निद्देसमेत्तमुत्तं, वक्खाणिज्जइ सवित्थरं तमिह। अहवा सुयस्य भणियं, लक्खणमिह तं चउण्हं पि।।८४|| निर्देशमात्रमेय लक्षणस्य प्रामुक्तम्- निदिन पूर्व लाम. तु / तथाति व्याख्या व्याख्यातभित्यर्थः / इह अनुगगे काव्यान-- प्रस्तावात सविस्तरं तदव्याख्यायत न रक्षारोपणको भानः श्रुतसामायिकस्यैव पूर्वलक्षणमुपपद्यते इह तुमानानदेशावित... | सर्दविरतिरूपं चतुतगिपि सम्यकदश्रुनादेशचारित्रसर्वचारित्रसा, पियानो लक्षणमुच्यत इति विशेषः / अथ नयद्वारे आक्षेपमा.. भणिया नयप्पमाणे,भण्णंतीहं नया पुणो कीस? मूलद्दार य पुणो, एएसिं को णु विणिओगो / / 15 / / नन् पूर्वन्यप्रमाणे भणिता एव नयाः, किमिहोणेहाते पुनरपि भण्याते. तथा वक्ष्यमाणे चतुर्थे जयलक्षणे मूलानुयागद्वारे भविष्यन्ते / तदमीयां | पूर्वमने कशी भणितान पुनर्भाने का विनियोगः किं फलम् ? | किश्चिदित्यर्थः। अत्र परिहारमाहजे चिय नयप्पमाणे, ते चिय इहई सवित्थरा भणिया: ज तमुवक्कममेतं, वक्खाणमिणं अणुगमो त्ति 11876 / / य एवं प्राक प्रमाणद्वारे संक्षेपमात्रेण नया उक्ताः , त एवंह सविस्तर भणिताः,अन भाणेष्यन्त इति भावः / कृतः? यतस्तदध्ययनापक्रनणरूपभुपक्रममात्रम्, एतत् रवीनुगम इति करना नया- नया सर्वऽपि चेत नय-प्रमाणोक्ता उपाद्धातनियुक्तिद्धारोप्ताश्च न्याः सामायिकसमुदायार्थमात्र व्यात्रियन्ते, न तु सत्राथविनियोगिनः ! वक्ष्यमाणास्तु मूलदारनयाः प्रतिपद सूत्रार्थविषयः इति विशेष इति / अथ किंद्वारे आक्षेपपरिहारी प्राSSEजीवगुणो नाणं ति य, भणिए इह किं ति का पुणो संका ! तंथिब किं जीवाओ, अण्णमणन्नं ति संदेहो // 986|| मनु प्रमाद्वारभदे गुणप्रमाणे सामायिक जीवगुणः नत्र पिज्ञानम्. याधुक्ते च के समायिकम्? इति का शङ्का येन किंधारमुच्यते? इत्याह- "तं थिये" त्यादि, तदेव सामायिकं कि जीवादगन, अनन्यद गा? इति संदेहः, तदपनोदार्थमिह किंद्वारोपन्यास इति! अथ कथं द्वारविषयानापेक्षप- परिहारौ प्राइ-- भणिए खओवसमियं-ति किं पुणो लब्भए कहं तं ति। इस सो चिय चिंतिज्जइ,किह लभए सो खओवसमो!1880|| मनु नामद्वार क्षायोपशमिक सामायिकम्- इन्युक्ते तदाराग-- क्षयोपशभात तल्लभ्यते' इत्यादुक्तमेव भवति। अतः कथ तल्लभ्यत?' इत्यर्थप्रतिपादक किमितीह पुनराप कथं द्वारमुच्यते? अनोत्तरमाहइह कचमिति द्वारे स एव क्षयोपशपिच त्यते / प्रथम्? इत्याह--कथ लभ्यते स क्षयोपशमः? इत्येष विशेषः / अथ द्वारबाहुल्याद् ग्रन्थविस्तरमवलोक्य संक्षिपनाहकिं बहुणा जमुवक्कम-निक्खेवेसु भणियं पुणो भणई। अत्थाणुगमावसरे,तं वक्खाणाहिगारत्थं / / 661|| किंबहुना? सर्नेष्वायतेषुपोद्धातद्वारेषु यदुपक्रम- निक्षेपयामितमणि पनर याचार्यो भणति, तदिहानुगमावसरे पूर्योपक्रातिनिक्षिप्तवस्तुव्याख्यानाविकाराथेम, इत्येव भावनीयमिति / तदेयपुपोद्घातोक्तेष्वेतेषूद्देशादिद्वारेषु प्रत्येक विशेष नश्वालनाप्रत्यवस्थाने अभिधाय, इदानीं सामान्येन सर्वस्याऽप्युदधालस्य चालनामाहसत्थसमुत्थाणत्थो, पायेणोवक्कमो तहाऽयं पि। सत्थस्सोवग्घाओ, को एएसिं पइविसेसो 62 // आह-ननु उपक्रमोऽपि प्रायः शास्त्रसमुत्थानार्थमेव, तानुपूादिभिररुपक्रम्य शास्त्रं नामादिन्यासव्याख्यानयोग्यतामानीपत इत्यर्थः, तथाऽयमप्युपोदयातः शास्त्रस्योद्देशनिर्देशनिर्गम दिभिरि - रुत्थानमुपवर्ण्य व्याख्यानयोग्यतामुपकल्पयति, इति कोऽनयोर्विशेष:? न कश्चित् / तत एतयोर्द्वयारन्यतर एव वाच्य इत्यभिप्राय इति / प्रत्यवस्थानमाह-. उद्देसमेत्तनियओ,उवक्कमोऽयं तु तस्विबोहत्थं। पाएणोवग्घाओ,नणु भणिओऽयं जओऽणुगमो ||663|| उद्देशमात्रनियत एवापक्रमः -नामस्थापनाद्रव्यादिभिः, जानुपूर्व्यादिभिश्व भरपक्रमः शास्त्रमुद्विशत्येव न तु व्याख्यानयतीत्यर्थः / अय पुनरुपोदधातः प्रायेण तस्य शास्त्रस्य विबोधार्थोव्याख्यानार्थ: / कुत इदं ज्ञायते? इत्याह ननुयस्मादय प्रस्तुतोऽनुगमो भणितः, उपोद्घातश्चानुगम परिहारारारनाहअहवा तत्थ पमाण, इहं सदावहारण तेसिं। तत्तो वकता वा, इह तदणुमयावयारोऽयं // 987 / वा--प्रमा पहाराधिकारात्प्रमीयले हारत्यभिरिति प्रभार पावभात्र। ना तत्राभिहितार : इह तु--माद्धातनिर्युक्त्यनुगमे तथा सरूपयाख्यानम् / अथक्षा-सापकान्ताः इह त्वयं तदनगमतावतारश्चिन्त्यते। इदमुक्त भवति-- प्रागपक्रमाधिकारादधायन नयरुपक्रम्यते इह तु कस्य रहम्द के सामायिकभनुमतम् इति चिन्स्यते,तथा च वक्ष्यति-- "तव संजना अणुमओ.निल पवयण च ववहारो। सददुज्जुस्याण पुष, निवाण संजमो चेव // 1 // " तेषा च नयानामिह समवतरण समवतारो पत्र सभवति तत्र दर्शनीयः, यद् वक्ष्यते- 'मूढनइय सुयं कालियं तुम नया समायरति इम' इत्यादीति। (33) मूलधारनयः सहामीषां भेदभार - सामाइयसमुदाय-त्थमेत्तवावारतप्परा एए। मूलद्दारनया पुण,सुत्तप्फासोवओगपरा॥९८८|| Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 715 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय भेद एव, अनुगमस्यच व्याख्यानरूपत्वात् सिद्धमुपोद्घातस्य व्याख्यानार्थत्वमिति। परिहारान्तरमाहनासस्स व संबंधण-मुवक्कमोऽयं तु सुत्तवक्खाए। संबंधोवग्धाओ, भण्णइ जं सा तदंतम्मि||६|| अथवा-न्यासस्याऽध्ययनसंबन्धिनो नामादिनिक्षेपस्य संबन्धनं तद्योग्यताऽऽपादनमुपक्रम उच्यते, तदन्ते तत्प्रतिपादनात् / अयं तूपोद्धातः सूत्रव्याख्यायाः सबन्धस्तद्योग्यताव्यवस्थापनरूपः यद्'यस्मात् तदन्ते-उपोद्धातान्ते सैव सूत्रव्याख्या भण्यते; इत्युपक्रमोपोद्वातयोर्विशेषः / तदेवमभिहितं संक्षेपेणोपोद्धातनियुक्तेिर्भावार्थमात्रम्। विशेष अथ विस्तरार्थमभिधित्सुर्भाष्कार उद्देशनिर्देशविषयमाक्षेपं चेतस्याशक्य परिहारं तावदाहउद्देठं निहिस्सइ, पाय सामन्नओ विसेसो त्ति। उद्देसो तो पढम, निद्देसोऽणंतरं तस्स / / 1486|| ननु कस्मात् प्रथममुद्देशस्ततो निर्देशः? इत्याशङ्कय परिहरति'उद्देछ' मित्यादि, सामान्येन हि पूर्व वस्तूद्दिश्य ततः पश्चाद् विशेषतो निर्दिश्यते; इति शास्त्रे लोके च स्थितिः। तथा–ज्ञानमपि प्रायः प्रथम वस्तुनः सामान्याकारग्राहकमुत्पद्यते,ततो विशेषाकारणाहकम्। ततः-- तस्मात् कारणाद् वस्तुनः सामान्याभिधानलक्षणः प्रथममुद्देशः ततस्तस्यैव विशेषाभिधानरूपो निर्देश इति गाथार्थः / विशे०। . (35) एतानि द्वाराणि क्रमशो व्याख्यानयामि तत्रानुमतद्वारम्। कस्य जीवस्य किं सामायिकम् / साम्प्रतं 'कस्य सामायिकं भवति?' इति द्वारे प्रस्तुते यस्य तद् भवति तदभिधित्सया प्राहजस्स सामाणिओ अप्पा,संजमे नियमे तवे। तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // 2676 / / जो समो सव्वभूएसु, तसेसुं थावरेसु य / तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासियं // 2680 / / यस्य सामायिकः निसंनिहितोऽप्रोषित इत्यर्थः, आत्मा जीवः। क्व? संयमे-मूलगुणरूपे, नियम उत्तरगुणात्मके, तपसि-अनशनादिलक्षणे। तस्यैवंभूतस्याप्रमादिनः सामायिकं भवतीत्येवं केवलिभिर्भाषितमिति / तथा, यः समो मध्यस्थ आत्मानमिव परं पश्यतीत्यर्थः, सर्वभूतेषु सर्वप्राणिषुत्रसेषु-दीन्द्रियादिषु, स्थावरेषु च पृथिव्यादिषुतस्य सामायिक भवतीत्येतच्च केवलिभिर्भाषितमिति। साम्प्रतं फलप्रदर्शनद्वारेणास्य करणविधानं प्रतिपादयन्नाहसावजजोगं परिरक्खणट्ठा, सामाइयं केवलियं पसत्थं / गिहत्थधम्मा परमं ति नचा, . कुज्जा बुहो आयहियं परत्था॥२६८१॥ सावद्ययोगपरिरक्षणार्थं सामायिकं केवलिक-परिपूर्ण -प्रशस्तंपवित्रम्, एतदेव हि गृहस्थधर्मात् परमं-प्रधान ज्येष्ठम्,इत्येवं ज्ञात्वा कुर्यात् बुधो-विद्वानात्महितम्-आत्मोपकारकम इहलोके,परत्र च / अथवा-परो मोक्षस्तदर्थं कुर्याद्, नतु सुरलोकाद्यर्थम्। इति नियुक्तिरूपकत्रयार्थः। अथ भाष्यगाथाकेवलियं पडिपुग्नं, परमं जेटुं गिहत्थधम्माओ। तं हियमिओ परत्था, सिव परं वा तदत्थं वा / / 2682|| गतार्था / नवरम् 'तं हियमिओ परत्थ' त्ति-तत् सामायिकमात्मनो हितम्। व? इत्याह-इतः इहलोके, परत्र-परलोके चेति। ___ अथ वक्ष्यमाणगाथायाः प्रस्तावनां कुर्वन् भाष्यकार एवाहगिहिणा विसव्ववज,दुविहं तिविहेण छिन्नकालं तं। कायव्वमाह सव्वे, को दोसो भण्णएऽणुमई // 2683|| इह परिपूर्णसामायिककरणशक्त्यभावे- सम्पूर्णसंयमाङ्गीकारभावसार्थ्याभावे गृहिणाऽपि-गृहस्थेनाऽपि सता तत्- सामायिकं, छिन्नकालं-द्विघटिकादिकालमानोपेतं सर्ववर्जसर्वशब्दोचारणरहितं द्विविधं त्रिविधेन कर्त्तव्यमेव / अत्राह-परः-सर्वे-सर्वशब्दोच्चारणे को दोषः, येन सर्ववर्जम्-इति विशिष्यते? भण्यतेऽत्रोत्तरम्-सर्वशब्दोच्चारणं कुर्वतस्तस्य सावधयोगानुमतिलक्षणो दोषः, क्षेन हि गृहादिषु प्रागनेक आरम्भाः प्रवर्तिताः सन्ति, तदनुमतिश्च सामायिके तिष्ठतस्तस्यानुवर्तत एव ततः सर्वसावधयोग-निषेधं कुर्वतो गृहस्थस्य व्रतभङ्ग एव स्यादिति भावः / इति गाथाद्वयार्थः / (विशे०) (सर्वविरतिविषया 'सव्वविरइवाइ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे व्याख्या गता।) अत्रापेक्ष-परिहारौ भाष्यकारः प्राहआहाणुमई वन सो, किं पचक्ख त्ति भन्नइ न सत्तो। पुष्वपउत्तियसाव-ज कम्मसाइजणं मोत्तुं / / 2685 / / वाशब्दोऽप्यर्थः, आह परः- ननु यथा सावद्ययोगस्य करण कारणे तथाऽनुमतिमप्यसौ किमितिन प्रत्याख्याति? भण्यतेऽत्रोत्तरम्-नासौ गृही शक्तः-समर्थः / किं कर्तुम्? मोक्तुम् / किं तत्? इत्याहपूर्वप्रयुक्तस्य प्राग गृहादिषु प्रवर्तितस्य सावद्यकर्मणः सावद्ययोगस्य 'साइज्जणं' तिअभिष्वञ्जनम् प्रतिबन्धविधानमित्यर्थः / शक्यमेव ह्यनुष्ठानं विधीयते, नाशक्यम्। पूर्वप्रवृत्ते च सावद्ययोगे गृहस्थोऽभिष्वङ्ग मोक्तुं न शक्नोति / अतो न सावद्ययोगानुमतिमसौ प्रत्याख्याति, व्रतभङ्गप्रसङ्गादिति। पुनरपि पराभिप्रायमाशय परिहरनाहनणु तिविहं तिविहेणं, पच्चक्खाणं सुयम्मि गिहिणो वि। तं थूलवहाईणं,न सव्वसावजजोगाणं // 2686|| ननु गृहस्थस्य सावद्ययोगानुमतिप्रत्याख्याननिषेधं कुर्वतस्तव श्रुतविरोधः, यतस्त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यानं श्रुते गृहिणोऽपि भणितम्इति शेषः, तथा च भगवत्यामुक्तम्- "समणोवासगस्सणं भंते! पुव्वमेव थूले पाणाऽइवाए अपच्चक्खाए भवइ, सेणं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ? गोयमा ! तीयं पडिक्कमइ, पडु-प्पन्नंसंवरेइ, अणागयं पच्चक्खाइ।तीयं पडिक्कममाणे किं तिविहं तिविहेण पडिक्कमइ, तिविहं दुविहेण पडिक्कमइ, तिविहं एगविहेण पडिकमइ? ०जाव एकविहं एक्कविहेण Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 716 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय पडिमइ? गोयमा ! तिविहं तिविहणपडिकमाइजाव एकविह एकाविहण वा पडिमाई'' / तदेवमिह श्रुत विविध त्रिविध नापि गृहस्थस्य प्रत्याख्यानमुक्तम् , तत् कथमस्य निषधा गवता विधीयते? इति / सत्यम्, किन्तु त्रिविध त्रितिधन श्रुताक्त प्रत्याख्यान स्थलवधमृधवादादीनामवद्राव्यम, यथा को पि सिंहसरभगजादीनां वादोनतिबादसंस्सिविविधन त्याच्याति, यु.३, गावरान विषयमवगन्तव्यमिति अदिषित एव चिद विवातिसविध पधेनारी प्रत्याख्यानमदोषाय भवतीति दर्शयांतजड़ किचिंदप्पओयण, मप्पप्पं वा विसेसिय वत्थु / पञ्चक्खेज न दोमो, सयंभुरमणाइ मच्छु व्य / / 2687 / / जो वा निक्खनिउमणो, पडिमं पुत्ताइ संतइनिमित्त: पडिवजेज तओ वा, करेज्ज तिविहं पि तिविहणं / 2605 // | जो पण पुवारद्धा-णुज्झिय सावज्जकम्म संताण। तदगुमइ परिणई सो, न तरइ सहसा नियत्तेउं / 2686 / / न विद्याले प्रयोजनं येन सदायोजन काकमा सवि निशेषित परपालित्य अप्राय वा मनुष्यक्षेत्राद बहिन्तिदन्तचित्रकथर्मातदिक किमपि विशिष्ट वरत्वधिकृत यदि विविध विविधन प्रत्याचक्षीत तदा न पश्चिद वापः / यथा कश्चित् स्वंयभरमणादिम स्थानविय विविध विविधेन प्रत्याधः इति / यो वा व्रत जिघक्षः परतत्यादिनिमित शिलाधमान एकादशी प्रतिमा प्रतिपद्यतेतको वाऽसा शिव त्रिति नापि सवद्ययागप्रत्याख्यान कुर्याद्न दाष इति / यः पुनः पूरब्धानज्झितसाताकर्मसंतानस्तदनुमतिपरिणति न सक्नाले सहसमनवतयितुम्, मे अतस्विविधं त्रिविधन नासो प्रत्याख्याति, इति गाथापकार्थः / (36) तथा गृहस्थसामायिक मापे परलोकायना कायमव, / तस्यापि-विशिष्टफलसाधकत्वादित्याहसामाइयम्मि उकए,समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं,बहुसो सामाइयं कुजा / / 2660 / / कृत पुन हस्थः सामायिकऽपि अमणः इव श्रावका भवति. यस्मात् पायाऽशुभयोगरहित बाद बहुतरकर्मनिराऽसी भवतीति भावः अनेन माणन बहुशोऽनेका सामायिक कुमोद मध्यस्था भूया-दिति / ____ स्वर माह.. जो न विवट्टइ रागे, नदि दासे दोण्ह मज्झयाम्म / सो होइ उ मज्झत्थो, सेसा सव्वे अमज्झत्था // 2661 / / सुमता, नवरं मध्य रागदपयोरन्तराले तिष्ठताति मध्यस्थान रामा स्पृश्यत,नापि पगालेनाद। इति निथुक्तिमासादयार्थः विशा आकर्षद्वारमाह-- तिण्हें सहस्सपुहत्त सयं पुहत्तं च होइ विरईए। एगभवे आगरिसा, एवइया हुति नायव्या / / 2780 / / आकर्षणभाकपस्तत्प्रथमतथा, मुफ्तस्य वा ग्रहणमित्यर्थः। तत्रयागा सम्यक्त्वश्रुतदेशविरतिसमायिकानामेकमव सहसपथकत्वमाकपा भवति / विरतस्तु चारित्रस्थकभव शतपृथक्त्तमाकषांमा भवतीति ! एवमत कृष्टत एकभावका आकाः प्रोक्ताः, जय यतस्त्वक स्य सर्वेषामाकप इति। नानाभवगतानाहदोण्ह पुहत्तमसंखा, सहसपुहत्तं च होइ विरईए। नाणभवे आगरिसा, सुए अणंताउनायव्वा / / 2781 / / द्वगः सम्यक्त्वदेशविरतिसामायिकयोनानाभवत्कृष्टतोऽसंख्येयाने राहरापृथक्त्वान्याकर्षाणा सम्भवन्ति / एक हि सहयपृथक्त्वमसंख्येवस्त प्रतिपत्तिभयेगुणितमसङ्ख्ययानि महसपृथकान अन्नाथः परतरत्यारित्रस्थमान भष्वाकर्षाण सहनपृथक्त्य यति. तेतु सामान्यनाक्षरात्मकऽनन्तधु नयेष्वनन्ता आकर्षा भवन्ति इति नियुक्तिमाथाद्वया / विशेष प्र . ग. दूर (उद्देशद्वारम् ईस' शदे द्वितममार्ग 6 उम्म (37) अथ कतिविध सामायिका? इति धारं याचिख्यासुराहसामाइयं पितिविहं, सम्मत्तसुयं तहा चरितं च / दुविहं चेव चरितं, अगारमणगारियं चेव / / 2673 / / विविधा - विभेद सामायिकन, अनुस्टारगोपात् सम्यक्ल्बम-- समसामायिक / भुतम-श्रुतसामायिकम् / स चारित्रगायकम् / शब्दः प्रत्यक स्वमतानकभेदसर नार्थ. तर 56 पटवारियं वारिपसामायिक विविध व-विभेद-- गा :- सारतः कानमार - दस्थार तीति मत - लोणासहस्सस्तस्यदनगारिकदाचारित्रामयिक देशवितिसामयिक मिति यावत / एतच्च पुनस्यनेकभेटा. देश विरचित्ररूपत्याद न विद्यते गारं--गृह यस्यासावनगारः सापुरतस्य मनमरिक सर्ववारिसामयिकम्- सर्वविरतिसामायिक मित्यर्थ / इटमणि (38) श्रुतसामायिकस्यापि राक्षेपतो भेदकथनार्थमाहअज्झयणं पि य तिविहं, सुत्ते अत्थे अ तदुभए चेव। सेसेसु वि अज्झयणे-सु होइ एसेव निज्जुत्ती // 2674 / / अधीयते निनादिक्रमेण गुरुसमीप इत्यध्ययन सामान्य श्रमि: गृहातो. याशिमिशः हादपि त्रिविधा -विशेदम सने न्यादि, सूत्रः : अतः, तदुभयतश्चेत्यर्थः / उपलक्षणत्वात् अपि व्दाद-जा सम्यक्त्वसामायिकमप्यौपथमिकक्षायिक-क्षयोपशामिकभेशात निविध द्रष्टव्यम्। अथ प्रक्रान्तोपोदधातनिर्युक्तेरशेषाध्ययनव्यापिता दर्शय-माह-- 'सेसेस थी' त्यादि, प्रस्तुलसाभायिकाध्ययनात शेषेष्यपि चतुर्ति-शतिरनधादिष्वन्येषाध्ययनेष्वषेयोद्देशनिर्देशादिका निरुक्तिपर्यय-शानोपोद्धातनियुक्तिर्भवति। एषेवसर्वत्र द्रष्टव्येत्यर्थः / आह-ननुपोद-घातनिर्युम्तो सर्वस्यामपि समर्थितायामित्थमतिदेशो. दातुं युज्यते, न चेयमद्यापि Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 717 - अभिधानराजेन्द्र - भाग 7 सामाइय . . . __ समाते भावागारेसफासणानरुती' इति निझक्तिद्वार एक सम्यः / समर्थशिष्यमा रगत ? सत्यम किन्तपोदयात्तनियुक्तिमा स-मिदभ. मार रातिद: कृतः पयंसे पिला 'मध्यग्रहाण आयतया मंडणम ' इति न्यायाल / इति निरोक्तिगासाद्वयार्थः / 58 अथ भाष्यकार: सम्यक्त्वादिसामायिकाना भेदान मामा ! सम्म निसग्गओऽहिग-मओ य दसहाय तप्पमेयाओ। कारयरोयगदीवग-महवा खइयाइयं तिविहं ||2675 / / सुत्तत्थतदुभयाई, बहुहा वा सुत्तमक्खरसुयाई। खइयाइँ तिहा सामा-इयाई वा पंचहा चरणं / / 2676 / / दुविहतिविहाइ णाणु-व्वयाइ बहु एगदेसचारित्तं / वीसुं सव्वाइं पुण, पजायओ"ऽणंतभेयाइं // 2677 // सम्यक्त्वंतवद् निसर्गतोऽधिममतश्चेत्यव द्विधा मदति। तत्र निसर्गः.. स्वभावस्तरमात सम्यक्त्व भवति, यथा नारकादीनाम, अधिगमस्तीर्थकरादीनां समीपे धर्मश्रवणं तस्मात् सम्यक्त्व भवतीति प्रतीतमेव, यथा स्कन्दकादीनाम् / अथवा- 'तप्पभेयाओ' त्ति-तस्य सम्यक्त्वस्य प्रकृष्टः सूक्ष्मो भेदस्तस्मात् प्रभेदतश्चिन्त्यमानमिदम्, द्विविधमपि समुदितं दशधा भवति / तत्रौपशमिकसास्वादनक्षायोपशमिकवेदकक्षायिकभेदात, निसर्गजं पञ्चधा, एवम-धिगमसमुत्थमपि पञ्चधैव। तदेव समुदित सद दशधा भवति / अथवा- कारकरो नकदीपकभेदार क्षायिकक्षायोपशमिकापशमि-कभेदात् त्रिधा सम्यक्त्वं भवति / तत्र क्षायिकादय भेदाः प्रतीता एव / कारकादीनां त्वयमर्थ:-यस्मिन सम्णवल्ये सति सदनुष्ठानं श्रद्धते,सम्यक् करोति च, तत् कारयति सदनुष्ठानमिति कारक सम्यक्त्वमुच्यते / एतच्च साधूनां द्रष्टव्यम्। यातु सदनुष्ठानचयत्ये व केवलम् न पुनः कारयति तद् रोचकन्, यथा श्रेणिकादीन म। यानु स्वय तत्वश्रद्धानरहित एव मिथ्यावृष्टिः परस्य धर्मकथादिस्तित्त्वश्रद्धानं दीपयत्युत्पादयति तत्सम्बन्धि सम्राक्त्य दीपक-मुच्यते, यथाऽङ्गारमर्दकादीनामिदं सम्यक्त्वमुच्यते, परमार्थ - तस्तु मिथ्य त्वमेवेति: सूत्राऽर्थतदुभयभेदात्-- सूत्रं श्रुतसामायिक विधा भवति : 'अक्खरणी सम्म, साइयं खलु सपञ्जवसियं च / गमियअड़ पविटु' इत्यादिना प्रतिपादितादक्षरश्रुताऽनक्षरश्रुतादिभेदाद बहुधा वा श्रुतसाभायिक भवति / चरणं चारित्रसामायिक पुनः क्षायिकम, क्षायोपशमिकम, ऑपशमिकमिन्येवं त्रिधा भवति। यदिवा--सामायिकच्छदोपर थापनीय परिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथारख्यातभेदात पञ्चधा तद् भवति यत् त्वणुव्रताधकदेशविषयं चारित्रं देशविरतिसामायिकमित्यर्थः, तद् बहुधा-बहुभेदं भवति / केन? इत्याह... 'दुविहतिविहाइण' ति। "दुविहं तिविहेण पढमओ, दुविहं दुविहेण बीअओ होइ।दुविह एक्कविहेणं, एगविहं चेव तिविहेणं / / 1 / / " इत्यादिग्रन्थप्रतिपादितभङ्ग जालेन हेतु- भूतेनेत्यर्थः / 'वीसुति-एतेषा सामायिकानामेत पूर्वोक्ता भेदा विष्वग एकैकशश्चिन्त्यमानानां द्रष्टव्याः यदा तु सर्वाण्यप्येतानि समुदितानि मदतश्चिन्त्यन्ते तदा पर्यायतः पांगानाश्रियानन्तभेदानि द्रष्टव्यानि संयम श्रेण्यामध्यवसागस्थानानागरसख्येयलोनाकाशप्रदेशप्रमाणन्यान एकेकस्य चाध्यवसायस्थानशान्तपयित्वारित। "सेसेस विज्झायणेर इयादे यागानमाह--- चवीसयत्थयाइसु. सव्वज्झयणेसु याऽणुओगम्मि | एस चिय निज्जुत्ती, उद्देसाई निरुत्तदा / / 2678 / / शापि वपतिस्तवादिषु. शब्दाद- अन्येषु च शवपरि-- झादिमध्ययनबनुयोगे विधायमाने आप्रवेषेवोद्देशादिका निरुक्त्यन्तोपोझतनियुकिया / इति माथाचतुष्टयार्थः / विशे० आ०० आलम (50) कति सान्तरं सामायिकम्। अथ सान्तरद्वारमाह-- कालमणंतं च सुए. अद्धा परियट्टओ य देसूणो। आसायणबहुलाणं, उक्कोसं अन्तरं होइ / / 2775 / / इह जी एकदा सम्यक्त्वादिसामायिकमवाप्य ततस्त परित्यागे यावता कालेन पुनरपि तदवाप्नोति सोऽपान्तरकालः-अन्तरमुच्यते। तच सामान्ये अक्षरात्मके श्रुतेजघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम. उत्कृष्टतस्त्वनन्त काल भवति / इदसुक्तं भवति-इह द्वीन्द्रियादिः कश्चित श्रुतं लब्ध्या मृतो यः पृथिव्यादिषुत्पद्य तत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरपि द्वीन्द्रियादिष्वागतः श्रुतं लभते तस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरं भवति / यस्तु द्वीन्द्रियादित:-पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिषु पुनः पुनरुत्पद्यमानोऽनन्तं कालमवतिष्ठते, ततः पुनरपि द्वीन्द्रियादिष्वागत्य श्रुतं लभते, तस्यायमेकेन्द्रियावस्थितिकाललक्षणोऽनन्तकाल उत्कृष्टतोऽन्तरं भवति / अयं चासख्यातपुद्गलपरावर्त्तमानो द्रष्टव्यः / शेषस्य तु सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिसामायिकत्रयस्येति दृश्यम्-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टतातु देशोनाऽपार्धपुद्गलपरावर्तोऽन्तरं भवति। इद चोत्कृष्टमन्तरमाशातनाबहुलानां जीवानां द्रष्टव्यम उक्तं च- "तित्थयरपवयणसुयं, आयरियं गणहरमहिड्डीयं / रण बहुसो, अणंतसंसारिओ होइ / / 1 // " इति नियुक्तिगाथार्थः / भाष्यम्मिच्छसुयस्स वणस्सइ-कालो सेसस्स सेससामण्णो। हीणं भिण्णमुहुत्तं, सव्वेसिमिहेगजीवस्स॥२७७६।। इह योऽयं वनस्पतिकालो वनस्पतेरुपलक्षणत्वादे के न्द्रियकालोऽसंख्यातपुद्गलपरावर्तात्मकः श्रुतस्यात्कृष्टोऽन्तरं प्रोक्तः, स मिथ्याश्रुतस्य मिथ्याश्रुतमङ्गीकृत्य द्रष्टव्यः। सेसस्स सेससामण्णो त्तिशेषस्य तु सम्यक्श्रुतस्य शेषैः सम्यक्त्वादिसामायिकैः सामान्यः-तुल्यो देशोनापार्धपुद्गलपरावतलक्षण उत्कृष्टोऽन्तरकालो द्रष्टव्यः / 'हीणं' तिहीन-जधन्यमन्तरं सर्वेषामपि सम्यक्त्वादिसामायिकानां नियुक्तिगाथायामनुक्तत्वाद् भिन्नमुहूर्तम्-अन्तर्मुहूर्त द्रष्टव्यम् इदं च जघन्यमुत्कृष्ट चान्तरमेकजीवस्य मन्तव्यम् नानाजीवानां सम्यक्त्वाद्यन्तराभावादिति गाथार्थः। Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 718 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय Hशक किं सामायिकम् इति निरूपणार्थ घरमाथात्रयमाह.. खेतदिसि कालगई, भवियगन्नि(उ)सासदिठिमाहारे। पज्जत्तसुत्तजन्म-द्विइ वेयँसम्णा कसायाऽऽउं॥२६६२।। नाणे जोगुवओगे, सरीरसंठाणसंघयणमाणे। लेसा परिणाम वे-यणा य समुग्घाय कम्मे य॥२६६३।। निव्वेट्टणमुव्वट्टे, आसवकरणं तहा अलंकारं / सयणासणठाणढे, चकमंते य किं कहियं // 2664 // आमा समुदायार्थः क्षेत्रदिकालगतिभव्यसंज्ञयुच्छ्रासदृष्ट्याहारकानकीकृत्यालोचनीय 'किं कहियं' ति-'किं व सामाथिका?' इति संबन्धः, तथा, पर्याप्तसुप्तजन्मस्थितिवेदसंज्ञाकषायाऽऽयूंषि चेति / तथा, ज्ञानं योगोपयोगौ, शरीरसंस्थानसंहननमानानि, लेश्यापरिणाम, वेदनां, समुद्धातकर्म चाश्रित्यालोचनीयम्, कि त सामायिकम्? इति। तथा, निर्वेष्टनोद्वर्तने आश्रवकरणम, तथाऽलङ्कारण, श्यनाऽऽसनस्थानरयां भड़कमतश्चाश्रित्य चिन्तनीयं 'किं व सामाधिनग? इति / विशे० आ०म० (42) एतानि द्वाराणि अक्षरानुक्रमणव्याविख्यासुरपि पस्तूनां सहव व्याख्यातत्वान्न शक्नोमि तथा समावेष्टम इति द्वारगाथावतव्र मेण ज्ञेयम्। इदानीमवयवार्थ उच्यते तत्रोव॑लोकादिक्षेत्रमड़ीकृत्य सम्य। क्त्वादिसामायिकानां लाभादिभावमभिधित्सुराहसम्मसुयाणं लाभो, उड्ढ य अहे य तिरियलोए य! विरई मणुस्सलोए, विरयाविरई य तिरिएसु॥२६६५।। सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोलाभः- प्राप्तिरूवं चाधश्च तिर्यग्लोके भवति, तत्रो+लोके मेरुसुरलोकादिषु निसर्गतोऽधिगमादवा सम्यक्त्वसामायिकस्य, तथा श्रुताज्ञानस्यतत्समकालमेव श्रुतज्ञानतया परिणामात् श्रुतसामायिकस्य च लाभो भवति। एवम धोलोकेऽप्यधोलौकिकग्रामेषु नरकेषु च ये सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्ते तेषां यथोक्तसामायिकद्वयलाभो वक्तव्यः, एवं तिर्यग्लोकेऽपि यथोक्तसामायिकद्वयलाभो वक्तव्यः / इह च त्रिष्वपि लोकेषु यथोक्तसामायिकद्वयं लभ्यतएवेतीत्थमवधारणीयम्, न पुनर्यथोक्तसामायिकद्वयमेव लभ्यत इति, यत आह-'विरई मणुस्सलोए' त्ति- तिर्यग्लोकविशेषभूतेऽर्धतृतीयद्वीपसमुद्रलक्षणे मनुष्यलोके विरतिः सर्वविरतिसामायिकमपि लभ्यते। इदं चेहेव लभ्यते नान्यत्रेति द्रष्टव्यम्,मनुष्या एवैतत्प्रतिपत्तारो नान्य इत्यर्थः। क्षेत्रनियमं तु विशिष्टश्रुतविदो विदन्ति / विरताविरतिश्च देशविरतिसामायिकलक्षणा लाभविचारे तिर्यक्षु भवति, मनुष्येषु च केषुचिदिति। पुवपडिवण्णया पुण, तीसु वि लोएसु नियमओ तिण्हं / चरणस्स दोसु नियमा, भयणिज्जा उडलोगम्मि॥२६६६।। पूर्वप्रलिपनकास्तु त्रयाणां सामायिकाना नियमेन त्रिष्वपि लोकेषु विद्यन्ते / चतुर्थस्य सामायिकस्य द्वयोरेवाधो लोकतिर्यग्लोकयोः पूर्वप्रतिपदा निरामतः सन्ति / ऊध्वलोके पुनर्भाज्याः कदाचिद् भवन्ति कुदानिद नलि / गतं क्षेत्रद्वारम् / विशे०। (43) दिग्पा - कस्यां दिशि किं सामायिकम् / इह नामस्था-- पनाद्रव्यदिग्विारनधिकार एव शेषासु यथासंभवं सामायिकस्य पतिपद्यमानकः / पूर्वप्रतिपन्नो वा वाच्यः। तथा चाह चूर्णिकृत-"एत्थ पुण चउहिं दिसाहिं अहिगारो खेतदिसातावखेनपन्नवगभावदिशाहिं तानादी तिन्नि परूवणानिमित्त'' ति। तत्र क्षेत्रदिशोऽधिकृत्य तावदाहपु(विशेषावश्यकेऽपि व्याख्याते इमे गाथे।)व्वाईयासु महादिसासु पडिवज्ञमाणतो होइ। पुव्वपडिवन्नतो पुण, अण्णयरीए दिसाए उ॥ पूर्वादिकासु क्षेत्रतो महादिक्षु विवक्षिते काले सर्वेषामपि समायिकानां प्रतिपद्यमानको भवति। तत्संभवस्तास्वस्ति नपुनर्भवत्येव कदाचित्तस्य तासु भवनात् / पूर्वप्रतिपन्नः पुनश्चतुर्णामपि सामायिकानानन्यतरस्यां दिशि भवत्येव। पुनः शब्दस्यैवकारार्थत्वात् न पुनर्न भवति / एतदपि सामान्येनोक्तम् विशेषतस्त्वेवमवगन्तव्यम्। त्रयाणां सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकदेशविरतिसामायिकानां चतसृष्वपि पूर्वादिकासु महादिक्ष नियमेन पूर्वप्रतिपन्नकोऽस्ति / सर्वविरतिसामायिकस्य तु पूर्वापरदिशोर्नियमेन दक्षिणोत्तरयोस्तु भजनया। एकान्तदुष्पमादिकाले भरतैरवतेषु सर्वविरतरुच्छेदात् विदिक्षु पुनश्चतसृष्वपितथा ऊवधिोदिगये च चतुर्णाभपि सामायिकाना न पूर्वप्रतिपन्नो,नापि प्रतिपद्यमानकः जास्वेकदेशिकत्वेन चतुःप्रादेशिकत्वेन च जीवावगाहनासंभवात् / स्पर्शनामात्र पुनर्भवदपि। तथा चाह भाष्यकार:- "छिन्नावलिरुयगादी, दिसासु सामाइयं न जं तासु / सुद्धासु नावगाहइ,जीवो ताओ पुण फुसेजा" // 2707 तापक्षेत्रविषये प्रज्ञापकदिशावधिकृत्याहअवसु चउण्ह नियमा, पुटबपवनो उ दोसु दोण्हेवं / दोण्ह तु पुव्वपवन्नो, सिय नन्नो ताव पन्नवए। तापक्षेत्रविषये प्रज्ञापकविषये च पुनरष्टसु पूर्वादिकासु दिक्षु चतुर्णामपि सामायिकाना नियमात् पूर्वप्रतिपन्नोऽस्ति, प्रतिपद्यमानकस्तु भाज्यः कदाचिद्वति कदाचिन्नेति / तथा द्वयोरूधिोरूपयोर्दिशोः द्वयोःसम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिकयोरेवं पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति प्रतिपद्यमानकस्तुभाज्य इत्यर्थः। 'दोण्ह उ' इत्यादि द्वयोः-पुनर्देशविरतिसामायिकसर्वविरतिसामायिकयोरुधिोदिशोः स्यात् भजनया, पूर्वप्रतिपन्नः कदाचिद्भवति कदाचिन्नेति। अन्यः पुनः प्रतिपद्यमानकः सर्वथा नेति। भावदिशमधिकृत्याहउभयाभावो पुढवा-इएसु विगलेसु होज्ज उववन्नो। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 716 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय पंचिंदियतिरिएसु, नियमा तिण्हं सिय पवजे / / नारय-देव-अकम्मय, अंतरदीवेस दोण्ह भयणाओ। कम्मजनरेसु चउसुं, मुच्छेसु उभयपडिसेहो / / वृथिव्यादि-पृथियो जो वासुमूनबीजरबन्धबीजागेज उपराभावश्च गुणामपि सामाविकानां न पूर्वप्रतिपन्नगेन प्रतिपद्यमानः / विक लेषु दित्रिचतुरिन्द्रियेषु पूर्वप्रतिपन्नो भवेत् / व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरिति सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिकयोः कदाचित पूर्वप्रतिपन्नो भवेत्सासादनसम्यक्त्ववतां तेषु मध्ये उत्पादसंभवात् / अतिपद्यमानस्तु नोपपद्यते उपदेशश्रवणाटिसामायोगात् / देशविरतिरार्वविरतिसामायिकयोः पुनर्न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकः, परन्द्रियतिर्यक्षु सर्वविरतिवर्जानां त्रयाणामपि सामायिकाना पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति / यः पुनः प्रतिपद्यते प्रतिपद्यमानक: स्यात भजनया-कदाचित विवक्षित काले कदाचिन्नेति भावः / सर्वविरतिसामायिकस्य तु न पर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकस्तथा भवस्वाभाव्यात् / नारकदेवेष्वकर्मभूमिजान्तरद्वीपजमनुष्येषु च द्वयोः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो नियमादस्ति / इतरम्य तु प्रतिपदामानकस्य भजनास्याद्वा न वा / इतरयोस्तु-देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोन पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपद्यमानकस्तया स्वाभाव्यात। कर्मजनरेषुकर्मभूमिजमनुष्येषु चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नोऽस्त्येव / प्रतिपद्यमानकस्तु भाज्यः। संमूछिमेषु तुमनुष्येषु चतुर्णामपि सामायिकानां विषये उभयप्रतिषेधो न पूर्व-प्रतिपन्नो नापि पूर्वप्रतिपद्यमानक इति भावः / आ० म०१अ०। विशेo1 (44) अथ भाष्यकारो वक्ष्यमाणनियुक्तिगाथायाः प्रस्तावनामाहखेत्तदिसासुं पगयं,सेसदिसाओ पसंगओऽभिहिया। संभवओ वा वच्चं,सामइयं जत्थ जं हुज्जा / / 2705 / / इह दिग्द्वारे विचार्यमाणे रुचकादारभ्य या-पूर्वादिका दिशः प्ररूपिताताभिरेवेह प्रकृतं प्रयोजनम्, शेषास्तु नाम स्थापनादिका दिशो दिक्साम्यात प्रसङ्गतोऽभिहिताः। यदि वा-अशेषदिशांमध्ये यस्यां दिशि यत् सामायिकम सम्भवति तदभ्यूह्य वाच्यम्, मूलावश्यकाद्वाऽवसेयम्, इति गाथा 'इह क्षेत्रदिग्भिः प्रयोजनम्' इत्युक्तम्,किं पुनस्तत्? इत्याहपुव्वाईयासु महा-दिसासु पडिवजमाणओ होइ। पुवपडिवण्णओ पुण, अण्णयरीए दिसाए उ॥२७०६।। पूर्वाद्यासु शकटोर्द्ध संस्थितासु पूर्वोक्तासु चतसृषु महादिक्षु विवक्षिते काले चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानको भवति, तत्सम्भवस्तास्वस्ति न पुनर्भवत्येव कदाचित् तस्य तासु भवनात कदाचिदभवनादिति। पूर्वप्रतिपन्नकः पुनरन्यतरस्यां दिशि भवत्येव। इति नियुक्तिगाथार्थः। उडियो लिन्द्रये विदिक्षु च तर्हि का बाई? इत्याशङ्य भाष्यकारः प्राह--- छिण्णावलि रुयगागी, दिसासु सामाइयं नजं तासु / सुद्धासु नावगाहइ, जीवो साओ पुण फुसिज्जा // 2707 / कप्रशिक्कत्येन छिनमुक्तावलीकल्पासु चतसृष्वपिविदिक्षु भयगागि' ति. सत्तकाकारयोः प्रत्येक चतुष्प्रदेशिकयोरूर्वाऽधोदिशोश्च 'सामाइयं न' नि--सर्वमपि सम्पूर्ण --सामायिकं न लभ्यते इति शेषः / कुतः? इत्याह 'जं तास्वित्यादि' यद्-यस्मात् तासु शुद्धासुकेवलासु षट्रवपि श्रीगः सम्पूर्णो नावगाहते, तस्य जयन्यतोऽप्यसङ्ख्येयप्रदेशाअगाहिल्वाल, एतासांचेकप्रदेशिकत्वेन चतुष्प्रदेशिकत्वेन चैतावत्प्रमाणावगाहासाभवात् / इतस्ततः संचरणादौ पुनः सामायिकवाजीवस्ताः एडपि देशतः स्पृशेद न विरोध इति गाथार्थः। उक्तं दिग्द्वारम्। (45) साम्प्रतं कालद्वारमभिधित्सुराहसम्मत्तस्स सुयस्स य, पडिवत्ती छव्विहे वि कालम्मि ! विरइं विरयाविरई, पडिवज्जइ दोसु तिसु वावि / / 2708 / / सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य च द्वयोरप्यनयोः सामायिकयोः प्रतिपत्तिः षडविधेऽपि सुषमदुःषमादिके काले सम्भवति / पूर्वप्रतिपन्नका-- स्त्वनयोर्विद्यन्त एव / विरति समग्रचारित्रलक्षणांताम्,तथा, विरताविरति-देशचारित्रात्मिकां प्रतिपद्यते कश्चिदुत्सर्पिण्या द्वयोः कालयोर्दुःषमसुषमायाम् सुषमदुःषमायां चेति; अवसर्पिण्या तु त्रिषु कालेषु सुषमदुःषमायाम दुःषमसुषमायाम, दुःषमायां चेति / पूर्वप्रतिपन्नस्त्विह विद्यत एव। अपिशब्दात-संहरणं प्रतीत्य पूर्वप्रतिपन्नकः सर्वकालेष्वेव सम्भवति / प्रतिभागकालेषु तु त्रिषु सम्यक्तवश्रुतयोः प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्व स्त्येव,चतुर्थे च प्रतिभागे चतुर्विधस्यापि सामायिकस्य प्रतिपद्यमानकः सम्भवति, पूर्वप्रतिपन्नस्तु विद्यत एव बाह्यद्वीपसमुद्रेषु तु कालरहितेषु त्रयाणां सामायिकानां प्रतिपद्यमानक: सम्भवति, पूर्वोपन्नस्त्वस्त्येव, चरणस्यापि नन्दीश्वरादौ विद्याचारणादिगमने पूर्वप्रतिपन्नः सम्भवति इति नियुक्तिगाथार्थः। अथ भाष्यम्तइयाइसु तिसु ओस-प्पिणीऍ उस्सप्पिणीऐं दोसुंतु। नोउस्सप्पुस्सप्पिणि-काले तिसु सम्मसुत्ताई।।२७०६।। पलिभागम्मि चउत्थे, चउव्विहं चरणवज्जियमकाले। चरणं पि हुन्ज गमणे,सव्वं सव्वत्थ साहरणे // 2710 / / 'तझ्याइसु तिसुओसप्पिणीए' त्ति-अवसर्पिण्यांतृतीयादिषु त्रिषुकालेषु सुषमदुष्पमादिषु त्रिष्वरकेष्वित्यर्थः 'सर्वविरतिदेशविरति-सामायिकयोः प्रतिपत्ता लभ्यते' इत्यध्याहारः / पूर्वप्रतिपन्नस्त्विह चतुर्णामस्त्येव / एवमुत्तरत्रापि पूर्वप्रतिपन्नो यथासम्भवमभ्यूह्य वक्तव्य इति।'उस्सप्पिणीए दोसुति-उत्सर्पिण्या पुनर्द्वयोर्दुःषमसुषमासुषमदुःषमालक्षणयोः कालविशेषयोस्त प्रतिपत्ता प्राप्यते / 'नो इत्यादि' इह देवकुरुत्तरकुरुषु Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाडा 720 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय 3.', 'समागप्रतिभागः, हरिवर्षरम्यकेषु-सुषमाप्रतिभागः, हैमव-- त र रामदापमाप्रतिभागः, पञ्चसु महाविदेहेषु दुःषमसुष-. मा प्रभागः / इह चतुर्वचि स्थानेषूल्सर्पिण्यवसर्पिण्य भावार; नाउत्सपिण्यवसापणीकालोऽयभिधीयते,यथाक्रम च सुषमसुष-- मादिभिः कालविशष: राह प्रतिभामस्य सादृश्यस्य विद्यमानत्वा - चत्वारः सुषमसुषमादयः प्रतिभामा एते भण्यन्ते / तदस्मिन् प्रति.. भागचतुष्टलक्षणे नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणीकाले चिन्त्यमाने 'तिसुतिआद्येषु सुषमसुषमाप्रतिभागादिषु त्रिषु प्रतिभागेषु द्वे सम्य. क्त्वश्रुतसामायिक जीतः प्रतिपहाते। 'पलिभागम्मि चउत्थे चउटियह ति-महाविदेहेषु चतुर्थे दुःषमसुषमाप्रतिभागे चतुर्विधमपि सामायिक प्रतिपद्यते / 'चरणवज्जियमकाले त्ति-अकाले-कालाभावे बाह्यद्वीप समुद्रेषु चरणवर्जितमाद्य सामायिकत्रय मत्स्यादयः प्रतिपद्यन्ते। 'चरण वि हुन्ज गमणे त्ति-नन्दीश्वरादौ विद्याचारणादीनां गमने चरणमपि पूर्वप्रतिपन्नं सर्वविरतिसामायि-कमपि भवेदित्यर्थः / 'सव्वं सव्वत्थ साहरणे' त्ति देवादिना तु संहरणं प्रतीत्य सर्वं चतुर्विधमपि सामायिक सर्वत्र निःशेषेऽपि काले प्राप्यते। इति गाथाद्यार्थः / गत कालद्वारम। (46) इदानी गतिद्वारं बिभणिषुराहचउसु वि गईसु नियमा, सम्मत्तसुयस्स होइ पडिवत्ती।। मणुएसु होइ विरई, विरयाविरई य तिरिएसु // 2711 / / चतसृष्वपि नारकतिर्यग्ररामरगतिषु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयः... नियमान प्रतिपत्तिर्भवति, न पुनर्न भवतीत्येवं नियमो द्रष्टव्यः भवतः सदैव तत्प्रतिपत्तिरित्येवं तु न नियमः, कदाचिदन्तरस्यापि तत्प्रतिपत्तेरिहैव वक्ष्यमाणत्वादिति पूर्वप्रतिपन्नास्तु सदैव लभरात इति / तथा मनुष्येषु प्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य भवति विरतिश्चारित्रारिमका, नान्यगलिषु पूर्वप्रतिपन्नास्तु तस्याः सदैवेह विद्यन्त इति। विरताविरतिश्च देशविरतिस्तिर्यक्षु भवति' इत्यनुवर्तते, इहापि सम्भवतस्तत्प्रति-पत्तिर्द्रष्टव्या पूर्वप्रतिपन्नास्तु सदैव सन्तीति। अथ भव्यज्ञिद्वारद्वयमभिधातुमाह-- भवसिद्धिओ य जीवो, पडिवज्जइ सो चउण्हमण्णयरं। पडिसेहो पुणऽसण्णि-म्मि मीसए सण्णिपडिवजे / / 2712 / / भवा भाविनी सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको भव्यो जीवः,स चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत् सामायिकम् प्रतिपद्यते / इदमुक्तं भवतिकदाचित् सम्यक्त्वश्रुतसामायिके प्रतिपद्यते,कदाचिद् देश-विरतिम्, कदाचित् सर्वविरतिमपि प्रतिपद्यत इति / पूर्वप्रतिपन्नास्तु नाना भव्याश्चतुर्णामपि सामायिकानां सदैव लभ्यन्ते इति / एव संजयपि चतुर्णामपि सामायिकाना कदाचित् किञ्चित् प्रतिपद्यते / तथा चाह-- 'सण्णिपडिवझे' त्ति-पूर्वप्रतिपन्नास्तु संझिनोऽपि भव्यवत् सदेव प्राप्यन्त इति / पडिसेहो इत्यादि, पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतिपद्यमानकाश्चाश्रित्य चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिषेधः कार्यः। व? इत्याह-असंज्ञिनि, मिश्रके, अभव्ये च "सिद्धेनो सण्णी, नो असण्णी, नो भव्ये, नो अभव्ये" इति वचनाद मिश्रकः सिद्धोऽभिधीयते / ततश्रेते त्रयोऽप्यसंजयभव्यमिश्वका वतुर्णामपि सामायिकानां न पूर्वप्रतिपन्ना नापि प्रतिपद्यमानका लन्यन्त इति भावार्थः / पुनः शब्दादसंज्ञी सास्वादनमाश्रित्य सम्यक्त्वश्रुत-सामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो भवेदितेि द्रष्टव्यम्, तथा मिश्रीधप भवस्थकवली सम्यक्त्वचारित्रसामायिकयो: पर्वप्रतिपत्र भवदित्याप दृश्यमाअय चन संज्ञी नाप्यसंझी ते मिश्रता द्रष्टव्या। आहयाव सिद्धोऽपि सम्यक्त्वसामायिकस्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यत अतोऽस्थापिकिमिति सर्वसामायिकनिषधः क्रियते? सत्यम्, किन्त] सम्यक्त्यवर्ज सामायिकत्रयं संसारस्थानामेव सम्भवति, नत्साहचर्यान सम्यक्त्वसामायिकमपि संसारिणा सम्बन्धि विधार्यत, तशाभूत तु सिद्ध नास्तीति निषिध्यत इत्यदोषः इति नियुक्तिगाथाद्याथः / पुनःशब्दस्य व्याख्यानं भाष्यकारोऽप्याहपुणसद्दाउ असण्णी, सम्मसुए होज पुय्वपडिवन्नो। मीसो भवत्थकाले, सम्मत्तचरित्तपडिवन्नो // 2713 // गातार्था। अशोच्छासनिःश्वासकदृष्टिद्वारद्वयाभिधित्सया प्राहऊसासय नीसासय-मीसे पडिसेहो दुविह पडिवण्णो। दिट्ठी य दो नया खलु, ववहारो निच्छओ चेव // 2714 / / उपसिनीयवासकः, नि:श्वसितीति निःशासकः, आनापनपर्याप्तिपरिनिष्पन्न इत्यर्थः। स चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानक: सम्भवति.पूर्वप्रतिपन्नकस्त्वस्त्येव. इति वाक्यशेषः / मिश्रः खल्वानापानपर्याप्यपर्याप्तो भण्यते। तत्र प्रतिपत्तिभङ्गीकृत्य प्रतिषेधः,नासौ चतुर्णामपि प्रतिपहामानकः सम्भवतीति भावना! 'दुविहपडिवण्णो' त्ति स एव द्विविधस्य सम्यक्त्वश्रुतसामायिकस्य प्रतिपन्नः पूर्वप्रतिपन्नो भवति देवादिर्जन्मकाल इति / अथवा-मिश्रसिद्धः, तत्र चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वोक्तयुक्तरुभयथाऽपि प्रतिषेधः 'दुविह पडिवणणो' ति-इह मिश्रः शरीररहितत्वाद नोउच्छासनिः श्वासकत्वेन शैलेशीगतोऽयोगिकेवली गृह्यते, स द्विविधस्य-सम्यक्त्वचारित्रसामायिकस्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति। दृष्टौ विचार्यमाणाचां द्वौ नयौ खलु विचारको व्यवहारो निश्चयश्चैव / तत्रास्य यथा मतिज्ञानविचारेऽज्ञानी ज्ञान प्रतिपद्यते, तथेहाप्यसामायिकी-असामायिकवान् सामायिक प्रतिपद्यते, तथाऽसामयिकी दीर्धकालिकी तत्प्रतिपत्तिः। द्वितीयस्य तु यथा ज्ञानी ज्ञानं प्रतिपद्यते तथात्रापि सामायिकी-सामायिकवान् सामायिक प्रतिपद्यते,सामयिकी च तत्प्रतिपत्तिः, क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदात् / इति नियुक्तिगाथार्थः / (47) मिश्रशब्दभावार्थ व्यवहारनिश्चयनयमतविचारं व भाष्यकारोऽप्याहमीसो नो उस्सासय-नीसासो तेहि जो अपज्जत्तो। हुन्ज पवण्णो दोन्नि र, सेलेसिगओ चरित्तं च / / 2715|| पढमस्साामइगी,पडिवज्जइ बिइयगस्स सामइगी। Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 721 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय ववहारनिच्छयमयं, नेयं मइनाणलाभो व्व // 2716 / / इह मिश्रो नो उच्चाराकनिःश्वासकोऽयोगिकेवलो गृहाते / तथा तम्यामुच्छासनिःश्वासाभ्यामपर्याप्तकश्वेह मिश्रः / स चापर्याप्तको देवादिर्जन्मकाल द्विविधस्य सम्यक्त्वश्रुतसामायिकस्य पूर्वप्रतिपत्रो / लभ्यते / यस्तु नोउच्छासकनिःश्वासको मिश्रः शैलेशीगत ऽयोगिजवली, स चारित्रसानायिक चशब्दात-- सम्यक्त्वसामायिकं चाश्रित्य पर्वप्रतिपन्नः प्राप्यत इति / दृष्टी नयविचारे प्रथमस्य व्यवहारनय - स्थासामायिकी--असामायिकावान सामायिक प्रतिपद्यते, द्वितीयस्य तु निश्चयनयस्य सामायिकी-सामायिकवान सामायिकं प्रतिपद्यात इत्येवमादिव्यवहारनिश्चयनयमतं मतिज्ञानलाभ इवात्रापि विज्ञेयम् इति नाथाट्टयार्थः। (48) अन्याहारकपर्याप्तकद्वारद्वयमाह-- आहारगो उ जीवो, पडिवज्जइ सो चउण्हमण्णयरं। एमेव य पजतो, सम्मत्तसुए सिया इयरो॥२७१७।। आहारयतीत्याहारक रस्तु या जीवः स चतुर्णा सामायिकानां प्राग्वदन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव, षडभिः पर्याप्तिभिः पर्याप्तकोऽप्येवमव चतुर्णानन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वरस्यव। 'सम्मत्तसुए सिया इथरों ति--इतरोऽनाहारकोऽपर्याप्तकश्य, तत्रानाहारकोऽपान्तरालगतौ सम्यक्त्वश्रुत अङ्गीकृत्य स्य भवेत पूर्वप्रतिपन्नः, 'प्रतिपद्यमानस्तु नैव' इति वाक्यशेधः। केवली तु समुद्धातशलश्यवस्थायामनाहारको दशनचरमसामायिकद्धयरय पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते, अपर्याप्तोऽपि सम्यक्त्वश्रुते अधिकृत्य स्यात् पूर्वप्रतिपन्नः / इति नियुक्तिगाथार्थः। अत्र भाष्यम-- पुव्वपवण्णोऽणाहा-रगो दुगं सो भवंतरालम्मि। चरणं सेलेसाइसु, इयरो त्ति दुगं अपज्जत्तो / / 2718| मतार्था, नवरं 'चरण सेलेसाइसु त्ति-आदिशब्दात्- समुद्धातपरग्रहः / ततश्च शैलेण्यां समुद्धाले च केवल्यनाहारकवरणस्योपलक्षणत्वात् सम्यक्त्वसामायिक चारित्रसामयिक चाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्नः पाप्यते / इवर स्त्वपर्याप्तको देवादिजन्मकाले सम्यक्त्वश्रुतलक्षणसामायिकद्रिकमाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते इति। (46) साम्प्रतं सुप्तजन्मद्वारद्वयव्याचिख्यासयेदमाहनिद्दाइभावओ विय, जागरमाणो चउण्हमण्णयरं। अंडय तह पोयजरो-वयाइदो तिण्णि चउरो वा / / 2716 // / इह सुप्तो द्विविधः-द्रव्यसुप्तः, भावसुप्तश्च। एवं जाग्रदपीति।तत्र द्रव्यसुप्तो निद्रया, भावसुप्तस्तु मिथ्यादृष्टिः / तथा द्रव्यजागरोनिद्रारहितः, भावजागरः सम्यग्दृष्टिः / तत्र निद्रया भावतोऽपि च जागच्चतुर्णा सामायिकानामन्यतरत् प्रतिपद्यते। 'पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव' इत्यध्याहारः / अपिशब्दो विशेषणे / किं विशिनष्टि? भावजागरः सम्यगदृष्टिद्वै आद्यसामायिके प्रतीत्य पूर्वपतिपन्न एव व्यवहारनयमतेन भवेत्, निश्चयनयमतेन तु तत्प्रतिपत्ताऽपि भवति / चरणं देशविरतिं चाश्रित्य रिपन्नः नयाश्च भवति। निद्रासुप्तस्तु चतुर्गामपि प्रतिपक्षी भापति नन प्रतिमामानकः, निद्रासुप्तस्य तथाविधविशुद्धयादि. सागरा भातात / भावसुपस्त-भयविकलः, तस्य भिश्यादृष्टिन्यात. क्ष्यनि च "मिछछो 3 भावसुत्तो न पवजई" इति। असदा-नियमतो निश्चराव्यवहारनया भिनायात् स भावसुप्तः सम्यक्त्वश्रुतसामायिकदयप्रतिपत्ति-कालेसम्यगदृष्टिा मिथ्यादृष्टिाऽभिहितः, तथा च वक्ष्यते- 'सोऽहवा नयमयाओ। सम्मो वा मिच्छो वा, निच्छयववहारओभिहिओ' इति / इदमुक्तं भवति-निश्चयनयस्य सम्यग्दृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, व्यवहारनयस्य तु मिथ्याग्दृष्टिः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते। अतो व्यवहारनयमरोन भावसुप्तो मिथ्यादृष्टिः, सम्यक्त्वादिसामायिकद्वयरय प्रतिपत्ता लभ्यत इति। जन्म चतुर्विधम्-अण्डजम्, पतिजम, जरायुजम, आपपातिक चेति / तत्राण्डजा-हंसादयः, पोतजा-हस्त्यादयः. जरायुजा-मनुष्याः , औपपाति-का-देवनारकाः / एतेषां यथासंभव द्वे, त्रीणि, चत्वारि वा सामा-यिकानि भवन्ति / तत्र हसादयो त्रीणि वाऽऽद्यसामायिकानि कदाचित् प्रतिपद्यन्ते, पूर्वप्रतिपन्नास्त्वेषां ते नियमतः सन्त्येव। एवं पोतजा हस्त्यादयोऽपि वक्तव्याः / जरायुजास्तु मनुष्याश्चत्वार्यपि सामायिकानि प्रतिपद्यन्ते, पूर्वप्रतिपन्नास्तु तेषां नियमतः सन्ति, देवनारकाः पुनराद्ये द्वे सामायिके प्रतिपद्यन्ते,प्रतिपन्नारत्वरय सामायिकद्वयस्य त नियमतः सन्ति / इह च मूलावश्य.... कनियुक्तयामेवं पाठो दृश्यते-'अंडज पोयज जराउय तिगतिग चउरो भवे कमसो" इति,टीकाया तु तत्रैवं व्याख्यानमभिवीक्ष्यते-जन्म त्रिविधम--अण्डज-पोतज जरायुजभेदभिन्नम् / तत्र यथासंख्यतिगतिगचउरो भवे कमसो। ततोऽण्डजादीनां त्रया--णामपि व्याख्याने कृते पश्चाद् व्याख्यातम्- 'औपपातिकास्तु प्रथमयोर्द्वयोरेव' इति / भाष्यटीकाकृताऽप्येतद् मूलावश्यकटी-कागतं सर्व प्रायस्तदवस्थमेव लिखितम् / भाष्य तु गाथामप्यौ–पपातिकानामुपादानं कुते दृश्यते। ततोऽस्या गम्भीरोक्तेः समाधानं बहुश्रुता एव विदन्ति / अस्माभिस्तु यथा भाष्ये दृष्ट तथा व्याख्या-तम्, संगतमसंगतं वति पुनस्त एव जानन्ति / इति नियुक्ति-गाथार्थः। अथ भाष्यव्याख्यानम्सम्मदिट्टि किर भा-वजागरो दुण्णि पुव्वपडिवन्नो। होज पडिवज्जमाणो, चरणं सो देसविरइं च / / 2720 / / मिच्छो उ भावसुत्तो, न पवजइ सोऽहवा नयमयाओ। सम्मो वा मिच्छो वा, निच्छय-ववहारओऽभिहिओ॥२७२१|| चउरो जराउजम्मे, हुज्ज-पवण्णो पवज्जमाणो वा। सेसे तिन्नि पदण्णो, दोणि तओ वा पवज्जेज / / 2722|| तिस्रोऽप्युक्तार्था एवेति / नवरं 'सेस तिन्नि पवण्णो' इत्या Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 722 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय दि, इह शेषग्रहणेनाण्डजपोतजलक्षणं जन्मद्वयमेव गृह्यते,औपपातिकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाश्चाद्ययोद्वयोरेव भवन्तीति द्रष्टव्यमिति। (50) अथ स्थितिद्वारमाहउक्कोसयट्ठिईए, पडिवज्जंते य नत्थि पडिवण्णो। अजहण्णमणुक्कोसे, पडिवजे यावि पडिवण्णे // 2723 / / आयुर्वर्जाना ज्ञानावरणादिकर्मणा त्रिशत्सागरोपमकोटीकोट्या- | दिकायामुत्कृष्टस्थितौ वर्तमानो जीवश्चतुर्णामपि सामायिकानां न प्रतिपद्यमानको न चापि पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते, तस्यातिसंक्लिष्टत्वेन तदसम्भवात् / आयुषस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमलक्षणायामुत्यष्टस्थिती वर्तमानोऽनुत्तरसुरः पूर्वप्रथमसामायिकद्वयस्य प्रतिपन्नः प्राप्यते, सप्तमपृथिव्यप्रतिष्ठाननारकस्तु षण्मासावशेषायुस्तथाविधविशुद्धियुक्तत्वादस्यैव सामायिकद्वयस्य प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च लभ्यते; तथा च वक्ष्यति-'आउक्कोसे दोण्णि उपवजमाणो पवण्णो वा' इति / जघन्यायां तु क्षुल्लकभव-ग्रहणलक्षणायामायुःस्थिती वर्तमानो निगोदादिश्चतुर्णामपि न प्रतिपद्यमानको नापि पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते,तस्या विशुद्धत्वेन तदयोग्यत्वादिति। शेषे तु ज्ञानावरणादि-कर्मसप्तकेजघन्यामन्तर्मुहूर्तादिकां स्थिति बध्नन् दर्शनससकातिक्रान्तोऽन्तकृल्केबलित्वप्राप्स्यन् क्षपको देशविरतिवर्जितस्य सम्यक्त्वश्रुतसर्वविरतिलक्षणसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नो लभ्यते,तस्यातिविशुद्धत्वेनातिज - घन्यस्थितिबन्धकत्वात्, क्षपकस्य च देशविरतेरसंभवात्सम्यक्त्वादिप्रतिपत्तेश्च पूर्वमेव संजातत्वादिति।जघन्यस्थितिकर्मबन्धकत्वेन चेह जघन्यस्थितिकत्वं गृह्यते, नतूपातकर्मसत्तापेक्षयेति, व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेरिति / 'अजहण्णमणुक्कोसे' इत्यादि, अजघन्योत्कृष्ट तु कर्मण्यष्टानामपि कर्मणां मध्यमाया स्थिती वर्तमानो जीव इत्यर्थः / चतुर्णामपि सामायिकानां प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च लभ्यते / इति नियुक्तिगाथार्थः। अथ भाष्यमउक्कोसट्ठिइकम्मो,न पवजंतो न यावि पडिवण्णो। आउकोसे दुण्णि उ.पवजमाणो पवण्णो वा // 2724 / / न जहण्णा उ ठिईए.पडिवज्जइ नेयपुर्वपडिवण्णो। सेसे पुथ्वपवण्णो,देसविरइवज्जिए होज्ज / / 2725 / / व्याख्यातार्थे एव। (५१)साम्प्रतं वेदसंज्ञाकषायद्वारत्रयं व्याचिख्यासुराहचउरो वितिविहवेए, चउसु वि सण्णासु होइ पडिवत्ती! हेट्ठा जहा कसाएँ सुवणियं तह य इहयं पि॥२७२६|| चत्वार्यपि सामायिकानि-स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणे त्रिविधेऽपि वेदे प्राप्यन्त इदमुवत भवति-चत्वार्यपि सामायिकान्यधिकृत्य त्रि विधवेदे विवक्षित काले प्रतिपद्यमानकः संभवति, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वर येव / अवेदस्तु देशविरतिरहितानां त्रयाणां पूर्वप्रतिपन्नः स्यात्, न तु प्रतिपद्यमानकः / तथा, चतसृष्वपि संज्ञास्वाहार-भयमैथुनपरिग्रहरूपासुचतुर्विधस्थापि सामायिकस्य भवति प्रति-पत्ति:-प्रतिपद्यमानको भवति, न न भवतीत्यर्थः, पूर्वप्रतिपन्नकरत्वस्त्येव / हे' तिअधो यथा पढमिल्लुआण उदए नियमा संजोयणा कसायाणं' इत्यादिना कषायेषु वर्णित तथेहापि वर्णयितव्यम्, सामान्येन तु सकषायी चतुर्णामपि प्रतिपद्यमामानकः, पूर्वप्रतिपन्नश्च भवति / अकषायी तु छास्थवीतरागो देशविरतिवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति, न तु प्रतिपद्यमानक इति। गतं वेदादिद्वारत्रयम्। (52) साम्प्रतमायुर्ज्ञानद्वारद्वयाभिधित्सया प्राह.. संखेज्जाऊचउरो; भयणा सम्मसुऐऽसंखवासाणं। ओहेण विभागेण य, नाणी पडिवजए चउरो॥२७२७।। संख्यातवर्षायुर्जीवश्चत्वारि सामायिकानि प्रतिपद्यने, प्रतिपन्नस्त्वस्त्येव' इति शेषः / भयणे तयादि भजना - विकल्पना सम्यक्त्वश्रुतसामायिकयोरसंख्येयवर्षायुषाम् / इयमत्र भावना-विवक्षितकालेऽसंख्येयवर्षायुषां सम्यक्त्वश्रुतयोः प्रतिपद्यमगनकः सम्भवति पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येवेति द्वारम् / 'ओहेणे' त्यादि ओघेनसामान्यतः निश्चयनयमतेन ज्ञानी चत्वार्यपि सामायिकानि प्रतिपद्यते, व्यवहारनयमतेन त्वज्ञानिन एव सम्यक्त्वश्रुतप्रतिपत्तः। पूर्वप्रतिपन्नस्तु ज्ञानी चतुर्णामप्यस्त्येव। विभागेनच भेदेन यदा ज्ञानी चिन्त्यत तदा मतिश्रुतज्ञानी द्वे सम्यक्त्वश्रुतसामायिके युगपत् प्रतिपद्यते / देशसर्वविरतिसामायिके तु भजनया प्रतिपद्यते / पूर्वप्रतिपन्नस्तु चतुर्णामप्यस्त्येव। अवधिज्ञानी तु सम्यक्त्व-श्रुतसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्न एव न प्रतिपद्यमानकः / देशविरतिसामायिकंतुन प्रतिपद्यते / देवनारकयतिश्रावका हि चत्वारोऽवधिस्वामिनः। तत्राद्यत्रयस्य देशविरतिप्रतिपत्तेरसम्भव एव, श्रावकोऽप्यवधिज्ञानं प्राप्य देशविरतिं प्रतिपद्यत इत्येव न,किन्तुपूर्वमभ्यस्तदेशविरतिगुणः पश्चादवधि प्रतिपद्यते, देशविरत्यादिगुणप्राप्तिपूर्वकत्वादवधिज्ञानप्रतिपत्तेरित्येतावद् गुरुभ्योऽस्माभिरवगतम्, तत्वं तु केवलिनो विदन्ति। सर्वविरतिसामायिकं तु प्रतिपद्यते। पूर्वप्रतिपन्नस्तु सर्वेषामप्यस्त्येव / मनःपर्यायज्ञानी तु देशविरतिरहितसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्न एव, न तु प्रतिपद्यमानः, युग-पद्वा सह तेन वा चारित्र प्रतिपद्यते तीर्थकृत् , उक्तं च- "पडिवन्नम्मि चरित्ते, चउनाणी जाव छउमत्थो" इति / भवस्थकेवलिसम्यक्त्वचारित्रसामायिकयोः पूर्वप्रतिपन्नो भवति, नतुप्रतिपद्यमानकः। इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः। भाष्यम्दोसु जुगवं चिय दुर्ग, भयणा देसविरइए य चरणे य। ओहिम्मि न देसवयं,पडिजइ होइ पडिवन्नो // 2728|| देसव्वयवजं माणसे पवन्नो समं पिच चरित्तं / Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 723 - अभिधान राजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय भवकेवले पवन्नो, पुव्वं सम्मत्तचारित्तं // 2726 / / उक्तार्थ एप,नवरं 'दोसु जुगवं चिय दुर्ग' ति-द्वयोर्मतिज्ञान - श्रुतज्ञानयोयुगपदेव प्रतिपत्तिमाश्रित्य सम्यक्त्व श्रुतसामायिकद्वियः प्राप्यत इति। (53) अथ योगोपयोगशरीरद्वारत्रयाभिधित्सया प्राहचउरो तिविहे जोए, उवओगदुगम्मि चउरो पडिवजे। ओरालिए चउकं, सम्मसुयविउव्विए भयणा।।२७३०।। चत्वार्यपि सामायिकानि सामान्यतस्विविधयोगे मनोवाकायलक्षणे साद पतिपत्तिमाश्रित्य विवक्षिते काले सम्भवन्ति, प्राक्प्रतिपन्नतांत्वधिकृत्य / चिन्न एका विशेषतस्तवौदारिककाययोगवति योगत्रये चत्वार्युभयथाऽपि लभ्यन्ते / वैकियसहिने तु योगत्रये सम्यक्त्वश्रुते उभयथाऽपि प्राप्यते देशसर्वविरतीत पूर्वप्रतिपन्ने लभ्यते / आहारकयुक्ते तु योगत्रये देशावरतिरहितानि प्राणि पूर्वप्रतिपन्नानि भवन्ति, तैजसकार्मणयोग एव बन्न यान्तराल वाध सामायिकद्वयं प्राक् प्रतिपन्नतामधिकृत्य प्राप्त मालिसमुद्धाले तु सम्यक्त्वचारित्र-सामायिक पूर्वप्रतिपन्ने / प्राप्यते। मनायोगे केवलेन किचित् तस्यैवाभावात् / एवं वग्योगेऽपि कायवाग्योगद्वय द्वीन्द्रियादिपुत्पन्नमात्रस्य सास्वादनस्य पूर्वप्रतिपन्ने-. राम्रकत्वश्रुत प्राप्येत इत्यलं विस्तरेण / 'उवओगत्यादि, साकारानाकारभेद उपयोगे उपयोगद्वर्य चत्वारि प्रतिपटाले प्राक प्रतिपन्नस्तु विद्यत एव / अत्राऽऽक्षेपपरिहारौ भाष्यकार एव वक्ष्यति / 'ओरालिए' इत्यादि, औदारिक शरीरे सामायिक चतुष्कम् .. भयथाऽप्यस्ति। सम्यक्ता श्रुतयोवैक्रियशरीरे भजना-विकल्पना कार्या देवादि कदाचेत त प्रतिपदाले कदाचिद नेति। देशविरति सर्वविरति... सामायिके तु वैब्रियशनरिण स्तर्यन मनुप्राः अपि न प्रतिपद्यन्ते / / विक्रि याप्रवृतित्वेन दिल तेषा भत्तत्वादिति / पूर्वप्रतिपन्नस्तु वैक्रियशरीरे चतुर्णामपि प्राप्यत एव! शेषशरीरविचारः प्रस्तुतगाथायामेवादौ निरूपितयोग-द्वारानुसारत एव भावनीय, इति नियुक्तिगाथार्थः। / यदुक्तम् 'उवओग दुगम्मि चउरो पड़िवजे' इति / तत्र भाष्यकार: प्रेर्यमुत्थापयन्नाहसध्यओ लद्धीओ, जइसागारावओगभावम्मि। इह कहमुवओगदुगे, लब्भइ सामाइयचउक्क / / 2731 // आह ननु, 'सव्वाओलद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवति' इत्यागमे प्रोक्तम्, ततो यदि एतस्मादागमात् सर्वा अपिलब्धयः साकारोपयोग / एव भवन्ति; तर्हि कथमिह प्रोच्यते- 'उपयोगद्वयेऽपि सामायिकचतुष्टय लभ्यते' इति? अत्र परिहारमाहसो किर निअमो परिव ड्रमाणपरिणामयं पइ इहं तु। जोऽवट्ठियपरिणामो,लभेज सलभिज बीए वि॥२७३२।।। 'सव्वाओ लद्धीआ' इत्यादिको यस्त्वयाऽऽगमोक्तनियमाऽभिधीयते स किल परिवर्धमानपरिणामकं जीवं प्रति द्रष्टव्यः / इह च प्रस्तुते योऽवस्थितपरिणामो जीवः सामायिकानि लभते,स द्वितीयेऽप्यनाकारोपयोगे लभेत तानि, इति न विरोधः / अह ननु योगमन्तकारोपयोमेऽपि लब्धौ सत्यां सजाओ लद्धीओ सागरोदओग' इत्याद्यागमे साकाशेपयोगस्यैद ग्रहण किमर्थम / इत्याशङ्कयाह-- पायं पवद्यमाणो, लभए सागारगहणया तेण! इयरो उजइच्छाए, उवसमसम्माइ लाभम्मि!।२७३३।! प्रायो-बाहुल्यन वर्धमानः-प्रवर्धमानपरिणाम एव जीवो लब्धीलभत, तेनागमे साकारोपयोगस्यैव ग्रहणं कृतम् / इतरस्त्ववस्थितपरिणामी यदृच्छया सकृत कदाचिदेवौपशमिकसम्यक्त्वादिला मकाले प्राप्यले इत्यनाकारोपयोगस्य स्वल्पत्वेन सतोऽप्यविवक्षितत्वात सूत्रऽग्रहणम। आदिशब्दात्- श्रुतदेशसर्वविरतिसामायिकलाभपरिग्रहः / अयमन्त्र भावार्थः,यथा-- "सव्वाओ लडीओ सागारोवओग'' इत्यादिक आगमः, तथा...'उवओगद्गम्मि चउरो पड़िवजे' इत्ययमप्यागम एव, अतः परस्परप्रतिस्पर्द्धिसैद्धान्तिकवचसा व्यवस्था न्याय्या। सायम्- याः सम्यक्त्वं लब्ध्वा मिथ्यात्वं गताना पुनरपि कुतश्चित् शुभाद-यात प्रतिक्षणं प्रवर्धमानाध्यवसायवतां सम्यक्त्वचारित्रादिलब्धयो भवन्ति, याश्वावध्यादिलब्धय उत्पद्यन्ते ताः सर्वाः साकारोपयोगोपयुक्तरय द्रष्याः। यास्तु प्रथमसम्यक्त्वलाभकालेऽन्तरकरणपविष्टस्यावस्थिताध्यवसायस्थ सम्यक्त्वादिलब्ध्यो भवन्ति ता अनाकारोपयोगेऽपि भवन्ति न कश्चिद्दोषः / अन्तरकरणे च वर्तमानः सम्यक्त्व-श्रुतसामासिकलाभसमकालमेव कश्चिदतिविशद्धत्वादेशविरतिम, अपरस्त्वतिविशुद्धत्वात् सर्वविरतिमपि प्रतिपद्यते; इत्यौपशमिक-सम्यक्त्वलाभकालेऽवस्थितपरिणामस्यानाकारोपयोगवर्तिनोऽपि चत्वार्यपि सामायिकानि भवन्ति,स्वल्पत्वचैतदत्रागमे न विवक्षितमिति / (54) कथं पुनरिदमौपशमिकसम्यक्त्व जीवस्याभ्युपगन्त-. व्यम् इत्याहऊसरदेसं दब्डि-लयं व विज्झाइ वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्म मुणेयव्वं // 2734 / / यथोषरदेश पूर्ववद् दग्धप्रदेशंवा प्राप्य वनदवो विध्याति, इत्येवमन्तरकरणं प्राप्य मिथ्यात्वस्यानुदये मिथ्यात्वोदयवहायुपशान्त औपशमिक सम्यक्त्वं जीवस्य मुणितव्यमिति। कदा पुनरिदं भवति? इत्याहउवसामगसे ढिगय-स्स होइ उवसामगं तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं // 2735 / / प्रागुक्तार्था / (55) कथं पुनरस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभेऽवस्थितपरि णामत्वम्? इत्याहजं मिच्छण्णाणुदओ, न हायए तेण तस्स परिणामो। जं पुण सयमुवसंतं, न वड्डए तेण परिणामो // 2736|| यद्-- यस्मादन्तरकरणे मिथ्यात्वस्यानुदय स्तेन तस्माद् न हीयते तस्य परिणामः, हानि कारणाभावात / यस्मात् पुनः सत्तागतं मिथ्यात्वमुपशान्तं विष्क भितो दयमपनीत - मिथ्यास्वभाव च, तेनास्य परिणामो न वर्धते / यथा हि-वनद Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 724 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय वो दाह्याभावाद् न वर्धते; किन्तु विध्यायति,इत्येवं वेद्यस्य मिथ्यात्वस्याभावात् तत्क्षपणाया निवृत्तिकरणवद् नौपशमिकसम्यग्दृष्टः परिणामो वर्धत किन्त्ववस्थित एवास्ते, अतोऽवस्थितपरिणामत्वमिति / (56) ओरालिए चउक्क इत्यादेव्याख्यानमाहदुगपडिवत्ती वेउ-व्वियम्मि सव्वाइँ पुथ्वपडिवन्नो। देसव्वयवजाई, आहाराईसुतीसुंतु // 2737 / / / उक्तार्था / नवरमाहारकशरीरे देशविरतिवर्जसामायिकत्रयं पूर्वप्रतिपन्नमवाप्यते, चतुर्दशपूर्वविदो देशविरतेरभावात्, शेषाणा तु पूर्वप्रतिपन्नत्वेन प्रतिपत्तेरसम्भवादिति / तैजसकार्मणयोस्तु केवलिसमुद्घाते चतुर्थपञ्चमतृतीयसमयेषु सम्यक्त्वचारित्रसामायिकस्य विग्रहगतौ तु सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नः प्राप्यते। इति गाथासप्तकार्थः। (57) अथ संस्थानादिद्वारत्रयमाहसव्वेसु वि संठाणे-सु लहइ एमेव सव्वसंघयणे। उक्कोसजहन्नं व-ज्जिऊण माणे लभे मणुओ // 2738|| संस्थितिः संस्थानमाकारविशेषलक्षणम् / तच्च ‘समचउरंसे निग्गोहमंडले' इत्यादिभेदात् घोढा / तत्र सर्वेष्वपि संस्थानेषु लभतेप्रतिपद्यते चत्वार्यपि सामायिकानि, 'प्राक् प्रतिपन्नोऽप्यस्ति' इत्यध्याहारः। (संहनने)'एमेव सव्वसंघयणे' त्ति-संहन्तिः संहननमस्थिसञ्चयविशेषः, तानि च / वजर्षभनाराचादिभेदात् षड् भवन्ति / एतेषु च यथासंस्थानेष्वेवमेव निरवशेषो विचारः कर्तव्यः, पूर्वप्रतिपन्नानि प्रतिपद्यमानानि चैतेष्वपि चत्वारि लभ्यन्त इत्यर्थः। (अवगाहना)'उक्कोसे' इत्यादि मीयते इति मानं-शरीरस्य प्रमाणमवगाहनेत्यर्थः / तत्र मनुष्यस्योत्कृष्टमानं त्रीणि गव्यूतानि, जघन्य त्वइगुलासख्येयभाग, एतदुत्कृष्ट जघन्यं च मानं वर्जयित्वा मध्यमशरीरमाने वर्तमानो मनुष्यो लभते-प्रतिपद्यते 'चत्वार्यपि सामायिकानि' इति प्रक्रमाद् गम्यते। पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्त्येव / जघन्यावगाहस्तु गर्भजमनुष्यः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नः सम्भवति / नतुप्रलिपद्यमानकः उत्कृष्टावगाहनस्तु। त्रिगव्यूतः सम्यक्त्व-श्रुतयोधिाऽप्यस्ति। नारकदेवा अपि जघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति न तु प्रतिपद्यमानकाः / मध्यमोत्कृष्ट वगाहनास्त्वेतयोः प्रतिपद्यमानकाः सम्भवन्ति, पूर्वप्रतिपन्नास्तु सन्त्येव, तिर्यश्वस्तु पञ्चेन्द्रिया जघन्यावगाहनाः सम्यक्त्वश्रुतयोः पूर्वप्रतिपन्नाः सम्भवन्ति नतु प्रतिपद्यमानकाः उत्कृष्टावगाहनास्तु षड्गव्यूतास्तयोxिधाऽपिलभ्यन्ते। मध्यमावगाहनास्तु द्वयोस्त्रयाणां वा सर्वविरतिवर्जितानां प्रतिपद्यमानकाः | सम्भवन्ति पूर्वप्रतिपन्नास्तु त्रयाणा सन्त्येव इति नियुक्तिगाथार्थः / अथ भाष्यमन जहन्नोगाहणओ, पवज्जए दोण्णि होज्ज पडिवन्नो। उकोसोगाहणगो,दुहा विदो तिन्नि उतिरिक्खो।।२७३९।। / __ जघन्यावगाहनो गर्भजमनुष्यस्तिर्यक् च न किशित् प्रतिपद्यते, द्वयोस्त्वाद्ययोः पूर्वप्रतिपन्नो भवेत् / उत्कृष्टावगाहनस्वनयोर्द्विधाऽपि पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमानकश्व भवति। मध्यमावगाहनो मनुष्राश्चतुर्णामपि सामायिकानां पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमानश्च लभ्यत इति द्रष्टव्यम् / पशेन्द्रियतिर्यक् पुनर्द्वयोराद्ययोः त्रयाणां वा सर्वविरतिवर्जिताना 'द्विधापि' इत्यत्रापि वर्तत, पूर्वप्रतिपन्नः प्रतिपद्यमानश्च भवति इति गाथार्थः। (58) अथलेश्याद्वारमाहसम्मत्तसुयं सव्वा-सु लहइ सुद्धासु तीसु य चरित्तं / पुव्वपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ लेसाए।।२७४०।। सम्यक्त्वश्रुतसामायिके सर्वास्वपि कृष्णादिकासुशुक्लान्तास षट्स्यपि लेश्यासु लभते-प्रतिपद्यते नरकादिः / चारित्रं तु देशसर्वविरतिलक्षणं शुद्धास्वेवोपरितनीषु तैजसीपद्मशुक्ललक्षणासु तिसृथु लेश्यासु प्रतिपद्यते / पूर्वप्रतिपन्नः पुनः षण्णामन्यतरस्यामपि लेश्यायां चारित्री सम्यग्दृष्टिश्च प्राप्यते। इति नियुक्तिगाथार्थः / अथ भाष्यकारः प्रेर्यमुत्थापयन्नाहनणु मइसुयाइलाभो-ऽभिहिओ सुद्धासु तीसु लेसासु / सुद्धासु असुद्धासु य, कहमिह सम्मत्तसुयलामो ? / / 2741 / / ननु पूर्व ज्ञानपाक विचारे मतिश्रुतादिज्ञानलाभः शुद्धास्वेव तैजसीप्रभृतिषु तिसृषु लेश्यास्वाभिहितः इह तु शुद्धास्वशुद्धोसु च षट्स्वपि सम्यक्त्वश्रुतलाभोऽभिधीयमानः कथं न विरुध्यत? इति। अत्र परिहारमाहसुरनेरइएसु दुगं, लब्भइ य दव्वलेसया सव्ये / नाणेसु भावलेसाऽ-हिगया इह दव्व लेसाओ॥२७४२|| इह तावत् सुरनारकेष्वपि सम्यक्त्वश्रुतसामायिकद्वयं लभ्यतएव तेच सुरनारकाः सर्वेऽप्यवस्थितद्रव्यलेश्या भवन्ति, यथासम्भवं षडपि कृष्णादिद्रव्यलेश्यास्तेष्ववस्थिताः श्रुते प्रतिपाद्यन्त इत्यर्थः / भावलेश्यास्तु तेषां परावृत्त्या कस्यचित् काचिदेव भवति / तिर्यग्मनुष्याणां त्ववस्थिता द्रव्यलेश्या न भवन्ति, किन्तु-द्रव्य-लेश्या, भावलेश्या च सर्वेषां परावर्तते। देवनारकाणामपि द्रव्य-लेश्यैवावस्थिता, भावलेश्या तु तेषामपि परावृत्त्या कदाचित् काचिदेव भवति / ततश्च सुरनारका अपि यदा सम्यक्त्वादिकं लभन्ते तदा भावलेश्या तेजस्यादीनामन्यतरा शुद्धव भवति, अशुद्धा तु नित्यावस्थितत्वात् तेषां द्रव्यलेश्यैव द्रष्टव्या न तु भावलेश्या / एवं च स्थिते ज्ञानेषु मत्यादिषु पूर्व लाभचिन्तायां भावलेश्यैवाधिकृता भावलेश्यामेवाङ्गीकृत्यशुद्धलेश्या-शये तल्लाभ उक्त इत्यर्थः / इह तु सम्यक्त्वश्रुतसामायिकलाभचिन्तायां देवनारकानाश्रित्य द्रव्यलेश्या अधिकृताः, तेन सुद्धास्वसुद्धासु च सर्वासु लेश्यासुतलाभ उक्त इति भावः। भावलेश्यामङ्गीकृत्यपुनरिहापिशुद्धारवेव तिसृषुतैजस्यादिलेश्यासुतलाभोऽवगन्तव्यः। इति नकश्चिद् विरोधः। आहननु यदि देवनारकाणां कृष्णादिका अशुभा द्रव्यलेश्याः सदाऽवस्थिता Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 725 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय भवन्ति तदा सम्यक्त्वादि-लाभकाले कथं तेषां शुभभावले श्यासम्भवः / द्रव्यलेश्या हि भावलेश्या जनयन्ति। ततः कृष्णादिलेश्या द्रव्याराशुभ:नि कथं शुभभावले श्याजनयेयुः, अशुभकारणात् शुभकार्यायोगात्? इति सत्यम्, किन्तु-नारकादीनामपि सम्यक्त्वादिलाभकाले कथमपि यथाप्रवृत्तिकरणेन शुभानि तैजस्यादिद्रव्यलेण्याद्रव्याण्याक्षिप्यन्ते / ततो यथाऽऽदर्शः श्वेतोऽपि जपाकुसुमादिवस्तुप्रतिबिम्बसंक्रान्ता रक्तादिरूपता प्रतिपद्यते तथा कृष्णाघशुभद्रव्याण्यपिजस्यादिशुभद्रव्यप्रतिबिम्बसंक्रमे निजरूपोत्कटतां परित्यज्य तदाभासतां प्रतिपद्यन्ते / ततो नारकादीनामपि कृष्णाद्यशुभद्रव्यानुभवं मन्दतां नीत्वा शुभानि तैजस्यादिद्रव्याणि शुभां भावलश्या जनयन्त अताऽवस्थितायामपि कृष्णादिद्रव्यलेश्यायां नारकदवानां सम्यक्त्यादि लाभकाले शुभभावलेश्यासम्भवो न विरुच्यते / इत्यलं विस्तरेण / तदर्थना तु- "से नृणं भंते ! किण्हलेसा नीललेसं पप्प नो तारूवत्ताए, नो तावन्नत्ताए' इत्यादि प्रज्ञापनासूत्रं मूलावश्यकटीकादिलिखितमनुसरणीयम् इति गाथाद्वयार्थः / (56) अथ परिणामद्वारमाह-- वडते परिणामे,पडिवजइ सो चउण्हमण्णयरं / एमेव वड्डियम्मि वि, हायंतें न किंचि पडिवझे // 2743 // परिणामः- अध्यवसायविशेषः / तत्र शुभशुभतररूपतया वर्धमाने परिणामे प्रतिपद्यते स वर्धमानपरिणामो जीवश्चतुर्णा सम्यक्त्वादिसामायिकानामन्यतरदिति / एवमेव पूर्वोक्तन्यायेनान्तरकरणादावास्थित पिशुभ परिणामे प्रतिपातरा चतुर्णामन्यतरदिति। हीयमाने तु क्षीयमाणे शुभे परिणाम न कश्चित् सामायिकम् प्रतिपद्यते, संग्लिटत्वात्। प्राकप्रतिपन्नस्तु त्रिष्वपि परिणामेषु भवतीति। (60) अथ वेदनासमुद्भातकर्गद्वारद्वयमाहदुविहाएँ वेयणाए, पडिवजह सो चउण्हमण्णयरं। असमोहओ वि एमे--व पुवपडिवन्नए भयणा / / 2744|| द्विविधायां वेदनायां साता-5सातरूपायां सत्या प्रतिपद्यते स / चतुर्णामन्य तरत, प्राक्प्रतिपन्नश्च भवतीति द्वारम्। समएकीभावे, उतप्राबल्ये, बदना--कषावाद्यनुभवपरिणामेन सहै कीभावमापन्नस्य जन्तार्वेदनीयादिकर्मपुद्रलाना प्राबल्येन हननं -घातः समुद्धातः / स च केलिसमुद्रातादिभेदात् सप्तविधः, उक्त च- 'केवलिकसायमरणा, क्षेप्रणबउब्धिते व आहारे। सत्तविह-समुन्याआ, पन्नतो वीयरागेहिं / / 1 / / समुदघाते एव कम...क्रिया समुद्धातकर्म तद्द्वारमितः प्रोच्यते / तत्र फतल्यादेसमुद्धातन समवहतस्य विपक्षोऽसमवहतः / सोऽप्येवमेव वेदनाबदहाच्यः, चतुर्णा प्रतिपद्यमानकः पूर्वप्रतिपन्नश्च भवतीत्यर्थः / 'पुथ्वपडिवण्णए भयण' त्ति-इदं साध्याहारं व्याख्येयम्, तद्यथा-यस्तु केवल्यादिसप्तविधसमुद्धातेन समबहतः स न किशित् सामायिक प्रतिपद्यत / पूर्वप्रतिपन्नके तु भजना-सेवना समर्थना-विधिः कार्य इति यावतः सन्नवहतो हि सामायिकद्वयस्य त्रयस्य वा पूर्वप्रतिपन्नका भवति। तत्र कवलिसमुद्धाते सम्यक्त्वचारित्रसामायिकद्वयस्य पूर्वप्रतिपन्नको लभ्यते। शेषसमुद्धातेषु पुनर्देशविरतिवर्जसामायिकत्रयस्य चारित्रवर्जस्य वा सामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नःप्राप्यते इति नियुक्तिगाथार्थः। विशे० / आ०म० (61) निर्वेष्टनोद्धर्तनद्वारद्वयमाहदव्वेण य भावेण य, निव्वेट्टतो चउण्हमण्णयरं। नरएसु अणुव्वट्टे, दुग तिग चउरो सि उव्वट्टे ||2745 / / द्रव्यतः सामान्येन सर्वकर्मप्रदेशान्,विशेषतस्तु तस्य चतुर्विधस्य सामायिकस्य यदावरण ज्ञानावरणमोहनीयलक्षण तत्प्रदेशान् निर्वेष्टयन् निर्जरयन्, भावतस्तु क्रोधाद्यध्यवसायान् निर्वेष्टयन हा(प) ययश्चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नस्त्वस्येव / संवेष्टयंस्त्वनन्तानुबध्यादीन न प्रतिपद्यते, शेषकर्म त्वङ्गीकृत्योभयथाऽप्यस्ति। नरकेष्वधिकरणभूतेष्वनुद्वर्तयंस्तत्रस्थ एवेत्यर्थः, आद्यं सामायिकद्वयं प्रतिपद्यते,तदेव चाधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो भवति / तत उवृत्तः स्यात् कदाचित् तिर्यक्षुत्पन्नः सर्वविरतिवर्ज सामायिकत्रयं प्रतिपद्यते, कदाचित्तु मनुष्य षूत्पन्नश्चत्वार्यपि प्रतिपद्यते, पूर्व प्रतिपन्नस्त्वस्त्येव इति नियुक्तिगाथार्थः। भाष्यम्कम्मं निव्वेट्टतो, पवनइ विसेसओ तदावरणं / दव्वं कम्मपएसे, भावे कोहाइ हावितो // 2746 / / उक्तार्थव। तदेवोद्वर्तनाद्वारं तिर्यगादीनधिकृत्याहतिरिएसु अणुव्वट्टे, तिगं चउक्कं सिया उ उव्वट्टे / मणुएसु अणुव्वट्टे, चउरो वि तियं सि उव्वट्टे ||2747 / / देवेसु अणुव्वट्टे, दुग तिग चउरो सिया उ उव्वट्टे / उव्वट्टमाणओ पुण, सव्वो विन किं चि पडिवजे / / 2748|| तिर्यक्षु गर्भजष्वनुवृत्तः संस्त्रिकमाद्यं सामायिकत्रयमधिकृत्य 'प्रतिपत्ता पूर्वप्रतिपन्नश्च भवति' इत्यध्याहारः / 'चउक्क' मित्यादि तिर्यग्भ्य उवृत्ता मनुष्यादिष्वायातः स्थात् कदाचिच्चतुष्कम्, स्याद् ग्रहणादिदमपि द्रष्टव्यम्। स्यात् त्रिकम्, स्याद् द्विकमधिकृत्योभयथाऽपि भवतीति। 'मणुएसु अणुव्वट्टे चउरो' त्ति-मनुष्ये-ष्वनुवृत्तः संश्चत्वारि प्रतिपद्यते, प्राक् प्रतिपन्नश्च भवति। बितिय सि उट्वट्टे' मनुष्येभ्य उवृत्तो देवनारकेषूत्पन्नः प्रथमं सामायिक-द्वयमधिकृत्योभयथाऽपि लभ्यते . तिर्यक्षुत्पन्नः पुनः सर्वविरति-वर्जसामायिकत्रिकमाश्रित्य द्विधाऽपि भवतीति। देवेसु अणुव्वट्टे दुग' त्ति-देवेष्वनुवृत्तः सन्नाद्यं सामायिकद्वयमाश्रित्योभयथाऽपि भवति। 'तिग चउरो सिया उउव्वट्टे त्ति देवेभ्य उवृत्तस्तिर्यक्ष्वायातः सर्वविरतिसामायिकत्रिकम्, मनुष्येषु त्वायातः सामायिकचतुष्कमप्याश्रित्योभयथापि स्यादिति / उद्वर्तमानः पुनरपान्तरालगतौ सर्वोऽप्यमरादिर्न किञ्चित् प्रतिपद्यते, प्राक् प्रतिपन्नस्तु द्वयोर्भवतीति। (62) आश्रवकरणद्वारमाहनीसवमाणो जीवो, पडिवजइ सो चउण्हमण्णयरं। Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 726 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय पुवपडिवनओ पुण, सिय आसवओवनीसवओ // 2746 // मिथ्यात्वमुक्तम्, ततः सम्यक्त्वं विनियुक्तं सर्वद्रव्यपर्यायेषु ; यत् सम्यक्त्वादिसामायिक प्रतिपद्यते तदावारकं मिथ्यात्व- श्रद्धानभावेन इति शेषः / यस्माच श्रुतज्ञानमनभिलाप्येषु न प्रवर्तते मोहनीयादिकर्म निश्रावयन-निर्जरयन्नेव शेषकर्म तु बध्नन्नपि जीवः अविषयत्वात् तेषाम्, किन्त्वभिलाप्येष्वेवार्थेषु तत् प्रवर्तते। न च द्रव्यं प्रतिपद्यते स चतुर्णामन्यतरदिति / यस्तु पूर्वप्रतिपन्नः सः, वाशब्दस्य धर्माऽस्तिकायादिकमनभिलाप्यं किन्त्वभिलाप्यमेव / ततः सर्वद्रव्येषु व्यवहितसंबन्धात् स्यादाश्रावको; बन्धक इत्यर्थः, निश्रावको वा श्रुतं प्रवर्तते, अभिलाप्यविषयत्वात्, तस्य, नपुनः सर्वभावेषु सर्वपर्यायेषु निर्जरकः स्यात् / निर्वेष्टनद्वारोक्त एवार्थोऽत्र पर्यायान्तरेणोक्तः, तेषामभिलाप्याऽनभिलप्यत्वात् श्रुतस्य चाभिलाप्यमात्रविषयत्वात्, परमार्थतस्त्वात्यन्तिकभेदाभावा-दिति। अभिलाप्यानां चानभिलाप्येभ्योऽनन्तभागमात्रवृत्तित्वादिति / 'बिइये' त्यादि द्वितीयचरमव्रते द्वितीयं मृषावादग्रतम् / चरमं तु परिग्रहव्रत(६३) अथालङ्कारशयनाऽऽसनस्थानचङ्कमणद्वारकद माश्रित्येह प्रक्रमे चारित्रं सर्वद्रव्येषु प्रवर्ततेन तु सर्वपर्यायेष्वित्युक्तम्, म्बकं व्याचिख्यासुराह मृषावादस्य वचनरूपत्वेन, परिग्रहस्य च मूर्छा विकल्पात्मकत्वेन उम्मुक्कमणुम्मुक्के,उम्मुच्चंते य केसलंकारे। द्रव्येष्वेव सर्वेषु प्रवत्तेः, तेषामेवामिलाप्यविषयत्वात्,पर्यायाणां पडिवञ्जिजं नयरं, सयणाईसं पि एमेव // 2750 / / त्वभिलाप्याऽनभिलाप्यत्वात्। अत एवाह-सर्वेषां पर्यायाणां चारित्रेऽनुके शोपलक्षितकटकके यूरहारकङ्कणवस्त्रताम्बूलाधलङ्कारः / पयोगभावात् ; अनुपयोगश्चानभिलाप्यानाश्रित्यमन्तव्यः / शेषाणि तु केशालङ्कारस्तत्रोन्मुक्ते परित्यक्ते, अनुन्मुक्ते च-अपरित्यक्ते, तथा त्रीणि महाव्रतानि सर्वद्रव्यविषयाण्यपि न भवन्ति, किमुतउन्मुञ्चश्व केशाद्यलंकारचतुर्णामन्यतरत् सामायिक प्रतिपद्यते। अत्रच सर्वपर्यायविषयाणि? अतोऽद्वितीयचरमवते एवाश्रित्य सर्वद्रव्या भरतचक्रवदिय उदाहरणं मन्तव्याः / एवं शयने,आसने, स्थाने, सर्वपर्यायविषयताचारित्रस्य भावितेति। 'चङ्क्रमणे च परित्यक्ते अपरित्यक्ते परित्यज्यमाने चैतासु सर्वपर्यायाणां चारित्रेऽनुपयोगभावात्, इति यदुक्तं तदुपजीव्य परः तिसृष्वप्यवस्थासु चतुर्णामन्यतरत् प्रतिपद्यते प्राक् प्रतिपन्नश्च सर्वत्र प्रेर्यमाहलभ्यते / इति नियुक्तिगाथाचतुष्टयार्थः तदेवमुक्तं विस्तरतः 'कहिं' नणु सय्वनहपएसा-णंतगुणं पढमसंजमहाणं। इति द्वारम्। छविहपरिवड्डीए, छट्ठाणासंखया सेठी।।२७५५।। अथ 'केषु' सामायिक लभ्यत इति द्वारमभिधातुमाह अण्णे के पजाया, जेऽणुवउत्ता चरित्तविसयम्मि। सव्वगयं सम्मत्तं, सुयचारित्ते न पनवा सके। जे तत्तोऽणंतगुणा, जेसिंतमतभागम्मि // 2756 / / देसविरई पडुया,दोण्ह वि पडिसेहणं कुन्जा / / 2751 // अन्ने केवलिगम्म-त्ति ते मई ते वि के तदन्महिया। अथ केषु द्रव्येषु पर्यायेषु च सामायिकम्? इति जिज्ञासायामु-च्यते एवं पि हुआ तुल्ला, नाणंतगुणत्तणं जुत्तं / / 2757 / / सर्वद्रव्यपर्यायगतं सम्यक्त्वम् सर्वद्रव्यपर्यायश्रद्धानरूपत्वात् तस्य। आह-ननुसंयमश्रेण्यां सर्वजघन्यत्वेन यत्प्रथमम्-आद्यं संयमस्थानं तथा-श्रुते-श्रुतसामायिके,चारित्रेचारित्रसामायिके द्रव्याणि सर्वाण्यपि तदपि पर्यायानाश्रित्य सर्वनभःप्रदेशानन्तगुणमागमे प्रोक्तम्-यावन्तः भवन्ति / विषयपर्यायास्तु न सर्वे तद्विषयः, श्रुतस्याभिलाप्य- सर्वस्यापि लोकालोकनभसः प्रदेशास्तदनन्तगुणपर्यायराशियुक्तं विषयत्वात्,पर्यायाणां चाभिलाप्याऽनभिलाप्यरूपत्वादिति / प्रथममपि संयमस्थानं श्रुतेऽभिहितमित्यर्थः। ततोऽन्यद् विशुद्धि चारित्रस्यापि 'पढमम्मि सव्वजीवा' इत्यादिना सर्वद्रव्याऽसर्वपर्याय- तोऽनन्तभागवृद्धम्, तदपरंत्वसंख्यातभागवृद्धम्, अन्यत्तु संख्यातभागविषयतायाः प्रतिपादितत्वादिति / देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि वृद्धम्, तदपरंतु संख्यातगुणवृद्धम्, अन्यत्त्वसंख्यातगुणवृद्धम्, तदपरं सकलद्रव्यपर्याययोः प्रतिषेधनं कुर्यात्-न सर्वद्रव्यविषयम्,नापि त्वनन्तगुणवृद्धमित्येवं पुनः पुनः क्रियमाणयाषविधपरिवृद्ध्याऽसर्वपर्यायविषयं देशविरतिसामायिकमिति भावः, इति नियुक्ति- संख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणैः षट्स्थानकैर्निष्पन्नासंयमश्रेणिर्भवतीति ततश्च गाथार्थः। के नाम तेऽन्ये समधिकाः पर्यायाः ये 'सर्वानुपयोगभावात्' इति वचनाअथ भाष्यकारव्याख्या चारित्रविषयानुपयुक्ताः प्रतिपाद्यन्ते? ये च- 'न उ सव्वपज्जवेसुं' एग पि असदहओ,जं दव्वं पज्जवं च मिच्छत्तं। इत्युक्ताभिप्रायात् ततश्चारित्रादनन्तगुणाः, येषां च पर्यायाणां विणिउत्तं सम्मत्तं, तो सव्वयदव्यभावेसु॥२७५२। तचारित्रमनन्तभागेऽभिधीयते? अमिलाप्यपर्यायविषयं हि किल चारित्रम्, ते चानभिलाप्यानामनन्तभाग एव वर्तन्ते, 'अतो-''न उ नाणमिलप्पेसु सुयं, जम्हा न य दव्वमणभिलप्पं ति। सव्वपज्जवेसुं इत्युक्तेऽनुपयुक्ताः पर्यायाश्चारित्रादनन्तगुणाः, चारित्रं सव्वदध्वेसुं तयं, तम्हा न उसव्वभावेसु // 2753 // तु तेषामनन्तभागे, इत्यनुक्तमपि सामर्थ्याद् गम्यत इति / एतच्च बिइयचरिमव्वयाई, पइ चारित्तमिह सव्वदवेस। किल परो न मन्यते, सर्वजघन्यस्यापि संयमस्थानस्य सर्वनमः नउसव्वपज्जवसुं, सव्वाणुवओगभावाओ॥२७५४|| प्रदेशानन्तगुणपर्यायत्वात्, पर्यायाणां च त्रिभुवनेऽप्येतावन्मात्रत्वात्, यद् यस्मादेकमपि द्रव्यं पर्यायं वा जिनप्रणीतमश्रद्दधतः सतो , चारित्रानुपयुक्तपर्यायाणामसम्भवादिति / 'अन्ने' इत्यादि, अत्रा Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 727 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय धार्थ ! ' तयंभूता मतिर्भवेचारित्रोपयुक्तेभ्योऽन्येऽपि केवलज्ञानगम्या अनभिलाप्या अनन्तगुणाः पर्यायाः सन्ति, ये चारित्रादनन्तगुणाः, चारित्रं तु येषामनन्तभाग इति / परः प्राह- 'ते वि के / सदभहिय' ति-तेऽपि केवलज्ञानगम्या ज्ञेयगता अनभिलाप्याः पर्यायाः / के तदभ्यधिकाः तेभ्यश्चारित्रोपयुक्तेभ्योऽभ्यधिका अतिरिक्ताः रयुः? न केचनेत्यर्थः, संयमस्थानपर्यायैः सर्वस्थापि त्रिजगत्पर्यायराशेः क्रोडीकृतत्वात् तदनुपयुक्तत्वासम्भवादिति। किञ्चएवमपि चारित्रयायाः केवलज्ञानगम्यैज्ञेयगतैः पर्यायैस्तुल्या एव भवेयुः, न पुनस्तेषां केवलज्ञानगम्यपर्यायाणामनन्तगुणत्वं युक्तम् / यावन्तोहिशेयस्य पर्यायास्तवन्तस्तदवभासकत्वेन ज्ञानस्याप्येष्टय्याः, अन्यथा तदवभासकत्वायोगात् / ततश्च ज्ञानदर्शनचारित्राध्यवसायात्मिकायाः संयमश्रेणरन्तर्गतत्वात केवलज्ञानस्य संयमश्रेण्यात्मकं चारित्रं पर्यायः केवलज्ञानगम्यानां ज्ञरागतपर्यायाणां तुल्यमेव युक्तं न हीनमिति। (64) एव परस्यातिप्रेयनिपुणत्वमवलोक्य सूरिरतिनिपुणमेव प्रतिविधानमा:सेढी य नाणदंसण-पञ्जाया तेण तप्पमाणा सा। इह पुण चरित्तमेत्तो-वओगिणो तेण ते थोवा // 2758 / / श्रेण्या ज्ञानदर्शन-चारित्राध्यवसायात्मिकाया संयमश्रेणो ज्ञानदनिपाया मध्ये संलुलिता विवक्षिताः, तेन तत्प्रमाणासौसर्वनभः प्रदेशानन्तगुणपर्यायराशिप्रमाणाऽसौ प्राक्ता / इह तु ये चारित्रोपयोगिनस्तएव विवक्षिताः, तेच ग्रहणधारणादिविषयभूता एव केचित, तेन स्ताका तिन दोषः। अथान्यत् प्रेयमुत्थापयन्नाहनणु सामाइयविसओ, किं दारम्मि वि परूविओ पुटिवं। कह न पुणरुत्तदोसो, होज इहं को विसेसो वा? ||2756 / / ननु पूर्व किद्वार एव से खलु पशक्खाणं आवार' इत्यादिना सामायिकान, विषयः प्ररूपित एव इह पुनरपि 'सव्वगयं सम्मत्त' इत्यादिना तविषयनिरूपणं कुर्वतः कथं न पुनरुक्तदोषो-भवेत्? को वा विशेषोऽत्र यमाश्रित्य पुनरप्येवमुच्यते? इति। अत्रोत्तरमाहकिं तं ति जाइभावे--ण तत्थ इह नेयभावओऽभिहियं / इह विसयविसइभेओ, तत्थाभेओवयारो त्ति // 2760 / / किं तत् सानायिकम्? इति जातिभायेन विषयविषयिणोरभेदं चेतसि विधाय सामायिकजातिमात्रमेव तत्र पूर्व किंद्वारेऽपरेण जिज्ञासितम्, ततः आया र लु सामइयं इत्यनन तदेव मुख्यतया प्रोक्तम्, तद्विषयस्तु चरण जिज्ञापितोऽपि विषयिणि पृष्टे तदभिन्नत्वाद् गौणवृत्त्यैव प्रोक्तः / इह तु केषु' इतिद्वारे विषय एव मुख्यतया परंण जिज्ञासितः, अतस्तस्यैव विषयस्य ज्ञेयभावेन ज्ञातव्यतयाऽभिहितं स्वरूपमित्युपस्कारः / पाठान्तर वा--'अभिहिउ' ति- तत्रायमर्थ:-इह तु ज्ञेयभावेनज्ञातव्यतया विषय एवाभिहितः। किमुक्त भवति?-इत्याह- 'इहे.' त्यादि, इह -केषु इतिद्वारे विषयविषयिणोर्भेदो विवक्षित इत्यतो निष्कृष्य विषय एव ज्ञेयभावेनोक्तः, तत्र तु किं द्वारे विषयविषयिणोरभेदोपचार इत्यतो विषयिभूतं सामायिकमेव ज्ञेयभावेन मुख्यतया निर्दिष्टम / इति गाथानवकार्थः / साम्प्रतं 'कथं सामायिकं लभ्यते?' इति द्वारे महाकष्टलभ्ये तल्लाभक्रमं दर्शयन्नाह-- 'माणुस्स' इत्यादिकाः 'अब्भुटाणे विणए' इति पर्यन्ता अष्टाविंशतिगाथाः / एताश्च पाटसिद्धा एव, कृचिद् वैषम्यसम्भवे मूलावश्यकटीकातो बोद्धव्या इति। कथमिति द्वारम् गतम्। विशे०। आ० म० / आ० चू०। (कथं सामायिकमवाप्यते इति माणुसत्त' शब्दे षष्ठे भागे गतम्।) (65) मानुषत्वे लब्धेऽपि एतैः कारणैः दुर्लभं सामायिकमिति प्रतिपादयन्नाहआलस्स मोहवन्ना, थंभा कोहा पमायकिविणत्ता। भयसोगा अन्नाणा, वक्खेव कुऊहला रमणा / / एएहि कारणेहिं, लखूण सुदुल्लहं पि माणुस्सं / नलहइ सुइं हियकरिं, संसारुत्तारणिं जीवो।। आलस्यान्न साधुसकाशं गच्छति शृणोति वा, तथा-मोहात् गृह.. कर्तव्यतया व्याकुलत्वात्, तथा अवज्ञातः किमेते जानन्तीत्येवं-- रूपायाः, स्तम्भात्-जाड्यादपि,मानात उत्तमजातीयोऽहं कथ–मेतेषा भिक्षाचराणा हीनजातीयानां पाश्वेगच्छामीत्यादिलक्षणात् क्रोधात्तथा च कोऽपि साधुदर्शनादेव कुप्यति,तथा प्रमादात् मद्या-- दिप्रसक्तिरूपात्, कृपणत्वात् नून गतैस्तेभ्यः किमपि दातव्यं भविष्यतीत्यवं रूपात, तथाभयात् साधवो हि नरकादिभयं गतेभ्यो दर्णयन्तीति, शोकादा इष्टवियोगजात, अज्ञानात कुदृष्टिजनितात्, कुबोधात् व्याक्षेपात् अन्यान्यबहुप्रयोजनकरणत आत्मनो व्याकुलीभावसंपादनात्, तथा कुतूहलात् नटादिविषयात्, रमणात् नानाविधकुकुटयोधनादिक्रीडाप्रसवितरूपात्। एतेहिं' एभिः कारणैरालस्यादिभिश्च दुर्लभमपि मानुष्य लब्ध्वाऽपि हितकरी संसारोत्तारणी श्रुतिमिति व्रतादिसामग्रीयुक्तस्तु कमरिपुं विजित्याविकलचारित्रसामायिकमाप्नोति। यानादिगुणयुक्तयोध इव जयलक्ष्मीमिति। तथा चाऽऽहजाणावरणपहरणे, जुद्धे कुसलत्तणं व नीई य। दक्खत्तं ववसाओ,सरीरमारोग्गया चेव // यानम्-हस्त्यादि आवरणम्-कवचादि प्रहरणम्-खड्गादि यानावरणप्रहरणानि,तथा-युद्धे कुशलत्वम्-सम्यक्त्वज्ञानम् नीतिश्व निर्गभप्रवेशरूपा,दक्षत्वम्-आशुकारिता व्यवसायःशौर्य , शरीरमविकलम,आरोग्यता-व्याधिवियुक्तता-एतावद्रणसामग्रीसमन्वित एव योधो जयश्रियमाप्नोति एष दृष्टान्तः। दार्शन्तिकयोजना त्वियम्जीवो जोहो जाणं, वयाणि आवरणमुत्तमाखंति / झाणं पहरणमिटुं,गीयत्थत्तं व कोसल्लं॥ दव्वाइजहोवाया-गुरूवपडिवत्तिवत्तिया नीई। Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 728 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय दक्खत्तं किरियाणं, जं करणमहीणकालम्मि। करणं सहणं च तवो-वसग्गदुग्गा वती, ववसाओ। एएहि सुनीरोगो, कम्मरिपुं जिणइ सव्वेहिं / / कर्मरिपुविजयपक्षे-जीवो योधो, महाप्रतानि प्राणातिपातविरमणादीनि यानम्, उत्तमा क्षान्तिरावरणं, ध्यानं धर्मध्यानमिष्ट प्रहरणं, कौसलम् सम्यग्गीतार्थता द्रव्यादिषुद्रव्यक्षेत्रकालभावेषु यथोपायंश्रुतोक्तोपायमनतिक्रमेण या अपुरूपप्रतिपत्तिवर्त्तिता, यथा साधूनामेतत्-द्रव्यादिएतेनोपायेन देशकालाधुचितेन कर्त्तव्यं नैतेनेति सा नीतिः, तथा क्रियाणां-प्रत्युपेक्षणवेयावृत्त्यादीना यत् काले स्वस्वप्रस्तावे अहीनं परिपूर्ण करणं तत्-दक्षत्वम्,तथा-करणं तपसो द्वादशभेदस्य उपलक्षणमेतत् संयमस्य च सहनं चोप-सर्गेषु समापतत्सु अत्र बहु त्यक्तम्। यदि वायथा स्वयम्भूरमण-समुद्रमत्स्येन प्रतिमासं स्थितान् मत्स्यान् प्रतिमासं स्थितानि पद्मानि वा दृष्ट्वा सामायिकमवाप्यत। स्वयंभूरमणे हि मत्स्यानां पद्मानां च सर्वाण्यपि संस्थानानि संभवन्ति मुक्त्वैकं वलयसंस्थानं श्रुतमवाप्यते। आ०म०१० दिढे सुएऽणुभूए, कम्माण खए कए उवसमे। मणवयणकायजोगे,अपसत्थे लब्भए बोही॥८४४|| दृष्ट भगवतः प्रतिमादौ सामायिकमवाप्यते, यथा श्रेयांसेन भगवद्दर्शनादवाप्तमिति, कथानकं, चाधः कथितमेव श्रुते चावाप्यते यथाऽऽनन्दकामदेवाभ्यामवाप्तमिति,अत्र कथानकमुपरितनाङ्गादवसेयम्, अनुभूते क्रियाकलापे सत्यवाप्यते, यथा वल्कलचीरिणा पित्रुषकरणं प्रत्युपेक्षमाणेनेति, कथानकं कथिकातोऽवसेयं,कर्मणां क्षये कृते सति प्राप्यते यथा चण्डकौशिकेन प्राप्तम्, उपशमे च सत्यवाप्यते यथाऽङ्गऋषिणा, मनोवाक्काययोगे च प्रशस्ते लभ्यते बोधिः, सामायिकमनर्थान्तरमिति गाथार्थः। ____ अथवाऽनुकम्पादिभिरवाप्यते सामायिकमित्याहअणुकंपकामणिज्जर-बालतवे दाणविणयविन्भंगे। संयोगविप्पओगे, वसणूसवइविसकारे / / 845 / / वेजे मेंठे तह ई-दणागकयउण्णपुप्फसालसुए। सिवदुमहुरवणिमाउय, आहीरदसण्णिलापुत्ते॥८४६|| अनुकम्पाप्रवणचित्तो जीवः सामायिकं लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वाद्, वैद्यवत्, प्रतिज्ञेयमेव मनाग् विशेषितव्या, हेतुदृष्टान्तान्यत्वं तु प्रतिप्रयोग भणिष्यामः-अकामनिर्जरावान् जीवः सामायिकं लभते, शुभपरिणामयुक्तत्वान्मिण्ठवत्, बालतपोयुक्तत्वादिन्द्रनागवत्, सुपात्रप्रयुक्तयथाशक्ति श्रद्धादानत्वात् कृतपुण्यकयत्, आराधितविनयत्वात् पुष्पशालसुतवात्, अवाप्तविभङ्ग ज्ञानत्वात् तापसशिविराजऋ षिवत्, दृष्टद्रव्यसंयोगविप्रयोगत्वात् मथुराद्वयवासिवणिगद्वयवत्, अनुभूतव्यसनत्वात् भ्रातृद्वयशकटचक्रव्यापादितमल्लण्डीलब्धमानुषत्वस्वीगर्भजातप्रियद्देष्यपुत्रद्वयवत्, अनुभूतोत्सवत्वादा भीरवत्, दृष्टमहर्द्धिकत्वाद्दशार्णभद्रराजवत्, सत्कारकाङ्किणोऽप्यलब्धसत्कारत्वादिलापुत्रवत्। इयमक्षरगमनिका / साम्प्रतमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते-बारवतीए कण्हस्सवासुदेवस्स दो वेज्जाधनंतरी, वैतरणीय। धन्नंतरी अभविआ, वेतरणां भविओ, सो साधूण गिलाणाणं पिएण साहति, जज़स्स कायव्वं तं तस्स फासुएणपडोआरेण साहति, जति से अप्पणो अत्थि ओसधाणि तो देति,धण्णंतरी पुण जाणि सावस्स-याणि ताणि साहति असाधुपाओग्गाणि / ततो साहुणो भणंति-अम्हं कतो एताणि ? सा भणति-ण मए समणाणं अट्ठाए अज्झाइत वेजसत्थं, ते दोवि महारंभा महापरिगहाय सव्वाए बारवतीए तिगिच्छं करेंति। अण्णदा कण्हो वासुदेवो तित्थगर पुच्छति-एते बहूणं ढंकादीणं वधकरणं काऊण कहिं गमिस्संति? ताधे सामी साधति-एसधण्णंतरी अप्पतिवाणे णरए उववजिहिति / एस पुण वेतरणी कालंजरवत्तिणीए गंगाए महाणदीए विंझस्स य अंतरा वाणरत्ताए पचायाहिति / ताधे सो वय पत्तो सयमेव जूहवतित्तणं काहिति। तत्थ अण्णया साहुणो सत्थेण समंधाविरसंति। एगस्स य साधुस्स पादे सल्लो लग्गिहिति / ताधे ते भणंति-अम्हे पडिच्छामो। सो भणति- मा सव्वे मरामो / वचह तुडभे अहं भत्तं पच्चक्खामि। ताहे णिबंध काउंसोऽवि ठिओ!ण तीरति सल्लंणीणेतुं। पच्छा थंडिल्लं पावितो छायं च, तेऽवि गता। ताहे सो वा–णरजूहवती तं पदेस एति जत्थ सो साधू / जाव पुरिल्लेहिं तं दळूण किलिलाइतं, तो तेण जूहाहिवेण तेसिं किलिकिलाइतसई सोऊण रूसितेण आगंतूण दिलो सो साधू / तस्स तं दठूण इहापूहा करेंतस्स कहिं मया एरिसो दिहो त्ति? जाती संभरिता। बारवई संभरति। ताहे तं साधुंवंदति। तं च से सल्लं पासति / ताहे तिगिच्छं सव्वं संभरति / ततो सो गिरि विलग्गिऊण सल्लुद्धरणिसल्लरोहणीओ ओसहीओ य गहाय आगतो / ताधे सल्लुद्धरणीए पादो आलित्तो। ततो एगमुहत्तेण पडिओ सल्लो।पउणावितो संरोहणीए। ताहे तस्स पुरतो अक्खराणि लिहति। जधा--अह वेतरणी नाम वेजो पुटवभवे बारबतीए आसि।तेहिं विसो सुतपुव्यो, ताधे सो साधू धम्म कथेति / ताहे सो भत्तं पचक्खाति। तिण्णि रातिदियाणि जीवित्ता सहस्सारं गतो। तथा चाऽऽहसो वा जूहवती, कंतारे सुविहियाणुकंपाए। भासुरवरबोंदिधरो, देवो वेमाणिओ जाओ ||647|| निगदसिद्धा। ओहिं पयुंजति जावपेच्छति तं सरीरगं तं च साधु / ताहे आगंतूण देविड्डि दाएति। भणति य-तुज्झ प्पसादेण मए देविड्डी लद्ध त्ति। ततोऽणेण सो साधू साहरितो तेसिं साधूणं सगासं ति। ते पुच्छंति किहऽसि आगतो? ताहे साहति / एवं तस्स वाणरस्स सम्मत्तसामाइयसुयसामाइयचरित्ताचरित्तसामाइयाण अणुकंपाए लाभो जातो, इतरधा णिरयपायोग्गाणि कम्माणि करेत्ता णरयं गतो होन्तो / ततो चुतस्स चरित्तसामाइयं भविस्सति सिद्धीय पापकामणिजराए.वसंतपुरेनगरेइन्भवधुगाणदीए ण्हाति अण्णो य तरुणोतंदळूण भणति-"सुण्हातं तेपुच्छ Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 726 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय ति, एस ण्दी मत्तवारणकरोरु ! एते य णदीरुवखा, अह र पादेसुते पडिओ // 1 // '' सा भणति-- "सुभगा होतु णदीओ, विरच जीदतु जे ! णदीरुक्खा। सुण्हात पुच्छगाण य, घत्तीहाभो पियं का तत्ता सो तीए घर वा दारं वा आयषन्तो चिन्तेति.."अन्नपाने हरेवाला, यौवनस्थां विभूषया। वेश्या स्त्रीमुपधारेण, वृद्धा कर्क-संपया / / 1!!" तीसे बिज्जियाणि चेडरूवाणि रुक्खे पलोएताण अति. तेण तेसि पुप्फाणि फलाणि य दाऊण पुच्छिताणिका एमा? ताण भांति.. अमुगस्स मुम्हा, ताहं न चिंतेति--कण उवारा एची। सभ सम सारयोग भवजा? तो गेण चरिका दाण-माणसंगहीता कामा ललिता तीए सगास / ताए गंतू सा भणिता-जधा अमुगो ते पुच्छति, ती रुझाए पन्द्रलगापि धोवतए मसिलित्तेण हत्थेण पिट्ठीए आहापंचगुलीओ नाताओ, आधारेण य णिच्छूढा / सानता साहति-पाम पिसहनि।। तेण णातं जहा- कालपक्खा चमीए, ताहेमा गुणगोखि पोसजाणणानिमिर्ग। ताहे सलज्जाए आणि असोगणियाः छिडियाए निढ / सा गतः साहति -पान तपमान पदेसो, तेगावद्दारोग अइगयो, असागवावा सुत्ताति, जाव ससुर दिट्ठा। तेण णात,जधा--- मम पुताति, पच्छा सपादाता उर गहित, चेतितं च तोए, भाणताय णाएणास ला. सहायकिंच करेज्जासि / इतरी गंतण भत्तार भणति-इत्य धम्मा, लामो असोगणिय, गलाण.. असोगवगियाए पसुत्ताणि, ताई माचार उहवेत्ता भणति-तुज्म एत कुलाणुरूना ? जं मम पादातो ससुरो उर गेहात : स. मति.. लभिहिरिपभाते। थेरग सिटुं, सो स्ट्टो भणति-विवरीता-ऽसि यस? सा भणति- या दिहा गणों, ताहे विवाटे सा भणति- अह अप्पा साहेमिल करेह, राहाता, ताह चक्खधर अइगता, जी काारे सा लगति दी ह जधाप अतरण बोलंतओ, अकारिमुच्चति, सा पधाविता, ताहे सो टि डो पिसायरूवं काऊण सागतएणं गेहति। ताहे लत्थ गतूण जक्ख भण् ति जो मम पितिदिण्ण-ओ तं च पिसायं मोत्तूण जइ अण्णं जागामि तो में तुम जाणासि चि जक्खा विलक्खी बितात- पाइ करिस.णि मंतेति? अहं पिबंचिता पाए. गस्थि सतितणं पुत्तीए, जाद चिंतति ताव णिप्पि-डिता ताई साथेरो रावण लोग हीलिता, तस्स ताए अधितीए निहा नहा, ताहे राणे तं कण्ण गते / रायाणएण अंतेउरकारो कता, आभिषिकेच निधाया मा सररस हेड यह अच्छते। दी. य इति मेंठे आसतिया नवरं नि ! पसारिता, सा पासायाओ आयारिया, पुणनिभा पलता, एवं बच्चति काला / अग्ला चिर ला लि हस्थिमटण स्थिसंकलाए हता, सा भागति-सा पुरिसो तारिणो ण सुति, मा रूसह / तं थरो पेच्छति, सोचिंतेति-जति एलाआ विशसिआ, किनु ता यो भदियाउ नि सुती, भाते सव्वा लोगो उहिता, सो न उदिता सथा भणति-सुधउ सनमे दिवसे उहिला र इण पुचि-नेण कहितं जहेगा देवीण याणामि ! कतर त्ति,ताहे राइणा भेंडमओ हत्थी कारितो, सव्वाओ अंतेपुरिया गणियाओ-एयरस अच्चणिय करेत्ता ओलंडेह / रावाहि भोलडितो, साणेच्छति, भणति-अहं वीहेमि। ताहे राइणा उप्पलणलण आता जाम्य मुचिठता पडिया। ततो से उवगतं-जधेसा कारि ति, भगिताभागामारुहतीए, भेंडमयस्स गयस्स भयतिए / इह मुछित उप्पलाहता, नत्थन मुच्छित संकलाहता।।१।।' पुट्ठी से जोइया. जाव सकलपहार: दिडा, ताहे राइणा हत्यिौठो सा य ागामि वितरित हस्थिम्मि विलग्गातिऊण छाणकडए विलइताणि। भणिती मिठा-एe! अप्पततोओ गिरिप्पवात दोहे, हत्थिस्स दोहि वि पासेहि बेलुग्गाहः ठविता, जाव हत्थिणा एगो पादो आगासे कतो / लोगो भणति-कि तिरिओ जाणति? एताणि मारेतव्वाणि, तहावि राया रोसं ण मुयति / ततो दो पादा आगासे ततियवारए तिन्नि पादा आगासे एोण पादेश ठितो, लोगेण अमंदो कतो-किं एत हस्थिर-यणं विणारोहि? रण) चित्तं ओआलितं, मातो-रारसि णियने? भगति-जति भयं देह, दिया, तण णियनिता अकुसण जहा भमित्ताथले ठितो, ताहे उत्तारेता णिव्विराताणि कयाणि / एगत्थ पचंतगामे सुन्नघरे ठिताणि, तत्थ य गामेल्लय-पारदा वारीत सुन्नघरं अतिगतो, ते भणंति-वेढतुं अच्छामा, मा कोवि पविसउ, गोरी घच्छामो / सोऽवि चोरो लुट्ठतो किहवि तीये दुक्को, तीसे 'फासो वदितो. सा दुक्का भणति-कोऽसि तुम? सो भणति.. चोरोऽहं, तीए भणिय-तुमं मम पती होहि / जा एतं साहामा जहा एर चोरो त्ति नहिं कलं पभाए मेंलो गृहिओ ! लाहे ओविदा सूलार भिvoi'. गोरेण सम सावधति ! जावंतराणदी, सा तेण भणिता--लधा त्य सरा जा सह एताणि दयाभर--गाणि उत्तारेमि. सागता, उनिगमा ! ! ! भणति- 'पुण्णा णदी दीसइ कागजा सच्च पियाभंडग तुज्झ हत्थ : जधा तुम पारमतीतुकामो, धुवं तुम भंड गहीउकामा / / 1 / / '' सा भणति-"चि(र) संथुतो बालि ! असथएण. मल्हे पिया ताव धुओऽधुवेणं / जाणेमि तुज्झ प्पयइस्सभाय, अण्णो गरा का तुह विरससेखार 1 // सा भणति-किं जाहि? रंग भणतिजहा ते सा मारावितो एवं मम पि कहंचि मारेहिसि / इतरा वित विद्धो उदग मग्गति तथेगो सड्डो, सो भणति-जति नमोकार करारो तो दमि सो उदास्त अहा गतो, जाव तरिम एरे चेद सो जमाकार करतो व कालगलो वाणमंतरो जातो / सड्ढों वि आरविखरपुरिसेहि पहिलो, देवा आहिपयुजति,गच्छति सरीरगं सर्दुध बढ़ाना इसा सिलं विचि मोएति, तं च पेच्छंति सरथंभे णिलुक्क, ताहे से घिणा उप्पणणा, रिशालरूवं विउविता मसपेसीए गहियाए उदगतीरण दालति / जावणदीता मच्छो उच्छलिऊण तडे पडितो, ततो सा भंसपेरिस मारा मच्छरस पधादिता,सा पाणिए पडिता,मंसपेसीदि रोमण गहिता, ताहे सियालो झायति / ताए भण्णति- 'मंसपेसी परिचव, मच्छ पग्छसि जबुआ! चुक्का मसं च मच्छंच,कलणं झायसि Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 730 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय कोण्हुआ / / 1 / / तेण भण्णति- पत्तपुडपडिच्छण्ण! जणयस्स अयसकारिए! चुक्का पतिं च जारंच, कलुणं झायसि बंधकी! / / 2 / / '' एवं भणिया ता बिलिया जाता, ताहे सो सयं रूव दसेति, पण्णवित्ता वुत्तापुटवयाहि, ताहे सो राया तज्जिती, तेण पडिवण्णा, सकारण शिक्खता, देवलोय गता एवमकामनिज्जराए मेण्ठस्स।।२।। बालतवेणवसंतपुर नगर, तन्यासिविधरं मारिए उच्छादित इंदणागो नाम दार ओ. सा एहो, छुहित गिलाणो पाणितं मग्गति, जाव सच्चाणि मतानिछति। दार पि लागण कंटिया सक्किय / ताहे सो सुणइयच्छिहेग जिगताण तम्मि परे कप्परे भिक्ख हिडति, लागोस देइ सदेसभूतन शिकार, एक शो संवड्। इलो यो सत्यवाहो रायगिह जा उकामो घासण घोरगति रोण सुतं. सत्यंग समं परिथतो / तत्थ तेण सत्य कुरो लद्धी--'सो "जमि। जिपण, नितिगदिवसे अच्छति, सत्यवाहेण दिडो, चिंतेति पूर्ण पर उपवासिओ सो य अव्वत्तलिंगो, बितियादिवसे हिंडतस्स सद्धिणा बहु गिद्ध च विणण, सो तेण दुवे दिवसा अजि--प्रणए अच्छात। सत्यवाही गणति-एस छट्टण्णकालिओ,तरस सद्धा जाता / सो तलियदिवस हिलो सत्यवाहेण सहावितो. कीसऽसि क न णागतो? तुहिको अनि जाणइ.जधाछट्ट कतलय नाहे से दिएणं, तागवि अण्णेवि दी दिवसे अच्छावितो। लोगोऽवि परिणतो, अपारस गिमता पर सवित गति : अण्णे भणति-सो एगपिंडिओ. लेणत अट्टापदला.णिए गिना...मा अण्णास खणं गेण्हेजारि जान ' गजामति माह अभि / गता णगर तेण से णियघर मढो कतो, ताधे सीस मुंगावति कासा-. पाणि चौवराणि गेहति,ताधे विवरखाला जाणे जागे तापतरूपवि घर शाच्छति,ताधे जाविसं से पारणयंता वसं से लोगोमा पडित्यति ततो लोगोण प्रगति--करस पडिकि तति माथे लोगेण जाणणानिमित्त भरी कदा, जो देति स ताडेति, साह लोगो गाविसति, एवं यच्चलि कालो / साभी य मोसरितो,ताहे साधू संदिसावे / / भणिता-मुहुरा अच्छह, अनसणा, अनि जिमिते मामा सेयरह : गोलमो य भणि ता. गम वयोण भणासि भो अणेगपिंडिया ! एमपिडिता बटुमिच्छति, ताह गातमसागिणा भणितो रुखो, तुम अगाणि ण्डिसताणि आहारह, अहं एवं पिंड मुंजामि, तो अहं चेव एगपिंडिओ, मुहत्तन्तरस्स उपसंतो चितेति- एते मुसं वदति, किह होगजा? लद्धा सुती, होमि अणगापेडितो, उदिवस मम पारणय तद्विवस अगाणि पिडसताणि क्रीरंति, एते पुण अकतमकारितं भुजति तं सच्चं भणंति / चिन्ततण जाती सरिता, पत्तेयबुद्धोजा तो, अज्झयण भासति। इंदणाण अरहता वुत्त, सिद्धा या एवं बालतवेण सामाइय लद्ध तण // 3 // दाणेग, जधा-एगाए वच्छवालीए पुत्तो, लोगेण उस्सवे पायसं ओवक्खड़ित। तत्थासन्नघरे दारगरूवाणि पासति पायसं जिमिताणि / ताधे सो मायर भणेइ-ममऽवि पायसं रधेहि; ताहे णत्थि ति सा अद्धिती परुण्णा, ताओ सएज्झियाओ पुच्छति, णिबंधे कथितं। ताहि अणुकंपाए अण्णाए वि अण्णाए वि आणीतं खीर साली तंदुलायाताधेथरीएपायस रद्धा ततो लस्स दारयस्स पहायरस पायसस्स घतमधुसजुत्तस्स थालं भरेऊण उद्वित। साधूय गासखवणपार-णते आगतो, जाय थेरी अंतो वाजला ताव तेण धम्मोऽवि में होउ ति तरल पायसस्स तिभागी दिष्णो। पुणो चितिल - अतिथीव बितिओ तिभागो दिण्णो पुणी विणण चितित-एथ जति अण्ण अवक्खलगादिछुभति तोऽविणस्सति, ताहेतइतिभागी दियो। ततो तरस ते दव्वसुद्धेण दायगसुद्धेण गाहगसुद्धेण तिविहण निकरणसुद्धेण भावेण देवाउए णिबद्धे ,ताधे माता से जाणतिजिमिओ.पुणरवि भरित, अतीव रकत्तणेण भरितं पोट्ट / ताचे रत्ति विसूइयाए मतो देवलोगं गतो,ततो चुतो रायगिहे नगर पधाणस्स धाणावहर स पुत्तो भद्दाए भारियाए जातो / लोगो य गभगते भणतिक्यपुन्नो जीवो जो उववण्णो, ततो से जातस्स णाम कतं कता यो त्ति / बङ्कितो,कलाओ गहियातो, परिणीतो, माताए दुललियगोट्टीए ठूढो, तेहि गणियाघरं पवेसितो, बारसहिं बरिसहि गिद्धणं कुल कलेलो वि सोग भिगच्छति. मातापिताणि से मताणि, भजाय से आभरणगाणि चरिमदिवस पसी / गणि-तामायाए णातंणी स्सारो कतो. साधे ताणि अण्ण च सहस्सं पडि-विसजितं, गणिया माता भण्णइ-निच्छुभउ एसो रसा च्छति, ताह चारिय गिओ घरं सजिजति, उत्तिण्णो बाहि अच्छति, ताहे दासीए भग्णति-णिच्छूढोऽवि अच्छसि? ताह निययधरय सडियपडियं गतो,ताह से भला संभमेणं उहिता, ताह से सव्यं कथितं, सामा अकुणा भवति-अस्थि किंधि? जा अन्नहि जाइत्ता ववहसमिताहं जाणि आभरणगाणि गणितामात ए जर सहस्स कप्पासमाज दिग ताणि से दसिताणि / सत्था य लदिवस क पिदम गंतुकामओ, सो त भंडमोल्ल गहाय तेण सत्थेण समं पधादिता, बाहिं वेउलियाए खट्ट पाडिऊणं सुत्तो। अण्णस्स य वाणिययस्स ! पाए सुत, जधा-तव पुत्तो मतो वाहणे भिन्ने, तीए तस्स दव्व दिण्णं, करसइ कधिनसि, तीए चितित-मादध्वं जाउ राउल, पविसिहिति मे अपुत्ताए, ताहे रत्तिं तं सत्थं एति, जा कचि अणाह, पारोमि, ताहे तं पासति, पडिबोधित्ता पवेशितो, ताहे घर नेतूण रोवति-चिरणग त्ति पुत्ता ! सुण्हास चउण्हताण कधेति-एस देवरो भे चिरणट्ठओ। ताओ तस्स लाइताआ. तत्थ विवारस बरिसाणि अच्छति।तत्थं एक्केकाए चत्तारिपंच इरूवाणि जाताणि। थरीए भणित एत्ताह णिच्छुभतु, ताओ ण तरंति रितु / साधे ताहि संबलमादगा कता, अंतो रयणाण भारता, वर से एवं पाओग्ग होति, ताधे वियर्ड पाएता ताए चेव देवउलिया। आसीसए से संबल ठवत्ता पडियागता / सोऽवि सीतलएगण पवणेणं संबुद्धो पभात च, सोऽवि सत्थो तद्विवसमागतो। इमाए विनवसओ पेसिआ, ताहे उट्ठबित्ता घरं णीतो, भज्जा से संभमेण उट्टिता, संबलं गहित, पविट्ठो, अब्भगादीणि करेति। पुत्तो-यसे तदा गडिभणीए जाता, सो ए Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 731 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय कारसवरिसो साओ, लेहसालाओ आगतो रोयति- देहिमे अतं. मा / जाया-अत्थि धम्मफलं ति, तो मह हिरण्णादि वदति, ता पुण्ण करमि उपज्झाएण हम्महामि त्ति / ताए ताओ संवलथइयाला मायमा त्ति कलिऊण भोयणं कारितं, दाणं च णेणं दिण्णं / ततो पक्ष रज्ज दिण्णो,णिग्गता खायंतो तत्थ रयणं पासति, लेहचेडएहि हि तहि / उवेऊण सकततंबमयभिक्खाभायणकडुच्छुगोवगरण दिसापा--- पूवियस्स दिए: दिवे दिवे अम्ह पोल्लियाओ देहि त्ति / इम!- विजिभित क्खिस्तादसाण मज्झतावसो जातो। छट्ठमातो परिसडियपटु पनाणि भोयगे भिंदति नेण दिट्टाणि, भणति सुंकभएण कलाणि, तेहिं एयणहि आणि काण आहारेति। एवं सेचिट्ठमाणस्स कालेण विभंग--णाणं समुप्पन्न तहेव पवित्थरितो / से लणओ य गंधहत्थी णदीप नंतर मन्दिा राया संखज्जदीकरामुद्दविसय, ततो गरमागतूण जधो-बलद्धे भावे आदण्णो, अभ्यो भणति--जइ जलकतो अन्थि तो छति, रा! रायल पणति गाला साधवो दिट्टा,तेसिं किरियाकलावं विभंगाणुसारण अतिबहुअत्ताणा रतारण चिरेण लाभाहिति विकाऊण पडहओ लोएभागाररा विसुद्धपरिणामस्स अपुव्यकरण जातं, ततो कवली संवुत्ता माप्किडिता जो जलकतं इति तस्स राया रज्ज अद्ध धूत व दति ता त्ति / / 6 / / (आव०) / इदाणिं वसणेण,दो भाउगा सगडेण वचंति, पखिएण दिणणो णीतो उदग पगासित, तंतुओ जाणतिथलं गीता. मुक्को, / चक्कुलेण्डा य सगडवट्टाए लोलति, महलेण भणियं-उब्वत्तेहि भंडि. / राया ये ति. कतो? पुवियस्स पुच्छति-कता एस तुन्स. निव्वध इतरेण बाहिया भंडी, सा सन्नी सुणेति, छिण्णा चक्कण, मता इत्थिया रािष्ट्र-कय--पुणगातेग दिण्णा गया तुट्टो, कस्म अणास्स होहिति? जाया हत्थिणापुरे णगरे,सो महज-तरो पुव्वं मरिता तीसे पोट्टे आयाओ राणा साविऊण कल्पुण्णओ धूताए दिवााहेता, विस ओस पियो, पुत्तो जाओ, इहो, इतरो वितीसे चेव पोट्टे आयाओ, जं सो रखवण्णोतं मागे भुजति / गणिताने आगता भणति-पचिरं काल अहं वणी-बंध सा चितेति-सिलय हाविजामि, गब्भपाडणे हें विण पडति,सआ सो अच्छिता,सव्यवेतालीओ तुम अट्टाए गवसाचिताओ. ध दिक्षा नि, जाओ दासीए हत्थे दिण्णो,छडुहि, सो सेटिणा दिह्रोणिज्जतो, तेण घेत्तण कतपुण्णओ अभयं भगति--एत्थ मम चत्तर महिलाओं, संच धरण अण्णाए दासीए दिण्णो,सो तत्थ संवडइ। तत्थ महलगरस णामं राययाणामि, ताहे चेतियधरं कले, लेप्याजकरवो कलपुण्ण-गसरिसा कता, ललिओ इयरम्स गमदत्तो / सो महल्लो जं किंचि लहइ तता तस्स दि तस्स अच्चणिया घोसाविता. दो य वाराणे कताणि, एगण पवसी एगेण देति, माऊए पुण अणिहो, जहि पेच्छइ तहिं कट्ठादीहिं पहणइ। अण्णया णिप्फेडो। तत्थ अभओ कतपुण्णओ य एमत्थ बाखभासे आसणवस्मथा इदमहो जाओ, तआ पियरेण अप्पसागारिय आणी ओ आसंदगस्स हट्ठा अच्छति, के मुदी अणना, जधा पडिमपवेसो अणिय करेह / णयर / कओ, जेमाविज्जई, ओहाडिओ ताहे कहवि-दिहो, ताहे हत्य पण घोसितं- सल गहिलाहि एत्तव्व, लोगोऽवि एति। ता आऽपि गताओ, कडिओ चणियाए पक्खितो, लाहे सो रुवइ, पिउणा हाणि ओ. -यंतरे घेडरूवाणि लत्थ वप्पो त्ति उच्छंगे णिविसति, णाताओ तेण / थेर साह भिक्खरस अतियाओ! सिट्टिणा पुच्छिओ- भगवं ! माउए पुत्लो अंबाडिता, नाऽदि आणिलाओ, भोगे भुंजति सत्तहि वि राहिलो। अणिहाला भवइ, किह पण? ताहे माणति - "यं दृष्टा वर्धते बद्धमाणसाने व समासरितो कतपुण्णओ सामि दिऊण पुच्छति- क्राधः, स्नह परिहायता स विज्ञया मनुष्येण एष मे पूर्ववैरिकः / / 1 / / यं अपणो सधति विपात्रे च / भगवता कथित-पायसदाण, संवर्गण पव्वइतो। दृष्ट्वा वर्धत स्नेहः, क्रोधश्च परिहीयते / स विज्ञेयो मनुष्यण, एष में एव दाणेण सामाइयं लब्भति / / 4 / इदाणिं विणएणमगधविसए गोव- पूर्वबान्धवः / / 2 / / ताह सो भणइ-भगव ! पवावेह एय? बाढति रगाम पुप्फसालो गाहावती, तस्स भद्दा भारिया,पुत्तो से पुप्फसा- विसज्जिओ पव्वइओ। तसिंआयरियाण सगासे भायावि सेणेहाणुरागेण लसुओ / सो मातापिरं पुच्छति-को धम्मो? तेहि भण्णति-माता-पितर पव्वइओ, ले साहू जाया इरियासमिया, अणिस्तिं तव करेंति। ताहे सो सुरुसूसितां- "दो चेव देवताई, माता य पिता य जीवलो...मम्मि / तत्थ णिदाणं करेइ-जइ अस्थि इमस्स तवणियमसंजमरस फलं लो तत्थ वि पिया विसिहो, जरस बसे वट्टत माता / / 1 / / '' 'सा ताण पण आगमसाण जणभणणयणाणंदो भवामि, घोर तव करेत्ता देवलोयं गओ मुहधावणादिविभास', देवताणि व ताणि सुस्सूसति। अम्णता नामभोइओ ततो चुओ वसुदेवपुत्तो वासुदेवो जाओ। इयरोऽवि बलदेवी एवं तेण आगतो, त णि संभताणि पाहा! काति, सो चितेति मा वि एस वसायोण सामाई लड़।।७।। उस्सवे एगम्मि पच्चंतियगामे जाभीराणि. देवत, एतं पूामे ता धम्मा होहिाते, तस्स सुस्सूप पकना / अागता तामिण साहूणं पारा धम्म सुणे ति, ताहे देवलोए वणणेति, एव सेसि तस्स भाइ आ.तस्स वि अपणो, तस्स वि अणो, जादा राया अस्थि धामो सुबुद्धी / अण्णदा कयाइ इंदमहे वा अण्णम्मि वा ओलगिउभारद्धासामी समासढो, साणओ इड्डीए गंतूण वदति, ताह सो उस्सर्व गालि गरि, जारिसा बारवई, तत्थ लोयं पारान्ति मंडितसामि भापति-- अहं तुर आलम्गामि ? सामिणा भणित -अहं पसाहिय सुगंध विचित्तध्येवत्थं ताणि तंदटूण भणंति--एस सो देवलोआ रयहराणपडिग्गहमनाए ओला..गजामि / ताण सुगणार संबुद्धा, एवं जो साहहिं वण्णिा ; एनाहे जइ वच्चामो सुदरं करेमो, अम्हेवि देवलोए विणएण साभाइयं सहमति / / 5 / / इदानी विभंगण लमति, जधा-अस्थि उववजजामा, ताह ताणि गंतूण साहूण साहति-जो तुब्भेहिं अम्ह मगधजणलए सिदो रामानस नहिसाणाइ पइदियह वकृति, चिंता | कहिआ देवलाआ सा ५च्चक्खो अम्हेहि दिट्ठो। साहू भण Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 732 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय ति- तरिसो देवलोओ, अण्णारिसो, अतो अणतगुणो। तओ ताणि अमहियजातविम्हयाणि पव्वइयाणि / एवं उस्सवेण सामा-इयलभा ।।६।'इड्डित-दसण्णपुरेणगरे दसण्णभद्दो राया, तरस पंच देवीसयाणि ओरोहा, एवं सो रूपेण जोव्वणेण बलेण य वाहणण य एडिबहो, एरिय त्थि ति अण्णस्स चितइ। सामी समोसरिओ दसण्णकूड पव्वते। लाह सो चिंतेइ-तहा कल्लं वंदामे जहा ण केणइ अण्णण बंदियघुब्यो,तं / अब्भत्थियं सक्को णाऊण चिंतेइ-बराओ अपाय पाणति / ती सया माझ्या समुदरण णिग्गओ बंदिर सबिङ्गिए, को य देवरस्था एरावा विलग्गो, तस्स अट्ट मुह विउब्वइ, मुहे बदद बिउटवई, दत२ अह अह पुक्खर-णिओ विउव्वेइ, एमक्काए पुक्खरण अ१२ पाउम विउव्वेइ, पउम 2 अह अट्ठ पत्ते विउल्लेइ. पत्ते 2 अ 2 पत्तीसबहाण दिव्वाणि गाडगाणि विउच्वइ / एवं सो सविटीए उवगिजमाणो आओ तर 40 दिलगो चेव तिक्युत्तो आदाहिण पयाहि सःमि . साद सो हत्थी अग्गपादेहि भूमीए तिओ.ताहेतस्स हाशि:-सराणाकड पाने देवतापसारण अग्गपायाणि उद्विताणि तओ सणामतं परागपादगो त्ति / ताहे सोटसण्णभद्दो चितेइ-रिसा कओ उहाण इडि हि अहो करल्ल ओऽणेण धम्भो, अहमविकरमि, ताहमा सबछडुलण १८.पइओ एवं इड्डीए स्गमाइय लहइ।।१०।। (आव०)। __ अहवा इमेहिं कारणेहि लभीअमुट्ठाणे विणए, परक्कमे साहुसेवणाए य ! सम्मइंसणलं भो, बिरयाविरईइ विरईए // 4 // अभ्युत्थाने सति सम्यग्दर्शनलाभो भवतीति विका, विनीतो मिति / सायनात्याविनये--अजलियग्रहादादिति, पराधी वायत / रालि, साधुसे बनायां च सत्य कति पियापरयाद ! सम्यग्दर्शनलामा गत तीत्यवाहार:: विस्ता बिरतच विरतेश्वात गाथार्थ:: कथमिति द्वारं गतम्। आव०१ अता अपन कलधीरिणोः - धिकारः, तथा कर्मणक्षये सति प्राप्यते सामायिक यशाप्रचण्डकोशिकन उपशम सत्यवाप्यते यथा अङ्गर्षिणा तथा मनोवाकाययोगे प्रशस्त लभ्यते बोधिः--सामाचिकमिति / आ०म०१ अ०। (अनुकम्पादिभिरबाध्यते सामायिक-मिति, अनुकम्पादिशब्देषु कथानकानि गतानि।) कारणभेदाः 'कारण शब्द तृतीयभाग 465 पृष्ठ उत्ताः / ) (अत्रत्या व्याख्या सकार' शब्दऽस्मिन्नेव भागे गता।) तदेवं नामादिभेदतश्चतुविधकारणं विचार्य प्रस्तुत येनाधिकारस्तदाह- 'अहिगार पसत्थ न्थ' ति-इह सामायिक विद्यार्यभाण प्रशस्तन भावकारणना-- धिकारः / सामायिकाध्ययन हि क्षायोपशमिकभावरूपं वर्तत / स च प्रशस्तः, मोक्षकारात्वात् अतो युक्तमुक्तम्- प्रशस्तभावकाराोनाआधिकारः इति विश (66) अथकारणद्वार एव कारणवक्तव्यतानुगतप्रसाड़तः किश्चिदाहतित्थयरो किं कारण , भासइ सामाइय तु अज्झयणं? तित्थयरनामगोत्तं, बद्धं मे वेइअव्वं ति॥२१२२॥ तीर्थकरः किं कारण-कि निमित्। भाषत सामायिकाध्ययनम? तुशब्दाद- अन्यानि चाध्ययनानि. केवलज्ञानोत्पमितरतस्य कृतकृत्यत्वात् किं तद्भाषणेन ? इत्यभिप्राय / अनओच्यते--तीर्थकर इति नाम- गोत्रं संज्ञा यस्य तत् तीर्थकरनामसंज्ञक कर्म पूर्व मया बद्ध तदिदानीमनेन प्रकारेण वेदितव्यम्, इत्यनेन कारणेनस तद भाषत इति : पुनरत्रैव च विनयप्रनमुत्तरं चाहतं च कहं वेइज्जइ, अगिलाए धम्मदेसगाईहिं / बज्झइ तं तु भगवओ, तइयभवो सक्कइत्ता णं / / 2123 / / नियमा मणुयगईए, इत्थी पुरिसेयरो व सुहलेसो। आसेविय बहुलेहिं बीसाए अन्नयरएहिं / / 2124 / / एतयोव्याख्यानं पूर्ववदेव, नवरं तत् पुनस्तीर्थकरनामकर्म द्ध सत् कथ देताते? इति प्रश्रः। अत्रोत्तरम्- अग्लान्या-निदन धर्म - देशनादिभिः तच्च भगवतस्तीर्थकरस्यैव-- यस्तीर्थको भविष्यति तस्येव बाध्यत-बन्धमायाति / कदा? इत्याह-सिद्भिगमनभवात तृतीयभव याचदवष्लष्क्य-अपसृत्य ! इदमुक्तं भवति-अनेन बद्धन भवत्रयमेव संसारेऽवतिष्ठते, ततः सिध्यति एकस्तावत् स एव मनुष्यभवा यत्र तद् बध्यत, द्वितीयरतु देवभवः, नरकभयो वा तृतीयभवतुतीकरो भूल्या सिध्यति / तच्च नियमाद मनुष्यगता-वेव प्रारम्भमाश्रित्य सम्यग्दृष्टिमनुष्यो बध्नाति, नान्यगतावन्यः। कथंभृतो मनुष्यः? इत्याहसी पुरुषः,इतरो वा पुरुषः नसक-वेदको मन्त्रादिकारणैरुपहतपुरुषवेद: सन यो नपुंसक न तु विलष्टः पण्डकादिरित्यर्थः / कथंभूतः पुनः र गादिः? इत्याद.--सम्यग्दर्श-नादिगुणयुक्तत्वात्, शुभ लेश्यः / कै. पुनः कारणैः सोऽपि बध्नाति? इत्याह- 'अरहंत सिद्धपवयण' इत्यादिना पूर्वमभिहितबहुले पुनः पुनरासे वितैः सम्पू गैर्विशत्या कारण अन्यतरक्कदिव्यादिभिर-तिपुष्टिं नीतारेति। (67) एवं तीर्थकृतः सामायिकाध्ययनभाषणकारणमनिधाय, अथ गणभृतामाशाद्वारेण तच्छ्रवणकारणमभिधित्सुर ह.. गोयममाई सामा-इयं तु किं कारणं निसाति। नाणस्स तं तु सुंदर--मंगुलभावाण उवलद्धी॥२१२५॥ होइ पवित्तिनिवित्ती, संजमतवपावकम्मअग्गहणं / कम्मविवेगो य तहा, कारणमसरीरया चेव // 2126|| कम्मविवेगो असरी-रयाइ असरीरयाऽणबाहाए। हो अणबाहनिमित्तं, अवेयणुअणाउलो निरुओ॥२१२७॥ निरुयत्ताए अयलो, अयलत्ताए य सासओ होइ। सासयभावमुवगओ, अव्वावाहं सुहं लहई॥२१२८|| गोतमादयो गणधराः किं कारणं-किं निमित्त--कि प्रयोजन सामायिक निशमयन्ति-शृण्वन्ति ? इत्याह-'नाणस्।' ति-विभक्तव्यत्ययाच्चतुर्थीह द्रष्टव्या, सा च तादर्थ्य, ततश्च ज्ञानार्थ, जानायत्यर्थः तेषां भगवदनारविन्दनिर्गतं सामायिकमिदं श्रुत्वा तदर्थविषय झानभुत्पद्यत इति भावः। तत्तु ज्ञानं सुन्दरमगुलभावाना भाऽशुभप Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 733 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय दानामुपलब्धये-उपलब्धिनिमित्तं भवति / तस्याक्ष शुभा- | इशभपदार्थोपलब्धः सकाशात शुभेष प्रवृत्तिः, इतरेभ्यस्तुनिवत्तिर्भवति / गच निवृत्तिप्रवृत्ती 'संजमतब ति संयमतपसोः कारणं-निमित्तं भवतः, शुभनिवृत्तिः संयमकारणम्,शुभप्रवृत्तिस्तु तपःकारणमित्यर्थः / तयो श्व जगमनपसोः पापकर्मणोऽग्रहणम्, तथा कर्मविवेकश्व कर्मनिर्जरासपा २.शासख्य कारणं निमित्तं प्रयोजनमिति यावत्। कर्मविवेकस्य च कारण प्रयोजनमशरीरव चेति। 'अथ विवक्षितमर्थमुक्तानुवादेन प्रतिपादसन्नाह-कर्मवि-वेकः-कर्मपृथग्भावोऽशरीरतायाः कारणम्। अशरीरता पुनरनाबाधतायाः कारणं भवति / 'हो अणबाहनिमित ति-अनायाधता-निमित्तम्-अनावाधताकारणम्, अनाबाधतया हतुभूतयेत्यर्थः, अवेदनो-वेदनारहितो भवति जीवः / अवेदन-त्वाच्चानाकुलोऽवि-हलो भवति / रोगाद्यनाकुलत्वाच्च नीरुक्-समस्तभावरोगरहितो भवति / नीरुक्तया पुनरचलः, अचलतया च तत्रैवमुक्तिक्षेत्र शाश्वतो- नित्यो भवति / शावतभावं चापगतः सन्नव्याबाधसुखं लभते / इत्थं पारम्पर्येणाव्याबाधमुक्तिसुखनिमित्तं सामायिक-श्रवणं सिद्धम / इति नियुक्तिगाथादशकार्थः / एताश्व गाथाः सुगमत्वात् संक्षेपतो भाष्यकार: किश्चिद् व्याचिख्यासुराहतित्थयरनामकम्म-क्खयस्स कारणमिदं जिणिंदस्स। सामाइयामिहाणं, नाणस्स उगोयमाईणं // 2126 / / तं पि सुभेयरभावो-वलद्धिए सा पवित्तिनियमाणं / एवं नेयं कमसो, पुव्वं पुव्वं परनिमित्तं // 2130 / / इदं सामायिकाभिधानं-सामायिकभाषणं जिनेन्द्रस्यतीर्थकरस्य भगवतस्तीथकरनामकर्मक्षयस्य कारणं-हेतुः / गौतमादीनां पुन-.. निस्य तच्छ्रवणं कारणम्' इति गम्यते / तदपि ज्ञानं शुभाऽशुभभावोपलब्धेः कारणम्, एषाऽपि प्रवृत्तिनियमयोः-प्रवृत्तिनिवृत्त्योः कारणम् / एवं क्रमशः क्रमेण पूर्व परस्य-उत्तरस्य निमित्त ताधज्ज्ञेयं यावत् शाश्वतत्वादव्याबाधं मुक्तिसुखं लभते। इति गाथाद्वयार्थः / उक्त कारणद्वारम् विशे०। अथ भवद्वारमुच्यते / तत्र कियतो भवानेकजीवः सामायिकचतुध्यमुत्कृष्टतः प्रतिपद्यते? इत्याहसम्मचंदेसविरया, पलियस्स असंखभागमेत्ताओ। अट्ठ भवा उ चरित्ते, अणंतकालं च सुयसमए / / 2776 / / सम्यग्दृष्टया, देशविरताच, प्रत्येक क्षेत्रपल्योपमा असंख्येयभागमात्रान भवान् यावद भवन्ति / इदमुक्तं भवति-क्षेत्रपल्योपमस्यासङ्ख्येयभागे यावन्तो नभः प्रदेशास्तावतो भवानुत्कृष्टतः सम्यक्त्व देशविरति च प्रतिपद्यन्ते, जघन्यतस्त्वेक भवम् / ततः परं सिध्यन्ति / इह च सम्यक्त्वभवासङ्ख्येयकादेशविरति-भवासंख्येक लघुतरं द्रष्टव्यम्। चारित्रे तु विचार्येऽष्टी भवानुत्कृष्ट-तस्तत् प्रतिपद्यते, उत्कृष्टतोऽष्टौ तस्यादानभवाः, जघन्यतस्त्वेकः, ततः सिध्यति / 'अणतकालं च सुयसमए' त्ति-अनन्तकालोऽनन्तभवरूपस्तमनन्तकालमव प्रतिपत्ता पावत्य कृतः सामान्य श्रुतसामायिके, जघन्यतस्त्वेवा भवमेघ, "रुदेवीदत् / इति नियुक्तिगाथार्थः / विशे० आ० क० / आ० यू० आवा आ०म०। नदेव 'दल्ने अवाच्य अहाउय' इत्यादिनोपक्षिप्तान कालभेदान व्यवहाराय प्रस्तुतं येनाधिकारस्तमाहएत्थं पुण अहिकारो, पमाणकालेण होइ नायव्यो। खेत्तम्मि कम्मि काल-म्मि भासियं जिणवरिंदेण / / 2052 / / अब पनरनेकविधकालप्ररूपणायामधिकार:-प्रयोजन प्रस्तावः प्रमाणकालन भवति-ज्ञातव्यः / आह-ननु 'दव्वे अद्ध अहाउय' इत्यादिद्वारगाथाया 'पगय तु भावेण' इत्युक्तम्, इह पुनः अधिकारः प्रमाणकालेन भवति-ज्ञातव्यः, इत्युध्यते, तत् कथं न पूर्वापरविरोधः? अत्राच्यते-- क्षायिकभावकाले वर्तमानेन भगवता सामायिकाध्ययन भाषितम्, इत्यभिप्रायवता 'पगय तु भावेणं' इति प्रागुक्तम्,तथा 'पूर्वाह्नलक्षणे प्रमाणकाले च भगवता भाषित सामायिक इत्यध्यवसायवताऽत्रोक्तं 'प्रमाणकालेनाधिकारः' इत्युभयसंग्रहपरत्वाददोषः / अथवा-- अद्धाकालपर्यायत्वात् प्रमाणकालोऽपि भावकाल एवेत्यविरोधः / आह-ननु कस्मिन् क्षेत्रे श्रीमन्महावीरजिनवरेन्द्रेण प्रथमतः सामायिकाध्ययनं भाषितम्? तथा, प्रमाणकालोऽपि दिनप्रथमपौरुषीपूर्वाहादिभेदादनेकविध इत्यतः प्रश्न: प्रमाणकाले च कस्मिस्तज्जिनवरेन्द्रेण भाषितम्-विनेयःपृच्छति-कस्मिन् क्षेत्रे काले च व सामायिकस्य निर्गमः? इत्यर्थ इति / अत्रोत्तरमाहवइसाहसुद्धइक्का-रसीऍ पुटवण्हदेसकालम्मि! महसेणवणुज्जाणे, अणंतर परंपर सेसं // 2053 / / वैशाखशुक्लैकादश्यां पूर्वाह्नदेशकाले प्रथमपौरुष्यामित्यर्थः, कालस्यान्तरङ्गत्वख्यापनार्थमेव प्रश्नाव्यत्ययेनोत्तरनिर्देशः, महासेनवनोद्यानलक्षणे क्षेत्रे चानन्तर निर्गमः सामायिकाध्ययनस्य। 'परंपरं सेसं' ति-अन्येष्वपि गुणशिलकाद्युद्यानसत्रेषु पश्चात् प्ररूपितमेव भगवता सामायिकम्, किन्तु-महासेनवनात् शेष क्षेत्रजातमधिकृत्य परंपरनिर्गमः, तस्य केवलज्ञानोत्पत्तावपापामध्यमानगर्यां महासेनवनोद्यान एव प्रथम तस्य प्ररूपितत्वादिति। तदेवं 'नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे अ / एसो उ निग्गमस्स,निक्खेवो छविहो होइ।।१।।' अस्या निर्गमनिक्षेत्रप्रतिपादकगाथायामुद्दिष्टौ व्याख्यातौ क्षेत्रकालनिर्गमौ / ___ अथ भावनिर्गममभिधित्सुराहखइयम्मि वट्टमाण-स्स भगवओ निग्गयं जिणिंदस्स। भावे खओवसमिय-म्मि वट्टमाणेहि तं गहियं / / 2054 / / भावशब्दोऽत्रापि संबध्यते। ततश्च क्षायिके भावे वर्तमानस्य जिनेन्द्रस्य भगवतः श्रीमन्महावीरस्य निर्गतं सामायिकम् / क्षायिकोपशमिके भावे च वर्तमानैस्तस्मात् सामायिकमन्यच्च श्रुतं गृहीतम् (गणधरादिभिः) इति गम्यते / तत्र भगवतो दर्शनज्ञानचारित्रावरणस्य सर्वथा क्षीणत्वात् क्षायिको भावः,गणधरादीनां तु तदावरणस्य तदानीं क्षयोप Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 734 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय ... न क्षायोपशमिको भावः / निर्गम एव चात्र प्रस्तुतः, यत्तु सायोकामिक भावग्रहणप्रतिपादनं तत प्रसङ्ग तो द्रष्टव्यम् / तत्र श्रीगौतमरवामिना निषद्यायेण चतुर्दश पूर्वाणि गृहीतानि / प्रणि-पत्य पृच्छा च निषद्योच्यते / प्रणिपत्य पृच्छति गौतमस्वामी-कथय भगवन् ! तत्त्वम् / ततो भगवानाचष्टे- "उप्पनेइ वा' / चुनस्तथैव पृष्ट प्राह-- 'विगमेइ वा " / पुनरप्येवं कृते वदति- 'धुवेइ वा / एतास्तिस्रो निषद्याः / आसामेव सकाशात् यत् सत् तदुत्पादव्य-यधौव्ययुक्तम्, अन्यथा वस्तुनः सत्ताऽयोगात्' इत्येवं तेषां गणभृतां प्रतीतिर्भवति / ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो बीजबुद्धित्वाद्वादशाङ्गमुपरचयन्ति। ततो भगवास्तेषां तदनुज्ञां करोति। शक्रश्च दिव्यं वस्त्रमयस्थालं दिव्यचूर्णानां भृत्वा त्रिभुवनस्वामिनः संनिहितो भवति / ततः रवामी रत्न सिंहासनादुत्थाय परिपूर्णा चूर्णमुष्टिं गृह्णाति। ततो गौतमस्वामिप्रमुखा एकादशापि गणधरा ईषदवनततनवः परिपाट्या तिष्ठन्ति / ततो देवास्तूर्यध्वनिगीत-शब्दादिनिरोधं विधाय तूष्णीकाः शृण्वन्ति / ततो भगवान् पूर्व तावदेतद् भणति- 'गौतमस्य द्रव्य-गुण--पर्यायैस्तीर्थमनुजाना-मि' इति, चूर्णाश्च तन्मस्तके क्षिपति। ततो देवा अपि चूर्णपुष्पगन्धवर्षा तदुपरि कुर्वन्ति गणं च भगवान् सुधर्मस्वामिन धुरि व्यवस्थाप्यानुजानाति / एवं सामायिकस्यार्थो भगवतः सकाशाद् निर्गतः, सूत्रं तु गणधरेभ्यो निर्गतम्, इत्यल प्रसड़ेन। इति नियुवितगाथात्रयार्थः / यदुक्तम्- 'एत्थं पुण अहिगारो पमाणकालेण' इत्यादि, तत्र पर: युर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाहकिह पगयं भावेणं, कहमहिगारो पमाणकालेणं? आचार्यःप्राहखाइयभावेऽरुहया, पमाणकालेण जं भणियं // 2085 / / अहवा पमाणकालो, विभावकालो त्ति जंच सेसा वि। किंचिम्मेत्तविसिट्ठा, सव्वे चिय भावकाल त्ति॥२०५६।। आहिक्केणं कजं, पमाणकालेण जमहिगारो त्ति। सेसा वि जहासंभव-माउञ्जा निग्गमे काला॥२०८७॥ तिसोऽपि प्रायो व्याख्यातार्थाः, नवरं 'अरुहय' ति अर्हताश्रीमन्महावीरेण ।'ज च सेसा वी' त्यादि यस्माच शेषा अपि द्रव्याऽद्धाकालादयः किञ्चिदुपाधिमात्रविशिष्टाः सर्वेऽपि भावकाला एव; तथाहि-द्रव्यस्य या चतुर्विकल्पा स्थितिः सा द्रव्यकाल उक्तः, समया- | ऽऽवलिकादयस्त्वद्धाकालः,यथायुष्कं चायुष्ककाल इत्यादि / एते च स्थित्यादयः सर्वेऽपि जीवाऽजीवपर्यायत्वाद्भावरूपा एवेति परमार्थती भावकालाद्न विशिष्टयन्त इति / पपं-तथापि 'प्रमाणकालेनात्राधिकारः' इति यदुक्तं तदाधिक्येन विशेषतस्तेन प्रमाणकालेन कार्यमिति हेतोरवगन्तव्यम्, अन्यथा शेषा अपि द्रव्याद्धाकालादयः पारम्पर्यादिना सामायिकनिर्गम यथासंभवमायोजनीयाः यथाहिक्षायिके भावे वर्तमानस्य सामायिकं निर्गतं भगवतस्तथा रत्नमयासहासनलक्षणे द्रव्ये चोपविष्टस्य, यत्र च द्रव्ये तत्र तत्स्थितिलक्षणः कालोऽप्यरत्येव, तथा यथाऽऽयुष्ककालं चानुभवतः, कमांणि चोप क्रामतः, प्रस्तावं चावगच्छतः, आवीचिमरणलक्षण मरणकालं चानुभवतः, जीवादिपदार्थवर्णनाकाले च प्रवृत्तस्य तस्य तन्निर्गतम्, प्रमाण भावकालो त्वधिकृतत्वेनोक्तावेवा प्रमाणकाले चाधिकृतेऽद्धाकालोऽधिकृत एव, तस्य तद्विशेषत्वादे येति / एवं सर्वेऽपि द्रव्यकालादयोऽत्रोपयुज्यन्त एव / केवलमाधिक्येन प्रमाणकालो भावफालनेहोपयुज्यते इति तयोर्विशेषतोऽधिकृतत्वमुक्तमिति। विशेष (67) कियच्चिरम्, कालाद्वारम् / साम्प्रत 'तदित्यं लब्धंकिय च्चिर कालं भवति?' इति कालद्वारे जघन्योत्कृष्टं सामायिककालमभिधिसुराह- . सम्मत्तस्स सुयस्सय, छावट्ठीसागरोवमाइँ ठिई। सेसाण पुव्वकोडी, देसूणा होइ उक्कोसा // 2761|| सम्यक्त्वस्य श्रुतस्य चलब्धिमङ्गीकृत्य 'दो वारे विजयाइसु' इत्यादि वक्ष्यमाणन्यायेन षट्षष्टिसागरोपमाणि पूर्वकोटीपृथक्त्वाधिकानि स्थितिर्भवति। शेषयोर्देशविरतिसर्वविरतिसामायिकयोः पूर्वकोटिदेशोना भवति / 'उक्कोस त्ति-एषा सामायिकलब्धेरुत्कृष्टा स्थितिः / इति नियुक्तिगाथार्थः। भाष्यकारव्याख्यादो वारे विजयाइसु, गयस्स तिण्णच्चुए य छावट्ठी। नरजम्मपुव्वकोडी, पुहुत्तमुक्कोसओ अहि॥२७६२|| इयं प्रागिहैव व्याख्याता। अथ चतुर्णामपि सामायिकानां जघन्यस्थिति भाष्यकार एवाऽऽहअंतोमुहुत्तमित्तं, जहन्नयं चरणमेगसमयं तु / उवओगंतमुहुत्तं, नानाजीवाण सव्वद्धं / / 2763 / / जघन्यां तु लब्धिमाश्रित्याद्यसामायिकत्रयस्यान्तर्मुहूर्त स्थितिः। सर्वविरतिसामायिकस्य तु समयम्, चारित्रपरिणामारम्भसमयानन्तरमेवायुष्कक्षयसम्भवात्। देशविरतेरप्येवं कस्माद् न भवति? इति चेत् / तदयुक्तम्, तस्याः प्रतिनियतत्राणातिपातादिनिर्वृत्तिरूपत्वात, तदा लोचनपरिणतेश्च जधन्यतोऽप्यान्तौहूर्तिकत्वात्। तदेषं लब्धेः स्थितिकालः। उपयोगतस्तु सर्वेषामन्तमुहूर्त स्थितिः। नानाजीवानां तु सर्वाणि सर्वाद्धा इति गाथाद्वयार्थः / अथ कतिद्वारमुच्यते-तत्र सम्यक्त्वादिसामायिकानां विवक्षित-समये कति प्रतिपत्तारः, प्रतिपन्नाः, प्रतिपतिता वा भवन्ति? इत्याहसम्मत्तदेसविरया, पलियस्स असंखभागमेत्ताओ। सेढी असंखभागो, सुए सहस्सगसो विरई॥२७६४।। सम्यक्त्वदेशविरताः प्राणिनः क्षेत्रपल्योपमस्यासंख्येयभागमात्रा एव / इयमत्र भावना-क्षेत्रपल्योपमस्यासङ्ख्येयभागेयावन्तः प्रदेशास्तावन्त एवोत्कृष्टतः सम्यक्त्वदेशविरतिसामायि-कयोरेकदा प्रतिपत्तारो भवन्ति / किन्त्वयं विशेषः- देशविरति-प्रतिपत्तृभ्यः सम्यक्त्वप्रतिपत्तारोऽसङ्ख्येयगुणा इति / जघन्यत-स्त्वेको द्वौ वेति। "सेढी असंखभागो सुए' त्ति- इह संवर्तितचतु-रस्रीकृतलोकस्यैकप्रादेशिकी सप्तरज्जुप्रमाणा श्रेणिर्गृह्यते श्रुतमपि सम्यगमिथ्याश्रुतभेदरहित Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 735 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय सामान्येनाक्षरात्मकमत्राङ्गीकि यो ततो यथोक्तायाः अणेरसड -- ख्याततमे भागे यावन्तो नभःप्रदेशास्तावन्तो विवक्षितकाल सामान्य - श्रुतरयोत्कृष्टतः प्रतिपत्तारो लभ्यन्ते, जघन्यतस्त्वेको द्वौ वेति / 'सहपारगमो विरइ' नि. कदाचिद विवक्षितकाले उत्कृष्टतः राहसागशः सहस्रपरिमानथा सहसपृथक्त्वं विरतः प्रतिपत्तारो भवन्ति, जघन्यतस्त्वेका द्वौ वेति / तदेवमुक्ताः प्रतिपद्यमानकाः। विशे० आ० म० अथ पूर्वप्रतिपन्नान प्रतिपादयन्नाहसम्मत्तदेसविरया, पडिवण्णा संपई असंखेज्जा। संखेज्जा य चरित्ते,तीसु वि पडिया अणंगुणा // 2765 / / सम्यक्त्वदेशविरताः पूर्वप्रतिपन्नाः साम्प्रत वर्तमानसमये जघन्यत उत्कृष्ट श्वासङ्ख्येयाः प्राप्यन्ते, किन्तु जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः / एते च प्रतिपद्यमानकेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः। सख्येयाश्चारित्रे प्राक् प्रतिपन्नाः। एते तु स्वस्थाने प्रतिपद्यमानकेभ्यः सइख्येयगुणाः / त्रिभ्योऽपि चरण-देशसम्यक्त्वेभ्य एतानेव चरणगुणान प्राप्य ये प्रतिपतितास्तेऽनन्तगुणाः। तत्र सम्यगदृष्ट्यादिभ्यः प्रतिपद्यमानकेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नभ्यश्च चरणप्रतिपतिता अनन्तगुणाः, देशविरतिप्रतिपतितास्तुतेभ्योऽसंख्येयगुणाः / सम्यक्त्वप्रतिपतिताः पुनस्तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणा इति विशेषो द्रष्टव्य इति। (68) तदेवमत्र श्रुतवर्जसामायिकत्रयस्य पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपतिताश्चोक्ताः अथ श्रुतमाश्रित्याहसुयपडिवण्णा संपइ, पयरस्स असंखभागमेत्ताओ। सेसा संसारत्था, सुयपडिवडिया हु ते सव्वे / / 2766 / / सम्यग मिथ्यारूपस्य सामान्यतोऽक्षरात्मकस्य श्रुतस्य ये पूर्वप्रतिपन्नास्ते साम्प्रतं वर्तमानसमये प्रतरस्यासख्ये यभागमात्रा भवन्ति / घनसमचतुरस्रीकृतलोकप्रतरस्यासड् ख्येयभागवर्तिनीष्वसङ्ख्येयासु श्रेणिषु यावन्तो नभःप्रदेशास्तावन्तो विवक्षितसमये सामान्यश्रुतस्य पूर्वप्रतिपन्ना लभ्यन्त इत्यर्थः / श्रुतप्रतिपन्नप्रतिपद्य- | मानकेभ्यस्तु ये शेषाः संसारस्था जीवाः भाषालब्धिरहिताः पृथिव्यादय इत्यर्थः, ते सर्वेऽपि भाषालब्धिं प्राप्य प्रतिपतितत्वात सामान्यश्रुतात् प्रतिपतिला मन्तव्याः न हि निरादिके संसारे भ्राम्यद्भिस्तैर्भाषालब्धिःपूर्व नलब्धेत। ते च सम्यक्त्वादि प्रतिपतितेभ्योऽनन्तगुणा इति स्वयमेव दष्टव्यम्। इति नियुक्तिगाथात्रयार्थः / 'सेढीअसखभागो सुए' ति- इत्यस्य व्याख्यानं भाष्यकारः प्राहसंवट्टियचउरस्सी-कयस्स लोगस्स सत्तरज्जूओ। सेढी तदसंखिज्जइ-भागो समए सुयं लहइ / / 2767 / / उक्तार्था। 'सुयपडिवण्णा संपइ पयरस्स' इत्यादेव्याख्यानमाहसा सेढी सेढिगुणा, पयरं तदसंखभागसेढीणं / संखाईयाण पए, सरासिमामा सुयपवन्ना / / 2768|| इयमपि गतार्था / नवरं श्रेणिः श्रेण्या गुणिता प्रतरो मन्तव्यः। 'सम्मादसविरया पलियम्स' इत्यायुक्तम्, तत्र सम्यक्त्वप्रति... दामानकादीना संख्यातीतत्वस्य तुल्यत्वादल्पवहुत्वं पूर्व न विज्ञातम्, द भाष्यकारः प्राहसइ संखाईयत्ते, थोवा देसविरया दुविण्हं पि तदसंखगुणासम्म-द्दिट्ठी तत्तोय सुयसहिया।।२७६६।। मीसे पवज्जमाणा,सुयस्स सेसपडिवन्नएहिंतो। संखाईयगुण चिय, तदसंखगुणा सुयपवन्ना // 2770 / / राग्यसत्यदेशविरतानामुभयेषामपि प्रतिपद्यमानकानां पल्योपमासडख्येयभागवतर्तित्वेन संख्यातीतत्वेऽसंख्येयत्वे तुल्येऽपि सति योरप्यनयो राश्योः स्तोका देशविरताः प्रतिपद्यमानकाः, सम्यगदृष्टयः प्रतिपद्यमानकास्तेभ्योऽसंख्ये यगुणाः,तेभ्यश्वप्रतिपद्यमानसम्यगदृष्टिभ्यः श्रुतसहिताः सामान्य श्रुतप्रतिपद्यमानकाः असंख्येयगुणाः / मिश्रेमिलिते समुदितेऽपीत्यर्थः, सम्यगदृष्टिदेशविरतराशिद्वयेऽवधौ ध्यदस्थापिते सामान्यश्रुतस्य ये प्रतिपद्यमानकास्ते, शेषेभ्यः सम्यग्दृष्टिदेशविरतेभ्यो मिलितेभ्यः प्रतिपन्नकेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नेभ्य इति भावः, 'संखाईयगुण चिय' त्ति-संख्यातीतगुणा एवासंख्यातगुणा एवेत्यर्थः / तदनेन श्रेणेरसंख्यातभागवृत्तित्वात सामान्येन श्रुतप्रतिपद्यमानकानां प्राचुर्य सूचितम् / एवं नाम ते सामान्य श्रुतप्रतिपद्यमानका बहवो ये न शेषेभ्यः-समुदितसम्यग्दृष्टिदेशविरतेभ्यः पूर्वप्रतिपन्नेभ्योऽप्यसंख्यातगुणाः 'तदसंखगुणा सुयपवन्न' ति-तेभ्योऽपि श्रुतप्रतिपद्यमानकेभ्यस्तस्यैव श्रुतस्य ये पूर्वप्रतिपन्नास्तेऽसङ्ख्यातगुणा इति। अथ पूर्वप्रतिपन्नाना च प्रतिपद्यमानकानां च सम्यग्दृष्ट्यादीना स्वस्थानेऽल्पबहुत्वमाह सट्ठाणे सट्ठाणे, पुव्दपवण्णा पवज्जमाणे हिं। हुंति असंखिज्जगुणा,संखिज्जगुणा चरित्तस्स // 2771 / / सम्यक्त्वयुक्तश्रुतदेशविरताना स्वस्थाने स्वस्थाने पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानके भ्योऽसंख्येयगुण; चारित्रिणां तु विशेष, तद्यथासर्वस्तोकाः स्वस्थाने चारित्रिणः प्रतिपद्यमानकाः , पूर्वप्रतिपन्ना-स्तु सख्येयगुणा इति। अथ सम्यक्त्वादिप्रतिपतितानामल्पबहुत्वमाहचरणपडिया अणंता, तदसंखगुणा य देसविरईओ। सम्मादसंखगुणिया, तओ सुयाओ अणंतगुणा / / 2772 / / चारित्रं प्राप्य ये प्रतिपतितास्ते सम्यक्त्वादिप्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नकेभ्यः सर्वेभ्योऽप्यनन्ता अनन्तगुणाः, देशविरतिप्रतिपतितास्तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणाः, सम्यक्त्वप्रतिपतितास्तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणाः, तेभ्योऽपि श्रुतात् प्रतिषतिता अनन्तगुणा इति। 'सेढी असंखभागो सुए' इत्यादि यदुक्तम्, तच किं सामान्यश्रुतं सम्यक्तवश्रुतं वेह गृह्यते, इत्याशङ्कायामाहसामण्णं सुयगहणं, ति तेण सव्वत्थ बहुतरा तम्मि / इहरा पइ सम्मसुयं,सम्मत्तसमा मुणेयव्वा / / 2773 / / Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माय 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय मा रागमा चेति। हर समय देशविरतिचारित्रलक्षणेषु चतुलपि सामायिकेषु / प्रतिपन्नपनि प्रतितपदयोर्जघन्योत्कृष्टभेदभिन्नत्वात् तद्विशेषप्रतिपादनार्थम्गहपडियपडिवन्नयाणं, सट्ठाणे समहियं जहन्नाओ। सव्वत्थुक्कोसपयं, पटवज्जइ जहण्णओ चेगो / / 2774 / / इह सम्यक्त्वादिप्रतिपतितानां यज्जधन्यपदं तस्मात् स्वस्थाने यदुत्कृष्टपद तत् सर्वत्र समधिक विशेषाधिकमवगन्तव्यम् / एवं पूर्वप्रतिपन्नानामपि जघन्यपदादुत्कृष्टपदं विशेषाधिकमेव / प्रतिपद्यमानानां तर्हि का वार्ता? इत्याह- 'पवज्जई' त्यादि, प्रतिपद्यते सम्यक्त्वादिगुण जघन्यत एको द्वौ वा.उत्कृष्टतस्त्वाद्यसामायिक-- त्रयमसङ्ख्याताः, चारित्रं तूत्कृष्टतः प्रतिपद्यन्ते / अत इह जघन्यपदादुत्कृष्टपदमसंख्येयगुण संख्येयगुणं वा द्रष्टव्यम् इति गाथाऽष्टकार्थः। विशेष (66) अथ यस्य नयस्य यत् सामायिक मोक्षमार्गत्वेनानु-- मतम, तद्दर्शनस्वरूपमनुमतद्वार बिभणिषुराहतवसंजमो अणुमओ, नेग्गंथं पवयणं च ववहारो। सदुज्जुसुयाणं पुण,निव्वाणं संजमो चेव / / 2621 // तापयतीति तपरतत्प्रधानः संयमस्तपःसंयमश्चारित्र सामायिकमित्यर्थः / तथा निर्ग्रन्थानामिदं नैन्थ्यमार्हलभिति भावना, प्रवधनं श्रुतसामायिकमित्यर्थः / चशब्दोऽनुक्तसम्यक्त्वसामायिकपरिग्रहार्थः / एतानि त्रीण्यपि सामायिकानि मोक्षमार्गत्वेन ममानुमतानीति बूते व्यवहारनयः। एतद्ग्रहणे चाधोवर्तिनौ नैगमसंग्रहावपि गृहीती द्रष्टयौ। ततश्चेदमुक्तं भवति-नैगमसंग्रहव्यवहारास्त्रिविधमपि सामायिक मोक्षमार्ग तयाऽनुमन्यन्ते / शब्दर्जुसूत्रयोः पुनर्निर्वाणं निवर्पणमार्गोऽभिमतः संयम एव चारित्रसामायिकमेवेत्यर्थः, नेतरे द्वे, सर्वसवररूपचारित्रानन्तरमेव मोक्षप्राप्तः, इति नियुक्तिगाथासंक्षपार्थः / विस्तरार्थ भाष्यकारःप्राहकस्स नयस्साणुमयं, किं सामाइयमिह मोक्खमग्गो त्ति। भन्नइ नेगमसंगह-ववहाराणं तु सव्वाइं॥२६२२|| तवसंजमो त्ति चरितं, निग्गंथं पवयणं ति सुयनाणं। तग्गहणे सम्मत्त,च ग्गहणाओ य बोद्धव्वं // 2623|| गाथाद्वयमपि गतार्थम् / नवर 'सव्वाई' ति-सम्यक्तवश्रुतचारित्ररूपाणि त्रीण्यपि सामायिकानीत्यर्थः। अथ परप्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाहतिन्नि वि सामइयाई, इच्छंता मोक्खमग्गमाइला / किं मिच्छट्ठिीया, वयंतिजं समुइयाइं पि॥२६२४|| आह नन्वाद्या नेगमसग्रहव्यवहारलक्षणास्त्रयो नया उक्तन्यायेन चारित्रश्रुतसम्यवस्वरूपाणि सामायिकानि मोक्षमार्गत्वेनेच्छन्तः किमिति मिथ्यादृष्टयः?-किमिति नयमतमिदं गीयते?-सम्पूर्ण जिनमतमेव करमादेतद् न भवति? इत्यर्थः / नहि जैनैरपि ज्ञान-दर्शनचारित्रेभ्योऽन्यदुनमधिक वा किमपि मोक्षमार्गत्वनेष्यते? अत्रोत्तरमाह- 'वयंती' त्यादि,यत्--यस्मादसमुदितान्यप्येतानि मोक्षमार्गत्वेन वदन्ति नेगमा दयः, न तु 'ज्ञानादित्रयादेव मोक्षः' इति नियम कुवत, न गत्वहानिप्रसङ्गात् / अत एते मिथ्यादृष्टय इति। 'सद्दुज्जुसुयाण पुण' इत्यादि गाथादल व्याख्यातुमाहउज्जुसुयाइमयं पुण, निव्वाणपहो चरितमेवेगं / न हि नाणदंसणाई, भावे विन तेसि जं मोक्खो // 2625 / / ऋजुसूत्ररय, त्रयाणां च शब्दनयानां पुनश्चारित्रसामायिकमेवैकं निर्वाणमार्ग इति हि मतम्, हिशब्दः पुनरर्थे , न पुनः श्रुतज्ञानसामायिकं सम्यग्दर्शनसामायिकं च मोक्षमार्गस्तेषामनुमत इत्यर्थः,यद्यस्मात् तयोर्ज्ञानदर्शनसामायिकयोः सद्भावेऽपि चारित्रमन्तरेण न माक्षः / तस्मादन्वयव्यतिरेकाभ्यां चारित्रसामायिकमेवैकं तन्मतेन मोक्षमार्ग इति। एतदेव भावयतिजं सव्वनाणदसण-लंभे विन तक्खणं चिय विमोक्खो। मोक्खोय सध्वसंवर-लाभे मग्गो स एवाओ॥२६२६।। यद्- यस्मात् सर्वम्- परिपूर्ण ज्ञानं सर्वज्ञानं क्षायिक ज्ञानम्; केवलज्ञानमिति यावत्, तथा-सर्वम्-सम्पूर्ण दर्शनं सर्वदर्शनम्; क्षायिकसम्यक्वगित्यर्थः, तयोलभिऽपि न तत्क्षणमेव विमोक्षा-- गुक्तिसद्भावः / भवति च मोक्षः, कटा? इत्याह- सर्वसंवररूपचारित्रसागायिकलाभे / अतोऽन्वयव्यतिरेकाभ्यां स एव सर्वसंवरअपचारित्रलाभो मोक्षमार्ग इति। अत्र परः प्राहआह नणु नाणदंसण-रहियस्सेव सव्वसंवरो दिट्ठो। तस्सहियस्सेव तओ,तम्हा तितयं पि मोक्खपहो।।२६२७।। आह ननु सोऽपि--सर्वसवररूपचारित्रलाभो ज्ञानदर्शनरहितस्याकरमादेवापजायमानो न कस्यापि दृष्टः, किं तु तत्सहितस्यैव प्रागत्पन्नज्ञानदर्शनस्यैव तको यथोक्तचारित्रलाभः संजायते। तस्मात त्रितयमपीद मोक्षमार्ग इति / अतोऽयुक्तमुक्तम् "निव्वाणं संजमो चेव' इति। एवं नैगमादिभिरुक्ते ऋजुसूत्रशब्दावाहतुःजह तेहि विणा णत्थि-त्ति संवरो तेण ताइँ तस्सेव। जुत्तं कारणमिह न उ,संवरसज्झस्स मोक्खस्स // 2628 // यदि 'ताभ्यां ज्ञानदर्शनाभ्यां विना सर्वसंवररूपचारित्रलाभो नास्ति' इत्युच्यते भवता, 'तेण' ति-तोतावता हन्त! 'ताई' ति ते ज्ञानदर्शने तस्यैव सर्वसंवरचारित्रस्य कारणमिह युक्तभिधातुम्, न तु सर्वसंवरचारित्रसाध्यस्य मोक्षस्य, तदनन्तरमात्रभावित्वात् ज्ञानदर्शनद्वयानन्तरमभूतत्वाचेति। पुनरपि पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाहअह कारणोवगारि त्ति, कारणं तेण कारणं सव्वं / भुवणं नाणाईणं,जइ णो नेयाइ भावेणं / / 2626 / / तह साहणभावेण वि,देहाइपरंपराइबहुभेयं / निव्वाणकारणं ते, नाणाइतियम्मि को नियमो // 2630 / / अह पचासण्णतरं, हेऊ नेयरमिहोवगारिं पि। तो सव्वसंवरमयं, चारित्तं चेव मोक्खपहो।।२६३१।। Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 737 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय अथ वषे कारणस्य सर्वसंवरचारित्रस्योपकारिणी ज्ञानदर्शने, इति ते तस्य कारणम्, 'तेण' त्ति-तर्हि हन्त ! सर्वमपि भुवनं यतेनिदर्शनचारित्राणा कारणं प्राप्नोति, ज्ञेयश्रद्धेयप्रवृत्तिनिवृत्तिभावेन सर्वस्यापि भुवनस्य तदुपकारित्वादिति / न केवलं ज्ञेयादिभावेनोपकारमात्रात्, तथा, साधनभावेनापि-साधकतमत्वनापि देहमातापितृवस्त्रपात्राऽs - हारभेषजादिकं परम्परया बहुभेदं बहुप्रकार निर्वाणस्य मोक्षस्य-कारण विद्यते। ततरते तव ज्ञानादित्रिके को नियमः? ज्ञानदर्शनचारित्राणि मोक्षमार्गः 'इत्येवभूतः को निश्चयः? अन्यस्यापि परम्परया देहादेर्बहुप्रकारस्य तत्कारणस्य विद्यमानत्वादिति। अथ बहप्रकारकारणसंभवेऽपि यदेव प्रत्यासन्नतरं कारणं तदेव मोक्षस्य हेतुरिष्यते, न पुनरितरद् देहा-दिकमपि परंपरयोपकारकमपि तद्धेतुतयाऽभिधीयते ततो ज्ञानादित्रयमेव मोक्षहेतुरिति नियमः। अत्रोच्यते-यदि हन्त ! प्रत्यासन्नतया यदुपकुरुते तदव मोक्षकारणम्, न व्यवहितम्, ततस्तर्हि सर्वसंवरात्मक चारित्रमेव मोक्षमार्गो नान्यदिति प्रतिपद्यस्व, तस्यैवातिप्रत्यासन्नत्वादिति। आह-ननु यधेतदनन्तरोक्तं नैगभादिनयमतम, तर्हि स्थितः पक्षः कः? इत्याहइद्वत्थसाहयाई, सद्दहणाइगुणओ समेयाइं। सम्मकिरियाउरस्स व, इह पुण निव्वाणमिट्ठत्थो / / 2632 / / इह नेगमादय एकैकशो व्यस्तान्यपि त्रीणि सामायिकानि मोक्षकारणत्वेनेच्छन्ति, ऋजुसूत्रादयस्तुचारित्रमेवैकं तद्धेतुत्वेन प्रतिपद्यन्ते, इति तावद् नयमतं प्रतिपादितम् / स्थितपक्षे तु त्रीण्यपि ज्ञानादीनि सामायिकानि समुदितान्येवेष्टार्थसाधकानि, न त्वेकम, व्यस्तानि वा, यथाऽऽतुरस्य वैद्यभेषजाऽऽतुरप्रतिचारकलक्षणसमुदितचतुरङ्गसम्यक्रिया / सम्यक्त्वेन हि सम्यक्त्वं श्रद्धत्ते, ज्ञानेन तु जानाति, चारित्रण तु सर्वसावद्याद विरमतीति ! अतः ‘सद्दहणाइगुणउ' तिश्रद्धानादिगुणयुक्तत्वात समुदितेभ्य एव ज्ञानादिभ्य इष्टार्थसिद्धिर्नान्यथा / अत्र प्रयोगः- इहेशार्थस्य सामग्येव साधिका न त्वेक किश्चित्, तथैवोपलम्भात् यथाऽऽतुरस्य चतुरङ्ग सम्यक्रियासामग्री तदिष्टार्थस्य साधिका / स चेष्टार्थः पुनरिह प्रस्तुते निर्वाणं मोक्षा मन्तव्य इति / तदेवमुक्तमनुमतद्वारम् / तगणनेनैव समाप्ता ‘उद्देसे निहसे य निग्ग' इत्याद्युपोद्घातप्रथमद्वारगाथा। अथ 'कि कइविह' इत्यादि द्वितीयद्वारगाथावयवभूतं प्रथम 'किम्' इत्येतवार व्याख्येयम् / अतस्तत्प्रतिपादक नियुक्तिगाथायाः प्रस्तावना कुर्वन्नाहकिं सामइयं जीवो, अजीवो दव्वमहगुणो होजा। किं जीवाजीवमयं, होज तदत्थंतरं व त्ति? // 2633 / / किं सामायिक जीवः, उताजीवः? जीवाजीवत्वेऽपि कि द्रव्यं, गुणो वा भवेत / आहोस्विज्जीवाजीवमयमुभयम् / अथ जीवाऽजीवोभयेभ्योऽथान्तर खरविषाणवन्ध्यापुत्रकल्पं किमपि तद् भवेत्? इति द्वादशगाथार्थः / विशे० आ० म० तथाहि.. सामायिक विषयनिरूपणं प्रस्तुतं सामायिकाङ्गत्वात् यत् यत् सामायिका तत्तत्प्ररूपणं प्रस्तुत यथा सामायिकस्वात्मप्ररूपणमित्यलं विस्तरेण / तत्र यदुक्तम्-आत्मा खलु सामायिकमिति तत्र यथाभूतोऽसो. सामायिक तथाभूतमभिधित्सुराहसावजजोगविरतो, तिगुत्तो छसु संजतो। उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होई॥१४६।। अवध मिथ्यात्वकषायनोकषायलक्षण सहावद्य यस्य येन वा स सावद्यः स चासौ योगश्च सावद्ययोगस्तस्माद्विरतोनिवृत्तः सर्वसावद्ययोगविरतस्तथा त्रिभिर्मनोवाक्कायैर्गुप्तस्त्रिगुप्तः। तथा षट्सु जीवनिकायषु संयतः-प्रयत्नवान, अथ अवश्यकर्तव्येषु योगेषु सततमुपयुक्तो यतमानः यतनं तेषामासेवनम्। इत्थंभूत आत्मा सामायिकमिति। इयं मूलटीकानुसारेण व्याख्या। आ० न०१०। अनन्तरोक्तशङ्काऽसम्भवे इत्याहआया खलु सामइयं, पच्चक्खायं तओ हवइ आया। तं खलु पचक्खाणं, आयाए सव्वदव्याणं / / 2634 / / इह सामायिक कः? इत्याह- 'आया खलु ति-आत्मैवजीव एव सामायिकम्, न त्वजीवादिरिति भावः ‘पच्चक्खायं तओ हवइ आयं' ति--स चात्मा सावायोगं प्रत्याचक्षाणस्तत्प्रत्याख्यान कुर्वन प्रत्याख्यानक्रियाकाले सामायिक भवति, निश्चयनयमतेन 'क्रियम:गं कृतम्' इति क्रियाकालनिष्ठाकालयारभेदात्। न केवलं प्रत्याचक्षाणोऽसी वर्तमानकाले सामायिक भवति, किन्तूपलक्षणत्वात् कृतप्रत्याख्यानोऽपि सामायिकं भवतीति द्रष्टव्यम् / द्वितीय-मात्मग्रहणं किमर्थम? इति चेत्। उच्यते स एव सावद्ययोगप्रत्याख्यानयुक्तः परमार्थत आत्मा, श्रद्धानज्ञानसावधानिवृत्तिलक्षणस्वस्वभावावस्थितत्वात् / शेषसंसारः पुनरात्मैव न भवति, प्रचुरघातिकर्मभिस्तस्य स्वाभाविकगुणतिरस्करणादिति ज्ञापनार्थ पुनरात्मग्रहणमिति / तं खलु पचक्खाणं' तिखलुशब्दः सामायिकस्य जीवपरिणतित्वज्ञापनार्थः / ततोऽयमर्थ:तच्च प्रत्याख्यानं जीवपरिणतिरूपत्वाद् विषयमधिकृत्य 'आवाए सव्वदत्वाण' ति-सर्वषामपि जीवादिद्रव्याणामापाते अभिमुख्यन समवाये 'निष्पद्यते' इति शेषः / सर्वाणि जीवादिव्याणि सामायिकप्रत्याख्यानस्य श्रद्धेयज्ञेयप्रवृत्तिनिवृत्तिभावेनोपयुज्यन्ते, अतस्तत्समवार तद निष्पद्यत इत्यभिधीयते / न च सामायिकप्ररूपणे प्रस्तुत तद्विषयनिरूपणमरांबद्धमिति वक्तव्यम, तदङ्गत्वात् तत्स्वरूपवत् इति नियुक्तिगाथार्थः / विशे०। आ० म० साम्प्रतमियमेव गाथा कई कालिकसूत्रेऽपि प्रतिसूत्र पूर्वमवतरुर्नया इति सकौतुकविनेयजनानुग्रहारा पूर्वसूरिकृतध्याख्यानुसारेण नयाख्यायते / संग्रहनयः प्राह- आ गया सामायिक सामायिकशब्दवाच्यो न तदतिरिक्तं गुणान्तरं, गुणाना द्रव्यात् पृथग्भूतानामराम्भवात्, अपृथग्भूतानां द्रव्य एवान्तर्भावात, एवं युवाण संगह प्रतिव्यवहारोऽवोचत्---नशक्यमेतत्प्रतिपत्तुमतिप्रसङ्ग-दोषात ! तथाहि यद्यसी सामायिकं ततो यो य आत्मास सामायिकामेति प्रसरतात, एव प्ररूपय- 'जयमाणो आया सागाइयं होइ' इति यतमानो नाम Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 738 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय प्रयत्नपरस्तथाभूत आत्मा सामायिकं न शेष इति। एवं व्यवहारे-णोक्ते सति ऋजुसत्रनय उवाच--यदि नाम यतमान आत्मा सामायिक तत एवं तामलिप्रभृतयोऽपि स्वच्छन्दसा यतमानाः सामायिक प्ररसक्तास्तेषापि स्वसयमानुगतयतनामात्रसम्भवात, नचैतदिष्ट तेषां मिथ्यादृष्टित्वात। तत एवं बुध्यस्व उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकभिति। उपयुक्तो नाम ज्ञेयप्रत्याख्ययज्ञानप्रत्याख्यानपरिणामः, एवं सति तामलिप्रभृतीनां व्यवच्छेदस्तेषां सम्यग्ज्ञानसम्यक्प्रत्याख्यानासम्भवात्, एवम् ऋजुसूत्रणोक्ते शब्दनयोऽभाणीत्-- यधुपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमेवंतीविरतसम्यगदृष्टयो देशविरताश्च सामायिक प्राप्नुवन्ति। तेषा.. मपि यथायोग ज्ञेयज्ञानप्रत्याख्येयप्रत्याख्यानसम्भवात् / तत एव माचक्ष्व- 'पट्सु संयत उपसंयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति / षट् -- पृथिवीकायिकादिषु सम्यक् सूत्रोक्तनीत्या यतः संघटनपरितापनादिभ्या विरतः संयतः। एवं चारित्रसम्यगदृष्टिदेशविरतव्यवच्छेदः, तेषा त्रिविधं त्रिविधेन षड्जीवनिकायपरितापनादिभ्यो विरत्यभावात् / एवमुक्ते समभिरूढः प्राह- यदि षट्सु जीवनिकायेषु संयत उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिक-मिति / त्रिगुप्तो नाममनावाचायगुप्तः / किमुक्तं भवति-अकुशलमनोवाक्काय-प्रवृत्तिनिरोधी कुशलमनोवाकायोद्दीयकः ‘एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति न्यायात् पक्षसु ईर्याभाषणादानभाण्डमात्र-निक्षेपणोचारप्रश्रवणादिपरिष्ठापनरूपासु समितिषु समित इत्यपि गृह्यते / ततः प्रमत्तसं यतानां व्यवच्छेदः, तेषा निद्राविकथादिप्रमादोपेतानां यथोक्ते रूपगुप्तिसमित्यभावात् / एवं समभिरूढेणाभिहिते एवंभूतो वदति यदि नाप यथोक्तस्वरूप आत्मा सामायिक ततोऽप्रमत्तसंयतादयोऽपि सामायिक भवेयुस्तपामपि यथोक्तविशेषणविशिष्टत्वभावात, तत एवं प्रतिपद्यस्व सावायोगधिरतस्त्रिगुप्तः षट्सु संयत उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति / सावद्ययोगविरलो नाम अवयं कर्मबन्धः सहावा यस्य येन वास सावद्यः योगो व्यापारः सामर्थ्य वीर्यमित्येकार्थ "जोगो विरिय थाम, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्टा / सत्ती सामत्थं चिय, जोगस्स हवंति पलाया / / 1 / / " इति वचनात सावद्यश्चासौ योगश्च सावहायोगस्तरमात विस्तः-प्रतिनिवृत्तः सावद्ययोगविरतो ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिज्ञातसमरतसावद्ययोगः / किमुक्तं भवति-निरुद्धसूक्ष्मवादरमनोवाकाय व्यापारी विगतक्रियानिवृत्तिध्यानमधिरूढः शैलेशी प्रतिपन्नो नामात्मा सामायिकमिति, एवं चाप्रमत्तसंयतादीनां व्यवच्छेदस्तेषां मनोवाक्कायव्यापारवतया सावद्ययोगपरिकलितत्वात् “नस्थि हु सक्किरियाणं अबंधग किंचि इह अणुट्ठाण'' मिति वचनात् / नैगमस्य त्चनेकगमत्यात सगस्तैतद्विशेषणविशिष्टोऽन्यतरैकविशेषणविशिष्टो वा द्वित्रिचतुःपञ्चविशेषणविशिष्टो वा सामायिकमित्यतावन्मात्रमभ्युपगम्यत, ततः सावधव्यापारबहुलानामपि सामायिकत्वप्रसङ्गः / ततो मा वादीरवं, किन्त्वयं वदसावद्ययोगविरत आत्मा सामायिकमिति / एवं च सावहाव्यापारनिषण्णाना सामायिकत्वव्युदासः / ऋजुसूत्रः पुनः संयममेव सामायिकम मन्यते, न राम्यक्त्वसामायिक श्रुतसामायिक वा, विरत्यभावे तयोनिष्फलत्वात, ज्ञानस्य फलं विरतिरि' ति वचनात् / विरतिभावे च तयोस्तत्रैवान्तर्भावात्। तत उक्तप्रकारेण वदन्तं व्यवहार प्रति स प्राह-विरतिमि परिज्ञानमात्रेऽपि तदा शक्यभावतो लोके व्यवह्रियते। तथाहि- केचित प्रबल चारित्रावरणीयकम्मोदयसमेता कदाचित्तीर्थकरादिसमीपे धर्मश्रवणवेलायां नरकादिदुःखाकर्णनतस्तगीता विषयान्नरकादिकुगतिप्रपातहेतूनवबुध्य तेभ्यो विरज्यन्ते। हा धिग्यद्वयमेनेष्वेवंरूपेष्वपि पसक्ता इति लोकानामपि च तथारूपचेष्टादिदर्शनत एवं प्रत्यय उपजायते यदेते विरक्ता इति। परं तेनतान् विषयान् त्यक्तुं शक्नुवन्ति प्रबलवारित्रावरणीयकम्र्मोदयात् / ततः सावद्ययोगविरत आत्मा सामायिकमित्येतावन्मात्रोक्तौ तेषामपि सम्यक्त्वसामायिकवतां च व्यवहारतः सावद्ययोगविर-तानां सामायिकत्वं प्राप्नोति। तस्मादेवमभिधानीय सावद्य योग-विरतरित्रगुप्त आत्मा सामायिकमिति / त्रिगुप्त इत्यस्य व्याख्यानं प्राग्वत्। त्रिगुप्त इत्युपलक्षणं, ते पशसमित इत्यपि द्रष्टव्यं शब्दनयः पुनर्देशविरतिसामायिकमपि नेच्छति तत एवमभिदधानमृजुसूत्र प्रति स बूते- यदि नाम सावद्ययोगविरतास्त्रिगुप्तः सामायिक-मित्युच्यते ततो देशविरता अपि सामारिकं प्राप्नुवन्ति तेषामपि सामायिकं कुर्वता सावद्ययोगविरतत्वात, यथायोग पञ्चसमितित्रिगुप्तिभावाच्च / ततस्तेषां सामायिकत्वप्रतिषेधार्थमेवमभिदध्याःसावधयोगविरतस्त्रिगुप्तः षट्सु संयतः आत्मा सामायिकमिति / षट्सु संयतो नाम-त्रिविधं त्रिविधेन षट् सु जीवनिकायेषु संघट्टनपरितापनादिभ्यो विरतस्तत एव देशविरताना सामायिकमपि कुर्वतां सामायिकत्वव्युदासस्त्रिविधं त्रिविधन, विरत्यभावात द्विविधं त्रिविधेनेति, सामायिकसूत्रोचारणात्, समभिरूढः पुनः प्रम तसंयतानामपि सूक्ष्मसंपरायपर्यन्तानां सामायिकत्वं नेच्छति। तत्र उक्तप्रकारेण बुवन्त शब्दनयं प्रति स प्राह- यदि नाम सावद्ययोगविरतस्त्रिगुतः षट्सु संयत आत्मा सामायिकमिति, उपयुक्तो नाम-कषायादयलेशेनाप्यकलङ्कितः सन् समभावे व्यापृतस्ते च उपशान्तमोहादय एव न प्रमत्तसंयतादयस्ततस्तेषां व्युदासः / एवंभूतः पुनः समुद्धातादिगतं सयोगिकेवलिनमयोगिकेवलिन वा सामायिकनिच्छति, न शेष यतः सामायिकस्य फलं मोक्षस्ततो यैव सम्यक-समभावे व्यवस्थितस्य समस्तकर्मविमोक्षार्थमायोजिका करणसमुद्धातादिका विगतक्रियानिवर्तिध्यानप्रतिपत्तिरूपा वा क्रिया सेव सामायिकशब्दस्य प्रवृत्तिनिमिनमतस्तत्पतिपत्त्यर्थ विशेषणान्तरमाह- सावद्ययोगविरतस्त्रिगुप्तः षट्सु संयतः उपयुक्तो यतमान आत्मा सामायिकमिति / एवं चोपशान्तमोहादीनां सामायिकत्वप्रतिक्षेपस्तेषां यथोक्तलक्षणक्रियारूपाया यतनाया असम्भवात्, नंगमस्त्वनेकगमत्वादेव प्राग्वत् सामायिकमिच्छन् भावनीयः। आ०म०१ अ०। आ० चू०। (70) ननु कस्माजीव एवं सामायिक नाजीवादिः' इत्याशङ्कायां भाष्यकारः प्राहसद्दहइ जाणइजओ, पचक्खायं तओ जओ जीवो। Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 736 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय नाजीवो नाभावो, सो चिय सामाइयं तेण / / 2635 / / यतो-यस्मात सम्यक्त्वश्रुतसामायिकाभ्यां श्रद्धत्ते जानाति च जीव एव नाजीवादिः, प्रत्याचक्षाणश्च चारित्रीयतो जीव एव भवति नाजीवो नाप्यभावः, श्रद्धानज्ञानप्रत्याख्यानानां प्रेक्षावत्येव संभवात, अजीवाऽभावयोश्च प्रेक्षाभावात् तेन तस्मात् स एव जीवः सामाथिक नाजीवादिरित। त खलु पच्चक्खाणं इत्यादेयाख्यानमाहसामाइयभावपरिणइ, भावाओ जीव एव सामइयं / सद्धेयनेयकिरिओ-वओगओ सव्वदव्वाइं॥२६३६|| 'खलु शब्दः सामायिकस्य जीवपरिणतित्वज्ञापनार्थः' इत्युक्तमेव / ततश्च सामायिकभावपरिणतिभावात् सामायिक-परिणामानन्यत्वाजीय एव सामायिकम् / तस्य च जीवपरिणति-रूपस्य सामायिकरय को विषयः? इत्याह--सर्वद्रव्याणि / कुतः? 'सद्धेयनेयकिरिओवओगओ' त्ति यथासंख्यं सम्यक्त्व- श्रुतचारित्रसामायिकानां श्रद्धेयत्वेन शेयत्वेन, प्रवृत्तिनिवृत्ति-क्रियया च सर्वद्रव्याणामुपयोगात्, इति गाथाद्वयार्थः।। (71) तत्रै कस्मिन्नपि तावद् महावतात्मके चारित्रसामायिके नियुक्तिकृदेव साक्षात सर्वद्रव्योपयोगं दर्शयति-- पढमम्मि सव्वजीवा, वीए चरिमे य सव्वदव्वाइं। सेसा महव्वया खलु, तदेगदेसेण दव्वाणं / / 2637 / / प्रथमे प्राणातिपातनिवृत्तिरूपे व्रते विषयद्वारेण चिन्त्यमाने सर्वजीवावसस्थावरसूक्ष्मतरभेदा विषयत्वेन द्रष्टव्याः, तदनुपालनरूपत्वात् तस्येति / तथा, द्वितीये मृषावादनिवृत्तिरूपे, चरमे च परिग्रहनिवृत्ति रूपे महाव्रते सर्वद्रव्याणि विषयत्वेन द्रष्टव्यानि / कथम्? 'नास्ति पशास्तिकायात्मको लोकः' इति मृषावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात, तन्नित्तिरूपत्वाच द्वितीयव्रतस्य / तथा, मूच्छद्विारेण परिग्रहस्यापि सर्वद्रव्यविषयत्वात, चरमव्रतस्य च तन्निवृत्तिरूपत्वादशेषद्रव्यविषयतेति / 'सेसा' इत्यादि खलुशब्दोऽवधारण, तस्य च व्यवहितसम्बन्धः / ततश्च शेषाणि महाव्रतानि द्रव्याणां तदेकदेशेनैव 'भवन्ति' इति क्रियाध्याहारः / तेषां द्रव्या-णामेकदेशस्तदेकदेशस्तनैद हेतुभूतेन विषपत्वेन भवन्ति, न तु सर्वद्रव्यैरिति भावः / कथम? इति चत् / उच्यत-तृतीयस्य ग्रहणी-यधारणीयद्रव्यादतादानविरतिरूपत्वात्, चतुर्थस्य तु ''रूवेसु वा स्वसहगेसु वा दव्वेसु'' इत्यादिवचनाद् रूप-रूपसहगतद्रव्यसम्बन्ध्यबहाविरतिरूपत्वात्, षष्ठस्य च रात्रिभोजनविरमण स्वरूपत्यादिति / एवममीषां सर्वद्रव्यैकदेशविषयता इति नियुक्तिगाथार्थः। कुतः पुनरेवम्? इत्याशक्य भाष्यकारोऽप्याह... जं सव्वजीवपालण-विसयं पाणाइवायवेरमणं / मिच्छा मुच्छोवरमा, सव्वद्दव्वेसु विणिउत्ता॥२६३८|| रूवेसु सहगएK, बंभवयं गहणधारणिज्जेसु / तइयं छट्टवयं पुण, भोयणविणिवित्तिवावारं // 2636 / / एवं चारित्तमयं पव्वद्दव्वविसयं तहसुयं पि। देसे देसोवरई,सम्मत्त सव्वभावेसु / / 2640 / / यद-यरमात बसस्थावरसुक्ष्मस्थूलसर्वजीवपालनविषयं प्राणातिपातविरतिबनम, तस्मात् प्रथम व्रते सर्वजीवा विषयाचेन सङ्ग्रहीताः। मिथ्या, अनृतम, भूपति पर्यायाः / मूछी, गृद्धिः, परिग्रह इत्येकार्थाः / उपरमाणमुपरमो, निरागः / अयं चौपरमशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते / ततश्व मिथ्योपरमो मृपा बादनियमो द्वितीय-व्रतमित्यर्थः / मूछोपरमः परिगहनियमशरमव्रतमित्यर्थः। एतौ मिथ्योपरम- मूझेपरमौ द्वितीयचरमव्रतविशेषो सर्वद्रव्येषु विनियुक्ती सर्वद्रव्याणि प्रत्येकं तयोर्विषय इत्यर्थः कथम्? इति चेत्। उच्यते-शून्यवादे सर्वद्रव्यापलापेन, अन्यथा प्ररूपणेन वा मृषावादस्य सर्वद्रव्यविषयत्वात्, द्वितीयव्रतस्य च सन्निवृतिरूपत्वात सर्वद्रव्यविषयता / पञ्चमव्रतस्यापि 'त्रिभुवनाधिपतिरहम' सर्वमपि मदीयम इत्येवंभूतमूर्छानिवृत्तिरूपत्वात् सर्वद्रव्यविषयतेति। रूपेषुतिर्यगमनुष्यदेवस्त्रीपण्डकादिलक्षणेषु मूर्तवस्तुषु, रूपसहगतेषु च स्तननयनजघनादिषु विषये तत्सेवानिवृत्तिरूपत्वेन ब्रह्म-व्रतम्चतुर्थव्रतं प्रवर्तते, न पुनः सर्वद्रव्येषु / तृतीयं त्वदत्तादानव्रतं ग्रहणीयधारणीयेषु मूर्तेषु ग्रहणधारणयोग्येषु हिरण्यद्रविणादिषु विषये तदपहारनिवृत्तिद्वारेण प्रवर्तते, न सर्वत्रा षष्टमपि रात्रिभोजनविरमणव्रत रात्रिभोजनविनिवृत्तिमात्रव्यापारपरतया न सर्वविषयम् / अतस्त्रयाणामध्येतेषा सर्वव्यैकदेशविषयतेति। एवमुक्तप्रकारेणेदं चारित्रसामाजिक सामान्येन सर्वद्रव्यविषयं व्रतविभागविशेषविषयमवगन्तव्यम् / तथा, श्रुतसामायिकमपि 'सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु श्रुतम्" इति वचनात सर्वद्रव्यविषयमवयम्। देशोपरतिर्देशविरतिसागायिकं तु तद्रूपत्वादव देशे सर्वद्रव्येकदेशविषयमेव मन्तव्यम् / सभ्यक्त्वसामायिक तु यथावस्थितरामस्तवर-तुस्तोमश्रद्धानरूपत्वात सर्वद्रव्यविषयमेव वोद्धव्यम् / अतरवीण्यपि सामायिकानि प्रत्येक समुदितानिच सर्वद्रव्यविषयाणीति सिद्धम / तत्सिद्धी च सिद्धमिदम- 'तं खलु पच्चयखाण आवाए रावदव्वाणं' इति। अथ परमतमाशड्यय परिहरन्नाहकिं तं ति पत्थुए किं, थविसयचिंताएँ भण्णइ तओ वि। सामाइयंगभावं, जाइ जओ तेण तग्गहणं / / 2641 // किं तत् सामायिकम? इति ज्ञेयत्वेन प्रस्तुते किमत्र विषयचिन्तया? इति प्रेर्य भण्यत-प्रतिविधीयत तकोऽपि विषयः सामायिकस्या भावं हेतुभावं याति यरगात, सेन तस्य विषयस्य ग्रहणमिह प्ररूपणं कृतमिति न तस्याप्रस्तुतत्वमिति। अथ वक्ष्यमाणनिक्तिगाथायाः प्रस्तावनामाहदवं गुणो त्ति भइयं, सामाइयं सव्वनयमयाधारं / तं दव्वपज्जवट्ठिय, नयमयमंगीकरेऊणं // 2642 / / इह सामायिक सर्वनयमताधारं सर्वनयविचारविषय इत्यर्थः, ततस्तन्भर्तन भाज्यं भजनीयं द्रव्य गुणो वा भवति / ततस्तद्द्रव्याथिकपर्यायास्तिकनयद्वयमतमङ्गीकृत्य विचार्यत इति गाथापकार्थः। Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 740 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय कथं विचार्यत? इत्याहजीवो गुणपडिवन्नो,नयस्स दव्वट्ठियस्स सामइयं / सो चेव पज्जवट्ठिय-नयस्स जीवस्स एस गुणो।।२६४३।। जीव-आत्भा गुणेः प्रतिपन्नः-आश्रितः, द्रव्यमेवार्थो यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थिकस्तस्य द्रव्यार्थिकस्य नयस्य मतेन सामायिकम्। (अत्रत्या व्याख्या 'गुण' शब्दे तृतीयभागे 606 पृष्ठे गता।) अत्र भाष्यमउप्पाय विगम परिणा-मओ गुणा पत्तनीलयाइ व्व। संति न उ दव्वमिट्ठ, तस्विरहाओ खपुप्फं व // 2646 / / ते जप्पभवा जंवा, तप्पभवं होज होज तो दव्वं / न य तं ते चेय जओ, परोप्परप्पचयप्पभवा / / 2650 / / गुणा एव सन्ति, उत्पादविगमपरिणामतः- उत्पादव्ययपरिणामवत्त्वात्, पत्रनीलतादिवदिति। अनभिमतप्रतिषेधमाह-'न उ' इत्यादि, सन्ति इति बहुवचनव्यत्ययादेकवचनान्तमिहापि सम्बध्यते, न तु 'द्रव्यमस्ति' इत्यभीष्ट पर्यायार्थिकनयस्थ, तद्विरहात्-उत्पादव्ययपरिजामाभावात, खपुष्पवदिति। यदि हि यस्मात् प्रभवो येषां ते यत्प्रभवास्ते प्रसिद्धा नीलतादयो गुणाः, 'जं वा तप्पभवं' ति-यद्वातत्प्रभव तेभ्यो गुणेभ्यः प्रभवो यस्य तत् तत्प्रभवं गुणेभ्यो व्यतिरिक्त किमपि वस्तु 'होज' ति-भवेदित्यर्थः 'होज्ज तो दव्वं ति-ततस्तदेव वस्तु पारमार्थिक द्रव्यं भवेदिति, 'नय तमि' त्यादि, न च तद्गुणानां कारणभूतं कार्यभूत वा गुणेभ्यो व्यतिरिक्तं किमपि वस्त्वस्ति,यतरत्त एव नीलरक्तादयो गुणाः पूर्वापरीभावतः सातत्येन प्रवृत्ता दृश्यन्ते, न पुनर तदतिरिक्त किमपि द्रव्यमीक्ष्यते / कथंभूता गुणाः? इत्याह- 'परोप्परे' त्यादि परस्परम- अन्योन्यं प्रत्ययः- प्रत्ययभावः प्रत्ययत्वमित्यर्थः तस्मात प्रभवो--जन्म येषां ते परस्परप्रत्ययप्रभवाः प्रतीत्य समुत्पादेनो पन्ना इत्यर्थः / तस्माद् न गुणेभ्योऽतिरिक्तं द्रव्यमस्तीति। अत्र कश्चिदाचार्यदेशीयः स्वात्मन्येव व्याख्यावेत्तृत्वमवगच्छन्नाहआहावक्खाणमियं, इच्छह दव्वमिह पज्जवनओ वि। किं तचंतविभिन्ने, मन्नइ सो दव्वपज्जाए।।२६५१।। उप्पायाइसहावा, पञ्जाया जं च सासयं दव्वं / ते तप्पभवा न तयं, तप्पभवं तेण ते भिन्ना / / 2652 / / जीवस्स य सामइयं, पञ्जाओ तेण तं तओ भिन्नं। इच्छइ पञ्जायनओ, वक्खाणमिणं जहत्थं ति / / 2653 / / व्याख्यानिकाभासः कश्चिदाह-ननु पर्यायार्थिकनयमतेन यदिदं सर्वथा द्रव्याभावव्याख्यानं भवद्भिः कृतम्: तदयुक्तमेव, यत इह पर्यायनयोऽपि द्रध्यमिच्छत्येव, किन्तु परस्परमत्यन्तभिन्नावेव द्रव्यपर्यायावसौ मन्यते न पुनः कथशित, इत्येतावता सिद्धान्ता-दस्य भेद इति / कुतः पुनः परस्परं द्रव्यपर्याययोरत्यन्तं भेदः? इत्यत्र युक्तिमाह - 'उप्पाये' त्यादि, सरमादुत्पादव्ययपरिणामस्वभावाः पर्यायाः शाश्वत-नित्य पुनद्रव्यम, अपरं च-तं गुणास्तत्प्रभवा द्रव्यालब्धात्मलाभाः, न पुनस्तद् द्रव्य तत्प्रभवं गुणेभ्यो लब्धात्मस्वरूपम्, तेन तस्मादुक्तन्यायेन परस्पर भिन्नस्वभावत्वाद भिन्नास्ते द्रव्यपर्याया अन्योन्यव्यतिरेकिण इति / यस्माच जीवस्य शाश्वतस्य तद्व्यतिरिक्तं सामायिकं पर्वाया धर्मास्तेन तस्मात् सामायिक ततो जीवादत्यन्तं भिन्नमिच्छति पायनयः। अतो मदीय व्याख्यानमिदं यथार्थ घटमानकमिति। अत्र सूरिरेतद्व्याख्यानमपाकुर्वन्त्राहजइ पज्जायनओ चिय, सम्मन्नइ दोवि दव्वपज्जाए। दव्वढिओ किमत्थं, जइ व मई दो वि जममिन्ने // 2654 / / इच्छइ सो तेणोभय-मुभयग्गाहे वि सयँ पिहन्भूयं / मिच्छत्तमिहेगं ता-देगतन्नतगाहाओ / / 2655 / / यदि भोः ! पर्यायनय एव द्रव्यपर्यायौ द्वावपि सम्मन्यतेऽभ्युप-गच्छति तर्हि द्रव्यार्थिकः किमर्थं 'द्रव्यपरिकल्पना त्वयेष्यते इति शेषः, पर्यायनयाभ्युपगमेनायि द्रव्यस्य सिद्धत्वादिति ? यदि वा--एवंभूता मतिः स्यात् परस्य। कथं भूता? इत्याह-द्वावपि द्रव्यपर्यायौ यद-यस्मादभिन्नी परस्परमेकत्वमापन्नाविच्छति, स द्रव्यार्थिकनय इति सम्बन्धः, तेन तस्मादिदमुभयं द्रव्यपर्यायार्थि-कनयद्वयमुभयग्रहेऽपि सति प्रत्येक द्रव्यपर्यायान्युपगमेऽपि सती-त्यर्थः / किम्? इत्याह-- 'पिहब्भूयं तिपृथग्भूतं भिन्नं द्रव्यार्थिकात्पर्यायार्थिकः, तस्माच द्रव्यार्थिको भेदवान न पुनरनयोरेकतेति, एकस्य द्रव्यपर्याययोरत्य-न्तमभेदाभ्युपगमात, अन्यस्य त्वत्यन्त तयोर्भेदाभ्युपगमादिति / नापि प्रत्येक द्रव्यप याभ्युपगमेऽप्येतयोः समग्ररूपता, किन्तु मिथ्यात्वम्, द्वयोरपि मिथ्यादृष्टि रूपता कस्मात्? उच्यते-इहैकान्तदिकान्तेनैकत्वग्रहादन्यत्वग्रहाचेति। इदमत्र हृदयम्-द्रव्यार्थिको द्रव्यपर्यायौ परस्परमभिन्नाविच्छति, द्रव्यादव्यतिरिक्तमेव पर्यायमिच्छति, अत एतस्य विशेषस्य प्राप्तये पर्यायार्थिकाद् द्रव्यार्थिको भिन्नः परिकल्पितः / पर्यायार्थिकस्तु द्रव्यपर्यायौ परस्परभिन्नावेव मन्यते। अतोऽसौ द्रव्यार्थिकाद भिन्न इष्यते / मिथ्यादृष्टी च प्रत्येकमेती द्रव्यार्थिको द्रव्यपर्याययोरेकत्वग्रहात्, पर्यायार्थिकस्तु तयोरन्यत्वग्रहादिति। एवंभूता यदि परस्य मतिस्तदा प्रतिविधीयते। कथम्? इत्याहएगत्ते नणु दव्वं,गुणो त्ति पजायवयणमित्तमियं। तम्हा तं दव्वं वा, गुणो व दव्वट्ठियग्गाहो / / 2656 / / जइ भिन्नोभयगाही,पज्जायनओ तदेगपक्खम्मि। अविरुद्धं चेव तयं, किमओ दव्वट्ठियनयेण? |2657 / / ननु द्रव्यपर्याययोरेकत्वे त्वदभिप्रायतो द्रव्यार्थिकनेष्यमाणे 'द्रव्य 'गुणाः' इति ध्वनिद्वयमिदमेकार्थवाचकत्वादिन्द्रपुरन्दरादिध्वनिवत् पर्यायवचनमात्रमेव स्यात् / तस्मात् तत् सामायिकं द्रव्यं वा गुणो वेति द्रव्यार्थिकनयग्रहः स्यात, न पुनस्तद् द्रव्यमेवेति तदग्रहो भवेत्, न चैवमिष्यते,द्रव्यार्थिकनयमतेन द्रव्यरूपस्यैव तस्य प्रसिद्धरिति। तथा, यदि परस्परमत्यन्तभिन्नस्यद्रव्यपर्यायोभयस्य ग्राहकः पर्यायनयस्त्वयेष्यते, तदा हन्त ! एकस्मिन द्रव्यपक्षे तत् सामायिकमविरुद्धमेव 'द्रव्यत्वेन' Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 741 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय इति शेषः, 'द्रव्यं सामायिकम्' इति द्रव्यपक्षे पर्यायनयमतेनाप्य- बुद्ध्यभिधानहेतुत्वेन निबन्धनेन द्रव्योपचारमात्रं क्रियते षष्ठीवादिना विरोधतः सिद्धमेवेत्यर्थः, अतः किं द्रव्यार्थिकनयेनोपन्यस्तेन? इति। भवता, तदा तन्नाम' त्ति- 'नाम' इत्यभ्युपगमे, मन्यामहे तदित्यर्थः। ___ तस्माद्यथाविहितमेव व्याख्यानं श्रेय इति दर्शयन्नाह न हि कल्पितसद्धावापादनेऽस्माकं किञ्चित् क्ष्यत इति / ततश्च तम्हा किं सामाइयं, हवेज्ज दव्वं गुणो ति चिंतेयं / 'तब्भेयकप्पणाउ' त्ति-तेन कल्पितद्रव्येण सह भेदस्तद्भेदस्तस्य कल्पनं दव्वट्ठियस्स दव्वं, गुणो य तं पज्जवनयस्स / / 2658 / / तद्रेदकल्पनं तस्मात् सकाशात् तत् सामायिक तस्य कल्पितजीवद्रव्यस्य इहरा जीवाणन्नं, दव्वनयस्सेयरस्स भिन्नं ति। गुणो भवतु, को निवारयिता? कस्य यथा को गुणः? इत्याह- 'पत्तस्से' त्यादि यथा गुणसमुदयव्यतिरिक्तस्य कल्पितस्य पत्रद्रव्यस्य नीउभयनओभयगाहे, घडेज्ज नेक्केक्कगाहम्मि।।२६५६।। लतादिर्गुणः। कथंभूता नीलता? इत्याह-'तस्संताणे त्यादि, तस्मिन्नेव तस्मात् किं द्रव्यं गुणो वा सामायिकम्? इतीयं चिन्ताऽत्र प्रस्तुता। पुत्रसन्तान उदिता समुत्पन्ना, अस्तमिता च विनष्टेति / इदमुक्तं भवतिअस्यांतु चिन्तायामुच्यते-द्रव्यार्थिकनयस्याभिप्रायेण द्रव्यम्, पर्याया यथा कल्पितस्य पत्रादेव्यस्य नीलतादयो गुणा भिन्ना व्यपदिश्यन्ते र्थिकनयस्य मतेन गुणश्च तत् सामायिकमिति। इतरथाऽन्यथा पुनर्द्रव्या तथा यद्यत्रापि परिकल्पितस्य जीवद्रव्यस्य सामायिकं गुण उच्यते तदा र्थिकस्य जीवादनन्यत् सामायिकम्, इतरस्य तु पर्यायार्थिकस्य जीवाद् सिद्धसाध्यतैवेति। न च वक्तव्यम्-वास्तव एव सम्बन्धिवस्तुद्वये षष्ठी भिन्न तत्, इत्येवमेकैकस्य नयस्य ग्रहेऽभ्युपगमे सति-"जइ पज्जायनउ दृश्यते,यथा 'देवदत्तस्य गावः' इत्यादि, एवमत्रापि वास्तवयोरेव द्रव्यचिय" इत्यादिपूर्वोक्तयुक्तिभ्यो न घटते' इति शेषः / कथं पुनस्ताहि गुणयोः सम्बन्धेषष्ठी युज्यते न तुद्रव्यस्य कल्पनायामिति, 'राहोः शिरः' घतेत्? इत्याह- 'उभयन-ओभयगाहे घडेज' त्ति-उभयनयस्य 'शिलापुत्रकस्य शरीरम' इत्यादिभिर्व्यभिचारादिति। द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकलक्षणस्य नयद्यस्य मिलितस्य द्रव्यगुणरूप आह-ननु गुणसन्तानयोरभेद एव तद्भेदनिबन्धनधर्मभेदाभावात्घटते सामायिकलक्षणस्योभयस्य ग्रहे सर्व घटेत / इदमुक्तं भवति- यदि द्रव्यनयो द्रव्वरूपं, पर्यायनयस्तु पर्यायरूपं सामायिकमिच्छति, तत्स्वरूपवत्, तत् कथं कल्पितस्यापि गुणव्यतिरेकिणो द्रव्यस्य सद्भावः? तदयुक्तम्, 'धर्मभेदाभावात्' इत्येतस्य हेतोरसिद्धत्वात् / तदित्थमुभयोरपि नययोः समुदितयोर्य-थोक्तोभयग्रहे सर्व सुस्थं भवति, कथम्? इत्याहन पुनरेकैकस्य नयस्योभयग्रहे सतीति / उप्पायभंगुरा जं,गुणा य न य सो त्ति ते य तप्पभवा। अथ यदुक्तम्- 'सो चेव पज्जवट्ठियनयस्स जीवस्स एस गुणो' इति, नय सो तप्पभयो त्तिय, जुज्जइ तं तदुवयाराओ॥२३६३।। एतदवष्टम्भेन पुनरपि परः प्राह -- नणु भणियं पज्जाय--ट्ठियस्स जीवस्स एस हि गुणो ति। यद्-यरमादुत्पादभड्गुरा गुणा उत्पद्यन्ते व्ययन्ते चेत्यर्थः। 'नय सो' ति-न पुनरसौ सन्तान उत्पादभड्गुरः, तस्य प्रवाहनित्य-तया छट्ठी, तओ दव्वं, सो तं च गुणो तओ भिन्नो / / 2660 / / स्थितत्वात,इत्येको गुणसन्तानयोर्धर्मभेदः / तथा- 'ते य तप्पभवे' ननु 'सो चेव पज्जव' इत्यादौ नियुक्तिगाथोत्तरार्धे भणितं-प्रतिपादित त्यादि ते सामायिकादयो नीलतादयो वा गुणास्तत्रैव सन्ताने समुत्पन्ननियुक्तिकृता-पर्यायार्थिकनयमतेन जीवस्यैष सामायिकलक्षणो गुण त्वात् तत्प्रभवास्तस्मात् सन्तानालब्धात्मजन्मानः, न पुनरसौ इति / हि: यस्मादेवमुक्तम्, ततस्तरमा-जीवस्यैव गुण इति षष्ठ्या सन्तानस्तत्प्रभवो गुणेभ्यो लब्धात्मलाभः, तस्य गुणसादृश्यषष्ठीनिर्देशादवसीयते 'दव्वं सो' त्ति-सजीवो द्रव्यम् तच्च सामायिकम्, निबन्धनत्वात् / तदेवं कारणमेव सन्तानो न कार्यम्, कार्यमेव च गुणान 'गुणो तओ भिन्नो' ति–स च सामायिकगुणस्ततो जीवद्रव्याद् भिन्नः, कारणम्, इत्येवमपि गुणसन्तानयोर्थर्मभेद युज्यते--घटते तत्षष्ठीनिर्देशान्यथानुपपत्तेः, तस्मात् पर्यायनयभतेन भिन्नद्रव्यपर्यायो जीवादिद्रव्यम् / कुतः? तत्र गुणसन्ताने समानबुद्ध्यभिधाननिबन्धभयसद्भावाद् मदीयमेव व्याख्यानं श्रेय इति परस्याकूतमिति। नत्वेनोपचार:-कल्पना तदुपचारस्तस्मादिति। तदेवं पर्यायार्थिकनयमतं अत्रोत्तरमाह समर्थ्य पूर्व 'तम्हा किं सामइय हवेज' इत्यादिनोपसंहारः कृतः। उप्पायभंगुराणं,पइक्खणं जो गुणाण संताणो। अथ प्रकारान्तरेण तं कुर्वन्नाह-- दव्वोवयारमेत्तं, जइ कीरइ तम्मि तन्नाम / / 2661 / / अहवोदासीणमयं, दव्वनयं पइ न जीवओ भिन्नं। तब्भेयकप्पणाओ, तं तस्स गुणो ति होउ सामइयं / भिन्नमियरं पइजओ, नत्थि तदत्थंतरं जीवो // 2664|| पत्तस्स नीलया जह, तस्संताणो दियत्थमिया // 2662 / / इदमत्र हृदयम्-तस्मात् किं सामायिक द्रव्यं गुणो वाभवेत्?' इत्यस्यां अत्र परं पृच्छामः- ननु पर्यायार्थिकनयमतेन द्रव्यं पारमार्थिक चिन्तायामुक्तम्- 'दव्वट्ठियस्स दट्वं गुणो य तं पज्जवनयस्स' इति / त्वयेष्यते, कल्पनाशिल्पिनिर्मितं वा? यद्याद्यः पक्षः, सनयुक्तः, 'जह अथवा नास्यां द्रव्यगुणचिन्तायामिदमुक्तम्, किन्तु किं सामायिकम्?' * पजाय नउ चिय,' इत्यादिना प्रतिविहितत्वात् / अथ द्वितीयपक्षः, इति द्वारे प्रस्तुते उदासीनमतमिदम् -द्रव्यपर्यायास्तिकयोरे - तत्रोच्यते-गुणानां यः सन्तानो गुणानां या सभागसन्ततावनवरतप्रवृत्तिः / कतरमतेऽभिनिविष्टवत उदासीनवृत्तिनाऽऽचार्येण शिष्यान् प्रत्यकिं विशिष्टानाम्? प्रतिक्षणमुत्पादभङ्गुराणाम्। तस्मिन् यदि सामान- | भिहितं युक्तिभिश्च समर्थितमिदमित्यर्थः / किम्? इत्याह-'दव्व Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 742 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय नय' मित्यादि / द्रव्यनयं प्रति द्रव्यनयाभिप्रायेणेत्यर्थः, जीवात सामायिकं न भिन्नम्, किन्तु जीव एव सामायिकम्, तदभिप्रायेण वक्ष्यमाणयुक्त्या जीवदेव्यस्यैव सत्त्वात, गुणानां तु तव्यतिरेकिणां परमार्थतोऽसत्त्वादिति / इतरं तु पर्यायार्थिकनयं प्रति पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण भिन्न जीवद्रव्यात् सामायिकम, यतो यस्मात पूर्वोक्तयुक्तिभिर्नास्ति तेभ्यः-सामायिकादिगुणेभ्योऽर्थान्तर भिन्नो जीवः, तन्मलेन जीवादे व्यस्य कल्पनामात्रेणैव सत्त्वादिति। तत्र 'पलायनयमिणं' इत्यादिना ग्रन्थेन विस्तरतः पर्यायार्थिकनयमतमुपदर्शितभ। (72) अथ द्वितीयस्य द्रव्यार्थिकनयस्याभिप्राय सविस्तर दिदर्शयिषुराहवीयस्स दव्वमेत्तं,नत्थि तदत्थंतरं गुणो नाम / सामन्ना वत्थाणा-भावाओ खरविसाणं व॥२६६५।। आदिब्भावतिरोभा-वमेत्तपरिणामिदव्वमेवेयं / निच्चं बहुरूवं पि य,नडो व्व वेसंतरावन्नो // 2636 / / प्रथमनिर्दिष्टपर्यायार्थिकनयापेक्षया द्वितीयस्य द्रव्यार्थिकनयस्य सर्व सुवर्णरजतादिक द्रव्यमात्रमेवास्ति, गुणस्तु रक्तत्वश्वेतत्वादिकस्तदर्थान्तरभूतो नास्ति,तस्य सामान्यरूपतयाऽवस्थानाभावात् खरविषाणवदिति। एतदेवाह-आविर्भावश्च कुण्डलादि--रूपेण, तिरोभावश्च मुद्रिकादिभावेन, आविर्भावतिरोभावौ, तावेव तन्मात्रम, तेन परिणन्तु-- परिवर्तितुं शील यस्य तदाविर्भावतिरो--भावमात्रपरिणामि सुवर्णादिक द्रव्यमेवेदमस्ति, न तु तदतिरिक्ता गुणाः / कथंभूतं द्रव्यम? नित्यमविचलितस्वभावम्, बहुरूपं च कङ्कणाऽङ्गदकुण्डलमुद्रिकादिवहुपरिणामम्,रामरावणभीमाऽर्जुनादिसम्बन्धीनि वेषान्तराण्यापन्नः प्राप्ती नट इवेति / यथाहि--बहून वेषान् कुर्वन्नपि नटो निज देवदत्तादिस्वभावं | न जहाति, सर्वास्ववस्थास्वपि तस्यैकस्वरूपत्यात, एवं सुवर्णातिक द्रव्यमपि कङ्कणादिबहुरूपाण्यापन्नमपि सुवर्णादिरूपतांन परित्यजतीति न तव्यतिरेकिणः केचनापि गुणाः। इत्यष्टादशगाथार्थः। अस्यैव द्रव्यार्थिकनयमतस्य समर्थनार्थ नियुक्तिकाराऽप्याहजं जं जे जे भावे, परिणमइ पओगवीससा दव्वं / तं तह जाणाइ जिणो,अपज्जवे जाणणा नत्थि।।२६६७।। प्रयोगश्वेतनावतो व्यापारः,विस्रसा- रवभावस्ताभ्यां निष्पन्न द्रव्य प्रयोगविस्रसाद्रव्यमुच्यते / तत्र प्रयोगनिष्पन्न घटपटादि,विससा - | निष्पन्न त्यभेन्द्रधनुरादि / तत्र प्रयोगविस्रसाद्रव्यं कर्तृ यान यान कृष्णरक्तपीतशुक्लत्वादीन भावान् पर्यायान परिणमति प्रतिपद्यते, 'तं तह' त्ति वीप्साप्रधानत्वाद् निर्देशस्य तत् तत् तथा तेन तेन रूपेण परिणमद् द्रव्यमेव जानाति, जिनः केवली, न पुनस्तदतिरिवतान् पर्यायानिति भावः तेषामुत्प्रेक्षामात्रेणैव सत्त्वात् / न ह्युत्फण-विफणकुण्डलिताद्यवस्थायामपि सादिद्रव्यस्य स्व-स्वरूपव्यतिरिक्तः कोऽपि पर्यायः संलक्ष्यते,सविस्थास्वविचलितस्वरूपस्य सादिद्रव्यस्यैव संलक्षणादिति। यदि पर्याया न विद्यन्ते,तर्हि कथमुच्यते 'जे जे भावे परिमणइ ? इत्याशक्याह-'अपज्जवे जाणण नत्थि' तिअपर्याय पर्यायरहिते वस्तुनि केवल्यादीनां परिज्ञा नास्तीति मन्यामहे, केवलमुत्प्रेक्षामात्रेणैव ते पर्यायाः,न पुनव्यव्यतिरेकिणः केचनापि वास्तवास्ते विद्यन्ते। अतो द्रव्यमेव परमार्थसत्, इति निक्तिगाथार्थः / अथ भाष्येणैतां व्याचष्टेजं जाहे जं भावं, परिणमइ तयं तया तओऽणन्नं / परिणइ मेत्तविसिटुं,दव्वं चिय जाणइ जिणिंदो॥२६६८।। इह यद घटेन्द्रधनुरादिद्रव्यं यदा यस्मिन् काले यं रक्त श्वेतादि-भाव पर्याय परिणमति प्राप्नोति तत् तदा ततः पर्यायादनन्यदभिन्न सद्रव्यमेव परिणतिभात्रविशिष्टमविचलितस्वरूपं जानाति जिनेन्द्रः केवलीति। ननु यदि पर्याया वस्तु सन्तो न भवन्ति तर्हि कथमविशिष्टेऽपि सुवादिद्रव्ये कुण्डलाऽड्गुलीयकनू पुरादयं व्यपदेशाः प्रवर्तन्ते? नचैते निर्विबन्धना एव अनि प्रसङ्गादित्याशङ्याहन सुवण्णादन्नं कुं-डलाइ तं चेय तं तमागारं / पत्तं तव्ववएसं, लभइ सरूवादभिन्नं ति / / 2666 / / न सुवर्णादन्यो व्यतिरिक्तः कुण्डलादिरथोऽस्ति, येन सुवर्णादिव्यव्यतिरकिणः कुण्डलादिपर्याया भवेयुः किन्तु तदेव सुवर्णादि द्रव्यं तं तं कुण्डलकङ्कणाद्याकारं प्राप्त सत् तस्य तस्य कुण्डलाद्याकारस्य व्यपदेशं लभते / कथंभूतम? पूर्वावस्थास्वरूपादुत्तरावर थायामभिन्नमप्यविचलितस्वभावमपीति। ततश्च नेते सुवर्णादिद्रव्ये कुण.इसकङ्कणादयो व्यपदेशा निर्निबन्धनाः, तत्तद्विशिष्टाकार-निबन्धनत्वात् / न च तदाकारस्य द्रव्याद् भिन्नत्वम्, द्रव्यस्य निराकारत्वप्रसङ्गात्। तस्मादनन्यत्वं गुणानामिति। अथान्यत्वमिष्यते, तत्राहजइ वा दव्वादन्ने,गुणादओ नूण सप्पएसत्तं / होज व रूवाईणं, विभिन्नदेसोवलंभो वि॥२६७०।। यदि पुनर्द्रव्यादरूपादयो, गुणाः,आदिशब्दाद-नवपुराणादयः पर्याया अन्ये व्यतिरेकिण इध्यन्ते,तदा नूनं निश्चितं गुणादीनां सप्रदेशत्वमेष्टव्यं भवता / इदमुक्तं भवति-द्रव्यप्रदेशा गुणादय इति रूढम् यदाच ते द्रव्याद् गिन्ना इष्यन्ते, तदाऽनन्यशरणाः सन्तः स्वस्यात्मन एव प्रदेशा अवयवा भवेयुः / न चैतद् दृष्टम, इष्ट वा, गुणादीना सदैव पारतन्त्रण परप्रदेश त्वस्यैव रूढत्वात्। न हि वस्तु स्वात्मन एव स्वयमवयवो भवतीति क्यापि दृश्यते, युज्यते वेति / किञ्च-गुणादीनां द्रव्याद् भिकत्व इष्यमाणे रूपरसगन्धादीना घटादिद्रव्याद भिन्नेऽपि देश उपलब्धिः स्यात्, तथाहि-यद्यतो भिन्नं तत् ततो भिन्नदेश उपलभ्यते, यथा घटात पटः, न चैवं रूपादयः, तस्मात् ते घटादिद्रव्यादभिन्ना एवेति द्रव्यमेवास्तिन पर्याय इति। अथोपचारतस्तेऽपीष्यन्ते, तर्हि सिद्धसाध्यतेति दर्शानाहजइ पञ्जवोक्यारो, लयप्पयासपरिणाममेत्तस्स। Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 743 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय कीरइ तन्नाम न सो, दव्वादत्थंतरभूओ // 2671 / / ल्यः, लनता, तिरोभाव इत्यनर्थान्तरम् / प्रकाशः, प्रकटस्वम, आविर्भाव इत्यप्यभिन्नार्थम् / लयश्च प्रकाशश्च लयप्रकाशी पर्यायाणगाविर्भावतिरोभावा लयप्रकाशाभ्यां लयप्रकाशरूपतया परिणमन-- परिणामो लयप्रकाशपरिणामः स एव तन्मात्रं तस्य यदि तत्तद्विशपबुझ्यभिधाननिबन्धनत्वेन पर्यायोपचारः क्रियते, तदा तन्नभिति नामशब्दोऽभ्युपगमे, न्याभह तदित्यर्थः, केवलं नासौ पर्यायो वारतवः कोऽपि द्रव्यादर्थान्तरभूतो विद्यत इत्येतदेव भुजमुत्क्षिप्य ब्रूम इति। यदि न वास्तवः पर्यायः किन्तु कल्पितः तर्हि खरविषाणस्याप्यसो कथन भव ते कल्पनामात्रस्य तत्रापि सुकरत्वात् ? इत्याह-- दव्वपरिणाममेत्तं, पज्जाओ सो य न खरसिंगस्स। तदपज्जवं न नज्जइ, जं नाणं नेयविसयं ति / / 2672 / / विशिष्टो द्रव्यपरिणाम एव द्रव्यपरिणाममात्रं पर्यायो नान्यः सचन द्रव्याद भिन्नः, तशाऽनुपलम्भात् / नाप्यसौ खरशृङ्गस्य पर्यायस्य द्रव्यपरिणामत्वात, खरशृङ्गस्य च द्रव्यत्वाभावात्। अत एव तत् खर शृङ्गमद्रव्यत्वदपर्याय सदन ज्ञायते केवलिना, यतो ज्ञान ज्ञेयविषय ज्ञेयग्राहित्वेन प्रवर्तत। त घेह ज्ञेयविषयं नास्ति, खर-विषाणस्याभावरूपत्वात् / अत एव नियुक्तिकृता प्रोक्तम्- 'अपज्जेव जाणणा नत्थि' इति गाथापञ्चकार्थः / तस्वमवसितं सप्रसङ्ग 'किं सामायिकम्? इति द्वारम। विशे० आ० म०। आ० चू०। (निर्गमद्वारम्, 'णिग्गम' शब्दे चतुर्थभागे 2051 पृष्ठ उक्तम् / ) निर्गमद्वारशेषः तदेव घोढा निर्गमोऽभिहितस्तत्र जिनगणधरलक्षणद्रव्यनिर्गमभणने-नेवावसितो द्रव्यनिगमः। इदानी क्षेत्रनिर्गम प्रस्तुतमप्यतिक्रम्य अन्तरङ्गत्वात्कालनिर्गमम्भिधित्नुर्भाष्यकारः प्रस्तावनामाहजिणगणहरणिग्गमणं, भणियमओ खेत्तनिग्गमावसरो। कालंतरंगदरिसण-हेओ तु विवज्जओ तह वि / / 2026 / / तदित्थं 'जनगणधरलक्षणद्रव्यस्य निर्गमन भणितमत ऊर्व 'नाम ठवणा दवेए, खित्ते काले तहे व भावे य' इति निर्देशक मप्रामाण्या क्षेत्रनिर्गमस्यावसरः परं तथापि विपर्ययः कालनिर्गमनं तावदभिधाय ततः क्षेत्रनिर्गमो भणिव्यत इत्यर्थः / किमर्थम्-इत्याहकालस्या नरड़त्वदर्शनहेतोः अयमभिप्रायः काल एव व्यस्यान्तरड़: क्षेत्रं तु बहिरङ्गम्, अतो द्रव्यनिर्गमानन्तरमन्तरत्वात्कालनिर्गमनभिधायपक्षात्क्षेत्रनिर्गममभिधास्यति 'नाम ठवणा दविए ' इत्यादिगाथायां : नियुक्तिकृता क्षेत्रस्याल्पवक्तव्यत्वादन्यथोपन्यासः कृत इति / विश० (निर्देशः ‘णिद्देस' शब्दे चतुर्थभागे 2073 पृष्ठे उक्तः।) (पुरुषद्वारम् पुरुषभदाः, केन पुरुषेण प्रज्ञापितं सामायिकमिति च 'पुरिस' शब्दे पक्ष-रभागे 1011 पृष्ठे उक्तम्।) (प्रत्ययद्वारम्, प्रत्ययनिक्षपः 'पाय' शब्दे पञ्चमभागे 123 पृष्ठ उक्तः।) सामायिकस्य प्रत्ययः 'सब्वे तित्थयरा वि य ण सामाइयं करेमाणा एवं, भणंति-'करेमि सामाइयं सव सावज जोग पच्चवखामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं जाव वासिराम"भदंत" इति न भणन्ति, तथाकल्पत्वात् / आ०म०१ अ०(लक्षणद्वार लक्षणभेदाश्च लक्खण' शब्दे षष्ठे भाग उक्ताः ) (73) अथ सामायिकरय वैशेषिकलक्षणप्रतिपादनार्थमाह'अथवापी' त्यादि, अथवाऽपि भावस्य-सामायिकस्य लक्षणमनुस्वारलापोऽत्र द्राच्यः चतुर्विध श्रद्धानादि एतदेव प्रदर्शयिषुराहसद्दहणजाणणा खलु,विरई मीसा य लक्खणं कहए। ते वि निसामेति तहा, चउलक्खणसंजुयं चेव // 753 / / इह सामायिकं चतुर्विधं भवति तद्यथा-सम्यक्त्यसामायिकम्, श्रुतसामायिकम, वारित्रसामायिकम, चारित्राचारित्रसामायिक च। अस्य यथायोगलक्षणं 'सधहण' त्ति-श्रद्धाण लक्षणमिति योगे सम्यक्त्वसागासिकस्य जाणण' त्ति ज्ञानं-ज्ञा, संवित्तिरित्यर्थः, सा च लक्षणं श्रुतसामायिकस्य / खलुशब्दो निश्चयतः परस्परसापेक्षत्वाविशेषणार्थः / तथा 'विरई' इति विरमणं विरतिः सर्व्वसावधयोगविनिवृत्तिः, सा च चारित्रसामायिकरय लक्षणं 'पीराा य' त्ति-मिश्रा-विरत्यविरतिः सा च चारित्रसामायिकस्य लक्षणम,कथयतीत्यनेन स्वमनीषिकापोहमाह भगवान जिन एवं कथयति, तस्य च कथयतस्तेऽपि गणधरादयो निशाभयन्ति-शृण्वन्ति / तथा तेनैव प्रकारेण चतुर्लक्षणसंयुक्तमेव / उक्त लक्षणद्वारम। आ०म०१ अ०। आ००। स्पर्शनाद्वारमाहसम्मत्तचरणसहिया, सव्वं लोग फुसे निरवसेसं / सत्त य चोद्दस भागा, पंच य सुयदेसविरईए।।२७८२।। सम्यक्त्वचरणसहिताः-सम्यक्त्वचरणयुक्ताः प्राणिन उत्कृष्टतः सर्व लोकः स्पृशन्ति / किं बहिव्याप्त्या? नेत्याह- निरवशेषप्रतिप्रदेशमाल्याऽराख्येयप्रदेशात्मकमपीत्यर्थः / एते च केवलिसमुदधातावस्थायां केवलिना द्रष्टव्याः। 'जघन्यतस्त्वसंख्येयभागं स्पृशन्ति' इति अजयमेव द्रष्टव्यम / 'सत य चोहसभागा पंच य सुयदेसविरईए' त्तिश्रुतदशविरत्योरिति यथासङ्ख्येन सम्बध्यते, तद्यथा-श्रुते श्रुतस्य समचतुर्दशभागा: स्पर्शनीयाः चशब्दात-पक्षच देशविरतौ देशविरतस्य पक्ष चतुर्दशभागाः स्पर्शनीयाः, चशब्द-द-व्यादयश्चेति / इयमत्र भावना- कश्चित तपोधनः श्रुतज्ञानी अनुत्तरसुरेष्विलिकागत्या समुत्पहामानो लोकस्य सप्तचतुर्दश-भागान स्पृशति,एकारज्जुललॊकस्य चतुर्दशभाग उच्यते / ततश्च सप्त रज्जूः स्पृशतीत्युक्त भवति / एखगुत्तरत्रापि भावार्थो विज्ञेयः। चशब्दात कोऽपि सम्यगदृष्टिः श्रुतज्ञानी पूर्व नरके बतायुष्कः पश्चाद् विराधितात्यक्तसम्यक्त्वः षष्ठपृथिव्यामिलिकागत्या समुत्पद्यमानो लोकस्य पञ्च चतुर्दशभागान् स्पृशति। देशविरतरत्वच्युत-सुरेष्विलिकागत्या समुत्पद्यमानो लोकस्य पक्ष चतुर्दशभागान् स्पृशति, चशब्दात्- शेषसुरालयेष्विलिकागत्या समुत्पद्यमानो लोकस्य व्यादींश्चतुर्दशभागान् स्पृशति / आहनन्यन्यत्र 'छलच्चुए' इति पठ्यते तत् कथमिहोच्यते समुत्पद्यमानः Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 744 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय पशेव रज्जूः स्पृशतीति निगद्यते? सत्यम् किन्त्यच्युतगवेयका-- पान्तरालमपेक्ष्यान्यत्र षड् रज्जवः पठ्यन्ते, इह त्वच्युतदेवलोकमपेक्ष्य पश्चेति वृद्धसम्प्रदायः / अधस्तु घण्टालालान्यायेनापि तं परिणाममपरित्यज्य देशधिरतान गच्छन्ति अत ऊर्ध्वलोक एक्त स्पर्शना दर्शिता नाधस्तादिति / तदेव क्षेत्रमधिकृत्य स्पर्शना प्रोक्ता। अथ भावमधिकृत्य तामुपदर्शयन्नाहसव्वजीवेहि सुयं, सम्मचरित्ताइँ सव्वसिद्धेहिं / भागेहि असंखिजे-हि फासिया देसविरई उ॥२७८३।। इह जीवा द्विविधाः संसारस्थाः, सिद्धाश्चा संसारस्था अपि द्विविधाःसंव्यवहारराशिगताः, असंव्यवहारराशिगताश्च / तत्र संव्यवहारराशिगतैः सर्वैरपि जीवैः सामान्येनाक्षरात्मकं श्रुतं स्पृष्टम्, द्वीन्द्रियादिभावस्य सर्वेरपि तैः स्पृष्टत्वात, तत्र च सामान्य श्रुतसद्भावात् / संव्यवहारराशिगतविशेषणं चेह पूर्वटीकाकारः कृतम् इति नास्माक स्वमनीपिका सम्भावनीयेति। सम्यक्त्वचारित्रे तु सर्वैरपि सिद्धैः पूर्व स्पृष्ट, तत्स्पर्शनामन्तरण सिद्धत्वायोगात् / देशविरतिस्तु सर्वसिद्धानां बुद्धिपरिकल्पितरसङ्ख्यातैर्भागः पूर्व स्पृष्टा,एकेन तु तदसङ्ख्येय-भागेनासौ प्राग्न स्पृष्टा, यथा मेरुदेवीस्वामिन्या। इह च सम्यक्त्वादयो जीवपर्यायत्वाद, भावाः, ततस्तेषां स्पर्शनाभावः स्पर्शनोच्यते इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः। (74) सामायिकपदव्याख्या-तत्रेद सूत्रम-- करेमि भंते ! सामाइयं सव्यं सावजं जोगं पच्चक्खामि जाव जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स मंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि। आव० 110 / अथ सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिर्वक्तव्या, ततः पूर्वोक्तिमुपसंहरन्नु-- तरवक्तव्यसम्बन्धनार्थ भाष्यकारः प्राहइइ एस उवग्घाओ--ऽभिहिओ सामाइयस्स तस्सेव। अहुणा सुत्तप्फासियाँ, निज्जुत्ती सुत्तवक्खाणं // 2800 / / इति पूर्वोक्तक्रमेणैष उपोद्घातोऽभिहितः सामायिकस्य अथ तस्यवाधुना सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिरुच्यते-सूत्रव्याख्यानमभिधीयत इत्यर्थः। ननु सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या सूत्रं स्पृश्यते। तच वसति भवति? इत्याहसुत्तं सुत्ताणुगमो, तं च नमोक्कारपुव्वयं जेण। सो सव्वसुयक्खंध-भंतरभूउ त्ति निहिट्ठो // 2801 / / 'करेमि भंते ! सामाइयं' इत्यादिसूत्रम्, सूत्रानुगम एतद्- व्याख्यानरूपे प्रक्रान्त सति भवति। तच नमस्कारपूर्वकमेव पठ्यते। कथम्? इत्याह-- येन यस्मात् स नमस्कारः सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तर्भूतः पूर्वमिहेव निर्दिष्टः / ततो नमस्कारं व्याख्याय पश्चात् सामायिकसूत्र व्याख्यास्यत इति भावः / अन्ये तु सामायिकसूत्रादिनमस्कारं न मन्यन्ते, किन्त्वन्यदेव किशिद युवते / किं पुनस्तत? इत्याह तं चावसाणमंगल-मन्ने मन्नंति तं च सत्थस्स। सव्वस्स भणियमंते, इयमाईए कहं जुत्तं / / 2802 / / तं च नमस्कारमुपोद्घातनियुक्तिशास्त्रस्यावसान गले केचिद् मन्यन्तै, न पुनः सूत्रादिम् / इदमुक्तं भवति-शास्त्रस्यादौ मध्येऽवसाने च मङ्ग लमिष्यते, तत्रोपोद्धातनिर्युक्तेरादौ नन्दिर्मङ्गलम् मध्ये तु जिनगणधरोत्पत्त्यादिगुणकीर्त्तनम्, अवसाने तु किलैप नमस्कारो मङ्गलमित्यन्धेषां बुद्धिः / सा च न युक्ताः / कुतः? इ याह- 'तं च सत्थस्से' त्यादि, इयमत्र भावना-यत्शास्त्रस्या-वसानमङ्गल तैर्गीयते, तद्भणितमेव भद्रबाहुस्वामिना सर्वस्यापि षडध्ययनात्मकस्यावश्यकशास्त्रस्यान्ते प्रत्याख्यानलक्षण मङ्गलम् / प्रत्याख्यानं हि तपः, तच धम्मो मंगलमुक्किट्ट" इत्यादिवचनाद् मङ्गलम्व / ततश्चेद नमस्कारलक्षण मङ्गलं सामायिक स्यादौ कथमभिधातुं युक्तम, अप्रस्तुतत्वात् ? अप्रस्तुतत्वं चेहादिमध्याऽवसानत्वाभावादिति पुनरपि परमतमाशङ्कय परिहरन्नाहहोजाइ मंगलं सो,तं कयमाईऍ किं पुणो तेणं। अथवा कयं पि कीरइ, कत्थावत्थाण मेवं ति।।२८०३|| अथ सामायिक स्यादौ निर्दिष्टत्वादादिमङ्गलमसौ नमस्कारो भवेदित्युच्यते, तदयुक्तम्, यतस्तदादि मङ्गलं कृतमेवा दौ नन्द्यभिधानतः,किं पुनरप्यत्र तेन विहितेन? अथ कृतमप्यादिगङ्गलं पुनरपि क्रियते, तद्येवं सति क्वावस्थानम् / पुनः पुनस्तत्कणप्रसाद - नवस्थाप्राप्तेन क्वचिदवस्थानं स्यादिति। तर्हि भवन्त एव कथयन्तु-किमिह नमस्कारख्याख्याने कारणम्? इत्युपसन्ने प्रेरक सूरिराहतम्हा सो सुत्तं चिय, तदाइभावादओ तयं चेव। पुव्वं वक्खाणेउं,पच्छा वोच्छामि सामइयं // 2804 / / तस्माद-नमस्कारस्तत्त्वतः सामायिकसूत्रमेव तदादिभावात्सामापिकादावुपन्याससद्भावात्, 'करेमि भंते ! सामाइय' इत्यादि सामायिकसूत्रावयववदिति / अतः परमार्थेन सामायिकसूत्रत्वाद् न पुनर्मङ्गलार्थत्वात्तमेव नमस्कारं पूर्वमादौ व्याख्या पश्चात् सामायिकार्थ वक्ष्यामि इति गाथापक्षकार्थः / विशे० / आ०म०। आ०चूछ। सम्प्रति सूत्रोपन्यासार्थ प्रत्यासत्तियोगतः परमार्थेन सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिगतामेव गाथामाहनंदिअणुओगदारं, विधिवदुवग्घाइयं च नाऊण / काऊण पंच मंगल-मारंभो होइ सुत्तस्स / / नन्दिश्वानुयोगद्वाराणि च नन्द्यनुयोगद्वारं समाहारत्वादेकवचनं विधिवत यथावत उपोद्धातं च / 'उद्देसे निइसे य' इत्यादिलक्षणं ज्ञाचा पाठान्तर भणित्वा अन्यथा कृत्वा पञ्च मङ्गलानि; नमस्कारमित्यर्थः / किम्? आरम्भो भवति सूत्रस्य इह पुनर्नन्द्यापन्यासः किल विधिनियमख्यापनार्थः / नन्द्याहदि ज्ञात्वैव-भणित्वैव वा सूत्रस्यारम्भो भ्वति नान्यथेति / तथा उपोद्धातः- सकलप्रवचनसाधारणत्वेन प्रधनं प्रधानस्य Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 745 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय च सामान्यग्रहणेऽपि भेदेनोपन्यासो भवति, यथा ब्राहाणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इत्यनुयोगद्वारग्रहणन तस्य ग्रहणेऽपि पृथगुपन्यासः। संबन्धान्तरप्रतिपादनायैवाहकयपंचनमोकारो, करेइ सामाइयं तु सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य, जं सा सेसं अतो वोच्छं / / 1026 / / वृत्तः पञ्चनमस्कार येन स तथाविधः शिष्यःसामायिक करोतीत्यागमः। स च पञ्चनमस्कारोऽभिहितो यस्मादसौ नमस्कारः सामायिकाड़ मेव। सा च सामायिकाङ्गता प्रागेवोक्ता अत ऊर्द्ध शेषं सूत्रं वक्ष्ये। तच्चेदम्'कमि भंते ! सामाइयं सव्वं सावज जोग पच्चक्खामि / जायजीवाए तिविहं तिविहेणं मणणं वायाए कारणं / न करेमि न काखेमि करत पि अन्नं न समाजाणामि तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसि-रामि / इदं व सूत्रं सूत्रानुगम एव प्राप्तावसरे अहीनाक्षरादिगुणोपेत-- मुच्चारणीयम् / तद्यथा- अहीनाक्षरमनत्यक्षरम अव्याविद्धाक्षरमस्खलितनिलितमव्यत्ययमनामेडितं प्रतिपूर्ण प्रतिपूर्णधोष कण्ठोधविप्रमुक्त वाचनोपगतमिति। अमूनि च पदानि प्राग्व्याख्यातत्वान्न व्याख्यायन्त / एवंरूपे च सूत्रे उच्चारिते सति केषा -चिद्भगवता साधूनां केचन अर्थाधिकाराः, अधिगतीभवन्ति, केषा-चन त्वनधिगताधिगमनाय व्याल्या प्रवर्तते / तल्लक्षणं चेदम्- "संहिता च पदं चैव, पदार्थ: पदविग्रहः चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा / / 1 / / " तत्राऽस्खनितपदोच्चारणं संहिता / यथा- 'करेमि भंते ! सामाइयमि' त्यादि 'लाव वोसिरामि' / पदं पशधा, तद्यथा-नामिक नेपातिकमोपसर्गिकमाख्यातिक मिश्रं च / तत्र अश्व इति नाभिकम, खल्विति नैपातिकं, रीत्यौपसर्गिकं, धावतीत्या-ख्यानिक,संयत इति मिश्रम। अथवा-द्वि वेधं पदस्याद्यन्तम्,तिवाद्यन्तच 1 अत्र पशविधानि वा पदानि, तद्यथा-करोमि भयान्त ! सामायिकं सर्व सावा योग प्रत्याख्यामि यावज्जीवया त्रिविधं त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेन, न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमपि अन्यं न समनुजाने, तस्य भ-यान्त ! प्रतिक्रमामि निन्दामि र हामि आत्मानं व्युत्सृजामीति पदानि / अधुना पदार्थः स चतुर्विधः / तद्यथा-कारकविषयः, समासविषयः, तद्धितविषयः, निरुवितविषयश्च / तत्र कारकविषयो यथा-पचतीति पाचकः / समासविषयो यथा-राज्ञः पुरुषो राज--पुरुषः / तद्धितविषयो यथावसुदेवस्यापत्यं वासुदेवः। निरुक्ति-विषयो यथा-भ्रमति रौति च भ्रमरः / तत्रापि डुवृजकरणे इत्यस्य मिप्रत्ययान्तरस्य कृत्रः, तनादेरुरिति उकार गुण च कृत करोमीति च भवति / अभ्युपगमश्चास्यार्थः / एवं प्रकृतिप्रत्ययविभागः सर्वत्र वक्तव्यः / इह तु ग्रन्थगौरवभयान्नोच्यते / भयं प्रतीतम, लक्ष्या--मो वा उपरिष्टात् अन्तोविनाशःभयस्यान्तो भयान्तः। अयमेव पदविग्रहः, पदपृथक्करणपदविग्रहः तस्य सम्बन्धिनं भयान्त ! सामायिक पदार्थः पूर्ववत् सर्वमित्यपरिशेषवाची शब्दः। अवद्यम-पाप सहावा रास्य येन वा सावद्यः,तं सपापमित्यर्थः, योग्यो व्यापारस्त प्रत्याख्यामि प्रतिशब्दः प्रतिषेधे, आड आभिमुख्ये, ख्याप्रकथने, | तत:प्रत्याख्यामीति / किमुक्त भवति-सावद्ययोगस्य प्रतीपमभिमुखं ध्यापार करोभीति / अथवा- 'पञ्चवखामीति' प्रत्याचक्षे इति शब्दसंस्कारः। चड़ि व्यक्तायां वाचि। अस्य प्रत्याडपूर्वस्य प्रयोगः प्रत्याचक्षे इति / काऽर्थः प्रतिषधस्यादरेणाभिधानम् / करोमि यावजीवयेति च / यावच्छब्दः परिमाणमर्यादावधारणवचनः, तत्र परिमाणे यावन मम जीवनपरिमाण तावत्प्रत्याख्यामीति, मर्यादायां यावज्जीवनभिति, मरणं मर्यादीकृत्य, अवधारणे यावज्जीवनमेव प्रत्याख्यामि न तस्मात्परत इत्यर्थः। जीवनं जीवेत्यय क्रियाशब्दः। परिगृह्यते तया। अथवा-प्रत्याख्यानक्रिया परिगृह्यते / यावज्जीवो यस्यां सा यावज्जीवा तया त्रिविधमिति तिसो विधा यस्य सावधयोगस्य स त्रिविधः, स च प्रत्याख्ययत्वेन कर्म संपद्यतं कर्मणि च द्वितीया विभक्तिरस्ति / तं विविध मनोवाकायव्यापारलक्षणं 'कायवान् मनःकर्मयोग' इति वचनात् / त्रिविधनति करणे तृतीया / मनसा वाचा कायेन / तत्र 'मन्' बुद्धिमतिज्ञाने, मननं मन्यते वाऽनेनेति मनः / औणादिकोऽस्प्रत्ययः। तचतुर्दा। नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात, नामस्थापने सुगमे। द्रव्यमनो ज्ञशरीरगव्यशरीरव्यतिरिक्त तद्योग्यपुद्गलमिदम्। भावमनो मनो जीव एका वच परिभाषणे,वचनम् उच्यते इति च वाक्, साऽपि चतुर्विधा नाभस्थापनाद्रव्यभावभेदात्। तत्र नामस्थापने सुगमे। द्रव्यवाग ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ताः शब्दपरिणामयोग्यजीवपरिगृहीता पुद्गलाः / भाववाक पुनस्तएव पुद्गलाः शब्दपरिणाममापन्नाः। तथा-- 'वे' वयने / क्यनं वीयते इति ता कायः, वीत्युपरामाधाना वा रांदोहकश्चादिरिति वेजो वकारस्य ककारः। पुद्गलान-अवयवान पुद्गलानामेवावयवरूपतया समानात जीवस्य निवासान प्रतिक्षणं केषांचित्पुद्गलानां शरणात् / कायः-शरीरम, सोऽपि नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाचतुष्प्रकारः / तत्र नाम--स्थापन प्रतीते। द्रव्यकायो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिवतः शरीरत्वयोग्या अगृहीतास्तत्स्वामिना वा जीवेन मुक्ता यावन्तं परिणाम न मुशति तावद द्रव्यकायः / भावकायस्तु तत्परिणता जीवसंयुताश्च पुद्गलाः / अनेन त्रिविधेन कारणेन त्रिविधं पूर्वाधिकृतं सावध योग न करोमिन कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि-नानुमन्येऽहमिति, तस्यत्यधिकृतस्य सावधयोगस्य प्रतिक्रमामि-निवृत्ते निन्दामि-जुगुप्से गहें इति, स एवार्थः / किं त्वात्मसाक्षिका निन्दा। गुरुसाक्षिका गर्हेति। कि जुगुप्से इत्यत आह-आत्मान-मनतिसावद्ययोगकारिणं व्युत्सृजामि विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्द उच्छब्दो भृशार्थः, सृजामित्यजामि। विविध विशेषण वा भृशं त्यजामीति भावः / एवं तावत्पदार्थपदविग्रहों यथासम्भवमुक्तो। आ०म०१ अ०॥ अधुना चालनाप्रत्यवस्थाने वक्तव्ये। अत्रान्तरे सूत्रस्पर्श नियुक्तिरुच्यते। स्वस्थानत्वादाह नियुक्तिकारःअक्खलियसंहियादी,वक्खाणचउक्कए दरिसियम्मि। सुत्तप्फासियनिज्जु-त्ति वित्थरस्थो इमो होइ।।१०१६।। अस्खलितादी सूत्रे उच्चरिते सहितादौ च व्याख्यानचतुष्टये दर्शिते सति सूत्रस्पर्शनियुक्तिविस्तरार्थोऽयं भवतीति। Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय तमेव दर्शयतिकरणे भए य अंते, सामाइयसव्वए अवज्जे य। जोगे पच्चक्खाणे, जावज्जीवाएँ तिविहेण / / 1016 / / आव०१०। (करणव्याख्या करण' शब्दे तृतीयभागे 366 पृष्ठे गता।) किं सामायिकं कस्मिन् करणेभावसुयसद्दकरणे, अहिगारो एत्थ होइ कायव्वो। नो सुयकरणं गुणगँ-जणे य जहसंभवं होइ।। आ० म०१ अ०। अथ विनेयः पृच्छति ननूक्तस्वरूपाणां नामादीनां षण्णां करणभेदाना / मध्ये सामायिककरणमिद किं भवत्?-कस्मिन् भेदेऽवतरेत? इत्यर्थः / अत्रगुरुराहसव्वं पिजहाजोगं, नेयं भावकरणं विसेसेणं / सुयबद्धसद्दकरणं, सुयसामइयं न चारित्तं // 3361 / / इदं सामायिककरणं सर्वगपि षड्विधमपि नामादिकरणं ज्ञेयम्-सर्वेष्वपि नामादिभेदेष्ववतरेदित्यर्थः / कथं? यथायोग-यथासम्भवम् / तत्र सम्यक्त्वश्रुततपःसंयमादिगुणाना जीवद्रव्यपर्यायत्वात्, पर्यायस्य च द्रव्यानन्यत्वाद द्रव्यकरणमिदं भवत्येव / एवं नामादिकरणताऽप्यस्य यथाराम्भवं भावनीया। भावकरणं त्विदं विशेषतो भवति, सम्यक्त्वादिसामायिकानां जीवभावत्वादिति / आह-ननु भावकरणं पूर्व बहुभेदमुक्तम्, तत् किं सर्वेष्वपि भावकरणभेदेषु सर्वमपि सामायिकमवतरति? नेत्याह-'सुए' त्यादि, श्रुतकरणं तथा बद्धश्रुतकरणम्, शब्दकरण च श्रुतसामायिकमेव भवति, तस्यैवैतद्भेदरूपताघटनात . न तु चारित्रसामायिकम, तस्यैतद्रूपासम्भवादिति। चारित्रसामायिक तर्हि कस्मिन् भावकरणभेदेऽवतरति? इत्याहगुणकरणं चारित्तं, तवसंजमगुणमयं ति काऊणं / संभवओ सुयकरणं,सुपसत्थं झुंजणाकरणं / / 3362 / / कया कयं केण कयं,केसु व दव्वेसु कीरई वावि / काहे व कारओ नय-ओ करण कइविहं कहं च // 3263 / / गुणकरण चारित्रसामायिकं गुणकरणलक्षणे नोश्रुतभावकरणे प्रथमभेद एतदवतरतीत्यर्थः, तपः-संयमगुणात्मकमिति कृत्वा सम्भवतोयथासम्भवं श्रुतकरणमप्येतद् भवति / प्रशस्तवापायाश्चारित्रभेदभूताया वाक्समितरत्रावतारदिति। तथा, सुप्रशस्तं योजनाकरणमिति नोश्रुतभावकरणद्वितीयभेदेऽप्येतदवतरतीत्यर्थः, सुप्रशस्तमनोवाककायरूपत्वाच्चारित्रस्य। इति गाथार्थः। (विशे०) कृताकृतादिभिर्निरूपयन्नाह- 'कयाकयमित्यादि ननुकरणक्रियायाः पूर्व सामायिक किं कृतं क्रियते, अकृतं वा? उभयथाऽपि वक्ष्यमाणदोषः / अत्रोत्तरमाह... 'कयाकय तिनैकान्तेन कृतं क्रियते, नाप्यकृतम्, किन्तुकृताकृतं क्रियत इति। तथा, केन कृतमिति वक्तव्यम्। तथा, केषुद्रव्येष्विष्टादिपु क्रियते। कदा वा कारकोऽस्य भवति। 'नयउ' ति-नेगमादिनयमानात्रोत्तरं / वक्तव्यम् / तथा, करणं कतिभेदमिति वाच्यम् / तथा, कथं केन प्रकारेणेद सामायिककरणं लभ्यते इति चाभिधानीयम्, इति 'नयुक्तिागाथासंक्षपार्थः। विस्तरार्थं तु भाष्यकार आहकिं कयमकयं कीरइ, किं चातो भणइ सव्वहा दोसो। कयमिह सब्भावाओ, न कीरइ चिरकयघडु व्व / / 3364 / / निच्चकिरियापसंगो, किरियावेफल्लमपरिणिट्ठा वा। अकयकयकञ्जमाण--व्ववएसा भावया निच्चे // 3365 / / किं कृतं क्रियते सामायिकम्, अकृतं वा ? किश्चातः? किमन्न प्रश्न? इति गुराणा प्रोक्ते भणति परः, सर्वथापक्षद्वयेऽपि दोषः-तभाहि-कृतं तावद् न क्रियते, सद्भावादग्रेऽपि विद्यमानत्वात्. चिरकृतघटवदिति / कृतस्य च करणे नित्य क्रियायाः करणस्य प्रसङ्गः क्रियायाश्च वैफल्यम, कृतत्वादेवेति। अथ कृतमपि क्रियते, तर्हि करणस्यापरिनिष्ठा कृतत्वाविशेषादिति / अपि च- 'कृतं क्रियते' इत्युच्यमाने वस्तुनः सर्वदेव सत्त्वमभ्युपगतं भवति. यच्च सर्वदा सत् तदाकाशवद् नित्यम् नित्येच वस्तुन्यकृतमिदम्. कृत वा, क्रियमाणं वा इत्यादिव्यपदेशो न भवति, अनित्यत्वप्रसङ्गादिति। अकृतपक्षमङ्गीकृत्याहअकयं पि नेय कीरइ, अचंताभावओ खपुप्फ व / निचकिरियाइदोसा, सविसेसयरा व सुत्तम्मि।।३३६६।। स्पष्टा। अथ क्रियमाणं क्रियते, तत्राहसदसदुभयदोसाओ, सव्वं कीरइन कज्जमाणं पि। इह सव्वहान कीरइ, सामाइयमओ कओ करणं? // 3367 / / तत् क्रियमाणं वस्तु सदाऽसद् वा परिकल्प्येत? यदि पत्, तहे कृतपक्षोक्ताः सर्वेऽपि दोषाः प्रसजन्ति / असत्त्वपक्षे त्टकृतपक्षदोषानुपनः / अथ सदसत् क्रियमाणमिष्यते,तदप्ययुक्ता, उभयपक्षोक्तदोषप्रसङ्गादिति। एवं सर्वथा सर्वप्रकारैः सामायिकं न क्रियत। अतः कस्मात् तस्य करणम् ? इति। अत्रोत्तरमाहनणु सव्वहा न कीरइ, पडिसेहम्मि वि समाणमेवेदं। पडिसेहस्साभावे,पडिसिद्ध केण सामइयं? // 3368 / / अह कयमकयं न कयं,न कज्जमाणं कहं तहावि कयं / पडिसेहवयणमेयं, तह सामाइयं पि को दोसो ? ||3366 / / ननु सर्वथा-सर्वप्रकारैः सामायिकं न क्रियते इत्येवं यस्त्वया प्रतिषेधो विधीयते, तत्रापि प्रतिषेधे समानमेवेदम। किमसी कृतः क्रियते,अकृतः, क्रियमाणो वेत्याधुक्तन्यायेन सोऽपि सर्वथा न क्रियते। अतः प्रतिषेधाभावे केन प्रतिषिद्ध सामायिकम्? न केनचित्, अतः क्रियतएवैतदिति।अथैव वर्ष प्रतिषेधवचनमेततकृतंवा सत, अकृतवा सदनकृतम,नापि क्रियमाणं कृत्तम्, Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 747 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय तथापि कृतं तावत् केनाप्युच्चारणादिना प्रकारेण / हन्त ! यथा केनापि प्रकारण त्व तत कृतं तथा सामायिकमपि केनापि प्रकारेण कृतम, अतस्तत्रापि को दोषस्त्वया दीयते? इति। अन्य कृताकृतपक्ष नयमतेनोपदर्य सिद्धान्तपक्ष मुपदर्शयन्नाहअकयमसुद्धनयाणं, निच्चत्तणओ नभं व सामइयं / सुद्धाण कयं घड इव, कयाकयं समयसम्भावो // 3370 / / द्रव्यार्थिक रूपाणामशुद्धनयानां नैगमसंग्रहव्यवहाराणामकृतं सामाथिकम्, नियत्वात्, नभोवदिति / शुद्धानां तु निश्वयनथरूपाणामृजुसूत्रादीनां कृतं तत्, घटवदिति। समयसद्भावस्त्वयम् नैकान्तेन कृरत सामायिक क्रियते नाप्यकृतम्, किन्तु कृताकृत क्रियत इति। यदि वा-सिद्धान्तस्थित्या-विवक्षावशात कृतादिभिश्चतुर्भिर्भः किश्चिद वस्तु क्रियते, किश्चिद् त्वेतश्चतुर्भिरपि भगर्न क्रियत एवेति दर्शयन्नाहकीरइ कयमकयं वा, कयाऽकयं वेह कजमाणं वा। कजमिह विवक्खाए, न कीरए सव्वहा किंचि // 3371 / / इह किचित कार्य केनापि रूपेण कृत क्रियते, केनचिदूपेणाकृते कियते, केनापि तु र पेण कृताकृतं क्रियते। केनचित प्रकारेण क्रियमाणं वा किशित क्रियते, अन्यत्तु किञ्चिद विवक्षया सर्वरपि कृतादिभिः प्रकारैर्न क्रियत इति। अत्र यथासंख्यमुदाहरणम्रूवि त्ति कीरइ कओ, कुंभो संठाणसत्तिओ अकओ। दोहि वि कयाकओ सो, तस्समयं कजमाणो त्ति / / 3372 / / पुव्वकओ उघडतया, परपज्जएहि तदुभएहिं च। कजंतो य पडतया, न कीरए सव्वहा कुंभो // 3373|| रूपी-इति कृत्वा पूर्व कृत एव कुम्भस्तद्रूपतया क्रियते, मृत्पिण्डावरथायामापे रूपादीनां सद्भावादिति / संस्थानजलाहरणशवितभ्यां पूर्वमकृतः 'क्रयते। रूपतया संस्थानशक्तितश्चेति रूपद्वयेनापि विवक्षितोऽसौ पूट कृताकृतः क्रियते / तत्समयमुत्पत्तिसमये क्रियमाणोऽसौ क्रियत इति / पूर्वकृतस्तु पूर्व निष्पन्नो घटोघटतया घटपर्यायण न क्रियते, परपर्याय स्तुपटादिधर्म : पूर्वमकृतो घटो न क्रियते, परपर्यायवस्तुनः कर्तुमशवर त्वात् / तदुभयैस्तु स्वपरपर्यायविवक्षितः कृताकृतोऽसो न क्रियते, स्वपर्यायाणां पूर्वमेव कृतत्वात्, परपर्यायाणां तु पूर्वमप्यकृताना कर्तुमशक्यत्वात् / क्रियमाणश्चोत्पत्तिसमये कुम्भः पटतया न क्रियते, अशक्यत्वात्। तदेवं सर्वथा सर्वेरपि कृतादिप्रकारैः कुम्भो न क्रियते, यथोक्त - वेवक्षया कृतोऽकृतः कृताकृतः क्रियमाणश्च कुम्भो न क्रियत इत्यर्थः। त देव यथाभिहितविवक्षया क्रियमाणत्वमक्रियमाणत्वं च वस्तुनः प्रोक्तम्। अथवा देवक्षान्तरेण सर्वधस्तूनां क्रियमाणत्वभक्रियमाणत्वं च दर्शयितुम ह.. वोमाइनिच्चयाओ, न कीरई दव्वयाइ वा सव्वं / कीरइ य कज्जमाणं, समए 2 सपज्जयओ।।३३७४।। इह व्योमाऽत्मकालदिगादिक वस्तु न क्रियते, नित्यत्वात / अथवाव्याप्त्या सर्वभपि व्योमादि घटविद्युद्वनकुसुमादि च वस्तु न क्रियते, द्रव्यतया सर्वस्य सर्वदाऽवस्थितत्वात्। पर्यायतया तुप्रतिसमयं सर्व वस्तु क्रियमाण कियत, सर्वस्यापि समये समयेऽपरापरस्वपर्यायाणामुपादादिति। समयसद्धावव्यततीकरणपूर्वकं प्रकृतयोजनामाहउप्पायट्ठिइभंग-स्सभावओ इय कयाऽकयं सव्वं / सामाइयं पि एवं, उप्पायाइस्सहावं ति॥३३७५।। उत्पादस्थितिभा स्वभावत्वादित्युक्तप्रकारेण सर्वमपि वस्तु कृताकृतस्वरूपम्, एवं सामायिकमप्युत्पादादिस्वभावत्वात् कृता-कृतस्वरूप द्रष्टव्यम। अतः 'कृताकृतं क्रियते' इति स्थितम्। अत्रपरःप्राहनणु दव्यमणत्थंतर-पज्जायंतरविसेसणेहि जुओज्ज। उप्पायाइसहावं,न उ सामॉइयं गुणो जम्हा / / 3376 / / सो उप्पण्णो उप्पण्णऍ,व विगओ य विगय एवेह। किं सेसमस्स जेणिह, कयाकया देसया होज्जा // 3377|| ननु द्रव्यमनन्तरभूतपर्यायान्तरविशेषणैरुत्पादादिस्वभावं युज्येत्, न तु सामायिकम्, 'गुणो जम्ह' ति-गुणमात्ररूपत्वादिति / स हि गुण उत्पन्नः समुत्पन्न एव, न तु विगतोऽवस्थितो वा; यदा तु विगतस्तदा विंगत एव, नतृत्पन्नोऽवस्थितो वा / अतः किं शेषमस्योद्धृतम्,येनेह कृताकृतादेशता-कृताकृतरूपता स्यात् ? इति / सूरिरुतरमाहजंचिय दव्वाणन्नो,पञ्जाओ तं च तिविहसब्भावं। तो सो वि तिरूवो चिय, तत्तो य कयाकयसहावो // 3378|| यरमादव पर्यायो द्रव्यानन्यः, तच्च द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणत्रिविधस्वभावग, ततो द्रव्यानन्यत्वात् सोऽपि पर्यायस्विरूप एव, अतश्च द्रव्यवत कृताकृतस्वभावः स्यादेवेति। अथवा-स्वतन्त्रस्थापि सामायिकगुणस्य त्रिरूपता घटत एवेति / कथम्? इत्याह जह वा रूवंतरओ, विगमुप्पाए विरूपसामण्णं / निचं कयाकयमओ, रूवं परपज्जयाओ वा // 3376 / / तहणामंतरओ,वयविभवे वि परिणामसामण्णं। निच्चं कयाकयमओ, सामइयं परगुणाओवा॥३३८०।। यथा वा घटादौ रक्तत्वादिरूपाच्छुक्लत्वादिरूपान्तरोत्पत्तौ पूर्वरूपस्य विगमे उतरनपस्योत्पादेऽपि रूपसामन्यं नित्यमवतिष्ठते, अतो रूपगुणस्य त्रिरूपता, अरमाच्च त्रैरुप्यात् कृताकृतं रूपं युज्यते / परपर्यायाद् वा परपर्यायमाश्रित्य कृताकृतं युज्यत इति / तथोत्तरोत्तरशुद्ध्या परिणमतः सामायिकगुणस्य परिणामान्तरात् परिणामोत्पत्ती पूर्वपरिणामस्य व्ययेविगमे, उत्तरपरिणामस्य तु विभवेऽप्युत्पादेऽपि परिणामसामान्य नित्यमवतिष्ठते। ततः सामायिकगुणस्य विरूपता। अरमाच्च त्रैरूप्यात् तस्य कृ Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 748 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय ताकृतत्वम्, परगुणत्वाद्वा परगुणमाश्रित्य कृताकृतत्वमिति। अथवा-अन्यथाऽपि सामायिकस्य कृताकृतत्वं वक्तव्यम्, कथम ? इत्याहदव्वाइचउक्कं वा,पडुच कयमकयमहव सामइयं / एगपुरिसाइओ कय-मकयं नाणानराईहिं // 3381 / / अथवा-द्रव्यादिचतुष्कं द्रव्यक्षेत्रकालभावचतुष्टयं प्रतीत्यकृतमकृतं च सामायिक भावनीयम तथाहि-एक विवक्षितं पुरुषद्रव्यं प्रतीत्य कृतं सामायिकम,सादिसपर्यवसितत्वात्, नानापुरुषद्रव्याण्याश्रित्य पुनरकृतम्,अनाद्यपर्यवसितत्वादिति / आदिशब्दात-भरतैराबतक्षेत्राणि प्रतीत्य कृतम्। महाविदेहक्षेत्रेष्वकृतम्, अवच्छिन्नप्रवाहत्वेन नित्यत्वादिति तथा, उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालमाश्रित्य कृतम्, व्यवच्छिद्यमानत्वनानित्यत्वात् / नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालं त्वाश्रित्याकृतम, अव्यवच्छिन्नत्वेन नित्यत्वात् भावं त्वेकपुरुषोपयोग प्रतीत्य कृतम, नानापुरुषोपयोगानाश्रित्य पुनरकृतम्। इत्येवं वा कृताकृतं सामायिकमिति। तदेवमुक्तं कृताकृतद्वारम्। अथ 'केन कृतम्' इति द्वारं विवरीषुराहकेण कयं ति य ववहा-रओ जिणिंदेण गणहरेहिं च / तस्सामिणा उ निच्छय-नयस्स तत्तो जओऽणन्नं / / 3382 / / पाठसिद्धा। अत्राक्षेपपरिहारी प्राहनणु निग्गमे कयं चिय, केण कयं तं ति का पुणो पुच्छा। भण्णइ स बज्झकत्ता, इहंतरंगो विसेसेणं / / 3383 / / आह-ननु 'उद्दसे निवसे य निग्गने' इत्यत्र सामायिकस्य निर्गम भण्यमाने महावीरात तन्निर्गतम् इत्यादि- प्रतिपादनेन केन कृतं तत् इत्येतद् गतमव-उक्तार्थमेव, पुनरपीह का पृच्छा? भण्यतेऽनोत्तरमस तीर्थकरादिः सामायिकस्य बाह्यकर्ता तत्रोक्तः, इह तु विशेषाणान्तरङ्गकर्ता जिज्ञासितः / स च नैश्चयिकः सामायिकानुष्ठाता साध्यादिद्रष्टव्यः सामायिकपरिणामानन्यत्वादिति। परिहारान्तरमाहअहवा सततकत्ता, तत्थेह पउज्जकारगोऽभिमओ। अहवेह सव्वकारग-परिणामाणन्नरूवो त्ति॥३३८४।। अथवा तत्र निर्गम भगवास्तीर्थकरः स्वयबुद्धत्वात् स्वतन्त्रकर्ता अभिहितः, इह तस्यैव भगवतस्तीर्थकरस्य यः प्रयोज्यः- प्रबोधनीयः सन कारकः साध्वादिः स करताऽभिमतः। अथवा-इह कर्ता सर्वकारकपरिणामानन्यरूपोऽभिमतः, स च साध्वादिरेव सामायिकानुष्टाता मन्तव्यः, तथाहि-सामयिकं कुर्वन्नसो कर्ता, क्रियमाणत्वेन च कर्मरूपात सामायिकादनन्यत्वात् कर्म, सामायिक येनाध्यवसायन कारणभूतेनासौ करोति तस्मादनन्यत्वात करणम / गुरुणा चारम सामायिक प्रदीयत इति सम्प्रदानम, सामायिक चास्मात शिष्यप्रशिष्यपरम्परया प्रवर्तिष्यत इत्यपादानम,स्वपरिणामे च सामायिकमव्यय छिन्न घरतीत्यधिकरणमित्येवं सर्वकारकपरिणाभानन्यरूपः कर्ता भवत्य साविति आह-ननु यद्यन्तरङ्गः प्रयोज्यः सर्वकारकपरिणाभानन्यरुपश्च कर्ता साध्वादिरिह विवक्षितः, तर्हि 'जिनेन्द्रेण गणधरैश्च कृतं तत्' इति कस्मादुक्तम्, जिनेन्द्रगणधराणामिहाविवक्षितत्वात? सत्यम्। किन्तुजिनेन्द्रस्यापि सामायिकस्यान्तरङ्गकर्तृत्वं सर्वकारकपरिणामानन्यरूपकर्तृत्वं प्रायो न विरुध्यते, तेनापि तस्यानुष्ठितत्वात्, गणधराणां तु प्रयोज्यकर्तृत्वमपि युज्यत एव, जिनेन्द्रप्रयोज्यत्वात् तेषामिति / अतो जिनेन्द्रगणधराणाभप्युपन्यासोऽत्र न विरुध्यत इति / गत केन कृतम्' इति द्वारम्। अथ 'केषु द्रव्येषु तत् क्रियते' इति द्वारमभिधित्सुराहदव्वेसु केसु कीरइ, सामइयं नेगमो मणुण्णेसु / सयणाइएसु भासइ, मणुण्णपरिणामकारणओ।।३३८५।। नेगंतेण मणुन्नं, मणुन्नपरिणामकारणं दव्वं / वभिचाराओ सेसा, बिंति तओ सव्वदव्वेसु // 3386| केषु द्रव्येषु व्यवस्थितस्य सामायिक क्रियते–निर्वय॑ते? उत्रनैगमनयो भाषते- मनोज्ञेषु शयनाऽऽशनादिषु स्थितस्य तत् क्रियते. मनोज्ञपरिणामकारणत्वात्। तथा च कैश्चियुक्तम्-"मणुन्नं भोयणं भोच्चा, मणुन्न सयणासणं / मणुनम्मि अगारम्मि, मणुन्नं झायए मुणी।।१।।" इत्यादि। शंषास्तु संग्रहादयो बुवते-नैकान्तेन मनोज्ञ द्रव्यं मनोज्ञपरिणामकारण भवति, व्यभिचारात्, मनोज्ञेऽपिकस्यापि स्वाभिप्रायेण मनोज्ञपरिणामभावात, अमनोज्ञेऽपि च कस्यापि मनोज्ञपरिणामसद्भावात् / ततः सर्वद्रव्येषु व्यवस्थितस्य सामायिक क्रियते। अत्राक्षेपपरिहारावाहनणु भणियमुवग्घाए, केसुत्तीहं कओ पुणो पुच्छा? के सुत्ति तत्थ विसओ, इह केसु ठिअस्स तल्लाभो / / 3387 / / नन्पोद्घाते 'किं कइविह' इत्यादि गाथायां 'केषु सामायिक भवति' इति भणितभेव, इह कुतः पुनरपि पृच्छावसरः? नैवम्, नत्र हि केषु द्रव्यपर्यायाः सामायिकस्य विषये भवन्तीत्युक्तम्,तथा च तत्र निर्वचनम्'सव्वगयं सम्मत्त' इत्यादि। इह तु केषु द्रव्येषु स्थितस्य सामायिकलाभो भवतीत्युच्यत इति महान भेद इति। . यदि न पौनरुक्त्यम, तख्रन्यदूषणम्। किं तत? इत्या:तो किह सव्वद्दव्या, वत्थाणं जाइमित्तवयणाओ। धम्माइसव्वदव्वा-धारो सव्यो जओऽवस्सं॥३३८८|| ततस्तहि कथं सर्वद्रव्येष्ववस्थान सम्भवति, येनोच्यते- सेसा विति तओ सव्वदव्वेसु' इति / न हि सर्वेष्वाकाशादिद्रव्येषु कोऽयवतिष्ठत' इति / उच्यते?-जातिमात्रवचनात सर्वद्रव्यमात्रस्येह विवक्षणात्, * जातिमात्रंच सर्वद्रव्यैकदेशेऽपि प्राप्यत इति। ननु देशतोऽपि किं सर्वद्रव्या धारः कोऽपि प्राप्यते? उच्यते-प्राप्यत एव,यतो धर्मास्तिक याऽधर्मास्तिकायाऽऽकाशास्तिकायजीवपुद्गलाधारः सर्वोऽप्यवश्य जीवलोक इति परिहृतं प्रासनिक दूषणम्। अथ प्रस्तुतप्रेर्यस्य परिहारान्तरमाहविसओ व उवग्याए, केसु त्ति इहं स एव हेउ त्ति। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 746 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय सद्धेय नेय किरिया, निबंधणं जेण सामइयं // 3386 / / अथवा-उपोद्घाते सर्वद्रव्याणि सामायिकस्य विषये भवन्तीत्युक्तम् / इह तु स एव सामायिकलाभः सर्वद्रव्येषु हेतुभूतेषु भवतीत्युच्यत इति। कथं पुनः सर्वाण्यपि द्रव्याणे सामायिकस्य हेतुर्भवन्ति? इत्याह - 'सद्धये' त्य दि श्रद्धेवानि च ज्ञेयानि च चारित्रक्रियाहेतुभूतानि च यानि द्रव्याणि तन्निबन्धनंत तुक येन सामायिकम्।नच श्रद्धेयादिभ्योऽन्यानि सर्वद्रव्याण ति, नापि विषय-हेतोरेकत्वसवगन्तव्यम्, विषयस्य गोधररूपत्वात,जीवघातनि-वृत्तेः सर्वजीववद्धेतोरुपष्टम्भकत्वात्, अन्नादिवदिते। अन्यदपि परिहारान्तरमाहअहवा कयाकयाइसु, कर्ज केण व कयं च कत्त त्ति। केसु त्ति करणभावो, तइयत्थे सत्तमि काऊं // 3360 / / अथवा-कृताकृतादिद्वारेषु प्रथमे कृताकृतद्वारे का यत क्रियते तत् कार्य सामायिकमुक्तम्, 'केन कृतम्' इति रा द्वितीयद्वारे सामायिकस्यैव कर्ता निर्दिष्टः, 'केषु' इति तृतीयद्वारे तु तृतीयार्थे सप्तमी कृत्वा करणमभिहितम्, कैर्द्रव्यैः करणभूतैः सामायिक क्रियत इति नोपोद्घातेन सह पौनरुन्त्यमिति। अथ कदा कारको भवति' इति नयर्निरूपयन्नाह-- उद्दिढे च्चिय नेगम-नयस्स कत्ताऽणहिजमाणो वि। जं कारणमुद्देसो, तम्मि य कज्जोवयारो त्ति / / 3361 / / इहोददिष्ट एव गुरुणा सामायिके नैगमनयस्यानधीयानोऽपि शिष्यस्तत्कर्ता भवति / आह-ननु कार्यस्य कर्ता भवति, कार्यं च सामायिकमुद्देशस्थले नारिन,तत्कथं तस्यासौ कर्ता भवति! इत्याह- 'जम्मि' इत्यादि, यस्मात् सामायिककारणमुद्देशः तस्मिश्चोद्देशलक्षणे कारणे कार्यस्य सामायिकन्योपचारः क्रियत इति सामायिकस्य कतोऽसौ भवतीति। सडग्रहव्यवहारनयमतमाहसंगहववहाराणं, पच्चासन्नयरकारणत्तणओ। उद्दिट्ठम्मि तदत्थं, गुरुपामूले समासीणो॥३३६२।। साहव्यवहारयोरुद्दिष्ट सामायिके तत्पठनार्थ गुरुपादमूले समासीनः / शिष्यः प्रत्यासन्नतरकारणत्वात् पूर्ववत तत्र सामायिककार्योपचारतः कर्ता भवतीति। ऋजुसूत्रमतमाहउज्जुसुयस्स पढंतो, तं कुणमाणो वि निरुवओगो वि। आसन्नासाहारण, कारणओ सद्दकिरियाणं / / 3363|| ऋजुसूत्रन्यानुपयुक्तोऽपि सामायिकपठन्, तथा कुर्वस्तदर्थ-क्रियामनुतिष्ठन रगमायिकस्य का भवति, सामायिकासन्नतरा साधारणकारणत्वास तद्विषयशब्दक्रिययोरिति / शब्दादिमतमाहसामाइओवउत्तो, कत्ता सद्दकिरियाविउत्तो वि। सद्दाईण मणुन्नो, परिणामो जेण सामइयं // 3364|| शब्दादिनयाना सामायिकोपयुक्तः शब्दक्रियावियुक्तोऽपि सामायिककर्ता भवति, येन यरमाद् मनोज्ञो विशुद्धपरिणाम एव तेषां सामायिकमिति। अथ पूर्वोक्तमुपसंहरन्नुत्तरगन्थसम्बन्धनार्थमाहकत्ता नयओऽभिहिओ, अहवा नयउत्ति नीइओ नेओ। सामाइयहेउपउ–जकारओ सो नओ य इमो॥३३६५।। तदेवं सामाथिकस्य कर्ता नयतो-नयैरभिहितः / अथवा- 'कदा वा कारकः' इत्यस्माद नय इति पृथगेव द्वारम् / तत्र चायमर्थः-नयतोनीतितो विधिना सामायिकस्य हेतुःकर्ता सामायिकस्य प्रयोज्यकारको ज्ञेयः / कः पुनरसी नय इत्याह स चायम् / इति द्वात्रिंशद्गाथार्थः / विशे० / आ०म०। आ०चू०। सम्प्रति नय इत्येतद्द्वार विवरीषुराह-- आलोयणा य विणए, खित्तदिसामिग्गहे य काले य। रिक्खगुणसंपयाविय, अभिवाहारे य अट्ठमए / / 3366 / / विशेष इहाभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनमालोचनानयः। आ०म०१ अ०। आवा अथालोचनानयं भाष्यकारो विवृण्वन्नाहसामाइयत्थमुवसं-पया गिहत्थस्स होज जइणो वा। उभयस्स पउत्ता लो-इयस्स सामाइयं देशा॥३३६७।। तत्र गृहस्थेआलोइयम्मि दिक्खा-रुहस्स गिहिणो चरित्तसामइयं / बालाइदोसरहिय-स्स देज नियमान सेसाणं॥३३६८|| स्पष्ट। नवरग, आलोचिते-आलोकिते विज्ञाते यथा द्रव्यतो ज्ञातोऽसौ; न नपुंसकादिः, क्षेत्रतस्तु विज्ञातो यथा नायमनार्यः, कालतस्त्ववगतो यथा शीतोष्णादिना नक्लाम्यति, भावतस्त्वव–बुद्धो यथा नीरोगानलसादिरूपः / ततश्चैवमालाकिते निश्चितेच दीक्षार्हस्य बालादिदोषरहितस्य गृहिणश्चारित्रसामायिकं दद्यादिति। ननु गृहस्थस्य सामायिकसूत्रार्थमुपसम्पदित्यवगम्यते, श्रमणस्य तु व्रतग्रहणकाल एवाधीतसामायिकत्वात् कथं तदर्थमुपसम्पद् भवेत्? इत्याहसामाइयत्थसवणो-वसंपया साहुणो हवेज्जाहि। वाघायमेसकालं, च पइसुयत्थं पि होजाहि / / 3366 / / यदा गुरु: सूत्रमात्रविदेव भवति, सूत्रं चादत्त्वा परलोकीभूतो भवेत्, तदा तच्छिष्यस्य साधोः सामायिकार्थश्रवणनिमित्तमन्यत्रोपसम्पद भवेत् / अथवा- 'सुयत्थं पि होज्जाहित्ति-व्याघातमेष्यत्कालं या प्रति तो प्रतीत्येत्यर्थः, सूत्रमात्रार्थमपि साधोरन्यत्रोपसम्पद् भवेत्। इदमुक्तं भवति- ग्लानभावेन व्यन्तरोपसर्गादिना वा व्याघातेन पतिते विस्मृते सामायिकसूत्रे, एष्यति वा दुःषमाकाले प्रज्ञामान्द्यादसमाप्त सामायिकसूत्रमात्रा अपि साधवो भविष्यन्तो निजगुर्वभावी भवनादिना कारणेन सर्वस्यापि सामायिकसूत्रस्य पठनार्थम, असमातस्य वा समाप्त्यर्थ मन्यत्र साधोरुपसम्पद् भवेदिति / तदेवं चारित्रसामा Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 750 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय यिकमगीकृत्य तदर्थश्रवणार्थ तत्सूत्रमात्रपठनार्थ वा साधोरन्य- | गोपसम्पदुक्ता। अथवा--श्रुतसामायिकमङ्गीकृत्य रामस्तद्वादशाङ्ग सूत्रार्थो भयार्थनप्युपसम्पद् भवेदिति दर्शयन्नाहसव्वं व वारसंग, सुयसामइयं ति तदुभयत्थं ति। होज्जा लोइयभाव-स्स देज सुत्तं तदत्थं वा / / 3400 / / अथवा-सर्वमपि द्वादशानं श्रुतसामायिक भण्यते, अतस्तदुभयाण समस्तद्वादशाङ्ग सूत्रार्थो भयनिमित्तमप्युपसम्पद भक्त; अत आलोचितभावस्य दत्तविशुद्धालोचनस्थ सूत्रमर्थ वा दद्यादिति / उक्तमालोचनाद्वारम्। (75) अथ विनयद्वारमभिधित्सुराहआलोयणसुद्धस्स वि,देज्ज विणीयस्स नाविणीयस्स। नहि दिन्जइ आहरणं,पलिय त्तिय कन्नहत्थस्स // 3401 / / सुगमा। किमिति विनीतस्यैव दीयते ? इत्याहअणुरत्तो भत्तिगओ, अमुई अणुअत्तओ विसेसन्न। उज्जुत्तों अपरितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू // 3402 / / सुबोधा / नवरम् 'अमुइ त्ति-अमोचकः, उद्युक्त-उद्यमपरः, 'अपरितंतो' अनिर्विण्ण इति।। क्षेत्रद्वारमभिधित्सुराहविणयवओ वि य कयम-गलस्स तदविग्घपारगमणाए। देज सुकओवओगो, खित्ताईसु सुपसत्थेसु॥३४०३।। उच्छुवणे सालिवणे,पउमसरे कुसुमिए व वणसंडे। गंभीरसागुणाए, पयाहिणजले जिणहरे वा ||3404 / / दिज न उ भग्गभामिय-मसाणसुन्नामणुन्नगेहेसु / छारंगारवक्खरा-मेज्झाईदव्वदुढेसु // 3405|| तियोऽपि सुगमाः, नवरभिक्षुवणादीनां समीपे दद्यात् सामायिकम, न तु भग्नभ्रामितगृहादिप्रदेशे। द्रक्षाचन्दनलताद्याच्छादित -प्रदेशोगम्भीरः / यत्र जल्पता प्रतिशब्दः उत्तिष्ठते स प्रदेशः सानुनाद इति। दिगभिग्रहद्वारमाहपुव्वाभिमुहो उत्तर-मुहो व दिज्जाऽहवा पडिच्छेजा। जाए जिणादओवा, दिसाइजिणचेइयाई वा।।३४०६।। पाठसिद्धा। कालद्वारमाहचाउद्दसि पण्णरसिं, वजेजा अट्ठमिं च नवमिं च। छढेि च चउत्थिं वा-रसिं च सेसासु देजाहि॥३४०७।। सुबोधा। ऋक्षद्वारमाह-- मियसिरअद्दा पुस्से, तिन्नि य पुवाई मूलमस्सेसा। हत्थो चित्ता यतहा, दस विद्धिकराइँ नाणस्स॥३४०८।। संझागयं रविगयं, विड्डरं सेग्गहँ व विलंबं वा। राहुहयं गहभिण्णं, च वजए सत्त नक्खत्ते / / 3400 / / मृगशिरःप्रभृतिषु नक्षत्रेषु दद्यात् सामायिकम् / / संध्यागतादीनि तु वर्जयेत् / तत्र संध्यागतं यत्र रविः स्थास्यति। यत्र नक्षत्रे सूर्यस्तिष्ठति तरमाचतुर्दश पश्वदर्श वा नक्षत्र सन्ध्यागतम, इत्यन्ये / रविगतं यत्र रविस्तिष्ठति / पूर्वद्वारिकेषु नक्षत्रेषु पूर्वदिशागन्तव्येऽपरया गच्छतो विड्डरग, 'सेग्गह' चग्रहाधिष्ठितम्, विलम्बियद भास्वतापरिभुज्य मुक्तम्, राहुगत यत्र ग्रहणमभूदिति / गृहभिन्न ग्रहविदारितमिति। गुणसम्पद्वारमाहपियधम्मो दढधम्मो, संविग्गोऽवज्जभीरु असढो य। खंतो दंतो गुत्तो, थिरव्वय जिइंदिओ उज्जू॥३४१०।। असढो तुलासमाणो, समिओ तह साहुसंगइरओ य। गुणसंपओववीओ,जुग्गो सेसो अजुग्गो य॥३४११॥ सुगमे। अथाष्टममभिव्यवहारनयमाहनेओऽभिव्वाहारो-ऽभिव्वाहरणमहमस्स साहुस्स। इयमुद्दिस्सामि सुत्त-त्थोभयओ कालियसुयम्मि॥३४१२|| गुणदव्वपज्जवेहिं, भूयावायम्मि गुरुसमाइटे। वे उद्दिद्वमियं मे, इच्छामणुसासणं सीसो // 3413 / / अभिव्याहरणमभिव्याहारः सामायिकश्रुतोद्देशादिविषयों गुरुशिष्ययोरुक्तिप्रत्युक्तिविशेषो ज्ञेयः, तद्यथा-अहमस्य साधोः कालिक श्रुतं इदमड़ श्रुतस्कन्धमध्ययनमुद्देशकं वा सविस्सामि, वाचयामि / कथम्? इत्याह- सूत्रतः, अर्थतः, तदुभयतशति / इह च सूचनात् सूत्रस्य, इयं भावना द्रष्टव्या-इदमङ्गादिक ममोदिशत, इति शिष्यणोक्ते गुरुर्वदति-उदिशामि, ततः शिष्यो भणति- 'संदिशत किं भणामि? गुरुराह-वन्दित्वा प्रवेदय, ततः शिष्यो वनभवद्धिर्मभेदमादिक मुपदिष्टम् / गुरुराह-उद्दिष्टं क्षमा-श्रमणानां हस्तेन सुत्रेण, अर्थेन,तदुभयेन च। ततः शिष्य आह-इच्छामोऽनुशास्तिम्। ततश्च गुरुराह-'सम्यग योगः कर्तव्यः' इति / अत्रेच्छाकारक्षमा श्रमणदानप्रतिपातकायोत्सर्गकरणादिकः शेषो विधिः स्वयमेव द्रष्टव्यः / समुद्देशाऽनुज्ञयारण्ययमेव विधिः, नवरं तयोर्यथा संख्य सम्यग् धारय अन्येषां च प्रवेदय, इति गुरुवचनं द्रष्टव्यमिति / भूतवादो--दृष्टिवादः, तत्राप्ययमेवोद्देशादिविधिः, केवलं द्रव्येण, गुणः पर्यायैश्व उद्दिष्टमिदम्' इति गुरुःरामादिशति / एवं च गुरुसमादिष्टे शिष्यो वदति - उद्दिष्टमिदं में, इच्छाम्यनुशास्तिम इत्यादीति / तदेवं व्याख्यातोऽभिव्याहारनयः, दिव्याख्याने चव्याख्याता आलोयणाय विणए' इत्यादि प्रतिद्वार-गाथा / अथ मूलद्वारगाथायां यदुक्तम्- 'करणम् कतिविधम?' इ'ते, तत्राहकरणं तव्वावारो, गुरुसीसाणं चउव्विहं तं च। उद्देसो वायणिआ, तहा समुद्देसणमणुन्ना।।३४१४।। गुरुशिष्या स्तद्विपयः- सामायिक विषयो व्यापारः करणम् , स च गुरुशिष्ययो स्तव्यापार श्चतुर्विधः, तच्चात् विध्यात तत्स्वरूप करणमपि चतुर्विधम् , तद्यथा-वाचयामि इ Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 751 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय ति-गुरुप्रतिज्ञारूप उद्देशः, ततस्तत्प्रदत्तैव सूत्रस्य परिपाटीरूपा वाचना, नया, समुद्देशः अनुज्ञा चेति। ___ अत्राक्षेपपरिहारावाहनणु भणियमणेगविहं, पुव्वं करणमिह किं पुणो गहणं / तं पुव्वगहियकरणं, इदमिह दाणग्गहणकाले // 3415 / / ननु पूर्व नामादिभेदतोऽनेकविधं करणमुक्तम्, इह कि पुनरपि भेदकथनगर्भ करणग़हणम्? अत्रोच्यते-तत प्रागुक्तं पूर्वगृहीतस्य दानग्रहणकालादुत्तीर्णस्य सामायिकस्य सिद्ध करणमुक्तम, इदं त्विह गुरु-शिष्योर्दानग्रहणकाले उद्देशादिविधिना साध्यं करणमुच्यत इति विशेषः। विशेषान्तरमाहपुव्वमविसेसियं वा, इह गुरुसीसकिरिया विसेसाओ। करणावसरो वायं,णेगं तत्थं तु वच्चामो / / 3416 / / अथवा--पूर्वमविशेषितं करणमुक्तम्, इह तु तदेव गुरुशिष्या-- वितक्रियाविशेषाद विशेषितमुच्यते / अथवा-अयमेव गुरुशिष्यावितप्रत्य क्तिकाले सामायिक करणस्य भणनावसरः / तत्र तर्हि किमित्युक्तम्? इति चेत्। उच्यते-अनेकान्तार्थ व्यत्यासोऽस्थानभणनम्। न ह्ययं नियमो यदन्यत्र वक्तव्यं तदव नोच्यते विचित्रा ध भगवतः स्त्रस्य कृतिरिति / गत करणं कतिविधम्? इति द्वारम्। इदानों 'कथम्? इति द्वारमभिधित्सुराहलब्भइ कह ति भणिए, सुयसामइयं जहा नमोक्कारो। सेसाइँ तदावरण-क्खयओ समओ हवो भयओ / / 3417 / / कथं सामायिक लभ्यते? इति भणिते सत्युच्यते- श्रुतसामायिकं तावद यथा नमस्कारः पूर्वमुक्तस्तथा लभ्यते, नमस्कारस्यापि श्रुतान्तर्गतत्वात्। नमस्कारलाभश्च पूर्वमित्थमुक्तः''मइ सुयनाणावरणं, दसणमोहं च तदुवघाईणि। तप्फड्डयाइँ दुविहा-इसव्वदेसोवधाईणि / / 1 / / सब्वेसु सव्वघाइसु. हएसु देसोवधाइयाणं च / भाएहि मुंघमाणो, समए समए अणतेहिं / / 2 / / पढम लहइ नकार, इक्किक्क वण्णमेवमण्ण पि। कमसो विसुज्झमाणो, लहइ समत्तं नमोकारं / / 3 / / " इह च सम्यग्दृशामेव नमस्कारो भवतीत्येतावन्मात्रेणेव दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशम उक्तः। मुख्यवृत्त्या तु नमस्कारस्य श्रुतरूपत्वात, तदावरणक्षयोपशमादेवासौ लभ्यत इत्युक्तं द्रष्टव्यमा एवं श्रुतसामायिकमपि मति-श्रुतक्षयोपशमाल्लभ्यत इति दृश्यम्। शेषाणि तुसम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिसामायिकानि तदावरणस्य यथासम्भवं क्षयतःशमतः उपशमत इत्यर्थः / अथवा-उभयतः क्षयोपशमाद् भवन्तीति द्रष्टव्यमिति। अत्राक्षेपपरिहारावाहनणु भणियमुवक्कमया, खओवसमओ पुणो उवग्धाए। लब्भइ कह ति भणियं, इह कह का पुणो पुच्छा // 3418 // / आह ननु पूर्वमत्रेवोपक्रमतोपक्रमप्रस्तावे'भावे खऔवसभिएदुवालसंग पि होइ सुयनाणं / ' तथा-'बीयकसायाणुदए, अप्पच्च-क्खाणनामधिजाण / ' तथा- 'तइयकसायाणुदए पञ्चक्खाणावरणनामधिजाणं / दरिझदसविरई। तथा-बारसविहे कसाए,खविए उवसामिए वजोएहि / लब्भइ 'चरित्तलंभो' इत्यादि वचनात, तदावरणस्य क्षयोपशमात् क्षयादिभ्यश्च सम्यक्त्वादिसामायिकानि लभ्यन्त इति भणितम, पुनरपि चोपोदधाते 'किं कइविहं' इत्यादि-गाथायां 'कथं सामायिक लभ्यते? मानुष्यादिभ्यः' इति भणितम्, ततश्वेह 'कथं सामायिक लभ्यते' इति का पुनः पृच्छा? पुनरुक्तत्वाद् नेयमिह युज्यत इति भावः / परिहारमाहभणिए खओवसमओ, स एव लब्भइ कहमुवग्धाए। सो चेव खओवसमओ, इह के सिं होज कम्माणं // 3416 / / 'भावे खओवसमिए' इत्यादिनोपक्रमे 'क्षयोपशमादिहेतोः, सामायिक लभ्यते?' इति भणिते पुनरुपोद्धाते स एव क्षयोपशमादिहेतुः कथं लभ्यते 'मानुष्यादिसामग्रीतः' इत्युक्तम् / इह तु स एव क्षयोपशमादिः केषां कर्मणां भवेत? इति विचिन्त्यत इति स्थानत्रयभणनस्यापि विषयविभाग इति तदेवं व्याख्यातं कृता-कृतादिद्वारैः करणम्। अथ करामि भदन्त ! सामायिकम्' इत्यत्र विनेयपृ-- च्छमाशङ्कयोत्तरमाहको कारओ करितो, किं कम्मं जंतु कीरई तेणं / किं कारओ य करणं, च होइ अन्नं अणन्नं ते? ||3420 / / कोऽत्र लाक्त कारक:? इति कथ्यताम्। सूरिराह- स्वतन्त्रत्वात् कुर्वन सामायिकस्य का / कर्म तर्हि किमत्र? इत्याह-यत् तेन / क्रियते / तुशब्दात-किं करणम् ? उच्यते-मनःप्रभृति। एवमुक्ते सत्याह-ते-तव सूरे ! किं कारक: करणं च, चशब्दात्-कर्म चेत्येतत त्रयं परस्परमन्यद् भिन्नम, अनन्यद वा--अभिन्नं भवति? इति। एतदेव विवृण्वन्नाह-- को कारउ त्ति भणिए, होइ करेंतो त्ति भण्णइ गुरुणा। किं कम्मं ति य भणिए, भण्णइ जं कीरए तेणं / / 3421 / / गातार्था / अत्र'का कारकः? इत्यादित एव प्रश्रमक्षममाणः परस्तावदाहकेण कयं ति य कत्ता,नणु भणियं तत्थ का पुणो पुच्छा? तविवरणं चिय इम, केणं ति व होज मा करणं // 3422 / / आह.-ननु 'कथाकयं' इत्यादिगाथायां 'केन कृतम्' इति द्वितीयद्वारे 'कर्ता' इति भणितमेव, तत्र का पुनरपीह कर्तुः पृच्छा? सत्यम्, केन कृतम इत्यत्र करि करणे च तृतीया सम्भवति, अत--स्तद्विवरणमेवेदम्केन इति--अत्र कर्तरि तृतीया मा भूत करण–मिति। अथवा, तेष्वेव कृताकृतादिद्वारेषु सामायिकरय कर्तारं कर्मकरणभावं च श्रुत्वा कुलालघटदण्डानामिव प्रस्तुते कर्तृकर्मकरणानां प्रविभागमपश्यन् पृच्छति--कः कारकः सामायिकस्य? इत्यत्रोत्तरं कुर्वन्नयमस्य कारकः, कि पुनः कर्म? इतयत्रोत्तरम्-यत तेन का क्रियते, तुशब्दाद्मनःप्रभृतिकरणं च द्रष्टव्यम्। एतदेवाहअहवा कयाकयाइसु, कत्तारं कम्मकरणभावं च / Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 752 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय साणाइयस्स सोउं, कुलालघडदण्डमाणं व // 3423 / / पविभागमपेच्छंतो, पुच्छइ को कारओ करें तोऽयं / किं कम्मं जं कीरइ, तो तेण सद्देण करणं च // 3424 / / द्वे अपि गतार्थे / अत्राक्षेपमाहकिं कारओ य करणं, च होइ कम्मं च ते चसद्दाओ। अन्नमणन्नं भण्णइ, किंचाह न सव्वहा जुत्तं / / 3425 / / कारकः करणं चशब्दात् कर्म च 'ते' तव सूरे ! परस्परं किमन्यद भिन्नम, अनन्यदभिन्नमिति? भण्यतेऽत्रोत्तरम्-कि चातः? किमनेन तव पृष्टन? इति / अत्राह परः-अन्यत्वमनन्यत्वं वेति, द्वयोरेकमपि सर्वथा न युक्तमिति। अवान्यत्वे तावददूषणमाहअन्नत्ते समभावा-भावाओ तप्पओयणाभावो। पावइ मिच्छस्स व से, सम्मामिच्छाऽविसेसोऽयं / / 3426 / / / कर्मभूतस्य सामायिकस्य कर्तुर्जीवादन्यत्वे मिथ्यादृष्टेरिव 'से' तस्य कर्तृजीवस्य सामायिकजन्यसमभावाभाव एव स्यात्,अन्यायाविशेषात् / ततश्च तत्प्रयोजनभूतस्य मोक्षसुखस्याभाव एव प्राप्नोति / अपरं चअयं कृतसामायिकः सम्यग्दृष्टिः, अयं तु मिथ्यादृष्टिः, इत्ययमविशेष एव स्यात्, उभयोरपि सामायिकरयान्यत्वाविशेषादिति। पर एवाचार्यमाशङ्कतेअहवा मइमिन्नेण वि, धणेण सधणो त्ति होइ ववएसो। सधणो य धणाभागी, जह तह सामाइयस्सामी॥३४२७॥ अथवा-अत्र सूरे ! तवेयं मतिः स्यात्, भिन्नेनापि धनेन सधनः' इति व्यपदेशो लोके भवति,अपरं चासो सधनो धनाभागी धनफलभोवता यथा दृश्यते तथा भिन्नस्यापि सामायिकस्य स्वामी सामायिकवास्तत्फलभोक्ता भविष्यति, न्यायस्य समानत्वादिति / तदेतत्परः परिहरतितं न जओ जीवगुणो, सामइयं तेण विफलया तस्स। णन्नत्तणओ जुत्ता, परसामइयस्स वाऽफलया।॥३४२८|| तदेतत् सूरे ! त्वदुक्तं न, यतो जीवगुणः सामायिकम, तेन जीव / गुणस्य साभायिकस्य गुणिनो जीवादन्यत्वे विफलतानिष्फलत! युक्ता, धन तु धनिनो गुणो न भवति, तेन तस्य भिन्नस्यापि सफलताऽस्विति भावः / यथा परसामायिकस्य विवक्षितजीवमपेक्ष्यान्यन्वादफलतेति / अपि चजइ भिन्नं तब्भावे, वि तओ (सो) तस्स भावरहिओ त्ति। अन्नाणी चिय निच, अंधोवसमं पईवेण // 3426 / / यदि कर्तुर्जीवादभिन्न सामायिकम, तदा तदभावेऽपि भिन्नसम्यक्त्वादिसामायिकप्रस्तावेऽपि तकोऽसो कर्तृजीवस्तल्स्वभावरहितः सभ्यक्त्वादिसामायिकस्वभावरहित इति वृत्वाऽज्ञान्येव स्यात. यथा भिन्न प्रदीपेन समं वर्तमानोऽपि स्वस्वभावभूतचक्षुर्विकलोऽन्ध इति। अथानन्यत्वपक्ष दूषयन्नाह एगत्ते तन्नासे, नासो जीवस्स संभवे भवणं। कारगसंकरदोसा, तदिक्कया कप्पणा वावि॥३४३०।। सामायिकतद्वतोरकत्वेगऽनन्यत्वे तन्नाशेसामायिकनाशे समायिकवतो जीवस्यापि नाशः प्राप्नोति, घटस्वरूपनाशे घटस्येव संभवेवोत्पत्ती वा सामायिकस्य , जीवस्यापि भवनमुत्पत्तिमत्त्वं स्यात् / न च तस्य तदिष्यते, नित्यत्वात्. तथा-कर्तृकर्मकरणकारकाणां संकरदोषः, तदेकता वा स्यात, कल्पनामात्ररूपता वा कारकाणां भवेदिति। अत्राचार्य उत्तरमाहआया हु कारओ मे,सामाइयकम्म करणमाया या तम्हा आया सामा-इयं च परिणामओ इक्कं / / 3431 // आत्मैव तावत् सामायिकस्य कारकः कर्ता मे-मम, सामायिकमेव क्रियभाणत्वात् कर्म सामायिककर्म तदप्यात्मैव न पुनरतद्वयतिरि-- क्तमन्यत् किञ्चिदिति, चशब्दाद-मनःप्रभृतिकं करणभप्यात्मैव / तस्मादात्मा सामायिकं चशब्दात्-करणं चेति त्रितयमप्यतदेकमेव / कथम? परिणामतः आत्मपरिणामरूपत्वात् / नहि सामायिक मनःप्रभृतिकरणं वात्मपरिणामरूपत्वमतिक्रम्य वर्तते / अतस्त्रितयमपि परिणाम रूपतयेकमेवेदमिति। एतदेव व्याचिख्यासुराहजं नाणाइसभावं,सामइयं जोगमाह करणं च। उभयं च सपरिणामो, परिणामाणन्नया जं च / / 3432 / / यस्मात साभाथिकं सामान्येन ज्ञानदर्शनचारित्रस्वभावम, करणापि मनःप्रभृतिक योगमाह परमगुरुः, उभयं चैतदात्मनः स्वपरिणामः, परिणामतद्वतोश्च यस्मादनन्यरूपतैवेति। ततः किम्? इत्याहतेणाया सामइयं, करणं च चसद्दओ न भिन्नाई। नणु भणियमणण्णत्ते, तन्नासे जीवनासो त्ति॥३४३३।। तेन तस्मादात्मा सामायिकम्, चशब्दात्-करणं च मनःप्रभृति, न परस्परमेतानि भिन्नानि / आह-नन्वेवमनन्यत्वे 'तन्नाशे जीवनाशः' इत्यादिक दूषण भणितमेवेति। अत्र सूरिराहजइ तप्पञ्जयनासो, को दोसो होइ सव्वहा नत्थि। जं सो उप्पायव्वय-धुवधम्माणंतपञ्जाओ॥३४३४।। स चासौ सामायिकादिरूपः पर्यायश्च तत्पर्यायः- तत्पर्यायेण तत्पर्यायरूपेण नाशो जीवस्य तत्पर्यायनाशो यदि भवति, तदा भवतु नाम, को दोषः? यस्तु पर्यायविनाशे जीवस्य सर्वथा नाशः स नारित नेष्यते, यस्मादसी जीव उत्पादव्ययध्रौव्यधर्माऽनन्तपर्यायः / ततश्चैकस्य सामायिकादिपर्यायस्य नाशेऽपि कथं तस्य सर्वथा नाशः, शेषानन्तपर्यायैर्विशिष्टस्य तस्य सर्वदाऽवस्थानात् इति। न केवलमात्मा, किन्तु सर्वमपि वस्तु जैनानामुत्पादव्ययन्त्यितास्वरूपमेवेति दर्शयन्नाहसव्वं चिय पइसमयं, उप्पज्जइ नासए य निचं च। Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 753 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय एवं चेव य सुह दु-क्ख बंधमोक्खाइसब्भावो // 3435 / / प्रागसकृद् भावितार्थवेति! यदप्युक्तम् कारकैकत्वम् कारकैकता प्राप्नोति, अत्राप्याहएक चेव य वत्थु, परिणामवसेण कारगंतरयं / पावइ तेणादोसो, विवक्खया कारगं जं च // 3436|| एकमेव हि वस्तु परिणामवशेन कारकान्तरतां प्राप्नोति। तथाहि-एक एव देवदत्तः कटादिकर्तृत्वेन परिणतः कतो, स एव यज्ञदत्तादिप्रयोजककरणतया परिणतत्वात करणम्, दिदृक्षूणां दृश्यमानतया परिणतत्वात् कर्म, ताम्बूलादिदानग्रहणतया परिणतत्वात् सम्प्रदानम्, स एव निष्पन्नकटस्य मोचनेन परिणतत्वादपादानम्, कटक्रियाधारत्वेन च परिणतत्वादधिकरणमिति / एवमन्यत्रापि भावनीयम् / तेन कारकसंकरादिको न दोषः, विवक्षातश्च यस्मात्कारकाणि भवन्ति, तस्मात कल्पनायामप्यदोष एवेति। तथाहिकुंभो विसिज्जमाणो, कत्ता कम्मं स एव करणं च / नाणाकारयभावं, लहइ जहेगो विवक्खाए / / 3437 / / जह वा नाणाणन्नो,नाणी नियओवओगकालम्मि। एगो वि तिस्सहावो, सामाइयकारओ एवं // 3438 // कुम्भो विशीर्यमाणो विशरणक्रियायाः कर्तृत्वेन विवक्षितः कर्ता भवति। स एव च विशरणक्रियाव्याप्यत्वेन विवक्ष्यमाणः कर्म सम्पद्यते, तेन घटपर्यायेण कृत्वा विशीर्यते, इति करणत्वेन विवक्ष्यमाणः स एव करणं संज्ञायते / एवं यर्थकोऽपि पदार्थो विवक्षया नानाकारकभावं लभते, यथा वा मत्यादिज्ञानादनन्योऽमिन्नो ज्ञानीजीवो निजकात्मविषयः स्वसंवेदनरूरो य उपयोगस्तत्काल एकोऽपि त्रिस्वभावो भवति; तथाहि स्वोपयोग उपयुज्यमानाऽसौ कर्ता भवति, संवेद्यमानत्वेनतुकर्म, करणभृतज्ञानानन्यत्वाच्च करणमिति / एवं सामायिककारक एकोऽपि विवक्षया कर्तृकर्मकरणन्वभावो द्रष्टव्य इति। तदेव करणं व्याख्यातम्, तद्व्याख्याने च 'करोमि' इति सामायिकस्य प्रथमावयवो व्याख्यातः। विशे० आ० म० / आ० / आव०॥ अट्ठण्हं पयडीणं, उक्कोसठिईउ वट्टमाणो उ। जीवो न लहइ सामा-इयं चउण्हं पि एगयरं / / 10 / / सत्तण्हं पयडीणं, अभिंतरओ उ कोडिकोडीणं / काऊण सागराणं, जइ लहइ चउण्हमण्णयरं / / 106 / / प्रथमगाथा व्याख्या-अष्टानाम् इति--संख्या, कासाम्? ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीनाम्, उत्कृष्टा चासौ स्थितिश्वोत्कृष्टस्थितिः तस्या वर्तमानो भवन जीव:- आत्मा न लभते-न प्राप्नोति, किं तत्?सामायिकंपूर्वव्याख्यातम्, किं विशिष्टम्?-चतुर्णामपिसम्यक्त्वश्रुतदेशविरत्सिर्वविरतिरूपाणाम् एकतरम्-- अन्यतमत इति यावत्, अपिशब्दात् मत्यादि च, न केवलं न लमते, पूर्वप्रति पन्नोऽपि न भवति, यतोऽवातसम्यक्त्वो हि न पुनस्तत्परित्यागेऽपि ग्रन्थिमुल्लङ्घय उत्कृष्टस्थितीः कर्मप्रकृतीः बध्नाति, आयुष्कोत्कृष्टस्थितौ पुनर्वर्तमानः पूर्वप्रतिपन्नको भवति, अनुत्तरविमानोपपातकाले देवो, नतु प्रतिपद्यमानक इति। तुशब्दाद् जघन्यस्थिती च वर्त्तमानः पूर्वप्रतिपन्नत्वान्न लभते, आयुष्कजघन्यस्थितौ चव वर्तमानो न पूर्वप्रतिपन्नो नापि प्रतिपहामानकः, जघन्यायुष्करय क्षुल्लकभवग्रहणाधारत्वात्, तस्य च वनस्पतिषु भावात्, तत्र च पूर्वप्रतिपन्नप्रति-पद्यमानकाभावात्, प्रकृतीनां च उत्कृष्टतरभेदभिन्ना खल्वियं स्थितिः-आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपभकोटीकोट्यः परास्थितिः सप्ततिर्मोहनीयस्य, नामगोत्रयोर्विशतिः, त्रयस्त्रिंशत्साग-रोपमाण्यायुष्कस्य,इति, जघन्या तु द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य, नाम-गोत्रयोरष्टौ, शेषाणामन्तर्मुहूर्त (तत्त्वार्थ अ०८ सूत्राणि 15-16-17-18-16-20-21) इतिगाथार्थः। आहकिमेतायुगपदेव उत्कृष्टां स्थितिमासादयन्ति उत एकस्यामुत्कृष्टस्थितिरूपाया सजातायामन्या अपि नियमतो भवन्ति, आहोस्विदन्यथा वा वैचित्र्यमत्रेति / उच्यते-अत्र विधिरिति, मोहनीयस्य उत्कृष्टस्थिती शेषाणामपि षण्णामुत्कृष्टव, आयुष्कप्रकृतेस्तु उत्कृष्टा वा मध्यमावा, न तु जघन्येति / मोहनीयरहिताना तु शेषप्रकृतीनामन्यतमाया उत्कुष्टस्थितेः सद्भावे मोहनीयस्य शेषाणां च उत्कृष्टा वा मध्यमा वा, न तु जघन्येति प्रासङ्गिकम् / द्वितीयगाथाव्याख्यासप्तानामायुष्करहितानां कर्मप्रकृतीना या पर्यन्तवर्तिनी स्थितिस्तामङ्गीकृत्य सागरोपमाणां कोटीकोटी, तस्याः कोटीकोट्या अभ्यन्तरत एव तुशब्दोऽवधारणार्थः, कृत्वाऽऽत्मानमिति गम्यते यदि लभते-यदि प्राप्नोति, चतुर्गा श्रुतसामायिकादीनामन्यतरत्, तत एव लभते नान्यथेति। पाठान्तरं वा कृत्वा सागरोपमा स्थितिं लभते चतुर्णामन्यतरत् इत्यक्षरगमनिका। अवयवार्थोऽभिधीयतेसप्ताना प्रकृतीना यदा पर्यन्तवर्तिनी सागरोपमकोटीकोटी पल्योपमासङ्ख्येयभागहीना भवति, तदा घनरागद्वेषपरिणामो-इत्यन्तदुर्भयदारुग्रन्थिवत् कर्मग्रन्थिर्मवतीति / आह चभाष्यकार:- "गठि त्ति सुदुबभेओ, कक्खडघणरूढगूढगठि व्व। जीवरस कम्मजणिओ, घणरागद्दोसपरिणामो // 1 // " इत्यादि,तस्मिन् भिन्ने सम्यक्त्वादिलाभ उपजायते, नान्यथेति, तद्भेदश्च मनोविघातपरिश्रमादिभिः दुस्साध्यो वर्तते। तथाहि-स जीवः कर्मरिपुमध्यगतः तं प्राप्य अतीव परिश्राम्यति, प्रभूतकारातिसैन्यान्तकृत्त्वेन संजातखेदत्वात्. संग्रामशिरसीव दुर्जयापाकृतानेकशत्रुनरनरेन्द्रभटवत्। अपरस्त्वाह--कि तेन भिन्ने न? किंवा सम्यक्त्वादिनाऽवाप्लेन? यथाऽतिदीर्घा कर्मस्थितिः सम्यक्त्वादिगुणरहितेनैव क्षपिता, एवं कर्मशेषमपि गुणरहित एव क्षपयित्वा विवक्षितफलभाग भवतु। अत्रोच्यते-स हि तस्यामवस्थायां वर्तमानोऽनासादितगुणान्तरोन शेषक्षपणया विशिष्टफलप्रसाधनायालम, चित्तविधातादिप्रचुरविघ्नत्वात् विशिष्टाप्राप्तपूर्वफलप्राप्त्यासन्नत्दात प्रागभ्यस्तक्रियया तस्यावाप्तुमशक्यत्वाच्च / अनेकसंवत्सरानुपालिता चाम्लादिपुरश्चरणक्रियासादित गुणान्तरोत्तरसहायक्रियारहितविद्यासाधक-वत्तथा चाह- भाष्यकार:- "पाएणपुव्वसेवा, परिमउईसाहणम्मिगु Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 754 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय रुतरिआ / होति महाविज्जाए, किरिया पाय सविग्या य / / 1 / ! तह कम्मठिती खवणे, परिमउई मोवखसाहणे गरुई। इह दसणादिकिरिया, दुलभापाय सविग्घा य // 2 // ' अथवा–यत एव बही कर्मस्थितिरनन उन्मूलिता, अत एकापचीयमानदोषस्य सम्यक्त्वादिगुणलाभः संजायते, निश्शेषकर्मपरिक्षये सिद्धत्ववत. तत एव च मोक्ष इति, अता न शपमपि कर्मगुणरहित एवापाकृत्य मोक्ष प्रसाधयतीति स्थितम / आव० 10 // (भदन्तशब्दव्याख्या 'भेदत' शब्दे पञ्चमभागे उक्ता।) सामायिकशब्दार्थः पूर्व व्याख्यातः। तस्य चेमे पर्यायाःसमया समत्त पस-त्थ संति सुविहिय सुहं अणिंदं च / अदुगुं-- छियम (ण)गरहिय-मणवजमिमे वि एगट्ठा / / 1033 / / आव० १अग (एषा स्वस्वस्थाने व्याख्या ) (अनन्तशब्दव्याख्या 'अंत' शब्दे प्रथमभागे 54 पृष्ठ उक्त / ) (सर्वशब्दार्थः 'सत्य' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) (साबद्यपदार्थः 'सावज' शब्देऽस्मिन्नेव भाग वक्ष्यते।) अथ सर्वादिपदानां क्रियया सह संबन्ध कुर्वन्नाहसव्वो सावज्जो त्ति य, जोगो संबज्झए तयं सव्वं / सावजं जोगं ति य, पच्चक्खामि ति वजेमि।।३५००।। सर्वो --निरवशेषः सावद्ययोग इति संबध्यते तं सर्व सावधयोग प्रत्याख्यामीति क्रिया प्रत्याचक्षे वा वर्जयामीत्यर्थः / इह प्रत्याख्यामि प्रत्याचक्षे चेति क्रियाद्वयेऽपि सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यान गम्यतं , अतस्तदेव प्रत्याख्यानं व्याचिख्यासुराहपइसद्दो पडिसेहे, अक्खाणं खावणाऽभिहाणं वा। पडिसेहस्सक्खाणं, पचक्खाणं निवित्ति त्ति।।३५०१।। प्रतिशब्दोऽत्र प्रतिषधे वर्तते, आख्यान स्वाभिमुख्यन वाऽऽदरेण वा ख्यापना-प्रकथनं चक्षिपक्षे ऽभिधानं वा, प्रतिष धरधाख्यान प्रत्याख्यान-निवृत्तिः इति / विशेष (76) सांप्रत कण्ठतः स्वयमेव चालना प्रतिपादयन्नाहको कारओ? करंतो, किं कम्मं? जंतु कीरई तेण / किं कारयकरणाण य, अन्नमणन्नं च? अक्खेवो // 1034 / / इह 'करोमि भदन्त ! सामायिकम्' इत्यत्र कर्तृकर्मकरणव्यवर या ववराव्या, यथा-करामि राजन ! घटमित्युक्तं कुलालः कर्ता घरः एव कर्मदाडादिकरणमिति, एवमत्र कः कारक: कुलालसंस्थानीयः? इन्यत आह-'करेंता' त्ति-तत् कुर्वन्नात्मैव, अथ किं कर्म घटादिसंस्थानीया? इत्यत्राऽऽह--यत्तु क्रियते-निर्वय॑ततेन-कळतच तदगुणरूप सामायि - कमव, तुशब्दः करणप्रश्रनिर्व-चनसंग्रहार्थः, यथा कर्म निर्दिष्टमेवं कि करणमित्युद्देशादिचतुर्वि-धमिति निर्वचनम्, एवं व्यवस्थिते सत्याह'किं कारगकरणाण यत्ति-किं कारककरणयोः? चशब्दात- कर्मणश्व परस्परतः कुलालघटदण्डादीनामिवान्यत्वम, आहाश्विदनन्यत्वमेवेति? उभयथाऽपि दोषः, कथम्? अन्यत्वे सामायिकवतोऽपि तत्फलस्य मोक्षस्याभावः, तदन्यत्वाद्, मिथ्यादृष्टरिव, अनन्यत्वे तु तस्योत्पत्तिविनाशाभ्यामात्मनोऽप्युत्पतिविनाशप्रसङ्ग इति, अनिष्ट चैतत. तस्या नादिमत्त्वाभ्युपगमादित्याक्षेपश्चालनेति गाथार्थः / विजृम्भितं चात्र भाष्यकारण-- ''अन्नत्ते समभावा-भावाओ तप्पओयणाभावो / पावइ मिच्छरस व से, सम्मामिच्छाऽविसेसोय।।१।। अह व मईभिन्नण वि, धणेण सधणो त्ति होइ ववएसो। सधणो य धणाभागी, जह तह सामाइयस्सामी / / 2 / / तण जओ जीवगुणो, सामइयं तेण विफलता तरस। अन्नत्तणओं जुत्ता, परसाभइयस्स वा वाऽफलता।।३।। जइ भिन्न तब्भावे-ऽवि नो तओ तस्सभावरहिओ त्ति। अण्णाणिसिय णिवा, अंधो व समं पईवण // 4 // एगत्ते तन्नासे, नासो जीवस्स संभवे भवण। कारगसंकरदोसो, तदेकयाकप्पणा वायि / / 5 / / " इत्यादि, इत्थं चालनामभिधायाधुना प्रत्यवस्थानं प्रतिपादयन्नाहआया हु कारओ मे, सामाइय कम्म करणमाया य। परिणामे सइ आया, सामाइयमेव उ पसिद्धि // 1035 / / इहाऽत्मैव कारको मम, तस्य स्वातन्त्र्येण प्रवृत्तेः, ता-सामायिक कर्म तद्गुणत्वात्,करण चोद्देशादिलक्षणं तत्क्रियत्वादात्नेव, तथाऽपि यथोक्तदोषाणामसम्भव एव, कुत इत्याह-यस्मात परिणामे सत्यात्मा सामायिक, परिणभनं-परिणामः कथञ्चित् पूर्वरूपापरित्यागेनोत्तररूपापत्तिरिति, उक्तं च- 'नार्थान्तरगमो यस्मात्, सर्वथैव न चाऽगमः / परिणामः प्रमासिद्धे, इष्टश्च खलु पण्डितैः / / 1 / / ' इत्यादि, तस्मिन परिणामे सति / अयमत्र भावार्थ:-परिणामे सति तस्य नित्यानित्याद्यनेकरूपत्वाद् द्रव्यगुणपर्यायाणामपि भेदाभेदसिद्धेः, अन्यथा सकलसंध्यवहारोच्छेदप्रसङ्गाद, एकान्तपक्षेणान्यत्वानन्यत्वयोरनभ्युपगमाद, इत्थं चैकत्वानेकत्वपक्षयोः कर्तृकर्मकरणव्यवस्थासिद्धः, आत्माजीवः सामायिकमेव तु प्रसिद्धिः। तथाहि-नतदेकान्तेन अन्यत्। तद्-गुणत्वान्न चानन्य (त्त) द्गुणत्वादेवेति / इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम्, अन्यथा गुणगुणिनोरेकान्तभेदे विप्रकृष्टगुणमात्रोपलब्धा प्रतिनियतगुणिविषय एव संशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदावि शेषात, दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसररन्धोदरान्तरतः किमपि शुक्लं पश्यति तदा किमियं पताका किं वा बलाकेत्येवं प्रतिनियतगुणिविषय इति, अभेदपक्षे तु संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव तस्यापि गृहीतत्वादित्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः। भाष्यकारदूषणानि त्वमूनि"आयाहु कारओ मे, सामाइय कम्म करणभाआ य। तम्हा आया सामा-इयं च परिणामओ एवं / / 1 / / जणाणाइसहावं, सामाइयजोगमाइकरणं च। उभय च स परिणामो, परिणामाणण्णया जं च / / 2 / / तेणाया सामइयं करणं च चसद्दओ अभिण्णाई। णणु भणियमणण्णत्ते, तण्णासे जीवणासो ति।।३।। जइ तप्पजयनासो, को दोसो होउ? सव्वहा नत्थि। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 755 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय "ज सो उप्पायव्वय-धुवधम्माणतपजाओ ||4|| सव्वं चिय पइसमय, उप्पजइ णासए य णिचं च / एवं चेव रः सुहृदु-क्खबंधमोक्खाइसब्भावो / / 5 / / एग चेव य वत्थु, परिणामवसेण कारगंतरयं / पावइ तेणादोसो, विवक्खया कारग जं च / / 6 / / कुंभोऽवि नजमाणी, कत्ता कम्म स एव करणं च। णाणाकारगभावं, लहइ जहेगो विवक्खाए |7|| जह वा नाणाणण्णो, नाणी नियओवओगकालम्मि / एगोऽवि तस्सभावो, सामाइयकारगो चेवं ।।दा' साम्प्रतं परिणामपक्षे सत्येकत्वानेकत्वपक्षयोरवि रोधेन कर्तृकर्मकरणव्यवस्थामुपदर्शन्नाहएगत्ते जह मुडिं, करेइ अत्यंतरे घडाईणि / दव्वत्थंतरभावे, गुणस्स किं केण संबद्धं ?||1036 / / एकत्वे-कर्तृकर्मकरणाभेदे कर्तृकर्मकरणभावो दृष्टः, यथा-मुष्टिं करोति; अत्र देवदत्तः कर्ता, तद्धस्त एव कर्म, तस्यैव च प्रयत्नविशेषः करणमिति तथाऽर्थान्तरे-कर्तृकर्मकरणानां भेदे दृष्ट एव तद्भावः / तथा चाऽऽह-घटादीनि यथा करोतीति वर्तते / तत्रापि कुलालः कर्ता, घटः कर्म, दण्डादि करणमिति / इह च सामायिकं गुणो वर्तत, स च गुणिनः कथशिदेव भिन्न इति / विपक्षे बाधामुपदर्शयति द्रव्यात सकाशाद, गुणिन इत्यर्थः, एकान्तेनैवार्थान्तरभावभेदे सति, कस्य? गुणस्य, कि केन संबद्धमिति? न किञ्चित् केनचित् संबद्ध, ज्ञानादीनामपि गुण वात्तेषामपि चाऽऽत्मादिगुणिभ्य एकान्तभिन्नत्वात्, संवेदनाभावतः सर्वव्यवस्थानुपपत्तेरिति भावना / एवमेकान्तेनानन्तिरभावेऽपि दोषा अभ्यूह्या इति गाथार्थः / कण्ठतस्तावदुक्ते चालनाप्रत्यवस्थाने, अत एव चात्र पुनरुक्तदोषोऽपि नास्ति, अनुवादद्वारेण चालनाप्रत्यवस्थानप्रवृत्तेरित्यलं प्रसङ्गेन / ७७)अथौघ-भवजीवितयोविवरणमाहआउस्सद्दव्वतया,सामन्नं पाणधारणमिहोहो / भवजीवियं चउद्घा,नेरझ्याईण जावत्था / / 3512 / / आयुषः-आयुमात्ररूपस्य कर्मणः संबन्धीनि यानि सन्ति जीवस्य सतावतींनि द्रव्याणि तान्यायुःसद्व्याणि तद्भाव आयुःसद्दव्यता तया आयुः सद्रव्यतया संसारे परिभ्रमतो जीवस्य यत् सामान्य प्राणधारणं यदाश्रित्य सिद्धा एव मृता उच्यन्ते, न संसारिणः, तदिह संसारिणां जीवितसामान्यमात्ररूपमोघ ओघजीवितमुच्यत इति / भवन्ति प्राणिनोऽस्मिन्निति भवः-संसारस्तत्रावस्थिति हेतुभूत भवजीवित, तचतुर्धा / किं पुनस्तत्? इत्याह-नारकादीनां या जन्मनः प्रथम-समयाचरमसमयं यावदवस्थाऽवस्थितिरवस्थानां तद्धेतुत्वात् सा भवजीवितमिति। ___ तद्भवजीवितं भोगजीवितं चाहतब्भवजीवियमोरा-लियाण जं तब्भवोववन्नाणं / चक्कहराईणं भो--गजीवियं सुरवराणं च // 3513 / / पुनःपुनस्तत्रैव विवक्षिते भवे उत्पन्नास्तद्भवोत्पन्नास्तेषां तद्भवोत्प नानां यजीवितं तत्तद्भवजीवितमुच्यते। तचौदारिकशरीरिणां तिर्यगमनुष्याणामेवावगतन्तव्यम् / तत्रैकेन्द्रियाणा पुनः पुनस्तत्रैवैकेन्द्रियभव उत्पद्यमानानामनन्तानि भवग्रहणान्येतदुत्कृष्टतोऽवसेयम् / द्वीन्द्रियाणां तु संख्यातानि भवग्रहणानि / पञ्चेन्द्रियतिरश्वा मनुष्याणा च सप्ताष्टी वा भवग्रहणानीति मन्तव्यम्। जघन्यतस्तु सर्वत्र द्वे भवग्रहणे। वैक्रियशरीरिणां तु देवनारकाणामिद न संभवत्येव, पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्त्यभावादिति / चक्रधराऽऽदीनां तु भोगपुरुषाणां सुरवराणां च देवानां जीवितंभोगजीवितमिति / शेषजीवितानि तु त्रीण्याहसंजमजीवियमिसी-णं असंजमजीवियमविरयाणं / जसजीवियं जसोना-मओ जिणाईण लोगम्मि // 3514 / / पाठसिद्धा, नवरं 'इसीण' ति-ऋषीणाम् यतीनामिति / 'जसनामओ' त्ति-यशोनामकर्मोदयादित्यर्थः / नान्येषां मध्यात् किं जीवितमिहाधिकृतम्? इत्याहनरभवजीवियमहिगये , विसेसओ सेसयं जहाजोगं / जावजीवामि तयं, ता पचक्खामि सावज्जं // 3515|| भवजीवितरूपं नरभवजीवितं मनुष्यभवजीवितं विशेषतोऽत्राधिकृतम्, मनुष्याणामेव चारित्रसामायिकाधिकारात्, शेषं नामादिजीवित यथायोगं यद् यत्र युज्यते तत् तत्र योजनीयम् / ततश्च स एव मनुष्यः प्रतिजानीते-यावदनन नरभवजीवितेन जीवामि तावत तकं सावधयोग प्रत्याख्यामीति। अथवा-यावच्छब्दस्यार्थमाहजावदयं परिमाणे, मज्जायाएऽवधारणे चेइ / जावजीवं जीवण--परिमाण जत्तियम्मि त्ति // 3516 / / जावजीवमिहारे-ण मरणमजायओ न तं कालं। अवधारणे वि जाव-जीवणमेवेह न उ परओ // 3417 / / इह यावदयं शब्दस्त्रिष्वर्थेषु वर्तते; तद्यथा-परिमाणेमर्यादायाम, अवधारणे चेति / तत्र परिमाणार्थ तावदाह-यावज्जीवमिति / किमुक्तं भवति?-यावद मे जीवनपरिमाणमिहभवायुष्करय परिमाणं तावन्तं काल प्रत्याचक्ष इति / मर्यादार्थमाह--यावजीवमित्यादि / अत्र यावज्जीवमिति / किमुक्त भवति?-आरेण मरणमर्यादाया अर्वाक प्रत्याचक्षे, न पुनस्तत्कालं प्रत्याख्यानग्रहणकाल एव, किन्तु मरणसीमा यावत् प्रत्याख्यामीति / अवधारणेऽपि यावदिहभवजीवितं तावदेव प्रत्याचक्षे,न तु परतः, देवाद्यवस्थायामविरतत्वे प्रत्याख्यानभड़प्रसङ्गात् / 'परतो मुत्कलम्' इति विधिरपि न कर्त्तव्यः, भोगाशंसादोषानुषङ्गादिति रवयमेव द्रष्टव्यमिति / अत्राक्षेपपरिहारावाहजावजीवं पत्ते, जावज्जीवाएँ लिंगवच्चासो। भावप्पचयओ वा,जा जावज्जीवया ताए / / 3515 / / ननूक्तन्यायेन यावजीवमिति निर्देश प्राप्ते 'यावज्जीवया' इति निर्देशः किमर्थ भगवता सूत्रकृता विहितः?' इति शेषः / अत्र परिहारमाह-'लिंगवचासो' त्ति-लिङ्गव्यत्ययोऽत्र भ Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय गवतोऽभिमतः,तेनेत्थं निर्देशः कृत इत्यर्थः / अथवा-यावजीवशब्दाद् भावप्रत्यय उत्पाद्यते, ततश्चेत्थं भावप्रत्यये उत्पादिते या यावज्जीवता' इति निष्पद्यते, तया यावजीवतया प्रत्याख्यामि' इति संबध्यत इति। नन्वित्थमपि 'यावज्जीवतया' इति प्राप्ते ‘यावज्जीवया' इति कथं भवति? इत्याहजावजीवतया इति, जावजीवाएँ वण्णलोवाओ। जावजीवो जीसे, जावज्जीवाहवा सा उ॥३५१६।। 'यावज्जीवतया' इति निर्देशे प्राप्ते यत् 'यावज्जीवया' इत्युक्तम, तत | तकारलक्षणवर्णलोपादिति द्रष्टव्यम्। तृतीयं परिहारमाह। अथवा-जीवन जीवो यावजीवो यस्यां सा यावजीवेति बहुव्रीहि-स्तया यावजीवया इत्येव द्रष्टव्यमिति। अत्र विनेयपृच्छामुत्तरं चाऽऽहका पुण सा संबज्झइ,पचक्खाणकिरिया तया सव्वं / जावज्जीवाएऽहं पच्चक्खामीति सावजं // 3520 / / का पुनः पूर्वोक्तबहुबीहावन्यपदार्थे संबध्यते? इत्याह-- प्रत्या- 1 ख्यानक्रियेति / तया यावज्जीवया प्रत्याख्यानक्रियया सर्व सावधयोगमहं प्रत्याख्यामि' इति संबन्ध इति। परिहारान्तरमाह... जीवणमहवा जीवा, जावजीवा पुरा व सा नेया। तीए पाययवयणे, जावजीवाइतइएयं // 3521 / / अथवा-जीवन जीवेति स्त्रीलिङ्गाभिधायक एवायं शब्दः साध्यते, न तु जीव इति पुंलिङ्गाभिधायकः / ततश्च यथा पुरा-पूर्व तथाऽत्राप्यर्थत्रयवृत्तिना यावच्छब्देन सह समासे सा यावज्जीवा ज्ञेया, तद्यथायावत्परिमाणा जीवा यावजीवा, एवं मर्यायदाऽवधारणयोरपि समासः कार्यः, तया यावज्जीवया प्रत्याख्यामि: प्राकृतवचने च पर्यन्त एकारनिर्देशेन तृतीयेयमवर्सयेति। विशे०। तदेवं मनःप्रभृति त्रिविध करणं व्याख्याय प्रस्तुतयोजनामाहतेण तिविहेण मनसा, वाया काएण किं तयं तिविहं / पुव्वाहिगयं जोगं,न करेमिच्चाइ सावज्जं ||3526 / / तेन यथोक्तस्वरूपेण त्रिविर्धन करणेन-मनसा वाचा कायेन; मनोवाक-कायलक्षणेनेत्यर्थः / किम्? अत आह-तक पूर्वाधिकृतं त्रिविधं सावध योग न करोमीत्यादि सबध्यते-'नकरेमि,न कारवेगि, करत पि अण्ण ण समणुजाणमि इति संबध्यत इत्यर्थः। अथवा, अन्यथा संबन्धयन्नाहपुव्वं व जमुदिढ तिविहं तिविहेण तत्थ करणस्स। तिविहत्तण विवरीयं, मणेण वायाए कारणं // 3530 // तिविहमियाणिं जोगं,पचक्खेयमणुभासए सुत्तं / किं पुणरुक्कमिऊणं, जोगं करणस्स निद्देसो ?||3531 / / / तो व जहुद्देसं चिय, निद्देसो भण्णए निसामेहि। जोगस्स करणतंतो-वदरिसणत्थं विवज्जासो॥३५३२।। देसियमेवं जोगो, करणवसो निययमप्पहाणो त्ति। तब्भावे भावाओ, तदभावे वप्पभावाओ / / 3533 / / अथवा- पूर्व सूत्रे यदुद्दिष्ट 'त्रिविधं त्रिविधेन' इति, तत्र करणस्य त्रिविधत्वम- 'मणेणं, वायाए,काएण' इति सूत्रगतेनैवावयवेन विवृतं व्याख्यातमिति / इदानीं तु त्रिविधं प्रत्याख्येयं योग सूत्रमनुभाषतेविवृणोति-'न करेमि.न कारवेमि' इत्यादिनैव सूत्रावयवेन। अत्राह परः-- ननु गद्येवम्,तर्हि किं पुनः कारणम्, येन योगमुत्क्रम्यातिलय करणस्य प्रथम निर्देशः कृतः ? उद्देशकाले हि प्रथम 'त्रिविधम्' इत्युद्देशाद् योग एव प्रथममुद्विष्टः, तदनन्तरं 'त्रिविधेन' इत्यभिधानात् पश्चात् करणस्योद्देशःकृतः। एवं चसति 'यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायादिह निर्देशोऽपि प्रथमं योगस्य, पश्चात करणस्य प्राप्नोति, तद्यथा--- करेमि, न कारवेमि, करंत पि अण्णं ण समणुजाणामि मणेणं वायाए कारणं' इति। नचैवं निर्दिष्टम्, व्य-त्ययाभिधानादिति। 'तो' त्ति-ततो न यथोद्देशमेव निर्देशोऽत्र संजातः, तत् किमत्र कारणमिति वाच्यम्? गुरुराह --निशमयआकर्णयभण्यतेऽत्र कारणम्- करणादिलक्षणस्य योगस्य करणतन्त्रोपदर्शनार्थ मनोवाक-कायलक्षणकरणायत्ततोप-दर्शनार्थ-मय व्यत्यासः कृत इति। एतदेव भावयति-देशितमुपदिष्टमेवं व्यत्यासकरणेन भगवता सूत्रकृता-योऽयं करणकरणादिव्यापारलक्षणो योगः स मनःप्रभृतिकरणवशस्तदायत्त इति नियतम्-निश्चितं स्वयमप्रधानः, तद्भावेकरणभाव एव भावात, तदभावेऽपि च करणाभावेऽवश्यमभावादिति। किमिति योगः करणभाव एव भवति.तदभावे तु न भवति? इत्याहतस्स तदाधाराओ,तकारणओ य तप्परिणईओ। परिणतुरणत्थंतर-मावाओ करणमेव तओ // 3534 / / तस्य-योगस्य तदाधारत्वात्-करणाधारत्वात्,तथा तद्--मनःप्रभृति करणमेव कारण यस्य स तत्कारणस्तद्भावस्तत्त्वं तस्मात्,कारणत्वात् तस्य योगस्य,तथा-तत्परिणतित्वात्- करणपरिणतिरूपत्वात्तस्य,तथा,परिणन्तुः करणस्याऽ-नन्तरत्वादनन्यत्वात तस्य, यतः करणमेव तकोऽसो योगः, ततस्तदात्मकत्वात्तद्भाव एव भवति, तदभावे तु न भवति। आह-यद्येवम्, उद्देशोऽप्येवं करमाद् न कृतः? उच्यते-- योगस्यापि प्रत्याख्येयत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमिति / तदेवं योगस्य करणात्मकत्वं दर्शितम्। अथ करणयोगयोः पुनः समुदितयोर्जीवात्मकत्वं दर्शयन्नाहएत्तो चिय जीवस्स वि, तम्मयया करण-जोगपरिणामा। गम्मइ नयंतराओ, कयाइ समए जओऽभिहियं / / 3535 / / यत एव परिणस्तु : परिणामो ऽनन्तरमुक्तम , अत एव जीवस्यापि तन्मयता स्वपरिणामरूपक रण यो गात्मता ग Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 757 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय म्यते / कुन इत्याह- 'करणजोगपरिणाम' त्ति करणं च योगश्च करणयोगौ तौ परिणामः-स्वभावी यस्यासी करणयोगपरिणामस्तगावस्त्तत्त्वं तस्मात् करणयोगपरिणामत्वाजीवस्य / स हि करणयोगपरिणामेन परिणमति / परिणामश्च परिणन्तुरनन्तिरम् / अतः करणयोगात्मता जीवस्य गम्यते, कदाचित् कथञ्चिद् नयान्तराद् निश्चयलक्षणं नयान्तरमाश्रित्येति यतः समये सिद्धान्तेऽभिहितम्। किम्? इत्याहआया चेव अहिंसा,आया हिंस त्ति निच्छओ एस। जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो / / 3536 / / इह आत्मा मनःप्रभृतिना करणेन हननघातनाऽनुमतिलक्षणा हिंसा तन्निवृत्तिरूपामहिंसा च करोतीति व्यवहारः / अस्यां च गाथायां निश्चयनयनतेन आत्मैव हननादिलक्षणा हिंसा, स एव च तन्निवृत्तिरूपाऽहिंसेत्युक्तम् / तदनेनात्मनः करणस्य योगलक्षणस्य कर्मणश्चैकत्वमुक्त भवतीति अत्र परप्रेर्यमाशङ्कय परिहरनाहआहेगत्ते कत्ता, कम्मं करणं ति को विभागोऽयं / अण्णइ पजायंतर–विसेसणाओ न दोसो त्ति // 3537 / / आह पर:- नन्ववं त्रितयस्याप्येकत्वे कर्ता, कर्म, करण चेति को विभागः? -को भेदः? भण्यतेऽत्रोत्तरम-पर्यायान्तरेण विशेषणं पर्यायान्तरविशपणं तस्माददोषः / इदमुक्तं भवति-एक एव कर्ताऽऽत्मा व्यतिरिकः कथञ्चिद् भिन्नैः कर्मकरणादिपर्यायान्तरैर्विशिष्यत इति नोक्तदोष इति। पूर्व भावितमपीदं पुनरपि स्मारयन्नाह - एक पि सव्वकारग-परिणामाणन्नभावयामेइ / नाया नाणाणन्नो,जह विण्णेयाइपरिणामं // 3538 / / एकमपि घटादिक वस्तु सर्वकारकपरिणामलक्षणमन्यान्यभावताम् .. अन्यान्यनपतामेति, यथा ज्ञाता जीवो ज्ञानानन्यः सन् विज्ञेयादिपरिणाममेति / स एव हि स्वज्ञान उपयुज्यमानः कर्ता, करणभूतज्ञानानन्यत्वात स एव च करण, स्वयं संवेद्यमानस्तु स एव विज्ञेय इति सविस्तरेग प्रागुक्तमिति। ननु 'सर्व सावा योग प्रत्याख्यामि' इत्युक्तम, कः पुनरसी सावधो योगः? इ याह-- सय सावजो योगो, हिंसाईओ तयं सयं सव्वं / न करेमि न कारेमि य, न याणुजाणे करतं पि॥३५३६।। स च सावधो योगो हिंसा-ऽनृतस्तेयादिको मन्तव्यः तक सर्वमपि स्वयं न करोमि, न कारयाम्यन्यैः, एवं नानुजानामि कुर्वन्तमपीति / दिशेला आ० म०। आ० चू०। सामायिकसूत्रसग्रहः, तत्र 'करेमि भंत! सामाइय' ति पंच समिईओ गहिआओ, 'सव्वं सावज जोग पञ्चक्खामि' नितिणि गुती ओ गहियाओ, एत्थ समिईओ पवत्तणे निग्गहे य गुत्तीओ रिश, एयाओ अट्ट पवयमाथाओ जाहिं सामाइयं चोद्दसयपुध्याणि मायाणि, माउगाओ त्ति मूलं भणियं ति होइ'। इहैव प्रायः सूत्रस्पर्शनियुक्तिवक्तव्यताया उक्तत्वात् मध्यग्रहणे च तुलादण्डन्याये नाऽऽद्यन्तयोरप्याक्षेपादिदमाह- 'सुत्तप्फासिय-णिज्जु-त्ति वित्थरत्थो गओ एवं' ति--सूत्रस्पर्श नियुक्तिविस्तरार्थो गतः, एवम्- उक्तेन प्रकारेणेति माथार्थः। साम्प्रतं सूत्र एवातीतादिकालग्रहणं त्रिविधमुक्तमिति दर्शयन्नाहसामाइअं करेमी, पच्चक्खामी पडिकमामि त्ति। पच्चुप्पन्नमणागय-अईअकालाण गहणं तु / / 1046 / / सामायिक करोमि, तथा प्रत्याख्यामि सावध योगमिति तथा प्रतिक्रमामीति प्राककृतस्य, इदं हि यथासङ्ख्यमेव प्रत्युत्पन्नानागतातीतकालाना ग्रहणमिति, उक्तं च-'अईयं जिंदइ पडुत्पन्न संवरेइ, अणागयं पच्चवखाइ'त्ति गाथार्थः / / 1046 // साम्प्रतं तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमाभीत्येतद व्याख्यायते-तत्र 'तस्ये त्यधिकृतो योगः संबध्यते, ननु च प्रतिक्रमामीत्यस्याः क्रियायाः सोऽधिकृतो योगः कर्म, कर्मणि च द्वितीया विभक्तिरतस्तमित्यभिधेये तस्येत्यभिधीयते किमर्थमिति? आह--- प्रयोजनार्थ षष्ठी विवक्षातः प्रयुक्ता सम्बन्ध-लक्षणा, अवयवलक्षणा वा, योऽसौ योगस्विकालविषयस्तस्यातीतं सावद्यमंशमवयवं प्रतिक्रमामि न शेष वर्तमानमनागत वा / केचित पुनरविभागज्ञाः अविशिष्टमेव सामान्य योग सम्बन्धयन्ति, तन्न युज्यते, अविशिष्टस्य त्रिकालविषयस्य प्रतिक्रमणप्रयोजनाभावात्, ग्रन्थगुरुत्वापत्तेश्च अविशिष्टमपि संबध्य पुनर्विशषेऽवस्थापनीयस्तच्छब्द इति ग्रन्थगुरुता। यदेतत् प्रतिक्रमणमेतत् प्रायश्चित्तमध्ये पठितमतः प्रायश्चित्तमासेवितेऽतीतविषयमिति गतत्वादतीतप्रतिक्रमणमिति न वक्तव्यम्, इह पुनरुक्तत्व प्रसङ्गात्, यस्भादस्य प्रतिक्रमामीतिशब्दस्य कर्मणा भवितव्यमवश्यं,तय भूतं सावधयाग मुक्त्वा नान्यत् कर्म भवितुमर्हति, यस्मात्तस्येत्यवयवलक्षअया षष्ट्या सम्बन्धः। आह--यद्यवं पुनरुक्तादिभयादभिधीयते तत इदमपरमाशङ्कापदमिति दर्शयतितिविहेणं ति न जुत्तं,पडिपयविहिणा समाहि जेण। अत्थविगप्पणयाए, गुणभावणय त्ति को दोसो? ||1047 / / 'त्रिविध त्रिविधेन' त्यत्र त्रिविधेनेत्ययुक्तमिति, अत आहप्रतिपदविधिना समाहित येन, यस्मात् प्रतिपदमभिहितमेव,मनसा वाचा कायने ति। अत्रोच्यते, अर्थविकल्पनयागुणभावनयेति वा को दोषः? एतदुक्तं भवति-अर्थविकल्पसङ्ग्रहार्थ न पुनरुक्तम्। अथवा-गुणभावना पुनः पुनरभिधानाद्भवतीति नदोषः। अथवा--मनसा वाचा कायेनेत्यभिहिते प्रतिपदं न करोमि, न कारयामि, नानुजानामीति। 'यथासङ्ख्यमनुदेशः समानाना' मिति यथा-सइख्यकमनिष्ट मा प्रापदिति त्रिविधेनेकैकमुच्यते, त्रिविधभित्यत्राप्ययमेव प्रायः परिहार इति गाथार्थः // 1047 / / इन्यलं प्रसङ्गेन / प्रकृतं प्रस्तुमः- 'तस्य भदन्त ! प्रतिक्रमामी' त्यत्र भदन्तः पूर्ववद् अतिचारनिवृत्तिक्रियाभिमुखश्च तद्विशुद्ध्यर्थमामन्त्रयत इति, अत्राऽऽह-ननुपूर्वमुक्त एव भदन्तः स एवानुवर्तिष्यते,एवमर्थ चादौ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 758 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय प्रयुक्त इत्यतः किं पुनरनेनेति? अत्रोच्यत-अनुवर्तनार्थमव अथ पुनरनुस्मरणया प्रयुक्तः, यतः परिभाषा---अनुवर्तन्ते न नाम विधयो, न चानुवर्तनादेव भवन्ति, किं, तर्हि ? यत्नाद्भवन्ति, स चायं यत्नःपुनरुच्चारणमिति / अथवा-सामायिक क्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽय भदन्तशब्दः, अनन चैतत् ज्ञापितं भवति-सर्वक्रियावसाने गुरोः प्रत्यर्पण कार्यमिति, उक्तं च भाष्यकारण- सामाइय-पच्चप्पणवयणोवाऽय भदंतसद्दो ति। सव्व किरियावसाणं, भणियं पच्चप्पणमणेणं / / 1 / / इति कृतं प्रसन। प्रतिक्रमामीत्यत्र प्रतिक्रमणं-मिथ्यादुष्कृतमभिधीयते। तच द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च, तथा चाह नियुक्तिकारः दव्वम्मि निण्हगाई, कुलालमिच्छंति तत्थुदाहरणं / भावम्मि तदुवउत्तो, मिआवई तत्थुदाहरणं / / 1048 / / द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यप्रतिक्रमणं तदभेदोपचारात तद्वदेवोच्यते। अत एवाह-निवादि, आदिशब्दाद्- अनुपयुक्तादिपरिग्रहः, कुलालमिथ्यादुष्कृतं तत्रोदाहरणं, तचेदम्- ''एगरस कुंभकारस्स कुडीए साहुणो ठिया, तरथेगा चेलओ तस्स कुंभगाररस कोलालाणि अंगुलिधणुहएणं पाहाणएहि विधइ, कुंभगारेण पडिजग्गिउंदिट्टो, भणिओं य कीस में कोलालाणि काणेसि? खुडुओ भणइ-मिच्छा मिकड ति एवं सो पुणोऽवि विधिऊण मिच्छा मि दुक्कडं ति, पच्छा कुंभगारेण तस्स खुड्डगरस कन्नामोडओ दिन्नो, सो भणइ-दुक्खाविओऽह, कुंभगारों भणइ-मिच्छामि दुक्कड, एवं सो पुणो पुणो कन्नामोडयं दाऊण मिच्छा दुक्कड ति करेइ / पच्छा चेल्लणो भणइ-अहो सुदरं मिच्छा मि दुक्कडं ति, कुंभगारो भणइ-तुज्झ वि एरिसं चेव मिच्छा दुक्कड ति, पच्छा टिआ विधियध्वस्स / 'जं दुक्कड ति मिच्छा, तं चेव णिसेवई, पुणो पावं / पावरखमुसावाई, मायाणियडिप्पसंगो य / / 1 / / एयं दव्य-पडिकमण / / भावप्रतिक्रमणं प्रतिपादयति- भाव इति द्वारपरामर्श एव, 'तदुपयुक्त एव' तस्मिन-अधिकृते शुभव्यापारे उपयुक्तस्तदुपयुक्तो यत् करोति, मृगापतिः तत्रोदाहरणं तच्चेदम्-भगवं वद्धमाणसामी को संवीए समोसरिओ, तत्थ चंदसूरा भगवंतं वंदगा सविमाणा ओइण्णा, तत्थ भियावई अज्जा उदयणमाया दिवसो नि काउंचिर ठिया, ससाओं साहुणीओ तित्थयरं वंदिऊण सनिलयं गयाआ। चंदसूरा वि तित्थयर वंदिऊण पडिगया, सिग्धमेव वियालीभूयं, मियावई संभंता गया अनचंदणासगासं। ताओ यताव पडिकताओ, मियावई आलोएउपवत्ता, अजचंदणाए भण्णइ-कीस अज्जे ! चिर ठियासि? न जुतं नाम तुम आगकुलप्पसूयाए एगागिणीए चिर अच्छिद ति। सा सब्भावेण मिच्छा मि दुमडं ति भणमाणी,अञ्जचंदणाए पाएसु पडिया, अजचंदणा य लाए बलाए संथारं गया, ताहे निद्दा आगया,पसुत्ता। मियावईए वि तिब्बसंवेगमावण्णाए पायपडियाए चेव केवलणाण समुप्पण्णं / सप्पो य तेणतेणगुवागओ। अजचंदणाए य संथारगाओ हत्थो आलंबिआ, मियावईए मा विहिति सि सो हत्थो संथारंग चडाविओ। सा विबुद्धा भणइ-किमयं ति? अन्ज वि तुमं अच्छसि त्ति मिच्छा भि दुक्कड, निद्दप्पमारणं ण उहावियासि। मियावई भणइ-एस सप्पो मा भे खाहिइ त्ति अतो हत्थो चडाविओ। सा भण्णइ-कहिं? सो,सा दाएइ, अजचंदणा अपेच्छमाणी भणइ-अजे ! किं ते अइसओ? सा भणइ-आम, तो किं छाउमथिओ केवलिओ त्ति? भणइ- केवलिओ, पच्छा अज्जचंदणा पाएर पडिऊण भणइ–मिच्छा मि दुवंड ति। केवली आसाइओ त्ति, इयं भावपडिक्कमणं / एत्थ गाहा–'जइ य पडिक्कमियव्वं, अवस्स काऊण पावयं कम्मं / तं चेव न कायव्वं, तो होइ पए पडिक्कतो।।१।।' त्ति गाथार्थः / / 1048 / / इह च प्रतिक्रमामीति भूतात्- सावद्ययोगान्निवर्तेऽहमित्युक्तं भवति, तस्माच्च निवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति, तथा निन्दामीति- गर्हामि, अत्र निन्दामीति जुगुप्सेत्यर्थः गर्हामिति च तदेवोक्तं भवति, एवं तर्हि को भेद एकार्थत्वे? उच्यते--सामान्यार्थाभेदेऽपीष्टविशेषार्थो गर्दाशब्दः, यथासामान्ये गमनार्थे गच्छतीति गौः, सर्पतीति सर्पः / तथाऽपि गमनविशेषोऽवगम्यते, शब्दार्थादव, एवमिहापि निन्दागर्हयोरिति / तं चार्थविशेष दर्शयतिसचरित्तपच्छयावो, निंदातीए चउक्कनिक्खेवो। दव्वे चित्तयरसुआ, भावेसु बहू उदाहरणा / / 1046 / / सचरित्रस्य सत्त्वस्य पश्चात्तापो निन्दा, स्वप्रत्यक्ष जुगुप्सेत्यर्थः, उक्त च- 'आत्मसाक्षिकी निन्दा'' 'तीए चउक्कनिक्खेवो' ति-तस्यां तस्या वा नामादिभेदच तुष्को निक्षेप इति,तत्र नामस्थापने अनादृत्याऽऽह'दव्वे चित्तकरसुया, भावे सु बहू उदाहरण' त्ति-द्रव्यनिन्दाया चित्रकरसुतोदाहरणं, सा जहा रण्णा परिणीया अप्पाणं णिदियाइय त्ति। भावनिन्दाया सुबहून्युदाहरणानियोगसंग्रहेषु वक्ष्यन्ते,लक्षणं पुनरिदम्'हा! दुटु कय हा ! दु-ठ्ठ कारियं दुटु अणुमयं इत्ति / अंतो अतो डज्झइ. पच्छातावेण वेवंतो।।१।। ति गाथार्थः। गरहा वि तहा जाई, अमेव नवरं परप्पगासणया। दव्वम्मि मरुअनायं, भावेसु बहू उदाहरणा।।१०५०।। गर्हाऽपि तथाजातीयेवेति-निन्दाजातीयैव, नवरमेतावान् विशेषःपरप्रकाशनया गाँ भवति, या गुरोः प्रत्यक्ष जुगुप्सा सा गर्हे ति, "परसाक्षिकी गर्दै तिवचनाद, असावपि चतुर्विधव, तत्र नामस्थापने अनादृत्यवाह- 'दव्वम्मि मरुअणायं भावेसु बहू उदाहरण' त्ति तत्र द्रव्यग यां मरुकोदाहरण, तचेदम्- आणदपुरे मरुओ पहुसाए समं संवासं काऊण उवज्झायस्स कहेइ, जहा सुविणएण्हुसाएसमंसंवारसंगओ मित्ति। भावगहाए साधू उदाहरण-'गंतूण गुरुसगासो,काऊण य अंजलिं विणयम्लं / जह अप्पणो तह परे,जाणावण एस गरहा उ / / 1 / / ' त्ति गाथार्थः / / 1846 / / तत्र निन्दामि गर्हामीत्यत्र गर्हा जुगुप्सोच्यते, तत्र किं जुगुप्से? 'आत्मानम' अतीतसावद्ययोगकारिणमश्लाध्यम्। अथवा–अत्राणम्--अतीतसावधयोगत्राणविरहितं जुगुप्से, सामायिकेनाधुना त्राणमिति। अथवा- 'अत' सातत्यगमने,अतनमतीतसावद्ययोगसततभवनप्रवृत्तं निवर्तयामीति, व्युत्सृजामीति Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 756 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय विविधार्थो विशेषार्थो वा विशब्दः, उच्छब्दो भृशार्थः, सृजामि, तओऽणेण सिरताणणं वावाएमि त्ति परामुसियमुत्तिमग, जाहे लोयं त्यजामीत्यर्थः, विविध विशेषेणवा भृशं त्यजामिव्युत्सृजामि, अतीत- कयंति, तओ संवेगमावण्णो महया विसुज्झमाणपरिणामेण अत्ताण सावधयोग व्युत्सृजामीति वा, अवशब्दोऽधःशब्दस्यार्थे, विशेषणाधः निंदिउपयत्तो, समाहियं चऽणेण पुणरवि सुक्क झाणं / एत्यंतरम्मि सेणिएण सृजामीत्यर्थः, नन्वेवं सावद्ययोगपरित्यागात् करोमि भदन्त ! सामायि- वि पुणोऽवि भगवं पुच्छिओ-भगव! जारिसे झाणे सपइ पसन्नचंदो वट्टइ कमिति सावधयोगनिवृत्तिरुच्यते, तस्य व्यवसृजामि शब्दप्रयोगे वैपरी- तारिसे मयस्स कहिं उववाओ? भगवया भणिय-अणुतरसुरसुति, तओ त्यमापद्यते, लन्न, यस्मात मासादिविरमणक्रियानन्तरं व्यवसृजामीति सेणिएण भणिय पुवं कि मन्नहा परूवियं उआह मया अन्नहा प्रयुक्ते तद्विपक्षत्यागो मांसभक्षणनिवृत्तिरभिधीयत, एवं सामायिकान- अवगच्छियति? भगवया भणियं-न अन्नहा परुविय, सेणिएण भणियन्तरमपि प्रयुक्ते व्यवसृजामिशब्दे तद्विपक्षत्यागोऽवगम्यते, स च किं वा कह व ति? तआ भगवया सो वुत्ततो साहिओ : एत्थंतरम्मि य तद्विपक्षःसुगम एवेत्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यत, ग्रन्थविस्तरभयाद, परान्नचंदसमीये दिव्वा देवदुंदुहिस–णाहो महन्तो कलयलो उद्धाइओ, गमनिकामात्रप्रधानत्वात् प्रारम्भस्य। सओ सणिएण भणियं भगवं ! किमेयं ति? भगवया भणियं-तस्सेव साम्प्रतं व्युत्सर्गप्रतिपादनायाऽऽह ग्रन्थकार: विसुज्झमाणपरिणामस्स केवलणाणं समुप्पण्णं, तओ से देवा महिम दव्वविउस्सग्गे खलु,पसन्नचंदो हवे उदाहरणं / करति। एस एव दव्वविउस्सग्गभावविउस्सग्गेसु उदाहरण।" पडिआगयसंवेगो, भावम्मि वि होइ सो चेव / / 1051 / / साम्प्रतं समाप्ती यथाभूतोऽस्य कर्ता भवति सामायिकस्य तथाभूत संक्षेपत्तोऽभिधिसुराह-- इह द्रव्यपुत्सर्गः-गणोपधिशरीरानपानादिव्युत्सर्ग: अथवाद्रव्यव्युत्सर्गः आर्तध्यानादिध्यायिनः कायोत्सर्ग इति। अत एवाऽऽह सावजजोगविरओ, तिविहं तिविहेण वोसिरिअपावं। द्रव्यव्युत्सर्गे खलु प्रसन्नचन्द्रो भवत्युदाहरणम, भावव्युत्सर्गरत्वज्ञाना सामाइअमाईए, एसोऽणुगमो परिसमत्तो।।१०५२।। दिपरित्यागः / अथवा-धर्मशुक्लध्यायिनः कायोत्सर्ग एव,तथा चाऽऽह सावद्ययागविरतः कथमित्याह-त्रिविधं त्रिविधनव्युत्सृज्य पापं न तु प्रत्यागतसंवेगो भावेऽपि भाव व्युत्सर्गेऽपि भवति स एवप्रसन्नचन्द्र सापेक्ष एवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा सावद्ययोगविरतः सन् त्रिविधं त्रिविधेन उदाहरणनिति गाथाक्षरार्थः / / 1051 / / भावार्थः कथानकादधरोयः / व्युत्सृजति पापमष्य, सामायिकादौ-सामायिकारम्भसमये एषोऽनुगमः तचेदम- "खिइप इदिए णयर पसन्नचंदो राया, तत्थ भगवं महावीरो परिसमाप्तः / अथवा-सामायिकादौ सूत्र इति, आदिशब्दात-सर्वमिसमोसढो, त्ओ राया धम्म सोऊण संजायसंवेगो पव्वइओ, गीयस्थो त्याद्यवयवपरिग्रह इति गाथार्थः / / 1052 / / उक्तोऽनुगमः। जाओ / आपणया जिणकप्प पडिवजिउकामो सत्तभावणाए अप्पाण सम्प्रति नयाः, तं च नैगमसङ्ग हव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरुद्धभावेइ / तेणं कालेणं रायगिहे पयरे मसाणे पडिम पडिवन्नो, भगवं च वम्भूतभेदभिन्नाः खल्वाघतः सप्त भमन्ति, स्वरूपं चेतेषामधः सामायिमहावीरो तत्व समोसो, लोगोऽवि बंदगोणीइ। दुवे य वाणियगा खिइ काध्ययनेन्यक्षेण प्रदर्शितमेवेतिनेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थभते पइडियाओ तत्थेव आयाया,पसन्नचंद पासिऊण एगण भणियं-एस ज्ञानक्रियानयद्वयान्तविद्वारेण समासतः प्राच्यन्ते, ज्ञाननयः क्रियाअम्हाणं सामी रायलच्छिपरिचइय तवसिरिं पडिबन्ना / अहो स नयना तथा चाऽऽह... धन्नया,बितिएण भणियं-कुओ एयरस धण्या ? जो असंजा-यबलं पुन विज्जाचरणनएसु, सेससमोआरणं तु कायव्वं / रस्ने ठविऊण पव्वइओ, सो तवरसी दाइगेहिं परिभवि-जइ, णयर च सामाइअनिज्जुत्ती, सुभासिअत्था परिसमत्ता॥१०५३।। उत्तिमक्खय पवण्ण ताव, एवमाषण बहुओ लोगो दुक्खे ठविओं ति 'विज्जाचरणनएसु' ति-विद्याचरणनययोः; ज्ञानक्रियानययोरिअदहव्यो एसो। तस्स तं सोऊण कोवो जाओ, चिंतियं चऽणेण- को मम त्यर्थः, सेससमायारणं तु कायव्व' ति-शेषनयसमवतारः कर्तव्यः, पुत्तरस अधकरेइ नि? नूणभमुगो, ता किं तेण? एयावत्थगओ णं तुशब्दो विशेषणार्थः / किं विशिनष्टि? तौ च वक्तव्यौ, सामायिकवादाएमि, गणससंगामेण रोद्दझाण पवन्नो, हत्थिणा हत्थिं विवाएइ नियुक्तिः सुभाषितार्था परिसमाप्तेति प्रकटार्थमिति गाथार्थः / / 1053 / / त्ति,विभासा। एत्थंतर सेणिओ भगवं वंदआणीइ, तेण वि दिह्रो वंदिओ साम्प्रत स्वद्वार एव शेषनयान्तर्भावनाधिकृतमहिमानौ अनन्तय अणेण ईनि पिण य निज्झाइंतओ। सेणिएण चिंतियं-सुक्कज्झाणो- रोपन्यस्तगाथागततुशब्देन चावश्यवक्तव्यतया विहितौ ज्ञानचरवगओ एस भगवं, ता एरिसम्मि झाणे कालगयरस का गई भवइ त्ति जनवावुच्यते, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदंज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकभगवत पुच्छिस्स, तओगओ बंदिऊण पुच्छिओऽणेण भगवं-जम्मि झाणे फलप्राप्तिकारण, युक्तियुक्तत्वात्। तथा चाऽऽहठिओमए वडिओ पसन्नचंदो तम्मि मयस्स कहिं उववाओ भवइ? भगवया नायम्मि गिण्हिअव्वे,अगिहिअव्वम्मि चेव अत्थम्मि। भणिय-अहे सत्तमाए पुढवीए। तओ सेणिएण चिंतियं हा ! किमेव ति? जइ अव्वमेव इअ जो,उवएसो सो नओ नाम।।१०५४।। पुणो पुच्छिर-सं / एत्थंतरम्मि अपसन्नचंदस्स माणसे संगामे पहाणनायगेण 'नायम्मि' ति-ज्ञाते सम्यक् परिच्छिन्ने 'गिपिहयवे' ति सहाव-डिएस्स असिसत्तिचककप्पणिप्पमुहाइं खयं गयाई पहरणाई, | गृहीतव्य-उपादेये 'अगिहियव्वम्मि' ति-अग्रहीतव्ये अनु Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 760 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय पादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलुभयोर्गहीतव्याऽग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थः, उपेक्षणीयसमुच्चयार्थो वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः ज्ञात एव ग्रहीतव्ये, तथा अग्रहीतव्ये-- तथोपेक्षणीये च, ज्ञात एव नाज्ञाते। अत्थम्मि' त्ति-अर्थ-ऐहिकामुष्मिर्क, तत्रैहिकः ग्रहीतध्यः-सचन्दनाङ्गनादिः, अग्रहीतव्यो-विषशस्त्रकण्टकादिः, उपेक्षणीयः-तृणादिः।आमुष्मिको ग्रहीतव्यः-सम्यग्दर्शनादिः, अग्रहीतव्यो-मिथ्यात्वादिः, उपेक्षणीयो-विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति, तस्मिन्नर्थे 'जइअव्वमेव त्ति अनुस्वारलोपादयतितव्यम्, एवम्-अनेन क्रमेणैहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना सत्त्वेन यतितव्यमेव, प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः, इत्थ चैतदङ्गीकर्तव्यं, सम्यग्ज्ञाते प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्। तथा चान्यैरप्युक्तम-''विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् // 1 // " तथा-आमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि ज्ञात एव यतितव्यम्, तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्- "पढम णाणं तओ दया, एवं चिटुइ सव्वसंजए / अन्नाणी किं काहिति, किं वा णाहिति छेय पावगं? ||1||" इतश्चैतदेवमङ्गी-कर्तव्यं यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रिया-ऽपि निषिद्धा तथा चागमः- "गीयत्थो य विहारो, बितिओ गीयत्थमीसओ भणिओ। एतो तइयविहारो, णाणुण्णाओ जिणवरेहिं / / 1 / / '' न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक् पन्थानं प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः / एवं तावत् क्षायोपशमिक ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिका:प्यङ्गीकृत्य विशिफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्तस्य दीक्षा प्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते यावज्जीवा-जीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्मा-ज्ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम / 'इति जो उवएसो सो नयो नाम' ति-इति–एवमुक्तेनन्यायेन यः उपदेशो ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम ज्ञाननय इत्यर्थः। अयं च चतुर्विधे सम्यक्त्वादिसामायिक सम्यक्त्वसामायिक-श्रुसामायिकद्वयमेवेच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, देशविरतिसर्वविरतिसामायिके तु तत्कार्यत्वात् तदायत्तत्वान्नेच्छति, गुणभूते चेच्छतीतिगाथार्थः / / 1054 / / उक्तो ज्ञाननयः अधुना क्रियानयावसरः, तद्दर्शनं चेदम्-क्रियेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षगामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह- ‘णायमि गिण्हियव्ये' त्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्याज्ञाते ग्रहीतव्ये, अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यर्थना यतितव्यमेव, न यस्मात् प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिर्दृश्यते / तथा चान्यैरप्युक्तम्-- क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् / यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत्॥१॥" तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिना क्रियैव कर्तव्या। तथा च-मुनीन्द्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम् यत उक्तम्- "चेइयकुल-गणसंघे, आयरिआणं च पव्वयणसुए य। सव्वेसु वि तेण कयं, तव-संजममुञ्जमतेण // 1 // " इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्य यस्मात् तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तम्, तथा चाऽऽगमः- "सुबहुं पि सुयमहीयं, किं काहि चरणविप्पमुदस्स? अंधस्स जहपलित्ता, दीवसयसहस्सकोडी वि / / 1 / / " दृशिक्रियाविकलत्वात् तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत् क्षायोपशमिकं चारित्रमगीकृत्योक्तं चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्ट-- फलसाधकत्वं तस्या एव विज्ञेयम्, यस्मादहतोऽपि भगवतः समु-- त्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता ह्रस्वपञ्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्व--- संवररूपा चारित्रक्रिया नावाप्सेति, तस्मात् क्रियैव प्रधाना ऐहिकामुष्णिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम्। इति जो उवएसो रग नओ नाम' ति-इति-एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं च सम्यक्त्वादौ चतुर्विध सामायिके देशविरतिसर्वविरति-सामायिकद्वयमेवेच्छति क्रियात्मकत्वादस्य, सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामायिके तुतदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानन्यानेच्छति, गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः // 1054 / / उक्तः क्रियानयः / इत्थं ज्ञानक्रियानयस्वरूपं ज्ञात्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह- किमत्र तत्त्वं? पक्षद्वयेऽपि युक्तिसम्भवात्, आचार्यः पुनराह'सव्वेसि पि' गाहा। अथवा-ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमाभेधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह सव्वेसिं पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्धं, जं चरणगुणट्ठिओ साहू // 1055 / / सर्वेषामपि मूलनयायाम, अपिशब्दात्-तनेदानां च नयानाम्-द्रव्यास्तिकादीनां बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेव विशेषा एप उभयमेव वाऽनपेक्षामित्यादिरूपाम् / अथवा- नामादीनां नयानां कः के साधुमिच्छतीत्यादिरूपां निशम्य-श्रुत्वा तत् सर्वनर - विशुद्धसर्वनयसम्मतं वचनं यच्चरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात् सवनया एव भावनिक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थाः। आवा "भंत' इत्यतिदेशयन्नाहभंति त्ति पुव्वभणियं, तेणं चिय भणइ किं पुणो भणियं / सव्वत्थ सोऽणुवत्तइ, भणियं चादिप्पउत्तो ति॥३५६७॥ अणुवत्तणत्थमेव य, तग्गहणं नाणुवत्तणादेव। अणुवत्तंते विधओ, जमिह कया किं तु जत्तेणं / / 3568 // 'भंते' इति पदं पूर्वमेव भणित व्याख्यातम्, इति नेह व्याख्य यते। तेनैव कारणेन तेनैव हेतुना तर्हि परो भणति-यदि पूर्वमेवेद भणितम्, तर्हेि कि पुनरपीह भणितं सूत्रकृता? ननुसर्वत्र सूत्रान्ते यावदनुवर्तते एवासी, भणित चान्यत्र-'आदी प्रयुक्तोऽर्थः सर्वत्रानुवर्तते' इति। गुरुराह-- सत्यमेवैस्त, सूत्रान्तं यावदनु-वर्तनार्थमेव तस्य भदन्त शब्दस्य ग्रहणं तर ग्रहणमादी कृतम्, केवलं नानुवर्तनादेवनानुवर्तनमात्रादेव यस्मादधिकृता वेधयाऽनुवर्तन्ते भवन्ति, किन्तु यत्नेन कृतेन ते भवन्ति, तथा चोक्तं परिभाषाम Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय 'अनुवर्तन्त। च नामविधयो न चानुवर्तनादेव भवन्ति, किं तहिं? यत्नाद भवन्ति / स चायं यत्नः,यत् तस्यानुस्मरणार्थं पुनरुच्चारणमिति। अथवा, पुनस्तगणने समाधानान्तरत्रयमाह.. अहवा समत्तसामा-इयकिरिओ तव्यिसोहणत्थाए। तस्साईआरनिव-तणाइकिरियंतराभिमुहो।।३५६६।। जं च पुरा निद्दिढ़, गुरुं जहावासयाइँ सव्वाई। आपुच्छिउं करिज्जा, तयणेण समत्थियं होइ॥३५७०।। सामाइयपच्चप्पण-वयणो वाऽयं भदंतसद्दो त्ति। सव्वकिरियावसाणे, भणियं पच्चप्पणमणेणं / / 3571 / / अथवा- समाप्तप्रस्तुतसामायिक प्रतिपत्तिक्रि यस्तन्मालिन्यवि-- शुद्धिहतार तस्य सामायिकस्य येऽतिचारा-मालि-यप्रकारास्तेषां सद् निवर्तनादिरूपं क्रियान्तरम्, आदिशब्दाद - निन्दाग क्रियान्तरपरिग्रहः, तदभिमुखः पुनरपि भदन्तशब्दमुच्चारयति विनेयः इति शेषः / यच्चेहैव पुरा-पूर्व निर्दिष्ट यथा गुरुमापृच्छ्य रसवाण्यावश्यकानि कांद विनयः। दिनेन पुनरपि भदन्तशब्दोच्चारणेन समर्थितं भवति / ह्यरेन भदन्तशब्दोच्चारणाद् गुरुमापृच्छ्य सामायिकावश्यक प्रतिधन्नम / इदानीं तु दितीचारप्रतिक्रमणावश्यकं पुनरपि तदुच्चारणाततमःच्च कुर्वता यथोक्तार्थः समर्थितो भवतीति / अहवा- 'भवतः पृष्ट्वा या पूर्व कर्तुभ रब्ध सामायिक तदिदानी कृतंसमाथत भदन्त ! मया, इत्या सामायिक क्रियाप्रत्यर्पणवचनोऽयं भदन्तशब्दः। अनेन च गुरुमापृश्यारब्धाना नवांसामपि क्रियाणामवसाने गुरोः प्रत्यर्पणनिवेदनमवस्य विधेयमित्येतद भणित भवति। 3थ पडिक्कमामि' इत्याटिक्रियाव्याख्यानार्थमाहनेयं पडिक्कमामि, त्ति भूयसावजओ निवत्तामि ! तत्तो य जा निवत्ती, तदणुमइओ विरमणं जं // 3572 / / निंदामि त्ति दुगुंछे, गरिहामि तदेव तो कओ भेओ? भण्णइ सामण्णत्था, भेए इट्ठो विसेसत्थो / / 3573 // जह गच्छत्ति गो स--प्पइत्ति सप्पो समे विगच्छत्थे। गम्मइ विसेसगमणं, तह निंदागरहणत्थाणं / / 3574 / / 'प्रतिव्र मामि' इत्यस्य व्याख्यानं ज्ञेयम् / किम्? इत्याह- 'भूतसायद्ययोगाद निवर्तेऽहम्' इति प्रेरकः पृच्छति-भूतसावद्य-योगस्यासवितत्वत् का नामेदानीं ततो निवृत्तिः? इत्याह-यत तदनुमतविरमण, - पुनस्त करण-कारणाभ्याम्, तयोरासेवितत्येन विरमणायोगादिति। 'निन्दामि' इति कोऽर्थः? 'जुगुप्से-आत्मानमतीतसावधयोगकारिणम्' इति संबन वक्ष्यति; 'गरहामि' इत्यनेनाप्येतदेवोक्तं जुगुप्स इति / भार-तारतहि कुतो निन्दागर्हधोरर्थतो भेदः, द्वयोरपि जुगुप्सार्थत्वात? भाग्यले रोत्तरम्- सामान्यार्थाभदेऽपि विशेषार्थो विशेषवदामिधायक इटो गहा शब्द इति / यथा गन्तीति गौः सर्पतीति सर्पः, इत्यना: समाने जगत्यर्थे द्वयोरपि विशेषादेवंगमनं गम्यते प्रतोयते तथा निन्दामहर्थियोरपि विशषरूपत्वं वक्ष्यतीति। तदेवाह.. सप्पचक्खदुगंछा, तह निंदामि त्ति गम्मए समए। गुरुपचक्खदुगंछा, गम्मइ गरिहामि सद्देणं / / 3575 / / 'तह' ति यथा गो-सर्पयोर्गमनस्यसामान्यतोऽभेदेऽपि विशेषतो गदा दृष्टस्तथा निन्दागहाँभिधेयस्यापि जगप्सार्थस्य विशेषतो भेदोऽस्ति, तथाहि या स्वप्रत्यक्षात्मसाक्षिकी जुगुप्सा सा समय सिद्धान्त 'निन्दामि' इ-यनेन गम्यते--अवबुध्यते, या तु गुरुप्रत्यक्षा गुरुसाक्षिकी जुगुप्सा सा गाँमि' इत्यनेन शब्देन गम्यत इति। अथवा-कार्थयोपि निन्दा-गर्हयाग्रहणं भृशाऽऽदराथमिहन विरुध्यात इति दर्शयन्नाहएगत्थोभयगहणं, भिसादरत्थं च जमुदियं होइ। कुच्छामि कुच्छामि,तदेव निंदामि गरिहामि / / 3576 / / भिसमायरओ व पुणो, पुणो व कुच्छामि जमुदियं होइ / पुणरुत्तमणत्थं वे-ह नाणुवादादराईसुं // 3577 / / एकार्थ च तदुभयं च निन्दा-गहालक्षणमेकाोभयं तस्य गह-- मकाथाभयग्रहण तदपि चेह भृशादरार्थं न विरुध्यते : ततश्च 'कुच्छामि कुन्छामि' इत्यनेन यदुक्तं भवति, 'निंदामि गरिहामि' इत्यननापि दिवोक्तं भवतीति भृशमत्यर्थम्, आदरतो वा पुनः पुनरव 'कुच्छामि' इति यदुक्तं भवति -इदमुक्त भवतीत्यर्थः / न चहानुवादादरादिषु पुनः पुनरपि प्रत्युवतमपि वाचः पुनरुक्तमनर्थक वा भवतीति। अथ निंदामि गरिहामि' इत्यनयाः कर्मपदसंबन्धनार्थमाह किं कुच्छामप्पाणं, अईयसावञ्जकारिणभसग्धं / अत्ताणमयणमहवा, सावजमईयजोगं ति॥३५७८॥ किं 'कुच्छामि'जुगुप्से? इत्याह- आत्मानं निजजीवम् / कथंभूतम्? अतीतसावायोगकारिणम् / अत एवाश्लाध्यमप्रशंसनीयम् / अथवा-- अत्राण-संसारे निपततामशरणाम, अतनं वाऽनादिकालात सातत्यभावनप्रवृरामतीतसावद्ययाग कुच्छामि जुगुप्से, भयहेतुत्वात, सविरतिसामायिकस्येव भवाब्धा निभजता ऋणत्वादिति / अथ 'व्युत्सृजामि' इति सूत्रस्थ चरमावयवं संबन्धयन्नाहविविहं विसेसओ वा, भिसं सिरामि त्ति वोसिरामि त्ति। छड्डेमि त्ति जमुत्तं, तमेव समईयसावजं / / 3576 / / विशब्दो विविधाथी विश्यार्थी वा, उतशब्दस्तु भृक्षार्थः, ततश्च विविध विशेषता वा भृशमत्यर्थ सृज' विसर्ग, सृजागिन्यजाभीति यदुक्तं भवति / कम? इत्याह- तमवातीतसविद्ययोगम् / व्यवसृजाम इति-- वाऽवशब्दोऽधः शदाय, विशेषगायः सृजामिक्षियामि व्यवसृजामीति / आह-नन्येव सावद्योगपरित्यागात 'करोमि मदन्त ! सामायिकम्' इति भावययोगनिवर्तनमुन्यते तदनन्तर 'प्युत्स्जाम' इत्युक्त साबायागनिवर्तनन्यजामि इति वैधरीत्यमापहाते। तन्त्र कुतः? इस्याह मंसाइविरमणाओ, जहेइ भणियम्भिवो सिरामि त्ति Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 762 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय तप्पडिवक्खच्चाओ, गम्मइ सामाइए वेवं / / 3580 // यथेह मासादिविरमणादनन्तरं 'व्युत्सृजामि' इति भणिते तत्प्रतिपक्षत्यागो मांसभक्षणनिवृत्तिरूपो गम्यते-अवसीयते-तथा संव्यवहारदर्शनात, प्रस्तुतसामायिकेऽप्येवमेवावगन्तव्यम्। इदमुक्तं भवति-राथा 'मसं सुराइयं पावखामि जावजीवाए चउन्विह तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न भुजेमि, न भुजावेमि, वोसिरामि' इति मासविरमणादनन्तरं 'व्युत्राजामि' इत्युक्ते 'मांसादिभक्षणरूपं तद्विपक्षं त्यजामि' इति गम्यते, एवमिहापि तस्स भते ! पडिकमामि निंदामि गरिहागि अप्पाणं इत्येतत्पर्यन्तेन सूत्रेण यत् सर्वसावायोगप्रत्याख्यानमुक्तम, तदनन्तरं 'युत्सृजामि' इत्युक्ते 'तद्विपक्षरूपं सावधयोगाविरमणं त्यजामि' इति गम्यत इति! अथका पुन: सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानरूपस्य सामायिकस्य विपक्षः? इत्याशय तदुपदर्शनार्थमाहसम्मत्ताइमयं तं, मिच्छत्ताईणितव्विवक्खो य। ताण विवक्खो गम्मइ, पभासिए वोसिरामि त्ति // 3581 / / तच्च सामायिक 'सामाइयं च विविह सम्मत्तसुयं तहा चरितं च' इति वचनात् सम्यक्त्वश्रुताद्यात्मकम्। ततश्च मिथ्यात्वाऽज्ञानाऽविरतयरतद्विपक्षोऽवसेयः। ततः 'व्युत्गृजामि' इति प्रभाषिते तेषां मिथ्या वादीनां विसर्गरत्यागो गम्यत इति। तदेव निन्दामि गहामि व्युत्सृजामि' इति क्रियात्रयस्य विषयविभागों दर्शितः। अथवा-अतीतसावद्ययोगप्रायश्चित्तसंग्रहार्थमिदं क्रियात्रयमिति दर्शयन्नाहअहवा तिच्छियसाव-जयोगपच्छित्तसंगहत्थाय। संखेवओ विहाणं, निंदामिचाइसुत्तम्मि॥३५५२।। निंदा-गरहग्गहणा-दालोयण-पडिक्कमोभयग्गहणं / होइ विवेगाईणं,छेयंताणं विसग्गाओ॥३५८३|| अथवा- अतिक्रान्तसावद्ययोगप्रायश्चित्तस्य संक्षेपतः संग्रहार्थ 'निन्दामि' इत्यादिसूत्रेऽभिधानमिति। तच्च प्रायश्चित्तम्। 'अलोयणपडिक्कमणे, मीस विवगे तहा विउस्सग्गे / तव छय मूल अणवठ्ठया य पारंचिए चेव / / 1 / / " इति वचनाद् दशविधम् / तत्र निन्दागर्हयोर्गहणादालोचनप्रतिक्रमणाभयलक्षणस्याद्यप्रायश्चितत्रयस्थ ग्रहणम्, 'व्यवसृजामि' इति विसर्गग्रहाणात पुनर्विवेकादीनां छेदान्तानां यतुर्णा प्रायश्चित्तभेदानां ग्रहणं भवति / मतादयस्तु त्रयः प्रायश्चित्तभेदा इह न संभवन्ति, तेषां चारित्रोत्तीर्णजन्तुविषयत्वात् / इह तु प्रतिपन्नचारित्रसत्त्वप्रक्रमादिति तावद् वयमवगच्छामः, तत्त्वं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्तीति। तदेवं व्याख्यातं सामायिकसूत्रम्। तदव्याख्याने चावसितोऽनुगमः ! ततः पूर्वोक्तमुपसहर-नुत्तर-नयद्वारसंबन्धनार्थमाह एवं सुत्ताणुगमो, सुत्तन्नासो सुयत्थजुत्तीय। भणिया नयाणुजोग-द्दारावसरोऽधुणा ते य॥३४८४|| अत्थाणुगमंग चिय, तेण जहासंभवं तर्हि चेव। भणिया तहावि पत्थुय-दारासुन्नत्थमुण्णेहं // 3585 / / एवमुक्तप्रकारेण सूत्रानुगमः सूत्रालापकाना च व्यासो निक्षेपः, सूत्रार्थयुक्तिश्च–सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिश्चेत्यर्थः, भणिताः-प्रतिपादिताः। विशे०। (सामायिके नयौ ज्ञानक्रियात्मको ज्ञानक्रियादिशब्देषु) नवरमज्ञाननयः, अयं चतुर्विध सम्यक्त्वादिसामायिके सम्यक्त्व--सामायिके श्रुतसामायिकं वक्ष्यति,अस्य ज्ञानात्मकत्वात्, देशविरतिसामायिकसर्वविरतिसामायिक तु नेच्छतितयोस्तल्कार्यत्वात् गुणकृते वा इच्छति / उक्तो ज्ञाननयः / (आ० म०) क्रियानयः सम्यक्त्वादिके चतुर्विधे सामायिके देशविरति-सर्वविरतिरूपसामायिकद्वयमेवेच्छनि क्रियाप्रधानत्वादस्य, सम्यक्त्वे सामायिके तु तदर्थमुपादीयमानत्वनाप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूते वा इच्छतीति। आ० म०१ अ०। (78) आलोचनादीनि सामायिकवत एव भवन्तीति अतस्तरप्रश्रोत्तरपूर्व फलमाह सामाइएणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ? सामाइएणं सावजजोगविरइं जणयइ ||8|| हे भदन्त ! सामायिकेन-समतारूपेण जीवः किं जनयति। गुरुराह-हे शिष्य ! सामायिकेन सावद्ययोगविरतिं जनयति कर्मबन्धकारणेभ्यः सपापमनोवाकाययोगेभ्यो विरतिं पश्वान्निवर्त्तनां जनयति / / 8|| उत्त० 26 अ०। सावद्ययोगविरतिप्रधाने आवश्यकस्य प्रथमे अध्ययनविशेष, पाला "सामायिकस्य विवृति, कृत्वा यदवाप्तमिह मया कुशलम् / तेन खलु सर्वलोको, लभतां सामायिकं परमम्॥१॥ यस्माज्जगाद भगवान्, सामायिकमेव निरुपमोपायम्।शारीरमानसाने-कदुःखनाशस्य मोक्षस्य // 2 // " आ० म०१ अ० राज्यादिदानपूर्वकं च जगद्गुरुः सामायिक प्रतिपन्नवानिति तत्स्वरूपनिरूपणायाहसामायिकं च मोक्षाङ्ग, परं सर्वज्ञभाषितम्। वासीचन्दनकल्पाना-मुक्तमेतन्महात्मनाम्॥१।। समस्य-रागद्वेषकृतवैषम्यवर्जितस्य भावस्थाऽऽया लाभः समायः स एव सामायिकं चारित्रं तच्च चशब्दात-ज्ञानदर्शने च / यदाह-"सम्यगदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षपार्गः" अवधारणाद्वा चशब्दस्य, सामायिकमेव नतु परपरिकल्पित कुशलचित्तम्। अथवा-चशब्दः पुनरर्थः तस्य चैवं प्रयोगः, इह भगवता राज्यदानमहादानादीनि कृतानि सामायिक पुनस्तेषु मोक्षाङ्गम्-निर्वाणकारणम् / नन्वेवं ज्ञानादीना तदकारणत्वं स्यादित्यत आह-परं प्रधानमनन्तरमित्यर्थः, ज्ञानादीनां हि सामायिककारणत्वेन मोक्षकारणत्वम्, यदाह- ''णाणाहियस्स णाण, हुज्जइणाणापवत्तए चरणं ''तितत्कि स्वमतिविकल्पित नेति आहसर्वज्ञभाषितम् / अथवा-कथमिदमवसितमिति चेदत अह-यतः सर्वज्ञभाषितं समस्तवित्प्रणीतम्। मोक्षादयो हि भावा अतीन्द्रियास्ते च सर्वविद्वचनावसेया एव भवन्ति प्रमाणान्तरस्य तेष्वप्रवृत्तेः / एतच्च Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइय किं सर्वेषां भवति नेत्याह-वासीलोहकारोपकरणविशेषः, वासीव वासी अपकारकारी तां चन्दनमिवमलयजमिव दुष्कृततक्षणहेतुतयोपकारकत्वन कल्पयन्ति मन्यन्त वासीचन्दनकल्पाः, यदाह- "यो मामपकरीत्येष, तत्तेनोपकरोत्यसा / शिरामोक्षाद्युपायेन, कुर्वाण इव नीरुजम / / 1 / / " अथवास्यामपकारिणि चन्दनस्य कल्प इव छंद इव य उपकारित्वेन वर्तन्ते ते वासीचन्दनकल्पाः , आह च- "अपकारपरेऽपि परे, कुर्वन्त्युपकारमेव हि महान्तः। सुरभीकरोति वासी , मलयजमपि तक्षमाणमपि // 1 // " वास्यां वा चन्दनस्येव कल्प आचारो येषा ते तथा / अथवा-वास्यां चन्दनकल्पा:-चन्दनतुल्या ये ते तथा, भावना तु प्रतीतेव, तेषां वासीचन्दनकल्पानामुक्तमभिहितमाप्तैनन्येिषामेतत्सामायिकम् केषामेवं विशेषणानामित्याह-महात्मनाम्-उत्तमसत्त्ववतामिति। सामायिक फलतः स्वामितश्च निरूपितम् / अथ स्वरूपतस्तदेव निरूपयन्नाह / अथवा-मोक्षाङ्गं सामायिकं यत आहनिरवद्यमिदं ज्ञेय-मेकान्तेनैव तत्त्वतः कुशलाशयरूपत्वात्,सर्वयोगविशुद्धितः / / 2 / / निर्गतम् अवद्याद- गर्हितकर्मणो हिंसादिक्रोधादेरिति निरवयं स्वरूपेणेदं सामायिक ज्ञेयं-ज्ञातव्यम्। एकान्तनवसर्वथैवन पुनरंशनापि सावधं तथाविधस्य तस्याविशुद्धत्वात्, यदाह-''पडिसिद्धेसुरा देसे, विहिएसु य ईसिराग भावम्मि। सामाइयं असुद्ध, सुद्धं समयाण दोण्हं पि // 1 // " तत्तातः- परमार्थतो नतूपचारवृत्त्या उपचरित ह्यवस्तु तत्कार्याकरणात। कुत एतदेव-मित्याह-कुशलाशयरूपत्वात् शुभाभिसन्धिस्वभावतस्तस्य सर्वथा निरवद्यत्वाभावे हिकुशलाशयत्वं न स्यादिति ननु। ज्ञानदर्शनयोरप्येतदस्तीत्याह- सर्वयोगविशुद्धितः- समस्तमनोवाकायव्यापारशुद्धि भावान्नहि ज्ञानादिषु योगविशुद्धिरस्तीति। अथागतरूपसामायिकविलक्षणं शाक्यपरिकल्पितं कुश लचित्तं मोक्षाङ्गतया निषेधयन्नाहयत्पुनः कुशलं चित्तं, लोकदृष्ट्या व्यवस्थितम् / तत्तथौदार्ययोगेऽपि, चिन्त्यमानं न तादृशम्।।३।। सामायिक तावत् मोक्षाङ्ग, तत् पुनर्यदित्युद्देशे पुनरिति विशेषणार्थः, कुशल-शुभं चित्तं-मनः किं तत्त्वतः कुशल नेत्याह-लोकदृष्ट्या सामान्यजनदर्शनेन- लोकोत्तरजनदृष्ट्या तु तस्य विचार्यभाणरय कुशलाभासतैव व्यवस्थितम्-प्रतिष्ठितम्, तचित्तम्, 'तथे ति तथाविधस्य सामान्यबुद्धिजनसंमतस्यौदार्यस्योदारताया योगः-संबन्धः तदोदार्ययोगस्तत्रापि,आस्तां तदयोगोऽपि चिन्त्यमानं विचार्यमाणम्, न-नैव तादृशं सामायिकसदृशम्। यत्किल सामायिकादधिकतया संमतं परेषां तद्विचार्यमाणं तत्सममपि न भवतीति कथ तन्मोक्षाङ्ग मिति। अथ तदेव मायापुत्रीयकल्पितं कुशलचित्तमुपदर्शयन्नाह - मय्येव निपतत्वेतज्, जगदुश्चरितं यथा / मत्सुचारित्रयोगाच, मुक्तिः स्यात्सर्वदेहिनाम् / / 4 / / मयीति अनेन बोधिसत्त्व आत्मान निर्दिशति-एवशब्दाऽवधारणे, तेन मरयेव न पुनः परत्र निपततु-नितरामापद्यताम् एतत्प्रतिपाणिप्रत्यक्षमक्षूण सांसारिकासुखकारणं जगता-प्राणिनां दुश्चरित-हिंसादिनिबन्धन कर्ग जगददुश्चरितं, यथेत्युपदर्शनार्थः, तस्य चैव संबन्धः तत्तादार्ययोगेऽपि चिन्त्यमानं न तादृशं यथा एतन्मय्येवेत्यादि, तथा मन्सुचरितयोगात- मदीयाहिंसादिसदनुष्ठानसंबन्धाचशब्दः-- समुचये, मुक्तिः माक्षः स्याद-भवेत् सर्वदेहिना-सकलसंसारिणामिति कुशलचित्तमिति। कस्मादिदं तथौदार्ययुक्तमपि न सामायिकसदृशं भवतीत्याह.. असंभवीदं यद्वस्तु, बुद्धानां निर्वृतिश्रुतेः। संभवित्वे त्वियं न स्यात्, तत्रैकस्याप्यनिवृतौ / / 5 / / असंभवि-न संभवनस्वभावम् इदमनन्तरोदितं यद्-- यस्माद्वस्तु अन्यकृतकर्मणोऽन्यत्र संबन्धलक्षणोऽर्थः, कुत इत्याह- बुद्धानांबोधिसत्त्वानां निर्वृत्तिश्रुतेर्निर्वाणगमनश्रवणात् तदागमे, तथाहि"गङ्गाचालिकासमा बुद्धा निर्वृता'' इति तदागमः / अयमभिप्रायो यदि जगद दुश्चरितं बुद्धे न्यपतिष्य तदा तस्य निर्वाणं नाभविष्यत्, इष्यते च तत्तस्येत्यरामवीदं वस्तु। एतदेवाह-संगवित्वे तु भवनरवभावत्वे पुनरस्य वस्तुन इयं स्तूयमाना बुद्धनिर्वृतिर्न स्यात् न भवेत्तत्र तेषु जाग्रत्सु मध्य एवरयापि जगत आरता बहूनामनिर्वृतावनिर्वाणे सति अतोऽसंभवित्वादस्य वरतुन एतत्कुशलचित्तं न सामायिकसदृशमिति। यदि सामायिकसदृशं नेदं चित्त तर्हि किंविधमिद मित्याहतदेवं चिन्तनं न्यायात्, तत्त्वतो मोहसंगतम्। साध्ववस्थान्तरे ज्ञेयं,बोध्यादेःप्रार्थनादिवत्॥६॥ रादिति-यस्मादसंभवीदं वस्तु तस्मादेवमनन्तरोदितं मय्येवेत्यादिचिन्तनं ध्यान न्यायादुपदर्शितादसं भवित्वलक्षणान्न यावत्तत्वतः परमार्थचिन्तायां मोहसगते–मोहनीयकर्मोदयानुगतम्, मोहोदयाभावे हि समस्तविकल्पोत्कलिकावर्जितमेव चित्तं भवति / सरागावस्थायां पुनः स्यादप्येवंविधं चित्त साधुता च तस्य स्यादित्याह- साधुशोभनमनन्तरोदित प्रणिधानमवस्थान्तरे सरागावस्थायां न पुना रागक्षये नेयं -ज्ञातव्यग 1 किंवदित्याह- बोध्यादेरारोग्यबोधिलाभादरादिशब्दात समाधिवरपरिग्रहः, प्रार्थनादिवत्-याञ्चादि यथा / यदाह- 'आरुग्गबाहिलाभ, समाहिवरमुत्तम दितु' आदिशब्दाद्अर्हदादिरागपरिग्रहः, यदाह- 'अरिहंतेसुय रागो, रागो साहूसु बंभयारीसु / एस पसत्थो रागो, अजसरागाण साहूणं / / 1 / / ' अयमभिप्रायो यद्यपि प्रार्थनीयानामर्हता वीतरागतया बोधिलाभादिदानमसंभवितथापि रागवतो भगवत्सु भक्तिमावेदयतो भावोत्कर्षादिदं साध्वेव। आह च- 'भासा असच्चमोसा, नवरं भत्तीऍ भासिया एसा। नहु रखीणपेजदोसा, दंति समाहिं च लोहिं च / / 1 / / ' यदि च मोहसंगतमप्यौदार्यमात्रापक्षया मय्येवेत्यादिचिन्तनमनवा स्यात्तदैतदनवातरं भविष्यति, यथा Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइय 764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइयकड "अन्धादीना यदज्ञान-मास्तां मय्येव तत्सदा / मदीयज्ञानयोगाच, आराहणाइजुत्तो,सम्म काऊण सुविहिओ काल। चैतन्यं ते(५)षा सर्वदा।" अर्थतदसंभवान्मोहसंगतमिति चेदित- उक्कोसं तिन्नि भवे,गंतूण लभेज निव्वाणं / / 808 / / रत्राप्यसंभवित्वं तुल्यमेवेति। अस्य च श्लोकस्य प्रथमपादमन्यथाऽपि किञ्च-आराधनया युक्तः-प्रयत्नपरः सम्यक् कृत्वा सुविहितः कालं पठन्तिा तद्यथा- 'एवं च चिन्तनं ह्येतदिति, अर्थस्तु प्रकट एवेति।। पुनश्च उत्कृष्टतः-अतिशयेन सम्यगाराधना कृत्या बीन भवान गत्वा यदपि व्याघ्रादेः स्वकीयमांसदानादावतिकुशलं चित्तं परेणेष्यते तदपि निर्वाणं-मोक्षमवश्यं प्राप्नोतीति। एतदुक्तं भवति-यदि परमसमाधानेन सामायिकापेक्षा असाध्विति दर्शयन्नाह सम्यक् कालं करोति ततस्तृतीये भवेऽवश्यं सिद्ध्यतीति / आह अपकारिणि सद्बुद्धि-विशिष्टार्थप्रसाधनात्। परःउत्कृष्टताऽष्टभवाभ्यन्तरे सामायिकं प्राप्य नियमात्सिद्धयतीति, आत्मम्भरित्वपिशुना,तदपायानपेक्षिणी॥७।। जघन्यतः पुनरेकस्मिन्नेव भवे सामायिकं प्राप्यसिद्धयतीत्युक्तं अपकारिणि--अपकरणशील बुद्धमांसभक्षके-व्याघ्रादी दुर्जने वा | ग्रन्थान्तरं, ततश्च यदुक्तं त्रीन् भवानतीत्य सिद्ध्यतीति तदेतन्नाप्युत्कृष्ट विषयभूतं सन्-शोभनोऽयमिति बुद्धिः-मतिः राद् बुद्धिः कुत इत्याह- | नापि जघन्य ततश्च विरोध इति / उच्यते- अनालीढसिद्धान्तसगावेन विशिष्टारिय-पीडोत्पादक तथा कर्मकक्षकर्तनसहायक-करणतः यत्किञ्चिदुच्यते,यत्तदुक्त जघन्यत एकेनैव भवेन सिद्ध्यतीति तद्वजर्षभसकलशरीरनिवृतिहेतुभूतसर्वज्ञतासौधशिखरारोहणलक्षणस्य नाराचसंहननमगी-कृत्योक्तम्, एतच्च छेवट्टिकासंहननमड़ीप्रधानवस्तुनः प्रसाधन निष्पादनं विशिष्टार्थप्रसाधनं तस्माद्या कृत्योच्यते, छेवट्टिकासहननो हि यद्यतिशयेनाराधनं करोति ततस्तृतीये बुद्धिः, सा किभित्याह-आत्मानमेवन परं बिभर्ति-पुष्णातीत्यात्म- भवे मोक्ष प्राप्नोति / उत्कृष्टशब्दश्चात्रातिशयार्थे द्रष्टटयो न तु भवमरिश्तदाब पिशुनयति शुचयतीत्यात्मभरित्वपिशुना, कुतः एतदित्याह- गीकृत्य, भवाड़ीकरणे पुनरष्टभिरेवोत्कृष्टतो भवे छेवट्टिकासंहननः ताऽसा तेषां बुद्धशीसपकारिणां व्याघ्रादीनां ये अपायादुर्गतिगम- सिद्ध्यतीति। ओघ। नादय तान्नापोक्षत इत्येवंशीला तदपायानपेक्षिणी आत्मभरित्वं (76) प्रकीर्णकवार्ताःपरापकारानपेक्षित्वं महदूधणं महतामिति। तथा-श्राद्धः सामायिकं कुर्वन् 'दुविहं तिविहेणं' इत्यादिना अकृतमुपसहरन्नाह - सावधव्यापारसम्बन्धिकरणकारणे एव निषेधयति, नत्यनुमोदनम्, तथा एवं सामायिकादन्य-दवस्थान्तरभद्रकम् / च सति सामायिकस्थोऽसौ सावधव्यापारं मनोवाक्कायानामन्यतरेण स्याचित्तं तत्तु संशुद्धे- यमेकान्तभद्रकम् // 8 // केनाप्यनुमोदयन सामायिक खण्डयति नवेति? प्रश्रः, अत्रोत्तरम्एवमनन्तरात्तनीत्या मोहसग तत्वाभिधानलक्षणया सामायि-- सामायिकस्थः श्राद्धो मनोवाक्कायैःसावधव्यापारमनु-मोदयन्नपि कान्मो वयादिसकलभावो ये क्षालक्षणात् अन्यद् अपरं मय्येव सामायिकं न खण्डयति,तद्विषयकविरतेरभावात्, यदि च नग्नुमोदयति नपतत्वियादि पर कल्पितम- 'आरुग्ग बोहिलाभनि' त्यादि तदा यो लामभाग् भवतीति / / 75|| सेन० 1 उल्ला। तथाजनकल्पितं च वैमा योगः / अवस्थान्तरे योग्यताविशेष एव तीर्थकरगणभृता मिथो भिन्नवाचनत्वेऽपि साम्भोगिकत्व भवति न वा? साभिष्वन तायाम न तु के वलित्वे भद्रक-कल्याण युक्तम- तथा सामाचार्यादिकृतो भेदो भवति न वा? इति प्रश्रः, अत्रोत्तरम्--- वस्थान्तरभद्रकं स्यादपचिमनः, तत्तु सामायिकं पुनः संशुद्धेः गणभृतां परस्परं वाचनाभेदेन सामाचार्या अपि कियान् भेदस्सम्भासभस्तदापवियोगलाई यज्ञातव्यमेकान्तभद्रकंसर्वथैव शोभनमिति। व्यते,तद्भेदे च कशिदसाम्भोगिकत्वमपि सम्भाव्यत इति // 6 / / सेन० हा०२६ अटक २उल्ला०। तथा व्याख्यानवेलायां कृतसामायिका श्राद्धी आदेशपरिहार्यदायप्रदन अधुनोपदेशाभिधित्सयाऽऽह मार्गणपूर्वक प्रतिलेखना करोत्यन्यथा वेति? प्रश्नः,त्रोत्तरमसीओदगपडिदुगुलियो, अपडिण्णस्स लवावसप्पिणो। सामायिकमध्ये प्रतिलेखनादेशमार्गणं यौक्तिकमिति / / 165 / सेन०२ सामाइयमाहु तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसणं न भुंजती / / 20 / / उल्ला० तथा--पौषधमध्ये चर्चालापकहुण्डिका वाच्यते न वा? इति तथा शीतोदकम अप्रासको प्रति जुगुप्सकस्य-अप्रासुकोद- प्रश्नः,अत्रो-तरम्-सा मनसि वाच्यते,नतु वाढस्वरेण, सिद्धान्तालाकपरिहारिणः साधोः न लिने निजानिदानरूपा यस्य सोऽप्रतिज्ञोऽ- | पकगर्भितत्वादिति / / 101 // सेन०४ उल्ला०। निंदान इत्यर्थः,लकर 'अब पिणो' सि-अवसर्पिण: सामाइयउवक्कम पुं०(सामायिकोपक्रम) सामायिकम- आवश्यक शदनुष्ठान कर्मबन्धमा रिहरिण इत्यर्थः, तस्वम्भूतरय प्रथमाध्ययनम्, तस्थानुक्रमः-परिपाटीविशेषः सामायिके व अनुक्रमः साधोर्यस्मात रात सामाजिक समतलक्षणमाहुः सर्वज्ञाः यश्न साधः सामायिकानुक्रमः। सामायिकस्य सामायिके वाऽनुक्रमणे, दश्०१ अ०॥ मृहभावे . गहस्थमजने को-17-7भुडक्ते तस्य च सामायिक- सामाइयकड पु०(सामायिककृत) सामायिकंसावद्ययोगपरिवर्जननिरवहामाहुरिति बधनीरा मिति 05102 अ०२ उ01 त्रिपिटकादि योगासेवनस्वभावंसंविहितदेशतो येनस सामायिककृतः आहि गन्यादिएमयवृत पण्डित मुदा दर्शनात क्तान्तस्योत्तरपदत्वमा तदेवमप्रतिपन्नपौषधस्य दर्शना, तापेतरण Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइयकड 765 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाइयकप्पट्ठि प्रतिदिनमुभयसन्ध्यं सामायिककरणं मासत्रयं यातत्तृतीयामुपासकप्रतिमा प्रतिपन्ने,स०११ सम०। प्रतिपन्नाद्यशिक्षाव्रते, पञ्चा० 1 विव०। (' उवासगडिमा' शब्दे द्वितीयभागे 1130 पृष्ट इयं प्रतिमोक्ता।) (सामायिककृतस्य का क्रिया क्रियत इति 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 547 पृष्ठे उवतम्।) सामायिककृतस्य प्रत्याख्यानभङ्गाःरायगिहे० जाव एवं वयासी-आजीविया णं भंते ! थेरे भगवंते एवं क्यासी-समणोवासगस्सणं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ भंडे अवहरेजा, से णं भंते ! तं भंड अणुगवेसमाणे किं सयं भंडं अणुगवेसइ परायगं भंडं अणुगवेसइ? गोयमा ! सयं भंडं अणुगवेसइनो परायगं भंडं अणुगवेसइ, तस्स णं भंते ! तेहिं सीलव्ययगुणवेरमणपच्चक्खाणपोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवति? हंता भवति / से केणं खाइणं अतुणं भंते ! एवं वुच्चइ सयं भंडं अणुगवेसइनो परायगं भंडं अणुगवेसइ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवति-णो मे हिरन्ने नो मे सुवन्ने नो मे कंसे नो मे दूसे नो मे विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमादीए संतसारसावदेखे, ममत्तभावे पुण से अपरिण्णाए भवति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइसयं भंडं अणुगवसइनो परायगं भंडं अणुगवेसइ / (सू०३२८४) 'रायगिह' इत्यादि, गौतमो भगवन्तमेवमवादीत्-आजीविका: - गोशालकशिष्या भदन्त ! स्थविरान-निर्ग्रन्थान् भगवतः-एवं-वक्ष्यमाणप्रकारमादिषुः, यच्च ते तान् प्रत्यवादिषुस्तगौतमः स्वयमेव पृच्छन्नाह- समणोवासगस्स ण मित्यादि, 'सामायिय-कडस्स' त्तिकृतसामायिकस्यप्रतिपन्नाद्यशिक्षाव्रतस्य, श्रमणो-पाश्रये हि श्रावकः सामायिक प्रायः प्रतिपद्यते इत्यत उक्तं श्रमणो-पाश्रये आसीतस्येति, 'केइ ति–कश्चित्पुरुषः भड' ति वस्त्रादिकं वस्तुगृहवर्त्ति साधूपाश्रयवर्ति वा 'अवहरेज' त्ति-अपहरेत् 'से' त्ति–स श्रमणोपासकः 'त भंड' तितद्-अपहृतं भाण्डम 'अणुगवे--समाणे त्ति-सामायिकपरिसमाप्त्यनन्तरं गवेषयन् 'सभंड ति--स्वकीय भाण्ड परायगं' ति परकीयं वा? पृच्छतोऽयमभिप्रायः- स्वसम्बन्धित्वात्तत्स्वकीये सामायिकप्रतिपत्ती च परिग्रहस्य प्रत्याख्यातत्वादस्वकीयमतः प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-- 'सभंड' ति-स्वभाण्ड, तेहिं ति-तैर्विवक्षितेर्यथाक्षयोपशमं गृहीतरित्यर्थः, 'सील' त्यादि, तत्र शीलवतानि-अणुव्रतानि गुणा-गुणव्रतानि विरमणानिरागादिविरतयः प्रत्याख्यानं-नमस्कारसहितादि पौषधापवास:पर्वदिनोपवसनं तत एषां द्वन्द्वोऽतस्तैः, इह च शीलव्रतादीनां ग्रहणेऽपि सावद्ययोगविरत्या विरमणशब्दापात्तया प्रयोजन तस्या एव परिगृहस्यापरिग्रहतानिमित्तत्वेन भाण्डस्या-भाण्डताभवनहेतुत्वादिति 'सेभंडे अभंड भवइ ति-तत्-अपहृतं भाण्डमभाण्ड भवत्यसंव्यवहार्यत्वात्। 'सेकेणं ति अथ केन 'खाइ णं ति-पुनः 'अटेणं' ति-अर्थेन-हेतुना / 'एवं भवइत्ति एवंभूतो मनः परिणामो भवति–'नो मे हिरन्ने' इत्यादि, हिरण्यादि-परिग्रहस्य द्विविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यातत्वात्, उक्तानुक्ता नुसंग्रहेणाह- 'नो में' इत्यादि, धनं-गणिमाति गवादि वा कनकं-- प्रतीतं रत्नानिकर्केतनादीनि मणयः- चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि शडखाश्च प्रतीताः शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि / अथवा-शिलामुक्ताशिलाद्याः प्रवालानि-विमादुणि रक्त-रत्नानिपद्मरागादीनि तत एषा द्वन्द्वस्ततो विपुलानि--धनादीन्यादिर्यस्य स तत्तथा, 'संत' त्ति-विद्यमान 'सार' त्ति प्रधान 'सावएज' ति-स्वापतेय द्रव्यम् एतस्य च पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथ यदि तद्भाण्डमभाण्ड भवति तदा कथ स्वकीय तद् गवेषयति? इत्याशङ्याह- 'ममत्ते' त्यादि, परिग्रहादिविषये मनोयाकायानां करणकारणे तेन प्रत्याख्याते ममत्वभावः,पुनः- हिरण्यादिविषये ममतापरिणामः पुनः अपरिज्ञातः-अप्रत्याख्यातो भवति, अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात, ममत्वभावस्य चानुमतिरूपत्वादिति / भ०५ श०५ उ०। ('जाया' शब्दे चतुर्थभागे 1454 पृष्ठे बहु वक्तव्यं गतम्।) सामाइयकप्पट्टिइ-स्त्री०(सामायिककल्पस्थिति) सामायिकम्-- संयमविशेषस्तस्य तदेव वा कल्पः करणम्- आचारः सामायिककल्पः / सच प्रथमचरमतीर्थयोः साधनामल्पकालच्छेदोपस्थाप-- नीयसद्धावात, मध्यमतीर्थेषु महाविदेहेषु च यावत्कथिकच्छेदोपस्थापनीयाभावाभावात्, तदेवं तस्यावस्थितिः-मर्यादा सामायिककल्पस्थितिः कल्पस्थितिभेदे, स्था०३ ठा०४ उ०। अथैनामेव यथाक्रम विवरीषुः प्रथमतः सामायिककल्पस्थिति विवृणोतिकतिठाणहितो कप्पो, कतिठाणेहि अद्वितो। वुत्तो धूतरजोकप्पो, कतिट्ठाणपतिद्वितो // 282 / / यः किल धूतरजाः-- अपनीतपापकर्मा सामायिकसाधूनां कल्प आचारी भगवद्विरुक्तः स कतिषु स्थानेषु स्थितः? कतिषु स्थानेषु अस्थितः? कतिस्थानप्रतिष्ठितश्वोक्तः? सूरिराहचउठाणे ठिओ कप्पो, छहि ठाणेहिं अट्ठिओ। एसो धूयरयोकप्पो, दसठाणपतिठिओ।।२८३।। चतुःस्थानस्थितः कल्पः षट्सु च स्थानेष्वस्थितस्तदेवमेवधूतरजाः सामायिकसंयतकल्पो दशस्थानप्रतिष्ठितः, केषुचित् स्थित्या केषुचित्पुनरस्थित्या, दशसु स्थानेषु पतिवदो मन्तव्य इत्यर्थः। इदमेव व्यक्तीकरोतिचउहि ठितो छहि अठितो,पढमा वितिया ठिता दसविहम्मि विहमाणा णिव्विसगा, जेहिं वहतेउ णिविट्ठा।।२८४|| प्रथमाः-सूत्रक्रमप्रामाण्येन सामायिकसयतास्ते चतुर्दा स्थानेषु स्थिताः, षटसुपुनरस्थिताः गाथायां सप्तम्यर्थे तृतीया। ये तु द्वितीयाः-छेदोपस्थापनीयसंयतास्ते दशविधेऽपि कल्पे स्थिताः। पश्चानतृतीयचतुर्थकल्पस्थित्योः कल्पशब्दार्थमाह- 'वहमाणा' इत्यादि। ये परिहारविशुद्धिक Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाइयकप्पट्ठि 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी तपो वहन्ति ते निर्विशमानकाः, यस्तुतदेव तपोव्यूढं ते निर्विष्टकायिका | सामाइयपय-न०(सामायिकपद) सामायिकप्रतिपादके पदे अनु०॥ उच्यन्ते / आह-कानि पुनस्तानि चत्वारि षट् वा स्थानानि येषु | सामाइयसंजय-पुं०(सामायिकसंयत) सामायिक सर्वसावद्यविरतिरूपं सामायिकसयता यथाक्रमं स्थिता अस्थिताश्चेति / तत्प्रधानाः संयताः सामायिकसंयताः / सामायिकाख्यचारित्रप्रधानेषु अत्रोच्यते साधुषु, बृ०६ उ०। (सामायिकसंयतानां विस्तरतो व्याख्या 'संजय' सिज्जायरपिंडे या,चाउज्जामे य पुरिसजेठे य। शब्दे गता) कितिकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा / / 285 / / / सामाग-पुं०(श्यामाक) जृम्भकग्रामस्य बहिः ऋजुपालिकाया नद्यास्तटे 'सेज्जातरपिंडे' त्ति-सूचनात् सूत्रमिति शय्यातरपिण्डस्य परिहरणम, उषिते स्वनामख्याते गृहपतौ, यस्य क्षेत्रे वीरजिनस्य केवलज्ञानचतुर्यामः,पुरुषज्येष्ठश्च धर्मः कृतिकर्मणश्च करणमेते चत्वारः कल्पाः, मुत्पन्नम् / कल्प०१ अधि०६क्षण आ० म०। आ००। धान्यभेदे, सामायिकसाधूनामप्यवस्थिताः / तथाहि-सर्वेऽपि मध्यमसाधवो वाचा महाविदेहसाधवश्व शय्यातरपिण्ड परिहरन्ति। चतुर्याम च धर्ममनुपाल- सामाणिय-पुं०(सामानिक) सकारस्य प्राकृतत्वाद् दीर्घः / सन्नितिकृते, यन्ति पुरुषज्येष्ठश्च धर्म इति कृत्वा तदीया अप्यार्यिकाश्चिरदीक्षिता अपि आ० म०१ अ०। सन्निहिते, अप्रोषिते, "जस्स सामाणिओ अप्पा, तहिनदीक्षितमपि साधुं वन्दन्ते / कृतिकर्म च यथा रात्निक तेऽपि संजमे नियमे तवे / तस्स सामाइयं होइ, इइ केयलिभासियं / / 1 // " कुर्वन्ति,अत एते चत्वारः। कल्पा अवस्थिताः। विशे०। समानतया इन्द्रतुल्यतया ऋद्ध्या चरन्तीति सामानिकाः। इमे पुनः षडनवस्थिताः इन्द्रसमानर्द्धिषु देवेषु, भ०३ श०१ उ०। स्था०। सामानेद्युतिवैभवादी आचेलक्कुद्देसिय, सपडिक्कमणे य रायपिंडे य। भवाः सामानिकाः। अध्यात्मादित्वादिकण् / विमानाधिपतिसूर्याभदेवमासं पज्जोसवणा, छप्पेते ऽणवट्ठिता कप्पा // 286|| सदृशधुतिविभवादिकेषु देवेषु, रा०।आ०म०| आचेलक्यमौद्देशिक सप्रतिक्रमणो धर्मो राजपिण्डो मासकल्पः केषामिन्द्राणां कियन्तः सामानिकाःपर्युषणाकल्पश्चेति / षडप्येते कल्पा मध्यमसाधूनांविदेहसाधूना चउसट्ठी सट्ठी खलु, छच्च सहस्सा तहेव चत्तारि। मनवस्थिताः / तथाहि-यदि तेषां वस्त्रप्रत्ययो रागो द्वेषो वा उत्पद्यते भवणवइवाणमंतर-जोइसियाणं च सामाणे॥४४।। तदा अचेलाः, अथ न रागोत्पत्तिस्ततः सचेला महामूल्य प्रमाणा- द०प०॥ तिरिक्तमपि वस्त्रं गृह्णन्तीति भावः। औद्देशिकं नाम-साधुनुद्दिश्य वृतं धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स णागकुमाररण्णो छ सामाणिभक्तादिकमाधाकर्मेत्यर्थस्तदप्यन्यस्य साधोराय कृत कल्पते तदर्थ यसाहस्सीओ पण्णत्ताओ,एवं भूयाणंदस्स वि०जाव महाधोतु कृतं न कल्पते प्रतिक्रमणमपि यद्यतिचारो भवति ततः कुर्वन्ति, सस्स / (सू० 506) स्था०६ ठा०३ उ०। अतिचाराभावे न कुर्वन्ति। राजपिण्डे यदि वक्ष्यमाणा दोषा भवन्ति ततः / सामाणियपरिसोववण्णग-पुं०(सामानिकपर्षदुपपन्नक) अभ्यन्तरादिपरिहरन्ति, अन्यथा गृह्णन्तिामासकल्पे यद्येकक्षेत्रे तिष्ठता दोषा न भवन्ति पर्षदुपगते, जी०३ प्रति०४ अधिन ततः पूर्वकोटीमप्यासते. अथ दोषा भवन्ति ततो गारो अपूर्ण वा सामाय-पुं०(श्यामाक) धान्यविशेषे, जं०१ वक्ष। निर्गच्छन्ति पर्युषणायामपि यदि वर्षासु विहरता दोषा भवन्ति तत एकत्र *सामाय-पुं० / साममेति "तत्थ आओ व त्ति तेण सामाओ। अहवा क्षेत्रे आसते, अथ दोषा न भवन्ति ततो वर्षारात्रेऽपि विहरन्ति / गता सामरस आओ" सर्वेषु जीवेषु मैत्री साम भण्यतेतत्र साग्नि आयो गमनं सामायिकसंयतकल्प-स्थितिः / बृ०६ उन साम्ना वा यो गमनं वर्तनं स सामायः / अथ वा साम्न आयोलाभः सामाइयचरित्त-न०(सामायिकचरित्र) सावद्ययोगविरतिरूपे चारित्रभेदे, सामायः / सामायिके, विशेला आ०म०। रा०| भ०८ श०२ उ०ा आतुऔ०) सामायारी-स्त्री०(सामाचारी) सामाचरणं समाचारः,तद्भावः सामाचार्य सामाइयचरित्तलद्धि-स्त्री०(सामायिकचरित्रलब्धि) सायद्ययोग तदेव सामाचारी / संव्यवहारे, स्था० 10 ठा०३ उ०। आगमोक्ताविरतिरूपस्य चारित्रस्य लब्धौ, भ०८ श०२ उ०। होरात्रक्रियाकलापे.ग०१ अधिका सामाइयज्झयण-न०(सामायिकाध्ययन) आवश्यकश्रुतस्कन्ध-स्य सामाचारीस्वरूपम्सामायिकप्रतिपादके प्रथम अध्ययने, विशे०। अनु०। आ० म०। आ० सामायारी तिविहा, ओहे दसहा पयविभागे॥६६५।। चू०(अत्र वक्तव्यम् ‘सामाइय' शब्देऽनुपदमेवोक्तमा) समाचरणं समाचारः- शिष्टाचरितः क्रियाकलापस्तस्य भावः ''गुणसामाइयपडिमा-स्त्री०(सामायिकप्रतिमा) 'वरदसणवयजुत्तो, सामाइयं वचनब्राहाणादिभ्यः कर्मणि च-" (पा०५-१-१२४) इति ष्यञ् सामाकुणइ जो उ संझासु / उक्कासेण तिमासं, एसा सामाइयप्पडिया' / / 1 / / चार्य पुनः रखीत्वविवक्षायाम्- 'पिगौरादिभ्यश्च'' (पा०५-१-४१) इत्येवं रूपायां तृतीयायामुपासकप्रतिमायाम्, उपा०१ अ० श्रीन्मासानु- इति डीप, 'यस्येति च" (पा०६-४-१८४) इत्यकारलोपः, "हलभयकालमप्रमत्तः पूर्वोक्तप्रतिमानुष्ठानसहितः सामायिकमनुपालय- स्तद्धितस्य' (पा०६-४-१५०) इत्यनेन तद्धितयकारलोपः, परगमनं तीति। ध०२ अधिन सामाचारी। तत्र सामाचारी त्रिविधा- 'ओहे दसहा पदविभागे' लि Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी ओघः- सामान्यम्, ओघः सामाचारी सामान्यतः सल्ले पाभिधान- प्रवृत्तः, व्याक्षिप्तो-हलकुलिशवृक्षच्छेदादिव्य-ग्रः, अनुपयुक्तः-- साधु रूपा१, सा चौघनिर्युवितरिति 1 / दशविधसामाचारी इच्छाकारा- प्रत्यदत्तावधानः, यदेवंविधः सागारिको भवति तदा रजोहरणेन प्रमृज्य दिलक्षणा 2, पदविभागसामाचारी छेदसूत्राणीति 3 / तत्रौघसमाचारी पादौ याति। 'पडिपक्खेसुउ' इति विसदृशाः पक्षाः प्रतिपक्षाः, असदृशा नवमात्पूर्वात् तृतीयाग्रस्तुन आचाराभिधानात्, तत्रापि विंशतित- इत्यर्थः , तेषु प्रतिपक्षेषु भजनाविकल्पना कर्त्तव्या / एतदुक्तं भवतिमात्प्राभृतात, तत्राप्योघप्राभृतप्राभृतात् नियूंढति / एतदुक्त भवति- केपुचित्प्रतिप्रक्षेषु प्रमार्जनं क्रियते, केषुचित्तु नैवातुशब्दो विशेषणार्थः / साम्प्रतकालप्रवजिताना तावछुत परिज्ञानशक्तिविकलानामायुष्का- किं विशेषयति? प्रतिपक्षेष्वेव समुदायरूपेषु भजना कर्तवया, न त्वेकदिह्रासमपेक्ष्य प्रत्यासन्नीकृतेति दशविधसामाचारी पुनः षडविंशतित- कस्मिन् भङ्ग इति। यदा तु सागारिकः स्थिरोऽव्याक्षिप्त उपयुक्तश्व साधु मादुतराध्ययनात्स्वल्पतरकालप्रव्रजितपरिज्ञानार्थ नियूढिति / पद- प्रति भवति तदा 'इतरेणं' ति इतरशब्देन रजोहरणनिषद्योच्यते तया विभागसामाचार्यपि छेदसूत्रलक्षणानवमपूर्वादेव निhढति गाथार्थः / पादौ प्रमार्टि, न रजोहरणेन, 'विलंबण' ति तां च निषद्या हस्तेन साम्प्रतमाघनियुक्तिर्वाच्या। आव०१० विलम्बमानां नयति, न तच्छरीरसंस्पर्शनं करोति / कियती भुव तत्रौघसामाचारी तावदभिधीयते, अस्याश्च महार्थत्वात् कथश्चिच्छा ! यावदित्याह- 'आलोयण' त्ति आलोकनमालोको यावत्तद्-दृष्टिप्रसर स्त्रान्तरत्याच्चादावेवाचार्यो मङ्गलार्थ संबन्धादित्रयप्रतिपादनार्थ च इत्यर्थः, अथवा 'इतरेणं ति केनचिदीपग्रहिकेण कार्यासिकेन और्णिकन गाथाद्वयमाह वा चीरेण, शेषं प्राग्वत्, पश्चात्त गोपयति। अथवा-'इतरेण विलंबणालोय' अरहते वंदित्ता, चउदसपुव्वी तहेव दसपुथ्वी। ति-प्राक तावदेकाकिनो विधिरुक्तः, यदा तु इतरेणइतरशब्देन एक्कारसंगसुत्त-त्थधारए सव्वसाहू य॥१॥ सार्थो गृह्यतेतेनेतरेण-सार्थेन सह प्रव्रजता स्थाण्डिल्याचास्थाण्डिल्य ओहेण उ निज्जुत्ती, वुच्छं चरणकरणाणुओगओ। संक्रामता किं कर्त्तव्यं सार्थपुरतः? इत्याह- "विलम्बने ति-विलम्बना कार्या, मन्द गतिना सता स्थण्डिलस्थेन तावत्प्रतिपालनीयं, कियन्तं अप्पक्खरं महत्थं, अणुग्गहत्थं सुविहियाणं / / 2 / / कालं प्रतिपालनीयम्? यावदालोकन-दर्शनंतस्य सार्थस्य, अदर्शनीअर्हतो वन्दित्वा चतुर्दशपूर्विणः तथैव दशपूर्विणः, एकादशाङ्ग - भूते तुप्साटान्तरिते सार्थे पादयोः प्रमार्जनं कृत्वा व्रजतीत्ययं विधिः। सूत्रार्थधारकान सर्वसाधूश्व, एतावन्ति पदान्याद्य गाथासूत्र / द्वितीय - उबतो गाथाऽक्षरार्थः, इदानीमष्टभगि का प्ररूप्यते, सा चेयम्-- चलो गाथासूत्रपदान्युच्यन्ते-ओधेन तु नियुक्ति वक्ष्ये धरणक-रणानुयोगात वक्खितो अणुवउत्तो य सागारिओ, एत्थ पमज्जणं, तस्यानुपयुक्तत्वादअल्याक्षरां महामि अनुग्रहार्थं सुविहितानाम्। ओघ०। (ओघनियुक्ति प्रमार्जनेऽसामाचारीप्रसङ्गात् 1, चलवक्खित्तु उवउत्तु एत्थ नत्थि पमजणं पदव्याख्यानम् 'ओहणिज्जुत्ति' शब्द तृतीयभागे 127 पृष्ठे गतम् / ) सागारियत्तणओ 2, च० अव० अणु० एत्थवि पमज्जणं 3, चल० अव० (चरणपदविवरणं 'चरण' शब्दे तत्रैव तृतीयभागे 1125 पृष्ठे विस्तरतो उव० एत्य विणस्थि पमजणं 4, अच०व०अणु० एल्थपमजणं 5, अच० गतम।) (करणपदव्याख्यानम् 'करण' शब्दे तृतीयभागे 356 पृष्ठेगतम्।) व० उ०णत्थि पमजणं 6, अच० अव० अणु० अत्थि पमजणं 7, अच० अनुयोगपदव्याख्यानम् 'अणुओग' शब्दे प्रथमभागे 356 पृष्ठे गतम्।) अव० उ० एत्थ नत्थि पमजणं 8 / तत्थ पढमभंगे नियमेण पमजणा, (अल्पाक्षरमहार्थ-पदप्ररूपणम् अप्पक्खर' शब्दे प्रथमभागे 614 पृष्ट सनसु भयणा / एतदुक्त भवति-केषुचित्प्रमार्जन केषुचिदप्रमार्जना। गतम्।) अनुग्रहार्थं सुविहितानामित्य-स्यार्थविस्तरः' ओहणिज्जुत्ति' रा इदानीं साधुर्गिमजानानः पृच्छति, तत्र को विधिरित्याहशब्द तृतीयभागे 128 पृष्ठ तथा 'पडिलेहण (2) इत्यादिगाथाया पुच्छाए तिणि तिआ, छक्के पढम जयणा तिपंचविहा। ओघनियुवितप्रतिलेखनापिण्डोपधिप्रमाणायतनप्रतिसेवनाऽऽलोचना आउम्मि दुविहतिविहा,तिविहा सेसेसु काएसु // 14 / / विशुद्धिद्वाराणि च सुचितानि।) (तत्र प्रतिलेखनाद्वार पडिलहणा शब्द पञ्चमभागे 336 पृष्ठे गतम्।) (अशिवादिकारणे एकाकिविहारविचार पृच्छायां सत्यां 'तिण्णि तिग' त्ति-त्रयस्त्रिका भवन्ति, तत्र पुरुषः विषयः 'एगल्लविहार' शब्दे तृतीयभागे 16 पृष्ठे गतः।) स्त्री नपुंसकं च / ततेषामेकैकस्त्रिप्रकार:-बालस्तरुणो वृद्धश्चेति, गव्यूतिमायावन्मार्ग वहति / क्रोशद्वयं गव्यूतिः / इदानीं तस्य गच्छतो | एवमेते त्रयस्त्रिकाः, नवेत्यर्थः, तथा तेनैव साधुना गच्छता 'छक्के पढमजयणा' इति--षट्के पृथिव्यादिलक्षणे यतना कर्तव्या, तत्र विधिरुच्यते 'पढमजयणा तिपंचविह' त्ति-प्रथमो यः पृथ्वीकायः तस्य यतना अत्थंडिलसंकमणे, चलवक्खित्तणुवउत्तमागरिए। त्रिपञ्चविधा, तत्र त्रिविधा सचित्तस्य अचित्तस्य मिश्रस्य च / पञ्चविधा पडिपक्खेसु उ भयणा, इयरेण विलंबणा लोगं / / 13 / / पृथिविकाययतना कृष्णनीलरक्तपीतशुक्लस्येति, अथवा-त्रिपञ्चस्थण्डिलादस्थण्डिलं च संक्रामता साधुना पादौ रजोहरणेन प्रमार्ज- विधंति-त्रयः पक्षका पक्षाकदशप्रकारेत्यर्थः, तथाहि- सचित्तः नीयाविति 'वधिः, मा भूत् सचित्तपृथिव्या अचित्तपृथिव्या व्यापत्तिः, पृथिवीकायः शुक्लादिः पञ्चधा, एवमचित्तो, मिश्रश्च, तथाऽप्काये 'दुविहा तथा च पादयोरसौ रजोहरणेन प्रमार्जनं करोति। अथ कश्चित्सागारिकः (जहा जयणा) तिविहाय' तत्र द्विधा अन्तरिक्षाप्काययतना भीमाप्कापथिव्रजतश्चलो भवति, व्याक्षिप्तोऽनुपयुक्तश्चेति / तत्र चलोगन्तुं पथि | यतना च, त्रिविधा तु सचित्ताप्काययतना, अचित्ता० मिश्रा०,त्रिविधा Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामाधारी तु शेषेषु कायेषुतेजोवायुवनस्पतित्र साख्येषु सतना, कशा? सच्चित्तादि, महाद्वारगाथायाः समुदायार्थः / अथाघद्वारावयवार्थ पुनस्तदेवाहपुरिसो इत्थिनपुंसग, एकेको थेर मज्झिमो तरुणो। साहम्मि अन्नधम्मिअ-गिहत्थदुगअप्पणो तइओ||१५|| यदुक्तमनन्तरगाथाया 'पुच्छाए' ति--पृच्छायां त्रितःसंभवति, तदा | पुरुषः स्वीनपुंसकं चेति, यदुक्तं त्रयरित्रकाः तदर्शयन्नाह एककः स्थविरो मध्यमरतरुण इत्ययं नवभेदः / स चैकैको नवविधोऽपि कदायित्साधर्मिकः स्यात्वदाचित्तु नवविधाऽप्यन्यधार्मिकः स्यादित्याह.. रागाने धर्मे वर्त्तत इति सा धर्मिकः--श्रावकः श्राधिका नपुंसक श्रावक च, अन्यधार्गिको मिथ्यादृष्टिः / कियन्तः पुनरतेन गच्छा शानं प्रष्टव्याः इत्यत आह- "गिहत्थदुग' त्ति-साधर्मिकगृहस्थत्यं पृच्छनीयम्, अन्यधार्मिकगृहस्थद्वयं वा / 'अप्पणा' तिउ तिमात्मना तृतीयो युक्त्याऽन्वेषणं विदधाति, एष तावत्सामान्योपन्याराः / अथ प्रथमं यः प्रष्टव्यः स उच्यते-- तत्र यदि साधर्मिकद्वयमस्ति तास्तदेवोत्सर्गेण पृच्छयते, लस्य प्रत्ययिकत्वात्, अथ नास्ति ततःसाहम्मिअपुरिसासइ, मज्झिमपुरिसं अणुण्णविअ पुच्छे। सेसेसु होंति दोसा, सविसेसा संजईवग्गे।।१६।। साधर्मिकपुरुषद्वयाभावेऽन्यधार्मिकमध्यमपुरुषद्रय पृनीयं, कथमा? 'अणुण्णविअ' अनुज्ञां कृत्वा धर्मलाभपुरस्सर, ततः प्रिापूर्वक पृच्छति। अन्यधार्मिकमध्यमगहणं त्विह साधर्मिकविपक्षत्वादवसीयत एव.'रोसेसु' त्ति-अन्यधार्मिकमध्यमपुरुषद्यव्यतिरिक्तेषु अष्टसुभेदेषुदोषा भवन्ति पृच्छतस्तएव दोषाः सविशेषाः-समधिकाः संयतीवर्गे संयतीवर्गविषये पृच्छतः सतः के च ते दोषा इत्याहथेरो पहं न याणइ, बालों पवंचणे न याणई वावि। पंडिस्थिमज्झसंका, इयरेन याणंति संका य / / 17 / / स्थविर:-वृद्धःस मार्ग न जानाति, भष्टस्मृतित्वात, बालस्तु प्राशयति केलीकिलत्वात नवा जानाति, क्षुलकत्वाद, बालरत्या अपवर्षादारभ्य यातपञ्चविंशतिक इति, असावपि बाल इव वालः, 3परिणतत्वेन रागान्धत्वात, मध्यमक्यः-एण्डकमध्यवयः स्त्रीपच्छायाशझोपजायते, नूनगस्त ताभ्यां कश्चिदर्थोऽस्ति, 'इयरेन याति' इत-शब्दयतिर - नपुंसकं बालनपुंसक रथविरस्त्री वाला स्त्री वाऽभिगारी, एरो मार्गानभिज्ञाः शङ्काच स्यात। क्वतर्हि व्यवस्थितेन पृच्छनीयमित्याह पासहिओ य पुच्छे-ज वंदमाणं अवंदमाणं वा। अणुवइऊण व पुच्छे, तुण्हिक्कं मा य पुच्छिज्जा / / 18|| पाश्वस्थितः-समीपे व्यवस्थितः पृच्छेत, किंविशिष्ट | पृच्छत् ? बन्दन कुमकुर्वाणं वा। अथासौ-समीपमतिक्रम्य यात्थेवत: अणुवइ. म नका कतिचिोका ! 1 पृच्छ्यमानोऽपि न किञ्चिद्वक्ति तूष्णीं व्रजति, ततो नैव दृच्छनीय इति। पंथन्भासे य ठिओ, गोवोई मा य दूरि पुच्छिज्जा। संकाईया दोसा, विराहणा होइ दुविहा उ||१६।। तथा पन्थाभ्यासे--समीपे स्थितः कश्चिद्गोपालादिः आदिशब्दास्कर्षकपरिग्रहः ,सचपृच्छनीयः, माचरे व्यवस्थित गोपालादि पृच्छेत्, शङ्कादिदोषसद्भावात्, नूनमस्य दविणमस्ति वलीवर्दादि (कं वा) शृङ्गिण करोतीत्येवमादयः / दूरे च गच्छतो द्विविधा विराधना आत्मसंयमविषया / आद्या कण्टकादिभिरितराऽनाक्रान्तपृथिव्याद्याक्रमणेन। यदा तुपुनरम्यधार्मिको मध्यमवयाः पुरुषो नास्ति यः पन्थानं पृच्छ्यते तदा कः प्रष्टव्य इत्याह.. असई मज्झिम थेरो, दढस्सुई भद्दओ य जो तरुणो। एमेव इत्थिवग्गे, नपुंसवग्गे य संजोगा // 20 // असति मध्यमपुरुषे स्थविरः पन्थानं पृच्छनीयः, किं विशिष्टः, दृढस्मृतिः अथ स्थविरो न भवति ततस्तरुणः प्रष्टव्यः, कीदृशः? यः स्वभावेनय मद्रकः / स्वीवर्गेऽप्येवमेव पृच्छा कर्त्तव्या। एतदुक्तं भवतिप्रथम मध्यमवयाः रबीमार्ग प्रष्टव्या तदभावे स्थविरा दृढस्मृतिः, अथ स्थविरा न भवति ततस्तरुणी प्रष्टव्या, तदभावे भद्रिका तरुणी, एवं मध्यमवयो नपुसक, तस्याभावे स्थविरनपुंसकं दृढस्मृति, तदभावे बालनपुंसकं भद्रकम,आह च-नपुंसकवर्गे च संयोगा:- नपुंसकवर्गेनपुंसकसमुदाये एवमेव संयोगा ज्ञातव्याः। यथैतेऽनन्तरामुक्ताः न केवलमेतावन्त एव संयोगाः किन्त्वन्यऽपि बहवः सन्ति। आह चएत्थं पुण संजोगा, होति अणेगा विहाणसंगुणिआ। पुरिसित्थिनपुंसेसुं, मज्झिम तह थेर तरुणेसुं / / 21 / / अत्र पुनः- पृच्छाप्रक्रमे संयोगा भवन्त्यनेके, कथं? विहाण-संगुणिय त्ति - विधानेन-भेदप्रकारेण संगुणिताः, चारणिकया अनेकशी भिन्ना इत्यर्थः, क च ते भवन्ति? 'पुरिसित्थिनपुंसेसु' पुरुष स्त्रीनपुंसकेषु किंविशिष्टेषु? मध्यमस्थविरतरुणभेदभिन्नेषु, उक्तो गाथाऽक्षरार्थः। इदानी भङ्ग काः प्रदर्श्यन्ते... "तत्थ साहम्मिअचारणिआए तावदो मज्झिमवया साहम्मिअपुरिसा पुच्छेज एस एक्को उ१, त्दभावे दो थेरे साहम्गिए चेव पुच्छिता 2. तदभावे दो तरुणे साहम्मिए व एस सइओ त्ति 3, तदभाव दो साहम्मिणीओ मज्झिमिअमहिलात 4, ततो दो थेरीओ साह-म्मिणीओ चेव पचमो एसो५, तत्तो साहम्भिणीओ चिअ दो तरुणीओ छट्ठो सो 6, तदभावे दो साहम्मिओ उमरिझमनपुराया पुच्छे 7, तत्तो दो साहम्मिअथेणपुंसाओ अट्टमओ 8. दो साहम्मिअतरुणे नपुंराया चेव ते उ पुच्छेज्जा 6, अहवा-मज्झिमपुरिसो थेरो उदु चेव साहम्मी 10. मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ तरुणसाहम्मिओ उ पुच्छि अइ 11, मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ मज्झिममहिला साहम्मिा 12, मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ थेरी य साहम्मिणी 13, मनिझमपरिसो साहम्मिओ तरुणीय साहमिगी 14. भ.. Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी ज्झिमपुरिसो साहम्मिओ मज्झिमसाहम्मिअनपुसो अ 15. मज्झिमपुरिसो साहम्मिओ थेरसाहम्मिअनपुंसओ अ 16. मज्झिमपुरिसा साहम्मिओ तरुणनपुंसयसाहम्मिओ य 17. अहवा-थेरपुरिसो साहम्मिओ तरुणसाहम्मिओ अ १८,थेरपुरिसो साहम्मिओ मज्झिममहिला साहमिमणी 16, थेरपुरिसो साहम्मिओथेरी साहम्मिणी अ२०, थेरपुरिसो साहम्मिओ तरुणी साहम्मिणीय 21, थेरपुरिसो साहम्मिओ माज्झमनपुंसओ साहम्मिओ य 22, थेरपुरिसो साम्गिओथेरनपुंसओ सहाम्मिओ अ 23, थेरपुरिसो साहम्मिओ तरुणनपुंसओ सा० य 24, तरुणपुरिसो साहम्मिओ मज्झिममहिला साहम्मिणी अ 25, तरुणपुरिसो साहम्मिओ थेरसाहम्मिणी अ 26, तरुणपुरिसो साहम्मिओ तरु...णी साहम्मिणी अ 27, तरुणपुरिसो साहम्मिओ मज्झिमनपुंसयसाहम्मिओं अ 28, तरुणपुरिसो साहम्मिओ थेरनपुंसय-साहम्मिओ अ 26, तरुणपुरिससाहम्मिओं तरुणनपुंसय-साहम्मिओ अ 30, मज्झिममहिला साहम्मिणी थेरी साहम्मिणी अ 31, मज्झिममहिला साहम्मिणी अ तरुणी साहम्मिणी अ 32, मज्झिममहिला साहमिणी मज्झिमनपुसयसाहम्मिओ अ 33, मज्झिममहिला साहम्मिणी शेरनपुंसओ साहम्मिओ उ 34, मज्झिममहिला साहम्मिणी तरुणनपुंसयसाहम्मिओ अ 35. थेरी साहम्मिणी तरुणी थेरसाहम्मिणी 36, थेरी साहम्मिणी नपुंसय-साहम्मिओ अ ३७,थेरी साहम्मिणी मज्झिमनपुंसथसाहम्मिओ उ 38, थेरी साहम्मिणी तरुणनपुंसयसाहम्मिओ उ 36, तरुणीसाहम्मिणी मज्झिमनपुंसयसाहम्मिओय 40, तरुणी साहम्मिणी थेरनपुसयसाहम्मिओ 41, तरुणी साहम्मिणी तरुणनपुंसय-साहम्मिओ य ४२,तरुणी साहगिणी मज्झिमो नपुंसयसाहम्मिओ अ 43, थेरनपुंसयसाहम्मिओ तरणनपुंसयसाहम्गिओ अ 44, एरो ताव साहम्मिअ चारणिआए ल्झा / इदानी अन्नधम्मचारणि-आए एयं सिज्झईअण्णधम्मिआ दो मज्झिमपुरिसा पुच्छिजंति एसेको 1, अन्नधमिआ दा थेरपुरिसार, अण्णधम्मिआदो तरुणपुरिसा 3. अण्णधम्मिआउ दो मज्झिममहिला 4, अण्णधम्मिआ थेरी उ दो 5, अण्णधम्मिअतरुणी दो 6, अण्णधमिअमज्झिमनपुंसया दो 7, अण्णधम्मिअथेरनपुंसया दो 8, अण्णधामेमअतरुणनपुंसया दो 6, अण्णधम्भिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअधेरपुरिसोय 10, अण्णधम्मियमज्झिमधुरिसो अण्णधम्मिअतरुणपुरिसोय 11, अण्णधम्भिअमज्झिमपुरियो अ अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ१२, अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ अण्णधम्भिअथेरी य 13 अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणी अ 14, अण्णधम्मिअनज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसओ अ 15, अण्णधम्मिअ-नज्मिपुरिसो अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो य 16 अण्णाम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ१), अण्णमिअथेरपुरिसो गम्मिअतरुणपुरिसो अ१८, अण्णधम्भिअर्थरपुरिसा अण्णधम्मिअनज्झिाममहिला य 16, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअथेरी अ 20, अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्गिअतरुणी अ२१, / अण्णधम्मि--अथरपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसओ अ 22. | अण्णधम्मि- अथेरपुरिसो अण्णधम्मियथेरनपुंसगो य 23. अण्णधम्मिअथपुरिसो अण्णधम्भिअतरुणनपुंसगो य २४,अण्णधम्मिअतरुणपुरियो अण्णधम्मिअमज्झिममहिला य २५,अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअथेरी य २६,अण्णधम्मिअतरुणपुरिसा अण्णधम्मिअतरुणी अ२७, अण्णधम्मिअतराणपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुसगो अ 28 अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअथेरनपुसगो अ२६, अण्णधम्मियतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ 30 अण्णधम्मिअमज्झिभमहिला अण्णधम्मिअथेरी अ 31, अण्णधम्मिअमज्झिममहिला आधम्मिअतरुणी अ१२, अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिरामज्झिमनपुंसगो अ 33. अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअथेरनपुंसगोरा 34, अन्नधम्मिअमज्झिममहिला अन्नधम्मि अतरुणनपुंसगो अ 35, अण्णधम्मिअथेरी अण्णधम्पिअतरुणी य 36, अण्णधम्मिअथेरी अण्णधम्मिअथेरनपुंसगोय 37, अन्नधम्मिअथेरी अन्नधम्मिअमज्झिमनपुरगो य 38, अण्णधम्मियथेरी अण्णधम्मियतरुणनपुरनगो अ 36, अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मियमज्झिमनपुंसगो अ 40. अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअर्थरनपुंसगो य 41, अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअतरुणनपुसगो य 42, अन्नधम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ४३, अन्नधम्मिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मिअथेरी नपुंसगो अ४४. अधिम्भिअमज्झिमनपुसगो अण्णधम्मिअतर" . नपुंसओ अ 45, अण्णधम्मिअथेरनपुंसओ अन्नधम्मिअतरुणनपुंसगो अ 46, एते अन्नधम्मिअचारणियाए लद्धा / ते सव्वे य नऊई। इदाणि साहम्मिअ अन्नधम्मिअ उभयचारणिआ किजइसाहम्मिअमज्झिमपुरियो अन्नधम्मियमज्झिमपुरिसो य पुच्छिज्जइ 1, साहम्मिअमज्झिमपुरिसा अण्णधम्मियथेरपुरिसो य 2, साहम्मिअमज्झिमपुरिसा अण्णधम्मिअतरुणा अ 3, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ४. साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअथेरी अ५, साहम्भिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणी अ६, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो य७. साहम्मिअमज्झिमपुरिया अण्णधम्मिअशेरनपुंसगो अ८, साहम्मिअमज्झिमपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणनपुसगो य 6, एते नव साहम्मियमज्झिमपुरिसममुचमाणेहि लता / साहम्मिअथेरपुरिसा अण्णधम्भिअमज्झिमपुरिसो अ 1. साहम्गिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअथेरपुरिसो चेव 2. साहम्मिअशेरपुरिसा अलि -अतागो अ३. साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्भिअमज्झिममहिला अ४, साहम्मिअथेरपुरिसो अन्नधम्मिअमहिलेथरी अ५, साहम्मिअथेरपुरिसो अण्णधम्मिअतरुणी अ६, साहम्मिअथेरपुरिसा अण्णधम्मिअमज्झिमनपुरसगो अ७. साहम्मिअथेरपुरिसो अण्ण -- धम्पियनपुसगरो अ५, साहम्मिअथेरपुरिसो अपणधम्मि अत-- राणनपुंरागो अ६, एतं नव साहम्मिअथेरपुरिसममुंचमाणे हि लद्धा। साहम्मि अतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसोय 1, साहम्मितरुणपुरिया अण्णधम्मियथेरपुरिसो अ 2, साहम्मियतरुणपुरिसा अण्णधम्गिअतरुणपुरिसो अ 3, साहम्मियतरुणयु Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 770 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी रिसो अण्णधम्मिअमज्झिमहिला अ४, साहम्मिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअथेरमहिला य 5, साहम्मिअरुणपुरिसो अण्णधम्भियतरुणी अ६, साहम्मियतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअमजिसमनपुरागा अ 7. साहम्मिअतरुणपुरिको अन्नधम्मिअतरुणनपुंसगो अ, साहम्भिअतरुणपुरिसो अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो अ६, एतवि नव साहम्मिअतरुणममुंचमाणेहि लद्धा! साहम्मिअमज्झिममहिला अधिम्मिअगज्झिमपुरिसो अ१, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधगिअरपुरिसो अ 2, साहम्मियमज्झिममहिला अण्णधम्मिअतरुणपुरिसों अ 3. साहम्मिअमज्झिममहिला अन्नधम्मिअमज्झिममहिला अ४, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअर्थरमहिला अ 5. साहम्भिअमज्झिममहिला अण्णधम्भिअतरुणमहिला अ६, साहम्पिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ७, साहम्मिअमज्झिाममहिला अण्ण - धम्मिअथेरनपुंसगो अ६, साहम्मिअमज्झिममहिला अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अह / एते नवसाहम्मिअमज्झिममहिलाए लड़ा।। साहम्मिआ थेरी अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ 1. साहम्मि अथेरी अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अ२, साहम्मिअथेरी अण्णधम्मि-अरुणपुरिस य 3, साहम्मियथेरी अण्णधम्मिअमज्यिाममहिला अ 4. साहम्मिअर्थरी अण्णधम्मिअथेरी अ५, साहम्भिअथरी अण्णधम्भिअतरुणी अ६, साहम्मिअथेरी अण्णधम्मिअमज्झिमनपुंसगो अ७, साहम्मियथेरी अन्नधम्मिअर्थरनपुंसगो अ८, साहम्मिअथरी अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ६. एते साहम्भियथेरीए अमुंचमाणीए लदा। साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो य 1, साहम्मि अतरुणी अण्णधम्मिअथेरपुरिसो अ२, साहम्गिअतरुणी अण्णधम्मियाणपुरिसो य 3, साहम्मियतरुणी अण्णधम्मि अगज्झिममहिला य 4. साहम्मिअतरुणी अण्णधम्मिअथेरी अ५,साहम्भिअतरुणी अण्णधम्मिअतरुणी अ६ साहम्मिअतरुणी अन्नधम्पिअमज्झिमनपुंरागो अ 7 साहम्मिअतरुणी अन्नधम्मिअथेरनपुंसगा अ८ साहम्मिअतरुणी अन्नधमि-अतरुणनपुंसगो अ६.एते नव साहम्मिअतरुणीए अमुँचभाषण लद्धा ! साहम्मिअमज्झिमनपुंसगो अन्नधम्मिअमज्झिामपुरिसा अ 1. साहम्भिअमज्झिमनपुंरागो अन्नधम्गिअथेरपुरिसा अ 2, साहअसज्झिमनपुंसगो अन्नधम्मिअतरुण रिसो अ 3, साहभिायमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मियमज्झिममहिलाय 4, साहमियमज्झिामनपुराओ अन्नधम्मिअथेरी अ५: साहम्मिअम-ज्झिमनपुराओ अन्नधाग्मियतरुणी अ६, साहम्मियमज्झिामनपुराओ अन्नधम्मियमज्झिमनसओ अ७, सराहम्मिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मियर्थरनपुराअ अ 8, साहम्भिअमज्झिमनपुंसओ अन्नधम्मिअतरुणनपुंसओ अ६. एो नव साहम्भिअमज्झिमनपसगेण अमुंधमाणे ण लदा / साहगिअथरनपुंसआ अण्णधम्म- अमज्झिगपुरिसा अ१, साहम्मिअथेरनपुरमा अन्नधाम अथेरपुरिसो अ२, साहम्मिअथेरनपुसगो अन्नधम्मिअतरुणपुरिसो अ 3, साहग्मिअथेरनपुंसगो अण्णधम्भिअमज्झिमहिला 38 4. साहम्मिअर्थरनपुंसगा अन्नधम्मिअथेरी अ५, साहम्मिअथरनपुराओ अण्ण धम्भियतरुणी अ६, साहम्मिअथेरनपुसगो अण्णधम्भि-अमज्झिमनपुसगी अख, साहम्मिअथेरनपुंसगो अण्णधम्मिअथेरनपुंसगो अ८ / साहम्मिअर्थरनपुसगो अण्णधम्मिअतरुणनपुंसगो अ६, एते नव साहम्मियथेरनपुंसगेण अमुचमाणेण लद्धा / साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअमज्झिमपुरिसो अ 1. साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअर्थरपुरिसो अ 2, साहम्मिअतरुण नपुसगा अण्णधम्मिअतरुणपुरिसो अ३, साहम्मि-अतरुणनपुसगा अण्णधम्मिअमज्झिममहिला अ 4, साहम्मि-अतरुणनपुंसगो अण्णधम्निअथेरी अ५. साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मिअतरुणी अ६, साहम्मिअतरुणनपुंसगो अण्णधम्मि-अमज्झिमनपुंसगो अ७, साहम्मि अतरुणनपुंस्गो अण्णधम्मिा . शेरनपुंसगो अ८, साहम्मिअतरुणनपुरगो अण्णधम्मअतरुणनपुंसगा अ६, एते नव साहम्मिअतरुणनपुंसगण अमुचमाणेण लद्धा। एते नवनवया साहम्मिअअण्णधम्मिअचारणिआए होति। एगत्थ मिलिआ एक्कासीति। उक्तं पृच्छाद्वारम्। ओघ०। (षट्कयतना पृथीकायिकादिशब्देषु) तदेवं गच्छतस्तस्य षटकाययतनादिको विधिरुक्तः, स इदानीं गच्छन् ग्रामादौ प्रविशति, तत्र का सामाचारी? तदर्शनार्थमुप-क्रमतेपढमबिइया गिलाणे, तइए सण्णी चउत्थ साहम्मी। पंचमियम्मि अवसही,छठे ठाणट्ठिओ होइ॥६१।। प्रथमद्वारे द्वितीयद्वारे च 'गिलाणे' त्ति- ग्लानविषया सतना वक्तव्या! तृतीये द्वारे संज्ञी-श्राक्को वक्तव्यः। चतुर्थे द्वारे साधर्मिकः-साधुर्वक्तव्यः। पचमे द्वारे वसतिर्वक्तव्या / षष्ठे द्वारे वर्षाकाल-प्रतिघातास्थानस्थितो भवति / आह-तृतीयद्वारे षडाधिकारा भविष्यन्ति, तद्यथा- "वइअग्गामे संखडि, सण्णी दाणे अ भद्दे अ" ति, ततश्व किमिति सज्ञिन एव केवलस्य ग्रहणमकारि? उच्यते-संज्ञिनोऽतिरिक्तो विधिर्वक्ष्यमाणो भविष्यति अस्यार्थस्य ज्ञापनार्थ संज्ञिग्रहणमेवाकरोत् / अथवा- तुलादण्डमध्यग्रहणन्यायेन मध्यग्रहणे शेषाण्यपि गृहीतान्यव द्रष्टव्यानि, आह...मध्यमे वैतन्न भवति, यतः षडमूनि द्वाराणि, उच्यन्ते, नैतदेवं, यतः सप्तम चशब्दाक्षिप्तं महानिनादेति द्वरं भविष्यति, राज्ञिग्रहणेन मध्यमेव गृहीतमितीयं द्वारगाथा। ओघ०। (साधर्मिकद्वारम् 'साहम्मिय' शब्द वक्ष्यते ) (श्रमणानां मध्ये ये शुद्धास्तेष्वेव संवास कुर्यादिति पडिलेहणा' शब्द पञ्चमभागे 338 पृष्ठे गतम् ) (वसतिद्वारविषयः वसहि' शब्दे गतः।) (यैः कारणैः स्थानस्थिता भवति तानि कारणानि 'ठाणट्टिय' शब्दे चतुर्थभागे 1716 पृष्ठे गतानि।) ('हिंडग' शब्दे हिण्डकस्वरूपं वक्ष्यामि।) (आहिण्डकानां विषयः 'आहिंडग' शब्दे द्वितीयभागे 527 पृष्ठे गतः।) इदानी बालादीनां प्रेषणाहत्त्वे प्राप्ने यतना प्रतिपाद्यते, तत्र च गणावच्छेदकः प्रेष्यते, तदभावेऽन्यो गीतार्थः। तदभावेऽगीतार्थोऽपि प्रेष्यते। तस्य को विधिः? सामायारिमगीए, जोगमणागाढ खवग परावे। वेयावच्चे दायण-जुयलसमत्थं व सहिवा।।१४२।। Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 771 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी अगीतार्थस्य समाचारी कथ्यते, ततः प्रेष्यते, तदभावे योगी प्रेष्यते। | किंविशिष्टः? 'अणागाढ' त्ति अनागादयोगीबाहायोगी योग निक्षिप्य पारयित्वाभाजयित्वा प्रेष्यते, ततस्तदभावे क्षपकः प्रेष्यते, कथम्?'पारावे' त्ति भोजयित्वा, तदभावे वैयावृत्त्यकरः। एतदेवाह- 'वेयावचे' त्ति वैयावृत्त्यकरः प्रष्यते, 'दायण' ति स च वैयावृत्त्यकर: कुलानि दर्शयति, तदभावे 'जुअल' ति युगलं प्रेष्यते-वृद्धस्तरुणसहितः, बालस्तरुणसहितो वा, 'समत्थं वसहिअंब' त्ति समर्थे वृषभे प्रेष्यमाणे तरुणेन सह वृद्धेन वा सह, द्वितीयो वकारः पादपूरणः / आह- प्रथम बालादय उपन्यस्ताः, तत्कस्मात्तेषामेव प्रेषणविधिर्न प्रतिपादितः प्रथमम्? उच्यते, अयमेव प्रेषणक्रमः, यदुत प्रथममगीतार्थः प्रेष्यते, पश्चाद्योगिप्रभृतय इति आह- इत्थमेवोपन्यासः कस्मान्न कृतः? उच्यते,अग्णाहत्त्वं सर्वेषां तुल्य वर्तत, ताश्च योऽस्तु सोऽरतु प्रथममिति न कश्चिद्दोषः। ओघ०। (लब्धाया वसती संस्तारकविधिः 'संथारग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।) (शकुनविचारः 'सउण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 5 पृष्ठे गतः।)(कायोत्सर्गविषयः 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे 417 पृष्ठे गतः।) (प्रत्युपेक्षणायां पौरुषीप्रमाणम् 'पोरिसी' शब्द पक्षमभागे उक्तम् / ) (स्थण्डिलद्वारविषयः थंडिल' शब्दे चतुर्थभागे 2370 पृष्ठे गतः।) (मार्गप्रत्युपेक्षणाद्वारम् ‘पडिलेहणा' शब्दे पक्षमभागे 351 पृष्ठे गतम् / ) (पिण्डनिक्षेपः 'पिंड' शब्दे पञ्चमभागे 617 पृष्ठे गतः।) (लेपपिण्डव्याख्या लेव' शब्दे षष्ठे भागे गता।) (पात्रकद्वारम् ‘पत्त' शब्दे पञ्चमभाग 362 पृष्ठे गतम्।) (एषणाविषयः 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे 52 पृष्ठ गतः।) (भावद्वारं 'भाव' शब्दे पञ्चमभागे गतम्।) (भिक्षाविषयः 'गोयरचरिया' शब्दे 3 भागे 1004 पृष्ठे गतः।) (भोजनविधिः 'भोयण' शब्दे पञ्चगभाग गतः / ) (ग्रासैषणाविधिः 'एसणा' शब्द तृतीयभाग 67 पृष्ठे गतः।) (परिस्थापनिकाविधिः 'परिझवण' शब्द पश्चमभागे 570 पृष्ठ गतः) एसा परिठवणविही, कहिया भे धीरपुरिसपन्नत्ता। सामायारी एत्तो, वुच्छं अप्पक्खरमहत्थं / / 625 / / सुगमा। इदानीं सामाचारी व्याख्यायतेसन्न तो आगतो चर-मपोरिसिं जाणिऊण ओगाढं / पडिलेहणमप्पत्तं, नाऊण करेइ सज्झायं / / 626 / / एवं च साधुः सञ्ज्ञां प्युत्सृज्यागतः पुनः चरमपारुषी चतुर्थप्रहरं ज्ञात्वा अवगाढम् - अवतीर्ण, ततः किं करोतीत्यत आह-प्रत्युपेक्षणां करोति, अथासौ चरमपौरुषी नाद्यापि भवति ततोऽप्राप्तां चरमपौरुषी मत्वा स्वाध्याय तावत्करोति यावच्चरमपौरुषी प्राप्ता। ओ०। (स्वाध्यायविषयः 'सज्झाय' शब्देऽरिम्मन्नेव भागे गतः।) एसा सामायारी, कहिया भे धीरपुरिसन्नत्ता। एत्तो उवहिपमाणं, वुच्छं सुद्धस्स जह धरणा।।६६५।। सुगमा। उक्तं पिण्डद्वारम, (उपाधिद्वारम् 'उवहि' शब्द द्वितीयभागे / 1064 पृष्टे गतम्।) (नन्दिभाजनविषयः 'दिभायण' शब्दे चतुर्थभागे 1757 पृष्ठे गतः) (अनायतनद्वारम् अणाययण' शब्द प्रथमभागे 310 पृष्ठ गतम् / ) (आलोचनाविषयः 'आलोयणा' शब्दे द्वितीयभागे 400 पृष्ट गतः।) दशधा सामाचारीदसविहा सामायारी पण्णत्ता,तं जहाइच्छा मिच्छा तहकारो, आवस्सियों निसीहिया। आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा ||1|| उपसंपया य काले,सामायारी भवे दसविहा उ। (सू०७४६) स्था० 10 ठा० ३उ०। अनु०। आ० म०। (आसा व्याख्या स्वस्वरथाने।) दसविह सामायारी, जत्थ ठिए भव्वसत्तसंघाए। सिझंति य बुज्झंति य, ण खंडिजइ तयं गच्छे / / महा०४ अ०। तथा 'तव्वइरित्ते य णामणाईसु' त्ति सोपस्कारत्वान्नामनधावनादिषु सुकराणि यानि द्रव्याणि तानि तद्व्यतिरिक्तो द्रव्याचार उच्यते, यत उक्तम-- "णामणधोवणवासण-सिक्खावण-सुकरणविरोहीणि / दव्वाणि जाणि लोए, दव्यायार वियाणाहि / / 1 / / " भावे दशविष्या इच्छादिभेदेन सामाचार्या आचरणा, अत्र बहुलग्रहणात्स्त्रियां युट, एवमाप्रच्छनादिष्वपि, भावत्व तु जीवद्रव्यपर्यायत्वादस्येति। सम्प्रत्यध्ययननामान्वर्थमाहइच्छाइसामभेसुं, आयरणं वण्णिअंतु जम्हेत्थ / तम्हा सामायारी, अज्झयणं होइनायध्वं // 456 / / ‘इच्छादिसाम' त्ति सुव्यत्ययाद् इच्छादिसामसु एषु-अनन्तराभिहितेषु आचरणम-एतद्विषयमनुष्ठानं वर्णित-प्ररूपितम् तुः-पूरणे यस्मादत्राध्ययने तस्मात्सामाचारीतिसामाचारीनामकमिदमिति प्रक्रम अध्ययनं भवति- ज्ञातव्यम्, अयमाशयः-समाचारोऽत्र वर्ण्यते ततः समाचार भवमिति विवक्षायां शैषिकोऽण, कढितश्च स्त्रीलिङ्गता, तथा द 'टिडाणा (पा०४-१-१५) इत्यादिना डीपि सामाचारीति भवतीति गाथार्थः / गतो नामनिष्पन्न निक्षेपः। सम्प्रति सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयं, तचेदम्सामायारि पवक्खामि, सव्वदुक्खविमुक्खणिं। जं चरित्ताण निग्गन्था, तिण्णा संसारसागरं / / 1 / / समाचरण-समाचाररतस्य भावो 'गुणवचनब्राहाणादिभ्य' इति (पा० 5-1-124) ष्यज तस्य च पित्करणसामर्थ्यात स्त्रियामपि वृत्तिरिति 'षिद्रौरादिभ्यश्च (पा०४-१-४१) इति डीषि सामाचारी तायतिजनतिकर्तव्यतारूपामहं प्रवक्ष्यामि सर्वदुःखविमोक्षणीम- अशेषशारीरमानसासातविमुक्तिहेतुम, अत एव यां सामाचारी चरित्वा.. आसेव्य 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, निर्गन्थाः-यतयस्तीर्णाः संसारसा Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 772 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी गर, मुक्ति प्राप्ता इति भावः, उपलक्षणत्वाच्च तरन्ति तरिष्यन्ति चेति सूत्रार्थः। राथाप्रतिज्ञातमाह-- पढमा आवस्सिया नाम, बिइया य निसीहिया। आपुच्छणा य तइया, चउत्थी पडिपुच्छणा / / 2 / / पंचमा छंदणा नाम, इच्छाकारो अछट्ठओ। सत्तमो मिच्छकारो य, तहक्कारो, य अट्ठमो // 3 / / अब्भुट्ठाणं नवमा, दसमा उवसंपया। एसा दसंगा साहूणं, सामायारी पवेइया ||4|| सूत्रत्रयं स्पष्टमेव, नवरं व्रतग्रहणादप्यारभ्य कारण विना गुर्वधग्रहे आशातनादोषसम्भवान्न स्थेयं, किन्तु ततो निर्गन्तव्यं, न च निर्गमनमावश्यकी विनेति प्रथमभावश्यकी, निर्गत्य च यत्रारपदे रथेयं तत्र नैषेधिकीपूर्वकमेव प्रवेष्टव्यमिति तदनु नैषेधिकी, तत्रापि तिष्ठतो भिक्षाटनादिविषयाभिप्रायोत्पत्तौ गुरुपृच्छापूर्वकमेव तत्साधनमित्यनन्तरमापृच्छना, आपृच्छनायामपि गुरुनियुक्तेन पुनः प्रवृत्तिकाले कृचित्प्रष्टव्या एव मुरव इति तत्पृष्ठतः प्रतिप्रच्छना, कृत्वाऽपि गुर्वनुज्ञया भिक्षाटनादिकं ना मम्भरिणव भवितव्यमिति तदनु छन्दनाप्रागगृहीतद्रव्यजातेन शेषयतिनिमन्त्रणात्मिका, तस्यामपि प्रयोक्तव्य एवेच्छाकार इति तदनुतस्याभिधानम्, अयं चात्यन्तमवद्यभीरुणैव तत्वतो विधीयते, तेन च कथञ्चिदतिचार-सम्भवे आत्मा निन्दितथ्य इति तदनु मिथ्याकारः, कृतेऽपि च तस्मिन बृहत्तरदोषसम्भवे गुरूणामालोचना दातव्या, तत्र च यदा-दिशन्ति गुरवस्तत्तथेति मन्तव्यम इति तथाकारः, तथेति प्रतिपद्य च सर्वकृत्येषूद्यमवता भाव्यमिति तदनु उद्रूपमभ्युत्थानम. उद्यम-वताच ज्ञानादिनिमित्तं गच्छान्तरसड़क्रमोऽपि विधेयः तत्र चोप-- सम्पद्ग्रहीतव्येत्यनन्तरमुपसम्पदुक्ता। उपसंहारमाह.. एथा - अनन्तरोक्ता दशाडाइच्छादिदशावयवा साधूना-यतीना सामाचारी प्रवेदितातीर्थकरादिभिरुक्तेति सूत्रत्रयगर्भार्थः। एतामेव प्रत्यवयवं विषयप्रदर्शनपूर्वक विधेयतयाऽभिधातुमाहगमणे आवस्सियं कुज्जा, ठाणे कुज्जा निसीहियं / आपुच्छणा सयंकरणे, परकरणे पडिपुच्छणा / / 5 / / छंदणा दव्यजाएणं, इच्छाकारो असारणे। मिच्छाकारो अनिंदाए,तहक्कारो पडिस्सुए॥६|| अब्भुट्ठाणं गुरुपूया,अच्छणे उवसंपया। एवं दुपंचसंजुत्ता, सामायारी पवेइया // 7 / / गमने-तथाविधालम्बनतो बहिनि:सरणे आवश्यक अशेषा - वश्यकर्त्तव्यव्यापारेषु रात्सु भवाऽऽवश्यकी, उका हि... ''आकस्सिया उ आव--स्सएहिं सव्वहिं जुत्तजोगरस" त्यादि, तां कुर्याद-विदध्यात, स्थीयतेऽस्मिान्नति स्थानम्-उपाश्रयस्त--रिमन प्रविशन्निति शेषः, कुर्यात, कां? नषधिकीम्, निषेधनं निषेधः-पापानुनय आत्मना व्यावर्तन तस्मिन् भवा नेषधिकी, निषिद्धात्मन एतत्संभवात्, उक्तं हि"जो होइ निसिद्धप्पा, निसीहिया तस्स भावओ होइ'' इत्यादि, आडिति-सकलकृत्याभिव्याप्त्या प्रच्छना आप्रच्छना-इदमाहं कुर्या न वेत्येवंरूपा ता स्वयमित्यात्मनः करण-कस्यचिद्विवक्षित-कार्यस्य / निर्वर्तनं स्वयंकरणं तस्मिन, तथा परकरणे-अन्य-प्रयोजनविधान प्रति-प्रच्छना, गुरुनियुक्तोऽपि हि पुनः प्रवृत्तिकाले प्रतिपृच्छत्येव गुरु, स हि कार्यान्तरमप्यादिशेत् सिद्ध वा तदन्यतः स्यादिति, उभयत्र या रखकरणपरकरणे उपलक्षणमिति-उच्छासनिः श्वासौ विहाय सर्वकार्येष्वपि स्वपरसम्बन्धिषु गुरवः प्रष्टव्याः, अतः सर्वविषयमपि प्रथमतः प्रच्छनमापृच्छत्युच्यते / तथा च नियुक्तिकृता सामान्य-नैवावाचि''आपुच्छणा तु कले" ति, तथा स्वपरसम्बधिनि सर्वत्रापि कृत्ये गुरुनियुक्तेन पुनः प्रवृत्तिकाले यद्गुरुप्रच्छनं सा प्रतिपृच्छा, तथा च"पुव्वनिउत्तेण होइ पडिपुच्छ' त्ति अविशेषेणैवोवत, छन्दना उक्तरूपा विधयेति शेषः एवमुत्तस्त्रापि,द्रव्य-जातेन तथाविधाशनादिद्रव्यविशेषण प्रारगृहीतेनेति गम्यते, सूचकत्वात्सूत्रस्य, तथा चाह- "पुव्वगहिएण छंदणं' ति, इच्छास्वकीयोऽभिप्रायस्तया करणं-तत्कार्यनिर्वर्त्तनमिच्छाकारः, 'सारणे' इत्यौचित्यत आत्मनः परस्य या कृत्य प्रति प्रवर्तन तत्रा-त्मसारणे यथेच्छाकारेण युष्मचिकीर्षित कार्यमिदमह करोमीति, अन्वाह च-"अहगं तुभ एयं करेमि कनं तु इच्छाकारण' ति, अन्यसारणे च मम पात्रलेपनादि सूत्रदानादि वा इच्छाकारण कुरुतेति, तथा चान्वाह-''जइ अब्भत्थिन्ज परं, कारण जाए करेज्ज से कोइ। तत्थ वि इच्छाकारो, ण कप्पइ बलाभिओगो उ॥१॥" तथा मिथ्येत्यलीक मिथ्याकरणं मिथ्याकार:-मिथ्येदमिति प्रतिपत्तिः सा चात्मनो निन्दा-जुगुप्सा तस्या, वितथाचरणे हि धिगिदं मिथ्यामया कृतमिति निन्द्यत एवात्मा विदितजिनवचनैः, तथाकरण तथाकार:इदमित्थं वैवेत्यभ्युपगमः, सच किं विषयः इत्याह-प्रतिश्रवण प्रतिश्रुतंगुरो याचनादिकं यच्छत्येवमेतदित्यभ्युपगमस्तस्मिन्, तथा चान्वाह"वायणपडिसुणणाए, उवएसे सुत्तअत्थकहणाए। अवितहमेय तितहा, अविकप्पेणं तहकारो ।।१।।"अभीत्याभिमुख्येनोत्थानम्-- उद्यमनमयुत्थानं तच्च 'गुरुपूय' ति सूत्रत्वाद् गुरुपूजायां, सा च गारवार्हाणाम्आचार्यग्लानवालादीनां यथोचिताहारभेषजादि-सम्पादनम्, इह च सामान्याभिधानेऽप्यभ्युत्थानं निमन्त्रणारूपमेव परिगृह्यते, अत एव नियुक्तिकृततत्स्थाने निमन्त्रणवाभिहिता 'छंदणा य निमंतणे'' ति। तथा 'अच्छणे' त्ति आसने प्रक्रमादाचार्यान्तरादि-सन्निधौ अवस्थाने उप–सामीप्येन सम्पादनं-गमनं सम्पदादित्वात्विपि उपसंपद-इयन्त काल भवदन्तिके मयाऽऽसितव्य-मित्येवंरूपा, च ज्ञानार्थतादिभेदेन त्रिधा, तथा चोक्तम्- "उवसंपया य तिविहा, णाणे तहदसणे चरित्ते य''ति एवम इत्युक्तप्रकारेण 'दुपंच- संजुत्त' ति आर्षत्वात् द्विपञ्चकरायुक्ता; दश-संख्यायुक्ता-मित्यर्थः, समाचरी प्रवेदयेत् कथयेत् आर्षत्वाद् गुरुः शिष्यायेति शेषः,अनेन च गुरुणा सदा तदुपदेशपरेणव भवितव्यमित्यर्थत उक्तम्, पठ्यते च- 'एसा दसंगा साहूण,सामारी पवेइयं ति, एतच्च स्पष्ट मिति सूत्रत्रयार्थः / Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 773 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामायारी एतावता दशविधसामाचारीमभिधायौघसामाचारी विवक्षुरिदमाहपुटिवल्लम्मिचउन्मागे, आइचम्मि समुहिए। भंडयं पडिलेहित्ता,वंदित्ता य तओ गुरुं|| पुच्छिन्ना पंजलिउडो, किं कायव्वं मए इहं? इच्छं निओइउं भंते ! वेयावच्चे व सज्झॉए।६।। वेयावचे निउत्तेणं, कायव्वमगिलायओ। सज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमुक्खणे॥१०॥ 'पुव्विल्लम्मि' त्ति पूर्वस्मिश्चतुर्भागे आदित्ये समुत्थिते-समुद्गते, इह च यथा दशाविकलोऽपि पटः पट एवोच्यते, एवं किञ्चिदूनोऽपि चतुर्भागश्चतुर्भाग उक्तः, ततोऽयमर्थः-- बुद्ध्या नभश्चतुर्धा विभज्यते, तत्र पूर्वदिक्संबद्ध किञ्चिदूननभश्चतुर्भागे यदाऽऽदित्यः समुदेति तदा पादोनपौरुष्यामित्युक्तं भवति, भाण्डकं-पतद्ग्रहा-धुपकरणं प्रतिलेख्य-सामयिकपरिभाषया चक्षुषा निरीक्ष्योपलक्षणत्वात्प्रमृज्य च वन्दित्या च-नमस्कृत्य ततः-इति प्रतिलेखनानन्तरंगुरुम्-आचार्यादिकं, किमित्याह-पृच्छेत्-पर्यनुयुञ्जीत प्रक्रमाद्गुरुमेव 'पंजलिउड' त्ति प्राग्वत्कृत प्राञ्जलिः, यथा-किं कर्त्तव्यम्' अनुष्ठेयं 'मये' त्यात्मनिर्देशः इह-अस्मिन् समये इति गम्यते, कदाचिद् गुरवो मन्येरन्स्वाध्यायवैयावृत्त्ययोरन्यतरस्मिन्नेवास्य नियोगे वाञ्छेत्यतो ब्रूयात्'इच्छामि णियोइउं' ति अन्तर्भावितण्यर्थत्वान्नियोजयितुं युष्माभिरात्मानमिति शेषः 'भंते' ति भदन्त ! 'वेयावचे' ति वैयावृत्त्ये लानादिव्यापारे वाशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'सज्झाए' त्ति आर्षत्वात्स्वाध्याये वा, इह च पात्र-प्रतिलेखनानन्तरं गुरुं पृच्छेदिति यदुक्तं तत्प्रायस्तदैव बहुतरवै-यावृत्त्यविधानसम्भवात्। यद्वा-पूर्वस्मिन्नभश्चतुर्भागे आदित्ये समुत्थिते इय समुत्थिते, बहुतरप्रकाशीभवनात्तस्य, भाण्डमेव भाण्डकं ततस्तदिव धर्मद्रविणोपार्जनाहेतुत्वेन मुखवस्त्रिकावर्षा-कल्पादीह भाण्डकमुच्यते, तत्प्रतिलेख्य वन्दित्वा चततो गुरुं पृच्छेत् शेषं प्राग्वत्। उपलक्षणं चैतद्-यतः सकलमपि कृत्यं विधाय पुनरभिवन्दनापूर्वक प्रष्टव्या एव गुरव इति, एवं च पृष्ट्वा यत्कर्तव्यं तदाह-वैयावृत्त्ये नियुक्तेनव्यापारितेन कर्त्तव्यं प्रक्रमात् वैयावृत्त्यम्, ‘अगिलायउ' त्ति अग्लान्यैव शरीरश्रममविचिन्त्यैवेति यावत्, स्वाध्याये वा नियुक्तेन सर्वदुःखविमोक्षणे, सकलतपः कर्मप्रधानत्वादस्य, स्वाध्यायोऽग्लान्यैव कर्त्तव्य इति प्रक्रम इति सूत्रत्रयार्थः। इत्थं सकलौघसामाचारीमूलत्वात्प्रतिलेखनायास्तत्कालं सदाविधेयत्वाद् गुरुपारतन्त्र्यस्य तचा भिधायौत्सर्गिकं दिनकृत्यमाहदिवसस्स चउरो भागे, कुज्जा भिक्खू वियक्खणो। तओ उत्तरगुणे कुजा, दिणभागेसु चउस्सु वि।।११।। पढमं पोरिसि*सज्झायं, बीयं झाणं झियायई। तइयाए मिक्खायरियं, पुणो चउत्थीइ सज्झायं // 12 // सूत्रद्वयं स्पष्टमेव,नवरं चतुरो भागान् कुर्याद् बुद्ध्येत्युपस्कारः, 'तत' | इति चतुभकिरणादनन्तरमिति गम्यते उत्तरगुणान् मूलगुणापेक्षया स्वाध्यायादींस्तत्कालोचितान कुर्याद्-विदध्यात्, व दिनभागे। कमुत्तरगुणं कुर्यादित्याह-- प्रथमां पौरुषीं स्वाध्यायं-वाचनादिकं, सूत्रापौरुषीत्वाद्स्याः , कुर्यादितीहोत्तरत्र च क्रियान्तराभावेऽनुवय॑ते, द्वितीयां प्रक्रमात्पौरुषी ध्यनं 'झियायइ' त्ति ध्यायेत्, ध्यानं चेहार्थपौरुषीत्वादस्या अर्थविषय एव मानसादि-व्यापारणमुच्यते, ध्यायेदिति वाऽनेकार्थत्वाद्धातूनां कुर्यात्, इह च प्रतिलेखनाकालस्याल्पत्वेनाविवक्षितत्वादुभयत्र 'कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे'' (पा०२-३-५) इति द्वितीया, तृतीयायां भिक्षाचर्या, पुनश्चतुर्थ्यां स्वाध्यायम्, उपलक्षणत्वाततीयायां भोजनबहिर्गमनादीनि, इतरत्र तु प्रतिलेखनास्थण्डिलप्रत्युपेक्षणादीनि गृह्यन्ते / इत्थमभिधानं च कालापेक्षयैव कृष्यादेरिव सकलानुष्ठानस्य सफलत्वादिति सूत्रद्वयार्थः / उत्त०२६ अ० (पर्युषणाकल्पसामाचारी ‘पज्जुसवणा-कप्प' शब्दे पञ्चमभागे 252 पृष्ठे तथा रात्रिसामाचारी 'पइदिणकिरिया' शब्दे 5 पृष्ठे गता।) उपसंपदि मण्डल्यां च द्विविधा सामाचारीदुविहा सामाचारी, उपसंपदे मंडलीऍ बोधव्वा / ऑणॉलोइयम्मि गुरुगा, मंडलिमेरं अतो बोच्छं॥७८१।। सामाचारी द्विविधा-उपसंपदि, मण्डल्यां च बोद्धव्या / तत्रोपसंपत् त्रिविधा-ज्ञानोपसंपत्, दर्शनोपसंपत्, चारित्रोपसंपत् / आसां च सामान्यत इयं च सामाचारी गच्छान्त रदुिपसपदेः प्रतिपत्त्यर्थमायातः साधुः पर्यनुयोक्तव्यः / वत्स ! कस्त्वं कुतो गच्छादागतोऽसि, किंनिमित्तमिहायात इत्येवं यद्यपर्यनुयुज्य तस्योपसंपदं प्रतीच्छति तदा अनालोचिते अपर्यनुयुक्ते सति चत्वारो गुरुकाः, यदा-अनालोचिते-- आलोचनामदापयित्वा, यदि तं परिभुक्त वाचयति वा तदा चत्वारो गुरुकाः / अत्र च ज्ञानोपसंपदाऽधिकारः 'मण्डलिमेरं अतो बोच्छं' तिमण्डलीसूत्रार्थमण्डलीरूपा तस्याः सम्बन्धिनी मर्यादा सामाचारीमत ऊर्ध्वं वक्ष्ये / बृ० 1 उ०१ प्रक०। (सांभोगिकासांभोगिकयोः सह मिलितयोराचार्याद्योः सामाचारी 'उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 668 पृष्ठे गता।) (गच्छवासिनां जिनकल्पिकानां च सामाचारी 'गच्छवासि' 'जिणकप्पिय' शब्दयोः।) (चतुर्विधा सामाचारी 'आयारविणय' शब्दे द्वितीय-भागे 360 पृष्ठे व्याख्याता / सा चैवम्- संयमसामाचारी, तपःसामाचारी, गणसामाचारी, एकान्तविहार-सामाचारी च / तत्रंसंयमः सप्तदशप्रकारः तस्य सामाचारी / तपो द्वादशविधं तस्य सामाचारी। गणस्य साधुसमुदायस्स सामाचारी एकान्तविहार सामाचारीएकान्तविहारप्रतिमास्वरूपा।) सांप्रतमुपसंहरन्नाहएवं सामाचारी, कहिया दसहा समासओ एसा। संजमतवडगाणं,निग्गंथाणं महरिसीणं // 722 // एवमेषा-सामाचारी दशधा-दशविधा समासतः संक्षेपेण कथिता / केभ्य इत्याह-संयमतपोभ्यामान्याः-समृद्धाः संयमतपआढ्यास्तेभ्यो निर्ग्रन्थेभ्यो महर्षिभ्यः। Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामायारी 774 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सामुच्छेय समाचार्यासेवकानां फलमुदर्शयति दर्शिताः / ) (स च रुचकपर्वतः जम्बूद्वीपमध्यगतः। स च जम्बूद्वीप: एतं सामायारिं, जुजंता चरणकरणमाउत्ता। 'जम्बूदीव' शब्दे चतुर्थभागे 1371 पृष्ठे अनादृतनामदेवस्वामिको साहू खवंति कम, अणेगभवसंचियमणतं / / 723|| दर्शितः।) (एवं सर्वे द्वीपाः समुद्राः दिशः विदिशः देवलोकाः विमानादयश्च एताम्-अनन्तरोदितस्वरूपां दशविधां सामाचारी यथा-विधि सस्वामिकाः इति स्वस्वशब्दव्याख्यावसरे दर्शितम्।) युञ्जानास्तथा चरणकरणायुक्ताश्चरणं व्रतादि, उक्तं च- "वय 5 सामिकत्तिय-पुं० स्वामिकार्ति(केय)क कृतिकात्मजे स्कन्दे, आचा० समणधम्म 10 संजम 17, वेयावचं 10 च बम्भगुत्तीतो / नाणाइतियं 2 श्रु०१चू०१ अ०२० 3 तव 12 को-हनिग्गहा 4 चेव चरणंतु॥१॥" करणं पिण्डविशुझ्यादि, सामिकुट्ठ-पुं०(सामिकुष्ट) ऐरवते वर्षे वर्तमानावसर्पिण्यां जाते विशे तदुक्तम्- "पिंडविसोही 4 समिई 5 भावण ११पडिमा 12 य इन्दिय ] तीर्थकरे, प्रव०७ द्वार। निरोहो 5 / पडिलेहण 25 गुत्तीओ 3, अभिग्गहा 4 चेव करणं तु॥१॥" | सामिणी-स्त्री०(स्वामिनी) भर्तृकायाम्, "हले हलि त्ति अन्निति भद्दे तयोः चरणकरणयोः संयुक्ताः सम्यग् समन्तात् उपयुक्ताः साधवः सामिणि गोमिणि'' इत्येवं वदेत् / दश०७ अ०। मरुदेवी सामिणी य क्षपयन्ति कर्म अनेकभव-संचितमनन्तमिति / इदानीं पदविभाग- आ०म०१ अ० समाचार्याः प्रस्तावः / सा च कल्पव्यवहाररूपा बहुविस्तरा, ततः सामित्त-पुं०(स्वामित्व) स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः / नायकत्वे, स्वस्थानादवसेया। आ०म०१ अ०। जं०१ वक्ष०। प्रज्ञा० जी०। विपा० स्वस्वामिसम्बन्धमात्रे, विपा० विक्कमवच्छराओ पच्छा सोलसवाससए (1600) वइकते के 1 श्रु०२ अ० औ०। आधिपत्ये,कर्म० 3 कर्म०। स्वामिभावत्वे, स० वि तम्भत्तिया सावयसाविया तेसिं सूरीणं नाऊण नियाणि- 78 सम०। स्वस्वामिभावे, भ०३ श०१ उ०। ज्ञा०। पं०सं० विशेष गणपरंपरं ठाइस्संति / के वि दूरभविया परम्मुहा होऊण आ०चून (त्रिविधं स्वामित्वम् णमुक्कार' शब्दे चतुर्थभागे 2820 पृष्ठे परगणस्स सामायारिं गहिस्संति। अङ्ग। दर्शितम्।) (सामाचारीवैचित्र्यहेतुः अणुण्णा' शब्दे प्रथमभागे 361 पृष्ठे गतः।) | सामिय-पुं०(स्वामिक) अधिपतौ, ज्ञा०१श्रु०६ अ०) सामायारीउवक्कमकाल-पुं०(सामाचार्युपक्रमकाल) समाचार्या सामिल-पुं०(सामिल) स्वनामख्याते वटुकब्राह्मणे, व्य०२ उ०॥ उपक्रमणमुपरितनाच्छुतादिहानं यत्र स सामाचार्युपक्रमकालः। उपक्रम- सामिस-त्रि० (सामिष) सहाऽऽमिषेण-पिशितरूपेण वर्तत इति कालभेदे, विशेष सामिषम् / सस्पृहे भोजनाद्यर्थं लुब्धे, उत्त०। "सामिसंकुललं दिस्स, सामायारीविराहग-पुं०(सामाचारीविराधक) सामाचारी साधूनाम- वज्झमाणं निरामिसं।" उत्त०१४ अ०॥ होरात्रक्रियारूपा सद्च्छमर्यादा तस्या विराधकः। सामाचारीखण्डके, सामीविय-पुं०(सामीप्यक) सामीपाधारें, यथा गङ्गायां घोषः। आ० म० ग०१ अधिo 1 अग सामायारीसीयंतचोयणा-स्त्री०(सामाचारीसीदचोदना) सामाचार्या | सामुच्छेय-पुं०(सामुच्छेद) समुच्छेदो वस्तुविनाशः समुच्छेदमधीयते यथायोगं सीदतः शिथिलीभवतश्चोदनायाम्, व्य०१ उ०। तद्विदन्तीति वा सामुच्छेदिकाः। तद् वेत्तीत्त्यण। क्षणक्षयिभावप्ररूपकेषु सामालिय(सालिय)पोंड-न०(शाल्मलीपौण्ड) शाल्मलीपुष्पे, “एगं / अश्वमित्रमतानुसारिषु निहवेषु, औ० आ० म०। आ० चू०। विशे०। सा(मा) लियपोंडं, बद्धो आमोलतो होइ।" उत्त०३१०॥('अंग' शब्दे ___अथ चतुर्थवक्तव्यतामाहप्रथमभागे 36 पृष्ठे व्याख्या गता।) बीसा दो वाससया, तइया सिद्धिं गयस्स वीरस्स। सामास-पुं०(श्यामास) श्यामा-रजनी तस्यामाशनमाशः / रात्रि- सामुच्छेइयदिहि, मिहिलपुरीए सामुप्पन्ना॥२३८६।। भोजने, आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। विंशत्युत्तरं वर्षशतद्वयं तदा सिद्धिं गतस्य वीरस्यासीत्ततोऽत्रान्तरे सामासिया-स्त्री०(सामासिकी) मेतार्यमातुर्मातङ्गयाः प्रतिवेशिन्याम्, सामुच्छेदिकदृष्टिर्मिथिलापुर्यां समुत्पन्नेति। आ०म० 10 यथोत्पन्नस्तथा दर्शयन्नाहसामि(ण)-पुं०(स्वामिन्) स्वमस्यास्तीति स्वामी। नायके, आ०म० मिहिलाए लच्छिहरे, महगिरिकोडिन्नआसमित्ते य। 10 / प्रभौ, उपकर्त्तरि,आश्रये, पिं०। ज्ञा०। पा०। प्रभुः नेउणिय-णुप्पवाए, रायगिहे खंडरक्खा य॥२३६०।। स्वामीत्यनर्थान्तरम्। आव०४ अ०। राजनि, अनु०। जगदगुरौ, सू०प्र० मिथिलानगर्या लक्ष्मीगृहे चैत्ये महागिरिसूरीणां कौण्डिन्योनाम शिष्यः 1 पाहु०। 'लोगणाहाणं' पुद्गलपरावर्तःसंसार इति कृत्वा लोकनाथाः स्थितस्तस्याप्यश्वमित्रो नाम शिष्योऽनुप्रवादाभिधानपूर्वे नैपुणिकं * (भगवन्तः) ल०। (चतुदर्शरज्ज्वात्मकोऽयं लोक इति 'लोग' शब्दे नामवस्तु पठतिस्म, तत्र छिन्नच्छेदनकनयवक्तायामालापकाः सामाषष्ठभागे गतम्।) (चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकगतरुचकपर्वतात्र रत्नप्रभा- यातास्तद्यया "पडप्पन्नसमयनेरइया सव्वे वोच्छिजिस्संति एवं जाव पृथिव्यां दश दिशः गण्यन्ते, ताश्च–'जस्सजआआइयो उदेइ सा भवइ वेमामाणिय त्ति / एवं बीयाइसमएसु वि वत्तव्वं' अत्र तस्य चिकित्सा तस्स पुव्वदिसा' इत्यादिगाथाभिः 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे 2523 पृष्ठ | जाता, तद्यथा-प्रत्युत्पन्नसमयनारकाः सर्वेऽपि तावद् व्यवच्छेदं प्रा ण Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामुच्छे 775 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सायसोक्खप० प्स्यन्ति, ततश्च कुतःसुकृतदुष्कृतकर्मफलवेदनम्, उत्पादानन्तरं सायंकार-पुं०(सायंकार) शुद्धवागनुयोगभेदे, स्था०ासायमिति निपातः सर्वजीवानां नाशादित्येवमादि स्वमतिकल्पितं प्ररूपयन् वक्ष्यमाण- सत्यार्थस्तस्माद्वर्णात्कारप्रत्ययः करणं वा कारस्ततः सायंकार इति। भाष्ययुक्तिभिर्गुरुणा प्रज्ञाप्यमानोऽपि यावत्कथमपि न प्रज्ञाप्यते तत तदनुयोगो यथा-सत्यं तथा वचनसद्भावप्रश्नेष्विति / स्था० 10 ठा० उद्धाट्य संघबाह्यः कृतः, समुच्छेदवादं प्ररूपपन् काम्पिल्यपुरनगरं 30 "राजगृहापरनामक " गतः, तत्रच खण्डरक्षाभिधानाः श्रावका आसन, सायंभुव-पुं०(स्वायंभुव) स्वयंभुवोऽपत्त्ये प्रथममुनौ स्या०। ('अणेगंतते शुल्कपालास्तैश्च ते निवाः समागता विज्ञाता मारयितुं चारब्धाः, वाय' शब्दे प्रथमभागे 424 पृष्ठे विस्तरोगतः।) ततो भीतैरश्वमित्रादिभिस्ते प्रोक्ताः- वयं न जानीमः श्रावका यूयम्, सायंसमय-पुं०(सायंसमय) दिवसावसानरूपे समये, सू० प्र० तत्किमस्मान् श्रमणान्सतो मारयथ? ततस्तैरुक्तम्-ये श्रमणास्ते १०पाहु०। युष्मत्सिद्धान्तेन समुच्छिन्नाः, यूयं तु चौराद्यन्यतराः केचिदिति सायणा-स्त्री०(शातना) खण्डनायाम्, स०३२ समका मारयामः, ततस्तैीतैर्मुक्तो निजाग्रहः संबुद्धाश्च दत्तमिथ्यादुष्कृता गता *स्वादना-स्त्री० अभिलाषे, आचा० 1 श्रु०८ अ०५ उ०। गुरुपादमूल इति। विशे०। (खणियवाइ (ण) शब्दे तृतीयभागे 706 पृष्ठे सायणी-स्त्री०(शायनी) शाययति-निद्रावन्तं करोति सा शायनी। शेते विस्तरो गतः।) वा यस्यां सा शायिनी शयिनी वा / स्था० 10 ठा०३ उ०। शतायुषः सामुदाइय-त्रि०(सामुदायिक) समुदाये भवं सामुदायिकम्। उत्त०१७ पुरुषस्य नवतिवर्षात्परतो दशवर्षात्मिकायां दशायाम, तं०। अ० जनमीलकप्रयोजने, ज्ञा०१ श्रु०५ अलग हीणभिन्नसरो दीणो,विवरीओ विचित्तओ। सामुदाणिय-न०(सामुदानिक) समुदान-भिक्षा तत्र भवं सामुदानिकम् / दुब्बलो दुक्खिओ सुयई, संपत्तो दसमिं दसं / / 10 / / सूत्र०१ श्रु०१६ अ आचाला भिक्षापिण्डे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ हीनस्वरः-लघुध्वनिः भिन्नस्वरः-स्वभावस्वरादन्यस्वरः दीनःअ० 4 उ० / समुदाने लब्धः सामुदानिकः / "अध्यात्मादिभ्य __ करुणत्वं गतः विपरीतः पूर्वावस्थातः विचित्तः विचित्रो वा नानास्वरूपः इकण्" / / 6 / 378 / / इति इकण् प्रत्ययः / उच्चावचेषु कुलेषु अटित्वा दुर्बलः-कृशाङ्गः दुःखितो-रोगादिपीडालक्षव्याप्तः एवंविधो जीवः लब्धे पिण्डे, बृ० 1302 प्रकला स्वपिति स्वशरीरे स्वगृहे वासं प्राप्तः कां दशमी दशामिति / तं०। सामुद्दिय-पुं०(सामुद्रिक) समुद्रेण प्रोक्तं वेत्त्यधीते वा ठञ् / स्त्री सायत्त-त्रि०(स्वायत्त) स्वाधीने, ज्ञा०१ श्रु०६ अol पुरुषशुभाशुभलक्षणज्ञापकग्रन्थाध्येतरि, तद्वत्तरि च / वाच० (तानि सायत्थ-त्रि०(स्वात्मस्थ) परभिन्नस्थे, षो०६ विव०। लक्षणानि 'लक्खणवंजणगुणोववेय' शब्दे षष्ठभागे गतानि।) समुद्रस्यैते / सायबंध-पुं०(सातबन्ध) सुखसंबन्धे, द्वा० 25 द्वा०। सामुद्रिकाः। भ०५ श०२ उ०। समुद्रयात्रिषु निर्यामकेषु, आ००१ सायय-पुं०(सायक) वाणे, पाइ० ना०३६ गाथा। अ० आ० म०। "अत्थि णं भंते ! सामुद्दिया वाया ईसिं हंता सायरसइडिहेउ-त्रि०(सातरसऋद्धिहेतु) सात-सुखं रसो-माधुर्यादेर्य अत्थि' सन्ति सामुद्रिका वाता ईषद्वाता हन्त सन्ति। भ०५ श०२३०। ऋद्धिरुपकरणादिसंपदो हेतवो यस्मिन् प्रयोजने तत्सातरसर्द्धिहेतुकम्। सामूहिय-पुं०(सामूहिक) समूहार्थके प्रत्यये, विशे०। रसाद्यर्थे, "सायरसइड्डिहेउअभिओगभावेणं कुणइ" ग० २अधि०। साय-न०(सात) सुखे, स्था०। सायवडिया-स्त्री०(सातप्रतिज्ञा) सुखार्थे, आचा०२ श्रु०१चू०३अ० षड्विधसातस्वरूपम् २उ० छविहे साते पण्णत्ते, तंजहा-सोइंदियसाते०जाव नोइंदि सायवाइ(न)-पुं०(सातवादिन्) सात-सुखमभ्यसनीयमिति वदतीति सातवादी / अक्रियावादिभेदे, स्था० / कश्चित् सुखमेवानुशीलनीयं यसाते। (सू०४५८४) सुखार्थिना नत्वसातरूपं तपोनियमब्रह्मचर्यादिकारणानुरूपत्वास्था०६ ठा०३ उ०। सूत्र०1 आव०! उत्त०। उन्मग्नत्वे, प्रश्न०३ कार्यस्य, न हि शुक्लैस्तन्तुभिरारब्धः पटो रक्तो भवति, अपितु--- आश्र० द्वार / मनआह्लादकारिणि, आचा० 1 श्रु०४ अ० 2 उ०) शुक्ल एव, एवं सुखाऽऽसेवनात् सुखमेवेति / उक्तं च- 'मृद्वी शय्या 'प्रीत्युत्पादके, अनु० / स्था० / विशे० / स्वाद्यते, शारीरं मानसं च प्रातरुत्थायपेया, भक्तंमध्ये पानकं चापराहे द्राक्षाखण्डं शर्कराचार्धसुखमनेनेति सातम्। सातवेदनीये कर्मणि, उत्त०३३ अ०।ज्ञा०ा प्रव०। रात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः // 11 // अक्रियावादिता चास्य संयमदश० / पुण्यप्रकृती, स्था०६ ठा०३ उ०। दशमकल्पविमानभेदे, स० तपसोः पारमार्थिकप्रशमसुखरूपयोर्दुःखत्वेनाभ्युपगमात्कारणानुरूप२० सम० कार्याभ्युपगमस्य च विषयसुखादननुरूपस्य निर्वाणसुखस्याभ्युपगमेन *स्वाद-पुं० / स्वादनं स्वादः / स्था०३ ठा० 1 उ० / खजूरद्राक्षा- | बाधितत्वादिति। स्था० 8 ठा०३ उ०॥ पानादिस्वादने, प्रव०४ द्वार। हरितवनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। | सायसो खपडिबड-40 ( सात सौख्य प्रतिबद्ध *सायम्-अव्य / प्रदोषे, आव०५ अ० संध्यासमये, सू०प्र०२ पाहु। सातात्पुण्यप्रकृतेः सकाशाद्यत्सौख्यं सुखं गन्धरसस्पर्श - पञ्चा०। चं०प्र०। उत्त०। सूत्र० सत्ये, स्था० 10 ठा०३ उ०। लक्षणविषयसंपाद्यं तत्र प्रतिबद्धस्तत्परः सातसौख्यप्रतिबद्धः। Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायसोक्खप० 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सारस सुखप्रतिबद्धे, 'सायासोक्खपडिबद्धे यावि भवइ' इति / प्राकृते अकारः। प्रा० / शृङ्गस्य विकारः / अणुशृङ्गजाते, वाच०। विष्णुधनुषि दीर्घमध्योऽपि। स्था०६ ठा० 3 उ०॥ नपुं०। को। सायाउल-त्रि०(साताकुल) भावसुखार्थव्याक्षिप्ते, दश० 4 अ०। सारंगदेव-पुं०(साराङ्गदेव) वाघेलक्षत्रिये गुर्जरधरित्रीश्वरे, ती० सायागारव-न०[सा(त)तागौरव ] सातया गौरवं सातागौरवम् / स० 25 कल्प। 3 सम० / सात-सुखं तेन गौरवम्-गर्वः / अहमेव सुखीत्यभिमाने, सारंगी-स्त्री०(सारङ्गी) हरिण्याम्, पाइ० ना० 45 गाथा। आतु०। सारंभ-त्रि०(सारम्भ) सहाऽऽरम्भेण जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापारण सायागारवंझाण-न०(सातगौरवध्यान) सात-सुखं तेन गौरवं- वर्तत इति तदभावेऽप्यौद्देशिकादिभोजित्वात्सारम्भः / सूत्र० 1 श्रु० गर्वस्तस्य ध्यानम्। 'नीरपठो ससिराये' ति गाथाज्ञशशिराजस्येव 104 उ०। गृहस्थेषु। सूत्र०१श्रु०३अ०३ उाजीवोपमर्दादिकारिषु, गर्वोधुरे दुर्ध्याने, आतु०। सूत्र०२ श्रु०१ अ० पृथिव्यादीनां परिताप-करे आरम्भे, स्था०। सायागारवणिस्सिय-त्रि०(सातगौरवनिश्रित) सुखशीलतायामासक्ते, सत्तविहे सारंभे, पण्णत्ते, तं जहा-पुढविकाइयसारंभे०जाव सूत्र०१ श्रु०१०। अजीवकाझ्यआरंभे / (सू०५७१४) स्था०७००३ उ०) सायाणुग-पुं०(सातानुग) सात-सुखमनुगच्छतीति सातानुगः। *संरम्भ-पुं०।बहुकल्पे, भ०८श०। सुखशीले, सूत्र०१ श्रु०२अ०३ उ०। सारक्खणाणुबंधि-त्रि०(संरक्षणानुबन्धिन) संरक्षणे सर्वोपायैः परित्राणे सायावेयणिज्ज-न०(सातवेदनीय) सात-सुखं तद्रूपेण यद् वेद्यते विषयसाधनस्य धनस्यानुबन्धो यत्र तत्संरक्षणानुबन्धि / आर्तध्याने, तत्सातवेदनीयम्। वेदनीयभेदे, कर्म०६ कर्म०।सका पं०सं० स्था०। भ०२५ श०७ उ०। औ०। सायासुक्ख-न०(सातासौख्य) सातासातवेदनीयकर्मणः सकाशात्सुखं सारक्खणा-स्त्री०(संरक्षणा) संगोपनायाम, आ०म० १अ०। शर्म सातसुखं सातं च तत्सुखं च सातसुखम् / अतिशयसुखे, सारक्खणोवघाय-पुं०(संरक्षणोपघात) संरक्षणेन शरीरादिविषये 'सायासोक्खमणुपालंताणं' पा० / आह्लादप्रधाने सौख्ये, जी०३ प्रतिक मूर्छयोपघातः परिग्रहविरतेरिति संरक्षणोपघातः। उपघातभेदे, स्था० 1 अधि०२ उ०। १०टा०३ उ० सार-पुं०(सार) प्रधाने, विशे० / सामर्थ्य, विभवे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। सारक्खमाणी-स्त्री०(संरक्षन्ती) अपायेभ्यः संरक्षणं कुर्वत्याम, विपा० परमार्थे, सूत्र०१श्रु०११ अ०। ध०। आव०। काष्ठमध्ये, स्था० 4 ठा० १श्रु०२ अ०। 1 उ०। आचा० निष्पन्दे, पा० भ० आ० चू०परमार्थप्रधाने, सूत्र० सारक्खित्ता-त्रि०(संरक्षयित) चौरादिभ्यो रक्षणं कुर्वति, स्था०७ठा० 1 श्रु०११ अ० स्था० / नि०। आचा०ा ज्ञा०। प्रज्ञा० / जी० / भ० / ३उ०/ग०। स० न्याय्ये, 'एवं खुनाणिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण।' सूत्र०१ श्रु० सारय-त्रि०(स्मारक) अन्येषां विस्मृतार्थस्मरणकर्तरि, कल्प० १अधि० १अ०४ उ०. उत्त०। प्रकर्षे, आचा०१श्रु०५ अ०१ उ०। सफले, आ० १क्षण। म०१ अ०स० उत्कृष्टेष्वलंकारेषु, द्वा०१२ द्वा० शुभपुगलोपचयजन्ये *शारद-त्रि०। शरदिऋतौ जातंशारदम्। उत्त० 10 अ०॥शरत्कालधनुर्वि-शेष, जं० ३वक्ष०१ सारो द्विधा–बाह्यः, आन्तरश्च / बाह्यो जाते, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०जी० आव०ा आ० म०। उपा०। बृ०। गुरुत्व-मान्तरः सन्दोहः / आव० 4 अ०। ज्ञानादौ (आव० ४अ01) सारचिय-त्रि०(सारचित) संभार्जिते, 'काउं गिण्हंतुबहि, सारचियसद्भावे, निष्ठायाम, आ० चू०१ अ०।आ०म०1 विवक्षितकर्मणः परमार्थे, पडिस्सया पुवि' सारचितः-संमार्जितः प्रतिश्रयो यैस्ते सारचितनं०। आ० म०। विषयण्णस्य प्राप्तौ, आचा०१ श्रु०३ अ०२ उ०। बले, प्रतिश्रयाः। बृ० 1 उ०२ प्रक०। पाइ० ना०१६४ गाथा।धने, पाइ० ना०४६ गाथा। कुबर, पाई० ना० सारणा-स्त्री०(सारणा) विस्मृतस्मारणायाम्, विस्मृते क्वचित्कर्तव्ये 64 गाथा। भवतेदं न कृतमिति सारणा / ग०२ अधि०।। *प्रह-धा०। मारणे, "प्रह-(ञः)गेःसारः" ||4|| इति प्रपूर्वस्य सारवंत-त्रि०(सारवत्) गोशब्दादिवद्हुपर्यायक्षमे, / विशे० / अर्थेन हृधातोः सार इत्यादेशः / सारइ। पहरइ / प्रहरति, प्रा०४ पाद। युक्ते, स्था०७ ठा०३ उ०। सामायिकशब्दवत् बहुपर्याये गुणवत्सूत्रे, सारंग-पुं०(सारङ्ग) चतुरिन्द्रियजीवविशेष, जी०१ प्रति० / प्रज्ञा०। आ०म०११०। मृगे, अष्ट०७ अट०। पाइ० ना०। चातकखगे, हरिणे, गजे, भृङ्गे,खगभेदे, सारवणा-स्त्री०(सारापना) संगोपनायाम, "होही पत्तीति सारवणा।" छत्रे, राजहंसे, चित्रमृगे, वाद्यभेदे वस्त्रे, नानावणे, मयूरे, कामदेवे, चापे, आव०१अ०। केशे, स्वर्णे, आभरणे, पझे, शंख्ये, चन्दने, कपूर, पुष्पे, कोकिले, मेघे, सारवय-न०(सारपद) ज्ञानादिके सारसहिते पदे, आचा०१ श्रु०५ अ० सिंह, रात्रौ, भूमौ, दीप्तौ च / स्त्री०। शारङ्गोऽप्यत्र / वाच०। 1 उ०। *साराङ्ग-न०। प्रधानकारणे, प्रति०। जंग सारविजंत-त्रि०(सार्यमाण) ध्रियमाणे, व्य० 4 उ०। *शाङ्ग-त्रि०ा "शाङ्गै डात्पूर्वोऽत्।" ||8 / 2 / 100 / / इति डात्पूर्वः | सारस- त्रि० (सारस) दीर्घजानुके लोमपक्षिविशेषे, तं० / जी० / Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारस 777 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सालंबसेवि(ण) स्था०। प्रज्ञा कल्प०। औ० रा०ा प्रश्न ज्ञाo मुण्डितशिराः शुक्ल-वासः परिधायी कच्छामवघ्नानो-ऽभार्यको भिक्षा सारसार-पुं०(सारसार) सारस्थापि सारभूते, आचा० 1 श्रु०५अ० हिण्डमानः सारूपिक उच्यते। बृ० 4 उ०। १उ० / आ०म० सारूवियसिद्धपुत्त-पुं०(सारूपिकसिद्धपुत्र) मुण्डितशिरस्के रजोहरसारसावएज-न०(सारसापतेय) प्रधानद्रव्ये, कल्प०१अधि०५ क्षण। णरहिते अलघुपात्रेण भिक्षामटतिसभार्ये अभार्ये वा गृहस्थे, व्य० 8 उ०। सारसी-स्त्री०(सारसी) षट्जग्रामस्य षष्ठ्यां मूर्छनायाम, स्था०७ ठा० सारूह-त्रि०(संरुष्ट) मनसा सृष्ट, भ०७ श०६ उ०| 30 साल-पुं०(साल) अशीतितमे महाग्रहे, स्था० 2 ठा०३ उ०। कल्प०। सारस्सय-त्रि०(सारस्वत) सरस्वतीसम्बन्धिनि मन्त्रादौ, स्या०। सू०प्र०) चं०प्र०ा (साखू) वृक्षविशेषे, स्था०४ ठा०४ उ०/-अनु०। प्रज्ञा० सरस्वतीप्रोक्तव्याकरणे, नपुं० / कल्प० 1 अधि०२ क्षण / कृष्ण- जंगआचा०ा साशाखायाम, ज्ञा०१श्रु०१अजी०। पृष्ठचम्पानगाः राज्यन्तरालवर्तिविमानवासिनि लोकान्तिकदेवे, पुं० स्था०६ ठा० स्वनामख्याते राजनि,उत्त०६ अ० आ० का ती०॥ 3 उ०। प्रव०ा ज्ञा० आ०। मा तवृत्तम्सारह-न०(सारघ) मधुनि, पाइ० ना० 224 गाथा। "वद्धमाणसामी पिट्ठिचंपाए नयरीए सुभूमिभागेउजाणे समोसढो, तत्थ सारहि-पुं०(सारथि) नतरि, दश० 8 अ०ा आ० म०। सूते, पाइ० ना० य सालो राया, महासालो जुवराया। तेसिं भगिणी जसवती, तीसे भत्ता 223 गाथा। पिठरो, पुत्तो य से गागलीनाम कुमारो, ततो सालो भगवतो समीवे धम्म सारिक्ख-त्रि०(सादृक्ष्य) "छोऽक्ष्यादौ" ||82 / 17 / / इति संयु-- सोऊणभणइ-जं नवरं महासालं रज्जे अभि-सिंचामिततो तुम्हें पादमूले क्तस्य छो वा। सारिक्ख / प्रा० / साधर्म्य, स्था० 1 ठा०। पव्वयामि, तेण गंतूण भणितो महा-सालो-राया भवसु, अहंपव्वयामि / सारिणी-स्त्री०(सारिणी) दीर्घिकाख्ये जलाशयविशेषे, अनु०। सो भणइ-अहं पि पव्वयामि, जहा तुब्भे इह अम्हाणं मेढीपमाणं तहा पव्वइयस्स वित्ति, ताहे गागली कंपिल्लपुरातो आणेउं रजे अभिसिंचितो। सारिय-त्रि०(सारित) हितेप्रवर्तिते, ध०३ अधि०। पा० शिक्षिते, व्य० तस्स माया जसवती कंपिल्लपुरे नगरे दिण्णिया पिठररायपुत्तस्स,तेण ७उ०। ततो आणिओ, तेण पुण तसिं दो पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ सारिया-स्त्री०(सारिका) कोशलविषये देवराजस्य कुटुम्बिनो भार्यायाम्, कारियाओ, जाव ते पव्वइया / सा वि तेसिं भगिणी समणोवासिया पिं०। मैनापक्षिणि, आचा० 1 श्रु०१अ०६ उ०। जाया, तेऽवि एक्कारसंगाइं अहिज्जिया / अण्णया य भगवं रायगिहे सारिस-अव्य०(सादृश्य) यथाऽस्मिन् देशे घटा ऊर्ध्वग्रीवा अध समोसढो, ततो भगवं निग्गतो चेवंजतोपधावितो, ताहे सालम-हासाला स्तात्परिमण्डला विपुलकुक्षयस्तथा अन्येष्वपि देशेष्वित्यादिसा-धर्म्य , सामि पुच्छंति--अम्हे पिडिचंपं वच्चामो, जइ नाम कोइ तेसिं पव्वएज्ज आ०म०१ अ०। सम्मत्तं वा लभेज / सामी जाणइ-जहा ताणि संबु-ज्झिहिन्ति, ताहे सारी-(देशी) ऋषीणामासने, मृत्तिकायामित्यन्ये, दे०ना० 5 वर्ग | तेसिं सामिणा गोतमसामी बिइजाओ दिण्णो, सामी चंपं गतो, 22 गाथा। गोयमसामीऽवि पिट्ठिचंपंगतो,तत्थ समवसरणं, गागलि, पिठरो,जसवती सारीर-त्रि०(शारीर) शरीरसंभवे, प्रव०२६८ द्वार। आव०॥ य निग्गयाणि, ताणि परमसंविग्गाणि, धम्मं सोऊण गागली पुत्तं रज्जे सारीरमाणसाणेगदुक्खमोक्ख-पुं०(शारीरमानसानेकदुःखमोक्ष) | अभिसिचिऊण मातापितिसहितो पव्वइओ ! गोयमसामी ताणि घेत्तूण सकलदेहदुःखक्षये, पं०व०३ द्वार। चंपं वच्चइ, तेसिं सालमहा-सालाणं चंपं वच्चंताणं हरिसो जातोसारीरसम-न०(शारीरसम) कलाभेदे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। संसारातो उत्तारियाणि त्ति, ततोसुभेणऽज्झवसाणेण केवलनाणं सारूवि(ण)-पुं०(सारूपिन्) सारूपिके 'मुंडसिरोया सुकिल्लवत्थधरो उत्पन्नं / " आव०१ अ० आ० मा आ० चू। न वियत्थं / हिंडइ न वा अभजो, सारूवी एरिसो होई / / 1 / / " इति *श्याल-पुं०। भार्याभ्रातरि, अनु०॥ तल्लक्षणम्। जी०१ प्रतिका सालंकायण-पुं०(सालंकायन) कौशिकगोत्रान्तर्गते पुरुषविशेषे, तत्प्रवसारूविय-पुं०(सारूपिक) समानं रूपं--सरूपं तेन चरतीति सारूपिकः। र्तिते गोत्रविशेषे च / स्था०६ठा०३ उ०। रजोहरणवर्जसाधुवेषधारिणि, गृहस्थे, "सारूवी धारेइ निसिजं च एगं | सालकल्लाण-पुं०(सालकल्याण) वृक्षविशेषे, भ०८ श०३ उम ओलंबगं चेव'' यस्तु सारूपिकः स एकनिषद्यम्-एकनिषद्योपेतं सालंब-त्रि०(सालम्ब) आलम्बनमवलम्बमाने, नि०चू०१ उ०॥ ज्ञानादिरजोहरणमवलम्बकदण्डकमुपलक्षणमेतत्पात्रादिकं च धारयति शिरश्च / पुष्टालम्बनयुक्ते, दशा०१ अ०। आव०नि० चूना विकृतिभिःप्राणितः मुण्डयति। व्य० 4 उ०नि०चूला सारूपिकः-शुक्लाम्बरो मुण्डोऽबद्ध- सन् क्षिप्रज्ञानादि ग्रहीष्यामीत्यालम्बनसहिते,व्य०४ उ० नि० चू०। कच्छो रजोहरणरहितोऽब्रह्मचर्योऽभार्यो भिक्षाग्राही / ध०४ अधिo | सालंबसे वि(ण)- त्रि० (सालम्बसे विन्) पुष्टालम्बनप्रतिषे Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालंबसेवि(ण) 778 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सालिमद्द विणि, "काहं अछिति अदुवा अधीहं, तवोवहाणेसुय उज्जमिस्सं। गणं च / साला-स्त्री०(शाला) वृक्षस्कन्धे, ज्ञा०१श्रु०१ अशाखायाम, ज्ञा० णीती अणुसारविस्सं, सालंबसेवी समुवेति मोक्खं / / 1 / / '' / आ०चू० | १श्रु०४ अ० स्था०। सूत्रकारा०ा जंका जत्थ भंडं विक्षिणाइ सासाला। 3 अा अहवा-सकुट्टिमं गिहं। अकुट्टिमा साला। नि० चू०१२ उ०। अशीतितमे सालंबहत्थाभरण-त्रि०(सालम्बहस्ताभरण) सह आलम्बनेनप्रलम्बन महाग्रहे, स्था०। वर्तते सालम्बं तानि च हस्ताभरणानि यस्याधामुखं गमनवशादसौ . दो साला (सू०१०+) स्था०२ ठा०३ उ०। सालम्बहस्ताभरणः / हस्तयोः परिहिताभरणे, भ०३ श०२ उ०) सालाइयतंत-न०(शालाक्यतन्त्र) शलाकायाः कर्मशालाक्यं तत्प्रतिसालकोट्ठय-न०(सालकोष्टक) मेण्ढग्रामस्य बहिरुत्तरपूर्वदिग्भागे पादकं तन्त्रंशालाक्यतन्त्रम्। स्था०८ ठा०३ उ०। विपा०। आयुर्वेदाने स्वनामख्याते चैत्ये, भ०३श०२ उ० तद्धि ऊर्ध्वयतिगतानां रोगाणां श्रवणवदननयनघ्राणादिसंश्रितानासालग-पुं०(शालक) अवष्टम्भसमन्विते आसनविशेषे, दश०६ अ०) मुपशमनार्थमिति। स्था०८ ३उ०! दीर्घशाखायाम, आव०१ अारसे, आचा०२ श्रु०१चू०७अ०२ उ०। सालाडवि-स्त्री०(शालाटवी) विजयचौरसेनापतिपालितायां चौरअद्धं भिन्नं बाहिरा छली सालं भण्णइ / नि० चू० 15 उ०। सालग पुण पल्ल्याम्, विपा०१श्रु०३ अ०! तस्स बाहिरा छल्ली। सालगं बाहिरा छल्ली भण्णति। नि० चू०१६ उ०। सालाहण-पुं०(सातवाहन)"सर्वत्र लवरामचन्द्रे" || 7|| इति वलुकि सति। "अतसी-सातवाहने लः" ||2|21|| इति तस्य सालगिह-न०(शालागृह) शालागृहबद्धे, तत्र अकुड्डा साला सकुटुंगिह। लः।सालाहणो। प्रा०। गोदावरीतटवर्त्यप्रतिष्ठाननगरराजे,बृ०६उ०। अस्सादिअवाहणाणं सालगिह। नि० चू०८ उ०। सालि-पुं०(शालि) कलमादिके धान्ये, स्था० 3 ठा० १उ०। आचा०) सालघरय-न०(सालगृहक) शालाः-शाखाः / अथवा-शालावृक्ष सूत्र०। प्रज्ञा०॥धा बृ०। रा०। षो०। ब्रीहिविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। विशेषास्तत्प्रधानं गृहकम् / शालाप्रधाने गृहके,ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०॥ कलमशाल्यादिकूरे, व्य०६ उ० / भ० ज० आचा०ा तत्थ पुव्वण्हे ज्ञा० जी० पट्टशालाप्रधाने गृहे,रा०। साली चुप्पइ। अवरण्हे जेम्मति। आ० म०१ अ०। सालज्जा-स्त्री०(सालार्या) बहुशालकनामग्रामसमीपवर्तिशालवनोद्यान सालिउद्देस-पुं०(शाल्युद्देश) षष्ठशतस्य सप्तमोद्देशके, भ० 11 श० वास्तव्यायां व्यन्तर्याम, आ०म०१ अ०। ('वीर' शब्दे षष्ठभागे तत्कथा ११उन गता।) सालिंगणवट्टिय-त्रि०(सालिङ्ग नवर्तित) शरीरप्रमाणेनोपधानेन सालपरियाय-पुं०(सालपर्याय) सालस्येव पर्याया धर्माबहुलच्छाया वर्तमाने, सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। “त्वासेव्यत्वादयो यस्य स सालपर्यायः / सालसधर्मिणि पुरुषजाते, सालिक्खेत्त-न०(शालिक्षेत्र) धान्यक्षेत्रे, कल्प०१अधि०१क्षण। स्था०४ ठा०४ उ०॥ सालिखंडण-न०(शालिखण्डन) शालिधान्यखण्डने, तत्कलायाम, सालभंजिया-स्त्री०(शालभज्जिका) स्तम्भपुत्रिकायाम, आ० म०१ कल्प०१ अधि०७ क्षण। अज्ञान सालिग्गाम-पुं०(शालिग्राम) मगधजनपदेषु स्वनामख्याते ग्रामे, आ० सालरुक्ख-पुं०(शालवृक्ष) "वृक्षक्षिप्तयोः रुक्ख-छूढो" क० 1 अ० आ० चू०। // 8 / 2 / 127 / इतिवृक्षस्य रुक्खाऽऽदेशः। प्रा० शालाख्ये वृक्षविशेषे, सालिपिट्ठ-न०(शालिपिष्ट) शालिचूर्णे, जं०१ वक्षः। भ०१४ श०८ उ० (अस्यभाविजन्मान्तरवृत्तम् 'वणप्फई' शब्दे षष्ठभागे सालिपिट्ठरासि-पुं०(सालिपिष्टराशि) शालिक्षोदपुजे,रा०) गतम्।) सालिवाहण-पुं०(शालिवाहन) स्वनामख्याते प्रतिष्ठानपुरराजे; विशे० साललट्ठिया-स्त्री०(शालयष्टिका) शालवृक्षस्तम्भे, भ०१४ श०८ उ०) ('अणणुओग' शब्दे प्रथमभागे 285 पृष्ठे उदाहरणम्।) (इह च यद्यपि शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथापि प्रथमजीवापेक्षं सालिमंजिया-स्त्री०(शालिभजिका) पुत्तलिकायाम्, रा०| सूत्रत्रयमपि नेतव्यम्, एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां जीवत्वमश्रद्दधानं सालिमद्द-पुं०(शालिभद्र) राजगृहे स्वमामख्याते गोभद्रश्रेष्ठिनः पुत्रे, श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता इति वणप्फई' शब्देषष्ठभागेगतम् / ) स्था० / 'शालिभद्र' इति यः पूर्वभवे सङ्गमनामा वत्सपालोऽभवत्, सालवण-न०(शालवन) बहुशालकनामग्रामसमीपवर्तिनि उद्याने, आ० सबहुमानं च साधवे पायसमदात्, राजगृहे गोभद्रः श्रेष्ठिनः पुत्रत्वेनोत्पन्नो 'म० 1 अ०। आ० चू०। देवीभूतगोभद्रश्रेष्ठिसमुपनीतदिव्यभोजनवसनकुसुमविलेपनभूषणासालवाहण-पुं०(शालवाहन) स्वनामख्याते महाराजे, कल्प०३ अधि० दिभिर्भोगाङ्गैरङ्गनानांद्वात्रिंशता सह सप्तभूमिकरम्यहऱ्यातलगतो ललति क्षण। व्य०। (शालवाहनचरित्रम् 'पणिहि' शब्दे पञ्चम–भागे 383 पृष्ठे स्म। वाणिजकोपनीतलक्षमूल्यबहुरत्नकम्बला गृहीताः, भद्रया शालिगतम्।) भद्रमात्रा वधूनां पादप्रोञ्छनीकृताश्चेति श्रवणाज्जातकुतूहले दर्शनार्थ गृहसालहिआ-स्त्री(देशी) 'मेना' इति ख्याते पक्षिविशेषे, पाइ० ना०२३६ मागते श्रेणिकमहाराजे जनन्याऽभिहितो; यथा त्वां स्वामी द्रष्टुमिच्छगाथा। तीत्यवतर प्रासादशृङ्गात्स्वामिनं पश्येति, वचनश्रवणादस्माकमप्यन्यः Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सालिभद्द 776 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावग(य) स्वामीति भावयन् वैराग्यमुपजगाम। वर्धमानस्वामिसमीपे च प्रवद्राज, विकृष्टतपसा क्षीणदेहः शिलातले पादपोपगमनविधिनाऽनुत्तरसुरेषू / पन्नवानिति सोऽयमिह संभाव्यते, केवलमनु तरोपपातिकाङ्गेनाधीत इति / स्था० 10 ठा० 3 उ०। ती०। कपिलमहर्षेः स्वगृहे भोजयितरि श्रावस्तीवास्तव्ये व्यवहारिणि, उत्त०८ अ० (कविल शब्दे तृतीयभागे 387 पृष्ठे कथा उक्ता।) सालिमसेल-पुं०(शालिभसेल) व्रीहिकणिकशूके, उपा०२ अ०॥ सालिया-स्त्री०(शाटिका) परिधानवस्त्रे, विशे०। आव०। शालिका-स्त्री०(सम्मूर्छजक्षुद्रजन्तुविशेष, आचा०१ श्रु०१ अ० ६उ। सालिसच्छियामच्छ-पुं०(शालिसाक्षिकामत्स्य) मत्स्यभेदे, भ० १श० 2 उ० सालिसय-त्रि०(सदृशक) समाने, रा०। स्था०। ज्ञा०। सालिसीस-पुं०(शालिशीर्ष) स्वनामख्याते ग्रामे, स्था०। ग्रामाक सन्निवेशात् शालिशीर्षग्रामे उद्याने प्रतिमास्थस्य स्वामिनो माघमासे तिपृष्ठभवापमानिता अन्तःपुरि मृत्वा व्यन्तरीभूत्वा तापसीरूपं कृत्वा जलभृतजटाभिरन्यदुःसहं शीतोपसर्ग चक्रे, कल्प०१ अधि०६क्षण। सालुज्जाण-पुं०(शालोद्यान) बहुशालकग्रामादहिरुद्याने आ० चू० १अ० सालुय-पुं०(शालूक) उत्पलकन्दे, भ०११श०२ उ०। (शालकोद्देशकः 'वणप्फई' शब्दे उक्तः) सालेइया(सालिही)पिया-पुं०[शा(सा)लेयिकापितृ स्वनामख्याते गृहपती, उपा०। एवं खलु जंबू! तेण कालेणं तेणं समएणं सावत्थीणयरी कोट्ठए चेइए जियसत्तू राया, तत्थणं सावत्थीए णयरीप सालिपियाणाम गाहावई परिवसइ / अड्डे दित्ते चत्तारि हिरण्णकोडीओ णिहाणपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ दुडिपउत्ताओ चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थरपउत्ताओ चत्तारि वया दस गोसाहस्सिएणं वएणं 1 फग्गुणी भारीया सामी समोसढो जहा आणंदो तहेव गिहिधम्मपडिवज्जइ, जहा कामदेवो तहाजेट्टपुत्तंठवेत्ता पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्तिं उवसंपञ्जित्ता णं विरइ / नवरं निरुवसग्ग्गाओ एक्कारस्स वि उपासगपडिमाओतहेव भाणियव्वाओ एवं कामदेवगमेणं नेयव्वं जाव सोहम्मे कप्पे अरुणकीले विमाणे देवत्ताए उववण्णे। चत्तारिपलिओवमाइं ठिई महाविदेहे वासे सिज्झि-हिति॥५६|| दसण्ह वि ओवमाइं संवच्छरे वट्टमाणाणं चिंता उववण्णा। दसण्ह वि वीसं वासाइसमणोवासयपरियाओ / एवं खलु जंबू ! समणेणंजाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते / (सू०५७) 'सालिहीपिय' त्ति साले यिकापितृनाम्नः श्रावस्तीनिवासिनो गृहमेधिनो भगवतो बोधिलाभिनोऽनन्तरं तथैव सौधर्मगामिनो वक्तव्यतानिबद्धंसालेयिकापितॄनामकं दंशममिति। दशाप्यमी विंशतिवर्षपर्यायाः सौधर्मे गताश्चतुःपल्योपमस्थितयो देवा जाता महाविदेहे च सेत्स्यन्तीति। स्था० 10 ठा०३ उ०। साव-पुं०(साप)नावात्पः।।१।१७।। इति पस्य लुक्न / प्रा०ा पो वः॥१।२३१|| इति पस्य वः। आक्रोशे,प्रा०१ पाद! सावइत्ता-स्त्री०(श्रावयित्वा) श्रावणं कृत्वेत्यर्थे, "नामगं साइत्ता' स्वकीयं नाम श्रावयित्वा यदुताहं भदन्त ! शक्रोदेवराजो भवन्तं वन्दे नमस्यामि चेत्येवम् / भ०१६ श०२ उ०॥ *श्रावयितृ-त्रि० श्रवणं कारयितरि, सूत्र०२ श्रु०३ अ० सावएज-न०(स्वापतेय) धने, जी०३ प्रति०४ अधि० / द्रव्ये, भ० 8 श०५ उ० आचा०। सावकंख-न०(सावकार) सह अवकाङ्क्षया वर्तत इति सावकाक्षम्। घटिट्याद्यनन्तरमहं भोजनं विधास्थामीति वाञ्छासहितेऽनशने,उत्त०३० अ०। सावग(य)-पुं०(श्रावक) शृणोति जिनवचनमिति श्रावकः। "अवाप्तदृष्ट्यादिविशुद्धसम्पत्-परं समाचारमनुप्रभातम्। शृणोति यः साधुजनादतन्द्रस्ते श्रावकं प्राहुरमी जिनेन्द्राः ।।१॥"इति। अथवा-श्रन्तिपचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः,तथा वपन्ति गुणवत्सप्तक्षेत्रेषु धनबीजानि निक्षिपन्तीति वाः, तथा किरन्ति क्लिष्टकर्मरजो विक्षिपन्तीति काः, ततः कर्मधारये श्रावका इति भवति / जिनवचनश्रद्दधाने, स्था०४ ठा०४ उ० (एकविंशतिगुणयुक्तएव श्रावको भवतीति 'धम्मरयण' शब्दे चतुर्थभागे 2727 पृष्ठे उक्तम्।) शृणोति साधुसमीपे साधुसामाचारीमिति श्रावकः / ग०२ अधिo) श्रावकधर्मस्य प्रक्रान्तत्वात्तस्य श्रावकानुष्ठातृकत्वा च्छ्रावकशब्दार्थमेव प्रतिपादयतिसंपत्तदंसंणाई, पइदियहं जइ जणा सुणेई य। सामायारिं परमं, जो खलुत्तं सावकं बिन्ति // 2 // संप्राप्तं दर्शनादि येनासौ संप्राप्तदर्शनादिः / दर्शनग्रहणात्सम्यग्दृष्टिरादिशब्दाद्-अणुव्रतादिपरिग्रहः अनेन मिथ्यादृष्टयुदासः। स इत्थंभूतः प्रतिदिवसं-प्रत्यहं यतिजनात्साधुलोकात् शृणोत्येव किं सामाचारी परमाम् / तत्र समाचरणं समाचारः- शिष्टाचरित; क्रियाकलापः तस्य भावः ‘गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि ष्यमिति ष्यञ् सामाचार्य पुनः स्त्रीत्वविवक्षायाम्- "षिद्गौरादिभ्यश्चे" ति डीए / यस्येति चेत्यकारलोपः / "हलस्तद्धितस्ये" त्यनेन तद्धि-तयकारलोपः परगमनं सामाचारी तां सामाचारी परमां प्रधानां, साधुश्रावकसंबद्धामित्यर्थः / यः खलु य एव शृणोति तं श्रावकं ब्रुवते-तं श्रावक प्रतिपादयन्ति भगवन्तः-तीर्थङ्करगणधराः / ततश्चायं पिण्डार्थः / अभ्युपेतसम्यक्त्वः प्रतिपन्नाणुव्रतोऽपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः सकाशात्साधूनामगारिणां च सामाचारी श्रुणोतीति श्रावकः इति। श्रा०। Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावग(य) 780 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावग(य) श्रावकधर्म वक्ष्य इति यदुक्तं,तत्र श्रावकशब्दार्थमाहपरलोयहियं सम्मं, जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो। अइतिव्वकम्मविगमा, सुक्कोसो सावगो एत्थ।।२।। यो जिनवचनं शृणोति स श्रावक इत्येवमिह क्रियाभिसंबन्धः / तत्र य इति सामान्यनिर्देशः / तेन यः कश्चित्प्राणी, न पुनर्नियतकुलोत्पन्न एव, यथा ब्राह्मणकुलोत्पन्न एव ब्राह्मणो भवतीति , क्रियाविशेषनिबन्धनत्वात् श्रावकत्वस्येति। ननु श्रवणमात्रनिबन्धनं श्रावकत्वमेवं स्यात्तच्च सर्वस्य श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतः संभवति, विशिष्टं च तदिष्यत इत्याशङ्कायामाहजिनवचनमाप्तागर्भ, न पुनर्यत्किञ्चनानाप्तवचनं वा, तस्याप्रमाणतया विवक्षितार्थासाधकत्वेन श्रवणानुचितत्वात् / किं भूतं तदित्याहपरलोको जन्मान्तरं प्रधानं जन्म वा तस्मै हितं पथ्यं परलोकहितम्। जिनवचनाराधनाद्धि परलोकोऽनुकूल एव भवतीति / स्वरूपप्रतिपादनपरं चेदं विशेषणं, परलोकहितस्य जिनवचनस्य सर्वथैवाभावेन व्यवच्छेद्याभावात् / अथवा-यजिनवचनमिहलोकहितं निमित्तशास्त्र ज्योतिषप्राभृत (योनिप्राभृत) प्रभृतिकं तद्व्यवच्छेदार्थमेतद्भविष्यति। यद्यपि ज्योतिषप्राभृतादिकमभिप्रायविशेषतः परलोकहितं, तथापि तन्मुख्यवृत्त्येहलोकहितमेव। अथाभिप्रायविशेषतोऽपि यत्परलोकहित तत्परलोकहितमेव, एवं तर्हि सर्वाण्यपि कुशासनानि तथा भवन्तु, किमेकमेव जिनवचनं परलोकहितमित्युच्यते, सर्वेषामपि तेषां विवक्षया परलोकहितत्वेनेष्टत्वात्, यदाह- "जे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते चेव तत्तिया मोक्खे / गणणाईया लोया, दोण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला / / 1 // " 'अतोऽनेन विशेषणेन यत्सांक्षात्परलोकहितं साधुश्रावकानुष्ठानगर्भ जिनवचनं तच्छृण्वञ् च्छावको भवती त्यभिहितम् / अत एवान्यत्र पूज्यैरेवोक्तम्- "संपन्नदंसणाई, पइदियहं जइ जणा सुणेई य / सामायारिं परमं, जो खलु तं सावयं बिति / / 1 // " कथं शृणोतीत्याहसम्यग-शठतया, प्रत्यनीकादिभावेन शृण्वन्नपि न श्रावको भवतीति भावः। अथवा ननु कपिलादिवचनमपि परलोकहितं भवति, कथमन्यथाऽभिधीयते- 'जावंति बंभलोओ चरगपरिव्वायउववाउ त्ति' अतस्तत्यागेन कथं जिनवचनमेव शृण्वन् श्रावको भवतीत्या-शङ्कायामाहसम्यक् समीचीनमत्यन्तं परलोकहितमिति यावत्। यथा हि जिनवचनं साक्षात्पारंपर्येण वा मोक्षहेतुतया सम्यक् परलोकहितं, न तथा कपिलादिवचनमिति भावः / शृणोत्याकर्णयति / किंभूतः सन्नित्याह-- उपयुक्तो दत्तावधानोऽनुपयुक्तश्रवणं हि नार्थवदत एव तन्निषेधार्थमुक्तम्- "निहाविगहापरिव-जिएहि गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं / भत्तिबहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं / / 1 / / " एवंविधे श्रवणे हेतुमाह-अथवा ननु व्यवहारेणोपयुक्तोऽशठश्च जिनवचनमभव्याऽपि कस्याचिदवस्थायां शृणोति, तत्कथमसौ श्रावकः स्यादित्याशङ्क्याह-अतितीवस्यात्युत्कटस्य कर्मणो ज्ञानावरणीयमिथ्यात्वादेविंगमो विनाशोऽतितीव्रकर्मविगमस्तस्मात्। न हि तीव्रकर्मविगममन्तरेणोक्तविशेषणश्रवणसंभवः। पातनान्तरपक्षे तु उक्तविशेषणवतः शृण्वतोऽप्यतितीव्रकर्मविगम एव विवक्षितश्रावकत्वं भवति / यदाह- "सत्तण्हं पगडीणं अब्भं-तरओ उ कोडिकोडीए। काऊण सागराणं, जइ लहति चउण्ह-मण्णयरं / / 1 // " स इत्यनन्तरोद्दिष्टः। 'उक्कोसो' त्ति उत्कृष्यत इत्युत्कर्ष उत्कृष्टः प्रधानो मुख्यश्रावकव्यपदेशभाजनत्वात्तस्य / यद्वा शुक्लःशुक्लपाक्षिकः अपार्थपुद्गलपरावर्ताभ्यन्तरीभूतसंसार इत्यर्थः। स उक्तस्वरूपश्रावकः शृणोतीति शब्दव्युत्पत्ति-विषयीभूतनामा / अवैतस्मिन् श्रावकधर्मविचारप्रक्रमेऽन्यत्र पुनर्विशेषणेन श्रवणेन श्रावणेन वा नामादिभेदभिन्नो वा श्रावको भवतीति गाथार्थः / पञ्चा०१ विव०। "यो ह्यभ्युपेतसम्यक्त्वो, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम्। शृणोति धर्मसंबद्धा-मसौ श्रावक उच्यते।" आव०६आव०६अ। सम्यग्दर्शनसंपन्नः प्रवचनभक्तिमान्षड्विधावश्यकनिरतः षट्स्थानकयुक्तश्च श्रावको भवति / ज्ञा०१ श्रु०१ श्रु० 16 अ०। यतिवचनामृतपाननिरते, भ०२ श०१ उ०। श्रमणोपासके, अनु०। स्था०। पञ्चा०। जिनशासनभक्ता--गृहस्थाः श्रावका भण्यन्ते। आव०४ अ० सावगा गहिताणुव्वता, अगहिताणुव्वता वा। नि० चू०१ उ०। बंभी पटवइया भरहो सा वगो जाओ। आ० म०१ अ० श्रावकाः धर्मशास्त्रश्रवणाद्ब्राह्मणाः। अनु०॥श्रावका ब्राह्मणाः , प्रथमं भरतादिकाले श्रावकाणामेव सतां पश्चाद् ब्राह्मणत्वभवनात् / अनु० / ज्ञा०। ('उसभ' शब्दे द्वितीय-भागे 1143 पृष्ठे स्पष्टमिदमुक्तम्।) अधुना श्रावकस्यैव निवासादिविषयां सामाचारी प्रतिपादयन्नाहनिवसिज्ज तत्थ सडो, साहूर्ण जत्थ होइ संपाओ। चेइयघराइ जत्थ य, तयन्नसाहम्मियां चेव // 336 / / निवसेत्तत्र नगरादौ श्रावकः साधूनां यत्रभवति संपातः। संपतनं संपातः आगमनमित्यर्थः / चैत्यगृहाणि च यस्मिस्तदन्यसाधर्मिकाश्चैव श्रावकादय इति गाथासमासार्थः / अधुना प्रतिद्वारं गुणा उच्यन्ते तत्र साधुसंपाते गुणानाहसाहूण वंदणेणं, नासइ पावं असंकिया भावा। फासुयदाणे निज्जर, उवग्गहो नाणमाईणं // 340 / / साधूनां वन्दनेन करणभूतेन किं नश्यति पापं गुणेषु बहुमानात्तथा अशङ्किता भावास्तत्समीपे श्रवणात्, प्रासुकदाने निर्जरा। कुतः? उपग्रहो ज्ञानादीनां ज्ञानादिमन्त एव साथव इति। उक्ताः साधुसंपाते गुणाः। चैत्यगृहे गुणानाहमिच्छादसणमहणं, सम्मइंसणविसुद्धिहे च। चिइवंदणाइ विहिणा, पन्नत्तं वीयरागेहिं // 341 / / मिथ्यादर्शनमथनं मिथ्यादर्शन-विपरीतपदार्थश्रद्धानरूपं, मथ्यते विलोड्यते येन तत्तथा, न केवलमपायनिबन्धनकदर्थनमेव किन्तु कल्याणकारणोपकारि चेत्याह- सम्यग्दर्शनविशुद्धिहेतु च / सम्यग्अविपरीतं तत्त्वार्थ श्रद्धानलक्षणं दर्शनं सम्यग्दर्शनं मोक्षादिसोपानं तद्विशुद्धिकरणं च / किं तच्चत्यवन्दनादि आदिशब्दात्पूजादिपरिग्रहः / विधिना-सूत्रोक्तेन प्रज्ञाप्त-प्ररूपितं वीतरागैरर्हद्भिः स्थाने शुभाध्यवसायप्रवृत्तेरेतच चैत्यगृहे सतिभवतीति गाथार्थः / उक्ताश्चैत्यगृहगुणाः। सांप्रत समानधार्मिकगुणानाहसाहम्मियथिरकरणं, वच्छल्ले सासणस्स सारो त्ति। मग्गसहायत्तणओ, तहा अणासोयधम्माओ॥३४२|| Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावग(य) 781 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावग(य) समानधार्मिकस्थिरीकरणमिति, यदि कश्चित्कथंचिद्धर्मात् प्रच्यवते ततस्तं स्थिरीकरोति, महांश्चायं गुणः। तथा वात्सल्ये क्रियमाणे शासनस्य सार इति सार आसेवितो भवति। उक्तं च-"जिणसासणस्स सारो" इत्यादि सति च तस्मिन् वात्सल्यमिति, तथा तेन तेनोपबृंहणादिना प्रकारेण सम्यग्दर्शनादिलक्षणमार्ग-सहायत्वादनाशश्च भवति, कुतो धर्मात्तत एवेति गाथार्थः / उक्ताः समानधार्मिकगुणाः। सांप्रतं तत्र निवसतो विधिरुच्यते-तत्रापिच प्रायो भावसुप्ताः श्रावकाः ये प्राप्यापि जिनमतं गार्ह स्थ्यमनुपालयन्त्यतो निद्रावबोधद्वारेणाहनवकारेण विबोहो, अणुसरणं सावओ, वयाइम्मि। जोगो चिइवंदणमो, पञ्चक्खाणं च विहिपुव्वं // 343 // नमस्कारेण विबोध इति सुप्तोत्थितेन नमस्कारः पठितव्यः, तथाऽनुस्मरणं कर्तव्यं श्रावकोऽहमिति व्रतादौ विषये, ततो योगः कायिकादिः चैत्यवन्दनमिति प्रयत्नेन चैत्यवन्दनं कर्तव्यं, ततो गुदीनभिवन्द्य प्रत्याख्यानंच विधिपूर्वकं सम्यगाकारशुद्धंग्राह्यमिति। गोसे सयमेव इम, काउं तो चेइयाण पूयाई। साहुसगासे कुजा, पचक्खाणं अहागहियं // 344 // गोसे-प्रत्युषसि स्वयमेवेदं कृत्वा गृहादौ ततश्चैत्यानां पूजादीनि संमार्जनोपलेपपुष्पधूपादिसंपादनादि कुर्यात्, ततः साधुसकाशे कुर्यात्किं प्रत्याख्यानं यथागृहीतमिति। श्रा०। अत्र च यद्यपि श्रावकयतिधर्मभेदाद्धर्मो द्विधा। श्रावकधर्मोऽपि अविरतविरतश्रावकधर्मभेदाद् द्विधा, तत्राविरतश्रावकधर्मस्य पूर्वसूरिभिः"तत्थहिगारी अत्थी, समत्थओ जो न सुत्तपडिकुट्ठो। अथी उ जो विणीओ, समुट्टिओ पुच्छमाणो अ॥१॥" इत्यादिनाऽधिकारी निरूपितः, विरतश्रावकधर्मस्य "संपत्तदंसणाई, पइदिअहं जइ जणा सुणेई अ। सामायारिं परमं, जो खलु तं सावयं बिंति / / 1 / / " तथा"परलोगहिअंध(स)म्मे, जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो। अइतिव्यकम्मविगमा, उक्कोसो सावगो इत्थ // 1 // " इत्यादिभिरसाधारणैः श्रावकशब्दप्रवृत्तिहेतुभिरधिकारित्वमुक्तम्। यतिधर्माधिकारिणोऽप्येवं तत्प्रस्तावे वक्ष्यमाणा यथा"पव्यजाए अरिहा, आरिअदेसम्मि जे समुप्पन्ना। जाइकुलेहि विसिट्ठा, तह खीणप्पा य कम्ममला / / 1 / / तत्तो अविमलबुद्धी,दुलहं मणुअत्तणं भवसमुद्दे। जम्मो मरणनिमित्तं, चवलाओ संपयाओ अ॥२॥ विसया य दुक्खहेऊ, संजोगे निअमओ विओगु त्ति / पइसमयमेव मरणं, इत्थ विवागो अ अइरुद्दो॥३॥ एवं पयईए चिअ, अवगयसंसारनिग्गुणसहावा। तत्तो अतव्विरत्ता, पयणुकसायप्पहासा य // 4 // सुकयन्नुआ विणीआ, रायाईणमविरुद्धकारी अ। कल्लाणंऽगा सड्ढा, धीरा तह समुवसंपन्ना शा" इति पृथक् पृथक् प्रतिपादितास्तथाऽप्येभिरेकविंशत्या गुणैः कतमधर्मस्याधिकारित्वमिति न व्यामोहः कार्यो , यत एतानि सर्वाण्यपि शास्त्रान्तरीयाणि लक्षणानि प्रायेण तत्तद्गुणस्याङ्गाभूतानि वर्तन्ते। / चित्रस्य वर्णकशुद्धिविचित्रवर्णतारेखाशुद्धिनानाभावप्रतीतिवत् / प्रकृतगुणाः पुनः सर्वधर्माणां साधारण-भूमिकेव चित्रकराणामिति सूक्ष्मबुद्ध्या भावनीयम् / यदुक्तम्-'दुविहं पि धम्मरयणं, तरइ नरो घित्तुमविगलं सो उ / जस्सेगवी-सगुणरय--णसंपका होइ सुत्थि त्ति / / 1 / / " ते च सर्वेऽपि गुणाः प्रकृते संविग्नादिविशेषणपदैरेव संगृहीता इति सद्धर्मग्रहणार्ह उक्तः // 20 // (ध०१ अधि० श्रा०1) एषां च भेदानां यथासंभवं ज्ञान-श्रद्धाचरणविधया सम्यक्त्वमुपयोगित्वमितिध्येयम्। इत्थं च देवा-दितत्त्वश्रद्धानविकलत्वे तथा-विधाजीविकादिहेतोः, श्रावकाकारधरणे द्रव्यश्रावकत्वमेव च पर्यवसन्नं, भावश्रावकत्वं तु यथोक्त-विधिप्रतिपन्नसम्यक्त्वादिर्यतिभ्यः सकाशान्नित्यं धर्मश्रवणादेव, यदुक्तमावश्कवृत्तौ- "यो ह्यभ्युपेतसम्यक्त्वो, यतिभ्यः प्रत्यहं कथाम। शृणोति धर्मसम्बद्धा-मसौ श्रावक उच्यते॥१॥" अभ्युपेतसम्यक्त्व इत्यत्राभ्युपेताणुव्रतोऽपीति व्याख्यालेश इति। तचेहाधिकृतं, भावस्यैव मुख्यत्वात्, भावश्रावकोऽपि दर्शनवृतोत्तरगुणश्रावकभेदाद् त्रिविधः, तद्विस्तरस्तु व्रतभङ्गाधिकारे दर्शयिष्यते, आगमे चान्यथाऽपि श्रावकभेदाः श्रूयन्ते, तथा च स्थानाङ्गसूत्रम्-'चउव्विहा समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा--अम्मा-पिइसमाणे, भाइसमाणे, मित्तसमाणे, सवत्तिसमाणे / अहवा-चउव्विहा समणोवासगा पण्णत्ता,तं जहाआयंससमाणे, पडाग-समाणे, खाणुसमाणे, खरंटसमाणे।' इति परमेते साधूनाश्रित्य द्रष्टव्या इति न पार्थक्यशङ्कालेशः / एषामपि नामश्रावकादिष्ववतारणविचारे व्यवहारनयमते भावश्रावका एवैते, श्रावकपदव्युत्पत्तिनिमित्तमात्रयोगेन तथाव्यवह्रियमाणत्वात, निश्चयनयमते पुनः सपत्नीखरण्टसमानौ मिथ्यादृष्टिप्रायौ द्रव्यश्रावको, शेषास्तु भावश्रावकाः। यतस्तेषां स्वरूपमेवमागमे व्याख्यायते"चिंतिजइ कजाई, न दिट्ठखलिओ मि होइ निन्नेहो। एगंतवच्छलो जइ-जणस्स जणणीसमो सद्धो // 1 // हिअए ससिणेहो च्चिअ, मुणीण मंदायरो वियणकम्मे। भाइसमो साहूणं, पराभवे होइ सुसहाओ॥२॥ मित्तसमाणी माणा, ईसिं रूसइ अपुच्छिओ कज्जे। मन्नंतो अप्पाणं,मुणीण सयणाउ अब्भहिअं॥३॥ . थलो छिद्दप्पेही, पमायखलिआणि निच्चमुच्चरइ। सद्धो सवत्तिकप्पो, साहुजणं तणसमं गणइ॥४॥" तथा द्वितीयचतुष्के"गुरुभणिओ सुत्तत्थो, बिंबिज्जइ अवितहो मणे जस्स। सो आयंससमाणो; सुसावओ वन्निओ समए॥५|| पवणेण पडागा इव, भामिजइ जो जणेण मूढेणं। अविणिच्छिअगुरुवयणो, सो होइ पडाइआतुल्लो॥६|| पडिवन्नमसग्गाहो, न मुणइ गीअत्थसमणुसह्रो वि। खाणुसमाणो एसो, अप्पउसी मुणिजणे नवरं / / 7 / / उम्मग्गदेसओ णि-हवोऽसि मूढोऽसि मन्दधम्मोऽसि। इअसम्भं पि कहतं, खरंटए सो खरंटसमो।।८।। जह सिदिलमसुइदव्वं, लुप्पंतं पिहुनरं खरंटेइ।' एवमणुसासगं पिहु, दूसतो भन्नइ खरंटो॥ Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावग(य) 782 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावग(य) निच्छयओ मिच्छत्ती, खरंटतुल्लो सवत्तितुल्लो वि। ववहारओ उ सड्ढा, जयंति जं जिणगिहाईसुं॥१०॥" इत्यलं प्रसङ्गेन। अनोपयोगित्वात् पूर्वसूरिप्रणीतानि भावश्रावकस्य लिङ्गानि धर्मरत्नप्रकरणे यथोपादिष्टाति तथोपदर्श्यन्ते। तथाहि "कयवयकम्मो१ तह सी-लवं चरगुणवं च ६उज्जुववहारी 4 / / गुरुसुस्सूसो 5 पवयण-कुसलो ६खलु सावगो भावे // 1 // " कृतम्अनुष्ठितं व्रतविषयं कर्म-कृत्यं येन स कृतव्रतकर्मा 1, अथैनमेव सप्रभेदमाह-- "तत्थायण्णण १जाणण२,गिण्हण३पडिसेवणे सु४उज्जुत्तो।। कयवयकम्मो चउहा, भावत्थो तस्सिमो होइ॥२॥" तत्राकर्णनं विनयबहुमानाभ्यां व्रतस्य श्रवणं 1, ज्ञानं व्रतभङ्गभेदातिचाराणां सम्यगवबोधः 2, ग्रहणं गुरुसमीपे इत्वरं यावत्कालं वा व्रतप्रतिपत्तिः 3, आसेवनं सम्यक्पालनम् 4 / अथ शीलवत्स्वरूपं द्वितीयलक्षणं यथा"आययणं खुनिसेवइ 1, वज्जइपरगेहपविसणमकज्जे 2. निच्चमणुभडवेसो ३,न भणइ सविआरवयणाई 4 // 3 // परिहरइ वालकीलं 5, साहइ कज्जाइँ महुरनीईए६। इअछव्विहसीलजुओ, विन्नेओ सीलयंतोऽत्थ 7 // 4 // " आयतनं धर्मिजनमीलस्थानम्, उक्तंच-"जत्थसाहम्मिआ बहवे, सीलवंता बहुस्सुआ। चरितायारसंपन्ना, आययणं तं विआ-णाहि // 1 // " तत्सेवते भावश्रावको नत्वनायतनमिति भावः।।१।। शेषपदानि सुगमानि, बालक्रीडां द्यूतादिकं 5, मधुरनीत्या सा मवचनेन स्वकार्यसाधयति, नतु परुषवचनेनेति षट्शीलानि६अधुना तृतीयं भावभावकलक्षणं गुणवत्स्वरूपं यथा "जइविगुणा बहुरूवा, तहाविपंचहिँ गुणेहिँ इअ मुणिवरेहि भणिओ, 'सरूवमेसिं निसामेहि / / 5 / / सज्झाए१करणम्मि अ२, विणयम्मि अ३निच्चमेव उज्जुत्तो। सव्वत्थऽणभिनिवेसो४, वहइ रुई सुट्र जिणवयणे 5 // 6 // " स्वाध्याये पञ्चविधे 1, करणे--तपोनियमवन्दनाद्यनुष्ठाने 2, विनयेगुर्वाद्यभ्युत्थानादिरूपे, नित्यमुधुक्तः प्रयत्नवान् भवति 3, सर्वत्र प्रयोजनेषु अनभिनिवेशः प्रज्ञापनीयो भवति४, तथा वहति धारयति, रुचिम्-इच्छां; श्रद्धानमित्यर्थः, सुष्टु-बाढं जिन-वचने 5, इति पञ्च गुणाः / (सम्यक्त्वग्रहणं 'सम्मत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) सामाचारीशेषमाहसुणिऊण तओ धम्म, अहारविहारं च पुच्छिउमिसीणं / काऊण य करणिजं, भावम्मितहाससत्तीए॥३५२।। श्रुत्वा ततो धर्म क्षान्त्यादिलक्षणं साधुसकाशे इतिगम्यते। यथाविहारं चतथाविधचेष्टारूपं पृष्ट्वा ऋषीणां संबन्धिनं कृत्वा च कारणीयम् ऋषीणामेव संबन्धिभाव इत्यस्तितायां करणीयस्य स्वशक्त्या स्वविभवाद्यौचित्येनेति। ततो अणिंदियं खलु, काऊण जहोचियं अणुद्वाणं / भुत्तूण जहाविद्दिणा, पचक्खाणं च काऊण // 353 / / ततस्तदनन्तरमनिन्द्यं खलु इहलोकपरलोकानिन्धमेव कृत्वा यथोचि-। तमनुष्ठानं यथा वाणिज्यादि तथा भुक्त्वा यथाविधिना अतिथिसंविभागसंपादनादिना प्रत्याख्यानं च कृत्वा तदनन्तरमेव पुनर्भोगेऽपि ग्रन्थिसहितादीनि। सेविज तओ साहू, करिज पूयं च वीयरागाणं / चिइवंदणसगिहागम-पइरिकम्मिय तुयट्टिजा।।३५४|| सेवेत ततः साधून पर्युपासनविधिना कुर्यात् पूजां च वीतरागाणां स्वविभवौचित्येन, ततश्चैत्यवन्दनं कुर्यात्, ततः स्वगृहागमनं तथैकान्ते तुत्वग्वर्तनं कुर्यात्स्वपेदिति। कथमित्याहउस्सग्गबंभयारी, परिमाणकडो उनियमओ चेव। सरिऊण वीयरागे, सुत्तविबुद्धो विचिंतिजा ||35|| उत्सर्गतः प्रथमकल्पेन ब्रह्मचारी आसेवनं प्रति कृतपरिमाणस्तु नियमादेव आसेवनपरिमाणाकरणे महामोहदोषात् तथा स्मृत्वा वीतरागान् सुविबुद्धः सन् विचिन्तयेद्वक्ष्यमाणमिति। भूएसु जंगमत्तं, तेसु वि पंचेन्दियत्तमुक्कोसं। तेसु वि अमाणुसत्तं, मणुयत्ते आरिओ देसो॥३५६|| भूतेषु-प्राणिषु जङ्गमत्वंद्वीन्द्रियादित्वं तेष्वपिपञ्चेन्द्रियत्वमुत्कृष्टम्प्रधानं तेष्वपि पञ्चेन्द्रियेषु मानुषत्वमुत्कृष्टमिति वर्तते मनुजत्वे आर्यो देश उत्कृष्ट इति। देसे कुलं पहाणं, कुले पहाणे य जाइ उक्कोसा। तीइवि रूवसमिद्धी, रूवे य बलं पहाणयरं // 357 / / देशे आर्ये कुलं प्रधानम्, उग्रादिकुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टामातृसमुत्था, तस्यामपि जातौ रूपसमृद्धिरुत्कृष्टा; सकलाङ्गनिष्पत्तिरित्यर्थः, रूपे च सति बल प्रधानतरं सामर्थ्यमिति। होइ बले वि य जीयं, जीए वि पहाणयं तु विन्नाणं / विन्नाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती॥३५॥ भवति बलेऽपिच जीवितं प्रधानतरमिति योगः,जीवितेऽपि च प्रधानतरं विज्ञान, विज्ञाने सम्यक्त्वं क्रिया पूर्ववत्, सम्यक्त्वेशीलसंप्राप्तिः प्रधानतरेति। सीले खाइयभावे,खाइयभावे य केवलं नाणं / केवलिए पडिपुन्ने, पत्ते परमक्खरे मुक्खो // 346 / / शीले क्षायिकभावः प्रधानः, क्षायिकभावे च केवलज्ञानं, प्रतिपक्षयोजना सर्वत्र कार्येति, कैवल्ये प्रतिपूर्णे प्राप्ते परमाक्षरे मोक्ष इति। नय संसारम्मि सुह,जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। जीवस्स अत्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेओ॥३६०|| नचसंसारे सुखंजातिजरामरणदुःखगृहीतस्य जीवस्यास्ति, यस्मादेवं तस्मात् मोक्ष उपादेयः। किंविशिष्ट इत्याहजनाइदोसरहिओ, अव्वावाहसुहसंगओ इत्थ। तस्साहणसामग्गी, पत्ताय मए बहू इन्हिं / / 361 / / जात्यादिदोषरहितोऽव्याबाधसुखसंगतोऽत्र (संसारे) तत्साधनसामग्री प्राप्ता च मया बहीदानीम्। ता इत्थ जंन पत्तं, तयत्थमेवुज्जम करेमि त्ति। Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावग(य) 783 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावग(य) विबुहजणनिदिएणं, किं संसाराऽणुबंधेणं // 362 / / तेऽपि च साध्वादयः कृताञ्जलिपुटारचितकरपटाञ्जलयः श्रद्धासंवेगतदत्र (सामण्यां) यन्न प्राप्तं तदर्थमेवोद्यमं करोमीति विबुधजन- पुलकितशरीराः-श्रद्धाप्रधानसंवेगतो रोमाञ्चितवपुषोऽवनामितोत्तनिन्दितेन किं संसारानुबन्धेन / इति निगदसिद्धो गाथात्रयार्थः / माङ्गाः सन्तस्तद्वन्दनं बहु मन्यन्ते शुभध्यानाः-प्रशस्ताध्यवसायाः। ___ इत्थं चिन्तनफलमाह इत्युभयोः फलमरह-- वेरग्गं कम्मक्खय-विसुद्धनाणं च चरणपरिणामो। तेसिं पणिहाणाओ, इयरेसिं पिय सुभाउ झाणाओ। थिरया आउय बोही, इय चिंताए गुणा हुंति॥३६३।। पुन्नं जिणेहि भणियं, नो संकमउ त्ति ते मेरा // 370 / / इत्थं चिन्तयतो वैराग्यं भवत्यनुभवसिद्धमवैतत्, तथा कर्मक्षयः तेषामाद्यानां वन्दननिवेदकानां प्रणिधानात्तथाविधकुशलचित्तातत्त्वचिन्तनेन, प्रतिपक्षत्वात् विशुद्धज्ञानं च निबन्धनहानः, चरणपरि- दितरेषामपिच वन्द्यमानानांशुभध्यानात्तच्छ्रवणप्रवृत्त्या पुण्यं जिनैर्भणिणामः प्रशस्ताध्यवसायत्वात्, स्थिरता धर्मे प्रतिपक्षा-सारदर्शनात्, तम्-अर्हद्विरुक्तं नच संक्रमत इति न निवेदकपुण्यं निवेद्यसंक्रमेण आयुरिति कदाचित्परभवायुष्कबन्धस्ततस्तच्छुभत्वात्सर्वं कल्याण यतश्चैवमतो मर्यादेयमवश्यं कार्येति। बोधिरित्थं तत्त्वभावनाभ्यासात् / एवं चिन्तायां क्रियमाणायां गुणा विपर्यये दोषमाहभवन्त्येवं चिन्तया वेति। जे पुणऽकयपणिहाणा, वंदित्ता नेव वा निवेयंति। गोसम्मि पुथ्वभणिओ, नवकारेणं विबोहमाईओ। पच्चक्खमुसावाई, पावा हु जिणेहि ते भणिया / / 371 / / इत्थ विही गमणम्मि य, समासओ संपक्खामि // 364 // ये पुनरनाभोगादितोऽकृतप्रणिधाना वन्दित्वा नैववा वन्दित्वा निवेदगोसे-प्रत्युषसि पूर्वभणितो नमस्कारेण विबोधादिः अत्र विधिः इति यन्ति अमुकस्थाने देवान्वन्दिता यूयमिति प्रत्यक्षमृषा-वादिनोऽकृतगमने च समासतः संप्रवक्ष्यामि विधिमिति। निवेदनात्पापा एव जिनैस्ते भणिता मृषावादित्वादेवेति। अहिगरण खामणं खलु, चेइयसाहूण वंदणं चेव। जे विय कयंजलिउडा, सद्धासंवेगपुलइयसरीरा। संदेसम्मि विमासा,जह गिहिगुणदोसविक्खाए।।३६५।। बहु मन्नंति न सम्म, वंदणगं ते वि पाव त्ति // 372 / / . अधिकरणक्षामणं खलु मा भूत्तत्र मरणादौ वैरानुबन्ध इति तथा येऽपि च साध्वादयो निवेदिते सति कृताञ्जलिपुटाः श्रद्धासंवेग चैत्यसाधूनामेव च वन्दनं नियमतः कुर्यात् गुणदर्शनात्, संदेशे विभाषा पुलकितशरीरा इति पूर्ववन्न बहु मन्यन्ते न सम्यक् वन्दनकं कुर्वन्ति (यतिगृहिगुणदोषापेक्षयेति) यतेः संदेशको नीयते न सावद्यो गृहस्थस्य तेऽपि पापा गुणवति स्थानेऽवज्ञाकरणादिति। इति चैत्यसाधूनां वन्दनं चेति यदुक्तं तद्विस्फा-रयति। क्वचिद्वेलाभावेऽपि विधिमाह-- साहूण सावगाण य, सामायारी विहारकालम्मि। जइ विन वंदणवेला, तेणाइभएण चेइए तह वि। जत्थ त्थि चेइयाई, वंदावंती तहिं संघं // 366|| ठूणं पणिहाणं, नवकारेणावि संघम्मि॥३७३|| साधूनां श्रावकाणां चोक्तशब्दार्थानां (2) सामाचारी-व्यवस्था कदा यद्यपि क्वचिच्छून्यादौ न वन्दनवेला स्तेनश्वापदादिभयेषु चैत्यानि विहरणकाले विरहणसमये, किं विशिष्टत्याह-यत्र स्थाने सन्ति चैत्यानि तथापि दृष्ट्वा अवलोकनिबन्धनमपि प्रणिधानं नमस्कारेणापि संघ इति वन्दयन्ति तत्र संघ चतुर्विधमपि प्रणिधानं कृत्वा स्वयमेव वन्दत इति। संघविषयं कार्यमिति। पढमं तओ य पच्छा, वंदंति सयं सिया ण वेल त्ति। तम्मि य कए समाणे, वंदवणागं निवेइयव्वं ति। पढम चिय पणिहाणं, करंति संघम्मि उवउत्ता / / 337 / / तयभावम्मि पमादा, दोसो भणिओ जिणिंदेहिं // 374 / / प्रथममिति--पूर्वमेव सङ्घ वन्दयन्ति ततः पश्चात्सङ्घवन्दऽनोत्तरकालं तस्मिन्नपि एवंभूते प्रणिधाने कृते सति वन्दनं निवेदयितव्यमेव वस्तुतः वन्दन्ते, स्वयम्, आत्मना आत्मनिमित्तमिति स्यान्न वेलेतिस्तेनादि- संपादितत्वात्, तदभावे-तथाविधप्रणिधानाकरणे प्रमादाद्धेतोर्दोषो भयसार्थगमनादौ तत्रापि प्रथममेव वन्दने प्रणिधानं कुर्वन्ति संघविषय- भणितो जिनेन्द्रैर्विभागायातशक्यकुशलाप्रवृत्तेरिति। मुपयुक्ताः संघं प्रत्येतद्वन्दनं संघोसयं वन्दत इति! उपसंहरन्नाहपच्छाकयपणिहाणा,विहरंता साहुमाइ दळूणं / एवं सामायारिं, नाऊण विहीइ जे पउंजंति। जंपति अमुगठाणे, देवे वंदाविया तुम्भे // 368|| ते हुंति इत्थ कुसला, सेसा सव्वे अकुसला उ॥३७५।। पश्चात्तदुत्तरकालं कृतप्रणिधानाः सन्तस्तदर्थस्य संपादितत्वाद्विहरन्तः एतामनन्तरोदितां सामाचारी-व्यवस्था ज्ञात्वा विधिना ये प्रयुञ्जते; सन्तः साध्वादीन्दृष्ट्वा साधुंसाध्वी श्रावकं श्राविकां वा जल्पन्तिव्यक्त यथावद् ये कुर्वन्तीत्यर्थः,ते भवन्त्यत्र विहरणविधौ कुशलाः शेषा च भणन्ति। किम् अमुकस्थाने-मथुरादौ देवान्वन्दिता यूयमिति। अकुशला एव-अनिपुणा एव; नचेयमयुक्ता संदिष्ट-वन्दनकथनतीर्थते विय कयंजलिउडा, सद्धासंवेगपुलइयसरीरा। स्नपनादिदर्शनादिति / श्रा०। (श्रावकदिनक्रिया 'सावगदिणकिरिया' अवणामिउत्तमंगा, तं बहु मन्नंति सुहझाणा // 366 / / शब्दे वक्ष्यते।) Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावग(य) 784 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 - सावगदिणकिरिया अथ श्रावकस्य भावगतानि तान्याह''भावगयाइँ सत्तरस, मुणिणो एअस्स बिंति लिङ्गाई। जाणि अजिणमयसारा, पुव्वायरिआ जओ आहू // 11 // इत्थिी ,दिअत्थसंसा-र४विसय५आरंभ६गेहदंसणओ८/ गड्डरिगाइपवाहे पुरस्सरं आगमपवित्ती 10 // 12 / दाणाइ जहासत्ती, पवत्तणं 11 विहिअ 12 रत्तदुढे अ 131 मज्झत्थ 14 मसंबद्धो 15, परन्थकामोवभागी अ 16 // 13 // वेसा इव गिहवासं, पालइ 17 सत्तरसपयनिबद्धंतु। भावगयभावसावग-लक्खणमेअंसमासेणं // 14 // " आसां काचिद्व्याख्या-स्त्र्यादिदर्शनान्तपदाष्टकानां द्वन्द्वे सप्तम्यर्थे तसिल (इतरेभ्योऽपि दृश्यन्ते इति) अयं भावः-स्त्रीवशवर्ती न भवेत् 1, इन्द्रियाणि विषयेभ्यो निरुणद्धि, 2. नानर्थमूलेऽर्थे लुभ्यति 3, संसारे रतिंन करोति४, विषयेषु न गृद्धिं कुर्यात् 5, तीव्रारम्भंन करोति, करोति चेदनिच्छन्नेव 3, गृहवासे पाशमिक मन्यमानो वसेत् 7, सम्यक्त्वान्न चलति 8, गडरिकप्रवाहं त्यजति 6, आगमपुरस्सरं सर्वाः क्रियाः करोति 10, यथाशक्ति दानादौ प्रवर्त्तते 11, विहीको निरवद्यक्रियां कुर्वाणो न लज्जते 12, संसारगतपदार्थेषु अरक्तद्विष्टो निवसति 13 धर्मादिस्वरूपविचारे मध्यस्थः स्यात्, नतु मया अयं पक्षोऽङ्गीकृत इत्यभिनिवेशी 14, धन-स्वजनादिषु सम्बद्धोऽपि क्षणभङ्गुरतां भावयन्नसम्बद्ध इवास्ते 15, परार्थम् अन्यजनदाक्षिण्यादिनाभोगोपभोगेषु प्रवर्तते, नतु स्वतीवरसेन 16, वेश्येव निराशंसो गृहवांस पालयतीति 17 / ध०२ अधिo श्रमणेभ्यः श्रावकभेदः 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतः।] [श्रावकस्य साधोः अन्तरम् 'मरण' शब्देषष्ठभागे गतम्।]"एवं व्रतस्थितो भक्त्या, सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन्। दयया चातिदीनेषु, महाश्रावक उच्यते . // 1 // " इति ('महासावग' शब्दे षष्ठभागे गतम्)। श्रावकस्य एकविंशति गुणास्ते च पूर्वमुक्ताः / दर्श०२ तत्त्व। *वापद-पुं०। प्रायो मांसाहारादिविशेषणविशिष्ट व्याघ्रादौ, जं० 2 वक्ष०। मकरग्रहादौ, स०। जलचरक्षुद्रसत्त्वे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०) सिंहादिषु, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आ०म० व्याघ्रादिषु, स०१ समका प्रश्नका सावगकु ल-न०(श्रावककुल) श्रावकान्वये, 'वंसाणं जिणवंसो सव्वकुलाणं च सावयकुलाई संथा०। केइ एगवीसगुणे सावगाणं भवंति, तेहिं सावएहि य परंपरागयं सावयकुलं भंडियं / ' अङ्गा सावगणंदण-पुं०(श्रावकनन्दन) श्रावककुमारे, आ०क०१ अ०। सावगदिणकिच्च-न०(श्राक्कदिनकृत्य) श्रावकप्रतिदिनक्रियाप्रतिपादके स्वनामख्याते ग्रन्थे, ध०२ अधिo (श्राद्धदिनकृत्यमित्यपरं नामास्य।) सावगदिणकिरिया-स्त्री०(श्रावकदिनक्रिया) श्राद्धप्रतिदिनकृत्ये, ध० / सांप्रतं मध्याह्लादिविषयं यत्कर्तव्यं तदर्शयन्नाहमध्याह्नेर्चा च सत्पात्र-दानपूर्व तु भोजन्। संवरणकृतिस्तद्विहः,सार्ध शास्त्रार्थचिन्तनम्॥६॥ मध्याह्ने मध्याह्नकाले चः पुनरर्थे पूर्वोक्तविधिना विशिष्य च प्रधानशाल्योदनादिनिष्पन्नविशेषरसवतीढौकनादिना; द्वितीय-वारमित्यर्थः / अर्धा-पूजा श्रावकाधिकारप्रस्तावाजिनपूजाविशेषतो गृहिधर्मो भवतीत्यन्वयः, एवमग्रेऽपि / तथा सत्पात्रं साध्वादि तस्मिन् दानपूर्वं दानं दत्त्वेत्यर्थः, भोजनम्-अभ्यवहरणं तुरेवकारार्थस्ततः सत्पात्रदानपूर्वमेव भोजनमिति निष्कर्षः,अन्वयस्तूक्त एव / अत्र च भोजनमित्यनुवादः मध्याहिकपूजाभोजनयोश्वन कालनियमः, तीव्रबुभुक्षोर्हि बुभुक्षाकालोभोजनकाल इति रूढेः, मध्याह्लादर्वा गपिगृहीतं प्रत्याख्यानं तीरयित्वा देवपूजापूर्वकं भोजनं कुर्वन्न दुष्यति। अत्र चायं विधिः--भोजनवेलायां साधून्नि--मन्त्र्यतैः सह गृहमायाति स्वयमागच्छतो वमुनीन् दृष्ट्या संमुख गमनादिकं करोति, साधूनां हि प्रतिपत्तिपूर्वकं प्रतिलम्भनं न्याय्यं श्रावकाणां, सा चेत्थं योगशास्त्रे-"अभ्युत्थानं तदा लोके, ऽभियानं च तदागमे। शिरस्यञ्जलिसंश्लेषः, स्वयमासनढौकनम्॥१॥ आसनाभिग्रहो भक्त्या, वन्दना पर्युपासनम् / तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरोः / / 2 / " दिनकृत्येऽपि-''आसणेण निमंतेत्ता, तओ परिअणसंजुओ। वंदए मुणिणो ताहे, खंताइगुण-संजए॥१॥" एवं प्रतिपत्तिं विधाय सविनयं संविग्नासंविग्नभावितक्षेत्रं 1 सुभिक्षदुर्भिक्षादिकालं 2 सुलभदुर्लभादिदेयं चद्रव्यं 3 विचार्य आचार्योपाध्यायगीतार्थतपस्विबालवृद्धग्लानसहाऽसहादिपुरुषाद्यपेक्षया च स्पर्धामहत्त्वमत्सरस्नेहलजाभयदाक्षिण्यपरानुवर्तना प्रत्युपकारेच्छामायाविलम्बानादरविप्रियोक्तिपश्चात्तापदीनाननादिदोषवर्जमेकान्तात्मानुग्रहबुद्ध्या द्विचत्वारिंशद्भिक्षादोषाद्यदूषितं निःशेषनिजान्नपानवस्त्रादेर्भोजनाद्यनुक्रमेण स्वयं दानं दत्ते दापयति वा पार्श्वे स्थित्वा भार्यादिपावद्द्यितो दिनकृत्ये- "देसं खितं तु जाणित्ता, अवत्थं पुरिसंतहा। विज्जो व्व रोगिअस्सेव, तओ किरिअं पउंजए।।१॥" देशं मगधावन्त्यादि साधुविहारयोग्यायोग्यरूपं १क्षेत्रं संविग्न वितमभावितंवा, तुशब्दात्-द्रव्यमिदंसुलभंदुर्लभंवा, अवस्था सुभिक्षदुर्भिक्षादिकां पुरुषमाचार्योपाध्यायबालवृद्धग्लानसहाऽसहादिकं च ज्ञात्वा विज्जु व्व रोगिअस्स' ति- यथा किल भिषग् देशकालादि विचार्य व्याधिमतश्चिकित्सां करोत्येवं श्रावकोऽपि ततः क्रियामाहारादिदानरूपां प्रयुक्त इति तद्वृत्तिः। तत्र चसाधूनां यद्योग्यं तत्सर्व विहारयितुं प्रत्यहं नामग्राहं कथयति, अन्यथा प्राक् कृतनिमन्त्रणस्य वैफल्यापत्तेः, नामग्राहं कथने तु यदि साधवो न विहरन्ति, तथापि कथयितुः पुण्यं स्यादेव, अकथने तु विलोक्यमानमपि साधवो न विहरन्तीति हानिः / एवं गुरून्प्रतिलम्भ्य वन्दित्वाचगृहद्वारादियावदनुव्रज्यचनिवर्तते।साध्वभावे त्वनभ्रवृष्टिवत्साध्वागमनं जातु स्यात् तदा कृतार्थः स्यामिति दिगालोकं कुर्यात्, तथा चाहुः- "जं साहूण न दिन्नं, कर्हि पितं सावया न भुंजंति। Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावगदिणकिरिया 785 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावगधम्म पत्ते भोअणसमए, बारस्सालोअणं कुजा॥१॥" (ध०1) "भोजनानन्तरं दोषरहितं नमस्करणं तदप्ययुक्तमेव / ध० २अधि०। (रात्रिकर्त्तव्यं वाम--कटिस्थो घटिकाद्वयम्।शयीत निद्राया हीनम्-यद्वा पदशतं,व्रजेत् 'सयण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम्।) // 3 // ' अथोत्तरार्द्धव्याख्या- 'संवरणे' त्यादि भोजनानन्तरं संवरणं ___ अथ निद्रान्ते किं कर्तव्यमित्याहप्रत्याख्यानं दिवसचरमं ग्रन्थिसहितादि वा, तस्य कृति करणे, सति निद्राक्षयेऽङ्गनाऽङ्गाना-मशौचादेर्विचिन्तनम्। संभवे देवगुरुवन्दन-पूर्वमित्यनुक्तमप्यवसेयं, यतो दिनकृत्ये- "देवं | इत्याहोरात्रिकी चर्या, श्रावकाणामुदीरिता॥६८|| गुरुं च वन्दित्ता, काउं संवरणं तदा" इति। तथा ततः-प्रत्याख्यान- ततः परिणतायां रात्रौ निद्रायाः क्षये-नाशे सत्यनादिभवाभ्यासकरणानन्तरं, शास्त्रार्थानां-शास्त्रप्रतिपादितभावानां चिन्तनं-स्मरणं रसोल्लसदुर्जयकामरागजयार्थम् अङ्गनाः स्त्रियस्तासामङ्गनानाविचारणं वा इदमित्थं भवति नवेति संप्रधारणमिति यावत, कथं? सार्द्ध शरीराणां यदशौचम्-अपावित्र्यं तस्य विचिन्तन-विशेषेण विचारणम्, सह कैः तज्ज्ञैः, तं शास्त्रार्थ जानन्तीति तज्ज्ञास्तैर्गीतार्थयतिभिः आदिशब्दात्- जम्बूस्वामीस्थूलभद्रादिमहर्षिसुश्राद्धादिदुष्पालनप्रवचनकुशलश्राद्धपुत्रैर्वेत्यर्थः' गुरुमुखाच्छुतान्यपिशास्त्रार्थरह-स्यानि शीलपालनपवित्रचरित्रकषायजयोपायभवस्थित्यत्यन्तदुःस्थतापरिशीलनाविकलानि न चेतसि सुदृढप्रतिष्ठानि भवन्तीति कृत्वा।। धर्ममनोरथानां ग्रहणम्; एषामपि चिन्तनमित्यर्थः, तद्विशेषतो गृहिधर्मों संम्प्रति संध्याविषयं यत्कर्तव्यं तदाह भवतीत्यन्वयः। ध०२ अधिक। सायं पुनर्जिनाभ्यर्चा, प्रतिक्रमणकारिता। अनारिसामाइयडाइ, सड्डी कारण फासए। गुरोर्विश्रामणा चैव, स्वाध्यायकरणं तथा॥६६।। पोसह दुहओ पक्खं, एगराई न हावइ॥२३|| सार्य-संध्यासमयेऽन्तर्मुहूर्ताद पुनस्तृतीयवारमित्यर्थः, जिनाभ्य- | अगारी-गृहस्थःसामायिकाङ्गानिसामायिकस्य अङ्गानिसामायिकाचदिवपूजनं विशेषतो गृहिधर्मे इति संटङ्कः। एवमग्रेऽपि।अत्र चार्यं विशेषः- झानि निःशङ्कितनिःकाशितनिर्विचिकित्सितामूदृष्टि-प्रमुखाणि कायेन उत्सर्गतः श्रावकेणैकवारभोजिनैव भाव्यम्, यदभाणिदिनकृत्ये- स्पृशति, कीदृशः सन् श्रद्धीश्रद्धावान् सन् पुनर्गृहस्थः उभयोः-शुक्ल"उस्सग्गेणं तु सड्ढो उ, सचित्ताहारवज्जओ। इक्कासणगभोई अ,बंभयारि कृष्णपक्षयोः पौषधं सेवते चतुर्दशीपूर्णिमास्यादिषु पौषधम्-आहारपौषतहेव य॥१॥" यश्चैकभक्तं कर्तुं न शक्नोति स दिवसस्याष्टमे भागेऽन्त- धादिकं कुर्यात् एकरात्रिमपिएकदिनमपि न हापयेत्-न हानि कुर्यादिमुहूर्तद्वयलक्षणे यामिनीमुखादौ तु रजनीभोजनमहादोषप्रसङ्गादन्त- त्यर्थः / रात्रिग्रहणं दिवाव्याकुलतायां रात्रौ अपि पौषधं कुर्यात्। चेत् एवं मुहूर्तादर्वागेव वैकालिकं करोति, यतो दिनकृत्य एव-"अह न सक्केइ नस्यात् तदा चतुर्दशी अष्टमी उद्दिष्टा महाकल्याणकपूर्णिमा चतुर्मासकत्रकाउंजो, एगभत्तंजओ गिही। दिवसस्सऽहमे भागे, तओ भुंजे सुसावओ यस्य दिवसे पौषधं कुर्यात्। सामायिकाङ्गत्वेनैव सिद्धे भेदेनोपादानमा||१॥" वैकालिकानन्तरं च यथाशक्ति दिवसचरमं सूर्योद्मान्तं दरख्यापनार्थम्। उत्त०५ अ०) मुख्यवृत्त्या दिवसे सति द्वितीयपदे रात्रवपि करोति, कृत्वा च संध्यायाम् | सावगधम्म-पुं०(श्रावकधर्म) श्रावकाणामुक्तशब्दार्थानां दुर्गतिअर्द्ध-बिम्बदर्शनादर्वाग् पुनरपि यथाविधि जिनं पूजयति। सा च दीप- गर्तनिपतज्जन्तुधरणप्रवणपरिणामस्तत्पूर्वकमनुष्ठानं श्रावकधर्मः। पञ्चा० धूपरूपावसेयेति भावः, तथा प्रतिक्रमणस्य सामायिकम् 1, चतु- 1 विव० आव०। सम्यक्त्वमूलेऽणुव्रतशिक्षाव्रतगुणवतरूपे गृहिधर्मे विंशतिस्तवो 2, वन्दनकम् 3, प्रतिक्रमणम् 4, कार्योत्सर्गः 5, अणुव्रताद्युपासकप्रतिमागतक्रियासाध्ये,लका धo S0 / पञ्चाo प्रत्याख्यानं 6 चेति षड्विधावश्यक-क्रियालक्षणस्य कारिताकरणम्, साम्प्रतं द्वादशविधं श्रावकधर्ममुपन्यस्यन्नाहविशेषतो गृहिधर्म इति संबन्धः / अयं भावः-संध्यायां जिनपूजनानन्तरं पञ्चेवऽणुय्वयाई,गुणव्वयाई च हुंति तिन्नेव / श्रावकः साधुपाचे पौषधशालादौ वा गत्वा प्रतिक्रमणं करोति / सिक्खावयाई चउरो, सावगधम्मो दुवालसहा॥६॥ प्रतिक्रमणशब्दवावश्यकविशेषवाच्यपि। अत्र सामान्येन सामायिकादि पञ्चेति सङ्ख्या एवकारोऽवधारणे। पञ्चैव न चत्वारि षड्वा / अणूनि च षडविधावश्यकक्रियायां रूढः, अध्ययनविशेषवाचिनोऽपि प्रतिक्रमण- तानि व्रतानि चाणुव्रतानि महाव्रतापेक्षयाचाणुत्वमिति; स्थूरप्रणातिशब्दस्य नोआगमतो भावनिक्षेपमपेक्ष्य षडावश्यकरूपज्ञानक्रियासमु- पातादिविनिवृत्तिरूपाणीत्यर्थः / गुणव्रतानि च भवन्ति त्रीण्येव न दायप्रवृत्तेरविरोधात्। क्रियारूप एकदेशे आगमस्याऽभावान्नो आगमत्वं न्यूनाधिकानि वा / अणुव्रतानामेवोत्तरगुणभूतानि व्रतानि गुणव्रतानि नोशब्दस्य देशनिषेधार्थत्वात्, उक्तं च-"किरिआगमोण होइ,तस्स दिग्वतभोगोपभोगपरिमाणकरणानर्थदण्डविरतिलक्षणानि, एतानि च णिसेधम्मि नो त्ति सद्दो त्ति" / तत्र सामायिकमातरौद्रध्यानपरिहारेण भवन्ति त्रीण्येव। शिक्षापदानि च शिक्षाव्रतानि वा, तत्र शिक्षाअभ्यासःस धर्मध्यानकरणेन शत्रुमित्रकाञ्चनादिषु समता, तच्चपूर्वमुक्तं चतुर्विशति- च चारित्रनिबन्धनविशिष्टक्रियाकलापविषयस्तस्य पदानिस्थानानि * स्तवः चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां नामोत्कीर्तनपूर्वकं गुणकीर्तनं, तस्य च तद्विषयाणि वा व्रतानि शिक्षाव्रतानि। एतानिच चत्वारि सामायिकदेशाकार्योत्सर्गमनसाऽनुध्यानं शेषकालं व्यक्तवर्णपाठः, अयमपि पूर्वमुक्तः।। वकाशिकपोषधोपवासातिथिसंविभागाख्यानि / एवं श्रावकधर्मो वन्दनं वन्दनायोग्यानां धर्माचार्याणां पञ्चविंशत्यावश्यकविशुद्ध द्वात्रिंश- द्वादशधाद्वादशप्रकार इति गाथासमासार्थः / Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावगधम्म 786 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावगधम्म अवयवार्थ तु महता प्रपञ्चेन ग्रन्थकार एव वक्ष्यति। तथा थाहएयस्स मूलवत्थू, सम्मत्तं तं च गंठिभेयम्मि। खयउवसमाइ तिविहं, सुहाय परिणामरूवं तु ||7|| एतस्यानन्तरोपन्यस्तस्य श्रावकधर्मस्य मूलवस्तु सम्यक्त्वम्। वसन्त्यस्मिन्नणुव्रतादयो गुणास्तद्भावभावित्वेनेति वस्तु / मूलभूतं च तद्वस्तु च मूलवस्तु किं तत्सम्यक्त्वम्। श्रा०। आव०। (एतानि व्रतानि स्वस्वस्थाने / ) 'इत्थ पुण समणोवासगधम्मे पंच अणुव्वयाई तिन्नि गुणव्वयाई आवकहियाई चत्तारि सिक्खावयाइं इत्तरियाई, आव०६ अ० आ०चू० / ध० र०। ननु धर्मो द्विधा- श्रावकधर्मो, यतिधर्मश्च / तत्राद्योऽविरतविरतश्रावकधर्मभेदात् द्विधा / तत्राविरतश्रावकधर्मस्यान्यत्र "तत्थऽहिगारी अत्थी, समत्थओ जो न सुत्तपडिकुट्ठो। अत्थी उजो विणीओ, समुडिओपुच्छमाणो य" ||1|| इत्यादिनाऽधिकारी निरूपितः, विरतश्रावकधर्मस्य तु "संपत्तदंसणाई, पइदियह जइजणा सुणेई य। सामायारिं परमं, जो खलु तं सावयं बिति" ||2|| तथा-परलोगहियं सम्म, जो जिणवयणं सुणेइ उवउत्तो। अइतिव्वकम्मविगमा, उक्कोसो सावगो इत्थं // 3 // " इत्यादि-भिरसाधारणैः श्रावकशब्दप्रवृत्तिहेतुभिः सूत्रैरधिकारित्वमुक्तम्। यतिधर्माधिकारिणोऽप्यन्यत्रैवमुक्ताः , तद्यथापव्वज्जाए अरिहा, ऑयरियदेसंमि जे समुत्पन्ना। जाइकुलेहि विसिट्ठा, तह खीणप्पा य कम्ममला // 1 // तत्तो य विमलबुद्धी; दुलह मणुयत्तणं भवसमुद्दे। जम्मो मरणनिमित्तं, चवलाओ संपयाओ य॥२॥ विसया य दुक्खहेऊ, संजोगे नियमओ विओगु त्ति पइसमयमेव मरणं, इत्थ विवागो य अइरुद्दो॥३॥ एवं पयईए चिय, अवगयसंसारनिग्गुणसहावा। तत्तो य तस्विरत्ता, पयणुकसायप्पहासा य // 4 // सुकयन्नुया विणीया, रायाईणमविरुद्धकारी य। कल्लाणंगा सड्ढा, थिरा तहा समुवसम्पन्ना॥५॥" इत्यादि / तदेभिरेकविंशत्या गुणैः कतमस्य धर्मस्याधिकारित्वमुक्तमिति? अत्रोच्यते-एतानि सर्वाण्यपि शास्त्रान्तरीयाणि लक्षणानि प्रायेण तत्तद्गुणस्याङ्गभूतानि वर्तन्ते, चित्रस्य वर्णक-शुद्धिविचित्रवर्णातासरेखाशुद्धिनानाभावप्रतीतिवत्, प्रकृतगुणाः पुनः सर्वधर्माणां साधारणा भूमिकेव चित्रप्रकाराणामिति सूक्ष्म-बुद्ध्या परिभावनीयम् / वक्ष्यति च- "दुविहं पि धम्मरयणं, तरइ नरो धित्तुमविगलं सोउं / जस्सेगवीसगुणस्यण संपया सुत्थिया अस्थि / / 1 // " (त्ति)। अत एवाहसह एयम्मि गुणोहे, संजायइ भावसावगत्तं पि। तस्स पुण लक्खणाई, एयाइँ भणंति सुहगुरुणो // 32 // सति विद्यमाने एतस्मिन्ननन्तरोक्ते गुणौघे संजायते-सम्भवति भावश्रावकत्वमपि-दूरे तावद् भावयतित्वमित्यपेरर्थः / आहकिमन्यदपि श्रावकत्वमस्ति,येनैवमुच्यते भावश्रावकत्वमिति? सत्यम्इह जिनागमे सर्वेऽपि भावाश्चतुर्विधा एव, "नामस्थापनाद्रव्यभावैस्तन्न्यास'' इति वचनात्, तथाहि-नामश्रावकः, सचे तनाचेतनस्य पदार्थस्य यत् श्रावक इति नाम क्रियते / स्थापनाश्रावकश्चित्रपुस्त(का)कर्मादिगतः / द्रव्यश्रावको ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो देवगुरुतत्त्वादिश्रद्धानविकलस्तथाविधाऽऽजीविकाहेतोः श्रावकाकारधारकश्च / भावश्रावकस्तु-"श्रद्धालुतां श्राति शृणोति शासनं, दीने वपेदाशु वृणोति दर्शनम्। कृन्तत्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावकं प्राहुरमी विचक्षणाः / / 1 / / " इत्यादिश्रावकशब्दार्थधारी यथाविधि श्रावकोचितव्यापा-रपरायणो वक्ष्यमाणः-स चेहाधिकृतःशेषत्रयस्य स्यात्कथंचि–देव भावादिति। ननु-आगमेऽन्यथा श्रावकभेदाः श्रूयन्ते यदुक्तं श्रीस्थानाङ्गे-'चउव्विहा समणोवासगा पन्नत्ता,तंजहाअम्मापिइसमाणे, भायसमाणे, मित्तसमाणे, सवत्तिसमाणे / अहवाचउव्विहा समणोवासगा पन्नत्ता, तंजहा-आयंससमाणे, पडागसमाणे, खाणुसमाणे, खरंटसमाणे' एते च साधूनाश्रित्य द्रष्टव्याः / ते चामीषां चतुर्णा मध्ये कस्मिन्नवतरन्तीति? उच्यते-व्यवहारनयमतेन भावभावका एवैते तथा व्यवह्रियमाणत्वात्, निश्चयनयमतेन पुनः सपत्निखरण्ट समानौ मिथ्यादृष्टिप्रायौ द्रव्यश्रावको, शेषास्तु भावश्रावकाः। तथाहि-तेषां स्वरूपमेवमागमे व्याख्यायते"चिंतइ जइ कजाई, न दिवखलिओ वि होइ निन्नेहो। एगंतवच्छलो जइ-जणस्स जणणीसमो सड्ढो।।१।। हियए ससिणेहो चिय, मुणीण मंदायरो विणयकम्मे। भाइसमो साहूणं,पराभवे होइ सुसहाओ॥२॥ मित्तसमाणो माणा, ईसिं रूसइ अपुच्छिओ कज्जे। मन्नंतो अप्पाणं, मुणीण सयणाउ अब्भहियं // 3 // डुद्धो छियप्पेही, पमायखलियाणि निच्चमुच्चरइ। सङ्को सवत्तिकप्पो,साहुजणं तणसमं गणइ // 4 // " तथा द्वितीयचतुष्केगुरुभणियो सुत्तस्थो, बिंबिजइ अवितहो मणे जस्स। सो आयंससमाणो, सुसावओ वन्निओ समए॥१॥ पवणेण पडागा इव, भामिज्जइ जो जणेण मूढेण / अविणिच्छियगुरुवयणो, सो होइ पडोइयातुल्लो / / 2 / / पडियन्नमसग्गाहं, न मुयइ गीयत्थसमणुसिट्ठो वि। थाणुसमाणो एसो, अपओसियमुणिजणे नवरं / / 3 / / उम्मग्गदेसओ नि-न्हवो सि मूढो सि मंदधम्मो सि। इह सम्मं पि कहतं, खरंटए सो खरंटसमो।।४।। जह सिढिलमसुइदव्वं, छुप्पंतं पिहुनरं खरंटेइ। एवमणुसासगं पि हु, दूसतो भन्नइ खरंटो।।५।। निच्छयओ मिच्छत्ती, खरंटतुल्लो सवति तुल्लो वि। ववहारओ उसड्ढा, वयंतिजं जिणगिहाईसु // 6 // " इत्यलमतिप्रसङ्गेन तस्य पुनविश्रावकस्य लक्षणानि चिह्नान्येतानि वक्ष्यमाणानि भणन्ति-अमिदधति-शुभगुरवः संविग्रसूरय इति / ध० र० 1 अधि० / ध०। ('णालदइज्ज' शब्दे चतुर्थभागे 2013 पृष्ठे श्रावकगतविधिरुक्तः।) जिनवल्लभसूरिकृतप्रकृतालापकरूपदीपालिकाकल्पे लिखितमस्ति 'पडिमारूवो सावगधम्मो वुच्छिजिस्सई' इति, तेन तत्रत्यपुस्तके ध्वयं पाठोऽस्ति नवा? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-जिनवल्लभसूरिकृत आलपकरूपो दी Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावगधम्म 787 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावजकिरिया पालिकाकल्पो दृष्टो नास्ति, जिनप्रभसूरिकृतस्त्वत्रालापकरूप एव | सावगधम्मपण्णत्ति-स्त्री०(श्रावकधर्मप्रज्ञप्ति) सम्यक्त्वमूलस्य द्वादशवर्तत, तत्र च 'पडिमारूवो सावगधम्मो बुच्छिजिस्सइ' इत्यक्षराणि विधस्य श्रावकधर्मस्य प्रतिपादके हरिभद्रसूरिविरचिते ग्रन्थभेदे, श्रा० / सन्तीति // 46| सेन० 1 उल्ला० "एत्थ सामाचारीसावगेण पोसधं सावगपाढण-न०(श्रावक पाठन) श्रावके भ्यः सूत्रप्रदान, जी० पारेंतेण णियमा साधूणमदातुंण पारेयव्वं, अन्नदा पुण अनियमोदातुंवा १प्रति०। (श्रावकसिद्धान्तगाथापाठनविचारः 'पाढयंत' शब्दे पञ्चमभागे पारेति पारितो वा देह त्ति, तम्हा पुव्वं साधूणं दातुं पच्छा पारेतव्वं, 824 पृष्ठे गतः।) कधं? जाधे देसकालोताधे अप्पणो सरीरस्स विभूसं काउंसाधुपडिस्सयं सावगभजा-स्त्री०(श्रावकभार्या) श्रावकपल्याम्, अनु०। (अस्या गतुं णिमंतति, भिक्खं गेहध त्ति साधूण का पडिव त्ति? ताधे अण्णो 'अणणुयोग' शब्दे प्रथमभागे 285 पृष्ठे कथा गता।) पडलं अण्णो मुहणंतयं अण्णो भाणं पडिलेहेति, मा अंतराइयदोसा सावगवय-न०(श्रावकव्रत) सम्यक्त्वाणुव्रतादिप्रतिपत्तौ, ध०२ अधि०। ठविंतगदोसा य भविस्संति, सो जति पढमाए पोरुसीए णिमंतेति अस्थि महा। णमोकारसहिताइतो तो गेज्झति, अधव णत्थिण गेज्झति, तंबहितव्वयं सावगाभास-पुं०(श्रावकाभास) सम्यक्त्वाणुव्रतादिश्रद्धाधर्मरहिते होति। जतिघणं लगेज्जाताधे गेज्झति संचिक्खाविज्जति। जो वा उग्धाडाए नमस्कारगुणनजिनार्चनवन्दनाभिग्रहप्रतिग्राहके श्रावके, ध०२ अधिक .पोरिसीए पारेति पारणइत्तो अण्णो वा तस्स दिज्जति, पच्छा तेण सावगेण समगं गम्मति, संघाडगो वच्चति, एगो ण वट्टति पेसितुं, साधू पुरओ सावज-न०(सावद्य) अवयं-पापं सहावद्येन वर्तत इति सावधम्। सपापे, सावगो मागतो, घरं णेऊण आसणेण उवणिमंतिजति। जति णिविट्ठगा विशेष स्था०ादशा प्रश्ना सहावद्येनदोषेण वर्तत इति सावद्यम्। उत्त० तो लट्ठयं; अधण णिवेसंति तधावि विणयो पउत्तो, ताधे भत्तं पाणं सयं 6 अ०। सहावद्येन गर्हितकर्मणा-हिंसादिना वर्तत इति सावद्यम् / चेव देति। अथवा भाणं धरेति भज्जा देति, अधवा ठितीओ अच्छति जाव हिंसादिदोषयुक्ते, औ०। आचाoआव०उत्त०ा आ०चू० / विशेष दिण्णं, साधू विसावसेस दव्वं गण्हति, पच्छाकम्मपरिहारणट्ठा, दातूण अथ षष्ठं सावधपदंव्याचिख्यासुर्गाथोत्तरार्धमाहवंदित्तु विसज्जेति, विस-ज्जेत्ता अणुगच्छति, पच्छा सयं भुजति। जं च गरहियमवजमुत्तं, पावं सह तेण सावजं // 3466 / / किर साधूण ण दिण्णं तं सावगेण ण भोत्तव्यं, जति पुण साधूणस्थिताधे गर्हितमित्यादि, गर्हितं-निन्द्यं वस्त्ववद्यमुक्तं तच्चेह पापम्, सह देसकालवेलाए दिसालोगो कातव्यो, विसुद्धभावेण चिंतियव्यं–जति तेनावद्येन वर्तते इति सावधस्तं सावधं योगं प्रत्याख्यामीति वक्ष्यमाणं साधुणो होता तो णित्थारितो होतो त्ति विभासा"। इदमपिच शिक्षापद- गम्यत इति। व्रतमतिचाररहितमनुपालनीयमिति, अत आह-अतिथिसंविभागस्य अथवा अन्यथा सावद्यशब्दो व्युत्पाद्यत इत्याहप्रागनिरूपितशब्दार्थस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिचारा ज्ञातव्याः न अहवेह वजणिजं, वजं पावं ति सहसकारस्स। समाचरितव्याः, तद्यथा-सचित्तनिक्षेपणं-सचित्तेषु व्रीह्यादिषु दिग्धत्ता देसाओ, सह वजेणं ति सावजं // 3467 / / निक्षेपणमन्नादेरदानबुद्ध्या मातृस्थानतः, एवं सचित्तपिधान-सचित्तेन अथवेह वजनीयं वयंत इति वर्ज पापमुच्यते, सह वर्जेन वर्तत इति फलादिना पिधानस्थगनमिति समासः, भावना प्राग्वत्, 'कालातिक्रम' सहस्य सभावात्सवजः, सकारस्य च प्राकृतत्वेन दीर्घत्वविधानात्साइति कालस्यातिक्रमः कालाति-क्रम इति उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमतिक्रम्यानागतं वा भुक्तेऽतिक्रान्ते वा, तदा च किं तेन वर्जमित्युक्तम्। विशे०। हिंसाचौर्यादिगर्हितकर्मालम्बने, स्था०७ ठा० लब्धनापि कालातिक्रान्त--त्वात् तस्य, उक्तं च- "काले दिण्णस्स 3 उ०। भ०। ग०। प्रश्न०। 50 गर्हितकर्मयुक्ते, प्रश्र०२ आश्र० द्वार! पधे--यणस्स अग्यो ण तीरते काउं / तस्सेव अकालपणा-मियस्स आव०। प्रति०ा गर्ने, सूत्र०१श्रु०१अ०२ उ०) अवयं-मिथ्यात्वलक्षणगेण्हतया णस्थि / / 1 / / " 'परव्यपदेश' इति आत्मव्यतिरिक्तो योऽन्यः कषायलक्षणं सह अवयं यस्य येन वा स सावद्यः। त्रि०ा अवद्येन सह स परस्तस्य व्यपदेश इति समासः, साधोः पोषधोपवासपारणकाले वर्तमाने, आ०म०१ अ०। आ०चूा सावद्यो नामकर्मबन्धो अवज्जंसह भिक्षायै समुपस्थि-तस्य प्रकटमन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्ते तेण जो सो सावज्जो। जोगो त्ति वा वावारो त्ति वा वीरियं ति वा सामत्थं परकीयमिदमिति, नास्माकीनमतो न ददामि, किञ्चिद्याचितोवा- / तिवा एगट्ठा / आ० चू०१ अ०। सावजमणुचिटुंति वा पावकम्ममासवितं ऽभिधत्तेविद्यमान एवामुकस्येदमस्ति, तत्र गत्वा मार्गयत यूयमिति / ति वा वितहमा इन्नं ति वा एगट्ठा। आ० चू०१ अ० सावज्जमणावयणं 'मात्सर्यम्' इति याचितः कुप्यति सपदिन ददाति, 'परोन्नतिवैमनस्य असोहट्ठाणं कुसीलसंसग्मा एगट्ठा। औ०। . च मात्सर्य' मिति, एतेन तावद्रमकेण याचितेन दत्तं किमहं ततोऽप्यन सावजकडा-स्त्री०(सावद्यकृता) सावद्यभाषायाम्, आव०१ अ०| इति मात्सर्याद् ददाति कषायकलुषितेनैव चित्तेन ददतो मात्सर्यमिति सावजकिरिया-स्त्री०(सावधक्रिया) पञ्चविधश्रमणाद्यर्थकृतवसतो, व्याख्यातं सातिचारं चतुर्थ शिक्षापदव्रतम्। आव० 6 अ०। स्थानादिकुर्वतस्तथाविधे उपाश्रये, आचा०। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावजचागरूव 788 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावजायरिय सावज्जचागरूव-त्रि०(सावद्यत्यागरूप) निखिलसपापव्यापारपरिहारस्वभावे, पञ्चा०५ विव०। सावज्जजोग-पुं०(सावद्ययोग) सकलनित्यकर्मणि,ध०३ अधि०) आ०म० साम्प्रतंसावद्यावयवव्याख्यानार्थमाहकम्ममवजं जंगर-हियं ति कोहाइणो व चत्तारि। सह तेहि जो उ जोगो, पचक्खाणं भवइ तस्स / / कार्म-अनुष्ठानमवद्यं भण्यते, किमविशेषेण? नेत्याह-यत् गर्हितमिति यन्निन्द्यमित्यर्थः। अथवा-क्रोधादयश्चत्वारोऽवद्यं तेषां सर्वावद्यहेतुतया कारणे कार्योपचारात् सह तेनावद्येन यो योगो व्यापारस्तस्य सावद्ययोगस्य प्रत्याख्यानं निषेधलक्षणं भवति। पाठान्तरम्- 'कम्म वजं जं गरहियं तत्र 'वृजी' वर्जने, वृज्यते इति वयं वर्जनीयं; त्यजनीयमित्यर्थः, शेषं पूर्ववत्, नवरं सह वर्जेन सवर्जः प्राकृतत्वात् सकारस्य दीर्घत्वे सावर्जमिति भवति। आ०म०१ अ०। सावज्जजोगपरिवजणा-स्त्री०(सावद्ययोगपरिवर्जना) सपापव्यापारपरिहारनिरवद्ययोगासेवायाम्, पञ्चा० 10 विव० सावजबहुल-त्रि०(सावद्यबहुल) पापभूयिष्ठे,दश०६ अ०। सावज्जा-स्त्री०(सावद्या) श्रमणसाधुनिश्राभेदेन सपापायां वसतो, . आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२ उ०। ('वसहि' शब्दे षष्ठभागे सूत्रमुक्तम्।) सावज्जायरिय-पुं०(सावद्याचार्य) कुवलयप्रभाचार्य , ग०। श्रीमहानिशीथपञ्चमाध्ययनोक्तसावद्यचार्यस्यैव ज्ञेयम् / तथाहि-अस्या ऋषभादिचतुर्विंशतिकायाः प्रागनन्तकालेनयाऽतीता चतुर्विंशतिका, तस्यां मत्सदृशः सप्तहस्ततनुर्धर्मश्रीनामा चरमतीर्थकरो बभूव / तस्मिश्च तीर्थकरे सप्ताश्चार्याणि अभूवन्। असंयतपूजायां प्रवृत्तायामनेके श्राद्धेभ्यो गृहीतद्रव्येण स्वस्वकारितचैत्य-निवासिनोऽभूवन्। तत्रैको मरकतच्छविः कुवलयप्रभनामाऽनगारो महातपस्वी उग्रविहारी शिष्यगणपरिवृतः समागात्। तैर्वन्दित्वोक्तम्-अत्रैकं वर्षारात्रिकं चातुर्मासिकं तिष्ठ, यथा त्वदीया--ज्ञयाऽनेके चैत्यालया भवन्ति, कुर्वस्माकमनुग्रहम्, तेनोक्तंसावधमिदं नाहं वामात्रेणापि कुर्वे / तदेवमनेन भणता सतातीर्थकृन्नामकार्जितम्। एकभवावशेषीकृतश्च भवोदधिः। ततस्तैः सर्वेरकेमतं कृत्वा तस्य सावधाचार्य इति नाम दत्तं प्रसिद्ध नीतं च / तथाऽपि तस्य तेष्वीषदपि कोपो नाभूत् / अन्यदा तेषां लिङ्गामात्र-प्रव्रजितानां मिथः आगमविचारो बभूव / यथा श्राद्धानामभावे संयता एव मठदेवकुलानि रक्षन्ति पतितानि च समारचयन्ति / अन्यदपि यत्तत्र करणीयं तस्यापि करणे न दोषः। केऽप्याहुः-संयमो मोक्षनेता, केनिद् ऊचुः-प्रासादावतंसके पूजासत्कारबलिविधानादिना तीर्थोत्सर्पणेनैव मोक्षगमनम्। एवं तेषां यथेच्छं प्रलपतां विवादेऽन्य आगमकुशलो नास्ति कोऽपि यो विवाद भनक्ति / सर्व : सावधाचार्य एव प्रमाणीकृत आकारितो | दूरदेशात्सप्तभिर्मासैर्विहरन् समागात्। एकयाऽऽर्यया श्रद्धावशात् प्रदक्षिणीकृत्य झगिति मस्तकेन पादौ सट्टयन्त्या ववन्दे दृष्टस्तैर्वन्धमानः। अन्यदा स तेषामग्रे श्रुतार्थकथनेऽस्यैव महानिशीथस्य पञ्चमाध्ययनव्याख्याने आगतेयं गाथा, "जत्थित्थीकरफरिसं अंतरिय कारणे वि उप्पन्ने / अरिहा वि करिज्ज सयं, तं गच्छं मूलगुणमुक्कं / / 1 / / '' आत्मशङ्कितेन तेन चिन्तितं साध्वीवन्दनमतैर्दृष्ट मस्ति सावद्याचार्य इति नामपुराऽपि दत्तम्, साम्प्रतंतुयथार्थकथनेऽन्यदपि किमपि करिष्यन्ति, अन्यथा प्ररूपणे तु महत्याशातना अनन्तसंसारिता च स्याताम्, ततः किं कुर्वे / अथवा यद् भवति तद्भवतु यथार्थमेव व्याकरोमीति ध्यात्वा व्याख्याता यथार्था गाथा। तैः पापैरुक्तं यद्येवं तत् त्वमपि मूलगुणहीनो यतःसाध्व्या वन्दमानया भवान् स्पृष्टः, ततोऽयशोभीरुः सदध्यौ किमुत्तरं ददे / आचार्यादिना किमपि पापस्थानं न सेवनीयं त्रिविधं त्रिविधेन, यः सेवते सोऽनन्तसंसारं भ्राम्यति। तैर्विलक्षं दृष्ट्वोचे किंन वक्ष्यति। स दध्यौ किंवदामि। ततस्तेन दीर्घसंसारित्वमङ्गीकृत्योक्तम्-अयोग्यस्य श्रुतार्थो नदातव्यः "आमघडे निहत्तं,जहाजलं तं घड विणासेइ। इअ सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ।।१।।" इत्यादि तैरुचे-किमसम्बद्धं भाषसे, अपसर दृष्टिपथात् / अहो त्वमपि संघेन प्रमाणीकृतोऽसि / ततस्तेन दीर्घसंसारित्वमङ्गीकृत्योक्तम्, उत्सर्गापवादैरागमः स्थितो यूयं न जानीथ। "एगतं मिच्छत्त, जिणाण आणा अणेगत्तं / तैधृष्टमानितं ततः स प्रशंसितः। स एकवचनदोषणानन्तसंसारित्वमुपाया॑ऽप्रतिक्रान्तो मृत्वा व्यन्तरो बभूव? ततश्च्युत्वोत्पन्नः प्रोषितपतिकायाः प्रतिवासुदेवपुरोहितदुहितुः कुक्षौ, कुलकलङ्कभीताभ्यां पितृभ्यां निर्विषयी कृता सा क्वापि स्थानमलभमाना दुर्भिक्षे कल्पपालगृहे, दासीत्वेन स्थिता मद्यमांसदोहदोऽस्याः सञ्जातः / बहूनां मद्यपायकानां भाजनेपूच्छिष्टे मद्यमांसे च भुक्ते कांस्यदूस्यद्रविणानि चोरयित्वाऽन्यत्र विक्रीय मद्यमांसे भुङ्क्ते गृहस्वामिना राज्ञो निवेदितम् / राज्ञा मारणाय प्रसूतिसमयं यावद्रक्षितुमर्पिता चण्डालानाम्। "अप्रसूता न हन्यते" इति तत्कुलधर्मत्वात्। प्रसूता बालकं त्यक्त्वा नष्टा। राज्ञा पञ्चसहस्रद्रविणदानेन बालः पालितः / क्रमात् सूनाधिपतौ मृते राज्ञा स एव तद्गृहस्वामी कृतः पञ्चशतानामीशः२, ततो मृत्वा सप्तमपृथिव्यां 33 सागरायुः३, तत उद्धृत्यान्तरद्वीपे एकोरुकजातिर्जातः, 4, ततो मृत्वा महिषः 26 वर्षायुः 5, ततो मनुष्यः 6, ततो वासुदेवः 7, ततः सप्तमपृथिव्यां 8, ततो गजकर्णो मनुष्यो मांसाहारी, ततो मृत्वा सप्तमपृथिव्यामप्रतिष्ठाने गतः 10, ततो महिषः 11, ततो बालविधवाबन्धकीब्राह्मणसुताकुक्षावुत्पन्नः, गर्भशातनपातनक्षारचूर्णयोगैरनेकव्याधिपरिगतोगलत्कुष्ठीकृमिभिर्भक्ष्यमाणो गर्भान्निर्गतः लोकैर्निन्द्यमानः क्षुधादिपीडितो दुःखी सप्तवर्षशतानि द्वौ मासौ चत्वारि दिनानि जीवित्वा 12, मृतो व्यन्तरेपूत्पन्नः 13, ततः सूनाधिपो मनुष्यः 14, ततः सप्तम्यां 15, ततश्चाक्रिकगृहे वृषभो बाह्यमानः क्वथितस्कन्धो मुक्तो गृहस्वामिना का--- Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावजायरिय 789 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावज्जायरिय ककृमिश्वानादिभिर्विलुप्यमानः 26 वर्षायुर्मूतो 16, बहुव्याधि- खंडपडिए व समारयति / अन्नं च जाव करणिजंतं पइसमारंभे मानिभ्यपुत्रो('विजपुत्तो' इति महानिशीथे) वमनविरेचनादिदुःखैरेवास्यगतो कज्जमाणे जइस्सऽविणं नत्थि दोससंभवं एवं च केइ भणंतिमनुष्यभवः 17, एवं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं लोकं जन्ममरणैः परिपूर्य संजमं मोक्खनेयारं / अन्ने भणंति जहा णं पासायवडिंसए अनन्तकालेनाऽपरविदेहे मनुष्योऽभवत्। तत्र लोकानुवृत्त्या गतरतीर्थ- पूयासक्कारबलिविहाणाइसु णं तित्थत्थापणाए चेव मोक्खकरवन्दनाय, प्रतिबुद्धः, सिद्धः। अत्र त्रयोविंशतितम-श्रीपार्श्वजिनस्य गमणं / एवं तेसिमविइयपरमत्थाणं पावकम्माणं जं जं सिद्धता काले गौतमोऽप्राक्षीत् किंनिमित्तमनेन दुःखमनुभूतम्? गौतम! उत्सर्गा- तंचेव मुद्धा मुक्खलक्खणं मुहेणं पलवंति। ताहे समुट्ठियं वादपवादैरागमः इत्यादि यद् भणितं तन्निमित्तम् / यद्यपि प्रवचने उत्स- संघट्ट तत्थ य कोइ नत्थि आगमकुसलो तेसिं मज्झे / जो गपिवादौ अनेकान्तश्च प्रज्ञाप्यन्ते, तथापि अप्कायपरिभोगस्तेजः काय- तत्थ जुत्तं वियारेइ, जो पमाणमुवइस्सइ। तहा एगे भणंति जहा परिभोगो मैथुनसेवनं चैकान्तेन निषिद्धानि, इत्थं सूत्रातिक्रमादुन्मार्ग- अमुगो अमुगगच्छम्मि चिट्ठइ अन्ने भणंति-अमुगो, अन्ने भणंति प्रकटनंततश्चाज्ञाभङ्गः, तस्माच्चानन्त-संसारी / गौतमोऽप्राक्षीत्-किं किमित्थ बहुणा पलविएणं सव्वेसिं अम्हाणं सावज्जायरिओ तेन सावद्याचार्येण मैथुनमासेवितम्? गौतम! नो सेवितं नोऽसेवितम्, एत्थ पमाणं ति तेहिं भणियं जहा एवं होउ त्ति हकाराविहं लहुँ। यतस्तेनवन्दमानार्यास्पर्श पादौ नाकुञ्चितौ। भगवन्! तेनतीर्थकरनाम तओ हक्काराविओ गोयमा ! सो तेहिं सावज्जायरिओ आगकार्जितम्। एकभवाव-शेषीकृतश्वासीद्भवोदधिः, तत्कथमनन्तसंसारं ओ दूरदेसाओ अप्पडिबद्धत्ताए विहरमाणो सत्तहिं मासेहिं / जाव 'सम्भ्रान्तः? गौतम! निजप्रमाददोषात्, यतः सिद्धान्तेऽप्युक्तमस्ति णं दिवो एगाए अज्जाए / सा य तं कठुग्गतवचरणसो"चोदसपुवी-आहारगा वि मणनाणिवीयरागाय। हुंतिपमायपरवसा, सियसरीरं चम्मट्टिसेसतणुं अचंतं तवसिरीए दिप्पंतं सावजातयणंतरमेव चउगइआ।।१।।" इत्यादि। तस्मात् गच्छाधिपतिना सर्वदा यरियं पेच्छिय सुविम्हियतक्करणा विउक्किउं पपन्ना / अहो किं सर्वार्थेषु अप्रमतेन भाव्यम्। इति पूर्वाचार्य संस्कृतसावधाचार्यसम्बन्धः / एस महाणुभागो णं सो अरहा, किं वा णं धम्मो चेव मुत्तिभंतो, किं बहुणा तियसिंदवंदाणं पि वंदणिज्जो पायजुओ एस त्ति बृ०१ अधिका चिंतिऊणं भत्तिभरनिब्मरा आयाहिणं पयाहिणं काऊणं जहा ण भयवं ! जइ तुममिहाइ एक्कवासारत्तियं चाउम्मासियं उत्तिमंगेणं संघट्टेमाणी झगिति निवडिया चलणेसु / गोयमा ! पउंजियंताणमिच्छाए अणेगे चेइयालगे भवन्ति, नूणं / तज्झा तस्स णं सावज्जायरियस्स दिट्ठोय सो तेहिं दुरायारेहिं पणणत्तीए ता कीरउ अणुग्गहमम्हाणं इहेव चाउम्मासियं / ताहे मिज्जमाणो / अन्नया णं सो तेसिं तत्थ जहा जगगुरूहिं उवइटें मणियं तेण महाणुभागेणं, गोयमा ! जहा भो भो पियं वए जइ तहाचेव गुरूवएसाणुसारेणं आणुपुथ्वीएजहट्ठियं सुत्तत्थं वागरेइ वि जिणालए तहा विसावजमिणं णाहं वायामित्तेणं पि (णायं) ते वि तहा चेव सद्दहति अन्नया ताव वागरियं गोयमा ! जाव णं आयरिजा। एवं च समयसारपरं तत्तं जहट्ठियं अविपरीअंणीसंकं एक्कारसण्हमंगाणं चोद्दसण्हपुव्वाणं दुवालसंगस्सणं सुयनाणस्स भणमाणेण तेसिं मिच्छविढिलिंगीणं साहुवेसधारीणं मज्झे णवणीयसारभूयं सयलपावपरिहारऽट्ठकम्मनिम्महणं आगयं गोयमा ! आसकलियं तित्थयरनामकम्मगोयं तेणं कुव इणामेव गच्छमेरापवत्ताणं महानिसीहसुयक्खंधस्स पंचमं लयप्पभेणं एगभवावसेसीकओ भवोयही। तत्थ य दिह्रो अणु अज्झयणं / अत्थेव गोयमा! तावणं वक्खाणीयं जावणं आगया लविज्ज नाम संघमेलावगो आसि, तेहिं च बहूहिं पावमईहिं इमा गाहा-"जत्थित्थीकरफरिसं, अंतरिय कारणे वि उप्पन्ने। लिंगिणियाहिं परोप्परमेगमयं काऊणं गोयमा! तालं दाऊण अरहा वि करेज सयं, तं गच्छं मूलगुणमुकं ||1||" तओ विप्पलोइयं चेव / ते तस्स महाणुभागसुमहतवस्सिणो कुल गोयमा! अप्पसंकिएणं चेव चिंतियं तेण सावज्जायरिएणं / यप्पहाभिहाणं, कयं च से सावजायरियाभिहाणं सद्दकरणं गयं जइ इह एयं जहट्ठियं पन्नवेमि तओ जं मम वंदणगं दाउमाणीए च पसिद्धीए। एवं स च वदिज्जमाणो वि सो तेणाऽपसत्थसह- तीए अज्जाए उत्तिमंगेण चलणंगे पुढे तं सव्वेहिं पि दिवा इमेहिं करणेण तहा वि गोयमा ! इसिं पि ण कुप्पो / अहऽनया तेसिं ति। ता जहा मम सावज्जायरियामि हाणं कयं तहा अन्नमवि दुरायारीणं सद्धम्मपरम्मुहाणं अगारधम्मोऽणगारधम्मोभयवाणं किं चि एत्थ सह किं काहंति / अह अन्नहा सुत्तत्थं पनवेमि ता लिंगमेत्तनामपव्वइयाणं संजाओ परोप्परं आगमवियारो / जहा | णं महती आसायणा; तो किं करियध्वमेत्थ त्ति, किं एयं गाह णं सडगाणं असइ संजया चेव भट्टदेउले पडिजागरेंति / / एव उवचयामि, किं वाणं अन्नहा पन्नवेमि / अहवा-हा हा ण Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावज्जायरिय 790 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावज्जायरिय जुत्तमिदं उभयहा वि अचंतगरहियं आयहियट्ठीणमेयं जे उणमेस ममाभिप्पाओ जहाणं जे भिक्खू दुबालसंगस्सणं सुयनाणस्स असई चुक्कक्खलियपमाया संकादी सभयत्तेणं पयक्खरमत्ताबिंदुभवि एक पउंविजा, अन्नहा वा पन्नवेजा संदिद्धं वा सुत्तत्थं वक्खाणेञ्जा अविहिए अओगस्स वा वक्खाणेजा, से मिक्खू अणंतसंसारी भवेजा। ता किं एत्थं जं होहीतं च भयउ जहट्ठियं चेव गुरूवएसाणुसारेण सुत्तत्थं पवक्खामि त्ति चिंतिऊणं गोयमा ! पवक्खाया णिखिलावयवविसुद्धा सा तेण गाहा, एयावसरंमि चोइओ गोयमा !सो तेहिं दुरंतपंत-लक्खणेहिं, जहा जइ एवं ता तुम पि ताव मूलगुणहीणो जावणं संभरसुतं, जं तद्दिवसं तीए अज्जाए तुज्झं वंदणगं दाउका-माए पाए उत्तमंगेणं पुढे, ताहे इहलोइगाऽपयसहीरू खरस(म)च्छरीहूओ गोयमा ! सो सावज्जायरिओ चिंतिउ जहा से जं मम सावजायरियाऽभिहाणं कयं इमेहिं तहा य किं पि संपइ काहिंति, जेणं तु सव्वलोए अपुजो भविस्संता किमित्थ परिहारगं दाहामि त्ति चिंतमाणेण संभरियं तित्थयरवयणं / जहा णं जे केइ आयरिएइ वा गणहरेइ वा गच्छाहिवई सुयहरे भवेज्जा से णं जं किंचि सव्वन्नूहिं अणंतनाणीहिं पावायवणट्ठाणं पडि-सेहियं तं सव्वं सुयाणुसारेणं विनायं सव्वहा सव्वपयारेहिं णो समायरेजा, णो णं समायरिजमाणं समणुजाणेज्जा, से कोहेण वा माणेण वा मायाए व लोभेण वा भएण वा हासेण वा गारवेण वा दप्पेण वा पमाएण वा असती चुक्कखलिएण वा दिया वाराओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाएकाएणं एतेसिं मे पयाणं जे के इ विराहगे भवेजा, से णं भिक्खू भूओ भूओ निंदणिजे गरहणिजे खिंसणिजे दुगुंछणिज्जे सव्वलोगपरिभूए बहुं वाउवेयणापरिगयसरीरो उक्कोसटिइए अणंतसंसारसागरं परिभमेज्जा / तत्थ णं परिभममाणे खणमेक्कं पिन कहं वि कयाइ निव्वुइं संपावेज्जा। तापमायगोयरगयस्स णं मे पावाहमहीणसत्तकाउरिसस्स इहई चेव समुट्ठियाए महंता आवई, जेणं ण सक्को अहमेत्थजुत्तोखमं किं विपडिउत्तरं पयाउं,जे तहा परलोगे य अणंतभवपरपरं भममाणो घोरदारुणाणतसोयदुक्खस्स भागी भविहामि / हं मंदभागो त्ति चिंतयंतोऽविलक्खिओ सो सावञ्जायरिओ। गोयमा ! तेहिं दुरायारपावकम्मदुट्ठसोयारेहि जहा णं अलियखरस(म)च्छरीभूओ एस तओ संखुद्धमणं खरमच्छरीभूयं कलिऊणं च सणियं तेहिं दुठ्ठसोयारेहिं जहा जाव णं तो छिन्नभिण्णमाससंसयं ताव णं उट्टे वक्खाणं अधिती एत्थं तं परिहारगं वायरेज्जा / जं पोढजुत्तीखमं कुग्णहणिग्गहपचलं ति तओ तेण चिंतियं / जहा नाहं अदिनेणं परिहारगेणं चुक्किमो एसिं ता किमित्थ परिहारगं दाहामि त्ति / चिंतयंतो पुणो वि गोयमा! भणिओ, सो तेहिंदुरायारेहिं जहा किमटुं चिंतासागरे णिमजिऊणं ठिओ सिग्धमेत्थ किंचि परिहारगं वयाहि, णवरं तं परिहारगं भणेज्जा जं जहुत्तत्थकिरियाए अवभिचारि / ताहे सुइरंपरितप्पिऊणं हियएणं भणियं सावज्जायरिएणं,जहा एएणं अत्थेणं जगगुरूहिं वागरियं जं अओग्गस्स सुत्तत्थं न दायव्वं / जओ "आमे घडे निहत्तं,जहा जलं तं घडं विणासेइ / इय सिद्धंतरहस्स, अप्पहारं विणासेइ // 1 // " ताहे पुणो वि तेहिं भणियं जहा कि मेयाइं अरडवरडाइं असंबद्धाइं दुब्भासियाई पलवह, जइ परिहारगं दाउं न सको ता उप्फिडसु सुआसणं ओसर सिग्धं इमाओ ठाणओ किं देवस्स रूसेजा, जत्थ तुम पि पमाणीकाऊणं सव्वसंघेण समयसब्भावं वायारेउ जं समाइट्ठोतओ पुणो विसुइरंपरितप्पिऊणं गोयमा अन्नं परिहारगमलभमाणेणं अंगीकाऊण दीहसंसारं भणियं च सावज्जायरिएणं / जहाणं उस्सग्गाववाएहिं आगमो ठिओ तुज्झे णयाणह। "एगंतं मिच्छत्तं जिणाणमाणामणेगंता"। एयं च वयणं गोयमा ! गिम्हाय वसता वि एहिं सिहिउलेहिं वा। अहिणवपाउससजलघणारल्लिमिव सबहुमाणं सामाइयत्थि-तेहिं, दुट्ठसोयरिहिं,तओ एगवयणदोसेणं गोयमा! निबंधि-ऊणाऽणंतंसंसारियत्तणं अपडिक्कमिऊणं च तस्स पावस्य समुदायमहाखंधमेलावगस्स मरिऊणं उववन्नो वाणमंतरेसु सो सावज्जायरिओ।तओचुओसमाणो उववन्नोपवसियभत्ताएपडिवासुदेवपुरोहियधूयाए कुञ्छिसि / अहऽग्नया वियाणिओ जणणीए पुरोहियभजाए। जहाणं हाहा दिन्नं मसीकुचयं सव्वनियकुलस्स इमाए दुरायाराए मज्झ धूयाए साहियं च पुरोहियस्स / तओ संतप्पिऊण सुइरं बहुं बहियएणं साहारेउं निदिवसया कया सा तेणं पुरोहिएणं ए महंता असज्झदुन्निवारअयसमीराणा / अहऽनयाथोवकालंतरेणं कहि विधाममलभमाणी सीउण्हवायविन्भंडिया दुक्खक्खामकंठा दुब्मिक्खदोसेणं पविट्ठादासत्ताए रसवाणिज्जगस्स गेहे / तत्थ य बहूणं मजपाणगाणं संचियं साहरेइ / अणुसमयं दुचिट्ठगं ति / अहऽनया अणुदिणं सा Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावजायरिय 761 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सावजायरिय हरमाणीएसु दह्णं च बहुमज्झपाणगे मञ्जमापिवमाणा पोग्गलं च समुछिसंतेतहेव तीए मज्जमंसस्सोवरि दोहलगं समुप्पन्नं जाव णं जं तं बहुमजपाणगं नडनट्टछत्तवारणं मंडोड्डावेउ तक्करसरिसजातीसु मुज्जियं खुरसीसपुंछकत्तट्टियमयगयं उचिटुं वच्छरसंडं तं समुद्दिसितुं समारद्धा। ताहे तेसु चेव उचिट्ठकोडियगेसुजं किं चि विणाहीए मज्झं विवक्केइ तमेव सोइउमारद्धा। एवं च कइवयदिणाइक्कमेणं मजमंसस्सोवरि दढं गेही संजाया। ताहे तस्सेव रसवाणिज्जगस्स गेहाओ पिरमुसिऊणं किंचि वि कंसदूसदविणजायं अन्नत्थ विक्किणिऊणं मज मंसं परिभुंजइ। तंचणं विनायं तेण रसवाणिजगेण, साहियं चनवरइणो, तेणावि वज्झा समाइट्ठा / तत्थ य राउले एसो गोयमा ! कुलधम्मो "जहाणं जाकाइ आवनसत्ता नारी अवराहदोसेणं सा जावणं नो पसूया तावणंनोवावाएयव्वा" तेहि विणिउत्तगणिगितगेहिं सगेहे नेऊण पसूइसमयं जाव णियंतिए रक्खेयव्वा / अहऽनया णीया तेहिं हरिए सजाइहिं सगेहिं कालक्कमेण पसूया य दारगं तं सावजायरियजीवं। तओ पसूयमेत्ताचेवतंबालयं उज्झिऊण पणट्ठा मरणभयहिया सा गोयमा ! दिसिमेकं गंतूणं वियाणियं च तेहिं पावेहिं, जहा पणट्ठा सा पावकम्मा साहियं च नरवइणो सूणाहिवइणा। तहाणं देव! पणट्ठा सादुरायारा कयलीगम्भोवमं दारगं उज्झिऊणं / रन्ना विपडिभणियं / जहा णं जइ नाम सा गया ता गच्छउ तं बालगं पडिवालेज्जासु सव्वहा तहा कायव्वं जहा तं बालगंण वावजे, गिण्हेसु इमे पंचसहस्सा दविणजाइ। तओ नरवइणो संदेसेणं सुयमिव परवालिओ सो पांसुलीतणओ। अन्नया कालक्कमेणं मओ सो पावकम्मो सुणाहिवई। तओ रन्ना समणुजाणिउं तस्सेव बालगस्स घरसारकरो पंचण्हं सयाणं अहिवई / तत्थ य सूणाहिवइपइडिओ समाणो ताई तारिसाइं अकरणिजाइंसमणुद्विताणं तओ सो गोयमा! सत्तमाए पुढवीए अपइट्ठाणनामे निरयावासे सावञ्जायरियजीवो। एवं तं तत्थ तारिसं घोरपचंडरोई सुदारुणं दोक्खं तित्तीसं 33 सागरोवमं जाव कहवि लेसेणं समणुभविऊणं इहागओ समाणो उववन्नो अंतरदीवे एगोरु–यजाई। तओ विमरिऊण उववन्नो तिरियजोणीए महिसत्ताए, तत्थय जाइंकाई विणारगदुक्खाई तेसिं तु सरिसनामाई अणुभविऊणं छव्वीसं संवच्छराणितओ गोयमा ! मओ समाणो उववन्नो मणुएसु / तओ वासुदेवत्ताए सो सावजायरियजीवो। तत्थ वि अहाउयं परिवालिऊणं | अणेगसंगामारंभपरिग्गहदोसेणं मरिऊण गओ सत्तमाए / तओ वि उटवट्टिऊणं सुइरकालाओ उववन्नो गयकन्नो नाम मणुयजाई। तओ वि उव्वष्टि-ऊणं पुणो वि उववन्नो तिरिएसु महिसत्ताए, तत्थ वि णं नरगोवमं दुक्खमणुभवित्ता णं मओ समाणो उववन्नो बालविहवाए पुंसलीए माहणधूयाए कुञ्छिसि। अहऽन्नया निउत्तपच्छन्नगब्मसाडणपाडणक्खारचुम्नजोगदोसेणं अणेगवाहिवेयणापरिगयसरीरो सिडिहडंतकुट्ठवाहीए परिगलमाणे सलसलिंतकिमिजालेणं खजंतो नीहारिओ निरओवमघोर-दुक्खनिवासाओ गम्भवासाओ, गोयमा ! सो सावज्जायरियजीवो तओ सव्वलोगेहिं निंदिज्जमाणो गरहिज्जमाणो खिसिज्जमाणो दुगुंछिज्जमाणो सव्वलोगपाणखाणभोगोवभोगपरिवजिओ गब्भवासपसितीए चैव विचित्तसारीरमाणसिगघोरदुक्खसंतत्तो सत्त संवच्छरसयाइं दो य मासे चउरो दिणे य जाव जीविऊणं मओ समाणो उववन्नो वाणमंतरेसु, तओ य उववन्नो मणुएसु, पुणो वि सूणाहिवइत्ताए, तओ वि तक्कम्मदोसेणं सत्तमाए, तओ वि उव्वद्विऊणं उववन्नो तिरिएसुंचक्कियघरंसि गोणत्ताए / तत्थ य चक्कसगडलंगलपट्टणेण अह तिसंझं वारोवणेणं पचिऊण जुहियाउच्छियखंचं समुत्थिए य किमी ताहे, अक्खभीहू यं खंधं जूवधरणस्स विन्नाय पिट्ठीएवाइउम रद्धो तेणं चक्किएणं / अहऽन्नया कालक्कमेणं जहा खंधं तहा कुच्छिऊण कुहयपिट्ठी तत्थ वि समुत्थिए किसी सडिऊण विगयं च पिट्टिचम्म तावि परं निप्पओयणं ति णाऊण मोकलियं / गोयमा! तेणं चक्किएणं तेसलं सत्तकिमिजालेहिणं वइलसावजायरियजीवं। तओमोकलिओ समाणो पडिसडियचम्मो बहुकायसाणं किमिकुलेहिं सबज्झमंतरो विलुप्पमाणो एकूणतीसं संवच्छराइंजाव अहाउगं परिवालेऊण मओ समाणो उप्पन्नो अणेगवाहि-वेयणापरिगयसरीरो मणुएसु महाधणुस्स णं विजगेहे / तत्थ य वमणविरेयणखारकडुतित्तकसायतिहलागुग्गुलकाटगेआवीयमाणस्स निचविसोसिराहिं च असज्झाणुवसमे घोरदारुणदुक्खेहिं पज्जालियस्सेव / गोयमा ! गओ निप्फलो तस्स मणुयजम्मो। एवं च गोयमा! सो सावज्जायरियजीवो चोदसरज्जुयलोग जम्मणमरणेहिं णं निरंतरं पडिऊणं सुदीहाणंतकालाओ समुप्पन्नो मणुयत्ताए अवरविदेहे / तत्थ य भागवसे ण लोगाणु वत्तीए गओ तित्थयरस्स वंदणवत्तियाए पडिबुद्धो य पव्वइ-ओ सिद्धो या इह तेवीसइ Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावज्जायरिय 792 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साविक्ख मतित्थयरसासणस्स काले / एयं च गोयमा ! सावजायरिएणं | ज्झायसयासे सालिभद्दइन्भदासचेडी वयणेणं दो मासयसुवण्णकएवचंतो पावियं / महा०५ अन कमेण सय बुद्धो जाओ। पडिबोहिऊण पचसयचोरसहिओ सिद्धो अ। सावण-त्रि०(श्रावण) श्रवणे पयोजककर्तरि, षो०११ विव०। आव०॥ इत्थेव तिंदुगुजाणे पंचसयसमणअज्जियासहस्सपरिवुडो पढमसिण्हवो श्रोत्रेन्द्रियजे ज्ञाने, नपुं०। द्वा० 26 द्वा०। श्रवणयुक्तपौर्णमासीघटिते जमाली ठिओ, ढेकेणकुंभयारेण पढमं निअसालासंठिआ भगवओधूआ मासे, पुं। ज्यो०१पाहुन पियदसणा अज्जा साडिया एगदेस अंगारं छोण, कयमाणे किय' मिति सावणमास-पुं०(श्रावणमास) त्रिंशद्रात्रिन्दिवात्मके कर्ममासे, ज्यो० वीरवयणं पडिवण्णं पडिवञ्जाविया तीएयसेससाहुणी साहुणोपडिबोहिया १पाहुन सामी चव अल्लीणा एगो चेव जमाली विप्पडिवन्नो ठिओ / इत्थेव सावणसंवच्छर-पुं०(सावनसंवत्सर) ऋतुसंवत्सरे, स्था०५ ठा०३ तिंदुगुजाणे केसीउमारसमणो गणहरो भगवया गोयम-सामिणा कुट्ठओ उन जाणाओ आगंतूण परुप्परं संवायं च का पंचजामं धम्म कारिओ। सावतेय-न०(स्वापतेय) शुद्धे द्रव्यजाते, सूत्र०२ श्रु० 10 // इत्थेव एणं वासारत समणो भयवं महावीरो ठिओखंडपडिमाए सक्केण य सावत्थिया-स्त्री०(श्रावस्तिका) उडुपाटिकगणस्य प्रथमशाखायाम्, पूइओ चितं च तवोकम्ममकासी। इत्थेव जियसत्तू धारणीपुत्तो कल्प०२ अधि०८ क्षण। खंदगायरिओ उप्पपणो। जो पंचसयसीस-सहिओ पालगेणं कुंभयार कडनयरे जतेण पीलिओ। इत्थेव जिय-सत्तुरायपुत्तो भद्दो नाम पव्वइत्ता सावत्थी-स्त्री०(श्रावस्ती) कुणालजनपदप्रधाननगर्याम्, प्रज्ञा०१ पद। पडिमं पडिवन्नो विहरंतो वेरजे संपत्तो चारिउ त्ति काऊण गहिओ भ०। ज्ञा०। एकं श्रावस्त्याम् / कल्प०१ अधि०६ क्षण / प्रव० / उत्त०। रायपुरिसेहिं तत्थ य गोखीरंदाउं कक्कडदज्झेहिं वेदिओ मुक्को सिद्धो अ ज्ञा०ा आव०॥ भ० स्था०। आ०का आ०म०) जहा रायगिहाइसु तहा इत्थ वि नयरीए बंभदत्तहिंडी जाया / इत्थेव "दुहसरितारणवत्थी, सावत्थी सयलसुक्ख पसवत्थी। खुडगकुमारो अजिय-सेणायरियसीसो जणणी मयहरिया आयरियउवनमिऊण संभवजिणं, तीसे कप्पेमि कप्पलयं // 1 // " ज्झायनिमित्तं वारस वरिसाणि दव्वओ सामण्णो ठिओ, नट्टविहीए सुनु अत्थि इहेव दाहिणद्धभारहे वासे अगणिज्जगुणविसए कुणालाविसए गाइयं, सुठु वाइयं दिव्वाइं गीयं सोउं जुवरायसत्थवाहभजा सव्वम्मि सावत्थीनाम नयरी, संपइ काले महचित्तिरूढा जत्थ अज्ज वि तेहिं सम पडिबुद्धो, एवमाईणं अणेगेसिं संविहाणगरयणाणं उप्पत्ती एसा घणगहणवणमहिट्टियं सिरिसंभवनाहपडिमाविभूसियं गयणग्गलग्गसिहरं नयरी रोहणगिरिभूमि ति। पासहियजिणबिंबमंडियदेवउलियाअलंकरियं जिणभवणं ति चिट्ठइ "सावस्थिमहातित्थ-स्स कप्पमेयं पदंतु विबुहवरा। पायारपरियरियं। तस्स चेइयस्स दुवारे अदूर-सामंते विल्लिरउल्लिसिहरं जिणपवयणभत्तीए, इय भणइ जिणप्पहो सूरी // 1 // " अतुल्लपलवसिणिद्धच्छाओ महल्लसाहाभिरामो रेत्तण्णो अ पायवो दीसइ / तस्स य जिणभवणस्स पउल्लीए जे कयाडसपुडा आसि ते इति श्रीश्रावस्तीकल्पः। ती०३६ कल्प०। माणिभद्दजक्खाणुभावाओ सूरिए अत्थमिते सयमेव लग्गति म्ह, उदिए सावयगुण-पुं०(श्रावकगुण) अक्षुद्रत्वादिषु श्राद्धगुणेषु, "धम्म-रयणस्स यदिणयरे सयमेव उग्घडंति म्ह। कलिकालदुल्ललिअवसेण अल्लावदीण जुग्गो, अक्खुद्दो रूववं, पगयसोम्भो। लोगप्पिओ अकूरा, भीरू असढो सुरत्ताणस्स मल्लिक्केण हेव्व-सनामेणं वहडाइच्च' नगराओ आगतूण सुदक्खिन्नो // 1 // " लजालुओ दयालू, मज्झत्थो सोमदिद्विगुणरागी। पायारभित्तिकवाडाइ बिंबाणि अभग्गाणि, मंदप्पभावा हि भवंति दूसमाए सक्कह सुपक्कजुत्तो, सुदीहदंसी विसेसन्नू // 2 // ' ध० 20 1 अधि० अहिट्ठायगा / तहा तस्सेव चेइयस्स सिहरे जत्तागयसंघेणं कीरमाणे १गुण ण्हवणाइम--हूसवे आगंतूण एगो चित्तगो ठविस्सइ / न य कस्स वि भयं सावसलोणी-स्त्री० [स(शि)लावण्य ] सर्वांशैलावण्ययुक्तायाम्, जाणइ। जातमंगलपईवकए सट्ठाणमुवगच्छइ त्ति इत्थेवनयरीए उच्चाय "सावसलोणी गारडी, नवखी कवि विसगंठि। भडपञ्चलिओ सो मरइ, यणं चिट्ठइ जत्थ समुद्दवंसीया करा दल्लनरिंदकुल संभूया रायाणो छत्त जासु न लग्गइ कठि।।१।।" सर्वसलावण्या काऽपि नवीना विषग्रन्थिः भत्ता अज विनियदेवयस्स पुरखमहग्घमुलं पल्लाणीयं अलंकियं विभूसियं यस्य कण्ठे न लगति स भटः कामुकः प्रत्युत सम्मुखं मियत इत्यर्थः / महाउरंगमं ढोअंति। "अंगुलीविजा'' य इत्थेव बुद्धेण संपयासिया प्रत्युतेत्यस्य स्थानेऽनेन पचलियाऽऽदेशः। प्रा० ढुं०४ पाद। महप्पभावा। इत्थेव निप्पखंति नाणाविहा साली। जेसिं सव्वसालिजाईणं सावसेस-त्रि०(सावशेष) अनस्तमिते, कल्प०३ अधि०६ क्षण। प्रश्रा इक्विक्के कणम्मि निखिप्पमाणे आसिहं भरिज्जइ महंतं खोरयं / इत्थेव सावा-स्त्री०(शाया) भुजपरिसर्विणीविशेषे, जी०२ प्रतिका भयवं संभवसामिणो चवणजम्मणके वलनाणुप्पत्तिकालाणगाई सावासग-पुं०(स्वावासक) स्वनीडे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०॥ सुरासुरनरभवणमणरंजणाई अकारि। कोसंवीपुरीए उप्पन्नोजियसत्तुनि- | सावित-त्रि०(श्रावयत्) इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रवणवसचिवकासपुत्तो, जस्स कुच्छि-संभूओ कठिनो महरिसी, जणयम्मि पथमानयति, भ०६श० 33 उ०। विवन्ने विजाअहिजणत्थं एयं नयरिं समागओ पिउमि तइंददत्तउव- | साविक्ख-पुं० (सापेक्ष) सह अपेक्षा गच्छस्येति गम्यते ये Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साविक्ख 763 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सासयजत्ता षां ते सापेक्षाः / गच्छवासिषु, व्य०१ उ० / गुरुगच्छादिसाहाय्यमपेक्षमाणो यः प्रव्रज्यां परिपालयति स सापेक्षः। ध०३ अधि०। आचार्यस्य शिष्यैः प्रातीच्छिकैश्च सर्व कर्त्तव्यं तेच तथा कुर्वन्तः सापेक्षा उच्यन्ते। व्य०४ उ०। सावि(न)-पुं०(स्वापिन्) स्वप्नशीले, बृ० 1 उ०२ प्रक०। सास-पुं०(श्वास) प्राणने, अतिशयत ऊर्ध्वश्वासरूपे रोगभेदे, ज्ञा० १श्रु०१३ अ० जी०। जं०। विपा०1 *शश्य-न० / "लुप्त य-र-व-श-प-सां श-प-सां दीर्घः" ||8/143 // इत्यादेः स्वरस्य दीर्घः / श्य इत्यस्य यलोपे 'सासम् / धान्यवनस्पती, प्रा०१पाद। सासंत-त्री०(शासत्) शिक्षां ददति, उत्त०१ अ०। आज्ञापयति, उत्त० १अ०॥ सासचउक्क-न०(श्वासचतुष्क) उच्छासोद्योतातपपराघातसमूहे, कर्म० 5 कर्म०। सासग-पुं०(शश्यक) रत्नविशेषे, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। सासण-न०(शासन) शास्यन्तेऽनेन जीवा इति शासनम् / द्वादशाङ्गे, आव०१ अ०। प्रवचने, प्रश्न०५ संव० द्वार। सम्मका आज्ञायाम्, जं० 3 वक्ष० / प्रव० / सूत्र० / बृ० / प्रतिपादने, नं0 1 शिक्षणे, अनु० / ज्ञा० / शिष्यते प्रतिपाद्यते इति शासनम् / शिक्षणीये, प्रश्न०१ संव० द्वार। सूत्र०। सासणगरिहा-स्त्री०(शासनगर्हा) प्रवचननिन्दायाम, पञ्चा०७ विव०। सासणमालिण्ण-न०(शासनमालिन्य) जिनप्रवचनस्य लोकविरुद्धा चरणोपघाते, हा० 23 अष्ट० / ('पभावणा' शब्दे पञ्चमभागे 438 पृष्ठे विस्तरो गतः।) सासणसुरी-स्त्री०(शासनसुरी) प्रवचनदेवतायाम्, पञ्चा० 8 विव० सासणाम-न०(श्वासनामन्)उच्छासनामनि, कर्म० 5 कर्मा सासय-त्रि०(शाश्वत) शश्वद् भवतीति शाश्वतम्, सूत्र०१ श्रु०५१० 2 उ० शश्वद्भावाच्छाश्वतम्। सततोपयोगे,विशे० आ० म० नं०। आचा० / नित्ये, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आव० 1 विशे० / ध्रुवे,विशे०। अनादौ, स्था० 5 वा० 3 उ०। सूत्र० / ज्ञा० / प्रतिक्षणसत्तालिङ्गत्वादवस्थिते, स्था०५ ठा०३ उ०। सूत्र०। प्रव०। आ-चा० शश्वद्भवनस्वभावे, जी०३ प्रति०४ अधि० / अविनाशिनि, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। शश्वद्भाविनि, प्रज्ञा० 36 पद / शश्वद् भवनस्वभावे, नं० प्रतिक्षणं सद्भावात् (भ० 2 श० 130 / ) अनादिनिधने, स्था० 1 ठा० 3 उ०। दशा अपुनरागामिनि, दश० 6 अ०४उ०। साद्यपर्थवसिते, प्रश्र० 4 संव० द्वार / सर्वकालभाविनि, आ० म०१ अ० सदाभाविनि, स०आ०म०। सूत्र०। द्रव्यार्थतयाऽविच्छेदेन प्रवृत्ते, स० जीवाः शाश्वता अशाश्वता वा ? जीवा णं भंते ! किं सासया, असासया य? गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया।से केणतुणं भंते ! एवं वुचइजीवा सिया सासया, सिया असासया ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, भावट्ठयाए असासया। से ते णटेणं गोयमा! एवं वुचइ० जाव सिय असासया। नेरझ्याणं मंते ! किं सासया असासया। एवं जहा जीवा तहा नेरइया वि एवं० जाव वेमाणिया० जाव सिय सासया सिय असासया। (सू०२७४४) 'दव्वट्ठयाए' ति-जीवद्रव्यत्वेनेत्यर्थः / 'भावट्ठयाए' त्ति-नारकादिपर्यायत्वेनेत्यर्थः / भ०७ श०२ उ०। पूर्वकृतकर्मणश्च वेदना तद्वत्ता च कथञ्चिच्छाश्वतत्वे संतियुज्यत इति तच्छाश्वतत्वसूत्राणि, तत्र च नेरइयाणं भंते! किंसासया असासया? गोयमा! सियसासया सिय असासया। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइया सिया सासया सिय असासया? गोयमा ! अव्वोच्छित्तिणय-याए सासया वोच्छित्तिणयट्ठयाए असासया, से तेणटेणं जाव सिय सासया सिय असासया एवं० जाव वेमाणिया 0 जाव सिय असासया / सेवं भंते ! सेवं मंते ! त्ति। (सू०२९०) 'अव्वोच्छित्तिणयट्ठयाए' त्ति अव्यवच्छित्तिप्रधानो नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्तस्यार्थो-द्रव्यमव्यवच्छित्तिनयार्थस्तद्भावस्तथा तया अव्यवच्छित्तिनयार्थतया द्रव्यमाश्रित्य शाश्वता इत्यर्थः, 'वोच्छित्तिणयट्ठायाए' त्ति व्यवच्छित्तिप्रधानो यो नयस्तस्ययोऽर्थः-पर्यायलक्षणस्तस्य यो भावः सा व्यवच्छित्तिनयार्थता तया पर्यायानाश्रित्य अशाश्वता नारका इति। भ०७ श०३ उ०ा निर्वाणे, जी०१ प्रति०। औ०। जन्ममरणादिरहितत्वात्। सिद्धे, स्था०२ ठा० 1 उ०ा त्रिकाले फलदायकत्वात् ब्रह्मचर्ये, उत्त०१६ अ०॥ *स्वाशय-पुं० / स्वकीये आशये, स्वदर्शनाभ्युपगमे, सूत्र० १श्रु० 1 अ०३ उ०। शोभनाध्यवसाये, ध० 2 अधि०। *स्वाश्रय-पुं० / स्व-आत्मीय उत्पत्तिप्रत्ययो यासु ताः स्वाश्रयाः। अविनष्टयोनिषु, आचा० २श्रु०१ अ०१ उ०) *स्वासक-पुं०। दर्पणाकारे अश्वालङ्कारविशेष, जं०३ वक्षः। सासयचेइय-न०(शाश्वतचैत्य) नन्दीश्वरादिव्यवस्थिते चैत्ये, जीता सासयजत्ता-स्त्री०(शाश्वतयात्रा) नन्दीश्वरादिषु वैमानिकदेवैः कृतायां तीर्थयात्रायाम, ध० / अष्टाहिकास्वपि चैत्राश्विनाष्टाहिके शाश्वत्यौ, तयोर्वैमानिकदेवा अपि नन्दीश्वरादिषु तीर्थयात्राद्युत्सवान् कुर्वन्ति / यदाहुः"दो सासथजत्ताओ, तत्थेगा होइ चित्तमासम्मि। अट्ठाहिआहिमहिमा, वीआ पुण अस्सिए मासे / / 1 / / Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासयजत्ता 764 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सासायण० एआओ दो विसासय-जत्ताओं करिति सव्वदेवा वि। सहासादनेन वर्तत इति सासादनम् / यद्वा-सास्वादनं तत्र सह सम्यक् नन्दीसरंमि खयरा, अहवा निअएसु ठाणेसु // 2 // त्वलक्षणरसास्वादनेन वर्त्तत इति सास्वादनम्, यथाहि-भुक्ततह चउमासियतियगं, पज्जोसवणा य तह य इअछक्कं / क्षीरान्नविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्नरसमास्वादयति, जिणजम्मदिक्ख केवल-निव्वाणाइस्सऽसासइया / / 3 / / " तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरिव्यलीकअत्र जीवाभिगमे त्वेवम्- "तत्थ णं बहवे भवणवइवाणमंतर- चित्तस्य पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्वमतस्तद्रसास्वादो भवतीति इदं सास्याजोइसवेमाणिआ देवा तिहिं चउमासिं तिहिं चउमासिएहिं पञ्जोसवणाए दनमुच्यते इति / कर्म० ४कर्म०। पं०सं० / आ० चूछ। तत्त्वश्रद्धानरअट्ठाहिओ तहा महिमाओ करिति "इति। ध०२ अधि०। सास्वादनेन सह वर्तते इति सास्वादनम्। क्वणद्-घण्टालालनन्यायेन सासयट्ठाण-न०(शाश्वतस्थान) मोक्षे, प्रव०१द्वार। प्रायः परित्यक्त-सम्यक्त्वे, आव०४अग सासयदुक्खधम्म-पुं०(शाश्वतदुःखधर्म) शश्वद्भवतीति शाश्वतं सासादनसम्यक्त्वमाहयावदायुस्तच्च तद् दुःखं च शाश्वतदुःखम् तद्धर्मः स्वभावो यस्मिन् स उवसमसम्मा पढमा-णाओ मिच्छत्तसंकमणकालो। तथा। नरके, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। सासायणछावलितो, भूमिगपत्तोव पवडंतो।।१२।। सासयवुड्वि-स्त्री०(स्वाशयवृद्धि) कुशलपरिणामवर्द्धने, ध०२अधि०। मिथ्यात्वसंक्रमणकाले मिथ्यात्वसंक्रमणाभिमुख उपशमसम्यक्-त्वात् (स्वाशयवृद्धिश्चैत्यनिर्माणे 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1263 पृष्ठे उक्ता।) प्रपतन्जघन्यत एकसामायिक उत्कर्षतः षडावलिकः सासादनो भवति / सासयसुह-न०(शास्वतसुख) शाश्वतं-नित्यं च तत्सुखम्, निर्वाण- किंरूपः स इत्याह-भूमिमप्राप्त इव प्रपतन्यथा मालात्प्रपतन् भूमिमजनितानन्दे, हा०१अष्ट। प्राप्तोऽपान्तराले वर्तते तथोपशमसम्यक्त्वात्प्रपतन् मिथ्यात्वमद्याप्यसासयसोक्ख-न०(शाश्वतसौख्य) निर्वाणसाते, जी० 1 प्रति०। प्राप्तोऽपान्तराले वर्तमानः सासादन इति। नित्यसुखे, पञ्चा०७ विव०। अथ कथं ससम्यग्दृष्टिरुपशमसम्यक्त्वतः प्रच्यवमानत्वात्, उच्यतेसासया-स्त्री०(शाश्वती) अविनश्वर्याम्, औ० च्यवनेऽप्यव्यक्तमुपशमगुणवेदनाद्।अत्रैव दृष्टान्तमाहसासयाणंतय-न०(शाश्वतानन्तक) अक्षये जीवादिद्रव्ये, स्था० 10 ठा० | आसादेउं व गुलं, ओहीरंतो न सुतु जा मुयति। ३उ०। सं आयं आदें तो, सासादो वावि सासाणो।।१२६|| सासयाऽसासय-त्रि०(शाश्वताऽशाश्वत) शाश्वतं-नित्यं सर्ववस्तुजातं यथा कश्चित्पुरुषो गुडमास्वाद्य तदनन्तरमोहीरति निद्रायते, न पुनः द्रव्यास्तिकनयाश्रयादशाश्वतं वा नित्यं प्रतिक्षणविनाशरूपं पर्यायनया सुष्टु अद्यापीति / स च निद्रायमाणोऽव्यक्तमास्वादितगुडमाधुर्यमनुश्रयणात्, द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनयाश्रयणेन नित्यानित्ये, सूत्र०१ भवति। एवम् उपशमसम्यक्त्वात् प्रच्यवमानो मिथ्यात्वमद्याप्यप्राप्तोऽश्रु०१२ अ०। व्यक्तमुपशमगुणं चेदयत इति सम्यग्दृष्टिः। संप्रति सासादनशब्दव्युत्पसासयासाऽसयाणुओग-पुं०(शाश्वताऽशाश्वतानुयोग) शाश्वतं च त्तिमाह- स्वमात्मीयम्, आयं स्वायं यत्र “सासादो वावि सासाणो" अशाश्वतं च शाश्वताऽशाश्वतम् / तदनुयोगः / द्रव्यानुयोगभेदे, तत्र सास्वादो व्यक्तोपशमगुणस्तत्सहित इति कृत्वा सास्वादनः / सह जीवद्रव्यमनादिनिधनत्वात् शाश्वतं तदेवापरापरपर्यायाप्राप्तितोऽशाश्व आस्वादनं यस्य स तथेति व्युत्पत्तेः। वृ०१ उ०१प्रक०। तमित्येवमतो द्रव्यानुयोगे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सासायणगुणट्ठाण-न०(सास्वादनगुणस्थान) द्वितीयगुणस्थाने, कर्म० सासवणाल-न०(सर्षपनाल) सर्षपभर्जिकायाम्, आतु०) सर्षपकन्द 2 कर्म| . ल्याम्, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०८ उ01 सासायण-पुं० [सास्वाद(शात)(साद)न] निरुक्तविधिना वर्ण-लोपः सासायणभाव-पुं०(सास्वादनभाव) सास्वादनसम्यग्दृष्टित्वे, कर्म० सहेषत्तत्त्वश्रद्धानरसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनम् / अथापि 4 कर्म०। मिथ्यात्वोदयाभावादनन्तामुबन्ध्युदयकलुषितत्वश्रद्दधानरसास्वाद सासायणसम्मत्त-न०(सास्वादनसम्यक्त्य) सम्यक्त्वभेदे, ध०॥ मात्राञ्चिते सम्यक्त्वे, औसमन्ताच्छातयन्ति मुक्तिमार्गाद् झंशयन्ती सास्वादनं च पूर्वोक्तौपशमिकसम्यक्त्वात्पततो जघन्यतः समये त्याशातनम् / अनन्तानुबन्धकषायवेदने, सहाशातनेन वर्तत इति उत्कर्षतश्च षडावलिकायामवशिष्टायामनन्तानुबन्ध्युदयात्तद्वमने साशातनम् / सम्यक्त्वभेदे, विशे० सासादनं तत्र आयमौपशमिक तदास्वादनरूपम्। यतः-'"उवसमसम्मत्ताओ, चयओ मिच्छं अपावसम्यक्त्वलक्षणं सादयतिअपनयति आसादनम् अनन्तानुबन्धिकषाय माणस्स। सासायणसम्मत्तं, तयंतरालम्भि छावलिअं॥१॥" इति। ध० वेदनम् / अत्र पृषोदरादित्वाद्यशब्दलोपः (3-2-155) रम्यादिभ्यः 2 अधिक कर्तव्यनद प्रत्ययः (5-3-126) सति हि अस्मिन्परमानन्दरूपानन्त- सासायणसम्मदिहिगुणट्ठाण-न० [सास्वा(सा)दनसम्यग्दृष्टिसुखदो निःश्रेयसतरुबीजभूतो ग्रन्थिसंभवौप-शमिकसम्यक्त्वलाभो | गुणस्थान] कर्म०। आयम्-औपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षणं जघन्यतः समयमात्रेणोत्कर्षतः षड्भिरावलिकाभिरपच्छतीति / ततः सादयति अपनयतीत्यासादनम् अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सासायण० 795 - अभिधानराजेन्द्रः - भांग 7 साहम्मिउग्गह पृषोदरादित्वाद्यशब्दलोपः, कृद्दुलमिति कर्तर्यनट् / सति ह्यस्मिन् | साहटु-अव्य०(संहृत्य) शरीराभिमुखमाक्षिप्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु० परमानन्दरूपानन्तसुखफलदो निःश्रेयसतरुबीजभूतऔपशमिकसम्य- 1 चू० 3 अ० 1 उ०। विपा०ा दश०। विधायेत्यर्थे, उपा० २अ०। क्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः षड्भिरावलिकाभिर- अपनीयेत्यर्थे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ० द्वावपिपादौ क्रमौ जिनमुद्रया पच्छतीति, ततः सह आसादनेन वर्तते इति सासादनः, सम्यग्- | व्यवस्थाप्येत्यर्थे, पञ्चा० 18 विव० / जिनमुद्रया संहतौ कृत्वेत्यर्थे , अविपर्यस्ता दृष्टिर्जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्यस सम्यग्दृष्टिः सासादन- दशा०७ अ० श्वासौ सम्यग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिस्तस्य गुणस्थानं सासादन- साहट्ठ-त्रि०(संहृष्ट) उघुषिते, 'साहट्ठरोमकूवेहिं' संहृष्टरोमकूपैसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं,सास्वादनमितिवा पाठः। तत्रसह सम्यक्त्वलक्षण- रुधुषितरोमभिरित्यर्थः। सा रसास्वादनेन वर्तत इति सास्वादनः। यथाहि-भुक्तक्षीरान्नविषयव्य- साहण्ण-न०(साधन) साध्यन्ते मोक्षादयोऽनेनेति साधनम / ज्ञानलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्नरसमास्वादयति,तथैषोऽपि / दर्शनाचारित्रादिके, (विशे०) करणे, ध० 3 अधिक कारणे, आव० मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरिव्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्रमन् 4 अ०। उपकरणे, उत्त०२३ अाआ० म०ा निष्पादने, संथा०। प्रमाणे, तद्रसमास्वादयति। ततः स चासौसम्यग्दृष्टिश्च तस्य गुणस्थानं सास्वा विशेष साध्यतेऽनेनेति साधनम्। साधकतम-करणे, पा०) दनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / गुणस्थानभेदे, (कर्म०) आन्तौहूर्ति-- साहणण-न०(संहनन) संघाते, संयोगे, भ०१२०५ उ०| क्यामुपशान्ताद्धायां परमनिधिलाभकल्पायां जघन्यतः समयशे साहणणाबंध-पुं०(संहननबंध) संहननमक्यवानां संघातमनन्तषायामुत्कृष्टतः षडावलिकाशेषायां सत्यां कस्यचिन्महाविभीषिको मेतद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धः / दीर्घत्वादि चेह प्राकृतशैलीत्थानकल्पोऽनन्तानुबन्ध्युदयो भवति, तदुदये चासौ सास्वादनसम्य प्रभवमिति / भ०८ श०६ उ०। अलिपनबन्धभेदे, भ०८ श०६ उ० गदृष्टि-गुणस्थाने वर्त्तते। उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा कश्चित्सासादनत्वं ('बंधण' शब्दे पञ्चमभागे 1225 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) याति तदुत्तरकालं चावश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिथ्यादृष्टिर्भवतीति / साहणणाभेदाणुवाय-पुं०(संहननभेदानुपात) दीर्घः प्राकृतत्वाकर्म०२ कर्मा दर्शा पं० सं० ०आव० स०। त्संहननं संघातो भेदश्च वियोजनम्- तयोरनुपातोयोगः संहनन-- सासिउ-अव्य०(सासितुम्) उपदेष्टुमित्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ० भेदानुपातः / सर्वपुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूनां संयोगे, भ० 12 श० सासित-त्रि०(शासयत्) शिक्षयति, औ०। 4 उ०। सासु-त्रि०(सासु) असवः-प्राणाः सहासवो यस्य येन वा तत्सासु! साहणय-न०(साधनक) प्रकृष्टोपकारकेषु ज्ञानदर्शनसंयमतपस्सु, सचित्ते, व्य०६ उ०! आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ०) *अश्रु-स्त्री०। श्वशुरस्य स्त्रियाम्, 'घरे सासुयाए कहियं' आ० म०१ साहणी-स्त्री०(साधनी) प्रत्यये डीन वा' ||331 / / इति स्त्रियां अ०। 'अत्ता सासू' पाइ० ना०२५३ गाथा। डीवी। साहणी। पक्षे-टाप्साहणा। निष्पादयन्त्याम,प्रा०३पाद। सासेरा (देशी) अचेतनायां यन्त्रमय्यां नर्तक्याम्, बृ०६ उ०। साहण्णंत-त्रि०(संहन्यमान) संघातमापद्यमाने, स्था० 2 ठा० ३उ०। साहइत्ता-अव्य०(साधयित्वा) सम्यगाराध्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१४अ० | साहत्थ-पुं०(स्वहस्त) साक्षादर्थे ,उपा०७ अ०। साहंजणी-स्त्री०(शाखाञ्जनी) स्वनामख्याते नगरीभेदे, यत्र साहत्थिया-स्त्री०(स्वाहस्तिका) स्वहस्तेन निर्वृत्ता स्वाहस्तिका / सुभद्रासार्थवाहपुत्रः सनत्कुमार आसीत्।स्था० 10 ठा०३ उ०) स्वहस्तगृहीतजीवादिना जीवं मारयतः क्रियाभेदे, स्था०५ ठा०२ उ०। साहकुमरसिंह-पुं०(साहकुमरसिंह) नासिक्यपुरमहादुर्गब्रह्मगिरि- आवा स्थितजिनप्रासादस्योद्धारकारके ईश्वरपुत्रमाणिक्यपुत्रे परम-श्रावके, साहत्थिया किरिया दुविहा पन्नत्ता,तं जहा-जीवसाहत्थिया ती० 27 कल्पन चेव, अजीवसाहत्थियाचेव। (सू०६०+) स्था०२ ठा०१७०। साहग-त्रि०(साधक) सिद्धिजनके, बृ०३ उ०) साहम्म-न०(साधर्म्य) समानः-तुल्यः साध्यसामान्यान्वित; समानः साहगतम-न०(साधकतम) क्रियां प्रति करणे, "साधकतमं करणम्"।। धर्मो यस्यासौ सधर्मा / साधर्म्य दृष्टान्तापेक्षया, सधर्म तस्य भावः आ०म०१अ०॥ साधर्म्यम्। सम्म०३ काण्ड। सादृश्ये, स्था०१ ठा०। विशेगा साहज-न०(साहाय्य) सहायतायाम् आ०म०१ अ०। 'अणगारे साहम्मता-स्त्री०(सधर्मता) समानधर्मतायाम्, नि० चू०५ उ०। रससाहिज्जे दिण्णे।' अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अण साहम्मभाव-पुं०(साधर्म्यभाव) सादृश्यसद्भावे, पञ्चा० 14 विव०॥ साहट्ट-धा०(संवृ) संवरणे, "संवृगेः साहर-साहट्टी" |2|| साहम्मिउग्गह-पुं० (साधर्मिकांवग्रह) समानेन धर्मेण संवृणोतेः साहर-साहट्ट इत्यादेशौ। साहट्टइ। संवरइ। संवृणोति। प्रा० चरन्तीति साधर्मिकाः, साधर्मापेक्षया साधव एव तेषाम-४ पाद। वग्रहस्तदाभाव्यपञ्चक्रोशपरिमाणक्षेत्रमृतुबद्ध मासमेकं वर्षा Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहम्मिउग्गह 796 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहम्मिय सु चतुरो मासान् यावदिति साधर्मिकावग्रहः / अवग्रहभेदे, भ०१६ श० 2 उ० प्रति०। आचा सहम्मिणी-स्वी० (साधर्मिणी) संयत्याम, बृ०३ उ०। साहम्मिय-पुं०(साधर्मिक) समानेन धर्मेण चरतीति साधर्मिकः। भ० 16 श०२ उ०। समानो धर्मः सधर्मस्तेन चरतीति साधर्मिकः। स्था० 10 ठा०३ उ० प्रतिपन्नैकप्रवचने, प्रव०७२ द्वार। लिङ्गप्रवचनाभ्यां समानधार्मिक, प्रति०।साम्भोगिके,आचा०२श्रु०१चू०१अ०६ उ०। व्य०। नि० चू० / स्था०। प्रश्न० समानधर्मयुक्ते साधौ, स्था० 6 ठा०३ उ०। पञ्चा० / बृ०। प्रव०। व्य०। साहम्मियाण अट्ठा, चउव्विहो लिंगओ जह कुटुंबी। मंगलसासयमत्तीएँ, जंवा कयं तत्थ आदेसो // 66 // साधम्मिकाणामर्थाय कृतं न कल्पते / स च चतुर्विधस्तत्र लिङ्गतः साधम्भिकस्तीर्थकरो यथा कुटुम्बी। ततस्तन्निमितं कृतं कल्पते। अन्यच भगवतां मङ्गलनिमित्तं शाश्वतो मोक्षस्तन्निमित्तं च भक्त्या यत् क्रियते समवसरणमायतनं वा तत्रादेशोऽनुज्ञावस्थानस्येति भावः। व्य०६ उ०) सम्प्रति साधर्मिकस्य द्वादशकं निक्षेपमाहनाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य पवयणे लिंगे। दसणनाणचरित्ते, अभिग्गहे भावणाओ य॥१३८|| 'नाम' ति–नाम्नि साधर्मिकः, / 1 / स्थापनायां साधर्मिकः / 2 / द्रव्ये द्रव्यविषयः साधर्मिकः / 3 / क्षेत्रसाधर्मिकः / 4 / कालसाधर्मिकः / / प्रवचनसाधर्मिकः / 6 / लिङ्गसाधर्मिकः / 7 / दर्शनसार्मिकः / / ज्ञानसाधर्मिकः / / / चारित्रसाधर्मिकः।१०अभिग्रहसा-धर्मिकः।११। 'भावणाओ य' त्ति-भावनातश्च साधर्मिको भवति / / 12 / / पिं०) तत्र नामस्थापनाद्रव्यसाधर्मिमकप्रतिपादनार्थमाहनामम्मि सरिसनामो, ठवणाए कट्ठकम्ममादीसुं। दव्वम्मि उजो भविओ, साहम्मिसरीरगं चेव // 13|| नाम्निनामविषये साधम्मिको यः सदृशनामा यथा देवदत्तो देवदत्तस्य। स्थापनायां साधर्मिकः काष्ठकादिषु स्थाप्यमानः, यथा-वास्त्रकर्षिरादिशब्दात्-पुस्तकाक्ष वराटकादिपरिग्रहः, द्रव्ये द्रव्यरूपतया साधर्मिको यो भव्यो भावी स च त्रिप्रकारः, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च / आमीषां च भावना द्रव्यभिक्षुवद्भावनीया। यच्च साधर्मिकशरीरं व्यपगतजीवितं सिद्धशिलातलादिगतं तत् द्रव्यसाधम्मिकः, द्रव्यता, चास्य भूतभावत्वात्। क्षेत्रकालप्रवचनलिङ्गसाधर्मिमकानाहखेत्ते समाणदेसी, कालम्मि उ एक्ककालसंभूतो पवयणसंघेगयरो, लिंगे रयहरणमुहपुत्ती॥१४|| क्षेत्रे क्षेत्रतः साधम्मिकः समानदेशी यथा सौराष्ट्रः सौराष्ट्रस्य। काले | कालतः साधम्मिकः एककालसंभूतो यथा वर्षाजातो वर्षाजातस्य, प्रवचनमिति प्रवचनतः साधम्मिकः संघमध्ये एकतरः श्रमणः श्रमणी श्रावकः श्राविका चेति लिङ्गेलिङ्गतः साधम्मिकः ‘रजोहरणमुहपोत्ति' त्ति रजोहरणमुखपोत्तिकायुक्तः। संप्रति दर्शनादिसाधम्मिकानाहदसणणाणे चरणे, तिग पण पण तिविह होइ उ चरित्ते। * दवाइओ अभिग्गह, अह भावणमो अणिचाई।।१५।। दर्शनसाधम्मिकः 'तिग' त्ति-त्रिविधस्तद्यथा-क्षायिकदर्शनिनः क्षायिकदर्शनी औपशमिकदर्शनिनः औपशमिकदर्शनी क्षायोपशमिकदर्शनिनः क्षायोपशमिकदर्शनी। अन्ये पुनराहुरेवं त्रिविधस्तद्यथासम्यग्दृष्टः सम्यग्दृष्टिः मिथ्यादृष्टर्मिथ्यादृष्टिः मिश्रस्य मिश्रः। ज्ञानतः साधर्मिकः, 'पण' त्ति पञ्चविधः, तद्यथा-आमिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिक ज्ञानिनः, एवं श्रुतावधिमनः पर्यायके वलेष्वपि भावनीयम्। चरणतः साधर्मिकः 'पण' त्ति-पञ्चप्रकारः सामायिकचारित्रिणः सामायिकचारित्री / एवं छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसंपराययथाख्यातेष्वपि वाच्यम्। 'तिविहो होइ चरित्ते' इति-त्रिविधःत्रिप्रकारो भवति चारित्रं चारित्रतः साधर्मिकः। तद्यथा-क्षायिकचारित्री क्षायिकचारित्रिण इत्यादि 'दव्वादीउ अभिग्गह' त्ति-अभिग्रहतः साधम्मिको द्रव्यादौ-वेदितव्यः, तद्यथा-द्रव्याभिग्रही द्रव्याभिग्रहिणः / एवं क्षेत्रे काले भावे अपि भाव्यम्।तुशब्दोऽनुक्तसमुचयार्थः / तेनषष्ठादिक्षपणाभिग्रही षष्ठादिक्षपणाभिग्रहिण इत्याद्यपि द्रष्टव्यम् / भावनातः साधर्मिकोऽनित्यत्वादी, यथा-एकोऽप्यनित्यत्वभावनां भावयत्यपरोऽप्यनित्यत्वमिति भावनासाधम्मिकः एवं शेषास्वपि भावनासु द्रष्टव्यम् / तदेवमुक्तः साधम्मिकस्य द्वादशको निक्षेपः। संप्रति यदुक्तं लिङ्गे भवन्ति भङ्गाश्चत्वार इति तदेतत् व्याचिख्यासुराहसाहम्मिएहि कहिए-हिं लिंगाई होइ चऊमंगा। नाम ठवणा दविए, भावें विहारे य चत्तारि।।१६|| साधमिकेषु कथितेषु सत्सु गाथायां तृतीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्यालिङ्गादौ प्रवचनादिभिः सह भवति प्रत्येकं चतुर्भङ्गी। गाथायां पुंस्त्वमार्षत्वात्। विहारे च ये चत्वारो भेदाः प्रागुक्तास्ते इमे, तद्यथानामविहारः स्थापनाविहारो द्रव्यविहारो भावविहारश्व। तत्र लिङ्गादिषु प्रवचनादिभिः सह प्रत्येकं चतुर्भङ्गीमाविर्भावयिषुः प्रथमतो लिङ्गप्रवचनेन चतुर्भङ्गीसूचामाहलिंगेण उसाहम्मी, नो पवयणओ उ निण्हगा सवे / पवयणसाहम्मी पुण, लिंगे दस हो ति ससिहागा॥१७॥ लिङ्गेन-रजोहरणादिना साधर्मिको नो-नैव प्रक्चनतः इत्येको भङ्गः / के ते इत्याह- सर्वे निवास्तेषां संघबाह्यत्वात्, रजोहरणादिलिङ्गोपेतत्वाच, तथा प्रवचनतः साधर्मिकोनपुनः लिने लिङ्गतः एष द्वितीयः। के ते एवंभूता इत्याह-दश भवन्ति सशिखाकाः अमुण्डितशिरस्काः श्रावका इतिगम्यते। श्रावका हिदर्शनव्रतादिप्रतिमाभेदेन एकादशविधा भवन्ति, तत्र Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहम्मिय 767 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहम्मिय दश सकेशाः, एकादशः प्रतिमाप्रतिपन्नस्तु लुञ्चितशिराः श्रमणभूतो भवति ततस्तद्व्यवच्छेदाय सशिखग्रहणम्। एते हि दश शसिखाकाः प्रवचनतः साधर्मिका भवन्ति, तेषां संघातभूतत्वान्न लिङ्गतः रजोहरणादिलिङ्गरहितत्वात्। तृतीयचतुर्थी तु भङ्गौ सुप्रतीतत्वान्नोक्तौ तौ चेमौ प्रवचनतोऽपि साधम्मिको लिङ्गतोऽपि साधुः एष तृतीयः। न प्रवचनतो नापि लिङ्गतः इति चतुर्थः / एष शून्यो भङ्गः। तदेवं लिङ्गप्रवचनेन सह चतुर्भङ्गि कोक्ता। संप्रति दर्शनादिभिः सह चतुर्भङ्गिकाप्रतिपादनार्थमाह-- एमेव य लिंगेणं, दंसणमादी उ होंति भंगा उ। भइएसु उवरिमेसुं, हेट्ठिलपदं तु छड्डेजा ||18|| एवमेव-प्रवचनगतेन प्रकारेण लिनेन सह दर्शनादिषु भङ्गा भवन्तिज्ञातव्याः / उक्तेषु च उपरितनेषु सर्वेष्वपि भावनापर्यन्तेषु अधस्तनं लिङ्गलक्षणं पदं त्यजेत् त्यक्त्वा च तदनन्तरं द्वितीयपदं गृह्णीयात् / अभिगृह्य च तेनापि सह चतुर्भङ्गिकाक्रमेण योजयेत्। तत्राप्युपरितनेषु सर्वेषु भङ्गेषु तदधस्तनं पदं त्यजेत् / अग्रेतनमनन्तरमाश्रयेत् / तत्राप्ययमेव क्रमः एवं तावद्वाच्यं यावदन्तिमपद-द्वयचतुर्भङ्गिका / इह लिङ्गेन सह दर्शनादिषु भङ्गसूचा कृता तत्र लिङ्गग्रहणमुपलक्षणं ततः प्रवचनेनापि सह भड़ाः द्रष्टव्याः ते चामी प्रवचनसाधम्मिका नदर्शनतः। .एष क्षायिके औपशमिके क्षायोपशमिके वा / उक्तं च- 'विसरिसदंसणजुत्ता, पवयणसाहम्भिया न दंसणतो' / इति दर्शनतः साधर्मिको न प्रवचनतस्तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धश्च तेषां संघानन्तर्वर्तित्वाद्, आह च"तित्थयरा पत्तेया, नो पवयणदंससाहम्मी''। प्रवचनतोऽपि साधर्मिको दर्शनतोऽपि समानदर्शनी। संघमध्यवर्ती न प्रवचनतो नापि दर्शनत इति चतुर्थः / एष शून्यः। उक्ता प्रवचनेन सह दर्शनस्य चतुर्भङ्गिका। संप्रति ज्ञानस्योच्यते-प्रवचनतः साधर्मिको न ज्ञानतः, एको द्विज्ञानी एकस्त्रिज्ञानी चतुर्ज्ञानी केवलज्ञानी वा ज्ञानतः साधर्मिको न प्रवजनतः तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा प्रवचनतोज्ञानतोऽपि तृतीयः। न प्रवचनतोऽपि नापि ज्ञानतः इति चतुर्थः / एष शून्यः। तथा प्रवचनतः साधर्मिको न चारित्रतः श्रावकः, चारित्रतो न प्रवचनतः तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा, प्रवचनतोऽपि साधुः, न प्रवचनतो नाऽपि चारित्रत एष शून्यः / तथा प्रवचनतो नापि अभिग्रहतः। साधर्मिकोऽनभिग्रहतः। श्रावको यति उभयोरप्यन्योन्याभिग्रहयुक्तत्वात् / अभिग्रहतो न प्रवचनतो निहवः, तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा। उक्तं च- "साहम्मभिग्गहेणं, नोपवयणनिण्हतित्थ-पत्तेया''। इति प्रवचनतोऽप्यभिग्रहतोऽपि श्रावको यति समानाभिग्रहः न प्रवचनतो नाप्यभिग्रहत इति शून्यः। तथा प्रवचनतः साधर्हिको न भावनातो भिन्नभावनाकः श्रावको यतिर्वा भावनातः। साधर्मिको न प्रवचनतः समानभावनाकस्तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो निह्नवो वा प्रवचनतोऽपि भावनातोऽपि समानभावनाकः श्रावको यति न प्रवचनतोऽपि नापि भावनातः एषशून्यः। उक्ताः प्रवचनेन सह दर्शनादिषु भङ्गाः। संप्रति लिङ्गेनसहोच्यन्ते-लिङ्गतः साधर्मिको नदर्शनतः निहवः, दर्शनतः साधर्मिको न लिङ्गतः / प्रत्येकबुद्धस्तीर्थकरो लिङ्गतोऽपि समानदर्शनी साधुः / नापि लिङ्गतो नापि दर्शनतः एष शून्यः / तथा लिङ्गतः साधम्मिको न ज्ञानतः निहवो विभिन्नज्ञानी वा साधुः ज्ञानतोन लिङ्गतः समानज्ञानी श्रावकः प्रत्येकबुद्धस्तीर्थकरो वा लिङ्गतोऽपि ज्ञानतोऽपि समानज्ञानी साधुः न लिङ्गतोऽपि नापि ज्ञानतः एष शून्यः। तथा लिङ्गतो न चारित्रतोनिहवो विषमचारित्री वा साधुः चारित्रतो न लिङ्गतः प्रत्येकबुद्धस्तीर्थकरो वा, चारित्रतोऽपि लिङ्गतोऽपि समानचारित्री साधुः / न लिङ्ग तो नापि चारित्रतः एष शून्यः / तथा लिङ्गतो नाभिग्रहतः विचित्राभिग्राही साधुनिहवो वा अभिग्रहतो न लिङ्गतः समानाभिग्रही श्रावकः प्रत्येकबुद्धस्तीर्थकरो वा लिङ्गतोऽप्यभिग्रहतोऽपि समानाभिग्रहीसाधुः लिङ्गतो नाप्यभिग्रहतः। एष शून्यः। तथा लिङ्गतः साधम्मिको न भावनातः विषमभावनाकः साधु र्निवो वा, भावनातो न लिङ्गतः समानभावनाकः श्रावकः प्रत्येकबुद्धस्तीर्थकरो वा, लिङ्गतोऽपि भावनातोऽपि समानभावनाकः साधुः, न लिङ्गतोऽपि न भावनातः एष शून्यः / तदेवमुक्ता लिङ्गेन सह दर्शनादिषु भङ्गाः। संप्रति लिङ्गपदंत्यक्त्वा दर्शनपदमभिगृह्यते। तेन सह ज्ञानादिषुउच्यन्ते। दर्शनतः साधर्मिमको न ज्ञानतः, क्षायिकादर्शनी यः एकः केवलज्ञानी एको द्विज्ञानीति ज्ञानतः साधम्मिको न दर्शनतः समानज्ञानी विभिन्नदर्शनी दर्शनतोऽपि ज्ञानतोऽपि समानदर्शनज्ञानी / न दर्शनतोऽपि न ज्ञानतः एष शून्यो भङ्गः। तथा दर्शनतःसाधम्मिको न चारित्रतः समानदर्शनी श्रावकः चारित्रतोन दर्शनतः समानचारित्री विभिन्नदर्शनी साधुः, चारित्रतोऽपि दर्शनतोऽपि समानदर्शनचारित्री साधुः, न चारित्रतोऽति नापि दर्शनतः एष शून्यः / तथा दर्शनतो न अभिग्रहतः समानदर्शनी विचित्राभिग्रहः श्रावकः साधुर्वा, अभिग्रहतो न दर्शनतः, सामानाभिग्रही विचित्रदर्शनतःश्रावकादिः, दर्शनतोऽपिअभिग्रहतोऽपि समानदर्शनाभिग्रहीन श्रावकादिः न दर्शनतो नाप्यभिग्रहतः एष शून्यः। तथा दर्शनतो न भावनातः / समानदर्शनो विचित्रभावनाकः श्रावकादिः, भावनातो दर्शनतः समानभावनाको विचित्रदर्शनः श्रावकादिः, दर्शनतोऽपि भावनातोऽपि समानदर्शन-भावनाकः श्रावकादिः, न दर्शनतो नापि भावनातः एष शून्यः। तदेवमुक्ता दर्शनेनापि सह ज्ञानादिषु भङ्गाः अधुना दर्शनपदम पहाय ज्ञानपदमभिगृह्यते। तेन सह चारित्रादिषु प्रदर्श्यन्ते। ज्ञानतः साधम्मिको न चारित्रतः समानज्ञानो विचित्रचारित्रसाधुः यदि वा-श्रावकः चारित्रतः साधम्मिको न ज्ञानतः समानचारित्री एकः केवली एकः छद्मस्थः / ज्ञानतोऽपि चारित्रतोऽपि समानज्ञानचारित्री साधुन ज्ञानतोऽपि न चारित्रतोऽपि एष शून्यः। तथा ज्ञानतो नाभिग्रहतः। सामानज्ञानो विचित्राभिग्रहः श्रावकादिः अभिग्रहतो ज्ञानतः। समानाभिग्रहो विचित्रज्ञानी साधुस्तीर्थकरः प्रत्येकबुद्धो वा, ज्ञानतोऽप्यभिग्रहतोऽपि समानज्ञानाभिग्रही साध्वादिः, न ज्ञानतो नाऽप्यभिग्रहतः शून्य एषः। तथा ज्ञानतो न भावनातः समानज्ञानो विचित्रभावनाकः श्रावकादिः / भावनातो ज्ञानतः समानभावनो विचित्रज्ञानी श्रावकादिः / ज्ञानतोऽपि भावनतोऽपि समानज्ञानभावनाकः श्रावकादिर्न ज्ञानतोनाऽपि भावनातः एष शून्यः / Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहम्मिय 768 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहम्मिय उक्ता ज्ञानेन सह चारित्रादिषु भङ्गाः / संप्रतिज्ञानपदं विमुच्य चारित्रपदं गृहीत्वा तेन सहाभिग्रहभावनयोर्भङ्गा उच्यन्ते-चरणतः साधर्मिको नाभिग्रहतः समानचरणो विचित्राभिग्रहो साधुः अभिग्रहतःसाधर्मिको न चरणतः श्रावकादिः, चरणतोऽपि अभिग्रहतोऽपि साधुः, न चरणतो नाप्यभिग्रहतः एष शून्यः। तथा चरणतो न भावनातः विचित्रभावनाकः साधुः, भावनातो च चरणतः श्रावकः सामानभावनाकः साधुर्वा विसदृशचरणः,चरणतोऽपि भावनातोऽपि समानचरणभावनाकः साधुः, नचरणतो नाऽपि न भावनातः शून्य एषः। संप्रत्यभिग्रहेण सह भावनाया भङ्गाः-अभिग्रहतः साधर्मिको न भावतः, समानाभिग्रही विचित्रभावनाकः श्रावकादिः, भावनातः साधर्मिको नाऽभिग्रहतः विचित्राऽभिग्रहः श्रावकादिः, अभिग्रहतोऽपि भावनातोऽपि समानाऽभिग्रहः भावनाकः श्रावकादिः, नाभिग्रहतोऽपि नापि भावनातः एष भङ्गः शून्यः / तदेवमुक्ता भङ्गाः। __सांप्रतममीषां भङ्गानां विषयविशेषप्रतिपादनार्थमाहपत्तेयबुद्ध विण्हग-उवासए केवली य आसज्ज। खइयाइए य भावे, पडुच्च मंगो य जोएज्जा / / 19 / / प्रत्येकबृद्धान् निवान् उपासकान केवलिनश्चाश्रित्य तथा क्षायिकादीन भावान् प्रतीत्य आश्रित्य भङ्गकान् अनन्तरोदितान् योजयेत्। तद्यथान प्रवचनतः साधम्मिको लिङ्गतः एष भङ्गः प्रत्येकबुद्धात्केवलिनश्च / जिनानाश्रित्य योजनीयः / लिङ्गतो न प्रवचनतः इत्ययं निह्नवान्, प्रवचनतो न लिङ्गत् इत्येष श्रावकान, प्रवचनतो नदर्शनत इत्यादयस्नु क्षायोपशमिकदर्शनज्ञानचारित्रा-दीनाश्रित्य योजयितव्यास्ते च तथैव यथास्थानं योजिता एवेति। व्य०२ उ०। समानधार्मिको हि सम्यग्दृष्टिः साधुः साध्वी श्रावकः श्राविका च / श्रा०। (साधर्मिकाणां स्तैन्यं कुर्वतोऽनवस्थाप्यो भवतीत्युक्तम् 'अणवठ्ठप्प' शब्दे प्रथमभागे 263 पृष्ठे) सदृश-कल्पिके, समाचारीस्थे, आचा०१ श्रु०८ अ०५ उ०। पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे साहम्मितं संभोतितं विसंभोतितं करेमाणे णातिक्कमति, तं जहा–सकिरितवाणं पडिसेवित्ता भवति१पडिसेवित्ता णो आलोएइआलोइत्ताणो पट्ठवेति 3 पट्टवेत्ताणो णिव्विसति 4 जाइंइमाइंथेराणं ठितिवकप्पाई भवंति ताई अतियंचिय 2 पडिसेवेति / से हंदऽहं पडिसेवामि किं मं थेरा करिस्संति? 5 | पंचहिं ठा-णेहिं समणे निग्गथे साहम्मितं पारंचितं करेमाणे णातिकमति, तं०-सकुले वसति सकुलस्स भेदाते अब्मुद्वित्ता भवति१ गणे वसतिगणस्स भेताते अब्भुढेत्ता भवति 2 हिसप्पेही 3 छिद्दप्पेही 4 अभिक्खणं पसिणाततणाइं पउंजिता भवति 5 / (सू०३६८) साम्भोगिकम्-एकभोजनमण्डलीकादिकं विसाम्भोगिकंमण्डलीबाह्य कुर्वन्नातिक्रामति आज्ञामिति गम्यते, उचितत्वादिति / सक्रियंप्रस्तावादशुभकर्मबन्धयुक्तं स्थानम् अकृत्यविशेष लक्षणं प्रतिषेविता भवतीत्ये कं, प्रतिषेव्य गुरवेनालोचयति- न निवेदयतीति' द्वितीयम्,आलोच्य गुरूपदिष्टप्रायश्चित्तं न प्रस्थापयति- कर्तुं नारभत इति तृतीयं, प्रस्थाप्य न निर्विशति-न समस्तं प्रवेशयति, अथवा'निर्वेशःपरिभोग' इति वचनान्न परिभुड्क्तेनासेवत इत्यर्थः इति चतुर्थम्, यानीमानि सुप्रसिद्धतया प्रत्यक्षाणि स्थविराणांस्थविरकल्पिकानां स्थितौ-समाचारे प्रकल्प्यानि-प्रकल्पनीयानि योग्यानि विशुद्धपिण्डशय्यादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि, अथवा-स्थितिश्चमासकल्पादिका प्रकल्प्यानि च-पिण्डादीनि स्थितिप्रकल्प्यानि तानि 'अइयंचिय अइयंचिय' त्ति-अतिक्रम्यातिक्रम्येत्यर्थः,प्रतिषेवते तदन्यानीति गम्यते। अथ णवाटकादिः साधुस्वं पर्यालोचयति-यथा नैतत्प्रतिषेवितुमुचितं गुरुर्नीबाह्यौ करिष्यति, तत्रेतर आह-'से' इति तदकल्प्यजातं 'हंदे' त्ति-कोमलामन्त्रणं वचनं, हमित्यकारप्रश्लेषादहं प्रतिषेवामि किंमम स्थविराः-गुरवः करिष्यन्ति? न किञ्चित्तै रुष्टरपि मे कर्तुं शक्यते इति बलोपदर्शनं पञ्चममिति / 'पारंचियं' ति दशमप्रायश्चित्तभेदवन्तमपहृतलिङ्गादिकमित्यर्थः कुर्वन्नातिक्रामति सामायिकमिति गम्यते। कुलेचान्द्रादिके वसति गच्छवासीत्यर्थस्तस्यैव कुलस्य भेदायान्योऽन्यमधिकरणोत्वादनेनाभ्युत्थाता भवति; यतत इत्यर्थः इत्येकम्, एवं गणस्थापीति द्वितीयं, तथा हिंसा-वधं साध्वादेः प्रेक्षतेगवेषयतीति हिंसाप्रेक्षीति तृतीय, हिंसार्थमेवापभ्राजनार्थ वा 'छिद्राणि' प्रमत्ततादीनि प्रेक्षत इति छिद्रप्रेक्षीति चतुर्थम्, अभीक्ष्ण-मितीह पुनः शब्दार्थः ततश्चाभीक्ष्णमभीक्ष्णं; पुनः पुनरित्यर्थः, प्रश्ना-अङ्गुष्ठकुड्यप्रश्नादयः सावद्यानुष्ठानपृच्छा वात एवायतनान्यसंयमस्य प्रश्नायतनानि प्रयोक्ता भवति ; प्रयुक्त इत्यर्थः इति पञ्चमम्। स्था०५ ठा० १उ०) - इदानीं साधर्मिकद्वारप्रतिपादनायाहदिट्ठमदिट्ठा दुविहा, णायगुणा चेव हुँति अन्नाया। अहिट्ठा विय दुविहा, सुय असुय पसत्थमपसत्था ||6|| साधर्मिका द्विविधाः-दृष्टा, अदृष्टाश्च। 'णायगुणा तह य चेव अन्नाया' ये ते दृष्टाः साधर्मिकास्तेः द्विविधाः कदाचित् ज्ञातगुणा भवन्ति कदाचिदज्ञातगुणाः, 'अद्दिट्ठा वि य दुविहा' येऽप्यदृष्टाः साधर्मिकास्तेऽपि द्विविधाः-'सुय असुय' त्ति-श्रुतगुणा, अश्रुत-गुणाश्च। पसत्थापसत्थ' ति ये ते ज्ञातगुणास्ते द्विविधाः-प्रशस्त-ज्ञातगुणाः, अप्रशस्तज्ञातगुणाश्च। येऽपि तेऽज्ञातगुणास्तेऽपि द्विविधाः-प्रशस्ताज्ञातगुणाः, अप्रशस्ताज्ञातगुणाश्चेति। येऽपि ते श्रुतगुणास्तेऽपि द्विविधाः--प्रशस्तश्रुतगुणाः, अप्रशस्तश्रुतगुणाश्च / येऽपि तेऽश्रुतगुणास्तेऽपि द्विविधा प्रशस्ताश्रुतगुणाः, अप्रशस्ताश्रुतगुणाश्च। ___ आह-ये दृष्टास्ते कथमज्ञातगुणा भवन्तीत्यत आहदिट्ठा व समोसरणे, न य नायगुणा हवेज ते समणा। सुअगुणपसत्थ इयरे,समणुनिअरे य सव्वे वि।।६।। दृष्टाः- उपलब्धाः सामान्यतो झटिति क्व ? समवसर Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहम्मिय 766 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहरित्तए णे-स्नात्रादौ, न च ज्ञानगुणास्ते भवेयुः श्रमणाः, सुयगुणपसत्थ इयरे' कुसंसर्गाद्यकृत्यस्य निषेधनं वारणा, एतयोश्च सततं क्रियमाणयोर्हि त्ति-इतरे इति अदृष्टानां परामर्शः, ते अदृष्टाः 'सुयगुणे' ति-श्रुतगुणा कस्यचित्प्रमादबहुलस्य नियमस्खलितादौ युक्तम्, कि श्राद्धकुलोत्पअपि सन्तः ‘पसत्थ त्ति-प्रशस्तश्रुतगुणा गृह्यन्ते, तदनेन 'सुयगुणपसत्थ नस्य तवेत्थं प्रवर्तितुमित्यादिवाक्यैः सोपालम्भं प्रेरणं चोदना, तथा त्ति-भावितम्, 'इयरे' त्ति-इतरे इत्यदृष्टानां परामर्थः ते अदृष्टाः श्रुतगुणा तत्रैवाऽसकृत्स्खलितादौ धिगते जन्मेत्यादि निष्ठुरवाक्यैर्गाढतरप्रेरणा इत्ययमनन्तरगाथोपन्यस्तभङ्गकः एकः सूचित इति 'समणुनियरे य प्रतिचोदना / उक्तं च-- "पम्हुढे सारणा वुत्ता, अणायारस्स वारणा। * सव्वेऽवि' सर्वेऽपि चैते भूतादिगुणभेदभिन्नाः साधवः समनोज्ञा इतरे च- चुकाणं चोअणा होइ, निट्ठरं पडिचोअणा // 1 / / '' ति / एतच्च भाव असमनोज्ञा इति च, साम्भोगिका असाम्भोगिकाश्चेत्यर्थः / ओघ०। वात्सल्यम्। यतो दिनकृत्ये “साहम्भिआण बच्छलं, एअं अन्न विआहि। साहम्मिअणुववूहण-न०(साधर्मिकानुपबृंहण) सम्यग्दृष्टिः साधुः धम्मट्ठाणेसु सीअंतं, सव्वभावेण चोअणा // 1 // " साधर्मिकाणां साध्वी श्रावकः श्राविका च एतेषां कुशलमार्गप्रवृत्तानामतिचारे, श्रा०। वात्सल्यमेतदन्तरोक्तं द्रव्यवात्सल्यम्,अन्यदिति भाववात्सल्यमिति साहम्मियचेइय-न०(साधर्मिकचैत्य) चारित्तकसाध्वादीनां प्रति तदर्थः / / 5 / / इत्थं च तेषां प्रतिपत्तिरेव श्रेयसी नतु तैः सह कलहादि, कतिरूपे चैत्ये, जीता यतः "विवायं कलहं चेव सव्वहा परिवज्जए! साहम्मिएहिं सद्धिंतु, जओ साहम्भियत्तविणय-पुं०(साधर्मिकत्वविनय) सम्मक्त्वग्रहणे, व्य०१० एअं विआहिअं // 1 // " जो किर पहणइ साहम्मिम्मि कोवेण दंसणं यम्मि / आसायणं तु सो कुण-इ निक्किवो लोगबंधूणं / / 2 / / " इति साधर्मिकवात्सल्यद्वारम्। ध०२अधि०। (साधर्मिकस्य वैयावृत्त्यकरणसाहम्मियपीइ-स्त्री०(साधर्मिकप्रीति) समानधर्मजनविषयप्रेम- | फलम् 'महाणिज्जर' शब्दे षष्ठभागे गतम्।) जन्यवात्सल्ये, कार्ये कारणोपचारात् सामानधर्मकापुराने, पञ्चा०३ साहम्मियवेयावच्च-न०(साधर्मिकवैयावृत्त्य) साध्व्याः साधो विव०। वैयावृत्त्ये, औ० साहम्मियवग्ग-पुं०(साधर्मिकवर्ग) स्वजनातिरिक्तसमान साहम्मिया-स्त्री०(साधर्मिकी) सधर्मिण्यां संयभ्याम्, बृ०३ उम 'धार्मिकजने, पञ्चा०६ विव०] साहय-त्रि०(संहृत) संक्षिप्ते, त० आ० म०| साहम्मियवच्छल्ल-न०(साधर्मिकवात्सल्य) साधर्मिकाणां निम-- साहयसोणंद-न०(संहतसौनन्द) ऊर्वीकृते उद्खलादिकाष्ठे,जी०। न्त्रणभोजने,ध०।साधर्मिकाणां वात्सल्यमपि प्रतिवर्ष यथाशक्ति कार्य, "साहयसोणंदमसलदप्पण" संहृतसौनन्दं नामऊर्कीकृतमुखलासर्वेषां तत्करणाशक्तेनाप्यकव्यादीनामवश्यं तत् कार्य समानधर्माणो कृतिकाष्ठम्-तच्च मध्ये तनुउभयोः पार्श्वयोबृहत् मुशलं प्रतीतम् दर्पणहि प्रायेण दुष्प्राणाः, यतः "सर्वेः सर्वे मिथः सर्व-सबन्धालब्धपूर्विणः। शब्देनेहावयवे समुदायोपचारादर्पणगण्डो गृह्यते। जी० 3 प्रति० 4 साधर्मिकादिसंबन्धलब्धारस्तु मिताः क्वचित्" ||1|| तेषां महत्पुण्य अधि० लभ्यसंगमानां प्रतिपत्तेस्तु फलमतुलमेव यतः। "एगत्थ सव्वधम्मो, साहर-धा०(संवृ) संवरणे,"संदृगेः साहर-साहट्टी" ||शा इति साहम्मियवच्छल्ल तु एगत्थ / बुद्धितुलाए तुलिआ, दो वि अतुल्लाइँ संवृणोतेः साहरादेशः। संवृणोति। प्रा०। नयने, स्था० 3 ठा०३ उ०। भणिआई // 1 // " साधर्मिकवात्सल्येनैव च राज्ञामतिथिसांवभाग आचाo व्रताराधन राजपिण्डस्य मुनीनामकल्पत्वादिति तद्विधिस्त्ववम्-सात साहरग-पुं०(साहरक) रूपके, नि००२उ०! सामर्थ्य प्रत्यहमेकद्व्यादिसाधर्मिकाणामन्यथा तु स्वपुत्रादिजन्मोत्सवे विवाहेऽन्यस्मिन्नपि प्रकरणे साधर्मिकजनानां सविनयं निमन्त्रणं भोजन साहरण-न०(संहरण) देवेन-नयने, भ०६।०३१ उ०। वेलायां स्वयं पादप्रक्षालनादिप्रतिपतिपुरस्सरं विशिष्टासनेषु संनिवेश्य साहरमाण-त्रि०(संहरत्) अन्यत्र नयति, भ०५ श०४ उ01 प्रवरभाजनेषु माताव्यञ्जनसहितविशिष्टभोजनताम्बूलव-स्वाभरणादि- साहरावित्तए-अव्य०(संहर्तुम्) मोचयितुमित्यर्थे, कल्प० १अधि० दानम्। आपन्निमग्नानां च स्वधनव्ययेनाऽभ्युद्धरणम् / अन्तरायदोषाच 2 क्षण। विभवक्षये पुनः पूर्वभूमिकापापणम्। उक्तमपि-"न क्रयं दीयुद्धरणं, न साहरिज्जमाण-त्रि०(संह्रियमाण) नीयमाने, ज०१ वक्ष० जी०। कयं साहिम्मिआणवच्छल्लं / हिअयम्मि वीअराओ, न धारिओ हारिओ | आचा०ा यत्करादिकं शीतलीकरणार्थं पटहादिषु विस्तारित जब्भो।।१॥" धर्मे च विषीदनां तेन तेन प्रक्वारेण स्थैर्यारोपणं, प्रमाद्यता तत्पुनर्भाजने क्षिप्यमाणं संहियमाणमुच्यते। औ०। 'चस्मारणवारणचोदनप्रतिचोदनादिकरणम् / यतः-सारणा वारणा चेव साहरिजमाणचरय-पुं०(संहियमाणचरक) संहियमाणस्यैव पिण्डस्य चाअणा पडि-चाअणा / सावरणावि दायव्वा, सावयस्स हिआवहाह तथाविधाभिग्रहविशेषाद्। भिक्षाचरे, औ० // 11 // एतदर्थो यथा विस्मृतस्य धमकृत्यस्य ज्ञापनं स्मारणा, तथा | साहरित्तए-अव्य०(संहर्तुम्) प्रवेशयितुमित्यर्थे, भ० 5 श० 4 उ० Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहरिय 500 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहारण साहरिय-त्रि०(संहृत) नीते, स०। तस्मादन्यत्र क्षिप्ते, ग०१ अधि०। प्रव० / स्था०। आचा०। पञ्चा०। दनानुचितं सचित्तेषु पृथिव्यादिषु अचित्तेषु या केषुचित्पात्रेषु निक्षिप्य तेन रिक्तीकृतपात्रकेणैव भक्तं ददत उत्पादनादोषे, ध०३ अधि०। पं० चूल (संहृतद्वारम् 'एसणा' शब्दे तृतीयभागे 56 पृष्ठे उक्तम्।) साहस-न०(साहस) अकार्यकरणे, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१ उ०। *साहस्र-त्रि०। सहस्रमूल्ये, बृ०३ उ० साहसकारि(ण)-त्रि०(साहसकारिन्) साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहसकारी। अकार्यकारिणि, सूत्र०१ श्रु०१० अ० (अत्रोदाहरणम् / .'आउक्खय' शब्दे द्वितीयभागे 27 पृष्ठे गतम्।) साहसविवञ्जिय-त्रि०(साध्वसविवर्जित) अविमृश्य प्रवृत्तिः साध्वसं तद्विवर्जितः। सम्मुखीभूय युद्धप्रदानलक्षणसाध्व सरहिते, व्य० 1 उ०। साहसिय-पुं०(साहसिक) सहसाऽविमर्शात्मकेन बलेन वर्तते इति साहसिकः / भाविनमर्थमविभाव्य प्रवर्तमाने, स्था० अवितर्कितकारिणि, ज्ञा०१ श्रु०२ अ०धैर्यवति, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। सात्त्विके, औ०। अविमृश्य पापकर्मनिवृत्ते, दशा०६अ०।अकृत्यकरणपरे, दश० 6 अ०२उ०। असमीक्षितकारिणि,ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। सहसाऽवितर्य प्रवर्तत इति साहसिकः पुरुषः, तत्प्रवर्तितत्वात्साहसिकः / साहसिकप्रवर्तिते प्राणातिपाते, प्रश्न०१आश्र० द्वार। साहस्सिय-पुं०(साहसिक) सहस्रयोधिनि मल्ले, व्य०१ उ०। साहस्सी-स्त्री०(साहस्री) सहस्रे, भ०१श०१ उ०॥ साहा-स्त्री०(शाखा)"खघथधभाम्" ||/1187 // इत्यनेन खस्य हः। एकाचार्यसंततावेव पृथक् पृथगन्वये विवक्षिताद्यपुरुष–संततौ, यथा अस्मदीया वइरस्वामिनाम्नी 'वइरी शाखा विशे०। एकदेशे, कल्प० १अधि०६ क्षण / पल्लवे, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०७ उ०। वृक्षडाले, दश०४ अ० वृक्षभुजायाम्, दश०६ अ०२ उ०ा स्था०। स्थूलाः शाखाः सूक्ष्माः प्रशाखाः सम्म०३ काण्ड। उत्त०नि० चू०। वेदस्य ऋषिभेदादिन्नपाठे, आ० म०१ अ० "साहाहेउं सहीहेउं महामोहं पकुव्वइ" वशीकरणादिप्रयोगः श्लाघाहेतोः सखिहेतोर्मित्रनिमित्तमित्यर्थः / स० 30 समन *स्वाहा-अव्य०। देवतायै द्रव्यत्यागार्थ प्रयुज्यमाने शब्दे, प्रतिका *साहाणुसाह-पुं०। अयं पारसीकः शब्दः। राज्ञामपि राजनि, नि० चू० १उ०॥ साहाभंग-पुं०(शाखाभङ्ग) वृक्षडालैकदेशभङ्गे, दश० 4 अ० साहामय-पुं०(शाखामृग) वानरे, पाइ० ना० / साहारग-त्रि०(साधारक) साधारे, आ० म०१ अ०) साहारण-न०(साधारण) सामान्ये, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१ उ० द्रव्यकारणे, "कारणं ति वा कारगं ति वा साहारणं ति वा एगट्ठा" आ० चू०१अ द्रव्या० आवाआ०म०।संकीर्णे, विशे०। आचा०स०) साधारणशरीरनामकर्मोदयवर्तिनि, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / अनन्तकायिके, प्रव० ४द्वार। नि० चू०। उपकारे, स०३० समका (साधारणवनस्पतिकायिकानामपि किं सर्वकालशरीरावस्थामधिकृत्य किं प्रत्येकशरीरत्वमुत कस्मिश्चिदवस्थाविशेषेऽनन्तजीवत्वमपि संभवतीति 'अणन्तेजीव' शब्दे प्रथमभागे 264 पृष्ठे उक्तम्।) ('वणप्फई' शब्देऽपि षष्ठभागे उक्तम्।) सम्प्रति साधारणलक्षणमाह-- समयं वक्वंताणं,समयंतेसिं सरीरनिव्वत्ती। समयं आणुग्गहणं, समयं ऊसासनीसासो॥६५|| इक्कस्स उ जंगहणं, बहूण साहारणाण तं चेव। जं बहुयाणं गहणं, समासओ तं पि इक्कस्स ||6|| 'समयमि' त्यादिगाथाद्वयम्, समय-युगपद्व्युत्क्रान्तानाम्- उत्पनानां सतां तेषां-साधारणजीवानां समकम्-एककालं शरीरनिर्वृत्तिभवति, समकं च प्राणापानग्रहणं प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानम्, ततः समकम्-एककालं तदुत्तरकालभाविनावुचछासनिःश्वासौ, तथा एकस्य यत् आहारादिपुद्गलानां ग्रहणं तदेव बहूनामपि साधारणजीवानामवसेयम् / किमुक्तं भवति? यत् आहारादिकमेको गृह्णाति शेषा अपि तच्छरीराश्रिता बहबोऽपितदेव गृह्णन्तीति,तथा च यदहूनां ग्रहणं तत्संक्षेपादेकत्र शरीरे समावेशात् एकस्यापि ग्रहणम्। सम्प्रत्युक्तार्थोपसंहारमाहसाहारणमाहारो, साहारणमाणुपाणगहणं च / साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं // 97|| सर्वेषामप्येकशरीराश्रितानां जीवानामुक्तप्रकारेण यत् साधारणं साधारणः, सूत्रे नपुंसकतानिर्देशः आर्षत्वात् आहारः आहारयोग्यपुद्गलोपादानम्, यच्च साधारणं प्राणापानयोग्यपुद्गलोपादानम् उपलक्षणमेतत् यौ साधारणावुच्छ्रासनिःश्वासौ, या च साधारणा शरीरनिवृत्तिः एतत्साधारणजीवानां लक्षणम्। प्रज्ञा०१ पद। सम्प्रति पर्याप्तापर्याप्तभेदेन प्रत्येकसाधारणवनस्पतिजीवानांप्रमाणमाहपत्तेया पञ्जत्ता, पयरस्स असंखमागमित्ताउ। लोगाऽसंखापज्ज-त्तयाण साहारणमणंता / / 102|| एएहि सरीरेहिं, पच्चक्खं ते परूविया जीवा। सुहुमा आणागिज्झा, चक्खुप्फासंनते इंति॥१०३।। 'पत्तेया पज्जत्ता' इत्यादि। पर्याप्ताः प्रत्येकवनस्पतिजीवाः धनीकृतस्य सम्बन्धिनः प्रतरस्य असंख्येयतमे भागे यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा भवन्ति, अपर्याप्तानां पुनः प्रत्येकतरुजीवानामसंख्येया लोकाः परिमाणं, पर्याप्तानामपर्याप्तानां च साधारणजीवानाम् अनन्ता लोकाः। किमुक्तं भवति? असख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा अपर्याप्ताः प्रत्येकतरवः, अनन्तलोकाकाश-प्रदेशप्रमाणाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च साधारणजीवा इति / प्रज्ञा० १पद ! Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहारणकप्प 501 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहारमाण साहारणकप्प-पुं०(साधारणकल्प) शय्योपध्यादिसाधारणसामाचार्याम्, पं० भा०। एत्तो साहारणं वोच्छं। सेज्जुबहिसायआहा-रमेव सपाहार तह य अणुकंपा। आदिपणगं तु तुल्लं, भइयं अणुसासणाए तु // सेज्जुवहिसायआहा-र पसिद्धा एते हॉति चत्तारि। साहारणकप्पे पुण, मूलगुणा उत्तरगुणा य // साहरणं तु किं पुण, सेज्जादुप्पादगाण सव्वेसिं / सामण्णगुणा ते उ, तम्हा साहारणं जाण // आदिपणगं दुतुल्लं, जाणसु सेज्जाति जाव साहारं / ठियमट्ठियाण दोण्ह वि, एते खलु होति तुल्ला तु // अहवादिपणगमूलं,(गुण)पंचेते हॉति दोएहि तुल्ला तु / / समणाण व समणीण व, तम्हा साहारणं जाण // दारं। मइयमणुसासणंती, अणुकंपण सासण त्ति एगट्ठा। कोइ कदाइ अणिउणो, ण तरति अणुसासणं काउं / सुहमारियएणं, होति विसुद्धो य अंतरप्पा से / तस्स व हों ति वताई,पंच वि साहारणाई तु / / आणा तित्थकराणं, सामण्णा संजताणां सवेसिं। . सुहुमे वि तप्पमाए, अणुसासणयं कुणति जो तु / / तेसि अणुकंपया णि-च्छएण जम्हा उवट्ठिता हों ति। तेणऽणुसहिऽणुकंपा, एगट्ठा हो ति णायव्वा / / साहारकप्पो एसो / पं० भा०५ कल्प। इयाणिं साहरणकप्पो तत्थ गाहा-सेज्जोवहि, सो कहं भवइ, उच्यते- शय्योपध्याहारादिभिः आयत्तो / कहं सो साहारणो भवइ, उच्यते--- एवं ताणि आहाराईणि सोहयंताणं महव्वयाणि साहारणाणि भवंति सामान्यानीत्यर्थः / सव्वेसिं पि आहाराई सोहयंताणं संपत्ताणं संजयाणं ताणि विद्यन्ते स्वाध्याययोगयुक्तानाम् / अणुकंपत्ति वा अणुसासणं ति वा एगट्ठा / कयाइ कोइ अनिउणो न तरइ अणुसासिउं न सुहमारियाए सुत्तत्थतदुभयाणं अव्वोच्छित्तिं काउं वत्थपायाइसु वा संविभागं भावसुद्धो पुण तस्स वि साहारणाणि भवन्ति चेव / एस साहारणकप्पो। पं० चू० 5 कल्प०) साहारणगुणप्पसंसा-स्त्री०(साधारणगुणप्रशंसा) लोकलोको-स्तरयोः सामान्यानां गुणानां प्रशंसायाम्, ध० 1 अधि०। साहारणट्ठिय-त्रि०(साधारणस्थित) साधारणावग्रहस्थिते, व्य० 4 उ0] साहारणणाम-न०(साधारणनामन्) नामकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म० / श्रा०। यदुदयादनन्तानां जीवानां साधारणमेकं शरीरं भवति तत्साधारणं नाम / कर्म० 1 कर्म० / प्रव० / ननु कथ-मनन्तजीवानामेकं शरीरमुत्पद्यते। तथाहि-य एव प्रथम-मुत्पत्तिभागतस्तेन तच्छरीरं मिथ्यादि तमनेनच सर्वात्मना क्रोडीकृतं, ततः कथं तत्रान्येषां जीवानामवकाशः न खलु देवदत्तशरीरं देवदत्त इव सकलशरीरेण सहान्योन्यानुगमपुरस्सरमन्येऽपि जीवाः प्रादुस्सन्ति तथा दर्शनात् / अपिचसत्यवकाशे येनैव तच्छरीरं निष्पाद्यान्योन्यानुगमनेन क्रोडीकृतं स एव तत्र प्रधान इति तस्यैव पर्याप्तापर्याप्तव्यवस्था प्राणापानादियोग्यपुद्गलोपादानं वा भवेन्न शेषाणामिति / तदेतदसम्यक जिनवचनपरिज्ञानाभावात्, तेह्यनन्ता अपिजीवास्तथाविधकर्मोदयसार्थ्यतः समकमेवोत्पत्तिदेशमधितिष्ठन्ति, समकमेव तच्छरीराश्रिताः पर्याप्ति निर्वर्त्तयितुमारभते, समकमेव च पर्याप्ता भवन्ति, समकमेव च प्राणापानादियोग्यान्पुद्गलानाददते। यच्चैकस्य पुद्गलाभ्यवहरणं तदन्येषामनन्तानामपि साधारणम् / यच्चानन्तानन्त-तद्विवक्षितस्यापि जीवस्य ततो न काचिदनुपपत्तिरिति। पं० सं०३ द्वार / साहारणसरीर-न०(साधारणशरीर) अनेकजीवसामान्ये शरीरे, भ० 2 श०१ उ०। सम्प्रति साधारणवनस्पतिकायिकप्रतिपादनार्थमाह - से किं तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया ? साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहां पन्नता, तं जहा"अवए पणए सेवा-ले लोहिणी मिहत्थु हुत्थिभागा (य) अस्सकन्नि सीहकनी, सिउंढि तत्तो मुसुंढी य // 42 // रुरु कुण्डरिया जीर, छीरविराली तहेव किट्टीया ! हालिद सिगबेरे य, आतूलुगा भू (मू) लए इय ||4|| कंबयं कन्नुक्कड, सुमत्तओ वलइ तहेव महसिंगी। नीरुह सप्पसुयंधा, छिन्नराहा चेव बीयरुहा // 45 // पाढामियवालुंकी, महुररसा चेव रायवत्ती य / पउमा माढरि दंती-चंडि किट्ठी त्ति या अवरा // 46|| मॉसपण्णि मुग्गपण्णी, जीवियरसहे य रेणुया चेव / काओली खीरकाओली, तहा भंगी नही इय // 47|| किमिरासि मद्द मुच्छा, णंगलई पेलुगा इय / किण्हपउले य हटे, हरतणुया चेव लोयाणी // 48|| कण्हे कंदे वजे, सूरणकंदे तहेव खज्जूरे / एए अणंतजीवा, जे यावन्ने तहाविहा ||4|| 'से किं तमि' त्यादि / अथ कि ते साधारणशरीर-बादरवनस्पतिकायिकाः, सूरिराह-साधारणशरीरबादरवनस्पतिकायिका अनेकविधाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- 'अवए' त्यादि, एतेच केचिदतिप्रसिद्धत्वात् केचिद्देशविशेषतः स्वयमवगन्तव्याः 'जे यावन्ने तहाविहा' इति। येऽपि चान्ये उक्तव्यतिरिक्तास्तथा प्रकारा-उक्तप्रकारास्तेऽप्यनन्तजीवा ज्ञातव्याः / प्रज्ञा० 1 पद / जी० / स०। (पृथ्व्यादीनां साधारणशरीरवत्त्वं 'पुढवीकाइय' शब्दे पञ्चमभागे गतम् / ) साहारमाण-त्रि०(संहियमाण) स्वस्थानादचलति तेन ह्रियमाणे, व्य० / अह साहारमाणं तु, पट्टेउं जो उ दावए। Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहारमाण 802 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहु दालए अचलितो, छट्ठी एसाऽवि एसणा। अथ वर्तयितुं संह्रियमाणं यो दापपेत् तस्य वचनतः स परिवेषकस्तस्मात्स्थानात् मनागप्यचलितो दद्यात्, एतत्संह्रियमाणमुच्यते एषाऽपि षष्ठी एषणा द्रष्टव्या / व्य०६ उ०। साहाविय-त्रि०(स्वाभाविक) अकृत्रिमे, आव० 4 अ० / विशे०। / दर्श० / सहजे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। साहिऊण-अव्य०(साधयित्वा) साधन कृत्वेत्यर्थे, दर्श० 4 तत्त्व०। साहित-त्रि०(साधयत्) प्रतिपादति, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 2 उ० / प्रश्न०। साहिगरण-त्रि०(साधिकरण) साहाधिकरणेन साधिकरणः / युद्धार्थमुपस्थिते, स्था० 5 ठा० 2 उ० / कलहयति, स्था० 6 ठा० 3 उ०। सह अधिकरणेन वर्तते इति साधिकरणः / कषायभावशुभभावाधिकरणसहिते, नि० चू० 10 उ०। साहिगरणि(ण)-त्रि०(साधिकरणिन्) सह भावनाऽधिकरणे न शरीरादिना वर्तते इति समासान्तविधेः साधिकरणी / शरीरादिसहिते, 'साहिगरणी जीवे' साधिकरणी-संसारिजीवस्य शरीरेन्द्रियरूपाधिकरणस्य सर्वदैव सहचारित्वात्साधिकरणत्वमुपदिश्यते शस्त्रावधिकरणापेक्षया तु स्वस्वामिभावस्य तदविरतिरूपस्य सह वर्त्तित्वाज्जीवः साधिकरणीत्युच्यते / भ० 16 श०१ उ०। साहित्थलव--पुं०(स्वामीष्टार्थलव) स्वाभिमतार्थलेशप्राप्तौ, प्रति० / साहिय-त्रि०(स्वाहित) सुष्टु आहित-उपलब्धः स्वाहितः / स्वजातज्ञानादौ, "अयंस अवरे धम्मे, णायपुत्तेण साहिए।" आचा० १श्रु०८ अ०८ उ०। साहिज-न०(साहाय्य) सहायकृत्यकरणे, व्य०३ उ०। साहिया-स्त्री०(साहिका) गृहपङ्क्तौ, बृ० 1 उ०३ प्रक० / साही स्त्री०(साही) गृहपतौ, नि० चू० 3 उ० / आव०। *साही-पारसीकः शब्दः / राजनि, नि० चू० 10 उ० / साहीण-त्रि०(स्वाधीन) अपरायत्ते, दश० 2 अ०। तं० / आचा० / स्वायत्ते, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। साहीणभोगचागि(ण)-पुं०(स्वाधीनभोगत्यागिन्) स्वजनक्रियमाणम द्याङ्गनारागाधनास्वादने, व्य०२ उ०। साहु-न०(साधु)"ख-घ-थ-ध-भाम्"॥११८७॥ इतिधस्य हः / प्रा०। शोभने, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आचा० / औ० / निर्दोषे, द्वा०११ द्वा० / पुं० सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रैर्मोक्षं साधयतीति साधुः / दर्श० 1 तत्त्व। साधयति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधुः / दश० 1 अ० / साधयति-पोषयति विशिष्टक्रिया-भिरपवर्गमिति साधुः / उत्त०१ अ० / विशे० / साधयति ज्ञानादिशक्तिभिर्मेक्षमिति साधुः / समतां च सर्वभूते ध्यायतीति निरुक्तन्यायात् साधुः / साहायको वा संयमकारिणं साधयतीति वा साधुः / दश०१ अ०। भ०। अभिलषितमर्थं साधयतीति साधुः / ऋवापाजात्यादिना उपप्रत्ययः / आ० म०१ अ० निर्वाणसाधकान् योगान् साधयतीति साधुः / आव० 4 अ०। निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः / दश०१० अ०॥ अष्टादश दोषाणां वर्जके, दर्श० 4 तत्त्व / सुयतौ, दर्श० 4 तत्त्व / यतौ, पञ्चा० 11 विव० / मुक्तिसाधके, विशे०। यथावस्थितयतौ, आचा०२ श्रु० 3 चू० / ध० 20 / मुनौ, पा० / सूत्र० / ज्ञानदर्शनचारित्रक्रियोपेते मोक्षमार्गव्यवस्थितसांधौ; सूत्र०२ श्रु०५ अ०। ज्ञानादि-क्रियाभिमुक्तिसाधनप्रवणे साधौ, चं० प्र० 1 पाहु० / श्रेष्ठे, सूत्र० 2 श्रु०२ अ०। आचा० / विशे०। भिक्षौ, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। सदाचारे, सूत्र० 1 श्रु० 3 अ०१ उ० / पारमार्थिकयतौ; पं०व०४ द्वार / ब्रह्मचर्यादिगुणान्विते, स्था० 10 ठा० 3 उ०।। सत्थुत्तगुणी साह, ण सेस इह णो पइण्णों इह हेऊ। अगुणत्ता इति णेओ, दिलुतो पुण सुवण्णं च // 1161 / / शास्त्रोक्तगुणी साधु; एवंभूत एव न शेषाः- शास्त्रबाह्या नोऽस्माकं प्रतिज्ञा; पक्ष इत्यर्थः / इह न शेषा इति अत्र हेतुः-साधकः अगुणत्वादिति ज्ञेयः; तद्गुणरहितत्यादित्यर्थः / दृष्टान्तः पुनः सुवर्णमिवात्र व्यतिरेकत इति गाथार्थः। सुवर्णगुणानाह - विसघाइरसायणमं-गलत्थविणए पयाहिणावत्ते। गुरुए अङझकुत्थो, अट्ट सुवण्णे गुणा हुंति / / 1192| विषघाति सुवर्ण तथा रसायनं वयस्तम्भनं मङ्गलार्थं मङ्गलप्रयोजन विनीतं कटक्रादियोग्यतया प्रदक्षिणावर्त्तमग्नितप्तं प्रकृत्या गुरु सारतया अदाॉ सारतयैव अकथनीयमत एवमष्टौ सुवर्णे गुणाः भवन्स्यसाधारणा इति गाथार्थः / दार्धान्तिकमधिकृत्याह - इअ(इ)ह मोहविसं घायइ, विज्जुवएसा, रसायणं होइ। गुणओ अमंगलत्थं, कुणइ विणीओ अ जोग त्ति // 1193|| इति मोहविषं घातयति, केषांचिद् वैद्योपदेशात्तथा रसायन भवत्यत एव, परिणतान्मुख्यं गुणतश्च मङ्गलार्थं करोति, प्रकृत्या विनीतश्च योग्य इति कृत्वैष गाथार्थः। मग्गणुसारिपयाहिण, गंभीरो गुरु अओ तहा होइ। कोहग्गिण्णा अडज्झो, अकृत्थी सुइसीलभावेणं / / 1194|| मार्गानुसारित्वं सर्वत्र प्रदक्षिणावर्त्तता गम्भीरश्वेतसा गुरुस्तथा भवति / क्रोधाग्निनाऽदाह्यो, ज्ञेयः अकुथनीयस्सदोचितेन शीलभावेनेति गाथार्थः। एवं दिलुतगुणा, सज्झम्मि चि एत्थ हो ति णायव्वा / ण हि साहम्माभावे, पायं जं होइ दिलुतो // 1195 / / एवं दृष्टान्तगुणा विषघातित्वादयः साध्येऽप्यत्र साधार्भवन्तिज्ञातव्याः, नहि साधाभावे एकान्तेनैव प्रायो यद् यस्माद्भवति दृष्टान्त इति गाथार्थः। चउकारणपरिसुद्धं, कसछेअत्ताहतालणाए अ। जं तं विसघाइरसा-इणाए गुण संजु होइ / / 1196|| चतुष्कारणपरिशुद्धं चैतद्भवति, कषेण छेदेन तापेन ताडनया चेति, यदेवंभूतं तद्विषधातिरसायनादिगुणसंयुक्तं भवति नान्यत्परीक्षणीयमिति गाथार्थः। Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहु 803 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहु इअरम्मि कसाईआ, विसिट्ठलेसा तहेगसारत्तं / अवगारिणि अणुकंपा-बसणे अइनिचलं चित्तं // 1197 / / इतरस्मिन् साधौ कषादयो यथासंख्यमेते, यदुत-विशिष्टकषःलेश्या, तथैकसारत्वं छेदः, अपकारिण्यनुकम्पा तापः, व्यसने अतिनिश्चलं चित्तं ताडना, एषा परीक्षेति गाथार्थः / तं कसिणगुणोवेअं, होइ सुवर्ण न सेसयं जुत्ती / ण वि णामरूवमित्ते-णाएवमगुणो हवइ साहू ||1198 // तत् कृत्स्नगुणोपेतं सद्भवति सुवर्ण तात्त्विकं, न शेषकम् 'युक्तिरिति' युक्तिसुवर्णं , नापि नामरूपमात्रेण बाह्येन एवंगुणेन युक्तं सुवर्ण भवति / एवमगुणः सन्नुपेक्षणीयो भवति साधुरिति गाथार्थः / जुत्तीसुवण्णयं पुण, सुवण्णवण्णं तु जइ वि कीरित्ता(जा)। ण हु होइ तं सुवण्णं, सेसेहि गुणेहि संतेहिं ||119ll युक्तिसुवर्णकं पुनः अतात्त्विक, सुवर्णवर्णमेव यद्यपि क्रियते कथंचित्तथापि न भवति, तत्सुवर्ण-शेषैर्गुणैर्विषधातित्वादिः सद्भिरिति गाथार्थः। प्रस्तुतमधिकृत्याह - जे इह सुत्ते भणिआ, साहुगुणा तेहि होइ सो साहू / वण्णेणं जच्चसुव-प्रणयं च संते गुणणिहिम्मि // 1200|| य इह शास्त्रे भणिता मूलगुणादयः साधगुणास्तैर्भवत्यसौ साधुः वर्णेन सता जात्यसुवर्णं च सति गुणनिधौ विषघातित्वादिरूप इति गाथार्थः। दा तिकमधिकृत्याहजो साहू गुणरहिओ, भिक्खं हिंडइ ण होइ सो साहू / / वण्णेणं जुत्तिसुव-प्रणयं च ऽसंते गुणणिहिम्मि // 1201 // यः साधुर्गुणरहितः सन् भिक्षामटति न भवत्यसौ साधुः, एवं वर्णेन सता केवलेन, युक्तिसुवर्णवद् असति गुणनिधौ विषधातित्वादिरूप इति गाथार्थः। उद्दिट्टकडं मुंजइ, छकायपमहणो घरं कुणइ / पचक्खं च जलगए, जो पिअइ कहण्णु सो साहू // 1202 / / उद्दिश्य कृतं भुङ्क्ते आकुट्टिकया, षट्कायप्रमर्दनो निरपेक्षतया, गृहं करोति, देवव्याजेन प्रत्यक्षं च जलगतान् प्राणिनो यः पिबत्याकुट्टिकया एव; कथं त्वसौ साधुर्भवति; नैवेति गाथार्थः / अण्णे उ कसाईआ, किर एए इत्थ हों ति णायव्वा / एआहि परिक्खाहि, साहुपरिक्खेह कायव्वा // 1203| अन्ये त्वाचार्याः इत्थमभिदधति-कषादयः प्रागुक्ताः किल एते / उद्दिष्टभोक्तृत्वादयः अत्र-साध्वधिकारे भवन्ति-ज्ञातव्वा यथाक्रमम्। किमुक्तं भवति-एताभिः परीक्षाभिर्भावसाराभिः साधुपरीक्षा इह-- साधुप्रक्रमे कर्तव्येति गाथार्थः / निगमयन्नातम्हा जे इह सत्थे, साहुगुणा तेहि होइ सो साहु / अचंतसुपरिसुद्धेहिं, मोक्खसिद्धि त्ति काऊणं // 1204 / / तस्माद्य इह शास्त्र भणिताः साधुगुणाः प्रतिदिनक्रियादयस्तैः करणभूतैर्भवत्यसो भावसाधुः, नान्यथा / अत्यन्तसुपरि-शुद्धेस्तैरपि न द्रव्यमात्ररूपैर्मोक्षसिद्धिरिति कृत्वा भावमन्तरेण तदनुपपत्तेरिति गाथार्थः। पं०व०४ द्वार। कृत्स्न-संयमप्रधानविदुषि, प्रति०। नि० चू०। ज्ञानादीनि साधयतीति साधुः / साधयति शान्तिमिति साधु / दश० 1 अ० / आचार्या विशिष्टाः सूत्रार्थदेशका अपरे तूपाध्यायाः सूत्रपाठकाः, अन्येत्वेतद्विशिष्टाः सामान्यसाधव एवेति / विशे० / सकललोकाविगीते शिष्टाचाररते, ध० 1 अधि०। जिअलोअबंधुलोआ, सॉहूँ सिंधुणो पारगा महाभागा / नाणाइएहि सिवसु-क्खसाहगा साहुणो सरणं / द०प०। "नैवास्ति राजराज-स्य तत्सुखं नैव देवराजस्य / यत्सुखमिहैव साधो-र्लोकव्यवहाररहितस्ये" ति। स्था०१० ठा०३ उ01 विहरंता दुविधा गच्छवासिणो, गच्छणिग्गता य / गच्छवासिणो उदुबद्धे मासे न विहरंति, गच्छणिग्गता जिणकप्पिया पडिवण्णगा अहालंदिया सुद्धपरिहारिया या नि० चू०२० उ०। आव०। आलयविहारभाषाचड्क्रमणस्थानबिनयकर्मभिर्जायते यथैष साधुरिति / दर्श० 4 तत्त्व / साधूणं पडिचोयणकोहणादाहिं कम्मबंधणे त्ति इच्चेवमादि। आ० चू०४ अ०। सामन्नविसेसोमय-भेया वत्तव्वया बहुविह ति। अहवा नामाईणं, इच्छइ को के नओ साहुं // 3568|| सोउं सहहिऊण य, नाऊण य तं जिणोवएसेणं / तं सव्वनयविसुद्धं, ति सव्वनयसम्मयं जं तु // 3566 चरणगुणसुहिओ होइ, साहू एस किरियानओ नाम / चरणगुणसुट्टियं जं, चरणनया बिति साहु त्ति // 3600 / सो जेण भावसाहू, सध्वनया जं च भावमिच्छंति / नाण-किरियानओभय-जुत्तो य जओ सया साहू // 3601 / / एता अपि गतार्थाः, नवरं 'अहवा नामाईणमित्यादि' अथवा, नामस्थापना-द्रव्य-भावसाधूनां मध्ये को नयः कं साधुमिच्छति ? इत्यादिकां वक्तव्यतां श्रुत्वा श्रद्धाय ज्ञात्वा चावबुध्येत्यर्थः / 'एस किरियानओ नाम' ति एष ज्ञानाविनाभूतक्रियालक्षणो नयोनीतिपक्षः; स्थितपक्ष इत्यर्थः, यस्माचरणनयाश्चरणवृत्तयः परममुनयश्वरणगुणसुस्थितमेव साधु ब्रुवते, नापरं, स च येन यस्माद् भावसाधुरिह गृह्यते / सर्वनयाश्च यस्माद् भावसाधुमिच्छन्ति, ज्ञानक्रियानयोभयुक्तश्च यतः सर्वदैव भावसाधुरुच्यते, तस्माज्ज्ञानक्रियासुस्थितः साधुरित्ययं सम्यक्पक्ष इति / विशे०। इदानीं योऽसौ आचार्यादीनां वैयावृत्त्यकरः श्राद्धकुलेषु प्रविशति स एभिर्दोषविरहितो नियाक्तव्यः--- अलसं घसिरं सुविरं, खमगं कोहॅमाणमायलोहिल्लं / कोहलपडिबद्धं, वेयावचं न कारिज्जा ।।१३३।।(भां०) अलसो--आलसितो सो वेयावचं न कारेयव्वो, जदि कारवे असमाचारी, सो आलस्सेण ताव अच्छइजाव फिडिओ देसकालो, ताहे पच्छा सड्याणि जं किंचि देति तेण आयरिआईणं विराहणा! अहवा सो अइप्पए वच्चइ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहु 804 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहुसामग्गी कम्मं निव्वाहि होउ ति, ताहे तत्थ अकाले वचंतस्स तस्स ते चेव | साहुदासी-स्त्री०(साधुदासी) मथुरानगरीवास्तव्यस्य जिनदासस्य दोसा / अथवा ताणि धम्मसड्डियआ ओसक्कणदोसे उस्सकणदोसे वा श्रावकस्य भार्यायाम्, आ० चू० 1 अ० / कल्प० / करेज्जा ठवियगदोसा वा / अहवा आयरियाणं निमित्तं पए वा उस्सूरे | साहुधम्म-पु०(साधुधर्म) श्रमणसंबन्धिचारित्रधर्मे, पञ्चा० 11 विव० / उवक्खडेजा, एते एवमाइया अलसे दोसा / घसिरो-बहुभक्खगो, (सच क्षान्त्यादिको दशविधः 'अणगारधम्म' शब्दे प्रथमभागे 276 सोवि ण पट्टवेयव्वो, सो पढमं चेव अप्पणो अट्ठाए हिंडइ गज्जत्तं, जाव पृष्ठे दर्शितः।) सो अप्पणो पजत्तं हिंडइ ताव फिडिआ वेला / अहवा तत्थेव पढम साहुभाव-पुं०(साधुभाव) मालवदेशमण्डले 1185 संवत्सरे श्रीनेमि. वचइ पच्छा तत्थ य ण चेव वेला होइ, ते चेवोस्सकणादिआ दोसा नाथस्य मन्दिरनिर्माणकारके, स्वनामख्याते गृहपतौ, ती० 4 कल्प० / अहवा तत्थ सङ्घकुले पभूयं गेण्हइ ताहे उग्गमदोसा न सुज्झंति / सुविरो ताव सुवइ जाव फिडिआ भिक्खावेला। अहवा पढमं तत्थ गंतुं साहुमग्ग-पुं०(साधुमार्ग) मुनिपथे, ठा० 1 अधिका अवेलाए पच्छा सुयइते चेव दोसा / खमओ जइ अप्पणो हिंडइ ताहे साहुमाइ-पुं०(साध्वादि) निर्ग्रन्थशक्यादौ, पञ्चा० 13 विव० / आयरिआ परितावणादि पावंति / अह खमओ आयरिआणं गेण्हइ साहुमाणि(ण)-त्रि०(साधुमानिन) आत्मोत्कर्षायाऽसदनुष्ठानमानिनि, ततो अप्पणो परितावणादि पावइ / कोहिल्लो पुव्वलाभाओ फिडितो सूत्र०१ श्रु० 13 अ०। सकोहिओ संतो भणइअम्हे अण्णतो लभामः, तं पि तुज्झ पचएण न साहुया-स्त्री०(साधुता) साधुभावे, उत्त० 2 अ०। गेण्हामो, अहवा थेवं लब्भइ तत्थ भंडइ, अहवा ऊणं पाणेण वा तेमणेण वा तत्थ वि रूसति / माणिओ जइ न अब्भुट्ठिजति तो पुणो साहुरंग-पुं०(साधुरंग) जिनचन्द्रसूरिशिष्यपुण्यप्रधानशिष्यसुमतिन एइ० को विसेसो सावगाणं ति ? माइल्लो भद्दगं अप्पसागरि# सागरशिष्यविद्याविशारदशिष्ये, अष्ट० 32 अष्ट० / भोचा पंतं आणेति। लोभिल्लो जत्तिअंलभति तं सव्वं गेहति, एसणं साहुरक्खिय-पुं०(साधुरक्षित) स्वनामख्याते स्थविरे, एष मित्रवाचक. वा लोभेणं पेल्लेज्जा / कोऊहल्लिलो जत्थ नडादि पेच्छइ तत्थ क्षमाश्रमणानामादेशः / साधुरक्षितक्षमाश्रमणाः पुनरेवं बुवते / व्य० पेच्छंतो अच्छइ / पडिबद्धो जो सुत्तत्थेसु अल्लिओ तो सो ताव 1 उ०। अच्छइ जाव कालवेला जाया। एए दोसा तम्हा एरिसं साहुं वेयावच्चं साहुरयण-पुं०(साधुरत्न) सोमसुन्दरगुरूणां शिष्ये, ग० 3 अधि० / न कारेजा / ओघ०। सका येन सोमप्रभसूरिविरचितयतिजीतकल्पस्य वृत्तिः कृता / पञ्चा० साहुकार-पुं०(साधुकार) साधु कृतं तत्सुष्टु कृतमिति विद्वद्भ्यः 1 विव०| प्रशंसायाम्, आ० भ०१ अ० / पिं० / नं०। साहुली स्त्री०-(देशी) वृक्षशाखायाम् नि० चू० 1 उ०॥ साहुजणाचरिय-न०(साधुजनाचरित) साधुजनैरासेविते, प्रश्न० 4 | साहुलूसय-त्रि०(साधुलूषक) साधुमोषके, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। संव० द्वार। साहुवग्ग-पुं०(साधुवर्ग) साधूनां वृन्दे, ठा० 1 अधि०। साहुजीवि(ण)-पुं०(साधुजीविन्) साधु-शोभनं परोपकारपूर्वकं जीवितुं साहुवयण-न०(साधुवचन) असत्यसत्यामृषावचनपरित्यागे, संथा०। शीलमस्य स साधुजीवी / सूत्र० 2 श्रु०५ अ०साधुना विधिना उद्घाटापौरुषीत्यादिके विभ्रमकारिणि, ध० 2 अधि० / जीवितुं शीलं यस्य स साधुजीवी। सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ० ! सूत्रोक्ते साहुवसण-न०(साधुव्यसन) दुष्टराज्यादिजनितायां शिष्टजनानामाअमणव्यापारे, पं० व०२ द्वार / पदि, नि० चू०६ उ०। साहुजोणिय-पुं०(साधुयोनिक) साधुपक्षके, नि० चू० 1 उ० / साहुवाय-पुं०(साधुवाद) वर्णवादे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। आ० साहुणिक्खेवण-न०(साधुनिक्षेपण) साधर्मिकाणामशिवा-दिकारणै म० / द्वी०। निक्षिप्तधारक, नि० चू० 15 उ०।। साहुसक्खिय-न०(साधुसाक्षिक) साधवो-मुनयस्ते सातिशयज्ञानवन्त साहुणी-स्वी०(साध्वी) रत्नत्रयधारिण्यां श्रमण्याम्, ध०२ अधि० / इतरे वा विरतिप्रतिपत्तिसमकालसमयसमीपवर्तिनः साक्षिणो यत्र तपस्विन्याम्, पञ्चा०२ विव० / आ० चू० / तथा साध्वी श्राद्धानामग्रे तत्तथा / साधून साक्षिणः कृत्वा कृते, पा०। व्याख्यानं न करोतीत्यक्षराणि कुत्र ग्रन्थे सन्तीति। अत्र दशवैकालिक साहुसचेट्टा-स्त्री०(साधुसन्चेष्टा) साधूनां विनयादिरूपायां सचेष्टायाम्, वृत्तिप्रमुखग्रन्थमध्ये यतिः केवलश्राद्धी सभाग्रे व्याख्यानं न करोति षो० 12 विव०॥ रागहेतुत्वादित्युक्तमस्ति, एतदनुसारेण साध्व्यपि केवलश्राद्ध सभाग्रे व्याख्यानं न करोति रागहेतुत्वादिति ज्ञायते / ही० 3 प्रका० / साहुसमिक्खा-स्त्री०(साधुसमीक्षा) साध्वी चासौ समीक्षा च साधु समीक्षा / यथावस्थिततत्त्वपरिच्छित्तौ, समतायाञ्च / सूत्र०१ श्रु० साहुदंसण-न०(साधुदर्शन) मुनिजनावलोकने, पञ्चा० 7 विव० / 6 अ०। साहुदंसणभाव-पुं०(साधुदर्शनभाव) मुनिजनावलोकनाध्यवसाये० / साहुसामग्गी-स्त्री०(साधुसामग्री) साधूनां ज्ञानादिरूपायां सामध्याम, पञ्चा०७ विव०। द्वा०1 Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहुसामग्गी 805 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सासाहुमग्गी जिनभक्तिप्रतिपादनानन्तरं तत्साध्यं सामग्यमाहज्ञानेन ज्ञानिभावः स्या-द्विाभावश्च भिक्षया। वैराग्येण विरक्तत्वं, संयतस्य महात्मनः / / 1 / / ज्ञानेनेति-व्यक्तः। विषयप्रतिभासाख्यं, तथात्मपरिणामवत् / तत्त्वसंवदेनं चेति, त्रिधा ज्ञानं प्रकीर्तितम् // 2 // तत्त्वं परमार्थस्तत्सम्यक्प्रवृत्ताद्युपहितत्वेन वेद्यते यस्मिंस्तथ्य / तत्त्वपदेन मिथ्याज्ञाननिवृत्तिः तद्विषयस्येतरांशनिषेधावच्छिन्नत्वेनातत्त्वत्वात्, सम्यक्पदेनाविरतसम्यग्दृष्टिज्ञानेन निवृत्तिः, तस्या ज्ञानाज्ञानसाधारणप्रतिभासत्वप्रयोज्यविषयप्रवृत्त्याधुपहितत्वेऽपि ज्ञानत्वप्रयोज्यविरतिप्रवृत्त्या-धुपहितत्वाभावादिति। इत्यमुना प्रकारेण त्रिधा ज्ञानं प्रकीर्तित-म् / तदाह- "विषयप्रतिभासं चात्मपरिणतिमत्तथा / तत्त्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुमहर्षयः // 1 // " (आत्मपरिणतिविषयः 'आतपरिणइ' शब्दे द्वितीयभागे 160 पृष्ठे गतः / ) आधं मिथ्यादृशां मुग्ध-रत्नादिप्रतिभासवत् / अज्ञानावरणापाया-ग्राह्यत्वाद्यविनियश्चम् // 3 // आद्यमिति-आद्यं विषयप्रतिभासज्ञानं मिथ्यादृशामेव मुग्धस्याज्ञस्य रत्नप्रतिभासादिवत् तत्तुल्यम्। तदाह-"विषकण्टकरत्नादौ बालादिप्रतिभासवत्" इति। अज्ञानं मत्यज्ञानादिकं तदावरणं यत्कर्म तस्यापायः क्षयोपशमस्त-स्मात् / तदाह- "अज्ञानावरणापायाम्” इति / ग्राह्यत्वादीनामुपादेयत्वादीनामविनिश्चयोऽनिर्णयो यतस्तत् / तदाह"तद्वेयत्वाद्यवेदकम्' इति / यद्यपि मिथ्यादृशामपि घटादिज्ञानेन घटादिग्राह्यता निश्चीयत एव, तथापि स्वविषयत्वावच्छेदेन तदनिश्चयान्न दोषः, स्वसंवेद्यस्य स्वस्यैव तदनिश्चयात्।। भिन्नग्रन्थेर्दितीयं तु, ज्ञानावरणभेदजम् / श्रद्धावत्प्रतिबन्धेऽपि, कर्मणा सुखदुःखयुक् ||4|| भिन्नग्रन्थेरिति-भिन्नग्रन्थेः सम्यग्दृशस्तु द्वितीयमात्मपरिणामवत् ज्ञानावरणस्य भेदः-क्षयोपशमस्तञ्जम् / तदाह- "ज्ञानावरणहासोत्थम्" इति / श्रद्धावत् वस्तुगुणदोषपरिज्ञानपूर्वकचारित्रेच्छान्वितम्, प्रतिबन्धेऽपि चारित्रमोहोदयजनितान्तराललक्षणो सति कर्मणा पूर्वाजितेन / सुखदुःखयुक्-सुखदुः खान्वितम् / तदाह- "पातादिपरतन्त्रस्य तद्दोषादावसंशयम् / अनर्थाद्याप्तियुक्तं च, आत्मपरिणतिमन्मतम् // 1 // " स्वस्थवृत्तेस्तृतीयं तु, सज्ज्ञानावरणव्ययात् / साधोर्विरत्यवच्छिन्न-मविलेन फलप्रदम् // / / स्वस्थेति-स्वस्थाऽनाकुला वृत्तिः कायादिव्यापाररूपा यस्य तस्य साधोः तृतीयम्, विरतिः सदसत्प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मिका तयाऽवच्छिन्नमपहितम् / अधि न-विघ्राभावेन, फलप्रदम् / तदाह- "स्वस्थवृत्तेः प्रशान्तस्य तद्धेयत्वादिनिश्चयम् / तत्त्वसंवेदनं सम्यग् यथाशक्ति फलप्रदम् // 1 // " इदं च सज्ज्ञानावरणस्य व्ययात्-क्षयोपशमात् प्रादुर्भवति / तदाह"सज्ज्ञानावरणापायम्" इति / निष्कम्पा च सकम्पा च, प्रवृत्तिः पापकर्मणि। निरवद्या च सेत्याहु-लिङ्गान्यत्र यथाक्रमम् // 6 // निष्कम्पा चेति- अत्रोक्तेषु त्रिषु भेदेष्वज्ञानसज्ज्ञानत्वेन फलितेषु यथाक्रमं पापकर्मणि निष्कम्पा दृढा प्रवृत्तिः, सकम्पा चादृढा निरवद्या च सा प्रवृत्तिरिति, लिङ्गान्याहुः / तदुक्तम्- “निरपेक्षप्रवृत्त्यादि लिङ्गमेतदुदाहृतम्।" तथा- "तथाविधप्रवृत्त्यादिव्यङ्गय सदनुबन्धि च" तथा- "न्याय्यादौ शुद्धवृत्त्यादिगम्यमेतत्प्रकीर्तितम्।" इति / ननु क्वैतानि लिङ्गान्युपयुम्यन्ते इत्यत आहजातिभेदानुमानाय, व्यक्तीनां वेदनात् स्वतः। तेन कर्मान्तरात् कार्य- भेदेऽप्येतद्विदाऽक्षता // 7 // जातीति-जातिभेदस्य-निष्कम्पपापप्रवृत्त्यादिजनकतावच्छेदकस्याज्ञानादिगतस्य अनुमानाय उक्तानि लिङ्गानीति संबन्धः / व्यक्तीनाम्अज्ञानादिव्यक्तीनां स्वतोलिङ्ग नैरपेक्ष्येणैव वेदनात्-परिज्ञानात्, तेन कर्मान्तरात्-चारित्रमोहादिरूपादुदयक्षयोपशमावस्थानावस्थितात् / कार्यभेदेऽपिसावधानवद्यप्रवृत्तिवैचित्र्येऽपि / तद्भिदा अज्ञानादिभिदाऽक्षता / प्रवृत्तिसामान्य ज्ञानस्य हेतुत्वात्त द्वैचित्र्येणैव तद्वैचित्र्यो पपत्तेः। प्रवृत्तौ कर्मविशेषप्रतिबन्धकत्वस्यापि हेतुविशेषविद्यटनं विनाऽयोगात्। वस्तुतः कार्यस्वभावभेदे कारणस्वभावभेदः सर्वत्राप्यावश्यकः, अन्यथा हेत्वन्तरसमवधानस्याप्यकिचित्करत्वादिति विवेचितमन्यत्र / योगादेवान्त्यबोधस्य, साधुः सामर,यमश्नुते / अन्यथा कर्षगामी स्यात्, पतितो वा न संशयः / / 8 / / योगादिति-अन्त्यबोधस्य-तत्त्वसंवेदनस्य योगादेवसंस्काररूपसंबन्धादेव साधुः सामायं-पूर्णभावमश्नुते / अन्यथा तत्त्वज्ञानसंस्काराभावे पुनर्योगशक्त्यनुवृत्तौ शङ्काकासादिना कर्षगामी वा स्यात्, तदनुवृत्तौ च पतितो वा न संशयोऽत्र कश्चित्, बाह्यलिङ्गस्याकारणत्वात्। (द्वा०) (भिक्षाविषयः 'गोयरचरिया' शब्दे तृतीयेभागे 1007 पृष्ठे गतः।) स्वोचिते तु तदारम्भ, निष्ठिते नाविशुद्धिमत् / तदर्थकृतिनिष्ठाभ्यां, चतुर्भङ्ग्यां द्वयोर्ग्रहात् // 17 // स्वोचिते-इति स्वोचितेतुस्वशरीरकुटुम्बादेर्योग्ये तु आरम्भे पाकप्रयत्ने निष्ठिने चरमेन्धनप्रक्षेपेणौदनसिद्ध्यु पहिते। तत् स्वभोग्यातिरिक्तपाकशून्यया संकल्पकं स्वार्थ-मुपकल्पितमन्नम् "इतो मुनीनामुचितेन दानेनात्मानं कृतार्थयिष्यामि'' इत्याकारं नाविशुद्धिमत् न दोषान्वितं तदर्थं कृतिराद्यपाकः, निष्ठा च चरमः पाकः, ताभ्यां निष्पन्नायां चतुर्भग्यांतदर्थ कृतिस्तदर्थं निष्ठा, अन्यार्थं कृतिस्तदर्थं निष्ठा, तदर्थ कृतिरन्यार्थ निष्ठा, अन्यार्थं कृतिरन्यार्थच निष्ठा, इत्येवंरूपायांद्वयोर्भङ्गयोर्ग्रहाच्छुद्वत्वेनोपादानात्। तदुक्तम्-"तस्स कडं तस्स निद्वियं चउभंगो तत्थ दुचरिमा सुद्धा" / यदि च साध्यर्थं पृथिव्याद्यारम्भप्रयोजकशुभसंकल्पनमपि गृहिणो दुष्ट स्यात्तदा साधुवन्दनादियोगोऽपि तथा स्यादिति न Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहुसामग्गी 806 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 साहुसामग्गी किंचिदेतत् / तदिदशुक्तं- "स्वोचिते तु यदारम्भे, तथा संकल्पनं क्वचित् / न दृष्टं शुभभावत्वात्तच्छुद्धापरयोगवत् // 1 // " प्राय एवमलाभः स्या-दिति चेद्रहुधाऽप्ययम्। संभवीत्यत एवोक्तों, यतिधर्मोऽतिदुष्करः // 18|| प्राय इति- एवमसंकल्पितस्यैव पिण्डस्य ग्राह्यत्वे प्रायोऽलाभः स्यात्-शुद्धपिण्डाप्राप्तिः स्यात्, इति चेत् बहुधाऽपिसंकल्पातिरि.. तैर्बहुभिरपि प्रकारैः शङ्कितम्रक्षितादिभिरयमलाभः संभवी / अथवाएवं प्रायोऽसंकल्पितस्यालाभः स्थादिति चेद्रहुधाऽप्ययमसंकल्पितस्य लाभः संभवि। अदित्सूनां भिक्षूणामभावेऽपि च बहूनांपाकस्योपलब्धेः। तथापि तद्वृत्तेर्दुष्करत्वात्तत्प्रणेतुरनाप्तता स्यादित्यत आहइत्यत एव यतिधर्मो मूलोत्तरगुणसमुदायरूपोऽति दुष्करः उक्तः / अतिदुर्लभं मोक्षं प्रति अतिदुष्करस्यैव धर्मस्य हेतुत्वात्, कार्यानुरूपकारणवचनेनैवाप्तसिद्धेः। संकल्पितस्य गृहिणा, त्रिधा शुद्धिमतो ग्रहे / को दोष इति चेज्ज्ञाते, प्रसङ्गात्पापवृद्धितः ||16|| संकल्पितस्येति-गृहिणा-गृहस्थेन संकल्पितस्ययत्थर्थ प्रतिदित्सितस्य त्रिधा शुद्धिमतो-मनोवाक्कायशुद्धस्य साधोहेग्रहणे को दोषः / आरम्भप्रत्याख्यानस्य लेशतोऽप्यव्याघातादिति चेत्, ज्ञाते--"मदर्थ कृतोऽयं पिण्डः" इति ज्ञाते सति तद्ग्रहणे प्रसङ्गात्, गृहिणः पुनः तथाप्रवृत्तिलक्षणात् पापवृद्धितः तन्निमित्तभावस्य परिहार्थत्वात् / यत्यर्थं गृहिणचेष्टा, प्राण्यारम्भप्रयोजिका। यतेस्तद्वर्जनोपाय-हीन सामग्न्यघातिनी // 20 // यत्यर्थमिति-यत्यर्थ गृहिणः प्राण्यारम्भप्रयोजिका चेष्टा निष्ठितक्रिया। तद्वर्जनोपायैराधाकर्मिककुलपरित्यागादिलक्षणींना सती यतेः सामग्यघातिनी गुणश्रेणिहानिकी / वैराग्यं च स्मृतं दुःख-मोहज्ञानान्वितं त्रिधा। आर्तध्यानाख्यमाचं स्या-द्यथाशक्त्यप्रवृत्तितः // 21|| वैराग्यं चेति-दुःखान्वितं मोहान्वितं ज्ञानान्वितं चेति त्रिधा वैराग्यं स्मृतम् / आद्यं दुःखान्वितं आर्तध्यानाख्यम् स्यात् / यथाशक्तिशक्त्यनुसारेण मुक्त्युपायेऽप्रवृत्तितः / तात्त्विकं तु वैराग्यं शक्तिमतिक्रम्यापि श्रद्धातिशयेन प्रवृत्तिं जनयेदिति। अनिच्छा पत्र संसारे, स्वेच्छालाभादनुत्कटा। नैर्गुण्यदृष्टिजं देष, विना चित्ताङ्गखेदकृत् // 22 // अनिच्छेति-अत्र हि वैराग्ये सति संसारे-विषयसुखे अनिच्छा-- इच्छाभावलक्षणा आत्मपरिणतिः नैर्गुण्यदृष्टिजं संसारस्य बलवदनिष्टसाधनत्वप्रतिसन्धानजम् द्वेषं विनाऽनुत्कटा। अत एव चित्ताङ्गयोः खेदकृत्-मानसशरीरदुःखोत्पादिका / इच्छाविच्छेदो हि द्विधा स्यात् अलभ्यविषयत्वज्ञानाद् द्वेषाद आद्य इष्टाप्राप्तिज्ञानाद् दुःखजनकः, अन्त्यश्च न तथेति। एकान्तात्मग्रहोद्भूत-भवनैर्गुण्यदर्शनात् / शान्तस्यापि द्वितीयं स-जवरानुद्भसन्निभम् // 23 // __ एकान्तेति-एकान्तः सर्वथा सन् क्षयी वा य आत्मा तस्य ग्रहादुत्पन्नं यद्भवनैर्गुण्यदर्शनं ततः शान्तस्यापि प्रशमवतोऽपि लोकदृष्ट्या, द्वितीयं मोहान्वितं वैराग्यं भवति। एतच सन् शक्त्यावस्थितो यो ज्वरस्तस्यानुदयो वेलाप्राक्काललक्षणस्तत्सन्निभं तेषां भवेत् / द्वेषजनितस्य वैराग्यस्योत्कटत्वेऽपि मिथ्याज्ञानवासनाऽविच्छेदोदपायप्रतिपातशक्तिसमन्वितत्वात्। स्याद्वादविद्यया ज्ञात्वा, बद्धानां कष्टमङ्गिनाम् / तृतीयं भवभीमाजां, मोक्षोपायप्रवृद्धिमत् // 25 // स्याद्वादेति-स्याद्वादस्य सकलनयसमूहात्मकवचनस्य विद्यया बद्धानामङ्गिनां कष्टं दुःखं ज्ञात्वा भवभीभाजां संसारभयवतां तृतीयं ज्ञानान्वितं वैराग्यं भवति / तच मोक्षोपायेत्रिरत्नसाम्राज्यलक्षणे प्रवृत्तिमत् -प्रकृष्टवृत्त्युपरितम् / सामग्र्यं स्यादनेनैव, द्वयोस्तु स्वोपमर्दतः। अत्राङ्गत्वं कदाचित्स्या-द्गुणवत्पारतन्त्र्यतः // 25 // सामग्यमिति-अनेनैव-ज्ञानान्वितवैराग्येणैव सामरयं सर्वथा दुःखोच्छेदलक्षणं स्यात्, ज्ञानसहितवैराग्यस्यापायशक्तिप्रतिबन्धकत्वात्। द्वयोस्तु-दुःखमोहान्वितवैराग्ययोः स्वोपमर्दतः-स्वविनाशद्वारा अत्र-- ज्ञानान्वितवैराग्येऽङ्गत्वमुपकारकत्वम् कदाचिच्छुमोदयदशायां स्यात्। गुणवतः पारतन्त्र्यम्-आज्ञावशवृत्तित्वं ततः ज्ञानवत्पारतन्त्र्यस्थापि फलतो ज्ञानत्वात्। ननु गुणवत्पारतन्त्र्यं विनाऽपि भावशुद्ध्या वैराग्य साफल्यं भविष्यतीत्यत आहमावशुद्धिरपि न्याय्या, न मार्गाननुसारिणी। अप्रज्ञाप्यप्य बालस्य, विनैतत्स्वाग्रहात्मिका // 26|| भावेति-भावशुद्धिरपि यमनियमादिना मनसोऽसंक्तिश्यमानताऽपि। एतत् गुणवत्पारतन्त्र्यं विना अप्रज्ञाप्यस्यगीतार्थो-पदेशावधारणयोग्यतारहितस्य बालस्य-अज्ञानिनः स्वाग्रहात्मिका-शास्त्रश्रद्धाधिकस्वकल्पनाभिनिवेशमयी मार्गोविशिष्टगुणस्थानावाप्तिमवणः स्वरसवाहीजीवपरिणामस्तदननुसारिणी न न्याय्या। यदाह "भावशुद्धिरपि ज्ञेया, यैषा मार्गानुसारिणी। प्रज्ञापनाप्रियाऽत्यर्थ, न पुनः स्वाग्रहात्मिका ||1|| रागो देषश्च मोहच, भावमालिन्यहेतवः / एतदुत्कर्षतो शेयो, हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः // 2 // तथोत्कृष्ट जगत्यस्मिन्, शुद्धिर्व शब्दमात्रकम् / स्वबुद्धि कल्पनाशिल्पि-निर्मितं स्वार्थवद्भवेत् // 3 // मोहानुत्कर्षकृत-दत एवापि शास्ववित् / क्षमाश्रमणहस्तेने-त्याह सर्वषु कर्मसु // 27 // मोहेति एतद्-गुणवत्पारतन्त्र्यं च मोहानुत्कर्षकृत् स्वाग्रहहेतुमोहापकषनिबन्धनम् / तदाह-"न मोहाद्रिक्तताभावे, स्वाग्रहो जायते क्वचित् / गुणवत्पारतन्त्र्यं हि, तदनुत्कर्षसाधनम् // 1 // " अत एव गुणवत्पारतन्त्र्यस्य मोहानुत्कर्षत्त्वादेवशास्त्रविदपि आगमज्ञोऽपि सर्वेषु कर्मसुदीक्षादानोद्देशसमुद्देशादिषु क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह / इत्थ Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहुसामग्गी 507- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिंगार मभिलापस्य भावतो गुरुपारतन्त्र्यहेतुत्वात् तस्य च मोहापकर्षद्वारा- सिउंठा-स्त्री०(असिकुण्ठा) साधारणशरीरवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। ऽतिचारशोधकत्वात् / तदाह- "अत एवागमज्ञोऽपि, दीक्षादानादिषु | जी०। ध्रुवम् / क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याहसर्वेषु कर्मसु // 1 // " सिं-एतस्य-एतद्-डस्"वेदंतदेतदोडसाऽऽम्भ्यां सेसिमी, / / 8 / 3 / 81|| यस्तु नान्यगुणान् वेद, न वा स्वगुणदोषवित् / इति आमा सहितस्य एतस्य स्थाने सिमादेशः / सिं गुणा। सिं सीलं / स एवैतन्नाद्रियते, न त्वासन्नमहोदयः // 28 // तेषां शीलम् / प्रा०३ पाद। यस्त्विति- व्यक्तः। सिंग-न०(शृङ्ग) "मसृणमृगाङ्कतृत्युशृङ्गधृष्ट वा" ||8/1 / 130 / / इति गुणवदहुमानाधः, कुर्यात्प्रवचनोन्नतिम् / ऋत उत्त्वम् / प्रव० / विषाणे, विशे० अनु०। आचा० आ० चू०। अन्येषां दर्शनोत्पत्ते-स्तस्य स्यादुन्नतिः परा // 26 // प्रश्न०। आ० म०। गुणवदिति-गुणवतां-ज्ञानादिगुणशालिनां बहुमानात् यः प्रवचन | सिंगक्खोड-न०(शृङ्गोट) शृङ्गप्रदेशे, ध०३ अधि० / ओघ०। स्योन्नति- बहुजनश्लाघां कुर्यात् तस्य स्वतोऽन्येषां दर्शनोत्पत्तेः सिंगणाइय-न०(शृङ्गनादित) सर्वेषु कार्येषु शृङ्गभूते कार्ये, "कज्जेसु परा-तीर्थकरत्वादिलक्षणा उन्नतिः स्यात्। कारणानुरूपत्वात्कार्यस्य। | सिंगभूतं कजं तु सिंगणाइयं होइ'' | पं० भा० 3 कल्प०। 60 / तदाह- "यस्तून्नतौ यथाशक्ति, सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् / अन्येषां | पं० चू०।। प्रतिपद्येह, तदेवाप्नोत्यनुत्तमम् / / 1 / / प्रक्षीणतीव्रसंक्लेशं, प्रशमादि- | सिंगधम-त्रि०(शृङ्गधम) शृङ्ग धमति शृङ्गधमः / शृङ्गवादके, 'सिंग गुणान्वितम् / निमित्तं सर्वसौख्यानां, तथा सिद्धिसुखावहम् / / 2 / / " धमति / अण्णया वा तेणोवासेण चोरा गावीओ हरंति तेण समावतिए यस्तु शासनमालिन्ये-ऽनाभोगेनापि वर्तते / धंतं चोरओ कुट्ठो आगओ' त्ति / नि० चू० 1 उ० / बध्नाति स तु मिथ्यात्वं, महानर्थनिबन्धनम् // 30 // | सिंगपाय-न०(शृङ्गपात्र) शृङ्गमये पात्रे, आचा० 2 श्रु०१ चू० 6 अ० यस्त्विति-यस्तु शासनमालिन्ये-लोकविरुद्धगुणवन्निन्दादिना प्रवचनोपघाते अनाभोगेनाप्यज्ञानेनापि वर्तते. स तु शासनमालिन्यो- | सिंगमेय-पुं०(शृङ्गभेद) महिषादिविषाणच्छेदे, ज्ञा० 1 श्रु०२ अ०। त्पादनावसर एव मिथ्यात्वोदयात् महानर्थनिबन्धन-दुरन्तसंसारका- | विषाणविशेषे च / ओघ०। न्तारपरिभ्रमणकारणं मिथ्यात्वं बध्नाति / यदाह- "यः शासनस्य | सिंगमाल-पं० पङमाल) दमजातिविशेषे. जं०२ वक्ष० / मालिन्येऽनाभोगेनापि वर्तते / स तन्मिथ्यात्वहेतुत्यादन्येषां प्राणिनां सिंगरीडी-स्त्री०(शृङ्गरीटी) चतुरिन्द्रियजीवभेदे, उत्त० 36 अ०! ध्रुवम् // 1 // बध्नात्यपि तदेवालं, परं संसारकारणम् / विपाकदारुणं घोरं, सर्वानर्थनिबन्धनम् / / 2 / / " सिंगवंदण-न०(शृङ्गवन्दन) शृङ्गेन उत्तभाडैकदेशेन वन्दनम् इति शृङ्गवन्दनम्। शिरसा वन्दने, आव० 3 अ०। आ० म० / आ० चू० / स्वेच्छाचारे च बालानां, मालिन्यं मार्गबाधया। "सिंग पुण कुंभगणिवातो'' कुम्भकशब्देनेह ललाटमुच्यते तस्य गुणानां तेन सामग्न्यं, गुणवत्पारतन्त्र्यतः // 31 / / वामपार्श्वयोर्निपातो हस्ताभ्यां स्पर्शनं तद्युक्तं वन्दनं शृङ्गमुच्यते / स्वेच्छेति-बालानाम्-अज्ञानिनां स्वेच्छाचारे च सति / मार्गस्य एतदुक्तं भवति-अहो कायं इत्याद्यावर्तान् कुर्वन् कराभ्यां ललाटस्य बाधया "अप्रधानपुरुषोऽयं जैनानां मार्ग'' इत्येवं जनप्रवादरूपया मध्यदेशं स्पृशति / किं तु वामपार्श्व दक्षिणपाल वा न स्पृशतीति / मालिन्यं भवति मार्गस्य / तेन हेतुना गुणवत्पारतन्त्र्यत एव गुणानां बृ०३ उ०। ज्ञानादीनां सामग्यं पूर्णत्वं भवति। सिंगवेर-न०(शृङ्गवेर) आर्द्रके, उत्त० 36 अ० सूत्र० / जी० / इत्थं विज्ञाय मतिमान, यतिीतार्थसङ्गकृत् / प्रज्ञा०। आचा०। विधा शुद्ध्याचरन् धर्म, परमानन्दमश्नुते // 32 // सिंगार-पुं०(शृङ्गार) कृपादित्वादित्त्वम्। प्रा०१पाद। शृङ्ग सर्वरसेभ्यः इत्थमिति-स्पष्टः / इति साधुसामा यद्वात्रिंशिका / दा० 26 द्वा०। परमप्रकर्षकोटिलक्षणमियर्ति-गच्छतीति। कमनीय-कामिनीदर्शनादिसाहेमाण-त्रि०(साधयत्) प्रतिपादयति, ज्ञा० 1 श्रु० 13 अ० / संभवे रतिप्रकर्षात्मके सर्वरसप्रधाने रसविशेषे, अनु०। नि० चू०। शृङ्गाररसं लक्षणतस्त्वाहसाहेल्लता-न०(साहित्य) सहिततायाम्, दशा० 4 अ० ! सिंगारो नाम रसो, रतिसंजोगामिलाससंजणणो / साहोहासिय न०(साध्ववभाषित) संयतेन याचिते, पञ्चा० 13 विव०।। मंडणविलासविव्वो-अहासलीलारमणलिंगो॥४॥ सिआ-अव्य०(स्यात्) "स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात्"८२।१०७॥ सिंगारो रसो जहा - इति संयुक्तस्य यात्पूर्व इद् / प्रा० / कदाचिदर्थे, कल्प०३ अधि०६ महुरविलाससललिअं, हियउम्मादणकरं जुवाणाणं / क्षण। सामा सहुद्दाम, दाएती मेहलादामं / / 5 / / सिआल-पुं०(शृगाल) "इत्कुषादौ" // 81 / 128|| इति ऋत इत्त्वम्। शृङ्गारो नाम रसः किं विशिष्ट इत्याह- 'रती' त्यादि, रतिजम्बूके, प्रा०२ पाद। शब्देनेह रतिकारणानि सुरतव्यापाराङ्गानि ललनादीनि गृह्यन्ते, Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंगार 808 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिंधु तैः सार्द्ध संयोगाभिलाषसंजनकः, तस्य तत्कार्यत्वादेव, तथा | सिंघ-पुं०(सिंह) "हो घोऽनुस्वारात्' ||11 / 264 // इति हस्य घो मण्डनविलासविव्योकहास्यलीलारमणानि लिङ्गं यस्य स तथा, तत्र | वा। मृगाधिपे, प्रा० 1 पाद / मण्डनं कङ्कणादिभिः, विलासः कामगर्भो रम्यो नयना-दिविभ्रमः सिंघली-पुं० (देशी) म्लेच्छदेशविशेषे, त्रि० तद्वासिनि जने च / भ० 'विव्वोय' त्ति देशिपदम्, अङ्गजविकारार्थं हास्यं प्रतीतं लीला | श०३३ उ०। सकामगमनभाषितादिरमणीयचेष्टा, रमणं- क्रीडनमिति / उदाहरण सिंघाडग-न०(शृङ्गाटक) त्रिकोणे जलजफलविशेषे, स्था० 3 ठा०३ माह- "सिंगारी' इत्यादि- 'महुरगाहा' श्यामा / स्त्री मेखलादाम उ०। प्रज्ञा० / शृङ्गाटकाकृतिपथयुक्ते, त्रिकोणस्थाने, आ० म०१ रसनासूत्रं दर्शयति-प्रकटयति इत्यर्थः / कथंभूतमित्याह-रणन्मणि अ० / अनु० / ज्ञा० / स्था०। प्रश्न० / कल्प० / रा० / चन्द्रं सूर्य वा किङ्किणिस्वरमाधुन्मिधुरं, तथा विलासैः-सकामैश्चेष्टाविशेषैर्ललितं-- गहतो राहोः कृष्णपुद्गले, चं० प्र०२० पाहु० / भ० / कल्प० / मनोहारि, तथा शब्दोद्दामं किङ्किणीस्वनमुखरम्, किमिति तत्प्रकटयति औ०। दशा० / रा०। जं० / सू० प्र० आचा० / बृ० / आव०। इत्याह-यतो-हृदयोन्मादनकरम्-प्रबलस्मरदीपनं यूनामिति, शृङ्गार सिंघाण-न०(सिङ्घाण) नाशिकाश्रेष्मणि, स्था०६ ठा०३ उ०। स०। प्रधानचेष्टाप्रतिपादनादयं शृङ्गारो रस इति / अनु० / ज्ञा० / / ध०। तं० / उत्त० / नाशिकोद्भवे श्रेष्मणि, स्था० 5 ठा० 3 उ० / विपा० / प्रश्न० / मण्डनभूषणाटोपे, जं०१ वक्ष० / अलङ्कारादि कल्प० / ज्ञा०॥ तं०। कृतायां शोभायाम्, तद्योगाच्छृङ्गारम्।शृङ्गारमिव शृङ्गारम्। अतिशय सिंच-धा(सिच) क्षरणे, "सिचेः सिञ्च-सिम्पौ' ||४|६|इति शोभावति, भ०२ श०१ उ०। अलङ्कृते, रा०। नि० चू०। देवाना सेचतेः सिञ्चादेशः / सिंचई। सिञ्चति / प्रा०। आचा० / मेकान्तात्यन्तिकमनोज्ञत्वे प्रकृष्टरसास्पदत्वादिरूपे कामभेदे, पुनार्यो- | रन्योन्यरक्तयो रतिप्रकृतिः शृङ्गारः इति / स्था० 4 ठा०४ उ०। सिंदी-स्त्री०(सिन्दी) खर्जूर्याम्, आ० म०१ अ०। सिंगारकहाविरय-त्रि०(शृङ्गारकथाविरत) कामकथानिवृत्ते, पञ्चा० सिंदुवार-पुं०(सिन्दुवार) निर्गुण्डीवृक्षे, जं० 2 वक्ष० / प्रज्ञा०। ज्ञा०। आचा०। 10 विव०। सिंदुवारकुसुम-न०(सिन्दुवारकुसुम) निर्गुण्डीपुष्पे, पञ्चा०५ विव०। सिंगारमइ-स्त्री०(शृङ्गारमति) मूलपिण्डे उदाहृतस्य सिन्धुराजस्य भार्यायाम, पिं० / ('भूलकम्म' शब्दे षष्ठभागे व्याख्यातैषा / ) सिंदूर-न०(सिन्दूर) "इत एद् वा" ||8/1/85 / / पक्षे इकार एव सेन्दूर / सिन्दूरं / वर्णकद्रव्यविशेष प्रा० 1 पाद / सिंगारमंजरी-स्त्री०(शृङ्गारमज्जरी) शीतलराजस्य भगिन्यां विक्रमसिंहस्य भार्यायाम, प्रव० 2 द्वार / सिंधव-न०(सैन्धव) "इत् सैन्धव-शनैश्चरे'' ||8/1 / 146 / / इति ऐत इद् वा / प्रा० / सिन्धुदेशोद्भवे लवणे, अश्वे, पुं०। सूत्र०१ श्रु०५ सिंगाररस-पुं०(शृङ्गाररस) मन्मथदीपके, दश०३ अ०। अ०१ उ०। स्था० आचा०। सिंगाररसोवेय-त्रि०(शृङ्गाररसोपेत) कामोत्कोचके, ज्ञा०१ श्रु० / | सिंधु-पुं०(सिन्धु) वीतिभयनगरप्रतिबद्धे जनपदभेदे, प्रज्ञा०१ पद / 6 अ०। सूत्र०। आ० म० / आ० क० / स्त्री० / जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणेन सिंगारागार-न०(शृङ्गारागार) शृङ्गारस्य रसविशेषस्यागार-मिवागारम् / पश्चिमलवणसमुद्रगामिन्यां महानद्याम्, स्था० 8 ठा०३ उ० / पाइ० शृङ्गाररसोपेते, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। ना०। आ० चू० / स० (अस्याः सिन्धुमहानद्या वक्तव्यता गङ्गाया शृङ्गाराकार-त्रि० शृङ्गारो मण्डनभूषणादिस्तत्प्रधान आकारः इव / गंगामहानदीवक्तव्यता 'गंगा' शब्दे तृतीयभागे 782 पृष्ठे गता।) आकृतिर्यस्येति तथा / मण्डनप्रधानाकृतिसहिते, ज्ञा० 1 श्रु०१ एवं सिंधूए वि णेअवं० जाव तस्स णं पउमहहस्स अ०। भ० / जी०। औ०। पञ्चस्थिमिल्लेणं तोरणेणं सिंधूए आवत्तणकूडे दाहिणाभिमुही सिंधुप्पवायकुंड सिंधुद्दीवो अट्ठो सो चेवंजाव अहे तिमिससिंगारागारचारवेसा-त्रि०(शृङ्गारागारचारुवेषा) शृङ्गारो मण्डनभूषणा गुहाए वेअपव्वयं दालइत्ता पचत्थिमाभिमुही आवत्ता समाणा टोपस्तत्प्रधान आकारो यासांतास्तथा चारुवेषा मनोहरवेषाः मनोहर चोद्दससलिला अहे जगई पञ्चत्थिमेणं लवणसमुई 0 जाव नेपथ्याः पश्चात् कर्मधारयः। अथवा-शृङ्गारस्य प्रथमरसस्यागारमिव समप्पेइ सेसं तं चेव त्ति / (सू०७४४) गृहमिव चारवेषो यासांतास्त-था। जं०१ वक्ष कृतसुन्दरवेषायाम, अथ गङ्गानद्या आयामादीन्यत्रावतारयति एवं सिन्धु' इत्यादि। एवं रा० / प्रश्न० / सू० प्र० / विशे० / चं० प्र०। औ०। सिन्ध्वा अपि स्वयं नेतव्यं यावत्तस्य पद्मद्रहस्य पाश्चात्येन तोरणेन सिंगारिय--पुं०(शृङ्गारिक) शृङ्गारिरसवति, उपा० 8 अ०। सिन्धुमहानदी निर्गता सती पश्चिमाभिमुखी पञ्चयोजनशतानि पर्वतेन सिंगि(ण)-पुं०(शृङ्गिन) शृङ्गमस्येति शृङ्गी / विषाणिनि पशौ, अनु०। गत्वा सिन्ध्वावर्तनकूटे आवृत्ता सती पञ्चयोजनशतानि त्रयोविंशत्यआ०म०। धिकानि त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् दक्षिणाभिमुखी पर्वतेन गत्वा महता Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधु 806 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिंहसेण घटमुखप्रवृत्तिकेन यावत्प्रधातेन प्रपतति, सिन्धुमहानदी यतः प्रपतति | सिंधुसोवीर-पुं०(सिन्धुसौवीर) सिन्धुनद्या आसन्नाः सौवीराजनपदअत्र महती जिह्निका वाच्या, सिन्धुमहानदी यत्र प्रपतति तत्र सिन्धु- विशेषाः सिन्धुसौवीराः / वीतिभयनगरप्रधानेषु जनपदविशेषेषु, भ० प्रपातकुण्डं वाच्यम्, तन्मध्ये सिन्धुद्वीपो वाच्योऽर्थः स एव, यथा 13 श०६ उ० / दर्श०। प्रति० / स्था०। गङ्गादीपप्रभाणि गङ्गाद्वीपवर्णाभानि पद्मानि तथा सिन्धुद्वीपप्रभाणि सिंभ-न०(श्लेष्मन) श्लेष्मणि, बृ० 1 उ०२ प्रक० / कफे, तं०। सिन्धुद्वीपवर्णाभानि पद्मानि सिन्धुद्वीप इत्युच्यते / अत्र यावत्पर्यन्तं सूत्र वाच्यं तथाह-यावदधस्तमिस्त्रागुहाया इत्यादि, अत्र यावत्कर सिंभिय-त्रि०(श्लेष्मिक) श्लेष्मभवे, तं०1 णादिदम्- "तस्स णं सिन्धुप्पवायकुंडस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं सिंवली-स्त्री०(शाल्मली) बल्ल्यादिफलौ, दश० 5 अ० 1 उ० / सिंधुमहाणाई पवूढा समाणी उत्तरद्धभरहवासं एजेमाणी 2 सलिलासह- वज्रमयभीषणकण्टकाकुलायां नरकपालविकुर्वितायां शाल्मल्याम्, स्सेहिं आपूरेमाणी 2" इति संग्रहः / अधस्तमिस्रागुहाया वैताढ्य / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० / वृक्षविशेषे, भ० 15 श०। पर्वतं दारयित्वा" देशदर्शना-देशस्मरणमिति दाहिणड्डभरहवासस्स सिंह-पुं०(सिंह) मृगराजे, स्था० 6 ठा० 3 उ० ! स्वनामख्याते बहुमज्झदेशभागं गन्ता' इति पदानि बोध्यानि, पश्चिमाभिमुखी वीरानगारे, यो हि गोशालकतेजोलेश्यया रुग्णस्य वीरजिनस्य आवृत्ता सती चतुर्दशभिः सलिलासहस्रैः समनापूर्णा जगतीमधो दुःखादिव दुःखित वनं गत्वा प्रारोदीत्, प्रैषि च रेवत्यन्तिके कुक्कुटदारयित्वा पश्चिमायां लवणसमुद्रं समुपसर्पति, शेषम्- उक्तातिरिक्तं भांसकाहरणाय ! प्रश्न०५ संव द्वार / ऋषभदेवस्य द्वानवतितमे पुत्रे, प्रवाहमुखमानादि तदेव- गङ्गामानसमानमेव ज्ञेयम् / जं० 4 वक्षः / कल्प०१ अधि०७ क्षण। जंबूदीवे णं दीदे चउद्दस महानईओ पुव्वावरेणं लवणसमुई सिंहकण्णी-स्त्री०(सिंहकर्णी) औषधिविशेषे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ समप्पयंति तं० गंगा सिंधू०। स०१४ सम० / स्था०।। उ०। प्रज्ञा०। जंबूदीवे णं दीवे मंदरस्स दाहिणेणं- सिंधु महाणदिं पंच सिंहकेसर-पुं०(सिंहकेशर) सिंहस्य सटायाम्, सिंहसटासदृशेषु, जी० महानदीओ समति, तं जहा-सतह विभासा वितत्था, 3 प्रति० 4 अधि०। एरावई चंदभागा / स्था०५ ठा०३ उ० / जं०। सिंहगइ-पुं०(सिंहगति) अमृतगतेरमृतवाहनस्य च पश्चिमोत्तरदिग्व्यवसिन्धुनद्यधिष्ठात्र्यां देव्याम, जं०३ वक्ष० - स्थितलोकपालयोः, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सिंधुकुंड-न०(सिन्धुकुण्ड) यतः सिन्धुमहानदी प्रवहति तत्रत्ये कुण्ड, सिंहगिरि-पुं०(सिंहगिरि) श्रीवज्रस्वामिना गुरौ, स्था० 4 ठा०३ उ०। जं०४ वक्ष०। आ० क० / ध० र०। सिंधुकूड-न०(सिन्धुकू ट) हिमवर्षधरपर्वतस्य सिन्धुदेव्यधिष्ठिते / सिंगुहा-स्त्री०(सिंहगुहा) वङ्कचूडपालिते चौरपल्लीविशिषे, विशे० / स्वनामख्याते कूटे, स्था० 2 ठा० 1 उ० / सिंहगुहावासिमुणि-पुं०(सिंहगुहावासिमुनि) सुस्थितार्ये, ती० 35 सिंधुणिक्खुड-न०(सिन्धुनिष्कुट) सिन्धुकूले, आ० म०१ अ०। कल्प०। सिंधुदत्त-पुं०(सिन्धुदत्त) ब्रह्मदत्तचक्रिभार्याया धनराज्याः पितरि, सिंहपुर-न०(सिंहपुर) सिंहस्थराजपालिते स्वनामख्याते नगरे, स्था० उत्त० 13 अ०। 10 ठा०३ उ० / काम्पिल्ये गङ्गामूले सिंहपुरे च विमलनाथः / ती० सिंधुदेवी-स्त्री०(सिन्धुदेवी) सिन्धुनद्यधिष्ठात्र्यां देव्याम्, आ० म०१ 43 कल्प० / सिंहपुरे स्तम्भतीर्थे पातालगङ्गाभिधः श्रीनेमिनाथः / अ०। जं०। ती० 43 कल्प०। सिंधदेवीकड-न०(सिन्धुदेवीकूट) क्षुद्रहिमवद्वर्षधरपर्वतस्य सिन्धु- | सिंहल-पं०(सिंहल) अनार्यदेशविशेषे. तदवासिनिजने च। त्रि०ाज्ञा० देव्यावासीभूते अष्टम कूटे, जं०४ वक्ष० / ('गंगा') शब्दे तृतीयभागे | १श्रु०१ अ० कल्प०। 782 पृष्ठे वक्तव्यता गता।) सिंहलदीव-पुं०(सिंहलद्वीप) जम्बूद्वीपे स्वनामख्याते भारतवर्षीये सिंधुप्पवायदह-पुं०(सिन्धुप्रपातहद) यतः सिन्धुः प्रपतति तस्मिन् | दक्षिणसमुद्रमध्यवर्तिनि भूखण्डे, आचा० 1 श्रु०६ अ०६ उ० / ती०। हृदविशेषे, स्था० 2 ठा०३ उ०। (अस्य गंगाप्रपातहदवद्वक्तव्यता।) | सिंहलय-पुं०(सिंहलक) सिंहलदेशोद्भवे मनुष्ये, जं० 3 वक्ष०ा आ० सिंधुर-पुं०(सिन्धुर) हस्तिनि, को०1 चू० / मानुष्यां सिंहली। रा०। सिंधुराय-पुं०(सिन्धुराज) संयुगनामनगरस्य स्वनामख्याते | सिंहविक्कमगइ-पुं०(सिंहविक्रमगति) अमितगत्यमितवाहनेन्द्रस्य राजनि, पिं०। लोकपाले, स्था० 4 ठा० 1 उ० / सिंधुवद्धण-न०(सिन्धुवर्धन) स्वनामख्याते नगरभेदे, आ० क० सिंहसेण-पुं०(सिंहसेन) सहसोद्दाहपूर्वभवजीवेषु प्रतिष्ठनगर- 4 अ०। राजे, यो हि श्यामाख्यायाः स्वभार्याया अर्थाय 500 सिंधुसेवण-पुं०(सिन्धुसेवन) वानीरनाम्याः ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाः स्वराज्ञीर्दग्ध्वा नरकं गतः / स्था० 10 ठा०३ उ०। चम्पाया पितरि, उत्त० 13 अ०। नगर्याः स्वनामख्याते राजनि, यन्मन्त्री रोहगुप्तः धर्मवि Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंहसेण 810- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिक्खा चाराय 'सकुण्डलं वा वयणं न वत्ति' समस्यां ददौ / आचा०१ श्रु० 4 अ० 2 उ० / स्वनामख्याते आचार्यो, यो वादे पराजितेन रिष्टामात्येन दह्यमानोऽमशनं प्रतिपद्य स्वर्गतः / संथा० / सिक्क-त्रि०(सेक्य) सेवनीये, आव०६ अ०। सिक्कग-न०(शिक्षक) आकाशे दध्यादिभाजनावलम्बनाय दवरकमयेऽवलम्बनके, उपा० 2 अ० नि० चू० / रा०/ आव० / जे भिक्खू सिकगं वा सिक्कगणंतगं वा सयमेव करेइ करतं वा साइज्जइ / / 11 / / नि० चू०२ उ०। अन्यपूथिकैः कारयति-- जे भिक्खू सिकगं वा सिक्कगणंतगं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा करेति करतं वा साइडइ / / 13 / / जे भिक्खू सिक्कगं इत्यादि, सिक्कगयंसि जारिसं वा परिव्वायगस्स सिक्कगणंतओ उपोणओ उच्छाडण भण्णति जारिसं कावालिस्स भोयगग्गुलियाणं / नि० चू०१ उ०।। सिक्कयणतय-न०(शिक्ककानन्तक) शिक्ककपिधाने, नि० चू०१ उ०। सिक्ख-पुं०(शैक्ष) नवतरदीक्षिते, शिक्षाहे च / प्रव० 66 द्वार / सिक्खग-पुं०(शैक्षक) नूतनप्रव्रजिते, दश० 1 अ01 सूत्र०। ग्रंथो पुटवुद्दिट्ठो, दुविहो सिस्सोय होती णायथ्यो। पटवावण सिक्खावण, पगयं सिक्खावणाए उ / / 127 / / ग्रन्थो द्रव्यभावभेदभिन्नः क्षुल्लकनैर्ग्रन्थ्यं नाम उत्तराध्ययनेष्वध्ययनम् तत्र पूर्वभवे सप्रपञ्चोऽभिहितः, इह तु ग्रन्थं द्रव्यभावभेदभिन्नं यः परित्यजति, शिष्यः आचारादिकं वा ग्रन्थं योऽधीतेऽसौ अभिधीयते, स शिष्यो द्विविधो द्विप्रकारो ज्ञातव्यो भवति / तद्यथाप्रव्रज्यया, शिक्षया च / यस्य प्रव्रज्या दीयते शिक्षा वा यो ग्राह्यते स द्विप्रकारोऽपि शिष्यः / इह पुनः शिक्षा शिष्येण प्रकृतम्-अधिकारो यः / शिक्षां गृह्णाति शैक्षकस्तच्छिक्षयेह प्रस्ताव इत्यर्थः / यथाप्रतिज्ञातमधिकृत्याह - सो सिक्खगो य दुविहो, गहणे आसेवणा य णायव्यो / गहणम्मि होति तिविहो, सुत्ते अत्थे तदुभए य // 30 // सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। ('सो सिक्खगो य दुविहो' इत्यादि, व्याख्या 'सिस्स' शब्दे वक्ष्यते।) सिक्खमाण-त्रि०(शिक्षमाण) शिक्षां कुवणि, सम्यग्यासेव माने, सूत्र० 170 14 अ०। सिक्खा स्त्री०(शिक्षा) अभ्यासे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। आव०। ज्ञा० / व्यापारणे, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०। आसेवने, आचा० 1 श्रु०८ अ०८ उ० / उद्यमेन ग्रहणे, सूत्र० 1201 अ०। अथ शिक्षापदद्वारमाह - पव्वइयस्स य सिक्खा, गयण्हते सिलिपती य दिलुतो / तइयं च आउरम्मी, चउत्थगं अंधलो थेरो // 31 // प्रव्रजितस्य च सतोऽस्य शिक्षा दातव्या, सा च द्विधा-ग्रहणशिक्षा, | आसेवनाशिक्षा च / तत्र ग्रहणशिक्षा सूत्राध्ययनरूपा, आसेवना शिक्षा प्रक्षपणादिका। तत्र कोऽपि प्रव्रजितः सन्नासेवनाशिक्षा सम्यगभ्यस्यति, न पुनर्ग्रहणशिक्षाम् तत्राचार्यैः स्नातेन गजेन श्लीपदेन च दृष्टान्तः क्रियते, तृतीयं च उदाहरणम् आतुरविषयम्, चतुर्थः अन्धस्थविरविषयं कर्तव्यमिति गाथासमासार्थः। अथ विस्तरार्थोऽभिधीयते / तत्रासौ गुरुभिरादिष्टः सौम्य ! गृहाण त्वमेनां ग्रहणशिक्षाम, अधीष्व विधिवद्यथाक्रममाचारादि श्रुतम् / स प्राह-- पव्वइओ इह समणो, निक्खित्तपरिग्गही निरारंभो / इति दिक्खिये मेगमणो, धम्मधुराए दढो होमि // 342 // समितीसु मावणासु य, गुत्तीपडिलेहविणयमाईसु / लोगविरुद्धेसु य बहु-विहेसु लोगुत्तरेसु च // 343 / / मखविरयस्स य सयं, संजमजोगेसु उज्जयमइस्स / किं मज्झं पढिएणं, भण्णइ सुण ताव चेव बे नाए // 344|| भदन्त ! प्रव्रजितोऽहं श्रमणः- तपस्वी निक्षिप्तपरिग्रहो निरारम्भश्च संजात इत्यतो दीक्षिते गाथायां मकारोऽलाक्षणिकः एकाग्रमना धर्मधुरायां-धर्मचिन्तायां दृढो-निष्कम्पो भवामि। किंच-समितिष्वीर्यादिषु भावनासु द्वादशसुपञ्चविंशति संख्याकासु वा गुप्तिषुमनोगुप्तयादिषु प्रत्युपेक्षणायां विनये अभ्युत्थानादिरूपे आदिशब्दाद्वैयावृत्त्यादिषु व्यापारे षु युक्तस्य प्रयत्नवतः / तथा लोकविरुद्धेषु जुगुप्सितकुलभिक्षाग्रहणादिषु बहुविधेषुनानाप्रकारेषु लोकोत्तरविरुद्धेषु नवनीतचलितावग्रहणादिषु चशब्दादुभयविरुद्धेषु य। मद्यादिषु विरतस्य-प्रतिनिवृत्तस्य संयमयोगेषु च आवश्यकव्यापारेषु उद्यतमवेः एवंविधस्य मम किं पठितेनपाठन कार्य; न किंचिदिति भावः / भण्यते गुरुभिस्त्रोरम्-वत्स ! यदर्थं भवान् प्रव्रजितः स एवार्थो नश्यतीति / तथाचात्र शृणु तावदनुज्ञाते द्वे निदर्शने / ते एव यथाक्रममाह - जह ण्हाउं तिनगओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे। सुतु वि उज्जममाणो, तह अन्नाणी मलं चिणइ // 345 / / जं सिलयइ निदायति, तं लगयति चेलणेहि भूमीए / एवमसंजमपंके, चरणसय लाइ अमुणंतो // 346|| यथा गजः सरसि नद्यादौ मलापतयनार्थं स्नात्वा तीर्णः सन् बहुतरान् रेणून करेण गृहीत्वा स्वकीये अङ्गे क्षिपति तथा स्वाभाव्यात्, तथा सुष्ठपि अतिशयेनाप्युद्यच्छमानः- उद्यम कर्वाणोऽज्ञानीजीवो मलंकर्मरजोमललक्षणं चिनोत्ति / एवं त्वमपि कर्ममलनिर्यातनार्थं प्रव्रजितः परं श्रुताध्ययनमन्तरेण प्रवचनविरुद्धानि समाचरन् प्रत्युत भूयस्तरेण कर्मरजसाऽऽत्मनं गुण्डयिष्यसि / तथा श्लीपदनाम्नारोगेण यस्य पादौ शूनौ शिलावन्महाप्रमाणौ भवतः स एवंविधः श्लीपदी तथा क्षेत्रं निदायति; निहिणतीत्यर्थः, स च यदल्पमात्रं सस्यं निदायति तद्भयस्तरं चलनाभ्यांप्रादाभ्यामाक्रम्य भूमौ लगयतिमर्दयतिच,एवं श्रुत-पाठविना 'अमुणंतो' अजानन् 'चरणसयं' ति-चरणसस्यम-संयमपङ्केपृथिव्याधुपमईकर्दमेन लगयित्वा च सकलमपि मर्दयति। Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक्खा 811 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिक्खा एवमाचार्यैरुक्ते शिष्य आतुरदृष्टान्तमाहभन्ते ! जह रोगत्तो, पुच्छति बेजं न संहियं पढइ / इय कम्मामयविज्जे, पुच्छिय तुन्भे करिस्सामि / 347 // भगवन् ! यथा रोगातः पुरुषो वैद्यमेव पृच्छति न पुनवैद्य क-संहितां / पठति,एवमहमपि युष्मान् कर्मामयवैद्यान् कर्मरोगचिकित्सान् पृष्ट्वा / सर्वामपि क्रियां करिष्यामि न पुनः श्रुतं पठिष्यामीति / गुरुराह - भण्णइ न सो सयं चिय, करेति किरियं अपुच्छिओ रोगी।। नायव्वो अहिगारो, तुम पि नाउं तहा कुणसु // 35 // भण्यते अत्रोत्तरम्- यद्यपि नासौ रोगी वैद्यमपृष्ट्वा स्वयमेव क्रियां करोति, तथापि तस्य ज्ञातव्ये क्रिग्रायाः परिज्ञानेऽधिकारोऽस्ति, यथा स वैद्यो भूयो भूयः प्रष्टव्यो न भवति एवं यद्यपि त्वमस्मान् पृष्ट्वा सर्वामपि क्रियां करिष्यसि तथापि सूत्रमधीत्य षट्कायरक्षणविधि जानीहि / ज्ञात्वा च तथा कुरु बहुशः प्रष्टव्यं न भवति / शिष्यः प्रतिभणति - दूरे तस्स तिगिच्छी, आउरपुच्छा उ जुञ्जई तेणं / सारेहिं ति सहीणा, गुरुमादि जतो न हिज्जामि // 346 / / तस्यातुरस्य दूर-दूरवर्ती स चिकित्सी वैद्यःअत आतुरस्य क्रियाया अपरिज्ञाने वैद्यान्तिके पृच्छा युज्यते / मभ पुनर्गुरव आदिशब्दाद्उपाध्यायादयः स्वाधीना एव अतो ज्ञास्यन्ति ते भगवन्तः, स्वयमेव मदीयं स्खलित ज्ञात्वा सम्यग् मां सारयिष्यन्ति / यत एवमत एवाह नाधीये-न पठामीति। सूरिराह - आगाढकारणेहिं, गुरुमादी ते जया न होहिंति / तइया कहं तु काहिसि, जहा व सो अंधलो थेरो // 350 // आगाढैः- कुलादिभिः कारणैर्यदा ते गुर्वादयस्तव स्वाधीना न भविष्यन्ति तदा कथं नाम त्व 'काहिसि' करिष्यसि / यथा वा सः अन्धः स्थविरः। तथाहि - अट्ठसुय थेरअंधल-तणं अत्थि मे बहूणि अच्छीणि / अप्पट्ठणप्पलिते-डहणं अपसत्थगपसत्थे // 351 / / उज्जेणीनाम नगरी / तत्थ सोमिलो नाम बंभणो परिवसति / सो य अधलीभूयो तस्स य अट्ठ पुत्ता, तेसिं अट्ठभज्जओ सो पुत्तेहिं भण्णति, अच्छीणं किरिया कीरउ। सो पडि भणति तुम्भ अट्ठण्ह पुत्ताण सोलस अच्छीणि सुण्हाण वि सोलस, बंभणीए, दोन्नि एते चउतीसं, अन्नस्स य परियणस्स जाणि अच्छीणि ताणि सव्वाणि मम एते चेव पभूया / अन्नया घरं पलित्त तत्थ तेहि अप्पदत्तहिं सो न च तओ नीणिओ तत्थेव रडतो दड्डो। एस अपसत्थो दिठंतो। मा एव डज्झिहिसि संसारे असुभकम्मेहि। इमो पसत्थो तत्थेव अधलयथरो नवर ति ण किरिया कारिया सो मणुस्साणं भोगाणं अभोगी जाओ। एव तुम पि कज्जाकज्ज | वियाणित्ता संसाराता न तिरिहिसि / " अथ गाथाक्षरार्थ:- सोमिलस्थविरस्याष्टौ सुताः परं तस्यान्धत्वं बभूव / गाथायामन्ध शब्दात्"विद्युत्पत्रपीतान्धाल्लः" / / 173aa इति प्राकृते स्वार्थिको | लः प्रत्ययः / स च पुत्रैश्चक्षुश्चिकित्साकारणार्थमुक्तः सन् वक्ति सन्ति मे पुत्रादीनां बहून्यक्षीणि, तैरेव मदीयं कार्यं सेत्स्यति / अन्यदा च ग्रहे प्रदीपनं लग्नं ततस्ते पुत्रादयः 'अप्पटेण' त्ति आत्मरक्षणपरास्त्वरितं प्रनष्टाः, स्थविरान्धस्य प्रदाप्त गृहे दहनम् / एषोऽप्रशस्तो दृष्टान्तः / प्रशस्तस्तु विपरीतः / स चोपदर्शित एव उपनययोजनाऽपि कृतैव / कृतमप्युक्तोऽसौ न प्रतिपद्यते श्रुताध्ययनम्। अतो भयोऽयि करुणापरीतचेतसः सूरयः प्राहुःमा एवमसग्गाहं, गिण्हसु गिबहस सुयं तहयचक्खं / किं वा तुमेऽनिलसुतो, न स्सुयपटवो जवो गया // 352 / / सौम्य ! मैवमसद्ग्राहं गृहाण, गृहाण सूक्ष्मव्यवहिता-दिष्वतीन्द्रियार्थेष तृतीयचक्षुः कल्पं श्रुतं किं वा त्वया न श्रुतपूर्वोऽनिलनरेन्द्रसुतो यवा राजा / बृ०१उ०२ प्रक०। उत्त०। आ०चून आ० क०आव० ('जवराज' शब्दे चतुर्थभागे तत्कथा / ) (श्रुताऽध्ययने अमी गुणा आत्महितादयः 'सुय' शब्दे वक्ष्यन्ते।) ग्रहणासेवनारूपायां शिक्षायाम्, आ० क०। (संपूर्णा कथा 'अणिस्सिओवहाण' शब्दे प्रथमभागे 335 पृष्ठे अवंतिसुकुमाल' शब्दे च 787 पृष्ठ गता।) पञ्चमशिक्षाद्वारमाह - खिइवणउसभकुसग्गं, रायगिहं चंपपाटलीपुत्तं / नद सगडाले थूल-भवसिरिए वरराई अ॥१८३|| आ० क० 4 अ० / आव० ! (कथाः स्वस्वस्थानतोऽवसेयाः / ) ("अहा पंचहिँ ठाणेहिं, जेहिं सिक्खा न लब्भइ। धस्सा कोहप्पमारणं, रोगेणालस्सएण य // 1 // " "बहुस्सुय' शब्दे पञ्चमभागे व्याख्यातैषा / ) पंचहिं ठाणेहिं सुत्तं सिक्खेजा,तंजहा-णाणट्ठयाएदसणट्ठयाए चरित्तट्ठयाए वुग्गहविमोयणट्ठयाए अहत्थे वा भावे जाणिस्सामि त्ति कटु ! (सू०-४६०x) ज्ञान-तत्त्वानां परिच्छेदो दशनम्-तेषामेव श्रद्धानं चारित्रम्सदनुष्ठानं व्युदग्रहो-मिथ्याभिनिवेशस्तस्य तस्माद्वा परेषां विमोचन व्युद्ग्रहविमोचनं तदर्थाय तदर्थतया वा 'अहत्थे ति यथास्थान- यथावस्थितान् यथार्थान् वा-यथाप्रयोजनान् भावान् जीवादीन्यथार्थान्वायथाद्रव्यान् भावान-पर्यायान ज्ञास्यामीति कृत्वा इति हेतोः शिक्षत इति / स्था० 5 ठा०३ उ० / उद्यमेन ग्रहणम् / सूत्र०१ श्रु० 8 अ०। (एण्डको वार्तिकः क्लीवश्च न शिक्षणीय इति 'पव्वजा' शब्दे पञ्चमभागे 756 पृष्ठे गतम।) (लघुवालकं प्रवाज्य तस्मै ग्रहणशिक्षा सा दशवैकालिकादिसूत्रं पाठनीयम्, आसेवनाशिक्षा यत्परिधापनादि शिक्षते इत्यादि 'पव्वजा' शब्दे 775 पृष्ठे उक्तम् / ) शिष्यं यथाचार्यः शिक्षयेत्-गुणसपदयोग्यान् कथेचित्प्रमादिनोऽपि दृष्ट्वा धमानुगतैः मधुरवचोभिराचार्यस्तान् शिक्षयेत्, यथा तेषां मनःप्रसादमेव विशिष्टगुणप्रतिपत्त्यभिमुखमश्नुते न कोषं प्रतिपन्नगुण भंशकारणमिति / उक्तं च- "धम्ममइएहि अइसुं-दरेहि कारणगुणोवणीएहिं पल्हायंतो य मणं, सीसं चोएइ आयइरिओ" ||1|| (अन्ययूथिकं गृहस्थं वा शिक्षयेदिति 'अण्णउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे 475 पृष्ठे उक्तम् / ) (अन्तरगृहे शिक्षा न कर्तव्येत्युक्तम्, 'अंतरगिह' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठे।) शिक्षयितुं द्वे दिशौ ग्राह्ये प्राचीना, उदीचीना च / स्था० 2 ठा० 5 उ०। Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक्खा 812- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिक्खावयव्वय तस्सेव अंतरायम्मि, सिक्खं सिक्खेज्ज पंडिए। संलेखनानुरूपां शिक्षा भक्तपरिज्ञङ्गितमरणादिकां वा शिक्षेत् / तत्र ग्रहणशिक्षया यथावन्मरणविधिं विज्ञायासेवनां शिक्षेतेति / सूत्र० 1 श्रु० 8 अ०। ('अट्ठावयं न सिक्खिजा।' इति 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे व्याख्यातम् / ) ("सत्थमेथे तु सिक्खंता, अतिवाया य पाणिणं / एगे मंते अहिजंति, पाणभूयविहेडिणो / " (सूत्र०१ श्रु०८ अ०१) इति 'वीरिय' शब्दे षष्ठभागे उदाहृतम्।) सिक्खण-न०(शिक्षण) आचारग्रन्थे, कल्प० 1 अधि०१ क्षण। सिक्खावण-न०(शिक्षण) अश्वादीनां चतुष्पदानां परिकर्मणि, नि० चू०१ उ०। सिक्खावणा-स्त्री०(शिक्षापणा) ग्रहणासेवनारूपशिक्षाग्रहणे, पं० भा०१ कल्प० / शिक्षापणा त्रिविधा-लोइया, लोउत्तरिया, कुप्पावयणिया। लोइया ताव व्याकरणनाटकादिषु शिक्षादि कुप्रावचनिकारक्तपटादीनां या शिक्षा, त्रिपटिकादिषु द्रव्यशिक्षा लोकोत्तरा द्विविधा-ग्रहणशिक्षा, आसेवनाशिक्षा च / गहणसिक्खा सुत्तत्थतदुभयाणं आसेवणापडिलेहणा, पप्फोडणाय उवट्ठावणा लोइया लोउत्तरा कुप्पावयणिया। लोइया राया रायमचठवणा / कुप्पावयणिया भिक्खु माइयाणं उवसंपदा लोउत्तरा असंयतत्वात्, व्रतेषु स्थापना उपस्थापना / पं० चू० 1 कल्प०। सिक्खावय-न०(शिक्षापद) शिक्षायाः पदं शिक्षापदम्। शिक्षेव वा पदंस्थानं शिक्षापदम् / विधिना प्रव्रजितस्य सतः शिक्षाधिकारे, विशे०। ध००। शिक्षाव्रत-न० शिक्षा--अभ्यासस्तत्प्रधानानि व्रतानि पुनः पुनरासवा हाणि / सामायिकादिषु श्रावकधर्मेषु, पञ्चा०२ विव० / "दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा' अत्र त्रयाणां गुणव्रतानां शिक्षाप्रतेषु गणनात् सप्त शिक्षाव्रतानीत्युक्तम् / श्रा० / चत्वारि शिक्षाव्रतानि भवन्ति, तद्यथा-सामायिकम् देशावकासिकं पौषधोपवासः अतिथिसंविभागः। आव०६ अ०। सिक्खावयव्वय-न०(शिक्षापदव्रत) शिक्षणं शिक्षा अभ्यासस्तस्यै तस्या वा पदानि स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापदव्रतानि। सामायिकादिषु श्रावकधर्मेषु, ध०१ अधि०। 'सत्त य सिक्खावयाई' सप्त च शिक्षाप्रधनानि व्रतानि, गुणवतानामपि नित्यमभ्यसनीयतया शिक्षाक्तत्वेन विवक्षणात् सप्त शिक्षाव्रतान्युक्तानि / आतु०। अथ यव्रतयोगाद्देशविरतो भवति तानि व्रतान्याहपंच य अणुव्वयाई, सत्त उ सिक्खा उ देसजइधम्मो। सव्वेण व देसेण व, तेण जुओ होइ देसजईशा सप्त च शिक्षाप्रधानानि व्रतानि गुणव्रतानामपि नित्यमभ्यसनीयतया शिक्षाव्रतत्वेन विवक्षणात् सप्त शिक्षाव्रतान्युक्तानि / आतु० / शिक्षाअभ्यासस्तस्याः पदानि स्थानानि तान्येव व्रतानि शिक्षापदव्रतानि।। "चत्तारि सिक्खापयव्वयाई" प्रतिदिवसानुष्ठये सामायिकदेशावकाशिके पुनः पुनरुचार्ये इति भावनापोषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिदिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयाविति / आव० सामायिक देशावकाशिकं पोषधोपवासः अतिथिसंविभागश्चेति, स्वल्पकालिकत्वा- चैतेषां गुणव्रतेभ्यो भेदः / गुणव्रतानि तु प्रायो यावजीविकानि / एतेष्वपि सामायिकदेशावकाशिके प्रतिदिवसानुष्ठेये पुनः पुनरुयारणीये पोषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियतदिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसाचरणीयाविति विवेकः आवश्यकवृत्तिकृतः / ध० 2 अधि० / इयाणिं सिक्खावया, शिक्षा नाम यथा सिष्यकः पुनः पुनर्विद्यामभ्यस्यति / एवमपि याणि चत्तारि सिक्खावयाणि पुणो-पुणो अब्भसिज्जंति अणुव्वयगुणेव्वयाणि / एक्कसिं गहियाणि चेव ताणि सिक्खावयाणि सामातियं देसावगासियं पोसहोववासो अतिहिसंविभागो। आo चू० 6 अ०। (प्रथमं शिक्षापदव्रतं सामायिकं तच 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विस्तरतो दर्शितम् / ) (द्वितीयं देशावकाशिकव्रतम् 'देसावगासिय' शब्दे 2633 पृष्ठे उक्तम् / ) (तृतीयं पौषधोपवासः 'पोसह' शब्दे पञ्चमभागे गतम् / ) (चतुर्थमतिथिसंविभागवतम् 'अइहिसंविभाग' शब्दे प्रथमभागे 33 पृष्ठे प्रतिपादितम् / ) चतुर्थशिक्षापदव्रते वृद्धोक्ता समाचारी-श्रावकेण पोषधं पारयता नियमात्साधुभ्यो दत्त्वा भोक्तव्यम्, कथम् ? यदा भोजनकालो भवति, तदाऽऽत्मनो विभूषां कृत्या प्रतिश्रयं च गत्वा साधून्निमन्त्रयते, "भिक्षां गृहीतेति' साधूनां च तं प्रति का प्रतिपत्तिः ? उच्यते- तदैकः पटलमन्यो मुखानन्तकमपरो भाजनं प्रत्युपेक्षतै, माऽन्तरायदोषाः स्थापनादोषा वाऽभूवन्निति / स च यदि प्रथमायां पौरुष्यां निमन्त्रयते, अस्ति च नमस्कारसहितप्रत्याख्यानी ततस्तद् गृह्यते, अथ नास्त्यसौ तदा न गृह्यते, यतस्तद्वोढव्यं भवति, यदि पुनर्घनं लगेत् तदा गृह्यते संस्थाप्यते च / यो वा उद्घाटपौरुष्यां पारयति पारणकवानन्यो वा, तस्मै तद्दीयते / पश्चात्तेन श्रावकेण स संघाटको व्रजति, एको न वर्त्तते प्रेषयितुं, साधू पुरतः श्रावकस्तुमार्गे (मार्गतो) गच्छति, ततोऽसौ गृहं नीत्वा तावासनेनोपनिमन्त्रयते, यदि निविशेते तदा भव्यम्, अथ न निविशेते तथापि विनयः प्रयुक्तो भवति। ततोऽसौ भक्तं पानं च स्वयमेव ददाति, भाजनं वा धारयति, स्थित एव वाऽऽस्ते यावद्दीयते, साधू अपि पश्चात्कर्मपरिहारार्थं सावशेषं गृहीतः ततो वन्दित्वा विसर्जयति, अनुगच्छति च कतिचित्पदानि, ततः स्वयं भुङ्क्ते / यदि पुनस्तत्र ग्रामादौ साधवो न भवन्ति तदा भोजनवेलायां द्वारावलोकनं करोति, विशुद्धभावेन च चिन्तयतियदि साधवोऽभविष्यन् तदा निस्तारितोऽभविष्य-मिति / एष पोषधपारणके विधिः / अन्यदा तु दत्त्वा भुक्ते, भुक्त्या वा ददातीति / उमास्वातिवाचकविरचितश्रावक-प्रज्ञप्तौ तु अतिथिशब्देन साध्वादयश्चत्वारो गृहीताः, ततस्तेषां संविभागः कार्य इत्युक्तम्, तथा च तत्पाठः "अतिथिसंविभागो नाम अतिथयः- साधवः साध्व्यः श्रावकाः श्राविकाच, एतेषु गृहमुपागतेषु भक्त्याऽभ्युत्थानासनपादप्रमाजननमस्कारादिभिरर्चयित्वा यथा-विभवशक्ति अन्नपानवस्त्रौषधालयादिप्रदानेन संविभागः कार्यः" इति। एतव्रताराधनायैव प्रत्य Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिक्खाक्यव्वय सिज्जा हं श्रावकेण "फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-सााइमेणं ___ श्लाध्यं प्रशंसास्पदभूतं निःशेषं प्रशंसास्पद-भूतम् / दश० 1 चू० / वस्थपरिग्गहकंबलपायपुंछणेणं पीढफलगसिज्जासंथारेणं ओसहभेसज्जेणं सिग्घगइ-त्रि०(शीघ्रमति) शीघ्रा गतिरस्त्यस्य। द्रुतगमनयुक्ते, सू० प्र० भयवं ! अणुग्गहो कायव्वो" इत्यादिना गुरूणां निमन्त्रणं क्रियते / १पाहु०। (सूर्यादीनां कः शीघ्रगतिरिति 'जोइसिय' शब्दे चतुर्थभागे एतगतफलं च दिव्यभोगसमृद्धि-साम्राज्यतीर्थकृत्पदादि श्रीशालिभद्र- 1605 पृष्ठे गतम् / ) (अस्य दर्शनं वीरशब्दे षष्ठभागे गतम् / ) मूलदेवाद्यन्ताहदादीनामिव सर्वं प्रसिद्धम्, पारम्पर्येण मोक्षोऽपि फल सिग्घगमन-शीघ्रगमन-सूर्याभदेवस्य वैकुर्विके विमाने, रा०। मस्ति, वैपरीत्ये तु दास्यदौर्गत्याद्यपीति। अभिहितं चतुर्थ शिक्षापद सिचय-पुं०(सिचय) वस्त्रे, व्य० 5 उ०। व्रतम् / ध०२ अधि० / गुणव्रतान्यभिधीयन्तेतानि पुनस्त्रीणि भवन्ति, सिखंभव-पुं०(शय्यम्भव) प्रभवस्वामिनां शिष्ये चतुर्दशपूर्वधरे दशवैकातद्यथा-दिगवतम्, उपभोगपरिभोगपरिमाणम्, अनर्थदण्डपरिवर्जन लिककर्तरि आचार्य, दश०१०। कल्प०। पा० नं० ति०। महाका मिति / आव० 6 अ०। (पञ्चमं शिक्षापदव्रतम् 'दिसिव्वय' शब्दे स्था० / नि० चू० / अस्य गृहिपर्यायः 28 दीक्षापर्यायः 11 चतुर्थभागे 2540 पृष्ठ गतम्।) (षष्ठं शिक्षापदव्रतम् 'उवभोगपरिभोग आचार्यपदवी 23 सर्वायुः 62 वर्षाणि, स्वगतिः वीरमोक्षात् 68 वर्षे / परिमाण' शब्दे द्वितीयभागे 866 पृष्ठे गतम्।) (सप्तमं शिक्षापदव्रतम् जै० इ०। 'अणट्ठादंडविरमण' शब्दे प्रथमभागे 284 पृष्ठे गतम्।) सिखंस-त्रि०(श्रेयस्) परमप्रशस्ये, जी० 1 प्रति०। सिक्खाविअ(य)-त्रि०(शिक्षित) ग्रहणशिक्षादिग्राहिते / पञ्चा० 5 श्रेयांस-पुं० भारते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते एकादशेजिने, स०७६ विव० / आप्तोपदेशदाने, भ०८ श०२ उ०। सम० / अनु०। प्रव० / आ० चू० / कल्प० / सिक्खावित्तए-अव्य०(शिक्षयितुम्) प्रत्युपेक्षादिसामाचारी ग्राहयितु इदानीं श्रेयान् समस्तभुवनस्य हितकारित्वात् प्रशस्यतरः, श्रेयान् मित्यर्थे, स्था० 3 ठा०४ उ० / ग्रहणशिक्षापेक्षया सूत्रार्थों ग्राहयितु प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात् सिजंस इत्युच्यते तत्र सर्वेऽपि भगवन्तमासेवनाशिक्षापेक्षया तु प्रत्युपेक्षणादि शिक्षयितुमित्यर्थे, स्था० 3 बैलोक्यस्यापि श्रेयांस इति विशेषमाहठा०२ उ०। महरिहसेजारहण-म्मि डोहलो तेण होइ सिजंसो। सिक्खावेळ-अव्य०(शिक्षयितुम्) ग्रहणशिक्षादि ग्राहयितुमित्यर्थे, पं० तस्य राज्ञः पितृपरंपरागता देवतापरिगृहीता शय्या अर्यत। यस्ताव०३ द्वार। माश्रयति तस्योपसर्ग देवता करोति / गर्भगते भगवति दिव्यदौहृदमसिक्खासमावन्न-त्रि०(शिक्षासमापन्न) शिक्षया-व्रतासेवनया समापन्नो जायत, शय्यामारोहामि / तत्रोपविष्टा देवता समारसितुमपक्रान्ता / युक्तः। शिक्षिते, उत्त० 5 अ० / / सा हि तीर्थकरनिमित्तं देवतया रक्षिता एवं गर्भप्रभावतो देव्याः श्रेयो सिक्खिऊण-अव्य०(शिक्षित्वा) अधीत्येत्यर्थे, "सिक्खिऊण भिक्खे- जातमिति श्रेयांसमिति नामकृतम्। आ० म०२ अ०। ध०। आ० चू०। सणसोहिं संजयाण बुद्धा सगासे" दश० 5 अ०२ उ०। सिजंसे णं अरहा असीइंधणुइं उड्डे उच्यत्ते होत्था / (सू० सिक्खिय-त्रि०(शिक्षित) शिक्षा जाताऽस्येति शिक्षितः / उत्त०४ 804) स०५० सम०। अ०। शिक्षाग्राहिते, उत्त०४ अ०। अभ्यस्ते, औ०। उत्त० / पठन- सिख्रसस्स णं अरहओ छावहिं गणा छावहिं गणहरा क्रिययान्तं नीते, ग० 2 अधि० / विशे०। गृहीते, चं० प्र०२० पाहु०। होत्था / (सू०६६ +) सम०। अनु०। सूत्र०। आ० म०। सिजसे णं अरहा चउरासीहं वाससयसहस्साइं सव्वाउयं सिक्खिवंत-त्रि०(शिक्षवत्) शिक्षा प्रयच्छत्याचार्य, सूत्र सिक्खावतो पालइत्ता सिद्धे० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे / (सू० 84+) दुविहा गहणे आसेवणे चेव' शिक्षयन्नपि द्विविधः, एको यः शिक्षाशास्त्र श्रेयांसः-एकादशस्तीर्थकरः एकविंशतिवर्षलक्षाणि कुमारत्वे ग्राहयति पाठयत्यपरस्तु तदर्थ दशविधचक्रवालसामाचार्यनुष्ठानतः तावन्त्येव प्रव्रज्यायां द्विचत्वारिंशद्राज्ये इत्येवं चतुरशीतिमायुः सेवयति सम्यगनुष्ठानं कारयति / सूत्र० 1 श्रु० 14 अ०। पालयित्वा सिद्धः। स०। सर्वाऽस्य वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्द सिगया-स्त्री०(सिकता) वालुफायामः, सू० प्र० 18 पाहु० / चतुर्थभागे 2247 पृष्ठे गता 1) गजपुरनगरे भरतस्य राज्ञः सिगाल-पुं०(शृगाल) जम्बूके, आचा० / पुत्रे, मतान्तरेण बाहुबलिनः सुतस्य सोमप्रभस्य / आ० चू० सिगाली-स्त्री०(शृगाली) शिवायाम्, अनु०। 1 अ०। आ०म०। येन प्रथममृषभस्वामिने भिक्षा दत्ता। आ० चू०१ अ०। स पश्चात् प्रव्रजितः भगवत आत्मभवसम्बन्धानसिगु-पुं०(सिगु) वृक्षविशेषे, आ० क० 1 अ०। चीकथत् / आ० क०१ अ० सिद्धार्थनरेन्द्रे महावीरस्वामिनः सिग्ग-(देशीयपदमेतत् ) परिश्रमे, व्य० 4 उ० / पितरि, ति० / कल्प० / अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तद्वितीये, सिग्घ-न०(शीघ्र) आशुशब्दार्थे, स्वल्पे काले, आव०४ अ० / आ० कल्प० अधि० ६क्षण | द्वादशमासानां लोकोत्तररीत्या म० / दर्श०। रा० / वेगवतां मध्येऽतिशीघ्र, औ०। पौषमासे, चं० प्र०१० पाहु० / जंग। सू० प्र०। ग्लाध्य-त्रि० प्रशंसास्पदे, दर्श० 4 त्त्व। 'सिग्धं निस्सेसंवा अभिगच्छद" | सिजा-स्त्री०(शय्या) शेरतेऽस्यां साधव इति शय्या / बृ०२ Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिज्जा 814 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिजापिडमा उ० / शीड स्वप्रे, अस्य क्यप्प्रत्ययान्तस्य कृत्यल्युटो बहुलमिति तयाक्तिया, गौतमं पूर्वनैमित्तिके निटितवती। अतस्तत्प्रद्वेषात्प्रतिवचनात् शयनं शय्या / आव० 4 अ०। “ध-रपयाँ जः" ||8||24|| ज्ञामादाय सर्षपान् वपन्निर्गतः, सर्षपाश्च वर्षाकालेन जाताः; ततस्तदनुइति संयुक्तस्य द्वित्वम् / प्रा० "एच्छय्यादौ" // 81 / 57 / / सारेणान्यं राजानं प्रवेश्य सा पल्ली समस्ता लुण्टिता दग्धा च / इत्यादरस्यैत्व वा / सिज्जा / सेजा। प्रा० सर्वा-ङ्गीणवसतौ, ध०२ गौतमेनापि वल्गुमल्या उदरं पाटयित्वा सावशेषजीवितदेहाया उपरि अधि०। बृहत्संस्तारके, भ०२ श०५ उ०। शयने, ध०२ अधि० / सुप्तमित्येषा वा सचित्ता द्रव्यशय्येति। अनु० / आय०। ओघ०। ति० / स० / दशा०। ज्ञा०। उत्त०। भावशय्याप्रतिपादनार्थमाह - श्रमणोपाश्रये, व्य० 4 उ० / आचा० / उत्त० / शून्यगृहादिकायां दुविहा य भावसिझा, कायगए छविहे य भावम्मि। वसतौ, आचा० 1 श्रु०१ अ० / शयनीये, ज्ञा० 1 अश्रु०१ अ / मावे जो जत्थ जया, सुहदुहगन्भाइसिजासु // 301 / / स्था०/आचा०। आव०। सूत्र० भ०/"सव्वंगिया सेज्जा" ग०१ अधि०।पं०भा०। आ०म०। यत्र वा प्रसारितपादैः सुप्यते सा शय्या द्वे विधे-प्रकारावस्याः सा द्विविधा तद्यथा-कायविषया, षड्भावसंस्तारको वा। आसने, नि० चू०१३ उ०। प्रश्न आ० म०। आ० विषया च / तत्र यो जीवः यत्र औदयिकादौ भावे यदा यस्मिन् काले चू० / आव०। बृ० / व्य०। वर्तते सा तस्य षङ्भावरूपा भावशय्या, शयनं शय्या स्थितिरिति तत्र नामनिष्पन्ने निक्षेपे शय्यैषणेति, तस्या निक्षेपविधानाय पिण्डैष कृत्वा / तथा स्त्र्यादिकायगतो गर्भत्वेन स्थितो यो जीवस्तस्य णानियुक्तिर्यत्र संभवति तां तत्रातिदिश्य प्रथमगाथया अपरासां च स्त्र्यादिकाय एव भावशय्या, यतः स्त्र्यादिकाये सुखिते दुःखिते सुप्ते नियुक्तीनां यथायोग संभवं द्वितीयगाथया आविर्भाव्य निक्षेपं च उत्थिते वा तादृगवस्थ एव तदन्तर्वर्ती जीवो भवति, अतः कायविषया तृतीयगाथया शय्याषट्कनिक्षेपे प्राप्ते नामस्थापने अनादृत्य नियुक्ति भावशय्या द्वितीयेति / अध्ययनार्थाधिकारः सर्वोऽपि शय्याविषयः / कृदाह // आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१ उ० / शय्या-संस्तारकः / आचा० 2 श्रु०१ चू०२ अ०१ उ०। (अस्य महात्म्यम्- 'संथार' शब्देऽस्मिदवे खित्ते काले, भावे सिजा य जा तहिं पगयं / नेव भागे गतम् / ) एतत्प्रतिपादके आचाराङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य केरिसिया सिज्जा खलु, संजयजोग त्ति नायव्वा ? / 268|| द्वितीये अध्ययने, स०। द्रव्यशय्या क्षेत्रशय्या कालशय्या भावशय्या, अत्र च या द्रव्यशय्या सिजाकप्पविहिण्णु-पुं०(शय्याकल्पविधिज्ञ) आचाराने शय्यायां तस्यां प्रकृतं, तामेव च दर्शयति-कीदृशी सा द्रव्यशय्या ? संयतानां संस्तारग्रहणं, येन स सूत्रतोऽधीतोऽर्थतश्च शय्याकल्पविधिज्ञः / योग्येत्येवं ज्ञातव्या भविष्यति। शय्याकल्पसूत्रार्थज्ञे, नि० चू०२ उ० / द्रव्यशय्याव्याचिख्यासयाऽऽह -- सिञ्जाकप्पिय-पुं०(शय्याकल्पिक) शय्याया ग्रहणारक्षणधारणप्रवणे, तिविहा य दवसिञ्जा, सचित्ताऽचित्त मीसगा चेव / बृ०१ उ०। खित्तम्मि जम्मि खित्ते, काले जा जम्मि कालम्मि // 26 // सिजाकर-पुं०(शय्याकर) शय्यां प्रतिश्रयं करोतीति शय्याकरः / नि० त्रिविधा द्रव्यशय्या भवति, तद्यथा-सचित्ता, अचित्ता, मिश्रा चेति। चू० 8 उ० / वसतिस्वामिनि, बृ०२ उ०| तत्र सचित्ता पृथिवीकायादौ, अचित्ता तत्रैव प्रासुके, मिश्राऽपि सिझादाता-त्रि०(शय्यादातृ) शय्याया वसतेर्दानात् शय्यादाता सागातत्रैवार्द्धपरिणते। अथवा-सचित्ता-मुत्तरगाथया स्वत एव नियुक्तिकृद् / भावयिष्यति। 'क्षेत्र' मिति तु क्षेत्रशय्या, सा च यत्र ग्रामादिके क्षेत्रे रिके, बृ०२ उ०। क्रियते, कालशय्या तु या यस्मिन्नृतुबद्धादिके काले क्रियते / सिजाधर--पुं०(शय्याधर) शय्यां पतन्ती छादनलेपनाभ्याम् आदितत्र सचित्तद्रव्यशय्योदाहरणार्थमाह - शब्दात् स्थूणादानादिभिश्च धारयति अतः शय्याधरः / यद्वा तथा उकलकलिंग गोअम, वगुमई चेव होइ नायव्वा / शय्यया साधूनां विस्तीर्णया नरकाद त्मान धारयतीति शय्याधरः / एयं तु उदाहरणं, नायव्वं दय्वसिजाए // 300 / सागारिके, वृ० 2 उ० / नि० चू० (अत्र विस्तरः 'सागरिय' शब्देऽ स्मिन्नेव भागे गतः।) अस्या भावार्थः कथानकादवसेयः, तच्चेदम्- एकस्यामटव्यां द्वौ भ्रातरावुत्कलकलिङ्गाभिधानौ विषमप्रदेशे पल्लिनिवेश्य चौर्येण सिजापडिमा-स्त्री०(शय्याप्रतिमा) शय्यते यस्ता सा शय्या संस्तारवर्त्तते / तयोश्च भगिनी वल्गुमती नाम, तत्र कदाचिद् गौतमाभिधानो कस्तस्याः प्रतिमा--अभिग्रहाः-शय्याप्रतिमाः। वसतिविषयकाभिग्रहे, स्था०। नैमित्तिकः समायातः, ताभ्यां च प्रतिपन्नः / तया च वल्गुमत्योक्तं-- यथा नायं भद्रकः, अत्र वसन् यदा तदाऽयमस्माकं पल्लिविनाशाय चत्तारि सिजापडिमाओ पण्णत्ताओ। (सू०३३१४) भविष्यत्यतो निर्धाट्यते, ततस्ताभ्यां तद्वचनान्नि(टितः / स तस्यां 'चत्तारि सेज्जा' इत्यादि, सुगम, नवरं शय्यते यस्यां सा शय्या संस्ताप्रद्वेषमापन्नः प्रतिज्ञामग्रहीद, यथा-नाहं गौतमो भवामि यदि वल्गुम- रकस्तस्याः प्रतिमा अभिग्रहाः शय्याप्रतिमा तत्रोद्दिष्ट फलकादीनामत्युदरं विय तत्र न स्वपिमीति / अन्ये तु भणन्ति-सैव वल्गुम- न्यतमत् ग्रहीष्यामि नेतरदित्येक नान्यदिति द्वितीया। तदपि यदि तस्यैव त्यपत्यानां लघुत्वात्पल्लिस्वामिनी, उत्कलकलिङ्गौ नैमित्तिको, सा शय्यातरस्थ गृहे भवति ततो गृहीष्यामि नान्यत् आनीय तत्र शयिष्य Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिज्जापडिमा 515 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिज्जायरपिंड इति तृतीया / सदपि फलकादिकं यदि यथासंस्तृतमेवास्ते ततो वाऽऽश्रय अध्यासीत-सुखं दुःखं वाऽधिसहेत, प्रतिमाकल्पिकापेक्षं ग्रहीष्यामि नान्यथेति चतुर्थी / आसु च प्रतिमासु आद्ययोः प्रतिम- चैकरात्रमिति, स्थविरकल्पिकापेक्षया तु कतिपया रात्रयः, दिवसोपयार्गच्छनिर्गतानामग्रहः, उत्तरयारन्यतरस्या मभिग्रहो, गच्छान्तर्गतानां लक्षणं च रात्रिग्रहणमिति सूत्रार्थः / तु चतस्रोऽपि कल्पन्ते इति / स्था० 4 ठा० 3 उ०० अत्र निर्वेदद्वारम्, इह च 'अदुव' पावगं ति सूत्रावयवमर्थतः स्पृशन् सिजापरिसह-पुं०(शय्यापरि(री)षह) शय्या-वसतिस्तत्परिषहणं च उदाहरणमाह नियुक्तिकारः तज्जन्यदुःखदिरुपेक्षा। भ०८ श०८ उ०। समविषमभूमिकापाशूत्कर- कोसंबी जण्णदत्तो, य सोमदत्तो य सोमदेवो य। प्रचुरमतिशिशिरं बहुधर्मकं वा उपाश्रयं मृदु-कठिनादिभेदेनोव्वाववं वा आयरिय सोमभूई, दुण्हं पि य होइ णायव्वं // 108|| संस्तारकं वा प्राप्योद्वेगाकरणे, प्रव० 86 द्वार / "शुभाशुभायां सन्नाइगमणं वियड-वेरग्गा दोवि ते नईतीरे / शय्यायां, विषहेत सुखासुखे / रागद्वेषौ न कुर्वीत, प्रातस्त्याज्येति, पाओवगया नइपू-रएण उदहिं तु उवणीया // 10 // चिन्तयेत् // 1 // " ध० 3 अधि० / व्याख्या कोशाम्बी यज्ञदत्तः सोमदत्तश्च सोमदेवश्च आचार्यः सोमनैषेधिकीतश्च स्वाध्यायादि कृत्वा शय्यां प्रति निवर्तेतातस्त भूतियोरपि च भवति-ज्ञातव्यः / स्वातिगमनं विकटवैराग्यात् त्परीषहमाह द्वावपि तौ नदीतीरे पादपोपगतौ नदीपूरकेणोदधिं तूपनीतौ इति उचावयाहि सिजाहि, तवस्सी भिक्खू थामवं / गाथाद्वयाक्षरार्थः। णाइवेलं विहण्णिजा, पावदिट्ठी विहण्णइ // 22 / (सू०) भावार्थस्तु वृद्धसम्प्रदायादवसेयः, स चायम् - ऊर्ध्वं चिता उच्चा, उपलिप्तलाद्युपलक्षणमेतत्, यद्वा शीतातपनिवार कोसंबीए णयरीए जण्णदत्तो धिज्जाइओ, तस्स दो पुत्ता-सोमदत्तो कत्वादिगुणैः शय्यान्तरोपरिस्थितत्वेनोचाः तद्विपरीतास्त्ववचाः, सोमदेवा य / ते दोऽवि निविण्णकामभोगा पव्वतिया सोमभूईअनयोर्द्वन्द्रे उच्चावचाः नानाप्रकारा वोच्चावचास्ताभिः, शय्याभिः-- अणगारस्स अंतिए, बहुस्सुया बहुआगमा य जाया / ते अन्नया य वसतिभिः तपस्वी-प्रशस्यतपाऽन्वितो, भिक्षुः प्राग्वत्, स्थामवान् सन्नायपल्लिमागया, तेसिं मायापियरो उजेणिं गतेल्लिया / तहिं च शीतातपादिसहनं प्रति सामर्थ्यवान् नातिवेलं-- स्वाध्यायादिवेलाति विसए धिजाइणो वियर्ड आवियंति / तेहिं तेसिं वियर्ड अन्नेण दवेण क्रमेण विहन्यात्- हनेर्गतावपि वृत्तेरत्राहं शीतादिभिरभिभूत इति मेलेऊण दिण्णं / केऽवि भणंति-वियडं चेव अयाणताण दिण्णं, तेहि स्थानान्तरं गच्छेत् / यदा-अतिवेलाम्-अन्यसमयातिशायिनी मर्यादा वि य तं विसेसं अयाणमाणेहिं पीयं / पच्छा वियडत्ता जाया, ते समतारूपामुद्यां शय्यामवाप्याहो ! सभाम्योऽहं यस्येदृशी सकलर्तु चिंतेति-अम्हेहिं अजुत्तं कयं, पमाओ एस, वरं भत्तं पचक्खायंति। ते सुखोत्पादिनी मम शय्येति, अवचावाप्तौ वा अहो ! मम मन्दभाग्यता एगाए णदीए तीरे तीसे कट्ठाण उवरि पाओवगया। तत्थ अकाले वरिसं येन शय्यामपि शीतादिनिवारिकां न लभे इति हर्षविषादादिना न जायं, पूरो य आगतो, हरिया, बुज्झमाणा य उदएण समुई णीया / विहन्यात्-नोल्लङ्घयेत्, किमित्येवमुपदिश्यत इत्याह- 'पावदिट्ठी तेहिं सम्मं अहियासियं, अहाउयं, पालियं, सेज्जापरीसहो अहियासितो विहन्नइ' ति प्राग्वदिति सूत्रार्थः / समविसमाहिं सेजाहिं / एवं एसो अहियासियव्वो त्ति / उत्त०२ अ०। किं पुनः कुर्यादित्याह - "सेज" ति शय्या संस्तारकः- चम्पकादिपटी मृदुककठिनादिभेदेपइरिकमुवस्सयं लद्ध, कल्लाणं अदुव पावगं / नोचावचः प्रतिश्रयो वा पांशूत्करप्रचुरः शिशिरो बहुधर्मको वा तत्र किमेगरायं करिस्सइ, एवं तत्थऽहियासए ॥२३॥(सू०) नोद्विजत 11, आव० 4 अ०। 'पइरिक स्त्र्यादिविरहितत्वेन विविक्तमव्याबाध वा उपाश्रयं-वसति सिजापरिसहविजय-पुं०(शय्यापरी(रि)षहविजय) स्वरविषमप्रचुरलब्ध्वा-प्राप्त कल्याणंशोभनम् ‘अदुव' त्ति अथवा पापंपांशूत्करा शर्कराशकलसंकुलेषु शीतेषूष्णेषु वा देशेषु मृदुकठिनादिभेदभिन्नचम्पकीर्णत्वादिभिरशोभनं, किं ? न किञ्चित, सुखं दुःखं चेति गम्यते, कादिपट्टेषु वा निद्रामनुभवतः सम्यक् प्रवचनानुसारेण तत्कृतबाधाएका रात्रिर्यत्र तदेकरात्रं करिष्यति-विधास्यति ? कल्याणः पापको सहन, अरागगमने च / पं० सं०४ द्वार / वोषाश्रय इति प्रक्रमः | कोऽभिप्रायः ? केचित् पुरोपचितसुकृता सिजाभंड-न०(शय्याभाण्ड) शय्योपकरणे, भ० 11 श० 6 उ०। विविधमणिकिरणोदयातितासु महाधन-समृद्धासु महारजतरजतोपचिताभित्तिषु मणिनिर्मितोरुस्तम्भासु तदितरे तु जीर्ण विशीर्णभग्न सिप्लायर--पुं०(शय्यातर) शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति कण्टकस्थूणापटलसंवृतद्वारासु तृणकचवरतुषमू षकोत्करपांशुबुस शय्यातरः / साधूनां वसतिदातरि, दश०३ अ०। (सागारिय 'शब्देऽभस्मविणमूत्रावसङ्कीर्णासुश्वनकुलमार्जारमूत्र प्रसेकदुर्गन्धिष्वाजन्म स्मिन्नेव भागे 606 पृष्ठेऽस्य व्याख्या गता।) (शय्यातरेण कीदृशेन वसतिषु क्सन्ति ! मम त्वद्यवे यमीदृशी श्वोऽन्या भविष्यतीति किमत्र भवितव्यमिति ‘णिग्गंथी' शब्दे चतुर्थभागे 2048 पृष्ठे गतम्।) हर्षेण विषादेन वा ? मया हि धर्मनिहाय विविक्तत्वमेवाश्रयस्यान्वेष्यं, | सिजायरपिण्ड-पुं० (शय्यातरपिण्ड) शय्यातरो-वसतिकिमपरेणं? 'एवमिति-अमुता प्रकारेण 'तत्र' ति कल्याणे पापके | स्वामी तस्य पिण्डः / सागारिके ण दीयमाने अशनादिद्वादश Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिज्जायरपिंड 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिट्ट विधे पिण्डे, दश०३ अ०। ('सागारियपिण्ड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उदाहृतम्।) सिज्जायरमत्त-न०(शय्यातरभक्त) शय्यातरपिण्डे, नि० चू० 11 उ०। सिज्जावाली-स्त्री०(शय्यापालिका) 'शय्यारक्षिकायां शयनीयस्तरि कायाम्, आ० म० 1 अ० / सिज्जासंथार-पुं०(शय्यासंस्तार) शिरतेऽस्यामितिशय्या-वसतिः सैव संस्तारकः, यद्वा-शय्या-वसतिरेव संस्तारको द्विधा-परिशाटी, अपरिशाटी चेति / शय्योपलक्षितस्संस्तारकः शय्यासंस्तारकः / शय्या-शयनंलदर्थः संस्तारकः-संस्तारकभूमयः। अथवा--शय्यायां-- वसतौ संस्तारकाः शय्यासंस्तारकाः / ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / शय्यासंस्तारकोभये, बृ०१ उ०३ प्रक०। आचा०1 आव०। नि० चू०। पं० भा० / ग० / स०। सिज-न०(सिध्मन्) क्षुद्रकुष्ठविशेषे, भ०७ श०६ उ० / जं०। सिज्झिया-स्त्री०(साध्यापिका) प्रातिवेश्मिकस्रियाम, बृ० 1 उ०२ प्रक०। सिञ्च-सिच्-धा० / क्षरणे, "सिचे सिञ्चसिम्पौ" 466|| इति सिचधातोः सिञ्चसिम्पादेशौः। सिञ्चइ / सिम्पइ / सेअइ / सेचति। प्रा०४ पाद / सिट्ठ-पुं०(शिष्ट) शिष्टते स्म शिष्टः / वृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवोपलब्धविशुद्ध सेवामनुजविशेषे, ध० 1 अधि० / साधुजनसंमते, द्वा० 22 द्वा० / वेदरमृत्याद्यनुसारिणि, पञ्चा० 13 विव० / विशिष्टजने, पञ्चा० 13 विव० / क्षोणदोषे सम्यग्दृष्टौ, द्वा०। तल्लक्षणम् - अंशतः क्षीणदोषत्वात, शिष्टत्वमपि युक्तिमत् / अत्रैव हि परोक्तं तु, तल्लक्षणमसंगतम् // 16|| अंशत् इति-अंशतो-देशतः क्षीणदोषत्वाद्दोषक्षयवत्त्वात् शिष्टत्वमपि अत्रैव-सम्यग्दृष्टावेव युक्तिमत् न्यायोपेतम् / "क्षीणदोषः पुरुषः शिष्ट'' इति लक्षणस्य निर्वाधत्वात्। सर्वदोषक्षयेण सर्वथा शिष्टत्वस्य सिद्धे केवलिनि वा विश्रान्तत्वेऽपि सम्यग्दृष्टरारभ्य देशतो विचित्रस्य शिष्टत्वस्यान्यत्रानपायत्वात्। न चैवं शिष्टत्वस्यातीन्द्रियत्वेन दुर्घहत्वाच्छिष्टाचारेण प्रवृत्त्यनापत्तिरिति शङ्कनीयं प्रशमसंवेगादिलिङ्गैस्तस्य सुग्रहत्वात्। दोषा रागादय एव तेषां च दिव्यज्ञानादर्वाक् न क्षयमुपलभामहे, न वा तेषु निरंवयवेष्वंशोऽस्ति येनांशतः तत्क्षयो वक्तुं शक्येतेति चेन्न, अत्युचितप्रवृत्तिसंवेगादिलिङ्गकप्रबलतदुपक्षयस्यैवांशतोदोषक्षयार्थत्वात्, आत्मानुग्रहोपधातकारित्वेन चयोपचयवतः सावयवस्य कर्मरूपदोषस्य प्रसिद्धत्वाच्च इत्यन्यत्र विस्तरः हिनिश्चितं परोक्तं तु द्विजन्मोद्भावितं तु तस्य शिष्टस्य लक्षणम् असंगतमयुक्तम्। तथाहि - वेदप्रामाण्यमन्तृत्वं, बौद्धे ब्राह्मणताडिते। अतिव्याप्तं द्विजेऽत्र्याप्तं, स्वाषे, स्वारसिकं च तत् // 17 // | वेदेति-"वेदप्रामाण्यमन्तृत्वम्" एतावदेव शिष्टलक्षणम् ब्राह्मणताड़िते बौद्धेऽतिव्याप्तं, तेनापि "वेदाः प्रमाणम्" इत्यभ्युपगमात् / स्वारसिकं च तत् वेदप्रमाण्यमन्तृत्वं द्विजे ब्राह्मणेऽव्याप्तम्, / अयं भावःस्वारसिकत्वविशेषणेन बौद्धेऽतिव्याप्तिनिरासेऽपि स्वारसिकवेदप्रामाण्यमन्तृत्वम्" यदा कदाचिद्वाच्यं सर्वदा वा ? आद्ये बौद्धे एवातिव्याप्तितादवस्थ्यं, तस्यापि जन्मान्तरे वेदप्रामाण्याभ्युपगमध्रौव्यात् / अन्त्ये च शयनादिदशायां वेदप्रामाण्याभ्युपगमाभाववति ब्राह्मणंऽव्या-प्तिरिति / तदभ्युपगमाद्याव-न तन्यत्ययमन्तृता। तावच्छिहत्वमिति चे- त्तदप्रामाण्यमन्तरि॥१८|| तदिति-तस्य वेदप्रामाण्यस्याभ्युपगमात् यावन्न तव्यत्ययस्य, वेदाप्रामाण्यस्य मन्तृताऽभ्युपममः तावच्छिष्टत्वम् शयनादिदशायां च वेदप्रामाण्यानभ्युपगमाद् ब्राह्मणो नाव्याप्तिरिति भावः / अप्रामाण्यमन्यस्यापि स्वारसिकस्य ग्रहणाद्रौद्धताडिते ब्राह्मणे वेदाप्रामाण्याभ्युपगन्तरि नातिव्याप्तिः अप्रमाकरणत्वाभावयोश्च द्वयोरपि प्रमाण्यविरोधित्वेन संग्रहान्नैकग्रहेऽन्याभ्युपगन्तर्यतिव्याप्तिः / अत्राह-इति चेत्तदप्रामाण्यमन्तरिवेदाप्रामाण्याभ्युपगन्तरि / अजानति च वेदत्व-मच्याप्तं चेद्विवक्ष्यत्ते। वेदत्वेनाभ्युपगम-स्तथापि स्याददः किल ||19|| अजानति चेति-वेदत्वं च वेदेऽजानति ब्राह्मणे अव्याप्तं लक्षणमेतत् तेन वेदाप्रामाण्याभ्युपगमात् / अथ चेद्यदि वेदत्वेनाभ्युपगमो विवक्ष्यते वेद एव वेदत्वमजानतश्च न वेदत्वेनाप्रामाण्याभ्युपगमः किं त्थिदमप्रमाणमिति इदंत्वादिनैवेति नाव्याप्तिः, तथाप्यद एतल्लक्षणं किल / ब्राह्मणः पातकात्प्राप्तः, काकभावं तदापि हि। व्यानोतीशं च नोत्कृष्ट-झानावच्छेदिका तुनः / / 20 / / ब्राह्मण इति-यदा ब्राह्मणः पातकात् काकजन्मनिबन्धनाद् दुरितात् काकभावं प्राप्त; तदापि हि स्यात् ब्राह्मण्यदशायां वेदप्रभाण्याभ्युपगन्तृत्वात् काकदशायां च वेदाप्रामाण्यानभ्युपगन्तृत्वात् / उत्कृष्टज्ञानावच्छेदिका च तनुरीशंभवानीपतिं न व्याप्नोति / तथा च काकेऽतिव्याप्तिवारणार्थमुत्कृष्टज्ञानावच्छेदकशरीरवत्त्वे स्वतीति विशेषणदाने ईश्वरेऽव्याप्तिरित्यर्थः। अन्याङ्गरहितत्वं च, तस्य काकभवोत्तरम् / देहान्तराग्रहदशा-माश्रित्यातिप्रसक्तिमत् / / 21 / / अन्येति-अन्याङ्गरहितत्वं च अपकृष्टज्ञानावच्छेदकशरीरराहित्यं च तस्य ब्राह्मणभवानन्तरप्राप्तकाकभवस्य, काकभवोत्तरं देहान्तराग्रहदशां-शरीरान्तरानुपादानावस्थाम् आश्रित्व अतिप्रसक्तिमदतिव्याप्त तदानीमपकृष्टज्ञानावच्छेदकशरीर-राहित्यात्। अवच्छेदकदेहाना-मपकृष्टघियामथ / संबन्धविरहो यावान, प्रामाण्योपगमे सति / / 22 / / अवच्छे दके ति-अथ प्रामाण्यो पगमे सति-वेदप्रामाण्या Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिट्ट 817- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिट्ठ भ्युपगमकाले यावान अपकृष्टधियाम्-अवच्छेदकदेहानाम् अपकृष्टज्ञानावच्छेदकशरीराणां संबन्धविरहः-संबन्धाभावः। अप्रामाण्यानुपगम-स्तावत्कालीन एव हि / शिष्टत्वं काकदेहस्य, प्रागभावस्तदा च न // 23|| अप्रामाण्येति-तावत्कालीन एव हि-सकलतत्समानकालीन एव अप्रामाण्यानुपगमो-वेदप्रामाण्याभ्युपगमविरहः, शिष्टत्वं काकदेहस्य प्रागभावो वेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीनः, तदा च काकस्य मरणानन्तरं शरीरान्तराग्रहदशायां नास्तीति नातिव्याप्तिः / इत्थं च यावन्तं कालं वेदत्वेन वेदाप्रामाण्याभ्युपगमस्य विरहो वेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीनयावदप्रकृष्टज्ञानावच्छेदकशरीरसंबन्धाभावसमानकालीनस्तावन्तं कालं स शिष्टः / ब्राह्मणोऽपि बौद्धो जातो वेदाप्रामाण्यं यावन्नाभ्युपगतवान् तावच्छिष्ट एव / बौद्धोऽपि ब्राह्मणो जातो वेदप्रामाण्यं यावन्नाङ्गीकृतवांस्तावदशिष्ट एवेति फसितमाह पद्मनाभः / अत्र च वेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीन-त्वचत्तत्सामानाधिकरण्यमपि वाच्यम्। अन्यथोत्तरकालं तत्कालीनं यत्किंचिद्व्यधिकरणाप्रकृष्ट ज्ञानावच्छेदकशरीर-संबन्धप्राग्भावनाशेनाव्याप्त्यापत्तेः / नैवं तदुत्तरे विप्रे-ऽव्याप्तेः प्राक् प्रतिपत्तितः। प्रामाण्योपगमात्तन्न, प्राक् तत्रेति न सेति चेत् // 24 // नैवमिति-नैवं यथा विवक्षितं प्राक् तदुत्तरे विप्रे काकभवोत्तरमवाप्तब्राह्मणभवे प्राक्प्रतिपत्तितः प्राग्भवीयवेदप्रामाण्य-ग्रहमाश्रित्याव्याप्तेः / तदानीं तदीयवेदाप्रामाण्याभ्युपगमविरहस्य प्राक्तनब्राह्मणभवीयवेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीनयावदप्रकृष्टज्ञानावच्छेदकशरीरसंबन्धविरहासमानकालीनत्वादान्तरालिककाकभव एव काकशरीरसंबन्धप्रागभावनाशात् / प्रामाण्योपगमाद्वेदप्रामाण्याभ्युपगमात् प्राक् तत्र काकभवोत्तरब्राहाणे तच्छिष्टत्वं न इति हेतोरलक्ष्यत्वादेव न साडव्याप्तिः / वेदप्रामाण्याभ्युपगमे तु लक्षणसंपत्त्यैवेति भावः / इति चेन्नन्वेवं यत्किंचिद्वेदप्रमाण्याभ्युपगम एव ग्राह्यः। तथा च - यत्किचित्तद्ग्रहे पश्चात्, प्राक् च काकस्य जन्मनः / विप्रजन्मान्तराले स्या-त्सा घ्वंसप्रागभावतः // 25 // यत्किञ्चिदिति-यत्किञ्चित्तद्ग्रहे-यत्किञ्चिद्वेदाप्रामाण्याभ्युपगमस्य लक्षणमध्यनिवेशे काकस्य जन्मनः पश्चात् प्राक् च विप्रजन्मनोरन्तराले प्राप्तिविश्लेषाभ्यां मध्यभावे ध्वंसप्रागभावतः काकशरीरसंबन्धध्वंसप्रागभावावाश्रित्य सा प्रसिद्धाऽतिव्याप्तिः स्यात् / अयं भावः-यो ब्राह्मणः काको जातस्तदनन्तरं च ब्राह्मणो भविष्यति तस्य मरणानन्तरं | ब्राह्मणशरीराग्रहदशायामुत्तरब्राह्मणभवकालीनवेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीनकाकशरीरध्वंसेनैव लक्षणसाम्राज्यादव्याप्तिः / प्राक्तनकाकशरीरसंबन्धप्रागभावस्तु न तत्समानकालीन एवेति तस्यैव ब्राह्मणभवत्यागानन्तरं काकशरीराप्रहदशायां प्राक्तनब्राह्मणभवकालीनवेदप्रामाण्याभ्युपगमसमानकालीनकाकशरीरसंबन्धप्रागमावेना व्याप्तिरिति / किं चयो ब्राह्मणः प्राग् बौद्धो वृत्तस्तस्य स्वापादिदशायां वेदाप्रामाण्याभ्युमगमविरहस्याग्रिमब्राह्मणभवीयनिरुक्तयावच्छरीरसंबन्धाभावसमानकालीनत्वात्तत्रातिव्याप्तिरिति बोध्यम् / जीववृत्तिविशिष्टाङ्गा-भावाभावग्रहोऽप्यसन्। उत्कर्षचापकर्षश्चा-व्यवस्थो यदपेक्षया // 26 // जीवेति-जीववृत्तिविशिष्टः- क्षेत्रज्ञवृत्तित्वविशिष्टो योऽङ्गाभाव उत्कृष्टज्ञानावच्छेदकशरीराभावस्तदभावग्रहोऽपि तदभावनिवेशोऽपि काकेश्वरयोरतिव्याप्तिवारणर्थमसन्नदुष्टलक्षणाधानासमर्थः / यद्यस्मादुत्कर्षथापकर्षश्च अपेक्षया व्यवस्थितः / कीटिकादिज्ञानापेक्षयोत्कृष्टत्वात् काकादिज्ञानस्य, ब्राह्मणादिज्ञानस्य च देवादिज्ञानापेक्षयाऽपकृष्टत्वात् / इत्थं च तदवस्थ एवातिव्याप्त्यव्याप्ती / न च काकादिज्ञानव्यावृत्तं मनुष्यादिज्ञानसाधारणमुत्कर्ष नाम जातिविशेषमाद्रियन्ते भवन्तः, अन्यथा कार्यमात्रवृत्तिजातेः कार्यतावच्छेदकत्वनियमेन तद्वच्छिन्नेऽनुगतकारणकल्पनापत्तिः, ईश्वरज्ञानसाधारण्यान्न तस्य कार्यमात्रवृत्तित्वमिति चेत्तथापि देवदत्तादिजन्यतावच्छेदिकयाऽपकर्षविशेषेण च सांकर्यान्न जातित्वं तत्तद्ज्ञानावच्छेद्कशरीरसंबन्धाभावकूटस्तुहुर्ग्रह इति न किंचिदेतत्। ननु एकजन्मावच्छेदेन स्वसमानाधिकरणस्वोत्तरवेदाप्रामाण्याभ्युपगमध्वंसानाधारवेदप्रामाण्याभ्युपगमोत्तरकालवृत्तित्वविशिष्टवेदाप्रमाण्याभ्युपगमविरहः शिष्टत्वमिति निर्वचने न कोऽपि दोषो भविष्यतीत्यत आहअपि चाव्याप्त्यतिव्याप्ती, कात्य॑देशविकल्पतः। आद्यग्रहे स्वतात्पर्या-न दोष इति चेन्मतिः // 27 // अपि चेति-अपि च कात्य॑देशविकल्पतः कृत्स्नवेद-प्रामाण्याभ्युपगमो विवक्षितो देशतदभ्युपगमो वेति विवेचनेऽव्याप्त्यतिव्याप्ती / कृत्स्रवेदप्रामाण्याभ्युपगमस्य ब्राह्मणेष्वप्यभावात् / न हि वेदान्तिनो नैयायिकाद्यभिमतां श्रुति प्रमाणयन्ति, नैयायिकादयो वा वेदान्त्यभिमतां यत्- किंचिद्वेदप्रामाण्यं च बौद्धादयोऽप्यभ्युपगच्छन्ति, "न हिंस्यात् सर्वभूतानि, अग्निर्हिमस्य भेषजम्" इत्यादिवचनानां तेषामपि संमतत्वादिति। स्वतात्पर्यात्-स्वाभिप्रायमपेक्ष्य। आद्यग्रहे यावद्वेदप्रामाण्याभ्युपगमनिवेशे न दोषः, स्वस्वतात्पर्ये प्रमाणं श्रुतिरिति हि सर्वेषां नैयायिकादीनामभ्युपगमः / इति चेन्मतिः कल्पना भवदीया। नवं विशिष्य तात्पर्या- ग्रहे तन्मानताऽग्रहात् / सामान्यतः स्वतात्पर्य, प्रामाण्यं नोऽपि संमतम् // 28 // नैवमिति-एवं मतिर्नियुक्ता कस्याश्चिद् दुरवबोधायाः श्रुतेर्विशिष्य स्वकल्पितार्थानुसारेण तात्पर्याग्रह तन्मानतायास्तत्प्रमाणताया अग्रहात् / स्वतात्पर्ये सर्ववेदप्रामाण्याभ्युपगमस्य दुःशकत्वादनाकलिततात्पर्यायामपि श्रुतौ प्रमोपहितत्वाग्रहेऽपि प्रमाकरणत्वस्य सुग्रहत्वान्न दोष इत्यत आह-सामान्यतो नयरूपत्वेन स्वतात्पर्ये स्वाभिप्रायप्रमाण्ये वेदप्रामाण्यनोऽस्माकं जैनानामपि संमतम् / यावन्तो हि परसमयास्तावन्त एव नया इति श्रुतपरिकर्मितमतेः सर्व Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिट्ठ ८१८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिणाण मेव शब्दं प्रमाणीकुर्वतः सकलवेदभापाण्याभ्युपगमोऽमपाय एवे-ति। | सिटि-स्त्री०(शिष्टि) "ष्टयानुष्ट्रष्टासंदष्टे'' ||812 // 34 // इति / ष्टस्य ठः / द्वा० 15 द्वा० / शिष्टसमयानुपालनार्थं ग्रॉथादो संबन्धाभिधानम्- प्रा० / "इत् कृपदौ' ||8/11128 / / इति ऋत इत्त्वम् / प्रा० / कोऽपि शिष्योऽल्पश्रुतः कंचिदाचार्य पूर्वगतसूनार्थधारकं चालभ्य | रचनायाम्, अष्ट० 22 अष्ट० / श्रुतसागरपारगतं शिरसा प्रणम्य विज्ञपयति स्म। यथा भगवन्निच्छामि श्रेष्ठिन्-पुं० नगरमुख्यव्यवहारिणि, कल्प०१ अधि०३ क्षण / युष्माकं श्रुतनिधीनामन्ते यथावस्थितं कालविभागं ज्ञातुमिति / तत सिढिर-त्रि०(शिथिर) "मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः" एवमुक्ते सति आचार्य आह-शृणु वत्स ! तावदित्यादि, तथा-तदा // 81 / 215 / / इति थस्य डः / शिथिले, प्रा० 1 पाद / द्वतीयप्राभृतवृत्तावपि संख्यास्थानविसदृशत्वमाश्रित्योक्तम्, तथा-इह स्कन्दिलाचार्य प्रवृत्तो दुःषमानुभावतो दुर्मिक्षाप्रवृत्त्या साधूनां सिटिल-त्रि०(शिथि(र)ल) "मेथि-शिथिर-शिथिल-प्रथमे थस्य ढः" पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनशत् ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः घा२।२१।। इति थस्य ढः हरिद्रादित्वाद्रस्य लः। प्रा०। मन्दवीर्ये, संघयोर्मेलापकोऽभवत् / तद्यथा-एको वलभ्याम्, एको मथुरायाम्। आचा० 1 श्रु०५ अ० 3 उ० / श्लथ, भ०१ श०१ उ०। तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः / विस्मृतयोर्हि | सिढिलत्तया-स्त्री०(शिथिलता) शैथिल्ये, भ०१६ श सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटते भवत्यवश्यं वाचनाभेदोन काचिदनुपपत्तिः। | शिथिलत्वच-स्त्री० श्लथचमणि, भ० 16 श० 4 उ० / अधि० ग० 1 सिटिलीकय-त्रि०(श्लिष्टीकृत) सूत्रबद्धाग्नितप्तलोहशलाका-कलापसृष्ट-न० एकीभूते, स्था० 3 ठा० 3 उ० / कृषादित्वादृत्त इः / प्रा० वन्निधत्ते, भ०६ 201 उ०। 1 पाद। शिथिलीकृत-त्रि० मन्दपिपाकीकृते, भ०६ श०३ उ० / पं० सू० श्लिष्ट-न० मिलिते, स्था०३ ठा०३ उ० ! सिणाण-न०(स्नान) सोत्तमाङ्गशौचे, आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०१ सिद्वत्त-न०(शिष्टत्व) शिष्टभावे, वक्तुः शिष्टत्वसूचने , अभिमतसिद्धान्तो- उ० / स्नानं / देशस्नानं सर्वस्नानञ्च देशस्नानं-हस्तपादमुखतार्थतायां वक्तुः शिष्टतासूचकत्वे च / स० 35 सम० दशमे प्रक्षालनम्। सर्वस्नानं शिरसा स्नातत्वे सत्यागम प्रसिद्धया। षो०६ सत्यवचनातिशये, रा०। विव०। स्नानंच देशसर्वभेदभिन्नं देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणाक्षिसिट्ठगिहत्थ-पुं०(शिष्टगृहस्थ) वेदस्मृत्याद्यनुसारिणि गृहस्थे, पञ्चा० पक्ष्मप्रक्षालनमपि / सवंस्नानं प्रतीतम् ! "राइभत्ते सिणाणे य गंध१३ विव०। मल्ले य वीयणे" / अनाचरित्तम्, दश०३ अ०। जीत०। स्नानं द्रव्यसिट्ठजन-पुं०(शिष्टजन) विशिष्टभव्यलोके, षो०८ विव०। भावसंयोजितम्, स्नानं वा विलेपनं चन्दनकुङ्कुमादिभिः / षो०६ सिट्ठाऽऽयार-पुं०(शिष्टाऽऽचार) शिष्टचरिते, ध० तथा शिष्यन्तेस्म विव० / अभ्यङ्गपूर्वकेऽङ्गप्रक्षालने, तचायतनयाऽत्र संसक्तभूभ्यां शिष्टाः वृत्तस्थज्ञानवृद्धसेवोपलब्धविशुद्धशिक्षा मनुजविशेषास्तेषामा संपातिमसत्त्वाकुले वा काले वस्त्रापूतजलेन वा यत् कृतम् / आचा० चारश्चरितम् / यथा 1 श्रु०६ अ०४ उ०। स्नानं तैलाभ्यङ्गादिपूर्वकं देवपूजार्थ करणेन "लोकापवादभीरुत्वं, दीनाभ्युद्धरणादरः / नियमभङ्गः लौकिककारणे च यतना रक्ष्या। ध०२ अधि०। कृतज्ञतासु दाक्षिण्यं, सदाचारः प्रकीर्तितः // 1 // साम्प्रतं स्नानप्रतिपादकं सप्तदशस्थानमाहसर्वत्र निन्दासंत्यागो, वर्णवादश्च साधुषु / वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए। आपद्यदैन्यमत्यन्तं, तद्वत्संपदि नम्रता ||2|| वुकंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो // 60|| प्रस्तावे मितभाषित्व-मविसंवादनं तथा। संतिमे सुहुमा पाणा, घसासु भिलुगासु अ / प्रतिपन्नक्रिया चेति, कुलधर्मानुपालनम् // 3 // जे अ भिक्खू सिणायंतो, विअडेणुप्पलावए // 61|| असद्व्ययपरित्यागः, स्थाने चैव क्रिया सदा। तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा / प्रधानकार्ये निर्बन्धः, प्रमादस्य विवर्जनम् // 4 // जावजीवं वयं घोर, असिणाणमहिटगा // 6 // लोकाचारामुवृत्तिश्च, सर्वत्रोचितपालनम् / सिणाणं अदुवा ककं, लुद्धं पउमगाणि अ। प्रवृत्तिर्गर्हिते नेति, प्राणैः कण्ठगतैरपि // 5 // " गायस्सुय्वट्टणट्ठाए, नायरंति कथाइ वि / / 3 / / इत्यादि / तस्य प्रशंसा--प्रसंशनं पुरस्कार इत्यर्थः, यथा- "गुणेषु 'वाहिओ व त्ति सूत्रम्, व्याधिमान् वाव्याधिग्रस्तः अरोगी वायत्नः क्रियतां किमाटीपेः प्रयोजनम् / विक्रीयन्ते न घण्टाभिर्गावः रोगविप्रमुक्तो वा स्नानम्- अङ्गप्रक्षालनं यस्तु प्रार्थयते-सेवत क्षीरविविजिताः॥१॥" तथा--"शुद्धाः प्रसिद्धिमायान्ति, लघवोऽ- इत्यर्थः, तेनेत्थंभूतेन व्युत्क्रान्तो भवति, आचारो-बाह्यतपोरूपः पीह नेतरे / तमस्यपि विलोक्यन्ते, दन्तिदन्ता न दन्तिनः // 1 // " अस्नानपरीषहानतिसहनात्, 'जढः' परित्यक्तो भवति संयम:इति / / ध० 1 अधि०। माणिरक्षणादिकः, अप्कायादिविराधनादति सूत्रार्थः // 60 // सिट्ठाऽऽयारपसंसा-स्त्री०(शिष्टाचारप्रशंसा) शिष्टाचारपुरस्कारे, ध० प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह- 'संतिमे' त्ति सूत्रम्, 1 अधि०। सन्ति एते-प्रत्यक्षोपलभ्यमानस्वरूपाः सुक्ष्मः-श्लक्ष्णाः 'प्राणिनोदी / Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिणाण 816 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिणाय न्द्रियादयः घसासु-शुविरभूमिषु भिसुगासु च-तथा विधाभूमिराजीषु "सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वयमेव स्वयंभुवा / च, यांस्तु भिक्षुः स्नानजलोज्झमक्रिययो विकृतेन-प्रासुकोदकेनो- - द्रव्यभावविशुद्ध्यर्थ-मृषीणां ब्रह्मचारिणाम् / / 1 / / त्प्राचत्रति, तथा च तद्धिसधनाक्तसंयमपरित्याग इति सूत्रार्थः // 61 // आग्रेयं वारुणं ब्राह्मणं, वायव्यं विव्यमेव च। निगमयन्नाह 'तम्ह' त्ति सूत्रस् यस्मादेवमुक्तदोषप्रसुङ्गस्तस्मात् ते- पार्थिवं मानसं चैव, स्नानं सप्तविधं स्मृतम् // 2 // साधवो न स्न्नानि शीतेन वोष्णेनोदकेन; प्रासुकेनाप्रासुकेन वेत्यर्थः, आग्नेयं भस्मना स्नान, सवगाह्यं तु वारुणम् / किंबिशिष्टास्त इत्याह-यावज्जीवम्-आजन्म व्रत घोरम् दुरनुचरम- आपोहिष्ठामत्यं ब्राह्मयं, वायव्वं तु गवां रजः ||3|| स्नानमाश्रित्य अधिष्ठातार:- अस्यैव कर्तार इति सूत्रार्थः // 62 / सूर्यदृष्ट तु यद् दृष्ट, तदिव्यमृषयो बिदुः। किंच- 'सिणाणं' ति सूत्रम्-स्नानं-पूर्वोक्तम् / अथवा-कल्कं- पार्थिवं तु मृदा स्नानं, मनःशुद्धिस्तु मानसम् // 4 // " चन्दनकल्कादिलोभ्रं-गन्धद्रव्यं पद्मनानिच-कुकुमकेसराणि, चशब्दा- स्था० 5 ठा०३ उ० / आचा०। स्नात्यनेनेति, स्नानम्। दन्यच्चैवबिधं गात्रस्य उद्वर्तनार्थम्-उद्वर्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचि भन्घोदकादिके, उत्त० 21 अ० / सुगन्धिद्रव्यसमुदाये, आचा० 2 दपि, यावजीवमेव भावसाधव इति सूत्रार्थः // 63 / / दश०६ अ०२ उ०। श्रु०१ चू० 2 अ०१ उ०। "मलमइलपंकमइला, धूलीमइला न ते नरा मइला / सिणाय-पुं० [स्नात(क)]क्षालितसकलघातिकर्ममलत्वात्स्नात इव जे पापपंकमइला, ते मइला जीवलोयम्मि // 166 / / स्नातः स एव स्नातकः / ध०३ अधि० / घातिकर्ममलक्षालनावाप्तखणमित्तं सलिलेहि, सरीरदेहस्स सुद्धिजणगं जं। शुद्धस्नानस्वरूपे निर्ग्रन्थभेदे, स्था० 3 ठा०२ उ० / भ० / कामंगं ति णिसिद्ध, महेसिगं तं ननु सिणाणं / / 170|| सिणाते पंचविधे पण्णत्ते, तं जहा-अच्छवी 1 असबले 2 उक्तं च / / अकम्मंसे 3 संसुद्धणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली / "स्नानं मददर्पकरं, कामाङ्गं प्रथमं स्मृतम् / अपरिस्सावी 5, 6 / (सू० 4454) तस्मात्काम परित्यज्व, नैव स्नान्ति दभे स्ताः" ||171 / / स्नात इव स्नातः स एव स्नातकः, सयोगोऽयोगो वा केवलीति / ध००१ अधि० 10 गुण / अधुनैत एव भेदत उच्यन्ते, तत्र पुलाक इत्यासेवापुलाकः पञ्चविधो, लब्धिपुलाकस्यैकविधत्वात्, तत्र स्खलितमिलितादिभिरतिचारैतथा-ज्ञाऽवाचि ज्ञनिमाश्रित्यात्मानम् असारं कुर्वन् ज्ञानपुलाकः, एवं कुद्दष्टिसंस्त"नोदकक्लिन्नगात्रोऽपि, स्नात इत्यभिधीयते / वादिभिर्दर्शनपुलाकः, मूलोत्तरगुणप्रतिसेवनातवरणपुलाकः, यथोक्तस स्नातो यो दमस्नातः, स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः // 171 // लिङ्गाधिकग्रहणात् निष्कारणेऽन्यलिङ्ग करणाद्वा लिङ्गपुलाकः, चित्तमन्तर्गतं दुष्ट, तीर्थस्नानैर्न शुध्यति। किश्चित्प्रमादान्मनसाऽकल्प्यग्रहणाद्वा यथा सूक्ष्मपुलाको नाम पञ्चम शतशोऽपि जलधौत-- सुराभाण्डमिवाशुचि'' ||175 / / इति / यकुशो द्विविधोऽपि पञ्चविधः, तत्र शरीरोपकरणभूषयोः ध० 201 अधि० 10 गुण / गृहस्थानां स्नानसंलोके न तिष्ठत्।। सञ्चिन्त्यकारी, आभोगवकुशः, सहसाकार। अनाभोगवकुशः प्रच्छन्नआचा०२ श्रु०१चू०१ अ०६ उ० स्नानं मनोमलत्यागो 'योगश्चे कारी संवृतवकुशः प्रकटकारी असंवृतवकुशः, मूलोत्तरगुणाश्रितं वा न्द्रियरोधनम् / अभेददर्शनं ज्ञानं, ध्यानं निर्विषयं मनः // 1 // न तु संवृतासंवृतत्वं किञ्चित्प्रमादी अक्षिमलाद्यपनयन्वा यथा सूक्ष्मवकुशो बाह्याविशुद्धिः "जं भग्गहा बाहिरियं विसोहिं, ण तं सुदिट्ठ कुसला नाम पञ्चम इति / कुशीलो द्विविधोऽपि पञ्चविधस्तत्र ज्ञानदर्शन वयंति।" जयघोषं प्रति विजयघोषः स्नाननिरूपणायाह- "द्रव्यतो चारित्रलिङ्गान्युपजीवन् प्रतिसेवनतो ज्ञानादिकुशीलो लिङ्गस्थाने भावतश्चैव, द्विधा स्नानमुदाहृतम् / बाह्यमाध्यात्मिकं चेति, तदन्यैः क्वचित् तपो दृश्यते तथाऽयं तपश्चरतीत्येवमनुमोद्यमानो हर्षङ्गच्छन् परिकीर्त्यते // 1 // " उत्त० 12 अ० 1 "पाओसिणाणादिसु णस्थि यथासूक्ष्मकुशीलः प्रतिसेवनयैवेति, कषायकुशीलोऽष्येवं नवरं क्रोधा दिना विद्यादिज्ञानं प्रयुञ्जानोज्ञानकुशीलो दर्शनग्रन्थं प्रयुञ्जानो मोक्खो; खारस्स लोणस्स असासएणं / ते मञ्जमंसं लसणं च मोचा, दर्शनतः, शापं ददचारित्रतः कषायैर्लिङ्गान्तरं कुर्वन् लिङ्गतो, मनसा अणत्थवासं परिक्रप्पयंति // 1 // " सूत्र०१ श्रु०७ अ०1 ('कुसील' कषायान् कुर्वन् यथासूक्ष्म। चूर्णिकाकारव्याख्या त्वेवं सम्यगाराधनशब्दे तृतीयभागे 610 पृष्ठ व्याख्यातैषा।)"दगेण जे सिद्धिमुदाहरंति, विपरीता प्रतिगता वा सेवना प्रतिसेवना। सा पञ्चसुज्ञादिषु येषां ते सायं च पायं उदगं फुसंता / दगस्स फासेण सिवा य सिद्धि, सिज्जं तु प्रतिसेवनाकुशीलाः कषायकुशीलास्तु / पञ्चसुज्ञानादिषु येषां पाणा बहवे दगंसि।" सूत्र०१ श्रु०७ अ०। ('उदग' शब्दे द्वितीयभागे कषायै-विराधना क्रियत इति / अन्तर्मुहूर्तयमाणाया निर्ग्रन्थाद्धायाः 766 पृष्ठे व्याख्यातैषा गाथा।) "न शक्यं निर्मलीकर्तु, गात्रं स्नान प्रथमे समये वर्तमान एकः शेषेषु द्वितीयः अन्तिमे तृतीयः शेषेषु शतैरपि अश्रान्तमेव स्रोतोभिरुगिरनवभिर्मलम् // 1 // " उत्त० 2 चतुर्थः सर्वेषु पञ्चम् इति विवक्षया भेद एषामिति / छविः-- शरीरं अ० / अपत्यार्थ मन्त्रौषधीभिः संस्कृतजलैर्मूलादिस्नाने, रागेमुक्तस्नाने तदभावात्काययोगनिरोधे सति अच्छविर्भवति अव्यथको वा 1, च। उत्त०१५ अ०। (ग्लानस्य स्नानं गिलाणं' शब्दे तृतीयभागे 858 निरतिचारत्वाद शबलः 2, क्षपितकर्मत्वादकांश इति 3 तृतीयः / पृष्ठे गतम्। ज्ञानान्तरेणासंपृक्तत्वात्संशुद्धज्ञानदर्शनधरः पूजार्हत्वादर्हन् नास्य सप्त स्नानानि लौकिकैः पुनरिदं सप्तधोक्तम् / यदाह- रहा-रहस्यमस्तीत्यरहा वा, जितकषायत्वात् जिनः, केवलं परिपूर्ण Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिणाय ८२०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिण्हाय ज्ञानादित्रयमस्यास्तीति केवलीति चतुर्थः 4 / निष्क्रियत्वात् सकल- शमितदर्शनः शमितं-ध्वस्तं दर्शन-मिथ्यादर्शन येन सशमितदर्शनः / योगनिरोधे अपरिश्रावीति पञ्चमः 5 / क्वचित्पुनः- अर्हन् जिन इति अथवा-सम्यक्प्रकारेण इतं-प्राप्तं दर्शनं सम्यक्त्वं येन स समितदर्शनः पञ्चमः / स्था० 5 ठा०३ उ० / भ० / प्रव०। पं० भा० / 'सिणाए एतादृशः संयमी एतदर्थ--पूर्वोक्तमर्थम् अशरणादिकं 'सपेहाए' - ण' मित्यादौ 'नो उवसंतवेयए होजा खीणवेयए होज' त्ति-क्षपक- स्वपेक्षया--स्वबुद्ध्या 'पासे' इति–पश्येत हृदि अवधारयेत्, च-पुनः श्रेण्यामेव स्नातकत्वभावादिति / भ० 12 श० 5 उ० / "सुहझाण- गेद्धिं गृहिं रसलाम्पट्यं च-पुनः स्नेहं पुत्रकलत्रादिषु रागं छिन्द्यात् / जलविसुद्ध, कम्ममलाविक्खया सिणाउ त्ति / दुविहो य सो सजोगी, पुनः पूर्वसंस्तवः-पूर्वपरिचयः एकया ग्रामादिवासस्तं न स्मरेत्। उत्त० तहा अजोगी विणिट्ठिो // 14 // " ध० 20 3 अधि०७ लक्ष / 6 अ01 तथाविधभार्यादेशवशवर्तित्वेन स्वनामख्याते पुरुष, पिं०। ('मानपिंड' नमिऊणंऽरहंताणं, सिद्धाणं कम्मचकमुकाणं / शब्दे षष्ठे भागे अस्य कथा कथिता / ) सयणसिणेहविमुका-ण सव्वसाहूण भावेणं / नि० चू०१ उ०। सिणायग-पुं०(स्नातक) स्नाते, स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् / हा०२ "रेवापयः किसलयानिच सल्लकीनां, विन्ध्योपकण्ठविपिनं स्वकुलं अष्ट०। जिनगृहे स्नपनं स्नात्रं तदपि प्रत्ययं पर्वसुवा, करणाशक्तेनापि च हित्वा। किं ताम्यसि द्विप ! गतोऽसि वशं करिण्याः, स्नेहो निबन्धप्रतिवर्षमेकैकं साडम्बरसमग्रसामग्रीमेलनादिपूर्वं कार्यम् / स्था० 4 नमनर्थपरंपरायाः" ||1|| सूत्र० 1 श्रु०२ अ०२ उ० / आ० चू०। ठा० 1 उ० / ध० / पर्वसु जिनगृहे स्नपनं कार्यम् / देवस्नातको सिणेहकाय-पुं०(स्नेहकाय) अप्कायविशेषे, भ०१श०६ उ०) देवश्रेष्ठः / सूत्र०२ श्रु०२ अ० / बोधिसत्त्वे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। घातिकर्ममलक्षालनावाप्तशुद्धज्ञानस्वरूपे निर्ग्रन्थभेदे, स्था० 5 ठा० सिणेइज्झवसाण-न०(स्नेहाध्यवसान) स्नेहहेत्वध्यवसानभेद, आ० 3 उ०। षट्कर्मभिरतेषु वेदाध्यापकेषु शौचाचारपरतया नित्यं स्नायिषु क०४ अ०। ब्रह्मचारिषु, "सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिए माहणाणं सिणेहद-न०(स्नेहा) अभिष्व नाट्टै जीवभेदे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। // 29 // " सूत्र० 207 अ० / (अत्र दूषणम् 'अदृगकुमार' शब्दे सिणेहपयवजिय-न०(स्नेहपयोवर्जित) स्नेहेनघृतादिना पयसा क्षीरेण प्रथमभागे 555 पृष्ठे उक्तम्।) पर्वसु त्रिपञ्चसप्तकुसुमाञ्जलिप्रक्षेपादिपूर्वे वर्जितं भक्तम् / घृतपयोवर्जिते भक्ते, ओघ०। भगवतः स्नपने, ध० 2 अधि० 1 (सविस्तरपूजावसरे च नित्यं सिणेहपरूवणा-स्त्री०(स्नेहप्ररूपणा) कर्मपुद्गलानां संबन्धजनकस्नेहविशेषतश्च पर्वसु त्रिपञ्चसप्तकुसुमाञ्जलिप्रक्षेपादिपूर्व भगवतः स्नात्रं प्ररूपणायाम, पं० सं०५ द्वार / विधेयमिति 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1287 पृष्ठे गतम् / ) सिणेहपाण-न०(स्नेहपान) द्रव्यविशेषपक्वघृतादिपाने भैषज्यविषये, सिणिद्ध-त्रि०(स्निग्ध) आर्द्र, आचा०२ श्रु०२ चू०१ अ०१ उ०। ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। स्था० / घने, औ०। अरूक्षे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०1शुभकान्तौ, रा०। सिणेहराग-पुं०(स्नेहराग) सिणेहरागो नाम यो यस्मिन् विषये मूञ्छितसिणेह-पुं०(स्नेह) स्वजनादिषु प्रेमणि, उत्त० 1 अ० / सूत्र० / स्तस्य तद्विषयमूर्खायाम्, आ० चू०१०। (अत्रोदाहरणं, राग' शब्दे स्निग्धभावे, सूत्र०२ श्रु०३ अ० स्था०1"छेदणे भेदणे चेव, घंसणे षष्ठे भागे समुपदर्शितम्।) पीसणे तहा / अभिघाते सिणेहे य, कारे स्वारेत्ति यावरे // 1 // " नि० सिणेहविगह-स्त्री०(स्नेहविकृति) स्नेहरूपासु विकृतिषु, स्था० 4 चू०१ उ० तैलघृतादौ, स्था० 10 ठा०३ उ०। मात्रादिसंबन्धहेतौ, ठा०१ उ०। औ० / जले, कल्प०३ अधि०६ क्षण ! रागस्नेहयोः कः प्रतिविशेषइत्युच्यते, रूपाधाक्षेपजनितः प्रीतिविशेषो रागः, सामान्य-तस्त्वप- | सिणेहसुहुम-न०(स्नेहसूक्ष्म) अवश्यायहिममिहिकाकरकह-रतनुरूपे त्यादिगोचरः स्नेहः / आव०१ अ०। सूक्ष्मभेदे, स्था० 8 ठा०३ उ०। माया पिया पहुसा भाया, भला पुत्ता य ओरसा। से किं तं सिणेहसुहमे सिणेहसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं नालं ते मम ताणाय, लुप्पंतस्स सकम्मुणा // 3 // जहा-उस्साहिमए मिहिया करए हरतणुए जे छउमत्थेणं० जाव पडिलेहियव्वे भवइ से तं सिणेहसुहुमे / (सू० 454) पण्डितः इति विचारयेदिति अध्याहारः कर्तव्यः इतीति, किम् एते मम त्राणायमम रक्षायै न अलं - न समर्थाः / कथंभूतस्य मम, कल्प०३ अधि० 6 क्षण / दश०) स्वकर्मणा पीड्यमानस्य / एते के माता पिता स्नुसापुत्रबधू भ्राता सिहाययन-न०(स्नेहायतन) जलाऽऽवाहनस्थाने, कल्प०३ अधि० सहोदरः भार्या--पत्नी पुत्राः पुत्रत्वेन मानिताः च-पुनः औरसाः ६क्षण। स्वयमुत्पादिताः, एते सर्वेऽपि स्वकर्मसमुद्भूतदुःखाद् रक्षणाय न सिण्ह-पुं०(शिश्न) "सूक्ष्म-श्न-ष्ण-स्न-ह-ह-क्ष्णां ग्रहः" समर्थाः भवन्तीत्यर्थः। ||8/2175 / / इति / संयुक्तस्य श्नस्य ग्रहः / पुरुषचिह्ने, प्रा०। एअमटुं सपेहाए, पासे समियदंसणे। सिण्हाय-पुं०(स्नानीय) स्नानकरणयोग्यजलाधारे, उत्त०१२ अ०) छिंदे गेहिं सिणेहं च, न कंखे पुव्वसंथवं // 4|| त्रि०ा शुचिभूते, उत्त० 12 अ० / Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सित 521 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध सित-त्रि०(सित) बद्धे, नं०। सित्त-त्रि०) (सिक्त) केवलोदकेवार्दीकृते, ग०१ अधि० / ज्ञा० / भ० / रा० / उदकच्छण्टने कृतसेवने, औ० / जी० / सित्त-पुं० (सित्ति) ऊर्ध्वमधो वा गच्छतः सुखोत्तारावतारहेसौ काष्ठादिमये पथि, व्य०१० उ०। ('भत्तपञ्चक्खाण' शब्दे पञ्चमभागेऽप्रत्यविस्तरो गतः 1) सित्थ-न० ((सिक्थ) 'क-ग-ट-ड-त-द-प-श-ष-स- क -पामूलुक्' // 8 / 277 // एषां संयुक्तवर्णसंबन्धिनामूज़ स्थितानां लुष्मवति / सिक्थं सित्थं / कणे, प्रा० / ग० / आ० म० / अनु० / प्रश्न० / विपा० / मधूच्छिष्टे रज्जुनिर्मिते पदार्थ, नील्याञ्च / भक्तपुलाके, ग्रासे च / पुं० / वाच०। सिद्ध पुं० (सिद्ध) ये येन गुणेन निष्पन्नाः परिनिष्ठिताः सिद्धौदनन्नद्; न पुनः साधनीया इत्यर्थः / ध० 2 अधि० कल्प० / एगे सिद्धे / (सू०४६+) सिद्ध्यति स्म कृतकृत्यो भवेत् सेधयति स्म वा- अगच्छत् अपुनरावृत्त्या लोकाग्र मिति सिद्धः। सितं वा बद्धं कर्म ध्मातं दग्धं यस्य स इति निरुत्कात् सिद्धः / कर्मप्रञ्चनिर्मुक्तः, स च एको द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतस्त्वनन्तपर्याय इति, अथवा-सिद्धानामन्तत्वेऽपि तत्सामान्यादेकत्वम् / अथवा कर्मशिल्पविद्यामन्त्रयौगागमार्थयात्राबुद्धितपः कर्मक्षयभेदेननिकत्वेऽप्यस्यैकत्वं / सिद्धशब्दाभिधेयत्वसाम्यादिति। कर्मक्षयसिद्धस्य च परिनिर्वाणम् / स्था० 1 ठा० / कर्मप्रपञ्चनिर्मुक्ते, पा० / अंपगतसकलकर्ममले, चं० प्र०१ पाहु0 1 दशा० / भ० / दश० / आव०। अशेषद्वन्द्रररिते, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ० 4 अ०। शुक्लध्यानानलनिर्दग्धक्रमेन्धे मुक्तिपदभाजि जीवे, पा० / अपगतसकतकर्माशेन परमसुखिनि एकान्तकृतकृत्ये आ० म० 1 अ० / कर्मविगमात् कृतकृत्ये, ल०। आव० 2 अ० / निर्दग्धानेकभवकर्मेन्धने, ल०। जी०। सूत्र० सेवा०। पं० सू० / आ० चू० / सिद्ध खेत्तलोगस्स निरवसेसाणं च कम्मपगडीणं जो खाइ भावलोगो तस्स उत्तमा खीणसव्वकम्म त्ति भणितं होति / आ० चू०४ अ० / सिद्धः पञ्चदशविधः। विशे०। अथ सिद्धनमस्कारं व्याचिख्यासुराहसिद्धो जो निप्फन्नो, जेण गुणेण स य चोहसविगप्पो / नेओ नामाईओ, ओयणसिद्धाइओ दव्वे // 3027 // इह 'सिद्ध' इति कोऽर्थः ? उच्यते - "षिध संराद्धौ' राध साध संसिद्धौ षिधू शास्त्र माङ्गल्ये च' सिध्यति स्म सिद्धो यो येन गुणेण निष्पन्नः-परिनिष्ठितः, न पुनः साधनीय इत्यर्थः / स च सिद्धः सामान्यतो नामसिद्धादिभेदाचतुर्दशविधोज्ञयः। तत्र नामस्थापनासिद्धौ सुगमौ। द्रव्यसिद्धस्तु सिद्धोनिष्पन्न ओदनः, आदिशब्दात्पाकोत्तीर्ण घटादिगृह्यते, अस्यौदनादेर्निष्पन्नत्वगुणेन परिनिष्टितत्वात्। अप्रधानत्वेन च द्रव्यत्वात् इति गाथार्थः / शेषानेकादश सिद्धभेदानाह -- कम्मे सिप्पे य विजाए, मंते जोगे य आगमे / अत्थ जत्ता अभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय // 3028|| कर्मसिद्ध शिल्पसिद्धौ, विद्यासिद्धः, मन्त्रसिद्धः, योगसिद्धः, आगमसिद्धः, अर्थसिद्धः, यात्रासिद्धः, अभिप्रायोबुद्धिपर्यायस्ततो बुद्धिसिद्धः, तपःसिद्धः, कर्मक्षयसिद्धः / इति नियुक्तिश्लोकसमासार्थः / एतेषां च कर्मादिसिद्धानां स्वरूपप्रतिपादनपराः 'कम्मं जमणाईओ' इत्यादिकाः 'न किलम्मइ जो तवसा' इतिगाथापर्यन्ता एकचत्वारिंशद् गाथाः सकथानकभावार्था मूलावश्यकटीकातोऽवसेया इति / अथ कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपञ्चतो निरुक्तविधिना प्रतिपादयन्नाहदीहकालरयं जंतु-कम्मं से सियमहहा / सियं धंतं ति सिद्धस्य, सिद्धत्तमुवजायइ // 3026 / व्याख्या-दाघः संतानापेक्षयाऽनादित्वात् स्थितिबन्धकालो यस्य तद् दीर्घकालम्, निसर्गनिर्मलजीवस्यानुरञ्जनाद् मालिन्यापादनाद् रजः, अथवा-स्नेहेन बन्धनयोग्यं भवतीति साम्याद्रजः सूक्ष्मत्वसाम्याद् वा रज इति कर्मण एव विशेषणम्, दीर्घकालं च तद् रजश्चेति दीर्घ कालरजः 'नं तु कम्मति' दीर्घकालरजोरूपं यत्कर्म दीर्घकालस्थिातकं रजोरूपं यत् कर्मेत्यर्थः, एतचैवंविधं कर्म, तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वादत्र भव्यस्य, संबन्धि गृह्यते, नाभव्यस्य, तस्य वक्ष्यमाणध्मातत्वायोगात्, अथवा भव्यसंबन्धित्वमिह कर्मणो ध्मातत्वसामर्थ्यादेव लभ्यते। यच्छब्दोऽपि साक्षादुपात्ते कर्मणि न तथाविधं साफल्यमनुभवति; अतः 'जंतुकम्म' इत्येतदन्यथा व्याख्यायतेजन्तु-जीवस्तस्य कर्म जन्तुकर्म / अनेनाबद्धकर्मव्यवच्छेदमाह - वद्धं यत् कर्मेत्यर्थः / कथंभूतं यत्कर्म जन्तुकर्म वा ? इत्याह- 'से सियमट्टह' त्ति झानावरणाद्यष्टप्रकारैः पूर्व 'से' तस्य सितं बद्धमित्यर्थः / अथवा 'से सियं' ति अनाभोगनिर्वर्तितयथाप्रवृत्तकरणेन सम्यग्ज्ञानाद्युपायतश्च क्रमेण शेषितं शेष कृतं, स्थित्यनुभवादिभिरल्पीकृतमित्यर्थः / तद् दीर्घकालस्थितिक रजोरूपं भव्यस्य संबन्धि यत्कर्म जन्तुकर्म वा पूर्वमष्टधा बद्धं तत् कर्म शेषितं सत्, किम् ? इत्याह - "सियं धंतं ति' ति सितमित्थं बद्धं ध्मातं तीव्र ध्यानानलेन दग्धं क्षपितं महाग्निना लोहमलवदस्येति सिद्ध इति निरुक्तिः / एवं च कर्मदहनान्तरं सिद्धस्यैव सतः सिद्धत्वमुपजायते नासिद्धस्य, 'नेरइएसु उववजई' इत्यादि-निश्चयनयमताश्रयणादिति। उपजायत इति तदात्मनः स्वाभाविकं सत्सिद्धत्वमनादिकर्मावृतं तदावरणविगमेनाविर्भवत्येव, न पुनरसदुपजायत इति प्रतिपत्तव्यम्, असतः खरविषाणस्येव जन्मायोगादिति। अथवा सिद्धस्य सिद्धत्वं __सद्भावरूपमुपजायते न तु प्रदीपनिर्वाणकल्पमभावरूपमिति। एवं नयम Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 522 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध तान्तरव्यवच्छेदार्थमेतत् / तथा बाहुरेके -- "दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काश्चित्, स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् // 1 // जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम्। दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित्स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् // 2 // " इत्यादि एवंविधसिद्धत्वाभ्युपगमे दीक्षादिप्रयासवैयनिरन्वयक्षणभङ्गस्य चाघट्मानत्वादिति। अथवा 'दीहकालस्य' इति एतदन्यथा व्याख्यायते रयो वेगश्चेष्टाविशेषः फलमनुभव इत्यनर्थान्तरम् ततश्च सन्तानेनानुभूयमानत्वाद्दीर्घकालो रयोऽनुभवो यस्य तद्दीर्घकालस्यं यद्भव्यकर्म जन्तुकर्म वा तथा 'ससिय' मिति एतदप्यन्यथा व्याख्यायते-लेश्याविशेषाश्लषितं वययोगोलक न्यायाजीवेन सह संश्लेषमुपगतम् / अष्टधा सितमित्यादितु तथैवेति नियुक्तिश्लोकसंक्षेपार्थः। आह ननु यच्छेषितं भवोपग्राहि चतुर्विधं कर्म तद्यदि पर्यन्ते समस्थितिकं भवति तदा समकालमेव क्षपयित्वा मोक्षं गच्छतीत्यर्थादवगम्यते, यदा तु विषमस्थितिकं तद् भवति तदा किं करोतीत्याह ?नाऊण वेयणिजं, अइबहुयं आउयं च थोवागं / गंतूण समुग्घायं, खवेइ कम्मं निरवसेसं // 3030|| सम्यगपुनविन उत्प्राबल्येन कर्मणां हननंघातः प्रलयो यस्मिन्प्रयनविशेषे असौ समुद्धातः। तत्स्वरूपमेवाह - दण्डकवाडे मन्थन्तरे य साहगया सरीरत्थे / मास जोगनिरोहे, सेलेसी सिजणा चेव // 3031 / / नन्ववेभूतः समुद्घातगतानां विशिष्टः कर्मक्षयो भवतीति कोऽत्र हेतुरिति ? अत्रोच्यते प्रयत्नविशेषः / किं पुनरत्र निदर्शनमित्यत्राहजह उल्ला साडीया, आसुं सुक्का विरल्लिया संती। तह कम्मलहुयसमए, वचंति जिणा समुग्धायं // 3032 / / एता अपि तिस्रो नियुक्तिगाथाः / अथ 'दीहकालरय' मित्यादेः भाष्यकारो व्याख्यामाहसंताणओ अणाई, दीहो ठिइकाल एवं बंधाओ। जीवाणुरंजणाओ, रउ त्ति जोगो त्ति सुहुमो वा // 3033 / / सो जस्स दीहकालो, कम्मं तं दीहकालरयमुत्तं / अइदीहकालरंजण-महवा-चेट्ठाविसेसत्थं // 3034 / / 'बंधानु'ति-बन्धमाश्रित्य सन्तानतः-सन्तानभावेन अनादित्याद्दीर्धः स्थितेः कालो यस्य तद्दीर्घकालं जीवस्यानुरञ्जनात् - मालिन्यापादनाद्रजः, अथवा - 'जोगो' ति स्नेहेन बन्धनयोग्यो भवतीति साम्यद्रिजः / अथवा- 'सुहुमो त्ति सूक्ष्मत्वसाम्यद्रिजःकर्म भण्यते। सो जस्स' इत्यादिना समासः, स च विहित एव / किमुक्तं / भवतीत्याह -'अइदीहे त्यादि अतिदीर्घकालं जीवस्य रञ्जनं मालिन्यापादने रज इति / अथवा -- रय इत्येतत्वदं चेष्टाविशेषार्थ, ततश्च दीर्घकालो रयो वेगश्चेष्टाविशेषो जीवेऽनुभवो यस्य तद्दीर्घकालरथमित्यर्थः। किं पुनस्तदित्याशय 'जन्तुकम्म' इत्यस्य व्याख्यानमाहजं कम्मं ति तुसद्दो, विसेसणे पूरणेऽहवा जीवो। जंतु त्ति तस्स जंतो, कम्मं से जं सियं बद्धं // 3035 / / यद् दीर्घकालरजोरूपं दीर्घकालरयं वा कर्मेति / तुशब्दो विशेषणे / तेन विशेषतो भव्यस्य सम्बन्धि तद् गृह्यते। अर्थ ध्मातत्वप्रस्तावादेव भव्यसम्बन्धित्वं कर्मणो लभ्यते, तर्हि पूरयतीति पूरणेः तुशब्दः पूरणार्थः / अथवा - जीवो जन्तुस्तस्य जन्तोः कर्म जन्तुकर्मेत्येवं व्याख्यायते। 'से-सियं' इत्यस्य व्याख्यामाह - 'से' तस्य जीवस्य यत् सितंबद्धं, "षिञ्' बन्धने, इत्यस्य घातोर्निष्ठान्तस्य प्रयोगादिति। अथ 'सेसियं' इत्यस्यापराण्यपि व्याख्यानान्तराण्याहअहवा सेसियमसियं, गहियं वत्तमइसंसिलिटुं वा। जं वा विसेसियमट्ठ-ह त्ति खयसेसियं व त्ति // 3036 / / अथवा - 'से' तस्य जीवस्य सर्वमपि कर्म संसारानुबन्धत्वादसितं; कृष्णमशुभमित्यर्थः / अथवा - 'षो' अन्तकर्मणि 'गाहियं वत्त' तिजीवेन गृहीतं व्याप्तं व्याप्तिमानीतमिति सितम् / अथवा - 'सेसियं' ति-लेश्याविशेषात् श्लेषितं जीवेन श्लेषविशेषमानीतमिति, संश्लिष्टं बाधकं कृतमिति संश्लेषितम् / 'जं वा विसेसियमट्टह' त्ति अथवा -- एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वाद्यदष्टधा विशेषितं व्यवच्छिन्नं तत् शेषितं विशेषितमिहोच्यते / अथवा - क्षयेण क्षपणया क्रमशः शेषितं स्थित्यनुभवादिनाऽल्पीकृतमित्यर्थः / अथ 'सितं ध्यातमस्येति सिद्ध' इति निरुक्तविधिमुपद शयन्नाहनेरुत्तियं सियं धं-तमस्स तवसा मलो व लोहस्स। इय सिद्धस्सेयसओ, सिद्धृत्तं सिज्झणा समए // 3037|| उवजायइ त्ति ववहा-रदेसणमभावया निसेहो वा / पज्जायंतरविगमे, तप्पज्जायंतरं सिद्धो // 3038|| द्वे अपि गतार्थे / नवरम् 'अभावया निसेहोव' त्तिनिर्वाणप्रदीपकल्पतदभावरूपं सिद्धत्वमिति यत् कैश्चिदुच्यते, तदभिमताया अभावरूपतायाः 'सिद्धत्वमुपजायते' इत्यनेन निषेधो वा क्रियते, सिद्धत्वं भावरूपमुपजायते, न पुनः पूर्वपर्यायस्य भाव एव भवतीत्यर्थः। अथ 'नाऊण वेयणिज्ज (3030) इत्यादिगाथायाः प्रस्तावनार्थमाहकम्मचउकं कमसो, समंति खइमेइ तस्स भणियम्मि। समयं ति कए भासइ, कत्तो तुल्लट्ठिई नियमो ?||3036 / / भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयं तस्य मुमुक्षोर्मोक्षगमनसमये क्रमशः क्षयमेति, समकं वा युगपदिति कथ्यताम् ? एवं भणिते परेण पृष्टे सूरिराह'समयंति' त्ति-समकंयुगपत् तस्य तत् कर्मचतुष्कं क्षयमेति न तु क्रमशः इति / एवं च सूरिणात्तरे कृते पुनरपि भाषते परः-कुतः कर्म Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 523 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध चतुष्कस्य तुल्यस्थितिनियमः विषमनिबन्धनत्वेन विषमस्थितिकत्व- / स्यैव युज्यमानन्वात् इति / अथ विषमस्थितिकमपि समकं क्षपयति / तदयुक्तम् / कुतः? इत्याह - कह व अपुन्नट्ठिइयं, खवेउ कत्तो व तस्समीकरणं / कयनासाइभयाउ, तो तस्स कमक्खओ जुत्तो // 3040 / / कथं वा स मुमुक्षुरपूर्णस्थितिकमायुष्कापेक्षया दीर्घस्थितिकं वेदनीयनाम-गोत्रकर्मत्रये ह्रस्वस्थितिकायुष्कानुरोधन क्षपयतु-हस्वीकरोतु, कृतनाशप्रसङ्गात् ? कृतनाशश्चैवमेवाधिकस्य खण्डयित्वा नाशनात् / अथायुष्कं वृद्धिमुपनीय वेदनीयादिभिः सह समस्थितिकं कृत्वा समकमेव क्षपयतीत्याशङ्कयाह- 'कत्तो वे' त्यादि कुतो वायुष्कस्य वेदनीयादिभिः सह समीकरणं-समस्थितिकेत्वापादनम्, अकृताभ्यागमप्रसङ्गात् ? तत्प्रसङ्गश्व हस्वस्यायुषो दीर्घत्वापादनात् / ततस्तस्य मुमुक्षोर्वेदनीयादिकर्मणां कर्मक्षय एव युक्तः प्रथममायुषस्ततः शेषाणामिति / अत्र गुरुरुत्तरमाहभण्णइ कम्मखयम्मी, जयाउमाईऐं तस्स निद्वेज्जा। तो कहमत्थउ समवे, सिज्झउ व कहं सकम्मंसो॥३०४१।। भण्यतेऽत्रोत्तरम्- कर्मक्षये मुक्तिगमनसमयवर्तिनि कर्मक्षयकाले, पाठान्तरतः क्रर्मक्षये वा यद्यायुगदावे तस्य निस्तिष्ठेत् निष्ठां यायात्, क्षीयेतेत्यर्थः शेषाणि तु क्रमशः पश्चात्, ततः कथमसौ क्षीणायुष्कः शेषकर्मक्षपणार्थं भवे तिष्ठतु, तदवस्थाननिबन्धनस्यायुष्कस्याभावात् ? अथ तदभावात् सिध्यत्वसौ, किं निवार्यते ? तदयुक्तम्, यत आयुषि क्षीणेऽपि सहवेदनीयादिकौशैर्वर्तते इति सकर्माशः कथं सिध्यतु, 'सकलकर्मक्षयादेव मोक्षः इति वचनात् ? इति / तर्हि किमत्र युक्तम् ? इत्याह - तम्हा तुल्लट्ठिइयं, कम्मचउकं सभावओ जस्स / सोअकयसमुग्घाओ, सिज्झइ जुगवं खवेऊणं // 3042 // जस्स पुण थोवमाउं, हवेज सेसं तयं च बहुतरयं / तं तेण समीकुरुए-तूण जिणो समुग्धायं // 3043 / / द्वे अपि सुगमे / नवरं 'तेण' त्ति-तत् शेषकर्मत्रिकमपवर्तनातः खण्डयित्वा तेनायुष्केण समं कुरुत इति / नन्वेवं कृतनाशादिदोष उक्तः स कथं परिहर्त्तव्यः ? इत्याहकयनासाइविधाओ, कओ पुरा जह य नाण किरियाहिं। कम्मस्स कीरइ खओ न चेदमोक्खादओ दोशा // 3044 // कृतनाशादिदोषाणां विधातः-परिहारः कृतोऽस्माभिः क्व ? पुरापूर्वमुपक्रमकालविचारे, 'नहि दीहकालियस्स वि, नासो तस्साणुभूइओ खिप्पं / बहुकालाहारस्सव, दुयमग्गियरोगिणो भोगो!॥१॥" इत्यादिना गन्थेण / यथा च ज्ञान-क्रियाभ्यां चिरकालस्थितिकस्यापि कर्मणः क्षिप्रमेव क्षयः क्रियते, तथा प्रागपि 'सज्झमुवाकामिजइ, एतो चिय सज्झरोगो व्व।' इत्यादिनाऽनेकशः प्रोक्तम् / न चेदुपक्रम इष्पते, त मोक्षादयो दोषा इत्यपि जइ ताणुभूइय चिय खविजए कम्ममन्नहा न मयं' इत्यादिना प्रागुक्तमेव / तदेवमेतावता 'नाऊण वेयणिज्ज' इत्यादि नियुक्तिगाथा व्याख्यातेति / अथ परप्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाहअसमट्टिईण नियमो, को थोवं आउयं न सेसं ति। परिणामसभावाओ, अर्धवबंधो व्व तस्सेव // 3045 / / 'असमस्थितिकानां कर्मणां स्तोकमायुरेव, न शेषं वेदनीयादिकम्' इति कोऽयं नियमः येनोच्यते- 'नाऊण वेयणिज्जं अइबहुयं आउगं च थोदागं' इति ? इदमपि कस्माद् नोच्यते- 'नाऊण आउयं खलु अइबहुयं थोवयं न वेयणियं' इति ? अत्रोच्यते - बन्धपरिणामस्वाभाव्यात्, एवंभूतो ह्यायुषः कोऽपि बन्धपरिणामो वर्तते, येन पर्यन्ते वेदनीयाधपेक्षया समं स्तोक वा भवति, नत्वधिकमिति / अत्र दृष्टान्तमाह-यथा बन्धपरिणामस्वाभाव्यादध्रुवबन्धस्तस्यौवायुषो भवति, अन्तर्मुहूर्त-मात्रबन्धकालत्वात् नतुवेदनीयादेः तस्य ध्रुवबन्धित्वात्, एवमत्रापि स्तोकत्वमायुष एव, न तु वेदनीयादेरिति। आह-ननु समुद्धातगतो जम्तुर्वेदनीयादिकर्मणः किं कारोति ? इत्याहविसमं स करेइ समं, समोहओ बंधणेहि ठिइए य / कम्महव्वाइंबं-घणाई कालो ठिई तेसिं // 3046|| स समवहतः केवलिसमुद्धातगतो जीव आयुष्कादधिकत्वेन विषम वेदनीयादिकर्मत्रयमपर्वतमानः खण्डयित्वा आयुष्केण समं करोति / कैः कृत्वा समं करोति / इत्याह-- बध्यते जीवो यैस्तानि बन्धनानि तैबन्धनैः कर्मद्रव्यैः, स्थित्या च काललक्षणया / अत एवाहकर्मद्रव्याणि बन्धनानि भण्यन्ते, कालस्तु स्थितिस्तेषां वेदनीया- . दीनामिति। समीकुर्वश्चैतद्विशिष्टदलिकनिषकेणान्तर्मुहूर्त-स्थितिकं सर्वं करोति। कथम् ? इत्याहआउयसमयसमाए, गुणसेठीऍ तदसेखगुणियाए। पुष्वरइयं खवेहिइ, जह सेलेसी पइसमयं // 3047|| वेद्यमानस्यायुषो यावन्तः समयाः शेषा अवतिष्ठान्ते तत्समयसमानयाऽन्तर्मुहुर्तप्रमाणयेत्यर्थः दलिकमाश्रित्यासंख्येयगुणया प्रथमसमयनिषिक्तदलिकाद् द्वितीयसमयनिषिक्तम संख्येयगुणम्, ततोऽपि तृतीयसमयनिषिक्तमसंख्येयगुणम् एवं यावचरम समयनिषिक्तमसंख्येयगुणमिति; एवमसंख्येयगुणया, स्थानान्तरप्रसिद्धया गुणश्रेण्या तद् वेदनीयादिकर्मत्रयं केवलज्ञानाभोगेनाकलय्य तथा रचयति यथाऽनन्तरोक्तन. प्रकारेण पूर्वरचितं तदेतत् शैलेश्यां प्रतिसमयं क्षपयंश्वरमसमये सर्वमसौ क्षयपिष्य ति। अत्र गुण श्रेणिस्थापना आयुषस्तु गुणश्रेणिर्न भवति, किन्तु यथाबद्धमेव तद् वेद्यते / अतस्तस्यै वं स्थापना - 'जह उल्ला साडीया' इत्यादिगाथायाः पूर्वार्धसुगमत्वाद् न व्याख्यातम् / उत्तरार्धं तु यदुक्तम्- तह कम्मलहुयसमए' ति तत्र कर्मलघुतायाः समयः कः? इत्याह-- कम्मलहुयाएँ समओ, भिन्नमुहत्तावसेसओ कालो। Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 524 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध अन्ने जहन्नमेयं, छमासमुकोसमिच्छति // 3048 / / कर्मण आयुषोलघुतायाः समयोऽत्र भिन्नमुहूर्तावशेषकालो जघन्यतः, उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तावशेषं निजमायुर्विज्ञाय तदधिकवेदनीयादिकर्मस्थितिविघातार्थं; केवली समुद्धातमारभंत इत्यर्थः, अन्ये तु सूरय एतं भिन्नमुहूर्तलक्षणं जघन्यमवे कालं मन्यन्ते उत्कृष्टं तु षड्मासानिच्छन्ति-जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तशेषायुष्क उत्कृष्ठतस्तु षण्मासावशेषायुः समुद्धातं करोतीति केचिद् मन्यन्त इत्यर्थः / तदेतदन्यमतमयुक्तमिति दर्शयन्नाहतं नाणन्तरसेले-सिवयणओ जंच पाडिहेराणं / पचप्पणमेव सुए, इहरा गहणं पि होजाहि // 3046 // तदेतदन्वमतं न युक्तम् , आगमविरोधात्। तद्विरोधश्च समुद्धातानन्तरं तत्र शैलेशीप्रतिपत्तिवचनात्, शैलेश्यनन्तरं च सिद्धिगमनात्, कुतः षण्मासविशेषायुष्कत्वम् ? आनन्तर्थं षड्भिरपि मासैर्विवक्षया घटत एवेति चेत् ? इस्याशङ्कयाह-'जं जे' त्यादि, यस्माच्च समुद्धाताद् निवृत्य शरीरस्थस्य प्रातिहारक-पीठफलकादीनां "कायजोगं जुंजमाणेआगच्छेजा वा, चिडेजा वा, निसीएजा वा, अनुघट्टिजावा, उल्लंघेज्जा वा, पाडिहारियं, पीढफलगं, संथारगं, पचपिहिणिज्ज, इति प्रज्ञापनासूत्ररूपे श्रुते प्रत्यर्पणमवोक्तम्, इतरथा षण्मासावशेषायुष्कत्वेव चिरजीवित्वे तेषां ग्रहणमपि स्यात्, न च तत्रोक्तम्। तस्मादन्तमुहूर्तावशेषायुरेव समुद्धातं करोतीति / अथ समुद्धातशब्दार्थ समुद्धातारम्भात् पूर्वथ्यापारनिरूपणार्थ चाहतत्थाउयसेसाहिय-कम्मसमुग्घायणं समुग्धाओ। तं गंतुमणो पुव्वं, आवजीकरणमज्झेइ // 3050 / / आवजणमुवओगो, वावारो वा तदत्थमाईए। अंतोमुहुत्तमेत्तं, काउं कुरुए समुग्घायं // 3051 / / तत्रायुःशेषाणामधिकस्थितिकानां वेदनीयादिकर्मणां समुद्धातनं समुद्धातः / तं च गन्तुमनाः - प्रारिप्सुः पूर्वमावर्जीकरणमभ्येतिविदधाति / कथंभूतं तत् ? इति / उच्यते तदर्थ समुद्धातकरणार्थमादौ केवलिन उपयोगो ‘मयाऽधुनेदं कर्तव्यम' इत्येवंरूपः उदयावलिकायां कर्मप्रक्षेपरूपो व्यापारा वाऽऽवर्जनमुच्यते / तथाभूतस्य करणमावर्जीकरणं तदन्त-र्मुहूर्तमात्रं कालं कृत्वा ततः समुद्धातं कुरुत इति। कथंभूतं तदित्याशक्य 'दंडकवाडे' इत्यादिगाथां व्याचिव्यासुराह-- उड्डाहाययलोग- तगामिणं सो सदेहविक्खंमं / पढमसयम्मि दंडं, करेइ बिइयम्मि य कवाडं // 3052|| तइयसमयम्मि मंथं, चउत्थए लोगपूरणं कुणइ / पडिलोमं साहरणं, काउं तो होइ देहत्थो // 3053|| ऊर्ध्वमधश्वायतं दीर्घमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं स्वदेहप्रमाणविष्कम्भं केवली केवलज्ञानाभोगतः प्रथमसमये जीवप्रदेशसंघातात्मकं दण्डं करोति / द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणादुभयपाश्वेतो लोकान्तगामिनं कपाटमिव कपाटं करोति / तृतीयसमये तु तमेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणेन मन्थसदृशत्वाल्लोकान्तप्राप्तमेव मन्थानं करोति / एवं च लोकस्य प्रायो बहुपूरतिं भवति मन्थान्तराणि त्वपूरितानि तिष्ठन्ति, जीवपुद्गलयोरनुश्रेणिगमनात् / ततश्चतुर्थसमये तान्यपि मन्थान्तराणि सह निष्कुटै पूरयति ततश्च सकललोकः, पूरितो भवतीति / 'साहारणा' इत्यादेाख्यामाह'पडिलोम' मित्यादि, इदमत्र हृदयम्- लोकपूरणानन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्तक्रमात् प्रतिलोमं मन्थान्तराणि संहरति, जीवप्रदेशान सकर्मकान् सङ्कोचयति, षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरतिघनतरसङ्कोचात्; सप्तमसमये तु कपाटमुप्रसंहरति, दण्डात्मनि सङ्कोचात्; अष्टमे तु समये दण्डमप्युपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवतीति। आह-ननु समुद्धातगतस्य मनो-वाक्-काययोगेषु मध्ये को योगः कस्मिन् समये व्याप्रियते ? इत्याशङ्कयाहन किर समुग्घायगओ, मणवइजोगप्पओयणं कुणइ / ओरालियजोगं पुण, जुंजइ पढमहमे समए // 3054 / / उभयव्वावाराओ, तम्मीसंवीय छ? सत्तमए। ति चउत्थ पंचमे क-म्मयं तु तम्मत्तचेट्ठाओ // 3055|| किलशब्द आप्तोक्तौ इह समुद्धातगतः केवली मनोवाग्योगयोः प्रयोजनं व्यापारणं तावद् न करोत्येव, प्रयोजनाभावात् / औदारिककाययोगं पुनः प्रथमाष्टमसमयोर्युनक्ति-व्यापारयति, दण्डकरणादिक्रियायां तत्प्रयत्नविधानात् / द्वितीयषष्ठसप्तसमयेषु तु तन्मिश्रम- औदारिक कार्मणेन मिश्रे व्यापारयति, उमयप्रयत्नसद्भावात्। तृतीयचतुर्थपञ्चसमयेषु पुनः 'कम्मयं' ति–कार्मणकाययोगमेव व्यापारयति तन्मात्रचेष्टनादिति। समुद्धाताद् निवृत्तः किमसौ करोति ? इत्याह-- विणिवत्तसमुग्धाओ, तिन्नि वि जोए जिणो पउंजेज / सचमसचामोसं, च सो मणं तह वईजोगं // 3056|| ओरालियकाओगं, गमणाई पाडिहरियाणं वा / पचप्पणं करेजा, जोगनिरोहं तओ कुरुए // 3056|| इह समुद्धातगतस्तावद् न कोऽपि सिध्यति, निवृत्तसमुद्धातोऽन्तर्मुहूतं भव एव केवली तिष्ठति / तत्र च तिष्ठन्नसौ मनोवाक् - कायलक्षणांस्त्रीनपि योगान् प्रयुञ्जीत / तत्र मनोयोग, वाग्योग च सत्यमसत्यामृषं च प्रयुक्ते, असत्यमिश्रयोरतस्यासम्भवात्। काययोग त्वौदारिकं प्रयुञ्जानो गमनागमनादिकं प्रत्याहरणीयगृहीत-पीठफलकादिप्रत्यर्पणं वा कुर्यात्, तत एतेषां योगानां निरोधं करोतीति / अथ परप्रश्नमाशङ्कयोत्तरमाहकिं न सजोगो सिज्झइ, सबंधहेउ त्ति जं सजोगो य / न समेइ परमसुकं, स निज्जराकारणं झाणं // 3058 / / ननु कि मिति योगनिरोधं करोति, सयोग एवासौ किं न सिध्यति ? इति परेण पृष्टे सत्याह-यस्मात् स त्रिवि Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 525 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध धोऽपि योगः कर्मणो बन्धहेतुः, कर्मसम्बत्धश्च संसारनिबन्धनमेव, इति कथं सयोगः सिध्यति ? किञ्च-पर्यन्ते सकलकर्मनिर्जरायाः परमशुक्लध्यानमेव कारणम्, तच सयोगः सन् जन्तुर्न समेति न प्राप्नोति, सयोगस्य सक्रियत्वात्, परमशुक्लध्यानस्य च समुद्धाताशेषक्रियारूपत्वात् इति कुतः सयोगः सिध्यतीति ? तस्माद्द्योगनिरोधः कर्तव्यः। कथं पुनस्तं करोति ? इत्याहपज्जत्तमित्तसन्नि-स्स जत्तियाइं जहन्नजोगिस्स। हॉति मणोदव्वाई, तव्वावारो य जम्मत्तो / / 3056 / / तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोह, करे असंखेजसमएहिं / / 3060 / / पजत्तमेत्तविंदिय, जहन्नवइजोगपञ्जया जे उ। तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो // 3061 / / सव्ववइजोगरोह, संखाईएहिं कुणइ समरहिं। तत्तो य सुहुमपणय-स्स पढमसम ओववन्नस्स // 3062 / / जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेनगुणहीणमेकेक्के / समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचंतो // 3063 // संभइ सकायजोगं, संखाईएहिं चेव समएहिं। तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावयामेइ // 3064|| शैलेशीकालप्रमाणमाहहस्सक्खराई मज्झे-ण जेव कालेण पंच भण्णंति / अत्थइ सेलेसिगओ, तत्तियमेत्तं तओ कालं // 3068|| नातिशीधैर्न चाप्यतिस्थिरैः, किन्तु-मध्यमभञ्या यावता कालेन 'अ इ उ ऋ लु' इत्येतानि पञ्च ह्रस्वाक्षराणि भण्यन्तेएतावन्तं कालं शैलेशीगतस्तकोऽसौ तिष्ठतीति। किं पुनस्तत्र ध्यानं ध्यायति ? इत्याहतणुरोहारंभाओ, झायइ सहुमकिरियानियट्टि सो। वुच्छिन्नकिरियमप्पडि-वाइं सेलेसिकालम्मि ||3066 / / तनाः काययोगस्य निरोधारम्भसमयात् प्रभृति सूक्ष्मक्रियानिवृत्तिरूपं शुक्लध्यानमसौ ध्यायति ततः सर्वयोगनिरोधादूर्ध्व शैलेशीकाले समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायतीति / अत्र प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाहझाणं मणोविसेसो, तदभावे तस्स संभवो कत्तो। भण्णइ मणियं झाणं, समए तिविहे वि करणम्मि // 3070 / / ननु 'ध्यै' चिन्तायाम्, इति वचनाद् मनोविशेषो मनसः काऽपि निश्चला चिन्तावस्थैव ध्यानमुच्यते। मनश्च-'"अमनस्काः केवलिनः" इति वचनात् तस्य नास्ति। ततस्तदभावे मनसोऽसत्त्वे तस्य ध्यानस्य केवलिनः कुतः सम्भवः ? अतः 'तनुरोहारंभावो' इत्याधघटमानमेवेति / सूरिराह भण्यतेऽत्रोत्त-रम्, - 'भंगियसुयं गुणतो वट्टइ तिविहे वि झाणम्मि' इत्यादिवचनात् त्रिविधेऽपि मनोवाक्कायलक्षणे करणे समये सिद्धान्ते ध्यानं भणितमेव / ततो मनोविशेष एव ध्यानमित्यनैकान्तिकम्, वाक्कायव्यापारेऽपि ध्यानस्योक्तत्वादिति भावः / यतः परिभाषासुदपयत्तवावा-रणं निरोहो व विजमाणाण / झाणं करणाणमयं, न उ चित्तनिरोहमित्तागं // 3071 / / यतश्च मनोवाक्कायलक्षणानां करणानां सुदृढप्रयत्नेन व्या-पारणम्, विद्यमानानां पूर्वाक्तक्रमेण निरोधो वा ध्यानं भगवतां मतम्, न पुनश्चित्तनिरोधमात्रकम्, ध्यैधातोरनेकार्थत्वात्, करणनिरोधार्थेऽपि वर्तनादिति। ततश्चहोश न मणोमयं वा-इयं च झाणं जिणस्स तदभावे / कायनिरोहपयत्त-स्स भावमिह को निवारेह // 3072 / / तदभावे मनसोऽभावे केवलिनो मनोमयं मनोविशेषरूपम, तथा मनःपूर्वकत्वाद् विशिष्टवचसो वाचिकं च ध्यानं न भवेत्, तद् मा भूत, यत्, पुनः कायनिरोधप्रयत्नस्वभावं ध्यानमिह, तत् तस्य को निवारयते-न कोऽपीति / अपि चजइ छउमत्थस्स मणो, निरोहमेत्तप्पयत्तयं झाणं / कहकायजोगरोह-प्पयत्तयं होइ न जिणस्स // 3073 / / प्रकटार्था / पुनरपि परः प्राहआहाभावे मणसो, छउमत्थसेव तं न झाणं से / अह तदभावे वि मयं, झाणं तं किं न सुत्तस्स ?||3074|| आह परः-मनसोऽमावे 'से' तस्य केवलिनश्छद्मस्थ-स्यैकेन्द्रियादेरिव तत् सूक्ष्मक्रियानिवृत्त्यादिकं ध्यानं न घटते / अथ तदभावेऽपि मतं ध्यानम, ततः सुप्तस्य तत् किं नेष्यते, मनोऽसत्त्वस्य तुल्यत्वात् ? इति / पर एवाचार्यमतमाशड्क्याहअहव मई सुत्तस्स हि, न कायरोहप्पयत्तसम्भावो। एवं चित्ताभावे, कत्तो य तओ जिणस्साणि // 3075 / / होज व किंचिम्मेत्तं, चित्तं सुत्तस्स सव्वहा न जिणे / जइ सुत्तस्स न झाणं, जिणस्य तं दूरयरएणं // 3076 / / अथवा, आचार्यस्य मतिः-सुप्तस्य स्फुटमेव ज्ञायते न कायनिरोधप्रयत्नसद्भावः, किन्तु तदभाव एव, तत् कुतस्तस्य ध्यानम् ? जिने त्वस्त्यसाविति तस्य ध्यानं भावत्येव / अत्रोच्यते-नन्वेवं तर्खमनस्कत्वाचित्ताभावे जिनस्यापि केवलिनः कुतस्तकोऽसौ कायनिरोधप्रयत्लसद्भावः ? भवेद् वाऽद्यापि किञ्चिन्मात्रं चित्तं सुप्तस्यापि, जिने तु केवलिन्यमनस्कत्वात् तत् सर्वथा नास्ति, ततश्च सुप्तस्य यदि न ध्यानमिष्यते, तर्हि जिनस्य तद् दूरतरकेण-दूरतरेण नेष्टव्यम् सर्वथा चित्ताभावेन कायनिरोधप्रत्यनाभावादिति / Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 526 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध सूरिः प्रतिविधानमाहजुत्तं जं छउमत्थ-स्स करणमेत्ताणुसारिनाणस्स / तदभावम्मि पयत्ता-भावो न जिणस्स सो जुत्तो // 3077|| छउमत्थस्स मणोमे-तविहियजत्तस्स जइ मयं झाणं / / कह तं जिणस्स न मयं, केवलविहियप्पयत्तस्य ?||3078|| युक्तं यच्छद्मस्थस्य करणमत्र मनः, तन्मात्रानुसारिज्ञानस्य तदभावे सुप्तावस्थायां मनःकरणाभावे कायनिरोधप्रयत्नाभावः। जिनस्य पुनरसौ न युक्तः, मनोज्ञानाभावेऽपि केवलज्ञानसद्भावादिति। किञ्चयदि मनोमात्रविहितयत्नस्य छद्मस्थस्य साध्यादेर्मतं ध्यानम्, तर्हि कथं जिनस्य केवलिनः सकललोकावलोकविलोकनस्वभावकेवलज्ञानविहितप्रयत्नस्य तदृ ध्यानं नाभिमतम् ? इति / अपि चपुष्वप्पओगओ विय, कम्मविणिज्जरणहेउओ वावि। सद्दत्थबहुत्ताओ, तह जिणचंदागमाओ य // 3076|| चिंताभावे वि सया, सुहुमोवरयकिरियाइँ भन्नति / जीवोवओगसम्मा-वओ महत्थस्स झाणाइं॥३०५०।। भवस्थस्य केवलिनश्चिन्ताया अभावेऽपि सदा सूक्ष्मक्रियानिवृत्त्युपरतक्रियाप्रतिपातिलक्षणे द्वे ध्याने भण्येते इति सम्बन्धः, इयं च प्रतिज्ञा। हेतुमाह-जीवोपयोगस्वाभाव्यात्, तज्जीवोपयोगस्य तस्यामवस्थायामेवंविधस्वभावत्वादित्यर्थः; तथा, पूर्वप्रयोगात्-पूर्वविहितध्यानसंस्कारादित्यर्थः / तथा, कर्मनिर्जरणहेतुत्वात् ते ध्याने अभिधीयेते, छास्थस्य धर्मध्यानवदिति / तथा,, शब्दस्यार्थानां बहुत्वात्ध्यैधातोरनेकार्थत्वादित्यर्थः / तथा, जिनागमे, भणितत्वादिति / अथ प्रेर्य परिहारं चाहजइ अमणस्स वि झाणं, केवलिणो कीस तं न सिद्धस्स / भण्णइ जं न पयत्तो, तस्स जओ न य निरुद्धव्वं // 3081|| यद्यमनस्कस्यापि केवलिनो ध्यानमिष्यते, तर्हि सिद्धस्य किमिति नाभ्युपगम्यते ? भण्यतेऽत्रोत्तरम् यद्यस्मात्तस्य-सिद्धस्य कारणाभावेन प्रयत्नो नास्ति, न च योगलक्षणं निरोद्धव्यमस्ति अतः प्रयत्नाभावात् प्रयोजनाभावाच्य न सिद्धस्य ध्यानमिति / भवतु केवलिनो ध्यानम्, किन्तु शैलेश्यां वर्तमानः किमसौ करोति ? इत्याहतदसंखेजगुणाए, गुणसेढीए रइय पुराकम्मं / समए समए खवियं, कमसो सेलेसिकालेणं // 3052 / / सव्वं खवेइ तं पुण, निल्लेवं किंचि दुवरिमे समए। किंचिच होइ चरिमे, सेलेसीए य तं वोच्छं // 3083|| मणुयगइजाइतसबा-यरं च पज्जत्तसुभयमाएजं / अन्नयरवेयणिनं, नराउमुचं जसो नाम // 3054 // संभवओ, जिणनाम, नराणुपुथ्वी य चरिमसमयम्मि।। पाठसिद्धा एव / नवर तदिति-वेदनीयादिकर्म / 'जिणनाम' तितीर्थकरनाम / इद च तीर्थकरस्यैव सम्भवति, अतः सम्भवतः इत्युक्तम् / सामान्यकेवली तु शेषा मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजात्यादिका द्वादशैव प्रकृतीश्चरमसमये क्षपयतीति। अन्यदपि तत्र किमसौ करोति ? इत्याहओरालियाहि सव्वा-हि चयइ विप्पजहणीहिं जं भणियं / निस्सेसतया न जहा, देसचाएणा सो पुवं // 3086|| औदारिकतैजसकार्मणशरीरत्रयं सर्वाभिरेव विशेषवतीभिः प्रकृष्टामिस्त्यजनाभिस्त्यजत्यसौ / किमुक्तं भवति ? इत्याह- 'जं भणियमि' त्यादि, निःशेषतयैवौदारिकादिशरीरत्रयं तदा त्यजति, न तुयथा पूर्वं भवे भ्राम्यन् संघातपरिसाटाभ्यां देहत्यागेन त्यक्तावानिति यदुक्तं भवति-एतदिह तात्पर्यमित्यर्थः / अपरं च तदा तस्य किं निवर्तते किं वा न ? इति दर्शयन्नाहतस्सोदइयाईया, भव्वत्तं च विणिवत्तए समयं / सम्मत्तनाणदंसण-सुहसिद्धत्ताई मोत्तूणं // 3087|| तस्य सिद्धिं गच्छत औदयिकादयो भावा भव्यत्वं च समकं युगपत् विनिवर्तते / भवा भाविनी सिद्धिर्यस्यासौ हि भव्य उच्यते, न च सा तस्य भाविनी, साक्षात्सञ्जातत्वात्, ततोऽसौ न भव्य इति भव्यत्वं निवर्तते, उक्तं च-"सिद्धेनो भव्वे नो अभव्वे" इति। सम्यक्त्वादीनि तु सिद्धावपि भवन्ति, अतस्तन्निवृत्तिवर्जनम् / इति पञ्चपञ्चाशद्गाथार्थः / नन्वौदारिकादिशरीराणां कथं सर्वथा त्यागः, कर्मशरीरसन्तानस्यानादित्वात्, अनादेश्वानन्तत्वात् ? इत्याशङ्कयोत्तरम्, प्रासगिकमन्यदपि चाह- 'नणु सन्ताणोऽणाई' इत्यादिद्वाविंशातगाथाः / एताश्च पूर्व षष्ठगणधरे प्रायो लिखिताः, व्याख्याताश्चेति नेह लिख्यन्त इति। . कियता कालेन पुनरसौ सिध्यति ? इत्याहरिउसेढीपतिवन्नो, समयपएसंतरं अफसमाणो / एगसमएण सिज्झए, अह सागारोवउत्तो सो // 3058|| सुबोधा। नवंर 'समये त्यादि, एकसमयादन्यत्। समयान्तरमस्पृशनवगाढप्रदेशेभ्योऽपराकाशप्रदेशात्स्वस्पृशन्नचिन्तया शक्त्या सिद्धिं गच्छतीति भावार्थः / विशे०। आ० म०। उत्त० / श्रा०। (कथं पुनरसौ साकारोपयोग इति 'उवओग' शब्दे द्वितीयभागे 861 पृष्ठे उक्तम् / ) सिद्धो नाम साधनः यत्कुतः जिनमतः इति कृत्वा सर्वज्ञैरर्थस्य भाषितत्वात् सर्वलब्धिसम्पन्नश्च गणधरैर्दृष्टत्वात् सिद्धं निर्वचनीयमविचाल्यं; श्रुतज्ञानमेवेत्यर्थः / अण्णे पुण भणंति सिद्धं प्रतिष्ठितं प्ररूढ़ सर्वकालं सर्वकालिकं; नित्यमित्यर्थः / 'जिणमतं' तथाहि-एतं दुवालसंग, गणिपिडगं न कय इनासी न कयाइ नत्थि न कयाइ न भविस्सति। अभूत् भवति भविस्सइ य एवमादि सिद्धे जिणमते भो इत्यामन्त्रणे / Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 527- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध पयतो प्रयत्नपरः पुणो वि भत्तिबहुमाणतो णमो इत्याह / अहवाप्रयतो भूत्वा नमस्करोमि एताओ य णंदीओ सदा खंजमे भवंतु / आ० चू०५ अ०। अनन्तराऽऽदिसिद्धप्ररूपणाततन्तरसिद्धाः- सत्पदप्ररूपणा 1 द्रव्यप्रमाण 2 क्षेत्र 3 स्पर्शना 4 काला 5 ऽन्तर 6 भावा ७ल्पबहुत्व 8 रुपैरष्टभिरनुयोगद्वारैः परम्परसिद्धाः सत्पदप्ररूपणा द्रव्यप्रमाणक्षेत्रस्पर्शनाकालान्तरभावाल्पबहुत्वसन्निकर्षरूपैर्नच-भिरनुयोगद्वारैः क्षेत्रादिषु पञ्चदशसु द्वारेषु सिद्धप्राभृते चिन्तिताः ततस्तदनुसारेण वयमपि विनेयजनानुग्रहार्थं लेशतश्चिन्तयामः / क्षेत्रादीनि च पञ्चदश द्वाराण्यमूनि- "खेत्ते 1 काले 2 गइ 3 वे-य 4 तित्थ 5 लिंगे 6 चरित्त 7 बुद्ध 8 य / नाणा 6 गाहु 10 कस्से 11, अंतर 12 मणुसमय 13 गणण 14 अप्पबहू 15 // 1 // " तत्र प्रथमत एषुद्वारेषु सत्पदप्ररूपणया अनन्तरसिद्धाश्चिन्त्यन्ते, क्षेत्रद्वारे त्रिविधेऽपि लोके सिद्धाः प्राप्यन्ते, तद्यथा- ऊर्ध्वलोके अधोलोके तिर्यग्लोके च, तत्रोर्ध्वलोके पण्डकवनादौ अधोलोकेअधोलौकिकेषु ग्रामेषु तिर्यग्लोके मनुष्यक्षेत्रे, तत्रापि नियाघातेन पञ्चदेशसु कर्मभूमिषु, व्याघातेन समुद्रनदीवर्षधरपर्वतादावपि / व्याघातो नाम संहरणम्, उक्तं च- "दीवसमुद्देइ-जएसु बाघाय खेत्तओ सिद्धा / निव्वाघाएण पुणो, पनरससुं कम्मभूमीसुं // 1 // " तीर्थकृतः पुनरधोलोके तिर्यग्लोके वा / तत्राधोलोकेऽधोलौकिकेषु ग्रामेषु तिर्यग्लोके पञ्चदशसु कर्मभूमिषु न शेषेषु स्थानेषु शेषेषु हि स्थानेषु संहरणतः संभवन्ति, न च भगवतां संहरणसम्भवः / / तथा काले कालद्वारेऽवसर्पिण्यां जन्म चरमशरीरिणां नियमतः तृतीयचतुरिकयोः सिद्धिगमनं तु केषाञ्चित् पञ्चमेऽप्यरके यथा जम्बूस्वामिनः, उत्सर्पिण्यां जन्म चरमशरीरिणांदुष्षमादिषु द्वितीयतृतीयचतुरिकेषु, सिद्धि-गमनं तु तृतीयचतुर्थयारेव, उक्तं च- "दोसु वि समासु जाया, सिज्झंतोस्सप्पिणीऍ कालतिगे। तीसु य जाया ओस-प्पिणीऍ सिज्झंति कालदुगे / / 1 / / " महाविदेहेषु पुनः कालः सर्व दैव सुषमदुष्षमाप्रतिरूपः, ततस्तद्वक्तव्यताभणनेनैव तत्र वक्तव्यता भणिता द्रष्टव्या, संहरणमधिकृत्य पुररुत्सपिण्यामवसर्पिण्यां च षट्स्वप्यरकेषु सिध्यन्तो द्रष्टव्याः, तीर्थकृतां पुनरव-सर्पिण्यामुत्सर्पिण्यां च जन्म सिद्धिगमनं च सुषमदुष्षमादुष्षमसुषमारूपयोरेवाकारयोर्वेदितव्यं, न शेषेष्वरकेषु / तथाहि-भगवान् ऋषभस्वामी सुषमदुष्षमारकपर्यन्ते समुदपादि, एकोननवतिपक्षेषु शेषेषु सिद्धिमगमत्, वर्द्धमानस्वामी तु भगवान् दुष्षमसुषमारकपर्यन्तेषु एकोननवतिपक्षेषु शेषेषु मुक्तिसौधमध्यमध्यास्त, तथा चोक्तम्- "समणे भगवं महावीरे तीसं वासाई अगारवासमझे वसित्ता साइरेगाई दुवालस संवच्छराई छउमत्थपरियागं पाउणित्ता बायालीसं वासाइं सामनपरियागं पाउणित्ता बावत्तरि वासाणि सव्वाउयं पालइत्ता खीणे वेयणिज्जआउयनामगोए दूसमसुसमाए बहुविइवताए तिहिं वासेहिं अद्धनवमेहि मासेहिं सेसेहिं | पावाए मज्झिमाए जाव सव्वदुक्खप्पहीणे" / (उत्सर्पिण्यामपि च प्रथमतीर्थकरो दुष्षम-सुषमायामेकोननवतिपक्षेषु व्यतिक्रान्तेषु जायते, यतो भगवदर्द्धमानस्वामिसिद्धिगमनस्य भविष्यन्महापद्मतीर्थकरोत्पादस्य चान्तरं चतुरशीतिवर्ष सहस्राणि सप्त वर्षाणि पश्च च मासाः पळ्यन्ते) तथा चोक्तम्- 'चुलसीवाससहस्सा, वासा सत्तेव पंच मासा य / वीरमहापउमाणं, अंतरमेयं जिणुट्ठि ||1 // " तत उत्सपिण्यामपि प्रथमतीर्थकरो यथोक्तकालमान एव जायते, तथा उत्सपिण्यां चतुर्विंशतितमः तीर्थकरः सुषमदुष्षमायामेकोननवतिपक्षेषु व्यतिक्रान्तेषु जन्मासादयति, एकोननवतिपक्षाधिकचतुरशीतिपूर्वलक्षातिक्रमेच सिध्यति, तत उत्सपिण्यामवसर्पिण्यां वा दुष्षमसुषमासुषमदुष्षमयोरेव तीर्थकृतां जन्म निर्वाणं चेति-चेति गतिद्वारे / प्रत्युत्पन्ननयमधिकृत्य मनुष्यगतावेव सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, न शेषासु गतिषु / पाश्चात्यमनन्तरं भवमधिकृत्य पुनः सामान्यतश्चतसृभ्योऽपि गतिभ्य आगताः सिध्यन्ति, विशेषचिन्तायां पुनश्चतसृभ्यो नरकपृथिवीभ्यो, न शेषाभ्यः, तिर्यगतेः पृथिव्यम्बुवनस्पतिपञ्चेन्द्रियेभ्यो न शेषाभ्यः, मनुष्यगते, स्त्रीभ्यः पुरुषेभ्यो वा, देवगतेश्चतुभ्यो देवनिकायेभ्यः / तथा चाह भगवानार्यश्यामः- "नेरइया णं भंते ! अणंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरिअं करेंति? गोअमा! अंणतरागया वि अंतकिरिअं करेंति परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति, एवं रयणप्पभापुढविनेरझ्यावि० जाव पंकप्पभापुढविनेरइया, धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा, गोयमा! नो अणंतरागया अंतकिरिअं करेंति, परंपरागया अंतकिरियं करेंति, एवं० जाव अहे सत्तमपुढविनेरइया। असुरकुमारा० जावथणियकुमारा / पुढविआउवणस्सइकाइया अणंतरागया वि अंतकिरियं करेंति परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति, तेउवाउबेइंदिय-तेइंदियचउरिदिया नो अणंतरागया अंतकिरियं करेंति परंपरागया-अंतकिरियं करेंति सेसा अणंतरागयावि अंतकिरियं करेंति परंपरागया वि" तीर्थकृतः पुनर्देवगते रकगतेर्वाऽनन्तरागताः, सिध्यन्ति, न शेषगतेः, तत्रापि नरकगतेः, तिसृभ्यो नकरपृथिवीभ्यो, न शेषेभ्यः, देवगतेर्वैमानिकदेवनिकायेभ्यो, न शेषनिकायेभ्यः / तथा चाह भगवानार्यश्यामः- "रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थयरतं लभेजा ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए नो लभेजा, से केणतुणं भंते ! एवं वुचइ अत्थेगइए लभेजा अत्थेगइए नो लभेजा ? गोअमा ! जस्स रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थयरनामगोत्ताई कम्माई बधाई पुट्ठाई कडाइं निबद्धाइ अभिनिव्वट्टाई अभिसमन्नागयाइं उन्नाइं नो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविनेरइए रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उव्वट्टिता तित्थयरतं लभेजा, जस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स तित्थयरनामगोत्ताई कम्माइं नो बद्धाई० जाव नो उइन्नावं उवसंताई भवंति से णं रयणप्पहापुढविनेरइए रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उव्वट्टित्ता तित्थयरत्तं नो लभेजा, से एएणतुणं गोयमा! एवं वुच्चइ-अत्थेगइए लभेजा अत्गइए नो लभेजा / एवं०जाव वालुय Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ५२८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध प्पभापुढविनेरइएहितो तित्थयरत्तं लभेजा। पंकप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! पंकप्पभापुढविनेरइएहिंतो अणंतरं उव्यट्टित्ता तित्थयरत्तं | लभेजा ? गोअमा ! णो इणढे समढे अंतकिरियं पुण करेजा। धूमप्पभापुढविनेरइएणं पुच्छा, गोअमा! नो इसट्टेसमटे, विरई पुण लभेजा, तमापुढविपुच्छा, गोयमा ! नो इणढे समठे, विरयाविरई लभेजा, अहे सत्तमाए पुच्छा, गोयमा ! नो इणटे समढे, संमत्तं पुण लभेजा। असुरकुमारा णं पुच्छा, गोयमा ! नो इणढे समटे, अंतकिरियं पुणो करेजा एवं निरंतरं० जाव आउक्काइया, तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहिंतो अणंतरं उव्वट्ठित्ता तित्थयरत्तं लभेजा ? गोयमा ! नो इणढे समडे, केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए, एवं वाउकाइएवि, वणस्सइकाइए णं पुच्छा, गोयमा ! नो इणढे समटे, अंतरिकियं पुण करेजा / बेइंदियतेइंदियचउरिदियाण पुच्छा, गोयमा ! नो इणढे सगट्टे मणपज्जवनाणं पुण उप्पाडेजा। पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्सवाणमंतरजोइसिएसु पुच्छा, गोयमा ! नो इणढे समटे, अंतकिरियं पुण करेजा / सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चइत्ता तित्थयरत्तं लभेजा ? गो०! अत्थगेइए लभेजा अ० नो ल० एवं जहा रयणप्पभापुढविनेरइयस्स एवं० जाव० सव्वट्ठगेदेव" 3, वेदद्वारे प्रत्युत्पन्ननयमधिकृत्यापगतवेद एव सिध्यति, तद्भवानुभूतपूर्ववेदापेक्षया तु सर्वेष्वपि वेदेषु, उक्तं च-"अवगयवेओ सिज्झाइ, पचुप्पण्णं नयं पहुचा उ। सव्वेहि विवेएहिं, सिज्झइ, समईयनयवाया।॥१॥" तीर्थकृतः पुनः स्त्रीवेदे वा पुरुषवेदेवा, न नपुंसकवेदे 4, तथा तीर्थद्वारे तीर्थकरतीर्थे तीर्थकरीतीर्थे च अतीर्थच सिध्यन्ति 5, लिङ्गद्वारे अन्यलिङ्गे गृहिलिङ्गे स्वलिङ्गे वा, एतच्च सर्व द्रव्यलिङ्गापेक्षया द्रष्टव्यं संयमरूपभावलिङ्गापेक्षया तु स्वलिङ्गएव, उक्तं च- "लिंगेण, अन्नलिगे, गिहत्थलिङ्गे तहेव य सलिङ्ग / सव्वेहिं दव्वलिङ्गे, भावेण सलिंगसंजमओ // 1 // " 6, चारित्रद्वारे प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया यथाख्यातचारित्रे, तद्भवानुभूतपूर्वचरणापेक्षया तु केचित्सामायिक सूक्ष्मसम्पराययथा-ख्यातचारित्रिणः केचित्सामायिकच्छेदोप-स्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः, केचित् सामायिकपरिहार-विशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रिणः, कोचत्सामा-यिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणः, उक्तं च- "चरणमि अहक्खाए पचप्पन्नेण सिज्झइ नएणं / पुव्वाणंतरचरणे, तिचउक्कगपंचगगमेणं // 1 // " तीर्थकृतः पुनः सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिण एव, बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धाः स्वयम्बुद्धा बुद्धबोधिता बुद्धीबोधिता वा सिध्यन्ति 8, ज्ञानद्वारे प्रत्युत्पन्ननयमपेक्ष्य केवलज्ञाने, तद्भवानुभूतपूर्वानन्तरज्ञानापेक्षया तु केचिन्मतिश्रुतज्ञानिनः केचिन्मतिश्रुतावधिज्ञानिनः केचिन्मतिश्रुतमनः पर्यायज्ञानिनः केचिन्मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानिनः, तीर्थकृतस्तु मति-श्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानिन एव, अवगाहनाद्वारे जघन्यायामपि अवगाहनायां सिध्यन्ति उत्कृष्टायां मध्यभायां च, तत्र द्विहस्तप्रमाणा जघन्या, पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुःशतप्रमाणा उत्कृष्टा, साच मरुदेवीकालवर्तिनामवसेया, मरुदेव्यप्यादेशान्तरेण नाभिकुलकरतुल्या / / तदुक्तं सिद्धप्राभृत-टीकायाम्-'मरुदेवी वि आएसन्तरेण नामितुल्ल' त्ति, तत आदेशान्तरापेक्षया मरुदेव्यामपि यथोक्तप्रमाणावगाहणाद्रष्टव्या, उक्तं च- "ओगाहणा जहन्ना, रयणिदुर्ग अह पुणो उ उक्कोसा। पंचेव धणुसयाई, धणुहपुहुत्तेण अहियाई // 1 // " अत्र पृथक्त्वशब्दो बहुत्ववाची बहुत्वं चेह पञ्चविंशतिरूपं द्रष्टव्यं, सिद्धप्राभृतटीकायां तथाव्याख्यानात, तेन पञ्चविंशत्यधिकानीत्यवसेयं, शेषा त्वजघन्योत्कृष्टाक्माहना, तीर्थकृतां तु जघन्यावगाहना सप्तहस्तप्रमाणा उत्कृष्टा पञ्चधनुःशतमाना शेषा त्वजघन्योत्कृष्टा 10, उत्कृष्टद्वारे सम्यक्त्वपरिभ्रष्टा उत्कर्षतः कियता कालेन सिध्यन्ति ? उच्यते, देशोनापार्द्धपुद्रलपरावर्त्तसंसारातिक्रमे, अनुत्कर्षतस्तु कंचित्सवयेयकालातिक्रमे केचिदसद्धेययकालातिक्रमे, केचिदनन्तेन कालेन 11, अन्तरद्वारे जघन्यत एकसमयोऽन्तरम् उत्कर्षः षण्मासाः 12, निरन्तरद्वारे जघन्यतो द्वौ समयौ निरन्तरं सिध्यन्तः प्राप्यन्त उत्कर्षतोऽष्टौ समयान् 13, गणनाद्वारे जघन्यत एकस्मिन् समये एकः सिध्यति उत्कर्षतोऽष्टाधिकं शतं, तथा चास्मिन् भरतक्षत्रेऽस्यामवसर्पिण्यां भगवतः श्रीनाभेयस्य निर्वाणसमये श्रूयतेऽष्टोत्तरं शतमेकसमयेन सिद्धं, तथा चोक्तं सङ्घदासगणिना वसुदेवचरिते"भयदं च उसभसामी जयगुरू, पुव्यसयसहस्सं वाससहस्सूणयं विहरिऊणं केवली अट्ठावयपव्वए सह दसर्हि समणसहस्सेहि परिनिव्वाणमुवगते चोदसेणं भत्तेणं माघबहुले पक्खे तेरसीए अभीइणा नक्खत्तेणं एगूणपुत्तसएणं अट्ठहि य नत्तुएहिं सह एगसमएणं निव्युओ, सेसाण वि अणगाराणं दस सहस्साणि अट्ठसयऊणगाणि सिद्धाणि, तम्मि चेव रिक्खे समयंतरेसु बहूसु" इति। 14, अल्पबहुत्वद्वारे युगपद् द्विवादिकाः सिद्धाः स्तोकाः, एककाः सिद्धाः सङ्ख्येयगुणाः, उक्तं च"संखाएँ जहन्नेणं एक्को उक्कोसएण अट्ठसयं / सिद्धाणेगा थोवा, एगगसिद्धा उ संखगुणा // 1 // " 15 / तदेवं कृता पञ्चदशस्वपि द्वारेषु सत्पदप्ररूपणा // सम्प्रति द्रव्यप्रमाणमभिधीयते-तत्र क्षेत्रद्वारे ऊर्ध्वलोके युगपदेकसमयेन चत्वारः सिध्यन्ति द्वौ समुद्रे चत्वारः सामान्यतो जलमध्ये तिर्यगलोकेऽष्टशतं, विंशतिपृथक्त्वमधोलोके, उक्तं च"चत्तारि उडलोए, जले चउक्कं दुवे समुद्दम्मि / अट्ठसयं तिरियलोए, वीसपुहुत्तं अहोलोप // 1 // " तथा नन्दनवेन चत्वारः, 'नंदणे चत्तारी' ति वचनात् एकतमस्मिस्तु विजये विंशतिः, उक्तं च-सिद्धप्राभूतटीकायाम् -"वीसा एगयरे विजये" तथा सर्वास्वप्यकर्म-भूमिषु प्रत्येक संहरणतो दश 2, पण्डकवने द्वौ, पञ्चदशस्वपि कर्म-भूमिषु प्रत्येकमष्टशतम्, उक्तं च- "संकामणाए दसर्ग,दो चेव हवंतिपंडगवणम्मि। समएण य अट्ठसयं, पण्णरससु कम्मभूमीसु // 1 // " कालद्वारे उत्सपिण्यामवसर्पिण्यां च प्रत्येकं तृतीये चतुर्थे चारकेऽष्ट-शतम्, अवसर्पिण्यां पञ्चामारके विंशतिः, शेषेष्वरकेषु प्रत्येकमुत्सपिण्यामवसपिण्यां च संहरणतो दश 2, तथा चोक्तं सिद्धप्राभृतटी-कायाम्- "सेसेसु अरएसु दस सिज्झंति, दोसुवि उस्सप्पिणीओसप्पिणीसु संहरणतो / " सिद्धप्राभृतसूत्रेऽप्युक्तम्, "उस्सप्पिणि ओसप्पिणि, तहयचउत्थयसमासुअ Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 526 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध ट्ठसयं / वंचामयाए वीसं, दसगं दसगं च सेसेसु // 1 // " गतिद्वारे'देवगतेरागतानामष्टशतं, शेषगतिभ्य आगताः प्रत्येक दश दश, उक्तं च सिद्धप्राभृते-'सेणाण गई दसदसगं' भगवांस्त्वार्यश्यामः पुनरेवमाहनरकगतेरागता दश, तत्रापि विशेषचिन्तायां रत्नप्रभापृथिव्याः शर्कराप्रभावा या बालुकाप्रभायाश्च पृथिव्या आगताः प्रत्येकं दश दश, षङ्कप्रभायाः पृथिव्या आगताश्चत्वारः, तथा तिर्यग्गतेरागताः सामान्यतो दश, विशेषचिन्तायां पुनः पृथिवीकायेभ्योऽप्कायेभ्यश्चागताः प्रत्येक चत्वारश्चत्वारः, वनस्पतिकायेभ्य आगताः षट्, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिपुरुषेभ्य आगता दश, पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिस्त्रीभ्योऽप्यागता दश; तथा सामान्यतो मनुष्यगतेरागता विशतिः; विशेषचिन्तायां मनुष्यपुरुषेभ्य आगता दश, मनुष्यस्त्रीभ्य आगता विंशतिः, तथा सामान्यतो देवगतेरागता अष्टशतं, विशेष-चिन्तायामसुरकुमारेभ्यो नागकुमारेभ्यो यावत् स्तनितकुमारेभ्यः प्रत्येकमागता दश दश, असुरकुमारीभ्यः प्रत्येकमागताः पञ्च पञ्च, व्यन्तरदेवेभ्व आगता दश, व्यन्तरीभ्य आगता पञ्च, ज्योतिष्कदेवेभ्य आगता दशज्योतिष्कदेवीभ्य आगता विंशतिः, वैमानिकदेवेभ्य आगता अष्टशतं, वैमानिकदेवीभ्य आगता विंशतिः, तथा च प्रज्ञापनाग्रन्थः- "अणंतरागया णं भंते ! नेरइया एगसमएणं केवइया अंतकिरिअंपकरेंति ? गोअमा !, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, रयणप्प-भापुढविनेरइयावि एवं चेव, जाव वालुयप्पभापुढविनेरइया, अणंतरागया णं भंते ! पंकप्पमापुढविनेरइया एगसमयेणं केवइया अतंकिरिअं पकरेंति ? गोअमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्तारि, अणंतरागयां णं भंते ! असुरकुमार एगसमए णं केवइया अंतकिरिअं पकरेंति? गोअमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वि तिन्नि वा, उक्कोसेणं दस, अणंतरागयाणं भंते! असुरकुमारीओ एगसमएणं केवइयाओ अंतकिरियं पकरेंति ? गोअमा! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पञ्च, 1 एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा० जाव थणियकुमारा, अणंतरागया णं भंते ! पुढविकाइया एगसमएणं केवइया अंतकिरिअं पकरेंति ? गोअमा ! जहन्नेणं इक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं चत्तारि, एवं आउक्काइया वि, वणस्सइकाइया पंचें-दियतिरिक्खजोणिया दस, पंचेदियतिरिक्खजोणिणीओ वि दस, मणुस्सा दस, मणुस्सीओ वीसं, वाणमंतरा दस वाणमंतरीओ पञ्च, जोइसिया दस, जोइसिणीओ वीसं, देमाणिया अट्ठसयं, वेमाणिणीओ बीस'' मिति | तत्त्वं पुनः केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति / वेदद्वारेपुरुषाणामष्टशतं, स्त्रीणां विंशति, दश नपुंसकाः, उक्तं च 'अट्ठसयं पुरिसाणं, वीसं इत्थीण दस नपुंसाणं' तथा इह पुरुषेभ्य उद्धृता जीवाः केचित्पुरुषा एव जायन्ते केचित् स्त्रियः केचिन्नपुंसकाः, एवं स्त्रीभ्योऽप्यद्धृतानां भङ्गत्रयम्, एवं नपुंसकेभ्योऽपि, सर्वसङ्ख्यया भङ्गा नव / तत्र ये पुरुषभ्य उद्धृताः पुरुषा एव जायन्ते तेषामष्टशतं, शेषेषु चाष्टसु भङ्गेषु / दश दश, तथा चोक्तं सिद्धप्राभृते- 'सेसा उ अट्ठ भंगा, दसगं दसगं तु होइ एक्ककं, / तीर्थद्वारे-तीर्थकृतो युगपदेकसमयेन उत्कर्षतश्चत्वारः, / सिध्यन्ति, दश प्रत्येक बुद्धाश्चत्वारः स्वयम्बुद्धा, अष्टशतमतीर्थकृतां विंशतिः स्त्रीणां, द्वे तीर्थकयौँ / लिङ्गद्वारे-गुहिलिङ्गे चत्वारः, अन्यलिङ्गदश, स्वलिङ्गे अष्टशतम्, उक्तं च- 'चउरो दस अट्ठसयं, गिहन्नलिङ्गे सलिङ्गे य' / चारित्रद्वारे--सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदोषस्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणिणां च प्रत्येकमष्टशतं, सामायिकपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्प-राययथाख्यातचारित्रिणां च दशकम् 2, उक्तं च"पच्छाकडं चरितं, तिगं चउक्कं च तेसिमट्ठसयं / परिहारिएहि सहिए, दसगं दसगं च पंचगडे // 1 // ' बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्धानां दसकं, बुद्धबोधितानां पुरुषाणामष्टशतं, बुद्धबोधितानां स्त्रीणां विंशतिः, नपुंसकानां दशकं, बुद्धीभिबोंधितानां स्त्रीणां विंशतिः, बुद्धीभिर्बोधितानामेव सामान्यतः पुरुषादीनां विंशतिपृथक्त्वम्, उक्तं च सिद्धप्राभृतटीकायाम्- 'बुद्धीहिं चेव बोहियाणं पुरिसाईणं सामन्नेण वीसपुहत्तं सिज्झइ' त्ति, बुद्धी च मल्लिस्वामिनीप्रभृतिका तीर्थकरी सामान्यसाध्व्यादिका वा वेदितव्या, यतः सिद्धप्राभृतटीकायामेवोक्तं"बुद्धीओ वि मल्लीपमुहाओ अन्नाओ य सामन्नसाहुणीपमुहाओ बोहंति ति"ज्ञानद्वारेपूर्वभावमपेक्ष्य मतिश्रुतज्ञानिनो युगपदेकसमयेनोत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्ति, मतिश्रुतमनः-पर्यायज्ञानिनो दश, मतिश्रुतविधिज्ञानना मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानिनां वा अष्टशतम् / अवगाहनाद्वारे-जघन्यायामवगाहनायां युगपदेक-समयेनोत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्ति, उत्कृष्टाया द्रौ, अजघन्योत्कृष्टायामष्टशतं, यवमध्येऽ-- ष्टौ, उक्तं च- "उक्कोसगाहणाए, दो सिद्धाहोंति एकसमएणं / चत्तारि जहन्नाए, अट्ठसयं मज्झिमाए उ ||1|" अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृतागाथापर्यन्तवर्तिनस्तुशब्द-स्याधिकार्थसंसूचनात् 'जवमज्झे अट्ठ' इति उत्कृष्टद्वारे येषां सम्यक्त्वपरिभ्रष्टानामनन्तः कालोऽगमत् तेषामष्टशतं, सङ्ख्यातकालपतितानामसंख्यातकालपतितानां च दशकं दशकम्, अप्रतिपतितसम्यक्त्वानां चतुष्टयम्, उक्तं च-"जेसिं अणंतकालो, पडिवाओ तेसिँ होइ अट्ठसयं अप्पडिवडिए चउरो, दसगं दसगंच सेसाणं / / 1 / / " अन्तरद्वारे-एको वा सान्तरतः सिध्यति बहवो वा, तत्र बहवो यावदष्टशतम्। अनुसमयद्वारे-प्रतिसमयमेको वा सिध्यति, बहवो वा? तत्र बहूनां सिध्यतामियं प्ररूपणाएकादयो द्वात्रिंशत्पर्यन्ता निरन्तरमुत्कर्षतोऽष्टौ समयान् यावत् प्राप्यन्ते / इयमत्र भावना-प्रथमसमये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कर्षतो द्वात्रिंशत्, सिध्यन्तः प्राप्यनते, द्वितीयसमये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कृर्षतो द्वात्रिंशद् एवं तृतीयसमयेऽपि, एवं चतुर्थसमयेऽपि एवं यावदष्टमेऽपि समये जघन्यत एको द्वौ वा उत्कृर्षतो द्वात्रिंशत्ततः परमवश्यमन्तरम्। तथा त्रयस्त्रिंशदादयोऽष्टचत्वारिंशत्पर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः, सप्त समयान् यावत्प्राप्यन्ते, भावना प्राग्वत्, परतो नियमादन्तरं, तथा एकोनपञ्चाशदादयः षष्टिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उत्कर्षतः षट् समयान् यावदवाप्यन्ते, परतोऽवश्यमन्तरं, तथा एक Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ८३०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध षष्ट्यादयो द्विसप्ततिपर्यन्ता निरन्तरमुर्कषः सिध्यन्त उत्कर्षतः पञ्च समयान् यावत्प्राप्यन्ते, ततः परमन्तरं, तथा त्रिसप्तत्यादयश्चतुरशीतिपर्यन्ता निरन्तरं सिद्ध्यन्तः उत्कर्षतः चतुरः समयान् यावत्प्राप्यन्ते, तत ऊर्ध्वमन्तरं, तथा पञ्चाशीत्यादयः षण्णवतिपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्तः उत्कर्षतस्त्रीन् समयान् यावदवाप्यन्ते, परतोऽवश्यमन्तरम्। तथा सप्तनवत्यादयो व्युत्तरशतपर्यन्ता निरन्तरं सिध्यन्त उत्कर्षतो द्वौ समयौ यावदवाप्यन्ते, परतो नियमादन्तरं, तथा व्युत्तरशतादयोऽष्टोत्तरशतपर्यन्ताः सिध्यन्तो नियमादेकमेव समयं यावदवाप्यन्ते, न द्विवादिसमयानिति / एतदर्थसंग्राहिका चेयं गाथा"बत्तीसा अड्याला, सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा / चुलसीई छन्नउई, दुरहियमळुत्तरसयं च।।१।।" अत्राष्ट-सामायिकेभ्य आरभ्य द्विसामायिकपर्यन्ता निरन्तरं सिद्धाः एकैकस्मिश्च विकल्पे उत्कर्षतः शतपृथक्त्वं संख्यापरिमाणं, गणनाद्वारमल्पबहुत्वद्वारं च प्रागिव द्रष्टव्यं, तथा च सिद्धप्राभृतेऽपि द्रव्यप्रमाणचिन्तायामेतयोरियोः सत्पदप्ररूपणोक्तैव गाथा भूयोऽपि परावर्तिता- "संखाएँ जहन्नेणं एको उक्कोसएण अट्ठसयं / सिद्धा णेगा थोवा, एक्कगसिद्धा उ संखगुणा // 1 // " तदेवमुक्तं द्रव्यप्रमाणम् / सम्प्रति क्षेत्रप्ररूपणा कर्तव्या-तत्र पूर्वभावमपेक्ष्य सत्पदप्ररूपणायामेव कृता / सम्प्रति प्रत्युत्पन्ननयमतेन क्रियते- तत्र पञ्चदशस्वप्यनुयोगद्वारेषु पृच्छा, इह सकलकर्मक्षयं कृत्वा कुत्र गतो भगवान् सिध्यति ? उच्यते-ऋजुगत्या मनुष्यक्षेत्रप्रमाणे सिद्धिक्षेत्रे गतः सिध्यति, यदुक्तम्- "इह बोन्दि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झइ" ||1|| गतं क्षेत्रद्वारम् / सम्प्रति स्पर्शनाद्वारम्-- स्पर्शना, च क्षेत्रावगाहादतिरिक्ता यथा परमाणोः, तथाहि- परमाणोरेकस्मिन् प्रदेशेऽवगाहः सप्तप्रादेशिकी च स्पर्शना / उक्तं च --"एगपएसोगाद, सत्तपएसाय से फुसणा'' सिद्धानां तु स्पर्शना एवमवगन्तव्या "फुसइ अणंते सिद्धेः सव्वपएसेहिं नियमसो सिद्धो / ते उ असंखेज्जगुणा, देसपएसेहिं जे पुट्ठा / / 1 // " गतं स्पर्शनाद्वारम् / सम्प्रति कालद्वारम् - तत्र चेय परिभाषासर्वेष्वपि द्वारेषु यत्र यत्र स्थानेऽष्टशतमेकसमयेन सिध्यदुक्तं तत्र तत्राष्टौ समया निरन्तरं कालो वक्तव्यः, यत्र यत्र पुनर्विंशतिर्दश वा तत्र तत्र चत्वारः समयाः, शेषेषु, स्थानेषु द्वौ समयौ, उक्तं च- "जहिं अट्ठसयं सिज्झइ, अट्ठ उ समया निरंतरं कालो। वीसदसएसु चउरो, सेसा सिझंति दो समए // 1 // " सम्प्रति एतदेव मन्दविनेयजनानुग्रहाय विभाव्यते, तत्र क्षेत्रद्वारे-जम्बूद्वीपे धातकीखण्डे पुष्करवरद्वीपे च प्रत्येकं भरतैरावत-महाविदेहेषूत्कर्षतोऽष्टौ समयान् यावन्निरन्तरं सिध्यन्तः प्राप्यन्ते, हरिवर्षादिष्वधोलोके च चतुरश्चतुरः समयान, नन्दनवने पण्डकवने लवणसमुद्रे च द्वौ द्वौ समयौ, कालद्वारेउत्सर्पिण्यामवसिपिण्यां च प्रत्येकं तृतीयचतुर्थारकयोरष्टावष्टौ समयान्, शेषेषु चारकेषु चतुरश्चतुरः समयान, गतिद्वारे-देवगतेरागता उत्कर्षतोऽष्टौ समयान, शेषगतिभ्य आगताश्चतुरः समयानिति, वेदद्वारपश्चात्कृतपुरुषवेदा अष्टौ समयान् पश्चात्कृतस्त्रीवेदनपंसकवेदाः प्रत्येक चतुरश्चतुरः समयान् पुरुषवेदेभ्य उदृत्य पुरुषा एव सन्तः सिध्यन्तोऽष्टौ समयान्, शेषेषु चष्टिसु भङ्गेषु चतुरश्चतुरः समयानिति, तीर्थद्वारेतीर्थकरतीर्थे तीर्थकरीतीर्थे वाऽतीर्थकरसिद्धा उत्कर्षतोऽष्टौ समयान्, तीर्थकराः तीर्थकर्यश्च द्वौ द्वौ समयौ, लिङ्गद्वारेस्वलिङ्गेऽष्टौ समयान् , अन्यलिङ्गे चतुरः समयान, गृहिलिङ्गे-दौ समयौ, चारित्रद्वारे अनुभूतपरिहारविशुद्धिकचारित्राश्चतुरः समयान्, शेषा अष्टवष्टौ समयान, बुद्धद्वारे-स्वयम्बुद्धा द्वौ समयौ, बुद्धबोधिता अष्टौ समयान्, प्रत्येकबुद्धा बुद्धीबोधिताः, स्त्रियो बुद्धिबोधिता एवं च सामान्यतः पुरुषादयः प्रत्येकं चतुरश्चतुरः समयान् ज्ञानद्वारे-मतिश्रुतज्ञानिनो द्वौ समयौ, मतिश्रुतमनः पर्याय-ज्ञानिनश्चतुरस्समयान्, मतिश्रुतावधिज्ञानिनो मतिश्रुतावधिमनः पर्यायज्ञानिनो वाऽष्टावष्टौ समयान, अवगाहनाद्वारेउत्कृष्टायां जधन्यायां चावगाहनायां द्रौ द्वौ समयौ, यवमध्ये चतुरः समयान्, उक्तं च सिद्धप्राभृतटीकायाम्- 'जवमज्झाए य चत्तारि समया' इति, अजघन्योत्कृष्टायां पुनरवगाहानायामष्टौ समयान, उत्कृष्टद्वारे, अप्रतिपतितसम्यक्त्वा द्वौ समयौ, संख्येयकालप्रतिपतिता असंख्येयकालप्रतिपतिताश्चतुरश्वतुरस्समयान, अनन्तकालप्रतिपतिता अष्टौ समयान्। अन्तरादीनि चत्वारिद्वाराणि नेहावतरन्ति / गतं मौलं पञ्चमं काल इति द्वारम् / / सम्प्रति षष्ठमन्तरद्वारम्- अन्तरं नाम सिद्धिगमनविरहकालः, स च सकलमनुष्यक्षेत्रापेक्षया सत्पदप्ररूपणायामेवोक्तः, यथा जघन्यत एकसमय उत्कर्षतः षण्मासा इति, ततः इह क्षेत्रविभागताः सामान्यतो विशेषतश्चोच्यते- तत्र जम्बूद्वीपे धातकीखण्डे च प्रत्येकं सामान्यतो वर्षपृथकुत्वमन्तरं, जघन्यत एकसमयः, विशेषचिन्तायां जम्बूद्वीपविदेहे धातकीखण्डविदेहयोश्वोत्कर्षतः प्रत्येकं वर्षपृथक्त्वमन्तरे जघन्यतः एकः समयः, तथा सामान्यतः पुष्करवरद्वीपे विशेषचिन्तायां च तत्रत्ययोयोरपि विदेहयोः प्रत्येकमुत्कर्षतः साधिकं वर्षमन्तरं जघन्यत एकः समयः / उक्तं च"जम्बूद्वीपे धायइ-ओहविभागे य तिसु विदेहेसुं / वासपुहत्तं अंतरपुक्खरमुभयं पि वासहियं / / 1 / / " कालद्वारेभरतेष्वैरावतेषु च जन्मत उत्कृष्टमन्तरं किञ्चिदूना अष्टादश सागरोपमकोटीकोट्यः, संहरणतः संख्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनरुभय-त्राप्येकः समयः, गतिद्वारे-निरयगतेरागत्योपदेशतः सिध्यतामुत्कृष्ट-मन्तरं वर्षसहस्रं हेतुमाश्रित्य प्रतिबोधसम्भवेन सिध्यतां संख्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः, पुनरुभयत्राप्येकः, समयः, तिर्यग्योनिकेभ्य आगत्योपदेशतः सिध्यतां वर्षशतपृथक्त्वं हेतुमाश्रित्य प्रतिबोधतः सिध्यता संख्येयानि वर्षसहस्राणि, जधन्यतः पुररुभयत्राप्येकः समयः तिर्यग्योनिकस्त्रीभ्यो मनुष्येभ्यो मनुष्यस्त्रीभ्यः सौधर्मेशानवर्जदेवेभ्यो देवीभ्यश्च पृथक् पृथक् समागत्योपदेशतः सिध्यतां प्रत्येकमुत्कर्षतोऽन्तरं सातिरेक वर्ष हेतुमाश्रित्य प्रतिबोधतः सिध्यतां संख्येयानि वर्षसहसाणि, जघन्यतः पुनरुभयत्राप्येकः समयः, तथा पृथिव्यब्वनस्पतिभ्यो गर्भव्यूत्क्रान्तेभ्यः प्रथमद्वितीयनरकपृथिवीभ्यामीशानदेवेभ्यः Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 531 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध . सौधर्मदेवेभ्यश्च समागत्योपदेशेन हेतुना च सिध्यतां प्रत्येकमुत्कृष्टमन्तरं सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि जघन्यत एकः समयः, वेदद्वारेपुरुषवेदानामुत्कर्षतोऽन्तरं साधिकं वर्ष, स्त्रीनपुंसकवेदानां प्रत्येक सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, पुरुषेभ्य उदृत्य पुरुषत्वेन सिध्यता साधिकं वर्ष, शेषेषु चाष्टसु भङ्गकेषु प्रत्येकं सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, जधन्यतः सर्वत्राप्येकः समयः, तीर्थद्वारे-तीर्थकृतां पूर्वसहस्रपृथक्त्वम् उत्कर्षतोऽन्तरे, तीर्थकरीणामनन्तः कालः, अतीर्थकराणां साधिकं वर्ष, नोतीर्थसिद्धानां संख्येयानि वर्षसहस्राणि नोतीर्थसिद्धाः प्रत्येकबुद्धाः, जघन्यतः सर्वत्रापि समयः / उक्तं च- "पुव्वसहस्सपुहत्तं, तित्थकरानंतकाल तित्थगरी / नोतित्थकरा वासाहिगं तु सेसेसु संखसमा॥१।। एएसिंच जहन्नं समओ।" "संखसमंत्ति-सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, लिङ्गद्वारेस्वलिङ्गादिषु सर्वेष्वपि जघन्यत एकः समयोऽन्तरम् उत्कर्षतोऽन्यलिङ्गे गृहिलिङ्गे च प्रत्येकं संख्येयानि वर्षसहस्राणि, स्वलिङ्गे साधिकं वर्षम्, चारित्रद्वारे-पूर्वभावमपेक्ष्य सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणामुत्कृष्टमन्तरं साधिकं वर्ष, सामायिकच्छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसंपराययथाख्यातचारित्रिणां सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातचारित्रिणां च किञ्चि-दूनाष्टादशसागरोपमकोटीकोट्यः, जघन्यतः सर्वत्राप्येकः समयः, बुद्धद्वारे-बुद्धबोधितानामुत्कर्षतोऽन्तरं सातिरेकं वर्ष, बुद्धबोधितानां स्त्रीणां प्रत्येकबुद्धानां च सङ्ख्येयानि वर्षसहस्राणि, स्वयम्बुद्धानां पूर्वसहस्रपृथक्त्वं, जघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः / उक्तं च - "बुद्धेहिं बोहिया णं, वासहियं सेसयाण संखसमा। पुव्वसहस्सपुहुत्तं, होइ सयंबुद्ध समइयरं // 1 // " 'समइयर' मिति-इतरज्जघन्यमन्तरं समयः, ज्ञानद्वारे मतिश्रुतज्ञानिनामुत्कृष्टमन्तरं पल्योषमासंख्येयभागः, मतिश्रुतावधिज्ञानिनां साधिकं वर्ष, मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनां च संख्येयानि वर्षसहस्राणि जघन्यतः सर्वत्रापिसमयः, अवगाहनाद्वारेजघन्यायामुत्कृष्टायां चावगाहनायां यवमध्ये चोत्कृष्टमन्तरं श्रेण्यसंख्येयभागः, अजघन्योत्कृष्टायां साधिकं वर्ष, जघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः, उत्कृष्टद्वारे--- अप्रतिपतित सम्यक्त्वसामरोपमासंख्येयभागः, संख्येयकालप्रतिपतितानाम-संख्येयकालप्रतिपतितानां च संख्येयानि वर्षसहस्राणि, अनन्तकालप्रतिपतितानां साधिकं वर्ष, जघन्यतः सर्वत्रापि समयः, उक्तं च-उवहिअसंखो भागो, अप्पडिवडियाण सेस संखसमा / वासमहियमणंते, समओ य जहन्नओ होइ ! // 1 // " अन्तरद्वारे-सान्तरं सिध्यतोमनुसमयद्वारे निरन्तरं सिध्यतां गणनाद्वारे एककानामनेकेषां च सिध्यतामुत्कुष्टमन्तरं संख्येयानि वर्षसहस्राणि, जघन्यतः पुनः सर्वत्रापि समयः / गतमन्तरद्वारम्॥ सम्प्रति भावद्वारम्तत्र सर्वेष्वपि क्षेत्रादिषु द्वारेषु पृच्छा, कतरस्मिन् भावे वर्तमानाः सिध्यन्तीति ? उत्तरंक्षायिके भावे, उक्तं च- 'खेताइएसु पुच्छा, वागरणं सव्वहिं खइए / गतं भावद्वारम्॥ सम्प्रत्यल्पबहुत्वद्वारम्-तत्र ये तीर्थकरा ये च जले ऊर्ध्वलोकादौ च चतुष्काः सिध्यन्ति ये च हरिवर्षादिषु सुषमसुषमादिषु च संहरणतो दश दश सिध्यन्ति ते परस्परं तुल्याः, तथैवोत्कर्षतो युगपदेकसमयेन प्राप्यमाणत्वात्, तेभ्यो विंशतिसिद्धाः स्तोकाः, तेषां स्त्रीषु दुष्षमायामेकतमस्मिन् विजये वा प्राप्यमाणत्वात्, तथा चोक्तम् "वीसगसिद्धा इत्थी, हलोगेगॅविजयादिसु अओ चउरो। दसगेहितो थोवा" तैस्तुल्या विंशतिपृथक्त्वसिद्धाः, यतस्ते सर्वाधोलौकिकग्रामेषु बुद्धीबोधितस्त्र्यादिषु वा लभ्यन्ते, ततो विंशतिसिद्धस्तुल्याः, यदुक्तम्-"वीसपुहुत्तं सिद्धा सव्वाहोलोगबुद्धीबोहियाइ अओ वीसगेहिं तुल्ला' क्षेत्रकालयोः स्वल्पत्वात् कादाचित्कत्वेन च सम्भवादिति तेभ्योऽष्टशतसिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्त च-- "चउ दसगा तह वीसा, वीसपुहुत्ता य जे य अट्ठसया / तुल्ला थोवा तुल्ला, संखेजगुणा भवे सेसा 111||" गतमल्पबहुत्वद्वारम् / कृताऽनन्तरसिद्धप्ररूपणा। सम्प्रति परम्परसिद्धप्ररूपणा क्रियतेतत्र सत्पदप्ररूपणा पञ्चदशस्वपि क्षेत्रादिषु द्वारेष्वनन्तरसिद्धवदविशेषेण द्रष्टव्या, द्रव्यप्रमाणचिन्तायां सर्वेष्वपि द्वारेषु सर्वत्रैवानन्ता वक्तव्याः, क्षेत्रस्पर्शने प्रागिव, कालः पुनः सर्वत्रापि अनादिरूपोऽनन्तो वक्तव्यः, अत एवान्तरमसम्भवान्न वक्तव्यम् , तदुक्तं द्रव्यप्रमाणम्, कालमन्तरं चाधिकृत्य सिद्धप्राभूते- "परिमाणेण अणंता, कालोऽणाई अणंतओ तेसिं / नत्थि य अंतरकालो" त्ति, भावद्वारमपि प्रागिव, सम्प्रत्यल्पबहुत्वं सिद्धप्राभृतक्रमेणोच्यते-समुद्रसिद्धाः स्तोकाः तेभ्यो द्वीपसिद्धाः संख्येयगुणाः, तथा जलसिद्धाः स्तोकाः तेभ्यः स्थलसिद्धाः संख्येयगुणाः, तथा ऊर्ध्वलोकसिद्धाः स्तोकाः तेभ्योऽधोलोकसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि तिर्यग्लोकसिद्धाः संख्येगुणाः / उक्तं च"सामुद्ददीव जलथल, दुण्हं दुण्हंतुथोवसंखगुणा। उड्डअहतिरियलोए, थोवा संखागुणा संखा // 1 // " तथा लवणसमुद्रसिद्धाः सर्वस्तोकाः तेभ्यः कालोदसमुद्रसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि जम्बूद्वीपसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्यो धातकीखण्डसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्धसिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च- "लवणे कालोए वा जंबूद्वीवे य धायईसंडे। पुक्खरवरे य दीवे, कमसो थोवा य संखगुणा ||1||" तथा जम्बूद्वीपे संहरणतो हिमवच्छिखरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः 1, तेभ्यो हैमवतैरण्यवतसिद्धाः संख्येयगुणाः 2, तेभ्योऽपि महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः 3, तेभ्योऽपि देवकुरुत्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः 4, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यात् 5, तेभ्योऽपि निषधनीलवत्सिद्धाः संख्येयगुणाः६, तेभ्योऽपि भरतैरावतसिद्धाःसंख्येयगुणाः स्वस्थानत्वात्७,तेभ्यो महाविदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः सदाभावात् 8, सम्प्रति धातकीखण्डे क्षेत्रविभागेनोच्यतेधातकीखण्डे संहरणतो हिमवशिखरिसिद्धाः सर्वस्तोकाः-१, तेभ्यो महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः 2, तेभ्योऽपि निषधनीलवत्सिद्धाः संख्येयगुणाः 3, तेभ्याऽपि हैमवतैरण्यवतसिद्धा विशेषाधिकाः 4, तेभ्यो देवकुस्त्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः 5, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धा विशे Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 832- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध षाधिकाः 6, तेभ्योऽपि भरतैरावतसिद्धाः संख्येयगुणाः 7, तेभ्योऽपि महाविदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः 8, तथा पुष्करवरद्वीपाढे हिमवच्छिखरिसिद्धाः, सर्वस्तोकाः 1, तेभ्योऽपि महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः 2, तेभ्योऽपि निषधनीलवसिद्धाः संख्येयगुणाः३, तेभ्योऽपि हैमवतैरण्यवतसिद्धाः संख्येयगुणाः 4, तेभ्योऽपि देवकुरूत्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः 5, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः विशेषाधिकाः 6, तेभ्योऽपि भरतैरावतसिद्धाः संख्येयगुणाः 7, स्वस्थानमिति कृत्वा, तेभ्योऽपि महाविदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः, क्षेत्रबाहुल्यात्, स्वस्थानाच्च 8, सम्प्रति त्रयाणामपि समवायेनाल्पबहुत्वमुच्यते-सर्वस्तोका जम्बूद्वीपे हिमवच्छिखरिसिद्धाः 1, तेभ्योऽपि हैमवतैरण्यवतसिद्धाः संख्येयगुणाः 2, तेभ्योऽपि महाहिमवद्रुक्मिसिद्धाः संख्येयगुणाः 3, तेभ्योऽपि देवकुरूत्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः 4, तेभ्योऽपि हरिवर्षरम्यकसिद्धाः संख्येयगुणाः 5, तेभ्योऽपि निषधनीलवत्सिद्धाः संख्येयगुणाः 6, तेभ्योऽपिधातकीखण्डहिमवच्छिखरिसिद्धाः विशेषाधिकाः, स्वस्थाने तु परस्परं तुल्याः 7, ततो धातकीखण्डमहाहिम-वद्रुक्मिपुष्करवस्वीपार्द्धहिमवच्छिखरिसिद्धाः संख्येयगुणाः, स्वस्थाने तु चत्वारोऽपि परस्परंतुल्यांक, ततो धातकीखण्डनिषधनीलवत्सिद्धाः पुष्करवरद्वीपार्द्धमहाहिमवद्रुक्मिसिद्धाश्च संख्येयगुणाः स्वस्थाने तु परस्परं तुल्यां , ततो धातकीखण्डहैमवतैरण्यवतसिद्धा विशेषाधिकाः 10, तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्धनिषधनीलवत्सिद्धाः संख्येयगुणाः 11, ततो धातकीखण्डदेवकुरुत्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः 12, तेभ्योऽपि धातकीखण्ड एव हरिवर्षरम्यकसिद्धा विशेषाधिकाः 13 ततः, पुष्करवरद्वीपार्द्धहैमवतैरण्यवतसिद्धाः संख्येयगुणाः 14, तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्ध एव देवकुरूत्तरकुरुसिद्धाः संख्येयगुणाः 15, तेभ्योऽपि तत्रैव हरिवर्षरम्यकसिद्धा विशेषाधिकाः 16, तेभ्योऽपिजम्बूद्वीपभरतेरावतसिद्धाः संख्येयगुणाः 17, तेभ्योऽपि धातकीखण्डसत्कभरतैरावतसिद्धाः संख्येयगुणाः 18, तेभ्योऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्धभरतैरावतसिद्धाः संख्येयगुणाः 16, तेभ्योऽपि जम्बूद्वीपेविदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः 20, ततो धातकीखण्डविदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः 21, ततोऽपि पुष्करवरद्वीपार्द्ध विदेहसिद्धाः संख्येयगुणाः 22, इदंच क्षेत्रविभागेनाल्पबहत्वंसिद्धप्राभृतटीकातो लिखितम् / गतं क्षेत्रद्वारम् // अधुना कालद्वारम्- तत्रावसर्पिण्या संहरणत एकान्तदुषमासिद्धाः सर्वस्तोकाः, इतो दुष्षमासिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्यः सुषमदुष्षमासिद्धा असंख्येयगुणाः कालस्यासंख्येयगुणत्वात्, तेभ्योऽपि सुषमासिद्धा विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि सुषमसुषमासिद्धा विशेषाधिकाः, तेभ्योऽपि दुष्षमसुषमासिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च- "अइदूसमाइ थोव संख असंखा दुवे विसेसहिया। दूसमसुसमा संखागुणा उ ओसप्पिणीसिद्धा / / 1 / / '' एवमुत्सर्पिण्यामपि द्रष्टव्यम्, तथा चोक्तम्- "अइदूसमाइ थोवा, संखअसंखा उ दुन्नि संविसेसाः। दूसमसुसमा संखा-गुणा उ उस्सप्पिणीसिद्धा / / 1 / / " सम्प्रत्युत्सर्पिण्यवसप्पिण्योः समुदायेनाल्प बहुत्वमुच्यते-तत्र द्वयोरप्यत्सप्पिण्यवसर्पिण्योरेकान्त दुष्षमासिद्धाः सर्वस्तोकाः, तत उत्सपिण्यां दुषमासिद्धा विशेषाधिकाः, ततोऽवसर्मिण्यां दुष्षमासिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वयोरपि दुष्षमसुषमासिद्धाः संख्येयगुणाः, ततोऽवसर्पिण्यां सर्वसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्युत्सर्पिणीसर्वसिद्धा विशेषाधिकाः, गतं कालद्वारम्।। सम्प्रति गतिद्वारं तत्र मानुषीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, ततो मानुषेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि नैरयिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिस्त्रीभ्योऽनन्तरागता सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि देवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि देवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च- "मणुई मणुया नारय, तिरिक्खिणी तह तिरिक्ख देवीओ। देवाय जहाकमसो, संखेज्जागुणा मुणेयव्वा।।१॥" तथा एकेन्द्रियेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, ततः पश्चेन्द्रियेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तथा वनस्पतिकायभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, ततः पृथिवीकायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, ततोऽप्यप्कायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि त्रसकायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च"एगिदिएहि थोवा, सिद्धाः पञ्चेन्द्रिएहि संखगुणातरुपुढविआउतसका-इएहि संखागुणा कमसो | // 1 // " तथा चतुर्थपृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यस्तृतीयपृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि द्वितीयपृथिवीतोऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादरप्रत्येकवनस्पतिभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादरपृथिवीकायेभ्योऽनन्तरागताः, सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पर्याप्तबादराप्कायेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाःसंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि भवनपतिदेवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि व्यन्तरीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धा संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि व्यन्तरदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवेभ्योऽनन्तरागताः सि द्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि ज्योतिष्कदेवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मनुष्यस्त्रीभ्योऽप्यनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मनुष्येभ्योऽन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि प्रथमनरकपृथिवीतोऽन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यग्योनिस्त्रीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तिर्यगयोनिकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि अनुत्तरोपपातिकदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वेयकेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्यच्युतदेवलोकादनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि आरणदेवेभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः एवमधोमुखंतावन्नेयं यावत् सनत्कुमारादनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तत ईशानदेवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, ततोऽपि सौधर्मदेवीभ्योऽनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 533 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध ईशानदेवेभ्योऽपयनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि | सौधर्मदेवेभ्योऽप्यनन्तरागताः सिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च"नरगचउत्थापुढवी, तच्चा दोचा तरू पुढवि आऊ। भवणवइ देवि दवा, एवं वणजोइसाणं पि / / 1 / / मणुई मणुस्स नारय--पढमा तह तिरिक्खिणी य तिरिया य / देवा अणुत्तराई, सव्वे वि सणंकुमारंता // 2 // ईसाणदेवि सोह-म्मदेवि ईसाणदेव सोहम्मा। सव्वे वि जहाकमसो, अणंतरायाउ संखगुणा // 3 // " गतं गतिद्वारम् / सम्प्रति वेदद्वारम्-अत्र सर्वस्तोका नपुंसकसिद्धाः, तेभ्यः स्त्रीसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि पुरुषसिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्तं च- "थोवा नपुंस इत्थी, संखा संखगुणा य तओ पुरिसा।" तीर्थद्वारे-सर्वस्तोकाः तीर्थकरीसिद्धाः, ततः तीर्थकरीतीर्थे प्रत्येकबुद्धसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरीतिर्थे अतीर्थकरीसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरीतीर्थे एवातीर्थकरसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्यः तीर्थकरसिद्धा अनन्तगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थे प्रत्येकबुद्धसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थ एव साध्वीसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि तीर्थकरतीर्थ एवातीर्थकरसिद्धाः संख्येयगुणाः, लिङ्गद्वारे-गृहिलिङ्गसिद्धाः सर्वस्तोकाः तेभ्योऽप्यन्यलिङ्गसिद्धा असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि स्वलिङ्गसिद्धा असंख्येयगुणाः / उक्तं च- "गिहिअन्नसलिंगेहिंसिद्धा थोवा दुबे असंखगुणा'' चारित्रद्वारेसर्वस्तोकाश्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः, तेभ्यः सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यात-चारित्रसिद्धाः संख्येयगुणः, तेभ्योऽपि छेदोपस्थापनसूक्ष्मसम्पराय-यथाख्यातचारित्रसिद्धा असंख्येयगुणाः, सामायिकरहितं च छेदोपस्थापनं भग्नचारित्रस्याव-गन्तव्यं, तेभ्योऽपि सामायिकच्छेदोप-स्थापनसूक्ष्म-सम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सामायिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रसिद्धाः, संख्येयगुणाः, उक्तं च- "थोवा परिहारचऊ, पंचग संखा असंखछेयतिगं / छेयचउक्नं संखे, सामाइयतिग च संखगुणं / / 1 / / '' बुद्धद्वारे- सर्वस्तोकाः स्वयम्बुद्धसिद्धाः, तेभ्यः प्रत्येकबुद्धसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि बुद्धीबोधितसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि बुद्धबोधितसिद्धाः संख्येयगुणाः, ज्ञानद्वारे- मतिश्रुतमनः पर्यायज्ञानिनः सिद्धाः सर्वस्तोकाः, तेभ्यो मतिश्रुतज्ञानिसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मतिश्रुतावधिमनः पर्यवज्ञानिसिद्धाः असंख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि मतिश्रु-तावधिज्ञानिसिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्त च- "मणपज्जवनाणतिगे, दुगे च उक्के मणस्स नाणस्स / थोवा संख असंखा, ओहितिगे हुंति संखेज्जा / / 1 // ' अवगाहनाद्वारे -सर्वस्तोका द्विहस्तप्रमाणजधन्यावगाहनासिद्धाः तेभ्यो धनुःपृथक्त्वाभ्यधिकपञ्चधनुःशतप्रमाणोत्कृष्टावगाहनासिद्धाः असंख्येयगुणाः, ततो मध्यमावगाहनासिद्धा असंख्येयगुणाः, उक्तं च- "ओगाहणाजहन्ना, थोवा उक्कोसिया असंखगुणा / तत्तो वि असंखगुणा, नायव्वा भज्झिमाए वि // 1 // ' अत्रैव सिद्धप्राभृतटीकाकारोपदर्शितो विशेष उपदीत-सर्वस्तोकाः सप्तहस्तप्रमाणावगाहनासिद्धाः तेभ्यः पञ्चधनुःशतप्रमाणा-वगाहनासिद्धाः संख्येयगुणाः, ततो न्यूनपञ्चधनुःशतप्रमाणावगाहनासिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि सातिरेकसप्तहस्तप्रमाणावगाहनासिद्धा विशेषाधिकाः, उत्कृष्टद्वारे- सर्वस्तोकाः अप्रतिपतितसिद्धाः तेभ्यः संख्येयकालप्रतिपतितसिद्धा असंख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यसंख्येयकालप्रतिपतितसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्योऽप्यनन्तकालप्रतिपतितसिद्धा असंख्येयगुणाः, उक्तं च-"अप्पडिवाइयसिद्धा, संखाखा अणंतकाला य / थोवा असंखेज्जगुणा, संखेजगुणा असंखेज (ख) गुणा // 1 // " अन्तरद्वारे-सर्वस्तोकाः षण्मासान्तरसिद्धाः तत एकसमयान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः ततो द्विसमयान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः ततोऽपि त्रिसमयान्तरसिद्धाः संख्येयगुणाः एवं तावद्वाच्यं यावद्यवमध्यम्. ततः संख्येयगुणहीनास्तावद्वक्तव्या यावदेकसमयहोनषण्मासान्तरसिद्धेभ्यः षण्मासान्तरसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, अनुसमयद्वारे-- सर्वस्तोकाः अष्टसमयसिद्धाः ततः सप्तसमयसिद्धाः संख्येयगुणाः तेभ्यः षट्समयसिद्धाः संख्येयगुणा एवं समयसमयहान्या तावद्वाच्यं यावद् द्विसमयसिद्धाः संख्येयगुणाः, उक्त च- "अट्ठसमयम्मि थोवा, संखेज्जगुणा उ सत्त समया उ / एवं पडिहायते जाव पुणो दोन्नि समया उ॥१॥" अत्र 'अट्ठसमयंमि' इत्यादौ द्विगुसमाहारत्वादेकवचनं, गणनाद्वारेसर्वस्तोका अष्टशतसिद्धाः ततः सप्ताधिकशतसिद्धा अनन्तगुणाः तेभ्योऽपि षडधिकशतसिद्धाः अनन्तगुणाः तेभ्यः पञ्चाधिकशतसिद्धा अनन्तगुणा एवमेकैकहान्या अनन्तगुणाः तावद्वाच्या यावदेकपञ्चाशतसिद्धेभ्यः पञ्चाशत्सिद्धा अनन्तगुणाः, ततः तेभ्य एकोनपञ्चाशत्सिद्धा असंख्यगुणाः तेभ्योऽप्यष्टचत्वारिंशत्सिद्धा असंख्येयगुणाः एवमेकैकपरिहान्या तावतच्यं यावत्षड्विशतिसिद्धेभ्यः पञ्चविंशतिसिद्धा असंख्येयगुणाः, ततः तेभ्यश्चतुर्विशतिसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि त्रयोविंशतिसिद्धाः संख्येयगुणाः एवमेकैकहान्या संख्येयगुणाः तावद्वाच्या यादद् द्विसिद्धेभ्य एकैकसिद्धाः संख्येयगुणाः / उक्तं च- "अट्ठसयासद्ध थोवा, सत्तहियसया अणंतगुणिया य। एवं परिहायंते, सयगाओ जाव पन्नासं / / 1 / / तत्तो पण्णासाओ, असंखगणिया उ जाव पणवीसं / पणवीसा आरंभा, संखगुणा होति एगं जा // 2 // " राम्प्रति अस्मिन्नेवाल्पबहुत्वद्वारे यो विशेषः सिद्धप्राभृते दर्शितः स विनेयजनानुग्रहाय दय॑त-तत्र सर्वस्तोका अधोमुखसिद्धाः, ते चपूर्ववैरिभिः पादेनोत्पाट्य नीयमाना अधोमुखकायोत्सर्गव्यवस्थिता वा वेदितव्याः, तेभ्य ऊर्ध्वस्थितकायोत्सर्गस्थिताः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि उत्कुटुकासनसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि वीरासनसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽपि न्युब्जासनसिद्धाः संख्येयगुणाः, न्युब्जोपविष्टा एवाधोमुखा द्रष्टव्याः, तेभ्योऽपि पार्श्वस्थितसिद्धाः संख्येयगुणाः, तेभ्योऽप्युत्तानस्थितसिद्धाः संख्येयगुणाः, तथा चैतदेव पश्चानुपूर्व्याऽभिहितम्- "उत्तानगपासिल्लग, निउज वीरासणे य उनुहुए। उद्घट्ठिय ओमथिय, संखेजगुणेण हीणा उ // 1 // तदेवमुक्तमल्पबहुत्थद्वारम्।। सम्प्रति सर्वद्वारगताल्पबहुत्वविशेषोपदर्शनाय सन्नि Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 834 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध कर्षद्वारमुच्यते- सन्निकर्षों नाम संयोगः, ह्रस्वदीर्घयोरिवविवक्षितं किञ्चित्प्रतीत्य विवक्षितस्याल्पतया बहुत्वेन वाऽवस्थानरूपः सम्बन्धः, उक्तं च-- "संजोग सन्निगासो पडुच सम्बन्ध एगट्ठा" तत्रेयं व्याप्तिः-- यत्र यत्राष्टशतमुपलभ्यते तत्र तत्रोपरितनमष्टकरूपमङ्कमपनीय शेषस्य शतस्य चतुर्भिर्भागो हियते, हृते च भागे लब्धाः पञ्चविंशतिः, तत्र पञ्चविंशति-संख्येयप्रथमचतुर्थभागे क्रमेण संख्येयगुणहा-निर्वक्तव्या। तद्यथा-सर्वबहव एकैकसमयसिद्धाः, ततो द्विकद्विकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, एवं ताद्वाच्यं यावत्पञ्चविंशतिसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, उक्तं च- "पढमो चउत्थभागो, पणवीसा तत्थ संखेजगुणहाणी / दट्ठव्व' त्ति द्वितीये पुनश्चतुर्थभागे क्रमेणासंख्येयगुणहानिर्वक्तव्या, तद्यथा- पश्चविंशतिसिद्धेभ्यः षड्विंशतिसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, एवमेकैकवृद्धया असंख्येयगुणहानिः, तावद्वक्तव्या यावत्पञ्चाशत, तदुक्तम्- "बिइए चउत्थभागे, असंखगुणहानि जावपन्नासं" ति, तृतीयस्माचतुर्थभागादारभ्य सर्वत्रापि अनन्तगुणहानिर्वक्तव्या, तद्यथा- पञ्चाशत्सिदधेभ्य एकपञ्चाशत्सिद्धाः अनन्तगुहीनाः तेभ्योऽपि द्विपञ्चाशत्सिद्धा अनन्तगुणहीनाः एवमेकैकवृद्धया अनन्तगुणहानिस्तावद्वक्तव्या यावदष्टाधिकशतसिद्धा अनन्तगुणहीनाः, उक्तं च-"तइपयं आइकाऊण चउत्थपयं जाव अट्ठसयं ताव अणंतगुणहाणी एगवन्नाओ आरंभ दट्ठव्वा।" सिद्धप्राभृतसूत्रेऽप्युक्तम्- “पढमे भागे संखा बिइए असंख अणंत तइयाए / " तथा यत्र यत्र विंशतिसिद्धाः तत्र तत्रापि व्याप्तिरियमनुसतव्या, प्रथमे चतुर्थभागे संख्येयगुणहानिः, द्वितीये असंख्येयगुणहानिः, तृतीये चतुर्थे चानन्तगुणहानिः, तद्यथाएकैकसिद्धाः सर्वबहवः तेभ्योऽपि द्विकद्विसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः एवं तावद्वाच्यं यावत्पञ्च, ततः षडादिसिद्धा असंख्येयगुणहीना यावदृश, तत एकादशादयः सर्वेऽप्यनन्तगुणहीनाः, एवमधोलोकादिष्वपि विंशतिपृथक्त्वसिद्धा प्रथमे चतुर्थभागे संख्येयगुणहानिः, द्वितीयचतुर्थभागेऽसंख्येयगुणहानिः, तृतीयस्माचतुर्थभागादारभ्य पुनः सर्वत्राप्यनन्तगुणहानिः, येषु तु हरिवर्षादिषु स्थानेषूत्कर्षतो दश दश सिध्यन्ति तत्रैवं व्याप्तिः- त्रिकं यावत्संख्येयगुणहानिः, ततश्चतुष्के पञ्चके चासंख्येयगुणहानिः, ततः षट्कादारभ्य सर्वत्रापि अनन्तगुणहानिः, तद्यथा- “एककसिद्धाः सर्वबहवः, ततो द्विकद्विकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि चतुश्चतुःसिद्धाः असंख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि पञ्चपञ्चसिद्धाः असंख्येयगुणहीनाः, ततः षडादयः सर्वेऽप्यनन्तगुणहीनाः यत्र पुनरवगाहना यवमध्यादावुत्कर्षतोऽष्टौ सिध्यन्तः प्राप्तन्ते तत्रैवं व्याप्तिः- चतुष्कं यावत्संख्येयगुणहानिः, ततः परमनन्तगुणहानिः, तद्यथा-एककसिद्धाः सर्वबहवः, तेभ्योऽपि द्विकद्विकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि चतुश्चतुःसिद्धाः संख्येयगुणहीनाः, परं पञ्चपञ्चादयोऽनन्तगुणहीनाः, अत्रासंख्येयगुणहानिर्न विद्यते, यत्र पुनरूज़लोकादावुत्कर्षतश्चत्वारः सिध्यन्तः प्राप्यन्ते तत्र एवं व्याप्तिः- एककसिद्धाः सर्वबहबः, तेभ्यो द्विकद्विकसिद्धा असंख्येयगुणहीनाः, तेभ्योऽपि त्रिकत्रिकसिद्धा अनन्तगुणहीनाः तेभ्योऽपि चतुश्चतुस्सिद्धा अनन्तगुणहीनाः, अत्र संख्येयगुणहानिर्न विद्यते, तदुक्तम्- "जत्थ चत्तारि सिद्धा दिट्ठा तत्थ संखेजगुणहाणी नत्थिं संखेजविवञ्जिय चउक्के" इति वचनादिति। यत्र पुनर्लवणादौ द्वौ द्वावुत्कर्षतः सिध्यन्तौ दृष्टौ तत्रैवं व्याप्तिः-- एककसिद्धाः सर्वबहवः, ततो द्विकद्विकसिद्धा अनन्तगुणहीनाः, तदुक्तम्- "लवणादौ दो सिद्धा दिट्ठा तत्थ एकगसिद्धा बहुगा, दुगसिद्धा अणंतगुणहीणा।" तदेवमिह सन्निकर्षो द्रव्यप्रमाणे संप्रपञ्च चिन्तितः, शेषेषु द्वारेषु सिद्प्राभृतटीकातो भावनीयः, इह तु ग्रन्थगौरवभयान्नोच्यते-"सिद्धप्राभृतसूत्र, तद्वृत्तिं चोपजीव्य मलयगिरिः / सिद्धस्वरूपमेतन्निरवोचच्छिष्यबुद्धिहितः // 1 // " (नं०।) तीर्थसिद्धादीनां व्याख्यानम्तीर्यते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थं यथावस्थितसकल-जीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनं, तच्च निराधारं न भवतीति कृत्वा सङ्घः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यम्, उक्तं च- "तित्थं भंते ! तित्थं तित्थकरे तित्थं ? गोअमा ! अरहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउव्वण्णो समणसंघो पढमगणहरो वा' तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धाः ते तीर्थसिद्धाः, तथा तीर्थस्याभावोऽतीर्थ तीर्थस्याभावश्वानुत्पादोऽपान्तराले व्यवच्छेदो वा तस्मिन्ये सिद्धाः तेऽतीर्थसिद्धाः, तत्र तीर्थस्थानूत्पादे सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, न हि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थमुत्पन्नमासीत्, तथा तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चन्द्रप्रभस्वामिसुविधिस्वाम्यपान्तराले तत्र ये जातिस्मरणादिनाऽपवर्गमवाप्यसिद्धाः ते तीर्थव्यवच्छेसिद्धाः, तथा तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धाः ते तीर्थकरसिद्धाः, अन्ये सामान्यकेवलिनः, तथा स्वयम्बुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते स्वयम्बुद्धसिद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, अथ स्वयम्बुद्धप्रत्येकबुद्धानां कः प्रतिविशेषः? उच्यते-- बोध्युपधिश्रुतलिङ्गकृतो विशेषः, तथाहिस्वयम्बुद्धा बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव बुध्यन्ते, स्वयमेव बाह्यप्रत्ययमन्तरेणैव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः स्वयम्बुद्धा इति व्युत्पत्तेः, ते च द्विधा तीर्थकराः तीर्थकरव्यतिरिक्ताश्च, इह तीर्थकरव्यतिरिक्तैरधिकाराः, आह च चूर्णिणकृम्-"ते दुविहा तित्थयरा, तित्थयरवइरित्ता वा, इह वइरित्तेहिं अहिगारो" इति। प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययमपेक्ष्य बुध्यन्ते, प्रत्येकं-बाह्यं वृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा प्रत्येक बुद्धाः इति व्युत्पत्तेः, तथा च श्रूयते-- बाह्यवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकण्ड्वादीनां बोधि, बोधिप्रत्ययमपेक्ष्य च बुद्धाः सन्तो नियमतः प्रत्येकमेव विहरन्ति, न गच्छवासिन इव संहताः, आह च चूर्णिणकृत्- "पत्तेयं- बाह्य वृषभादिकरणमभिसमीक्ष्य बुद्धाः प्रत्येकबुद्धाः बहिः प्रत्यय-प्रतिबुद्धानां च "पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा य ते पत्तेयबुद्धा" इति, तथा स्वयम्बुद्धानामुपधिज्दशविध एव पात्रादिकः, प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा-जघन्यतः, उत्कर्षतश्च, तत्रजघन्य Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 835 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध तो द्विविधः उत्कर्षतो नवविधः प्रावरणवर्जः, आह च चूर्णिणकृत- | "पत्तेयबुद्धाण जहन्नेणं दुविहो उक्कोसेणं नवविहो नियमा पाउरणवज्जो भवइ / " तथा स्वयम्बुद्धानां पूवाधीतं श्रुतं भवति वा न वा यदि भवति ततो लिङ्गं देवता वा प्रयच्छति गुरुसन्निधो वा गत्वा प्रतिपद्यते, यदि चैकाकी विहरणसमर्थ इच्छा च तस्य तथारूपा जायते तत एकाकी विहरत्यन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते / अथ पूर्वाधीतं श्रुतं न भवति तर्हि नियमाद् गुरुसन्निधौ गत्वा लिङ्ग प्रतिपद्यते, गच्छं चावश्यं न मुञ्चति, उक्तं च चूर्णिणकृता- "पुव्वाधीतं से सुयं हवइ वा न वा, जइ से नत्थि तो लिङ्गं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, गच्छे य विहरइ त्ति, अहवा-पुव्वाधीतसुयसंभवो अत्थि तो से लिङ्गं देवया पयच्छइ गुरुसन्निधे वा पडिवज्जइ, जइ य एगागिविहरणजोग्गो इच्छा वा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरइ' त्ति / प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति, तच जघन्यत एकादशाङ्गानि उत्कर्षतः किञ्चिन्न्यूनानि दश पूर्वाणि, तथा लिङ्गं तस्मै देवता प्रयच्छति, लिङ्ग रहितो वा कदाचिद्भवति, तथा चाह चूर्णिणकृत"पत्तेयबुद्धाणं पुव्वाधीतं सुयं नियमा भवइ, जहन्नेणं एकारस अंगा, उक्कोसेणं भिन्नदसपुव्वी, लिङ्गं च से देवया पयच्छइ लिंगवजिओ वा भवति, जतो भणियं- "रुप्पं पत्तेयबद्धा" इति तथा बुद्धाआचार्यास्तैर्बोधिताः सन्तो ये सिद्धाः ते बुद्धबोधितसिद्धा, एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, स्त्रिया लिङ्गे स्त्रीलिङ्ग, स्त्रीत्वस्योपलक्षणमित्यर्थः, तच त्रिधा, तद्यथा-वेदः शरीरनिवृत्ति-र्नेपथ्यं च, तत्रेह शरीरनिर्वृत्त्या प्रयोजनं, न वेदनेपथ्याभ्यां, वेदे सति सिद्धत्वाभावात्, नेपथ्यस्य चाप्रमाणत्वात्, आह च चूर्णिणकृत "इथिए लिंग इथिलिंग, इत्थिए उवलक्खणं ति वुत्तं भवति, तं च तिविहं- वेयो सरीरनिव्वत्ती नेवत्थं च, इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो, न वेयनेवत्थेहिं" ति / तस्मिन् स्त्रीलिङ्गे वर्तमानास्सन्तो ये सिद्धाः ते स्त्रीलिङ्गसिद्धाः, एतेन यदाहुराशाऽम्बराः-न स्त्रीणां निर्वाणमिति, तदपास्तं द्रष्टव्यम्, स्त्रीनिर्वाणस्य साक्षादनेन सूत्रेणाभिधानात्, तत्प्रतिषेधस्य च युक्त्यनुपपन्नत्वात्, तथाहि- मुक्तिपथो ज्ञानदर्शनत्रारित्राणि, "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (तत्वा० अ०१ सू०१) इति वचनात्, सम्यग्दर्शनादीनि च पुरुषाणामिव स्त्रीणामपि अविकलानि, तथाहि- दृश्यन्ते स्त्रियोऽपि सकलमपि प्रवचनार्थमभिरोचयमानाः,जानते च षडावश्यककालिकोत्का-लिकादिभेदभिन्नं श्रुतं, परिपालयन्ति च सप्तदशविधमकलङ्कं संयम धारयन्ति च देवसुराणामपि दुर्धरं ब्रह्मचर्य, तप्यन्ते च तपांसि मासक्षपणादीनि, ततः कथमिव तासां न मोक्षसम्भवः ? स्यादेतद्-आस्त स्त्रीणां सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च न पुनश्चारित्रं, संयमाभावात्, तथाहि-स्त्रीणामवश्यं वस्त्रपरिभोगेन भवितव्यम्, अन्यथा विवृताङ्गयस्ताः तिर्यस्त्रिय इव पुरुषाणामभिभवनीया भवेयुः, लोके च गर्होपजायते; ततोऽवश्यं ताभिर्वस्त्रं परिभोक्तव्यं, वस्त्रपरिभोगे च सपरिग्रहता, सपरिग्रहत्वे च संयमाभाव इति, तदसमीचीनं, सम्यसिद्धान्ताऽपरिज्ञानात्, परिग्रहो हि परमार्थतो मूर्छाऽभि धीयते, 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' इति वचनप्रामाण्यात्, तथाहि- मूछरिहितो भतरचक्र वर्ती सान्तःपुरोऽप्यादर्शकगृहेऽवतिष्ठमानो निष्परिग्रहो गीयते, अन्यथा केवलोत्पादासम्भवात्, अपि च- याद मूर्छाया अभावेऽपि वस्त्रसंसर्गमात्रं परिग्रहो भवेत् ततो जिनकल्पं प्रतिपन्नस्य कस्यचित् साधोस्तुषारकणानुषक्ते प्रपतति शीते केनाप्यविषह्योपनिपातमद्य शीतमिति विभाव्य धार्थिना शिरसि वस्वे परिक्षिप्ते तस्य सपरिग्रहता भवेत्, न चैतदिष्टम्, तस्मान्न संसर्गमात्रं परिग्रहः, किन्तु-मूर्छा, सा च स्त्रीणां वस्त्रादिषु न विद्यते, धर्मोपकरणमात्रतया तस्योपादानात्, न खलु ता वस्त्रामन्तरेणात्मानं रक्षितुमीशते, नापि शीतकालादिष्व-र्वाग्दिशायां स्वाध्यायादिकं कर्तुं, ततो दीर्घतरसंयमपरिपालनाय यतनया वस्त्रं परिभुजाना न ताः परिग्रहवत्यः / अथोच्येत- सम्भवति नाम स्त्रीणामपि सम्यग्दर्शनादिकं रत्नत्रयम्, परं न तत् सम्भवमात्रेण मुक्तिपदप्रापकं भवति, किन्तु प्रकर्षप्राप्तम्, अन्यथा दीक्षानन्तरमेव सर्वेषामप्यविशेषेण मुक्तिपदप्राप्तिप्रसक्तेः, सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयप्रकर्षश्च स्त्रीणामसम्भवी, ततो न निर्वाणमिति / तदप्ययुक्तम्, स्त्रीषु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवग्राहकस्य प्रमाणस्याभावात्, न खलु सकलदेशकालव्याप्त्या स्त्रीषु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवग्राहकं प्रत्यक्षमनुमान वा प्रमाणं विजृम्भते, देशकालविप्रकृष्टतया तत्र प्रत्यक्षस्याप्रवृत्तेः, तदप्रवृत्तौ चानुमानस्याप्यसम्भवात्, नापि तासु रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवप्रतिपादकः कोऽप्यागमो विद्यते, प्रत्युत सम्भवप्रतिपादकः स्थाने स्थानेऽस्ति, यथा इदमेव प्रस्तुतं सूत्रं ततो न तासां रत्नत्रयप्रकर्षासम्भवः अथ मन्येथाः-स्वभावत एवातपेनेव छाया विरुध्यतेस्त्रीत्वेन रत्नत्रयप्रकर्षः ततस्तदसम्भवोऽनुमीयते, तदयुक्तम्, युक्तिविरोधात्, तथा हिरत्नत्रयप्रकर्षः स उच्यते यतोऽनन्तरं मुक्तिपदप्राप्तिः, स चायोग्यवस्थाचरमसमये, अयोग्यावस्था चास्मादृशामप्रत्यक्षा, ततः कथं विरोधगतिः ? नहि अदृष्टन सह विरोधः प्रतिपत्तुं शक्यते, मा प्रापत् पुरुषेष्वतिप्रसङ्गः। ननु जगति सर्वोत्कृष्टपदप्राप्तिः सर्वोत्कृष्टेनाध्यवसायेनावाप्यते, नान्यथा, एतचोभयोरप्यावयोरागमप्रामाण्यबलतः सिद्धं, सर्वोत्कृष्ट च द्वे पदे-सर्वोत्कृष्ट दुःखस्थानं सर्वोत्कृष्ट सुखस्थानं च / तत्र सर्वोत्कृष्ट-दुःखस्थानं सप्तमनरकपृथिवी, अतः परं परमदुःखस्थानस्याभावात्, सर्वोत्कृष्टसुखस्थानं तु निःश्रेयसं, ततः परमन्यस्य सुखस्थानस्या-सम्भवात्, ततः स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनमागमे निषिद्धं, निषेधस्य च कारणं तद्गम नयोग्यतथाविधसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः, ततः सप्तम-पृथिवीगमननिषेधादवसीयतेनास्ति स्त्रीणां निर्वाणम्, निर्वाणहेतोः तथारूपसर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणामस्यासम्भवात्, तथा चात्र प्रयोगः-- असम्भवनिर्वाणाः स्त्रियः, सप्तमपृथिवीगमनत्याभावात्, सम्मूछिमादिवत्, तदेतदयुक्तम्, यतो यदि नाम स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिवीगमनं प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावः, तत एतावता कथमवसीयते? निःश्रेयसमपि प्रति तासां सर्वोत्कृष्टमनो-वीर्यपरिणत्यभावो न हि यो भूमिकर्षणादिकं कर्म कर्तुं न शक्नोति स शास्त्राण्य Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 836 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध प्यवगाढुं न शक्नोतीति प्रत्येतुं शक्यं, प्रत्यक्षविरोधात् / अथ गमनकाले स्वभावतस्तन्निबन्धनाभावेऽपि देशादिनियतैव गतिः सम्मूञ्छिमादिषूभयमपि प्रति सर्वोत्कृष्टमनोवीर्यपरिणत्यभावो दृष्टः पूर्वप्रयोगेण प्रवर्तते, एवमेवध्यवहिततुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्, सिद्धानाततोऽत्राप्यवसीयते, ननु यदि तत्र दृष्टस्तर्हि कथमत्रावसीयते ? न मपि गतिरित्यक्षरार्थः / खलु बहियाप्तिमात्रेण हेतुर्गमको भवति, किन्तु अन्तव्याप्त्या, अधुना भावार्थः प्रयोगैर्निदर्श्यते-तत्र कर्मविमुक्तो जीवः सकृदूर्ध्वमेवाअन्तर्व्याप्तिश्च प्रतिबन्धबलेन सिध्यति न चात्र प्रतिबन्धो विद्यते, न ऽलोकाद्रच्छति, असङ्गत्वेन तथाविधपरिणामत्वादष्टमृत्तिकालेपलिप्ताखलु सप्तमपृथिवीगमनं निर्वाणगमनस्य कारणं, नाप्येवमेवाविनाभाव- धोनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादोर्ध्वगामितथाविधाप्रतिबन्धतः सप्तमपृथिवीगमनाविनाभावि निर्वाणगमनं, चरमशरीरिणां लाबुवत्, तथा छिन्नबन्धत्वेन तथाविधपरिणतेस्तद्विधैरण्डफलवत्, सप्तमपृथिवीग-मनमन्तरेणैन निर्वाणगमनभावात्, न च प्रतिबन्धमन्त तथा स्वाभाविकपरिणामत्वादग्निधूमवत्, तथा पूर्वप्रयुक्ततक्रियातथारेण एकस्याभावेऽन्यस्याभावो, मा प्रापद्यस्य तस्य वा कस्यचिदेक विधसामर्थ्याधनुःप्रयत्नेरितेषुवद्, इषुः-शर इति गाथार्थः // 957 / / स्याभावे सर्वस्याभावप्रसङ्गः, यद्येवं तर्हि कथं सम्मूर्च्छिमादिषु आव०१ अ०। निवणिगमनाभाव इति ? उच्यते--तथाभव-स्वाभाव्यात्, तथाहि-ते स्फुटं भावार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदम्सम्मच्छिमादयो भवस्वभावत एव न सम्यग्दर्शनादिकं यथावत् प्रतिपत्तुं "एगो धिज्जाइतो दुईतो अविणयं करेइ सो ताओ थाणाओ नीणितो शक्नुवन्ति, ततो न तेषां निर्वाणसम्भवः, स्त्रियस्तु प्रागुक्तप्रकारेण हिंडतो चोरपल्लिमल्लिणो सेणावइणा पुत्तो गहिओ। तम्मि मयम्मि यथा-वत्सम्यग्दर्शनादिरत्नत्रयसम्पद्योग्याः, ततस्तासां न निर्वाणाभावः / अपि च भुजपरिसप्पा द्वितीयामेव पृभिवीं यावद्गच्छन्ति, न सो चेव सेणावती जाओ निक्किवं पयणइ त्ति दहप्पहारी से नामं कयं / परतः, परपृथिवीगमनहेतुतथारूपमनोवीर्यपरिणत्यभावात्, तृतीयां सो अन्नया सेणाए समं एगं गामं हंतुं गओ तत्थ य एगो दरिदो, तेण यावत् पक्षितः, चतुर्थी चतुष्पदाः, पञ्चमीमुरगाः, अथ च सर्वेऽप्यूर्ध्वमु पुत्तभंडाण मग्गंताण दुद्धं जाएता पायसो सिद्धो, सो य हाइउं गओ त्कर्षतः सहस्रारं यावद्गच्छन्ति, तन्नाधोगतिविषये मनोवीर्यपरिणति चोरा य तत्थ पडिया, एगेण सो तस्य पायसो दिट्ठो छुहिय त्ति तंगहाय वैषम्यदर्शनादूर्द्धगतावपि तद्वैषम्यं, तथा च सति सिद्धं स्त्रीपुंसामधोगति पहावितो, ताणि खुड्डुगरूवाणि रोवंताणि पिउमूलं गयाणि, हिओ वैषम्येऽपि निर्वाणं सममिति कृतं प्रसङ्गेन / तथा पुंल्लिङ्गे शरीर पायसो त्ति सो रोसेणं मोरेमि त्ति पहाविओ महिला अवसित्ता अच्छइ निर्वृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुंलिङ्गसिद्धाः, एवं तह वि जाइ, जहिं सो चोरसेणावई गाममज्झे अच्छइ, तेण गन्तूण नपुंसकलिङ्गसिद्धाः, यथा स्वलिङ्गे-रजोहरणादिरूपे व्यवस्थिताः महासंगामो कओ। सेणावइणा चिन्तियं एएण मम चोरा परिभविजन्ति सन्तो ये सिद्धास्ते स्वलिङ्गसिद्धाः, तथा अन्यलिङ्गे-परिव्राजकादि ततो असिं गहाय निद्दयं छिन्नो। महिला से भणइ-हा निक्किव ! किमेयं सम्बन्धिनि वल्कलकषायादिवस्त्रादिरूपे द्रव्यलिङ्गे व्यवस्थिताः सन्तो कयं ति, पच्छा सा वि मारिया, गब्भो वि दो भागे कतो फुरुफुरेइ, ये सिद्धास्तेऽन्यलिङ्गसिद्धाः, गृहिलिङ्गे सिद्धा गृहिलिङ्गसिद्धा तस्स किवा जाया अधम्मो कतो त्ति, चेडरूवेहिंतो दरिद्द त्ति पउत्ती मरुदेवीप्रभृतयः, तथा एकसिद्धा' इति–एकस्मिन् 2 समये एककाः उवलद्धा ततो दढयरं निव्वेयं गतो को उवाओ त्ति साहू दिट्ठा पुच्छिया सन्तो ये सिद्धास्ते एकसिद्धाः, 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन् समये य? अणेण भयव ! को एत्थ उवाओ त्ति तेहि धम्मो कहियो, सो य अनेके सिद्धाः अनेकासिद्धाः अनेके चैकस्मिन् समये सिध्यन्त से उवगतो पच्छा चारित्तं पडिवञ्जिय कम्माण समुग्घायणट्ठाए धोरं उत्कर्षतोऽष्टोत्तरशतसंख्या वेदितव्याः / आह-ननु तीर्थसिद्धातीर्थ खंतिअमिग्गहं गेण्हिय तत्थेव विहरइ / ततो हीलिज्जइ हम्मइ य सो सिद्धरूपभेदद्वये एव शेषभेदा अन्तर्भवन्ति तत्किमर्थं शेषभेदोपा- सम्म अहियासेइ, घोराकारं च कायकिलेसं करेइ असणाइ वा दानम् ? उच्यते-सत्यम्, अन्तर्भवन्ति परं न तीर्थसिद्धातीर्थ अलभंतो सम्म अहियासेइ जाव अणेण कम्मं निग्धाइयं केवलं से सिद्धभेदद्वयोपादानमात्रात् शेषभेदपरि-ज्ञानं भवति, विशेषपरिज्ञानार्थ उप्पन्नं, पच्छा सो सिद्ध" त्ति / उक्तस्तपः सिद्धः / साम्प्रतं चैष शास्त्रारम्भप्रयास इति शेषभेदोपादानम् / नं० / प्रज्ञा०। औ०। कर्मक्षयसिद्धप्रतिपादनाय गाथाचरमदलमाह- 'सो कम्म' इत्यादि दश०। उत्त० / विशे० / ध० 0 / प्रव० / पं० / सू० / न० / सकर्मक्षयसिद्धो यः किं विशिष्ट इत्यत आह-सर्वक्षीणकाशः सर्वे ('केवलणाण' शब्दे तृतीयभागे 647 पृष्ठे सिद्धकेवलज्ञानप्रस्तावे निरवशेषाः क्षीणाः काशाः-- कर्मभेदाः यस्य सः तथाविध इति अनन्तरपरम्परभेदाः सिद्धस्य दर्शिताः।) माथार्थः। साम्प्रतं यदुक्तं 'शैलेशी प्रतिपद्यते सिध्यति चे' तत्रासावेकसमयेन अधुना कर्मक्षयसिद्धमेव प्रपञ्चतो निरुक्तविधिना प्रतिपादयति-- लोकान्ते सिध्यतीत्यागमः, इह च कर्ममुक्तस्य तद्देशनियमेन दीहकालरयं जंतु, कम्मं से सिय मठ्ठहा / गतिनोपपद्यते इति मा भूदव्युत्पन्नविभ्रम इत्य-तस्तन्निरासेनेष्टार्थ- सियं धंतं ति सिद्धस्स, सिद्धत्तमुवजायई // 656|| सिद्धयर्थमिदमाह-- दीर्घः सन्तानापेक्षया अनादित्वात् स्थितिबन्धकालो यस्य लाउअ एरंडफले, अग्गी धूमे उसू धणुविमुक्के / तद्दीर्घकालं निसर्गनिर्मलजीवानुरञ्जनाद्रजः कम्मैव भण्यते गइपुव्वपओगेणं, एवं सिद्धाण वि गईओ ||657|| दीर्घकालं च तद्रजश्च दीर्गकालरजः यच्छन्दः सर्वनामत्वाअलाबु, एरण्डफलम्, अग्निधूमौ, इषुर्धनर्विमुक्तः, अमीषां यथा तथा | दुद्देशवचनं यत्कर्म इत्थं प्रकारं तुशब्दो भव्यकर्मवि Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 837- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध शेषणार्थः न खल्पभव्यकर्म सर्वथामायते ततोऽयमर्थः, दीर्धकालरजो उत्ताणओ ब पासि-ल्लओ व अहवा निसन्नओ चेव / यद्भव्यकर्मेति शेषितं शेषीकृतं स्थित्यादिभिः प्रभूतं सत् जो जइ करेइ कालं, सो तह उववजए सिद्धो // स्थित्यनुभावासंख्यापेक्षया अनाभोगसदर्शन-ज्ञानचरणाद्युपायतः उत्तानको वा पृष्ठतो वा अविनतादिस्थानतः पार्श्वस्थितो वा, शेषमल्पं कृतमिति भावः / प्राक्किंभूतं सत् शेषितमित्यत आह-अष्टधा तिर्यक् स्थितो वा, अथवा-निषण्णश्चैवेति प्रकटार्थम्, किं बहुना यो ज्ञानावरणादिभेदेनाष्टप्रकारं सत् सितं--सितवर्ण 'सित' वर्णबन्धन- यथा येन प्रकारेणावस्थितः सन् कालं करोति स तथा तेन प्रकारेणोयोरिति वचनात्, "षिञ्' बन्धने इति वचनात् वा, बद्ध कर्म ध्मातं पपद्यते सिद्ध इति। 'ध्मा' शब्दाग्नि संयोगयोरिति वचनात् ध्यानानलेन दग्धं महाग्गिना किमित्येतदेवमित्यत आहलोहमलवत् येन सिद्धः / आ० म०१ उ०! इह भवभिन्नागारो, कम्मवसाओ भवंतरे होई। कहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया / नय तं सिद्धस्स जओ, तम्मी तो सो तयागारो / / कहिं बोदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई ||1|| इहभवादधिकृतभावात् भिन्नाकारः इहभवभिन्नाकारो जीवः कर्मवव प्रतिहता:- क प्रतिस्फालिताः सिद्धा- मुक्ताः, तथा व | शेन भवान्तरे स्वर्गादौ भवति तदाकारभेदस्य कर्मभेदनिबन्धनत्वात्, सिद्धास्तथा प्रतिष्ठिता-व्यवस्थिताः बोन्दिस्तनु शरीरमित्यनर्थान्तरं न च तत्कर्म आकारभेदनिबन्धनं यतो यस्मादस्ति ततस्तस्मिन्नपवर्गे क्व बोदिं त्यक्त्वा- परित्यज्य व गत्वा सिद्धयन्ति निष्ठितार्था ततोऽसौ सिद्धस्तदाकारः पूर्वभवाकारः / आ० म० 1 अ०। औ०। भवन्ति / अत्रानुस्वारलोपो द्रष्टव्यः / अथवा-एकवचनोऽप्येवमुपन्यासः साम्प्रतमुत्कृष्टादिभेदभिन्नामवगाहनामभिधित्सुराहसूत्रशैल्या अविरुद्ध एव ततोऽन्यत्राऽपि प्रयोगः, 'वत्थगन्धमलङ्गारं, तिन्नि सया तित्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वा / इत्थीओ सयणाणि य / अच्छंदा जे ण भुञ्जन्ति, न से चाइ त्ति वुचई एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया / / // 1 // " इति / त्रीणि धनुषां शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुस्त्रिभागस्य बोद्धव्या, इत्थं चोदकेनोक्ते सति प्रतिसमाधानमाह एषा एतावत्प्रमाणा खलु सिद्धानामुत्कृष्टावगाहना भणिता तीर्थकरअलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्टिया। गणधरैः / ननु भगवती मरुदेव्यपि सिद्धा सा च नाभिकुलकरपत्नी इहं बों दि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झई // नाभेश्च शरीरप्रमाणं पञ्चधनुः- शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि यावश्य अलोके केवलाकाशास्तिकाये प्रतिहताः प्रतिस्फालिताः सिद्धा इह शरीरप्रमाणं तावदेव तत्पत्नीनामपि 'संघयणं संठाणं उच्चत्तं चेव प्रतिस्खलनं तत्र धर्मास्तिकायाद्यभावात्तदानन्तर्यवृत्तिरेय द्रष्टव्यं न तु कुलगरेहि सम' मिति वचनात् ततो मरुदेव्या अपि शरीरप्रमाणं सम्बन्धे सति भित्तौ लोष्टस्येव विधातः अमूर्तत्वात, तथा लोकाग्रं पञ्चधनुःशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि यावच शरीरप्रमाणं तावदेव पञ्चास्तिकायात्मकलोकमूर्टिन च प्रतिष्ठिताः; अपुनरागमवृत्त्याः; तत्पत्नीनामपि / तस्य विभागे पातिते सिद्धावस्थायाः सार्धानि व्यवस्थिता इत्यर्थः तथा इह अद्धतृतीयद्वीपसमुद्रमध्ये बोदि-तनुं त्रीणि धनुःशतानि अवगाहना प्राप्नोति, कथमुक्तप्रमाणा सिद्धानामुमुक्त्वापरित्यज्य सर्वथा किं तत्र लोकाग्रे गत्वा समयप्रदेशान्तर- त्कृष्टाऽवगाहनेति, नैष दोषः नाभिकुलकरमानाद् हि प्रमाणतोऽसौ मस्पृशन्तो गत्वा सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति सिद्धयति वेति किञ्चिन्न्यूना तथा संप्रदालात्ततः साऽपि पञ्चधनुःशता प्रमाणवेत्यगाथार्थः / आ० म०। (ईषत्प्राग्भागस्वरूपम्, 'ईसिपब्भारा' शब्दे दोषः / यश्च 'कुलगरेहिं सम' मित्यतिदेशः सोऽपि कियता न्यूनाधिद्वितीयभागे 654 पृष्ठे उक्तम् / ) क्येऽपि अतिदेशानामागमे दर्शनादबाधकः / अथवा-भगवती हस्ति स्कन्धाधिरूढा सती सिद्धा हस्तिस्कन्धाधिरूढा च सङ्कुचिताङ्गीति अस्याश्वोपरि योजनचतुविंशतिभागे सिद्धास्तथा चाह यथोक्तावगाहनाया अविरोधः। उक्तं च-किह मरुदेवा(वी) माणं, ईसीपन्भाराए, उवरि खलु जोअणस्स जो कोसो / नाभीओ जेण किंचिदूणा सा। तो किर पंचसय चिय, अहवा संकोयओ कोसस्स य छन्माए, सिद्धाणोगाहणा मणिया / / सिद्धा // 1 // " ईषत्प्राग्भारायाः पृथिव्या उपरि यत् खलु योजनं तस्य योजनस्य अधुना मध्यमावगाहनामानमाहउपरितने क्रोशोगव्यूतं तस्य कोशस्योपरितने षङ्भागे सिद्धानाम चत्तारि य रयणीओ, रयणितिभागूणिया य बोद्धव्वा / वगाहना तीर्थकरगणधरैर्भणिता, 'लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इति वचनात् / एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमओगाहणा भणिया / / अमुमेवार्थं समर्थयमान आह मध्यमा ननु जघन्याजघन्यत्वनिषेधपरं सूत्रमिदम् / नन्वेतावदेव तिन्नि सया तेत्तिया, धणुत्तिभागो य कोसछब्भागो। मध्यमावगाहनामानं हस्तद्वयादूर्ध्वं पञ्चधनुःशतेभ्योऽर्वाक् सर्वत्रापि जं परमोगा हो यं, तो ते कोसस्स छन्माए॥ मध्यमावगाहनाभावात् / यस्मात् परम उत्कृष्टः सिद्धानामवगाहो वर्तते त्रीणिधनुषां शतानि सम्प्रति जघन्यावगाहनाप्रतिपादनार्थमाह'त्रयस्त्रिंशदधिकानि धनुषस्त्रिभागश्च क्राशम्य षङ्भागः, ततस्तम्मात्, एगाइ होइ रयणी, अहेव य अंगुलाई साहीया। क्रोशस्य षड्भागे सिद्धा इत्युक्तम् / एसा खलु सिद्धाणं, जहन्न ओहणा मणिया / / अथ कथं पुनस्तत्र तेषामुपपातोऽवगाहना चेत्यत आह एको रत्निः अष्टावेव चाङ्गुलानि साधिका अष्टभिरड्गु Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 538 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध लैरधिक इत्यर्थः / एषा एतावत्प्रमाणा खलु सिद्धानां जघन्यतोऽवगाहना भणिता / एषा बद्धहस्तिप्रमाणानां कूर्मी-पुत्रादीनामवसातव्या / अन्ये त्वेवं ब्रुवते सप्तहस्तानामेव यन्त्रपालनादिना संवर्तितगात्राणि सतां सिद्धानामवगन्तव्या, नन्वागमे सिद्धिर्जघन्यपदे सप्तहस्तोच्छ्रितानामभिहिता ततः कथमुच्यते द्विहस्तप्रमाणानां कूर्मीपुत्रादीनामिति ? उच्यते- सा जघन्यपदे सिद्धिस्तीर्थकरानधिकृत्योक्ता शेषाणां तु केवलिनां सिद्धिर्द्विहस्तप्रमाणानामप्यविरुद्धेत्यदोषः / उक्तं च-"सत्तूणिएसु सिद्धी, जहन्नतो किहमिहं विहत्थेसु। सा किर तित्थयरेसुं, सेसाणमियं तु सिद्धाणं / / 1 / / ते पुण होजा विहत्था, कुम्मीपुत्तादयो जहन्नेणं / अन्ने संवट्टियसत्तहत्थेसिद्धस्स हीण ||2|| त्ति' || अथवा-यदिदं सूत्रे जघन्यं मानमुक्तं सप्तहस्तम्, उत्कृष्टं पञ्चधनुः शतानि तत् बाहल्यमधिकृत्याक्तमन्यथाऽङ्गुलपृथक्त्वैजघन्यपदे धनुःपृथक्त्वे उत्कृष्टपदे यथाक्रम हीनमभ्यधिकं यावद्वेदितव्यं तेन कूर्मी पूत्रमरुदेव्यादिभिर्न कश्चिद्विरोधः / न खल्वाश्चर्यादिकं किञ्चित् सामान्यश्रुतं सर्वमुक्तमस्ति / अथवानिबद्धमपि तदस्तीति श्रद्धायातपञ्चशतादेशवचनवत् तथेदमपि सिद्धं गच्छतां द्विहस्तमानं सपादपञ्चधनुःशतमानं श्रद्धीयतामिति / उक्तं च- "बाहल्लतो य मुत्तम्मि सुत्तपंचय जहन्नमुक्कोसं / इह राजीणमहियं, होजंगुलधणुपुहत्तेहिं ||1|| अत्थिरयादी किं ची, सामन्नसुए न देसियं सव्वं / होज्ज व अनिबद्धं वि य, पञ्च सया देसवयणं च / / 2 / / " आ० म०१ अ०। भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं बंदइ नम सह वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि संघयणे सिझंति ? गोयमा ! वयरोसभणारायसंधयणे सिझंति, एवं जहेव उववाइए तहेव संघयणं संठाणं उच्चतं आउयं च परिवसणा, एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भणियव्वा० जाव अव्वाबाहं सोक्खं, अणुहवं (हुंती) ति सासया सिद्धा। सेवं भंते ! भंते ! ति। (सू०४१९) भंते ति- इत्यादि अथ लाघवार्थमतिदेशमाह- 'एवं जहेवे' त्यादि एवम् –अनन्तरदर्शितेनाभिलापेन यथौपपातिके सिद्धानधिकृत्य संहनानाद्युक्तं तथैवेहापि वाच्यं, तत्र च संहननादिद्वाराणां, संग्रहाय गाथापूर्वार्द्धम्- 'संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणं' ति। तत्र संहननमुक्तमेव, संस्थानादि त्वेवम्-तत्र संस्थाने षण्णां संस्थानानामन्यतरस्मिन् सिद्ध्यन्ति, उच्चत्वे तु जघन्यतः संप्तरत्निप्रमाणे, उत्कृष्टतस्तुपञ्चधनु शतके, आयुषि पुनर्जघन्यतः सातिरेकाष्टवर्षप्रमाणे उत्कृष्टतस्तु पूर्वकोटीमाने, परिवसना पुनरेवम्- रत्नप्रभादिपृथिवीनां सौधर्मादीनां चेषत्प्राग्भारान्तानां क्षेत्रविशेषाणामधो न परिवसन्ति सिद्धाः, किन्तु-सर्वार्थसिद्धमहाविमानस्योपरितनात्स्तूपिकाग्रादूर्ध्व | द्वादश योजनानि व्यतिकम्येषत्प्राग्भारानामपृथिवी पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्याम्, वर्णतः श्वेताऽत्यन्तरम्यास्ति तस्याश्चोपरियोजने लोकान्तो भवति, तस्य च योजनस्योपरितनगव्यूतोपरितनषड्भागे सिद्धापरिवसन्तीति, ‘एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा, भाणियव्व' त्ति-एवमिति पूर्वोक्तसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमेण 'सिद्धिगण्डिका' सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा वाक्यपद्धतिरौपपाकप्रसिद्धाऽध्येया / भ० 11 श०६ उ०। से णं भंते ! तहा सजोगी सिज्झिहिइ० जाव अंतं करेहिइ? णो इणढे समढे, से णं पुवामेव संण्णिस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेजगुणा-परिहीणं पढम मणजोगं निरंभइ, तयाणंतरं च णं बिंदियस्स पजत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेहा असंखेज्जगुणपरिहीणं बिइयं वइजोगं निरंभइ, तयाणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं तईयं कायजोगं णिरंभइ, सेणं एएणं उवाएणं पढममणजोगं णिरंभइ, मणजोगं णिरुभित्ता वयजोगं णिरंभइ, वयजोगं णिभित्ता कायजोगं णिरुभइ, कायजोगं निरुभित्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेत्ता अजोगत्तं पाउणति, अजोगत्तं पाउणित्ता इसिंहस्सपंचक्खरउबारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुटवरइयगुणसेठीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसिमद्धाए असंखेजाहिं गुणसेढीहि अणते कम्मंसे खदेति वेयणिज्जाउयणामगुत्ते, इचेते चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ वेदणिज्जा 2 ओरालियतेयाकम्माई सव्वाहि विप्पयहणाहिं विप्पजहइ / ओरालियतेयाकम्माई सव्वाहि विप्पयहणाहिं विप्पयहित्ता उज्जूसेढीपडिवने अफुसमाणगई उड्डं एकसमएणं अदिग्गहेणं गंता सागारोवउत्ते सिज्झिहिइ / ते णं तत्थ सिद्धा हवंति सादीया अपज्जवसिया असरीरा जीवघणादसणनाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा निरयणा नीरया णिम्मला वितिमिरा विशुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिट्ठति / से के णतुणं भंते ! एवं वुचइ -ते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपञ्जावसिया० जाव चिट्ठति? गोयमा ! से जहाणामए वीयाणं अग्निदड्डायां पुण-रवि अंकुरुप्पत्तीण भवइ, एवामेव सिद्धाणं कम्मवीए दड्डे पु-णरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ, से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुचइते णं तत्थ सिद्धा भवंति सादीया अपज्जवसिया जाव चिट्ठति / जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि संघयणे सिज्झंति ? गोयमा! वइरोसभणारायसंधयणे सिझंति, जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि संठासे सिझंति ? गोयमा ! छण्हं संठाणाणं अण्णतरे संठाणे सिझंति, जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चत्ते सिझंति ? गोयमा! जहण्णेणं Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 836 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध सत्तरयणीओ उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिज्झंति / जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिझंतिः, गोयमा ! जहण्णेणं साइरेगट्ठवासाउए उक्कोसेणं पुवकोडियाउए सिझंति / अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति? णो इणढे समठे, एवं०जाव अहे सत्तमाए। अस्थि णं मंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति? णो इणढे समढे, एवं सव्वेसिं पुच्छा, ईसाणस्स सणंकुमारस्स० जाव अबुयस्स गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं / अस्थि णं भंते ! ईसीपब्भाराए पुढवीए अहे सिद्धा परिवसंति? णो इणट्टे समढे, से कहिं खाइ णं भंते ! सिद्धा परिवसंति ? गोयमा! (औ०) ईसीपब्माराए णं पुढवीए सीयाए जोयणमि लोगते, तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउअस्स जे से उवरिल्ले छभागिए तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिया अणेगजाइजरामरणजोणिवेयण-संसारकलंकलीभावपुणब्मवगमवासवसहीपवंचसमइकंता सासयमणागयमद्धं चिट्ठति / (सू० 434) 'से णं पुव्वामेव सन्निस्से' त्यादि, अस्यायमर्थः- स-केवली णमित्यलङ्कारे, पूर्वमेव-आदावेव योगनिरोधावस्थायाः संज्ञिनो मनोलब्धिमतः पञ्चेन्द्रियस्येति स्वरूपविशेषणं, यतः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय एव भवति, 'पजत्तस्स' ति-मनः पर्याप्त्या पर्याप्तस्य, तद्वन्यस्य मनोलब्धिमतोऽपि मनसोऽभाव एवेति पर्याप्तस्येत्युक्तं स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि स्यादित्याह- 'जहण्णजोगिस्स' ति जघन्यमनोयोगवतः 'हेट्ठ' त्ति अधो यो मनोयोग इति गम्यते, जघन्यमनोयोगसमानो यो न भवतीत्यर्थः, मनोयोगश्च मनोद्रव्याणि तद्व्यापारश्चेति, जघन्यमनोयोगाधोभागवर्तित्वमेव दर्शयन्नाह- 'असंखेज्जगणुपरिहीणं' ति असंख्यातगुणेन परिहीणो यः स तथा तं जधन्यमनोयोगस्यासंख्येयभागमात्रं मनोयोगं निरुणद्धि ततः क्रमेणानया मात्रया समये समये तं निरुन्धानः, सर्वमनोयोगं निरुणद्धि, अनुत्तरेणाचिन्त्येन अकरणवीर्येणेति, एतदेवाह- 'पढम मणोजोगं निरंभइ' त्ति प्रथम-शेषवागादियोगापेक्षया प्राथम्येन आदितो मनोयोगं निरुणद्धीति / उक्तं च"पञ्जत्तमेत्तसन्नि-स्स जत्तियाई जहन्नजोगिस्स ! होति मणोदव्वाई, तव्वावारो य जम्मत्तो / / 1 / / तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरुभमाणो सो। मणसो सव्वनिरोह, करे असंखेज्जसमएहिं / / 2 / / " ति, एवमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम्, 'अजोगयं पाउणइ' त्ति अयोगतां प्राप्नोतीति, 'ईसिंहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए' त्ति 'ईसिं ति-ईषत्स्पृष्टानि हस्वानि यानि पञ्चाक्षराणि तेषां यदुचारणं तस्य याऽद्धा-कालः सा तथा तस्याम्, इदं चोचारण न विलम्बितं द्रुत वा, किन्तु मध्यममेव गृह्यते, यत आह- "हस्सक्खराई मज्झेण, जेण कालेण पंच भण्णंति / अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमेत्तं तओ कालं ||1||" शैलेशोमेरुस्तस्येव स्थिरतासाम्याद्या अवस्था या शैलेशी अथवा शीलेशःसर्वसंवररूपचारित्र-प्रभुस्तस्येयमवस्था योगनिरोधरूपेति शैलेशी ता प्रतिपद्यते, ततः 'पुव्वरइयगुणसेढीयं च णं' ति--पूर्व-शैलेश्यवस्थायाः प्राग रचिता गुणश्रेणीक्षपणोपक्रमविशेषरूपा यस्य तत्तथा, गुणश्रेणी चैवम्- सामान्यतः किल कर्म बह्वल्पमल्पतरमल्पतमं चेत्येवं निर्जरणाय रचयति, यदा तु परिणामविशेषात्तत्र तथैव रचिते कालान्तरवेद्यमल्पं बहु बहुतरं बहुतमं चेत्येवं शीघ्रतरक्षपणाय रचयति तदा सा गुणश्रेणीत्युच्यते, स्थापना चैवम्- 'कम्म' ति वेदनीयादिकं भवोपग्राहि 'तीसे सेलेसिभद्धाए' त्ति-तस्यां शैलेश्यद्धायां शैलेशीकाले क्षपयन्निति योगः, एतदेव विशेषेणाह'असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं' ति-असंख्याताभिर्गुणश्रेणीभिः शैलेश्यवस्थाया असंख्यातसमयत्वेन गुणश्रेण्यप्यसंख्यातसमया ततः तस्याः प्रतिसमयभेदकल्पनया असंख्याता गुणश्रेणयो भवन्ति, अतोऽसंख्याताभिः गुणश्रेणीभिरित्युक्तम्, असंख्यातसमयैरिति हृदयम्, 'अणति कम्मसे खवयंतो' त्ति-अनन्तपुद्गलरूपत्वादनन्तास्तान् कर्माशान् भवोपग्राहिकर्मभेदान् क्षपयन्निर्जरयन् 'वेयणिज्जाउयणामगोए' तिवेदनीयं सातादि आयुः-- मनुष्यायुष्कं नाममनुष्यगत्यादि गोत्रम् -उच्चै गर्गोत्रम् ‘इचेते' ति-इत्येतान् ‘चत्तारि' त्ति चतुरः 'कम्म से' तिकाशान् -मूलप्रकृतीः 'जुगवं खवेइ' ति-योगपद्येन निर्जरयतीति। एतचैता भाष्यगाथा अनुश्रित्य व्याख्यातम्, यदुत'तदसंखेजगुणाए, सेढीए विरइयं पुरा कम्मं / समए समए खवयं, कम्मं सेलेसिकालेणं // 1 // सव्वं खवेइ तं पुण, निल्लेवं किंचिदुवरिमे समए / किंचिच होइ चरमे, सेलेसीए तयं वोच्छं / / 2 / / मणुयगइजाइतसबा-यरं च पज्जत्तसुभगमाएजं / अन्नयरवेयणिज्जं, नराउमुच्चं जसो नामं / / 3 / / संभवओ जिणनाम, नराणुपुव्वी य चरिमसमयम्मि। सेसा जिणसंताओ, दुचरिमसमयम्मि निट्ठति // 4 // " इति।'सव्वाहिं विप्पयहणाहिं ति-सर्वाभिः-अशेषाभिः-विशेषेणविविध प्रकर्षतो हानयः- त्यागा विप्रहाणयो व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं ताभिः, किमुक्तं भवति ?-सर्वथा परिशाटनं नतु यथा पूर्व सङ्घातपरिशाटाभ्यां देशत्यागतः 'विप्पजहित्त' ति विशेषेण प्रहायपरित्यज्य ‘उज्जूसेढिपडिवन्ने' त्ति ऋजुः- अवका श्रेणिः-आकाशप्रदेशपतिस्ताम् ऋजुश्रेणिं प्रतिपन्नः-आश्रितः 'अफुसमाणगइ' त्ति अस्पृशन्ती सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशगतिः, अन्तराल-प्रदेशस्पर्शन हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इष्यते च-तत्रैक एव समयः, य एव चायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वाणसमयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तरालप्रदशानामसंस्पर्शनमिति / सूक्ष्मश्चायमर्थः केवलिगभ्यो भावत इति, 'एगेणं समएणं' ति-कुत इत्याह- 'अविगहेणं' ति-अविग्रहेण-वक्ररहितेन वक्र एव हि समयान्तरं लगति प्रदेशान्तरं च स्पृशतीति, 'उड्ढे गंता' ऊर्ध्वं गत्वा 'सागारोवउत्ते, ति-ज्ञानोपयोगवान् सिध्यति कृतकृत्यतां लभते इति / गतमानुषाङ्गि कम् / अथ प्रकृतमाह- किं च प्रकृतम् ? से जे इमे गामागर० जाव सन्निवेसेसु मणुया हवंति सव्वकामवि Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 540- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध रया० जाव अट्ठ कम्मपयडीओ खवइत्ता उप्पि लोगग्गपइट्ठाणां हवंति' ति-लोकाग्रप्रतिष्ठानाश्च सन्तो यादृशास्ते भवन्ति तदर्शयितुमाह- 'ते णं तत्थ सिद्धा हवंति त्ति-ते पूर्वोद्दिष्टावशेषणा मनुष्याः, तत्र-लोकाग्रे निष्ठितार्थाः स्युरिति अनेन च यत्केचन मन्यन्ते, यदुत'रागादिवासनामुक्त, चित्तमेव निरामयम् / सदाऽनियतदेशस्थ, सिद्ध इत्यभिधीयते॥१॥" यच्चापरे मन्यन्ते- ''गुणसत्त्वान्तरज्ञानान्निवृत्तप्रकृतिक्रियाः / मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः // 2 // " तदनेन निरस्तम्, यचोच्यते-सशरीरतायामपि सिद्धत्वप्रतिपादनाय, यदुत- "अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा / मोदन्ते निर्वृतात्मानस्तीर्णाः परमदुस्तरम् // 1 // " इति तदपाकरणायाहअशरीरा-अविद्यमानपञ्चप्रकारशरीराः, तथा 'जीवघण' त्तियोगनिरोधकाले रन्ध्रपूरणेन त्रिभागोनाऽवगाहनाः सन्तो जीवघना इति, दंसणनाणोवउत्त' त्ति-ज्ञान- साकारं दर्शनम्-अनाकारं तयोः क्रमणोपयुक्ता ये ते तथा, "निट्ठियट्ट' ति-निष्ठितार्थाः-समाप्तसमस्तप्रयोजनाः 'निरयण' त्ति निरेजनाः- निश्चलाः 'नीरय' तिनीरजसो-वध्यमानकर्मरहिता नीरया वा-निर्गत्सुिक्याः 'निम्मल' त्तिनिर्मलाः पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुक्ताः द्रव्यमलवर्जिता वा 'वितिमिर' त्ति विगताज्ञानाः 'विसुद्ध' त्ति-कर्मविशुद्धिप्रकर्षमुपगताः ‘सासयमणागयधं कालं चिट्ठति शाश्वतीम् - अविनश्वरी सिद्धत्वस्याविनाशाद्, अनागताद्धा-भविष्यत्कालं तिष्ठन्तीति 'जम्मुप्पत्ती' ति-जन्मनाकर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्तिर्या सा तथा, जन्मग्रहणेन परिणामान्तररूपात्तदुत्पत्तिर्भयतीत्याह, प्रतिक्षणमुत्पादव्य-यध्रौव्ययुक्तत्वात्सद्भावस्येति, 'जहण्णेणं सत्त रयणीए' त्ति-सप्तहस्ते उच्चत्वे सिध्यन्ति महावीरवत्, 'उयोसेणं पंचधणुस्सए' त्ति-ऋषभस्वामिवद्, एतच द्वयमपि तीर्थङ्करापेक्षयोक्तम्, अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मापुत्रेण न व्यभिचारो न वा मरुदेव्या सातिरेकपञ्चधनुः--शतप्रमाणयेति, 'साइरेगट्ठवासाउए' त्ति-सातिरेकाण्यष्टौ वर्षाणि यत्र तत्तथा तच तदायुश्चेति तत्र सातिरेकाधवर्षायुषि, तत्र किलाष्टवर्षवयाश्चरणं प्रतिपद्यते, ततो वर्षे अतिगते केवलज्ञानमुत्पाद्य सिध्यतीति, 'उक्कोसेणं पुव्वकोडाउए' त्ति-पूर्वकोट्यायुर्नरः पूर्वकोट्या अन्ते सिध्यतीति न परतः / 'ते णं तत्थ सिद्धा भवंति' ति- प्राक्तनवचनाद् यद्यपि लोकाग्रं सिद्धानां स्थानमित्यवसीयते, तथापि मुग्धविनेयस्य कल्पितविविध-लोकाग्रनिरासतो निरुपचरितलोकाग्रस्वरूपविशेषावबोधाय प्रश्नोत्तरसूत्रमाह'अस्थि ण' मित्यादि व्यक्तम्, नवंर यदिदं रत्नप्रभाया अधस्तदेव लोकाग्रमिति तत्र सिद्धाः परिवसन्तीति प्रश्नः, तत्रोत्तरम्-- मायमर्थः समर्थ इति, एवं सर्वत्र, 'से कहिं खाइणं भंते !' त्ति--इत्यत्र 'से' त्तिततः 'कहिं तिक्क देशे 'खाइ णं' ति-देशभाषया वाक्यालङ्कारे (ईषत्प्राग्भारापृथ्वीप्रश्नोत्तरम् 'ईसिप्पन्भासा' शब्दे द्वितीयभागे 654 प्रष्ठे गतम्।) सेय' ति श्वेता, एतदेवाह-'आयसतलविमलसोल्लियमुणालदगरयतुसार-गोखीरहारवण्ण' त्ति-व्यक्तमेव, नवरम् आदर्शतलम्- दर्पणतलं वचिद्आदर्शत लमिति पाठः, आदर्शतलमिव विमलाया सा तथा, 'सोल्लिय' त्ति-कुसुमविशेषः, 'सव्वजुणसुवण्णमइ' ति-अर्जुनसुवर्ण- श्वेतकाञ्चनम् अच्छा आकाशस्फटिकमिव 'सण्ह' त्ति-लक्षणपरमाणुस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णतन्तुनिष्पन्नपटवत् 'लण्ह' ति-मसृणा घुण्टितपटवत्, 'घट्ट' त्ति-घृष्टव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत्, 'मह' त्ति-मृष्टव मृष्टा सुकुमारशानया प्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव 'णीरय' ति-नीरजाः-रजोरहिता'णिम्मला' कठिनमलरहिता 'णिप्पक' त्ति-निष्पङ्काआर्द्रमलरहिता अकलङ्का वा 'णिकंकडच्छाय' त्ति-निष्कङ्कटा-निष्कवचा; निरावरणेत्यर्थः, छाया-शोभा यस्याः सा तथा अकलङ्कशोभा वा, समरीचिय' त्ति-समरीचिका-किरणयुक्ता, अत एव 'सुप्पभ' त्ति-सुष्ठ प्रकर्षेण च भाति-शोभते या सा सुप्रभेति, 'पासादीया' त्ति-प्रासादो-मनःप्रमोदः प्रयोजनं यस्याः सा प्रासादीया 'दरसणिज्ज' त्ति-दर्शनाय-चक्षुापाराय हिता दर्शनीया, तां पश्यचक्षुर्न श्राम्यतीत्यर्थः, 'अभिरूव' त्ति अभिमतं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, कमनीयेत्यर्थः, 'पडिरूव' त्ति द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, 'जोयणंमि लोगते' ति इह योजनमुत्सेधागुल-योजनमवसेयं, तदीयस्यैव हि क्रोशषङ्भागस्य सत्रिभागस्त्रयस्त्रिंशधिकधनुःशतत्रयीप्रमाणत्वादिति, 'अणेगजाइजरामरण-जोणिवेयणं, अनेकजाति-जरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा तम्, (औ०)('संसारकलंकलीभाव' पदव्याख्या संसारकलंकलीभाव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) पाठान्तिरमिदम् - 'अणेगजाइजरामरणजोणिसंसारकलंकलीभावपुणभवगडभवासवसहिपक्चसमइवंत' त्ति-अनेकजातिजरामरणप्रधान योनयो यत्र स तथा स चासौ संसारश्चेति समासः, तत्र कलङ्कलीभावेन यः पुनर्भवेन पुनः पुनरुत्पत्त्या गर्भवासवसतीनां प्रपञ्चस्तं समतिक्रान्ता ये ते तथा // 43 // अथ प्रश्नोत्तरद्वारेण सिद्धानामेव वक्तव्यतामाहकहिं पडिहया सिद्धा, कहिं सिद्धा पडिट्ठिया / कहिं बोंदि चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झइ ?||1|| अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिट्ठिया / इहं बॉदि चइत्ता णं, तत्थ गंतूण सिज्झई / / 2 / / जं संठाणं तु इहं, भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / आसीय पएसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ||3|| दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमभवे हवेज संठाणं / तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया // 4 // तिण्णि सया तेत्तीसा, धणुत्तिभागो य होइ बोद्धव्वा / एसा खलु सिद्धाणं, उक्कोसोगाहणा भणिया // 5 // चत्तारि य रयणीओ, रयणितिभागूणिया य बोद्धव्वा / एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमओगाहणा भणिया / / 6 / / एका य होइ रयणी, साहीया अंगुलाई णट्ठ भवे / एसा खलु सिद्धाणं, जहण्णओगाहणा भणिया ||7|| ओगायणाएँ सिद्धा, भवत्तिभागेण होइ परिहीणा। . Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध ८४१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध संठाणमणित्थंथं, जरामरणविप्पमुक्काणं / / 8 / / जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणता भवक्खयविमुक्का / अण्णोण्णसमवगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगते || फुसइ अणंते सिद्धे, सव्वपएसेहिणियमसो सिद्धा। ते वि असखेज्जगुणा, देसपएसेहिं जे पुट्ठा // 10 // असरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य णाणे य / सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं // 11 // केवलणाणुवउत्ता, जाणंती सव्वभावगुणभावे / पासंति सव्वओ खलु, केवलदिट्ठी अणंताहिं // 12|| ण वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं णवि य सव्वदेवाणं / जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं // 13 // जं देवाणं सोक्खं, सव्वद्धापिंडियं अणतगुणं / ण य पावइ मुत्तिसुहं, णंताहि वग्गवम्गूहि // 14 // सिद्धस्स सुहो रासी, सव्वद्धापिंडिओ जह हवेज्जा। सोऽणंतवग्गभइओ, सव्वागासे ण माएजा // 15 // जह णाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे वियाणंतो / न चएइ परिकहेउं, उवमाएँ तहिं असंतीए // 16 // इय सिद्धाणं सोक्ख, अणोवमं पत्थि तस्स ओवम्म / किंचि विसेसेणेत्तो, ओवम्ममिणं सुणह वोच्छं // 17 // जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तूण भोयणं कोइ / तण्हाछुहाविमुक्को, अच्छेञ्ज जहा अमियतित्तो // 18|| इय सव्वकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाह, चिटुंति सुही सुहं पत्ता / / 16 / / सिद्धा ति य बुद्ध त्ति, य पारयग त्ति य परंपरगय त्ति / उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य // 20 // णिच्छिण्णसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंती सासयं सिद्धा // 21 // अतुलसुहसागरगया, अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता / सव्वमणागयमद्धं, चिटुंति सुही सुहं पत्ता // 22 // 'कहिं इत्यादिश्लोकद्वयं, व प्रतिहताः- व प्रस्खलिताः सिद्धा | मुक्ताः ? तथा व सिद्धाः प्रतिष्ठिताव्यवस्थिता इत्यर्थः? तथा क्व बोन्दि-शरीरं त्यक्त्वा ? तथा क्व गत्वा 'सिज्झई ति-प्राकृतत्वात् 'से हु चाइ त्ति वुच्चई' त्यादिवत् सिध्यन्तीति व्याख्येयमिति / / 1 / / अलोके–अलोकाकाशास्तिकाये प्रतिहताः- खलिताः सिद्धा-मुक्ताः, प्रतिस्खलन चेहानन्तर्यवृत्तिमात्रं, तथा लोकाग्रे च-पञ्चास्तिकायात्मकलोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिता- अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा इह-मनुष्यक्षेत्रे बोन्दि-तनुपरित्यज्य तत्रेति-लोकाग्रे गत्वा सिज्झइ' त्ति-सिध्यन्ति- निष्ठितार्था भवन्ति ॥२।किञ्ज- 'ज सठाणं' गाहा व्यक्ता, नवर प्रदेशघनमिनि विभागेन रन्ध्रपूरणादिति, 'तहिं त्ति- | सिद्धिक्षेत्रं 'तस्स' ति सिद्धस्येति // 3 // तथा चाह- 'दीहं वा' गाहा, दीर्घ वा पञ्चधनुःशतमानं ह्रस्वं वा-हस्तद्वयमानं, वाशब्दान्मध्यमं वा, यचरमभवे भवेत्संस्थानं ततः- तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना त्रिभागेन शुषिरपूरणात् सिद्धानामवगाहना--अवगाहन्ते-अस्यामवस्थायामिति अवगाहना स्वावस्थैवेति भावः, भणिता-उक्ता जिनैरिति // 4 // अथावगाह-नामेवोत्कृष्टादिभेदत आह- "तिण्णि सये' त्यादि, इयं चं पञ्चधनुःशतमानानां 'चत्तारिये' त्यादि तु सप्तहस्तानाम् ‘एगा ये' त्यादि द्विहस्तमानानामिति / इयं च त्रिविधाऽप्यूज़मानमाश्रित्यान्यथा सप्तहस्तमानानां च उपविष्टानां सिद्ध्यतामन्यथाऽपि स्यादिति। आक्षेपपरिहारौ पुनरेवमत्र-ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुः शतमानः प्रतीत एव, तद्भार्याऽपि मरुदेवी तत्प्रमाणैव, 'उच्चत्तं चेव कुलगरेहिं सम' मिति वचनात्, अतस्तदवगाहना उत्कृष्टावगाहनातोऽधिकतरा प्राप्नोतीति कथं न विरोधः ? अत्रोच्यतेयद्यप्युचत्वं कुलकरतुल्य तद्योषितामित्युक्तं, तथापि प्रायिकत्वादस्य स्त्रीणां च प्रायेण पुम्भयो लघुतरत्वात् पञ्चेवधनुःशतान्यसावभवत्, वृद्धकाले वा सङ्कोचात् पञ्चधनु:- शतमाना सा अभवद, उपविष्टा वाऽसौ सिद्धेति न विरोधः। अथवा- बाहुल्यापेक्षमिदमुत्कृष्टावगाहनामानं, मरुदेवी त्वाश्चर्यकल्पेत्येवमपि न विरोधः, ननुजघन्यतः सप्तहस्तोच्छ्रितानामेव सिद्धिः प्रागुक्ता, तत्कथं जघन्यावगाहना अष्टाङ्-गुलाधिकहस्तप्रमाणा भवतीति? अत्रोच्यते, सप्तहस्तोच्छ्रितेष सिद्धिरिति तीर्थङ्करापेक्षं, तदन्ते तु द्विहस्ता अपि कूर्मपुत्रादयः सिद्धाः अतस्तेषां जघन्याऽवसेया, अन्येत्वाहुः सप्तहस्तमानस्य संवर्तिताङ्गोपाङ्गस्य सिद्ध्यतो जघन्यावगाहना स्यादिति // 7 // 'ओगाहणाए' गाहा व्यक्ता, नवरम् 'अणित्थंथं' मि अमुं प्रकारमापन्नमित्थमित्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थम् न इत्थंस्थम् अनित्थंस्थं न केनचिल्लौकिकप्रकारेण स्थितमिति / / अथैते किं देशभेदेन स्थिता उतान्यथेत्यस्यामाशङ्कायामाह- 'जत्थ य' गाहा, यत्र च-यत्रैव देशे एकः सिद्धोनिवृत्तस्तत्र देशे अनन्ताः किम ? - 'भवक्षयविमुक्ता' इतिभवक्षयेण विमुक्ता भवक्षयावमुक्ताः , अनेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्धवयवच्छेदमाह / अन्योऽन्यसमवगाढाः तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्ति-कायादिवदिति, स्पृष्टाः- लग्नाः सर्वे च लोकान्ते, अलोकेन प्रतिस्खलितत्वाद्, अत एव 'लोयग्गे य पइट्ठिया' इत्युक्तमिति // 6 // तथा 'फुसई' गाहा, स्पृशत्यनन्तान्सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसम्बन्धिभिः 'णियमसो' त्ति-नियमेन सिद्धः, तथा तेऽप्यसंख्येयगुणा वर्तन्ते देशैः प्रदेशैश्च ये स्पृष्टाः,केभ्यः? - सर्वप्रदेशस्पृष्टेभ्यः, कथम् ?-सर्वात्मप्रदेशैस्तावदनन्ताः, स्पृष्टाः, एकसिद्धावगाहनायामनन्तानामवगाढत्वात्, तथैकैकदेशेनाप्यनन्ताः एवमेकैकप्रदेशेनाप्यनन्ता एव नवर देशो-व्यादिप्रदेशसमुदायः प्रदेशस्तुनिर्विभार्गोऽश इति। सिद्धश्चासख्येयदेशप्रदेशात्मकः, ततश्च मूलानन्तकमसंख्येयैर्देशानन्तकैरसंख्यैरेव च प्रदेशानन्तकैर्गुणितं यथोक्तमेव भवतीति // 10 // अथ सिद्धानेव लक्षणत आह-'असरीरा' गाहा, उक्ताथा, संग्रहरूपत्वाचास्या न पुनरुक्तत्वमिति / / 11 / / 'उवउत्ता दसणे यणाणे य' त्तियदुक्तं, तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वविषयतामुपदर्शयन्नाह-"केव Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 542- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध ल' गाहा, केवलज्ञानोपयुक्ताः सन्तः न त्वन्तः करणोपयुक्ताः भावतस्तदभावात्, जानन्ति 'सर्वभावगुणभावान्' समस्तवस्तुगुणपर्यायान्, तत्र गुणाः- सहवर्तिनः पर्यायास्तुक्रमवर्तिन इति, तथा पश्यन्ति सर्वतः खलु-सर्वत एवेत्यर्थः केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः-कवलदर्शनरनन्तैरित्यर्थः, अनन्तत्वात् सिद्धानामनन्तविषयत्वाद्वा दर्शनस्य केवलदृष्टिभिरनन्ता-भिरित्युक्तम्, इह चादी ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थमिति // 12|| अथ सिद्धानां निरुपमसुखतां दर्शयितुमाह- ‘ण वि अत्थि' गाहा व्यक्ता, नवरम् 'अव्वाबाह' ति-विविधा आबाधा व्याबाधा तन्निषेधादव्याबाधा तामुपगतानां प्राप्तानामिति // 13 // कस्मादेवमित्याह-'जं देवाणं गाहा, यतो यस्माद्देवानाम्-अनुत्तरसुरान्तानां सौख्यम्-त्रिकालिकसुखं सद्धिया-अतीतानागतवर्तमानकालेन पिण्डितम्-गुणितं सर्वाद्धापिण्डित्तं, तथाऽनन्तगुणमिति, तदेवं प्रमाणं किलासद्भावकल्पनयैकैकाकाशप्रदेशे स्थाप्यत इत्येवं सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्तं भवति, न च प्राप्नोति मुक्तिसुखम्-नैव मुक्तिसुखसमानतां लभते, अनन्तानन्तत्वात्सिद्धसुखस्य, (किंविधं देवसुखमिति 'यग्गवग्ग' शब्दे षष्ठे भागे गतम्।) औ० / खण्डखण्डैः खण्डितं सिद्धसुखं तदीयानन्तानन्ततमखण्डसमतामपि न लभत इत्यर्थः, ततो नास्ति तन्मानुषादीनां सुखं यत्सिद्धानामिति प्रकृतम् // 14 // सिद्धसुखस्यैवोत्कर्षणाय भङ्गयन्तरेणाह- "सिद्धस्स' गाहा, सिद्धभ्य-मुक्तस्य सम्यन्धी सुख:- सुखानां सत्को राशिः- समूहः सुखसङ्घात इत्यर्थः, सर्वाद्धापिण्डितः सर्वकाल-समयगुणितो यदि भवेद, अनेन चास्य कल्पनामात्रतामाह, सोऽनन्तवर्गभक्तः- अनन्तवर्गापवर्तितः सन्समीभूत एवेति भावार्थः, सर्वाकाशे' लोकालोकरूपे न मायात्, अपमत्र भावार्थः- इह किल विशिष्टाहादरूपं सुखं गृह्यते, ततश्च यत आरम्भ शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिस्तमालादमवधीकृत्य एकैकगुण्वृद्धित्तारतम्येन लावदसावालादो विशिष्यते यावदनन्तगुणवृद्ध्या निरतिशयनिष्ठां गतः, ततश्चासावत्वन्तोपमातीतैकान्तिकौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपः स्तिमिततममहोदधिकल्पश्चरमाबाद एव सदा सिद्धानां भवति, तस्माचारात्प्रथमाचोर्ध्वमथान्तरालवर्तिनो ये तारतम्येनाहादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशराशेरपि भूयांसो भवन्तीत्यतः किलोक्तम् –'सव्यागासे ण माएज' त्ति अन्यथा प्रति-नियतदेशावस्थितिः कथं तेषामिति सूरयोऽभिदधतीति // 15 // अस्य च वृद्धोक्तस्याधिकृतगाथाविवरणस्वायं भावार्थः- य एते सुखभेदास्ते सिद्धसुखपर्यायतया व्यप्रदिष्टाः, तदपेक्षया तस्या क्रमेणोत्कृष्यमाणस्यानन्ततमस्थानवर्तित्वेनोपचारात्, तद्राशिश्च किलासद्भावस्थापनया सहस्रं समयराशिस्तु शतं, सहस्रं च शतन गुणितं जालं लक्षं, गुणनं च कृतं सर्वसमयसम्बन्धिनां सुखपर्यायाणां मीलनार्थम्। तथाऽनन्तराशिः किल दश, तद्धर्गश्च शतं, तेनापवर्तितं लक्षं जातं सहस्रमेय, अतः पूज्यैरुक्तम्- 'समीभूत एये त्ति भावार्थ इति। यचेह सुखराशेर्गुणनपवर्तनं च तदेवं सम्भावयामः- यत्र किलानन्तराशिना गुणितेऽपि सति अनन्तवर्गेणानन्तानन्तकरूपेणातीव महास्यरूपेणापवर्तिते किञ्चिदेवशिष्यते, स राशिरतिमहान्, ततश्च सिद्धसुखराशिमहानिति बुद्धिजन नार्थ शिष्यस्य तस्यैव वा, गणितमार्गे व्युत्पत्तिकरणार्थमिति / अन्ये पुनरिमां गाथामेव व्याख्यान्ति-सिद्धसुखपर्यायराशिः नमःप्रदेशाग्रगुणितनभःप्रदेशाग्रेप्रमाणंः, तत्परिमाणात्वात् सिद्धसुखपर्यायाणां, सर्वाद्धापिण्डितः- सर्वसमयसम्बन्धी सङ्कलितः सन्, स चानन्तैः; अनन्तश इत्यर्थः, वगैः वर्गमूलैर्भक्तः- अपवर्तितः; अत्यन्तं लघुकृत इत्यर्थः; यथा किल सर्वसमयसम्बन्धी सिद्धसुखराशिः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षत्रिंशच्चेति (65536) स च वर्गेणापवर्तितः सन् जोते द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके (256) सोऽपि स्ववर्गापवर्तितो जाताः षोडशः ततश्चत्वारः ततो द्वावित्येवमतिलघूकृतोऽपि सर्वाकाशे न मायाद्, एतदेवाह- 'सव्वायासे न माएज्ज' त्ति- अथ सिद्धसुखस्यानुपमतां दृष्टान्तेनाह- 'जह' गाहा, पूर्वार्धं व्यक्तं न चएह' त्ति-न शक्रोति परिकथयितुंनगरगुणानरण्यमागतोऽरण्यवासिम्लेच्छेभ्यः कुत इत्याह उपमायां त्वत्र नगरगुणेष्वरण्ये वाऽसत्यामिति, कथानकं पुनरेवम्"म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः / अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशितः / / 1 / / म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम् / प्रापितश्च निजं देशं, सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् // 2 // ममायमुपकारीति, कुतो राज्ञाऽतिगौरवात् / विशिष्टभोगभूतीनां, भाजनं जनपूजितः / / 3 / / ततः प्रासादशृङ्गेषु, रम्येषु काननेषु च / वृतो बिलासिनीसाथै-र्भुङ्क्ते भोगसुखान्यसौ / / 4 / / अन्यदा प्रावृषः प्राप्तौ, मेघाडम्बरमण्डितम् / व्योम दृष्ट्वा ध्वनि श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम् / / 5 / / जातोत्कण्ठो दृढं जातो-ऽरण्यवासगमं प्रति / विसर्जितश्च राज्ञाऽपि, प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः // 6 // पृच्छन्त्यरण्यवासास्तं, नगरं तात ! कीदृशम् ? / स स्वभावान् पुनः सर्वान्, जानात्येव हि केवलम् / / 7 / / न शशाक तकां तेषां, गदितुं स कृतोद्यमः। वने वनेचराणां हि, नास्ति सिद्धोपमा यतः // 8 // " 16 / अथ दान्तिकमाह- 'इय' गाहा, इति- एवम्-अरण्ये नगरगुणा इवेत्यर्थः, सिद्धानां सौख्यमनुषमं वर्तते, किमित्याह-यतो नास्ति तस्यौपम्यं, तथापि बालजनप्रतिपत्तये किञ्चिद्विशेषेणाह'एत्तो' त्ति आर्षत्वादस्य-सिद्धिसुखस्य इतो वाऽनन्तरम् औपम्यम्उपमानम् इदम्-- वक्ष्यमाणं शृणुत वक्ष्ये इति / / 17 / / 'जग' गाहा, 'यथे' त्युदाहरणोपन्यासार्थः सर्वकामगुणितं- सञ्जातसमस्तकमनीयगुणं, शेष व्यक्तम्, इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्येष्ट-विषयप्राप्त्या औत्सुक्यनिवृत्त्या सुखप्रदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावाप्त्याऽशेषौत्सुक्यनिवृत्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा बाधान्तरसम्भवात् सुखार्थाभाव इति / / 8 / / 'इय' गाहा, 'इय' एवं सर्वकालतृप्ताः सश्वद्भावत्वात् अतुलं निर्वाणमुपागताः सिद्धाः सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्तेः, यतश्चैवमतः शाश्वतम् - सर्वकालभापि अर्याबाध' व्यायाध वर्जितं सुखं प्राप्ताः सु Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 843 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध खिनस्तिष्ठन्तीति योगः सुखं प्राप्ता इत्युक्ते सुखिन इत्यनर्थकमिति चेत्, नैवं दुःखामावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तव्यसुखप्रति-पादनार्थत्वादस्य, तथाहि अशेषदोषक्षयतः शाश्वतमव्याबाधसुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तः तिष्ठन्ति, न तु दुःखाभावमात्रान्विता एवेति // 16 // साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह- "सिद्ध य त्ति' गाहा, सिद्धा इति च तेषां नाम कृतकृत्यत्वाद् , एवं बुद्धा इति केवलज्ञानेन विश्वावबोधात्, पारगता इति च भवार्णवपारगमनात् 'परंपरगय' त्ति पुण्यबीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमप्राप्त्युपाययुक्तत्वात् परम्परया गताः परम्परगता उच्यन्ते, उन्मुक्तकर्मकववाः सकलकर्मवियुक्तत्वात, तथा अजरा वयसोऽभावाद् अमराआयुषोऽभावात्, असङ्गाश्च सकलक्लेशाभावादिति // 20 // 'निच्छिण्ण' गाहा 'अतुल' गाहा घ्यक्तार्थे एवेति // 21 // 22 // औ०। तथा किंचजं संठाण तु इह, भवं चयंतस्य चरमसमयम्मि / आसी य पएसघणं, तं संठाणं तर्हि तस्स // यदेव तुशब्दस्य व्यवहितस्यैवकारार्थत्वात् संस्थानमिह-मनुष्यभवे भवं-संसारं मनुष्यभवं वा त्यजतः, सतश्च चरमसमये आसीत् देशधनं तदेव सस्थानं तत्र तस्य भवति / तच्च मनुष्यभवशरीरापेक्षया त्रिभागहीनं- त्रिभागोनं रन्ध्रापूरणात् / तथा चाहदीहं वा हस्सं वा, जं चरमभवे हवेज संठाणं / तत्तो तिमागहीणा, सिद्धाणोगाहणा भणिया // दीर्घ वा पञ्चधनुःशतप्रमाणं ह्रस्वं वा हस्तद्वयप्रमाणं वाशब्दादमध्यम वा विचित्रं यच्चरमभवे संस्थानं ततस्तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना सिद्धानाम् अवगाहन्ते अस्यामित्यवगाहना स्वावस्यैव भणिता तीर्थकरगणधरैः / कस्मात् त्रिभागहीनेति चेत्, उच्यते-इह देहत्रिभाग, शुषिरं ततो योगनिरोधकाले तथाविधप्रयत्नभावतः शुषिरापूरणात् विभागहीनो जातः, नच वाच्यम् संहरणं तावत् प्रदेशानां सम्भवति ततःप्रयत्नविशेषः प्रदेशमात्रोऽपि कस्मान्नावतिष्ठते इति तथाविधसामर्थ्याभावात् योगनिरोधकाले अद्यापि सकर्मकात् तथा जीवस्वाभाच्याच / उक्तं च- "संहारसंभवातो, पएसमेत्तम्मि किन्न संवाइ। सामत्थाईसामत्थाभावतओ भवे सिद्धे" तदवस्थ एव भवति, आह च-- देहतिभागो सुसिरं तप्पूरणतो तिभागहीणो उ / सो जोगनिरोहोचिय, जातो वि तओ य तदवत्थो" नच सिद्धस्य सतः प्रदेश संहारसम्भवः प्रयत्नाभावादप्रयत्नस्य गतिरेव कथमिति चेत् / उच्यते-समाहितमेतदसङ्गत्वादिति हेतुभिरिति, उक्तं च-"सिद्धो वि देहरहितो, सपयत्ताभावतो न संहरइ / अप-यत्तस्स किह गई, नणु भणियमसंगयादीहिं / / " आ० म०१ अ०। साम्प्रतमुक्तानुवादेनैव संस्थानलक्षणं सिद्धानाम भिधातुकाम आहओगाहणा य सिद्धा, भवत्तिभागेण हुंति परिहीणा। संठाणमणित्थंथं, जरामरणबिप्पमुक्काणं // अवगाहनया सिद्धाः भवत्रिभागेन भगवतः शरीरत्रिभागेन परिहीना भवन्ति ततस्तेषां जरामणविप्रमुक्तानां संस्थाननित्थंस्थं वेदितव्यम्। इत्थं प्रकारमात्रमित्थम् तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थमनित्थंस्थं न केनचिदपि लौकिकेन प्रकारेण स्थितमिति भावः / इयमत्र भावना योगनिरोधकाले देहविभागस्य शुषिरस्य प्रदेशैरापूरणात् पूर्वसंस्थानान्यश्चव्यवस्थानतोऽनियताकारं संस्थानमनियताकारत्नादेव च तदनित्थंस्थमुच्यते, ननु सर्वथा तदभावतः सिद्धादिगुणेष्वपि यः सिद्धानां से न दीहे न हस्से' इत्यादिवचनेन दीर्घत्वहस्वत्वादीनां प्रतिषेधः सोऽप्यनित्थंस्थः स्वसंस्थानत्वादवसेयो न पुनः सर्वथा तेषामभावतः / उक्तं च"सुसिरपडिपूरणातो, पुव्वागारं तहा ववत्थातो। सठाणमणित्थंथं, जं मणिय अणिययागारं / / 1 / / एत्तो चिय पडिसेहो, सिद्धादगुणेसु दीहयाईणं / जमणित्थ(थं)त्थं पुव्वा-गारावेक्खाएँ नामावो // 2 // आह किमेते सिद्धा देशभेदेन स्थिता उत नेति, उच्यतेनेति ब्रूमः / कुत इति चेत् उच्यते-यस्मात् / जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का। अन्नोन्नसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगते // यत्रैव चशब्दस्येवकारार्थत्वाद्देशे एकः सिद्धो-निवृत्तस्तत्रानन्ता भवक्षयविमुक्ता भवक्षयेण विमुक्ताः, अनेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्ध्यव्यवच्छेदमाह "अन्नान्नसमोगाढा, पुट्ठा सव्वे य लोगते" अन्योन्यसमवगाढास्तथाविधतत्पारणामवत्त्वात् धर्मास्तिकायादिवत, 'पुट्ठा सव्वे य लोगते' इति-स्पृष्टा-लग्नाः सर्वे लोकान्तेवा, पाठान्तरम् 'पुट्ठोसव्वेहिं लोगंतो' स्पृष्टः सर्वैः लोकान्तः लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता' इति वचनात् / तथाफुसइ अणते सिद्धे, सव्वपएसेहि सव्वतो सिद्धा। ते वि असंखेज्जगुणा, देसपएसेहिजे पुट्ठा // ये असंख्येयगुणा वर्तन्ते ये देशप्रदेशैः स्पृष्टाः / केभ्योऽसंख्येयगुणा इति चेत् उच्यते-सर्वप्रदेशस्पृष्टभ्यः / कथ-मिति चेत्, उच्यते-इह एकस्य सिद्धस्य यदवगाहना क्षेत्रकस्मिन् अपि परिपूर्ण क्षेत्रे अवगादास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ता एवं द्वित्रिचतुः-पञ्चादिप्रदेशहान्या ये अवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः। तथा तस्य मूलक्षेत्रस्य एकैकं प्रदेश परित्यज्य यऽपि अवगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः, एवं द्वित्रिचतुःपञ्चादिप्रदेशहान्या ये अवगाढा-स्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः / एवं च सति प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां ये समवगाढास्तेपरिपूर्णक्षेत्रावगाढे-भ्योऽसंख्येयगुणा भवन्ति। असंख्येयप्रदेशात्मकैकसिद्धावगाहक्षेत्रे प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां प्रतिप्रदेशमनन्तानां सिद्धानामवगाहनात् / उक्तं च- "एगक्खेत्ते गंत्ता, पएसिपरिवड्डिहाणि ततो / होति असंखेज्जगुणा, संखपएसो जमवगाहो" ||1|| साम्प्रतं सिद्धानेव लक्षणतः प्रतिपादयतिअसरीरा जीवघणा, उवउत्ता दंसणे य नाणे य। सागारमणागारं, लक्खणमेयं तु सिद्धाणं // अविद्यमानशरीराः अशरीराः; औदारिकादिपवविधशरी Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 544- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्ध ररहिता इत्यर्थः / जीवाश्च ते घनाश्च शुषिरापूरणात् जीवघनाः उपयुक्ता | दर्शने ज्ञाने चा। केवलज्ञानदर्शनयोर्विशेषविषयतामुपदर्शयतिकेवलनाणुवउत्ता, जाणंता सव्वभावगुणभावे। पासंति सव्वतो खलु, केवलपिट्ठीहिणंताहिं।। केवलज्ञानेनोप्रयुक्ता जानन्ति-अवगच्छन्ति सर्वभावगुणभावान् सर्वपदार्थगुणपर्यायान्। प्रथमो भावशब्दः पदार्थवचनो द्वितीयः पर्यायवचनः, गुणपर्यायभेदस्त्वयम्-सहवर्तिनो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्यायाः। तथा पश्यन्ति सर्वतः खलु' खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् सर्वत एव केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः केवलदर्शनैरनन्तत्वात् सिद्धानामिहादौ ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिद्धयन्तीति ज्ञापनार्थम्। आहकिमेते युगपज्जानन्ति पश्यन्ति च आहोश्चित् अयुगपदिति / उच्यते अयुपगत्। कथभेतदवसीयत इति चेत्, यत आहनाणम्मि दंसणम्मि य, एत्तो यं एगयरम्मि उवउत्ता। सव्वस्स केवलिस्स हु, जुगवं दो नत्थि उवओगो॥ ज्ञाने दर्शने च एत्तो त्ति-अनयोरेकतरस्मिन्नुपयुक्ताः, किमिति यतः सर्वस्य केवलिनः सतो युगपद्एकस्मिन् काले द्वौ नस्त उपयोगौ, तत् क्षायोपशमिकसंवेदने तथा दर्शनात् / अत्र बहु वक्तव्यं तच्च नन्द्यध्ययनटीकातोऽवसेयमिति। साम्प्रतं निरुपमसुखभाजस्ते इत्युपदर्शयन्नाह--- न वि अस्थि माणुणाणं, तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं। यं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं उवगयाणं / / नैवास्ति मानुषाणां-चक्रवादीनामपि तत्सौख्यं, न चैव देवानामनुत्तरसुरपर्यन्तानामपि यत् सिद्धानां सौख्यम् 'अव्यावाधामुपगताना, विविधा आबाधा व्याबाधा न व्याबाधा अव्याबाधा तामुपसामीप्येन गतानां प्राप्तानाम्। यथा नास्ति तथा भङ्गयोपदर्शयतिसुरगुणसुहं समत्तं, सय्वद्धा पिडियं अणंतगुणं / न य पावइ मुत्तिसुहं, ऽणताहि वि वग्गवग्गूहि // सुरगणसुखं समस्तं देवसंघातसुख समस्तं सम्पूर्णमतीतानागतवर्तमानकालोद्भवमित्यर्थः / पुनः सर्वाद्धापिण्डितं समयैर्गुणितं ततः पुनरप्यनन्तगुणम् / किमुक्तं भवति-सद्धिासमयगुणितं सत् यत् प्रमाणं भवति तावत्प्रमाणं किलासंकल्पनं वा एकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे स्थाप्यते, इत्येवं सकललोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणलक्षणे नानन्तगुणकारेण गुणितमिति। एवं प्रमाणस्य सतः पुनर्वर्गो विधीयते / तस्याऽपि वर्गितस्य भूयो वर्गः एवमनन्तैर्वर्गवगैर्वर्गितं तथापि तथा प्रकर्षगतमुक्तिसुखं न प्राप्नोति। तथा चैतदभिहितार्थानुवाद्येवाहसिद्धस्स सुहोरासी, सव्वद्धापिंडितो जह हवेजा। णो णंतवम्गमइतो, सव्वागासे न माइग्जा | सिद्धसम्बन्धे, सुखानां राशिः सुखराशि:- सुखसङ्घात इत्यर्थः सवाद्धापिण्डितः सर्वकालसमयगुणितः / आ० म० 1 अ० / औ० / दर्श० / कर्म० / प्रति० / पं० सू० / साम्प्रतमेवंरूपस्यापि सतोऽस्य निरुपमतां प्रतिपादयति-- जहनाम कोइ मिच्छो, नगरगुणे बहुविहे वि याणंतो। न चपइ परिकहेउं, ओमाइ तर्हि असंतीए / यथानाम कश्चिन म्लेच्छो नगरगुणान् सदननिवासादीन् बहुविधान् - अनेकप्रकारान् अरण्यगतः सन् अन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्रोति परिकथयितुम्, कुतो निमित्तादित्यत आह- उपमायां तत्रासत्यां तद्विषये उपमाया अभावादिति भावः एष गाथाक्षरार्थः / भावार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्- "एगो महारण्णवासी मिच्छो रण्णे-चिट्ठइ / इतो य एगो राया आसेण अवहरितो तं अडविं पवेसितो तेण दिह्रो / सक्कारेऊण राजपयं नीतो। रण्णा वि सो नगरमाणीतो पच्छा उवगारि त्ति गारवमुवचरित्ता जह राया तह चिट्ठइ / धवलघराइ वि भोगेणं विभासा। कालेण रणं सरिउमाढत्तो आरण्णिगा पुच्छंति केरिसं नगरं ति, सो वि याणति वितत्थोवमाभावा न सक्कइ नगरगुणा परिकहेउंएष दृष्टान्तः अयमर्थोपनयःइय सिद्धाणं सोक्खं, अणोवम नत्थि तस्स ओवम्म / किंचि विसेसेणेत्तो, सारिक्खमिणं सुणह बोच्छं / इति--एवमुक्तेन प्रकारेण सिद्धानां सौख्यमनुपमं वर्तते / किमित्यत आह-यतो नास्ति तस्य औपम्यम् उपमीयमानता उपमानासम्भवात्। तथाऽपि चात्मनः प्रतिपत्तये किंचिद्विशेषेण 'एत्तो' त्ति... आर्षत्वादस्य सादृश्यमिदं वक्ष्यमाणलक्षणं शृणुत तदहं वक्ष्ये इति / प्रतिज्ञातमवे निर्वाहयतिजह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत्तण भोयणं कोइ। तण्डाछुहाविमुक्को, अच्छेज्ज जहा अमियतित्तो / / यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः सर्वकामगुणितं सकलसौन्दर्यसंस्कृतं भोजनं भुज्यते इति भोजनं कृद्रहुलमिति वचनात् कर्मण्यनट, कश्चित् पुरुषो भुक्त्वा तृट्क्षुद्विमुक्तः सन्यथा आसातः अमृततृप्तः आबाधारहितत्वात् इह च रसनेन्द्रियमधिकृत्येष्टविषये प्राप्ता औत्सुक्यविनिवृत्तेः सुखदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावाप्तया शेषौत्सुक्यनिर्वृत्त्युपलक्षणणार्थः / अन्यथा बाधान्तरसम्भवतः सुखाभावः स्यात् सर्वबाधाविगमेन वात्र प्रयोजनम् / उक्तं च "वेणुवीणामृदङ्गादि-समायुक्तेन हारिणा। ग्लाघ्यस्मरकथाबद्ध-गीतेन स्तिमितः सदा // 1 // कुट्टिमादौ विचित्राणि, दृष्ट्वा रूपाण्यनुत्सुकः / लोचनानन्ददायीनि, लीलावन्ति स्वकानि हि // 2 // अम्लानगुरुकर्पूर-गन्धमाघ्राय निस्पृहः / नानारससमायुक्तं, मुक्त्वाऽन्नमिह मात्रया // 3 // पीत्वोदकं च तृप्तात्मा, स्वादयन् स्वादिमं शुभम् / मृदुकूलासमाक्रान्त-दिव्यपर्यङ्कसंस्थितः // 4|| सहसाम्भौदसंशब्द-श्रुतेर्भयघनं भृशम् / इष्टभार्यापरिष्वक्त-स्तवनान्तेऽथवा नरः // 5 // औत्पातिकव्याख्यातो वेचित्र्यमिति न पुनरुक्तिः। Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्ध 845 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धत सर्वेन्द्रियार्थसम्प्राप्त्या, सर्वाबाधानिवृत्तिजम् / गता / ) पण्डितहापर्षिगणिकृतप्रश्नो यथा अन्यच्च सिद्धजीवानां यद्वेदयति सद् हृद्यं, प्रशान्तेनान्तरात्मना / / 6 / / करचरणपादाङ्गुलीनां साद्यवयवाकाराः संभाव्यन्ते नवेति ? अन्यच मुक्तात्मनस्ततोऽनन्तं, सुखमाहुर्मनीषिणाः // " इति सिद्धजीवानां करचरणाद्याकारः संभाव्यते, यतः- 'अरूविणो इय सव्वकालतित्ता, अतुलं निव्वाणमुवगया सिद्धा। जीवघणा' इत्यत्र घनाश्च शुषिरपूरणतो निचितप्रदेशतयेति श्रीशान्ति-- सूरिवचनेन शरीरान्तर्वर्तिशुषिरपूरणमेव दृश्यते, नत्ववयवानां सासयमव्वाबाह, चिटुंति सुही सुहं पत्ता // बाह्यान्तरपूरणमिति, तथा श्रीहरिभद्रसूरि-श्रीमलयगिरिप्रमुखैरपि इति-एवमुक्तेन प्रकारेण सर्वकालतृप्ताः स्वस्वभावा-वस्थितत्वात् शुषिरपूरणमेवोक्तमस्तीति / ही० 2 प्रका० / सिद्धानां वर्गणा अतुलं निर्वाणमुपगता सिद्धाः सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्तेः, यतश्चैवमतः 'वगणा' शब्दे षष्ठभागे गता।) "सिद्धा मे मंगलं" आव० 4 अ०। शाश्वतम्, सवकालभावि अव्याबाधं-व्याबाधापरिवरिवर्जितं सुखं ("सिद्धा लोगुत्तमा" अस्य पदस्य व्याख्या 'पडिझमण' शब्दे प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्ति / अथ सुखं प्राप्ता इत्युक्ते सुखिन इत्यनर्थकम्, पञ्चमभागे 270 पृष्ठे गता।) अर्हत्प्रतिमायाम, स्था०४ ठा०२ उ०। नैष दोषोऽस्य दुःखभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तवसुख शाश्वते, स्था०४ ठा०२ उ०। साधितार्थे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। प्रतिपादनार्थत्वात्, तथा ह्यशेषदोषक्षयतः शाश्वतमव्याबाधं सुखं कृतार्थे, पा०। स्था० / ध०। (सिद्धानामर्हतां च नमस्कारे क्रमप्रदप्राप्ताः सन्तः सुखिनस्तिष्ठन्ति न तु दुःखाभावमात्रान्विता एवेति / र्शनम् / 'णमुक्कार' शब्दे चतुर्थभागे 1843 पृष्ठे दर्शितम् / तत्रैव आ० म०१ अ०। सिद्धनमस्कारहेतुफले च दर्शित / ) 'अट्ठसयं सिद्धा' अष्टशत सिद्धो भूत्वा क्व परिवसेत् सिद्धा निर्वृता इत्यनन्तकालजातमित्याश्चर्यम् / स्था० 10 ठा०३ से भयवं जरामरणाई अणेगसंसारियदुक्खजालविमुक्के समाणे उ०।साधने विचाल्यश्रुतज्ञाने प्रतिष्ठिते, आ० चू०५ अ०। 'कम्मट्ठजन्नं कर्हि परिवसेजा, गोयमा ! जत्थ णं न जरा ण मधून क्खयसिद्धा, साहासियनाणदसणसमिद्धा।' दश० / लोकोत्तररीत्या वाहीओ णो अपसज्झक्खाणं संता वुटवेग-कलिकलहदारिद्ध- पक्षस्य द्वितीयदिवसे, चं० / प्र० 10 पाहु० / कल्प० / निष्पादिते, दहपरिकिलेसणइट्ठविओगो किं बहुणा एगंतेण अक्खयधुव- निष्पन्ने, नि० चू० 20 उ० / बृ० / निर्णीते, हा० 26 अष्ट० / सासयनिरुवर्म अणंतसोक्खं परिवसेज ति बेमि / महा०२ चू०। निश्चितप्रामाण्ये, "सिद्धं सिद्धट्ठाणं (1 गा०)" सम्म०१ काण्ड / __ साम्प्रतं सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयति प्रख्याते, प्रथिते, नि० चू० 1 उ० / प्रतीते, पञ्चा० 11 विव० / प्रतिष्ठिते, षो०४ विव० / दश० / ग० / फलाव्यभिचारेण प्रतिष्ठिते सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य, पारगय त्ति य परंपरगय त्ति। सकलनयव्यापकत्वे त्रिकुटीपरिशुद्धत्वेन च प्रत्याख्याते, ल० / उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य // ध01 ' सिद्धं भो पयतो नमो जिणमये, नंदी सया संजमे, आव०५ सिद्धा इति कृतकृत्यत्वात् बुद्धा इति केवलज्ञानदर्शनाभ्यां विश्वाव अ० / दिव्यपुरुषे, द्वा० 26 द्वा० / माल्यवद् वक्षस्कारपर्वतस्य गमात्, पारगता इति भवार्णवपारगमनात्, परम्परागता इति पुण्यबीज प्रथमकूटे, जं० 4 वक्ष० / अञ्जनपादलेपतिकलगुटिकाशकलसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमप्रतिपन्नत्वात्, परंपरया गताः। उन्मुक्तकर्म लूताकर्षणवैक्रियत्वप्रभृतयः सिद्धयस्ताभिः सिध्यति स्म सिद्धः / कवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात्, तथा अजरा वयसोऽभावात्, अमरा लब्धिमति, अष्टसु प्रभावकेष्वन्यतमे, प्रव० 148 द्वार / ध० / आयुषोऽभावात् असङ्गाश्च सकलक्लेशाभावात् / वसुश्रेष्ठिपुत्रे, ध०२०२ अधि०। (तत्कथा वसु' शब्दे षष्ठ भागे उक्ता।) __ साम्प्रतमुपसंहरति सिध्म-पुं० कुष्ठभेदे, प्रश्न०५ संव० द्वार। नित्थिनसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का। सिद्धत-पुं०(सिद्धान्त) सिद्धं प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं संवेदनं निष्ठारूपं अव्वाबाहं सोक्खं, अणुहवयंती सया कालं // नयतीति सिद्धान्तः। आगमे, अनु० / विशे० / आर्षवचने, द्वा० 21 निस्तीर्णम्- अतिक्रान्तं सर्वम्- अशेषं दुःखं यैस्ते निस्तीर्ण द्वा० / समये०जी०१ प्रति / बृ०॥ सर्वदुःखाः जातिर्जन्म, जरा-वयोहानिर्मरणं-प्राणत्यागः बन्धनं-- अधुना सिद्धान्तद्वारमाहसंसारबन्धहेतुरष्टप्रकारं कर्म तैर्मुक्ता अव्याबाधं व्याबाधारहितं सौख्यं सदाकालमनुभवन्ति / आ० म० 1 अ० / औ०। "सिद्धा निगोय जेण उ सिद्धं अत्थं, अंतं णयतीति तेण सिद्धंतो। जीवा, वणस्सई, कालपुग्गला चेव / सव्वमलोगागासं, छप्पेए णतया. सो सव्वपडीतंतो, अहिगरणे अन्भुवगमे य // 152 / / णेया / / 1 / / " नं०। (केवली समुद्धातं कृत्वा सिद्ध्यतीति केवलि- येन कारणेन प्रमाणतः सिद्धमर्थमन्तं नयति-प्रमाणकोटिसमुग्घात' शब्दे तुतीयभागे 656 पृष्ठे उक्तम् / ) "कणादादिपरि- मारोहयतीति तेन कारणेण सिद्धान्त उच्यते / स एष द्रव्यतःकल्पितोऽनादिः सिद्धः / उत्त० 2 अ०। (ज्ञानमप्रतिधं यस्य, वैराग्यं आगमनोआगमतो व्यतिरिक्तः पुस्तकपत्रन्यस्ताभायतश्चतुर्विधः, च जगत्पतेः / ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम् // 1 // " तद्यथा-सर्वतन्त्रसिद्धान्तः प्रतितन्त्रसिद्धान्तः, अधिकरण-सिद्धाइत्यादिको विशेषः 'परिसह' शब्दे पञ्चमभागे 642 पृष्टे न्तोऽभ्युपगमसिद्धान्तश्च / बृ०१ उ०१प्रक० / विशे० / आगमोक्तागतः ।)(सिद्धानामाशातना 'आसायणा' शब्दे द्वितीयभागे 482 पृष्ठे | नुष्ठाने, ग०२ अधि०। Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धतकहा 846- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धगुण सिद्धतकहा स्त्री०(सिद्धान्तकथा) स्वसमयकथायाम् षो० 14 विव०। | तत्सिद्धगतिनामधेयम् / सिद्धस्थाने, स० 1 सम० / रा०1 सिद्धतपडिणीय-पुं०(सिद्धान्तप्रत्यनीक) सिद्धान्तविनाशके, पं०व० | सिद्धगंडिया-स्त्री०(सिद्धगण्डिका) सिद्धानक्तव्यताप्रतिबद्धायां ग्रन्थ४ द्वार। पद्धतौ, भ० 11 श० 6 उ०। (सा च 'सिद्ध' शब्देऽस्मिन्नेव भागे सिद्धंतपरम्मुह-पुं०(सिद्धान्तपराङ्मुख) आगमोक्तानुष्ठानशून्ये, ग० [. दर्शिता।) 2 अधि०। सिद्धगुण-पुं०(सिद्धगुण) सिद्धसहभाविगुणेषु, प्रव०। सिद्धतरहस्स-न०(सिद्धान्तरहस्य) आगमगुप्तार्थे, 'आमे घडे निहत्तं, इदानीं 'सिद्धगत्तीसगुण त्ति' षट्सप्तत्यधिक जहा जलं तं घड विणासेइ / इय सिद्धन्तरहस्सं, अप्पाधार द्विशततमं द्वारमाहविणासेई" ||1|| नं०। नव दरिसणंमि / चत्ता-रि आउए 4 पंच आइमे अंते 5 / सिद्धंतसार-पुं०(सिद्धान्तसार) आगमस्य सारभूते, ध०१ अधि० / सेसे दो दो भेया 6, खीणेऽभिलावेण इगतीसं // 1607 / / सिद्धताणणुवाइ-पुं०(सिद्धान्ताननुपातिन) स्वच्छन्दबुद्धिरचितत्वेन दर्शने-दर्शनावरणीये कर्मणि, चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनजैनागमाननुसारिणि, प्रव० 2 द्वार / केवलदर्शनावरणनिद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानद्धिलक्षणा भेदाः, सिद्धतामयपडिपुण्णकण्णपुडअ-पुं०(सिद्धान्तामृतप्रतिपूर्णकर्ण तथाऽऽयुषि नारकतिर्यग्नरामरायुर्लक्षणाश्चत्वारः, तथादिमे ज्ञानावरपुटक) आगमसुधासम्भृतश्रवणच्छदपत्रे, जीवा०२४ अधि०। णीये मतिश्रुतावधिमनः पर्यवकेवलज्ञानावरणीयस्वरूपाः पञ्च, अन्त्येऽप्यन्तरायाख्ये कर्मणि दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायरूपाः सिद्धतिय-पुं० (सैद्धान्तिक) सिद्धान्तवेत्तरि, प्रव० 10 द्वार / पञ्चैवु भेदाः, शेषे च कर्मचतुष्के प्रत्येकं द्वौ द्वौ भेदौ, तत्र वेदनीये सिद्धतियवयण-न०(सैद्धान्तिकवचन) आगमभणिते, जी०१ प्रति०। साताऽसातात्मकौ, मोहनीये, दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयलक्षणौ, सिद्धकंचणया-स्त्री०(सिद्धकाञ्चनता) सिद्धसुवर्णत्वे, पो० 8 विव०। नामकर्मणि शुभनामाशुभनामको गोत्रे चोचैर्गोत्रनीचैर्गोत्राभिधौ भेदौ भवत इति, तदेवमेते सर्वेऽपि भेदाः क्षीणाभिलापेन क्षीणशब्दसिद्धकूड-पुं० न०(सिद्धकूट) महाहिमवतः प्रथमकूटे, स्था० 8 ठा० विशेषितत्वेन प्रोच्चार्यमाणा एकत्रिंशत्संख्याः सिद्धानां गुणा भवन्ति, 3 उ०। शिखरिवर्षधरपर्वतस्य प्रथमकूटे, स्था० 2 ठा० 3 उ०। क्षीणवक्षुर्दर्शनावरण इत्यादिकश्चाभिलापः कार्यः / जम्बूद्वीपे सौमनसे वक्षस्कारपर्वतस्य गन्धमादनस्य पर्वतस्य प्रथमकूटे, स्था०७ ठा०३ उ०। रुक्मिवर्षधरपर्वतस्य प्रथमकूटे, स्था०८ ठा० अथवा प्रकारान्तरेणैकत्रिंशत्सिद्धगुणानाह३ उ० / निषधवर्षधरपर्वतस्य प्रथमकूटे, स्था०६ ठा०३ उ० / पडिसेहण संठाणे, य वनगंधरसफासवेए य / / दक्षिणभरतदीर्घवैतादयस्य प्रथमकूटे, स्था०६ ठा०३ उ०। (अस्य पण 5 पण 5 दुग 2 पण 5 ऽ8 8 तिही 3, व्याख्या 'कूड' शब्दे तृतीयभागे 618 पृष्ठे गता।) कच्छादिविजयक्षेत्र एगतीसमकाय 1 सगं 2 रुहा 3 // 160|| दीर्घवैताढ्यानां प्रथमकूटे, स्था०६ ठा०३ उ०। विद्युत्प्रभवक्षस्कार प्रतिषेधेन-निषेधेन संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शवेदनां क्रमेण पञ्च पञ्च पर्वतस्य प्रथमकूटे, स्था०६ ठा०३ उ०1 नीलवद्वक्षस्कारपर्वतस्य द्विपञ्चाष्टत्रिभेदानां, तथा अकायासङ्गारुहपदत्रितयेन, चैकत्रिंशत्सिद्धप्रथमकूटे, स्था० 6 ठा० 3 उ० / ऐरवते दीर्घवैताढ्यस्य प्रथमकूटे, गुणा भवन्ति, तत्र संतिष्ठन्ते एभिरिति संस्थानानि-आकाराः, तानि स्था०६ ठा०३ उ०। च पञ्च परिमण्डलवृत्तत्र्य-स्रचतुरस्रायतभेदात्, तत्र परिमण्डलं संस्थानं सिद्धकेवलनाण-न०(सिद्धकेवलज्ञान) सिद्धकेवलज्ञाने, स्था० ! बहिर्वृत्तता-वस्थितप्रदेशजनितमन्तः शुषिरं यथा वलयस्य, तदेवान्तः सिद्धकेवलणाणे दुविहे पण्णते, तं जहा-सिद्धकेवलनाणे चेव, पूर्ण वृत्तं, यथा दर्पणस्य, त्र्यत्रं-त्रिकोणं यथा शृङ्गाटकस्य, चतुरसंपरंपरसिद्धकेवलणाणे चेव / स्था०२ ठा०१ उ०। (व्याख्या स्वस्व- चतुःकोणं यथा स्तम्भावःकुम्भिकायाः, आयतं दीर्घ यथा दण्डस्य, स्थाने) घनप्रतरादिप्रतिभेदव्याख्या च वृहदुत्तराध्ययनटीकादिभ्योऽवसेया, सिद्धखेत्त-न०(सिद्धक्षेत्र) शत्रुञ्जयपर्वत, ती०१ कल्प। तथा वर्णाः पञ्च श्वेतपीतरक्तनीलकालभेदात्, गन्धो द्विधा-सुरभीतर भेदात, रसाः पञ्च तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात्, स्पर्शा अष्टौ-गुरुलघुसिद्धगइ-स्त्री०(सिद्धगति) सिद्धयन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यामिति मृदुकर्कशशीतोष्णस्निग्धरूक्षभेदात्, वेदास्त्रयः- स्त्रीपुंन पुंसकभेदात्, सिद्धिः लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वाद्-गतिः। रा० / दश०। तथा सिद्धा अकायादिकायपञ्चकविमुक्ताः, तेषां सिद्धत्वं प्रथमसमयः एव स० / सिधैर्गम्यमानायामीषत्प्रारभारायां पृथिव्याम्, भ० 1 श०१ सर्वात्मना त्यक्तव्यात्, तथा असङ्गा बाह्याभ्यन्तर-सगरहितत्वात्, तथा उ० / स्था०1 अरुहा न रोहन्ति भूयः संसारे समुत्पद्यन्ते इत्यरुहाः, संसारकासिद्धगइनामधेजा न०(सिद्धगतिनामधेय) सिद्धगतिरितिनामधेयं यस्य रणानां कर्मणां निर्मूलकाषंकषितत्वात्, उक्तं च-दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धगुण 547- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धपुर प्रादुर्भवति नाङ्कुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः / / 1 / / कस्मिन्नावश्यकेऽन्तभाव इति ? प्रश्ने, अत्रोत्तरम्- श्रुतस्तवसिद्तदेवमष्टाविंशतिसख्यानां संस्थानादीनां निषेधादकायत्वासङ्गत्वा- / धस्तवयोः कायोत्सर्गावश्यकेऽन्तर्भाव इत्यावश्यकबृहद्वृत्त्यनुसारण रुहत्वविधानाच सिद्धानामेकत्रिंशद्गुणा भवन्ति, संस्थानाधभावा- ज्ञायते // 3 // सेन० 1 उल्ला०। ऽकायत्वादिसद्भावौ च सिद्धानां सुप्रसिद्धावेव, तथा चाचाराङ्गम्- "से सिद्धत्थवण-न०(सिद्धार्थवन) ऋषभदेवस्य निष्क्रमणवने, आ० म० न दोहे,"० (सू० 170+) इत्यादि सूत्र लोगसार' शब्दे षष्ठभागे 1 अ० / कल्प० / आ० चू० / गतम्।) एतच्च सिद्धगुणप्रतिपादकं द्वारम् / प्रव० 276 द्वार / सिद्धत्थसारहि-पुं०(सिद्धार्थसारथि) सिद्धार्थनरेन्द्रसारी, सिद्धघोष-पुं०(सिद्धघोष) ऐरवते वर्षे भविष्यति द्वितीयतीर्थकरे, प्रव० | सिद्धार्थसारथिदेवेन गृहीतहरिशवो बलदेवः प्रतिबोधित इति। सूत्र० 7 द्वार। 1 श्रु०१ अ० 1 उ०। सिद्धजत्त-पुं०(सिद्धयात्र) सुरभिपुरपार्श्वे स्वनामख्याते नाविके, आ० सिद्धत्थसुअ-पुं०(सिद्धार्थसुत) सिद्धार्थनरेन्द्रस्य सुतोऽपत्यम् / क० 1 अ० / आ० म० / (तत्कथा 'कंबल शब्दे तृतीयभागे 176 पृष्ठे गता।) वर्धमानस्वामिनि, क० प्र० 1 प्रक० / सिद्धजोगि(ण)-पुं०(सिद्धयोगिन) रागद्वेषाभावेनोपशमीकृतार्थे, अष्ट० सिद्धत्था-स्त्री०(सिद्धार्था) संवरराजभार्यायामभिनन्दनजिनमातरि, ति०। "तिन्नेव सयसहस्सा, अभिणंदणजिणवरस्स सीसाणं / सव्व६ अष्ट। वीरियधयस्स, सिद्धत्था संवर सुयस्स'' ति०। आव० / अभिनन्दनसिद्धजोगिसंसरणजोग-पुं०(सिद्धयोगिसंस्मरणयोग) सिद्धाः प्रतिष्ठिता जिनस्य निष्क्रमणशिविकायां सर्षपप्रमाणसुवर्णकरणरचितसुवर्णलब्धात्मलाभा ये योगिनस्तेषां संस्मरणयोगः- स्मरणव्यापारः / मणिमयकण्ठिकायाम, औ०।। इष्टफलसिद्धये यो हि यत्र कर्मणि सिद्धन्तनुस्मरणे, षो० 15 विव० / सिद्धपय-न०(सिद्धपद) सिद्ध-प्रतिष्ठितं चालयितुमशक्यमित्येसिद्धट्ठाण-न०(सिद्धस्थान) स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानमित्यधिकरणसाधनोऽयं शब्दस्ततश्च सिद्धस्य स्थानं सिद्धस्थानम् / सिद्धपत्तने, कोऽर्थः, ततः सिद्धानि पदानि येषु ते सिद्धपदाः / कर्मप्रकृतिविशे०। निश्चितप्रामाण्ये, स० 25 सम०। प्राभृतादिषु, न हि तेषां पदानि कैश्चिदपि चालयितुं शक्यन्ते, तेषां सर्वज्ञोक्तानुसारित्वात्स्वसमये जीवस्थानगुणस्थानरूपेषु पदेषु, कर्म० सिद्धत्थ-पुं०(सिद्धार्थ) सिद्धा अर्था अस्मिन्निति सिद्धार्थः / षो०६ 5 कर्म विव० / सर्षपे, अनु० / श्वेतसर्षपे, कल्प० 1 अधि०३ क्षण / ग० / रा०1 श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य पितरिक्षत्रियकुण्डग्रामराजे, | सिद्धपाहुड-न०(सिद्धप्राभृत) स्वनामख्याते सिद्धाधिकारप्रतिस०। आव० / आचा०। दर्श०। आ० / म०। कल्प०। ति०। प्रव०। पादके, ग्रन्थे, नं०। अस्थिग्रामे वीरं प्रत्युपसर्ग कुर्वतः शूलपाणेर्यक्षस्य निग्राहके स्वनाम- सिद्धपुत्त-पुं०(सिद्धपुत्र) मुण्डे सशिखाके सभार्यक गृहस्थे, बृ०३ ख्याते यक्षे, स्था० 10 ठा० 3 उ० आ० क०। ('उउंबरदत्त' शब्दे उ०। 30 / ग० / सभार्यकोऽभार्यको बा णियमासुक्कंवरधरो खुरमुंडो द्वितीयभागे 683 पृष्ठे कथा गता।) पाटलिखण्डनगरराजनि, विपा० ससिही असिही वा णियमा अडंडगो अपत्तगो य सिद्धपुत्तो भवति / 1 श्रु०६ अ०। मण्डिकग्रामे स्वनाख्याते वणिजि, आ० चू०१ अ०। नि० चू०१ उ० / जी० / नं०। आ० म०। वीराङ्गदस्य प्रव्राजके स्वनामख्याते आचार्य, ति० दशमकल्प- सिद्धपुर-न०(सिद्धपुर) गुर्जरधरित्र्यां स्वनाख्याते पुरे, अष्ट० / विमानभेदे, स० 60 सम० / जम्बूद्वीपे ऐरवते वर्षे उत्सर्पिण्यां अथ श्रीमद्यशोविजयोषाध्यायैः, एवद् ज्ञानसाराभिधं शास्त्र रचितं भविष्यति द्वितीये तीर्थकरे, स०। रुद्रे, दे० ना० 8 वर्ग 31 गाथा / तत्क्षेत्रादिप्रतिपादकं वृत्तमुच्यतेसिद्धत्थग-पुं०(सिद्धार्थक) सर्षपे, पञ्चा० 4 विव० / भ० ! ज्ञा० / सिद्धिं सिद्धपुरे पुरन्दरपुरस्पर्धावहे लब्धवान, अनु० / स्था० चिद्दीषोऽयमुदारसारमहसा दीपोत्सवे पर्वणि। सिद्धत्थमजाल-न०(सिद्धार्थकजाल) सिद्धार्थाः- सर्षपाः येन जालेन एतद्भावनभावपावनमनश्चञ्चचमत्कारिणां, गृह्यन्ते तस्मिञ्जाले, नि० चू० 11 उ०। तैस्तैर्दीपशतैः सुनिश्चयमतैर्नित्योऽस्तु दीपोत्सवः // 13|| सिद्धत्थग्गाम-पुं०(सिद्धार्थग्राम) सिद्धार्थप्रधाने ग्रामे, यत्र वीरप्रभुर्गोशालेन सह विहृतवान् / भ०६ श०१ उ० / सिद्धिं सिद्धपुर इति / अयं ग्रन्थः सिद्धपुरे नगरे सूत्ररचनया सिद्धिं लब्धवान् उदारसारमहसा-प्रधानसारतेजसा दीपोत्सवे सिद्धत्थणिव-पुं०(सिद्धार्थनृप) श्रीमहावीरस्वामिपितरि, प्रति०।। पर्वणिदीपालिकादिने संपूर्णतां गतः, कथंभूतोऽयं ग्रन्थः ? चिद्दीपः-- सिद्धत्थपुर-न०(सिद्धार्थपुर) सिद्धार्थग्रामे, 'ततो अणारियदेसातो ज्ञानप्रदीपः एतद्भावनभावपावनमनश्चञ्चचमत्कारिणां जीवानाम् एतस्य णिग्गया पढमसरए सिद्धत्थपुरं गया' आ० म०१ अ० / कल्प० / ग्रन्थस्य भावना आत्मतन्मयता तस्या भाया अर्थप्राप्तसमाध्यवसायाः तैः 'संघा० / यत्र गोशालस्तिलसतम्बं दृष्टवान् / आ० चू० 1 अ० / पावनं--पवित्रं मनः- चित्तं तत्र चञ्चन् मनोहारी चमत्कारो येषां ते तेषां तैः आ० म०। तैः निर्मलोपयोगलक्षणैः दीपशतैः सुष्ठ निश्चयो वस्तुधर्मः तस्य यद् ज्ञानं सिद्धत्थव-न०(सिद्धस्तव) सिद्धानां स्तवे, श्रुतस्तवसिद्धस्तवयोः / तदेव मतम् इष्ट तैः, तेषां ज्ञानचमत्कारिणां दीपोत्सवः नित्यः निन्तरः Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धपुर 548 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धाइया अस्त-भवतु, इत्येन यथार्थज्ञानगृहीतात्मरसमग्नानां नित्यं दीपोत्सव | सिद्धसेणिय-पुं०(सिद्धसेनीय) सिद्धसेनदिवाकरशिष्ये, आ०म०१ अ०। एवास्ति / / 13 / / अष्ट 32 अष्ट० / सिद्धसेणियापरिकम्म-न०(सिद्धश्रेणिकापरिकर्मन्) दृष्टिवादासिद्धपुरिस-पुं०(सिद्धपुरुष) विद्यासिद्ध पुरुषे, 'तप्पहावेणं सो महासि न्तर्गतपरिकर्मसूत्रभेदे, स० / स्था० / 'एगट्ठियपयसिद्ध-सेणियाद्धिहिं अलंकियो सिद्धपुरिस त्ति विक्खाओ।' ती० 54 कल्प। परिकम्म' श्रुतविशेषे, स०। सिद्धभाव-पुं०(सिद्धभाव) सिद्धत्वे, पं० सू० 4 सूत्र० / सिद्धसोक्ख-न०(सिद्धसौख्य) मुक्तस्य सुखे, औ०। (एतच 'सिद्ध सिद्धभूमि-पुं०(सिद्धभूमि) ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्याम्, आ० म० 1 अ०।। शब्दे दर्शितम्।) सिद्धमग्ग-पुं०(सिद्धमार्ग) हितप्राप्तिपथे, उपा० 2 अ० / सिद्धिशब्देन | सिद्धहेमचंद-न०(सिद्धहेमचन्द्र) हेमचन्द्रविरचिते व्याकरणभेदे, कल्प० श्रमणधर्मस्य वशीकारस्तस्य मध्यं लक्षणया प्रकर्षः / कल्प० 1 1 अधि०१क्षण / पुं०। स्वनामख्याते आचार्ये, है01 (अत्रत्यविस्तरः अधि०५ क्षण। 'हेमचंद' शब्दे वक्ष्यते।) सिद्धमणोरम-पुं०(सिद्धमनोरम) द्वितीयदिवसे, जं०७ वक्ष / सिद्धाइगुण-पुं०(सिद्धादिगुण) आदौ गुणाः आदिगुणाः युगपद्भाविनो; सिद्धराय-पुं०(सिद्धराज) चौलुक्यवंशे अणहिलपट्टनराजे जयसिंहदेवे, | न क्रमभाविनः, सिद्धानामादिगुणाः सिद्धादिगुणाः / आभिनिबोधि"तस्यान्वये समजनि प्रबलप्रतापतिग्मद्युतिः क्षितिपतिर्जयसिंहदेवः / कावरणादिक्षयस्वरूपेषु सिद्धत्वप्रथमसमयेषु सिद्धसहभाविगुणेषु, स० येन स्ववंशसवितर्यपयाचिते च, श्रीसिद्धराज इति नाम निज व्यलेखि 34 सम० / आ० चू०। // 1 // " (मूलराजस्य) प्रा० 4 पाद / एकतीसं सिद्धाइगुणा पण्णत्ता,तं जहा-खीणे आमिणिबोहियसिद्धवरसासण-न०(सिद्धवरशासन) सिद्धानां-निष्ठितार्थानां वरशा णाणावरणे, खीणे सुयणाणावरणे, खीणे ओहिणाणावरणे, सनप्रधानाज्ञा सिद्धवरशासनम् / सर्वज्ञाऽऽज्ञायाम्, प्रश्न०१ संव० खीणे मणपज्जवरणाणावरणे, खीणे केवलणाणावरणे, खीणे द्वार। चक्खुदंसणावरणे, खीणे अचक्खुदंसणावरणे, खीणे ओहिदंससिद्धसक्खिय-त्रि०(सिद्धसाक्षिक) सिद्धाः मुक्तिपदप्राप्ताः साक्षिणो णावरणे, खीणे केवलदसणावरणे, खीणे निद्वावरणे०, खीणे दिव्यज्ञानभावेन समक्षभाववर्तिनो यत्र तत् सिद्धसाक्षिकम् / सिद्धं णिवाणिद्दा०, खीणे पयला, खीणे पयलापयला०, खीणे साक्षिणं कृत्वा कृते, पा०। थीणद्धी०,खीणे सायावेयणिजे,खीणे असायावेयणिज्जे, खीणे सिद्धसरण-न०(सिद्धशरण) सिद्धाश्रयणे, "कम्मट्ठक्खयसिद्धा, दंसणमोहणिजे, खीणे चरित्तमोहाणिज्जे, खीणे नेरइआउए, सहटिया नाणदंसणसमिद्धा / सव्वट्ठलट्ठसिद्धा, ते सिद्धा सतु मे सरणं खीणे तिरिआउए, खीणे मणुस्साउए, खीणे देवाउए, खीणे // 1 // " द०प०। उचागोए, खीणे नीचागोए, खीणे सुभणामे,खीणे असुभणामे, सिद्धसूरि-पुं०(सिद्धसूरि) स्वनामख्याते गर्गाचार्यशिष्ये, माघकविपि- खीणे दाणंतराए, खीणे लाभंतराए, खीणे भोगंतराए, खीणे तृव्यपुत्रः सिद्धनामा निर्वेदाद् गर्गाचार्यसमीपे दीक्षां गृहीत्वा सिद्धसूरि- उवभोगंताराए, खीणे वीरिअंतराए // 31 // स०३१ सम०। नामा जातः / अनेन धर्मदासगणिकृताया उपदेशमालायाष्टीका उप प्रकारान्तरेणमितभवप्रपञ्चकथा चेति ग्रन्था रचिताः / विक्रम- 592 संवत्सरेऽयं स्वर्गतः, अपरश्च सिद्धसूरिः उकेशगच्छीया देवगुप्तसूरिशिष्यः तेन एकतीसाए, सिद्धादिगुणेहिं सिद्धाणं आदीए गुणा सिद्धादिगुणा विक्रम-११९२ संवत्सरे बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तिनामा ग्रन्थो रचितः / सिद्धेहिं सह भाविन इत्यर्थः। ते य अपज्जवसिया ते य इमे, तं जहाजै० इ०। से ण परिमंडले न वट्टे 2 न तंसे 3 ण चतुरंसे 4 ण आयते 5 ण किण्हे 6 ण णीले ७न लोहिए 8 न हालिद्दे ह न सुकिल्ले 10 न सुब्भिगंधे सिद्धसेणदिवागर पुं०(सिद्धसेनदिवाकर) समयोद्भूतसमस्तजन-ताहाईतमोविध्वंसकत्वेनावाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवा-करः / सम्म० 11 न दुब्भिगंधे 12 न तित्ते 13 न कडुए 14 न कसाए 15 न अंबिले 1 काण्ड। सम्मत्यादि-विविधग्रन्थकारके स्वनामख्याते आचार्ये, पं० 16 न मधुरे 17 न कक्खडे 18 न मउए 16 न गुरुए 20 न लहुए व०४ द्वार। नं० / आ० म०। नि० चू० / आव० ।('कुटुंबेसर' शब्दे 21 न सीते २२न उण्हे 23 न निटे 24 न लुक्खे 25 न संगे 26 न तृतीयभागे 576 पृष्ठे एतन्नमस्कारेण महाकाललिङ्गभञ्जनं दर्शितम् / ) रुद्दे 27 काउ 28 न इत्थी 26 न पुरिसे 30 न नपुंसके 31 / आo सिद्धसेणसूरि-पुं०(सिद्धसेनसूरि) चन्द्रगच्छे श्रीदेवगुप्तसूरिशिष्ये, तेन चू० 4 अ०। विक्रम-११६२ संवत्सरे प्रवचनसारोद्धारटीका कृता / जै० इ० / इति सिद्धाइया-स्त्री०(सिद्धायिका) वीरजिनशासनदेव्याम् , श्रीसिद्ध सेनसूरिविरचिता प्रवचनसारोद्धारवृत्तिः समाप्ता / प्रव० | श्रीवीरजिनस्य सिद्धायिका देवी हरितवर्णा सिंहवाहना चतुर्भुजा 76 द्वार। पुस्तकाभययुक्त दक्षिणकरद्वया बीजपूरकवीणाभिरामवामक Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धाइया 846 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धि रद्वया च / प्रव० 27 द्वार / स्वनामख्यातायां देवतायाम, यदुद्देशेन तको विशेषः क्रियते / पञ्चा० 16 विव०।। सिद्धाबद्ध-न०(सिद्धाबद्ध) सिद्धश्रेणिकापरिकर्मभेदे, स०। सिद्धाययणकूड-न०(सिद्धायतनकूट) सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानां वा शाश्वतानामाहत्प्रतिमानामायतनं-स्थानं सिद्धायतनं तदाधारभूतं कूटं सिद्धायतनकूटम् / भरतवैताढ्यप्रथमकूटे, जं०१ वक्ष० / क्षुल्लहिमवद्वर्षधरे पर्वतकूटे, जं० 4 वक्ष० / महाविदेहे माल्यवद्वक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे, जं०४ वक्ष० / हिमवद्वर्षधरपर्वतस्य पूर्वस्यां दिशि कूटे, स्था० 2 ठा०३ उ० / चित्रकूटवक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे, जं० 4 वक्ष० / गन्धमादनवक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे, जं० 4 वक्ष० / महाविदेहे ब्रह्मकूटस्य वक्षस्कारपर्वतस्य प्रथमकूटे, जं०४ वक्ष०। (वर्णकः 'कूड' शब्दे तृतीयभागे 618 पृष्ठे गतः / ) सिद्धालय-पुं०(सिद्धालय) सिद्धावस्थिते क्षेत्रे, विशे०। सिद्धानामाश्रयत्वात्सिद्धालयः / ईषत्प्रारभारायां पृथिव्याम्, स्था० 5 ठा०३ उ० ! सिद्धिमार्गे, स० 155 सम० / पं० सं०। सिद्धालयमग्गणिग्गय-त्रि०(सिद्धालयमार्गनिर्गत) सिद्धालयमार्गा निर्गताः / ज्ञानादेनितिषु, स० 145 सम०। सिद्धावास-पुं०(सिद्धावास) मोक्षवासनिबन्धनत्वादहिंसायाम्, प्रश्न० १संब०द्वार। सिद्धि-स्त्री०(सिद्धि) सिद्ध्यन्ति-कृतार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः / लोकाग्रे ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्याम्, स्था० 10 ठा०३ उ० 1 दशा० / रा० / आ० म० / स० / भ० / पं० व० / संथा० / यथा परमाणोस्तथाविधेकत्वपरिणामविशेषादेकत्वं भवति तथा तत एवानन्ताणुमयस्कन्धस्यापि स्यादिति दर्शयन् सकलबादरस्कन्धप्रधानभूतमीषत्प्रारम्भाराभिधानं पृथिवीस्कन्धं प्ररूपयन्नाहएगा सिद्धी (सू०४६+) सिद्ध्यन्ति कृतार्थाभवन्ति यस्यां सा सिद्धिः, सा च यद्यपि लोकाग्रे, यत आह- 'इहं बुन्दि चइत्ता णं तत्थ गंतूण सिज्झइ' त्तितथापि तत्प्रत्यासत्येपत्प्राग्भाराऽपि तथा व्यपदिश्यते / आह च'बारसहि जोयणेहिं सिद्धी सव्वट्ठसिद्धाउ' त्ति ! यदि च-लोकाग्रमेव सिद्धिः स्यात्तदा कथमेतदनन्तरमुक्तं 'निम्मलदगरयवन्ना, तुसारगोखीरहारसरिवन्ने' त्यादि, तत्स्वरूपवर्णनं घटते लोकाग्रस्थामूर्तत्वादिति, तस्मादीषत्प्राग्भारा सिद्धिरिहोच्यते। सा चैका द्रव्यार्थतया पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षणप्रमाणस्कन्धस्यैकपरिणामत्वात्, पर्यायार्थतया त्वनन्ता / अथवा- कृतकृत्यत्वं लोकाग्रमणिमादिका वा सिद्धिः, एकत्वं च सामान्यत इति / स्था० 1 ठा० / जी० / भ० / अशेषकर्मक्षये, सूत्र० 2 श्रु० 1 अ० / संथा० / निवृत्तौ, स्था० 1 | ठा० / पञ्चमगतौ, आ० म०१ अ० / अशेषद्वन्द्वोपरमे, सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०४ उ० } मोक्षे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। पं०व०। जी० / कृतार्थीभवने, कल्प०३ अधि०३ क्षण / कृतकृत्यतायाम, औ० / नि० / मोहनीयध्तयेणानिष्ठितार्थतायाम्, आ० चू०१ अ० / उत्कर्षविशेषे, द्वा० 15 द्वा०। सूत्र० / अशेषद्वन्द्वप्रच्युतौ, सूत्र०१ श्रु०१० 4 उ०। सेधनं सिद्धिः / हितार्थप्राप्तौ, आव०४ अ०। ज्ञा०। निष्पत्तौ, "सिद्धिः स्याद्वादात्" // 11 // 2 // है०। (सिद्धिप्ररूपणा 'अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 522 पृष्ठे गता।) "घोरं पंडिऊण पायच्छित्तं संविग्गो भासिओ घोरवीरतवं काउं असुभकम्मं खदेतो य सुक्कज्झाणो समारुहिय केवलं पप्प सिज्झइ" महा०। केवली णं भंते ! मणूसे तीतमणंतं सासयं समयं० जाव अंतं करेंसु? हंता सिम्झिसु० जाव अंतं करेंसु, एते तिन्नि आलावगा भाणियव्वा छउमत्थस्स जहा नवरं सिम्झिसु सिझंति सिज्झिस्संति / से पूर्ण भंते ! तीतमणंतं सासयं समयं पड़प्पन्नं वा सासयं समयं अणागयमणंतं वा सासयं समयं जे के अंतकरावा अंतिमसरीरिया वा सव्वदुक्खाणमंतं करेंसुवा करेंति वा करिस्संति वा सवे ते उप्पन्ननाणदंसणधरा अरहा जिणे केवली भवित्ता तओ पच्छा सिज्झंति० जाव अंतं करेस्संतिवा? हंता गोयमा! तीतमणतं सासयं समयं० जाव अन्तं करेस्संति वा (सू०४२+)| म०१० उ०। एएण सिद्धी पजवसाणफला पण्णता ? भ०१७ श०३ उ०। अष्टगुणैश्वर्यसिद्धिः-अणिमा लघिमा गरिमा प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं प्रतिघातित्वं यत्र कामावसायित्वमिति / सूत्र०१ श्रु०१ अ०३ उ०। पं० सू० / स्था० / प्रतिष्ठायाम्, विशे०। समाधिविघ्नाभ्युत्थान-सिद्धयः प्रातिभं ततः। श्रावणं वेदनादर्शा-स्वादवार्ताव वित्तयः // 11 // समाधीति-ततः स्वार्थसंयमाह्वयात्- पुरुष-संयमादभ्यस्यमानात् प्रातिभं पूर्वोक्तं ज्ञानं, यदनुभावात् सूक्ष्मार्थादिकमर्थ पश्यति / श्रावणं-श्रात्रेन्द्रियजं ज्ञानं, यस्मात्प्रकृष्टादिव्यं शब्दं जानाति / वेदनास्पर्शनेन्द्रियजं ज्ञानं, वेद्यतेऽनयेति कृत्वा, तान्त्रिक्या संज्ञया व्यवहियते, यत्प्रकर्षादिव्यस्पर्शविषयं ज्ञानमुत्पद्यते। आदर्शः- चक्षुरिन्द्रियजं ज्ञानम्, आसमन्ताद् दृश्यते- अनुभूयते रूपमनेनेति कृत्या, यत्प्रकर्षादिव्यरूपज्ञानमुत्पद्यते / आस्वादोरसनेन्द्रियजं ज्ञानम्, आस्वाद्यतेऽनेनेति कृत्वा, यत्प्रकर्षादिव्यरससंविदुपजायते। वार्तागन्धसंवित्तिः, वृत्तिशब्देन तान्त्रिक्या परिभाषया घ्राणेन्द्रियमुच्यते, वर्तमाने गन्धविषये प्रवर्तत इति कृत्वा, वृत्तौध्राणेन्द्रिये भवा वार्ता, यत्प्रकर्षादिव्यो गन्धोऽनुभूयते। एताश्च वित्तयोज्ञानानि भवन्ति / तदुक्तम्- "ततः प्रातिभश्रावणवेदनादर्शा (र्शना) स्वादवार्ता जायन्ते" (3-33) / एताश्च समाधेः प्रकर्ष गच्छतः सतो विघ्ना हर्षविस्मयादिकरणेन तच्छिथिलीकरणात् व्युत्थानेव्यवहारदशायां च समाध्युत्साहजननाद्विशिष्टफलदायकत्वाच्च सिद्धयः / यत्र उक्तम्-"तेसमाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः" (3-37) द्वा० 26 द्वा० / Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धि ८५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धि "केइ तेणेव भवेन निव्वुया सव्वकम्मओ मुक्का केई तइयभवेणं सिज्झिस्संति / " भ०७ श०६ उ०। अट्ठपयारकम्मक्खएण सिद्ध सज्जमेते संति सिद्धा सिय सज्जायमेसमिति वा सिद्धा / सिद्धिनिट्ठिए पहीणे सयलपवयणवायकयं वमेतेसिमिति वा सिद्धा। महा०३ अ०। शुद्धतत्त्वसाधने, “एवं परमत्थसाहगं रूवं पुण होइ सिद्धिचिय" इत्युक्तायां, (अष्ट० 27 अष्ट01) क्रियासिद्धौ, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 2 उ०। निष्पत्ती, द्वा० 21 द्वा०। (सिद्धिलक्षणम् 'धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2670 पृष्ठे गतम्।) सिद्धिशब्दः सम्बन्धवाचकः, तथा च लोकेऽपि सिद्धिर्भवतीत्युक्ते इष्टार्थसम्बन्ध एव प्रतीयते। दश० 1 अ०। सिद्धिप्राप्त्युपायमाहअतीतानागतज्ञानं, परिणामेषु संयमात् / शब्दार्थधीविभागे च, सर्वभूतरुतस्य धीः // 5 // संयमो नाम धारणाध्यानसमाधिनयमकेविषयम्। यदाह- "त्रयमेकत्र संयमः" इति (3-4) / एतदभ्यासात् खलु हेयज्ञेयादिप्रज्ञाप्रसर इति पूर्वभूमिषु ज्ञात्वोत्तरभूमिष्वयं विनियोज्यः / तदाह- "तज्जयात्प्रज्ञालोकः (3-5) तस्य भूमिषु विनयोग इति' (3-6) / ततः परिणामेषु धर्मलक्षणावस्थारूपेषु संयमाञ्चितस्य सर्वार्थग्रहण-सामर्थ्यप्रतिबन्धकविक्षेपपरिहारात् / अतीतानागतज्ञानमतिक्रान्तानुत्पन्नार्थपरिछेदनं योगिनो भवति / तदुक्तं -- "परिणामत्रय-संयमादतीतानागतज्ञानमिति' (3-16) शब्दः श्रोत्रेन्द्रियग्राह्य-नियतक्रमवर्णात्मा क्रमरहितः स्फोटात्मा ध्वनिसं स्कृतबुद्धिग्राह्यो वा, अर्थो जातिगुणक्रियादिः, धीर्विषयाकारा बुद्धिवृत्तिः.. एता हि गौरिति शब्दो गौरित्यर्थो गौरिति च धीरित्यभेदेनैवाध्यवसीयन्ते / कोऽयं शब्द इत्यादिषु प्रश्नेषु गौरयमित्येकरूपस्यैवोत्तरस्य प्रदानात्। तस्य चैकरूपप्रतिपत्तिनिमित्तकत्वात् / तत एतासां विभागे चेदं शब्दस्य तत्त्वं भद्वाचकत्वं, नाम, इदं चार्थस्य यद्वाच्यत्वं, इदं च धियो यत्प्रकाशत्वमित्येवलक्षणे / संयभात् सर्वेषां भूतानां मृगपशुपक्षिसरीसृपादीनां रुतस्य शब्दस्य धीर्भवति / अनेनैवाभिप्रायोण अनेन प्राणिनाऽयं शब्दः समुच्चरित इति / तदुक्तं- "शब्दार्थप्रत्ययानामितरेतराध्यासात्संकरस्तत्र प्रति (प्रवि) भागसंयमात्सर्वभूतरुतज्ञानमिति' (317) / / 5 / / (कायरूपस्य संयमात् 64) कायः शरीरं तस्य रूपं-चक्षुह्यो गुणः तस्य नास्त्यस्मिन् काये रूपभिति संयभाद्रूपस्य चक्षुाह्यत्वरूपायाः शक्तेः स्तम्भे भावनावशात्प्रतिबन्धे सति तिरोधानं भवति / चक्षुषः प्रकाशरूपस्य सात्त्विकस्य धर्मस्य तद्ग्रहणव्यापाराभावात् / तथा सयमवान् योगी न केनचिद् दृश्यत इत्यर्थः / एवं शब्दोदितिरोधानप्रति ज्ञेयम् / तदुक्तं"कायरूपसंय-मात्तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षुषः (क्षुःप्र) प्रकाशासं (प्र) | योगेऽन्तधानम्" (3-21) / एतेन शब्दाद्यन्तर्धानमुक्तमिति // 6 // | (परचित्ताभिज्ञानं 'परचित्तणाण' शब्दे पञ्चमभागे प्रतिपादितम्) (अन्तर्धानविषयता 'अंतद्धाण' शब्दे प्रथमभागे 63 पृष्ठे उक्ता / ) संयमात् कर्मभेदाना-मरिटेभ्योऽपरान्तधीः / मैत्र्यादिषु बलान्येषां, हस्त्यादीनां बलेषु च / / 7 / / एवमन्येऽपि / तेषां संयमादिदं शीघ्रविपाकमिदं च मन्दविपाकमित्याद्यवधातदायजनितादरिष्टभ्य अध्यात्मिकाधिमौतिकाधिदैविकभेदभिन्नेभ्यः कर्णपिधानाकालीनकोष्ट्य वायुघोषाश्रवणाकस्मिकविकृतपुरुषाशक्यदर्शनस्वर्गादिपदार्थदर्शनलक्षणेभ्योऽपरान्तस्य करणशरीरवियोगस्य धीर्नियतदेशकालतया निश्चयः सामान्यतः संशयाविलतद्धियोऽरिष्टेभ्यो योगिनामपि संभवादि ध्येयम् / तदुक्तं - "सोपक्रमं निरुपक्रमं च कर्म तत्संयमादपरान्तज्ञानमरिष्टभ्योवेति' (322) मैत्र्यादिषु मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्येषु संयमादेषां मैत्र्यादीनां बलानि भवन्ति, मैत्र्यादयस्तथा प्रकर्ष गच्छन्ति यथा सर्वस्य मित्रत्वादिकं प्रतिपद्यते योगीत्यर्थः / तदुक्तं- 'मैत्र्यादिषु बलानि" (3-23) बलेषु च हस्त्यादिसंबन्धिषु संयमाद्धस्त्यादीनां बलान्याविर्भवन्ति सर्वसामर्थ्ययुक्तत्वात् नियतबलसंयमेन नियतबलप्रादुर्भावात् / एवं विषयवत्या ज्योतिष्मत्याश्च प्रवृत्तेः सात्त्विकप्रकाशप्रसरस्य विषयेषु संन्यासात् सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टार्थज्ञानमपिद्रष्टव्यं सान्तः करणेन्द्रियाणां प्रशाक्ततापेत्तः / तदुक्तं- "प्रवृत्त्यालोकसंन्यासात्सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टज्ञानमिति" (3-25) 17 // सूर्ये च भुवनज्ञानं, ताराव्यूहे गतिर्विधौ / घुवे च तद्वतेनामि-चक्रे व्यूहस्स वर्मणः ||8|| सूर्ये चेति- सूर्ये च प्रकाशमये संयमाद्भवनानां सप्तानां लोकानां ज्ञानं भवति। तदुक्तं- "भुवनज्ञानं सूर्ये (2) संयमात्" (3-26) ताराव्यूहे ज्योतिषां विशिष्टसंनिवेशे संयमाद्विधौ चन्द्रे गतिज्ञानं भवति, सूर्याहततेजस्कतया ताराणां सूर्यसंयमात्तद्ज्ञानं न शक्नोति भवितुमिति पृथगयमुपायोऽभिहितः। तदुक्तं-- "चन्द्रे ताराव्यूहज्ञान" (3-27) / धुवे च निश्चले ज्योतिषां प्रधाने संयमात्तासां ताराणां गतेर्नियतदेशकालगमनक्रियाया गतिर्भवति, इयं तारा इयता कालेन अमुं राशिमिदं वा क्षेत्रं यास्यतीति / तदुक्तं - "ध्रुव तगतिज्ञानं" (3-28) / नाभिचक्रे शरीरमध्यवर्तिनि समग्राङ्गसन्निवेशमूलभूते संयमाद्वष्म॑णःकायस्स व्यूहस्स रसमलनाड्यादीनां स्थानस्य गतिर्भवति / तदुक्तं"नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञानम्" (3-26) || (तच्च सरीर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) (भुवनस्वरूपम् ‘भावणा' शब्दे पञ्चमभागे गतम्।) क्षुत्तृडव्ययः कण्ठकूपे, कूर्मनाड्यामचापलम् / मूर्धज्योतिषि सिद्धानां, दर्शनं च प्रकीर्तितम् // 1 क्षुदिति- कण्ठे-- गले कूप इव कूपो गर्ताकारः प्रदेशस्तत्र संयमात् क्षुतृषोय॑यो भवति / घाण्टकाश्रोतःप्लावनानृप्तिसिद्धेः। तदुक्तम्- "कण्ठकूपे क्षुत्पिपासानिवृत्तिः" (3-30) कूर्म नाड्यां कण्ठकूपस्याधस्ताद्वर्तमानायां संयभादचापलं भ Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धि 851 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धि वति, मनःस्थैर्यसिद्धेः / तदुक्तम्-"कूर्मनाड्या स्थैर्यमिति" (331) / मूर्घज्योतिर्गम- गृहाभ्यन्तरस्य मणेः प्रसरन्ती प्रमेव कुम्भिकादौ प्रदेशे, हृदयस्थ एव सात्त्विकः प्रकाशो ब्रह्मरन्धे संपिण्डितत्वं- भजन तत्र संयमाच्च सिद्धानां दर्शन प्रकीर्तितम्। द्यावापृथिव्योरन्तरालवर्तिनो ये दिव्य-पुरुषास्तानेतद्वान् पश्यति, तैश्वायं संभाष्यत इति भावः। तदुक्तम्-"मूर्धज्योतिषि सिद्धदर्शनम्'' (3-32) | प्रातिभात सर्वतः संवि-चेतसो हृदये तथा। स्वार्थे संयमतः पुंसि, मिन्ने भोगात्परार्थकात् ||10|| प्रातिभादिति-निमित्तानपेक्षं मनोमात्रजन्यम् अविसंवादक झगित्युत्पद्यमानं ज्ञानं प्रतिभा / तत्र संयमे क्रियमाणे यदुत्पद्यते ज्ञानं विवेकख्यातेः पूवभावि तारकमुदेष्यति, सवितरीव पूर्वप्रभा, ततः सर्वतः संविद्भवति। संयमान्तरानपेक्षः सर्व जानातीत्यर्थः / “प्रातिभावा सर्वम्" (3-33) इत्यक्तेः / तथा हृदये- शरीरप्रदेशविशेषेऽधोमुखस्वल्पपुण्डरीकाकारे संयमात् चेत् सः सेवित्-स्वपरचित्तगमतवासनारागादिज्ञानं भवति / तदुक्तम्- "हृदये चित्तसंवित्" (3-34) / परार्थकात् सत्त्वस्य स्वार्थनैरपेक्ष्येण स्वभिन्नपुरुषार्थकाद्भोगात् सत्त्वपुरुषाभेदाध्यवसायलक्षणात सत्त्वस्यैव सुखःदुखकर्तृत्वाभिमानाद्विन्ने स्वार्थे स्वरूपमात्रालम्बने परित्यक्ताहंकारे सत्त्व विच्छायासंक्रान्तौ पुंसिसंविद्भवति / एवंभूतं स्वालम्बनज्ञानं सत्त्वनिष्ठं पुरुषो जानाति, न पुनः पुरुषा ज्ञाता ज्ञानस्य विषयभावमापद्यते, ज्ञेयत्वापत्तेः / ज्ञातृज्ञेययोश्चात्यन्तविरोधादिति भावः / तदुक्तम्- ''सत्त्वपुरुषयोरत्यन्तासंकीर्णयोः प्रत्ययाविशेषो भोगः परार्थः (र्थात्) स्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानमिति।" (3-35)10 / (द्वा०) समानस्य जयाद्धामा-दानस्यावाद्यसंगता। दिव्यं श्रोत्रं पुनः श्रोत्र-व्योम्रोः संबन्धसंयमात् ||13|| समानस्येति-समानस्याग्निमावेष्ट्य व्यवस्थितस्य सामानाख्यस्य वायोर्जयात् संयमेन वशीकारान्निरावरणस्याग्ने रूर्ध्वगत्वात् धामतेजः तरणिप्रतापवदवभासमानमाविर्भवति, येन योगी ज्वलन्निव प्रतिभाति / यदुक्तम्- "समानजयाज्जवलनः (म)" (3-40) / उदानस्य कृकाटिकादेशादाशिरो-वृत्तेर्जयादितरेषा वायूनां निरोधादूर्ध्वगतित्वसिद्धैः। (द्वा०) श्रोत्र शब्दग्राहकमाहंकारिकमिन्द्रियं व्योम्, शब्दतन्मात्रजमाकाशं, तयोः पुनः संबन्धसंयमाद्देशदेशिभावसंबन्धसंयमाद्दिव्यं युगपत्सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टशब्दग्रहणसमर्थं श्रोत्रं भवति। तदुक्तम्-"श्रोत्राकाशयोः संबन्धसंयमादिव्यं श्रोत्रम्" (3-41) // 13 // लघुतूलसमापत्त्या, कायव्वोम्रोस्ततोऽम्बरे / गतिर्महाविदेहातः, प्रकाशावरणक्षयः॥१४।। लध्विति कायः-पाञ्चभौतिक शरीरं, व्योम च प्रागुक्तं, तयोः / ततोऽवकाशदानसंबन्धसंयमात्। लघुनि तूले समापत्या तन्मयीभावलक्षणया प्राप्ताभ्यन्तरलघुभावतयाऽम्बरआकाशे गतिः स्यात् / उक्त संयमवान् प्रथमं यथारुचि जले संचरन क्रमेणोर्णनाभतन्तुजालेन संचरमाण आदित्यरश्मिभिश्च विहरन् यथेष्टमाकाशे गच्छतीत्यर्थः / तदुक्तम्- कायाकाशयोः संबन्धसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेरा (श्वा) काशगमनम्' (3-42) / (द्वा०) (पूर्वार्धव्याख्या 'महाविदेहा' शब्दे षष्टभागे गता।) स्थूलादिसंयमाद्भूत-जयोऽस्मादणिमादिकम् / कायसंपच्च तद्धर्मा-नभिघातश्च जायते // 15 // स्थूलादीति-स्थूलादीनि स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्त्वानि पञ्चानां भूतानामवस्थाविशेषरूपाणि / तत्र भूतानां परिदृश्यमानं विशिष्टाकारवत्त्वं स्थूल रूपं-स्वरूप च पृथिव्यादीनां कार्कश्यस्नेहोष्णताप्रेरणावकाशदानलक्षणं सूक्ष्म च यथाक्रमं भूतानां कारणत्वेन व्यवस्थितानि गन्धादितन्मात्राणि। अन्यया गुणाः प्रकाशप्रवृत्तिस्थितिरूपतया सर्वत्रवोपलभ्यमानाः / अर्थवत्त्वं च तेष्वेव गुणेषु भोगापवर्गसंपादनशक्तिरूपम्। तेषु क्रमेण प्रत्यवस्थं संयमाद्भूतजयो भवति / कृतैतत्संयमस्य संकल्पानुविधायिन्यो वत्सानुसारिण्य इव गावो भूतप्रकृतयो भवन्तीत्यर्थः / तदुक्तम्- "स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थ-वत्त्वसंयमादूतजयः" इति (3-44) अस्माद्भूतजयात् अणिमादिकं भवति ! अणिमा, गरिमा, लघिमा, महिमा, प्राकाम्यम् 'ईशत्वं, यशित्वं, यत्रकामावसायित्वं चेत्यणिमादिकम् / तत्राणिमापरमाणुरूपतापत्तिः, गरिमा- वज्र-वद्गुरुत्वप्राप्तिः लघिमा-तूलपिण्डवल्लघुत्वप्राप्तिः, महिमा महत्त्वप्राप्तिः अड्गुल्यग्रेण चन्द्रादिस्पर्शनयोग्यता। प्राकाम्यम्इच्छानभिघातः शरीरान्तः करणयोः। ईशत्वम्-सर्वत्र प्रभविष्णु-ता। वशित्वम्-यतः सर्वाण्येव भूतानि वचनं नातिक्रामन्ति / यत्रकामावसायित्वम्- स्वाभिलषितस्य समाप्तिपर्यन्तनयनम् / कायसंपच उत्तमरूपादिलक्षणा / "रूपलावण्यबलवज संहननत्वानि कायसंपत्' (3-46) इत्युक्तेः / तद्धर्मानभिधातश्च तस्य कायस्य धर्मा रूपादयस्तेषामभिधातो-नाशस्तदभावश्च जायते न ह्यस्य रूपमग्निर्दहति, न वा आपः क्लेदयन्ति, न वा वायुः शोषपतीति / तदिदमुक्तम्"ततोऽणिमादिप्रादुर्भावः कायसंपत्तद्धनिभिधातश्चेति" (3-45) ||15|| (द्वा०) मनोजवो विकरण-भावश्च प्रकृतेर्जयः / / 16+ll तत इन्द्रियजयान्मनोजवः- शरीरस्य मनोवदनुत्तमगति-लाभः / विकरणभावश्च कायनरपेक्ष्येणेन्द्रियाणां वृत्तिलाभः प्रकृतेः-प्रधानस्य जयः सर्ववशित्वलक्षणो भवति। तदुक्तम्- "ततो मनोजवित्वं विकरणभावः प्रधानजयश्च" (348) // 16 // स्थितस्य सत्त्वपुरुषा-न्यताख्यातौ च केवलम् / सार्वइयं सर्वभावाना-मधिष्ठातृत्वमेव च // 17 // स्थितस्येति- केवलं सत्त्वपुरुषयोरन्यताख्यातौ गुणकर्तृत्वाभिमानशिथिलीभावलक्षणायां शुद्धसात्त्विकपरिणामरूपायां स्थितस्य सार्वजयं सर्वेषां शान्तोदिताव्य-पदेश्यधर्मत्वेन स्थितानां यथावद्विवेकजं ज्ञानलक्षणं सर्वेषां भावानां गुणपरिणामानामधिष्ठातृत्वमेव च स्वामिवदाक्रमणलक्षणं भवति। तदुक्तम्- ''सत्त्वपुरुषान्यतः ख्यातिमात्रस्य सर्व-भावाधष्ठातृत्वं सर्वज्ञत्वं च'' (3-46) ||17|| (द्वा०) स्मृता सिद्धिर्विशोकेयं, तद्वैराग्याच योगिनः / दोषबीजक्षये नूनं, कैवल्यमुपदर्शितम् // 18|| Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धि 852 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिद्धिया ('केवल्ल' शब्दे तृतीयभागे 668 पृष्ठे ऽस्य व्याख्या गता।) 1 श्रु०६ अ01 असाचास्मयश्चैव, स्थितावुपनिमन्त्रणे / सिद्धिगइनामधेज-त्रि०(सिद्धिगतिनामधेय) सिद्ध्यन्ति-निष्ठितार्था बीजं पुनरनिष्टस्य, प्रसङ्ग स्यात्किलान्यथा // 16 // भवन्त्यस्यां प्राणिनः इति सिद्धिः-लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमाअसङ्गश्चेति- उपनिमन्त्रणे उक्तसमाधिस्थस्य देवैर्दिव्यस्त्रीर नत्वादतिः सिद्धिगतिरेव नामधेयं यस्य स तथा। सिद्धिगत्याख्ये, सायनाद्युपढोकननं भोगनिमन्त्रणेऽसङ्गश्वारमयश्चैव स्थितौ बीजम्। - ध०२ अधि० जी० / ल०। कल्प० / सङ्गकरणे पुनर्विषयप्रवृत्तिप्रसङ्गात् स्मयकरणेच कृतकृत्यमात्मानं- सिद्धिगइपञ्जवसाण-त्रि०(सिद्धिगतिपर्यवसान) मोक्षान्ते सिद्धिगतिः मन्यमानस्य समाधावुत्साहभङ्गात्। एतदेवाह-अन्यथा-ऽसङ्गास्मया- पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिगति पर्यवसानः / जीवे, करणे पुनः किलेति सत्येऽनिष्ठस्य प्रसङ्ग इति / तदिद-मुक्तम्- स्था०५ ठा०३ उ०। "स्थित्युपनिमन्त्रेण सङ्गस्मयाकरणे पुनरनिष्टप्रसङ्गादिति" (3- सिद्धिगंडिया-स्त्री०(सिद्धिगण्डिका) सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरायां 51)||16 (द्वा०।) वाक्यपद्धतौ, औ० ! भ० / तारकं सर्वविषयं, सर्वथा विषयाक्रमम् / सिद्धिजम-पुं०(सिद्धियम) चतुर्थयमे, द्वा० / "परार्थसाधिकात्वेषा, शुद्धिसाम्येन कैवल्यं, ततः पुरुषसत्त्वयोः // 21 // सिद्धिः शुद्धान्तरात्मनः। अचिन्त्यशक्तियोगेन, चतुर्थो यम उच्यते तारकमिति-तच विवेकजं ज्ञानं तारयत्यगाधात्संसारपयोधेर्यो- // 28 // " द्वा० 16 द्वा० / ('जम' शब्दे चतुर्थभागे 1361 पृष्ठे गिनमित्यान्वर्थिक्या संज्ञया तारकमुच्यते / तथा सर्वविषयं सर्वाणि व्याख्यातमिदम् / ) तत्त्वानि महदादीनि विषयो यस्य तत्तथा / तथा सर्वथा सर्वैः प्रकारैः सिद्धिजोग-पुं०(सिद्धिजोग) अष्टाङ्गयोगसाधनसिद्धे, अष्ट० 10 अष्ट० / सूक्ष्मादिभेदैर्विषयो यस्य तच तदक्रमं च निःशेषनानाव-स्थापरिण सिद्धिणगर-न०(सिद्धिनगर) मोक्षपुरे, जी० 11 अधि०। तत्वतः आर्थिकभावग्रहणे क्रमरहितं चेति कर्मधारयः / इत्थं चास्य संज्ञाविषयस्वभावा व्याख्याताः / तदुक्तम्- "तारकं सर्वविषयं सिद्धिणाह-पुं०(सिद्धिनाथ) निर्वाणस्वामिनि, हा० 32 अष्ट० / सर्वथा (वार्थ) विषयमक्रमं चेति (विवेकजं ज्ञानम्)" (3-54) / सिद्धिदूय--पुं०(सिद्धिदूत) सिद्धिसमागमहेतौ, यो० बिं० / ततस्तस्मात् ज्ञानात् पुरुषसत्त्वयोः शुद्धिसाम्येन कैवल्यं भवति / तत्र | सिद्धिपडागा-स्त्री०(सिद्धिपताका) सिद्धिसुखहेतुत्वादाराधनायाः पुरुषस्य शुद्धिरुपचरिता भोगाभावः / सत्त्वस्य तु सर्वथा कर्तृ- पताकेव पताका, सिद्धिरेव पताका / मोक्षपताकायाम, संथा। त्वाभिमाननिवृत्त्या स्वकारणेऽनुप्रवेश इति / तदिदमुक्तम्- "सत्त्व- सिद्धिपत्त-पुं०(सिद्धिप्राप्त) मोक्षं गते, उत्त० 16 अ०। पुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति" (3-55) / / 21 / / सिद्धिपत्तण-न०(सिद्धिपत्तन) निर्वाणपुरे, आव०४ अ०। इत्थमन्यैरुपदर्शिते योगमाहात्म्ये उपपत्त्यनुपपत्त्यो सिद्धिपव्वय-पुं०(सिद्धिपर्वत) शत्रुञ्जयपर्वते, ती० 11 कल्प। दिशां प्रदर्शयन्नाह-- सिद्धिपह-पुं० (सिद्धिपध) सिद्धानां सम्बन्धनीयेयमनन्तरं गतिइह सिद्धिषु वैचित्र्ये, बीजं कर्मक्षयादिकम् / रुक्ता सैवेह सिद्धिरभिप्रेता, तस्या यः पन्थाः-ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षण: संयमश्चात्र सदस-त्प्रवृत्तिविनिवृत्तितः॥२२॥ स सिद्धिपथः / विशे० / पञ्चमतिरूपायाः सिद्धेर्गि, आ० म० इहेति- इह प्रागुक्तग्रन्थे सिद्धिषु वैचित्र्ये कर्मक्षयादिकं बीजम्, तथा 10 / ज्ञाने तथा ज्ञानावरणक्षयोपशमादेवीर्यविशेषे च बीर्यान्तरायक्षयोप सिद्धिपहप्पएसय-पुं०(सिद्धिपथप्रदेशक) सिद्धिपदस्य प्रधानाशमादेर्हेतुत्वात्। संयमश्चात्रोक्तसिद्धिषु सत्प्रवृत्त्यसन्निवृत्तिभ्यां तथा देशकाः। सिद्धिहेतुभूतसामायिकादिप्रतिपादकेषु तीर्थकृत्सु, आ० विधक्षयोपशमाद्याधानद्वारैव, बीजं न तु तत्तद्विषयज्ञानप्रणिधानादि म० 1 अ० मा रूपः अनन्तविषयकज्ञानस्य प्रतिविषयं संयमा-साध्यत्वाद्विहितानु सिद्धिपुर-न०(सिद्धिपुर) मोक्ष, आ० चू०१ अ० / आ० म०। ठानप्रणिधानमात्रसंयमेनैव मोहक्षयात्तदुपपत्तेः / चित्तप्रणिधानार्थं त्वालम्बनमात्रं क्वापि न वारयामः, केवलमात्म-प्रणिधानपयवसान सिद्धिपुरवासि(ण)-पुं०(सिद्धिपुरवासिन्) सिद्धिपुरे-लोकान्ते वस्तुं एव सर्वः सयमः फलवानित्यात्मनो ज्ञेयत्वं विना सर्व विलतशीर्ण शीलं येषां ते तेथा / मुक्तिवासिषु, पं० सू०१ सूत्र / भवेदित्यधिकं स्वयमूहनीयम् / / 22 / / द्वा० 26 द्वा० / सिद्धिबहूवरसंगलालस-पुं०(सिद्धिबधूवरसङ्गलालस) मुक्ति-कान्तासिद्धिगइ-स्त्री०(सिद्धिगति) सिद्धौ गमनं निर्विशेषणत्वाचानेन प्रधानताभिष्वङ्गलम्पटे, जीवा० 24 अधि० / सामान्या सिद्धिगतिः / स्था०१० ठा०३ उ०। गमनं गतिर्गम्यते इति सिद्धिमग्ग-पुं०(सिद्धिमार्ग) साधनं सिद्धिः- हितार्थप्राप्तिस्तस्या मार्गः वा गतिः क्षेत्रविशेषो गम्यतेऽनया कर्मपुद्गलसंहत्येति गति म सिद्धिमार्गः। आव० 4 अ०। सूत्र०। क्षपक-श्रेणिकेवलोत्पत्त्यादिरूपे कर्मोत्तरप्रकृतिरूपा सिद्धौ गतिः सिद्धिश्चासौ गतिश्चेति सिद्धिगतिः / मार्ग, बृ०१ उ०२ प्रक० / सम्यग्दर्शनादिरूपे (दश०३ अ०1) स्था० 5 ठा० 3 उ० / मोक्षगमने, प्रश्न० 4 संव० द्वार / "वंसाणं हितार्थप्राप्त्युपाये, भ०६ श० 33 उ० / आ० चू० / जिणवंसा, सव्वकुलाणं च सावगकुलाइं / सिद्धिगई वि गईणं, | सिद्धिया-स्त्री०(सिद्धिका) जितशत्रोमथुराराजस्य दुहितरि, आ० चू०१ मुत्तिसुहं, सव्वसुक्खाणं / / 6 / " संथा०। स्था०। पञ्चभ्यां गतौ, सूत्र० अ०। आ० म०। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धिविग्गहगइ 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिप्पसिद्ध सिद्धिविग्गहगइ-स्त्री०(सिद्ध्यविग्रहगति) सिद्धावविग्रहेण अवक्रेण कोकासवडई विव, सातिसतो सिप्पसिद्धो त्ति / / गमनं सिद्ध्यविग्रहगतिः / विशिष्टसिद्धगतौ, स्था० 10 ठा०३ उ०। यः कश्चिद् निर्दिष्टस्वरूपः सर्वसिल्पेषु कुशलः यो वा यौकस्मिन्नपि सिद्धिविणिच्छय-पुं०(सिद्धिविनिश्चय) स्वनामख्याते सिद्धि-प्रतिपादके शिल्पे सुपरिनिष्ठितः साऽतिशयश्च कोकासवर्द्धकिवत् स सिल्पसिद्ध ग्रन्थे, षो०१५ विव०। इति एष गाथाक्षरार्थः / आ० म०१ अ०। आ० म० / सिद्धिसुगइगिहुत्तम-न०(सिद्धिसुगतिगृहोत्तम) सिद्धिलक्षणा-सुगतिः कथा चेयम्सिद्धिसुगतिः / अथवा-सिद्धिश्च सुगतिश्च सुदेवत्व-समानुषत्वलक्षणा "पुरं सोपारकं तत्र, रथकारोऽभवत्सुधीः / सिद्धिसुगती, तल्लक्षणं यद् गृहाणामुत्तमं गृहोत्तमं वरप्रासादः / तद्दास्याश्च द्विजाज्जातः, कोकासो नाम दारकः // 1 // सिद्धिस्वरूपसुगतिगृहे, स० 83 सम०। स चासीन्मूकभावेन, समीपेऽप्यश्रवा इति / सिद्धिसेहर-न०(सिद्धिशेखर) शत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प। रथकारः सुशिल्पानि, शिक्षयत्यङ्गजान्निजान् / / 2 / / सिधु--पुं०(सीधु) गुडधातकीसम्भवे मद्ये, विपा० 8 अ०। न तेऽगृह्णन्किमप्यज्ञा, दासेरः सर्वमग्रहीत्। सिनात-त्रि०(स्नात) 'ये-स्न-टां-रिय-सिन-सटाः क्वचितः' रथकारे मृते राजा, दासेरे तच्छ्रियं न्यधात् / / 3 / / // 4 // 314|| इति स्न इत्यस्य स्थाने सिनादेशः / स्नातम् / इतश्चोज्जयिनीपुर्या-मार्हतः श्रावको नृपः / सिनातं / शुचीभूते, प्रा० 4 पाद / चत्वारः श्रावकास्तस्य, सन्ति कर्मसु कर्मठाः || सिन्दी (देशी)-खर्जूाम्, दे० ना० 8 वर्ग 26 गाथा। करोत्येको रसवती, तादृक् पाकवतीं, यथा / जीर्यत्यन्नं भुक्तमात्र- मथवा याममात्रतः // 5 // सिन्दुवण (देशी) अग्नौ, दे० ना० 8 वर्ग० 32 गाथा / यथा द्वित्रिचतुःपञ्च-यामेभ्यो जीयते क्रमात् / सिन्दू (देशी) रज्जवाम्, दे० ना० 8 वर्ग 28 गाथा। यथा वा कुरुते येन, सर्वथाऽपि न जीर्यति // 6 / / सिन्दूर (देशी) राज्ये, दे० ना०८ वर्ग 30 गाथा / अभ्यनक्ति द्वितीयस्तु, स तैलकुडवं प्रधीः / सिन्दोला-(देशी) खजूर्याम, दे० ना० 8 वर्ग 26 गाथा / प्रवेशयति देहान्त-स्तावन्निस्सारयत्यपि / / 7 / / सिन्धुओ-(देशी) राहौ, दे० ना० 8 वर्ग 2 गाथा / तार्तीयीको रचयति, शय्यां तादृग्विधां यथा / सिन्न-न०(सैन्य)"सैन्ये वा।१।१५०।। इति सैन्यशब्दे ऐत इदा। जागर्ति प्रथमे यामेऽथवा द्वित्रिचतुर्थक ||8|| सैन्यम् / सिन्नं / सैनिके, प्रा० 1 पाद / श्रीगृहाविधकतस्तुर्य-स्तस्मै तन्मतिवैभवम् / सिप्प-न०(सिल्प) अनाचार्यके, कर्मणि, नित्यव्यापारे च / स्था० 4 प्रविष्टो ह्यपरस्तत्र, न किञ्चिदपि पश्यति // 6 // ठा०४ उ० भ० चित्रादिविज्ञाने, स्था०५ठा०३ उ० / स च क्ष्माभृदपुत्रत्वा- द्राजकार्येषु शीतलः / पिं० / क्रियासु कौशले, आ० म० 1 अ० / अङ्गमर्द्धनादिके, औ०। निर्दिण्णकामभोगोऽस्ति, यावद्व्तकृतोद्यमः ||10|| कल्प० / दश० / शिल्पशतम् / शिल्पानि कुम्भकारक्रियादीनि इतश्च पाटलीपुत्रा-जितशत्रुः क्षितीश्वरः। नैपुण्यानि वा लेख्यादिकलालक्षणानि / दश० 6 अ० 2 उ० / लङ्कापुरीं राम इव, रुरोधागत्य तत्पुरीम // 11 // शिल्पशतं च कालनिधौ वर्तते, तथा च- "घट 1 लो 2 चित्र 3 वस्त्र तदाऽवन्तीपतेः शूल- मूत्पन्नं दैवयोगतः / 4 नापितशिल्पानां प्रत्येकं विंशतिभेदात् / स्था०६ ठा० 3 उ० / विधायानशनं सोऽथ, जगाम त्रिदशालयम् / / 12 / / चित्रादिके, प्रश्न०६ आश्र० द्वार / क्रियाकौशले, रा०। सातिशये नागरैरथ तस्यैव, पाटलीपुत्रभूभुजः / आचार्योपदेशजे ग्रन्थनिबद्ध व्यापारे, आ० म०१ अ० / आ० चू०। अर्पिता नगरी तेन, श्रावकास्ते च शब्दिताः / / 13 / / अनाचार्यकं कर्म, साचार्यकं शिल्पम् / अथवा-कादाचित्कं शिल्पम्, चत्वारोऽप्यागताः पृष्टाः, पदोऽभूरोऽत्र कुत्र कः / सार्वकालिकं कर्म / नं० / आ० म०। कोशं कोशाधिकृत्तत्रा-दर्शयद्रिक्तमैक्षत // 14 / / *स्निह-धा० प्रीती.."स्निह–सिचोः सिप्यः" || 25|| शय्यापालस्तु शय्यां च, सज्जयामास तादृशीम् / अनयोः कर्मभावे सिप्प इत्यादेशो भवति क्यलुक् च / सिप्पइ / मुहूर्ते च मुहूर्ते च, यस्या उत्थीयते जवात् / / 15 / / स्निह्यते / प्रा० 4 पाद। सूदेनान्नं तथा राद्धं, येन भुङ्क्ते क्षणे क्षणे / *सिच-धा० सेचने, पूर्ववत् सिप्पादेशः / सिप्पइ / सिच्यते / प्रा०। अभ्यक्तोऽन्येन चैकस्मा- तैलमाकर्षि पादतः / / 16 / / सिप्पसत्थ-न०(शिल्पशास्त्र) यः शिल्पनिमित्तादिशास्त्राणि ग्राहयति ऊचे व्यस्तेऽस्थिमत्तुल्यः, सोऽन्यतस्तैलमाकृषेत्। स इहोपचारतः शिल्पशास्त्रम्। शिल्पशास्त्रग्राहके, विशे०। प्रावृजन्नथ सर्वेऽपि, निजस्वामिवियोगतः / / 17 / / सिप्पसय न०(शिल्पशत) भगवत आचार्योपदेशजं शिल्पमिति। तच्छुते, तेन तैलेन तस्यांहि-दह्यमानः क्रमादभूत् / कल्प०१ अधि०७ लक्ष० / काकश्यामस्ततः सोऽत्र, काकजङ्घ इति श्रुतः // 18|| सिप्पसिद्ध-पुं०(शिल्पसिद्ध) शिल्पभेदे, आ० म०। इतश्च सोपारपुरे, दुर्भिक्षमभवत्तदा। सम्प्रति शिल्पसिद्धं सोदाहरणमभिधातुकाम आह आजगाम ततोऽवन्त्या, पुर्या कोकासवर्द्धकिः / / 16 / / जो सव्वसिप्पकुसले, जो वा जत्थ सुपरिनिहितो होइ। | राज्ञः स्वज्ञापनायाथ, शालीन्काष्ठकपोतकैः / Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिप्पसिद्ध 854 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सियकमल अपाहरत्प्रतिदिनं, कोष्ठागारान्नरेशितुः // 20 // नियुक्तैः कथिते राज्ञा-ऽऽनाय्य कोकासवर्धकिः / रथकारपदे चक्रे, पूज्याः कुत्र गुणा न वा // 21 // चक्रे काष्ठमयस्तेन, गरुडो नपतेः कते। यः कीलिकाप्रयोगेण, व्योमगामी सजीववत् / / 22 / / अथ राजा सराज्ञीकः, कोकासेन समं सदा। व्योम्रा गरुडमारूढः, सर्वा संचरते महीम् / / 23 / / मारयिष्याम्यहं युष्मान्, व्योम्नागत्य वदन्निति / भापयित्वा परान्सर्वान्, भूपतीन् करदान् व्यधात् // 24 // तां देवीमपराः प्राहु:- रेष कीलिकया कया। गरुत्मान् चलते ब्रूहि, साऽऽर्जवादाख्यदेतया // 25 // ईययकाऽऽददे राज्ञी, तन्निवर्तनकीलिकाम् / तथैवागान्नृपस्तेन, चाहितस्तु न सोऽचलत् // 26 // अथोद्दामं व्रजस्ताक्ष्यो, महावाताभिघाततः। कलिङ्गेषु तडागान्ते, भग्नपक्षः पपात सः // 27 // तस्य सघटनाहेतो-स्यिाद्यानेतुमुत्सुकः / कोकासो नगरेऽयासी- त्तत्रान्यो रथकृत्तदा // 28|| काष्ठकर्मालये राज्ञो, रथं कुर्वन्समस्ति सः। तेनैकं निर्मितं चक्र-मन्यदस्त्यर्द्धनिर्मितम् // 26 // कोकासेनार्थि तत्रैत्य, तक्षोपकरणानि सः। सोऽभ्यधादर्पयिष्यामि, गृहादानीय तान्यहम् // 30 // इतो नैतानि लभ्यन्ते, नेतुमित्यगमद् गृहे / कोकासेनाद्धनिष्पन्नं, तचक्रं घटिकं क्षणात् // 31|| प्रक्षिप्तं याति वेगेन, स्खलितेऽपि पतेन्न तत् / किं तु पश्चान्मुखं याति, स्खलिते त्वितरत्पतत् // 32 // आगतः सोऽथ तचकं, दृष्ट्वा गत्या सपद्यपि / राज्ञो विज्ञापयामास, यथा कोकास आययौ // 33 // यद्गलात्काकजङ्ग्रेन, नृपाः सर्वे वशीकृताः। धृतोऽसौ ताडनाचाख्य-द्धृतो राजाऽथ सप्रियः // 34 // दण्डिताः स्मो वयमिति, तयोर्भक्तं निवारितम् / नागरैरयशोभीतैः, काकपिण्डी प्रवर्तिता // 35 // कोकासं च स राजोचे, प्रासादं शतभूमिकम्। मम पुत्रशतस्य त्वं, कुरु मध्ये च मत्कृते // 36|| पश्चादाज्ञापयिष्यामि, राजकं सर्वमप्यहम् / कोकासो ज्ञापयामास, काकजङ्घतनूरुहम् // 37 / / सपुत्रं संहरिष्यामि, नृपमेतं दिनेऽमुके / आगन्तव्यं त्वयाऽवश्य-मत्र तद्धिवसोपरि // 38 // कृत्वा प्रासाद कोकासो, नृपमारुह्य सात्मजम् / संजहे कीलिकापातात, संपुटीकृत्य तं जवात् // 36 // काकजतनूजेन, तत्र तत्कालमीयुषा। नगरं जगृहेऽमोचि, पिता माता च वर्द्धकिः / / 40 / / विधायाथ महोत्साह, सर्वेऽपि स्वपुरं ययुः। शिल्पसिद्ध इति ख्याति प्राप कोकासवर्द्धकिः // 41 // " आ००१ अ०। सिप्पं (देशी) पलाले, दे० ना०८ वर्ग 28 गाथा / सिप्पा-स्त्री०(शिप्रा) स्वनामख्यातायामुज्जयिन्यां महानद्याम्, आ० म०१ अ० आ० चू०। सिप्पाजीव-पुं०(शिल्पाजीव) शिल्पं तूर्णनादि साचार्यकं वा कर्म तेन जीवति जीविकां कल्पयतीत्यर्थः / शिल्पोपजीविनि, स्था० 5 ठा० 1 उ०। प्रज्ञा०। सिप्पायरिय-पुं० (शिल्पाचार्य) तुन्नकादिषु शिल्पिषु, प्रज्ञा० 1 पद। ('आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 303 पृष्ठे गतमेतत् / ) सिप्पि-पुं०(शिल्पिन्) चित्रकारसूत्रधारलोहकारस्वर्णकार-स्थपतिप्रभृतिषु, उत्त० 15 अ० / औ० / रा० / ज्ञा०। *शुक्ति-स्वी० द्वीन्द्रियजीवविशेष, प्रज्ञा० 1 पद। "सिप्पिपुडग सठाणसंठिय" उपा०२ अ०। सिप्पिय-न०(शिल्पिज) तृणविशेषे, प्रज्ञा० 1 पद। सिप्पिसंपुड-त्रि०(शुक्तिसंपुट) संपुटरूपासु शुक्तिषु, प्रज्ञा० 1 पद। औ० / नि० चू० / जी०। सिप्पोवडय-त्रि०(शिल्पोपगत) शिल्पं क्रियासु कौशलमुपगतः प्राप्तः। रा०। शिल्पसमन्विते, 'निउणसिप्पोवगए' अनु०। सिप्पोवदेसमइ-स्त्री०(शिल्पोपदेशमति)आचार्यस्य शिल्पोपदेश दातुरुप-देशाज्जायमानायां बुद्धौ, औ०। सिफा-स्त्री०(शिफा)"फोभ-हौ" ||1 / 236|| इति फस्वभहौ। सिफा। सिभा / वृक्षाणां जटाकारे, मूले, प्रा० 1 पाद / सिमिण-पुं०(स्वप्न) "स्वप्न-नीव्योर्वा" ||१।२५६इति वस्य मो वा / सिमिणो / सिविणो / स्वापावस्थायाम्, प्रा० / सिम्मिअं-(देशी) भूतगृहीते, दे० ना० 8 वर्ग 40 गाथा / सिम्बाडी-(देशी) नासिकानादे, दे० ना० 8 वर्ग 26 गाथा। सिम्बीरं-(देशी) पलाले, दे० ना० 8 वर्ग 28 गाथा। सिम्म पुं०(श्लेष्मन्) "सर्वत्र लवरामचन्द्रे" ||27|| इति ललुक। हस्वः संयोगे दीर्घस्य ||१८४इत्येकारस्येकारः। "शषोः सः" / / 1 / 260 // इति शस्य सः।"पक्ष्म-श्म-मस्म-झां म्हः" ||2|74 / / इति क्वाचित्कत्वादत्र म्भः / शिम्भो। कफे, प्रा०। अपभ्रंशे तु-पक्ष्म-श्मेति म्हादेशे-"अम्भो वा" प्रा० ढुं० 1 पाद / इति म्हेत्यस्य स्थाने मकाराक्रान्तो भकारः / प्रा०। सिय-त्रि०(शित) अतितेजिते, रा० / बद्धे परिग्रहेच्छारम्भेष्वासक्ते, सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ० / विशे० स्था० / पुत्रकलत्रादिभिर्बद्धे, आचा० / सूत्र०। भ० / ('कम्मसेसियमट्ठा' इति 'सिद्ध' शब्दे सितशब्दार्था उक्ताः / ) थामरे, दश० 4 अ० / आचा० / सूत्र० / *सित-त्रि० शुक्ले, चं० प्र०१८ पाहु० / सूत्र० / संथा०। आचा०। / सितवर्णे, "षिम्' बन्धने इति वचनात् / सितपट्टे, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार ! आ० म०। आ० चू० स०। *श्रित-त्रि० सम्बद्धे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। आश्रिते, स०३३ समा *स्यात्-अव्य० प्रशंसास्तित्वविवादविचारणानेकान्तसंशयप्रश्नादिषु, प्रज्ञा० 5 पद / अनेकान्तद्योतने, स्था०। भ० / रत्ना० / सियंबर-पुं०(श्वेताम्बर) जैने, आव०६ अ०। सियंबुज-न०(श्वेताम्बुज) पुण्डरीके, आ० म०१ अ०। सियकमल-न०(सितकमल) पुण्डरीके, औ० / Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सियणाम 855 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सियवाय सियणाम-न०(सितनामन्) नामकर्मभेदे, यदुदयाजन्तुशरीरं सितंश्वेतं शङ्खादिवद्भवति / कर्म०१ कर्म०। सियवत्थ-न०(सितवस्त्र) शुक्लवाससि, पञ्चा०२ विव०। सियवाय-पुं०(स्थाद्वाद) स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतके ततः स्याद्वादः / अनेकान्तवादे, नित्यानित्याधनेकधर्मशबलैकव-स्त्वभ्युपगमे, स्या० / उत्त० / "स्यादस्तीत्यादिको वादः, स्याद्वाद इति गीयते / नयौ न च विमुच्याय, द्रव्यपर्यायवादिनौ // 3 // अतश्चैतत् द्वयोपेतं, स्वमतं समुदाहृतम् / सञ्जाततत्त्वसंविद्भिः स्याद्वादः परमेश्वरैः / / 5 / / " उत्त० 1 अ० / जिनागमे, द्रव्या०७ अध्या० / अनु०। (अत्र यद्वक्तव्यं तद् 'अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 423 पृष्ठे उक्तम्।) यस्तु नयवादान्तरनिरपेक्षतया स्वाभिप्रेतेनैव धर्मेणाव-धारणपूर्वकं वस्तु परिच्छेतुमभिप्रेति स नयः, वस्त्वेकदेश-परिग्राहकत्वान्नय इत्युच्यते, स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव अयथावस्थितार्थ-वस्तुपरिग्राहकत्वात्, अत एवोक्तमन्यत्र "सव्वे नया मिच्छावाइणो'' इति, यत एव च नयवादो मिथ्यावादस्तत एव च जिनप्रवचनतत्त्ववेदिनो मिथ्यावादित्त्वपरिजिहीर्षया सर्वमपि स्यात्कारपुरस्सरं भाषन्ते, नतु जातुचिदपि स्यात्कारविरहितम्, यद्यपि च लोकव्यवहारपथमवतीर्णा न सर्वदा साक्षात्स्यात्पदं प्रयुञ्जते तथापि तत्राप्रयुक्तेऽपि सामर्थ्यात्स्याच्छब्दो द्रष्टव्यः प्रयोजकस्य कुशलत्वात्, उक्तं च-"अप्रयुक्तोऽपि सर्वत्र, स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते / विधौ निषेधेऽन्यत्रापि, कुशलश्वेत्प्रयोजकः / / 1 / / '' अत्र अन्यत्रापि इति अनुवादातिदेशादिवाक्येषु / ननु यदि सर्वत्र स्यात्पदप्रयोगानुसरणं तर्हि मूलत एवापगमादवधारणविधिः परस्परमेतयोर्विरोधात्, तथा हि-अवधारणमन्यनिषेधपरं स्यात्पदप्रयोगस्तु अन्यसंग्रहणशील इति, तदयुक्तं सम्यक् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् / स्यात्पदप्रयोगो हि विवक्षितवस्त्वनुयायी धर्मान्तरसंग्रहणशीलः, अवधारणविधिस्तु तत्तदा शङ्कितान्ययोगव्यवच्छेदादिफलः, तथाहि- ज्ञानदर्शनवीर्यसुखोपेतः किं जीवो भवति ? किं वा नेत्याशङ्कायां प्रयुज्यते-स्याज्जीव एव / अत्र जीवशब्देन प्राणावधारणनिबन्धनं जीवशब्दवाच्यत्वमभिधीयते, एवकारेण यदा शङ्कितं परेणाजीवशब्दवाच्यत्वं तस्य निषेधः, स्यात्पदप्रयोगात्तु यं ज्ञानदर्शनसुखादिरूपा असाधारणा ये त्वमूर्त-त्वासंख्यातप्रदेशसूक्ष्मत्वलक्षणा धर्माधर्माकाशस्तिकायपुद्गलैः साधारणाः येऽपि च सत्त्वप्रमेयत्वधर्मित्वगुणित्वाऽऽदयः सर्वे पदार्थः साधारणास्ते सर्वेऽपि प्रतीयन्ते / यदा तु ज्ञान दर्शनादिलक्षणो जीवः किं वाऽन्यलक्षण इत्याशङ्का तदैव-मधारणविधिः स्यात् ज्ञानादिलक्षण एव जीवः अत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यतामात्रं प्रतीयते, ज्ञानादिलक्षण एवेत्यन्यलक्षणव्युदासः / स्यात्पदप्रयोगात्तु साधारणाऽसाधारणधर्मपरिग्रहः / यदा तु जगति जीवोऽस्ति, किं वा नेत्यसम्भवाशङ्का तदैवमवधारण स्यादस्त्येव जीवः, अत्रापि जीवशब्दप्रयोगाजीवशब्दवाच्यताधिगतिः स्यात्पदप्रायोगाद् साधारणाऽसाधारणधर्मपरिग्रहः / अस्त्येवेत्यवधारणादसम्भवाशङ्काव्यवच्छेदः, एवमन्यत्रापि साक्षागम्यमानतया स्यात्पदप्रयोगपुरः सरं यथायोगमवधारणविधिः सम्यक् प्रवचनार्थ जानानेन प्रयोक्तव्यः / अवधारणाभावे तु जीवाजीवादिवस्तुतत्वव्यवस्थाविलोपप्रसङ्गः, तथाहि-यद्यन्यव्यवच्छेदेन ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणो जीव एवेति नावधार्यते, तर्हि अजीवोऽपि तल्लक्षणः स्यादिति जीवाजीवव्यवस्थालोपः / तथा यदि ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षण एव जीव इत्यन्ययोगव्यवच्छेदो नाभ्युपगम्यते ततोऽन्यत् किमप्यजीवानुगतमजीवसाधारणं वा तथा लक्षणमाशङ्कयेत तथापि जीवेतरविभागपरिज्ञानाभावः, ततो यथा सम्यग्वादित्वमिच्छता सर्वत्र स्यात्पदप्रयोगः साक्षात् गम्योऽनुमीयते, तथा यथायोगमवधारणविधिरपि, अन्यथा यथावस्थितवस्तुतत्त्वप्रर्तिपत्त्यनुपपत्तेः नचावधारणविधिरपि सिद्धान्तेनानुमत इति वक्तव्यं तत्र तत्र प्रदेशेऽनेक-शोऽवधारणविधिदर्शनात् / तथा हि- "किमयं भंते ! कालो त्ति पवुच्चइ गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव' स्थानाङ्गऽप्युक्तम्"जं इत्थं च णं लोए तं सव्वं दुप्पडोयारं, तं जहा-जीवा चेव, अजीवा चेव तहा जह चेव मोक्खफला आणा आराहिया जिणिंदाणमि" त्यादि या चावधारणी भाषा प्रवचने निषिध्यते सा क्वचित् तथारूपवस्तुतत्त्वनिर्णयाभावात् कचिदेकान्त-प्रतिपादिका वा न तु सम्यक यथावस्थितवस्तुतत्त्वनिर्णये स्यात्पदप्रयोगावस्थाया-मिति / दैगम्बरी त्वियं प्रमाणनयभाषा सम्पूर्णवस्तु कथनं प्रमाणवाक्यं यथा--स्याज्जीवः स्याद्धर्मास्तिकाय इत्यादि। वस्त्वेकदेशकथनं नयवादः, तत्र यो नाम नयो नयान्त रसापेक्षः स नये इति वा सुनय इति वा प्रोच्यते (आ० म०) नयचिन्तायायपि च ते दिगम्बराः स्यात्पदप्रयोगमिच्छन्ति / तथा चाकलङ्क एव प्राह-नयोऽपि तथैव स्मयगेकान्तविषयः स्यादिति / अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता-नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं, न केवलं प्रमाणवाक्य-मित्यपिशब्दार्थः, तथैव- स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात्, यथा-स्यादस्त्येव जीव इति, स्यात्पदप्रयोगाभावेतु मिथ्यैकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति, तदेतदयुक्तम्, प्रमाणनयविभागाभावप्रसक्तेः, तथाहि-स्याजीव एवेति किल प्रमाणवाक्यं, स्यादस्त्येव जीव इति नयवाक्यम् / एतच द्वयमपि लघीयस्तयाऽलङ्कारे साक्षादकलङ्केनेदमुदाहृतम् अत्र चोभयत्रापि विशेषः, तथाहि-स्यात् जीव एवेत्यत्र जीवशब्देन प्राणधारणनिबन्धना जीवशब्दवाच्यता प्रतिपत्तिः, अस्तीत्यनेनाद्भूताकारशब्द-प्रयोगादजीवशब्दवाच्यताप्रतिषेधः, स्याच्छब्दप्रयोगतः असाधारणसाधारणधर्माक्षेपः / स्यादस्त्येव जीव इत्यत्र जीवशब्देन जीवशब्दवाच्यताप्रतिपत्तिरस्तीत्येननोद्भूत विवक्षास्तित्वावगतिः, एवकारप्रयोगात्तु यदाशङ्कितं सकलेऽपि जगति जीवस्य नास्तित्वं तद्व्यवच्छदः, स्यात्पदप्रयोगादसाधारणसाधारणधर्मप्रतिपत्तिरित्युभयत्राप्यविशेष एव / तथा-च -सिद्धव्याख्याता न्यायविचारविवृत्तौ-- 'स्यादस्त्येव जीव' इति प्रमाणवाक्यमुपन्यस्तवान्, तथा च तद्तो ग्रन्थः "यदा तु प्रमाणव्यापारमविकलंपरामृश्य प्रतिपादयितुमस्तिपदेन प्रयत्यतेतदा अङ्गीकृतगुणप्रधानमावाशेषधर्मसूचककथञ्चित्पर्यायं स्याच्छब्दविभूषितया साधार.. णया च वाचा स्यादस्त्येव जीव इत्यादिकया, अतोऽयं स्याच्छब्दसंसूचिताभ्यन्तरीभूतानन्तधर्मकस्य साक्षादुपन्यस्तजीवशब्दक्रियाभ्यां प्रधानीकृतात्मभावस्यावधारणव्यवच्छिन्नतदसंभवस्यवस्तुनःसन्दर्शकत्वा Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सियवाय 856 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिया त्सकलादेश इत्युच्यते, प्रमाणप्रतिपन्नसम्पूर्णार्थकथनमिति यावदित्यादि तस्मादस्मदुक्कैव प्रमाणनयव्यवस्था समीचीना, यथा यो नाम नयो नयान्तरसापेक्षः परमार्थतः स्यात्पद-प्रयोगमभिलषन् सम्पूर्ण वस्तु गृह्णातीति प्रमाणान्तरभावनीयम्, नयान्तरनिरपेक्षस्तु यो नयः स च नियमान्मिथ्यादृष्टिरेव सम्पूर्णवस्तुग्राहकत्वाभावादिति / आ० म०१ अ०। "स्याद्वादाय नमस्तस्मै, यं विना सकलाः क्रियाः। लोकद्वितयभाविन्यो, नैव साङ्गत्यमासते॥१॥" स्था०६ठा०ा सकलनयसमूहात्मकवचने, द्वा०६ द्वा०।"नयास्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविद्धा इव लोहधातवः / भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः / / 1 / / " आ० म०१ अ० / अनु० / सूत्र०।। सियवायमंजरी-स्त्री०(स्याद्वादमञ्जरी) हेमचन्द्रसूरिविरचितायाः वर्द्धमानजिनस्तुतिलक्षणाया अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकाया व्याख्यानरूपे मल्लिषेणसूरिविरचिते ग्रन्थविशेषे, स्या०। "येषामुज्जवलहेतुहेतिरुचिरः प्रामाणिकाध्वस्पृशां, हेमाचार्यसमुद्भवस्तवनभूरर्थः समर्थः सखा। तेषां दुर्नयदस्युसम्भवभयाऽस्पृष्टात्मनां संभवत्यायासेन विना जिनागमपुरप्राप्तिः शिवश्रीप्रदा // 1 // चातुर्विध्यमहोदधेर्मगवतः श्रीहेमसूरेगिरां, गम्भीरार्थविलोकने यदभवद् दृष्टिः प्रकृष्टा मम / द्राधीयः समयादराग्रहपराभूयप्रभूतावमं / तन्नूनं गुरुपादरेणुकणिकासिद्धाञ्जनोर्जितम् // 2 // अन्यान्यशास्त्रतरुसङ्गत्तचित्तहारि, पुष्पोपमेयकतिनिचितप्रमेयैः। दृब्धां मयाऽन्तिमजिनसतुतिवृत्तिमेना, मालामिवामलहृदो हृदये वहन्तु // 3 // प्रमाणसिद्धान्तविरुद्धमत्र, यत्किञ्चिदुक्तं मतिमान्द्यदोषात् / मात्सर्यमुत्सार्य तदार्यचित्ताः, प्रसादमाधाय विशोधयन्तु // 4 // उमिष सुधाभुजां गुरुरिति त्रैलोक्यविस्तारिणो, यत्रेयं प्रतिभाभरादनुमितिर्निर्दम्भमुज्जृम्भते / किं चामी विबुधाः सुघेति वचनोरारं यदीयं मुदा, शंसन्तः प्रथयन्ति तामतितमां संवादमेदस्विनीम् // 5 // नागेन्द्रगच्छगोविन्द- वक्षोऽलङ्कारकौस्तुभाः / ते विश्ववन्द्या नन्द्यासु-रुदयप्रभसूरयः // 6 // युग्मम् / श्रीमल्लिषेणसूरिभि-रकारि तत्पदगगनदिनमणिभिः / वृत्तिरियं मनुरविमित-शाकाब्दे दीपमहसि शनौ / / 7 / / श्रीजिनप्रभसूरीणां, साहाय्योद्भिन्नसौरभा / श्रुतावुत्तंसतु सतां, वृत्तिः स्याद्वादमञ्जरी / / 8 / / बिभ्राणे किल निर्जयाजिनतुलां श्रीहेमचन्द्रप्रभौ, तदृब्धस्तुतिवृत्तिनिर्मितिमिषाद्भक्तिर्मया विस्तृता / निर्गतुं गुणदूषणे निजगिरा तन्नार्थये सजनान्, तस्यास्तत्त्वमकृत्रिमं बहुमतिः साऽस्त्यत्र सम्यग् यतः // 6 // " स्या०1 सियवायमुद्दानइभेइ-त्रि०(स्याद्वादमुद्रानतिभेदिन) स्याद्वादः--अने कान्तवादो नित्यानित्याद्यनेकधर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत्।' तस्य मुद्रा- मर्यादा तां नाऽतिभिनत्तिनातिक्रामति स्याद्वादमुद्रानतिभेदी। अनेकान्तवादमर्यादाव्यवस्थिते, स्या०। ('अणेगंतवाय' शब्दे प्रथमभागे 423 पृष्ठे विस्तरो गतः / ) सियवायरयणागर-पुं०(स्याद्वादरत्नाकर) देवसूरीभिर्विरचिते प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारटीकाग्रन्थे, रत्ना० / "सिद्धये वर्धमानः स्तात्, ताम्रा यन्नखमण्डली / प्रत्यूहशलभप्लोषे, दीप्रदीपाकुरायते // 1 // यैरत्र स्वप्रभया, दिगम्बरस्यार्पिता पराभूतिः / प्रत्यक्षं विबुधानां, जयन्तु ते देवसूरयो नव्याः // 2 / / स्याद्वादमुद्रामषनिद्रभक्त्या, क्षमाभृतां स्तौमि जिनेश्वराणाम् / सन्न्यायमार्गानुगतस्य यस्यां, सा श्रीस्तदन्यस्य पुनः स दण्डः // 3 // " इह हि लक्ष्यमाणाऽक्षोदीयोऽर्थार्णाक्षरक्षीरनिरन्तरे, तत इतो दृश्यमानस्याद्वादमहामुद्रामुद्रितानिद्रप्रमेयसहस्रोत्तुङ्गत्तरङ्ग भङ्गिसङ्गसौभाग्यभाजने, अतुलफलभरभ्राजिष्णुभूयिष्ठागमाऽभिरामातुच्छ परिच्छेदसन्दोहशाद्वलासनकानननिकुञ्ज, निरुपममनीषामहायानपात्रव्यापारपरायणपूरुषप्राप्यमाणाप्राप्तपूर्वरत्नविशेष, वचन वचनरचनाऽनवद्यगद्यपरम्पराप्रवालजालजटिले, वचन सुकुमारकान्तालोकनीयास्तोकश्लोकमौक्तिकप्रकरकरम्बिते, क्वचिदनेकान्तवादो पकल्पितानल्पविकल्पकल्लोल्लोल्लासिलोद्दामदूषणादिद्रिविद्राव्यमाणानेकतीर्थिकनक्रचक्रचक्रवाले, क्वचिदपगताशेषदोषानुमानाभिधानोद्वर्तमानासमानपाठीनपुच्छच्छटाऽऽच्छोटनोच्छलदतुच्छशीकरश्लेषसञ्जायमानमार्तण्डमण्डलप्रचण्डचमत्कारे क्वापि तीर्थिकग्रन्थग्रन्थिसार्थसमर्थकदर्थनोपस्थापितार्थानवस्थितप्रदीपायमानप्लवमानज्वलन्मणिफणीन्द्रभीषणे, सहृदयसैद्धान्तिकतार्किकवैयाकरणकविचक्रचक्रवर्तिसुविहितसु गृहीतनामधेयास्मद्गुरुश्रीदेवसूरिभिविरचिते स्याद्वादरत्नाकरे न खलु कतिपयतर्कभाषातीर्थमजानन्तोऽपाठीना अधीवराश्च प्रवेष्टुं प्रभविष्णवः, इत्यतस्तेषामवतारदर्शनं कर्तुमनुरूपम् / तच्च संक्षेपतः शास्त्रशरीरपरामर्शमन्तरेण नोपपद्यते / सोऽपि समासतः सूत्राभिधेयावधारणं विना न इति, प्रमाणनयतत्त्वालोकाख्यं तत्-सूत्रार्थमात्रप्रकाशनपरा रत्नाकरावतारिकानाम्नी लघीयसी टीका प्रकटीक्रियते / तत्र चेह यत्र क्वचिदपि प्रवर्तमानस्य पुरुषत्वाभिमानिनोऽनेकप्रकारतत्तद् गुणदोषदर्शनाऽऽहित संस्कारस्याऽह्रायद्वये स्मृतिकोटिमुपढौकनीया भवन्त्युपकारिणः, अपकारिणश्च, विशेषतो ये यत्र तदभिमततत्त्वावधारणेनाऽऽरिराधयिषिताः, तदुपहितदोषापसारणेन पराचिकीर्षिताश्च द्वयेऽपि चामी द्वेधापरापरभेदात्, बाह्यान्तरङ्गभेदाच इत्यस्मिन् प्रमाणनयतत्त्वपरीक्षाप्रवीणे प्रक्रमे कृतज्ञास्तत्र भवन्तस्तेषां प्रागेव स्मतये श्लोकमेकमेनमचिकीर्तत् / रत्ना०१ परि०। सिया-अव्य०(स्यात्) आशङ्कायाम्, आशङ्का नाम विभाषा, स्यादिति कोऽर्थः-- कदाचिद्भवेत्, कदाचिन्न भवेत् / व्य०१ उ० / Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिया 857 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरि उत्त० / दश० / अवधारणे, नि० चू० 1 उ० / भवत्यर्थे, आशङ्कायां परिभ्रमणं यस्याऽसौ / सप्तम्यलोपाच्छिरस्यावतः / भ० 2 श०१ भजनायां वा / तत्र भवत्यर्थे सुप्रसिद्धः, आशङ्कायां यथा "दव्वत्थउ उ०। शिरसिमस्तके आवर्तः प्रदक्षिणभ्रमणं यस्येति / कृतिकर्मणि भावत्थउ, दव्वत्थउ बहुगुण त्ति बुद्धि सिया" भजतायां यथा- क्रियमाणे आवृत्तेऽञ्जलौ, कर्म०१ कर्म० / जी० / औ० / रा०। ''सिया तिभागे सिय तिभागतिभागे" इत्यादि। बृ०१ उ०२ प्रक०। सिरा-स्त्री०(शिरा) धमन्याम्, जी० 1 प्रति० / तं० / सिता-स्त्री० मृद्विकादीनां संग्रहे, आचा०१ श्रु० 2 अ०५ उ०। / सिरि-स्त्री०(श्री)"ई-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यादिष्वित्" सियाणकरण-न०(श्मशानकरण) श्मशानस्थापनायोग्यप्रत्युपेक्षणे, बृ० ||1/2 / 104 / / इति संयुक्तव्यञ्जनात्पूर्व इकारः / प्रा० / लक्ष्म्याम्, १उ०२ प्रक०। ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०1 उपा० / द्वा० / सम्पदि, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। सियाल-पुं०(शृगाल) गोमायौ, प्रज्ञा० 11 पद / बृ० / जम्बुके, प्रश्न० शोभायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। कल्प० / नि०। जम्बूद्वीपे पद्महृदा१ आश्र0 द्वार / बृ० / शृगालो वै एष जायते यस्सपुरीषा दह्या / आ० धिष्ठातृदेव्याम्, स्था० 6 ठा० 3 उ० / अन्तरञ्जिकानगरीराजे, यत्र म०१ अ०। नरकपालविकुर्विते जम्बुके, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ०1 त्रैराशिकनवाचार्यस्य रोहगुप्तस्य परिव्राजकेन सह शास्त्रार्थोऽभवत् / विशे० / सौधर्मकल्पे स्वनामख्याते विमाने, तद्दव्याञ्च / नि०। प्रज्ञा०। सियालखाइता-स्त्री०(शृगालखादिता) शृगालस्तु न्यग्वृत्त्योपात्तस्या एवं खलु जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नगरे व्यान्यस्थानमक्षणेन वा खादिता तत्स्वभावो वेति / प्रव्रज्याभेदे, स्था गुणसिलए चेइए सेणिए राया सामी समोसढे परिसा निग्गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं सिरिदेवी सोहम्मे कप्पे सिरिवडिंसए 4 ठा०४ उ०। विमाणे सभाए सुहम्माए सिरंसि सीहासणंसि चउहिं सियालता-स्त्री०(शृगालता) दीनवृत्तौ, स्था० 4 ठा० 3 उ०। सामाणियसाहस्सेहिं चउहि महत्तरियाहिं सपरिवाराहिं जहा सियाली-स्त्री०(शृगाली) शृगालभार्यायाम, प्रज्ञा० 6 पद 2 द्वार / बहुपुत्तिया० जावनट्टविहिं उवदंसित्तापडिगता, नवरंदारियाओ सिर-धा०(सृज) सृष्टी, "सृजोरः" ||4226 / / इत्यन्तस्य रः / नत्थि पुष्वभवपुच्छा, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं सिरइ। सृजति / प्रा० 4 पाद / समएणं रायगिहे नयरे गुणसिलए चेइए जियसत्तु राया / तत्थ णं रायगिहे नगरे सुदंराणो नाम गाहावई परिवसति, अड्डे०। शिरस्-न० उत्तमाङ्गे, तं० / सूत्र० / दश० / औ०। "श्रमदामशिरो तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स पिया नाम भारिया होत्था नमः" ||1 / 32 // इत्यत्र शिरः पर्युदासात् शिरसः पुस्त्वं न / सुमाला / तस्स णं सुदंसणस्स गाहावइस्स धूया पियाए प्रा० / उपचाराच्छिरोबन्धने, औ० / मस्तके, "सिरणमियकरय गाहावतिणीए अत्तिया भूया नामंदारिया होत्था वुड्डा वुडकुमारी लेजलि' शिरसिमस्तके नमितो निवेसितः करतलयोर्हस्तयो जुन्ना जुन्नकुमारी पडितपुतत्थणीवर-परिवजिया यावि होत्था। रञ्जलिहस्तविन्यासविशेषो यत्र करणे तत्तथा कर्तव्य-मित्येतात्क्रया तेणं कालेणं तेणं समरणं पासे अरहा पुरिसादाणीए० जाव विशेषणमिदमिति / पञ्चा०४ विव०। "सीस सिरं उत्तमंगं च" पाइ० नवरयणीए वण्णओ सो चेव समोसरणं परिसा निग्गया। तते ना० 111 गाथा। णं सा धूया दारिया इमीसे कहाए लद्धट्ठा सामाणी हट्टतुट्ठा सिरपरिरय-पुं०(शिरःपरिरय) करभ्रमणाभिमन्त्रणे, पं० व० 5 द्वार। जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता एवं सिरपाल-पुं०(शिरःपाल) विंगउल्लीदेशीयविगल्लनगरराजे, ती०५१ / वदासी-एवं खलु अम्मताओ पासे अरहा पुरिसादाणीए कल्प। ('अंतरिक्खपासणाह' शब्दे प्रथमभागे 66 पृष्ठे कथा / ) पुष्वाणुपुर्दिव चरमाणे० जाव देवगणपडिबुडे विहरति, तं इच्छामो णं अम्मयाओ तुम्भेहिं अब्मणुन्नाया समाणी पासस्स सिरमुंड-पुं०(शिरोमुण्ड) शिरसा मुण्डे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। अरहओ पुरिसादाणीयस्स पादवंदिया गमित्तए / अहासुहं सिरय-पुं०(शिरोज) मस्तककेशे, प्रज्ञा० 1 पद / देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधंकरेह / तते णं सा भूया दारिया सिररुह पुं०(शिरोरुह) केशे, प्रज्ञा० 1 पद। न्हाया० जाव सरीरा चेडीचकवालपरिकिना साओ गिहाओ सिरवेयणा-स्त्री०(शिरोवेदना)"ओतोद्वाऽन्योन्य-प्रकोष्ठातोद्य- | पडिनिक्खमति पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला शिरोवेदना-मनोहर-सरोरुहे तोच वः" ||1 / 156|| एषु तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा / ओत्त्वं वा भवति / तत्सन्नियोगे च यथासम्भवं ककारतकारयोर्वाऽऽदेशः / तते णं सा भूया दारिया निययपरिवारपरिवुडा रायगिह सिरवियणा / सिरोवेयणा / शिरःपीडायाम्, प्रा०। नगरं मझं मज्झेणं निग्गच्छति,त्ता जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए सिरसंभूया-स्त्री०(श्रीसम्भूता) पक्षस्य षष्ठ्या रात्रौ, ज्यो०४ पाहु०। पासति पासित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुमिति०२ सिरसावत्त-पुं०(शिरसा(स्या)वर्त) शिरसा आवर्त आवृत्तिरावर्त्तनं / त्ता चेडी चक्कपालपरिकिन्ना जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरि 858 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिकता तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो वंदति वंदित्ता० जाव निसीहियं वा चेतेति तत्थ तत्थ वि णं पुष्वामेव पाणएणं पजुवासति पञ्जुवासित्ता तते णं पासे अरहा पुरिसदाणीए अब्भुक्खेति / ततो पच्छा ठाणं वा सिजं वा निसीहियं वा भूयाए दारियाए तीसे महति महलियाए धम्मकहाए धम्म चेतेति / तते णं तातो पुप्फचूलातो अज्ञातो भूयं अझं एवं सोचा णिसम्म हद्वतुट्ठा वंदति वंदित्ता एवं वयासी-सद्दहामि वदासी-अम्हे णं देवाणुप्पिए ! समणीओ निग्गंथीओ णं भंते ! निम्गंथं पावयणं० जाव अब्भुढेमि णं भंते ! णिग्गंथं इरियासमियाओ० जाव गुत्तबंभचारिणाओ, नो खलु कप्पति पावयणं / से जहे तं तुम्मे वदह जं नवरं देवाणुप्पिया ! अम्हं सरीरपाओसियाणं होत्तए, तुमं च णं देवाणुप्पिए ! अम्मापियरो आपुच्छामि तते णं अहं० जाव व (प) व्वइत्तए सरीरपाओसिया अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवसि० जाव अहासुहं देवाणुप्पिया ! तते णं सा भूया दारिया तमेव धम्मियं निसीहियं चेतेहि, तं गं तुमं देवाणुप्पिए एयस्स ठाणस्स जाणप्पवरं जाव दुरुहति दुरुहित्ता जेणेव रायगिहे नगरे आलोएहि त्ति, सेसं जहा सुभहाए० जाव पाडियक उवस्सयं तेणेव उवागता, रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं जेणेव सए गिहे उवसंपचित्ता णं विहरति / तते णं सा भूता अजा अणाहट्टिया तेणेव उवागता, रहाओ पचोरुहिता जेणेव अम्मापितरो तेणेव अणिवारिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवति० उवागता, करतल० जहा जमाली आपुच्छति / अहासुहं जाव चेतेति / तते णं सा भूया अज्जा बहूहिं चउत्थछट्ट० बहूहिं देवाणुप्पिए ! तते णं से सुदंसणे गाहावई विउलं असणं पाणं वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता तस्स ठाणस्स खाइमं साइमं उवक्खडावेति, मित्तनाति आम तेति० जाव अणालोइयपडिकंता कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे जिमियमुत्तुत्तरकाले सुईभूते निक्खमणमाणित्ता कोडुंबिय- सिरिवर्डिसए विमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि० जाव पुरिसें सद्दावेति कोडुंबियपुरिसे सद्दावित्ता एवं वदासि ओगाहणाए सिरिदेवित्ताए उववण्णा पंचविहाए पजत्तीए खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! भूयादारियाए पुरिससहस्सवाहि भासामणपज्जत्तीए पजत्ता / एवं खलु गोयमा ! सिरीए देवीए णीयं सीयं उवट्ठवेह० जाव पञ्चप्पिणह / तते णं ते० जाव एसा। दिव्वा देविड्डी लद्धा पत्ता, ठिई एगं पलि ओवमं सिरी पञ्चप्पिणंति। तते णं से सुदंसणे गाहावई भूयं दारियं ण्हायं० णं भंते ! देवी जाव कहिं गच्छिहिति ? महाविदेहे वासे जाव विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरुहति सिज्झिहिति एवं खलु जंबू ! निक्खेवओ। नि०१श्रु०४ वर्ग दुरुहित्ता मित्तनाति० जाव रवेणं रायगिहं नगरं मज्झं मज्झेणं 1 अ०। जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागते,छत्ताईए तित्थकरातिसए कुन्थुनाथस्य मातरि, प्रव० 11 द्वार / स०। वणिग्ग्रामे मित्रनामकस्य पासति सीयं ठावेति ठावित्ता भूयं दारियं सीयाओ पच्चोरहेति राज्ञो भार्यायाम्, विपा०१ श्रु०२ अ० / क्षुद्रहिम-वहेव्याम्, आ० म० पचोरुहिता, ततो णं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरतो काउं 1 अ०। उत्तररुचकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, आ० चू० 1 अ० / जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागते, तिक्खुत्तो वाराणस्यां भद्रश्रेणिजीर्णश्रेष्ठितो भार्यायाः सुनन्दाया दुहितरि, आ० वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! भूया दारिया अम्हं एगा धूया इट्ठा, एस णं चू० 4 अ० / देवताप्रतिमाविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / हिमवद्वर्षधरपर्वते देवाणुप्पिया ! संसारभउविग्गा भीया० जाव देवाणुप्पियाणं स्वनामख्याते षष्ठे कूटे, स्था० 2 ठा० 3 उ० / अंतिए मुंडा० जाव पव्वयति पव्वयित्तातं एवं णं देवाणुप्पिया! सिरिअ-पुं०(श्रीक) सूर्यभद्रस्य भ्रातरि, ही०३ प्रका०। सिस्सिणी मिक्खं दलयति, पढिच्छंतु णं देवाणुप्पिया / सिरिअभिसेय-पुं०(श्यभिषेक) लक्ष्म्यभिषेके, जं० 2 वक्ष० / सिस्सिणीमिक्खं / अहासुहं देवाणुप्पिया ! तते णं सा भूता सिरिउववेय-त्रि०(श्रयुपपेत) लक्ष्योपगते, दश०१ चू०। दारिया पासेणं अरहा० एवं वुत्ता समाणी हट्ठा उत्तरपुरच्छिम सिरिंग-(देशी) विटे, दे० ना० 8 वर्ग 32 गाथा / सयमेव आभरणमल्लालंकारं उम्मुयइ, जहा देवाणंदा पुप्फचूलाणं अंतिए० जाव गुत्तबंभयारिणी / तते णं सा भूता सिरिकंत-पुं०(श्रीकान्त) अयोध्यानगरीराजस्य मिथ्यादृष्टः श्रीवीरस्य अजा अण्णदा कदाइ सरीरपाओसिया जाया यावि होत्था, पुत्रे, अष्ट० 25 अष्ट० / ('राग' शब्दे षष्ठे भागे कथा / ) षष्ठे देवलोके अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवति, पादे धोवति, एवं सीसं विमाने, स० 14 सम० / श्रीकान्तानगरीवास्तव्ये व्यवहारिणि, धोवति, मुहं धोवति, थणगंतराइं धोवति, कक्खंतराई कल्प०१ अधि० 1 क्षण। धोवति, गुज्झंतराई जत्थ जत्थ वि य णं ठाणं वा सिजं वा | सिरिकं ता-स्त्री०(श्रीकान्ता) भोगपुरवास्तव्यस्य वरुणश्रेष्ठि Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिकता 856 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिपम नो भार्यायां सुलभकुमारमातरि, ध० 20 2 अधि० / मरुदेवस्य भागे उक्तः / ) ऐरवतेऽस्यामवसर्पिण्यां जातेऽष्टमे तीर्थकारे, प्रव० षष्ठकुलकरस्य भार्यायाम, आ० म०१ अ० / स्था० / स० / 7 द्वार। स्वनामख्यातायां सार्थवाह्याम्, आव०४ अ० 1 आ० म० / आ० सिरिदाम-न०(श्रीदामन्) शोभावन्मालायाम्, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ० / क०। ('अलोभया' शब्दे प्रथमभागे 785 पृष्ठे कथोक्ता।) स्वनाम- अनेकरत्नस्वचिते दर्शनसुभगे आभरणविशेषे, आ० म० 1 अ० / ख्यातायां नगर्याम्, यत्र विजयसेनो नाम राजा श्रीकान्ताख्यश्च मथुरायां नन्दिवर्द्धनस्य नन्दिषेणस्य विपाकश्रुतोक्तस्य पितरि, स्था० व्यवहार्यासीत् / कल्प० 1 अधि० 1 क्षण / जम्ब्वाः सुदर्शनाया 10 ठा०३ उ०। विपा० / एकादशदेवलोकविमाने, स०२१ सम० / अपरस्यां दिशि नन्दापुष्करिण्याम, जी०३ प्रति०४ अधि०। जं० / सिरिदामगंण्ड-पुं० [श्रीदाम(गण्ड)काण्ड] श्रीदाम्नां शोभावचित्ररत्नपुरिमतालनगरराजस्य उदितोदयस्य भार्यायाम, नं० / आ० म०। ___ मालानां गण्डं गोलवृत्ताकारत्वात्, काण्डं वा समूहः श्रीदामगण्डम् / आ० चू० / चम्पायां नगर्यां दत्तराजस्य पुत्रमहाचन्द्रराजभार्यायाम, श्रीदामकाण्डं वा। अथवा-गण्डो दण्डस्तद्वद्यत्तद् एवोच्यते श्रीदाम्नां विपा०२ श्रु०६ अ०। गण्डः श्रीदामगण्डः / श्रीदामसमूहे, जं०५ वक्ष० / स्था० / ज्ञा० / सिरिकंदल-पुं०(श्रीकन्दल) एकखुरजीवविशेष, प्रज्ञा० 1 पद। सिरिदेवी-स्त्री०(श्रीदेवी) दीर्घदशानां चतुर्थाध्ययनोक्तायां सौधर्मसिरिकूड-पुं०-न०(श्रीकूट) श्रीदेवतानिवासभूते हिमवर्ष धरस्य षष्ठे / कल्पदेव्याम्, स्था०१० ठा० 3 उ०। (अस्याः कथा 'सिरि' शब्देऽकूटे, स्था० 2 ठा० 4 उ० / जं०। स्मिन्नेव भागे उक्ता।) सिरिखंड-न(श्रीखण्ड) मलयजे, आ० म०१ अ०। स्था०। / सिरिदही-(देशी) पक्षिपानपात्रे, दे० ना० 8 वर्ग 32 गाथा। सिरिगुप्त-पुं०(श्रीगुप्त) आर्यसुहस्तिनः शिष्ये अन्तरञ्जिकायां नगर्यां | सिरिधम्म-पुं०(श्रीधर्म) स्थविरस्यार्यसुहस्तिनः काश्यपगोत्रस्य शिष्ये त्रैराशिकाचार्यस्य रोहगुप्तस्य गुरौ दशपूर्विण्याचार्ये, विशे० / दशपूर्विणि स्थविरे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। उज्जयिन्यां मुनिसुव्रतउत्त०। आ० म० / आ० चू० / कल्प० / विन्ध्याद्री पार्श्वनाथे, ती० स्वामिशिष्यसुव्रताचार्यस्य बन्धनकर्तरि राजनि, ती० 20 कल्प० / 43 कल्प०। सिरिधर पुं०(श्रीधर) स्वनामख्याते नैयायिके, स्या०। सिरिवर-न०(श्रीगृह) भाण्डागारे, ज्ञा०२ श्रु०२ अ०। विशे०। ज्ञा०।। सिरिपभ-पुं०(श्रीप्रभ) स्वनामख्याते, राज्ञि, ध० 20 / भ० / आ० म० / पार्श्वनाथस्य षष्ठे गणधरे, स्था० 8 ठा० 3 उ०। श्रीप्रभमहाराजकथा चेयम्सिरिघरपडिरूवय-त्रि०(श्रीगृहप्रतिरूपक) रत्मयत्वाद्भाण्डागारतुल्ये, "सौधोज्ज्वलप्रभाभि- निरन्तरप्रसृतधूपधूम्याभिः / भ० 11 श० 11 उ०। जितसुरसरिदर्कसुता-सङ्गाऽस्ति पुरी विशालेति / / 1 / / सिरिघरिय-पुं०(श्रीगृहिक) श्रीगृहं भाण्डागारं तदस्या-स्तीत्यतोऽनेक- सुरलोकावधिविदल-द्विचकिलकलिकामलं यशो यस्य / स्वरादीतीकप्रत्ययः / आ० म० 1 अ० | भाण्डागारिके, विशे०। प्रबलबलशत्रुसंहति-कूलक्षयावधि सदा शौर्यम् // 2 // भाण्डागारनियुक्ते, व्य०३ उ० / आ० म०। त्यागस्त'कजनवा-ञ्छितावधिः सागरावधिर्वसुधा / सिरिचंद-पुं० श्रीचन्द्र) ऐरवते वर्षे उत्सर्पिण्या भविष्यति षष्ठे तीर्थकरे, श्रीजिनपतिपदकमल-द्वयप्रमाणावधिर्भक्तिः // 3 // स० / ति०। प्रव० / भारते वर्षे भविष्यति तृतीयचक्रवर्तिनि, ती० 20 शेषः पुनर्गुणगणो, निरवधिरवधीरितान्यदोषभरः / कल्प01 मलधारिश्रीहेमचन्द्रसूरिशिष्ये, विक्रम् 1121 वर्षे भृगुकच्छ- स श्रीचन्द्रनरेन्द्र--स्ता नगरी पालयामास ||4|| नगरश्रेष्ठिनो धवलशाहनाम्नः प्रार्थनया मुनिसुव्रतस्वामिचरित्रकारके क्षितिपतिहृदयकुशेशय-शया सदाचरणरागपरिकलिता। आचार्ये च / जै० इ०। शुद्धोभयपक्षाऽजनि, हंसी हंसीव तस्य जनी // 5 // सिरिचंदा-स्त्री०(श्रीचन्द्रा) जम्ब्वाः सुदर्शनाया अपरोत्तरस्यां दिशि तनयौ तयोरभूतां, परिभूताखिलविपक्षसंदोहौ। नन्दापुष्करिण्याम, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / ज्येष्ठः श्रीप्रभसंज्ञ-स्तथा कनिष्ठः प्रभाचन्द्रः / / 6 / / सिरिजगसूरि-पुं०(श्रीजगत्सूरि) सत्यपुरनगरे नाहकारितश्रीवीर- तत्र ज्येष्ठो गम्भी-र्यसागरो रूपविजितरतिकान्तः / प्रतिमाप्रतिष्ठापके स्वनामख्याते सूरी, ती० 15 कल्प० / सौम्याकृति, प्रकृत्या, लोकप्रियगुणमणिकरण्डः / / 7 / / सिरिङ-पुं०(श्यान्य) स्थविरस्यार्यमहागिरेरेलापत्यसगोत्रस्य स्वनाम- अक्रूरचित्तपरिणति-निर्जरजम्बालिनीहिमानीभृत् / ख्याते शिष्ये, कल्प०२ अधि० 8 क्षण / शिवसुखघातकपातक-भीरुत्वसरोजदिननाथः ||8|| सिरिणामिनजिण-पुं०(श्रीनाभेयजिन) नाभेरपत्यं नाभेयः / श्रीयुतो शठतालतालवित्रं, दाक्षिण्यहिरण्यमेरुगिरिसदृशः। नाभेयः श्रीनाभेयः स चासौ जिनश्च श्रीनाभेयजिनः / ऋषभदेवे, संततमकार्यलज्जा-स्फुरदलिनीकमलिनीतुल्यः / / 6 / / द्रव्या० 10 अध्या०। जीवदयाकैरविणी-शशभृत् माध्यस्थ्यहस्तिविन्ध्याद्रिः / सिरिणिलया-स्त्री०(श्रीनिलया) जम्ब्वाः सुदर्शनाया अपरोत्तरस्यां गुणरागजनवतंसः, साधुकथाकथनपथपान्थः / / 10|| विशि नन्दापुष्करिण्याम्, जी०३ प्रति०४ अधि० / जं० / स्था०। जिनधर्मदक्षसत्प-क्षकक्षसेवनपयोधरप्रतिमः। सिरिदत्त-पुं०(श्रीदत्त) कुल्लाकसन्निवेशवासिनि स्वनामख्याते श्रेष्ठिपुत्रे, स्फूर्जदुरुदीर्घदर्शि-त्वतारकातारकामार्गः // 11 // ध० 202 अधि०। (श्रीदत्तवदिति तदृष्टान्तश्च 'संसार' शब्देऽस्मिन्नेव जिनपरिवृढगदितागम-विशेषविज्ञत्वकेलिधामसमः / Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपम ५६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिपभ सबुद्धिवृद्धजनसे- वनैकसरसी वरमरालः / / 12 / / विनयनयबद्धचेताः, कृतज्ञताकूलिनीधुनीनाथः। परहितकरणप्रवणः, सुलब्धलक्ष्यश्च कृत्येषु / / 13 / / तत्रापरेधुरागात्, केवलकलितो गुरुर्भुवनभानुः / तं नन्तुमगान्नृपतिः, सुतसामन्तादिपरिकलितः / / 14 / / कृत्वा प्रदक्षिणात्रय-मानम्य गुरु गरिष्ठया भक्त्या। उचितस्थाने न्यषद-द्यतिपरिरथ देशानां चक्रे ||15|| इह भवगहनेऽनन्ते, भ्राम्यन् जीवः सहन्नसातभरम्। जातिकुलप्रभृतियुतं, कथमपि लभते मनुजजन्म ||16|| तदवाप्य भव्यलोकाः !, जिनधर्म कुरुत सकलदुःखहरम्। स पुनर्बेधा प्रोक्तो, यतिगृहिधर्मप्रभेदेन // 17 // तत्राद्य पञ्च यमाः, प्रत्येकं पञ्च भावनाः पाल्याः / हिंसालीकस्तेया-ब्रह्मपरिग्रहविरतिरूपाः // 18 // समितिभिरीर्यादान-षणाभिरनिशं तथा मनोगुप्त्या / दृष्टान्तादिग्रहणे-न भावयेन्प्रथमयमममलम् / / 16 / / विविधैर्नियमविधानः, प्रत्याख्यान निरन्तरं मतिमान / आलोच्य भाषणेना-पि भावयेत् सूनृतं च यमम् // 20 // याचनमवग्रहस्या-लोच्यावग्रहविमार्गणं च भृशम् / सततं समनुज्ञापित-भक्तान्नाभ्यवहृते करणम् // 21 // साधर्भिकतो याचन-मवग्रहस्योचकैस्तथाऽस्यैव / मर्यादाकरणमिमा, अस्तेये भावनाः पञ्च // 22 // नारीपण्डकपशुम-निवासकुड्यान्तरासनोज्झनतः। स्त्रीरम्याङ्गनिरीक्षण-निजाङ्गसस्कारपरिहारात् // 23 // स्निग्धाऽत्यशनत्यागात्-सरागयोषित्कथाविवर्जनतः / पूर्वरतास्मरणेन--ब्रह्म सदा भावयेद्धीमान् // 24 // स्पर्श रसे च गन्धे, शब्दे रूपे शुभाशुभ सततम् / रागद्वेषत्यागो, हि भावनाः पञ्चसममे स्युः / / 25 / / एवं व्रतानि पञ्चा-पि पञ्चभिः पञ्चभिः सुवास्य भृशम् / सद्भावनाभिरगम-नसुमन्तः शिवपदमनन्ताः / / 26| गृहमेधिनां तु धर्मे, निशम्य सम्यक् सुसाधुगुरुपार्श्वे / ज्ञात्वा तथा गृहीत्वा, व्रतानि परिपालनीयानि // 27|| आयतनसेवनाद्य, शीलं परिशीलनीयमनवरतम्। सद्भिः, समर्जनीयः, स्वाध्यप्रभृतिविभवभरः // 28| व्यवहारशुद्धिरनिशं, भव्यैरव्याजभावनैः कार्या / गुरवश्चरणविहंगम-तरवः शुश्रूषणीयाश्च // 26 // भाव्यं प्रवचनकौशल-सुपेशलैर्गलितसकलपापमलैः। स्त्रीणां वश्योऽवश्यं, नात्माः कार्यः कदाचिदपि // 30 // सुज्ञानशृङ्खलाभि-हृषीककपयः समन्ततो रोध्याः। गृद्धिर्नचार्थसार्थे, क्लेशायासाकरे कार्या ||31|| निर्वेदः संसारे, दुःखागारे सदा विधातव्यः / विषयाः कुनृपाधिष्ठित-विषया इव दूरतस्त्याज्याः // 32 // तीव्रारम्भा दम्भाः इव निर्दम्भैः कदापि नहि सेव्याः / सकलक्लेशनिवास, न गहदासे रतिः कार्या / / 33 / / धार्थ निरतीचार, सुदर्शनं स्थगितदुर्गतिद्वारम्। मोहनृपविजयभेरौ, न लोकहेरो मनो धेयम् // 34 // शुद्धागमविशदविधिः, समस्तकल्याणशवाधः सेव्यः / दानादिकश्चतुर्दा, धर्मः शिवशर्मकृत् कार्यः // 35 / / न्याय्ये पथि प्रवृत्त-विमुग्धहसितेऽवधीरणा धेया / हेयौ रागद्वेषौ, भवभाविषु सकलभावेषु // 36|| धर्माधर्मविचार-श्चिन्त्यो माध्यस्थ्यसुस्थचेतोभिः / स्वजनधनादिषु निविडः, प्रतिबन्धो नो विधातव्यः // 37 / / भोगोपभोगतृष्णा, कृष्णाहिविनिग्रहे प्रयतितव्यम् / सततं यतिधर्मधुरो-द्धरणोद्धरकन्धरैर्भाव्यम् // 38|| एवं श्रमणोपासक-धर्म विधिना विधाय विमलमनाः। सुचरित्रमाप्य लभते, भवाष्टकस्यान्तरपवर्गम् // 36 // .इत्याकर्ण्य श्रीच-न्द्रनरपतिर्भुवनभानुगुरुमूले। श्रीप्रभसुतादिसहितो, जगृहे गृहमेधिनां धर्मम् // 40 // अथ नत्वा गुरुचरणौ, निजधाम जगाम वसुमतीनाथः / विजहार हारनिर्मल-गुणोचयः सूरिरन्यत्र // 41 / / चतुर्भिः कलापकम्अपरेधुः श्रीचन्द्र-क्षितीशितुः सविनयं तनूजाभ्याम् / संबाह्यमानचरण-द्वयस्य सुकुमारकरकमलम् / / 4 / / मौलिमणिरुचिररोची, रचितसदःसदनभूरिहरिचापैः / भक्त्या परः सहस्र-रवनिधवैः सेव्यमानस्य / / 43 // राज्यभरभवनधरण-स्तम्भैः सद्बुद्धिभिर्विगतदम्भैः / शतशः सचिववरिष्ठ-रलंकृतासन्नदेशस्य / / 44|| बहसमसमरसंप-ल्लम्पटभटकोटिभिः परिवृतस्य। करकलितकनकदण्डो, विज्ञपयामास वेत्रीति // 45 // देव ! दिदृक्षुरि-गमल्लनामा नटाग्रणी रुद्धः / संक्षेपनिबद्धसन-त्कुमारनाट्यप्रबन्धोऽस्ति / / 46|| लघु मुश्चेत्युक्ते सति, महीभुजा वेत्रिणा स आनायि / कृत्वा त्रिपात्रकिंकर-मित्याशिषमथ नृपस्यादात् / / 47|| तद्यथाषट्खण्डामवर्नि निधीन्नव चतुःषष्टिं सहस्राणि च, स्त्रीणां क्षोणिभुजां तदर्द्धमपरं द्विःसप्त रत्नानि च / यस्त्यक्त्वा तृणवद्भवार्तिविधुरो जैनं व्रतं शिश्रिये, / राजर्षिः स सनत्कुमार इह ते भूपाल ! भूयाच्छ्रिये // 48|| अथ नाटकावलोकन-कातुकरसविवशमानसं सकलम्। निजतनयप्रभृतिजनं, नृपतिर्विस्पष्टमैक्षिष्ट / / 46|| तस्यानुवृत्तिवशतः, सविलासामुज्ज्वलां ततो दृष्टिम् / तदभिनयकृते स कृती, नटनेतरि पातयाञ्चक्रे ||50|| बुद्धवाऽथो नृपहृदयं, हृदयंगमया गिराऽगृणात् सोऽपि / भो भो पार्षद्यजनाः!, श्रीचन्द्रनरेश्वरप्रमुखाः ||51 / / क्षणमेकमेकतानी-भूयः शृणुत तुर्यचक्रिणश्चरितम्। इति जल्पन्नट उच्चै- स्तदभिनयं कर्तुमारभे // 52 // तथाहिश्रीहस्तिनापुरपतेः, सनत्कुमारस्य नृपतितिलकस्य / षट्खण्डभरतभर्तुः, प्राज्यं साम्राज्यमनुभवतः // 53 / / अप्रतिमरूपलक्ष्मी-विलोकनोत्पन्नविस्मयोत्कर्षः / मध्ये सभं निलिम्पान, सुरपतिरिति निगदति स्म मुदा // 54 // भो भो अमराः ! पश्यत, सनत्कुमारस्य सार्वभौमस्य / पूर्वार्जितशुभनिर्माण कर्मनिर्मितलसन्मूर्तेः / / 55 / / सा काऽपि रूपलेखा, वरेण्यलावण्यकान्तिपरिकलिता। सुर सद्मजन्तिनामपि, या प्रायो नैव सभवति // 56|| अश्रद्दधताविति सुर-पतेर्वचो विजयवैजयन्ताख्यौ। क्षिप्र वसुंधरायां, द्वावमृतभुजावदातरताम् / / 57 / / अत्रान्तर च सर्वे-ऽपि विस्मयस्मेरलोचना लोकाः। किमितो भवितेत्यवहित-चित्ता आकर्णयामासुः / / 58|| Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपभ 861 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिपभ तौ तदनु विप्ररूपेण भूपरूप्रावलोकनसतृष्णौ / द्वारसमीपेऽस्थाता, प्रासादद्वारि भूमिभुजः // 66 // आसीत् सनत्कुमारो, मुक्ताकालंकारसारनेपथ्यः / प्रारब्धमजनोऽभ्यङ्गसङ्गमङ्गे बहन्नुचैः // 60|| दौवारिकेण तौ वि-प्रपुड़वौ द्वारसंस्थितौ कथितौ। प्रावीविशत्तदाप्ये-ष चक्रवर्ती स नयवर्ती // 61 // अप्रतिरूपं रूपं, तौ दृष्ट्वा तस्य राजराजस्य' मौलिं विधूनयन्ती, दध्यतुरिति विस्मितौ मनसि // 6 // एतस्य भालपट्टो-यमस्तशस्ताष्टमीरजनिजानिः / नीलोत्पलजयपत्रे, नेत्रे कर्णान्तविश्रान्ते // 63 / / दन्तच्छदयुगमभिभू-तपक्वबिम्बीफलच्छविविकाशम्। जितशुक्तिः श्रुतयुगली, कण्ठोऽयं पाञ्चजन्यजयी // 64 // स्तम्बेरमराजकरा कारतिरस्कारकारिणौ बाहू / वक्षःस्थलममराचल-पृथुलशिलाश्रीविलुण्टाकम् // 65 // कटरे करचरणतलं, तर्जितकान्किल्लिपल्लवप्रचयम् / किमपरममुष्य सर्वा-श्रीनहि गोचरो वाचाम् // 66 // कोऽप्यस्याहो लाव-ण्यसरित्पूरो निरर्गलो येन / जानीयो नाभ्यङ्ग, भविभामिव चारुचन्द्रिकया // 67 / / वर्णयति स्म यथेन्द्र--स्तथेदमाभाति समधिकं चापि / न कदाचवापि मिथ्या, वदन्ति वाचं महात्मानः // 6 // किमिहागतौ भवन्ता-विति पृष्टौ चक्रिणाऽथ तौ जगतुः / अप्रतिमं तव रूपं, त्रिजगत्यां गीयते भूप ! // 66 // दूरादपि तत् श्रुत्या, तरङ्गितामुद्रकौतुकसमुद्रौ / अवलोकयितुमिहाऽऽवा-मायाव नरेन्द्रशार्दूल !70 / / व्यावर्ण्यमानमतुलं, तव रूपं शुश्रुवे यथा लोके / नरवर ! ततोऽपि सविशे-षमेतदालोक्यतेऽस्माभिः // 71 // श्रूत्वेति विप्रवचनं, स्मितविच्छरिताधरो नपः प्रोचे / कान्तिरियं किल कियती, परितोऽप्यने कृताभ्यङ्गे // 72 / / क्षणमात्रमितो भूत्वा, भो भो द्विजसत्तमौ प्रतीक्षेथाम् / मज्जनकक्षण एषो-ऽस्माभिर्निर्वत्यते यावत् // 73|| रचितविचित्राकल्पं, विभूषितं भूरिभूषणगणेन। रूपं मम पश्येतं, सरत्नमिव काञ्चनं भूयः / / 74 / तदनु स्नातविलिप्तो-लंकृतिनेपथ्यभूषितो भूषः / अध्यासामाय सदः- सदनं गगनं गगनमणिवत्॥७५।। समनुज्ञातौ भूयो-ऽपि भूपरूपं द्विजौ प्रपश्यन्तौ / दवदग्धकीचकाविव, विच्छायौ झगिति तौ जातौ // 76|| किमेतदिति सर्वेऽपि, सभ्याः साकूतं परस्परमुदीक्षामासुः / अनलंकृतेऽपि पूर्व-मपि दृष्ट हर्षितौ युवां विप्रो / समलंकृतेऽपि संप्रति, दृश्येथे किमिति सविषादौ?||७७|| इति चक्रभृता पृष्टौ-भूदेवौ तौ जजल्पतुर्भूप!। अधुना तायकदेहे, संक्रान्ता व्याधयः सप्त 78 / / तद्वशविनश्यदतुला-ङ्गरूपलावण्यवर्णकान्तिगुणः। त्वं वर्तस इत्यावां, प्रतिपन्नौ शोकसंभारम् // 7 // कथमेतद्विज्ञायत, इत्येवं प्रश्चितौ भरतपतिना। तौ शिष्टयथास्थितस-र्वपूर्वसुरराजवृत्तान्तौ ||coll प्रकटितनिजस्वरूपौ, गीर्वाणौ प्रतिगतौ यथास्थानम्। वैराग्योपगतमति-श्चक्रधरोऽचिन्तयदथैवम् / / 1 / / भवनजनयुवतिचतुर-इसंग्रहो यस्य कारणात् क्रियते। तद्दारु दारुणघुणे रिव रोगैलृप्यते गात्रम् // 82 // येन विमोहितमतयो, हितमहितं चिन्तयन्ति नहि जीवाः / तद्यौवनमिह वनमिव, जरा दवानलसिखा दहति // 3 // अवलिप्तो येन जनः कृत्याकृत्यं न वेत्ति तद्रूषम् / मक्षु विनश्यति धातु-क्षोभे हिमपात इव कमलम् // 4 // अद्य श्वोऽथ विनाशिन, एतस्थ शरीरकस्य तदिदानीम् / गृह्णाम्यविनश्चरफल-मिति नृपतिश्चेतसि विभाव्य / / 8 / / प्राज्यं साम्राज्यमिदं, विहाय लोका अहो निरीक्षध्वम् / आदत्ते जिनदीक्षा, तारतरीमिव भवाम्भोधौ // 86 / / सागरमिव दशमद्वा-रसोधिनं चिकुरनिकरमसितरुचिम्। पश्यत पश्यत पुरतः, समूलमुन्मूलयत्येषः / / 87 // पुरतोऽवलोकयध्वं, मणिरत्नोत्कटकिरीटहारादिः / आभरणसमूहोऽय, निर्माल्यमिवामुनाऽत्याजि ||8|| निध्यात नाथमुक्तं, क्रन्दत्यन्तःपुरं स्फुरदुःखम्। खतरसमीरलहरी-प्रकम्पितं खगकुलमिवाग्रे // 86 // हा नाथ ! नाथ ! किं वय-मेकपदेऽप्यशरणास्त्वया त्यक्ताः / एवं विलपन्ति जना, हृतसर्वस्वा इवेक्षध्वम् / / 6 / / इति तेन भरतभर्तु-निष्क्रमणव्यतिकरस्तथाऽदर्शि। श्रीचन्द्रनृपोऽपि यथा, तत्कालं जातवैराग्यः // 11 // स्मृतपूर्वभवश्रुतशु-द्धसंमयः,पञ्चमुष्टिकृतलोचः। सुरदत्तसाधुवेषो-विनिर्ययौ राजमन्दिरतः / / 62|| नटविलसितमिदमखिलं, निर्बाथान्नाथ ! मा स्म नस्त्याक्षीः / एवं रुदत्यपि जने, विहृतः स ऋषिर्यश्राभिमतम् // 63|| अथ पितृवियोगविह्वल-चित्तमनिच्छन्तमश्रुपूर्णाक्षम् / श्रीप्रभमुचै राज्ये, कौमारे च प्रभाचन्द्रः ||14|| विनिवेश्य विनयननैः, सामन्तैः सचिवपुङ्गवैश्चोक्तम्। अस्तोकशोकशड्कू-द्धरणप्रवणरिदं वचनैः / / 65|| मा देव ! कृथाः स्वपितुः, शोकमशोच्यो ह्यसौ महाभागः। खलमहिलेव विमुक्ता, येन समग्राऽपि राज्यश्रीः // 66|| को नाम प्रारभते, दुष्करमेवंविधं श्रमणधर्मम् / प्रायो वैराग्यमतिः, क्षणमेकं मतिमतामपि यत् // 67|| शोच्यास्त एव ये का-लधर्मतामुपगता अकृतसुकृताः। यैरुद्यतमतिधर्मे, ते भुवने पञ्चषाः पुरुषाः / / 68|| निशमयति को न समयं ? कः सर्व नेक्षते क्षणविनाशि? प्रतिसमयभाविमरणं, शरीरिणां को न भावयति ?IEI को वा हृदि-नहि धत्ते, गुरूपदेशं सदा सुखनिवेशम् ? कस्य नवा प्रियमक्षय-मनन्तमसदृशममृतसौख्यम् ? / / 10 / / किंतु चलचित्तभावा-त्तदनुष्ठाने भृशं गतोत्साहाः। गिरिगुरुका अपि पुरुषा, अवसर्पन्तो विलोक्यन्ते // 101 // देवेन पुनस्तत्किम-पि साहस व्यवसितं महामतिना। यदसमसाहसिकाना-मपि चेतः खलु चमत्कुरुते // 102 / / एषोऽपि देव ! परमो-पकारिभावेन नाटकविधाता। सद्धर्मसूरिरिव वो, विशेषतश्चार्चितुं युक्तः // 103 // एवं निशम्य राजा, रङ्गाचार्य प्रपूज्य विससर्ज। किंचिदुपशान्तशोको, नीतिलतासजलजलवाहः // 10 // नीहारहारधवलान्, नव्यविहारान् विधापयन् बहुशः / गुरुगौरवेण कुर्वन्, साधर्मिकलोकवात्सल्यम् // 105 // मुग्धजनं सद्धर्भे, स्थिरयन् जिनशासनोन्नतीस्तन्वन् / सामायिकपौषधसु-ख्यधर्मनिरतोऽजनि प्रायः // 106|| अथ सतत धर्मोद्यत-मजिगीषु श्रीप्रभ नृपं ज्ञात्वा / Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपभ 862 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिपभ अरिदमनक्षितिपस्त-देशमुपद्रोतुमारभत / / 107 / / ज्ञात्वेदं चरमुखतः, स भाणितः श्रीप्रभेण दूतेन / किं ननु कतिपयसीम ग्रामकुटीरकविलुण्टनतः ||108|| पूर्वजविहितप्रणय-प्राग्भारमसारमारचय्य भृशम् / आदृत्य दुर्जनत्वं, विप्रियमेवं मम विधत्से ?||106 / / यतः - ते धन्याः सत्पुरुषा, येषां स्नेहो ह्यभिन्नमुखरागः। वृद्धि गच्छन्ननुदिन-मृणमिव पुत्रेषु संचरति / / 110 / / तस्मादितोऽपराधा-दद्याप्युपरम मयाऽऽग एतत्ते / क्षान्तं नह्यश्रेगू-भवाम्यहं स्नेहतरुभेदे // 111|| श्रुत्वेत्यरिदमननृप-स्तं दूतं प्रतिहसन्निति जजल्प। भो भो त्वया निजप्रभु-रेवं वाच्यो मदीयगिरा ||112 // यथाःतव पार्थिव ! धर्मार्थ, सविस्तरारब्धकुशलकृत्यस्य। पृथ्व्याः परिपन्थनया, कृतमनयाऽनर्थकारिण्या // 113 // अथ वाञ्छस्येनामपि तद् दूरं मुश्च धर्मकर्मेदम्। एकत्र कथं संभव-ति खलति सीमन्तसंघटनम् ?||114 // अथ लोकरञ्जनामा-त्रमेष आरभ्यत त्वया धर्मः / तद् भव निश्चिन्तमना, न हन्मि तव देशमहमधुना // 11 // पूर्वप्रणयप्रकटन-मवनीशानां परं जिगीषूणाम् / दूषणमेव गरिष्ठं, गाढमसामर्थ्यमथवाऽपि // 116|| श्रुत्वेति दूतमुखतः, श्रीप्रभराजः प्रदीप्तकोपाग्निः / किंकरगणेन सहसा, रणभेरी ताडयामास // 117 // तच्छब्दाकर्णनझगि-ति मिलितचतुरङ्गसैन्यपरिकलितः। शत्रु प्रति प्रतस्थे, प्रदेशसीमान्यगात् क्रमशः // 118|| अरिदमननृपोऽप्यस्या-शु संमुखे समजनिष्ट रणरसिकः / अलसा न युधे शूरा, विना इव भोजनायेह // 11 // अथ सैन्ययोर्द्वयोरपि, सुभटानां तत्र चित्रशस्त्रभृताम्। संफोटोऽजनि गगने, सविद्युतामिव पयोदानाम् // 120 // अत्यद्भुतभटवादै-रथ मालवभूभुजः सुभटसंधैः। परबलमभज्याताद्भुत-मुद्यानमिव द्विपैर्मत्तैः / / 121 / / अथ स्थमध्यारूढो, भग्नं संधीरयन्ननीकं स्वम् / उदतिष्ठतारिदमनः, समरायास्फालयश्चापम् // 122 // युगपद्विमुक्तशितविशि-खसंचयैः सोऽप्यधत्त रिपुसैन्यम् / तटपर्वतमिव जलधेः, प्रसरदलासलिलपूरैः // 123 / / क्षणमात्रादरिदमनः, परसैन्यमदैन्यभुजबलोऽभासीत् / कुटकोटिं लकुट इव, प्रभञ्जनो वृक्षलक्षमिव / / 124|| निजसैनिकभङ्गेन क्रुद्धः श्रीप्रभनृपो विपक्षबलम् / उत्तस्थे संहर्तुं , कीनाशस्यानुजन्मेव / / 125 // नैव मनागपि सेहे, मालवपतिरापतन् परानीकैः / भुजगैरिव विनतायाः, सूनुर्हरिणैरिव व्याघ्रः // 126|| विद्रुतसैन्यं पुरतः, स्थितमरिदमनं नृपं रणायाथ / आह्वास्त मालवेशो, बलानुजन्मेव भूरिबलः // 127 / / तदनु विचित्रैः शस्त्रै --रस्त्रैरपि तौ नृपावयुध्येताम्। वन्येभ्याविव दशन-रन्योन्यवधाभिलाषमती / / 128 / / युद्धवा चिरमरिदमनं, गुरुशक्तिर्मालवाधिपश्चक्रे / गतवीर्ये गतशस्त्र, भुजग निर्विषमिव नरेन्द्रः / / 126 // अरिदमननृपः श्रीप्रभ-नृपेण कलभो महागजेनेव। परिभूतः पश्चाङ्मुख-मवक्षमाणाः पलायिष्ट / / 130|| अथ तस्य श्रियमखिला, रथकट्या श्वीयहास्तिकप्रमुखाम् / जगृहे श्रीप्रभराज-स्तस्य श्रीर्विक्रमो यस्य / / 131 / / आपूर्ण इवाम्बुधरो, निवृत्य रणसागरादवन्तीशः। कृतसकललोकतोषो, निजनगरीमाजगाम ततः // 132 / / तत्र त्रिवर्गसारं, राज्यश्रियमनुभवन्नसौ नृपतिः / भूयांसमनेहासं, स्वःसुरपतिवदतिचक्राम // 133 / / तत्र प्रभासगुरवः, समवसृता अन्यदा सुमुनिसहिताः। बन्धुपरिवारयुक्त-स्तान्नन्तुं निर्ययौ राजा / / 134|| सम्यक् विनम्य मुनिपति-मिलातलाश्लिष्टमस्तका नृपतिः / निषसाद यथास्थानक-मथ गुरुरिति देशनां विदधे // 135 / / इह हि भवसमुद्रे संसरन् भूरिकालं कथमपि मनुजत्वं प्राप्नुयात् कोऽपि जीवः / तदपि कथमपीह प्राप्य सद्धर्मकर्म क्षमतनुबलमायुर्दीर्घकालाल्लमेत // 136|| इदमपि समवाप्य प्रौढमिथ्यात्वलुप्त--- स्फुटविशदविवेकः पापतापातिरेकः। पुनरपि च भवेत्राऽनन्तशोऽनन्तदुःख व्यतिकरविधुरो यं संभ्रमी वम्भ्रमीति // 137 / / इति भवजलराशौ मजनोन्मञ्जनानि, प्रविदधदिह दैवादाप्य भूयोऽपि नृत्वम् / दृढगुणगणलब्धां जैनदीक्षां तरीवच्छ्रयत भविकलोकाः ! क्लेशविच्छेददक्षाम् // 138|| किंचअत्युत्कटभटकोटी-रथहरिकरिनिकरबलभरसमृद्धाः। यैर्जीयन्ते रिपवः, परः शता जगति ते पुरुषाः / / 136 / येन पुनः स्वात्माऽसा-वनल्पकुविकल्पकल्पनाकलितः / जीयेत तेन विजितं, त्रिजगदिदं परमशूरोऽसौ // 140 / / तथा चार्षम् - जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुजए जिणे। एगं जिणिज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ // 141 // एगे जिए जिया पंच, पंच जिए जिया दस। दसहाउ जिणित्ताणं, सव्वसत्तू जिणिज तो // 142 / / इत्याकर्ण्य श्रीप्रभ, आनम्य गुरूनुवाच वः पार्श्व / प्रव्रज्यामादास्ये, राज्यं न्यस्य प्रभाचन्द्रे // 143|| देवानुप्रिय !, माऽस्य, व्यधाः प्रमादमिति सूरिणा गदिते / राजा च सपरिवारो, निजधाम जगाम मुदितमनाः // 144|| अथ सकलराजलोक-प्रत्यक्षं भ्रातरं प्रभाचन्द्रम्। संस्थाप्य राज्यभारे, प्रददाविति, नरपतिः शिक्षाम् / / 145 / / वत्सान्तरङ्गशत्रून-सदा जयेरविजये यतस्तेषाम्। विजिता अप्यजिताः खलु, बलवन्तः शत्रवो बाह्याः // 146|| परिपालयेः प्रजास्त्वं, मालिक इव सुमनसः प्रयत्नेन। सर्वत्राप्यौचित्यं, हृदये दंध्या जिनेन्द्रमिव / / 147 / / इतरेतराविघाते-न वत्स ! धर्मार्थकामपुरुषार्थात्। प्रतिलेखनादिचेष्टाः, सुसाधुरिव साधयेः सततम् / / 148|| सिचयमिवानलदूषित मुज्झेर्निजमपि नयेन परिहीणम् / दुर्दममिन्द्रियवर्ग दमयेस्तुरगाहिनिवहमिव / / 146 / / परिवर्जयेः कुसङ्ग, द्विदलात्ते घोलभोजनमिवोचैः / / Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपम 863 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिपभ सेवेथा आर्यजनं, घनं यथा चातकसमूहः / / 150 / / बन्धो बन्धुरभक्त्या, बन्धुमिव श्राद्वलोकमचेथाः / रक्षेर्नयेन वसुधां, सुधां यथा भोगिनां भर्ता // 151 / / आधारस्त्वमसि भुवो, नाधारस्तव समस्ति कश्चिदपि / आत्मानमात्मनैव हि, तत्सततं धारयेवत्स !!|152 / / इत्युक्त्वा तुष्णीकी- भूते श्रीप्रभनृपे प्रभाचन्द्रः / एवमिति प्रतिपेदे, सर्व भक्त्या नमग्रीवः / / 153|| अथ सुस्नातविलिप्तो, रत्नालंकारभूषितशरीरः / सदशांशुकसिचयधरो, द्ददर्थिभ्यो महादानम् // 154 // कृतसकलसंघपूजो, भ्रातृविधापितसहस्रनरबाह्याम् / शिविकामध्यासामा-स पुष्पकं यक्षराज इव / / 155|| चतुरङ्ग चमूयुक्ते-न बन्धुभूपेन विनयनम्रण। अनुगम्यमान उचै- मार्गाधः कृतजयजयारावः // 156 / / पुर्या मध्यं मध्ये-न निर्ययौ नरपतिर्महाभूत्या / गुरुपदपावितमुद्या-नमाप्य शिबिकात उदतारीत् // 157 / / अथ भूषणसंभारं विश्वं विश्वम्भरापतिझगिति / उदतारयदङ्गाद् भुज-दण्डादिव वसुमतीभारम् // 158|| सिद्धान्तगदितविधिना, गुरुणाऽथ श्रीप्रभः परिव्राज्य / परमां मुदं दधत्सा, भारत्या समनुशिष्ट इति / / 156 / / कमठेन्दुदर्शनमिव, प्राप्य दुरापां जिनाधिपतिदीक्षाम् / शयनासनादिचेष्टा, सकलाऽपि हि यतनया कार्या // 160 // यतःयतना सुधर्मजननी, यतना धर्मस्य पालनी नित्यम् / तवृद्धिकरी यतना, सर्वत्र सुखावहा यतना // 161 / / एकामेव हि यतनां, संसेव्य विलीनकर्ममलपटलाः / प्रापुरनन्ताः सत्त्वाः, शिवमक्षयमव्ययं स्थानम् // 162 / / एवं शिक्षां दत्त्वा, प्रभासगुरवो विजडुरन्यत्र / शारदिकवारिदा इव, तिष्ठन्त्येकत्र न हि मुनयः // 163 // श्रीप्रभराजर्षिरपि, प्रति समयविशुध्यदमलपरिणामः / यूथपतिनेव कलभः, सततं विजहार सह गुरुणा // 164|| जिनपरिवृढगदितागम-सूत्रार्थसुधां पिबन्नमर्त्य इव / पञ्चमहाव्रतभारं, दधदवनीभारमिव शेषः // 16 // पञ्च निशाताः समिती-हस्तशरानिव धनुर्धरी विभ्रत्। तिम्रो गुप्तीः शक्ती-नरपतिरिव धारयन् शुद्धाः / / 166|| मार्गानुसारिणीमिह, कुर्वन् सकलां क्रियां सुपान्थ इव / श्रद्धा प्रवरां धर्मे, तन्वन् मकरन्द इव भृङ्गः // 167 / / प्रज्ञापनीयभावे-न संयुतो भद्रवारण इवोच्चैः। साधक इव विद्यासु, प्रमादमुक्तः क्रियासु सदा / / 168|| आद्रियमाणः शक्या-नुष्ठाने योग्यमन्द इव वैद्यः / हृष्यन् गुणाढ्यसङ्गे, सरउत्सङ्गे मराल इव / / 166 / आराधयन् गुरुजनं, परमात्मानं यथा परमयोगी / सुचिरं निरतीचारं, चरणं परिपालयामास / / 170 / / अथ वर्गत्रयपालन-परायणस्य प्रभेन्दुराजस्य / / तनयावुभावभूतां, हरिषेणः पद्मसंज्ञश्च / / 171 // तौ सकलकलापूर्णी, पूर्णेन्दू इव समस्तजनसुखदौ / अपराविव भुजदण्डौ-रेजाते तस्य भूपस्य / / 172 / / अपरेधुरवनिजाने-रजनिष्टारोचिकत्वमन्नादौ / मरुनिपतितहसं इव, प्रतिदिनमक्षीयत ततोऽसौ // 173 / / आहूता वरवैद्याः, क्रिया विचित्राश्च तैः समारब्धाः। न च जज्ञे कोऽपि गुणो, व्यचिन्तय तत इति नरेन्द्रः / / 174 / / द्रव्यौषधैः किमेभि-येष्ठ पुत्रं निवेश्य राज्यभरे। कौमारे च कनिष्ठ, श्रयामि धर्मोषधमिदानीम् // 175 // अत्रान्तरे च सहसा, संजातप्रबलशूलरोगेण। अपि वैद्येः क्रियमाणो-पचार आपन्मृतिं पद्मः / / 176 / / अथ तनयमरणमाक-र्ण्य नृपतिरस्तोकशोकसंतप्तः / दम्भोलिनिहतगिसिरिव, मूछाविवशः पपात भुवि // 177|| पवनाधुपचारवशा-दवाप्य चैतन्यमिति नृपो व्यलपत् / हा पुत्र ! क्वासि गतः ? प्रतिववनं किं न मम दत्से ?||178|| उदियाय पूर्वचन्द्रो, हा ग्रस्यत मक्षु सैहिकेयेन / अहह फलेग्रहिरभवत्, तरुरुदमूल्यत महाकरिणा // 176 / / पोतः प्राप पयोनिधि-पारं तटशिखरिणा हहाऽभजि ! / दृष्टौ निधिर्विशालो, हा हा हाऽह्रियत हतविधिना ? / / 180 / / उदनमदम्भोवाहो, नभस्वताऽक्षिप्यत क्षणेनाहो ! / राज्योचितोऽजनि हहा, तनयः समहारि दैवेन !||181 / / एवं प्रलपन् सचिवै-यंबोधि कथमपि नृपोऽकरोत् सूनोः / मृतकृत्यमल्पशोकः, कालेनैवं मनसि दध्यौ // 182 / / ये दण्डसात् सुमेरुं, पृथिवीं वा छत्रसात् क्षमाः कर्तुम् / तेऽपि स्वमन्यमवितुं, नाले किं हन्त पुनरितरे !||183 / / पीयूषपोषपुष्टः, पविभीषणपाणिरमरकोटिवृतः। सुरपतिरपि सुरलोका-च्च्यवते पक्वं फलमिव द्रोः // 184|| षष्टिं पुत्रसहस्रान्, सगरश्चक्रयपि न रक्षितुमधीशः। ज्वलनप्रमाद्यमादिव, ततोऽपि किं त्वं बलिष्ठतरः ||185 // कृत्वा पातकमपि यान्, पुष्येदुत्पश्यतामपि हि तेषाम् / रङ्क इव यमेन भवी, गतशरणो नीयते कृष्ट्वा / / 186|| नीतस्ततश्च नरके, सहते खलु वेदनाः परमघोराः / जन्मान्तरानुधावी-नि देहिनामहह कर्माणि !||187|| जननी मे जनको मे. भ्राता मे सतकलत्रवर्गो मे / मिथ्यैव बुद्धिरेषा, न देहमपि वस्तुतः स्वीयम् // 188|| पुत्रादीनामेषां, भिन्नस्थानात्समेयुषां स्थाने। एकत्र निवासः खलु, विहगानामिव तरौ सायम् // 186 / / गच्छन्ति ततोऽपि पुनः, पृथक् पृथक् स्थानकेषु देहभृतः / एकत्र निशि सुषुप्ता, निशावसाने यथा पान्थाः // 16 // अरघट्टघटीन्याया-दथैहिरेयाहिरां (रों) क्रियां सततम् / इह कुर्वतां तनुभृतां, को हन्त स्वः परः को वा ?||161 / / एवं यावत् संवे-गसंगतश्चिन्तयत्यवनिनाथः। तावत् तत्रोद्याने, कुमारनन्दी गुरुः प्राप ||१६सा गुर्वागमनं ज्ञात्वा, गत्वा तत्र प्रणम्य मुनिनाथम् / उचितस्थाने निषसा-द देशनामथ गुरुर्विदधे / / 163 // दिग्भ्यः सर्वाभ्योऽपि, स्वतोऽन्यतश्चापतद्विपन्निवहाः। यमदन्तयन्त्रसंस्थाः , कष्टं जीवन्ति तनुभाजः / / 164|| जीवातुभिरगदगणै-रायुर्वेदेन सप्रभेदेन। मृत्युंजयादिभिर्वर-मन्त्रैर्नहि रक्ष्यते मृयोः // 165|| अहह खलमार्यमधनं, महाधनं मन्दमेधसं प्राज्ञम् / कवलयति सततमशरण-मविशेषेणेण समवर्ती // 166 / / तापापहमजरामर-पदमन्दश्रमणधर्मममृतसमम्। मुक्त्वा तदत्र भुवने, क्वचिदपि नान्यच्छरणमस्ति / / 167|| इत्याकर्ण्य नरेशो, विनम्य यतिपतिपदौ जगादेति / Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिपम 964 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरिवण्ण यतिधर्मेच्छोरनिशं, पालितगृहमेधिधर्मस्य // 168 / / पूर्वभवार्जितगुरुतर-रोगभरप्रसरविधुरदेहस्य। दीक्षां गृहीतुमनलं-भूष्णोरुचितं किमधुना मे ?||166 / / अल्पायुष्कत्वमथो, जानन्नृपतेर्गुरुर्बभाणेदम् / स्वातीचारान् विकटय, यमांश्च पुनरुचर नरेश // 200 / / क्षमयस्व प्राणिगणं, व्युत्सृज सर्वाणि पातकपदानि / जिनसिद्धसाधुधर्म, सम्यक् शरणं प्रपद्यस्व // 201|| गर्हस्व दुष्कृतभरं, कुरुष्व सुकृतानुमोदनं भूप !! शुभभावनां च भावय, मुदितोऽनशनं प्रपद्यस्व / / 202 / / पञ्च नमस्कारं स्मर, विमुञ्च ममतां च राज्यराष्ट्रादौ / इति गुरुगिरो निशम्य, प्रमुदितचित्तो महीभर्ता // 203|| निजतनये हरिषेणे, हर्षेण निवेश्य वसुमतीभारम् / संघं च क्षमयित्वा, विधाप्त पूजां जिनगृहेषु // 204|| सुगुरोः समक्षमनशन-मुररीचक्रे समाहितमनस्कः / स्वाध्यायध्यानपरो, वासरसप्तकमतीयाय / / 20 / / विदलचरणावारक-कर्मचयोऽत्रान्तरे प्रभाचन्द्रः / विहिताञ्जलिगुरुं प्रति, विज्ञपयामासिवानेवम् // 206 / / दीक्षा जगृहे न भया, प्रभोऽल्पसत्त्वेन पूर्वमधुना किम् / सा समुचित ग्रहीतुं, नवेति ? गुरुराह भो भूप !!|207 / / एकाहमपि प्राणी, प्रव्रज्यां पालयेदनन्यमनाः। यदि नहि गच्छेन्मोक्षं, स भवेद्वैमानिकोऽवश्यम् / / 208|| तत्संस्तारकदीक्षा-मधुनाऽपि विधेहि धेहि समभावम् / श्रुत्वैवं मुदितमनाः, संस्तारकयत्यभून् नृपतिः // 206 / अनिशं श्रुतिपत्रपुटे-न पिवन् समयामृतं विगततृष्णः / अवगाढो हंस इव, स्फूर्जन्निरवधिसमाधिहदे // 210|| पक्षं विहितानशनः, पञ्चनमस्कृतिमनुस्मरन् मनसि / मृत्वा स वैजयन्ते, महर्द्धिरमरः समुत्पेदे // 211|| ग्रामपुरकर्वटादिषु, सार्द्ध विहरन् प्रभासमुनिपतिना। श्रीप्रभमुनिररिदमन-क्षितिपतिजनपदमथायासीत् // 212 // तत्र च निशम्य लोकात्, प्रमेन्दुराजस्य मरणवृत्तान्तम् / वैराग्योपगतमना, एवं स महामना दध्यौ // 213 // धन्यः कृतकृत्योऽयं, कृतार्थजन्मा नृपः प्रभाचन्द्रः। पण्डितमरणं लब्धं, भवकोटिसुदुर्लभं येन // 214 // सुरगिरिधीरेणापि च, मर्त्तव्यं फरुमीरुणाऽपि तथा / उभयोर्नियते मरणे, धीरतया तदरं मरणम् // 21 // तद्वेधाकृतसंले-खनस्य चिरविहितविमलचरणस्य / अभ्युद्यतमरणं खलु, विधातुमुचितं ममाप्यधुना / / 216|| एवं विषाव्य, स मुनि-गुरूननुज्ञाप्य पापरिपुमुक्तः / प्रतिसमयशुध्यदध्यव-सायो देहेऽपि च निरीहः // 217 / / समशत्रुमित्रभावो, निर्जन्तुशिलातलं समनुसृत्य / विदधे विधिना सुमना, अनशनमथ पादपोपगमम् / / 218 // अत्रान्तरे चरमुखा-दरिदमननृपो निशम्य तवृत्तम्। आगम्य तत्र हृष्ट-स्तस्य मुनरिति नुतिं चक्रे // 216 / / जय जय मुनीश ! विकसित शतदलपटलविमलकीर्तिभर !! निःशेषसत्त्वसंहति-रक्षादक्षाशय ! सुधीर !!|220 / / शुचिसत्यवचनरचना-प्रपञ्चपीयूषशमितभवदाह ! / दशनविशोधनमात्रेऽपि परधने निःस्पृहमनस्क ! / / 221 / / जितभुवनभदनमदकल !, कुम्भस्थलदलनकेसरिवरिष्ठ !! घदलमधूलिलीला-परिमुक्त ! प्राज्यसाम्राज्य !222 / / मैत्रीप्रमोदकरुणा-माध्यस्थ्यमहार्णवावगाढाय / अतिदुष्करतरतपसे, नमो नमस्ते महाभाग ! // 223 / / इति तेन नूयमानोऽपि सर्वथात्कर्षवर्जितः स मुनिः। तत्कालं त्रुटितायुः, परमं ध्यानं समधिरूढः / / 22 / / मुक्त्वा तनूमवक्रय-कुटीपरित्यागहेलयाऽत्रैव / सर्वार्थवरविमाने, त्रिदशवरिष्टः समजनिष्ट / / 225 / / हर्षप्रकर्षकलितै-रथ तस्य कलेवरस्य सन्निहितैः / विबुधैर्विदधे महिमा, गन्धोदककुसुमवर्षेण / / 226 / / देवः स तत्र हस्तो-च्छ्यो निशाकरकरप्रतिमरोचिः / त्रियुतत्रिंशजलधि-स्थितिरहमिन्द्रो विगतमानः // 227 / / सुखशय्यामधिशयितो, निष्प्रतिकर्मा सदा विमललेश्यः / मुक्तस्थानान्तरगति-रकृतोत्तरवैक्रियविकारः // 228|| यायुःसागरसंख्यैः, पक्षैः कुर्वन् सुगन्धि निःश्वसितम् / वर्षसहस्रेस्ताव-द्भिरेप आहारयन् मनसा // 226 // भिन्नां च लोकनाली, विलोकयन्नवधिसंपदा मुदितः / निवृतिसुखदेशीयं, सुखमनुभूय प्रवरतेजाः // 230|| स्वस्वस्थानाच्च्युत्वा, श्रीप्रभजीवः प्रभेन्दुजीवश्व / अपरविदेहे मुक्तिं, लप्स्येते शुद्धचरणेन // 231 // एवं संयुत एकविंशतिगुणैः स श्रीप्रभः क्ष्मापतिः, साधुश्रावकधर्मभारधरणे धौरेयकोऽजायत / / तद् भो भव्यजनाः ! सनातनसुखस्थानाप्तिबद्धादरा !, एतान् मूलगुणानुपार्जितुमहो यत्नं विधत्तान्वहम् // 23 // (इति श्रीप्रभमहाराजकथा।) ध० 203 अधि०७ लक्ष० / सिरिमुह-(देशी) मन्दमुखे, दे० ना० 8 वर्ग 32 गाथा / सिरियक-पुं० (श्रीयक) स्थूलभद्रस्वामिभ्रातरि सकटालसुते, आ० क०४ अ०॥ सिरिवओ-(देशी) हंसे, दे० ना०८ वर्ग 32 गाथा। सिरिवच्छ-न० (श्रीवत्स) माहेन्द्रकल्पस्य स्वनामख्याते पारियानिके विमाने, स्था० 5 ठा०३ उ० / जं०। प्रव० / औ०। एकादशे देवलोकविमाने, स०२१ सम०। माङ्गलिकचिह्नभेदे, जं०१ वक्ष०। रा० / महापुरुषाणां वक्षोऽन्तर्वर्तिनि अभ्युन्नताऽवयवे लाञ्छनविशेषे, जं०३ दक्ष०। *श्रीवक्षम्-पुं० जिनादिवक्षश्चिह्नविशेषे, रा०। आ० म०। स०। सिरिवच्छा-स्त्री०(श्रीवत्सा) श्रीश्रेयांसस्य शासनदेव्याम्मतान्तरेणमानवी गौरवर्णा सिंहवाहना चतुर्भुजा वरदमुद्गरान्वित दक्षिणकरद्वया कलशाकुशसंयुक्तवामकरद्वया च / प्रव० 26 द्वार / सिरिवच्छंकियवच्छ-पुं०(श्रीवृक्षाङ्कितवक्षम्) श्रीवृक्षणाङ्कितं लाच्छितं दक्षो येषां ते श्रीवृक्षाङ्कितवक्षसः / श्रीवत्सचिह्नाङ्कितेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि०। औ० / अन्त०! सिरिवळिसय-न० (ग्यवतंसक) सौधर्मकल्पविमानभेदे, नि०१ श्रु० 3 वर्ग 10 अ०। सिरिवण-न० (श्रीवन) पोलासपुरे नगरे स्वनामख्याते उद्याने, अन्तः। सिरिवण-न० (श्रीपर्ण) भघिलपुरस्योत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे स्वनाम ख्याते विमाने, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 1 अ०। Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिवण्णी 865 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिरोहमज्जा सिरिवण्णी-स्त्री० (श्रीपण्णी) लोकप्रतीतौषधिविशेषे, आचा०२ श्रु० | सिरिसोम-पुं० (श्रीसोम) अर्बुदपर्वते कषोपलमयबिम्बप्रतिष्ठापयत१ चू० 1 अ० 8 उ० / प्रज्ञा० / स्तेजःपालस्य तत्पूर्ववंश्यानां मूर्तिनिवेशनिदेशकृति श्रावके, ती०७ सिरिवद्धमाण-पुं० (श्रीवर्द्धमान) वीरजिने, स्या० / श्रीवर्द्धमानमिति कल्प० / भरते वर्षे भविष्यति स्वनामख्याते सप्तमे कुलकरे, ती०२० विशेष्यपदमपि विशेषणरूपतया व्याख्यायतेश्रिया-चतुस्विंशदतिशय कल्प०॥ समृद्ध्यनुभवात्मकभावार्हन्त्यरूपया वर्द्धमानं वर्द्धिष्णुं नन्वतिशयानां सिरिहर-त्रि० (श्रीधर) शोभावति, ज्ञा० 1 श्रु०६ अ०। भारतातीते परिमिततयैव सिद्धान्ते प्रसिद्धत्वात्कथं वर्द्धमानतोपपत्तिः ? इति चेत् / सप्तमे जिनेश्वरे, प्रव०७ द्वार / पार्श्वनाथस्य षष्ठे गणधरे, कल्प०१ न / यथा निशीथचूर्णी भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्र लंख्यबाह्य- अधि०१क्षण / द्वीपसमुद्रविशेषाधिपतौ, द्वी० / स्था०। लक्षणसंख्याया उपलक्षणत्वेनान्तरङ्गलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्य- *श्रीगृह-न० रत्नादिस्थाने, नि० चू० 1 उ01 आ० क० मुक्तम्, एवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरिमितत्वम सिरिहरय-न० (श्रीगृहक) भाण्डागारे, व्य० 6 उ०। विरुद्धम् / ततो नातिशयश्रिया वर्धमानत्वं दोषाश्रय इति / स्या०। सिरिहरिय--पुं० (श्रीगृहिक) श्रियो गृहं भाण्डागारं तद्विद्यते यस्य स सिरिवप्पहट्टसूरि-पुं०(श्रीवप्पहट्टसूरि) विक्रम 823 वत्सरेषु मथुरायां : श्रीगृहिकः ! भाण्डागारिके, कर्म० 1 कर्म० / वीरबिम्बस्थापके सूरौ, ती० 8 कल्प० / सिरिहरिसपुर-न० (श्रीहर्षपुर)स्वनामख्याते नगरे, यत्र हर्षपुरीयगच्छः सिरिवर-पुं० (श्रीवर) अयोध्यानगरस्य स्वनामख्याते राजनि० अष्ट० समजनि "ज्ञानादिकुसुमनिचित-फलितः श्रीमन्मुनीन्द्रफलवृन्दैः / 25 अष्ट / शोभाप्रधाने, कल्प० 1 अधि०३ क्षण / कल्पद्रुम इव गच्छः, श्रीहर्षपुरीयनामास्ति / / 1 / / " अनु० / सिरिवसह-पुं० (श्रीवृषभ) स्वनामख्याते आदितीर्थकरे, प्रव० 146 | सिरिहल-न० (श्रीफल) बिल्बे, पाइ० ना० 148 माथा / द्वार। सिरी-स्त्री० (श्री) अनन्यसाधारणतपस्तेजोविभूतौ, विपा०२ श्रु०१ सिरिवारिसेण-पुं०(श्रीवारिषेण) ऐरवते वर्षे जाते चतुर्विशतिजिननाथे, | अ० लक्ष्याम्, दशा० 10 अ० / स्था० / "श्रीमङ्गलात् प्रभवति, प्रव० 7 द्वार। प्रागल्भ्यात्संप्रवर्द्धते / दाक्ष्यात्तु कुरुते मूलं, संयमात्प्रतितिष्ठति सिरिविजय-पुं० (श्रीविजय) श्रीरामविजयपण्डितशिष्ये कल्प // 1 // " ध० 1 अधि० / "कमला सिरी य लच्छी" पाइ० ना०६६ सुबोधिकावृत्तिकरणाद्यर्थक सूरौ, कल्प० 3 अधि०६ क्षण / गाथा / स० / पञ्चा० / आव० / विभवे, सम्पत्ती, पाइ० ना० / शोभायाम, रा० / अष्ट० / जं० 1 देहकान्तौ, आ० म० 1 अ० / सिरिवीर--पुं० (श्रीवीर) वीरजिने, “सिरिवीरजिणं वंदिअ, कम्मविवागं जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमे पद्महदाधिष्टातृदेवतायाम्, स्था०३ ठा०४ सामासओ वुच्छं।" कर्म० 1 कर्म०। उ० / अनु० / उत्तररुचकपर्वतवास्तव्यायां दिकुमारी-महत्तरिकायाम्, सिरिवीरधवल-पुं० (श्रीवीरधवल) गुर्जरधरित्रीराजे पोरवारकुलमण्डने, स्था० 8 ठा०३ उ०। आ० म० / आ० क० / जं० / पोलासपुरती० 4 कल्प०। नगरराजस्य विजयस्य भार्यायामतिमुक्तककुमारमातरि, स्था० 10 सिरिस-पुं० (शिरीष) वृक्षविशेषे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। ठा०३ उ० / अन्त०। कुन्थुजिनमातरि, ती०५ कल्प। सिरिसंभूया-स्त्री० (श्रीसंभूता) षष्ठ्यां रात्रितिश्चौ, चं० प्र०१ पाहु०। सिरीस-पुं० (शिरीष) वृक्षविशेषे, रा० / जं०1 कल्प० जं०। सिरोरुह-न० (शिरोरुह) केशे, पाइ० ना० 106 गाथा। सिरिसमुदाय पुं० (श्रीसमुदाय) शोभासमूह, कल्प० 1 अधि०३ क्षण।। सिरोवत्थी-स्त्री० (शिरोवस्ति) शिरति बद्धस्य, चर्मकोषस्य संस्कृतसिरिसही-स्त्री० (श्रीसखी) श्रीविजयसेनस्य चन्द्रकान्ता-नगरीराजस्य तैलापूरलक्षणे वैद्यकर्मणि, ज्ञा०१ श्रु० 13 अ० / विपा० / भार्यायाम, श्रीकान्ताख्यव्यवहारिणो भार्यायां च / कल्प० 1 अधि० शिरोविशुद्ध-न० (शिरोविशुद्ध) यदास्वरः शिरःप्राप्तः सन्सानुनासिको १क्षण। भवति ततः शिरोविशुद्धम् / करणविशुद्धे गेये, रा० / सिरिसिद्धंतमहोदधि-पुं० (श्रीसिद्धान्तमहोदधि) शोभनागम्- | सिरोवेदणा-स्त्री० (शिरोवेदना) शिरःपीडायाम्, जी० 3 प्रति० 4 बृहत्समुद्रे, जा० 1 प्रति०। अधिक। सिरिसिवय-पुं० (श्रीसिवय) अस्यामवसर्पिण्यां जाते, ऐरवतदशमजिने, | सिरोवेह-पुं० (शिरोवेध) नाडीवेधेन रुधिरमोक्षणे, ज्ञा० 1 श्रु०१३ प्रव०७ द्वार। अ०। सिरिसिहर-पुं० (श्रीशेखर) स्वनामख्याते कुम्भपुरनगरराजे, दर्श०१ सिरोहमजा-स्त्री० (शिरोहमज्जा) स्वनामख्यातायां नगर्याम्, ती०४८ तत्त्व। कल्प०। Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरोहरा 866 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिव सिोहरा-स्त्री० (शिरोधरा) ग्रीवायाम्, पाइ० ना० 110 गाथा। सिलिपइ-त्रि० (श्लीपदिन्) श्लीपदनाम्ना रोगेण यस्य पादौ शूनौ - सिलओ-(देशी) उञ्छे, दे० ना० 8 वर्ग 30 गाथा / शिलावन्महाप्रमाणौ भवतः / तस्मिन्, बृ० 1 उ० 2 प्रक०। . सिलग्घ-त्रि० (श्लाध्य) कथनीये, आ० म० 1 अ०। सिलिम्ह-पुं० (श्लेष्मन्) "लात्"॥८२०१०६|| संयुक्त-स्यान्त्य व्यञ्जनाल्लात्पूर्व इद्भवति / इतीत्-सिलिम्हो / "श्लेष्मणि वा" सिलप्पवाल-न० (शिलाप्रवाल) शिलारूपं प्रवालं श्रिया युक्तं वा | |बा२।५५।। श्लेष्मशब्दे ष्मस्य फो भवति / फादेशाभावे सिलिम्ह। प्रवालं श्रीप्रवालम् / वर्णादिगुणोपेते विद्रुमे, सूत्र०२ श्रु०१ अ० / जी० / शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि / अन्ये त्वाहुः शिला राज प्रा० / खेले, आव० 4 अ०। पट्टादिरूपाः प्रवालंविद्वमम् / दशा०६ अ०भ०। रा०ा औ०। तं०।। सिलिय-पुं० (सिलिक) प्रतलपाषाणरूपशस्त्रतीक्ष्णीकरणार्थ, किराततिक्तकादितृणे च / ज्ञा०१ श्रु० 13 अ० / विशे० / सिला-स्त्री० (शिला) राजपट्टे, गन्धपेषशिलायाम्, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। घट्टनयोग्ये देवकुलपीठाधुपयोगिनि महति पाषाणविशेषे, जी० सिलीमुह-पुं० (शिलीमुख) बाणे, पाइ० ना० 36 गाथा / 1 प्रति० / प्रज्ञा० / दशा० / दश / विपा० / स्फटिकादिके, स्था० | सिलीवय-न० (श्लीपद) पादादौ काठिन्यरूपे रोगे, आचा० 1 श्रु०६ 6 ठा०३ उ०। बृ० / कल्प० / तीर्थकृज्जन्माभिषेकसिंहासना-धार- अ०१ उ०। भूतायां शिलायाम, सूत्र० 2 श्रु० 1 अ० / राजपट्टेके, गच्छपट्टे | सिलेलियमच्छ-पुं० (शिलेलिकामत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रतिः / इत्यन्ये / अनु० / कात्यायनगोत्रस्य वृषभस्य दुहितरि ब्रह्मदत्तचक्रवर्त्तिनो | सिलेस-धा० (श्लिष) आलिङ्गने, "श्लेिषः सामग्गावयासभार्यायाम, उत्त० 13 अ० / पाषाणे, पाइ० ना० 113 गाथा। परिअन्ता" ||8/4/160 // श्लिष्यतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति। पक्षे-- सिलाइच-पुं० (शिलादित्य) स्वनामख्याते वलभीपुरराजे, ती०१६ सिलेसइ / श्लिष्यति / प्रा०४ पाद / कल्प० / (तत्कथा 'सचउर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 273 पृष्ठे गता 1) *म्लेष-पुं० श्लेषयतीति श्लेषः / "लात्" / / 2 / 106 / / इति सिलागहत्थ-पुं० (शलाकाहस्त) अयःशलाकादिरूपे (दश० 4 सूत्रेण लात्पूर्वमिकारः / प्रा० / सर्जरसादौ, आचा० 1 श्रु०१ अ०५ अ०।) शलाकासङ्गातरूपे सहित्पर्णादिशलाकाहस्तके, रा०। उ० भावे घञ्। समाश्रयणे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। वज्रलेपे, भ०८ सिलागा-स्त्री० (सलाका) वेत्रादौ, नि० चू० 1 उ० / अयः-- श०६ उ०। शलाकादौ, दश० 4 अ०। सिलोग-पुं० (श्लोक) आत्मश्लाघायाम, सूत्र० 1 श्रु० 13 अ०। सिलाघा-स्त्री० (श्लाघा) गुणोद्घट्टने, स्था० 4 ठा०४ उ० / लोके, पा०1 विशे० / लाघायाम्, सूत्र०१ श्रु०१३ अ० / अनु० / ज्ञा० / यशशि, आव० 4 अ० / सूत्र० / कीर्ती, स्था० 7 ठा०३ उ० / आचा० / अनुष्टुपच्छन्दसि, स०। सिलाणिहिय-त्रि० (शिलानिहित) शिलाप्राप्ते, जं०३ वक्ष० / जं० / ज्ञा० / गुणवचनैर्वर्णनायाम्, नि० चू०१ उ० / स०। सिलापट्टय-पुं० (शिलापट्टक) मसृणशिलायाम, आ० म० 1 अ०।। सिलोगगामी-त्रि० (श्लोककामिन) आत्मश्लाघाभिलाषिणि, सूत्र०१ ज्ञा०। श्रु० 12 अ०। सिलावुठ्ठ-न० (शिलावृष्ट) शिलाशब्देन करका गृह्यन्ते वृष्टं * लोकगामिन्-त्रि० श्लोकः-श्लाघा कीर्तिस्तद्गामी यः / वर्षणम् / करकादिवृष्टी, दश० 8 अ०। यशोऽभिलाषुके, सूत्र० 1 श्रु० 13 अ०। सिलावुट्टि-स्त्री० (शिलावृष्टि) पाषाणनिपतने, करकादिशिलावर्षणे सिलोगाणुवाइ-त्रि० (श्लोकानुपातिन्) श्लोकं ख्यातिमनुपतति इति च / प्रव० 268 द्वार / व्य०। श्लोकानुपाती / यशोऽर्थिनि, स्था०६ ठा० 3 उ०। सिलिंद-पुं० (शिलिन्द) मुक्रुष्टधान्यविशेषे, ग० 2 अधि० दश० / ध० / सिलोचय-पुं० (शिलोचय) शिलानां पाण्डुशिलादीनामूर्ध्वशिरस उपरि च यत्र सम्भवो स शिलोचयः / जं० 4 वक्ष० / मेरुपर्वते, सू० प्र०५ सिलिंध-पुं० (शिलीन्ध्र) छत्रके, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / प्रज्ञा० / पाहु०। चं० प्र० / पर्वतमात्रे, पाइ० ना०! भूमिस्फोटे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। भूमिस्फोटकछत्रके, औ०। सिल्हग-न० (सिल्हक) गन्धद्रव्यविशेषे, आ० म०१ अ०। सिर्लिधपुप्फप्पगास-त्रि० (शिलीन्ध्रपुष्पप्रकाश) शिलीन्ध्र-कुसुमप्रभे ईषत्सिते, औ०। सिव-न० (शिव) व्यन्तरकृतोपद्रवाभावे, बृ० 1 उ० 2 प्रक० / भ० / कल्प० / स्था० / व्य० / मन्त्रादिसामर्थ्यादुपशमितोपद्रव, अनु० / सिलिंब (देशी)-शिशौ, दे० ना० 8 वर्ग 30 गाथा सकलद्वन्द्ववर्जितत्वात् / प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / दर्श० / उपद्रवोपशसिलिट्ठ-त्रि० (श्लिष्ट) रुचिरे, विशिष्टे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० / महेतुत्वात्। ज्ञा०१श्रु०१ अ०। सर्वोपद्रवरहितत्वात्। औ० / ध०। सुसंहतावयवे, आ० म० 1 अ० / संगते, औ० / सुठु जुत्तं रा०! ल० / भ० / ज्ञा० / मोक्षपदे, सूत्र०१ श्रु० 1 अ01 विशे०। श्लिष्टमित्यनर्थान्तरम् / आ० चू०१ अ०। आ० म० स० / अबाधके, सर्वदुःखमोक्षे, निर्वाणे, स० / आ० म०। Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव 867 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिव सर्वोपद्रवभावतानाबाधे, उत्त० 23 अ०। स० / भ०। सुखे, विशे० / उपद्रवहरे, कल्प०१ अधि०२ क्षण / शिवहेतौ, प्रश्र०२ आश्र० द्वार / शान्तौ, रा० / निरुपद्रवकारिणि, कल्प० 1 अधि० 3 क्षण / सदा मङ्गलोपेते, जं० 1 वक्षः / जी० / सामायिके, आ० चू० 1 अ०। आव० / तस्योपद्रवकारित्वाभावात् / आ० म०१ अ० / पञ्चमबलदेववासुदेवयोः पितरि, स०। आव०। ति०।स्था० श्रावणादिगणनया पौषमासे, जं०७ वक्ष०। सूत्र० / आकारविशेषधरे देवताविशेषे, रा०। जी० / भ० / अनु० / व्यन्तरविशेषे, ग० 2 अधि० / महादेवे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / महादेवशब्देनार्हन्त एव, तेषामेव महादेवत्वात् / हा० १अष्ट०। उत्त० / अकोपनं तत्र वा हरति, पञ्चत्रिंशत्तमे सूरिगुणविशिष्टे, प्रव०६५ द्वार। कल्याणकरे, दर्श०१ तत्त्व / रा० सौम्ये, सुखकारिणि, कल्प०१ अधि० 3 क्षण! तगरायां नगर्या कस्यचिदाचार्यस्थाष्टानां शिष्याणां तृतीये सुशिष्ये, व्य० 10 उ० / भ० स्था० / आ० चू० आ० म०। श्रीवीरेण सह प्रव्रजिते (स्था०८ ठा०३ उ०।) स्वनामख्याते हस्तिनापुरनगरराजे, भ० / शिवराजर्षिसंविधानकं नवमोद्देशकं प्राह, तस्य चेदमादिसूत्रम् // तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणापुरे नामं नगरे होत्था वन्नओ। तस्सणं हत्थिणापुरस्सनगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ णं सहरसऽम्बवणे णाम उज्जाणे होत्था, सव्वोउयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे गंदणवणसंनिगासे सुहसीयलच्छाए मणोरमे सादुफले अकंटए पासादीए० जावपडिरूवे / तत्थ णं हथिणापुरे नगरे सिवे नामं राया होत्था, महयाहिमवंत० वन्नओ। तस्स णं सिवस्स रनो धारिणी नामं देवी होत्था सुकुमालपाणिपाया० वनओ / तस्स णं सिवस्स रनो पुत्ते धारणीए अत्तए सिवभद्दए नाम कुमारे होत्था सुकुमाल० जहा सूरियकंतेजाव पचुवेक्खमाणे पचुवेक्खमाणे विहरइ / तएणं तस्स सिवस्स रनो अन्नया कयावि पुटवरत्तावरत्तकालसमयंसि रजधुरं चिंतेमाणस्स अयमेयारूवे अन्मत्थिए० जाव | समुप्पजित्था- अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं जहा तामलिस्स० जाव पुत्तेहिं बडामि पसूहि वडामि रजेणं वडामि एवं रटेणं बलेणं वाहणेणं कोसेणं कोहागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वडामि विपुलधणकणगरयण० जाव संतसारसावएजेणं अतीव अतीव अभिवटामितं किन्नं अहं पुरा पोराणाणं० जाव एगंतसोक्खयं उव्वेहमाणे विहरामि? तं जाव ताव अहं हिरनेणं वडामि तं चेव० जाव अभिवटामि० जाव मे सामंतरायाणो वि वसे वटुंति ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभयाए० जाव जलंते सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे ठावेत्ता तं सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं ताव सभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूले वाणपत्था तावसा भवंति, तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सडई थालई जंच उद्वदंतुक्खलिया उम्मजया संमजगा निमजगा संपखाला उद्धकंडूयगा अहोकंडूयगा दाहिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमया कूलधमगा मितलुद्धा हत्थितावसा जलाभिसेयकिठिणगाया अंबुवासिणो वाउवासिणो जलवासिणो चेलवासिणो अंबुभक्खिणो वायभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा पत्ताहारापुप्फाहारा फलाहाराबीयाहारा परिसडियकंदमूलपंडुपत्तपुप्फफल हारा उदंडा रुक्खमूलिया वालवासिणो वक्कपासिणो दिसापोक्खिया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं पिव कंडुसोल्लियं पिव कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं० जाव करेमाणा विहरंति जहा उववाइएक जाव कट्टसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा विहरति / तत्थ णं जे ते दिसा पोक्खियतावसा तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइत्तए, पव्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामिकप्पइ मे जावजीवाए छटुं छट्टेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचकवालेणं तवोकम्मेणं उड्ड बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय० जाव विहरित्तए त्ति कटु, एवं संपेहेति संपेहेत्ता कल्लं,जाव जलंते सुबहुं लोहीलोह० जाव घडावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणागपुरं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसिय० जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं से सिवे राया दोन पि कोडंबिय पुरिसे सहावे ति सरावेत्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं 3 विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तहेव उवट्ठति। तएण से सिवे राया अणेगगणनायगदंडनायग० जाव संधिपालसद्धिं संपरिवुडे सिवभई कुमारं सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहं निसीयावेन्ति 2 त्ता अहसएणं सोवनियाणं कलसाणं० जाव अट्ठसएणं भोभेजाणं कलसाणं सव्विड्डीए० जाव रवेणं महया 2 रायाभिसेएणं अभिसिंचइ २त्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभिए गंधकासाईए गायाइं लूहेइ पम्ह०२त्ता सरसेणं गोसीसेणं एवं जहेव जमालिस्स अलंकारो तहेव० जाव कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेंति 2 त्ता करयल० जाव कटु सिवभई कुमारं जएणं विजएणं बद्धावेति जएणं विजएणं बद्धावेता ताहिं इटाहि कंताहिं पियाहिं जहा उववाइए कोणियस्स० जाव परमाउं पालयाहि इट्ठजणसंपरिखुडे हत्थिणापुरस्स नगरस्स अन्नेसिंच ब Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव 568 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिव डूणं गामागरनगर० जाव विहराहि त्ति क द जयजयसदं / तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता दब्मेहि य कुसेहि य पउंजंति / तए णं से सियभद्दे कुमारे राया जाए महया वालुयाएहि य उति रएति वेति रएत्ता सरएणं अरणिं महेति हिसवंत० वन्नओ० जाव विहरइ / तए णं से सिवे राया अन्नया सरएत्ता अग्गि पाडेति अ० ता अगि संधुक्केइ अ० त्ता उयाई सोभणंसि तिहिकरणदिवसमुहुत्तनक्खत्तंसि विपुल समिहाकट्ठाइं पक्खिवइ समिहाकट्ठाई पक्खिवित्ता अगिंग असणपाणखाइयसाइमं उवक्खडाति उवक्खडावेत्ता | उज्जालेइ अ० त्ता, अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाइं समादहे। मित्तणाइविय० जाव परिजणं रायाणो य खत्तिया आमंतेति तं जहा- "सकहं वकलं ठाणं, सिज्जा भंडं कमंडलुं // आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए० जाव सरीरे भोयणवेलाए दंडदारं तहा पाणं, अहे ताई समादहे // 1 // " महुणा य घएण भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तणात्ति नियगसयण० य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, अगि हुणित्ता चरुं साहेइ, चरुं जाव परिजणेणं राएहि य खत्तिएहि य सद्धिं विपुलं साहेत्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, बलिवइस्सदेवं करेत्ता अतिहिपूर्य असणपाणखाइमसाइमं एवं जहा तामली० जाव सकारेति करेइ अतिहिपूयं करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति। संमाणति सक्कारेत्ता संमाणेत्ता तं मित्तणाति० जाव परिजणं तए णं से सिवे रायरिसी दोचं छट्ठक्खमणं उवसंपजित्ता णं रायाणो य खचिए य सिवमदं च रायाणं आपुच्छइ आपुच्छिवा विहरइ, तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंति सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छुयं० जाव भंडं गहाय जे इमे आयावण-भूमीओ पचोरुहइ आयावण० ता एवं जहा गंगाकूलगा वायपत्त्था तावसा भवंसि तं चेव० जाव तेसिं अंतिए पढमपास्णगं नवरं दाहिणगं दिसं पोक्खेति पो०त्ता दाहिणाए दिसाए जमे मह राय पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चेव मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए, पव्वइएऽवि यणं आहारमाहारेइ। तए णं से सिवरायरिसी तचं छट्ठक्खमणं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कप्पइ मे उवसंपजित्ता णं विहरति / तए णं से सिवे रायरिसी सेस तं जावज्जीवाए छ8 तं चेव० जाव अभिग्गहं अभिगिण्हइ अभिगि चेव नवरं पचच्छिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं ण्हित्ता पढमं छट्टक्खमणं उवसंपत्तिा णं विहरइ। तए णं से सेसं तं चेव० जाव आहारमाहारेइ / तए णं से सिवे रायरिसी सिवे रायरिसी पढमछट्ठक्खमणपास्णगंति आयाबधभूमीए चउत्थं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ, तए णं से सिवे पचोरुहइ आयावणभूमीए पचोरहित्ता वागलक्थनियत्थे जेणेव रायरिसी चउत्थं छहक्खमणं एवं तं चेव नवरं उत्तरदिसं सए उडए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता किढिण पोक्खेइ उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं संकाइयगं गिण्हइ गिण्हित्ता पुरच्छिमं दिसं पोक्खेइ पुरच्छिमाए अभिरक्खउ सिवं, सेसं तं चेव० जाव तओ पच्छा अप्पणा दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवे आहारमाहारेइ / (सू०४१७) तए णं तस्स सिवस्स रायरिरायरिसी अभि० 2, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य सिस्स छ8 छटेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचकवालेणं० जाव तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य आयावेमाणस्स पगइमद्दमाए०जाव विणीययाए अन्नया कयावि हस्यिाणि य ताणि अणुजाणउ ति कटु पुरच्छिमं दिसं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं पसरति पुर० त्ता जाणि य तत्थ कदांणि य० जाव हरियाणि करेमाणस्स विब्भंगे नामं नाणे समुप्पन्ने, से णं तेंण विभंगयताइंगेण्हइ गेण्हित्ता किढिणसंकाइयं भरेइ किढि०त्ता दन्भे णाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुढे तेण य कुसे य समिहाओ य पत्तामोडं च गेण्हेइ गेण्हित्ता जेणेव परं न जाणति, न पासति / तएणं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स सए उडए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता किढिणसंकाइयगं ठवेइ अयमेयारूवे अब्भत्थिए० जाव समुप्पज्जित्था अस्थि णं मम किढि० ता वेदि वड्डे वेदि ववित्ता उवलेवणसंमजणं करेइ अइसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा उव०त्ता दब्भसगम्भकलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव सत्त समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, एवं संपेहेइ उवागच्छइ गंगामहानदी ओगाहेति 2 त्ता जलमजणं करेइ 2 एवं संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पचोरहइ आया० हि त्ता त्ता जलकीडं करेइ करेत्ता जलाभिसेयं करें ति करेत्ता आयंते वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उदागच्छइ उवा०त्ता चोक्खे परमसुइभूए देवयपितिकयकज्जे दब्भसगब्भकलसाह- सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छुयं० जाव भंडगं किढिणसंकाइयं त्थगए गंगाओ महानईओ पचुत्तरइ पञ्चुत्तरित्ता जेवेण सए उडए | च गेण्हइ गेण्हित्ता जेणेव हथिणापुरे, नगरे जेणेव तावसाय Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव 566 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिव सहे तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करइ भंड० त्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिग० जाव पहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खइ० जाव एवं परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए० जाव दीवा य समुद्दा य। तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमटुं सोचा निसम्म हत्थिणापुरे नगरे सिंगाडगतिग० जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ० जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ० जाव परूवेइ अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे, जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य, समुद्दा य, से कहमेयं मन्ने एवं? तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा० जाव पडिगया / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी जहा बितियसए, नियंतुद्देसएक जाव अडमाणे बहुजणसह निसामेइ बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ एवं जाव० परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ० जाव परूवेइ-अस्थिणं देवाणुप्पिया! तंचेव० जाव वोच्छिन्ना दीवा समुदाय, से कहमेयं मन्ने एवं ? तएणं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमढं सोचा निसम्म० जाव सङ्ग्रे जहा नियंठुद्देसए० जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, से कहमेयं मंते ! एवं ? गोयमादिसमणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-जन्नं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमातिक्खइ तं चेव सवं भाणियव्वं० जाव भंडनिक्खेवं करेति हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० तं चेव० जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म तं चेव सव्वं भाणियध्वं० जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य तण्णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि० जाव परूवेमिएवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे० जाव सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेज्जे दीवसमुद्दे पन्नत्ते समणाउसो !! अस्थि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दव्वाई सवन्नाइं पि अवन्नाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि सरसाई पि अरसाई पि सफासाइं पि अफासाई पि अन्नमनबद्धाइं अन्नमन्नपुट्ठाइं० जाव घडताए चिट्ठति ? हंता अस्थि / अत्थि णं भंते ! लवणसमुद्द दवाइं सवन्नाइं पि अवनाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि सरसाइं पि अरसाई पि | सफासाई पि अफासाई पि अन्नमन्नबद्धाइं अन्नमन्नपुट्ठाई० जाव घडताए चिटुंति ? हंता अत्थि अत्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दव्वाइं सवन्नाइं पि० जाव एवं चेव एवं० जाव सयंभूरमणसंमुद्दे? जाव हंता अत्थिातएणं सामहतिमहालिया महचपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं दयम8 सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं, पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ० जाव परूवेइ-जन्नं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ० जाव परूवेइअत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणे० जाव समुद्दा य तं नो इणढे समढे, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ० जाव परूवेइ-एवं खलु एगस्स सिवस्स रायरिसिस्स छठें छटेणं तं चेव० जाव भंडनिक्खेवं करेइ भंडनिक्खेवं करेत्ता हस्थिणापुरे नगरे सिंधाडग० जाव समुद्दा य / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अतियं एयमढे सोचा निसम्म० जाव समुद्दा य तण्णं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ० जाव परूवेइ एवं खलु जंबुद्दीवादिया दीवा लवणादिया समुद्दा तं चेव जाव असंखेज्जा दीवसमुद्दा पन्नत्ता समणाउसो ! / तए णं से सिवे रायरिसी बहुजणस अंतियं एपमटुं सोचा निसम्म संकिए कंखिए बितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संकियस्स कंखियस्स० जाव कलुससमावन्नस्स से विभंगे नाणे खिप्पामेव परिवडिए / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अन्मतिथए० जाव समुप्पजित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे० जाव सय्वन्नू सव्वदरिसी आगासगएणं चक्केणं० जाव सहस्सऽम्बवणे उजाणे अहायडि-रूवं० जाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्स जहा उववाइए० जाव गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि० जाव पञ्जवासामि, एयं णे इहभवे य परभवे य० जाव भविस्सइ त्ति कटु एवं संपेहेति एवं संपेहित्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता तावसावसह अणुप्पविसति अणु० सित्ता सुबई लोहीलोहकडाह० जाव किढिणसंकातिगं च गेण्हइ किढि० गेण्हित्ता तावसावसहाओ पडिनिक्खमति तावत्ता परिवडियविन्मंगे हथिणागपुरं नगरं मन्झं मझेणं निग्गच्छ। निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे जेणेव समणे भ Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव ८७०-अभिघानराजेन्द्रः - भाग 7 सिव गवं महावीरे तेणेव उवागच्छइतेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ वंदति नमसति वंदित्ता नमसित्तानचासन्ने नाइदूरे० जाव पंजलिउडे पजुवासइ। तए णं से समणे भगवं महावीरे सिवस्स रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए०जाव आणाए आराहए भवइ / तएणं से सिवे रायरिसी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म जहा खंदओ० जाव उत्तरपुरच्छिम दिसीमागं अवकमाइ अव० त्ता सुबहुं लोहीलोहकडाह० जाव किढिणसंकातिगं एगंते एडेइ एकत्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति सयमे०त्ता समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसमदत्ते तहेव पव्वइओ तहेव इक्कारस अंगाई अहिज्जति तहेव सव्वं० जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। (सू०४१८) 'तेणं कालेण' --मित्यादि, 'महया हिमवंत वन्नओ' तिअनेन 'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे' इत्यादि राजवर्णको वाच्य इति सूचितम्, तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलयः- पर्वतविशेषो मन्दरो- मेरु: महेन्द्रः-- शक्रादिदेवराजस्तद्त्सारः- प्रधानो यः स तथा, सुकुमाल० वन्नओ' त्ति अनेन च सुकुमालपाणिपायेत्यादि राज्ञीवर्णको वाच्य इति सूचितम्, 'सुकुमालजहा सूरियकंते० जाव पचुवेक्खमाणे 2 विहरइ'त्ति अस्यायमर्थः'सुकुमालपाणिपाए लक्खणवंजणगुणोववेए' इत्यादिना यथा राजप्रश्नकृताभिधाने ग्रन्थे सूर्यकान्तो राजकुमारः ‘पचुवेक्खमाणे 2 विहरई' इत्येतदन्तेन वर्णकन वर्णितस्तथाऽयं वर्णयितव्यः, 'पचुवेक्खमाणे 2 विहरई' इत्येतचैवमिह सम्बन्धनीयम्- ‘से णं सिवभद्दे कुमारे जुवराया यावि होत्था सिवस्स रन्नो रज्जं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्ठागारं च पुरं च अंतेउरं च उणवयं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहरइ' त्ति / 'वाणपत्थ त्ति- वने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्थाअवस्थितिः, वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः / अथवा- "ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा'' इतिचत्वारो लोकप्रतीता आश्रमाः, एतेषां च तृतीयाश्रमवर्त्तिनो वानप्रस्थाः , 'होत्तिय' त्ति- अग्निहेत्रिकाः 'पोत्तिय' त्ति-- वस्त्रधारिणः सोत्तिय' त्ति क्वचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः 'जहा उववाइए' इत्येतस्मादतिदेशादिदं दृश्यम्- 'कोत्तिया जन्नई सडई थालई हुंवउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मजगा सम्मजगा निमनगा संपक्खला दक्षिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मिगलुद्धया हत्थितावसा उदंडगा दिसापोक्खिणो वक्तवासिणो चेलवासिणो जलवासिणां रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगाया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लिय' त्तितत्र 'कोत्तिय' त्ति-'भूमिशायिनः' 'जन्नइ त्ति-पक्याजिनः 'सड्डइ' त्ति- श्राद्धाः 'थालइ'त्ति-गृहीतभाण्डाः 'हुंवउर्ल्ड' ति-कुण्डिकाश्रमणाः 'दंतुक्खलिय' त्ति फलभोजिनः 'उम्मजग' त्ति- उन्मजनमात्रेण ये स्नान्ति 'संमजगं' त्ति-उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमज्जग' त्ति-स्थानार्थं निमग्ना एव ये क्षणं तिष्ठन्ति 'संपक्खाल' त्ति-मृत्तिकादिघर्षणपूर्वकं येऽङ्ग क्षालयन्ति 'दक्खिणकूलग' त्तियैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वास्तव्यम् 'उत्तरकूलग' त्ति-उक्तविपरीताः " "संखधमग' त्ति-शखं ध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति 'कूलधमग' त्ति-ये कूले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जत 'मियलुद्धय' त्ति-प्रतीता एव 'हत्थितावस' ति- ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैद बहुकालं भोजनतो यापयन्ति 'उदंडग' त्ति-उर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति 'दिसापोक्खिणो' त्ति-उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति 'वकालवासिणो' त्ति- वल्कलवाससः 'चेलवासिणो' त्ति-व्यक्तं पाठान्तरे 'वेलवासिणो' त्ति--समुद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जलवासिणो' त्ति-ये जलनिमग्नां एवासते, शेषाः प्रतीताः, नवरं 'जलाभिसेयकिढिणगाय' त्ति-येऽस्नात्वा न भुञ्जते स्नानाद्वा पाण्डुरीभूतागात्रा इति बृद्धाः, क्वचित् 'जलाभिसेयकढिणगायभूय' त्ति-दृश्यते, तत्र जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः- प्राप्ता ये ते तथा, 'इंगालसोल्लियं' तिअङ्गारैरिव पक्वं 'कन्दुसोल्लिय' ति कन्दुपक्वमिवेति / 'दिसाचकवालएणं तवोकम्मेणं' ति–एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुङ्क्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्वक्रवालेन यत्र तपः-कर्मणि पारणकरणं तत्तपःकर्मा दिक्चक्रवालमुच्यते तन तपःकर्मणेति ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं' इत्यत्र 'एवं जहा उववाइए' इत्येतत्करणादिदं दृश्यम्- 'मणुन्नाहिं मणामाहिं जाव० वग्गूहि अणवरयं अभिनंदता य अभिधुणंता य एवं वयासी-जय 2 नंदा ! जय 2 भद्दा जय जय नंदा ! भदं ते अजियं जिणााहि जियं पालियाहि जियमज्झे वसाहि अजियं च जिणाहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्खं जियविग्योऽवि य वसाहि तं देव ! सयणमज्झे इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाई बहूइं वाससयाई बहूई वाससहस्साई अणहसमग्गे य हट्ठतुट्ठो' त्ति, एतच व्यक्तमेवेति। 'वागलवत्थनियत्थे त्ति-वल्कलं-वल्कस्तस्येदं वाल्कलं तद्वस्त्रं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्रनिवसितः 'उडए' त्ति-उटजः- तापसगृहं 'किढिणसंकाइयगं' ति, "किदिण' तिवंशमय-स्तापसभाजन विशेषस्ततश्च तयोः साङ्कायिकं भारोगहनयन्त्रं किढिणसाङ्गायिकम् 'महाराय' त्ति-लोकपालः 'पत्थाणे पत्थियं' ति-प्रस्थाने-- परलोकसाधनमार्गे प्रस्थितं -प्रवृत्तं फलाद्याहरणार्थे गमने वा प्रवृत्तं शिवराजषिम् 'दब्भेय ' त्ति-समूलान् 'कुसे य' त्ति दर्भानव निर्मूलान् समिहाओ य' त्ति-समिधः- काष्ठिकाः 'पत्तमोडं च' तरु-शाखामोटितपत्राणि 'वेदि वड्डेइ' ति–वेदिकां-देवार्चनस्थान वर्द्धनी-बहुकरिता तो प्रयुक्ते इति वर्द्धयति-प्रमार्जयतीत्यर्थः, 'उवलेवण-संमजणं करेइ'त्ति इहोपलेपनं गोमयादिना संमार्जनं तु जलेन संमार्जनं वा शोधनं दमकलसाहत्थगए' ति-दर्भाश्च कलशच हस्ते गता यस्य स तथा 'दब्भसगब्भकलसगहत्थगए' ति-क्वचित् तत्र द Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिव 871 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभद्द भैण सगर्भो यः कलशकः स हस्ते गतो यस्य स तथा 'जलमजणं ति- लाभ' शब्द पञ्चमभागे 238 पृष्ठे तत्कथा गता।) जलेन देहशुद्धिमानं 'जलकीड' ति-देहशुद्धावपि जलेनाभिरतं, 1 सिवकुमार- पुं०(शिवकुमार) अपरविदेहे पुष्कलावतीविजये वीत'जलाभिसेयं' ति-जलक्षरणम् 'आयते' त्ति-जलस्पर्शात् 'चोक्खे' शोकानगरीराजस्य पद्मरथस्य पुत्रे, ध० 202 अधि०। (शिवकुमार.. त्ति-अशुचिद्रव्यापगमात् / किमुक्तं भवति ? 'परमसुइभूए' त्ति- कथा 'गिहवास' शब्दे तृतीयभाग 867 पृष्ठे गता।) 'देवयपिइकयकछे' त्ति-देवतानां पितृणां च कृतं कार्यंजलाजाल- सिवकोट्ठग-पुं० (शिवकोष्ठक) तगरायां नगर्यां सुव्यवहारित्वेन प्रसिद्धे, दानादिकं येन स तथा, 'सरएणं अरणिं महेइ' त्ति-शरकेन - ___ स्वनामख्याते पुष्पमित्रादीनां सुव्यवहारिणामन्यतमे, व्य०३ उ० / निर्मन्थनकाष्ठेन अरणिं-निर्मन्थनीयकाष्ठं मथ्नातिवर्षयति, 'अग्गिस्स सिवग-पुं० (शिवग) महादेवे, नि० चू०१ उ०। दाहिणे' इत्यादि साद्धः श्लोकस्तद्यथाशब्दवर्जः, तत्र च 'संत्तगाई' सिवगइ-स्त्री० (शिवगति) सिद्धगतौ, पुं० / सिद्धगतिप्राप्ते, विशे० / सप्ताङ्गानि समादधाति-- संनिधापयति सकथां 1 वल्कलं 2 स्थानं 3 भारतातीते चतुर्दशे जिने० प्रव०७ द्वार। शय्याभाण्डं 4 कमण्डलुम् 5 दण्डदारु 6 तथाऽऽत्मान 7 मिति, तत्र सकथा- तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः स्थानं-ज्योतिः स्थानं सिवगय-पुं० (शिवगत) परमपदं प्राप्ते, प्रव० 44 द्वार / पात्रस्थानं वा शय्याभाण्ड- शय्योपकरणं दण्डदारु-दण्डकः आत्मा सिवतित्थ-न० (शिवतीर्थ) काश्याम, प्रा० 1 पाद / प्रतीत इति, 'चरुं साहेति' त्ति- चरुः भाजनविशेषस्तत्र पच्यमान- सिवदत्त-पुं० (शिवदत्त) इन्द्रपुरवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्रह्मदत्तपितरि, द्रव्यमपि चरुरेव तं चरुं बलिमित्यर्थः साधयति-रन्धयति 'बलिवइ- | उत्त०१३ अ०। श्रावस्त्यां नगर्या स्वनामख्याते नैमित्तिके, आ०म० स्सदेवं करेइ' त्ति- बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः, 'अतिहिपूयं 2 अ०। करेइ' त्ति- अतिथेः-- आगन्तुकस्य पूजां करोतीति। ‘से कहमेयं मन्ने | सिवदेव-पुं० (शिवदेव) 'पामिच्च' शब्दे पञ्चमभागे उदाहृते एवं' ति- अत्र मन्येशब्दो वितर्थिः 'बितियसए नियंठुद्देसए' ति- | सम्मतसाधुभागन्यै तैलारूपऋणप्रदे वणिजि, पिं०। द्वितीयश्ते पञ्चमोद्देशक इत्यर्थः 'एगविहिविहाण' त्ति- एकेन विधिना- सिवपह-न० (शिवपथ) शिवो-मोक्षः पारमार्थिकनिरुपमद्रव्यस्थानं प्रकारेण विधान- व्यवस्थानं येषां ते तथा, सर्वेषां वृत्तत्वात्, तस्य पन्था मार्गः शिवपथः / मोक्षाध्वनि, दर्श०३ तत्त्व / वित्थराओ अणेगविहिविहाण' त्ति- द्विगुण 2 विस्तारत्वात्तेषामिति | सिवपुर-न० (शिवपुर) शिव एव पुरं शिवपुरम्। शिवनगरे, मोक्षे, दर्श० 'एवं जहा जीवाभिगमे' इत्यनेन यदिह सूचितं तदिदम् - 'दुगुणादुगुणं ३तत्त्व / पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाण-वीइया' अव-भासमान सिवभह-पुं० (शिवभद्र) एकादशशतनवमोद्देशकाभिहिते देवराजर्षिपुत्रे, वीचयः-शोभमानतरङ्गाः, समुद्रापेक्षमिदं विशेषणम्, 'बहुप्पलकुमु भ० 7 श० 3 उ० / ('सिव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा गता / ) दनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहा-पुंडरीयसय-पत्तसहस्सपत्त स्वनामख्याते मुनौ, ध००। सयसहस्सपत्तपप्फुल्लकेसरोववेया' बहू-नामुत्पलादीनां प्रफुल्लानां तथाहि // - विकसितानां यानि केशराणि तैरुपचिताः - सयुक्ता य ते तथा, तत्रोत्पलानि--नीलोत्पलादीनि कुमुदानिचन्द्रबोध्यानि पुण्डरीकाणि "इह कोसंबिपुरीए, पुव्वदिसुजाणभवणकयवासो। संनिहियपाडिहेरा, जक्खो निवसइ फरसुपाणी / / 1 / / सितानि शेषपदानि तु रूढिगम्यानि 'पत्तेयं पत्तेयं पउमवरबेइयापरिक्खिता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्त' त्ति ! 'सवन्नाइं पि' त्ति अन्नदिणे तब्भवणे, सुत्तत्थविऊ सुंदसणो साहू। पुद्गलद्रव्याणि 'अवन्नाइं पि' त्ति-धर्मास्तिकायादीनि 'अन्नमन्नबद् काउस्सगेण ठिओ, विसेसपडिवन्नतवकम्मो // 2 // धाई' ति परस्परेण गाढाश्लेषाणि 'अन्नमन्नपुट्ठाई' ति-परस्परेण तचित्तखोहणत्थं, जक्खो तं डसइ भुयगरूवेणं / गाढाश्लेषाणि, इह यावत्करणादिदमेवं दृश्यम्- 'अन्न-मन्नबद्धपुट्ठाई करिवेणं पीडइ, तस्सइ अट्टहासेहिं // 3 // अन्नमन्नघडत्ताए चिटुंति' तत्र चान्योऽ-न्यबद्धस्पृष्टान्यनन्तरोक्त- तह वि हु अक्खुहियमणं, तं समणं दठु फरसुपाणिसुरो। गुणद्वययोगात्, किमुक्तं भवति? अन्योऽन्यघटतया-परस्परसम्बद्ध- नमिउं विन्नवइ इम, उच्छलियातुच्छहरिसभरो // 4 // तया तिष्ठन्ति 'तावसावसहे' त्ति तापसावसथः- तापसमठ इति / / .] उवसम्गवम्गमुर्ग, जंतुह मुणिपवर ! पावभरसज्जो। अनन्तरं शिवराजर्षेः सिद्धिरुक्ता / भ०११ श०६ उ० / आ० चू०। / सञ्जोगसालिणो वि हु, काहमहं खमसु तं भंते ! ||5|| आ० म०। इय चरणजुयलसंठवि-य मउलिकमलो खमाविउं साहुं / सिवंकर-न० (शिवंकर) शिवं-मोक्षपदं तत्करणशीलम् / शेलैश्यव- सीसो व्व समविगओ, जक्खो तं सेवए सम्मं / / 6 / / स्थागमने, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। अह तत्थ दुवि पुरोहिय-पुत्ता सिवभद्दसिरियगभिहाणा / सिवंबतर-पुं० (शिवामृतरु) शिवो-मोक्षः आम्रतरुश्चूतद्रुमः शिवाम्र- पत्ता तं अइदुक्कर, तवकिसियंगं नियंति मुणिं // 7 // तरु / सिद्धिरसालवृक्षविशेषे, दर्श० 1 तत्त्व / तो तेहि सहासमिणं, पयंपियं जं मुणिंद ! धम्मत्थं / सिवक(ग)र-पुं० (शिवकर) स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, सेन०। ('पङि- | पीडिज्जइ किर अप्पा, वाढमजुत्तं तयं एयं / / 8 / / Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवमह 572 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभह जओधम्माओ धणलाभो, तत्तो कामो तओ य संसारो। धम्मस्स अज्जण ता, मूलाउ चिय दढमजुत्तं / / 6 / / इय ते उवहासपरे, दठु जक्खो फुरंतगुरुकायो / उप्पाडिय सियफरसुं, पहाविओ तेसि हणणत्थं // 10 // तयणु भयलोललोयण तरलियतारा पकंपिरसरीरा / लग्गा मुणिचलणेसुं, भणिरा "तं अम्ह सरणं' ति // 11 // ते दठ्ठ साहुसरणे, जक्खो जाओ पसंतमन्नुभरो। पारियउस्सग्गेणं, अह मुणिणा ते इमं वुता / / 12 / / (भद्दत्यादि धम्म' शब्दे चतुर्थभागे 2660 पृष्ठे उक्तम् / ) जं पिह धणभोगाई, भणियं भवकारणं तमवि इत्थ। नेयं किलिट्ठसत्ता-ण न उण इयराण जं भणियं // 13 // सा काऽयि कला झायं-ति नियमणे जामिऊण परमत्थं / न्हायति घडसएण वि, छिप्पंति न बिंदुणा चेव // 14|| सुचइ य भरहसगरा-- इणो इहं सुचिरभुत्तवरभोगा। हाउ अकिलिट्ठमणा, लोयग्गठियं पयं पत्ता // 15|| इय सोउं पडिबुद्रा, पुणो पुणो खामिउं तमवराहं / तस्स मुणिस्स समीवे, ते दो वि वयं पवजंति / / 16 / / मुणिय जइजुग्गकिरिया, गुरुमूले पडियबहुयसुत्तत्था / सुचिरं उग्गविहारा, खंतिपहाणा तवंति तवं / / 17|| अह असुहकम्मवसओ, सिरिओ सिढिलेइ चरणकरणभरं। धरइ मणे जाइमयं, न कुणइ विणयं गुरूसुं पि // 18|| तो सिवभद्दो सिरियं, भणेइ भो भद्द ! चरणकरणम्मि। भवसयसहस्सदुलहे, खणं पि किह होसि, सिढिलमणो।।१६।। गुरुविणकपरो निचं, मणं पि मा कुणसु जाइमयमेवं / जं जाइमयाईहिं, दुहिओ परिभमइ भवगहणे // 20 // उक्त च - जाइकुलरूपबलसुय-तवलाभिस्सरिय अट्ठमयपत्तो। एयाई चिय बंधइ, असुहाइँ बहुं च संसारे // 21 / / तो भद्दनियं दोसं, एयं गीयत्थसुगुरुमूलम्मि। तं आलोयसु सम्म, नाउं आलोयणाइविहिं // 22 // तद्यथापडिसेवा पडिसेवग-द्रोसगुणा गुरुगुणा य इह नेया। सम्मविसोहीइ गुणा, सम्ममणालोयओ सिक्खा // 23 // तह पडिसवादप्प-प्पमायणाभोगसहसकारे य। आउरआवइसंकिय-भयप्पओसा य वीमंसा // 24 // वग्गणमाई दप्पो, इह कंदप्पा उ भन्नइ पमाओ। विस्सरियमणाभोगो, सहसाकारा अकम्ह ति // 25 // छुद्दतण्हवाहित्थो , जं सेवइ आउरा भवे एसा / दव्वाइअलंभे पुण, चउव्विहा आवई होइ // 26 // संकिय मा कम्हा मा-इ संकिऍ सीहमाईणं च भयं / कोहाइओ पओसो, वीमंसा सेहमाईणं // 27|| (दार)"आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता", जं दि8 वायरं व सुहमे वा। छन्नं सघाउलयं, बहुजणअव्वत्त तस्सेवी / / 28|| इय पडिसेवगदोसा, आकपिय तत्थ भत्तिमाईहिं। गुरुअवराह लहुया- णुमाणओ तहय आलोए / // 26 // जं दिलृ ति परेणं, आलोयइ वायरं ति नहु सुहुमं / अह सुहुमं आलोयइ, विस्संमत्थं न उण थूलं // 30 // छन्नं अव्वत्तरसं, सद्दाउलयंति तुरियसघणं।। तं चेव य पच्छित्तं, आलोयइ बहुजणाण पुरो॥३१।। अव्वत्तस्स अगीय-स्स तस्स आसेवगो य तस्सेवी। इत्तो दस आलोयग-गुणा इमे हुंति नायव्वा // 32 // जाइकुलविणयउवसम-इंदियजयनाणदंसणसमग्मा। अणणुत्ता वि अमाई, चरणजुया लोयगा भणिया // 33 // जाइजुओ पाएणं, न कुणइ असुहं कयं तु आलोए। कुलसंपन्ना सम्म, पच्छित्तं वहइ गुरुदिन्नं // 34 / / नाणी किचाकिच्चं, जाणइ सद्दहइ दंसणी साहिं। चरणी तं पडिवज्जइ, सेसपया हुंति पयडत्था // 35|| आयारव माहारव, ववहारुव्वीलए पकुव्वी य। अपरिस्सावी निजव, अवायदंसी गुरू भणिओ // 36 // नाणायाराइजुओ, आयास्व सीसकहियमवराहं / धारतो अहारव, ववहारो पंचहा इणमो // 37 / / आगमसुयआणा धा- रणा य जीयं च होइ ववहारो। केवलिमणो हि चउदस, दसनवपुव्वी य पढमो त्थ / 38|| आयारपकप्पाई, सव्यं सेसं सुयं विणिद्दिट्ठ। देसंतरट्ठियाणं गूढपयालोयणा आणा // 36 // गीयत्थाओ पुटिव, अवधारिय धारणे तहिं दिते। पायच्छित्त जीयं, रूदं वा जं जहिं गच्छे / / 40|| लज्जाइनिव्वहंतं, अवलज कुणइ सो उ उव्वीलो। गरुयस्स वि पावस्स उ, सुद्धिसमत्थो पकुव्वी य // 41 // अप्परिसाविगभीरो, निजवगो दुब्बलस्स निव्वहगो। नरगाइदुक्खदंसी, अवाक्दंसी ससल्लाणं / / 42 / / अवि यसल्लुद्धरणनिमित्तं, खित्तम्मी सत्त जोयणसयाई / काल बारस वासा- गीयत्थगवेसणं कुजा // 43 // जओनासेइ अगीयत्थो, चउरंग सव्वलोयसारंग। नट्ठम्मि य चउरंगे, नहु सुलहं होइ चउरंग // 44 // किंचअक्खंडियचारित्तो, वयगहणाओ य जो य गीयत्थो। तस्स सगासे दंसण, वयगहणं साहिगहणं च / / 45|| एवंविहगुरुपासे, व(ल)जागारवभयाइ मोत्तूणं / सव्वं पि भावसल्लं, उद्धरियव्वं जओ भणियं // 46 // जहा बालो जपतो, कज्जमकजं च उज्जुओ भणइ / तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुक्को उ // 47|| दारलहुयाल्हाईजणणं, अप्पपरनिवित्तिअज्जवं सोही। दुक्करकरणं अट्ठउ, निस्सल्लत्तं च सोहिगुणा // 48|| आलोयणा परिणओ, सम्मं संपडिओ गुरुसगासे। जइ अंतरावि कालं, करिज आराहगो तह वि // 46 // आगंतुं गुरुमूले, जो पुण पयडेइ अत्तणो दोसे। सो जइ न जाइ मोक्ख, अवस्सममरत्तणं लहइ॥५०॥ जो पुण इय नाऊण वि, सम्मं न कहेइ अत्तणो सल्ले / चोएयव्यो तो सो, निसीहभणिएहि नाएहिं / / 51 / / जइ कस्सइ नरवइणो, एगो आसो समग्गगुणकलिओ। तस्स पभावेण निव-स्स वट्टए सव्वसंपत्ती / / 5 / / Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभह 873 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभूइ अह सेसनिवा पभगति, नियनियठाणेसु संठिया एवं / भो अत्थि कोइ पुरिसो, जो तं आसं अवहरिजा // 53|| भणियं चारनरेहि, सो नरपंजरगओ सया कालं। हरिउं तेण न तीरइ, अह वुत्तं एगपुरिसेण // 54 // जइ नवरं मारिजइ, रना भणियं इमं पिता होउ / तत्तो सो तत्थ गओ, न लहइ तुरयस्स अवगासं // 55|| तो णेण खुधियाकं- टएण सरमुहठिएण वरतुरओ। कहमवि विद्धो सो ते-ण सल्लिओ सुहुमसल्लेण // 56 // सो निचं परिहप्पइ, भुंजतो वि हु पभूयजवसाइ। तो रन्ना सो विज्ज-स्स दाइओ तेण भणियमिणं / / 57|| न हि कोइ धाउखोहो, अस्थि हु अव्वत्तसल्लमेयस्स। तो जमगसमगमेसो, उल्लित्तो सुहमपंकेण // 5 // संल्लपएसे आसो, उण्हत्तणओ य पढममुवाओ। नाऊण तओ सल्ले, नीणिय आसो कओ सज्जो ||56|| अन्नो पुण जह आसो, अणुधियसल्लो न भुज्जपरिहत्थो। तह साहू वि ससल्लो, कम्मजयं काउ असमत्थो // 60 / / देवाणुप्पिय ! सम्मं, लज्जागारवमयाइ ता मुतुं / आलोयसु नियसल्ले, मा मरसु ससल्लमरणेण // 61 / / जओ || न वि तं सत्थं व विसं, व दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो। जंतं व दुप्पउत्तं, सप्पो व पमाइओ कुद्धो // 62|| जं कुणइ भावसल्लं, अणुद्धियं उत्तमढकालम्मि। दुल्लमबोहीपत्तं, अणंतसंसारियत्तं च // 63 / / इय पभणिओ वि सिरिओ, तओ अणालोइओ अपडिकंतो। चरणं विराहिऊणं, उववन्ना भवणवासीसु // 6 // सिवभद्दो उण कंटग-- पहछलणानायओ कह वि जायं / नाउं नियमइयारं, आलोयइ झ त्ति गुरुमूले // 65|| आलोइयपडिकंतो, सम्म आराहिऊण सामन्नं / उववन्नो पवरसुरो, सोहम्मे हेमवन्नाभो // 66 / / तो चविउं इह भरहे, वेयड्ढे गयणवल्लहपुरम्मि / सिरिकणयकेउरन्नो, देवइनामाइ देवीए // 67 // जाओ पहाणपुत्तो, सिवचंदो नाम पत्ततारुन्नो। परिणेइ वसंतसिरिं, निवधूयं पढियबहुविज्जो // 68|| सिरिओ वि तओ वट्टिय, जाओ तस्सेव बंधवो लहुओ। कयसोमचंदनामो, कमेण तरुणत्तमणुपत्तो // 66 // अह सोमचंदकमर-स्स पढियनिरवञ्जपवरविज्जस्स। जाया कयावि बुद्धी, मायंगिं साहिउं विजं // 70|| तीसे य इमो कप्पो, मायंगगिहट्ठिएण कइ वि दिणे / साहणविही विहेया, परिणियमायंगधूएण ||71 / / तयणु मकामं पिउणा, पारिजंत्तो वि सोयरेण पुणो। सुबहु खलिजंतो वि हु, गओ कुणालाइनयरीए // 72 // तत्थ बहुदाणपुव्वं, मायंगसुयं विवाहए एग। सिढिलियविजासाहण-वावारो गलियसुद्धमई // 73 // अगणियसकुलकलंको, दूरं पब्भट्ठपुन्नपब्भारो। तीए चिय अणुरत्तो, कमेण जायाणि डिंभाणि ||74|| इय तस्स मलीमस चि-ट्टियस्स अचंतपावनिरयस्स। पिउभायपमुहलोए-ण संकहा दूरओ चत्ता / / 7 / / अन्नदिणे सिवचंदो, हरिकरिरहजोहजूहपरियरिओ। पूरंतो गयणयलं, विमाणमालाहिं सव्वत्तो // 76 / / पवरविमाणारूढो, सिरउवरिधरिजमाणसियछत्तो / पासपइट्ठियखयरी, जणढालिजंतसियचमरो / / 77 / / अग्गट्ठियमागहगण-पहुपयउियविविहसमररिउविजओ। कलकंठकंठगायण--गिजंतमहंतगुणनिवहो // 78|| सुचिरं सुरसरिसुरगिरि-वणेसु तह जंबुदीवजगईए। पउमदरवेइगाए, पकीलिउं सगिहमणुवलिओ ||7 कह वि कुणालानयरी-इ उवरि वचंतओ निए वि इमं / नेहेणं ओयरिऊ-ण सायरं भायरं भणइ |10|| किं भो बंधव ! तुमए, इहेव अचंतनिंदियकुलम्मि। काएण व मयगकले- वरम्मि बद्धा रइ दूरं / / 81|| किं मूढ ! विस्सगंध-प्पबंध दढगाढपिहियनासउड। दूरेण व्वयमाणं, जणं इओ नहु पलोएसि ?||2|| एगत्थ अत्थिउक्कर–ड भरियमन्नत्थ भसिरसाणगणं / अवरत्थ गिद्धवायस-दुप्पिच्छं किं न नियसि इमं ?||83|| तं सोउ सोमचंदो, अयंडतडिदंडताडिओ व्व दढं। विच्छाओ लज्जावस-मिलंतनयणो भणइ एवं // 4 // भो भाय ! को न याणइ, दुहमसममिमं परं कहेसु इमं / पुव्वभवज्जियदुक्क-म भारदेसिण केण अहं // 8 // विमलकुलवासविमुहो, विमुक्कतुहसरिसबंधुपडिबंधो। एरिसविजाइवावा-र सायरे पाडिओऽम्हि हहा ?||86|| तो विहिणा सिवचंदो, सबिम्हओ सरिय रोहिणिं देविं / पुच्छइ कहेसु भयवइ !, मह बंधवपुव्वभवचरियं / / 7 / / उरुओहिनाणमुणियं-कहिउँ सयलं पि तस्स पुव्यभवं / देवीए रोहिणीए फुडवयणमिमं समुल्लवियं / / 8 / / जाइमयाई पुट्वि, न सम्ममालोइयं जमेएण। तेणेसो तुह भाया, विडंबणं एरिसं पत्तो // 86 // जं सुहमे वि हु खलिए, निस्सल्ला लोयणा कया तुमए। तं जाओ सि इय सुही, इय भणिय तिरोहिया देवी ||6|| सोउमिणं सिवचंदो, पुव्वभवं सरिय भणइ भो भाय ! / अज्ज वि तोडे वि लहुं, कुकुडुंबसिणेह मुंचमिमं // 61|| नियदुक्कयाइँ आलो-इऊण काऊण तिव्वतवचरणं / एयस्स दुक्खनिवह-स्स देसु, सलिलंजलिं भाया ! 192|| अह भणइ सोमचंदो, भाय ! इमा भारिया मह अणाहा। आसन्नपसवसमया, इमा डिम्भाइँ लहुयाई ||3|| ता कहसु मुएमि कहं, इय तं मूढ़ निएवि सिवचंदो। दूरं न धम्मजुग-त्ति चयइ पत्तो नियं नयरं / / 64|| मोयाविऊण पिउणो, कहमवि चारणमुणिंदपयमूले / पडिवन्नसंजमभरो, सिद्धिं पत्तो धुयकिलेसो // 65 // इयरो वि काउ विविहं, पावं कालम्मि कालमासज्ज / पत्तो नरए घोरे, दुहिओ भमिही भवकडिल्लं // 66 // श्रुत्वेति सद्विकटनाघटनानिरस्त कर्मव्रजस्य शिवभद्रमुनेश्चरित्रम् / वाचंयमा नियमिताखिलदोषजाला, __ यत्नं मुदा स्खलितशुद्धिविधौ व्यधत्त / / 67|| इति शिवभद्रमुनिकथा / ध० र० / सिवभूइ-पुं० (सिवभूति) स्थविरस्यार्यधनगिरेः वासिष्ठगोत्रस्य स्वनामख्यातेऽन्तेवासिनि कौत्सगोत्रे आचार्य, कल्प० 1 अधि०४ क्षण / स्वनामख्याते रघुवीरपुरवास्तव्ये साहसिकम Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ 874 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभूइ ल्ले, यः प्रव्रज्य वोटिकनिहवानस्थापयत् / आ० म०१ अ०। / भाष्यम् - उवहिविभागं सोउं, सिवभूई अज्जकण्हगुरुमूले / जिणकप्पियाइयाणं, भणइ गुरुं कीस नेयाणिं ||25532 / / जिणकप्पोऽणुचरिज्जइ, नोच्छिन्नो त्ति भणिए पुणो भणइ / तदसत्तस्सोच्छिज्जउ, वुच्छिज्जइ किं समत्थस्स ? ||2554|| पुच्छस्स पुष्वमणापुच्छ, छिण्णकंबलकसायकलुसिओ चेव / सो बेइ परिग्गहओ, कसाय मुच्छा भयाईया // 2555|| दोसा जओ सुबहुया, सुए य भणियमपरिग्गहत्त ति। जमचेलाय जिणिंदा, तदमिहिओ जंच जिणकप्पो // 2556 / जं च जियाचेलपरि-सहो मुणी जं च तीहि ठाणेहिं। वत्थं धरिज नेगं-तओ तओऽचेलया सेया // 2557|| सर्वा अप्युक्तार्था एव, नवरं जं च जिणा चेले' त्यादि, यस्माच 'जिताचेलपरिषहो मुनिः' इत्यागमेऽभिहितम्। जिताचेलपरिषहत्वं च किल त्यक्तवस्त्रस्यैव भवतीत्यभिप्रायः। यस्माच त्रिभिरेव स्थानैर्वस्त्रधारणमनुज्ञातमाग-मेनैकान्ततः,तथा घागमवचनम्- "तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरिजा-हीरिवत्तियं, दुगंधावत्तिय, परीसहवत्तियं" / तत्र हीर्लज्जा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं यस्य धारणस्य तत् तथा, जुगुप्सालोकविहिता निन्दा सा प्रत्ययो यस्य तत्तथा, एवं परीषहाःशीतोष्णदंशमशकादयः प्रत्ययो यत्र तत्तथा / उपसंहरन्नाह-ततस्तस्मादुक्तयुक्तिभ्योऽचेलतैव श्रेयस्करीति पूर्वपक्षः। अत्रोत्तरपक्षमभिधित्सुराह || गुरुणाऽमिहिओ जइ जं, कसायहेऊ परिग्गहो सो ते / तो सो देहो चिय ते, कसायउप्पत्तिहेउ त्ति / / 2558|| गुरुणा-आर्यकृष्णेनाभिहितः शिवभूतिः- यदि हन्त ! यद् यत् कषायहेतुः, तत् तत् ते तव परिग्रहः, स च मुमुक्षुणा परिहर्तव्य एवेत्येकान्तः। 'तो सो' इत्यादि ततस्तर्हि स्वकीयो देह एव 'ते' तव स्वस्थात्मनोऽपि कषायोत्पत्तिहेतुरिति परिग्रहः परिहरणीयश्च प्राप्नोति। अतोऽपरिग्रहत्वस्य परिग्रहाणां चोत्सन्ना कथेति। अथवा-किमेको देह एव, ननु व्याप्त्यापि ब्रूमः, तद्यथा // अत्थि व किं किंचि जए, जस्स व तस्स व कसायबीयं जं / वत्थु न होज एवं, धम्मो वि तुमे न घेत्तव्वो // 2556 / / जेण कसायनिमित्तं, जिणो वि गोसालसंगमाईणं / धम्मो धम्मपरा विय, पडिणीयाणं जिणमयं च ||2560 / / किं हि नामैतावति जगति तद् वस्तु, यद् यस्य वा तस्य वा कषायाणां बीजं कारणं न भवेत् ? एवं च सति श्रुत-चारित्रभेदभिन्नो धर्मोऽपि त्वया न ग्रहीतव्यः, तस्यापि कस्यचित् कषायहेतुत्वात् / कुतः ? इत्याह 'जेणेत्यादि' येन यस्मा दास्तां तत्प्रणीतो धर्मः, किन्तु–स त्रिभुवनबन्धुः- निष्कारणवत्सलः सर्वसत्त्वानां जिनोऽपि भगवान् तीर्थकरोऽपि क्लिष्टकर्मणां गोशालकसंगमकादीनां कषायनिमित्तं संजातः। एवं धर्मस्तत्प्रणीतः, तदुक्तधर्मपरा अपि तदेकनिष्ठाः साधवः, जिनमतंच द्वादशाङ्गीरूपम्, सर्वमप्येतद्गुरुकर्मणां दुःखैकरूपदीर्घभवभ्रमणभाजा प्रत्यनीकानां जिनशासन-प्रतिकूलवर्तिनां कषायनिमित्तमेव, इत्येतदप्यग्राह्ये प्राप्नोति, न चैतदस्ति / तस्मात् 'यत् कषायहेतुस्तत् परिहर्तव्यम्' इत्यनेकान्त एवेति। अथैतद्दोषपरिजिहीर्षोः परस्याभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाहअह ते न मोक्खसाहण-मईएँ गंथो कसायहेऊ दि। वत्थाइमोक्खसाहण-मईएँ सुद्धं कहं गंथो ?||2561|| अथ मन्येथाः-- ते देहादयो जिनमतान्ताः पदार्थाः कषायहेतवोऽपि सन्तो न ग्रन्थो-न परिग्रहः, मोक्षसाधनमत्या गृह्यमाणत्वादिति / हन्त ! यद्येवम्, तर्हि वस्त्रपात्रादिकमप्युपकरणं शुद्धमेषणीयं मोक्षसाधनबुद्ध्या गृह्यामाणं कथं ग्रन्थः ? न कथञ्चिदित्यर्थः, न्यायस्य समानत्वादिति। तदेवं कषायहेतुत्वादग्राह्यं वस्त्रादिकमित्येतद् निराकृतम् / अथ मूच्छहितुत्वेन तत् परिहरणीयमित्येतदपाकर्तुमाहमुच्छाहेऊ गंथो, जइ तो देहाइओ कहमगंथो। मुच्छावओ कहं वा, गंथो वत्थादसंगस्स ? // 2562|| अह देहाऽऽहाराइसु, न मोक्खसाहणमई ते मुच्छा। का मोक्खसाहणेसुं, मुच्छा वत्थाइएसुं तो ? // 2563 / / अह कुणसि थुल्लवत्था-इएसु मुच्छं धुबं सरीरे वि। अक्केज दुल्लमयरे, काहिसि मुच्छं विसेसेणं // 2564|| वत्थाइगंथरहिया, देहाऽऽहाराइमित्तमुच्छाए। तिरिय सबरादओ नणु, हवंति निरओवगा बहुसो // 2565 / / अपरिग्गहा वि परसं-तिएसु मुच्छाकसायदोसेहिं / अविणिग्गहियप्पाणो, कम्ममलमणंतमजंति / / 2566|| देहत्थवत्थमल्लाऽ--णुलेवणाऽऽभरणाध रिणो के इ। उवसग्गाइसु मुणओ, निस्संगा केवलमुर्विति / / 2567 / / एताः सुगमा एव, नवरं यदि यो मू हेतुः स ग्रन्थः परिग्रहः, परिग्रहत्वादेव च त्याज्यः; ततस्तर्हि 'मुच्छावउ' ति- मूवितो वक्ष्यमाणयुक्त्या मूर्छायुक्तस्य देहाऽऽहारादिकस्तव हन्त ! कथमग्रन्थः? अपि तु ग्रन्थ एव, ततः सोऽपि परित्याज्यः प्राणोति / कथं वा ममत्वमूरिहितत्वेनासङ्गस्य-सङ्गविप्रमुक्तस्य साधोर्वस्वादिकं ग्रन्थो गीयते भवता? न भवत्येव तथाभूतस्य तद् ग्रन्थ इति / अथ देहाऽऽहरादिषु ते- तव मूर्छा नास्ति, मोक्षसाधनमत्या तेषां ग्रहणात्, तर्हि मोक्षसाधनत्वेन तुल्येष्वपि वस्वादिषु तव हन्त ! का मूर्छा ? इति / अथ स्थूलेषु बाह्यत्वात्, क्षणमात्रेणैवानित स्करायुपद्रवगम्यत्वात्, सुलभत्वात्, कतिपयदिनान्ते स्वयमेव विनाशधर्मकचात् शरीरा नितरां निःसारेषु वस्त्रादिषु मूर्छा करोपि त्वम्, तर्हि ध्रुवंनि Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ 875 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभूइ श्चितं शरीरेऽपि विशेषतो मूर्छा करिष्यसि / कुतो-विशेषेण तत्र तत्करणमित्याह- 'अक्केज दुल्लभयरे' त्ति-विभक्तिव्यत्ययात् शरीरस्याक्रय्यत्वात्- क्रयेणालभ्यत्वात् / न हि वस्त्रादिवत् शरीर क्रयेण वापि लभ्यते / अत्र एव वस्त्राद्यपेक्षया दुर्लभतरत्वात्, तथा, तदपेक्षयैवान्तरङ्गत्वात्, बहुतरदिनावस्थायित्वात्, विशिष्टतरकार्यसाधकत्वातच विशेषेण शरीरे मूच्छौं करिष्य-सीति / अथ देहादिमात्रे या मूर्छा सा स्वल्पैव, वस्त्रादिग्रन्थमूर्छ तु बही, ततो देहादिमात्रमूच्छसिंभवेऽपि नग्रश्रमणकाः सेत्स्यन्ति,न भवन्तः, बहुपरिग्रहत्वादित्याह- "वत्थाइ' इत्यादि, गाथा-त्रयम् / अयमिह संक्षेपार्थःतिर्यक्-शबरादयोऽल्पपरिग्रहा अपि, तथा शेषमनुष्या अपि महादारिव्योपहताः क्लिष्टमनसोऽविद्यमानतथाविधपरिग्रहा अप्यविनिगृहीतात्मानो लोभादिकषायवर्गवशीकृताः परसत्केष्वपि विभवेषु मूर्छाककषायादिदोषैः कर्ममलमनन्तमर्जयन्ति, तद् बहुशो निरयोपगा भवन्ति, न मोक्षप्रापकाः / अन्ये तु महामुनयः केनचिदुपसर्गादिबुद्ध्या शरीरासञ्जितमहामूल्यवस्त्राऽऽभरणमाल्यविलेपनादिसंयुक्ता अपि सर्वसङ्ग विनिर्मुक्ता निगृहीतात्मानो जितलोभादिकषायरिपवः समासादितविमलकेवलालोकाः सिद्धिमुपगच्छन्ति / तस्मादवश्यात्मनां क्लिष्टमनसां ना ग्न्यमात्रमिदमकिञ्चित्करमेवेति / अथ यदुक्तम्- 'भयहेतुत्वेन वस्त्रादयस्त्याज्याः ' इति / तत्र प्रतिविधानमाहजइ भयहेऊ गंथो, तो नाणाईण तदुवघाईहिं / भयमिह ताई गंथो, देहस्स य सावयाईहिं // 2568|| अह मोक्खसाहणमई-एँ न भयहेऊ वि ताणि ते गंथो। वत्थाइ मोक्खसाहण- मईऍ सुद्धं कहं गंथो ?||2566 / / यदि यद् भयहेतुस्तद्ग्रन्थः, तर्हि ज्ञान-दर्शन--चारित्राणामपि तदुपघातकेभ्यः, देहस्स च श्वापदादिभ्यो भयमस्ति, इति ताष्यपि ग्रन्थः प्राप्नुवन्ति / शेष व्याख्यातप्रायम् / अथ यदुक्तम्-'परिगहओ कसाय--मुच्छा-भयाईय' त्ति तत्रादिशब्दसंगृहीतं वस्त्रादीनां रौद्रध्यानहेतुत्वमभ्युपदर्श्य परिहरनाह-- सारक्खणाणुबंधो, रोहज्झाणं ति ते मई हुला। तुल्लमियं देहाइसु, पसत्थमिह तं तहेहावि / / 2570 / / जे जत्तिया पगारा, लोए भयहेअवो अविरयाणं / ते चेव य विरयाणं, पसत्थमावाण मोक्खा य / / 2571 / / इहागमे रौद्रध्यानं चतुर्विधमुक्तम्, तद्यथा- "से किं तं रोद्दज्झाणं ? रोद्दज्झाणे चउव्विहे पन्नते; तं तहा- हिंसाणुबंधी, मोसाणुबंधी, तेयाणुबंधी सारक्खणाणुबंधी' / तत्र हिंसायाः सत्त्ववधादिरूपाया अनुबन्धः सातत्येन चिन्तनं यत्र तद् हिंसानुबन्धि / मृषा- असत्य तस्यानुबन्धो यत्र तत् तथा / स्तेयं- चौर्यं तस्यानुबन्धो यत्र तत् तथा / संरक्षणं-सर्वरिणाद्युपायैस्तस्करादिभ्यो निजवित्तस्य संगोपनं तस्यानुबन्धः सातत्येन चिन्तनं यत्र रौद्रध्याने तत् तथा / एवं च सति संरक्षणानुबन्धो रौद्रध्यानस्य चतुर्थो भेदः / स च वस्त्रादौ गृहीत किलावश्यंभावी, रौद्रध्यानभेदत्वाच रौद्रध्यानमिति / एवं रौद्रध्यानहेतुत्वाद् वस्त्रादिकं दुर्गतिहेतुः शस्त्रादिवत्, ततो न ग्राहमिति तव बुद्धिर्भवत; तर्हि यदुक्तयुक्त्या रौद्रध्यानंतदिदं देवानांप्रिय ! देहादिष्वपि तुल्यम्, तेष्वपि जल-ज्वलन-मलिम्लुच-श्वापदाऽहि-विष-कण्टकादिभ्यः संरक्षणानुबन्धस्य तुल्यत्वात् / अतस्तेऽपि परित्याज्याः प्राप्नुवन्ति / अथेह देहादेर्मोक्षसाधनाङ्गत्वाद् यतनया तत्संरक्षणानुबन्धविधानं प्रशस्तं न दोषाय / यद्येवम्, तर्हि तथा तेनागमप्रसिद्धन यतनाप्रकारेणेहापि वस्त्रादौ संरक्षणानुबन्धविधानं कथं न प्रशस्तम् ? ततः कथं वस्त्रादयोऽपि परित्याज्याः ? इति / अथैवं ब्रूषे-वस्त्रादिपरिग्रह एव मूर्छादिदोषहेतुत्वाल्लोकस्य भवभ्रमणकारणम्' इत्येतदपि प्रतीतं वस्त्रादिपरिग्रहवतः साधोरपि कथं न स्यात् ? इत्याह- 'जे जत्तियेत्यादि'ाइह ये यावन्त शयन-पान-भोजन-मना-ऽवस्थानमनो-वाक्-कायचेष्टादयः प्रकारा अविर-तानामसंयतानामप्रशस्ताध्यवसायवतां लोके भयहेतवो जायन्ते, त एव तावन्तः प्रकारा विरतानां संयतानां प्रशस्ताध्यवसायानां मोक्षायैव संपद्यन्ते। तस्माद् वस्त्रादिस्वीकारेऽपि नेतरजनवत् साधूनां मूलोच्छेदितलोभादिकषायभय- मोहनीयादिदोषाणां तदुद्भावितदोषः कोऽप्यनुषज्यत इति / अपि च, यदि वस्त्रादिकं ग्रन्थः, मूच्र्छादिहेतुत्वात्, कनकादिवदिति, हेतु-दृष्टान्तोपन्यासमात्रेणैव वस्त्रादेर्ग्रन्थत्वं साधयति भवान्, तर्हि वयमपि तदुपन्यासमात्रेण कनकादेरप्यग्रन्थत्वं साधयामः / कथम् ? इत्याह आहारो व्व न गंथो, देहत्थं (व) विसघायणट्ठाए। कणगं पि तहा जुवई, धम्मंतेवासिणी मे त्ति / / 2572 / / कनकं तथा युवतिश्च धर्मान्तेवासिनी मे ममेति बुद्ध्या परिगृह्णतो न ग्रन्थ इति सम्बन्धः, एषा किल प्रतिज्ञा / कुतः ? इत्याह -- देहार्थमिति कृत्वा, अयं च हेतुः, देहार्थत्वात्- देहप्रयोजनत्वात् - देहोपकारित्वादित्यर्थः / ननु युवतेदेहोपकारित्वं किल प्रतीतम्, कनकस्य तु तत् कथम् ? इत्याह - 'विसघायणट्ठाए त्ति' विषघातकत्वादित्यर्थः: उक्तं च "विसघाय-रसायण मंगलच्छवि-णयापयाहिणावत्ते / गुरुए अ ढज्झकुटे, अट्ठ सुवण्णे गुणा होति // 1 // " आहारवदिति दृष्टान्तः। कनक-युवत्यादयोऽपि न ग्रन्थः, देहार्थत्वात्, आहारवदिति तात्पर्यम् / अत्राह-ननु यद्येवम्, तर्हि समुच्छिन्ना ग्रन्थाऽग्रन्थविभागकथा, ग्रन्थत्वेन प्रसिद्धस्य कनकादेस्त्वयाऽग्रन्थत्वसाधनात्, अग्रन्थत्वेन च ममाभिमतस्य देहस्य 'ग्रन्थो देहः, कषायादिहेतुत्वात्, कनकादिवत्' इत्येवं ग्रन्थत्वस्य साधनात्। ततो भवन्त एव कथयन्तु- को ग्रन्थः कश्चाग्रन्थ इति ? तदित्थमुपन्यस्य परस्य वचनमाशङ्कयोपसंहारपूर्वकं ग्रन्थाऽग्रन्थविभागमुपदिदर्शयिषुराहतम्हा किमत्थि वत्थु, गंथाऽगंथो व सव्वहा लोए? गंथोऽगंथो व मओ, मुच्छममुच्छाहिँ निच्छयओ // 2573 / / वत्थाई तेण जं जं, संजमसाहणमरागदोसस्स / तं तमपरिगहो चिय, परिरगहो जं तदुवघाई // 2574 // Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ 876 - अभिघानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभूइ तस्मात् किं नाम तद् वस्त्वस्ति लोके यदात्मस्वरूपेण सर्वथा ग्रन्थोऽग्रन्थो वा ? नास्त्येवैतदित्यर्थः / ततश्च "मुच्छा परिगहो वुत्तो, इइ वुत्तं महेसिणा।" इत्यादिवचनाद् यत्र वसु-देहाऽऽहार-कनकादौ मूच्र्छा संपद्यते तत् निश्चयतः परमार्थतो ग्रन्थः / यत्र तु सा नोपजायते तदग्रन्थ इति / एतदेव व्यक्तीकरोति- 'वत्थाई तेणेत्यादि, तेन तस्मात् / शेषं सुगममिति / (विशे०) (वस्वादिग्रहणाग्रहणविषयता 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 231 पृष्ठेऽयुक्ता।) "कप्पा आयपमाणा, अट्ठाइज्झाइवित्थडा हत्था / दो चव सोत्तिया उ-निओ य तइओ मुणेयव्वो // 1 // तणगहणाणलसेवा-निवारणाधम्ममुक्कझाणट्ठा / दिट्ट कप्पग्गहणं, गिलाणमरणट्टया चेव // 2 // संपायमरयरेणु-प्पमजणट्ठा वयंति मुहपत्तिं / नासं मुहं च बंधइ, तीए वसहिं पमज्जंता !|3|| आयाणे निक्खेवे, ठाणे निसीएँ सुयपट्टसंकोए। पुव्वं पमञ्जणाहा, लिंगट्ठा चेव रयहरणं // 4 // वेउव्वेऽवायडे वा-इए हि खड्डे पजणणे चेव / तेसिं अणुग्गहठ्ठा, लिंगुदयट्ठा य पट्टोमओं // 5 // " तत्र प्रजनने-मेहने 'वेउवि' त्ति-वैक्रिये विकृते, तथा, अप्रावृते - अनावृते, वातिके चोत्सूनत्वभाजने, ह्रिया-लज्जया सत्या खड्ड बृहत्प्रमाणे 'लिंगुदयट्ठ' त्ति-स्त्रीदर्शने लिङ्गोदयरक्षणार्थं च पटश्चोलपट्टो मत इति / अथ पात्रस्य मात्रकस्य च संयमोपकारित्वं दर्शयन्नाह'ससते' त्यादि / संसक्तसक्तुगोरसद्राक्षादिपानक-पानीयगतसत्त्वप्राणरक्षणार्थ पात्रमिति / संबन्धः / पात्राभावे हि संसक्तगोरसादयो हस्त एवानाभोगादिकारणाद् गृहीताः क्व क्रियेरन् ? तद्गतसत्त्वानां प्राणविपत्तिरेव स्यात् पात्रे तु सति समयोक्तविधिना ते परिस्थाप्यन्ते। तथा च सति तद्गतसत्त्वप्राणरक्षा पात्रेण सिध्यतीति / तथा पात्राभावे पाणिपुट एव गृहीतानां घृतगोरसादिरसानां परिगलने सति यत् कुन्थुकीटकादिप्राणघातनम्; ये च भाजन-धावनादिभिः पश्चात्कर्मादयो दोषास्तेषां परिहारार्थं च पात्रमिष्यते जगद्गुरु-भिः / तथा, ग्लानबाल-दुर्बल-वृद्धाधुपग्रहार्थ च तदिष्यते / पात्रे हि सति गृहस्थेभ्यः पथ्यादिकं समानीय ग्लानबालादीनामुपग्रह उपष्टम्भः क्रियते, तदभावे पुनरसौ न स्यादेवेति। अपरञ्चपात्रे सति भक्तपानादिकं समानीयान्यस्य प्रयच्छतां साधूनां दानमयधर्मस्य साधनंसिद्धिर्भवति; पात्राभावे चैतद् न स्यात् / तदसत्त्वे कस्यापि केनचिद् भक्तपानादिदानासंभवात् / 'समया चेवं परुप्परउ' त्ति-एवं च पात्रे परिग्रहे सति लब्धिमतामलब्धिमतां च, शक्तानामशक्तानां च वास्तव्यानां प्राघूर्णकानां च सर्वेषामपि साधूनां परस्परं समता- स्वास्थ्यं तुल्यता भवति। पात्रे हि सति लब्धिमान् भक्तपानादिकं समानीयलब्धिमते ददाति / एवं शक्तोऽशक्ताय, वास्तव्यः प्राघूर्णकाय तत् प्रयच्छति / इति सर्वेषां सौस्थ्यम्, पात्राभावे तु नैतत् स्यादिति / इह च पात्रग्रहणस्य गुणकथनेन मात्रकस्यापि तत्कथनं कृतमेव द्रष्टव्यम्, प्रायः समानगुणत्वात्ः उक्तं च // "छक्कायरक्खणट्ठा, पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं / जे य गुणा संभोए, हवंति ते पायगहणे वि // 11 // अतरंतबालबुड्डा-सेहाएसा गुरू अ सहुवग्गा। साहारणुग्गहाऽल-द्धिकारणा पायगहणं तु / / 2 / / आयरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लहे सहसदाणे / संसत्तभत्तपाणे, मत्तगपरिभोगणुण्णा उ // 3 // '' इति / यदुक्तम् 'सुए भणियमपरिग्गह तं' इति, तत्राहअपरिग्गहया सुत्ते, त्ति जा य मुच्छा परिग्गहोऽभिमओ। सव्वद्दव्वेसुन सा, कायव्वा सुत्तसब्माओ // 2580|| या च 'सव्वाओ परिणहाओ वेरमणं' - इत्यादिनाऽपरिग्रहता सूत्रे प्रोक्तेति त्वया गीयते, तत्रापि मूच्छेव परिग्रहस्तीर्थकृतामभिमतो नान्यः, सा च मूच्छा यथा वस्ने तथा सर्वेष्वपि शरीराऽऽहारादिषु द्रव्येषु न कर्तव्येति सूत्र-सद्भावः- सूत्रपरमार्थः, न पुनस्त्वदभिमतः सर्वथा वस्त्रपरित्यागोऽपरिग्रहतेति सूत्राभिप्रायः। तस्मादपरिज्ञातसूत्रभावार्थो मिथ्यैव खिद्यसे त्वमिति हृदयम् / विशे० (तीर्थंकरा वस्त्रापात्ररहिता अपि संयमविराधनादिदोषान् न प्राप्नुवन्तीति 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2247 पृष्ठे गतम्।) जिनकल्पिकादयस्तु सदैव सचेलका इति दर्शयन्नाहजिणकप्पियादओ पुण, सोवहओ सव्वकालमेगंतो। उवगरणमाणमेसिं, पुरिसाविक्खाए बहुभेयं // 2554|| अयमत्राभिप्रायः-तीर्थकरदृष्टान्तावष्टम्भेन, जिनकल्पि-कोदाहरणावष्टम्मेन च त्वमचेलकत्वं प्रतिपद्यसे ! एतच्च सर्व भवतो दुर्योधविलसितमेव, यतस्तीर्थकरा अपि पूर्वोक्तन्यायेन न तावदेकान्ततोऽचेलकाः / जिनकल्पिकस्वयंबुद्धादयः पुनः सर्वकालमेकान्तेन सोपधय एवेति / अत एव दुग तिग च उक्क पणगं' इत्यादिना पूर्वमतेषामुपकरणमानं पुरुषापेक्षया बहुभेदमुक्तम्, न पुनः सर्वथा निरुपकरणता / तदयं यस्त्वया सर्वथोपकरणत्यागः कृतः स दृष्टान्तीकृतानां तीर्थकरजिनकल्पिकादीनामपि न दृश्यते, केवलं नूतनः कोऽपि त्वदीय एवायं मार्ग इति / अथ प्रकारान्तरेण परमतमाशङ्कय परिहरन्नाह - अरहंता जमचेला, तेणाचेलत्तणं जइ मयं ते / तो तव्वयणाउ चिय, निरतिसओ होहि माऽचेलो।।२५८५|| यद् यस्मादर्हन्तोऽचेलाः- चेलरहिता नाग्न्यधारिणस्तेन तस्मात् कारणादचेलत्वंनग्नत्वं यदि तव मतं-संमतम्, "जारिसयं गुरुलिंग, सीसेण वि तारिसेण होयव्वं न हि होइ बुद्धसीसो, सेयवडो नग्गखवणे वा॥१॥" इति वचनादिति। ततस्तर्हितद्वचनादेव-तीर्थकरोपदेशादेव निरुपमधृति- संहननाधतिशयरहितोऽचेलो- ननो मा भूस्त्वम् / इदमुक्तं भवति-यदि तीर्थकरशिष्यत्वात् तद्वेषस्तव प्रमाणम् तर्हि तत एव हेतोस्तदुपदेशोऽपि भवतः प्रमाणमेव / न हि गुरूपदेशमतिक्रम्य प्रवर्तमानः शिष्योऽभीष्टार्थसाधको भवति परमगुरूपदेशश्चैवं वर्ततेनिरुपमधृतिसंहननाधतिशयरहितेनाचेलकेन नैव भवितव्यम्। तत् किं त्वमित्थं गुरूपदेशबाह्येन नाग्न्येनात्मानं विगोपयसीति। अथ यथा गुरोरुपदेशः कर्तव्यस्तथा तद्वेष-चरिते अप्यवश्यमाचरणीये / तदयुक्तम्, तदुपदेशानुष्ठानस्यैव कार्य Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ 577- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभूइ साधकत्वादिति दशयति करणमात्रेण न पुनरचेलत्वेन; चरित्रेण त्वेषणीयाहारपरिभोगाऽनियतरोगी जहोवएसं, करेइ वेजस्स हो अरोगो य / वासादिना, न तु पाणिभोजित्वेन निरतिशयत्वेन तदयोग्यत्वादस्मन उ वेसं चरियं वा, करेइ न य पउणइ करंतो // 2586|| दादीनाम् / तस्मात् किञ्चित् साधर्म्यस्योक्तन्यायेनान्यथापि सिद्धेः तह जिणवेजाएसं, कुणमाणोऽवेइ कम्मरोगाओ। कोऽवेलताद्याग्रहो भवतः ? इति (जिनकल्पविषयः (विशे०) 'जिण कप्प' शब्दे चतुर्थभागे 1486 पृष्ठे उक्तः।) न उ तनेवत्थधरो, तेसिमाएसमकरंतो // 2587 / / यचोक्तम् ‘जं च जियाचेलपरिसहो मुणी' इत्यादि, तत्राहइह यथा रोगी वैद्यस्योपदेशं करोति, तत्करणमात्रेणैव च रोगाद् विमुच्यते, न पुनरसौ तद्वेष करोति, नापि तचरितमाचरात, न च तत् जइ चेलभोगमेत्ता-दजिआचेलयपरीसहो तेण / अजियदिन्छिाइपरी-सहो वि भत्ताइभोगाओ // 2564 // कर्वाणोऽप्यसौ प्रगुणीभवति, प्रत्युत क्षपणकादौ वैद्य नाग्न्यादिकं तद्वेष कुर्वन् सर्वरसांश्च स्वेच्छया तद्वभुजानस्तचरितानुष्ठायी संनिपातस्यैवं एवं तुह न जियपरी-सहा जिणिंदा वि सव्वहावन्नं / भियते। तस्माद् वैद्यापदेशानुष्ठानमेव रोगिणो रोगापगमहेतुः। प्रस्तुत- अहवा जो भत्ताइसु, स विही चेले वि किं नेहो ?||2565|| योजनामाह- 'तह' त्यादि तथा तेनैव प्रकारेण जिनवैद्यस्यादेश जह भत्ताइविसुद्धं, राग-दोसरहिओ निसेवंतो। कुर्वाणस्तद्वेषचरिते अनाचरन्नपि कर्मरोगादपैति-वियुज्यते, न पुनस्ते- विजियदिगिंछाइपरी-सहो मुणी सपडियारो वि / / 2566 // षामादेशमकुर्वाणस्तन्नेपथ्य-चरिते विभ्राणोऽपि तस्माद् वियुज्यते, तह चेलं परिसुद्धं, राग-दोसरहिओ सुयविहीए। केवलं तद्योग्यतारहितत्वात्तन्नेपथ्य-चरिताभ्यां प्रवर्तमान उन्मादादि- होइ जियाचेलपरी, सहो मुणी सेवमाणो वि // 2597|| भाजनमेव भवतीति। जिताचेलपरीषहो मुनिर्भवतीति वयमपि मन्यामहे / केवलमिदं किञ्च- यदि तीर्थकरवेष-चरितानुष्ठानवर्ती भवान, तर्हि किं सर्वथा प्रष्टव्योऽसि, किं चेलभोगमात्रेणाप्यजिताचेलपरीषहत्वं भवति येन तैः सह वेष-चरिताभ्यां साधर्म्यं भवतः, उत देशतः? यद्याद्यः पक्षः, भवता सर्वथा वस्त्रपरित्यागः क्रियते, आहोस्विदनेषणीयादिदोषदुष्टतर्हि यत् ते कुर्वन्ति, तत् सर्वमपि भवता कर्तव्यं प्राप्नोति; किं वस्त्रपरिभोगेण ? तत्राद्यपक्षे दूषणमाह- 'जई' त्यादि, यदि चेलभोगपुनस्तत् ? इत्याह मात्रादपि येन साधुनाऽऽचेलक्यपरीषहो न जित इति त्वया प्रोच्यते, न परोवएसवसया, न य छउमत्था परोवएस पि / तर्हि भक्तादिपरिभोगमात्रादजितदिगिंछादिपरीषहोऽपि त्वदभिप्रायेणैष दिति न य सीसवर्ग, दिक्खंति जिणा जहा सवे // 2585|| साधुः स्यात्। एतदुक्तं भवति-इह देशीवचनत्वाद् दिगिंछाशब्देन क्षुत् तह सेसेहिं वि सवं, कजं जइ तेहिं सव्वसाहम्मं / प्रोच्यते, आदि शब्दात-पिपासादिपरिग्रहः / ततश्च योषणीयादि गुणोपेतवस्त्रपात्रपरिभोगाजिताचेलपरीषहो नेष्यते, तर्खेषणादिगुणएवं च कओ तित्थं, न चेदचेलो त्ति को गाहो // 2586|| संपन्नभक्तपानादिपरिभोगाजितक्षुत्पिपासादिपरीषहोऽपि न कश्चिजगति यदि तैर्जिनैस्तीर्थकरैः सह लिङ्गचरिताभ्यां सर्वसाधर्म्यम्, तर्हि यथा स्यात्। भवत्वेवम्, न किञ्चिद् नः सूयत इति चेत् / अत्राह- 'एवमिते स्वयंबुद्धत्वाद् न परोपदेशवशगाः- न परोपदेशेन वर्तन्ते, न च त्यादि एवं सति त्वदभिप्रायेण जिनेन्द्रा अपि भगवन्तो निरुपमधृतिछद्मस्थावस्थायां प्रतिबोधार्थ परस्याप्युपदेशं ददति, न च शिष्यवर्ग संहननाः सत्त्वैकनिधसो न जितपरीषहा इति सर्वप्रकारैरापन्नम् / दीक्षन्ते, तथा शेषैरपि, तच्छिप्यप्रशिष्यैः सर्वमेतत्, त्वदभिप्रायेण अोद्गमादिदोषविप्रमुक्तं विशुद्धमेषणीयं राग-द्वेषरहितो भक्तकार्य करणीयं प्राप्नोति। भवत्वेवं तर्हि, को दोषः? इति चेत् इत्याह पानादिकं सेवमानोऽपि जितक्षुत्पिपासादिपरीषहो मुनिर्भवति, तर्हि एवं च सति कुतस्तीर्थम्, कस्यापि प्रतिबोधाभावाद् दीक्षाद्यभावाच ? योऽयं भक्तादिषु विधिरुच्यते स चेलेऽपि वस्त्रेऽपि भण्यमानः किं नष्टः 'न चेदिति' अथ न तैः सह सर्वसाधर्म्यमित्युच्यते, तर्हि 'अचेलो क्वापि? ननु तदप्येषणीयं रागादिदोषरहितः परिभुजानो जिताचेलभवाम्यहम्' इति कस्तव ग्रहः ? अचिन्त्यत्वात् तच्चरितस्येति। परीषहो मुनिः स्यादेवेति भावः / एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह- 'जह' अथ तीर्थकरैः सह सर्वसाधाभावेऽवेलताग्रहः किमिति न कर्तव्यः? इत्यादि गाथाद्वयं स्पष्टम्। नवरं 'सपडियारो वि' त्ति-विभुक्षापिपासाइत्याह शीताष्णादीनां भक्त-पान-वस्त्रादिभिः सूत्रोक्तयतनया कृतः प्रतीकारः जह न जिणिंदेहि समं, सेसाइसरहिं सव्वसाहम्म। प्रतिविधानं येन स तथा / इदं च डमरुकमणिन्यायेन गाथाद्वयेऽपि तह लिंगेणाभिमयं, चरिएण वि किंचि साहम्मं // 2590|| संबध्यते। तस्मादनेषणीयादिदोषदुष्टवस्त्रपरिभोगेणे-वाजिताचेलपरीषयथा जिनेन्द्रैः सह 'निरुवमधिइसंघयणा, चउनाणाइसयसत्तसं- हत्वं भवति, न तु सूत्रविधिना तदुपभुञ्जन इति। पण्णा।' इत्यादिना ग्रन्थेन प्रतिपादि-तैर्लिङ्गाचरिताच शेषैरतिशयैः आह-ननु यदि वस्त्रं परिभुङ्क्ते साधुः तर्हि तस्य कथमचेलपरीषसर्वसाधर्म्य नाभिमतं भवतः, किं तर्हि ? किञ्चित् साधयमेव, तथा / हसहिष्णुत्वम्, चेलासत्त्व एव तदुपपत्तेः ? तदयुक्तम्, सति, असति च तेनैव प्रकारेण लिनेन चरितेन च किश्चित् साधर्म्यमेव तैः सहाभिमत- चेलेऽवेलकत्वस्यागमे लोके च रूढकत्वात् ; एतदेवाह.... भस्माकम्, न तु सर्वसाधम्यम्, तच्च किञ्चित् साधर्म्य लिङ्गतो लोच- सदसंतचेलगोऽचे- लगो य ज लोगसमयसंसिद्धो / Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ 878 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिवभूइ तेणाचेला मुणओ, संतेहि जिणा असंतेहिं / / 2568|| सचासच सदसती चेले यस्यासौ सदसच्चेलो यद्य स्माल्लोके समये चाचेलकः संसिद्धः प्रसिद्धः / चशब्दः प्रस्तावनायाम् / सा च कृतैव / तेन तस्मादिह मुनयः सामास्यसाधवः सद्भिरेव चेलैरुपचारतोऽचेला भण्यन्ते, जिनास्तु तीर्थकरा असद्भिश्चेलैर्मुख्यवृत्त्याऽचेला व्यपदिश्यन्ते / इदमुक्तं भवति-इहाचेलत्वं द्विविधम्-मुख्यम्, उपचरितं च / तत्रेदानी मुख्यमचेलत्वं संयमोपकारि न भवति, अत औपचारिक गृह्यते, मुख्यं तु जिनानामेवासीदिति / इदमेवौपचारिकमचेलत्वं भावयतिपरिसुद्ध जुण्ण कुच्छिय, थोवाऽनिययऽनभोगभोगेहिं / मुणओ मुच्छारहिया, संतेहिं अचेलया हॉति // 25 // मुनयः- साधवो मूछारहिताः सद्भिरपि चेलैरुपचारतोऽचेलका भवन्ति / कथंभूतैश्चेलैः? इत्याह-'परिसुद्ध' त्ति-लुप्तविभक्तिदर्शनात् परिशुद्धैरेषणीयैः, तथा जीर्णैर्बहुदिवसैः, कुत्सितैरसारैः, स्तोकैर्गणनाप्रमाणतो हीनैस्तुच्छा , 'अनिययऽन्नभोगभोगेहिं ति- अनियतभोगेन कादाचित्कासेवनेन भोगः परिभोगः परिभोगी येषां तानि तथा तैः / एवंभूश्वेलैः सद्भिरप्युपचारतोऽचेलका मुनयो भण्यन्ते। तथा, 'अन्न-भोगभोगेहिं ति-एवमपि योज्यते / ततश्च लोकरूढप्रकारान्यप्रकारेण भोगः-आसेवनम्, प्रकारलक्षणस्यः मध्यपदस्य लोपात्, अन्यभोगस्तेनान्यभोगेन भोगः- परिभोगो येषां तानि तथा तैरप्येवंभूतैश्चेलैरचेलकत्वं लोके प्रसिद्धमेव, यथा कटीवस्त्रेण वेष्टितशिरसो जलावगाढपुरुषस्य। साधोरपि कच्छाबन्धाभावात्, कूर्पराभ्यामग्रभाग एव चोलपट्टकस्य धरणात्, मस्तकस्योपरि प्रावरणाद्यभावाच लोकरूढप्रकारादन्यप्रकारेण चेलभोगो द्रष्टव्यः / तदेवं 'परिसुद्ध-जुण्णकुच्छिय' -- इत्यादिविशेषणविशिष्टैः सद्भिरपि चेलैस्तथाविधवस्त्रकार्याकरणात् तेषु मूर्छाऽभावाच मुनयोऽचेलका व्यपदिश्यन्ते इतीह तात्पर्यम्। आह-ननु चेलस्यान्यथा परिभोगेण किमचेलकत्वव्यपदेशः वापि दृष्टः ? इत्याशङ्कय तदुपदर्शनार्थमाहजह जलमवगाहंतो, बहुचेलो वि सिरवेट्ठियकडिल्लो। भण्णइ नरो अचेलो, तह मुणओ संतचेला वि // 2600 / / गतार्था। जीर्णादिभिरपि वस्त्रैरचेलकत्वं लोकरूढमेवेति भावयति // तह थोवजुम्नकुच्छिय-चेलेहि वि मन्नए अचेलो त्ति / जहत्तर सालिय ! लहुं, दो पोत्तिं नग्गिथामो ति॥२६०१।। इयमपि सुगमा, नवरं, 'जहत्तरेत्यादि' दृष्टान्तः, यथेह काऽपि योषित् कटीवेष्टितजीर्णबहुच्छिद्रैकशाटिका कञ्चित् कोलिकं वदति'त्वरस्व भोः शालिक ! शीघ्रो भूत्वा मदीयपोत्ती शाटिका विर्वाप्य ददस्व समर्पय, ननिका वर्तेऽहम् / तदिह सवस्त्रायामपि योषिति नागन्यवाचकशब्दप्रवृत्तेः "जस्सट्ठा कीरइ नग्गभावो मुंडभावो अण्हायं अदत्तवणय" इत्याद्यपि न विरुध्यत इति / अथ यदुक्तम्- 'जं च तिहिं ठाणेहिं वत्थं धरेज' इत्यादि तत्र प्रतिविधानमाह विहियं सुए चिय जओ, घरेज तिहि कारणेहिं वत्थंति / तेणं चिय तदवस्सं, निरतिसएणं धरेयव्वं // 2602 / / जिणकप्पाजोग्गाणं, हीकुच्छपरीसहा जओऽवस्सं। ही लज ति व सो सं-जमो तदत्थं विसेसेणं // 2603|| ननु त्रिभिः कारणैर्वस्त्रं धरणीयम्- इत्यागमोक्तं दर्शयता भवताऽस्मत्पक्ष एव समर्थितो भवति, परं शून्यहृदयत्वाद् भवान् न लक्षयति, तथाहि- इदानीं वयमपि वक्तुं शक्नुमः- "त्रिभिः कारणैर्वस्त्र धरेत्' इति सूत्रेऽपि विहितं प्रतिपादितं यतो यस्मात्, तेनैव प्रकारेण तद् वस्त्रं निरतिशयेन तथाविधधृतिसंह-ननादिरहितेन साधुनाऽवश्यं धरणीयमिति / कु तः ? इत्याह यतो- यस्माद् निरतिशयत्वेन जिनकल्पायोग्यानां साधूनां हीकृत्सापरीषहलक्षणं वस्त्रधरणकारणं पूर्वाभिहित-स्वरूपमवश्यमव संभवति / ततो धरणीयमेवः वस्त्रम्। यदिवा-कुत्सापरीषहार्थं तद् न ध्रियते तथापि हिर्लज्जा, स संयमस्तदर्थं तावद् विशेषेणैव वस्त्रं धरणीयम्, अन्यथाऽग्निज्वलनादिना बृहद्संयमापत्तेरिति। अथोपसंहारपूर्वकं संक्षिप्योपदेशमाह - जइ जिणमयं पमाणं, तुह तो मा मुयसु वत्थ-पत्ताई। पुवुत्तदोसजालं, लम्भिसि मा समिइयायं च // 2604|| अणुवालेउमसत्तो, ऽपत्तो न समत्तमेसणासमियं / वत्थरहिओ न समिओ, निक्खेवादाणवोसग्गा // 2605 / / यदि जिनमतं तव प्रमाणम्, ततो वस्त्र-पात्रादि मा मुञ्च मा त्याक्षीः / कुतः ? इत्याह-- 'तेणगहणानलसेवा- 'इत्यादि- ना पूर्वमुक्तं दोषजालं मा लब्धाः / तथा, समितिघातं च तत्परित्यागे माऽऽप्नुहि त्वमिति / कस्याः पुनः समितेः पात्राद्यभावे विघातः ? इत्याह'अणुवालेउमित्यादि' अशक्तोऽसमर्थो भवेत् / किं कर्तुम् ? समस्तां परिपूर्णामेषणासमितिमनुपालयि-तुम् / कथंभूतः ? अपात्रः पात्रविरहितः / पुनर्निक्षेपादानसमित्या व्युत्सर्गसमित्या च समितो न भवेत. उपलक्षणत्वाद् भाषासमित्याऽपि समितो न भवेत्, वस्त्राद्यभावे रजोहरणमुखवस्त्रिकाद्याभावात्, तदभावे च यथोक्तसमितित्रयासिद्धेरिति / एवं प्रज्ञापितोऽसौ किं कृतवान् ? इत्याह - इय पण्णविओ वि बहुं, सो मिच्छत्तोदयाकुलियभावो। जिणमयमसद्दहतो, छड्डियवत्थो समुजाओ // 2606|| तस्स भगिणी समुज्झिय-वत्था तह चेव तदणुरागेणं / संपत्थिया नियत्था, तो गणियाए पुणो मुयइ // 2607 / / तीए पुणो वि बद्धो-रसेगवत्था पुणो विछडिंति / अच्छउ ते तेणं चिय, समणुण्णाया घरेसी य // 2608 / / कोडिनकोट्टवीरे, पजावेसी य दोण्णि सो सीसे / तत्तो परंपराफा-सओऽक्सेसा समुप्पन्ना / / 2606 / / एताश्चतस्राऽपि गतार्थाः, नवरं 'समुजाउ ति' त्यक्तवस्त्र उपाश्रयात् समुद्यातो निर्गतः / 'नियत्थ त्ति' ततो गणिक या निवसिता वस्त्र परिधापितेत्यर्थः / 'तीए Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिवभूइ 876 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिसुपाल त्ति' तया गणिकया 'बद्धोरसेगवत्थ त्ति' बद्धमुरस्येकं वस्त्रं यस्याः सा इद् भवति / प्रा० / स्वपावस्थायां गजादिदर्शने, आ० क० 1 अ०। तथेति / 'तत्तो परंपरेत्यादि' ततः परम्परया योऽसौ स्पर्शो सिविया--स्त्री० (शिविका) उपरिच्छादिते, कोष्ठाकारे जम्पानविशेषे, गुरुशिष्यसंबन्धस्तस्माद् बोटिकसंतानवर्तिनोऽवशेषा बोटिकाः जी० 3 प्रति० 4 अधि० / ज्ञा० / सूत्र० / अनु०। औ० / आ० म० / समुत्पन्ना इति / एतासां च बोटिकव्यतिकरसंबद्धानां सर्वासामपि जं० / दशा० / भ० / रा० / आचा० / अन्त० / गाथानामर्थं संक्षिप्य 'इह यो यदर्थी न स तन्निमित्तोपादानं प्रत्यनावृतः सिवोवएस-पुं० (शिवोपदेश) मोक्षसाधनप्ररूपणे, पञ्चा० 15 विव०। यथा घटार्थी मृत्पिण्डोपादानं प्रति, चारित्रार्थिनश्च यतयः, तन्निमित्तं च चीवरमिति, न चास्यासिद्धत्वम्, इत्यादिना सूत्र वस्त्र- पात्रपरि सिव्वण-न० (सीवण) परिकर्मणि, नि० चू० 16 उ० / ग्रहविषयं वादस्थानकं वृद्धैर्विरचितमास्ते, तचोत्तराध्ययनेषु द्वितीये सिव्विणी-(देशी) -सूच्याम, दे० ना० 8 वर्ग 26 गाथा। परीषहाध्ययने आचेलक्यपरीषहे बृहट्टीकायां तदर्थनाऽन्वेषणीयम् / सिय्वी-(देशी) सूच्याम्, दे० ना० 8 वर्ग 26 गाथा। तथा, 'इह खलु यस्य यत्रासंभवो न तस्य तत्र कारणवैकल्यम्, यथा | सिसिर-पुं० (शिशिर) लोकोत्तरसंज्ञया माधे मासे, ज्यो०४ पाहु०। शुद्धशिलायां शाल्यकुरस्य, अस्ति च तथा-विधस्त्रीषु मुक्तेः कारणा- चं० प्र०। जं०। सू० प्र०। शीतकाले, नि० चू०१ उ०। दध्नि, दे० वैकल्यम्, न चायमसिद्धो हेतुः, इत्यादिना विरचितं स्त्रीनिर्वाणविषय- ना० 8 वर्ग 31 गाथा। मपि वादस्थानकं तत्रैव षट्त्रिंशत्तमाध्ययने द्रष्टव्यम् // इति सिसिरकाल-पुं० (शिशिरकाल) शीतकाले, प्रश्न०५ सव० द्वार / षष्टिगाथार्थः / विशे० / आ० क० / आद्यदिगम्बरे, ध० 20 / आ० सिसिररत्त-पुं० (शिशिररात्र) पौषमाघमासद्वयात्मके ऋतुभेदे, स्था० चू० / श्रावस्तीनवरीवास्तव्यश्रीभद्रात्मजे, आ० चू० 1 अ० / स्था० / 6 ठा०३ उ०। सिवमग्ग-पुं० (शिवमार्ग) दर्शनज्ञानचारित्रलक्षणे मोक्षमार्गे, विशे०। सिसिरली-स्त्री० (शिशिरली) अनन्तकायकन्दभेदे, भ० 5 श० सिवय-पुं० (शिवक) उदकाभासनामकस्य वेलन्धरनागराजस्य 8 उ० / साधारणवनस्पतिकायविशेषे, जी०१ प्रति०। आवासपर्वते, स्था० 4 ठा०२ उ०। ('लवणसमुद्द' शब्दे वक्तव्यता।) सिसु-पुं० (शिशु) बालके, विशे० / नि० चू०। *सिवद-पुं० शिवं ददातीति शिवदः / मोक्षप्रदे, षो०६ विव०। सिसुनाग-पुं० (शिशुनाग) अलसे, सर्पाकृतौ मृद्रक्षके वर्षाजन्तौ, सिवलिया--स्त्री० (शिवलिका) कलायाभिधानधान्यफलिकायाम् , शिशुनागो गण्डूपदः / उत्त०५ अ०'समाहि' शब्दे उदाहृते सुदर्शनभ०७ श० 1 उ०। पुरवास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपतौ, आ० क० 4 अ० / आव० / सिववत्त-न० (शिववर्त्मन्) शैवानां परिभाषया मोक्षे, द्वा० 24 द्वा० | मिसपाल-io सिसुपाल-पुं० (शिशुपाल) वसुदेवसुतायां माद्रयां दमघोषेण जाते पुत्रे, सिवसम्मसूरि-पुं० (शिवशर्मसूरि) शतकाख्यकर्मग्रन्थकर्तर्याचार्ये, सूत्र०। कर्म० 5 कर्म०। द्वा०। तचेदम् - सिवसोक्खद-पुं० (शिवसौख्यद) शिवं-मोक्षस्तस्य सौख्यं निराबाध "वसुदेवसुसाएँ सुओ, दमघोसणराहिवेण मद्दीये। लक्षणं ददातीति शिवसौख्यदः 1 मोक्षफलके, धं० 3 अधि० / जाओ चतुब्भुजो भुज-बलकलिओ कलहपत्तहो // 1 / / सिवहत्थ-पुं० (शिवहस्थ) आरोग्यकरहस्ते, विपा०१ श्रु०७ अ०! दठ्ठण तओ जणणी, चतुब्भुयं पुत्तमब्भुयमणग्धं / सिवा-स्त्री० (शिवा) सौर्यपुरे नगरे दशदशाराणां मध्ये ज्येष्ठसमुद्र- भयहरिसविम्हयमुही, पुच्छइ णेमित्तियं सहसा ||2|| विजयस्य राज्ञो भार्यायाम, स्था० 8 ठा० 3 उ० / उत्त० / कल्प० / णेमित्तिएण मुणिऊ-ण साहियंतीइ हट्ठहिययाए। प्रव० / आ० म० / स० / उज्जयिनीराजस्य प्रद्योतस्य भार्यायाम, जह एस तुब्भ पुत्तो, महाबलो दुजओ समरे / / 3 / / चेटकराजदुहितरि, आ० चू० 4 अ० [ "लोहजंघो लोहहारी एयस्स य जं दटू-ण होइ साभावियं भुआजुअलं / अग्निभीरुस्तथा रथः / स्त्रीरत्नं च शिवा देवी गजोऽनलगिरिः पुनः होहि ततो थिय भयं, सुतस्स ते णत्थि संदेहो // 4|| 11 // '' आ० क० 4 अ० / ति० / आव०। पञ्चदशतीर्थकरस्य प्रथमप्रवर्त्तिन्याम्, स० / प्रव० / शक्रस्य देवेन्द्रस्याग्रमहिष्याम्, भ० सा वि भयवेक्यिंगी, पुत्तं दंसेइ जाव कण्हस्स। 10 श०५ उ०। स्था०। (अस्या अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 173 तावचिय तस्स ठियं, पयइत्थं वरभुयाजुगलं ||5|| पृष्ठे पूर्वोत्तरजन्मकथा 1) शृगाल्याम, शृगाली अशिवाप्यमाङ्ग-- तो कण्हस्स पिउच्छा, पुत्तं पाडेइ पायपीढम्मि / लिकशब्दपरिहारार्थं शिवा भण्यते / अनु० / अवराहखामणत्थं, सो वि सयं से खमिस्सामि / 6 / / सिवाणंदा-स्त्री० (शिवानन्दा) आनन्दस्य श्रमणोपासकस्य भार्यायाम, सिसुपालो वि हु जुव्वण-मएण नारायणं असब्भेहिं। उपा० 1 अ० / आ० चू०। वयणेहि भणइ सो वि हु, खमइ खमाए समत्थो वि // 7|| सिविण-पुं० (स्वप्र) "इ: स्वप्रादौ" ||6/1146 / / इत्यादेरस्य अवराहसए पुण्णे, वारिजंतो ण चिट्ठई जाहे / कण्हेण तओ छिण्णं, इत्वम् / प्रा०। "स्वले नात्" / 2 / 108|| स्वप्रशब्दे नात् पूर्व | चक्केणं उत्तमंग से // 8 // " सू०१ श्रु०३ अ०१ उ०। Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिसुमारिया 880- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सिहरि सिसुमारिया--स्त्री० (शिशुमारिका) वाद्यविशेषे, रा० / गथं विहाय इह सिक्खमाणो, सिस्स-पुं० (शिष्य) प्रव्रज्यां शिक्षां च ग्राहिते, सूत्र०२ श्रु०७ अ01 उहाय सुबंभचेरं वसेजा। आचा० / जं० / आव० / आ० चू० / शिक्षणायोपाध्यायस्योपासके, ओवायकारी विणयं सुसिक्खे, जं०२ वक्षः। जे छेय विप्पमायं न कुजा // 1 // गंथो पुटवुद्धिट्ठो, दुविहो सिस्सो य होति णायव्यो। 'इह' प्रवचने ज्ञातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोत्थितो ग्रथ्यते पव्वावण सिक्खावण, पगयं सिक्खावणाए उ॥१२७।। आत्मा येन स ग्रन्थो-धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुप्पदादि- विहायसो सिक्खगो य दुविहो, गहणे आसेवणाऐं णायव्वो। त्यक्त्वा प्रव्रजितः सन् सदुत्थानेनोत्थाय च ग्रहणरूपामा सेवनारूपां गहणम्मि होति तिविहो, सुत्त अत्थे तदुभए य // 128|| चशिक्षा (च) कुर्वाणः- सम्यगासेवमानः सुष्टु शोभनं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्ति भिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्य वसेत् तिष्ठेत्, यदिवा-सुब्रह्मचयमितिआसेवणाएँ दुविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य / संयमस्तद् आवसेत्-तं सम्यक् कुर्यात् आचार्यान्तिके यावज्जीव मूलगुणे पंचविहो, उत्तरगुणे बारसविहो उ / / 126|| वशमानो यावदभ्युद्यतविहारं न प्रतिपद्यते तावदाचार्यवचनस्यावपातोआयरिओऽवि य दुविहो, पव्वावंतो व सिक्खवंतो य / निर्देशस्तत्कार्यवपातकारी वचननिर्देशकारी सदाऽऽज्ञाविधायी, सिक्खावंतो दुविहो, गहणे आसेवणे चेव // 130 / / विनीयतेअपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठ शिक्षेद्-विदध्यात् गाहावितो तिविहो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव / ग्रहणासेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालयेदिति / तथा यः छेकोमूलगुण उत्तरगुणे, दुविहो आसेवणाए उ // 131|| निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमादं न कुर्यात्, (गंथो० इत्येतद् 127 गाथाव्याख्या 'सिक्ख' शब्देऽस्मिन्नेव भागे यथा हि आतुरः सम्यन्वैद्योपदेशं कुर्वन् श्लाघां लभते रोगोपशमं च एवं गता।) साधुरपि सावद्यग्रन्थपरिहारीपापकर्मभेषजस्थानभूतान्याचार्यवचनानि अहर्निशमनुतिष्ठति स एवंविधो ग्रहणासेवनाभेदभिन्नः शिष्यो ज्ञातव्यो बिदधदपरसाधुभ्यः साधुकारमशेषकर्मक्षयं चावाप्नोतीति // 1 // सूत्र० भवति, तत्रापि ग्रहणपूर्वकमासेवनमिति कृत्वाऽऽदावेव ग्रहणशिक्षामाह 14 अ०। शिक्षाया ग्रहणे--उपादानेऽधिकृते त्रिविधो भवति शैक्षकः, तद्यथा शीर्षन्-न० उत्तमाङ्गे, नं०।। सूत्रे, अर्थे, तदुभये च / सूत्रादीन्यादावेव गृह्णन् सूत्रादिशिक्षको | सिस्सिणी-स्त्री० (शिष्या) स्वहस्तदीक्षितायाम, व्य०२ उ०। आव०। भवतीति भावः / साम्प्रतं ग्रहणोत्तरकालभाविनीमासेवनामधि- | सिह-धा० (काक्ष) काङ्क्षायाम् "का राहाहिलवाहिलककृत्याह- यथावस्थितसूत्रानुष्ठानमासेवना तथा करणभूतया द्विविधो वचबम्फमहसिहविलुम्पाः " ||4|192 / / इति काङ्गतेः सिह भवति शिक्षकः, तद्यथा-मूलगुणे- मूलगुणाविषय आसेवमानः- इत्यादेशः / सिहइ / कासते / प्रा० 4 पाद / सम्यगमूलगुणानामनुष्ठानं कुर्वन् तथा उत्तरगुणे च- उत्तरगुणविषयं स्पृहि-धा० स्पृह णिच् / इच्छायाम, "स्पृहेः सिहः" ||8||34|| सम्यगनुष्ठानं कुर्वाणो द्विरूपोऽप्यासेवनाशिक्षको भवति, तत्रापि मूलगुणे इति ण्यन्तस्य स्पृहेः सिह इत्यादेशः / सिहइ। स्पृहयति / इच्छति। पञ्चप्रकार:- प्राणातिपादिविरतिमासेवमानः पञ्चमहाव्रतधारणात्प- प्रा०४ पाद। विधो भवति मूलगुणेष्वासेवनाशिक्षकः, तथोत्तरगुणविषये सम्यक् सिहंडइल्लो-(देशी) बालदधिसरमयूरेषु, दे० ना० 8 वर्ग 54 पिण्डविशुद्ध्यादिकान् गुणानासेवमान उत्तरगुणा-सेवनाशिक्षको भवति, गाथा। ते चामी उत्तरगुणाः- "पिंडस्स जा विसोही, समिईओ भावणा तवो सिहंडि-त्रि० (शिखण्डिन्) शिखाधारिणि, भ०६ श० 33 उ० / दुविहो / पडिमा अभिग्गहावि य, उत्तरगुणमो वियाणाहि // 1 // " दशा०। यदिवा-सत्स्वप्यन्येषूतरगुणेषु प्रधाननिर्जराहेतुतया तप एव द्वादशविधमुत्तरगणत्वेनाधिकृत्याह-उत्तरगुणे- उत्तरगुणविषये तपो द्वादश सिहर-न० (शिखर) पर्वतोपरिवर्त्तिकूटेषु, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। स्था०। भेदभिन्नं यः सम्यग् विधत्ते स आसेवनाशिक्षको भवतीति / शिष्यो नि० चू०।"चूलं ति वा विभूसणं ति वा सिहरं ति वा एते एगट्ठा" नि० ह्यचार्यमन्तरेण न भवत्यत आचार्यनिरूपणमा (णाया) ह-शिष्यापेक्षया चू०१ उ० जी० / सू० प्र०। उपरितने भागे, आ० म०१ अ०। हि आचार्यो द्विविधो- द्विभेदः, एको यः प्रव्रज्यां गाहयत्यपरस्तु यः शिखराणि ऋतुपक्षे वृक्ष सम्बन्धीनि पर्वतपक्षे कूटानि / ज्ञा०१ श्रु० शिक्षामिति, शिक्षयन्नपि द्विविधः-- एको यः शिक्षाशास्त्रं ग्राहयति अ० / प्रश्न०। पाठयत्यपरस्तु तदर्थं दशविध-चक्रवालसमाचार्यनुष्ठानतः सेवयति सिहरभूअ-त्रि० (शिखरभूत) शिखरकल्पे, प्रश्न०५ संव० द्वार / सम्यगनुष्ठानं कारयति / तत्र सूत्रार्थतदुभयभेदाद् ग्राहयन्नप्याचार्यस्विधा सिहरि-पुं० (शिखरिन्) जम्बूद्वीपस्य षष्ठवर्षधरपर्वते, जं० दो भवति / आसेवनाचार्योऽपि मूलोत्तरगुणभेदाद् द्विविधो भवति / गतो ___ सिहरिकूडा। स्था० 2 ठा०३ उ० / नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तदनन्तरं किं तत् सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं . अथ षष्ठवर्षधरावसरःसूत्रमुचारयितव्यम्। कहिणं भन्ते ! जम्बूद्दीवे दीवे सिहरी णामं वासहरतच्चेदम् - पटवए पण्णते ? गोअमा! हरण्णवयस्स उत्तरेणं एरावयस्स Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिहरि 881 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओदा दाहिणेणं पुरत्थिमलवणसमुदस्स पञ्चत्थिमेणं पचत्थिमल- विष्कम्भाभ्यां पञ्चदशाष्टादशोत्तराणि विशेषन्यूनानि परिक्षेपेण यस्य च वणसमुहस्स पुरथिमेणं, एवं जह चेव चुल्लहिभवन्तो तह चेव मध्ये शीताद्वीपः चतुष्षष्टियोजनायामविष्कम्भो व्युत्तरयोजनशतसिहरी विणवरं जीवा दाहिणेणं धणुं उत्तरेणं अवसिटुं तं चैव द्वयपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विक्रोशोच्छ्रितःशीतादेवीभवनेन विभूषितोपरिपुण्डरीए दहे सुवण्णकू ला महाणाई दाहिणेणं अव्वा जहा तनभागः स शीताप्रपातहृदः / स्था० 2 ठा० 3 उ० / रोहिअंसा पुरत्थिमेणं गच्छा। सीअल्ली-(देशी) हिमकालदुर्दिने, झज्झावाते च। दे० ना०८ वर्ग 55 'कहि ण' मित्यादि क्व भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे शिखरी नाम वर्षधर- गाथा। पर्वतः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! हैरण्यवतस्योत्तरस्याम्, ऐरावतस्यवक्ष्यमाण- सीअवेयमहण-न० (शीतवेगमथन) आतपेन शीतवेगनिवारणात्; सूर्ये, सप्तमक्षेत्रस्य दक्षिणस्यां 'पुरत्थिमे' त्वादि प्राम्वत्, एवमुक्ताभिलापेन कल्प० 1 अधि० 3 क्षण / यथा क्षुद्रहिमवान् तथैव शिखर्यपि, नवरं जीवा दक्षिणेन धनुरुत्तरेण सीइआ-(देशी) अविच्छिन्नवृष्टी, दे० ना० 8 वर्ग 24 गाथा। अवशिष्ट तदेवेति क्षुद्रहिमवत्प्रकरणोक्तमेव, तत्र पुण्डरीको हृदः / जं० सीईभूय-त्रि० (शीतीभूत) सुखे, आचा० 1 श्रु०३ अ० 1 उ०। 4 वक्ष० / स्था० / स० / शिखरेण समन्विते पर्वतमात्रे च / नं०। सीउग्गयं-(देशी) सुजाते, दे० ना० 8 वर्ग 34 गाथा / सिहरिकूड-न० (शिखरिकूट) जम्बूमन्दरस्योत्तरे स्वनामख्याते कूटे, सीउण्ह-न० (शीतोष्ण) शीतं च उष्णं च शीतोष्णम् / अनुकूलप्रतिस्था० 6 ठा० 3 उ० / जं० / कूलपरीषहे, सूत्र० 1 श्रु० 2 अ०२ उ०। सिहरिणी-स्त्री० (शिखरिणी) करमथितखण्डयुक्तदधिनिष्पन्ने अन्नोप सीओअगकूड-पुं० -न० (शीतोदककूट) विद्युत्प्रभवक्षस्कारपर्वत स्करे, ध० 2 अधि०। स्वनामख्याते कूटे, जं० 4 वक्ष० / जा दहिसरम्मि गालिय-गुलेण चउजायसुगयसंभारा / सीओअप्पवाय-पुं० (शीतोदाप्रपात) शीतोदामहानदीप्रवाहे ह्रदनिर्गमे, कूरम्मि छुप्पमाणे, बंधति सिहरं सिहरिणी उ // 19 // यत्र निषधात् शीतोदा निपतति स शीतोदानिपातः / स्था० 2 ठा० दध्ना शरे गालितेन गुडेनया निष्पन्ना अपरं च चतुर्जातकसुकृतसंभारा 3 उ०॥ एलात्वक्तमालपत्रनागकेशराख्यै-श्चतुर्भिर्गन्धप्रख्यैराधिक्येनोपज सीओदग-न० (शीतोदक) शीतं शीतलं स्वरूपस्थ-तोयोपलक्षणमेतत्। नितवासा कूरमध्ये प्रछिप्यमाणे शिखरं बध्नाति सा शिखरिणीत्युच्यते। स्वकायादिशस्त्रानुपहतमप्राशुकमित्यर्थः, तच्च तदुदकं शीतोदकम् / बृ०२ उ०। नि० चू० / आचा०। प्रश्न० / मार्जितायाम, दे० ना० उत्त०२ अ० / अप्रासुकजले, उत्त० 2 अ० / सूत्र० / “नदीतडागा८ वर्ग 33 गाथा / वटवापी-पुष्करिण्यादिषु शीतपरिणामे, जी० 1 प्रति० / नि० चू० / सिहरिल्ला-(देशी) मार्जितायाम्, दे० ना० 5 वर्ग 33 गाथा / सचित्तपानीये, दश० 10 अ० / नि० चू० / प्रज्ञा० / सिहलि-स्त्री० (शिखा) चूडायाम्, आवा० 4 अ०। सिहलिं वा धारती | सीओदगदुगंछि-पुं० (शीतोदकजुगुप्सिन) अप्राशुकोदकपरिहारिणि, केइ 'सिहलि' ति शिखा / पञ्चा० 10 विव० / जं० 2 वक्ष०। सिहा-स्त्री० (शिखा) शिरसि, व्य०२ उ० शिरसि सर्ववद्धानां केशानां सीओदगवियड-म० (शीतोदकविकृत) शीतोदकं च तद्विकृतं च समूहे, व्य०३ उ० / अनु० / स्था० / सूत्र० / शीतोदकावकृतं तदेव विकट-विगतजीवम्। शीतोष्णादिशस्त्रेण विकारं सिहाचारण पुं० (शिखाचारण) अग्निशिखामुषादाय तेजः- कायिकान प्रापिते प्राशुकीकृते, बृ०२ उ० ! नि० चू० / आचा० / दशा० / विराधयति स्वयमदह्यमाने पादविहारनिपुणे चारणभेदे, ग० 3 अधि०। (यत्रोपाश्रयस्यान्तर्वगडायां शीतोदकविकृतिः स्यात्तत्र न वासः कर्त्तव्य सिहि-पुं० (शिखिन) शिखाऽस्यास्तीति शिखी / अनु० / मयूरे, भ० इति 'वसहि' शब्दे षष्ठे भागे उक्तम्।) 7 श०६ उ० / कल्प० / संघा० / को०। जं०। विशे०। निळूभऽयौ, सीओदा-स्त्री० (शीतोदा) जम्बूद्वीपे पूर्वापरेण लवणसमुद्रं समुत्सर्पन्त्यां कल्प० 1 अधि० 1 क्षण / व्य० / अग्निमात्रे, आव० 5 अ० / महानद्याम्, स०१४ सम० / सिहंडिणी-स्त्री० (शिखण्डिनी) शिखाधारिण्याम, औ० / सीतोयामहानदीओ चोवत्तरिंजोयणसयाइं साहियाई उत्तरा हिमुही पवहित्ता वइरामयाए जिभियाए चउ-जोयणायामाए सिहिणा-(देशी)- स्तनयोः दे० ना० 8 वर्ग 30 गाथा। पन्नासजोयणविक्खंभाए वइरतले कुंडे महया पडमुहपवत्तिएणं सिही-(देशी) कुक्कुटे, दे० ना० 8 वर्ग 28 गाथा / मुत्तावलिहारसंठाणसंठिएणं पवाएणं महया सद्देणं पवडइ, एवं सीअ-(देशी) सिक्थे, दे० ना० 8 वर्ग 33 गाथा / स्था०। सीता वि दक्षिणाहिमुही भाणियव्वा / (सू०७४+) सीअणयं-(देशी) दुग्धपारि- श्मशानयोः, दे० ना० 5 वर्ग 55 गाथा। सीतोदाया महानद्याः पर्वतस्योपरि चतुःसप्ततिशतान्येकविंशत्यधिकानि सीअप्पवायदय-पुं० (शीताप्रपातहद) ह्रदविशेषे, स्था०। यत्र नीलवतः क्ला चैवेत्येवं प्रवाहो भवति, 'वइरामयाए जिभियाए त्ति वज्रमय्या जिह्विशीता निपतति यश्च चत्वार्यशीत्यधिकानि योजनशतानि आयाम- क्या प्रणालस्थमकरमुखजिहिकया चतुर्योजनदीर्घया पञ्चाशद्योजनविष्क Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओदा 852 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज म्भया 'वइरतले कुण्डे' त्ति-निषधपर्वतस्याधोवर्तिनि वज्रभूमिके अशीत्यधिकचतुर्योजनशतायामविष्कम्भे दशयोजनावगाहे सीतोदा-- देवीभवनाध्यासितमस्तकेन तद्द्वीपेनालंकृतमध्यभागे सीतोदाप्रपातहदे 'महय' त्ति महाप्रमाणेन यत्पुनः 'दुहओ' त्ति-क्वचित् दृश्यते तदपपाठ इति मन्यते 'धडमुहपवत्तिएणं' त्ति-घटमुखेनेवकलशवदनेनेव | प्रवर्तितः- प्रेरितो घटमुख-प्रवर्तितस्तेन मुक्तावलीनांमुक्ताफलशरीराण्णां सम्बन्धी हारस्तस्य यत्संस्थानं तेन संस्थितो यस्तेन प्रपातः- पर्वतात्प्रपतलसमूहस्तेन महाशब्देनमहाध्वनिना प्रपतति, एवं सीताऽपि / स०७४ सम०। ___अथास्माद्या उत्तरेण नदी प्रवहति तामाह - तस्स णं तिगिछिद्दहस्स उत्तरिल्लेणं तोरणेणं सीओआ महाणई पव्वूढा समाणी सत्त जोअणसहस्साइं चत्तारि अ एगवीसे जोअणसए एगं च एगणवीसइभागं जोअणस्स उत्तराभिमुही पव्वएणं गंता महया घडमुहपवित्तिएणं० जाव साइरेगचउजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। सीओआ णं महाणई जओ पवडइ एत्थं णं महंएगा जिन्मिआ पण्णत्ता चत्तारि जोअणाई आयामेणं पण्णासं जोअणाइं विक्खम्भेणं जोअणं बाहल्लेणं मगरमुहविउहसंठाणसंठिआ सव्ववइरामई अच्छा। (सू०१५) 'तस्स णं तिर्गिछिद्दह' इत्यादि, व्यक्तं, गिरिगन्तव्यं तु हरिन्नद्या इवावसेयम्, अथास्या जिबिकास्वरूपमाह-' 'सीओआ' इत्यादि, उत्तानार्थ , नवरमायामेन चत्वारि योजनानि, हरिन्नदीजिह्निकाद्विगुणत्वात्, पञ्चाशयोजनानि विष्कम्भेनहरिन्नदीप्रवहतो द्विगुणस्य सीतोदाप्रवहस्य मातव्यत्वात्, एवं बाहल्यमपि पूर्वजिह्निकातो द्विगुणमवसेयम्। जं०४ वक्ष०। सीओभास-त्रि० (शीतावभास) ईषच्छीतलाभे, रा०। "सएसीओभास' त्ति-शीतस्पर्शापेक्षया कुल्याद्याक्रान्तत्वादिति वृद्धाः। ज्ञा०१ श्रु० 1 अ०। सीओयष्पवायदह-पुं० (शीतोदाप्रपातहृद) शीतोदानद्याः प्रपातस्थाने, यत्र निषधाच्छीतोदा निपतति स शीतोदाप्रपातहृदः / शीतोदाप्रपातहृदसमानः सीतादेवीद्वीपभवनसमानः शीतोदादेवीद्वीपभवनश्चेति / स्था०.१ ठा०। सीओयाकूड न० (शीतोदाकूट) शीतोदानदीदेवनिवासभूते निषधवर्ष धरपर्वतस्य कूटे, स्था०६ ठा०३ उ०। सीओसणिज-न० (शीतोष्णीय) शीतं चोष्णं च शीतोष्णे ते अधिकृत्य कृतमध्ययनं शीतोष्णीयम् / शीतोष्णस्पर्शजनितवेदनाप्रतिपादके आचाराङ्गप्रथमश्रुतस्कन्धस्यतृतीये अध्ययने, स०ा स्था०। आचा० / शीतोष्णयोरनुकूलप्रतिकूलपरिषहयोरतिसहनं कर्त्तव्यं, तदधुना प्रतिपाद्यते, अध्ययनसम्बन्धस्तु शस्त्रपरिज्ञोक्तमहाव्रतसम्पन्नस्य लोकविजयाध्ययनप्रसिद्धसंयमव्यवस्थितस्य विजितकषायादिलोकस्य मुमुक्षोः कदाचिदनुलोमप्रतिलोमाः परीषहाः प्रादुष्यन्ति, तेऽविकृ- तान्तः करणेन सम्यक्सोढव्या इत्यनेन सम्बन्धेनायातिमिदमध्ययनम, अस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोगद्वाराणि भवन्ति। तत्रोपक्रमेऽर्थाधिकारो द्वेधा, तत्राप्यध्ययनार्थाधिकारोऽभिहितः / उद्देशार्थाथिकारप्रतिपादनार्थं तु नियुक्तिकार आहपढमे सुत्ता अस्सं जयत्ति ? बिइए दुह अणुहवंति / / तइए न हु दुक्खेणं, अकरणयाए व समणुत्ति 3 / 168|| उडेसम्मि चउत्थे, अहिगारो उ वमणं कसायालं / पावविरओ विउओ, उ संजमो इत्थ मुक्खु त्ति 4199l प्रथमोद्देशकेऽयमर्थधिकारो, यथा-भावनिद्रया सुप्ताः- सम्यग्विवेकरहिताः, के ? असंयताः- गृहस्थास्तेषां च भावसुप्तानां दोषा अभिधीयन्ते, जाग्रतां च गुणाः, तद्यथा 'जरामच्चुवसीवणीए नरे' इत्यादि 1, द्वितीये तुतएवासंयता यथा भावनिद्रापन्ना दुःखमनुभवन्ति तथोच्यते / तद्यथा- 'कोमैसु गिद्धा निचयं करंति' 2, तृतीये तु 'न हु' नैव दुःखसहनादेव केवलाच्छ्रमणः अकरणतयैव- अक्रिययैव् संयमानुष्ठानमन्तरेणेत्यर्थः वक्ष्यति च- 'सहिए दुक्खमाया य तेणेव य पुट्ठो नो झंझाए' 3, चतुर्थोद्देशके त्वयमधिकारो, यथा- कषायाणां वमनं कार्य, पापस्य च कर्मणो विरतिः, विदुषो- विदितवेद्यस्य संयमोऽत्रैव प्रतिपाद्यते क्षपकश्रेणिप्रकमात् केवलं भवोपग्राहिक्षयान्मोक्षश्चेति गाथाद्वयार्थः / नामनिष्पन्ने तु निक्षेपे शीतोष्णीयमध्यनमतः शीतोष्णयोर्निक्षेप निर्दिदिक्षुराहनाम ठवणा सीयं, दव्वे भावे य होइ नायव्वं / एमेव य उण्हस्स वि, चउदिवहो होइ निक्खेवो // 200 / / सुगमा। तत्र नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यशीतोष्णे दर्शयितुमाह-- दवे सीयलदव्वं, दवुण्डं चेव उण्हदव्वं तु / भावे उ पुग्गलगुणो, जीवस्स गुणो अणेगविहो // 201 / / ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यशीतं शीतगुणोपेतं गुणगुणिनोरभेदात् शीतकारणं वा यद्रव्यं द्रव्यप्राधान्या-च्छीतलद्रव्यमेवं द्रव्यशीतंहिमतुषारकरकादि,एवं द्रव्योष्णमपीति। भावतस्तु द्वेधा-पुद्गलाश्रितं, जीवाश्रितं च, गाथाशकलेनाचष्टे- तत्र पुद्गलाश्रितं भावशीत पुद्गलस्य शीतो गुणो गुणस्य प्राधान्यविवक्षयेति, एवं भावोष्णमपि / जीवस्तु तु शीतोष्णरूपोऽनेकविधो गुणः, तद्यथा- औदयिकादयः षड् भावाः, तत्रौदयिकः कर्मोदयाविभूतनारकादिभवकषायोत्पतिलक्षणः उष्णः, औपशमिकः कर्मोपशमावाप्तसम्यक्त्वविरतिरूपः शीतः, क्षायिकोऽपि शीत एव क्षायिकसम्यक्त्वचारित्रादिरूपत्वाद, अथवाऽशेषकर्मदाहान्यथानुपपत्तेरुष्णः, शेषा अपि विवक्षातो द्विरूपा अप्रीति / अस्य च जीवभावगुणस्य शीतोष्णविवेकं स्वत एव नियुक्तिकारः प्रचिकटयिषुराहसीयं परीसहपमा-युवसमविरई सुहं च उण्हं तु / Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज परीसहतबुज्जमकसा-य सोगाहिवेयारई दुक्खं // 202 / / 'शीत' मिति भावशीतम्; तच्चेह जीवपरिणामस्वरूपं गृह्यते, स चायं / परिणामोमार्गाच्च्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहाः, प्रमादः-कार्यशैथिल्यं शीतलविहारता, उपशमो मोहनीयोपशमः, सच सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिलक्षण, उपशमश्रेण्याश्रितो वा, तत्क्षयो वेति, 'विरति' रिति प्राणातिपातादिविरत्युपलक्षितः सप्तदशविथः संयम, सुखं चसातावेदनीयविपाकाविर्भूतमिति। एतत् सर्वं परीषहादि शीतमुष्णं च गाथाशकलेनाह-- परीषहाः- पूर्वव्यावर्णितस्वरूपाः तपस्युद्यमोयथाशक्ति द्वादशप्रकारतपोऽनुष्ठानं कषायाः- क्रोधादयः- शोकःइष्टाप्राप्तिविनाशोद्भवः आधिः वेदः- स्त्रीपुनपुंसकवेदोदयः अरति:मोहनीयविपाकाचित्तदौस्थंदुःखंच-असातावेदनीयोदयादीनि, एतानि परीषहादीति पीडाकारित्वादुष्णमिति गाथासमासार्थः / व्यासार्थ तु नियुक्तिकारः स्वत एवाचष्टे- तत्र परीषहाः शीतोष्णयोर्द्धयोरप्यभिहिताः, ततो मन्दबुध्रनध्यवसायः संशयो विपर्ययो वा स्याद् अतस्तदपनोदार्थमाहइत्थी सक्कारपरी-सहो य दो भावसीयला एए। सेसा वीसं उण्हा, परीसहा हुंति नायव्वा / / 203 / / स्त्रीपरीषहः सत्कारपरीषहश्च द्वावप्येतौ शीतौ, भावमनोऽनुकूलत्वात्, शेषास्तु पुनर्विशतिरुष्णा ज्ञातव्या भवन्ति, मनसः प्रतिकूलत्वादिति गाथार्थः। यदिवा परीषहाणां शीतोष्णत्वमन्यथा आचष्ट - जे तिव्वप्परिणामा, परीसहा ते भवंति उण्हा उ। जे मंदप्परिणामा, परीसहा ते भदे सीया // 20 // .. | तीब्रो- दुःसहः परिणामः- परिणतिर्येषां ते तथा, य एवम्भूताः परीषहास्ते उष्णाः , ये तु मन्दपरिणामास्ते शीता इति / इदमुक्तं भवति- ये शरीरदुःखोत्पादकत्वेनोदीः सम्यक्सहनाभावाचाधिविधायिनस्ते तीव्रपरिणामत्वादुष्णाः, ये पुनरुदीर्णाः शरीरमेव केवलं दुःखमुत्पादयन्ति महासत्त्वस्य न मानसं ते भावतो मन्दपरिणामाः, यदिवा- ये तीव्रपरिणामाः- प्रबलाविभूतस्वरूपास्ते उष्णाः, ये तु मन्दपरिणामाः- ईषल्लक्ष्यमाणस्वरूपास्ते शीता इति / यत्परीषहानन्तरं प्रमादपदमुपन्यस्तं, शीतत्वेन यच तपस्युद्यम इत्युष्णत्वेन तदुभयं गाथयाऽऽचष्टेधम्ममि जो पमायइ, अत्थे वा सीअलु ति तं विंति। उजुत्तं पुण अन्नं, तत्तो उहं ति णं बिति / / 20 / / धर्मे-श्रमणधर्मे यः प्रमाद्यति-नोद्यम विधत्ते 'अर्थे वा' अर्थ्यत / इत्यर्थो-धनधान्यहिरण्यादिस्तत्र तदुपाये वा शीतल इत्येवं तं ब्रुवते-- आचक्षते, उद्युक्तं पुनरन्ये ततः-- संयमोद्यमात् कारणादुष्णमित्येवं ब्रुवते, णमिति वाक्यालङ्कार इति गाथार्थः। उपशमपदव्याचिख्यासयाऽऽहसीईओ परिनि- व्वुओ य संतो तहेव पल्हाओ / होउवसंतकसाओ, तेणुवसन्तो भवे जीवो // 206|| उपशमो हि क्रोधोद्युदयाभावे भवति, ततश्च कषायाग्न्युपशमात् शीतीभूतो भवति, क्रोधादिज्वालानिर्वाणात् परिनिर्वृतो भवति / चः समुचये / रागद्वेषपावकोपशमादुपशान्तः, तथा क्रोधादिपरितापोपशमात्, 'प्रह्लादितः' आपन्नसुखः, यतो ह्युपशान्तकषाय एव एवम्भूतो भवति तेनोपशान्तकषायः शीतो भवतीति। एकार्थिकानि वैतानीति गाथार्थः। अधुना विरतिपदव्याख्यामाह -- अभयकरो जीवाणं, सीयघरो संजमो भवइ सीओ। अस्संजमो य उण्हो, एसो अन्नोऽवि पजाओ ||207|| अभयकरणशीलः, केषाम् ? जीवानां, शीतं-सुखं तद्गृहंतदावासः, कोऽसौ ? संयमः-सप्तदशभेदः, अतोऽसौ शीतो भवति, समस्तदुःखहेतुद्वन्द्वोपरमाद्, एतद्विपर्ययस्त्वसंयम उष्णः, एष शीतोष्णलक्षणः संयमासंयमयोः पर्यायोऽन्यो वा सुखदुःखरूपो विवक्षावशाद्भवतीति गाथार्थः। साम्प्रतं सुखपदविवरणायाह / / निव्वाणसुहं सायं, सीईभूयं पयं अणाबाहं / इहमवि जं किंचि सुहं, तं सीयं दुक्खमवि उण्हं // 208|| सुखं शीतमित्युक्तं, तच समस्तद्वन्द्वोपरमादात्यन्ति-कैकान्तिकानाबाधलक्षणं निरुपाधिकं परमार्थचिन्तायां मुक्तिसुखमेव सुखं नो परम् , एतच्च समस्तकर्मोपतापाभावाच्छीतमिति दर्शयति-'निर्वाणसुख' मिति, निर्वाणम्-अशेषकर्मक्षयस्तदवाप्तौ वा विशिष्टाकाशप्रदेशः तेन तत्र वा सुखं निर्वाणसुखम् / अस्य चैकार्थिकानिसातं शीतिर्भूतं पदमनाबाधमिति / इहापि संसारे यत्किञ्चित् सातावेदनीयविपाकोद्भूतं सात-सुखं तदपि शीतं मनआह्वादाद, एतद्विपर्ययस्तु दुःखं, तचोष्णमिति गाथार्थः कषायादिपदव्याचिख्यासयाऽऽह - डज्झइ तिव्वकसाओ, सोगभिभूओ उइन्नवेओ य / उण्हयरो होइ तवो, कसायमाईवि जं डहइ // 20 // दह्यते-परिपच्यते, कोऽसौ ? तीव्रा-उत्कटा उदीर्णा विपाकानुभवेन कषाया यस्य स तथा, न केवलं कषायाग्निना दह्यते, 'शोकाऽभिभूतश्च' इष्टवियोगादिजनितः शोकस्तेनाभिभूतः तिरोहितशुभव्यापारोऽसावपि दह्यते, तथा उदीर्णो विपाकापन्नो वेदो यस्य स तथा उदीर्णवेदो हि पुमान् स्त्रियं कामयते, साऽपीतरं, नपुंसकस्तूभयमिति, तत्प्राप्त्यभावे कासोद्भूतारतिँदाहेन दह्यते / चशब्दादिच्छाकामाप्राप्तिजनितारतिपावकेन दह्यते, तदेवं कषायाः शोको वेदोदयश्च दाहकत्वादुष्णः, सर्व वा मोहनीयमष्टप्रकारं वा कर्मोष्णम्, ततोऽपि तद्दाहकत्वादुष्णतरं तप इति गाथाशकलेन दर्शयति- उष्णतरं तपो भवति, किमिति ? यतः कषायादिकमपि दहति, आदिशब्दांच्छोकादिपरिग्रह इति गाथार्थः / येनाभिप्रायेण द्रव्यभावभेदभिन्ने परीषहप्रमादोद्यमादिरूपे शीतोष्णे जगादाचार्यस्तमभिप्रायमाविष्करोति-- सीउण्हफाससुहदुह-परीसहकसायवेयसोय संहो। हुन्ज समणो सया उ-जुओ य तवसंजमोवसमे // 210 / / शीतं चोष्णं च शीतोष्णे तयोः स्पर्शः तं सहत इति सम्ब Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 884 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज न्धः शीतस्पर्णोष्णस्पर्शजनितवेदनामनुभवन्नार्तध्यानापगतो भवतीति यावत् / शरीरमनसोरनुकूलं सुखमिति, सद्विपरीतं दुःखं, तथा परीषहकसायवेदशोकान् शीतोष्णभूतान् सहत इति। तदेव शीतोष्णादिसहः सन् भवेत् श्रमणः-यतिः सदोद्युक्तश्च, ? तपः संयमोपशमे इति गाथार्थः / साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन साधुना शीतोष्णातिसहनं कर्तव्यमिति दर्शयतिसीयाणि य उण्हाणि य, भिक्खूणं हंति वि सवियव्वाई। कामा न सेवियव्वा, सीओसणिज्जस्स निजुत्ती // 211 // शीतानि-परीषहप्रमादोपशमविरतिसुखरूपाणि यान्यभिहितानि, उष्णानि च- परीषहतपउद्यमकषायशोकवेदारत्यात्मकानि, प्रागभिहितानि तानि भिक्षूणां-मुमुक्षूणां विषोढव्यानि, न सुखदुःखयोः उत्सेकविषादौ विधेयौ, तानि चैवं सम्यग्दृष्टिना सह्यन्ते यदि कामपरित्यागो भवतीति गाथाशकलेनाह- 'कामा' इत्यादि गाथार्द्ध सुगमम् / गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतमशेषदोषवातविकलं सूत्रमुच्चारयितव्यम्, तचेदम्सुत्ता अमुणी सया मुणिणो जागरंति / (सू० 105) अस्य चानन्तरसूत्रेण सम्बन्धो वाच्यः, स चायम्-इह दुःखी दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्तत इत्युक्तं, तदिहापि भावसुप्ता अज्ञानिनो दुःखिनो दुःखानामेवावर्त्तमनुपरिवर्तन्ते इति / उक्तं च- "नातः परमहं मन्ये, जगतो दुःखकारणम् / यथाऽज्ञान-महारोगो, दुरन्तः सर्वदेहिनाम् // 1 // " इत्यादि इह सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र निद्राप्रमादवन्तो द्रव्यसुप्ताः, भावसुप्तास्तु मिथ्यात्वाज्ञानमयमहानिद्राव्या'मोहिताः, तयो ये अमुनयः-मिथ्यादृष्टयः सततं भावसुप्ताः सद्विज्ञानानुष्ठानरहितत्वात्, निद्रया तु भजनीयाः, मुनयस्तु सद्बोधोपेता मोक्षमार्गादचलन्तस्ते सततम्-- अनवरतं जाग्रति-- हिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वते, अतो द्रव्यानद्रोपगता अपि क्वचिद् द्वितीयपौरुष्यादौ सततं जागरूका एवात। एवमेव भावस्वापं जागरणं च विषयीकृत्य नियुक्तिकारो गाथा जगादसुत्ता अमुणिओ सया, मुणिओ सुत्ता वि जागरा इंति। घम्मं पडुच एवं, निद्दासुत्तेण भइयव्वं // 212|| सुप्ता द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र निद्रया द्रव्यसुप्तान् गाथान्ते वक्ष्यति, भावसुप्तास्त्वमुनयो- गृहस्था मिथ्यात्याज्ञानवृता हिंसाद्यास्रवद्वारेषु सदा प्रवृत्ताः मुनयस्त्वपगतमिथ्यात्वादिनिद्रतयाऽवाप्तसम्यक्त्वादिबोधा भावतो जागरूका एव / यद्यपि क्वचिदाचार्यानुज्ञाता द्वितीयपौरुष्यादौ दीर्घसंयमाधारशरीरस्थित्यर्थ निद्रावशोपगता भवन्ति तथापि सदा जागरा एव, एवं च धर्म प्रतीत्योक्ताः सुप्ता जाग्दवस्थाश्च / द्रव्यानद्रासुप्तेन तु भाज्यमेतद्-धर्मः स्याद्वा न वा, यद्यसौ भावतो जागर्ति ततो निद्रासुप्तस्थापि धर्मः स्यादेव, यदिवाभावतो जायतो निद्राप्रमादावष्टब्धान्तः करणस्य न स्यादपि / यस्तु द्रव्यभावसुप्तस्तस्य न स्यादेवेति भजनार्थः। अथ किमिति द्रव्यसुप्तस्य / धर्मों न भवतीति ? उच्यते- द्रव्यसुप्तो हि निद्रया भवति, सा च दुरन्ता / किमिति ? यतः स्त्यानद्धित्रिकोदये सम्यक्त्वावाप्तिर्भवसिद्धिकस्यापि न भवति, तद्वन्धश्च मिथ्यादृष्टिसास्वादनयोरनन्तानुबन्धिबन्धसहचरितः, क्षयस्त्वनिवृत्तिबादरगुणस्थानकालसंख्येयभागेषु कियत्स्वपि गतेषु सत्सु भवति, निद्राप्रचलयोरपि उदये प्राग्वदेव / बन्धोपरमस्त्वपूर्वकरणकालसंख्येयभागान्ते भवति, क्षयः पुनः क्षीणकषायद्विचरमसमये, उदयस्तूपशमकोपशान्तमोहयोरपि भवतीत्यतो दुरन्तो निद्राप्रमादः। यथा च द्रव्यसुप्तो दुःखमवाप्नोत्येवं भावसुप्तोऽपीतिदर्ययितुमाह जह सुत्त मत्त मुच्छिय, असहीणो पावए बहुं दुक्खं / तिव्वं अप्पडियार, पि वट्टमा णो तहा लोगो // 21 // सुप्तो निद्रया,मत्तो मदिरादिना, मूर्छितो गाढमर्मप्रहारादिना, अस्वाधीनः-परायत्तो वातादिदोषोद्भवग्रहादिना यथा बहु दुःखमप्रतीकारमवाप्नोति, यथा भावस्वापेमिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषोयादिकेऽपि वर्तमानः-अवतिष्ठमानो लोकः-प्राणिगणो नरकभवादिकं दुःखमवाप्रोतीति गाथार्थः / पुनरपि व्यतिरेकदृष्टान्तद्वारेणोपदेशदानायाऽऽहएसेव य उवएसो, पदित्तपयला य पंथमाईसुं। अणुहवइ जह सचेओ, सुहाइँ समणोऽवि तह चेव // 214 // एष एव-पूर्वोक्त उपदेशो यो विवेकाविवेकजनितः, तथाहिसचेतनो विवेकी प्रदीप्ते सति प्रपलायमानः सुखमनुभवति, पथिविषये च सापायनिरपायविवेकज्ञः, आदिग्रहणादन्यस्मिन्वा दस्युभयादौ समुपस्थिते सति, यथा विवेकी सुखेनैव तमपायं परिहरन् सुखभाग भवति, एवं श्रमणोऽपि भावतः सदा विवेकित्वाजाग्रदवस्थामनुभवन्समस्तकल्याणास्पदीभवति / अत्र च सुप्तासुप्ताधिकारगाथा:-- "जागरह णरा णिचं, जागरमाणस्स वड्डए बुद्धी। जो सुअइ न सो धण्णो , जो जग्गइ सो सया धन्नो / / 1 / / सुअइ सुअंतस्स सुअं, संकियखलियं भवे पमत्तस्स / जागरमाणस्स सुअं, थिरपरिचिअमप्पमत्तस्स / / 2 / / नालस्सेण समं सुक्खं, न विज्जा सह निदया। न वेरग्गं पमाएणं, नारंभेण दयालुया // 3 // जागरिआ धम्मीणं, अहम्मीणं तु सुत्तया सेआ। वच्छाहिवभगिणीए, अकहिंसु जिणो जयंतीए / / 4 / / सुयइ य अयगरभूओ, सुअंपि से नासई अमय भूअं। होहिइ गोणब्भूओ, नट्टम्मि सुए अमयभूए // 5 // " तदेवं दर्शनावरणीयकर्मविपाकोदयेन क्वचित्स्वपन्नपि यः संविनो यतनावांश्च स दर्शनमोहनीयमहानिद्रापगमाजाग्रदवस्थ एवेति। ये तु सुप्तास्तेऽज्ञानोदयाद्भवन्ति, अज्ञानं च महादुःखं दुःखं च जन्तूनामहितायेति दर्शयतिलोयंति जाण अहियाय दुक्खं, समयं लोगस्स जाणित्ता, इत्थ सत्थे विरए, जास्समे सहा य रूवा य रसा य Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 885 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज गंधा य फासा य अभिसमन्नागया भवंति / (सू० 106) लोके षड्जीवनिकाये जानीहि-परिच्छिन्द्या दुःखहेतुत्वाद् दुःखम् -अज्ञानं मोहनीयं वा तदहिताय-नरकादिभवव्यसनोपनिपाताय / इह वा बन्धवधशारीरमानसपीडायै जायत इत्येतज्जानीहि / परिज्ञानाचैतत्फलें, यदुत-द्रव्यभावस्दापादज्ञानरूपाद्दुःखहेतोरपसर्पणमिति। किंचान्यत्- 'समय' मित्यादि, समयः-आचारोऽनुष्ठानं तं लोकस्यासुमद्वातस्य ज्ञात्वा अत्र शस्त्रोपरतो भवेदित्युत्तरसूत्रेण सम्बन्धः / लोको हि भोगाभिलाषियता प्राण्युपमर्दादिकषायहेतुकं कर्मोपादाय नरकादियातनास्थानेषूत्पद्यते, ततः कथञ्चिदुद्वृत्त्यावाप्य चाशेषक्लेशव्रातघ्र धर्मकारणमार्यक्षेत्रादौ मनुष्यजन्म पुनरपि महामोहमोहितमतिस्तत्तदारभते येन येनाधोऽधो व्रजति, संसारान्नो न्मज्जतीति / अयं लोकाचारस्तं ज्ञात्वा, अथवा-समभावः-समता तां ज्ञात्वा, 'लोकस्य' सप्तम्यर्थे षष्ठी, ततश्चायमर्थो-लोकेजन्तुसमूहे समता-समशत्रुमित्रता समात्मपरतां वा ज्ञात्वा, यदिया-सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयो जन्तवः सदा स्वोत्पत्तिस्थानरिरंसवो मरणभीरवः सुखेप्सवो दुःखद्विष इत्येम्भूतां समतां ज्ञात्वा, किं कुर्यादित्याह- 'एत्थ सत्थोवरए' अत्र अस्मिन् षट्कायलोके शस्त्राद् द्रव्यभावभेदादुपरतो धर्मजागरणेन जागृहि, यदिवायद्यत्संयमशस्त्र प्राणातिपाताद्यास्रवद्वारं शब्दादिपञ्चप्रकारकामगुणाभिष्वङ्गा वा तस्माद्य उपरतः स मुनिरिति / आह च'जस्सिमे' इत्यादि, यस्य मुनेरिमेप्रत्यात्मवेद्याः समस्तप्राणिगणेन्द्रियप्रवृत्तिविषयभूताः शब्दरूपरसेगन्धस्पर्शा मनोज्ञेतरभेदभिन्ना 'अभिसमन्वागता' इति, अभिः-आभिमुख्येन सम्यग्- इष्टानिष्टावधारणतयाऽन्विति-शब्दादिस्वरूपावगमात् पश्चादागता:- ज्ञाताः परिच्छिन्ना यस्य मुतेर्भवन्ति स लोकं जानातीति सम्बन्धः / इदमुक्तं भवति- इष्टेषु न रागमुपयाति, नापीतरेषु द्वेषम्, एतदेवाभिसमन्वागमन तेषां नान्यदिति। यदिवेहैव शब्दादयो दुःखाय भवन्त्यास्तां तावत्परलोक इति, उक्तं च- "रक्तः शब्दे हरिणः स्पर्श नागो रसे च वारिचरः / कृपणपतङ्गो रूपे, भुजगो गन्धे ननु विनष्टः ||1|| पञ्चसु रक्ताः पञ्च विनष्टा यत्रागृहीतपरमार्थाः / एकः पञ्चसु रक्तः, प्रयाति भस्मान्ततामबुधः / / 2 / / " अथवा-शब्देपुष्पशालाद्भद्रा ननाश, रूपेअर्जुनकतस्करः, गन्धे-गन्धप्रियकुमारः, रसे-सौदासः, स्पर्शसत्यकिः, सुकुमारिकापतिर्वा ललिताङ्गकः, परत्र च नारकादियातनास्थानभयमिति। एवं शब्दादीनुभयदुःखस्वभावानवगम्य यः परित्यजेदसौ क गुणमवाप्नुयादित्याह से आयवं नाणवं वेयवं धम्मवं बंभवं पन्नाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीति बुचे, धम्मविऊ उजु आवट्टसोए संगममिजाणइ / (सू० 107) 'यो हि महामाहनद्रावृते लोके दुःखमहिताय जानानोलो कसमयदर्शी शस्त्रोपरतः सन् शब्दादीन् कामगुणान् दुःखै-कहेतूनभिसमन्वागच्छति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याचष्टे स मुमुक्षुरात्मवान् आत्मा ज्ञानादिकोऽस्यास्तीत्यात्मवान्, शब्दादिपरित्यागेन ह्यात्माऽनेन रक्षितो भवति, अन्यथा नारकैकेन्द्रियादिपाते सत्यात्मकार्याकरणात्कतोऽस्यात्मेति, पाठन्तरं वा-'से आयवी नाणवी' आत्मानंश्वभ्रादिपतनरक्षणद्वारेण वेत्तीत्यात्मवित, तथा ज्ञानं यथावस्थितपदार्थपरिच्छेदकं वेत्तीति ज्ञानवित्, तथा वेद्यते जीवादिस्वरूपम् अनेनेति वेदः-आचाराद्यागमः तं वेत्तीति वेदवित्, तथा दुर्गतिप्रसृतजन्तुधरणस्वभावं स्वर्गापवर्गमार्ग धर्म वेत्तीति धर्मवित्, एवं ब्रह्मअशेषमलकलङ्कविकलं योगिशर्म वेत्तीति ब्रह्मवित्, यदिवा--अष्टादशधा ब्रह्मेति, एवम्भूतश्चासौ प्रकर्षेण ज्ञायते ज्ञेयं यैस्तानि प्रज्ञानानिमत्यादीनि तैलॊकं यथावस्थितं जन्तुलोकं तदाधारं वा क्षेत्रं जानातिपरिच्छिनत्तीत्युक्तं भवति, य एव शब्दादिविषयसङ्गस्य परिहर्ता स एव यथा-वस्थितलोकस्वरूपपरिच्छेदीति / यश्वानन्तरगुणोपेतः स किं वाच्य ? इत्यत आह- 'मुणी' त्यादि, यो ह्यात्मवान् ज्ञानवान् वेदवान् धर्मवान्, ब्रह्मवान् प्रज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा लोकं जानाति स मुनिर्वाच्यो, मनुते, मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थां मुनिरिति कृत्वा, किंच--'धम्म' इत्यादि, धर्म-चेतनाचेतन-द्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा वेत्तीति धर्मवित्, 'ऋजु' रिति ऋजोः- ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्य मोक्षमार्गस्यानुष्ठानादकुटिलो यथावस्थितपदार्थस्वरूप-परिच्छेदादा ऋजुः सर्वोपाधिशुद्धोऽवक्र इति यावत् / तदेवं धर्मविदृजुर्मुनिः किम्भूतो भवतीत्याह-- 'आवट्ट' इत्यादि, भावावलॊजन्मजरामरणरोगशोकव्यसनोपनिपातात्मकः संसार इति, उक्तं हि-"रागद्वेषवशाविद्धं, मिथ्यादर्शनदुस्तरम् / जन्मावर्ते जगत्क्षिप्तं, प्रमादाद् भ्राम्यते भृशम् // 1 // " भावश्रोतोऽपि शब्दादिकामगुणविषयाभिलाषः, आवर्त्तश्च श्रोतश्वावर्त्त- श्रोतसी तयो रागद्वेषाभ्यां सम्बन्धः- सङ्गस्तमभिजानातिआभिमुख्येन परिच्छिनत्ति- यथाऽयं सङ्गः आवर्त्तश्रोतसोः कारणं, जानानश्च परमार्थतः कोऽभिधीयते ? योऽनर्थ ज्ञात्वा परिहरति, ततश्चायमर्थः-संसारश्रोतः सङ्ग रागद्वेषात्मकं ज्ञात्वा यः परिहरति स एव आवर्तस्रोतसोः सङ्गस्याभिज्ञाता। सुप्तजाग्रता दोषगुणपरिच्छेदी कं गुणमवाप्नुयादित्याह -- सीउसिणचाई से निग्गंथे अरहरइसहे, फरसयं नो वेएड. जागरवेरोवरए, वीरे एवं दुक्खा पमुक्खसि, जरामुचुवसोवणिए नरे समयं मूढे धर्म नाभिजाणइ / (सू० 108) सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थरहितः सन् शीतोष्णत्यागी सुख-दुःखानभिलाषुकः शीतोष्णरूपौ वा परीषहावतिसहमानः संयमासंयमरत्यरतिसहः सन् परुषता कर्कशतां पीडाकारितां परीषहाणामुपसर्गाणां वा कर्मक्षपणायोद्यतः साहाय्यं मन्यमानो 'नो वेत्ति' नतान् पीडाकारित्वेन गृह्णातीत्युक्तं भवति / यदिवा-संयमस्य तपसो वा परुषतां शरीरपीडोत्पादनात् कर्मलेपापनयनाद्वा संसारोद्विग्नमना मुमुक्षुनिराबाधसुखोन्मुखः 'नवेत्ति' न संयमतपसी पीडाकारित्वेन गृह्णातीति यावत्, किं च - 'जागर' इत्यादि असंयमनिद्रापगमाजागर्तीति जागरः, अभिमानसमुत्थोऽमविशः परापकाराध्यवसायोवैरंतस्मादुपरतो, वैरीपरतोजागरश्चासौ वैरोपरतश्चेति Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 556 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज विगृह्य कर्मधारयः, क एवम्भूतः ? वीरः-- कपिनयनशक्त्युपेतः, मारस्तदभिशडी-मरणादुद्विजस्तत्करोति येन मरणात् प्रभुच्यते / किं एवम्भूतश्च त्वं वीर ! आत्मानं परं वा दुःखाद् दुःखकारणाद्वा कर्मणः तत्करोतीत्याह-- 'अप्पमत्त' इत्यादि, कामैर्यः प्रमादस्तत्राप्रमत्तो प्रमोक्ष्यसीति / यश्च यथोक्ताद्विपरीतः आवर्तश्रोतसोः सङ्गमुपगतोऽ- भवेत् / कश्चाप्रमत्तः स्याद् ? यः कामारम्भकेभ्यः पापेभ्य उपरतो जागरः स किमाप्नुयादित्याह-- जरा च मृत्युश्च ताभ्यामात्मवशमुप- भवतीति दर्शयति- उवरओ' इत्यादि, उपरतो मनोवाक्कायैः, कुतः? नीतो नरः-प्राणी सततम्-अनवरतं मूढो-महामोहमोहितमतिधर्म- पापोपादानकर्मभ्यः, कोऽसौ ? वीरः, किम्भूतो ? गुप्तात्मा, कश्च स्वर्गापवर्गमार्ग नाभिजानीते-नावगच्छति तत् संसारे स्थानमेव नास्ति 1. गुप्तो भवति ? यः खेदज्ञो, यश्च खेदज्ञः स कं गुणमवाप्नुयादित्याहयत्र जरामृत्यू न स्तः, देवानां जराऽभाव इति चेत्, न, तत्राप्युपान्त्य- 'जे पज्जव' इत्यादि' शब्दादीनां विषयाणां पर्यवाः- विशेषास्तेषुकाले लेश्याबलसुखप्रभुत्ववर्णहान्युपपत्तेः, अस्त्येव च तेषामपि जरा- तन्निमित्तं जातं शस्त्रं पर्यवजातशस्त्रं - शब्दादिविशेषोपादानाय सद्भावः, उक्तं च- "देवा णं भंते ! सव्वे समवण्णा ? नो इणढे समठे, यत्प्राण्युपधातकार्यनुष्ठानं तत्पर्यवजातशस्त्रं तस्य पर्यव-जातशस्त्रस्य से केणऽडेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! देवा दुविहा-पुव्वोववण्णगा यः खेदज्ञो- निपुणः सोऽशस्त्रस्य- निरवद्यानुष्ठानरूपस्य संयमस्य य, पच्छोववण्णगा य / तत्थ णं जे ते पुव्योववण्णगा ते णं अविसुद्ध- खेदज्ञः, यश्वाशस्त्रस्य संयमस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्वस्य खेदज्ञः। वण्णयरा, जे णं पच्छोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णयरा'' एवं लेश्याद्य- इदमुक्तं भवति-यः शब्दादिपर्यायानिष्टानिष्टात्मकान्तत्प्राप्तिपरिहारापीति, च्यवनकाले तु सर्वस्यैवैतद्भवति, तद्यथा- "माल्यम्लानिः नुष्ठानं च शस्वभूतं वेत्ति साऽनुपघातकत्वात्संयममप्यशस्वभूतमात्मकल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससां चोपरागः / दैन्यं तन्द्रा काम परोपकारिणं वेत्ति शस्त्राशस्त्रे च जानानस्तत्प्राप्तिपरिहारौ विधत्ते, रागाङ्गभड़ौ, दृष्टिभ्रान्तिवैपथुश्चारतिश्च।।१।।" यतश्चैवमतः सर्व जरा एतत्फलत्वात् ज्ञानस्येति। यदिवा-शब्दादिपर्यायेभ्यस्तजनितरागमृत्युपशोपनीतभभिसमीक्ष्य 'किं कुर्यादित्याह द्वेषपर्यायभ्यो वा जातं यज्ज्ञानावरणीयादि कर्म तस्य यच्छस्त्र पासिय आउरपाणे अप्पमत्तो परिव्वए, मंता य मइम, पास दाहकत्वात् तपस्तस्य यः खेदज्ञः तज्ज्ञानानुष्ठानतः सोऽशस्त्रस्य आरंभजं दुक्खमिणं ति णचा, माई पमाई पुण एइ गम्भ, संयमस्यापि खेदज्ञः, पूर्वोक्तादेव देतोः, हेतुहेतु मद्भावाच योऽशस्वस्य खेदज्ञः स पर्यवजातशस्त्रस्यापि खेदज्ञ इति, तस्य च संयमउवेहमाणो सहरूवेसु उज्जू मारामिसंकी मरणा पमुबई, तपःखेदज्ञस्यास्रवनिरोधादनादिभवोपात्तकर्मक्षयः। कर्मक्षयाच यद्भअप्पमत्तो कामेहिं, उवरओ पावकम्मेहि, वीरे आयगुत्ते खेयन्ने, वति तदप्यतिदिशति (आचा०) 'कम्ममुणा' इत्यादि, उपाधीयतेजे पनवजायसत्थस्स खेयण्णे से असत्थस्स खेयन्ने, जे व्यपदिश्यते येनेत्युपाधिः-विशेषणं स उपाधिः कर्मणा ज्ञानावरणीअसत्थस्स खेयपणे से पज्जवञ्जायसत्थस्स खेयन्ने, अकम्मस्स यादिना जायते, तद्यथा- मतिश्रुतावधिमनःपर्यायवान् मन्दमतिस्तीववहारो न विजइ, कम्मुणा उवाही जायइ, कम्मं च पडि क्ष्णो वेत्यादि, चक्षुर्दशनी अचक्षुर्दर्शनी निद्रालुरित्यादि, सुखी दुःखी लेहाए। (सू० 106) वेति, मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिः स्त्री पुमान्नपुंसकः कषायीत्यादि, स हि भावजागरस्तैस्तैर्भावस्वापजनितैः शारीरमान-सैदुःखैरातुरान् सोपक्रमायुष्को निरुपक्रमायुष्कोऽल्पायुरित्यादि, नारकः तिर्यग्योनिक किंकत्तय॑तामूढान् दुःखसागरावगाढान् प्राणान्-अभेदोपचारात् एकेन्द्रियो द्वीन्द्रियः पर्याप्तकोऽपर्याप्तकः सुभगो दुर्भग इत्यादि, उच्चैर्गोत्रो प्राणिनो दृष्ट्वा-ज्ञात्वा अप्रमत्तः परिव्रजेद्-उद्युक्तः सन् संयमानुष्ठानं नीचैर्गोत्रो वेति, कृपणस्त्यागी निरुपभोगो निर्वीर्यः, इत्येवं कर्मणा विदध्यात्। अपि च-- 'मंता इत्यादि, हे मतिमन् ! -- सश्रुतिक ! भाव संसारी व्यपदिश्यते। यदि नामैवं ततः किं कर्तव्यमित्याह- 'कम्मंच' सुप्तातुरान् पश्य, मत्वा चैतजाग्रत्सुप्तगुणदोषापादनं मा स्वापमति इत्यादि, कर्म-ज्ञानावरणीयादि तत्प्रत्युपेक्ष्य बन्धं वा प्रकृतिस्थिकुरु। किं च- 'आरंभज' मित्यादि, आरम्भः- सावधक्रियानुष्ठानं त्यनुभावप्रदेशात्मकं पर्यालोच्य, तत्सत्ताविपाकापन्नांश्च प्राणिनो यथा तस्माजातमारम्भजं, किं तद् ? दुःखं तत्कारणं वा कर्म ! 'इद' भावनिद्रया शेरते तथाऽवगम्याकर्मतोपायें भावजागरणे यतितव्यमितिप्रत्यक्षगोचरापन्नमशेषारम्भप्रवृत्तप्राणिगणानुभूयमानमित्येतत् मिति / तदभावश्चानेन प्रक्रमेण भवति, तद्यथा- अष्टविधसत्कर्माज्ञात्यापरिच्छिद्य निरारम्भो भूत्वाऽऽत्महितेजागृहि। यस्तुविषयकषा- पूर्वादिकरणक्षपक श्रेणिप्रक्रमेण मोहनीयक्षयं विधायान्तर्मुहूर्तमजघन्योयाच्छादितचेता भावशायी स किमाप्नुयादित्याह- 'माई' इत्यादि, त्कृष्ट कालं सप्तविधसत्का , ततः शेषधातित्रये क्षीणे चतुर्विधममध्यग्रहणाचाद्यन्तयोर्ग्रहणं, तेन क्रोधादिकषायवान् - मद्यादिप्रमाद- वोपग्राहिसत्कर्माजधन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतो देशोनां पूर्वकोटि यावत्, वान्नारकदुःखमनुभूय पुनस्तिर्यक्षुगर्भमुपैति। ग्रस्त्वकषायी प्रमादरहितः पुनरूद्धर्व पञ्चहस्वाक्षरोदिरणकालीयां शलेश्यवस्थामनुभूयाऽकर्मा स किम्भूतो भवतीत्याह- 'उवेह' इत्यादि, बहुवचननिर्देशादाद्यों भवति। साम्प्रमुत्तरप्रकृतीनां सदसत्कर्मताविधानमुच्यते-तत्र ज्ञानागम्यते, शब्दरूपादिषु यौरागद्वेषो तावुपक्षमाणः-- अकुर्वन् ऋजुर्भवति- वरणीयान्तराययोः प्रत्येकमुपात्तपञ्चभेदयोश्चतुर्दशस्वपि जीवस्थानकेषु यतिर्भवति, यतिरेव परमार्थत ऋजुः, अपरस्त्वन्यथाभूतः स्त्र्यादि- गुणस्थानकेषु च मिथ्यादृष्टरारभ्य केवलिगुणस्थानादारतोऽपरविपदार्था-न्यथाग्रहणाद्वक्रः किं च-स ऋजुः शब्दादीनुपेक्षमाणो मरणं | कल्पा, भावात् पञ्चविधसत्कर्मता दर्शनावरणस्य त्रीणि सत्कर्म Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 857 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज तास्थानानि, तद्यथा- नवविधं निद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयसमन्वयाद् एतत् सर्वजीवस्थानानुयायि, गुणस्थानेष्वप्यनिवृत्तिबादरकालसङ्ख्येयभागान् यावत् 1, ततः कतिचित्संख्येयभागावसाने स्त्यानर्द्धित्रयक्षयात् षट्सत्कर्मतास्थानं 2, ततः क्षीणकषायद्विचरमसमये निद्राप्रचलाद्वयक्षयाचतुः सत्कर्मतास्थानं तस्यापि क्षयः क्षीणकषायकालान्त इति 3 / वेदनीयस्य द्वे सत्कर्मतास्थाने, तद्यथा-द्वे अपि सातासाते इत्येकम्, अन्यतरोदयारूढशैलेश्यवस्थेतरद्विचरमक्षणक्षये स ति सातमसातं वा कम्मेति द्वितीयम् 2 / मोहनीयस्य पञ्चदश सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा-षोडश कषाया नव नोकषाया दर्शनत्रये सति सम्यग्दृष्टरष्टाविंशतिः 1, सम्यक्त्वोदलने सम्यगमिथ्यादृष्टः सप्तविंशतिः 2, दर्शनद्वयो-दलनेऽनादिमिथ्यादृष्टा षड्विशतिः 3, सम्यगदृष्टरष्टा-विंशतिसत्कर्मणोऽनन्तानुबन्ध्युदलने क्षपणे वा चतुर्विशतिः 4, मिथ्यात्वक्षये त्रयोविंशतिः 5, सम्यग्मिथ्यात्वक्षये द्वाविंशतिः 6, क्षायिकसम्यग्दृष्टेरेकविंशतिः 7. अप्रत्याख्यानप्रत्याख्याना-वरणक्षये त्रयोदश 8, अन्यतरवेदक्षयेद्वादश 6, द्वितीयवेदक्षये सत्येकादश 10, हास्यादिशट्कक्षये पञ्च 11, पुंवेदाभावे चत्वारि 12, संज्वलनक्रोधक्षये त्रयः 13, मानक्षये द्वौ 14, मायाक्षये सत्येको लोभः 15, तत्क्षये च मोहनीयासत्तेति। आयुषो द्वे सत्कर्मातास्थाने सामान्येन, तद्यथा-परभवायुष्क-बन्धोत्तरकालमायुष्कद्वयमेकम् 1, द्वितीयं तु तद्वन्धाभाव इति / नास्नो द्वादश सत्कर्मतास्थानानि, तद्यथा- त्रिनवतिः 1 द्विनवतिः 2 एकोननवतिः 3 अष्टाशीतिः / षडशीतिः 5 अशीतिः 6 एकोनाशीतिः 7 अष्टसप्ततिः 8 षट्सप्ततिः / पञ्चसप्ततिः 10 नव 11 अष्टौ 12 चेति, तत्र त्रिनवतिः- गतयश्चतस्रः 4 पञ्च जातकः, 5 पञ्च शरीराणि 5 पञ्च सङ्घाताः 5 बन्धनानि पञ्च-५ संस्थानानिषट्६अङ्गोपाङ्गत्रयं 3 संहननानि षट्६ वर्णपञ्चक 5 गन्धद्वयं 2 रसाः पञ्च 5 अष्टौ स्पर्शाः 8 आनुपूर्वीचतुष्टयम् 4 अगुरुलधूपघातापराघातोच्छ्वासातपोद्योताः षट् 6 प्रशस्तेतरविहायोगतिद्वयं 2 प्रत्येक-शरीरत्रसशुभसुभगसुस्वरसूक्ष्मपर्याप्तकस्थितादेययशांसि सेतराणीति विंशतिः 20 निर्माणं तीर्थकरत्वमित्येवं सर्वसमुदाये त्रिनवतिर्भवति 63, तीर्थकरनामाभावे द्विनवतिः 62, त्रिनवतेराहारक-शरीरसङ्घातबन्धनाङ्गोपाङ्गचतुष्टयाभावे सत्येकोननवतिः 86, ततोऽपि तीर्थकरनामाभावेऽष्टाशीतिः 88, देवगतितदानुपूर्वीद्वयोदलने षडशीतिः 86, यदिवा-अशीतिसत्कर्मणो नरकगतिप्रायोग्यं बध्यतः तद्गत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियचतुष्कबन्धकस्य षडशीतिः, देवगति-प्रायोग्यबन्धकस्य वेति ततो नरकगत्यानुपूर्वीद्वयवैक्रियेचतुष्टयोद्वलनेऽशीतिः 80, पुनर्मनुष्यगत्यानुपूर्वीद्वयोदलनेऽष्टसप्ततिः 78, एतान्यक्षपकाणां सत्कर्मतास्थानानि / क्षपकश्रेण्यन्तर्गतानां तु प्रोच्यन्ते, तद्यथा-त्रिनवतेनरकतिर्यग्गतितदानुपूर्वीद्वयैकद्वित्रिचतुरिन्द्रिय-जात्यातपोद्योतस्थावरसूक्ष्मसाधारणरूपैर्नरकतिर्यग्गतिप्रायोग्यैस्त्रयोदशभिः 13 कर्मभिः क्षपितैरशीतिर्भवति, द्विनवतेस्त्वेभिस्त्रयोदशभिः क्षपितैरेकोनाशीतिः, याऽसावाहारकचतुष्टयापगमेनैकोननवतिः सञ्जाताततस्त्रयोदशनाम्नि क्षपितेषटसप्ततिर्भवति, तीर्थ करनामाभावापादिताऽष्टाशीतिः, अष्टाशीतेस्त्रयोदशनामाभावे पञ्चसप्ततिः, तत्राशीतेः षट्सप्ततेर्वा तीर्थकरकेवलिशैलेश्यापन्नविचरमसमये तीर्थकरनाम्नः प्रक्षेपात् वेद्यमाननवकर्मप्रकृतिव्युदासेन क्षयमपगते शेषनाम्नि अन्त्यसमये नवसत्कर्मतास्थानं, ताश्च वेद्यमाना नवेमाः, तद्यथा- मनुजगति 1 पञ्चेन्द्रियजाति 2 त्रस 3 बादर 4 पर्याप्तक 5 शुभगादेय 6-7 यशःकीर्ति 8 तीर्थकररूपाः 6, एता एव शैलेश्यन्त्यसमये सत्तां विभ्रति, शेषास्तु एकसप्ततिः सप्तषष्टि द्विचरमसमये क्षयमुपयान्ति, एता एव नव अतीर्थकरकेवलिनस्तीर्थकरनामरहिता अष्टौ भवन्ति, अतोऽन्त्यसमयेऽष्टसत्कर्मतास्थानमिति / सामान्येन गोत्रस्य द्वे सत्कर्मतास्थाने, तद्यथा- उच्चनीयगोत्रसद्भावे सत्येकं सत्कर्मातास्थानं, तेजोवायूचैर्गोत्रोदलने कालंकलीभावावस्थायां नीचैर्गोत्रसत्कर्मातेति, द्वितीयं, यदिवा- अयोगिद्विचरसमये नीचैर्गोत्रक्षये, सत्युच्चैर्गोत्रसत्कर्मता, एवं द्विरूपगोत्राऽवस्थाने सत्येक सत्कर्मतास्थानमन्यतंरगोत्रसद्भावे सति द्वितीयमित्येवं कर्म प्रत्युपेक्ष्य तत्सत्तापगमाय यतिना यतितव्यमिति / किं च - कम्ममूलं च जंछणं, पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहिं अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिनाय मेहावी विइत्ता लोग वंता लोगसन्नं से मेहावी परिक्कमिजासि त्ति बेमि / (सू०११०) कर्मणो मूलं-कारणं मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः, चः समुचये, कर्ममूलं च प्रत्युपेक्ष्य यत्क्षण-मिति 'क्षणु' हिंसायां, क्षणनं-हिंसनं यत्किमपि प्राण्युपघातकारि तत् कर्ममूलतया प्रत्युपेक्ष्य परित्यजेत्। पाठान्तरं वा 'कम्ममाहूय जं छणं' य उपादानक्षणोऽस्य कर्मणः तत्क्षणं काहूय-कर्मोपादाय तत्क्षणमेव निवृत्तिं कुर्याद् / इदमुक्तं भवति-अज्ञानप्रमादादिना यस्मिन्नेव क्षणे कर्महेतुकमनुष्ठानं कुर्यात्तस्मिन्नेव क्षणे लब्धचेताः तदुपादानहेतोनिवृत्तिं विदध्यादिति। पुनरप्युपदेशदानायाह- 'पडिलेहिअ' इत्यादि, प्रत्युपेक्ष्य, पूर्वोक्तं कर्म तद्विपक्षमुपदेशं च सर्व समादाय-गृहीत्वा अन्तहेतुत्वादन्तौ-रागद्वेषौ ताभ्यां सहादृश्यमानः ताभ्यामनपदिश्यमानो वा तत्कर्मतदुपादानं या रागादिकं ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति रागादिभोहितं लोकं विषयकषायलोकं वा ज्ञात्वा वान्त्वा च लोकसंज्ञा-विषयपिपासासंज्ञितां धनायाग्रहरूपां वा स-मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सन् पराक्रमेत-संयमानुष्ठाने उद्युक्तो भवेत् विषयपिपासामरिषड्वर्ग वाऽष्टप्रकारं वा कविष्टभ्याद् / इतिः परिसमाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववत् / इति शीतोष्णीयाध्ययन-प्रथमोद्देशकटीका समाप्ता। उक्तः प्रथमोद्देशकः / साम्प्रतं द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, पूर्वोद्देशके भावसुप्ताः प्रदर्शिताः, इह तु तेषां स्वापविपाकफलमसातमुच्यते इत्यनेन सम्बन्धेनाथातस्यास्त सूत्रानुगमे सूत्रमुचारयितव्यम् तचेदम्जाइंच वुद्धिंच इहऽल ! पासे, भूएहिं जाणे पडिलेह सायं। तम्माऽतिविझे परमं ति णचा, संमत्तदंसी न करेइ पावं ||1|| Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज ८८८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज जातिः-- प्रसूतिः बालकुमारयौवनवृद्धावस्थावसाना वृद्धिः इहमनुष्यलोके, संसारे वा अद्यैव कालक्षेपमन्तरेण जातिं च वृद्धिं च पश्च- अवलोकय / इदमुक्तं भवति-जायमानस्य यद् दुःखं वृद्धावस्थायां च यच्छारीरमानसमुत्पद्यते तद्विवेकचक्षुषा पश्च / उक्तं च"जायमाणस्स जं दुक्खं, मरमाणस्स जंतुणो। तेण दुक्खेण संतत्तो, न सरइ जाइमप्पणो // 1 // विरसरसियं रसंतो, तो सो जोणीमुहाउ निप्फिडइ। माऊऍ अप्प्णोऽवि अ, वेअणमउलं जणेमाणो // 2 // " तथा - "हीणभिण्णसरो दीणो, विवरीओ विचित्तओ। दुब्बलो दुक्खिओ, वसई, संपत्तो चरिमं दसं // 3 // " इत्यादि। अथवा- आर्य ! इत्यामन्त्रणं भगवान् गौतममामन्त्रयति, इह आर्य ! जाति बृद्धिं च तत्कारणं कर्म कार्यं च दुःखं पश्य, दृष्ट्वाऽवबुद्ध्यस्व, यथा च जात्यादिकं न स्यात् तथा विधत्स्व / किं चापरम्-'भूएहि मित्यादि, भूतानि-चतुर्दशभूतग्रामास्तैः सममात्मनः सातं- सुखं प्रत्युपेक्ष्य-पर्यालोच्य जानीहि, तथाहि- यथा त्वं सुखप्रिय एवमन्येऽपीति, यथा चत्वं दुःखविडेवमन्येऽपि जन्तवः, एवं मत्वाऽन्येषामसातोत्पादनं न विदध्याः, एवं च जन्मादिदुःखं न प्राप्स्यसीति / उक्तं च- "यथेष्टविषयाः सात-मनिष्टा इतरत्तव / अन्यत्रापि विदित्वैवं, न कुर्यादप्रियंजने // 1 // " यद्येवं ततः किमित्याह'तम्हा' - इत्यादि, तस्मात्-जातिवृद्धिसुखदुः खदर्शनादतीवं विद्या तत्त्वपरिच्छेत्री यस्यासावतिविद्यः स-परमं मोक्षं ज्ञानादिकं वा तन्मार्ग ज्ञात्वा सम्यक्त्वदर्शी सन् पापं न करोति, सावधमनुष्ठानं न विदधातीत्युक्तं भवति। पापस्य च मूलं स्नेहपाशस्तदपनोदार्थमाहउम्मुंच पासं इह मचिएहिं, आरंभजीवी, उभयाणुपस्सी। कामेसु गिद्धा निचयं करंति, संसिचमाणा पुणरिति गन्मं // 2 // इह- मनुष्यलोके चतुर्विधकषायविषयविमोक्षक्षमाधारे मत्यैः सार्द्ध द्रव्यभावभेदभिन्नं पाशम् उत् -प्राबल्येन मुञ्च-अपाकुरु, स हि कामभोगलालसस्तदानहेतोर्हिसादीनि पापान्यारभते अतोऽपदिश्यते'आरंभ' इत्यादि, आरंभेण जीवितुं शीलमस्येत्यारम्भजीवीमहारम्भपरिग्रहपरिकल्पितजीवनोपायः उभयं-शारीरमान-समैहिकामुष्मिकं वा द्रष्टुं शीलमस्येति स तथा, किं च- 'कामेसु' इत्यादि कामाःइच्छामदनरूपास्तेषु गृद्धाः-अध्युपपन्ना निचयं-कर्मोपचयं कुर्वन्ति। यदि नामैवं ततः किमित्याह-- 'संसिच' इत्यादि, तेन कामोपादानजनितेन कर्मणा संसिच्यमानाः-आपूर्यमाणा गर्भादर्भान्तरमुपयान्ति, संसारचक्रवालेऽरघट्टघटीयन्त्रन्यायेन पर्यटन्ते, आसत इत्युक्तं भवति / (आचा०) एस मरणा पमुच्चइ, से हु दिट्ठभए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते समिए सहिए सयाजए कालखी परिवए, | बहुं च खलु पावं कम्मं पगडं / (सू० 111) एष-इत्यनन्तरोक्तो मूलाग्ररेचको निष्कर्मदर्शी मरणाद-आयुःक्षयलक्षणात् मुच्यते आयुषो बन्धनाऽभावाद, यदिवा-आजवंजवीभावादावीचीमरणाद्वा सर्व एव संसारो मरणं तस्मात्प्रमुच्यते। यश्चैवं स किम्भूतो भवतीत्याह- ‘से हु' इत्यादि, सः अनन्तरोक्तो मुनिर्दृष्ट संसाराद्यं सप्तप्रकारं वा येन य तथा, हुरवधारणे दृष्टभय एव / किं च -'लोयंसि' इत्यादि, लोके द्रव्याधारे चतुर्दशभूतग्रामात्मके वा परमोमोक्षस्तत्कारणं वा संयमः तं द्रष्टु शीलमस्येति परमदर्शी, तथा 'विविक्तं' स्त्रीपशुपण्डकसमन्वितशय्यादिरहितं द्रव्यतः, भावतस्तु रागद्वेषरहितमसक्लिष्टं जीवितुं शीलमस्येति विविक्तजीवी, यश्चैवम्भूतः स इन्द्रिय- नोइन्द्रियोपशमादुपशान्तो, यश्चोपशान्तः स पञ्चभिः समितिभिः सम्यग्वा इतो-गतो मोक्षमार्गे समितः, यश्चैवं स ज्ञानादिभिः सहितः- समन्वितो, यश्च ज्ञानादिसहितः स सदा यतः-- अप्रमादी / किमवधिश्वायमन्तरोक्तो गुणोपन्यास इत्याह- 'काल' इत्यादि, कालो-मृत्युकालस्तमाकासितुं शीलमस्येति कालाकाङ्क्षी स एवम्भूतः परिः-समन्ता व्रजेत्परिव्रजेत्, यावत्पर्यायागतं पण्डितमरणं तावदाकाङ्खमाणो विविक्तजीवित्वादिगुणोपेतः संयमानुष्ठानमार्गे परिष्वष्केदिति / स्यादेतत्- किमर्थम् एवं क्रियते ? इत्याहमूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्न प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशबन्धात्मकं बन्धोदयसत्कर्मताव्यवस्थामयं तथा बद्धस्पृष्ट-निधत्तनिकाचितावस्थागतं कर्म तच न ह्रसीयसा कालेन क्षयमुपयातीत्यतः कालाकाङ्गीत्युक्तम्, तत्र बन्धस्थानापेक्षया तावन्मूलोत्तरप्रकृतीनां बहुत्वं प्रदर्श्यते, तद्यथासर्वमूलप्रकृतीबंधनतोऽन्तर्मुहूर्तं यावदष्टविधम्, आयुष्कवज सप्तविधं, तज्जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतस्तद्रहितानि अयस्त्रि-शत्सागरोपमाणि पूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि, सूक्ष्मसंपरायस्य मोहनीयबन्धोपरमे आयुष्कबन्धाभावात् षड्विधम्, एतच जघन्यतः सामयिकमुत्कृष्टतस्त्वन्तर्मुहूर्तमिति / तथोपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिनां सप्तावधबन्धोपरमे सातमेकं बध्नतामेकविधं बन्धस्थानं, तच्च जघन्येन सामयिकमुत्कृष्टतो देशोनपूर्वकोटिकालीयम्। इदानीमुत्तरप्रकृतिबन्धस्थानान्यभिधीयन्तेतत्र ज्ञानावरणान्तराययोः पञ्चभेदयोरप्येकमेव ध्रुवबन्धित्वाद्वन्धस्थानं, दर्शनावरणीयस्य त्रीणि बन्धस्थानानिनिद्रापञ्चकदर्शनचतुष्टयसमन्वयाद् ध्रुव-बन्धित्वान्नवविधं 1, ततः स्त्यानद्धित्रिकस्यानन्तानुबन्धिभिः सह बन्धोपरमे षड्विधम् 2, अपूर्वकरणसङ्ख्येयभागे निद्राप्रचलयोर्बन्धोपरमे चतुर्विधं बन्धस्थानम् 3. वेदनीय-स्यैकमेव बन्धस्थानं सातमसातं वा बध्नतः, उभयोरपि यौगपद्येन विरोधितया बन्धाभावात् / मोहनीयबन्धस्थानानि दश, तद्यथा-द्वाविंशतिः-मिथ्यात्वं 1 षोडश कषाया 17 अन्यतरवेदो 18 हास्यरति-युग्मारतिशोकयुग्मयोरन्यतर 20 द्वयं 21 जुगुप्सा 22 चेति 1, मिथ्यात्वबन्धोपरमे सास्वादनस्य सैवैकविंशतिः 2, सैव सम्यग्मिथ्या-दृष्टरविरतसम्यग्दृष्टी अनन्तानुबन्ध्यभावे सप्तदशविधं बन्धस्थानं 3, तदेव देशविरतस्याप्रत्याख्यानबन्धाभावे त्रयोदशविधं 4, तदेव प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानां यतीनां प्रत्याख्यानावरणबन्धाभावान्नवविधम् 5, एतदेव हास्यादियुग्मस्य भयजुगुप्सयो Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 886 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज शापूर्वकरणचरमसयमे बन्धोपरमात्पञ्चविधं ६,ततोऽनिवृत्ति-करणस ख्येयभागावसाने पुंवेदबन्धोपरमाच्चतुर्विधं 7, तताऽपि तस्मिन्नेव सङ्ख्येयभागे क्षयमुपगच्छति सति क्रोध-मानमायालोभसज्वलनानां क्रमेण बन्धोपरमात् त्रिविधं 8 द्विविध : मेकविधं 10 चेति, तस्याप्यनिवृत्तिकरणचरमसयमे बन्धोपरमान्मोहनीयस्याबन्धकः / आयुषः सामान्येनेकविधं बन्धस्थानं चतुर्णामन्यतरत्, व्यागिपद्येन बन्धाभावो विरोधादिति। नाम्नोऽष्टौ बन्धस्थानानि, तद्यथा- त्रयोविंशतिस्तिर्यग्गतिप्रायोग्यं बध्नतस्तिर्यम्गतिरेकेन्द्रियजातिरौदारिकतैजसकाम॑णानि हुण्डसंस्थानं वर्णगन्धरसस्पर्शास्तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी अगुरुलघूपघातं स्थावरं बादरसूक्ष्मयोरन्यतरदपर्याप्तकं प्रत्येकसाधारणयोरन्यतरत् अस्थिरं अशुभम् दुर्भगम् अनादेयम् अयशः कीर्तिनिर्माणमिति, इयमेकेन्द्रियापर्याप्तकप्रायोग्यं बध्नतो मिथ्यादृष्टभवति 1, इयमेव पराधातोच्छ्वाससहितापञ्चविंशतिः,नवरमपर्याप्तकस्थाने पर्याप्तकमेव वाच्यम् 2, इयमेव चातपोद्योतान्यतरसमन्विता षड्विशतिः, नवरं बादरप्रत्येके एव वाच्ये 3, तथा देवगतिप्रायोग्य बध्नतोऽष्टाविंशतिः, तथाहि-देवगतिः 1 पञ्चेन्द्रियजातिः 2 वैक्रिय 3 तैजस 4 कार्पणानि 5 शरीराणि समचतुरस्रम् 6 अङ्गोपाङ्गम् 7 वर्णादिचतुष्टयम् 11 आनुपूर्वी 12 अगुरुलघू 13 पघात 14 पराघातो 15 च्छ्वासाः 16 प्रशस्तविहायागतिः 17 त्रसम् 18 बादरम् 16 पर्याप्तकम् 20 प्रत्येकम् 21 स्थिरास्थिरयोरन्यतरत् 22 शुभाशुभयोरन्यतरत् 23 सुभगम् 24 सुस्वरम् 25 आदेयम् 26 यशःकीर्त्ययशः कीयोरन्यतरत् 27 निर्माणमिति 28, एषैव तीर्थकरनामसहिता एकोनत्रिशत, साम्प्रतं त्रिशत्-देवगतिः 1 पञ्चेन्द्रियजातिः 2 वैक्रिया 3 हारका 4 ङ्गोपाङ्ग 5-6 चतुष्टयम् तैजस७ कार्मणे 8 संस्थानमाद्यम् 6 वर्णादिचतुष्टकम् 13 आनुपूर्वी 14 अगुरुलघू 5 पघातम् 16 पराघातम् 17 उच्छवासम् 18 प्रशस्तविहायागतिः 16 त्रसम् 20 बादरम् 21 पर्याप्तकम् 22 प्रत्येकम् 23 स्थिरम् 24 शुभम् 25 सुभगम् 26 सुस्वरम् 27 आदेयम् 28 यशः कीर्ति 26 निर्माण 30 मिति घ बध्नत एकं बन्धस्थानम् 6, एषैव त्रिंशत्तीर्थकरनामसहिता एकत्रिंशत् 7, एतेषां च बन्धस्थानानामेकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियनरकगत्यादिभेदेन बहुविधता कर्मग्रन्थादवसेया, अपूर्वकरणादिगुणस्थानकत्रये देवगतिप्रायोग्यबन्धोपरमाद्यशः कीर्तिमेव बध्नतः एकविधं बन्धस्थानमिति , तत ऊर्ध्वं नानो बन्धाभाव इति। गोत्रस्य सामान्येनैक बन्धस्थानं- उचनीचयोरन्यतरत् / यौगपद्येनोभयोर्बन्धाभावो विरोधादिति / तदेवं बन्धद्वारेण लेशतो बहुत्वमावेदितं कर्मणं, तब बहुकर्म प्रकृतं बद्धं प्रकटं वा, तत्कार्यप्रदर्शनात्, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारेऽवधारणे वा, बढे व तत्कर्म। यदि नामैवं ततस्तदपनयनार्थं किं कर्तव्यमित्याहसच्चम्मि धिई कुव्वहा, एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं | जोसइ / (सू० 112) सद्भ्यो हितः सत्यः-संयमस्तत्रधृतिं कुरुध्वं, सत्यो वा मौनीन्द्रागमो | यथावस्थितवस्तुस्वरूपाविर्भावनात्, तत्र भगवदाज्ञायां धृति कुमार्गपरित्यागेन कुरुध्वमिति, किं च- 'एत्थोवरए' इत्यादि, अत्रअस्मिन् संयमे भगवद्वचसि वा उप-आमीप्येन रतो- व्यवस्थितो मेधावी- तत्त्वदर्शी सर्वम्-अशेषं पापं कर्म संसारार्णवपरिभ्रमणहेतुं झोषयति-शोषयति क्षयं नयतीति यावत् / उक्तोऽप्रमादः / तत्प्रत्यनीकस्तुप्रमादः / तेन च कषायादिप्रमादेन प्रमत्तः किंगुणो भवतीत्याहअणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहए पुरिण्णए, से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए जणवयबहाए जणक्यपरियावाए जणवयपरिगहाए। (सू० 113) अनेकानि चित्तानि कृषिवाणिज्यावलगनादीनि यस्यासावनेकचित्तः, खलुरवधारणे, संसारसुखा-भिलाष्यनेकचित्त एव भवति, अय पुरुष' इति प्रत्यक्षगोचरीभूतः संसार्यपदिश्यते, अत्र च प्रागुपन्यस्तदधिघटिकया कपिलदरिद्रेण च दृष्टान्तो वाच्य इति / यश्चानेकचित्तो भवति स किं कुर्यादित्याह- ‘से केयण' मित्यादि, द्रव्यकेतनं चालिनी परिपूर्णकः समुद्रो वेति, भावकेतनं लोभेच्छा तदसावनेकचित्तः केनाप्यभूतपूर्व पूरयितुमर्हति, अर्थितया शक्याशक्यविचाराक्षमोऽशक्यानुष्ठानोऽपि प्रवर्तत इत्युक्तं भवति। स च लोभेच्छा-पूरणव्याकुलितमतिः किं कुर्यादित्याह- 'से अण्णवहाए' इत्यादि, स लोकपूरणप्रवृत्तोऽन्येषां प्राणिनां वधाय भवति, तथाऽन्येषां शारीरमानसपरितापनाय, तथाऽन्येषां द्विपदचतुष्पदादीनां परिग्रहाय, जनपदे भवा जानपदाः कालप्रष्टादयो राजादयो वा तद्वधाय, मगधादिजनपदा वा तद्वधाय, तथा जनपदानां लोकानां परिवादाय-दस्तुरय पिशुनो वेत्येवं मर्मोद्घट्टनाय, तथा जनपदानां मगधादीनां परिग्रहाय, प्रभवतीति सर्वत्राध्याहारः। किं य एते लोभप्रवृत्ता वधादिकाः क्रियाः कुर्वन्ति ते तथाभूता एवासते उतान्यथाऽपीति दर्शयतिआसेवित्ता एतं (वं) अटुं इथेवेगे समुट्ठिया, तम्मा तं बिइयं नो सेवे, निस्सारं पासिय नाणी, उववायं चवणं णचा, अणण्णं चर माहणे, से न छणे न छणावए छणंतं नाणुजाणइ, निविद नंदि, अरए पयासु, अणोमदंसी, निसपणे पावहिं कम्महिं। (सू० 114) एवम्-अनन्तरोक्तमर्थमन्यवधपरिग्रहपरितापनादिकमासेव्य इत्येवेति लोभेच्छाप्रतिपूरणायैव एके भरतराजादयः समुत्थिताः-सम्यग्योगत्रिकेणोत्थिताः संयमानुष्ठानेनोद्यतास्तेनैव भवेन सिद्धिमासादयन्ति / संयमसमुत्थानेन च समुत्थाय कामभोगान् हिंसादीनि चास्रवद्वाराणि हित्वा किं विधेयमित्याह--'तम्हा' यस्माद्वान्तभोगतया कृतप्रतिज्ञस्तस्माद्भोगलिप्सुतया तं द्वितीयं मृषावादमसंयम वा नासेवेत। विषयार्थमसंयमः सेव्यते, ते च विषया निः सारा इति दर्शयति- 'निस्सारं' इत्यादि, सारो हि विषयगणस्य तत्प्राप्तौ तृप्तिस्तदभावान्निः सारस्तं दृष्ट्वा ज्ञानीतत्त्ववेदी न विषयाभिलाषंविदध्यात् न केवलं मुनष्याणां, देवानामपि विषयसुखास्पदमनित्यं जीवितमिति च दर्शयति'उववायं चवणं णचा' उपपातंजन्म च्यवनपातस्तच ज्ञात्वा न विषयसङ्गोन्मुखो भवेदिति, यतो निःसारो विषयग्रामः समस्तः संसारो Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज ५९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज वा सर्वाणि च स्थानान्यशाश्वतानि, ततः किं कर्त्तव्यमित्याह- / परिज्ञया परित्यजेत्। किं च 'सोय' मित्यादि, विषयाभिष्वङ्ग संसार'अणण्ण' मित्यादि, मोक्षमार्गादन्योऽसंयमो नान्योऽनन्यः- श्रोतस्तत् ज्ञात्वा दान्त इन्द्रिय- नोइन्द्रियदमेन संयम चरेदिति / ज्ञानादिकस्तं चर 'माहण इति मुनिः। किं च- 'से न छणे' इत्यादि, किमभिसन्धाय संयमं चरेदित्याह- 'उम्मज्ज लधु मित्यादि, इह स मुनिरनन्यसेवी प्राणिनो न क्षणुयात्- न हन्यात् नाप्यपरं घातयेत् | मिथ्यात्वादिशैव-लाच्छादितसंसारहदे जीवकच्छपः श्रुतिश्चद्धासंयमघातयन्तं न समनुजानीयात् / चतुर्थव्रतसिद्धये त्विदमुपदिश्यते- वीर्यरूपमुन्मजनम् आसाद्य-लब्ध्वा अन्यत्र सम्पूर्णमोक्षमार्गासम्भवात् 'निव्विद' इत्यादि, निर्विन्दस्व- जुगुप्सस्व विषयजनितां 'नंदी' ... मानुष्येष्वित्युक्तम्, क्त्वा-प्रत्ययस्योत्तरक्रियासव्यपेक्षत्वादुत्तरक्रियाप्रमोदं, किम्भूतः सन् प्रजासु-स्त्रीषु अरक्तो-रागरहितो, भावयेच्च माह- 'नो पाणिण' मित्यादि, प्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेषां यथैते विषयाः किम्पाकफलोपमा-स्त्रपुषीफलनिबन्धनकटवः, प्राणान्- पञ्चेन्द्रियत्रिविधबलोच्छ्वासनिःश्वासायुष्कलक्षणान् नो अतस्तदर्थे परिग्रहाग्रहयोगपराङ्मुखो भवेदिति / उत्तमधर्म- समारभेथाः- न व्यपरोपयेः, तदुपघातकार्यनुष्ठानं मा कृथा इत्युक्तं पालनार्थमाह- 'अणोम' इत्यादि, अवमम्- हीनं मिथ्यादर्शना- भवति / इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् / शीतोष्णीयाध्ययने विरत्यादि तद्विपर्यस्तमनवमं तद्रष्टुं -शीलमस्येत्यनवमदर्शी द्वितीयोद्देशकटीका समाप्तेति / उक्तो द्वितीयोद्देशकः। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रवान्, एवम्भूतः सन् प्रजानुगां नन्दि निर्विन्दस्वेति साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तरोद्देशके संटङ्कः / यश्चानवमसंदर्शी स किम्भूतो भवतीत्याह-'निसन्न' इत्यादि, दुःखं तत्सहनं च प्रतिपादितं, न च त त्सहनेनैव संयमानुष्ठानरहितेन पापोपादानेभ्यः कर्मभ्यो निषण्णो-निर्विण्णः पापकर्मभ्यः पापकर्मसु पापक किरणतया या श्रमणो भवतीत्येतत् प्रागुद्देशार्थाधिकारवा कर्तव्येषु निवृत्त इति यावत्।। निर्दिष्टमुच्यते, ततोऽनेन सम्बन्धेना-यातस्यास्योद्देशकस्य सूत्रानुगमे किं च - सूत्रमुचारयितव्यम्, तच्चेदम्कोहाइमाणं हणिया य वीरे, संधिं लोयस्स जाणित्ता आयओ बहिया पास, तम्हा न हंता लोभस्स पासे निरयं महंतं / न विधायए, जमिणं अन्नमन्नवितिगिच्छाए पडिलेहाए न करेइ पावं कम्मं किं तत्थ मुणी कारणं सिया ? (सू० 115) तम्हा य वीरे विरए वहाओ। (अत्र 'सन्धि लोयस्स जाणित्ता' अस्य पदस्य व्याख्या 'संधि' छिदिज सोयं लहुभूयगामी ||1|| शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) 'आयओ' इत्यादि, यथा ह्यात्मनः सुखगंथं परिण्णाय इहऽज ! धीरे, मिष्टमितरत्त्वन्यथा तथा बहिरपि- आत्मनो व्यतिरिक्तानामपि जन्तूनां सोयं परिणाय चरिज दंते / सुखप्रियत्वमसुखाप्रियत्वं च पश्च- अवधारयं / तदेवमात्मसमतां उम्मज लद्धं इह माणवेहिं, सर्वप्राणिनामवधार्य किं कर्त्तव्यमित्याह- 'तम्हा' इत्यादि, नो पाणिणं पाणे समारभिजा // 2 // यस्मात्सर्वेऽपि जन्तरो दुःखद्विषः सुखलिप्सवस्तस्मात्तेषां न हन्तात्ति बेमि - न व्यापादकः स्यान्नाप्यपरैस्तान जन्तून विविधैः-- नानाप्रकारैरुपायै र्घातयेदिति / यद्यपि कांश्चित् स्थूलान् सत्त्वान् स्वयं पाषण्डितो न क्रोध आदिर्येषां ते क्रोधादयः मीयते- परिच्छिद्यतेऽनेनेति मान घन्ति तथाऽप्यौद्देशिकसन्निध्यादिपरिभोगानुमतेरपरैर्घातयन्ति / न स्वलक्षणम् अनन्तानुबन्ध्यादिविशेषः, क्रोधादीनां मानं क्रोधादिमानं, चैकान्तेन पापकर्माकरणमात्रतया श्रमणो भवतीति दर्शयति- 'जमिण' क्रोधादि यो मानो-गर्वः क्रोधकारणस्तं हन्यात, कोऽसौ ? वीरः, मित्यादि, यदिदं- यदेतत् पापकर्माकरणताकारणं, किं तद् ? द्वेषापनोदमुक्त्वा रागापनोदार्थमाह-'लोहस्स' इत्यादि, लोभस्यान दर्शयति-- अन्योऽन्यस्य परस्परं या विचिकित्सा-आशङ्का परस्परतो न्तानुबन्ध्यादेश्चतुर्विधस्यापि स्थितिं विपाकं च पश्य, स्थितिमहती भयं लज्जा वा तया तां वा प्रत्युपेक्ष्य परस्पराशङ्कयाऽपेक्षया वा पापंसूक्ष्मसम्परायानुयायित्वाद् विपाकोऽप्यप्रतिष्ठानादिनरकापत्तेर्महान, पापोपादानं कर्मानुष्ठानं न करोति-न विधते, किंः प्रश्ने क्षेपे वा। यत आगमः- "मच्छा मणुआ य सत्तमि पुडविं" ते च महालोभा तत्र-तस्मिन् पापकर्माकरणे किं मुनिः कारणं स्यात् ? किं मुनिरिति भिभूताः सप्तमपृथिवीभाजो भवन्तीति भावार्थः / यद्येवं ततः किं कृत्वा पापकर्म न करोति? काक्वा पृच्छति, यदिवा- यदि नामासौ कर्तव्यमित्याह-'तम्हा' इत्यादि, यस्माल्लोभाभिभूताः प्राणिवधादि- यथोक्तनिमित्तात्पापानुष्ठानविधायीन सञ्जज्ञे किमेतावतैव मुनिरसौ ? प्रवृत्तितया महानरकभाजो भवन्ति, तस्माद्वीरो लोभहतो:-वधाद्विरतः नैव मुनिरित्यर्थः / अद्रोहाध्यवसायो हि मुनिभावकारणं, स च तत्र न स्यात् / किं च - 'छिदिज' इत्यादि, शोकं भावोतो वा छिन्द्यात् - विद्यते, अपरोपाध्यावेशात्, विनयो वा पृच्छति- यदिदं परस्पराअपनयेत्, किम्भूतो ? लघुभूतो-मोक्षः संयमो वा तं गन्तुं शीलमस्येति शङ्कया आधाकादिपरिहरणं, तन्मुनिभावाङ्गतां यात्याहोस्विन्नेति ? लघुभूतगामी, लघुभूतं वा कामयितुं शीलमस्येति लघुभूतकामी / आचार्य आह-सौम्य ! निरस्तापरव्यापारः शृणु- 'जमिण' मित्यादि, पुनरप्युपदशदानायाह- 'गन्थ' मित्यादि, ग्रन्थम् बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नं अपरोपा-धिनिरस्तहेयव्यापारत्वमेव मुनिभावकारणमिति भावार्थः / ज्ञपरिज्ञया परिज्ञाय इहाद्यैव कालानतिपातेन धीरः सन् प्रत्याख्यान- यतः शुभान्तः करणपरिणामव्यापारापादितक्रियस्य मुनिभावो नान्य Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 861 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज थेति, अयं तावन्निश्चयनयाभिप्रायो व्यवहाराभिप्रयेण तूच्य ते-यो हि सम्यग्दृष्टिरुत्क्षिमपञ्चमहाव्रतभारस्तद्वहने प्रमाद्यन्न-प्यपरसमानसाधुलज्जया गुद्यिाराध्यभयेन गौरवेण वा केतचिदाधाकम्र्मादि परिहरन् प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाः करोति / यदि च-तीर्थोद्धासनाय मासक्षपणातापनादिका जनविज्ञाताः क्रियाः करोति, तत्र तस्य मुनिभाव एव कारणं तद्व्यापारापादितपारम्पर्यशुभाध्यवसायोपपत्तेः।। तदेवं शुभान्तः करणव्यापारविकलस्य मुनित्वे सदसद्भावः प्रदर्शितः। / कथं तर्हि नैश्चयिकां मुनिभाव इत्यत आह / / समयं तत्थुवेहाए अप्पाणं विप्पसायए (आचा०1)-विरागं रूवेहिं गच्छिज्जा महया खुड्डएहि य / / (सू० 16+) . समभावः समता तां तत्रोत्प्रेक्ष्य- पर्यालोच्य समताव्यवस्थितो यद्यत्करोति येन केनचित्प्रकारेणानेषणीयपरिहरणं लज्जादिना जनविदितं चोपवासादि तत्सर्वं मुनिभावकारणमिति, यदिवा समयम् -आगमं तत्रोत्प्रेक्ष्य यदाममोक्तविधिनाऽनुष्ठानं तत्सर्वं मुनिभावकारणमिति भावार्थः / तेन चागमोत्प्रेक्षणेन समतोत्प्रेक्षया वाऽऽत्मानं विप्रसादयेद्- विविधं प्रसादयेदागमपर्यालोचनेन समतादृष्ट्या वा आत्मान विविधैरुपायैरिन्द्रिय-प्रणिधानाप्रमादादिभिः प्रसन्नं विदध्याद् / आत्मप्रसन्नता च संयमस्थस्य भवति / (आचा० / ) "आहाथ कर्म कुर्यादानिन्धस्यादाहारः प्राणसन्धारणार्थम् / प्राणाः धार्यास्तत्त्वजिज्ञासनाय, तत्त्वं ज्ञेयं येन भूयो न भूयात् // 1 // " सैवात्मगुप्तता कथं स्यादिति चेदाह- 'विराग मित्यादि, विरञ्जनं विरागस्तं विरागं रूपेषु मनोज्ञेषु चक्षुर्गोचरीभूतेषु गच्छेद् - यायात्, रूपमतीवाऽऽक्षेपकारी अतो रूपग्रहणम्, अन्यथा शेषविषयेष्वपि विरागं गच्छेदित्युक्तं स्यात् / महता- दिव्यभावेन यद्व्यवस्थितं रूपं क्षुल्लकेषु वा मनुष्यरूपेषु सर्वत्र विरागं कुर्यादिति / अथवा- दिव्यादि प्रत्येकं महत् क्षुल्लं चेति क्रिया पूर्ववत् / नागार्जुनीयास्तु पठन्ति"विसयंमि पंचगम्मि वि, दुविहंमि तियं तियं / भावओ सुठु जाणित्ता, से न लिप्पइ दोसु वि॥१॥" शब्दादिविषयपञ्चकेऽपि इष्टानिष्टरूपतया द्विविधे हीनमध्यमोत्कृष्टभेदमित्येतत् भावतः परमार्थतः सुष्ठु ज्ञात्वा स मुनिः पापेन कर्मणा द्वाभ्यामपिरागद्वेषाभ्यां न लिप्यते, तदकरणादिति भावः / (आचा०।) स्यात् - किमालम्ब्यैतत्कर्त्तव्यमित्याह --- "सवं हासं परिचज, आलीणगुत्तो परिष्वए। पुरिसा! तुममेव तुमं, किं बहिया मित्तमिच्छसि ? ||1||" (सू० 117x) पुनरप्युपदेशदानायाह- 'सव्व' मित्यादि, सर्व हास्यं तदास्पदं वा परित्यज्य आङ् मर्यादयेन्द्रियनिरोधादिकया लीनः आलीनो गुप्तो मनोवाकायकर्मभिः कूर्मवद् वा-संवृतगात्रः आलीनश्वासौ गुप्तश्चालीनगुप्तः स एवम्भूतः परिः-समन्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत्संयमानुष्ठानविधायी भवेदिति / तस्य च मुमुक्षोरात्मसामर्थ्यात् संयमानुष्ठानं फलवद्भवतिनपरोपरोधेनेति दर्शयति- 'पुरिसा' इत्यादि, यदिवा- त्यक्तगृहपुत्रकलत्रधतधान्यहिरण्यादितया अकिञ्चनस्य समतृणमणिमुक्तालेष्टुकाञ्चनस्य मुमुक्षोरुप-सर्गव्याकुलितमतेः कदा- चिन्मित्राद्याशंसा भवेत्तदपनोदार्थमाह- 'पुरिसा' इत्यादि, पूर्णः सुखदुःखयोः पुरि शयनाद्वा पुरुषो- जन्तुः, पुरुषद्वारामन्त्रणं तु पुरुषस्यैवोपदेशाहत्वात्तदनुष्ठान-समर्थत्वाचेति कश्चित्संसारादुद्विग्नो विषमस्थितो वाऽऽत्मा-नमनुशास्ति, परेण वा साध्यादिनाऽनुशास्यते-- यथा हे पुरुष ! -- हे जीव ! तव सदनुष्ठानविधायित्वात्वमेव मित्रं, विपर्ययाचामित्रः, किमिति बहिर्मित्रमिच्छसि ? मृगयसे, यतोयुपकारि मित्रं, सचोपकारः पारमार्थिकात्यन्ति-कैकान्तिकगुणोपेतं सन्मार्गपतितमात्मानं विहाय नान्येन शक्यो विधातुं, योऽपि संसारसाहाय्योपकारितया मित्राभासाभिमानस्तन्मोहविजृम्भितम्, यतो महाव्यसनोपनिपाताऽर्णवपतनहेतुत्वादमित्र एवासौ / इदमुक्तं भवति -आत्मैवात्मनोऽप्रमत्तो मित्रम्, आत्यन्तिकैकान्तिकपरमार्थसुखोत्पादनात्, विपर्ययाच विपर्ययो, न बहि-मित्रमन्वेष्टव्यमिति, यस्त्वयं बाह्यो मित्रामित्रविकल्पः सोऽदृष्टोदयनिमित्तत्वादौपचारिक इति, उक्त हि "दुप्पत्थिओ, अमित्तं, अप्पा सुपत्थिओ अ ते मित्तं / सुहदुक्खकारणाओ अप्पा मित्तं अमित्तं च // 1 // ' तथा- "अप्येकं मरणं कुर्यात्, संक्रुद्धो बलवानरिः / मरणानि त्वनन्तानि, जन्सानि च करोत्ययम् // 1 // " यो हि निर्वाणनिर्वर्तकं व्रतमाचरति स आत्मनो मित्रम्। च चैवम्भूतः कुतोऽवगन्तव्यः? किंफलश्चेत्याहजंजाणिज्जा उच्चालइयं तं जाणिज्जा दूरालइयं, जं जाणिज्जा दूरालइयं तं जाणिज्जा उचालइयं, पुरिसा ! अत्ताणमेवं अभिणिगिज्झ, एवं दुक्खा पमुञ्चसि, पुरिसा ! (आचा०) सहिओ धम्ममाया य सेयं समणुपस्सइ। (सू० 1184) यं-पुरुषं जानीयात्- परिच्छिन्द्यात्कर्मणां विषयसङ्गानां चोचालयितारम्-अपनेतारं तं जानीयाद्दूरालयिकमिति-दूरे सर्बहेयधर्मेभ्य इत्यालयो दूरालयः-मोक्षस्तन्मार्गोवा स विद्यते यस्येति मत्वर्थीयष्ठन् दूरालयिकस्तमिति। हेतुहेतुमद्भावं दर्शयितुं गतप्रत्यागतसूत्रमाह- 'जं जाणिजे' त्यादि, यं जानीयाद् दूरालयिकं तं जानीयादुचालयितारमिति / एतदुक्तं भवति- यो हि कर्मणां तदास्रवद्वाराणां चोचालयिता-अपनेता स मोक्षमार्गव्यवस्थितो मुक्तो क्रेति, यो या सन्मार्गानुष्ठायी स कर्मणामुच्चालयितेति, स च आत्मनो मित्रमतोऽपदिश्यते- 'पुरिसा' इत्यादि, हेजीव ! आत्मानमेवाऽभिनिगृह्य धर्मध्यानादाहिर्विषयाभिष्वगाय निःसरन्तमवरुध्य ततः एवम्-अनेन प्रकारेण दुःखात्सकाशादात्मानं प्रमोक्ष्यसि / एवमात्मा कर्मणाम् उच्वालयिताऽऽत्मनो मित्रं भवति / अपि च- 'पुरिसा' इत्यादि, ('सच' मित्यादि 'सच' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम् / ) किं च- 'सही' त्यादि, सहितो-ज्ञानादियुक्तः सह हितेन वा युक्तः सहितः धर्मश्रुतचारित्राख्यम् आदाय-- गृहीत्वा, किं करोतीत्याह- श्रेयःपुण्यमात्महितं वा सम्यग- अविपरीततयाऽनुपश्यति समनुपश्यति / __ उक्तोऽप्रमत्तः तद्गुणाश्च, तद्विपर्ययमाह // दुहओ जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जंसि एगे पमायंति / (119) Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 892 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज द्विधा- रागद्वेषप्रकारद्वयेनात्मपरनिमित्तमैहिकामुष्मिकार्य वा, कोकालोकप्रपञ्चात् मुक्तदेश्यः स्वपरापकारिणं क्रोधं च वमिता' टुंवम् यदिवा-द्वाभ्यां-रागद्वेषाभ्यां हतो द्विहतो दुष्टं हतो वा दुर्हतः, स किं / उद्गिणे' इत्यस्मात्ताच्छीलिकस्तृन्, तद्योगे च षष्ठ्याः प्रतिषेधे कुर्याद् ? जीवितस्य कदलीग निःसारस्य तडिल्लतासमुल्लसित- क्रोधशब्दाद् द्वितीया, लुडन्तं वैतत्, यो हि यथोक्तसंयमानुष्ठायी चञ्चलस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ हिंसादिषु प्रवर्त्तते, परिवन्दनं- सोऽचिरात् क्रोधं वमिष्यति, 'एवमुत्तरत्रापि यथासम्भवमायोज्यम् / परिसंस्तवस्तदर्थमाचेष्टते,लावकादिमांसोपभोगपुष्टं सर्वाङ्गोपाङ्गसुन्दर- | तत्राऽऽत्माऽऽत्मीयो पघातकारिणि क्रोधकर्मविपाकोदयात्क्रोधः, मालोक्य मा जनाः सुखमेव परिवन्दिष्यन्ते, श्रीमान् जीयास्त्वं बहूनि |..जातिकुलरूपबलादिसमुत्थो गर्वो मानः, परवञ्चनाध्यवसायो माया, वर्षशतसहस्राणीत्येवमादि परिवन्दनं, तथा माननार्थं कर्मो-पचिनोति, तृष्णापरिग्रहपरिणामो लोभः, क्षपणोपशमक्रममाश्रित्य च क्रोधादिदृष्टौ रसबलपराक्रमं मामन्येऽभ्युत्थानविनया सनदानाञ्जलि- क्रमोपन्यासः, अनन्तानुबन्ध्य प्रत्याख्यानप्रत्याख्यानावरणसञ्ज्वप्रग्रहैमानयिष्यन्तीत्यादि माननं, तथा पूजनार्थमपि प्रवर्त्तमानाः लनस्वगतभेदाविर्भावनाय व्यस्तनिर्देशः, चशब्दस्तु पर्वत-पृथ्वीरेणुकर्मास्रवैरात्मानं भावयन्ति, मम हि कृताबिद्यस्योपचितद्रव्यप्राग्भारस्य जलराजिलक्षणलक्षणः क्रोधस्य, शैलस्तम्भास्थिकाष्ठतिनिशलतापरो दानमान-सत्कारप्रणामसेवाविशेषैः पूजां करिष्यतीत्यादि पूजनं, लक्षणलक्षको मानस्य, वंशकुडङ्गीमेषशृङ्गगोमूत्रिकाऽवलेखकतदेवमर्थ कर्मोपचिनोति / किं च- 'जंसि एगे' इत्यादि, यस्मिन् लक्षणलक्षको मायायाः, कृमिराग-कईमखञ्जनहरिद्रालक्षणसूत्र को परिवन्दनादिनिमित्ते एके रागद्वेषोपहताः प्रमाद्यन्ति, न ते आत्मने लोभस्य, तथा यावजीव-संवत्सरचातुर्मासपक्षस्थित्याविर्भावकश्चेति। हिताः। तदेवं क्रोध-मानमायालोभवमनादेव पारमार्थिकः श्रमणभावो, न एतद्विपरीतं त्वाह -- तत्सम्भवे, सति, यत उक्तम् - 'सामण्णमणुचरंत-स्स कसाया जस्स सहिओ दुक्खमत्ताए, पुट्ठो नो झंझाए, पासिमं दविए उक्कडा हुंति। मन्नामि उच्छुपुप्फ, व निप्फलं तस्स सामण्णं ॥१।जं लोकालोकपवंचाओ मुच्चइ त्ति बेमि / (120) अज्जिअं चरितं, देवसूणाए वि पुव्वकोडीए। तं पि कसाइयमेत्तो, हारेइ नरो मुहत्तेणं // 2 // " / स्वमनीपिकापरिहारार्थ गौतमस्वाम्याह- 'एय' सहितो-ज्ञानादिसमन्वितो हितयुक्तो वा दुःखमात्रया उपसर्गजनितया मित्यादि, एतद्- यत्कषायवमन-मनन्तरमुपादेशि तत् पश्यकस्य व्याध्युद्भवया वा स्पृष्टः सन् नो झंझाए' त्ति-नो व्याकुलितमतिर्भवेत्, दर्शनं - सर्वं निरावरण-त्वात्पश्यति-उपलभत इति पश्यः स एव तदपनयनाय नोद्यच्छेद्, इष्टविषयावाप्तौ रागझञ्झा, अनिष्टावाप्तौ च पश्यक:- तीर्थकृत् श्रीवर्द्धमानस्वामी तस्य दर्शनम्- अभिप्रायः, द्वेषझञ्झेति, तामुभयप्रकारामपि व्याकुलतां परित्यजेदिति भावः / यदिवा-दृश्यते यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमनेनेति दर्शनम्-- उपदेशो, न किं च- 'पासिम' मित्यादि, यदुक्तमुद्दशकादेरारभ्यानन्तरसूत्रं यावत् स्वमनीषिका / किम्भूतस्य पश्यकस्य दर्शनमित्याह- "उवरय' तमिममर्थं पश्य-परिच्छिन्धि कर्तव्याकर्तव्यतया विवेकेनावधारय, इत्यादि, उपरतं द्रव्यभावशस्त्रं, यस्यासावुपरतशस्त्रः शस्त्राद्वोपरतः कोऽसौ ? द्रव्यभूतो- मुक्तिगमनयोग्यः, साधुरित्यर्थः / एवंभूतश्च कं शस्त्रोपस्तः, भावे शस्त्रं त्वसंयमः कषाया वा, तस्मादुपरतः / इदमुक्तं गुणमवाप्नोति ? आलोक्यत इत्यालोकः, कर्मणि घञ् , लोके भवति- तीर्थकृतोऽपि कषायवमनमृते न निरावरणसकलपदार्थचतुर्दशरज्ज्चात्मके आलोको लोकालोकस्तस्य प्रपञ्चः-पर्याप्तकापर्या ग्राहिपरम-ज्ञानावाप्तिः, तदभावे च सिद्धिवधूसमागमसुखाभावः, सकसुभगादिद्वन्द्वविकल्पः, तद्यथा- नारको नारकत्वेनावलोक्यते, एवमन्येनापि मुमुक्षुणा तदुपदेशवर्तिना-तन्मार्गानुयायिना कषायवमनं एकेन्द्रियादिरेकेन्द्रिय (यादि) त्वेन, एंव पर्याप्तकापर्याप्तकाद्यपि वाच्यं, विधेयमिति। शस्त्रोपरमकार्य दर्शयन् पुनरपि तीर्थकरविशेषणमाहतदेवम्भूतात्प्रञ्चान्मुच्यते चतुर्दशजीवस्थानान्यतरव्यपदेशार्हो न 'पलियंतकरस्स'पर्यन्तं कर्मणां संसारस्य वा करोति तच्छीलश्चेति भवतीति यावद् / इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् / इति, पर्यन्तकरस्तस्यैतद्दर्शनमिति सण्टङ्कः। यथा च तीर्थकृत् संयमापकाशीतोष्णीयाध्ययने तृतीयोद्देशकटीका समाप्ता। रिकषायशस्त्रोपरमात्कर्मपर्यन्तकृदेवमन्योऽपि तदुक्तानुसारीति उक्तस्तृतीयोद्देशकः, साम्प्रतं चतुर्थ आरभ्यते, अस्य चायमभि- (आचा०) तीर्थकरोपदेशेनापि परकृतकर्माक्षपणोपायाभावात् स्वकृतसम्बन्धः- इहानन्तरोद्देशके पापकर्माकरणतया दुःखसहनादेव ग्रहणं, तीर्थकरेणापि परकृतकर्मक्षपणोपायो न व्यज्ञायीति चेत्, तन्न, केवलाच्छ्मणो न भवतीति अपि तु निष्प्रत्यूहसंयमानुष्ठानादित्येत- तज्ज्ञानस्य सकलपदार्थसत्ताव्यापित्वेनावस्थानात्। त्प्रतिपादितं, निष्प्रत्यूहता च कषायवमनाद्भवति, तदधुना, प्रागुद्देशा ननु च हेयोपादेयपदार्थहानोपादानोपदेशज्ञोऽसौ न सर्वज्ञ, इति ाधिकारनिर्दिष्ट प्रतिपाद्यते, तदनेन सम्बन्धेनायातस्यास्योद्देशकस्य सङ्गिरामहे, एतावतैव परोपकारकर्तृत्वेन तीर्थकरत्वोपपत्तेः, तदेतन्न सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारयितव्यम्, तचेदम् सतां मनांस्यानन्दयति, युक्तिविकलत्वात्, यतः सम्यग्ज्ञानमन्तरेण से बंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च, एयं पासगस्स हिताहितप्राप्तिपरिहारोपदेशासम्भवो यथावस्थितैकपदार्थपरिच्छेदश्चन दंसणं, उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडम्भि। सर्वज्ञतामन्तरेणेति दर्शयितुमाह(सू० 121) जे एगंजाणइसे सव्वं जाणइ, जे सध्वं जाणइसे एग जाणइ। स-ज्ञानादिसहितो दुःखमात्रास्पृष्टोऽव्याकुलितमतिर्द्रव्यभूतो | (सू० 122) Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज 863 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीओसणिज्ज - यः-कश्चिदविशेषितः एकं--परमाण्वादि द्रव्यं पश्चात्- पुरस्कृतपर्याय स्वपरपर्यायं वा जानाति-परिच्छिनत्ति स सर्वं स्वपरपर्यायं जानाति, अतीतानागतपर्यायिद्रव्यपरिज्ञानस्य समस्तवस्तुपरिच्छेदाविनाभावित्वाद् / इदमेव हेतुहेतुमद्भावेन लगयितुमाह- 'जे सव्व' मित्यादि, यः सर्व संसारोदरविवरवर्ति वस्तु जानाति स एकं घटादि वस्तु जानाति, तस्यैवातीतानागतपर्यायभेदैस्तत्तत्स्वभावापत्त्याऽनाद्यनन्तकालतया समस्तवस्तुस्वभावगमनादिति / तदुक्तम्- "एगदवियस्स जे अ-त्थपज्जवा वयणपज्जवा वावि। तीयाणामयभूया, तावइयं तं हवइ दव्वं / / 1 / / " तदेवं सर्वज्ञस्तीर्थकृत, सर्वज्ञश्च सम्भविनमेव सर्वसत्त्वोपकारिणमुपदेशं ददातीति दर्शयतिसवओ पमत्तस्स भयं, सव्वओ अप्पमत्तस्स नत्थि मयं जे एगं नामे से बहुं नामे,जे बहुं नामे से एग नामे। दुक्खं लोगस्स जाणित्ता वंता लोगस्स संजोगं जंति धीरा महाजाणं, परेण परं जंति, नावकंखंति जीवियं / (सू० 223) सर्वतः- सर्वप्रकारेण द्रव्यादिना यद्भयकारि कर्मोपादीयते ततः प्रमत्तस्यमद्यादिप्रमादवतो भयं-भीतिः, तद्यथा- प्रमत्तो हि कर्मोपचिनोति द्रव्यतः सर्वैरात्मप्रदेशैः, क्षेत्रतः षड्दिग्व्यवस्थितं, कालतोऽनुसमयं, भावतो हिंसादिभिः, यदिवा-सर्वत्र-सर्वतो भयमिहामुत्र च, एतद्विपरीतस्य च नास्ति भयमिति / आह–च 'सव्वओ' इत्यादि, सर्वतः- ऐहिकामुष्मिकापायाद् अप्रमत्तस्य- आत्महितेषु जाग्रतो नास्ति भयं संसारापसदात्सकाशात्कर्मणा वा / अप्रमत्तता च कषायाभावाद्भवति, तदभावाचाशेषमोहनीयाभावः, ततोऽप्यशेषकर्मक्षयः, तदेवमेकाभावे सति बहूनामभावसम्भवः / (आचा० 1) 'दुक्ख' मित्यादि, 'दुःखम्' असातोदयस्तत्कारणं वा कर्म तत् 'लोकस्य' भूतग्रामस्य ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया च यथा तदभावो भवति तथा विदध्यात् / कथं तदभावः ? का वा तद भावे गुणावाप्तिरित्युभयमपि दर्शयितुमाह.. 'वंता' इत्यादिवान्त्वात्यक्त्वा लोकस्य-आत्मव्यतिरिक्तस्य धनपुत्रशरीरादेः संयोगममत्वपूर्वकं सम्बन्धं शारीरदुःखादिहेतु तद्धेतुकर्मोपादानकारणं वा यान्तिगच्छन्ति धीराः- कर्मबिदारणसहिष्णवः / यान्त्यनेन मोक्षमिति यानं-चारित्रं तचानेकभवकौटिदुर्लभं लब्धमपि प्रमाद्यतस्तथाविधकमोदयात् स्वपावाप्तनिधिसमतामवाप्नोत्यतो महच्छब्देन विशेष्यते, महच तद्यानं च महायानम् यदिवा- महद्यानं- सम्यग्दर्शनादित्रयं यस्य स महायानो-मोक्षस्तं यान्तीति सम्बन्धः / स्यात्-किमेकेनैव. भवेनावाप्त-महायानदेश्यचारित्रस्य मोक्षावाप्तिरुत पारम्पर्येण ? उभयथाऽपि ब्रूमः, तद्यथा- अवाप्ततधाग्यक्षेत्रकालस्य लघुकर्मणस्तेनैव भवेन मुक्त्यवाप्तिरपरस्य त्वन्यथेति दर्शयति- 'परेण पर' मित्यादि, सम्यक्त्वप्रतिषिद्धनरकगतितिर्यग्गतयो ज्ञानावाप्तियथाशक्तिप्रतिपालितसंयमा आयुषः क्षयात् सौधर्मादिकं देवलोकमवाप्नुवन्ति, ततोऽपि पुण्यशेषतया कर्मभूम्यार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्यारोग्यश्रद्धाश्रवणसंयमादिकमवाप्य विशिष्टतरं स्वर्गमनुत्तरोपपातिकपर्यन्त मधितिष्ठन्ति, पुनरपि ततश्च्युतस्यावाप्तमनुष्यादिसंयमभावस्याशेषकर्मक्षयान्मोक्षः,तदेवं परेणसंयमेनोद्दिष्टविधिना परंस्वर्ग पारम्पर्येणापवर्गमपि या न्ति, यदि वा-- परेण-- सम्यग्दृष्टिगुणस्थानेन परं-देशविरत्याद्ययोगिकेवलि-पर्यन्तं गुणस्थानकमधितिष्ठन्ति, परेण वाऽनन्तानुबन्धिक्षयेणोल्ल-सत्कण्डकस्थानाः परं-दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयक्षयं धातिभवोपग्राहिकर्मणां वा क्षयमवाप्नुवन्ति, एवंविधाश्च कर्मक्षपणोद्यता जीवितं कियद्गतं किं वा शेषमित्येवं नावकाङ्कन्ति, दीर्घजीवित्वं नाभिलषन्तीत्यर्थः, असंयमजीवितं वा नावकासन्तीति / यदिवा- परेण परं यान्तीत्युत्तरोत्तरां तेजोलेश्यामवाप्नुवन्तीति / उक्तं च-"जे इमे अज्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एए णं कस्स तेयलेस्सं बीईवयंति? गोयमा ! मासपरियाए समणे निग्गंथे वाणमन्तराणं देवाणं तेयलेस्संधीइवयइ, एवं दुमासपरियाए असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं, तिमासपरियाए असुरकुमाराणं देवाणं, चउमासपरियाए गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोइसियाणं देवाणं, पञ्चमासपरियाए चंदिमसूरियाणं जोइसिंदाणं जोइसराईणं तेउलेस्सं, छम्मासपरियाए सोहम्मीसाणाणं देवाणं, सत्तमासपरिआए सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं, अट्ठमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं, नवमासपरिआए महासुक्कसहस्साराणं देवाणं, दसमासपरियाए, आणयपाणय-आरणचुआणं देवाणं, एगारसमासपरियाए गेवेजाणं, बारसमासे समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेसं वीइवयइ, तेण परं सुक्के सुक्कभिजाई भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ / " यश्चानन्तानुबन्ध्यादिक्षपणोद्यतः स किमेकक्षयादेव प्रवर्त्तते उत नेत्याहएग विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ, पुढो वि, सङ्घी आणाए मेहावी लोगं च आणाए अभिसमिया अकुओभयं, अत्थि सत्थं परेण परं, नत्थि असत्थं परेण परं // (सू० x 124) एकम्- अनन्तानुबन्धिनं क्रोधं क्षपकश्रेण्यारूढः क्षपयन् पृथग्-- अन्यदपि दर्शनाधिक क्षपयति, बद्धायुष्कोऽपि दर्शनसप्तकं यावत्क्षपयति, पृथगन्यदपि क्षपयन्नवश्यमनन्तानुबन्धिनामकं क्षपयति पृथग्अन्यद् क्षयान्यथानुपपत्तेः, किं गुणः क्षपकश्रेणियोग्यो भवतीत्याह-- 'सङ्घी' इत्यादि, श्रद्धा--मोक्षमार्गाद्यमेच्छा विद्यते यस्यासौ श्रद्धावान् आज्ञया-तीर्थकरप्रणीतागमानुसारेण यथोक्तानुष्ठानविधायी मेधावीअप्रमत्तयतिः मर्यादाव्यवस्थितः श्रेण्यर्हो नापर इति / किं च- 'लोगं च' इत्यादि, चः समुच्चये, लोकं षड्जीवनिकायात्मकं कषायलोकं वा आज्ञया- मौनीन्द्रागमोपदेशेन अभिसमेत्य-ज्ञात्वा षड्जीवनिकायलोकस्य यथा न कुतश्चिन्निमित्ताद्भयं भवति तथा विधेयम् , कषायलोक-प्रत्याख्यानपरिज्ञानाच तस्यैव परिहर्न कुतश्चिद्भयमुपजायत इति, लोकं वा चराचरमाज्ञया-आगमाभिप्रायेणाभिसमेत्य न कुतश्चिदैहिकामुष्मिकापायसंदर्शन-तो भयं भवति / (आचा०।) एतदेव प्रतिसूत्रं लगायितव्यमित्याहजे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायादंसी. Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीओसणिज्ज ८९४-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीमंधर जे मायादंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पिज्जदंसी, जे | सीधु-न० (सीधु) मद्यभेदे, उपा० 8 अ० / जं०। पिज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी सीभर-त्रि० (सीभर) मुखेन सी इति शब्दं कुर्वनि, व्य० 3 उ० / से गन्मदंसी, जे गन्मदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से सीमंकर-त्रि० (सीमङ्कर) सीमा-मर्यादां करोति यमा एवं वर्तितव्यमेवं मारदंसी, जे मारदंसी से नरयदंसी,जे नरयदंसी से तिरिय नेति सीमङ्करः / रा० / मर्यादाकारिणि, स्था० 6 0 3 उ०। सूत्र० / दंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी। से मेहावी अभिणिवट्टिज्जा ज्ञा० जम्बूद्वीपे आगामिन्यामवसर्पिण्यामैरवते वर्षे भविष्यति द्वितीयंकोहं च माणं च मायं च लोभं च पिजं च दोसं च मोहं च गभं -कुलकरे, स० जम्बूद्वीपे भारते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते पञ्चदशानां च जम्मं च मारं च नर यं च तिरियं च दुक्खं च / एयं पासगस्स कुलकराणां चतुर्थे कुलकरे, जं०२ वक्ष०। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगादंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं निसिद्धा मिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति प्रथमे तीर्थकरे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सगडन्मि, किमत्थि ओवाही पासगस्स? न विजइ ? नऽस्थि सीमंत-पुं० (सीमन्त) प्रथमपृथिव्यां प्रथमप्रस्तट मध्यभागवर्त्तिनि वृत्ते त्ति बेमि / (सू० 125 ) नरकेन्द्रे, स०। यो हि क्रोधं स्वरूपतो वेत्ति अनर्थपरित्यागरूपत्वाज्ज्ञानस्य परिहरति सीमन्तए णं णरए पणयालीसं जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं च स मानमपि पश्यति परिहरति चेति / यदिवा:-. यः क्रोधं पण्णत्ते / (स०४५ सम० / स्था० / पश्यत्याचरति स मानमपि पश्यति, मानाध्मातो भवतीत्यर्थः, एवमुत्तर सीमंतगो णरगो रयणप्पभाए पुढवीए पढमो / नि० चू० 1 उ०। त्रापि आयोज्यं, यावत्स दुःखदर्शीति, सुगमत्वान्न विवियते / साम्प्रतं सीमंतगप्पम-पुं० (सीमन्तकप्रभ) रत्नप्रभायां पृथिव्यां सोममन्तकस्य क्रोधादेः साक्षान्निवर्त्तनमाह-'से' इत्यादि, स मेधावी अभिनिवर्तयेद् नरकेन्द्रकस्य पूर्वास्यां दिसि नरकेन्द्रके, "सीमन्तगप्पभो खलु व्यावर्त्तयेत्, किं तत् ? 'क्रोधमि' त्यादि यावद् दुःखं सुगमत्वाव्या निरओ सीमन्तगस्स पुव्वेणं" स्था०६ ठा० 3 उ०। ख्यानाभावः, स्वमनीषिकापरिहारार्थमाह 'एय' मित्यादि, एतद्अनन्तरोक्तमुद्देशकादेरारभ्य पश्यकस्य- तीर्थकृतो दर्शनम्-अभि सीमंतगमज्झिमअ-पुं० (सीमन्तकमध्यमक) सीमन्तस्य नरकेन्द्रप्रायः, किम्भूतस्य ? उपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकृतः, पुनरपि स्योत्तरनरकेन्द्रके, स्था०। किम्भूतोऽसौ ? 'आयाण' मित्यादि, आदान- कर्मोपादानां निषेध्य सीमन्तगमज्झिमओ उत्तरपासे मुणेयव्यो / स्था० 6 ठा० 3 उ० / पूर्वस्वकृतकर्मभिदसाविति / किं चास्य भवतीत्याह- "किमत्थी' | सीमंतगावसिट्ठ-पुं० (सीमन्तकावशिष्ट) रत्नप्रभायां प्रथमनरकेन्द्रत्यादि, पश्यकस्य - केवलिनः उपाधिः- विशेषणं उपाधीयत इति कस्य दक्षिणपार्श्ववर्तिनि नरकेन्द्रके, स्था० 6 ठा० / वोपाधिः, द्रव्यतो हिरण्यादिर्भावतोऽष्टप्रकारं कर्म, स द्विविधोऽप्यु- | सीमंतावत्त-पुं० (सीमन्तावत) सीमन्तस्य नरकेन्द्रकस्य पपश्चिमदिशि पाधिः किमस्त्याहोस्विन्न विद्यते ? नास्तीति, एतदहं ब्रवीमि, | नरकेन्द्रके, स्था०। सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं कथयति, यथा सोऽहं ब्रवीमि येन मया सीमन्तावत्तो पुण निरओ सीमन्तगस्स अवरणं। स्था०६ ठा० 3 उ०। भवगत्पादारविन्दमुपास(य) ता सर्वमेतदश्रावि तद्भवते तदुपदिष्टार्थानु सीमंतिऊण-अव्य० (सीमान्तयित्वा) विक्रीयेत्यर्थे, इति बृहत्कल्पसारितया कथयामि, न पुनः स्वमतिविकल्पशिल्परचनयेति / गतः चूर्णिकारः / बृ० 3 उ०। सूत्रानुगमः, तद्गतौ च समाप्तश्चतुर्थोद्देशकः / तत्समाप्तौ चातीतानाग सीमंतिणी-स्त्री० (सीमन्तिनी) सीमन्तः पासोऽस्या अस्तीति तनयविचारातिदेशात् समाप्तं शीतोष्णीयाध्ययनमिति / आचा० 1 सीमन्तिनी.। प्रवरयोषिति, आचा० 1 श्रु० 2 अ०४ उ०। श्रु० 4 अ० 1 उ०। सीमंधर-त्रि० (सीमन्धर) सीमां-मर्यादां पूर्वपुरुषकृतां धारयति नात्मना सीओसिणचाइन्-त्रि० (शीतोष्णत्यागिन्) सुखदुःखानभिलाषुके, विलोपयति यः स तथा / कृतमर्यादापालके, स्था० 6 ठा० 3 उ०। शीतोष्णरूपं वा परिसहमसहमाने, आचा० 1 श्रु०३ अ०१ उ० / ज्ञा०। रा० / औ० / जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां सीओसिणफाससह-त्रि० (शीतोष्णस्पर्शसह) शीतं चोष्णं च शीताष्ण भविष्यति द्वितीयकुलकरे, स्था० 10 ठा० 3 उ० / जम्बूद्वीपे ऐरवते तयोः स्पर्शस्ते सहते इति शीतोष्णस्पर्शसहः / शीतस्पर्णोष्णस्पर्श भविष्यति तृतीयकुलकरे, स०। महाविदेहस्य पूर्वविदेहे वर्तमाने तीर्थकरे, जनितवेदनामनुभवति, आचा० 1 श्रु० 3 अ० 1 उ०। आ० के०४ अ०। सीमन्धरस्वामिमातृनामादि, तथा महाविदेहे श्रीसीसीओसिणा-स्त्री० (शीतोष्णा) शीतोष्णरूपोभयस्पर्शपरिणामाया मन्धरस्वामिस्थाने यस्तीर्थकर उत्पत्स्यते तस्य किं नाम ? तथा तत्र वेदनायाम, प्रज्ञा०६ पद / प्रज्ञा०। वस्त्र-वर्णादिविधिः कथं ? तथा विहरमाणविंशतितीर्थकृतां मातापितृसीतंत-त्रि० (सीदत) संयमापसन्ने, “सीतंतो णाम जो थिरसंघ-यणो / ग्रामादिनामानि कुत्र शास्त्रे सन्तीति ? ||1|| अत्र महाविदेहे श्रीसीमन्धरधितिसंपण्णां हट्ठो पण उज्जमति खमणादि / नि० चू०१ उ०। स्वामिस्थाने उत्पत्स्यमानतीर्थकरनाम शास्त्रे दृष्ट नास्ति, तथा तत्र वस्त्र Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंधर 895 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीयपरिसह वर्णादिविधिरिहत्याजितादिद्वाविंशतितीर्थकृतामनुसारेणेति तथा-- | शिष्ये स्वदीक्षिते 'कुलचिए' त्ति स्वकुल सम्बन्धिनि संघसंबन्धिनि विहरमाणविंशतितीर्थकृतां मातापितृग्रामादिनामानि छुटितपत्रादौ व्यवहारे समदर्शी, किमुक्तं भवति-शिष्याणां कुलगण सघसम्बन्धिनां कथितानि सन्तीति। ही० 3 प्रका० / आव० / आ० क० / जम्बूद्वीपे च परस्परं व्यवहारे जाते समदर्शी तथा संस्तवेषु पूर्वसंस्तुतेषु भारते वर्षे जातानां पञ्चदशानां कुलकराणां चतुर्थे कुलकरे, जं०२ पश्चात्संस्तुतेषु चान्यैः समं व्यवहारे जाते समदर्शी अतः स संघः वक्ष०। सीतगृहोपमः यथा शीतगृहमाश्रितानां स्वपरविशेषाकरणतः सीमच्छेय-पुं० (सीमाच्छेद) मर्यादाकरणे, बृ० / सीमाच्छेदो नाम परितापहारि तथा व्यवहारार्थमागतानां संघोऽपि स्वपरविशेषाकरणतः साहिकानामार्द्धवाटकादिविभजनं यथा अस्यां साहिकायां भवद्भिः परितापहारीति भावः / व्य०३ उ० / पं० चू० / पर्यटनीयम् अस्यां पुनरस्माभिरित्यादि / यद्धाये तत्र क्षेत्रे समकं सीयच्छाय-त्रि० (शीतच्छाय) सर्वाविसंवादितया शीतत्वे, छायाशब्द प्राप्तास्तैः समच्छेदेन वक्तव्यं यथा युष्माकं सचित्तम् अस्माकम्, आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः / रा०। अचित्तम् अथवा-युष्माकमन्तः अस्माकं बहिः युष्माकं स्त्रियः अस्माकं सीयजोणिय-त्रि० (शीतयोनिक) शीतां वेदनां वेदयन्ति किं तु-उष्णा पुरुषाः, युष्माकं श्राद्धाः अस्माकम् अश्राद्धाः। अथवा-यो यल्लप्स्यते वेदना न वेदयन्ति ते हि शीतयोनिकाः / शीतयोनिस्थानिषु नारकेषु, तत्तस्यैव, न दातव्यम् / बृ० 3 उ० / व्य० / केवलं हिमानीप्रख्यशीतप्रदेशात्मत्वात्तदुत्पत्तिस्था-नानाम् / जी० सीमा-स्त्री० (सीमन्) पूर्वपुरुषकृताया मर्यादायाम्, स्था० 6 ठा०३ / 3 प्रति० 1 अधि० 2 उ०। उ०। सीमा मेरा मर्यादा इत्यनर्थान्तरम् / आ० चू० 1 अ०। रा०। सीयपरि(री)सह-पुं० [शीतपरि)(री)षह] शीतं शिशिरस्पर्शस्तदेव सीमागार-पुं० (सीमाकार) ग्राहभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा० / परीषहः शीतपरीषहः / शीताधिसहने, प्रव० / शीते महत्यपि पतति जीर्णवसनः परित्राणवर्जितो नाकल्प्यानि वासांसि गृह्णाति शीतत्राणाय, सीमाधर-सीमाधर--सीमां--मर्यादांधरतीति सीमाधरः। ध०२अधि०।। आगमोक्तेन विधिना एषणीयमेव कल्प्यादि गवेषयेत् परिभुजीत वा। ज्ञानादीनामविराधनाधारके श्रुतधर्मे, आव० 5 अ० / आ० चू०। नापि शीतार्तो ज्वलन, ज्वालयेत् अन्यज्वालितं वा नासेवेत एवमनुसीमाविक्खंभ-पुं० (सीमाविष्कम्भ) पूर्वापरतश्चन्द्रस्य नक्षत्र- तिष्ठता शीतपरीषहजयः प्रतो भवति। प्रव० 86 द्वार० / उत्त० / स०। मुक्तिक्षेत्रविस्तारे, स० 67 सम० / ('णक्खत्त' शब्दे चतुर्थभागे शीतादिसहनेऽपि यतिस्त्वग्व स्त्रत्राणवर्जितो यासोऽकल्प्यं न गृह्णीया१७७८ पृष्ठे दर्शितोऽयम् / ) दग्निं नो ज्वालयेदपि / आ० म०१ अ० / ध०। सीय-त्रि० (शीत) श्यायते- धातूतामनेकार्थत्वात्कठिनी-भवत्यस्मिन् तस्य च संयमानुष्ठाने परिव्रजतो यत्स्यात्तदाहजलादि इति शीतम्। उत्त०१ अ०। श्यैड्' गतौ इत्यस्य गत्यर्थत्वात् तं भिक्टुं सीयफासपरिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई कतरिक्तस्ततः "द्रवमूर्तिस्पर्शतोः" इति सम्प्रसारणे स्पर्शवाचित्वात् बूया-आउसंतो समणा ! नो खलु ते गामधम्मा उव्वाहंति ? "श्योऽस्पर्श' इति नत्वाभावे शीतम्। शिशिरस्पर्श, प्रव०८६ द्वार। आउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति, सू० प्र०। शृणातीति शीतम् / उत्त०२ अ०। प्रालेयाद्याश्रिते, कर्म० सीयफासं च नो खलु अहं संचाएमि अहियासित्तए, नो खलु 1 कर्म० / वेशद्यकृत्स्तम्भनस्वभावे, स्पर्शभेदे, स्था० 1 ठा० / मे कप्पइ अगणिकायं उजालित्तए वा पज्जालित्तए वा कार्य आत्यन्तिकहिमे, स्था०४ ठा०४ उ०। सूत्र० / शीतकाले, ज्ञा०१ आयावित्तए वा पयावित्ताए वा, अन्नेसिं वा वयणाओ सिया स श्रु०५ अ०। औ० / सूत्र० / उत्त० / रा० / अनुकुले, स्था०६ ठा० एवं वयंतस्स परो अगणिकायं उज्जालित्ता पजालित्ता कायं 3 उ०। ('सीओसणिज्ज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे शीतनिक्षेप उक्तः / ) आयाविज वा पयाविज वा, तं च भिक्खु पडिलेहाए आगमित्ता सीयघर-न० (शीतगृह) चक्रवर्त्तिनस्तथाविधे मृहे, शीतगृहं नाम आणविजा अणासेवणाए त्ति बेमि / (सू० 210) वर्द्धकिरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम्, तत्र च वर्षास्वनिर्वातप्रवातं शीतकाले तम्-अन्तप्रान्ताहारतया निस्तेजसं निष्किञ्चनं भिक्षणशीलं भिक्षुमसोमं ग्रीष्मकाले शीतलं यथा च तच्चक्रवर्तिनः सर्वत॒क्षमं तथा / तिक्रान्तसोष्मयौवनावस्थं सम्यक्त्वक्वाणाभावतया शीतस्पर्शपरिद्रमकादेरपि प्राकृतपुरुषस्य तत्सर्वर्तुक्षममेव भवति / बृ० 1 उ०३ वेपमानगात्रम् उपसंक्रम्य-आसन्नतामेत्य गृहपतिः- ऐश्वर्योष्मानुगतो प्रक०। मृगनाभ्यनुविद्धकश्मीरजवहलरसानुलिप्तदेहो मीनमदागुरुघनसारसीसो पडिच्छतो वा, कुलगणसंघो वएति इह लोए। धूपितरल्लिकाच्छादितवपुः प्रौढसीमन्तिनीसन्दोहपरिवृतो वार्तीभूतजे सचकरणजोगा, ते संसारा विमोएंति // 33 // शीतस्पर्शानुभवः सन् किमयं मुनिरुपहसितसुरसुन्दरीरूपसम्पदो मत्सीमन्तिनीरवलोक्य सात्त्विकभावोपेतः कम्पते उतशीतेनेत्येवं सुगमा - संशयाना ब्रूयात् भो आयुष्मन् ! श्रमण! कुलीनतामात्मन आविर्भावयन् शीतगृहसमः संघ इत्युक्तं तत्र शीतगृहसमतां व्याख्यानयति प्रतिषेधद्वारेण प्रश्नयति-नो भवन्तं ग्रामधर्माः-विषया उत्-प्राबल्येन सीसे कुलचिए य, गणचिय संघचिए य समदरिसी। बाधन्ते ? एवं गृहपतिनोक्ते विदिताभिप्रायः साधुराह-अस्य हि ववहारसंथवेसु य, सो सीयघरोवमो संघो // 336 / / ग्रहपतेरात्मसवित्त्याऽऽङ्गनावलोकनाऽऽविष्कृतभावस्यासत्याश Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयपरिसह 896 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीयपरिसह ऽभूद् अतोऽहमस्यापनयामीत्येवमभिसन्धाय साधुर्वभाष आयुष्मन् ! गृहपते! 'नो खलु' नैव ग्रामधा मामुद्राधन्ते, यत्पुनर्वपमानगात्रयष्टिं मामीक्षांचकृषे तच्छीतस्पर्शविजृम्भितं, न मनसिजविकारः, शीतस्पर्शमहं न खलु शक्रोम्यधिसोढुम्, एवमुक्तः सन् भक्तिकरुणारसाक्षिप्तहृदयो ब्रूयात्-- सुप्रज्वलितमाशुशुक्षणिं किमिति न सेवसे ? | महामुनिराह- भो गृहपते ! न खलु मे कल्पतेऽनिकायं मनाग ज्वालयितुम् उज्जवालयितु प्रकर्षेण ज्वालयितुंप्रज्वालयितुंस्वतो ज्वलितादौ कार्य-शरीरमीषत् तापयितुमातापयितुंवा प्रकर्षेण तापयितुं प्रतापयितुं वा, अन्येषां वा वचनात् ममैतत्कर्तुं न कल्पते, यदिवाऽग्निसमारम्भायान्यो वा वक्तुं न कल्पते ममेति / तं चैवं वदन्तं साधुमवगम्य गृहपतिः कदाचिदेतत्कुर्यादित्याह- स्यात्- कदाचित्स-परो गृहस्थ एवमुक्तनीत्या वदतः साधोर-ग्निकायमुज्वालय्य प्रज्वालय्य वा कायमातापयेत् प्रतापयेगा, तबोज्ज्वालनातापनादिकं भिक्षुः प्रत्युपेक्ष्य-- विचार्य स्वसन्मत्या परव्याकरणेनान्येषां वाऽन्तिके श्रुत्वा अवगम्य ज्ञात्वा तं गृहपतिमाज्ञापयेत्- प्रतिबोधयेत् कया ? अनासेवनया, यथैतत् ममायुक्तमासेवितुं, भवता तु पुनः साधुभक्त्यनुकम्पाभ्यां पुण्यप्राग्भारोपार्जनमकारीति, ब्रवीमीतिशब्दावुक्तार्थी / आचा० 1 श्रु०८ अ०४ उ०। शीते महत्यपि पतति जीर्णवसनः परित्राणवर्जितो नाकल्प्यानि वासांति गृह्णीयात् परिभुजीत वा नापि शीतार्तोऽग्निं ज्वालयेदन्यज्वालितं वा नासेवेत / आव० 4 अ०। एतदेव सूत्रकृदाहचरंतं विरयं लूहं, सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे, सोचा थे जिणसासणं // 6|| तत्परीषहमाह - चरंतं विरयं लूह, सीयं फुसइ एगया / नाइवेलं विहन्निज्जा, पावदिट्ठी विहन्नइ / / 6 / / (सू०) व्याख्या- 'चरन्तम्' इति ग्रामानुग्रामं मुक्तिपथे वा व्रजन्तं, धर्ममासेवमानं वा, विरतम्- अग्निसमारम्भादेर्निवृत्तं विगतरतं वा 'लूह' ति स्नानस्निग्धभोजनादिपरिहारेण रूक्ष, किमित्याह-शृणाति इति शीतं, स्पृशति-अभिद्रवति, चरदादिविशेषणविशिष्टो हि सुतरां शीतेन बाध्यते, 'एकदे' ति शीतकालादौ प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ वा, नतः, किम् ? 'न' नैव वेला सीमा मर्यादा सेतुरित्यनर्थान्तरं ततश्चातीति शेषसमयेभ्यः स्थविरकल्पिकापेक्षया जिनकल्पिकापेक्षया च स्थविर-कल्पाचातिशायिनी वेला शक्त्यपेक्षतया च सर्वथानपेक्षतया च शीतसहनलक्षणा मर्यादा तां विहन्यात् / कोऽर्थः ? अपध्यानस्थानान्तरसर्पणादिभिरतिक्रामेत, किमेवमुपदिश्यत इत्याहपासयति पातयति वा भवावर्त इति पापा, तादृशी दृष्टि:-बुद्धिरस्येति पापदृष्टिः 'विहन्नइ' इति सूत्रत्वाद्विहन्ति- अतिकामत्यतिवेलामिति प्रक्रमः / अयमत्र भावार्थः- पापदृष्टिरेवोक्तरूपमर्यादातिक्रमकारी, ततःपापबुद्धिकृतत्वादस्य सद् बुद्धिभिः परिहारो विधेयः, पठ्यते च "नाइवेल मुणी गच्छे, सुच्चा णं जिणसासणं' तत्र वेला स्वाध्यायादि- समयात्मिका तामतिक्रम्य शीतेनाभिहतोऽहमिति मुनिः- तपस्वी न गच्छेत्-स्थानान्तरमभिसप्त्, 'सोचे' ति श्रुत्वा णमिति वाक्यालङ्कारे जिनशासन-जिनागमम् अन्यो जीवोऽन्यश्च देहस्तीव्रतराश्च नरकादिषु शीतवेदनाः प्राणिभिरनुभूतपूर्वा इत्यादिकमिति सूत्रार्थः // 6 // अन्यच - ण मे णिवारणं अत्थि, छवित्ताणं न विजइ / अहं तु अग्गि सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए / 7 / / न'मे' मम नितरां वार्यते--निषिध्यतेऽनेन शीतवातादीति निवारणं.. सौधादि अस्ति- विद्यते, तथा छविः-त्वक् त्रायते- शीतादिभ्यो रक्ष्यतेऽनेनेति छवित्राणं-वस्त्रकम्बलादिन विद्यते, वृद्धास्तु निवारणंवस्त्रादि तथा छविः- त्वक् त्राणं न विद्यते- न भवति, असौ हि शीतोष्णादीनां ग्राहिकेति व्याचक्षते अतः 'अह' मित्यात्मनिर्देशः, तुः पुनरर्थः, तद्भावना च येषां निवारणं छवित्राणं वा समस्ति ते किमित अग्नि सेवेयुः ? अहं तु तदभावादत्राणः तत्किमन्यत्करोमीत्यग्निं सेवे 'इती' त्येवं भिक्षुः-- यतिः न चिन्तयेत्-न ध्यायेत्, चिन्तानिषेधे च सेवनं दुरापास्तमिति सूत्रार्थः / 7 / / इदानीं लयनद्वारं, तत्र च 'नातिवेलं मुनिर्गच्छेदि' त्यादिसूत्रावयवसूचितं दृष्टान्तमाह रायगिहम्मि वयंसा, सीसा चउरो उ भद्दबाहुस्स / वेभारगिरिगुहाए, सीयपरिगया समाहिगया ||1|| राजगृहे नगरे वयस्याः शिष्याश्चत्वारस्तु भद्रबाहोर्वैभारगिरिगुहायां शीतपरिगताः-समाधिगता इत्यक्षरार्थः ||1|| भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः- तच्चेदम् "रायगिहे णयरे चत्तारि वयंसा वाणियगा सहवड्डियया, ते भद्दबाहुस्स अंतिए धम्म सोचा पव्वइया, ते सुयं बहु अहिन्जित्ता अन्नया कयाइ एगल्लविहारपडिम पडिवन्ना, ते समावत्तीए विहरता पुणोवि रायगिहं नयरं संपत्ता / हेमंतो य वति, ते य भिक्खं काउं तइयाए पोरिसीए पडिनियत्ता, तेसिंच वेभारगिरितेणं गंतव्वं / तत्थ पढमस्स गिरिगुहादारे चरिमा पोरिसी ओगाढा, सो तत्थेव ठिओ / बिझ्यस्स उजाणे, ततियस्स उजाणसमीवे, चउत्थस्स नगरब्भासे चेव / तत्थ जो गिरिगुहन्भासे तस्स निरागं सीयं सो सम्मं सहतो खमंतो अ पढमजामे चेव कालगतो। एवं जो नगरसमीवे सो चउत्थे जामे कालगतो, तेसिं जो नगर भासे तस्स नगरुण्हाए न तहा सीअंतेण पच्छा कालगतो, ते सम्म कालगया। एवं सम्म अहियासियव्वं जहा तेहिं चउहिं अहियासियं"। उत्त० 2 अ० / अत्र भद्रबाहुशिष्याणं कथाः- राजगृहे नगरे चत्वारो वयस्या वणिजः श्रीभद्रबाहुगुर्वन्तिके प्रवृज्य श्रुतं चाधीत्य एकाकित्वं प्रतिमया विहरन्तस्तत्रैव ईयुः, तदा हेमन्त आसीत् / ते च भिक्षाभोजनमादाय तृतीयपौरुष्यां निवर्तन्ते पुरात् पृथक् / तेषामेकस्य चरसपौरुषीवैभाराद्रिगुहाद्वारे अवगाढा तत्रैव सोऽस्थात् द्वितीयः पुरोद्याने, तृतीयस्तु उद्यानसमीपे, चतुर्थस्तु पुराऽभ्यर्णे। तत्र यो वैभाराद्रिगुहासन्नः स महासीव्यथितो रजन्या आद्ययामे मृतः, उद्यानस्थो द्विती० Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयपरिसह 867- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीयल यमाने मृतः, उद्यानासन्नस्तृतीये यामे मृतः, पुरासन्नस्तु पुरोष्मणाऽल्पशीतत्वेन चतुर्थे प्रहरे मृतः / सर्वेऽप्येते साधवो विपद्य दिवं जग्मुः शीतपरिषहः सोढव्यः / उत्त०२ अ०। सीयपरिसहविजय-पुं० (शीतपरिषहविजय) महत्यपि शतिपतति परित्यक्ताकल्पनीयवाससः प्रवचनोक्तेन विधिना कल्पनीयवासांसि परिभुजानस्य वृक्षवदनवधारितालयविशेषस्य क्षमूले पथि शून्यागारेऽन्यत्र वा क्वापि निवसतो हिमानीकण-सम्मिश्रशीतानिलसंमिश्रेऽपि तत्प्रतीकारहेतूपादानं प्रति निवृत्तेच्छस्य पूर्वानुभूतशीतप्रतीकारहेतूनस्मरतः सम्यग्भावनागर्भशीतसहने, पं० सं०४ द्वार। सीयपिंड-पुं० (शीतपिण्ड) शीतः शीतलः पिण्ड आहारः, शीतश्चासौ पिण्डश्च शीतपिण्डः | शाल्यादिपिण्डे, "पंताणि चेव सेविजा, सीयपिण्ड पुराणकुम्मासं / " आचा०१ श्रु०६ अ० 4 उ० / सीयप्पवायदह-पुं० (शीताप्रपातहद) यत्र नीलवतः शीतानिपतति यत्र चत्वार्यशीत्यधिकानि योजनशतानि आयामविष्कम्भः पञ्चदशाष्टादशोत्तराणि विशेषन्यूनानि परिक्षेपेण यस्य च मध्ये शीताद्वीपः चतुष्षटियोजनायामविष्कम्भो व्युत्तरयोजन-शतद्वयपरिक्षेपः जलान्तात् द्विक्रोशोच्छ्रितः शीतादेवीभवनेन विभूषितोपरितनभागः स शीताप्रपात हृद इति / शीतादेव्या निवासभूते शीतानद्या जलप्रपातस्थाने, स्था० २ठा०३ उ०। सीयफास-पुं० (शीतस्पर्श) शीतापादितदुःखविशेषे, आचा०१ श्रु०८ अ०४ उ० / शीतले, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। सीयफासणाम-न० (शीतस्पर्शनामन्) नामकर्मभेदे, यदुदायाजन्तुशरीरं शीतं शीतलं मृणालादिवद् भवति तत् शीतस्पर्शनाम / कर्म०१ कर्म०। सीयल-त्रि० (शीतल) शीतवेदनोत्पादके, स्था०४ ठा०४ उ०। आ० म०। औ०। चन्द्रं सूर्यं वा गृह्णतो राहोः कृष्णपुद्गलः एकः शीतलः। चं० प्र० 20 पाहु० / दशमे तीर्थकारे, सम्प्रति शीतलः सकलसर्वसंतापकरणविरहादाह्रादजननाचशीललः, तत्र सर्वेऽपि भगवन्तः शत्रूणां मित्राणां चोपरि समानास्ततः शेषमाहपिउणो दाहोवसमो, गब्भगए सीयलो तेणं / भगवतः पितुः पूर्वोत्पन्नोऽसदृशः पित्तदाहोऽभवत् स चौषधैर्नानाप्रकारैर्नोपशाम्यति, भगवति तु गर्भगते देव्या परामर्श स दाह उपशान्तस्तेन शीतल इति नाम। आ० म०२ अ०। ध०। प्रव / आ० चू० / स० / कल्प० / (अस्य वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2260 पृष्ठे गता।) शीतलस्य अशोका देवी / प्रव०७ द्वार / सीयल(ग)-पुं० [शीतल)(क)] स्वनामख्याते नृपतौ, शीतलको नृपतिः परित्यक्तराज्यसमृद्धिः गृहीतसर्वज्ञंदीक्षोऽक्षुणेन तदीयगुणेन प्रमोदमानमानसैनिजगुरुभिर्विश्राणितश्रमणानन्दादिसूरिपदो द्रव्यभावभेदभिन्ने वन्दनके उदाहरणम् / तत्कथा चैवम् - "अवनीवनिताभाल-तिलके श्रीपुरे पुर / प्रतापाक्रान्तदिक्चक्रः, क्ष्मापालः शीतलोऽजनि // 1 // सर्वज्ञशासनक्षीर-नीरधौ सद्गनिस्तुतः। शुद्धपक्षद्वयो राज-हंसः क्रीडति यः सदा / / 2 / / तस्याभूद्भगिनी भाग्य- सौभाग्यैकनिकेतनम्। सद्धर्मकर्मनिर्माण-परा शृङ्गारमञ्जरी // 3 // सा च विद्युभसिंहस्य, राज्ञी जाता जगत्पतेः / सल्लक्षणे क्रमात्पुत्र- चतुष्टयमजीजनम् // 4 // शीतलश्च महीपाल-श्वारुवैराग्यरङ्गितः। श्रीधर्मघोषसरीणा-मन्तिके व्रतमग्रहीत् / / 5 / / तं च विज्ञातसिद्धान्त- तत्त्वं गीतार्थशेखरम्। गुरवस्तद्गुणैस्तुष्टाः, स्वपदेऽथ न्यबीविशन् / / 6 / / अन्येधुर्निजपुत्राणां, कलाकौशलशालिनाम् / शृङ्गारमञ्जरी राज्ञी, रहस्येवमवोचत् // 7 // वत्सास्त्वदीय एवैकः, श्लाघ्यो जगति मातुलः / येन साम्राज्यमुत्सृज्य, जगृहे व्रतमुत्तमम् // 8 // यश्च निःशेषशास्त्राब्धि-पारदृश्वा मुनीश्वरः / निस्सङ्ग विहरन्नित्यं, प्रबोधयति देहिनः / / 6 / / पचेलिमं यथाग्राही, संसारस्यामुना फलम् / तथा वत्सास्तदादातुं, भवतामपि युज्यते / / 10 / / यतःकोटिशो विषयाः प्राप्ताः, संपदश्च सहस्रशः। राज्यं च शतशो जीव-र्न च धर्मः कदाचन // 11 // इत्थं मातुर्वचः श्रुत्वा, संविग्ना जनकं निजम् / तेऽनुज्ञाप्याहतीं दीक्षा, जगृहुः स्थविरान्तिके // 12 // संजातास्ते च गीतार्था, वन्दितुं निजमातुलम् / अवन्त्यां च गताः सायं, तद्राह्यायामवस्थिताः // 13 // अथ गन्ता पुरीमध्ये, श्रावकः कोऽपि तगिरा। श्रीशीतलमुनीन्द्राय, तत्स्वरूपं न्यवेदयत् // 14 // इतश्वशुभेनाध्यवसायेन, तेन तेन महात्मनाम् / तेषां निशि समुत्पन्नं, चतुर्णामपि केवलम् // 15 // ततश्च कृतकृत्यत्वा-द्यावत्तत्रैव ते स्थिताः। प्रभाते नागमंस्ताव- दुत्कः श्रीशीतलोऽजनि / / 16 / / अहो दुष्टा अमी शैक्षा, निर्लजा इत्यवेत्य सः। क्रोधाध्मातो ददौ तेषां, चतुर्णामपि वन्दनम् // 17 // यामादूर्ध्व स्वयं तेषा–मन्तिकेऽसौ गतस्ततः / अनादरपरांस्तांश्च, वीक्ष्य संस्थाप्य दण्डकम् // 18 // ऐर्यापथीं प्रतिक्रम्य, समालोच्यैवमभ्यधात् / वन्देऽहं भवतो ह्यत्र, समागत्यापि सांप्रतम् / / 16 / / कषायकण्टकारूद, तमूचुस्ते त्वया पुरा / द्रव्यतो वन्दनं दत्त-मिदानीं देहि भावतः // 20 // किमेतदिति जानन्ति, भवन्त इति सोऽब्रवीत्। तेऽपि तं प्रत्यवोचन्त, जानीमो नितरामिदम् / / 21 / / आचार्यः कथमित्याह, तेऽप्याहुनितः स च / यतीति कीदृशात्ते च, ब्रुवन्त्यप्रतिपातितः // 22 // रापनाशातिता, एते, मया केवलिनो हहा। इत्थं निन्दनिवृत्तोऽसौ, कण्टकस्था तस्ततः / / 23 / / क्रमात्तेषु चतुर्थाय, ददतस्तस्य वन्दनम्। केवलज्ञानमुत्पन्न- मपूर्वकरणादिना // 24 // Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीयल 898 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सील द्रव्यतो वन्दनं पूर्वं , कषायोपेतचेतसः। उत्तरस्यांनीलवतो वक्षस्कारपर्वतस्य दक्षिणे पूर्वलवणसमुद्रस्य पश्चिमे, जज्ञे पश्चात्ततस्तस्य, शान्तस्वान्तस्य भावतः // 25 // " पुष्कलावतीविजयक्षेत्रस्य पूर्व स्वनामख्याते वने, जं० प्रव०२ द्वार / कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सीआए सीयलगत्तया-स्त्री० (शीतलगात्रता) अङ्गोपाङ्गानां शीतलस्पर्श, बृ० महाणईए दाहिणिल्ले सीयामुहवणे णामं वणे पण्णत्ते ? एवं 3 उ०। जह चेव उत्तरिल्लं सीआमुहवणं तह चेव दाहिणं पि सीयलविहारि-पुं० (शीतलविहारिन) नित्यवासित्वादिना शिथि भाणिअव्वं, णवरं णिसहस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं सीआए लाचारे, आव० 1 अ०। महाणईए दाहिणेणं पुरत्थिमलवणसमुहस्स पचत्थिमेणं वच्छस्स विजयस्स पुरस्थिमणं एत्थ णं जम्बूहीवे दीवे सीयलिया-स्त्री० (शीतलिका) शीतस्पर्शायां लूतायाम्, आ० म०१ महाविदेहे वासे सीआए महाणईए दाहिणिल्ले सीआमुहवणे अ० / नहि लूतादिकं शीतलिकाभिधानान्तरमात्रेणान्यथात्वं भजते / णामं वणे पण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए तहेव सव्वं णवरं णिसहवाससूत्र०१ श्रु०११ अ०। हरपव्वयत्तेणं एगमेगूणवीसइभागंजोअणस्स विक्खम्भेणं किण्हे सीयलेस्सालद्धि-स्त्री० (शीतलेश्यालब्धि) अगण्यकारुण्यवशादनु किण्होभासे०जाव महया गन्धद्धर्णि मुअंतेजाव आसयन्ति ग्राह्यं प्रति तेजोलेश्याप्रशमनप्रत्यलशीतलेजोविशेषविमोचनसामर्थ्य, उमओ पासिं दोहिं पउमवरवेइ आर्हि वणवण्णओ इति / प्रव० / यथा भगवतो महावीरस्य पुरा किल गोशालकः कूर्मग्रामे "कहि ण" मित्यादि, क्व भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे महाविदेहे वर्षे करुणारसिकान्तः करणतया स्नानाभावाविभूतप्रभूतयूकासंतति शीतामहानद्या दाक्षिणात्यं शीतामुखवनं शीतानिषध-मध्यवर्तीत्यर्थः, तायिनं वैशिकायनं बालतपस्विनमकारणकलहकलनतया अरे यूकाश अतिदेशसूत्रत्वेनोत्तरसूत्र स्वयं भाव्यं, परं वच्छस्य विजयस्यय्यातरेत्याद्ययुक्तोक्तिभिः कोपाटोपाध्मायमानमानसमकरोत्, तदनु विदेहद्वितीयभागाद्यविजयस्य पूर्वत इति / जं०४ वक्षः। वैशिकायनस्तस्य दुरात्मनो दाहाय वज्रदहनदेश्यां तेजोलेश्यां विससर्ज। तत्कालमेव च भगवान्वर्द्धमानस्वामी प्रगुणितकरुणस्तत्प्राणत्राणाय सीयावण-न० (शीतापन) शीतकरणे, नि० चू० 1 उ० / प्रचुरपरितापोच्छेदछेकां शीतलेश्याममुचदिति / प्रव० 270 द्वार / सीरकंता-स्त्री० (सीरकान्ता) मूर्च्छनाविशेषे, स्था०७ ठा०३ उ० / पा० / स्था०। सीरि-पुं० (सीरिन्) बलदेवे, को०।। सीयवेगमहण-न० (शीतवेगमथन) आतपेन शीतवेगनिवारणे, कल्प०] सील-न० (शील) शील-समाधौ धातोर्घञ् / नपुंकत्वे शीलत्वे 1 अधि०३ क्षण। शीलम् / आ० चू०१ अ०। समाधाने, विशे०। स्था०। तं०व्रतादिसीया-स्त्री० (सीता) जम्बूद्वीपे मेरोरुत्तरे नीलवतो वर्षधरपर्वतस्य समाधाने, आव० 4 अ० / प्रश्न०। यमनियमरूपे, सूत्र०१ श्रु०६ केशरहदान्निर्गतायां महानद्याम्, स्था० शीता महानदी केशरहदस्य अ०। क्रोधाद्युपशमरूपे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। अनुष्ठाने, सूत्र०२ श्रु० दक्षिणतोरणेन विनिर्गत्य कुण्डे पतित्वा मेरोः पूर्वतः पूर्वविदेहमध्येन 10 / व्रतविशेष, सूत्र०२ श्रु०२अ०। शीलमुत्तरगुणाःज्ञा० 1 श्रु० विजयद्वारस्याधः पूर्वसमुद्रं शीतोदानामानं प्रविशतीति / स्था० 2 7 अ० / प्रव० / आ० म० / आ० चू०पशीलान्यणुव्रतानि / उपा० 2 ठा०३ उ० / पश्चिमरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम, जं० अ० / परद्रोहविरतौ, दश०६ अ० 1 उ०। उद्युक्तविहारित्वे, सूत्र० 5 वक्ष० / आ० क० ! आ० म० / रा० ! औ० / प्रश्न० भ० / १श्रु०१३ अ० / चारित्रे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। सूत्र० / दश०। 'ईषत्प्राग्भारायां पृथिव्याम्, आ० म०१ अ०। लाङ्गलपद्धतौ, आ० निक्षेपः -- म०२ अ०1 पुरुषोत्तमस्य चतुर्थ-वासुदेवस्य मातरि, आव०१ अ०। सीले चउक दवे, पाउरणाभरणभोयणादीसु / शिविकापुरुष-सहस्रवहनीयकूटाकारशिखराच्छादिते जम्पानविशेषे, भावे उ ओहसीलं, अभिक्खमासेवणा चेव // 86|| प्रव०६ द्वार / भ० / तीर्थकृतां 24 शिविकाः 'तित्थयर' शब्दे शीले-शीलविषये निक्षेपे क्रियमाणे 'चतुष्क' मिति नामादिश्चतुर्धा चतुर्थभागे 2278 पृष्ठे गताः।) निक्षेपः, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य 'द्रव्यम्' इति द्रव्यशीलं सीयाकूड-पुं०-न० (शीताकूट) नीलवर्षधरपर्वतस्य चतुर्थे कूटे, प्रावरणाभरणभोजनादिषु द्रष्टव्यम् / अस्यायमर्थ-यो हि फलनिस्था०२ ठा० 3 उ०। जम्बूमन्दरस्य उत्तरे नीलवन्तवर्षधरपर्वतस्य रपेक्षस्तत्स्वभावादेय क्रियासु प्रवर्ततेस तच्छीलः। तत्रेह प्रावरणशील स्वनामख्याते चतुर्थे कूटे, स्था०२ ठा० 1 उ०। महाविदेहे माल्यवतो इति प्रावरणप्रयोजनाभावेऽपि ताच्छील्यान्नित्यं प्रावरणस्वभावः; वक्षस्कारपर्वतस्य सीतासरित्सुरीकूटे, जं० 4 वक्ष० / प्रावरणे वा दत्तावधानः, एवमाभरणभोजनादिष्वपि द्रष्टव्यमिति / यो सीयाण-न० (श्मशान) शवदाहस्थाने, व्य०७ उ० / वा यस्य द्रव्यस्य चेतनाचेतनादेः स्वभावस्तद् द्रव्यशीलमित्युच्यते, सीयायवतत्त-त्रि० (शीतातपतप्त) रात्रौ शीतेन दिवाऽऽतपेन रसशोखं भावशीलं तु द्विधा- ओघशीलम्, आभीक्ष्ण्यसेवनाशीलं चेति / प्रापिते, जं० 2 वक्ष०। तत्रौघशीलं व्याचिख्यासुराह - सीयामुहवण-न० (शीतामुखवन) महाविदेहे वर्षे शीताया महानद्या | ओहे सीलं विरती, विरयाविरई य अविरतीऽसीलं / Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीण 896 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सील धम्मे णाणतवादी, अपसत्थ अहम्मकोवादी / / 7 / / निहभेयणी य अणवरयं / जत्थ पयट्टइ विगहा तमणाययणं महापावं सामान्य सामान्येन सावधयोगविरतो विरताविरतो वा शीलवान् // 1 // " इति प्रथम शीलम् / तथा "वर्जयति परगृहप्रेवशनमन्येषां भण्यते, तद्विपर्यस्तोऽशीलवानिति / आभीक्ष्ण्यसेवायां तु- अनवरत- मन्दिरेषु गमनमकार्ये गुरुतरकार्याभावे नष्टविनष्टादावाशङ्कासंभवादिति सेवनायां तु शीलमिदम्, तद्यथा-धर्मेधर्मविषये प्रशस्तं शीलं यदुता द्वितीयं शीलम् / तथा नित्यं सदाऽनुद्भटवेषोऽनुल्वणनेपथ्यो भवति नवरतापूर्वज्ञानार्जनं विशिष्टतपःकरणं वा, आदिग्रहणादनवरताभि भावश्रावक इति तृतीयं शीलम् / न भणति न ब्रूते सविकाराणिरागद्वेषग्रहणादिकं परिगृह्यते। अप्रशस्तभावशीलं स्वधर्मप्रवृत्तिर्बाह्या, आन्तरा विकारोत्पत्तिहेतुभूतानि वचनानि वाच इति चतुर्थं शीलम्। तथा परितु क्रोधादिषु प्रवृत्तिः, आदिग्रहणात्- शेषकषायाश्चौर्याभ्याख्यान हरति न सेवते बालक्रीडां बालिशजनविनोदव्यापारं द्यूत्तादिकमिति कलहादयः परिगृह्यन्त इति। पञ्चमं शीलम् / तथा साधयतिनिष्पादयति कार्याणिप्रयोजनानि "सीलं नियकुलनहयल-ससि व्व कित्ती पयासए भुवणे / मधुरनीत्या सामपूर्वकं "सौम्य ! सुन्दरैवं कुरुष्वे" त्यादिनेति षष्ठं सुरनरसिवसुहकरणं-पालेयव्वं सया सीलं / / 108 / / शीलम् / इति पूर्वोक्तप्रकारेण षविधशीलयुतो विज्ञेयः शीलवानत्र श्रावकविचार इति / जाइकुलरूवबलसुय-विनाविन्नाण बुद्धिरहिया वि। संप्रत्येतदेव शीलषट्कं व्याख्यानयन् प्रथमं शीलं आयतनलक्षणं सव्वत्थ पूयणिज्जा निम्मलसीला नरा हुंति / / 106 / / गाथापूर्वार्द्धन गुणोपदर्शनपूर्वकं भावयतितं पुण सीलं दुविहं, देसे सव्वे य होइ नायव्वं / आययणसेवणाओ, दोसा निअंति वड्डइ गुणोहो / देसे गिहीण दंसण-मूलाणि दुवालस वयाणि // 110 / / आयतनमुक्तस्वरूपं तस्य सेवनादुपासनाघोषा मिथ्यात्वादयः क्षीयन्ते साहूण सव्वसील, जं सीलंगाण अट्ठदससहस्सा / हीयन्ते क्षयं यान्तीति भावः- वर्द्धते वृद्धिमुपैति गुणौधो ज्ञानादिबुज्झंति निरइयारा, जावजीवं अविस्सामं // 111 // गुणकलापः, सुदर्शनस्येव / ध०२०। इत्युक्तः शीलवतोऽनुगटवेष इति लघुकम्मा गुरुसत्ता-सत्ता विसमावईसु पत्ता वि। तृतीया भेदः / (सविकारवचनवर्जनरूपश्चतुर्थभेदः 'सवियारवयणवजण' मणवयणतणुविसुद्धं, सीलं पालंति सीय व्व // 11 // " शब्दे तत्कथानकं च 'मित्तसेण' शब्दे उक्तम् / ) ध० 0 2 अधि०६ क्षण / (कुशीलसुशीले 'कुसील' शब्दे संप्रति बालक्रीडापरिहाररूपं पञ्चमं भेदम्तृतीयभागे 611 पृष्ठ उक्ते।) सर्वसंवरे, आ० म० 2 अ० / अष्टादश भिधित्सुर्गाथापूर्वार्द्धमाहसहसभेदसंख्ये संयमे, आचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०। उत्त। संथा० / बालिसजणकीला वि हु, मूलं मोहस्सऽणत्थदंडाओ। मद्यमांसनिशाभोजनादिपरिहाररूपे आचारे, उत्त० 14 अ० / व्यवहारे, बालिशजनक्रीडाऽपि बालजनाचरितक्रीडाऽपि द्यूतादिरूपै। ध०१ अधिः। संघा० / जं० / शीलमष्टादशशीलाङ्गसहरनसंख्यं, यदि उक्तं च - वा- महाव्रतसमाधानं पञ्चेन्द्रियजयः कषायनिग्रहः त्रिगुप्तिगुप्तता चैतत् चउरंगसारिपट्टिय- वट्टाईलावयाइजुद्धाई। शीलम्। आचा० 1 श्रु०६ अ०४ उ० / शीलं सदाचारो विरतसम्यग पणहतरज(म)म्म गाई-पहेलियाईहि नो रमइ ।।१।।(इति) दृशाविरतिमतानुदेशसर्वविरत्यात्मकं चारित्रम् / उत्त०७ अ० / नं०। आसतां सविकारजल्पितानीत्यपिशब्दार्थः, हुरलंकारेलिङ्ग चिह्न शीलसमाधानं तद्रूपत्वात् शीलम् / अहिंसायाम्, प्रश्न०१ संव० मोहस्यानर्थदण्डत्वात् निष्फलप्रायारम्भप्रवृत्तेरिहाप्य-नर्थजनकत्वेन द्वार / ब्रह्मचर्ये, स० / बृ० / नं० / "वरं प्रवेशो ज्वलितं हुताशन, च, जिनदासस्येव / ध० र० / इत्युक्त शीलवतो बालक्रीडापरिहार नचापि भग्नं चिरसंचितव्रतम् / वरं हि मृत्युः सुविशुद्धचेतसो, नचापि इति पञ्चमो भेदः / शीलस्खलितस्य जीवितम् / / 1 / / " सूत्र० 1 श्रु० 2 अ०२ उ० / संप्रति पुरुषवचनाभियोगपरित्यागलक्षणं षष्ठं शीलभेदमभिधित्सुर्गादानेन महाभोगो, देहिनां सुरगतिश्च शीलेन / भावनया च विमुक्ति थोत्तरार्द्धमाहस्तपसा सर्वाणि सिद्ध्यन्ति // 2 // " सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। फरुसवयणाभियोगो, न संमओ सुद्धधम्माणं // 41|| श्रावकस्य शीलानि - परुषवचनेन 'रे दरिद्र ! दासीपुत्रे' त्यादिनाऽभियोग आज्ञादानं न संप्रति शीलवत्स्वरूपं द्वितीयं लक्षणं व्याख्यानयन्नाह संगतो-नोचितः शुद्धधर्माणां प्रतिपन्नजिनमतानां धर्महानिधर्मलाघवआययणं खु निसेबइ, वजइ परगेहपविसणमकब्जे / हेतुत्वात्। निचमणुब्भडवेसो, न भणइ सवियारवयणाई // 37|| तत्र धर्महानिः - परिहरह बालकीलं, साहइ कजाई महुरनीईए / 'फरुसवयणेण दिणतव-महिक्खिवंतो य हणइ मासतयं / इय छव्विहसीलजुओ, विन्नेओ सीलवंतो त्थ / / 38|| वरिसतवं सवमाणो, हणइ हणतो य सामन्न // 1 // " इति वचनात्। आयतनं धार्मिकजनसीलनस्थानम्- उक्तं च "जत्थ साहम्मि या / धर्मलाघवं पुनः "अहो धार्मिकाः ! परपीडापारहारिणः ! सविवेकाश्च बहवे, सीलवंता बहुस्सुया। चरित्ताचारसंपन्ना, आययण तं वियाणाहि' श्रावका यदेवं ज्वलदङ्गारोत्कराकारा गिरो गिरन्ती'' त्यादि -1|1|| खुरवधारणे प्रतिपक्षप्रतिषेधार्थः- ततश्चायतनमेव निषेवते लोकोपहासात् / भावश्रावको, नानायतनमिति योगः।''न भिल्लपल्लीसुन चोरसंश्रये, तथान पार्वतीयेषु जनेषु संवसेत् / न हि सदुष्टाशयलोकसंनिधी, कुसंगतिः "अप्रियमुक्ताः पुरुषाः, प्रवदन्ति द्विगुणमप्रियं यस्मात् / तस्मान्न साधुजनस्य निन्दिता // 1 // " तथा- "दसणनिब्भेयणया, चरित्त- | वाच्यमप्रियमप्रियमश्रोतुकामेन ||1|| Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सील 100- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सील विरज्यते परीवारो-नित्यं कर्कशभाषिणः / परिग्रहे विरक्ते च प्रभुत्वं हीयते नृणाम् // 2 // किंचअशिक्षितात्मवर्गेण, म्लानिं याति यतः प्रभुः / अतः शिक्षा प्रदातव्या, प्रत्यहं मृदुभाषया // 3 // स्वाधीने माधुर्ये, मधुराक्षरसंभवेषु वाक्येषु / किंनाम सत्त्ववन्तः, पुरुषाः परुषाणि भाषन्ते ॥४॥"इत्यादि। अत एव श्रीवर्द्धमानस्वामिना महाशतकमहाश्रावकः सत्येऽपि परुषे जल्पिते प्रायश्चित्तं चाहितम् इति / मतान्तरे पुनर-दुराराध्यताभिधानं षष्ठं शीलं तदप्यपरुषभाषित्वेन संगृहीतमेव। महाशतकसंविधानकं त्विदम् - रायगिहपुरसरोवर-विभूसहां गिहवई जलहरु व्य / सिरिनिलओ भमरहिओ, नालस्स पयं महासयगो ||1|| अट्ठट्ठकणयकोडी-निहिवुड्डिपवित्थरप्पउत्ताओ। दसगोसहस्सपरिग–य तस्स (चेव) अट्ठ वया // 2 // रेवइपमुहा तेरस-भज्जाओ तत्थ रेवईए उ। पिउगेहसंतियाओ, कोडीओ अट्ठ कणगस्स // 3 // दसगोसहस्समाणा, अट्ठवया सेसयाण पिउहरिया। इक्किककणयकोडी-दसगोसॅहस्सो पुढो य वओ॥४॥ अह तत्थ समोसरिओ, गुणसिलए चेइए जिणो वीरो। वंदणवडियाइगओ, पउरेहि समं महासयगो // 5 // नमिऊण तिहुयणगुरुं, उचियट्ठाणे निविट्ठओ एसो। भययं पि अभयनिस्सं-- दसुंदरं कहइ इह धम्म / / 6 / / इह दुलहं गिहिधम्म, लहिउं सावयजणेण पइदिवसं / तस्स विसुद्धिनिमित्तं दिणचरिया इह विहेयव्या / / 7 / / तथाहि - सुत्तविउद्धो सड्डो, सम्मं सुमरिज पंचनवकारं / जाइकुलदेवगुरुध-मसंगयं अह विचिंतिजा 8|| तो छव्यिहमावस्सय-मणुट्ठिउंन्हाइउं च दिवसमुहे। सियवत्थो मुहकोसं, काउं पूइज गिहबिंब / / 6 / / पच्चक्खाणं काऊ-ण इड्डिपत्तो महाविभूईए। गच्छिज्ज जिणिंदगिहे, पविसिज्ज तेहि समयविहिणा // 10 // पूरवि जिणं वंदि-ज्ज तयणु वञ्चिज सुगुरुपासम्मि। काऊण तेसि विणयं, पचक्खाणं च पयठेउं // 11 // धम्म सुणिज्ज सम्मं, सुद्धं वित्तिं गिहागओ कुजा। मज्झण्हे पुण षूयं, विहिज जिणनाहपडिमाणं / / 12 / / पडिलाभिज्ज मुणिंदे, फासुयएसणिय असणदाणेण / साहम्मियवच्छल्लं, करिज दीणाइअणुकंपं // 13 // बहुबीयणंतकाया-इवज्जियं भोयणं तओ कुजा। वंदे वि जिणवरिंदे, गुरुणो य विहिजं संवरणं / / 14 / / तो सत्थरहस्साई, कुसलमईहिं समं वियारिज्जा / इगभत्तासत्तो पुण, अँजिज्ज दिणहमे भागे // 15 // संझासमए गिहचे-इयाइँ पूरवि पुणवि वंदिज्जा। आवस्सयं वि हेउं, करिज सज्झायमेगग्गो / / 16 / / नियमाणुसाण तत्तो, कहिज धम्मं गिहागओ उचियं / पायं विसयविरत्तो, सीलं पालिज्ज पव्वेसु / / 17 / / कयचउसरणगमाई, सावजं चइय गंठिसहिएण। पंचनमुक्कारपरो, थेवं सेविज तो निदं // 18|| निद्वाविगमं चिंति-ज विसमविससंनिभं विसयसुक्खं / सुरसिवपुरगमणरहे, एवं च मणोरहे कुजा / / 16 / / सिरिअरिहंतो वेबो, सुनाणचरणा सुसाहुणो गुरुणो। तत्तं जिणपन्नत्तं, भवे भवे इय मह हविजा // 20 // जिणधम्मवासियमई, चेडो वि वरं हविज्ज सड्ढकुले। जिणधम्मेण विमुक्को, कयावि मा चक्कवट्टी वि // 21 // मलमलिणतणू जरमलि-णचीवरो सव्वसंगपरिमुक्को। महुयरवित्तिपहाणं, कया करिस्सामि मुणिचरियं / / 22 / / चइ कुसीलसंगं, गुरुपयपंकयरयं परिफुसंतो। जोगं अब्भस्संतो, भववुच्छेयं कया काहं / / 23 / / अंकट्ठियहरिणसिसुं, वणम्मि पउमासणेण आसीणं / वुड्डा मिगजूहपहू, अग्धाइस्संति मं कइया // 24 // मित्ते सत्तुम्मि मणि-म्मि लेठुए कंचणम्मि पाहाणे / मुक्खे भवे भमिस्सं, कया अहं निव्विसेसमई // 25|| एंव पइदिणकिरियं, कुणमाणो माणवो निहियमाणो / गिहिवासे वि वसंतो, आसन्नं कुणइ सिद्धिसुहं / / 26 / / इय सुणिय महासयगो, आणंदो विव गहित्तु गिहिधम्म / तुट्ठो सगिहम्मि गओ, विहरइ अन्नत्थ सामी वि // 27|| तस्संसग्गवसेण वि, पाविट्ठा रेवई न पडिबुद्धा / मज्जरसपिसियगिद्धा, खुद्दा धणियं धणे लुद्धा / / 28 / / अइबिसयगिद्धिगहिला, सा अन्नदिणम्मि नियसवत्तीओ। छ स्सत्थपओगेणं, छ च हणइ विसपओगेणं / / 26 / / दुपयचउप्पयधणकण-गभाणेइ तासिं संतियं लई। बहुपाणघयाणी कू- रमाणसा चिट्ठइ सयावि // 30 // बुढे य अमाघाए, पलमलहंती कयावि तो एसा / माराविय सवयाओ, आणावइ गोणपायदुगं // 31 // चउदसवरिसवसाणे, कुडुंबभारे ठवित्तु जिवसुयं / पोसहसालं पविसई, विरत्तचित्तो महासयगो ||32|| सा मज्जपाणमत्ता, हावविलासाइविविहभावेहिं / तं उवसगइ बहुसो, अहियासइ सुठु स महप्पा // 33 / / सम्म समणोवासग-पडिमा इक्कारसा वि फासेइ। नाऊण चरिमसमयं, विहिणा पडिवज्जएऽणसणं // 34 // सो सुहभाववसुप्प-न ओहिनाणेण लवणजलहिम्मि। उत्तरवजहिसासुं, नियइ पुट्ठो जोयणसहस्सं // 35 / / उत्तरओ हिमवंत, हिट्ठा रयणाइलोलुयं नरयं / चुलसीवाससहस्स-ट्ठिइयं जाणेइ पासेइ / / 36|| इत्तो य मज्जमत्ता, सा पावा रेवई तहिं पत्ता। उवसम्गिउं पवत्ता, दुस्सहरागग्गिसंतत्ता // 37 // तो किमियमेरिसी इय, वियकमाणेण ओहिनाणेणं / नायं तीसे सयलं, चरियं तह नरयगामित्तं // 38 // ईसि कुविएण भणिया, हा पाविठू ! निकिट्ठदुचिट्टे!। निल्लजे ! अञ्जवि पा–व पुंजमजेसि केवइयं // 36 // जं सत्तरत्तअंतो, आलस्सयवाहिणा समभिभूया / मरिऊण तं गमिस्ससि, निरयावासम्मि लोछुयए / / 4 / / इय सुणिय अवगयमया, अइकुविओ अज्ज मे महासयगो। मरणभयवेवियंगी, दुहियमणा सा गया गेहे // 41 // इत्तो च तत्थ पत्ते-णं वीरनाहेण गोयमो भणिओ। तं वच्छ गच्छ पभणसु, मह वयणेणं महासयगं / / 42 // भद्द ! न कप्पइ उत्तम-गुणाण सड्ढाण भासिउ फरुसं। Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सील 601 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीलेस परपीडाए जणगं, विसेसओ उत्तमट्ठम्मि।।४।। सीलगुण-पुं०(शीलगुण) शीलं समाधानं तदेव गुणः शीलगुणः / ता तस्स तुमं दुम्मा-सियस्स गिण्हाहि भह ! पच्छित्तं। समाधानरूपे गुणे, प्रश्न०१ संव० द्वार। आचा०। तत्तो तहत्ति भणिउं,गोयमसामी तहिं पत्तो ||4|| सीलगुणोववेय-त्रि०(शीलगुणोपपेत) शीलं चारित्रं तदेव गुणो, यद्वाकहिओ पहुआएओ, संवेगगओ तओ महासयगो। गुणः पृथगेव ज्ञानं, ततः शीलगुणने शीलगुणाभ्यां वा चारित्रज्ञानावंदित्तु गोयमपहुं, आलोयइ तं अईयारं / / 4 / / भ्यामुपपेताः शीलगुणोपपेताः। ज्ञानिषु संयतेषु, उत्त०१अ०। पडिवजइ पच्छित्तं, तो पत्तो गोयमो पहुसमीवे / सील-त्रि०(शीलाढ्य) अष्टादशसहस्रब्रह्मचर्यभेदैः शीलैः पूर्णे, उत्त० इयरो वि समाहिजुओ, सुमरंतो वीरपयकमलं // 46 // १६अ। कयसट्ठिभत्तछेओ, विहिणा मरिलं सुहम्मकप्पम्मि। सीलपरिघर-न०(शीलपरिगृह) चारित्रस्थाने, प्रश्न०२ संव० द्वार / अरुणामम्मि विमाणे, चउपलियठिई सुरो जाओ||७|| सीलमंग-पुं०(शीलभङ्ग) ब्रह्मव्रतनाशे, व्य०७ उ०। (संयतीनां तत्तो चविय विदेहे, विसिट्ठदेहो लहित्तु चारित्तं / ब्रह्मव्रतभङ्गः 'खयायारशब्दे' तृतीयभागे 715 पृष्ठे उपापादि।) समहासयगस्स जिओ, अफरुसभासी सिवं गमिही॥४८|| सीलभद्द-पुं०(शीलभद्द) स्वनामख्याते आचार्ये, यच्छिष्येण चन्द्रसूरिणा संवत् 1174 वर्षे निशीथचूर्णेविंशतितमोद्देशकस्य व्याख्या निर्ममे। नि० महाशतक आलपन् पुरुषबाक्यमालोचनां, चू०२ उ०। गणाधिपतिगौतमाद, भुवनभानुना ग्राहितः। सीलभूय-त्रि०(शीलभूत) शीलं चारित्रं भूतः प्राप्तो यः स शीलभूतः / इति स्फुटमवेत्य भो विमलशीलभाजो जनाः!, शीलयुक्ते, उत्त०२७ अ०1 सुधामधुरमुत्तमं वदत संगतं तद्वचः ||4 // " सीलमंत-त्रि०(शीलवत्) शीलमस्यास्तीति शीलवान् ! आव०३ अ०। समर्थितः शीलवतः परुषवचनाभियोगत्याग इति षष्ठो भेदः। ध०र० आयतनसेवादिषविधशीलयुक्ते श्रावके, ध०२ अधि०11०र०। 2 अधि० 2 लक्ष० / स्था० / "कुरंडरंडत्तणदुब्भगाई, वंज्झत्ततिं (शीलवत्स्वरूपं द्वितीयलक्षणं 'सावग' शब्दे अस्मिन्नेव भागे दुव्विसकन्नगाई। जम्मतरे खंडियसीलभावा, नाऊण कुजा दढसीलभावं प्रतिपादितम्।) सदाचारे, उत्त०७ अ० / शीलयुक्ते, पं० व० 1 द्वार / ||1||" कल्प० 1 अधि० 4 क्षण / शीलं च सदाचाररूप अष्टादशशीलाङ्गसहस्रधारिणि, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०। मष्टादशशीलाङ्गलक्षणम्, ब्रह्मवत् रूपं चेति त्रिविधं यदुच्यते / ग०२ सामान्येन लाघवयोगविरतो वा शीलवान्भण्यते / सूत्र०७ अ०। सः अ० / स्वभावे, उत्त०१३ अ०। प्रकृतौ, पं० चू०२ कल्प०। सं०। प्राशुकमुद्गमादिदोषरतिमाहारं भुङ्क्ते तं शीलवन्तं वदन्ति तज्ज्ञाः। फलानपेक्षप्रवृत्तौ, स०।। सूत्र०१श्रु०७ अ०। सीलंग-न०(शीलाङ्ग) शील-समाधानं तस्याङ्गानि करणानि / दर्श० सीलरयणसूरि-पुं०(शीलरत्नसूरि) पाञ्चालगच्छीयजयकीर्ति४ तत्व / चरणांशेषु, पञ्चा० 14 विव० / पृथिवीकायसमारम्भपरि सूरिशिष्ये, तेनच संवत्-१४६१ वर्षे श्रीमेरुतुङ्गसूरिकृतमेघदूतस्य टीका त्यागादिषु, आव० 4 अ०। (शीलाङ्गानां परिमाणम् 'अट्ठारससील- | कृता। जै० इ०। गसहस्स' शब्दे प्रथमभागे 251 पृष्ठे उक्तम् / ) "जोए करणासन्ना, इंदियभोगाइसमणधम्मे य। सीलङ्गसहस्साणं, अट्ठारसगस्स निप्फत्ती सीलवाइ-पुं०(शीलवादिन) शीलवन्तमात्मानं वादयितुं शीलं यस्य स ॥१॥"ध०२०३अधि०७लक्ष०ासंधा०।दर्श०। (अत्रत्या स्थापना शीलवादी। कुशले शीलवत्त्वख्यापके, सूत्र०१ श्रु०७ अ01 'गुरुकुलवास' शब्दे तृतीयभागे६४० पृष्ठे उक्ता।) सीलवित्ति-स्त्री०(शीलवृत्ति) हिंसानृतादत्ताब्रह्मपरिग्रहविरमणसीलंगजुय-त्रि०(शीलाङ्गयुत) चरणांशयुते, पञ्चा०४ विव०। कुशलानुष्ठानवर्तने, हा०२५ अष्ट01 सीलंगायरिय-पुं०(शीलाङ्गाचार्य) तत्त्वादित्याऽपरनानि आचार्य, येन सीलव्वय-न०(शीलव्रत) अणुव्रते, आ० क० 1 अ० / स० / दशा०। सं०७६८ वर्षे आचाराङ्गटीका वाहरिगणिसाहाय्येन कृता। आचा०२ भ०। औ०। श्रु० 4 चू०। सूत्रकृताङ्गटीकाऽपि तेनैव बाहरिसाधुसहाय्येन चक्रे। | सीलसागर-पुं०(शीलसागर) शीलेन सागर इव शीलसागरः / शीलवतां आचा० / अयं श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रवणस्य शिष्य आसीत्, अस्य प्रधाने, आ० म०१ अ०। कोट्याचार्येत्यपर नाम / जै० इ०। I सीलायार-पुं०(शीलाचार) शीलं समाधिस्तत्प्रधानस्तस्यवाऽऽचारोऽसीलकरण-न०(शीलकरण) अनुष्ठानसेवने, प्रश्न०४ संव० द्वार०। / नुष्ठानम्। शीलेन वा स्वभावेन वा आचरणे, स्था०४ ठा०१ उ०। सीलकलिय-त्रि०(शीलकलित) सुशीलतया परिहारविरते, प्रश्न०२ | सीलायारसमण्णिय-त्रि०(शीलाचारसमन्वित) शीलदोषरहिते, व्य० आश्र० द्वार! १उ०। सीलखलियपण्णवणा-स्वी०(शीलस्खलितप्रज्ञापना) शीलस्खलि- | सीलेस-पुं०(शीलेश) शीलं समाधनं तच्च निश्चयतः प्रकर्षप्राप्तः समाधान-- तानां व्यामोहितानां यथावस्थितार्थप्ररूपणायाम, सूत्र० 1 श्रु० रूपत्वात् सर्वसंवरस्ततस्तस्य सर्वसंवररूपस्य शीलस्येशः शीलेशः। ३अ०१ उ०। शैलेशीमवस्थां प्रतिपन्ने, विशे०। Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीवण 902 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस सीवण-न०(सीवन) सूच्या वस्त्रखण्डसन्धाने, नि० चू० 12 उ० / कश्चित्तु तद्व्यवस्थितग्रामनगरादिभेदेन, अपरस्तु समस्तत दुत्थगुण. आचा०। (अचेलस्य स्फुटितवस्त्रस्य वस्त्रसीवनार्थं सूच्यादियाचनम् दोषाख्यानद्वारेणापितमुपदिशति। दान्तिकयोजना तथैव। एवमेतानि 'अचेलपरिसह शब्दे प्रथमभागे १८१पृष्ठे उक्तम्।) भाषकविभाषकव्यक्तीकरविषयाण्युदाहरणानि प्रतिपादितानि / इति सीस-धा०(शिष) विशेषणे, "रुषादीनां दीर्घः"||२३६॥ इति / नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / स्वरस्य दीर्घः / सीसइ। शिष्यते। प्रा०४ पाद। विस्तारार्थ भाष्यकारः प्राह - *शीर्षन्-न० "सर्वत्र लरामचन्द्रे" ||8/276 / / इति रलोपः / पढमो रूवागारं, थूलावयवोवदसणं बीओ। "लुप्तयरवशषसांशषसां दीर्घः"||११४३।। इति स्वरस्य दीर्घः। तइओ सव्वावयवे, निहोसे सव्वहा कुणइ / / 1426|| प्रा० / शिरसि, आ० चू०१ अ०। मस्तके, दर्श० 4 तत्त्व / प्रज्ञा०। कट्ठसमाणं सुत्तं, तदत्थरूवेगमासणं भासा। आचा०। उत्त०। थूलत्थाण विभासा, सय्वेसिवत्तियं नेयं / / 1427|| *शिष्य-त्रि० शासितुं शक्यः शिष्यः। उत्त० / शिक्षाधारके, उत्त० 20 प्रथमगाथायां प्रथम-द्वितीय तृतीयशब्दवाच्यो रूपकारः, द्वितीय अ० स्वदीक्षिते, व्य०। उपाध्यायस्योपासके, जी०३ प्रति०४ अधि०। गाथायांतुदाान्तिकयोजना। तत्र काष्ठस्थानीयं सूत्रम्। तदत्थरूवेगशिष्ययोग्यतायां गोण्यादयो दृष्टान्ताः। विशे०।। भासणं' त्ति तस्य च सूत्रस्यार्थस्तदर्थस्तस्यचानन्तरूपत्वायदेकरूपअथ भाषक-विभाषक वार्तिकविद एवान्यथाप्रतिपिपादयिषुराह भाषणं सा भाषासभाषकव्यापार इत्यर्थः, स्थूलार्थानां तु कियतामपि ऊणं सममहियं वा, भणियं भासंति भासगाईया। भाषणं विभाषा, सर्वेषां तु निरवशेषाणामर्थानां भाषणं वार्तिकं ज्ञेयमिति। अहवा तिण्णविसाहे-ज कट्टकम्माइनाएहिं।।१४२४|| पुस्तदृष्टान्तं व्याख्यातुमाहअनुयोगाचार्येण यद् भणितं- व्याख्यातंतस्मादून योऽन्यस्य भाषते-- पोत्थं दिहागारं, दिहावयवं समत्तपज्जायं / व्याचष्ट स भाषक उच्यते। तद्व्याख्यातस्य समंतुभाषमाणो विभाषकः / जह तह सुत्तं भासा, विभासणं वत्तियं चेव / / 1428|| प्रज्ञातिशयवांस्तदधिकं भाषमाणो वार्तिककृदिति / अथवा-किमेतेन यथा पुस्तं लेप्यं प्रथममिन्द्रादिसंबन्धिरूपस्य दृष्टाकारमानं भवति। बहुना ? त्रीनप्येतान् भाषकादीननन्तरवक्ष्यमाणकाष्ठकर्मादिभिर्जा ततः क्रमेण दृष्टतदवयवम्, ततोऽपि क्रमाद् निर्वर्तितानिः शेषतत्पर्याय तैरुदाहरणैः साधयेत् कथयेदिति। अनन्तरनियुक्तिगाथाप्रस्तावनेयम्। संपद्यते, तथा सूत्रमाश्रित्य भाषा, विभाषा, वार्तिकंचजघन्य-मध्यमो___ तान्येव काष्ठकर्माद्युदाहरणान्याह त्तमव्याख्यानरूपं यथासंख्यं ज्ञेयमिति। कट्ठ पोत्थे चित्ते, सिरिघरिए पॉड-देसिए चेव। ___ चित्रदृष्टान्तं विवरीषुराहभासग-विभासए वा, वत्तीकरणे य आहरणा।।१४२५॥ कुडे वत्तीलिहियं, वण्णुभिन्नं समत्तपज्जायं। जह तह सुत्तं भासा, विभासणं वत्तियं चरिमं // 1426 / / 'काष्ठे' इति काष्ठविषयो दृष्ठान्तः। यथा काष्ठेकश्चिद्पकार आकारमात्रमेवोन्मीलयति, कश्चिद् तु तत्रैव स्थूलावयवं रूपं किञ्चिद् निष्पाद यथा किञ्चिदिह मसृणं धवलं कुड्यम् / तच प्रथमं वर्तिकाभिस्तयति, अपरस्तु सुविभक्तविचित्रोत्कृष्टनिःशेषाङ्गोपाङ्गावयवयुक्त निर्वर्त दालेख्यरूपकाणां लिखिताकारमात्रं भवति। ततश्चवर्णकोद्भिन्नं संपद्यते, यति। एवं काष्ठकल्पं सामायिकादिसूत्रम्। तत्र भाषकः किञ्चिदर्थमात्रमेव हरितालादिवर्णकैरुन्मीलितं गौरवर्णादिस्वरूपं भवतीत्यर्थः / ततः व्याचष्टे / विभाषकस्तुतस्यैवानेकप्रकारैरर्थमाख्याति / वार्तिककारस्तु समस्ताः समाप्ता वा पर्याया आलेख्यधर्मा निष्पन्ना यत्र तत् समस्तनिरवशेषैरपि व्याख्याप्रकारैस्तदर्थं प्रतिपादयति / पुस्तं लेप्यम्, पर्यायम्, समाप्तपर्यायं वा भवति-सर्वात्मना निष्पन्नं भवतीत्यर्थः। तथा तदृष्टान्तेऽपि काष्ठवदेव सर्वं वाच्यम् / चित्रदृष्टान्ते तु-यथा कोऽपि च कुड्यस्थानीयं सूत्रम् / तत्र भाषा, विभाषा, वार्तिकं च चरमं तृतीयं चित्रकारो वर्तिकाभिः कुड्यादिषु रूपस्याकारमात्रं लिखति / कश्चितु भवतीति। तत्रैव हरितालादिवर्णकैौरवर्णादि-भावान्-दर्शयति। कश्चित्तु निरव श्रीगृहिकोदाहरणार्थमाह -- शेषानपि तद्गतभावान् सत्यापयति / दान्तिकयोजना तु तथैवेति। भाणे जाई-माणं, गुणे य रयणाण मुणइ सिरिघरिओ। श्रीगृहं भाण्डागारम्, तदस्यास्तीति श्रीगृहिको भाण्डागारिकः / तत्र जह तह सुयमाणे भा-सगादओ अत्थरयणाणं / / 1430|| कोऽप्यसौ 'अत्र भाजने रत्नानि सन्ति' इत्येतावन्मात्रमेव जानाति, श्रीगृहिको भाण्डागारिकः, सच यथा कश्चिद् 'रत्नान्यत्र ताम्रकरण्डिअपरस्तु तजाति-माने अपि वेत्ति, अन्यस्तु सर्वास्तद्गुणदोषानप्यव- कादिभाजने सन्ति' इत्येवं मुणतीति सोपस्कारं व्याख्येयम् / अपरस्तु बुध्यत एव। एवं प्रथम-द्वितीय-तृतीयश्रीगृहिकतुल्यायथासंख्यंभाषक- तेषामेव रत्नानां जाति मानं च जानाति ! अन्यस्तु ज्वरादिरोगाविभाषकवार्तिककरा विज्ञेयाः / पोण्डमविकसितावस्थं कमलम् / तच पहर्तृत्व-क्षुत्-पिपासा-श्रमापने -तृत्वादींस्तद्गुणानपि वेत्ति / यथेषद्विकसिताऽर्धविकसित-सर्वविकसितभेदात् त्रिधा भवति, एवं अथवा-अन्यथा योज्यते- यथा श्रीगृहिकः कश्चिद् रत्नभाजने भाषकादिव्याख्यानमपीति। देशनं देशः कथनं सोऽस्यास्तीति देशिकः, मरकतादिकां तज्जातिं जानाति, अपरस्तु माष–वल्ल-गदियाणादितत्र यथा कश्चिद्देशिकः पन्थानं पृष्टो दिङ्मात्रोपदेशेनैवतं कथयति, कादिकंतन्मानमपिबुध्यते, अन्यस्तुपूर्वोक्तांस्तद्गुणानपि समस्तान्वेत्ति, Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 903 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस तथा रत्नभाजनस्थानीये श्रुतेस्तोक बहु-बहुतरार्थवेत्तारो भाषकादयो विज्ञेया इति। पोण्डदृष्टान्तव्याख्यामाहवोडं विभिन्नमीसं, दरफुल्लं वियसियं विसेसेण / जह कमलं चउरूवं, सुत्ताइचउक्कमप्पेवं // 1431 // पोण्डमविकसितावस्थंकमलम्। तस्य च पश्चात् तिस्रोऽवस्था जायन्ते, तद्यथा-"विभिन्नमीसं' ति ईषद्विभिन्नमित्यर्थः / तथा 'दरफुल्लं' ति अर्धविकसितमित्यर्थः / तथाः "वियसितं विसेसेण' त्ति सर्वात्मना विकसितमित्यर्थः / एवं च सति यथा कमलं चतूरूपमुक्तम्, तथा सूत्रादिचतुष्कमपि विज्ञेयम्- अविवृतं मुकुलितं सूत्रम्, तथा, अल्पबहु-बहुतरव्याख्यानरूपास्तस्य तिस्रोऽवस्थाः, इत्येवं चतूरूपतेति। अथदेशिकदृष्टान्तव्याख्यामाहपंथो दिसाविभागो, गाम-पुराइगुण दोसपेयालं। जह पहदेसणमेवं, सुत्तं भासाइतिययं च // 1432 // इह पन्थाः कश्चिद् ग्राम-नगरादीनां भवति / तं च पृष्टः कोऽपि दिविभागमात्रमेव कथयति, अन्यस्तु तद्व्यवस्थितग्रामनगरा-दीन् कथयति, अपरस्तुमार्गगतनिः शेषगुण-दोषविचारमपि कथयति। इत्थं यथा पथो मार्गस्य देशनं त्रिविधं प्रवर्तते, एवं भाषा-विभाषावार्तिकलक्षणमपि त्रितयमवगन्तव्यम् / तदिह सर्वेष्वपि काष्ठादिदृष्टान्तेष्वयं परमार्थः-जघन्य मध्यमोत्कृष्टव्याख्यातारो भाषक-विभाषकव्यक्तीकरा उच्यन्त इति / तदेवं जिन-प्रवचनोत्पत्तिः, प्रवचनैकार्थिकानि, तद्विभागश्चोक्तः। अथ कमप्राप्तमपिद्वारविधिं 'दारविही विमहत्था तत्थ वि वक्खाणविहिविदज्जासो, मा होज्न' इत्यादिपूर्वोक्तकारणादुल्लङ्घय, व्याख्यानविधिमेवेह तावदभिधित्सुः प्रस्तावनामाहएयस्स को णु जोग्गो, वत्तुं सोउंच केण विहिणा वा। पुव्वोइयसंबंधो, वक्खाणविही विभागाओ॥१४३३॥ एतस्य च वक्ष्यमाणस्य 'उद्देसे निद्देसे य' इत्यादिद्वारविधेः, सर्वस्य वाऽनुयोगस्य को वक्तुं योग्यो गुरुः? कश्च श्रोतुं योग्यः श्रोता? केन वा विधिनाऽसौ वक्तव्यः ? इत्येतदभिधानीयम् / अत एव तस्मात् प्रवचनैकार्थिकविभागादनन्तरं 'दारविही वि महत्था' इत्यादिना पूर्वप्रतिपादितसंबन्धो व्याख्यानविधिरुच्यते। पाठान्तरं वा विभासाउ त्ति' सामान्येन पूर्वमुद्दिष्टस्येदानीं व्याख्यानविधिर्विशेषेण भाषणं भाषा भणनं क्रियते' इति शेषः। इतिगाथाष्टकार्यः। (1434 गाथा 'वक्खाण' शब्दे षष्ठे भागे उक्ता) विस्तरतस्तु गोदृष्टान्तं भाष्यकारः प्राहभगनिविटुं गोणिं, केउं दंतो व्व न सुयमायरिओ। एवं मए वि गहियं, गिहि तुमं पित्ति जंपतो॥१४३५॥ अविगलगोविक्केया, व जो वि मंदक्खमो सुगंभीरो। अक्खेवनिण्णयपसं-पारओ सो गुरु जोग्गो॥१४३६|| सीसो वि पहाणयरो, णेगंताणावियारियग्गाही। सुपरिच्छियकेया इव,थाणवियारक्खमो इहो // 1437 // कस्यापि धूर्तस्योपचितसर्वाङ्गसुन्दरस्वरूपाऽपि गौः कथमपि संस्थानीयप्रदेशे स्थिता भग्ना / ततश्चोत्थातुं न शक्रोति, इत्युपविष्टव तिष्ठति / ततस्तेन धूर्तेन कस्यापि मुग्धस्य क्रेतुस्तथैवोपविष्टा मूल्येन प्रदत्ताऽसौ। स्वयं पुनरपसृतः। क्रेताऽपि यावत् तामुत्थापयति, तावद्न शकोत्युत्थातुमसौ / ततस्तथैव स्थिताऽन्यस्य मूल्येन दातुमारब्धा तेनेयम्। स च दक्षत्वादधः प्रभृत्यवयवानां निरीक्षणार्थ तामुत्थापयति मूलक्रेता च तत्कर्तुं न ददाति / वदति च मयोपविष्टवेयं गृहीता, त्वमप्युपविष्टामेवामुं गृहाण / एवं च न कोऽपि गृह्णाति, उपहसति च तमिति / अथ प्रकृते योज्यते- भग्ना सति निविष्टा भग्ननिविष्टा तां भग्ननिविष्टां 'गोणिं' गां यथा मुग्धः कश्चिदुपविष्टामेव क्रीत्वोपविष्टामेवाऽन्यस्य ददत्-प्रयच्छन् क्रेतोपहासविषयत्वादयोग्यः / 'नसुयमायरिउ' त्ति एवामाचार्योऽपि 'न' नैव योग्यो भवति; किं कुर्वन् ? श्रुतं ददत्प्रयच्छन् / कथंभूतः सन् ? इत्याह- 'एवमविचारितमेव मयाऽप्येतत् श्रुतं गृहीतम्, त्वमप्यविचारितमेव गृहाण' इति शिष्यं प्रति जल्पन्निति। इत्थंभूतस्य सूरेः पार्श्वे न श्रोतव्यम्, संशीतिपदेषु निश्चयाभावेन मिथ्यात्वगमनप्रसङ्गात् / अतो व्याख्यानस्यायमयोग्यो-ऽभिधीयत इति / कथंभूतः पुनर्योग्यः,? इत्याह-'अविगलेत्यादि' सुगमा / तदेवं गुरोरयोग्यस्य योग्यस्य च स्वरूपमुपदर्थ्य शिष्यस्यापि तदाह- 'सीसो वी' त्यादि, शिष्योऽपि 'न' नैव प्रधानतरः, किन्त्व-योग्यः / कथंभूतः ? इत्याह-मुग्धगोक्रेते-वैकान्तेनाऽविचारितग्राही। यस्तु स्थानविचारक्षम आग्रहरहितो विचारयोग्ये वस्तुनिविचारकः स सुपरीक्षितगवादिक्रयिक इव सिद्धान्तश्रवणे इष्टो योग्यः शिष्ट इति। ___ अथचन्दनकन्थादृष्टान्तविवरणमाहजो सीसो सुत्तत्थं, चंदणकथं व परमयाईहिं। मीसेइ गलियमहवा, सिक्खियमाणेण सनजोग्गो॥१५३८|| कंथीकयसुत्तत्थो गुरू वि जोग्गो न भासियव्वस्स।। अविणासियसुत्तत्था, सीसाऽऽयरिया विणिहिट्ठा।।१४३९।। इह भावार्थस्तावत् कथानकेनोच्यते-द्वारवत्यां नगर्यां वासुदेवस्य राज्यं पालयतो गोशीर्ष श्रीखण्डमय्यो देवतापरिगृहीतास्तिस्रो भेर्य आसन, तद्यथा-सांग्रामिकी, औद्भतिकी, कौमुदिका / तत्र प्रथमा संग्रामकाले समुपस्थिते सामन्तादीनां ज्ञापनार्थं वाद्यते, द्वितीया पुनरुद्भूते-आगन्तुके कस्मिंश्चित् प्रयोजनेसामन्ताऽमात्यादिलोकस्यैव ज्ञापनार्थ वाद्यते। तृतीया तु कौमुदीमहोत्सवाद्युत्सवज्ञापनार्थं वाद्यते। चतुर्थ्यपिगोशीर्षश्री-खण्डमयी भेरीतस्यासीत्। इयंतुषट्षण्मासपर्यन्ते वद्यते, यश्च तच्छब्दं शृणोति, तस्यातीतम्, अनागतंच प्रत्येकंषाण्मासिक Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 104 - अभिधानराजेन्द्रः-भाग 7 सीस मशिवमुपशाम्यति। इयं च प्रकृतोपयोगिनी चतुर्थी भेरी। इति तदुत्पत्तिर्लिख्यतेकदाचित् सौधर्मदेवलोके समस्ताऽमरसभापुरस्सरमभिहितं शक्रेण"पेच्छ अहो ! हरिपमुहा, सप्पुरिसा दोसलक्खमज्झे वि। गिण्हंति गुणं चिय तह, ननीयजुज्झेण जुज्झंति / / 1 / / एयं असद्दहतो, कोइ सुरो चिंतए किह णु एवं / संभवइ जं अगहिउं, परदोसं चिट्ठए कोइ।।२।। इय चिंतिऊण इहई, समागओतो विउव्वए एसो। बीभत्थकसिणवन्नं, अइदुग्गंधं मयगसुणयं // 3 // तस्स य मुहे विउव्वइ, कुंदुजलपवरदसणरिंछाली। नेमिजिणवन्दणत्थं, चलियस्स पहम्मि हरिणो य / / 4 / / तंउवदंसइ सुणयं, भगं गंधेण तस्स हरिसेन्नं। सयलं पि उप्पहेणं, वचइ कण्हो उण सरूवं / / 5 / / विविहं भावंतो पो गलाण बच्चइ पहेण तेणेव। दठूण य सुणयसवं, पभणइ गुरुयत्तणेणेवं / / 6 / / अइमसिणकसिणवत्थं-चले व्व वयणे इमस्स पेच्छ अहो। मुत्तावलि व्व रेहइ, निम्मलजोण्हा दसणपती॥७॥ अह चिंतियं सुरेणं, सचं अमरसामिणा भणियं। नूण गुणं चिय गुरुया, पिच्छंति परस्स नहु दोस।।८।। अह अन्नदिणे देवो, तुरयं अवहरइ वल्लह हरिणो। सिन्नं च तस्स सयलं, विणिज्जियं तेण कुटलग्गं / / 6 / / तो अप्पणा वि विण्हू, तुरगस्स कुढावयम्मि पडिलग्गो। अह देवेणं भणियं, जिणिउं घेप्पंति रयणाइ॥१०|| तो जुज्झामो त्ति भणे-इ केसवो किं रहवरे अहयं / तो गेण्ह तुमं पिरह, जेण समाणं हवइ जुज्झं // 11 // नेच्छइ एयं देवो, तुरएहिँ गयाइएहिँ वि स तुज्झं। जा नेच्छइ ता भणिओ, हरिणा तो भणसु तुममवे // 12 // देवेण तओ भणियं, परंमुहा दो वि होइऊण पुणो। जुज्झामो पूयघाए-हि भणइ तो केसवो देवं / / 13 / / जइएवं तो विजिओ, अहयं तुमए तुरंगमं नेहि। जुज्झामि पुणो कहमवि, न हु एरिसनीयजुज्झेणं // 14 // संजायपचओ सो, पचक्खो होइऊण तो देवो। भणइ अमोहं देवा-ण देसणं भणसु किं पि वरं / / 15 / / अह भणइ केसवो असि-वपसमणिं तो पयच्छ मह भेरिं। दिन्नाय सुरेणागम-गवइयरं साहिउंथ गओ|१६|| छण्हं छह मासा-ग साइवाइज्जए तहिं भेरी। जो सुणइ तीऍ सदं, पुव्वुप्पन्नाउ वाहीओ।।१७।। नस्संति तस्स अवरा, ताउ(तह)य नहु होति जाव छम्मासा। अह अन्नया कयाई, वणिओ आगंतुओ कोइ / / 18|| दाहज्जरेण धणियं, अभिभूओ भेरिरक्खयं भणइ। दीणारसयसहस्सं, गेण्हसुमहदेसु पलमेगं / / 16 / / भेरीऍ छिदिऊणं, दिन्नं तेणाविलोभवसगेणं। अन्नेण चंदणेण य, भेरीए थिग्गलं दिन्नं // 20 // इय अन्नाण विदिते-ण तेण कंथीकया इमा भेरी। अह अन्नया य असिवे, हरिणा ताडाविया एसा // 21 / / कथंत्तणेण तीसे, सद्दो सुच्चइ हरिसभाए वि। कंथीकरणवइयरो, विनाओ केसवेण तओ // 22 // * माराविओ य सो भे-रिरक्खओ तेण अट्ठमं काउं। आराहिओ स देवो, अन्नं भेरिंच सो देइ / / 23 / / अन्नो य केसवेणं, कओ तहि भेरिपालओ सोय। रक्खइ तं जत्तेणं, लहेइ लाभं च तो हरिणो॥२४॥" अथ गाथाक्षरार्थः कथ्यते--स शिष्योऽनुयोगश्रवणस्य न योग्यः, किम्? इत्याह-यः सूत्रम्, अर्थ वा चन्दनकन्थावत् परमतादिभिर्मिश्रयति / गलितं वा विस्मृतं शिक्षितमानेनशिक्षितत्वाहङ्कारेण परमतादिभिर्मिश्रयित्वा संपूर्ण करोति। इदमुक्तं भवति-यथा भेरीपालकेनगोशीर्षश्रीखण्डभेरी इतरचन्दनखण्डैर्मिश्रयित्वा कन्था कृता, एवं यः शिष्यः सूत्रमर्थं वा परमतेन, आदिशब्देन स्वकीयेनैव ग्रन्थान्तरेण मिश्रयित्वा कन्थीकरोति, अथवा--विस्मृतं सूत्रमर्थं वा 'सुशिक्षितः स्वयमेवाहम्, नान्यं कञ्चित् कदाचित् किमपि पृच्छामि' इत्यहङ्कारेण परमतादिभिरपि मिश्रयित्वा संपूरणं विदधाति, सोऽनुयोगश्रवणस्य न योग्य इति / एवं कन्थीकृतसूत्रार्थो गुरुरप्यनुयोगभाषणस्य न योग्यः, किन्त्वविनाशितसूत्रार्थाः शिष्याचार्या अनुयोगस्य योग्या विनिर्दिष्टा इति। अथचेटिदृष्टान्तो विब्रियतेअत्थाणत्थनिउत्ता-मरणाणं जिण्णसेहिधूय व्व। नगुरू विहिमणिए वा, विवरीयनिओयओसीसो॥१४४०।। सत्थाणत्थनिउत्ता, ईसरधूया सभूसणाणं व।। होइ गुरू सीसोऽविय, विणिओएंतो जहाभणियं // 1441 / / भावार्थः कथानकेनोच्यते-- वसन्तपुरे नगरेऽग्रेतनः श्रेष्ठीराज्ञा पदात् स्फेटितोऽन्यो नवश्रेष्ठी विहितः। तथापिजीर्णश्रेष्ठि-दुहितुर्नवश्रेष्ठिदुहित्रा सह कथमति महती प्रीतिः संजाता / परं तथापि जीर्णश्रेष्ठिपुत्रिका हृदये कालुष्यं न मुञ्चति-- 'वयमेतैः पदात्परिभ्रंशिताः' इति। अन्यदा चते द्वे अपि जलाशये क्वचिद् गते। ततश्चाभरणानि तटे मुक्त्वा नवश्रेष्ठिदुहिता जीर्णश्रेष्ठिपुत्रिकया सहैव मज्जानार्थं प्रविष्टा / ततश्च जीर्णश्रेष्ठिदुहिता झगित्येव जलाद् निर्गत्य नवश्रेष्ठिदुहितृसत्कान्याभरणानि गृहीत्वा चलिता। इतरया तु जलमध्यगततयाऽप्युच्चैः स्वरेण निषिद्धवा / ततश्च 'का त्वम् ? कानि च तानि त्वदीयाभरणानि? मया ह्येतान्यात्मीयान्येव गृहीतानि, इत्यादि जल्पन्ती गाढमाक्रोशन्ती च सा गृहं गता। कथितंच निजमातापित्रोः अनुमतं च तत् ताभ्याम् / भणिताऽसौ तूष्णीं विधाय तिष्ठ त्वम् / तत् इतरयाऽपि निजपित्रोस्तत् कथितम् / याचितानि च ताभ्यां तान्याभरणानि। नसमर्पयन्तिचेतराणि ततो राजकुलव्यवहारो जातः। कारणिकैश्च साक्षी पृष्टः। न चकोऽप्यसौ संजातः। ततस्ते द्वे अपि दारिके आकार्यजीर्णश्रेष्ठिदुहिता प्रोक्ता यदि त्वदियान्याभरणानि, तर्हि झगित्येवामून्यस्माकमेव पश्यतां परिधाय दर्शय। यावच्चैषातानि परिधातुमारब्धा, तावदनभ्यासादन्यस्थानोचितमाभरणमन्यत्र नियोजयति। यदपि किञ्चित् स्थाने नियुङ्क्ते तदप्यश्लिष्टमेवाभाति, क्षुभितत्वेन च न किञ्चिदसौ जानाति ततो नवश्रेष्ठिदुहिता तैरुक्ता। तया च स्वभ्यस्ततया स्थानौचित्येन सर्वाण्यप्यामरणानि झगित्येव परिहितानि, श्लिष्टा चातीव शोभन्ते / ततस्तैः पुनरपि सा प्रोक्ता Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 605 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस झगित्येव मुञ्च तानि, तया च क्रमेणावतार्य तथैव मुक्तानि / ततो ज्ञातः कारणिकैः सद्भावः। दण्डितश्च शरीरनिग्रहेण राज्ञा जीर्णश्रेष्ठी। तददुहिता चाऽनर्थभाजनं संजाता। एवं जीर्णश्रेष्ठिदुहितेवाभरणानामस्थानेऽर्थानां नियोक्ता नगुरु:-गुरुपदयोग्योऽसौ न भवतीत्यर्थः / ऐहिकामुष्मिकाणां निःसंख्यानर्थानां भाजनमसौ संपद्यते। विधिभणितेच-गुरुणा यथावत् प्ररूपितेचाज्ञानादिना विपरीतयोजकः शिष्योऽपि 'न' नैव श्रवणयोग्यः; नापि कल्याणभागित्यर्थः / स्वस्थाने त्वर्थानां नियोक्ता, ईश्वदुहितेव स्वभूषणानां, गुरुयोग्यो भवति / शिष्योऽपि गुरुभिर्यथोपदिष्टं तथैव नियोजयन् श्रवणयोग्यः कल्याणभाक् च भवतीति। श्रावकोदाहरणभाष्यम्चिरपरिचियं पिन सरइ, सुत्तत्थं सावओ सभखं व। जो न स जोग्गो सीसो, गुरुत्तणं तस्स दूरेणं / / 1442 / / इह कथानकं सावगभज्जा' इत्यादौ कथितमेव। ततश्च यथा चिरपरिचितामपि स्वभार्यां परकलत्रबुद्ध्या भुञ्जानो न स्मरति, एवं चिरपरिचितमपि सूत्रार्थ यः शून्यहृदयतया न स्मरति, स शिष्यो न योग्यः शिष्यत्वस्यापि, गुरुत्वं तु तस्य दूरेणैवेत्यर्थः। अथ बधिरगोदोहोदाहरणम्अन्नं पुट्ठो अन्नं, जो साहइ सो गुरू न बहिरु व्व। नय सीसो जो अन्नं, सुणेइ परिभासए अन्नं // 1443|| बधिरकथानकं प्रागुतमेव। गाथाक्षरार्थस्तुसुगमः। अथवा-बधिरश्वासौ गोदोहश्चेति कर्मधारयो न क्रियते, किन्तु-बधिरश्च गोदोहश्चेति द्वन्द्वः / ततो गोदोहो-ग्रामेयकः, तत्कथानकं तु भिन्नमेवेह प्रागुक्तं द्रष्टव्यम् / उपनयस्तु स्वयमभ्यूह्यः। यो ग्रामेयकवद्यावन्मात्रमुक्तस्तावन्मात्रमेव स्वयं द्रव्यक्षत्रकालाद्यौचित्यविरहितो वक्ति, स शिष्यत्वेऽप्ययोग्यः; गुरुत्वं तुदूरेणैव तस्येति। अथ टङ्कणकव्यवहारदृष्टान्तभाष्यम् - अक्खेवनिण्णयपसं-गदाणगहणाणुवत्तिणे दो वि। जोग्गा सीसायरिया, टंकणवणिओवमा समए॥१४४४|| अहवा गुरुविणयसुय-प्पयाणभण्डविणिओगओ दो वि। निजरलाभयसहिया, टंकणवणिओवमा जोग्गा॥१४४५।। इहोत्तरापथे म्लेच्छदेशे क्वचिटणाभिधानाम्लेच्छाः। तेच सुवर्णसट्टेन दक्षिणापथायातानिक्रयाणकानि गृह्णन्ति, परंवाणिज्यकास्तद्भाषां नजानन्ति, तेऽपीतरभाषां नावगच्छन्ति। ततश्च कनकस्य क्रयाणकानां च तावत् पुञ्जः क्रियते, यावदुभयपक्षस्याऽपीच्छापरिपूर्त्तिः, यावच्चैकस्यापि पक्षस्येच्छा न पूर्यते, तावत् कनकपुञ्जात्क्रयाणकपुञ्जाच हस्तं नापसारयन्ति, इच्छापरिपूर्ती तु तमपसारयन्ति / एवं तेषां परस्परमीप्सितप्रतीप्सितो व्यवहारः। अथोपनयगाथाद्वयं व्याख्यायते, तद्यथाटङ्कणाश्च वणिजश्च तेषामुपमैवं समये वर्णिता, यथैव टङ्कणवणिजः परस्परमीप्सितप्रतीप्सितव्यवहारेण व्यवहरन्ति, एक्माक्षेपनिर्णय प्रसङ्गदानग्रहणानुवर्तिनो द्वयेऽपि शिष्या आचार्याश्चानुयोगयोग्या भवन्ति / इदमुक्तं भवति-- यथा टङ्कणा वणिजश्च परस्परेच्छापरिपूर्ति यावत्सुवर्णस्य क्रथाणकस्य च पुञ्जान् करोति, एवं शिष्योऽपि तावदाक्षेपं पूर्वपक्षं करोति यावत् सूत्रार्थमवबुध्यते, नपुनर्भयलज्जाऽहङ्कारादिभिरेवमेवानवगतेनाग्रतो याति, गुरुरपि तावद् निर्णयं प्रयच्छति यावच्छिष्यः सूत्रार्थमवगच्छति / प्रासङ्गिकं च तावद् गुरुः कथयति यावन्मात्रं शिष्योऽवधारयति / शिष्योऽपि यथाशक्ति तत् सर्वं गृह्णातीति / एवं दानग्रहणानुवर्तिनो द्वयेऽपि शिष्याऽऽचार्या योग्याः। तत्र दानं च ग्रहणं च दानग्रहणे, प्रसङ्गस्य प्रसङ्गात्तस्य दानग्रहणे प्रसङ्गदानग्रहणे, आक्षेपश्च निर्णयश्च प्रसङ्गदानग्रहणे च तानि तथेति समासः, तदनुवर्तनशीला द्वयेऽपि शिष्याऽचार्या योग्या भवन्ति प्रकारान्तरेणापि टङ्कणवणिगुपमानं भावयति-- 'अहवे' त्यादि गाथा / अथवा-शिष्येणौचित्यानतिक्रमात् कर्तव्यः सर्वोऽपि गुरुविनयः, गुरुणाऽपि शिष्यौचित्येन कर्तव्यं सर्वमपि श्रुतप्रदानम्। गुरुविनयश्च श्रुतप्रदानं च, ते एव भाण्डे ग्राह्यदेयक्रयाणके तयोर्विनियोगो विनिमयस्तस्माद् गुरुविनयश्रुतप्रदानभाण्डविनियोगाद् द्वयेऽपि शिष्याऽऽचार्याः कर्मनिर्जरालाभसहिताष्टङ्कणवणिगुपमा अनुयोगस्य योग्या भवन्ति / विपर्यये तु विपर्यय इति / तदेवं 'गोणी चंदण' इत्यादिना योग्या अयाग्योश्चोक्ताः शिष्याऽऽचार्याः। इदानीं शिष्यस्य विशेषतएव योग्यायोग्यत्वमभिधित्सुः प्रस्तावनामाहअत्थी स एव य गुरू, होइजओ तो विसेसओ सीसो। जोग्गोऽजोग्गो भन्नइ, तत्थाजोग्गो इमो होइ॥१४४६।। य इदानीं श्रुतस्यार्थ शृणोति स एव शिष्यः कालान्तरेणार्थी अर्थयुक्तोऽवगतसूत्रार्थःसन् यस्माद् गुरुर्भवति नान्यः तस्माद् योग्योऽयोग्यश्च विशेषतः शिष्यो भण्यते / तत्रायोग्यस्तावदयं वक्ष्यमाणो भवति। इति द्वादशगाथार्थः॥ कस्स न होही देसो, अणमुवगओ य निरुवगारीय। अप्पच्छंदमईओ, पत्थियओ गंतुकामो य॥१४४७।। कस्य गुरोर्न भविष्यति द्वेष्योऽप्रीतिकरः शिष्यः,अपितु भविष्यत्येव। किं सर्व एव ? न इत्याह-अनभ्युपगताः श्रुतसंपदाऽनुपसंपन्नो निवेदिताल्मेत्यर्थः / अनुपसम्पन्नत्वेऽपि तथा निरुपकारी गुरूणामनुपकारकः सर्वथा गुरुकृत्येष्वप्रवर्तक इत्यर्थः, तत्राप्यात्मच्छन्दमतिः स्वाभिप्राय कार्यकारीत्यर्थः / तथा, प्रस्थितो यो योऽन्यः कोऽपि शिष्यो जिगमिषुः, तस्य तस्य द्वितीयः। तथा गन्तुकामश्च सदैव गन्तुमना य आस्ते, वक्ति च 'कोऽस्य गुरोः संनिधानेऽवतिष्ठते? समर्प्यतामेतत् श्रुतस्कन्धादि, ततो यास्यामि, इत्येवं चित्त एव सदैवास्ते / तदेवंभूतः शिष्योऽयोग्य एव श्रवणस्येति भावः / इति नियुक्तिगाथार्थः / अनभ्युपगतादिस्वरूपं भाष्यकारोऽप्याह - भन्नइ अणन्मुवगओ-अणुवसंपन्नो सुओवसंपदया। गुरुणो करणिज्जाइं, अकुप्वमाणो निरवगारी / / 1448|| Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 106- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस अप्पच्छंदमईओ, सच्छंदं कुणइ सव्वकज्जाइं। पत्थियओ संपत्थिय-बिइज्जओ निच्चगमिउव्व ||1449ll गंतुमणो जो जंपइ, नवरि समप्पउ इमो सुयक्खंधो। पढिउं सोउंच तओ, गच्छं, को अत्थए एत्थ ?||1450 / / तिस्रोऽपि गतार्थाः। नवरं 'निचगमिउ व्व' त्ति यो यः प्रस्थितस्तत्तद् द्वितीयः प्रस्थित उच्यते। क इव ? नित्यगामीव पथिक इवेत्यर्थः। अथ योग्यशिष्यगुणान् दर्शयन्नाहविणओणएहिँ पंजलि-यडेहि छंदमणुयत्तमाणेहिं। आराहिओ गुरुजणो, सुर्य बहुविहं लहुँ देइ॥१४५१॥ विनयो-वन्दनादिलक्षणस्तेनावनता विनयावनतास्तैरित्थंभूतैः सद्भिः, तथा पृच्छादिषु कृताः प्राञ्जलयो यैस्ते कृतप्राञ्जलयस्तैः, तथा छन्दोगुर्वभिप्रायस्तमिङ्गिताकारादिना विज्ञाय तदध्यवसितश्रद्धानसमर्थनकरणकारणद्वारेणानुवर्तमानैराराधितो गुरुजनः श्रुतं सूत्राऽर्थोभयरूपं बहुविधमनेकप्रकारं लघुशीघ्रं ददाति-प्रयच्छति / इति नियुक्तिगाथार्थः। भाष्यम्विणओ णओऽभिवंदइ, पढए पुच्छए पडिच्छद वाणं। पंजलियडो अभिमुहो, कयंजली पुच्छणाईसु // 1452 / / सद्दहइ समत्थेइ य, कुणइ करावेइ गुरुजाभिमयं / छंदमणुयत्तमाणो, स गुरुजणाराहणं कुणइ / / 1453|| उक्तार्थेअथ प्रकारान्तरेणापि योग्याऽयोग्यशिष्यानुपदर्शयन्नाह - सेलघणकुडगचालणि-परिपूणगहंसमहिसमेसे य। मसगजलूगविराली-जाहगगोभेरि आहेरी॥१४५४|| 'सेल' त्ति-- मुद्गशैलः-पाषाणविशेषः, घनो-मेघः मुद्गशैलश्च घनश्च तदुदाहरणं प्रथमम्, कुटो-घटः, चालनी प्रतीता, परिपूणकः-सुघरीचिटिकागृहम्, हंसमहिषमेषमशकजलूका-विडाल्यः प्रतीताः,जाहकःसेहुलकः गोभेरी, आभेरी चेतियोग्यायोग्यशिष्यविषयाणि चतुर्दशैतान्युदाहरणानि इतिनियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः / उदाहरणं च द्विविधं भवति चरितं, कल्पितं च। तत्रेह प्रथमं कल्पितमुदाहरणम् / एतच भाष्यकारो विवृण्वन्नाहउल्लेऊण न सक्को, गज्जइ इय मुग्गसेलओऽरने / तं संवट्टयमेहो, गंतुं तस्सोवरिं पडइ // 1455 / / दविउ त्ति ठिओ मेहो, उल्लोऽम्हि नव त्ति गजई सेलो। सेलसमं गाहिस्सं, निट्विज्जइ गाहगो एवं // 1456|| इह क्वचिदरण्ये पर्वतासन्न प्रदेशे समन्ताद् निविडो मुद्गवद वृत्तत्वश्लक्ष्णत्वादिधर्मयुक्तः किश्चिद् भूतले निमग्रः किञ्चित्तु प्रकाशश्चिकचिकायमानो बदरादिप्रमाणलघूपलरूपों मुद्गशैलः | किलासीत् / स च गर्जति-साक्षेपं जल्पति / कथम् ? इत्याह:अहमाीकर्तुंजलेन भेत्तुं केनापिन शक्य इति। तच्च मुद्गशैलस्य सम्बन्धि गर्ववचः कुतश्चिद् नारदकल्पात् श्रुत्वा संवर्तको नाम महामेघः 'तद्गर्वमद्याहमपनयामि' इति सम्प्रधार्य तं मुद्गशैलं गत्वा संप्राप्य तस्यैवोपरिपतति निरन्तरं मुशलप्रमाणधाराभिर्वर्षतीत्यर्थः, संवर्तकमेघश्चोत्सर्पिण्यां शुभीभवति, काले पूर्वदग्धभूम्याश्वासनार्थ वर्षति, इत्यागमे, प्रतिपाद्यते। तस्य च सम्बन्धि जलमतीव भूम्यादेर्द्रावकं वासकं च भवति, इति विशेषतस्तस्येह ग्रहणम् / एवं-सप्ताहोरात्राणि महावृष्टिं कृत्वा 'ठिओ मेघो' त्ति स्थितो वृष्टरुपरतोऽसौ मेघः। कया बुद्ध्या ? इत्याह- 'दविउ' ति-द्रावितः खण्डशो नीतो मयाऽसौ मुद्गशैल इत्यभिप्रायेणेत्यर्थः / पानीये चापसृते सुतरामुज्वलीभूतोऽसौ चिकचिकायमानो मुद्गशैलः पुनरपि गर्जति / कथम् ? इत्याह- 'उल्लोऽम्हिनव' त्ति आर्दोऽस्म्यहं नवा? इति सम्यग् निरीक्षस्व। भोः पुष्करावर्तक ! किमित्येवमेव स्थितोऽसि तिलतुषत्रिभागमात्रमपि ममाद्यापिन भिद्यत इति भावः। ततोलज्जितो विलक्षीभूतः स्वस्थानमुपाश्रितो मेघः। तदेवं मुद्गशैलोदाहरणमभिधायोपनयमाह-'सेलसममि' त्यादि, यस्य वचनकोटिभिरपि चित्तं न भिद्यते; एकमप्यक्षरं तन्मध्यात् न परिणमतीत्यर्थः स एवंभूतः शैलसमी; मुद्गशैलतुल्य इत्यर्थः,तंतथाभूतं शिष्यं ज्ञात्वाऽपि कश्चिद् ग्राहयतीति ग्राहको गुरुः, "आचार्यस्यैव तज्जाड्यं, यच्छिष्यो नावबुध्यते। गावो गोपालकेनैव, कुतीर्थेनावतारिताः॥१॥" इत्यादि श्लोकार्थविभ्रमितमतिर्गर्वाद् 'अहममुंग्राहयिष्ये इति प्रतिज्ञाय समागतो महता च संरम्भेणाऽध्यापयितुमारब्धः, तथापि स मुद्गशैलोपमः शिष्योऽक्षरमपिनगृह्णाति। नचमनागपि स्वाग्रहग्रस्तत्वेन बुध्यते। ततश्चैवं यथा पुस्करावर्ताः तथैव सुचिरं क्लेशमनुभूय निर्विद्यते-- पराजयते, ततो विलक्षीभूतो लज्जितश्च निवर्त्तते तद्ग्रहणादयमाचार्य इति / एवंभूतस्य च शिष्यस्य सूत्राऽर्थदाने आगमे प्रायश्चित्तमुक्तम्। कुतः? इत्याहआयरिये सुत्तम्मिय, परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो। अग्नेसिं पिय हाणी, पुट्ठाविन दुद्धया वंझा॥१४५७|| एवं शैलसमस्यापि शिष्यस्य सूत्राऽर्थदाने प्रवृत्त आचार्ये, सूत्रेऽपि चागमे परिवादोऽवर्णवादो लोकसमुत्थो भवति, तद्यथा-- अहो ! नास्य सूरेःप्रतिपादिका शक्तिः,नापि तथाविधं किमपिपरिज्ञानं, यतोऽमुमप्येकं शिष्यमवबोधयितुं न क्षमः, आगमोऽप्यमीषां संबन्धी निरतिशयो युक्तिविकलश्च इतरथा कथमयमेकोऽप्यस्माद् नावबुध्यते इत्यादि / तथा-सूत्राऽर्थयोरन्तरायसम्भवात्परिमन्थनमर्दनं विनाशनं सूत्राऽर्थपरिमन्थः, तच्छिक्षणप्रवृत्तस्य सूरेरात्मनः सूत्रपठनपरावर्तनव्याख्यानभङ्गो भवतीत्यर्थः / अपरं च-तद्ग्रहणप्रसक्तेः सूरावन्येषां शिष्याणां सूत्राऽर्थहानिः; तदग्रहणभङ्ग इत्यर्थः। नच बहुनाऽपि कालेन तथाविधः शिष्यः किञ्चिदपि ग्राहयितुं शक्यः / कुतः ? इत्याशङ्कयात्रार्थे दृष्टान्तमाह-- 'पुट्ठावी' त्यादि, नियमनेन नियन्त्र्य स्तनेषु करैबहुधा स्पृष्टाऽपि बन्ध्या गौर्न खलु दुग्धदा भवति एवं मुद्गशैलसमः शिष्योऽपि ग्राहणकुशलेनापि गुरुणा ग्राह्यमाणोऽपि नाक्षरमपि गृह्णाति, ततस्तादृशस्य Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 107- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस सूत्रार्थी नदातव्यौ, ऐहिकाऽऽमुष्मिकक्लेशादिबहुदोषसंभवात्, ददाति चेत्, तर्हि समयोक्तप्रायश्चित्तभागिति / अत्राह- ननु प्रोक्तोऽसौ मुद्गशैलदृष्टान्तः, केवलं पाषाणमेघादीनां जल्पः, अभिप्रायपूर्विके च प्रवृत्तिनिवृत्ती इत्यलौकिकमेवेदम्। सत्यय, किन्तु पूर्वमुनिभिरेवात्रोक्तं प्रतिविधानम् / तद्यथा- "चरियं च कप्पियं चिय, आहरणं दुविहमेव पन्नत्तं / अत्थस्स साहणट्ठा, इंधणमिव ओयणट्ठाए।।१।। न वि अत्थिन वि य होही, उल्लावो मुग्गसैलमेहाणं / उवमा खलु एस कया, भवियजणविबोहणट्ठाए / / 2 / " इत्यलं प्रसङ्गेनेति। अथ मुद्गशैलप्रतिपक्षभूतं घनदृष्टान्तमाहवुढे वि दोणमेहे, न कण्हभोमा पलोठए उदयं / गहणधरणासमत्थे, इय देयमछि त्ति कारिम्मि॥१४५८|| यावता वृष्टेनाकाशबिन्दुभिर्महती गगरी म्रियते, तावत्प्रमाणजलवर्षी मेधो द्रोणमेघ उच्यते। तस्मिन् वृष्टऽपि सति कृष्णा भूमिर्यत्र प्रदेशेऽसौ कृष्णभूमः प्रदेशस्तस्माद् न प्रलोठति बहपि तन्मेधलजं पतितं न लुठित्वाऽन्यत्र गच्छति, किन्तु तत्रैवान्तः प्रविशतीति भावः / एवं शिष्योऽपि स कश्चिद् भवति यो गुरुभिरुक्तं बहूप्यवधारयति, न पुनरक्षरमपि पार्श्वतो गच्छतीति। एवंभूते च सूत्रार्थग्रहणावधारणासमर्थे शिष्ये सूत्रार्थयोः शिष्यप्रशिष्य-परम्पराप्रदानेनाव्यबच्छेदकारिणि देयं सूत्रार्थजातम्, नान्यस्मिन्ननन्तराभिहितमुद्गशैलकल्पे। इत्यन्वयव्यतिरेकात्मकत्वादेकमेवेदमुदाहरणम्। ___ अथ द्वितीयं कुटोदाहरणं विवृण्वन्नाहभाविय इयरे य कुडा, अपसत्थपसत्थभाविया दुविहा। पुप्फाईहिँ पसत्था, सुरतेल्लाईहिँ अपसत्था // 1456|| वम्मा य अवम्मा विय, पसत्थवम्मा उहाति अग्गेज्झा। अपसत्थअवम्मा विय, तप्पडिवक्खा भवे गेज्झा॥१४६०॥ कुप्प वयणआसन्ने-हिँ भाविया एवमेव मावकुडा / संविग्गेहि पसत्था, वम्माऽवम्माय तह चेव // 1461|| कुटा-घटाः, ते च तावद् द्विविधाः -एके आपाकोत्तीर्णा नूतना अव्याप्रियमाणत्वादद्यापि पुष्पजलतैलादिनाऽभाविताः, अन्ये तु व्याप्रियमाणत्वाद् भाविताः। विशे०। (भावि तविषयः ‘भाविय' शब्दे पञ्चमभागे उक्तः।) तत्र येप्रशस्तवाम्याः प्रशस्तभावं वमयितुं शक्यास्तेऽग्राह्या भवन्ति, अनादेयाः; असुन्दरा इति यावत् / तथा येऽप्रशस्तभावं वमयितुमशक्या अप्रशस्तावाम्यास्तेऽप्यग्राह्या भवन्ति / 'तप्पडिवक्खा भवे गेज्झ' त्ति- तेषां प्रशस्तवाम्यानाम्, अप्रशस्तावाम्यानां च ये प्रतिपक्षाः प्रशस्ता वाम्याः, अप्रशस्तवाम्याश्च ते ग्राह्या आदेयाः सुन्दरा भवन्ति। तदेवं द्रव्यकूटास्तावत्प्ररूपिताः। भावकूटा अपि प्रशस्ताऽ-प्रशस्तगुणजलाधारत्वाच्छिष्यजीवा एवमेव भाविताsभावितादिभेदात् द्रष्टव्याः केवलमत्र पक्षे कुप्रवचना-वसन्नादिभिर्भाविताः 'अप्रशस्तभाविता उच्यन्ते' इत्यध्याहारः।येतुसंविगैरेव साधुभिर्भावितास्ते प्रशस्ताः; प्रशस्तभाविता इत्यर्थः। वम्मा अवम्मा य तह चेव' / त्ति-वाम्याऽवाम्यभावना- यथा द्रव्यकुटपक्षे तथैव भावकुटपक्षेऽपि द्रष्टव्येत्यर्थः / सा चैवम्-प्रशस्तभाविता वाम्याः, अप्रशस्तभावितास्त्ववाम्याः, एते उभयेऽप्यग्राह्याः / उक्तविपरीतास्तु ग्राह्या इति / तदेवमुक्तो भावितकुटपक्षः। अथाभावितकुटपक्षमधिकृत्याहजे उण अभाविया ते, चउव्विहा अह विमो गमो अन्नो। छिडकुडभिन्नखंडे, सगले य परूवणा तेसिं // 1462 / / ये पुनरभाविताः कुटास्ते छिन्नभिन्नखण्डसकलभेदाचतुर्विधाः / अथवा-भाविताऽभावितपक्षनिरपेक्ष एवायमन्यच्छिन्नभिन्नादिको गमःप्रकारो वर्तत इत्यर्थः / तमेवाह- 'छिडकुडे' त्यादि, इह कुटो-घटः कोऽपितावच्छिद्रो भवति, बुध्ने सच्छिद्रो भवतीत्यर्थः / अन्यस्तु भिन्नो राजिमान् भवति। तृतीयस्तु खण्डो भग्नकर्णः। चतुर्थस्तु सकलः परिपूर्ण एव भवति। एतेषां च चतुर्णामपि कुटभेदानांदार्शन्तिकमधिकृत्य प्ररूपणा स्वयमेव कार्या, यथा कोऽपि शिष्यः श्रुतग्रहणमाश्रित्य छिद्रघटकल्पो भवति, कश्चित्तु भिन्नघटकल्प इत्यादि वाच्यमिति। अथ क्रमप्राप्तं चालन्युदाहरणमभिधित्सुः मुद्रशैलच्छिद्रकुटचालन्युदाहरणानां परस्पराभेदो द्भावकशिष्यमतं च निराचिकीर्षुराहसेलेय छिबुचालणि, मिहोकहा सोउमुट्ठियाणं तु। छिड्डाह तत्थ विट्ठो, सुमरिंसु सरामि नेदाणिं // 1563 / / एगेण विसइबीए-ण नीइकन्नेण चालणी आह। धनत्थ आह सेलो, जं पविसइ नीइ वा तुज्झं // 1464 / / शैलच्छिद्रकुटचालन्युदाहरणैः प्रतिपादिताः शिष्या अप्युपचारात् तथोच्यन्ते, तस्सादृश्यात् / ततश्च शैलच्छिद्रकुटचालन्यभिधानानां शिष्याणां गुर्वन्तिके व्याख्यानं श्रुत्वा, उत्थायान्यत्र गतानां मिथः परस्परं कथा समभवत्। कीदृशी? इत्याह-'छिड्डे' त्यादि, छिद्रघटकल्पच्छिद्रः शिष्यः प्राह। किम् ? इत्याह-तत्र गुरुसमीपे उपविष्टस्तदुक्तमस्मार्षमहम्, इदानीं तु न किमपि स्मरामि। छिद्रघटो ह्येवंविध एव भवति / सोऽपि स्थानस्थितो मुद्रादिकं प्रक्षिप्तं धरति, अन्यत्र तूत्क्षिप्य नीतस्य तन्न प्राप्येत, अधश्छिद्रेण गलित्वा निःसृतत्वात्, अतस्तत्कल्पः शिष्यो, ऽपीत्थमाहेति भावः। छिद्रकुटकल्पेन शिष्येणैवमुक्ते चालनीकल्पः प्राह'एक्कणे' त्यादि, चालनीकल्पः शिष्यश्चलनी, स प्राह-भोश्छिद्रकुट ! शोभनस्त्वम्, येन गुरुसमीपस्थेन त्वया तावदवधारितं तद्वचः पश्चादेव विस्मृतम्, मम तुगुर्वान्तिकेऽपि स्थितस्यैकेन कर्णेन विशति, द्वितीयेन तु निर्गच्छति, न पुनः किमपि हृदये स्थितम्। कणिक्कादिचालन्या अपि हि जलादिकमुपरिभागे निक्षिप्यते, अधोभागेन तु निर्गच्छति, नतु किमपि। संतिष्ठते, अतस्तदुपमः शिष्योऽपीत्थमेवाहेतिभावः। तदेवं छिद्रकूटचालनीभ्यामेवमुक्ते मुद्गशैलः प्राह-'धन्नेत्थे त्यादि मुद्गशैलो वदति-धन्यावत्र युवाम्, यद्-यस्मात् कारणायुवायोस्तावत्कर्णयोर्गुरूक्तं किमपि प्रविशति निर्गच्छति च / मम त्वेतदपि नास्ति, तदुक्तस्य सर्वथाऽपि मध्ये प्रवे Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस १०८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस शोभावात्, उपलस्यैवंविधत्वादेवेति। तदेवं चालन्युदाहरणस्य स्वरूपमुक्तम्, शैलच्छिद्रधटचालन्युदाहरणानां परस्परं विशेषश्चाभिहितः। अथ चालनीप्रतिपक्षमाहतावसखउर कठिणयं, चालणिपडिवक्खों न सवइ दव्वं पि। परिपूणगम्मि, उगुणा, गलंति दोसाय चिटुंति॥१४६५।। चालनीप्रतिपक्षः भवति' इति शेषः / कीदृशः ? इत्याहतापसानां भोजनादिनिमित्तमुपकरणविशेषः 'खउरकठिणकं' उच्यते। तच किल वंशे शुम्बादिकं च द्रव्यमतिश्लक्ष्णं कुट्टयित्वा कमठकाकारं क्रियते। इदं चातिनिविडत्वात् द्रव्यं, जलमपि प्रक्षिप्तं नस्रवति, किन्तु सम्यग् धरति एवं शिष्योऽपि यो गुरुभिराख्यातं सर्वमेव धरति, न विस्मरति, सग्राह्यः, चालनीसमस्त्वग्राह्य इति भावः / अथ परिपूणकोदाहरणमाह-- 'परिपूणग' - इत्याद्युत्तरार्धम्। परिपूणको नाम सुघरीचिटिकाविरचितो नीडविशेषः, तेन च किल घृतं गाल्यते, ततस्तत्र कचवरमवतिष्ठते, घृतं गलित्वाऽधः पतति, एवं परिपूणकसदृशः शिष्योऽप्युपचारात्परिपूणकः / तत्र हि श्रुतसम्बन्धिनो गुणाः सर्वेऽपिघृतवद् गलन्ति, दोषास्तुधृतगतकचवरवदवतिष्ठन्ते, श्रुतस्य दोषानेव गृह्णाति, गुणांस्तु सर्वथा परिहरत्यसौ, अतोऽयोग्य इति भाव इति। अत्र प्रेर्यमुत्थाप्य परिहरन्नाह --- सवण्णुप्पामन्ना, दोसा हुन संति जिणमए केइ / जं अणुवउत्तकहणं, अपत्तमासज्ज व हवेज।।१४६६|| ननु सर्वज्ञप्रामाण्यात् सर्वज्ञोऽस्य प्रवर्तक इति हेतोर्जिनमते दोषाः केचिदपि न सन्तीत्यर्थः, तत् कथमस्य कोऽपि दोषान् ग्रहीष्यति, असत्त्वादेव? इति भावः। सत्यम्, किन्तु यद्यपि जिनमतेदोषान सन्ति, तथाऽप्यनुपयुक्तस्य गुरोर्यत् कथनं व्याख्याविधानं तदाश्रित्य दोषा भवेयुरिति सम्बन्धः / अथवा-अपात्रम्-अरोग्यं शिष्यमङ्गीकृत्य जिनमतेऽपि तदुत्प्रेक्षिता दोषा भवेयुः, निर्दोषेऽपि जिनमतेऽपात्रभूताः शिष्या असतोऽपि दोषानुद्भावयन्त्येवेत्यर्थः / तथा च ते वक्तारोभवन्ति। तद्यथा"पागयभासनिबद्धं, को वा जाणइ पणीय केणेयं / किं वा चरणेणं णु, दाणेण विणा उ हवइ त्ति / / 1 / / कायावया य तच्चिय, ते चेव पमायअप्पमाया च। मोक्खाहिगारियाणं, जोइसजोणीहिँ किं कजं ?||2|| को आउरस्स कालो, मइलंबरधोयणे य को कालो ? जइ मोक्खहेउ नाणं, को कालो तस्सऽकालो वा ?||3||" इत्यादि। असन्तश्च सर्वेऽप्यमी दोषाः, "बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाङ्क्षिणाम्। अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥१॥" "पुव्वभणियं पिजंवत्थु, भण्णएतत्थकारणंअत्थिा पडिसेहोयअणुन्ना, वत्थुविसेसोवलंभो वा // 1 // " इत्यादिना शास्त्रान्तरे विस्तरेण निराकृतत्वादिति। अथ हंसोदाहरणव्याख्यामाहअंबत्तणेण जीहाए, कूचिया होइ खीरमुदगम्मि। हंसो मुत्तूण जलं, आवियइ पयं तहसुसीसो // 1467 / / दुग्धं च जलं च मिश्रयित्वा भाजने व्यवस्थाप्य कोऽपि हंसस्य पानार्थमुपनयति, सचतन्मध्ये चञ्चुं प्रक्षिपति। तस्य च जिलास्वभावत एवाम्ला भवति। तेन च जिह्वाया आम्लत्वेन हेतुभूतेनोदकमध्यगतं दुग्धं विलित्वा कूचिका बिन्दुरूपा बुदबुदा भवन्तीत्यर्थः / ततश्च जलं मुक्त्वा तबुबुदीभूतं दुग्धमापिबति हंसः। तथा सुशिष्योऽपि गुरोर्जलस्थानीयान् दोषान् परित्यज्य दुग्धस्थानीयान् गुणान् गृह्णातीत्यर्थ इति। अथ महिषोदाहरणं विवृण्वन्नाहसयमवि न पियइ महिसो, न य जूहं पियइ लोडियं उदगं। विग्गहविगहाहि तहा, अत्थकुपुच्छाहि य कुसीसो॥१४६८॥ स्वयूथेन समं वनमहिषो जलाशये क्वचिद् गत्वा तन्मध्ये च प्रविश्योद्वर्त्तनपरावर्तनादिभिस्तथा तज्जलमालोडयति यथा कलुषितं सद् नस्वयं पिबति, नापितधूथम्। एवं कुशिष्योऽपि व्याख्यामण्डलिकायामुपविष्टो, गुरुणा, अन्येन वा शिष्येण सह विग्रहं कलहमुदीरयति, विकथाप्रबन्धं वा किञ्चिचालयति, संबद्धासंबद्धरूपाभिरनवरतमुपर्युपरिपृच्छाभिश्च तथा कथञ्चिद्व्याख्यानमालोडयति, यथा नात्मनः किञ्चिद् पर्यवस्यति, नापि शेषविनेयानामिति। मेषोदाहरणमाहअविगोपयम्मि, वि पिवे, सुढिओ तणुयत्तणेण तुंडस्स। न करइ कलुसं तोयं, मेसो एवं सुसीसो वि।।१४६६।। जलभृते क्वधिद् गोष्पदेऽपि 'सुढिओ' त्ति-संकुचित्ताङ्गो मेष ऊरणकः पिवेजलम्, न च तत्कलुषं करोति। केन हेतुना ? इत्याह-तनुकत्वेनाग्रभागेश्लक्ष्णत्वेन तुण्डस्य-मुखस्येति। अग्रपादाभ्यामवनम्य तीक्ष्णेन मुखेनतथासौजलं पिवति तथा सर्वथैव कलुषंनभवति। एवं सुशिष्योऽपि तथा गुरोः सकाशाद् निभृतः श्रुतं गृह्णाति तथा तस्य परिषदो वा न कस्यचिद् मनोबाधादिकं कालुष्यं भवतीति। मशकजलूकोदाहरणद्वयविवृतिमाहमसउ व्व तुदं जचा-इ एहि निच्छुभए कुसीसो वि। जलुगाव अदूमंतो, पिबइ सुसीसो वि सुयनाणं / / 1470 / / यथा मशको जन्तूंस्तुदते-व्यथयति। ततश्च वस्त्राञ्चलादिभिस्तिरस्कृत्य दूरीक्रियते, तथा कुशिष्योऽपि जात्यादिदोषोद्धाटनैर्गुरुं तुदन्व्यथयमानो निष्कास्यते परिहियत इति। जलूका पुनर्यथाऽसृग् पिबति, नचासृग्मन्तं व्यथयति, तथा सुशिष्योऽपि गुरुभ्यः श्रुतज्ञानं पिबतिगृह्णातिन तु जात्युद्धाटनादिना दुनोतीति। बिडालयुदाहरणमाहछड्डेउं भूमीए, खीरं जह पियइ दुट्ठमारी। Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 909 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस परिसदुट्ठियाण पासे, सिक्खइएवं विणयभंसी॥१४७१॥ यथा दुष्टमार्जारी तथाविधस्वभावतया स्थाल्याः क्षीर भूमौ छर्दयित्वा पिबति, न पुनस्तत्स्थम्। तथा च सति न तत्तस्यास्तथाविधं किञ्चित् पर्यवस्यति / एवं विनयाद् भ्रश्यतीति विनयभ्रंशीविनयकरणभीरुः कुशिष्यो गोष्ठामाहिलवत् परिषदुत्थितानां विन्ध्यादीनामिव पार्वे शिक्षतेश्रुतं गृह्णाति, न तु गुरोः समीपे, तद्विनयकरणभयात् / इह च दुष्टमार्जारीस्थानीयः कुशिष्यः, भूमिकल्पस्तु परिषदुत्थियाः शिष्याः छर्दितदुग्ध-पानसदृश तुतगतश्रुतश्रवणमिति। जाहकोदाहरणमाह - पाउं थोउं थोउं, खीरं पासाइँ जाहगो (जह) लिहइ। एमेव जियं काउं,पुच्छइ मइमं नखेएइ।।१४७२|| यथा भाजनगतं क्षीरं स्तोकं स्तोकं पीत्वा ततो जाहकः सेह (हु)लको भाजनस्य पार्थानि लेदि, पुनरपि च स्तोकं तत्पीत्वा भाजनपार्शनि लेढि, एवं पुनः पुनस्तावत् करोति यावत् सर्वमपि क्षीरं पीतमिति। एवं मतिमान् सुशिष्योऽग्रेतनं गृहीतं श्रुतं जितं-परिचितं कृत्वा पुनरन्यद् गृह्णाति, एवं पुनः पुनस्ताव विदधाति यावत् सर्वमपि श्रुतं गुरोः सकाशाद् गृह्णाति, न च गुरुं खेदयतीति / अथ गोदृष्टान्त उच्यते-तत्र च केनापि यजमानेन वेदान्तर्गतग्रन्थविषेशाध्ययननिमित्तचरणशब्दवाच्ये - भ्यश्वतुभ्यो ब्राह्मणविशेषेभ्यो गौः प्रदत्ता। प्रोक्ताश्च तेन ते ब्राह्मणाः 'वारकेणासौ भवद्भिर्दोग्धव्या इति। अन्येभ्योऽपिच चतुर्व्यश्चरणद्विजेभ्यो गौरका तेन प्रदत्ता। तेऽपि च तेन तथैवोक्ताः तत्र च प्रथमद्विजानां मध्ये ज्येष्ठब्राह्मणेन केनचिद्गौः स्वगृहे नीत्वा दुग्धा / ततश्चारीप्रदानवेलायां चिन्तितं तेन। किम् ? इत्याहअन्नो दोजइ कल्ले, निरत्थियं किं बहामि से चारिं। चउचरणगवीउ मया, अलन्नहाणीय बहुयाणं // 14711 / / तेनैतचिन्तितम्- हन्त! वारकप्राप्तोऽन्यो ब्राह्मणः कल्ये तावदेतां धेनुं धोक्ष्यति; ततः किमद्य निरर्थकामस्याश्चारी वहामि। कल्येऽन्योऽपि हि तां दास्यामि, इति विनिश्चित्य न तस्याश्चारी प्रदत्ता। ततो द्वितीये दिने द्वितीयेनापि द्विजातीयेन तथैव कृतम्। एवं तृतीये दिने तृतीयेनापि, चतुर्थे दिने चतुर्थेनापि तथैव चेष्टितम् / इत्थं च चारिविरहिता दुह्यमानां कतिपयदिनमध्ये चतुर्णा चरणानां सम्बन्धिनी सा गौमता। ततश्च तेषां बहूनां गोहत्या समभवत् / जने चावर्णवादो जातः, हानिश्च, तेषां ततो यजमानात्, अन्यस्माद् वा पुनर्गवादिलाभाभावादिति / अन्यैश्च यै श्वतुंर्मिश्चरणैर्गौलब्धा, तन्मध्ये प्रथमद्विजस्तां दुग्ध्वा चारीप्रदानवेलायामचिन्तयत्, किम् ? इत्याहमा मे होज अवण्णो, गोवज्झा वा पुणो विन दविजा। वयमवि दोज्झामो पुण, अणुम्गहो अन्नदुद्धे वि||१४७४|| मा भूजनमध्ये ममावर्णवादः, गोहत्या वा मा भूत, इत्यस्याश्चारी प्रयच्छामि / यदि तु न दास्यामि तदा संजातकलड्डेभ्योऽस्मभ्यं पुनर्गवादिकं किमपि कोऽपि न दास्यति / अपरञ्च, एतस्याश्चारीप्रदाने को दोषः? प्रत्युतगुण एव, यतश्चारीप्रदानपुष्टामेतां पुनरपि वारक्रेणागतां वयमेव धोक्ष्यामः / यदिवा-अन्येनापि ब्राह्मणेन दुग्धायामेतस्यामस्माकमेवानुग्रह इति। अथोपनयमाहसीसा पडिच्छगाणं, भरो त्ति ते विय हु सीसगभरो त्ति। न करेंति सुत्तहाणिं, अन्नत्थ विदुल्लहंतेसिं॥१४७५॥ गुरोविनयकर्मणि कर्तव्ये स्वगच्छदीक्षिताः शिष्यास्ताव-चिन्तयन्ति। किम् इत्याह- प्रतीच्छकानामुपसंपन्नानामागन्तुकशिष्याणामयं गुरोविनयकरणलक्षणो भर-आचारः, किमस्माकं, तेषामेव साम्प्रतं वल्लभत्वात् ? इति / तेऽपि च प्रतीच्छका एवं संप्रधारयन्तिनिजशिष्याणामेवाऽयं भरः, किमस्माकमागन्तुकानामद्य समागतानामन्येधुर्जिगमिषूणाम् ? इति / एवं संप्रधार्योभयेऽपि गुरोर्न किञ्चिद् विनयवैयावृत्त्यादिकं कुर्वन्ति। ततश्च गुरुषु सीदत्सु तेषां सूत्राऽर्थहानिः, अन्यत्रापि च गतानां तेषां दुर्विनीतानां दुर्लभं सूत्रम् / अर्थश्च / उपलक्षणत्वादन्ये अप्यवर्णवादादयो दोषाः स्वयमेवाभ्यूह्याः। अयंचदुर्विनीत-शिष्योपनयः कृतः। सुविनीतविनेयापनयस्तूक्तविपर्ययेण स्वयमेव कर्त्तव्य इति। भेरीदृष्टान्तमाहकोमुइया तह संगा-मिया य उडभूइया य भेरीओ। कण्हस्सासिण्डतया, असिवोवसमी चउत्थी उ॥१४७६|| सक्कपसंसागुणगा-हिकेसवो नेमि वंद सुणदंता। आसरयणस्स हरणं, कुमारभंगे य पुयजुद्धं / / 1477 / / नेहि जिओ म्हि त्ति अहं, असिवोवसमीरें संपयाणं च। छम्मासियघोसणया,पसमइन यजायए अन्नो॥१४७८|| आगंतुबाहिखोभो, महिडिमुल्लेण कंथ दंडणया। अट्ठमआराहणअ-अ मेरिअन्नस्स ठवणं च // 1476 / / आसां भावार्थः कथानकादवसेयः / तच 'गोणीचन्दनकंथा इत्यत्र सविस्तरं कथितमेव / इह चेत्थमुपनयोऽपि द्रष्टव्यः। यः शिष्योऽशिवोपशमिका भेरी प्रथमरक्षक इव जिनगणधरप्रदत्तां श्रुतरूपां भेरी परमतादिथिग्गलक, कन्थीकरोति स न योग्यः, यस्तु नैवं करोति स द्वितीयभेरीरक्षक इव योग्य इति। अथऽऽभीरीदृष्टान्तं विवृण्वन्नाहमुकं तया अगहिए, दुप्परिग्गहियं कयं तया कलहो। पिट्टणअइचिरविक्रय-गएसुचोरा य ऊणग्घे // 1480|| इह च कथानकेन भावार्थ उच्यते, तद्यथा-कुतश्चिद्ग्रामाद् गोकुलाद् वाऽऽभीरीसहित आभीरो घृतचारकाणां गन्त्रीं भृत्वा विक्रयार्थ पत्तने समागतः / विक्रयस्थाने च गन्त्र्या अधस्ताद् भूमावाभीरी स्थिता। आभीरस्तूपरिस्थितस्तस्या घृतचारकं समर्पयति। ततश्चानुपयोगेन समर्पणे, ग्रहणे वा घृतचारके भग्ने आभीरी प्राह भग्नाश ! Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस ११०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीस . . नगरतरुणीनां मुखान्यवलोकयमानेन त्वया घृतचारकोऽयं मयाऽगृहीत अपरिणामाः, अतिव्याप्त्यपवाददृष्टयोऽतिपरिणामाः, सम्यक्-परिणतएव मुक्तः, ततो भग्नः / आभीरस्त्वाह-रण्डे ! नगरयूनां वदनानि जिनवचनास्तु परिणामपरिणामाः। विशे०। आ० म०। (विनीतस्यैव वीक्षमाणया त्वयैव दुष्परिगृहितोऽयं कृतः, ततो भनः, इत्युभयोरपि सामायिक दीयते इति 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम्।) कोइ कलहः समभवत्, पिट्टिता च तेनाभीरी। कलहयतोश्व तयोरन्यदपिघृतं सुसीसो आयरियकुलवासिजातिकुलरूव-सुयायारसत्तविणयसंपन्नोण बहु छर्दितम्। उदरितशेषेण च घृते-नोत्सूरेऽर्थोऽप्यूनो लब्धः / इतरेषु दुगुंछओ अभीरुसत्तिओ विणेओ गंभीरो अदीणोनरुसणो न कुसीलोण सार्थिकेषु घृतं विकीय गतेषु तयोरेकाकिनोर्गच्छतोघृतद्रम्मा गन्त्री चवलो ण बहुभासी ण गारावितो ण तुरितो असंपसारो ण पेसुणो ण बलीवर्दाश्च सर्वं तस्करैरपहृतमिति। परोवताइंण अत्तद्वगुरुओण मच्छरीन अकयन्नूण अहाच्छंदोन मंदोण एवं दृष्टान्तमभिधायोपनयमाह संदिट्ठवादीण सढोण दिन्नकयपसंसीण दिन्नकयपच्छाणुतावीणातिणिद्दो ण पडिकूलो नालसो ण तण्हालूण छुहालू ण असंतुट्ठो नादेसकालन्नूण मा निण्हवइ य दाउं, वट्टो णाकालचारी ण मूढो ण णिल्लज्जो णाणस्स कारणे विप्पवसति उवजुल्जिय देहि किं वि चिंतेसि ? / एगागीण कंदप्पिओण कोकुइतो ण मोहरितो ण आयारभावसुत्तवयतेणो वचामेलियदाणे, उज्नुभावो विसुद्धसंमत्तो दढचरित्तो दढाभिरगहो सुगुत्तो समितो समयन्नू किलिस्ससियतंच हंचेव॥१४८१|| दढोग्गहो दढीहो दढावाओ दढधारणो णायरियपारिभासी, भत्तिगतो अणुरतोपडिरूवेहि तिउअणुलोमो गणसोभी संघसोभी छंदन्नू, अवायन्नू चिन्तनिकाद्यवस्थायां वितथं प्ररूपयन, अधीयानो वा गुरुणा शिक्षितः सुहदुक्खन्नू अणुइअ-ऽणुत्तन्नू विसेसन्नू उज्जुत्तो अपरिसंतो बहुस्सुतो शिष्यो जगाद-त्वयैव ममेत्थं व्याख्यातं, पाठितो वा त्वयैवैवंविधम्, ण अंतरकहापुच्छी ण समइच्छितपुच्छी ण उद्वितपुच्छी सुहासणअतस्तवैवदोषोऽयम्, किं मां शिक्षयसि ? आचार्यः प्राह-नमयैवमुप विणयपुच्छी मेहावी घितिमं विसुद्धवाको पियधम्मो ददधम्मो संविग्गो दिष्टम्। कुशिष्यो ब्रवीति हन्त! साक्षादेव मम पुरस्सरमित्थं सूत्रमर्थं वा मद्दविओ अमाई चिरपव्वइओ सुपडिचोइओ अविसाई अपरिस्साई दत्त्वा सूरे ! मा निहोष्ठास्त्वम् / इत्थमुक्त आचार्यः किमप्यन्तायन् पव्वयभूओ पन्नयभूतो अणुन्नतमाणो सुत्तत्थभावपरिमाणो एवमादिएहिं पुनरप्युक्तः शिष्याभासेन- किं बलीवात् पातित इव विचिन्तयसि, गुणहिं उववेतो बहुसुपरिसपरंपरागयं चिरपरूढजिणिंदवरसासणं भव्यगत्योपयुज्योपयुक्तो भूत्वा देहि सूत्राऽर्थी, व्यत्यानेडितदाने वितथ कालआवस्सगं सोउकामो! आ० चू०१ अ०१ सूत्रार्थप्रदाने केवलं त्वम्, अहं चक्लेशमेवानुभभावः। तदित्थं स्वदोषा साम्प्रतमेतेषां मुद्रशैलसदृशादीनामाभीरीसदृशपर्यवसानादाने प्रतिपत्तौ गुरुदोषोद्भावनेनाभीर-मिथुनस्येव गुरु-शिष्ययोः कलह एव प्रायश्चित्तमाह - प्रवर्तते। तथा च सति व्याख्याव्यवच्छित्ति- सूत्रार्थहान्यादयो दोषाः। सेलकुडछिहचालणि, सुद्धो चउगुरुग घडिदुवे हॉति। अत्र प्रतिपक्षः स्वयमेव द्रष्टव्यः, तथाहि-अन्योऽप्याभीरः किल सकलत्रस्तथैव क्वापि नगरे घृतविक्रयार्थं गतः / कलत्रस्य च चारके परिपूणमहिसमसए, विरालिआभीरि एमेव॥३६५।। समर्पिते भने 'अहो! मयाऽनुपयुक्तेन समर्पितोऽयम्' इति ब्रुवाणो झगिति एमेव गोणिभेरी, हंसे मेसे य जाहगजलूगा। गन्त्र्याः समुत्तीर्य कर्परकैघृतं संवृणोति!भार्याऽपि 'धिगमयाऽनुपयुक्तया चउलहुगमदाणम्मि, पावति एतेसु आयरितो // 366 / / दुष्परिगृहीतः कृतोऽसौ, तेन भग्नः' इति वदन्ती तथैव तत् संवृणोति। मुद्गशैलछिद्रकुटचालनीसमानानां गुणनालक्षणेन कार्य समापतिते ततश्चान्योन्यं कलहे अजात उभयसंवृत्त्या घृतं शीघ्रमेव विक्रीतम्। सूत्रमर्थं वा प्रयच्छन् शुद्धो न खलु तत्र तस्यान्येषां वा शिष्याणां सार्थिकैश्च सह क्षेमेण स्वस्थानं जग्मतुः / एवं गुरु-शिष्या अपि स्वदोषं सूत्रार्थहानिः, अकार्येषु तेषु सूत्रार्थो प्रयच्छतश्चतुर्गुरु / तथा घटिद्विके प्रतिपद्यमानाः परदोषं तु निढुवाना येऽन्योन्यं न विवदन्ते, त एव प्रशस्तवाम्ये अप्रशस्तवाम्ये। अथवा-चोडकुटे भिन्ने कुटे व्याख्यानद्वयेन सूत्राऽर्थग्रहणप्रदानयोर्योग्या भवन्ति, निर्जरादिलाभभागिनश्चेति / संग्रहतश्चतुर्थः तेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चतुर्गुरु। परिपूणकसदृशे मशकतुल्ये तदेवं योग्याऽयोगान् गुरून् शिष्यांश्चोपदोपसंहारपूर्वकं तत्फलमाह विडालीसमाने आभीरीसदृशे अप्रशस्तगोसमुपलक्षितधिग्जातीयतुल्ये कन्थाकारिभेरीपालक सदृशे एतेषु सप्तसु सूत्रार्थी प्रयच्छतः भणिया जोग्गाऽजोग्गा, सीसा गुरवो य तत्थ दोण्हं पि। प्रत्येकं प्रायश्चित्त-मेवमेव चतुर्गुरुकमित्यर्थः, एतेषां ये प्रतिपक्षा पेयालियगुणदोणो, जोग्गो जोग्गस्स भासेजा।।१४८४|| हंसादयो ये च प्रशस्तगोभेरीदृष्टान्तसूचितास्तेषां सूत्रार्थों प्रयच्छन् भणिता योग्याऽयोग्या गुरुशिष्याः। तत्र द्वयोरपि गुरुशिष्य-योर्विचा शुद्धः, यदि पुनर्न ददाति तदा प्रायश्चित्तं प्राप्नोति चतुर्लघु / बृ०१ रितगुणदोषो योग्यो गुरुर्योग्याय शिष्याय सूत्रार्थीभाषेतेति। विशे० / आ० उ०१प्रक० / 'समणाउसो' त्ति संबोधनेनापृच्छतोऽपि शिष्यस्य म०। शिष्यास्त्रिविधास्तद्यथा-अपरिणामा, अतिपरिणामाः, परिणाम- हिताय तत्त्वमाख्येयम् / स्था०३ ठा०२ उ०। आयुष्मानित्यनेन परिणामाश्चेति। तत्राविपुलमतयो गीतार्था अपरिणत-जिनवचनरहस्या | ग्रहण धारणादिगुणवते शिष्याय शास्त्रार्थो देय इति / स्था० 1 Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीस 11- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीसगभम ठा० / 'महुरेहिं निउणेहिं, वयणेहिं चोययंति आयरिया। सीसे कर्हिति चलिए, जह मेहमुणिं महावीरे।।१।।' ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। आचार्यसेविनः शिष्या धन्याःधन्ना आयरियाणं, निचं आइचचंदभूआणं। संसारमहनवता-रयाण पाएय णिवयंति॥३१॥ इहलोइयं च कित्तिं, लहंति आयरियभत्तिराएणं / देवगईसु विसुद्ध, धम्मेण अणुत्तरं बोधिं // 32 // देवा वि देवलोए, निचं देवोहिणा वि आणीता। आयरियाणुसरंता, आसणसयणाणि मुंचंति॥३३॥ देवा वि देवलोए, निग्गंथं पवयणं अणुसंरतो। अच्छरगणमज्झगया, आयरिए वंदिया हूंति // 3 // द०प०। यः शिष्योऽपि गुरोर्वैरी तमाहसीसो वि वेरिओ सो उ, जो गुरुं न विबोहए। पमायमइराघत्थं,सामायारीविराहयं // 18|| शिष्योऽपि-विनेयोऽपि स वैर्वेय-शत्रुरेवः। तुः-एककरार्थो भिन्नक्रमश्च, सच योजित एव। यो गुरु-धर्मोपदेशकंन विबोधयति-हितोपदेशदानेन धर्मे न स्थापयति। किंभूतं गुरुमित्याह-प्रमादमदिराग्रस्तम्, प्रमादोनिद्राविकथादिरूपः स एव मदिरावारुणी प्रमादमदिरा तया ग्रस्तः, तथाविधतत्त्वज्ञानरहित इत्यर्थः तम्, पुनः किंभूतं गुरुं सामाचारीविराधकं शैलकाचार्यवत्। किंञ्च-महोपकार्यपि शिष्यादिः केवलिप्रज्ञप्ते धर्मे स्थापनं विना गुर्वादः प्रत्युपकारकारी न स्यात्। यदुक्तं स्थानाङ्गे'तिण्हं दुप्पडिआरं समणाउसो,तं जहा-अम्मापिउणो 1, भट्टिस्स 2, धम्मायरियस्स 3 / संपातो वि य णं केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अब्भगेत्ता सुरभिणा गंधवट्टएणं उव्वट्टित्ता तिहिं उदगेहिं मज्जावेत्ता सव्वालंकारविभूसियं करेत्ता मणुन्नं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं भोयणं भोयावेत्ता जावज्जीवं पिडिवडिंसियाए पडिवहेज्जा, तेणावि तस्स अम्मापिउस्स दुप्पडियारं हवइ' 1 दुःखेनकुच्छ्रेण प्रतिक्रियते प्रत्युपक्रियते इति दुष्प्रतिकारं प्रत्युपकर्तुमशक्यमिति यावत् / अहे णं से तं अम्मापियरं केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावइत्ता भवति, तेणामेव अम्मापिउस्स सुप्पडियारं भवति समणाउसो!' सुखेन प्रतिक्रियते--प्रत्युपक्रियते इति सुप्रतिकारं तद्भवति, प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः / धर्मस्थापनस्य महोपकारत्वात् 1 / 'केति महच्चे दरिदसमुक्कसेज्जा, तएणं से दरिद्दे समुक्किट्ठे समाणे पच्छा पुरं च णं विपुलभोगसमितिसमण्णागए यावि विहरेज्जा / तए णं से महाचे अण्णया कयाइ दरिद्दीहूए समाणे तस्स दरिदस्स अंतियं हव्वमागच्छेज्जा, तएणं से दरिद्धे तस्स भट्टिस्ससव्वस्समविदलयमाणे तेणावि तस्स भट्टिस्स दुप्पडियारं भवति, अहेणं से तं भट्टि केवलिपण्णत्ते धम्मे आघवइत्ता पण्णवइत्ता परूवइत्ता ठावतित्ता भवति, तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुपडियारं भवति।।२।। केइतहारूवस्स समणस्सवा महणस्स वा, अंतियं एगभवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म कालमासे कालं किचा अन्नतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने / तए णं से देवे तं धम्मायरियं दुब्भिक्खाओ देसाओ सुभिक्खं देसं साहरेजा, कंताराओ वा निक्कंतारं करेज्जा, दीहकालिएण वा रोगयंकेणं अभिभूयं विमोएजा, तेण वितस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवति। अहेणं सेतंधम्मायरियं केवलिपण्णत्ताओ धम्माओ भट्ठ समाणं भुजो केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता० जाव ठावइत्ता भवति, तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुष्पडियारं भवति // 3 // , तथा सर्वेष्वपि गुरुः सुदुष्करतरप्रतीकारः / यदुक्तं श्रीउमास्वातिवाचकपादैः प्रशमरतिग्रन्थे- "दुष्प्रतिकारौ मातापितरौ स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् / तत्र गुरुरिहामुत्र च, सुदुष्करतरप्रतीकारः // 1 // " इति, अनुष्टुपच्छन्दः / / 1 / / ग०१ अधि। (अथ शिष्यस्वरूपप्रतिपादनद्वारेणगच्छस्वरूपप्रतिपादन 'गच्छ' शब्दे तृतीयभागे 802 पृष्ठे प्रतिपादितम्।) (राजपुत्रस्य शैक्षीकृतस्य कारणे संयत्युपाश्रये स्थापनमिति 'वसहि' शब्दे षष्ठभागे गतम्।) (शिष्यस्य हस्ताभ्यां ताडनम् 'अणवठ्ठप्प' शब्दे प्रथमभागे 267 पृष्ठे गतम्।) (शैक्षविषयोऽवग्रहः 'उग्गह' शब्दे द्वितीयभागे 716 पृष्ठे उक्तः 1) (शिष्याऽऽभवनव्यवहारः 'ववहार' शब्देषष्ठभागेगतः।)(परिहारतपःप्रतिपद्यमानेन प्रव्रजिताः शिष्याः कस्येति'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 324 पृष्ठे उक्तम्।) (हेमन्तग्रीष्मयोर्विहारप्रस्तावे प्रव्रजिषुर्गच्छेत्कस्य सः इति 'खेत्त' शब्दे तृतीयभागे 765 पृष्ठे गतम्।) ('णायविहि' शब्द चतुर्थभागे 2008 पृष्ठे तत्र शिष्यलाभे कस्येत्युक्तम् / ) (चारिकाप्रविष्टस्योपसंपद्यमानस्याध्ययनावसरे शैक्ष आगच्छेत् स कस्येत्युक्तम् 'चरियापविट्ठ' शब्दे तृतीयभागे 1162 पृष्ठे / ) ('उवसंपया' शब्दे द्वितीयभागे 1003 पृष्ठे द्वयोरेकेन लाभे कस्येति गतम् / ) ('संजोग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे संयोगनिक्षेपस्यानेके शिष्वगुणा उक्ताः।) *सीस-न० धातुभेदे, प्रज्ञा०११ पद। सीसउचंपिय-न०(शीर्षोच्चम्पित) शीर्षम् उत् प्राबल्येन चम्पितं यत्र तच्छीर्षोचम्पितम्। तस्मिन्, यद्वा-शीर्षे उत्-प्राबल्येन चम्पितमाक्रमितं यत्तत्तथा, तस्मिन, शीर्षाचम्पिते कमलकोष्ठाकारे, तं०। सीसकवाल-न०(शीर्षकपाल) दुर्गन्धिमस्तककर्पर, तं०। सीहखाइय-न०(सिंहखादित) सिंहभक्षणे, पं०व०२द्वार। सीसग-न०(सीसक) पारदजे धातुभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। आचा० / पारदे, जी०१ प्रति०। सूत्र० / स०1 प्रज्ञा० सीसगपाय-न०(सीसकपात्र) सीसकधातुमये पात्रे, आचा०२ श्रु०१ चू०६ अ०१ उ०। सीसगमम-पुं० (शिष्यकभ्रम) शिष्या एव शिष्यकाः तेषां Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीसगभम ९१२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीहगइ भ्रमो भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यकभ्रमाः। विनीततया शिष्यतुल्येषु, विपा०१ ३उ०। नि० चू० श्रु०३अ०। सीसाणुगुण्ण-त्रि०(शिष्यानुगुण्य) विनेयाभिप्रायानुरोधे, द्वा० 14 द्वार। *शीर्षकभ्रम-पुं० शीर्षकं शिरएव शिरः कवचंवा तस्यभ्रमोव्यभिचारतया सीसावेढ-पुं०(शीविष्ट) आर्द्रचर्मादिमये शिरोबन्धने, आ० म० शरीररक्षकत्वेन वा येषु ते शीर्षकभ्रमाः। राज्ञामभ्यन्तरपुरुषेषु, विपा० 1. 10 / स० / प्रश्न० / आव० / दशा०। श्रु०३अ०। सीसुकंपिय-न०(शीर्षोत्कम्पित) शीर्ष कम्पयतः कायोत्सर्गकरणरूपे सीसगुण-पुं०(शिष्यगुण) शुश्रूषादिके शिष्ययोग्यतागुणे, "सुस्सूसा कायोत्सर्गदोषे, प्रव०४ द्वार। "सीसंपकंपमाणो, जक्खाइट्ठ व्व कुणइ पडिषुच्छा, सुणणं गहणं च ईहणमवाओ। धरणं करणं सम्म, एमाई होति उस्सगं।" आव०५ अ01 सीसगुणा // 1 // ' उत्त०१०॥ सीसुला-न०(शीर्ष) प्राकृतभाषया 'सीसुला' इति व्यपदेशः। शिरसि, सीसघडी-स्त्री०(शीर्षघटी) शीर्षमेव घटी तदाकारत्वात् शीर्षघटी। | ती०३२ कल्प०। मस्तकहड्डे, उपा०२ अ०॥ तं०। सीसोवहार-पुं०(शीर्षोपहार) पार्वादिशिरोवलौ, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। सीसघडीकंजिय-न०(शीर्षघटीकाञ्जिक) कपालकर्परखट्टरसे, तं०। सीह-त्रि०(शीघ्र) वेगवति, शीघ्रगतिहेतुत्वाच्छीध्रः गतिविषयो गतिगोचरसीसघडीविणिग्गय-त्रि०(शीर्षघटीविनिर्गत) शीर्षमेवघटी तदाकारत्वात् स्तद्धेतुत्वात्काल इत्यर्थः / सूत्र०२ श्रु०३ अ० शीघ्रः-शीध्रगतिविषयः शीर्षघटी, तस्या विनिर्गत इव विनिर्गतम्। शिरोघटीमतिक्रम्य वर्तमाने, शीघ्रत्वेन तद्विषयोऽप्युपचाराच्छीघ्र उक्तः। प्रति०।भ०। उपा०२ अ०। *सिंह-पुं० हिनस्तीति सिंहः। विंशत्यादित्वादनुस्वारस्य लुक्। प्रा०१ सीसता-स्त्री०(शिष्यता) शिक्षणीयतायाम, भ०१२श०७ उ०। पाद / केशरिणि, जी०३ प्रति०४ अधि०। सूत्र० / प्रज्ञा० / जं०। सीसदुवारिया-स्त्री०(शीर्षद्वारिका) शीर्षस्यावरणे, नि० चू०३ उ०। प्रश्न०1बले सिंह एवायम्। प्रा०२पादानपुं०। सप्तमदेवलोकविमानभेदे, (अन्ययूथिकेन शीर्षद्वारं न कर्त्तव्यमिति 'अण्णमण्णकिरिया' शब्दे स०१७ सम०। पुं०। स्वनामख्याते भगवतो महावीरस्य अनगारे, यो गोशालकतेजोलेश्यया वीरजिने रोगाक्रान्ते रेवतीगृहे कपोतकशरीराप्रथमभागे 480 पृष्ठे गतम्।) नयनार्थमगतम् / भ० 15 श० / (तत्कथा 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे सीसपहेलिअंग-न०(शीर्षप्रहेलिकाङ्ग) चतुरशीतिलक्षगुणिते चूलिका 1032 पृष्ठे गता।) "सीहं कासवगुत्तं धम्म पिअकासवं वंदे।" थेरस्स काले, भ०६श०७ उ०। चतुरशीतिलक्षगुणिते महौधे, ज्यो०२पाहु०। णं अज्जधम्मस्स सुव्वयगोत्तस्य अजसीहे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते" स्था० / अनु०। कल्प०२ अधि०८क्षण कोलाशसन्निवेशे ग्रामणीपुत्रे,यो हि विद्युन्मत्या सीसपहेलिया-स्त्री०(शीर्षप्रहेलिका) वाचनान्तरेण चतुरशीतिमहौध- दास्या सह क्रीडन् हसितो गोशालकेन, कुट्टितवाँश्च तम् / कल्प० 1 शतसहस्राण्येकशीर्षप्रहेलिकाङ्गम्। ज्यो०२पाहु० भ०। चतुरशीति- अधि०६क्षण। आ०म०1श्रेणिकस्य धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, लक्षगुणिते शीर्षप्रहेलिकाङ्गे, अनु० / शीर्षप्रहेलिकाङ्ग चतुरशीत्त्या अन्त०१ श्रु० 2 वर्ग०१० अ०। अणु०। (स च वी रान्तिके प्रव्रज्य लक्षैर्गुणितं शीर्षप्रहेलिका भवति / अस्याः स्वरूपमङ्कतोऽपि दर्श्यते- सर्वार्थसिद्धे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति अनुत्तरोपपातिकस्य द्वितीये 758263253073010241157673566675666406218 वर्गे सूचितम्।) 166848080183266, अग्रे चत्वारिंशं शून्यशतम् 140 तदेवं | सीहकंत-न०(सिंहकान्त) सप्तमदेवलोकस्थे विमाने, स०१७ सम०। शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमूनि चतुर्णवत्यधिकशतसंख्यान्यङ्कस्थानानि सीहकण्ण-पुं०(सिंहकर्ण) स्वनाख्याते अन्तरद्वीपे, प्रज्ञा०१पद। भवन्ति ! अनु० / कर्म० स्था०। सीहकण्णी-स्त्री०(सिंहकर्णी) कन्दविशेषे, भ०७ श०३ उ०। सीसपूरग-पुं०{शीर्षपूरक) मस्तकाभरणे, तं०। सीहकेसरय-पुं०(सिंहकेशरक) तथाविधे मोदकभेदे, धर्मलाभस्थाने सीसवग्ग-पुं०(शिष्यवर्ग) अन्तेवासिवृन्दे, ग०५ अधि०। सिंहकेशरा इति भणनात्, तथानाम्ना प्रसिद्धेऽनगारे, पिं०। पं० सीसवेयणा-स्त्री०(शीर्षवेदना) सर्वमस्तकवेदनायाम, तं०। व०ा दर्श०। आतु० ज्ञा०। ('लोभ शब्दे षष्ठभागे तत्कथानकम्।) सीसहिया-स्त्री०(शिष्यहिता) हरिभद्राचार्यनिर्मितायामावश्यकवृत्तौ, | सीहखाइता-स्त्री०(सिंहखादिता) सिंहः पुनः शौर्यातिरेकादवज्ञयोआव०६ अ०1 पात्तस्य यथारब्धभक्षणेन वा खादिता तथा विधप्रकृतिर्वा सिंहः / सीसागर-पुं०(सीसाकर) सीसकधातूत्पत्तिखनौ, स्था० 8 ठा० प्रव्रज्याभेदे, स्था०४ ठा०४ उ०॥ १-जम्बूद्वीप स्थापना चैवम् - 758263253073010241157635 सीहगइ-पुं०(सिंहगति) दिक्कुमारेन्द्रस्य अमितगतेः पश्चिमलोकपाले, 66675666866218666848080183266 भ०१श०१उ01 Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीहगइ ११३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सीहतिलगसूरि *शीघ्रगति-त्रि० शीघ्रगमनशक्तिसम्पन्ने, भ०३श०२ उ०। विहरन् पश्चाद्भागमवलोकयति एवं यत्र प्राक्तनं तप आवोत्तरोत्तरं तद् सीहगिरि पुं०(सिंहगिरि) स्थविरस्यार्यस्य स्वनामख्याते शिष्ये, कल्प० विधीयते तत्तपः सिंहनिष्क्रीडितम्। तच्च द्विविध-महत् क्षुद्रकं चेति, तत्र 2 अधि०८ क्षण / अस्य द्वौ शिष्यौ धनगिरिरार्यवज्रश्च / आ० म०१ क्षुल्लकमनुलोमगतौ चतुर्भक्तादि विंशतितमपर्यन्तं, प्रतिलोमगतौ तु विंशतितमादिकं चतुर्थान्तम्, उभयं मध्येऽष्टादशकोपेतं, चतुर्थषष्ठादीनि अ० / आ० चू०। ग०। कल्प०। उत्त०। आव०॥ तु एकैकवृद्ध्यै-कोपवासादीनि। स्थापना चेयम्सीहगुहा-स्त्री०(सिंहगुहा) राजगृहनगरस्यादूरे दक्षिणपौरस्त्ये दिग्भागेः 12|1|3|2|3| 56/57687 व्यवस्थितायां चोरपल्ल्याम्, ज्ञा०१श्रु०१८ अ०॥ सीहज्झय-पुं०(सिंहध्वज) स्त्री० सिंहालेखरूपचिह्नोषेते ध्वज, रा०। |21|3|24|3|546/576/87.8 सीहणाय-पुं०(सिंहनाद) सिंहस्येव नादकरणे, प्रश्न०३ आश्र0 द्वार। भवति इह चत्वारि 2 चतुर्थादीनि त्रीण्यष्टादशानि द्वे विंशतितमे तदेवं ती०। औ०।आ०म०। आव०सीहस्सेव सरिसंणायं करेति। नि० चू० चतुष्पञ्चाशदधिकं शतं तपोदिनानां त्रयस्त्रिंशच्च पारणकदिनानामेव मेकस्यां परिपाट्यां षण्मासाः सप्तराविन्दिवाधिकाः भवन्ति, प्रथम१७उ०। परिपाट्यां च पारणकं सर्वकामगुणिकं, सर्वे कामगुणाः-कमनीयपर्याया तिहिं ठाणेहिं देवासीहणायं करेजा-अरिहंतेहिं जायमाणेहिं, विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा, द्वितीयायां निर्विकृतं तृतीयायामलेपअरिहंतेहिं पव्वयमाणेहिं, अरिहंताणं णाणुप्पायमहिमासु / कारि, चतुर्थ्यांमाचामाम्लमिति। प्रथमपरिपाटीप्रमाणं चतुर्गुणं सर्वप्रमाणं स्था०३ ठा०१ उ०1 भवतीति। ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। अन्त०। 'खुड्डागसीहनिक्कीलियं' ति--- सीहणिकीलिय-न०(सिंहनिष्क्रीडित) सिंहनिष्क्रीडितं सिंहगमनंतदिव वक्ष्यमाणमहासिंहनिष्क्रीडितापेक्षया क्षुद्रकं सिंहनिष्क्रीडितं सिंहगमनं यत्तपस्तत्सिहनिष्क्रीडितमित्युच्यते तद्रमन चातिक्रान्त- तदिव यत्तपस्तत्सिंहनिष्क्रीडितमित्युच्यते, तद्गमनं चातिक्रान्तदेशादेशावलोकनतः,एवमतिक्रान्ततपः समासेवनेनापूर्वतपसोऽनु-ष्ठानंयत्र वलोकनतः, एवमतिक्रान्ततपःसमासेवनेनापूर्वतपसोऽनुष्ठानं यत्र तत् तत् सिंहनिष्क्रीडितम्। तपोभेदे, तच्च क्षुद्रकं महच्चेति द्विविधम्। औ०। सिंहनिष्क्रीडितमिति। तच्चैवं चतुर्थं ततःषष्ठचतुर्थे अष्टमषष्ठे दशमाष्टमे ज्ञा० अन्त०। द्वादशदशमे चतुर्दशद्वादशेषोडशचतुर्दशेअष्टादशषोडशेविंशतितमाष्टादशे तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुडागं विंशतितमं चेति क्रमेण विधीयते / ततः षोडशाष्टादशे चतुर्दशषोडशे सीहनिकीलियं तवोकम्म उवसंपञ्जिता णं विहरंति, तं द्वादशचतुर्दशे दशमद्वादशे अष्टमदशमे षष्ठाष्टमे चतुर्थषष्ठ चतुर्थ चेति। जहाचउत्थं करेंति चउ०२त्ता सव्वकामगुणियं पारेति २त्ता स्थापना चैवम्छठें करेंति २त्ता चउत्थं करेंति २त्ता अट्ठमं करेंति २त्ता छ8 23456786 45 7655321 अत्र च 16 / / 1 / एकस्या करेंति २त्ता दसमं करेंति २त्ता अट्ठमं करेंति २त्ता दुबालसमं 12345678458765432 करेंति 2 त्ता दसमं करेंति 2 त्ता चाउद्दसमं करेंति 2 त्ता परिपाट्यां दिनमानं नवकसंकलने दे। 451 45 | अष्टकसंकलना चैका दुबालसमं करेंति 2 त्ता सोलसमं करेंति २त्ता चोहसमं करेंति 36 सप्तकसंकलनाऽप्येकैव 28 पारणकदिनानि 33 सर्वाग्रम्। 187 / २त्ता अट्ठारसमं करेंति 2 त्ता सोलसमं करेंति २त्ता वीसहमं एवं च मासाः 6 दिनानि च।७। चतसृषु परिपाटिष्वेतदेव चतुर्गुणं स्यात्तत्र करेंति 2 ता अट्ठारसमं करेंति २त्ता वीसइमं करेंति २त्ता वर्षे वर्षे दिनानि / 28 तत्र प्रथमपरिपाट्यां पारणकं सर्वकामगुणितं सोलसमं करेंति २त्ता अट्ठार०करेंति २त्ता चोडसमं करेंति 2 द्वितीयस्यां निर्विकृतिकं तृतीयायामलेपकारी चतुर्थ्यामाचामाम्लमिति / त्ता सोलसमं करेंति २त्ता दुबाल० करेंति २त्ता चाउद्द० करेंति औ०। (एवं महासिंहनिष्क्रीडितमपि तच 'महासीहणिक्कीलिय' शब्दे २त्ता दसमं करेंति २त्ता दुबाल० करेंति २त्ता अट्ठमं करेंति 2 षष्ठभागे उक्तम्।) त्ता दसमं करेंति २त्ता छटुं करेंति २त्ता अट्ठमं करेंति 2 त्ता चउत्थं करेंति 2 त्ता छटुं करेंतित्ता चउत्थं करें० सव्वत्थ सीहणिसिजाययण-न०(सिंहनिषद्यायतन) सिंहानिषद्यायुक्तगृहे, सव्वकामगुणिएणं पारेंति, एवं खलु एसा खुड्डागसीहनिक्कीलि "अट्ठावय णगवरो जत्थ भगवं आइगरो सिद्धो जत्थ य भरेयस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासेहिं सत्तहि य सरसीहनिसिजाययण ति।" ती०११ कल्प। अहोरत्तेहि य अहासुत्ता० जाव आराहिया भवइ, तयाणंतरं सीहणिसाइ पुं०(सिंहनिषादिन) सिंहवत् निषीदतीत्येवंशीलः दोच्चाए परिवाडीए चउत्थं करेंति नवरं विगइवलं, पारेंति, एवं सिंहनिषादी। यथा सिंहोऽग्रेतनं पादयुगलमुत्तभ्यपश्चात्तनं तु पादयुग्म तंचांविपडिवाडीनवरंपारणए अलेवाडं पारेंति, एवं चउत्थावि संकोच्य पुताभ्यां मनाक् लग्नो निषीदति। सिंहोपवेशनेनोपविष्ट, जी०३ परिवाडी नवरं पारणए आयंबिलेणं पारेति॥ प्रति० 4 अधि०। 'सीहनिक्कीलियं' ति सिंहनिष्क्रीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं, सिंहो हि | सीहतिलगसूरि-पुं०(सिंहतिलकसू)ि अञ्चलगच्छीये धर्मप्र Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिहतिलगसूरि . ११४-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुअमुह भसूरिशिष्ये महेन्द्रप्रभसूरिगुरौ, अस्य जन्म विक्रमसंवत् 1345 स्वर्गतिः | / दो सीहसोयाओ। स्था०२ठा०३ उ०। विक्रमसंवत् 1365 / जै० इ०। सीहा-स्त्री०(सिंहा) सिंहगतिसमानायां श्रमाभावे दायें स्थिरतायाम, सीहपुच्छ-पुं०(सिंहपुच्छ) पृष्टिवर्धे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। भ०३श०१उ०। प्रश्न०। सीहपुच्छण-न०(सिंहपुच्छन) सेपस्त्रोटने, प्रश्न०५ संव० द्वार। सीहाणुग्ग-पुं०(सिंहानुग) सन्निषद्यास्थिते आचार्ये, नि० चू०२० उ०। सीहपुरी-स्त्री०(सिंहपुरी) सुपक्ष्मविजयक्षेत्रराजधान्याम्, जं० 4 वक्ष०॥ सीहासण-न०(सिंहासन) सिंहप्रधानमासनं सिंहासनम् / आ० म०१ आव०। अ०। सिंहाजिते नृपासने, जं०३ वक्ष०ा सिंहाकृतियुक्ते, विष्टरे, पञ्चा० 2 विव० / जी० / सूत्र० 1 औ० / स्था० / रजतमयैः सिंहैरुपशमिते, दो सीहपुरीओ / स्था०२ठा०३ उ०। नृपासने, आ० म०१ अ०। जी01 सिंहस्य मृगाधिपतेरासनं सिंहाससीहमुहद्दीव-पुं०(सिंहमुखद्वीप) लवणसमुद्रस्थान्तीपविशेषे, स्था०४ नम्। मदस्थानविशेषरूपे कूर्जिते अनाकुले उपवेशने, षो०१४ विव०। ठा०२ उ० / प्रज्ञा० / नं०। ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 66 पृष्ठे पादपीठे, दशा० 10 अ०1 वक्तव्यतोक्ता।) सीहासणवरगय-त्रि०(सिंहासनवरगत) सिंहासनानां मध्ये यद्वरं सीहया स्त्री०(सिंहता) ऊर्जवृत्तौ, स्था० 4 ठा० 3 उ०। तत्सिंहासनवरं, तत्र गतो व्यवस्थितो यः स तथा। श्रेष्ठसिंहासनासीने, स्था० 10 ठा०३ उ०। सीह(भ)(अ)र-पुं०(शीकर)"शीकरे भही वा" ||1185 // इति भकारहकारौ ! पक्षे-सीअरो। अम्बुकणे, प्रा० / अक्षरादिभिः समे, सीहासणसंठिय-त्रि०(सिंहासनसंस्थित) सिंहासनस्येव संस्थित "सत्तस्स (स) रसीहरा'' स्था०७ ठा०३ उ० / म्लेच्छजातिविशेषे, संस्थानं यस्य स तथा। सिंहासनाकृती, रा०।। प्रज्ञा०१ पद। सीही-स्त्री०(सिंही) परिव्राजकप्रयुक्ताया वराहीविद्यायाः प्रतिमथिन्यां सीहरह-पुं०(सिंहरथ) स्वनामख्याते पुण्ड्रवर्धननगरराजे, उत्त०७ अ० सिंहविकुर्वणात्मिकायां विद्यायाम्, आ० म०१ अ० आ० क०। ।('नग्गइ' शब्दे चतुर्थभागे 1765 पृष्ठे कथाऽस्योक्ता।) सीहु-न०(सीधु) तालवृक्षदुग्धोद्भवे. (उत्त०१६ अ०) मद्यविशेषे, प्रश्न० सीहलिपासग-पुं०(शिखापाशक) वेणीसंयमनार्थे ऊर्णामये कङ्कणे, 5 संव० द्वार। "सीहलिपासगं च आणाहि" सूत्र०१ श्रु०५ अ० 1 उ०। सु-अव्य०(सु) सुष्ठु शोभने, सूत्र०१श्रु०१४ अ०। चं० प्र०। अतिशये, सीहवाहणा-स्त्री०(सिंहवाहना) सिंहारूढायामम्बिकायाम्, ती०८ सूत्र०१ श्रु० 2 अ०३ उ० / सुरित्ययं निपातः प्रशंसायां शुद्धविषये वर्तते / सूत्र०१ श्रु०७ अ०। उत्त० / विशे०। औ० / रा०। आ० म०। कल्प। स०आतु०। सीहविअ-न०(सिंहविद्) सप्तमदेवलोकस्थे विमानभेदे, स० 17 सुअ-पुं०(शुक) कीरे, जं०१ वक्ष०१ भ०। सम० *स्वप-धा० शयने, "स्वपेः कमवलिस-लोट्टाः" ||156|| सीहविकमगइ-पुं०(सिंहविक्रमगति) दिक्कुमाराणाममितगत्यमिता- | -पक्षे-सुअइ। स्वपिति / प्र०४ पाद। मितवाहनयोर्लोकपाले, भ०३ श० 8 उ० / स्था० / सुअंग-न०(श्रुताङ्ग) श्रुतस्य प्रव्रज्यस्य पुरुषरूपस्याङ्गावयव इति कृत्वा; सीहसर त्रि०(सिंहस्वर) सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यस्येति।। समवायाई सका सिंहनि दवति, तं०॥ सुअक्खायधम्म-त्रि०(स्वाख्यातधर्मन्) सुष्ठु आख्यातो धर्मोऽस्येति सीहसेण–पुं०(सिंहसेन) भरतक्षेत्रजविमलजिनसमकालिके ऐरवतजिने, स्वाख्यातधर्मा। संसारभीरुत्वाद्यथारोपित-भारवाहिनि, आचा०१श्रु० ति०। प्रव०। “विमलो य भरहवासे एरवए सीहसेणजिणचंदो'' ति०। ६अ०३ उ०। अजितजिनस्य प्रथमगणधरे, ति०। अनन्तजिनस्य पितरि, प्रव०१० सुअण-पुं०(सुजन) उत्तमलोके, "सरिहिं न सरेहिं, न सरवरेहिं न वि द्वार। स०। महासेनस्य राज्ञः पुत्रे, विपा० १श्रु०६ अ०। (अयं च परभवे उज्जाणवणेहिँ। देसरवण्णा होंति वढ, निवसंतेहिँ सुअणेहिँ। प्रा० 4 देवदत्ता नाम दारिकाऽभवदिति 'देवदत्ता' शब्दे 2618 पृष्ठे कथा / ) पाद / "वच्छहे गृण्हइ फलई जणु, कडुपल्लव वज्जेइ / तोवि महदुमु श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, अणु०२ वर्ग 13 सुअणु जि, ते उच्छंगिधरेइ" प्रा० 4 पाद। अ०। (स च वीरान्तिके प्रव्रज्य सर्वार्थसिद्धे, उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति महासीहसेण' शब्दे षष्ठे भागे सूचितम्।) सुअणलस-त्रि०(स्वनलस) कृतोद्यमे प्रशस्तपुरुषे, ग०३ अधि०। सीहसोया-स्त्री०(सिंहश्रोतस्) जम्बूमन्दरस्य पश्चिमे भागे सीतोदायां सुअप्परोग--पुं०(स्वल्परोग) मन्दव्याधौ, द्वा०२१ द्वार। महानद्यां संगतायां स्वनामख्यातायामन्तनद्याम्, स्था०३ ठा० 3 उ०। | सुअमुह-न०(शुकमुख) शुकचञ्चपुटे, कल्प०१ अधि०३ क्षण / Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुअलंकिय 915 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुइभूय सुअलंकिय-त्रि०(स्वलकृत) अतिशयेन रमणीयतयाऽलंकृते, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। रा०ा जं०। सुअहर-पुं०(श्रुतधर) पूर्वधरे, आ० क०१अ01 सुअहिल्जिय-त्रि०(स्वधीत) सुष्ठु कालविनयाद्याराधनेनाधीते, स्था० 3 ठा०४ उ०। सुआइक्ख-त्रि०(स्वाख्येय) अकृच्छ्राख्येये, स्था० 5 ठा० 130 सुआहिय-त्रि०(स्वाख्यात) स्वरूपविविद्भिः प्रतिपादिते, सूत्र०१ श्रु० 15 अ०॥ सुइ-त्रि०(शुचि) पवित्रे, औ० / स्था० / कल्प० / आ० म०। ज्ञा०। शुचिना भवितव्यं संयमवतेत्यर्थः / आव०४ अधि०। स०। शुचिद्वारे कथामाह"सारी यसवरवे विय, सिट्ठी अधणंजए सुभद्दाय। वीरे अधम्मघोसे, धम्मजसे सोगपुच्छा य॥१|| पुरं सौर्यपुरं नाम, यक्षस्तत्र सुराम्बरः। आसीद्धनंजयश्रेष्ठी, सुभद्रा तस्य वल्लभा / / 2 / / नत्वा यक्ष कृतं ताभ्यां, पुत्रार्थमुपयाचितम्। करष्येि सेरभशत-यज्ञं तेऽग्रे सुते सति // 3|| तयोर्दैवादभूत् पुत्र-स्तत्र बोधं तयोर्विदन्। श्रीवीरः समवासार्षीत्, श्रेष्ठ नन्तुं प्रभुं ययौ // 4 // प्रबुद्धो धर्ममाकया- णुव्रतान्यग्रहीत्ततः। लभ्यं लक्षं ययाचे तं, न ददौ सदयापरः / 5 / / यक्षस्तं खण्डशः कर्तु-मारेभे श्रेष्ठिपुगबम्। कियत्स्वपि सुखण्डेषु, कृतेषु श्रेष्ठ्यचिन्तयत्।।६।। धन्योऽहं यन्मया सत्त्व, नाा संयोजितोऽनया। एवं परीक्ष्य तत्सत्त्वं,स्वयंबुद्धः सुरावरः / / 7 / / एतद्देशशुचिश्रावकत्वम्। अथ सर्वशुचिः।। "द्वौ श्रीवीरप्रभोः शिष्या-वशोकस्य तरोरधः / धर्मघोषो धर्मयशा, गुणयन्तौ श्रुतं स्थितौ॥१॥ पूर्वाह्नऽथापरालेच,नच्छाया पर्यवर्त्तत! उवाचैकोऽथ लब्धिस्ते, द्वितीयस्तेऽभिधात्ततः // 2 // एकोऽगात्कायिकी भूमि, द्वितीयोऽप्यगमत्तथा। स्थिता तथैव तच्छाया, ज्ञातं लब्धिनं कस्यचित्॥३॥ अथ पृष्टः प्रभुः किं न, छायाऽस्य परिवर्तते। प्रभोर्मुखेन वृत्तान्तं, तस्य ब्रूते स्म शास्त्रकृत्॥४॥ सोरिअसमुद्दविजय, जन्नजसे चेव जन्नदत्ते / सोमित्ता सोमजसा, उच्छविहिना उ उप्पत्ती॥५॥ अणुकंपा वेअड्डे, मणिकंचणवासुदेवपुच्छाय। सीमंधरजुगबाहू, जुगंधरे चेव महबाहू॥६|| (एतद्वक्तव्यता'णारय' शब्दे 4 भागे 2012 पृष्ठे उक्ता।) - पृष्टः कृष्णेन किं शौच-मिति प्रश्नोत्तराक्षमः। कथान्तरेण व्याक्षेपं कृत्वा, नारद उत्थितः // 7 // ययौ पूर्वविदेहेऽथ, तत्र श्रीमन्धरः प्रभुः / किं शौचमिति पृष्टः सन्, हरिणा युगबाहुना // 8 // सत्यं शौचमिति प्रोचे, तद् ज्ञात्वा नारदस्ततः। गतोऽपरविदेहेऽथ, जिनस्तत्र युगन्धरः || तदा तदेव तत्रापि, पृष्टस्तत्रस्यविष्णुना। सोऽपि स्वामी तदेवाख्य-तदप्याकर्ण्य नारदः। द्वारवत्यां ययौ शौचं, सत्यं विष्णोरचीकथत्॥१०॥ किं सत्यमिति भूयोऽपि, विष्णुनाऽपृच्छि नारदः। ऊचे मया प्रभो ! सत्यं, न पृष्टश्चिन्तयंस्तथा // 11 // जातिस्मृत्या ज्ञातशौचः, सोऽगात्प्रत्येकबुद्धताम्। एवं शौचेन सर्वेषांशुचिः स्याद्योगसंग्रहः / / 12 / / " आ० क० 4 अ०। ध० 20 // "इह अज्ज अंब! ताओ!, वीरजिणो आगमो तयं नमिडं। तद्देसणं च सोउं, अहंगभिस्सामि तत्थलहुं॥२१॥ जंपुव्वावरअविरु-द्धसुद्धसिर्द्धततत्तसवणमिणं। आलस्समाइबहुविह-हेऊहिं सुदुल्लह भणियं // 22 // तथाचागमःआलस्से मोहवन्ना, थंभा कोहापमाय किवणत्ता। भयसोगा अन्नाणा, 10 वक्खेवकुऊहला 12 रमणा 12 / 23 / एएहिँ कारणेहिं, लद्भूण सुदुल्लहं पि मणुयत्तं / न लहइ सुई हियकरिं, संसारुत्तारणिं जीवो // 24 // किं पुण जिणवयणविणि-गयस्स पणतीसगुणसहियस्स। संसयरयहरणसमी-रणस्स वयणस्स किर सवणं॥२५|| तो वुत्तो पियरेहि, हेपुत्ता ! अज्जुणो भिसंरुट्ठो! पइदिवसं सत्त जणे, हणमाणो विहरए इत्थ॥२६॥ ता पुत्त ! जिणं नमिउं,धम्म सोउंच माहुगच्छाहि। माणं तुह देहस्स वि, वावत्ती होहिई खिप्पं // 27 // " ध० 202 अधि०१ लक्ष / अकतुषमतौ, दश० 8 अ० / शक्रस्य स्वनामख्यातायामग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०२ उ०। ज्ञा०1 *श्रुति-स्वी० श्रूयन्ते इति श्रुतयः। वेदेषु, संथा०।चोदनावाक्ये, प्रति०। शब्दे, भ०१५ श०। द्रव्या०ायोगे,ज्ञा०१श्रु०१६ अ०। विशे०। वार्तामात्रे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ० श्रवणं-श्रुतिः, अन्यार्थप्रकरणादेः सामान्यशब्दा अपि विशेषेऽवतिष्ठन्ते इतिन्यायात् धर्माकर्णने, उत्त०३ अ०। विशे०। सुखलक्षणफलबहुलतायाम्, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। षोडशतीर्थकरस्य प्रवर्त्तिन्याम्, स०। सुइकरण-त्रि०(शुचिकरण) शुचीनि पवित्राणि निरुपलेपानीति भावः। करणानि-चक्षुरादीनि इन्द्रियाणि येषां ते शुचिकरणाः। पवित्रेन्द्रियेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि०। सुइत्ता-अव्य०(सुप्त्वा) शयित्वेत्यर्थे, स्था०३ ठा०२ उ०। सुइभूय-त्रि०(शुचिभूत) शौचप्राप्ते, स च द्रव्यतो, भावतश्च। तत्र द्रव्यतः स्नातःश्रीचन्दनानुलिप्तगात्रः सितवसननिवस-नशुचिविद्याक्लृप्तगात्रश्व भावतस्तु विशुद्धयमानमानसः / पञ्चा०२ विव० / शुचिताप्राप्ते, भूतशब्दस्य प्रकृतिमात्रार्थत्वाद् भावप्रत्ययस्त लुप्तस्य दर्शनाद्भूतशब्दस्य प्राप्त्यर्थत्वाच्च / अथवा-शुचिश्चासौ भूतश्च संवृतः प्राणी वा शुचिभूतः। विशुद्धमते, पञ्चा० 4 विव०। सूत्र० / स्था०। Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुइय 616- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुंवकट सुइय-त्रि०(शुचिक) पवित्रे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०भ० / शुचीकृत, बृ०१ . वर्षे भविष्यति तृतीये वासुदेवे, ती० 20 कल्प। ति०। उ०२ प्रक०। सुंदरमाव-पुं०(सुन्दरभाव) शुभभावे, पञ्चा० 4 विव०। सुइर-अव्य०(शुचिरम्) प्रभूते, आव० 4 अ०। सुंदरमंगुलभाव-पुं०(सुन्दरमगुलभाव) शुभेतरपदार्थे, आ० भ० 110 / सुइसेह-पुं०(शुचिशैक्ष) चोक्षशिष्ये, व्य०६ उ०। सुंदरिय-न०(सौन्दर्य) "स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात् " सुउल्लुआर-पुं०(सुऋजुकार) सुष्ठ्वतिशयेन ऋजुस्तकरणशीलः।। // 2 / 107 / / इति यात्पूर्व इत्। प्रा० / अविकलशरीरत्वे, आ०म० संयते, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०! 1 अ०। सुउरिस-पुं०(सुपुरुष)"क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां संदरी-स्त्री०(सुन्दरी) ऋषभदेवस्य सुनन्दायां भार्यायाम, बाहुबलिना प्रायो लुक्" ||8111177 / / इति यस्य लुकि। "स्वरस्योद्वत्ते" सह जनितायां भरतचक्रिस्त्रियाम, कल्प०१अधि०७ क्षण। आ०म० / ||1|| इति संधिविरहः / उत्तममनुष्ये / प्रा०१पाद। आ० चू० / पश्चात्सा श्रमणी जाता। आ० म० 1 अ० / सुए अव्य०(श्वस्) प्रभाते आगामिदिने, उत्त०२ अ०! सुंदरी अला पंचधणुसयाइं उळू उबत्तेणं पन्नत्ता। सुओयारा-स्त्री०(सुखावतारा) सुखेनावतारोजलमध्ये प्रवेशनंयासुताः स्था०५ ठा० 2 उ० / सुन्दरी अज्जा पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं सुखावताराः / अक्लिष्टतीर्थायां वाप्याम्, रा०॥ पालयित्ता सिद्धा / स०८४ सम०॥ सुखोत्तारा--स्त्री० सुखेनोत्तारो जलमध्यादहिर्विनिर्गमनं यासु ताः नासिक्यपुरे नन्दभार्यायाम्, नं० / आ० म० / आ० चू०। सुखोत्ताराः। अक्लिष्टतीर्थायां वाप्याम्, रा०। सुंदरीणंद-पुं०(सुन्दरीनन्द) नासिक्यपुरे सुन्दरीनाम्न्या स्त्रिया भर्तरि, सुंक-न०(शुल्क) विक्रेयतया भाण्डे, ज्ञा०१श्रु०१ अ०। नासिक नगरं नंदो वणियजो सुंदरी से भञ्जा। सा तस्स अतीव वल्लहा सुंकलितण-न०(शुङ्कलितृण) तृणभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। खणमपि तस्स पासंन मुंचइ त्ति लोगेण सुंदरीनंदो त्ति तस्सनामं पाइयं / आ०म०१ अ०! सुंग-पुं०(शुङ्क) स्वनामख्याते ऋषौ, जं०७ वक्ष०। सुंदेर-न०(सौन्दर्य)"एच्छय्यादी" ||157 / / इत्यादेरस्य सुंठ-पुं०(शुण्ठ) पर्वकवनस्पतिभेदे, आचा०१ श्रु०१ अ०५ उ०। विकल्पेनैत्वम्। प्रा०॥ "उत्सौन्दर्यादौ" ||1160 // इति ओत सुंठय-न०(शुण्ठक) मांसपेशीपचनके, स्था० 4 ठा०४ उ०। सूत्र०। उत्त्वम् / प्रा० / "ब्रह्मचर्य-तूय-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये यो रः" सुंठी-स्त्री०(शुण्ठी) शुष्कशृङ्गवेरे, आ० क०१अ०। प्रव०। ॥बा२।६३।। इतिर्यस्य रः / प्रा०। सुन्दरस्य भावः ष्यञ् / चारुतायाम्, सुंड-पुं०(शौण्ड) "उत्सौन्दर्यादौ" ||1 / 160 // इति औतः "अङ्गप्रत्यङ्गकानां यः, सन्निवेशो यथोचितम् / सुश्लिष्टः सन्धिबन्धः उत्त्वम्। धूर्ते, प्रा०१ पाद। स्यात्, तत् सौन्दर्यमुदाहृतम् // 1 // " इत्युक्ते अङ्गादीनां मनोहरत्वे, वाच० / प्रा०॥ सुंडा-स्त्री०(शुण्डा) हस्तिनासायाम, आ० म०१ अ०। सुंभ-पुं०(शुम्भ) नमिनाथस्य प्रथमगणधरे, प्रव० 8 द्वार। वैरोचनेन्द्रसुंडिया-स्त्री०(शुण्डिका) पिटिकाकारे सुरापिष्टस्वेदनभाजने, स्था०५ बलिभार्यायाः शुम्भायाः पूर्वभवपितरि, ज्ञा० / शुम्भायाः सिंहासने, ठा०३ उ०। नपुं० / ज्ञा०२ श्रु०२ वर्ग 1 अ०। सुंदर-त्रि०(सुन्दर) शोभने, आ० म०१ अ० / मनोहरे, स० / व्य० / सुंभय-त्रि०(शुंभक) शुभ्रवर्णकारिणि, अनु०। औ०। नपुं०।युक्ते, पिं०1०1०1 त्रयोदशजिनस्य पूर्वभवे जीवे, स० सुंभवडिंसग-न०(शुम्भावतंसक) बलिचञ्चाया राजधान्या बल्यग्रमसुंदरंग-न०(सुन्दराङ्ग) रुचिरशरीरे, अविनष्टदेहे, ध०३ अधि०। हिष्याः शुम्भाया आवासविमाने, ज्ञा०२ श्रु०२ वर्ग 1 अ01 सुंदरगुरुजोग-पुं०(सुन्दरगुरुयोग) ज्ञानादियुतगुरुसम्बन्धे, पञ्चा० 2 सुंभसिरी-स्त्री०(शुम्भश्री) बल्यग्रमहिष्याः शुम्भायाः पूर्वभवमातरि, ज्ञा० विव०। २श्रु०२ वर्ग 1 अ०। सुंदरजत्त-पुं०(सुन्दरयत्न) सुन्दरनरप्रधाने उद्यममात्रधर्मे, पञ्चा०६ सुंभा-स्त्री०(शुम्भा) बलेवैरोचनेन्द्रस्याग्रमहिष्याम् , स्था० 5 ठा० 1 विव०। उ०। (अस्याः पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे 166 पृष्ठे उक्ता।) सुंदरतर-त्रि०(सुन्दरतर) शोभनतरे, पं०व०१द्वार। सुंव-न०(सुंव) वल्कलरज्ज्वाम्, भ० 15 श० / वीरणतृणे, तजनितायां सुंदरपास-त्रि०(सुन्दरपार्श्व) पार्श्वगुणोपेते पाचे, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। | दवरिकायाम्, स्त्री०। विशे०। सुंदरबाहु-पुं०(सुन्दरबाहु) सप्तमतीर्थकरस्य पूर्वभवजीवे, साभारते | सुंवकट--पुं०(सुंवकट) वीरणकटे, भ०१३ श०६ उ०। Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुंसुमा ६१७-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुकरण सुंसुमा-स्त्री०(सुंसुमा) राजगृहवास्तव्यस्य धनश्रेष्ठिनः कन्यायाम, आo अअचन्दणा अजा तेणेव उवागया, अजचंदणं अजं वन्दति क० 1 अ० / ज्ञा० / ति०। आ० चू० / संथा०। ('चिलाइपुत्त' शब्दे नमंसति 2 त्ता एवं वयासी-इच्छामि णं अजात्तो तुम्भेहि तृतीयभागे 1188 पृष्ठे कथा!) अन्मणुण्णाया समाणी अहमियं भिक्खुपडिमं उवसंपत्तिा संसुमार पुं०(शिशुमार) मत्स्यविशेषे, उत्त० 36 अ० जी०। प्रज्ञा०। णं विहरेत्तते, अहासुहं। तते णं सासुकण्हा अजा अजचंदणाए सूत्र० / आo चू० / स्वनामख्याते नगरे, यत्रैकरात्रिकीप्रतिमाप्रतिपन्नं अभणुण्णाता समाणी अहमियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता वीरजिनं शक्रतिरस्कारार्थी चमरः प्रणनामा स्था० 10 ठा०३ उ०। णं विहरति / पढमे अट्ठए एककं भोयणस्य दत्तिं पडि० एकेकं आ० म०1 पाणयस्स० जाव अहमे अट्ठए अट्ठभोयणस्सपडिगाहेति अट्ट पाणगस्स / एवं खलु एयं अहमियं भिक्खुपडिमं चउसहिए सुक-पुं०(शुक) कीरे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। रातिहिं दोहि य अट्ठासीतेहिं भिक्खासतेहिं अहा० जाव सुकंत-पुं०(सुकान्त) शृषभर्देवस्य पुत्रे, कल्प०१अधि०७ क्षण।सुकान्तः नवनवमियं भिक्खुपडिमंउवसंपत्तिा णं विहरति / पढमे नवके कान्तियोगात् / स०। एकेकंमोयणस्सदत्तिं पडिगाहेंति एकेक पाणयस्स०जाव नवमे सुकच्छ-पुं०(सुकच्छ) द्वितीयविजयक्षेत्रयुगले, जं० 4 वक्ष०। (अस्य नवएनव 2 भोयणदत्तिं पडिगाहेति नव२पाणयस्स पडिगाहेति। वर्णनं 'गाहावई' शब्द तृतीयभागे 873 पृष्ठे उक्तम्।) एवं खलु एतं नवमियं भिक्खुपडिम एकासीयरातिदिएहिं चउहि सुकच्छकूड-पुं०(सुकच्छकूट) नपुं०। जम्बूद्वीपे सुकच्छदीर्घवैताळ्यस्य यपंचुत्तरेहिं मिक्खासतेहिं अहासुतं दस दसमियं भिक्खुपडिम स्वनामख्याते कूटे, स्था०२ ठा०१ उ०। जं०। उवसंपञ्जित्ता-णं विहरति / पढमे दसते एकेक भोयणदत्तिं पउिगाहेति एके कं पाणगदत्तिं० जाव दसमे दसए दस दस सुकड-त्रि०(सुकृत) सुष्ठु निर्वर्तिते, उत्त०१अ० सुष्ठ कृते, उत्त०१ भोयणदत्तं पडिगाहेति दस दस पाणस्स दत्तिं पडिगाहेति। एवं अ०। आचा० दश०! खलु एयं दसदसमियं भिक्खुपडिमं एक्केणं राइंदियसएणं सुकडक्खनिरिक्खिय-न०(सुकटाक्षनिरीक्षित) सुष्ठु नेत्रविकार अद्धछोहि य भिक्खासतेहिं अहासुत्तं० जाव आराहेति २त्ता निरीक्षणे, तं०। बहुहिं चउत्थ० जाव मासद्धमासविविहतवोकम्मेहिं अप्पाणं सुकडाइभाव-पुं०(सुकृतादिभाव) सुकृतदुष्कृतकर्मपुरुषाकारा- भावेमाणी विहरति / तएणं सा सुकण्हा अजा तेणं उरालेणं० नयत्यादिभाव, षा० 4 विव०। जाव सिद्धा। (सू०२१४) अन्त०१७०८ वर्ग अ०। सुकडासेवण-न०(सुकृतासेवन) सुकृत्यस्य सति विवेके नियत-भाविनो | सुकप्प-पुं०(सुकल्प) ज्ञानदर्शनादिषूपयोगे, पं० भा०। खण्डभावासिद्धेः परकृतामोदनरूपस्य सेवने, पं० सू०१ सूत्र०। दसणनाणचरित्ते,तवविणए णिचकालमुक्षुत्तो। सुकढिय-त्रि०(सुक्वथित) यथोक्ताग्निपरितापिते, जी० 3 प्रति०४ / णिचं पसंसिओ य, वयणम्मितं जाणसु सुकप्पं / अधि०। सुकप्पविहारीणं, एगंताऽऽराहणाय मोक्खाय। सुकण्ह-पुं०(सुकृष्ण) कूणिकस्य महाराजस्य सुकृष्णाया अग्रम-हिष्याः आराहणा य मोक्खेणे, चेव च्छिण्णो य संसारो। पुत्रे, नि०। (स च संग्रामे हतो नकरे उपपद्य महाविदेहं सेत्स्यतीति पं०भा०३ कल्प। निरयावलिकानां प्रथमवर्गस्य पञ्चमे अध्ययने सूचितम्।) इयाणिं सुकप्पो तत्थ गाहा। दसणनाणाइसु निचं पसंसिओपवयणे सो सुकण्हा-स्त्री०(सुकृष्णा) स्वनामख्यातायां श्रेणिकाग्रमहिष्याम्, भणति / गाहा सुकप्पविहाराइ / गाहासिद्धं एस पसत्था सुकप्पपकप्पे अन्त०। अणुगंतव्वा, अणुकप्पविहारीणं आराहणा य मोक्खेण चेव छिन्नो उ एवं सुकण्हा वि नवरं सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ता। संसारो 1पं० चू०३ कल्प०। णं विहरइ पढमे सत्तए एक्ककं भोयणस्सदत्तिं पडिगाहेति एकक सुकम्माण-त्रि०(सुकर्मन) सुकृतकर्मकारिणी, प्रा०२ पाद। पाणगस्स / दोचे सत्तए दो दो भोयणस्स दो दो पाणयस्स सुकय-त्रि०(सुकृत) सुष्ठु रचिते, उपा० अ० / शोभिते, आ० म० पडिगाहेति। तचे सत्तते तिण्णि भोयणस्स तिण्णि पाणयस्स, 1 अ०। कल्प०। प्रज्ञा०। षो०। औ०। रा०। प्रश्न०। चउत्थे सत्तए, पंचमे सत्तए 5, छठे सत्तए 6, सत्तमे सत्तते सत्त दत्तीतो भोयणस्स पडिगाहेति सत्त पाणयस्स, एवं खलु एयं सुकर-त्रि०(सुकर) कर्तुमलं समर्थे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। सत्तसत्तमियं भिक्खुपडिमं एगणपण्णाए रातिदिएहिं एगेण य सुकरण-न०(सुकरण) ववादिकानामेकादशानामन्यतमस्मिन् शोभने छन्नउएण य भिक्खासतेणं अहासुत्ता० जाव आराहेत्ता जेणेव करणे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकहिय 618- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुक्क सुकहिय त्रि०(सुकथिक) शोभनो मध्यस्थः कथकः प्रतिपादका यस्य नं०। 'सुकुमारलंगभद्द' सुकुमारश्चासौ भद्रश्च भद्रमूर्तिरिति समासो तत् सुकथिकम् / यथार्थज्ञानिभिः प्रतिपादिते, प्रश्न० 2 संव० द्वार! लकारककारी स्वार्थिको / भ० 16 श० 1 उ०। सुकुमालपाणिपाया' *सुकथित-त्रि० न्यायाबाधितत्वेन कथिते, प्रश्न०१ संव० द्वार। सुकुमारी कोमलौ पाणी च पादौ च यस्य स सुकुमारपाणिपादः / स्था० सुकाल-पुं०(सुकाल) सुकाल्या अयं पुत्रः सुकालः / कूणिक- 6 ठा०३ उ०रा०। "सुकुमालविकिण्णकेसहत्था" सुकुमारः स्वरूपेण महाराजाग्रमहिष्याः सुकाल्या आत्मजे, अन्त०। (सच संग्रामहेतोर्नरकं विकीर्णो व्याकुलचित्ततया केशहस्तो धम्मिल्लो यस्याः सा सुकुमाला गत्वा तत उदृत्य महाविदेहे सेत्स्यति।) वा विकीर्णाः केशा हस्तौ च यस्याः सा तथा। भ०६ श०३३ उ०। जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएण चंपा नाम नगरी होत्था / सुकुमालिया-स्त्री०(सुकुमारिका) भारते वर्षे चम्पायां नगर्यां सागरपुन्नभद्दे चेइए कोणिए राया। पउमावई देवी। तत्थ णं चंपाए दत्तसार्थवाहपुत्र्याम्, एषैव परभवे द्रौपदी नाम दारिका जाता। ज्ञा०१ नयरीए सेणियस्स रनो भज्जा कोणियस्स रनो चुल्लमाउया श्रु०१६ अ० / (तत्कथा 'दुवई' शब्दे चतुर्थभागे 2582 पृष्ठे उक्ता।) सुकाली नामं देवी होत्था, सुकुमाला। तीसे णं सुकालीए देवीए स्पर्शेन्द्रिये उदाहृतायां वसन्तपुरराजस्य जितशत्रोर्यायाम, आ० म० पुत्ते सुकाले नाम कुमारे होत्था, सुकुमाले / तते णं से सुकाले 1 अ०।आ० चू०1 ग०। बृ०। आचा०। कुमारे अन्नया कयाति तिहिं दंतिसहस्सेहिं जहा कालो कुमारो सुकुल-न०(सुकुल) इक्ष्वाक्वादिवशे, स्था०ा तथा सुकुले इक्ष्वाक्वादिके निरवसेसं तं चेव० जाव महाविदेहे वासे अंतं काहिति // 2 // प्रत्यायातिर्जन्मतो सुलभमिति / अत्राभिहितम्-"आर्यक्षेत्रोत्पत्ती, नि०१ श्रु०१ वर्ग 2 अ०। सत्यामपि सत्कुलं न सुलभं स्यात् / सच्च-रणगुणमणीनां, पात्रं प्राणी सुकाली-स्त्री०(सुकाली) स्वनामख्यातायां कूणिकस्याग्रमहिष्याम, भवति यत्र // 1 // " इति / स्था० 8 ठा० 3 उ० / सुकुले इक्ष्वाक्कादौ अन्त०॥ देवलोकात् प्रतिनिवृत्तस्याजातिर्जन्म आयातिर्वा आगतिः सुकुलतेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णाम णयरी होत्था, पुण्णभद्दे प्रत्याजातिः सुकुलप्रत्यायातिर्वा तामिति / स्था० 3 ठा०३ उ०। चेतिए कोणिते राया। तत्थ णं सेणियस्स रण्णो भना आचा० / जं०। कोणियस्सरण्णो चुल्लमाउया सुकालीनामं देवी होत्था, जहा | सुकृत-न०(सुकृत)"स्वराणां स्वरा प्रायोऽपभ्रंशे" ||326 / / काली तहा सुकाली विनिक्खंता० जाव बहूर्हि चउत्थं० जाव | इति ऋत ऋत्त्वम्। सुकृतम्। पुण्ये, प्रा०४ पाद। भावेमाणे विहरति / तते णं सा सुकाली अज्जा अण्णया कयाती | सुक्क-न०(शुक्र) सप्तमे धातौ, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०।रेतसि, स्था०२ ठा० जेणेव अज्जा चंदणा अजा० जाव इच्छामि णं अजो तुम्भेडिं 3 उ० / वीर्ये, तं० 1 (अङ्गादानाच्छुक्रनिष्काशनम् 'अंगादाण' शब्दे अब्मणुण्णाया समाणी कणगावलितवोकम्म उवसंपञ्जित्ता णं प्रथमभागे 40 पृष्ठे गतम्।) महाशुक्रस्य सप्तमदेवलोकस्य देवे, विशे०। विहरति / तो एवं जहा रयणावली तहा कणगावली वि नवरं प्रव० / सप्तमदेवलोकविमानभेदे, स०१७ सम०। सप्तमदेवलोकस्येन्द्रे, तिसु थाणेसु अट्ठमा तिकरे जहा रयणावलीए छट्ठातिं एकाए स्था०१०ठा०३ उ०। परिवाडीए एगे संवच्छरे पंच मासा वारसय अहोरत्ता चउण्हं तच्चरित्रम् - पंच वरिसा नव मासा अट्ठारस दिवसा सेसं तहेव नव वासा जंबू तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामनगरी होत्था, पुन्नमद्दे परियातो पावणिता० जाव सिद्धा / / 5 / / अन्त 1 श्रु०५ वर्ग चेइए, कूणिए राया, पउमावई देवी / तत्थ णं चंपाए नयरीए 1 अ०। सेणियस्स रन्नो भला कोणियस्स रनो चुल्लमाउया सुकाली सुकिदु-न०(सुकृत) "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे" || नाम देवी होत्था। तीसे णं सुकालीए पुत्ते सुकाले नाम 326 / / इत्यपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वराः / सुकिदु / सुकिओ। कुमारे / तस्स णं सुकालस्स कुमारस्स महापउमा नाम देवी सुकिउ। पुण्ये, प्रा०४ पाद। होत्था, सुकुमाला। तते णं सा महापउमा देवी अन्नदा कथाई सुकुमारकोमल-त्रि०(सुकुमारकोमल) अत्यन्तकोमल, औ०। तंसि तारिसगंसि एवं तहेव महापउमे नाम दारते. जाव सुकुमारया-स्त्री०(सुकुमारता) कोमलस्पर्शतायाम्, बृ०१ उ०२ प्रक०! सिज्झिहिति नवरं ईसाणे कप्पे उववाओ उकोसहिइओ, तं सुकुमाल-त्रि०(सुकुमार) अतिकोमले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ० / कोमले, एवं खलु जंबू ! समणेणं भगवया० जाव संपत्तेणं एवं सेसा वि बृ०१ उ०३ प्रक० / उत्त०। स्था०1 जी० / मृदुत्वं गते, नं०। भ०।। अट्ठ नेयव्वा / मा तातो सरिसनामाओ। कालादीणं दसण्डं पुत्ता अकर्कशस्पर्श, जी०३ प्रति० 4 अधि०। स्था०। औ०। रा०ाअन्त०। आणुपुदीए-"दोहंच पंचचत्तारि, तिण्हं तिण्हंच होति ति Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्क E१६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुक्क नेव / दोण्हं च दोण्णि वासा, सेणियनत्तूण परियातो ||1||" उववातो आणुपुव्वीते-पढमो सोहम्मे, बितितो ईसाणे, ततितो सणंकुमारे, चउत्थो माहिंदे, पंचमओ बंभलोए, छटो लंतए. सत्तमओ महासुक्के, अट्ठमओ सहस्सारे, नवमओ पाणते, दसमओ अचुए। सव्वत्थ उक्कोसटिई भाणियव्वा, महाविदेहे सिद्धे॥१०|| कप्पडिसियाओ समत्ताओ। वितितो वग्गो दस अज्झयणा // 2 // (नि०)जहणं भंते ! समणेणं भगवता० जाव संपत्तेणं उक्खेवतो भाणियव्यो, रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेइए०, सेणिए राया, सामी समोसढे, परिसा निग्गया / तेणं कालेणं तेणं समएणं सुक्के महग्गहे सुक्कवडिंसए विमाणे सुकंसि सीहासणंसि चउहि सामाणियसाहस्सीहिं जहेव चंदो तहेव आगओ, नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगतो, भंते त्ति कूडागारसाला। पुटवभवपुच्छा / एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं० वाणारसी नाम नगरी होत्था। तत्थ। णं वाणारसीए नयरीए सोमिले नाम माहणे परिवसति, अड्डे० जाव अपरिभूते रिउव्वये० जाव सुपरिनिहिते / पासे अरहा पुरिसादाणीए समोसढे परिसा पछुवासति / तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समाणस्स इमे एतारूवे अज्झथिए-एवं पासे अरहा पुरिसादाणीए पुष्वाणुपुर्दिव० जाव अंबसालवणे विरहति / तं गच्छामिणं पासस्स अरहतो अंतिए पाउन्भवामि। इमाइंच णं एयारूवाइं अट्ठाई हेऊइं जहा पण्णतीए / सोमिलो निग्गतो खंडियविहुणो० जाव एवं वयासी-जत्ता ते भंते ! जवणिशं च ते ! पुच्छा सरिसवया मासा कुलत्था एगेभवं० जाव संबुद्धे सावगधम्म पडिवजित्ता पडिगते। ततेणंपासेणं अरहा अण्णया कदायि वाणारसीओ नगरीओ अंबसालवणातो चेइयाओ पडिनिक्खमति अंबसालवणाओ चेइयातो पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरति। ततेणं से सोमिले माहणे अण्णदा कदायि असाहुदंसणेण य अपजुवासणताए य मिच्छत्तपनवेहि परिवठ्ठमाणेहिं 2 सम्मत्तपनवेहि परिहायमाणेहिं मिच्छत्तं च पडिवन्ने / तते णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स अण्णदा कदायि पुटवरत्ताववरत्तकालसमयंति कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वाणरसीएनयरीए सोमिले नाममाहणे अचंतमाहणकुलप्पसूए। ततेणं मए वयाई चिण्णाई, वेदा य अहीया, दारा अहूया, पुत्ता जणिता, इड्डीओ समाणीओ, पसुवधा कया, जन्ना जेट्ठा, / दक्खिणा दिन्ना, अतिही पूजिता, अग्गी हूया, जूवा निक्खित्ता। तंसेयं खलु मम इदाणि कल्लं० जाव जलंते वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामारोवावित्तए, एवं माउर्लिंगा बिल्ला कविठ्ठा चिंचा पुप्फारामा रोवावित्तए, एवं संपेहेति संपेहित्ता कल्लं० जाव जलंते वाणारसीए नयरीए वहिया अंबारामे य० जाव पुप्फाराम य रोवावेति / तते णं बहवे अंबारामा य० जाव पुप्फारामा य अणुपुटवेणं सारक्खिज्जमाणा संगोविजमाणा संवड्डिजमाणा आरामा जाता किण्हा किण्हाभासा०जाव रम्मा महामेहनिकुरंबभूता पत्तिया पुफिया फलिया हरियपरेरिज्जमाणसिरिया अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति। ततेणं तस्स सोमिलस्समाहणस्स अण्णदा कदायि पुष्वरत्तावस्त्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झथिए० जाव समुप्पज्जित्था- एवं खलु अहं वाणारसीए णयरीए सोमिले नामं माहणे अचंतमाहणकुलप्पसूते / तते णं मए वयाइं चिण्णाइं० जाव जूवा णिक्खित्ता / तते णं मए वाणारसीए नयरीए बहिया बहवे अंबारामा० जाव पुप्फारामाय रोवाविया,तं सेयं खलु ममंइदाणि कल्लं०जाव जलंते सुबहुं लोहकडाहकडुच्छुयं तंबियं तावसमंडं घडावित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं मित्तनाइ० आमंतित्ता तं मित्तनाई णियग० विउलेणं असण० जाव सम्माणित्ता तस्सेव मित्त० जाव जेहपुत्तं कुंडंबे ठावेत्तातं मित्तनाइ० जाव आपुच्छित्ता सुबहुं लोहकडाहकडुच्छुयं तंबियतावसभंडगंगहायजे इमे गंगाकूला वाणपत्था तावसा भवंति,तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जनती सङ्घती घालती हुंवउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मञ्जगा संमजगा निमज्जगा संपक्खालगा दक्खिणकूला उत्तरकूला संखधमा कूलधमा मियलुद्धया हत्थितावसा उइंडा दिसापोक्खिणो वकवासिणी बिलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वायुभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाऽऽहारा कंदाऽऽहारा तयाऽऽहारा पत्ताहारा पुष्पहारा फलाऽऽहारा बीयाऽऽहारा पडिसडियकं दमूलतयपत्तपुप्फफलाऽऽहारा जलाऽभिसेयकठिणगायभूता आयावणाहिं पंचग्गीतावेहिं इंगालसोल्लियं कंदसोल्लियं वि व अप्पाणं करेमाणा विहरति / तत्थ णं जे ते दिसापोक्खिया तावसा तेसिं अंतिए दिसापोक्खियत्ताए पव्वइत्तए पटवयिते वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गह अंभिगिहिस्सामि कप्पति मे जावजीवाए छटुं छट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उबुबाहातो पगि Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुक्क ज्झिय 2 सूराभिमुहस्स आतावणभूमीए आतावेमाणस्स | विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ २त्ता कल्लं० जाव जलते सुबहुं लोह० जाव दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए २त्ता विय णं समाणे एम एयारूवं अभिग्गहं० जाव अभिगिण्हित्ता पढम छट्टक्खमणं उवसंपजित्ता णं विहरति / तते णं सोमिले माहणे रिसी पढमछट्ठक्खमणपारणंसि आयावणभूमीए पचोरुहति 2 ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उड्डए तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयं गेण्हति किढि० ता पुरच्छिमं दिसिं पुक्खेति पुरच्छिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अमिरक्खउ सोमिलमाहणरिसिं अभि०२ जाणिय तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि ताणि अणुजाणउ त्ति कटु पुरच्छिमं दिसं पसरति पुरच्छि० ता जाणि य तत्थ कंदाणि य० जाव हरियाणि य ताइं गेण्हति, किढिणसंकाइयं भरेति किढिणसकाइयं भरित्ता दन्भे य कुसे य पत्तामोडं च समि-हाकट्ठाणि य गेण्हति समिहा०त्ता जेणेव सए उडए तेणेव उदागच्छइतेणेव उवागच्छित्ता किढिणसंकाइयगं ठवेति किदि०त्ता वेदि वड्डेति वेदि वड्वेत्ता उवलेवणसमजणं करेति उवलेव० रेत्ता दन्भकलसहत्थगते जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ० तेणेव उवामच्छित्ता गगं महानदि ओगाहति गंगं महान०त्ता जलमजणं करेति जलकत्ता जलकिळं करेति जलकत्ता जलाभिसेयं करेति २त्ता आयंते चोक्खे परमसूइभूए देवपिउकयकले दम्भकलसहत्थगते गंगातो महानदीओ पञ्चुत्तरतिजेणेव सते उडए तेणेव उवागच्छइ दब्मे य कुसे य वालुयाए य वेदिं रएति, वेदि रएत्ता सरयं करेति, सरयं करेत्ता अरणिं करेति, अर०त्ता सरएणं अरणिं महेति, सर० त्ता अग्गि पाडेति, अगि पाडेता अगि संधुक्खेति, अग्गि सं०त्ता समिहाकट्ठाणि पक्खिवति, समि० त्ता अग्गिं उज्जालेति अगिंउत्ता"अग्गिस्सदाहिणेपासे सत्तंगाई समादहे।" तंजहा-"सकथं वकलं ठाणं सिजं भंडं कमंडलुं। दंडदारं तहप्पाणं, अह ताइं समादहे // 1 // " मधुणाय धएणय | तंदुलेहि य अग्गिं हुणइ, चरुंसाधेति चरं साधेत्ता बलिवइस्सदेवं करेति बलि० त्ता अतिहिपूर्य करेति अति० त्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारं आहारेति / तते णं सोमिले माहणरिसी दोचं छटुं व खमणपारणगंसि तं चेव सवं भाणियव्वं जाव आहारं आहारेति, नवरं इमं नाणत्तं दाहिणाए दिस्सए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अमिरक्खउसोमिलं सहाणरिसिं जाणिय तत्थ कंदाणिय० जाव अणुजाणउत्ति कट्ट दाहिणं दिसिंपसरति। एवं पञ्चत्थिमेणं वराणे महाराया० जावपञ्चत्थिमं दिसि पसरति। उत्तरेणं वेसमणे महाराया० जाव उत्तरं दिसिं पसरति। पुय्वदिसागमेणं चत्तारि विदिसाओ भाणियवाओ० जाव आहारं आहारेति। ततेणं तस्ससोमिलमाहणरिसिस्स अण्णया कयायि पुटवरत्तावरत्तकालयमयंसि अणिचजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूपे अज्झथिएजाव समुप्पज्जित्था, एवं खलु अहं वाणारसीए नगरीए सोमिले नाम माहणरिसी अचंतमाहणकुलप्पसूए, तते णं मए वयाई चिण्ण इं० जावजूवा निक्खित्ता। तते णं मम वाणारसीए० जाव पुप्फारामा य० जाव रोविता। तते णं मए सुबहुलोह० जाव घडावित्ता० जावजेट्टपुत्तं ठावित्ता० जाव जेहपुत्तं आपुच्छित्ता सुबहुलोह० जाव गहाय मुंडे० जाव पव्वइए विय णं समाणे छटुं छडेणं० जाव विहरति / तं सेयं खलु ममं झ्याणिं कल्लं पादु० जाव जलते बहवे तावसे दिट्ठा भट्टे य पुथ्वसंगतिएय परियायसंगतिए अआपुच्छित्ता आसमसंसियाणि य बहूहिं सत्तसयाइं अणुमाणइत्ता वागलवत्थनियत्थस्स कठिणसंकाइयगहितसमंडोवकरणस्स कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहस्स महपत्थ णं पत्थावेइत्तए एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता कल्लं० जाव जलते बहवे तावसे य दिठ्ठा भट्टे य पुथ्वसंगतिते य तं चेव० जाव कट्ठमुहाए मुहं बंधति, बंधित्ता अयमेतारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हति जत्थेव णं अम्हं जलंसि वा एवं थलंसि वा दुग्गंसि वा निन्नसिवा पव्वतंसि वा विसमंसि वा गड्डाए वा दरीए वा पक्खलिज्जा वा पटवडिज वा नो खलु मे कप्पति पचुट्टित्तए त्ति कटु अयमेयारूवं अमिग्गहं अभिगिएहति, उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहपत्थाणं (महपत्थाणं) पत्थिए से सोमिले माहणरिसी पुटवावरण्हकालसमयंसिजेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागते, असोगवरपायक्स्स अहे कढिणसंकाइयं ठवेति, कढि० ठवेत्ता वेदि वड्डेइ वेत्ताउवलेवणसंमजणं करेति उव० करेत्ता दमकलसहत्थगते जेणेव गंगामहानई जहा सिवो० जाव गंगातो महानईओ पञ्चुत्तरह, जेणेव असोगवरपायये तेणेव उवागच्छइतेणेव उवागच्छित्ता दडमेहि य कुसेहिय वालुयाए वेदिं रतेति, वालुत्ता, सरगंकरेति० जाव बलिवइस्सदेवंकरेति बलि० त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधतितुसिणीएसंचिठ्ठति।ततेणं तस्स सोमिल Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्क 621 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुक्क माहणरिसिस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पाउन्भूते / तते णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-हं भो सोमिलमाहणा ! पव्वइया दुप्पव्वइतं ते / तते णं से सोमिले तस्स देवस्स दोचं पि तच्चं पि एयमटुंनो आढाति नो परिजाणइ० जाव तुसिणीए संचिट्ठति। तते णं देवे सोमिलेणं माहणरिसिणा अणाढाइजमाणे जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव० जाव पडिगते। तते णं से सोमिले कल्लं० जाव जलंते वागल-वत्थनियत्थे कढिणसंकाइयं गहियग्गिहोत्त-भंडोवकरणे कट्ठमुद्दाए मुहं बंधेति, कट्ठ० बंधेत्ता उत्तराभिमुहे संपत्थिते / तते णं से सोमिले बितियदिवसम्मि पुव्वावरण्हक लसमयंसि जेणेव सत्तिवन्ने अहे कढिणसंकाइयं ठवेति कढि० ठवेत्ता वेति बढेति वेतिं वड्डेत्ता जहा असोगवरपायवे० जाव अग्गि हुणति, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति, तुसिणीए संचिट्ठति। तते णं तस्य सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि एगे देवे अंतियं पा-उन्भूए / तते णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने जहा असोगवरपायवे०जाव पडिगते। तते णं से सोमिले कल्लं० जाव जलंते वागलवंत्थनियत्थे कढिणसंकाइयं गेण्हति कढि० त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति कट्ठ० त्ता उत्तरादिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिते / तते णं से सोमिले ततियदिवसम्मि पुव्वावरण्हकालसमयंसिजेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ उवा०त्ता असोगवरपायवस्स अहे कढिणसंकाइयं ठवेति, वेतिं वड्डेति० जाव गंगं महानई पच्चुत्तरति गंगं० 2 ता जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता वेतिं रएति वेतिं रएत्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति कट्ठ० त्ता तुसिणीए संचिट्ठति / तते णं तस्स सोमिलस्स पुय्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउब्भूया तं चेव भणति० जाव पडिगते। तते णं से सोमिले०जाव जलंते वागल-वत्थनियत्थे कढिणं संकाइयं० जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति कटुं०बंधित्ता उत्तराए दिसाए उत्तराभिमुहे संपत्थिए / तते णं से सोमिले चउत्थदिवसपुवावरण्ह-कालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागते वडपायवस्स अहे किढिणं संठवेति किढ०त्ता वेइं बड्डेति उवलेवणसंमज्जणं करेति० जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति, तुसिणीए संचिट्ठति / तते णं तस्स सोमिलस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भूया तं चेव भणति० जाव पडिगते / तते णं से सोमिले० जाव जलंते बागलवत्थनियत्थे किढिणसंकायियं० जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति, उत्तराए उत्तराभिमुहे संपत्थिते / तते णं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पुटवावरण्हकालसमयंसि जणेव उंबरपायवे उंबरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेति, वेई वड्डेति० जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति० जाव तुसिणीए संचिट्ठति / तते णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुटवरत्तावरत्तकाले एगे देवे० जाव एवं वयासी-हं भो सोमिला ! पव्वइया दुप्पव्वइयं ते पढ़म भणति, तहेव तुसिणीए संचिट्ठति / देवो दोच्चं पि तचं पि वदति सोमिला ! पव्वइया दुप्पव्वइयं ते। तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोचं पितचं पि एवं वुत्ते समाणे तं देवं एवं क्यासीकहाणं देवाणु-प्पिया ! मम दुप्पव्वइतं? तते णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुमं पासस्स अरहओ पुरिसादाणीयस्स अंतियं पंचाणुव्वए सत्त सिक्खावए दुवालसविहे सावगधम्मे पडिवन्ने, तए णं तव अण्णदा कदाइ पुव्वरत्त० कुडुंब० जाव पुव्वचिंतितं देवो उच्चारेति० जाव जेणेव असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता किढिण संकाइयं० जाव तुसिणीए संचिट्ठसि। तते णं पुव्वरत्तावरत्तकाले तव अंतियं पाउन्भवामि हं भो सोमिला ! पव्वइया दुप्पय्वतियं ते तह चेव देवो नियवयणं भणति० जावपंचमदिवसम्मि पुव्वावरहकालमसयंसि जेणेव उंबरवरपायवे तेणेव उवागते किढिणसंकाइयं ठवेति वेदि वड्डेति उवलेवणं संमज्जणं करेति सम्म० त्ता कट्ठमुद्दाए मुहं बंधति, कट्ठमुद्दाए मुहं बंधित्ता तुसिणीए संचिट्ठसि, तं एवं खलु देवाणुप्पिया ! तव दुप्पव्वयितं / तते णं से सोमिले तं देवं वयासी- (कहं णं देवाणुप्पिया ! मम सुप्पव्वइतं ? तते णं से देवे सोमिलं एवं वयासी) जइ णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणिं पुय्वपडिवण्णाइंपंच अणुव्वयाइं सयमेव उवसंपजित्ता गं विहरसि, तोणं तुज्झइदाणिं सुपव्वइयं मविञ्जा। तते णं देवे सोमिलं वंदति वंदित्ता नमसतिनमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूते० जाव पडिगते। तते णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं बुत्ते समाणे पुव्वपडिवन्नाइं पंच अणुव्वयाई सयमेव उवसंपजित्ता णं विहरति / तते णं से सोमिले बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम० जाव मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति बहू० णित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं पाउणति बहू० णित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेति अद्धमा० त्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदे ति अण० त्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकं ते विराहियसम्मत्ते कालमासे कालं किच्चा सुक्कवडिंसए विमाणे उववातभादेवसय Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्क 622- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुक्कज्झाण णिजंसि० जाव ओगाहणाए सुकमहग्गहत्ताए उववन्ने / ततेणं से | अर्था व्यञ्जने व्यञ्जनादर्थे तथा मनःप्रभृतीनां योगानामन्यतरस्मासुके महग्गहे अहुणोववन्ने समाणे० जाव भासामणपछत्तीए एवं दन्यतरस्मिन्निति विचारो 'विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसङ्क्राति' रिति खलु गोयमा ! सुक्केणं महग्गहेणं सा दिव्या० जाव अभिसमन्नागए (तत्त्वा० 6 अ४६ सू०) वचनात्, सह विचारेण सविचारि, सर्वधनादिएग पलिओवमहिती सुक्के णं भंते ! महग्गहे ततो देवलोगाओ त्वादिन्समासान्तः, उक्तं च "उप्पायट्ठितिभंगाईपज्जयाणं जमेगदव्वम्मि। आउक्खए कहिं गच्छिहिति कहिं सिज्झिहिति ? गोयमा ! - नाणानयाणुसरणं, पुव्वगयसुयाणुसारेणं / / 1 / / सवियारमत्थवंदण - महाविदेहवासे सिज्झिहिति। नि०१ 03 वर्ग 3 अ०। / जोगंतरओ तयं पढमसुक्कं / होति पुहुत्तवियकं सवियारमरागभावस्स द्वाचत्वारिंशत्तमे महाग्रहे, कल्प० 1 अधि०६ क्षण | चं० प्र०। // 2 // " इत्येको भेदः, तथा 'एगत्तवियक्के त्ति एकत्वेन-अभेदेनोत्पादास्था०। सूर्यादिग्रहेष्वन्यतमे ग्रहे, स्था० 8 ठा०३ उ०। प्रज्ञा० / सू० दिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थो वितर्कः-पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकत्ववितर्कम, तथा न विद्यते विचारोप्र०ा औ०। ऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र, तथा मनःप्रभृतीनामन्यतरस्मादन्यत्र दो सुक्का / स्था 2 ठा०३ उ०। सचरणलक्षणो निर्वातगृहगतप्रदीपस्येव यस्य तदविचारीति पूर्ववदिति, *शुक्ल-न० शोधयत्यष्टप्रकार कर्ममलं शुचं वा शोकं क्लमयत्यप- उक्तंच-"जंपुण सुनिप्पकंप, निवायसरणप्पईवमिवं चित्तं / उप्पायट्ठिनयतीति निरुक्तविधिना शुक्लम्। प्रव०६ द्वार।आतु०। आव०। आ० इभंगा-इयाणमेगम्मि पञ्जाए।।११अवियारमत्थर्वजण--जोगतरओतयं चू० ध्यानभेदे, उत्त०३० अ० प्रव०॥ एतदपि पूर्वगतश्रुतानुसारिना- बिइयसुक्कं / पुव्वगयसुयालंबण-मेगत्तवियक्कमवियारं // 2 // " इति नानयमतैकद्रव्योत्पत्तिस्थितिभङ्गादिपर्यायानुस्मरणादिस्वरूपम- द्वितीयः, तथा 'सुहुमकिरिए ति निर्वाणगमनकाले केवलिनो निरुद्धमनो बाधसंमोहादिलिङ्गगम्यं मोक्षादिफलसाधकं विज्ञेयम्। अत्र चधर्मशुक्ले वाग्योगस्या निरुद्धकाय-योगस्यैतद्, अतः सूक्ष्मा क्रियाकायिकी एव तपसी निर्जरार्थत्वात्, नातरौद्रे बन्धहेतुत्वादिति / प्रव० 6 द्वार। उच्छ्वासादिका यस्मिस्तत्तथा, न निवर्त्तते,-नव्यावर्त्तत इत्येवंशीलसंवत्सरादूर्ध्वं क्रियामलत्यागेन संवत्सरे कालात्ययेन शुक्लं ध्यानं मनिवर्ति प्रवर्द्धमानतर परिणामादिति। भणितंच-"निव्वाणगमणकाले, भवति / षो०१२ विव० / अभिन्नवृत्ते अमत्सरिणि कृतज्ञैः सदारम्भिणि के वलिणो दरनिरुद्ध जोगस्स / सुहमकिरियाऽनियहि, तइयं हितानुबन्धे, पं० सू० 4 सूत्र०। "सुक्के सुक्काभिजाइए'। भ०८ श०५ तणुकायकिरियस्स॥१॥" इति तृतीयः, तथा, 'समुच्छिन्नकिरिए' त्ति उ० / अष्ट० / त्रि० / शुभ्रे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। समुच्छिन्नाक्षीणा क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिस्तत्तथा, 'अप्पडिवाए' त्ति अनुपरतिस्वभावमिति चतुर्थः, आह*शुल्क-न० मूल्ये, ज्ञा०१ श्रु०८ अ० / कल्प० / दाने, भ०५५ श०। "तस्सेव य सेलेसीगयस्स सेलो व्व निप्पकंपस्स / वोच्छिन्नकिरिराजदेये द्रव्ये, इत्यन्ये / बृ० 1 उ०२ प्रक० / नि०। यमप्पडिवाई झाणं परमसुक्कं॥१॥" इति, इह चान्त्ये शुक्लभेदद्वये अयं *शुष्क-त्रि० नीरसे, भ०२ श० 1 उ०। स्तोकव्यञ्जने, दश०५ अ० क्रमः- केवलीकिलान्तर्मुहूर्तभाविनी परमपदे भवोपग्राहिकर्मसु च 1 उ०। वल्यचणकादौ, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। वेदनीयादिषु समुद्घाततो निसर्गेण वा समस्थितिषु सत्सु योगनिरोधं सुक्कच्छणिया-स्त्री०(शुष्कच्छणिका) शुष्कगोमयपिण्डे, अणु०। करोति, तत्र चसुक्कच्छेवाडिया-स्वी०(शुष्कच्छेवाडी) आतपशुष्कायां वल्यादि- 'पज्जत्तमेत्तसन्नि-स्स जत्तियाई जहन्न जोगस्स। फलिकायाम्, छेवाडी नामवल्यादिफलिका सा च क्वचिद्देशविशेषे शुष्का होति मणोदव्वाई, तव्वावारो य जम्मेत्तो।।१।। सती अतीव शुष्कवस्तूपमानत्वेन वर्ण्यते। जी०३ प्रति० 4 अधि०। रा० तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरुंभमाणो सो। सुक्कजलोया-स्वी०(शुष्कजलौका) जलौकाख्यजलजन्तुविशेषस्या- मणसो संव्वनिरोह, कुणइ असंखेज्जसमएहिं॥२॥ स्थिन, अणु०। पज्जत्तमेत्तबिंदिय, जहन्नवइजोगपञ्जया जे उ। सुकज्झाण-न०(शुक्लध्यान) शुचं क्लामयतीति शुक्लं शोकं तदसंखगुणविहीणे, समएसमए निरंभंतो॥३|| ग्लपयतीत्यर्थः 'ध्यै चिन्तायां, ध्यायते-चिन्त्यते तत्त्वमनेनेतिध्यानम्- सव्ववइजोगरोह, संखातीएहिँ कुणइ समएहिं। एकाग्रचित्तनिराध इत्यर्थः। शुक्लंच तद्ध्यानंच शुक्लध्यानम्।तस्मिन्, तत्तो असुहुमपणग-स्स पढमसमओववन्नस्स।।४।। आव० 4 अ०।दोषमलापगमाच्छुचित्वंतदनुषङ्गाच्छुक्लध्यानम्। सम्म० जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेजगुणहीणमेक्कक्के / 3 काण्ड। शुक्लंशुभस्वाभाविकं सर्वोपाधिबाधारहितं चित्तमन्तःकरणं समए निरुंभमाणो, देहतिभागं च मुंचंतो॥५॥ यस्मिन् ध्याने तत् ध्यानमप्युपचाराच्छुक्लम् / दर्श० 4 तत्त्व / अथ शुक्लमाह-'पुहुत्तवितक्के' त्ति-पृथक्त्वेन-एकद्रव्या श्रितानामुत्पादा रुंभइ य कायजोगं, संखाईतेहिँ चेव समएहि। दिपर्यायाणां भेदेन पृथुत्वेन वा विस्तीर्णभावेनेत्यन्ये, वितर्को-विकल्पः तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेइ // 6 // " पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यस्मिंस्तत्तथा, पूज्यैस्तु शैले शस्ये व-मेरो विय या स्थिरता सा शैले शीति, वितर्कः श्रुतालम्बनतया श्रुतमित्युपचारादधीत इति, तथा विचरणम्- | "हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भन्नति / अच्छइ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्क ज्झाण 923 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुक्खवाय सेलोसंगओ, तत्तियमेत तआ काल ||1|| तणुरोहरंभाओ, झायइ | (ननु देवाना शुक्रपुद्गलाः सन्ति उत नेत्युक्तं 'गब्म' शब्दे तृतीयभागे सुहमकिरियाणियदि सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाइं सेलसिकालांम्म 632 पृष्ठे।) // 2 // " इति। स्था०४ ठा०१उ०। ध्यानभेदे, स०३ सम०। आव०॥ सुकमास-पुं०(शुक्लमास) लघुमासे, बृ०३ उ०। प्रव०। कल्प०। आ० म०। सुक्कलेस्सा-स्त्री०(शुक्ललेश्या) शुचं क्लमयतीति शुक्ला सा चासौ अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुत्तरं झाणवरं झियायइ। लेश्या च शुक्ललेश्या। लेश्याभेदे, आतु० स०। पा०। उत्त०। उपा०। सुसुक्कसुक्कं अयडगसुक्कं, संखंडुएगंतवदातसुक्कं // 16 // " सुकडिंसग-न०(शुक्रावतंसक) शुक्रदेवेनाधिष्ठिते विमाने, नि०१ श्रु० सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। (व्याख्या 'वीर' शब्दे षष्ठे भागे 1360 पृष्ठे / १वर्ग६अ। गता / ) "यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराङ्मुखानि, संकल्प सुखवाद-पुं०(शुष्कवाद) परानर्थो लघुत्वंच, विजयेचपराजये। यत्रोक्ती कल्पनविकल्पविकारदोषैः / योगैः स च त्रिभिरहो निभृतान्तरात्मा, सह दुष्टन, शुष्कवादः प्रकीर्तितः॥१॥"इत्युक्त-लक्षणे वादभेदे, द्वा०७ ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति // 1 // " दश० 1 अ० / शुक्ले तु द्वा० / अष्ट। जन्मक्षयः / दर्श०४ तत्त्व। ग०। संधा० / आव०। औ०। आ० चू01 सुक्कसोणियसंभव-त्रि०(शुक्रशोणितसम्भव) शुक्र-रेतः शोणितम्सुक्कड न०(सुकृत) शुभकर्मणि, 'सुक्कडदुक्कडकम्माणं फलविवागे आर्त्तवंताभ्यां संभवो येषां ते तथा। वीर्यरजोभ्यामुत्पन्नेषु, स्था०२ठा० आघविज्जति' स०१४५ सम०१ कल्याणविपाके कर्मणि, सूत्र०२ श्रु० 3 उ०। 1 अ० / कृते० त्रि०। सूत्र०२ श्रु०१अ०। दोसुकसोणियसंभवा पण्णत्ता,तंजहा-मणुस्सा चेव,पंचिंदिसुक्कणाम-न०(शुक्लनामन) वर्णनामकर्मभेदे; यदुदयाजन्तुशरीरेषु यतिरिक्खजोणिया चेव। (सू०९५४) स्था०३ ठा०३ उ०। शुक्लो वर्णो भवति तत् शुक्लनाम। कर्म०६ कर्म०। सुकाभिजाइय--पुं०(शुक्राभिजात्य) शुक्रप्रधाने तथाविधे श्रावके, भ० सुकणिरोह-पुं०(शुक्रनिरोध) मैथुनाकरणाद्वीर्यनिरोधे, पं० चू०१ 4 श०५ उ०। भिन्नमत्सरता-कृतज्ञता-सदारम्भ-हितारम्भप्रधाने, शुक्रनिरोधे चापुरुषत्वं स्यादिति ! आह-यद्येवं शुक्रनिरोधे अपुरुषत्वं पं० सू० भ०। भवति, तदेयमव्यवस्था यस्मादमी भगवन्तः साधव पूर्वकोट्ययुष्का अपि ब्रह्मचर्यं धारयन्ति न च तेषामपुरुषत्वं भवत्यतः समयविरुद्धमुदाहृतम्। सुकाभोग-पुं०(शुक्लाभोग) शुद्धज्ञानोपयोगे, षो० 13 विव०। आचार्य आह-न; सिद्धान्ता-पारज्ञानात् इह सामान्येन सूत्रमभिहितम्-- | सुक्किय-त्रि०(सुक्रीत) सुष्ठु क्रीते, 'सुक्कियं वा सुविक्किय' सुक्रीतं चेति तत्र येशकु-निनस्तत्कर्मसेविनः पक्षिका मक्षिका इव शाल (लू) काद्या | केनचित्क्रीत सत् दर्शितं सत्सुक्रीतमिति नव्यागृणीयात्।दश०७०। उत्कटवेदास्तान्प्रतीत्य सूत्रनिपातः-यस्मात्तेषां वेदप्रादुर्भाव-निरोधेन सुकिल्ल-त्रि०(शुक्ल) "लात्" // 2106 / / इति पूर्व इत् / नपुंसकत्वमापद्यते ततो न विरोधः। पं० चू०२ कल्प०। सुकिल्लं / सुइलं / प्रा० / शुक्लवर्णवति, स्था०१ ठा० / आ० म०। सुक्कपक्ख-पुं०(शुक्लपक्ष) ज्योत्स्नावति मासार्दै, ज्यो० 4 पाहु० / जी० / प्रज्ञा० / सू० प्र० / आचा० / स० / लघुमासप्रायश्चित्ते, यत्र ध्रुवराहुः चन्द्रविमानमावृत्तं मुञ्चति तेनज्योत्स्नाधवलितया शुक्लः 'सुकिल्लतेयलहुया सुकिल्ला नाम लहुगा।' नि० चू०१ उ०। स्था० / पक्षः स शुक्लपक्षः। जं०७ वक्ष०। सुक्कीड-पुं०(सुक्रीड) सुक्रीडो देवराजानां सुष्टु-अतिशयेन परमरमसुक्कपक्खिय-पुं०(शुक्लपाक्षिक) शुक्लपक्षसंभव, स्था०1 णीयतया क्रीड्यते इति सुक्रीडः / परमक्रीडास्थाने, ज्यो०१० पाहु०। दुविहा जेरइया पण्णत्ता, तं जहा-किण्हपक्खिया चेव, | सुक्ख-त्रि०(शुष्क) "शुष्कस्कन्दे वा" ||25|| अनेन कस्य वा सुक्कपक्खिया चेव० जाव वेमाणिया। (सू०७६+) स्वकारः / सुक्खं। सुझं / शोषमुपगते, प्रा०। स्था०। नि० चू०। शुक्लो विशुद्धत्वात्पक्षोऽभ्युपगमःशुक्लपक्षस्तेनचरतिशुक्लपाक्षिकः | *सौख्य-न०। भोगसम्पाद्यानन्दविशेषे, स्था०४ ठा०४ उ०। शुक्लत्वं च क्रियावादित्वेनेति आहच-"किरियावाई भव्वे, नो अभव्वे दसविहे सुक्खे पण्णत्ते, तंजहा-"आरोग्गदीहमाउं, अङ्कजं सुक्कपक्खिए किण्हपक्खिए" त्ति-शुक्लानां आस्तिकत्वेन शुक्लानां काम भोगसंतोसे। अत्थि सुखभोगनिक्खम्ममेव तत्तो अणावाहे पक्षोवर्गः शुक्लपक्षस्तत्र भवःशुक्लपाक्षिकः स्था०२ ठा०२ उ०। पं० ||1||" (सू०७३७४) स्था० 10 ठा०३ उ०। सू० श्रा०। अपार्द्धपुद्गलपरावर्तभ्यन्तरीभूते संसारे, पञ्चा०१ विव०। सुक्खदिय-पुं०(शुष्कदृति) शोषमुपगते चर्ममयजलाधारभाजनविशेषे, ध०। स्था०। पं० सं० / ग०। प्रज्ञा० / यो० बिं० / भ० अणु। सुक्कपाल-पुं०(शुल्कपाल) राजकरग्रहणस्थाने, स्था०८ ठा०३ उ०। सुक्खवाय-पुं० (शुष्क वाद) शुष्क एव शुष्कोनीरसः; सुक्कपोग्गल-पुं०(शुक्रपुद्गल) रेतसि, स्था० 5 ठा०२ उ०। __ गलतालु-शोषमात्रफल इत्यर्थः, स चासौ वादश्च कमपि वि Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुक्खवाय 924 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुगुरु प्रतिपत्तिविषयमाश्रित्य विप्रतिवादिना सह वदन शुष्कवादः। "अत्यन्त- वरकुसुमानि चूर्णा एतद्व्यतिरिक्तं तथाविधशयनोपचाराश्च तैः कलिते मानिना सार्द्ध, क्रूरचित्तेन च दृढम्। धर्मादेष्टन मूढेन, शुष्कवादस्तपस्विनः यत्तत्तथा। भ०११श०११ उ०। ॥१॥"इत्युक्तलक्षणे वादभेद, हा०११ अष्ट! 'सुगन्धवरगन्धि सुगन्धाः सुरभया ये वरगन्धाः प्रधानचूर्णानितेषा गन्धो सुक्खोदण–पुं०(शुष्कौदन) शुष्ककूरे, बृ०५ उ०३ प्रक०। यत्र स तथा। 'कल्प० 1 अधि० 2 क्षण / 'सुगन्धवरगंधिओ' शोभनो सुखगइ-स्त्री०(सुखगति) प्रशस्तविहायोगतौ, कर्म० 5 कर्म०। गन्धो येषां ते सुगन्धास्ते च ते वरगन्धाश्च वासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः स एवास्तीति सुगन्धवरगंन्धिकः / जी० 3 प्रति० 3 अधि० / सुखविवाग-पुं०(सुखविपाक) पुण्यकर्मफले, सुखानां वा सुखविपाक सुगन्धयस्सगन्धा वरगन्धाः प्रवरवासाः सन्ति यत्रतत्तथा। भ०११२० हेतुत्वात्पापकर्मणां विपाकास्ते यत्राभिधेयतया सन्त्यसौ "वरणानगर' 11 उ०। रा०। जी०। मिति न्यायात्सुखविपाकाः / विपाकश्रुतस्य द्वितीये स्कन्धे, विपा० 1 सुगंधि-त्रि०(सुगन्धि) शोभनो गन्धो यस्येति सुगन्धिः / जी० 3 प्रतिक श्रु०१०। 3 अधि०। परमगन्धोपेते, जी०३ प्रति०४ अधि०। आ० म०। परमगसुखित्त-न०(सुक्षेत्र) शोभने क्षेत्रे, द्विगृद्धिदशानां चतुर्थेऽध्ययने, स्था० न्धिकलिते, जी०३ प्रति० 4 अधि० / तं० / प्रज्ञा० / विशिष्टगन्धादि१० ठा०३ उ०। वासिते, कल्प०१ अधि०२ क्षण। औ० / ज्ञा० / भ०। सुग-पुं०(शुक) कीरे, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / स्था०। प्रज्ञा० / जं०। सुगंधिपुप्फ-न०(सुगन्धिपुष्प) जाादिकुसुमे, षो० 8 विव०। ज्ञा० अनु०। सुगंधिय-त्रि०(सुगन्धिक) परमगन्धोपेते, जी० 3 प्रति० 4 अधि० / सुग(ग) स्त्री०(सुगति) सुष्टु-शोभना गतिः-गमनं सुगतिः सुदेवत्व जलरुहविशेषे, नपुं०। प्रज्ञा०१ पद। सुमनुजत्वादिकायां गतौ, दर्श०५ तत्त्व। स्वर्गापवर्गादिकायां गतौ, दर्श० सुगय-त्रि०(सुगत) सुम्थे, स्था०।अनु० / 5 तत्व / पञ्चा० / स्था० 1 शोभनगतौ, उत्त० 27 अ०। स्था०। . तओ सुग्गया पण्णत्ता, तं जहा-सिद्धसुग्गया देवसुग्गया तओ सुरगइओ पन्नत्ताओ,तं जहा-सिद्धिसोग्गई देव सोग्गई मणुस्ससुग्गया। (सू०) स्था०३ ठा०३ उ०। मुणस्ससोग्गई। स्था० 3 ठा०३ उ०। सुगतो द्रव्यतो धनी भावतो ज्ञानादिगुणवानिति / स्था० 4 ठा० 2 शोभना गतिरस्माज्ज्ञानचारित्राचेति सुगतिः, "ज्ञानक्रियाभ्या मोक्ष" उ०। शोभनं गतं- ज्ञानमस्येति / बुद्ध शाक्यमुनौ, स्था० 2 ठा० 1 इति न्यायात् / ज्ञानक्रिययोः, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। उ० / आव० / शुद्धोदनापत्ये शाक्यासहे, विशे० / चत्तारि सु(ग) ग्गईओ पन्नत्ताओ, तं जहा-सिद्धिसोग्गई सुगारिहत्थ-न०(सुगार्हस्थ्य) शोभनगृहस्थभावे, ध०१ अधि०। देवसोग्गई मणुयसोग्गई सुकुलवचायाई। स्था०४ ठा०१उ०। सुगिम्ह-पुं०(सुग्रीष्म) चैत्रपौर्णमास्याम्, स्था० 4 ठा०२ उ०। आव०। पंचहिं ठाणेहिं जीवा सोग्गइं गच्छंति, तं जहा पाणाइवायवेरमणेणं० जाव परिग्गहवेरमणेणं / स्था०५ठा०१ उ०। .सुगुत्त-पुं०(सुगुप्त) कौशाम्बीनगरीराजस्य शतानीकस्यामात्ये, आ० म० १अ० कल्प०। आ० का सुगइगइ-स्त्री०(सुगतिगति) सुगतयः-सिद्धास्तेषां गतिः सुगति-गतिः। सुगुरु-पुं०(सुगुरु) शोभनश्चासौ गुरुश्चेति सुगुरुः / सदाचारगुरौ, दश० / पञ्चम्यां मोक्षगतो, आ० म०१ अ०। तं सुगुरुसुद्धदेसण-मंतक्खरकन्नजावमाहप्पं / सुगइगमण-न०(सुगतिगमन) सिद्ध्यादिप्राप्तो, स्था० 5 ठा० 1 उ०। जं मिच्छत्तपसुत्ता, वि केइ पावेंति सुहबोहं // 43|| स्वर्गावाप्तौ, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। तादपि भण्यमानंतं सुगुरुशुद्धदेशनामन्त्राक्षरकर्णजाप-माहात्म्यं, तत्र सुगइगामि-पुं०(सुगतिगामिन्) सुगतिं गमयतीतिसुगतिगामी। भवान्तरे शोभनश्चासौ गुरुश्व सुगुरुः; सदाचारगुरुरित्यर्थः, तस्येत्थंभूतस्य शुद्धा ईश्वरत्वेनोत्पत्स्यमाने, स्था० 4 ठा० 3 उ०। आशंसादिदोषरहिता सर्वथाऽऽगमानुसारिणी दशना शुद्धदेशना सुगइगुरुलाभ-पुं०(सुगतिगुरुलाभ) सुगतिश्च सुमानुषत्वादिल तद्हस्वत्वं प्राकृतप्रभवं सैव मन्त्राक्षरः समस्तकम्मविषापहारात्वात्तेन क्षणा गुरुश्च धर्माचार्यस्तीर्थकरादिस्तयोयो लाभो जन्मान्त-रापेक्षया कर्णजापस्तस्य कर्णजापस्य माहत्मय-प्रभाव सामर्थ्य यत् कियत्प्राप्राप्तिः स तथा। सुगतेः सुगुरोश्च लाभे, पञ्चा० 12 विव०। प्नुवन्ति लभन्ते के जीवा इतिशेषो दृश्यः, किं सुलभबोधं समस्तान्यसुगंध-पुं०(सुगन्ध) शोभनगन्धे, सू० प्र०२० पाहु०।सुरभौ, प्रश्न०२ दर्शनशिरोरत्नसदृशाहत्प्रणीतागमावबोध मिथ्यात्वविषप्रसप्ता अपि आश्र० द्वार। 'सुगन्धवरकुसुमचुण्णसण्णोवयारकलिय' सुगन्धीनियानि मिथ्यात्वमोहनीयकर्मवशवर्तिनोऽपीति गाथार्थः / दर्श०४ तत्त्व / Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुग्गीव 925 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुजाय सुग्गीव-पुं०(सुग्रीव) सुन्दरया ग्रीवया कलिते स्वनामख्याते नगरभेदे, सुचिरकोहण-त्रि०(सुचिरक्रोधन) चिरंक्रोधकरणशीले, उत्त०२७ अ०। उत्त० 16 अ० / यत्र बलभद्रराजभाया मृगावत्या मृगापुत्र आसीत्। सुचोइय-त्रि०(सुचोदित) आचार्यादिप्रेरिते, "वित्तो अचोइए निचं खिप्पं उत्त० 16 अ० / भूतानन्दस्य नाग कुमारेन्द्रस्य अश्वानीकाधिपतौ, हवइ सुचोइए। जहोवइ8 सुकयं, किच्चाई कुव्वई सया।।१।।'' उत्त० स्था० 5 ठा०१ उ० / भविष्यतो नवमवासुदेवस्य प्रतिशत्रौ, स०।ती०। 1 अ०1 नवमतीर्थकरस्य श्रीशीतलनाथस्य पितरि, स०। आव०। ति०। प्रव०॥ सुचोयय-त्रि०(सुचोदक) शोभनप्रेरयितरि गुर्वादौ, उत्त०१ अ०। सुज-त्रि०(शुक्ल) "शुक्ले जो वा" / / 2 / 11 / / इति शुक्लशब्दे सुच्छय-त्रि०(सुच्छद) शोभनप्रच्छनपटे, औ०। संयुक्तस्य वाङ्ग इत्यादेशः / सुङ्गं / सुक्कं / सिते, प्रा०२ पाद। सुच्छिण्ण-त्रि०(सुच्छिन्न) सुष्ठवाच्छिन्ने शाकपत्रादौ, उत्त०१ अ०। सुघ-न०(सुख) "अनादौ स्वरादसंयुक्तानां क-ख-त-थ दश०। प-फां-ग-घ-द-ध-ब-भाः" ||4 // 366 / / इति सुच्छेत्ता-स्त्री०(सुक्षेत्रा) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र छद्मस्थविहारेण गतो स्वस्य घः। साते, "सुघे चिंतिज्ज इमाणु।" प्रा० 4 पाद। भगवान प्रियं पृष्टः / आ० म०१ अ०। सुक्षेत्रायां ग्रामे वीरसहविहृतो सुघड-पुं०(सुघट) शोभनो घटः सुघटः / पूर्णकलशे, कर्म०।१ कर्म०। गोशालो विटरूपं विकुर्वितवान्। आ० म०१ अ०॥ सुघरा-स्त्री०(सुगृहा) वयापक्षिण्याम्, पातालवृक्षादिषु, बृ० 1 उ०३ सुजइ-पुं०(सुयति) साधुसमाचारचरणप्रवणे साधौ, दर्श०३ तत्त्व। प्रक० / (तृणमयं सुन्दरं नीडं करोति तद्दृष्टान्त इहलोके निन्दायां सुघरो दृष्टान्तः 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 222 पृष्ठे गतः।) सुघरा नामसउनिया सुजंपिय-न०(सुजल्पित) आशीर्वचने, भ०११श०२१ उ०। भन्नति। आ० चू०१ अ० / चटकिकाविशेषे, विशे० / आ० म०! नं०। सुजया-स्त्री०(सुजया) राजगृहे, नगरे श्रेणिकस्य राज्ञः स्वनामख्यातासुघोष-पुं०(सुघोष) स्वनामख्यातायांशक्रघण्टायाम, आ०म०१ अ०। यामग्रमहिष्याम्, अन्त०। (सा च वीरान्तिके धर्म श्रुत्वा प्रव्रज्य देवप्रसिद्ध घण्टाविशेषे, जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। शक्रेन्द्रस्य विंशतिवर्षपर्याया सिद्धति अन्तकृदशानां सप्तमवर्गस्य एकादशेऽध्ययने हरिनामदेवः सुघोषघण्टापालकः। भ०१६ श०२ उ०। रा०ा जम्बूद्वीपे | सूचितम्।) भरतखण्डे अतीतायामुत्सर्पिण्यां जति स्वनामख्याते षष्ठ कुलकरे, सुजस-पुं०(सुयशस्) ऋषभपूर्वभवजीवस्य वज्रनाभस्य सारथौ,श्रेयांसस्था०७ ठा०३ उ०। स०। तृतीयदेवलोकस्थे स्वनामख्याते विमाने, | पूर्वभवजीवे, आ० चू०१ अ०।ऋषभदेवस्य सप्तत्रिंशतितमे, पुत्रे, कल्प० स०६ सम० / ऋषभदेवस्य पञ्चसप्ततितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ 1 अधि०७ क्षण। क्षण। सुन्दरघोषवति, त्रि०। जी०३ प्रति०१ अधि०२ उ०। सुजसा-स्त्री०(सुयशम्) सुदर्शनपुरवास्तव्यस्य शिशुनागस्य भार्यायाम, सुघोषा-स्त्री०(सुघोषा) गीतरतिगीतयशसोर्गन्धर्वेन्द्रयोरामहिष्योः, भ० आव० 4 अ०। आ० के०। आ० चू०। ('समाहि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे 10 श० 5 उ० / स्था०। (तत्पूर्वोत्तरजन्मकथा 'अग्गमहिसी' शब्दे कथा गता / ) जम्बूद्वीपे भारते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जातस्य धर्मस्य प्रथमभागे 170 पृष्ठे गता।) तीर्थकरस्य मातरि,स० आव०।अनन्तजिनस्य मातरि, प्रव०१० द्वार। सुचदं-पुं०(सुचन्द्र) जम्बूद्वीपे ऐरवते वर्षे अस्यामवसर्पिण्यां जाते सुजाइ-पु०(सुजाति) ऋषभदेवस्य त्रिनवतितमे, पुत्रे, कल्प०१अधि० द्वितीयतीर्थकरे, स० ति०। ७क्षण। सुचरिय-न०(सुचरित) सदाचरणे, कल्प० 1 अधि०६ क्षण / तं०।। सुजाय-त्रि०(सुजात) सुनिष्पन्ने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ० स्था०। प्रश्न० / सुष्ट्वाचरिते, स्था०६ ठा०३ उ०1 प्रश्न०।०। सू०प्र०ा परिपाकागते, जं०२ वक्ष०ा शोभनं जातं यस्य सुचिण्ण–त्रि०(सुचीर्ण) सुष्ठु चीर्णम् सुचीर्णम् / सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। ससुजातः। विशुद्धमणिकनकरत्नमूल्यद्रव्यजनिते जन्मदोषरहिते, जं० तीर्थकरदानादिके कर्मणि, स्था० 4 ठा० 3 उ० / सम्यक्प्रकरेण कृते | 4 वक्ष० / रा०। बीजाधानादारभ्य जन्मदोषरहिते, जं० 2 वक्ष० / संयमतपःप्रमुखे कर्मणि, उत्त०१३ अ०जी०। सुजन्मनि, औ० / तथा सुजातानि यथोक्तप्रमाणोपपन्नत्वेन शोभनसुचिण्णकम्म-न०(सुचीर्णकर्मन्) सुचरितायांदानादिक्रियायाम, उपा० जन्मानि यानि सर्वाणि उरः-शिर:-प्रभृतीनि अङ्गानि तैः सुन्दरमङ्गं समग्रं वपुर्येषां ते सुजातसर्वाङ्गसुन्दराङ्गाः। जी०३ प्रति० 4 अधि०२ सुचिण्णफल-त्रि०(सुचीर्णफल) सुचरितं सुचरितहेतुकत्वात्पुण्य- उ० / सुजातमिव सुजातम् / पूर्णदिनजाते, उपा० 2 अ० / स्था० / कर्मबन्धादि तदेव फलं येषांतानि।तथा। शुभफलेषु, औ०। "सुचिन्ना तद्गुणयोग्यतया उत्पन्ने, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। औ०। "सुजायसुविमत्तकम्मा सुचिन्नफला भवन्ति" सुचरिता क्रिया दानादिकाःसुचीर्णफलाः- सुरूवगा' सुजातम् सुनिष्पन्नं जन्मदोषरहितत्वात् सुविभक्तमङ्गप्रत्यपुण्यफला भवन्ति। उपा०२ अ०। ङ्गोपाङ्गानांयथोक्तथैविक्त्यभावात्स्वरूपंशोभनरूपंसमुदायगतंयेषान्तसुजा 2 अ०॥ Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजाय 926 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुजाय तसुविभक्तस्वरूपकाः / जी०३ प्रति० 4 अधि०२ उ० / जं०। ज्ञा० / औ०। (मूलद्रव्यशुद्धे उदाहरणम्) "सुजायवरजायरूवपढम-गविसालसाला' सुजातं मूलद्रव्यशुद्धं वरं पधानं यत् जातरूपं तदात्मकाः प्रथमिका मूलभूता विशाला शाला शाखा यस्याः सा सुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशाला / जी०३ प्रति०४ अधि 02 उ०। शोभने जन्मनि, नपुं०। आ० क० 4 अ०। स्वनामख्याते श्रावके, पुं०। सुजातकथा चेयम्"रिउचक्कअकंपाए, चंपाइपयावविजिया त्तपहो! मित्तपहो नाम निवो, सधम्मिणी धारणी तस्स // 1 // सिट्ठी य धम्मरत्तो, धणभित्तो सुयणकमलवणभित्तो। भज्जा तस्स धणसिरी, सिरी व वररूवलावन्ना / / 2 / / ताणं जाओ पुत्तो, बहुओवाइयसएहि सुपवित्तो। संजणियजवणचमक्को, तणुप्पहपिडचलिच्चिक्को // 3 // जं जाओ इह रिद्धे, कुलम्मि हे जाय ! तंतुह सुजायं। भण्णइ जणेण तेणं, नाम कयं से सुजाओ त्ति|४|| पडिपुन्नंगोवंगो, निरुवमलवणि सुरूवरूवधरो। सो सव्वकलाकुसलो, कमेण तरुणत्तमणुपत्तो॥५॥ कइया वि पवित्तंतो, जिणथुइपूयाहि वाणिपाणितलं / गुरुपयकमलं विमलं, कयावि भमर व्व सेवंतो॥६॥ काहे वि य जिणपवयण-पभावणं पावणं पुण कुणंतो। सवणपुडेहि पियंतो, कयाइ जिणसमयअमयरसं // 7 // ललिएहि य मणहरेहिँ , सहिययहिययंगमेहि भणिएहिं। नयरे नयरे हिल्ले, कस्सन सो कासि तोसभरं / / / इत्तो तत्थेव पियंगु नामिया धम्मघोसंमतिपिया। पेसणपडियाउ चिरा, गयाउ तजेइ दासीओ // 6 // ताओ भणंति सामिणि!, मा कुप्पसु अम्ह जय अपडिरूवं / दटुं सुजायरूवं, कस्सन मोहिजए हिययं / / 10 / / सा पडिभणइ हलाओ!, जया सगच्छिज्जऽणेण मम्गेण / ताहे मम साइजह, तं सुहयं जेण पिच्छामि॥११॥ गुणिजणअवयंसवयं-सपरिगयंतं कयाइ तम्मि पहे। जंतं दासीकहियं, नियइ पियंगू सवत्तिजुया // 12|| मम्मरूवमदुप्फर, भंजणपवणं निए वितं एसा। पभणइ धन्ना स चिय, नारी जीसे वरो एसो॥१३|| काउंसुजायवेसं, अइसाइ, कयावि सा अभिरमेइ। अन्नाण सवत्तीणं, मज्झे तव्वयणचिट्ठाहिं॥१४॥ इत्तो पत्तो मंती, गिहदारं निट्ठणं ति कलिऊण! अवसप्पिऊण सणियं, कवाडछिद्रेण पिच्छेइ॥१५॥ अंतेउरचिटुंद-ठु चिंतएहा विणट्ठयं एय। होही रहस्सभेए, सुइरंता होउ पच्छन्नं॥१६॥ अह लिहइ कूडलेह, सुजाय ! तुमए महं इमं कहियं। जह बंधिय अप्पिस्सं, मित्तपहं दसदिणस्संते॥१७॥ किं तु विलंबसि अज्ज वि, इचाइ निदंसए निवस्सगे। चिंतइ निवो विहद्धवि, एयम्मि इमं कहं घडइ।।१८।। अहवा लोहंधाण नराण किं अकरणिज्जमिह भुवणे। ता हतव्वो एसो, रक्खयव्यो जणऽववाओ॥१६॥ तो निवकज्जमिसेणं, सलेहमप्पिय स पेसिओ रन्ना। नंयरी अररकुरीए, चदज्झयानवइपासम्मि।।२०।। सोदनिवाएसं, तस्स य रूवं विचिंतए चित्ते। नघडइ एरिसरुवे, इमम्मि नरवइविरुद्धमिणं / / 21 / / यत उक्तम्विषमसमैर्विषमसमा, विषमैर्विषमाः समैः समाचाराः। करचरणदन्तनासिक-वक्त्रोष्ठानरीक्षणैः पुरुषाः।।२२।। अह ओसारिय सव्वं, साहइदंसेइ निवइलेहं च। भणइ सुजाओ नरवर!, कुणसुतुमं सामिआएसं।२३।। चंदज्झओ विजंपइ,न तुमं मारेमि किंतु परिऊण। अच्छिन्नपुन्नअच्छिन्न कित्तिपच्छन्नमत्थाहि॥२४॥ इय भणिऊणं तेणं, चंदजसानामिया निया भइणी। तयदोसदूसियतणू, दिना से गरुयहरिसेण // 25 // तस्संसम्गवसेणं, सासावयधम्मनिचला जाया। निक्किट्ठकुट्टविहुरा, सुवंगसंवेगरंगिल्ला॥२६|| गहियाणसणा सम्म, तेणं निजामिया हमा मरिठ। भासुरवरबुदिधरो,जाओ सोहम्मसग्गसुरो॥२७|| पत्तो सपउत्तोही, नमिउं जाणाविउंच अप्पाणं। भणइ सुजायं सामिय!, कहेसु किं ते करेमि पियं / / 28|| सो चिंतए जइ पियरे, पिच्छं ता हंगहमि पव्वजं / तब्भावमिणं नाउं, अमरो चंपापुरि उवरिं॥२६॥ विउल सिलं विउव्वइ, तो नियपमुहा जणा भिसं भीया। धूवकडुच्छयहत्था, भणंति सिरमिलियकरकमला // 30 // भो भो खमेह सो ज-स्स किंचि अम्हहि चिट्ठियं दुछ। अह वित्तासइ तियसो, कहिं गमिस्सह हहा दासा ! // 31 / / पावेण अमच्चेणं, सुसावओ दूसिओ अकजेण। चूरेमि तेण तुरियं, अज्ज अणज्जे तुमे सव्वे / / 3 / / छुडुह जइजं खामह, नरसिररयणं तओ जणो भणइ। सां संपइ कत्थ सुरो, भणेइ इत्थेव उज्जाणे॥३३॥ नायरजणसहिएणं, निवेण सो खामिओतहिं गंतुं। आरोविओ य सिंधुर-मइउद्धरकंधरं झत्ति // 34 // सो सोहंतो सिरउव-रिधरियहिमधामधवलछत्तेण। वीइज्जतो सुरसरि-लहरीसरसेयचमरेहिं / 3 / थुव्वंतो जलभरभरि-यजलयगुरुसद्दवंदिविंदेण। दितो दाणं मणत-- क्वियाहियं तक्कियजणाण // 36 // धम्मुदयातुहरूवं, तुह उदओधम्महेउ इय पीई। अन्नुन्नं होउ थिरा, इय जणवयणाँइ निसुणंतो॥३७।। धन्नो अहो इमो खलु, जस्स सुरा अवि कुणंति आएसं। धम्मो विएस पवरो, कुणंतिजं एरिसा पुरिसा ||3|| इचाइ जइणसासण-पभावणं सो कुणंतओ सगिहे। पत्तो पणमइ अम्मा--पिऊण पयकमलममलमणो // 36 // इत्तो य धम्मघोसो, मंती वज्झो निवेण आणत्तो। मोयाविओ सुजाए- कारिओ तह वि निव्विसओ।।४।। अह दाउ निययदव्वं, धम्मे पुच्छिय निवं तहसुजाओ। पियरेहि समं दिक्खं, गिण्हइ दुविहं तहा सिक्खं / / 41 / / कयदुक्करतवचरणा, निम्मलकेवलकलाहिकतिल्ला। तिन्नि वि तिन्नपइन्ना, सिवमयलमणुत्तरं पत्ता / / 42 / / मंती विधम्मघोसो, रायगिहगओ फुरंतवेग्गो। गुरुमूलगहियदिक्खो, पवनपडिमाविहारो य / / 43 // वारत्तपुरे भयसे-ण रायवारत्तमंतिगेहम्मि। Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजाय 627- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुञ्जसिरी निवडियबिंदु खीरं, सघयमहुंअगहियो चलियो।।४४|| किं न हुगहिया मिक्खा, मुणिणा इय जाव चिंतए मंती। निहठिओ ता त-त्थ मच्छिपाओ निलीणाओ।।४।। पिच्छइ घरकोइलिया, तं सरडोतं पि दुट्ठमज्जारो। तं पञ्चंतिससुणओ, तं पिय वत्थव्वओ सुणओ।।४६|| ते कलहंते दठुउवट्ठिया तप्पहू पहूयबला। जायं च महाजुज्झ, तो मंती चिंतए चित्ते / / 47 / / इय कारणा न गहिया, भिक्खा तेणं ति सुद्धभाववसा। जाइसरो गयियवओ, पत्तो सो सुसुमारपुरे // 48|| तत्थ निवधुंधुमारो, अंगारवई सुया य से तं च। परिणयणकए मग्गइ, पजोओ देइ न य इयरो।।४६।। अह रुट्ठो पजोओ, पबलबओ रुभए तयं नयरं। अप्पबलो मज्झनिवो, पुच्छइ नेमित्तियं भीओ // 50 // सो वि निमित्तनिमित्तं, भेसइ डिंभाणि ताणि भीयाणि ! णागहरे वारत्तय-चरणे सरणं पवन्नाणि // 51 // तो सहसाकारेणं, मा बीहेह त्ति पभणियं मुणिणा। नेमित्तिएण कहियं, निवस्स जंतुह जओ नूणं // 52 // वीसत्थो मज्झण्हे, पञ्जोओ धित्तु धुंधुमारेणं। नीओ नियनयरीए, अंगारवई य से दिन्ना // 53|| पुरि भमिरो पञोओ, अप्पबलं दठ्ठ धुंधुमारनिवं। कह गहिओ हं पुट्ठा, दइया सा कहइ मुणिवयणं / / 54|| कहइ निव्वो तुज्झत्तमो, नेमित्तियेखवग ! सो वि उवउत्तो। आपथ्वजं सुमरइ. चेडयसवइयरं नवरं / / 5 / / आलोइयपडिकतो, बारत्तरिसी परंपयं पत्तो। भणियमिणं तुपसंगा, सुजायचरिएण इह पगयं / / 56 / / एवं च धर्मोन्नतिहेतुच्चै-जतिः सुजातः शुचिरूपरूपः। तद्युक्तमुक्तं यदभीष्टरूपो, जीवो भवेद्धर्मसुरत्नयोग्यः / / 57 / / इति सुजातकथा / ध० र० 1 अधि० / अधस्तनोपरितनग्रैवेयकविमानप्रस्तटे, नपुं। स्था०६ ठा०३ उ०। चम्पायां धनमित्रस्य सार्थवाहपुत्रे, पुं०। आव० 4 अ० आ० चू०। ('संवेग' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽस्य कथा गता।) सुजायदंत-त्रि०(सुजातदन्त) सुजाता जन्मदोषरहिता दन्ता येषां ते सुजातदन्ताः। जी०३ प्रति० 4 अधि०! जं०। सम्यनिष्पन्नदशनेषु, औ०। सुजायपास-त्रि०(सुजातपाच) सुनिष्पन्नपार्थे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। पार्श्वगुणोपेतपार्श्वे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। सुजायपीवरंगुलिय-त्रि०(सुजातपीवराङ्गुलिक) सुजाताः सुनिष्पन्नाः पीवरा अङ्गुलिकाः पदाग्रावयवा येषां तेतथा। सुनिष्पन्नचरणाग्रेषु, तं० / सुजाया-स्त्री०(सुजाता) भूतानन्दस्य नागकुमारस्याग्रमहिष्याम्, भ० १०श०५ उ०। सुजेट्टा--स्त्री०(सुज्येष्ठा) चेटकराजदुहितरि, आव० 4 अ० आ० क०। (सा च कुमारिका एव प्रद्रजितेति 'णियंटिपुत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2058 पृष्ठे उक्तम्।) चेटकमहाराजदुहिता सुज्यष्ठाभिधाना वैराग्येण प्रव्रजिता। स्था०६ ठा०३ उ०॥ सुजोग-पुं०(सुयोग) शुभव्यापारे, पञ्चा०२ विव०॥ सुजोसिय-त्रि०(सुझोषित) सुष्ठक्षिप्ते, 'तेसिं सुविवेगमाहिए पणमा जेहि “सुजोसिअंधू (धु)यं" सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०। सुन-पुं०(सूर्य) रवौ, स०६ सम०। (सूर्यादेव दिग्विभाग इति 'दिसा' शब्दे चतुर्थभागे दर्शितम्।) सुप्रभजिनस्य प्रथमगणधरे, ति०। रूप्यविशेषे, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। सुजकंत-न०(सूर्यकान्त) स्वनामख्याते ब्रह्मलोकविमाने, स०६ सम०। सुधसिरी-स्त्री०(सूर्यश्री) सूर्यशिवस्य दुहितरि, महा०। तत्कथा चैवम्अत्थि इहं चेव मारहे वासे अवंतीनाम जणवओ / तत्थ य संदुक्के नाम खंडगे, तस्सि य जम्मदरिद्धे निम्मेरे णिशिवे किविणे णिरणुकंपे अइकूरे निकलुणे नितिंसे रोहे चंडे रोडपयंडदंडे पावे अभिग्गहियमिच्छहिट्ठी अणुच रियनामधेजे सुजसिवे नामधिलाई अहेसि। तस्स य धूया सुग्नसिरी। साय परितुलि यसयलतिहूयणनरनारीगणलावन्नकंतिदित्तिरूवसोहग्गाइसएणं अणोवमा / अन्नदा तीए अनभवंतरम्मि इणमो हियएण दुर्बितियं अहेसि / जहा णं सोहणं हविजा-जइ णं इ मस्स बालगस्स माया वावजे तओ मज्झ असवत्तं भवे एसो य बालगो दुजीविओ भवइ ताहे मज्झ सुयस्स रायलच्छी परिणमेजति / तकम्मदोसेणं तु जायमेत्ताए चेव पंचत्तमुवगया जणणी। तओ गोयमा! तेणंसुसजेणं महया किलेसेणं छंदमारामाहणाणं बहूणं अहिणवपसूयजीवंतीणं घराघरि घत्तं पाऊणं जीवाविया सा बालिया। अहन्नया जादणं बालभावमुत्तिन्ना सा सुखसिरी ताव णं आगयं अ मायापुत्तं महारोरवं दुवालससंवच्छरियं दुन्भिक्खं तिजावणं फेट्टाफट्टीए जाउमार सयले विणं जणसमूहे / अहन्नया बहुदिवसखुहंतेणं विसायमुवगएणं जहा किमेयं वावाइऊणं समुहिसामि किं वा णं इमीए पोग्गलं विकिणिऊणं चेव अन्नं किंचि विपणिमग्गाओ पडिग्गाहित्ता णं पाणवित्तिं करेमि / णूणमन्ने केइ जीवधारणोवाए संपयं मह विशति / अहवा हा धी हा हा ण जुत्तमिणं किं तु जीवमाणि चेव विक्षिणामि त्ति चिंतिऊणं विक्किया सुअसिरी महारिद्धिजुयस्स चोहसविलाठाणपारगयस्स णं माहणगोविंदस्स गेहे। सो उ बहुजणे हि घिद्धीसहोवहओ तं देसं परिचिचा गं गओ अन्नदेसंतरं / सुखसिवो तत्थ विणं पयहो / सो गोयमा ! इत्थेव विजमाणो जाव णं अन्नेसिं कन्नगाओ अवहरित्ता णं 2 अन्नत्थ विकिणिऊण मेलियं सुञ्जसिवेणं बहुं दविणजायं। एयावसरम्मि उसमइकते साइरेगे अट्ठसंवच्छरे दुब्भिक्खस्स० जाव णं वियलियमाणविहवं तस्स वि णं गोविंदमाह Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुञ्जसिरी 628 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुजसिरी णस्स तं च वियाणिऊणं विसायमुवगएण चिंतियं गोयमा! तेणं भणियं जहा णं मा मा अन्नाणमंदरमएणं दीहेणं खवेह मामा गोविंदमाहणेणं / जहा णं होही संघारकालं मज्झ कुडुंबस्स, विगयजलाए सरीराए वुज्झेहमा माअरजुएहिं पासेहिं नियंतिएह, नाहं विसीयमाणे बंधवे खणद्धमवि दट्टणं सकुणोमि ता किं| मज्झमाहे णाणप्पेह जहा णं किल एस पुत्तो एसा धूया एसणं कायवं संपयमम्हहिं ति चिंतियमाणस्सेव आ गया | णत्तुगे एसाणं सुन्हा एस णं जामाउगे एसा बंधवा एसाणं माया गोउलाहिवइणो भन्जा खइयगविक्किणणत्थं तस्स गेहे जाव णं एस णं जणगे एसो भत्ता एस णं इट्टे मिट्टे पिय कं ते गोविंदस्स भजाए तंदुलगेणं पडिग्गहियाओ चउरो घयविगईओ सुहियसयणमित्तबंधुवग्गे इहयं पचक्खमे वेयं णिहिटे मीसं खइयगं गोकुलियाउत्तं च-पडिग्गहियम्मितमेव पडिभुत्तं | अलियमलिया चेव सकञ्जत्थी चेव संभवए लोओ, परमत्थओ डिंभेहिं, भणियं च महयरीए-जहाणं भट्टिदा रिगे ! पयच्छाहि / न कोइ सुही०जावणं सकजंतावणं माया तावणं जणगे ताव णं तमम्हाणं तंदुलमुल्लगं चिरं चिट्टे जेणमम्हे गोउलं वयामो।। णं धूवा ताव णं जामाउगे ताव णं णत्तुगे ताव णं पुत्ते ताव णं तओ समाणीता गोयमा ! तीए माहणीए सा सुज्जसिरी, जहाणं सुन्हा तावणं कंता तावणं इट्टे मिट्टे पिए कंते सुही सयणयणहला तं जम्हा णरवइणा णिसावयं एहि पयच्छ जंतंदुलमुल्लगं मित्ते बंधुपरिवग्गे सकलसिद्धिविरहेणं तु ण कस्सइक इमाया तमोगहि लहूं जेणाहमिमीए पयच्छामि णं जाव दढं वसिऊणं | ण कस्सइ केइ जणगे ण कस्सइ काइ धूया ण कस्सइ केइ नीहरिया मंदिरं सा सुजसिरी, नोवलद्धं तंदुलस्स मुल्लगं, जामाउगे ण कस्सइ केइ पुत्ते ण कस्सइकाइ सुण्हा न कस्सइ साहियं च माहणीए, पुणो वि भणियं माहणीए जहाहला! अमुगं केइ भत्ता ण कस्सइ केइ कंता ण कस्सइ केइ इट्टे मिट्टे पिए कंते सुही सयणमित्तबंधुपरिवग्गो जेणं तु पेच्छ पेच्छ मए अमुगया मम णो धूया अन्नेसिं ऊणमाणेह पुणो वि पइट्टा आलिंदगे जाव णं ण पिच्छे ताहे समुट्ठिया सयमेव सा माहणी अणेगोवायसओवलद्धे साइरेगणवमासकुच्छीए विधारिऊणं च अणेगणिद्धमहुरउसिणतिक्खसुललियसणिद्धआहारपयाणजाव लावण्णं तीए विणिदिलु तं पुण सुविम्हियमाणसा सिणाणुव्वट्टण धूपकरणसंवाहण धन्नपयाणाइणिहि णं एतमहं निउणमन्नेसिउं पयत्ता, जोव्वणं पिच्छे पणिगासहायं पढमसुयं तमणुस्सीकए जहा किल अहं पुत्तं रजम्मि पुत्तपुत्तमणोरहसुहं पयरिके पओयणं समुद्विसमाणं तेणावि पडिदटुं जणणीए सुहेणं पाए ण इमाणं पूरियासा कालं गमिहाभि, ता एरिसं संपयं गच्छमाणीए चिंतियं अहन्नेणं जहावरिया अम्हाणं पओयणं इयरंमि एयं च णाऊणं मा धवाईसुं करेह खणद्धमवि अणुं पि अवहरिउकामा ण य में सा / ता जइ इहासन्नमागच्छिही मा पडिबंधे जहा णं इमे य मज्झ सुए संबुते तहा णं गेहे जे तओऽहमेयं वावाएसामि त्ति चिंतयंतेणं भणिया, दूरासन्ना चेव केई भूए जे केई वट्टति जे केई भविंसुए तहा णं परिसेवि महया सद्देणं सा माहणी / जहा णं भट्टिदारिए जइ तुम इहई बंधुवग्गे केवलंतु सकजलुद्धे चेव घडिया मुहुत्तपमाणमेव कंचि समागच्छिहिसि तओ मा एवं तं वोच्छिया / जहा णं णो कालं नएजा वा ता भो भो जणा ण किंचि कन्जएतेणं कारिमं परिकहियं निच्छयं, अह एयं वावाएसामि एवं च अणिट्टवयणं बंधुसंताणेणं अणंतसंसारपोरे दुक्खपदा य गेण्हंति एगे चेव सोचा णं वजासणिहया इव धसति मुच्छऊणं निवडिया बाहं निसाणुसमयं सुविसुद्धासए भयह (महा०) लद्धेल्लियं च धरणिपिढे, गोयमा ! माहणि त्ति / तओ णं तीए महयरीए बोहिंजो णाणुचिठे अणागयं पिच्छ भो भो अण्णं बोहिं लहिहिसि परिवालिऊण किंचिकालक्खणं वुत्ता सा सुज्जसिरी, जहा णं कयरेण मुल्लेणं / जाव णं पुथ्वजाईसरणपचएणं सा माहणीए हला कन्नगं अम्हाणं चिरं वट्टे ता भणस सिग्धं नियजणणि जहा तीयं वागरेइ, ताव णं गोयमा ! पडिबुद्धमसेसं पि बंधुजणं बहू णं एह लहुं पयच्छतुमम्हाणं तंदुलमुल्लगं अम्हाणं तंदुलमुल्लगं णागरजणो या एयावसरम्मि उगोयमा ! मंणियं सुविदियसोग्गविप्पणहूं तओ णं मुग्गमुल्लगमेव पयच्छसु ताहे पविट्ठा सा इपहेणं तेण गोविंदमाहणेणं जहाणं धिद्धिद्धि वंचिया। एयावतं सुज्जसिरी अलिंदगे० जाव णं दठूणं तमवत्थंतरगयं माहणी कालं जातो वयमूळे अहो ण कडगन्नाणं दुविनेयमहाभागधजोह महया हाहारवेणं धाहावियं पयत्ता सासुजरिसी।तंचाइत्तिऊणं खुद्दसतेहिं अदिघोरुगपरलोयपचवाएहिं अतत्ताभिणिविट्ठदिसह परिवग्गेणं वाइओ सो माहणो महयरीए। तओ पवणजलेण हीहि पक्खवायमोहसुधुक्कियमाणसेहिं रागदोसोवहयआसासिऊणं पुट्ठा सा तेहिं जहा भट्टिदारगे किमेयं ति? तीए | बुद्धीहिं परतत्तधम्म अहो सञ्जीवेणेव एरिससुए एवइयं काल Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजसिरी 626 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुजसिरी समयं / अहो ! किमेसणं परमप्या भारियाछलेणासी मज्झ गेहे उदाहुणं जो सो णिच्छिओ मीमंसएहिंसवण्णुसोज्झिएससूरिए इव ससयतिमिरावहारित्तेणं लोगावभासे मोक्खमग्गसंदरिसणत्थं सयमेव पयडीहूए अहो महा-इसयत्थपसाहगाओ मज्झं दइयाए वायाए / भो भो जण्ण-यत्तविण्हुयत्तजण्णदेवदत्तामिहसुमच्चादओ! मज्झं अंगया अन्मुट्ठाणारिहा ससुराऽसुरस्सावि णं जगस्स एसा तुम्ह जणणि त्ति / भो भो पुरंदरपमितिओ! खंडिया वियारह णं सावज्जा य भारियाओ जगवयाणं दाउं कसिणकिज्जसणिज्जुहणसीलाओ वायाओ पासण्हो अज्ज तुम्ह गुरूआराहणेकसीलाणं परमप्यं बलं जजणजाजणज्झयणाइणा छकम्माभिसंगेणं तुरियं विणिजाणह,पंचिंदियाणि परिचयह णं कोहाइए पावे वियाणेहि णं / अमेज्झाइ व बालयकपडिण्णा सुची कलेवरो पविस्सामो वणं तं इयेवं अणेगाहिं वेरग्गजणणेहिं सुहासिएहिं वागरंतं चोहसविजाठाणपारंगमं गोयमा ! गोविंदमाहणं सोऊण अचंतमजजरामरणभीरुणो बहवे सप्पुरिसे सवुत्तमं धम्मं विमरिसिउं समारद्धे / तत्थ केइ वयंति जहा एस धम्मो वरो, अन्ने भणंति-जहा एस धम्मो पवरो जाव णं सवेहि पमाणीकया गोयमा ! सा जातीसरामाहिणि त्ति। तीएय सपचक्खायमाहिंसोवलक्खियमसंदिद्धं खंताइदसविहसमणधम्म दिटुंतहे ऊहिं व परमपञ्चयं विण्णायं / तेसिं तु तओय ते तं माहणं सव्वन्नुमिति काऊणं सुरइयकरकमलंडजलिणो सम्मं पणमिऊणं गोयमा! तीए माहणीए सद्धिं अदीणमणसे बहवो नरनारीगणे चिचा णं सु (य) जणमित्तबंधुपरिवग्गगिह-विहवसोक्खमप्पकालियं निक्खंते सासयसोक्खसुहाहिलासिणो सुनिच्छियमाणसे समणयत्ते णं सयलगुणोहधारिणो चोद्दसपुव्वधरस्स चरिमसरीरस्सणं गुणधरथविरस्स सयासे त्ति / एवं च ते गोयमा ! अचंतघोरवीरतवसंजमाणुढाणसज्झायज्झाणाइसु णं असेसकम्मक्खयं काऊणं तीए माहणीए सम्मविहूयरयमले सिद्धे गोविंदमाहणादओ णरणारीगणे सव्वे वि महायसे त्ति। (महा०) जेणं भवंतरेसु विण होसि सयलजणसुहप्पियागारिया सव्वं परिभूय गंधमल्लतंबोलसमालहणाई जहिच्छियभागोवभोगवजिया हयासाहु जम्मजाया दढनामिया रंडा / ताहे गोयमा ! सा तह त्ति पडिवजिऊण पगलंतलोयणंसुजलणिज्जायकबोलदेसा ऊसरसुभसमणघरसारा भणिउमाढत्ता।जहाऽण्णुण्णपाणिमोहं पभूयमालवित्ता णंतिगे थावेह लहुँ कट्टेरएहिं हविंचिय णिबहेमि अन्नाणगं ण किंचि मए जीवमाणीए पावाए।माहं कम्मपरिणइवसेणं महापावत्थीचवलसहावत्ताए एतस्स तुझं सरिसणामस्स णिम्मलजसकित्तीभमियभुवणोयरस्स णं कुलस्स खयणं काह; जेण मलिणीभवेजा सव्वमवि कुलं अम्हाणं ति। तओ गोयमा! चिंतियं तेण नरवइणा, जहा णं अहो घण्णोऽहं जस्स अपुत्तस्सऽवि य एरिसा धूया, अहो विवेगं बालियाए, अहो बुद्धी अहो पण्णा अहा वेरगं अहो कुलकलंकभीरुयत्तेणं अहो खणे खणे वंदणीया एसा जीए ए महत्ते गुणेता जाव णं मज्झ गेहे परिवसे एसा ताव णं महामहते मम सेए / अहो दिट्ठाए संभरियाए संलाविया चेव सुजायए इमाइ ता अपुत्तस्स णं मज्झं एसा चेव पुत्ततुल्ल त्ति चिंतिऊणं भणियं गोयमा ! सा तेण नरवइणा / जहाणं न एसो कुलकमो अम्हाणं वच्छे ! जं कट्ठारोहणं कीरइ त्ति ता तुम सीलचारित्तं परिवालेमाणी दाणं देसु जहिच्छाए, कुणसु य पोसहोववासाइं विसेसेणं तु जीवदयं, एयं रजं तुज्झ त्ति ताणं गोयमा ! जणगेणेवं भणिया ठियासा समप्पिया य कंचुइणं अंतेउररक्खपालाणं / एवं वचंतेणं कालसमए तओ णं कालगए से णरिंदे अण्णया संजुज्झिऊणं महामइहिं णं मंतीहिं कओ तीए बालाए रायामिसेओ। एवं च गोयमा ! दियहे 2 देइ अत्थीणं / अन्नया तत्थ णं बहुवंदवट्ठभट्ठनडिगकप्पडिगचउरवियक्खणमतिमहंतगाइपुरिससयसंकुलं अत्थीण मडवमज्झम्मिसीहासणोवविहाए कम्मपरिणइवसेणं सरागाहिलासाए चक्खूए नीसए तीए सव्वुत्तमरूपजोव्वणलावण्णसिरीसंपओववेए भावियजीवाइपयत्थे एगे कुमारवरे / मुणियं च तेण गोयमा! कुमारेणं जहा णं हा हा ममं पेच्छिय गया एसा वराई घोरंधयारमणंत-दुक्खदायगं पायालं, ता सुहं नो अहं जस्सणं एरिसे पोग्गलसमुदायतणू रागजणगे, किंमए जीविएणं हंदि सिग्धं करेमि अहं इमस्स णं पावसरीरस्स संथारं, अब्भुट्टेमिणं सुदुक्करं पच्छित्तंजावणं काऊण सयलसंगपरिचायं समणुचितुमि णं सयलपावणिद्दलए अणगारधम्मे सिढिलीकरेमि णं अणेगभवंतरविइण्णेसु दुविमोक्खे पावबंधणसंघाए। घिद्धी अचणवत्थियस्सणंजीवलोगस्स। जस्स णं एरिसे अणप्पवेसे इंदियग्गामे अहो अदिट्ठपरलोगपचवायया लोगस्स, अहो एक्कंजम्माभिणिविट्ठविन्नया अहो अविणायकज्जया अहो निम्मेरया अहो निप्परिहासया अहो अपरिचत्तलज्जयाहाहानजुत्तमम्हाणंखणमवि विलंबिउंएत्था एरिसे सुदुन्निवारए असञ्जएपावागमे देसे।हाहाघिद्वारिए अहण्णेणं कम्मट्ठ Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुज्जसिरी 630 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुज्जसिरी रासी जं सुइरियं सुईए रायकुलबालियाए इमे संकुट्ठपावे | असेसपरियणेणं च अट्ठारसखंडखज्जियवियप्पं णाणाविहमाहारं सरीररूवपरिदसणेण सयणेसु रागाहिलासे परिचया णं इमे | एयावसरम्मि भणियं नरवइणा जहा णं भो भो महासत्त ! भण विसए, तओ गेण्हामि पव्वजं ति चिंतिऊणं भणियं गोयमा ! | मुणीस! को तुम संपयं तस्सणं चक्खुकुसीलस्सणं सद्दकरणं / तेणं कुमारवरेणं / जहा णं खंतमरिसीयं णीसल्लं तिविहं कुमारेण भणियं-जहा णं नरनाह ! मणिहामि णं भुत्तुत्तरकालेण। तिविहेणं तिगरणसुद्धीए सव्वस्स अथाणमडंवराय-उलपुरजण- णरवइणा भणियं जहा णं भो महासत्त ! दाहिणकरधरएणं स्सेति भणिऊणं विणिग्गओरायउलाओ, पत्तोय निययाऽऽवासं। - कवलेणं संपयं चेव भणसुजेणंखु जइ एयाइ कोडीए संठियाणं तत्थ णं गहिय पत्थिय णं दो खंडिंकाऊणं वसियफलावलीत- केइ विग्घे हवेजा, ताणहण्हवि सुदिट्ठपञ्चएसु चेव पुरपुरस्सरे रंगमउयं सुकुमालवत्थं परिहिएणं अट्ठफलगे गहिऊणं उवज्झाणत्तीए अनहीयं समणुचिट्ठामो / तओ णं गोयमा ! दाहिणहत्थेणं सुयणजणहियए इव सरलचित्तलखंडे तओ भणि तेणं कुमारेणं 'जही णं' एयं पयं अमुगं सद्दकरणं तस्स काऊणं तिहुयणेकगुरूणं अरहंताणं भगवंताणं जगप्पवराणं चक्खुकुसीलाहमस्स णं दुरंतपंतलक्खणअदट्ठय्वदुखायधम्मतित्थंकराणं जहुत्तविहिणाऽमिसंथवणं वंदणं से णं से णं जम्मसत्तिता गोयमा !जावणं चेवइयं समुल्लवे से णं कुमारवरे चलचवलगइप्पत्तेणं गोयमा ! दूरं देसंतरे से कुमारे जाव णं तावणं अण्णेण हि पवित्तिएणेव समन्मासियंतक्खणा परचक्केणं, हिरण्णुक्करडी णाम रायहाणी। तीए रायहाणीए धम्मायरियाण तं रायहाणिं समुट्ठाइए य सण्णद्धबद्धकवए णिसियकरवाल गुणविसिट्ठाणं पउत्तिं अण्णेसमाणे चिंतिपयत्ते से कुमारे, जहा कुंतविप्फुरंतबाइपहरणाडोववज्जपाणी हण 2 रावभीरुणा णं जावणं करेइ गुणविसिढे धम्मायरिए मए समुवलद्धे ता विहई बहुसमरसंघट्टादि णं पिट्ठीजीयंतकरे अतुलबलपरक्कमे णं चेव मएवि चिट्ठियध्वं तो गयाणि कइवयाणि दियहाणि / भवामि माहाबले जोहे / एयावसरम्मि य कुमारस्स चलणेसु णिव डिऊणं दिट्ठपञ्चए मरणभयाउलत्ताए अगणियकुल-कमपुरिसण एस बहुदेसचिरकायकित्ती नरवरिंदे एवं च मंतिऊणं जाव गारविप्पणामे दिसिमेकमासइत्ता णं सपरिगरे पणढे से णं णं दिट्ठो राया, कयं च कायव्वं, सम्माणिओ य णरणाहेणं नरवरिंदे / एत्थंतरम्मिचिंतियं गोयमा ! तेणं कुमारेणं जहाणं पडिच्छियावासे अण्णयालद्धावसरेणं पुट्ठोसो कुमारो गोयमा ! नाम पुरिसकुलकमं अम्हाणं जंपडिदाविजइणो णं तं पहरियव्वं तेणं नरवइणा / जहा भो भो महासत्ता ! कस्स नामाऽलंकिए मए दास्साविणं अहिंसालक्खणं धम्मं वियाणमाणेणं कयमाणाएस तुज्झ हत्थम्मि विरायए मुद्दा, रण्णा को वा तेसि ठिओ इवायपचक्खाणेणं च ता किं करेमि णं सागारे भत्तपाणाईण एवइयं कालं / के वा अवमाणए कए तुह सामिणि त्ति / कुमारेणं पचक्खाणे / अहवाण करेमि जओ दिटेणं ताव मए दिट्ठीमित्तभणियं-जस्स णामालंकिए णं इमे तु दारयणे से णं मए सेविए कुसीलस्स णामग्गहणे णाविए महंते संविहाणगे तस्संपये एवइयं कालं, तओ नरवइणा भणियं जहा णं किं तस्स सीलस्साविणं एवत्थं परिक्खं करेमि, त्ति चिंतिऊण भणितसद्दकरणं ति / कुमारेण भणियं - नाम अजिमिएणं तस्स माढत्ते णं गोयमा ! से कुमारे। जहाणं जइ अहयं वायामित्तेणापि चक्खुकुसीलाहमस्स णं सद्दकरणं समुच्चारेमि / तओ रण्णा कुसीलो ता णं मा णीहरेज्जा हु अक्खव्वंतणुखेमेणं एयाए भणियं-जहाणं भो महासत्त! केरिसो उण सो चक्खुकुसीलो रायहाणीए / अहा णं मणोवइकायतिए णं सध्वप्पयारेहिं णं भण्णे किं वा णं अजिमिएहिं तस्स सद्दकरणं णो समुच्चारिए। सीलकलिओ ता मा वहिज्जा ममोवरि इमेसु निसिए दारुणो कुमारेण भणियं-जहाणं चक्खुकुसीलो त्ति / सद्धीए ठाणंतरे जीयंतकरे पहरणाणि हए, 'णमो अरिहंताणं' ति भणिऊणं हिंजइ विरत्तो इह तं दिट्ठपचयं होही तो पुण वीसत्थो साहीहामि, जाव णं पवर-तोरणदुवारेण चलचवलगई जाउमारद्धो जाव जं पुण तस्स अजिमिएहिं सद्दकरणं / एतेणं ण समुचारीए जहा णं पडिक्कमे थोवं भूमिभागं तावणं हल्लावियं कप्पडिगवेसेणं ण जइ कहा अजिमिएहिं चेव तस्स चक्खुकुसीलाहमस्स गच्छह एस नरवइ त्ति काऊणं सरहस्सं हर हर मर मर त्ति णामग्गहणं कीरए ताणं णत्थि तम्मि दियहे संपत्ती पाणभोयणस्स भणमाणो तिक्खकरवालादिपहरणेहि पवरवरजोहेहिं जाव णं त्ति, ताहे गोयमा! परमविम्हइएणं रण्णा कोउहल्लेण लहुं हक्का समुर-घाइए अबंतभीरुणाजीयंतकरे पवरबलजोहे, ता विरत्तं राविया रसवई उवविट्ठो य भोयणमंडवे राया सह कुमारेणं अविसनअणुदयाभीयए अचंतअदीणमाणसे णं गोयमा ! Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजसिरी 931 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुज्जसिरी भणियं कुमारेणं / जहा रेणं भो ! भो ! दुट्ठपुरिसा ममोवरि चेह एरिसेणं घोरतामसभावेणं अत्तिए असयं पि सुहज्झवसायसंचिए पुण्णप्पन्भारे एस अहं से तुम्ह पडिसत्तू असुगो णरवतीमा पुणो भणिज्जासु / जहा णं विणिमुक्को अम्हा णं भएणं ता पहरेजसु जइ अस्थि वीरियं ति जावत्तियं माणियं ताव णं तक्खणं चेव थंभे एते सव्वे गोयमा ! परबलजोहसीला हिट्ठातियमाणं तियसाणं पि अलंघणिज्जा एतस्स भारतीए जायए निब्बलं देहे। तओ य णं धस ति मुच्छिऊणं णिविढे णिवडिए धरणिपिट्टे से कुमारे / एयावसरम्मि गोयमा ! तेण नदिंदाहमेणं गूहियमायाविणो वुत्ते धीरे सव्वत्थी वीसमत्थे सव्वलोयसामंतधीरे भीरू वियक्खणमुक्के सूरे कायरे चयरे चाणक्के बहुपवंचभए संधिविगहिए निउत्ते (त्थ) छइल्ले पुरिसे जहा णं भो ! भो तुरियं रायाहाणीए वजिज्ज नीलससि-सूरकंतादीए पवररमणीयरणरासीए हेमतवणीयजंबूण-यसुवन्नभारलक्खणं / किं बहुणा विसुद्धबहुजचमोत्तिगविझुमक्खरिलक्खपडिपुनस्सणं कोसस्स चाउरंगस्स बलस्स विसेसओ णं तस्स सुगहियनाम-गहणस्स पुरिससीहस्स णं सीलसुद्धस्स कुमारवरस्सेति पउत्तिमाणेह जेणाहं णिवुओ भवेज्जा / ताहे नरवइणो पणामं काऊणं गोयमा ! गए ते निउत्तपुरिसे जाव णं तुरियं चलचवलजइणकमण-पवणवेगेहि णं आरुहिऊण जचतुरंगमेहि विपिनगिरिकंदरुद्देस-पइरिक्काओ खणेणं पत्ते तं रायहाणिं, दिट्ठोय तेहिं वामदाहिण-भुयापल्ल-वेहिं वयणसिरोरुहे विलुपमाणो कुमारो / तस्सय पुरओ सुकन्नाभरणणेवत्था दसदिसामुजोयमाणी जयजय-सदमंगलमुहला स्यहरणबद्धोभयकरकमलरइयंजली देवया तं च दठुण विम्हियणयणे लिप्पकम्मणिम्माविए एयावसरम्मिउगोयमा ! सहरिसरोमंचकंचुइयपुलइयसरीराए-"णमो अरिहंताणं" ति समुचरिऊण भणिरे गयणट्टियाए पवयणदेवयाए से कुमारे। तं जहा-"जो दलइ मुट्ठिपहरेहि, मंदरं धरइ करयले वसुहं। सव्वोदहीण वि जलं,आइरिसइ इक्क घोट्टेणं ||1|| भूयले सग्गं ओहरि, कुणइ सिवं तिहुयणस्स वि खणेणं / अखंडियसीलाणं, कुद्धो वि ण सो पहुप्पेज्जा / / 2 / / अहवासो बिय जाओ, गणिज्जए तिहुयणस्स वि सवंदो / पुरिसो वि महिलिया वा, कुलग्गओ जो न खंडा सीले ||3|| परमपवित्तं सप्पुरिससेवियं सयलपावनिम्महणं। सव्वुत्तम- | सुक्खनिहिं, सत्तरस विहं जइ य सीलं // 4 // " ति भणिऊण गोयमा! झत्ति मुक्का कुमारस्सोवरि कुसुमवुट्ठी पवयणदेवयाए पुणो वि भणिउमाढत्ता देवया / तं जहा-"देवस्स दें ति दोसे, एवं चिअअत्तणो सकम्मेहं। ण गुणेसुंठविऊणं, सुहाइ मुद्धाय जोएंति||१||से जत्थ भाववत्ती, समदरिसीसव्वलोयवीसासो। निक्खेवयपरियत्तं, दिव्वो न करेइतं ढोयं // 2 / / ता वुज्झिऊण सवुत्तमं जणा सीलगुणमहिट्ठायं / नाम सभावं चिचा, कुमारपयपकँपणमेह ॥३॥"त्ति भणिऊण अदंसणं गया देवया इति। ते छहल्लपुरिसे लहुंच गंतूण साहियं भावसभावयं तेहि नरवइणो / तओ आगओ बहुविकप्पकल्लोलमालाहियओ उ रजमाण-हिययसागरो हरिसविसायवसेहिं सीओदयो तत्थ किर ठिइउ सणियं गुज्झसुरंगखडकियादारेणं कंपंतसव्वगत्तो महयाकोउहल्लेणं कुमारदसणुक्कंठिओ य समुद्देस्सेव दिट्ठोय तेणं सो सुगहियणामधेजो महाजसो महासत्तो महाणुभावो कुमारमहरिसी अप्पडिवाई महोही पव्वजएणं सा हेमाणो संखाईयभवाणुभूयं दुक्खसुहं सम्मत्ताइलभं संसारसहावं कम्मबंधहितीविमोक्खमहिंसालक्खणमणगारवे(य) रबंधणं एवमादिएणं सुहणिसण्णो सोहम्माहिवई धरिउवविरिप्पर पवत्तो / ताहे य तमदिट्ठपुध्वमच्छेरगं दठूण पडिबुद्धो सपरिग्गहो पव्वइओ य, गोयमा ! सो रायरक्खाहिवई वि। एत्थंतरम्मि पहयसूसरगहिरगंभीरदुंदुमिनिग्घोसपुटवेणं समुग्घुटुं चउव्विहं देवनिकायेण / तं जहा-"कम्मट्ठगंथिसुसमूरण ! जय परमेट्ठि-महायस! जय जयजयाहिचारित्तदसणनाणसमण्णिय ! सघिय जणणीजगे एक्का वंदणीया खणे, खणे जीसे मंदरगिरिगुरुकम्मपउरे वुच्छेत्तुं समासणि"त्ति भाणिऊणं विमुंचमाणसुरभिकुसुमवुट्ठी भत्तिभरणिब्भरे विरइयकरकमलंजलिउ (डो) त्ति निवडिए ससुरासुरे देवसंघे / गोयमा ! कुमारस्स णं चरणारविंदे पणचियाओ य देवसुंदरीओपुणो 2 संथुणिय णमंसिय चिरंपजुवासिऊणंसट्ठाणेसु गए देवनिवहे / से भयवं कहं पुण एरिसे सुलभबोही जाए महाजसे सुगहियणामधेज्जे से णं कुमारमहरिसी। गोयमा ! तेणं समणभावद्विएणं अण्णजम्मम्मि वायादंडे पउत्तेणं अहे-सितं निमित्तेणं जावजीवमूलव्वए गुरूवएसेणं साधए अन्नं च तिन्नि महापावट्ठाणे संजयाणं / तं जहा-आउतेउमेहुणे एते सव्वोवाएहिं परिवजिए, तेणं तु से सुलभबोही जाए। अहन्नया णं गोयमा ! बहुसीसगणपरियरिएसेणंकुमारमहरिसीपत्थिएसंमेयसेलसिहरे देहबायनिमित्ते Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजसिरी 932 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुजसिरी णं कालकमेण तीए चेव वत्तणीए, जत्थ णं से य कुलदारिया / यदहमेत्ताणुकालसमएणं केरिसा नियडीपउत्तत्ति, अहो खलिणरिंदे चक्खुकुसीले जाणावियं च रायउले, आगओ य त्थीणं चलचवचङ्गुलचंचलसिट्ठिएगट्ठमाणसाणं खणमेगमवि वंदणवत्तियाए सो इत्थीनरिंदो उज्जाणवरम्मि कुमारमहरिसिणो दुजम्मजायाणं अहो सयलकज डेहलियाणं अहो सयलायपणामपुव्वं च उवविठ्ठो सपरिसरो जहोइए भूमिभागे। मुणिणा सकित्तिबुड्डिकराणं अहो पावकम्माभिणिविट्ठज्झवसायाणं अहो विपबंधेण कया देसणा तं च सोऊण धम्मकहावसाणे उवडिओ अभीरुयाणं परलोगगमणन्धयारघोरदारुण-दुक्खकंडूकडाहसपरिवग्गो णीसंगत्ताए पव्वइओ गोयमा ! सो इत्थीनरिंदो। एवं सामलीकुंभीपायदुरहियासाणं एवं च बहुं मणसा परितप्पिऊण च अचुतघोरवीरुग्गकट्ठदुक्करतव-संजमाणुट्ठाणकिरियाभिरयाणं अणुयत्तणाविरहियधम्मियकरमियसुपसतवयणेहिं पसंतमहुरसव्वेसि पि अपडिक्कमसरीराणं अपडिबद्धविहारत्ताए अचंत क्खरेहिं णं धम्मदेसणापुटवगेणं भणिया कुमारेणं रायकुलणिप्पिहाणं संसारिएसुं चक्कहरसुरिंदाइपभिइड्डिसमुदयसरीर बालिया नरिंदसमणी गोयमा ! तेणं मुणिवरे णं / जहा णं सुक्खेसुंगोयमा ! वचइ कोइ कालो जाव णं पत्ते संमेयसेल दुक्करकारिगे ! मा एरिसेणं मायापबंधणेणं अचंतधोरवीरुग्गसिहरे। भासंतओ भाणिया गोयमा ! तेण महरिसिणा रायकुल कट्ठसु दुबरतवसंजमसज्झाणाईहिं समजिए निरणुबंधे बालिया णरिंदसमणी / जहा णं दुक्करकारिगे सिग्धं अणुधूय पुण्णपन्भारे णिप्फले कुणसु ण किंचिं एरिसेणं मायडं भेण अणंतसंसारदायगेणं पओयणं, नीसल्लकम्मालोयत्तणे णीसमाणसा सवभावंतरेहिं ण सुविसुद्धं पयच्छाहि णं णीसल्ल ल्लमत्ताणं कुरु / अहवा अंधयारे णं ठियाणं धवियसुवण्ण मव मालोयणं, आढवेयव्वा पसंयसं सव्वेहिं अम्हेहिं देहयायकरणेव (एकाए फुयाए) जहा तहा णिरत्थयं होही तुम्भेहिं बालुप्पाडणबुद्धलक्खेहि णीसल्ला इय निंदियगर-हियजहुत्तसुद्धासयज भिक्खा-भूमिसेज्जावावीसपरिसहोवसग्गाहियासणाइए कायहोवइट्टकयपच्छित्तनिट्टियसल्लेहिं चणं कुसलणिदिहा संलेहण किलसे त्ति / तओ भणियं तीए भग्गलक्खणाए-जहा भगवं ! सि / तओ णं जहुत्तविहीए सव्वमालोयंतीए रायकुलबालियाए किं तुम्हेहिं सद्धिं धम्मेणं उल्लविजइ विसेसेण आलोयणं णरिंदसमणीए जाव णं संभारियं तेणं पहाणमुणिणा / जहा णं दाउमाणेहिंणीसंकपत्तियाणा ण मए तुमे तकालं अमिलसिउजमहं तया रायत्थाणमुवविट्ठाए तए गारत्थभावम्मि कामाए सरागाहिलासाए चक्खूए निजाइउं किं तु तुज्झ सरागाहिलासाए संविक्खिओअहेसि।तमालोएय हे दुकरकारिए! परिमाणतोलणत्थं णिज्जाइओ ति भणमाणी चेव निहणं गया जेणं तुम्हें सवुत्तमविसोही हवइ / तओ णं तीए मणसा कम्मपरिणईए ण च समज्जित्ताणं बद्धपुट्ठनिकाइयं उक्कोसहिइयं परितप्पिऊणं अइचवणासयनियडिनिकेयपावित्थीसभावत्ताए इत्थीवेयं कम्म, गोयमा ! रायकुलबालिया नरिंदसमणि त्ति / या णं चक्खुकुसील त्ति अमुगस्स धूया समणीणमंते वसमाणी तओ य ससीसगणो गोयमा ! से णं महच्छेरयभूए संयबुद्धकुपरिभविहामि त्ति चिंतिऊणं गोयमा! भणियंतीए अभागधिजाए। मारमहरिसी विहीए संलेहिऊणं असाणगं मासं पाओवगमणेणं जहा णं भगवं ! णाम तुमं एरिसेणं अटेणं सरागाए दिट्ठीए संमेयसेलसिहरम्मि अंतं गओ केवलित्ताए सीसगणसमण्णिए परिणिजोइओ जओ ण अहयं ते अहिलसेजा किं तु जारिसेणं परिणिवुडे त्ति। महा०२ चू०। तुब्भे सव्वुत्तमरूवतारुण्णजोव्वणलावण्णकतिसोहागकला से भयवं ! जे णं केइ सामण्णमन्मुढेजा से णं एक्काइ० जावणं कलावविण्णाणणाणाइ-सयाइसमसाइगुणोहविसुद्धमं डिए सत्तट्ठभवंतरेसु नियमेणं सिज्झिज्जा, ता किमेयं अणुण्णाहियं होत्था विसएसु निरहिलासेसु चिरं ता किमेयं तह त्ति किं वा लक्खभवंतरपडियट्टणं ति / गोयमा ! जे णं केइ निरइयारे णो णं तह त्ति त्ति तुज्झं पमाणं परितोलणत्थं सरागाहिलासं सामन्ने निव्वाहेजा से णं नियमेणं एक्काइ० जावणं अट्ठभवंतरेसु चक्खू पउत्ता णो णं वा मिलसिउकामाए / अहवा-इणमत्थे सिज्झिज्जा। जे पुण सुहुमे वा बायरे वा केई मायासल्ले वा चेवाऽऽलोइउ भवउ किमित्थ दोसंति मज्झमवि गुणावहेयं आउकायपरिभोगे वा तेउकायपरिभोगे वा मेहुणक वा अन्नयरे भवेजा। किं तित्थं गंतूण मायाकवडेणं सुवण्णसयं कोइ पयच्छे, वा केई आणाभंगे काऊणं सामन्नमइयरेज्जा से णं जं लक्खभवताहेण किंपित्ति अचंतगरुयसंवेगमावण्णेणं वि, दिट्ठसंसारच- ग्गहणेणं सिज्झे तं महालाभे जओ णं सामण्णमइयरित्ता बोहिं लित्थीसभावस्स णं ति चिंतिऊणं भणियं मुणिवरेणं जहा णं पिलभेजा। दुक्खं णं एसा गोयमा ! तेणं माहणीजीवेणं माया धिद्धिरत्थु पावित्थीचलसमावस्स जेणं तु पेच्छ पेच्छ कया जीए य एघहमेत्ताए वि एरिसे पावे दारुणविवागि त्ति से Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुज्जसिरी 633 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुञ्जसिरी भयवं ! किं तीए महयरीए तेहिं से तंदुलमुल्लगे पयच्छीए। किं वा णं सा वि य महयरी तत्थेव तेसिं समं असेसकम्भवखयं काऊणं परिनिव्वुडा हवेज त्ति ? गोयमा ! तीए महयरीए तस्स णं तंदुलमुल्लस्सऽट्ठाए तीए माइणीए धूय त्ति काऊणं गच्छमाणी अञ्चतराले चेव अवहरिया सा सुजसिरी / जहाणं मज्झंगोरसं परिभोत्तूणं कहिं गच्छसि संपयं ति? आह-वचामो गोउलं अण्णं च जइ तुम मज्झं विणीआहवेजा ता अहियं तुम्मे जहिच्छाए ते कालियं बहुगुणधरेणं अणुदियह पयच्छिहामिजाव णं एयं भणिया ताव णं गया सा सुज्जसिरी तीए महयरीए सद्धिं तेहिं परलीगाणुट्ठाणेक्कसुहज्झवसायखित्तमाणसेहिं न संभरिया सा गोविंदमाहणाईहिं / एवं तु जहा भणियं महयरीए तहा चेव तस्स घयगुलपायसपयत्थे, अहऽनया कालक्कमेण गोयमा ! वुच्छिण्णे णं दुवालससंवच्छरिए महारोखे दारुणे दुभिक्खे जाए य णं रिद्धीए य समिद्धे सवे वि जणवए। अहऽनया पुण वीसं अणग्घेयाणं पवरससिसूरकताईणं मणिरयणायं घेत्तूणं सदेसगमणनिमित्तेणं दीहद्धाए परिक्खित्तअंगयट्ठी पहपडिमणेणं तत्थेव गोउले भवियव्वयानियोगेणं आगए अणुचरियनामधेळे पावमती सुजसिवे / दिट्ठाय तेणं सा कन्नगा जाव णं परितुलियं सय-लतिहुयणणरणारीरूवकतिलावन्नं तं सुञ्जसिरिंपासियचेव लामाए इंदियाणं रम्मयाए किंपागफलोवमाणंतदुक्खदायगाणं विसयाणं विजियासेसतिहुयणस्सणं गोयरगएणं मयरके-उणा, भणिया णं गोयमा ! सा सुञ्जसिरी तेणं महापावकम्मेणं सुजसिवेणं / जहा णं हे हे कन्नगे जह णं इमे तुम संतिए जणणी जणगे समणुमन्नंति ताणं तु अहयं ते परिणेमि, अन्नं च करेमि सव्वं पि ते बंधुवग्गाणं दरिदंति तुब्ममवि घडावेमि पलसयमणूणगं सुवण्णस्स, तो गच्छ अइरेणावसाहेसु मायाविनाणं / तओ गोयमा ! जाव णं पहहतुट्ठा सा सुद्धसिरी तीए महयरीए एयं वइयरं परिकरेइ ताव णं तक्खणमागंतूण भणिओ सो महयरीए, जहा भो एयं से हीणं जं ते मज्झ धूयाए सुवन्नपलसएसुं किए। ताहे गोयमा ! एयं सए तेणं पवरमणी। तओ भणियं महयरीए जहा तं सुवण्णस्स सयं दाएहिं, किमेएहिं डिंभरमणगेहि पवियट्ठगे हिं / ताहे भणियं सुजसिवेणं-जहा णं एहि वचामो णगरं, दंसेमिणे अहं तुज्झमिमाणं पवियढगाणं माहप्पं / तओ पभाए गंतूण नगरं एयंसि य पियं ससिसूरकंतपवरमणि जुयलगं तेणं नरवइओ दाविया, नरवइणा वि सद्दाविऊणं भणियं परिक्खह जहा इमाणं परममणीणं करेह मुल्लं तेहिं तु ण सक्किरियं तेसिं मुल्लं काऊणं, ताहे भणिया नरवइणा-जहा णं भो भो मणिक्कखंडिया ! णत्थि केइ इत्थ जे णं एएसिं मुल्लं करिज्जा ता गिण्हसु णं मुल्लं दसकोडी दविणजायस्स / सुजसिवेणं भणियं जं महाराओ पसायं करेति, णवरं इणमो आसण्णपव्वयसनिहिए अहा णं गोउले तत्थ एगं च जोयणं० जाव गोणीणं गोयरभूसी तं अकरं विमुच मुत्तिं / तओ नरवइणा भणियं-जहा एवं भवउ ति / एवं च गोयमा ! जम्मदरिदस्स करभरे गोउले काऊणं तेणं अणुचरियनामधेजेण परिणीया सा निययधूया सुजसिरीसुद्धसिवेणं / जाया परोप्परं तेसिं पीई जाव णं नेहा-णुरागरंजियमाणसे गति कालं, किचिं ताव णं दट्ठुणं गिहागए साहुणो पडिनियत्ते, हा हा कदं करेमाणी पुट्ठा सुजसिवेणं सुजसिरी। जहा पिए! एयं अदिट्ठपुष्वं भिक्खायरजुयलं दतॄणं किमेयावत्थं गयासि ?, तओ तीए भणियं - जहा णणु मज्झं सामिणीए एएसिं महया भत्तपाणेणं पत्तभरणं किरियं / तओ पहठ्ठतुट्ठगणसा उत्तमंगेणं चलणगे पणमयंती नामए अज्ज एएसिं परिदसणेणं सा संभारिय त्ति / ताहे पुणो वि पुट्ठा सापावा तेणं जहडिएकाउंतुज्झं सामिणी अहेसी। तओ गोयमा! णं दढं उसुरुसुंमंतीएसमनुगथेरविसंथुलगिराए साहियं सवं पिणिययवुत्तंतं तस्सेति / ताहे विण्णायं तेण महापावकम्मेण जहा णं निच्छयं एसा सा ममंऽगया सुजसिरी। अम्हाए महिला एरिसी रूवकं तिदित्ति- लावण्णं सोहग्गसमुदयसिरी मवेज त्ति चिंतिऊणं मणिउमाढत्तो। तं जहा-"एरिसकम्मरया जं न पडेइ घडहडितयं अवजं तं णूण० इमं चिंतिय, सो वि जहिच्छिट्टिओ मे कत्थ सुज्झिस्संति' भणिऊणं चिंतिउं पयत्तो सो महापावयारी। जहाणं किं छिंदामि अहयं संहत्थेहि तिलं तिलं सगत्तं / किं वा णं तुंगगिरितडाउ पक्खिविउ दढं संमुत्तो, मा इणमो अणंतपावसंघायसमुदयं दद्वं। किं वाणं गंतूणं लोहयारसालाए सुतत्तलोहखंडमिव घणखंडाहिं मुत्तावे मि। सुइरमत्ताणगं के वलाणं कालावेऊणं मज्झो. मज्झाए तिक्खकरवतेहिं अत्ताणमं पुणो संभारावेमि अंतो सुकड्डिय तत्ततंबकंसलोहलोणसज्जियाखारस्स / किं वा णं सहत्थेणं छिंदामि उत्तमंगं, किं वा णं पविसामि मयरघर, किं वा णं उभयरुक्खेसु अहोमुहं विणिबंधाविऊणमत्ताणगं हे Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजसिरी 934 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुजसिरी ट्ठा पञ्जालावेमि जलणं / किं बहुणा णिच्छुहेमि कडेहिं अत्ताणगं अचंतघोरवीरुग्गकट्ठसुदुक्करतवसंजमकिरियाए वट्टमाणेणं तिचिंतिऊणं जाव सुमसाणभूमीए गोयमा ! विरइया महती चिई, अखंडियअविराहिए मूलुत्तरगुणो परिपालयंतेणं निरइयारं ताहे सयलजणसमक्खं सुइरं निंदिऊणं अत्ताणगं साहियं च सामन्नं णिव्वाहियं जारिसेणं रोहट्ठज्झाणविप्पमुक्केणं णिसव्वलोगस्स / जहाणंमए एरिसं कम्मं समायरियं तिभाणिऊणं / हियरागदोसमोहमिच्छत्तमयभयगारवेणं मज्झत्थभावेणं अदीआरूढो चियाए जावजं भवियव्वयानिओगेणं तारिसदय्वभुत्त- ___णमाणसेणं दुवालसवासे संलेहणं काऊणं पाओवगमणमजोगाणुसंसट्ठो ते सव्वे वि दारु त्ति काऊणं फूइज्जमाणे वि णसणं पडिवनं तारिसेणं एगंतं सुभज्झाणज्झवसाएणं, ण अणेगपयारेहिं तहा विणं ण पञ्जलिए सिही तओ य णं धिद्धि केवलं से एगे सिज्झेजाजएणं कहाइपरकयकम्मसंकमं भवेजा कारेणोवहओ सयललोगवयणेहिं जहा भो भो पिच्छ पिच्छा तोणं सव्वेसिं भव्दसत्ताणं असेसकम्मक्खयं काऊणं सिज्झेज्जा हुयासणं पिण पज्जले पावकम्मकारिस्सत्ति भाणिऊणं निद्धाडिए णवरं परकम्मकयादी ण कस्सइ संकमेजा, जं जेण समज्जियं ते विगोउलाओ एयावसरम्मि उ अण्णासण्णणिवेसाओ आगएणं तं तेण समणुभवियव्वं त्ति / गोयमा ! जया णं निरुद्ध जोगे भत्तपाणं गहाय तेणेव मग्गेणं उज्जाणाऽभिमुहे मुणीणं संघाडगे हवेजा तया णं असेस पि कम्मट्ठरा सिं अणुकालविभागेणेव णिवावेजा सुसंवुडा सेसासवदारे जोगनिरोहेणं तु कम्मक्खए तंच दठू णं अणुमग्गेणं गए एते वि पावितु एते य उज्जाणं जाव दिढ ण उण कालसंखाए। जओणं कालेणं तु खवे कम्मं कालेणं णं पेच्छंति सयलगुणोहधारिं चउन्नाणसमन्नियं बहुसीसगण तु पबंधए एगगं बंधे एगगं खवगे। गोयमा ! कालमणंतगं णिरुद्धपरिकिन्नं देविंदनरिंदवंदिज्जमाणपायारविंद सुगहियनामधिलं हिं तु जोगेहिं वेयकम्म ण बंधए, पोराणं तु पहीएजा णवगजगाणंदं नामं अणगारं / तं च दद्र्णं चिंतियं तेहिं जहा (गा) स्साभावमेव उ / एवं कम्मक्खयविदारणेणेत्थं कालसमुद्देसे णंदे मग्गेसि विसोहिपयं एस महापुरुषे ति चिंतिऊणं तओ अणाइकाले जीवे यतहवि कम्मंण गिट्ठए खओवसमेण कम्माणं पणामपुटवगेणं उवविद्वेत्ता जहोइयभूमिभागे पुरओ गणहरस्स जया विरयं समुच्छले कालं खेत्तं भवं भावं संपप्प जीवे तया भणिओ य सुजसिवो तेण गणहारिणा / जहा णं भो भो अप्पमादी खवे कम्मं जे जीवे तं कोडिं वडे / जो पमादी पुणो देवाणुप्पिया! णीसल्लमालोएत्ताणं लहुं करेसु सिग्घं असेसपा णं तं कालं कम्माणि बंधेयाणि वसेजा चउग्गईए उसव्वत्थविट्ठकम्मनिट्ठवण पायच्छित्तं / एसा उण आवनसत्ता, एयाए बंतदुक्खिए तम्हा कालं खेत्तं भवं भाव संपप्प गोयमा ! मइमं पायच्छित्तं णत्थि जावणं णो पसूया ताहे गोयमा ! सुमहचंत अइरा कम्मक्खयकरे से भयवं! सासुजसिरी कहिं समुववन्ना ? परममहा संवेगगओ एस णं सुजसिवे आजम्माओ नीसल्ला गोयमा ! छट्ठीए णरयपुढवीए से भवयं ! केणं अटेणं गोयमा ! लोयणं पयच्छिऊणं जहोवइडं घोरं सुदुक्करमहंतं पायच्छित्तं तीए पडिपुण्णाणं साइरेगाणं णवण्हं मासाणं इणमो वेरित्तियं अणुचरित्ता तओ अचंतविसुद्धपरिणामो सामण्णमन्मुट्ठिऊणं जहा णं पचूसे गन्भं पाडवेभित्ति एवमज्झवसमाणी चेव बालयं छव्वीसं संवच्छरे तेरस राइदिए अचंतघोरवीरुग्गकट्ठदुक पसूयापसूयमेत्ता य तक्खणनिहणं गया तएणं अटेणं गोयमा ! रतवसंजमं समणुचरिऊणं जाव णं एगदुतिउपंचछम्मा सिएहिं सासुजसिरी छट्ठयं गय त्ति। से भयवं! जंतंबालगं पसविऊणं खमणे हिं खवेऊणं निप्पडिक्कमसरीरत्ताए अप्पमायत्ताए मया सा सुज्जसिरी तं जीवियं किं वा ण व त्ति ? गोयमा ! जीवियं / सव्वत्थामेसु अणवरयमहनिस्साणुसमयं सययं सज्झायज्झा- से भयवं! कहं? गोयमा! पसूयमेत्तं तंबालगंतारिसेहिं जरजेरइसु णं णिद्दहिऊणं सेसकम्ममलअउचकरणेणं खणगसेढीए जलुसजंबालपइरुहिरखारदुग्गंधासुईहिं विलित्तमणाहं विलवमाणं अंतगडकेवली जाए सिद्धे यासे भयवं! तं तारिसं महापावकम्म दठूणं कुलालचक्कस्सोवरि काऊणं साणेणं समुद्दिसिउमारद्धं समायरिऊणं तहवि कहं एरिसे णं से सुज्जसिवे लहुं थोवेणं ताव णं दिलु कुलालेणं / ताहे धाइओ सघरणिओ कुलालो। कालेणं पिरिनिव्वुडे त्ति ? गोयमा ! तेणं जारिसमावहिएणं अविणासियबालतणूपणट्ठोसाणो।तओ कारुण्णहियएणं अपुत्तस्सं आलोयणं विइन्नं जारिससंवेगगएणं तं तारिसं घोरदुकरं महंतं णं पुत्तो एस मज्झ होहिइ त्ति बियाप्पऊणं कुलालेणं समप्पिऊणं पायच्छित्तं समुट्ठियं जारिसं सुविसुद्धसुहज्झवसाएणं तंतारिसं से बाले / गोयमा ! सदइयाए तीए सब्भावणेहेणं परिवालि Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजसिरी 935 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुट्टिय ऊण माणुसीकए से बालगे। कयं च नामं कुलालेणं लोगाणु- दायगे एगंतेणं विवजियव्वे, एगंतेणं ण समायरियव्वे सुसंजएहि वित्तीए सजणगाहिहाणेणं० जहाणंसुसढो। अन्नया कालकमेणं ति। एतेणं अटेणं तं च तेणं ण विण्णाय त्ति (महा०) से भयवं! गोयमा ! सुसाहुसंजोगदेसणापुवेणं पडिबुद्धेणं सुसढे पव्वइए किं संजमजयणं समुप्पेहमाणे समणुपालेमाणे समणुढे समाणा जावणं परमसद्धासंवेगवेरग्गगए अचंत-घोरवीरुग्गकट्ठसुदुक्करं अइरेणं जम्मजरामरणादीणं विमुच्चेज्ज ? गोयमा ! अत्थेगे जेणं महाकायकिलेसं करेइ संजमजयणं ण जाणइ, अजयणादोसेणं ण अइरेणं विमुच्चेजा, से भयवं ! केणं अट्ठणं एवं वुइ जहाणं तु सव्वत्थ असंजमपएसुणं अवरज्जे / तओ तस्स गुरूहि भणियं अत्थेगे जे णं णो अइरेणं विमुच्चेजा, अत्थेगे जे णं अइरेणं जहा भो भो समहासत्त ! तए अन्नाणदोसओ संजमजयणं विमुचेज्जा?, गोयमा! अत्थगेजेणं किंचि उईसिणगं अत्ताणगं अयाणमाणएणं महंते कायकिलेसे समाढत्ते नवरं जइ आणोवलक्खेमाणे सरागससल्ले संजमजयणं समणुढे / जे णं निचालोयणं दाऊणं पायच्छित्तं ण काहिसि तो सव्वमेयं निप्फलं एवंविहे से णं चिरेणं जम्मणजरामरणाइअणेगसंसारियदुक्खाणं होही। ता जाव णं गुरूहि चोइए ताव णं से अणवरयालोयणं विमुबेला / अत्थेगे जेणं णिम्मूले ठियसव्वसल्ले निरारंभपदाउणं पयत्ते / से वि ण गुरू तस्स तहा पायच्छिते पयच्छइ रिम्गहे निम्ममे निरहंकारे ववगयरागदोसमोहमिच्छत्तकसायमजहा णं संजमजयणं भूयं एगतेणेव अहानेसाणुसमयं रोहट्ट लकलंके सव्वभावभावंतरेहिं णं सुविसुद्धासए अदीणमाणसे ज्झाणाइविप्पमुक्के सुहज्झवसायनिरंतरे य विहरेजा। अहण्णया एगतेणं निजरापेही परम-सद्धासंवेगवेरग्गगए विमुक्के सेसमयणं गोयमा ! से पावमती जे केइ छट्ठट्ठमद-समदुवालसद्ध गारवविन्नाणगे पमायालंबणे० जाव णं विजियघोरपरीसहोवमासमास० जावणं छम्मासखवणाइए अन्नयरे वा सुमहं काय सग्गे ववगयरोद्दऽदृज्झाणे असेसकम्मक्खयट्ठाए जहुत्तसंजमकिलेसाणुगए पच्छित्ते से णं तह त्तिसमणुढे जे य उण एगंतसंज जयणं समणुपेहिज्जा अणुपालेजा समणुपालेजा० जाव णं मकिरियाणं जयणाणुगमणे वइकायजोगसयलासव-निरोहे समणुढेजा जे य णं एवंविहे से णं अइरेणं संजमजरामरणाइ सज्झायज्झाणावस्सगाइए अवमन्ने णं असहहे, सिढिले० जाव अणेगसंसारियसुदुट्विमोक्खदुक्खजालस्सणं विमुच्चेजा। एतेणं णं किल किमित्थ दुक्करं ति काऊणं न तहा समणुढे / अन्नया अटेणं एवं वुचइ जहा णं गोयमा ! अत्थेगे जे णं णो अइरेणं णं गोयमा ! अहाउयं परिवालेऊणं से सुसङ्के मरिऊणं सोहम्मे विमुच्वेजा अत्थेगे जे णं अइरेणं च विमुखेजा। महा०२चू०। कप्पे इंदसामाणिए महड्डी देवे समुप्पण्णे / तओ वि चविऊण इहयं वासुदेवो होऊणं सत्तमपुढवीए समुप्पन्ने / तओ उव्वट्टे | सुजसिव पुं०(सूर्यशिव) स्वनामख्याते अवन्तीवास्तव्ये धिग्जातौ, महा० समाणे महाकाए हत्थी होऊणं मेहुणाऽऽसत्तमाणसे मरिऊणं | २चू०। अणंतवणस्सतीए गय त्ति / एस णं गोयमा ! से सुसले जे णं | सुजावत्तन०(सूर्यावर्त) ब्रह्मलोकस्यस्वनामख्याते विमान, स०६ सम०।' आलोइयनिंदियगरहिएणं कयपायच्छित्ते भवित्ता णं जइ णं सुज्झत्रि०(शोध्य) शोधनीये, आव०४ अ०। अयाणमाणे भमिहिइ सुइरं अणंतसंसारे से भयवं ! कयरा उण सुज्झाइयन०(सुध्यात) सुष्टुसुविधिना गुरुसकाशाद्व्याख्यानेनार्थतः तेणं जयणा तं विनाया जओ णं तं तारिसं दुक्करं कायकिलेसं श्रुत्वाध्यातमनुपेक्षितं श्रुतमिति गम्यं सुध्यातम्। सुष्ठु अनुपेक्षिते, स्था० काऊणं पि तहा वि णं भमिहिइ ण सुइरं तु संसारे / गोयमा ! 3 ठा०४ उ०। जयणा णाम अट्ठारसण्हं सीलंगसहस्साणं संपुण्णाणं अखंडियविराहियाणं जावजीवमहत्तिसाणुसमयं धारणं कसिणं संजम सुहिया अव्य०(सुस्थाय) सुष्टु स्थित्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। किरियं अणुमण्णंतितं च तेण न विण्णायं तितेणं तु से अहण्णे | सुट्ठिय त्रि०(सुस्थित) शोभनं स्थितः सुस्थितः। सुव्यवस्थिते, पं० चू०२ . भमिहिइ सुइरं तु संसारे / से भयवं केणं अटेणं तं च तेण ण - कल्प / लवणसमुद्राधिपतिदेवे, आव०४ अ०। द्वी० / मुहूर्तेभेदे, द० विण्णायं ति गोयमा! तेणं जावइए कायकिलेसे कए तावइयस्स प० / स्था०। ज्ञा० / जी० / आर्यसुहस्तिशिष्ये कोटिकगच्छीयाचार्ये, अहभागे णेव जइसे बाहिरपणगं विवजंते ता सिद्धीए समणुवयं "तदनु च सुहस्तिशिष्यौ, कौटिककाकन्दिकावजायेताम्। सुस्थित ते। णवरं तु तेणं बाहिरपाणगे परिभूते बाहिरपाणगपरिभोइस्स सुप्रतिबुद्धौ, कौटिकगच्छस्ततः समभूत् / / 1 / / ' ग०३ अधि० / णं गोयमा ! बहुए वि कायकिलेसे णिरत्थगे हवेज्जा / जओ णं पाटलिपुत्रे नगरे चन्द्रगुप्तो राजा चाणक्यो मन्त्री सुस्थित आचार्यः। नि० गोयमा ! आऊ तेऊ मेहुणे एए तओऽविमहापावट्ठाणे अबोहि- | चू०१३ उ०। ती०। कल्प०। सुष्ठु अतीव चावृते, बृ० 1 उ०३ प्रक०। Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुट्ठिय 936 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुणंद श्रान्ते, बृ०१ उ०३ प्रक० / सुविहितक्रियानिष्ठे, कल्प०२ अधि०८ | क्षण। सुठियप्प-पुं०(सुस्थितात्मन्) शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानः। सुविहितेषु, दश० 3 अ०। सुट्ठिया-स्त्री०(सुस्थिता) सुस्थितस्य लवणसमुद्राधिपते राजधान्याम्, जी०३ प्रति० 4 अधि०। सुठु-अव्य०(सुष्टु) अतिशये, प्रति०। प्रश्न० / अतीवार्थे, आव०४ 1. अातं० / वाढे,ध०२ अधि०ा प्रश्न० शोभने, बृ०१उ०३ प्रति०। प्राकृतभाषयाऽधिकारे, ध०३ अधि०। प्रश्न०। सुट्ठुतरमायामा-स्त्री०(सुष्टुतरायामा) गन्धारग्रामस्य षष्ठयां मूर्छनायाम्, स्था०७ ठा०३ उ०॥ सुठुयवर-त्रि०(सुष्ठुतर) अतिशोभन, आव० 3 अ०। आ० म०। सुढिय (देशी) श्रान्ते, बृ० 1 उ०३ प्रक०। सुण-धा०(श्रु) श्रवणे, "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धू -गां-णो-हस्वच"||४२४१॥ इत्यन्तोणकारागमः।सुणइ। शृणोति / प्रा०। स्था०। 'आया सद्दाह सुणेइ इत्यादि "सुण संखेवाणि सदा दिट्ठिवायस्य" आचा०। सुणअ-पुं०(शुनक) कुक्कुरे, आव० 4 अधि०। सुणइ-त्रि०(सुनति) शोभना नतिरवनतावसाने यस्मिन्नसौ सु-नतिः। शोभननतिके, जी०३ प्रति०४ अधि०। सुणंद-पुं०(सुनन्द) ऋषभदेवस्यद्वाविंशतितमे पुत्रे, कल्प०१अधि०७ क्षण / आ० म०। चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रावके, ती०६४ कल्प। उत्त०। ('चंपा' शब्दे तृतीयभागे 1068 पृष्ठे ऽस्य कथोक्ता।) पार्श्वनाथस्य स्वनामख्याते श्रावके. उत्त०२३ अ०भविष्यतः सप्तमतीर्थकृतः पूर्वभवजीवे,सला सप्तमदेवलोकस्य विमानभेदे, नपुं०। स०१५ सम०। द्वादशतीर्थकरस्य भिक्षादायके, (स०।) स्वनामख्याते राजर्षों, पु०॥ध००। सुनन्दराजर्षिकथा पुनरेवम्"इह कंपिल्लपुरे सो, अइपवलपयावनिज्जियदिणसो। उप्पाडियरिउकंदो, आसि नरिंदो सुनंदु त्ति॥१॥ सुद्धगिहिधम्मपरिपा-लणुज्जुओ सत्ततत्तकुसलमई। पाणेहिं पिहु दइओ, मित्तो वजाउहो तस्स // 2 // अइसरयऽऽगमणुप्प-न्नपबलउस्सासरुद्धकठेण / कइयावि सुनंदनिवो, इय भणिओ संधिपालेणं / / 3 / / देव ! महच्छरियमिणं,जं किर केसरभरो विकेसरिणो। तोडिज्जइ हरिणेणं, रवीवि जिप्पइ तमभरेण // 4|| उत्तरदिसि पहुणा भी- मराइणा दुद्दमेण गुणनिवहो। इंदियगामेणं पिव, देसो तुह हम्मए सयलो।।५।। तं सोउ निवो कुविओ, जा ताडावेइ झत्ति रणभेरि। ता सुद्ध बुद्धिजुत्ते–ण मंतिवगेण इय दुतं // 6 // देवेस ! अरी सुरकय-सनिज्झो संगरे गई विसभा। संदहो पुण विजय, पहाणपुरिसक्खओय धुवं // 7 // ता सामभयदाणा-इँ मुत्तु संपइन अन्नमपि नीइं। रिउविजए पिच्छामो, ता देव ! इहं कुणसु जुत्तं / / 8 / / जआ॥ सामेण कोइ मित्तो, परो वि भेएण भिज्जइ सुही वि। दाणेण सेलघडिया, देवा वि वसं पवजंति ll जह जोगमिमं नणु जु-जिऊण दंडे वि जइ समुञ्जभसि। मसिकुचं अरिवयणं-सुतयणुतं देव ! देसि धुवं॥१०॥ इय कयजत्ता पत्ता, तुच्छा वि निवा अतुच्छलच्छिभरं। गरुआ वि गया निहणं, इत्तो विवरीयनीइस्या // 11 // ता देव ! सत्तुसाम--तमंतिमित्ताण जाणिउं हिययं / तदुचियसामाइ पउं-जिऊण पञ्चझ्यपुरिसेहिं // 12 // कुणसु बहु विजयजत्तं, जयलच्छि लहसु फुरियजसपसरो। भंजसु भडवायं रिउ--भडाण कयनीइसंनाहो।।१३।। इय सोउ मंतिवयणं, इसि हसिऊण जंपियं रन्ना। वणियाण माहणाण य, होइ मई एरिसा चेव // 14 // कहमन्नह दुजयरिउ-करडिघडा विघडणिक्ककेसरिणो। मज्झ विपुरओ एवं, रणकम्ममहम्ममुवइसह ? / / 15 / / इत्तुच्चिय अविमंसिय, जहा तहा इह जणा पयंपंता। हुति तणाउ विलहुया, वचंति पराभवट्ठाणं॥१६|| इय पभणिय भालत्थल-कयउब्भडभिउडिभासुरो राया। उक्तपियरिउचक्की, लहु ताडावेइ जयढक्कं / / 17 / / ता तीइ सद्दपसरे-ण मिलियचउरंगपबलबलकलिओ। वजाउह मित्तविदि-न अग्गसिन्निक्कवावारो॥१८॥ अविलंबियप्पयाणे-हिंसतु निवमंडलं अणुपयिहो / नाउ तदागमणं झ--त्ति आगओ संमुहो भीमो ||16 // अह जोहमुक्कहक्का, भयभरनस्संतकायरनरोहं। हयहरिकारभडनिवडण-दुग्गपहाउलभमंतजण // 20 // जणवयजणआसंकिय-अवितक्कियपलयकीलामागमणं / दुण्ह वि अग्गाणीया-ण ताण जायं महाजुज्झं // 21 // अह खणमित्ताम्म गए, लद्धोगासेहि परबलमहेहिं। भग्गं सुनंदसिन्नं, सीयं पिव भाणुकिरणेहिं / / 22 / / वजाउहजयकुंजर -- सत्तुंजयमाइणो महीवड्णो। पडिया समरमहीए, सुनंदराएण नायमिणे॥२३॥ अह सचिवेहि भणियं, अज्ज विविरमेसु देव ! समराओ। मा पूरेसु रिऊणं, मणोरहे, नियसु नियसत्तिं // 24 // अजहाबलमारंभो, खयस्स मूलं वयंति इह विबुहा। तो सव्वपयारेहिं, अप्पचिय रक्खियव्यु त्ति॥२५।। जओ॥ विक्कमबलेण पुणरवि, अजिज्जइ चिरगया वि रायसिरी। देवगयं पुण जीयं, न लडभए तम्मि जम्मम्मि॥२६।। भावय राहुमुहाओ, नीहरिउमखंडमंडलो सूरो। अवहरिउं रायसिरिं परतेयभरं पुणो हरइ // 27 // सुचइय पुरावि, इम, अपत्तवेलं मुणे वि अप्पाणं / बंभो चक्की नट्ठो, सपरियणो जादवपहू वि॥२८|| इय सचिवेहिं भणिआ, नियकुम्महविरहिओ सुनंदनियो। ओसरिओ समराओ, जं अवसरवेइणो विबुहा॥२६॥ पडिभग्गं पडिवक्खं, पलायमाणं निए वि भीमनिवो। वलिओ अणुकंपाए, तप्पुट्ठिपहारमकरित्ता // 30 // Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुणंद 937 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुणंद वजाउहमरणेणं, पराहदेण य सुनंदनरनाहो। मन्नतो निहयं पिव, अप्पं अइदुहमणुहवेइ॥३१॥ अह निसि चिंतावसगय-निदो राया सुरेण एगेण। भणिओ भो निव ! सोह, मित्तो वजाउहो तुज्झ // 32 // तइया रिउराईहिं, गाढपहारीकयं मुणि वि अप्पं। नीहरिउं समरंगण-महीद ओयरिय वारणओ॥३३॥ उद्धरिय दुविहसल्लो, गरिहियपावो सामहिसंजु तो। नवकारं समरंतो, जाओ अमरो पढमकप्पे॥३४।। ओहिबलेण वियाणिय, तुह दुक्खं सत्तुपरिभवसमुत्थं। तं अवणेउं इहयं, पत्तोऽहं परमपेम्मेणं / / 3 / / ता मित्त ! मुयसुखेयं, पभायसमए हवेसु रणसज्जो। निम्महियरिउं सरय-भविभमं लहसु कित्तिभरं // 36|| इय मित्तनियसवयणं, सोउं राया वियासिमुहसोहो। सिन्नाणुगओ सहसा, पडि पडिवक्खं पडिनियत्तो // 37 // अह पउरसमरसंप-त्त विजयगव्वो पुणो वितं इत्तं। आयन्नियभीमनिवो, सज्जो होउं ठिओऽभिमुहो // 38|| आओहणं च लम्ग, नवरं मित्तामराणुभावेण। विजिओ सुनंदरन्ना, भीमनरिंदो पढममेव // 36 // तंसेवापडिवन्नं, रज्जे तत्थेव ठाविय सुनंदो। नियदेसं पइ चलिओ, सुरो गओ पुण सठाणम्मि॥४०|| मग्गम्मि सुनंदो वि हु, वचंतो नियइ सिरिपुरुज्जाणे। पढमजिणभवणपासे, मुणिमेगं तरुतलनिसन्नं / / 41 / / तस्स य पुरओ एणं, पवंगमं पउरलोयमज्झगयं / मुणिदिजंतनमुक्का-र मंतआयन्नणप्पवणं / / 42 / / तो वि महयभरभरिओ, राया आगम्य नमिय मुणिपवरं। जा तत्थ निसीयइ ता-व वानरो मरणमणुपत्तो // 43 // अह भणइ निवो, मुणिपहु-भुजमिणं जं अईव चवलमणा। इत्थं पवंगमा वि हु, जिणधम्मे निचला हुंति / / 44 / / ता कहसु पुरा को आ-सि एस साहू वि साहइ नरिंद!। महुराएँ आसि एसो, वणिओ इत्तो भवे तइए॥४५॥ संविम्गो पडिवन्नो, कयावि दिक्खं सुभद्गुरुमूले। ईसि अपन्नवणिज्जो, जडभावा सुतवनिरओ वि॥४६॥ अंते काउँ अणसणं, जाओ अमरो मुहम्मकप्पम्मि। छम्माससेसमाउं, वियाणिउं अप्पणो सो उ॥४७॥ पुच्छेइ केवलिंव-दिऊण इत्तो चुयस्स भे मंते!। कत्थुप्पत्ती होती, कहं व पहु बोहिलाभो य?||४८|| तो केवलिणा भणियं, पजते भद्द! अट्टझाणेणं। मरिऊण वानरो तु, होहिसि सिरिपुरवरुजाणे // 46 // जिणबिंबदसणाओ, तत्थ लहिस्ससि तुम कहवि बोहिं। इय सोउं सो तियसो, लहु उज्जाणं इमं पत्तो // 50 // तोतुंगसिंगसोहा-पहसियहिमसिहरिसिहरमईरम्म। पवणपकंपिरधयपड- रणंतमणिकिंकिणीजालं // 51 // डज्झंतपवरघणसा-र अगुरु मघमधंतगंधडं। थंभसहस्ससमेयं, मणिमयभासंतभित्तिल्लं // 52 // सो सिरिजुगाइजिणवर-भवणमिणं तुट्ठमाणसो कासी। बद्धाउयत्तणेणं, चवियं इमों वानरो जाओ।।५३|| कह कह विणेण भमिरे, ण इत्थ इत्तो अईय तइयदिणे। दिमिणं जिणभवणं, पत्तं लहु जाइसरणं च // 54 // तो वेरग्गगओ सो, मह पासं पप्प अणसणं काउं। पंचपरमिट्ठिमंतं, सुमरंतो मरणमणुपत्तो।।५।। इय जा बानरचरियं, कहइ मुणी ता पवंगजीवो सो। सोहम्मदेवलोए, हिमप्पहे वरविमाणम्मि // 56 // ससिकरसियदेवंसुय-संबुयसुरसयणसुदरुच्छंगे। सुत्तिपुडतो मुत्ता-हल व्व जाओ सुरो पवरो॥५७।। उप्पत्ति अणंतरदू-रविहियदवंसुओ उवविसित्ता। अइसयबिम्हियहियओ, पिच्छंतो सयलदिसि बलयं // 58|| जय जय नंद्रा जय जय, भद्दा इचाइमहुरवयणाई। अमरच्छरनियराणं, हरिसियहिययाण निसुणतो // 56 // किं दिन्नं किं तवियं, किं जिट्ठ वा मए पुरा जम्मे। इय चिंतावसओ ओ-हिनाणविन्नायपवगभवो॥६०॥ सव्वाइं देव किया-इमुत्तुबहुदेवदेविपरियरिओ। तत्थेव लहुँ पत्तो, पणओ विणएण मुणिचरणे॥६१।। सिरिनामेयजिणिंद, अंचियरोमंचअंचियसरीरो। साहुं पुणो पुणो पण-मिऊण पत्तो सुरो सग / / 6 / / इय दठुसुनंदनिवो, संविग्गो तस्स साहुणो मूले। सहसाउहसुयवियरिय-रज्जो दिक्खं पवजेह // 63 / / अह सहसाउहराया, पणमंऊणं सुनंदरायरिसिं। कंपिल्लपुरे, पत्तो, तिवग्गसारं कुणइ रज्जं // 64|| सुचिरं सुनंदसाहू विहरइ गुरुणा समं महिलयम्मि। दसविहसामायारी-पालणपवणो पसन्नमणो॥६५॥ पडिकूलकम्मपन्भा-२पिल्लिओ सो कया वि रायरिसी। गलियसुहज्झवसाओ, चिंतिउमेवं समाढत्तो॥६६।। पडिलेहणापमजण-पमुहविहाणं विणा वि किर सुगई। लब्भइ जिवेहि नियइ-भावओ निच्छियं एवं / / 67|| कहमन्नहा महाहव-वावारनिउत्तचित्तविरिओ वि। देवत्तं संपत्तो, मित्तो वजाउहो मज्झ?॥६८॥ अइसुद्धचरणकिरिया विगलो वितया स वानरस्सीओ। उत्तत्तजचकंधण-वन्नो तियसो समुप्पन्नो // 66 // सूयंति यसमए विहु, तह भव्यत्त (त) ब्भवंतसामत्था। अकयकिरिया वि मरुदे-विमाइणो सिवपयं पत्ता / / 70|| तातह भव्वत्तं चिय, कल्लाणकलावकारणं परभं। तदभावे पुण विहलो, सयलो कायव्ववादारो॥७१।। संजमतवाइएहिं, पागं सोएइ एयमवि तुच्छं। मरुदेवीपमुहाणं, तस्विरहे किं कओ पागो॥७२।। एवं चरणावारग, कम्मविरुज्झंतसुद्धपरिणामो। सो साहू तवकिरिया-सुईसिमदायरो जाओ॥७३॥ अहसुयबलेणा नाउं, सुगुरू साहुस्स तस्सऽभिप्पायं। सुगइपहदीबिगाए, खणं पि मा काहिसि पमायं // 74 / / नय एगंतेण नियइ-भावओ होइ कल्नसंसिद्धी। जं पुरिसकारकाला-इणो वि होऊ इह भणिया / / 7 / / तथा चोक्तम्॥ कालो सहाय नियई, पुव्वकयं पुरिसकारणे गंता। मिच्छत्तं ते चेव उ,समासओ हुंति सम्मत्तं // 76 / / जंपिहुमरुदेवी पु-व्वमकयतवनियमसंजमविसेसा। तजम्मि चिय सुहभा-वजोगओ सिद्धिमणुपत्ता 77|| जय अच्छेरयभूयं, तदुदाहरणं तहा वि विबुहेहिं। ववहारविलोवाओ, कयाऽवि नालंबणीयं ति॥७८|| Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुणंद 938 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुणिउण तथा चागमः॥ समएणं कागंदीए णगरीए भदाणामं हीए पुत्ते सुणक्खत्ते णाम जइ जिणमयं पवजह, ता मा ववहारनिच्छए मुयह / दारए होत्था, अहीण० जाव सुरूवे पंचधातिपरिक्खित्ते जहा ववहारनउच्छेए, तित्थुच्छेओजओ भाणओ॥७६।। धण्णो तहा बत्तीसदाओ० जाव उप्पि पासायव.सए विहरति / तेणं कालेणं तेणं समएणं ससोसरणं जहा धन्नो तहा सुणक्खत्तेववहारो वि हु बलवं, जं वंदइ केवली वि छउमत्थं। ऽवि णिग्गते जहा थावच्चापुत्तस्स तहा सु णिक्खमणं० जाव आहाकम भुंजइ, सुयववहारं पमाणं तो||८|| * अणगारे जाते इरियासमिते० जाव बंभयारी / तते णं से किंच॥ सुणक्खत्ते अणगारे जंचेव दिवसं समणस्स भगवतो महावीरस्स निहिसंपत्तमन्नो, पत्थितो जह जणो निरुत्तप्पो। अंतिए मुंडे० जाव पव्वतिते तं चेव दिवसं अभिग्गहं तहेव० इह नासइ तह पते-यबुद्धलच्छि पडिच्छंतो॥५१॥ जाव विलमिव आहारेति संजमेणं० जाव विहरति, बहिया तह भव्वत्ताउ वचय, सिवलाभो दुक्कराइ किरियाए। जणवयविहारं विहरति, एक्कारस अंगाई अहिज्जति, संजमेणं करणं अणुचियमेयं, पि सुंदरं नो जओ भणियं // 82|| तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति तते णं से सुणक्खत्ते० ओरालेणं जहा खंदतो तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे तित्थयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झियव्वयधुयम्मि। गुणसिलए चेतिए सेणिए राया सामी समोसढे परिसा णिग्गता अणिगृहियबलविरिओ, सव्वत्थामेण उज्जमइ // 83|| राया णिग्गतो धम्मकहा राया पडिगओ परिस पडिगता / तते इय जइ ते विहु नित्थि-पायसंसारसायरा वि जिणा। णं तस्स सुणक्खत्तस्स अन्नया कयाति पुय्वर-त्तावत्तकालसअब्भुजमंति तो से-सयाण को इत्थ वामोहो।।८४|| मयंसि धम्मजारियं जाग० जहा खंदयस्स बहु वासा परियातो इय हियउब्भवकुग्गइ-निग्गहमंतोवमं गिरं गुरुणो। गोतमपुच्छा तहेव कहेति० जाव सव्वट्ठसिद्ध विमाणे देवे सोउं सुनंदसाहू, पन्नवणिज्जो महाभागो॥६५॥ उववण्ण तेतीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता, से णं मंते ! मुत्तुं निययमसग्गह-मालोइय तह गुरूण पयमूले। महाविदेहे सिज्झिहिति / अणु०१ श्रु०३ वर्ग स्था०। सविसेसनिचलमणो, अकलंक, कुणइ चारित्तं // 86 // स्वनामख्याते कोशलजनपदजे वीरजिनानगारे, भ० / सुचिरं चरितुं चरणं, दहिउँ झाणानलेण कम्मवण। एवं खलुदेवाणुप्पिया णं अंतेवासी कोसलजणवए सुणक्खत्ते अन्नाणतिमिरतरणी- सिद्धिं पत्तो सुनंदभुणी // 87|| णामं अणगारे पगइभद्दए० जाव विणीए। भ०१५ 10 / सुनन्दराजर्षिचरित्रमेवं (गोशालकतपसा तप्तिस्येति 'गोसालग' शब्दे तृतीयभागे 1030 पृष्ठे श्रुत्वा मनः स्थैर्यकरं सुधर्मे। उक्तम्।) मुमुक्षवोऽसद्ग्रहनिग्रहाय सुणक्खत्ता-स्त्री०(सुनक्षत्रा) पक्षस्य द्वितीयायां तिथौ, कल्प०१अधि० ६क्षण / जं०। चं० प्र०। प्रज्ञापनीयत्वमिदं श्रयन्तु / / 88 // " सुणग-पुं०(सुनक) कौलेयके, प्रश्न० 1 आश्र० द्वार / जं०। तं० / ध० 0 3 अधि० 3 लक्ष आचा०। स्था०। उत्त०। अनु०। मृगदेशे, प्रज्ञा० 11 पद। सुणंदास्त्री०(सुनन्दा) पार्श्वनाथस्वामिनः प्रवर्त्तिन्याम्, आ० म०१०। सुणण-न०(श्रवण) श्रीत्रेन्द्रियविषयीकरणे स्था०८ ठा०३उ०। कल्प०। बाहुबलिसुन्दर्योतिरिऋषभदेवभार्यायाम्, आ० चू०१० सुणय-पुं०(सुनय) स्वांशग्राहिणी इतरांशप्रतिक्षेपिणि नये, द्रव्या० 5 ("उसभ" शब्दे द्वितीयभागे 1121 पृष्ठे कथा।) दक्षिणाञ्जानाद्रेर्दक्षि अध्या० / नयलक्षणलक्षिते अपेक्षावचन दिगम्बरव्यवस्थायाम, नं०। णदिक्स्थायां नन्दापुष्करिण्याम्, ती० 26 कल्प / भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सुणयण-पुं०(सुनयन) त्रि० शोभने नयने यस्य सः सुनयनः। सुलोचने, भ० / वज्रस्वामिना भातरि धनगिरे या धनपालदुहितरि, आ० आ०म०१ अ०। क० 1 अ० / आ० म०। आ०चू० / कल्प०। तृतीयचक्रिणां मघवतो सुणह-पुं०(शुनक) कुक्कुरे, पिं०। भार्यायाम, स०। सुणहमड-पुं०(शुनकमृत) मृते श्वदेहे, जी० 3 प्रति०१ अधि०२ उ०। सुणंदि स्त्री०(सुनन्दि) सत्समृद्धिके, घोषे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। सुणासीर-पुं०(सुनासीर) इन्द्रे, पाइ० ना० 25 गाथा। सुणक्खत्त न०(सुनक्षत्र) पुष्यादौ शोभने नक्षत्रे, प्रश्न०२ आश्र० सुणाइ पुं०(सुनाथ) ऋषभदेवस्य पश्चनवतितगे पुत्रे कल्प०१ अधि०७ द्वार। काकन्दीनगरीवास्तव्यभद्रायाः सार्थबाह्याः पुत्रे, पुं०। अणु०। / क्षण / अपरकङ्कानगरीराजस्य पदानाभस्य पुत्रे, ज्ञा० 1 श्रु०१६ अ०। जति णं भंते ! उक्खेवओ एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेण | सुणिउण-पुं०(सुनिपुण) सुसूक्ष्मे, सुष्टुनिश्चितगुणे च। स०१४० सम०। Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुणिऊण 936 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुण्णवाय सुणिऊण-अव्य०(श्रुत्वा)"चि-जि-श्रु-हु-स्त-लू-पू -धू -- गां णो हस्वच" ||8/4/241 / / इति णकारः बहुलाधिकाराद्विकल्पेन ह्रस्वः / सोऊण / सुणिऊण / आकयेत्यर्थे, 'सुणित्ता' अप्यत्र / प्रा०४ पाद। सूत्र० / सुणिट्ठिय-पुं०(सुनिष्ठित) सुष्टु- निष्ठितम् अतिशयेन रस प्रकषप र्वन्तात्मिका निष्ठां गते, उत्त०१ अ०। दश०। सुणिप्पकंप-त्रि०(सुनिष्प्रकम्प) अतीव निश्चले, दर्श०४ तत्त्व। सुणिम्भिय-त्रि०(सुनिर्मित) सुष्ठु- अतिशयेन निर्मितं सुनिर्मितम् / सुविरचिते, जी०३ प्रति० 4 अधि० / कल्प० / "सुनिम्मि-यसुगूढजाणुमंडलसुबद्धा" सुष्टु अतिशयेन निर्मितः सुनिर्मितः, एवं सुगूढमांसलतया अनुपलक्ष्यमाणंजानुमण्डलं सुबद्धंस्नायुभिरतीवबद्धंयासां ताः सुनिर्मितसुगूढजानुमण्डलसुबद्धाः / सुबद्धशब्दस्य निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात, प्राकृत्वाद्वा। जी०३ प्रति० 4 अधि०। उत्त०। सुणिय-अव्य०(श्रुत्वा) आकयेत्यर्थे, आचा०१ श्रु०५ अ०३ उ०। प्रज्ञा०। आ० म०। सुणिरुद्धदसण-त्रि०(सुनिरुद्धदर्शन) सुष्ठ अतिशयेन निरुद्धम्-आवृतं दशनं सम्यगवबोधरूपं यस्य स तथा। दर्शनमोहनीयकर्मणे ज्ञानदर्शनावरणकर्मणोर्वोदये वर्तमाने, 'हंदि हु सुनिरुद्धदसणे मोहानज्जणं कडेण कम्मुणा'। सूत्र०१श्रु०२ अ०३ उ०। सुणिविट्ठ-त्रि०(सुनिविष्ट) सुखोपविष्ट, ग०२ अधि०। सुणासंत-त्रि०(सुनिशान्त) परिचिते, आचा०१ श्रु०८ अ०१ उ०। श्रुते, गते च आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२ उ०। सुणिसिय-त्रि०(सुनिशित) अतितेजिते, जी०३ प्रति० 4 अधि०। अतिनिशिते, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। उज्यालिते, दश० 10 अ०। सुणी-स्त्री०(शुनी) कुक्कुर्याम्, सूत्र०१श्रु०३ अ०१उ०। उत्त०। सुणेवत्थ-त्रि०(सुनेपथ्य) सुप्रावृते, बृ०३ उ०। सुण्ण-न०(शून्य) श्वभ्यो हितमिति वाक्ये उगवादिभ्यो यदित्यत्र (पा० 5 / 12) शुनः संप्रसारणं दीर्घत्वमिति वचनतो यति प्रत्यये संप्रसारणे दीर्घत्वे च शून्यम्। उद्वसे, उत्त०३ अ०। विशे०। सुण्णगिह-न०(शून्यगिह) शून्यागारे, नि० चू०८ उ०। सूत्र० / आवor | सुण्णवम्गणा-स्त्री०(शून्यवर्गणा) वर्गणान्तरबाहुल्यपरिज्ञानार्थ प्ररूप णामात्रायां लोकप्रसिद्धायां वर्गणायाम, पं० सं०५ द्वार। सुण्णवाय पुं०(शून्यवाद) सर्वस्य जगतः शून्यताङ्गीकारेण सवनास्तित्ववादे, स्या०। अथ तत्त्वव्यवस्थापकप्रमाणादिचतुष्टव्यवहारापलापिनः शून्यवादिनः सौगतजातीयस्तित्कक्षीकृतपक्षसाधकस्य प्रमाणस्याङ्गीकारानङ्गी- | कारलक्षणे पक्षद्वयेऽपि तदभिमताथाऽसिद्धिप्रदर्शनपूर्वकमुपहसन्नाहविना प्रमाणं परवन्न शून्यः, स्वपक्षसिद्धेः पदमश्नुवीत। कुप्येत्कृतान्तः स्पृशते प्रमाण महो ! सुद्दष्टं त्वदसूयिदृष्टम् // 17 // शून्यः शून्यवादी प्रमाणं प्रत्यक्षादकं विना अन्तरेण स्वपक्षसिद्धेःस्वाभ्युपगतशून्यवादनिष्पत्तेः पदं प्रतिष्ठां नाश्नुवीत- न प्राप्नुयात्। किंवत् ? परवत्- इतरप्रामाणिकवत्, वैधhणायं दृष्टान्त / यथा इतरे प्रामाणिकाः प्रमाणेन साधकतमेन स्वपक्षसिद्धिमश्नुवते, एवं नायम्, अस्त मते प्रमाण-प्रमेयादिव्यवहारस्यापारमार्थिकत्वात्"सवएवायमनु-मानानुमयव्यवहारो बुत्यारूढन धर्मधर्मिभावेन न बहि "सदसत्त्वमपेक्षते " इत्यादिवचनात्। अप्रामाणिकश्च शून्यवादाभ्युपगमः कथमिव प्रेक्षावतामुपादेयो भविष्यति प्रेक्षावत्त्वव्याहतिप्रसङ्गात् ? अथ चेत् स्वपक्षसंसिद्धये किमपि प्रमाणमयमङ्गीकुरुते, तत्रायमुपालम्भ, 'कुप्येदित्यादि' प्रमाण प्रत्यक्षाद्यन्यतमत् स्पृशते आश्रयमाणाय, प्रकरणादस्मै-- शून्यवादिने, कृतान्तस्तत्सिद्धान्तः कुप्येत् - कोपं कुर्यात्; सिद्धान्तबाधः स्यादित्यर्थः / यथा किल सेवकस्य विरुद्धवृत्त्या कुपितो नृपतिः सवस्वमपहरति, एवं तत्सिद्धान्तोऽपिशून्यवादविरुद्धं प्रमाणव्यवहारमङ्गीकुर्वाणस्य तस्य सवस्वभूतं सम्यग्वादित्वमपहरति / किश्चस्वागमोपदेशेनैव तेन वादिना शून्यवादः प्ररूप्यते, इति स्वीकृतमागमस्य प्रामाण्यमिति कुतस्तस्य स्वपक्षसिद्धिः, प्रमाणाङ्गीकरणात् ? किञ्चप्रमाणं प्रमेयं विना न भवतीति प्रमाणानङ्गीकरणे प्रमेयमपि विशीर्णम् / ततश्चास्य मूकतैव युक्ता, नएनःशून्यवादोपन्यासाय तुण्ड-ताण्डवाडम्बर शून्यवादस्याऽपि प्रमेयत्वात् / अत्र चस्पृशिधातुंकृतान्तशब्दच प्रयुञ्जानस्य सूरेरयमभिप्रायः- यद्यसौ शून्यवादी दूरे प्रमाणस्य सर्वथाङ्गीकारो यावत् प्रमाणस्पर्शमात्रमपि विधत्ते, तदा तस्मै कृतान्तोयमराजः कुप्येत्, तत्कोपो हि मरणफलः; ततश्च स्वसिद्धान्तविरुद्धमसौ, प्रमाणयन् निग्रहस्थानापन्नत्वाद् मृतएवेति।एवंसति'अहो' इत्युपहास-प्रशंसायाम्' तुभ्यमसूयन्ति गुणेषु दोषानाविष्कुर्वन्तीत्येवंशीलास्त्व-दसूयिनस्तन्त्रान्तरीयास्तैदृष्टमत्यज्ञानचक्षुषानिरीक्षितमहो! सुदृष्ट साधुदृष्टम्। विपरीतलक्षणयापहासान्न सम्यग् दृष्टमित्यर्थः, अत्राऽसूयधातोस्ताच्छीलिकणप्राप्तादपि बाहुलकाणिन् / असूयाऽस्त्येषामित्य-सूयिनस्त्वय्यसूयिनस्त्वदसूयिन इति मत्वर्थीयान्तंवा। त्वदसूयुदृष्टमिति पाठापिन किञ्चिदचारु, असूयुशब्दस्योदन्तस्योदयनाद्यैायतात्पर्यपरिशुद्ध्यादौ मत्सरिणि प्रयोगादिति / इह शून्यवादिनामयमभिसंधिः-- प्रमाता, प्रमेयं, प्रमाणं, प्रतितिरिति तत्त्वचतुष्टयं परपरिकल्पितमवस्त्वेव विचारासहत्यात्, तुरङ्गशृङ्गवत् / तत्र प्रमाता तावदात्मा तस्य च प्रमाणग्राह्यत्याभावोदभावः, तथाहि-न प्रत्यक्षण तत्सिद्धिरिन्द्रियगोचरातिक्रान्तत्वात् / यत्तु अहङ्कारप्रत्ययेनतस्यमानसप्रत्यक्षत्वसाधनम्, तदप्यनैकान्तिकम्,तस्याहगौरः श्या Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुण्णवाय ९४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुण्णवाय मो वेत्यादौ शरीराश्रयतयाऽप्युपपत्ते, किश्चप्ययेयमहङ्कारप्रत्यय आत्मगोचरः स्यात् तदान कादाचित्कः स्यात्। आत्मनः सदा संनिहितत्वात्, कादाचित्कं हि ज्ञाने, कादाचित्ककारणपूर्वकं दृष्टम् , तथा सौदामिनीज्ञानमिति। नाप्यनुमानेन अव्यभिचारलिङ्गाऽग्रहणात्। आगमानां च परस्परविरुद्धार्थवादिनां नास्त्येष प्रामाण्यम् / तथाहि--एकेन कथमपि कश्चिदर्थो व्यवस्थापितः अभियुक्ततरेणाऽपरेण स एवान्यथा व्यवस्थाप्यते, स्वयमध्यवस्थितप्रमाण्यानांच तेषां कथमन्यव्यवस्थापने सामर्थ्यम् ? इति नास्ति प्रमाता प्रमेयं च बाह्योऽथः, स चानन्तरमेव बाह्याथप्रतिक्षेपक्षणे निर्लोठितः। प्रमाणं च स्वपरावभासि ज्ञानम्, तच प्रमेयाभावे कस्य ग्राहकमस्तु? निर्विषयत्वात्। किं च-एतत् अर्थसमकालम् तद्भिन्नकालं वा तद् ग्राहकं कल्प्यते ? आद्यपक्षे त्रिभुवनवर्तिनोऽपि पदार्थास्तत्राऽवभासेहन; समकालत्वाविशेषात् / द्वितीये तु, निराकारम्, साकारं वा तत्स्यात् ? प्रथमे प्रतिनियत पदार्थपरिच्छेदानुपपत्तिः। द्वितीये तु किमयमाकारो व्यतिरिक्तः, अव्यतिरक्तो वा ज्ञानात् ? अव्यातरेके, ज्ञानमेवायम्, तथा च निराकारपक्षदोषः। व्यतिरेके यद्ययं चिदूपः, तदानीमाकारोऽपि वेदकः स्यात्, तथा च-अयमपि निराकारः साकारो वातद्धेदको भवेत् ? इत्यावर्त्तनेनाऽनवस्था। अथ-अचिद्रूपः किमज्ञातः, ज्ञातो वा तज्झापकः स्यात् ? प्राचीने विकल्पे, चैअस्येव मैत्रस्यापि ततज्झापकोऽसौ स्यात् / तदुत्तरे तु, निराकारेण, साकारण वा ज्ञानेन, तस्यापि ज्ञानं स्यात् इत्याद्यावृतावनवस्थैवेति / इत्थं प्रमाणाभावे तत्फलरूपा प्रमिति कुतस्तनी ? इति सर्वशून्यतैव परं तत्त्वमिति तथा च पठन्ति-यथा यथा विचार्यन्ते, विशीर्यन्ते तथा तथा। यदेतद् स्वयमर्थेभ्यो, रोचते तत्र के वयम् ? // 1 // '' इति पूर्वपक्षः / विस्तरतस्तु प्रमाणखण्डनं तत्त्वोपप्लवसिंहादवलोकनीयम् / / अत्र प्रतिविधीयते- ननु यदिदंशून्यवादव्यवस्थापनाय देवानांप्रियेण वचनमुपन्यस्तम्, तत्शून्यम्, अशून्यं वा ? शून्यं चेत्, सर्वोपाख्या विरहितत्वात् खपुष्पेणेव नाऽनेन किञ्चित्साध्यते, निषिध्यते वा। ततश्च निष्प्रतिपक्षा प्रमाणादितत्त्वचतुदृष्टयीव्यवस्था। अशून्यं चेत् प्रलीनस्तपस्वी शून्यवादः ? भवद्वचनेनैव सर्वशून्यताया व्यभिचारात् तत्रापि निष्कण्टकैव सा भगवती / तथापि प्रामाणिकसमयपरिपालनार्थ किञ्चित् तत्साधनं दूष्यते। तत्र यत्तावदुक्तम्-प्रमातुः प्रत्यक्षेण न सिद्धिः इन्द्रियगोचराऽतिक्रान्तत्वादिति, तत्सिद्धसाधनम्। यत्पुनः, अहंप्रत्ययेन तस्य मानसप्रत्यक्षत्वमनैकान्तिकमित्युक्तम्, तदसिद्धम् / अहं सुखी, अहं दुःखी इति अन्तर्मुखस्य प्रत्ययस्य आत्मालम्बनतयैवोप-पत्तेः / तथा चाहुः "सुखादि चेत्यमानं हि, स्वतन्त्रं नानुभूयते। मतुवर्थानुवेधात्तु, सिद्धं ग्रहणमात्मनः॥१।। इदं सुखमिति ज्ञानं, दृश्यंत नघटादिवत्। अहं सुखी ति तु ज्ञप्ति-रात्मनोऽपि प्रकाशिका // 2 // " यत्पुनः अहं गौरः, अहं श्यामः' इत्यादिबहिर्मुखः प्रत्ययः स खल्वात्मोपकारकत्येन लक्षणया शरीरे प्रयुज्यते; यथा प्रियभृत्येऽहमितिव्यप्रदेशः / यच, अहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्यम्, तत्रेयं वासनाआत्मा तावदुपयोगलक्षणः, सच साकारा-नाकारोपयोगयोरन्यतरस्मिन्नियमेनोपयुक्त एव भवति। अहं प्रत्ययोऽपि चोपयोगविशेष एव, तस्य च कर्मक्षयोपशमवैचित्र्याम् इन्द्रियानिन्द्रियालोकविषयादिनिमित्तसव्यपेक्षतया प्रवर्त्तमानस्य कादाचित्कत्वमुपपन्नमेव / यथा-बीजं, सत्यामप्यकुरोपजननशक्ती पृथिव्युदकादिसहकारिकारणकलापसंभवहितमेवाऽकुरं जनयति, नान्यथा। न चैतावना तस्याड्कुरात्पादने, कादाचित्केऽपि तदुत्पादनशक्तिरपि कादाचित्की, तस्याः कथांचन्नित्यत्वात् / एवमात्मनः सदा सन्निहितत्वेऽप्यहंप्रत्ययस्य कादाचित्कत्वम् / यदप्युक्तम तस्याऽव्यभिचारि लिङ्ग किमपिनोपलभ्यत इतितदप्यसारं; साध्याऽविनाभाविनोऽनेकस्य लिङ्गस्य तत्रोपलब्धेः, तथाहि-रूपाधुपलब्धिः सकर्तका, क्रियात्वात्छिदिक्रियावत्, यश्चास्याः कर्तास आत्मा।नचात्र चक्षुरादीनां कर्तृत्यम्, येषां कुठारादिवत् करणत्वेनास्वतन्त्रत्वात् / करणत्वं चैषां पौद्गलिकत्वेनाऽचेतनत्वात्, परप्रर्यत्वात्, प्रयोक्तृव्यापारनिरपेक्षप्रवृत्त्यभावात्। यदि हि इन्द्रियाणामेव कतृव्यं स्यात् तदा तेषु विनष्टेषु पूर्वाऽनुभूतार्थस्मृतेः, 'भया दृष्टम, स्पृष्टम्, घ्रातम्, आस्वादितम्, श्रुतम्' इतिप्रत्ययानामेककतृकत्वप्रतिपत्तेश्च कुतः संभवः? किञ्चि-इन्डियाणां स्वस्वविषयनियतत्वेन रूपरसयोः साहचर्य प्रतीतौन सामर्थ्यम्। अस्ति / च, तथाविधफलादे रूपग्रहणानन्तरं तत्सहचरितरसानुस्समणम्, दन्तोदकसंप्लवान्यथानुपपत्तेः / तस्मादुभयोगवाक्षकयोरन्तर्गतः प्रेक्षक इव; द्वाभ्यामिन्द्रियाभ्यां रूपरसयोर्दशी कश्चिदेकोऽनुमीयते। तस्मात्करणान्येनाति। यश्चैषां व्यापारयितास आत्मा। तथा, साधनोपादानपरिवर्जनद्वारेण हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्था चेष्टा प्रयत्नपूर्विका, विशिष्टक्रियात्वात, रथक्रियावत्, शरीरं च प्रयत्नवदधिष्ठितम् विशिष्ट - क्रियाश्रयत्वात्, रथवत्। यश्चाऽस्याऽधिष्ठाता, स आत्मासारथि-वत्। तथाऽत्रेव पक्षो इच्छापूर्वकविकृतवाय्वाश्रयत्वातद् भस्त्रावत्, वायश्चप्राणापानादिः, यश्चान्याधिष्ठाता, स आत्मा, भस्वाध्यापयितृवत् / तथाऽत्रैव पक्षे, इच्छाधीननिमेषोन्मेषवदवयवयोगित्वाद्, दारुयन्त्रवत्। तथा शरीरस्य वृद्धिक्षतभनसंरोहणं च प्रयत्नवत्कृतम्, वृद्धिक्षतभनसंरोहणत्वात् गृहवृद्धिक्षतभग्नसंरोहणवत्। वृक्षादिगतेन बृद्ध्यादिना व्यभिचार इति चेत्। न, तेषामपि एकेन्द्रियजन्तुत्वेन सात्मकत्वात्। यश्चैषां कर्ता, स आत्मा, गृहपतिवत्। वृक्षादीनां च सात्मकत्वमाचाराङ्गादेरवसेयम्, किं चिद्वक्ष्यते च। तथा प्रेयं मनः, अभिमतविषयसंबन्धनिमित्तक्रियाश्रयत्वाद् , दारकहस्तगतगोलकवत्। यश्चास्य प्रेरकः, स आत्मा, इति। तथा, आत्म-चेतन--क्षेत्रज्ञ-जीव-पुरुषादयः पर्याया न निर्विषयाः पर्यायत्वाद्, घट--कुट-कलशादिपर्यायवत्, व्यतिरेके षष्ठभूतादि। यश्चैषां विषयः, स आत्मा। तथा अस्त्यात्मा, असमस्तपर्यायवाच्यत्वात्, यो योऽसाङ्केतिकशुद्धपर्यायवाच्यः, सः सोऽम्भोरुहादयः। तथा सुखादीनि द्रव्याश्रितानि गुणत्वाद, रूपवत्, योऽसौ गुणी, स आत्मा, इत्यादिलिङ्गानि। तस्यादनुमानततोऽप्यात्मा सिद्धः / स्या०। आभाष्य भगवता किमुक्तोऽयमित्याह / / किं मन्ने अस्थि भूया, उयाहु नत्थि त्ति संसओ तुज्झ। Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुण्णवाय 941 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त वेयपयाण य अत्थं,ण जाणसी तेसिमो अत्थो / / 1666|| सुण्णागारगय-त्रि०(शून्यागारगत) शून्यगृहव्यस्थिते, सूत्र० 1 श्रु० अ० पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशलक्षणानि पञ्च भूतानि, तानि च किं सन्ति | २उ०। नवा ? इति व्यं मन्यसे। संशयश्च तवायं विरुद्धवेद पदश्रवणनिबन्धनो सुण्हा-स्त्री०(सास्ना)"उः सास्ना-स्तावके" ||17|| इति वर्तते / तानि चामूनि वेदपदानि- 'स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष | आदेरात उत्त्वम् / गवादिगलमांसे, प्रा०१ पाद। ब्रह्मविधिरञ्जसा विज्ञेय' इत्यादि, तथा 'द्यावापृथ्वी' इत्यादि, तथा- *स्नुषा-स्त्री० स्नुषायां ण्होनवा // 1 / 261 / / इतिणकाराक्रान्तो 'पृथिवी देवता आपो देवता' इत्यादि एतेषां चायमर्थस्तव प्रतिभासते हकारः / सुण्हा / सुसा / प्रा० / पुत्रभार्यायाम्, स्था०४ ठा०३ उ०। 'स्वप्नोपम- स्वप्नन्सदृशम्, वैनिपातोऽवधारणे सकलम्, - अशेष विशे०। विपा० आचा०1 जगदित्येष ब्रह्मविधिः- परमार्थप्रकारः अञ्जसा--प्रगुणेन स्यायेन सुतवसिय-न०(सुतपसित) सुष्ठुइह लोकस्य प्रशंसारहितत्वेनतपसितम् विज्ञेयो-ज्ञातत्वः, इति। तदेवमादीनि वेदपदानि किल भूतनिह्नवपराणि, तपस्यनुष्ठानं सुतपसितम्। स्वनुष्ठिते, स्था० 3 ठा० 4 उ० / द्यावापृथिवीत्यादीनि तु सत्ताप्रतिपादकानि, अतस्तव संशयः। तदेतेषां वेदपदानां त्वमर्थं न जानासि चशब्दाधुक्तिहृदयं च न वेत्सि। तेन संशयं सुतवस्सि-पुं०(सुतपस्विन) सुष्ठ-शोभनं बाह्याभ्यन्तरं तपोऽस्याकुरुषे। तेषां चायमर्थो वक्ष्यमाणलक्षण इति। विशे०। सम्म०। रत्ना०। स्तीति सुतपस्वी। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। सुविकृष्टतपोनिस्तप्तदेहे, सूत्र० (सर्वशून्यताशङ्की त्वं निरवेशषमपि लोकं मायोपमं स्वप्नेन्द्रजालतुल्यं १श्रु०१० अ० / स० मन्यसे ? किम्, नेति 'भाव' शब्दे पञ्चमभागे साधितम्।) (शून्यवादिनो सुतारा-स्त्री०(सुतारा) अयोध्याराजस्य श्रीहरिश्चन्द्रस्य भार्यायाम, ती० नये आदित्योद्ग-मनक्रियानिरोधो भवताति आइन्च' शब्दे द्वितीयभागे 37 कल्प। शान्तिजिनस्य मातरि, उत्त०१८ अ। 3 ष्टष्ठे उक्तम् / ) चन्द्रमाश्च प्रत्यहं क्षीयमाणः समस्तक्षयं यावत्पुनः सुतितिक्ख-त्रि०(सुतितिक्ष) सुखेन तितिक्ष्यते- सह्यते इति कलाभिवृद्ध्या प्रवर्धमानः संपूर्णावस्था (स्थां) यां यावदध्यक्षेणैवोप सुतितिक्षम्। तितिक्षयितुं सुशक्ये परीषहादिके, स्था० 5 ठा० 1 उ० / लक्ष्यते / तथा-- सरितश्च प्रावृषि जलकल्लोलाविलाः स्यन्दमाना दृश्यन्ते / वायवश्व वान्तो वृक्षमङ्गकम्पादिभिरनुमीयन्ते,। यधोक्तं भवता सुतिर-त्रि०(स्वप्तृ) "शीलाद्यर्थस्येरः।।८२।१५५॥" इति प्राकृतसर्वमिदंमायास्वप्नेन्द्रजालकल्पमिति, तदसत्, यतः सर्वभावेकस्यधि लक्षणबलादुभयत्रापि तृन्प्रत्ययस्येरादेशः। प्रा० / स्वप्नशीले, बृ०१ उ०२ प्रक०। दमायारूपस्य सत्यस्याभावान्मायाया एवाभावः स्यात् , यश्च मायां प्रतिपादयेत् यस्य च प्रतिपाद्यते सर्वशून्यत्वे तयोरेवाभावात्कुतस्त सुतिहि-स्त्री०(सुतिथि) पञ्चानां नन्दादीनामन्यतरस्यां तिथौ, प्रश्न०२ व्यवस्थितिरिति? तथा स्वप्नोऽपिजाग्रदवस्थायां सत्यां व्यवस्थाप्यते आश्र० द्वार। तस्या अभावे तस्याप्यभावः स्यात् ततः स्वप्नमभ्युपगच्छता भवता / सुत्त-त्रि०(सुप्त) निद्रायुक्ते, उत्त०४ अ०1रात्रिमध्ययामद्वये निद्रांगते, तन्नान्तरीययकतया जाग्रदवस्थाऽवश्यमभ्युपगता भवति, तदभ्युपगमे / पा०1"सुत्ता अमुणी सया मुणियो जागरंति' ('सीओसणिज्ज' शब्देऽच सर्व-शून्यत्वहानिः,नचस्वप्नोऽप्यभावरूप एव, स्वप्रेऽप्यनुभूतादेः स्मिन्नेव भागे इदं व्याख्यातम् / ) बाल्यादव्यक्तचेतने, ज्ञा०१ श्रु०१ सद्भायात्, तथा चोक्तम्- "अणुहूयदिवचिंतिय, सुयपयइ-वियारदेव- अ० / औ०। (द्रव्यभावसुप्ताः 'सामाइय' शब्देऽस्मिन्नेवभागे विस्तरतो याऽसूया। सुमिणस्स निमित्ताई, पुण्णं पावं च ण भावो।।१।।" इन्द्रजाल- दर्शिताः।) (सुप्तः किं स्वप्नं पश्यति इति 'महासुमिण' शब्दे षष्ठे भागे व्यवस्थाऽप्यपरसत्यत्वे सति भवति, तदभावे तु केन कस्य चेन्द्रजालं दर्शितम्।) स्वपनं सुप्तम् / निद्रायाम्, नपुं० / बृ० 1 उ० 1 प्रक० / व्यवस्थाप्येत? द्विचन्द्रप्रतिभासोऽपि रात्रौ सत्यामेकस्मिश्च चन्द्रभस्युप- मदिराखोले देशविशेषप्रसिद्ध द्रव्यविशेषे च / बृ०५ उ०।। लम्भकसद्भावे चघटते, न सर्वशून्यत्केन चाभावः कस्याचि दप्यत्यन्त- / *सूत्र-न० अर्थानां सूचनात् सूत्रम् / अनु० / विशे०। तत्तदर्थसूचनात् तुच्छरूपोऽस्ति, शशविषाणकूर्मरोमगगनारविन्दादीनामत्यनताभाव सूत्रम्। औणादिकशब्दव्युत्पत्तिः / व्य० 1 उ० / आ० म० जीत। प्रसिद्धानां समासप्रतिपाद्यस्यैवार्थस्याभावो न प्रत्येकपदवाच्यार्थ सर्वद्रव्यपर्यायनयाद्यर्थसूचनात्सूत्रम् / स्था० 4 ठा० 1 उ० / आगमे, स्येति, तथाहि-शशोऽप्यस्ति विषाणमप्यस्ति; किं त्वत्र शशमस्तक स्था० 4 ठा०। बृ०। प्रवचने, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। विशे०। समवायि विषाणंनास्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते, तदेवं संबन्धमात्रमत्र निषिध्यते निरुक्तम्नात्यन्तिको वस्त्वभाव इति। एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति। तदेवं विद्यमानायामप्यस्तीत्यादिकायां क्रियायां निरुद्धप्रज्ञास्तीर्थिका अक्रियावाद सुत्तं च सुत्तमेव उ, अहवा सुत्तं तु तं भवे लेसो। माश्रिता इति||८|| सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। अत्थस्स-सूयणा वा, सुवुत्तमिति वा भवे सुत्तं // 312|| सुण्णागार-न०(शून्यागार) शून्यमुद्वसं तच तदागारं शून्यागारम्, / उत्त० अर्थेनाबोधितंसुप्तमिव सुप्तं प्राकृतशैल्यासुत्तम्। अथवा-सूत्रनामतद्भवति 2 अ०। शून्यगृहे, कल्प०१ अधि०५क्षण। प्रश्न०। उत्तास्था०। प्लेषःतन्तुरूपमित्यर्थः यथा तन्तुनाद्वेत्रीणिबहूनिवावस्तूनिएकत्र संहन्यसूत्र०। न्ते एवमेकेनापि सूत्रेण बहवोऽर्थाः संघात्यन्ते इति सूत्रमिव सूत्रम् / अर्थ Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त 942 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त सूचनाद्वा सूत्रं, सुष्ठु उक्तमिति वा सूत्रम्। प्राकृतशैल्या तु सुत्तमिति। सूत्रपदनिक्षेपमाहसम्प्रति सूत्रशब्दस्यैव निरुक्तान्याह दव्वं तु पोण्डयादी, भावे सुत्तमिह सूयगं नाणं / नेरुत्तियाई तस्स उ, सूयइ सिव्वइ तहेव सुवइ त्ति। सण्णासंगहवित्ते, जातिणिबद्धे य कत्थादी||३|| अणुसरति त्तिय भेया, तस्स य नामा इमा हुंति // 313|| नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यसूत्रं दर्शयति- 'पोण्डयाइ'त्ति-पोण्डगं च तस्य सूत्रस्य निरुक्तान्यनि-सूचयतीति सूत्रम्। अथवा-सीव्यतीति | वनीफलादुत्पन्नं कासिकम्- आदिग्रहणाद् अण्डजबालजादेहणं, सूत्रम् / यदिवा- स्वपतीति सूत्रम् 'अथवा- अनुसरतीति सूत्रमिति | * भावसूत्रं तु इह-अस्मिन्नधिकारे सूचकं ज्ञान-श्रुतज्ञानमित्यर्थः, तस्यैव निरुक्तस्य भेदाः, नामानि पुनस्तस्येमानि सुप्तादीनि भवन्ति। स्वपरार्थसूचकत्वादिति / तच्च श्रुतज्ञानसूत्रं चतुर्की भवति, तद्यथातान्येवार्थतो व्याख्यानयति संज्ञासूत्रम्, संग्रहसूत्रम्, वृत्तनिबद्धम, जातिनिबद्धं च। तत्र संज्ञासूत्रं यत् पासुत्तसमं सुत्तं, अत्थेणाबोहियं ण तं जाणे / स्वसंकेतपूर्वकं निबद्धम्, तद्यथा-"जे छेए सागारियं न सवे, सव्वामगंध लेससरिसेण तेणं, अत्था संघाइया बहवे // 314 / / परिण्णाय णिरामगंधो परिव्वए'' इत्यादि, तथा लोकेऽपि पुद्गलाः संस्कारः क्षेत्रज्ञा इत्यादि, संग्रहसूत्रंतु यत्प्रभूतार्थसंग्राहकम, तद्यथायथाद्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः प्रसुप्तःसन्न किश्चित्तासां कलानां द्रव्यमित्याकारिते समस्तधर्माधर्मादिद्रव्यसंग्रह इति। यदिवा- 'उत्पादजानाति एवमर्थेनाबोधितं न किंचिदर्थविशेष जानाति, यदा त्वर्येन व्ययध्रोव्ययुक्तं सदिति, वृत्तनिबद्धसूत्रं पुनर्यदनेकप्रकारया वृतजात्या प्रबोधितं भवति तदा सर्वेषां तदन्तर्गतानां भावानां ज्ञायकमुपजायते। निबद्धम्, तद्यथा-'बुद्धिज त्ति तिउट्टिन्जे, त्यादि, जातिनिबद्धंतु चतुर्दा, यथास एव पुरुषःप्रबोधितस्तासांकलानामतःप्रसुप्तसमंसूत्रम्।अथवा तद्यथा-कथनीयं कथ्यमुत्त-राध्ययनज्ञाताधर्मकथादि, पूर्वर्षिचरितश्लेषसदृशंतत् सूत्रम्, तथाहि-तेनश्लेषसदृशेन-तन्तुसदृक्षण बहवोऽर्थाः संघातितास्ततः श्लेषसदृशम्। कथानक-प्रायत्वात्तस्य, तथा गद्यम्-ब्रह्मचर्याध्ययनादि, तथा-पद्यम् -छन्दोनिबद्धम्, तथा-गेयम्-यत्स्वरसंचारेण गीतिकाप्रायनिबद्धम, संप्रति अर्थस्य सूवनादिति व्याख्यानयति-- तद्यथा-कापिलीयमध्ययनम्, 'अधुवे असासयम्मि संसारम्मि दुक्खसूइज्जइ सुत्तेणं, सुई णट्ठा वि तह सुएणऽत्थो। पउराए' इत्यादि। सूत्र० 1 श्रु० 1 अ०१ उ०। "अत्थं भासइ अरिहा, सिव्वइ अत्थपयाणि व, जह सुत्तं कंचुगाईणि // 311 / / सुत्तं गुंफति गणहरा निउणं / सासणस्स हियट्ठाए, ततो सुत्तं पवत्तइ॥" यथा सूची नष्टा सूत्रेण सूव्यते सूत्रणैवापलक्ष्यते, तथा श्रुतेनार्थः सूव्यते दशा० 4 अ०॥ इति अर्थस्त सूचनात् सूत्रम्, एतेन सूचयतीति निरुक्तं व्याख्यातम् / तत्र गणधरा विशेष्यन्ते निपुणाः सूक्ष्मार्थदर्शित्वात् नियतगुणा निगुणा अधुना सीव्यतीति व्याख्यानयति- यथा सूत्रं कञ्चुकादीनि सीव्यति वासन्निहितसमस्तगुणत्वात्, आह-तत्पुनः सूत्रं किमादिकं किंपर्यवसानं एवमर्थः पदान्यनेकानि सीव्यतीत्यर्थः, सीवनात् सूत्रम्। कियत्परिमाणं को वास्य सार इत्यत आहस्रव (सूचय) तीति अस्य व्याख्यानमाह॥ सामाइयमाईयं,सुयनाणं जाव बिंदुसाराओ। सूरमणिं जलकतो, व अत्थमेव तु पसवई सुत्तं / तस्स वि सारो चरणं, सारो चरणस्स निव्वाणं / / वणियसुयअंधकयवर-तदणुसरंतो सुर्य एवं // 316|| तत् श्रुतज्ञानं सामायिकमादिर्यस्य तस्सामायिकादि यावत् बिन्दुयथा सूर्यकान्तोऽनौ, जलकान्तो जले, दीप्तिं सवति एवं सूत्रम्, अर्थ सारात्, बिन्दुसारं यावत् बिन्दुसाराख्यचतुर्दशपूर्वमित्यर्थः / तच प्रस्रवतीति सूत्रम् / अनुसरणं द्विधा- द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतो मूलभेदापेक्षया द्विभेदम्, तद्यथा-अङ्ग प्रविष्टम्, अनङ्गप्रविष्ट च / वणिकसुतोऽन्धः कचवरे दृष्टान्तः / एकस्य वणिजः पुत्रोऽन्धः वाणजा अङ्गप्रावष्टं द्वादशभेदमाचारादिभेदाद्। अनङ्गप्रविष्ट-मनेकभेदमावश्यक चिन्तितम्- एष वराको निर्दिष्ट भुक्तं भुक्त्वा परिभवस्थान गाढतरं तद्व्यतिरिक्तं कालिकोत्कालिकादिभेदात् / उक्तं च-व्यनेकद्वादशभेदं भविष्यतीति द्वौ स्तम्भौ निहत्थ तत्र रज्जुर्बद्धा / ततः सोऽन्धः पुत्रो श्रुतमिति। आ० म०१ अ०। अनु०। रज्ज्वनुसारेण कचवरं बहिस्त्यजति, एष दृष्टान्तः / अयमर्थोपनयःवणिक्स्थानीय आचायः, अन्धस्थानीयाः साधवः, रज्जुस्थानीयं सूत्रं, से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दध्वसुअं? कचवरस्थानीयमष्टप्रकारे कर्म / तथा चाह- एवं वणिक्सुतान्ध जाणयसरीर भविअसरीरवइरित्तं पत्तयपोत्थयलिहिअं,अहवादृष्टान्तप्रकारेण तत्सूत्रमनुसरन् अष्टप्रकारं कर्म कचवरस्थानीयमपनयति जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुअं पंचविहं पण्णत्तं, तं ततः सरणात् सूत्रं, सुष्ठु उक्तं सूक्तमिति नाम तु प्रतीतमिति न जहा- अंड्यं, बों डयं, कीडयं, बालयं, बागयं / अंडयं व्याख्यानम् / वृ०१उ०१प्र०। स्था०। सूत्र० / प्रव०। गणधरादिकृते, हंसगब्मादि, बोंडयं-कप्पासमाइ, कीडयं पंचविहं पण्णत्तं, तं पञ्चसाक्षिकधर्मप्रतिपादनप्रायोगिक सूत्रादौ, संघा० 1 अधि० 1 जहा-पट्टे, मलए, अंसुए, चीणंसुए, किमिरागे, (अनु०) बागयं, प्रस्ता० / सुत्तं ति वा पवयणं तिवा एगट्ठा। आ० चू०१ अ०।जिनागमे, सणमाइ, से तं जाणयसरीरभवि-असरीरवइरित्तं दव्वसुअं। से दर्श०३ तत्त्व। तं नोआगमतो दव्वसु, से तं दव्वसुअंग(सू०३७।) Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त 143- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त अत्र निर्वचनम्- 'जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दध्वसुअ' मित्यादि, यत्रज्ञसरीरभव्यशरीरयोः सम्बन्धि अनन्तरोक्तस्वरूपंन घटतेतत्ताभ्यां व्यतिरिक्तं-भिन्ने द्रव्यश्रुतम्, किं पुनस्तदित्याह- 'पत्तयपोत्थयलिहिय' ति पत्रकाणि-तालताल्यादिसंबन्धीनि तत्संघातनिष्पन्नास्तुपुस्तकाः, ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च तेषु लिखितं पत्रकपुस्तकलिखितम् , अथवा-पोत्थयं ति-पोतं वस्त्र पत्रकाणिच पोतं च तेषु लिखितं पत्रकपोतलिखितं ज्ञशरीरभव्यशरीरत्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतम् , अत्र च पत्रकादिलिखितस्य श्रुतस्य भावश्रुतकारणत्वात्, द्रव्यन्वमवसेयम्, नोआगमत्वं तु आगमतो द्रव्यश्रुत इव आगमकारणम्या-त्मदेहशब्दत्रयरूपस्याभावाद् भावनीयम् / तदेवमेकेन प्रकारेण ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतमुक्तम्।साम्प्रतंतदेव प्रकारान्तरेण निरूपयितुमाह'अहवे' त्यादि, अथ वा-श्रुतं पञ्चविधं प्रज्ञप्तम, तद्यथा-'अंडयमि' त्यादि, अत्राऽऽहननु श्रुत प्रक्रान्ते सूत्रस्य प्ररूपणमप्रस्तुतम्, सत्यम्, किन्तुप्राकृतशैलीमङ्गीकृत्य श्रुतस्याण्डजादिसूत्रस्यं च सूत्रलक्षणेनैकेन शब्देनाभिधीयमानत्वसाम्यादिदमपि प्ररूपयतीत्यदोषः। प्रसङ्गतोऽण्डजादि-सूत्रस्वरूपज्ञापनेन शिष्यव्युत्पत्तिश्चैवं कृता भवति, अत एव भावश्रुते प्रक्रान्ते नामश्रुरूपदिप्ररूपणमप्रस्तुतमित्याद्यपि प्रेर्यमपान्तं, तस्यापि शिष्यव्युत्पादनादिफलत्वात्। न च भावश्रुतप्रतिपक्षस्य नामश्रुतादः प्ररूपणमन्तरेण भावश्रुतस्य निर्दोषत्वादिस्वरूपनिश्चयः कर्तु पार्यते, 'जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ' त्ति वचनाद् इत्यलं विस्तरेण / अवाद्यभेदज्ञापनार्थमाह- 'से कि त्' मित्यादि, अत्रोत्तरम्- 'अंडयं हंसगढभाइ' त्ति- अण्डाजातमण्डजम्, हंसः- पतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषः, गर्भरतु तन्निवर्तितः कोसिकाकारः, हंसस्य गर्भो हसगभः तदुत्पन्नं सूत्रमण्डजमुच्यते, आदिशब्दः स्वभेदप्रख्यापनपरः। ननु यदि हंसग ट्पन्नसूत्रमण्डलमुच्यते तर्हि सूत्रे 'अंडयं हंसगमाइ'त्ति सामानाधिकरण्यं विरुध्यते, हंसगर्भस्य प्रस्तुतसूत्रकारणत्वादेव सत्यम् / कारणे कार्योपचारात्तदविरोधः, कोशकारभवं सूत्रं चटकसूत्रमिति लोकं प्रतीतमण्डजमुच्यत इति हृदयम्, पञ्चेन्द्रियहंसगभसम्भवमित्यन्ये। ‘से तमि' - त्यादि निगमनम्। अथ द्वितीयभेद उच्यते- 'से किंत' मित्यादि अत्र निर्वचनम्-बोंडयं फलिहमाइत्ति-बोण्ड वमनीफलं तस्माज्जातं बोण्डज, फलिही-वमनी तस्याः फलमपिफलिहंकासाश्रयं कोशकरूपंतदिहापि कारणे कार्योपवाराद्वोण्डजंसूत्रमुच्यते इतिभावः / 'से तमित्यादि निगमनम्। अथ तृतीयभेद उच्यते- 'से किंतमि त्यादि, अत्रोतरम्- 'कीडय पंचविहमि, त्यादि, कीटाज्जातं कीटजं सूत्रं तत् पञ्चावधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा- 'पट्टे त्ति पट्टसूत्रं मलयम् अंशुकम्, चीनांशुकं कृमिरागम्। अत्र वृद्धव्याख्या किल यत्र विषये पट्टसूत्रमुत्पद्यते, तत्रारण्ये वननिकुञ्जस्थाने मांसचीडादिरूपस्याऽऽमिषस्य पुजाः क्रियन्ते, तेषां च पुञ्जानां पार्श्वतो निम्ना उन्नताश्च सान्तरा बहवः कीलका भूमौ निखायन्ते तत्र वनान्तरेषु संचरन्तः पतङ्ग कीटाः समागत्य मासांद्यभिलापोषभोगलुब्धाः कीलकान्तरेष्वितस्ततः परिभ्रमन्तो लालाःप्रमुञ्चन्ति, ताश्च कीलकेलेषु लग्राः परिगृह्यन्ते, इत्येतत् पट्टसूत्रमभिधीयते / अनेनैव क्रमेण मलयविषयोत्पन्नं तदेव मलयम्, इत्थमेव | चीनविषये बहिस्तादुत्पन्नं तदेवांशुकम् इत्थमेव चीनविषयोत्पन्नं तदेव चीनांशुकमभिधीयते, क्षेत्र विशेषाद्धि कीटविशेषस्तद्विशेषात् तुपट्टसूत्रादिव्यपदेश इति भावः। एवं क्वचिद्विषये मनुष्यादिशाणितं गृहीत्वा केनापि योगेने युक्तं भाजनसम्पुटे स्थाप्यते, तत्रच प्रभूताः कृमयः समुत्पद्यन्ते, तेच वाताभिलाषितो भाजनच्छिद्रैर्निर्गत्य आसन्नं पयटन्तो यल्लालाजालमभिमुञ्चन्ति तत् कृमिरागंपट्टसूत्रमुच्यते, तच्चरक्तवर्णकृमिसमुत्थत्वात्स्वपरिणामतएव रक्तं भवात। अन्ये त्वभिदधति-यदातत्रशोणिते कृमयः समुत्पन्ना भवन्ति तदा सकृमिकमेव तन्मलित्वा किट्टिसं परित्यज्य रसो गृह्यत, तत्र च कश्चिद् योगः प्रक्षिप्यत, ततस्तेन यद् रज्यते पट्टसूत्रं तत् कृमिरागमुच्यते / तच्च धौताद्यवस्थासु मनागपि कथञ्चिद्रागं न मुञ्चति, ‘से तमि' त्यादि निगमनम् / अथ चतुर्थो भेद उच्यते- 'से किंतमि' त्यादि, अत्रोत्तरम् (अनु०1)(बालयपदव्याख्या 'बालय' शब्द पञ्चमभागे गता।) अथपञ्चमो भेदोऽभिधीयत-‘से किंतमि' त्यादि, बल्काज्जातंवल्कजं, तच सणप्रभृति, क्वचित् पुनरतस्यादीति पाठ, तत्रातसीसूत्रं मालवादिदेशप्रसिद्धम्, 'सेतमि' त्यादि निगमनम्। उक्तं पञ्चविधमण्डजादिसूत्रं, तगणन चोक्तं ज्ञाशरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्त द्रव्यश्रुतम्, अतस्तदपि निगमयति- ‘से तं जाणने' त्यादि, एवगणनेन च समर्पित नोआगमतो द्रव्यश्रुतमतस्तदपि निगमयति- 'से तं नोआगमओ' इत्यादि, एतत् समर्थने च समर्यितं द्विविधमपि द्रव्यश्रुतमतस्तदपि निगमयति- 'सेतं दव्वसुअमि, त्यादि। अनु०॥ विध्युद्यमादिसूत्राणि॥ विहि 1 उज्जम 2 वन्नय-३ भय / उस्सग्ग 5 ऽववाय 6 तदुभयगयाइं७। सुत्ताई बहुविहाईसमए गंभीरभावाई।।१०६|| ध००३ अधि०३ लक्ष०। (अस्याः व्याख्या 'सद्धा शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम्। किं तत् इत्याह॥ अप्पग्गन्थमहत्थं, बत्तीसदोसविरहियं जंच। लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहि य गुणेहि उववेयं |||| अल्पग्रन्थं महार्थ च सूत्रं विज्ञेयम्, "उत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सत् "इत्यादिवत् सूत्र मल्पग्रन्थं महार्थं च भवतीत्यर्थः, यच द्वात्रिंशद्दोषविरहितम्, तल्लक्षणयुक्तं सूत्रमुच्यते। ते चैतेऽन्यत्रोक्ता द्वात्रिंशदोषाः-- "अलियमवघायजणय, निरत्थयमवत्थयं छलं दुहिलं। निस्सारमहियमूर्ण, पुणरुत्तं वाहयमजुत्तं / / 1 / / . कमभिन्नवयणभिन्नं, विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च। अणमिहियमपयमेव य, सहावहोणं ववहियं च / / 2 / / कालजइच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमेतं च। Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त 944 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त अत्थावत्तीदोसो, नेओ असमासदोसो य॥३॥ लक्षणहीनस्य त्वर्थाभावतस्ततो यन्निमित्तमुपनिबद्धं सूत्रं तस्याउवमा रूवगदोसो, निद्देसपयत्थसंधिदोसोय। प्रसिद्धिरेव। तथा चाह-लक्षणतः खलु विवक्षितस्यार्थस्य सिद्धिस्तदएए उसुत्तदोसा, बत्तीसं होंति नायव्वा / / 4 / / भावे लक्षणाभावे-तत्सूत्रं न साधयति विवक्षितमर्थम् / इदं सर्वत्रापि लोके सिद्धं यत्किञ्चिन्मण्यादिद्रव्यं लाभार्थं क्रीतं तल्लक्षणहीनं लाभ विशे०। दशा०। न साधयति तेन- कारणेन लक्षणयुक्तं सूत्रमिष्यते। अस्खलितादिपदानां व्याख्या-- ईदृशं लक्षणयुक्तं सूत्रमत आहखलिए पत्थरसीया, मिलिए मिस्साणि धन्ने वावणता। अप्पग्गंथमहत्थं, बत्तीसदेसिविरहियं जंच। मत्ताइबिंदुवन्ने, घोसाइ उदत्तमाईया // 26 // लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहिँ य गुणेहिं उववेयं / / 276 / / स्खलितं द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च। तत्र द्रव्ये प्रस्तरसीता प्रस्तराकुलं अल्पग्रन्थम्-अल्पाक्षरमहार्थमत्रचत्वारो भङ्गाः-अल्पाक्षरमल्पार्थम्, क्षेत्रे तस्मिन् हि बाह्ययानानि हलकुलिकादीनि उत्सृज्य अन्यत्र यथा कार्पासादिकम् / अल्पाक्षरं महार्थं यथा सामायिककल्पव्यवहानिपतन्ति, एवं भावस्खलितं यदन्त-रान्तराआलापकान् मुञ्चति यथा रादि। महाक्षरमल्पार्थम, यथा-"जीमूतेइ वा अंजवेइ वा'' इत्यादिभिअहिसा 'देवा वितं नमंसन्ति' "पुप्फेसुं भमरा जहा पत्थित्ते चेव दोसा बहुभिरक्षरैर्वर्णव्यावर्णनम् महाक्षरं महार्थ यथा दृष्टिवादः तत्र यदल्पाक्षरं च" मिलितमपि द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / तत्र द्रव्यतो मिलितं बहूनां महार्थ तादृश सूत्रमिति गमिष्यते तथा यद्द्वात्रिंशद्दोषविरहितं तदिष्यते। ब्रीहियवादीनां धान्यानामेकत्र मिश्रीकृतानां वापनता-वपनं भावतो ते च द्वात्रिंशदोषा वक्ष्यमाणास्तथाष्टभिर्गुवैर्वक्ष्यमाणैर्यदुपेतं तदिष्यते मिलितं यदन्यस्यान्यस्योद्देशकस्याध्ययत्तस्य आलापकानेकत्र मील एवंभूतं लक्षणयुक्तम्। यति सर्वजिनवचनमिति कृत्वा यथा 'सव्वेपाणा पियाउगा सव्वे जीवा अधुना द्वात्रिंशद्दोषानाहवि इच्छंति जीविउं न मरिजिउं इत्थ न नजइ किं कालियं उक्कालियं छेयसुयं वा'' अत्र प्रायश्चित्तं दोषाश्च प्राग्वत्। परिपूर्ण द्विधा-द्रव्यतो, अलियमुवधायजणयं, णिरत्थगमवत्थयं बलं दुहिलं / भावतश्च / तत्र द्रव्यतः परिपूर्णो घटः, भावे परिपूर्ण मात्रादिभिः, आदि निस्सारमहियमूर्ण, पुनरु तं वाहयमजुत्तं / / 20 / / ग्रहणात्-पदैबिन्दुभिर्वणैरक्षरैश्चापरिपूर्णेतदेव प्रायश्चित्तं दोषाश्च / मात्रा कमभिन्नवयणमिन्ने, विभत्तिभिन्नं च लिङ्ग भिन्नं च। भिरपरिपूर्ण यथा 'धम्म मंगलमुक्किट्ठ' / पदैरपरिपूर्णं यथा- "धम्म अणभिहियमपयमेव य, सभावहीणं ववहियं च // 281 / / उक्किट्ठ" बिन्दुभिरपरिपूर्ण यथा- "धम्मो मगलमुक्किट्ठ'' इति वगैर- क लजुतिच्छविदोसो, पमयविरुद्धं च वयणमित्तं च। परिपूर्ण यथा- "धम्म लउक्किट्ठमि" त्यादि, घोषा उदात्तादयः / तत्र अत्थावत्तीदोसो, हवइय असमासदोसोय॥२८॥ उचैरुदात्तः नीचैरनुदात्तः समाहारः स्वरितः / उच्चैः शब्देन यथा- उवमा रूवगदोसो, परप्पवत्तीय संघिदोसोय। "उप्पन्नेइ वा'' इत्यादि नीचैःशब्देन यथा- "जे भिक्खू हत्थकम्म एए उसुत्तदोसा, बत्तीसं हुंति नायव्वा / / 283 // (बृ०) करेइ" इत्यादि घोषैरयुक्तं कुर्वत-स्तदेव प्रायश्चित्तं त एव च दोषाः। अष्टभिर्गुणरुपेतमित्युक्तमतः स्थाने चाष्टौ गुणानाह॥ सम्प्रति व्यत्यानेडितादीनां पञ्चानां प्रकारान्तरेणार्थमभिधातुकाम निधोसं सारवंतंच, हेउजुत्तमलं कियं / आह उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरभेवय // 28 // मुत्तूण पढमविइए, अक्खरपयपायबिंदुमत्ताणं। निर्दोष 1 सारवत् 2 हेतुयुक्तम् 3 अणकृतम् 4 उपनीतं सोपचारं 5 मितं सव्वेर्सिं समायारो, सट्ठाणे चेव चरमस्स॥३००।। 6 मधुर 7 मिति। प्रथमं हीनाक्षरं द्वितीयमधिकाक्षरमेते द्वे पद मुक्त्वा शेषाणां पञ्चानां तत्र निर्दोषादिपदव्याख्यानार्थमाहघोषयुतवानाम् अक्षरपदपादबिन्दुमात्राणां समवतारः कर्तव्य, यथा दोसा खलु अलियाई,बहुपज्जायं च सारवं सुत्तं / व्यत्यानेडितं नामान्यशास्त्राणामक्षरैः पदैः पादैबिन्दुभिर्मात्राभिर्घोष सोहम्मेयरहेऊ,सकारणं वावि हेउजतं / / 28 / / वाच्यादिविरुद्धं तम्यैव शास्त्रस्य अधस्तनान्युपरितनान्यधोऽक्षरपदानि यत्करोतिस्खलितं पञ्चभिरेव पदादिभिः मिलितम, यथा-सामायिक उवमाइअलंकारो, सोवणयं खलु वयंति उवणीयं / पदे दशवैकालिकोत्तराध्ययनप्रभृतीनामनेकानि पदानि मीलयति, काहलमणोवयारं, दंडगमगियं तहा महुरं / / 256|| अपरिपूर्ण पञ्चभिरेवाक्षरादिभिः स्वगतैः "सट्ठाणेचेव चरमिस्स"घोषयुतं दोषाः खल्वलीकादयः प्रागभिहितास्तैर्वर्जित निर्दोषं सारवन्नाम घोषैरेवापरिपूर्णं नाक्षरादिभिः। बृ०१उ०१प्रक० आचा०। आ० म०। बहुपर्यायमेकैकस्मिन्नभिधेये यत्रानेकान्यभिधानानीत्यर्थः / हेतुयुक्तं साधर्मेण वा हेतुना युक्तम्। अथवा-हेतुः कारणं निमित्तमप्यनर्थान्तरं अष्ट गुणाः सूत्रस्य तत्र प्रथमं लक्षणद्वारमाह --- ततो यत्सत्कारणं तद्धेतुयुक्तमिति, यथा-- 'सुतत्तं सेयं जागरियत्तं वा लक्खणओ खलु सिद्धी, तदभावे तंण साहए अत्थं / सेयं' इत्यादि, अलंकृतं यत्रो-पमादिरलङ्कारः। तत्रोपमायुक्तम्, यथासिद्धिमिदं सव्वत्थ वि, लक्खणजुत्तं सुतं तेण // 278|| "सूरे व सेणा-इसमत्तमाउहे" आदिग्रहणेन- "नियमा अक्खरइह लक्षणहीनं सूत्रं न भवति, ततो लक्षणयुक्तसूत्रन्यार्थो भवति, | लंभोमा-उक्कममनिटठुरन्छुधी-तमगं / महुरत्तणमत्थघण-तण-व Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 945 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त सुत्ते अलंकारा'' इति परिग्रहः / उपनीतं खलु वदन्ति सोपनयं सोपसंहारम्, अनुपचारं नाम-यत्काहलं फल्गुप्रायं तद्विपरीतं सोपचारम्, मितं पदैः श्लोकादिभिर्वा अमितं दण्डकैः, मधुरं त्रिधा सूत्रमधुरम्, अर्थमधुरम्, उभयमधुरम्, एतैरष्टभिर्गुणैरुपेतम्, ब०। (अल्पाक्षरादिशब्देषु तत्तत्पदानामर्थः।) साम्प्रतमेतेषु हीनाक्षरादिषु प्रायश्चित्तमाह। खलियमिलियवाइद्धं, हीणं अमक्खरं वयंतस्स। विचामेलियअप्पडि-पुनघोसे यमासलहुँ॥३०१।। स्खलितं मिलितं व्याविद्धं हीनाक्षरमत्यक्षरं व्यत्यामे डितम् अपरिपूर्णघोषंचवदतः प्रत्येकं प्रायश्चितं मासलघु। स्वामिनः आज्ञाभङ्गे चतुर्गुरु / स तथाऽन्येऽपि करिष्यन्तीति गुरु। यथोक्तकारी न भवतीति मिथ्यात्वे चतुर्लघु / विराधना द्विविधा-आत्मविराधना च, संयमविराधना च आत्मविराधना देवतया छलनम्, संयमविराधना कोऽपि साधुवारयेत् मा स्खलितादीनि कुरुत ततः कलहतोऽस्थिभङ्गादिः आत्मविराधनायां परितापः महाग्लानाधारोपणा संययविराधना सूत्रस्यान्यथोचारणादर्थे विसंवादः, अर्थविसंवादे चरणाभावश्चरणाभावे मोक्षाभाव इति दीक्षा निरर्थिकी। लघुग्रहणात् गुरुकमपि- सूचितम्, हस्वोक्त्या यथा दीर्घस्य सूचनम्। तत्र गुरुकमिति वा अनुद्धातीति वा कालकमिति वा गुरुकस्य नामानि / लघुकमिति वा उद्धातमिति वा शुक्लमिति वा लघुकस्य नामानि / अत्र गुरुलघुविशेषविस्तरपरिज्ञानार्थमाचार्यस्त्रिविधं प्रायश्चित्तं दर्शयति-तथा दानप्रायश्चितं तपः मायश्चित्तं कालप्रायश्चित्तं वा / तत्र दानप्रायश्चित्तं गुरुकं लघुकं च / एवं तपःकालप्रायश्चित्ते अपि गुरुलघुके प्रत्येकं वक्तव्ये। तत्र दानप्रायश्चित्तं गुरुकमाह / / जंतु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स.तं गुरुकं। जं पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ // 302 / / यस्य वा तस्य वा तपसो गुरुकस्याष्टमादेरगुरुकस्य निवृतिकादेर्यनिरन्तरंदानं तद्भवति दानप्रायश्चित्तं गुरु। यत्पुनः सान्तरमष्टमादेर्गुरुकस्य तपसो दानं तत् गुर्वपि खलु भवति-- लघु, यथा आपत्तिश्चतुर्लघुकस्य षट्लघुकस्यवा, तत्राष्टमदशमानिसान्तराणि दीयन्ते। एषदानप्रायश्चित्ते गुरुलघुकयोर्विशेषः। सम्प्रति तपःकालयोराह / / कालतवे आसज्जव, गुरु वि होई लहूउ लहुगुरुगो। कालो गिम्हो उ गुरू, अट्ठाइतवो लहू सेसो // 303 / / कालंतपश्चासाद्य गुर्वपि लघु भवति, लध्वपि च गुरु। तत्र कालो गीष्मो गुरुः, तपोऽष्टमादि शेषः कालस्तपश्च लघु / इयमत्र भावना, लघ्वपि यदष्टमादिना तपसा उह्यते तत्तपो गुरु। यन्निर्विकृतिकादिना षष्ठपर्यन्तेनोह्यते तत्तपो लघु। तथा यद् गीष्मे काले उह्यते तत्कालगुरु, वर्षारात्रे हेमन्ते वोह्यमानं काललघु। तदेवं यतः स्खलिताधुचारणे प्रायश्चित्तमज्ञानमिथ्यात्वविराधनाश्च दोषास्तस्मात् सूत्रमस्खलितादिदोषरहितमुच्चारणीयम्-पठनीयं च। एवं पठितस्य सूत्रव्याख्या कर्तव्या। बृ०१ उ०१ प्रक०1 अनु०। आ०म०। अथ वेदं सर्वज्ञभाषितसूत्रलक्षणम्॥ अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सतोमुहं। अत्थोभमणवजंच, सुत्तं सव्वण्णुभासियं // 286| अल्पाक्षरं नाम-मिताक्षरंयथा सामायिकसूत्रम्, असंदिग्धं यत्सैन्धवशब्दवत् लवणपटघोटकाद्यनेकार्थसंशयकारिन भवति, सारवत्बहुपर्यायं प्रतिमुखमनेकार्थाभिधायकं वा, विश्वतो मुखम् अनेकमुखं प्रतिसूत्रमनुयोगचतुष्टयाभिधानात्, अस्तोभं च वावैहिहकारादिपदछिद्रपूरणस्तोभकशून्यम् स्तोभका निपाता इति पूर्ववैयाकरणेषु प्रसिद्धेः, अनवद्यम् अगम्-न हिंसाप्रतिपादकं "षट्शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि / अश्वमेधस्य वचनात्, न्यूनानि पुशभिस्त्रिभिः / / 1 // " इत्यादिवचनमिव न हिंसाविधायकम्। एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितमिति। आ०म०१ उ०। एकस्मात् सूत्राद्बहबोऽर्थाः प्रतीयन्ते उत्सर्गा पवादादयः सूत्रभेदाः।। एयारिसम्मि वासो,ण कम्मती जति विसुत्तणुण्णातो। अव्वागडो व मणितो, आयरिओं उवेहती अत्यं / / 2 / / एतादृशे उपाश्रये वासो यद्यपि सूत्रे अनुज्ञातः तथापि न कल्पते यतः अव्याकृतोऽविशेषित एवार्थः सूत्रे भणितः परम् आचार्यस्तमर्थमुत्प्रेक्षितविषयविभागप्रकटनेनोन्मीलयति, यथा किलैकस्मात्, मृत्पिण्डात् कुलालोऽनेकानि घटशरावादिरूपाणि निष्पादयति एवमाचार्योऽप्येकस्मात् सूत्रपदादभ्यूह्याने-केषामर्थविकल्पानामुपदर्शनं करोति / यथा वा सान्धकारगृहादौ विद्यमाना अपि घटादयः पदार्थाः प्रदीपं विना न विलोक्यन्ते तथा सूत्रेऽप्यर्थविशेषाः आचार्येणाप्रकाशिताः सन्तोऽपि नोपलभ्यन्ते। किं च।। जंजह सुत्ते भणियं, तहेव तंजह वियालणा नत्थि। किं कालियाणुओगो, दिह्रो दिहिप्पहाणेहिं // 26|| यद्-वस्तु यदात्म्येन विधिरूपेण वा प्रकारेण सूत्रे भणितंतत्तथैव यदि प्रतिपत्तव्यं विचारणा-विषयविभागव्यवस्थापनायुक्तः विमर्शो वा नास्ति-न क्रियते, ततः किं केन हेतुना कालिकश्रुतस्यानुयोगो दृष्टोविधेयतयोपलब्धो दृष्टिप्रधानैः, केवलज्ञानश्रुतज्ञानरूपालोचनप्रवरैस्तीर्थकरगणधरैः / अथवा- प्रधान- गमादिनयमतिविशारदैः श्रीभद्रबाहुस्वामिभिः, किमिति नियुक्तिकरणद्वारेण कालिकश्रुतानुयोगो दृष्टः -प्रतिपादितः। अपि च॥ उस्सग्गसुतं, किंचि य, किंचि य अववातियं भवे सुत्तं / तदुभयसुत्तं, किंचि य, सुत्तस्स गमा मुणेयव्वा // 27 // किंचिदुत्सर्गसूत्रं, किञ्चित्पुनरापवादिकं सूत्रं, किञ्चित्तदुभयसूत्रम्। तच द्विधा- औत्सर्गापवादिकम् अपवादौत्सर्गिकम् / एते सूत्रस्य गमाः प्रकाराश्चत्वारो ज्ञातव्याः। अथवागमा नाम-द्विरुचारणीयानि पदानि, तद्यथा-उत्सर्गोत्सर्गिकम् अपवादापवादिकम्। एवमेते द्वौ भेदौ चत्वारश्च प्रागुक्ता इत्येवं सूत्रस्य षड्भेदाः संजाताः, एतेच पुरस्तादुदाहरिष्यन्ते। Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त ६४६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त अन्येऽपि सूत्रस्य भेदा भवन्तीत्याह॥ यत्तु त्रयाणां जरामिभूतादीनां निषद्या कल्पते इत्येवं लक्षणं सूत्रं णेगेसु एगगहणं, सलोमणिल्र्लोमअकसिणे अइणे / तदपवादिकं सूत्रम। विहितमिन्नस्स गहणं, अववाउस्सग्गियं सुत्तं // 28 // तभेदम्अनेकेषु कषायेन्द्रियाश्रवादिष्वर्थेषु ग्रहीतव्येषु क्वापि सूत्रे एकस्या- | अह पुण एवं जाणिज्जा जराजुण्णो वाहिए बाहिओ तवस्सी म्यतरस्य ग्रहणं भवेत्, यथा यत्र सूत्रे क्रोधनिग्रहः साक्षादुपदिष्टस्तत्र | मुच्छिल वा एवं ण्हं कप्पइ अंतरगिहंसि आसइत्तए। माननिग्रहादयोऽप्यर्थत उक्ता द्रष्टव्याः / एव-मिन्द्रियाश्रवादिष्वपि इदं पुनरपवादौत्सर्गिकम्- 'मंसं दल मा अहि' त्ति-पुद्गलं प्रयच्छ मा भावनीयम्। कानिचित्तु सूत्राणि साधूनां साध्वीनां च प्रत्येकविषयाणि अस्थीति। यथेहैव कल्पाध्ययने सलोमसूत्र वा। नो कप्पति व अभिन्न, अववाएणं तु कप्पती भिन्नं / तद्यथा कम्पति पार्क भिन्नं, विधीय अववायउस्सग्गं // 31 // नो कप्पइ निग्गंथीणं सलोमाइंचम्माइंधारित्तएवा परिहरित्तए नो कल्पते अभिन्नं तालप्रलम्बं प्रतिग्रहीतुम् / एतद् वा उत्सर्गसूत्रम्, वा ||3|| कप्पइ निग्गथाणं सलोमाई चम्माइंधारित्तए वा यत्पुनरपवादपदेनाध्वादाववमौदर्यादिषु भिन्न प्रतिग्रहीतुं कल्पते इत्येवंपरिहरित्तए वा। से वियाई परिहारिए नो चेवणं अपरिहारिए। रूपं तदपवादिकम्। यत्पुनर्निर्ग्रन्थीनां कल्पते पक्कं तालप्रलम्ब विधिभिन्न से वियाइं परिभुत्ते नो चेवणं अपरिभुत्ते। से वियाई एगराइए विधिभिन्नमिति सूत्रं तदपवादौत्सर्गिकम् / एतत्प्रागुक्तमपि स्पष्टीकरनो चेवणं अणेगराइए॥ानो कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गन्थीण णार्थमिहाभिहितम्। वा कसिणाई चम्माइंधारित्तए वा परिहरित्तए वा // 5 // इदं त्वौत्सपिवादिकम् - कानिचित्तु सामान्यसूत्राणि भवन्ति, यथा अकृत्स्नाजिनविषयं सूत्रम्। नोकप्पइराओवावियालेवासेज्जासंथारयं पडिगाहित्तए नन्नत्थ तच्चेदम् एगेणं पुष्वपडिलेहिएणं सिज्जासंथारएणं / कप्पइ निग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा अकसिणाइंचम्माइंधारित्तए इदं पुनरौत्सर्गिकम्वापरिहरित्तए वा॥६॥ नो कप्पइ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पढमाए अथानानुपूर्व्याऽपिव्याख्यानमिति तत्पदयोर्दर्शनार्थ प्रागुक्तसूत्रषट्- पोरिसीए पडिगाहित्तए एत्थम्मि पोरिसिं उवाडणावेत्तए से य कमध्याचतुर्थभेदमुदाहरति 'विहिभिन्नस्सय' इत्यादि, इहैव ग्रन्थे यद् आहय उवाइणावित्तए सिया जो तं मुंजइ भुजंतं वा साइजइसे विधिभिन्नस्य ग्रहणमुक्तं तदपवादौत्सर्गिक सूत्रम्। तच्चेदम् -- आवाइ चाउम्मासियं परिहारहाणं उग्धाइयं / कप्पइ निग्गंथीणं पले तालपलंवे भिन्ने पडिगाहित्तए से विय तथा येषु सूत्रेष्वपवादो भणितस्तेष्वेवार्थतः पुनरनुज्ञा प्रवर्त्तते तान्यपविहिमिन्ने नोचेवणं अविहिमिन्ने / / 5 / / (वृ०१०) वादापवादिकानि। आह-यद्यपदादेनानुज्ञातं तर्हि भूयः कथं प्रतिषिध्यते इत्याह किं चान्यत्उस्सग्गट्टिइसुद्धं, जम्हा दव्वं विवजयं लभति। कत्थइ देसग्गहणं, कत्थति भण्णंति णिरवसेसाई। ण य तं होइ विरुद्धं, एमेव इमं पिपासामो // 26 // उक्कमकमजुत्ताई, कारणविसओ निउत्ताई॥३२॥ उत्सर्गस्थितावुत्सर्गपदेषु शुद्धमुद्रमादिदोषरहितं यद्भक्तपानादि द्रव्यं क्वचित् सूत्रे अभिधेयपदानां देशतो ग्रहणं क्रिवते, कुत्रापि च निरवग्रहीतुंकल्पते तदेवापवादपदे यस्माद्विपर्ययं वैपरीत्यं लभते इत्यर्थः,न शेषाण्यभिधेयपदानि भण्यन्ते, तथा कानिचित्सूत्रा प्रयुक्तमयुक्ता-नि, च-नैव तथा गृह्यमाणं विरुद्धं भवति। ज्ञानादिगुणोपकारकत्वादविरुद्ध कानिचित्तु क्रमयुक्तानि कारणविशेषतः- कारणविशेषमाश्रित्य मेवेति भावः / एवमेवानुमतमपि प्रकृतमर्थं कल्पतेनिर्ग्रन्थीनाम् पक्वं नियुक्तानि गणधरादिभिः श्रुतधरैर्विर चितानि। तालप्रलम्बं भिन्न प्रतिग्रहीतुमित्यपवादेनानुज्ञातस्याप्यविधिभिन्न एतदेव विवृणोतिप्रतिषेधरूपमविरुद्धमेव पश्यामः। देसग्गहणे बीऍहिं, सूयिया मूलमादिणो हुंति। अथोत्सर्गसूत्रोदाहरणान्याह।। कोहादिअणिग्गहिया, सिंचंति, भवं निरवसेसं // 33 // उस्सग्गगोयरम्मि य, निसेजकप्पाववादए तिण्हं। देशग्रहणे कृते सात तज्जातीयानां सर्वेषामपि ग्रहणं भवति यथा 'सालीणि मासंदल मा अट्ठी, अववादुस्सग्गियं सुत्तं // 30 // वा वीहीणि वा' इत्यादावस्मिन्नेव च सूत्रे बीजैगृहीतैर्मूलादयोऽपि औत्सर्गिकंसूत्रंगोचरं पयटतःसाधोगहन्यापान्तरालेया निषद्यानिवदनं भेदाः सूचिता भवन्ति, कुत्रापि च सूत्रे निरवशेषाण्यभिधेयपदानि तद्विषयम्। तचेदम् गृह्यन्ते, यथा दशवैकालिके क्रोधादयोऽनिगृहिताः सन्तो भवंसंसारं नो कप्पइ निम्गन्थाण वा निग्गन्थीण वा अनन्तरा गिहंसि वा निरवशेषं चतुर्गतिकमपि सिञ्चन्तीत्युक्तम्, तथा च तत्सूत्रम् "कोहा आसइत्तए वा० जाव काउस्सग्गं वा ठाणं ठाइत्तएत्ति / / य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य अवड्डमाणा / चत्ता Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त 647- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त रिएए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइँ पुणम्भवस्स॥१॥" अथोत्क्रमक्रमयुक्तानि सूत्राणि दर्शयति॥ सत्थपरिण्णादुक्कम्में, गोयरपिंडेसणा कमेणं तु। जंपि य उक्कमकरणं, तमभिणवधम्ममादिट्ठा // 34 // शस्त्रपरिज्ञाध्ययने तेजः कायोद्देशकानन्तरं वायुकायोद्देशकः क्रमप्राप्तोऽपि नोक्तः; किंतु वनस्पतित्रसकायोद्देशको प्ररूप्य पर्यन्ते स भणितः, एवमादिकमुत्क्रमयुक्तं सूत्रमुच्यते। कचित्तु सूत्रे क्रमेणैवार्थपदानि भवन्ति। यथाष्टौ गोचरभूमयः, तद्यथा-"पडाआ अद्धपडा-गोमुत्तिया पत्तंगविहिया। अंतोसंबुक्का वा बाहिं संबुक्का उज्जगीयं तुपव्वाग।" तथा सप्तपिण्डेषणासूत्रमपि क्रमनिबद्ध मन्तव्यम्; तद्यथा- "संसट्ठा असंसट्ठा उव्वडा अचलेवाडग्गहिता उज्झितधम्मिया।" अथवा - पिण्डेषणेति प्रथम पिण्डपदं तत एषणापदं यत्रौघनिर्युक्त्यादौ सूत्रे यथाक्रमं प्ररूप्यते तत्क्रमनिबद्धम्। यदपि चोत्क्रमकरणं शस्त्रपरिज्ञादावध्ययने तदभिनवधर्माद्यर्थम्। किमुक्तं भवति-अभिनवधर्मा शैक्षः सचाद्याप्यपरिणतजिनवचनतया वा युक्तोऽयं परिस्फुटमनुपलभ्यमानतया प्रथमतः प्ररूप्यमाणं न सम्यक् प्रतिपद्यते, अतोवनस्पतित्रसान्प्ररूप्य यदा तेषु सम्यग् जीवत्वं प्रतिपन्नस्तदा वायुकार्य जीवत्वेन प्ररूप्यमाणं सुखेनैव श्रद्धत्ते, एवमादिभिः कारणैरुत्क्रमकरणं मन्तव्यम्। अथ 'बीएहिँ सूइया मूलमाइणो' त्ति पदं व्याचष्टे / / बीएहि कदमादी, विसूइया तेहिं सव्ववणकाओ। भोम्मादिगा वणाओ, सभेदसारोवणा मणिता॥३५।। इहैव सूत्रे बीजैगृहीताः कन्दमूलादयोऽपि भेदाः सूचिताः तेष्वपि तिष्ठतः प्रायश्चित्तं भवतीति भावः / तैश्च कन्दादिभिः सर्वोऽपि वनस्पतिकायः परीत्तानन्तभेदभिन्नः सूचितः, अनेन तु वनस्पतिना भौमादयः कायाः सूचिताः एवं सभेदाः--भेदसहिताः षडपिकायाः सारोपणाः सप्रायश्चित्ता भणिता अवसातव्याः। जत्थ उदंसग्गहणं, तत्थ ऽवसेसाइं सूइयवसेणं। मोत्तूणं अहिगारं, अणुयोगधरा पभासंति // 36|| एवमत्रापि यत्र देशग्रहणंतत्रावशेषाण्यर्थपदानि, सूचितस्वभावत्वप्रत्ययः तादृशेनावगन्तव्यानि, तथा कुत्रापि सूत्रे अनुयोगधरा अधिकार-- प्रस्तुतार्थ मुक्त्वा सूत्रानुपाति-प्रसङ्गागतमर्थ प्रथमतः प्रभाषन्ते। यथा पिण्डाधिकारप्रस्तुते "पुढवीआउक्काए, तेउवाऊवणस्सई चेव / बिइय तिइय चउरो, पंचिं-दिया य लेवो दसमओ अ॥१॥" इत्यादिनौघनिर्युक्तौ सविस्तरं कायप्ररूपणा कृता। एवं विचित्राणि सूत्राणि भवन्ति; अत एव यावदमीषामर्थः सूरिणा न व्यक्तीकृतस्वातन्न सम्यगवगममुपगच्छति। अथौत्सर्गिकापवादिकसूत्रयोर्विषयविभागमाह / / उस्सग्गेणं भणिया-णि जाणि अववादतो य जाणि भवे / कारणजातेन मुणी, सव्वाणि विजाणितव्वाणि // 37 // उत्सर्गेण यानि सूत्राणि भणितानि यानि चापवादतः सूत्राणि तानि हे मुने ! कारणजातेन सर्वाण्यति ज्ञातव्यानि। किमुक्तं भवति-प्रतिषिद्धस्यावरणहेतुः-कारणं, तच्च ज्ञानादि। तत्र चोत्सर्गसूत्रेषु साक्षादुत्सर्ग- | विषयो निबन्धः, अर्थतस्तु कारणजाते तत्राप्यनुज्ञा मन्तव्या / अपवाप- | सूत्रेषु पुनः कारणजातमुदिश्य साक्षादपवादविषयो निबन्धः, अर्थतस्तु तत्राप्युत्सर्गो द्रष्टव्यः / एवं सर्वसूत्रेषु तत्वत उत्सर्गापवादावुभावपि निबद्धाववगन्तव्यौ। ___ अत्र किं पुनरनयोः स्वस्थानमित्याह - उस्सग्गेण निसिद्धा-ई जाइ दव्वाइँ संथरे मुणिणो। कारणजाते जाते, सव्वाणि वि ताणि कप्पंति॥३८॥ उत्सर्गेण संस्तरणमाश्रित्य यानि द्रव्याणि प्रलम्बादीनि मुनेः--संयतस्य प्रतिषिद्धानि तान्येव कारणजाते-विशुद्धालम्बनप्रकारे जाते-समुत्पन्ने सति सर्वाण्यपि कल्पन्ते। अत्र परः प्रश्नयतिजं चिय पयं णिसिद्धं, तं चिय जति भूयों कप्पती तस्स। एवं हो अणवत्था,ण य तित्थं णेव सव्वं तु // 39 // यदेव प्रलम्बादिकं प्राप्तपूर्वं निषिद्धं तदेव यदि भूयः पुनरपि तस्यसाधोः कल्पते ततएवं सूत्रार्थस्य यदृच्छाप्रवृत्तो चरणकरणस्यानवस्था भवति, ततश्च न तीर्थमनुसजति, नैव च प्रतिषिद्धं समाचरतस्तस्य असंयमो भवति, तदभावे दीक्षा निरर्थिका, तन्निरर्थकतायां मोक्षस्याप्यभावः प्राप्नोति। अपि चउम्मत्तवायसरिसं, खुदंसणं ण वि य कप्पऽकप्पं तु। अह ते एवं सिद्धी,ण होज सिद्धी उ कस्सेवं ||4|| आचार्यः पूर्वमेकत्र सूत्रे प्रतिषिध्य पुनस्तदेवानुज्ञायते इदं भवतो दर्शनमुन्मत्तवाक्यसदृशं प्राप्नोति, तथा नापिचेदं कल्पमिदमकल्पमिति व्यवस्था भवति / यदि चैवमपि ब्रुवतः सूत्राभिप्रेतार्थसिद्धिर्भवति तर्हि कस्य न सा भवति चरकपरिव्राजकादीनामप्यसमञ्जसप्रलापिता सा भविष्यतीति भावः। सूरिराह - ण वि किंचि अणुण्णायं, पडिसिद्धं वावि जिणवरिंदेहि। एसा तेसिं आणा, कब्जे सचेण होतय्वं // 41|| हे नोदक ! यदेतद्भवता प्रलपितं तत्प्रवचन-रहस्यानभिज्ञतासूचकम्, यतो निवरेन्द्रैस्तथाविधकारणाभावे नापि किंचिदकल्पनीयमनुज्ञातम्, कारणे च समुत्पन्ने नापि किञ्चित्प्रतिषिद्धं; किंतु एषा तेषां तीर्थकृताम् निश्चयव्यवहारनयद्वयाश्रिता सम्यगाज्ञा मन्तव्या। यदुत कार्ये ज्ञानादावालम्बने सत्येन-सद्भावानुसारेण साधुना भवितव्यं न मातृस्थानतो यत्किञ्चिदालम्बनीयमित्यर्थः / अथवा- सत्यं नाम संयमः तेन कार्ये समुत्पन्ने भवितव्यं यथा यथा संयम उत्सर्पति तथा तथा कर्तव्यमिति भावः। आह च बृहद्भाष्यकार:कजं नाणादीयं, सव्वं पुण होइ संजमो नियमा। जह जह सो होइ थिरो, तह तह कायव्वयं होइ / / 12 / / इदमेव भावयतिदोसाजेण निरंभ-ति जेण खिजंति पुष्वकम्माइं। सो सो मोक्खोवाओ, रोगावत्थासु समणं वा।।३।। Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त 948 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्त येनानुष्ठानवशादशेषा दोषारागादयो निरुध्यन्ते पूर्वोपचितानि कर्माणि चक्रवाले बंभ्रमिष्यतीति / न चासौ जानाति वराकः, यथा अयं लोको येन क्षीयन्ते सोऽनुष्ठानविशेषो मोक्षोपायो ज्ञातव्यः / रोगावस्थासु- घटाथाः क्रिया मृत्खननाद्या घटएवोपचरति, (तत्त्वतः) तासांच क्रियाणां ज्वरादिरोगप्रकारेषूपशमनमिवोचितौषधप्रदानाय-व्याधिपरिहारा- क्रियाकालनिष्ठाकालयोरेककालत्वात् क्रियमाणमेव कृतं भवति। दृश्यते यानुष्ठानमिव, यथा तेन विधीयमानेन ज्वरादिरोगः क्षयमुपगच्छति; चायं व्यवहारो लोके, तद्यथा-अवैव देवदत्ते निर्गते कान्यकुब्ज देवदत्तो एवमुत्सर्गे उत्सर्गम; अपवादे अपवादसमाचरतोरागादयोदोषा निरुध्यन्ते | गत इति व्यपदेशः,(लोकोक्त्या) तथा दारुणि छिद्यमाने प्रस्थकोऽयम् पूर्वकर्माणि च क्षीयन्ते। अथवा-यथा कस्यापि रोगिणः पेथ्यौषधादिकं |. (इति) व्यपदेश इत्यादि। प्रतिषिध्यते, कस्यापिपुनः तदेवानुज्ञायते, एवमत्रापि यः समर्थस्तस्या साम्प्रतमन्यथावादिनोऽपायदर्शनद्वारेणोपदेशं कल्पं प्रतिषिध्यते असमर्थस्य तु तदेवानुज्ञायते। उक्तं च भिषग्वरशास्त्रे"उत्पाद्येत हि सावस्था, देशकालामयान प्रति / अतश्चैवमकार्य च, दातुकाम आहकार्य चापि विवर्जयेत्॥१॥" एवंविधं चोत्सर्गापवादविभागमगीतार्थो न ण करेति दुक्खमोक्खं, उज्जममाणोऽवि संजमतवेसुं। जानाति / बृ०२ उ० / नि० चू० / उत्सर्गेऽपवादमपवादे वा- उत्सर्ग तम्हा अत्तुकरिसो, वजेअय्यो जतिजणेणं / / 126 / / कुर्यात् इति 'कप्प' शब्दे तृतीयभागे 223 पृष्ठे गतम्) (पञ्चप्रकारैः सूत्रं यो हि दुर्गृहीतविद्यालवदध्मातः सवज्ञवचनैकदेशमप्यन्यथा व्याचष्टे वाचयेदिति 'वायणा' शब्दे षष्ठभागे उक्तम् / ) पञ्चभिः स्थानैः सूत्रं स एवंभूतः सन् संयमतस्सूद्यमं कुर्वाणोऽपिशारीरमानसानांदुःखानामशिक्षेदिति 'सिक्खा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) (दृष्टिवादस्य अष्टा- सातोदयजनितानां मोक्षं-विनाशं न करोति आत्मगर्वाध्मातमानसः, विंशतिसूत्राणि 'दिट्ठिवाय' शब्दे चतुर्थभागे 2514 पृष्ठे उक्ता-नि।) यत एवं तस्मादात्मोत्कर्षः अहमेव सिद्धान्तार्थवेदी, नाऽपरः कश्चित् (पूर्व सूत्रमर्थो वा इति 'अणुओग' शब्दे प्रथमभागे 344 पृष्ठे गतम्।) भत्तुल्योऽस्तीत्येवंरूपोऽभिमानो वर्जनीयः-त्याज्यो यतिजनेन-साधुइदाणिं सुत्तं भण्णति, तथा च- "नंदिमणुओगदारं, विहिवादुवघातियं लोकेन। अपरोऽपिज्ञानिनाजात्यादिको मदोन विधेयः, किं पुनर्ज्ञानच णातूण / कातूण पंचमंगलमारंभो होति सुत्तस्स / / 1 / / कतपंचनमो- मदः ? तथा चोक्तम्- "ज्ञानंमददर्पहरं, माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ? कारो, करेति सामाइयं ति सोऽभिहितो। सामाइ यंगमेव य, जंसो सेसं अगदो यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कथं क्रियते? ||1 // " सूत्र०१ तु तंवत्थं // 2 // प्रागुपदिष्ट च- एत्थ य सुत्ताणुगमे सुत्तालावर्गमि श्रु०१३ अ०। (सूत्रं देवतयाऽधिष्ठितमिति सज्झाय' शब्दे) (सूत्रार्थयोः निप्फण्णो निक्षेणो सुत्तमालियनिजुत्ती समकं गमिस्संति आ० चू० को महान् इति 'अइसेस' शब्दे प्रथमभागे 24 पृष्ठे गतम्।) 2 अ०। उत्त० / "सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगकओ य निक्खेवो। (सूत्रमों वा बलवान् इति 'खेत्त' शब्दे तृतीयभागे 766 पृष्ठे सुत्तप्फासियणिज्जुत्तिनया समगं तुवति॥१॥" कदाचिदपि सूत्रं विषमं उक्तम्।) यस्य सूत्रस्य कर्ता नोपलभ्यते तस्य गणधरः / प्रति०। सूत्रं न भवति। व्य०१ उ०। नि० चूल! पञ्चविधं संज्ञासूत्रादि। बृ०1 सूत्रसयान्यथा व्याख्याने प्रायश्चित्तम्॥ प्रथमतः संज्ञासूत्रमाह॥ से भयवं ! जे णं केइ आयरिइए वा गणहरेइ वा असइ कहिं उवयारअनिठुरया, कजित्थीदाण मा हु निच्छक्का। वि कयाह तहा संविहाणंगमासज इणमा निग्गन्थं पवयणमन्नहा जे छऍ आमगंधा-दिआर सन्नासुयं तेणं // 316 / / पनवेज से णं किं पावेला? गोयमा! जं सावजारिएण पावियं / महा० अ०। यत्सामायिकसंज्ञया सूत्रं भण्यते तत् संज्ञासूत्रम्, यथा 'जे छेए से सागारियं परिहारे' तथा 'आमगंधा' इति, 'सव्वामगंधं परिन्नाय यथासूत्रमर्थः करणीयः॥ निरामगंधो परिव्वए' तथा 'आर' ति-आरंदुगुणेणं पारं एगगुणेणमिति' आयरियपरंपरए-ण आगयं जो उछेयबुद्धीए। यः छेकः स सागारिकः मिथुनं परियाहरे परिवर्जयति, तथा आममविशोको वेइछेयवाई,जमालिनासं सणासिहिति // 125|| धिकोटिः गन्धं विशोधिकोटिः, परिज्ञा द्विविधा-ज्ञपरिज्ञा, प्रत्याख्यानआचार्याः-सुधर्मस्वामिजम्बूनामप्रभवार्यरक्षिताधास्तेषां प्रणालिका- परिज्ञा च। तत्रज्ञपरिज्ञया सर्वमामगन्धं परिज्ञाय, प्रत्याख्यानपरिज्ञयाच पारम्पर्य तेनागतं यद् व्याख्यान-सूत्राभिप्रायः, तद्यथा-व्यवहारनया- प्रत्याख्याय निरामगन्धः सन् परिसमन्तात् परिव्रजेत् अप्रतिबद्धो भिप्रायेण क्रियमाणमपि कृतं भवति / यस्तु कुतर्कदपध्मातमानसो विहरेदित्यर्थः। आरः-संसारस्त द्विगुणेनरागेण दोषेण च परिवर्जयति। मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया छेकबुद्ध्या-निपुणबुद्ध्या कुशाग्रीयशेमुषीकोऽ- पारंमोक्षस्तमेकेन गुणेन रागद्वेषपरिहारलक्षणेन साधयति / अथ कः हमिति कृत्वा कोपयति-दूषयति - अन्यथा तमर्थं सर्वज्ञप्रणीतमपि | संज्ञासूत्रेण गुण इत्यत- आह– 'उवयारे' त्यादि पूर्वार्द्ध संज्ञावचनं हि व्याचष्टे कृतं कृत्यमित्येवं ब्रूयाद, वक्ति च न हि मृत्पिण्डक्रियाकाल एव क्वचिजुगुप्सितेऽर्थे प्रयुज्यमानंतद्वि-षयमुपचारवचनंभवति। उपचारवधनेन घटो निष्पद्यते, कर्मगुणव्यप्रदेशानामनुपलब्धेः, स एवं छेकवादी-- च भण्यमाने तस्मिन् जुगुप्सितेऽर्थे न निष्ठुरतेति अनिष्ठुरता, तथा कार्ये निपुणोऽहमित्येवंवादी-पण्डिताभिमानी जमालिनाशजमालिनिह्न- समापतिते स्त्रियाः सा सूत्रदानमाहुः पूर्वसूरयः, ततस्तस्याः साधुसमीपे ववत्सर्वज्ञमतविकोपको विनक्ष्यति--अरहट्टघटीयन्त्रन्यायेन संसार- पठन्त्याः सुखेनालापको दीयते / अन्यथा व्यक्तमभिधीयमाने कथा भि Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्त 946 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्तकप्प ना भवति / ततः सा निश्छेकानिलेजा जायते / यादृशं च कार्ये साध्वीसमीपे पठति तदुपरिष्टाद्वक्ष्यते तेन संज्ञासूत्रमिष्यते। कारकसूत्रं नाम यथा आह-"कम्मन भुजमाणे से समणे णिगंथेकइ कम्मपगडीओ बंधति, गोयमा ! आउवजाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधति। से केणट्ठणं भंते ! एव वुचई" त्यादि, प्रज्ञप्तेरालापकः / ननु सर्वज्ञप्रमाण्यादेवैतत् श्रद्धीयते यथाऽऽधाकर्मभुजान आयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां बन्धकस्ततः कस्मादुच्यते केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते इत्यादि। तत आहसवण्णुप्पामण्णा, जइ विय उस्सग्गतो सुयपसिद्धी। वित्थरओऽपायाण य, दरिसणमिइ कारगं तम्हा।।३२०।। यद्यपि सर्वज्ञप्रामाण्यादुत्सर्गत एकान्तेन श्रुतस्य सर्वस्यापि प्रसिद्धिः तथापि विस्तरतोऽपायानां दर्शनं स्यादिति, तस्मादधिकृतार्थप्रसिद्धिकारकम् 'से केणमि त्यादिसूत्रमुपन्यस्यते। ___इदानीं प्रकरणसूत्रमाह - पगरणओ पुण सुत्तं, जत्थ उ अक्खेवनिन्नयपसिद्धी। नमि गोयमकेसिज्जा, अद्दगनालंदइजाय / / 321 / / प्रकरणतः सूत्रं नाम यत्र-स्वसमय एवाक्षेपनिर्णय-प्रसिद्धिरुपवर्ण्यते, यथा नमिप्रव्रज्या गौतमकेशीयम्, आर्द्रकीयनालन्दीयमिति। तदेवमुक्तं संज्ञादिभेदतस्विप्रकार सूत्रम्।) बृ०१उ०१प्रक०। (उत्सर्गापवादभेदतो द्विविधसूत्राणि 'उस्सग्ग' शब्दे द्वितीयभागे 1167 पृष्ठे गतानि।) सन्नाइँ सुत्तससमय, परसमओसग्गमेव अववाए। हीणाहियजिणथेरे, अज्जाकाले य वयणाई।।४२१।। इह मौनीन्द्रे प्रवचने अनेकधा सूत्राणि भवन्ति तत्र किंचित् संज्ञासूत्रं यथा "यो छेए से सागारियं न सेवे" यश्छेकः-पण्डितः स सागारिक मैथुनं न सेवेत / अथवा- 'सव्वाभगंध परिन्नाय निरामगंधो परिव्वए' आमम्-अविशोधिकोटिः गन्ध-विशोधिकोटिः, तथा "आरं दुगुणेणं पारं एगगुणेणं' आरं संसारस्तं द्विगुणेण रागद्वेषयुगलेन पारं निर्वाणं तदेकगुणेन रागद्वेषपरिहारलक्षणे जीवः प्राप्नोतीति गम्यते, आदिग्रहणादेशीभाषानियतं सूत्रंगृह्यते, यथा"दिगिंछा परीसहे" दिगिंछेति-बुभुक्षा स्वसमयसूत्रं यथा "करेमि भंते! सामाइयमि'' त्यादिपरसमयसूत्रं यथा "पचखंधे वयंतेगे, वालाउखणजोइणो।" उत्सर्गसूत्रं यथा "अभिक्खणं निविगयं गया य" इत्यादि अपवादसूत्रं यथा- 'तिण्ह सन्नवरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पई। जराए अभिभूयस्स, बाहियस्स तवस्सिणो" हीनमिति-हीनाक्षरं यैरक्षरैर्विना सूत्रस्यार्थो न पूर्यते। अधिकमित्यधिकाक्षरम्, एवविधं यत्पूर्वमज्ञानतः सूत्रमधीतं तस्यार्थ सम्यगवगम्य हीन प्रतिपूरयति अधिकं परित्यजति। जिनकल्पिकसूत्रं यथा-"तेगिच्छन भिन्नं दिज्जा, संविक्खत्तग वेसए। एवं खु तस्स सामन्नं, जं न कुज्जा न कारवे / " स्थविरकल्पसूत्रं यथा- 'भिक्खू इच्छिज्जा अन्नयरं तेगिच्छं आउं दित्तए" अथवा-जिनकल्पस्थविरकल्पयोः सामान्यसूत्रमिदम'संसट्ठकप्पेण चरिज भिक्खू' आर्यासूत्रं यथा - 'कप्पइ निग्गंथीणं अंतोलित्तं घडिमन्नयं धारित्तए" काले' त्ति-कालविषयं किमपि सूत्रं यथा-अनागतं कालमङ्गीकृत्य। 'नयालभेजा निउणं सहाय, गुणाहियं वा गुणाओसमंवा।" इत्यादि। वयणाइंति-वचनमेकद्विबहुवचनादिकं षोडशधा यथा-पीठिकायां तथा तत्प्रतिपादकं सूत्रं- यथा आचाराने भाषाध्ययने 'एगवयणं वयमाणे एगवयणं वएज्जा दुवयणं वयमाणे दुवयणं वएजा बहुवयणं वयमाणे बहुवयणं वइजा इत्थीवयणं वयमाणे इत्थीवयणं' "इत्थी' इत्यादि आदिशब्दाद्भूयः सूत्रादिपरिग्रहः / इत्थमनेकधा सूत्राणां संभवे तदर्थश्रवणमन्तरेण न शक्यते कीदृशमिति विवेकः कर्तुमिति कर्तव्यमर्थग्रहणम्। अथते शिष्या ब्रूयः। यः कण्ठतः सूत्रे निबद्धोऽर्थस्तेनैव वयं तुष्टाः किमस्माकं दुरधिगमत्वाद्बहुपरिक्लेशे 'मजणनिसणजअक्खा' इत्यादि प्रक्रियापुरस्सरमर्थग्रहणप्रयासेनेति ते इत्थं ब्रुवाणाः प्रज्ञापयितव्याः। कथमित्याहजे सुत्तगुणा खलु ल-क्खणम्मि कहिया उ सुत्तमाई य। अत्थरगहणमराला, तेहि चिय पन्नविजंति॥५२२।। पीठिकायां लक्षणद्वारे ये सूत्रस्य गुणाः "निघोसंसारवंतंच" इत्यादिना कथिताः / यद्वा- 'सुत्तमाई यत्ति-"सुत्तं तु सुत्तमेव उ" इत्यादिना प्रतिपादिताः तैरेव हेतुभिरर्थग्रहणे मरालाः अलसाः शिष्याः प्रज्ञाप्यन्ते / यथा भो भद्रा ! निर्दोषसारवद्विश्वतोमुखादयः सूत्रस्य गुणा भवन्ति।तेच यथाविधे गुरुमुखार्थे श्रूयमाण एव प्रकटीभवन्ति। किंच यथा-द्वासप्ततिकलापण्डितो मनुष्यः प्रसुप्तः सन्न किञ्चित् तासां कलानां जानीते एवं सूत्रमप्यर्थेनाबोधितं सुप्तमिव द्रष्टव्यं विचित्रार्थनिबद्धानि सोपस्कराणि च सूत्राणि भवन्ति, अतो गुरुसम्प्रदायादेव यथावदवसीयन्ते यतः, तत इत्थं युक्तियुक्तैर्वचोभिः प्रज्ञापितास्ते विनेयाः प्रतिपद्यन्ते गुरूणामुपदेश गृह्णन्ति द्वादश वर्षाणि विधिवदर्थमिति। गतमर्थग्रहणद्वारम्। बृ०१ उ० २प्रक०ालक्षणे, स०२६ समाधर्मार्थकामार्जनोपाय-प्रतिपादनपरे, ग्रन्थे, आ०म०१ अ०। *सूक्त-न० सुभाषिते, अष्ट०६ अष्ट०। सुत्तक न०(सूत्रक) कटीसूत्रके, प्रश्न०४ आश्र० द्वार। सुत्तकड न०(सूत्रकृत) सूत्रानुसारेण तत्त्वावबोधः क्रियते अस्मिन्निति। स्वनामख्याते द्वितीयेऽङ्गे, सूत्र० 1Q01 अ०१ उ०। सुत्तकप्पपुं०(सूत्रकप्प) सूत्राध्ययनसामाचार्याम् , पं० भा०। 000000000 अधुणा, सुत्तकप्पं तु वोच्छामि। जे तस्स हों ति विधयो, अहिज्जए जेण वा विधिणा।। दुविहम्मि आगमम्मि, सुत्ते अत्थे य जे जहिं भावा। सुत्तमसुत्तकडाणं, पवित्थर ताण अत्थेणं / / वित्थरो णाम सुत्तम्मि, गहिए अत्थो तु दिखती। सुत्ते अहिजियय्वे य, मज्जादा तु इमा भवे / / पडिलेहण काऊणं, सज्झायं पट्ठवे तुवट्ठादि। आयरियादि णिसेजं, करेति पच्छाय सज्झायं / / पोरुसि सातुं सातुं, चरमाए पुडियपत्तपडिलेहे। ताहे तु अत्थपोरुसि, इमिणा विहिणा करेंतीतु / / शामा Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तकप्प ६५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्तत्थकप्पिय काउस्सग्गोवक्खे-वणाय विकहा विसोत्तिया पयतो। अन्भुट्ठाणे वा को-लणा य अक्खेवमाहरणा॥ अण्णो विय सुतकप्पो, सो इन्भगमंडलीयराइणिए। अणुओगधम्मताए, कितिकम्मं होति कायव्वं / / पं०भा०४ कल्प। इयाणि सुत्तकप्पगाहा-दुविहंमि एव सुत्ते, अत्थेय।दुविहे यागमे जहि भाववत्तिया सुत्तं सुत्तकडस्स दिजइ / पवित्थरओ नाम- सुत्ते गाहिए ताहे अत्थो दिजइज जेण अहिज्जियं। गाहा-काउस्सगं सुत्तं पढियव्वं। / मज्जाया भन्नह-पडिलेहेऊण गुरुपरिणाईणं उवडिओ सज्झायं पट्टवेउं निसेजं आयरियाणं काऊणं पच्छा सज्झायपट्ठवणियाएकाउस्सग्गे कए समाणे वक्खेवो न कायव्वो। वि कहाओ य इत्थीकहाइयाओ। विसोत्तिया नाम-जं सोताहीरंति, अब्भुट्ठाणे वाउलणाजइ अब्भुट्टेइ सुत्तपोरुसीए मासलहुं, अत्थपोरुसीए मासगुरु / आयरिओ उवउत्तो आलावयं देह भंगा वा उवदिसइ, पच्छा वाउलणादोसेण भंगयाराहणातो फिट्टइ। अणुओगमण्डलीए विपट्टवियाएजस्सलकासेसुयं तमोत्तूण सेपव्यावणायरियस्स विन उढेइ, दिद्रुतो तित्थकरो। आयरिओतित्थकरद्वाणे इयरे गणहरट्ठाणे निसातया किंचि अब्भुट्ठाणे वाउलणाए दोसा। आयरिओ अक्खेवा आहरणा वा उस्सग्गेण वा अववाएण वा आरोवणाओवादरिसेउ काउं तओ वा गेण्हिउकामा वाउलणादोसेणं त गिण्हति दिहृतो अत्थारियाए / जहा एगस्स कुडुवियस्स धने जाए अथारियाओ पारियातेण य सयं चेव सेयहत्थी दिहो। भणियं चणेण-अहो सेयहत्थी दरिसणिजो ते लावया तओ हुत्ता य, जोइया दिवसो हत्थिकहाए चेव गओ।तंपिछेत्तं नलूणं। एवमत्थ मण्डलीएवि विलोत्तियादोसेण आहरेतो विन आहारेइ भणंतस्स वा पराहुस्सइ। विइयपए जहा पलंबसुत्ते समत्ते ववहारस्स वा पढमसुत्ते समत्ते आरोवणासु वा समत्तासु कालवेलासुवा जस्स वा पासे अणुओगो सुओ एवमाइकज्जेसु अन्भुट्ठाणं / अण्णो वि य सुयकप्पो गाहा-अण्णो विय सुयकप्पो सोयरायणियाए जो य'उट्ठियाण अणुओगमंडलीओ अणुभासइतस्स किइकम्मं कायव्वं / एससुयकप्पो। पं० चू०४ कल्प। सुत्तकप्पिय-पुं०(सूत्रकल्पिक) सूत्रसामाचारीज्ञातरि, बृ० / सूत्रकल्पिकमाह॥ सुत्तस्स कप्पितो खलु, आवस्सगमादिजाव आयारो। तेण परं चरिमादी, पकप्पमादीऍ भावेणं // 408|| आवश्यकमादिं कृत्वा यावदाचारस्तावत्सर्वोऽपि सूत्रस्य कल्पिको भवति न खल्वेतावत् सूत्रं यावत्कोऽपि पठन् विनिवार्यते, ततः परं त्रिवर्षप्रव्रजितमादिं कृत्वा यत् यत् व्यवहारे दशमोद्देशकपर्यन्ते यथा 'भणितंतत्तथा उपदिश्यते यावद्विंशतिवर्षपर्यायः सर्वश्रुतानुपाती भवति / नवरमाचार-प्रकल्पमादिं कृत्वा यान्यपवादयबहुलान्यध्ययनानियानि चातिशायीन्यरुणोपपातप्रभृतीनि, यदा भावे परिणतो भवति तदोद्दिश्यन्ते। त्रिषु वर्षेष्वपरिपूर्णेष्वाचारे पठिते किं कुर्यादत आहसुत्तं कुणति परिणतं, तदत्थगहणं पइन्नगाइं वा। इति अंगज्झयणेसुं, होति कमो जाहगो नायं // 406 / / यत्पठितं सूत्रं तत्परिजितं कुर्यात् / यदिवा- तस्य सूत्रस्यार्थग्रहण विदध्यात्प्रकीर्णकादिवा सूत्रतोऽर्थतश्चाधीते एवमङ्गा-नामध्ययनानां वातिशायिनां यावत् कल्पिको भवति तावदेष क्रमोज्ञातव्यः।जाहकज्ञातं चात्र- पूर्वोपन्यस्तमुपन्यसनीयम् / जाहक इव परिजितौ सूत्रार्थी कुर्यादिति भावार्थः / बृ०१ उ०१प्रक०। सुत्तणिवकहाणग-न०(सुप्तनृपकथानक) शय्याव्यवस्थितनृपतिश्रव्याऽऽख्यायिकायाम्, षो०६ विव०। ('सुस्सूसा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथनकं वक्ष्यामि।) सुत्तणिबद्ध-न०(सूत्रनिबद्ध) शासनोक्ते, पञ्चा०१८ विव०। सुत्तणिवाय-पुं०(सूत्रनिपात) सूत्रावतारे, बृ०१ उ०२ प्रक०। सुत्तणीह-स्त्री०(सूत्रनीति) आगमन्याये, पञ्चा०१ विव०। सुत्तत्थ-पुं०(सूत्रार्थ) सूत्रं च अर्थश्च नियुक्तिभाष्य-संग्रहवृत्तिचूर्णिपजिकादिरूप इति सूत्रार्थो / शब्दवाच्ययोः, स०६ सम० 1 व्य०। सुत्तत्थकप्पिय-पुं०(सूत्रार्थकल्पिक) स्वार्थतदुभयसामाचारीज्ञातरि, बृ०। अधुना तदुभयकल्पिकमाह॥ तदुभयकप्पियजुत्तो, तिगम्मि एगाहिएसु ठाणेसुं। पियधम्मवजभीरू, ओवम्मं अजवइरेहिं।।४११॥ तदुभयं सूत्रमर्थच तस्मिन् कल्पिको युक्तः / किमुक्तं भवति-यो द्वावपि सूत्रार्थों युगपद् ग्रहीतुं समर्थः स तदुभयकल्पिकः / अथवा - तदुभयकल्पिकः -त्रिके एकाधिकयोः स्थापतयोर्युक्तः / त्रिकं नामसूत्रमर्थस्तदुभयं च / तत्र सूत्रादर्थोऽधिकः, अर्थादधिकमुभयम् / एवमेकस्मादर्थाधिके ये उभे स्थाने सूत्रार्थरूपे तत्र युक्तो योग्यः तदुभयकल्पिकः। अथवा-प्रियधर्मा इति चत्वारो भङ्गाः सूचिताः। प्रियधर्मा नाम एको न दृढधर्मा / दृढधर्मा नामैको न प्रियधर्मा। एकः प्रियधर्माऽपि दृढधर्माऽपि / एको न प्रियधर्मा नापि दृढवमा / अत्र चतुर्भङ्गा यस्तु शेषभङ्गत्रिके यत एकस्मादेकैकगुणयुक्तात् स्थानात् प्रथमभङ्गरूपात् द्वितीयभङ्गरूपाद्वा ये अधिके स्थाने प्रियधर्मत्व-दृढधर्मत्वलक्षणे तयोर्युक्तः सच नियमादवद्यभीरुर्भवति। अवाकर्म तस्माद्भीरुस्ततआह 'वज्जभीरू" सतदुभयकल्पिकः / अत्रौपम्यमार्यवओलिभावे कर्णाभ्याहृतं सूत्रं कृतवान्, पश्चात्तस्य उद्दिष्टसमुद्दिष्टमनुज्ञातमर्थश्च तदैव द्वितीयायां पौरुष्यां कथित एवमन्यस्यापि द्रष्टव्यम्। तथा चाहपुटवभवेऽपि अहीयं, कण्णाहडगं च बालभावम्मि। उत्तममेहाविस्स वि, दिज्जतिसुत्तं पि अत्थो वि॥४१२।। यस्य पूर्व भवेऽधीतमागच्छति, बालभावे वा कणहृतं कृतं तस्य उत्तममेधाविनो वा युगपत्सत्रमपि अर्थोऽपि च दी Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तत्थकप्पिय 651 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्तफा० यते एष उभयकल्पिकः / बृ० 1301 प्रक० / नं०। सूत्रस्पर्शिका, सा च नियुक्तिश्चेति सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः। सूत्रव्याख्याने, सुत्तत्थकहणा--स्त्री०(सूत्रार्थकथना) व्याख्याने, ध० 3 अधि०। "अहुणा सुत्तफासियणिज्जुत्ती सुत्तवक्खाणं' विशे० / आ० म० / ("णिज्जुत्ति' शब्दे चतुर्थभागे 2061 पृष्ठे दर्शितैषा।) सुत्तत्थकोसल-न०(सूत्रार्थकौशल) सूत्रार्थतदुभयपरीक्षणे, दर्श० / सूत्रम्-जिनागमः तत्र कौशल्यं कुशलतां जानाति यथेदं पूर्वापराव्या-- सुत्तफा(प्फा)सियणिजृत्तिअणुगम-पुं०(सूत्रस्पर्शिकनियुक्तयनुगम) हतत्वेन जिनशासनमेव / यत्पुनरन्यादृशं स्मृतिवेदवाक्यादिवत् सूत्रावयवाना नयैः साक्षेपपरिहारमर्थकथेन, आ० चू०१०। अनु०१) पूर्वापरव्याहतियुक्तंनतदागम इति।कुशलविषयविभागवेदिनि उत्सर्गाप- से किं तं सुत्तप्फासिअनिजुत्तिअणुगमे ? सुत्तप्फावादज्ञातरि, दर्श०३ तत्त्व। सियणिज्जुत्तिअणुगमे सुत्तं उचारेअव्वं अक्खलिअं अमिलिअं सुत्तत्थगहियपेयाल-त्रि०(सूत्रार्थगृहीतपेयाल) सूत्रार्थयोर्गृहीतं पेयालं- अव्वनामेलि पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोडविप्पमुकं परिमाणं येन स सूत्रार्थगृहीतपेयालः ! सम्यग्विनिश्चितसूत्रार्थे, व्य० गुरुवायणोवगयं, तओ तत्थ णजिहिति ससमयपयं वा 3 उ01 परसमयपयं वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइअपयं वा णोसामाइअपयं वा / तओ तम्मि उच्चारिए समाणे केसिं च णं सुत्तत्थतदुभयविउ पुं०(सूत्रार्थतदुभयविद्) सूत्रच अर्थश्च तदुभयं चेति भगवंताणं केइ अत्थाहिगारा अहिगया भवन्ति, केइ अत्थाहिगारा तच तत्सूत्रार्थलक्षणम्, उभयं च सूत्रार्थतदुभयानि विदन्तीति सूत्रार्थत अणहिगया भवन्ति, ततो तेसिं अणहिगयाणं अहिगमणवाए पयं दुभयविदः। सूत्रे चिन्तायां सूत्रस्यार्थचिन्तायाम् अर्थस्य तदुभयचिन्तायां पएणं वनइस्सामि-"संहिया य पदंचेव, पयत्थो वयविग्गहो। तदुभयस्य ज्ञातरि, व्य०१3०। चालणा य पसिद्धी अ, छविहं विद्धि लक्खणं // 1 // " से तं सुत्थपडिबद्ध-त्रि०(सूत्रार्थप्रतिबद्ध) सूत्रार्थयोः प्रतिबद्धः सूत्रार्थ सुत्तप्फासियनिजुत्तिअणुगमे। (सू० 155+) प्रतिबद्धः / गृहीतसूत्रार्थे, नि० चू०१०उ०। आह-ननुयदि यथोक्तनीत्या सूत्रानुगमे सत्येव सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या सुत्तत्थरूवणा-स्त्री०(सूत्रार्थप्ररूपणा) सूत्रार्थतदुभयानां कथने, सुत्तं वा प्रयोजनं, तर्हि किमित्यसावुपोद्घातनिर्युक्त्यनन्तरमुपन्यस्ता ? अत्थं वा तदुभयं वा परूवेजा कुलगणसंघवजो। महा०१ चू०। यावता सूत्रानुगमं निर्दिश्य पश्चात्किमिति नोच्यते ? सत्यं किन्तुसुत्तत्थविय-पुं०(सूत्रार्थविद) उचितसूत्रार्थज्ञातरि, ध०३ अधि०।। नियुक्तिसाम्यात्तत्प्रस्ताव एव निर्दिष्टत्यदोषः। प्रकृतमुच्यते-तत्रास्खसुत्तत्थभासय-पुं०(सूत्रार्थभाषक) सूत्रार्थं प्रवचनार्थ भाषते वक्ति इति लितादिपदानां व्याख्या यथेहैव प्राग्द्रव्यावश्यकविचारे कृता तथैव सूत्रार्थभाषकः / यथावस्थितागमार्थप्रज्ञापके सूत्रस्यार्थस्य तदुभयस्य द्रष्टव्या, अयं च सूत्रदोषपरिहारः शेषसूत्रलक्षणस्योपलक्षणम्, तचेदम् - च ज्ञापके, ध०३ अधि०। पं० चू०। "अप्पग्गंथमहत्थं, बत्तीसदोसविरहियं जंच। सुत्तत्थविसारय-पुं०(सूत्रार्थविशारद) सूत्रार्थयोर्विशारदः सूत्रार्थवि- लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहि य गुणेहिँ उववेयं // 1 // " शारदः / व्य०३ उ० / सम्यक्सूत्रार्थतदुभयकुशले, व्य०२ उ०। पं० अस्याव्याख्या-अल्पग्रन्थंचतत्महार्थंचेति समाहारद्वन्द्रः "उत्पादभा०। पं० चू०। सूत्रस्यार्थस्य तदुभयस्य च ज्ञापके, नि० चू०१ उ०1 व्ययध्रौव्ययुक्तं सदि' त्यादिवत्सूत्रमल्पग्रन्थं महार्थं च भवतीत्यर्थः, यच्च सुत्तत्थाणुसरण-न०(सूत्रार्थानुस्मरण) सूत्रार्थयोरनुचिन्तने, पञ्चा० द्वात्रिंशद्दोषविरहितं तत्सूत्रं भवति, के पुनस्ते द्वात्रिंशद्दोषाः ये सूत्रे 18 विव०। वर्जनीयाः ? उच्यतेसुत्तदोस पुं०(सूत्रदोष) द्वात्रिंशत्सूत्रदोषे, विशे०। अनु०। "अलियमुवधायजणयं, निरत्थयमवत्थयं छलं दुहिलं। सुत्तधर पुं०(सूत्रधर) सूत्रमात्रपाठके, स्था०४ ठा० 1 उ०। निस्सारमहियमूणं, पुणरुत्तं बाहयमजुत्तं // 1 // सुत्तपरिकुट-त्रि०(सूत्रपरिकुष्ट) आगमनिषिद्धे, प्रश्न०३ संव० द्वार। कमभिन्नवयणभिन्नं, विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च। सुत्तपेढिया-स्त्री०(सूत्रपीठिका) निशीथकल्पव्यवहारप्रथमपीठिका अणभिहियमपयमेव य, सहविहीणं ववहियं च // 2 // गाथारूपायां पीठिकायाम्, व्य०१ उ० / नि० चू०। कालजतिच्छविदोसो, समयविरुद्धं च वयणमित्तं च। सुत्तपोरिसी-स्त्री०(सूत्रपौरुषी) सिद्धान्तोक्तविधिनास्वाध्यायप्रस्थापने, अत्थावत्तीदोसो, नेओ असमासदोसो य / / 3 / / इयं च मण्डली सूत्रमण्डलीत्युच्यते सा चार्धपौरुषी-प्रमाणेति / आद्या उवमारूवगदोसो, निद्देसपयत्थसंधिदोसोय। पौरुष्यपि सूत्रपौरुषीत्युच्यते। ध० 3 अधि०। प्रव० / एए असुत्तदोसा, वत्तीसा हुंति नायव्या // 4 // " सुत्तफासियणिज्जुत्ति-स्त्री०(सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति) सूत्रं स्पृशतीति / तत्रानृतमभूतोद्भावनं भूतनिह्नवश्व, यथा 'ईश्वरकर्तृकं Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तफा० 952 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्तफा० जगदि' त्याद्यभूतोद्भावनं, नास्त्यात्मेत्यादिकस्तु भूतनिह्नव 1, उपधातः-सत्त्वघातादिः, तज्जनकं यथा वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि 2, निरर्थकं यत्र वर्णानां क्रमनिर्देशमात्रमुपलभ्यते न त्वर्थो, यथा अआ इई इत्यादि डित्थादिवद्वा 3, असम्बद्धार्थकमपार्थकं यथा दशदाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्डस्त्वरकीटिके दिशमुदीचिमित्यादि 4, यत्रानिष्टस्यार्थान्तरस्य सम्भवतो विवक्षितार्थोपघातः कर्तुं शक्यते तच्छलं यथा नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि५, जन्तूनामहितोपदेशकत्वेन पापव्यापारपोषकं दुहिलं यथा "एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः / भद्रे ! वृकपदं पश्य, यद्वदन्त्यबहुश्रुताः // 14 पिव खाद च चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते। न हि भीरु ! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम्॥२॥' इत्यादि६, वेदवचनादियत्तथाविधयुक्तिरहितं परिफल्गु निःसारम् 7, अक्षरपदादिभिरतिमात्रमधिकम् , तैरेव हीनम्,-ऊनम्, अथवा हेतोः दृष्टान्तस्य वाऽऽधिक्ये सत्यधिकं, यथा- अनित्यः शब्दः कृतकत्वप्रयत्नान्तरीयकत्याभ्यां घटपटवदित्यादि, एकस्मिन् साध्ये एक एव हेतुर्दृष्टान्तश्च वक्तव्यः, अत्र च प्रत्येक द्वयाभिधानादाधिक्यमिति भावः / हेतुदृष्टान्ताभ्यामेव हीनम्- ऊनं, यथा अनित्यः शब्दोघटवदिति, यथा अनित्यः शब्दः कृतकत्वादित्यादि 6., पुनरुक्तं द्विधा-शब्दतोऽर्थतश्च, तथाऽर्थादापन्नस्य पुनर्वचनं पुनरुक्तं, तत्र शब्दतः पुनरुक्तं यथा घटो घट इत्यादि, अर्थतः पुनरुक्तं यथा घटः कुट: कुम्भ इत्यादि, अर्थादापन्नस्य पुनर्वचनं यथा--पीनो देवदत्तो दिवा न भुक्ते अर्थादापत्त रात्रौ भुङ्क्ते इति, तत्रार्थापन्नमपि य एतत्साक्षाद् ब्रूयात्तस्य पुनरुक्तता 10, व्याहतं यत्र पूर्वेण परं विहन्यते यथा- 'कर्म चास्तिफलं चास्ति, कर्ता न त्वरित कर्मणा' मित्यादि 11, अयुक्तमनुपपत्तिक्षमं यथा-'तेषां कटतटभृष्टगजानां मदबिन्दुभि' रित्यादि 12, क्रमभिन्नं यत्र क्रमो नाराध्यते यथा--स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणामर्थाः स्पर्शरगन्धरूपशब्दा इति वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दगन्धरसा इति ब्रूयात् इत्यादि 13, वचनभिन्नं यत्र वचनव्यत्ययो यथा वृक्षाः ऋतौ पुष्पितः इत्यादि 15, विभक्तिभिन्नं यत्र विभक्तिव्यत्ययो यथा वृक्षं पश्य इति वक्तव्ये वृक्षः पश्य इति ब्रूयादित्यादि 15, लिङ्गभिन्नं यत्र लिङ्गव्यत्ययो यथा अयं स्त्रीत्यादि 16, अनभिहितं स्वसिद्धान्तानुपदिष्टं यथा सप्तमः पदार्थो वैशेषिकस्य, प्रकृतिपुरुषाभ्यधिकं साह्यस्य, दुःखसमुदायमार्गनिरोधलक्षणचतुरार्यसत्यातिरिक्तं वा बौद्धस्येत्यादि 17. यत्रान्यच्छन्दोऽधिकारेऽन्यच्छन्दोऽभिधानं तदपदम्, यथाऽऽर्यापदेऽभिधातव्ये वैतालीयपदमभिदध्यादित्यादि १८,यत्र वस्तुस्वभावोऽन्यथा स्थितोऽन्यथाऽभिधीयते तत्स्वभावहीनं, यथा शीतो वह्निः मूर्तिमदाकाशमि. त्यादि 16, यत्र प्रकृतं मुक्त्वाऽप्रकृतंव्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमुच्यते तद्वयवहितम् 20, कालदोषो यत्रातीतादिकालव्यत्ययो यथा रामो वनं प्रविवेशेति वक्तव्ये रामो वनं प्रविशतीत्याह 21, यतिदोषोऽस्थानविरतिः सर्वथाऽविरतिर्वा 22, छविः-अलङ्कारविशेषस्तेन शून्य छविदोषः 23, समयावरुद्धं स्वसिद्धान्तविरुद्धं यथा साङ्ख्यस्वासत् कारणे कार्यम् | वेशैषिकस्य या सदिति 24, वचनमात्रं निर्हेतुकं, यथा कश्चिद्यथेच्छयर कश्चित्प्रदेश लोकमध्यता जनेभ्यः प्ररूपयति 25, यत्नापित्त्याऽनिष्टमापतति तत्रापित्तिदोषो यथा गुहकुकुटो न हन्तव्य इत्युक्तंऽर्थापत्त्या शेषघातोऽदुष्ट इत्यापतति 26, यत्र समासविधिप्राप्तौ समासं न करोति व्यत्ययेन वा करोति तत्रासमासदोषः 27. उपमादोषो यत्रा हीनोपमा क्रियते, तथा मेरुः सर्षपोपमः अधिकोपमा वा क्रियते, यथा सर्षपो मेरुसन्निभः, अनुपमा वा यथा मेरुः समुद्रोपम इत्यादि२८, रूपकदोषः स्वरूपभूतानामवयवानां व्यत्थयो यथा पर्वते निरूपयितव्ये शिखरादीस्तदवयवान्निरूपयति, अन्यस्य वा समुद्रादः सम्बन्धिनोऽवयवाँस्तत्र निरूपयतीति 26, निर्देशदोषस्तत्र यत्र निर्दिष्टपदानामेक वाक्यता न क्रियते, यथेह देवदत्तः स्थाल्यामोदनं पचतीत्यभिधातव्ये पचतिशब्द नाभिधत्ते 30, पदार्थदोषो यत्र वस्तुनि पर्यायोऽपि सन् पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते यथा सतो भावः सत्तेति कृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, साच वैशेषिकैः षट्सु पदार्थेषु मध्ये पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते, तचा युक्तम्, वस्तूनामनन्तपर्यायत्वेन पदार्थानन्त्यप्रसङ्गादिति 31 यत्र सन्धिप्राप्तौ तंन करोति दुष्ट वा करोति तत्र सन्धिदोषः३२, एते द्वात्रिंशत्सूत्रदोषाः, एतैर्विरहितं यत्तल्लक्षणयुक्तं सूत्रम्। अष्टाभिश्चगुणैरुपेतंयत्तल्लक्षणयुक्तमिति वर्तते। ते चेमे गुणाः- "निद्दोसं सारवंतं च, हेउजुत्तमलंकियं / उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य।।१।।" तत्र निर्दोष सर्वदोषविप्रमुक्तं 1, पारवगोशब्दवद्हुपर्यायम्, 2, हेतवः-अन्वयव्यतिरेकलक्षणास्तैर्युक्तम् 3, उपमोत्प्रेक्षाधलङ्कारैरलकृतम् 4, उपनयोपसंहृतमुपनीतम् 5, ग्राम्यभणितिरहितं सोपचारम् 6, वर्णादिनियतपरिमाणं मितम् 7, श्रवणमनोहरं मधुरम् / अन्यैश्च कैश्वित्पगुणाः सूत्रस्य पठ्यन्ते। तद्यथा-"अप्पक्खरमसंदिद्धं, सारवं विस्सओमुहं। अत्थोभमणवजं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं / / 1 / / यत्राल्पाक्षरम्-मिताक्षरंयथा सामायिकसूत्रम्, असन्दिग्धंसैन्धवशब्दवद्यल्लवणवसनतुरगाधनेकार्थसंशयकारिन भवति, सारवत्त्वं च पूर्ववत्, विश्वतोमुखं प्रतिसूत्रं चरणानुयोगाद्यनुयोगचतुष्टयव्याख्याक्षमम्, यथाधम्मो 'मंगलमुक्किट्ठ' मित्यादिश्लोके चत्वारोऽप्यनुयोगा व्याख्यायन्ते। अथवा- अनन्तार्थत्वाद् यतो विश्वतोमुखं ततः सारवदित्येवं सारवत्त्वस्यैव हेतुभावेनेदं योज्यते, अस्मिँश्व व्याख्याने पञ्चैवते गुणा भवन्ति,स्तोभकाः-चकारवाशब्दादयो निपातास्तैर्वियुक्तमस्तोभकम्। अनवद्यं कामादिपापव्यापाराप्ररूपकम्, एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषतमिति। यैस्तु पूर्व अष्ट सूत्रगुणाः प्रोक्तास्तेऽनन्तरश्लोकोक्तगुणास्तेष्वेवाष्टसु गुणेष्वन्तर्भावयन्ति, ये त्वनन्तरश्लोकोक्तानेव सूत्रगुणानिच्छन्ति ते अमीभिरेव पूर्वोक्तानामष्टानामपि संग्रहं प्रतिपादयन्तिा एवंसूत्रानुगमेसमस्तदोषविप्रमुक्तेलक्षणयुक्तसूत्रे उच्चारितेततोज्ञास्यते यदुतैतत्स्व-समयगतजीवाद्यर्थप्रतिपादकं पदं स्वसमयपदं, परसमयगतप्रधानेश्वराधर्थप्रतिपादकं पदं परसमयपदम्, अनयो रेख मध्ये परसमयपदं देहिनां कुवासनाहेतुत्वादन्धपदम्, इतस्तु, सरोधकारणत्वात्मोक्षपदमिति तावदेके, अन्येतु Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तफा० ६५३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुत्तमभणिय व्याचक्षते- प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशलक्षणभेदभिन्नस्य बन्धस्य सुत्तभावणा-स्त्री०(सूत्रभावना) सूत्रतत्त्वपयालाचन बृ०। प्रतिपादकं पदं बन्धपदम, सद्बोधकारणत्वात् कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणस्य अथ सूत्रभावनामाहमोक्षस्य प्रतिपादकं पदं मोक्षपदमिति। आह-नन्वत्र व्याख्याने बन्ध जइ वि य सनाममिव परिमोक्षप्रतिपादकं पदद्वयं स्वसमयपदान्नातिरिच्यते तत्किमिति भेदेनो चियँ सुअणहिअअहीणवण्णाई। पन्यासः? सत्यम् किन्तु स्वसमयपदस्याप्यभिधेय-वैचित्र्यदर्शनार्थो भेदेनोपन्यासः अत एव सामायिकप्रतिपादकं पदं सामयिकपदमित्या कालपरिमाणहेओ, दावपि भेदेनोपादानं सार्थकमिति, सामायिकव्यतिरिक्तानां नारकतिर्य तहा वि खलु तजयं कुण्णई // 10 // गाद्यश्रानां प्रतिपादकं पदं नोसामायिकपदमित्येतच सूत्राचारणस्य फलं यद्यपि स्वनाम एव तस्य श्रुतं परिचितम् अनधिकाहीनवर्णादि दर्शितम्। इदमुक्तं भवति-यतः सूत्रे समुच्चरिते स्वसमयपदादिपरिज्ञानं अनत्यक्षरम् अहीनाक्षरम् आदिशब्दादव्याविद्धाक्षरादिगुणोपितं च भवति ततस्तदुचारणोयमेव, ततस्तस्मिन् सूत्रे उच्चारितमात्र एव सति तथापि कालपरिमाणहेतोस्तज्जयं श्रुताभ्यासं करोति / केषाशिद्भगवतां साधूनां यथोक्तनीत्या केचिदर्थाधिकारा अधिगताः कथमिति चेदुच्येतपरिज्ञाता भवन्ति, केवित्तु क्षयोपशमवैचित्र्याक्नधिगता भवन्ति, उस्सासाओ पाण, तओ उ थोवो तओ विय मुहत्तो। ततस्तेषामनधिगतानामर्थाधिकाराणामधिगमार्थं पदेन पदं वर्णयि मुहुत्तेहि पोरिसीओ, जाणेइ निसा य दिवसा य / / 511|| ष्यामि, एकैकं पदं व्याख्यास्यामीत्यर्थः / तत्र व्याख्यालक्षणमेव तावदाह- 'संहिया ये' त्यादि, तत्रास्खलितपदोचारणं संहिता, यथा श्रुतपरावर्तनानुसारेणैव सम्यगुच्छ्वासमानं, कलयति तत उच्छ्वासात् 'करोमि भयान्त ! सामायिक मित्यादि, पदं तु करोमीत्येकं पदम् प्राण उच्छवासनिः श्वासात्मकः ततश्च, प्राणात् स्तोकः सप्तप्राणभयान्त इति द्वितीयम् सामायिकमिति तृतीयम्, इत्यादि, पदार्थस्तु मानस्ततोऽपि च स्तोकात् मुहूर्तो घटिकाद्वयमानो मुहूर्तश्वपौरुष्यस्तेन भगवता ज्ञायन्त ताभिश्च पौरुषीभिर्निशाश्च दिवसांश्च जानाति / करोमीत्यभ्युपगमो भयान्त इति, गुमन्त्रणं समस्यायः सामायिकमित्यादिकः, पदविग्रहः समासः, स चानेकपदानामेक त्यापादनविषयो तथायथा भयस्यान्तो भयान्त इत्यादि, सूत्रस्यार्थस्य वा अनुपपत्त्युद्भावनं, मेहाइच्छन्नेसु वि, उभओ कालमहवा उवस्सग्गे। चालना- तस्यैवानेकोपपत्तिमिस्तथैव, स्थापनं प्रसिद्धिः, एते च पेहाइभिक्खपंथे, नाहिइ कालं विणा छायं / / 512 / / चालनाप्रसिद्धी आवश्यके सामायिकव्याख्यावसरे स्वस्थान एव मेघादिना छन्नेष्यप्यनुपलक्षेषु विभागेषु उभयकालं क्रियाणां प्रारम्भविस्तरवत्यौ द्रष्टव्ये, एवं षड्विधं विद्धि-जानीहि लक्षणं व्याख्याया परिसमाप्तिरूपम्। अथवा-उपसर्गे दिव्यादौ दिवसरजन्यादिव्यत्ययइति प्रक्रमादम्यते इति श्लोकार्थः। अत्राह-नन्वस्याः षड्विधव्याख्याया करणलक्षणे प्रेक्षादेरुपकरणप्रत्युपेक्षाया-आदिशब्दादावश्यककरणादेः, मध्ये कियान् सूत्रानुगमस्य विषयः ? को वा सूत्रालापकनिक्षेपस्य ? 'भिक्ख' त्ति- भिक्षायाः 'पथि' त्ति-मार्गस्य विहारस्येत्यथः एतेषां कश्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेः ? किं वा नयैर्विषयीक्रियते ? उच्यते- सूत्रं सर्वेषां मपि यः कालस्तं छायां विना स्वयमेव ज्ञास्यति / सपदच्छेदं तावदभिधाय सूत्रानुगमः कृत्तप्रयोजनो भवति। सूत्रानुगमेन अथ सूत्रभावनाया एव गुणानाह-- च सूत्रे समुचारितेपदच्छेदे च कृते सूत्रालापकानामेव नामस्थापनादिनि एगग्गया सुमहनि-जरा य नेवमिणणम्मि पलिमंथो। क्षेपमात्रमभिधाय सूत्रालापक-निक्षेपः कृतार्थो भवति "शेषस्तु न पराहीणं नाणं, काले जह मंसचक्खूणं / / 513 // पदार्थपदविग्रहादिनियोगः सर्वोऽपि सूत्रस्पर्शिकनियुक्तेः, वक्ष्यमाणनैगमादिनयानामपि प्रायः स एव पदार्थादिविचारो विषयः, ततो वस्तुवृत्त्या श्रुतपरावर्तनया चित्तस्यैकाग्रता भवति, सुमहती च निजरा भवति / सूत्रस्पर्शिक-निर्युक्त्यन्त विन एव नयाः। आह च भाष्यकारः "होइ स्वाध्यायविधानप्रत्ययान्नैव छायामापने पलिमन्थः सूत्रार्थव्यावातकयत्थोवोत्तुं, सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो। सुत्तालावगनासो, नामाइन्ना लक्षणेनैव कालपौरुष्यादिकालविषयं पराधीनं सूर्यच्छायायत्तज्ञातम्। सविणिओगं।।१।। सुत्तप्फॉसियनिजुत्ति-विणिआगो सेसओ पयत्थाइ। यथा अन्येषां मांसचक्षुषां छद्मस्थानां साधूनाम्। पायं सो चिय नेगम-नयाइमयगोयरो होइ // 2 // " अनेन च विधिना उपसंहरनाहसूत्रे व्याख्यायमाने सूत्रं सूत्रानुगमादयश्च युगपत्समाप्यन्ते, यत आह सुयभावणाएँ नाणं, दंसणतवसंजमंच परिणमइ। भाष्य सुधाम्भोनिधिः- "सुत्तं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावयकओ य तो उवओगपरिण्णो, सुयमवहितो समाणेइ॥५१४|| निक्खेवो / सुत्तप्फॉसिय-निज्जुत्ति, नया य समगं तु वचंति // 1 // " श्रुतभावनया आत्मानं भावयन् ज्ञानं दर्शनं तपः प्रधानं च संयमं सम्यक् इत्यलं विस्तरेण अनु०॥ परिणमयति / तत्त उपयोगपरिज्ञः श्रुतोपयोगमात्रेणैय कालपरिज्ञाता, सुत्तबंधन-न०(सूत्रबन्धन) सूत्रमये मत्स्यादिबन्धेन, विपा०१ श्रु० 'सुत्ते' ति-श्रुतभावनामव्यथितः सन् समापयतीति, गता सूत्रभावना / 8 अ०। बृ० 1 उ०२ प्रक०। सुत्तभणिय-न०(सूत्रभणित) आगमोक्ते, पञ्चा० 4 विव० / | सुत्तममणिय-न० (सूत्राभणित) मकारस्याऽलाक्षाणकत्वात् Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुत्तमभणिय 954 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुदंसण सूत्राभणितम्। सूत्राननुज्ञाते सर्वथागमनिषिद्धे स्त्रीकर-स्पर्शादिके, ग० सलक्षणम् / तच लक्षणमिदम् / 2 अधि०1 किं तत् इत्याह - सुत्तयर-त्रि०(सूत्रकर) गणधरे गणधररचितत्वात् सूत्राणाम् / सूत्र० 1 अप्परगन्थमहत्थं बत्तीसादोसविरहियं जं उ। श्रु०१ अ०१ उ०। नि०। लक्खणजुत्तं सुत्तं, अट्ठहि य मुणेहि उववेयं MEEll सुत्तरज्जुग पुं०(सूत्ररज्जुक) कार्पासिकमये रज्जो, उपा० 7 अ०। / विशे०। सुत्तरुइ-स्त्री०(सूत्ररुचि) सूत्रे- आगमे रुचिः / सूत्ररुचिः / (एतद्व्याख्या ते च द्वात्रिंशद वाचाश्चः 'सुत्तफासियणित्ति' शब्दे आगमतत्त्वश्रद्धाने, उत्त०२८ अ० / 20 / इहै बोक्ता / ) तथाविधरुचिसस्पन्ने, प्रव०। सुत्ताणुमइ-स्त्री०(सूत्रानुमति) आगमानुज्ञातत्वे, पञ्चा० 4 विव० / सूत्ररुचिमाह सुत्तालावग-पुं०(सूत्रालापक) श्रुतं मे आयुष्मन्नित्यादिषु सूत्रपदषु, स्था० जो सुत्तमहिलंतो, सुएणमोगाहई उ सम्मत्तं / 1 ठा०। अंगेण बाहिरेण य, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो // 66 // / सुत्तालावगणिक्खेण- पुं०(सूत्रालापकनिक्षेप) श्रुतं मे आयुष्मन्नियः सूत्रमागममधीयानः- पठन् श्रुतेनेति- सूत्रेण तेनैवाधीयमानेन | त्यादीनां सूत्रपदानां नामादिन्यासे, स्था० 1 ठा० / अङ्गेनाङ्गप्रविष्टनाचारादिना बाह्येतावश्यकादिना सम्यक्त्वमवगाहते- | ('णिक्खेव' शब्दे चतुर्थभागे 2027 पृष्ठे भेदसूत्रम्।) प्राप्नोति तुशब्दस्याधिकार्थसूचकत्वात्-प्रसन्नप्रसन्नतराध्यवसायश्च सुत्ति-स्त्री०(शुक्ति) मुक्तायोनौ जलचरदेहे, प्रा०२ पाद / भवति, स गोविन्दवाचकवत् सूत्ररुचिरिति ज्ञातव्यः। पव० 146 द्वार / सुत्तिमई-स्त्री०(सूक्तिमती) वेदिजनपदराजधान्याम्, सूत्र०१ श्रु० 5 प्रज्ञा०। 'सुत्तरुई सुत्तं पदंतो संवेगमावज्जति। आ० चू०४ अ०। सूत्रम् अ०१ उ०। आगमस्तत्र तस्माद्वा रुचिः / स्था० 4 ठा० 1 उ० / सुत्तिय-त्रि०(सौत्रिक) सूत्रक्रयविक्रयकारिणी, व्य०६ उ० / सुत्तविउद्ध त्रि०(सुप्तविबुद्ध) निद्रापगमेन जाग्रति, पञ्चा० 1 विव०। *सूत्रित-त्रि० सूत्रण मुख्यतयोपात्त, सूत्र० 1 श्रु०१ अ० 1 उ० / सुत्तविणय पुं०(सूत्रविनय) सूत्रवाचनादिके, दशा० / सुत्तिवत्तिया-स्त्री०(सूक्तिप्रत्यया) स्थविरादुतस्वलिसहान्निर्गतसे किं तं सुत्तविणए ? सुत्तविणए णं चउदिवहे पण्णत्ते, तं स्योत्तरबलिसहगणस्य द्वितीयशाखायान् कल्प०२ अधि० 8 क्षण / जहा-सुत्तं वाएति, अत्थं वाएति, हयं वाएति, निस्सेसंवाएति, सुदंसण-पुं०(सुदर्शन)"शे-षे-तप्त-वजे वा" ||2|10 / इति सेत्तं सुत्तविणए / दशा० 4 अ०। संयुक्तान्तव्यञ्जनाः पूर्व इकारः। सुदरिसणो। पक्षे-- सुदंसणो / प्रा० / सुत्तविरोह पुं०(सूत्रविरोध) आगमाक्तार्थविरुद्धे, पञ्चा० 17 विव० // शोभनं जम्बूनदमयतया रत्नबहुलतया च मनोनिवृत्तिकरं दर्शनं यस्यासी सुत्तवुड्विभाव-पुं०(सूत्रवृद्धिभाव) सूत्रार्थवृद्धौ, पञ्चा० 18 विव० / सुदर्शनः / मेरुपर्वते, चंप्र० 4 पाहु० / सूत्र० / जं० / सू० प्र० / सुत्तहरसहसंतुट्ठ-त्रि०(सूत्रधरशब्दसंतुष्ट) सूत्रधरा वयमिति शब्दमात्र- चम्पानरीवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रावके, आ० चू०५ अ० / आव०। संतुष्ट, सम्म० 3 काण्ड। ती० / 'सेट्ठिभज्जा य' त्ति-चंपाए सुदंसणो, सेट्टिपुत्तो, सो सावगो सुत्तहार-पुं०(सूत्रधार) वर्द्धकौ, स्था० 10 ठा० 3 उ० / अट्ठमिच्चाउद्दसीसु चचरे उवासगपडिम पडिवज्जइ, सो महादेवीए पत्थिजमाणो णिच्छइ / अणया वोसट्ठकाओ देवपडिम त्ति वत्थे चेडीए सुत्ताणुगम-पुं०(सूत्रानुगम) सूत्रव्याख्याने, अनु० / सूत्रानुगमरूपे वेढिउं अंतेउरं अति-णीओ। देवीए निव्वंधे वि कए नच्छइ, पउट्ठाए, पदच्छेदरूपे चानुगमे, आचा०१ श्रु०१ अ० 1 उ० / उत्त० / आ० कोलाहलोकओ। रण्णा वज्झो आणत्तो, निजमाणे भज्जाए से मित्तवतीए चू० / "होइ कयत्थो वोत्तुं, सपयत्थेयं सुयं सुयाणुगमो' त्ति / स्था० सावियाए, सुत्तं, सचाणजक्खस्सासवणाएकाउस्सग्गे ठिता, सुदंसणस्स 1 ठा० / आ० म०। विअट्ठ खंडाणि कीरंतु त्ति खंधे असीवाहितो, सव्वाणजक्खेण पुप्फदाम सांप्रतं सूत्रानुगमो भणनीयः, इति तमेव संबन्धयन्नाह // कतो / मुक्तो रन्ना पूइतो, ताधे मित्तवतीए पारियं ! आव० 5 अ०। तेणेदाणिं सुत्तं, सुत्ताणुगमेऽभिधेयमणवर्ज। राजगृहवास्तवो स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध० र०। अक्खलियाइविसुद्धं, सलक्खणं लक्खणं चेमं MEEll तत्कथा चेयम् - येन सूत्र सत्येव सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः प्रवर्तते, तेनेदानीं सूत्रानुगम "कामिणिवयणम्मि व दी-हरत्थ मइविमलरयणसोहिल्लं। क्रमप्राप्त सूत्रमभिधयम्। कथंभूतम् ? अनवद्यम्-ऊनाधिक्यादिदोषा- अलियसिरिइविमक, नवरं पुरमत्थि रायगिहं / / 1 / / वद्यरहितम् पुनः कथंभूतम् ? अस्खलितादिविशुद्धम्-- स्खलितमि- बहुदव्वगुणपहाणो, समवायपरो सुकम्मकयावत्तो। लितादिवक्तदूषणविशुद्धम् / सह वक्ष्यमाणन लक्षणेन प्रवर्तते इति वयसेसिउ व्व तत्थ, त्थि नरवरो सेणिओ नाम ||2|| Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसण 155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुदंसण तत्थेव भूरिसाराः मालागारो वसइ, अज्जुणओ। सुकुमालपाणिपाया, बंधुमइ पणइणी तस्स / / 3 / / मुग्धःपाणिं जक्खं, नियकुलदेवं पुरस्स बाहिठियं। एवरेहिं कुसुमेह, अज्जुणओ निचमचेइ॥४॥ तत्थ य ललिया गोट्ठी, जं कयसुकया समत्थि अइरिद्धा। तम्मि पुरे अन्नदिणे, महूसवो काऽवि संपत्तो / / 5 / / कल्लं मुल्लं लाहई ति इत्थ कुसुमाई इय विचिंतेउ। अज्जुणओ सकलत्तो, गासे उजाणमणुपत्तो।।६।। गाहउं कुसुमाई तओ, जा जक्खगिह समेइ तुट्ठमणो। ता बहि जक्खगिहट्ठिय-गुट्ठियपुरिसेहिँ सो दिट्ठो|७|| पभणंति अन्नमन्नं, भा भो भद्दा समेइ एस इहं। अज्जुण मालागारो, बंधुमईए पियाइ समं // 8 // तं सयं णे एयं, बंधित्तु इमस्स भारियाइसमं। भोए भुत्तुं ते बिहु, अन्नुन्नं पडिसुणंति इमं // 6 तो ते कवाडपच्छा, भाग चिट्ठति निहुयतणुवयणे। इत्तो इयरो पत्तो, जक्खं पूएइ एगम्गा // 10 // अह दवदवस्स निस्सरि-य ते यततोतयं निइंधंति। बंधुभईए सद्धिं, किलिकिलिमाणा पकीलंति / / 11 / / तंतह दठ्ठ असरिस, अमरिय विवसो विचिंतएएसो। जक्खमिमं निचमहं, एमि वरेहिँ कुसुमेहिं // 12 // जइ इत्थ कोइ हुंती, जक्खो तो हं सहतओ नेवं / परपरिभवमसहंता, नूणमिमो पत्थरो चेव / / 13 / / तयणु अणुकंपियमणो, जक्खो अज्जुणगतणुमणुपविट्ठो। सो तडतड त्ति तोडइ, बंधणं आमततु व्य / / 14 // गहिउं लोहमयं पल-सहस्समाणं स मुग्गरं सकरे। ते छ वि पुरिसे लहु इ-त्थिसत्तमे हणइ हेलाए।।१५।। इय पइदिणमञ्जुणओ, छप्पुरिसे इत्धिसत्तमे हणइ। कमसो एसो जाओ, वुत्तंतोपायडो नयरे॥१६॥ अह सेणिएण नयरे, घासावियमिय अहो नयरलोया। निग्गंतव्वं न तुमेहिँ ,जाव हणिया न सत्तं जणा॥१७॥ तम्मिय समये सामी, समोसढो चरमजिणवरो तत्थ! पहुपायवंदणत्थं, निग्गच्छइ का विन भएण // 18 // तत्थ त्थि विमलदिट्ठी, अइधम्मट्ठी सुदंसणो सिट्ठी। जिणपवयणसवणरुई, नवतत्तवियारसारमई / / 16 / / सो सिरिवीरजिणेसर, वयणामयपाणउस्सुओ अहियं / सम्ममभिगम्म अम्मा, पिऊण नमिऊण भणइ इमं / / 20 / / (ध०२०।) ता बंदसु भगवंतं, समणं वीरं इहडिओ चेव। . सुमरेसुसुणियपुव्यं, सुदेसणं भयवओवच्छ!॥२८|| जंपइ सुदंसणो विह, तिलोयनाहे सयं इहं पत्ते। अनमिय असुणिय धम्म, च किहणु किर जुज्जए भुत्तुं // 26 // किंचसिरिवीरवयणसवणा-मयपाणसुसित्तसव्वगत्तस्स। विसमविसं पिव किं ए- स मज्झ काहिइ धुवं मचू // 30 // तम्हा जं किंचिवि इ-स्थ होइत होउ इय भणिय वाढं। पियरो य अणुन्नविउं, निग्गच्छइ सामिनमणत्थं // 31 / / तंपासिवि अजुणओ, मुग्गरमुग्गाविउं पहावित्था। दिवो मुदंसणेणं, सो इंतो कुवियकालु ध्व // 32 // तत्ता अभीयचित्तो, भुवं पमजित्तु पुत्तअंतेण। वंदिय जिणिंदचंदे, जयउचारं, सयं कुणइ // 33 // भुवणजियाण सरना, जिणा य सिद्धाय सव्यसाहू य। तह केवलिपन्नत्तो, धम्मो सरण मह होउ // 34 // नीसेसजंतुसंता-ण ताण पम्मलपयाबदुल्ललिओ। तिहुयणजणनयचलणो, वीरजिणो चव मज्झ गई|३५|| सागारं संवरणं, करेइ खामेइजंतुणो सव्ये। निंदेह दुक्कडाई, अणुमोयइ सवलसुकयाई॥३६॥ जइ मच्चिस्समियाओ, उवसग्गाओ तओ य पारिस्सं। इय वितिय नवकारं, झायतो ठाइ उस्सग्ग।।३७॥ मुग्गरमुल्लालंतो, जक्खोतं अक्कमउमवयंतो। पुरओ चिट्ठइ संतो, अणमिसनयणेहि पिच्छंतो॥३८|| खणमित्तेण, सठाणं, पत्तो नियमुग्गरे गहिय जक्खो। छिन्नतरु व्वज्जुणओ, पडिओ सहसत्ति धरणीए॥३६॥ नाऊण निरुवसगं, सिट्ठी पारेइ तयणु उस्सगं। जंपइ सुदंसणं पइ, इयरो बहु लहियचेयन्नं / / 4 / / कोऽसि तुमं कत्थ यप-थिओ सि सो भणइसावओ अहयं। संपत्थिआ म्हि वीरं, नमिउं सोउं च धम्मकह॥४१॥ अह भणइ अजुणो विहु सिहि! तए सह अहं जिणं नमिउं। सोउंच धम्ममिच्छा-मि आह सिट्ठी तओ एवं / / 42 / / भद्द ! इह मणुयजम्म-स्स चारफलमित्तियं चिय जयम्मि। जं कीरइ जिणवंदण, धम्मकहासवणमाईवं // 43 // इय भणिय तेण सहिओ, सुदंसणो पत्तआ समोसरणे। पणविह अभिगमपुव्वं, पयओ पणमेइ जिणनाहं / / 44 // हस्सं सुपुन्ननयणो, वियसियवयणो कयंजली सुमणो। भत्तिबहुभाणपवणो, इय निसुणइ देसणं पहुणो।।४५।। तथाहिभो भविया ! कहमवि लहि-य मणुयजम्म हवेइ पवणमणा। जिणवरपवयणसवणे, दुहहरण सयलगुणकरणे॥४६॥ जओसआ जाणइ. कल्लाणं, सुआ जाणइ पायगं। उभयं पिजाणइ, सुआ, जं सेयं तं समायरे / / 47|| अहंः संहतिभूधरे कुलिशति क्रोधानले नीरति। स्फूर्जजाउय तमोभरे मिहिरति श्रेयोद्रुमे मेघति॥४८| माद्यन्मोहसमुद्रशोषणविधा कुम्भोद्भवत्यन्वहं, सम्यग्धर्मविचारसारवचनस्याकणंनं देहिनाम्॥४८|| धम्मो यतत्थ दुविहो, सव्वे देसे यतत्थ सव्वंमि। पंच य महव्वयाई, देसे पुण वारस वयाई॥४६॥ इह सुणिय हट्ठतुट्ठा, सिट्ठी नमिउं जिणिंदपयकंमलं। कयकिचं मन्नतो, अप्पाणं नियगिहं पत्तो॥५०॥ अज्जुणओ पुण वेर-गपहिगओ जिणवरिंदपयमूले। छट्टक्खमणअभिग्गह जुत्तं दिक्खं पवजेइ / / 51 / / अक्कोसतालणाई, सहिउ काउं वयं च छम्मासं। पासद्धं संलिहिलं सियं गआ बदियं कम्माई।।५२|| सिट्ठी-सुदंसणो वि हु, चिरकालं दसणं पभावित्ता। पालेऊण वयाई, सुक्खाणं, भायणं जाओ॥५३।। इत्यागमाकर्णनबद्धवितः सुदर्शनः प्राय फल विशिष्टम् / ततः सुधर्मद्रमवाटिकायां, धर्मश्रुतौ भव्यजना ! यतध्यम्॥५४॥ Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसण 956 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुदंसणा ध० 202 अधि० 1 लक्ष०। ('अज्जणग' शब्दे प्रथमभागे 225 पृष्ठे अन्तकृद्दशाङ्गतोऽप्यस्य कथा / ) सौगान्धक्या नगया नग रश्रष्ठिनि० ज्ञा० 1 श्रु० 5 अ01 (येन शुकपरिव्राजकेन सह विवादः कृत इति 'थावच्चापुत्त' शब्दे चतुर्थभागे 2401 पृष्ठ।) धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कुञ्जरानीकाधिपती हस्तिसजे, स्था० 5 ठा०१ उ०। पुस्तीनाम्न्या ब्रह्मदत्तचक्रिभार्यायाः पितरि, उत्त०१३ अ०। अरस्वामिन पितरि, प्रव० 13 द्वार !आव० स०। ति०। भारतवर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते पञ्चमे बलदेवे, प्रव० 206 द्वार / भाविबलदेवे, ती० 20 कल्प। आव० / आ० चू० / आ० म० / धातकीखण्डस्य पूर्वाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। स्था० स्वयंभुवन्तृतीयवासुदेवस्यु पूर्वभवजीवे, स० / कुन्थुनाथस्य पूर्वभवजीवे, स०। भरतचक्रिणश्वके, आ० चू०१०। त्रिपृष्टवासुदेवस्य चक्रे, ति० आ० चू०। अन्तकृद्दशाङ्ग-प्रथमवर्गपञ्चमाध्ययनोक्तवक्तव्यताके अन्तकृत्साधौ, स्था० 10 ठा०३ उ०। सौधर्मकल्पवासिन्याः श्रीदेव्याः पितरि, नि०१ श्रु० ३वर्ग 10 अ० / वाणिजग्रामवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, भ०। तत्कथा चैवम्तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नगरे होत्था, वन्नओ, दूतिपलासे चेइए, वन्नओ० जाव पुढविसिलापट्टओ। तत्थ णं बाणियगामे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसइ अङ्ग्रे० जाव अपरिभूए समणोवासए अभिगयजीवाजीवे० जाव विहरइ, सामी समोसढे जाव परिसा पजुवासइ / तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे कहाए लढे समाणे हद्वतुट्टे पहाए कय० जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ साओ गिहाओ पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं पायविहारचारेणं महया पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियगाम नगरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ,निच्छित्ता जेणेव दूतिपलासे चेइए जेणेव समणे भगवं, महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति / तं० सचित्ताणं दव्वाणं जहा उसमदत्तो० जाव तिविहाए पछुवासण एपज्जुवासइ। तएणं समणे भगवं महावीरो सुदंसणस्स सेट्ठिस्स तीसे य महतिमहालयाए० जाव आराहए भवइ / तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हतह० उठाए उठेइ उद्वित्तासमणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो० जाव नमंसित्ता एवं बयासी-कइविहे णं भंते ! काले पन्नत्ते ? सुदंसणा चउविहे काले पन्नत्ते, तं जहा- पमाणकाले 1 अहाउनिव्वत्तिकाले 2 मरणकाले 3 अद्धाकाले।से किं तं पमाणकाले? पमाणकाल दुविहे पन्नत्ते, त-जहा-दिवसप्पमाणकाले ? राइप्पमाणकाले य 2 चउपोरिसिए दिवसे, चउपोरिसिया राई भवइ। (सू०४२४) 'तेण' मित्यादि, पमाणकाले ति-प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि तत् प्रमाणं स चासौ कालश्चात प्रमाणकालः प्रमाणं वा-परिच्छेदनं वर्षादेस्तत्प्रधानस्तदर्थोवा, कालः प्रमाणकाल:-अद्धाकालस्य विशेषा दिवसादिलक्षणः, आह च-"दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च होइ राई य। चउपोरिसिओ दिवसो, राई चउपोरिसीचेव ॥१॥"'अहाउनिव्वतिकाले' त्ति-यथा-येन प्रकारेणः युषो निर्वृत्तिः- बन्धनं तथा यः कालः-- अवस्थितिरसौ यथायुर्निर्वृत्तिकालो-नारकाद्यायुष्कलक्षणः, अयं चाद्धाकाल एवायुः कर्मानुमवविशिष्टः सर्वेषामेव संसारिजीवानां स्यात्, आह च- "नेरइयतिरियमणुया, देवाण अहाउयं तु जं जेणं / निव्वत्तिवमन्नभवे, पालेंति अहाउकालो सो // 1 // " 'मरणकाले' त्तिमरणेन विशिष्टः कालः मरणकालः-अद्धाकालः एव, मरणमेव वा कालो मरणस्य कालपर्यायत्वान्मरणकालः, 'अद्धाकाले' त्ति- समयादयो विशेषास्तद्रूपः कालोऽद्वाकालः-चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टांऽर्द्धतृतीयद्वीप समुद्रान्तर्वर्ती समयादिः, आह च-"समयाबलियमुहत्ता, दिवसअहोरत्तपक्खमासा य / संवच्छरजुगपलिया, सागरओस्सप्पिपरियट्टा ||1||" भ० 11 श०११ उ०। एएहि णं भंते ! पलिओवमसागरोवमेहिं किं पयोयणं ? सुदंसणा! एएहिं पलिओवमसागरोमेहि नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आउयाई मविखंति (सू०४२६४) (एतत्कथा 'महब्बल' शब्दे षष्ठे भाग उक्ता।) सुदंसणकूड-न०(सुदर्शनकूट) पाश्चात्यरुवकवरपर्वतस्य अष्टमे, कूट, स्था० 10 ठा०३ उ०। सुदंसणपुर-न०(सुदर्शनपुर) मालवदेशीये स्वनामख्याते नगरे, उत्त० अ० / सुदर्शनपुरे शिशुनागो नाम गृहपतिः / ) आव० 4 अ01 ('समाहाण' शब्देऽस्मिन्नव भागे कथा गता।) सुदंसणा-स्त्री०(सुदर्शना) शोभनं दर्शनं दृश्यमानतया यस्याः नयनमनोहारित्वात्, सा सुदर्शना। जम्ब्वां सुदशनायाम, कल्प०१ अधि० 7 क्षण / जी० / स्था० / जं०। प्रश्न०। पृथवीपरिणामे उत्तरकुरुषु जम्बूवृक्षे,स०। जंबू ण सुदंसणा अट्ठजोअणाई, उड्डे उच्चतेणं पण्णत्ता / स० 8 सम०। ('जंबू' शब्दे वक्तव्यतोक्ता पाश्चात्याञ्जनपर्वतस्य उत्तरदिड्नन्दापुष्करिण्याम्, स्था०४ ठा०२ उ०। जी01 ती०। ऋषभजिनस्य निष्क्रमणशिविकायाम्, आ० चू०१ अ० स० / आ० म०॥ धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य लोकपालानामग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। कालमहाकालयोः पिशाचेन्द्रयोरग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। शकटकुमारस्य गणिकायाम्, स्था० 10 ठा०३ उ० / ('सगड' शब्दे कथा ) चतुर्थबलदेवमातरि, स० आव०। जमालीभार्यायां वीरदुहितरि, श्रीमहावीरस्वामिनो दुहितुः ज्येष्ठेति या Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदंसणा 657 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुद्धणय सुदर्शनेति वा अनवद्याङ्गीति वा नामेति / विशे० / "जेट्ठा सुदंसणा आठवह दीहदंसी, सयलं परिणामसुंदरं कन्जं / जमालिणो व्व त्ति" ज्येष्ठा सुदर्शना अनवद्याङ्गीति जमालिगृहिणीना- बहुलाभमप्पकसं, सिलाहिणिज्जं बहुजणाणं // 32 // मानि। अन्ये तु व्याचक्षते - ज्येष्ठा महती सुदर्शना नाम भगक्तः आरभते-प्रतिजानीते दीर्घ परिणामसुन्दरं कार्यमिति गम्यते, क्रियाश्रीमन्महावीरस्य भगिनी तस्याः पुत्रो जमाली अनवद्याङ्गी नाम भगवतो विशेषणं वा द्रष्टुमवलोकयितुं शीलमस्येति दीर्घदर्शी सकलं-समस्तं दुहिता जमालिगृहिणीति। विशे० स्था०। उत्त० कल्प० आ० क० / परिणामसुन्दरम् आयतिसुखावहं कार्यम्-कृत्यं तथा बहुलाभप्रचुराआ० म०। आ० चू० / आचा० / सामिस्स जेट्ठा भगिणी सुदंसणा तीसे भीष्टसिद्धिकमल्पक्लेशंस्तोकायासं श्लाघनीयं-प्रशंसनीयं बहुजनानापुत्तोजमाली। आ० चू०१अ०। सिंहलद्वीपराजस्य चन्द्रगुप्तस्य दुहितरि, स्वजनपरजनानां शिष्टानामिति भावः स हि किल पारिणामिक्या बुद्ध्या ती०६ कल्प। साकेतन गरराजस्य; चन्द्रावतंसकस्य भार्यायां सागर सुन्दरपरिणाममैहिकमपि कार्यं करोति धनश्रेष्टिवत् / ततो धर्मस्याति चन्द्रमुनिचन्द्रयोर्मातरि, आ० म०१ अ०ा धनगिरिदुहितरि, आ० चू० स एवाधिकारीति। ध० 20 1 अधि 15 गुण 1 अ०॥ सुदुक्कर-त्रि०(सुदुष्कर) सुतरां दुष्करे, उत्त० 16 अ०। सुदक्खिण-पुं०(सुदक्षिण) प्रार्थनाभङ्गभीरौ श्रावके, ध० 20 1 अधि० सुदुत्तर-त्रि०(सुदुस्तर) दुःखोत्तार्ये, स०१४५ सम०॥ 1 गुण। सुदक्खिण्ण--न०(सुदाक्षिण्य) गम्भीरधीरचेतसः प्रकृत्यैव प्रकृत्या सुदुल्लह-त्रि०(सुदुर्लभ) अतिशयदुरापे, उत्त०१०। विपा० / भियोगपरदयालुत्वनिरुपधिपरदुःखप्रहाणेच्छायाम, द्वा०१२ द्वा०। सुदेशिय-त्रि०(सुदेशित) पर्षदि नानाविधप्रमाणैरभिहिते, प्रश्न० 1 सुदाक्षिण्य इत्यष्टमं गुण वृण्वन्नाह सव०द्वार। उपयरइ सुदक्खिन्नो, परेसिमुज्झियसकजवावारो। सुहार-पुं०(सुद्वार) उज्जयन्तशैले जिनायतनद्वारवानरे, ती० 3 कल्प। तो होइ गज्झवक्को, ऽणुवत्तणीओ य सव्वस्स / / 15 / / (यो हि द्वारमुद्घाटयन्नपि नलक्ष्यते विचित्रकार्यकृयेति 'उज्जयन्त' शब्दे उपकरोत्युपकारतया प्रवर्ततेऽभ्यर्थितसारतया सुदाक्षिण्यः-शोभन द्वितीयभागे 736 पृष्ठे उक्तम्।) दाक्षिण्यवान् / कोऽर्थः- यदिह परलोकोपकारि प्रयोजनं तस्मिन्नेव सुद्देउं-अव्य०(सूदयितुम्) विनाशयितुमित्यर्थे, नि० चू० 10 उ०। दाक्षिण्यवन्न पुनः पापहेतावपीति सुशब्देन दाक्षिण्यं विशेषितम्। | सुधी-पुं०(सुधी) सुष्टु धीर्यस्य / पण्डिते, सुन्दरबुद्धौ, स्त्री० / सुष्टु परेषामन्येषां कथमित्याहउज्झितस्वकार्यव्यापारः- परित्यक्तात्म- ध्यायति सुध्यै विप्। सुबुद्धियुक्ते, त्रि० / वाच०। प्रशस्तबुद्धौ, ध०१ प्रयोजनप्रवृत्तिः ततः कारणाद्भवति ग्राह्यवाक्योऽनुल्लङ्घनीयादेशः, अधि० "क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते। दन्ता दलन्ति तथाऽनुवर्तनीयश्चाभीष्टचेष्टितश्च सर्वस्य धार्मिकलोकस्य / स हि किल ___कष्टन, जिह्वा गिलति लीलया / / 1||" कल्प०१ अधि०७ क्षण। सुदाक्षिण्यगुणेनाकामोऽपि धर्ममासेवते क्षल्लककुमारवता ध००१ सुधोययर-त्रि०(सुधौततर) सुविशोधिते, भ०६श०१ उ०। अधि०५ गुण। सुद्ध-त्रि०(शुद्ध)"शषोः सः" ||1 / 260 / / इत्यनेन शकारस्य सुदाढ-पुं०(सुदंष्ट्र) स्वनामख्याते नागकुमारे, यः पूर्वभवे सिंहत्वे मारितः सकारः / प्रा० / अवदाते, सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। निष्कलके, आव०६ वीरजिनेन्द्रं गङ्गांनावा तरन्तमुपसृष्टवान् कम्बलशम्बलाभ्यां निवारितः। अ०। सूत्र० / शुद्धादिना उज्ज्वले, कल्प०१ अधि०३क्षण / निर्दोषे, आ० चू० 1 अ० / नागो-नागकुमारः सुदंष्ट्रनामा सिंहजीवो भगवत सूत्र०१ श्रु०११ अ० / द्वा० / पञ्चा० / कषायकालुष्यरहिते, उत्त०३ उपसर्ग कर्तुभारब्धवानिति। आ० म०१ अ०। आ० क०नि० चू०। अ० केवले, विशे० / उद्गमादिदोषशुद्धे निरुपाधौ, सूत्र० 16 अ० / सुदाम-पुं०(सुदाम) जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अतीतायामुत्सर्पिण्यां जाते अलेपकृते, स्था०३ ठा०३ उ०। अवदाते, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। कुलकरभेदे, स्था०७ ठा०३ उ० स०। ति०। जात्यादिना निर्मलज्ञानादिगुणतया कालापेक्षया वाशुद्धे, स्था० 4 ठा० सुदिट्ठ-त्रि०(सुदृष्ट) सम्यग्दृष्ट, उत्त० 12 अ० / स्था० / द्वा० / १उ०। पापानुबन्धरहिते, आचा०१ श्रु०४ अ०१उ०। विमले, जी० अतीन्द्रियार्थदर्शिभिः दृढमपवर्गादिहेतुतयोपब्धे, प्रश्न०२ संव० द्वार। 3 प्रति०१ अधि०२ उ०। भक्तदोषवर्जिते, सू०प्र०२०पाहु०। पूर्वोक्तसुदिट्ठि-स्त्री०(सुदृष्टि) सुशब्दः प्रशंसायाम्।शोभना दृष्टिः सुदृष्टिः। आ० वचनदोषरहिते, प्रश्न०१ संव० द्वार। म०१ अ०। सम्यग्दृष्टौ, द्वा०१७ द्वा०। सम्यक्त्वे, विशे० / सुद्धगंधारा-स्त्री०(शुद्धगन्धारा) गान्धारग्रामस्य चतुर्थ्या मूर्छनायाम, सुदीहनीहारी-त्रि०(सुदीर्घनि दिन्) अह्रस्वप्रतिरवे, प्रश्न० 3 स्था०७ठा०३ उ०। आश्र० द्वार। सुद्धचरणजोग-पुं०(शुद्धचरणयोग) मोक्षे संयतव्यापारेषु मुखवस्त्रिकादि-- सुदीहदंसी-पुं०(सुदीर्घदर्शिन) सुपर्यालोचितपरिणामसुन्दरकार्य प्रत्युपेक्षणादिषु, पं० व०१ द्वार। कारिणि, ध० 20 1 अधि० 1 गुण ! स किल पारिणामिक्या बुद्ध्या सुद्धजाइकुलण्णिय-त्रि०(शुद्धजातिकुलान्वित) शुद्धा विशुद्धवैवाह्यसुन्दरपरिणामत्वैहिकमपि कार्यमारभते (प्रव०२३६ द्वार) इति पञ्चदशे ___ चतुर्वर्णान्तर्गता जातिः मातृपक्षः, कुलं पितृपक्षस्ताभ्यामन्वितस्सम्पन्नः। श्रावकगुणे, ध० २०१अधि०१ गुण / दर्श०। मातापितृसम्पन्ने, ध०३ अधि०। सम्प्रति पञ्चदशं दीर्घदर्शित्वगुणभाह सुद्धणय-पुं०(शुद्धनय) निश्चयनये, प० चू०५ कल्प। Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धण्णादि 658 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुद्धासय सुद्धण्णादि-न०(शुद्धान्नादि) चरणकरणानुयोगाख्ये शुद्धाहारग्रहणे, सुद्धप्पवित्ति-स्त्री०(शुद्धात्मवृत्ति) निरवद्यक्रियायाम, पञ्चा०७ विव०। द्रव्या०१ अध्या०। सुद्धप्पवेस-त्रि०(शुद्धप्रवेश्य) शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च शुद्धसुद्धता-स्त्री०(शुद्धता) शुद्धस्वभावे, द्रव्या० 12 अध्या०। प्रवेश्यानि / राजसभाप्रवेशोचितेषु, औ०।। सुद्धदंत-पुं०(शुद्धदन्त) स्वनामख्याते अन्त:पे, तत्स्थे मनुष्ये सुद्धबुद्धसहाव-त्रि०(शुद्धबुद्धस्वभाव) शुद्धः- सर्वपुद्गलाश्लेष्मराहतः चास्था०३ ठा०३ उ०। ('अंतरदीव' शब्देप्रथमभागे९७ पृष्ठेतद्वक्तव्यता बुद्धः- ज्ञानमयः स्वभावो यस्य सः शुद्धबुद्धस्वभावः / विशुद्धउक्ता।) राजगृहे श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्याख्यायां भार्यायां जाते पुत्रे, ज्ञानमयस्वभावोपेते, अष्ट०११अष्ट०। अणु० वर्ग०५ अ०। (सच वीरान्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षाणि प्रव्रज्यापर्याय सुद्धबोहप्पसर-पुं०(शुद्धबोधप्रसर) प्रधानमत्यवकाशे, जीवा० 11 परिपाल्य जयन्ते कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोप- अधि०। पातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य पञ्चमे अध्ययने सूचितम्।) सुद्धभाव-पुं०(शुद्धभाव) सदनुष्ठाने, पञ्चा०१४ विव० सुस्वभावे, प्रश्न० सुद्धदंतीपासणाह-पुं०(शुद्धदन्तीपार्श्वनाथ) शुद्धदन्तीनगरीस्थिते 5 संव० द्वार। पार्श्वनाथे, ती०३१ कल्प। सुद्धमइ पुं०(शुद्धमति) एकविंशतितमे भारतातीते जिने, प्रव० 17 द्वार। सुद्धधम्मरयणत्थि-त्रि०(शुद्धधर्मरत्नार्थिन्) रत्नानि वैडूर्यादीनि तानि सुद्धवत्थ-न०(शुद्धवस्त्र) शुचिवसने, उत्तरीयवाससिं, सितवाससिच। अर्थयन्तीत्येवं शीला ये ते, यद्वा-- तैरर्थः प्रयोजलं विद्यते येषान्ते पञ्चा० 4 विव०। रत्नार्थिनः / शुद्धधर्म एव रत्नं महामूल्यमाणिक्यं शुद्धधर्मरत्नं तस्या सुद्धवाय-पुं०(शुद्धवात) वायुजीवभेदे, शुद्धा वायवः स्तोकं स्तोकं र्थिनोवाञ्छावन्तः। शुद्धधर्मरूपमहामूल्यमाणिक्यस्यवाञ्छावत्सु, दर्श० प्रयान्ति / उत्त०३६ अ० / मन्दस्तिमितवायौ, भ० 15 श० / 2 तत्त्व। वस्तीत्यादिगत इत्यन्ते। जी०१ प्रति०। शीतकालादिषु शुद्धः वातः। सुद्धधम्मसंपत्ति-स्त्री०(शुद्धधर्मसम्प्राप्ति) शुद्धधर्मभावप्राप्तौ, पं० सू०। आचा०१ श्रु०१अ०७ उ०। शुद्धधर्मसंप्राप्तिः कुत इत्याह सुद्धवाय(या)णुयोग-पुं०(शुद्धवागनुयोग) शुद्धा अनपेक्षितवाक्याशुद्ध धर्मो-यथोदितः तस्य सम्यक्प्राप्तिः सम्प्राप्तिः भावप्राप्तिरित्यर्थः, र्थतया वाक्-वचनं सूत्रमित्यर्थस्तस्या अनुयोगोविचारः शुद्धवागनुयोगः। पापकर्म-मिथ्यात्वमोहनीयादितस्य विगमः-विशिष्टो गमः अपुनर्बन्ध- सूत्रविचारे, अनु० / ('अणुओग' शब्दे प्रथमभागे 343 पृष्ठेऽस्य कत्वेन पृथग्भाव इति यावत्तस्मात्पापकर्मविगमात्। पं० सू०१सू०। स्वरूपमुक्तम्।) सुद्धधी-स्त्री०(शुद्धधी) निर्मलबुद्धौ, द्रव्या०७ अध्या० / सुद्धवियड-न०(शुद्धविकट) उष्णोदके, कल्प०३ अधि०६ क्षण / सुद्धपउम-न०(शुद्धपद्म) कुसुमान्तरवियुक्ते पुण्डरीके, उपा०१अ०। स्था० / वर्णान्तरादिप्राप्ते शुद्धजले, ग०२ अधि०। सुद्धपज्जवट्ठियणयमत-न०(शुद्धपर्यायार्थिकनयमत) शुद्धपर्यायार्थिक सुद्धबुद्धिजोग-पुं०(शुद्धबुद्धियोग) निर्मलबोधसंबन्धे, तद्वति, नयसिद्धान्ते, नयो०। त्रि०ा पञ्चा०८ विव०। सुद्धपरिणाम-त्रि०(शुद्धपरिणाम) सम्यग्मार्गोपदेशके, पं० २०२द्वार। सुद्धचेय-त्रि०(शुद्धचेतस्) विदलन्महामोहलम्पटमानसे हा० 31 अष्ट० / सुद्धपरिहार-पुं०(शुद्धपरिहार) यत् विशुद्धस्सन् पश्चयाममनुत्तरं धर्म सुद्धसज्जा-स्त्री०(शुद्धशय्या) षड्जग्रामस्य सप्तम्यां मूर्छनायाम, स्था० परिहरति परिहारशब्दस्य परिभोगेऽपि वर्तमानत्वात्स शुद्धपरिहारः / ७ठा०३ उ० शुद्धस्त सतः परिहारः पञ्चयामानुत्तरधर्मकरणं शुद्धपरिहार इति सुद्धसभाव-त्रि०(शुद्धस्वभाव) उपाधिभावरहितान्तर्भावपरिणते, द्रव्या० व्युत्पत्तेः / यदि वायो विशुद्धकल्पव्यवहारः क्रियते स शुद्धपरिहारः 12 अध्या०1 शुद्धश्चासौ परिहारश्च शुद्धपरिहारः। परिहारभेदे, व्य०१ उ०। सुद्धसुत्त-त्रि०(शुद्धसूत्र) शुद्धमवदातं यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतोऽ('परिहारह' शब्दे पञ्चमभागे 660 पृष्ठे एतद्वक्तव्यतोक्ता।) ध्ययनतश्च सूत्र-प्रवचनं यस्यासौ शुद्धसूत्रः। यथा वस्थितसूत्रप्ररूपके, सुद्धपरूवग-त्रि०(शुद्धप्ररूपक) सम्यग्मार्गोपदेशके, दर्श० 3 तत्त्व। / सूत्र०२ श्रु०१४ अ०। सुद्धप्प-त्रि०(शुद्धात्मन) शुद्ध आत्मा-अन्तरात्मायस्य सः। निर्मलान्तः- | सुद्धागणि-पुं०(शुद्धानि) अयःपिण्डानुगतेऽग्नौ, विद्युतादिरूपे वा। जी० करणे, सूत्र० 1 श्रु०१५ अ०। 3 प्रति०१अधि०२ उ०। सुद्धप्पदव-न०(शुद्धात्मद्रव्य) निर्मले सकलपुद्रश्लेष्मरहिते ज्ञान सुद्धादाण-त्रि०(शुद्धादान) शुद्धमवदातमादानं चारित्रं यस्य सः / दर्शनचारित्रवीर्याव्याबाधामूर्ताद्यनन्तमुणपर्यायनित्यानित्याद्यनन्त निर्मलचारित्रे, सूत्र०१श्रु०१६ अ०। स्वभावमये असंख्यप्रदेशीस्वभावपरिणामिनि स्वरूपकर्तृत्वभोक्त- | सुद्धापाणय-न०(शुद्धापानक) हस्तस्पर्शरूपे अपानकभेदे, भ०१५ श०। त्वादिधर्मोपेते, अष्ट० 4 अष्ट०। सुद्धासय-पुं०(शुद्धाशय) निर्मलाध्यवसाये, पञ्चा० 10 विव०। Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धासयजोग 656 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुद्धोदय सुद्धासयजोग पुं०(शुद्धाशययोग) शुभाध्यवसायसंबन्धे, शुभाध्यवसा- विधा-अन्यत्वे, अनन्यत्वे च / अन्यत्वे यथा शुद्धभावस्य साधोगुरुः, याद्धि बोधिबीजं स्यात्। पञ्चा० 16 विव०। अनन्यत्वे शुद्धभाव इतिगाथार्थः। सुद्धि-स्त्री०(शुद्धि) "शषोः सः।।८।१।२६०|| इत्यनेन शकारस्यसकारः / प्रधानभावशुद्धिमाह - प्रा०। पापक्षयेण निर्मलतायाम्, पापं ज्ञानावरणीयादि सम्यग्ज्ञानादि- दंसणनाणचरित्ते, तवोविसुद्धी पहाणमाएसो। गुणविघातहेतुघातिकर्मोच्यते / तत्क्षयेण यावती काचिद्देशतोऽपि जम्हा उ विसुद्धमलो, तेण विसुद्धो हवइ सुद्धो॥२८७|| निर्मलता संभवति सा शुद्धिरुच्यते। षो०३ विव०। दर्शनज्ञानचारित्रेषु दर्शनशानचारित्रविषया तथा तपोविशुद्धिप्राधान्याअधुना शुद्धिमाह देश इति-यदर्शनादानामादिश्यमानाना प्रधानं सा प्रधानभावशुद्धिः, णामं ठवणा सुद्धी, दव्वसुद्धी अभावसुद्धी अ। यथा दर्शनादिषु क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि, तपः प्रधानभावएएसिं पत्ते,परूवणा होइ कायव्वा।।२५३|| शुद्धिः- आन्तरतपोऽनुष्ठानारधिनमिति / कथं पुनारयं प्रधानभावनामशुद्धिः स्थापनाशुद्धिर्द्रव्यशुद्धिश्च भावशुद्धिश्च / एतेषां नामशुद्ध्या शुद्धिरिति? उच्यते-एभिदर्शनादिभिः, शुद्धेर्यस्माद्वि-शुद्धमलो भवति दीनां प्रत्येकं प्ररूपणा भवति-कर्तव्येति गाथार्थः। साधु कर्ममलरहित इत्यर्थः / तेन च मलेन विशुद्धो मुक्तो भवति सिद्ध इत्यतः प्रधानभावशुद्धिर्यथोक्तान्येव दर्शनादीनिति गाथार्थः / दश०७ तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनङ्गीकृत्य द्रव्यशुद्धिमाह अ०। संथा० / वाक्यशुद्धिस्वरूपम् 'वक्कसुद्धि' शब्दे षष्ठभागे गतम्।) तिविहा उद्दव्वसुद्धी, तहव्वादेसओ, पाहाणे / शोधनं शुद्धिः तत्र द्रव्यशुद्धिः, भाव-शुद्धिश्च / द्रव्यशुद्धिर्जलाग्न्यादिका, तद्दष्वगमाएसो, अणण्णमीणा हवइ सुद्धी॥२८४|| उक्तंच-"अंबरलोहमहीणं, कमलो जहमलकलंकपकीणं / सुज्झावणत्रिविधा तुद्रव्यशुद्धिर्भवात् तद्र्व्यत इति तद्रव्यशुद्धिः, आदेशत इति यणसेसो, होहिंति जलानलाइचा 1111" भावशुद्धिस्तु सत्यमस्य आदेशद्रव्यशुद्धिः, प्राधान्यतश्चेति-प्राधान्यद्रव्यशुद्धिश्च। तत्रतद्रव्य- कुचारित्राणि इति, जलाग्न्यादिशुद्धीनां मध्ये यथादर्शनं यथाख्यातशुद्धिः / अनन्येति अनन्यद्रव्यशुद्धिः, यद् द्रव्यमनेन द्रव्येण सहासंयुक्त सम्यक्त्वं पुनर्मिथ्यात्वाऽगमनात्, तन्महती शुद्धिस्तथेयमपीति भावः। सच्छुद्धं भवति क्षीरं दथि वा असौ तद्रव्यशुद्धिः, आदेशे मिश्रा भवति संथा०। शुद्धिरन्यानन्यविषया / एतदुक्तं भवति- आदेशतो द्रव्यशुद्धिर्द्विविधा शुद्धौ वस्त्रागताभ्यां दृष्टान्तःअन्यत्वेनानन्यत्वेन च / अन्यत्वे यथा शुद्धवासा देवदत्तः अनन्यत्वे शुद्धदन्त इति गाथार्थः। "पुरं राजगृहं नाम, श्रेणिकस्तत्र भूपतिः। रजकस्यार्पयत्क्षीम-युगलं क्षालनाय सः ||1|| प्राधान्यद्रव्यशुद्धिमाह - तेन तद्भार्ययोर्दत्तं, वर्तिष्णोः कौमुदीमहे / वण्णरसगंधफासे, समणुण्णा सा पहाणओ सुद्धी। अभयश्रेणिको तत्र, पश्यन्ती छन्नमुत्सवम् / / 2 / / तत्थ उ सुकिलमहुरा, उसंमया चेव उक्कोसा // 285|| तत्ताम्बूलाद्रमैक्षिष्ट, रजकस्ते गृहागतं / वर्णरसगन्धस्पर्शेषु या मनोज्ञता- सामान्येन कमनीयता, अथवा दृष्ट्वा क्षौमे संततक्ष, स द्राक् क्षारैरशोधयत्॥३॥ मनोज्ञता यथाभिप्रायमनुकूलता सा प्रधान्यतः शुद्धिरुच्यते / तत्र प्रातरानीतवान् पृष्टः, सद्भाव रजकोब्रवीत्। चैवंभूतचिन्ताव्यतिकरे शुक्लमधुरौ वर्णरसौ / तुशब्दात्- सुरभिमृद् द्रव्यशुद्धिर्भावशुद्धि-स्तत्कालालोचने यते॥४॥" गन्धस्पर्शी च संमतौ, यथाभिप्रायमपि प्रायो मनोज्ञौ, बहूनामित्थ प्रवृतिसिद्धेः, उत्कृष्टौ च कमनीयौ च / चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास आ० क०४ अ०। इति गाथार्थः / उक्ता द्रव्यशुद्धिः। सुद्धिपत्त-त्रि०(शुद्धिप्राप्त) अवाप्तक्लिष्टकर्मक्षयोपशमे, पञ्चा०४ विव०। अधुना भावशुद्धिमाह सुद्धेसण-त्रि०(शुद्धेषण) दशैषणादोषरहिते आहारादौ, आचा० 1 श्रु० एमेव भावसुद्धी, तब्भावाएसओ पहाणे अ। . ६अ०२ उ०। तब्मावगमाएसो, अणण्णमीसा हवइ सुद्धी॥२८३|| सुद्धेसणिय-त्रि०(शुद्धषणिक) सुर्दोषणा-शङ्कादिदोषपरिहारतः पिण्ड'एमेव त्ति-यथा द्रव्यशुद्धिस्तथा भावशुद्धिरपि, त्रिविधेत्यर्थः; तद्भाव / 'ग्रहणं तद्वांश्च शुद्धषणिकः। भ० 25 श०७ उ01 शुद्धस्य वा निर्व्यञ्जनस्य इति-तद्भावशुद्धिः आदेशत इति-आदेशभावशुद्धिः प्राधान्यतश्चे' ति कूरादेरेषणा येषामस्तितेतथा। सूत्र०२ श्रु०२ अ०। तथाविधाभिग्रहात् -प्राधान्यभावशुद्धिश्च। तत्र तद्भावशुद्धिः अनन्येति-अनन्यभावशुद्धि एषणाशुद्धग्राहके, औ०। स्था०। स्तद्भावशुद्धिः, यो भावोऽन्येन भावेन सहासंयुक्तः सन् शुद्धो भवति | सुद्धोदण-न०(शुद्धोदन) शूपशाकादिवर्जिते ओदने, भ०२ श०१ बुभुक्षितादेरनाद्यभिलाषवदसौ तद्भावशुद्धिः / आदेशे मिश्रा भवत्ति / उ०। शाक्यसिंहस्य बुद्धस्य पितरि, पुं०। सम्म०३ काण्ड। शुद्धिस्तदन्यानन्यविषयेत्यर्थः / एतदुक्तं भवति- आदेशभावशुद्धिर्द्वि- | सुद्धोदय- न०(शुद्धोदक) अन्तरिक्षसमुद्भवे नद्यादिगते च Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुद्धोदय 960- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुपभकंत जले, प्रज्ञा० 1 पद / स्वभावनिर्मलोदके, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सुपक-त्रि०(सुपक्च) सुष्ठु पक्वं सुपक्वम्। सुन्दरपरिणते, दश०७ अ०। स्वाभाविके जले, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०! तडागसमुद्रनदीहृदावटादिगते | सुपकक्खोयरस-पुं०(सुपक्वक्षोदरस) सुपक्वः सुपरिपाकागतो यः जले, आचा०१ श्रु०१ अ०३ उ०। क्षोदरसः इक्षुरसः तन्निष्पन्न आसवोऽपि सुपक्वेक्षुरसः। मद्यभेदे, जी०३ सुद्धोयणि-पुं०(शौद्धोदनि) "उत्सौन्दर्यादौ" ||8111160 // इत्यनेन | प्रति०४ अधि०। औकारस्य उकारः / प्रा० / शाक्यसिंहनामके गौतमगोत्रोत्पन्ने बौद्धे, बाद्ध, | सुपक्काक्खोदरसवरसुरा-स्त्री०(सुपक्वक्षोदरसवरसुरा) सुप-रिपाकागतो आचा०१ श्रु०२ अ०५ उ०। सूत्र०। यः क्षोदरसः- इक्षुरसस्तन्निष्पन्ना वरसुरा सुपक्वक्षोदरसवरसुरा / सुधीरधम्म-त्रि०(सुधीरधर्मन्) धी:-बुद्धिस्तया राजते इतिधीरः, धीरः सुपरिपाकागतेक्षुरसनिप्पन्नायां श्रेष्ठसुरायाम, जी०३ प्रति०४ अधि०। सुप्रतिष्ठितो धर्मः श्रुतचारित्राख्यो येषां ते सुधीरधर्माणः / श्रुतचारित्रा सुपकाल-त्रि०(सुपक्व) शोभनपरिपाके, आव०४ अ०। ख्यधर्मवत्सु। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०॥ सुपकेक्खुरस-पुं०(सुपक्वेक्षुरस) सुपक्वेक्षुमूलदलनिष्पन्ने रसे, प्रज्ञा० सुपइट्ठ-न०(सुप्रतिष्ठ) लोकोत्तरेभाद्रपदेमासे, कल्प०१अधि०६क्षण / १७पद 4 उ०। सू० प्र०। स्वनामख्याते नगरे, यत्र सिंहसेनकुमारपिता महासेननामा सुपक्खजुत्त--पुं०(सुपक्षयुक्त) सुशीलानुकूलपरिवारोपेते, ध०२०। राजा अभूत्। विपा० १श्रु०६ अ०। (तत्कथा 'देवदत्ता' शब्दे चतुर्थभागे 2818 पृष्ठे गता।) श्रावस्त्यां नगाँ जाते गृहपतौ, अन्त०६ वर्ग 10 __ सचचतुर्दशो गुणःअ०। (स च वीरान्तिके प्रव्रज्य सप्तविंशतिवर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य अणुकूलधम्मसीलो, सुसमायारो य परियणो जस्स। विपुले पर्वते सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य पञ्चमेऽध्ययने सूचितम्।) एस सुपक्खो धम्म, निरंतरायं तरह काउं॥२१॥ पुष्पपात्रविशेष,जं०२ वक्ष०। इह पक्ष परिवारः परिकर इत्येकोऽर्थः,शोभनः, पक्षो यस्य स सुपक्षः। सुपइट्ठग-न०(सुप्रतिष्ठक) आधारविशेषे, रा०। तमेव विशेषेणाह-अनुकूलोधर्माविघ्नकारीधर्मशीलोधार्मिकः सुसमातेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो सुपतिहगा पण्णत्ता, तेणं चारः सदाचारचारी परिजनः-परिवारो यस्य एष सुपक्षोऽभिधीयते। स सुपतिहगा णाणाविहपसाहणमंडविरइया इव चिहुं ति चधर्म निरन्तरायं निष्प्रत्यूह 'तरइ' त्ति शक्नोति कर्तृमनुष्ठातुंभद्रनन्दिसव्वोसहिपडिपुण्णा सव्वरयणामयाअच्छा० जावपडिरूवा! कुमारवदिति। ध० र० 1 अधि० 14 गुण। 'तेसि णमि' त्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ सुप्रतिष्ठको- | सुपडिबद्ध-त्रि०(सुप्रतिबुद्ध) सुष्ठुप्रतिबुद्धः सुप्रतिबुद्धः आचा०१N० आधारविशेषौ प्रज्ञप्तौ, तेच सुप्रतिष्ठकाः सुसरूषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः 5 अ०२ उ०। सुज्ञाततत्त्वे काकन्दिकापरनामक आर्यस्वहस्तिशिष्ये, पञ्चवर्णैः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, उपमाभावना प्राग्वत्। कल्प० 2 अधि०८ क्षण। 'सव्वरयणा मया' इत्यादि, तथैव / रा० / स्थापनके, जं०२ वक्ष०।। सुपणिहि-पुं०(सुप्रणिधि) प्रणिधानं, प्रणिधिः शोभनः प्रणिधिः "सुपइट्ठा वा संठिइए लोए" तचेहारोपितजवारकादि गृह्यते। भ० 11 सुप्रणिधिः / शोभनप्रणिधाने, दशा० 4 अ०। श० 10 उ०। शरावयन्त्रके, तचेह उपरिस्थापितकलशादिकं ग्राह्यम्। सुपणिहिइंदिय-त्रि०(सुप्रणिहितेन्द्रिय) श्रोत्रादिभिः स्वविषय गाढमुपभ०७ श०१ उ०। युक्ते, दश०५ अ०२ उ०। सुपइहाम-न०(सुप्रतिष्ठाभ) उत्तरयोः कृष्णराज्योर्मध्ये लोकान्तिक सुपण्ण-त्रि०(सुप्रज्ञ) सुष्ठु शोभना वा प्रज्ञाऽस्येति सुप्रज्ञः स्वसमयविमाने, यत्र आज्ञता देवता निवसन्ति। स्था०८ ठा०३ उ०। भ०। स०। परसमयवेदिनि गीतार्थे, सूत्र०१श्रु०६ अ०। शोभनप्रज्ञे भाषाद्वयोपेते, सुपइडिय-त्रि०(सुप्रतिष्ठित) सुष्ठु मनोज्ञता प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः। सूत्र० 1 श्रु०१४ अ०1 जी०३ प्रति० 4 अधि०। जं०। सत्प्रतिष्ठानवत्सु, तं०। रा०! सुपण्णत्त-त्रि०(सुप्रज्ञप्त) सुष्ठुप्रकारेण कथिते, आचा०१ श्रु०८ अ०१ सुपइट्ठियजस-त्रि०(सुप्रतिष्ठितयशस) अव्याहतख्यातिके, प्रश्न० 2 उ० / सुष्ठु प्रज्ञप्ता यथाचारे ख्याता तथैव सुष्ठ सूक्ष्मपरिहारासेवनेन संव० द्वार। प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थः / अनेकार्थत्वाद्धातूनां ज्ञपिरासेवनार्थः / सुपइय-पुं०(सुपतित) सूर्यस्य ज्योतिष्क्रेन्द्रस्य पूर्वभवजीवे श्रावस्ती- दश० 4 अ01 वास्तव्ये स्वनामख्याते गृह पतौ, नि०१श्रु०३वर्ग 1 अ० ('सूर' शब्दे | सुपत्था-स्त्री०(सुप्रस्था) अधोवास्तव्यायां दिक्कुमारिकायाम्, ति०। कथा वक्ष्यते।) सुपभकंत-पुं०(सुप्रभकान्त) हरिकान्तेन्द्रलोकपाले, हरिसहेन्द्रस्यापि *सुप्रतीत-पुं० अहोरात्रस्य पञ्चमे मुहूर्ते, कल्प०१ अधि०६क्षण / लोकपाले, स्था०४ ठा०१ उ०। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुपम्ह 161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुप्पगय सुपम्ह-पुं०(सुपद्म) अश्वपुरराजधानीयुक्ते विजयक्षेत्रे, स्था०२ ठा०३ सुपासे णं अरहा दो धणुसयाई उद्धं उच्चत्तेण होत्था / स० उ०। जम्बूद्वीपे मेरोः पश्चिमभागस्थे सीतोदाया महानद्या दक्षिणभागस्थे 150 सम०। चक्रवर्तिविजयक्षेत्रे, स्था० 8 03 उ०। स्वनामख्याते ब्रह्मलोक- सुपासस्स णं अरहओ छलसीइ वाइसया होत्था / स०५६ विमाने, नपुं० / स० 6 सम०। सम०1 दोह सुपम्हा। स्था०२ठा०३ उ०। सुपासा-स्त्री०(सुपाचर्चा) पापित्यीयायां पार्श्वनाथशिष्यः शिष्यायाम, सुपरकंत-त्रि०(सुपराक्रान्त) सुष्ठु पराक्रान्तं पराक्रमः तपः प्रभृतिक स्था०। येषु तानि / शोभनपराक्रमवत्सु, भ०३ श०१ उ० / अजा विणं सुपासा पासावचिज्जा आगमेस्साए उस्सप्पिणीए सुपरिउड-त्रि०(सुपरिवृत)निरुपद्रवस्थाननिवेशिते, गृहस्थावस्थास्थ- चाउज्जाम धम्म पनवित्ता सिजिहिति० जाव अंतं काहिति / शालिभद्रवपुर्वत् / तं०। (सू० 6624) सुपरिचाइ-त्रि०(सुपरित्यागिन्) सुष्ठु शोभनेन प्रकारेण राज्यादि आर्याऽपि- आर्यिकापि सुपाचा सुपाश्र्वाभिधाना-पापित्यीया परित्यजतीत्येवंशीलः सुपरित्यागी / शोभनप्रकारेण परित्यागवति, पार्श्वनाथशिष्यशिष्याः चत्वारो यामा महाव्रतानि यत्र स चातुर्यामस्तं उत्त०१८ अ०। प्रज्ञाप्त सेत्स्यन्ति। एतेषु च मध्यमतीर्थङ्करत्वेनोत्पस्यन्ते केचित्केचित्तु सुपरिच्छियकारग-त्रि०(सुपरीक्षितकारक) सुष्ठु देशकालपुरुषौ- केवलित्वेन "भवसिद्धिओ उ भयवं सिज्झिस्सइ कण्हतित्थम्मि'' इति चित्येन श्रुतबलेनच परीक्षितं तस्य कारकः सद्यःनयथाकथंचनकारी। वचनादिति भावः / स्था०६ ठा० 3 उ०। तस्मिन्, व्य०३ उ०। (तत्स्वरूपम् ‘ववहार' शब्दे षष्ठभागे उक्तम्।) सुपिवासिय-त्रि०(सुपिपासित) सुतरामतिशयेन पिपासितः / अत्यन्त सुपरिट्ठिय-त्रि०(सुपरिस्थित) शोभनतया परिस्थिते, नि० चू०१उ०। तृषिते, उत्त०२ अ०। सुपरिणिट्ठिय-त्रि०(सुपरिनिष्ठित) अतिनिपुणे, कल्प०१ अधि०१क्षण। सुपीढ-पुं०(सुपीठ) पञ्चमेऽहोरात्रमुहूर्ते, जं०७ वक्ष० / सुपरिसुद्धि-स्त्री०(सुपरिशुद्धि) सुष्ठु विशुद्धौ, पञ्चा० 11 विव०। सुपुत्त-पुं०(सुपुत्र) सुशिक्षितत्वात् शोभनसूनौ, स्था०६ ठा०३ उ०। सुपसत्थ-त्रि०(सुप्रशस्त) अतिशयशुभे, पञ्चा० 16 विव० / आव० / सुपुरिस-पुं०(सुपुरुष) दाशिणात्यानां किंपुरुषाणामिन्द्रे, स्था० 4 ठा० सुपावय-त्रि०(सुपापक) पापयुते, उत्त० 12 अ०। 'कोहो य माणो य 10 / उत्तमतरे, पञ्चा० 12 विव० / वहो यजेसिं, मोसं अदत्तं च परिगहं च। ते माहणा जाइ-विजाबिहूणा, सुपरिसपुर-न०(सुपुरुषपुर) स्वनामख्याते, नगरे, यत्र नग्नजिद्राजा ताई तु खेत्ताइँ सुपावयाई // 1 // " उत्त० 12 अ०। निवसति / आ० चू० 4 अ० / सुपास-पुं०(सुपार्श्व) स्वनामख्याते तीर्थकरे, आ० म०। सुपेसल-त्रि०(सुपेशल) सुतरामतिशयेन पेशलानि मनोहराणि / सम्प्रति सुपार्श्वः तस्यायमोघतो नामान्वर्थः- शोभनानि पाणि अत्यन्तमनोहरे, उत्त० 12 अ०। यस्यासौसुपार्श्वः। तत्र सर्व एव भगवन्त एवंभूतास्ततो विशिष्ट नामान्वर्थ सुप्प-न०(सूर्प) धान्यशोधकभाजनविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०८अ०। सूत्र० / मभिधित्सुराह नि० चू० / प्रश्न / आचा० गब्भगए जं जणणी, जायसुपासा ततो सुपासजिणो।। सुप्पअ--त्रि०(सूर्पक) सूर्यं कृत्वा त्यज्यमाने बालके, यः शूर्प कृत्वा यतो गर्भगते भगवति तत्प्रभावतो जननी जाता सुपार्वा शोभनपाव त्यज्यते तस्य सूर्पक एव नाम स्थाप्यते / अनु० / ततो जिनः सुपार्श्व इति नाम विषयीकृत एवं सामान्याभिधानं विशेषा सुप्पइट्ट-पुं०(सुप्रतिष्ठ) सूर्यदेवस्य पूर्वभवे जीवे, स्था० 10 ठा०३ उ०। भिधानं वाऽधिकृत्यान्वर्थाभिधानविस्तरो भावनीयः / आ० म० 1 सुप्पइग-न०(सुप्रतिष्ठक) आधारविशेषे, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। अ०। आ० चू० / ध० / जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे अस्यामवसर्पिण्यां जाते सप्तमे तीर्थंकरे, अनु० प्रव०। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां सुप्पइडिय-त्रि०(सुप्रतिष्ठित) शोभनतया श्रेष्ठ, 'सुपइडियकुम्म व्व जाते भविष्यतृतीयतीर्थकरे, स०। प्रव०। ति०। जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे चारुचरणा'' सुष्ठ शोभनं यथा भवति एवं प्रतिष्ठिताः कर्मवत् उन्नतत्वेन तृतीयायामुत्सर्पिण्यां जाते तृतीये कुलकरे , स०। स्था०। महावीरस्य चारवश्चरणाः पादा येषां ते तथा / जी०३ प्रति० 4 अधि०। पितृव्ये, आचा०२ 03 चू०। कल्प०। (सुपार्श्वस्य सर्वा वक्तव्यता | सुप्पइण्णा-स्वी०(सुप्रतिज्ञा) दक्षिणरुचकसंबन्धिकाञ्चनकूटवास्त'तित्थयर' शब्दे चतुर्थभागे 2247 पृष्ठे उक्ता।) "तइओ उदाइजीवो। ___ व्यायां महर्द्धिकदिक्कुमारिकायाम्, स्था०८ ठा० 3 उ० / जं०। सुपासो" तृतीय उदायिजीवः सुपार्श्वः भविष्यति / ती० 20 कल्प। सुप्पउत्त-त्रि०(सुप्रयुक्त) सुष्ठु प्रयुक्तं प्रयोगो व्यापारो यस्य स तथा। स्था० / सुपार्श्वस्य पञ्चनवतिर्गणाः, पञ्चनवतिर्गणधराश्च / ति०।। शोभनव्यापारवति, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० / सुपासस्स णं अरहओ पंचाणउइ गणा पंचणउइ गणहरा | सुप्पगय-न०(सूर्पगत) सूकारे व्यजने, "सुप्पगयकण्णाकारं भण्णति। होत्था। स०१४ सम०। सव्वजणक्यप्पसिद्धं तेण वायं करेति" / नि० चू० 1 उ० / Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्पडिबुद्ध 962- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुप्पबुद्धा सुप्पडिबुद्ध-पुं०(सुप्रतिबुद्ध) आर्यसुहस्तिनः शिष्ये, कल्प०२ अधिक यस्याः सा सूर्पणखा / स्वनामख्यातायां रावणभगिन्याम् , ती० 27 8 क्षण / "तद च सुहस्तिशिष्यौ, कौटिककाकन्दिकावजायेताम्। कल्प। सुस्थितसुप्रतिबुद्धौ, कौटिकगच्छस्ततः समभूत।।१।।" ग०३ अधि०।। सप्पणिहाण-न०(सुप्रणिधान) सुष्ठ-शोभनं प्रणिधानं सुप्रणिधानम्। सुप्पडियाणंद-त्रि०(सुप्रत्यानन्द) उपकृतेन कृतोपकारस्य मन्तरि, . पं० सू०१ सू०। प्रणिधानविशेषे, स्था०। स्था० 4 ठा०३ उ०। तिविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा- मणसुप्पणिहाणे, सुप्पडियार-न०(सुप्रतिकार) सुखेन प्रतिक्रियते- प्रत्युपक्रियते इति / वयसुप्पडिहाणे कायसुप्पणिहाणे / संजयमणुस्साणं तिविहे सुप्रतीकारम्, भावसाधनोऽयं तद्भवति। प्रत्युपकारकरणे, स्था०।। सुप्पणिहाणे पण्णत्ते,तं जहामणसुप्पणिहारे, वयसुप्पणिहाणे, अहे णं से तं अम्मापियरं के वलिपन्नत्ते धम्मे आधवइत्ता कायसुप्पणिहाणे (139x) स्था० 3 ठा०१ उ०। पन्नवित्ता परुवित्ता ठावइत्ता भवति। तेणामेव तस्स अम्मापिउस्स चउविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते,तं जहा-मणसुप्पणिहाणे०जाव सुप्पडियारं भवति समणाउमो !! (सू०१३५४) उवगरणसुप्पणिहाणे / एवं संजयमणुस्साण वि / सू० 2544 / 'अहे णं से' त्ति-अथ चेत् णमित्यलङ्कारे स पुरुषस्तम्-अम्बापितरं शोभनं संयमार्थत्वात्प्रणिधानं मनः प्रभृतीनां प्रयोजनं सुप्रणिधानधर्मेस्थापयिता-स्थापनशीलो भवति, अनुष्ठानतः स्थापयतीत्यर्थः / मिति / इदञ्चसुप्रणिधानं चतुर्विंशतिदण्डकनिरूपणाय मनुष्याणांतत्रापि किं कृत्वेत्याह-'आघवइत्ता' धर्ममाख्याय-प्रज्ञाप्त बोधयित्वा-प्ररूप्य संयतानामेव भवति चारित्रपरिणतिरूपत्वात् सुप्रणिधानस्येत्याह-एवं प्रभेदत इति। अथवा-आख्याय सामान्यतो यथा कार्यो धर्मः, प्रज्ञप्ता संजयेत्यादि। स्था० 4 ठा० 1 उ०। विशेषतो यथाऽसावहिंसादिलक्षणः प्ररूप्य प्रभेदतो यथा अष्टादशशी- कइविहे णं भंते ! सुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे लाङ्गसहस्ररूप इति, शीलार्थतन्नन्तानि वैतानीति / तेणामेव' त्ति- सुप्पणिहाणे पण्णत्ते, तं जहा- मणसुप्पणिहाणे, वयततस्तेनैव धर्मस्थापनेनैव न परिवहनेन। अथवा- तेनैव धर्मस्थापक- सुप्पणिहाणे, कायसुप्पणिहाणे / मणुस्साणं भंते ! कइविहे पुरुषेण नपरिवाहिना तस्य-प्रत्युपकरणीयस्याम्बापितुः 'सुप्पडिया' सुप्पणिहाणे पण्णत्ते ? एवं चेव० जाव वेमाणियाणं / (सू० ति-सुखेन प्रतिक्रियत प्रत्युपक्रियत इति सुप्रतिकारं, भावसाधनोऽयं, 6334) भ०५ श०७ उ०। तद्भवति प्रत्युपकारः कृतो भवतीत्यर्थः, धर्मस्थापनस्य महोपकारत्वाद् / सुप्रणिधानं शोभनेन प्रणिधानेन नात्र कालो नियम्यते किंतु सुप्रणिआह च-"समत्तदायगाणं, दुप्पडियारं भवेसु बहुएसुं। सव्वगुणमेलिया धानमिति यदा यदा क्रियते तदा तदा सुप्रणिधानं कर्त्तव्यमित्यर्थः / हि वि, उवगारसहस्सकोडीहिं॥१॥" इति 1 / स्था०। सुप्रणिधानस्य फलसिद्धौ प्रधानाङ्गत्वात् / उक्तं च- "प्रणिधानकृतं अहे णं ते तं मट्टि केवलिपन्नत्ते धम्मे आधवइत्ता पनवइत्ता कर्म, मतं तीव्रविपाकवत् / साऽनुबन्धननियमाच्छुभांशाच्चैतदेव तत् परूवइत्ता ठावइत्ता भवति। तेणामेव तस्स मट्टिस्स सुप्पडियारं ||1 // " | इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यम् ? इत्याह-कर्तव्यमिदं भूयो भूयः,भवति, २(स्था०) अहे णं से तं धम्मायरियं केवलिपन्नत्ताओ पुनः पुनः संक्लशे सति तीव्ररागादिसंवेदनरूपे अरतावुत्पन्नायामिति धम्माओ भट्ठ समाणं मुझो वि केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवतित्ता० यावत्। तथा त्रिकालं-त्रिसन्ध्यं कर्तव्यमिदम् / पं० सू०१सू०। जाव ठावतित्ता भवति तेणामेव तस्स धम्मायरियस्स सुप्पडियारं सुप्पणिहियजोगि-त्रि०(सुप्रतिहितयोगिन्) सुप्रणिहितप्रव्रजिते, दश० भवति 3 / (सू०१३+) अ० 1 उ०। धर्मस्थापनेन तु भवति कृतोपकारः। यदाह-"जो जेण जम्मिठाण | सुप्पतिह-त्रि०(सुप्रतिष्ठ) शोभनावस्थाने, पञ्चा०८ विव०॥ म्मि ठाविओ दंसणे व चरणे वा। सो तं तओ चुर्य त-म्मि चेव काउं भवे निरिणो ॥१॥"त्ति, शेषं सुगमत्वान्न स्पष्टमिति धर्मस्थापनेन चास्य | सुप्पदत-पु०(सूर्पदन्त) क्षीरवरद्वीपस्य देवे, सू० प्र०१६ पाहु०॥ भवच्छेदलक्षणः प्रत्युपकारः कृतः स्यादिति। स्था० 3 ठा०१ उ०।। सुप्पदत्ता-स्त्री०(सुप्रदत्ता) दक्षिणरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, आo सुप्पडिलहिय-त्रि०(सुप्रत्युपेक्षित) सुष्ठ प्रत्युपेक्षणे हेयोपादेयतया | 01 अ०। आ० म०1द्वी०। आ० चू०। तीर्थकवादे सर्वज्ञवादे, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। सुष्ठु शङ्कादि- सुप्पबुद्ध-न०(सुप्रबुद्ध) उपरितनमध्यमग्रैवेयकविमाने, स्था०६ ठा० व्युदासेन प्रत्युपेक्षितम् / सुष्ठु सामीप्येन ज्ञाते शुद्धप्रत्युपेक्षणया प्रत्यु- 3 उ०। पेक्षिते, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०१उ०। सुप्पबुद्धा-स्त्री०(सुप्रबुद्धा) दक्षिणरुचकपर्वतस्य सिद्धायतनकूटवास्तसुप्पडिवेसिय-त्रि०(सुप्रतिवेशित) शोभना-शीलादिसम्पन्ना प्राति व्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, जं०५ वक्ष० / आ० म० / द्वी० / आ० वेश्मिका यत्र / शोभनप्रतिवेश्मिके, ध०१अधि०। क०। सुष्ठु अतिशयेन प्रबुद्धा उत्फुल्लयोगादियमप्युत्फुल्ला। जम्ब्वां सुप्पणहा-स्त्री०(सूर्पणखा) सूर्पमिव धान्यशोधकभाजन-विशेषवन्नखा सुदर्शनायाम्, जं०। Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुप्पभ ९६३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुभग सुप्पम-पुं०(सुप्रभ) भरतक्षेत्रे आगामिन्यामुत्यर्पिण्यां भविष्यति तृतीये विशुद्ध्यादीन् भ्रंशयति- विनाशयतीत्येवंशीलः सुबहूत्तरगुणभंशी। कुलकरे, स्था०७ ठा०३ उ० / विद्युतकुमारेन्द्रयोः हरिकान्तहरि- पिण्डविशुद्ध्यादिनाशके, जीत०। शिखरयोदक्षिणदिग्लोकपाले, भ०३ श०८ उ०। उत्सर्पिण्यां जाते | सुबहुस्सुय-त्रि०(बसुहुश्रुत) अतिशयागमज्ञे, जीवा०२० अधि०। चतुर्थबलदेवे, ति०। सुबाहु-पुं०(सुबाहु) ऋषभपूर्वभवजीवस्य वज्रनाभस्य भ्रातरि, आ० चू० सुप्पमेणं बलदेवे एकावन्नवाससयसहस्साइं परमाउंपालइत्ता 1 अ० / बाहुबलिपूर्वभवजीवे, पञ्चा० 16 विव० / ('उसह' शब्दे सिद्धे बुद्धे०जाव सव्वदुक्खप्पहीण जाए। (सू०५१४) द्वितीयभागे 1115 पृष्ठेऽस्य कथा गता।)"बाहोर्बलं सुबाहुश्च, साधुवि'सुप्पहे' त्ति-चतुर्थो बलदेवः अनन्तजिननाथकालभावी तस्येहैकप श्राणनां व्यधात्।" आ० क०१ अ०। भरतपूर्वभवजीवे, आ० चू०१ चाशद्वर्षलक्षाण्यायुरुक्तम्, आवश्यके तु पञ्चपञ्चाशदुच्यते तदिदं अ०।महापीठेन सह जातायामृषभदेवस्य कन्यायाम, आ० चू०११०। मतान्तरमिति / स० उत्सर्पिण्यां भावष्यच्चतुर्थबलदेव, स०। ती०। रुक्मिकुणालराजस्य दुहितरि च ! स्त्री०। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०॥ ति०। इक्षुवरद्वीपस्य देवे, सू० प्र०१६ पाहु०। द्वी० 1 शिखरितल- सुबाहुकुमार-पुं०(सुबाहुकुमार) धारिण्यां देव्यां जाते अदीनशत्रोः सुते, पर्वतकूटदेवे, द्वी० आ० चू०। विपा०२ श्रु०१अ०। सुप्पभकंत-पुं०(सुप्रभकान्त) विद्युतकुमाराणां देवे, भ०३ श०८ उ०। सुबुद्ध-त्रि०(सुबुद्ध) सम्यक्ज्ञाते, पं०व०४ द्वार। हरिसहहरिकान्तयोरिन्द्रस्य लोकपाले, स्था० 4 ठा०१3०। सुबुद्धि-पुं०(सुबुद्धि) इक्ष्वाकुवंशोत्पन्नस्य प्रतिबुद्धिनाम-राजस्यामात्ये, सुप्पभा-स्त्री०(सुप्रभा) धरणेन्द्रस्य नागकुमारेन्द्रस्य काल-महाकाल ज्ञा०१७०८ अ०। सागरचक्रवर्तिनो महामात्ये, न०1ऋषभप्रपौत्रशङ्खपालशैलपालानां लोकपालानामग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा०१ उ०। श्रेयांसपालितहस्तिनापुरवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, कल्प०१ अधि०७ क्षण। तृतीयबलदेवस्य मातरि, स०। आव० / अजितस्वामिनः शिविका ध०२०। याम्, स०। सुबोहिया-स्त्री०(सुबोधिका) विनयविजयनिर्मितायां कल्पसूत्रटीसुप्पमजिय-त्रि०(सुप्रमार्जित) सुष्ठु प्रमार्जिते, आचा०२ श्रु०१चू०१ कायाम्, कल्प०३ अघि०६ क्षण। "प्रणम्य परमश्रेयस्करं श्रीजगदीअ०१उ०। श्वरम्। कल्पे सुबोधिकां कुर्वे, वृत्तिं बालोपकारिणीम।।१।।" कल्प०१ सुप्पबुद्ध-पुं० (सुप्रबुद्ध) उपरितनमध्यमग्रैवेयकविमानप्रस्तटे, स्था०६ अधि०१क्षण। ठा०.३ उ०।सुष्ठु-अतिशयेन प्रबुद्धेव प्रबुद्धा मणिकनकरत्नानां निरन्तरं सुब्मि-त्रि०(सुरभि) सुरभिगन्धपरिणते, यथा श्रीखण्डादयः / प्रज्ञा०१ सर्वतश्चाकचिक्येन सर्वकालमुन्निदे, त्रि०जी०३ प्रति०२ उ०। पदा आचा०। सुप्पबुद्धा-स्वी०(सुप्रबुद्धा) दक्षिणरुचकसम्बन्धिकाञ्चनकूटवास्तव्यायां सुब्भिगंध-पुं०(सुरभिगन्ध) सौमुख्य कारके गन्धभेदे, स्था०१ ठा०। आचा०। महर्द्धिकदिकुमारिकायाम्, स्था० 8 ठा०३ उ०। *सुरभिगन्धि-त्रि० सुरभिगन्धपरिणते, प्रज्ञा०१पद। स्था०। सुप्पसारय-त्रि०(सुप्रसारक) सुखेन प्रसार्यते पिण्डादिग्रहणार्थं प्रवर्त्यते इति सुप्रसारः। सुप्रसार एव सुप्रसारकः। उत्त०२ अ०॥सुखेन प्रसार्ये, सुन्भिसह-पुं०(सुरभिशब्द) मनोज्ञशब्दे, शुभशब्दे, स्था० 1 ठा०। उत्त०२ अ० प्रज्ञा०। *सुप्रसार्य-त्रि० सुखेन प्रसारितुंयोग्ये, उत्त०२ अ०। सुभ-न०(सुख) पुण्यप्रकृतिरूपे, स्था० 4 ठा०४ उ०। कथं सुख-दुःखे कारणस्य स्वपर्यायः? उच्यते-जीवपुण्यसंयोगः सुखस्य कारणं तस्य सुप्पसिद्धा-स्वी०(सुप्रसिद्धा) अभिनन्दनस्वामिनः शिविकायाम्, स०। च सुखपर्याय एव। विशे०। सुप्पाव-त्रि०(सुप्राप) सुलभे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। कृच्छूलभ्ये, *शुभ-त्रि० मङ्गलभूते, जी०३ प्रति०४ अधि० शोभमाने, कल्प०१ स्था०६ठा०३ उ०। अधि०३ क्षण / पार्श्वस्वामिनः प्रथमगणधरे, पुं० / कर्म०५ कर्म०। सुप्पिय-पुं० (सुप्रिय) अहोरात्रस्य पञ्चमे मुहूर्ते, स०३० सम०। नमिनाथस्य प्रथमगणधरे, स०। सफणि-न०(सुफणिन्) सुष्ठ सुखेन वा फण्यते--काथ्यते तक्रादिकं यत्र / सभंकर-न०(शभंकर) दक्षिणयोः कृष्णराज्योर्मध्ये वरुणलोकान्तिक सत्सुफणि। स्थालीपिठरादिके भाजने, सूत्र०१ श्रु०४ अ०२ उ०। देवानामावासीभूते विमाने, स्था०८ ठा० 3 उ०। सुबन्धु-पुं०(सुबन्धु) द्वितीयबलदेवस्य पूर्वभवधर्माचार्ये, ति० / बिन्दु- सुभकम्म-न०(शुभकर्मन्) शुभवेद्यकर्मणि, सू०प्र० 19 पाहु०। सारराजस्यामात्ये, दश०३ अ01 सुभक्खण-पुं०(सुभक्षण) षष्ठे ऋषभदेवसूनौ, कल्प० 1 अधि०७ क्षण। सुबद्ध-त्रि०(सुबद्ध)सुतरांशुद्धे, सुबद्धसन्धिः सुबदौस्नायुभिः संधी यस्य सुभखेत्त-न०(शुभक्षेत्र) शुभस्थाने, सू०प्र०१६ पाहु०। स सुबद्धसन्धिः / प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। सुभग-न०(सुभग) पद्मविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि० / आ० म०। सुबलि-पुं०(सुबलिन्) सुष्ठु बलवति, सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। प्रज्ञा०रा०ा जं०। वरधनुःपितृमित्रे परिव्राजके, पुं०। उत्त०१३ अ०। सुबहुत्तरगुणब्भंसी-त्रि०(सुबहूत्तरगुणभ्रंशिन्) सुबहूत्तरगुणान् पिण्ड- सौभाग्यगुक्ते, त्रि०। चं० प्र० 20 पाहु० / सू० प्र० / जनवल्लभे, स०। Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभगचउक्क 164 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुभसीलगणि सुभगचउक्का-न०(सुभगचतुष्क) सुभगसुस्वरादेययशःकीर्तिरूपे चतुष्के, कर्म० 5 कर्म। सुभगजालुज्जाल-पुं०(सुभगजालोज्ज्वाल) सुभगानिदृष्टि कराणि यानि जालानि मुक्तागुच्छस्तैिरुज्ज्वालः। नेत्रसुखकारिमुक्तागुच्छोज्वाले, कल्प०१ अधि०२ क्षण। सुभगजोग-पुं०(सुभगयोग) सद्व्यापारे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। सुभगणाम-न०(सुभगनामन्) सुभगात् सुभगनामोदयेन सर्वजनेष्टो भवति, यदुदयादनुपकार्यपि सर्वस्यमनःप्रियो भवतितत्सुभगनामेत्यर्थः। तदभ्यधायि "अणुक्कए वि बहूणं, होइ पिओ तस्स सुभगनामुदओ' त्ति "सुभगुदए विहु कोइ, कंची आसज्जदूभगोजइ वि। जायइ तद्दोसाओ, जहा अभव्वाण तित्थयरो।१।।" "सुभगाओ सव्वजणइट्ठो"कर्म०१ कर्म० / नाभेरुपरितनभागादिषु / श्रा० / प्रव० / सुभगतिग-न०(सुभगत्रिक) सुभगसुस्वरादेयस्वरूपे त्रिके, कर्म०५ कर्म०। सुभगा-स्त्री०(सुभगा)लताभेदे, प्रज्ञा०१ पद। सुरूपना, म्रो भूतेन्द्र स्याग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सुभगाकारा-स्त्री०(सुभगाकारा) सुभगमाकरोतीति सुभगाकारा। दुर्भग वस्तुनः सुभगकारिकायां विद्यायाम, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सुभगुरुजोग-पुं०(शुभगुरुयोग) सुन्दरधर्माचार्यसम्बन्धे, पञ्चा० 4 विव०। विशिष्टचारित्रयुक्ताचार्यसंबन्धे, ल01 सुभधोस-पुं०(शुभघोष) पार्श्वनाथस्य द्वितीये, गणधरे, स०८ सम०। सुभजोग-पुं०(शुभजोग) कुशलव्यापारे, पं०व०२ द्वार! सुभड-पुं०(सुंभट) शोभनयोद्धरि, सूत्र०१ श्रु०३ अ० 1 उ०। सुभडपाल-पुं०(सुभटपाल) त्रिशतजिनभवनचतुःशतलौकिकप्रसादाष्टादशशतविप्रगृहषट्त्रिंशच्छतवणिग्गेहनवशतारामसप्तशतवापीद्विशतकूपसप्तशतसत्रागारविराजमानस्य अजमेरुनिकटवर्तिनो हर्षपुरस्याधिपतौ, यत्र पुरे श्रीप्रियग्रन्थसूरयोऽभ्युपेयुः। कल्प०२ अधि०८ क्षण। सुभणाम-न०(शुभनामन्) तीर्थङ्करादौ पूज्ये च / स्था० / नामकर्मभेदे, यदुदयानाभेरुपर्यवयवाः शुभा भवन्ति तच्छुभनाम। यच्छिरः प्रभृतिभिः स्पृष्टः परो हृष्यतीति तेषां शुभत्वम् / कर्म०५ कर्म० / नाभेरुपरितनभागादिषु, स्था० 2 ठा० 4 उ० / श्रा०। सुभत्ति-स्त्री०(सुभक्ति) आन्तरप्रीतौ, जीवा०६ अधि०। सुभदीहआउत्ता-स्त्री०(शुभदार्घायुष्कता) दीर्घायुष्कतायाम्, स्था०३ ठा०१ उ०। (व्याख्या 'आउ' शब्दे द्वितीयभागे 12 पृष्ठे गता।) सुभद्द--पुं०(सुभद्र) अधस्तनमध्यमग्रैवेयकविमानप्रस्तटे, स्था०६ ठा० 3 उ० / षष्ठयक्षनिकाये, प्रज्ञा० 1 पद / शाखाञ्जनीनगरीवास्तव्ये | स्वनामख्याते सार्थवाहे शकटपितरि, स्था०१० ठा०३ उ०। विपा०। शिखरितलकूटविशेषदेवे, द्वी० / भद्रबाहुस्वामिनि, पं० चू०१ कल्प। कूणिकपुत्रस्य कृष्णकुमारस्य पुत्रे, (सच वीरान्तिके प्रव्रज्य वर्षचतुष्टयं व्रतपर्यायं परिपाल्य उत्कृष्टमायुरनुपाल्य ततश्च्युतो महाविदेहे सेत्स्यति इति कल्पावतंसिकानां चतुर्थेऽध्ययने सूचितम्।) नि०१ श्रु०२ वर्ग०४ अ०। स्वनामख्याते, विमाने, नपुं०। स०१७ सम०। सुभहा-स्त्री०(सुभद्रा) कोणिकस्य राजयाम्, औ० / अहोरात्रद्वयेन संपाद्यमानेप्रतिमाविशेषे, स्था० 4 ठा०१उ०। सौर्यपुरे धनञ्जयश्रेष्ठिनो भायाम्, आव० 4 अ०। वसन्तपुरवास्तव्यस्य जिनदत्तश्रेष्ठिनस्सुतायाम् आव०५ अ०। पूर्वादिदिक्चतुष्टये प्रत्येकं प्रहरचतुष्टये कायोत्सगकरणरूपायामहोरात्रद्वयमानायां प्रतिमायाम्, स्था०२ ठा०३ उ०। चम्पानगरीवास्तव्यजिनदत्तस्य दुहितरि, आ० चू०५ अ०। (तदुदाहरणं च 'काउस्सग्ग' शब्दे तृतीयभागे 427 पृष्ठे गतम्।) ऋषभदवस्य प्रथमश्राविकायाम, आ०म०१ अ०। कल्प० आ० चू०। वाराणसीनगरीवास्तव्यस्य भद्राभिधानसाथवाहस्यभार्यायाम, साच बन्ध्या पुत्रार्थिनी भिक्षार्थमागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभं पप्रच्छ / स च धर्ममचीकथत् प्रावाजीच सा। स्था० 10 ठा०३ उ० गोशालकमातरि, स्था० 10 ठा० 3 उ० / भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य चित्राख्यलोकपालकस्य स्वनामख्यातायामग्रमहिष्याम्, भ०१० श०५ उ० / भम्भसारपुत्रस्य कोणिकस्य भार्यायाम, ओ०। चम्पायां स्वनामख्यातायां देव्याम्, ती० 34 कल्प / सुदर्शनायां जम्ब्वाम, सुभद्रा शोभनकल्याणभागिनी, नह्यस्याः कदाचिदुपद्रवसंभवो महर्द्धिकेनाश्रितत्वात्। जं० 4 वक्ष० / नन्दायां पुष्करिण्याम् द्वी०। अवन्तिवास्तव्यायामवन्तिसुकुमालमातरि, आ० क० अ०। सौर्यपुरे वास्तव्यस्य, धनञ्जयश्रेष्ठिनः पत्ल्याम्, आ० क० 4 अ० / दक्षिणाञ्जनाद्रेर्दक्षिणभागस्थायां स्वनामख्यातायां पुष्करिण्याम, वी०। वैरोचनेन्द्रस्य बले राज्ञस्सोमस्य महाराजस्य स्वनाम-ख्यातायामग्रमहिष्याम्, स्था०४ ठा0। द्वितीयबलदेवमातरि, आव०१ अ०।बहुपुत्रिकायाः पूर्वभवजीवे सार्थवाहस्य भार्याम्, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ०। (तत्कथा च 'बहुपुत्तिया' शब्दे पञ्चमभागे उक्ता।) भरतचक्रवर्तिनो भार्यायाम, स०। भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कालबालमहाराजस्याग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सुभमइ-पुं०(शुभमति) ऋषभदेवस्य नवाशीतितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि० ७क्षण। सुभमग्ग-पुं०(शुभमार्ग) ज्ञानस्य प्राधान्यं व्यवहारस्य च गौणता यत्र भवतिस शुभमार्गः। उत्तममार्गे, द्रव्या० 1 अध्या०। सुभय-त्रि०(सुभग) सौभाग्ययुक्ते, भ०१२श०६ उ०। सुभल-पुं०(सुभल) शेखरके मस्तकाभरणविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०॥ सुभवेयणतर-त्रि०(सुखवेदनतर) अतिशयितः सुखेन मोहजन्योन्मादापेक्षया अक्लेशेन वेदनमनुभवनं यस्यासौ सुखवेदनतरः। मोहजनितग्रहापेक्षया अकृच्छानुभवनीयतरे, भ०१श०७ उ०। सुभसीलगणि-पुं०(शुभशीलगणिन्) तपागच्छीयमुनिसुन्दर-सूरिशिष्ये, येन स्नात्रपञ्चाशिका पञ्चास्तिकायप्रबोधो भरहेश्वरस्तोत्रवृत्तिश्चेत्यादयो ग्रन्था रचिताः। विक्रम 1521 संवत्सरे अयं वर्तमान आसीत्। जै० इ० / Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुभा 965 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुमइ सुभा-स्त्री०(शुभा) रमणीयविजयराजधान्याम्, जं०१ वक्ष० / दो सुभाओ। स्था०२ ठा०२ उ०। सुभाविय-त्रि०(सुभावित) तत्त्वभणनात्सुष्ठ भाविते, औ०। सुभावियचित-त्रि०(सुभावितचित्त) सुभावितान्तःकरणे, दर्श०४ तत्त्व। सुभासिय-न०(सुभाषित) सुष्टु- अतिशयेन भाषितम्-- प्रतिपादितं | सुभाषितम्। आतु०। शोभनव्यक्तवाग्रूपे, प्रश्न० 2 संव० द्वार। "तीसे सो वयणं सोचा, संजयाणं सुभासियं।" उत्त० 28 अ०। *सुभाश्रित-त्रि० कल्याणयुक्ते, प्रश्न०२ संव० द्वार। *सुखाश्रित-त्रि० सुखसंयुते, प्रश्न०२ संव० द्वार। *सुधाश्रित-त्रि० अमृतमाश्रिते, प्रश्न०२ संव० द्वार। सुभासुभ–त्रि०(शुभाशुभ) शुभवर्णगन्धादिषु अशुभवर्णगन्धादिषु च। भ० श०३२ उ०। सुभिक्ख-त्रि०(सुभिक्ष) शोभना शुभा भिक्षा दार्शनिकानां यत्र तत्। रा०। ज्ञा० / अन्नादीनां सम्भवे, व्य०३ उ० / सुकाले, स्था० 1 ठा०। सुभिक्षसंयुते, ज्ञा०१ श्रु०१अ०।स्था०। औ०। सुलभे, बृ० 1303 प्रक० / धायंति वा सुभिक्खं ति वा एगट्ठा। नि० चू०५ उ०। सुभूम-पुं०(सुभूम) भरते वर्षे अस्यामवसर्पिण्यां जाते कौरव्यगोत्रोत्पन्ने अष्टमचक्रवर्तिनितारायांजनिते कार्तवीर्यपुत्रे, प्रव०२०८ द्वार।दश। ('माण' शब्दे षष्ठभागे कथोक्ता।) सन्ती कुन्थू य अरो, हवइ सुभूमो य कोरवो। स०। सिज्जंसे सत्ततरी, पढमो सिस्सो य गोत्थुभो होइ। छावट्ठीय सुभूमो, बोधव्वा वासुपुजस्स / ति०। सुभूमो मृत्वा नरकं गतः। स्था०२ठा० 4 उ०। सुभूमिभाग-न०(सुभूमिभाग) पृष्ठचम्पाया बहिरुद्याने, सूत्र०१ श्रु०८ | अ०। ज्ञा०। सुमेरव-त्रि०(सुभैरव) अत्यन्तभयानके, उत्त०१६ अ०। सुभोग-न०(सुभोग) शतद्वारस्य नगरस्य बहिरुत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे स्वनामख्याते उद्याने, भ०१५ श०। सुभोगा-स्त्री०(सुभोगा) अधोलोकवासिन्यां दिक्कुमार्याम्, आ० म०१ अ०। आ० क०।आ० चू० ति०। महाविदेहवर्षे माल्यवतो वक्षस्कारपर्वतस्य सागरकूटवासिन्यां दिक्कुमारीदेव्याम्, जं०४ वक्षः। सुभोदय-न०(शुभोदक) तीर्थजले, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सुभोम-पुं०(सुभौम) जम्बूद्वीपे भरते वर्षे आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति स्वनामख्याते द्वितीयकुलकरे, स्था० 7 ठा० 3 अ० / यत्र ग्रामे छद्मस्थत्वेन विहरन्महावीरस्वामी स्त्रीणामग्रतोऽञ्जलिकरणरूपेण गोशालकदोषेण ताडितः। आ० म०१ अ01 सुमि -पुं०(सुरभि) शुभे, प्रश्न० 5 संव० द्वार। सुग्भिगंध--पुं०(सुरभिगन्ध) मनोज्ञगन्धे, स्था० 1 ठा०। सुब्भिसह-पुं०(सुरभिशब्द) सौख्यकृच्छब्दे, स्था०३ ठा० १उ०। सुमइ-पुं०(सुमति) शोभना मतिरस्येति सुमतिः। तथा गर्भस्थे जनन्याः सुनाश्चता मातरभूादात सुमतिःधि०२ अधिक। आ० म०। शोभना मतिरस्येति सुमतिः। सर्व एव च भगवन्तः सुमतय इति विशेषाभिधानप्रतिपादनार्थमाह - जणणी सव्वत्थ विणि-च्छएसु सुमइ त्ति तेण सुमइजिणो। येन कारणेन गर्भगते भगवति सर्वेषु विनिश्चयेषु कर्त्तव्येषु सुमतिरतीव मतिसंपन्ना जाता तेन कारणेन भगवान् सुमतिजिनः, जननीसुमतिहेतुत्वात् सुमतिरिति भावः। शोभना मतिरस्मादभूदिति व्युत्पत्तेः। तथा च वृद्धसम्प्रदायः- "जणणी गभगए सव्वत्थ विणिच्छएसु अतीव मतिसंपन्ना जाया, दोण्हं सवत्तीणं मयपझ्याणं ववहारो छिन्नो। जहा मम पुत्तो भविस्सइ सो जोव्वणत्थो एयस्स असोगवरपायवस्स अहे ववहारं तुभं छिंदिहिति ताव एगाइया उभणइ एवं भवतु, पुत्तमाया नेच्छइ, भणइ-ववहारो छिजउ / ततो भावं नाउण छिन्नो ववहारो दिन्नो तीसे पुत्तो, एवमादी गठभगुणेणं जणणी सुमती जाय त्ति सुमतिनाम कयं।" आ० म०२अ०। अस्याभवसर्पिण्यां भरतक्षेत्रेजाते पञ्चमतीर्थकरे पञ्चा० 16 विव० / स० / नं० / आ० चू० / कल्प० / अनु० / प्रव० / स्था० / स्वनामख्याते राज्ञि, गोशालको देवलोकाच्च्युतः सन् विन्ध्यगिरिपादमूले पुण्ड्रकेषु शतद्वारे नगरे सुमते राज्ञो भद्राया भार्यायाः कुक्षौ पुत्रतयोत्पत्स्यति / भ० 15 श०! स्वनामख्यातेऽनगारे, महा०। से भयवं! जेणं से सुमती से भव्वे उयाहु अभब्वे ? गोयमा! भवे / से भयवं ! जइ ते णं भवे ताणं मए समाणे कहिं समुप्पन्ने ? गोयमा! परमाहम्मियासुरेसु। से भयवं ! किं भव्वे परमाहम्मियासुरेसु समुप्पजइ ? गोयमा ! जे केइ घणरागदोसमोहमिच्छत्तोदएणं सुखासियं पिपरमहि-ओवएसं अवमन्ने ताणं दुवालसंगं च सुयअन्नाणी मइअन्नाणी किरियं अयाणित्ता य समयसम्भावं अणायारं पसंसियाणं तमेव उत्थपेखा, जहा सुमइणा उत्थप्पियं। भवति। एएकुसीले साहुणो। अहाणं एए वि कुसीले तो एत्थजगेन कोइसुसीलो अस्थि, निच्छियं मए एतेहि समंपव्वजानकायव्वा, तहाजारिसोयं निबुद्धिओतारिसो सो वितित्थयरो त्ति एवमुबारेमाणेणंगोयमा! सहतं पितवमणुह्रमाणे परमाहम्मियासुरेसु उववजेज्जा / कहं उववझे ? से भयवं ! परमाहम्मियासुरदेवाणं उबट्टे समाणे से सुमती कह उववजेजा? गोयमा ! तेणं मंदभागेणं अणायार-पंसुत्थपणं करेमाणेणं सम्मम्गपणासणं अभिणंदियतकम्म-दोसेणं अन्नं अणंतसंसारियत्तणमहिनियं, तो कित्तिए उववाए तस्स साहेजा, जस्स णं अणेगपोग्गलपरियमुसु विणत्थिचउगइसंसाराओ अवसाणं ति। Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमइ 666 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुमइ तहा वि संखेवओ सुणसु गोयमा ! इणमेव जंबुद्दीवं दीवे परिक्खिविऊण ठिए जे एस लवणजलही एयस्स णं जधा स सिंधू महानदी पविट्ठा तप्पएसाओ दाहिणेणं दिसाभागेणं पणपन्नाए जोयणेसुं वेइयाए गन्मंतरं अत्थि पस्सिं ताव दायगं नाम अद्धतेरसजोयणपमाणं हत्थिकुंभायारं छल-तस्स य लवणजलोवरि णं अट्ठजोयणाणि उस्सेहो / तहिं च णं अचंतघोरतिमिरंधयाराओ घडियालगसंठाणाओ सीयालीसं गुहा-ओ। तासु च णं जुगलं निरंतरे जलयारिणो मणुया परिवसंति / ते च वञ्जरिसमनारायसंघयणे महाबलपरक्कमे अद्धतेरसरयणीपमाणेणं संखेजवासाओ महुमञ्जमसप्पिए सहावहो इत्थिलोले परमदुय्वन्नसुउमालअणिट्ठखररूसियतणू मायंगवइकयमुहे सीहोरदिट्ठी कयंतभीसणे अनामियपिट्टी असणि व्व निवरपहारा दप्पुद्धरे य भवंति। तेसिं ति जाओ अंतरंडगगोलियाओ ताओ गहाय चमरीणं संतिएहिं सेयपुच्छवालेहि गुंथिऊणं जे केइ उभयकन्नेसु निबंधिऊण महरघुत्तमजबरयणत्थी सागरमणुपविसेना से णं जलहत्थिमहिसगोहिगमयरमहामच्छतंतुसुंसुमारपभितिहिं दुट्ठसावतेहिं अभीए चेव सव्वं पि सागरजलं आर्हिडिऊण जहिच्छाए जचरयणसंगहकरी य अहयसरीरे आगच्छउ। ताणं च अंतरंडगगोलियाणं संबंधेणं ते चरए गोयमा ! अणोवमं सुघोरदारुणं दुक्खं पुष्वजियरोहकम्मवसगा अणुभवंति / से भयवं ! केणं अटेणं ? गोयमा ! तेसिं जीवमाणाणं को समत्थो ताओ गोलियाओ गहेउं / जे जया उण ते घेप्पंतितया बहुविहाहिं नियंतणार्हि महया साहसेणं सन्नद्धवद्धकरवालकुंतचक्काइपहरणट्ठोवेहिं बहुसूरधीरपुरिसेहिं बुद्धिपुरावगेण सजीवियडोलाए घेप्पंति / तेसिं च धिप्पमाणाणं जाइं सारीरमाणसाइंदुक्खाइं भवंति ताइंसवेसु नारयदुक्खेसु जइ परं उवमेजा / से भयवं ! को उण ताओ अंतरं-डगगोलियाओ गेण्हेजा, गोयमा ! तत्थेव लवणसमुद्दे अस्थि रयणदीवं नाम अंतरदीवं तस्सेव पडिसं ताव दावगाओ थलाओ एगतीसाए जोयणसएहिं तन्निवासिणो मणुयाय भवंति। से भयवं / कयरेणं पओगेणं खेत्तसभावसिद्धपुष्वपुरिसेणं च सिद्धणं च विहाणेणं / से भयवं ! कयरे उण से पुथ्वपुरिससिद्धे विही तेसिं ति? गोयमा ! तहियं ति रयणदीवे अत्थि वीसं एगूणवीसं अट्ठारससतधणूपमाणाइंघरट्टसंठाणाई वरवइरसिलासंवुडाइं ताईच विघाडेऊणं ते रयणदीवनिवासिणो मणुया पुष्वसिद्ध-खेत्तसहावसिद्धेणं चेव जोगेणं पभूयमच्छियामहूए अब्भंतरेउ अचंतलेवाडाइकाऊण तओतेसिं पक्कमसखंडाणि बहूणि जच्चमहुमजभंडगाणि पक्खिवंति / तओ एयाई करिय सुरंददीहमहडुमकट्ठहिं आरुभित्ता णं सुसाओ पोराणमजअत्थिगामहूओ य पडिपुग्ने बहूए लाउगे गहाय पडिसं ताव दायगत्थलमागच्छंति जाव णं तत्थागए समाणे ते गुहावासियो मणुया पेच्छंतितावणं तेसिं रयणदीवगणिवासिमणुयाणं बहाय पडिघावंति / तओ ते तेसिं महुपडिपुग्नं लाउगं पयच्छिऊणं अब्भत्थपओगेणं तं कट्ठजाणं जइणयरवेगं दुवं खेविसं रयणदीवाभिमुहे वचंति। इयरे यतं महुमंसादीय पुणो सुठुयरं तेसिं पिट्ठिए धावंति, ताहे गोयमा ! जाव णं अचासन्ने भवंति ताव णं सुसाओ महुगंधदव्वसकारियपोराणमजं लावुगमेगं पमोत्तूणं पुणो वि जइणयरवेगेणं रयणदीवाभिमुहावचंति।इयरे यतं सुसाओ बहुगंधदव्वसंसकरियपोराणमन्जसंसाइ य पुणो सुदुक्खयरे तेसिं पिहिए धावंति / पुणो वि तेसिं बहुपडिपुग्नं लाउगमेगं मुंचंति। एवं ते गोयमा ! महुमजलोलीए संपलग्गेत्ता वा णयंति जावणं ते घरट्टसंवाणे वइरसिलासंपुडे, तो जाव णं तावइयं भूभागं संपरायंति ताव णं जमेवासन्नं वइरसिलासंपुडं जंभायमाणपुरिसमुहागारं (विडाडियं) विहाडियं चिट्ठइ तत्थेव जाई महुमजपडिपुन्नाई समुद्धरियाई सेसलाउगाई ताई तेसिं पेच्छमाणाणं तत्थ मोत्तूणं नियनिलएसु वचंति / इयरे य महुमजलोलीए जावणं तत्थ पविसंति ताव णं गोयमा ! जे ते पुटवमुक्के पक्कमसखंडे जे य ते महुमज्जपडिपुन्ने भंडगे जं च महुए चेवालित्तं सवं तं सिलासंपुडं पेक्खंति ताव णं तेसिं महंतं परिओसं महंतं तुट्ठी महंतं पमोदं भवइ / एवं तेसिं महुमजप-कमंसं परिभुजेमाणाणं जाव णं गच्छंति सत्तह दस पंचेव वा दिणाणि ताव णं ते रयणदीवनिवासिणो मणुया एगे सन्नद्धबद्ध-माउहकरगतं बइरसिलं वेढिऊणं सन्नद्धपंतीहिं णेच्छंति। अन्ने तं घरट्टसिलासंपुडं मायालित्ताणं एगटुं मेलंति। तम्मि य मेलेजमाणे गोयमा ! जइणं कहं वि तुडिविभागओ तेहिं एकस्स दोण्हं पि वा णिप्फेडं भवेज्जा तओ तेसिं रयणदीवनिवासिमणुयाणं संविड विपासायमंदिरसवयाणं तक्खणा चेव तेसिं हत्था संथारकालं भवेजा। एवं तु गोयमा ! तेसिं तेणं वज्जसिलाघरदृसंपुडेणं गिलियाणं पि तहियं चेव जावणं सव्वहिए दलिऊणं ण संपीसिए सुकुमालिया य ताव णं तेसिं णो पाणाइक्कम भवेजा। ते य अट्ठी वइरमिव दुद्दले। Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमइ 967 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुमइ तेसिं तु तत्थय वइरसिलासंपुडं कण्हंगगोणगेहिं आउत्तमादरेणं | तओ विगोणे तओ विमणुए महासम्महिट्ठीअविरए चकहरे तओ अरहट्टघरघरसण्हिगचक्कमिव परिमंडलं भमालिया ताव णं वि पढमाए तओ वि इन्भे तओ समणे अणगारे तओ वि खेडंति जाव णं संवच्छरं / ताहे तं तारिसं अचंतधोरदाराणं | अणुत्तरसुरे तओ विचकहरे महासंघयणी भवित्ता णं निट्विनसारीरमाणसं महदुक्खसन्निवायं समणुभवमाणाणं पाणाइक्कम कामभोगे णं जहोवइट संपुग्नं संजमं काऊण गोयमा ! से णं भवइ, तहा विणो तेसिं अद्विगणो फुडति, णो दो फले भवंति, सुमइजीवे परिनिवुडेजा। तहा य जे मिक्खू वा भिक्खुणी वा णो संदलिजंति णो विदलिजंति णो पहरिसंति णवरं जाई पासंडीणं पसंसं करेजा जे यावि णं निण्हगाणं पसंसं करेजा कायविसंघिसंधाणबंधणाई ताई सव्वाइं निच्छुडे ता णं वि जे णं निण्हयाणं अणुकूलं भासेजा जे णं निण्हयाणं आययणं' जज्जरी भवंति। तओ पुण इयरुवलघरहस्सेव परसवियं चुण्णमिव पविसेजा जे णं निण्हगाणं गंथं सत्थपयक्खरं वा परवेजा जे किंचि अंगुलाइयं अद्विखंडं दठूणं ते रयणदीवगे परिओ। णं निण्हगाणं संतिए कायकिलेसाइए तवेइवा संजमेइ वा जाणेइ समुव्वहंते सिलासंवुडाइं उविधाडिऊणं ताओ अंतरंडगोलि- वा विनाणेइ वा सुएइ वा पंडिचेइ वा अभिमुहसुद्धपरिसामगाओ गहाय जे तत्थ हणे ते अणेगरित्थंसघाएण विकिणंति। ज्झपरिगए सिलाईज्जा से विणं परमाहम्मिएसु उववोमा। जहा एतेणं विहाणेणं गोयमा ! ते रयणदीवनिवासिणो मणुया ताओ सुमती। से भयवं ! तेणं सुमइजीवे णं तकालं समणत्तं अणुअंतरंडगोलियाओ गेण्हति / से भयवं ! कहं ते तं संतारिस पालियं तहा वि एवंविहेहिं नारयतिरियन-रामरविवुत्तोबाएहिं अचंतघोरदारुणसुदुस्सहं दुक्खनिरयं विसहमाणे निराहार एवइयं संसाराहिंडणं / गोयमा ! णं जमागमवाहाए लिंगम्गहणं पाणगे संवच्छरं जाव पाणे वि धारयति / गोयमा ! सकयक कीरइतं डंभमेव केवलं सुदीहसंसारहेउभूयं / णो णं तं परियायं लिक्खइ, तेणेव य संजमं दुक्कर मन्ने अन्नं च समणुत्ताए से य म्माणुभावाओ। पढमे संजमे संजमपए जं कुसीलसंसग्गणिरिहरणं / अहा णं (शेषं तु प्रश्नव्याकरणवृद्धविवरणादवसयम्।) णो णिरिहरेत्ता संजममेव ण ठाएजा ता तेणं सुमहणा तमेवायरियं से भयवं ! तओ वि से मए समाणो से सुमतिजीवे कहं उववायं / तमेव पसंसियं तमेव उस्सप्पियसलाहियं तमेव अणुहियं ति। लभेजा? गोयमा! तत्थेव परिसंताव दायगत्थलोभेणेव कमेणं एयं च सुत्तमइक्कमित्ताणं पच्छा एए जहा सुमती तहा अन्नेसिमवि सत्तभवंतरे। तओ वि दुट्ठसाणे तओ विकण्हे तओ विवाणमरे सुंदरवि-उरसुदंसणसेहरणीलमहसुभोमेयखग्गधारिअणेगतओ वि लिंबत्ताए वणस्सइए तओ वि मणुएसु इत्थित्ताए तओ समणदुइंतदेवरक्खियमुणिणादीणं को संखाणं करेखा, ता विछट्ठीएतओ विमणुयत्ताए कुट्ठीतओ विमहकाए जुहाहिवती एयमटुं वियत्ताणं कुसीलसंजोगे सव्वहा वलणीए / से भयवं ! गए। तओ वि मरिऊण मेहुणासत्ते अणंतवणप्फतीए तओ वि किं ते साहुणो तस्स णं णाइलसङ्घगस्स छंडेणं कसीले उयाहु अणंतकालाओ मणुएसुसंजए तओ विमणुए महानेमित्तिएतओ आगमजुत्तीए ? गोयमा! कहं सगस्स पवरयस्सेरिसो सामत्थो वि सत्तमाए तओ वि महामच्छे चरिमोयहिम्मि तओ सत्तमाए जेणं सच्छंदत्ताए महाणुभावाणं सुसाहूणं अवन्नवायं भासे / तेणं तओ वि गोणे तओ वि मणुए तओ वि विडवकोइलियं तओ वि सङ्घयेणं हरिवंसतिलयमरगयछविणो वावीसयधम्मतित्थयरजलोयं तओ विमहामच्छे तओ वितंदुलमच्छंतओ विसत्तमाए अरिहने मिनाहस्स सयासे वंदणवत्तियाए गएणं आयारंग तओ वि रासहे तओ वि साणे तओ वि किमी तओ वि दहुरो अणंतगमपञ्जवेहिं पन्नविजमाणंसमवधारियं / तत्थयछत्तीसतओ वि तेउकाए तओ वि कुंथू तओ वि महुयरे तओ वि चडए आयारे पन्नविधति / तेसिं च णं जे केइ साहू वा साहुणी वा तओ वि उद्देहिगं तओ वि वणप्फईए तओ वि अणंतकालाओ अन्नयरमायारमइकमज्जा से णं गारस्थिहिं उवम्मेयं अहन्नहा मणुएसु इत्थीरयणं तओ वि छट्ठीए तओ वि कणेरू तणो वि समणुढे वायरेखा, पन्नविजावा तओणं अणंतसंसारी भवेला ? सामंतियं नामपट्टणं, तत्थोवज्झायगेहासन्ने लिंबपत्तेणं | गोयमा! जेणं तु मुहणंतगं अहिगं परिग्गहियं तस्स तावपंचमवणस्सई / तओ विमणुएसुंखुजित्थी तओ विमणुयत्ताए पंडगत्ते / हव्वयस्स भंगो। जेणंतु इत्थीए अंगोवंगाईणिजाइऊणं णालोइयं तओ वि मणुयत्तेणं दुग्गए तओ वि दुमए तओ वि पुढवादीसु तेणं तु बंभचेरगुत्ती विराहिया / तस्विराहणेणं जहा एगदेसदड्डो भवकायट्ठिए पत्तेयं / तओ विमणुए तओ विबालतवस्सीतओ पडो दङ्गो भन्नइ तहा चउत्थमहव्वयं भग्गं / जेण य सहत्थे उविवाणमंतरे तओ वि पुरोहिए तओ विमच्छेतओ वि सत्तमाए / १-कुशीलसंसर्गत, प्रसङ्गप्राप्त 'णाइलग वर्णनमुक्तम्। Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमइ 168 - अभिधानराजेन्द्रः- भाग 7 सुमणा प्याडिऊण दिन्ना भूयं पडिलाहिया तेण तु तइयमहव्दयं भग्गं, सुमइसूरि-पुं०(सुमतिसूरि) स्वनामख्याते लक्ष्मीसागरसूरिशिष्ये, ग० जेणं अणुग्गओ वि सूरिओ उग्गओ भणिओ तस्स य विइयवयं 3 अधि०। भग्गं, जेणं उण अफासुओदगेण अच्छीणि पधोयाणि तहा सुमउय-त्रि०(सुमृदुक) सुतरां मृदुकं सुमृदुकम्। अत्यन्तकोमले, कल्प० अविहिए य थंडिलाणं संकमणं कयं वीयं कायं वा अकंतं १अधि० 3 क्षण। वासाकप्पस्स अंचलग्गेणं हरियं संघट्टियं विज्जूए फुसिओ सुमंगल-न०(सुमङ्गल) प्रत्यन्तनगरविशेषे, ऐरवते वर्षे भविष्यति मुहणंतगेणं अजयणाए फडफडस्स वाउकायमुदीरियं तेणं तु ., षष्ठतीर्थकरे, पुं०। प्रव०७ द्वार। आव०।आ०म०। स्वनामख्याते ग्रामे, पढमं महव्वयं भग्गं / तभंगे पंचण्हं पि महय्वयाणं भंगो कओ। कृतषण्मासान्तपारणको वीरस्वामी यत्रागतः सन्सनत्कुमारेण वन्दितः, तो गोयमा ! आगमजुत्तीए एते कुसीले साहुणो। जओ णं उत्तरगुणाणं पि भंग ण इह किंपुण जं मूलगुणाणं / से भयवं ! प्रियं च पृष्टः / आ० चू०१ अ०। श्रेणिकमहाराजस्य पूर्वभवजीवे, आ० ताए जयणाए णं वियारिऊणं महव्वए घेत्तवे ? गोयमा ! इमे क० 4 अ० जम्बूद्वीपे भरतेवर्षेआगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति प्रथमे, अढे समढे / से भयवं ! केणं अटेणं ? गोयमा ! सुसमणेइ वा तीर्थकरे, स०। शत्रुञ्जयस्योद्धारकारके स्वनामख्याते गृहस्थे, ती०१ सुसावएइ वाण तइय भेयंतरं / अहवा जहोवइडं सुसमणुतम कल्प। णुपालिया अहाणं जहोवइह सुसावगत्तमणुपालिया णो समणो सुमंगला-स्त्री०(सुमङ्गला) गजपुरनगरवास्तव्यस्य रत्नसञ्चयश्रेष्ठिनो समणत्त-मणुमइयरेजा। णो सावगोसावयत्तमइयरेज्जा निरइयारं भार्यायां गुणसागरमातरि, ध० 202 अधि०। विमलयशोभूपतेः पन्यां वयं पसंसंते वयं समणुढे,णवरंजे समणधम्मे से णं अचंतघोर- पुष्पचूलस्य मातरि, ती०४१ कल्प। भरतब्राह्मीरूपयुगलस्य एकोनदुचरे तेणं असेसकम्मक्खयं जहन्नेणं पि अट्ठभवंतरे मोक्खो। पचाशत् पुत्रयुगलस्य च मातरि, ऋषभपल्याम, कल्प०१ अधि०७ इयरेणं तु सुद्धणं देवत्ताई सुमाणुसत्तं वा सो य परंपरेण मोक्खो / क्षण / आ० चू० / स०। आ० म०। "सुमंगला जसवई भद्दा सहदेवी नवरं पुणो वि ते संजमाउत्ता जे से समणधम्मे से आवियारे अइरसिरिदेवी" आव०१०। सुवियारे पणवियारे तह त्ति समणुपालिया, उवासगाण पुण सुमग्गिय-त्रि०(सुमार्गित) शोभनमार्गिते, पं० चू०१ कल्प। सहस्साणि विधाणे जो जं परिवाले तस्साइयारं च ण भवे तमेव सुमड-त्रि०(सुमृत) सुष्ठु मृते, दश०७ अ०॥ गिण्हे / से भयवं ! सो पुण णाइलसडगो कहिं समु-प्पन्नो ? गोयमा सिद्धीए। से भयवं ! कहं ? गोयमा ! तेणं महाणुभागेणं सुमण-त्रि०(सुमनस्) शोभनं धर्मध्यानादिप्रवृत्ततया मनश्चित्तं यस्य सः तेसिंकुसीलाणं णितुट्टेऊणं तीए चेव बहुसावयतरुसंडसंकुलाए सुमनाः / सद्गुणान्वितमनस्कत्वे, पञ्चा० 10 विव० / आ० म० / घोरकंताराडईए सव्वपावकलिमलकलंकविप्पमुक्कं तित्थयर- सुखिनि, सूत्र०२ श्रु० 2 अ० / स्वनामख्याते सुमित्रनामपरिव्राजकवयणं परमहियं सुदुल्लहं भवसएसु पित्ति कलिऊणं अचंतवि- शिष्ये, पुं०। दर्श०२ तत्त्व। रुचकसमुद्रस्य पूर्वार्धाधिपतौ देवे, जी०३ सुद्धासएणं फासुहेसंमि निप्पडिकम्मनिरायारंपडिवन्नं पायवो- प्रति० 4 अधि०। द्वी०। गुच्छभेदे, प्रज्ञा०१ पद। पुष्पे, नपुं०। बृ० 1 उ० वगमणमणसणंति / अह अन्नया तेणेव परसेणं विहरमाणो 2 प्रक० / अन्त० / दश०। सूत्र० / ज्ञा०। समागओ तित्थयरो अरिट्ठनेमी तस्स य अणुग्गहत्तेण य सुमणदाम-न०(सुमनोदामन्) पुष्पमालायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। अणुग्गहट्ठाए तेण य अचलियसत्तो भव (सत्तो) त्ति काऊणं सुमणभद्द-पुं०(सुमनोभद्र) कस्यचिद् द्वीपस्य समुद्रस्य वाधिपतौ देवे, उत्तिमट्ठाए साहणीकया साइसया देसणा / तमावन्नमाणो द्वी०। स्वनामख्याते श्रीवस्तीनगरीवास्तव्ये गृहपतौ, अन्त०। (स च सजलजलहरनिनायं देवदुंदुहीनिग्धोसं तित्थयरमारइं सुह वीरान्तिके प्रव्रज्य बहुवर्षपर्याय श्रामण्यं परिपाल्य विपुले पर्वते सिद्ध ज्झवसायपरो आरूढो खवगसेढीए अपुथ्वकरणेणं अंतगड इत्यन्तकृद्दशानां षष्ठे वर्गे द्वादशेऽध्ययने सूचितम्।) यक्षनिकायभेदे, केवली जाओ। एतेणं अटेणं एवं बुचइ / जहा णं गोयमा ! सिद्धीए / ता गोयमा ! कुसीलसंसग्गीए विप्पजहियाए एवइयं प्रज्ञा०१पद। अंतरं भवइ त्ति बेमि। महा०४ अ०।। सुमणस पुं० (सुमनस्) नन्दीश्वरसमुद्रस्य पूर्वार्धाधिपतौ देवे, सू० प्र० ऋषभस्य नवतितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण / शोभना मतिः 16 पाहु०। सुमतिः / रागद्वेषरहितमतौ, त्रि० / कल्प० 3 अधि० 6 क्षण। | सुमणा-स्त्री०(सुमनस्) शक्रग्रमहिष्याः पद्माया दक्षिणपौरस्त्यरतिकरपर्वते, पाण्डुसेनराजस्य सुतायां मते गिन्याम्, स्त्री० / आ० क० 4 अ०। राजधान्याम्, स्था० 4 ठा०२ उ० / स० / भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य आवा लोकपालानामग्रमहिष्याम्, भ०१०श०५ उ० स्था०।चन्द्रप्रभस्य अष्टमती Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुमणा 166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय र्थकरस्य प्रथमशिष्यायाम,ति०। (स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहाराज- सुमिणजागरिया-स्त्री०(स्वप्नजागरिका) स्वप्नसंरक्षणाय जागरिकाभार्यायाम, अन्त०। (सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य विंशतिवर्षाणि श्रामण्यं | निद्रानिरोधः स्वप्नजागरिका।स्वप्नसंरक्षणार्थं निद्रानिरोधे, भ०११ परिपाल्य सिद्धेत्यन्तकृद्दशानां षष्ठवर्गस्य द्वादशेऽध्ययने सूचितम्।) / श०११उ०। शोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सा सुमनाः। जम्ब्वां सुदर्शनायाम, सुमिणभव-पुं०(स्वप्नभद्र) माढरसगोत्रस्य संभूतविजयस्य षष्ठे शिष्ये, भवति हि तां पश्यतां महर्द्धिकानामपि मनः शोभनमतिरमणीयत्वात्। कल्प०२ अधि० 8 क्षण। जी०३ प्रति० 4 अधि०।। सुमिणुग्गह-पुं०(स्वप्नावग्रह) स्वप्नानां स्मरणे, कल्प०१ अधि० सुमर-धा०(स्मृ) स्मरणे, "स्मरेझर-झूर-भर-भर-भल- | 3 क्षण। लढ- विम्हर - सुमर - पयर - पम्हुहाः" ||8474|| इति सुमित्त-पुं०(सुमित्र) मल्लितीर्थकृता सह प्रव्रजिते तद्गणधरे ज्ञातकुमारे, स्मरतेः सुमर इत्यादेशः। सुमरइ / स्मरति। प्रा० 4 पाद। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०।श्रीपुरनगरवास्तव्यस्य समुद्रदत्तस्य पुत्रे, ध०र०२ सुमरित्तए-अव्य०(स्मर्तुम्) आध्यातुमित्यर्थे, "पुव्वकीलियाईसुमरि अधि०३क्षण। (मित्रीभावोपरिकथा उज्जुववहार' शब्दे द्वितीयभागे७४१ त्तए" आचा०२ श्रु०३ चू०।। पृष्ठे गता।) स्वनामख्याते परिव्राजके, दर्श०२ तत्त्व। सुमरुत्ता स्त्री०(सुमरुत्) स्वनामख्यातायां श्रेणिकमहाराजभायार्याम्, | सुमित्तविजय-पुं०(सुमित्रविजय) एकविंशतीर्थकरस्य नमेः पितरि, अन्त०१ श्रु०६ वर्ग 7 अ01 (सा च वीरान्तिके प्रव्रज्य विंशतिवर्षाणि आव०१अ०।तिका प्रव०स०ाजम्बूद्वीपे भरते वर्षे अस्यामुत्सर्पिण्यां प्रव्रज्यांपरिपाल्य सिद्धेत्यन्तकृद्दशानांषष्ठवर्गस्यसप्तमेऽध्ययने सूचितम्।) जातस्य सगरचक्रवर्तिनः पितरि शान्तितीर्थकरस्य प्रथमाभिक्षादायके, सुमहन्त-त्रि०(सुमहत्) अपारे, द्वा०२२द्वा०। स०६ सम०। सुमहग्य-त्रि०(सुमहाघ) बहुमूल्ये, कल्प०१ अधि०३क्षण! औ०। / सुमित्ता-स्त्री०(सुमित्रा) मुनिसुव्रतमातरि, ती०१०कल्प। सुमागह-पुं०(सुमागध) स्वनामख्याते वीरस्वामिनः पितृवयस्यराष्ट्रिके, | सुमुझ्य-त्रि०(सुमुदित) अतिहृष्ट, औ०। आ० म०१ अ०। आ० चू०। सुमुणिय-त्रि०(सुज्ञात) सुष्ठुज्ञाते, ध०२ अधि०। सुमालि-पुं०(सुमालिन) लङ्कापुरीश्वरस्य दशग्रीवस्य निजके, ती०५१ सुमुणियपरमत्थ-त्रि०(सुज्ञातपरमार्थ) परिज्ञातपरमार्थे, ध०२ अधि०। कल्प। सुमुह-पुं०(सुमुख) स्वनामख्याते काम्पिल्यराजे, आ० चूल। "कंपिल्लं सुमिडंत न०(सुमृडत्) वाद्यविशेषे, आ० चू०१०। नगरं तत्थ सुमुहो राया, सो इंदकेतुं पासति लोकेण महिजंतं अणेगसुमिण-पुं०(स्वप्न) सामान्यफले स्वापे, भ०११श०११ उ०। (एतेषां कुडभीसहस्सपरिमंडिताभिरामं पुणो य विलुत्तं पडितं च मुत्तपुरीसाण सम्यक्स्व रूपं, वीरस्य 10 स्वप्नाश्च 'सुविण' शब्दे वक्ष्यन्से।) (गजादि मज्झे सो वि संबुद्धो, जो इंदकेतुं सुयलंकियं पासति सो विहरति।" १०स्वप्नरूपं 'वीर' शब्दे षष्ठभागे।) "दुसुमिणवा कुसुमिणवाउग्गहएज्जा विमलवाहनस्य राज्ञो मन्त्रिणि, आ० चू० 4 अ०। ती० / कल्प० / सएणं ऊसासाण काउस्सग्ग" महा०१चू०। जम्बूद्वीपे भरते वर्षे उत्सर्पिण्या भविष्यतिसूक्ष्मापरनामके कुलकरे, ती० पापस्वप्नं दृष्ट्वा आलोचयेत् 20 कल्प। ति०। संकर्षणबलदेवस्य धारिणीकुक्षिसंभूते पुत्रे, अन्त०३ णवरं सुहासुहं सम्मं, सुविणगं समवधारए। वर्ग अ०। (स च अरिष्टनेमेः समीपे प्रव्रज्य गजसुकुमार इव दीक्षा जं तत्थ सुविणग पासे, तारिसगं तं तहा भवे // 51 // परिपाल्य सिद्ध इत्यन्तकृद्दशानां तृतीये वर्गे नवमेऽध्ययने सूचितम्।) जइणं सुंदरगं पासे, सुमिणगं तो इमं महा। सुमुहुत्त-पुं०(सुमुहुर्त) सुन्दरमुहुर्ते, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। परमत्थतत्तसारत्थं, सल्लुद्धरणं सुणेतु णं // 52|| सुमेरुप्पभ-पुं०(सुमेरुप्रभ) मेघकुमारस्य तृतीयपूर्वभवजीवे, कल्प०१ देजा आलोयणं सुद्ध, अट्ठमट्ठाणविरहिओ। अधि०१क्षण। ('मेघकुमार' शब्दे षष्ठे भागे कथा गता।) रजंतो धम्मतित्थयरे, सिद्धे लोगग्गसंठिए॥५३|| सुमेहा-स्त्री०(सुमेघा) ऊर्ध्वलोकवासिन्यां स्वनामख्यातायां दिकुमामहा०१अ०। - रिकायाम, आ० म०१ अ० स्था०। ति०। आ० चू०। तथा सुस्वप्नदुःस्वप्नाभ्यां यत्कथ्यते शुभाशुभं तत् स्वप्नाख्यं सुमोक्ख-पुं०(सुमोक्ष) भावरूपादिव्युदासेन निरुपमसुरखे, पं०व०३द्वार। निमित्तम् / यथा- ''देवेष्वात्मजबान्धवोत्सवगुरुच्छत्राम्बुजप्रेक्षणं, सुय-पुं०(शुक) व्यासपुत्रे, ज्ञा० 1 श्रु०५ अ०। ('थावचापुत्त' शब्दे प्राकारद्विरदाम्बुदद्रुमगिरिप्रासादसंरोहणम्! अम्भोधेस्तरणं सुरामृतप- चतुर्थभागे 2406 पृष्ठे कथा गता।) पक्षिविशेषे, प्रज्ञा० 17 पद 4 उ०। योदध्नांच पानंतथा, चन्द्रार्कग्रसनं स्थितं शिवपदेस्वापे प्रशस्तं नृणाम्" औ०। प्रश्न // 1 // इत्यादि / प्रव० 257 द्वार। (मानुषत्वदौर्लभ्ये स्वप्नदृष्टान्तः | *श्रुत-त्रि० आकर्णिते, उत्त०५ अ०। सूत्र० / अवधारिते, उत्त० 'माणुसत्त' शब्दे षष्ठभागे गतः।) 2 अ०। स०। श्रोत्रेन्द्रियविषयीकृते, स्था०८ ठा०३ उ०। Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय ६७०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय अवगते, सूत्र०१ श्रु०१५ अ० श्रवणपथमुपागते, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। श्रोत्रेन्द्रियेण विशेषतोऽभिमते, सूत्र०२ श्रु० 4 अ० / उपलब्धे, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ०। अधीते, सूत्र० 1 श्रु०३ अ०३ उ०। श्रूयते इति श्रुतम्। भावे क्तप्रत्यये कृते नपुंसकता / शब्दे, पा० / "सुयं मे आउसंतेणं श्रूयते तदिति श्रुतं प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं भगवता निसृष्टम् आत्मीयश्रवणकोटरप्रविष्ट क्षायोपशमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतमित्युच्यते। श्रुतम्-आकर्णिणतम्-अवधारितमिति यावत्। दश० 4 अ०। ('सण्णा' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽत्रत्यविस्तरो गतः।) सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खयां / (सू०१) अस्य च व्याख्या संहितादिक्रमेणेति, आह च भाष्यकारः-- "सुत्तं 1 पयं 2 पयत्थो ३,संभवतो विग्गहो। वियारो यादूसियसिद्धी 6 नयमय-विसेसओ नेयमणुसुत्तं / / 1 / / " तत्र सूत्रमिति संहिता, सा चानुगतैव, सूत्रानुगमस्य तद्रूपत्वादिति। आह च- "होइ कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुयं सुयाणुगमो" ति सूत्रे चास्खलितादिगुणोपेते उच्चारिते केचिदर्था अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता व्याख्याभेदो भवति, अनधिगतार्थाधिगमाय च पदादयो व्याख्याभेदाः प्रवर्त्तन्त इति, तत्र पदानि- 'श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता एवमाख्यातमिति / एवं पदेषु व्यवस्थापितेषु सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः। तत्र चेयं व्यवस्था-"जत्थ उजंजाणेजा,निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं। जत्थ विणय जाणेजा, चउक्कयं निक्खिवे तत्थ" // 1 // त्ति तत्र नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं च प्रतीतम् / द्रव्यश्रुतमधीयानस्यानुपयुक्तस्य पत्रकपुस्तकन्यस्तं वा, भावश्रुतं तु श्रुतोपयुक्तस्येति। इह च भावश्रुतेन श्रोत्रेन्द्रियोपयोगलक्षणेनाधिकारः / (स्था०) इह च संयभायुषा यशः कीर्त्यायुषा चाधिकार इति, एवं शेषपदानां यथासम्भवं निक्षेपो वाच्य इति, उक्तः सूत्रालापकनिष्पन्ननिपेक्षः। पदार्थः पुनरेवम्इह किल सुधर्मस्वामी पञ्चमो गणधरदेवो जम्बूनामानं स्वशिष्यं प्रति प्रतिपादयाञ्चकार। श्रुतम्-आकर्णितम् 'मे' मया 'आउसं' ति--आयुः जीवितं तत्संयमप्रधानता प्रशस्तं प्रभूतं वा विद्यते यस्यासावायुष्मांस्तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् !-शिष्य ! 'तेणं' ति-यः सन्निहितव्यवहितसूक्ष्मबादरबाह्याध्यात्मिकसकलपदार्थेष्वव्याहतवचनतयाऽऽप्तत्वेन जगति प्रतीतः, अथवा- पूर्वभवोपात्ततीर्थकरनामकर्मादिलक्षणपरमपुण्यप्राग्भारो विलीनानादिकालीनमिथ्यादर्शनादिवासना परिहृतमहाराज्यो दिव्याधुपसर्गवर्गसंसर्गाविचलितशुभध्यानमार्गो भास्कर इव घनघातिकर्मघनाघनपटलविघटनोल्लसितविमलकेवलभानुमण्डलो विबुधपतिषट्पदपटलजुष्टपादपद्मो मध्यमाभिधानपुरीप्रथमप्रवर्तितप्रवचनो जिनो महावीरस्तेन- भगवता अष्टमहाप्राप्तिहार्यरूपसमग्रैश्वर्यादियुक्तेन एव-मित्यमुना वक्ष्यमाणेनैकत्वादिना प्रकारेण 'आख्यात' मिति आमर्यादया जीवाजीवलक्षणासङ्कीर्णतारूपया | अभिविधिना वा-समस्तवस्तुविस्तारव्यापनलक्षणेन ख्यातंकथितं आख्या-तमात्मादि वस्तुजातमिति गम्यते / अत्र च श्रुतमित्यनेनावधारणाभिधायिना स्वयमवधारितमेवान्यस्मैप्रतिपादनीय-मित्याह-- अन्यथाऽभिधाने प्रत्युतापायसम्भवात्, उक्तञ्च- "किं एत्तो पावयरं ? सम्म अणहिगयधम्मसभावो। अन्नं कुदेसणाए, कट्ठयरागम्मि पाडेइ'' ||1|| त्ति "मये'' त्यनेनोपक्रमद्वाराभिहितभावप्रमाणद्वारगतात्मानन्तरपरम्परभेदभिन्नागमेऽयं वक्ष्यमाणो ग्रन्थोऽर्थतोऽनन्तरागमः सूत्रतस्त्वात्मागम इत्याह- "आयुष्मन्नि" त्यनेन तु कोमलवचोभिः शिष्यमनः- प्रह्लादयताऽऽचार्येणोपदेशो देय इत्याह / उक्तञ्च-- "धम्ममइए-हिँ अइसुं-दरेहिँ कारणगुणोवणीएहि। पल्हायंतो यमणं, सीसं चोएह आयरिओ // 1 // " त्ति / आयुष्मत्वाभिधानं चात्यन्त.माह्लादकम, प्राणिनामायुषोऽत्यन्ताभीष्टत्वाद, यत उच्यते-"सव्ये पाणा पियाउया अप्पियवहा सुहासया दुक्खपडिकूला सव्वे जीविउकामा सव्वेसिं जीवियं पियं" ति / तथा "तृणायापि न मन्यन्ते, पुत्रदारार्थसंपदः / जीवितार्थे नरास्तेन, तेषामायुरतिप्रियम् // 1 // " इति / अथवा- आयुष्मन्नित्यनेन ग्रहणधारणादिगुणवेत शिष्याय शास्त्रार्थो देय इतिज्ञापनार्थ सकलगुणाधारभूतत्वेनाशेषगुणोपलक्षणेन चिरायुर्लक्षणगुणेन शिष्यामन्त्रणमकारिरायत उक्तम्-"वुढे विदोणमेहे, न कण्हभूमाउ लोट्टए उदयं / गहणधरणासमत्थे, इय देयमच्छित्ति कारिम्मि||१॥" विपर्यये तुदोष इति आहच-"आयरिए सुत्तम्मिय, परिवाओ सुत्तअत्थपलिमंथो / अन्नेसिं। पिय हाणी, पुट्ठावि न दुद्धदा वंझा // 1 // " इति / तथा 'तेने' त्यनेन त्वाप्तत्वादिगुणप्रसिद्धताsभिधायकेन प्रस्तुता-ध्ययनप्रामाण्यमाह- वक्तृगुणापेक्षत्वाद्वचनप्रामाण्यस्येति, भगवते त्यनेन तुप्रस्तुताध्ययनस्योपादेयतामाह, अतिशयवान् किलोपादेयः, तद्वचनमपि तथेति, अथवा- 'तेणं' ति-- अनेनोपोद्धातनिर्युक्त्यन्तर्गत निर्गमद्वारमाह, यो हि मिथ्यात्वतमः प्रभृतिभ्यो दोषेभ्यो निर्गतस्ततो निर्गतमिदमध्ययनं क्षेत्रतोऽपापायां कालतो वैशाखशुद्धैकादश्यां पूर्वाह्वभाव क्षायिके वर्तमानादिति, एवं च गुरुपर्वक्रमलक्षणः सम्बन्धोऽस्य प्रदर्शितो भवति, तथा तथाविधेन भगवतायदुक्तं तत् सप्रयोजनमेव भवतीति सामान्यतः सप्रयोजनता चास्योक्ता, न हि पुरुषार्थानुपयोगि भगवन्तो भाषन्ते, भगवत्त्वहानेः, अत एव चास्योपायोपेयभावलक्षणः सम्बन्धोऽपि दर्शितः, इहं हि भगवदारख्यातं ग्रन्थरूपापन्नमुपायः, पुरुषार्थस्तूपेय इति, अत एव चात्र श्रोताराः श्रवणे प्रवर्तिताः, यतः- "सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं, श्रोतुं श्रोता प्रवर्त्तते / शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः, सम्बन्धः सप्रयोजनः // 11 // " इति। 'एव' मित्यनेन तु भगवद्वचनादात्मवचनस्यानुत्तीर्णतामाह, अत एव स्ववचनस्य प्रामाण्यम् सर्वज्ञवचनानुवादमात्रत्वादस्येति, अथवा- 'एव' मित्येकत्वादिः प्रकारोऽभिधेयतया निर्दिष्टः, निरभिधेयताऽऽशङ्कया श्रोतृणां काकदन्तपरीक्षायामिवाप्रवृत्तिरत्रमाभूदिति, आख्यातमित्यनेन तु नापौरुषेयवचनरूपमिदम्, तस्या सम्भवादित्याह, यत उक्तम्-- "वेयवयणं न माणं, अपोरुसेयं ति निम्भियं (तम्मयं) जेण। इदमचंत Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 671 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 विरुद्धं, वयणं च अपोरुसेयं च / / 1 / / जं वुचइत्ति वयणं, पुरिसाभावे उ नेयमेवं ति / ता तस्सेवाभावो, नियमेण अपोरुसेयत्ते // 2 // " इति / अथवा-आख्यातं भगवतेदं, न कुड्यादिनिःसृतम् यथा कैश्चिदभ्युपगम्यते-"तस्मिन् ध्यानसमापन्ने, चिन्तारत्नवदास्थिते / निःसरन्ति यथाकाम, कुड्यादिभ्योऽपि देशनाः / / 1 / / " इत्यस्यानेनानभ्युपगममाह, यतः- "कुड्यादिनिःसृतानांतु, नस्यादाप्तोपदिष्टता। विश्वासश्च न तासु स्या-त्केनेमाः कीर्तिता इति ? ||1 // " समस्तपदसमुदायेन त्वात्मौद्धत्यपरिहारेण गुरुगुणप्रभावनापरैरेव विनेयेभ्यो देशना विधेयेत्याह, एवं हि तेषु भक्तिपरता स्यात्, तया च विद्यादेरपि सफलता स्यादिति, यदुक्तम्-"भत्तीऍजिनवराणं, खिजंतिय पुव्वसंचिया कम्मा / आयरियनमोक्कारेण, विजा मंताय सिज्झंति / / 1 / / " त्ति / नमस्कारश्च भक्तिरेवैति। अथवा-'आउसंतेणं' ति- 'भगवाद्विशेषणम्, आयुष्मता भगवता, चिरजीविनेत्यर्थः, अनेन भगवद्हुमानगर्भेण मङ्गलमभिहितम्। भगवद्हुमानस्य मङ्गलत्वादिति चोक्तमेव यद्वा--'आयुष्मते' ति परार्थप्रवृत्त्यादिना प्रशस्तमायुरियता नतु मुक्तिमवाप्यापि तीर्थनिकारादिदर्शनात्, पुनरिहायातेनाभिमानादिभावतोऽप्रशस्तम् / यथोच्यते कैश्चित्-"ज्ञानिनोधर्मतीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम्। गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः / / 1 / / " "यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् // 2 // " एवं धनुन्मूलितरागादिदोषत्वात्, तद्वचसोऽप्रामाण्यमेव स्यात्, निःशेषोन्मूलने हिरागादीनां कुतः पुनरिहागमनसम्भव इति? अथवाआयुष्मता-प्राणधारणधर्मवता न तु सदा संशुद्धेन, तस्याकरणत्वेनाख्यातृत्वासम्भवादिति / यदिवा- 'आउसंतेणं' ति-मयेत्यस्य विशेषणम्, तत आडिति-गुरुदर्शितमर्यादया वसता, अनेन तत्त्वतो गुरुमर्यादावर्तिस्वरूपत्वात् गुरुकुलवासस्य तद्विधानमर्थत उक्तम्, ज्ञानादिहेतुत्वात्तस्य। उक्तश्च-"णाणस्स होइ भागी, थिरयरओदंसणे चरित्ते या धन्ना आवकहाए, गुरुकुलवासंन मुंचंति॥११॥ गीयावासो रती धर्मे, अणाययणवजणं / निगहो य कसायाणं, एयं धीराण सासणं॥२॥" ति। अथवा-'आमुसंतेणं' ति-आमृशता भगवत्पादारविन्दं भक्तितः करतलयुगलादिना स्पृशता, अनेनैतदाह-अधिगतसकलशास्त्रेणापि गुरुविश्रामणादिविनयकृत्यं न मोक्तव्यम्, उक्तं हि- "जहा हि अग्गी जलणं णमंसे णाणा हुती मंतफ्याभिसित्तं / एवायरीयं उवचिट्ठएज्जा, अणतणाणोऽवगओऽवि संतो // 1 // " त्ति / यद्वा- 'आउसंतेणं' ति--- आजुषमाणेन श्रवणविधिमर्यादया गुरुमासेवमानेन, अनेनाप्येतदाहविधिनैवोचितदेशस्थेन गुरुसकाशाच्छ्रोतव्यम्, नतु यथा कथञ्चित्। यत आह-"निहाविगहापरिवजिएहिं गुत्तेहि पंजलिउडेहिं / भत्तिबहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं // 1 // " इत्यादि, एवमुक्तः पदार्थः / पदविग्रहस्तु सामासिकपदविषयः स चाख्यातमित्यादिषु दर्शित इति / इदानीं चाल नाप्रत्यवस्थाने, ते च शब्दतोऽर्थतश्च / तत्र शब्दतः- ननु 'मे' इत्यस्य मम मां चेति व्याख्यानमुचितं षष्ठीचतुर्योरेवैकवचनान्तस्यास्म- / त्पदस्य, 'मे' इत्यादेशादिति, अत्रोच्यते- 'मे' इत्ययं विभक्तिप्रतिरूपकोऽव्ययशब्दस्तृतीयैकवचनान्तोऽस्मच्छब्दार्थे वर्तत इति न दोषः / अर्थतस्तु चालना.. ननु वस्तु नित्यं वा स्यादनित्यं वा ? नित्यं चेत्तर्हि नित्यस्याप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वरूपत्वाद्यो भगवतः सकाशे श्रोतृत्वस्वभावः स एव च कथं शिष्योपदेशकत्वस्वभाव इति? किंच-शिष्योपदेशकत्वं त्वस्य पूर्वस्वभावत्यागे स्यादत्यागे वा ? यदि त्यागे हन्त हतं वस्तुनो नित्यत्वं, वस्तुनः स्वभावाव्यतिरिक्तत्वेन तत्क्षये तत्क्षतेरिति, अपरित्याग इति चेत्, न, विरुद्धयोःस्वभावयोर्युगपदसम्भवादिति। अथ चानित्यमिति पक्षस्तदपि, न, निरन्वयनाशे हि श्रोतुः श्रवणकाल एव विनष्टत्वात्कथनावसरेऽन्यस्यैवोत्पन्नत्वादकथनप्रसङ्गः, यज्ञदत्तश्रुतस्य देवदत्ताकथनवदिति / अत्र समाधिनयमतेनेति नयद्वारमवतरति, तत्र नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूदैवम्भूता नयाः, तत्र चाद्यास्त्रयो द्रव्यमेवार्थोऽस्तीति वादितया द्रव्यार्थिकऽवतरन्ति, इतरे तु पर्याय एवार्थोऽस्तीति वादितया पर्यायार्थिकनये, तदेवमुभयमताश्रयणे द्रव्यार्थितया नित्यं वस्तु पर्यायार्थितया त्वनित्यमिति नित्यानित्यं वस्त्विति प्रत्येकपक्षोक्तदोषाभावो गुडनागरादिवदिति / एवमेव च सकलव्यवहारप्रवृत्तिरिति, उक्तं च- "सव्वं चिय पइसमयं, उप्पज्जइ नासएय निचंच। एवं चेव य सुहदुक्खबंधमोक्खादिसडभावो॥१॥"त्ति उक्तः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुपगमः। स्था०१ठा०। श्रूयतेतदिति श्रुतम् प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं भगवता निसृष्टम्। आत्मीयश्रवणकोटरप्रविष्ट क्षायोपशमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतमित्युच्यते, श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः / दश० 4 अ० / आचा०। श्रवणं श्रुतम्। अभिलापप्रापितार्थग्रहणस्वरूपे उपलब्धिविशेषे, अनु०॥ वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंसृष्टग्रहणहेतावुपलब्धिविशेषे एवमाकारं वस्तु कालधारणाद्यर्थक्रियासमर्थघटशब्दवाच्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामे शब्दार्थपर्यालोचनानुसारिणि इन्द्रियमनोनिमित्ते अवगमविशेषे, आ० म०१ अ०। प्रव०।अर्थश्रवणे, नं०द्वा० / शृणोतीति श्रुतम्। आत्मनि तदनन्यत्वात्। श्रुतज्ञाने च। आ०म०१ अ०1"तं तेण तओ तंमिव सुणेइ सो वा सुयं तेणं"। अनु०। अथ श्रुतव्युत्पत्तिमाह-'तं तेण' इत्यादिश्रूयते आत्मना तदिति श्रुतं शब्दः / अथवा-श्रूयतेऽनेन श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमेन श्रूयते तस्मात् क्षयोपशमाच्छ्रयते तस्मिन् क्षयोपशमे सतीति श्रुतं क्षयोपशमः 'सुणेइ सो व' त्ति शृणोतीति श्रुतमसौ आत्मा इति वा व्युत्पत्तिरित्यर्थः, 'सुयं तेणे' ति-येनैवं व्युत्पत्तिस्तेन कारणेन श्रुतमुच्यत इत्यर्थः / विशे० / स्था० / गुरुसमीपे श्रूयते इति श्रुतम्। अनु० / कर्म० / बृ०। द्वादशाङ्गे, स्था०२ ठा०१ उ० / आगमे, स्था०३ ठा०२ उ० / अङ्गोपाङ्गप्रकीर्णादिभिन्ने आगमे, उत्त०१अ०। स्था०।पा०11०। दर्श०। स०। नं०ाजीवादिपदार्थसूचके, सूत्र०१श्रु०६ अ०।सूत्रे, श्रुतग्रन्थसिद्धान्तप्रवचनाज्ञोपदेशागमादीनि श्रुतैकार्थिकनामानि। Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 972 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय द्रव्यश्रुतनिरूपणार्थमाहसे किं तं दव्वसुयं? दव्वसुयं दुविहं पण्णत्तं,तं जहा-आगमतो अ, नो आगमतो अ। (सू०३२) अत्र निर्वचनम्, 'दव्वसुअंदुविहमि' त्यादि, द्रव्यश्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, सूत्रस्य पर्यायानाहसुयसुत्तगंथसिद्धं-तसासणे आणवयणउवएसो। पण्णवणामागम इय, एगट्ठा पन्जवा सुत्ते / / 177|| श्रुतम्, सूत्रम्, ग्रन्थः, सिद्धान्तः, शासनम्, आज्ञा, वचनम्, उपदेशः, प्रज्ञापना, आगम इति, एते दश पर्याया एकार्थाः। बृ०१ उ०१ प्रक०। / विशे० / उत्त० / आव० / श्रुतं सामायिकादिबिन्दुसारान्तम् / आव०४ अ० ल० [ध० / स्वाध्याये, स०३० सम० / स्वदर्शनपरदर्शनानुगतसकलशास्त्रे, नं० आचा०। (मतिश्रुतभेदः ‘णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1841 पृष्ठे गतः।) श्रुतनिक्षेपःसे किं तं सुत्तं, सुत्तं चउविहं पण्णत्तं / तं जहा नामसुअं, ठवणासुअं, दव्वसुअं, भावसुअं। (सू०२६) अथ किं तत् श्रुतमिति प्रश्नः, अत्र निर्वचनं 'सुअंचउव्विहमि' त्यादि, श्रुतम्-- प्राग्निरूपितशब्दार्थं चतुर्विधं प्रज्ञाप्तम्, तद्यथा- नामश्रुतम्, स्थापनाश्रुतम्, द्रव्यश्रुतम्, भावश्रुतं च। तत्राऽऽद्यभेदनिर्णयार्थमाहसे किं तं नामसुअं? णामसुअंजस्स णं जीवस्स वा० जाव सुए ति नाम कलइ से तं नामसुअं। (सू०३०) अत्र निर्वचनं नामश्रुतम्, 'जस्स णमि' इत्यादि, यस्य जीवस्स या अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयानां वा श्रुतमिति यन्नाम क्रियते तन्नामश्रुतमित्यादिपदेन सम्बन्धः, नाम च तत् श्रुतं चेति व्युत्पत्तेः / अथवा-यस्य जीवादेः श्रुतमिति नाम क्रियते तज्जीवादि वस्तु नामश्रुतम्, नाम्ना नाममात्रेण श्रुतं नामश्रुतमिति व्युत्पत्तेः / तत्र जीवस्य कथं श्रुतमिति नाम सम्भवतीत्यादिभावना यथा नामावश्यकेतथा तदनुसारेण यथासम्भवमभ्यूह्य वाच्या, 'सेतमि त्यादि निगम-नम्। उक्तं नामश्रुतम्। * अथ स्थापनाश्रुतनिरूपणार्थमाहसे किं तं ठवणासुअं? जंणं कट्ठकम्मे वा० जाव ठवणा ठविजइ संतं ठवणासुअंग नामठवणाणं को पइविसेसा? नाम आवकहियं ठवणाइत्तरिआवा होजा आवकहिआवा। (सू० 31) अत्र निर्वचनम्-- 'ठवणासुअं जं णमि' त्यादि, अत्र व्याख्यानं यथा स्थापनावश्यकेतथा सप्रपञ्चंद्रष्टव्यम्, नवरमावश्यकस्थाने श्रुतमुच्चारणीयम्, काष्ठकर्मादिषु श्रुतपठनादिक्रियायन्त एकादिसाध्यादयः स्थाप्यमानाः स्थापनाश्रुतमिति तात्पर्यम्। 'सेतमि त्यादि निगमनम्। "नामठवणाणं को पइविसेसो?" इत्यादि पूर्व भावितमेव, वाचनान्तरे तु 'नामठवणाओ भणि-याओ' इत्येतदेव दृश्यते, आवश्यकनामस्थापनामणनेन प्रायोऽभिन्नार्थत्वात् श्रुतनामस्थापनेऽप्युक्ते एव भवतः, इत्यतो नाम ते पुनरुच्येते इति भावः। अत्राऽऽद्यभेदनिर्णयार्थमाहसे किं तं आगमतो दव्वसुअं? आगमतो दव्वसुयं जस्सणं सुएत्तिपयं सिक्खियं ठियं जियं०जावणो अणुप्पेहाए कम्हा? अणुवओगोदव्यमिति कटु, नेगमस्सणं एगो अणुवउत्तो आगमतो एवं दव्वसुयं०जाव कम्हा? जइजाणइ अणुवउत्तेन भवइ। से तं आगमतो दव्वसुअं। (सू०३३) अत्र निर्वचनम्- 'आगमओ दव्वसुअमि' त्यादि, यस्य कस्यचित् श्रुतमिति एवं श्रुतपदाभिधेयमाचारादिशास्वं शिक्षितं स्थितं यावद्वाचनोपगतं भवति स जन्तुस्तत्र वाचनाप्रच्छना-दिभिर्वर्तमानोऽपि श्रुतोपयोगेऽर्तमानत्वादागमतः आगममाश्रित्य द्रव्यश्रुतमिति समुदायार्थः। शेषोऽत्राऽऽक्षेपपरिहारादिप्रपञ्चो नयविचारणा च द्रव्यावश्यकवत् द्रष्टव्या, अत एव सूत्रेऽप्यतिदेशं कुर्वता 'जाव कम्हा? जइ जाणए' इत्यादिना पर्यन्तनिर्दिष्टानां शब्दनयानां सम्बन्धि सूत्रालापको गृहीतः / एतच काश्चिदेव वाचनामाश्रित्य व्याख्याते, वाचनान्तराणि तुहीनाधिकान्यपि दृश्यन्ते, 'सेतमि त्यादि निगमनम्। उक्तमागमतो द्रव्यश्रुतम्। इदानीं नोआगमतस्तदेवोच्यतेसे किं तं नोआगमतो दव्वसुअं? नोआगमतो दव्वसुअंतिविहं पण्णत्तं, तं जहा-जाणयसरीरदय्वसुअं भविअसरीरदव्वसुअं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुअं। (सू०३४) अत्र निर्वचनम्-'नोआगमतो दव्वसुअंतिविहमि' त्यादि, 'जाणयसरीरदव्वसुअं भविअसरीरदव्वसुअं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुअं। अत्राऽऽद्यभेदज्ञापनार्थमाहसे किं तं जाणयसरीरदव्वसुअं? जाणयसरीरदव्वसुयं सुअ त्ति पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुअ-चाविअचत्तदेहं तंचेवपुष्वमणि माणिअव्वं० जाव से तंजाणयसरीरदव्वसुअं। (सू०३५) अत्रोत्तरम्-'जाणयसरीरदव्वसुयंसुअत्ती' त्यादि, ज्ञातवानितिज्ञस्तस्य शरीरं तदेवानुभूतभावत्वाद् द्रव्यश्रुतं ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतं, श्रुतमिति यत्पदं तदर्थाधिकारज्ञायकस्ययच्छरीरकंव्यपगतादिविशेषणविशिष्टतज्ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतमित्यर्थः / ननुयदिजीवविप्रमुक्तमिदं कथं तद्यस्य द्रव्यश्रुतत्वम् ? लेष्ट्रवादीनामपि तत्प्रसङ्गात्, तत्पुद्गलानामपिकदाचित् श्रुतकर्तृभिः गृहीत्वा मुक्तत्वसम्भवादित्याशङ्कयाह-'सेज्जागयमि' त्यादि, शेषोऽत्रावयवव्याख्या Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय सुय 973 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 दिप्रपञ्चो ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकवत्, श्रुताभिलापतो वाच्यः, यावत् 'से अत्र निर्वचनम्- 'लोइयं भावसुअंजं इममि' त्यादि, लौकैः प्रणीतं तमि' त्यादि निगमनम्। लौकिकं, किंपुनस्तदित्याह-यदिदमज्ञानिकर्मिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दद्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह बुद्धिमतिविकल्पितं तल्लौकिकं भावश्रुतमिति सम्बन्धः तत्राल्पज्ञानसे किं तं भविअसरीरदव्वसुअं? भविअसरीरदव्वसुयं जे जीवे भावतोऽधनवदशीलवद् वा सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिकाः, प्रोच्यन्तेऽत जोणीजम्मणनिक्खंते जहा दव्वावस्सए तहा माणिअव्वं० जाव आह-मिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दमतिबुद्धिविकल्पितम्। ईहावग्रहे बुद्धिः, से तं भविअसरीरदय्वसुअंग (सू०३६) अपायधारणे तु मतिः स्वच्छन्देनस्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीता र्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्दबुद्धिमतिविअत्र प्रतिवचः- 'भविअसरीरदव्वसुअंजे जीवे' इत्यादि, विवक्षित कल्पितम्-स्वबुद्धिविकल्पनाशिल्पिनिर्मितमित्यर्थः / तत्प्रकटनार्थमेपर्यायेण 'भविष्यतीति भव्यो विवक्षितपर्यायाहः तद्योग्य इत्यर्थः, तस्य वेदमाह-तद्यथा--'भारतमि' त्यादि, एतच भारतादिकं नाटकादिपर्यन्तं शरीरं तदेव भाविभावश्रुतकारणत्वात् द्रव्यश्रुतं भव्यशरीरद्रव्यश्रुतम्, किं श्रुतं लोकप्रसिद्धिगम्यम् / अथ प्रकारान्तरेण लौकिकश्रुतनिरूपणार्थपुनस्तदिति अत्रोच्यते-योजीवोयोनिजन्मत्वनिष्क्रान्तोऽनेनैव शरीर माह- 'अहवा वावत्तरिकलाओ' इत्यादि, तत्र कलनानिवस्तुपरिसमुच्छ्रयेणादत्तेन जिनोपदिष्टेन भावेन श्रुतमित्येतत् पदमागामिकाले ज्ञानानि कलास्ताश्च द्विसप्ततिः समवायाङ्गादिग्रन्थप्रसिद्धाः, चत्वारश्च शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते तज्जीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरं द्रव्यश्रुत वेदाः सामवेदऋग्वेदय-जुर्वेदाथर्वणवेदलक्षणाः साङ्गोपाङ्गाः, तत्राङ्गानिमित्यर्थः / शेषं द्रव्यावश्यकवत् श्रुताभिलापेन सर्वं वाच्यम्, यावत् 'से शिक्षा 1 कल्प 2 व्याकरण 3 च्छन्दो 4 निरुक्त 5 ज्योतिष्कायन 6 त' मित्यादि निगमनम्। अनु०।। लक्षणानि, षट् उपाङ्गानि तद्-व्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्ते इति अथ भावश्रुतनिरूपणार्थमाह साङ्गोपाङ्गाः / 'से तमि' त्यादि निगमनम्। उक्तं नोआगमतो लौकिकं से किं तं भावसुयं ? भावसुयं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-| भावश्रुतम्। आगमतो अ,नोआगवतो अ। (सू०३८) अथ लोकोत्तरिकं तदेवाऽऽह - अत्रोत्तरम्- 'भावसुअं दुविहमि' त्यादि, विवक्षितपरिणामस्य भवन से किं तं लोउत्तरिअंनोआगमतो भावसुयं 7 लोउत्तरिअंनो भावः स चासौ श्रुतं चेति भावश्रुतं भावप्रधानं वा श्रुतं भावश्रुतं, तद् आगमतो भावसुयं जं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णद्विविधं प्रज्ञप्तम्-आगमतो, नोआगमतश्च / णाणदसणधरेहिं तीयपचुप्पण्णमणागयजाणएहिं सवण्णू हिं तत्राऽऽद्यभेदनिरूपणार्थमाह सव्वदरिसीहिं तिलुकबहितमहितपूइएहिं अप्पडिहयवरणाणसे किं तं आगमतो भावसुअं? आगमतो भावसुयं जाणए दसणधरेहिं पणी।(अनु०) से तं नोआगमतो भावसुआ। से उवउत्ते, से तं आगमतो भावसुअं। (सू०३६) तं भावसुअं। (सू०-४२४) अत्रोत्तरम्- श्रुतपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्त आगमतः- आगममाश्रित्य लोकोत्तरः-- लोकप्रधानरर्हद्भिः प्रणीतं लोकोत्तरिकम्, किं पुनस्तभावश्रुतम् श्रुतोपयोगपरिणामस्य सद्भावात् तस्य चाऽऽगमत्वादितिभावः दित्याह- 'लोउत्तरियं भावसुअंजं इममि' त्यादि, यदिदमर्हद्भिः'से तमि' त्यादि निगमनम्। द्वादशाङ्गं गणिपिटकं प्रणीतं तल्लोकोत्तरिकं भावश्रुतमिति सम्बन्धः, अथ द्वितीयभेद उच्यते तद्यथा-'आयारो सूयगडमि' त्यादि, तत्रसदेवमनुजासुरलोकविरचितां से किं तंनोआगमतो भावसुअं? नोआगमतो भावसुयं दुविहं पूजामर्हन्तीति अर्हन्तस्तैः, एवंभूताश्चातीर्थकरा अपि केवल्यादयो भवन्त्यत-स्तीर्थकरप्रतिपत्तये आह- "भगवद्भिरि' ति; समस्तैश्वर्यपण्णत्तं, तं जहा-लोइअं, लोगुत्तरिअंच / (सू०४०) निरुपमरूपयशः श्रीधर्मप्रयत्नवद्भिरित्यर्थः, इत्थंभूताश्च अनाद्यप्रतिघअत्रोत्तरम्-'नोआगमओ भावसुअंदुविहं पण्णत्तं, लोइलोउत्तरि ज्ञानादिमन्तः केचित् कैश्चिदभ्युपगम्यन्ते, उक्तं चैतद्वादिभिः- "ज्ञानअमि' त्यादि। मप्रतिघंयस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सह सिद्ध चतुष्टयम् ___ अत्राऽऽद्यभेदनिरूपणार्थमाह - / / 1 / / " इत्यादि / अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह-ज्ञानावरणक्षपणादिसे किं तं लोइनोआगमतो भावसुअं? लोइअंनोआगमतो | प्रकारेणोत्पन्नेन तु सहजे ज्ञानदर्शने धरन्तीत्युत्पन्नज्ञानदर्शनधरास्तैः, भावसुयं जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छट्ठिीहिं सच्छंदबुद्धिमइ- न च प्रस्तुतविशेषणव्यवच्छेद्या अप्येवंभूता एव- 'सह सिद्धं - विगप्पियं, तं जहा- भारहं रामायणं भीमासुरक कोडिल्लयं चतुष्टयमि' त्यादिवचनविरोधप्रसङ्गात्, तर्हि सुगता इत्थंभूतो अपि घोडयमुहं सगडमहिआउ कप्पासियं णागसुहुमं कणगसत्तरी- भविष्यन्तीत्याशङ्कयाऽऽह-'तीयपचुप्पण्णे' त्यादि, अतीतवर्तमानवेसियं वइसेसियं बुद्धसासणं काविलं लोगायतं सहियंतं भविष्यदर्श-ज्ञायकैरित्यर्थः,नच सुगतानामतीतभविष्यदर्थज्ञातृत्वमाढरपुराणवागरणनाडगाइ / अहवा-वावत्तरिकलाओ, चत्तारि सम्भवः, एकान्तक्षणभङ्गत्वादित्वेन तदसत्त्वाभ्युपगमाद्, असतां च वेआसंगोवंगा, से तं लोइयं नो आगमतो भावयसुं। (सू०४१) | ग्रहणेऽतिप्रसङ्गाद् / अथ सन्तानद्वारेण कालत्रयेऽप्यर्थानां सद्धा Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 974 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय वादतीताद्यर्थज्ञातृत्वं तेषामपिन विहन्यत इत्याशक्याह--'सर्वदर्शिभि' / मिति पाठान्तरम्, तत्रापि प्रशस्तं-- प्रधानं प्रथमं वा वचनं प्रवचनं, रिति, सर्वम्-एकेन्द्रियदीन्द्रियजीवादिवस्तु केवलज्ञानेन जानन्तीति मोक्षार्थमाज्ञप्यन्ते प्राणिनोऽनयेन्याज्ञा उक्तिः- वचनं वाम्योग इत्यर्थः सर्वज्ञाः, तदेव सर्वं केवलदर्शनेन पश्यन्तीति सर्वदर्शिनस्तैः,शाक्यानां हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेशनादुपदेशः यथावस्थितजीवादिपदार्थत्वतीताद्यर्थज्ञातृत्वेऽपि सर्वज्ञादित्वं नोपपद्यते, कतिपयधर्माद्यभीष्ट- ज्ञापनात् प्रज्ञापना, आचार्यपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः, आप्तवचनं पदार्थज्ञातृत्वस्यैव तेष्वभ्युपगमाद्, यत उक्तं तच्छिष्यैः- 'सर्वं पश्यतु वाऽऽगम इति, 'सूत्रे' सूत्रविषये एकार्थाः पर्याया इति गाथार्थः // 1 // ' मा वाऽसाविष्टमर्थ तुपश्यतु। कीटसङ्ख्या परिज्ञानं, तत्रनः क्वोपयुज्यते ? - से तं सुअं' इत्यादि / तदेतन्नामादिभेदैरुक्तं श्रुतमित्यर्थः / अनु० / // 1 // " इत्यादि, यथोक्तगुणविशिष्टत्वात्, 'तिल्लुक्कव-हियमहिये, अथ श्रुतपदस्य तं चिकीर्षुरिदमाह - त्यादि, 'वहिय' त्ति- विगलदहलानन्दोश्रुदृष्टिभिः सहर्षं निरीक्षिता आगमओ दध्वसुयं, वत्तासुत्तोवओगनिरवेक्खो। यथा-वस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भावस्तवेन महिता-- नोआगमओ जाणय- भव्वसरीरा-ऽइरित्तमिदं / / 877|| अभिष्ठुताः सुगन्धिपुष्पप्रकरक्षेपादिना तुद्रव्यस्तवेन पूजिताः, तत एषां इह नामस्थाने सुगमत्वाद नोक्ते। द्रव्यश्रुतं त्वागमतो, नोआगमतश्च / द्वन्द्रे त्रैलोक्येन-भवनपतिव्यन्तरनरविद्याधरवैमानिकादिसमुदाय तत्रागमतो द्रव्यश्रुतं वक्ता तदुपयोगनिरपेक्षः; अनुपयुक्त इत्यर्थः लक्षणेन वहितमहित पूजितास्तैः, अत्राऽऽह-ननूत्पन्नज्ञानदर्शनधरैरि नोआगमतस्तु त्रिविधम् ज्ञशरीद्रव्यश्रुतम्, भव्यशरीरद्रव्यश्रुतम्, त्युक्तम्, उत्पतिमत्सप्रतिघं दृष्ट यथा मूर्तेष्ववध्यादिज्ञानम्, उत्पन्ने च तद्व्यक्तिरिक्तं द्रव्यश्रुतं चेति / तत्राद्यभेदद्वयमावश्यकवदेव बोद्धव्यम्। तज्ज्ञानदर्शने अभ्युपगते, अतस्ताभ्यां तेसप्रतिघज्ञानिनः प्राप्नुवन्ति, तद्व्यतिरिक्तं त्विदं किम् ? इत्याहतथा च पूर्वोक्तसर्वज्ञत्वादि-हानिरित्याशङ्कयाऽऽह- 'अप्रतिहतवर पत्ताइगयं सुत्तं, सुत्तं च जमंडजाइपंचविहं। ज्ञानदर्शनधरैरिति, समस्तावरणक्षयसम्भूतत्वादप्रतिहते- मूर्तामूर्तेषु आगमओ भावसुयं, सुओवउत्तो तओ ऽणण्णो // 878|| समस्तवस्तुष्व-स्खलिते अत एव वरे-प्रधाने केवलज्ञानदर्शनलक्षणे इह श्रुतं सूत्रं च द्वे अपि किलैकार्थे। तत्र तलताल्यादिप्रभवाणि पत्राणि ज्ञानदर्शने धरन्ति येते तथा तैः / यत्त्ववध्यादेः सप्रतिधत्वं तन्नोत्पत्ति प्रतीतानि,तेषु गतं लिखितं सूत्रं पत्रादिगतम्, आदिशब्दात्-पत्रसंघातमुत्त्वेन, किं तर्हि ? आवरणसद्भावात्, अतोऽप्रतिघकेवलज्ञानदर्शने निष्पन्नाः पुस्तकाः वस्त्रादयश्च गृह्यन्ते, तेष्वपि लिखितं सूत्र ज्ञशरीर-- समस्तावरणक्षयसम्भूतत्वात, तत्क्षयेऽपि सप्रतिधत्वाभ्युपगमेऽति भव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुत मुच्यते। अथवा- अण्डजाद्यपि यदागमे प्रसङ्गाद् / इदं च विशेषणं कस्याञ्चिदेव वाचनायां दृश्यते, न सर्वत्र / पञ्चविधं सूत्रमुक्तम् / तद्यथा "अंडए, वोडए, कीडए, वालए, वागए" तदेवं यथोक्तप्रकारेण तावद् व्याख्यातान्यमूनि विशेषणानि अन्यथा एतदपि सूत्राभिधानसाम्याव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतमुच्यते। तत्राण्डाचतुवाऽविरोधतः सुधिया व्याख्येयानि / तैरर्थकथनद्वारेण प्रणीतम् रिन्द्रियकीटविशेषनिर्वर्तितकोशकाररूपाज्जातमण्डजं लोकप्रतीत प्ररूपितम्, द्वादशाङ्गं श्रुतम्, अनु०। (एतद्वक्तव्यता 'दुबालसंग' शब्दे चटकसूत्रमित्यर्थः / वोण्ड-वमनीफलं तस्माज्जातं वोण्डज कससूत्रचतुर्थभागे उक्ता / ) एतद्भणते च समर्थितं द्विविधमपि नोआगमतो मित्यर्थः। कीटजंतु पञ्चविधम्, तद्यथा-"पट्टे. मलए अंसुए, चीणंसुए, भावश्रुतम् अतस्तदपि निगमयति- ‘से तं नोआगमतो भावसुअं' किमिराए" एतेपश्चापि पट्टसूत्रविशेषाः। बालजमपि पञ्चविधम्, तद्यथाइत्यादि। एतद्भणेन चौक्तं सर्वमपि भावश्रुतमतो निगमयति-. 'से तं 'उण्णिए, उट्टिए मिगलोमिए, कोतवे, किट्टिसे' / तत्र मूषिकलोमभावसुअमिति / निष्पन्नम्-- कौतवम्, ऊर्णाद्युद्वरितकिट्टिसनिष्पन्नं सूत्रं किट्टिसम्; तदेवं स्वरूपत उक्तं भावश्रुतमनेनैव चात्राधिकार इत्यतोऽस्यैव अथवा, ऊर्णादीनां द्विकादिसंयोगनिष्पन्नं किट्टिसम्, यदिवा, उक्तशेषापर्यायनिरूपणार्थमाह ऽश्वादिजीवलोमनिष्पन्न किट्टिसम्। शेषं प्रतीतम्। सणाऽतस्यादिप्रभवं तस्स णं इमे एगडिया णाणाघोसा णाणावंजणा नामधेला वल्कजम् / तदेतत् सर्वमपि व्यरिक्तं द्रव्यश्रुतम् / भावश्रुतमपि द्विधा-- भवन्ति, तं जहा-"सुअसुतगंथसिद्धं-तसासणे आणाक्यण- आगमतः, नोआगमतश्च। तत्र श्रुतोपयुक्तस्तदध्येताऽऽगमतो भावश्रुतम्। उवएसे / पन्नवण आगमेऽवि अ, एगट्ठापञ्जवासुत्ते॥१॥" (5) ननूपयोग एव भावश्रुतं युज्यते, तत्कथमिह तद्वान् गृह्यते ? इत्याहसे तं सुअं। (सू० 43) 'तओऽणण्णो' त्ति-ततः श्रुतोपयोगादनन्य इति कृत्वोपचारतः स एव तस्य- श्रुतस्य अमूनि- अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षाणि भावश्रुतमुच्यत इति। एकार्थिकनि-तत्त्वत एकार्थविषयाणि-नानाघाषाणि पृथग्मिन्नोदात्ता नोआगमतो भावश्रुतमाह - दिस्वराणि नानाव्यञ्जनानिपृथगभिन्नाक्षराणि नामधेयानि पर्यायध्वनि- नोअगमओ भावे, लोइयलोउत्तरं पुराभिहियं / रूपाणि भवन्ति। तद्यथा- 'सुअगाहा, व्याख्या-गुरुसमीपे श्रूयत इति सम्मत्तपरिग्गहियं, सम्मसुयं मिच्छमियरं ति ||7|| श्रुतम् / आर्थानां सूचनात् सुत्रं, विप्रकीर्थग्रन्थाद् ग्रन्थः, सिद्ध- नोआगमतो भाव श्रुतं द्विविधम् - लौकि कं, लोकोत्तरं प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तम् संवेदननिष्ठारूपंनयतीति सिद्धान्तः, मिथ्या- च। तत्र लौकि कं भारत- रामायणादि / इदं चे है व पूर्व त्वाविरतिकषायादिप्रवृत्तजीवानां शासनातशिक्षणाच्छासनं, प्रवचन- श्रुतज्ञानविचारे प्रोक्तम् / लोकोत्तरं त्वङ्ग प्रविष्टादि, इदमपि Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 975 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय पूर्व तत्रैवोक्तम् / एतच्च सर्वं सम्यक्त्वपरिगृहीतं सम्यकश्रुतं, मिथ्यात्वपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमिति। ___ अत्र प्रेरकः प्राहआगमओ भावसुयं, जुत्तं नोआगमे कहं होइ। जइ नागमो न सुत्तं, अह सुत्तमणागमो किह णु ||880|| यदागमतो भावश्रुतमुक्तम्तयुक्तम्-घटत एव।नोआगमतस्तुभावश्रुतं कथं भवति ?- न घटत एवैतदित्यर्थः / तथाहि-नोशब्दस्तावद् निषेधवचनः, ततश्च यदि 'न'-नैवाऽऽगमः, तर्हि न श्रुतम्, तस्याऽऽगमरूपत्वात् / अथ श्रुतम्, तहवागमः कथम् ? तस्माद् नोआगमतो भावश्रुतमिति माता बन्ध्या' इत्यादिवद् विरुद्धमेवेति। प्रेरक एवाऽऽशङ्कयाहउवओगो जम्मत्ते, तं तं जइ वागमोऽवसेसंतु। नोआगमो ति एवं, किमणुवउत्तम्मि दव्वसुयं ? / / 881|| यदिवा-एवं सिद्धान्तवादी ब्रूयात् -यावन्मात्र यत्र यत्र श्रुताध्येतरि तदुपयोगस्तत्तदागमतो भावश्रुतम्, यत्त्ववशषमनुपयुक्तस्याध्येतुः श्रुतं तद् नोआगमतो भावश्रुतमिति सर्व सुस्थमिति। हन्त ! तर्हि आगमओ दव्वसुयं वत्ता सुत्तोवओगनिरवेक्खो' इत्यनेनाऽनुपयुक्ते वक्तरि यत्पूर्व द्रव्यश्रुतमुक्तं तत् किं स्यात्, तद्विषयस्येदानीं नोआगमतो भावश्रुतत्वेन त्वया प्रतिपाद्यमानत्वात् ? निर्विषयमेव तत् स्यादिति भावः / पर एवाचार्यमतमाशय परिहरन्नाहअविसुद्धनयमएण व, जइलद्धिसुयमणुवउत्ते वि। भावसुयं चिय पढओ, किमणुवउत्तस्स दव्वसुयं // 52 // यदि च सूरिरेतयात्-आवशुद्धनयमतेन श्रुतलब्धिरपि भावश्रुतमुच्यते। ततश्चानुपयुक्तेऽपिलब्धिसंपन्ने जीवे तल्लब्धिरूपं श्रुतंलब्धिश्रुतं भावश्रुतमेवाऽङ्गीक्रियते, अन्यत्तु लब्ध्यादिशून्यस्य यत् श्रुतं तद् द्रव्यश्रुतम्, इति न तस्य निर्विषयतेति भावः / हन्त ! तह्येनुपयुक्तस्य पठतो वक्तुः किंद्रव्यश्रुतम् ? तस्यापि श्रुतलब्धिसद्भावतो भावश्रुतप्राप्त्या तदवस्थैवद्रव्यश्रुतस्य निर्विषयतेति भावः। न हि श्रुतलब्धिरहितः कोऽपि पठति / तस्मादेतदपि वाङ्मात्रत्वाद् न किञ्चिदिति। __ अथाचार्यः प्रतिविधानमाह - आगम सुओवओगो, सुद्धो चिय म चरणाइसंमिस्सो। मीसेऽवि वा विवक्खा, सुयस्स चरणाइमिन्नस्स॥५८३|| इह तावत् सर्वस्याप्यस्य प्रक्रमस्य भावार्थ उच्यते-परेण निषेधवचनं नोशब्दमवगम्य पूर्वपक्षः कृतः / आचार्यस्तु मिश्रवचनं नोशब्दं चेतसि निधान प्रतिविधत्ते / मिश्रवचनेनापि नोशब्देन द्रव्यश्रुतम्, आगमतो भावश्रुतम्, नोआगमतो भावश्रुतं चेत्येतत्त्रितयं कथं पृथगुपपद्यते? इति चेत् / उच्यते-- अनुपयुक्तस्य श्रुताध्येतुस्तावद् द्रव्यश्रुतं 'आगम' त्ति एकदेशेन समुदायस्य गम्यमानत्वादागमतो भावश्रुतमुच्यते / किम्? इत्याह-शुद्ध एव श्रुतोपयोगः, न चरणादिमिश्रः / यदि वा-चरणादिमिश्रेऽपि श्रुतोपयोगेतद्भिन्ने श्रुतोपयोगस्य विवक्षा क्रियते। इदमुक्तं भवति- चरणादिमिश्रमपि श्रुतोपयोगं भिन्नं विवक्षितत्वादागमतो भावश्रुतमुच्यत इति। तर्हि नोआगमतो भावश्रुतं किम् ? इत्याहचरणाइसमेयम्मि उ, उवओगो जो सुएन तओं समए। नोआगमो त्ति भण्णइ, नोसद्दो मीसभावम्मि ||884|| चरणादिसमेतेतुश्रुतेयश्चरणादिमिश्र उपयोगस्तकोऽसौसमयप्रसिद्धया नोआगमतो भावश्रुतमुच्यते। नोशब्दश्चेह मिश्रवचन इति। निषेधवचनस्तु नोशब्दोऽत्र नेष्यते, यतोऽसौ सर्वनिषेधवचनो वा स्यात्, देशनिषेधवचनोवा? तत्र सर्वनिषेधवचनत्ये नोशब्दस्यदोषमाहसम्वनिसेहे दोसो, सय्वसुयमणागमो पसभेजा। होजावाऽणागमओ, सुयवज्जमणागमसुयं तु // 885 सर्वनिषेधवचने नोशब्दऽत्र गृह्यमाणे दोषः प्रसज्यते। कः ? इत्याह'सव्वसुयमित्यादि' नोआगमतो भावश्रुतमिति / कोऽर्थः ? अनागमः सर्वमपि यद् भावश्रुतमितिसर्वनिषेधवाचकत्वे नोशब्दस्य सर्वस्यापि भावश्रुतस्याऽऽगमत्वनिषेधः स्यादिति भावः / अयुक्तं चैतत्, श्रुतस्यागमत्वेन सुप्रतीतत्वात्। अथवा-सर्वनिषेधवाचके, नोशब्दे नोआगमतो भावश्रुतमित्ययमर्थः स्यात् / कः? इत्यत्रोच्यते-अनागमतोऽनागमत्वात् श्रुतवर्ज मत्यादिचतुष्टयात्मकंयदनागमरूपं ज्ञानंतत् श्रुतं भावश्रुतं भवेदिति।अश्रुतरूपस्यापि मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्य श्रुतप्रसङ्ग स्यादिति भावः। देशनिषेधवचनेऽप्यत्र नो शब्दे दूषणमाहदेसनिसेहे सयलं, नोआगमओ सुयं न पावेजा। भिन्नं पिवतं देसो, चरणाईणं पसजेजा।।८८६|| देशनिषेधवचनं नोशब्दे सकलमप्याचारादिश्रुतं नोआगमतो भावश्रुतं न प्राप्नुयात्- न स्यात्, किन्तु तदेकदेश एव नोआगमतो भावश्रुतं स्यादित्यर्थः। सर्वश्रुतस्य चैतदिष्यते, समस्तस्यापिद्वादशाङ्गगणिपिटकस्य ज्ञान-दर्शन- चारित्रपर्यायपिण्डाऽऽत्मकत्वाद् नोआगमत्वेन सिद्धान्ते रूढत्वात्, एतच मिश्रवचन एव नोशब्दे घटते, नान्यथेतिभावः / अत्रैकदेशनिषेधपक्षे दूषणान्तरमाह- 'भिन्नं पि वेत्यादि' 'वा' इति-- अथवा, भिन्नमपि पृथग्भूतमपिसत्तद्-भावश्रुतं चरणादीनामेकदेशः प्रसज्येत, अभिन्नदेशं चेष्यते तचरणादिभिः सह, धात्वञ्जनकपिशवर्णकवत्, अन्यथा संकरैकत्वादिदोष-प्रसङ्गादिति। किञ्च, देशनिषेधको नोशब्द एकदेशवाचकः, तत्र चापरोऽपि, दोषः / कः? इत्याहहोज व नोआगमओ, सुओवउत्तो विजंस देसम्मि। उवजुअइन उसव्वे, तेणायं मीसभावम्मि॥१८७|| यः श्रुतोपयुक्तः पूर्वमागमतो भावश्रुतमुक्तः, सोऽपिनोशब्दस्य देशवचनत्वे नोआगमतो भावश्रुतं भवेत्। कुतः ? इत्याह-यद्यस्मात् स श्रुतैकदेश एवोपयुज्यते, नतुसर्वस्मिन्नपि श्रुते, सर्वस्यापि श्रुतस्याऽनन्ताभिन्नप्यार्थ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 976 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय विषयत्वात्, एतदुपयोगस्य चैकदाऽसंभवात् / ततश्चैकदेशवचनत्वे | नोशब्दस्याऽयं नो आगमः / तस्माद् येनैवं सति आगम-नोआगमभावश्रुतयोरविशेषः प्राप्नोति, तेनात्यं नोशब्दो मिश्रभावे ग्राह्य इति। अथ प्रेरकाभिप्रायमाशङ्कमान आहआह नणु मीसभावे, नाभिहिओ, अभिहिओ य नोसहो।। देसे तदन्नभावे, दवे किरियाएँ भावे य॥५८|| आह-प्रतिषेधवाचकत्वाद् नोशब्दो मिश्रभावे न क्वचिदभि-हितः। किं तर्हि ? देशादिषु पञ्चस्वर्थेष्वभिहितः। तत्र देशे नोघटो घटैकदेश उच्यते, यतोघटैकदेशस्तावदघटो न वक्तव्यः, नापिघटः, किंतर्हि ? नोघटः। तथाहि-घटैकदेशस्यग्रीवादेरघटत्वे तदन्यदेशानामपितद्वदेवाऽघटत्वात् सर्वघटाभावप्रसङ्गः, एवं, पट-शकटादावप्यभावप्रसङ्गेन सर्वशून्यतापत्तिः। नापिघटैकदेशो घटः, एवं हि प्रत्यव एवं घटप्राप्त्यैकस्मिन्नपि घटे घटबाहुल्यापत्तिः, तथा च सत्येकघटविषयप्रवृत्ति-निवृत्त्यादिव्यवहारोच्छेदप्रसङ्गः। तस्मात् पारिशेष्याघटैकदेशो नोघट एवोच्यते, पर्यायशब्दत्वादनयोः। तदन्यभावेऽपिनोशब्दो दृश्यते, यथा 'नोघटः' इत्युक्ते तदन्यः पटादिः प्रतीयते, यथा 'नो ब्राह्मणः' इत्यभिहिते क्षत्रियादिर्गम्यते / द्रव्ये तु नोशब्दो घटैकदेशवचनादिः- नो घटः, नो पटः, नो स्तम्भ इत्यादि घटोधेकदेशवाचक इत्यर्थः / ननु देशवाचकादस्य को भेदः? इतिचेत् / उच्यते-तत्रघटादिसंबद्धएव तदेकदेशोनोवटादिरुक्तः, अत्र तुस एव घटाघेकदेशो ग्रीवादिः पृथगभूतो रथ्यादिपतितः स्वतन्त्र एव गृह्यते। सचघटादेः पार्थक्येन वर्तमानत्वात् पृथगेव स्वतन्त्रं द्रव्यम्, इति द्रव्ये नो-शब्दः / क्रियानिषेधवचनो नोशब्दः - 'नो पचति, नो पक्तव्यमित्यादि / भावनिषेधे तु नोशब्दो 'नो शय्यते, नो स्थीयते' इत्यादि / भाव-क्रिययोश्च विशेषः सिद्ध-साध्यतादिरूपः कोऽपि शब्दशास्त्रादिगतो बोद्धव्यः / इत्येवं विवक्षावशाद् देशादिप्वर्थेषु दृष्टो नोशब्दः, न तु मिश्रभाव इति। अत्रोत्तरमाह - सचमयं देसाइसु, तह वत्थवसेण सद्दविणिओगो। अमियत्था य निवाया, जुन्नइ तो मीसभावे वि||६|| सत्यम्, देशप्रतिषेधादिवचनोऽयं नोशब्दः, तथाप्यर्थव-शाच्छब्दानां विनियोगः- यो यत्राऽर्थो घटते, तस्मिन्नर्थे तत्र ते प्रयुज्यन्त इत्यर्थः / आह- नन्वेकस्यापि शब्दस्य किमनेकार्था विद्यन्ते, येनैवमुच्यते ? इत्याशक्याह-द्योतकत्वे-नापरिमितार्थाश्च निपाता इति मिश्रवचनोऽपि प्रयुज्यते नोशब्दः, न किञ्चित् क्ष्यत इति। अथवा- देशवचनोऽपि भवत्वत्र नोशब्दः, न कश्चिद् दोषः, इति दर्शयन्नाह अविसेसियसंमिस्सो-वओगदेसु त्ति वा सुयं काउं। नोआगमभावसुए, नोसद्दो होज देसे वि||८|| अविशेषितश्चासौ ज्ञान--दर्शन-चारित्राणां परिपूर्ण-घटादिरिवाऽखण्डः | संमिश्रोपयोगश्चाविशेषितसंमिश्रोपयोगस्तस्य घटादेीवादिरिव श्रुतं देश एकदेश इति कृत्वा नोआगमतो भावश्रुते विचार्ये नोशब्दो देशेऽपियुज्यते। इदमुक्तं भवति- यथा सामान्येन परिपूर्णघटादेरिहाऽखण्डस्यैकदेशो ग्रीवादितॊघट उच्यते, एवमविशेषितभेदस्य ज्ञान-क्रियापरिणामरूपस्याऽखण्डस्य वस्तुनः श्रुतमेकदेश इति कृत्वा ज्ञान-क्रियापरिणामो नोआगमतो भावश्रुतमिति स्थितम्। ___ अथ मतान्तरमुपदर्थ्य परिहरन्नाहनीआगमओ केई, सदसहायमुवओगमिच्छंति। नणु सुतरमागमत्तं, हि दव्व-भावागमे जुत्तं // 881|| केचिदाचार्याः शब्दसहायं श्रुतोपयोग नोआगमतो भावश्रुतमिच्छन्ति / अयमभिप्रायः--श्रुतोपयोगपूर्वकं ब्रुवाणस्य यः श्रुतोपयोगसहितः शब्दः स नोआगमतो भावश्रुतम् / तत्र किलोपयोग-शब्दसमुदाये उपयोगलक्षणस्याऽऽगमस्यैकदेशत्वात्, शब्दनिरपेक्ष तूपयोगमात्र-मागमतो भावश्रुतमिति। एतचायुक्तमिति दर्शयति-'नण्वित्यादि नन्वत्र हि स्फुट श्रुतोपयोगो भावागमः, शब्दस्तु द्रव्यागमः, इति सुतरामागमत्वमेव युक्तम्, आगमत एव श्रुतं युज्यते, न तु नोआगमत इत्यर्थः / यदि हि केवलोऽपि श्रुतोपयोग आगम उच्यते, तर्हि द्वितीये शब्दलक्षणे द्रव्यागमे मिलिते सुतरामयमागम एव युज्यते, न तु नोआगमः, आगमाऽनागमसमुदाय एव तस्य युज्यमानत्वादिति भावः। __ पराभिप्रायमेवाशय निराचिकीर्षुराहअह नागमो त्ति सद्दो, नोआगमया य तदहियत्तणओ। आगमओ दव्वसुयं, किह सदो नागमो जइ सो // 892| अथ परोमन्येत-शब्द आगमो न भवति, तत उपयोगस्यतदधिकत्वादनागमरूपशब्दाधिकत्वात् नोआगमता, आगमाऽनागमसमुदाये आगमस्यैकदेशत्वाद् नोआगमत्वमित्यभिप्राय / अत्र सूरिराह हन्त ! यद्यसौ शब्द आगमो न भवति तागमतो द्रव्यश्रुतं स्यात् ? सुवतीतमप्यस्येत्थमागतो द्रव्यश्रुतत्वं न स्यात्, अनागमत्वात्। तस्माद् द्रव्यत आगम एवाऽयम्, अतो द्रव्यागमसहायो भावागम आगमत एव भावश्रुतम्, न तु नोआगमत इति स्थितम्। अथान्यदपि मनान्तरमुपन्यस्य दूषयतिअन्ने नोआगमओ, सामित्ताणासियं सुयं वें ति। जइन सुयमणुवओगे, नणु सुयरमणासियं नत्थि / / 863|| अन्येतुकेचनाऽप्याचार्याः स्वामिनमाश्रितं श्रुतोपयोगंभावश्रुतं ब्रुवते, स्वाम्यनाश्रितं तुतमेव नोआगमतो भावश्रुतं ब्रुवते, एतचातिफल्म्वेवेति दर्शयति- 'जईत्यादि' यद्यनुपयुक्तेऽपि वक्तरि श्रुतं नोक्तम्, किन्तु विशिष्टऽपि तस्मिन् स्वामिनि द्रव्यश्रुतमेव पूर्वमभिहितम् / मूढ ! तर्हि सुतरामेवाऽनाश्रितंभावश्रुतं नास्ति, स्वामिनमन्तरेण पुस्तकादिलिखिते श्रुते उपयोगस्य दूरोत्सारितत्वात्, उपयोगमन्तरेण च भावश्रुतस्य सर्वथाऽसत्त्वात्; 'स्वाम्यनाश्रितंच श्रुतं क्वाप्यस्ति' इति प्रतिपादयितुर्महासाहसिकत्वमिति यत् किञ्चिदेतदिति। तदेवमुक्तंनोआगमतोऽपि भावश्रुतम्। Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय ९७७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय अथ श्रुतस्यैकार्थिकनामान्याहसुत-सुत्त-गंथ-सिद्धतं-सासणे-आण वयण-उवएसो। पण्णवण आगमो विय, एगहापजया सुत्ते / / 864|| एतेषां च नानामर्थः प्रागतिदेशेनोक्त एवेति। तदेवं विहितः श्रुतस्यापि नामादिन्यासः। विशे०। उत्त०। आ०म०। स्था०।दशबृ०। सूत्र०। (श्रुतैकार्थिकानां व्याख्या स्वस्वस्थाने।) श्रुतज्ञानस्य अनन्ता भेदाःकत्तो मे वण्णे, सत्ती सुयनाणसव्वपयडीओ? चोद्दसविहनिक्खेवं, सुयनाणे आवि वोच्छामि[vell कुतो मे शक्तिः सामार्थ्यम् ? नास्त्येवेत्यर्थः। किं कर्तुं ? वर्णयितुम् / काः? श्रुतज्ञानसर्वप्रकृतीः सस्तिद्भेदान् / ततश्चतुदर्शशविधश्चासौ निक्षेपश्च चतुर्दशविधनिक्षेपो-न्यासस्तं वक्ष्यामि-भणिष्यामि, श्रुतज्ञाने श्रुतविषयं, चशब्दात्-श्रुताज्ञानविषयंच, अपिशब्दाद्-उभयविषयं च / तत्र श्रुतज्ञाने सम्यक्श्रुते, श्रुताज्ञाने असंज्ञिमिथ्याश्रुते, उभ्यश्रुते दर्शनपरिग्रहविशेषादक्षराऽनक्षरादिश्रुते। इति नियुक्तिगाथार्थः। अथैतद्भाष्यम्पयडि त्ति जो तदंसो, हेऊ वा तस्स तस्स भावो वा। ते याणंता सव्वे, तओन तीरंति वोत्तुं जे // 50 // इह प्रकृतिरिति किमुच्यते ? इत्याह-यस्तदंशः - श्रुतज्ञानांशस्तवेदोऽङ्गप्रविष्टादिरित्यर्थः / हेतुर्वा बाह्याऽऽभ्यन्तरभेदभिन्नो यः श्रुतज्ञानस्य स प्रकृतिः / तत्र बाह्यो हेतुः श्रुतज्ञानस्य पत्रलिखिताक्षरादिः, आन्तरस्तुतद्धेतुः क्षयोपशमवैचित्र्यम्, तस्य श्रुतस्य स्वभावो वैकेन्द्रियादीनां चतुर्दशपूर्वधरान्तानां जीवानां तारतम्येन भिन्नरूपः प्रकृतिः प्रोच्यते / एते चांशाः, हेतवः, स्वभावाश्चाऽनन्ताः सर्वेऽपि; अत आयुषः परिमितत्वाद्वाचश्च क्रमवर्तित्वात्नशक्यन्तेवतुम्। 'जे इतिनिपाताडलङ्कारार्थ इति। एतदेव भावयतिजावंतो वयणपहा, सुयाणुसारेण केइ लभंति। ते सव्वे सुयनाणं, ते याणंता मइविसेसा / / 451 // इह यावन्तः केचन श्रुतानुसारेण संकेताः श्रुतग्रन्थानुसारेण लभ्यनते-- प्राप्यन्ते वचनस्य पन्थानोमार्गा मतिज्ञानविशेषा इति तात्पर्यम्, ते सर्वेऽपि श्रुतज्ञानमिति। एवं 'ते वि य मइविसेसा सुयनाणभंतरे जाण' इत्यादिमतिश्रुतभेदविचारे पूर्व प्रतिपादिताः, तेच श्रुतानुसारिणो मतिविशेषा अनन्ता इति। ननु यदि मतिविशेषाः कथं श्रुतज्ञानम् ? इतितुन प्रेर्यम्, श्रुतानुसारिणो विशिष्टस्य मतिविशेषस्यैव श्रुतत्वात् / एतच्च पूर्व विस्तरेण समर्थितमेवेति। यदि नामाऽनन्ताः श्रुतभेदास्तथापि ते वक्तुं शक्यन्त एव, इत्याशङ्कयाहउकोससुयन्नाणी, वि जाणमाणो वितेऽभिलप्पे वि। न तरइ सव्वे वोत्तुं, न पहुप्पइ जेण कालो से ||552|| उकृष्टश्रुतज्ञानलब्धिसंपन्नोऽपि चतुर्दशपूर्वधरो जानन्नपि, अभिलप्यानपि तानृ श्रुतज्ञानविशेषाननन्तान् सर्वानपि वक्तुं न शक्रोति कुतः? इत्याह-येन कारणेन 'से' तस्योत्कृष्टश्रुतज्ञानिनो वदतः कालो न प्रभवति-न पूर्यते, आयुषः परिमितत्वात्, वाचश्च क्रमवर्तित्वात्।यदा चोत्कृष्टः श्रुतधरोऽपि सर्वान् श्रुतभेदान् वक्तुं न शक्रोति, तदाऽन्यस्याऽस्मददिः का वार्ता ? इति भावः / विशे०। श्रुतज्ञानस्य अनन्ता भेदाःश्रुतज्ञानं पुनर्भवति मतिपूर्व मतिकारकं श्रुतज्ञानं हि वाच्यवाचकभावेन शब्दप्लावितस्यार्थस्य ग्रहणं वाच्यवाचकभावेन चशब्दः प्रवर्तते मत्यवधारितेऽर्थे इति, तत्पुनः श्रुतज्ञानं सर्वमपि मूलभेदापेक्षया द्विविधम्, तद्यथा- स्वमतिसमुत्थं, परोपपदेशाद्वा; परोपदेशसमुत्थं चेत्यर्थः, तत्र स्वमतिसमुत्थं प्रत्येकबुद्धानां पदानुसारिप्रज्ञानां वा। परोपदेशसमुत्थमस्मदादीनाम्। तत्कतिविधमिति तद्भेदप्रदर्शनार्थमाह / बृ०१उ०१प्रक०। 'चोद्दसविहनिक्खेव' इत्याद्युत्तरार्ध व्याचिख्यासुराहनाणम्मि सुए चोहस-विहं चसद्देण तह य अन्नाणे। अविसहेणुभयम्मि वि, किंचि जहासंभवं वोच्छं॥४५३|| सम्यक्श्रुतादौ श्रुतज्ञाने चतुर्थशविधं निपेक्षं चशब्देन श्रुताज्ञाने च मिथ्याश्रुतादौ, अपिशब्दादुभयरूपेचदर्शनपरिग्रह-विशेषादक्षराऽनक्षरादिश्रुते किंचिद् यथासंभवं निक्षेपं वक्ष्ये। इतिगाथार्थः / तमेव चतुर्दशविधं निक्षेपमाहअक्खर सण्णी सम्म, साईयं खलु सपज्जवसियं च / गमियं अंगपविहं, सत्त वि एएसपडिवक्खा।।४५४|| अक्षरादीनि सप्त द्वाराण्यनक्षरादिप्रतिपक्षसहितानि चतुर्दश भवन्ति। विशे०। सकलचरणकरणक्रियाधारश्रुतज्ञानस्वरूपजिज्ञासया शिष्यः प्रश्नयति से किं तं सुयनाणपरोक्खं ? सुयनाणपरोक्खं चोहसविहं पन्नत्तं,तं जहा-अक्खरसुयं 1 अणक्खरसुयं 2 सण्णिसुअं३ असण्णिसुअं४ सम्मसुअं५ मिच्छसुअं६ साइअं७ अणाइअं 8 सपञ्जवसिअं अपञ्जवसि 10 गमिअं 11 अगमिअं१२ अंगपविढे 13 अणंगपविट्ठ 15 / (सू०३७) अथ किंतच्छुतज्ञानम् ? आचार्य आह-श्रुतज्ञानं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतं संजिश्रुतमसंज्ञिश्रुतंसम्यश्रुतं मिथ्याश्रुतं सादि अनादि सपर्यवसितमपर्यवसितं गमिकमगमिकमङ्गप्रविष्ट - मनङ्ग प्रविष्टं च / ननु अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतरूप एव भेदद्वये शेषभेदा अन्तर्भवन्तितत्किमर्थं तेषां भेदोपन्यासः? उच्यते-इहाव्युत्पन्नमतीनां विशेषावगमसम्पादनाय महात्मनां शास्त्रारम्भप्रयासो, न चाक्षरश्रुतानक्षरश्रुतरूपभेदद्वयोपन्या-समात्रादव्युत्पन्नमतयः शेषभेदोपन्यास इति। नं०। (अक्षरश्रुतादिपदानां व्याख्या स्वस्वस्थाने।) Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 978- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय अथ संज्ञिश्रुतमभिधित्सुराहसण्णिस्स सुयं जंतं, सण्णिसुयं सोय जस्स सासण्णा। होइ तिहा कालियहे-उदिहिवाओवएसेणं // 504|| संज्ञिश्रुतं तावत्तदेवाऽभिधीयते यत् संज्ञिनः संबन्धिा सोऽपि संज्ञीस एव यस्याऽसौ संज्ञा समस्ति। सा च संज्ञा त्रिविधा भवति-दीर्घशब्दलोपा दीर्घकालिकोपदेशेन, हेतुवादोपदेशेन, दृष्टिवादोपदेशेन चेति। अत्र परः प्राहजइ सण्णासंबंधे-ण सण्णिणो, तेण सण्णिणो सवे। एगिदियाइयाण वि, जंसण्णा दसविहा भणिया // 50 // संज्ञा विद्यतेयेषांतेसंज्ञिनः, इत्येवं संज्ञासंबन्धाद्यदि संज्ञिन इष्यन्ते तदा तेन संज्ञासंबन्धेन सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयो जीवाः संज्ञिनः प्राप्नुवन्ति, न पुनः केऽप्यसंज्ञिनः इत्येव-मतिव्याप्तिप्रसङ्गः, यतः सर्वजीवानामेकेन्द्रियादीनामपि प्रज्ञापनादिषु संज्ञा दशविधा भणिता, तद्यथा"एगिदियाणं भंते ! कइविहा सण्णा पन्नत्ता ? गोयमा ! दसविहा, तं जहा-- आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोहसण्णा, ऑहसण्णा, लोगस / एवंद्वीन्द्रियादीनामपि वाच्यम्। तत् के नामेत्थमसंज्ञिनः ? प्रोक्ताश्चैतेऽनेकशस्तेषु तेषु प्रदेशेष्वागमे, ततः कथमेतत् ? इति। अत्र परिहारमाह - थोवा न सोहणा विय, जसा तो नाहि कीरए इहई। करिसावणेण धणवं, न रूववं मुत्तिमेत्तेण / / 506 / / जइ बहुदव्वो धणवं, पसत्थरूवो अरूव होइ। महइ सोहणाए य, तह सण्णी नाणसण्णाए।५०७।। यद्-यस्मात् कारणात्सा दशविधा संज्ञा काचित् तावदोघसंज्ञात्मिका स्तोका इति स्वल्पा, ततोऽत्र नाधिक्रियते-न तया संज्ञी वक्तुं युज्यत इति भावः / न हि कार्षापणमात्रास्तित्वेन लोकेऽपि धनवानुच्यते। आहार- भयपरिग्रह-मैथुनादिसंज्ञात्मिकाऽपि च भूयस्यपीह नाधिक्रियते, तामप्याश्रित्य न 'संज्ञी' इति निर्दिश्यत इत्यर्थः, यतो नाऽसौ शोभना-मोहादिजन्यत्वेन नासौ विशिष्टत्यर्थः। नचाविशिष्टया संज्ञया 'संज्ञी' इत्यभिधातुं युज्यते / न हि लोकेऽप्यविशिष्टन मूर्तिमात्रेण 'रूपवान्' इत्यभिधीयते / तर्हि कीदृश्या संज्ञयाऽत्र संज्ञी प्रोच्यते ? इत्याह-यथा लोके बहुद्रव्य एव धनवानभिधीयते, प्रशस्तरूपश्च रूपवान् भवति, तथाऽत्रापिमहत्या शोभनया च ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमजन्यमनोज्ञानसंज्ञयैव संज्ञा व्यपदिश्यते-संज्ञानं संज्ञा; मनोविज्ञानमित्यर्थः, तद्रूपा महती, शोभना च संज्ञेहाऽधिक्रियते, नान्येति भावः / ततश्चैषा मनोज्ञानरूपा संज्ञा येषामस्ति ते संज्ञिनः, नान्य इति। विशे०। एषा च संज्ञा यस्याऽस्त्यसौ कालिकसंज्ञी, सच यो भवति, एतद् दर्शयतिकालियसण्णि त्ति तओ, जस्स तई सो य जो मणोजोगे। खंधे णं ते घेत्तुं, मन्नइ तल्लद्धिसंपण्णो ||506 / / 'तउ' ति तकोऽसौ 'कालिकसंज्ञी' इत्यभिधीयते / यस्य किम् ? | इत्याह 'जस्स तइ' त्ति यस्याऽसौ कालिकसंज्ञा प्राप्यते / स च'को विज्ञेयः ? इत्याह- 'सो य जो मणोजोग्गेत्यादि' स च-कालिकसंझी विज्ञेयो 'यो' यः कश्चिद् मनोज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमाद् मनोलब्धिसंपन्नो मनोयोग्यानन्तान् स्कन्धान् मनोवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्य मन्यते चिन्तनीयं वस्त्विति। सचगर्भजस्तिर्यङ् मनुष्यो वा, देवः, नारकश्चेति। अस्य चैवंभूतस्य संज्ञिनः किं भवति ? इत्याहरूवे जहोवलद्धी, चक्खुमओ दंसिए पयासेणं / तह छविहोवओगो, मणदव्वपयासिए अत्थे // 510 / / यथा रूपे घट-पटादिसंबन्धिनि चक्षुष्मतो लोचनयुक्तस्य जन्तोरुपलब्धिश्चक्षुर्विज्ञानमुत्पद्यते। कथंभूते रूपे ? दर्शिते प्रदीपादिप्रकाशेन, तथा तेनैव प्रकारणे मनोविज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमवतो जीवस्य चिन्ताप्रवर्तकमनस्त्वपरिणतमनोद्रव्यप्रकाशिते शब्दरूपादिकेऽर्थे मनःषष्ठेनिद्रयपञ्चकभेदात् षड्विधोपयोगस्त्रिकालविषयोऽपि समुपजायत इति। अत्र विनेयः पृच्छतिानन्वसंज्ञिनः किं सर्वथैवेन्द्रियो पलब्धिर्न भवति ? इत्याहअविसुद्धचक्खुणो जह, नाइपयासम्मि रूवविण्णाणं / असण्णिोतहत्थे, थोवमणोदवलद्धिमओ॥१११|| यथाऽविशुद्धचक्षुषो नातिप्रकाशे मन्दमन्दप्रकाशान्वितप्रदेशेऽस्पष्टा रूपोपलब्धिर्भवति, एवमसंज्ञिनः सन्मूर्छनजपञ्चेन्द्रियस्य स्वल्पमनोविज्ञानक्षयोपशमवशादतिस्तोकमनोद्रव्यग्रहणशक्तेः शब्दाद्यर्थे - स्पष्टवोपलब्धिर्भवतीति। यदि सन्मूर्च्छनजपञ्चेन्द्रियस्यैवंभूतमस्पष्टं ज्ञानं भवति, तर्वेकन्द्रियादीनां तत् कथंभूतं भवति ? इत्याहजह मुच्छियाइयाणं, अव्वत्तं सव्वविसयविण्णाणं। एगेंदियाण एवं, सुद्धयरं बेंदियाईणं / / 512 // यथा मूञ्छितादीनां सर्वेष्वप्यर्थेष्वव्यक्तमेव ज्ञानं भवति, एवमतिप्रकष्टावरणोदयादेकेन्द्रियाणामपि; ततःशुद्धतरं शुद्धतमंद्वीन्द्रियादीनामापञ्चेन्द्रियसन्मूछेजेभ्यः, ततः सर्वस्पष्टतम संज्ञिनामिति / आह-कुतः पुनश्चैतन्ये समानेऽपि जन्तूनामिद-मुपलब्धिनानात्वम् ? उच्यतेसामर्थ्यभेदात्; सच क्षयोपशमवैचित्र्यात्। एतदेवाहतुल्ले छेयगमावे, जं सामत्थं तु चक्करयणस्स। तं तु जहकमहीणं, न होइ सरपत्तमाईणं // 513 // ईय मणोविसईणं, जा पड्डया होइ उग्गहाईस। तुल्ले चेयणभावे, अस्स (स) ण्णीणं न सा होइ / / 14|| इह यथा तुल्येऽपि छेदकभावे चक्रवर्तिसंबन्धिनश्चक्ररत्नस्य यच्छेदनसामर्थ्य तदन्येषां खग--दात्र--शरपत्रा-दीनां छेदकवस्तूनां न भवत्येव / कुतः ? इत्याह-यतो यथाक्रमहीनं क्रमशो हीयमानमेव तत् तेष्विति। प्रकृते योजयन्नाह- 'ईय' त्ति दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। इत्येवं चैतन्ये Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 676 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय तुल्येऽपि मनोविषयिणां संज्ञिनामवग्रहेहादिषु यावत्स्वव-बोधापटुता भवति सा तथाविधक्षयोपशमविकलानां यथोक्तदीर्घकालिक-संज्ञारहितानां सन्मूर्छजपञ्चेन्द्रिय-विकलेन्द्रियै-केन्द्रियाणामसंज्ञिनां न भवत्येव, क्रमशो हीनत्वादिति। तदेवं कालिकसंज्ञाविषय उपदेशो भणनं प्ररूपणं कालिकोपदेशस्तेन प्रोक्तः संज्ञी। सांप्रतं हेतुः, निमित्तं, कारणम्, इत्यनर्थान्तरं, तस्य वदनं वादस्तद्विषय उपदेशः प्ररूपणं हेतुवादोपदेशस्तेन संज्ञिनमसंज्ञिनं चाभिधित्सुराह - जे पुण संचिंतेचं, इट्ठा-णिद्वेसु विसयवत्थूसुं। वटुंति निवटृति य, सदेहपरिपालणाहेउं॥५१॥ पाएण संपए चिय, कालम्मिन याइदीहकालण्णा। ते हेउवायसण्णी, निबेट्ठा, हो ति अस्सण्णी॥५१६|| ये पुनः संचिन्त्य संचिन्त्य इष्टानिष्टषु छाया-तपा-हारा-दिविषयवस्तुषु मध्ये स्वदेहपरिपालनाहेतोरिष्टषु वर्तन्ते, अनिष्टभ्यस्तु तेभ्य एव निवर्तन्ते, प्रायेण च सांप्रतकाल एव,नत्वतीतानागतकालावलम्बिनः, प्रायोग्रहणात्, केचिदतीताऽनागतावलम्बिनोऽपि नातिदीर्घकालानुसारिणः, ते द्वीन्द्रियादयो हेतुवादोपदेशेन संझिनो विज्ञेयाः। तथाहिसंज्ञिनो द्वीन्द्रियादयः, संचिन्त्य संचिन्त्य हेयोपादेयेषु निवृत्ति-प्रवृत्तेः, देवदत्तादिवदिति / तदेवं हेतुवादिनोऽभिप्रायेण निश्चेष्टाः पृथिव्यादय एवाऽसंज्ञिन इति। अथ दृष्टिदर्शनं सम्यक्त्वादितस्य वदनं वादस्तद्विषय उपदेशः प्ररूपणं तेन संज्ञिनम संज्ञिनं च प्ररूपयन्नाहसम्मविही सण्णी, संते नाणे खओवसमियम्मि। अस्सण्णी मिच्छत्त-म्मि दिहिवाओवएसेण // 17 // दृिष्टिवादोपदेशेन क्षायोपशमिकज्ञाने वर्तमानः सम्यग्दृष्टिरेव संज्ञी, विशिष्टसंज्ञायुक्तत्वात्; मिथ्यादृष्टिस्त्वसंज्ञी, विपर्यस्तत्वेन वस्तुतः संज्ञारहितत्वादिति। आह-यदि विशिष्टसंज्ञायुक्तत्वात्सम्यग्दृष्टिः संज्ञीष्यते, तर्हि किमिति क्षायोपशमिकज्ञाने वर्तमानोऽसौ गृह्यते? क्षायिकज्ञाने हि तस्य विशिष्टतराऽसौ प्राप्यते / ततस्तद्वृत्तिरप्यसौ किं नाङ्गीक्रियते, येनोच्यते'संते नाणे खओवसनियम्मि' इति ? एतदाशय पूर्वमुत्तरमाहखयनाणी किं सण्णी, न होइ होइ व खओवसमनाणी। सण्णा सरणमणागय-चिंता य न सा जिणे जम्हा / / 518 // | आवरणस्य सर्वथैव क्षयेण ज्ञानी क्षयज्ञानी; केवलीत्यर्थः, असौ संज्ञी किमिति न भवति ? किमर्थं च क्षायोपशमिकज्ञानी संज्ञी भवतीति / व्याख्यायते भवता? एवं परेणोक्ते सत्याह- 'सण्णेत्यादि केवली संज्ञी | न भवति, यतोऽतीतार्थस्य स्मरणम्, अनागतस्य च चिन्ता, संज्ञोच्यते, सा च जिने केवलिनो नास्तीति, सर्वदा सर्वार्थावभासकत्वेन केवलिनां स्मरण-चिन्ताद्यतीतत्वात् / इति क्षायोपशमिकज्ञान्येव सम्यग्दृष्टिः संज्ञीति। पुनरपि प्रकारान्तरेणाऽऽह परःमिच्छो हियाहियविभा-गनाणसण्णासमण्णिओ कोइ। दीसइ सो किमसण्णी, सण्णा जमसोहणा तस्स // 19 // ननु मिथ्यादृष्टिरपि कश्चिदैहिकाद्यर्थविषयहिताऽहितविभागज्ञानात्मकस्पष्टसंज्ञासमन्वित एव दृश्यते, ततः किमित्यसौ संज्ञी न भवति, येन दृष्टिवादोपदेशेनाऽयमसंज्ञी प्रोच्यते? इति। गुरुराह-यद्-यस्मादशोभना कुत्सिता तस्य मिथ्यादृष्टः संज्ञा, तेन सत्याऽपि तयाऽयमसंज्ञीति। आह-ननु यद्यप्यशोभनाऽस्य संज्ञा, तथापि कथं तस्या अभावः? इत्याह --- जह दुव्वयणमवयणं, कुच्छियसीलं असीलमसईए। भण्णइ तह नाणं पिहु, मिच्छद्दिहिस्स अण्णाणं / / 520 / / यथा दुर्वचनं कुत्सितं वचनं सदप्यवचनं लोके भण्यते, असत्याश्च संबन्धि, कुत्सितं शीलं विद्यमानमप्यशीलं यथाऽभिधीयते, तथा मिथ्यादृष्टानमपि मिथ्यादर्शनोदयपरिग्रहादज्ञानं बम्भण्यते; संज्ञाऽप्यसंज्ञोच्यत इत्यर्थः। कस्मात् पुनस्तस्य ज्ञानमप्यज्ञानं भवति? इत्याहसदसदविसेसणाओ, भवहेउजहिच्छिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ, मिच्छद्दिहिस्स अण्णाणं // 521 / / प्राग् व्याख्याताथैव। आह-ननु देव-नारक- गर्भजतिर्यङ्- मनुष्यलक्षयो मिथ्यादृष्टिर्दीर्घकालिकी संज्ञामाश्रित्य दृष्टिवादोपदेश-संज्ञाविचारेऽपि संज्ञी कस्माद् नोच्यते ? इत्याहऊहो न हेउए हे-ऊई न कालम्मि भण्णई सण्णा। जह कुच्छियत्तणाओ, तह कालो दिट्ठिवायम्मि॥५२२।। यथा ऊहः पृथिव्यादीनां संबन्धिनी; ओधमात्रसंज्ञेत्यर्थः, न 'हेउए' त्ति हेतुवादसंज्ञायां विचार्यमाणायां कुत्सितत्वात्संज्ञा भण्यते, यथा वा 'कालम्मि' ति दीर्घकालिकसंज्ञायां विचार्यमाणायांकुत्सितत्वेन हैतुकी संज्ञान भण्यते; तथा 'कालो' ति दीर्घकालिक्यपि संज्ञा दृष्टिवादोपदेशसंज्ञायां विचार्यमाणायां कुत्सितत्वादेव संज्ञा न भण्यते / अतो नेह देवादिरपि मिथ्यादृष्टिः संज्ञीति भावः। तदेव दीर्घकालिक हेतुवाद-दृष्टिवादोपदेशेन त्रिविधां संज्ञां निरूप्य, अथैतासांमध्ये कस्य जन्तोः का भवति? इति निरूपयितुमाहपंचण्हमूहसण्णा, हेउसण्णा वेइंदियाईणं / सुर-नारय-गन्भुन्भव-जीवाणं कालिगी सण्णा / / 523|| छउमत्थाणं सण्णा, सम्महिट्ठीण होइ सुयनाणं / मइवावारविमुका, सण्णाईआ उ केवलिणो // 525|| पञ्चानां पृथिव्य-प्तेजोवायु-वनस्पतिनामूह-संज्ञा वृत्त्यारोहणाद्यभिप्रायरूपौघसंज्ञा भवति / आह- ननु त्रिविधसंज्ञामध्येऽत्रेयमूहसंज्ञा नोक्तैव, अत एवैकेन्द्रिया इह सर्वथैवाऽसंज्ञिन एव, तुच्छत्वात् कुत्सितत्वाच तत्संज्ञायाः, इति भवतैवोक्तमेव प्राक्, तत्कथमत्र स्वामित्वप्ररूपणायामियमेतेषां संज्ञा प्रोक्ता ? सत्यम्, किन्त्वेकेन्द्रियाणामेषैवोहसंज्ञा भवति, नतुहेतुवादादिसंज्ञा, इत्येवमेतत्संज्ञात्रयनिषेधप्रधानोऽयं निर्देशो द्रष्टव्यो न तु विधिप्रधानः / एतस्याश्चोहसंज्ञाया यथा संज्ञात्वं तथा प्रागेवोक्तमिति। भवत्वेवम्, तथाऽप्येकेन्द्रियाणामाहार-क्रोधादिका संज्ञा Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 180- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय दशविधा समये प्रोता, तत्कथमेकैवोहसज्ञाऽत्रैषामुक्ता ? सत्यम्, वल्ल्यादिष्वियं व्यक्तैवोपलभ्यते किश्चिदिति शेषोपलक्षणार्थमेषैव निर्दिष्टा, इत्यलं प्रसङ्गेनेति। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-सम्मूर्छनजपञ्चेन्द्रियाणां तु हेतुवादसंज्ञा प्राप्यते। देवनारकाणां गर्भज-तिर्यड्--मनुष्याणां च कालिकी संज्ञेति। दृष्टिवादोपदेशेन छद्मस्थजन्तूनां सम्यग्दृष्टीनामेव संज्ञा प्राप्यते / ततश्च तेषां तेषां यच्छु तज्ञानं तत् संज्ञिश्रुतं भवति' इत्यध्याहारः / एवं च सति स्मरण-चिन्तादिमति-श्रुतव्यापाररहिता भवस्थाः; सिद्धिंगताश्च केवलिनएव संज्ञातीताः संज्ञारहिताः, शेषजन्तूनां केषांचित् कस्याश्चित् संज्ञाया उक्तत्वादिति भाव इति। अत्राह परःमोत्तूण हेउ-कालिय, सम्मत्तकम, जहुत्तरविसुद्धं / किं कालिओवएसो, कीरइ आईॐ सुत्तम्मि // 525 / / नन्वविशुद्धत्वात्प्रथमं हेतुवादसंज्ञा, ततो विशुद्धत्वात् कालिकसंज्ञा, ततोऽपि विशुद्धतरत्या दृष्टिवादसंज्ञा, इत्येव यथोत्तरविशुद्धममुं क्रम मुक्त्वा किं कालिकसंज्ञोपदेश आदौ प्रथम सूत्रे नन्दिलक्षणे क्रियते? तथा च भवताऽपि तदनुरोधेन पूर्वमुक्तम्- 'सासण्णा होइ तिहा कालियहेउ-दिविवाओवएसेण' इति। अत्रोत्तरमाहसण्णि त्ति असण्णि त्तिय, सव्वसुए कालिओवएसेणं। पायं संववहारो, कीरइ तेणाइए स कओ / / 12 / / इह सर्वस्मिन्नपि श्रुते-आगमे योऽयं 'संज्ञा' इति व्यवहारः स सर्वोऽपि प्रायो बाहुल्येन कालिकोपदेशेनैव क्रियते / तेनाऽऽदौ स एव कालिकोपदेशः कृतः। इदमुक्तं भवति-यतःस्मरण-चिन्तादिदीर्घकालिकज्ञानसहितः समनस्कपश्चेन्द्रियः संज्ञीत्यागमे व्यवह्रियते, असंज्ञी तु प्रसह्यप्रतिषेधमाश्रित्य यद्यप्येकेन्द्रियादिरपि लभ्यते, तथापि समनस्कसंज्ञी तावत्पञ्चेन्द्रिय एव भवति। ततः पर्युदासाश्रयणादसंड्यप्यमनस्कसम्मूर्छनज-पञ्चेन्द्रिय एवाऽऽगमे प्रायोव्यवहियते।तदेवंभूतः संज्ञासंज्ञिव्यवहारो दीर्घकालिकोपदेशेनैवोपपद्यते। अतः प्रथमं स एव सूत्रे, तदनुरोधेनाऽत्र च निर्दिष्टः / इति त्रयोविंशतिगाथार्थः / विशे०। अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्टयक्षयानन्तरं मिथ्यात्व-मिश्रसम्यक्त्वपुञ्जलक्षणे त्रिविधेऽपि दर्शनमोहनीये सर्वथा क्षीणे क्षायिकं सम्यक्त्वं भवतीति।तदेवमेतत्सम्यक्त्वपञ्चकपरिग्रहात्सम्यक्श्रुतम्, मिथ्यात्वपरिग्रहात्तु मिथ्याश्रुतं भवतीति प्रतिपत्तव्यमिति / विशे०। अत्राह-ननु क्रियत् सम्यक्श्रुतमेव भवति ? कियच मिथ्याश्रुतम् ? शेषस्य च मत्यादिज्ञानचतुष्टयस्य मध्ये मिथ्यात्वोदयात् कस्य विपर्यासो भवति ? कस्य च न ? इत्याशङ्कयाह -- चोद्दस दसय अभिन्ने, नियमा सम्मत्तसेसए भयणा। मइओहिविवजाओ, वि होइ मिच्छे न उण सेसे // 534|| चतुर्दशपूर्वेभ्यः प्रारभ्य यावत् संपूर्णदशपूर्वाणि तावद् नियमात् सम्यक्श्रुतमेव भवति, न मिथ्याश्रुतम्-एतावच्छतसद्भावे सम्यग्दृष्टिरेव भवति न मिथ्यादृष्टिरिति भावः / 'सेसए भयण' ति-शेषे भिन्नदशपूर्वादिके सामायिकपर्यन्ते श्रुते भजना- विकल्पना एतच्छुतसद्भावे कोऽपि सम्यग्दृष्टिः, कश्चित्तु मिथ्यात्वोदयाद् विपर्यस्तो मिथ्यादृष्टिरपि भवति। ततश्चैतत् श्रुतं सम्यक्त्वपरिग्रहात्सम्यक्श्रुतं, मिथ्यात्वोदया मिथ्याश्रुतमपि स्यादिति भावः / मत्य-वधिविपर्यासेऽपि मिथ्यात्वं मिथ्यात्वोदयो भवति, न पुनः शेषे- मनःपर्याय-केवलज्ञानद्रये / इदमुक्तं भवति-- मिथ्यात्वोदयाद् मतिज्ञानं विपर्यस्तं सद् मत्यज्ञानं भवति, अवधिरपि तदुदयाद्, विपर्यासमापन्नो विभङ्गपदव्यपदेशं लभते, मनःपर्याय-केवलज्ञाने तुकदापि मिथ्यात्वोदयाद् विपर्यासंन गच्छतः, तत्सद्भावे तदुदयस्यैवाऽसंभवात् / मनःपर्यायज्ञानं हि चारित्रिण एव भवति, केवलज्ञानं तु क्षीणघातिचतुष्टयस्य, इति कुतस्तद्भावे मिथ्यात्वोदयः? इति एतबह मिथ्यात्वोदयसंभवाऽसंभवप्रस्तावादनुषङ्गत एवोक्तम्, प्रस्तुतं पुनरत्र सम्यग-मिथ्याश्रुतमेवेति। अत्र किल परः किंचित् प्रेरयति -- तत्तावगमसहावे, सह सम्मसुयाण को पइविसेसो ? / जह नाणदसणाणं, भेओ तुल्लेऽवबोहम्मि / / 535 / / नाणमवाय धिईओ, दसणमिटुंजहोग्गहेहाओ। तह तत्तराई सम्मं, रोइजइ जेण तं नाणं // 536 / / उभयत्रापि तत्वावगमस्वभावत्वे तुल्ये सति कः सम्यक्त्व-श्रुतयोः प्रतिविशेषः, येनोच्यते- 'सम्यक्त्वपरिग्रहात् सम्यक्श्रुतम्' इति ? इदमुक्तं भवति- 'रागादिदोषरहित एव देवता, तदाज्ञापारतन्त्र्यवृत्तय एव गुरवः, जीवादिकमेव तत्त्वम्, जीवोऽपि नित्याऽनित्याद्यनेकस्वभावः, कर्ता, भोक्ता, मिथ्यात्वादिहेतुभिः कर्मणा बध्यते, तपः'संयमाऽऽदिभिस्तुयतो मुच्यते' इत्यादिबोधात्मकमेव सम्यक्त्वमुच्यते, श्रुतमप्येवमाद्यभिलाषात्मकमेव, तदनयोः को विशेषः, येनोच्यते'सम्यक्त्वपरिगृहीतं सम्यक्श्रुतम्' इति ए अत्रोत्तरमाह-'जहे' त्यादि यथा वस्त्ववबोधरूपत्वे तुल्येऽपि कथंचिज्ज्ञान-दर्शनयोर्भेदः, तथा तत्त्वावगमस्वभावे तुल्येऽपि सम्यक्त्व-श्रुतयोरिहाऽपि कथञ्चिद्भेदः / कथं पुननिदर्शनयोरन्यत्र तावद् भेद उक्तः ? इति चेत् / इत्याह- 'नाणे' त्यादि यथाऽपायश्च धृतिश्चाऽपायधृती, एते वचनपर्यायग्राहकत्वेन विशेषावबोधस्वभावत्वाज्ज्ञानमिष्टम्, अवग्रहश्चेहा चाऽर्थपर्यायविषयत्वेन सामान्यावबोधाद्दर्शनम्; तथाऽत्रापिजीवादितत्त्वविषया रुचिः श्रद्धानं सम्यक्त्वं भण्यते, येन पुनस्तज्जीवादितत्त्वं रोच्यतेश्रद्धीयते तज्ज्ञानम्। अयमत्राभिप्रायः-दर्शनमोहनीयकर्मक्षयोपशमादिना या तत्त्वश्रद्धानात्मिका तत्त्वरुचिरुपजायते; तया तत्त्वश्रद्धानात्मकं जीवादितत्त्वरोचकं विशिष्ट श्रुतं जन्यते, ततस्तत् श्रुतज्ञानव्यपदेशं परिहृत्य श्रुतज्ञानसंज्ञा समासादयति / एवं च सति परो मन्यते--विशिष्टतत्वावगमस्वरूप श्रुतमेव सम्यक्त्वं, न पुनस्ततोऽतिरिक्तं किश्चिदुपलभ्यते, इति कथ Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 651- अभिधानराजेन्द्रः- भाग 7 सुय मुच्यते- 'सम्यक्त्वपरिग्रहात् सम्यक्श्रुतम्' इति ? सिद्धान्तवादी तु तावद् न कदापि व्यवच्छिद्यन्ते, इति तेषामनादिता, अपर्यन्तता च / मन्यते-यथा ज्ञानदर्शनयोर्वस्त्वववबोधरूपतयैकत्वेऽपि विशेषसामान्य- ततः श्रुतस्याऽपि तत्पर्यायभूतस्य तदव्यतिरेकात् तद्रूपतैव / न हि वस्तुग्राहकत्वेन भेदः, तथाऽत्रापि शुद्धतत्त्वावगमरूपे श्रुते तत्त्वश्रद्धानांशः सर्वथाऽसत् क्वाप्युत्पद्यते, सिकतास्वपि तैलाद्युत्पत्तिप्रसङ्गात् / नापि सम्यक्त्वं, तद्विशिष्ट तु तत्त्वरोचकं श्रुतज्ञानमित्यनयोर्भेदः / एतयोश्च सतोऽत्यन्तोच्छदः, सर्वशून्यतापत्तेः। यदि हि यद्यदेवनारकादिकं घट-- सम्यक्त्वश्रुतयोर्युगपल्लाभेऽपि कार्यकारणभावाद भेदः। पटादिकंच विनश्यति तत्तद्यपि सर्वथा निरन्वयमपैति, तदा कालस्याउक्तंच ऽपर्यवसितत्वात् क्रमेण सर्वस्याऽपि जीवपुद्गलराशेर्व्यवच्छेदात् सर्वमेव "कारण कजविभागो, दीवपगासाण जुगवजम्मे वि। विश्वं शून्यं स्यात् / तस्माछुताधारदव्याणां सर्वदैव सत्त्वात् तदव्यतिजुगवुप्पन्नं पितहा, हेऊनाणस्स सम्मत्तं // 1 // रेकिणस्तस्यापि तद्रूपतैवेति स्थितम् / इतरस्य व्यवच्छित्तिनयस्याऽजुगवं पि समुप्पन्नं, सम्मत्त अहिगमं विसोहेइ। नित्यवादिनः पर्यायास्तिकस्य मतेन सादि, सपर्यन्तं च श्रुतम्, अनिजह कयगमंजणाइ-जलयुट्ठीओ विसोहिंति // 2 // " त्यत्वाञ्जीवस्य, नारकादिगतिपर्यायवत्; तथाहि-श्रुतज्ञानिनां निर न्तरमपरापरे द्रव्याधुपयोगाः प्रसूयन्ते, प्रलीयन्ते चानचतेभ्योऽन्यत् अतो युक्तमुक्तम् 'सम्यक्त्वपरिगृहीतं सम्यक्श्रुतं, विपर्यवात्तु मिथ्या किमपि श्रुतमस्ति, तत्कार्यभूतस्य जीवादितत्त्वावबोधस्याऽन्यत्राऽश्रुतम् / इति गाथादशकार्थः। विशे०। दर्शनात्, तदनुपलम्भेऽपि तत्कल्पनायामतिप्रसङ्गात् / द्रव्यादिषु च सोचाव अभिसमेचव, तत्तरुई चेव होति सम्मत्तं। श्रुतोपयोगः सादिः सपर्यवसित एवेति। तत्थेव य जा विरुई, इतरत्थ रुई य मिच्छत्तं / / अथवा नयविचारमुत्सृज्य द्रव्य-क्षेत्र-काल-- भावानाश्रिश्रुत्वा केवलीप्रभृतीनामुपदेशमिति समेत्य वा जाति-स्मरणादिना या त्येदं साद्यादिस्वरूपं चिन्त्यत इति। एतदाहतत्त्वेषु रुचिर्भवति सा सम्यक्त्वं, वा तत्रैव तत्त्वेषु विरुचिरितरेष्वतत्त्वेषु दवाइणा वा साइय-मणाइयं संतमंतरहियं वा। रुचिः सा मिथ्यात्वमिति। उक्त सम्यक्त्वश्रुतं, मिथ्यात्वश्रुतं च / बृ०१ उ०१ प्रक०। दव्वम्मि एगपुरिसं, पडुच साइं सनिहणं च // 538|| से किं तं साइअं सपज्जवसिअं, अणाइअ अपनवासिअं द्रव्यादिना वा द्रव्यक्षेत्रकालभावैर्वा श्रुतं सादिकमनादिकं, सान्तमनन्तं च? इचेइयं दुबालसंगं गणिपिडगं वुच्छित्तिनयट्टयाए साइअं च भवति / इह च द्रव्यतः श्रुतमेकं बहूनि च पुरुषद्रव्याण्याश्रित्य सपज्जवसि, अवुच्छित्तिनयट्ठयाए अणाइअं अपज्जवसि। चिन्तनीयम् / तत्रैकपुरुषं द्रव्यमङ्गीकृत्य तावदाह- 'दव्यम्मा' त्यादि द्रव्यत एकपुरुष प्रतीत्य सादि सनिधनं च श्रुतं भवति। विशे०। (सू०४२४) अथ किं तत्सादि सपर्यवसितमनादि, अपर्यवसित्तं च ? तत्र सहादिना आह परः केन पुनः कारणेन अक्षरानक्षरश्रुते प्रथममुपात्ते तत आहवर्त्तते इति सादि, तथा पर्यवसानं पर्यवसितं, भावे क्तप्रत्ययः, सह सुणेतीति सुयं तेणं, सवर्ण पुण अक्खरेयरं चेव। पर्यवसितेन वर्त्तते इति सपर्यवसितम्, आदिरहितमनादि,नपर्यवसित तेणक्खरे तरं वा, सुयनाणे होति पुष्वं तु // 150 / / मपर्यवसितम् आचार्य आह-इत्येतद्वादशाङ्गं गणिपिटकं वोच्छित्तिन- इह हि यस्मात्प्रतिपत्तेर्यदुच्यमानं शृणोति तेन-कारणेन तत् श्रुतमियट्ठयाए' इत्यादि, व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयो व्यवच्छित्तिनयः; त्युच्यते; श्रूयते इति श्रुतमिति व्युत्पत्तेः। श्रवणं पुनरक्षरस्य वाऽनक्षरस्य / पर्यायास्तिकनय इत्यर्थः तस्यार्थो व्यवच्छित्तिनयार्थः; पर्याय इत्यर्थः, तेन श्रुतज्ञाने प्ररूप्यमाणे पूर्वमक्षरमनक्षरंवोपत्तमिति। बृ०१उ०१प्रक०। तस्य भावो व्यवच्छित्तिनयार्थता; तया पर्यायापेक्षयेत्यर्थः, किमित्याह- से किं तं गमिअं? दिहिवाओ, अगमिअंकालिअंसुअं, सेत्तं सादिसपर्यवसितं नारकादिभवपरिणत्यपेक्षया जीव इव, 'अवुच्छित्ति- गमि,सेत्तं अगमि। अहवा-तंसमासओ दुविहं पण्णत्तं,तं नयवयाए' त्ति-अव्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयोऽव्यवच्छित्तिनयस्त- जहा-अंगपविटुं, अंगबाहिरं च / से किं तं अंगबाहिरं? अंगस्यार्थः अव्यवच्छित्तिनयार्थः; द्रव्यमित्यर्थः / तद्भावस्तत्ता तया; बाहिरंदुविहं पण्णत्तं, तं जहा-आवस्सयंच, आवस्सयवइरितं द्रव्यापेक्षया इत्यर्थः / किमित्याह-अनादि अपर्यवसितं त्रिकालावा- च।से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं छव्विहंपण्णत्तं / तं जहास्थायित्वाञ्जीववद्ानं०। सामाइअं चउवीसत्थओ वंदणयं पडिकमणं काउस्सग्गो इदानीं सादिसपर्यवसितंच श्रुतं सप्रतिपक्षमुच्यते पचक्खाणं, सेत्तं आवस्सयं / से किं तं आवस्सयवइरितं? अत्थि त्ति नयस्सेयं, अणाइपजंतमत्थिकाय व्य। आवस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा- कालिअंच, इयरस्स साइ संतं, गइपज्जाएहिँ जीवो व्व // 537|| उकालिअंच। (सू०४३४) अस्तीति नयो नित्यवादी द्रव्यास्तिकस्तस्याभिप्रायेणेदं द्वादशा- अथ किं तद्गमिकम ? इहादिमध्यावसानेषु किशिद्विशेषतो गश्रुतमनादि, अपर्यन्तं च, नित्यत्वात्, पञ्चास्तिकायवत्, तथाहि- भूयो, भूयस्तस्ये व सूत्रस्योचारणं, गमः, तत्रादौ- "सुयं मे यैर्जीवद्रव्यैः श्रुतमिदमधीतं, यान्यधीयन्ते यानि चाध्येष्यन्ते, तानि | आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु'' इत्यादि, एवं म Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 152- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय ध्यावसानयोरपि यथासम्भवं द्रष्टव्यं, गमा अस्य विद्यन्तेइति गमिकम्, / तद्भयमविगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एवास्ते जीवः स खलु 'अतोऽनेकस्वरात् // 7 / 2 / 6 / / इति मत्वर्थीय इक-प्रत्ययः / उक्तं च प्रमादः, तस्य चप्रमादस्य,ये हेतवो मद्यादयस्तेऽपि प्रमादास्तत्कारणचूर्णी-आइए मज्झेऽवसाणे वा किंचि विसेसजुत्तं दुगाइसयम्गसो तमेव त्वात्, उक्तं च--."मजं विसय कसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया। पढिजमाणं गमियं भन्नइ" त्ति, तच गमिकं प्रायो दृष्टिवादः, तथा चाह- एए पंच पमाया जीवं पाडति संसारे।।१।।" एतस्य च पञ्चप्रकारस्यापि 'गमियं दिट्ठीवाओ' तद्विपरीतमगमिकं, तच्च प्राय आचारादि कालिक- प्रमादस्य फलंदारुणो विपाकः, उक्तं चश्रुतम्, असदृशपाठात्मकत्वात्, / तथा चाह-- 'अगमियं कालियसुयं' "श्रेयो विषमुपभोक्तुं, क्षमं भवेत, कीडितुं हुताशेन! 'सेत्त' मित्यादि, तदेतद्रमिकमगमिकं च / 'तं समासओ' इत्यादि, संसारबन्धनगतै-नंतु प्रमादः क्षमः कर्तुम्॥१॥ तद्गमिकमगमिकं च, अथवा तत्- सामान्यतः श्रुतमर्हदुपदेशानुसारि अस्यामेव हि जातौ, नरमुपहन्याद्विषं हुताशो वा। सामसतः-- सङ्के पेण द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- अङ्गप्रविष्टमङ्गबाह्यं च / आसेवितः प्रमादौ, हन्याजन्मान्तरशतानि / / 2 / / अत्राह- ननु पूर्वमेव चतुर्दशभेदोद्देशाधिकारेऽङ्ग प्रविष्टमङ्ग बाह्य चेत्युपन्यस्तं, तत्किमर्थं भूयस्तत्समासतइत्याधुपन्यासेन तदेव न्यस्यते यन्न प्रयान्ति पुरुषाः, स्वर्ग यच प्रयान्ति विनिपातम्। इति ? उच्यते- इह सर्व एवश्रुतभेदा अङ्गानङ्गप्रविष्टरूपे भेदद्वय तत्र निमित्तमनार्यः, प्रमाद इति विनिश्चतमिदं मे // 3 // एवान्तर्भवन्ति, तत एतदर्थख्यापनार्थं भूयोऽप्युद्देशेनाभिधानम् / संसारबन्धनगतो, जातिजराव्याधिमरणदुःखार्तः। अथवाऽङ्गानङ्ग प्रविष्ट-मर्हदुपदेशानुसारि ततः प्राधान्यख्यापनार्थ यन्नोद्विजते सत्त्वः, सोऽप्यपराधः प्रमादस्य // 4 // भूयोऽपि तस्योद्देशेनाभिधानमित्यदोषः, तेत्राङ्गप्रविष्टमिति / (नं०) आज्ञाप्यते यदवश-स्तुल्योदरपाणिपादवदनेन! तत्राल्पवक्तव्यत्वा-त्प्रथममङ्गबाह्यमधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह- ‘से किंत' कर्म च करोति बहुविध-मेतदपि फलं प्रमादस्य / / 5 / / मित्यादि, अथ किं तदङ्गबाह्यं? सूरिराह-अङ्गबाह्यं श्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्तं, इह हि प्रमत्तमनसः, सोन्मादमदनिभृतेन्द्रियाश्चपलाः। सद्यथा-आवश्यकं चावश्यकव्यतिरिक्तं च। तत्रावश्यं कर्म आवश्यकम्, यत्कृत्यं तदकृत्वा, सततमकार्येऽष्वभिपतन्ति // 6 // अवश्यकर्त्तव्यक्रियानुष्ठानमित्यर्थः, अथवा गुणानामभिविधिना अवश्य तेषामभिपतिताना-मुभ्रान्तानां प्रमत्तहृदयानाम् / मात्मानं करोतीत्यावश्यकम्-अवश्यकर्त्तव्यसामायिकादि-क्रियानुष्ठान वर्द्धन्त एव दोषा वनतरव इवाम्बुसेकेन।।७।। तत्प्रतिपादकं श्रुतमपि आवश्यकं, चशब्द-स्वगतानेकभेदसूचकः। 'से दृष्ट्वाऽप्यालोकं नैव विश्रम्भितव्यं, किंत' मित्यादि, अथ किंतदावश्यकम् ? सूरिराह-आवश्यकं षड्विधं तीरं नीतापि भ्राम्यति वायुना नोः / प्रज्ञप्तं, तद्यथा- 'सामायिक' मित्यादि निगदसिद्ध, 'सेत्त' मित्यादि तदेतदावश्यकं ‘से किंत' मित्यादि, अथ किं तदावश्यकंव्यतिरिक्तम् ? लब्ध्वा वैराग्यं भ्रष्टयोगः प्रमादाआचार्य आह-आवश्यकव्यतिरिक्तं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-कालिकम् द्भूयो भूयः संसृतौं बम्भ्रमीति॥८॥" उत्कालिकं च / तत्र यतिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते एवं प्रतिपक्षद्वारेणाप्रमादस्यापि स्वरूपादयो वाच्याः, 'नन्दी' त्यादि तत्कालिकं, कालेन निर्वृत्तं कालिकमिति व्युत्पतेः, यत्पुनः कालवे- सुगम, सूरियपन्नत्ति' त्ति सूर्यचर्याप्रज्ञपनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा लावर्ज पठ्यते तदुत्कालिकम्, आह च चूर्णिणकृत्- 'तत्थ कालियं जं सूर्यप्रज्ञप्तिः, तथा पौरुषीमण्डल' मिति पुरुषः-शकुः पुरुषशरीरंवा दिणराई (ए) ण पढमचरमपोरिसीसु पढिज्जई। जं पुण कालवेलावजं तस्मान्निष्पन्ना पौरुषी 'तत आगते' // 6 / 3 / 146 // इत्यण, आह च पढिजइ तं उक्कालियं" ति, तत्राल्पवक्तव्यत्वात्प्रथममुत्कालिक- चूर्णिकृत्- 'पुरिसो त्ति संकू पुरिससरीरं वा, तत्र पुरिसाओ निप्फन्ना मधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह--- ‘से किं त' मित्यादि, अथ किं तदुत्कालिकं पौरिसी' इति, इयमत्र भावनां-सर्वस्यापि वस्तुनो यदा स्वप्रमाणच्छाया श्रुतं? सूरिराह-उत्कालिकं श्रुतमनेकविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-दशवैका- जायते तदा पौरुषी भवात एतच्च पौरुषीप्रमाणमुत्तरायणस्यान्ते लिकं तच्च सुप्रतीतं, तथा कल्पाकल्पप्रतिपादकमध्ययनं कल्पाकल्पं, दक्षिणायनस्यादौ चैक दिनं भवति, ततः परमगुलस्याष्टावैकषष्टिभागा, तथा कल्पनं कल्पः- स्थविरादिकल्पः तत्प्रतिपादकं श्रुतं कल्पश्रुतं, दक्षिणायने वर्द्धन्ते, उत्तरायणे चहमन्ति, एवं मण्डले मण्डले अन्याऽन्या तत्पुनर्दिभेदं, तद्यथा- 'चुल्लकप्पसुयं, महाकप्पसुयं एकमल्पग्रन्थम- पौरुषी यत्राध्ययने व्यावर्ण्यते तदध्ययनंपौरुषीमण्डलं, तथा यत्राध्ययने ल्पार्थं च, द्वितीयं महाग्रन्थं महार्थंच शेषा ग्रन्थविशेषाः प्रायः सुप्रतीताः, चन्द्रस्य सूर्यस्य च दक्षिणेषु उत्तरेषु च मण्डलेषु सञ्चरतो यथा मण्डलात् तथापिलेशतोऽप्रसिद्धान् व्याख्यास्यामः। तत्र 'पणवण' त्तिजीवादीनां मण्डले प्रवेशो भवति तथा व्यावर्ण्यते तदध्ययनं मण्डलप्रवेशः, पदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना, सैव बृहत्तरा महाप्रज्ञापना, तथा तथा 'विद्याचरणविनिश्चय' इति, विद्येति-ज्ञानं, तच्च सम्यग्दर्शनप्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादकमध्ययनं प्रमादाप्रमादम्। सहित-मवगन्तव्यम्, अन्यथा ज्ञानत्वायोगात्, चरणंचारित्रमेतेषां तत्र प्रमादस्वरूपमेवं - प्रचुरकर्मेन्धनप्रभवनिरन्तराविध्यातशारीर- फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रन्थो विद्याचरणविनिश्चचः, (नं०) मानसानेकदुःखहुतवह-ज्वाला-कलापपरीतमशेषमेवसंसारवासगृहं, तथाऽऽत्मनो-जीवस्यालोचनप्रायश्चित्तप्रतिपत्तिप्रवृत्तिप्रकारेण पश्यंस्तन्मध्यवर्त्यपि सतिचतन्निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिन्ता- विशुद्धिः-कर्मविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यस्यां ग्रन्थपद्धतौ साऽऽत्ममणौ यतौ विचित्रकर्मोदय-साचिव्यजनितात्परिणामविशेषादपश्यन्निव | विशुद्धिः, तथा 'वीतरागश्रुत' मिति सरागव्यपोहेन वीतरागस्वरूपंप्रतिपा Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 983 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय द्यते यत्राध्ययने तद्वीतरागश्रुतं, तथा 'संलेखनाश्रुत' मिति द्रव्यभावसंलेखना यत्र श्रुते प्रतिपाद्यते तत्संलेखनाश्रुतं, तत्रौत्सर्गत इयं द्रव्यसंलेखना"चत्तारि विचित्ताई, विगईनिजूहियाइ चत्तारि। संवच्छरे उदोन्नि उ, एगंतरियं च आयामं॥१॥ माइविगिट्ठोय तवो, छम्मासे परिमियं च आयामं। अन्नेविय छम्मासे, होइ विगिटुं तवोकम्मं / / 2 / / वासं च कोडिसहियं, आयामं कटु आणुपुव्वीए। गिरिकंदरम्मि गंतुं, पायवगमणं अह करेइ // 3 // " भावसंलेखना तु क्रोधादिकषायप्रतिपक्षाभ्यासः, तथा 'विहारकल्प' इति विहरणं विहारः तस्य कल्पो-व्यवस्था स्थविरकल्पादिरूपा यत्र | वर्ण्यते ग्रन्थे स विहारकल्पः, तथा 'चरणविधि' रिति चरणं- चारित्रं तस्य विधिर्यत्र वर्ण्यते स चरणविधिः, (नं०) 'महाप्रत्याख्यान' मिति / महत्प्रत्याख्यानं यत्र वर्ण्यते तन्महाप्रत्याख्यानम्, इह चूर्णिणकारेण कृता भावना दर्श्यते-"थेरकप्पेण जिणकप्पेण वा विहरित्ता अंते थेरकप्पिया बारस वासे संलेहणं करेत्ता जिणकप्पिया पुण विहारेणेव संलीढातहावि जहाजुत्तं संलेहणं करेत्ता निव्वाधायं सचेट्ठा चेव भवचरिमं पचक्खंति, एवं सवित्थर जत्थज्झयणे वणिज्जइ तमज्झयणं महापच्चक्खाणं' (वृहट्टीकासत्कमेतत्)- 'एवं तावदमून्य-ध्ययनानि-एतान्यध्ययनानि जहाभिहाणत्थाणिभणियाणि' 'सेत्त' मित्यादि, निगमनं, तदेतदुल्कालिकमुपलक्षणं चैतदिति उक्तमुत्कालिकं, 'से किं त' मित्यादि, अथ किं तत्कालिकं ? कालिकमनेकविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथेत्यादि, 'उत्तराध्ययनानि' सर्वाण्यपि चाध्ययनानि प्रधानान्येव तथाऽप्यमून्येव रूढ्योत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि'दसाओ' इत्यादि प्रायो निगदसिद्धं, निशीथ' मिति निशीथवन्निशीथम्, इदं प्रतीतमेव, तस्मात्परं यद्ग्रन्थार्थाभ्यां महत्तरं तन्महानिशीथे, तथा आवलिकाप्रविष्टानाभितरेषां वा विमानानां वा प्रविभक्तिः- प्रविभजनं यस्यां ग्रन्थपद्धतौ सा विमानप्रविभक्तिः, सा चैका स्तोकग्रन्थार्था द्वितीया महाग्रन्थार्था, तत्राऽऽद्या क्षुल्लिका विमानप्रविभक्तिः, द्वितीया महाविमानप्रविभक्तिः, तथा 'अङ्ग चूलिके' ति अङ्गस्य-आचारादेश्चूलिकाऽङ्ग चूलिका, चूलिका नाम उक्तानुक्तार्थसंग्रहात्मिका ग्रन्थपद्धतिः, तथा 'वर्गचूलिके' ति वर्गः- अध्ययनानां समूहो यथाऽन्तकृद्दशास्वष्टौ वर्गा इत्यादि तेषां चूलिका, तथा व्याख्याभगवती तस्याश्चूलिका व्याख्याधुलिका, (नं०)। तथा 'उत्थानश्रुत' मिति; उत्थानम्-उद्वसनं तद्धेतुः श्रुतमुत्थानश्रुतं, तच्च शृङ्गनादिते कार्ये उपयुज्यते, अत्र चूर्णिणकारकृता भावना"सजेगस्स कुलस्स वा गामस्स वा नगरस्य वा रायहाणीए वा समणे कयसंकप्पे आसुरुत्तेचंडिक्किए अप्पसन्ने अप्पसन्नलेसे विसमासुहासणत्थे उवउत्ते समाणे उठाणसुयज्झयणं परियट्टेइ तं च एक दो वा तिण्णि वा वारे ताहे से कुलेवा गामेवा जावरायहाणीएवा ओहयमणसंकप्पे विलवंते | दुयं दुर्यपहावेंते उद्वेइ-उव्वसतित्ति भणियं होइ' तितथा 'समुत्थानश्रुत' मिति समुपस्थानं- भूयस्तत्रैव वासंन तद्धतुः श्रुतं समुषस्थानश्रुतं, वकारलोपाच सूत्रे "समुट्ठाणसुयं" तिपाठः, तस्य चेयं भावना-"तओ समत्ते कजंतस्सेव कुलस्सवाजाव रायहाणीएवा से चेव समणे कयसंकप्पे तुटेपसन्ने पसन्नलेसे समसुहासणत्थेउवउत्तेसमाणे समुट्ठाणसुयज्झयणं परियट्टेइ, तं च एक दो तिन्नि वा वारे ताहे से कुले वा गामे वा० जाव रायहाणीए वा पहढचित्ते पसत्थं मंगलं कलयलं कुणमाणे मंदाए गईए सललियं आगच्छइ समुवट्ठिए-आवासइत्तिवुत्तं भवइ, सम्म उ (म्) वट्ठाणसुयं ति वत्तव्ये वकारलोवाओ समुट्ठाणसुयं ति भणियं, तहा जइ अप्पणावि पुव्वुट्टियं गामाइ भवइ तहावि जइ से समणे एवंकयसंकप्पे अज्झयणं परियट्टेइ तओ पुणरवि आवासेइ" तथा 'नागपरियावणिय' त्ति- नागाः- नागकुमारास्तेषां परिज्ञा यस्यां ग्रन्थपद्धतौ भवति सा नागपरिज्ञा, तस्याश्चेयं चूर्णिकृतोपदर्शिता भावना-"जाहे तं अज्झयणं समणे निग्गथे परियट्टेइ तहि अकयसंकप्पस्स विते नागकुमारा तत्थत्था चेवतंसमणं परियाणंति-वंदंतिनमसंति बहुमाणंच करेंति, सिंगनादितकजेसु य वरदा भवंति' तथा 'निरयावलियाओ' त्ति- यत्रावलिकाप्रविष्टा इतरे च नरकावासाः- प्रसङ्गतस्तद्गामिनश्च नरास्तिर्यञ्चो वा वर्ण्यन्ते ता निरयावलिकाः एकस्मिन्नपि ग्रन्थे वाच्ये बहुवचनशब्दः शक्तिस्वाभाव्यात्, यथा पाञ्चाला इत्यादौ, तथा 'कल्पिका' इति याः सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा ग्रन्थपद्धतयस्याः कल्पिकाः, एवं कल्पावतंसिका द्रष्टव्याः, नवरं तासामियं चूर्णिकृतोपदर्शिता भावना'सोहम्मीसाणकप्पेसु जाणि कप्पविमाणाणि ताणि कप्पवडिंसताणि जासुवण्णिजंति तेसुकप्पवडिंसएसु विमाणेसुदेवी जाजेण तवोविसेसेण उववण्णा एवं पि वणिज्जइ ताओ कप्पवडिंसियाओ वुचंति' तथा 'पुष्पिता' इति यासु ग्रन्थपद्धतिषु गृहवासमुत्कलनपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः सुखिता उषिता भूयः संयमभावपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलनेन मुकुलिताः मुनस्तत्परित्यागेन पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्तेताः पुष्पिताउच्यन्ते, अधिकृतार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडाः / (नं०) 'एवमाइया' इत्यादि, कियन्ति नामग्राहमाख्यातुं शक्यन्ते प्रकीर्णकानि ? तत एवमादीनि चतुरशीतिः प्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽर्हतः श्रीऋषभस्वामिनस्तीर्थकृतः तथा संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यमानामजितादीनां जिनवरेन्द्राणां तीर्थकराणाम्, एतानि च यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि, तथा चतुर्दश प्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽर्हतो वर्द्धमानस्वामिनः / इयमत्र भावना- इह भगवत ऋषभस्वामिन-श्चतुरशीतिसहस्रसंख्याः श्रमणा आसीरन्, ततः प्रकीर्णकरूपाणि चाध्ययनानि कालिकोत्कालिकभेदभिन्नानि सर्वसंख्यानि चतुरशीतिसहस्रसंख्यान्यभवन, कथमिति चेत् ? उच्यते-इह यद्भगवदर्हदुपदिष्ट श्रुतमनुसृत्य भगवन्तः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्वं प्रकीर्णकमुच्यते, अथवा-श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचनकौशलेन धर्मदेशनादिषु ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्तेतदपि सर्व प्रकीर्णकम्, भगवतऋषभस्वामिन उत्कृष्टा श्रमणसम्पदा Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 184 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 आसीत् चतुरशीतिसहस्रप्रमाणा, ततो घटन्ते प्रकीर्णकान्यपि भगवतश्चतुरशीतिसहस्रसंख्यानि, एवं मध्यमतीर्थकृतामपि संख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि भावनीयानि भगवतस्तु बर्द्धमानस्वामिनश्चतुर्दश श्रमणसहस्राणि, तेन प्रकीर्णकान्यपि भगवतश्चतुर्दश सहस्राणि, अह द्वे मतेएके सूरयः प्रज्ञापयन्ति-इदं किल चतुरशीतिसहस्रादिकं ऋषभादीनां तीर्थकृतां श्रमणपरिमाणं प्रधानसूत्रविरचनसमर्थान् श्रमणानधिकृत्य वेदितव्यम्, इतरथा पुनः सामान्यश्रमणाः प्रभूततरा अपितस्मिन् तस्मिन् ऋषभादिकाले आसीरन्, अपरे पुनरेवं प्रज्ञापयन्ति-ऋषभादितीर्थकृतां जीवतामिदं चतुरशीतिसहस्रादिकं श्रमणपरिमाणं प्रवाहतः पुनरेकैकस्मिन् तीर्थे भूयांसः श्रमणा वेदितव्याः / तत्र ये प्रधानसूत्रविरचनशक्तिसमन्विताः सुप्रसिद्धतद्ग्रन्था अतत्कालिका अपि तीर्थे वर्तमानास्तत्राधिकृता द्रष्टव्याः, एतदेव मतान्तरमुपदशर्यन्नाह-'अथवे' त्यादि, अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने यस्य ऋषभादेस्तीर्थकृतो यावन्तः शिष्यास्तीर्थे औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कर्मजया पारिणामिक्या चतुर्विधया बुद्ध्या उपेताः- समन्विता आसीरन् तस्य-ऋषभादेस्तावन्ति प्रकीर्णकसहस्राण्यभवन्, प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव, अत्रैके व्याचक्षते- इह एकैकस्य तीर्थ-कृतस्तीर्थेऽपरिमाणानि प्रकीर्णकानि भवन्ति, प्रकीर्णक-कारिणामपरिमाणत्वात्, केवलमिह प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि, प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाणप्रतिपादनात् स्यादेतत्- प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते तदेतदसमीचीनं, यतः प्रव्राजक्राचार्यमेवाधिकृत्य शिष्यभावो निषिध्यते, न तु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, ततो न कश्चिद्दोषः / तथा च तेषां ग्रन्थः- "इह तित्थे अपरिमाणा पइन्नगा, पइन्नगसामिअपरिमाणतणओ, किं तु इह सुत्ते पत्तेयबुद्धपणीयं पइन्नगं भाणियव्यं, कम्हा ? जम्हा पइणगपरिमाणेण चेव पत्तेयबुद्धपरिमाणं कीरई, (इति) भणियं 'पत्तेयबुद्धा वि तत्तिया चेव' त्ति चोयग आह'नणु पत्तेयबुद्धा सिस्सभावो य विरुज्झए, आयरिओ आह तित्थयरपणीयसासणपडिवन्नत्तणओ तस्सीसा हवंति'' ति, अन्ये पुनरेवमाहुः- सामान्येन प्रकीर्णकैस्तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानामत्राभि-धानं, नतुनियोगतः प्रत्येकबुद्धरचितान्येव प्रकीर्णकानीति, 'सेत्तं तदेतत्कालिकम् / नं०। (बद्धमबद्धं चेति द्विविधं श्रुतम् 'करण' शब्दे तृतीयभागे 368 पृष्ठे गतम्।) तदेव निरूपितं चतुर्दशविधमपि श्रुतमर्थतः। अथ कियां स्तद्विषयः? इति निरूपयितुमाह -- उवउत्तो सुयनाणी, सव्वं दवाइँ जाणइ जहत्थं / पासइ य केइ सो पुण, तमचक्खुईसणेणं ति / / 553|| उपयुक्तो-दत्तोपयोगः श्रुतज्ञानी सर्व द्रव्यादि यथार्थ-यथावद् यथा सर्वज्ञेनोक्तं तथा जानाति- द्रव्यतः पञ्चास्तिकायद्रव्याणि, क्षेत्रं लोकाऽलोकाकार, कालमतीतादिरूपं, भावानौदायिकादीन जानाति स्पष्टावभासिना श्रुतज्ञानेनाऽवबुध्यते, न तु सामान्यग्राहिणा दर्शनेन पश्यति, तस्य तद्भवात्यथा हि मनःपर्यायज्ञानं स्वभावेनैव स्पष्टार्थग्राहकम्, इति न तत्र दर्शनम्, एवं श्रुतज्ञानेऽपि तदपि ह्यर्थविकल्पना वस्थायान्तर्जल्पाकारत्वाद् विशेषमेव गृह्णातिन सामान्यमिति भावः। . तथा चनन्दिसूत्रम्-"तंसमासओ चउव्विहंपण्णत्तं, तंजहा-दव्वओ, स्वत्तओ, कालओ, भावओ, दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्तो सव्वदव्वाई जाणाइन पासइ, एवं सव्वखेत्त, सव्वकाल, सव्वभावे जाणइन पासइ" इति / अन्ये तु नञः पाठं न मन्यन्ते / ततश्च "जाणइ पासइ" इति पठन्ति / अतः 'श्रुतज्ञान्यपि दर्शनेन पश्यति' इति ते मन्यन्ते, यचासौ दर्शनेन पश्यति तदचक्षुर्दर्शनेनेतिमन्यन्ते। इदमत्र हृदयम्-यस्य श्रुतज्ञानं तस्य मतिज्ञानमवश्यमेव भवति। मति-श्रुतज्ञानस्य च चक्षुरचक्षुर्दर्शनभेदाद् द्विभेदं दर्शनमुक्तम् / तत्र किल चक्षुर्दर्शनेन मतिज्ञानं पश्यति, अचक्षुर्दर्शनेन पुनः श्रुतज्ञानमिति। एतत् तेषां मतमसमीक्षिताभिधानत्वाद् यदृच्छावादमा त्रमिति दर्शयन्नाह - तेसिमचक्खुद्दसण-सामण्णाओ कहं न मइनाणी। पासइ पासइ व कह,सुयनाणी किंकओ भेओ / / 554|| तेषां नञः पाठमनभ्युपगच्छता मतिज्ञानं-श्रुतज्ञानयोरिन्द्रियमनोनिमित्ततासाम्यादचक्षुर्दर्शन समानेऽपि कथं हन्त! तेनाऽचक्षुर्दर्शनेन मतिज्ञानीनपश्यति ? कथं वा तेन श्रुतज्ञानी पश्यति? यदि हि श्रुतज्ञानी तेन पश्यति तर्हि मतिज्ञान्यपि पश्यतु। अथासौ न पश्यति, तह-तरोऽपि माऽपश्यतु / ननु किंकृतोऽयं भेदो, यदचक्षदर्शने समानेऽपि तेनैकं ज्ञानं पश्यति, अपरं तु न पश्यति? स्वेच्छाभाषितत्वमात्रं विहाय नापरमत्र कारणं पश्यमि इति भावः। तस्मात् "जाणइन पासई" इति स्थितमिति। अथवा प्रज्ञापनोक्तां पश्यत्तामाश्रित्य श्रुतज्ञानेऽपि पश्यत्तायुक्ता। ततश्च "जाणइ पासइ" इत्यपि पाठो युक्त इति दर्शयन्नाह / / मइभेयमचक्खुढे-सणं च वजित्तु पासणा भणिया। पण्णवणाए उ फुडा, तेण सुए पासणा जुत्ता / / 555 / / मतेर्भेदो मतिभेदो मतिज्ञान-मत्यज्ञानलक्षणस्तं, तथाऽचक्षुर्दर्शनं च वर्जयित्वा येन कारणेन प्रज्ञापनायां त्रिंशत्तमपदे पश्यत्ता स्फुटा व्यक्ता भणिता, तेन श्रुते श्रुतज्ञानेऽपि पश्यत्ता युक्ता "जाणइ पासई" इति पाठो युक्त इत्यर्थः। (विशे०) केषुचित्तु पुस्तकेषु 'तेण सुए पासणाऽजुत्ता' इत्यकारप्रश्लेषो दृश्यते तत्रायमर्थः-पूर्वगाथायां पासइय केइ सो पुण तमचक्खुद्दसणेण' इति वचनादचक्षुर्दर्शनमाश्रित्य श्रुतज्ञाने या पश्यत्ता प्रोक्ता सा, इत्यतोऽप्ययुक्ता। कुतः? इत्याह-येन प्रज्ञापनायां मतिभेदी, अचक्षुर्दर्शनं च वर्जयित्वैव पश्यत्ता प्रोक्ता। अतोऽचक्षुर्दर्शनमाश्रित्याऽ-- युक्तैव श्रुतज्ञानेपश्यत्ता। ततो"जाणईनपासई" इति पाठइति स्थितम्। इयं च गाथा पूर्वटीकोकारैर्गृहीता, 'कण्ठ्या ' इति च निर्दिष्टा, न तु व्याख्याता; अस्माभिस्तु यथावबोधं किञ्चिद् विवृता, सुधिया त्वन्यथाऽप्यविरोधतो व्याख्येयेति। तदेवं भेदतो विषयतश्च निरूपितं श्रुतज्ञानम्। Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 685 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय सांप्रतं सत्पदप्ररूपणतादिभिर्नवभिरनुयोगद्वारैर्गत्यादिमार्गणास्थानेषु भविअम-भविआ सिद्धा असिद्धाय॥१॥" इच्चेइअंदुवालसंगं तद् गमनीयम् / एतच्चाभिन्नस्वामित्वात् पूर्वोक्तमतिज्ञानेन समानम्, गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं इत्यतिदिशन्नाह - संसारकंतारं अणुपरिअर्टिसु, इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं जह नवहा मइनाणं, संतपयपरूवणाइणा गमियं / पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरतं तह नेयं सुयनाणं, जं तेण समाणसामित्तं // 556|| संसारकंतारं अणुपरिअट्टति, इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं गतार्थव। संसारकंतारं अणुपरिअट्टिस्संति। इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अथोत्तरनियुक्तिगाथासबन्धनायाह -- तीए काले अणंताजीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं सव्वाइसयनिहाणं, तं पाएणं जओ पराहीणं / वीईवइंसु, इचेइअंदुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता तेण विणेयहियत्थ, गहणावाओ इमो तस्स / / 557|| जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयंति, तच श्रुतज्ञानं यतो यस्मादनेकातिशयनिधानं प्रायः पराधीनं च इबेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा गुर्वायत्तम, तेन कारणेन तस्य श्रुतज्ञानस्याऽयंवक्ष्यमाणो ग्रहणोपायो आणाए काले आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्संति। ग्रहणविधिः 'तीर्थकर- गणधरैरुक्तः इति शेषः / इति गाथापञ्चकार्थः। इच्चेइअंदुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइनासीन कयाइन भवइ ___कः पुनर्ग्रहणोपायः? इत्याह न कयाइ न भविस्सइ मुविं च भवइ अभविस्सइ अधुवे निअए आगमसत्थग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहिं अट्ठहिं दिटुं / सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निचे से जहानामए पंचत्थिकाए न कयाइ नासीन कयाइ नत्थिन कयाइ न भविस्सइ भुर्विच बें ति सुयनाणलंभं, तं पुष्वविसारया धीरा / / 558|| भवइअ भविस्सइ अधुवे नियए ससाए अक्खए अव्वए अवहिए पूर्वेषु विशारदा विपश्चितो धीरा-व्रतानुपालनस्थिराः श्रुतज्ञानस्य लाभ निचे / एवामेव दुवालसंगे- गणिपिडगे न कयाइ नासीन कयाइ ब्रुवते-प्रतिपादयन्ति / किं तत् ? इत्याह- 'तं' ति तदेवागमशास्त्र नत्थिन कयाइ न भविस्सइ भुविंच भवइ अ भविस्सइ अधुवे ग्रहणम् / यत् किम् ? इत्याह- यद् बुद्धिगुणैर्वक्ष्यमाणस्वरूपैरष्टभिर्दिष्ट निअए सासए अक्खए अव्वए अवहिए निच्चे / से समासओ शास्त्रे, इत्यक्षरयोजना / अयमर्थः- शिष्यते शिक्ष्यते बोध्यतेऽनेनेति चउविहे पण्णत्ते, तं जहा- दव्वओ, खित्तओ, कालओ, शाखंतचाविशेषितं सामान्येन सर्वमपि मत्यादिज्ञानमुच्यते, सर्वेणापि मावओ। (सू०५७४) ज्ञानेन जन्तूनां बोधनात् / अतो विशेष स्थापयितुमाह- आगमरूपं 'इत्येतस्मिन् द्वादशाङ्गे गणिपिटके' एतत्पूर्ववदेव व्याख्येयं, अनन्ता शास्त्रमागमशास्वं श्रुतज्ञानमित्यर्थः, तस्य ग्रहणं गुरुसकाशादादानं तदेवं भावा-जीवादयः पदार्थाः प्रज्ञप्ता इति योगः, तथा अनन्ता अभावाःश्रुतलाभं ब्रुवते, यबुद्धिगुणैरष्टभिः शास्त्रे दिष्ट, नान्यदिति-वक्ष्यमाण सर्वभावानां पररूपेणासत्त्वात्त एवानन्ता अभावा, द्रष्टव्याः, तथाहिशुश्रूषादिगुणाष्टकक्रमेणैव श्रुतज्ञानं ग्राह्य, नान्यथेति तात्पर्यम् / इति स्वपरसत्ताभावाभावात्मकं वस्तुतत्त्वं, यथाजीवो जीवात्मना भावरूपो नियुक्तिगाथार्थः। अजीवात्मना चाभावरूपः, अन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गात, अत्र बहु वक्तव्यं अत्र भाष्यम् तत्तु नोच्यते ग्रन्थगौरवभयादिति, तथाऽनन्ता हेतवो' हिनोति-गमयति सासिज्जइजेण तयं, सत्थं तं चाऽविसेसियं नाणं / जिज्ञासितधर्मविशिष्टमर्थमिति हेतुः, ते चानन्ताः, तथाहि-वस्तुनोऽआगम एव य सत्थं, आगमसत्थं तु सुयवाणं / 556 / / नन्ताधर्मास्ते चतत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगम-कास्ततोऽनन्ता हेतवो तस्सायाणं गहणं, दिटुंजं मइगुणेहि सत्थम्मि। भवन्ति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षभूता अहेतवः, तेऽपि अनन्ताः, तथा बेति तयं सुयलामं, गुणा य सुस्सूसणाईया // 560 / / अनन्तानि कारणानि घटपटादीनां निवर्त्तकानि मृत्पिण्डतत्वादीनि, अनन्तान्यकारणानि, सर्वेषामपि कारणानां कार्यान्तराण्यधिकृत्यागतार्थे एव / विशे०। कारणत्वात्,तथा जीवाः-प्राणिनः, अजीवाः परमाणुव्यणुकादयः, भव्यासाम्प्रतमोधतो द्वादशाङ्गाभिधेयमुपदर्शयति अनादिपारिणामिकसिद्धिगमन-योग्यतायुक्ताः, तद्विपरीता अभव्याः, सिद्धा इचेइयंमि दुवालसंगे गणिपिडगे अणंता भावा अणंता अभावा अपगतकर्ममलकलङ्काः, असिद्धाः संसारिणः, एते सर्वेऽप्यनन्ताः प्रज्ञप्ताः, अणंता हेऊ अणंता अहेऊ अणंता कारणा अणंता अकारणा इह भव्याभव्यानामानन्त्येऽभिहितेऽपि यत्पुनरसिद्धा अनन्ता इत्यभिहितं अणंता जीवा अणंता अजीवा अणंता भवसिद्धिया अणंता तत्सिद्धेभ्यः संसारिणा-मनन्त-गुणताख्यापनार्थम् / सम्प्रति अभवसिद्धिआ अणंता सिद्धा अणंता असिद्धापण्णत्ता,तं जहा- द्वादशाङ्गविराधनाफलंकालिक मुपदर्शयति-'इचेझ्य' मित्यादि, इत्येतद् "भावमभावा हेऊ- महेउ कारणमकारणे चेव / जीवाजीवा / द्वादशाङ्गं गणिपिटकमतीते कालेऽनन्ता जीवा आज्ञया- यथोक्ताऽऽ Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 986 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय ज्ञापरिपालनाऽभावतो विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं विविधशारीरमानसानेकदुःखविटपिशतसहस्रदुस्तरं भवगहनम्-- 'अणुपरियटिंसु' अनुपरावृत्तवन्त आसन् / इह द्वादशाङ्गं सूत्रार्थोभयभेदेन विविधं, द्वादशाङ्गमेव चाऽऽज्ञा आज्ञाप्यते जन्तुगुणो हितप्रवृत्तौ यया साऽऽज्ञेति व्युत्पत्तेः, ततश्चाज्ञा त्रिविधा, तद्यथा-सूत्राज्ञा, अथार्ता, उभयाज्ञाच।। सम्प्रति अमूषामाज्ञानां विराधनाश्चिन्त्यन्ते-तत्र यदाऽभिनिवेशवशतो- | ऽन्यथा सूत्रं पठति तदा सूत्राज्ञाविराधना, सा च यथा जमालिप्रभृतीनां, यदा त्वभिनिवेशवतोऽन्यथा द्वादशाङ्गार्थं प्ररूपयति तदाऽर्थाज्ञाविराधना, सा च गोष्ठामाहिलादीनामवसेया, यदा पुनरभिनिवेशवशतः श्रद्धाविहीनतया हास्यादितो वाद्वादशाङ्गस्य सूत्रमर्थं च विकुट्टयति तदा उभयाज्ञाविराधना, सा च दीर्घसंसारिणामभव्यानां चानेकेषां विज्ञेया। अथवा पञ्चविधाचारपरिपालनशीलस्य परोपकारकरणैकतत्परस्य गुरोहितोपदेशवचनम् आज्ञा, तामन्यथा समाचरन् परमार्थतो द्वादशाङ्गं विराधयति, तथा चाह चूर्णिकृत्-'अहवा आणत्ति पञ्चविहायारायरणसीलस्स गुरुणो हियोवएसवयणं आणा, तमन्नहा आयरंतेण गणिपिडगं विराहियं भवइ' त्ति / तदेवमतीते काले विराधनाफलमुपदर्थ्य सम्प्रति वर्तमानकाले दर्शयति- 'इच्चेइय' - मित्यादि; सुगमं नवरं 'परित्ता' इति परिमिता नत्वनन्ता असङ्घयेया वा, वर्तमानकालचिन्तायां विराधकमनुष्याणां सङ्ख्येयत्वात्, 'अणुपरियट्टति' त्ति अनुपरावर्तन्ते-- भ्रमन्तीत्यर्थः, भविष्यति काले विराधनामुपदर्शयति- 'इचेइय, मित्यादि, इदमपि पाठसिद्धं, नवरं 'परियट्टिस्संति' त्ति अनुपरावर्तिष्यन्ते-पर्यटिष्यन्तीत्यर्थः, तदेवं विराधनाफलं त्रैकालिकमुपदर्थ्य सम्प्रत्याराधनाफलं त्रैकालिकं दर्शयति-'इच्चेइय' मित्यादि, सुगमं नवरं 'वीइवइंसुत्तिव्यतिक्रान्तवन्तः संसारकान्तारमुल्लवय; मुक्तिमवाप्ता इत्यर्थः / 'वीइवइस्संति' ति व्यतिक्रमिष्यन्ति, एतच त्रैकालिक विराधनाफलमाराधनाफलं च द्वादशाङ्गस्य सदाऽवस्थायित्वे सति युज्यते, नान्यथा, ततः सदावस्थायित्वं तस्याह- 'इचेइय, मित्यादि, इत्येतद्वादशाङ्गं गणिपिटकं न कदाचिन्नासीत्, सदैवासीदिति भावः, अनादित्वात्, तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति, भावः, सदैव भावात्, तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भविष्यचिन्तायां सदैव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यम्, अपर्यवसितत्वात्, तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति- 'भुविं च' इत्यादि, अभूत् भवति भविष्यति चेति / एवं त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रुवं मेर्वादिवत्, ध्रुवत्वादेव सदैवजीयादिषु पदार्थेषु प्रतिपादकत्वेन नियतं पञ्चास्तिकायेषु लोकवचनवत् नियतत्वादेव च शाश्वतं- शश्वद्भवनस्वभावं शाश्वतत्वादेव च सततगङ्गासिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि (पद्म) पुण्डरीकहद इव वाचनादिप्रदानेऽपि अक्षयं-नास्य क्षयोऽस्ती त्यक्षयमक्षयत्वादेव च अव्ययं मानुषोत्तरादहिः समुद्रवत्, अव्ययत्वादेव सदैव प्रमाणेऽवस्थितं जम्बूद्वीपादिवत्, एवं च सदाऽय- | स्थानेन चिन्त्यमानं नित्यमाकाशवत्, साम्प्रतमत्रैव दृष्टान्तमाह-- 'से जहानामे' त्यादि, तद्यथानाम पञ्चास्तिकायाः- धर्मास्तिकायादयः न कदाचिन्नासन्नित्यादि पूर्ववत्, ‘एवमेव त्यादि निगमनं निगदसिद्धं, 'से समासओ' इत्यादि, तद् द्वादशाङ्ग समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथाद्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च। तत्थ दव्वओणं सुअनाणी उववत्ते सव्वदव्वाइंजाणइपासइ, खित्तओणंसुअनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइपासइ, कालओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ। (सू०५७४) तत्र द्रव्यतो 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वद्रव्याणि जानाति पश्यति, तत्राह- ननु पश्यतीति कथं? न हि श्रुतज्ञानि श्रुतज्ञानज्ञेयानि सकलानि वस्तूनि पश्यति, नैष दोषः, उपमाया अत्र विवक्षितत्वात्, पश्यतीव पश्यति, तथाहि-मेर्वादीन् पदार्थानदृष्टानप्याचार्यः शिष्येभ्य आलिख्य दर्शयति ततस्तेषां श्रोतृणामेवं बुद्धिरुपजायते भगवानेष गणी साक्षात्पश्यन्निव व्याचष्टे इति, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयम्, ततो न कश्चिद्घोषः। अन्येतुन पश्यतीति पठन्ति, तत्र चोद्यस्यानवकाश एव, श्रुतज्ञानी चेहाभिन्नदशपूर्वधरादि-श्रुतकेवली परिगृह्यते, तस्यैव नियमतः श्रुतज्ञानबलेन सर्वद्रव्यादिपरिज्ञानसम्भवात्, तदितरे तुये श्रुतज्ञानिनस्ते सर्वद्रव्यादिपरिज्ञाने भजनीयाः, केचित्सर्वद्रव्याणि जानन्ति केचिन्नेति भावः। इत्थम्भूता च भजमा मतिवैचित्र्याद्वेदितव्या, आह चचूर्णिकृत्-"आरओ पुण जे सुयनाणी ते सव्वदव्वनाणपासणासु भइया, साय भयणा मइविसेसओ जाणियव्व त्ति" / / संप्रति संग्रहगाथामाह"अक्खर सन्नी सम्म, साइअंखलु सपज्जवसिअंच। गमिअं अंगपविठं, सत्त वि एए सपडिवक्खा // 18 // सुस्सूसइ१ पडिपुच्छइ 2, सुणेइ 3 गिण्हइ अईहए यावि५। तत्तो अपोहए वा 6, धारेइ 7 करेइ वा सम्म 8 // 183|| मूअं हुंकारं वा, बाढकार पडिपुच्छ वीमंसा। तत्तो पसंगपारा-यणं च परिणि सत्तमए॥१८४|| सुत्तत्थो खलु पढमो, वीओ निजुत्तिमीसिओ भणिओ। तइओय निरविसेसो, एस विही होइ अणुओगे // 18 // " से तं अंगपविटं / से तं सुअनाणं। 'अक्खरसन्नी' त्यादि, गतार्था / नवरं सप्ताप्येते पक्षाः सप्रतिपक्षाः, ते चैवम्- अक्षरश्रुतमनक्षरश्रुतमित्यादि (नं०) किमुक्तं भवति ? यदेव जिनप्रणीतप्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं, न शेषमिति। बुद्धिगुणैरष्टभिरित्युक्तम्, ततस्तानेव बुद्धिगुणानाह–'सुस्सूसई त्यादि, पूर्व तावत्शुश्रूषते-विनययुक्तो गुरुवंदनारविन्दाद्विनिर्गच्छद्वचनं श्रातुमिच्छति, यत्र शङ्कितं भवति तत्र भूयोऽपि विनयनम्रतया वचसा गुरुमनःप्रह्लादयन् पृच्छति, पृष्ठे च सति यद् गुरुः कथयति तत्सम्यक्व्याक्षेपपरिहारेण साव Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय ९८७-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय धानः शृणोति, श्रुत्वा चार्थरूपतया गृह्णाति गृहीत्वा च ईहते पूर्वापराविरोधेन पर्यालोचयति, चशब्दः समुच्चयार्थः, अपिशब्दात्प(ब्दःप) र्यालोचयन् किञ्चित् स्वबुद्ध्याप्युत्प्रेक्षते इति सूचनार्थः, ततः पर्यालोचनाऽनन्तरमपोहते, एवमेतत् यदादिष्टमाचार्येण नान्यथेत्यवधारयति, ततस्तमर्थं निश्चित स्वचेतसि विस्मृत्यभावार्थं सम्यग्धारयति करोति च सम्यग् -- यथोक्तमनुष्ठानं, यथोक्तमनुष्ठानमपि श्रुतज्ञानप्राप्तिहेतुः तदावरणक्षयोपशमनिमित्तत्वात् / तदेवं गुणा व्याख्याताः / सम्प्रति यच्छुश्रूषते इत्युक्तं तत्र श्रवणविधिमाह-- 'मूय' मित्यादि, मूकमिति प्रथमता मूकं शृणुयात् किमुक्तं भवति ? प्रथमश्रवणे संयतगात्रस्तूष्णीमासीत्, ततो द्वितीये श्रवणे हुङ्कारं दद्यात्; वन्दनं कुर्यादित्यर्थः, ततस्तृतीये बाढंकारं कुर्यात्, बाढमे-वमेतन्नान्यथेति, ततश्चतुर्थे श्रवणे तुगृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रतिपूच्छां कुर्यात्, कथमेतदिति ? पञ्चमे मीमांसां-प्रमाणजिज्ञासां कुर्यादितिभावः, षष्ठे श्रवणे तदुत्तरोत्तरगुणप्रसङ्गः पारगमनं चास्य भवति, ततः सप्तमे श्रवणे परिनिष्ठा गुरुवदनुभाषते / एवं तावच्छ्रवणविधिरुक्तः ! सम्प्रति व्याख्यानविधिमभिधित्सुराह- 'सुत्तत्थो' इत्यादि, प्रथमानुयोगः सूत्रार्थः सूत्रार्थप्रतिपादनपरः, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे। ततोऽयमर्थः-गुणा प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थाभिधानलक्षण एव कर्तव्यः, माभूत्प्राथमिकविनेयानां मतिमाहः, द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितो भणितस्तीर्थकरगणधरैः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितं द्वितीयमनुयोगं गुरुर्विदध्यादित्याख्यातं तीर्थकरणधरैरिति भावः, तृतीयश्चानुयोगो निरवशेषः-प्रसक्तानुप्रसक्तप्रतिपादनसक्षण इत्येषः-उक्तलक्षणो विधिर्भवत्यनुयोगे व्याख्यायाम्। आह- परिनिष्ठा सप्तमे इत्युक्तं, त्रयश्चानुयोगप्रकारास्तदेतत्कथम् ? उच्यते- त्रयाणामनु-योगानामन्यतमेन केनचित्प्रकारेण भूयो भूयो भाव्यमानेन सप्त वाराः श्रवणं कार्यते ततो न कश्चिद्दोषः, अथवाकञ्चिन्मन्दमतिविनयमधिकृत्य तदुक्तं द्रष्टव्यं, न पुनरेष एव सर्वत्र श्रवणविधिनियमः, उद्घटितज्ञविनेयानां सकृच्छ्रवणत एवाशेषग्रहणदर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन। 'से त्त' मित्यादि, तदेतच्श्रुतज्ञानम् / नं०। सांप्रतं श्रुतज्ञानं व्याचिख्यासुराह-"चउदसहा वीसहा व सुयंति"। श्रुतं- श्रुतज्ञानं चतुर्दशधा चतुर्दशभेदं विंशतिधा विंशतिप्रकारं वा भवतीति / तत्र प्रथमं श्रुतस्य चतुर्दशभेदान् व्याख्यानयन्नाहअक्खर सन्नी संमं, साइअं खलु सपज्जवसियं च / गमियं अंगपविटुं, सत्त वि एए सपडिवक्खा // 6| इह श्रुतशब्दः पूर्वगाथातः संबध्यते। ततोऽक्षरश्रुतं, संज्ञिश्रुतं, सम्यच्छुतं, सादिश्रुतं, सपर्यवसितश्रुतं, गमिकश्रुतम्, अङ्ग-प्रविष्टश्रुतमित्येते सप्त / भेदाः सप्रतिपक्षाः श्रुतस्य चतुर्दश भेदा भवन्ति / तथाहि-अक्षरश्रुतप्रतिपक्षमनक्षरश्रुतम्, एवमसंज्ञिश्रुतं मिथ्याश्रुतमनादिश्रुतमपर्यवसित श्रुतमगमिकश्रुतमङ्गबाह्यश्रुतमिति। तत्राक्षरं त्रिधा संज्ञाव्यञ्जनलब्धिभेदात् / उक्त च-"तं सन्नावंजणलद्धिसान्नियं तिविहमक्खरं भणियं / सुबहुलिविभेयनिययं, सन्नक्खरमक्खरागारो॥१॥" सुबहयो या एता अष्टादश लिपयः श्रूयन्ते, तथाहि- "हंसलिवी भूयलिवी, जक्खी तह रक्खसी य बोधव्वा / उड्डी जवणि तुरुक्की, कीरी दविडी य सिंधविया // 1 // मालविणी नडिनागरि, लाडलिवी पारसी य बोधव्वा / तह अनिमित्तीय लिवी, चाणक्की मूलदेवी य॥२॥" व्यञ्जनाक्षरमकारादिहकारपर्यन्तमुच्यते / तदेतद्वितयमज्ञानात्मकमपि श्रुतकारणत्वादुपचारेण श्रुतम्। लब्ध्यक्षरंतु शब्दश्रवणरूपदर्शनादेरर्थप्रत्यायनगर्भाक्षरोपलब्धिः / यदाह- "जो अक्खरोवलंभो, सा लद्धी तं च होइ विन्नाणं / इंदियमणोनिमित्तं, जो आवरणक्खओवसमो॥१॥" ततोऽक्षरैरभिलाप्यभावानां प्रतिपादनप्रधानं श्रुतमक्षरश्रुतम्। नन्वनभिलाप्या अपि कि केचिद्भावाः सन्ति, येनैवमुच्यतेऽभिलाप्यभावानां प्रतिपादनप्रधानं श्रुतमिति, उच्यते-सन्त्येव / यदाहुः श्रीपूज्या:"पण्णवणिजा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं। पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयनिबद्धो / / 1 / / जंघउदस पुव्वधरा,छट्ठाणगया परुप्परं हुंति। तेण उ अणंतभागो, पण्णवणिज्जाए जं वुत्तं / / 2 / / अक्खरलंभेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेणं (हिं)। ते विहुमईविसेसा, सुयनाणभंतरे जाण // 3 // " अनक्षरश्रुतं श्वेडितशिरः कम्पनादिनिमित्तं मामाह्वयति वारयति वेत्यादिरूपमभिप्रायपरिज्ञानम् / तथा संज्ञिश्रुतं तत्र संज्ञानं संज्ञा "उपसर्गादातः" // 5 // 3 / 110 // इत्यङ्प्रत्ययः।सा च त्रिविधा दीर्घकालिकी हेतुवादोपदेशिकी दृष्टिवादोपदेशिकी। यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः"इह दीहकालिगि त्ति, सन्ना नेया जया सुदीहं पि / संभरइ भूयमेस्सं, चिंतेइ य किह णु कायव्वं ||1|| जे पुण संचिंतेउं, इट्टाणिढेसु विसयवत्थूसु / घट्टति नियतंति य, स देहपरिवालणाहेउं / / 2 / / पाणए संपयं चिय, कालंमि न यावि दीहकालं जा। ते हेउवायसन्नी, निचिट्ठा हुंति अस्सण्णी // 3 // सम्मट्टिी सन्नी, संते नाणे खओवसमियंमि। अस्सण्णी मिच्छत्तं- मि दिट्ठिवाओवएसेणं // 4 // " ततश्च संज्ञा विद्यते येषां ते संज्ञिनः परं सर्वत्राप्यागमे ये दीर्घकालिक्या संज्ञया संज्ञिनस्ते संज्ञिन उच्यन्ते, ततः संज्ञिनां श्रुतं संज्ञिश्रुतं समनस्कानां मनः सहितैरिन्द्रियैर्जनितं श्रुतं संज्ञिश्रुतमिति भावः / मनोरहितेन्द्रियजं श्रुतमसंज्ञिश्रुतम्। तथा सम्यग्दृष्टरर्हत्प्रणीतं मिथ्यादृष्टिप्रणीतं वा यथास्वरूपमवगमात् सम्यक्श्रुतं, मिथ्यादृष्टः पुनः। अर्हत्प्रणीतमितरता मिथ्याश्रुतं, यथास्वरूपमनवगमात्। आह-मिथ्यादृष्टरपि मतिश्रुतेसम्यग्दृष्टरिवतदावरणकर्मक्षयोपशमसमुद्भवेसम्यग्दृष्टरिव पृथुबुध्नोदराद्याकारं घटादिकं च संविदाते, तत् कथं मिथ्यादृष्टरज्ञाने? उच्यते-सदसद्विवेकपरिज्ञानाभावात्। तथाहि-मिथ्यादृष्टिः सर्वमप्येकान्तपुरःसरं प्रतिपद्यते, न भगवदुक्तस्याद्वादनीत्या, ततोघट एवायमिति यदा बूते तदा तस्मिन् घटे घटपर्यायव्यतिरेकेण शेषान् सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादीन् सतोऽपि धर्मानपलपति, अन्यथा घट एवायमित्येकान्तेनावधारणानुपपत्तेः। घटः सन्नेवेति ब्रुवाणः पररूपेण नास्तित्वस्यानभ्युपगमात्पररूपतामसतीमपि तत्र प्रतिपद्यते / ततः सन्तमसन्तं Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय १८८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय प्रतिपद्यतेऽसन्तं च सन्तमिति सदसद्विशेषपरिज्ञानाभावादज्ञानं मिथ्यादृष्टर्भतिश्रुते। इतश्च ते मिथ्यादृष्टरज्ञाने, भवहेतुत्वात्। तथाहि-मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते पशुवधमैथुनादीनां धर्मसाधकत्वेन परिच्छेदके ततो दीर्घतरसंसारपथप्रवर्तिनी। तथा यदृच्छोपलम्भादुन्मत्तकविकल्पवत्। तथाहिउन्मत्तकविकल्पावस्त्वनपेक्ष्यैव यथाकथंचित् प्रवर्तन्ते। यद्यपि च ते क्वचिद्यथावस्थितवस्तु-संवादिनस्तथापि सम्यग्यथावस्थितवस्तुतत्त्वपर्यालोचनाविरहेण प्रवर्तमानत्वात् परमार्थतोऽपरमार्थिकाः। तथा मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते यथा-वद्वस्त्वविचार्यव प्रवर्तेते, ततो यद्यपि ते क्वचिद्रसोऽयं स्पर्शोऽयमित्यादाववधारणाध्यवसायाभावे संवादिनी, तथापिनते स्याद्वादमुद्रापरिभावनातस्तथा प्रवृत्ते, किंतु यथाकथञ्चित्, अतस्ते अज्ञाने / तथा ज्ञानफलाभावात्, ज्ञानस्य हि फलं हेयस्य हानिरुपादेयस्य चोपादानं, न च संसारात्परं किंचन हेयमस्ति, न च मोक्षात्परं किंचिदुपादेयं, ततो भवमोक्षावेकान्तेन हेयोपादेयौ, भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः, ततः साऽवश्यं तत्त्ववेदिना कर्तव्या, सैव च तत्त्वतो ज्ञानस्य फलम्। तथाचाह भगवानुमास्वातिवाचकः-"ज्ञानस्य फलं विरति-रिति" / सा च मिथ्यादृष्टनास्तीति ज्ञानफलाभावादज्ञाने मिथ्यादृष्टर्मतिश्रुते। यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः"सदसदविसेसणाओ, भवहेउ जहिच्छिओवलंभाओ / नाणफलाभावओ, मिच्छद्दिविस्स अन्नाणं // 1 // " इति / तथा- "साइयं, सपज्जवसियं, अणाइयं, अपञ्जवसियं, इचेयदुवालसंगवुच्छित्तिनयट्ठयाए साइयं सपज्जवसियं, अवुच्छित्तिनतट्ठयाए अणाइयं अपज्जवसियं, तं सामासओ चउव्विहं पन्नत्तं, तं जहा- दव्वओ खित्तओ, कालओ, भावओ, दव्वओणं संमसुयं एगपुरिसंपडुच साइयं सपज्जवसियं, बहवे पुरिसे पड्य अणाइयं अपज्जवसियं, खित्तओणं पंच भरहाइपंच एरवयाई पडुच्च साइयंसपञ्जवसियं, पंच महाविदेहाई पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं, कालओ णं उस्सप्पिणिं अवसप्पिणिं च पडुच्च साइयं सपज्जवसियं नोउस्सप्पिणिं नोअवसप्पिणिं च पडुच्च अणाइयं अपज्जवसियं"। नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणीचेति कालो महाविदेहेषु ज्ञेयस्तत्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणकालाभावात्। "भावाओ णं जे जया जिणपन्नता भावा आघविजंति पण्णविजंति परूविजंति दंसिजंति निदंसिजंति, ते तया पडुच्च साइयं सपज्जवसियं, खाओवसमियं पुण भावं पडुच अणाइयं अपज्जवसियं / अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइयं सपञ्जवसियं" केवलज्ञानोत्पत्तौ तदभावात्, "नटुंमि उ छाउमथिए नाणे" इति वचनात् / "अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं" / इह च सामान्यतः श्रुतशब्देन श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानं चोच्यते। यदाह-"अविसेसियं सुयं सुयनाणं सुयअन्नाणं च"। तथा गमाः सदृशपाठास्ते विद्यन्ते यत्र तद्गमिकत्, "अतोऽनेकस्वराद्" 7-2-6 इति (सूत्रेण) इकप्रत्ययः तत् प्रायो दृष्टिवादगतम् / आगमिकमसदृशाक्षरालापकं तत् प्रायः कालिकश्रुतगतम्। कर्म०। परिकाम, सुत्तपुव्वा-णुओगपुव्वगयचूलिया एवं / पण दिहिवायभेया, चउदस पुव्वाइँ पुव्वगयं // 3 // उप्पाय पयकोडी, अग्गाणीयंमि छंनवइलक्खा। वि (वी)रियपवाए अच्छि-प्पवाइ लक्खा सयरिसट्ठी // 4 // एगपऊणा कोडी, पयाण नाणप्पवायपुव्वंमि। सन्चप्पवायपुव्वे, एगा पयकोडि छच्च पया॥५|| छव्वीस पयकोडी, पुव्वे आयप्पकायनामंमि। कम्मप्पवायपुव्वे, पयकोडी असिइलक्खजुया॥६।। पचक्खाणभिहाणे, पुव्वे चुलसीइ पयसंयसहस्सा। दसपयसहस्सजुया, पयकोडिविजापवायम्मि // 7 // कल्लाणनामधिजे, पुव्वम्मि पयाण कोडिछव्वीसा। छप्पन्नलक्खकोडी, पयाण पाणाउपुव्वंमि॥८॥ किरियाविसालपुव्ये, नव पयकोडी उ बिंति समयविऊ। सिरिलोकबिन्दुसारे, सडुदुवालस य पयलक्खा // 6 // " अङ्गबाह्यं श्रुतमावश्यकदशवैकालिकादि। इति व्याख्यातं चतुर्दशधा, श्रुतम्। संप्रति विंशतिधा श्रुतं व्याख्यानयन्नाहपज्जयअक्खर पयसं-घाया पडिवत्ति तह य अणुओगो। पाहुडपाहुडपाहुड-वत्थूपुव्वा य ससमासा / / 7 / / पर्यायश्चाक्षरं च पदं च संघातश्च पर्यायाक्षग्पदसंघाताः 'पडिवत्ति' त्ति प्रतिपत्ति। प्राकृतत्वाल्लुप्तविभक्तिको निर्देशः। तथा चानुयोगोऽनुयोगद्वारलक्षणः, प्राभृतप्राभृतं च प्राभृतं च वस्तु च पूर्वं च प्राभृतप्राभृतप्राभृतवस्तुपूर्वाणि / प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः / यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे "लिङ्ग व्यभिचार्यपि" 'चः' समुच्चये। एते पर्यायादयः श्रुतस्य दश भेदाः / कथंभूता इत्याह-'ससमास' त्ति समासः संक्षेपो, मीलक इत्यर्थः, सह समासेन वर्तन्ते ससमासास्ततश्च प्रत्येकं संबन्धः। तथाहि, पर्यायः पर्यायसमासः, अक्षरमक्षरसमासः, पदं पदसमासः, संघातः संघातसमासः, प्रतिपत्तिः प्रतिपत्तिसमासः, अनुयोगोऽनुयोगसमासः,प्राभृतप्राभृतं प्राभृतप्राभृतसमासः, प्राभृतं प्राभृतसमासः, वस्तु वस्तुसमासः पूर्व पूर्वसमासः, इति विंशतिधा श्रुतं भवतीति गाथाक्षारार्थः / भावार्थस्त्वयम्-पर्यायो ज्ञानस्यांशो विभागः परिच्छेद इति पर्यायाः। तत्रैको ज्ञानांशः पर्यायोऽनेके तु ज्ञानांशाः पर्यायसमासः। एतदुक्तं भवति-लब्ध्यपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत् सर्वजधन्यं श्रुतमावं तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकश्रुतज्ञानांशो विभागपरिच्छेदरूपो वर्धते स पर्यायः / / 1 / / ये तु व्यादयः श्रुतज्ञानविभागपरिच्छेदा नानाजीवेषु वृद्धा लभ्यन्ते ते समुदिताः पर्यायसमासः // 2 // आकारादिलब्ध्यक्षराणा मन्यतरदक्षरम् // 3 // तेषामेव द्वयादिसमुदायोऽक्षरसमासः // 4 // पदं तु अर्थपरिसमाप्तिः पदमित्याधुक्तिसद्भावेऽपि येन केनचित्पदेनाष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणाआधारादिग्रन्था गीयन्तेतदिह गृह्यते, तस्यैव द्वादशाग-- श्रुतपरिमाणेऽधिकृतत्वात्, श्रुतभेदानामेव चेह प्रस्तुतत्वात्, तस्य च पदस्य तथाविधानायाभावात्प्रमाणं न ज्ञायते, तत्रैकं पदं पदमुच्यते॥५॥ व्यादिप दसमुदायस्तु पदसमासः॥६।। 'गइइंदिए य काए' इत्यादिगाथाप्रतिपादितद्वारकलापस्यैकदेशो यो गत्यादिकस्तस्याप्येकदेशो यो नर Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय 986 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय कगत्यादिकस्तत्र जीवादिमार्गणा यका क्रियते स संघातः // 7 // द्वयादिगत्याद्यवयवमार्गणा संघातसमासः // 6 // गत्यादिद्वा-राणामन्यतरैकपरिपूर्णगत्यादिद्वारेण जीवादिमार्गणा प्रतिपत्तिः / / 6 / / द्वारद्वयादिमार्गणा तु प्रतिपत्तिसमासः॥१०॥ "संतपयपरूवणया दव्वपमाणं चे" त्यादि, अनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकमनुयोगद्वारमुच्यते॥१॥ तद्व्यादिसमुदायः पुनरनुयोगद्वारसमासः॥१२॥ प्रभृतान्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतप्राभृतं // 13 / / तव्यादिसमुदायस्तु प्राभृतप्राभृतसमासः // 14 // वस्त्वन्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतम् / / 15 / / तद्व्यादिसंयोगस्तु प्राभृतसमासः // 16 // पूर्वान्तर्वर्ती अधिकारविशेषो वस्तु // 17 // तद्व्यादिसंयोगस्तुवस्तुसमासः||१८|| पूर्वमुत्पादपूर्वादिपूर्वोक्तस्वरूपम् ||16 // तद्-द्वयादिसंयोगस्तु पूर्वसमासः॥२०॥ एवमेते संक्षेपतः श्रुतज्ञानस्य विंशतिर्भेदा दर्शिताः, विस्तरार्थना तु बृहत्कर्मप्रकृतिरन्वेषणीया। एते च पर्यायादयः श्रुतभेदा यथोत्तरं तीव्रतीव्रतरादिक्षयोपशमलभ्यत्वादित्थं निर्दिष्टा इति परिभावनीयमिति। अथवा चतुर्विधं श्रुतज्ञानम्, तथाहि-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च / तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याण्यादेशेन जानाति, क्षेत्रतः सर्वक्षेत्रमादेशेन श्रुतज्ञानी जानाति, कालतः सर्व कालमादेशेन श्रुतज्ञानी जानाति, भावतः सर्वान् भावानादेशेन श्रुतज्ञानी जानातीति व्याख्यातं सविस्तारं श्रुतज्ञानम्। उपवानवताऽध्येतव्यम्से भयवं ! किं जहा पंचमंगलं तहा सामाइयाइयमसेसं पि | सुयनाणमहिन्जियव्वं ? गोयमा ! तहा चेव विणओ विहाणेणमहिएयव्वं, णवरं अहिज्जणिउकामेहिं अट्ठविहं चेव नाणायारं सव्वपयत्तेणं कालादी रक्खेज्जा अन्नहा महया सायणं ति अन्नं च दुवालसंगस्ससुयनाणस्स पढमचरिमजाम अहन्निसमज्झयणज्झावणं च पंचमंगलस्स सोलसद्धजामियं / अन्नं च पंचमंगलं कयसामइए वा अकयसामइए वा, अहीए सामाइयं तु सयं च सारंभपरिग्गहे जावजीवं कयसामाइए अहिजिणइ ण उण सारंभपरिग्गहे। अकयसामाइए तहा पंचमंगलस्स आलावगे य आलयं दिलं तहा सकत्थवाईसु वि दुवालसंगस्स पुण सुयनाणस्स उद्देसगज्झयणेसु / महा०३ अ०। भुवणेकपायडजसे,जह भणियं गुणहिए गणिणो॥२॥" से भयवं जे णं केइ अमुणियसमयसब्भावे होत्था विहीए वा अविहीए वा कस्सय गच्छायारस्सयमंडलिधम्मस्स यवा छत्तीसइविहस्स णं सप्पत्तेयनाणदंसणचरित्ततववीरियायारस्सवामणसावा वाया वा कहिं वि अन्नयरे ठाणे केइ गच्छाहिवई आयरिएइ वा अणंतो विसुद्धपरिणामो वि होत्था णं / असुई वक्केज वा (खग्जेज वा) परूवमाणे वा अणुट्ठमाणे वा सेणं आराहगे उयाहु अणाराहगे? गोयमा ! अणाराहगे। से णं भयवं ! केणं अटेणं एवं वुधइ एवं जहा णं गोयमा ! अणाराहगे णं इमे दुवालसंगे सुयनाणे अणपज्जवसिए अणाइनिहणे सब्भुयत्थपसाहगे। अणाइसंसिद्धे से णं देविंदविंदवंदाणं अतुलबलवीरिए सरियसत्तपरकममहापुरिसायारकंतिदित्तिलावन्नरूवसोहग्गसकलकला-कलावविछडपडियाणं अणंतणाणीणं / सयं संबुद्धाणं जिणवराणं अणाइसिद्धाणं अणंताणं वट्टमाणसमयसिज्झ-गाणं / अग्नेसिं च आसन्नपुरक्खडाणं अणंताणं सुगहिय-नामधिजाणं महायसाणं महासत्ताणं महाणुभागाणं तिहुयणेक्कनिलगाणं तेलोकनाहाणं जुगपवराणं जगेकबंधूणं जगगुरूणं सव्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं पवरवरधम्मतित्थकराणं अरहंताणं भगवंताणं भूए सवभविसाइयाणं गयवट्टमाणनिखिलासेसकसिणसगुणसपज्जयसव्ववत्थुविदियसमावाणं असहाए पवरे एकमेकमग्गे से णं सुरूवत्ताए अच्छत्ताए गंधत्ताए। तेसिं पिणं जहडिए चेव पनवणिजे जहट्ठिए अणुहणिजे जहट्ठिए चेव भासणिजे जहहिए चेव परूवणिज्जे जहट्ठिए चेव वायरणिजे जहट्ठिए चेव वायणिज्जे जहट्ठिए चेव कहणिजे / से णं इमे दुवालसंगे गणिपिडगे। तेसिं पिणं देविंदाणं णिखिलजगविदियदव्वसपज्जवगइ-आगइहासवुड्डी जीया य तत्थजावणं वत्थुसहावाण अलंघ-णिजे अणइकमणिले अणसा यणिज्जे / तहा चेव इमे दुवालसंगे सुयनाणे सव्वजगजी याणं भूयसत्ताणं एगंतेणं हिए सुए खमे नीसेसिए आणुगामिए पारगारिए पसत्थे महत्थ महागुणे महाणुभागे महापुरिसाणुचिन्ने परमरिसिदेसिए दुक्खक्खयाए मोक्खयाए संसारुत्तारणयाए त्ति कटु उवसंपञ्जित्ता णं विहरिंसु किं सुतमन्नेसिं ति। ता गोयमा ! जे णं केइ अमुणिय-समयसम्मावेइ वा विइयसमयसारेइ वा विहीए वा अविहीए वा गच्छाहिवई वा आयरिएइ वा अंतोविसुद्धपरिणामे विहोत्था गच्छायारमंडलिधम्माछत्तीसइविहायारादिजावणं अन्नयरस्स वा आवस्सगाइ करणिजस्सणं पवयणसारस्स असतीचुकेजवाखलेज वा तेणं इमेदुवालसंगेसुयनाणे अन्नहापयरेजाजेणंइमेदुवालसंगसुयनाण श्रुतज्ञानस्य विराधकःएएसिंपयाणं अन्नयरपए खलेजा। जो सहसा देसूणपुवकोडी | ताव णं गोयमा ! सुज्झेज वा ण वावि। "एवं गच्छविवड्डी, तह त्ति पालेतु जं जहा भणियं / रयमलकिलेसमुक्के, गोयमा ! मुक्खं गएणं तं॥१॥ गच्छंति गमिस्संतिय,ससुरासुरजगणमंसिए वीरे।। Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुय &0- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुय निबद्धतरोवगयं एकपयक्खरमवि अन्नहा पयरे से णं उम्मग्गे पयंसेज्जा, जे णं उमग्गे पयंसेज्जा से णं अणारहागे भवेजा। ता एएणं अटेणं एवं वुचइ - जहा णं गोयमा ! एगंते णं अणाराहगे / महा०५ अ०1"जत्थक्खलियममलिय बाइपयं पयक्खरविसुद्धं / विणओवहाण पुटवं, दुवालसंगं पिसुयनाणं ||1||" महा०४ अ०। परोपदेशः श्रुतग्रन्थश्च श्रुतमिहोच्यते। विशे० / अविनीतो विकृतिप्रतिबद्धो व्यपशमितप्राभृतश्चैते न वाचनीयाः। बृ०४ उ०। (विनीतस्य सर्वोऽपि विनयः "विणय' शब्देषष्ठभाग गतः।) श्रुतं द्विविधवद्धम्, अबद्धं च। बद्धं द्वादशाङ्गीरूपम्, अबद्धं तु भारतादि लौकिकम्, / आ० म० 1 अ०1 आयारदसाकप्पो, ववहारोनवमपुष्वणीसंदो। चारित्तरक्खणट्ठा, सूयगडस्सुवरिठविताई। पं० मा०१कल्प। ('आयारपकप्प' शब्दे द्वितीयभागे 350 पृष्ठे व्याकृतैषा।) ('सिक्खा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे सूत्राध्ययनरूपा शिक्षा उक्ता!) आत्महितादिज्ञानं सूत्राध्ययनस्य फलं-श्रुताध्ययनेऽमी अभ्यधिका गुणाः आतहियपरिण्णा भा-वसंवरो नवनवो असंवेगो। निकंपया तपो नि-जरा य परदेसियत्तं च // 360 // आत्महितं 1 परिज्ञा 2 भावसंवरो 3 नवनवश्च संवेगः 4 निष्कम्पता 5 तपो 6 निर्जरा च 7 परदेशिकत्वं च 8 इति द्वारगाथासमासार्थः / वृ०। "जयइ सुयाणं पभवो, वीरजिणो।" नं०। (व्याख्या 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे 53 पृष्ठे उक्ता।) एकमप्यक्षरं श्रुतस्य जानानो नाचारी भवतिभयवं! जो रत्तिदियह सिद्धतं पढइ सुणेइ वक्खाणेइ चिंतेइ सततं सो किं अणायारमायरे ! सिद्धतगयमेगं पि अक्खरं जो वियाणइ सो गोयमा ! मरणंते वि अणायारं नो समायरे / महा० 6 अ०। ('अवण्णवाय' शब्दे प्रथमभागे 763 पृष्ठे श्रुतावर्णवादः।) सुयं पडुब तओ पडिणीया पण्णत्ता,तं जहा-सुत्तपडिणीए, अत्थपडिणीए, तदुभयपडिणीए। स्था०३ ठा०४ उ०। (प्रव्रजितस्य श्रुतदानं पव्वजा' शब्दे 745 पृष्ठेऽस्ति) आचार्योपाध्यायादत्तां गिरं गृह्णतः प्रायश्चित्तम्। नि० चू०१६ / (स्वगणे संविनाधभावे श्रुतग्रहणम् ‘उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे 876 पृष्ठगतम्।) अपूर्वज्ञानग्रहणे, महा०१चू०। ('सुयकप्प' शब्दोऽप्यत्र वीक्ष्यः।) (स्थानादिप्रवृत्तियोगरहितस्य सूत्रदानं महादोष इति आचार्या हरिभद्रादयः।)(श्रावकेभ्यः श्रुतप्रदान पादयण' शब्दे५ भागे निरस्तम्) पार्श्वस्थादिभ्यः श्रुतग्रहणम्। अधुना पार्श्वस्थादिसमीपे सूत्रनिषेधो विधीयते-- उस्सग्गविहंडियमु-द्धबोहपसरा भणंति एवं ने। पासत्थाइसमीवे, सुत्ताईयं न घेत्तव्वं // 67 // उत्सर्गेण सामान्योक्ते विधिना, 'विहंडियं ति-देशीशब्दो विनाशार्थः, | ततो विनाशतिः शुद्धबोद्धप्रसरः प्रधानमत्यव-काशलक्षणो येषां ते भणन्ति-जल्पन्ति एवं वक्ष्यमाणन्यायेन अन्ये परे।तदेवाह-पार्श्वस्थादिसमीपे, तत्र पार्श्वस्था उक्तलक्षणाः, आदिशब्दात्-अवसन्नादिग्रहः, तेषां निकटे सूत्रादिकम्, आदिशब्दाद्-अर्थादिग्रहः न ग्रहीतव्य-न स्वीकर्तव्यमिति गाथार्थः / अत्रोत्तरम्-- तमवि न छेयग्गन्था-गुसारि वयणं जओ जइंदस्स। मणियं निसीहगंथे, उस्सग्गववायजलहिम्मि॥६॥ तदपि सूत्रादिनिषेधकरणं न केवलं पूवोक्तमित्यपिशब्दार्थः, 'न' नैव छेदग्रन्थानुसारि वचनम् उत्साहकशास्त्रसंवादिभणनं, यस्माद्यतिं - साधुमुद्दिश्याश्रित्य भणितम्- उक्तं निशीथग्रन्थे-प्रकल्पशास्त्रे / किंविशिष्ट उत्सर्गापवादजलधौ-सामान्यविशेषनीरनिधाविति गाथार्थः। तदेवाहसंविग्गासंविग्गे, पच्छाकडसिद्धपुत्तसारूवी। पडिकंते अविसेस,नीरनिधावावि तत्थेव॥६६॥ सुगमा। भावार्थस्तुकथ्यतो प्रथम संविग्रस्योद्युक्तस्य सूत्रार्थनिपुणस्य समीपे साधुभिः श्रोतव्यं, तदभावेऽसंविग्नस्यापि गीतार्थस्य, तस्याप्यभावं पश्चात्कृतस्यामुक्तलिङ्गस्य। स च द्विरूपो भवति-एकः सिद्धपुत्रोऽन्यश्च सारूपी। अनयोश्व स्वरूपमाभ्याम् -क्ताभ्यामवगन्तव्यम्। "सभज्ज ओवोवि अभज्जओ वा, नियमेण दोसुक्किलवत्थधारी। खुरेण मुंडो असिही सिही वा, अदंडपत्तो विय सिद्धपुत्तो॥ मुंडसिरो दोसुकिल्लवत्थधरोन विय बंधए कच्छं। हिंडइनवा अभज्जो, सारूवी एरिसो होइ // 2 // " एतयोश्च देशनां कृत्वाऽभ्युद्यम कार्यों, यदि कुरुतस्ततो लष्ट, न चेत्, ततोन्यत्र नीयते, यदि न गच्छतः ततस्तत्रैव सिद्धान्तोक्तविधिना तत्समीपे पठितव्यम्, पठद्भिश्च यदि निवार्हो न भवति तयोस्ततः स्वयं सर्वं करणीयं, श्रावकैश्च कारयितव्यम्। तथा च तत्रैव निशीथे भणितम् "चोयइसे परिवार, अकरितियवाभणाइतोसड्डे। अव्वोछित्तिकरस्स उ, सुयभत्तीए कुणइ पूयं / / 1 / / " तथा उपदेशमालायाम,-"सुग्गइमग्गपईवं" इत्यादि अकरणे च प्रायश्चित्तं भणितमिति गाथार्थः / एवं स्थितेजीवोपदेशमाहता सिद्धिनगरसम्म-ग्गपयडणे नाणमणिपईवम्मि। कुणसु पयतणं जीव !, मच्छरं चइय सवत्थ / / 7 / / तस्मात्सिद्धिनगरसन्मार्गप्रगटने, मोक्षपुरपदवीप्रकाशके ज्ञानेश्रुतज्ञाने तदेव वाताद्यक्षोभ्यत्वेन प्रकाशकत्वेन च मणिप्रदीपस्तस्मिन् कुरुविधहि प्रयत्नम्-आदरं जीव ! भो आत्मन् ! मत्सरम्-रोषं त्यक्त्वाप्रोज्झ्य सर्वत्र पार्श्वस्थादिसमीपे, किञ्च-श्रावकान् पार्श्वस्थादिसमीपे शृण्वतो वारयत, स्वयंचपूर्वोक्तयुक्त्या निष्कारणं नित्यश्रावकधर्मकथनेन पार्श्वस्था भवन्तोऽपीत्थं जल्पन्त्यहो मोहविलसितमित्यव-स्थितमतोऽयमस्मदुक्तो जीवोपदेश इति गाथार्थः / जीवा० 11 अधि०। (संयमः किं श्रुतमध्येतुंशक्रांतीति'संजय शब्देगतम्।) श्रुते-श्रुतविषयेउद्देशसमुद्देशानुज्ञा Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 611- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयअण्णाण प्रस्थापनाप्रतिक्रमणश्रुतस्कन्धाङ्गपरिगुणनादिषु अविधिना विधाने कायोत्सर्गः प्रायश्चित्तम्। "जगगुरुहिं गदिउंजं अद्धगयस्स सुत्तत्थं न दायव्वं' अत्र सावधाचार्यसबन्धः। प्रतिश्रुतज्ञाने, उत्त०१ अ०। श्रुतज्ञानप्रशंसाजाणंति बंधमुक्खं,जीवाजीवे अ पुनपावे अ। आसवसंवरनिञ्जर-तो किर नाणं चरणहेउं॥७०|| नायाणं दोसाणं, विवजणा सेवणा गुणाणं च। धम्मस्स साहणाई, दुन्नि वि किर नाणसिद्ध इं॥७१|| नाणा वि अवटुंतो, गुणेसु हो से सुते अवजित्तो। दोसाणं च न मुंचइ, तेर्सिन वि ते गुणो लहई // 72 / / नाणेण विणा ण करण, करणं न विणा न तारयं नाणं / भवसंसारसमुई, नाणी करणहिओ तरइ // 73 // अस्संजमेण बद्धं, अन्नाणेण य भवेहिं बहुएहिं। कम्ममलं सुह असुह, करणे य दढो धुणइ नाणी // 74|| सत्येण विणा जोहो, जोहेण विणा य तारिसं सव्वं / नाणेण विणा करणं, करणेण विणा तहा नाणं // 7 // नादसणस्स नाणं, न वि अन्नाणस्स हुंति करणगुणा। अगुणस्स नित्थ मुक्खो, नत्थि असुत्तस्स निव्वाणं // 76|| जं नाणं तं करणं, जं करणं पवयणस्स सो सारो। जो पवयणस्स सारो, सो परमत्थो त्ति नायव्वो / / 77 / / परमत्थगहिअसारा, बंधं मुधिं (त्ति) च ते वियाणंता। नाऊण बंधमुक्खं, खवंति पोराणयं कम्मं // 7 // नाणेण होइ करणं, करणं नाणेण फासियं होई। दुन्हं पि समाओगे, होइ विसोही चरित्तस्स // 79 // नाणं पगासयं सो-हओ तवो संजमो य गुत्तिकरो। तिविधं पि समाओगे, मुक्खो जिणसासणे मणिओ ||8|| किं अन्नं लठ्ठयरं, अच्छेरतरं च सुंदरतरं वा। चंदमिव सवलोगा, बहुस्सुयमुहं पलोयंति / / 1 / / चंदाओ निअजुन्हा, बहुसुयमुहाउनिअइ जिणवयणं / जं सऊण मणूसा, तरंति संसारकंतारं // 2 // सूई जहा ससुत्ता, ननस्सई कयवरम्मि पडिआ वि। जीवो तर्हि ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे॥८३| सूई जहा असुत्ता, नासइ सुत्ते अदिस्समाणम्मि। जीवो जहा असुत्तो, नासइ मिच्छत्तसंजुत्तो।।८४॥ परमत्थम्मि सुदिट्टे, अविणडेसु तवसंजमगुणेसु। लब्भइ गई विसिट्ठा, सरीरसारे विणटे वि ||85 // जह आगमेण विज्जो, जाणइ वाहिं तिगिच्छगो निउणो। तह आगमेण नाणी, जाणइ सोहिं चरित्तस्स // 86|| जह आगमेण हीणो, विज्जो वाहिस्स न मुणइ तेगिच्छं। तह आगमपरिहीणो, चरित्तसोहि नयाणाइ॥७॥ तम्हा तित्थयरपरू-विअम्मि नाणम्मि अत्थजुत्तम्मि। उज्जोओ कायव्वो, नरेण मुक्खामिकामेणं॥८८|| द०प०। इकम्मि वि जम्मि पए, संवेगं वीअरायमग्गम्मि। पचइ नरो अभिक्खं, तं मरणं तेण (न) मुत्तव्वं ||3|| इक्कम्मि विजंमि पए, संवेगं कुणइ वीयरायमए। सो तेण मोहजालं,खणेइ अज्झप्पजोगेणं ||4|| इकम्मि विजम्मि पए, संवेगं वीयरायमग्गम्मि। वबह नरो अभिक्खं, तं मरणं तेन मुत्तव्वं ||5|| इक्कम्मि विजंमि पए, संवेगं कुणइ वीअरायमए। सो तेण मोहजालं,खणेइ अज्झप्पजोगेणं // 66|| इक्कम्मि वि जम्मि पए, संवेगं वचइ नरोभिक्खं / तं तस्स होइ नाणं, जे एए वीयरागम्मि |7|| महुमरणंमि उवम्गो, सक्को वारसविहो सुयक्खंधो। सव्वो अणुचिंतेउं, धणियं पिसमत्थचित्तेणं ||8|| तम्हा इकम्मि पयं, चिंतंतोतं निदंसकालम्मि। आराहणावउत्तो, जिणेहि आराहगो भणिओIEl आराहणोवउत्तो, सम्मकाऊण सुविहिओ कालं। उकोसं तिन्नि भवे, गंतूण लमिज निव्वाणं // 100 / / नाणस्स गुणविसेसा, केईमे वनिया समासेणं / चरणस्स गुणविसेसे, ओहिअहिअया निसामेह।।१०१।। मावेण अणन्नमणा, जे जिणवयणं सया अणुचरंति। ते मरणम्मि उवेया, न विसीयंति य गुणसमिद्धा / / 103 / / द०प०। (102 गाथा धम्मशब्द) सीयंति ते मणूसा, सामन्नं दुल्लह पिलद्धणं / जे अद्धाणनिअत्ता, दुक्खविमुक्खंमि मग्गम्मि // 10 // दुक्खाण ते मणूसा, पारं गच्छंति जे दढधिईआ। भावेण अणन्नमणा, पारं तेहिं गवेसंति॥१०॥ मग्गंति अपरमसुहं, ते पुरिसा, जोगेहि न हायंति। ते लद्धपोयसंजति-वग्गा पच्छा न हायंति।।१०६||द०प०। (सूत्रवाचनाप्रकारः 'गीयत्थ' शब्दे तृतीयभागे१६०२ पृष्ठे गतः / ). (श्रुतस्याशातना 'आसायणा' शब्दे द्वितीयभागे 484 पृष्ठे गता।) (एकेन्द्रियाणामपि श्रुज्ञतानमस्तीति'णाण' शब्दे चतुर्थभागे 1942 पृष्ठे गतम्।) दृष्टिवादे श्रुतज्ञानं चैतदाख्यायते श्रूयते अनेन अस्मादस्मिन्निति वेति श्रुतम्। श्रुतज्ञानावरणकर्मक्षये परोक्षतया कालिकार्थबोधनसमर्थे, "कृद्रहुलम्" / इति वचनात् कर्मादावपिक्तप्रत्ययः। आ०म०१ अ०। साश्रुतज्ञानावरणक्षये, उत्त०३४ अ०।श्रूयते इति श्रूतम्।व्यवहारभेदे प्रव०१०७ द्वार। सुयअण्णाण-न०(श्रुताज्ञान) मिथ्यादृष्टरज्ञाने, आ० चू०१अ०। अविसे सियं सुयं सुयणाणं च सुयअन्नाणं च / विसे सियं Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयअण्णाण 992- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयणाण सुयं सम्मद्दिहिस्स सुयं सुयणाणं / मिच्छादिहिस्स सुयं __ श्रवणं श्रुतंवाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शब्दसंसृष्टार्थग्रहणहेतुरुपसुयअन्नाणं / नं०। लब्धिविशेषः एवमाकारं वस्तुजलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थं घटशब्दवासुयआराहणा-स्त्री०(श्रुताराधना) सिद्धान्तस्याराधनायाम, उत्त०। च्यमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतात्रकालसाधारणसमानपरिणामः सुयस्स आराहणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयह? सुयस्स शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः / आराहणयाए णं अन्नाणं खवेइन य संकिलिस्सइ॥२४|| श्रुतच तत्ज्ञानंच श्रुतज्ञानम् / अथवा-श्रूयते अनेन अस्मात् अस्मिन्वेति श्रुतं तदावरणकर्मक्षयोपशमः, "कृद्रहुलम्" इति वचनात्करणादावपि हेभदन्त ! श्रुतस्य आराधनया जीवः किं जनयति।गुरुराह-हेशिष्य ! क्तप्रत्ययः, तज्जनितं श्रुतं कार्येण कारणोपचारात्, शृणोतीति वा श्रुतश्रुतस्य आराधनया-सम्यग् आसेवनया अज्ञान क्षपयति विशिष्टतत्त्वावबोधस्य अवाप्तेश्च पुनर्न संक्लिश्यते रागद्वेषजनितंक्लेशं न भजतीति मात्मा तदनन्यत्वात् ज्ञानमपि श्रुतं, श्रुतं च तत् ज्ञानं चेति समासः / ('सुय' शब्दे श्रुतज्ञानमुक्तम्।) आ०म०१अ० श्रुतज्ञानं स्वच्छस्वादुभावः। उत्त० 26 अ01 पध्यसलिलास्वादतुल्यम् / षो० 10 विव० / इन्द्रियमनोनिमित्ते सुयकप्प-पुं०(श्रुतकल्प) प्रवचनभणने, बृ०१3०१प्रक०। श्रुतग्रन्थानुसारिणि बोधे, भ०८ श०२ उ०। द्वा०। प्रव०। ध००। सुयकरण-न०(श्रुतकरण) बद्धाबद्धादिश्रुतकरणे, आ० चू० 1 अ०। स्था०। सूत्र०। सुयनाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अंगपविढेचेव, अंगबाहिरे चेव। (सू० सुयकेवली-पुं०(श्रुतकेवलिन्) चतुर्दशपूर्वधरे, जीवा० 14 अधि० / 714) स्था०२ ठा०। संघा०। अथोत्तरगाथासंबन्धनार्थमाह"जो सुरणाभिगच्छइ, अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं / कत्तो पसूयमागय-मायरियपरंपराइ सुयनाणं / तं सुयकेवलमिसिणो, भणंति लोगप्पईवकरा / / 1 / / सामाइयाइयमिदं, सव्वं चिय सुत्तमत्थो वा ?||1062 / / जो सुअनाणं सव्वं, जाणइ सुअकेवली तमाहु जिणा। ननु पूर्वं भवतेदमुक्तम्- 'आचार्यपरम्परया समागतां सामायिकनाणं आयं सव्यं, जम्हा सुयकेवली तम्हा / / 2 / / " नियुक्तिमहं वक्ष्ये' / तत्रेदं पृच्छ्यते- 'कत्तो पसूयमित्यादि' आदौ कुतः अट०१३ अष्ट० टी०। "केवली चरमो जम्बू-स्वाम्यथ प्रभवः प्रभुः। पुरुषविशेषात् प्रसूतामुत्पन्नां सतीं तत आचार्यपरम्परयाऽऽगतामायातां सय्यम्भवो यशोभद्रः, संभूतविजयस्तथा।।१०।। भद्रबाहुः स्थूलभद्रः, | तां सामायिकनियुक्तिं त्वं वक्ष्यसि ? इत्युपस्कारः / तथा, इदमपि श्रुतकेवलिनो हि षट्।" कल्प०२ अधि०८ क्षण। पृच्छ्यते। किम् ? इत्याह-- 'सुयनाणमित्यादि' सर्वमपि च सामायिसुयक्खंध-पुं०(श्रुतस्कन्ध) द्वादशाङ्गरूपे श्रुतपण्डेि, आतु०॥ दृष्टिवादे कादिकं बिन्दुसारपर्यन्तं सूत्रार्थरूपं श्रुतज्ञानमिदं प्रथमं कुतः प्रस्तुतं श्रुतसमुदायत्वात्तस्य। स०। सत्पश्चादाचार्यपरम्परयाऽत्राऽऽगतम् ? इति।। सुयक्खाय-त्रि०(स्वाख्यात) सुष्ठु आख्यातं स्वाख्यातम् / पूर्वोत्तरा एवमुत्तरगाथाप्रस्तावनां कुर्वन्नाचार्य आत्मनः विरोधितया युक्तिभिरुपपन्नतयाऽभिहिते, सूत्र० 1 श्रु० 15 अ०। प्रेर्यमाशङ्कय परिहरन्नाहसुप्रज्ञाप्ते, सूत्र०२ श्रु०२अ०ालोकश्रुतिपरम्परया चिरन्तनाख्यासुवा एवं नणु भणियं चिय, अत्थपुहत्तस्स तेहि कहियस्स / परिज्ञाते, सूत्र०१श्रु०१६ अ०। इह तेसिं चिय सीला- इकहणगहणं फलविसेसो // 10 // 3 // सुयक्खायधम्म-त्रि०(स्वाख्यातधर्मन) सुष्ठुआख्यातः श्रुतचारित्राख्यो ननु'सामायिकनियुक्तिः श्रुतज्ञानं वा सर्व कुतः पुरुषात्प्रथमं प्रसूतम्? धर्मो येन साधुनाऽसौ स्वाख्यातधर्मः। ज्ञानसमाधियुक्ते, सूत्र०१श्रु, इत्यत्र यदुत्तरं तदेतद्भणितमेव-प्रोक्तमेव निर्णीतार्थमेवेत्यर्थः / क्व? 10 अ०॥ इत्याह-'अत्थपुहत्तस्सेत्यादि' 'तैस्तीर्थकरगणधरैः कथितस्याऽर्थसुयगम्भ-पुं०(श्रुतगर्भ) आगमगर्भे, षो०१ विव०। पृथक्त्वरूपस्य श्रुतज्ञानस्य भगवतो नियुक्ति कीर्तयिष्ये' इत्युक्ते सुयग्गाहि-पुं०(श्रुतग्राहिन) परमपूरुषप्रणीतागमग्रहणाभिलाषिणि, दश० तीर्थकर-गणधरेभ्यः सर्वमपि श्रुतज्ञानमादौ प्रसूतम्, इत्युक्तमेव, तत् 6 अ०२ उ०। किमिति पुनरपि प्रश्नः ? अत्र प्रतिविधान-माह-'इयेत्यादि' सत्यम्, सुयण-न०(स्वपन) शयन, दर्श०१ तत्त्व। ज्ञातमेवेदं यत्-तीर्थकरगणधरेभ्य एव सर्वमिदमादौ प्रसूतम्, किन्त्विह तेषामेव तीर्थकरगणधराणां शीलादिस्वरूपकथनम्, ग्रन्थनम, फलसुयणजण-पुं०(सुजनजन) सर्वपापविरतानां समूहे, प्रश्न० 4 आश्र० विशेषश्च विशेषतोऽभिधास्यते, इत्ययं पुनरपि प्रश्नोत्तरोपन्यासः। तत्र द्वार। तीर्थकृता तपोनियमज्ञानानि शीलमभिधास्यते, आदिशब्दः स्वगतभेदसुयणसुंद-पुं०(सुजनसुन्द)भरतक्षेत्रजाजितजिनसमकालिके ऐरवत प्रख्यापकः, तान्येव वृक्षः, तदारूढस्य पुष्पप्रक्षेपकल्पा तु देशनाजिने, ति०। कथनम्, तत्फलविशेषस्तु भव्यजनविबोधनार्थतेति / गणधराणां तु सुयणाण-न०(श्रुतज्ञान) ज्ञानविशेषे, आ० म०१अ०1आव०। बुद्धिमयपटेनतीर्थकरोक्तंगृहीत्वा सूत्रग्रन्थनप्रतिपादयिष्यते, फलविशेषस्तु Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयणाण ६६३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयणाण प्रवचनाथता, सुखग्रहणाद्यनुग्रहश्च इति गाथाऽष्टकार्थः। पञ्चत्तनाणकुसुमो, ताई छउमत्थभूमिसंथेसु। अथोक्तप्रश्नस्यैवोत्तरमाह नाणकुसुमत्थिगणहर-सियबुद्धिपडेसु पक्खिवइ // 1101 / / तव-नियम-नाणरुक्खं, आरूढो केवली अमियनाणी। षडपि सुगमा एव० नवरमिह वृक्षादिरूपकनिरूपणार्थ द्रव्यवृक्षदृष्टातो मुयइ नाणवुडिं, भवियजणविबोहणट्ठाए॥१०९४|| न्तोऽभिधीयते।कः पुनरसौ? इत्याह- 'जह कोईत्यादि' / 'साइसउ' तं बुद्धिमएण पडे-ण गणहरा गिहिउं निरवसेस। त्ति वक्ष्यमाणकेवलिस्थानीयः सातिशयः कोऽपि नरः / उक्तो द्रव्यतित्थयरमासियं गं-थंति तओ पवयणट्ठा||१०६५|| वृक्षदृष्टान्तः। अथ प्रस्तुतेभाववृक्षेसर्व योजयन्नाह-'लोगवणसंत्यादि। छद्मर्देशः, तत्संस्थेषु / ज्ञानकुसुमार्थिनो ये गणधरास्तच्छ्वेतबुद्धिरूपकमिदं द्रष्टव्यम्।तत्र वृक्षो द्विधा द्रव्यतः, भावतश्च। द्रव्यतः प्रधानः पटेष्विति। कल्पवृक्षः, यथा च तमारुह्य कश्चिद् गन्धादिगुणविशिष्टानां कुसुमानां संचयं कृत्वा तदधोभागवर्तिनां तदारोहणासमर्थानांपुरुषाणामनुकम्पया अथप्रेरकःकुसुमानि विसृजति, तेऽपि भूपति-रजोगुण्णठनभिया विमलविस्तीर्ण कीस कहई कइत्थो, किं वा भवियाण चेव बोहत्थं / पटेषु प्रतीच्छन्ति, ततो यथोपयोगमुपभुजानाः, परेभ्यश्चोपकुर्वाणाः सव्वोवायविहिण्णू, किं वाऽभव्वे न बोहेइ ?||1102 / / सुखमाप्नुवन्ति / एवं भाववृक्षेऽपि सर्वमिदमायोज्यम्; यद्यथा- तपश्च शब्दवृष्टिमोचनेन तीर्थकृतां धर्मकथनं सूचितम्, तत्र कृतार्थोऽप्यसौ नियमश्च ज्ञानं च तान्येव वृक्षस्तम् तपो बाह्यऽभ्यन्तरभेदतो द्वादशधा भगवान् किमित् कथयति ? भव्यजनविबोधनार्थमिति चोक्तम्, तत्र प्रतीतमेव / इन्द्रियनोइन्द्रियसंयमस्तु नियमः / तत्र श्रोत्रादीन्द्रियाणां किमसौ भव्यानेव बोधयति? यावता सर्वोपायविधिज्ञः सन्नभव्यानपि निग्रह इन्द्रियसंयमः, कषायादीनां तु निग्रहो नोइन्द्रियसंयमः। ज्ञानमिह किमिति न बोधयति? इति। केवलं संपूर्ण गृह्यते। एतत्रयरूपं वृक्षमारूढः। ज्ञानमकेवलरूपमपि स्यात् अत्र प्रतिविधानमाहतद्व्यवच्छेदार्थमाह-'केवली, केवलशब्दस्येह संपूर्णवाचकत्वात् केवलं नेगतेण कयत्थो,जेणोदिनं जिणिन्दनाम से। संपूर्णमस्याऽस्तीति केवली। अयमपि श्रुत-क्षायिकसम्यक्त्वक्षायिक तदवंझफलं तस्स य, खवणोवाओऽयमेव जओ // 1103 / / ज्ञानभेदात् त्रिविधः; अथवा-श्रुताऽवधि--मनःपर्याय केवलज्ञान जंव कयत्थस्स विसे, अणुवकयपरोवगारिसामव्वं / भेदाचतुर्विधः, तत्र शेषव्यवच्छेदार्थमाह-'अमितज्ञानी' क्षायिकज्ञान परमहियदेसयत्तं, मासयसामव्वमिव रविणो // 1104 / / केवली; सर्वज्ञ इत्यर्थः। स चेह प्रक्रमाद्भगवांश्चतुस्त्रिंशदतिशयसंपन्नस्तीर्थकरः। तो त्ति' ततो वृक्षाज्ज्ञानरूपकुसुमवृष्टिं कारणे कार्योपचा किं व कमलेसु राओ, रविणो बोहेइ जेण सो ताई। राज्ज्ञानकारणभूतशब्दकुसुमवृष्टिमित्यर्थः / किमर्थम् ? भव्याश्चतेजनाश्च कुमुएसु व से दोसो, जंन विबुज्झंति से ताई // 1105 / / तेषां विबोधनंतदर्थं तन्निमित्तमिति। तां चज्ञानकुसुमवृष्टिं बुद्ध्या निवृतो जंबोहमउलणाई, सूरकरामरिसओ समाणाओ। बुद्धिमयस्तेन विमलबुद्धिमयेन पटेन गणधरा गौतमादयो ग्रहीतुंगृहीत्वा कमणकुमुयाण तो तं, सामव्वं तस्स तेसिं च / / 1106|| ऽऽदाय निरवशेषां संपूर्णाम्, ततस्तीर्थकरभाषितानि कुसुमकल्पानि / जह बोलूगाईणं पगासधम्मा वि सो सदोसेणं / भगवदुक्तानि विचित्रप्रधानकुसुममालावद् ग्रनन्ति। किमर्थत् ? प्रगतं. उइओ वि तमोरूवो, एवमभव्वाण जिणसूरो॥११०७|| शस्तम्, आदौ वा वचनं प्रवचनं द्वादशाङ्गम्, प्रवक्तोति वा प्रवचनं सज्झं तिगिच्छमाणो, रोगं रोगीन भण्णए वेजो। संघस्तदर्थ तन्निमित्तम् / इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः। मुणमाणो य असझं, निसेहयंतो जह अदोसो // 1108|| भाष्यकारः प्राह तह भव्वकम्मरोग, नासंतो रागवं न जिणवेजा। रुक्खाइरूवयनिरू-वणथमिह दव्वरक्खदिटुंतो। नयदोसीऽभव्वास-ज्झकम्मरोगं निसेहंतो // 1106 / / जह कोइ विउलवणसं-डमज्झयारहियं रम्मं // 1066|| मोत्तुमजोग्गं जोग्गे, दलिए रूवं करेइ रूयारो। तुंगं विउलक्खंधं, साइसओ कप्परुक्खमारूढो। नय रागद्दोसिल्लो, तहेव जोग्गो विबोहंतो॥१११०।। पञ्जत्तगहियबहुविह-सुरमिकुसुमाऽणुकंपाए॥१०६७।। सर्वा अपि सुगमाः, नवरं नैकान्तेन तीर्थकरः कृतार्थः, येनतीर्थकरनाम कुसुमत्थिभूमिचिट्ठिय पुरिसपसारियपडेसु पक्खिवइ। 'से' तस्योदीर्णम्, तचाऽबन्ध्यफलम्, इति नाऽवेदितंक्षीयते।तत्क्षपणोगंथंति ते वि घेत्तुं, सेसजणाणुग्गहढाए॥१०९८|| पायश्च यस्मादयमेवधर्मकथनादिकः, ततः कथयतीति। किश, कृतार्थत्वे लोगवणसंडमझे, चोत्तीसाइसयसंपदोवेओ। सत्यपिरवे सकस्वाभाव्यमिव यद्यस्मात् से तस्य भगवतस्तीर्थकरस्य तव-नियम-नाणमइयं, स कप्परक्खं समारूढो // 106 | कृतार्थस्यापि यदिदंपरमहितदेशकरवंतदनुपकृतोपकारिणः स्वभावोऽनुमा होज नाणगहण-म्मि संसओ तेण केवलिग्गहणं / पकृतोपकारिस्वभावस्यस्य भावोऽनुपकृतोपकारिस्वाभाव्यं, तस्मात् सो वि चउहा ततोऽयं, सव्वण्णू अमियनाणि त्ति // 1100 | कथमति। कृतार्थस्याऽप्यनुपकृतोपकारिणो भगवतः परोपदेशदातृत्वं स्व Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयणाण 66 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयणाण भावत एव, इत्यतस्तत्स्वाभाव्यात् कथयतीति तात्पर्यमितिनच भव्यानेव प्रतिबोध्यतस्तस्य राग-द्वेषौ, इति दृष्टान्तेन दर्शयति-"किं व कमलेसु' इत्यादि। से' त्ति। 'से' तस्य रवेः प्रतिबोधयतोऽपि यत्तानि कुमुदानि न विबुध्यन्त इति। तस्मात् कोऽत्राभिप्रायः ? इत्याह- 'जं बोहेत्यादि' समानादपि सूरकरपरामर्शाद् यतो बोध-मुकुलनानि यथासंख्यमेव कमल-कुमुदानां जायमानानि दृष्टानि, 'तो' त्ति ततो ज्ञायते- तस्य रवेः, तेषां च कमल-कुमुदानां स्वभावोऽयं यद्- रविः- कमलान्येव बोधयतिनतु कुमुदानि, कमलान्यपिरवेः सकाशाद्बुध्यन्तेन कुमुदानि, न पुनरिह कस्यापिराग-द्वेषौ। एवं भगवतोऽपि भव्याभव्येषु योज्यमिति / दृष्टान्तान्तरमाह- 'जहवेत्यादि' उलूकादीनां रात्रिश्चराणां घूकादीनां 'सो' त्ति रविः / अपरमप्यत्र दृष्टान्तमाह- 'सज्झमित्यादि / अत्रैवोदाहरणान्तरमाह-'मोत्तुमित्यादि' दलिके काष्ठादौ 'रूयारो' रूपकारः / इति व्याख्याता प्रथमनियुक्तिगाथा। अथ द्वितीयनियुक्तिगाथाव्याख्यानमाहतं नाणकुसुमवुट्टि, घेत्तुंबीयाइबुद्धओ सव्वं / गंथंति पवयणट्ठा, माला इव चित्तकुसुमाणं // 1111 / / 'प्रवचनार्थ ग्रथ्नन्ति' इत्युक्तम् / अथवा प्रयोजनान्तरमाहघेत्तुं व सुहं सुहगुणण-धारणादाउँ पुच्छिउँ चेव। मुत्कलं भगवता तीर्थकरेणोक्तं वचनवृन्दं मुत्कल-कुसुमनिकुरम्बमिव ग्रथितं-सूत्रितं सद्ग्रहीतुंवाऽऽदातुं सुखं भवति। इदमुक्तं भवति-पद -- वाक्यप्रकरणा-ध्याय-प्राभृता-दिनियतक्रमस्थापितं जिनवचनमयत्नत एव ग्रहीतुं शक्यम्- 'एतावदस्य ग्रहीतम्, 'एतावच्चाद्यापि पुरस्ताद् ग्रहीतव्यम्' इत्यादिविवक्षया ग्रथितं सत् सुखेनैव ग्रहीतुं शक्यमित्यर्थः / तथा, गुणनं च धारणा च गुणन-धारणे, ते अपिग्रथिते सूत्रे सुखं भवतः। तत्र गुणनं परावर्तनमभ्यासः, धारणा त्वविच्युतिरविस्मृतिः। तथा, दातुं प्रष्टुं च सुखमेव। भवति। तत्र दानं शिष्येभ्योऽतिसर्जनम्, प्रश्नस्तुसंशयापन्नस्य निःसंशयार्थं गुरुप्रच्छनम्। एतैः कारणैः कृतं रचितं गणधरैः / अतः समस्तगणधरैरेतस्मादपि हेतोः कृतं श्रुतम् 'इदम्' इति शेषः। इति नियुक्तिगाथार्थः / विशे०। अत्र भाष्यम्मुक्ककुसुमाण गहणा-- इयाइँ जह दुक्करं करेउं जे / गुच्छाणं तु सुहयरं, तहेव जिणवयणकुसुमाणं / / 1114|| पय-वक-पगरण-ज्झा-य-पाहुडाइनियतकमपमाणं / तवणुसरता सुहं चिय, घेप्पइ गहियं इदं गेज्झं।।१११५|| एवं गुणणं धरणं, दाणं पुच्छा य तदणुसारेणं। यथा मुत्कानां मुत्कलानां कुसुमानां ग्रहणादीनि कर्तुं दुष्कराणि, ग्रथितानां तु सुकराणि, तथा जिनवचनकुसुमानामपि द्रष्टव्यम् / अतो गणधरास्ता ग्रघ्नन्ति। 'अज्झाय' त्ति अध्ययनम्, प्राभृतं पूर्वान्तर्गतः / श्रुतविशेषः 'गहिय इदं गेज्झं' ति एतावदस्य ग्रहीतम्, एतावचाद्यापि पुरस्ताद् ग्रहीतव्यम् इत्यादि विवक्षया पदवाक्यादिक्रमेण विरचितं सत् तत्पदाद्यनुसरता सुखेनैव श्रुतं गृह्यते, एवं सुखनाद्यपि सुखं भवति। विशे०। उत्तरनियुक्तिगाथासंबन्धनार्थमाहजिणमणिइ चिय, सुत्तं गणहरकरणाम्मि को विसेसो त्थ? सो तदविक्खं भासइ, न उ वित्थरओ सुयं किंतु // 1118 // ननु 'तित्थयर भासियाई गंथंति' इत्यादिवचना-जिनभणितिरेवतीर्थकरोक्तिरेव तर्हि श्रुतम्, गणधरसूत्रीकरणे तु तत्र को विशेषः ? अत्रोच्यते-सतीर्थकरस्तदपेक्षं गणधरप्रज्ञापेक्षमेव किञ्चिदल्पं भाषते, नतुसर्वजनसाधारणं विस्तरतः समस्तमपि द्वादशाङ्गश्रुतम्, किन्तु यद् भाषते तद्दश्यते। इति गाथार्थः / किं पुनस्तत् ? इत्याहअत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। सासणस्स हियहाए, तओ सुत्तं पवत्तइ / / 1119 // अर्थमेवाऽर्हन् भाषते, न सूत्रं द्वादशाङ्गरूपम् / गणधरास्तु तत् सूत्रं सर्वमपि निपुणं सूक्ष्मार्थप्ररूपकंबह्वर्थं चेत्यर्थः, अथवा-नियताः प्रमाणनिश्चिता गुणा यत्र तद् नियतगुणं निगुणं ग्रथ्नन्ति। ततः शासनस्य हितार्थ सूत्र प्रवर्तते। इति नियुक्तिगाथाक्षरार्थः / भावार्थ त्वभिधित्सुर्भाष्यकारः प्रेयं परिहारं च प्राह--- नणु अत्थोऽणमिलप्पो, स कहं भासइ न सहरूवो सो ? सहम्मि तदुक्यारो, अत्थप्पञ्चायणफलम्मि ||1120 / / आह ननु भाष्यमाणः सर्वत्र शब्द एव दृश्यते, यस्त्वर्थः सोऽनभिलाप्यः-अशब्दात्मकत्वाद्वक्तुमशक्य एव, इति कथंसतीर्थकरस्तमशब्दरूपमर्थभाषते? उच्यते-अर्थ-प्रत्यायनफले शब्दएवतदुपचारोsर्थोपचारः क्रियते / एतदुक्तं भवति-- अर्थप्रतिपादनस्य कारणभूते शब्देऽर्थोपचारं कृत्वाऽर्थं भाषत इत्युच्यत इत्यदोष इति। प्रेरकः प्राहतो सुत्तमेव भासइ, अत्थप्पञ्चायगं न नामत्थं / गणहारिणो वितं चिय, करेंति को पडिविसेसो त्थ ?||1121 / / ततस्तर्हि त्वुदक्तयुक्त्या शब्दभाषकस्तीर्थकरः सूत्रमेवाऽर्थप्रत्यायक भाषते, नं त्वर्थम् / गणधारिणोऽपि तदेव कुर्वन्ति, तत् को नामोभयत्र विशेषः? न कश्चिदिति। आचार्यः प्राहसो पुरिसाविक्खाए, थोवं भणइन उबारसंगाई। अत्थो तदविक्खाए, सुत्तं चिय गणहराणं तं // 1122 / / ननु प्रागेवोक्तं यत्-गणधरलक्षणपुरुषापेक्षया सतीर्थकरः 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइवा, धुवेइवा" इति मातृकापदत्रयमात्ररूपं स्तोकमेव भाषते, न तु द्वादशाऽङ्गानि / ततश्च तद् मातृकापदत्रयमात्रं शब्दरूपमति सत् तदपेक्षया द्वादशाङ्गापेक्षया तदर्थसंक्षेपरूपत्वादर्थो भण्यते गणधराणां तु गणधरापेक्षया त्वित्यर्थः, तदेव मातृकापदत्रयं शब्दरूपत्वात् सूत्रम्, इति नोभयत्र समानतादोष इति। Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयणाण EE5 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयदेवया आह-ननु मातृकापदत्रयस्य शब्दरूपत्वात् सूत्ररूपता बुध्यते, पूजामात्र सर्वदाऽपि सुकरं तदशक्तेनापि प्रतिवर्षमेकैकशः कार्या। ध० अर्थरूपतां तु तस्य नावगच्छाम इत्याशङ्कय पुनरपि तस्य तां 2 अधि० / आ० चू० / आव० / श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजनितं समर्थयन्नाह श्रुतज्ञानम् ।नं०। अंगाइसुत्तरयणा-निरवेक्खो जेण तेण सो अत्थो। सुयणाणकरण- न०(श्रुतज्ञानकरण) गुरुपदेशादिना श्रुतज्ञानकरणे, अहवा न सेसपवयण-हियउ त्ति जह बारसंगमिणं // 1123 / / विशे०॥ पवयणहियं पुण तयं, जं सुहगहणाइ गणहरेहिंतो। सुयणाणपमाण-त्रि०(श्रुतज्ञानप्रमाण) आगमप्रायाण्ये, पिं०। बारसविहं पवत्तइ, निउणं सुहुमं महत्थं च // 1124|| सुयणाणारिय-पुं०(श्रुतज्ञानार्य) श्रुतज्ञानित्वेनार्ये, प्रज्ञा०१पद। अङ्गा-ऽनङ्गादिविभागेन विरचितमेव सूत्रं प्रसिद्धम्, अयंतुमातृकापद- | सुयणाणावरण-न०(श्रुतज्ञानावरण) श्रुतं च तत् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम्, त्रयरूपः शब्दो येन कारणेनाऽङ्गादिविभागेन या सूत्ररचना तन्निरपेक्ष- तस्यावरणं श्रुतज्ञानावरणम्। ज्ञानावरणीयकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म०। स्तत्समुदायार्थरूपत्वेन तदहिभूत इत्यतः सोऽर्थ इति व्यपदिश्यते। सुयणाणी-पुं०(श्रुतज्ञानिन) श्रुतज्ञानसम्पन्ने, "जह केवली वि याणइ, अथवा-शेषस्य गणधरापेक्षयाऽन्यस्य संघरूपस्य प्रवचनस्य यः / दव्वं खेत्तं च कालभावंचातह चउलक्खणमेवं, सुयनाणीमेवजानाति / " सुखग्रहण-धारणादिभ्यो हितःशब्दराशिः स एव सूत्रतया प्रोक्तः / अयं व्य०१० उ०। (ववहारशब्दे व्याख्या-तैषा।) तुमातृकापदत्रयरूपःशब्दोनशेषप्रवचनस्येत्थं हितः, यथेदंद्वादशाङ्गम्, सुयणिघस-पुं०(श्रुतनिघर्ष) श्रुतं निघर्षयन्तीति श्रुतनिधर्षाः / स्वर्णततो नासौ सूत्रम्, किन्त्वर्थ इति / तत्पुनः शब्दजालं शेषप्रवचनस्य वच्छ्रुतपरीक्षकेषु, यथा सुवर्णकारस्तापनिकषच्छेदैः सुवर्ण परीक्षते।व्य० हित-मेव। यत् किम् ? इत्याह-यत् सुखग्रहणादिकारणेभ्यो द्वादशधा ३उ०। आचारादिद्वादशभेदंगणधरेभ्यः प्रवर्तते। अतस्तदेव सूत्रम्, मातृकाप सुयणिबद्ध-त्रि०(श्रुतनिबद्ध) सूत्रैरुपात्ते, "पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतदवयं त्वर्थ इति स्थितम्। अथ 'निउणं' इति नियुक्तिगाथावयवस्यार्थ भागो सुयणिबद्धो" सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उ०। माह- तदाचारादिकं द्वादशविधं सूत्रं कथम्भूतम्, ? निपुणं सूक्ष्म सुयणिस्संद-पुं०(श्रुतनिस्यन्द) सिद्धान्तोपनिषद्भूते, ग० 3 अधि०। सूक्ष्मार्थप्रतिपादकत्वात्, महानपरिमितोऽर्थो यस्मिस्तद् महार्थ च निपुणमिति। सुयणिस्सिय-न०(श्रुतनिश्रित) श्रुतं कर्मतापन्नं निश्रितम् आश्रितम् अनेनेति श्रुतनिश्रितम्। आभिनिबोधिकज्ञानभेदे, यत्पूर्वमेव श्रुतकृतोपअर्थान्तरमाह काराश्चेदानींपुनस्तदनुपेक्षमेवानु प्रवर्तन्तेतदवग्रहादिलक्षणं श्रुतनिश्रितनिययगुणं वा निउणं निहोसं गणहराऽहवा निउणा। मिति / स्था०२ ठा० 1 उ०। यत्तु पूर्वश्रुतपरिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले तं पुण किमाइपञ्च-तमाणमह को व से सारो॥११२५।।। पुनः पुनः श्रुतानुसारितया समुत्पद्यते तछुतनिश्रितम्। स्था०। अथवा-नियतगुणं निश्चितगुणं निगुणं संनिहितस-मस्तसूत्रगुणत्वाद् सुयनिस्सिए दुविहे पण्णत्ते,तं जहा-अत्थोग्गहे चेव, वंजणोनिर्दोषमित्यर्थः / 'निउणा' इति पाठान्तरे गणधरा विशेष्यन्ते-निपुणाः, मगहे चेव। अस्सुयनिस्सिए वि एवमेव / स्था०२ ठा०१ उ०। सूक्ष्मार्थदर्शित्वात्, निगुणा वा गणधराः, संन्निहितसमस्तगुणत्वादि मतिज्ञानभेदे, "से किं तं सुयनिस्सियं मइनाणं ? सुयनिस्सियं त्यर्थः / वक्ष्यमाण-नियुक्तिगाथायाः प्रस्तावनामाह- तत् पुनः श्रुतं मइनाणं चउव्विह पण्णत्तं। तं जहा-उग्गहो ईहा अवाएधारणा।" कर्म० किमादि? किंपर्यन्तमान-कियत्परिमाणम् ? को वाऽस्य सारः? इति १कर्म०निं०। गाथाषट्कार्थः। सुयतुंडपईवनिम-त्रि०(शुकतुण्डप्रदीपनिभ) शुकचञ्चुप्रदीपार्चिः _ अनन्तरपृष्टस्यैवोत्तरमाह सदृशे, उत्त०३४ अ०। सामाइयमाईयं, सुयनाणं जाव बिंदुसाराओ। तस्स विसारो चरणं, सारो चरणस्स निव्वाणं // 1126|| सुयत्थ-पुं०(श्रुतार्थ) श्रुतागमे,द्वा०१५द्वा०। तच श्रुतज्ञानं सामायिकादि वर्तते; चरणप्रतिपत्तिकाले सामायिक- / सुयत्थधम्म-पुं०(श्रुतधर्मार्थ) प्राकृतत्वात्तथारूपम्। गीतार्थे, दश०६ __ अ०२ उ०। स्यैवादौ प्रदानात्। यावद् बिन्दुसारादिति बिन्दुसाराभिधानचतुर्दशपूर्वपर्यन्तमित्यर्थः, यावच्छरदादेवचढ्यनेकद्वादशपरिमाणं तद्वेदितव्यम्। | सुयत्थय-पुं०(श्रुतस्तव) पुष्करवरेत्यादिलक्षणे, श्रुतस्तुतौ, पं० 202 द्वार। तस्यापि श्रतज्ञानस्य सारश्चणम्। सारशब्दोऽत्र प्रधानवचनः फलवचनश्च मन्तव्यः, तस्मादपि श्रुतज्ञानाचारित्रं प्रधानम्, तस्य फलं तदित्यर्थः / सुयत्थेर-पुं०(श्रुतस्थविर) श्रुतेनागमेन स्थविरो वृद्धः श्रुतस्थविरः / अपिशब्दात्- सम्यक्त्वस्यापि सारश्चरणमेव / अथवा- अपिशब्दस्य तृतीयचतुर्थाङ्गधरे साधौ, 'ठाणसमवायधरेणं निग्गंथे सुयथेरे।' स्था० व्यवहितः संबन्धः, तस्य श्रुतज्ञानस्य सारश्चरणमपि। विशे०।"सो होइ 3 ठा०२ उ०। अहिगयरुई, सुयनाणं, जेण अत्थओ दिट्ठ / सेक्कारसमंगाइ, पइन्नगं सुयदाण-न०(श्रुतदान) अङ्गप्रविष्टादिश्रुतोद्देशने, जं०१ वक्ष०। दिहिवाओ य॥" उत्त०२८ अ०। श्रुतज्ञानस्य पुस्तकादेः कर्पूरादिना | सुयदेवया-स्त्री०(श्रुतदेवता) जिनवाण्याम्, पं० सं०५ द्वार। Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयदेवया 696 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयधम्म ('सुयदेवीपसा० 151 'गाथा' पंचसंगह' शब्दे 5 भागे उक्ता) __ श्रुतदेवतां प्रज्ञापयितुमाहसुयदेवया भगवई, नाणावरणीयकम्मसंधायं। तेसिं खदेउ सययं,जेसिं सुयसायरे भत्ती||१|| श्रुतमहत्प्रवचनं श्रुताधिष्ठात्री देवता श्रुतदेवता। संभवति च श्रुताधिठातृदेवता, यदुक्तं कल्पभाष्ये- “सव्वं च लक्खणोवेयं, समहिलृति देवता / सुत्तं च लक्खणोवेयं, जेण सव्वण्णुभासियं / / 1 / / " इति भगवती पूज्यतमा ज्ञानावरणीयकर्मसंघातं ज्ञाननं कर्मनिवह तेषां प्राणिनां क्षपयतु क्षयं नयतु सततमनवरतं येषां किमित्याह-श्रुतमेवातिगम्भीरतयाऽतिशयरत्न प्रचुरतया च सागरः समुद्रः श्रुतसागरः तस्मिन्भक्तिबहुमानो विनयश्च समस्तीति गम्यते / ननु श्रुतरूपदेवताया उक्तरूपविज्ञापना युक्ता श्रुतभक्तेः कर्मक्षयकारणत्वेन सुप्रतीतत्वात् श्रुताधिष्ठातृ-देवतायास्तुव्यन्तरादिप्रकाराया नयुक्ता तस्याः परकर्माक्षपणेऽसमर्थत्वादिति। तन्न श्रुताधिष्ठात्री देवता गोचरशुभप्रणिधानस्यापि स्मर्तुः कर्मक्षयहेतुत्वेनाभिहितत्वात् यदुक्तम् - "सुयदेवयाए जीए संभरणं कम्मखयकरं भणियं नत्थि त्ति अकज्जकरी व एवमासायणा तीए" त्ति किंचेहेदमेव व्याख्यानं कर्तुमुचितं येषां सततं श्रुतसागरे भक्तिस्तेषां श्रुताधिष्ठातृदेवता ज्ञानावरणीयकर्मसंघातं क्षपयत्विति वाक्यार्थोपपत्तेः / व्याख्यानान्तरेतु श्रुतरूपदेवता श्रुते भक्तिमतां कर्म क्षपयत्विति सम्यग्रोपपद्यते। श्रुतस्तुतेः प्राग्बहुशोऽभितत्वाचेति। ततः स्थितमिदमहत्पाक्षिकी श्रुतदेवतेह गृह्यत इति। पा०। "सुअदेवयाए करेमिकाउस्सग्गं अन्नत्थे" त्यादिच पठित्वा श्रुताधिष्ठातृदेवतायाः स्मर्तु कर्मक्षयहेतुत्वेन तत्कार्योत्सर्ग कुर्यात्, तत्र च नमस्कारं चिन्तयति, देवताधाराधनस्य स्वल्पयत्न-साध्यत्वेनाष्टोच्छवासमान एवायं कायोत्सर्ग इत्यादि हेतुः संभाव्यः, पारयित्वा च तस्याः स्तुतिं पठति-"सुअदेवया भगवई" इत्यादि अन्येन दीयमानां वा शणोति / ध० 2 अधि०। "यस्याः प्रभावमतुलं, संप्राप्य भवन्ति भव्यजननिवहाः / अनुयोनवेदिनस्तां, प्रयतः श्रुतदेवतां वन्दे||१॥" अनु०।श्रुतदेवता तिमिरं पणासेतु। भ०। कुम्मसुसंठियचलणा, अमलियकोरंटवेटसंकासा। सुयदेवया भगवती, मम मतितिमिरं पणासेतु ||1|| भ०॥ वियसियअरविंदकरा, नासियतिमिरा सुयाहिया देवी। मज्झं पि देउ मेहं, बुहविबुहणमंसिया णिचं / / 1 / / सुयदेवयाए पणमिमो,जीऍ पसाएण सिक्खियं णाणं। अण्णं पवयणदेवी, संतिकरी तं नमसामि // 2 // सुयदेवयाए जक्खो, कुंभधरो बंभसंतिवेरोटा। विजाय अंतिहुंडी, देउ अविग्धं लिहंतस्स॥३॥ भ०१४१०। सुयदेवयाए आसायणाए। श्रुतदेवताया-आशातना- श्रुतदेवता न विद्यते अकिंचित्करी वा न | ह्यनधिष्ठितो मौनीन्द्रः खल्वागमः अतोऽसावस्ति नवा अकिंचित्करी तामालम्ब्य प्रस्तमनसः कर्मक्षयदर्शनात्। आव०४ अ०। सुतदेवताए जीए सुत्तमहिडियं तीए आसायणा णत्थि सा अकिंचिकरी वा एवमादि। आ० चू०४ अ01 श्रुतदेवताविद्यां लक्षधा जपेत्. वंदित्तु चेइए सम्म,छट्ठभत्तेण परिजवे। इमं सुयदेवयं विजं, लक्खहा चेइयालए॥४७|| उवसंता सव्वभावेणं, एगचित्तो सुनिच्छओ। आउत्तो अववक्खित्तो, रागरइअरइवजिओ॥४८|| अउम् ण् अम् उक् उठ् अन् उठ् ईण अम् अउम् ण् अम् उम् अय् आण् उस आर ईण अम् / अओ मण् अम् ओस् अम् भइण्णस् उ इण अम् अउम् ण् अम् / उखईरे आसबलद्धईण् अम् अउम्णम् / उसय्वउ। उसहिलद्धईण् अम् अउम् ण आम् उ। अक्खईण् अम् / अह आण सलद्धईण अम् / अउम् ण / अम् उ भगवउ अरहउ महइमहावीरबद्धमाणं धम्मतित्थंक रस्स अउम्णम् उसव्वधम्मतित्थंकराणं / अउम्णम् उसव्वसिद्धाणं अउम् णम् उ सव्वसाहूणं / अ ओम् / णम् उ भगवतो मइण आणस्स। अउम् णमउ भगवओ सुयणआणस्स। अउम् णमउ भगवओ ओह इण आणस्स | अउम् णमउ भगवओ मणपज्जवणआणस्स / अउम् णमउ अम् णमउ व अम् अउ अम् ण अउ अम् णमउ / आउ अभिवत्तीलक्खणम् / सम्मदंसणम् / अओ अम् णम् उअट्ठआरसअम् ईल् अम्गसहस्साहिट्ठियस्स णई स / अमगेण्ण इणइ आणण ईसल्लणइ / सयसल्लगे तु भगवओ कए व लण आणस्स / अउम् ण् उम् ओ भगवतीए सुयदाएवय आए सिज्झउमम् अ आहिवाविजा। अउम्णम् उ भगवओ णसर। अण्णे सव्वदुक्खणिम्महणपरमनिव्वुइकरिस्स णं पवयणस्स परमविश्नुत्तमस्सेति एसा विजा सिद्धतिएहि अक्खरेहिं लिखिया / महा०२ अ०। सुयदेवयातव-न०(श्रुतदेवतातपस्) एकादशसु एकादशीषूपवासो मौनव्रतं श्रुतदेवतापूजा चेति क्रियात्रयात्मके तपोभेदे, पञ्चा० 16 विव०। सुयधम्म-पुं०(श्रुतधर्म) श्रुतं द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः। स्वाध्यायवाचनादिरूपे धर्मभेदे, तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुत्वस्य धर्मत्वम् / दश०१ अ० आ०म०1श्रुतस्य धर्मः-स्वभावः श्रुतधर्मः श्रुतस्य बोधस्वभावत्वात् श्रुतस्य धर्मो बोधो बोद्धव्यः। अथवा-श्रुतं च तत् धर्मश्च सुगतिधारणात् श्रुतधर्मः। यदि वा-जीवपर्यायत्वात् श्रुतस्य श्रुतं च धर्मश्च श्रुतधर्मः / उक्तं च-"बोहो सुयस्य धम्मो, सुयं च धम्मो सजीवपञ्जोतो। सुगईऍ संजमंमि य, धरणातो वा सुयं धम्मो // 1 // " आ० म०१ अ०। स्वाध्याये, स्था०३ ठा०३ उ०।०१ चारित्रधर्मव्यवस्थाकारिणी धर्मभेदे,पं० 204 द्वार / स्था०। (श्रूतधर्मस्तुतिः 'काउसग्ग' शब्दे तृतीयभागे 416 पृष्ठे उक्ता।) श्रुतधर्मस्योच्यते Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयधम्म 667- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयववहार सुयमाण-त्रि०(शयान) शयनं कुर्वति, तं०। सुयरयण-न०(श्रुतरत्न) द्वादशाङ्गीरूपे रत्ने, प्रज्ञा० 1 पद। सुयरयणभरिय-त्रि०(श्रुतरत्नभृत) श्रुतान्येवाचारादीनि निरुपम सुखहेतुत्वाद्रत्नानि श्रुतरत्नानि तैभृतं पूरितम् / परिपूर्णागमे, नं०। सुयरहस्स-न०(श्रुतरहस्य) श्रुतनिष्कर्षे, संथा०। सुयरागि(ण)-त्रि०(श्रुतरागिन्) श्रुते प्रवचने रागो भाक्तिर्यस्य स श्रुतरागी / प्रावचनिके, ध०३ अधि०। सुयलंभ-पुं०(श्रुतलाभ) द्रव्यश्रुतलाभे, बृ०। दठूण जिणवराणं, पूअं अन्नेण वावि कलेण / सुयलंभो उ अभवे, भविज्ज थंभेण उवणीए। बृ०१३०१ प्रक०। सुयवग-पुं०(श्रुतवक) तृणवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१पद। सुयवतार-त्रि०(श्रुतवक्तृ) द्वादशाङ्गस्य प्रवचनस्य सूत्रतः प्रवाचके, विशे०॥ "तमतिमिरपडलविद्धसणस्स सुरगण" इत्यादितमः-अज्ञानं तदेव तिमिरम्। अथवा-तमो बद्धस्पृष्टनिधत्तं ज्ञानावरणीयं निकाचितं तिमिरं तस्यपटलं वृन्दं तमस्तिमिरपटलं तद्विध्वंसयति नाशयतीति तमस्तिमिरपटलविध्वंसनः तस्य। आव०५ अ०। सुयधम्मे दुविहे पन्नत्ते, तं० सुत्तसुयधम्मे चेव अत्थसुयधम्मे चेव। (सू०७२४)स्था २ठा 01301 "सुयधम्मो त्ति वा तित्थ त्ति वा मग्गो त्ति वा पवयणं ति वा एगट्ठा" आ० चू०१ अ०। *श्रुतधर्मन्-त्रि०। श्रुतो धर्मो येनेति आकर्णिताणुव्रतादि-प्रतिपादन प्राप्तवचने,ध०२ अधि०। सुयधम्मकहण-न०(श्रुतधर्मकथन) श्रुतधर्मस्य वाचनाप्रच्छनापरावर्तनानुपेक्षाधर्मकथनलक्षणस्य सकलकुशलकलापकल्पद्रुमविपुलालवालकल्पस्य कथने, ध०। यथा "चक्षुष्मन्तस्त एवेह, ये श्रुतज्ञानचक्षुषा / सम्यक् सदैव पश्यन्ति, भावान् हेयेतरान्नराः / / 1 / " अयं च श्रुतधर्मः प्रतिदर्शनमन्यथान्यथाप्रवृत्त इति नासावद्यापितत्सम्यगभावं विवेचयितुमलमित्याह बहुत्वात्परीक्षावतार इति। यस्य हि बहुत्वाच्छुतधर्माणां श्रुतधर्मा इति शब्दसमानतया विप्रलब्धबुद्धेः परीक्षायां त्रिकोटिपरिशुद्धिलक्षणायां श्रुतधर्मसम्बन्धिन्यामवतारः कार्यः / ध० 1 अधि०। सुयधारय-त्रि०(श्रुतधारक) श्रुतज्ञातरि, प्रश्न० 5 संव० द्वार। सुयपजवजाय न०(श्रुतपर्यवजात) उद्देशकाध्ययनादिषु श्रुताध्ययन प्रकारेषु, स्था० 5 ठा०२ उ०। सूत्रार्थप्रकारे, ग०१ अधि०। सुयपारायण-न०(शुकपारायण) अर्थपरिसमाप्त्या पदच्छेदेन सूत्रोचारणे संहितायाम्, व्य०३ उ०। सुयपिच्छ-पुं०(शुकपिच्छ) शुकपक्षिश्लक्ष्णपक्षे, जी० 3 प्रति०४ अधि० / प्रज्ञा०रा०। सुयबुद्धोवेय-त्रि०(श्रुतबुद्ध्युपेत) श्रुतेन बुद्धिभावेन च समन्विते, दश० 6 अ०२ उ०। सुयभत्ति-स्त्री०(श्रुतभक्ति) श्रुतविषये बहुमाने, प्रव०१० द्वार। सुयमद-पुं०(श्रुतमद) विशिष्ट श्रुतनिमित्ते मदभेदे, स्था० 8 ठा०३ उ०। उत्त०। (अत्र कथानकं 'पण्णापरीसह' शब्दे पञ्चमभागे 360 पृष्ठे उक्तम्।) श्रुतेन मदः श्रुतमदः / मदस्थानभेदे, स०। सुयमयणाण-न०(श्रुतमदज्ञान) शाब्दज्ञाने, "वाक्यार्थमात्रविषयं, कोष्ठकगतबीजसन्निभं ज्ञानम् / श्रुतमदमिह विज्ञेयं, मिथ्याभिनिवेशरहितमलम्॥१॥" इत्युक्तलक्षणे ज्ञानभेदे, षो०११ विव०। (वक्तव्यता 'णाण' शब्दे 4 भागे 1681 पृष्ठे उक्ता।) सुयमयमेत्तापोह-पुं०(श्रुतमयमात्रापोह) श्रुतवादेन निर्वृत्तं श्रुतमयंतदेव तन्मात्रमवधृतस्वरूपम् अन्यज्ञानद्वयनिरपेक्षं तदपोहस्तन्निराशः / श्रुतवादमात्रनिराशे, षो०१० विव०। सुयववहार-पुं०(श्रुतव्यवहार) श्रुतं श्रुतज्ञानं शेषमङ्गानङ्गभेदः तदेव व्यवहारः। द्वितीये व्यवहारभेदे, पञ्चा०१६ विव०। अष्टाघेकार्द्धावसानपूर्वधरैकादशाङ्गिनिशीथाद्यशेषश्रुतज्ञे, ध०२ अधि०। अथ श्रुतव्यवहारं शृण्वतामेव कथमति--- नि(प्यू) जूढं चोइसपु-विएण जं भद्दबाहुणा सुत्तं / पंचविडो ववहारो, दुवालसंगस्स नवनीतं // 578|| यत् भद्रबाहुस्वामिना चतुर्दशपूर्वधरेण पञ्चविधो व्यवहारः पञ्चविधव्यवहारात्मकं नियूढं द्वादशाङ्गस्य नवनीतं मथितस्य नवनीतमिव द्वादशाङ्गस्य; सारमित्यर्थः। एतेन द्वादशाङ्गानि नियूंढमावेदितव्यं तत्सूत्र श्रुतमुच्यते। तेन व्यवहारः श्रुतव्यव-हारः। जो सुयमाहिजइ, बहुं, सुत्तत्थं च निउणं न याणेइ। कप्पे ववहारम्मिय, सोनपमाणं सुयहराणं // 576| जो सुयमहिजइ बहु,सुत्तत्थं च निउणं वियाणेइ। कप्पे ववहारंमि य, सो उपमाणं सुयहराणं // 580 / / यः कल्पव्यवहारे च सूत्रं बहधीते न सूत्रार्थं निपुणं जानाति, स व्यवहारविषये न प्रमाणं श्रुतधराणाम्।यस्तुकल्पे व्यवहारेच सूत्रं बह्वधीते सूत्रार्थ च निपुणं विजानाति स प्रमाणं व्यवहारे श्रुतधराणाम्। कप्पस्सय निजुत्तिं, ववहारस्सव परगनिउणस्स। जो अत्थतो न जाणइ, ववहारी सो नणुण्णातो / / 181|| कप्पस्सय निनुत्तिं, ववहारस्सेव परमनिउणस्स। जो अत्थतो वियाणे, ववहारी सो अणुण्णातो // 12 // कल्पस्य-कल्पाध्ययनस्य व्यवहारस्य चपरमनिपुणस्य यो नियुक्तिमर्थतो न जानातिसव्यवहारी नानुज्ञातः। यस्तु कल्पस्य व्यवहारस्य च परमनिपुणस्य नियुक्तिमर्थतो जानाति स व्यवहारी अनुज्ञातः। Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयववहार &t - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुयसमाहि तंचेवऽणुमचंते, ववहारविहिं पउंजति जहुत्तं / एतमेव व्याचष्टएसो सुअववहारी, पण्णत्तो धीरपुरिसेहिं॥५८३|| सुत्तं गहेइ उजुत्तो, अत्थं च सुणावइ पयत्तेण। कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्य- जं तस्स होइ जोग, परिणामगमाइयं तु हियं / / 301 / / वहारात्मकं सूत्रं नियूंढ तत्रैव भजन् निपुणतरार्थपरिभावनेन तन्मध्ये निस्सेसमपरिसेसं,जाव समत्तं तु ताव वाएइ। प्रविशन्व्यवहारविधिं यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थं निर्दिशन् यः प्रयुङ्क्ते एसो सुयविण तो खलु, वोच्छं "विक्खेवणाविणयं' // 302 / / स श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञातः व्य०१० उ० / श्रुतव्यवहारिणश्च उद्युक्तः सन् शिष्यान् सूत्रं ग्राहयतिएष सूत्रग्राहणविनयः, तथा प्रयत्नेन अशेषपूर्वधरा एकादशाङ्गधारिणः कल्पव्यवहारादि-सूत्रार्थतदुभयविदश्च। शिष्यमर्थ श्रावयति एषोऽर्थश्रावणविनयः। परिणामकादीनां यत् यत् व्य० 1 उ०। श्रुतव्यवहारिणश्चअष्टसप्तषट्पञ्च-चतुस्विट्येकार्द्धपूर्विणः यस्य भवति योग्यं तत्तस्य हितं सूत्रतोऽर्थतश्च ददाति एष हितप्रदानएकादशाङ्गधारिणो निशीथकल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धपञ्चकल्पाद्य विनयः, तथा निःशेषं किमुक्तं भवति-तावद्वाचयति एष निःशेषवाचनाशेषश्रुतेः सूत्रार्थाभिज्ञाश्च श्रुतव्यवहाराश्चाचराङ्गादीनामष्ट-पूर्वाणामेव, विनयः, उपसंहारमाह-एष चतुर्विधः खलु श्रुतविनयः / व्य० 10 उ०। यदुक्तम्-- "आयारपकप्पाई, सेसं सव्वं सुयं विणिहि" इति। अत्राह प्रव०॥ कश्चित्-किमष्टमपूर्वान्तमेव श्रुतं नवमपूर्वादीनांन श्रुतत्वम् ? उच्यते-- सुयर्वट-पुं०(शुकवृन्त) त्रीन्द्रियजीवभद, जी० 3 प्रति०१ अधि० / आगम्यन्ते परिच्छिद्यन्तऽतीन्द्रियाः पदार्थाः येन स आगमः' इति प्रज्ञा०। व्युत्पत्तेः, नवमपूर्वादीनां श्रुतत्वाविशेषे केवलज्ञानादिवदतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेनैव व्यपदेशः शेषश्रुतस्य तु सुयसंपया--स्त्री०(श्रुतसंपद् श्रुतम्-आगमस्तस्मिंस्तेन वा संपत्समृद्धिः नातीन्द्रियार्थेषु तथाविधोऽवबोधः, ततोऽस्मिन् श्रुतव्यवहारः।जीत०। श्रुतसंपत् / गणिसंपर्दोदे, स्था० 8 ठा०३ उ० (गणिसंपया' शब्दे तृतीयभागे 826 पृष्ठे व्याख्यातैषा।) (द्विविधा श्रुतसंपत् 'ववहार' शब्दे सुयववहारि-पुं०(श्रुतव्यवहारिन्) श्रुतव्यवहारेण व्यवहारि, जी० 1 षष्ठभागे 105 पृष्ठेगता।) प्रति०। सुयसंवाय-पुं०(शुकसंवाद) शुकाख्यपरिव्राजकेन सह वादे, ग०२ श्रुतसंपञ्चतुर्दा। यथा अधि०1 जुगपरिचियउस्सग्गो, उदात्तघोसावविन्नेओ त्ति (5474) सुयसदहणया-स्त्री०(श्रुतश्रद्दधानता) धर्मशास्त्रश्रवणे, स्था०"आहच तत्र सूचनात् सूत्रमिति युगो-युगप्रधानागमः परिचितसूत्रः क्रमोत्क्रम- | सवणलद्ध, सद्धा परमदुल्लहा। सोचा नेयाउयं मग्गं, बहवे परिभस्सइ वाचनादिभिः स्थिरसूत्रः उत्सर्गः उत्सर्गापवादः स्वसमयपरसमयादिवेदी। ||1||" स्था०६ ठा०३ उ०। उदात्तघोषादिः उदात्तानुदात्ता-दिस्वरविशुद्धिविधायी अन्यत्र बहुश्रुतता 1 परिचितसूत्रता 2 विचित्रसूत्रता 3 घोषविशुद्धिकरता चेति पठ्यते, सुयसमाहि-पुं०(श्रुतसमाधि) श्रुते श्रुताद्दा समाधिः श्रुतसमाधिः / अर्थस्तु स एव। प्रव०६४ द्वार। समाधिभेदे, दश०! श्रुतसमाधिमाहश्रुतव्यवहारिणः प्राहुःकप्पपकप्पी उ सुए, आलोया बॅति ते उ तिक्खुत्तो। चउव्विहा खलु सुअसमाही भवइ, तं जहा-सुअं मे भविस्सइ सरिसत्थमपलिउंचि वि, असरिसपरिणामतो कुंची॥१३७|| त्ति अज्झाइअव्वं भवइ 1, एगग्गचित्तो भविस्सामि त्ति अज्झाइअव्वयं भवइ 2, अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति अज्झाइकल्पग्रहणेन दशाश्रुतस्कन्धकल्पव्यवहारा गृहीताः, प्रकल्प-ग्रहणेन अव्वयं भवइ३,ठिओपरंठावइस्सामि त्ति अज्झाइअव्वयं भवइ निशीथः / कल्पश्च प्रकल्पश्च कल्पप्रकल्पंतदेषामस्तीति कल्पप्रकल्पिनः 5, चउत्थं अयं भवइ / भवइ अ इत्थ सिलोगो-"नाणमेगदशाकल्पव्यवहारादिसूत्रार्थधरास्तुशब्दत्वात् महाकल्पश्रुतमहाकल्प ग्गचित्तो अ, ठिओ अठावई परं / सुआणि अ अहिजित्ता, रओ निशीथनियुक्तिपीठिकाधराश्च श्रुतव्यवहारिणः प्रोच्यन्ते, व्य०१ उ०। सुअसमाहिए॥३॥" सुयविणय-पुं०(श्रुतविनय) विनयभेदे,व्य० / चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति, तद्यथे' त्युदाहारणोपन्यासार्थः / सम्प्रति श्रुतविनयमाह-- श्रुतं मे आचारादि-द्वादशाङ्ग भविष्यतीत्यनया बुद्ध्याऽध्येतव्य भवति, सुत्तं अत्थं च तहा, हियणिस्सेसन्तहा पवाएइ। न गौरवाद्यालम्बनेन 1, तथाऽध्ययनं कुर्वन्नेकाग्रचित्तो भविष्यामि न एसो चउदिवहो खलु,सुयविणओ होइनायव्यो॥३००|| विप्लुतचित्त 'इत्यध्येतव्यं भवत्यनेन चालम्बनेन 2, तथाध्ययनं सूत्रं प्रवाचयति तथा अर्थमपि हितं यद्यस्योचितं तत्तत्र प्रवाचयति | कुर्वन्विदितधर्मतत्त्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुद्धधर्म इत्यनेन नेतरत्, तथा निःशेषं परिपर्णमेष चतुर्विधः खलु श्रुतविनयो भवति चालम्बनेनाध्येतव्यं भवति 3, तथाऽध्ययनफलात् स्थितः अवयं धर्मे ज्ञातव्यः। 'परं' विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्य भवत्यनेनालम्बनेन Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुयसमाहि REE - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरदुवार vo! 4, चतुर्थं पदं भवति / भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् / स चायम - | सुरक्खिय-त्रि०(सुरक्षित) सुष्टु-अत्यन्तं रक्षितं रक्षण पालनं यस्य स 'ज्ञान' मित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं भवति एकाग्रचित्तश्च तत्परतया | ___तथा। अत्यन्तं पालिते, प्रश्न०४ संव० द्वार। एकाग्रालम्बनश्च भवति 'स्थित' इति विवेकाद्धर्मस्थितो भवति सुरगअ-पुं०(सुरगज) ऐरावणे, को०। 'स्थापयति पर' मिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्थापयति, श्रुतानि सुरगह-स्त्री०(सुरगति) सुरेषु विषये गतिः सुरगतिः / देवगतौ कर्म० च नानाप्रकाराण्यधीतेऽधीत्य च रतः-सक्तो भवति श्रुतसमाधाविति ४कर्म सूत्रार्थः // 3 // दश०६ अ०४ उ०! सुरगण पुं० (सुरगण) चतुर्विधामरनिकाये, ध०२ अधि०। प्रश्न०। स०। सुयसागर-पुं०(श्रुतसागर) ऐरवतवर्षे भविष्यति चतुर्थे तीर्थकरे, ति०। सुरगणणरिंदमहिय-त्रि०(सुरगणनरेन्द्रमहित) सुरगणैश्चतुर्विधाश्रुत कल्पव्यवहारादिरूपं तदेव गम्भीरत्वादिगुणैः सागरः श्रुतसागरः / मरनिकायैनरेन्द्रेश्चक्रवादिभिर्महितः- पूजितः / देव / राजभिश्च श्रुतसमुद्रे, ग०१ अधि०।दर्श०॥ पूजिते ल०। सुयसहायया-स्त्री०(श्रुतसहायता) श्रुतमेव सहायो यस्याऽसौ श्रुत- | सुरगणसुह-न०(सुरगणसुख) देवसन्धानसुखे, "सुरगणसुहं, सम्मत्तं सहायस्तद्भावस्तत्ता / श्रुतमात्रावलम्बने, भ०१७ श० 3 उ०। सव्वथा पिंडिअं अणंतगुणं" प्रज्ञा०२ पद। सुयसामाइय-न०(श्रुतसामायिक) श्रुतमुक्तस्वरूपमेव सामायिकमिति | सुरगिरि-पुं०(सुरगिरि) मेरुपर्वते, सूत्र०१ श्रु०६अ। श्रुतसामायिकम् / सामायिकभेदे, विशे० / ('णाण' शब्दे चतुर्थभागे | सुरगीय-त्रि०(सुरगीत) सुरैर्देवैर्गीतस्तद्गुणगानेन / अमरसंकीर्तिते, 1654 पृष्टे सर्वा वक्तव्यता।) संथा०। सुयहर-पुं०(श्रुतधर) दशपूर्वधरे, आ० म०१ अ०। श्रुतमहार्णवपारगा- | सुरगुरुविणेय-पुं०(सुहगुरुविनेय) वार्हस्पत्ये वार्वाक, ल०। मिनि, पं० सं०५ द्वार। सुरगोव-पुं०(सुरगोप) इन्द्रगोपकाभिधाने रक्तवर्णे, कीटे, ज्ञा० 1 श्रु० सुया स्वी०(सुता) आत्मजायाम्, जी०३ प्रति० 4 अधि० / शान्ति- | ६अ। जिनस्य प्रवर्तिन्याम्, ति०। सुरजाल-न०(सुरजाल) इन्द्रजाले, बृ०१ उ०२ प्रक०। सुयाग-पुं०(सुयाग) शोभनयज्ञे, औ01 सुरह-पुं०(सुराष्ट्र) द्वारवतीनगरीप्रतिबद्ध जनपदभंदे, "वारवई य सुयाणुसार-पुं०(श्रुतानुसार) आगमोद्देशे, पञ्चा० 4 विव० शब्दार्था- सुरहा" प्रव० 275 द्वार। आव० सूत्र० प्रज्ञा०) लोचनानुसारे, कर्म०४ कर्म० सुरहवद्धण-पुं०(सुराष्ट्रवर्धन) अवन्तिराजस्य प्रद्योतस्य पौत्रे, आ० सुय्य-पुं०(सूर्य) "न वा र्यो य्यः" ||84266 / / इति शौरसेन्यां क०४ अ०। र्यस्य स्थाने य्यः। रवो, प्रा०। (अस्य वक्तव्यता 'सूर' शब्दे वक्ष्यामि।) सुरणय-त्रि०(सुरनत) देवपूजिते, दश०१०। सुर-पुं०(सुर) सुष्टु राजन्त इति सुराः / यदि वा-सुष्ठु राति ददाति, | सुरणर पुं०(सुरनर) देवमनुष्ये, "तम्हाउ सुरनराणं पुज्जत्ता मंगलं सया प्रणतानामीप्सितमर्थं लवणाधिप इव लवणजलधौ मार्ग जनार्दनस्येति धम्मो।" दश० 1 अ०। सुराः। यदा-'सुरा' ऐश्वर्यदीप्त्योः / सुरन्ति विशिष्टमैश्वयमनुभवन्ति सुरणुचर-त्रि०(स्वनुचर) रेफः प्राकृतत्वात् / सुखप्रवर्तनीयत्वात् दिव्याभरणसंभारसमृङ्ख्या सहजनिज-शरीरकान्त्या वा दीप्यन्ते इति __ अकृच्छ्रेणानुष्ठातव्ये, स्था० 5 ठा०१ उ०। सुराः। कर्म०४ कर्म०।शक्रादिकेषु देवेषु, नं0 अनिमेषिषु ,आ०म०१ सुरत्तकणवीर-न०(सुरक्तकरवीर) अतिरक्तकरवीरपुष्पे, प्रश्न०३ अ०) व्य० / आ० म०। कर्म 0 / औ०। आचा०।। आश्र० द्वार। सुरइय-त्रि०(सुरचित) शोभनं रचितं सुरचितम्।शोभनप्रकारेण निर्मिते, | सुरत्ताण-पुं०(सुरत्राण) पारसीकभाषाप्रसिद्ध नृपे, ता० 25 कल्प०। जी०३ प्रति० 4 अधि०। औ०। सुरत्ताणसमसुद्दीन-पुं० / पारसीकः शब्दः / महाराजे, श्रीहम्मीरसुरसुरंगा-स्त्री०(सुरङ्गा) उपर्यविदिते भूमिखातमार्ग, न० आ० क० आव०। / ताणसमसुद्दीनः। ती० 35 कल्प। सुरंवर-पुं०(सुरम्बर) शौर्यपुरपूज्यमाने स्वनामख्याते यक्षे, आव०४ | सुरतिग-न०(सुरत्रिक) सुरगतिसुरानुपूर्वीसुरायुर्लक्षणे देवत्रिके, कर्म०५ अ01 आ० क०। ('सुइ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा गता।) कर्म०। सुरकुमार--पुं०(सुरकुमार) श्रीवासुपूज्यजिनस्य शासनयक्षे, प्रव०।। सुरदत्त-पुं०(सुरदत्त) जयन्तीनामनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपती, श्रीवासुपूज्यस्य सुरकुमारो यक्षः श्वेतवर्णो हंसवाहनश्चतुर्भुजो पिं०। हेमपुरनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, दर्श०१ तत्त्व। बीजपूरकवाणान्वितदक्षिणकरद्वयो नकुलकधनुर्युक्तवामपाणिद्वयश्व / सुरदग-न०(सुरद्विक) सुरगतिसुरानुपूर्वीलक्षणे देवद्विके, कर्म०५ कर्म० / प्रव०२६ द्वार। सुरदुवार-न०(सुरद्वार) देवगृहद्वारे, ती० 25 कल्प०। Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरपूइय 1000- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरासुरमणुयपूइय सुरपूइय-त्रि०(सुरपूजित) सुरा देवास्तैः पूजितः। इन्द्रादिदेवैः पूजिते, | सुरहिगन्ध-पुं०(सुरभिगन्ध) अनुकूलगन्धे, तेजः पद्मशुक्ललेश्याः दश०१अ०। सुरभिगन्धाः "पिष्यमाणगन्धवासा' सुरभिकुसुमादिभ्योऽप्यनन्तसुरप्पिय-पुं०(सुराप्रिय) रैवतकपर्वतस्यादूरे नन्दनवने उद्याने स्वनाम- गुणपरमसुरभिगन्धोपेतत्वात्। प्रज्ञा० 17 पद। ख्याते यक्षे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। संधा०। आ० म०। अन्तः। तत्र सुरभिजणियगंध-पुं० (सुरभिजनितगन्ध )मनोज्ञकृतगन्धे, ज्ञा० 1 श्रु० (साकेतपत्तने) चेशानकोणेऽस्ति, मेदिनीमुकुटोपमम् / सुरप्रियस्य | 10 / यक्षस्या यतनं शिखराद्भुतम् / / 1 / / " आ० क०१ अ०। आ० चू०।। सरहिविलेवणन०(सुरभिविलेपन) सुरभिश्रीखण्डा-धनुलेपने, पञ्चा० नि०। आ० म०। 4 विव०। सुरभि-पुं०(सुरभि) सौमुख्यकृतिगन्धभेदे, अनु०। प्रज्ञा०ा औ०रा०। सुरा-स्त्री०(सुरा) चन्द्रहासाभिधे मधे, उत्त० 16 अ०। सूत्र० / काष्ठस० आचा०ानं०। गवि, सकलगोमातरि,बृ०। प्रलम्बभेदे,बृ०१उ० पिष्टनिष्पन्ने मद्यभेदे, "पिटेण सुरा होति।" ब्रीह्यादिना संबन्धिना पिष्टन 2 प्रक०। यद् विकटं भवति सा सुरा / बृ० 2 उ० / स्था० / पञ्चा० / दश० / सुरभिकुसुममल्लिया-स्वी०(सुरभिकुसुममल्लिका) सुगन्धपुष्पमाल्ये, कल्पपालगृहेषु किलाम्लशब्दसमुचारितेसुरा विनश्यति। अनु०। पश्चिमकल्प०१ अधि०३ क्षण। रुचकपर्वतवासिन्यां दिक्कुमार्याम्, ति०। दी० / आ० चू०। सुरभिगंध पुं० (सुरभिगन्ध) सुगन्धे, रा०। सुराउ-न०(सुरायुष) देवायुषि, कर्म० 1 कर्म०। सुरभिगन्धणामन०(सुरभिगन्धनामन्) यदुदयवशाजन्तुशरीरेषु सुरभि सुराउह-न०(सुरायुध) वजे, को०१ गन्ध उपजायते यथा शतपत्रमालतीकुसुमादीनां तत्सुरभिगन्धनाम / सुरादेव-पुं०(सुरादेव) वाणारसीनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते वणिजि, नामकर्मभेदे, कर्म०६ कर्म०। पं० सं०। स्था०।सुरादेवो गृहपतिर्वाणारसीनिवासी परीक्षकदेवस्य षोडशरोगासुरभितर-त्रि०(सुरभितर) अत्यन्तसुगन्धिनि, कल्प० 1 अधि०३ तङ्कान् भवतः शरीरेशमकमुपनयामि। यदिधर्म नत्यजसीतिवचनभुपक्षण / प्रश्न। श्रुत्य चलितप्रातज्ञः पुनरालोचित-प्रतिक्रान्तस्तथैव दिवंगत इति सुरमिपुर-न०(सुरभिपुर) गङ्गातटीये नगरभेदे, कल्प०१अधि० 6 क्षण। वक्तव्यताभिधायकं सुरादेव इति // 4 // स्था० 10 ठा० 3 उ० / उत्त०। गङ्गया उत्तरभागस्थेस्वनामख्याते नगरे, आ० चू०१ अ०। आ०क०। (सुरादेवकथा 'चुल्लसयय' शब्दे तृतीयभागे 1196 पृष्ठे गता।) दर्श०। आ० म०। सुरादेवी स्त्री०(सुरादेवी) पश्चिमरुचकवरपर्वतवास्तव्यायां दिकुमारीमसुरम्म-त्रि०(सुरम्य) अतिशयरमणीये, जी०३ प्रति० 4 अधि०। हत्तरिकायाम्, स्था०२ ठा०१उ०।०। आ० कास्वनामख्यातायां औ०। स०।सुष्ठ-अतिशयेन रम्यं सुरम्यम्। मनोरमणीये, चं० प्र०२० सौधर्मकल्पदेव्याम्, नि०१ श्रु०४ वर्ग० अ०आ० म०। (सा च पाहु०। पाान्तिके प्रव्रज्य सौधर्म उपपद्यमहाविदेहे सेत्स्यतीति निरयावलिसुरम्मा-स्त्री०(सुरम्या) वैताढ्यपर्वते उत्तरश्रेण्यां स्वनामख्यातायां कानां चतुर्थवर्गस्य अष्टमेऽध्ययने सूचितम्।) नगर्याम्, ती०६ कल्प०/रा०॥ सुरादेवीकूड-न०(सुरादेवीकूट) शिखरिवर्षधरपर्वतस्य पञ्चमे कूटे, जं० सुरय-न०(सुरत) स्त्रीसेवायाम्, दर्श० मतत्त्व। 4 वक्ष०। (स्थानाङ्गवृत्ताविदं चतुर्थम्।) सुरादेव्यावासभूते पर्वते, जं०४ सुररि-पुं०(सुररिपु) दैत्ये, असुरे, को०। वक्ष० स्था०। सुरलोगभूय-त्रि०(सुरलोगभूत) सुरलोकोपमे, रा०। सुराथालय-न०(सुरास्थालक) सुरायाः स्थालकं सुरास्थालकम् / सुरल्लिया-स्त्री०(सुरल्लिका) वनस्पतिविशेषे, रा०। कोशलादिके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सुरवइ पुं०(सुरपति) इन्द्रे, को०। आ०म०। सुराभ-न०(सुराभ) अपरयोः कृष्णराज्योर्मध्ये लोकान्तिकविमाने, तत्र सुरवइसंपूइय-त्रि०(सुरपतिसपूंजित) इन्द्रमहिते, "सुरवइसंपूइयाणं" तुषिता देवाः। स्था० 8 ठा०३ उ०। सुरपतिसंपूजितानां प्रच्छकनिर्णायकपूजनात् / स०। सुराभिओग-पुं०(सुराभियोग) कुलदेवतादेः सुरस्याभियोगे, ध०२ सुरवर-पुं०(सुरवर) ऋषभदेवस्याष्टनवतितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ | अधि०। क्षण। देवप्रवरे, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। सुरारस-पुं०(सुरारस) समुद्रविशेषे, "एगा जोयणकोडी, छब्बीसा सुरवराभिराम-त्रि०(सुरवराभिराम) सुरवरैः शोभिते, कल्प०१ अधि० दसजोयणसहस्सा। गातित्थेण विरहियं, सुरारसे सागरे खित्ते॥" द्वी०। ३क्षण। सुरालय-पुं०(सुरालय) स्वर्गे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ०। सुरसिद्ध-पुं०(सुरसिद्ध) अपरविदेहे पुष्पकलावतीविजयक्षेत्रे चम्पाया | सुरावियडकुम्भ-पुं०(सुराविकटकुम्भ) सुरारूपं यद् विकटं जलं तस्य नगर्या राजनि, ती०६ कल्प। कुम्भो यः स तथा। मद्यभृतघटे, भ०१६ श०६ उ०। सुरहि-पुं०(सुरभि) सुगन्धे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० जी० सेडुकतृणे, नि० | सुरासुरमणुयपूइय-त्रि०(सुरासुरमनुजपूजित) ज्योतिष्कवैमानिचू०१ उ०। तृणभेदे, आचा०१श्रु०१ अ०५ उ०। कैय॑न्तरभवनपतिभिः पुरुषविद्याधरैश्च पूजिते, पं० सू०१ सूत्र०। Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिंद 1001 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरिन्ददत्त सुरिंद-पुं०(सुरेन्द्र) सुष्ठुराजन्ते इति सुरास्तेषामिन्द्रः-प्रभुः सुरेन्द्रः, सुराणां देवानां वा इन्द्रः सुरेन्द्रः / शक्रे, उपा०२ अ०। ति० स०। द्वात्रिंशत् सुरेन्द्राः। प्रश्न०५ संव०।द्वार। सुरिन्ददत्त-पुं०(सुरेन्द्रदत्त) इन्द्रपुरनगरराजस्येन्द्रदत्तस्य स्वामात्यसुताकुक्षिसंभूते पुत्रे, आ० म०१ अ०। मथुराजाताया निवृत्ते स्वयंवरवरके, ती०८ कल्प। दयायां सुरेन्द्रदत्तचरितनिदर्शनमाह"पयडियदइक्कधम्म, दंसियजीववहदारुणविवागं। किं पि जसोहरचरियं, भणामि संवेगसभरियं / / 1 / अत्थि पुरी उज्जेणी, जत्थ जणो विमलसीलदुल्ललिओ। कलिओ विहवभरेणं, न कयावि निएइ परदारं / / 2 / / अमरू व्व अमरचंदो, सुहासओ तत्थ आसि नरनाहो। वरलावन्नमणहरा, जसोहरा तस्स पाणपिया / / 3 / / ताण कयविबुहतोसो, सुरिंददत्तो सुओ सुरिंदुव्व। परमेस गुत्तभेई, ने वय कइयावि वइरकरो॥४॥ नियसंगमउज्जीविय, मयणासारयससंकसमवयणा। तस्स य नीलुप्पलदल-नयणा नयणावली भजा ||5|| अन्नदिणे रजभर, पुत्ते संकमिय अमरचंदनिवो। पडिवन्नो कयउन्नो, समणतं असम सुमणत्तं // 6 // महिहरछुज्झंतकरो, पयडियकमलो य हणियरिउतिमिरो। रविरिव सुरिंददत्तो, वि कुणइ सव्वक्क मइसुहियं // 7 // अह अन्नदिणे रन्नो, सारसियानामियाऍ दासीए। पलियच्छलेण कहिओ, समागओ धम्मदूओ ति / / 8 / / सत्तो चिंतेइ निवो, अथिरत्तं अहह सव्वभावाणं। ही तुच्छया भवस्स य, ह हाचलत्तं तरुणयाएEll दिवसनिया घडिमालं, आउयसलिलं जणस्स वित्तूणं। चंदाइचबइल्ला, कालरहट्ठ भमाडति // 10|| जीवियजलंमि खीणे, सरीरसस्संमि परिसुसंतंमि। को विहु नत्थि उव==, तहवि जणो पावमायरइ // 11 // तो किं इमीइ मज्झ, रगततरंगभंगुरतराए। निवलच्छीइ सुतुच्छा-इनरयपुरसरलसरणीए॥१२॥ गुणहरकुमरं गुणरय-ण कुलहरं ठावि*ण नियरज्जे। पुष्वपुरिसाणुचिन्नं, सामन्नं अणुवरामि त्ति / / 13 / / तो सिट्ठो दइयाए, नियमिप्पाओ निवेण सा आह। जंभे रोयइ तं कुल-सुनाह न करेमि विग्घमहं॥१४| किंतु अहं पिगहिस्सं,सहेव पव्वज्जमज उत्तेण। चिट्ठइ पच्छा जुण्हा, फुडमुड्वइणो विणा कह णु॥१५॥ तो चिंतइ नरनाहो, अहो अहो मज्झ उवरि देवीए। अइनिविडो पडिबंधो, अहो अहो विरहभीरत्तं / / 16 / / इत्थंतरंमि मिउगहि-र सद्दओनमिय दाहिणकरेण। कालनिवेएण निउए, पढियामिणं तन्निउत्तेणं / / 17 / / ल« पसिद्धमुदयं, पयावपसरं कमेण वढित्तो। उज्जोवित्ता भुवणं, संपइ अत्थमइ दिणनाहो|१८|| तं सोउ चिंतइ निवो, हहा इहं नत्थि कोइ निच्चसुही। इत्तिय दसाउ विवसो, पइदिवसं सहइ सूरो वि।।१६।। संझाकिचं तो का-उठाउ मत्थाण मंडवंमि खणं। नयणावलीइ समलं-कियंमि पत्तो रइगिहमि // 20 // संसारसरूवनिरू-बणिकपवणस्स निहुयचित्तस्स। विसयविमुहस्स रन्नो, दूरं ओसरियनिहस्स॥२१॥ सुत्तो निवु त्ति उक्कड, मयणा नयणावली समुढेइ। रुग्घाडिउं कवाडे, विणिग्गया वासगेहाओ।।२२।। चिंतइ निवो अवलं किं, एसा निग्गय त्ति हुं नायं / महभाविविरहभीरू, नूणं मरिहि त्ति वारेमि // 23 / / तयणु अणुपुहिमेई, इजाइ जा नरवई गहियआसी। पासायपालओ ता-व खुजओ तीइ उट्ठविओ॥२४।। अह ते दोवि पमत्ते, करालकरवालघायपायाले। जा खिविही कोववसा, निवई इय चिंतए ताव // 25 // उब्भडरिउभडसंघडिय-करडिघडकरडदलणदुल्ललिओ। वियलियसीलेसु इमे-सु एस कह वहउ मइ खग्गो॥२६॥ अहव किमिमीइ चिंता-इ पत्थुयत्थस्स अणणुरूवाए। इयवलिय विलियचित्तो, सिज्जाठाणं निवो पत्तो // 27 // चिंतइ सयणिज्जगओ, अहो महेला अनामिया वाही। विसकदली अभूमा, विसूइया भोयणेण विणा // 28 // वग्घी अकंपरा तह, अणग्गि चुडली अवेयणा मुच्छा। निवडं निवडमलोहं, अकारणो तइय मधु त्ति // 26 / / इयजा चिंतेइ इमो, ता देवी तत्थ आगया सणियं / गंभीरयाइ नहु किं-पिजंपियं नरवरेण तया // 30 // इत्तो समाहयाई, पभायतूराइ किंकरगणेण। कालमिवेयगपुरिसे-ण गहियसद्देण इय पढियं // 31 // एसा वचइ रयणी, वि मुक्कगुरुतिमिरचिहुरपडभारा। दाउंजलंजलिं पिव, परलोगगयस्स सूरस्स॥३२॥ तो काउगोसकिच्चं, अत्थाणसहाइ आगओ राया। पणओय मंतिसाम-तसिद्विसत्थाहपमुहेहिं।।३३|| कहिओ नियभिप्पाओ, निवेण विमलमइमाइमतीस। भालयलमिलियकरको-रगेहिं तेहिं पि विन्नवियं // 34 // देव ! न अज्ज वि जायइ, कवयहरो जाव गुणहरो कुमरो। ताव सयं चिय सामी, एसाउ पयाउ पालेउ॥३५|| भणइ निवो मंतिवए, किं अम्ह कुले समागए पलिए। कोवि ठिओ गिहवासे, भणंति ते देव ! नहु एवं // 36 / / इय सह मंतीहिँ निवो, विविहालावेति तु दिणं गमिउं। सुहसुत्तो रयणीए, विरामसमए नियइ सुमिणं // 37 / / जह सत्तभूमिमंदिर-उवरिं सीहासणंमि उवविट्ठो / पडिकूलभासिणीए, अंबाए पाडिओ हिट्ठा // 3 // निवडतो पत्तो हं, भूमीओ सत्त तह य अंबावि। उट्ठिय कह पि मंदिर-गिरिसिहरं पुणवि आरूढो॥३६।। अह गयनिदो राया, चिंतइ आवायदारुणविवागो। परिणामसुहो सुमिणो, एसो किं भावि नहु जाणे // 40|| अत्रान्तरे पठितं प्राभातिककालनिवेदकेनपतितोऽपि दैवयोगात्, पुनरुत्पातं क्षणेन किल लभते। कन्दुक इव सद्दत्तो, न भवति चिरकालविनिपातः // 41 // अह कयपयभायकिच्यो, ता अत्थाणमि उवविसइ राया। बहुपरियणपरियरिया,जसोहराता तहिं पत्ता॥४२॥ अब्भुट्ठिया निवेणं, निवेसिया आसणे अइमहंते। पुच्छइवच्छ! कुसलं, सभणइ अंबापसाएण॥४३॥ चिंतइय निवों मज्झं, वयगहणं कहणु मन्निही अंबा। अइबंधुर पडिबंधा, हुं अत्थि इमो इहोबाओ॥४४॥ Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिन्ददत्त १००२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरिन्ददत्त तं चेव सुमिणयं तह, कहेमि पडिधायहेउ जह तस्स। तो हाहारव मुहला-इतीइ धरिओ भुयादंडो॥६३।। भन्नइ मह मुणिवेसं, पव्वइओ चियतओ अहयं / / 45|| भणिओ य पइविदन्ने, वच्छ! अहं किं नु जीविहं पच्छा। इय सामत्थिय कहिओ, सुमिणो जणणीइ ! अंब! जह अज्ज। माइवहो चेव इमो, ता तुमए ववसिआ इत्थ॥६४।। गुणहरकुमरस्स अहं, रजंदाऊण पव्वइओ॥४६॥ इत्तो य कुक्कुडणं, कुइयं सुणिओ य तीइ तस्सदो। धवलहराउ निबडिओ, इचइ सुणित्तु तीइ भीयाए। भणियं य वच्छ ! निहणसु, एयं जं अत्थि इह कप्पो॥६५॥ थुत्थुक्कियं च वाम-कमेण अक्कमियमहिवलयं / / 47|| एरिसकले पगए, जस्ससरोसुम्मएतयं हणिउं। यशोधरा प्राह ..तप्पडिबिंब अहवा, करिज ससमीहियं पुरिसो॥६६।। एयस्स विघायकए, दाउं कुमरस्स रनमित्तरियं / राजागिण्हेइ समणलिग, (राजा) एवं ज आणवइ अंबा।।४८|| हे भाय ! कायमणवइ, जोगेहि हणे न जावमन्नमहं / यशोधरा यशोधरानिवडणनिमित्तयं पुण, जलथलखेयरजिए बहुं हणिउं। जइएवं पिट्ठमयं, पि कुक्कुडं हणसुता वच्छ!॥६७।। कुलदवयचणेणं, करेहितं संतिकम्मं ति॥४६|| तो माइनेहमोहिय-मणेण सछन्ननाणनयणेण / राजा जणणीवयणं रुन्ना, पडिवन्ने गयविवेएण॥६८|| जियघाया यण संती, हहा कहं अंब! ते समाइट्ठा। यद्वाजं धम्मेणं संती, सो पुण धम्मो दयामूलो !॥५०॥(ध०२०) बहुयं पिहु विन्नाणं, नाइसय होइ निययकजंमि। (अभयदानकथनम्-'अभयदाण' शब्दे प्रथमभागे७०६ पृष्ठे द्रष्टव्यम्।) / सुटु वि दूरालोयं, न पिच्छए अप्पयं लच्छी॥६६॥ तं अंब ! संतिकम्म,तं चिय सव्वत्थ साहणसमत्थ। नरनाहवयणपरिपे-रिएहिँ सिप्पीहिँ झत्ति निम्मविओ। जं अइथेवं पिपर-स्स नेव चिंतिज्जए पाव।।५१।। पिट्ठमय तंवचूडो, जसोहराए समुवणीओ॥७०|| सा वि तओ निवसहिया, गंतु कुलदेवया पुरो भणई। यशोधरा इय कुक्कुण तूसिय, मह सुयकुसुमिणहरा होसु॥७१।। पुत्तय ! परिणामवसा, पुन्नं पावंच होइ अहवावि। अह तीइ पेरिएणं, निवेण असिणा स कुक्कुडो बहिओ। देहारुग्गनिमित्तं, पावं पिहु कीरए इत्थ // 52 // भक्खसु एवं मंस, ति जंपिए तेण पडिभणियं / / 72|| यत उक्तम वरमंब! विसं भुत्तं, नउमंसं नरयदुसहदुहहेळं। पावं पिहु कायव्यं,बुद्धिमया कारणं गणंतेणं। तसजीववहुप्पन्न, दुग्गंधं असुइवीभत्थं // 73 // तह होइ किं पिकजं, विसं पिजह ओसहं होइ॥५३॥ तत्तो जसोधराए, जसोहराए य पत्थिओ वाद। राजा पिट्ठमयतम्बचूड-स्स नरबरो भुंजए संसं // 74|| जइ वि परिणामवसओ, पुन्नं पावं हवेइ जीवाणं। अह वीयदिणे कुमरं, रज्जे संठविय जाव पव्वइही। तह वि य जयंति सन्तो, परिणामविसोहिमिच्छंता // 54 // ता देवीए भणिओ, पडिवालसुदेव! अज्ज दिणं // 75 / / जो पुण हिंसाययणे-सु बट्टई तस्स नणु परीणामो। पव्वहइमहं पिसुए. अणुहविउं अज्ज ! पुत्तरजसुहं। दुट्ठो न यतं लिंग, होइ विसुद्धस्स जोगस्स।।५५|| चिंतइ निवो इमीए किमिण पुव्वावरविरुद्धं // 76|| किंच अहवा चयइ जियंतं, सयं पि अणुमरइ कावि भत्तारं। पुन्नमिवं पावं चिय, सेवंतोतं फलं न पावेइ,। विसहरगई व वंक, को जागइ चरियमित्थीए।७७|| हालाहलविसभोई, न जीवई अमयबुद्धी वि / / 56|| ता पिच्छामि किमेसा, करेइ तो भणइ देवि! इय होउ। नय तिहुयणे वि पावं, अन्नं पाणाइवायओ गरुयं / सा चिंतेइ जइन इमं, जणुपव्वइहं तओ मज्झ॥७८|| जं सव्व विय जीवा, सुहेसिणो दुक्खभीरू य॥५७|| होही महं कलंको, कहमवि वावाइए पुण निबंमि। देहारुग्गकए विहु, जीवदया चेव अंब! कायव्वा। वालसुयपालणकए, अणणुमरंती इ वि न दोसो।।७।। आरुागमाइ सव्वं,जंजीवदयाफलं नूणं / / 58|| इय चिंतिय सा रन्नो, नहसुत्तीसठिय विसं देइ। तथाहि भुंजंतस्स तओ सो, जाओ विहलं घलो झत्ति / / 8 / / जं आरुग्णमुदग्गमप्पडिहयं आणेसरत्तं फुडं,। नाओ विसप्पओगो, आहूया विसविघायगा विजा। रूवं अप्पडिरूवमुञ्जलतरा कित्ती धणं जुव्वणं। विज्जाहवणं नहु सुं-दरं ति चिंतित्तु अह देवी॥८१|| दीहं आउ अवंचणो परियणो पुत्ता सुभत्ता सया, सोयभरकंता इव, धस त्ति निवडेइ नरवरस्सुवरिं। तं सव्वं सचराचरंमि वि,जए नूणं दयाए फलं॥५६॥ गलअंगुठ्ठपओगे-ण हणइ निययं पई पावा।।२।। वयणकलहेण इमिणा, अलं ममं चिय करेसुतं वयणं। अह अट्टज्झाणपरो, काया मरिउं सिबंधसेलमि! इय जंपिरो नरवई, जसोहरा धरइ बाहाए॥६०॥ जाओ मऊरपोओ, गहिओ चयनामवाहेण // 53 // तत्तो निवो वि चिंतइ, एगत्तो अंबयावयणलोवो। नंदावाडयगामे, चंडतलारस्स दिन्नओ तेणं। अन्नत्तो जीववहो, इत्थ मए किं तु कायव्वं // 61|| सत्तुयगपत्थएणं, सोतं सिक्खवइ नट्टकलं॥८४।। अहवा वि अइदुरतो, गुरुवयणविलोवओ विवयभंगो। बहुविहरयणा मेलय, सच्छइ बहुपिच्छभाररमणीओ। ता अत्ताणं पि हणिय, रक्खियो पाणिणो इहि // 62|| सो पाहुडं ति तेणं, पट्टविओ गुणहरनिवस्स॥८५|| इय चिंतिउंनिवइणा, पकड्डियं मंडलग्गमइउग्ग। इत्तो जसोहरा वि हुँ, सुयमरणुप्पन्नअटुझाणपरा। Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिन्ददत्त 1003 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरिन्ददत्त तद्दिवसं चेव मया, धन्नउरे कुक्कुरे जाओ।।८६| सोविजयपवणवेगो, तप्पुरपहुणा य गुणहरस्सेव। कोसल्लियं ति पहिओ, पत्ता ते समगमुवनिवई॥८७|| वरहिणसुणपालाणं, समप्पिया निवइणा पहिडेण। रन्नो अईव इट्ठ-त्ति तेवि पालंति जत्तेण / / 5 / / कालक्कमेण मरिउं, ते दो वि हु दुप्पवेसनामवणे। जाया पसयभुयंगा, अन्नुन्नं भक्खिऊण मया / / 6 / / ते मीणसुंसुमारा, जाया सिप्पा नईइ मज्झमि। पविसिय नईएँ केणवि, कयावि मंसासिणा निहया // 6 // तो उज्जेणिपुरिए, मेसो छगले य ते समुप्पन्ना। पारद्धिपसत्तेणं, गुणहररन्ना कयावि हया // 61|| तत्थेव पुणो जाया, मेसो महिसोय गुणहरनिवेण। अइमंसलोलुएणं, किच्छेण हणविया कइया / / 12 / / भवियव्ययावसेणं, पुणरवितत्थेवते विसालाए। मायंगपाडयमी, उववन्ना कुक्कुडीगढभे६३|| तीए कुक्कुडियाए, दुट्ठविरालेण खज्जमाणीए। भीयाइ अंडगदुर्ग, परिगलियंकयवरस्सुवरि / / 64|| इत्तोय तेसिमुवरिं, डुवीए कजओ परिदुविओ। तस्सुन्हाए कमसो, कुक्कुडपोया दुवे जाया ||5|| तेसि पिच्छाइ चंद-चंदिमा धवलयाई जायाई। चूला य समुभूया, सुयमुहगुंजद्धरागसमा॥६६॥ कइयावि कालनाम-णंतलवरेण इमे निए*णं। उवणीया खिल्लणयं, ति काउगुणहरननिंदस्स / / 67 // भणियं निवेण तलधर, जत्थ अहं जामि तत्थ तुमए वि। एए सह आणेया, इमो वि पचाइ एवं ति||८|| महुसमयंमि, पयट्टे, अंतेउरसंजुओ निवो पत्तो। कुसुमायरआरामे, कुक्कुडऍ गहियकालो वि||६|| तत्थ य कयलीहरम-ज्झ माहवीमंडरे ठिओ राया। कालो असोयविही-इ तत्थ पिच्छेइ मुणिपवरं / / 100|| सो तेण भावसहियं, ति वंदिओ तस्स मुणिवरेणावि। दिन्नो य धम्मलाभो, संपाडियसयलसहलाभो॥१०१।। तंदंठ्ठ पगइउवसं-तकंतरूवं पसन्नसहवयणं। हिट्ठो भणइ तलारो, भयवं ! को तुज्झ धम्मु त्ति / / 102|| साइह मुणी महायस, असेससत्ताण रक्खणं सययं। इक्कुचिय इह धम्मो, ओहेण विभागओ उइमो // 103 / / तथाहिजीवदय सचवयणं, परधणपरिवञ्जणं सया बंभ। सयलपरिग्गहचाओ, विवजणं रयणिभत्तस्स // 104 / / बायालीसेसणदो-ससुद्धपिंडस्स भोयणं विहिणा। अप्पडिबद्ध बिहारो, सारो धम्मो इय जईणं, // 10 // जंपेइ तलवरो पुण, निहत्थधम्मो कहेसु मे भयवं!। परउवयारिक्कमणो, मुणीविजंपइ तओ एवं / / 106 // अरिहं देवो गुरुणो, सुसाहुणो जिणमयं मह पमाणं / इय सम्मत्तपुरस्सर-मिमा. बारस वयाइँ इह, / / 107 / / संकप्पनिवराहा, दुहा तिहा तस जिया न हंतव्वा / कन्नालिआइ पमुह,थूलमलीयं न वत्तव्वं, // 108|| खत्तखणणाइचोरं, कारकरमन्नियं न घेत्तव्वं / परदारपरीहारो, अहवावि सदारसंतोसो॥१०६॥ धणधन्नाइपरिग्गह- परिमाणं माणवेहिँ कायव्वं / किच्चो सयलदिसासु, अवही अवहीरिउं लोह, // 110 / / महुमंसाईचाया, कायव्वा विगइपमुहपरिसंखा। जहसत्तिऽणत्थदंडो, व यव्यो अइपयंडो॥१११॥ समभावो सामइयं, खणिएणं तं सयावि कायव्वं / देसावगासियं पुण, सयलवयाणं पि संखिवणं॥११२॥ देसे सव्ये यदुहा, ससत्ति, पोसहवयं विहेयव्वं / साहूण सुद्धदाणं, भत्तीए संविभागवयं // 113 / / एयं दुवालसबिह, गिहिधम्म पाणिणो विहियविहिण्णा। कमसो विसोहियं क मकयवरं जंति परमपयं, / / 114 // तं सोउ भणइ कालो, भयवं ! एयं करेमि गिहिधम्म। किंतु कमागयमेयं, हिंसं सक्केमि नो चइउं॥११५|| वागरइतओ साहू, जइएवं नो चएसि भो भद्द!! इय कुकुड मिहुणं पिव, तो लहिसि भवे अणत्थभर।।११६॥ सो आह कहमिमेहिं, जीववहं अचइउंदुह पत्तं / तो मूलाओ कहिया, मुणिणा तेसिं भवा एवं // 117|| सुयजणणी सिहिसाणा, पसयअही मीणसुंसुमाराय। मेसछगली य मेसय-महिसा कुक्कुडजुगं जाव।।११८॥ तेसिं निसुणिय अगणिय, दुहदंदोलिं विसुद्ध संवेगो। पभणइ भत्तीए दं-डपासिओ वासिओ हियए।।११।। भयवं ! म नित्थारसु, इमाउ भवमीमकूवकुहराओ। गिहिधम्मवरत्ताए, निप्पन्नाए गुणगणेहिं / / 120 / / तो साहुणा तलवरो, सावयधम्मस्स भायणं विहिओ। पञ्चपरमिट्ठिमंतं, निभंतं तहय सिक्खविओ।।१२१॥ अह तेहि कुकुडेहि वि, तं मुणिवयणं फुडं सुणतेहिं। पत्तं जाईसरणं, तहेव गिहिधम्मवररयणं / / 122 / / अइनिव्वेयपरेहिं, संविग्गमणेहि हरिसविवसेहि। महया महया सद्दे-ण कूइयं तं सुयं रना॥१२३॥ उअमह सरवेहितं, जयावलिं निययदेविमिय भणिउं। नरवइणा इगइ सुणा, ते दोवि हया गया निहणं॥१२४॥ गब्भे जयावलीए, पुत्तत्ताए सुरिंददत्तजिओ। तेसुववन्नो एगो, वीओ पुण पुत्तिभावेण / / 12 / / गन्भणुभावा देवी, हिंसापरिणामविरहिया सुहिया। जिणपवयणसवणमई,संजाया अभयदाणरुई॥१२६|| नीसेसजीव अभय-प्पणपउणो य डोहलो तीसे। नयरे पयडेउ अमा-रिघोसणं पूरिओ रन्ना // 127 // कालक्कमेण देवी, पसवेइ जुगलिणि व्वं मरजुगलं। तो कारवियं नयरे, निवेण वद्धावणं गरुयं // 128 // अह बारसंमि दिवसे, ठवियं कुमरस्स अभयरुइनाम। कुमरीए अभयमइ, त्ति दोवि वर्ध्वाति सुहसुहओ / / 126 / / निम्मलकलाकलावा, कमेण जुव्वणमणुतरं पत्ता। ता हट्ठतुट्ठचित्ते-ण राइणा चिंतियं एवं / / 130 // सामंताइसमक्खं, जुवरज्जपए ठवेमि कुमरमहं। कुमरीइ रूवविजिया-उमरीइ कारेमि वीवाहं / / 131 // इय चिंतिऊण पत्तो, पारद्धिकए भिराममाराम====! छिको य सुरहिपवणे-णं पिच्छए संयलदिसिचक्कं / / 132 // ता तत्थ तिलयतरुवर-तलंमि कंचणगिरि व्व निक्कंपो। नासगनिहियनयणो, सुदत्तनामा मुणी दिह्रो // 133 // हा अवसउणु ति पयं-पिऊण कुविएण भूमिनाहेण। मुणिवरकयत्थणत्थं, छुच्छुक्कियमंडला मुक्का // 134!! Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिन्ददत्त 1004 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरिन्ददत्त अइतिक्खदंतदाढा, उग्गाढा हरिणपवणजइणगई। लल्लकमाणजीहा, ते पत्ता मुणिसमीवंति // 135 / / जलिरजलणं व तवसा, दित्तं तं दठ्ठ निप्पहा जाया। साणा ओसहिभरभ-गउग्गरला विसहरु य्व // 136 / / काउं पयाहिणतियं, अणप्पमाहप्पओ मुणिवरस्स। चरणे पडियं महियल-मिलंतमउलिं सुणयवंदं॥१३७।। तं दठु विलयचित्तो, चिंतइ राया वरं इमे सुणया। न उण अहं जो अकुसल-कारी एयस्स वि मुणिस्स॥१३८|| अह निवइबालमित्तो, सिट्ठिसुओ नामओ अरिहमित्तो। जिणमुणिपवयणभत्तो, मुणिनमणत्थं तहिं पत्तो / / 136 / / नाओ य तेण मुणिवर, उवसग्गपरो निवस्सऽभिप्पाओ। भणियं च देव! किमिणं, सविसायं आह राया वि॥१४०|| भो मित्त ! अलाहि ममं, चरिएणं पुरिससारमेयस्स। इयरो वि भणइ मा दे-व! एरिसं वयणमुल्लवसु॥१४१॥ सहु ओयरसु तुरंगा, भववंत वंदिभो सुदत्तमुणिं! भुवणच्छरियं चरियं, इमस्स किं देव ! न सुयं ते॥१४२।। अह संभंतेण निवे-ण पभणियं कहसु कहसु भो मित्त !! सुपुरिस कहाविजापा-व तिमिरहणणिक्कसूरपहा।।१४३।। जंपेइ अरिहमित्तो, कलिंगपहुअमरदत्तनरवइणो। पुत्तो आसि सुदतो, राया नापावदायमई॥१४४॥ तस्स य कयावि चोरो, उवगीओ तलवरेण भणियं च। देव! इमो वढनरं, वावाइय मुसिय अमुगगिह / / 145 // मणिकणगरयणधणजाय माइ बहु गिहिउंच गच्छंतो। अम्हेहि अज्ज पत्तो, संपइ देवो पमाणं ति॥१४६|| तो धम्मसत्थपाठी, अवराहं कहियं पुच्छिया रना। एयस्स को णु दंडो, तेहि वि एवं समुल्लवियं // 147 // करचरणसवणप्पण, पुव्यमिमो अरिहए वह चेव। तं सोउ चिंतइ निवो, धिरत्थु एयस्स रजस्स॥१४८|| जीववह–अलियभासण-अदिन्नगिण्हण-अबंभचेराइ। आसबदारा दारा, व कुगइणो जत्थ वट्टति।।१४६|| रज्जे तओ सुदत्तो, ठविउं आणंद नामजामेयं / पासे सुहम्मगुरुणो, दिक्खं गिण्हइ इमो साहू॥१५०॥ अह उत्तरियं तुरियं, तुरयाओ हरिसिओ महीनाहो। नमइ मुणिंदं तेणवि, दिन्नो से धम्मलाभुत्ति / / 151 / / तंदठु साहुरूवं तब्वयणं सवणसुहयरं सुणिउं। लज्जाभरोणयमुहो, अणुतावा चिंतइ नरिंदो।।१५।। कहकहमि नत्थि सुद्धी, रिसिधायणववसियस्स इह मज्झं। इमिणा असिणा ता लहु, लुणामि कमलं व नियमउलि // 153|| इय झायंतो वुत्तो, मुणिणा मणनाणिणा महाराया। चिंताइ अलभिणीए, जं आयवहो वि पडिसिद्धो।।१५४|| आहचभावियजिणवयणाणं, ममत्तरहियाण नत्थि उ विसेसो। अप्पाणंमि परंमि य, तो वज्जे पीडमुभओ वि।।१५५।। नय अन्नं पावकलं-क पंकपक्खालणक्खमं राय! जिणवरपणीयपवयण-वयणाणुट्ठाणवारि विणा / / 156 / / अह हिययगयाभिप्पा-य कहणओ रंजिओ भिसं राया। हरिसंसुपुन्ननयणो, नमिउं विन्नवइ मुणिपवरं / / 157 / / भयवं! किं पच्छित्तं इमस्सपावस्स घायणसमत्थं। मुणि आह नियामविव-जणेणं पडिवक्खआसेवा।।१५८।। इत्थ नियाणं मिच्छ-त्तसंगयं पावहेउ अन्नाणं / तं चन्नहा ठियाणं, भावाणं, अन्नहा गहणं / / 156 / / तुमए विचिंतियं निव! अवसउणं समणओ इमो दिट्ठो। अवसउणत्ते य इम, निमित्तमज्झवसियं भद्द !!|160 // जह किर एसो चिक्कण, मलमइलतणू सिणाणपरिवजी। सोयायारविमुक्को, परघरभिक्खोवजीवि त्ति // 161 / / ता मज्झत्थे होउं,खणमेगं मालवेस! निसुणेसु। मलमलिणत्तं मइल-त कारणं नो जओ भणियं // 162 / / ध००। किंचआत्मा नदी संयमतोयपूर्णा, सत्यावहा शीलतटा दयोर्मिः। तत्राभिषेकं कुरुपाण्डुपुत्र!, न वारिणा शुध्यति चान्तरात्मा!!* अक्खंडियवयनियमा, गुत्ता गुतिंदिया जियकसाया। अइ सुद्ध बंभचेरा, सुइणो इसिणो सया नेया॥१६३।। ध००। सत्यं शौचंतषः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचं,जलशौचं च पञ्चमम्॥१६४|| आरंभनियंतस्स य, अप्पडिबद्धस्स उभयलोए वि। भिक्खोवजीविगत्तं, पसंसियं सव्वसत्थेसु॥१६॥ उक्तंचअवधूतांच पूतां च, मूर्खाद्यैः परिनिन्दिताम्। चरेन्माधुकरी वृत्ति, सर्वपापप्रणाशिनीम्॥१६६।। चरेन्माधुकरी वृत्ति-मपि प्रान्तकुलादपि। एकान्तं नैव भुञ्जीत, बृहस्पतिसमादपि // 167 / / एवं च गुणग्धविधं, तियसाणं वि मंगलं समगुरूवं। गुणहर नरनाह ! कहं, अवसउणत्तेण ते गहियं // 168 / / एमाइ सुणिय राया, अइहिट्ठो नट्ठदुमिच्छत्तो। मुणिनाह पयलग्गो, खमावइ निययमवराहं // 16 // भणइ मुग्गी वि नरेसर, इद्दहमित्तेण संभमेण कयं। नणु खमियं चेव मए,खंति चिय जं समणधम्मो // 170|| नत्थिहु मुणिवरनाण-स्स अविसओ इय विचिंतिउं रन्ना। तायस्स अज्जियाए, गईविसेसं मुणी पुट्ठो!|१७१॥ मुणिणा वि पिट्ठकुक्कुड, बहमूलो तेसि सयलबुत्तंतो। कहिओजयावलीग-भ संभवावचपेरंतो॥१७२।। तो चिंतियं निवइणा, अहह अहो महिलियाण कूरत्तं / ही मोहस्स गुरुत्तं, भवस्स धि कुछुणीयत्तं // 173|| जइ संति निमित्तं पिहु, विहिओ पिट्मयकुक्कुडवहो वि। तायज्जियाण जाओ, एवंविहदारुणविवागो।।१७४|| हा अहयं किह होइं, निरत्थयं जेण जियसिया बहिया। अइकोहलोहमोहा, ऽभिभूयचित्तेण निचं पि / / 175|| तानूणं गंतव्वं, सरसरलेणं पहेण नरयंमि। नत्थि हु इत्थ उवाओ, अहवा पुच्छामि भयवंतं // 176 / / अह मुणि निवहिययं, आह मुणी सुणसुनरवर ! उवायं। मणवयणतणुविसुद्धा, जिणिंदसद्धम्मपडियत्ती / / 177 / / मित्ती पमोय करुणा, मज्झत्थं सव्वयावि कायव्वं / नीसेसजियगुणाहिय, किलिस्समाणा विणीएसु / / 178|| एव काउ सम्म, परिपालियनिरइयारवयनियमा। Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिन्ददत्त 1005 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरिन्ददत्त निट्ठवियअट्ठकम्मा, परमपयं जंति अचिरेण // 176 / / अह तुट्ठो भणइ निवो, भयवं! अहमवि वयस्स किं उचिओ? वागरइ गुरू नरवर!, अन्नो को नाम उचिउ त्ति // 180|| तो रन्ना नियपुरिसा, वुत्ता भो भो कहेह मंतीणं / जह देवाणुपिएहिं, कुममो रज्जे मिसित्तव्यो / / 181 / / नय कायव्वो खेओ, गहेमि दिक्खं सुदत्तगुरुपासे। तेहि वि तहेव कहियं, गंतूणं मंतिपमुहाण // 12 // ते संभंता सव्वे, अंतेउरिआउ कुमरकुमरीओ। सेसो परियणलेलो, तत्थ, ऽऽरामे लहुं पत्तो / / 183 // मेइणितलासणत्थं, विच्छड्डियछत्तचामराडोवं। कहकहवि निवं नाउं, सगरगयं ते भणंति इमं // 184|| गयडाढुव्व भुयगो, वारीछूढ व्व मत्तमायंगो। सीहो व्व पंचरगओ, किं झायसि रज्जभठ्ठ व्व।।१८५॥ तो रन्ना सव्वेसिं, मुणिवयणं साहियं निग्वसेसं। तं सुणिय जाइसरणं, संजायं कुमरकुमरीणं॥१८६|| संवेगभाविएहिं, भवउव्विग्गेहि तेहि उल्लवियं। ताय ! अलं अम्हाणं, भोगेहिं भोगिभीमेहिं॥१८७! गिहिस्सामो अम्हे, वितायपाएहि सह समणभावं। पडिभणियं नरवइणा, मा पडिबंधं कुणइ वच्छ!||१८८|| तो विजयवम्मनियभा-इणिज्ज कुमरे ठवित्तु रजभरं। जिणनाहचेइएसुं, काउं अट्ठाहियामहिमं / / 186|| कइवयअंतेउरपु-तपुत्तिसामंतमंतिमाइजुआ। गिण्हइ सुदत्तगुरुणो, पासे गुणहरनिवो दिक्खं / / 160 / / कारुन्नसुपुन्नेणं, विन्नत्तो कुमर साहुणा सूरी। नयणावलिं पि भयवं!, नित्थारसु भवसमुद्दाओ।।१६१।। भणइ गुरू करुणायर!, सा संपइ कुट्टवाहिविहुरतणू। अच्छिन्नमच्छिया जा-ल परिगया लोयपरिभूया / / 192 // पइखणफुरंतरुद्द-ज्झाणवसा बद्धतइयनरगाऊ। अइदीहरसंसारा, धम्मस्सुचिया न थेवं पि||१९३|| तो गुरूवेरग्गगओ, चरणं पालित्तु अभयरुइसाहू। तह अभवमई समणी, जाया देवा सहस्सारे॥१६४|| इत्थेव भरहखित्ते, खित्ते इव करिसएहि कयसोहे। संकेयनिकेयं वर, सिरीइ पुरमत्थि सायं / / 165|| विणयंधरोधरो इव, सुपइट्ठो सफलओ निवो तत्थ। लच्छिमई तस्स पिया, पियामहस्सेव सावित्ती॥१६६|| अह सो भयरुइजीवो, तत्तो चविऊण तीइ उयरंमि। मुत्तामणि व्व सुत्ती, पुडसु चित्तो समुप्पन्नो / / 167 / / पडिपुन्नेसु दिणेसु, सुसुमिण पिसुणियसुपुन्नपब्भारं। सा पसवइ मलयमहि, व्व चंदणं नंदणं परमं / / 168 / / नाऊण इमं राया, पियंवयादासचेडिवयणाओ। कारेइ हट्टतुट्ठ, नयरे वद्धावणं एवं / / 166 / / तथाहिमुचंति झत्ति पुरगुत्तियाई, दाणाइँ महंति पवत्तियाई। निरुवम किज्जह हट्टसोहं, नचंति पउर पाउल अखोहं।।२०।। आवंतिबहुयजण अक्खवत्त, गायंति कुलबहू कमलनित्त। तहि पडहिं नगारिय भट्ट चट्टदीसंति ठाणडाणमिनट्ट॥२०१।। बज्झति हुघरिघरितोरणाइं, सोहिजइ वररत्थामुहाई। उज्झिज्जइ जूबहमुलसलसहस्स, ठाविज्ञहि कंचणपुत्र कलस // 202 / / एवं भूमिप्पहु जम्म महामहु. कारिय दस दिवसइ नयरि। तउ कुमर मणोहरु नामु, जसोहरू संठावइ अइहरिसभरि।।२०३।। सो वहृतो नवनव, कलाहि नवससहरु व्व पइदिवसं। जाओ य जुव्वणत्थो, जसधवलियसयलदिसिवलओ॥२०४।। अह अत्थि कुसुमनयरे, ईसाणो इव तिसत्तिपरिकलिओ। ईसाणसेण राया, विजया नामेण से देवी।।२०५॥ सो अभयमई जीवो, सग्गाओ चविय तीइ उयरंमि। वरधुया संजाया, विणयवई नाम विक्खाया // 206 / / पत्ता च तयणभावं, सयंवरा पेसिया नरिंदेण। बहुभडचडगरसहिया, कुमरस्सजसोहरस्स इमं॥२०७।। विणयंधरस्स रन्नो,य बहुमएनयरबाहिरुज्जाणे। आवासिया य एसा, विवाहदिवसे य अह पत्ते! 208!| लच्छिवई पमुहेहि, कुमरो मणिरयणकणयकलसेहि। मज्जाविओ विलेवण, वत्थाहरणेहि लंकरिओ // 206 // आरोविओ गइंदे, वीरजंतोय चारुचमरेहिं। सिरधरियधवलछत्तो, धुव्वंतो मागहजणेण // 210 / / सिंधुरखंधगएणं, अणुगम्मतो निवाइलो एणं। पइदिसि वि सद्दरह तुरि-य घट्टकलिओ य जा जाइ॥२११।। ता फुरियरुइरदाहिण-नयणेण जसोहरेण कुमरेण। कल्लाणसिद्धिभवणे, कल्लाणगिई मुणी दिट्ठो॥२१२॥ मन्ने एरिसरूवं, कत्थ वि मे दिट्ठपुव्वयं ति इमो। ईहापोहगयमणो, समुच्छिओ हत्थिखंधमि॥२१३|| धरिओय निवडमाणो, पासट्ठियरामभद्दसिष्टेण। किं किं ति जंपमाणा, निवाइणो वि य तर्हि पत्ता / / 214 // चंदनजलपडुपवण-प्पयाण पउणीकओकुमारवरो। सुमरियजाई पुट्ठो, रन्ना ! किं वच्छ ! एयं ति।।२१५|| कुमारःताय अइगहिर संसा-रविलसियंदारुणं इमं एवं / राजाको इत्थ अवसरो भव-विलसियचिंताइ ते वच्छ!|२१६|| कुमारःएसा कहा महंती, ता ताय! कर्हि पिएगदेसंमि। उवविसह जेण एवं, कहेमि सयलं निययचरियं, // 217 // रन्नावि तहेव कए, कुमरो साहइ सुरिंददत्तभवा। आरभ पिट्ठकुकुड-वहजणियकिलेसभरविरसं।२१८॥ नियवुत्ततं जाइ, सुमरणपजंतयं तयं सुणिउ। भणइ निवाइजणो कह, विरसो जियवहविगप्पो वि॥२१६।। तो कयअंजलिबंधो, कुमरो जंपइ पसीय मह ताय ! / अणुमन्नसुचारित्तं, तरेमि जेणं भवसमुदं / / 220|| पुत्त ! अइनेहमोहिय-मई नरिंदो कहिं पिजा कुमरं। न विसज्जइ ता इमिणी, महुरसरं विन्नवियमेयं / / 221 / / संसारो दुहहेउ,दुक्खफलो दुसह दुक्खरूवोय। नेहनियलेहि बद्धा, न चयंति तहावितं जीवा, // 22 // जह न तरइ आरुहिउं, पंके खुत्तो करी थलं कह वि। तह नेहपंकखुत्तो, जीवो नारुहइ धम्मथलं / / 223|| छिजं सोसं मलणं, बंधं निप्पीलणंच लोयंमि। Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरिन्ददत्त 1006 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुलभवोहिय जीवा तिला य पिच्छह, पाबंति सिणेहपडिबद्धा // 224 // दूरुज्झियमज्जाया, धम्मविरुद्धं च कुलविरुद्धं च। किमकजं जंजीवा, न कुणंति सिणेहपडिबद्धा // 225 / / थेवोवि जाव नेहो, जीवाणं ताव निव्वुई कत्तो। नेहक्खयंमि पावइ, पिच्छ पईवोवि निव्वाणं // 226 / / इय सोउ निवो जंपइ, एवमिणं किंतु वच्छ! अइसच्छ। ईसाणरायधूया, एसा कह होहिहि वराई / / 227 / कुमरो भणइ इमा वि हु, साविज्जइ एस वइयरो ताय। सो*ण इमं सम्मं, कयावि बुज्झिज्ज जिणधम्मे, // 228 / / जुत्तं इमं ति रन्ना, पुरोहिओ संखवद्धओ नाम। पट्ठविओतत्थे यं, संबंधं कहसुकुमरीए, / / 226 / / सो विहुगंतूण खणे–ण आगओ भणइ निवकुमारस्स। सिद्धा मणोरहा किह, निवेण पुट्ठो इमो आह॥२३०|| देव! इओ हं पत्तो, तत्थेवं पभणिया मए कुमारी। एगमणा होउखणं, देवाएसं सुणसुभद्दे ?||231 / / नीरंगीपिहियमुही, कयजली चत्तआसणा सावि। आइससु त्ति भणंति, पयंपिया मे निवइपुत्ती।।२३२।। इह इंतस्स कुमार--स्स, साहुदंसणवसेण अओव। जायं जाईसरणं, संभरियं पुव्वभवनवगं / / 233 // तथाहिआसि विसालाइ निवो, सुरिंददत्तो जसोहरापुत्तो। बुत्ते इत्तियमित्ते, वि झति मुच्छंगया कुमरी // 234 / / खणमित्तेणं संप-तचेयणा जंपिया मया एसा। किमियं ति तीइ वुत्तं, जसोहरा भद्द! हं चेव // 23 // ता कुमरेण वसव्वं, कहिऊणं जंपियं इमं तीए। वीवाहेण अलं मे, जरुचइ कुणउ तं कुमरो / / 236|| तंसुणिय आगओ हं, एवं कहिए पुरोहिएण निवो। संठवइ लहुं पुत्तं, मणोरहं नाम नियरज्जे // 237 / / कुमर जसोहर सामं-तमंतिअंतेउरेण परियरिओ। सिरिइंदभूइगणहर-पासे दिक्खं पवजेइ / / 238|| अह सो जसोहरमुणी, छज्जीवनिकायपालणुजुत्तो। दुद्धरतवचरणजलं-च जलणनिद्दहियदुरियदुमो॥२३६।। गुरुपायपसाय विबु-द्ध सुद्धसिद्धतसारसव्वस्सो। सव्वस्सोयविमुक्को, उक्कोसचरित्तसुपवित्तो॥२४०॥ संपत्तायरियपओ, पओसरहिओ हिओवएसेहिं। नित्थारियभवियजणं, उप्पाडियकेवलं नाणं // 241 // दुमूलपगई, उत्तरपगईण अट्ठवन्नसयं। खविउं निट्ठवियदुहो, पत्तो अयरामरं ठाणं // 242 / / विणयवई वि हु सव्वं, जणगाईणं कहेवि नियचरियं / संबुद्धा पव्वइया, सुगईए भायणं जाया।।२४३।। एव दुःखपरंपरामसुमतः संकल्पितस्यापि भोः, आरम्भेण यशोधरस्स सततं श्रुत्वा पुराजन्मसु॥२४६॥ दुःखध्वसकरी भवार्णवतुरीं सद्धर्मवासस्तुरी, नित्यं जीवदयां हताखिलभयां भव्या विधत्ताऽक्षयाम् // 247 // " ध० र०॥ सुरिग्ध-पुं०(सुग्ध) देशविशेषे, प्रा०२ पाद। सुरूया-स्त्री०(सुरूपा) मध्यमयकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, आ०म०१अ०। सुरूव-त्रि०(सुरूप) सुविभक्तावयवचारुदेहे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। चं० प्र०। उत्त०। शोभनं रूपं येषान्तसुरूपाः। अत्यन्तकमनीयरूपेषु, जी०३ प्रति०४ अधि० शोभनंरूपमाकारोयस्य सः। रा० शोभनमतिशायि रूपमङ्गप्रत्यङ्गावयव-सन्निवेशविशविशेषो यस्य स सुरूपाः। सू० प्र०२० पाहु० शोभनाकारे, विपा०२ श्रु०१ अ०। “एगे सुरूवे" मनोज्ञरूपे, स्था०१ ठा०। दाक्षिणात्यानां भूतानामिन्द्रे, प्रज्ञा०१ पद। विशिष्टाङ्गावयवसन्निवेशसौन्दर्ये, नपुं०१षो०७ विव०॥ सुरूवा-स्त्री०(सुरूपा)शोभनरूपायां स्त्रियाम, स० स्था०ायशोबतस्तृतीयस्य कुलकरस्यपत्न्याम्, स्था०७ठा०३ उ०।ति०।सुरूपप्रतिरूपयोभूतेन्द्रयोरग्रमहिष्याम्, स्था० 4 ठा० 1 उ० | भूतानन्दस्य स्वानामख्यातायामग्रमहिष्याम्, भ०१० श०५ उ०। (पूर्वोत्तरजन्मकथा अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 171 पृष्ठे।) मध्यभरुचकवास्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम्, जं०५ वक्ष०ा द्वी०। स्था० / आ० म०। सुलट्ठ-त्रि०(सुलष्ट) सर्वैः प्रकारैः शोभने, उत्त०१ अ०। पा०1सुन्दरे, दश०७ अ०। सुलद्ध-त्रि०(सुलब्ध) सुखेन प्राप्ते, "तुज्झं सुलब्धं खुमणस्सजम्म।" उत्त०११ अ०। सुलद्धिय-त्रि०(सुलब्धिक) अनेकलब्धिसम्पन्ने, व्य० 130 / सुलभ-त्रि०(सुलभ) सुप्रापे, स्था०। छट्ठाणाई सव्वजीवाणंण सुलभाई भवंति।तंजहा-माणुस्सए भवे आयरिए खित्ते जम्मं सुकुले पचायाति केवलिपन्नत्तस्स धम्मस्ससवणयासुयरसवासहहणयासहहियस्सवापत्तियस्स वा रोइयस्स वा सम्मं काएण फासणया। (सू०४८५४) 'छट्ठाणाई त्यादि, षट् स्थानानि-षट् वस्तूनि सर्वजीवानां 'नो' नैव सुलभानि-सुप्रापाणि भवन्ति, कृच्छूलभ्यानीत्यर्थो, न पुनरलभ्यानि, केषाश्चिजीवानांतल्लाभोपलम्भादिति, तद्यथा-मानुष्यको-मनुष्यसम्बन्धी भवो-जन्म स नो सुलभ इति प्रक्रमः, आह च-"ननु पुनरिदमतिदुर्लभमगाधसंसार-जलधिविभ्रष्टम्।मानुष्यं खद्योतक-तडिल्लताविलसितप्रतिमम्॥१।।" इति, एवमार्यक्षेत्रे, अर्द्धशड्विशतिजनपदरूपे जन्म- उत्पत्तिः, इहाप्युक्तम्-'सत्यमि च मानुष्यत्वे, दुर्लभतरमार्यभूमिसम्भवनम् / यस्मिन् धर्माचरणप्रवणत्वं प्राप्नुयात्, प्राणी // 11 // " इति, तथा सुकुले-इक्ष्वाका(क्का) दिके प्रत्यायातिः-जन्मनो सुलभमिति, अत्राभिहितम्-"आर्य-क्षेत्रोत्पत्तौ, सत्यामपि सत्कुलंन सुलभं स्यात् / सचरणगुणमणीनां, पात्रं प्राणी भवति यत्र / / 1 // " स्था० ६ठा०३ उ०1 सुलभबोहिय-त्रि०(सुलभबोधिक) सुलभ बोधिर्भवान्तरे जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुलभबोधिकः / रा०। सुखेन जिनधर्मे प्राप्ते, स्था० / ग०। प्रतिकारा०। दुविहा णेरड्या पण्णत्ता, तं जहा- सुलभबोहिया चेव, Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखभवोहिय 1007 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुवण दुल्लमबोहिया चेव० जाव वेमाणिया। (सू०७६x) स्था०२ | भक्षिणि, सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। ठा०२ उ० सुलोयणा-स्वी०(सुलोचना) सुनयनायाम, मानपिण्डे उदाहृतस्य गुणसुलभभिक्ख-त्रि०(सुलभभिक्ष) सुलभा भिक्षा यत्र तत् / सुखेन | चन्द्राभिधानस्य कौटुम्बिकस्य गृहिण्याम, पि० / वासवमृपते१हितरि, भिक्षालाभस्थाने, व्य०४ उ०। ध००१ अधि०। सुललिय-न०(सुललित) स्वरघोलनाप्रकारेण शुद्धतिशयेन ललतीव सुवइर-न०(सुवज्र) षष्ठदेवलोकविमानभेदे, स०१३ सम०। यत्सुकुमालं तत् सुललितम्। गेयगुणभेदे, रा०। सुवंत-त्रि०(स्वपत्) शयाने, बृ०२ अ० सुलस-पुं०(सुलस) कालसौकरिकसुते, आ० क० 4 अ0/ आo सुवग्गु-पुं०(सुवल्गु) मन्दरस्यपश्चिमायांशीतोदाया महानद्या उत्तरचक्रव चू० / आव० / भोगपुरराजस्य वरुणस्य पुत्रे, ध०२ अधि०। (अस्य तिविजयक्षेत्रयुगले, स्था० 8 ठा०३ उ०। सुवल्गुर्विजयः खगपुरीराज'वरुण' शब्दे षष्टभागे कथा गता।) कौसुम्भवस्त्रे, दे० ना० 8 वर्ग 37 धानीगम्भीरमालिनी अन्तर्नदी। ज०४ वक्ष। गाथा। दो सुवग्गू। स्था०२ ठा०३ उ०1 सुलसहह-पुं०(सुलसद्रह) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे देवकुरुषु सुवच्छ-पुं०(सुवत्स) कुण्डलाख्यनगरीयुक्तविजयक्षेत्रयुगले, स्था०२ स्वनामख्याते हदे, स्था० 5 ठा०२ उ०। ठा०३ उ० / जम्बूमन्दरपूर्वे शीताया महानद्या दक्षिण-चक्रवर्तियुगले, सुलसा-स्त्री०(सुलसा) श्रेणिकरथिकस्य नागस्य भार्यायाम, आ० चू० स्था० 8 ठा०३ उ०।"सुवच्छे विजए कुंडला रायहाणी तत्तजला 4 अ०। आ० क०।आ०म०। कल्प०। ('गजसुकुमाल' शब्देतृतीयेभागे अजर्द्ध णई।" जं०४ वक्ष०॥ 843 पृष्ठे कथा।) सुलसाया जीवं बन्दे-पञ्चदशं निर्ममम्। प्रव०४ द्वार / सुवच्छा-स्त्री०(सुवत्सा) अधोलोकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकासुलसा षोडशस्तीर्थकरो भविष्यति। स०। भहिलपुरवास्तव्यस्य नागस्य | याम्, स्था० 8 ठा०३ उ०ामन्दरपर्वते नन्दनवनस्य रजतकूटवर्त्तिन्यां गृह्यपतेर्भार्यायामनीदृशकुमारमातरि, अन्त० सुलसा श्राविका--सुलसा देव्याम, स्था०६ ठा०३ उ०।*ज़लोकवासिन्यां दिक्कुमारीमहत्तरिराजगृहे प्रसेनजितो राज्ञः संबन्धिनो नागाभिधानस्य रथिकस्य भार्या कायाम्, जं०५ वक्ष०। आव०। आ० म०। आ० चू०। बभूव। यस्या-श्चरितमेवमनुश्रूयते किल तया पुत्रार्थं स्वपतिरिन्द्रादीनमस्यन्नभिहितोऽन्यां परिणयेति, सच यस्तव पुत्रस्तेनेह प्रिये ! प्रयोजन सुवष्ट्रिय-त्रि०(सुवर्तित) सु-अतिशयेन वर्तितंसुवर्तितम्। वर्तुलीकृते, तं०। मितिभणित्वा नतत्प्रतिपन्नवान्, इतश्च तस्याः शक्रालये सम्यक्त्वप्रशंसा सुवण्ण-न०(सुवर्ण) पीतकान्तिहेमनि, रा०। कनके, ध०२ अधि० / श्रुत्वा तत्परीक्षार्थ कोऽपि देवः साधुरूपेणागतस्तंच वन्दित्वा बभाण उपा०। ज्यो०। घटितं हिरण्यम्, अघटितं सुवर्ण, आ० म०१ अ०। किमागमनप्रयोजनम्, देवोऽवादीत्- 'तव गृहे लक्षपाकं तैलमस्तितच कल्प० आव०। सूत्र०ा पं०व०। प्रज्ञा०।मानं च कागणिरयणे, जं०। मे वैद्येनोपदिष्टमिति, तद्दीयतां ददामीत्यभिगता गृहमध्ये, अवतारय 'पडिसेवणा' शब्दे एकेन्द्रियप्रतिसेवनायां सुवर्णप्रतिसेवा, नि० चू०१ न्त्याश्च भिन्न देवेन तद्भाजनमेवं द्वितीय तृतीयं चेत्येवमखेदां दृष्ट्वा तुष्टो उ० अशीतिगुञ्जाप्रमाणे, कनके, भ०२ श० 5 उ०1 तं०। देवोद्वात्रिंशतं च गुटिका ददावेकैकां खादेत्रिंशत् ते सुता भविष्यन्ति, अथ सुवर्णगुणानाहप्रयोजनान्तरे चाहं स्मर्त्तव्य इत्यभिधाय गतोऽसौ, चिन्तियं चानया विसघाइरसायणमं-गलत्थविणए पयाहिणावत्ते। सर्वाभिरपि एक एव मे पुत्रो भूयादिति, सर्वाः पीताआहूता द्वात्रिंशत्पुत्राः गरुए अडज्झकुच्छे, अट्ठ सुवण्णे गुणा हो ति // 32 // वर्द्धते स्म जठरमरतिश्च ततः कायोत्सर्गमकरोदागतो देवो निवेदितो विषघाति-गरलदोषहननशीलं सुवर्ण भवति रसायनमङ्गलार्थविनीतं व्यतिकरो विहितो महोपकारो जातो लक्षणवत्पुत्रगण इत्यादि।स्था०६ कर्मधारयपदंतत्र रसायनं वयस्तम्भनं मङ्गलाई मङ्गलप्रयोजनं विनीतठा० 3 उ० / आव०। (अग्रेच कंथाखण्ड 'सेणिय' शब्दे वक्ष्यते।) (सा मिव विनीतं, कटककेयूरादिष्वविशेषैः परिणमनात्, तथा प्रदक्षिणावर्तह्यम्बडपरिव्राजकसमृद्धौ उपलभ्यापिन सम्मोहं गता इति 'अंबड' शब्दे / मनितापनेन प्रदक्षिणावृत्ति। तथा गुरुकमलधुसारत्वात् अदाह्याकुत्स्वप्रथमभागे 112 पृष्ठेऽप्युक्तम्।) मिति कर्मधारयपदं तत्रादाह्यम्-अनेरदहनीयं सारत्वादेव अकुत्स्यम्सुलसुलायंतमं(सपुड)सोड–त्रि०(सुलसुलायमानमांसपुट) सुलसुल- * अकुत्सनीयभकुथितगन्धत्वात् एवमष्टौ-सुवर्णेहेमनि गुणा गुणाः-- भूतं मांसपुटं क्षरति, तं० असाधारणधर्मा भवन्ति-स्युरिति गाथार्थः / सुलिट्ठ-त्रि०(सुश्लिष्ट) संबद्धे, जं०१ वक्ष०! सुघटने, औ०। एतत्समानतयाऽथ साधुगुणानाहसुली (देशी) उल्कायाम्, दे० ना० 8 वर्ग 36 गाथा। इय मोहविसं घायइ, सिवोवएसा रसायणं होति। सुलूहजीवि(ण)-पुं०(सुरूक्षजीविन्) सुष्ठुरूक्षमन्तप्रान्तंबल्लचणकादि गुणओ य मंगलत्थं, कुणति विणीओ य जोगो त्ति // 33 / / तेन जीवितुंप्राणधारणं कर्तुं शीलमस्यासौ सुरूक्षजीवी। अन्तप्रान्तादि- | मग्गणुसारिपयाहिण, गंभीरो गरूयओ तहा होइ। Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवण्ण 1008 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुवण्णरेहा कोहग्गिणा अडज्झो, अकुच्छो सइ सीलभावणं // 34 // सुवण्णकूला-स्त्री०(सुवर्णकूला) हैरण्यवतवर्षे शिखरिवर्षधरपर्वतस्य इति-एवं। सुवर्णवदित्यर्थः, मोहविषं विवेकचैतन्यापहारि घातयति पुण्डरीके महाहदान्निर्गच्छन्त्यां महानद्याम्, 'सुवण्णकूला महानई नाशयति केषांचित् साधुरिति प्रक्रमः, कुतः ? इत्याह-शिवोपदेशाद् दाहिणेणं णेयव्वा जहा रोहियंसा' तस्मात् (पुण्डरीक-ह्रदाद्) सुवर्णकूला मोक्षसाधनप्ररूपणात्तथासएव च रसायनमिव रसायनं भवति-जायते महानदी दक्षिणेन निर्गता नेतव्या परिवारादिना च यथा रोहितांशा सा च शिवोपदेशादेवाजरामरत्वहेतुत्वात्, तथा गुणतश्च स्वगुणमाहात्म्येन च पश्चिमायां समुद्रं प्रविशति इयं च पूर्वस्यामित्यत आह- "पुरस्थिमे णं मङ्गलार्थ-मङ्गलप्रयोजनं दुरितोपशममित्यर्थः, करोति--विधत्ते गच्छई' एवमुक्ताभिलापेन सुवर्णकूलायाः रोहितांशातिदेशन्यायेनाजं० 4 वक्ष०ाओध०। स्था०रा०।सका दक्षिणोत्तरवाचालयोर्मध्ये वहन्त्यां विनीतश्च प्रकृत्यैव भवत्यसौ योग्य इति कृत्वा 'मग्गणुसारि पयाहिण' त्ति नद्याम्, आ० चू०१ अ०। - "सूचनात्सूत्रमि'' तिन्यायानमार्गानुसारित्वं सर्वत्र यत्साधोस्तत्प्रदक्षिणा-वर्त्तित्वमुच्यते गम्भीरोऽतुच्छचेता गुरुककोगुरुक इत्यर्थः, तथेति सुवण्णकूलाकूड-न०(सुवर्णकूलाकूट) शिखरिवर्षधरकूटस्य चतुर्थे कूटे, समुचये भवति स्यात्तथा क्रोधाग्निना अदाह्यो भवत्यग्निना सुवर्णवत्, तथा | जं०३ वक्षः। अस्य वक्तव्यता कूड' शब्दे तृतीयभागे 627 पृष्ठे गता।) अकुत्स्यः सकृत् - सदाशीलभावेन शीललक्षणसौगन्ध्य-सद्भावेनेति सुवर्णकूलानदीसुरासत्के, स्था०२ ठा०३ 30 / गाथाद्वयार्थः / पञ्चा० 14 विव० / अर्धतृतीयानि धरणानि एकः सुवर्णः सुवण्णखलय-पुं०(सुवर्णखलक) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र वीरजिनैः सह संख्याविशेषे, पुं०1 ज्यो०२ पाहु०। षोडशकर्षमाषका एकः / सुवर्णः। विहृतस्य गोशालकस्य भग्रस्थालीदृष्टवादनियतिवादे आग्रहोऽदायि / स्था० 8 ठा० 3 उ० / शोभनो वर्णः सुवर्णः। प्रतप्तचामीकरचारुदेहे, आ० म०१ अ०॥ सूत्र०२ श्रु०१ अ०। सद्वर्णे, त्रिका ज्योतिष्के भवनपतिविशेषे, पुं०। सुवण्णगुलिया-स्त्री०(सुवर्णगुलिका)स्वनामख्यातायां रमण्याम, नि० औ०। 'पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' सुवर्णकुमाराः। प्रव० 164 चू० 10 उ० / प्रति० / स०। (सुवर्णगुलिकायाः कृते संग्रामोऽभूदिति द्वार। उत्त० "बावत्तरि सुवन्नाणं" स० / स्था० / आचा०। 'चेइय' शब्दे तृतीयभागे 1238 पृष्ठे गतम्।) सुपर्ण-पुं० गरुडे, उत्त० 14 अ०। सुवण्णजुत्ति--स्त्री०(सुवर्णयुक्ति) सुवर्णस्य यथोचितस्थाने विनियोजने, जं०२ वक्ष०। सुवण्णकार-पुं०(सुवर्णकार) सुवर्णकरणशिल्पनि, जं०३ वक्ष०। सुवण्णजूहिया-स्त्री०(सुवर्णयूथिका) सुवर्णवर्णपुष्पायां यूथिकायाम्, सुवण्णकुमार-पुं०(सुवर्णकुमार) सुपर्णाः सुवर्णाः वा कुमारा इव कुमाराः जं०१ वक्ष०। रा० प्रज्ञा०। सुवर्णकुमाराः / भवनवासिदेवभेदेषु, प्रज्ञा० 1 पद / स्था० / (कुत्र सुवर्णकुमाराः परिवसन्तीति, ठाण' शब्दे चतुर्थभागे 1705 पृष्ठे उक्तम्।) सुवण्णणंदण-पुं०(सुवर्णनन्दन) भारते वर्षे चौलविषये काश्चनस्थल नगरस्य राजनि, दर्श०३ तत्त्व। सुवण्णकुमारा णं भंते ! सव्वे समाहारा एवं चेव सेवं भंते ! भंते ! त्ति। (सू०६१२) सुवण्णतित्थ-न०(सुवर्णतीर्थ) उज्जयन्तपर्वत स्वर्णाया नद्यास्तीरे स्वनामख्याते जलाक्तारो, ती०३ कल्प०। भ० 17 श० 14 उ० / स० / अनु० / स्था०। सुवण्णतेय-पुं०(सुवर्णतेजस्) दृढशक्तिविद्याधरपुत्रे कनकमालाया सुवण्णकुमारावास-पुं०(सुवर्णकुमारावास)सुवर्णकुमाराणामावासे, स०। भ्रातरि, उत्त०६ अ01 ('णगइ' शब्दे चतुर्थभागे 1768 पृष्ठे कथोक्ता।) बावत्तरि सुवन्नकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता। (सू०७२४) सुवण्णदार-न०(सुवर्णद्वार) सिद्धायतनानामुत्तरदिशि सुवर्णकुमारावासस०७२ सम० / सुवर्णकुमाराणा द्विसप्ततिर्लक्षाणि भवनानि। कथम् ! भूते, द्वारे, स्था० 4 ठा०२ उ०। दांक्षणनिकाये अष्टत्रिंशत् उत्तरनिकाये तु चतुस्त्रिंश-दिति। | सुवण्णपयरग-न०(सुवर्णप्रतरक) सुवर्णपत्रके, जी० 3 प्रति० 4 सुवण्णकूलप्पवायदह-पुं०(सुवर्णकूलप्रपातद) हैरण्यवतवर्षे अधिor "सुवण्णपयरमंडियाणि" सुवर्णप्रतरमण्डितानिसुवर्णप्रतरकेण शिखारवर्षधरपर्वते सुवर्णकूलानदीप्रपतनह्नदे; स्था०। सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरमण्डितानि / जी० 3 प्रति० 4 एवं हेरनवते वासेदोपवायहहा पण्णत्ता,तंजहा-बहुसमतुल्ला अधि०। रा०। अविसेसमण्णाणत्ता अण्णमण्णं नातिवटुंति आयामक्खिंभे | सुवण्णपाग-पुं०(सुवर्णपाक) कनकसिद्धौ, ज्ञा०१ श्रु०१अ० ज०। उव्वेहसंठाणपरिणाहेणं, सुवण्णकूलप्पवायहई चेवरुप्पकूल- | सुवण्णयार-त्रि०(सुवर्णकार) सुवर्णसंग्रथनोपजीविनि, कुमारनन्दी प्पवायदहे चेव / (सू०८८४) सुवर्णकारः।आ०म०१ अ०। 'एवमि' त्यादि, सुवर्णकूलारूप्यकुलाप्रताप-हदौ रोहितांशारोहि- | सुवण्णरेहा-स्त्री०(सुवरिखा) जीर्णदुर्गसमीपे बहन्त्यां नद्याम्, ती०४ त्प्रपात हदसमानवक्तव्यौ विशेषस्तूह्य इति। स्था०२ ठा०३ उ०। / कल्प०। Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवण्णवालुया 1006 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुविणीयसंसय सुवण्णवालुया-स्त्री०(सुवर्णवालुका) दक्षिणोत्तरयोश्चाबालजनपदयो- तथा / / 1 / / " इति / उत्त० 14 अ० / स्वप्न उदाहरणम्- "सुविणएत्ति मध्ये वहन्त्यां नद्याम्, आ० म०१ अ०।ती०। एगेण कप्पडिएण सुविणे चंदो गिलितो कप्पडियाण य कहियं। तेभणंतिसुवण्णसिला-स्त्री०(सुवर्णशिला) महौषधिभेदे, ती० 6 कल्प। - संपुण्णं चंदमंडलसरिसंपोलियं लहेसि। लद्धा घरच्छाइणियाए अण्णे णावि दिह्रो से पहाऊण पुप्फफलाणि गहाय सुविणयपाढगस्स कहेति, सुवण्णसुत्त-न०(सुवर्णसूत्र) सुवर्णवर्णे कृमिसूत्रे, बृ०२ उ०। आचा०। तेण भणियं-'राया भविस्ससि' इत्तो य सत्तमे दिवसे तत्थ राया मतो सुवण्णसुब्भरययवालुया-स्त्री०(सुवर्णशुभ्ररजतवालुका) सुवर्ण पीत अपुत्तो सो य निविण्णो अच्छति-जाव आसोहियासओ आगतो, तेण कान्ति हेम, शुभं रूप्याविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मय्यो वालुकायासु ताः तंदर्छ हिसियंपयक्खणीकओ यततो विलइतो पढेएवं सो राया जातो। सुवर्णशुभ्ररजतवालुकाः। नदीविशेषे, रा०।। ताहे सो कप्पडिओ सुणेति-जहा-तेण वि दिह्रो एरिसो सुविणतो। सो सुवण्णागर-पुं०(सुवर्णाकर) सुवर्णखनौ, जी० 3 प्रति० 1 अधि०२ य आएसफलेण किर राया जातो। सो चिंतेति वचामि जत्थ गोरसोतं उ०१ यत्र सुवर्णं ध्माप्यते। स्था० 8 ठा० 3 उ०। पिवित्ता सुयामि० जाव पुणो वितंसुविणं पेच्छामि। अविपुणो सोपेच्छेजा सुवण्णिअ-पुं०(सौवर्णिक) सौन्दर्यादित्वादौत उत्त्वम्। सुवणक्रयविक्रय- ण माणुसातो।" उत्त०३ अ०। सूत्र०। ('भाव' शब्दे पञ्चमभागेस्वनस्य कारिणि, प्रा० 1 पाद। भावविषयो गतः / ) स्वप्रशास्त्रे, - "गजारोहाद्भवेद्राज्य, श्रीप्राप्तिः सुवत्त-त्रि०(सुव्यक्त) स्फुटे, अन्त०१श्रु०६१०३ वर्ग। श्रीफलागमात्। पुत्राप्तिः फलिताम्रस्य, सौभाग्यं माल्यदर्शनात् / / 1 // " उत्त०८ अ०1 पा०। पञ्चा०। सुवत्थ--पुं०(सुवस्त्र) दाक्षिणात्यशक्रेन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ०। सुवप्प-पुं०(सुवप्र) शीतोदाया महानद्या उत्तरविजयक्षेत्रयुगले, स्था०८ सुविणंत-पुं०(स्वप्नान्त) स्वप्रस्य विभागे, अवसानेचाभ०१श० 8 उ० / ठा०३उ०। सुविणंतिय-त्रि०(स्वप्नान्तिक) स्वप्रप्रत्यये शाक्यसमये, सूत्र०१ श्रु० १०॥(चतुर्विधं कर्म नोपचीयते तत्रान्यतरत्स्वप्रान्तिकं, तच सूयगड' दो सुवप्पा। स्था० 2 ठा०३ उ०। शब्दे वक्ष्यते।) "अवियारमणवयणकायवक्कस्स सुविणमवि अप्पसओ सुवम्ग-पुं०(सुवर्मन्) ऋषभदेवस्य त्रयस्त्रिशत्तमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ | पावे कम्मे कज्जइ।" सूत्र०२ श्रु०४ अ०) क्षण। सुविणदंसण-न०(स्वप्नदर्शन) स्वापक्रियानुगतार्थविकल्पस्यानुभवने, सुवय-त्रि०(सुवचस्) शोभनवचने, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। भ०१८ श०६ उ०|स्वप्नालोकने दर्शनभेदे, स्था० 8 ठा०३ उ०। सुवयण-न०(सुवचन) श्रोतव्ये वचने, स्था० 3 ठा० १उ०। सुविणय-पुं०(स्वप्रक) स्वप्रफलप्रतिपादके निमित्तशास्त्र, स्था० 5 ठा० सुवया-स्त्री०(सुव्रता) तेतलिपुत्रस्य पोट्टिलाया द्वारिकायाः प्रव्रजि- ३उ०। काभार्यायाम, ज्ञा०१ श्रु०१४ अ०।। सुविणलक्खणपाढग-पुं०(स्वप्रलक्षणपाठक) स्वप्रलक्षण-प्रतिपादके, सुवाय-न०(सुवात) तृतीयदेवलोकविमानभेदे, स०५ सम०। कल्प०१ अधि०३ क्षण। सुवासव-पुं०(सुवासव) वासवदत्तकुमारे, उपा०॥ सुविणा-स्त्री०(स्वप्ना) स्वप्नात् पुष्पचूलाया इव या स्वप्न प्रतिपद्यतेसा विजयपुरं णयरं णंदणवणं उज्जाणं असोगो जक्खो वासवदत्ते | स्वप्ना। प्रव्रज्याभेदे, स्था० 10 ठा०३ उ०। राया कण्हा देवी सुवासवे कुमारे भद्दापामोक्खाणं पंचसया सुविणिच्छिय-त्रि०(सुविनिश्चित) ज्ञाततत्त्वे, पं०व० 4 द्वार। देवी० जाव पुव्वभवे कोसंबी णयरीधणपालो राया वेसमणमद्दे सुविणियप्प-त्रि०(सुविनीतात्मन्) विनयवति, जन्मान्तरकृतविनये अणगारे पडिलाभिए इह० जाव सिद्धे। विपा०२ श्रु०४ अ०॥ निरतिचारधर्माराधके, दश० अ०२ उ०। सुविअंजिय-त्रि०(सुव्यर्जित) जिनाज्ञापूर्वकदृढभावेन विशेषेण निरन्तर- सुविणीय-त्रि०(सुविनीत) शिष्येषु सुष्ठु विनियोजिते, औ० / शोभनकरणेनार्जिते, तं०। विनययुक्ते, ग०२ अधि०। ('विणय' शब्दे षष्ठभागे गतः सुविनीतः।) सुविकम-पुं०(सुविक्रम) भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य कुञ्जरानी- सुविणीयसंसय-त्रि०(सुविनीतसंशय) सुतराम्-अतिशयेन विनीतो काधिपतौ हस्तिराजे, स्था०५ ठा०१ उ०। दूरीकृतः संशयो यस्य सः सुविनीतसंशयः / लब्धरहस्येन सुष्ठुसुविण-पुं०(स्वप्न) स्वपनक्रियायाम्भ०११श०११ उ०। निद्राविकृत- अतिशयेन विनीतः सुविनीतः। प्रसादितगुरुणैवशास्त्रपरमार्थसमर्पणेन विज्ञानप्रतिमासार्थविशेषे, स्था०१०ठा०३उ०। ('महासुमिण' शब्दे संशयो दोलायमानमानसात्मकोऽस्येति सुविनीतसंशयः। अवगतसंशये, षष्ठभागे वर्णनम् / ) (सुप्तदण्डकः 'सीओसणिज्न' शब्देऽस्मिन्नेव भागे | उत्त०१०॥ उक्तः।) स्वप्रं गजवृषभ-सिंहादिकम्। सूत्र०२ श्रु०२ अ० / स्वप्रगते | सुविनीतसंसत्क-त्रि० सुविनीता संसत्- परिषदस्येति सुविनीतशुभाशुभलक्षणे, न० उत्त०१५ अ०॥ स्वप्नगते शुभाशुभकथने, यथा- संसत्कः। विनीतस्य हि स्वयमतिशयविनीतैव परिषद्भवति इति "गायने रोदनं ब्रूयान्नलने बधबन्धनम्। हसने शोचनं ब्रूयोत्पठने कलहं | ब्युत्पत्तेः / बिनययुक्तपरिषेदुपेते, उत्त० 10 Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधि 1010- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुव्वय सुविधि-पुं०(सुविधि) प्रसन्नचन्द्रमित्रस्य वज्रसंघजीवानन्दस्य पितरि, सुविहिस्स णं पुप्फदंतस्स अरहओ पन्नत्तरिजिणसया आ० क० 10 // होत्था। स०७४ सम०। आ० चू०। सुविभज-त्रि०(सुविभज) अकृच्छ्रेण विभजनीये, स्था०५ ठा०१उ०। सुविहिस्सणं पुप्फदंतस्स अरहओ छलसीय गणा छलसीय सुविभत्त-त्रि०(सुविभक्त) यथास्थानस्थितसर्वावयवे, कल्प०१ अधि० गणहरा होत्था। स०८५ सम०। प्रव०।आव०। २क्षण / सुविविक्ते, औ०। रा०। सुप्रकटे, जं०२ वक्ष० / सू० प्र०। सव्वविहीसु अकुसला, गम्भगए तेण होइ सुविहिजिणो। सुविच्छित्तिके, जं०१ वक्ष०। गाहद्धं भगवंते गब्भगए सव्वविहीसुचेव विसेसओ कुसला जणणि त्ति सुविभत्तरायमग्गा-स्त्री०(सुविभक्तराजमार्ग) सुविभक्तो विविक्को राज- | जेण तेण सुविहि त्ति णामं कयं / आ०२ अ०। मार्गो यस्यां सा तथा। स्फुटराजमार्गसहितायां नगर्याम् / रा०॥ सुविहिय-त्रि०(सुविहित) शोभनं विहितः सुविहितः। सुव्यवस्थिते, पं० सुविभत्तसिंग-त्रि०(सुविभक्तशृङ्ग) विभागस्थसमशृङ्गे, "सेयं सुजायं चू०२ कल्प०। सदनुष्ठानोद्यते, ग०२ अधि०। ओघ० / साधौ, बृ०१ सुविभत्तसिंगं, जो पासिया वसभं गोट्टमज्झे।" आव०४ अ०। उ० 3 प्रक० / प्रश्न० / दर्श० / आव० / शोभनं विहितमाचरितं येषां सुविभत्तिय-त्रि०(सुविभक्तिक) सुविच्छित्तिके, जी०३ प्रति०४ अधि०। साधुसाध्वीश्रावकश्राविकाणां ते सुविहिताः। संथा०नि० चू०। सुविभावियप्प–त्रि०(सुविभावितात्मन्) सुष्ठु विविधंभावितो धर्मवासनया / | सुवुट्टि-स्त्री०(सुवृष्टि) धान्यादिवर्षणहेतौ वृष्टौ, भ० 3 श०७ उ० / वासित आत्मा यस्यासौ सुविभावितात्मा / धार्मिकमनस्के, सूत्र०१ आ० म०। श्रु०१० अ01 सुवेकय-त्रि०(श्वःकृत)"एकस्वरे श्वः स्वे" ||8|2|114 // एकस्वरे पदे सुविमुक्क-त्रि०(सुविमुक्त) सुष्ठु-रागद्वेषात्मकेन स्त्रीसम्पर्केण मुक्ते, सूत्र० यौ श्वः स्व इत्येतौ तयोरन्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उद्भवति / श्वःकृतं / सुवे१श्रु०४ अ०२ उ०। कयं / प्रातः कृते, प्रा०२ पाद। सुविम्हिय-त्रि०(सुविस्मित) संजाताश्चर्ये, उत्त०२० अ०। सुव्य-धा०(सु) प्रसवे, कर्मप्रत्ययान्तः। "न वा कर्मभावे व्यः क्यस्य च सुविर-त्रि०(स्वप्न) शीलाद्यर्थस्येरः / / 8 / 2 / 145 / / इति प्राकृतसूत्रेण तृ लुक' ||84242 / / कर्मणि भावे वा वर्तमानानां चव्यादीनामन्ते इत्यस्येरादेशः। प्रा० / स्वप्रशीले, बृ०१ उ०२ प्रक०। द्विरुक्तवकारो भवति / सुव्वइ / सूयते। प्रा० 4 पाद। सुविरइय-त्रि०(सुविरचित) सुनिर्मिते, जं०२ वक्ष० / तं० / आ० शुल्व-- न० "सर्वत्र लवरामचन्द्रे" ||8|7|| इति वलुक् / अत्र म० / जी० / सुघटिते, उपा०७ अ०। "सुविरइयरयत्ताणं' सुष्ठ द्वेइत्यादिसंयुक्तानामुभगप्राप्तौ यथादर्शनं लोपः क्वचिदूर्ध्वम् / शुल्वम्। विरचितं रजस्त्राणमाच्छादनविशेषो परिभोगावस्थायां यस्मिँस्तत्तथा। सुव्वं च। ताने, जलसमीपे, प्रा०२पाद। भ०११ 2011 उ०रा०। सुव्वय-पुं०(सुव्रत) शोभनानि सम्यग्ज्ञानाधिष्ठितत्वेन व्रतानि हिंसावि रमणादीनि यस्य सः / उत्त० 8 अ०। निरतिचारनियमयुक्ते, (स्था०४ सुविवेग-पुं०(सुविवेक) सुष्ठ विवेकः सुविवेकः। परिज्ञाने, सूत्र०१ श्रु० ठा०३ उ०1) साधौ, उत्त० 8 अ01 आचा०। सूत्र०। आव० / 2 अ०२ उ०। शोभनचित्तवृत्तिकरणे, औ० / प्रश्न०। शोभनाणुव्रतधारके सुश्रावके, सुविसद-त्रि०(सुविशद) सुविविक्ते, कल्प०१ अधि० १क्षण। बृ० 3 उ० / आव० / षष्ठतीर्थकरस्य पद्मप्रभस्य प्रथमशिष्ये, स० / सुविसुद्धलेस्स-त्रि०(सुविशुद्धलेश्य) सुष्ठुविशेषेण शुद्धा स्त्रीसम्पर्कपरि- शिशुनागस्य सुयशसि भार्यायां जाते पुत्रे, आ० चू० 4 अ०। आचा० / संहाररूपतया विगतकलङ्का लेश्याऽन्तः करणवृत्तिर्यस्येति / शुद्धपरि- आव०। अङ्गारकाद्यष्टाशीतिग्रहेषु एकाशीतितमे ग्रहे, चं० प्र०२० पाहु०। णतिशालिनि, सूत्र०१ श्रु० 4 अ० 3 उ०। कल्प०। स्था०।पार्श्वनार्थस्य प्रथमश्रावके, कल्प०१ अधि०७ क्षण। सुविसोज्झ-त्रि०(सुविशोध्य) सुविशोधनीये, पञ्चा०७ विव०॥ लोकोत्तरपरिभाषया दिवसभेदे, यस्मिन् दिवसे वीस्वामिनः निष्क्रमणं केवलज्ञानं च जातम्, कल्प० 1 अधि० 5 क्षण / ऐरवते वर्गे भविष्यति सुविहि-पुं०(सुविधि)शोभने विधिः सुविधिः। सदनुष्ठाने, प्रश्न०५ सवं० सप्तदशे तीर्थकर, प्रव०७ द्वार।शोभनं व्रतमस्य, सुव्रतौ वा मातापितद्वार। आ० क०। स०। ('धण्णंतरि' शब्दे चतुर्थभागे 2660 पृष्ठे कथा रावस्येतिसुव्रतः। साभण्णं सव्वेसिं सुव्वतो विसेसो गभगता माता पिता उक्ता।) शोभनो विधिः कौशलमस्येति सुविधिः। ध०२ अ०। भारते य सुव्वता जाता / सामण्णं सव्वेसिं परीसहानामिता / भारते वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते पुष्पदन्तापरनामके नवमे तीर्थकरे, प्रव०७ वर्षेऽस्यामवसर्पिण्यां जाते विंशे तीर्थ करे, आ० चू०२ अ०॥"जगन्मित्रं द्वार। आ० म०। कल्प० / अनु०। (सुविधिः पुष्पकलिका मनोहरदन्त यत्र मित्रः, सुमित्रान्वयपङ्कजे / अश्वावबोधनियूंढ-वृतोऽभूत सुव्रतो त्वात्पुष्पदन्त इति द्वितीयं नाम सर्वाऽस्य वक्तव्यता 'तित्थयर शब्दे, जिनः // 1 // " ती०१० कल्प० / प्रव०। कल्प०। मुनिसुब्रतेति विशिष्ट चतुर्थभागे 2247 पृष्ठे गता।) नामास्य। सुविहिपुप्फदंतेण अरहा एगं धणु सयं उद्धं उच्चत्तेणं मुणिसुव्वएणं अरहा वीसधणूहं उठं उच्चत्तेणं होत्था। स०२० होत्था। स०१०० सम०। सम०। Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुव्वय 1011 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुमंण्णप्प मुणिसुव्वओ पि चउपन्नवासलक्खेहिं सुव्वयनामातो णमी लक्खेहिं | सुसंविद्ध-त्रि०(सुसंविद्ध) कृतसद्वेधे, औ०। "सुसंबिद्धचक्क-मंतधुराण' छहिं उप्पन्नो / आ० चू०१ अ०। सुष्ठु संविखे चक्रे यत्र मण्डलावृत्ता च धूर्यत्र तेषां, सुसंविद्धचक्रमण्डलमुणिसुव्वयस्सणं अररओ पंचासं अज्जियासाहस्सिओ होत्था। धुराणाम्, भ०७ श०६ उ०। स०४६ सम०। सुसंवुड-त्रि०(सुसंवृत) सुसंवृतः परिगतः तथा सुष्ठ संबृतं परिहितं येन लोभशब्दे उदाहते स्वनामख्याते साधौ, पिं०।"वंदामि अजधम्म, सः। ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। परिहितदूष्यरत्ने, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सुव्वयं सीललद्धिसंपन्नं / जस्स निक्खमणे देवो, छत्त, वरमुत्तमं वहई सूत्र०। सुष्ठुसंवृतः इन्द्रियसंवरणेन यः स सुसंवृतः। जितेन्द्रिये, उत्त०२ // 1 // " गोत्रविशेषप्रवर्तक ऋषौ, कल्प०२ अधि०५ क्षण। शोभननियमे, अ०। सूत्र०। सनिरुद्धात्मनि, उत्त०२ अ०। नपुं० / प्रश्न०२ संव० द्वार / एकाशीतितमे महाग्रहे, स्था०। सुसंवुय-त्रि०(सुसंवृत) सुष्ठुसंवृतं परिहितंयेनसः सुसंवृतः। सुपरिधाने, दो सुव्वया / स्था०२ ठा०३ उ०। औ०। सुव्वया-स्त्री०(सुव्रता) धर्मनाथस्य पञ्चदशतीर्थकरस्य मातरि, प्रव०११ | सुसंहय-त्रि०(सुसंहत) सुष्ठु अविरले, औ०। द्वार / तत्र चेक्ष्वाकुकुलप्रदीपः पञ्चदशतीर्थपतिर्विजयविमानेदेवतीर्थ- सुसज-त्रि०(सुसज्ज) सुष्ठु अतिशयेन सज्जः। स्वसामग्रीयुक्ततया प्रगुणीश्रीभानुनरेन्द्रवेश्मनि सुव्रतादेवीकुक्षौ तनयतयाऽवततार / ती०१५ भूतेषु, आ०म०१ अ०। "सुसज्जवम्मियसण्णद्धबद्धकवइय'" सुसज्जाः कल्प० / स०। अरिट्टनेमेस्तीर्थकरस्य प्रथमश्राविकायाम, कल्प०१ वर्मणि नियुक्ताः वार्मिकास्तैः सन्नद्धः कृतसन्नाहः सुसज्जवार्मिकअधि०७ क्षण / बहुपुत्रिकापूर्वभवजीवभद्रासार्थवाहीप्रव्राजिकायाम्, सन्नद्धः बद्धः कवचिकः सन्नाहविशेषो यस्य सः तथोक्तः / भ०७श०१० नि०१ श्रु०३ वर्ग०४ अ०।। उ०। औ०। सुव्वयायरिय-पुं०(सुव्रताचार्य) मुनिसुव्रतस्वामिनः स्वनामख्याते शिष्ये, सुस-सुसढ-स्वनामख्याते अनगारे, महा०। "अज्जसुहत्थसूरिणो पन्नविंसु जहापुव्वं उज्जेणीए पुरीए उजाणे जहा भयवं! को उण सुसढो कयरा वा साजयणा जमजाणसिरिमुणिसुव्वयसामिसीसो सुव्वयायरिओ समोसढो / " ती० 20 माणस्सणं तस्स आलोइयनिंदियगरहिओ विकयपायच्छित्तस्स कल्प०। विसंसारंणय विणिट्ठियं ति। गोयमा! जयणा णाम अट्ठारसण्ड सुव्ववहारकुसल-त्रि०(सुव्यवहारकुशल) सुष्ठ्वतिशयेन व्यवहारः सीलंगसहस्साणं सत्तरसविहस्सणं संजमस्सचोदसण्हं भूयगासुव्यवहारः। स पञ्चविधस्तत्र कुशलो निपुणः / व्यवहारनिपुणे, ग०१ माणं तेरसण्हं किरियाठाणाणं सबज्झन्भंतरस्स णं दुबालसअधि०। विहस्स णं तवोणुट्ठाणस्स दुवालसस्स णं भिक्खुपडिमाणं सुसंगुत्थ-त्रि०(सुसङ्गोत्थ) देवगुरुप्रसङ्गसम्भवे, अष्ट० 8 अष्ट०। दसविहस्सणं समणधम्मस्स णवण्हं चेव बंभगुत्तीणं अट्ठण्डं तु पवयणमाईणं सत्तण्डं चेव पाणपिंडेसणाणं छहं तु जीवनिसुसंगोविय-त्रि०(सुसङ्गोप्य) सुगोपनीये, तं०। कायाणं पंचण्हं तु महवयाणं तिण्हं तु चेव गुत्तीणं० जाव णं सुसंजमियमण-त्रि०(सुसंयमितमनस्) संवृते चेतनाहेतौ, प्रश्न०३ तिण्डं चेव सम्महंसणनाणचरित्ताणं भिक्खू कतारदुब्मिक्खायंसंव० द्वार। काईसु णं महं समुप्पन्नेसु अंतोमुहुत्तावसेसकंठगयपाणेसु वि सुसंजय-त्रि०(सुसंयत) सुष्टु संयतः सुसंयतः / कूर्मवत् संयतगात्रे, णं मणसा विउ खंडणं विराहणं ण करेजा ण कारवेज्जा ण निरर्थककायक्रियारहिते, सूत्र०१ श्रु०१६ अ० समणुजाणिज्जा०जावणं नारभिजाण समारभिजा जावजीवाए सुसंधि-पुं०(सुसंधि) सुष्ठुसन्धाने, जी०३ प्रति० 4 अधि०। ति, से णं जयणाए धुवे से णं जयणाए पवक्खे से णं जयणाए वियाणेति। गोयमा! सुसढस्सउण महती संका परमविम्हियजसुसंधिय-त्रि०(सुसंधि) सुबद्धे, सूत्र०२ श्रु०१अ०। णणी य चूलिया पढमा एगंतनिजरा / से भयवं ! केणं अटेणं एव सुसंपग्गहिय-त्रि०(सुसंप्रगृहीत) सुष्ठ्वतिशयेन सम्यगगा-गप्यचलनने दुबइ ? तेणं कालेण तेणं समएणं सुसढनामधेजा अणगारे इह परिगृहीते, जी०३ प्रति०४ अधिकारा०।सुसंपिणद्ध-त्रि०(सुसंपिनद्ध) . भगवंतेणं व एगग्गसणं पक्खस्स तोपभूयहाणीओ आलोयणाओ अतिशयेन बद्धे, "सुसंपिणद्धारगमंडल-धूसगस्स' सुष्ठ्वतिशयेन वि दिनाओ सुमहिंताई च अचंतघोरसुदुक्कराई पायच्छित्ताई सम्यक् पिनद्धं बद्धमरकमण्डलंधूश्च यस्य स सुसंपिनद्धारकमण्डलधू समणुचिन्नाइंतहावि तेणं चरएणं विसोहिपयं न समणुवलद्धं ति स्तस्य! रा०॥ एतेणं अटेणं एवं दुचइ / महा०१चू०। सुसंभंत-त्रि०(सुसंभ्रान्त) अत्यन्तं व्याकुलनां प्राप्ते, उत्त०२० अ०॥ सुसण्णप्प-त्रि०(सुसंज्ञाप्य)सुखेन संज्ञाप्यन्ते प्रज्ञाप्यन्ते बोध्यन्त इति सुसंभिय-त्रि०(सुसंभृत) सुष्ठु अतिशयेन संभृतः-संस्कृतः सुसंभृतः।। सुसंज्ञाप्याः। सुखेन प्रज्ञापनीयेषु, स्था० 3 ठा० 4 उ०। बृ०। सम्यक् संस्कृते सञ्जीकृते, उत्त० 14 अ०। तओ सुसण्णप्पा पण्णत्ता,तं जहा-अदुढे, अमूढे, अवुग्गासुसंलिट्ठ-त्रि०(सुसंश्लिष्ट) सङ्गते, जी०३ प्रति० 4 अधि०। हिए। (सू०८) Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसण्णप्प 1012 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुसमसुसमा - - त्रयः सुसंज्ञाप्याः सुखप्रज्ञापनीयाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा- अदुष्टः अमूढः कालेन हेतुभूतेन निर्वृत्तं कालिकं काल-प्रथम-चरमपौरुषीलक्षणे पठ्यते अव्युद्ग्राहितश्चेति / आह- पूर्वसूत्रेणैवार्थापत्या इदमवसीयते यदेत- इति व्युत्पत्तेः। एतैर्लक्षणैः कालिकश्रुतं ज्ञेयम् / बृ०४ उ० स्था०॥ द्विपरीता। अदुष्टादयः सुसंज्ञाप्यास्तत् किमर्थमिदमारब्धम्। सुसह-पुं०(सुशब्द) शोभने माङ्गलिके वा शब्दे, आचा०२ श्रु०१चू०४ उच्यते अ०२ उ०॥ कामं विपक्खसिद्धी, अत्थावत्तीइ होहि बुत्ता वि। सुसमत्थ-त्रि०(सुसमर्थ) सुष्ठु समर्थे, 'सुसमत्था व समत्था कीरति तहवि विवक्खो वुचति, कालियसुयधम्मता एसा॥३५०।। अप्पसत्तिया पुरिसा।" सूत्र०१ श्रु०४ अ०१उ०। कामम-अनुमतमिदं विपक्षस्य प्रतिपक्षार्थस्य सिद्धिरनुक्ताप्यर्थापत्त्या सुसमण--पुं०(सुसमन) युगलिकमनुष्यजातिभेदे, जं० 2 वक्ष०। भवति, तथापि विपक्षो मोक्षादुच्यते। कुत? इत्याह-कालिकश्रुतस्य सुसमदूसमा-स्त्री०(सुषमदुःषमा) दुष्टाः समा अस्यामितिदुःषमा, सुषमा धर्मता स्वभावः शैली एषा, यदर्थापत्तिलब्धोऽप्यर्थः साक्षादभिधीयते। चासौ दुःषमा च सुषमदुःषमा / सुषमानुभाव-बहुलमल्पदुःषमानुभावे तथा च तल्लक्षणान्येव दर्शयति अवसर्पिण्यास्तृतीये उत्सर्पिण्याश्च चतुर्थेऽरके, जं०२ वक्ष०। ('दो ववहारत्थावत्ती, अणप्पिएणय चउत्थभासाए। सागरोवमकोडाकोडीओ सुसमदूसमा' सा 'ओसप्पिणी' शब्दे तृतीयमूढणय अगमियत्तेण य-कालेण य कालियं नेयं // 351 // भागे 101 पृष्ठे व्याख्याता।) 'ववहारे' त्ति नैगमसंग्रहव्यवहाराख्यास्त्रयो व्यवहारनया उच्यन्ते- | सुसमपलिभाग-पुं०(सुषमप्रतिभाग) सुषमायाः-सुषमसुषमायाः प्रति भागः सादृश्यं यत्र काले स तथा / देवकुरुत्तरकुरुषु सुषमसुषमासदृशे ऋजुसूत्राद्यास्तु कालिकश्रुते प्रायः सूत्रार्थनिबन्धो भवति, 'अहिगारो तीहि उस्सन्नं' ति वचनात् 'अत्थावत्ति' त्ति अर्थापत्तिः कालिकश्रुतेन काले, भ०२४ श०३ उ०।। व्यवहियते, किं तु-तया लब्धोऽप्यर्थः प्रपञ्चितज्ञविनेयजनानुग्रहाय सुसमसुसम(मा)य-पुं०(सुषमसुषम(मा)ज) सुषमसुषमायां जात इति साक्षादेवाभिधीयते। अथोत्तरा-ध्ययनेषु प्रथमाध्ययने 'आणानिद्देस "सप्तमीपञ्चम्यन्ते जनेर्डः" (का० रू० 661) इति डप्रत्यये सुषमकरे' इत्यादिना विनीत-स्वरूपमभिधायार्थापत्तिलब्धभप्यविनीत सुषमजः / प्रथमारकजे मनुष्ये, अनु०। स्वरूपम् 'आणा अनिद्देसकरे' इत्यादिना भूयः साक्षादभिहितमिति। सुसमसुसमा-स्त्री०(सुषमसुषमा) सुष्ठ शोभनाः समा वर्षाणि यस्यांसा 'अणप्पिएण' त्ति-अनर्पितं विषयविभागस्यानर्पणं तेन कालिकश्रुतं सुषमा 'निर्दुःसुवेः समसूतेः (श्रीसि०२-३-५६) इति षत्वम्। सुषमा चरितं विशेषाभिधानरहितमित्यर्थः, यथा- 'जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ चासौ सुषमा च सुषमसुषमा। द्वयोः ससनार्थयोःप्रकृष्टार्थवाचकत्वादसे आवजइ मासियं अणुग्घाइयं तत्र चयस्मिन् अवसरे यथा हस्तकर्मा त्यन्तसुखस्वरूपे, जं०२वक्ष। ऽऽसेवमानस्यमासमुरुकं भवति स विशेषसूत्रे साक्षान्नोक्तः परमर्थादव- अवसर्पिण्याः प्रथमारके, उत्सर्पिण्याश्च षष्ठे अरके, ज्यो०२ पाहु०। गन्तव्यः, एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यम्। 'चउत्थभासाए' त्ति इह सत्यामूषा- स्था०। जं०। ति०।आ० चू०। मिश्रासत्यामृषाभेदाच्चतम्रो भाषाः। तत्र कारणेन सह विप्रतिपत्तौ सत्त्यां एगा सुसमसुसमा (सू०५०४) स्था० 1 ठा०। वस्तुनः साधकत्वेन बाधकत्वेन वा प्रमाणान्तरैरबाधिता या भाषा चत्तारि कोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा। (सू०) भ०६ भाष्यते सा सत्या, सैव प्रमाणैर्बाधिता मृषा, सैव बाध्यमानानाबाध्य- श०७ उ०। मानरूपा मिश्रा तु वस्तुसाधकत्वाद्यविवक्षया व्यवहारपतिता स्वरूप परमाणू दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- सुहुमे अ बाबहारिए अ। मात्राभिधित्सया प्रोच्या, सा पूर्वोक्तभाषात्रयविलक्षणा असत्यमृषानाम अणंताणं सुहुमपरमाणुपुग्गलाणं समुदयसमिइ-समागमेणं चतुर्थी भाषा भण्यते। सा चामन्त्रणाज्ञापनीप्रभृतिस्वरूपतया कालिक- बाबहारिए परमाणू णिप्फजइ, तत्थ णो तत्थं कमइ। 'सत्थेणं' श्रुतानिबद्धायथा "गोयमा!" इत्यामन्त्रणा ''सव्वे जीवा न हन्तव्या" सुतिक्खेणं वि, छेत्तुं भित्तुं च जं किर ण सका / तं परमाणु इत्याज्ञापनी इत्यादि। दृष्टिवादस्तु नैगमादिनयमतप्रतिबद्धेति पुनयुक्ति- सिद्धा, वयंति आई पमाणाणं ||1|| वावहारिअपरमाणूणं भिर्वस्तुतत्त्वव्यवस्थापकतया सत्यभाषानिबद्ध इति भावः / तथा समुदयसमिइ-समागमेणं सा एगा उस्साहसहिआइ वा मूढाविभागेनाव्यवस्थापिता नया यस्मिन् तत् मूढनयं, भावप्रधानश्चार्य सण्हिसण्हिआ इ वा उद्धरेणू इ वा तसरेणू इ वा रहरेणू इ वा निर्देशस्ततो मूढनयत्वेन कालिकं विज्ञेयम्, तथा गम भङ्गा गणितादयः बालग्गे इवा लिक्खाइवाजूआइवाजवमझेइवा उस्सेहंगुले सदृशपाठा वा तैर्युक्तं गमिकं तद्विपरीतमगमिकं तेनागमिकत्वेन इवा, अट्ठउस्सहसण्हियाओसाएगासहसण्डिया, अट्ठसहकालिकश्रुतज्ञानी 'गमियं दिट्ठिवाओ अगमियं कालियं' इति वचनात् सहियाओ साएगा उद्धरेण अहउद्धरेणूओसा एगातसरेणू अट्ठ Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसमसुसमा १०१३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुसमसुसमा तसरेणूओ सा एगा रहरेणू अट्ठ रहरेणूओ से एगे देवकुरूत्तरकुराणं मणुस्साणं बालग्गे, अट्ठ देवकुरूत्तरकुराणं मणुस्साण बालग्गा से एगे हरिवासरम्मयवासाण मणुस्साणं बालग्गे एवं हेमवयहेरण्णवयाणं मणुस्साणं पुय्वविदेह-अबरविदेहाणं मणुस्साणं बालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूओ अट्ठ जूआओ से एगे जवमज्झे अट्ठ जवमज्झा से एगे। अंगुले एतेणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पाओ बारस अंगुलाइ / विहत्थी चउबीसं अंगुलाई रयणी अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी छण्णउइअंगुलाई से एगे अक्खे इ वा दंडे इ वा धणू इ वा जुगे | इ वा मुसले इ वा णालिआ इ वा / एतेणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साईगाउअंचत्तारिगाउआइंजोअणं, एएणंजोअणप्पमाणेणं जे पल्ले जोअणं आयामविक्खंभेण जोयणं उड्डं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्खवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेहियतेहिअ उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संमढे सण्णिचिए भरिए बालग्गकोडीणं / तेणं वालग्गा णो कुत्थेबाणो परिविद्धंसेजा, णो अग्गी डहेजा, णो वाए हरेज्जा, णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा / तओ णं वाससए वासए एगमेग वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे णीरए पिल्लेवे णिहिए भवइ सेतं पलिओवमे। "एएसिं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज दसगुणिआ।तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परीमाणं // 1 // " एएणं सागरोवमप्पमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा? // (सू०१६x) परमाणुर्द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- सूक्ष्मश्च व्यावहारिकश्च / शस्वाद्यविषयत्वादिको धर्म उभयोरपीति समानकक्षताद्योतनार्थं प्रत्येकं चकारः, तत्र सूक्ष्मस्य "कारणमेव तदन्त्यं, सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसवर्णगन्धो, द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च / / 1 / " इत्यादिलक्षणलक्षितस्यात्यन्तपरमनिकृष्टतालक्षणं स्वरूपमति-रिच्यापरं वैशेषिकं रूपं न प्रतिषादनीयमस्तीति तं संस्थाप्यापरं स्वरूपतो निरूपयतिअनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुरूपपुद्गलानां सम्बन्धिनो ये समुदयाः- त्रिचतुरादिमेलकास्तेषां याः समितयो-बहूनि मीलनानि तासां समागमेन-संयोगेनैकीभावेनेति यावत् व्यावहारिकः परमाणुरेको निष्पद्यते। इदमुक्तं भवतिनिश्चयनयो हि निर्विभाग सूक्ष्म पुद्गलं परमाणुमिच्छति, यस्त्वेतैरनेकैजीयते तं सांशत्वात् स्कन्धमेव व्यपदिशति। व्यवहारनयस्तु तदेनकसङ्घातनिष्पन्नोऽपि यः शस्त्रच्छेदाग्निदाहादिविषयो न भवति तमद्यापि तथाविध-स्थूलभावाप्रतिपत्तेः परमाणुत्वेन व्यवहरति, ततोऽसौ निश्चयतः स्कन्धोऽपिव्यवहारनयमतेन व्यावहारिकः परमाणुरुक्तः। अयं | च स्कन्धत्वात् काष्ठवत् छेदादिविषयो भवतीति वादिनं प्रत्याह-तत्र शस्त्र नक्रामति-नसञ्चरति, असिक्षुरादिधारामाप्तोऽपि स न छिद्यत न च भिद्यतेत्यर्थः, यद्यनन्तै परमाणुमिर्निष्पन्नाः काष्ठादयः शस्त्रच्छेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तस्यानन्तभेदत्वात्तावत्प्रमाणेन निष्पन्नोऽद्यापि सूक्ष्मत्वान्नशस्वच्छेदादिविषयतामासादयतीति भावः, एतेनाग्निदाह्यता जलाता गङ्गाप्रतिश्रोतोविहन्यमानता जलकोथादिकं सर्वमपि निरस्तंमन्तव्यं; सर्वेषामपि तेषां शस्त्रत्वाविशेषात्। अत्रार्थे प्रमाणमाहशस्त्रेण सुत्तीक्ष्णेनापि छेत्तुंखड्गादिना द्विधा कर्तु मेत्तुम्- अनेकधा विदारयितुं सूच्यादिना वस्त्रादिवद्वा सच्छिद्रं कर्तुं, वा-विकल्पे, यंपुद्गलादिविशेषं किलेति निश्चये न शक्ताः, केऽपि पुरुषा इति शेषः, तं व्यावहारिकपरमाणु सिद्धा इव सिद्धा भगवन्तोऽर्हन्त उत्पन्नकवलज्ञाना न तु सिद्धाः सिद्धिगताः, तेषां वचनयोगासम्भवादिति, आदि-प्रथम प्रमाणानां-वक्ष्यमाणोच लक्षणश्लक्ष्णिकादीनामिति, एतेन श्रद्धालून प्रति आगमप्रमाणमभिहितं, तर्कानुसारिणः प्रति प्रयोगः-अणुपरिमाणं कृचिद्विश्रान्तं तरतमशब्दवाच्यत्वात् महत्परिमाणवत्, यत्रच निश्रान्तं स परमाणुः, विपक्षे वस्तुनः स्थूलताऽपि नोपपद्यते, न च व्यणुकादि नार्थान्तरमिति वाच्यं, स च सिध्यन् परमनिकृष्टो निरंश एव सिध्येत्, अन्यथाऽनवस्थासर्षपसुमेर्वोस्तुल्यपरिमाणापत्तिश्च, ततः सिद्धः परमाणुः। ननु सिध्यतु सः सूक्ष्मत्वाच न चक्षुरादिगम्यः, परं पदनन्तैः सूक्ष्मः परमाणुभिरेको व्यावहारिकः परमाणुरारभ्यतेसचक्षुराद्यगोचरः शस्त्रच्छेदाद्यगोचरश्चेति तन्मन्दम्, उच्यते-द्विविधो हिपुद्रलपरिणामः-सूक्ष्मो वादरश्च, तत्र सूक्ष्मपरिणामपरिणतानां पुद्गलानामनिन्द्रियकत्वमगुरुलघुपर्यायवत्त्यं शस्वच्छेदाद्यविषयत्वमित्यादयो धर्मा भवन्ति, तेन न काप्यनुपपत्तिः, श्रूयते चागमे पुद्गलानामेवं सूक्ष्मत्वासूक्ष्मत्वपरिणामो यथा द्विप्रदेशिकः स्कन्धः एकस्मिन्नभः प्रदेशे माति स एव च द्वयोरपि मातीति संकोचविकाशकृतो भेदः, दृश्यते च लोकेऽपि पिञ्जितरुतपुजलोहपिण्डयोः परिमाणभेदः, इत्यले विस्तरेणेति। अथ प्रमाणान्तरलक्षणार्थमाह-अनन्तानांव्यावहारिकपरमाणूनां समुदयसमितिसमागमेन या परिमाणमात्रेति गम्यते सैका अतिशयने श्लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा सैव श्लक्ष्णश्लक्षिणका उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन श्लक्ष्णश्लक्षिणका उच्लक्ष्ण-श्लक्षिणका, इतिरुपदर्शन, वा उत्तरापेक्षया समुचये, एवं श्लश्ण-ग्लक्ष्णिकेति वा इत्यादिष्वपि वाच्यम् / एते च लक्ष्णश्लक्ष्णिकादयोऽङ्गुलान्ताः प्रमाणभेदा यथोत्तरमष्टगुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकमनन्तपरमाणुकत्वं न व्यभिचरन्त्यतः निर्विशेषितमप्युक्तम्'सण्हसहिआइवे' त्यादि, प्राक्तनप्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वेन स्थौल्यादूवरण्यपेक्षया, त्वष्टभागप्रमाणत्वात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकेत्युच्यते, स्वतः परतो वा ऊवधिस्तिर्य-क्चलनधर्मो जालप्रविष्टसूर्यप्रभा भिव्यङ्गयो रेणुरूवरणुः त्रस्यति-पौयस्त्यादि-वायुप्रेरितो गच्छतियो रेणुः सत्रसरेणु: रथगमनात्रेणुः रथगेणुः वालाग्रलिक्षादयः प्रतीताः, देवकुरुत्तरकुरुहरिवर्षरम्यकादिनिवासिमानवानां केशस्थूलताक्रमेण क्षेत्रशुभानुभावहानिभवनीया यावत्पूर्वविदेहापरविदेहाश्रयमनुष्याणामष्टो वालाग्राणि एका लि Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसमसुसमा 1014 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुसमसुसमा क्षा, ता अष्ट यूका, अष्टौ यू का एकं यवमध्यम् , अष्टौ यवमध्यानि, एकमङ्गुलम्, एतेनाङ्गुलप्रमाणेनेति न तुन्यूनाधिकतया, षडङ्गुलानि पादः-पादस्य मध्यतलप्रदेशः, पादैकदेशत्वात्, पादः, अथवा-पादो हस्तचतुर्थांशः, द्वादशाङ्गुलानि वितस्तिः सुखावबोधार्थमेवमुपन्यसः, लाघवार्थं तुद्वौ पादौ वितस्तिरिति पर्यवसितोऽर्थः, अन्यथा पादसंज्ञाया नैरर्थक्यापत्तिः, एवमग्रेऽपि चतुर्विशतिरङ्गुलानि रनिरिति सामयिकी परिभाषा, नामकोशादौ तु बद्धमुष्टिर्हस्तो रत्नि' रिति, अष्टचत्वारिंशद गुलानि कुक्षिः, षण्णवतिरङ्गुलानि एकोऽक्ष इति वा-शकटावयवविशेषः दण्ड इति वा धनुरिति वायुगमितिवा-वोढस्कन्धकाष्टं मुसलमिति वा नालिका इति वा-यष्टिविशेषः, अत्रच धनुषोपयोगः, संज्ञान्तराणि तु प्रसङ्गतोऽत्र लिखितानि अन्यत्रोपयोगीनीति, एतेन धनुः प्रमाणेन द्वे धनुःसहस्रे गव्यूतं, चत्वारि गव्यूतानियोजनम्। एतेन योजनप्रमाणेन यः पल्यो-धान्याश्रयविशेषः स इव सर्वत्र समत्वात्, लुप्तोपमाकः शब्द इति, योजनमायामविप्कम्भाभ्यां समवृत्तत्वात् प्रत्येकमुत्सेधागुलनिष्पन्नयोजनंयोजनमूर्वोचत्वेन, तद्योजनं त्रिगुणं सविशेष परिरयेण, वृत्तपरिधेः किञ्चिन्न्यूनषड्भागाधिकत्रिगुणत्वात्, स पल्यः ‘एगाहिअबेहिअ' त्ति षष्ठीबहुवचनलोपादेकाहिकह्याहिकत्र्याहिकाणामुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढाना-सप्तदिवसोद्रतपर्यन्तानां भृतो बालाग्रकोटीनामिति सम्बन्धः, तत्र मुण्डिते शिरस्येकेनाला यावत्प्रमाण वालाग्रकोटय उत्तिष्टन्ति ता पूकाहिक्यः, द्वारभ्यां तु यास्ता ह्याहिक्यः, त्रिभिस्तु त्र्याहिक्यः, कथंभूता इत्याह-संमृष्ट--आकर्णपूरितः सन्निवितः-प्रचयविशेषान्निविडीकृतः वालानामग्रकोटयः- प्रकृष्टा विभागा इत्यर्थः, यद्वा-वालाग्रकोटीनामिति वालेषुविदेहनरवालाद्यपेक्षया सूक्ष्मत्वादिलक्षणोपेततयाऽग्राणि=ष्ठानि वालाग्राणि, कुरुनररोमाणि तेषां कोटयः अनेकाः कोटाकोटिप्रमुखाः सङ्ख्याः "स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्तिपुत्रान्" इत्यादिवत्, तथा वालाग्रकोटीनामिति तृतीयार्थे षष्ठी यथा माषायां भृतः कोष्ठ इति, तेन वालाग्रकोटीभिर्भूत इति सुखावबोधाऽक्षरयोजना कार्या इति, वालाग्रसंख्यानयनोपायस्त्वयं-देवकुरुत्तरकुरुनरवालाग्रतोऽष्टगुणं हरिवर्षरम्यकनरवालाग्रमिति, यत्रैकं हरिवर्षम्यकवालाग्रं तत्र कुरुनरवालाग्राण्यष्ट तिष्ठिन्ति, यत्र चैकं हैमवतहरण्यवतनरवालाग्रं तत्र कुरुनरबालाग्राणि चतुःषष्ठिः, एवं विदेहनरवालाग्रे५१२ लिक्षायां 4066 यूकायां 32768 यवमध्ये 262144 अङ्गुलेऽवतः 2067152, अत्राडगुलमुत्सेधाड्गुलं ग्राह्यम, आत्माङ्गुलस्यानियतत्वात, प्रमाणागुलस्यातिमात्र-त्वात् अत्र सर्वत्र पूर्वप्रमाणापेक्षयोत्तरोत्तरप्रमाणस्याष्टाष्टगुण-कारेणेयं संख्या समुत्तिष्ठति, अथायं राशिश्चतुर्विशतिगुणाहस्तश्चतुर्विशत्यङ्गुलमानत्वादस्य, स चैवम्-५०३३१६४८ नामतः पञ्च कोटयस्त्रीणि लक्षाणि एकत्रिंशत्सहस्राणि षट्शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि, एष राशिश्वतुर्गुणो धनुषि, चतुर्हस्तमानत्वादस्य, अङ्कतः 201326562 नामतो विंशतिः कोटशस्त्रयोदश लक्षाणि षड्वंशः सहस्राणि पञ्च शतानि द्विनवेत्यधिकानि, अयं द्विसहस्रगुणः क्रोशे, द्विसहस्रमानत्वादस्य, अङ्कतो यथा-४०२६५३१८४००० नामतः चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते पञ्चषष्ट्यधिक कोटीनां एकत्रिंशल्लक्षाणि चतुरशीतिः सहस्राणि, पुनरयं राशिश्चतुर्गुणो योजने, चतुःक्रोशप्रमाणत्वादस्य, अङ्कतः 1610612736000 नामतः एकं लक्षमेकषष्टिः सहस्राण्येकषष्ट्यधिकानि कोटीनां तथा सप्तविंशतिर्लक्षाणि षट्त्रिंश- त्सहस्राणि, शूचिगणनयैवेदंगणितंबोध्यम्, अयं शूचीराशिरनेनैव गुणितः प्रतरसमचतुरस्रयोजने, शूच्या शूचीगुणिताया एव प्रतरत्वात्, अङ्कतः 256407338536540536600000 नामतो यथा पञ्चविंशतिः शतानि चतुर्नवत्यधिकानि कोटाकीटिकोटीनां तथा सप्त लक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राण्यिष्ट शतानि त्रिपञ्चाशदधिकानि कोटाकोटीनां तथा पञ्चषष्टिलक्षाणि चत्वारिंशत्सहस्राणि पञ्च शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि कोटीनां तथा षष्टिलक्षाणि, अयं राशिभूयः पूर्वराशिना गुणितो घनरूपो रोमराशिः स्यात्, तथाहि-अड्कतः 4178047632588158427784544256000000000 नामतः एकचत्वारिंशत्कोठ्योऽष्टसप्ततिर्लक्षाणि चत्वारि सहस्राणि सप्त शतानि त्रिषष्ट्यधिकानि कोटाकोटिकोटाकोटीनां तथा पञ्चविंशतिर्लक्षायण्यष्टाशीतिः सहस्राण्येक शतमष्टपञ्चाशदधिकं कोटाकोटिकोटीनां तथा द्विचत्वारिंशल्लक्षाणि सप्तसप्ततिः सहस्राण्यष्ट शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि कोटाकोटीनां तथा चतुश्चत्वारिंशल्लक्षाणि पञ्चविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि कोटीनामिति / अयं च राशिः समचुरस्रघनयोजनप्रमितपल्यगतः समवृत्तघनयोजनप्रमितपल्यगतराश्यपेक्षया कियेद्भागाभ्यधिकस्तेनाधिकभागपातनाथ सौकुमार्याय स्थूलोपायमाह-अनन्तरोक्तराशेश्चतुविंशत्या 24 भागे हृते लब्धम् 174085318024506601157686344000000000 अयं चैकोनविंशत्या 16 गुणितः समवृत्तघनयोजनपल्यगतोराशिर्भवतीति, सचाङ्कतोयथा 33307521042-- 4555,25421665061535000000000 अयमर्थः-यादृशैश्चतुर्विशत्या भागैः समचतुरस्रघनयोजनप्रमितपल्यगतो रोमराशिर्भवति तादृशैरेकोनविंशत्या भागैः समवृत्तघनयोजन-प्रमितपल्यगतो राशिर्भवति, ननु चतुर्विशत्या भागहरणमेकोनविंशत्यागुणनं च किमर्थम् ? उच्यते- एकयोजन-प्रमाण-वृत्तक्षेत्रस्य करणीत्यागतं योजनत्रयमेकश्च योजनषङ्भागः ३,१/सवर्णनेचजातं 16/6 एतच वृत्तपल्यपरिधिक्षेत्रम्, अनेन सह समचतुरस्रपल्यपरिधिक्षेत्रं चतुर्योजनरूपं गुण्यते-स्थापना यथा-१६/६x४/१ अनयोः 16/6 समच्छेदे 25/6 लाघवार्थ द्वयोरपिछेदापनयने जातं 16-24 किमुक्तं भवतिसमचतुरस्रपरिधि-क्षेत्रात्, वृत्तपरिधिक्षेत्रं स्थूलवृत्त्या पञ्चभागन्यूनमिति तत्क-रणार्थोऽयमुपक्रम इति, स्थूलवृत्तिश्व योजनषङ्भागस्य किञ्चिदधिकतया अविवक्षणात्, अथ प्रकृतं प्रस्तुमः- 'ते ण' मिति प्राग्वत्, तानि वालाग्राणि न कुथ्येयुः- प्रचयविशेषाच्छुषिराभावा-द्वायोरसम्भवाचनाऽसारतां गच्छेयुरित्यर्थः, अतोन परिविध्वंसेरन् कतिपयपरि-- शाटनमप्यङ्गीकृत्य नविध्वसंगच्छेयुः अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति,तानि नागिर्दहेत्, न वायुरपहरेदतीव निचितत्वादग्निपवतावपितत्रच करोतेह १-भक्तामरस्त्रोते। Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसमसुसमा 1015 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुसवण त्यर्थः / तानि च न पूतितया-पूतिभावं कदाचिदागच्छेयुः, न कदाचि- विनयमित्यर्थः / स्था०७ ठा०३ उ०। दुर्गन्धितां प्राप्नुयुरित्यर्थः। अथ केतिकर्तव्यता? तामेवाह-ततस्तेभ्यो दसहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणिज्जा, तं जहा-अकाले न वालाग्रेभ्यः, अथवा- 'तत' इति तथाविधपल्यभरणानन्तरं वर्षशते 2 परिसइ, तं चेव विपरीतं,०जाव मणुना फासा। (सू०७६५+) एकैकं वालाग्रमपहृत्य कालो मीयते इति शेषः, ततश्च यावता कालेन स स्था०१०ठा०३ उ०। पल्यः क्षीणो-वालाग्रकर्षणात् क्षयमुपागतः आकृष्टधान्य-कोष्ठागारवत्, सुसमाउत्त-त्रि०(सुषमायुक्त) सुष्ठेवकीभावेन युक्ते, दश०५ अ०। तथा (नीरजाः)-निर्गतरजः कल्पसूक्ष्मवालाग्रोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ट सुसमाहरण-न०(सुषमाहरण) सुष्टद्योगेनग्रहणे, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। धान्यरजः कोष्ठागारवत्, निर्लेपोऽत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारादपनीतधान्यलेपकोष्ठागारवत्, निष्ठितोऽपनेतव्यद्रव्यापन सुसमाहि-स्वी०(सुसमाधि) स्वस्थचित्तवृत्तौ, सूत्र०१श्रु०३ अ०४ उ०। यनमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत्, एकार्थिका सुसमाहिइंदिय-त्रि०(सुसमाहितेन्द्रिय) सुप्रणिहितेन्द्रिये, दश०७ अ०। वा एते शब्दा अत्यन्तविशुद्धिप्रविपादनपराः / वाचनान्तरे दृश्यमानं सुसमाहिय-त्रि०(सुसमाहित) दर्शनादिषु सम्यगाहिते, आव० 3 चान्यदपि पदमुक्तानुसारतो व्याख्येयम्, तदेतत्पल्योपममिति, इदं अ01 ज्ञानदर्शनचारित्ररूपसमाधिवति, दशा०५ अ०1 ज्ञानादिषु पल्यपतवालाग्राणां सङ्घयेयैरेव वस्तदपहारसम्भवात्संख्येयवर्षकोटा- यत्नपरे, दश० 3 अ० / उद्युक्ते, दश०६ अ० / निवृत्तविषयव्यापारे, कोटीमानं बादरपल्योपमं शेवम्, न चानेनात्र वक्ष्यमाणसुषमसुषमादि- दश०२चू०। सुतराम्-अतिशयेन समाधियुक्ते, उत्त०२० अ०। कालमानादायधिकारः परं सूक्ष्मपल्योपमस्वरूपसुखप्रतिपत्तये से किं तं जोगपडिसलीणया? जोगपडिलीणया तिविहा प्ररूपितमिति ज्ञायते तेन पूर्वोक्तमेकैकवालाग्रमसंख्येयखण्डीकृत्य भृत पण्णत्ता, तं जहा- अकुसलमणनिरोहो वा कुसलमणउदीरणं स्योत्सेधागुलयोजनप्रमाणायामविष्कमभावगाहस्य पल्यस्य वर्षशते वा मणस्स वा एगत्तीभावकरणं, अकुसलवइ० निरोहो वा वर्षशते एकैकवालाग्रापहारेण सकलवालाग्रखण्डनिर्लेपनाकालरूपम- कुसलवइउदीरणं वा वइए वा एगत्तीभावकरणं / से किं तं संख्येय वर्षकोटाकोटीप्रमाणं सूक्ष्यपल्योपमं विचित्राकृतिराचार्यस्येति कायपडिसंलीणया ? कायपडिसंलीणया जं णं सुससूत्रकारेणानुक्तमपि स्वयं ज्ञेयं, तेनैव च प्रस्तुतोपयोगः / अन्यथाऽनु- माहियपसंतसाहरियपाणिपाए कुम्मो इव गुत्तिं दिए अल्लीणे योगद्वारादिभिः सह विरोधप्रसङ्गादिति सर्वं सुस्थम्। एवमग्रे सागरोप- पल्लीणे चिट्ठति / सेत्तं कायपडिसलीणया। (सू०५०२४) मेऽपि ज्ञेयम्, अथ सागरोपमस्वरूपं गाथापद्येनाह- 'एएसिं पल्लाण, 'मणस्स वा एगत्तीभावकरणं' मनसो वा 'एगत्त' त्ति विशिष्टैकाग्रमित्यादि, एतेषामनन्तरोदितानां पल्यानामिति पदैकदेशे, पदसमुदायो त्वेनैकता तद्रूपस्य भावस्य करणमेकताभावकरणम्, आत्मना वा पचारात् पल्योपमानां या दशगुणिता कोटाकोटीभवेत् तत्सागरोपम सहाय्यैकता-निरालम्बनत्वं तद्रूपो भावस्तस्य करणं यत्तत्तथा 'वईए स्यैकस्य भवेत् परिमाणमिति, प्रायः सर्वं कण्ठ्यं, नवरमेतेन सागरोप वा एगत्तीभावकरणं' तिवाचो वा विशिष्टकाग्रत्वेनैकतारूपभावकरणमिति मप्रमाणेन न न्यूनाधिकेनेत्यर्थः चतस्रः सागरोपमकोटाकोट्यः कालः 'सुसमाहियपसंत-साहरियपाणिपाए' त्ति सुष्टुसमाहितः-समाधिप्राप्तो सुषमसुषमा। जं०२ वक्ष०। बहिर्वृत्त्या साचासौ प्रशान्तश्चान्तवृत्त्या यः स तथा संहृतम्--अविक्षिप्ततया सुसमा स्त्री०(सुषमा) सुष्ठुसमा यस्यां सा सुषमा।आवसर्पिण्यां द्वितीयं धृतं पाणिपादयेन स तथा ततः कर्मधारयः 'कुम्मो इव गुत्तिदिए' त्ति उत्सर्पिण्याञ्च पञ्चमारके, स्था० 1 ठा०। गुप्तेन्द्रियो गुप्त इत्यर्थः / क इव?-कूर्मा इव, कस्यामवस्थायामित्यत तिण्णि सागरोवमकोडीओ कालो सुसमा। भ०६श०७०। एवाह-'अल्लीणे पल्लीणे' ति आलीनः-ईषल्लीनः पूर्वं प्रलीनः पश्चात् सुषमा संसारिणं सुखाय चेति प्ररूपणायाह प्रकर्षेण लीनस्ततः कर्मधारयः। भ०२५ श०७ उ०। सत्तहिं ठाणेहिं ओगाढं सुसमं जाणेला, तं जहा-अकाले ण | सुसमाहियप्पण-त्रि० (सुसमाहितात्मन्) मनोवाकायैः सुविशुद्धे, दश० वरिसइ 1, काले वरिसइ२, असाधू ण पुजंति 3, साधू पुजंति अ०४ उ०। ५,गुरूहि जणो सम्म पडिवन्नो ५,मणो सु (दु) हया 6, वइसु सुसमाहियलेस्स-त्रि० (सुसमाहितलेश्य) सुष्ठु असावद्यानुष्ठानात् (दु) हया 7 / (सू०५५६+) शोभना समाहिताः गृहीतालेश्याः अन्तःकरणवृत्तयस्तैजसीप्रभृतयो 'ओगाढ' त्ति अवतीर्णाम् अवगाढां वा प्रकर्षप्राप्तामिति, अकाल: वायेनसःसुसमाहितलेश्यः।अकल्मषवृत्तौ, आचा०१ श्रु०८ अ०५ उ०। अवर्षा, असाधवः- असंयताः गुरुषु- मातापितृधर्माचार्येषु 'मिच्छं' | सुसमिय–त्रि० (सुसमित) सुष्ठु पञ्चमिः समितिभिः सम्यग् इतः प्राप्तो मिथ्याभावं विनयभ्रंशमित्यर्थः 'प्रतिपन्नः आश्रितः, 'मणोदुहय' त्ति ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ सुसमितः / समितिसहिते, सूत्र०१ श्रु०१६ मनसो मनसा वा दुःखिता-दुःखितत्वं दुःखकारित्वं वा द्रोहकत्वं वा, अ०तं०॥ एवं 'धयदुहये - त्यापि व्याख्येयमिति / 'सम्म' ति सम्यग्भावं | सुसवण-त्रि० (सुश्रवण) सुष्टु श्रवण शब्दोपलम्भो येषां ते Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसवण 1016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुसेण तथा। शोभनश्रवणेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि० / प्रश्न०। स्था०८ ठा०३ उ०॥ सुसागय-न० (सुस्वागत) अतिशयेन स्वागते, भ० 2 श०१ उ०। दो सुसीमाओ। स्था०२ठा०1 सुसाण-न०(श्मशान) पितृवने, शवस्थाने, उत्त० 34 अ०। आचा०। जम्बूद्वीपे महाविदेहे वर्षे वत्सो विजयः प्रज्ञप्तः, सुसामाराजधानी कल्प०। प्रश्न०। आ०म०। 'विजयविभाजकश्चित्रकूटनामा वक्षस्कारपर्वतः सुवत्सो वियजः। जं०४ सुसाणकम्मत-न०(श्मशानकर्मान्त) श्मशानगृहे, यत्र शवदाहः क्रियते। ...वक्ष० / ('वच्छ' शब्दे षष्ठे भागे इयं दर्शिता / ) धराभिधानस्य आचा०२ श्रु०१ चू०२ अ०२ उ०। कौशाम्बीमहाराजस्य भायायां पद्मप्रभस्वामिमातरि, स्था० 5 ठा० 3 सुसाणगिह-न०(श्मशानगृह) पितृवनग्रहे, भ०३ श०७ उ०। उ०स०। प्रव०। आव० स्वनामख्यातायां कृष्ण-वासुदेवाग्रमहिष्याम्, स्था०८ ठा०२ उ०। सुसाम-न०(सुसामन) सप्तमदेवलोकविमानभेदे, स०१७ सम०। सुसील-न०(सुशील) शोभने समाधाने, चारित्रे च / उत्त० 12 अ० / सुसामण्णया-स्त्री०(सुश्रामण्यता) शामनः पार्श्वस्थादिदोषवर्जिततया उद्युक्तविहारिणि, सूत्र०१ श्रु०११०१३०।सुष्ठुशीलंस्वभावो यस्येति। मूलोत्तरगुणसंपन्नतया च स चासौ श्रमणश्च तद्भावस्तत्ता। निरतिचार उत्त०२ अ०।शोभनाचारवति, औ०। अष्टादशसहस्रशीलाङ्गोपेते, ध० चारित्रे, स्था० 10 ठा०३ उ०। 3 अधि०। सुसामण्णरय-त्रि०(सुश्रामण्यरत) शोभने श्रामण्ये रते, भ०२ श०१ सुसीलभय-त्रि०(सुशीलभूत) सुष्ठु शोभनं शीलं समाधानं चारित्रं वा उ०।अतिशयेन श्रमणकर्माशक्ते, औ०। प्राप्ते, उत्त०१२ अ०। सुसामाइय-त्रि०(सुसायिक) सुष्ठु समभावतया सामायिकं समशत्रु सुसीलसंसग्ग-पुं०(सुशीलसंसर्ग) शीलवद्भिः सम्बन्धे, दश०१० अ०। मित्रभावो यस्यससुसामायिकः। सामायिकस्यशोभनेऽनुष्ठानके, सूत्र० १श्रु०१६ अ०। सुसुक्कसुक्क-न०(सुशुल्कशुल्क) सुष्ठ शुल्कवच्छुल्के, धान्ये, सूत्र०१ सुसावग-पुं०(सुश्रावक) सम्यक्त्वाणुव्रतादिसकलक्रियाकलापोपेते, श्रु०६अ। दर्श०३ तत्त्व। श्रमणोपासकविशेषे, पञ्चा०१२ विव०। सुसुग्न-न०(सुसूय) विमानभेदे, स०॥ सुसाहिय-त्रि०(सुसाधित) सुष्ठु प्रतिपादिते, प्रश्न० 4 संव० द्वार / सुसुजं सुज्जवित्तं सुञ्जप्पमं (स०) विमाणं जे देवत्ताए उववण्णा साधौ, प्रश्न०४ संव० द्वार। तेसिणं देवाणं णवसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। (सू०९) स०६ सम01 सुसाहु-पुं०(सुसाधु) निर्वाणसाधकयोगसाधनपरेः साधौ, प्रश्न० 4 सुसुत्त-न०(सुसूत्र) सुष्ठु सत्ये सूत्रे, आव० 5 अ० / कणाहमसंव०द्वार तानुगामिभिः- "सुसूत्रमासूत्रितम्" सम्यगागमः प्रपञ्चितः / अथवासुसाहुयुत्त-त्रि०(सुसाधुयुक्त) सुसाधोरुद्यतविहारिणो ये समाचारास्तैः सुसूत्रमिति क्रियाविशेषणं शोभनं सूत्रं- वस्तु-व्यवस्थाघटनाविज्ञानं समायुक्तः मध्यमपदलोपी समासः / स्थानशयना-सनादावुपयुक्ते, यत्रेवमासूत्रित तत्तच्छास्त्रार्थोपनिबन्धः कृत इति हृदयम्, सूत्रं तु ''परक्कमेयावि सुसाहुजुत्ते" सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। सूचनाकारिग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोरिति / अनेकार्थवचनात्। स्या०। सुसाहुवाइ-पुं०(सुसाधुवादिन्) सुष्ठु शोभनं हितं मितं प्रियं वदितुं सुसुमार पुं०(सुसुमार) जलचरविशेष, प्रज्ञा० / शीलमस्येत्यसौ सुसाधवादी। सम्यग्भाषासमिते, सूत्र०१श्रु०१० अ०। से किं तं सुसुमारा सुसुमारा एगागारा पण्णत्ता, से तं सुसिक्खा-स्त्री०(सुशिक्षा) ग्रहणासेवनाभ्यां सम्यक्पालने, सूत्र०१ श्रु० सुसुमारा। (सू०३३+) प्रज्ञा०१पद। 14 अ०व्य०। सुसुविण-पुं०(सुस्वप्न) शोभनाः स्वप्राः सुस्वप्नाः / श्वेतसुरभिपुष्पसुसिणिद्धदंत-त्रि०(सुस्निग्धदन्त) अरूक्षदन्ते,तं०। वस्त्रातपत्रचामरादिस्वप्नेषु, षो०१४ विव०। सुसिर-न०(सुषिर) अनतादिषु विमानेषु अन्यतमे विमाने, स० 16 सुसूर-न०(सुसूर) चतुर्थदेवलोकविमानभेदे, स०। सम०। औ०। काहलादिवत् कोल्लवाद्ये, स्था०२ ठा०३ उ०। रा०। सुसूरं सुरावत्तं (स०) विमाणं देवत्ताए उववण्णा तेसि णं सुसिलिट्ठ-त्रि०(सुश्लिष्ट) सुसन्धिके, ज्ञा० 1 श्रु०१०।०।अत्यन्त देवाणं उक्कोसेणं पंचसागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। (सू०५४) सते, पञ्चा० 18 विव०। औ०। कल्प०। सुघटिते, प्रश्न० 4 आश्र०] स०५ सम०। द्वार / रा० / सम्बद्धे, रा० ! अविशवरे, भ० 112011 उ०। सुसेण-पुं०(सुषेण) अष्टसप्ततितमेऋषभदेवपुत्रे, कल्प०१अधि०७ क्षण। सुसिलिट्ठपरिघट्ट-त्रि०(सुश्लिष्टपरिघृष्ट) यथा भवत्येवं परिघृष्ट, जी० भरतचक्रिणः सेनापतौ, जं०३ वक्ष० आ०म०। ('भरह' शब्दे चतुर्थभागे 3 प्रति० 4 अधि०। 1443 पृष्ठे कथा गता। शाखाञ्जनीराजस्य महाचन्द्रस्यामात्ये, विपा० सुसीमा स्त्री०(सुसीमा) मन्दरस्य पूर्वे शीताया महानद्या दक्षिणे वत्सस्य 1 श्रु० 4 अ01 ('सगड' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा गता।) शाखाजन्यां विजयक्षेत्रस्य राजधान्याम्, "सुमीमा कुंडली चेव जाव'' त्ति करणात्।। नगर्योसुभद्राख्यसार्थवाहभद्राभिधानतद्भार्ययोः पुत्रःशकटः सच सुषेणाभि Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुसेण 1017- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुह धानामात्येन सुदर्शनाभिधानगाणकाव्यतिकरे, सगणिको विनाशितः। सम्भवः, पठ्यते च-'स खलु पिशाचकी वातकी वा यः परेऽनर्थिनि स्था० 10 ठा०३ उ०। वाचमुदरियति।' ध०१ अधि०। सुसेणा-स्वी०(सुषणा) रक्तामहानदीसङ्गतायां महानद्याम्, स्था०५ ठा० | सुस्सूसावयणकर-त्रि०(शुश्रूषावचनकर) पूजाप्रधानवचनकरणशीले, 3 उ०। दश०६ अ०२ उ०। सुस्समण--पुं०(सुश्रमण) मुनौ, आचा०२ श्रु०४ चू०। सुस्सूसु-त्रि०(शुश्रूषु) श्रोतुमुपस्थिते, ध०१ अधिक। सुस्सर-त्रि०(सुस्वर) शोभनषड्जादिस्वरविशेषे० प्रश्न० 4 संव० द्वार। सुस्टु--अव्य०(सुष्टु) "ट्ट-ठयोः सः"|||२९| द्विरुक्तस्य आ० म०। रा०। सुस्वरघोषे, जा०३ प्रति० 4 अधि० / 'सुस्सराओ टकारस्य षकाराक्रान्तस्य टकारस्य च मागध्यां सकाराक्रान्तः सृकारो सुस्सरघोसाओ" जी०३ प्रति० 4 अधि०। नि० चू०। जं०। भवति। इति ष्ठस्य सृः। शोभने, प्रा०। सुस्सरणाम-न०(सुस्वरनामन्) स्वरनामकर्मभेदे, यदुदयवशाज्जीवस्य सुह-न०(शुभ) पुण्ये आव० 4 अ०! उत्त०। सूत्र०। आ० म० / संक्लेशस्वरःश्रोतृणां प्रीतिहेतुरुपजायतेतत्सुस्वरनामा पं०सं०३द्वार।कर्म०। विरहिते, उत्त०४ अ०।सुकर्मणि, स्था०६ठा०३ उ०।औ०।शुभगन्ध स्पर्शात्मके कर्मणि, जी०१ प्रति०। शोभने, त्रि०। आव०४ अ01 श्रा०। प्रव० / रा०। जं० स्था०। उत्त०। कल्याणहेतौ, कल्प०१ अधि०३क्षण / रा०ा कोमले, सुस्सरपरिवायिणी-स्त्री०(सुस्वरपरिवादिनी) वीणाविशेषे, प्रश्न०५ रा०। प्रधाने, रा०।०। मङ्गलभूते, रा०।शुभाध्यवसायेतदात्मकत्वात् संव० द्वार। सामायिके, नं०। आ० म०१ अ०। औ०। सुस्सरा-स्त्री०(सुस्वरा) गीतरतेर्गन्धर्वेन्द्रस्य स्वनामख्यातायामग्रमहि सुख-म० सुखयतीतिसुखम्, शर्मणि, ज्ञा०१श्रु०१अ०जी०।दशा०। ष्याम, स्था० 4 ठा० 3 उ०ा ज्ञा० / आ० चू०। भा निर्वृत्तौ, कल्प०१ अधि०३क्षण। सातोदये, सूत्र०१ श्रु०२अ०! सुस्सुयबहुस्सुय-पुं०(सुश्रुतबहुश्रुत) सुश्रुतम्शोभनमाकर्णितंबहुच श्रुतं यथेप्सितविषये, उत्त०७ अ०। तृषितस्य जलपान इवानन्दे, स्था०३ येन स सुश्रुतबहुश्रुतः / तथाविधे बहुश्रुते, यस्य बह पि श्रुतं न ठा०४ उ०। पा०। आत्मनो विशेषगुणं, सुखयुक्त, त्रि०। विशे०। विस्मृतिपथमुपयाति स सुश्रुतबहुश्रुतः / अथवा बहुश्रुतोऽपि सन् गुरोः सुखत्वमिति व्युत्पत्तिः सुखस्तर्हि यस्तस्योपदेशेन वर्तते सन्मार्गानुसारित्वात् स सुश्रुतबहुश्रुतः / व्य० कथमाचार्य इत्याह१०उ०। सुपसंसत्थो खाणिं-दियाणि सुद्धिंदिओ सुहोऽभिमओ। सुस्सू-स्त्री०(श्वश्रू) श्वशुरस्त्रियाम्, बृ०२ अ०। वस्सिदिओ जमुत्तं, असुहो अजिइंदिओऽभिमओ॥३४४३।। सुस्सूगुज्झ-न०(श्वश्रूगुह्य) श्वश्रवाः सम्बन्धिनि गुह्ये, बृ०२ अ०। सुहमहवा निव्वाणं, तचं सेसमुवयारओऽभिमयं / (कौतूहले श्वश्रूगुह्यदृष्टान्तः 'वसहि' शब्दे षष्ठभागे गतः।) तस्साहणं गुरु त्तिय, सुहमन्ने पाणसन्नव्व // 3444|| सुस्सूसण-न०(सुश्रूषण) विधिवदनतिदूरासन्नतया सेवने, दश०६ अ० सुशब्दः- प्रशंसार्थो निपाते खानि-इन्द्रियाणि, शोभनानिखानि 1 उ०। व्य०। आचा०। यस्यासौ सुखः शुद्धेन्द्रियोऽभिमतः / किमुक्तं भवति- वश्येन्द्रियोसुस्सूसणाविणय-पुं०(सुश्रूषणाविनय) दर्शनविनयभेदे, भ० 25 207 निर्विकारेन्द्रिय इति यदुक्तं भवति; अजितेन्द्रियस्तु सुखोऽभिमत इति। उ०। ('विणय' शब्दे षष्ठभागे स्वरूपम्।) अथवा- सुखयतीति सुखं तथ्यं निरुपचरितं निर्वाणमुच्यते, शेषं तु सांसारिकमुपचारतः सुखमभिमतम्। ततोऽस्य द्विविधस्यापि सुखस्य सुस्सूसमाण-त्रि०(सुश्रूष्माण) श्रोतुमिच्छति विनययुक्ते, नि०१ श्रु०१ साधनं कारणं गुरुरित्यसौ सुखम्, कारणे कार्योपचाराद् अन्ने भक्ते वर्ग०१ अ०। आव०। आ० म०। औ०। सू० प्र०। रा०। ज्ञा०। दश01 प्राणसंज्ञावदिति, अन्नप्राणा वृष्टिस्तन्दुला इत्यादिवद्यथोक्तोभयरूपभ०। आचा०। श्रोतु प्रवृत्त, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। परिचरति, हा० 25 सुखहेतुत्वात् सुखो; गुरुरित्यर्थः। अष्ट०।सुश्रूषां कुर्वाण, सूत्र०१ श्रु०६ अ० धर्म श्रोतुमिच्छति, आचा० अथवा अन्यथा सुखशब्दार्थमाह१श्रु०६ अ०५ उ०। जं च सियं खेहिं तो, ऽणुग्गहरूवं तओ सुहं तं च। सुस्सूमा-स्त्री०(शुश्रूषा) गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमिच्छा सुश्रूषा। गुर्वादेर्वया अभयातिप्पयाया, सुहमिहतब्भत्तिभावाओ॥३४४६|| वृत्त्ये, सूत्र०१ श्रु०६ अ०। विधिवददूरासन्नतया सेवने, द्वा०२८ द्वा०। यद्वा-सुष्ठु इतं-प्राप्तं स्थितं खेभ्यः- इन्द्रियेभ्यः स्वैरिन्द्रियैः करणपञ्चा०। आ० म० / सदोधावन्ध्यनिबन्धनधर्मशास्त्रश्रवणवाञ्छायाम, भूतैरित्यर्थः निपातनात् सुखमुच्यते। तत्कुतः प्राप्तम् ? इत्याह-ततोगुरोः पञ्चा०६ विव०। ध० / यो०। बिं०। श्रवणेच्छायाम्, ज्ञा०१ श्रु०१३ सकाशात्तच सर्वे जीवा न हन्तव्या इत्यादि गुरुकृतानुग्रहरूपमभयप्रदानादि अ०१ पञ्चा०1 द्रष्टव्यम्, आदिशब्दात्-ज्ञानादिपरिग्रहः गुरुप्रदत्तेनाभयप्रदानादिनाजीवाः सुस्सूसामावकरण-न०(सुशुश्रूषाभावकरण) धर्मशास्त्रप्रति श्रोतुमिच्छा पञ्चभिरपीन्द्रियैः सुखमनुभवन्ति अतस्तत्प्रदाता अभयादिप्रदातागुरुरपीह शुश्रूषा तल्लक्षणो भावः-परिणामस्तस्य करणं निर्वर्तनं श्रोतृस्तैर्वच सुखम्, तद्भक्तिभावात्सुखोपचारात्कारणे कार्योपचारादित्यर्थः / विशे० / नैरति / श्रोतुः श्रवणेच्छेत्पादने, शुश्रूषामनुत्पाद्य धर्मकथने प्रत्युतानर्थ- शरीरावेदाभावे,औ०। रा०प्रश्नादर्श०।उत्त०) "गामाणुगामंसुहंसुहेणंवि Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१८-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुहदव्वाइससुदय हरमाणे" सुखं सुखेन-शरीरावेदाभावेन संयमबाधाभावेन च विहारेण | सुहकामय-त्रि०(सुखकामक) सुखमानन्दरूपं तं कामयते इति / वा ग्रामादिषु विहरन् / रा०। सुखेच्छौ, भ० 15 श० प्रति०। सुखं सामान्यत आह सुहग-त्रि०(सुभग) सुरूपे, औ०। दसविहे सुखे पण्णत्ते, तं जहा- "आरोग्ग 1 दीहमाऊ 2 सुहगइ-स्त्री०(सुखगति) प्रशस्तविहायोगतौ, कर्म०२ कर्म०। अड्डेजं 3 काम भागे 5 संतोसो 6 / अस्थि 7 सुहभोग | सुहगुरुजोग-पुं०(शुभगुरुयोग) विशिष्टचारित्रयुक्ताचार्य संबन्धे, ध० निक्ख-म्ममेव तत्तो अणावाहे 10||1||" (सू०७३७।) / 2 अधि०। 'दसविहे' त्यादि, 'आरोम्ग' गाहा, आरोग्य-नीरोगता 1 दीर्घमायुः- | सुहजीवि-पुं०(सुखजीवित्) सुखेन जीवनशीले, "मज्झिमस्सरचिरंजीवितं, शुभमितीह विशेषणं दृश्यमिति 2, 'अड्डेज' त्ति आढ्यत्वं-- मंताओ, हवंति सुहजीविणो। खायइ पिपई देई, मज्झिमस्सरमिस्सओ धनपतित्वं सुखकारणत्वात्सुखम्, अथवा-आढ्यै, क्रियमाणा इज्या, ||1||" अनु०। पूजा आढ्येज्या, प्राकृतत्वादड्डेजति 3, 'काम' त्ति कामौ- शब्दरूपे सुहजोग-पुं०(शुभयोग) साधकचन्द्रनक्षत्रादिसम्बन्धे, पञ्चा० 8 विव०। सुखकारणत्वात् सुखम् 4, एवं भोगे' त्ति भोगाः- गन्धरसस्पर्शाः 5, शुभे संयमव्यापारे, प्रश्न०१ संव० द्वार। प्रशस्तमनोवाक्कायव्यापारेषु, तथा सन्तोषः-अल्पेच्छता-तत्सुखमेव आनन्द-रूपत्वात्सन्तोषस्य, ध०३ अधि०। उक्तंच-आरोगसारियं माणुसत्तणं सच्चसारिओ धम्मो। विजा निच्छय सुहज्झाण-न०(शुभध्यान) धर्मशुक्ललक्षणेध्यानभेदे, आव०५ अ01 सारा, सुहाइँ संतोससाराई॥१॥" इति।६।'अत्थि' ति येन येन यदा सुहड-त्रि०(सुहृत) सुष्ठु हृतं क्षुद्रस्य चित्तमिति सुहृतम्। दश०७ अ०। यदा प्रयोजनं तत्तत्तदा तदाऽस्ति-भवति जायते इति सुखमानन्दहेतु सम्यक्हते, उत्त०१०। 'सुहूडेत्तिनो वए' तत्र सुहृतमुपकरणमशिवोत्वादिति 7, 'सुहभोग' त्ति शुभः-अनिन्दितो भोगोविषयेषु भोगक्रियेति पशान्तये। उत्त०१अ०। स सुखमेव सातोदय सम्पाद्यत्यात्तस्योति, तथा निक्खम्ममेव' त्ति निष्क्रमणं निष्क्रमः-अविरतिजम्बालादिति गम्यते, प्रव्रज्येत्यर्थः, इह सुहणाणज्झाणमग्ग-त्रि०(शुभज्ञानध्यानमग्न) शुद्धे यथार्थपरिच्छे दनभेदज्ञानविभक्तस्वपरत्वेचस्वस्वरूपैकत्वानु-भवतन्मयत्वध्यानमग्ने, च द्विर्भावो नपुंसकता च प्राकृतत्वात्, एवकारोऽवधारणे, अयमर्थः-- अष्ट०२ अष्ट०। निष्क्रमणमेव भवस्थानां सुखं, निराबाधस्वायत्तानन्दरूपत्वात्, अत एवोच्यते- 'दुबाल-समासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तराणां देवाणं सुहणाम-न०(शुभनामन) नामकर्मभेदे, यदुदयवशान्नाभेरुपर्यवयवाः तेउल्लेणं वीइवयइ'' त्ति। तथा "नैवास्ति राजराजस्य, तत्सुखं नैव शुभा भवन्ति। कर्म०६ कर्म० श्रा०। पं० सं०। देवराजस्य / यत्सुखमिहैव साधोर्लोकव्यापाररहितस्य / / 1 / / " इति, सुहणामा स्त्री०(शुभनामा) लोकोत्तररीत्या पक्षस्य पञ्चम्यां तिथौ,जं० शेषसुखानि हिदुःखप्रतीकारभात्रत्वात, सुखाभिमानजनकत्वाच तत्त्वतो ७वक्ष०। सू० प्र०। चं० प्र०। न सुखं भवतीति :, 'तत्तो अणबाहि' ति ततोनिष्क्रमणसुखानन्तरम् सुहणिसण्ण-त्रि०(सुखनिषण्ण) अनाबाधवृत्त्योपविष्टे, प्रश्न०१ अनाबाध-न विद्यते आबाधाजन्मजरामरणक्षुप्तिपासादिका यत्र तदना- संव० द्वार। बाधं; मोक्षसुखमित्यर्थः, एतदेव च सर्वोत्तम, यत उक्तम्-"नवि अत्थि सुहणुपाल-त्रि०(सुखानुपाल) सुखेनानुपाल्यते इति सुखानुपालः / माणुसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं। जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वाबाहं सुरक्षे, पञ्चा० 17 विव० उवगयाणं // 1 // " इति 10, निष्क्रमणसुखं चारित्रसुखमुक्तम् / स्था० सुहत्थ-त्रि०(सुखार्थ) सुखनिमित्ते, रा० 10 ठा०३ उ०।"दव्वादिएहि निच्चां, एगतेणेव जेसि अप्पाओ। होइ सुहत्थि-पुं०(सुहस्तिन्) गन्धहंस्तिनि, भ० 15 श० / स्थूलभद्रस्वाअमावो तेसिं, सुह दुहसंसारमोक्खाणं॥" दश०७ अ०। (सिद्धसुखं मिनांदशपूर्वधरे शिष्ये, कल्प०२ अधि०५ क्षण। स्था०। ज्ञा०। आ० 'सिद्ध' शब्देऽस्मिन्नेव भागेउक्तम्।)(सुखदुःखकारणयोः सिद्धिः 'कम्म' म०आव०। आ० क०।०। आ० चूला राजगृहवास्तव्येषु कालोदाशब्दे तृतीयभागे 256 पृष्ठे उक्ता।) सुखहेतुत्वात् सुखम्। उपशमश्रेण्यां य्यादिष्वन्याथिकेषु अन्यतमे, भ०७श०१० उ०मन्दरस्य दक्षिणपूर्वे शमकं प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायरूवायां गुणवयविस्था शीताया दक्षिणदिग्रहस्तिकूटे, जं०४ वक्ष०। याम, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। विपा०। राज्यैश्वर्यादौ, अष्ट० 21 अष्ट। सुर्हद-पुं०(सुहृत) "स्वरादसंयुक्तस्यानादेः" ||8/2 / 176 / / अनार्यासे, नं० / शरीरमनसोऽनुकूले, आचा०१ श्रु०३ अ०१ उ०॥ इत्याधिकारात्। क-ग-च-ज-त-द-प-य-वा प्रायो आव०ा अट। लुक् / / 1 / 1 / 177 / / समासे तु वाक्यविभक्त्यपेक्षया भिन्नपद्रत्वमपि सुहअ(आ)-पुं०-स्त्री०(शुभग(गा)"ऊत्सुभगमुसले वा" ||8|1| विवक्ष्यतेतेनतत्र यथादर्शनमुभयमपि भवति।सुहदाः सुहओ इत्यादि। 113|| इत्यनयोरादेरूत् विकल्पेन / स्त्रीभिः काम्ये पुरुष, पुरुषेण च मित्रे, प्रा०१ पाद। काम्यायां स्त्रियाम्, प्रा०१ पाद। सुहदय्वाइसमुदय-पुं०(शुभद्रव्यादिसमुदय) प्रशस्तद्रव्यप्रभृतीनां सुहकम्माणुबंध-पुं०(शुभकर्मानुबन्ध) कुशलकर्मानुबन्धे, पं० सू०१ सूत्र।। समवाये, पञ्चा० 15 विव०। Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहधाउजोगभाव 1016 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुहम्मा सुहधाउजोगभाव-पुं०(शुभधातुयोगभाव) शुभाना सुन्दराणां धातूनां वातपित्तकफानां योगानां कायादिव्यापाराणां भावः सत्ता शुभधातुयोगभावः / शुभानां धातूनां सम्बन्धे, पञ्चा०५ विव०। सुहदुक्खसंपओग-पुं०(सुखदुःखसम्प्रयोग) सुखदुःखयोरकल्पिते योगे, दश०१ अ०। सुहदुक्खसमण्णिय-त्रि०(सुखदुःखसमन्वित) सुखमानन्दरूपंदुःखमसातोदयरूपमिति ताभ्यां समन्वितो युक्तः / सातासातयुक्ते, सूत्र०१ | श्रु०१ अ० 3 उ०। सुहदुक्खिय-त्रि०(सुखदुःखित) सुखदुःखोपसपंन्नके, व्य०४ उ०॥ सुहदुहनिव्विसेस-त्रि०(सुखदुःखनिर्विशेष) हर्षशोकादिरहिते, प्रश्न 5 संव० द्वार। सुहपगइ-स्त्री०(शुभप्रकृति) पुण्यप्रकृतिषु, कर्म०५ कर्म०। सुहपडिबोहा-स्त्री०(सुखप्रतिबोधा) सुखेनाकृच्छ्रेण नखच्छोटिकामात्रेणापि प्रतिबोधो- जागरणं स्वप्तुर्यस्यां स्वापवास्थायां सा सुखप्रतिबोधा / निद्राविशेष, कर्म०१ कर्म०। सुहपय-न०(सुखपद) जइ वि अवराहण पत्तो तहा विपच्छित्तं भवतीति लक्षणे प्रायश्चित्तदाने, नि० चू०१ उ०। सुहपरिकम्मणा-स्त्री०(सुखपरिकर्मणा) सुखा-सुखकारिणी परिकर्मणा कृतविश्रामणं यस्यां सा सुखपरिकर्मणा। अङ्गसम्बाधनाभेदे, कल्प०१ अधि०३ क्षण। सुहपसुत्त-त्रि०(सुखप्रसुप्त) सुखेनैव शयाने, आ० म०१ अ०। आव०॥ सुहप्पदाया-त्रि०(सुखप्रदातृ) सुखदे, "सर्वाणि सत्त्वानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुःखाच समुद्विजन्ति / तस्यात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात्, सुखप्रदाता लभते सुखानि॥१॥" सूत्र०१ श्रु०३ अ०४ उ०। सुहफल-त्रि०(शुभफल) अभिमतफले, पञ्चा० 4 विव०। सुहफास-त्रि०(सुखस्पर्श) सुखः-कोमलः स्पर्शो यस्य स सुखस्पर्शः। शुभस्पर्श, रा०। चं० प्र० / सू० प्र०। स० / जं०। सुखहेतुस्पर्श, रा०। आ० म०१०प्र०। सुहभाव-त्रि०(शुभभाव) गुणानुरागरूपेषु शोभनपरिणामेषु, पञ्चा०७ विव० / प्रायश्चित्ततथा विवक्षितसत्परिणामे, पञ्चा० 16 विव०! उदारतया प्रवर्धमानप्रशस्ताध्यवसायेषु, पञ्चा०८ विव०। सुहभावजुय-त्रि०(शुभभावयुत) विशिष्टक्रियावत् प्रशस्ताध्यवसाय- 1 विशेषोपेते, पञ्चा०१८ विव०। सुहभावबुद्धि-स्त्री०(शुभभाववृद्धि) कुशलाशयवृद्धौ, पं०व०५ द्वार ! पञ्चा०॥ सुहमोग-पुं०(शुभभोग) शुभो-निन्दितो भोगो विषयेषु भोगक्रिया यस्येति / अनिन्दितक्रियायुक्ते, स्था० 10 ठा०३ उ०। सुखभोग-पुं० सुखमवे सातोदयसंपाद्यत्वात्तस्य भोगः सुखभोगः / सुखभेदे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सुहभोगि-त्रि०(सुखभोगिन्) सुखम्-आनन्तरूपं भुनक्तीति सुखभोगी। सुखाऽऽस्वादके, आचा०१श्रु०२ अ०३ उ०। सुहमण-त्रि०(सुभमनस्) असंक्लिष्टचेतसि, प्रश्न०१ सर्व० द्वार। सुहमेत न०(सुखभात्र) सामान्येनैव वैषयिकं सुखे पदपथ्याहारतृप्तिजनितपरिणामासुन्दरसुखकल्पं स्वपरजीवप्रतिष्ठितं तत्सुखमात्रम् / स्वपरनिष्ठिते यत्क्रिश्चित्सुखे षो०१३ विव०। सुहमोय-त्रि०(सुखमोच) सुखेन भोच्यन्ते इति सुखमोचाः / सुखपरि त्याज्येषु, बृ०२ उ०। सुहम्म पुं०(सुधर्मन्) वीरजिनेन्द्रस्य पञ्चमे गणधरे, कल्प०२ अधि०८ क्षण / (श्रीवीरपट्टे श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चमो गणधरः तद्वणनम् 'अज्जसुहम्म' शब्दे प्रथमभागे 216 पृष्ठे गतम्।) अथ पञ्चमगणधरवक्तव्यतमिभिधित्सुराहते पव्वइए सोउं,सुहम्म आगच्छई जिणसगासं। वचामिण वंदामी, वंदित्ता पञ्जवासामि॥१७७०।। व्याख्या पूर्ववत्, नवरं सुधर्मनामा द्विजोपाध्यायाऽत्रवक्तव्यः। आगतस्य तस्य भगवता किं कृतमित्याहआभट्ठो य जिणेणं, जाइजरा-मरणविप्पमुकेणं / नामेण य गोत्तेण य, सव्वण्णू सव्वदरिसीणं / / 1771 / / व्याख्या पूर्ववदिति / विशे०। कल्प० / आ० म०। (सुधर्मस्वामिन आयुरादि 'गणहर' शब्दे तृतीयभागे 816 उक्तम्।) सुहम्मा-स्त्री०(सुधर्मा) चमरादीनामिन्द्राणां सूर्यादीनांचमहर्द्धिकदेवानां सभा सुधासभा। देवसभायाम्, रा०। प्रति० 01 आ० म०। प्रश्न० / सभानां मध्ये सुधर्मा श्रेष्ठा। सूत्र०१ श्रु०६ अ०। स्था०। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा छत्तीसं जोयणाइं उड़े उच्चत्तेणं होत्था। (सू०३६४) स०३६ सम०। चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो सभा सुहम्मा, एकावन्न खम्भसयसन्निविट्ठा पण्णत्तां / (सू०११४) स०५ सम०। ('सूरियाभ' शब्दे वक्ष्यते एषा।) सुधर्मावर्णकःकहि णं मंते ! सकस्स देविंदस्स देवरणो समा सुहम्मा पण्णत्ता? गोयमा! जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्सदाहिणेणं इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए० एवं जहा रायप्पसेणइजे०जाव पंचवडिंसगा पण्णत्ता,तं जहा-असोयवडिसए० जाव मज्णे सोहम्मवडिंसए से णं सोहम्भवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरसं य जोअणसयसहस्साइं आयामविक्खं भेणं / एवं जहा सूरिया तहेव माणं तहेव उववाओ / सकस्स य अभिसेओ तहेव जहा सूरिसाभस्स अलंकारअचणिया तहेव० जाव आयरक्ख त्ति, दोसागरोवमाइं ठिई०। सके णं भंते ! देविंदे देवराया के महिड्डीए० जाव के महसोक्खे ? गोयमा ! महिड्डीए० जाव महसोक्खे से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयस Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहम्मा 1020- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुहवुड्डि हस्साणं० जाव विहरइ, एवं महिड्डीए० जाव महासोक्खे सके सीहादणे पुरस्थाभिमुहे निसीयइ, तए ण सक्कास *3 अधरूत रेणं देविंदे देवराया सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (सू०४०७+) उत्तरपुरच्छिमेणं चउरासीईसामाणियसाहस्सीओ निसीयंति, पुरथिमेण 'कहि ण' मित्यादि "एवं जहा रायप्पसेणइज्जे" इत्यादि-करणादेवं अट्ठ अग्गमहिसीओ, दाहिणपुरत्थिमेणं अभितरिया परिसा बारसदेवदृश्यम्-"पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उड़े चंदिमसूरिय साहस्सीओ निसीयंति, दाहिणेणं मज्झिमियाएपरिसाए चोहसदेवसाहगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूइं जोयणाई बहूइं जोयणसयाई एवं स्सीओदाहिणपचत्थिमेणं बाहिरियाएपरिसाए सोलस देवसाहस्सीओ सहस्साइं एवं सयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयण "पचत्थिमे णं सत्त अणीयाहिवइणो / तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स कोडाकोडीओ उर्दु दूरं वीइवइत्ता एत्थणं सोहम्मे नामं कप्पे पण्णत्ते' देवरण्णो चउद्दिसिं चत्तारि आयरक्खं देवचउरासीइसाहस्सीओ इत्यादि 'असोयवडिंसए' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-"सत्तवन्नवउँसए निसीयंति' इत्यादीति, केमहिड्डीए' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'केचंवगवडेंसए चूयवडेंसए" त्ति विवक्षिताभिर्धयसूचिकाचेयमतिदेश महजुइए महाणुभागे के महाजसे के महाबले' त्ति। 'बत्तीसाएविमाणावासगाथा- "एवं जह सूरियाभे, तहेव माणं तहेव उववाओ। सक्कस्स य सयसाहस्साणं' इह यावत्करणा-दिदं दृश्यम्-"चउरासीएसामाणियअभिसेओ, तहेव जह सूरियाभस्स // 1 // " इति एवम्-अनेन क्रमेण साहस्सीणं तायत्तीसाएतायत्तीसगाणं अठ्ठणं अगमहिसीणं० जाव अन्नेसिं यथा सूरिकाभे विमाने राजप्रश्नकृताख्यग्रन्थोक्ते प्रमाणमुक्तं तथैवा च बहूणं देवाणं देवीण य आहिवचं० जाव कारेमाणे पालेमाणे''त्ति।भ० स्मिन् वाच्यं तथा यथा सूरिकाभाभिधानदेवस्य देवत्वेन तत्रोपपात १०श०६उ०। उक्तस्तथैवोपपातः शक्रस्येह वाच्योऽभिषेकश्चेति, तत्र प्रमाणमायामवि- सुहय-त्रि०(सुभग) मनोरमे, 'लट्ठवंतं सुहयं मणोरमं चारुरमणिशं, पाइ० ष्कम्भसम्बन्धिदर्शितम्शेषं पुनरिदम्-'म्यालीसंचसयसहस्साईबावन्नं ना०८ वर्ग। सहस्साई अट्ठय अडयाले जोयणसएपरिक्खेवेणं ति।" उपपातश्चैवम्-- सुहर-त्रि०(सुभर)न्यूनोदरतया आहारपरित्यागिनि, दश०८ अ०। 'तेणं कालेणं तेणं समएणं सो देविंदे देवराया अहुणोववन्नमेत्ते चेव समाणे सुहरा (देशी) चटिकाभेदे, यस्या अधोमुखं नीडं भवति। दे० ना० 5 वर्ग पंचविहाए पज्जत्तीए पञ्जत्तिभावं गच्छइ, तं जहा- आहारपज्जत्तीए' 36 गाथा। इत्यादि, अभिषेकः पुनरेवम्- 'तएणं सक्के देविंदे देवरायाजेणेव अभिसे सुहरासि-पुं०(सुखराशि) सुखसंघाते, आ० म०१ अ०। असभा तेणेव उवागच्छइतेणेव उवागच्छिता अभिसेयसभं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे अणुप्पयाहिणी-करेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, सुहरिण्णिगा-स्त्री०(सुहरिण्यिका) वनस्पतिविशेषे, / जी०३ प्रति०४ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणवरगए अधि०। पुरत्थाभिमुहे निसणे,तएणं सक्कस्स* देविंदस्स देवरायस्स सामाणि- सुहरूव--त्रि०(सुखरूप) सातागौरवस्वभावे, सूत्र० 1 श्रु०६ अ01 यपरिसोववण्णगा देवा आभिओगिए देवे सद्दावेंति सद्दावित्ता, एवं | सुहलेस्सा-स्त्री०(सुखलेश्या) सुखदतेजसि, जं०७ वक्ष०।सुखलेश्यावयासी-खिप्पामवे भो ! देवाणुप्पिया ! सक्कस्स*३ महत्थं महग्धं श्चन्द्रमसोन शीतकाले मनुष्यलोक इवात्यन्तशीतरश्मय इत्यर्थः, सू० महरिहं विउलं इंदाभिसेयं इंदाभिसेयं उवट्ठवेह' इत्यादि, 'अलंकार- प्र०१६ पाहु०। अचणिया य तहेव' त्ति, यथा सूरिकाभस्य तथैवालङ्कारोऽर्वनिका सुहदाससुरभिगंध-पुं०(शुभवाससुरभिगन्ध) शुभवासैःसुन्दरचूर्णैः सुष्टु चेन्द्रस्य वाच्या, तत्र अलङ्कारः, 'तएणं से सक्के देवे तप्पढमयाएपम्हल- गन्धे, तं०। सूमालाए सुरभीए गंधकासाइयाए गायाई लूहेइ लूहेत्ता सरसेणं सुहविण्णाप-त्रि०(सुखविज्ञाप्त) सुखेनैव प्रबोध्ये, सुहविणप्पा सुहण्णो गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिंपित्तानासानीसा-सवायवोज्झं __त्ति। नि० चू०२ उ०। चक्खुहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलकणगखचियंत सुहविण्णवणा-स्त्री०(सुखविज्ञापना) सुखेन विज्ञापना-प्रार्थना यस्यां कम्मं आगासफालियसमप्पभं दिव्वं देवदूसजुयलं नियंसेति नियंसित्ता सा। अनायाससाध्यायां सुप्रतिसेव्यायां स्त्रियाम्, बृ० 1303 प्रक०। हारं पिणद्धेति' इत्यादीति अर्चनिकालेशस्त्व म्,-तएणं से सक्के *3 सुहविवाग-पुं०(शुभविपाक) शुभकर्मपरिणामे विपाकश्रुते, प्रथमविपाके सिद्धाययणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता जेणेव देवछंदए जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता दर्शितोऽयम्। स० 146 सूत्र। जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेइ, आलो० करेत्ता लोमहत्थग गेण्हइ, सुहविवागोत्तम-त्रि०(शुभविपाकोत्तम) शुभविपाक उत्तमो येषांतेशुभलोम० ण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थेणं पमजइ जिण० जित्ता विपाकोत्तमाः। सुखैषिषु, स०१४६ सूत्र०। जिणपडिमाआ सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेइ त्ति० जाव आयरक्ख त्ति, | सुहविहार-पुं०(सुखविहार) सुखेनैव वासकल्पविधिना विहर्तुं शक्ये, अर्चनिकायाः परो ग्रन्थस्तावद्वाच्यो यावदात्मरक्षाः सचैवं लेशतः-'तए / बृ०१उ० 3 प्रक०। णं से सक्केदेविंद देवराया संभ सुहम्मं अणुप्पविसइ अणुप्पविसित्ता | सुहवुड्डि-स्त्री०(शुभवृद्धि) कल्याणोपचये सुखवर्द्धने, पञ्चा० 4 विव०। "ST Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहवेयणतर 1021 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुहसेज्जा सुहवेयणतर-त्रि०(सुखवेदनतर) सुखेन-अक्लेशेन वेदनम्-- अनुभवनं / सुखशीलव्यक्ताः।पार्श्वस्थादिमन्दधर्मसु, नि० चू० 16 उ०। यस्याऔ सुखवेदनतरः। अक्लेशेनैव वेधे, भ०१४ श०२ उ०। सुहसुरभिमणहर-पुं०(सुखसुरभिमनोहर) गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मसुहवेयतर-त्रि०(सुखवेद्यतर) अकृच्छ्रानुभवनीये, स्था०२ ठा० १उ०। | नोहरेषु, रा०। सुहसंकमण-न०(सुखसंक्रमण) सुखस्य-मुक्तिरूपस्यवा विशिष्ट- | सुहसेउकेउबहुल-त्रि०(शुभसेतुकेतुबहुल) शुभाः-प्रधानाः सेतवोगुणप्रकृतिरूपस्य संक्रमणं- संक्रान्तिः सुखसंक्रणम् / संसारदुः मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वत्ता बहुला अनेकरूपोयेषां तेतथा। खादशुभादा निःसरणेन सुखप्राप्तौ, "सुसमणरिंदचंदा, सुहसंकमणं ममं अनेकैः शुभैः सेतुभिः केतुभिश्च कलिते, जी०३ प्रति० 4 अधि० / दितु।" संथा०। सुहसेजा-स्त्री०(सुखशय्या) सुखदाः शय्याः सुखशय्याः। सुखदशसुहसंगय-त्रि०(सुखसंगत) आनन्दयुक्ते, हा०३२ अष्ट०। य्यायाम, पा० / ध०। सुहसंथरण-न०(सुखसंस्तरण) सुखेन निस्तारहेतौ, व्य०४ उ०।। चत्तारिय सुहसिजाओ पन्नत्ताओ। तत्थ खलुइमा पढमा सुहसेजा-से सुहसण्णा-स्त्री०(सुखसंज्ञा) वेदनीयोदयजे सातानुभवे, आचा०१श्रु० णं मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए निगथेपावयणे निस्संकिए १अ०१ उ०1 निकखिए निव्वितिगिच्छे नां भेयसमावन्नो नो कलुससमावन्ने निग्गथं सुहसयण-पुं०(शुभस्वजन) असंक्लिष्टबान्धवे, पञ्चा०७ विव०। पावयणं सद्दहइ पत्तियइ रोएइ निग्गंथं पावयणं सद्दहमाणे पत्तियमाणे रोएमाणे नो मणं उच्चावयं नियच्छइने विणिग्घायमावजई ! पढमा सुहसेज्जा सुहसाय-पुं०(सुखशात) सुखस्य वैषयिकस्य शातः सुखशातः / // 1 // अहावरा दोचा सुहसेजा-सेणं मुण्डे भवित्ता० जाव पव्वइएसएणं वैषयिकस्य सुखस्य स्पृहानिवारणेनापयने, उत्त०।संयमादिषु सत्स्वपि लाभेणंतुस्सइपरस्सलंभंनो आसाएइ नो पीहेइ नऐपत्थेइनो अभिलसइ सुखशातेन एव प्रवर्तनीयम्, अतस्तत्फलमाह परस्स लाभं अणासाएमाणे० जाव अणभिलसमाणे नो मणं उच्चावयं सुहसाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं नियच्छइ नो विणिग्धायमावजइ दोचा सुहसेज्जा // 2 / / अहावरा तचा जणयह अणुस्सुएणं जीवे अणुकंपए अणुन्मडे विगयसोगे सुहसेजा, सेणं मुण्डे भविता० जाव पव्वइए दिव्वमाणुस्सए कामभोगेनो चरितमोहणिज्जं कम्म खवेइ // 26 // आसाएइ० जाव नो अभिलसइ दिव्वमाणुस्सए कामभोए नियच्छइ नो हे भदन्त ! हे स्वामिन् ! सुखस्य वैषयिकस्य शातः स्पृहा-निवारणेन विणिग्घायमावजइ। तच्या सुहसेज्जा ॥३॥"अहावरा चउत्था सुहसेज्जा, अपनयनं सुखशातस्तेन जीवः किं जनयति, गुरुराह-हे शिष्य ! सेणं मुण्डे० जाव, पव्वइए, तस्सणंएवं भवइजह ताव अरहन्ता भगवन्ता सुखशातेन अनुत्सुकत्वं जनयति, विषयसुखेऽनुत्तालत्वं जनयति हट्ठा अरोगा बलिया कल्लसरीरा अन्नयराइंउरालाइंकल्लाणाई विपुलाई अनुत्सुकश्च जीवोऽनुकम्पते अग्रेतनं जीवं दृष्ट्वा अनुकम्पको; दयावान् पयत्ताई पग्गहियाई महानुमागाई कम्मक्खयकारणाई तवोकम्माई भवतीत्यर्थः / पुनरनुगटोऽभिमानरहितः शृङ्गारादिशोभारहितः स्यात्। पडिवजन्ति, किमङ्ग ! पुण अहं अब्भोवगमिउवक्कमियं वेयणं तो सम्म पुनस्तादृशः सन् विगतशोकः इह लौकिककार्यभ्रंशादावपि शोचनं न सहामि खमामि तितिक्खेमि अहियासेमि, ममं च णं अब्भोवगमिउवकुरुते पुनस्तादृशो मोक्षार्थी शुभाध्यवसायवर्ती कषायनोकषायरूप क्वमियं वेयणं सम्मं अहसमाणस्स अणहियासेमाणस्स किं मन्ने कज्जइ? चारित्रमोहनीयरूपं कर्म क्षपयति। उत्त०२६ अ०। एगंतसो मे पावे कम्मे कज्जइ, ममं च णं अब्भोवगमिउ० जाव सम्म सुहसाय-त्रि०(सुखास्वाद) सुखम् आनन्दरूपमास्वादयन्तीति सुखा सहमाणस्स० जाव अहियासेमाणस्स किंमन्ने कजइ ? एगन्तसोमे निजरा स्वादाः।सुखभोगिषु, सुखैषिषु, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ01 कजइ। चउत्था सुहसेज्जा // 4 // " सुहसील-त्रि०(शुभ–सील) सुखं शुभंवा सुखकरत्वाच्छीलंस्वभावोयस्य अस्य चतुर्थसूत्रस्य व्याख्यानम्- 'हट्ठ' त्ति-शोकाभावेन हृष्टा इव सः सुखशीलः शुभशीलो वा / सं०। सुखेन जीवनशीले, नि० चू०१ हृष्टाः, अरोगा 'ज्वरादिवर्जिताः, बलिकाः-प्राणवन्तः, कल्पशरीराः-- उ०। ('मूलगुणपडिसेवणा' शब्दे षष्ठभागेऽत्रत्यविस्तरोगतः।) पटुशरीराः, अन्यतराणि अनशनादीनां मध्ये एकतराणि, उदाराणि सुहसीलगुण-पुं०(सुखशीलगुण) सुखशीलस्य-शाताभिलाषिणो आशंसादोषरहिततथोदारचित्तयुक्तानि, कल्याणानि मङ्गलस्वरूपगुणाः- पार्श्वस्थादिस्थानानि सुखशीलगुणाः / पार्श्वस्थादिषु शील- त्वात्, विपुलानि बहुदिनत्वात्, प्रयतानि प्रकृष्टसंयमयुक्तत्वात्, लगुणेषु, ग०१ अधि। प्रगृहीतानि आदरप्रतिपन्नत्वात्, महानुभागानि अचिन्त्यशक्तियुक्तसुहसीलवियत्त-त्रि०(सुखशीलव्यक्त) सुखे शीलं व्यक्तं येषां ते | त्यात्, ऋद्धिविशेषकारणत्वाद्वा कर्मक्षणकारणानि मोक्षसाधनत्वात्, Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहसेज्जा 1022 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सहुम तष कर्माणि तप क्रियाः, प्रतिपद्यन्ते आश्रयन्ति, 'किमङ्ग ! पुणं' त्ति---/ सुखः सुखस्वरूपः आबासो यस्यां सा सुखावासा। ज्ञा०१ श्रु०१अ०। किं प्रश्ने, अङ्गेन्यामन्त्रणेऽलङ्कारे, सा पुनरिति पूर्वोक्तार्थवैलक्षण्यदर्शने, सुखदवसतौ, रा०। औ०। शिरोलोचब्रह्मचर्यादीनामभ्युपगमे भवाभ्युपगमिकी उपक्रम्यतेऽनेनायुरि सुहासणत्थ-त्रि०(शुभासनस्थ) शुभे आसने निषण्णे, व्य०२ अ01 त्युपक्रमो ज्वरातीसारादिस्तत्र भव या सौपक्रमिकी तां वेदना, सहामि सुहासय-पुं०(शुभाशय) शुभपरिणामे, षो०१ विव०।शुभचित्ते, प्रति० / तदुत्पत्तावविमुखतया, क्षमे विकोपतया, तितिक्षामि अदीनतया, अश्यासयामि सौष्ठवातिरेकेण तत्रैव वेदनायामवस्थान करोमीत्यर्थः / सुहासव-पुं०(शुभाश्रव) पुण्याश्रवे, आव० 4 अ०! मन्ये निपातो वित्तर्कार्थः, क्रियते भवतीत्यर्थः / पा०। सुहासा-स्त्री०(सुखासा) सुखेच्छायाम्, अष्ट०१६ अष्ट। सुहहत्थ-पुं०(शुभहस्त) प्रशस्तकरे, विपा०१ श्रु०७ अ०। सुहि-त्रि०(सुखिन) सुखमस्यास्तीति सुखी। दश०२ अ०। सुखं प्राप्ते, [ औ० / प्रज्ञा० / उत्त०। "आ आमन्त्र्ये, सौ वेनो नः" ||8 / 2 / 263 / / सुखहस्त-पुं० सुखहेतुस्ते, विपा०१ श्रु०७ अ०। शौरयेन्यामिनो नकरस्यामन्त्र्ये सौ परे आकारो भवति। सुहिया ! प्रा० सुहहेउ-पुं०(सुखहेतु) भाविसुखकारणे, पञ्चा० 15 विव०। ४पाद। सुहा-स्त्री०(सुधा) अमृते, अष्ट०११ अष्ट०। स्था० / पक्वपाषाशर्करासु सुहृत्-पुं० मित्रे, ध०२ अधि०। सूत्र०। शुभ्रायाम्, पञ्चा०२ विव०। सुहिभाव-पुं०(सुखिभाव) सुखित्वे, अने०१ अधि०। शुमा-स्त्री० शुभविपाकायां कर्मप्रकृती, पं० सं०३ द्वार।यास्तुजीवप्रमोद हेतुरसोपेतास्ताः शुभाः। पं० सं०३द्वारा प्रति०। सप्तदशस्य तीर्थकरस्य सुहिय-त्रि०(सुहित) सुष्ठु हितंज्ञानादित्रयं येषां ते सुहिताः रत्नाधिकेषु, प्रथमप्रवर्तिन्याम्, प्रच०६ द्वार। ध०२ अधि० जी०। आचा०। सुखा-स्त्री० विशिष्टाह्लादरूपायाम्, पञ्चा० 3 विव०। सुहृद-पुं० मित्रे, बृ०१ उ०२ प्रक० / नि०। सुहाकम्म न०(सुधाकर्मन्) यत्र सुधापरिकर्म क्रियते तादृशे, स्थाने, सुहियजण-पुं०(सुहृज्जन) हितैषिणि, स्था० 4 ठा०३ उ०। दशा० 10 अ०। आचा०। सुहिरणिया-स्त्री०(सुहिरण्यिका) वनस्पतिविशेषे, आ० ग०१ सुहाकुंड-न०(सुधाकुण्ड) श्रीजीवदवीरस्वामिप्रतिमाविभूषिते स्वनाम अ०। रा०। प्रज्ञा०।नं०। ख्याते तीर्थे, ती० 43 कल्प। सुहिरीमण-त्रि०(सुहीमनस्) सुष्ठु हीर्लज्जा तस्यां मनोऽन्तःकरणं येषां सुहागदेवी-स्त्री०(सुहागदेवी) जिनदासभिधश्रावकभार्यायाम, सेन०३ ते सुहीमनसः। लज्जालुषु, सूत्र०१श्रु०१६ अ०। उल्ला०। ('सिबंकर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा गता।) सुहुत्तमवरिट-त्रि०(उत्तमसुखवरिष्ठ) उत्तमं च तत्सुखं च तेन बरिष्ठा सुहाणुबंध-पुं०(शुभानुबन्ध) अविच्छिन्नकल्पाणसन्ताने, पञ्चा०७ वरतमाः। सुखोत्तमेन श्रेष्ठेषु, आचा०१ श्रु०५ अ० 130 / / विव० / कुशलानुबन्धे, पञ्चा०७ विव०। सुहुत्तर-त्रि०(सुखोत्तर) सुखेन तीर्यते इति सुखोत्तरः।सुखाल्लङ्घनीये, सुहाणुबंधि-त्रि०(शुभानुबन्धिन) कुशलं प्रत्यायाति पुनर्बोधिलाभ उत्त०२ अ० भोगप्रव्रज्याकेवलशेलेश्यपवर्गानुवन्धिषु, आव० 4 अ०। सुहुम-त्रि०(सूक्ष्म) "तन्वीतुल्येषु" ||1 / 113 // उकारान्तासुहाभिगम-त्रि०(सुखाभिगम) सर्वजननयनानां कान्ते, स०। श्रीप्रत्यान्तास्तन्वीतुल्यास्तेषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व उकारो भवति, क्वचिदन्यत्रापि आर्षे / सुहुमं सूक्ष्मम्। प्रा० / अल्पे, पा० / मन्दे, सुहायपरिणामरूप-त्रि०(सुधात्मपरिणामरूप) प्रशस्तजीवाध्यय स्था०७ ठा०३ उ०।अत्यन्तगहने, आव० 4 अ०। सूक्ष्मनामकर्मोसायस्वभावे, पञ्चा० 10 विव०। दयात् सूक्ष्माश्चैते ये सर्वस्तोकावन्नाः / स्था० 2 ठा० 1 उ० / येषां सुहारूहसुहोत्तार-त्रि०(सुखारोहसुखोत्तार) सुखेनारोहणमूर्ध्वगमनं परिणामस्सूक्ष्मस्ते सूक्ष्माः। स्था०२ ठा०३ उ०। उत्त०। सारे, ज्ञा०१ सुखेनोत्तारोऽधस्तादवतरणं यस्य सोपानपक्तयादिभिः स सुखारोह श्रु०१अ०।लोभाणून-वेदयन् सूक्ष्मो भण्यते सूक्ष्मसम्पराय इत्यर्थः। सुखोत्तारः। सुखेनोर्ध्वमधस्ताच गन्तरि, जी०३ प्रति० 4 अधि०। आव०४ अ०। सूत्र०। सूक्ष्मोऽसंख्यातकिट्टिकावेदनतः, स्था०२ ठा० सुहावबोध-पुं०(सुखावबोध) सुखपरिज्ञाने, षो० 4 विव०। १उ०। प्रव०। मृदुतस्पर्शे अर्थे, जी०३ प्रति०४ अधि०। सूक्ष्मनामर्भोद्भवे सुहावह-त्रि०(सुखा (शुभा) वह) सुखं शुभं वा आवहतीति सुखावहः / दर्श० 4 तत्त्व / प्रश्न० / पं० सं० / सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तित्वात्, स्था०१० ठा०३ उ०॥ दश०। उभयलोकसुखकरे, जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पृथिव्यादिषु एकेन्द्रियेषु, स०। नं०। स्था० / पश्चिमे शीतोदाया महानद्या दक्षिणे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते, स्था० अष्ट सूच्माणि४ ठा० 1 उ० / देवकुरुषु विजयक्षेत्रपुद्गलस्वनामख्यातायां नगर्याम् , अट्ठसुहुमापण्णत्ता,तंजहा-प्राणसुहमे पणगसुहमे बीयसहमे स्था०। हरियसुहुमे पुप्फसुहुमे अंडसुहुमे लेणसुहुये सिणेहसुहुसे / दो सुहावहा। स्था०२ ठा०३ उ01 (सू०६१५) सुहावासा-स्त्री०(सुखावासा) विश्वस्तानां निभ्रयानामनुत्सुकाचा वा | 'अट्ठ सुहुम' त्यादि, सूक्ष्मादि श्लदणत्तादल्पाणारतयाज, Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहुम 1023 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुहुमकाय तत्र प्राणसूक्ष्मम् अनुद्धरिः कुन्थुः स हि चलन्नेव बिभाव्यते न स्थितः मर्यादिविर्तिना तज्झेन तत्प्ररूपणा कार्या, एवं हि श्रोतुस्तत्रापादेयसूक्ष्मत्वादिति 1, पनकसूक्ष्म पनकः-उल्ली, स च प्रायः प्रावृट्काले बुद्धिर्भवत्यन्यथा विपर्यय इति सूत्रार्थः। भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्रव्यलीनो भवति, स एव सूक्ष्ममिति एवं सर्वत्र सिणेहं पुप्फसुहुमं च, पाणुत्तिंगं तहेब य। 2, तथा बीजसूक्ष्मंशाल्यादिबीजस्य मुखमूले कणिका लोके या पणगं बीय हरियं च, अंडसुहुमं च अहमं / / 15 / / तुषमुखमित्युच्यते 3, हरितसूक्ष्मम्- अत्यन्ताभिनवोद्भिन्नपृथिवी- 'सिणेहं' ति सूत्रं, 'स्नेह' मिति स्नेहसूक्ष्मम्- अवश्यायहिममहिसमानवणं हरतिमेवेति 4, पुष्पसूक्ष्म- वटोदुम्बराणां पुष्पाणि तानि काकरकहरतनुरूपं, पुष्पसूक्ष्मं चेति वटोदुम्बराणां पुष्पाणि, तानि तद्वणीनि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते 5, अण्डसूक्ष्म-मक्षिकाकीटिका- तद्वर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते 'पाणी' ति प्राणिसूक्ष्ममनुद्धरिःगृहकोकिलाब्राह्मणीकृकलास्याद्यण्डकमिति 6, लयनसूक्ष्म लयनम्- कुन्थु, स हि चलन् विभाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वात्। 'उत्तिंग तथैव चे' आश्रयः सत्त्वानां तच कीटिकानगरकादि, तत्र कीटिकाश्चान्ये च सूक्ष्माः त्युत्तिङ्गसूक्ष्मंकीटिकानगरं, तत्र कीटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति। सत्त्वा भवन्तीति 7, स्नेहसूक्ष्ममवश्यायहिममहिकाकरक-हरिततनु- तथा पनक' मिति पनकसूक्ष्म प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्ण-- रूपमिति, स्था०८ ठा०३ उ०। (प्राण सूक्ष्मादीनां व्याख्यां स्वस्व- स्तद्-द्रव्यलीनः पनक इति तथा बीजसूक्ष्मशालयादिबीजस्य मुखमूले स्थान।) (दश सूक्ष्मा इति 'महाणई' शब्दे षष्ठे भागे उक्तम्।) प्रसङ्ग कणिकाः, या लोके तुषमुखमित्युच्यते, 'हरितं चं' ति हरितसूक्ष्म, तस्तट्टीका इह प्रदर्श्यते-प्राणसूक्ष्मम्, अनुद्धरिः कुन्थुः, पनकसूक्ष्मम् तचात्यन्ताभिनवोद्भिन्नं पृथिवीसमानवर्णमवेति, 'अण्डसूक्ष्मं चाष्टम' उल्ली, यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्-बीजसूक्ष्मं व्रीह्यादीनां कणिका मिति। एतच मक्षिकाकीटिकागृहकोलिकाब्रह्मणीकृकलासाधण्डमितिहरितसूक्ष्म भूमिसमवर्ण तृणं पुष्पसूक्ष्मं बटादिपुष्पाणि, अण्डसूक्ष्म सूत्रार्थः॥१५॥ दश०८ अ०२ उ०नि०चू०। समयपरिभाषया सूक्ष्मकीटिकाधण्डकानि, लयनसूक्ष्म कीटिकानगरादि, स्नेहसूक्ष्मम् कायिके पुष्पे, "पुप्फाणि य कुसुमाणि य, फुल्लाणि, य तहेव होंति अवश्यावादीत्यष्टम-स्थानकभणितमेव, इदमपरं गणितसूक्ष्म गणितं पसवाति। सुमणाणि य सुहुमाणि य, पुल्लाणि य होंति एगट्ठा।" दश० सङ्कलनादि तदेव सूक्ष्म सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वात् श्रूयते च वजान्तं 1 अ०। वृ०।"सुहुमो य बायरोवा, दुविधो लोउत्तरो समासेणं। सुहमो गणितमिति / भङ्ग सक्ष्म-भङ्गा भङ्गका वस्तुविकल्पास्ते च द्विधा लोउत्तरिओ, णायव्यो इमेहि ठाणेहिं।।" सुहुमबायरसरूवं वक्खमाणं / स्थानभङ्गकाः, क्रमभङ्गकाश्च / तत्राद्या यथा द्रव्यतो नामैका हिंसा न नि० चू०१ उ०! ईसिममंतभावे सुहुमो परिग्गहो भण्णति। नि० चू०१ भावतः, अन्या भावतो न द्रव्यतः, अन्या भावतो द्रव्यतश्च, अन्या न उ० / आगामिन्यामुत्सर्पिण्यां भविष्यति सप्तमे कुलकरे , पुं०। स्था०७ भावतो नापि द्रव्यते इति, इतरे तु द्रव्यतो हिंसा भावतश्च, द्रव्यतोऽन्या न ठा०.३ उ०। भावतः, न द्रव्यतोऽन्या भावतः, अन्या न द्रव्यतो न भावत इति, सुहुमअपजत-पुं०(सूक्ष्मापर्यत) सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्तिषु एकेन्द्रियातल्लक्षणं सूक्ष्म भङ्गसूक्ष्म, सूक्ष्मता चास्यभजनीयपदबहुत्वे गहनभाबेन पर्याप्तकेषु, स०१४ सम०। सूक्ष्मबुद्धिगम्यत्वादिति पूर्व गणितसूक्ष्ममुक्तमिति / स्था० 10 ठा० 3 सुहुमअइयार--पुं०(सूक्ष्मातिचार) लघुवारित्रखण्डेषु, पं०व०३ द्वार। उ०/दश०। सुहुमकम्म-म०(सूक्ष्मकर्मन्) सूक्ष्मेषु केवलज्ञानदर्शनयथाख्यातसूक्ष्मविधिमाह चारित्राद्यावरकेषु, कर्मसु, द्वा०१४ द्वा०। अट्ठ सुहुमाइ पेहाइ, जाई जाणित्तु संजए। सुहुमकाय-पुं०(सूक्ष्मकाय) ह्रस्तादिके, वस्तुनि, इति वृद्धाः / अन्ये दयाहिगारी, भूएसु, आस चिट्टे सएजवा॥१३॥ त्वाहुः-वस्त्रे, भ०१६ श०३ उ०। सूक्ष्मकायं हस्तादिकं वस्तु मृषा। अष्टौ सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगतः आसीत तिष्ठेच्छयीत वेति अन्ये त्वाहुः सूक्ष्मकायं वस्त्रम्, इति। प्रति०।। योगः / किं विशिष्टानीत्याह- यानि ज्ञात्वा संयतो ज्ञपरिज्ञया पृथिव्यादिषु कतरः कायः सूक्ष्म इति कायमाश्रित्य प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषु भवत्यन्यथा दयाधिकार्येव तेषामेवतरेतरापेक्षया सूक्ष्मत्वनिरूपणायाहनेति, तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एवा सनादीनि कुर्यात्, अन्यथा तेषां 'एयस्स णं भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइ० तेउकाइo सातिचारतेति सूत्रार्थः। वाउकाइ० वणस्सइक इयस्स कयरे काये सव्वसुहुमे कयरे आह काए सव्वसुहुमतराए ? गोमया ! वणस्सइकाइए सव्वसुहुमे! कयराणि अट्ठ सुहुमाणि, जाइ पुच्छिज्ज संजए। वणस्सइक इए सटवसुहुमतराए 1, एयस्स णं मंते ! इमाणि ताणि मेहावि, आइक्खि वियक्खणो॥१४॥ पुढविकाइयस्स आउकइ० तेउक्काइ० वाउक्काइयस्स कयरे कतराण्यष्टौ सूक्ष्माणि याति दयाधकारित्वाभावभयात् पृच्छेत् संयतः। काये सव्वसुहुमे कयरे काये सव्वसुहुमतराए ? गोयमा ! अनेन दयाधिकारिण एव एवंविधेषु यन्नमाह- स ह्यवश्यं तदुपकार- वाउकाए सव्वसुहुमे बाउकयिसव्वसुहुमतराए 2, एयस्सणं काण्यकारकाणि च पृच्छति नत्रैव भावप्रतिबन्धादिति / अमूति भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स तेउकाइयस्स कयरे तान्यनन्तरं वक्ष्यमाणानि मेधावी आचक्षीत् विचक्षण इत्यनेनाप्यतदेवाह | काये सव्वसुहुमे कयरे काए सव्वसुहुमतराए ? गोयमा ! Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहुमकाय 1024 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुहमसंपराय तेउक्काए सव्वसुहुमे तेउक्काए सव्वसुहुमतराए 3, एयस्स णं पञ्चा०१ विव०। भंते ! पुढविकाइयस्स आउकाइयस्स कयरे काए सव्वसुहुमे | सुहुमपुढविकाय-पुं०(सूक्ष्मपृथिवीकाय) सूक्ष्मनामकर्मोदये वर्तमाने कयरे काये सव्वसुहुमतराए? गोयमा! आउक्काए सव्वसुहुमे, पृथिवीकायिके, प्रज्ञा०१ पद! आउकाए सव्वसुहुमतराए। सुहमबोंदिकलेवर-पुं०(सूक्ष्मबोन्दिकलेवर) सूक्ष्मबोन्दीनिसूक्ष्मा_ 'एयरसे त्यादि, 'कयरे काए' त्ति-कतरो जीवनिकायः 'सव्वसुहमे' काराणि कलेवराण्यसंख्यातखण्डीकृतवालुकाकणारूपाणि यत्रोद्धारे स त्ति-सर्वथा सूक्ष्मः सर्वसूक्ष्मः, अयं चचक्षुरग्राह्यतामात्रेण पदार्थान्तर- तथा गोशालकपरिभाषया उद्धारकालभेदे, भ० 15 श०। मनपेक्ष्यापिस्याद् तथा सूक्ष्मोवायुःसूक्ष्मं मन इत्यत्र आह-'सव्वसुह.. सुहुमभावकुसलमइ-पुं०(सूक्ष्मभावकुशलमति) लोकशास्त्रगतामतराए' त्ति सर्वेषां मध्येऽतिशयेन सूक्ष्मतरः स एव सर्वसूक्ष्मतरक इति। स्थूलार्थनिपुणबुद्धिके, पञ्चा० 15 विव०। / भ०१६ श०३ उ०। सुहुममहापाण-न०(सूक्ष्ममहाप्राण) सूक्ष्मे महाप्राणध्याने, "पुव्वाणं सुहुमकाल-पुं०(सूक्ष्मकाल) यावता वालाग्रसङ्ख्यातखण्डैः स्पृष्टाश्चा- अणुओगो, संघयणं पढमं च संहाणं / सुहुममहापाणाणि य, वोच्छिन्ना स्पृष्टाश्चोद्धियन्ते स कालः सूक्ष्मः। सूक्ष्मे काले, स्था०२ ठा० 4 उ० / थूलभद्दम्मि।" ति०। सहमकिरिय-न०(सूच्मक्रिय) सूक्ष्मा क्रिया यत्र निरुद्धवाङ्मनोयोगत्वं सुहुमरययदीहवाल-त्रि०(सूक्ष्मरजतदीर्घवाल) सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा सत्यनिरुद्धयोगत्वात्तत्सूक्ष्मक्रियम् / शुक्लध्यानन्य तृतीयेभेदे, भ० वाला येषां तानि तथा। सूक्ष्मरजतमयवालवत्सु, जी० 3 प्रति०४ 25 श०७ उ०। स्था० / दर्श० / ग0। आव०| अधि०। सुहुमगणिपवेसग-पुं०(सूक्ष्माग्रिप्रवेशक) सूक्ष्मानौ- सूक्ष्माग्निकाये | सुहुमवायुसरीर-पुं०(सूक्ष्मवायुशरीर) वायुरेव शरीरं येषां ते तथा, प्रवेशनमुत्पादो येषां ते सूक्ष्माग्निप्रवेशकाः। सूक्ष्मानेरुत्पन्नेषु जीवेषु, क० सूक्ष्माश्च ते वायुशरीराश्च वायुकायिकाः सूक्ष्मवायुशरीराः। सूक्ष्मवायुप्र०१ प्रक०। कायिकेषु, भ० 16 श०३ उ०। सुहुमणाम-न०(सूक्ष्मनामन्) नामकर्मभेदे, प्रव० 216 द्वारा यदुदया- सुहुमवियार-पुं०(सूक्ष्मविचार) यतिसमाचारप्रकाशनस्वभावे, दर्श०३ त्सूक्ष्मो भवति, अत्यन्तसूक्ष्मः अतीन्द्रिय इत्यर्थः / श्रा० / सूक्ष्मा नाम तत्त्व / यदुदयादहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति। पं० सुहुमसंपराय-न०(सूक्ष्मसम्पराय) सम्पर्येति संसारमनेनेति सम्परायः सं०३द्वार। यदुदयात्सूक्ष्माः पृथिवी-कायिकादयः पञ्च भवन्ति, तदपि कषायोदयः सूक्ष्मो लोभांशावशेषः सम्परायो यत्र तत्सूक्ष्मसम्परायम्। जीवविपाकिसूक्ष्मनामकर्मेपि। कर्म०१ कर्माबादरत्वं परिणामविशेषः, चारित्रभेदेषु चतुर्थे चारित्रे, आ० म० 1 अ० / विशे० / इदमपि द्विविध यदुदयात् पृथिव्यादेरेकैकस्य जन्तुशरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वाभावेऽपि बहूनां विशुद्ध्यमानकम, संक्लिश्यमानकं च। तत्र विशुद्ध्यमानकं क्षपकोपशसमवाये चक्षुर्ग्रहणं भवति। तद्विपरीतं सूक्ष्मनाम। कर्म०६ कर्म०। मश्रेणिद्वयमारोहतो भवति संक्लिश्यमानकं तूपशमश्चेणेः प्रच्यवमानस्य सुहुमतस-पुं०(सूक्ष्मत्रस) तेजोवायुषु. द्वीन्द्रियादीनां बादरत्रसत्वात्। प्राप्तये। विशे०1"सेटिं विलग्गतो तं, विसुद्धमाणं ततो चयंतस्य। तह स्था०६ठा०३ उ०। संकिलिस्समाणं, परिणामवसेण विन्नेयं / / 1 // " आ०म०१ अ० उत्त०। सुहुमतिग-त्रि०(सूक्ष्मत्रिक) सूक्ष्मपर्याप्तसाधाणरूपे, सूक्ष्मोपलक्षिते .पा०। स्था० / विशे० भ०। इह सख्येयानि लोभखण्डानि उपशमयन् त्रिके, कर्म०५ कर्म०।० प्र०॥ बादरसम्पराय उच्यते, चरमस्यतुसंख्येयखण्डस्यासंख्येयानिखण्डानि प्रतिसमयमेकैकखण्डमुपशममन् सूक्ष्मसम्परायः। आ० म०१ अ०! सुहुमत्थवियार-पुं०(सूक्ष्मार्थविचार) सूक्ष्मो मन्दमतिना गम्यो योऽर्थः तथा चाहशब्दाभिधेयं तस्य विचारो विचारणं सूक्ष्मार्थविचारः / सरलस्यार्थस्य विचारणे कर्म०४ कर्म लोभाणू वेयंतो,जो खलु उवसामगो य खवगो वा। सो सुहुमसंपरायो, अहक्खयाऊणओ किंचि॥ सुहुमत्थालोयणा-स्त्री०(सूक्ष्मार्थालोचना) सूक्ष्माश्च तेऽर्थाश्च बन्धमो लोभस्य संज्वलनलोभस्य अणूनसंख्येयतमस्य खण्डस्याक्षादयस्तोषाम् आलोचना सूक्ष्मालोचना / बन्धादिपदार्थे, षो०१२ संख्येयानिखण्डानि वेदयमानोऽनुभवन् उपशमकः क्षपको वा भवति। विव०। सोऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत्सूक्ष्मसंपरायो भण्यते / आ० म०१ अ०। सुहुमदव्वपुग्गल-पुं०(सूक्ष्मद्रव्यपुगल) द्रव्यपुद्रलपरावर्तभेदे, अथ द्रव्ये पं०भा०।सुहुमसंपराइयं, जो वचति सो सुहुमसंपरागो। सुहुमं नामं द्रव्यविषयः सूक्ष्मपुद्रलपरावर्तो भवति, यदौदारिकादिशरीराणामेकेना थोवं, कहं थोवं ? आउयमोहणिज्जवजााओ छ कम्मपयडीओ न्यतमेन शरीरणैको जीवः संसारे परिभ्रमन सर्वानपि पुद्गलान स्पृष्ट्वा सिदिल-बंधणबद्धाओ अप्पकालहितिकाओ महाणभावाओ परिभुज्यमुञ्चति। प्रव० 162 द्वार। अप्पदेसगाओ सुहुमसंपरागस्स वज्झाति, एवं थोवं संपराइयं कम्म सुहुमपयत्थ-पुं०(सूक्ष्मपदार्थ) अस्थूलवस्तुषु कर्मात्मपरिणामादिषु, | तंसबंज्झाति / सुहुमोसंपरागोवा जस्स सो सुहमसंपरागो, सोय असं Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहमसंपराय 1025 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 खेल्जसमइओ अंतोमुहुत्तिओ विसुज्झमाणपरिणामो वा पडियत्तमाण- | व्व तेयसा जलंते" घृतादितर्षितवैश्वानरवत्प्रभया दीप्यमाने, जी०३ परिणामो वा भवति त्ति। आ० चू० 4 असूक्ष्मसंपराया दशमगुणस्थान- प्रति०१ अधि०। वर्तिनः / पञ्चा० 6 विव०। सुहेली-(देशी) सुखे, दे० ना०८ वर्ग 37 गाथा। सुहुमसंपरायगुणहाण-न०(सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान) सूक्ष्मसम्परायो सुहेसग-त्रि०(सुखैषक) सुखस्य एषकः सुखैषकः याजकादित्वात्समासः। द्विधा-क्षपकः, उपशमको वा / क्षपयति उपशमयति वा लोभमेकमिति सुखार्थिनि, आचा०१ श्रु०२ अ०३ उ०॥ कृत्वा तस्य, गुणस्थानं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम्। (एतच्च केवलिन्येव सुहेसि-त्रि०(सुखैषिन्) सुखलालसे, दर्श० 3 तत्त्व। आचा०। सूत्र० / भवतीति विशेषणद्वारेणाह-) तथा छाद्यते केवलज्ञानं केवलदर्शनं सुहोदय-न०(शुभोदक) पवित्रस्नानाहृते गन्धोदके, ज्ञा०१श्रु०१०। चात्मनोऽनेनेति छद्म ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरा-यकर्मोदयः तीर्थोदके, जं०३ वक्ष०। सति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात् तदपगमानन्तरं चोत्पादात, छद्मपि शुभोदय-न० शुभ उदयो यस्य तच्छुभोदयम् / योगिनां शुभोदकें चित्ते, तिष्ठतीति छद्मस्थः / स च सरागोऽपि भवतीत्यतस्तद्व्यवच्छेदार्थ षो०१४ विव०। वीतरागग्रहणं वीतो विगतो रागो मायालोभकषायोदयरूपो यस्य स वीतरागः, स चासौ छमस्थश्च वीतरागछद्मस्थः, स च क्षीणकषायोऽपि सुखोदक-न० नात्युष्णशीते, जले, औ०। भवति तस्यापि यथोक्तरागापगमात्, अतस्तद् व्यवच्छेदार्थ सुहोवओग-पुं०(शुभोपयोग) प्रशस्ताध्यवसाये, पञ्चा० 15 विव०। मुपशान्तकषायग्रहणं 'कषशिर्षे त्यादि दण्डकधातुर्हिसार्थः, कषन्ति सूअरबल्ल-पुं०(शूकरवल्ल) शूकरसंज्ञके कन्दविशेषे, प्रव०४ द्वार। कष्यन्ते च परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः संसारः, कषमयन्ते- सूअरलंछण-न०(शूकरलाञ्छन) स्वनामख्याते क्षेत्रे, "जत्थतस्सेव गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः क्रोधादय उपशान्ताः उपशमिता __भगवओ सूअरलंछणाणत्थणं पडुबदेवेहि महिमा कया, तत्थयसूअरखेत्तं विद्यमाना एव संक्रमणोद्वर्तनादिकरणोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः पसिद्धिमुवयं" ती०२४ कल्प। कषाया येन स उपशान्तकषायः। कर्म०२ कर्म०। गुणस्थानभेदे, दर्श० सूआ-न०(सूआ) धान्यविशेष,ध०२ अधि०। 5 तत्त्व / सूइअ-त्रि०(सूचित) तिरस्कृते , 60 2 उ० / व्यञ्जनादियुक्ते, दश०५ सुहमसंपरायचरित्तलद्धि स्त्री०(सूक्ष्मसम्परायचारित्रलब्धि)संपरैति- अ०१ उ०। श्लाघिते, बृ०१ उ०। पर्यटति संसारमेभिरिति सम्परायाः-कषायाः / सूक्ष्मा लोभांशावशेष- सई-स्त्री०(सूची) वस्त्रसीवनोपकरणे, बृ०३ उ०।जीत०। सूत्र। यया रूपाः सम्पराया यत्र तत् तस्य चारित्रस्य लब्धिस्तथा। चारित्रभेदे, भ० वस्त्र सीव्यते, ध०३ अधि०। ८श०२उ०॥ जे भिक्खू अविहीए सूइं जायति जायंतं वा साइबइ।।२३।। सुहुमसल्ल-न०(सूक्ष्मशल्य) सूक्ष्मे गर्वात्मके शल्ये, सूत्र०। जे भिक्खू अविहीए सुतिं जायति / का अवधी? सुहुमे सल्ले दुरुद्धरे, विउमंता पयहिजा संथवं // 11 // इमाकिमिति ? यतो गर्वात्मकमेतत्सूक्ष्मं शल्यं वर्तते सूक्ष्मत्वाच दुरुद्धरं. वत्थं सिव्विस्सामि-त्तिजाइउंपादसिव्वणं कुणति। दुःखेनोद्धर्तुं शक्यते, अतो विद्वान् सदसद्विवेकज्ञस्तत्तावत् संस्तवं अहवा वि पादसिव्वर्णं, करेंतो सिव्वती वत्थं / / 17 / / परिचयमभिष्वङ्ग परिजह्यात्-परित्यजेदिति। नागार्जुनीयास्तु पठन्ति कंठा"पलिमन्थमहं वियाणिया, जा विय वंदण पूयणा इहं। तंदवण सयं वा, अहवा अण्णेसि अंतियं सोचा। सुहुमं सल्लं दुरुद्धरं, तं पि जिणे एएण पंडिए॥१॥" उभयेणं मग्गहणं, कुजा दुविधं च वोच्छेदं।।१७६।। अस्य चायमर्थः- साधोः स्वाध्यायध्यानपरस्यैकान्तनिःस्पृहस्य सूतिसामिणा अविहीए सिव्वंतो सयमेव दिट्ठो, अण्णस्सवा समीवे सुतं योऽपि चायं परैर्वन्दनापूजनादिकः सत्कारः क्रियते, असावपिसदनुष्ठा- अभावणाओ अण्णस्स पुरओखिसति, अग्गहणं साहूणं अणायारं करेंति, नस्यसद्तेर्वा महान्पलिमन्थो विघ्नः, आस्तांतावच्छब्दादिष्वभिष्वङ्ग- दुविओ वोच्छेओ तद्दव्वेण दव्वाणं वातस्सवाअण्णस्सवा साहुस्स। स्तमित्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्मशल्यं दुरुद्धरं चातस्तमपि जयेद्अप जे भिक्खू अप्पणो एगस्सस अट्ठाण सूइंजाइत्ता नयेत्, पण्डितः एतेन वक्ष्यमाणेनेति! सूत्र०१श्रु०२ अ०२ उ०। अण्णमन्नस्स अणुपदेह अणुपदंतं वा साइडइ // 24| सुहुमुस्सास-पुं०(सूक्ष्मोच्छ्वास) अल्पे अल्पपरिमाणे उच्छ्वासे, "सुहु- अहगं सिव्विस्सामि, त्ति जाइठं सोय देति अण्णेसिं। मुस्सासं तुजयणाए त्ति" सूक्ष्मोच्छ्वासमेव यतनया मुञ्चन्ति नोल्वणं अण्णो वा सिव्विहिती,सो सिव्वणमप्पणा कुणति॥१७७।। मा भूत्सत्त्वधातः। आव०५ अ०। अप्पणो अट्ठाए जाएउं अण्णस्स अलद्धियसाहुस्स देति ताणि वा सुहुय-त्रि०(सुहुत) घृतादितर्पित, ज्ञा०१श्रु०५ अ० औ०।। कुलाणिजस्स साहुस्स उदसमंतितस्स णामेण ममिगउं अप्पणो सिव्वेति। सुहुयहुयासण-पुं०(सुहुतताशन)घृतादितर्षितवैश्वानरे, सुहयहुयासणो | को दोसो? Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूई 1026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूयग इमो सूड-धा०(भञ्ज) आमर्दने, "भजेर्वेमय-मुसुमूर- मूर-सूरतं दतुण सयं वा, अहवा अण्णेसि अंतियं सोचा। सूड-विर-पविरञ्ज-करञ्ज-नीरजाः // 88/106|| भञ्जरेते ओभावणमग्गहणं, कुजा दुविधं च वोच्छेदं / / 178|| नवादेशा वा भवन्ति / सूडइ। भनक्ति। प्रा०४ पाद। सूई वा अविधीए,जे भिक्खू पाडिहारियं अप्पे। सूणत्त-न०(सूनत्व) वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिघातजेशोथे, तकजसंधण्णं वा, कुन्जा छक्कायघातं वा // 17 // वातपित्तश्लेष्मसन्निपातरक्ताभिघातजोऽयं षोढा, उक्तं च-- "शोफः जंतीए सूईए कजं तं कजं गहणप्पणेण वा छक्कायघातं वा करेजा। स्यात् षड्विधो घोरो, दोषैरुत्सेधलक्षणः ।व्यस्तैः समस्तैश्चापीह, तथा इदाणिं चउण्ह दि सुत्ताण विधी भण्णति रक्ताभिघातजः // 1 // '' आचा० 1 श्रु०६ अ०१उ० ! तम्हट्ठा जाएजा, सिव्वे कस्स कारणा वादि। सूणया-स्त्री०(सूनृता) वाङ्मनसोर्यथार्थत्वे, द्वा०२१ द्वा०। एगतरमुभयतो वा, अक्खेवेत्तुं तहा भिक्खू // 10 // सूणा-स्त्री०(सूना) वधस्थाने, तं०।ग०। अप्पट्ठाए जाएजा जं वा वत्थादि सिव्वे तदट्ठाए जाएजाजस्स साहुस्स अथ गाथाचतुष्केनोत्सर्जनीयगच्छं दर्शयतिकज्ज तण्णामेण जाएज, अप्पणो परस्स उभयट्ठा वा जाएजा जहा जत्थ गोयम ! पंचण्हं, कह वि सूणाण इक्कमवि हुन्जा। काउकामो तहा अक्खिउजातियव्वं, एस परमत्थो। तं गच्छं तिविहेणं, वोसिरिय वइज अन्नत्थी॥१०१।। अप्पणणे विधी भण्णत्ति यत्र गच्छे गौतम ! कथमपि पञ्चानां सूनानां वधस्थानानांमध्ये एकाऽपि गहणम्मि गिण्हिऊणं, हत्थे उत्ताणगम्मि वा काउं। भवेत्, तंगच्छं त्रिविधेन मनोवाकायलक्षणेन व्युत्सृज्यत्यक्त्वा अन्यत्र भूमीए च ठवेतुं, एस विही होती अप्पणणे // 181 // सदच्छे व्रजेत्।तत्र घरट्टिका १उदूखलं 2 चुल्ली ३पानीयगृहं 4 प्रमार्जनी गहणपासओ तम्मि सयं गेण्हिऊणं आणिऊणं गिहत्थस्स अप्पेति, एवं चेति 5, पञ्च सूनाः, उक्तं च शुकसंवादेऽपि- "खण्डनी, 1 पेषणी 2 संजयपओगेण भवति, अप्पाणगंमि वा हत्थे वि तिरिच्छं आणिएण वा चुल्ली 3, जलकुम्भः 4 प्रमार्जनी // पञ्च सूना गृहस्थस्य, तेन स्वर्ग न ठवेति एवं भूमिएण विठवेति। गच्छति॥१॥" इति गाथाछन्दः। एतेसिंचउण्ह विसुत्ताणं इमे वितियपदा सूणारम्भपवत्तं, गच्छं वेसुजलं न सेविज / जंचारित्तगुणेहि तु, उज्जलं तं तु सेविज / / 102|| लाभपरिच्छा दुल्लम, अचियत्ते सहस अप्पणणे। चउसु विपदेसु एते, अवरपदा हों ति णायव्वा // 12 // सूनारम्भप्रवृत्तं खण्डन्याद्यारम्भकर्तार, तथा वेषणोचलं वेषोऽवलम्, एवंविधं गच्छंन सेवेत संसारबर्द्धकत्वात्। ननु उज्वलवेषस्य को दोषः? साहू खेत्तपडिलेहगा गता, किं सूती मन्गितालब्भतिणव त्ति अण्णवाए उच्यते-उञ्चलवेषेण विभूषा भवति विभूषातश्च चिक्कणः कर्मबन्धः ततश्च मग्गेजा, पत्तसिव्वणवाए दुल्लभाओ सूतीओ वत्थसिव्वणट्ठमवि णीयाए संसारपटर्यठनमिति। ग० 2 अधि०। पत्तं सिव्विजति, तं पुण जयणाए सिव्वेति जहाण दीसति खाइयभावेण अवियत्तोसाहुणो ण लब्भति तस्स वा णामेण ण लब्भति ताहे अप्पणो सूणारंभपवत्तग-त्रि०(शूनारम्भप्रवर्तक) खण्डन्याद्यारम्भकतरि, ग०२ अट्ठाए जाइउंतस्स देजा सहसाऽणाभोएण वा अविहीए अप्पणेजा। नि० अधि०। चू०१ उ० / फलकसंबन्धिघनाभावहेतुपादुकास्थानीयेऽर्थे, जी०३ स(सु)त्तम-त्रि०(सूत्तम) अतिप्रधाने, ग०१ अधि०। प्रति० 4 अधि०। जं०। नि० चू०.1 विपा०1 पं० भा०। सदावतस्त्व- | सूदग-पुं०(सूद्रक) प्रतिष्ठानपुरे सातवाहननृपतिमित्रे स्वनामख्याते द्विजे, संख्येयैरग्निवैरेकैकाकाशप्रदेशव्यवस्थापितैघनो मन्तव्यः, द्वितीयोऽपि ती० 26 कल्प। ('सातवाहन' शब्देऽस्मिन्नेव भागे कथा।) घनइत्थमेव भवति एवं प्रतरस्तथा सूचिरपि। विशे०। (अत्रत्या व्याख्या सूमालिया-स्त्री०(सुकुमारिका) तैलविशेषे, बृ०१ उ०२ प्रक०। 'ओहि' शब्दे तृतीयभागे 148 पृष्ठे गता।) मञ्जर्याम्, दे० ना० 8 वर्ग 1 पं०व०ाचम्पानगाँ सागरदत्तसार्थवाहस्य सुतायाम, ज्ञा०१ श्रु०१६ गाथा। अ०1 ('दुवई' शब्दे चतुर्थभागे 2584 पृष्ठे कथा।) सूईतल-न०(सूचीतल) ऊर्ध्वमुखसूचीके भूतले, प्रश्न०१आश्र० द्वार। सूय-न०(सूत्र) 'सूच' पैशून्ये, सूचनात्सूत्रं निपातनात् रूपनिप्पत्तिः सूईफलय-सूचीफलक) सूचीभिरसंबन्धितेषु फलकप्रदेशेषु, जी०३ भावप्रधानश्वायं सूत्रतायाम्, नं०। प्रति० 4 अधि०। सूच-धा० / चुरा० / ज्ञापने, सूएइ। सूचयति। वृ०२ प्रक०। सूईमुह-न०(सूचीमुख) यत्र प्रदेशे सूची फलकं भित्त्वा मध्ये प्रविशति सूयग-न०(सूतक) आशौचे, व्य०१ उ०। "जायमजायसूयगेसु तत्प्रत्यासन्ने देशे, जी०३ प्रति० 4 अधि० 1 रा० / द्वीन्द्रियजीवभेदे, निजूढा' व्य०१ उ० / सूतके विचारः पुत्रजन्मनि तद्गेहे प्रज्ञा०१पद। पक्षिभेदे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। दशदिनपर्यन्तं भोजनं न कर्त्तव्यम् / ही०४ प्रका०। बृ०। सूक(य)र-पुं०(शूकर) वराहे, प्रश्न०२ आश्र० द्वार। ही०। "तस्स परे तिन्नि पक्खी सूयतो प्रयणसलागा कुक्कुड Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयग 1027 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूयगड गो," आ० म०१ अ० / सूयगर्भद इति प्रसिद्ध तृणविशेषे, प्रव०६० द्वार / जायमयसूयगाई निजूढा'' इत्यादिसूतकशब्दः प्रत्येकं सम्बद्ध्यते, जातकसूतकं नाम जन्मानन्तरं दशाहानि यावत्, मृतसूतकं मृतान्तरं दश दिवसान्यावत्तत्र यद्वयं तद् द्विधा- 'लोग' त्ति लौकिकम्, 'उत्तर' त्ति लोकोत्तरम्, लौकिकं द्विधा-इत्वरम्, यावत्कथिकं च। तत्रेत्वरम्यत्सूकं मृतकादि, तथाहि--लोके सूतकादि दश दिवसान् यावद्वय॑त इति, यावत्कथिकं च-वरुडछिम्पकचर्मकारडोम्बादि, एतान्यक्षरादि व्यवहारसूत्रवृत्तौ सन्तीत्युक्वा सूतकगृहं दश दिवसान्यावत्खरतरास्त्यजन्तः सन्ति, प्रश्नोत्तरग्रन्थे तु दशदिननिर्बन्धो ज्ञातो नास्ति इत्युक्तमस्ति, तत्कथमिति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- व्यवहारसूत्रवृत्तौ सूतकविषये यद्दशदिनवर्जनं तद्देशविशेषपरत्वेन, ततो यत्र देशे सूतकविषये यावानबधिस्तावन्ति दिनानि वर्जनीयानि, तन प्रश्नोत्तरग्रन्थेन सह न कोऽपि विरोध इति।।२९०॥ सूतकगृहं साधव आहारार्थ यान्ति नवेति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम् यत्र देशे सूतकगृहे यावद्भिर्वासाह्मणादयो भिक्षार्थं व्रजन्ति तत्रास्माभिरपि तथा विधेयमिति वृद्धव्यवहारः / / 201 // सने० 3 उल्ला०। 'जायमयसूयगाइसुनिज्जूढा' सूतशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते जातसूतकं नाम जन्मान्तर दशाहानि यावत् मृतकसूतकं नाम मृतानन्तरं दश दिवसान् यावत् तत्र जातकसूतके वा आदिशब्दात्तदन्येषु तथाविधेषु शूद्रगृहादिषु ये कृतभोजनाः सन्तो धिग्जातीयैर्नियूँढा असंभाष्याः कृता इति। व्य०१ उ० / उत्त० / पा०। सूचक-पुं०पिशुने, पिशुनं सूचकं विदुरिति वचनात्, आव० 4 अ०। प्रश्न० / राज्ञां सूचनाकारके, ये सामन्तराज्येषु गत्वा अन्तः पुरपालकैः सह मैत्री कृत्वा यत्तत्र रहस्यं तत्सर्व जानन्ति पश्चादनुसूचकेभ्यः कथयन्ति / व्य०१ उ०। सूयगड-न०(सूत्रकृत) प्रवचनपुरुषस्य द्वितीयऽङ्गे, नं०। 'सूच' पैशून्ये सूचनात्सूत्रम, निपातनाद्रूपनिष्पत्तिरिति भावप्रधानश्चायं सूत्रशब्दः, ततोऽयमर्थः-सूत्रेण कृतं सूत्ररूपतया कृतमित्यर्थः, यद्यपि च सर्वमङ्ग सूत्ररूपतया कृतं तथापि रूढिवशादेतदेव सूत्रकृतमुच्यते, न शेषमङ्गम् / नं०। (सूत्रस्य करणस्य च निक्षेपौ स्वस्वस्थाने उक्तौ / ) लौकिकग्रन्थस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् कर्तुरशुभध्यायित्वमवसेयम्, इह तु सूत्रकृतस्य तावत् स्वसमयेन शुभाध्यवसायेन च प्रकृतं यस्माद्धरैः शुभध्यानावस्थितैरिदमङ्गं कृतमिति। सूत्रकृतपर्यायाःसूयगडं अंगाणं, बितियं तस्स य इमाणि नामाणि। सूयगाडं सुत्तकाडं,सू (या) यगडं चेव गोणाईसा सूत्रकृतमिति-एतदङ्गानां द्वितीयं तस्य चामून्येकार्थिकानि, तद्यथासूत्रमुत्पन्नमर्थरूपतया तीर्थकृभ्यः ततः कृतं ग्रन्थरचनया गणधरैरिति, तथा सूत्रकृतमिति सूत्रानुसारेण तत्त्वावबोधः क्रियतेऽस्मिन्निति तथा सूचाकृतमिति स्वपरसमयार्थसूचनं सूचा साऽस्मिन् कृतेति, एतानि चास्य गुणनिष्पन्नानि नामानीति। सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१उ०। (सूत्रकृतनिरुकव्याख्या 'करण' शब्दे तृतीयभागे 36 पृष्ठे गता।) इहानन्तरसूत्रकृतस्य निरुक्तमुक्तमधुना सूत्रपदस्य निरुक्ताभिधित्सयाऽऽहसुत्तेण सुत्तिया चिय, अत्था तह सूइया य जुत्ताय। तो बहुविहप्पउत्ता, एयपसिद्धा अणादीया।।२१।। 'सुत्तेणे' त्यादि, अर्थस्य सूचनात्सूत्रम्,- तेन सूत्रेण केचिदर्थाः साक्षात्सूत्रिता मुख्यतयोपात्तास्तथा परे सूचिता अपित्त्याक्षिप्ताः साक्षादनुपादानेऽपि दध्यानयनचोदनया तदाधारानयनचोदनावदिति। एवं च कृत्वा चतुर्दशपूर्वविदः परस्परं षट्स्थानपतिता भवन्ति, तथा चोक्तम्-"अक्खरलंभेण समा, ऊणऽहिया हुंति मतिविसेसेहिं / ते वि य मई विसेसा, सुयणाणभंतरे जाण // 1 // " तत्र ये साक्षादुपात्तास्तान् प्रति सर्वेऽपि तुल्याः, ये पुनः सूचितास्तदपेक्षया कश्चिदनन्तभागाधिकमर्थ वेत्ति अपरोऽसंख्येयभागाधिकम्, अन्यः संख्येयभागाधिकम्, तथाऽन्यः, संख्येयासंख्येयानन्तगुणमिति,तेच सर्वेऽपि युक्ता युक्त्युपपन्नाः सूत्रोपात्ता एव बेदितव्याः, तथा चाभिहितम्, 'ते विय मईविसेसे' इत्यादि, ननु किं सूत्रोपात्तेभ्योऽन्येऽपि केचनार्थाः सन्ति येन तदपेक्षया चतुर्दशपूर्वविदांषट्स्थानपतितत्वमुधुष्यते बाद विद्यन्ते यतोऽभिहितं"पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं / पण्णबणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुयणिबद्धो।।१।।" यतश्चैवं ततस्ते अर्था आगमे बहुविधं प्रयुक्ताः, सूत्रैरुपात्ताः केचन साक्षात् केचिदात्या समुपलभ्यन्ते। यदि वा- क्वचिद्देशग्रहणं क्वचित्सर्वार्थोपादानमित्यादि, यैश्च पदस्तेऽर्थाः प्रतिपाद्यन्ते तानि पदानि प्रक्रर्षण सिद्धानि प्रसिद्धानि न साधनीयानि, तथा अनादीनि च तानि नेदानीमुत्पाद्यानि, तथा चेयं द्वादशाङ्गी शब्दार्थरचनाद्वारेण विदेहेषु नित्या भरतैरावतेष्वपि शब्दरचनाद्वारेणैव प्रतितीर्थकर क्रियते अन्यथा तु नित्यैव, एतेन चोचरितप्रध्वंसिनो वर्णा इत्येतन्निराकृतं वेदितव्यमिति। साम्प्रतं सूत्रकृतस्य श्रुतस्कन्धाध्ययनादिनिरूपणार्थमाहदो चेव सुयकखंधा, अज्झयणाइंच हुंति तेवीसं। तेत्तिसुद्देसणकाला, आयाराओ दुगुणमंग // 22 // 'दो चेवे' त्यादि, दावत्र श्रुतस्कन्धौ त्रयोविंशतिरध्ययनानि त्रयस्त्रिंशदुद्देशनकालास्ते चैवं भवन्ति-प्रथमाध्ययने चत्वारो द्वितीये त्रयस्तृतीये चत्वारः एवं चतुर्थपञ्चमयो द्वौ तथैकादशस्वेक-सरकेष्वेकादशैवेति प्रथमश्रुतस्कन्धे।तथा-द्वितीयश्रुतस्कन्धे सप्ताध्ययनानि तेषां सप्तैवोद्देशनकाला एवमेते सर्वेऽपि त्रयस्त्रिंशदिति। एतचाचाराङ्गात् द्विगुणमङ्ग षट्त्रिंशत्पदसहस्रपरिमाणमित्यर्थः। सूत्र०१श्रु०१०। सूत्रकृतःतवीसं सूयगडज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा-समए वेयालिए उवसग्गपरिण्णा त्थीपरिण्णा नरयविभत्ती महावीरथुई कुसीलपरिभासए वीरिए धम्मे समाहिमो समोसरणे आहत्तहिए गंथे जमईए गाथा पुंडरीए किरियाठाणा आहारपरिण्णा अपचक्खाणकिरिया अणगारसुयं अद्दइजंणालंदद्दजं। (सू० 234) Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड 1028 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूयगड सूत्रकृतस्य सप्तपञ्चाशदध्ययनानि, स०। तत्राचारे प्रथमश्रुतस्कन्धे नवाध्ययनानि, द्वितीये षोडश निशीथाध्ययनस्य प्रस्थानान्तरत्वेनेहानाश्रयणात, षोडशानां मध्ये एकस्या-चारचूलिकेति परिहृतत्वात्, शेषाणि पञ्चदश, सूत्रकृते द्वितीयाङ्गे प्रथमश्रुतस्कन्धे षोडश द्वितीये सप्त स्थानाड़े दशेत्येवं सप्तपञ्चाशदिति। स० अध्ययनानां प्रत्येकमाधिकारः। स०। साम्प्रतं सूत्रकृताङ्ग निक्षेपानन्तरं प्रथमश्रुतस्कन्धस्त नामनिष्पन्ननिक्षेपाभिधित्सयाऽऽहनिक्खेवो गाहाए, चउविहो छविहो य सोलस्सु। निक्खेवो य सुयंमि, खंधे य चउव्विहो होइ / / 23 / / इहाद्यश्रुतस्कन्धस्य गाथाषोडशक इति नाम, गाथाख्यं षोडशमध्ययन यस्मिन् श्रुतस्कन्धे स तथेति, तत्र गाथाया नामस्थापनाद्रव्यभावरूपश्चतुर्विधो निक्षेपः, नामस्थापने प्रसिद्धे, द्रव्यगाथा द्विधा-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्र आगमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति कृत्वा, नोआगमतस्तु विधा- ज्ञशरीरद्रव्यगाथा, भव्यशरीरद्रव्यगाथा ताभ्यां विनिर्मुक्ताच-"सत्तट्ठतरू विसमे, ण से हया ताण छट्ठ णह जलया। गाहाए पच्छद्धे, भेओ छट्टो त्ति इक्ककलो / / 1 / / " इत्यादिलक्षणलक्षिता पत्रपुस्तकादिन्यस्तेति, भावगाथाऽपि द्विविधाआगम-नोआगमभेदात्, तत्राऽऽगमतो गाथापदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव गाथाख्यमध्ययनम्, आगमैकदेशत्वादस्य षोडशकस्यापि नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् षोढा निक्षेपः। तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषोडशकंज्ञशरीर-भव्यशरीरविनिर्मुक्तं सचित्तादीनि षोडश द्रव्याणि, क्षेत्रषोडशकं षोडशाकाशप्रदेशाः, कालषोडशकं षोडश समयाः एतत्कालावस्थायि वा द्रव्यमिति, भावषोडशकमिदमेवाध्ययनषोडशकं, क्षायोपशमिकभाववृत्तित्वादिति / श्रुतस्कन्धयोः प्रत्येक चतुर्विधो निक्षेपः सचान्यत्र न्यक्षेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते। साम्प्रतमध्ययनानां प्रत्येकमाधिकारं दिदर्शयिषयाऽऽहससमयपरसमयपरू-वणायणाऊण बुज्झणा चेव / संबुद्धस्सुवसग्गा, त्थीदोसवित्रणा चेव॥२४॥ उवसग्गभीराणोत्थी-वसस्स णरएसु होज उववाओ। एवमहप्पा वीरो, जयमाह तहा जएजाह ||2|| परिचत्तनिसीलकुसी-लसुसीलसंविग्गसीलवं चेव। णाऊण वीरियदुर्ग, पंडियदीरिय पय?ई (वयइ)।२६|| धम्मो समाहिमग्गो, समोसढाचउसु सव्ववादीसु। सीसगुणदोसकहणा, गंथंमि सदा गुरुनिवासो॥२७॥ आदाणिय संकलिया, आदाणीयंमि आदयचरितं / अप्परगंथे पिंडिय, वयणेणं होइ अहिगारो॥२८॥ तत्र प्रथमाध्ययने स्वसमयपरसमयप्ररूपणा द्वितीये स्वसमयगुणान् / परसमयदोषाँश्व ज्ञात्वा स्वसमय एव बोधो विधेय इति, तृतीयाध्ययने तु संबुद्धः सन्यथोपसर्गसहिष्णुर्भवति तदभिधीयते, चतुर्थेस्त्रीदोषविवर्जना पञ्चमे त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-उपसगांसहिष्णोः स्त्रीवशवर्तिनोऽवश्यं नरकेषूपपात इति, षष्ठे पुनरेवमित्यनुकूल-प्रतिकूलोपसर्गसहनेन स्त्रीदोषवर्जनेन च भगवान् महावीरो जेतव्यस्य कर्मणः संसारस्य वा पराभवेन जयमाह-ततस्तथैव यत्नं विधत्त यूयमिति शिष्याणामुपदेशो दीयंते, सप्तमे त्विदमभिहितम्, तद्यथा-निःशीला गृहस्थाः कुशीलास्त्वन्यतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयोवा ते परित्यक्ता येन साधुनास परित्यक्तनिःशीलकुशील इति, तथा सुशीला उद्युक्तविहारिणः संविनाः संवेगमग्रास्तत्सेवाशीलः शीलवान् भवतीति, अष्टमे त्वेतत्प्रतिपाद्यते, तद्यथाज्ञात्वा वीर्यद्वयं पण्डितवीर्ये प्रयत्नो विधीयत इति, नवमे तीर्थाधिकारस्त्वयम्, तद्यथा-यथावस्थितो धर्मः कथ्यते, दशमे तु समाधिः प्रतिपाद्यते, एकादशे तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मको मोक्षमार्गः कथ्यते, द्वादशे त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-समवसृता अवतीर्णा व्यवस्थिताश्चतुर्ष मतेषु क्रियाक्रियाज्ञानवैनयिकाख्येष्वभिप्रायेषु त्रिषष्ट्युत्तरशतत्रयसंख्याः पाषण्डिनः स्वीयं स्वीयमर्थ प्रसाधयन्तः समुत्थितास्तदुपन्यस्तसाधनदोषोद्भावनतो निराक्रियन्ते, त्रयोदशे त्विदमभिहितं, तद्यथासर्ववादिषु कपिलकणादाक्षपादशौद्धोदनिजैमिनिप्रभूतिमतानुसारिषु कुमार्गप्रणेतृत्वं साध्यते, चतुर्दशेतु ग्रन्थाख्येऽध्ययनेऽयमर्थाधिकारः, तद्यथा-शिष्याणां गुणदोषकथना, तथा शिष्यगुणसम्पदुपेतेन च विनेयेन नित्यं गुणानुरूपगुरुकुलवासो विधेय इति, पञ्चदशे त्वादानीयाख्येऽध्ययनेऽाधिकारोऽयम्, तद्यथाआदीयन्तेगृह्यन्ते उपादीयन्ते इत्यादानीयानि पदान्यर्थावा ते च प्रागुपन्यस्तपदैरर्थश्च प्रायशोऽत्र संकलिताः, तथा आयतं चरित्रं सम्यक्चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकं तच्चात्र व्यावर्ण्यत इति, षोडश तु गाथाख्येऽल्पग्रन्थेऽध्ययनेयमर्थो व्यावय॑ते, तद्यथापञ्चदशभिरध्ययनर्योऽर्थोऽभिहितः सोऽत्र पण्डितवचनेन संक्षिप्ताभिधानेन प्रतिपाद्यत इति। "गाहासोलसगाणं, पिंडत्थो वन्निओसमासेणं / एत्तो इक्किक्कं पुण, अज्झयणं कित्तइस्सामि // 1 // " सूत्र० / (समयाध्ययनस्याधिकारगाथाः 26 'समय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्ताः।) साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तोद्देशार्थाधिकाराभिधित्सयाऽऽहमहपंचभूय एक-प्पए य तज्जीवतस्सरीरे य। तह य अगारगवाई, अत्तच्छट्ठो अफलवादी॥३०॥ वीए नियईवाओ, अण्णाणिय तहय नाणवाईओ। कम्मं चयं न गच्छइ, चउव्विहं भिक्खुसमयंमि // 31 // तइए आहाकम्म, कडवाईजह य ते पवाईओ। किबुवमा य चउत्थे, परप्पवाई अविरएसु // 32 // 'महपंचभूये' त्यादि गाथात्रयम्, अस्याध्ययनस्य चत्वार उद्देशकास्तत्राद्यस्य षडाधिकारा आद्यगाथाऽभिहिताः, तद्यथा-पञ्च भूतानि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशाव्यानि महान्ति च तानि सर्वलोकव्यापित्वात् भूतानि च महाभूतानि इत्यमेकोऽर्थाधिकारः, तथा चेतनाचेतनं सर्वमेवात्मविवर्त्त इत्यात्माऽद्वैतवादः प्रतिपाद्यतः इत्यर्थाधिकारो द्वितीयः, स चासौ जीवश्च तज्जीवः कायाकारो भूत Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयगड 1026 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूर परिणामस्तदेव च शरीरं जीवशरीरयोरैक्यमिति यावदिति, तृतीयोऽ- आघविजइ। सेत्तं सूयगडे / (सू०४६) थाधिकारः, तथा कारको जीवः सर्वस्याः पुण्यपापक्रियायां इत्येवंवादीति अथ किं उत्सूत्रकृतम्- 'सूय' पैशून्ये सूचनात् सूत्रं निपतिनात् चतुर्थोऽर्थोधिकारः तथात्मषष्ठ इति पञ्चानां भूतानामात्माषष्ठः प्रतिपाद्यत रूपनिष्पत्तिर्भावप्रधानश्चायं सूत्रशब्दः, ततोऽयमर्थः- सूत्रेण कृतं इत्ययं पञ्चमोऽर्थाधिकारः, तथा फलवादीति न विद्यते कस्याश्चित् सूत्ररूपतया कृतमित्यर्थः / यद्यपि च सर्वमङ्ग सूत्ररूपतया कृतं; तथापि क्रियायाः फलमित्येवं वादी च प्रतिपाद्यत इति षष्ठोऽर्थाविकार इति। रूढिवशादेतदेव सूत्रकृतमुच्यते; न शेषमङ्गम। आचार्य आह-सूत्रकृतेन द्वितीयोद्देशके चत्वारोऽर्थाधिकाराः, तद्यथानियतवादस्तथा अज्ञानिक अथवा- सूत्रकृते णमिति वाक्यालङ्कारे लोकः सूच्यते, इत्यादि मतं ज्ञानवादी च प्रतिपाद्यते, कर्मचयमुपच्चयं चतुर्विधमपि न गच्छति नियदसिद्धं यावत् 'असीयस्स किरियावाइसयस्स' इत्यादि। सूत्र०१ भिक्षुसमये शाक्यागमे इति चतुर्थोऽर्थाधिकारः, चातुर्विध्यं तु कर्मणोऽ- श्रु०१०। (लोकस्य सूचनम् 'लोक' शब्दे षष्ठभागे। 'भावणा' शब्दे विज्ञोपचितं अविज्ञानमविज्ञातयोपचितमनाभोगकृतमित्यर्थः, यथा मातुः पञ्चमभागेच-गतम्।) (अलोकस्वरूपम् 'अलोग' शब्दे प्रथमभागे७८५ स्तनाद्याक्रमणेन पुत्रव्यापत्तावप्यनाभोगान्न कर्मोपचीयते। तथा परिज्ञानं पृष्ठे गतम्। 'लोक' शब्द च पष्ठभागे सविस्तरमुक्तम्।) (जीवसूचनम्, परिज्ञा केवलेन मनसा पर्यालोचनम्, तेनापि कस्यचित्प्राणिनोव्यापाद 'जीव' शब्दे चतुर्थभागे 1519 पृष्ठे गतम्।) (अजीवसूचनम्, 'अजीव' नाभावात् कर्मोपचयाभाव इति, तथा ईरणमीर्यागमनं तेन जनितमीर्या शब्दे प्रथमभागे 203 पृष्ठे गतम्।) जीवाजीवसूचनम् 'जीवाजीव' शब्दे प्रत्ययं तदपि कर्मोपचयं न गच्छति, प्राणिव्यापादनाभिसंधेरभावादिति, चतुर्थभागे 1556 पृष्ठे उक्तम् / ) (स्वसमयस्वरूपम् 'ससमय' तथा स्वप्रान्तिकं स्वप्रप्रत्ययं कर्म नोपचीयते, यथा स्वप्नभोजने शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्तम् / ) (परसमयस्वरूपम् 'परसमय' शब्दे तृप्त्यभाव इति। तृतीयोद्देशके त्वयमर्थाधिकारः, तद्यथा-आधाकर्म- पञ्चमभागे 548 पृष्ठे प्रतिपादितम्।) (क्रियावादिनः 'किरियावाइ' शब्दे गतविचारस्तद्भोजिनां च दोषोपदर्शनमिति, तथा कृतवादी च भण्यते, तृतीयभागे 555 पृष्ठे उक्ताः।) (अक्रियावादिनः 'अकिरियावइ' शब्दे तद्यथा--ईश्वरेण कृतोऽयं लोकः प्रधानादिकृतो वा यथा च ते प्रवादिनः प्रथमभागे 126 पृष्ठे गताः / ) (अज्ञानिकवादिनः 'अण्णाणिय' शब्दे आत्मीयमात्मीयं कृतवादंग्रहीत्वोत्थितास्तथा भण्यन्ते इति द्वितीयोऽ- प्रथमभागे 486 पृष्ठे गताः।) (वैनयिकवादिनः 'वेणइय' शब्दे षष्ठे भागे र्थाधिकारः। चतुर्थोद्देशकाधिकारस्त्वयम्, तद्यथा-अविरतेषु गृहस्थेषु दर्शिताः।) "भारद्वाजसगोत्ते सूयगडंग महासमणनामं / अगुणत्तीसयानि कृत्यानि अनुष्ठानानि स्थितानि तैरसंयमप्रधानैः कर्तव्यैः परप्रवादी सतेहिं, जो हि वरिसाण वोच्छिन्ना / / " ति०। परतीर्थिक उपमीयत इति। सूत्र०१ श्रु०१अ०१3०। स०। सूयगो-स्त्री०(सूतगवी) अभिनवप्रसूतायां गवि, 'विठ्ठत्तो परि-सप्पंति, सूत्रकृतस्य विषयाः सूयगो व अदूरए' / सूत्र०।१ श्रु०३ अ०२ उ०। से किं तं सूयगडे ? सूयगडे णं लोए सूइज्जइ, अलोए सूइज्जइ, सूयपाय-त्रि०(शूनपाद) संजातपादशोथे, विपा०१ श्रु०७ अ०। लोयालोए सूइज्जइ।जीवा सूइजंति अजीवा सूइज्जति जीवाजीवा सूय(अ)र-पुं०(शूकर) पशुविशेषे, विड्वराहे, पं०व०१द्वार। सूत्र०। सूइज्जति ससमए सूइज्जइ परसमए सूइज्जइ ससमयपरसमए विपा० आ०म०। "सूणियाभावं साणस्स, सूयरस्सनरस्सय / विणए सूइज्जइ, सूयगडेण असीयस्स किरियावाइसयस्सचउरासीईए ठविज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो॥" उत्त०१ अ०। अकिरियाववाईणं सत्तट्ठीए अण्णानियवाईणं बत्तीसाए वेणइय सूयरिय-त्रि०(शौकरिय) शूकरवधार्थं चरन्तीति शोकरिकाः / शूकरवाईणं तिण्हं तिसट्ठीणं पासंडियसयाणं वृहं किया समसए मांसोपजीविनि, अनु०। ठाविज्जइ / सूयगडेणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वठा संखिजा सिलोगा संखिजाओ निजुत्तीओ | सूया-स्त्री०(सूचा) व्याजे, स्था०३ ठा०३ उ०।अप्पणो दोसं भासतिन संखिजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगठ्ठयाए विइए अंगे दो परस्सएसा असूया,ण अप्पणो परस्स फुडमेव दोसं भासति एसा सूया। सुयक्खंधा तेवीसं अज्झयणा तेत्तीसं उद्देसणकाला तेत्तीसं नि० चू०१० उ० / स्वपरसमयसूचने, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। समुद्देसणकालाछत्तीसंपयसहस्साणे पयग्गेणं संखिजा अक्खरा स्वव्यपदेशेन परस्वरूपकथने, बृ०१ उ०१प्रक०। अणंता गमा अणंता पञ्जवा, परित्ता तसा अणंता थावरा सूर-धा०(भञ्ज) "भजेर्वेमय - मुसुमूर - मूर - सूर-सूडसासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपण्णत्ता भावा आघविजंति विर-परिरज-करज-नीरजाः " ||4|106 / / इति परूविखंति दंसिखंति निदंसिर्जति उवदंसिजंति, से एवं आया भञ्जतेः सूरादेशः / सूरइ भनक्ति। प्रा०४ पाद। से एवं नाया से एवं विण्णाया एवं चरणकरणपरूवण *शूर-- पुं० अक्षोभ्ये आचा० 1 श्रु० 6 अ०३ उ० / Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर 1030 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 अनु०। उत्त०। कुत्थुजिनस्य पितरि, स०। आव०। सुभडे, संथा०। मेरुगिरसययपरि-अट्टयं विसालं सूरं रस्सीसहस्सपयलियति० / प्रव० / विक्रान्तभटे, दश० 8 अ०। ज्ञा० / आव० / स्था०। दित्तसोहं / / 7 / / (सू०३६) तथाविधे दातंरि, अभ्युपेतनिर्वाहे, भ० 11 श० १३०।अङ्गीकृतनिर्वाह, (तओ पुणो) ततः पुनः चन्द्रदर्शनानन्तरंसप्तमे स्वप्ने सूर्य पश्यति, अथ ज्ञा०१ श्रु 1 अ०। सूत्र०। "सूरा मो मन्नंता, कैतवियाहि (उ) वहि | किंविशिष्टं सूर्यम्-(तमपडलपरिप्फुड) तमः पटलम् अन्धकारसमूहपहाणाहिं / गहिया हु अभयपजो, कूलबालाव्याख्या 'इत्थी' शब्दे स्तस्य परिस्फोटकनाशकमित्यर्थः (चेव) निश्चयेन, पुनः किंवि० (तेअसा द्वितीयभागे 566 पृष्ठे गता।) समर्थे, सूत्र० 1 श्रु० 4 अ० 1 उ०। पज्जलंतरुवं) तेजसैव प्रज्वलत् जाज्वल्यमानं रूपं यस्य स तथा तं, कल्प० / भ०। (अत्रत्या व्याख्या 'उवसग्ग' शब्दे द्वितीयभागे 1022 स्वभावतस्तुसूर्यबिम्बवर्तिनो बादरपृथ्वीकायिकाशीतला एव, किन्त्वापृष्ठे गता।) पराक्रमवति योधे च, स्था०। तपनामकर्मोदयात्तेजसैव एतेजनंव्याकुलीकुर्वन्तीति ज्ञेयम्, पुनः किंवि० चत्तारि सूरा पण्णत्ता तं जहा-खंतिसूरे तवसूरे दाणसूरे (रत्तासोगं) रक्ताशोकोऽशोकवृक्षविशेषः (पगासकिंसुअ) प्रकाशकिंशुकः जुद्धसूरे,खंतिसूरा अरहंता तबसूरा अणगारादाणसूरे वेसमणे पुष्पितपलाशः (सुहमुहगुंजद्ध) शुकमुखंगुजार्धं च प्रसिद्धं (रागसरिसं) जुद्धसूरे वासुदेवे। (सू०३१७) एतेषां वस्तूनां यो रागो रक्तत्वं तेन सदृश, पूर्वोक्तवस्तुवत् यर्थः, पुनः किंचि० (कमलवणालंकरणं) कमलवनानाम्, अलङ्करणं शोभाकारकं, 'चत्तारि सूरे' त्यादि, सूत्रद्वयं कण्ठ्यम् किन्तु शूरा धीराः शान्तिशूरा विकाशकमिति यावत्, विकसितानि तानि अलङ्कृतानीव विभान्ति, अर्हन्तो महावीरवत्, तपः शूरा अनगारा दृढप्रहारिवत्, दानशूरो वैश्रमण पुनः किंवि० (अंकणं जोइस) ज्योतिषस्य ज्योतिश्चक्रस्य अड्कनं, उत्तराऽऽशालोकपालस्तीर्थकरादिजन्मपारणकदिने इति, उक्तं च मेषादिराशिसंक्रमणादिना लक्षणज्ञापकं, पुनः किंवि० (अंबरतलपईवं) "वेसमणवयणसंवोझ्याउ ते तिरियजंभगा देवा / कोडिग्गसो हिरण्ण, अम्बरतले प्रदीपं आकाशतलप्रकाशक, पुनः किंवि०। (हिमपडलगरयणाणियतस्थउवणेति॥१॥"त्ति। स्था० 4 ठा०३ उ० ऋषभदेवस्य लग्गहं हिमपटलस्य-हिमसमूहस्य गलग्रहं गलहस्तदायकं, हिमस्फोटएकोनविंशतितमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ क्षण। कमित्यर्थः, पुनः किंवि० (गहगणोरुनायगं) ग्रहगणस्य ग्रहसमूहस्य *सूर-पुं० आदित्ये, स०१३८ सूत्र / विशे०। अस्मादेव पूर्वादिदिशां उरुर्महान् नायको यः स तथा तम्, पुनः किंवि० (रत्तिविणासं) व्यवस्था। नं०। रा०। प्रव०। संथा०। रात्रिविनाशं, रात्रिविनाशकारणमित्यर्थः, पुनः किंवि (उदयत्थमणेसु *सूर्य-पुं० ज्योतिष्काणामिन्द्रे, भ०३ श०८ उ०। संथा०। मुहत्तं सुहदसणं) उदयास्तसमययोः उदयबेलायां अस्तवेलायाश्च मुहूर्त सूत्र०। (अस्य व्याख्या 'साभाइय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) यावत् सुखदर्शनं सुखेन अवलोकनीयमित्यर्थः (दुन्निरिक्खरूवं) सूर्यस्य पूर्वोत्तरजन्मकथा अन्यस्मिन् काले दुर्निरीक्ष्यरूपं, सम्मुखं विलोकयितुं न शक्यते इत्यर्थः / पुनः किंवि० (रत्तिमुद्धतं) रात्रौ उद्धताः स्वेच्छाचारिणः, वेधिणं मंते ! अजस्स सुसमणेणं भगवया० जाव संपत्तेणं के मकारोऽत्र प्राकृतत्वात्, एवंविधाये (दुप्पयारप्पमद्दणं) दुष्प्रचाराश्चौराअट्ठपण्णत्ते, एवं खलु जंबू ! तेणं कालेण तेणं समएणं रायगिहे दयोऽन्यायकारिणस्तान् प्रमईयति यस्तम, अन्याय-कारिप्रचारनिबारनाम नगरे गुणसिलए चेइए सेणिए राया सामी सरणं जहा चंदो कमित्यर्थः पुनः किंवि० (सीअवेगमहणं) शीतवेगमथनम्, आतपेन तहा सूरो वि आगतो० जाव नट्टविहिं उवदंसित्ता पडिगते शीतवेगनिवारणात् (पिच्छइ) पेक्षते इति क्रियापदं प्राग्वोजितंपुनः किंवि० पुथ्वभवपुच्छा सावत्थीए नगरीए सुपविते नामंगाहावई होत्था, (मेरुगिरिसययपरिअट्टयं) मेरुगिरेः सततं परिवर्तकं, मेरुमाश्रित्य अहे अहेव अंगती० जाव विहरति पासे समोसढे, जहा अंगती प्रदक्षिक्षया भ्रप्तन्तमिति यावत्, पुनः किं वि० (विसाल) विशालं तहेव पध्वइए तहेव विहारियसामन्ने जाव महाविदेहे वासे विस्तीर्णमण्डलं (सूर) सूर्यम् इत्यपि विशेष्यं योजितं, पुनः किंवि० सिज्झिहिति० जाव अंतं काहिति एवं खलु जंबू ! समणेणं (रस्सीसह-स्सपयलिअ) रश्मिसहस्रेण किरणदशशत्वा कृत्वा प्रदलिता निक्खेवतो। नि०३ वर्ग०२ अ०। स्था०1 स्फोटिता (दित्तसोह) दीप्तानां चन्द्रतारादीनां शोभायेनस तथा तं, येन (सूर्योऽप्युल्लिखित इति सूर्यस्य दुष्कथा 'महादेव' शब्दे षष्ठे भागे स्वकिरणैः सर्वेषामपि प्रभा बिलुप्ताऽस्तीति भायः, अत्र सहस्रकिरणाउक्ता।) ('अग्गमहिसी' शब्दे तदनमहिष्यः।) भिधानं त् लोकप्रसिद्धत्वात, अन्यथा कला विशेष अधिका अपि तस्य द्वौ सूर्यो, इति सूर्यवर्णकमाह किरणा भवन्ति, तथा चोक्तं लौकिकशास्त्रेषुतओ पुणो तमपडलपरिप्फुडं चेव तेअसा पज्जलंतरूवं, "ऋतुभेदात्पुनस्तस्या-ऽतिरिच्यन्तेऽपि रश्मयः। रत्तासोगपगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसं कमलवणा शतानि द्वादशः 1200 मधौ, त्रयोदश 1300 तु माधवे // 1 // लंकरणं अंकणं जोइसस्स अंबरतलपईवं हिमपडलगलग्गहं चदुर्दश 1400 पुनज्येष्ठे, नभोनभस्ययोस्तया 1400 / गहगणोरुनायगं रत्तिविणासं उदयत्थणेसु मुहुत्तं सुहदसण पञ्चदशैव 1500 त्वाषाढे, षोडशैव 1600 तथाश्विने।।२।। दुन्निरिक्खरूवं रत्तिमुद्धंतदुप्पयारपमहणं सीअवेगमहणं पिच्छह | कार्तिके त्वेकदिश च-११०० स्थितान्येवंतपस्यपि। Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर 1031 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूर मार्गे च दश सार्धानि 1050, शतान्येवं 1050 च फाल्गुणे॥३॥ पौष एव परं मासि,सहस्रं 1000 किरणा रवेः / / 7 // 36 // " कल्प०१ अधि०३क्षण। ताके ति चिन्नं पडिचरंति आहितेत्ति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमे दुवे सूरिया पण्णत्ता, तं जहा-भारहे चेव सूरिए, एरवए चेव सूरिए। ता एतेणं दुवे सूरिए पत्तेयं पत्तेयं तीसाए तीसाए मुहुत्तेहि एगमेगं अद्धमंडलं चरंति सहिए सहिए मुहुत्तेहिं एगमेगं मंडलं संघातंति, ता णिक्खममाणे णिक्खममाणे खलु एते दुवे सूरिसा णो अण्णमण्णस्स चिण्णं पडिचरंति पविसमाणा खलु एते दुवे सूरिया अण्णण्णस्स चिण्णं परिचरंति तं सतमेगं चोयालं तत्थ को हे* वदेज्जा? ता अयं णं जंबुद्दीवे दीवे०जाव परिक्खेवेणं तत्थ णं अयं भारहे णं चेव सूरिए जंबुद्दीवे दीवे पाईणपडीणायत उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सतेणं छेत्ता दाहिणपुरस्थिमिल्लंसि चउभागमंडलंसिबाणवति य सूरियमयाइं जाई अप्पणा चिण्णाइं परिचरति, उत्तरपञ्चत्थिमेल्लंसि चउभागमंडलंसि एकाणउतिं सूरियमताई जाई सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिचरति, तत्थ अयं भारहे सूरिए एरावयस्स सूरिअस्स जंबूदीवस्स दीवस्स पाईणपडीणायताए उदीणदाहिणाय ताए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तरपुरस्थिमिल्लसि चउभागमंडलंसि बाणउतिं सूरियमताई (सूरियमताइं) जाइं सूरिए परस्स चिण्णं पडिचरति, दाहिणपञ्चत्थिमेल्लंसि चउभागमंडलसि एकोणणउतिं सूरियमताई जाई सूरिए परस्स चेव चिण्णं पडिचरति, तत्थ अयं एरावए सूरिए जंबूदीवस्स दीवस्स पाईणपडीणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चडवीसएणं सएणं छेत्ता उत्तरपुरस्थिमिल्लंति चउभागमंडलं सि बाणउतिं सूरियमताइं० जाव सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिचरति, दाहिणपुरथिमिल्लंति चउभागमंडलंसि एक्काणउतिं सूरियगताई जाई सूरिए अप्पणो चेव चिण्णं पडिचरित, तत्थ णं एवं एरावए सूरिए भारहस्स सूरियस्स जंबूदी० दीवस्स पाईण पडीणायताए उदीणदाहिणायताए जीवाए मंडलं चउवीसएणं सतेणं छित्ता दाहिणपञ्चत्थिमेल्लंसि चउभागमंडलंसि बाणउतिं सूरियमताई सूरिए परस्स चिण्णं पडिचरति, उत्तरपुरस्थिमेल्लंसि चउभागमंडलंसि एक्काणउर्ति सूरियमताइंजाइंसुरिए परस्सचेव चिण्णं पडिचरति। (सू०१४४) 'ता के ते' इत्यादि, 'ता' इति प्राग्वत्, कस्त्व र्था भगवन् ! सूर्यः स्वयं परेण वा सूत्रेण चीर्ण क्षेत्र प्रतिचरति प्रतिचरन् आख्यात् इति वदेत् ? एवं भगवत्ता गौतमेनोक्ते भगवान् वर्द्धमानस्वाम्याह-'तत्थ' इत्यादि, तत्र / तस्मिन् जम्बूद्वीपे परस्परं चीर्णक्षेत्रप्रतिचरणचिन्तायां खलु-निश्चितं यथावस्थितं वस्तुतत्त्वमधिकृत्येमौ द्वौ सूर्यो प्रज्ञप्तौ, तद्यथा- भारतश्चैव सूर्यः, ऐरावतश्चैव सूर्यः / ता एएण' मित्यादि, तत् एतौ 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे, द्वौ सूर्यों प्रत्येकं त्रिंशता मुहूतैरेकैकमर्द्धमण्डलं चरतः षष्ट्या मुहूतः पुनः प्रत्येकमेकैकं परिपूर्ण मण्डलं सैघातयतः- पूरयतः 'ता निक्खममाणा' इत्यादि, 'ता' इति तत्र सूर्यसत्कैकसंवत्सरमध्ये इमौ द्वावपि सूर्यो सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्निष्क्रामन्तौ नोऽन्योऽन्यस्य परस्परण चीर्णं क्षेत्रं प्रतिचरतः नैकोऽपरेण चीण क्षेत्रं प्रतिचरति, नाप्यपरोऽपरेण चीर्णमिति भावः, इदं तु स्थापनावशादवसेयम्, सा च स्थापना इयम्-सर्वबाह्यान्मण्शलादभ्यन्तरौ प्रविशन्तौ द्वावयपि खलु सूर्यावन्योऽन्यस्य परस्परेण चीर्णं प्रतिचरतः, तद्यथा-शतमेकं चतुश्चत्वारिंश, किमुक्तं भवति यैश्चतुर्विशत्यधिकशतसख्यभागमण्डलं पूर्यते, तेषां चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतम्। उभयसूर्यसमुदायचिन्तायां परस्परेण चीर्णप्रतिचीर्णं प्रतिमण्डलमवाप्यते इति एतदवगमार्थं प्रश्नसूत्रमाह'तत्थ को हेऊ? इति तत्र एवंविधाया वस्तुतत्त्वव्यवस्थाया अवगमे को हेतुः का उपपत्तिरिति ? अत्रार्थे भगवान् वदेत्, अत्र भगवानाह- 'ता अयण्ण' मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपस्वरूपप्रतिपादक वाक्यं पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण परिभावनीयम्, 'तत्थण' मित्यादि, तत्र जम्बूद्वीपेणमिति प्राग्वत् 'अयं भारहे चेव सूरिए' इति-सर्वबाह्यस्य मण्डलस्य दक्षिणस्मिन्नर्द्धमण्डले यश्चारं चरितुमारभते स भरतक्षेत्रप्रकाशकत्वाद्भारत इत्युच्यते, यस्त्वितरस्तस्यैव सर्वबाह्यस्य मण्डलस्योत्तरस्मिन् अर्द्धमण्डले चार चरति, स ऐरवतक्षेत्रप्रकाशकत्वादैरावतस्तत्रायं प्रत्यक्षत उपलस्यमानो जम्बूद्वीपस्य सम्बन्धी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डलं परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य चतुर्विशत्यधिकशतसंख्यान् भागान् तभ्यः तस्य मण्डलस्य परिकल्प्येत्यर्थः, सूर्यश्च प्राचीनाऽपाचीनायतया उदग्दक्षिणा-यतया चजीवया प्रत्यञ्चया; दवरिकयां इत्यर्थः तन्मण्डलं चतुर्भिर्भागैर्विभज्य दक्षिणपौरस्त्ये दक्षिणपूर्वे; आग्रेये कोणे इत्यर्थः, 'चउभागमण्डलंसि' ति-प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययो मण्डलचतुभागेतस्यतस्य मण्डलस्य चतुर्थे भागेसूर्यसंवत्सरसत्कद्वितीयषण्मासमध्ये द्विनवतिं सूर्यगतानि द्वानवतिसंख्यानि मण्डलानि स्वयं सूर्येण गतानि चीर्णानि, किमुक्तं भवति ? पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्निष्क्रामता स्वचीर्णानि प्रतिचरतीति गम्यते, एतदेव व्याचष्टे- 'जाई सूरिए अप्पणा चिण्णं पडिचरइ' इति-यानि सूर्य आत्मना स्वयं पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान्निष्क्रमणकाले इति शेषः चीणोनि प्रतिचरति तानि च द्विनवतिसंख्यानि मण्डलानि चतुर्भागरूपाणि चीणांनि प्रतिचरति न परिपूर्णचतुर्भागमात्राणि, किन्तु-स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काष्टादशाष्टादशभागप्रमितानि / ते चाष्टादशाष्टादश भाग न सर्वेष्वपि मण्डलेषु प्रतिनियते एव देशे किन्तु आपि मण्डले कुत्रापि केवलं दक्षिणपौरस्त्य Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर 1032- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 रूपचतुर्भागमध्ये ततः 'दाहिणपुरस्थिमंसि चउभागमंडलंसि' इत्युक्तम् एवमुत्तरेष्वपि मण्डलचतुर्भागेष्वष्टादशभागप्रतितत्वं भावनीयम्, स एव भारतः सूर्यस्तेषामेव द्वितीयानां षण्मासानांमध्ये उत्तरपश्चिमे चतुर्भागमण्डले मण्डलचतुभागे एकनवतिसंख्यानि मण्डलानि स्वस्वमण्डलगतचतुर्विशत्यधिकशतसत्काष्टादशाष्टादशभागप्रमितानिस्वयं मतानि स्वयं सूर्येण पूर्व सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलान् निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरतीतिगम्यते, एतदेवव्याचष्टे-'जाईसरिए अप्पणाचेवचिण्णाईपडिचरई' एतद् पूर्ववत् व्याख्येयम् इह सर्वबाह्यान्मण्डलात् शेषाणि मण्डलानि त्र्यशीत्यधिकशतसंख्यानितानिच द्वाभ्यामपि सूर्याभ्यां द्वितीयषण्मासमध्ये प्रत्येकं परिभ्रम्यन्ते, सर्वष्वपिच दिग्विभागेषु प्रत्येकमेकं मण्डलमेकेन सूर्येण परिभ्रम्यते द्वितीयमपरेण एवं यावत् सर्वान्तिम मण्डलं, तत्र ददिणपूर्वदिग्भावे द्वितीयषण्मासमध्ये भारतः सूर्यो द्विनवतिमण्डलानि परिभ्रमति, एकनवतिमण्डलानि ऐरावतः उत्तरपश्चिमे दिग्विभागे द्विनवतिमण्डलान्यैरावतः परिभ्रमति, एकनवतिमण्डलानि भारतः, एतच पट्टिकादौ मण्डलस्थापनां कृत्वा भावनीयम्, तत उक्तम्- दक्षिणपूर्वे द्विनवतिसंख्यानि मण्डलानि उत्तरपश्चिमे त्वेकनवतिसंख्यानि भारतः स्वयं चीर्णानि प्रतिचरतीति। तदेवं भारतसूर्यस्य स्वयं चीर्णप्रतिचरणपरिमाणमुक्तम्, इदानीं तस्यैव भारतसूर्यस्य परचीर्णप्रतिचरणपरिमाणमाह--'तत्थ य अय भारहे, इत्यादि, तत्र जम्बूद्वीपे अयं प्रत्यक्षत उपलभ्यमानो जत्बूद्वीपसम्बधी भारतः सूर्यो यस्मिन् मण्डले परिभ्रमति तत्तन्मण्डलं चतुर्विशत्यधिकेन भागशतेन छित्त्वा भूयश्च प्राचीनपाचीनायतया उदीच्यदक्षिणायतया च जीवया च तत्तन्मडलं चतुर्भिविभज्य उत्तरपूर्वे-ईशाने कोणे इत्यर्थः, चतुर्भागमण्डले तस्य तस्य मण्डलस्य चतुर्थेस्य भागे तेषामेव द्वितीयानां षण्मासानां मध्ये ऐरावतस्य सूर्यस्य द्विनवति-सूर्यमतानि द्विनवतिसंख्यान्यैरावतेन सूर्येण पूर्वं निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिवरति,एतदेव व्यक्तीकरोति 'जाइंसरिए परस्स चिण्णाई पडियरइ' यानि सूर्यो भारतः परस्स चिन्नाइं' इत्यत्र षष्ठी तृतीयार्थे, परेण ऐरावतेन सूर्येण निष्क्रमणकाले चीर्णानि प्रतिचरति, दक्षिणपश्चिमे च मण्डलचतुर्भागे एकनवतिम्-एकनवतिसंख्यानि ऐरवतस्य सूर्यस्येत्यत्रापि सम्बद्ध्यते, ततोऽयमर्थः-ऐरावतस्य सूर्यस्य सम्बन्धीति सूर्यमतानि किमुक्तं भवति ? ऐरावतेन सूर्येण पूर्व निष्क्रमणकाले मतीकृतानि प्रतिचरति, एतदेवाह- 'जाई सूरिए परस्स चिण्णाई / पडियरइ' एतत्पूर्ववव्याख्येयम्, अत्राप्येकस्मिन् विभागे द्विनवतिरेकस्मिन् भागे एकनवतिरित्यत्र भावना प्रागिव भावनीया। तदेवं भारतः / सूर्यो दक्षिणपूर्णे द्रियतिसंख्यानि उत्तरपश्चिमे एकनवतिसंख्यानि स्वयं चीर्णानि उत्तरूपूर्ण द्विनवतिसंख्यानि दक्षिणपश्चिमे एकनवतिसंख्यान्यैरवितसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्युगपादितम् / सम्प्रति ऐरावतः सूर्य उत्तरपश्चिमे दिगविभागे द्विनवतिसंख्यानि मण्डलानि दक्षिणपूर्वे एकनव तिसंख्यानि स्वयं चीर्णानि दक्षिणपश्चिमे द्विनवतिसंख्यान्युत्तरपूर्वे एकनवतिसंख्यानि भारतसूर्यचीर्णानि प्रतिचरतीत्येतत्प्रतिपादयति-- 'तत्थ अयं एरवए सूरिए' इत्यादि, एतच्च सकलमपि प्रागुक्तसूत्रव्याख्यानुसारेण स्वयं व्याख्येयम्। सू०प्र०१ पाहु०। द्वात्रिंशत्याधिकं सुर्या मनुष्यलोके जम्बूद्वीपगतमेरोः परितः पङ्क्त्या परिभ्रमन्ति / चं० प्र०१ पाहु० / (द्वयोः सूर्ययोश्चरतोरन्तरव्याख्या 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे 68 पृष्ठतो द्रष्टव्या।) कियन्तंद्वीप समुद्रं वा सूर्योऽवगाहते ? इतिततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता केवतियं दीवं समुई वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, आहिता ति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमाओ पंच पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ एगे एवमहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतंदीवं वा समृई वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति एगे एवमाहंसु 1 / एगे पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एगं चउतीसं जोयणसयं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरति, एगे एवमाहंसु 2 / एगे पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसं जोयणसतं दीवं वा समुहं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरति, एमे एवमाहंसु 3 / एगे पुण एवमाहंसु ता अवडं दीवं वा समुदं वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरति, एगे एवमाहंसु 4 / एगे पुण एवमाहंसु-ता एगं जोयणसहस्सं एगं तेत्तीसं जोयणसतं दीवे वा समुह वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति / तत्थ जे ते एवमाहंसु--ता एगं जोयणसहस्सं एगंतेत्तीसंजोयणसतंदीवं वा समुहवा उग्गाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एवमाहंसु, जता णं सूरिए सव्वन्मंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं जंबूहीवे एगं जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसतं ओगाहित्ता सरिए चार चरति, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुबालसमुहुत्ता राई भवई, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं, चरइ तया णं लबणसुमुई एणंजोयणसहस्सएपंचतेत्तीसंजोयणसयं ओगाहित्ताचार चरइ, तया णं लवणसमुदं एग जोयणसहस्सं एगं च तेत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरइ, तया णं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ। एवं चोत्तीसंजोयण-सतं। एवं पणतीस जोयणसतं / (पणतीसेऽवि एवं चेव भाणियव्वं,) तत्थ जे ते एवमाहंसु ता अवडं दीवं वा समुह वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरइ, ते एवमाहंसु-जताणं सूरिए सव्वन्मत्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तता णं अवडं जंवुद्दीवं दीवं ओगाहित्ता चारं चरति, तता णं उत्तमकपट्ठत्ते Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर 1033 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूर उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणियादुवालसमुहुत्ता गाहते तदा च सर्वोत्कर्षकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्तेप्रमाणा रात्रिः राई भवति, एवं सव्वबाहिरए वि, णवरं अवडं लवणसमुह, तता सर्वजघन्यो द्वादशमुहूर्तो दिवसः। अत्रैवोप-संहारमाह- 'एगे एवमाहंसु' णं राइंदियं तहेव, तत्थ जे ते एवमाहंसु-ताणो किषिदीवं वा / एके पुनः पञ्चमास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः- न किंचिद् द्वीपं समुद्रं वा समुहं वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति, ते एकमाइंसु-ता जता अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, अत्रायं भावार्थ:- यदापि सर्वाभ्यन्तरं णं सूरिए सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं मण्डलमुपसंक्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदापि न किमपि जम्बूद्वीपमवगाहते, णो किंचि दीवं वा समुह वा ओगाहित्ता सूरिए चारं चरति तता किं पुनः शषमण्डलपरिभ्रमणकाले, यदापि सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अवारसमुहत्ते दिवसे भवति, तहेव सूर्यश्चारं चरतितदापि नलवणसमुद्र किमप्यवगाहते, किंपुनः शेषमण्डलपुटवं सव्वबाहिरए मंडले,णवरंणो किंचिलवणसमुहं ओगाहित्ता परिभ्रमणकाले किन्तु द्वीपसमुद्रयोरपान्तराल एव सकलेष्वपि मण्डलेषु चारं चरति, राइंदियं तहेव, एगे एवमाहंसु / (सू०१६) चारं चरति, अत्रोपसंहारमाह-'एगे एवमाहंसु' तदेवमुक्ता उद्देशतः पञ्चापि 'ता केवइयं दीवं समुद्घ वा ओगाहित्ता सूरिए चार चरइ' इत्यादि, 'ता' प्रतिपत्तयः / सम्प्रत्येता एव स्पष्टं भावयति- 'तत्थ जे ते एवमाहंसु' इति पूर्ववत्, कियन्तं-कियत्प्रमाणं द्वीपं समुद्रं वा अवगाहा सूर्यश्चार इत्यादि, प्रायः समस्तमपीदं व्याख्यातार्थं सुगमंच, नवरं 'चोत्तीसे वि' चरति ? चरन्नाख्यात इति वदेत्, एवं प्रश्नकरणादनन्तरं भगवान्निर्वचन- त्ति-एवं त्रयस्त्रिंशदधिकयोजनशतविषयप्रतिपत्तिवत् चतुस्विशे शते या मभिधातुकाम एतद्विषये परतीर्थिकप्रतिपत्तिमित्थ्या-भावोपदर्शनार्थं प्रतिपत्तिस्तस्यामालापको वक्तव्यः, सचैवम्-'तत्थजे तेएवमाहंसुएणं प्रथमतस्ता एव परतीर्थिकप्रतिपत्तीः सामान्यत उपन्यस्यति- 'तत्थ जोयणसहस्सं एगं च चउत्तीसं जोयणसयं दीवे समुह वा ओगाहित्ता चारं खलु' इत्यादि, तत्र सूर्यस्य चारं चरतो द्वीपसमुद्रावगाहनविषये चरइ ते एवमाहंसुजया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं खल्विमाः-वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्च प्रति-पत्तयः-परमतरूपाः प्रज्ञप्ताः, चरति तयाणं जंबूद्दीवं दीवं एणं जोयणसहस्संएणं च चोत्तीसं जोथणसयं तद्यथा-एके तीर्थान्तरीयाः एवमाहुः-ता इति तावच्छब्दस्तेषांतीर्थान्त- ओगाहित्ता चारंचरइ, तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे रीयाणां प्रभूतवक्तव्यतोपक्रमे क्रमोपदर्शनार्थः एक योजनसहस्रमेक च भवइ, जहण्णिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ।ता जयाणं सूरिए सव्वबाहिरं त्रयस्त्रिशदाधिकं योजनशतं द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, मंडलं उवसकभित्ता चारं चरइ तया णं लवणसमुई एगंजोयणसहस्सं एग किमुक्तं भवति ? यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा च चोत्तीसं जोयणसयं ओगाहित्ता चारं चरति तया णं उत्तमकट्ठपत्ता एकं योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे चारं चरति तदा च परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति सर्वज भवइ पणतीसे विएवं चेव भाणियव्वं' एवमुक्तेन प्रकारेण पञ्चत्रिंशदधिधन्या च द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः। यदा तु सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं कयोजनशत-विषयायामपि प्रतिपत्तौ सूत्रं भणितव्यं, तच्च सुगमत्वात्स्वयं चरितुमारभते तदालवणसमुद्रमेकं योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिंशदधिकं भावनीयम् / एवं 'सव्वबाहिरे वि' त्ति-एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डल इव योजनशतमवगाह्य सूर्यश्चारं चरति तदा चोत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्त- सर्वबाह्येऽपि मण्डले आलपको वक्तव्यः, नवरं जम्बूद्वीपस्थाने 'अवद्धप्रमाणा रात्रिर्भवति सर्वजघन्यो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, अत्रैवोप- लवणसमुदं ओगाहित्ता' इति वक्तव्यम्. तच्चैवम्- 'जया णं सूरिए संहारमाह- 'एगे एवमाहंसु एके पुरर्द्वितीया एवमाहुः-'ता' इति पूर्ववत्, सव्वबाहिरं मंडलमुक्संकमित्ता चारं चारइ तया णं अवढे लवणसमुई एकंयोजनसहस्रमेकंचचतुस्त्रिंशदधिकं योजनशतंद्वीपं समुद्र या अवगाह्य ओगाहित्ता चार चरति तया णं राइंदियप्पमाणउन्भासग त्ति तया ण' सूर्यश्वारं चरति, भावना प्राग्वत्, अत्रैवोपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंसु एके मिति, वचनपूर्वकं रात्रिंदिव-परिमाणं जम्बूद्वीपापेक्षया विपरीतं वक्तव्यम्, पुनस्तृतीया एवमाहुः-एक योजनसहस्रमेकं च पञ्चत्रिंशदधिकं योजन यजम्बूद्वीपावगाहे दिवसप्रमाणमुक्तं तद्रात्रेद्रष्टव्यं, यद्रात्रेस्तदिवसस्य, शतमवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, अत्रापि भावना प्रागिव, अत्रैवोपसंहारमाह तचैवम्- 'तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ एगे 'एवमाहंसु' एके पुनश्चतुर्थास्तीर्थान्तरीया एवमाहुः-'अवटुं' ति-- जहन्ने दुवालसमुहत्ते दिवसे हवइ एममुत्तरसूत्रेऽप्यक्षरयोजना भावनीया। अपगतं सदप्यवगाहाभावतो न विवक्षितमर्द्ध यस्य तमपार्द्धमर्द्धहीनम्। तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरूपदर्य सम्प्रत्येतासां अर्द्धमात्रभित्यर्थः, द्वीपं समुद्रं वा अवगाह्य सूर्यश्चारं चरति, इयमत्र मिथ्याभावोपदर्शनार्थ स्वमतमुपदर्शयतिभावना-यदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्ध वयं पुण एवं वदामो-ता जया णं सूरिए सटवन्मंतरं जम्बूद्वीपमवगाहते, तदा च दिवसः परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो मंडलं उवसंक मित्ता चारं चरति, तता णं जंबूहीवं दीवं भवति, सर्वजघन्या च द्वादशमुहूर्त-प्रमाणा रात्रिः यदा पुनः सर्वबाह्यं / असियं जोयणसतं ओगाहित्ता चारं चरति तदा णं मण्डलमुपसक्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा अर्द्धम् अपरिपूर्ण लवणसमुद्रमव- | उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूर 1034 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरपण्णत्ति दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, एवं सव्वबाहिरेऽवि, णवरं लवणसमुहं | सूरदीव-पुं०(सूर्यद्वीप)जम्बूद्वीपगतसूर्यदेवके लवणसमुद्रगते, द्वीपे, जी० तिणि तीसे जोयणसते ओगाहित्ता चारं चरति तयाणं उत्तम- ३प्रति०४ अधि०। (अत्रत्याव्याख्या 'चंददीव' शब्दे तृतीयभागे 1072 कट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए / पृष्ट गता।) दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, गाथाओ भाणितव्वाओ। (सू०१७) | सूरदेव-पुं०(सूरदेव) जम्बूद्वीपे आगामिन्यामुत्सर्पिण्या भविष्यति द्वितीये 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानदर्शना एवं वक्ष्यमाण- तीर्थकरे, प्रव०७ द्वार। ती०। स०। प्रकारेण वदामस्तमेव प्रकारमाह-यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरंमण्डलमुसंक्रम्य सूरद्धअ-(देशी) दिने, दे० ना० 8 वर्ग 42 गाथा। चारं चरति तदा--जम्बूद्वीपमशीत्यधिकं योजन-शतमवगाह्य चारं चरति अत्रत्याः प्राभृतार्थाधिकाराः-- . तदा चोत्तमकाष्ठाप्राप्त उत्कर्षकोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवतिसर्वजधन्या सूर्यप्रज्ञप्तिमहं, गुरूपदेसानुसारतः किञ्चित्। द्वादशमुहूर्ता रात्रिः, एवं 'सव्वबाहिरे वि' त्ति-एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डल इव विवृणोमि यथाशक्ति, स्पष्ट स्वपरोपकाराय // 4 // सर्वबाह्येऽपि मण्डले आलापको वक्तव्यः। स चैवम्-'जयाणंसव्वबाहिरं अस्या नियुक्तिरभूत, पूर्व श्रीभद्रबाहुसूरिकृता। मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ' इति-नवरमिति सर्वबाह्यमण्डलगता कलिदोषात् साऽनेशद्, व्याचक्षे केवलं सूत्रम्॥५॥ दालापकादस्यालापकस्य विशेषोपदर्शनार्थः, तमेव विशेषमाह-'तया स्वामी यस्यां नगर्यां यस्मिन्नुद्याने यथा भगवान् गौतमस्वामी भगवतणं लवणसमुदं तिण्णि तीसे जोयणसए ओगाहित्ता चारं चरइ तया णं स्त्रिलोकीपतेः श्रीमन्महावीरस्यान्ते सूर्यवक्तव्यतां पृष्टवान् यथा च तस्मै उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्नए दुबालसमुहत्ते भगवान् व्यागृणाति स्मतथोपदिदर्शयिषुः प्रथमतो नगर्युद्यानाभिधानदिवसे भवइ' इति, इदं च सुगम, क्वचित्तु 'सव्वबाहिरे वि' इत्यतिदेश पुरस्सरं सकलवक्तव्यतोपक्षेपं वक्तुकाम इदमाहमन्तरेण सकलमपि सूत्रं साक्षाल्लिखिलं दृश्यते 'गाहाओ भाणियव्वाओ' ते णं काले णं ते णं समए णं मिथिला नाम नयरी होत्था अत्रापि काश्चन प्रसिद्धा विवक्षित्तार्थसंग्राहिका गाथाः सन्ति ता रिद्धत्थिमियसमिद्धा पमुइतजणजाणवया० जाव पासादीया० भाणितव्याश्च, ताश्च सम्प्रति व्यवच्छिन्ना इति न कथयितुं व्याख्यातुं वा एकं()() तीसे णं मिहिलाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे शक्यन्ते यथासम्प्रदायं वाच्या इति। सू० प्र०१पाहु०। ('सूरमंडल' दिसिमाए एत्थ णं माणिभद्दे णामं चेइए होत्था वण्णओ। तीसे शब्देऽस्मिन्नेव भागे पञ्चदशभिरैः सूर्यप्ररूपणा वक्ष्यते।) ('उउ' शब्दे णं मिहिलाए जितसत्तू राया, धारिणी देवी, वण्णओ, ते णं काले द्वितीयभागे 676 पृष्ठ सूर्यर्तवः।) चतुर्थे देवलोकस्थे विमानभेदे, नपुं०। / णं ते णं समए णं तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा स०५ सम० / औ०। स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च। सू०प्र०२०पाहु० / निग्गता, धम्मो कहितो, परिसा पडिगया० जाव राजा जामेव (सूर्यस्यावृत्तयः युगे कति भवन्तीति 'आउट्टि' शब्दे द्वितीयभागे 30 पृष्ठे दिसिं पादुम्भूए तामेव दिसिं पडिगते / (सू०१) गतम्।) 'ते णं काले णं' मित्यादि, 'ते' इति प्राकृतशैलीवशात् तस्मिन्निति सूरग (देशी) प्रदीपे, दे० ना० 8 वर्ग 52 गाथा। द्रष्टव्यम्, अस्थायमर्थः- यदा भगवान् विहरतिस्म तस्मिन् णमिति सूरकं त-पुं०(सूर्यकान्त) सूर्यखरकिरणसम्पदिन्धकारमोचके वाक्यालङ्कारे दृष्टश्चान्यत्रापि णशब्दो वाक्यालङ्कारार्थे यथा 'इमा णं सणिभेदे, प्रज्ञा०१पदा उत्त०। सूत्र० भ०। चतुर्थदेवलोकस्थे विमान- पुढवी' इत्यादाविति, काले अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थभागरूपे, अत्रापि भेदे, नपुं० / स०५ सम०। णंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, 'तेणं समए णं' ति-समयोऽवसरवाची, तथा सूरकूड-न०(सूर्यकूट) चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०५ सम०। चलोके वक्तारोनाद्याप्येतस्यवक्तव्यस्यसमयो वर्त्तते, किमुक्तं भवति?सूरखेत्त-न०(सूर्यक्षेत्र) उदयास्तरूपे नमःखण्डे, ध०३ अधि०। नाद्याप्येतस्य वक्तव्यस्यावसरो वर्तत इति, तस्मिन् समये भगवान् प्रस्तुतां सूर्यवक्तव्यतामचकथत्, तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी सूरचरिए-न०(सूर्यचरित) रविचरिते, सूर्यचरितं त्विदं सूर्यमण्डल अभवत्, नन्विदानीमपि सा नगरी वर्तते ततः कथमुक्त-मभवदिति?, परिमाणराशिपरिभोगोद्योतावकाशराहूपरागादिकम्। सूत्र०२ श्रु०२ उच्यते-वक्ष्यमाणवर्णकग्रन्थोक्तविभूतिसमन्विता तदैवाभवत् न तु अ०स०॥ ग्रन्थविधानकाले, एतदपि कथमवसेयमिति चेत् ? उच्यते- अयं सूरण-पुं०(शूरण) अर्शीघ्रकन्दे, प्रव०४ द्वार। दे० ना०। औ०। आचा०। कालोऽवसर्पिणी, अवसर्पिण्यां च प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपउत्त०। जी०। प्रज्ञा० भ०। स०। स्वनामख्याते एकचत्वारिंशतितमे गच्छन्तीति, एतच सुप्रतीतं जिनप्रवचनवेदिनाम्, अतोऽभवदित्युच्यमानं ऋषभदेवस्य पुत्रे, कल्प० 1 अ०७ क्षण। पा०। न विरोधभाक् / सम्प्रति अस्या नगर्या वर्णकमाह 'रिद्धस्थिमियससूरदह-पुं०(सूर्यहद) जम्बूद्वीपे देवकुले स्वनामख्याते महाहदः स्था०५ / १-अत्र 'व्ह' शब्दः संभाव्यते। निशीथचूर्णिग्रन्थे चतुर्णा पूर्वोक्तानी संकेत इति ठा०३ उ०। बहुषु स्थलेषु लभ्यते। Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति 1035 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरपण्णत्ति मिद्धा पमुइयजणजाणवया० जाव पासाईया० 'क' (व्ह) (5) इति, ऋद्धा-भवनैः पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपगता 'ऋधू' बृद्धाविति वचनात् स्तिमितास्वचक्रपरचक्रतस्करडमरादिसमुत्थभयकल्लोलमालाविवर्जिता समृद्धाधनधान्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदयत्रयस्यापि कर्मधारयः, तथा पमुझ्यजणजाणवय' ति-प्रमुदिताः-प्रमोदवन्तः प्रमोदहेतुवस्तूनां तत्र सदावाज्जनानगरीवास्तव्या लोका जानपदाजनपदभवास्तत्र प्रयोजनवशादायाताः सन्तो यत्र सा प्रमुदितजनजापदा, यावच्छब्देनौपपातिकग्रन्थप्रतिपादितः समस्योऽपि वर्णकः 'आइन्नजणसमूहा मणुस्सा' इत्यादिको द्रष्टव्यः। (सू०१) स च ग्रन्थगौरवभयान्न लिख्यते, केवलं तत् एवौपपातिकादवसेयः, कियान् द्रष्टव्य इत्याह'पासाईया 'व्ह' इति अत्र 'व्ह' शब्दोपादानात् प्रासादीया इत्यनेन पदेन सह पदचतुष्टस्य सूचा कृता, तानि च पदान्यमूनि-प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा, तत्र प्रासादेषु भवा प्रासादीया; प्रासादबहुला इत्यर्थः, अएव दर्शनीया-द्रष्टुं योग्या, प्रासादानामतिरमणीयत्वात्, तथा अभिमुखमतीवोक्तरूपं रूपम्- आकारो यस्याः सा अभिरूपा प्रतिविशिष्टम्-असाधारणं रूपम्-आकारो यस्याः सा प्रतिरूपा, 'तीसे णं मिहिलाए णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं माणिभद्दे नामं चेइए होत्था वण्णओ' इति तस्या मिथिलानगर्या बहिर्य औत्तरपौरस्त्यः-उत्तरूपर्वरूपो दिग्विभाग ईशानकोण इत्यर्थः, एकारोमागधषाभानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः, यथा 'कयरे आगच्छइ दित्तरूवे' (उत्त० 12-6) इत्यादौ, 'अत्र' अस्मिन् औत्तरपौरस्त्ये दिग्विभागे माणिभद्रमिति नाम चैत्यमभवत्, चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वा चैत्यं, तच्च संज्ञाशब्दत्वाद्दवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यद्देवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्यं, तचेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं, नतु भगवतामर्हतामायतनमिति / 'वण्णओ' ति तस्यापि चैत्यस्य वर्णको वक्तव्यः, स चौपपातिकग्रन्थादवसेयः (सू०२)। 'तीसे णं मिहिलाए' इत्यादि, तस्यां च मिथिलायां नगर्या जिनशत्रुर्नाभ राजा, तस्य देवीसमस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकल-गुणधारणाद्धारिणीनाम्नी देवी, 'वण्णओ' त्ति तस्य राज्ञः तस्याश्च देव्या औपपातिकग्रन्थोक्तो वर्णकोऽभिधातव्यः (सू०७) ते णं काले णं ते णं समए णं तंमि माणिभद्दे चेइए सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया' तस्मिन् काले तस्मिन् समये तस्मिन् माणिभद्रे चैत्ये 'सामी समोसढे' त्ति स्वामी जगद्गुरुभगवान् श्रीमहावीरोऽर्हन् सर्वज्ञः सर्वदर्शी सप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छ्यः समचतुरस्रसस्थानो वज्रर्षभनाराच संहननः कज्जलप्रतिमकालिमोपेतस्निग्धकुञ्चितप्रदक्षिणावर्तमूर्धजः उत्तप्ततपनीयाभिरामकेशान्तकेशभूमिरातपत्राकारोत्तमाङ्गसन्निवेशः परिपूर्णशशाङ्कमण्डलादप्यधिकतरवदनशोभः पद्मोत्पलसुरभिगन्धनिःश्वासोवदनत्रिभागप्रमाणकम्बूपमचारुकन्धरः सिंहशार्दूलवत्परिपूर्णविपुलस्कन्धप्रदेशो महापुरकपाटपृथुलवक्षःस्थलाभोगो यथास्थितलक्षणोपेतः श्रीवृक्षपरिघापमप्रलम्बबाहुयुगलो रविशशिचक्रसौवस्तिकादिप्रशस्तलक्षणोपेतपाणितलः सुजातापार्यो झषोदरः सूर्यकरस्पर्शसञ्जातविकोशपद्मोपमनाभिमण्डलः सिंहवत्संवर्तितकटीप्रदेशो निगूडजानुः कुरुबिन्दवृत्तजङ्घायुगलः सुप्रतिष्ठितकूर्मचारुचरणतलप्रदेशः अनाश्रवो निर्ममः छिन्नश्रोता निरुपलेपोऽपगतप्रेमरागद्वेषश्चतुत्रिंशदतिशयोपेतोदेवोपनीतेषु नवसु कनककमलेषु पादन्यासं कुर्वन्नाकाशगतेन धर्मचक्रेण आकाशगतेन छत्रेण आकाशगताभ्यां चामराभ्याभाकाशगतेनातिस्वच्छस्फटिकविशेषमयेन सपादपीठेन सिंहासनेन पुरतो देवैः प्रकृष्यमाणेन प्रकृष्यमाणेन धर्मध्वजेन चतुर्दशभिः श्रमणसहस्रः षट्त्रिंशत्संख्यैरार्यिकासहस्रैः परिवृता यथास्वकल्पं सुखेन विहरन् यथारूपमवग्रह गृहीत्वा संयमेन तपसा चाऽऽत्मानं भावयन्समवसृतः, समवसरणवणीनं च भगवत औपपातिकग्रन्थादवसेयम्। (सू०१० यावत् 33) 'परिसा निग्गय' त्ति मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो लोकः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा भगवद्वन्दनार्थ स्वस्मादाश्रयाद्विनिर्गत इत्यर्थः, तन्निर्गमश्चैवम्'तए णं मिहिलाए नयरीए सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एमवाइक्खइ, एवं भासेइ, एवं पन्नवेइ, एवं परूवेइएवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे० जाव सव्वन्नू सव्वदरिसी आगासगएणं छत्तेणं० जाव सुहं सुहेणं विहरमाणे इह आगए इह समागए इह समोसढे इहेव मिहिलाए नयरीय बहिआ माणिभद्दे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता अरिहा जिणे केवली समणगणपरिवुडे संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तंमहाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्स विसवणयाए किमंग! पुण अभिगमणवंदणनमंसणपअिच्छणपज्जुवासणयाए? तंसेयं खलु एगस्स विआयरियस्सधम्मियस्ससुवयणस्ससवणयाए, किमंग! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो, एयं णो इहभवे परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ, तएणं मिहिलाए नयरीए बहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकग्रन्थोक्तं (सू० 27) सर्वमवसेयं यावत्समस्ताऽपि राजप्रभृतिका षर्षत् पर्युपासीना तिष्ठति। 'धम्मो कहिओ' त्ति तस्याः पर्षद पुरतो निःशेषजनभाषानुयायिन्या अर्द्धमागधभाषया धर्म उपदिष्टः, स चैवम्- 'अस्थि लोए अस्थि जीवा अत्थिं अजीवा' इत्यादि, तथा- "जह जीवा बझंति, मुचंति' जह यं संकिलिस्संति / जह दुक्खाणं अंते, करिति केई अपडिबद्धा 11 / / अट्टनियट्टियऽचित्ता, जह जीवा सागरं भवमुविति / जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्विति॥२॥ 'तहा आइक्खइ' त्ति 'जाव राजा जामेव दिसं पाउन्भूए तामेवदिसं पडिगए' इति, अत्र यावच्छब्दादिदमौपपातिकग्रन्थोक्तं द्रष्टव्यम्-'तएणं सा महइमहालिया परिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ठा समणं भगव म Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति 1036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुरपण्णत्ति हावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं, करेइ तिक्खु० करित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे, नत्थि य केइ अन्ने समणे वा माहणे वा एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसंपडिगया, तएणं से जियसत्त राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सुचा निसम्म हवढे० जाव हयहियए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदिता नमंसित्ता पसिणाइंपुच्छइ परि० पुच्छित्ता अट्ठाइं परियाएइ परियाइत्ता उट्ठाए उठेइ, उठाए उठ्ठित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइनमसइ, स० वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाए णं भंते ! निगंथे पावयणे० जाव एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, एवं वइत्ता हत्थि दुरूहइ दुरूहित्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियाओ माणिभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसंपाउन्भूए तामेव दिसंपडिगए। (सू०३५ - 36-37) इति, इदं च सकलमपि सुगम, नवरं यामेव दिशमवलम्ब्य, किमुक्तं भवति ? यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः-समवसरणे समागतस्तामेव दिसं प्रतिगतः / ते णं काले णं ते णं समए णं समणस्स भगवतो महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूती णामे (म) अणगारेगोतमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वारिसहनारायसंघयणे० जाव एवं वयासी। (सू०२) 'तेणं कालेणं तेणं समएणंसमणस्स भगवतो महावीरस्सजेटे अंतेवासी इंदभूई नामे अणगारे गोयमे गोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए वञ्जरिसहनारायसंधयणे० जाव एवं वयासी' इति-तस्मिन् काले तस्मिन् समये, णंशब्दो वाक्यालकारार्थः, श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यज्येष्ठ इति-प्रथमः, अन्तेवासी-शिष्यः, अनेन पदद्रयेन तस्यसकलसंघाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः, 'नाम' ति प्राकृतत्वात् विभक्तिपरिणामेन नाम्नेति द्रष्टव्यम् अन्तेवासी च किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यात् अतसतदाशकाव्यवच्छेदार्थमाह-अनगारः न विद्यते अगारं- गृहमस्येत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि स्यादत आह-गौतमो गोत्रेण गौतमायगोत्रसमन्वित इत्यर्थः, अयं चतत्कालोचितदहेपरिमाणापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादत आह-सप्तोत्सेधःसप्तहस्तप्रमाणशरीरोच्छ्रायः, अयं चेत्थंभूतो लक्षणहीनोऽपि सम्भाव्येत अतस्तदाशङ्कापनोदार्थमाह- 'समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितः समाःशरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसयो यस्य तत्समचतुरस्रम् अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्टव्याः, अन्ये त्वाहुः--समाअन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यस्रयो यत्र तत्समचतुरसम्, अस्रयश्च पर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् 1, आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम् 2. दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम् 3, वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तर 4, मिति, अपरे त्वाहुः-विस्तारोत्सेधयोः | समत्वात्समचतुरसम्तच तत्संस्थानंचसमचतुरस्रसंस्थानम्-आकारस्तेन संस्थितोव्यवस्थितो यः स तथा, अयं च हीनसंहननोऽपि केनचित्सम्भाव्यते तत आह-- 'वज्जरिसहनारायसंधयणे' नाराचम्उभयतो मर्कटबन्धः ऋषभः-- तदुपरिवेष्टनपट्टः कीलिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, 'जाव एवं वयासी' " इति, यावच्छब्दोपानादिदमनुक्तमप्यवसेयम्-'कणगपुलगनिधसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणि धोरतवस्सी धोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तबिउलतेउलेसे चउद्दसपुव्वी चउणाणोवगए सव्वक्खरंसनिवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उद्बुजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तए णं से भयवं गोयमे जायसङ्घजायसंसए जायकोउहले उप्पन्नसड्ढेउप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले समुप्पण्णसड्डेसमुपानसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले उहाए उद्वेइ उठाए उद्वित्ताजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, आयाहिणपयाहिणं करित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता णच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासे-- माणे एवं वयासी'-अस्यायमर्थः-कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुलकोलवस्तस्ययो निकषः-(कषः) पट्टके रेखारूपः, तथापद्मग्रहणेनपाकेसराण्युच्यन्ते, अवयवे समुदायोपचारात्, यथा पद्मकेसराण्युच्यन्ते, अवयवो देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्य हस्ताग्रं स्पृष्ट्वा लोको वदतिदेवदत्तो मया स्पृष्ट इति, ततः कनकेषु (कस्य) पुलकनिकषवत्पद्मकेसरवच्च यो गौरः सकनकपुलकनिकषपद्मगौरः। अथवा-कनकस्य यः पुलकोद्रुतत्वेसति बिन्दुस्तस्य निकषोवर्णः तत्सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत्पद्मकेसर इवयो गौरः सपद्मागौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः समासः / अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि शक्येत अत आहे- 'उग्गतवे' उग्रम्अप्रधृष्यं तपः- अनशनादि यस्य स तथा, यदन्येन प्राकृतेन पुंसा न शक्यते चिन्तयितुमापि मनसा तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीप्तंजाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपोधर्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवे' ति–तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं हितेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यप्यशुभानि कर्माणि भस्मसात्कृतानीति, महत्प्रशस्तमाशंसादोषरहितत्वात्तपो यस्य स महातपाः, तथा 'उराले' त्ति-- उदार:-प्रधानः, अथवा-ओरालो-भीष्मः, उग्राहि-विशेषणतः पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः, तथा घोरोनिघृणः परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधिकृत्य निर्दय इत्यर्थः, तथा घोराअन्यैर्दुरनुचरा गुणाज्ञानादयो यस्य स तथा, तथा घोरैस्तपोभिसतपस्वी,'घोरबंभचेर-- वासि' त्ति घोरंदारुणं अल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्यं यत्तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, उच्छूढम्-उज्झितमिव उज्झितंसंस्कारपरित्यागात्शरीरं येन स उच्छूढशरीरः, 'संखित्तविउलतेउलेसे' त्ति-संक्षिप्ताशरीरान्त Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति 1037- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरपण्णत्ति र्गतत्वेन हस्तवां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रित- कथं प्रवृत्तश्रद्धः? उच्यते यत उत्पन्नश्रद्ध इति, हेतुत्वप्रदर्शनंचोपपन्नम्, वस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तस्य काव्यालङ्कारत्वात्, तथा 'प्रवृत्तदीपाम(प्र) पवृत्तभास्करां, तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'चउद्दसपुव्यि' त्ति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी मित्यत्र यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तयस्य तेनैव रचितत्वात्, असौ चतुर्थशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलि- भास्करत्वमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्वादेर्हेतुतयोगन्यतामाह, सचावधि-ज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-'चउनाणोवगए' स्तमिति समीचीनम्, 'उप्पन्नसड्ढे उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले' इति मतिश्रुता-वधिमनः पर्यायज्ञानरूपज्ञानचतुष्टयसमन्वित इत्यर्थः, प्राग्वत्, तथा 'संजायसड्डे' इत्यादि पदषट्कं प्राग्वत्, नवरमिह सम्शब्दः उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति, प्रकर्षादिवचनोवेदितव्यः, ततः 'उहाए उठेइ' इति उत्थानमुत्था-ऊर्ध्वं चतुर्दशपूर्वविदामपि षट्स्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह- 'सर्वाक्षरस वर्त्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उठेइ' इत्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते निपाती' अक्षराणां सन्निपाताः--संयोगाः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च यथावकुमुत्तिष्ठते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुत्थायेत्युक्तम्, 'जेणेवे' त्यादि, सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयानि स तथा, किमुक्तं भवति ?-या प्राकृतशैलीबशादव्ययत्वाच्च येनेति यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यम्, यस्मिन् काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा सम्भवति ताः सर्वा अपि दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्त्तते 'तेणेव' त्ति-तस्मिन् दिग्मागे जानातीति, एवं गुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिव साक्षादिति कृत्वा उपागच्छति, इह वर्तमानकालनिर्देशस्तत्कालापेक्षया उपागमन क्रियाया वर्तमानत्वात्, परमार्थतस्तूपागतवानिति द्रष्टव्यम्, उपागम्य शिष्याचारत्वाच श्रमणस्य भगवतो महावीरस्स अदूरसामन्ते विहरतीति च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मतापन्नं त्रिकृत्वः-त्रीन्वारान् आदक्षिणयोगः / तत्र दूरं विप्रकृष्टं सामन्तं--सन्निकृष्ट तत्प्रतिषेधाददूरसामन्तम्, प्रदक्षिणं करोति, आदक्षिणात्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः- परितो तत्र नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणः तं करोति, कृत्वा वन्दते-स्तीति आह- 'उड्डजाणु' त्ति-ऊर्ध्वं जानुनी यस्यासौ ऊर्ध्वजानुः, शुद्धपृथि नमस्यति कायेन प्रणमति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च 'न' -- नैव व्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया-स्तदानीमभावाच उत्कृटुकासन अत्यासन्नः-अतिनिकटः अवग्रहपरिहारात्, अथवा-नात्यासन्नस्थाने इत्यर्थः अधःशिरा नोर्ध्व तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः किन्तु नियतभूभागनिय वर्तमान इति गम्यत्, तथा 'न' नैवातिदूरोऽतिविप्रकष्टोऽनौचित्यमितदृष्टिरितिभावः, 'झाणकोट्टोव-गए, त्ति-ध्यान-धर्म्य शुक्लंवा तदेव परिहारात्, अथवा-नातिदूर स्थाने 'सुस्सूसमाणे' त्ति-भगवद्वचनानि कोष्ठः-कुशूलोध्यान-कोष्ठस्तमुपगतोध्यानकोष्ठोपगतः, यथाहि कोष्ठ श्रोतुमिच्छन्, 'अभिमुहे' त्ति-अभि-भगवन्तं प्रति मुखमस्येत्यभिमुखः केधान्यं प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति, एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णे 'विणयेण' त्ति विनयेन हेतुना 'पंजलिउडे' त्ति प्रकृष्ट:-प्रधानो ललाटन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरित्यर्थः, संयमेन पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तटघटितत्वेन अञ्जलिः-हस्तन्यासविशेषः कृतो विहितोयेनस प्राञ्जतपसा-अनशनादिना, चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थो लुप्तो द्रष्टव्यः, संयमत लिकृतः, भार्योढादराकृतिगणतया कृतशब्दस्य पानिपातः 'पज्जुवापोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थम्, प्राधान्यं च संयमस्य सेमाणे' इति-पर्युपासीन्ः-सेवमानः अनेन विशेषणकदम्बकेन श्रवणनवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जराहेतुत्वेन, तथाहि विधिरुपदर्शितः, उक्तं च- "निद्दाविगहापरिवजिएहिं गुत्तेहिं पंजलिअभिनवकर्मानुपादानात्, पुराणकर्मक्षपणाच जायते सकलकर्मक्षय- उडेहिं / भत्तिबहु-माणपुव्वं, उबउत्तेहिं सुणेयव्वं // 1 // " इति / एवं लक्षणो मोक्षः, ततो भवति संयमतपसोर्मोक्ष प्रतिप्राधान्यमिति, अप्पाणं वदासि' त्ति एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण सूर्यादिवक्तव्यताविषयं प्रश्नमभावेमाणे विहरइ' इति आत्मनं भावयन्-वासयन् तिष्ठतीत्यर्थः, 'ततो वादीत्-उक्तवान्। णं से' इति-ततो-ध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं, णमिति, वाक्या कथमुक्तवानिति शिष्यस्य प्रश्नावकाशमाशक्य प्रथमतो विंशतौ लङ्कारार्थः, स-भगवान् गौतमः 'जायसड्डे' इत्यादि, जातश्रद्धादिवि प्राभृतेषु यद्वक्तव्यं तदुपक्षिपन्गाथापञ्चकमाहशेषणः सन् उत्तिष्ठतीतियोगः, तत्र जानाप्रवृत्ता श्रद्धा इच्छा वक्ष्यमा कइ मंडलाइ वचइ 1, तिरिच्छा किं च गच्छई 2 / णार्थतत्त्वज्ञानं प्रति यस्यासौ जातश्रद्धः, तथा जातः संशयो यस्य स ओभासइ केवइयं 3, सेयाइ किं ते संठिई 4 ||1|| जातसंशयः, संशयो नामानवधारितार्थं ज्ञानम्, स चैवं भगवतः-इह सूर्यादिवक्तव्यता अन्यथा, अन्यथा च तीर्थान्तरीयैरुपदिश्यते, ततः किं कहिं पडिहया लेसा 5, कहिं ते ओयसंठिई 6 // तत्त्वमिति संशयः, तथा 'जायकोउहल्ले' त्ति-जात कुतूहलं यस्य स के सूरियं वरयते 7, कहं ते उदयसंठिई 8 ||2|| जातकुतुहलः; जातौत्सुक्य इत्यर्थः यथा कथमेनां सूर्यवक्तव्यता भगवान् कह कट्ठा पोरिसीछाया,जोगे किं ते व आहिए 10 / प्रज्ञापयिष्यतीति, तथा 'उप्पन्नसड्ढे' त्ति-उत्पन्ना प्रागभूता सती भूता किं ते संवच्छरेणादी 11, कया संवच्छराइ य 12 // 3|| श्रद्धा यस्या सौ-उत्पन्नश्रद्धः, अथजातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थ- कहं चंदमसो बुडी 13, कया ते दोसिणा बहू 15 / मुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते? प्रवृत्तश्रद्धत्वेनोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात्, के य सिग्घगई वुत्ते 15, कहं दोसिणलक्खणं 16 // 4 // नह्यनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तत इति, अत्रोच्यते-हेतुत्वप्रदर्शनार्थम्, तथाहि-। __ चयणोववाय 17 उबत्ते 18, सूरिया कइ आहिया 16 / Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति 1038 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरपण्णत्ति अणुभावे के व संवुत्ते 20, एवमेयाईं वीसइ ॥५॥(सू०३) / प्रथमे प्राभृते सूर्यो वर्षभध्ये कति मण्डलान्येकवारं कति वा मण्डलानि द्विकृत्वो व्रजतीत्येतन्निरूपणीयम्, किमुक्तं भवति- एवं गौतमेन प्रश्ने कृते तदनन्तरं सर्व तद् विषयं निर्वचनं प्रथमे प्राभृते वक्तव्यमिति 1 / एवं सर्वत्रापि भावनीयम्। द्वितीये प्राभृते 'किं' कथं वाशब्दः सर्वप्राभृतवक्तव्यतापेक्षया समुचये तिर्यग्व्रजतीति 2 तृतीये चन्द्रः सूर्यो वा कियत्क्षेत्रमवभासयति-प्राकाशयतीति३, चतुर्थे श्वेततायाः-प्रकाशस्य किं कथं 'ते' --तव मते संस्थितिः-व्यवस्थेति 4, पञ्चमे कस्मिन् सूर्यस्य प्रतिहता लेश्येति 5, षष्ठे कथं-केन प्रकारेण किं सर्वकालमेकरूपावस्थायितया उतान्यथा ओजसः-प्रकाशस्य संस्थितिः-अवस्थानमिति 6, सप्तमे के पुद्गलाः सूर्य वरयन्ति- सूर्यलेश्यासंसृष्टा भवन्तीति 7, अष्टमे कथं–केन प्रकारेण भगवन् ! ते-तव मतेन सूर्यस्योदयसस्थितिः 8, नवमे कतिकाष्ठा-किंप्रमाणा पौरुषीच्छाया 6, दशमे योग इति वस्तु किं ते-- त्वया भगवताऽख्यातमिति 10, एकादशे कस्ते-- तव मतेन संवत्सराणामादिरिति 11, द्वादशे कति संवत्सरा इति 12, त्रयोदशे कथं-केन प्रकारेण चन्द्रमसो वृद्धिः-वृद्धिप्रतिभासः उपलक्षणमेतत्तेन वृद्ध्यवृद्धिप्रतिभास इत्यर्थः 13, चतुर्दशे कदा-कस्मिन् काले 'ते' - तव मतेन चन्द्रमसो ज्योत्स्रा बहुः-प्रभूतेति 14, पञ्चदशे कश्चन्द्रादीनां मध्ये शीघ्रगतिरुक्त इति 15, षोडश किं ज्योत्स्नालक्षणमिति वक्तव्यम् 16, सप्तदशे चन्द्रादीनां च्यवनमुपपातश्च स्वमतपरमतापेक्षया वक्तव्यः 17, अष्टादशे चन्द्रादीनां समतलाभूभागादूर्ध्वमुच्चत्वं-यावति प्रदेशे व्यवस्थितत्वं तत्स्वमतपरमतापेक्षया प्रतिपाद्यम् 18, एकोनविंशतितमे कति सूर्या जम्बूद्वीपादावाख्याता इत्यभिधेयम् 16, विंशतितमे कोऽनुभावश्चन्द्रादीनामिति 20 // एवम्- अनन्तरोक्तेन प्रकारेण एंतानि अनन्तरोदितार्थाधिकारोपेतानि विंशतिः प्राभृतान्यस्यां सूर्यप्रज्ञप्ती वक्तव्यानि। सू०प्र०१पाहु०। (प्राभृतशब्दार्थः पाहुड' शब्दे पञ्चमभागे 614 पृष्ठे गतः।) सम्प्रति प्रथमे प्राभृते यान्यपान्तरालवर्तीन्यष्टो प्राभृतप्राभूतानि तेषामर्थाधिकारान् उपदिदिक्षुराहवड्ढोबड्डी मुहुत्ताण 1, मद्धमंडलसंठिई 2 / के ते चिन्नं परियरइ 3, अंतरं किं चरंति य // 6| उग्गाहह केवइयं 5, केवतियं च विकंपइ 6 (सू०-५) मंडलाण य संठाने 7, विक्खंभो 8 अट्ठ पाहुडा |7|| छप्पं च य सत्तेवय, अट्ट तिनि य हवंति पडिवत्ति। पढमस्स पाहुडस्स, हवंति एयाउपडिवत्ती॥८॥(सू०-५) पडिवत्तीओ उदए, तहा अत्थमणेसु या भियवाए कण्णकला, मुहुत्ताण गतीति य // णिक्खममाणे सिग्घगई, पविसंते मंदगई इय। चुलसीइसयं पुरिसाणं, तेसिं च पडिवत्तिओ // 10 // उदयम्मि अह मणिया, भेदग्घाए दुवे य पडिवत्ती। चत्तारि मुहुत्तगइए, हुंति तइयम्मि पडिवत्ती॥११॥(सू०-६) आवलिय 1 मुहुत्तग्गे 2, एवं भागा य 3 जोग्गस्स४। कुलाइं 5 पुन्नमासी ६य, सन्निवाए 7 य संठिई 8 ||12|| तारं (य) ग्गं च नेता य 10, चंदमग्ग त्ति 11 यावरे। देवताण य अज्झयणे 12, मुहुत्ताणं नामया इय 13 / / 13 / / दिवसा राइ वुत्ताय 15, तिहि 15 गोत्ता 16 भोयणाणि १७य। आइबवार 18 मासा 16 य, पंच संवच्छराइच 20 // 14 // जोइसस्स य दाराई 21, नक्खत्तविजए विय 22 // दसमे पाहुडे एए, बावीसं पॉहु (ड) पाहुडा / / 15 / / (सू०-७) प्रथमस्य प्राभृतस्य सत्के प्रथमे प्राभृतप्राभृते मुहूर्तानां दिवसरात्रिगतानां वृद्ध्यपवृद्धी वक्तव्ये 1, द्वितीयेऽर्द्धमण्डलस्य द्वयोरपि सूर्ययोः प्रत्यहोरात्रमर्द्धमण्डलविषया संस्थितिः- व्यवस्था वक्तव्य 2, तृतीये तव मतेन कः सूर्यः कियदपरेण सूर्येण चीण क्षेत्रं प्रतिचरतीति निरूप्यम् 3, चतुर्थे द्वावपि सूर्यो परस्परं कियत्परिमाणमन्तरं कृत्वा धारं चरत इति प्रतिपाद्यम् 4, पञ्चमे कियत्प्रमाणं द्वीपे समुद्रं वाऽवगाह्य सूर्यश्चारं चरतीति 5, षष्ठे एकैकेन रात्रिन्दिवेन एकैकः सूर्यः कियत्प्रमाणं क्षेत्रं विकम्प्यविमुच्यं चारं चरतीति 6, सप्तमे मण्डलानां संस्थानमभिधानीयम्, 7, अष्टमे मण्डलानामेव विष्कम्भो–बाहल्यमिति८, एवमर्थाधिकारसमन्वितानि प्रथमे प्राभृतेऽष्टौप्राभृतप्राभृतानि। सम्प्रति प्रथम एव प्राभृते चतुरादिषु प्राभृतप्राभृतेषु यत्र यावत्यः प्रतिपत्तयः परमतरूपास्तत्र तावतीरभिधित्सुराह-'छप्पंचे त्यादि, प्रथमस्य प्राभृतस्य चतुरादिषु प्राभृतप्राभृतेषु यथाक्रममेताः प्रतिपत्तयः- परमतरूपा भवन्ति, तद्यथाचतुर्थे प्राभृतप्राभृतेषट्प्रतिपत्तयः 6, पञ्चमे पञ्च 5, षष्ठेसप्त 7, सप्तमे अष्टौ 8 अष्टमे तिस्र 3 इति / सम्प्रति द्वितीये प्राभृते यदर्थाधिकारोपेतानि त्राणि प्राभृतप्राभृतानि तान्प्रतिपादयति-'पङिवत्ती' त्यादि, द्वितीयस्य प्राभृतस्य प्रथमे प्राभृतप्राभृते सूर्यस्योदये अस्तमयनेषु च प्रतिप्रत्तयः--परमतरूपाः प्र Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति 1036 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरपण्णत्ति तिपाद्याः सवतमप्रतिपत्तिश्च / द्वितीये भेदघातः कर्णकला च वक्तव्या, किमुक्तं भवति?-भेदो मण्डलस्यापान्तरालं तत्र धातो-गमनम् 'हन्' हिंसागत्योरिति, वचनात, स एकेषां मतेन प्रतिपाद्यः, यथा विवक्षिते मण्डले सूर्येणापूरिते सति तदनन्तरं सूर्योऽपरमनन्तरं मण्डलं संक्रामतीति, तथा कर्णः- कोटिभागः तमधिकृत्यापरेषां मतेन कला वक्तव्या, यथा विवक्षिते मण्डले द्वावपि सूर्यो प्रथमक्षणे प्रविष्टौ सन्तौ पूर्वापरकोटिद्वयंलक्षीकृत्य बुद्ध्या परिपूर्ण यथावस्थितं मण्डलं विवक्षित्वा ततः परमण्डलस्य कर्ण-कोटिभागरूमभिसमीक्ष्य ततः कलया 1 मात्रया 2 इत्यर्थः, अपरमण्डलाभिमुखमभिसर्पन्तौ चारं चरत इति। तृतीये प्राभृतप्राभृते प्रतिमण्डलं मुहूर्तेषु गतिः- गतिपरिमाणमभिधातव्यम् तत्र निष्क्रामति प्रविशति वा सूर्ये यादृशी गतिर्भवति तादृशीमभिधित्सुराह-'निक्खमे' त्यादि निष्क्रामन्- सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादहिर्निर्गच्छन् सूर्यो यथोत्तरंमण्डलं संक्रामन् शीघ्रगतिः शीघ्रतरगतिर्भवति, प्रविशन्-सर्वबाह्यान्मण्डलादभ्यन्तरमागच्छन् प्रतिमण्डलं मन्दगतिः मन्दमन्दगतिः, तेषां च मण्डलानां चतुरशीतं चतुरशीत्यधिकंशतंसूर्यस्य भवति, तेषां मण्डलानां च विषये प्रतिमुहूर्तं सूर्यस्य गतिपरिमाणचिन्तया पुरुषाणां प्रतिपत्तयो नाम मतान्तररूपा भवन्ति / सम्प्रति कस्मिन् प्राभृतप्राभृते कति प्रतिपत्तय इत्येतत्प्ररूपयति-द्वितीये प्राभृते त्रिष्वपि प्राभृतप्राभृतेषु यथाक्रममेवं संख्याः प्रतिपत्तयो भवन्ति, तद्यथा-प्रथमे प्राभूतप्राभृते उदये-सूर्योदयवक्तव्यतोपलक्षिते अष्टौ भणितास्तीर्थकरगणधरैः प्रतिपत्तयः, द्वितीये प्राभृतप्राभृते भेदघाते-भेदघातरूपे परमतवक्तव्यतोपलक्षिते द्वे एव प्रतिपत्ती भवतः, तृतीये प्राभृतप्राभृते मुहूर्तगतौ-मुहूर्तगतिवक्तव्यतोपलक्षिते चतस्रः प्रतिपत्तयो भवन्ति, 'चत्तारी' ति च सूत्रे नपुंसकत्वनिर्देशः प्राकृत्वात्, प्राकृते हि लिङ्गं व्यभिचारि, यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे- 'लिङ्ग व्यभिचार्यपी' ति। सम्प्रति दशमप्राभृते यान्यपान्तरालवर्तीनि द्वाविंशतिसंख्यानिप्राभृतप्राभृतानि तेषामर्थाधिकारमाह-दशमे प्राभृते एतानि-सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्यात् एतदर्थाधिकारोपेतानि द्वाविंशतिः प्राभृतप्राभृतानि भवन्ति, तद्यथा- प्रथमे प्राभृतप्राभृते नक्षत्राणामावलिकाक्रमो वक्तव्यः यथा अभिजितादीनि नक्षत्राणि भवन्तीति 1, द्वितीये नक्षत्रविषयं मुहूत्तग्रिं, मुहूर्तपरिमाणं वक्तव्यम् 2, तृतीये 'एवं भागा' इति 'पूर्वभागा' इति पूर्वपश्चिमादिप्रकारेण भागा वक्तव्याः३, चतुर्थे 'योगस्स' त्ति-योगस्यादिर्वक्तव्यः, तथाच वक्ष्यति-'ता कहं तेजोगस्स आईआहियत्ति वइजा' इति४, पञ्चमे कुलानि च शब्दादुपकुलानि कुलोपकुलानि च वक्तव्यानि 5, षष्ठे पौर्णमासीतिपौर्णमासी वक्तव्यता अभिधेया 6, सप्तमे सन्निपात' इति अमावस्यापौर्णमासीसन्निपातो वक्तव्यः 7, अष्टमे नक्षत्राणां संस्थितिः-संस्थानं वक्तव्यम्, नवमेनक्षत्रताराग्रंतारापरिमाणमभिधेयम् 6, दशमे नेता वक्तव्यो, यथा कति नक्षत्राणि स्वयमस्तङ्गमनेनाहोरात्रपरिसमाप्त्या कं मासं नयन्तीति 10, अपरस्मिन्नेकादशे प्राभृतप्राभृते चन्द्रमार्गाः चन्द्रमण्डलानि नक्षत्राधिकृत्य वक्तव्यानि 11, द्वादशे नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्ययनानि-अधीयते ज्ञायते एभिरित्यध्ययनानि नामानि वक्ताव्यानि 1, त्रयोदशे मुहूर्तानां नामकानि वक्तव्यानि 13, चतुर्दशे दिवसा रात्रयश्चोक्ताः 14, पञ्चदशे तिथयः 15, षोडशे गोत्राणि नक्षत्राणां 16 सप्तदशे नक्षत्राणां भोजनानि वाच्यानि, यथेदं नक्षत्रमेवंरूपे भोजने कृते शुभाय भवतीति 17, अष्टादशे आदित्यानामुपलक्षणमेतचन्द्रमसां च चारा वक्तव्याः 18, एकोनविंशतितमे मासाः १६,विंशतितमे संवत्सराः 20, एकविंशतितमेज्योतिषां-नक्षत्रचक्रस्य द्वाराणि वक्तव्यानि, यथाऽमूनि नक्षत्राणि पूर्वद्वाराणि अमूनि च पश्चिमद्वाराणीत्यादि 21, द्वाविंशतितमे नक्षत्राणां विचयः- चन्द्रसूर्ययोगादिविषयो निर्णयो वक्तव्य इति। तदेवमुक्ता प्राभृतप्राभृतसंख्या तेषामर्थाधिकाराश्च 22 / सू० प्र० 1 पाहु०। उपसंहारमाहइय एस पाहुडत्था, अभव्वजणहिययदुल्लहा इणमो। उकित्तिता भगवता, जोतिसरायस्स पण्णत्ती॥१|| एस गहिता वि संता, थद्धे गारवियमाणि पडिणीए। अबहुस्सुएण देया, तविवरीते भवे देया / / 2 / / सद्धाधितिउट्ठाणु-च्छाहकम्मबलविरियपुरिससकारेहिं! जो सिक्खिओ वि संतो, अमायणे परिकहेलाहि // 3 // सोपवयणकुलगणसं-घबाहिरो णाणविणयपरिहीणो। अरहंतथेरगणहर-भेरं किर होति वोलीणो ||4|| तम्हा घितिउहाणु-च्छाहकम्मबलविरियसिक्खिणाणं / धारेयव्वं णियमा, ण य अविणीएसुदायव्वं // 5 // इति- एवम्- उक्तेन प्रकारेण अनन्तरमुद्दिष्टस्वरूपा प्रकटार्थाजिनवचनतत्त्ववेदिनामुत्तानार्था, इयं चेत्थं प्रकटार्थाऽपिसती अभव्यानां हृदयेन-पारमार्थिकाभिप्रायेण दुर्लभा, भावार्थमधिकृत्याभव्यजनानां दुर्लभेत्यर्थः, अभव्यत्वादेव तेषां सम्यजिनवचनपरिभावात्, उत्कीर्तिता कथिता भगवती-ज्ञानैश्वर्या देवता ज्योतिषराजस्य-सूर्यस्य प्रज्ञप्तिः / एषा च स्वयं गृहीता सती यस्मैन दातव्या तत्प्रतिपादनार्थमाह-. 'एसा गहिया वि' इत्यादि, गाथाद्वयम्, एषा- सूर्यप्रज्ञप्तिः स्वयं सम्यक्करणेन गृहीताऽपि सती "व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति वचनात्चतुर्थ्यर्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः- 'थद्धे' इति स्तब्धाय स्वभावत एव मानप्रकृत्या विनयभ्रंशकारिणे, 'गारविय त्ति, ऋद्व्यादिगौरवं संजातमस्येति गौरावतस्तस्मै ऋद्धिरससाताना मन्यतमेन गौरवेण गुरुतरायेति भावः, ऋद्ध्यादिमदोषेतो ह्यचिन्त्यचिन्तामणिकल्पमपीदं सूर्यप्रज्ञप्तिप्रकीर्णकमाचार्यादिकं च तद्वेत्तारमवज्ञया पश्यति, सा चावज्ञादुरन्तनरकादिप्रपातहेतुरतस्तदुपकारायैव तस्मैदानप्रतिषेधः, इयं च भावना स्तब्धमान्यादिष्वपि भावनीया, तथा मानिनेजात्या-दिमदोपेताय प्रत्यनीकाय- दूरभव्यतया अभव्यतया वा सिद्धान्तवचननिकुठुनपराय, तथा अल्पश्रुताय-अवगाढस्तोकशास्त्राय, स हि जिनवचनेषु (अ) सम्यग्भावितत्वात्, शब्दार्थपर्यालोचनायामक्षुण्णत्वाच यथावत्कथ्य Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरपण्णत्ति 1040- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमंडल मानमपि न सम्यगभिरोचयते इति न देया, किन्तु तद्विपरीताय दातव्या भवेत् / भवेदिति क्रियापदस्य सामर्थ्यलब्धावप्युपादानं दातव्यत्वावधारणार्थ तद्विपरीताय दातव्यैव नाऽदत्तव्या। अदाने शास्त्रव्यवच्छेदप्रसक्त्या तीर्थव्यवच्छेदप्रसक्तेः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-- 'सद्धे' त्यादि, श्रद्धा-श्रवणं प्रति वाञ्छाधृतिः-विवक्षितं जिनवचनं सत्यमेवनान्यथेति मनसोऽवष्टम्भः, उत्थानं श्रवणाय गुरु प्रत्याभिमुखगमनमुत्साहःश्रवणविषये मनसः उत्कलिकाविशेषः यद्वशादिदानीमेव यदि मे पुण्यवशात् सामग्री सम्पद्यते शृणोमि च ततः शोभनं भवतीति परिणाम उपजायते कर्म - वन्दनादिलक्षणं बलंशारीरो वाचनादिविषयः प्राणः वीर्यम्- अनुप्रेक्षायां सूक्ष्मसूक्ष्मार्थोहनशक्तिः पुरुषकार:- तदेव वीर्य साधिताभिमत प्रयोजनम्। एतैः कारणैः यः स्वयं शिक्षितोऽपि गृहीतसूर्यप्रज्ञाप्तिसूत्रार्थोभयोऽपि सन्यो दाक्षिण्यादिना अन्तेवासिनि अभाजनेअयोग्ये प्रतिक्षिपेत्- सूत्रतोऽर्थत उभयतो वा न्यसेत् 'सो पवयणे' त्यादि सप्रवचनकुलगणसङ्घबाह्यो ज्ञानविनयपरिहीणो ज्ञानाचारपरिहीणो भगवदर्हत्स्थविरगणधरमर्यादांभगवदर्हदादिकृतां व्यवस्थां भवति किलव्यतिकान्तः। किलेत्याप्तवादसूचकम, इत्थमाप्तवचनं व्यवस्थित यथा सनूनं भगवदर्हदादिव्यवस्थामतिक्रान्त इति, तदतिक्रमे च दीर्घसंसारिता। तम्हे' त्यादि, तस्माद्धृत्युत्थानोत्साहकर्मबलवीर्ययंत्ज्ञानंसूर्यप्रज्ञप्त्यादि, स्वयं मुमुक्षुणा सता शिक्षितं तन्नियमादात्मन्येव धर्तव्यम्, न तु जातुचिदप्यविनीतेषु दातव्यम्, उक्तप्रकारेण तद्दाने आत्मपरदीर्घसंसारित्वप्रसक्तेः, तदेवमुक्तः प्रदानविधिः। इयं च सूर्यप्रज्ञप्तिरर्थतो मिथिलायां नगाँ भगवता वीरवर्द्धमानस्वामिना साक्षादुक्ता / सूर्यप्रज्ञप्तिमिमा-मतिगम्भीरां विवृण्वता कुशलम् / यदवापि मलयगिरिणा, साधुजनस्तेन भवतु कृती // 3 // " सू० प्र०२० पाहु०। यो०। विं०1"कालियसुयं च इसिभासियाइँ तइओ असूरपन्नत्ती। सव्वो उ दिविवाओ, चउप्पगो होइ अणुओगो।" आ० क०१ अ०। सूरपरिवेस-पुं०(सूर्यपरिवेष) सूर्यस्य परितो वलयाकारपरिणतो अनु० / जी०। सूरपव्यय-पुं०(सूर्यपर्वत) मेरुपर्वतस्य पश्चिमवनखण्डवेदिकान्तविजयस्य दक्षिणस्यां दिशिपर्वतभेदे, स्था०२ ठा०३ उ०। सीतोदाया उत्तरे पार्वे महावक्रविजयक्षेत्रे वक्षस्कारपर्वते, जं०४ वक्ष०ा स्था०। सूरपाणिलेह-पुं०(सूर्यपाणिलेख) सूर्य इव सूर्याकाराः पाणौ लेखा येषां तेसूर्यपाणिलेखाः। सूर्याकृतिरेखायुतहस्तेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि०। प्रश्न। सूरपुरंगम-पुं०(शूरपुरंगम) शूराणामग्रगामिनि, सूत्र०१श्रु०३ अ० 3 उ०। सूरप्पभ-न०(सूर्यप्रभ) चतुर्थे देवलोकसत्के विमानभेदे, स०५ सम०। सूरप्पभा स्त्री०(सूर्यप्रभा) एकादशस्यतीर्थकृतो निष्क्रमणशिविकायात्, साजी०। सूर्यस्य ज्योतिष्केन्द्रस्याग्रमहिष्यात्, स्था० 4 ठा० 1 उ०। सूरप्पमाण भोइ-पुं०(सूर्यप्रमाणभोजिन्) सूर्योदयादस्तमयं यावदशनपानाद्यभ्यवहारिणि, स०२० सम० आ० चू०। दशा०। "सूर एव पमाणं तस्स उदयमेत्ते आरद्धो जाव णअत्थमेइ ताव मुंजइ सज्झायमादी न करेइ परिचोइओ रुस्सइ अजीरगादी असमाधी उप्पजति। आव० 4 अ०। सूरभद्द-पुं०(सूर्यभद्र) सूर्यद्वीपदेवे,जी०३ प्रति०४ अधि०। सूरमंडल-न०(सूर्यमण्डल) आदित्यविमानवृत्ते, स० 10 सम० / सूर्यवक्तव्यतायां पञ्चदश द्वाराणि तत्रेमानिपञ्चदशानुयोगद्वाराणि / मण्डलसंख्या 1 मण्डलक्षेत्रम् 2 मण्डलान्तरम् 3 बिम्बायामविष्कम्भादि 4 मेरुमण्डलक्षेत्रयोरबाधा, 5 मण्डलायामादिवृद्धिहानी 6 मुहूर्तगतिः 7 दिनरात्रिवृद्धिहानी 8 तापक्षेत्रसंस्थानादि दूरासन्नादिदर्शने लोकप्रतीत्युपपत्तिः 10 चारक्षेत्रेऽतीतादिप्रश्नः 11 तत्रैव क्रियाप्रश्नः 12 ऊर्ध्वादिदिक्षु प्रकाशयोजनसंख्या 13 मनुष्यक्षेत्रवर्तिज्योतिष्कस्वरूपम् 14 इन्द्रायभावे स्थितिप्रकल्पः 15 / तत्रमण्डलसंख्यायामादिसूत्रम्कहणं भंते ! सूरमंडला पण्णता? गोयमा ! एगे चउरासीए मंडलसए पण्णत्ते इति / जंबुद्दीदे णं मंते ! दीवे केवइअं ओगाहित्ता केवइआ सूरमण्डला पण्णत्ता ? गोयमा! जंबूढीवे दीवे असीअं जोअणसयं ओगाहित्ता एत्थ णं पण्णसट्ठी सूरमण्डला पण्णत्ता, लवणे णं भंते ! समुहे केवइ ओगाहित्ता केवइआ सूरमंडला पण्णत्ता ? गोयमा ! लवणे समुद्दे तिण्णि तीसे जोअणसए ओगाहित्ता एत्थ णं एगणवीसे सूरमंडलसए पण्णत्ते, एवामेव सपुटवावरेणं जंबूढीवे दीवे लवणे असमुहे एगे चुलसीए सूरमंडलसए भवंतीतिमक्खायं ति॥१॥ (सू०१२७) 'कइण' मित्यादि, कति भदन्त ! सूर्ययोर्दक्षिणोत्तरायणे कुर्वतोर्निजबिम्बप्रमाणचक्र वालविष्कम्भानि प्रतिदिनभ्रमिक्षेत्रलक्षणानि मण्डलानि प्रज्ञाप्तानि ? मण्डलत्वं चैषां भण्डलसदृशत्वात् न तु तात्त्विकं, मण्डल-प्रथमक्षणे यद् व्याप्त क्षेत्र तत्समश्रण्येव यदि पुरः क्षेत्र व्याप्नुयात् तदा तात्त्विकी मण्डलता स्यात्, तथा च सति पूर्वमण्डलादुत्तरमण्डलस्य योजनद्वयमन्तरं न स्यादिति, भगवानाहगौतम ! एकं चतुरशीतं-चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं प्रज्ञप्तम्, यथा चैभिश्वा-रक्षणपूरणं तथा अनन्तरद्वारे प्ररूपयिष्यते / अथैतान्येव क्षेत्रविभागन द्विधा विभज्योक्त-सख्यां पुनः प्रश्नयति- जंबुद्दीव त्तिजम्बूद्रीपेद्वीपेभदन्त! कियत्क्षेत्र-मवगाह्य कियन्तिसूर्यमण्डलानिप्रज्ञप्तानि Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमंडल १०४१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमंडल गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतम्- अशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे पश्चषष्टिः सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि, तथा लवणे भदन्त ! समुद्रे कियदवगाह्य कियन्ति सूर्यमण्डलानि प्रज्ञप्तानि गौतम ! लवणे समुद्रे त्रिंशदधिकानि त्रीणि योजनशतानि सूत्रेऽल्पत्वादविवक्षितानप्यष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागान् अवगाह्यात्रान्तरेएकोनविंशत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं प्रज्ञप्तम्, अत्र पञ्चषष्ट्या मण्डलैरेकोनाशीत्यधिकं योजनशतं नव चैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्यन्ते, जम्बूद्वीपेऽवगाहक्षेत्रं चाशीत्यधिक योजनशतं तेन शेषा द्वापञ्चाशद्भागाः षट्षष्टितमस्य मण्डलस्य बोध्याः अल्पत्वाचात्र न विवक्षिताः। अत्र च पञ्चषष्टिमण्डलानां विषयविभागव्यवस्थायां सङ्ग्रहणीवृत्त्याधुक्तोऽयं वृद्धसम्प्रदायः- मेरोरेकतो निषधमूर्द्धनि त्रिषष्टिमण्डलानिहरिवर्षजीवाकोट्यांचढे द्वितीयपार्श्वे नीलवनमूनि त्रिषष्टिः, रम्यकजीवाकोट्यांच द्वेइति, एवमेवसपूर्वावरेण पञ्चषष्ट्येकोनविंशत्यधिकशतमण्डलमीलनेन जम्बूद्वीपे लवणे च समुद्रे एकं चतुरशीतं सूर्यमण्डलशतं भवतीत्याख्यातं मया चान्यैस्तीर्थकृद्भिः / गतं मण्डलसंख्याद्वारम्। अथ मण्डलक्षेत्रद्वारम्, तत्र सूत्रमसव्वब्भंतराओ णं भंते ! सूरमंडलाओ केवइआइ अबाहाए सव्वबाहिरए सूरमंडले पण्णत्ते? गोयमा! पंचदसुत्तरे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरए सूरमंडल पण्णत्ते / / 2 / / (सू०१२८) सव्वब्भतराओण' मित्यादि, सर्वाभ्यन्तरात्-प्रथमात् सूर्यभण्डलात् भदन्त ! कियत्या अबाधया-कियता अन्तरेण सर्वबाह्य-सर्वेभ्यः परं यतोऽनन्तरं नैकमपीत्यर्थः सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! दशोत्तराणि पञ्चयोजनशतानि अबाधया-अन्तरालत्वाप्रतिघातरूपया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम्, अत्रानुक्ता अपि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 'ससिरविणो लवणम्मि अ जोअणसयतिणि तसिअहिआई' इति वचनादधिका ग्राह्याः, अन्यथोक्तसंख्याङ्कानां मण्डलानामनवकाशात्, कथमेवदवसीयते ? उच्यते- सर्वसंख्यया चतुरशीत्यधिक मण्डलशतम्, एकैकस्य च मण्डलस्य विष्कम्मोऽष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, ततश्चतुरशीत्यधिकं शतमष्टाचत्वारिंशता गुण्यते, जातान्यष्टाशीतिः शतानि द्वात्रिंशदधिकानि, एतेषां योजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, हृते च लब्धं चतुश्चत्वारिंशदधिकं योजनशतम् 144, शेषमवतिष्ठतेऽष्टचत्वारिंशत्, चतुरशीत्यधिकशतसंख्यानां च मण्डलानामपान्तरालानित्र्यशीत्यधिकशतसंख्यानि सर्वत्रापि ह्यपान्तरालानि रूपोनानि भवन्ति तथा च प्रतीतमेतत् चत-सृणाममुलीनामपान्तरालानि त्रीणीति, एकैकं मण्डलान्तरालं च द्वियोजनप्रमाणं, ततस्त्र्यशीत्यधिक, शतं द्विक्रेन गुण्यते, जातानि त्रीणि शतानि षट्षष्ट्याधिकानि 366, पूर्वोक्तं च चतुश्चत्वारिंशं शतमत्र प्रक्षिप्यते, ततो जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि योजनानि अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य, अनेन च मण्डलक्षेत्रस्य प्रमाणमभिहितम्। मण्डलक्षेत्रं नाम सूर्यमण्डलैः सर्वाभ्यन्तरादिभिः सर्वबाह्यपर्यवसानैयाप्तमाकाशं, तचक्रवालविष्क म्भतोऽवसेयम् / उक्तं मण्डलक्षेत्रद्वारम्। अथ मण्डलान्तरद्वारमाहसूरमंडलस्सणं भंते ! सूरमंडलस्सय केवइयं आबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दो जोअणाई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते / / 3 / / (सू०६२९) 'सूरमंडल' इत्यादि, भगवन् ! सूर्यमण्डलस्य सूर्यमण्डलस्य च कियदबाधया-अव्यवधानेनान्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! द्वे योजने अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम्, अन्तरशब्देनच विशेषोऽप्युच्यते इति तन्निवृत्त्यर्थमबाधयेत्युक्तं, कोऽर्थः ? पूर्वस्मादपरं मण्डले कियद् दूरे इत्यर्थः, अत्र यथा योजनद्वयमुपपद्यते तथाऽनन्तरमेव मण्डलसंख्याद्वारे दर्शितम् / गतं मण्डलान्तरद्वारम्। अथ बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम्सरमंडले णं भंते ! केवइ आयामविक्खंभेणं केवइअं परिक्खेवेणं केवइअंबाहल्लेणं पण्णत्ते? गोयमा ! अडयालीसं एगसद्विभाए जोअणस्स आयामविक्खंभेणं जो अणस्स बाहल्लेणं पण्णत्ते इति॥४॥ (सू०१३०) 'सूरमण्डले ण' मित्यादि, सूर्यमण्डलं णमिति, प्राग्वत् भगवन् ! कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेण कियदाहल्येन-उचत्वेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम् ! अष्टचत्वारिंशद्भागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां प्रज्ञप्तम्, अयमर्थः- एकयोजन-स्यैकषष्टिभागाः कल्प्यन्ते तद्रूपायेऽष्टचत्वारिंशद्भागास्ता-वत्प्रमाणावस्यायामविष्कम्भावित्यर्थः, तत् त्रिगुणं सविशेषंसाधिकं परिक्षेपेण, अष्टचत्वारिंशत् त्रिगुणिता द्वे योजनेद्वाविंशतिरेकषष्टिभागा अधिका योजनस्येत्यर्थः, चतुर्विशति-रेकषष्टिभागान् योजनस्य बाहल्येन, विमानविष्कम्भर्द्धभागेनोचत्वात् / गतं बिम्बायामविष्कम्भादिद्वारम् / जं०७ वक्ष० / जंबदीवे दीवे वासीयं मंडलसयं जं सूरिए दुक्खुत्तो संकमित्ता णं चारं चरइ, तं जहा-निक्खममाणे य, पविसमाणे य / (सू०८२४) तत्र जम्बूद्वीपे व्यशीत्यधिकं मण्डलशतं सूर्यस्य मार्गशतं तद्भवतीति वाक्यशेषः, किं भूतं ? यत्सूर्यो द्विकृत्वो द्वौ वारौ संक्रम्य प्रविश्य चारं चरति, तद्यथा-निष्क्रामचं जम्बूद्वीपात्, प्रविशंश्च जम्बूद्वीप एवेति / अयमत्र भावार्थ:-किल चतुरशीत्यधिकं सूर्यमण्डलशतं भवति, तत्र सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये सकृदेव संक्रामति शेषाणि तु द्वौ वाराविति / इह चव्यशीतिबिवक्षयैवेदं द्व्यशीतिस्थानकेऽधीतमिति भावनीयम्। यद्यपि जम्बूद्वीपे पञ्चषष्टिरेव मण्डलानां भवति तथापिजम्बूद्वीपादिक-सूर्यचारविषयत्वाच्छेषाण्यपि जम्बूद्वीपेन विशेषितानीति ! सं०५२ सम०। बाहिराओ उत्तराओ णं कट्ठाओ सूरिए पढम छम्माणं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अट्ठासीति एगसहिभागे मुहुत्तस्स दिवसखेतस्सनिवुवेत्तास्यणिखेतस्स अभिनिवेत्तासरिएचारंचरइ Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1042 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल दक्षिणकट्ठाओणं सुरिए दोचं छम्मासं अयमाणे चोयालीसइमे मंडलगते अष्ट्ठासीइइगसहिभागे मुहत्तस्स रयणिखेत्तस्स निवुद्धत्ता दिवसखेत्तस्स अभिनिवुद्वित्ताणं सूरिए चारं चरइ। (सू०५८+) 'बाहिराओ ण' मित्यादि, बाह्याया, सर्वाभ्यन्तरमण्डलरूपाया उत्तरस्याः काष्ठायाः क्वचिद् 'बाहिराओ' त्ति-न दृश्यते सूर्यः, प्रथमं / षण्मासं दक्षिणायनलक्षणं दक्षिणायनादित्वात्संवत्सरस्य 'अयमाणे' त्ति-आयन्, आगच्छन् चतुश्चत्वारिंशत्तममण्डलगतोऽष्टाशीतिमेकषष्टिभागान्-'दिवसखेत्तस्स' त्ति-दिवस्यैव 'निवृड्वेत्त' त्ति-निव_हापयित्वा 'रयणिखेत्तस्स' त्ति-रजन्यास्तु अभिवद्ध्य सूरिए चारंचरइ' त्ति-भ्राम्यतीति, इह च भावनैवम्-प्रतिमण्डलं दिनस्य मुहूर्त कषष्टिभागद्वयहाने-दक्षिणायनापेक्षया चतुश्चत्वारिंशतमे अष्टाशीतिर्भागा हीयन्ते रात्रेस्तु त एव वर्द्धन्त इति, द्विः सूर्यग्रहणं चेह दिनरात्र्याश्रिमव्यभैदकल्पनया ततो न पुनरुक्तमवसेयमिति / इदं च सूत्रमष्टसप्ततिस्थानकसूत्रवद्भावनीयमिति, 'दक्खिणकट्ठाओ इत्यादिसूत्र पूर्वसूत्रवदवगन्तव्यम्, नवरमिह दिनवृद्धिः रात्रिहानिश्च भावनीयेति / स० 88 सम०। ('आउट्टि' शब्दे द्वितीयभागे 31 पृष्ठे मण्डलाऽऽवृत्तय उक्ताः।) ___ अथ सूर्यस्य सर्वमण्डलेषु प्रतिमुहूर्त गतिप्रमाणमाहमज्झि दुवन्निगवन्ना, सया य चउवन्न संजुआ बाहिं। सूरस्सय अट्ठारस,सट्ठीभागाणमिह वुड्डी॥२१॥ सर्वमध्यमण्डले वर्तमानस्य जम्बूद्वीपसत्कसूर्यस्य तु द्विपञ्चाशच्छतानि एकपञ्चाशदधिकानियोजनानामिति योगः, एकैकस्मिन्मुहूर्ते गतिरेतावती भवति-५२५१-२५/४० ये चोपरितनांशाः सूत्रे स्तोकत्वान्नोक्तास्ते चन्द्रसूर्ययोर्मुहूर्त वर्तमानाऽवसरे चिन्तयिष्यन्ते। या च सर्वमध्यमण्डले मुहूर्तगति, सूरस्य सैव चतुः पञ्चाशद्योजनसंयुता कृता सती सर्वबाह्यमण्डले प्रतिमुहूर्त गतिर्जायते यथा-५३०५-१५/६० अत्र प्रतिमण्डलं किञ्चिदूनानामष्टादशषष्टिभागानाम् 18/60 वृद्धिः यतोऽष्टादशानां त्र्यशीत्यधिकशतगुणने 3264 जायते, तेषां षष्ट्या भागहारे लब्धानि चतुःपञ्चाशद्योजनानीति / अथ अधिकारान्नक्षत्राणां प्रतिमुहूर्त गतिप्रमाणमाहपणसहस्सदुसयसाहिअ, पण्णट्ठी जोअणाण मज्झिगई। चउपन्नहिआसाबहि-मंडलए होइ रिक्खाणं / / 22 / / 'पणसहस्स'त्ति-सर्वाभ्यन्तरमण्डले वर्तमानानांनक्षत्राणामेकैकस्मिन्मुहूर्ते गतिः पञ्चसहस्राणि द्वे शते पञ्चषष्टिश्च साधिका योजनानाम् / 5265-1813/2160 साचसर्वाभ्यन्तरमण्डलगतिश्चतुपञ्चाशद्योजनाधिका क्रियते तदा सर्वबाह्यमण्डले वर्तमानानां नक्षत्राणां प्रातमुहूर्त गतिर्यथा 5316-16358/21660 अत्र प्रतिमण्डलवृद्धिः सम्यग्न ज्ञायते यतो मण्डलानामन्तरं सर्वत्र तुल्यं नास्ति / मण्ड० / जं०। अथ भेरुमण्डलयोग्बाधाद्वारम्, तत्रादिसूत्रम्जंबूहीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए सवब्भतरे सूरमंडले पण्णत्ते ? गोअमा! चोआलीसं जो अणसहस्साई अह य वीसे जोअणसए अवाहाए सव्वमंतरे सूरमंडले पण्णत्ते / (सू०१३३+) _ 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे भगवन् ! मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्वा अबाधया सर्वाभ्यन्तरंसूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, अष्ट च विंशत्यधिकानियोजनशतानि अबाधया सर्वाभ्यन्तरं सूर्यममण्डलं प्रज्ञप्तम् अत्रोपपत्तिः- मन्दरात् जम्बूद्वीपविष्कम्भः पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, इदं हि मण्डलं जगतीतो द्वीपदिशि अशीत्यधिकयोजनशतोपसङ्क्रमे भवति, तेन 45000 योजनरुपद्वीपविष्कम्भादियति 180 योजनरूपेशोधितेजातंयथोक्तं मानम्, एतचचक्रवालविष्कम्भेन भवतितेनापर सूर्यसर्वाभ्यन्तरमण्डलस्याप्यनेनैव करणेनैतावत्येवाबाधा बोद्धव्या, एतेन यदन्यत्र क्षेत्रसभासटीकादौ मेरुमवधीकृत्य सामान्यतो मण्डलक्षेत्राबाधापरिमाणद्वारं पृथक् प्ररूपित तदनेनैव गतार्थत्, अस्यैवाभ्यन्तरतो मण्डलक्षेत्रस्य सीमाकारित्वात् / अथ प्रतिमण्डलं सूर्यस्य दूरदूरगमनाबाधापरि माणमनियतमित्याहजंबहीवे णं ! दीवे मंदरस्स पय्वयस्स के वइअबाहाए सव्वम्भंतराणंतरे सूरमंडले पण्णत्ते ? गोयमा ! चोआलीसं जोअणसहस्साइं अट्ठ य बावीसे जोअणसए अडयालीसं च एगसहिभागे जोयणस्स अबाहाण अभंराणंतरे सूरमंडले, पण्णत्ते ? (सू० 1314) 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, जम्बूद्दीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाधया सर्वाभ्यन्तरादनन्तरं-निरन्तरतया जायमानत्वात् द्वितीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि अष्टच योजनशतानिद्वाविंशत्याधिकानि अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजन-स्याबाधया सर्वाभ्यन्तरानन्तरं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तं, पूर्वस्माद्यदत्राधिकं तद्विम्बविष्कम्भादन्तरमानाच समाधेयम्। अथतृतीयमण्डलं पृच्छन्नाहजंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहाए अभंतरतचे सूरमंडले पण्णत्ते ? गोयमा ! चोआलीसं जोअणसहस्साई अg य पणचीसे जोअणसए पणतीसं च एगसट्ठिभागे जोअणस्स अबाहाए अब्भंतरतचे सूरमंडले पण्णत्ते इति। (सू०१३१४) 'जंबुद्दीवेण' मित्यादि, व्यक्तं नवरम् 'अब्भंतरं तच्च' मिति अभ्यन्तरतृतीयम्, अनेन बाह्यतृतीयमण्डलस्यव्यवच्छेदः। उत्तरसूत्रेचतुश्चत्वारिशद्योजनसहस्राणि अष्टशतानि पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चत्रिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्याबाधया अभयन्तर तृतीयं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम्, उपपत्तिस्तु द्वितीयमण्डलाबाधा परिमाणे 44822 योजन 48/61 इत्येवं रूपे प्रस्तुतमण्डलसत्केसान्तरबिम्बविष्कम्भे प्रक्षिप्ते जातं यथोक्तं मानम्। एवं प्रतिमण्डलबाधावृद्धावनीयमानायांमा भूद्ग्रन्थगौरवं तेनतजिज्ञा सूनां बोधकमतिदेशमाह एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1043 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल दो जोअणाई अडयालीसं च एगसद्विभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले अबाहावुद्धि अभिवद्धमाणे अभिवद्धेमाणे सव्वबाहिरं | मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ त्ति (सू० 1314) ‘एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या, मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनो-- पायेनप्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्क्रामन्-लवणाभिमुखं मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तरात् विवक्षितात् पूर्वस्मात् मण्डलात् तदनन्तरं-विवक्षितमुत्तरमण्डलं संक्रामन् संक्रामन् द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान्योजनस्य एकैकस्मिन्मण्डले अबाधया वृद्धिमभिवद्धयन् 2 सर्वबाह्यमण्डलमुपक्रम्य चार चरति,यचात्रातिदेशरुचिरपि सूत्रकृन्मण्डलत्रयाभिव्यक्तिमदर्शयत् तत्प्रथमं ध्रुवाङ्कदर्शनार्थ द्वितीयं मण्डलाभिवृद्धिदर्शनार्थं तृतीयं पुनस्तदभ्यासार्थमिति।। अथपञ्चानुपूर्व्यापिव्याख्यानाङ्गमित्यन्त्यमण्डलादारभ्य भेरुमण्डलयोरबाधां पृच्छन्नाहजंबूहीवेणं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइआए अबाहार सवबाहिरे सूरमंडलं पण्णत्ते ! गोयमा! पणयालीसं जोअणसहस्साई तिण्णि अ तीसे जोअणसए अबाहाए सव्वबाहिरे सूरमण्डले पण्णत्ते। (सू०१३१४) 'जंबुद्दीवे' ति जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्रु कियत्या अबाधया सर्वबाह्यं सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम् ? गौतम् ! यञ्चजत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानि त्रिंशदधिकानि अबाधया सर्वबाह्य सूर्यमण्डलं प्रज्ञप्तम्, तत्र मन्दरात् पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणिजगती ततोलवणे त्रीणि शतानि त्रिंशदधिकानि / तथा द्वितीयमण्डलपृच्छाजंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाए सव्वबाहिराणंतरे सूरमंडले पण्णत्ते ? गोयमा / पणयालीसं जोअणसहस्साइं तिण्णि अ सत्तावीसे जोअणसए तेरस य एगसद्विभाए जोअणस्स अबाहाए बाहिराणंतरे सूरमंडले पण्णत्ते / (सू०१३१+) 'जम्बूद्दीवे' त्ति प्रश्नसत्रे बाह्यनन्तरम्-पश्चानुपूर्त्यां द्वितीय-मित्यर्थः, उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथैव जगतीततत्रिंशदधिकत्रिशतयोजनातिक्रमे यत्सूरमण्डलमुक्तं तस्मादन्तरमाने बिम्बविष्कम्भमाने च शोधिते जातं यथोक्तं मानमिति / अथ तृतीयम्जंबुद्दीवेणं मंते! दीवे मंदरस्स पव्वयस्स केवइयाए अबाहाएबाहिरतये सूरमंडले पण्णत्ते? गोयमा! पणयालीसंजोअणसहस्साई तिणि अचउवीसे जोअणसए छय्वीसं च एगसहिभाए जोअणस्स अबाहाण बाहिरतच्चे सूरमंडले पण्णत्ते / (सू० / 1314) 'जम्बुद्दीवे' त्तिव्यक्तं, नवरं उत्तरसूत्रे पञ्चचत्वारिंशद्यो-जनसहस्राणि त्रीणि च शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षड्विंशतिं च एकषष्टिभागान् | योजनस्येति, अत्र पूर्वमण्डलाङ्कात् सान्तरमण्डलविष्कम्भयोजने 248/ 11 शोधिते जातं यथोक्तं मानं, पूर्वमण्डलाको ध्रुवाङ्कस्तत्र सबिम्बविष्कम्भोऽन्तरष्कम्भः शोध्यस्तत उपपद्यते यथोक्तं मानम्। उक्तावशिष्टेषु मण्डलेष्वतिदेशमाहएवं खलु एएणं उवाएणं पबिसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो जोअणाई अडयालीसंच एगसट्ठिभाए जोयणस्स एगमेगे मंडले अबाहाबुद्धिं णिवुद्धेमाणे णिवुद्धेमाणे सय्वम्भतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ॥।॥ (सू०१३१) "एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितयेत्यर्थः, एतेनोपायेन प्रत्यहोरात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण प्रविशन्जम्बूद्वीपमिति गम्यत्, सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् 2 द्वे द्वे योजने अष्टचत्वारिंशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्य एकैकस्मिन् भण्डले अबाधावृद्धिं निवर्द्धयन् 2 इदंसमवायाङ्गवृत्त्यनुसारेणोक्तयथा वृद्धेरभावो निवृद्धिः निशब्दस्याभावार्थत्वात् निवरा कन्येत्यादिवत्, तां कुर्वन् निवृद्धयन् 2 इदं स्थानाङ्गवृत्त्यनुसारि, सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्त्यादौ तु निवेष्टयन् निवेष्टयन् इत्युक्तमस्ति अत्र सर्वत्रापि हापयन् हापयन् इत्यर्थः, सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसक्रम्य चारं चरतीति, गतमबाधाद्वारम् / अथ मण्डलायामादिवृद्धिहानिद्वारम्-- जंबूडीवे दीवे सदभतरे णं भंते ! सूरमण्डले केवइअं आयामविक्खंभेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णवणउइं जोअणसहस्साइं छब चत्ताले जोअणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि यजोयअणयसहस्साई पण्णरसय जोअणसहस्साइं एगणणउइंच जोअणाई किंचि विसेसाहिआई परिक्खेवेणं / (सू० 132+) 'जंबुद्दीवे' इत्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सर्वाभ्यन्तरं सूर्यमण्डलं कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियच परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् ? गौतम! नवनवति योजनसहस्राणि षट् च योजनशतानि चत्वारिंशदधिकानि आयामविकम्भायां, त्रीणियोजनशत-सहस्राणि पञ्चदशचयोजनसहस्राण्येकोननवतिंच योजनानि किञ्चिद्विशेषाधिकानिपरिक्षेपेण तत्रायामविष्कम्भयोरुत्पत्तिरेवम्- जम्बूद्वीपविष्कम्भादुभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकमशीत्यधिकयोजनशतशोधने यथोक्तं मानस्, तद्यथा- जम्बूद्वीपमानम् 100000 अस्मादशीत्यधिकयोजनशते 180 द्विगुणित ३६०शोधिते सति जातम्६६६४० इति, परिक्षेपस्त्वस्यैव राशेः 'विक्ख-म्भवग्गदहगुणे' त्यादिकरणवशादानेतव्यः ग्रन्थविस्तरभयान्नात्रोपन्यस्यते, यदिवा-यदेकतो जम्बूद्वीपविष्कम्भादशीत्यधिकं योजनशतं यचापरतोऽपि तेषां त्रयाणां शतानां षष्ट्यधिकानाम् 360 परिरयः एकादश शतान्यष्टत्रिंशदधिकानि 1138, एतानि जम्बूद्वीपपरिरयात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तं परिक्षेपमानं भवति / अथ द्वितीयमण्डले तत्पृच्छाअभंतराणंतरे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविखंभेणं केवइ परिक्खेदेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णवणउई - Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1044 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल जोअणसहस्साइं छच पणयाले जोअणसए पणतीसं च | जोअणाई परिरयवुद्धिं अभिवद्धेमाणे अमिवद्धेमाणे सव्वबाहिरं एगसद्विभाए जोअणस्सआयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसय- मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / (सू० 1324) सहस्साइंपण्णयस्सयजोयणस्सहस्साई एग सत्तुत्तरं जोअण- "एवं खलु एतेण' मित्यादि, एवम्- उक्तरीत्या मण्डलत्रयदर्शितसयं परिक्खेवणं पण्णत्ते / (सू०१३२४) येत्यर्थः, एतेन-उक्तप्रकारेण निष्क्रामयन् निष्क्रामयन् सूर्यस्तदनन्त'अब्भंतराण' मित्यादि, अन्वययोजना सुगमा, तात्पर्यार्थस्त्वयम्- रात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् संक्रामन् पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशतं सर्वाभ्यन्तरानन्तरंच-द्वितीयं सूर्यमण्डलमायामविष्कम्भाभ्यां नवनवति -- चैकषष्टिभागान् योजनस्यैककस्मिन् मण्डले विष्कम्भवृद्धिमभिवर्द्धयन् योजनसहस्राणि षट्च योजनशतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्चत्रिंशतं २तथा उक्तरीत्यैव अष्टादश योजनानि परिरयवृद्धिमभिवर्द्धयन् परिरयचैकषष्टिभागान् योजनस्य 66645- 34/51 तथाहि-एकतोऽपि वृद्धिमभिवर्द्धयन् सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति / सर्वाभ्यन्तरानन्तरं मण्डलं सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टचत्वारिंशत्सं- अथ प्रकारान्तरेण प्रस्तुतविचार परिज्ञानाय पञ्चानुपूर्व्या पृच्छन्नाहख्याने*-कषष्टिभागान् द्वे च योजने अपान्तराले विमुच्य स्थितम सव्वबाहिरए णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं परतोऽपि, ततः पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्य पूर्व केवइअंपरिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा! एगंजोयणसयसहस्सं मण्डलविष्कम्भादस्य मण्डलस्य विष्कम्भेवर्द्धन्ते, अस्य च सर्वाभ्यन- छच सट्टे जोअणसए आयामविक्खं भेणं तिण्णि अ तरानन्तरमण्डलस्य परिक्षेपस्त्रीणि शतसहस्राणि पञ्चदश सहस्राण्येकं जोअणसयसहस्साइं अट्ठारस य सहस्साइं तिण्णि अ च शतं सप्तोत्तरं योजनानाम् 315107, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य पण्णरसुत्तरे जोअणसए परिक्खेवेणं / (सू०१३२४) विष्कम्भे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य वर्द्धन्ते, 'सव्वबाहिरए' इत्यादि, प्रश्नसूत्रं व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे एकं योजनलक्षं पञ्चानां च योजनानां पञ्चत्रिंशत्संख्यैकभागाधिकानां परिरयः सप्तदश षट्षष्ट्यधिकानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्याम्, उपपत्तिस्तु योजनानि परं व्यवहारो विवक्ष्यन्ते परिपूर्णानि अष्टादश योजनानि, जम्बूद्वीपो लक्षम् उभयोः पार्श्वयोश्च प्रत्येकं त्रिंशदधिकानि त्रीणि तानि पूर्वमण्डलपरिक्षेपे यदाऽधिकानि प्रक्षिप्यन्ते तदा यथोक्तं द्वितीय योजनशतानि लवणान्तरमतिक्रम्य परतो वर्तमानत्वादस्य इदमेव मानं, मण्डलपरिमाणं स्यात् / त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि त्रीणि च पञ्चदशोत्तराणि अथतृतीयमण्डले तत्पृच्छा योजनशताति 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्ति' रिति किश्चिदूनानि अन्मंतरचे णं भंते ! सूरमंडले केवइ आयामविक्खंभेणं परिक्षेपेण भवन्ति, किञ्चिदूनत्वं चात्र परिक्षेपकरणेन स्वयं बोध्यं, केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! णवणउइं जोअण- संवादश्चात्र विष्कम्भायाममाने लक्षोपरि यानि षष्ट्यधिकानिषट् योजनसहस्साई छच्च एकावण्णे जोअणसए जाव य एगसहिभाए शतान्युक्तानि तस्य परिरयमानीय तस्य च जम्बूद्वीपपरिरये प्रक्षेपणाद् जोअणस्स आयामविक्खभेणं तिण्णि य जोअणसयसहस्साई भवति / पण्णरस जोअणसहस्साइं एगं च पणवीसं जोअणसयं परि ___ अथ द्वितीयमण्डले तत्पृच्छाखेदेणं / (सू०१३२+) बाहिराणंतरे णं मंते ! सूरमंडसे केवइ आयामविक्खंभेणं 'अभंतरतचे ण' मित्यादि व्यक्तं, नवरमुत्तरसूत्रे नवनवति योजनसह- केवइअंपरिक्खेवेणं पण्णत्ते? गोयमा! एगंजोअणसयसहस्सं स्राणि षट् च एकपञ्चाशानियोजनशतानि नव चैकषष्टिभागान् योजन- छच चउपपणे जोअणसए छथ्वीसं च एगसट्ठिभागे जोअणस्स स्याभ्यन्तर तृतीयाख्यं मण्डलमायामविष्कम्भेण, अत्रोपपत्तिः पूर्वमण्ड- आयामविक्खंभेणं तिण्णि अजोअणसयसहस्साइं अट्ठारसय लायामविष्कम्भे 66645 योजन 34/41 इत्येवंरूपे एतन्मण्डलवृद्धौ सहस्साई दोण्णि य सत्ताणउए जोअणसए परिवखेवेणं ति। 5 योजन 34/61 प्रतिप्तायां यथोक्तं मानं भवति, परिक्षेपेण च त्रीणि (सू०१३२+) योजनलक्षाणि पञ्चदश योजनसहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिक 'बाहिराणंतरे णं भंते ! सूरमंडले' इत्यादि प्रश्नः प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे योजनशतम्। तत्रोपपत्तिः- पूर्वमण्डलपरिक्षेपे 315107 योजनरूपे गौतम् ! एक योजनलक्षं षट् चतुःपञ्चाशानि योजनशतानि षड्वंशति प्रामुक्त-युक्त्याऽऽनीते अष्टादश 18 योजपरूपायां वृद्धौ प्रक्षिप्तायां चैकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्यां, संवदति चेदं सर्वबाह्ययथोक्तं मानं भवति। मण्डलविष्कम्भात् पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकपञ्चयोजनेषु शोधितेअत्रोक्तातिरिक्तमण्डलायामादिपरिज्ञानाय लाघवार्थमतिदेशमाह- ष्विति, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वे च सप्तनवतियोएवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ जनशते परिक्षेपेण। कथमुपपद्यते चेदिति वदामः, पूर्वमण्डलपरिरयादष्टामंडलाओ तयाणंतरं मंडलं उवसंकममाणे उवसंकममाणे पंच | दशयोजनशोधने सुस्थमिति / पंचजोअणाई पणतीसंच एगसट्ठिभाए जोअणस्सएगमेगं मंडले अथ तृतीयमण्डले तत्पृच्छाविक्खंभवुद्धिं अभिवद्धमाणे अभिवद्धेमाणे अट्ठारस अट्ठारस | बाहिरतचे णं भंते ! सूरमंडले के वइ आयामविक्खं Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1045 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल भेणं केवइ परिक्खेवेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! एग जोअणसयसहस्सं छच अडयाले जोअणसए बावण्णं च एगसहिभाए जोअणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोअणसयसहस्साई अट्ठारस य सहस्साई दोपिण अअउणासीए जोअणसए परिक्खेवेणं / (सू० 132+) 'बाहिरतचे ण' मित्यादि, प्रश्नः पूर्ववत्, उत्तरसूत्रे बाह्यतृतीयं षट् एकं योजनलक्षं चाष्टाचत्वारिंशानियोजनशतानि द्वापञ्चाशतं चैकषष्टिभागान् योजनस्यायामविष्कम्भाभ्याम्, युक्तिश्चात्र-अनन्तरपूर्वमण्डलात् पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकपञ्चयोजनवियोजने साधु भवति, त्रीणि योजनलक्षाण्यष्टादश च सहस्राणि द्वेचैकोनाशीते योजनशते परिक्षेपेण, पूर्वमण्डलपरिधेरष्टादशयोजनशोधने यथाक्त प्रस्तुतमण्डलस्य परिधिमानम् / अत्रातिदेशमाहएवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयणंतराओ मंडलाओ तयाणंरतं मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोअणाइं पणतीसं च एगसट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवृद्धिं णिटवुद्धमाणे णिव्वुद्धेमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोअणाई परिरयबुद्धिं णिव्वुड्डेमाणे णिवुड्डेमाणे सवभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ॥६।। (सू० 132+) ‘एवं खलु एएणं' मित्यादि, प्राग्वद्वाच्यम्, व्याख्यातार्थत्वात्। गतमायामविष्कम्भादिवृद्धिहानिद्वारम्, अनेनैव क्रमेण द्वयोः सूर्ययोः परस्परमबाधाद्वारमप्यभ्यन्तरबाह्यमण्डलादिष्ववसेयम्। सम्प्रति मुहूर्तगतिद्वारमजया णं भंते ! सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइखेत्तं गच्छद? गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साइं दोण्णि अ एगावण्णे जोअणसए एगूणतीसं च सद्विभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छा, तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहि दोहि अ तेवढेहिं जोअणसएहिं एगवीसाए आ जोअणस्स सट्ठिभाएहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ त्ति, से णिक्खममाणे सूरिए नवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि सव्वमंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति। (सू०१३३४) "जया णं भंते ! सूरिए सव्वब्भंतरं, इत्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति इति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशे योजनशते एकोनविंशतंचषष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमिदमुपपद्यते इति चेत्, उच्यते-इह सर्वमपिमण्डलमेकेनाहोरात्रेण द्वाभ्यां सूर्याभ्यां परिसमाप्यते प्रतिसूर्यं चाहोरात्रगणने परमार्थतो | द्वावहोरात्रौ भवतः। द्वयोश्चाहोरात्रयोः षष्टिर्मुहूर्तास्ततो मण्डलपरिरयस्य षष्ट्या भागे हृते यल्लभ्यते तन्मुहूर्तगतिप्रमाणम्, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिरयस्त्रीणि लक्षाणि पञ्चदश सहस्राण्येकोननवत्यधिकानि योजनानाम् 315086, एतेषां षष्ट्या भागे हृते लब्धं यथोक्तं मुहूर्त्तगतिप्रमाणम् 5251-26/60 अथ विनयावर्जितमनस्केन प्रज्ञापकेनापृच्छतोऽपि विनेयस्य किञ्चिदधिकं प्रज्ञापनीयमित्याह- यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धादनुक्तमपि यच्छब्दगर्भितवाक्यमत्रावतारणीयं तेन यदा सूर्यः एकेन मुहूर्तेन इयत् 525126/60 प्रमाणं गच्छति तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलसंक्रमणकाले इहगतस्य मनुष्यस्य अत्रजातावेक-वचनं ततोऽयमर्थः- इहगताना-भरतक्षेत्रगताना मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहभ्यां च त्रिषष्टाभ्यां त्रिषष्ट्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या च योजन षष्टिभागैरुदयमानः सूर्यश्चक्षुःस्पर्श चक्षुर्विषयं हव्वंशीघ्रमागच्छति, अत्र च स्पर्शशब्दो नेन्द्रियार्थसन्निकर्षपरश्चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेन तदसम्भवादिति, काऽत्रोपपत्तिरिति चेत्, उच्यत-इह दिवसस्यार्द्धन यावन्मानं क्षेत्रं व्याप्यते तावति व्यवस्थितः सूर्य उपलभ्यते, स एव लोके उदयमान इति व्यवहियते, सर्वाभ्यन्तरमण्डले दिवसप्रमाणमष्टादश-मुहूर्तास्तेषाम॰ नव मुहूर्ताः एकैकस्मिश्च मुहूर्ते सर्वाभ्यन्तरं मण्डले चारं चरन् पञ्च योजनसहस्राणि द्वे च योजनशते एकपञ्चाशदधिके एकोनत्रिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य गच्छति, एतावन्मुहूर्त्तगतिपरिमाणं नवभिमुहूत्तैर्गुण्यते ततो भवति यथोक्तं दृष्टिप्रथप्राप्तताविषयपरिमाणमिति, एवं सर्वेष्वपि मण्डलेषु स्वस्वमुहूर्तगतौ स्वस्वदिवसार्द्धगतमुहूर्तराशिना गुणितायां दृष्टिपथप्राप्तता भवति, दृष्टिपथप्राप्तता चक्षुःस्पर्शः पुरुषच्छाया इत्येकार्थाः / सा च पूर्वतोऽपरतश्च समप्रमाणैव भवतीति द्विगुणिता तापक्षेत्रमुदयाऽस्तान्तरमित्यादिपर्यायाः, इदं च सर्वबाहानन्तरमण्डलात् पश्चानुषा गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततम, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादाहोरात्रोऽपि त्र्यशीत्यधिकशततमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवसः, अयमेव च सूर्यसंवत्सरस्य पर्यन्तदिवस उत्तरायणपर्यवसानकत्वात् संवत्सरस्येति / अथ नवसंवत्सरप्रारम्भप्रकारप्रज्ञापनाय सूत्रं प्रारम्भ्यते--'से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथाभ्यन्तरान्मण्डलोन्निष्क्रामन् जम्बूदीपान्तः प्रवेशेऽशीत्यधिकयोजनशतप्रमाणे क्षेत्रेचरमाकाश-प्रदेशस्पर्शनानन्तरं द्वितीयसमये द्वितीयमण्डलाभिमुखं प्रसर्पन्नित्यर्थः, सूर्यो नवम्आगामिकालभाविनं संवत्सरमयमानः 2- आददानः प्रथमोऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं मण्डलम्पसंक्रम्य चारं चरति, एष चाहोरात्रो दक्षिणायतस्याद्यः संवत्सरस्यापि चदक्षिणायनादिकत्वात् संवत्सरस्य अत्र चाधिकारे समवायाङ्गसूर्यप्रज्ञप्तिचन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्रादर्श प्रस्तुतसूत्रादर्शषु च 'अयमाणे अयमाणे इत्यस्य स्थाने 'अयमीणे' इति पाठो दृश्यते तेन यदि स समूलस्तदा आर्षत्वादिहेतुना साधुरेव, 'अयमाणे' इति तु लक्षणसिद्धः, अर्थ तुभयत्राश्चि स एवति / जं० 7 वक्षः। Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल मण्डलानां विष्कम्भो वक्तव्यः' ततस्तद्विषयं __प्रश्नसूत्रमाहता सव्वा वि णं मंडलवया के वतियं बाहल्लेणं केवतियं आयामविक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं आहितातिवदेजा? तत्थ खलु इमाओ तिण्णि पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु-ता सव्वा वि णं मंडलवता जोयणं बाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एग तेत्तीसंजोयणसतं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसहस्साई तिण्णि य नवणउए जोयणसते परिक्खेवेणं पण्णत्ते, एगे एवमाहंसु ? एगे पुण एवमाहंसु-ता सव्वावि णं मंडलवता जोयणं बाहल्लेणं एगंजोयणसहस्सं एगच चउत्तीसं जोयणसयं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसहस्साईजोयणसयं आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसहस्साइंचत्तारि विउत्तरे जोयणसते पक्खेिवेणं पण्णत्ते एगे एवमाहंसु 2, एगे पुण एवमाहंसु-ता जोयणं बाहल्लेणं एगं जोयणसहस्सं एगं च पणतीसंजोयणसतं आयामविक्खंभेणं तिन्निजोयणसहस्साई चत्तारि पंचुत्तरे जोयणसते परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एगे एवमाहंसु 3 / वयं पुण एवं वयामो ता सव्वा वि मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं अणियता आयामविक्खेभेणं परिक्खेवेणं आहिता तिवदेजा, तत्थ णं को हेउत्ति वदेजा? ता अयं णं जबुद्दीवे दीवे०जाव परिक्खेवेणं, ता जया णं सूरिए सव्वभंतरं मंडलं उवसंकामित्ता चारं चरति तया णं सा मण्डलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणउइजोयणसहस्साईछच चत्ताले जोयणसते आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसतसहस्साई पण्णरसजोयणसहस्साई एगूणणउतिजोयणाई किंचि विसेसाहिए परिक्खेणं तताणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढसंसि अहोरत्तंसि अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अम्मितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तदा णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवइजोयणसहस्साई छच पणताले जोयणसते पणतीसंच एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसतसहस्साइं पन्नरसं च सहस्साई एगं चउत्तरं जोयणसतं किंचि विससूणं परिक्खेवेणं तदाणं दिवसरातिप्पमाणं तहेवासे णिक्खममणे सुरिएदोचंसि अहोरत्तंसि अम्मितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजयाणं सूरिए अम्भितरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तया णं सा मंडलवता अडयालीसं एगठिमागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणवतिजोयणसहस्साइं छच एकावण्णे जोयणसते णव य एगट्ठिभागा जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई पन्नरस य सहस्साई एगं च पणवीसं जोयणसयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, तता णं दिवसराई तहेव। एवं खलु एएणं णएणं निक्खममाणे सरिए तताऽणंतरातो तदाणंतरं मंडलतो मंडलं उवसंकममाणे उवसंकममाणे जोयणाइं पणतीसंच एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभबुड्डिं अभिवड्डेमाणे अभिवड्डमाणे अट्ठारस अट्ठारस जोयणाई परिरयवुड्डि अभिवड्डेमाणे अभिवड्डेमाणे सय्वबाहिरं ममलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सथ्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सा मंडलवता अडतालीस एगद्विभागा जोयणसयसहस्संछच सद्धे जोयणसते आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसयसहस्साइं अट्ठारस सहस्साई तिण्णि य पण्णरसुत्तरे जोयणसत्ते परिक्खेवेणं तदा णं उक्कोरिया, अट्ठारसमुहूत्ता राई भवति जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, एसणं पढमे छम्मासे एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे। से पविसमाण सूरिएदोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ताजयाणं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं सा मंडलवता अडतालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं एग जोयणसयसहस्सं छच चउपपणे जोयणसते छटवीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आयामविक्खंभेणं तिनि जोयणसतसुहस्साइं अट्ठारससहस्साई दोण्णि य सत्ताणउते जोयणसते परिक्खेवणं पण्णत्ता, तता णं राइंदियं तहेव, से पविसमाणे सुरिएं दोचे अहोरत्तंसि बाहिरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए बाहिरं तचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति,तता णं सा मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं एगं जोयणसतसहस्सं छच्च अडयाले जोयणसए बावण्णं च एगट्ठिभागो जोयणस्स आयामविक्खभेणं तिण्णि जोयणसतसहस्साई अट्ठारससहस्साई दोण्णि अउणातीसं जोयणसते परिक्खेवेणं पण्णत्ते, दिवसराई तहेव / एवं खलु एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तताऽणंतरातो तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे पंच पंच जोयणाई Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1047- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल पणतीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले विक्खंभवुट्टि णिवुड्डेमाणे णिवुढेमाणे अट्ठारसजोयणाई परिरयबुद्धिं णिवुद्धमाणे णिवुद्धेमाणे सव्वभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जताणं सूरिए सव्यभतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तताणं सामंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्स बाहल्लेणं णवणउतिं जोयणसहस्साइं छच चत्ताले जोयणसए आयामविक्खंभेणं तिण्णि जोयणसयसहस्साइं पण्णरस य सहस्साई अउणाउतिं च जोयणाई किंचि विसेसाहियाई परिक्खेवेणं पण्णत्ते, तता णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति, जहणिया दुबालसमुहुत्ता राई भवति, एसणंदोच्चस्स छम्मासस्स पञ्जवसाणे एसणं आदिचे संवच्छरे एस णं आदिबस्स संवच्छरस्स पञ्जवसाणे, ता सव्वावि णं मंडलवता अडयालीसं एगट्ठिभागे जोयणस्सबाहल्लेणं, सय्वावि णं मंडलंतरिया दो जोयणाइं विक्खंभेणं, एसणं अद्धा तेसीयसतपडुप्पण्णो / पंचदसुत्तरे जोयणसते आहिता ति वदेजा, ता अभितरातो मंडलवताओ बाहिरं मंडलवतं बाहिराओ वा अमितरं मंडलवतं एसणं अद्धा केवलियं आहिता तिवदेज्जा ? ता पंचदसुत्तरजोयणसते आहिता ति वदेजा, अमितराते मंडलवताते बाहिरा मंडलवया बाहिराओ मंडलतातो अमितरा मंडलवता एस णं अद्धा केवतियं आहिताति वदेजा ? ता पंचदसुत्तरे जोयणसते अडतालीसं च एगट्ठिभागे जोयणस्स आहिता वदेजा, ता अब्भतरातो मंडलवतातो बाहिरमंडलवता बाहिरातो मं० तो अभंतरमंडलवता एस णं अद्धाकेवतियं आहिता ति वदेजा ? ता पंचणवुत्तरे जोयणसते तेरस य एगट्ठिभागे जोयणस्स आहिता ति वदेजा, अभितरा ते मंडलवताए बाहिरा मंडलवया बाहिराते मंडलवताते अन्मंतरमंडलवया, एसणं अद्धा केवतियं आहिता ति वदेज्जा? ता पंचदसुत्तरे जोयणसए आहिय त्ति वदेजा। (सू०२०) 'ता सव्वा वि णं मंडलवया' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, सर्वाण्यपि मण्डलपदानि मण्डलरूपाणि पदानि मण्डलपदानि सूर्यमण्डलस्थानानीत्यर्थः कियन्मानं बाहल्येन कियदायामविष्कम्भाभ्यां कियत्परिक्षेपेणपरिधिना आख्यातानि इति वदेत् ‘सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि लिङ्ग व्यभिचारि, यदाह पाणिनिः- स्वप्राकृतलक्षणे 'लिङ्गं व्यभिचार्यपि' इति, एवं भगवता गौतमेन प्रश्ने कृते सति भगवनितद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्य एवोपन्यस्यति- 'तत्थ खलु' इत्यादि, तत्र मण्डलबाहल्यादिविचारविषये खल्विमास्तिस्रः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- तत्र तेषां त्रयाणां परतीथिकानां मध्ये एके तीर्थान्तरीयां एवमाहुः- 'ता' इति प्राग्वत्, सर्वाण्यपि मण्डलपदानि-सूर्यमण्डलानि 'जोयण बाहल्लेणं' तिप्रत्येक योजनमेकं बाहल्येनपिण्डेन एकं योजनसहस्रमेकं च त्रयस्त्रिशंत्रयस्त्रिंशदधिकं योजनशतम्, 'आयामविक्खभेणं' ति आयामश्च विष्कम्भश्च आयामविष्कम्भं समाहारो द्वन्द्वस्तेन प्रत्येकमायासेन विष्कम्भेन चेत्यर्थः त्रीणि योजनसहस्राणि त्रीणि च नवनवतानि योजनशतानि परिक्षेपतः प्रज्ञप्तानि। इह च येषां तीर्थान्तरीयाणां मतेन मण्डलस्यायाम-विष्कम्भमेकं योजनसहनमेकं योजनशतंच त्रयस्त्रिशदधिकमायामविष्कम्भाभ्यां ते परिरयपरिमाणं वृत्तपरिमाणात् त्रिगुणमेव परिपूर्णमिच्छन्ति, न विशेषाधिकमतस्वीणि योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि नवनवतानीत्युक्तम्। तथाहि-सहस्रस्य त्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशतश्च नवनवतिरिति इह परिरयपरिमाणं 'बिक्खंभवग्गदहगुणकरणीवट्टस्स परिरओ होइ' इति। परिरयगणितेन व्यभिचारि, तेन हि परिरयपरिमाणानयने त्रीणि योजनसहस्राणि पञ्चशतानि व्यशीत्यधिकानि किञ्चित्समधिकान्यागच्छन्ति, तथाहिएक योजनसहस्रमेकंचयोजनशतंत्रयस्त्रिंशदधिक-मित्येकादशयोजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि 1133, एतेषां वर्गो विधीयते, जात एकको द्विकोऽष्टकस्त्रिकः षट्कोऽष्टको नवकः 1283686, ततो दशभिर्गुणितेन जातमेकमधिकं शून्यम् 12836860, एतेषां वर्गमूलानयने आगच्छति यथोक्तं परिरयपरिमाणमतस्तन्मतेन परिरयपरिमाणं व्यभिचारि, एवमुत्तरमपि मतद्वयं परिभावनीयम्, अत्रैव प्रथममते उपसंहारः 'एगे एवमाहंसु' 1, एके पुनरेवमाहुः-सर्वाण्यपि सूर्यमण्डलपदानि प्रत्येकमेक योजनं बाहल्येन एकं योजनसहस्रमेकं च योजनशतं चतुस्त्रिंशं चतुस्विंशदधि-कमायामविष्कम्भाभ्यां 1135 त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारियोजनशतानि व्युत्तराणि 3402, परिक्षेपतः। तथाहि एतेषामपि मतेन विष्कम्भपरिमाणात् परिरयपरिमाणं परिपूर्णत्रिगुणरूपं, ततः सहस्रस्य त्रीणि सहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि चतुस्त्रिंशतो व्युत्तरं शतमिति। अत्रैवोपसंहारमाह- 'एगे एवमाहंसु एके पुनरेवमाहुः-सर्वाण्यपि मण्डलपदानि- सूर्यमण्डलानि प्रत्येकमकं योजनं बाहल्येन एकं योजनसहस्रमेकं च योजनशतं पञ्चत्रिंशपञ्चत्रिंशदधिकमायामविष्कम्भाभ्याम् 1135 त्रीणि योजनसहस्राणि चत्वारि योजनशतानि पञ्चोत्तराणि 3405 परिक्षेपतः, तथाहि एकस्य योजनसहस्रस्य त्रीणि योजनसहस्राणि शतस्य त्रीणि शतानि पश्चत्रिंशतः पञ्चोत्तरं शतमिति, एतानि बीण्यपि मतानि मिथ्यारूपाणि परिरयपरिमाणमात्रेऽपि व्यभिचारात्, अतो भगवान् तेभ्यः पृथक् स्वमतमुपदर्शमति- 'वयं पुण' इत्यादि, वंय पुनरेवं वक्ष्यमाणप्रकारे वदामः, तमेव प्रकारमाह-'ला सव्वावी' त्यादि, 'ता' इति पूर्वं वत् सर्वाण्यपि मण्डलपदानिसूर्यमण्डलानि प्रत्येकं बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य आयामविष्कम्भपरिक्षेपेण-आयामविष्कम्भपरिक्षेपैःपुनरनियतानि आख्यातानि, कस्यापि मण्डलस्य कियान् आयामो विष्कम्भः परिक्षे Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1045 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल पश्चेति भाव इति स्वशिष्येभ्यो वदेत्, एवमुक्तेभगवान् गौतमः पृच्छति'तत्थ णं को हेऊ इति वइज्जा' तत्र मण्डलपदानामायामविष्कम्भपरिक्षेपाऽनियतत्वे को हेतुः-का उपपत्तिरिति वदेत्, अत्र भगवानाह'ता अयन्न' मित्यादि, इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्णं स्वयं परिभावनीयं व्याख्यानीयं च, 'ताजया ण' मित्यादि, तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदं, सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वाद्, बाहल्येनाष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य ज्ञातव्यम्, आयामविष्कम्भाभ्यां नवनवतियोजनसहस्राणि षट्शतानि चत्वारिंशदधिकानि 66640, तथाहिएकतोऽपि सर्वाभ्यन्तरमण्डलमशीत्यधिकं योजनशतं जम्बूद्वीपमवगाह्य स्थितमपरतोऽपि, ततोऽशीत्यधिकं योजनशतं द्वाभ्यां गुण्यते,जातानि त्रीणि शतानिषष्ट्यधिकानि ३६०,एतानि जम्बूद्वीपविष्कम्भपरिमाणाल्लक्षरूपात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, वीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदशसहस्राणि एकोननवत्यधिकानि 315086 परिक्षेपतः, तथाहि-तस्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य विष्कम्भो नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट्शतानि चत्वारिंशदधिकानि 66640, एतेषां वर्गो विधीयते, जातो नवको नवको द्विकोऽष्टक एकको द्विको नवकः षट्को द्वे च शून्ये 6628126600, ततो दशभिर्गुणने जातमेकधिकं शून्यम् 66281266000, अस्य वर्गमूलानयनेन लब्धं यथोक्तं परिरयप्रमाणं, शेषं तिष्ठति द्विक एककोऽष्टकः शून्यं सप्तको नवकः 218076 एतत् त्यक्तम्, 'तया ण' मित्यादिना रात्रिन्दिवपरिमाणं सुगमम् / 'से निक्खममाणे' इत्यादि, ससूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्प्रागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदमष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट्शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागायोजनस्यायामविष्कम्भायां, तथाहि एकोऽपि सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतानष्टाचत्वारिंशतमेकषष्टिभागान्योजनस्यापरेचद्वेयोजने बहिरवष्टभ्य द्वितीये मण्डले चारं चरति, द्वितीयोऽपि, ततो द्वयोर्योजनयोरष्टाचत्वारिंशतश्चैकषष्टिभागानं योजनस्यद्वाभ्यां गुणने पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येति भवति, एतत्प्रथममण्डलविष्कम्भपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यतेततो भवति यथोक्तं द्वितीयमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणमिति। तत्र त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश सहस्राणि एकंच सप्तोत्तरंयोजनशतं किञ्चिद्विशेषाधिकंपरिरयेण प्रज्ञप्तम्, तथाहि-पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणे पञ्च योजनानिपञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्तन्ते, ततोऽस्य राशेः पृथक् परिरयपरिमाणमानेतव्यम्, तत्र पञ्च योजनान्येकषष्टिभागकरणार्थमेकषष्ट्या गुण्यन्ते,जातानित्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि 305, एतेषां मध्ये उपरितनाः पञ्चत्रिंशदेकपष्टिभागाः प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि चत्वारिंशदधिकानि 340, एतेषां वर्गो विधीयते, वर्गयित्वा च दशभिर्गुणनात् ततो जात एक एककः पञ्चकः षट्कस्त्रीणि शून्यानि 1156000, तत एषा वर्गमूलानयने ‘लब्धानि दश शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 1075, एतेषां योजनाऽनयनार्थमेकषष्ट्या भागे हृते लब्धानि सप्तदशयोजनानि अष्टत्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्य 17-38/61 एतत्पूर्वमण्डल-परिरयपरिमाणेऽधिकत्वने प्रक्षिप्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलपरियपरिमाणं भवति, किचिद्विशेषोनता च किञ्चिदूनत्रयोविंशत्या एकषष्टिभागैरूनता द्रष्टव्या, 'तयाणं दिवसराइप्पमाणं तह चेव' तदा-द्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्रिप्रमाणं तथैव-प्राग्वत् ज्ञातव्यम्, तच्चैवम्-'तया णं अट्ठारसमुदुत्ते दिवसे हवइ दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहत्तां राई भवति दोहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया, से णिक्खममाणे' इत्यादि, ततः सूर्यो द्वितीयस्मान्मण्डलादुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् नवसंवत्सरसत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितरं तचं' ति-सर्वाभ्यन्त-रान्मण्डलात्तृतीयं मण्डल-मुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जयाणं' मित्यादि, ततो यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीय मण्डल-मुपसंक्रम्य चारं चरतितदाततृतीयं मण्डलपदम् अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन नवनवतिर्योजनसहस्राणि षट्योजनशतान्येकपञ्चाशदधिकानि नव चैकषष्टिभागा योजनस्य 66651-8/61 आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां, तथाहिप्रागिवात्रापि पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणात् पञ्च योजनानि पञ्च-त्रिंशच्चैकषष्टिभागा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्वन्ते, ततो यथोक्त-मायाविष्कम्भपरिमाणं भवति त्रीणि योजनशतसहस्राणि पञ्चदश सहस्राणि एकं च पञ्चविंशत्यधिकं योजनशतंपरिक्षेपेण प्रज्ञप्तं, तथाहि-पूर्वमण्डलादस्य विष्कम्भे पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागाा योजनस्याधिकत्वेन प्राप्यन्ते,ततो यथोक्त-मत्रायामविष्कम्भपरिमाणं भवति, तस्य च पृथक् परिरयपरिमाणं सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच एकषष्टिभागा योजनस्य, एतन्निश्चयनयमतेन, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतमवलम्ब्य परिपूर्णान्यष्टादशयोजनानि विवक्षित्तानि, व्यवहारनयमतेन हि लोके किञ्चिदूनमपि परिपूर्ण विवक्ष्यते, तथा यदपि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणे किञ्चिदूनत्वमुक्तं तदपि व्यवहार-नयमतेन परिपूर्णमिव विवक्ष्यते, ततः पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणे अष्टादश योजनान्यधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते इति भवति यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणम् 'तया णं दिवसराई तहेव' इति तदा तृतीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, तचैवम्-'तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवति चउहि एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया' ‘एवं खलु' इत्यादि, एवम्- उक्तप्रकारेण खलु निश्चितमेतेनोपायेन प्रत्यहो - रात्रमेकैकमण्डलमोचनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डल संक्रामन् २एकस्मिन् मण्डल पश्च पञ्च याजतानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येत्येव परिमाणां विष्कम्भवृद्धिमभिवयन्नभिवर्द्धयन् एकैकस्मिन्नेतन्मण्डले अष्टादश अष्टादश योजनानिप Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1046 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल रिरयवृद्धिमभिवर्द्धयन्नभिवर्द्धयन् इहाष्टादश अष्टादशेति व्यवहारत उक्तम्, निश्चयनयमतेन तु सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशते चैकषष्टिभागा योजनस्येति द्रष्टव्यम्, एतच प्रागेव भावित, न चैतत्स्वमनीषिकाविजृम्भितं, यत उक्तं तद्विचारप्रक्रमे एव करणविभावनायाम्- 'सत्तरस जोयणाइं अद्वतीसंच एगट्ठिभागा 17-38/61 एयं निच्छएणसंववहारेण पुण अट्ठारस जोयणाई' इति, प्रथमषण्मासापर्यवसानभूते त्र्यशीत्यधिकशततमे अहोरात्रे, सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जयाणं' मित्यादि, तत्रयदा णमिति वाक्यालङ्कारे, सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा तत्सर्वबाह्यं मण्डलपदम् अष्टचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन एकं योजनशतसहस्रं षट्शतानि षष्ट्यधिकानि 100660 आयामविक्रम्भन आयामविष्कम्भाभ्याम्, तथाहि-सर्वाभ्यन्त-रान्मण्डलात्परतःसर्वबाह्यमण्डलंपर्यवसानीकृत्य त्र्यशीत्यधिक मण्डलशतं भवति, मण्डले मण्डले च विष्कम्भे विष्कम्भे परिवर्द्धन्ते पञ्च पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्य, ततः पञ्च योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि 615, येऽपि च पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य तेऽपि त्र्यशीत्यधिकानि शतेन गुण्यन्ते जातानि चतुःषष्टिः शतानि पञ्चोत्तराणि 6405, तेषामेकषष्ट्या भागे हृते लब्धं पञ्चोत्तरं योजनशतम्, 105, एतत्पूर्वस्मिन् राशौ प्रक्षिप्यते, जातानि दश शतानि विंशत्यधिकानि 1020, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डल-विष्कम्भायामपरिमाणे अधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणिशतानि पञ्चदशोत्तराणि 318315 परिक्षेपतः, नवरं पञ्चदशोत्तराणि किञ्चिन्न्यूनानिद्रष्टव्यानि, तथाहि-अस्य मण्डलस्य विष्कम्भोयोजनलक्षं षट्योजनशतानिषष्ट्यधिकानि 100660, अस्य वर्गो विधीयते, जात एककः शून्यमेककस्त्रिको द्विकश्चतुष्कस्विकः पञ्चकः षट्को द्वे शून्ये 10132435600, ततो दशभिर्गुणने जातमेकमधिकं शून्यम् 101324356000, अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि 318315, शेषमुद्वरति, पञ्चकः पञ्चकस्त्रिकश्चतुष्कः शून्यं चतुष्कः ५५३४०४,छेदराशिः षट्कस्त्रिकः षट्कः षट्को द्विकोऽष्टकः 636628, तल एतेन पञ्चदशंयोजन किशिदून किल लभ्यते इतिव्यवहारतः सूत्रकृता परिपूर्ण विवक्षित्वा पञ्चदशोत्तराणीत्युक्तम् / अथवा-मण्डले मण्डले पूर्वपूर्वमण्डलात्परिरयवृद्धौ सप्तदश सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशच्चैकष-1 ष्टिभागा योजनस्य लभ्यन्ते, ततः सप्तदश योजनानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातान्यकत्रिंशच्छतान्येका-दशोत्तराणि 3111, येऽपि चाष्टात्रिशदेकषष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्ते, जातान्येकोनसप्ततिशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि 6654. तेषां योजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धं चतुर्दशोत्तरं योजनशतम् 114, तच पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते जातानिद्वात्रिंशच्छतानि पञ्चविंशत्यधिकानि 3225, एतानि सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिरयपरिमाणे त्रीणि लक्षाणि | पञ्चदश सहस्राणि नवाशीत्यधिकानि 315056 इत्येवंरूपेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, जातानि त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्दशोत्तराणि 318314, तथा सप्तदशानां योजनानाम् अष्टात्रिंशतश्चैकषष्टिभागानामुपरि, यानि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि 375 शेषाण्युदरन्ति, तानि त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यन्तेजातान्यष्टषष्टिसहस्राणि षट् शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि 68625, तेषां छेदराशिना पञ्चाशदधिकै कविंशतिशतरूपेण 2150, भागो हियते, लब्धा एकत्रिंशदेकशष्टिभागा योजनस्य, शेषं स्तोकत्वात्, त्यक्त, परंव्यवहारतः परिपूर्ण योजनं विवक्षितमिति पश्चदशोत्तराणीत्युक्तम्, 'तया णं' मित्यादिना रात्रिन्दिवपरिमाणं षण्मासोपसंहरणं च सुगमम् 'से पविसमाणे' इत्यादि, ततः ससूर्यः सर्वा-बाह्यान्मण्डलात् प्रागुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं मण्डलं प्रविशन् द्वितीयं षण्मासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमे अहोरात्रे सर्वबाह्यानन्तरमक्तिनं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जया णं' मित्यादि.तत्र यदा णमिति वाक्यालङ्कारे सर्वबाह्यानन्तरमक्तिनं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा तन्मण्डलपदम् अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन, एक योजनशतसहस्रं षट्चयोजनशतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि षड्विशतिश्चैकषष्टिभागा योजनस्य 100654- 26/11 आयामविष्कम्भेन-आयाम-विष्कम्भाभ्याम्, तथाहि- एकतोऽपि, तन्मण्डलं सर्वबाह्यमण्डल-मतानष्टाचत्वारिंश-तमेकषष्टिभागान् योजनस्यापरे द्वे योजने विमुच्याभ्यन्तरमवस्थितमपतोऽपिततो योजनद्वयस्याष्टाचत्वारिंशतश्चैकषष्टिभागानांद्वाभ्यां गुणेन पञ्चयोजनानिपश्चत्रिंशचैकषष्टिभागायोजनस्येति भवति, एतत्सर्वबाह्यमण्डलगतविष्कम्भायामपरिमाणात् शोध्यते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणियोजन-शतसहस्राणि अष्टादशसहस्राणि द्वे योजनशतं सप्तनवत्यधिके 318267, परिक्षेपतः प्रक्षिप्तं, तथाहिपूर्वमण्डलादस्य मण्डलस्य विष्कम्भायामपरिमाणं पञ्चयोजनानि पञ्चत्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येति त्रुट्यन्ति, पञ्चानां योजनानां पञ्चत्रिंशतश्चैकषष्टिभागानां परिरये सप्तदश योजनानि अष्टात्रिंशचैकषष्टिभागा योजनस्य भवन्ति, परं सूत्रकृता व्यवहारनयमतेन परिपूर्णान्यष्टादश योजनानि विवक्षितानि, प्रागुक्तात्सर्वबाह्यमण्डलपरिरयपरिमाणात् त्रीणि लक्षाणि, अष्टादशसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि इत्येवं-रूपादष्टादश योजनानि शोध्यन्त, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलपरिरयपरिमाणं भवति, 'तया णं राइंदि-याणं तह चैव' तितदा रात्रिन्दिवं रात्रिदिवसौतथैव वक्तव्यौ, तौ चैवम्-'तयाणं अट्ठारस मुहुत्ता राई भवति दोहि एगट्ठिभाग-मुहुत्तेहि *णा दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहि एगविभागामुहुत्तेहि अहिए' इति, 'से पविसमाणे' इत्यादि, ततः स सूर्यस्तस्मादपि द्वितीयस्मान्मण्डलात्प्रागुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरं प्रविशन् द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयेऽहोरात्रे सर्वबाह्यान्मण्डलादवक्तिनं तृतीयं मण्डलमुपंसक्रम्य चारं चरति, तत्र यदा सूर्यः सर्वबाह्यान्मे Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1050- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल ण्डलादक्तिनं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरतितहा तन्मण्डलपदम् अष्टाचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य बाहल्येन एकं योजनशतसहस्रं षट् च योजनशतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि द्विपञ्चाशचैकषष्टिभागा योजनस्य 100648-52/61 आयामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां तथाहि-पूर्वस्मान्मण्डलादिदं मण्डलमायामविष्कम्भेन पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागैर्योजनस्य हीनं, ततः पूर्वमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणादेकं योजनशतसहस्रं षट् शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि षट्विंशतिश्चैकषष्टिभागा योजनस्येत्येवंरूपात्पञ्च योजनानि पञ्चत्रिंशबैकषष्टिभागा योजनस्य शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतमण्डलविष्कम्भायामपरिमाणं भवति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिकं-३१८२७६ परिक्षेपतः प्रक्षिप्तं, तथाहि-प्राक्तनमण्डलादिदं मण्डलं पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशता चैकषष्टिभागेयोजनस्य विष्कम्भतोहीनं, पञ्चानां योजनानां, पञ्चत्रिंशतश्चैकषष्टिभागानां परिरयपरिमाणं व्यवहारोऽष्टादश योजनानि, ततस्तानि पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तमधिकृतपरिरयपरिमाणं भवति, 'दिवसराई तहेव' त्ति-दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्- 'तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवइचउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि अहिए' इति, ‘एवं खलु' इत्यादि एतत्सूत्रं प्रागुक्तव्याख्यानुसारेण स्वयं परिभावनीयं, नवरं 'निव्वड्डेमाणे' इति निर्वेष्टयन् निर्वेष्टयन् हाप्रयन् हापयन्नित्यर्थः, 'ता जया ण' मित्यादि सुगमम्, अधुना प्रस्तुतवक्तव्यतापसहारमाह-'ता सव्वा विण' मित्यादि, ततः सर्वाण्यपि मण्डलपदानि प्रत्येकं बाहल्येनाष्टा-चत्वारिंशदकेषष्टिभागा योजनस्य, उपलक्षणमेतत्, अनियता-निचायामविष्कम्भपरिधिभिः तथा सर्वाण्यपि च मण्डलान्तरकाणि-मण्डलान्तराणि, सूत्र स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, द्वे द्वे योजने विष्कम्भेन, तत एष द्वे योजन अष्टचत्वारिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येत्येवंरूपो, णमिति वाक्यालङ्कारे अध्वापन्थास्त्र्य-शीत्यधिकशतप्रत्युत्पन्नः--त्र्यशीत्यधिकेनशतेन गुणितः सन् पञ्चदशात्तराणि योजनशतान्याख्याता इति, वदेत्, तथाहि-द्वे योजने त्र्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्येते जातानि त्रीणि शतानि षट्षष्ट्यविकानि 366, येऽपि च अष्ट-चत्वारिंशदेकषष्टिभागास्तेऽपि त्र्यशीत्यधिकानि शतेन गुण्यन्ते जातानि सप्ताशीतिशतानि चतुरशीत्यधिकानि 8784, तेषां योजनानयनार्थमेकषष्ट्या भागो ह्रियते, लब्धं चतुश्चत्वारिंशं योजनशतम् 144, तत् पूर्वराशौ प्रक्षिप्यते, जातानि पञ्च शतानि दशोत्तराणि 510, अस्यैवार्थस्य व्यक्तीकरणार्थं भूयः प्रश्नसूत्रमाह-- 'ता अभितराओ' इत्यादि, 'ता' इति तत्र अभ्यन्तरात-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलपदात् परतो यावद्वाह्य- सर्वबाह्यं मण्डलपदं बाह्याद्वासर्वबाह्याद्वा मण्डलपदादाक्यावत्सवाभ्यन्तरं मण्डलपदमेष एतावान् अध्वाकियान्-- कियत्प्रमाण आख्यात इति वदेत् ? एकमुक्ते गौतमेन भगवानाह. 'ता' इत्यादि, तावानध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतानि | आख्यात इति वदेत् ? स्वशिष्येभ्यः पञ्चदशोत्तरयोजनशतभावना प्रागुक्तानुसारेण स्वयं परिभावनीया, अभितराए' इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरान्मण्ल-पदादारभ्य यावद् बाह्य-सर्वबाह्य मण्डलपदं, यदिवा-बाह्येन सर्वबाह्येन मण्डलपदेन सर्वबाह्यान्मण्डलपदादारभ्ययावत्सर्वाभ्यन्तरंमण्डलम्एष एतावान् अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् ? भगवानाह- 'ता पंचे' त्यादि स एतावान् अध्वा पञ्चदशोत्तराणि योजनशतान्यष्टा-चत्वारिंशचैकषष्टिभागा योजनस्येत्याख्यात इति वदेत, पूर्वस्मादध्वपरिमाणात् एतस्याध्वपरिमाणस्य सर्वबाह्यमण्डलगतन बाहल्यपरिमाणेनाधिकत्वात्, "ता अभितरे' त्यादि, ता इति अभ्यन्तरान्मण्डलपदात्परतो बाह्यमण्डलपदात्सर्वबाह्यमण्डलादाक्यद्वा बाह्यमण्डलपदादाक् अभ्यन्तरमण्डलात्परत एष अध्वा कियानाख्यातं इति वदेत् ? भगवानाह- 'ता पंचे' त्यादि, पञ्चयोजनशतानिनवोत्तराणि त्रयोदश चैकषष्टिभागायोजनस्य आख्यात इति वदत्, पूर्वस्मादध्वपरिमाणादस्याध्वपरिमाणस्य सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतसर्वबाह्यमण्डलगतबाहल्य परिमाणेन पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाधिकैकयोजनरूपेण हीनत्वात्, तदेवमभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो यावत्सर्वबाह्य मण्डलं सर्व-बाह्यादा मण्डलादक्ि यावत्सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं तथा सर्वा-भ्यन्तरसर्वबाह्यमण्डलाभ्यां सह तथा सर्वाभ्यन्तरसर्व-बाह्यमण्डलाभ्यां बिना यावदध्वपरिमाणं भवति तावन्निरूपितम्, सम्प्रति सर्वाभ्यन्तरेण मण्डलेन सह सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो बाह्यमण्डलादाक्, यदिवासर्वबाह्यमण्डलेन सह सर्व-बाह्यमण्डलादर्वाक् सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परता यावदध्वपरिमाणं भवति तावन्निरूपयति- 'अभितराए' इत्यादि, अभ्यन्तरेण मण्डलपदेन सह अभ्यन्तरान्मण्डलात्परतः, सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वागिति गम्यते, यदिवा-सर्वबाह्येन मण्डलपदेन सह सर्वबाह्यान्मण्डलादर्वाक् सर्वाभ्यन्तरान्म-ण्डलात्परत इतिगम्यते, याऽध्दा एषणमिति वाक्यालङ्कारे अध्वा कियानाख्यात इति वदेत् ? भगवानाह- 'ता' इत्यादि, तावानध्वा पञ्चाशोत्तराणि योजनशतानि आख्यात इति वदेत्, भावना सुगमत्वान्न क्रियते / सू० प्र०८ पाहु०। यथा 'मण्डले मण्डले प्रतिमुहूर्त गतिर्वक्तव्ये' ति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह ता केवतियं ते खेत्तं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति आहिता तिवदेज्जा ? तत्थ खलु इमातो चत्तारिपडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थ एगे एवमाहंसु -- ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु ? एगे पुण एवमाहंसुता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति एगे एवमाहंसु 2, एगे पुण एवमाहंसु-ता चत्तारि चत्तारि जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु 3, एगे पुण एवमाहंसु-ता छवि पंच वि चत्तारि वि जोयणसहस्साइंसूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु 5, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता छ छ जोयणसहस्साई सूरिए - Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1051 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति ते एवामाहंसु-जता णं सूरिए सव्वन्मंतरंमंडलं उवसंकमित्ताचारं चरति तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसे अट्ठारसमुहुत्तं दिवसे भवति, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, तेसिंच णं दिवसंसि एग जोयणसतसहस्सं अट्ठय जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ताचारं चरति तयाणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, तेसिंच णं दिवसंसि बावत्तरि जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते, तया णं छ छ जोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेण गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु ता पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, ते एवामाहंसु ता जता णं सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, तहेव दिवसराइप्पमाणं तंसि च णं तावक्खेत्तं नउइजोयण- | सहस्साई, ता जया णं सध्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं तं चेव राइंदियप्पमाणं पतंसि च णं दिवसंसि सडिं जोयणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते, तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति। तत्थ जे ते एवमाहंसु, ता जया णं सूरिए सव्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरतितताणं दिवसराईतहेव, तंसिचणं दिवसंसि बावत्तरि जायेणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं राइंदियं तहेव तंसि च णं दिवसंसि अडयालीसं जोयणसहस्साई तावक्खेत्ते पण्णत्ते,तताणंचत्तारिचत्तारिजोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ जे ते एवमाहंसु छ वि पंच वि चत्तारि वि जोयणसहस्साई सूरिए एगभेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति ते एवमाहंसु-ता सूरिए णं उग्गमणमुहुत्तेणं सिय अत्थमणमुहुत्तं सिग्धगती भवति, तता णं छ छ जोयणसहस्साई एगमेगेणं | मुहुत्तेणं गच्छति, मज्झिमतावक्खेत्तं समासादेमाणे समामादेमाणे सूरिए मज्झिमगता भवति, तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, मज्झिमंतावखेत्तं संपत्ते सूरिए मंदगती भवति, तता णं चत्तारि जोयणसहस्साई एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थकोहेउत्तिवदेजा ? ता अयण्णां जंबूद्दीवे दीवे० जाव परिक्खेवेणं, ता जया ण सूरिए सध्वमंतरं मंडलं उपसंकमित्ता चारं चरति तता णं दिवसराई तहेव तंसि च णं दिवसंसि एकणउर्ति जोयणसहस्साईतावखेत्ते पण्णत्ते, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं राइंदियं तहेव, तस्सि च णं दिवसंसि एगट्ठिजोयणसहस्साइं तावक्खेत्ते पण्णत्ते, तताणंछ विपंच वि चत्तारि विजोयणसहस्साइं सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, एगे एवमाहंसु / / वयं पुण एवं वदामो-ता सातिरेगाइं पंच पंच जोयणसहस्साई सूरिए एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तत्थ को हेतु त्ति वदेजा, ता अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे परिक्खेवेणं ता जता णं सूरिए सय्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई दोण्णि य एकावण्णे जोयणसए एगूणतीसंच सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणुस्सस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं दोहि य तेवढेहिं जोयणसतेर्हि एकवीसाए य सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, तयाणं दिवसे राई तहेव, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अमितराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच पंच जोयणसहस्साइंदोण्णि य एकावण्णे जोयणसते सीतालीसंच सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्समणूसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं अउणासीते यजोयणसते सत्तावण्णाए सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सट्ठिमागं च एगविहाछेत्ता अउणावीसाए चुण्णियाभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति,तताणं दिवसराई तहेव। से णिक्खममाणे सूरिए दोसि अहोरत्तंसि अन्भितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए अमितरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति तताणं पंच पंच जोयणसहस्साइं दोण्णि य बावणे जोयणसते पंच य सहिभागे जोयणस्स एगभेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्य मणूसस्स सीतालीसाए जोयणसहस्सेहिं जोयणस्स सर्हि भागं च एगद्विधा छेत्ता दोहिं भागेहिं जोयणस्स सर्टि भागं च एगद्विधा छेत्ता दोहिं चुण्णियाभागेहि सूरिए चक्खुप्फासं हट्दमागच्छति, तता णं दिवसराई तहेव, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए तताऽण तराओ तदाणंतरं मंडलातो मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगतिं अभिवुड्डेमाणे अभिवुडमाणे चुलसीति सीताई जोयणाइं पुरिसच्छायं णिवुड्डेमाणे 2 सध्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरति, ता जया णं सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ताचारं चरतितताणपंचपंच जोयणसहस्साइंतिनि Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1052 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल " सू०र३) . य पंचुत्तरे जोयणसते पण्णरसय सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं / एसणं आदिचसंवच्छरस्स पज्जवसाणे। (सू०२३) मुहुत्तेणं गच्छति तता णं इहगतस्स मणूसस्स एकतीसाए "ता केवतियं ते खित्तं सूरिए' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत्, कियन्मात्रं जोयणेहिं अट्ठहिं एकतीसेहिं जोयणसतेहिं तासाए य क्षेत्रं भगवन् ! 'ते' त्वया सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, गच्छुन्नाख्यात सट्ठिभागेहिं जोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, तता इति वदेत् ? एवमुक्ते सति भगवान् एतद्विषयपरतीर्थिकप्रतिपत्तिणं उत्तम कट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहण्णइ मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एव प्रतिपत्तीरुपदर्शयति- 'तत्थ' दुवालसमुहुत्त दिवसे भवति / एस णं पढमे छम्मासे, एस णं इत्यादि तत्र प्रतिमुहूर्त-गतिपरिमाणचिन्तायां खल्विमाश्चतस्रः पढमस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे / से पविसमाणे सूरिए दोचं प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- तत्र तेषां चतुर्णा बादिनां मध्ये एके छम्मासं अयमाणे पढमति अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं एवमाहुः- षट् षट् योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, उवसंकमित्ता चारं चरति ता जताणं सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं अत्रैवोपसंहारः, 'एगेएवमाहंसु? एवमग्रेतनान्युपसहारवाक्यानि भावनीउवसंकमित्ता चारं चरति तता णं पंच पंच जोयणसहस्साई यानि, एके पुनर्दितीया एवमाहुः-पञ्चपञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन तिण्णि य चउरुत्तरे जोयणसत्ते सत्तावण्णं च सद्विभाए जोयणस्स मुहूर्तेन गच्छति 2 / एके पुनस्तृतीय एवमाहुः-चत्यारि चत्वारियोजनएगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स सहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति,३। अपरे पुनश्चतुर्था एवमाहुःएक्कतीसाए जोयणसहस्सेहिं नवहिंय सोलसेहिं जोयणसएहिं षडपिपञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, एगणतालीसाए सट्ठिभागेहिंजोयणस्स सट्ठिभागंच एगट्ठिहा छेता तदेवं चतस्रोऽपि प्रतिपत्तीः संक्षेपत उपदर्थ्य सम्प्रत्येतासां यथाक्रम सहिए चुण्णियाभागे सूरिए चक्खुफासं हव्वमागच्छति, तताणं भावनिकामाह- 'तत्थे' त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः-षट् षट् राइंदियं तहेव, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरं योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति ते एवमाहुः- यदा सूर्यः तचं मंडलं उवसंकमित्ता चारंचरति, ताजयाणं सूरिए बाहिरतचं सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्तः मंडलं उवसंकमित्ता चार चरति तताणं पंच पंच जोयणसहस्साई परमप्रकर्षप्राप्तोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति सर्वजधन्या च द्वादशमुहूर्ता तिन्नि य चउरुत्तरे जोयणसते *तालीसं च सट्ठिभागे जोयणस्स रात्रिः, तस्मिंश्च दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम् एकं योजनशतसहस्रमष्टौ च एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छति, तता णं इहगतस्स मणूसस्स योजनसहस्राणि, तथाहि- तस्मिन्नपि मण्डले उदयमानः सूर्यो एगाधिरोहिं बत्तीसाएजोयणसहस्सेहिं एकावण्णाए यसट्ठिभागेहिं दिवसस्यार्द्धन यावन्मात्रं क्षेत्रंव्याप्रोतितावति व्यवस्थितश्चक्षुर्गोचरमाजोयणस्स सट्ठिभागंच एगट्ठिधा छेत्ता तेवीसाए चुणियाभागेहि याति तत एतावत्किल पुरतस्तापक्षेत्रम्, यावच पुरतस्तापक्षेत्रं तावसूरिए चक्खुफासं हटवमागच्छति, राइंदियं तहेव, एवं खलु त्पश्चादपि, यत उदयमान इवास्तमयमानोऽपि सूर्यो दिवसस्यार्द्धन एतेणुवाएणं पविसमाणे सूरिए तताणंतरातो तताणंतरं मंडलातो यावन्मात्रं क्षेत्रं व्यानोति तावति व्यवस्थितश्चक्षुपोप-लभ्यते, एतच्च मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे प्रतिप्राणि सुप्रसिद्धं, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसस्यार्द्ध नव जोयणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई णिवुड्डेमाणे णिवुड्डेमाणे मुहूर्तास्ततोऽष्टादशभिर्मुहूर्तर्यावन्मात्रं क्षेत्रं गम्यं तावत्प्रमाणं तापक्षेत्रम्, सातिरेगाइं पंचासीति पंचासीति जोयणाई पुरिसच्छायं एकैकेन मुहूर्तेन षट् षट् योजनसहस्राणि गम्यन्ते, ततः षण्णाः योजनअभिवुड्डेमाणे अभिवुड्डेमाणे सव्वन्मंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं सहस्राणामष्टादशभिर्गुणने भवत्येकं योजनशतसहस्रमष्टौ योजनसहचरति, ता जता णं सूरिए सव्वन्भतरं मंडलं उवसंकमित्ता चार स्राणीति, एवमुत्तस्त्रापि तत्तन्मण्डलगतदिवसपरिमाणं प्रतिमुहूर्तगतिचरति ता तताणं पंच पंच योजणसहस्साइंदोण्णि य एक्कावण्णे परिमाणंच परिभाव्य तापक्षेत्रपरिमाणभावना भावनीया / यदाच सर्वबाह्य जोयणसए अकृतीसं च सट्ठिभागे जोयणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा उत्तमकाष्ठाप्राप्ता अष्टादशमुहूर्ता गच्छति तता णं इहगयस्स मण सस्स सीतालीसाए रात्रिर्भवति सर्वजघन्यश्च द्वादशमुहूर्तो दिवसः, तस्मिश्च दिवसे तापक्षेत्रजोयणसहस्सेहिं दोहि य दोवढेहिं जोयणसतेहिं एकवीसाए य परिमाणं द्विसप्ततिर्योजनसहस्राणि 72000, तदा हि-तापक्षेत्रपरिमाणं सट्ठिभागेहिंजोयणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति, तता द्वादशमुहूर्त्तगम्यप्रमाणम्, अत्रार्थेचभावना प्रागु-क्तानुसारेण स्वयं भावनीया, णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते, दिवसे भवति, मुहूर्तेन च षट् षट् योजनसहस्राणि गच्छति, ततः पण्णां योजनसहस्राणां जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवति, एस णं दोचे छम्मासे द्वादशभिर्गुणने भवन्ति, द्वासप्ततिरेव योजनसहस्रा-णीति, इमामेवोपपत्तिं एसणंदोबस्स छम्मासस्स पद्धवसाणे एसणं आदिचे संवच्छरे | लेशत आह- 'तेसि णं' मित्यादि, तेषां हि तीर्थान्तरीयाणां मतेन सूर्यः Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल १०५३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल षट्पट्योजनसहस्राण्येकैकेन मुहूर्तेन गच्छतिततः सर्वाभ्यन्तरेसर्वबाह्ये मण्डलगते द्वादशमुहुर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम्-अष्टाचत्वारिंशच मण्डले यथोक्तमेव तापक्षेत्रपरिमाणं भवतीति, तथा 'तत्थे' त्यादि, द्योजनसाहस्राणि 48000, तदा हि तापक्षेत्रं द्वादशमुहूर्तगम्यम् एकैकेन तत्र-तेषां वादिनां मध्ये ये ते एवमाहुः- पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य चमुहूर्तेन चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि गच्छति, ततश्चतुर्णा योजनएकै केन मुहूर्तेन गच्छति त एवमाहुः- यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं सहस्राणां द्वादशभिर्गुणनेऽष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि भवन्ति, इमामेवोपपत्तिं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'तहेव दिवसराइप्पमाण' मिति-अत्र लेशतो भावयति-'तयाण' इत्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले प्रस्तावे दिवसरात्रिप्रमाणं तथैव-प्रागिव द्रष्टव्यम् 'तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते सर्वबाह्यमण्डलचारकाले च यतश्चत्वारियोजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे हवइ, जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई इति, गच्छति ततः सर्वाभ्यनतरे सर्वाबाह्येच मण्डले यथोक्तं तापक्षेत्रपरिमाणं 'तस्स् िच णं' - मित्यादि, तस्मिश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादश- भवति 3 // 'तत्थे' त्यादि, तत्र येते वादिन एवमाहुः- षडपि पश्चापि मुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्र- तापक्षेत्रपरिमाणं प्रज्ञप्तं, नवतिर्योजन- चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति तेएवमाहुः-एवं सहस्राणि, तदा हि प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्तप्रमाणं तापक्षेत्रम्, सूर्यचारं प्ररूपयन्ति, सूर्य उद्गमनमुहूर्ते अस्तमयनमुहूर्ते च शीध्रगतिएकैकेन च मुहूर्तेन गच्छति सूर्यः पञ्चपञ्च योजनसहस्राणि, ततः पञ्चानां र्भवति ततस्तदा-उद्गमनकालेऽस्तमयनकाले च सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन योजनसहस्राणामष्टादशभिर्गुणनेन नवतिरेव योजनसहस्राणि भवन्ति, षट्षड्योजनसहस्राणि गच्छति, तदनन्तरं सर्वाभ्यन्तरगतंमुहूर्तमात्रगम्यं 'ताजयाण' मित्यादि, यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तापक्षेत्रं मुक्त्वा शेष मध्यमं तापक्षेत्र परिभ्रमेण समासादयन् मध्यमतदा 'तं चेव राइंदियप्पमाणं' मिति, तदेव प्रागुक्तं रात्रिन्दिवप्रमाणं- गतिर्भवति, ततस्तदा पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, रात्रिदिवसप्रमाणं वक्तव्यम्, तद्यथा 'उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारस- सर्वाभ्यन्तरं तु मुहूर्तमात्रगम्यं, तापक्षेत्र सम्प्राप्तः सन् सूर्यो मन्दगतिमुहुत्ता राई हवइ जहन्निए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवतीति'' 'तस्सिचणं' भवति, ततस्तदा यत्र तत्र वा मण्डले चत्वारि चत्वारि योजनसहस्राणि मित्यादि, तस्मिन् सर्वबाह्यमण्डलगते सर्वजधन्ये द्वादशमुहूर्तप्रमाणे एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति। अत्रैव भावार्थ पिपृच्छिषुराह- 'तत्थे' त्यादि, दिवसे तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तं षष्टियोजनसहस्राणि 60000, तदा तत्र एवंविधवस्तुतत्त्वव्यवस्थायां को हेतुः ?-- का उपपत्तिरिति वदेत्, ह्यनन्तरोक्तयुक्तिवशाद्वादशमुहूर्तगम्यप्रमाणं तापक्षेत्रमेकैकेनच मुहूर्तेन एवं स्वशिष्येण प्रश्ने कृते सति ते एवमाहुः 'ता अयण्ण' मित्यादि, अत्र पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छति, ततः पञ्चानां योजनसहस्राणां जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् स्वयं परिपूर्ण पठनीयं व्याख्यानीयं च। 'जया ण' द्वादशभिर्गुणने भवतिषष्टिर्योजनसहस्राणि, अत्रैवोपपत्तिलेशमाह-'तया | मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसङ्म्य चारं चरति तदा णं पंच पंचे' त्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरणकाले सर्वबाह्य- दिवसरात्री तथैव प्रागिव वक्तव्ये, तेचैवम्-'तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए मण्डलचारचरणकाले च पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइजहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' 'तम्सिच गच्छति, ततः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये चमण्डले यथोक्तमातपक्षेत्रपरिमाणं ण' मित्यादि, तस्मिश्च सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतेऽष्टादशमुहूर्त-प्रमाणदिवसे भवति सा 'तत्थे' त्यादि, तत्र ये ते वादिन एवमाहुः- चत्वारि चत्वारि तापक्षेत्रं प्रज्ञप्तम्। एकनवतिर्योजनसहस्राणि 1100, तानि चैवमुपपद्यन्ते योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति त एवं सूर्यतापेक्षत्रप्ररूचारं उद्गमनमुहूर्तेऽस्तमयनमुहूर्तेच प्रत्येक षड्योजनसहस्राणि गच्छतीत्युचरति तदा दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्- तया णं भयमीलने द्वादशयोजनसहस्राणि 12000, सर्वाभ्यन्तरं मुहूर्त्तमात्रगम्यं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहूत्ते दिवसे हवइजहन्निया दुबालसमुहुत्ता तापक्षेत्रं मुक्त्वा शेषे मध्यते, तापक्षेत्रे पञ्चदशमुहूर्त प्रमाणे पञ्च पञ्च राई भवई' इति, 'तस्सि च ण' मित्यादि, तस्मिश्च सर्वाभ्यन्तरमण्ड- योजनसहस्राणि गच्छतीति पञ्चानां योजनसहस्राणां पञ्चदशभिर्गुणने लगतेऽष्टादशमुहूर्त्तप्रसाणे दिवसे तापक्षेत्र प्रज्ञप्तं द्विसप्ततिर्योज- पश्चसप्ततिर्योजनसहस्राणि 75000, सर्वाभ्यन्तरेतुमुहूर्त्तमात्रगम्येतापक्षेत्रे नसहस्राणि 72000, तथाहि एतेषां मतेन सूर्य एकैकेन मुहूर्तेनचत्वारि चत्वारियोजनसहस्राणि 4000 गच्छतीति सर्वमीलने एकनवतिर्योजनचत्वारियोजनसहस्राणि गच्छति, सर्वाभ्यन्तरेच मण्डले तापक्षेत्रपरिमाणं सहस्राणि 61000 भवन्ति, नचैतान्यन्यथा घटन्ते, तथा-'ताजयाण' प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादशमुहूर्तगम्यं, ततश्चतुर्णा योजनसहस्राणामष्टा- |. मित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्यं मण्डलमुपसंक्रम्य सूर्यश्चारं चरति तदा दशभिर्गुणने भवन्ति द्विसप्ततिर्योजन-सहस्राणि, 'ताजयाणं' मित्यादि, रात्रिंदिवं-रात्रिंदिवपरिमाणं तथैव प्रागिव वेदितव्यं, तचैवम्- 'तया णं ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्य मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति, तदा 'राईदियं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारस-मुहत्ताराई भवइ,जहण्णएदुवालसमुहुत्ते तहेव' त्ति-रात्रिन्दिवं-रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव-प्रागिव वक्तव्यं, तचैवम्, दिवसे, 'तस्सि च णं' मित्यादि, तस्मिश्च सर्वबाह्यमण्डलगते द्वादश'तया णं उत्तमकट्टपत्ता उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ, जहन्न ए मुहूर्तप्रमाणे दिवसे तापक्षेत्र प्रज्ञप्तम्, एकषष्टिोजनसहस्राणि 61000, दुबालसमुहत्ते दिवसे भवति' तरिंस चणं' मित्यादि, तम्मिश्च सर्वबाह्य- तानि चैवं घटा प्राञ्चन्ति-उद्रमनमुहूर्ते अस्तमथमुहूर्तेच प्रत्येकं षट्षट् Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1054 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल योजनसहस्राणि गच्छन्ति, तत उभयमीलने द्वादश योजनसहस्राणि भवन्ति 12000, सर्वाभ्यन्तरं मुहूर्त्तमात्रगम्यं तापक्षेत्रं मुक्त्वा शेषे मध्यमे तापक्षेत्रे नवमुहूर्तगम्यप्रमाणे पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, ततः पञ्चानां योजनसहस्राणां नवभिर्गुणने पञ्चचत्वारिंशद्योपजनसहस्राणि भवन्ति 45000, सर्वाभ्यन्तरेतुमुहूर्तमात्रगम्ये तापक्षेत्रे चत्वारियोजनसहस्राणि 4000, गच्छति, सर्वमीलनेएकषष्टिर्योजनसहस्राणि, न चैतान्यन्यथोपपद्यन्ते, ततः 'तया णं' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले सर्वबाह्यमण्डलचारकाले चोक्तप्रकारेण षडपि पञ्चापि चत्वार्यपि योजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, अत्रैवोपसंहारः- 'एगे एवमाहंसु'एके चतुर्था वादिन एवम्-अनन्तरोक्तेन प्रकारेणाऽऽहुः // तदेवं परतीर्थिक प्रतिपत्तीरुपदर्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति- 'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थितं वस्तूपलभ्य एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः। तमेव प्रकारमाह-- 'ता साइरेगाई' इत्यादि, 'ता' इति पूर्ववत् सातिरेकाणि-समधिकानि पञ्च पञ्चयोजनसहस्राणि सूर्य एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, इह क्वापि मण्डले कियताऽधिकेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि गच्छति, ततः सर्वमण्डलप्राप्तिमपेक्ष्य सामान्यत उक्तं सातिरेकाणीति, एवमुक्ते भगवान् गौतमस्वामी स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनाय भूयः पृच्छति-'तत्थे त्यादि, तत्र एवंविधायामनन्तरोदितायां वस्तुव्यवस्थानां को हेतुः- का उपपत्तिरिति वदेत्, भगवान् वर्द्धमानस्वामी आह'ता अयण्ण' मित्यादि, इदं च जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत्स्वयं परिपूर्णे परिभावनीयम्, 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे द्वे योजनशते एकपञ्चाशदधिकएकोनत्रिंशतंचषष्टिभागान् योजनस्य 5251 26/60 एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमेतदवसीयते इति चेत्, उच्यतेइह द्वाभ्यां सूर्याभ्यामेकं मण्डलमेके नाहोरात्रेण परिसमाप्यते, अहोरात्रश्च त्रिंशन्मुहूर्त-प्रमाणः / प्रतिसूर्य चाहोरात्रगणने परमार्थतो द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां मण्डलं परिभ्रमणतः परिसमाप्यते, द्वयोश्चाहोरात्रप्रमाणयोर्मुहूर्ताः षष्टिर्भवन्ति, ततो मण्डलपरिरयस्य षष्ट्या भाग हारयेत्, भागलब्धं भवति तन्मुहूर्तगतिप्रमाणं, तत्र सर्वाभ्यन्तरे मण्डले परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि पञ्चदशसहस्राणि नवाशीत्यधिकानि 315086 अस्य षष्ट्या भागे हृते लब्धं यथोक्तं मुहूर्तगति-परिमाणमिति। अत्रास्मिन् सर्वाभ्यन्तरे मण्डले कियति क्षेत्रे व्यवस्थित उदयमानः सूर्य इहगतानां मनुष्याणां चक्षुर्गो-चरमायातीति प्रश्नावकाशमाशङ्कयाह- 'तया ण' मित्यादि, तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरणकाले उदयमानः सूर्य इहगतस्य मनुष्यस्य, अत्र जातावेकवचनं, ततोऽयमर्थः-इहगतानाम्भरतक्षेत्रगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्राभ्यां त्रिषष्टाभ्यांत्रि षष्ट्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकविंशत्या च षष्टिभागयोजनस्य चक्षुःस्पर्श 'हव्वं' ति-शीघ्रमागच्छति, का अत्रोपपत्तिरिति चेत्, उच्यते-इह दिवसस्यार्द्धन यावन्मानं क्षेत्रं व्याप्यते तावति / व्यवस्थित उदयमानः सूर्यः उपलभ्यते, सर्वाभ्यन्तरे च मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहुर्तप्रमाणस्तेषाम॰ नव मुहूर्ताः, एकैकस्मिश्च मुहुर्ते सवाभ्यन्तरे मण्डले चार चरन्पञ्चपञ्च योजनसहस्राणि द्वेचयोजनशते एकपञ्चाशदधिकएकोन-त्रिंशतं च षष्टिभागान योजनस्य गच्छति, तत एतावन्मुहुर्त-गतिपरिमाणं नवभिर्मुहुर्तेर्गुण्यते, ततो भवति यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्तताविषये परिमाणमिति, 'तयाण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिव वक्तव्ये, ते चैवम्'तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ' इति, ‘से निक्खममाणे' इत्यादि, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्प्रागुक्त-प्रकारेण निष्क्रामन् सूर्यो नवं संवत्सरमाददानो नवस्य संवत्सरस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'अभितरानंतरं' तिसर्वाभ्यन्तरस्य मण्डल-स्यानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ताजयाण' मित्यादितत्र यदाणमिति वाक्यालङ्कारे, सर्वाभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा पञ्च योजनसहस्राणि द्वे योजनशते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य 5251-47/60 एकैकैन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिन्सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षणानि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं व्यवहारतः परिपूर्ण सप्तोत्तरं निश्चयमतेन तु किञ्चिन्न्यूनम् 315107, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भागो हियतेलब्धं यथोक्तमत्रमण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणम्, अथवा-पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणदस्य मण्डलस्यपरिरयपरिमाणे व्यवहारतः परिपूर्णान्यष्टादश योजना-नि वर्द्धन्ते, निश्चयतः किञ्चिदूनानि, अष्टादशानां च योजनानां षष्ट्या भागे हृते लब्धा अष्टादश षष्टिभागा योजनस्य, ते प्राक्तन-मण्डलगतमुहूर्तगतिपरिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो भवति यथोक्तमत्र मण्डले मुहुर्तगतिपरिमाणमिति, अत्रापि दृष्टिपथ-प्राप्ताविषयं परिमाणमाह- 'तया ण' मित्यादि तदा-सर्वाभ्यन्त-रानन्तरद्वितीयमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य जातावेक-वचनम् इहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनस-हौरेकोनाशीत्यधिके न योजनशतेन सप्तपञ्चाशता षष्टिभागैरेकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा क्षित्त्वा तस्य सत्कैरेको नविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले मुहुर्तगतिपरिमाणं पञ्च योजनसहस्राणिद्रेशते एकपञ्चाशदधिके सप्तचत्वारिंशच षष्टिभागा योजनस्य 5251-47/60 दिवसोऽ-ष्टादशमुहुर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहुर्तकषष्टिभागाभ्यामूनस्तस्यार्द्ध नवमुहुर्ता एकेन एकषष्टिभागने हीनाः, ततः सकलैकषष्टिभाग-करणार्थ नव मुहुर्ता एकषष्ठ्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तत एक रूपमपनीयते, जातानि पञ्चशतान्यष्ट-चत्वारिंशदधिकानि 548, ततोऽस्य द्वितीयस्य मण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि, लक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरमिति 315107, तत्पञ्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, ततोजात एककः सप्तको द्विकः षट्क सप्तकोऽष्टकः षट्कस्त्रियः षट्कः १७२६७८६३६,ततो योजनानयनार्थमेकषष्टः षष्ट्या गुणिताया यावान् - Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1055 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल राशिर्भवति तेन भागो ह्रियते, एकषष्ट्यां च षष्ट्या गुणितायां षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्यधिकानि भवन्ति 3660, तैभागे हृते लब्धं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यथिकं योजनानां, शेषमुरिति चतुस्त्रिंशच्छतानि पण्णवत्यधिकानि 3466, ततोऽस्माद् योजनानि नायान्तीति षष्टिभागानयनार्थं छेदराशिरेकषष्टिर्धियते, तेन भागे हृते लब्धाः सप्तपञ्चाशत्षष्टिभागाः एकस्य च पष्टिभागस्यसत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागा इति। 'तयाण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरानन्तर द्वितीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव-प्रागिववक्तव्ये, ते चैवम्'तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं अहिया' इति से निक्खममाणे' इत्यादि, द्वितीयस्मादपि मण्डलात् ससूर्यः प्रागुक्तप्रकारेण निष्क्रामन् नवस्य संवत्सरस्य सत्के द्वितीयेऽहोरात्रे 'अभितरतचं ति-- सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, 'ता जया ण' मित्यादि तत्र यदा सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे योजनशते द्विपञ्चाशे द्विपञ्चाशदधिके पञ्च च षष्टिभागान् योजनस्य 5252-4/60 एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिन्मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षणानि पञ्चदशसहस्राणि शतमेकं पञ्चविंशत्यधिकम् 315125, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भागो हियते, लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणम्, अथवा-पूर्वमण्डलमुहूर्तगतिपरिमाणादस्मिन् मण्डले मुहूर्त्तगतिपरिमाणचिन्ताया प्रागुक्तयुक्तिवशादष्टादश एकषष्टिभागा योजनस्याधिका प्राप्यन्ते, ततस्तत्प्रक्षेपे भवति यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणम् / अत्रापिदृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह- 'तया ण' मित्यादि, तदासर्वाभ्यन्तरानन्तरतृतीयमण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहरीः षण्णवत्या च योजनैस्त्रयस्त्रिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्काभ्यां द्वाभ्यां चूर्णिकाभागाभ्याम् 47066-33/60-2/61 सूर्यश्चक्षुस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसोऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणश्चतुर्भिमुहूर्तकषष्टिभागैरूनस्तयार्द्ध नवमुहूर्ता द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यां हीनाः ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं नवापि मुहूर्त्ता एकषष्ट्यागुण्यन्ते, गुणयित्वा च द्वावेकषष्टिभागौ तेभ्योऽपनीयेते ततो जाता एकषष्टिभागाः पञ्चाशतानि सप्तचत्वारिंशताऽधिकानि 547, ततोऽस्य तृतीयमण्डलस्य यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदशसहस्राणि शतमेकं पञ्चविंशत्यधिकमिति 215125, तत्पञ्चभिः शतैः सप्तचत्वारिंशदधिकैर्गुण्यते, जाताः सप्तदश कोटयस्त्रयोविंशतिः शत सहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्च सप्तत्यधिकानि 172373375, एतेषामेकषष्ट्या षष्ट्या गुणितया 3660 भाग्मे हियते, लब्धानिसप्तच-त्वारिंशत्सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि 47066, शेषमुद्रति विंशतिशतानि पञ्चदशोत्तराणि 2015, ततोस्माद्योजनानि नायान्तीति षष्टिभागानयनार्थं छेदशिरेकषष्टिधियते, तेन भागे हृते लब्धास्त्रयस्त्रिंशत्षष्टिभागाः 33/10 एकस्य च षष्टिभागस्य सत्कौ द्वाचेकषष्टिभागौ 2/51 'तया ण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरतृतीयमण्डलचारचरणकाले दिवसरात्री तथैव प्रागिय वेदितव्ये, ते चैवम्- 'तया णं' अट्ठार समुहुत्ते दिवसे हवइ, चउहिं एगविभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइचउहिं एगट्ठिभागमुहत्तेहि अहिया' इति, सम्प्रति चतुर्थादिषु मण्डलेष्वतिदेशमाह- ‘एवं खल्वि' त्यादि, एवम्-उक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेन-अनन्तरोदितेनोपायेन शनैः शनै-स्तद्वहिर्मण्डलाभिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण संक्रामन् संक्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र सूत्रे द्वितीया सप्तम्यर्थे प्राकृतत्वाद् भवति प्राकृतलक्षणवशात् सप्तम्यर्थे द्वितीया, यथा- 'कत्तो रत्तिं मुद्धे ! पाणियसद्धासउणयाण' मित्यत्र ततोऽयमर्थः मुहूर्तगतौ अष्टादश अष्टादश षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः किञ्चिदूनानभिवर्द्धयमानः 2 'पुरिसच्छाय' मिति पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्ताता, अत्रापि द्वितीयां सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः- तस्यामेकैकस्मिन् मण्डले चतुरशीतिः 2, 'सीयाई ति-शीतानि किञ्चिन्न्यूनानीत्यर्थः, योजनानि निर्वेष्टयन् निर्वेष्टयन्- हापयन्नित्यर्थः, इदं च स्थूशत उक्तं, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यम् त्र्यशीतिर्योजनानित्रयोविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्तताविषये विषयहानौ ध्रुवं, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलातृतीयं यन्मण्डलं तत आरभ्य यस्मिन् यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातुमिष्यते तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा--सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीये मण्डले एकेन चतुर्थे द्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्यावत् सर्वबाह्ये मण्डले द्व्यशीत्यधिकेन शतेन, गुणयित्वा च ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते सति यद्भवति तेन हीना पूर्वमण्डलगता दृष्टिपथप्राप्तता-यस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता द्रष्टव्याः, अथ त्र्यशीतियोजनानीत्यादिकस्य ध्रुवराशेः कथमुत्पत्तिः ? उच्यते-- इह सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथ प्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य 47263-21/60, एतच नवमुहूर्तगम्यम्, तत एकस्मिन् मुहूर्तकषष्टिभागे किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, जातानि पञ्च शतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि 546, तैर्भागो हियते, लब्धा षडशीयोजनानि पञ्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य एकषष्टिधा छिन्नस्य सत्काश्चतुर्विशतिभागाः 86-5/60124/61 / पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् च मण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादश अष्टादशयोजनानिव्यवहारतः परिपूर्णानिवर्द्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्ड लगतमुहूर्तगतिपरिमाणादयन्तरानन्तरे मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणचिन्तायां प्रतिमुहूर्तमष्टादशाष्टादश षष्टिभागा योजनस्य प्रवर्द्धमाना द्रष्टव्याः, प्रतिमुहूर्तकषष्टिभागंचाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्यसत्का एकषष्टिभागाःस Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल वाभ्यन्तरानन्तरे च द्वितीये मण्डले सूर्यो दृष्टिपथप्राप्तो भवति एकादशषष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षट् नवभिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागेनोनैर्यावन्मात्रं क्षेत्र व्याप्यते तावति स्थितस्ततो एकषष्टिभागाः 85-11/60 / 6/61 // इह षट्त्रिशत एवमुत्पत्तिः-- नव मुहूर्ता एकषट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तेभ्य एक रूपमपनीयते, पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् मण्डलादनन्तरेऽनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां 2 जातानिपञ्च शतानि अष्टाचत्वारिंशदधिकानि 548, तैरष्टादश गुण्यन्ते, गुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यां हीनो भवति, प्रतिमुहूर्तेकषष्टिभागं चाष्टादश एकस्य जातान्यषष्टनवतिः शतानि चतुःषष्टिसहितानि 1864, तेषां षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा हीयन्ते, तत उभयमीलने षट्त्रिंशदषष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धमेकषष्ट्यिधिकं शतं. वति, ते चाष्टादशएकषष्टिभागाः कलया न्यूना लभ्यन्तेन परिपूर्णाः, परं षष्टिभागानां त्रिचत्वारि-शदेकषष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा 161/ व्यवहारतः पूर्वं परिपूर्णा विवक्षिताः, तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं 60 / 43/61 तत्र विंशत्यधिकेन षष्टिभागशतेन द्वे योजने लब्धे भवेत् यदा घ्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते पश्चादेकचत्वारिंशत्षष्टिभागा अवतिष्ठन्ते, एतच्च द्वे योजने एकचत्वारिं- तदा एकषष्टिरेकषष्टिभागास्त्र्युट्यन्ति, एतदपि व्यवहारतः उच्यतेशत्षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंश परमार्थतः पुनः किञ्चिदधिकमपि त्रुट्यदवसेयं, ततोऽमी अष्टषष्टिरेकदेकषष्टिभागा इत्येवंरूप प्रागुक्तात् षडशीतियोजनानि पञ्च षष्टिभागा षष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पञ्चाशीतिर्योजनानि नव षाष्टभागा योजनस्य एकषष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्मा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागास्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 85-6/ च्छोध्यते, शोधिते च तस्मिन् स्थितानि पश्चात् त्र्यशीतिर्योजनानि 60 / 60/61 / इति जातं, ततः सर्वबाह्यमण्डलानन्तराक्तिनत्रयोविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वा द्वितीयमण्डलतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणदेकत्रिंशत्सहस्राणि नव रिंशदेकषष्टिभागाः 83-33/60 / 42/61 / एतावद् द्वितीये मण्डले शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्षष्टिभागा योजनस्य दृष्टिपथप्राप्तताविषये सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरि एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काःषष्टिरेकषष्टिभागाः 31616-36/60 / माणात् हानौ प्राप्यते, किमुक्तं भवति ? सर्वाभ्यन्तरमण्डलगतात् 60/61 / इत्येवंरूपात् शोध्यन्ते, ततो यथोक्तं सर्वबाह्ये मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततायां हानौ ध्रुवम्, अत एव ध्रुवराशिपरिमाणात् द्वितीये दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चाने स्वयमेन सूत्रकृद् वक्ष्यति, ततः मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमेतावता हीनं भवतीति, एतच्चोत्त एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां द्वितीयादिषु केषुचिन्मण्डलेषु रोत्तरमण्डलविषयदृष्टिपथप्राप्तताचिन्तायां हानौ, ध्रुवम्, अत एव चतुरशीतिं चतुरशीति किञ्चिन्न्यूनानि योजनानि उपरितनेषु तु ध्रुवराशिरितिध्रुवराशेरुत्पत्तिः, ततो द्वितीयस्मान् मण्डलादनन्तरेतृतीये मण्डलेष्वधिकानि अधिकतराणि उक्तप्रकारेण निर्वेष्टयन् निर्वेष्टयन् मण्डले एष एव ध्रुवराशि: एकस्यषष्टिभागस्य सत्कैः षट्त्रिंशतैकषष्टिभागः तावदवसेयं यावत्सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, "ता जया ण' सहितः सन् यावान् भवति, तद्यथा-त्र्यशीतिर्योजनानि चतुर्विशतिः मित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत्, सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति षष्टिभागा योजनस्य सप्तदश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा तदा एकैकेन मुहूर्तेन पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि त्रीणि पञ्चदश च इति, एतावान् द्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते, ततो भवति यथोक्तं तस्मिन् तृतीये मण्डले दृष्टिपथप्राप्तताविषयं परिमाणं, षष्टिभागान् योजनस्य 5305- 15/60 गच्छति, तथाहि-अस्मिन् चतुर्थे मण्डलेस एव धुवराशिासप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थं हिमण्डलं मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनसहस्राणि अष्टादश सहस्राणि त्रीणि तृतीयापेक्षया द्वितीयं, ततः षट्त्रिंशद्वाभ्याम् गण्यते, गुणिता च सती शतानि पञ्चदशोत्तराणि-३१८३१५, तत एतस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् द्विसप्ततिर्भवति, तया च सहितः सन एवरूपो जातस्त्र्यशीतिर्योजनानि षष्ट्या भागो हियते, ततो लब्धं यथोक्तमत्र मुहूर्त-गतिपरिमाणमिति, चतुर्विशतिः षष्टिभागा योजनस्य त्रिपञ्चाशदेकस्य षष्टिभागस्य सत्का अत्रैव दृष्टिपथप्राप्तता-परिमाणमाह-'तयाण' मित्यादि, तदासर्वबाह्यएकषष्टिर्भागाः 63-24/60153/61 / एतावान् तृतीयमण्डलगतात् मण्डलचारकाले इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनमिहगतानां दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् शोध्यते, ततो यथावस्थितं चतुर्थे मण्डले मनुष्याणां एकत्रिंशता योजन-सहस्ररष्टभिरेकत्रिंशदधिकोजनदृष्टिपथिप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चेदम्- 'सप्तचत्वारिंशद्योजनस शतैस्त्रिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य 31831-30/60 सूर्यः शीघ्र हस्राणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तदा ह्यस्मिन् मण्डले चारं चरति सूर्य द्वादशषष्टिभागस्य सत्का दश एकषष्टिभागाः 47013 -8/61 / 10/61 / मुहुर्तप्रमाणो दिवसो भवति, दिवसस्य चार्द्धन यावन्मानं क्षेत्रं व्याप्यते सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया द्वयशीत्यधिकशततमे यदा तावति व्यवस्थित उदयमानः सूर्य उपलभ्यते, द्वादशानां च मुहुर्तानामर्द्ध दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा साट्त्रिंशत् व्यशीत्यधिकेन षट्मुहुर्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहुर्तगतिपरिमाणं पञ्चं योजनसहस्राणि त्रीणि शतेन गुण्यते, जातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि 6552, शतानि पञ्चोत्तराणि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य 5305-15/60 तत् ततः षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो हियते, लब्धं सप्तोत्तरं शतं षभिर्गुण्यते,ततोयथोक्तसदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणंभवति,अत्रापि दिवसषष्टिभागानाम् 107, शेषाः पञ्चविंशतिरेकषष्टिभागा उदरन्ति 25, एतत् रात्रिप्रमाणमाह-'तया ण' मित्यादि, सुगमम्। 'से पविसमाणे' इत्यादि, ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते, ततो जातमिदं-पञ्चाशीतियों जनानि | ससूर्यः सर्वबाह्यमण्डलादुक्तप्रकारेणाभ्यन्तरंमण्डलं प्रविशन् द्वितीयं ष Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1057 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल एमासमाददानो द्वितीयस्य षण्मासस्य प्रथमेऽहोरात्रे 'बाहिरानंतरं तिसर्वबाह्यान्मण्डलादनन्तरभक्तिनं द्वितोयं मण्डलमुपसंक्रम्यचारंचरति 'ता जया णं' मित्यादि, तत्र यदा सर्वबाह्यानन्तरमक्तिनं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकेन मुहूर्तेन योजनशतानि सप्तपञ्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्य 5304-57/60 गच्छति, तथाहि--अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिस्रो लक्षाअष्टादश सहस्राणि वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानाम् 318267, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भागो हियते, हृते च भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणम्, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-'तया ण' मित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्य- जातावेकवचनम् इहगताना मनुष्याणामेकत्रिंशता योजनसहौनेवभिः षोडशैः षोडशोत्तरैोजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्यएकंचषष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैः षष्ट्या चूर्णिकाभागैः सूर्यश्चक्षुस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामधिकः, तेषां चार्ट्स षट् मुहूर्ता एकेन मुहूर्त्तकषष्टिभागेनाभ्यधिकाः, ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं षडपि मुहूर्त्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च एकषष्टिभागस्तत्राधिकः प्रक्षिप्यते ततो जातानि त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि एकषष्टिभागानां 367, ततः सर्वबाह्यादक्तिने तस्मिन् द्वितीये मण्डले यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके 318297, तदेभिस्त्रिभिः शतैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, जाता एकादश कोटयोऽष्टषष्टिलक्षाश्चतुर्दश सहस्राणि नव शतानि नवनवत्यधिकानि 116814666, एतस्य एकषष्ट्या गुणितया षष्ट्या 3660 भागो हियते, हृते च भागे लब्धान्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि 31616, शेषमुद्वरति चतुर्विशतिः शतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि 2436, नचातो योजनान्यायान्ति ततः षष्टिभागानयनार्थः मेकषष्ट्या भागो व्हियते, लब्धा एकोनचत्वारिंशत्षष्टिभागाः 36 एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 60/61 'तया णं राइंदियं तहेव' तदासर्वबाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयमण्डलयोश्चारकाले रात्रिन्दिवम्-रात्रिदिवसप्रमाणं तथैव- प्रागिव वक्तव्यम्, तचैवम्- 'तया णं अट्ठारसमुहत्ता राई भवति दोहि एगविभागमुहुत्तेहि *णो, दुवालसमुहुत्ते दिवसे हवइ दोहि एगविभागमुहुत्तेहि अहिए' इति, ‘से पविसमाणे' इत्यादि, ततः सर्वबाह्यानन्तराक्तिनद्वितीयस्मादपि मण्डलादुक्त-प्रकारेण प्रविशन् सूर्यो द्वितीयस्य षण्मासस्य द्वितीयंऽहोरात्रे 'बाहिरतचं ति-सर्वबाह्यान्मण्डलादेक्तिनं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता जया ण' मित्यादि, तत्र यदा णमिति पूर्ववत् सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिनं तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुतराणि योजनशतानिएकोन-चत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य 5304-66/60 एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तस्मिन् हि मण्डले परिरय- | परिमाणं तिम्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनोशीत्यधिके इति 318276, अस्य षष्ट्या भागो हितये हृते च भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणम्, अत्रापि हि दृष्टिपथप्राप्तताविषयपरिमाणमाह'तयाण' मित्यादि, तदा इहगतस्य मनुष्यस्यजातावेकवचनस्य भावादिहगतानां मनुष्याणामेकाधिकै भत्रिंशता सहस्ररेकोनपञ्चाशता षष्टिभागैरेकं च षष्टिभागमेकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैस्त्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः सूर्यः चक्षुःस्पर्श मागच्छति, तथाहि- अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणश्चतुभिरिकषष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्ध षट् मुहूर्ता द्वाभ्यां मुहूर्त कषष्टिभागाभ्यामधिकाः, ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं षडपि मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, गुणयित्वा च द्वावेकषष्टिभागौ प्रक्षिप्येते, ततो जातानि त्रीणि शतान्यष्टषष्ट्यधिकान्येकषष्टिभागानाम्, 368, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाण्यष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके 318276 इति, तदेभिस्त्रिभिः शतैरष्षष्ट्यधिकैर्गुण्यते, जाता एकादशः कोट्यः एकसप्ततिः शतसहस्राणि षड्विशतिः सहस्राणि षट् शतानि द्विसप्तत्यधिकानि 117126672, एतस्यषष्ट्या एकषष्ट्या गुणितया 3660, भागो हियते, हृतेच भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि 32001, शेषमुद्दति त्रीणि सहस्राणि द्वादशोत्तराणि 3012, तेषां षष्टिभागानयनार्थमेकषष्टिधा भागो हियते, लब्धा एकोनपञ्चाशत्षष्टिभागाः 46/60 त्रयोविंशतिश्च एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागा 23/61 इति, रतिंदियं तहेव' त्ति-रात्रिन्दिवरात्रिदिवसपरिमाणमत्र तथैव-प्रागिव वक्तव्यम्, तचैवम्-- 'तया णं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा, दुबालसमुहुत्ते दिवसे हवइ चउहिं एगट्ठिभागमुहूत्तेहि अहिए' इति। सम्प्रति सर्वबाह्यान्मण्डला-दक्तिनेषु चतुरादिषुमण्डलेषु अतिदेशमाह- ‘एवं खल्वि' त्यादि एवम्- उक्तेन प्रकारेण' खलु' निश्चितमेतेनोपायेन शनैः शनैस्तत्तदभ्यन्तरानन्तरमण्डलाभिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र द्वितीया सप्तम्यर्थे मुहूर्तगतौ-मुहूर्तगतिपरिमाणे अष्टादश अष्टा षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः किश्चिदूनानिर्वेष्टयन् २-हापयन् २इत्यर्थः, पूर्वपूर्वमण्डलापेक्षया अभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलस्य परिरयमधिकृत्याष्टादशभिर्योजनहीनत्वात्, पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया सप्तम्यर्थे, ततोऽयमर्थः-पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां सातिरेकाणि पञ्चाशीतिः पञ्चाशीतिः योजनानि अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन्, इदंच सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिनानि कतिपयानि प्रथमद्वितीयादिमण्डलान्यपेक्ष्य स्थूलत उक्तम्, परमार्थतः पुनरेवं द्रष्टव्यम्- इह येनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो दृष्टिपथप्राप्ततां हापयन् विनिर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिनेषुमण्डलेषुदृष्टिपथप्राप्ततामभिवर्द्धयन् प्रविशति, 'तत्र सर्वबाह्यमण्डलाक्तिनद्वितीयमण्डलगतात्दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् सर्वबाह्यमण्डले पञ्चाशीतिर्योजनानि नवषष्टिभागान्, योजनस्य एकं [. Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1058 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल चषष्टिभागमेकषष्टिधा छित्वा तस्य सत्कान्षष्टिभागान् हापयति, एतच प्रागेव भावितं, ततस्तस्मात्सर्वबाह्यान्मण्डलादक्तिने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणेऽभिवर्द्धयति ध्रुवं, ततोऽक्तिनेषुमण्डलेषु यस्मिन् यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यतेतत्रतत्रतृतीयमण्डलादारभ्य तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-- तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेन चतुर्थमण्डलचिन्तायां द्वाभ्याम्, एवं यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलचिन्तायां ह्यशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यल्लभ्यते, तद् ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना सहितं पूर्वपूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्रतत्रमण्डले द्रष्टव्यं, तद्यथा-तृतीये मण्डले षट्त्रिंशद् एकेन गुण्यते एकेन च गुणितं तदेव भवतीति जाता षट्त्रिंशदेव, सा धुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं पञ्चाशीतिर्यो जनानि नव षष्टिभागायोजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाश्चतुर्विशतिः 85-6/60 / 24/61 / एतेन सहितं पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणत्, एकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामेकोनचत्वारिंशत्पष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 31616-36/60 / 60/61 / इत्येवंरूपं क्रियते, ततोऽधिकृते तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच प्रागेवोपदर्शितं, चतुर्थे मण्डले षट्त्रिंशद्वाभ्यां गुण्यते, गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवतिद्वात्रिंशत्सहस्राणि षडशीत्यधिकानियोजनानामटापञ्चाशचषष्टिभागा योजनस्य एकस्य चषष्टिभागस्य सत्काएकादशैकषष्टिभागाः 32086 / 58/60 / 11/61 / एवं शेषेष्वपि मण्डलेषु भावनीयं, यदा तु सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा षट्त्रिंशद् ढ्यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य, सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य द्व्यशीत्यधिकशततमत्वात्, ततो जातानिपञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि६५५२, तेषामेकषष्ट्या भागे हृतेलब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां, शेष पञ्चविंशतिः 107/60 / 25 | एतत्पञ्चाशीतिर्योजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागा: 85/6/60 / 60/61 / इत्येवंरूपात्ध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चात् त्र्यशीतिर्योजनानि द्वाविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः पञ्चत्रिंशदेकषष्टिभागाः, इह षत्रिंशत् 2 एकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते एतच प्रागेवोक्तं, तच कलान्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत्यदा व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागालभ्यन्ते, ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्तेततो जातमिदम् त्र्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 83123/60/42/61 / एतेषु सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेकोनाशीत्यधिक योजनानां सप्तपञ्चाशत् षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकोनविंशतिरेकषष्टिभागाः 47176 / 57/60 / 16/61 / इत्येवंरूपं सहितं क्रियते ततौ यथोक्तं सर्वाभ्यन्तरे मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्च सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिशष्ट्याधिके योजनानामेकविंशतिश्च षष्टिभागा योजनस्य 47263 / 21/61 एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु मण्डलेषु सातिरेकाणि पञ्चाशीति योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीति पर्यन्ते यथोक्ताऽधिकसहितानि त्र्यशीति योजनानि अभिवर्द्धयन् अभिबर्द्धयन् तावद् वक्तव्यः यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति 'ता जया ण' मित्यादि तत्र यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे एकपञ्चाशदधिके योजनशते एकोनत्रिं-शतं च षष्टिभागान् योजनस्य 5251 / 16/60 एकेन मुहूर्तेन गच्छति, तदाच इहगतस्य मनुष्यस्यजातावेकवचनम् इहगतानां मनुष्याणां सप्तचत्वारिंशता योजनसहस्राभ्यां त्रिषष्टाभ्यां त्रिषष्ट्यधिकाभ्यां योजनशताभ्यामेकत्रिंशत्या षष्टिभागैर्योजनस्य 47263 121/60 सूर्यश्चक्षुः स्पर्शमागच्छति, एतच मुहूर्त-गतिपरिमाणं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं च प्रागेवभावितम्, सूत्रकृताऽपि प्रस्तावाद्भूय उक्तम्, ततो न पुनरुक्ततादोषः 'तयाणं उत्तमकट्ठपत्ते' इत्यादि सुगम, यावत्प्राभृतप्राभृतपरिसमातिः / सू०प्र०२ पाहु० ज०। अथाऽत्र गतिप्रश्नाय सूत्रम्जया णं भंते ! सूरिए अभंतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं परति तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइअं खेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साई दोण्णि अएगावण्णे जोयणसए सीआलीसंच सट्ठिभागे जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं एगूणासीए जोअणसए सत्तावण्णाए अ सहिभाएहिं जोअणस्स सट्ठिभागं च एगसट्टिधा छेत्ता एगूणवीसाए चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ, से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि अभंतरतचं मंडलं उवसंकमित्तां चारं चरइ। (सू०१३३+) "जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सर्वाभ्यनतरानन्तरं द्वितीयं दक्षिणायनापेक्षया आद्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारचरति तदा एकैकेन मुहुर्तेन कियत्क्षेत्रं गच्छति ? गौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि द्वे चैकपञ्चाशे योजनशते सप्तचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहुर्तेन गच्छति, कथमिति चेत्, उच्यते-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि योजनलक्षाणि पञ्चदश सहस्राणि शतमेकं सप्तोत्तरं व्यवहारतः परिपूर्ण निश्चयमतेन तु किञ्चिदून 315107, ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भागे लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहुर्तगतिप्रमाणम् 5251147/60 अथवा-पूर्वमण्डलपरिरयपरिमाणादस्य परिरयपरिमाणे व्यवहारतः पूर्णान्यष्टादश योजनानि वर्द्धन्ते निश्चयमतेन तु किञ्चिदूनानि, अष्टादशानां योजनानां षष्ट्या मागे लब्धा अष्टादश षष्टिभागायोजनस्य ते प्राक्तनमण्डलगतमुहूर्त्तगति परिमाणेऽधिकत्वेन प्रक्षिप्यन्ते, ततो Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल १०५६-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल भवति यथोक्तं तत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणमिति, अत्रापि दृष्टिपथ- माणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभागे जोअणस्स एगमेगे मंडले प्राप्तताविषयं परिमाणमाह-यदा अभ्यन्तरद्वितीये मण्डले सूर्यश्वरति मुहुत्तगई अभिवड्डेमाणे अभिवमाणे चुलसीइं चुलसीइंसआई तदा इहगतस्य मनुष्यस्य-जातावेकवचनमित्यत्र गतानां मनुष्यानां जोअणाई पुरिसच्छायं णिव्वुद्धेमाणे णिव्वुद्धमाणे सव्वबाहिरं सप्तचत्वारिंशता योजनसहौरेकोना-शीत्यधिकेन योजनशतन सूत्रे मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ / (सू०१३३४) तृतीयार्थे सप्तमी प्राकृतत्वात्, सप्तपञ्चाशता च षष्टिभागैर्योजनस्य ‘से णिक्खममाणे सूरिए दोचंसि' इत्यादि, अथ निष्क्रामन् सूर्यो षष्टिभागं च एकषष्टिधा छित्त्वा- एकषष्टिखण्डान् कृत्वा एकषष्टिधा द्वितीयेऽहोरात्रे प्रस्तुताऽयनापेक्षया द्वितीयमण्डल इत्यर्थः अभ्यन्तरं गुणयित्वेत्यर्थः, तस्य सत्कैरेकोनविंशत्या चूर्णिकाभागैः- भागभागैः तृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन महर्तेन क्रियत् क्षेत्रं सूर्यश्चक्षुः स्पर्शमागच्छति, तथाहि-सर्वाभ्यन्तरानन्तरे द्वितीये मण्डले गच्छति? भगवानाह-गौतम ! पञ्चपञ्च योजनसहस्राणि द्वे च द्विपश्चादिवसप्रमाणं द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यां हीना अष्टादश मुहूर्तास्तेषामर्द्ध शद्योजनशते पञ्चदश षष्टिभागान् योजनस्यैकेकेन मुहुर्तेन गच्छति, इदं नव मुहूर्त्ता एकेनैकषष्टिभागेन हीनास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थ चप्रस्तुतमण्डलपरिरयस्यषष्ट्या भजने संवादमादत्ते, तदाच इहगतस्य नवापि मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते, तेभ्य एकषष्टि भागोऽपनीयते, ततः मनुष्यस्य सप्तचत्वारिंशता'योजनसहौः षण्णवत्या च योजनैस्त्रिंशता शेषा जाता एकषष्टिभागाः पञ्च शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि 548, च षष्टिमागैर्योजनस्य षष्टिभागं चैकम् एकषष्टिधा छित्त्वा द्वाभ्यां प्रस्तुतमण्डले मुहूर्तगतिः 5211 योजनानि 47/60 अयं च राशिः चूर्णिकाभागाभ्यां सूर्यश्चक्षुःस्पर्श हव्वं' शीघ्रमागच्छति, तथाहि-अत्र षष्टिच्छेद इतियोजनराशिं षष्ट्या गुणयित्वा सवर्ण्यतेजातम् 315107, मण्डले दिनप्रमाणमष्टादश मुहुर्तोश्चतुभिरकषष्टि-भागै नास्तेषामर्द्धच अयमेव राशिः करणविभावनायां मलयगिरीयक्षेत्रसमासवृत्तौ च परिधि- नव द्वाभ्यामेकषष्टिभागा हीनास्ततः साभस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं राशिरिति कृत्वा दर्शितो लाघवात् भाज्यराशिलब्धस्य भाजकराशिना नवापि मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते तेभ्यश्च द्वावेकषष्टिभागावपनीयेते शेषाः गुणने मूलराशेरेव लाभात्, एष राशिः पञ्चभिः शतैरष्टाचत्वारिंशद- पञ्च शतानि सप्तचत्वारिंशदधिकानि 547, प्रस्तुतमण्डले मुहूर्त्तगतिः धिकैर्गुण्यते जाताः सप्तदशकोट्यः षड्विंशतिर्लक्षाः अष्टसप्ततिः 5252 / 15/60 / इत्येवंरूपां योजनराशिं षष्ट्या गुणयित्वा सवर्ण्यते सहस्राणि षट् शतानि षट्त्रिंशदधिकानि 172678636, अयं च जातम्, 315125, अयमेव राशिरन्यैः परिधिराशित्वेन निरूपितः, राशिभर्भागभागात्मकत्वान्न योजनानि प्रयच्छतीति एकषष्टेः षष्ट्या अस्य च सप्तचत्वारिंशदधिकपञ्चशतैर्गुणने जाताः सप्तदशकोट्यस्त्रयोगुणिताया यावान् राशिर्भवति तेन भागो व्हियते इयं च गणितप्रक्रिया- विंशतिः सतराहस्राणि त्रिसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चसप्तव्यलाधवार्थिका अन्यथाऽस्य राशेरेकषष्ट्या भागे हृते षष्टिभागा लभ्यन्ते धिकानि 172373375, एतेषां षष्टिगुणितया एकषष्ट्या 3660 भागे तेषां च षष्ट्या भागे हृते योजनानि भवन्तीति गौरवं स्यात् एकषष्ट्यां च हृते आगतानि सप्तचत्वारिंशत् सहस्राणि षण्णवत्यधिकानि 47066, षष्ट्या गुणितायां षट्त्रिंशच्छतानि षष्ट्याधिकानि 3660, तैगैिर्हते शेषं विंशतिशतानि पञ्चदशोत्तराणि 2015, छेदराशेः षष्ट्याऽपवर्तनायां आगतं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकमेकोनाशीत्यधिकं योजनानाम् जात एकषष्टिः तया शेषराशेजने लब्धास्त्रयस्त्रिंशत् षष्टिभागाः 33/ 47176, शेष 3466, छेदराशेः षष्ट्याऽपवर्त्तना क्रियते जाता एकषष्टिः 60 शेषौ च द्वावेकस्य षष्टिभागस्य सत्कावेकषष्टिभागौ 2/61 इति / 61 तथा शेषराशेर्भागो हियते लब्धाः सप्तपञ्चाशत् षष्टिभागाः 57/60 सम्प्रति चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह- ‘एवं खलु एतेणं उवाएण' एकोनविंशतिश्चैकस्य षष्टिभागस्य सत्काः एकषष्टिभागाः 16/61 मित्यादि, एवम्- मण्डलत्रयदर्शितरीत्या खलुनिश्चितमेतेनानन्तरोअथाभ्यन्तरतृतीयमण्डलस्य चारं पिपृच्छिषु दितेनोपायेन शनैः शनैस्तत्तद्गहिर्मण्डला-भिमुखगमनरूपेण निष्क्रामन् राद्यसूत्रं सूत्रयति सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरं मण्डलं प्रागुक्तप्रकारेण संक्रामन् जया णं भंते ! सूरिए अब्भंतरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं २एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया चरइ, तया णं एगमेगंण मुहुत्तेणं के वइ खेत्तं गच्छइ ? | तेन मुहूर्तगतौ अष्टादश अष्टादश षष्टिभागान् योजनस्य व्यवहारतः गोअमा!पंच पंच जोअणसहस्साइंदोण्णि अबादण्णे जोअणसए परिपूर्णानः निश्चयतः किञ्चिदूनान् अभिवर्द्धयमानः चतुरशीति पंच य सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं चतुरशीतिं योजनानि शीतानि- किञ्चिन्न्यूनानि 'पुरिसच्छाय' इहगयस्स मणूसस्स सीआलीसाए जोअणसहस्सेहिं छण्णउइए मिति-पुरुषस्य छाया यतो भवति सा पुरुषच्छाया सा चेह प्रस्तावात् जोअणेहि तेत्तीसाए सद्विभा गेहिं जोअणस्स सहिभागं च प्रथमतः सूर्यस्योदयमानस्य दृष्टिपथप्राप्तता, अत्रापि सप्तम्यर्थे एगसहिधा छेत्ता दोहिं चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं द्वितीया, ततोऽयमर्थः- तस्या निवर्द्धयन् 2- हापयन् हापयन, हव्वमागच्छति, एवं खलु एतेणं उवाएणं णिक्खममाणे सूरिए कोऽर्थः ? पूर्वं पूर्व मण्डलसत्कपुरुषच्छायातो बाह्यबाह्यमण्डलपुरूषच्छाया तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकम- किञ्चिन्यूनैश्चतुरशीत्या योजनहींना' इत्यर्थः, सर्वबाह्यमण्डलमुप Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल १०६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल संक्रम्य चारं चरति, यचात्रोक्तम् 84 योजनानि किञ्चिन्न्यूनानि उत्तरोत्त- | रमण्डलसत्कपुरुषच्छायायां हीयन्ते इति तत्स्थूत उक्तम्, परमार्थतः पुनरिदं द्रष्टव्यम्-त्र्यशीतिर्योजनानि त्रयोविंशतिश्च षष्टिभागाः योजनस्य / एकस्य षष्टिभागस्य एकषष्टिधाच्छिन्नस्य सत्का द्विचत्वारिंशद्भागाश्चेति दृष्टिपथप्राप्तताविषये हानौः ध्रुवं, ततः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात् तृतीयं यन्मण्डलं ततः आरभ्य यस्मिन् मण्डले, दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातुमिष्यते तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्तृतीये मण्डले एकेन चतुर्थेद्वाभ्यां पञ्चमे त्रिभिर्यावत् सर्वबाह्यमण्डले, व्यशीताधिकशतेन गुणयित्वा ध्रुवराशिमध्ये प्रक्षिप्यते, प्रक्षिप्ते, सति यद्भवति तेन हीना पूर्वमण्डलसत्कदृष्टिपथप्राप्तता तस्मिन् विवक्षिते मण्डले दृष्टिपथप्राप्तता ज्ञातव्या, अथ त्र्यशी-तियोजनादिकस्य ध्रुवराशेः कथमुपपत्तिः ? उच्यते- सर्वाभ्यन्तरमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणे सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशते त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकविंशतिश्चषष्टिभागा योजनस्य 47263 / 21/61, एतच नवमुहूर्तगम्यं तत एकस्मिन् मुहूर्तेकषष्टिभागे किमागच्छतीति चिन्तायां नव मुहूर्ता एकषष्ट्यां गुण्यन्ते जतानि पञ्चशतान्येकोनपञ्चाशदधिकानि ५४६.तैर्भाग हृते लब्धानि षडशीतिर्योजनानि पञ्च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्यैकषष्टिधाछिन्नस्य चतुर्विशतिर्भागाः 86 / 5/60 / 24/ 61 / इदं च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले एकस्य मुहूर्तेकषष्टिभागस्य गम्यत्, अथ द्वितीयमण्डलपरिरयवृद्ध्यङ्कभजनाद्यल्लभ्यते मुहूर्त्तकषष्टिभागेन तच्छोधनार्थमुपक्रम्यते, पूर्वपूर्वमण्डलादनन्तरानन्तरे मण्डले परिरयपरिमाणचिन्तायामष्टादशाष्टादश योजनानि व्यवहारः परिपूर्णानि वर्धन्ते, ततः पूर्वपूर्वमण्डलगतमुहूर्त्तगतिपरिमाणादनन्तरानन्तरे मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणचिन्तायां प्रतिमुहूर्त्तमष्टादशप्रतिमुहूर्तमष्टादश षष्टिभागा योजनस्य वर्द्धन्ते, प्रतिमुहूर्तकषष्टिभागं चाष्टादशैकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाः, सर्वाभ्यन्तरानन्तरेच द्वितीयमण्डले नवमुहूत्तरेकेन मुहूर्त्तकषष्टिभागेनोनैर्यावत् क्षेत्र व्यायते तावति स्थितः सूर्योदृष्टिपथप्राप्तो भवति ततो नव मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते जातान्यष्टानवतिशतानि चतुषष्ठ्यधिकानि 1864, तेषां षष्टिभागानयनार्थमकषष्ट्या भागो हियते लब्धमेकषष्ट्यधिकं शतं षष्टिभागानां त्रिचत्वारिंशत् षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागाः 161 / 43/61, शेषा एकत्वारिंशत् षष्टिभागाः एकस्य च षष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः, एतच्च द्वेयजनेएकचत्वारिंशत्षष्टि-भागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्कास्त्रिचत्वारिंशदेकषष्टिभागा इत्येवंरूपं प्रागुक्तात् षडशीतियोजनानि पञ्चषष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विशतिरेकषष्टिभागा इत्येतस्माच्छोध्यन्ते, शोधितेचतस्मिन् स्थितानि त्र्यीशीतियोजनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 83 / 32/60 / 42/61 / एतावच सर्वाभ्यन्तरमण्डलगत-दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाद् द्वितीयमण्डलगतदृक्पथप्राप्तता परिमाणं हीनं स्यात्, एतचोत्तरोत्तरमण्डलदृष्टिपथप्राप्तताचिन्ताया हानौ ध्रुवम्, अत एव ध्रुवराशिरित्युच्यते, ततो द्वितीयस्मान् मण्डलादनन्तरे तृतीये मण्डले एष एव ध्रुवराशिरेकस्य षष्टिभागस्य सत्कैः षट्त्रिंशता भागभागैः सहितो यावान् राशिः स्यात्, तथाहि-त्र्यशीतिर्योजनानि चतुर्विशतिःषष्टिभागायोजनस्य सप्तदशचषष्टिभागस्यसत्का एकषष्टिभागा इति तावान् द्वितीयमण्उलगताद् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाच्छोध्यते, ततो भवति, यथोक्तमत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणम्, चतुर्थमण्डले स एव ध्रुवराशिसप्तत्या सहितः क्रियते, चतुर्थं हि मण्डलं तृतीयमण्डलापेक्षया द्वितीयम्, ततः षट्त्रिंशद्वाभ्यां गुणिता द्विसप्ततिः स्यात् तया सहित-स्त्रयशीतयादिको राशिः 83 / 24/60 / 53/61 / इत्येवं स्वरूपो जातः, अयं च तृतीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणाच्छोध्यते ततो यथाविस्थतं तुर्य(४)- मण्उले दृक्पथ-- प्राप्तिमानम्, तचेदम् सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि त्रयोदशोत्तराणि अष्टौ च षष्टिभागा योजनस्य एकस्य च षष्टिभागस्य सत्का दशैकषष्टिभागाः, सर्वान्तिमे तु मण्डले तृतीयमण्डलापेक्षया ट्यशीत्यधिकशततमे यदा दृष्टिपथप्राप्तिजिज्ञासा तदाषत्रिंशद्ह्यशीत्यधिकशतेन गुण्यतेजातानि पञ्चषष्टिशतानि द्विपञ्चाशदधिकानि 6552 ततः षष्टिभागानयनार्थमेकषट्या भागे लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां पञ्चविंशतिरवशिष्टा एतद् ध्रुवराशौ प्रक्षिप्यते जातं पञ्चाशीतिर्योजनाति एकादश षष्टिभागाः योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षडेकषष्टिभागाः 85 / 11/60 / 6/61 / इह षट्त्रिंशतएवमुत्पत्तिः- पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् मण्डलादनन्तरे मण्डले दिवसो द्वाभ्यां द्वाभ्यां मुहूर्त कषष्टिभागाभ्यां हीनः स्यात्, प्रतिमुहूर्त्तकषष्टिभागं चाष्टादश एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकषष्टिभागं हीयन्ते, ततः उभयमीलने षट्त्रिंशत स्युः, ते चाष्टादश भागाः कलयाः न्यूनाः लभ्यन्तेन परिपूर्णाः परं व्यवहारतः पूर्व परिपूर्णा विवक्षिताः, तच्च कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवेत् यदा व्यशीत्यधिकशततममण्डले एकत्र पिण्डितं सत् चिन्त्यते तदा अष्टाषष्टिरेकषष्टिभागास्तुट्यन्ति, एतदपि व्यवहारत उक्तं परमार्थतः पुनः किञ्चिदधिकमपि त्रुट्यदवसेयम्, ततोऽमीअष्टषष्टिरेकषष्टिभागा अपसार्यन्ते, तदपसारणे पञ्चाऽशीतियोजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 85 / 6/60 / 60/61 / इति जातं सर्वबाह्यमण्डलानन्तरार्वाक्तनद्वितीयमण्डलगतदृष्टिपथप्राप्ततापरमाणादेकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानाम्, एकोनचत्वारिंशत्षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 31916 : 36/60 / 60/61 / इत्येवं रूपाच्छोध्यते ततो यथोक्तं सर्वबाह्यमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, तच्चाग्रे स्वयमेव वक्ष्यति, तत एवं पुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां द्वितीयादिषु केषुचिन्मण्डलेषु चतुरशीति किश्चिन्न्यूनानि उपरितनेषुमण्डलेष्वधिकान्यधिकतराणि उक्तप्रकारेणाभिवर्द्धयन् 2 तावदवसेयायावत्सवबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्यचारं चरति, तत्र तु पञ्चाशीति योजनानि साधिकानि हापयतीत्यर्थः, साधि Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1061 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल कत्र्यशीतिचतुरशीतिपञ्चाशीतियोजनानां सम्भवेऽपि सूत्रेयचतुरशीतिग्रहणं तदेहलीप्रदीपन्यायेनोभयपार्श्ववर्तिन्योस्त्र्यशीतिपञ्चाशीत्योग्रहणार्थमिति। अथोक्ते एव मण्डलक्षेत्रे पश्चानुपूर्व्या सूर्यस्य मुहूर्तगत्याद्याहजया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं एगमगेणं मुहुतेणं केवइखेत्तं गच्छइ ? गोयमा ! पंच पंच जोअणसहस्साइंतिण्णि अपंचुत्तरे जोयणसए पण्णरस य सहिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मणुस्सस्स एगतीसाए जोअणसहस्सेहिं अट्ठहि अ एगतीसेहिं जोअणएहिं तीसाए असहिभाएहिं जोअणस्स सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छद त्ति, एस णं पढमे छम्मासे, एस णं पढमस्स छम्मासस्स पज्जपसाणे, से सूरिए दोचे छम्मासे अयमाणे पढमंसि अहोरतसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसकमित्ता चारं चरइ।(सू०१३३४) "जया ण 'मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसक्रम्य चारं चरति तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियते क्षेत्रं पच्छति? गौतम! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि पञ्चोत्तराणि योजनशतानि पञ्चादश षष्टिभागान् योजनस्य 5305 15/60 एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, कथमिति चेत् ? उच्यते अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि 318315 ततोऽस्य प्रागुक्तयुक्तिवशात् षष्ट्या भक्ते लब्धं यथाक्रमत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणमिति अत्र दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह तदा सर्वबाह्यमण्डलचारचरणकाले इहगतस्य मनुष्यस्येतिप्राग्वत् एकत्रिंशता योजनसहस्रैरष्टभिश्चैकत्रिंशदधिकैर्योजनशतैस्त्रिंशता चषष्टिभागैर्योजनस्य 3183130/60 सूर्यः शीघ्रं चक्षु स्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो, दिवसस्यार्द्धन यावन्मात्रं क्षेत्र व्याप्यतेतावति स्थित उदयमानः सूर्यः उपलभ्यन्तेद्वादशानां च मुहूर्तानामर्द्ध षट् मुहूर्तास्ततो यदत्र मण्डले मुहूर्तगतिपरिमाणं पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि शतानि पञ्चोत्तराणि पञ्चदश च षष्टिभागा योजनस्य 5305 १५/६०तत्षड्भिगुण्यते, दिवसार्द्धगुणिताया एव मुहुर्तगतेदृष्टिपथप्राप्तताकरणत्वात्, ततो यथोक्तमत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति, यद्यप्युपान्त्यमण्डलदृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात् पञ्चाशीतिर्योजनानिनवषष्टिभागायोजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः इत्येवं राशौ शोधिते इदमुपपद्यते एतच्च प्राग भावितं तथापि प्रस्तुतमण्डलस्योत्तरायणगतमण्डलानामवधिभूतत्वेनान्यमण्डलकरणनिरपेक्षतया करणान्तरमकारि इदं च सर्वाभ्यन्तरानन्तरमण्डलात् पूर्वामुपूर्व्या गण्यमानं त्र्यशीत्यधिकशततमम्, प्रतिमण्डलंचाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपित्र्यशीत्यधिकशतत मस्तेनाय दक्षिणायनस्य चरमो दिवस इत्याद्यभिधातुमाह 'एसणं पढमे छुम्मासे', 'एसण' मित्यादि,एष चदक्षिणायनसत्कत्र्यशीत्यधिकशतदिनरूपो राशिः प्रथमः षण्मासः-अयनरूपः कालविशेषः, षटसंख्याङ्काः मासाः पिण्डीभूता यत्रेति व्युत्पत्तेरिदं समाधेयम्, अन्यथा प्रथमः षण्मास इत्येकवचनानुपपतिरिति / अथवा-पात्र्यादिगणान्तः पाठात् स्त्रीत्वाभावे अदन्तद्विगुत्वेऽपिन डीप्रत्ययस्तेनैव तत्प्रथमं षण्मासम्, आर्षत्वात् पुंस्त्वम् एतच प्रथमस्य षण्मासम्य दक्षिणायनरूपस्य पर्यवसानम्, अथ सर्वबाह्यमण्डलचारानन्तरं सूर्यो द्वितीयं षण्मासं प्राप्नुवन् गृह्णन् इत्यर्थः, प्रथमे अहोरात्र उत्तरायणस्येति गम्यम् बाह्यानन्तरं पश्चानुपूर्ध्या द्वितीयं मण्डल-मुपसंक्रम्य चारं चरति। अथात्र गत्यादिपश्नार्थ सूत्रमाहजया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकभित्ता चारं चरइतयाणं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइखेत्तं गच्छइ ? गोअमा! पंच पंच जोअणसहस्साई तिण्णि अ चउरुत्तरे जोअणसए सत्तावण्णं च सट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्समणुस्सरस एगत्तीसाए जोअणसहस्सेहि एवहि अ सोलसुत्तरेहिं जोअणसएहिं इगुणालीसाए अ सट्ठिभाएहिं जोअणस्स सट्ठिभागं च एगसहिधा छेत्ता सट्ठीए चुण्णिआभागेहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ त्ति, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरतचं मंडलं उवसंकभित्ता चारं चरइ। (सू०-१३३४) 'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः बाह्यानन्तरमाक्तनं द्वितीयं मण्डलमपुसंक्रम्य चारं चरति तदा भगवन् ! एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति? भगवानाह-गौतम! पञ्चपञ्चयोजनसहस्राणि त्रीणि च चतुरुत्तराणि योजनशतानि सप्तपञ्चाशतं च षष्टिभागान् योजनस्यैकैकेन मुहूर्तेन गच्छति 5304 57/60, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके योजनानाम् 318267, ततोऽस्य षष्ट्या भागे हृते लब्धं यथोक्तत्र मण्डले मुहूर्तगतिप्रमाणम्, अत्रापि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणमाह-तदा इहगतस्य मनुष्यस्येति प्राग्वत् एकत्रिंशता योजनसहौः षोडशाधिकैः नवभिश्च योजनशतैरेकोनचत्वारिंशता च षष्टिभागैर्योजनस्य एक चषष्टिभागमकषष्टिधा छित्त्वा तस्य सत्कैः षष्ट्या चूर्णिकाभागैः 3161636/60 / 60/61 / सूर्यश्चक्षुःस्पर्शमागच्छति / तथाहि-अस्मिन् मण्डले सूर्ये चारं चरति दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामधिकः तेषां चाढ़ें षट्मुहूर्ताः एकेन मुहूर्त्तकषष्टिभागेनाभ्यधिकास्ततः सवर्णनार्थ षडपि मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते ततएकः षष्टिभागस्तत्रीधिकः प्रक्षिप्यते, ततोजातानि श्रीणि शतानि सप्तषष्ट्याधिकानिएकषष्टिभागानां 367, ततः प्रस्तुतमण्डले यत्परिमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते सप्तनवत्यधिके Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1062 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल 318267, इदं च योजनराशिं षष्ट्या गुणयित्वा सवर्णिता मुहूर्तगतिरिति यथा व्यवयिते तथा प्रागुक्तम्, एतदेभिस्त्रिभिः शतैः सप्तष्ट्यऽधिकैर्गुण्यते जाता एकाश कोठ्योऽष्टषष्टिलक्षाश्चतुर्दश सहस्राणि नव शतानि / नयनवत्यधिकानि 116814666, एतस्य एकषष्ट्या गुणितया षष्ट्या 3660, भागो हियते लब्धान्येकत्रिंशत्सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्त-- राणि 31616, शेषमुद्भरति चतुर्विंशतिशतानि एकोनचत्वारिंशदधिकानि 2436, न चातो योजनान्यायान्ति ततः षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागो ह्रियते लब्धाः एकोनचत्वारिंशत् षष्टिभागाः 36 एकस्य च षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 60/61 अथ तृतीयं मण्डलम्'से पविसमाणे' इत्यादि। अथ प्रविशन्-जम्बूद्वीपाभिमुखं चरन् सूर्यः द्वितीयेऽहोरात्रे; उत्तरायणसत्के इत्यर्थः बाह्यतृतीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरित। तदा किमित्याह-- जया णं भंते ! सूरएिबाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं केवइ खेत्तं गच्छद? गोअमा ! पञ्च पञ्च जोअणसहस्साई तिण्णि अ चउरुत्तरे जाअणसए इगुणालीसं च सट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगेणं मुहुत्तेणं गच्छइ, तया णं इहगयस्स मुणयस्स एगाहिएहिं बत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं एगूणपण्णाए अ सहिभाएहिं जोअणस्स सहिभागं च एगसद्विधा छेत्ता तेवीसाए चुण्णिआमाएहिं सूरिए चक्खुप्फासं हव्वमाच्छइ त्ति, एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे, सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे अट्ठारस अट्ठारस सट्ठिभाए जोअणस्स एगमेगे मंडले मुहुत्तगई निवड्वेमाणे निवड्डेमाणे सातिरगाईपंचासीति पंचासीति जोअणाई पुरिसच्छायं अभिवद्धमाणे अभिवद्धेमाणे सव्वन्तरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, एस णं दोचे छम्मासे, एस णं दोचस्स छम्मासस्स पञ्जवसाणे, एस णं आइचे, संवच्छरे एस णं आइचस्स संवच्छरस्सपज्जवसाणे पण्णत्ते। (सू०-१३३+) 'जयाण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः बाह्यतृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा एकैकने मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छति ? भगवानाहगौतम ! पञ्च पञ्च योजनसहस्राणि त्रीणि चतुरुत्तराणि योजनशतानि एकोनचत्वारिंशतं च षष्टिभागान् योजनस्य 5304 36/60 / एकैकेन मुहूर्तेन गच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले परिरयपरिमाणं तिस्रो लक्षा अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके 318276 अस्य च षष्ट्या भागे हृते लब्धं यथोक्तमत्र मण्डले मुहूर्त्तगतिप्रमाणम्, अथात्र दृष्टिपथप्राप्तता-तदा इहगतस्य मनुष्यस्य एकाधिकैात्रिंशता सहौरेकोनपञ्चाशता च षष्टिभागैरेकं च षष्टिभागमेकषष्टिधाछित्त्वा तस्य सत्कैस्रयोविंशत्या चूर्णिकाभागैः ३२००१।३६/६०।२३/६१।सूर्यः चक्षुःस्पर्शमागच्छति, तथाहि-अस्मिन् मण्डले दिवसो द्वादशमुहूर्त- | प्रमाणश्चतुर्भिर्मुहूर्तकषष्टिभागैरधिकस्तस्यार्द्ध षट्मुहूर्त्ता द्वाभ्यामेकषष्टिभागाभ्यामधिकास्ततः सामस्त्येनैकषष्टिभागकरणार्थं षडपि मुहूर्ता एकषष्ट्या गुण्यन्ते गुणयित्वा च तत्र द्वावेकषष्टिभागौ प्रक्षिप्येते ततो जातानि त्रीणि शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि एकषष्टिभागानाम् 368, ततोऽस्मिन् मण्डले यत्परिरयप्रमाणं त्रीणि लक्षाणि अष्टादश सहस्राणि द्वे शते एकोनाशीत्यधिके 318276 एतत् त्रीभिः शतैः अष्टषष्ट्यधिक मुंण्यते जाता एकादश कोटयः एकसप्ततिः शतसहस्राणि षड्विंशतिः सहस्राणि षट्शतानि द्विसप्तत्यधिकानि 117126672, अस्य एकषष्ट्या गुणितया षष्ट्या 3660 भागे लब्धानि द्वात्रिंशत्सहस्राणि एकोत्तराणि 32001 शेषं त्रीणि सहस्राणि द्वादशोत्तराणि 3012 तेषां षष्टिभागानयनार्थमेकषष्ट्या भागे हृते लब्धा एकोनपञ्चाशत् षष्टिभागाः 46/60 एकस्य षष्टिभागस्य सत्कास्त्रयोविंशतिश्चूर्णिकाभागाः 23/61 इति, समावायाने तु त्रसत्रिंशत्समवाये -'जया णं सूरिए बाहिराणंतरं तच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं इहगयस्स पुरिसस्स तेत्तीसाए जोअणसहस्सेहिं किंचि विसेसूणेहिं चक्खुप्फासं हव्वमागच्छइ' त्ति, एतवृत्तौ च इह तु यदुक्तं त्रयस्त्रिंशत् किञ्चिन्न्यूनास्तत्र सातिरेकयोजनस्यापि न्यूनसहस्रता विवक्षितेति सम्भाव्यते इति, अथात्रापि चतुर्थमण्डलादिष्वतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि, एवमुक्तेन प्रकारेण खलु-निश्चितमेतेनोपायेन-शनैः शनैः तत्तदनन्तराभ्यन्तरमण्डलाधिमुखगमनरूपेणाभ्यन्तरं प्रविशन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात् तदनन्तरं मण्डलं संक्रामन् २एकैकस्मिन् मण्डले मुहूर्तगतिमित्यत्र द्वितीया पूर्ववत् २मुहूर्तगतिपरिमाणे अष्टादश अष्टादश षष्टिभागान् योजनम्य व्यवहारतः परिपूर्णान् निश्चयतः किञ्चिदूनान् निबबर्द्धयन् 2 हापयन्नित्यर्थः, पूर्वमण्डलात् अभ्यन्तराभ्यन्तरमण्डलस्य परिरयमधिकृत्याष्टादशयोजनहीनत्वात्, पुरुषच्छायामित्यत्रापि द्वितीया पूर्ववत्, ततोऽयमर्थःपुरुषच्छायायां दृष्टिपथप्राप्ततारूपायां नवमिः षष्टिभागैः षष्ट्या च चूर्णिकाभागैः सातिरेकाणि-समधिकानिपञ्चाशीतिपञ्चाशीति योजनान्यभिवर्द्धयन्नभिवर्द्धयन् प्रथमद्वितीयादिषु कतिपयेषु मण्डलेषु इयं वृद्धिÖया, सर्वमण्डलापेक्षया तु येनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलात्परतो दृष्टिपथप्राप्ततां हापयन्निर्गतस्तेनैव क्रमेण सर्वबाह्यान्भण्डलादर्वाक्तनेषु दृष्टिपथप्राप्ततामभिवर्द्धयन् प्रविशति, तत्र सर्वबाह्यमण्डलादर्वाक्तनद्वितीयमण्डलगतात् दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणात्सर्वबाह्ये मण्डले पञ्चाशीति योजनानि नव षष्टिभागान् योजनस्य एकं च षष्टिभागमेकषष्टिधामित्त्वा तस्य सत्कान् षष्टिभागान् हापयति, एतच्च प्रागेव भावितं तस्मात् सर्वबाह्यादाक्तने द्वितीये मण्डले प्रविशन् तावद्भूयोऽपि दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणेऽभिवर्द्धयति तच ध्रुवं, ततोऽक्तिनेषु मण्डलेषु यस्मिन् मण्डले दृष्टिपथप्राप्तया ज्ञातुमिष्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य तत्तन्मण्डलसंख्यया षट्त्रिंशद् गुण्यते, तद्यथा-तृतीयमण्डलचिन्तायामेकेनचतुर्थमण्डलचिन्तायांद्वाभ्याम्एवं यावत्सर्वाभ्यन्तरमण्डलचिन्तायां Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1063 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल व्यशीत्यधिकेन शतेन, इत्थं च गुणयित्वा यल्लभ्यते तद् वराशेरपनीय शेषेण धुवंराशिना सहितं पूर्वपूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं तत्र मण्डले द्रष्टव्यम्, यथा तृतीये मण्डले षट्त्रिंशदेकेन गुण्यते, 'एकेन च गुणित तदेव भवतीति' जाता षट्त्रिंशदेव सा ध्रुवराशेरपनीयते, जातं शेषमिदं-पञ्चाशीतिर्योजनानि नव षष्टिभागा योजनस्य एकस्य य षष्टिभागस्य सत्काश्चतुर्विंशतिरेकषष्टिभागाः 85 6/601 24/61 एतेन पूर्वमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणम् एकत्रिंशत् सहस्राणि नव शतानि षोडशोत्तराणि योजनानामेकोचत्वारिंशदेकषष्टिभागा योजनस्य | एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 31916 इत्येवंरूपसहितं क्रियते, कृते च तृतीये मण्डले यथोक्तं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति तच प्रागेव प्रदर्शितं, चतुर्थे मण्डले षट्रत्रिंशद्वाभ्यां गुण्यते गुणयित्वा ध्रुवराशेरपनीय शेषेण ध्रुवराशिना तृतीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सहितं क्रियते, तत इदं तत्र मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति-द्वात्रिंशत्सहस्राणि षडशीत्यधिकानि योजनानामष्टपञ्चाशत् षष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्काः एकादशैकषष्टिभागाः 32086 58/60 / 11/61 / एवं शेषेष्वपि मण्डलेषुभावनीयम्, यदा तु सर्वाभ्यन्तरेमण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं ज्ञातुमिष्यते तदा षट्त्रिंशद् यशीत्यधिकेन शतेन गुण्यते, तृतीयमण्डलादारभ्य सर्वाभ्यन्तरस्य मण्डलस्य व्यशीत्यधिकशततमत्वात्, ततो जातानि पञ्चषष्टिः शतानि द्विपचाशदधिकानि 6552, तेषामेकषष्ट्या भागे हते लब्धं सप्तोत्तरं शतं षष्टिभागानां शेषाः पञ्चविंशतिः 107/60 / 25/61 / एतत्पञ्चाशीतिर्यो | जनानि नव षष्टि भागा योजनस्य एकस्य षष्टि भागस्य सत्काः षष्टिरेकषष्टिभागाः 859/60 / 61/61 / इत्येवंरूपाध्रुवराशेः शोध्यते, जातानि पश्चाद् त्र्यशीतिर्योजनानि द्वाविंशतिः षष्टिभागाः योजनस्य | एक स्य षष्टिभागस्य सत्काः पशत्रिंशदेकषष्टिभागाः, इह षत्रिंशदेकषष्टिभागाः कलया न्यूनाः परमार्थतो लभ्यन्ते, एतच्च प्रागेवोपदर्शितम्, तद्य कलया न्यूनत्वं प्रतिमण्डलं भवत् यदा द्वयशीत्यधिकशतममण्डले एकत्र पिण्डितं सचिन्त्यते तदा अष्टषष्टिरेकषष्टिभागा लभ्यन्ते ततस्ते भूयः प्रक्षिप्यन्ते ततो जातमिदं त्र्यशीतियों जनानि त्रयोविंशतिः षष्टिभागाः योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का द्विचत्वारिंशदेकषष्टिभागाः 8323/60 / 42/61 / एतेन सर्वाभ्यन्तरानन्तरद्वितीयमण्डलगतं दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि शतमेकोनाशीत्यधिकं योजनानां सप्तपञ्चाशत्वष्टिभागा योजनस्य एकस्य षष्टिभागस्य सत्का एकोनविशतिरेकषष्टिभागाः 47176 57/60 / 16/61 / इत्येवंरूपसहितं क्रियते, ततो यथोक्तं सर्वाभ्यन्तर मण्डले दृष्टिपथप्राप्ततापरिमाणं भवति तच सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते त्रिषष्ट्यधिके योजनानामेकविंशतिश्च | षष्टिभागा योजनस्य ६७२६३६०/६०एवं दृष्टिपथप्राप्ततायां कतिपयेषु / मण्डलेषु सातिरेकाणि पञ्चाशीति 2 योजनानि अग्रेतनेषु चतुरशीति 2, पर्यन्ते यथोक्ताधिकसहितानि त्र्यशीति योजनानि अभिवर्द्धयन् अभिवर्द्धयन् तावद् वक्तव्यो यावत् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, इदं च सर्वाभ्यन्तरमण्डलं सर्वबाह्यनन्तरात्मण्डलात् पश्चानुपूर्व्या गण्वमानं त्र्यशीत्यधिकशततमं, प्रतिमण्डलं चाहोरात्रगणनादहोरात्रोऽपि त्र्यशीत्यधिकशततमस्तेनायमुत्तरायणस्य चरमो दिवस इत्याद्यभिधातुमाह-'एस णं दोचे छम्मासे' इत्यादि एष द्वितीयः षण्मासः-प्रागृतयुक्त्या अयनवियशेषो ज्ञातव्यः, एतद् द्वितीयस्य षण्मासस्य पर्यवसानंत्र्यशीत्यधिकशतत-माहोरात्रत्वात्, एष आदित्यः संवत्सरः-आदित्यचारोपलक्षितः संवत्सरं इति, इत्यनेन नक्षत्रादिसंवत्सरव्युदासः, एतच्चादित्यस्य संवत्सरस्य पर्यवसानं चरमायनचरमदिवसत्वात् इति समाप्तं मुहूर्तगतिद्वारम्, तत्सम्बन्धाच दृष्टिपथवक्तव्यताऽपि / जं०७ वक्ष०। स०। जंबुद्दीवे णं दीवे असीउत्तरं जोयणसयं ओगाहेत्ता सूरिए उत्तरकट्ठोवगए पढमं उदयं करेइ। (सू० 80+) ___ 'जंबुद्दीवे ण 'मित्यादि, 'ओगाहित्त' त्ति-प्रविश्य 'उत्तरकट्ठोवगय' त्ति-उत्तरां काष्ठां दिशमुपगतः उत्तरकाष्ठोपगतः प्रथममुदयं करोति, सर्वाभ्यन्तरमण्डले उदेतीत्यर्थः / स०८० सम०। अथाष्टमं दिनरात्रिवृद्धिहानिद्वारं निरूप्यते- / जया णं भंते ! सूरिए सव्वब्मंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे के महालिया राई भवइ? गोअमा ! तया णं उत्तमकट्ठपत्ते उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दुवालमुहुत्ता राई भवइ, से णिक्खममाणे सूरिए णवं संवच्छरं अयमाणे पमंसि अहोरत्तंसि अम्मतराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ। (सू०-१३४४) 'जयाण मित्यादि यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा को महान् आलयोव्याप्तक्षेत्ररूपः आश्रयो यस्यासौ किंमहालयः कियानित्यर्थः दिवसो भवति, किंमहालया-कियती रात्रिर्भवति ? भगवानाह-गौतम ! तदा उत्तमकाष्ठां प्राप्तः-उत्तमावस्था प्राप्तः आदित्यसंवत्सरसत्कषट्षष्ट्यधिकत्रिशतदिवसमध्ये; यतो नापरः कश्चिदधिक इत्यर्थः अत एवोत्कर्षकः / उत्कृष्ट हत्यर्थः अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति, यत्र मण्डले यावत्प्रमाणो दिवसस्तत्र तदपेक्षया (शेषा) अहोरात्रप्रमाणा रात्रिरितिजघन्यिका द्वादशमुहूर्ता रात्रिः सर्वस्मिन् क्षेत्रे काले वा अहोरात्रस्य त्रिंशन्महूर्तसंख्याकत्वस्य नैयत्याद, ननु यदा भरतेऽष्टादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसस्तदा विदेहेषूजघन्या द्वादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिस्तर्हि द्वादशमुहूर्तेभ्यः परं रात्रेरतिक्रान्तत्वेन षट्मुहूर्तान् यावत्केन कालेन भाव्यम? एवं भरतेऽपि वाच्यम्, उच्यते अत्रषमुहूर्तगम्यक्षेत्रेऽवशिष्ट सति तत्र सूर्यस्योदयमानत्वेन दिवसेनेति, तच्च सूर्यादयास्तान्तरविचारणेन तन्मण्डलगतदृष्टिपथ-प्राप्तताविचारणेन च सूपपन्नम्, आह-एवं सतिसूर्योदयास्तमयने अनियतेआपन्ने भवतुनाम, न चैतदनार्थम्, यदुक्तम् Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल "जह जह सभए समए, पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे। तह तह इओ वि नियमा, जायइ रयणीइ भावत्थो॥१॥ एवं च सइ नराणं, उदयत्थमणाइँ होतऽनिययाई। सइ देसकालभेए, कस्सइ किंची य दिस्सए नियमा॥२॥ सइचेव य निद्दिहो, रुद्दमुहुत्तो कमेण सव्वेसिं। केसिंचीदाणिं पि अ, विसयपमाणो रखी जेसिं // 3 // '' ति। यत्तु सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तौ सूर्यमण्डलसंस्थित्यधिकारे समचतुरस्रसंस्थितिवर्णनायां युगादौ एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्याम् एकश्चन्द्रो दक्षिणापरस्यां द्वितीयः सूर्यः पश्चिमोत्तरस्यां द्वितीयश्चन्द्र उत्तरपूर्वस्यामित्युक्तं तत्तु दक्षिणादिभागेषु मूलोदयापेक्षया इति बोध्यम्, अयं च सर्वोत्कृष्टो दिवसः पूर्वसंवत्सरस्य चरमो दिवस इति वक्तुमाह-'से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथ निष्क्रामन् सूर्यः नवं संवत्सर मयमानः-प्राप्नुचन्नाददान इत्यर्थः, प्रथमे अहोरात्रेऽभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयमण्डलमुपसंक्रम्य चारंचरति इति। अथ दिनरात्रिवृद्ध्यपवृद्ध्यर्थमाहजया णं भंते ! सूरिए अब्भतराणतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ? गोयमा! तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, दोहिं एगहिभागमुहुत्तेहिं ऊणे दुवालसमुहुत्ता राई भवइ दोहि अ एगढिमागमुहुत्तेहिं अहिअ त्ति, से णिक्खममाणे सूरिए दोघंसि अहोरत्तंसि० जाव चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ चउहिं एगद्विभागमुहुत्तेहिं ऊणे, दुवालसमुहुत्ता राई मवइ चउहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिअत्ति, एवं खलु एएणं उवाएणं निक्खममाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे दो दो एगट्टि भागहुत्तेहिं मंडले दिवसखित्तस्स निव्वुद्धेमाणे 2 रयणिखित्तस्स अभिवद्धमाणे 2 सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ताचारं चरइत्ति। (सू०१३४४) "जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः अभ्यन्तरानन्तरं द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा भगवन् ! किंमहालयः-किंप्रमाणो दिवसः, किंमहालया-किं प्रमाणा रात्रिः ? भगवानाह-गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां मुहूर्तेकषष्टिभागाभ्यामूनो दिवसो भवति, अत्र सूत्रे प्राकृत्वात्पदव्यत्ययः, द्वादशमुहूर्तप्रमाणाद्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यामधिकारात्रिर्भवति अवोपपत्तिर्यथा अष्टादशमुहूर्ते दिवसेद्वादश ध्रुवमुहूर्ताः षट् चरमुहूर्ताः, तेच मण्डलानांत्र्यशीत्यधिकशतेन वर्द्धन्ते चापवर्द्धन्ते, ततोऽत्र त्रैराशिकावतार:-यदि मण्डलानां त्र्यशीत्यधिकशतेन षट् मुहूर्ताः वर्द्धन्ते चापवर्द्धन्ते तदा एकेन मण्डलेन किं वर्द्धते चापवर्द्धते? स्थापना यथा 183161 / अत्रान्त्य राशिनाएककलक्षणेन मध्यराशिः षट्कलक्षणो गुण्यते गुणितेच 'एकेन गुणितं तदेव भवतीति षडेव स्थितास्ते चादिराशिना भज्यन्ते अल्पत्वा भागंन प्रयच्छन्तीति / भाज्यभाजकराश्योस्विकेणापवर्त्तना कार्या, जात उपरितनो राशिकिरूपः अधस्तन एकषष्टिरूपः 1/61 आगतं द्वावेकषष्टिभागौ मुहूर्तस्य अतो दिवसेऽवर्द्धते रात्रीचवर्द्धते इति, एवमग्रेऽपि करणभावना कार्या। अथागेतनमण्डलगते दिनरात्रिवृद्धिहानी पृच्छन्नाह-' से णिक्खममाणे' इत्यादि, अथ निष्कामन् सूर्यो दक्षिणायनसत्के द्वितीये अहोरात्रे अत्र यावच्छब्दात् 'अब्भंतरतचं मंडलं उवसंकमित्ता' इति ज्ञेयम्, सर्वाभ्यन्तरमण्डलापेक्षया तृतीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा किंप्रमाणो दिवसः किप्रमाणा रात्रिर्भवति ? गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्तप्रमाणो द्वाभ्यां पूर्वमण्डलसत्काभ्याम् द्वाभ्यां प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्यामित्येवं चतुभिर्मुहूर्तकषष्टि, भागैरूनो दिवसो भवति, द्वादशमुहूर्ता उक्तप्रकारेणैव चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषाष्टभागैरधिका रात्रिर्भवति, उक्तातिरिक्लमण्डलेष्वतिदेशमाह-'एवं खलु एएण' मित्यादि, एवं मण्डलत्रयदर्शितरीत्या खलुनिश्चितमेतेन-अनन्तरोक्तेनोपाये न प्रतिमण्डलं दिवसरात्रिसत्कमुहूर्तकषष्टिभागद्वयवृद्धिहानिरूपेण निष्क्रामन्-दक्षिणाभिमुखं गच्छन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्डलात्तदनन्तरेमण्डले संक्रामन् द्वौ द्वौ मुहूर्त्तकषष्टिभागावेककस्मिन् मण्डले दिवसक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् निवर्द्धयन्-हापयन् 2 रजनिक्षेत्रस्य तावेवाभिवर्द्धयन् 2, कोऽर्थः ? -मुहूर्तकषष्टिभागद्वयगम्यं क्षेत्रं दिवसक्षेत्रे हापयन् तावदेव रजनिक्षेत्रे अभिवर्द्धयन्निति सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति, प्रतिमण्डल भागद्रयहानिवृद्धी उक्ते। जं०७ वक्ष०। उत्तरायणनिट्टेणं सूरिए पढमाओ मंडलाओ एगूणचत्तालीसइमे मंडले अट्ठहत्तरि एगसट्ठिभाए दिवसक्खेत्तस्स निवुझेत्ता रयणिखेत्तस्स अभिनिवुडेत्ता णं चारं चरइ / एवं दक्खिणायणनियट्टे वि। (सू०७८४) "उत्तरायणनियट्टे णं' ति-उत्तरायणाद् -उत्तरदिग्गमना' निवृत्तः उतरायणनिवृत्तः, प्रारब्धदक्षिणायन इत्यर्थः 'सूरिए त्ति-- आदित्यः 'पढमाओ मंडलाओ' त्ति-दक्षिण दिशं गच्छतो रवेर्यत्प्रथमं तस्मात् न तु सर्वाभ्यन्तरसूर्यमार्गात् ‘एगूणचत्तालीसइमेत्ति-एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले दक्षिणायनप्रथममण्डलापेक्षया सर्वाभ्यन्तरभमण्डलापेक्षया तु चत्वारिंशे,अट्टहत्तरि तिअष्टसप्ततिः ‘एगसट्ठिभाए' त्ति-मुहूर्त्तस्यैकषष्टिभागान्' दिक्सखेत्तस्स' ति-दिवसलक्षणस्य क्षेत्रस्य दिवसस्यैवैत्यर्थः "निवुड्डेत' ति निबऱ्या हापयित्वेत्यर्थः, तथा 'रयणिखेत्तस्स' त्ति-रजन्या एव 'अभिनिवुड्ढेत' ति-अभिनिवद्ध्यं च; वर्द्धयित्वेत्यर्थः, 'चारं चरति' त्ति भ्राम्यतीत्यर्थः, भावार्थोऽस्यैव चन्द्रप्रज्ञप्तिवाक्यैरुपदर्श्यते-जम्बूद्वीपे यदेतीसूर्यौसर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसक्रम्यचारंचरतस्तदा नवनवतियोजनसहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानि योजनशतोन्यन्योऽन्यमन्तरं कृत्वा चरतः, एतच जम्बूद्वीपेऽशीत्युत्तरंयोजनशतंप्राविश्याभ्यन्तरंमण्डलं भवति एतस्मिंश्चद्वीगुणे जम्बूद्वीप-प्रमाणादपकर्पितेयथोक्तमन्तरंभवतीति, तथा तत्र तयोश्चरलोरुत्कृष्टोऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, जघन्यका च द्वादशमुहूर्ता रात्रिभवति, ततोऽभ्यन्तरमण्डलान्निष्क्रम्य प्रथमेऽहोरात्रे, Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल ऽभ्यन्तरानन्तरं मण्डलमुपसंक्रम्य यदा चारं चरतस्तदा नवनवयलियोंजनसहस्राणि षट्चत्वारिंशदधिकानियोजनशतानिपञ्चत्रिंशच एकषष्टिभागा योजनस्यान्तरं कृत्वा चारं चरतः, तदा चाष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति द्वाभ्यां मुहूर्तस्यैकषष्टिभागाग्यांन्यूनः, द्वादशमुहूर्ताच रात्रिर्भवति / द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामधिकेति, एवं दक्षिणायनस्य द्वितीयादिषु मण्डलेष्वहोरात्रेषु चान्योऽन्यान्तरप्रमाणस्य पञ्चभिः पञ्चभिर्योजनैः पञ्चत्रिंशताचैकषष्टिभागैर्योजनस्य वृद्धिर्वाच्या, द्वाभ्यां 2 च मुहूर्तकषष्टि-- भागाभ्यां दिनहानी रात्रिवृद्धिश्चेति, एवं च एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले सूर्ययोरन्तर नवनवतिः सहस्राण्यष्ट शतानि सप्तपञ्चाशच योजनानां त्रयोविंशतिश्चैकषभागाः, दिनप्रमाणं चाष्टादशानां मुहूर्तानां मध्यादेकषष्टिभागानामष्टसप्तत्यां पातितायां षोडश मुहूर्ताश्चतुश्चत्वारिंशत्रैकषष्टिभागा मुहूर्त्तस्य, रात्रेस्त्वष्टसप्तत्यां क्षिप्तायां त्रयोदश मुहूर्ताः सप्तदशैकषष्टिभागाश्चेति, एव'दक्खिणायणनिय?' ति यथोत्तरायणनिवृत्त एकोनचत्वारिंशत्तमे मण्डले अष्टसप्ततिमेकषष्टिभागान्हा पयति, वर्द्धयति च। एवं दक्षिणायननिवृत्तोऽपि सूर्यस्तान् हापयति, वर्द्धयति च। केवलं दक्षिणायने दिनभागान् हापयति। रात्रिभागांश्च वर्द्धयति / इह तु दिनभागान वर्द्धयति, रात्रिभागाँश्च हापयति। स०७८ सम० ज०॥ जया णं सूरिए सव्वभंतराओ मंडलाओ सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तयाणं सव्वन्मंतरमंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिअसएणं तिण्णि छावडे एगसट्ठिभागमुहुत्तसए दिवसखेत्तस्स निव्वुद्धत्ता रयणिखेत्तस्स अभिवुद्धत्ता चारं चरइ। (सू०-१३४+) 'जयाण' मित्यादि,यदा सूर्यः सर्वाभ्यन्तरान्मण्डलादित्यत्र"यब्लोपे पञ्चमी वक्तव्या' तेन सर्वाभ्यन्तरं मण्डलमारभ्य सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा सर्वाभ्यन्तरं मण्डलं प्रणिधायमर्यादीकृत्य ततः परस्माद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्येत्यर्थः एकेन त्र्यशीतेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवानाम् अहोरात्राणां शतेन त्रीणि षट्पष्टानि-षट्षष्ट्यधिकानि मुहूर्तकषष्टिभागशतानि दिवसक्षेत्रस्याभियस्य, कोऽर्थः ? -षट् षष्ट्यधिकत्रिशतमुहूर्त्तकषष्टिभागैर्यावन्मानं क्षेत्रं गम्यते तावन्मानं क्षेत्रं हापयित्वा इत्यर्थः, तावदेव क्षेत्रं रजनिक्षेत्रस्याभिव_ चारं चरति, / अयमर्थः दक्षिणायनसत्कत्र्यशीत्यधिकमण्डलेषु प्रत्येकं हीयमानभागद्वयस्य त्र्यशीत्यधिकशतगुणनेन षट्षष्ट्यधिकत्रिशतराशिरुपपद्यत इति तावदेव रजनिक्षेत्रे वर्द्धते इत्यर्थः / जं०७ वक्ष। लवणे णं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जचेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्वया भणिया सच्चेव सव्वा अपरिसेसिया लवणसमुदस्स विभाणियव्वा, नवरं अभिलादो इमोणेयय्वो जया णं भंते ! लवणे समुद्दे दाहिणड्डे दिवसे भवति ते चेव० जाव तदा णं लवणे समुद्दे पुरच्छिमपचत्थिमे णं राई भवति, एएणं अभिलावेणं नेयव्वं / जदाणं भंते ! लवणसमुद्दे दाहिणजे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ, तदा णं उत्तरले वि पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ / जदा णं उत्तरड्डे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ तदा णं लवणसमुद्दे पुरिच्छिमपचत्थिमे णं नेवत्थि ओसप्पिणी 2 समणाउसो ! हंता गोयमा! ०जाव समणाउसो! धायईसंडे णं मंते ! दीवे सूरिया उदीचिपादिणमुग्गच्छ जहेव जंबुद्दीवस्स वत्तव्या भणिया सच्चेवधायइसंडस्स वि भाणियव्वा, नवरं इमेणं अमिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियव्वा / जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे भवति तदाणं उत्तरडे वि जया णं उत्तरड्डे वि तदा णं धायइसंडे दीवे मंदराण पव्वयाणं पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं राती भवति ? हंता गोयमा ! एवं चेव० जाव राती भवति / जदा णं भंते ! धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाण पुरच्छिमेण दिवसे भवति तदाणं पञ्चत्थिमेण वि, जदा णं पचत्थिमेण वि तदा णं घायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं भवति उत्तरेणं दाहिणेणं राती भवतीति ? हंता गोयमा! जाव भवति, एवं एएणं अभिलावेणं नेयध्वं० जाव जया णं भंते ! दाहिणड्डे पढमा ओसप्पिणी तया णं उत्तरड्डे जया णं उत्तरड्डे तया णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं नत्थि ओसप्पिणी जाव? समणाउसो ! हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ! जहा लवणसमुदस्स वत्तव्वया तहा कालोदस्स वि भाणियव्वा, नवरं कालोदस्स नाम भाणियव्वं / अभिंतरपुक्खरद्धे णं भंते ! सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जहेव धायइसंडस्स वत्तव्वया तहेव अस्मिंतरपुक्खरद्धस्स वि माणियव्वा नवरं अमिलावो ०जाव जाणेयव्वो० जाव तया णं अग्भितरपुक्खरद्धे मंदराणं पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं नेवत्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी अवट्ठिए णं तत्थ काले पन्नते समणाउसो ! सेवं भंते ! त्ति। (सू०-१७६) भ०५श०२ उ०। तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नगरी होत्था, वनओ, तीसे णं चंपाए नगरीए पण्णभद्दे नामे चेइए होत्था वण्णओ, सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया / तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती णाम अणगारे गोयमगोत्तेणं जाव एवं वदासी-जंबूदीवे णं भंते ! दीवे सूरिस उदीणपादीणमुग्गच्छ पादीणदाहिणमागच्छंति, पादीणदाहिणमुग्गच्छदाहिणपडीणमागच्छंतिदाहिणपदी Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल णमुग्गच्छ पडीणउदीणमागच्छति पदीणउदीणं उग्गच्छ, उदीचिपादीणमागच्छंति ? हंता ? गोयता ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्च जाव उदीचिपाईणमागच्छंति / (सू० 1764) 'सूरिय' त्ति-द्वौ सूर्यो, जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् 'उदीणपाईणं' ति | उदगेव उदाचीनं प्रागेव प्राचीन उदीचीनं च तदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनम् च तत्प्राच्याः प्रत्यासन्नात्वाद् उदीचीनप्राचीनं-दिगन्तरं क्षेत्रदिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिगित्यर्थः 'उग्गच्छ' त्ति-उद्गत्य क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वेत्यर्थः ‘पाईणदाहिणं तिप्राचीनदक्षिण दिगन्तरं पूर्वदक्षिणमित्यर्थः 'आगच्छति' तिआगच्छतः क्रमेणैवास्तं यात इत्यर्थः, इह चोद्गमनमस्तमयं च द्रष्टुलोकविवक्षयाऽवसेयं, तथाहि-येषामद्दश्यौ सन्तौ दृश्यौ तौ स्यातां ते तयोरुद्गमनं व्यवहरन्ति येषां तु दृश्यौ सन्तावद्दश्यौ स्तस्ते तयोरस्तमयं व्यवहरन्तीत्यनियतावुदयास्तमयौ। आह च"जह जह समए समए, पुरओ संचरइ भक्खरो गयणे। तह तह इओ वि नियमा, जायइ रयणी य भावत्थो।॥ 1 // एवे च सइ नराणं, उदयत्थमणाइँ होतऽनिययाई। सइ देसमेऍ कस्सइ, किंची ववदिस्सए नियमा॥२॥ सइ चेव य निद्दिट्टो, भ(रु) हमुहत्तो कमेण सव्वेसिं। . केसिंचीदाणि पि य, विसयपमाणे रवी जेसिं // 3 // " इत्यादि, अनेन च सूत्रेण सूर्यस्य चतसृषु दिक्षु गतिरुक्ता, ततश्च ये मन्यन्ते सूर्यः पश्चिमसमुद्रं प्रविश्य पातालेन गत्वा पुनः पूर्वसमुद्रमुदेतीत्यादि तन्मतं निषिद्धमिति। इह च सूर्यस्य सर्वतोगमनेऽपि प्रतिनियतत्वात्तत्प्रकाशस्य रात्रिदिवसविभागोऽस्तीति तं क्षेत्रभेदेन दर्शयन्नाह - जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्ढे दिवसे भवति तदा णं | उत्तरड्ढे दिवसे भवति जदाणं उत्तरड्डे वि दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं राती | भवति? हंतागोयमा ! जयाणं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणले वि दिवसे जाव राती भवति / जदा णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं दिवसे भवति तदा णं पञ्चस्थिमे णं पि दिवसे भवति, जया णं पचत्थिमे णं दिवसे भवति तदा णं जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणे णं राती भवति? हंता गोयमा! जदाणं, जंबुद्दीवे मंदरपुरच्छिमेणं दिवसे जाव राती भवति, जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीव दाहिणड्डे उकोसए अट्ठारसमुहूत्ते दिवसे भवति,जदा णं उत्तरद्धे उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं उत्तरड्डे वि उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति तदा णं जंबूहीवे दीवे मंदरस्स पुरच्छिमपचत्थिमे णं जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राती भवति ? हंता गोयमा ! जदा णं जंबू० जाव दुवासमुहुत्ता राती भवति / जदा णं जंबूदीवे 2 मंदरस्स पुरच्छिमे णं उक्कोसए अट्ठारस० जाव तदा णं जंबुद्दीवे दीवे पचत्थिमे ण वि उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति,जयाणं पचत्थिमेणंउकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तदाणं भंते ! जंबूदीवे दीवे उत्तर० दुवालसमुहुत्ता० जाव राती भवति ? हंता गोयमा ! 0 जाव भवति / जया णं भंते ! जंबू० दाहिणड्डे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति जदा णं उत्तरे अट्ठारसमुहुताणंतरे दिवसे भवति तदा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमे णं सातिरेगा दुवालसुमुहत्ता राती भवति ? हंता गोयमा ! जदाणं जंबू० जाव राती भवति। जदा णं भंते ! जंबूदीवे दीवे पुरच्छिमेणं अट्ठारसमुहत्ताणंतरे दिवसे भवति तदाणं पचत्थिमे णं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति, जदाणं पचत्थिमे णं अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदाणं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं साइरेगा दुवालसमुहुत्ता राती भवति? हंता गोयमा ! ०जाव भवति / एवं एतेणं कमेणं ओसारेयव्वं सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ताराती भवति, सत्तरसुमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगातेरसमुहुत्ताराती, सोलसमुहुत्ते दिवसे चोडसमुहुत्ता राई, सोलससमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगचोद्दसमुहुत्ता राती, पन्नरसमुहुत्ते दिवसे पन्नरसमुहुत्ताराती भवति। पन्नरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा पन्नरसमुहुत्ता राती, चोदसमुहुत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ताराती, चोइसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा सोलसमुहुत्ता राती, तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरस-मुहुत्ता राती तेरसमुहुत्ताणंतरे दिवसे सातिरेगा सत्तरसमुहत्ताराती।जया णं जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डे जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरले वि, जयाणं उत्तर तयाणं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमे णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राती भवति? हंता गोयमा ! एवं चेव उच्चारेयव्यं० जाव राई भवति / जया णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स पुरच्छिमे णं जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं पचत्थिमे ण वि० तया णं जंबूदीवेदीवेमंदरस्स उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठासमुहत्ताराती Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1067 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल भवति? हंता गोयमा ! जाव राती भवति / (सू०१७७) 'जयाण' मित्यादि, इह सूर्यद्वयभावादेकदैव दिग्द्वये दिवस उक्तः, इह च यद्यपि दक्षिणार्धे तथोत्तरार्द्ध इत्युक्तं तथाऽपि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोद्धव्यम्-अर्द्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात्, यतो यदि दक्षिणार्द्ध उत्तरार्द्धच समग्र एव दिवसः स्यात्तदा कथं पूर्वेण अपरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत, अर्द्धद्वयग्रहणेन सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात्, इतश्च दक्षिणाििदशब्देन दक्षिणादिदिग्भागमात्रमेवाक्सेयं न त्वर्द्धम् अतो यदाऽपि दक्षिणोत्तरयोः सर्वोत्कृष्टो दिवसो भवति तदाऽपि जम्बूद्वीपस्य दशभागअयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येकं स्याद्, दशभागद्वयमानंच पूर्वपश्चिमयोः प्रत्येक रात्रिक्षेत्र स्यात्, तथाहि षष्ट्या मुहूर्तः किल सूर्यो मण्डलं पूरयति उत्कृष्टदिनं चाष्टादशभिर्मुहूर्तरुक्तम् अष्टादश च षष्ट र्दश भागवितयरूपा भवन्ति, तथा यदाऽष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति तदा रात्रिीदशमुहूर्ता भवति, द्वादश च षष्टदशभागद्वयरूपा भवन्तीति, तत्र च मेरुं प्रति नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्येत्येतत्सर्वोत्कृष्टदिवसे दशभागत्रयरूपं तापक्षेत्रप्रमाणं भवति 64866/10 कथम् ? मन्दरपरिक्षेपस्य किश्चिन् न्यूनत्रयोविंशत्युत्तरषट्शताधिकैकत्रिंशद्योजनसहस्रमानस्य 316-23 दशभिर्भागे हृते यल्लब्धं 3162 3/10 तस्य त्रिगुणितत्वे एतस्य भावादिति। तथा लवणसमुद्रं प्रति चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि अष्टौ शतान्यष्टषष्टद्यधिकानि चत्वारश्च दश भागा योजनस्येत्येतदृत्कृष्टदिने तापक्षेत्रप्रमाणं भवति 64868 4/10, कथम् ? जम्बूद्वीपपरिधेः किञ्चिन्न्यूनाष्टाविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकषोडशसहस्रोपेतयोजनलक्षत्रयमानस्य 316228 दशभिर्भागे हृते यल्लब्धं तस्य त्रिगुणितत्वे एतस्य भावादिति / जघन्यरात्रिक्षेत्रप्रमाणं चाप्येवमेव, नवरं परिधेर्दशभागो द्विगुणः कार्यः तत्राद्यं षड्योजनानां सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षट् च दश भागा योजनस्य 6324 6/10 द्वितीयं तु त्रिषष्टिः सहस्त्राणि द्वे पञ्च चत्वारिंशदधिके योजनानां शते षट् च दशभागा योजनस्य 632456/10 सर्वलघौ च दिवसे तापक्षेतमनन्तरोक्तरात्रितुल्यं रात्रिक्षेत्रं त्वन्तरोक्ततापक्षेत्रतुल्यमिति, आयामतस्तु तापक्षेत्र जम्बूद्वीपमध्ये पश्चचत्वारिंशद्योजनानां सहस्राणीति, लवणे च त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य 33333 1/3 उभयमीलने त्वष्टसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागश्चेति 78333 1/3 / "उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवस भवइत्ति। इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिक मण्डलशतं भवति तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चषष्टिमण्डलानि भवन्ति एकोनविंशत्यधिकं च तेषां शतं लवणसमुद्रस्य मध्ये भवति, तत्र च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा वर्त्तते सूर्यस्तदाऽष्टदशमुहूर्तो दिवसो भवति, कथम् ? यदा सर्ववाह्य मण्डले वर्त्ततेऽसौ तदा सर्वजधन्यो द्वादशमुहूर्तो दिवसो भवति, ततश्च द्वितीयसण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहूर्त्तकषष्टिभागाभ्यां दिनस्य वृद्धौ त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले षड् मुहूर्त्ता वर्द्धन्त इत्येवमष्टादशमुहूर्तोदिवसो भवति, अत एव द्वादशमुर्ता रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्य। 'अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे ति यदा सर्वाभ्यन्तर मण्डलानन्तरे मण्डले वर्त्तते सूर्यस्तदा मुहूर्तकषष्टिभागद्वयहीनाष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स चाष्टादशमुहूर्तादिवसादनन्तरोऽष्टादशमुहूर्त्तानन्तरमिति व्यपदिष्टः, 'सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राइ'तिद्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्त्ता 'राई भवइ' त्तिरात्रिप्रमाणं भवतीत्यर्थः, यावता भागेन दिन हीयते तावता रात्रिर्वद्धते, त्रिंशन्मुहूर्तत्वादहोरात्रस्येति। एवं एएणं कमेणं एवमित्युपसंहारे, एतेनअनन्तरोक्तेन 'जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डे इत्यनेनेत्यर्थः, 'ओसारेयव्वं त्ति-दिनमानं ह्रस्वीकार्य, तदेव दर्शयति-'सत्तरसे' त्यादि, तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरमण्डलादारभ्यैक-त्रिंशत्तममण्डलार्द्ध यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहूर्तो दिवसो भवति, पूर्वोक्तहानिक्रमेण त्रयोदशमुहूर्ताच रात्रिरिति। 'सत्तरसमुहुत्ताणंतरे त्ति-मुहूर्तकषष्टिभागद्वयहीनसप्तदशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, अयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डलार्द्ध भवति, एवमनन्तरत्वमनयत्राप्यूह्यम्-'साइरेगतेरसमुहुत्ता राइ' त्तिमुहूर्त्तक षष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वम्, एवं सर्वत्र 'सोलहसमुहुत्ते दिवसे' त्ति-द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले षोडशमुहूर्तो दिवसो भवति, 'पन्नरसमुहुत्ते दिवसे' त्ति-द्विनवतितममण्डलार्द्ध वर्तमाने सूर्ये, 'चोद्दसमुहुत्ते दिवसे ति द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले, 'तेरसमुहत्ते दिवसे' त्तिसार्द्धद्विपञ्चाशदुत्तरशततमे मण्डले, 'बारसमुहत्ते दिवसे' त्ति-त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले, सर्वबाह्य इत्यर्थः। कालाधिकारादिदमाहजया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तया णं उत्तरले वि वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ जया णं उत्तरड्ड वि वासाणं पढमे समए पडिबज्जइ-तया णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पटवयस्स पुरच्छिमपचत्थिमे णं अणंतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं पढमे समए पडिवजह? हता गोयमा ! जया णं जंबुद्दीवे दीवे दाहिणड्डे वासाणं पढमे समए पडिवजह तह चेव० जाव पडिवाइ। जया णं मंते ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमेण वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ तयाणं पचत्थिमेण विवासाणं पढमे समए पडिवाइ, जया णं पचत्थिमेणं वि वासाणं पढमे समए पडिवजइ तया णं जाव मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरदाहिणेणं अणंतरपच्छाकडसमयंसिवासाणं पढमे समएपडिवन्ने भवति? हंता गोयमा! जया णं जंबूदीवेमंदरस्सपव्वयस्स पुरच्छिमेणं, एवं चेव उच्चारेयव्वं० जावपडिवन्ने भवति एवं जहासमएण अभिलावो भणिओवासाणं तहा आवलियाए वि 2, भाणियव्वो, आणापाणूण वि 3, थो Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1068 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल वेण विश्,लवेण वि५, मुहुत्तेण वि६, अहोरत्तेण वि७, पक्खेण विच,मासेण विह, उउणा वि 10, एएसिसवेसिंजहा समयस्स अभिलावो तहा भाणियव्वो। जया भंते ! जंबूदीवे 2 दाहिणड्डे हेमंताणं पढमे समए पडिवजति जहेव वासाणं अमिलावो तहेव हेमंताण वि 20 गिम्हाणं वि 30 भाणियव्वो ०जाव उऊ, एवं | एए तिण्णि वि एएसिंतीसं आलावगा भाणियव्वा / जयाणं भंते ! जंबूदीवे दीवे मंदरस्सपव्वयस्स दाहिणड्डे पढमे अयणे पडिवाइ तया णं उत्तरड्ढे वि पढमे अयणे पडिवज्जइ, जहा समएणं अभिलावो तहेव अयणेण वि भाणियव्वो ०जाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि पढमे अयणे पडिवन्ने भवति, जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेण विभाणियव्वो, जुएण वि वाससएण वि वाससहस्सेण वि वाससयहस्सेण वि पुव्वंगेण वि पुव्वेण वि तुडियंगेण वितुडिएण वि, एवं पुटवे 2 तुडिये 2 अडडे 2 अववे 2 हुहुए 2 उप्पले 2 पउमे 2 नलिणे 2 अच्छणिउरे 2 अउए 2 णउए 2 पउए 2 चूलिया 2 सीसपहेलिया 2 पलिओवमेण वि सागरोवमेण वि भाणियय्वो / जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डे पढमा ओसप्पिणी पडिवज्जइ तया णं उत्तरड्डे वि पढमा ओसप्पिणि जया णं उत्तरले विपडिवजइ तदा णं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपचत्थिमेण वि,णेवत्थि ओसप्पिणी नेवत्थि उस्सप्पिणी अवहिए णं तत्थ काले पन्नते ? समणाउसो! हंता गोयमा! तं चेव उच्चारेयवं जाव समणाउसो ! जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ, एवं उस्सप्पिणीए वि भाणियव्वो। (सू०१७८) 'जया णं भंते ! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डे वासाणं पढमे समए पडिवज्जइ' इत्यादि, 'वासाणं' ति-चतुर्मासप्रमाण-वर्षाकालस्य सम्बन्धी प्रथमःआद्यः समयः-क्षणः प्रतिपद्यते-संपद्यते भवतीत्यर्थः 'अणंतरपुरक्खडे समयंसि' त्ति-अनन्तरो-निर्व्यवधानो दक्षिणार्द्ध वर्षाप्रथमतापेक्षया सचातीतोद्धपि स्यादत आह-पुरस्कृतः-पुरोवर्ती; भविष्यन्नित्यर्थः, समयः-प्रतीतः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तत्र, 'अणंतरपच्छाकडसमयंसि' त्ति-पूर्वापरविदेहवर्षाप्रथमस्रयापेक्षया योऽनन्तरपश्चात्कृतोऽतीतः समयस्तत्र दक्षिणोत्तरयोर्वर्षाकालप्रथमसमयो भवतीति। 'एवं जहा-समएण' मित्यादि, आवलिकाऽभिलापश्चैवम्'जयाणं भंते! जंबूदीवे दीवे दाहिणड्डेवासाणं पढमा आवलिया पडिवजति तया णं उत्तरड्डे वि, जया णं उत्तरड्डे वासाणं पढमावलिया पडिवद्धति तयाणं जंबूदीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपचत्थिमेणं अणंतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जइ ? हंता गोयमा !' इत्यादि। एवमानप्राणादिपदेष्वपि, आवलिकाद्यर्थः पुनरयम्-आवलिका असंख्यातसमयात्मिका आनप्राणः-उच्छ्वासनिःश्वासकालः स्तोकःसप्तप्राणप्रमाणः लवस्तु-सप्त-स्तोकरूपः मुहूर्तः-पुनर्लवसप्त-सप्ततिप्रमाणः, ऋतुस्तु-मा-सद्वयमानः, 'हेमंताणं' ति-शीतकालस्य' 'गिम्हाण व ति–उष्णकालस्य पढमे अयणे' त्ति-दक्षिणायनं श्रावणादित्वात्संवत्सरम्य जुएण वित्ति-युगं-पञ्चसंवत्सर-मान 'पुव्वंगेण वि' त्ति--पूर्वाङ्ग चतुरशीतिवर्षलक्षाणाम् 'पुव्वेण वि' त्ति-पूर्व पूर्वाङ्गमेव चतुरशीतिवर्षलक्षण गुणितम् एवं चतुरशीतिवर्षलक्ष-गुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भवति, चतुर्नवत्यधिकं चाङ्कशतमन्तिमे स्थाने भवतीति। पढमा ओसप्पिणि' त्ति अवसर्पयति भावानित्येवंशीलाऽवसर्पिणी तस्याः प्रथमो विभागः प्रथमावसर्पिणी, 'उस्सप्पिणि त्ति-उत्सर्पयति भावानित्येवंशीला उत्सर्पिणीति। भ० 5 श० 1 उ०। एतदेव पश्चानुपूर्व्या पृच्छतिजया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे केमहालिया राई भवइ? गोयमा! तयाणं उत्तमकट्ठपत्ता उक्कोसिया अट्ठारससुहुत्ता राई भवइ, जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ त्ति, एस णं पढमे छम्मासे एसणं पढमस्सछम्मासस्स पज्जवसाणे। से पविसमाणे सरिए दोचं छम्मासं अयमाणे पढमंसि अहोरत्तंसि बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, जया णं भंते ! सूरिए बाहिराणंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवई ? गोयमा ! अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ दोहिं एगसहिभागसुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ दोहिं एगसहिभागमुहुत्तेहिं अहिए, से पविसमाणे सूरिए दोचंसि अहोरत्तंसि बाहिरतच मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ, जया णं भंते ! सूरिए बाहिरतचं मंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ, गोयमा ! तयाणं अट्ठारसमुहुत्ता राई भवइ चउहिं एगसट्ठिभागमुहुत्तेहिं ऊणा दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइचउहिं एगसट्ठिभागमुमुत्तेहिं अहिए, इति / एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतराओ मंडलाओ तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसट्ठिभागसमुहुत्तेहिं एगमेग मंडले रयणिखेत्तस्स निबुद्धेमाणे 2 दिवसखेत्तस्स अभिबुद्धेमाणे 2 सव्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइत्ति, जया णं भंते ! सूरिए सव्वबाहिराओ मंडलाओ सध्वमंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सवबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसिएणं Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1066 -अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल राइंदिअसएणं तिण्णि छावढे एगसट्ठिभागमुहत्तसए रयणिखेत्तस्स ___ अंतो संकुआ बाहिं वित्थडा अंतो वट्टा बाहिं विउला अंतो णिव्वुद्धत्ता दिवसखेत्तस्स अभिववेत्ता चार चरइ, एस णं दोच्चे अंकमुहसंठिया बाहिं सगडुदीमुहसंठिआ उत्तरपासे णं तीसे दो छम्मासे एस णं दुचस्स छम्मासस्स पज्जवसाणे एस णं आइये बाहाओ अबटिआओ हवंति पणयालीसं 2 जोअणसहस्साई संवच्छरे एस णं आइचस्स संवच्छरस्स पञ्जवसाणे पण्णत्ते / आयामेणं, दुवे अ णं तीसे बाहाओ अणवद्विआओ हवंति, तं 8 / (सू०१३४+) जहा-सव्वभंतरिआ चेव बाहा सव्वबाहिरिआ चेव बाहा, तीसे "जयाणं' मित्यादि, प्रश्नसूत्रप्राग्वत्, उत्तरसूत्रे गौतम! तदा उत्तमकाष्ठा णं सव्वब्भंतरिआ बाहा मंदरपव्वयंतेणं णवजोअणसहस्साई प्राप्ता -प्रकृष्टावस्थां प्राप्ता अत एवोत्कर्षिकाउत्कृष्टा, यतो नान्या चत्तारि छलसीए जोअणसए णव य दसभाए जोअणस्स प्रकर्षवती रात्रिरित्यर्थः, अष्टादशमुहूर्तप्रमाणा रात्रिर्भवति तदा त्रिंशन्मु- परिक्खेवेणं, एस णं मंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएति हूर्तरूखयापूर्णाय जघन्यको द्वादशमुहूर्तप्रमाणो दिवसो भवति त्रिंशन्मु- वएजा? गोयमा! जे णं मंदरस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं तिहिं हूर्तत्वादहोरात्रस्य, एष चाहोरात्रो दक्षिणायनस्य चरम इत्यादि प्रज्ञाप- गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस परिक्खेवविसेसे नार्थमाह-'एस ण' मित्यादि, एतच प्रागुक्तार्थम्, अथात्र द्वितीयं मण्डलं आहिएति वदेजा। तीसे णं सव्वबाहिरिआ बाहालवणसमुहंतेणं पृच्छन्नाह-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्व-बाह्यानन्तरं चउणवईजोअणसहस्साइं अट्ठसट्टेजोअणसएचत्तारि अदसभाए द्वितीयं मण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा किंप्रमाणो दिवसो भवति, जोअणस्स परिक्खेवेणं, से णं भंते ! परिक्खेवविससे कओ किंप्रमाणा रात्रिर्भवति ? गौतम ! अष्टादशमुहूर्त्ता द्वाभ्यां मुहूर्तक- आहिएति वएज्जा ? गोयमा ! जेणं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं षष्टिभागाभ्यामूना रात्रिर्भवति, द्वादशमुहूर्तों द्वाभ्यां मुहूर्तकषष्टिभागा- परिक्खेवं तिहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसभागे हीरमाणे एस णं भ्यामधिको दिवसो भवति भागयोन्यूनाधिकत्वकरणयुक्तिः प्राग्वत्, परिक्खेवविसेसे आहिएति वएज्जा इति / तया णं भंते ! अथ तृतीयमण्डलप्रश्नायाह-'से पविसमाणे' त्ति-प्राग्वत् प्रश्नसूत्रमपि तावक्खित्ते केवइयं आयामेणं पण्णता ? गोयमा ! अट्ठहत्तर तथैव, उत्तरसूत्रे गौतम ! तदा अष्टादशमुहूर्ता द्वाभ्याम् पूर्वमण्डलस- जोअणसहस्साई तिण्णि अ तेत्तीसे जोअणसए ०जोअणस्स त्काभ्यां द्वाभ्यां च प्रस्तुतमण्डलसत्काभ्याम् इत्ये व चतुर्भिः चतुः- तिभागं च आयामेणं पण्णत्ते, 'मेरुस्स मज्झयारे, जाव य सङ्ख्याकैर्महूतेकषष्टिभागैरूना रात्रिर्भवति, द्वादशमुहूर्तश्च तथैव लवणस्स रुंदछब्भागो। ताावायामो एसो , सगडुद्धीसंठिओ चतुर्भिर्मुहूर्त्तकषष्टिभागैरधिको दिवसो भवति, उक्तातिरिक्तेषु मण्डले- नियमा // 1 // " तया णं भंते ! किंसंठिआ अंधकारसंठिई ब्वतिदेशमाह-'एवं खलु' इत्यादि, एवं मण्डलत्रयदर्शितरीत्या एतेना- पण्णत्ता ? गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुआ पुण्फसंठाणसंठिआ नन्तरोक्तेनोपायेन प्रतिमण्डलं दिवसरात्रिसत्कमुहूर्त्तकषष्टिभागद्वयवृद्धि- अंधकारसंठिई पण्णत्ता, अंतो संकुआ बाहिं वित्थडातं चेव० हारिनरूपेण प्रविशन्जम्बूद्वीपे मण्डलानि कुर्वन् सूर्यस्तदनन्तरान्मण्ड- जाव तीसे णं सव्वब्भंतरिआबाहामंदरपयंतेणं छज्जोअणसहलात् तदनन्तरं मण्डलं सक्रामन् 2 द्वौ द्वौ मुहूर्तषष्टिभागौ एकैकस्मिन् स्साइं तिणि अचउवीसे जोअणसए छच दसभाए जोअणस्स मण्डले रजनिक्षेत्रस्य निवर्द्धयन् 2 दिवसक्षेत्रस्य तावेवाभिवर्द्धयन् 2 परिक्खेवेणं ति,से णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएति सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्यचारं चरति, अत्रापि सर्वमण्डलेषु भागानां वएज्जा ? गोयमा ! जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवे तं हानिवृद्धिसर्वाग्रं निर्दिशन्नाह- 'जया ण' मित्यादि यदा भगवन् ! सूर्यः परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता दसहिं छेत्ता दसहिं भागे हीरमाणे एस सर्वबाह्यात् सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसं क्रम्य चारं चरति तदा सर्वबाह्यं णं परिक्खेवविसेसे आहिएति वएज्जा, तीसे णं सध्वबाहिरिआ मण्डलं प्रणिधायमर्यादीकृत्य तदक्तिनाद् द्वितीयान्मण्डलादारभ्ये- बाहा लवणसमुदंतेणं तेसट्ठि जोअणसहस्साई दोषिणं य त्यर्थः एकेन त्र्यशीत्यधिकेन रात्रिन्दिवशतेन त्रीणि षट्षष्ट्यधिकानि पणयाले जोअणसए छच दसभाएजोअणस्स परिक्खेवेणं, से मुहूर्तकषष्टिभागशतानि रजनिक्षेत्रस्य निवळ 2 दिवसक्षेत्रस्य तान्येवा- णं भंते ! परिक्खेवविसेसे कओ आहिएति वएज्जा ? गोयमा! भिवर्य 2 चारं घरति एष चाहोरात्र उत्तरायणस्य चरम इत्यादि जेणं जंबुद्दीवस्स परिक्खेवे तं परिक्खेवं दोहिं गुणेत्ता० जाव निगमयन्नाह-'एस ण' मित्यादि प्राग्वत्। तं चेव, तया णं भंते ! अंधयारे केवइए आयामेणं पण्णत्ते ? अथ नवमं तापक्षेत्रद्वारम् गोयमा ! अट्ठहत्तरं जोअण-सहस्साई तिण्णि अ तेत्तीसे जया णं भंते / सूरिए सव्वब्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं | जोअणसए तिभागं च आयामेणं पण्णत्ता। जया णं भंते ! सूरिए चरइ तया णं किंसंठिया तावखित्तसंठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! सवबाहिरमंडलं उवसंकमित्ता चार चरइ तया णं किंसंठिया उद्धीमुहकलंबुआपुप्फसंठाणसंठिया तावखेत्तसंठिई पण्णता तावक्खित्तसं दिई पण्णत्ता ? गोयमा, उद्धीमुहकलंबुआ . Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1070 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल पुप्फसंठाणसंठिआ पण्णत्ता,तं चेव सव्वं अव्वं एवरं णाणत्तं जं अंधयारसंठिइए पुव्ववण्णि पमाणं तं तावखित्तसंठिईए णेअव्वं,जंताव खित्तसंठिई पुथ्ववण्णि पमाणं तं अंधयारसंठिईए णेअव्वं ति। (सू०१३५) 'जयाण' मित्यादि, यदा भगवन् ! सूर्यः सर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चार चरति तदा किंसंस्थिता-किंसस्थना ताप क्षेत्रस्यसूर्यातपव्याप्ताकाशखण्डस्य संस्थितिः-व्यवस्था प्रज्ञप्ता ? सूर्यातपस्य किंसंस्थानमिति यावत्, भगवानाह-गौतम ! ऊर्ध्वमुखम् अधोमुखत्वे तस्य वक्ष्यमाणाकारासम्भवात् यत् कलम्बुकापुष्पंनालिकापुष्पं तत्सस्थानसस्थिता प्रज्ञप्ता मया शेषैश्च तीर्थकृद्भिः, इदमेव संस्थानं विशिनष्टि अन्तः मेरुदिशिसङ्कुचिताबहिः-लवणदिशि विस्तृता, तथा अन्तः-मेरुदिशि वृत्ता-अर्द्धबलयाकारा सर्वतो वृत्तमेरुगतान त्रीन् द्वौ वा दश भागान् अभिव्याप्यास्या व्यवस्थितत्वात्, बहिः-लवणदिशि पृथुला भुत्कलभावेन विस्तारमुपगता, एतदेव संस्थानकथनेन स्पष्टयतिअन्तमरुदिशि अङ्क:-पद्मासनोपविष्टस्योत्सङ्गरूपआसनबन्धस्तस्य मुखम्-अग्रभागोऽर्द्धबलयाकारस्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सातथा, बहिः-लवणदिशिशकटस्थोद्धिःप्रतीतातस्या मुखं यतः प्रभृति निश्रेणिकायाः फलकानि बध्यन्ते तचातिविस्तृतं भवति तत्संस्थाना, अन्तर्बहिर्भागौ प्रतीत्य यथाक्रमं सङ्कुचिता विस्तृता इति भावः / आदर्शान्तरेतु'बाहिं सोत्थअमुहसठिआ पाठस्तत्र स्वस्तिकः प्रतीतस्तस्य मुखम्--अग्रभागस्तस्येवातिविस्तीर्णतयासंस्थितं--संस्थान यस्याः सा तथा, अथास्या आयाममाह-'उभओ पासेण' मित्यादि, उभयपार्श्वेन-मन्दरस्योभयोः पार्श्वयोः तस्याः-तापक्षेत्रसंस्थितेः सूर्यभेदेन द्विधा व्यवस्थितायाः प्रत्येकमेकैकभावेन द्वे बाहे-द्वे द्वे पार्षे अवस्थिते--अवृद्धिहानिस्वभावे सर्वमण्डलेष्वपि नियतपरिमाणे भवतः; अयमर्थ:-एका भरतस्थसूर्यकृता दक्षिणपार्श्वे, द्वितीया ऐरवतस्थसूर्यकृता उत्तरपार्श्वे इति द्विप्रकारा, सा च पञ्चचत्वारिंशतं 2 योजनसहस्राणि आयामेन, मध्यवर्त्तिनो मेरोरारभ्य द्वयोर्दक्षिणोत्तरभागयोः पञ्चचत्वारिंशता योजनसहस्रैर्व्यवहिते जम्बूद्वीपपर्यन्ते व्यवस्थितत्वात्,एवं पूर्वापरभागयोरपि, यदा तत्र सूर्यो तदाऽय मायामो बोध्यः, एतच सूत्रं जम्बूद्वीपगतायाममपेक्ष्य बोध्य, लवणसमुद्रे तुत्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि एकश्च त्रिभागो योजनस्येति, एतच एकत्र पिण्डितमष्टासप्ततिः सहस्राणि योजनानां त्रीणि शतानि इत्यादिक सूत्रकृदग्रे वक्ष्यतितत्र सोपपत्तिकं निगदिष्यते तेनात्र पुनरुक्तभिया नोक्तम्। सम्प्रत्यनव-स्थितबाहास्वरूपमाह-'दुवे अण' मित्यादि, तस्याः-एकैकस्यास्तापक्षेत्रसंस्थिते द्वे च बाहे अनवस्थिते-अनियतपरिमाणे भवतः, प्रतिमण्डलं यथायोग हीयमानवर्द्धमानपरिमाणत्वात, तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा सर्वबाह्या चैवशब्दो प्रत्येकमनवस्थितस्वभावद्योतनार्थी, तत्र या मेरुपावै विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वाभ्यन्तरा यातुलवणदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तमधिकृत्य बाहासा सर्वबाह्या, आयामश्च दक्षिणोत्तरायततया प्रतिपत्तव्यो विष्कम्भः पूर्वापरायततयेति। साम्प्रतं सर्वाभ्यन्तरा परिमाणं निर्दिशति-'तीसे ण' मित्यादि, तस्या एकैकस्याः तापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा वाहा मेरुगिरिसमीपे नवयोजनसहस्राणि चत्वारि षडशीत्यधिकानि योजनशतानि नव च दश भागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपत्त्यर्थ प्रश्नमाह -'एस ण' मित्यादि एष:-अनन्त रोक्तप्रमाणः परिक्षेपविशेषो मन्दरपरिरयपरिक्षेपविशेषः कुतः-कस्मात् एवंप्रमाण आख्यातो; नऊनोऽधिको वा इति वदेत् ? भगवानाह-गौतम ! यो मन्दरस्य परिक्षेपस्तं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वा-दशभिर्विभज्य एतदेव पर्यायेण व्याचष्ट दशभिर्भागे ह्रियमाणे सति एष परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः / अयमर्थः-मेरुणा प्रतिहन्यमानः सूर्यातपो मेरुपरिधि परिक्षिप्य स्थित इति मेरुसमीपेऽभ्यन्तरतापक्षेत्रविष्कम्भचिन्ता, अथैवं सति स त्रयोविंशतिषट्शताधिकैकत्रिंशत्सस्रयोजनमानः सर्वोऽपि मेरुपरिधिरस्य तापक्षेत्रस्य विष्कम्भतामापद्येत इति चेन, न, सर्वाभ्यन्तरे मण्डले वर्तमानः सूर्यो दीप्तलेश्याकरवाज्जम्बूद्वीपचक्रवालस्य यत्रतत्र प्रदेशे तत्तच्चक्रवालक्षेत्रानुसारेण त्रीन् दशभागान् प्रकाशयति दशभागानां त्रयाणां मीलने यावत् प्रमाण क्षेत्रं तातत्तापयतीत्यर्थः / ननु तर्हि मेरुपरिधेस्रिगुणीकरणं किमर्थम् ? दशभागानां त्रिधा गुणनेनैव चरितार्थत्वात्, सत्या, विनेयानां सुखावबोधाय / भगवतीवृत्तौ तु श्रीअभयदेवसूरिपादा दशभागलब्धं त्रिगुणं चक्रुरिति,अथदशभिर्भागे को हेतुरिति चेत्, उच्यते-जम्बूद्वीपचक्रवालक्षेत्रस्य त्रयो भागा मेरुदक्षिणपार्श्वे त्रयस्तस्यैवात्तरपार्श्वे द्वौ भागौ पूर्वतो द्वौ चापरतः सर्वमीलने दश, तत्र भरतगतः सूर्यः सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चरन् त्रीन भागान् दाक्षिणात्यान् प्रकाशयति, तदानीं च त्रीनौत्तराहान् ऐरवतगतः तदा द्वौ भागौ पूर्वतो रजनी द्वौ चापरतोऽपि यथा यथा क्रमेण दाक्षिणात्य औत्तराहो वा सूर्यः सञ्चरति तथा तथा तयोः प्रत्येक तापक्षेत्रमग्रतो वर्द्धते पृष्ठतश्च हीयते, एवं क्रमेण सञ्चरणशीले तापक्षेत्रे यदैकः सूर्यः पूर्वस्यां परोऽपरस्या वर्तते तदा पूर्वपश्चिमदिशोः प्रत्येक तीन भागाँस्तापक्षेत्रं द्वौ भागौ दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येकं रजनीति / अथ गणितकर्मविधानं, तत्र मेरुव्यासः 10000 एषां वर्गो दश कोट्यः 100000000 ततो दशभिर्गुणने जातं कोटिशतम् 1000000000 अम्य वर्गमूलानयने लब्धन्येक त्रिंशद्योजनसहस्राणि षट्शतानि त्रयोविंशत्यधिकानि३१६२३, एष राशिस्त्रिभिर्गुण्यतेजातानिचतुर्नवतिः सहस्राणि अष्टौ शतान्येकोनसप्तत्यधिकानि 64866 एषां दशभिर्भागे लब्धानि नवयोजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दशभागा योजनस्य। अथ सर्वबाह्यबाहापरिमाणमाह-'तीसे ण' मित्यादि, तस्याःतापक्षेत्रसंस्थितेः सर्वबाह्या लवणममुद्रस्यान्ते-समीपे चतुर्नवतिः योजनसहस्राणि अष्टौ च षष्ट्यधिकानिं योजनशतानि चतुरश्च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण / अत्रोपपादकसूत्रमाह-- 'से णं भंते ! परिक्खेवे' इत्यादि, स भदन्त ! परिक्षेपविशेषोऽनन्तरोक्तो य इति गम्यं कुत Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1071 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल आख्यात इति गौतमो वदेद्-वदति / भगवानाह- गौतम ! यो जम्बूद्वीपपरिक्षेपस्तं परिक्षेपं त्रिभिर्गुणयित्वा दशभिश्छित्त्वादशभिर्विभज्य इदमेव पर्यायेणाह-दशभिर्भागेहियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यातो मयाऽन्यैश्चाप्तैरिति वदेत् स्वशिष्येभ्यः इदमुक्तं भवतितापक्षेत्रस्य परमविष्कम्भः प्रतिपिपादयिषितव्यः, सच जम्बूद्वीपपर्यन्त इति तत्परिधिः स्थाप्यः, योजन 316227 क्रोश 3 धनूंषि 128 अडलानि 13 अर्धाङ्गुलम् 1 एतावता च योजनमेकं किञ्चिदूनमिति व्यवहारतः पूर्ण विवक्ष्यते-सांशराशितो निरंशराशेर्गुणितस्य सुकरत्वात् ततो जातम् 316228, एतत् त्रिगुणं क्रियते जातानि नव लक्षाणि अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणि षट्शतानिचतुरशीत्यधिकानि६४८६८४, एषां दशभिर्मजने लब्धानि चतुर्नवतियों जनसहस्राणि अष्टौ शतानि अष्टषष्ट्यधिकानि चत्वारश्च दशभागायोजनस्य, अत्रापि त्रिगुणकरणादौ युक्तिः प्राग्वत्, नन्वन्यत्र 'रविणो उदयत्थन्तर-चउणवइसहस्स पणसयछवीसा / वायाल छट्ठिभागा, कक्कडसंकतिदिअहम्मि' // 1 // इत्युक्तम्, अत्रोदयास्तान्तरं प्रकाशक्षेत्रं तापक्षेत्रमित्येकार्थाः तत्र भेदे किं निबन्धनमिति चेत्, उच्यते-सर्वाभ्यन्तरमण्डलवर्ती सूर्यो मन्दरदिशि जम्बूद्वीपस्य पूर्वतोऽपरतश्चाशीत्यधिकं शतं योजनानामवगाह्य चारं चरति तेनाशीत्यधिकशतयोजनानि द्विगुणानि 360 अस्य वर्गदशगुणवर्गमूलानयनेजातानि 1138 एतच्च द्वीपपरिधितः३१६२२७ रूपात् शोध्यते ततः स्थितम् 315086, अस्य दशभिर्भागे आगतम् 31508 अवशिष्टभागाः 9/10 अनयोरंशच्छेदयोः षड्भिर्गुणने जातम् 54/60 अथास्य राशेनिगुणने सम्पद्यते यथोक्तराशिः, तथाहि६४५२६ 40/60 इदं च सूक्ष्मेक्षिकया दर्शितं, न चैतत् स्वमत्युत्प्रेक्षितमिति भाव्यम्, श्रीमुनिचन्द्रसूरिकृतसूर्यमण्डलविचारेऽस्य सुविचारितत्वात्, प्रस्तुते च स्थूलनयाश्रयणेन द्वीपपर्यन्तमात्रविवक्षणेन सूत्रोक्तं प्रमाणं सम्पद्यते, द्वीपोदधिपरिधेरेव सर्वत्राप्यागमे दशांशकल्पनादिश्रवणात्, अनेन परिधितः परतो लवणोषड्भागं यावत् प्राप्यमाणे तापक्षेत्रे तच्चक्रबालक्षेत्रानुसारेण तत्र विष्कम्भसम्भवात् परमविष्कम्भस्तत्र कथनीय इति निरस्तम्, अयमेव चतुर्नवतिसहस्रपञ्चशतादियोजनादिको राशिर्बहुबहुश्रुतैः प्रमाणीकृतः करणसंवादित्वात्, तथाहि-स्वस्वमण्डलपरिधिः षष्ट्या भक्तो मुहुर्तगतिं प्रयच्छति, साच दिवसार्द्धगतमुहूर्तराशिना गुणिता चक्षुस्पर्श सा चोदयतः सूर्यस्या प्रतो यावानस्तमयतश्च पृष्ठतोऽपितावानिति द्विगुणितः सन्तापक्षेत्रं भवति, एतच चक्षु स्पर्शद्वारे सुव्यक्त निरूपितमस्ति / इदं च तापक्षेत्रकरणं ] सर्वबाह्यमण्डलसत्कतापक्षेत्रबाह्यबाहा-निरूपणे विभावयिष्यत इति नात्रोदा ह्रियते, यदुक्तं-चेत् दशभागान् प्रकाशयति इति तत्र भागः षण्मुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणः कथं ? सर्वाभ्यन्तरे मण्डले चरति सूर्ये दिवसोऽष्टादशमुहूर्तमानः नवमुहूर्ताक्रमणीये च क्षेत्रे स्थितः सूर्यो दृश्यो भवति, तत एतावत्प्रमाणं सूर्यात् प्राक्तापक्षेत्रं तावच्च अपरतोऽपि, इत्थं चाष्टादशमुहूर्ता-क्रमणीयक्षेत्रप्रमाणमेकस्य सूर्यस्य तापक्षेत्रं, तच किल दशभागत्रयात्मकं ततो भवत्येकस्मिन् न दशभागे षण्मुहूर्ताक्रमणीयक्षेत्रप्रमाणतेति। सम्प्रति सामस्त्यनायामतस्तापक्षेत्रपरिमाणं पिपृच्छिषुराह-'तया ण' मित्यादि यदा भगवन् ! एतावांस्तापक्षेत्रपरमविष्कम्भ इति गम्यं तदा भगवंस्तापक्षेत्रं सामस्त्येन दक्षिणोत्तरायततया कियदायामेन प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ! अष्टसप्तति योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिशदधिकानि योजनशतानि योजनस्यैकस्य त्रिभागं च यावदायामन प्रज्ञप्त, पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि द्वीपगतानि त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि च योजनशतानित्रयस्त्रिंशतदधिकानि, उपरि च योजनत्रिभाग-युक्तानि लवणगतानि, द्वयोः सङ्कलने यथोक्तं मानम्। इदं च दक्षिणोत्तरत आयामपरिमाणमवस्थितन क्वापि मण्डलचारे विपरिवर्तेतेति, एनमेवार्थ सामस्त्येन द्रढयति-'मेरुस्स मज्झयारे' इत्यादि, इह मेरुप्या सूर्यप्रकाशः प्रतिहन्यत इत्ये केषां मतम्, नेत्यपरेषाम् / तत्राद्यानां मते इयं सम्मतिरूपा गाथा, तस्मिन् पक्षे एवं व्याख्येया-करणं कारोमध्ये कारोमध्यकार:-मध्ये करणं मेरोस्तस्मिन् सति, कोऽर्थः?-चक्रवालक्षेत्रत्वात्तापक्षेत्रस्य मेरुंमध्ये कृत्वा यावल्लवणस्य रुन्दस्यनिर्देशस्य भावप्रधान-त्वादन्दतायाः-विस्तारस्य षड्भाग:--षष्ठो भागः एतावत्प्रमाणः तापस्य-तापक्षेत्रस्याऽऽयामः, तत्र मेरोरारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्तं यावत्पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि तथा लवणविस्तारोद्रे योजनलक्षे तयोः षष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशद्योजनानि एको योजनविभाग इति रूपः तत उभमीलने यथोक्तप्रमाणः, एषं च नियमात् शकटोधि(द्धि)संस्थितः-शकटो(द्धि)द्विसंस्थानः अन्तः सङ्कुचितो बहिर्विस्तृत इति। अथ येषां मेरुणा न सूर्यप्रकाशः प्रतिहन्यते इति मतं तेषामर्थान्तरसूचनायेयं गाथा तत्पक्षे चैवं व्याख्येया-मेरोमध्यभागो-मन्दरा यावच लवणरुन्दताषड्भागः एतेनमन्दरा सत्कपञ्चयोजनसहस्राणि पूर्वराशी प्रक्षिप्यन्ते जायते च त्र्यशीतिसहस्रयोजनानि त्रीणि योजनशतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि एकश्च योजनत्रिभागः 13333 1/3, अनेन च मन्दरगतकन्दरादीनामप्यन्तः प्रकाशः स्यादिति लभ्यते, यत्त्वस्मिन् व्याख्याने श्रीमलयगिरिपादैः सूर्यप्रज्ञप्तिवृत्तौ "युक्तं चैतत् सम्भावनया तापक्षेत्रायामपरिमाणमन्यथा जम्बूद्वीपमध्ये तापक्षेत्रस्य पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रपरिमाणाभ्युपगमे यथा सूर्यो बहिर्निष्क्रामति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्रमपि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा सर्वथा मन्दरसमीपे प्रकाशोन प्राप्नोति, अथ चतदापि तत्र मन्दरपरिरयपरिक्षेपेणाविशेष परिमाणमग्रे वक्ष्यते, तस्मात्पादलिप्तसूरिव्याख्यानमभ्युपगन्तव्यमि'' त्युक्तं, तत्र तत्र भवत्पादानां गम्भीरमाशयं न विद्मः बाह्यमण्डलस्थेऽपि सूर्ये इयत्प्रमाणस्य तापक्षेत्रायामस्यावस्थितत्वेन प्रतिपादनात्, उक्ता सर्वाभ्यन्तरे मण्डले तापक्षेत्रसंस्थितिः / सम्प्रति प्रकाशपृष्ठलग्नत्वेन तद्विपर्यभूतत्वेन च सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽन्धकारसंस्थितिं पृच्छति-'तयाणभन्ते!' इत्यादि,तदा-सर्वाभ्यन्तरमण्डलचरणकालेकर्कसंक्रान्तिदिने किंसंस्थाना अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता? यद्यपि प्रकाशत Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1072- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल मसोः सहावस्थायित्वविरोधात् समानकालीनत्वासंभवः तथापि अवशिष्टेषु चतुर्षु जम्बूद्वीपचक्रवालदशभागेषु सम्भावनया पृच्छत आशयान्नोक्तविरोधः, ननुआलोकामावरूपस्य तमसः संस्थानासंभवेन कुतस्तत्पृच्छौचितीमञ्चति ? उच्यते-नीलं शीतं बहलं तम इत्यादिपुद्गलधर्माणामभ्रान्तसार्वजनीनव्यवहार-सिद्धत्वेनास्य पौगलिकत्वे सिद्धे संस्थानस्यापि सिद्धेः, यथा चास्य पौद्गलिकत्वं तथाऽन्यत्र पूर्वाचार्यैः सुचर्चितत्वान्नात्र विस्तरभिया चर्च्यते इति, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थिता अन्धकारसंस्थितिः प्रज्ञप्ता, अन्तः संकुचिता बहिर्विस्तृतेत्यादि तदेव-तापक्षेत्रसंस्थित्यधिकारोक्तमेव ग्राां, कियत्पर्यन्तमित्याह यावत्तस्याः अन्धकारसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरिका बाहा मन्दरपर्वतान्ते षड् योजनसहस्राणि त्रीणि चतुर्विशत्यधिकानि योजनशतानि षट् च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेण, अत्रोपपत्ति सूत्रकृदेवाह--' से ण' मिति, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, उत्तरसूत्रे यो मेरुपरिक्षेपः सत्रयोविंशतिषट्शता-धिकैकत्रिंशद्योजनसहनमानस्तंपरिक्षेपंद्वाभ्यां गुणयित्वा, सर्वाभ्यन्तरमण्डलस्थे सूर्ये तापक्षेत्रसत्कानां त्रयाणां भागानामपान्तराले रजनिक्षेत्रस्य दशभागद्य 2 मानत्वात् दशभिर्विमज्यदशभिर्भागे ह्रियमाणे एष परिक्षेपविशेषे आख्यात इति वदेदेतद्भगवन् ! गौतमः स्वशिष्येभ्यः तथाहि 31623 एतद् द्वाभ्यां गुण्यते जातानि त्रिषष्टिसहस्राणि द्वे शते षट्चत्वारिंशदधिके 63246 एषां दशभिभागे लब्धं यथोक्तं मानम्। अथ बाहमिहि-तीसे ण' मित्यादि, तस्याः अन्धकारसंस्थितेः सर्वबाह्यबाहा पूर्वतोऽपरतश्च परमविष्कम्भो लवणसमुद्रान्ते त्रिषष्टिं योजनसहस्राणि द्वे च पञ्चचत्वारिंशदधिके योजनशते षट् च दशभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति, अत्रोपपत्तिं सूत्रकृदेवाह- 'से ण' मित्यादि, व्यक्तं, नवरं जम्बूद्वीपपरिक्षेपः 316228 तंपरिक्षेपं प्रागुक्तहेतुनाद्वाभ्यां गुणयित्वा दशभिभागे ह्रियमाणे एष परिक्षेपविशेष आख्यात इति वदेत् अथास्या अवस्थितबाहामाह'तया ण' मित्यादि, तदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलचारकाले अन्धकारं कियदायामेन प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! अष्टसप्तति योजनसहस्राणि त्रीणि च त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनशतानि योजनविभागं चैकम, अवस्थिततापक्षेत्रसंस्थित्यायाम इवायमपि बोध्यः तेन मन्दरार्द्ध-सत्कपञ्चसहस्रयोजनान्यधिकानि मन्तव्यानि सूर्यप्रकाशाभाववति क्षेत्रे स्वत एवान्धकारप्रसरणात्, कन्दरादौ तथा प्रत्यक्षदर्शनात्, सूत्रेऽविवक्षितान्यपि व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्तिरिति दर्शितानि / अथ पश्चानुपूर्त्या तापक्षेत्रसंस्थितिं पृच्छति-'जया ण' मित्यादि, यदा भगवन्। सूर्यः सर्वबाह्यमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति तदा किंस्थान-संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम! ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थिता प्रज्ञप्ता, तदेव अभ्यन्तरमण्डलगततापक्षेत्रसंस्थितिसत्कमेव सर्वमवस्थितानवस्थितबाहादिकं नेतव्यं, नवरमिदं नानात्वंविशेषः यदन्धकारसंस्थितेः पूर्व-सर्वाभ्यन्तर-मण्डलगतताप क्षेत्रसंस्थितिप्रकरणे वर्णितम् 632456/10 इत्येवंरूपं प्रमाणं तत्तापक्षेत्रसंस्थितेः प्रमाणं नेतव्यं, द्वीपपरिधिदशभागसत्कभागद्वय प्रमाणत्वात्, यत्तापक्षेत्रसंस्थितेः पूर्ववर्णितम् 48668 4/10 इत्येवंरूपं प्रमाण तदन्धकारसंस्थितेर्नेतव्यं द्वीपपरिधिदशभागसत्कभागत्रयप्रमाणत्वात्, यदत्र तापक्षेत्रस्याल्प तमसश्चानल्पत्वं तत्र मन्दलेश्याकत्वं हेतुरिति, एवं सर्वाभ्यन्तरमण्डलेऽभ्यन्तरबाहविष्कम्भे यत्तापक्षेत्रपरिमाणम्-६४८६६/६० इत्येवंरूपं तदत्रान्धकारसंस्थितेज्ञेयं, यच तत्रैव विष्कम्भेऽन्धकारसस्थितेः 63246/10 इत्येवं तापक्षेत्रस्यात्र मन्तव्यम्, ननु इदं सर्वबाह्यमण्डलसत्कतापक्षेत्रप्ररूपणं, यदि तन्मण्डलपरिधौ 318315 रूपे षष्टिभक्ते लब्धा 5305 रूपा मुहूर्तगतिः तदा च सर्वजघन्यो दिवसो द्वादशमुहूर्तप्रमाणोऽ तो द्वादशभिः सा गुण्यते तथा च कृते 63663 इत्येवंरूपो राशिः स्यात्, यदि वोक्तपरिधिर्द्विगुणितो दशभिर्भज्यते तदाप्यमेव राशिर्द्विधाकरणरीतिलब्धस्तत्किमेतस्मात् सूत्रोक्तराशिर्विभिद्यते ? उच्यते-सूत्रकारेण द्वीपपरिध्यपेक्षयैव करणरीतेर्दर्श्यमानत्वान्नत्रदोषः, अभ्यन्तरमण्डले परिधिर्यथा नन्यूनीक्रियते तथा बाह्यमण्डले नाधिकीक्रियते तत्र विवक्षैव हेतुरिति। सम्प्रति सूर्याधिकारादेतत्सम्बन्धिनं दूरासन्नादिदर्शनरूपं विचारं वक्तुं दशमं द्वारमाहजंबुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिआ उग्गमणमुहुत्तयि दूरे अमूले अ दीसंति मज्झंतिअमुहुत्तं सि मूले अ दूरे अ दीसंति अस्थमणमुहुत्तंसि दूरे अमूले अदीसंति? हंता गोयमा ! तं चेव० जावदीसंति, जम्बुद्दीवेणं भन्ते ! सूरिआ उग्गमणमुहुत्तंसि अ मज्झंतिअमुहुत्तंसि अत्थमणमुहुत्तंसि अ सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं, हंतातं चेव० जाव उच्चत्तेणं, जइणं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिआ उग्गमणमुहुत्तंसिअमज्झं० अत्थम० सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं, कम्हा णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे सूरिआ उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे अमूले अदीसंति हन्ता ! गोयमा ! लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे अ मूले अ दीसंति इति लेसाहितावेणं मझंतिअमुहुत्तंसि मूले अ दूरे अ दीसंति लेसापडिघाएणं अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे अमूले अदीसंति, एवं खलु गोअमा!तं चेव० जावदीसंति 10 / (सू०१३६) जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिआ किं तीअं खेत्तं गच्छन्ति पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति अणागयं खेत्तं गच्छन्ति ? गोयमा ! णो तीअं खेत्तं गच्छन्ति पड़प्पण्णं खेत्तं गच्छन्ति णो अणागयं खेत्तं गच्छन्ति ति, तं भन्ते ! किं पुढे गच्छन्ति० जाव नियमा छरिसिं ति, एवं ओभासेंति, तं भन्ते ! किं पुढे ओभासेंति? एवं आहारपयाई ऐअप्वाइं पुट्ठोगाढमणंतर-अणुमहआदिविसयाणुपुटवी अ जाव णिअमा छघिसिं, एवं उज्जोवेंति तवेंति पभासेंति 11 (सू० 137) जम्बुद्दीवे णं भन्ते ! दीवे सूरिआ णं किं तीते खित्ते किरिआकाइ पडुप्पण्णे० अणागए०? गोयमा! णो तीए Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1073 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल खित्ते किरिआ कज्जइ, पडुप्पण्णे कजइ,णो अणागए, सा भन्ते ! किं पुट्ठा कज्जइ ? गोअमा ! पुट्ठाकज्जइ णो अणापुट्ठा कज्जइ जाव णिअमा छद्दिसिं ।(सू०१३८) जम्बूद्वीपे भदन्त ! सूर्यो उद्गगमनमुहूर्ते- उदयोपलक्षिते मुहूर्ते एवमस्तमनमुहूर्ते, सूत्रे यफारलोप आर्षत्वात्, दूरे च-द्रष्टस्थानापेक्षया विप्रकृष्ट मूले च द्रष्टप्रतीत्यपेक्षया आसन्ने दृश्यते, द्रष्टारो हि स्वरूपतः सप्तचत्वारिंशता योजनसहरौः समधिकैर्व्यवहितमुद्रमनास्तमनयोः सूर्य पश्यन्ति, आसन्नं पुनर्मन्यन्ते, विप्रकृष्ट सन्तमपि न प्रतिपद्यन्ते, मध्यान्तिकमुहूर्त इति-मध्यो-मध्यमोऽन्तो-विभागो गमनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्यमुहुर्त्तस्यास्ति स मध्यान्तिकः, सचासौ मुहूर्तश्चेति मध्यान्तिकोमध्याह्नमुहूर्त इत्यर्थः, तत्र मूले चासन्ने देशे द्रष्टस्थानापेक्षया दूरे च-विप्रकृष्टे देशे द्रष्टप्रतीत्यपेक्षया सूर्यो दृश्यते / द्रष्टा हि मध्यहि उदयास्तमयनदर्शनापेक्षया आसन्नं रविं पश्यति, योजनशताष्टके नै व तदाऽस्य व्यवहितत्वात् मन्यते पुनरुदयास्तमयनप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितमिति, अत्र सर्वत्र काक्वा प्रश्नोऽवसेयः। अत्र भगवानाह-तदेव यद्भताऽनन्तरमेव प्रश्नविषयीकृतं तत्तथैवेत्यर्थः यावद् द्दश्यते इति, अत्र चर्मदशां जायमाना प्रतीतिर्मा ज्ञानद्दशां प्रतीत्या सह विसंवदत्विति संवादाय पुनीतमः पृच्छति 'जम्बूद्वीयेण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे उद्गमनमुहूर्ते च मध्यान्तिकमुहूर्ते च अस्तमयनमुहूर्ते च अत्र चशब्दावाशब्दार्थाःसूर्यो सर्वत्र-उक्तकालेषु समौ उच्चत्वेन, अत्रापि काकुपाठात् प्रश्नावगतिः, भगवानाह-तदेव यद्भवता मां प्रति पृष्टं यावदुच्चत्वेनेति, सर्वत्र-उगमनमुहूर्तादिषुसमौ समव्यवधानावुच्चत्वेन समभूतलापेक्षयाऽष्टौ योजनशतानीतिकृत्वा, न हि सती जनप्रतीति वयमपलपाम इति भगवदुक्तमेवानुवदन्नव विप्रतिपत्तिबीजं प्रष्टुमाह-'जइ ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं स्पष्टम्, उत्तरसूत्रे गौतम! लेश्यायाः-सूयमण्डलगततेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्वादुगमनदेशस्य तदपसरणेनेत्यर्थः उद्गमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्यते / लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन स्वभावेन दूरस्थोऽपि सूर्य आसन्नप्रतीतिं जनयति, एवमस्तमयनमुहूर्तेऽपि व्याख्येयम्, द्वयोः समगमकत्वात्, मध्यान्तिकमुहूर्तेतुलेश्याया अभितापेन-प्रतापेन सर्वतस्तेजः प्रतापेनेत्यर्थः, मूले च दूरे च दृश्येते, मध्याह्ने ह्यासन्नोऽपि सूर्यस्तीव्रतेजसा दुर्दर्शत्वेन दूरप्रतीतिं जनयति एवमेवासन्नत्वेन दीप्तलेश्याकत्वं दिनवृद्धिधर्मादयो भावा हुर्रगतत्वने मन्दलेश्याकत्वं दिनहानिशीता-दयश्च वाच्याः, उगमनास्तमयनादीनि चज्योतिष्काणां गति प्रवृत्ततया जायन्ते इति। तेषां गमनप्रश्नायैकाद्वीपे सूर्या किमतीतं-गतिविषयीकृतं क्षेत्रं गच्छतः-अतिक्रामतः उत प्रत्युत्पन्नवर्तमानं गतिविषयीक्रियमाणं उत अनागतं गतिविषयीकरिष्यमाणम्, एतेन इह च यदाकाशखण्डं सूर्यः स्वतेजसा व्याप्नोति तत्क्षेत्रमुच्यते तेनाष्यातीतेत्यादिव्यवहारविषयत्वं नोपपद्यते अनादिनिघनत्वादिति शङ्का निरस्ता। भगवानाह-गौतम! नोशब्दस्य निषेधार्थत्वान्नातीतं क्षेत्रं गच्छतः, अतीतक्रियाविषयीकृते वर्तमानक्रियाया एवासम्भवात्, प्रत्युत्पन्नं गच्छतः वर्तमानक्रियाविषये वर्तमानक्रियायाः सम्भवात्, नो अनागतम् अनागतक्रियाविषयेऽपि तद्सम्भवात्, अत्र | प्रस्तावाद् गतिविषय क्षेत्र कीदृक् स्यादिति प्रष्टुमाह-- 'तं भन्ते ! किं पुढे' इत्यादि, अत्र यावत्पदसंग्रहोऽयम्- 'पुढे गच्छंति, गोअमा! पुढे गच्छंति, णो, अपुटुं गच्छन्ति, तं भन्ते! किं ओगाढं गच्छन्ति अणोगाढं गच्छन्ति ? गोअमा ! ओगाढं गच्छन्ति, णो अणोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते ! किं अणंतरोगाढं गच्छन्ति, परंपरोगाढं गच्छन्ति ? गोअमा ! अणंतरोगाढं गच्छन्ति णो परंपरोगाढं गच्छन्ति, तं भन्ते ! किं अणुं गच्छंति बायरं गच्छंति? गोयमा! अणुं पिगच्छंति बायरं पि गच्छंति, तं भन्ते ! किं उर्द्ध गच्छंति अहे गच्छंति तिरियं गच्छन्ति ? गोअमा! उर्द्ध पि गच्छन्ति तिरिपि गच्छंति अहे विगच्छंति, तं भन्ते ! किं आइं गच्छंति मज्झे वि गच्छंति पञ्जवसाणे गच्छंति ? गोअमा ! आई पि गच्छंति मज्झे वि गच्छंति पज्जवसाणे विगच्छंति,तंभन्ते! किं सविसयं गच्छंति, अविसयं गच्छंति? गोअमा! सविसयं गच्छंति, णो अविसयं गच्छंति, तं मन्ते ! किं आणुपुट्विं गच्छंति अणाणुपुट्विं गच्छंति ? गोयमा ! आणुपुट्विं गच्छंतिणो अणाणुपुट्विं गच्छंति, तं भन्ते ! किं एगदिसिंगच्छंति छतिसिंगच्छंति? गोयमा! नियमा छद्दिसिं गच्छति' त्ति, अत्र व्याख्या-तद् भदन्त ! क्षेत्रं किं स्पृष्टसूर्यबिम्होनसह स्पर्शमागतं गच्छतः-अतिक्रामतः उताऽस्पृष्टम्, अत्र पृच्छकस्यायमाशयः-गम्यमानं हि क्षेत्रं किञ्चित् स्पृष्टमतिक्रम्यते यथाऽपवरकक्षेत्रं किंचिचाऽस्पृष्टं यथा देहलीक्षेत्रमतोऽत्र कः प्रकार इति, भगवानाह-स्पृष्टम् गच्छतः नास्पृष्टम्, अत्र सूर्यबिम्बेन सह स्पर्शनं सूर्यबिम्बावगाहक्षेत्रागहिरपि सम्भवति स्पर्शनाया अवगाहनतोऽधिकविषयत्वात्, ततः प्रश्नयतितद्भदन्त ! स्पृष्ट क्षेत्रम् अवगाढं-सूर्यबिम्बेनाश्रयीकृतम्अधिष्ठितमित्यर्थः उतानवगाढं तेनानाश्रयीकृतं; नाधिष्ठितमित्यर्थः, भगवानाह-गौतम ! अवगाढं क्षेत्रं गच्छतः नानवगाढम्, आश्रितस्यैव त्यजनयोगात्, अथ यद्भदन्त ! अवगाद तदनन्तरावगाढम्-अव्यवधानेनाश्रयीकृतम्, उत परम्परावगाढव्यवधानेनाश्रयीकृतं? भगवानाह-गौतम! अनन्तरावगाढं नपुनः परम्परागाढम्, किमुक्तं भवति-यस्मिन्नाकाशखण्डे यो मण्डलावयवोऽव्यवधानेनावगाढः स मण्डलावयवस्तमेवाकाशखण्डं गच्छति न पुनरपमण्डलावयवावगाढं तस्य व्यवहितत्वेन परम्परावगाढत्वात् तचाल्पमनल्पमपि स्यादित्याह-तद्दन्त ! अणुं गच्छतः बादरं वा ? गौतम ! अण्वपि सवोभ्यन्तरमण्डलक्षेत्रापेक्षया बादरमपि सर्वबाह्यमण्डलक्षेत्रापेक्षया, तत्तचक्रवालक्षेत्रानुसारेण गमनसम्भवात्, गमनं ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्गतित्रयेऽपि सम्भवेदिति प्रश्नयति-तद्भदन्त ! क्षेत्रमूर्ध्वमधस्तिर्यग्वा गच्छतः? गौतम ! ऊर्ध्वमपि तिर्यगप्यधोऽपि ऊवधिस्तिर्यक्त्वं च योजनैकषष्टिभागरूपचतुर्विशतिभाग-प्रमाणोत्सेधापेक्षया द्रष्टव्यम्, अन्यथा 'जाव नियमा छ दिसिं' इति चरमसूत्रेण सह विरोधः स्यात्, इदं च Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1074 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल व्याख्यानं प्रज्ञापनोपाङ्गगतैकादशभाषापदाष्टाविंशतितमाहारपदगतोधिस्तिर्यष्विषयनिर्वचनसूत्रव्याख्यानुसारेण कृतमिति बोध्यं, गमनं च क्रिया सा च बहुसामयिकत्वात् त्रिकालनिर्वर्तनीया स्यादित्यादिमध्यादिप्रश्नः, तद्भदन्त! किमादौ गच्छतः किंमध्ये उतपर्यवसाने / वा? भगवानाह-गौतम ! षष्टिमुहुर्तप्रमाणस्य मण्डलसंक्रमकालस्यादावपि मध्येऽपि पर्यवसानेऽपि गच्छतः उक्तप्रकारत्रयेण मण्डलकालसमापनात्, अथतद्भदन्त! स्वविषये-स्वोचितं क्षेत्रं गच्छतः उत अविषयं वा; स्वानुचितमित्यर्थः, गौतम ! स्वविषयं स्पृष्टावगाढनिरन्तरावगाढस्वरूपं गच्छतः न अविषयम्-अस्पृष्टानवगाढपरम्परावगाढक्षेत्राणां गमनायोग्यत्वात्, तद्भदन्त ! आनुपूर्याक्रमेण यथासन्नं गच्छतः उत अनानुपूर्वी क्रमेणाना-सन्नमित्यर्थः, सूत्रे द्वितीया तृतीयार्थे, गौतम! आनुपूर्व्या गच्छतः न अनानूपूर्व्या व्यवस्थाहानेः, प्रागृक्तमेव दिक्प्रश्नं व्यक्त्या आह-तद्भदन्त ! किमेकदिग्विषयकं क्षेत्रं गच्छतः यावत् षदिग्विषयकम् ? गौतम ! नियमात् षड्दिशि, तत्र पूर्वादिषु तिर्यदिक्षु उदितः सन् स्फुटमेव गच्छन् दृश्यते, ऊर्ध्वाधोदिग्मनं च यथोपपद्यते तथा प्राग्दर्शितम् / सम्प्रत्येतदतिदेशेनावभासनादिसूत्राण्याह-'एवं ओभासेंति' इत्यादि, 'एव' मिति-गमनसूत्र-प्रकारेण अवभासयतःईषदुद्योतयतः, यथा स्थूरतरमेव दृश्यते तमेव प्रकारमीषदर्शयतितद्भदन्त ! क्षेत्रं स्पृष्टसूर्यतेजसा व्याप्तम् अवभासयतः उताम्पृष्टम् ? भगवानाह-स्पृष्टम्, नास्पृष्टम्, दीपादिभास्वरद्रव्याणां प्रभाया गृहादिस्पर्शपूर्वकमेवाव-भासकत्वदर्शनात्, एवं-स्पृष्टापदरीत्या आहारपदानिचतुर्थोपाङ्गगताष्टा-विंशतितमपदे आहारग्रहणविषयकाणि पदानिद्वाराणि नेतव्यानि, तद्यथा-'पुट्ठो' इत्यादि, प्रथमतः स्पृष्टविषयं सूत्रम्, ततोऽधगाढसूत्रंततोऽगुणबादरसूत्रंततऊर्ध्वाधःप्रभृतिसूत्रम्, तत 'आई' इति उपलक्षणमेतत् आदिमध्यावसानसूत्रं ततो विषयसूत्रं तदनन्तरमानुपूर्वी सूत्रम्, ततो यावत् नियमात् षड्दिशीति सूत्रम्, अत्र यथासम्भवं विपक्षसूत्राण्युलक्षणाद्ज्ञेयानि, अत्र चोर्ध्वादिदिग्भावना सूत्रकृत् स्वयमेव वक्ष्यति, एवमुद्द्योतयतोभृशं प्रकाशयतः यथा स्थूलमेव दृश्यते, तापयतः-अपनी-तशीतं कुरुतः, यथा सूक्ष्म पिपीलिकादिदृश्यते तथा कृरुतः, प्रभासयतः-अतितापयोगादविशेषतोऽपनीतशीतं कुरुतः, यथा सूक्ष्मतरं दृश्यते उक्तमवार्थ शिष्यहिताय प्रकारान्तरेण प्रश्नयितुं द्वादशद्वारमाह-'जम्बुद्दीवेण' मित्यादि, जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे द्वयोः सूर्ययोः किमतीते क्षेत्रे-पूर्वोक्तस्वरूपे क्रिया-अवभासनादिका क्रियते, कर्मकर्तरि प्रयोगोऽयं तेन भवतीत्यर्थः, प्रत्युत्पन्ने अनागते वा ? भगवानाह-गौतम! नो अतीती क्षेत्रे क्रिया क्रियते, प्रत्युत्पन्ने क्रियते, नो अनागते, व्याख्यानं प्राग्वत्, सा क्रिया भगवन् ! किं स्पृष्टा क्रियते ? उतास्पृष्टा क्रियते ? गौतम! स्पृष्टा तेजसा स्पर्शनं स्पृष्ट भावे क्तप्रत्ययविधानात् तद्योगाद्या सा स्पृष्टा उच्यते, कोऽर्थ? सूर्यतेजसा क्षेत्रस्पर्शनेऽवभासनमुद्योतनं तापनं प्रभासनं चत्यादिका क्रिया स्यादिति।। अथवा--स्पृष्टात्-स्पर्शना निति पञ्चमीपरतया व्याख्येयं न अस्पृष्टात् क्रियते, अत्र यावत्पदात् आहारपदानि ग्राह्याणि / तत्रयं सूत्रपद्धतिः"से णं भन्ते ! किं ओगाढा अणोगाढा ? ओगाढा णे, अणोगाढा।" अत्रापि भायेक्तप्रत्ययविधानादवगाढम्--अवगाहनं क्षेत्रे तेजःपुद्गलानामवस्थानं तद्योगाद्या साऽवगाढा क्रिया, एवमनन्तरावगाढ-परम्परावगाढसूत्रम्। 'साणं भन्ते! अण्णू किज्जइ ? बायरा किज्जइ ? गोअमा! अणू वि बायरा वित्ति-सा क्रिया अवभासनादिका किमणुर्या बादरा वा क्रियते गौतम! अणुरपि-सर्वाभ्यन्तरमण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया, बादराऽपिसर्वबाह्यमण्डलक्षेत्रावभासनापेक्षया, ऊधिस्तिर्यक्रसूत्रविभावनां सूत्रकृदनन्तरमेव करिष्यति'साणं भन्ते ! किं आई किज्जइमझे किजइ पज्जवसाणे किज्जइ ? गोयमा ! आई पि किज्जइ मज्झं विकिज्जइ पज्जवसाणे विकिजइ'त्ति गमनसूत्र इवात्रापि भावना। एवं विषयसूत्रमानुपूर्वीसूत्रं च ज्ञेयमिति। अथ त्रयोदशद्वारमाहजम्बूदीवेणं भन्ते ! दीवे सूरिआ केवइखेत्तं उद्धं तवयन्ति अहे तिरिअंच? गोयमा! एगंजोअणसयं उद्धंतवयन्ति अट्ठारससयजोअणाई अहे तवयन्ति सीआलीसं जोअणसहस्साई दोण्णि अ तेवढे जोअणसए एगवीसं च सद्विभाए जोअणस्स तिरिअं तवयन्ति त्ति 13 / (सू० 139) / अंतो णं मंते ! माणुसुत्तरस्स पव्वयस्सजे चंदिमसूरिअगहगणणक्खत्ततारारूवा णं भन्ते ! देवा किं उद्घोववण्णगा कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगां चारोववण्णगा चारद्विइआ गइरइआ गइसमावण्णगा? गोयमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चन्दिमसूरिअ जाव तारारूवे ते णं देवाणो उद्घोववण्णगाणो कप्पोववण्णगा विमाणोववण्णगा चारोववण्णगा णो चारविइआ गइरइआ गइसमावण्णगा उद्धीमुहकलंबुआपुप्फ संठाणसंठिएहिं जोअणसाहस्सिएहिं तावखेत्तेहिं साहिस्सिआहिं वेउविआहिं बाहिराहिं परिसाहिं महया हयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडि अघण-मुइंगपडुप्पवाइअरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई मुंजमाणा महया उक्किडिसीहणायबोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमण्डलचारं मेरं अणुपरिअट्टति 14 / (सू०१४०) 'जम्यूदीवेणं' मित्यादि प्रश्नसूत्र व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे गौतम ऊर्ध्वमेकं योजनशतं तापयतः, स्वविमानस्योपरि योजनशतप्रमाणस्यैव तापक्षेत्रस्य भावात्, अष्टादशयातयोजनान्यधस्तापयतः कथं ? सूर्याभ्यामष्टासु योजनशतेष्वधोगतेषु भूतलम्, तस्माच योजनसहने अधोग्रामाः स्युस्तांश्च यावत्तापनात् सप्तचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि इत्यादि प्रमाण क्षेत्र तिर्यक् तापयतः, एतच सर्वोत्कृष्टदिवस चक्षुःस्पर्शापेक्षया बोध्यम; तिर्यदिक्कथनेन पूर्वपश्चिमयोरेवेदं ग्राह्यम्, उत्तरस्तु 150 न्यून 45 योजनसहस्राणियाम्यतःपुनीपं 180 योजनानि, लवणे तुयोजनानि 33 सहस्राणि 3 शतानित्रयसिंशदधिकानियोजनविभागयुतानीति। अथ मनुष्यक्षेत्रवर्तिज्योतिष्कस्वरूपं प्रष्टुं चतुर्दशद्वारमाह'अंतो णं भन्ते !' इत्यादि, अन्तर्मध्ये भदन्त ! मानुषोत्तरस्य मनुष्ये Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1075 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल भ्यः उत्तरः-अग्रवर्ती एनमवधीकृत्य मनुष्याणामुत्पत्तिविपत्तिसिद्धि- | सम्पत्तिप्रभृतिभावात् / अथवा-मनुष्याणामुत्तरोविद्यादिशक्त्यभावेऽनुल्लननीयो मानुषोत्तरस्तस्य पर्वतस्य ये चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपज्योतिष्काः ते भदन्त ! अत्रैकस्मिन्नेव प्रश्ने यद्भदन्तेति भगवत्सम्बोधनं पुनश्चक्रे तत्पृच्छकस्य भगवन्नामोच्चारेऽतिप्रीतिमत्त्वात् देवाः किमूर्योपपन्नाः-सौधर्मादिभ्यो द्वादशभ्यः कल्पेभ्यः ऊर्ध्वं ग्रैवेयकानुत्तरविमानेषूपपन्नाः-उत्पन्नाः कल्पातीता इत्यर्थः, कल्पोपन्नाःसौधर्मादिदेवलोकोत्पन्नाः विमानेषुज्योतिःसम्बन्धिषु उपपन्नाः-चारोमण्डलगत्या परिभ्रमणं तमुपपन्नाआश्रितवन्तः उत चारस्ययथोक्तस्वरूपस्य स्थितिः-अभावो येषांतेचारस्थितिका; अपगतचारा इत्यर्थः, गतौ रतिः-आसक्तिः प्रीतिर्येषां ते गतिरतिकाः, अनेन गतौरतिमात्रमुक्तं, सम्प्रति साक्षाद् गतिप्रश्नयति-गतिसम्पन्नाः-गतियुक्ताः? भगवानाहगौतम ! अन्तरमानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्र सूर्यग्रहणगणनतारारूपज्योतिष्कास्ते देवा नोोपपन्नाः नो कल्पोपपन्नाः विमानोपपन्नाः चारोपपन्नाः नो चारस्थितिकाः अत एव गतिरतिकाः गतिसमायुक्ताः, ऊर्ध्वमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थानसंस्थितैरिति प्राग्वत्, योजनसाहत्रिकैः अनेकयोजनसहस्रप्रमाणैस्तापक्षेत्रः, अत्रेत्थंभावे तृतीया, तेनेत्थंभूतैस्तैस्तैर्मेसें परिवर्तन्त इति क्रियायोगः, कोऽर्थः ?-उक्तस्वरूपाणि तापक्षेत्राणि कुर्वन्तो जम्बूद्वीपगतं मे परितो भ्रमन्ति, तापक्षेत्रविशेषणं चन्द्रसूर्याणामेव, नतु नक्षत्रादीनां, यथासम्भवं विशेषणानां नियोज्यत्वात्, अथैतान् साधारण्येन विशेषयन्नाहसाहिरकाभिः अनेकसहस्रसङ्ख्याकाभिः वैकुर्विकाभिः-विकुर्वितनानारूपधारिणीभिर्बाह्याभिः-आभियोगिककर्मकारिणीभिः, नाट्यगानवादनादिकर्मप्रवणत्वात्न तुतृतीयपर्षदूपाभिः, पर्षद्भिः-देवसमूहरूपाभिः कर्तृभूताभिः, बहुगमनं चात्र नाट्यादिगणापेक्षया, महता प्रकारेणाऽऽहतानिभृश ताडितानि नाट्ये गीते वादित्रे च-वादनरूपे त्रिविधेऽपि सङ्गीते इत्यर्थः, तन्त्रीतलतालरूपत्रुटितानिशेष प्राग्वत्, तथा स्वभावतो गतिरतिकैः बाह्यपर्षदन्तर्गतैर्देवैर्वेगेन गच्छत्सु विमानेषूत्कृष्टो यः सिंहनादो मुच्यते यौ च बोलकलकलौ क्रियेते, तत्र बोलो नाम मुखे हस्तं दत्त्वा महता शब्देन पूत्करणं, कलकलश्च-व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण महता महता समुद्ररवभूतमिव कुर्वाणा मेरुमिति योगः, किंविशिष्टमित्याह-अच्छम्-अतीव निर्मलं जाम्बूनदमयत्वात् रत्नबहुलत्वाच पर्वतराज-पर्वतेन्द्रं प्रदक्षिणावर्तमण्डलचार' मिति प्रकर्षण सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च परिभ्रमतां चन्द्रादीनां दक्षिण एव मेरूर्भवति यस्मिन्नावर्तन-मण्डलपरिभ्रमणरूपेस प्रदक्षिणः; प्रदक्षिणः आवर्तो येषां मण्डलानां तानि तथा तेषु यथा चारो भवति तथा क्रियाविशेषणं तेन प्रदक्षिणावर्त्तमण्डलं चारं यथा स्यात्तथा मेरुं परिवर्तन्ते इति योज्यम्, अयमर्थः-चन्द्रादयः सर्वेऽपि समयक्षेत्रवर्त्तिनो मेरु परितः प्रदक्षिणावर्तमण्डलचारेण भ्रमन्तीति। अथ पञ्चदशं द्वारमाह तेसि णं भन्ते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ से कहमियाणि पकरेंति ? गोयमा ! ताहे चत्तारि पंच वा सामाणिआ देवा तं ठाणं उवसंपजित्ता णं विहरंतिजाव तत्थ अण्णे इंदे उववण्णे भवइ / इंदट्ठाणे णं भंते ! केवइ कालं उववाएणं विरहिए? गोयमा ! जहण्णेणं एग समयं उकोसेणं छम्मासे उववाएणं विरहिए। बहिआ णं भन्ते ! माणुसुत्तरस्स पय्वयस्स जे चंदिम जाव तारारूवा तं चेव णेअव्वं णाणत्तं विमाणोववण्णगा णो चारोववण्णगा चारद्विइआ णो गइरइआ णो गइसमावण्णगा पक्किट्ठगसंठाणसंठिएहिं जोअणसयसाहस्सिएहिं तावखित्तेहिं सयसाहस्सिआहिं वेउव्विआहिं बाहिराहिं परिसाहिं महया हयणट्ठ ०जाव भुंजमाणा सुहलेसा मन्दलेसा मन्दातवलेसा चित्तंतरलेसा अण्णोण्णसमोगाढाहिं लेसाहिं कूडाविवठाणहिआ सव्वओ समन्ता ते पएसे ओभासंति उनोवें ति पभासेन्ति त्ति। तेसि णं भन्ते ! देवाणं जाहे इंदे चुए से कहमियाणिं पकरेन्ति जाव जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा इति 15 / (सू०१४१) 'तेसिण' मित्यादि, तेषा भदन्त ! ज्योतिष्कदेवानां यदा इन्द्रश्च्यवते तदा ते देवा इदानीम् इन्द्रविरहकाले कथं प्रकुर्वन्ति ? भगवानाहगौतम ! तदा चत्वारः पञ्च वा सामानिका देवाः संभूय एकबुद्धितया भूत्वेत्यर्थः तत्स्थानम् इन्द्रस्थानमुपसम्पद्य विहरन्तितदिन्द्रस्थानं परिपालयन्ति, कियन्त कालमिति चेदत आह-यावदन्यस्तत्र इन्द्रउपपन्नः-उत्पन्नो भवति। इदानीमिन्द्रविरहकालं प्रश्नयन्नाह 'इंदट्ठाणे ण' मित्यादि, इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालमुपपातेन-इन्द्रोत्पादेन विरहितं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-गौतम ? जघन्येनैकं समयं यावत् उत्कर्षेण षण्मासान् यावत्ततः परमवश्यमन्यस्येन्द्रस्योत्पाद-सम्भवात् इति। सम्प्रति समयक्षेत्रबहिर्वतिज्योतिष्काणां स्वरूपं पृच्छति-'बहिआ ण' मित्यादि, बहिस्ताद, भगवन् ! मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य ये चन्द्रादयो देवास्ते किमूोपपन्नाः, इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रे तु नोवोपपन्नाः, नापि कल्पोपपन्नाः, किन्तु विमानोपपन्नाः तथा नो चारोपपन्नांनो चारयुक्ताः, किन्तुचारस्थितिकाः, अतएव नो गतिरतयो नापि गतिसमापन्नकाः, पक्वेष्टकासंस्थानसंस्थितैोजनशतसाहसिकैस्तापक्षेत्रैस्तान् प्रदेशान् अवभासयन्तीत्यादिक्रियायोगः, पक्वेष्टकासंस्थानं चात्र यथा पक्वेष्टका आयामतो दीर्घा भवति विस्तरस्तु स्तोका चतुरस्रा च, तेषामपि मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्वतिनां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राणि आयामतोऽनेकयोजनलक्षप्रमाणानि / इयमत्र भावनामानुषोत्तरपर्यतात् योजनलक्षाद्धतिक्रमे करणविभावनोक्तकरणानुसारेण प्रथमा चन्द्रसूर्यपङ्क्तिस्ततो योजनलक्षानिक्रमे द्वितीया पक्तिम्तेन प्रथमपङ्क्तिगतचन्द्रसूर्याणामेतावांस्ताक्षेत्रस्यायामः विस्तारश्च, एकसूर्यादपरः सूर्यो लक्षयेजनातिक्रमे तेन लक्षयोजनप्रमाणः, इयं च भावना प्रथमपड्क्त्य पेक्षया बोद्धव्या, एवमग्रेऽपि भाव्यम, 'सयसाहस्सिएहि' Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमण्डल 1076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरमण्डल इत्यादि प्राग्वत्, कथंभूता इत्याह सुखलेश्याः, एतच विशेषणं चन्द्रान् | प्रति, तेन तेनातिशीततेजसः मनुष्यलोके इव शीतकालाद्रौ, न एकान्ततः शीतरश्मय इत्यर्थः, मन्दलेश्याएतचसूर्यान् प्रति, तेनतेनात्युष्णतेजसः मनुष्यलोके इच निदावसमये, न एकान्तत उष्णरश्मय इत्यर्थः, एतदेव व्याचष्टे-मन्दातलेश्याः-मन्दानात्युष्णसवभवा आतपरूपा लेश्यारशिमसंघातो येषां ते तथा, तथा च चित्रान्तरलेश्याः-चित्रमन्तरलेश्या च येषां ते तथा, भावार्थश्चास्य चित्रमन्तरं सूर्याणा चन्द्रान्तरितत्वात्, चित्रलेश्या चन्द्रमसां शीतरश्मित्वात् सूर्याणामुष्णरश्मित्वात्, काभिरवभासयन्तीत्याह–अन्योऽन्यसमवगाढाभिः-परस्परं संश्लिष्टाभिर्लेश्याभिः, तथाहि-चन्द्रभसा सूर्याणांच प्रत्येक लेश्यायोजनशतसहस्रप्रमाणविस्ताराश्चनद्रसूर्याणां च सूचीपङक्त्या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशद्योजनसहस्राणि ततश्चन्द्रप्रभामिथाः सूर्यप्रभाः सूर्यप्रभामिश्राश्चन्द्रप्रभाः, इत्थं चन्द्रसूर्यप्रभाणां मिश्रीभावः / एषां स्थिरत्वं दृष्टा ध्वेन द्योतयति-कूटानीव-पर्वतोपरिव्यवस्थितशिखराणीव स्थानस्थिताः-सदैवकत्र स्थाने स्थिताः, सर्वतः-समन्तात्, तान् प्रदेशान्स्थस्वप्रत्यासन्नान् अवभासयन्ति उद्द्योतयन्ति तापयन्ति प्रभासयन्तीत्यदिप्राग्वत्। एषामषीन्द्राभावे व्यवस्थां प्रश्नयन्नाह–'तेसिणं भन्ते ! देवाण' मित्यादि प्राग्वत् / इति कृता पञ्चदशानुयोगद्वारैः सूर्यप्ररूपणा। जं०७ वक्ष०। जावइयाओ यणं भंते ! उवासंतराओ उदयंते सूरएि चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति अत्थमंते विय णं सरिए तावतियाओ चेव उवासंतराओ चक्खुप्फासं हव्वमागच्छति ? हंता! गोयमा! जावइयाओ णं उवासंतराओ उदयंते सूरिए चक्खुप्फासं हवमागच्छति अत्थमंते विसूरिए जाव हव्वमागच्छति। जावइया णं भंते ! खित्तं उदयंते सूरिए आतावेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, अत्थमंते वि य णं सूरिए तावइवं चेव खित्तं आयामेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेह? हंता गोयमा ! जावतियण्णं खेत्तं जाव पभासेइ। तं भंते ! किं पुढे ओभासेइ अपुढे ओभासेइ ? जाव छद्दिसिं ओभासेति, एवं उजोवेइतवेइपभासेइ०जाव नियमाछहिसिं। (सू०५०४) 'जावइयाओ' इत्यादि, यत्परिमाणात् 'उवासंतराओ' त्ति 'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद्वा यावत्यवकाशान्तरे स्थित इत्यर्थः 'उदयंते ति उदयम्-उद्गच्छन्'चक्षुप्फासंति-चक्षुषोदृष्टः स्पर्श इव स्पर्शोमतुस्पर्श एवचक्षुषोऽप्राप्तकारित्वादितिचक्षुस्पर्शस्तं 'हृव्यं' ति शीघ्रं, स च किल सर्वाभ्यन्तरमण्डले सप्तचत्वारिंशतियोजनानां सहस्रेषु द्वयोः शतयोनिषष्टौ (47263) च साधिकायां / वर्तमान उदये दृश्यते, अस्तसमयेऽप्येवम्, एवं प्रतिमण्डलंदर्शने विशेषो- ऽस्ति, सच स्थानान्तरदिवसेयः, 'सवओ समंत त्ति सर्वतः। सर्वासु / दक्षुिसमन्तात्-विदिक्षु एकार्थो वैतौ, 'ओभासेइ त्यादि 'अवभासयति' ईषत्प्रकाशयति यथा स्थूलतरमेव वस्तु दृश्यते उयातयति-भृश प्रकाशयति यथा स्थूलमेव दृश्यते तपति-अपनीतशीतं करोति, यथा वा सूक्षम पिपीलिकादिदृश्यतेतथा करोति प्रभासयति-अतितापयोगाद्विशेषताऽपनीतशीतं विधते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते तथा करोतीति / एतत्क्षेत्रमेवाश्रित्याह-'तं भंते त्यादि 'तं भंते' त्ति-यत् क्षेत्रमवभासयति यदुद्द्योतयति तपति प्रभासयति च तत्-क्षेत्रं किं भदन्त ! स्पृष्टमवभासयति अस्पृष्टवभासयति ? इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'गोयमा ! पुढे ओभासेई नो अपुटुं, तं भंते ! ओगाढं ओभासेइ अणोगाढं ओभासेइ ? गोयमा ! ओगाद, ओभासेइ नो अणोगाद, एवं अणंतरोगाढं ओभासेइ नो परंपरोगाढं,तं भंते! किं अणुओभासइ बायरं ओभासइ ? गोयमा! अणुं पिओभासइबायरं पि ओभासइ, तंभंते! उड्ड ओभासइ१ तिरियं ओभासइ २,अहे ओभासइ३? गोयमा उड्ढे पि० 3 तं भंते ! आइं ओभासइ 1, मज्झे ओभासइ 2, अंते ओभासइ 3, गोयमा ! आईओ०३,तंभंते! सविसए ओभासइ अविसए ओभासइ? गोयमा ! सविसए, ओभासए नो अविसए, तंभंते! आणुपुट्विं ओभासइ अणाणुपुब्बिं ओभासइ ? गोयमा! आणुपुट्विं ओभासइनो अणाणुपुट्विं, तं भंते ! कइ दिसिं ओभासइ? गोयमा ! नियमा छद्दिसिं' ति। एतेषां च पदानां प्रथमोद्देशकनाकारहारसूत्रवद्व्याख्या दृश्यते।यएव'ओभासइ' इत्यनेन सह सूत्रप्रपञ्च उक्तः स एव 'उज्जोयई त्यादिना पदत्रयेण वाच्य इति दर्शयन्नाह एवं 'उज्जोवेइत्यादिना स्पृष्टं क्षेत्रं प्रभासयतीत्युक्तम्। भ०१श०६ उ०ा दिने दिने रविर्मण्डलपरावर्त्त करोति, तत्राधिकमासि कथं करोति? मण्डलानि तु अयने अयने नियतान्येव सन्ति, क्षेत्रमानमपि नियतमेवास्ति, तत्र केचन वदन्ति-हीयमानदिनपूर्तये मासवृद्धिरस्ति, हीयमानदिनपूर्तिकृते तु वृद्धिमदिनास्सन्ति, तथा आसाढ़ मासे दुपया' अनेन मानेन श्रावणान्तयदिने चतुरङ्कुल-वृद्धिर्विलोक्यते, द्वितीय श्रावणान्त्यदिनेऽपि चत्वार्थेवामुलान्युताष्टौ ? यदि चत्वारि तदा किं षष्टिदिनेषु पुनः पुनः तत्रैव भ्रास्यति, येनाकुलमानं तादृगवस्थं,तत्र मण्डलसाङ्गत्यं यथा भवति तथा प्रसाद्यमिति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्सूर्यसम्बन्धित्रिंशन्मासेषु गतेषु चन्द्रसम्बन्धिन एकत्रिंशन्मासा भवन्ति, तत्रैकत्रिंशत्तमो मासोऽभिवर्द्धित उच्यते,तेन सूर्यमण्डलानां नियतत्वेऽपि अधिकमासि पौरुष्यादिप्रमाणे न किञ्चिदनुपपन्नत्वं, विशेषजिज्ञासायां मण्डलप्रकरणं विलोकनीयमिति // 184 / सेन०३ उल्ला०। सूरमग्गपुं० (सूर्यमार्ग) सूर्यमण्डलचारमार्गे, सू०प्र० 10 पाहु०। सूर्यस्य मण्डलगत्या परिभ्रमणे, चं० प्र० 10 पाहु०। सूरमहाभह पुं० (सूरमहाभद्र) सूर्यद्वीपस्य पश्चार्द्धदेवे, जी०३ प्रति० 4 अधि०॥ सूरमहावरपुं० (सूरमहावर) सूर्यसमुद्रस्य सूर्यवरसमुद्रस्य चपरा धिपतौ दैवे, जी०३ प्रति०४ अधि०। Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरमालिया 1077- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरावत्त सूरमालिया स्त्री० (सूर्यमालिका) दीनाराधाकृतिमालायाम्, औ०।। आइचे मासे तीसतिमुहुत्तेणं अहोरत्तेणं गणिज्जमाणे केवइए सूरमरीइ पुं० [सू(र)र्यमरिचि] आदित्यकिरणेषु, 'सूरमरीइकवयं राइंदियग्गेण आहितेति वदेजा ? ता तीस राइंदियाइं अवद्धमार्ग विणिम्मुयमाणेहिं' / प्रश्न० 4 आश्र० द्वार / 'सूरमरीइकवय' सूर्य- चराइंदियस्स राइंदियग्गेणं आहितेति वदेजा, तासे णं केवतिए आदित्यकिरणास्त एव मरीचयः सूर्यमरीचयस्तेषां कवचमिव कवचं मुहुत्तग्गेणं आहितेति वदेज्जा ? ता णव पण्णरस मुहुत्तसए परिकरः परितोभावात्तं विनिर्मुश्चद्भिर्विकिरद्भिः। प्रश्न०४ आश्रद्वार। मुहुजग्गेणं आहितेति वदेजा, ता एसणं अद्धा दुवालमजुत्तकडा सूरलेस्स न० (सूरलेश्य) (अत्र सूर्यशब्दोऽपि बोध्यः) चतुर्थदेवलोक- आदिचे संवच्छरे, ता से णं केवतिए राइंदियग्गेणं आहितेति विमानभेदे, स०५ सम०। वदेजा? ता तिनि छावढे राइंदियसए राइंदियग्गेणं आहिय त्ति सूरल्लि पुं० (सूरल्लि) वनस्पतिविशेषे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। वइजा, ता से णं केवतिए मुहुत्तग्गेणं आहिय त्ति वइज्जा ? ता सूरल्लिमंडवग पुं० (सूरल्लिमण्डपक) सूरल्लिर्वनस्पतिविशेषस्तन्मया दस मुहुत्तस्स सहस्साई णव अतीते मुहुत्तसते मुहुत्तग्गेणं मण्डपकाः सूरल्लिमण्डपकाः। सूरल्लिवनस्पतिमयेषु मण्डपकेषु, जी० आहितेति वदेजा। (सू 72+) 3 प्रति० 4 अधि०। 'ता एएसिण मित्यादिचतुर्थसूर्यसंवत्सरविषयं प्रश्नसूत्रं, तच्च सुगमम्, सूरवण्ण न० (सूर्यवर्ण) चतुर्थदेवलोकविमानभेदे, स०५ सम०। भगवानाह-'ता तीस' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, त्रिंशत् ात्रिन्दिवानि सूरवर पुं० (सूर्यवर) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / तत्र सूर्यवरे द्वीपे एकस्य रात्रिन्दिवस्य एकमपार्द्धभागम्, एकमर्द्धमित्यर्थः, एतावत्प्रमाणः सूर्यवरभद्रसूर्यवरमहाभद्रौ, सूर्यवरे समुद्रे सूर्यवरसूर्यमहावरौ देवौ। सू० सूर्यमासो रात्रिन्दिवाग्रेण आख्यात इतिवदेत, तथाहि-सूर्य--मासा युगे प्र०२० पाहु०। जी० / चं० प्र०। षष्टिस्ततो युगसत्कानामहोरात्राणां त्रिंशदधिकाष्टादश शतसंख्यानां सूरवरभद्द पुं० (सूरवरभद्र) सूर्यवरद्वीपस्य पूर्वार्धाधिपतौ देव, जी० षष्ट्या भागो हियते, लब्धाः सार्द्धात्रिंशदहोरात्राः, ता से ण मित्यादि, 3 प्रति० 4 अधि०। मुहूर्त्तविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम्, भगवानाह- 'नवपण्णर' इत्यादि नव सूरवरमहाभद्दपुं० (सूरवरमहाभद्र) सूर्यवरद्वीपस्य परार्धाधिपती देव, मुहूर्तशतानि पञ्चदशाधिकानि मुहूर्तपरिमाणेनाख्यात इति वदेत्, जी०३ प्रति०४ अधि०। तथाहि सूर्यमासपरिमाणं त्रिंशत् रात्रिन्दिवानि एकस्य च रात्रिन्दिसूरवरोभास पुं० (सूरवरावभास) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्र च / तत्र वस्यार्द्ध तच त्रिंशता गुण्यतेजातानि नव शतानि, रात्रिन्दिवाढ़े चपञ्चदश सूर्यवरावभासे द्वीपे सूर्यवरावभासभद्रसूर्यवरावभासमहाभद्रौ देवौ / मुहूर्ता इति, 'ता एएसिण' मित्यादि, प्राग्वद् भावनीयम्। सू०प्र०१२ सूर्यवरावभाससमुद्रे सूर्यवरावभासवरसूर्यवरावभासमहावरी देवी जी० पाहु०। 3 प्रति०४ अधि०।सूर्यवरावभाससमुद्रवेष्टितेद्वीपे, सू०प्र०२०पाहु०। सूरसिंग न० (सूरश्रृङ्ग) चतुर्थदेवलोकस्य स्वनामख्याते विमाने, स० सूरवरोभासभह पुं० (सूरवरावभासभद्र) सूर्यवरावभासद्वीपस्य | सम०। पूर्वार्धाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। सूरसिद्ध न० (सूरसिद्ध) चतुर्थदेवलोकस्य स्वनामख्याते विमाने, स० सूरवरोभासमहाभह पुं०(सूरवरावभासमहाभद्र) सूर्यवरावभासद्वीपस्य 5 सम01 परार्धाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। सूरसिरी स्त्री० (सूर्यश्री) जम्बूद्वीपे सप्तमस्य चक्रवर्तिनो भार्यायाम, स०। सूरवरोभासमहावर पुं० (सूरवरावभासमहावर) सूर्यवरावभाससमुद्रस्य सूरसेण पुं० (शूरसेन) मथुराप्रतिबद्धेषु जनपदभेदेषु, स्था० 103 उ०। पश्चाद्धाधिपतौ देवे, जी०३ प्रति०४ अधि०। प्रज्ञा०। सूत्र० / प्रव० / उदयसेनस्य राज्ञः स्वनामख्याते पुत्रे, आचा० सूरवरोभासवर पुं० (सूरवरावभासवर) सूर्यवरावभाससमुद्रस्य १श्रु०४ अ०१ उ०।ऐरवतवर्षे चतुर्विशतितीर्थकृत्सुचतुर्दशे तीर्थकरे, पूर्वार्धाधिपतौ देवे, सू० प्र०१६ पाहु०। 1- स० स्वनामख्याते शत्रुञ्जयस्योद्धारके राजनि, ती०१ कल्प। सूरवाइ पुं० (शूरवादिन्) शूरमात्मानं वदितुं शीलमस्येति शूरवादी। सूरादिय त्रि० (सूरादिक) सूरः-सूर्य आदिर्यस्यससूरादिकः। सूरकारणे, शूरंमन्ये, सूत्र०१ श्रु० 4 अ०१ उ०। 'सूरादिया अहोरत्ता' सूरादिकाः-सूरकारणाः, तथाहि-सूर्योदयमवधिं सूरविमाणन० (सूरविमान) सूर्यसत्के विमाने, प्रज्ञा० 4 पद। ('विमाण' कृत्वाऽहोरात्रारम्भकः समयो गण्यते नान्यथा एवमावलिकादयोऽपि शब्दे षष्ठभागे वर्णकः / ) ('अंतर' शब्दे प्रथमभागे 74 पृष्ठे चान्तर- सूरादिका भावनीयाः। चं० प्र०२० पाहु०। सू० प्र०। मुक्तम्।) सूराम न० (सूर्याभ) पञ्चमदेवलोके विमानविशेषे, स०८ सम। सूरसंवच्छर पुं० (सूरसंवत्सर) आदित्यसंवत्सरे, सू० प्र०१० पाहु०। | सूरावत्त न० (सूर्यावर्त्त) स्वनामख्याते चतुर्थदेवलोकस्ये विमाने, स० ता एएसिणं पंचण्हं संवच्छराणं चतुत्थस्स आइयसंवच्छरस्स | 5 सम०। Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरासूरीया १०७८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरासूरीया स्त्री० (शूराशूरीया) भोजनेऽयं शूरोऽयञ्च शूरो भुक्तां यथेष्टमित्येवंभूतायां परिवेषणक्रियायाम, ज्ञा० 1 श्रु०५अ०। सूरिपुं० (सूरिन) सदाचार्ये, ग०१अधि०।"अनुयोगभृतां पादान, वन्दे श्रीगौतमादिसूरीणाम् / निष्कारणबन्धूनां, विशेषतो धर्मदातृणाम् // 1 // " अनु०॥"तीआणागयकाले, केई होहिंति गोअमा सूरी जेसिं नामग्गहणे, नियमेणं होइ पच्छित्तं // 1 // " सेन०३ उल्ला०। गुरुगुणानाहसम्मत्तनाणचरणा, पत्तेयं अट्ठ अट्ठ भेइल्ला। बारसमेओ य तेवो, सूरिगुणा हुँति छत्तीसं / / 552 / / सम्यक्त्वस्य दर्शनाचारस्य निःशङ्कितादयः, ज्ञानस्य ज्ञानाचारस्य कालविनयादयः, चरणस्य चारित्राचारस्य ईसिमित्यादयः प्रत्येकमष्टावष्टौ भेदा मिलिताश्चतुर्विंशतिः, तपसश्च बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नस्य प्रत्येकं षड्विधत्वेन अनशनादयो द्वादश भेदाः, सर्वमीलने चषट्त्रिंशद्भवन्ति। अथ भग्यन्तरेणापि गुरोः षट्त्रिंशद्गुणानाहआयाराई अट्ठ उ, तहेव य दसविहो य ठियकप्पो। बारस तव छावस्सग, सूरिगुणा हुँति छत्तीसं / / 553 / / आचाराः श्रुतादयः प्राग्व्यावर्णितस्वरूपा अविवक्षितस्वस्वभेदा अष्टौ गणिसंपदः, तथा"आचेलुक्कु 1 देसिय २-सिजायर 3 रायपिंड 4 किइकम्मे 5 / वय 6 जेट्ट७पडिकम्मणे 8, मासंह पज्जोसवणकप्पो 10 // 1 // " इत्येवं वक्ष्यमाणस्वरूपो दशविधः स्थितकल्पः, तथा द्वादशविधं तपेः प्रागुक्तस्वरूपं तथा षडावश्यकानि सामायिकचतुर्विंशतिस्तववन्दनकप्रतिक्रमणकायोत्सर्गप्रत्याख्यानलक्षणानि, एतानि सर्वाण्यपि मिलितानि षट्त्रिंशत्सूरिगुणा भवन्ति, इह चैवमन्या अपि षट्त्रिंशिकाः संभवन्ति, तास्तु विस्तरभयानाभिधीयन्ते, केवलं किंचित्सोपयोगत्वात् सुप्रतीतत्वाच्च"देसकुलजाइरूवे, संघयणं धिईजुओ अणासंसि। अविकत्थणो अमायी, थिरपरिवाडी गहियवक्को // 1 // जियपरिसो जियनिद्दो, मज्झत्थो देसकालभावन्नू। आसन्नलद्धपइभो, नाणाविहदेसभावन्नू // 2 // पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिन्नू। आहरण हेउ कारण-नयनिउणोगाहणाकुसलो / / 3 / / ससमयपरसमयविऊ, गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुणसयकलिओ एसो, पवयणसारंपरिकहेइ॥ 4 // इति गाथाचतुष्टयभणिताः सूरिगुणाः षट्त्रिंशद् दृश्यन्ते तत्र युतशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते देशयुतकुलयुत इत्यादि-तत्र यो मध्यदेशे जातो यश्चार्धषट्विंशतिषु जनपदेषु सदेशयुतः, स ह्यार्यदेशभणितं जानाति, ततः सुखेन तस्य समीपे शिष्याः सर्वेऽप्यधीयन्ते इति तदुपादानम् 1, कुलं पैतृकं, तथा च लोकव्यवहारः-इक्ष्वाकुकुलजोऽयमित्यादि, तेन युतः प्रतिपन्नार्थनिर्वाहको भवति 2, जातिर्मातृकी, तया युतो विनयादिगुणवान् भवति 3, रूपयुतो लोकानां गुणविषयबहुमानभाग् | जायते, 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ती' तिप्रवादात्, कुरूपस्य अनादेयत्वादिप्रसङ्गाच 4, संहननेन विशिष्टशारीरसामर्थ्यरूपेण युतो व्याख्यायां न श्राम्यति 5, धृतिविशिष्टमानसावष्टम्भलक्षणा, तया युतो नातिगहनेष्वप्यर्थेषु भ्रममुपयाति 6, अनाशंसीश्रोतृभ्यो वस्त्राद्यनाकाङ्क्षी 7, अविकत्थनोनातिबहुभाषी, यथा स्वल्पेऽपि केनचिदपराद्धे पुनस्तदुत्कीर्तनं विकत्थनं तद्रहितः 8, अमायी शायरहितः 6, स्थिरा अतिशयेन निरन्तराभ्यासतः स्थैर्यमापन्ना, अनुप्रयोगपरिपाट्यो यस्य स स्थिरपरिपाटिः, तस्य हि सूत्रमर्थो वा न मनागपि गलति 10, गृहीतवाक्य-उपादेयवचनः, तस्य हि स्वल्पमपि वचनं महार्थमिव प्रतिभाति 11, जितपर्षत्, न महत्यामपि पर्षदि क्षोभमुपयाति 12, जितनिद्रोऽल्पनिद्रः स हि रात्रौ सूत्रमर्थं वा परिभावनयन्न निद्रया बाध्यते 13, मध्यस्थ:-सर्वेषु शिष्येषु समचित्तः 14, देशं कालं च भावं च जानातीति देशकालभावज्ञः, स हि देशं कालं भावं च लोकानां ज्ञात्वा सुखेन विहरति, शिष्याणां वा अभिप्रायान् ज्ञात्वा तान् सुखेनानुवर्तयति 15, 16, 17, आसन्ना तत्क्षणादेव लब्धा कर्मक्षयोपशमेनाविभूता प्रतिभा परतीर्थिकादीनामुत्तरप्रदानशक्तिर्यस्य स असान्नलब्धप्रतिभः 18, नानाविधानां देशानां भाषां जानातीति नानाविधदेशभाषाज्ञः, स हि नानादेशीयान् शिष्यान् सुखेन शास्त्राणि ग्राहयति, तत्र देशजांश्च जनान् तत्तद्भाषयां धर्ममार्गेऽवतारयति 16, पञ्चविध आचारो ज्ञानाचारादिरूपस्तस्मिन् युक्त उद्युक्तः, स्वयमाचारेष्वस्थितस्यान्यानाचारेषु प्रवर्तयितुमशक्यत्वात् 24, सूत्रार्थग्रहणेन चतुर्भङ्गी सूचिता, एकस्य सूत्रं नार्थः, द्वितीयस्यार्थो न सूत्र, तृतीयस्य सूत्रमप्यर्थोऽपि चतुर्थस्य न सूत्रं, तत्र तृतीयभङ्गग्रहणार्थ तदुभयग्रहणं, ततः सूत्रार्थतदुभयविधीन् जानातीति सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः 25, आहरणं दृष्ठान्तः हेतुर्द्विविधः कारको, ज्ञापकश्च / तत्र कारको यथा घटस्य कर्ता कुम्भकारः, ज्ञापकोयथा तमसि घटादीनामभिव्यञ्जकः प्रदीपः, उपनयः-उपसंहारो दृष्टान्तदृष्टस्यार्थस्य प्रकृते योजनमिति भावः-'कारण तिपाठेतु कारणं-निमित्तं नया नैगमादयः, एतेषु निपुणः आहरणहेतूपनयनयनिपुणः स हि श्रोतारमपेक्ष्य तत्प्रतिपत्त्यनुरोधतः क्वचिद् दृष्टान्तोपन्यासम् 26, क्वचिद्धेतूपन्यासं करोति, 27, उपसंहारनिपुणतया सम्यगधिकृतमर्थमुपसंहरति 28, नयनिपुणतया स सम्यगधिकृतनयवक्तव्यतावसरे सम्यक्सप्रपञ्चवैविक्त्येन नयानभिधत्ते 26, ग्राहणाकुशल:-प्रतिपादनशक्तियुक्तः 30, स्वसमयम् 31 परसमयम् 32 वेत्तीति स्वसमयपरसमयवित्, स हि परेणाक्षिप्तः सुखेन स्वपक्षं परपक्षं च निहियति। गम्भीरः अतुच्छस्वभावः 33, दीप्तिमान्परवादिनामनुद्धर्षणीयः 34, शिवः-अकोपनो, यदिवा यत्रतत्र वा विहरन् कल्याणकरः 35, सोमः-शान्तदृष्टिः३६ इतिषट्त्रिंशद्गुणोपेतोगुरुर्विज्ञेयः, उपलक्षणत्वाचामीषां गुणानामपरैरपि गुणैरौदार्यस्थैर्यादिभिः शशधरकर निकरकमनीयैरलङ्कृतः प्रवचनोपदेशको गुरुर्भवति, तथा चाह"गुणसयकलिओ जुत्तो, पवयणसारं परिकहेइ ति // यद्वा-गुणा मूलगुणा, उत्तरगुणाश्च, तेषां शतानि तैः कलितो युक्तः समीचीन-प्रवचनस्यद्वादशाङ्गस्यसारमर्थकथयितुम्, यदुक्तम्-गुणसुट्टियस्सवयणं, घयपरिसित्तो Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1076 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियलेस्सा य पावओ भाइ। गुणहीणस्स न सोहइ, नेहविहूणो जह पईवो // 1 // " इति गाथाचतुष्टार्थः / / 64 / / प्रव०६४ द्वार। सूरिअ(य) पुं०(सूर्य) "स्याद्-भव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात्"। | 8/2 / 107 / / इति यात्पूर्व इकारः। सूरिओ। सूर्यः / प्रा० आदित्ये, अनु / उत्त। स्था। ('सूर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे वक्तव्यतोक्ता।) तेणं कालेणं तेणं समएण भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं पासइ पासित्ता जायस० जाव समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ० जाव नमंसित्ता० जाव एवं वयासी 'तेण' मित्यादि, 'अचिरोगतम्' उद्तमात्रमत एव बालसूर्य 'जासुमणाकुसुमप्यगासं ति-जासुमणा नाम वृक्षस्तत्कुसुमप्रकाशमतएव लोहितकमिति। किमिदं भंते ! सूरिए, किमिदं भंते ! सूरियस्स अट्ठे। गोयमा! सुमे सूरिए, सुभे सूरियस्स अट्टे / किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स पभा एवं चेव एवं छाया एवं लेस्सा। (सू० 536) 'किंमिदं ति-किंस्वरूपमिदं सूर्यवस्तु तथा किमिदं भदन्त ! सूर्यस्य सूर्यशब्दस्याऽर्थोऽन्वर्थवस्तु' सुभे सूरिए, त्ति-शुभस्वरूपं सूर्यवस्तु सूर्यविमानपृथिवीकायिकानामा तपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदयवर्तित्वात् लोकेऽपि, प्रशस्ततया प्रतीतत्वाज्ज्योतिष्केन्द्रवाच / तथा शुभः सूर्यशब्दार्थः। तथाहि-सूरेभ्यः (अस्य दन्त्यादित्वं चिन्त्यम्) क्षमातपोदानसंग्रामादिवीरेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः 'पभ' ति-दीप्तिःछाया शोभा प्रतिबिम्ब वा लेश्या-वर्णः। भ०१४ श०१ उ०।सूत्र०।० प्र०। ज्ञा०। सूत्र०। स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च। चं० प्र०२० पाहु०। *शूर्य पुं० शूरेभ्यःक्षमातपोदानसंग्रामदिवीरेभ्यो हितः शूरेषु वा साधुः शूर्यः / क्षमातपोदानसंग्रामादिशूरेषु कुशले, भ०१४ श०९ उ०) सूरियकंतपुं०(सूर्यकान्त) श्वेताम्बिकानगरीराजस्य प्रदेशिनः पुत्रे, रा०। सूरियकंतास्त्री० (सूर्यकान्ता) श्वेताम्बिकानगरीराजस्य प्रदेशिनोऽग्रमहिष्याम्, रा०।स्वनामख्यातायां सूर्यदेवाग्रमहिष्याम, भ०१४ श०६ उ०। सूरियपीठ न० (सूर्यपीठ) सूर्यदेवतापूजनस्थाने, तत्र पूर्वमृषभदेवेन भगवता यत्र यत्र भिक्षा लब्धा तत्र तत्र श्रेयांसेन पीठानि कृतानि, तानि | क्रमात्सौरैरायत्तीकृतानि सौरपीठत्वेन पूज्यन्ते स्म। आ० का सूरियमंडलमंतर न० (सूर्यमण्डलाभ्यन्तर) सूर्यचारकथने, ज०७ वक्ष०। सूरियलेस्सा स्त्री० (सूर्यलेश्या) सूर्यप्रभायाम, चं० प्र०। 'कस्मिन् लेश्या प्रतिहतेति' ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाहता कस्सिं णं सूरियस्स लेस्सा पडिहतेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमाओ वासं पडिवत्तीओ पण्णत्ताओ, तत्थेगे एवमाहंसु तामंदरंसिणं पव्वतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहिता ति वदेजा, एगे एवमाहंसु 1 / एगे पुण पवमाहंसु-ता मेरुसिंणं पव्वतंसि सूरियस्स लेस्सा पडिहता आहिता ति वदेज्जा, एगे एवामाहंसु 2 / एवं एतेणं अभिलावणं भाणियव्वं, तामणोरमंसि णं पव्वयंसि, ता सुदंसणंसि णं पव्वयंसि, ता सयंपमंसिणं पटवतंसि ता गिरिरायंसि णं पव्वतंसि ता रतणुचयंसि णं पव्वतंसि ता सिलुवयंसि णं पव्वयंसि ता लोअमज्झंसि णं पव्वतंसि ता लोय-णामिंसि णं पव्वतंसि ता अच्छंसि णं पव्वतंसि ता सूरियावत्तंसि णं पव्वतंसि ता सूरियावरणंसिणं मव्वतंसिता उत्तमंसिणं पव्वयंसिता दिसादिस्सिणं पव्वतंसि ता अवतंसंसिणं पव्वतंसि ता धरणिखीलंसिणं पव्वयंसि ता धरणिसिंगंसि णं पटवयंसि पवतिंदंसि णं पटवतंसि ता पव्वयरायसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहता आहिता ति वदेजा, एगे एवमासु / वयं पुण एवं वदामो - ता मंदरे वि पवुचतिजाव पव्वयराया, वुचति, ताजे णं पुग्गला सूरियस्स लेसं फुसंति ते णं पुग्गला सूरियस्स लेसं पडिहणंति, अदिट्ठा विणं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति, चरिमलेसंतरगता विणं पोग्गला सूरियस्स लेस्सं पडिहणंति। (सू०२६) 'ता कस्सि ण' मित्यादि, ता इति पूर्ववत्, अभ्यन्तरमण्डले सूर्यस्य लेश्या प्रसरतीति कस्मिन् स्थाने लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत् ? अयमिह भावार्थः-इहावश्यमभ्यन्तरं प्रविशन्ती सूर्यस्य लेश्या कस्मिन् स्थाने प्रतिहतेत्यभ्युपगन्तव्यं, यतः सर्वाभ्यन्तरे सर्वबाह्ये च मण्डले जम्बूद्वीपगतं तापक्षेत्रमायामतः पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्रप्रमाणमेवाख्यातमेतच सर्वाभ्यनतर-मण्डलगते सूर्ये लेश्याप्रतिहति-मन्तरेण नोपपद्यते, अन्यथा निष्क्रामति सूर्ये तत्प्रतिबद्धस्य तापक्षेत्रस्यापि निष्क्रमणभावात् सर्वबाह्ये मण्डले चारं चरतिसूर्ये हीनमायामतो भवेत्, नच हीनमुक्तमतोऽवसीयते क्वापिलेश्या प्रतिघातमुपयाति। ततस्तदवगमाय प्रश्न इति, एवं प्रश्ने कृते सति भगवानेतद्विषये यावत्यः प्रतिपत्तयस्स्तावतीरुपदर्शयति-तत्थे' त्यादि, तत्र-सूर्यलेश्याप्रतिहतिविषये खल्विमा विंशतिः प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-तत्र तेषा विंशतेः परतीर्थिकानां मध्य एके एवमाहुमन्दरे पर्वते सूर्यस्य लेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, वदेदितितेषां मूलभूतं स्वशिष्यं प्रत्युपदेशः अत्रैवोपसंहारः 'एगे एवमाहंसु'१। एके पुनरेवमाहः.मेरौ पर्वतेसूर्यलेश्या प्रतिहता आख्याता इति वदेत्, एके एवमाहुः 2 / 'एव' मित्यादि, एवम्उत्केन प्रकारेण एतेन वक्ष्यमाणेन प्रतिपत्तिविशेष-भूतेनालापकेन शेषप्रतिपत्तिजातं नेतव्यं, तानेव प्रतिपत्तिविशेषभूताना-लापकान् दर्शयति-'तामणोरमंसिणंपव्वतंसि' इत्यादि प्रत्यालापकं च पूर्वोक्तानि पदानि योजनीयानि, तत एवं सूत्रपाठः-'एगे पुण एवमाहंसु-ता मणो Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियलेस्सा 1080- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम रमंसिणं पव्वयंसि सूरियलेसा पडिहया आहिय त्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु लशिलाभृतीनाम्, उत्-उर्ध्व शिरस उपरि चयः-सम्भवो यत्र स 3, एगे पुण एवमाहंसु ता सुदंसणंसि णं पव्वयंसि सूरियलेसा पडिहया शिलोच्चयः 8, तथा लोकस्य तिर्यग्लोकस्य समस्तस्यापि मध्ये वर्तते आहिय त्ति वएजा, एगे एव माहंसु 4, एगे पुण एवमाहंसुता सयंपहंसिणं इति लोकमध्यः 6, तथा लोकस्य तिर्यग्लोकस्य स्थालप्रख्यस्य पव्वयंसि सूरियलेसा पडिहया आहिय त्ति वइजा एगे एवमाहंसु 5, एगे नाभिरिव-स्थालमध्यगतसमुन्नतवृत्त-चन्द्रक इव लोकनाभिः 10, तथा पुण एवमाहंसु ता गिरिरायंसिणं पव्वयंसि सूरियलेसा पडिहया आहिय अच्छ:-स्वच्छसुनिर्मलजाम्बूनदरत्नबहुलत्वात् 11, तथा सूर्य त्ति वएज्जा एगे एवमासु 6 एगे पुण एवमाहसुता रयणुश्चयंसिणं पव्वयंसि उपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनत्रतारकाश्च प्रदक्षिणामावर्त्तन्ते यस्य स सूरियलेसा पडिहया आहिय त्ति वइज्जा, एगे एवमाहंसु७. एगेपुण एवमाहंसु सूर्यावर्तः 12, तथा सूर्यरुपलक्षणमेतत् चन्द्रग्रहनक्षत्रतारकाभिश्च ता सिलुचयंसिणंपव्वयंसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय समन्ततः परिभ्रमणशीलैराब्रियतेस्म वेष्ट्यते स्मेति सूर्यावरणः 'कृद्रहुल' त्ति वएजा, एगे एवमाहंसु८, एगेपुण एवमाहंसुतालोयमज्झसिणंपव्वयंसि मिति वचनात्कर्मण्यनट्प्रत्ययः 13 तथा गिरीणामुत्तम इति उत्तमः 14, सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 6, एगे पुण दिशामादिः-प्रभवो दिगादिः, तथाहि-रुचकात् दिशां विदिशांच प्रभवो एवमासुता लागनाभिंसिणं पव्वयंसि सूरियस्सलेसा पडिहया आहिय रुचकश्चाष्ट्रप्रदेशात्मको मेरुमध्यवर्ती, तता मेरुरपि दिगादिरित्युच्यते त्ति वइजा एगे एवमासु १०,एगे पुण एवमाहंसुता अच्छंसिणं पव्वयंसि 15, तथा गिरीणामवतंसक इवेत्यवतंसकः 16 अमीषां च षोडशानां सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु 11, एगे पुण नास्नां संग्राहिके इमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिप्रसिद्ध गाथे-''मंदर मेरु मणोरम एवमाहंसुता सूरियावत्तंसिणं पव्वयंसिसूरियस्सलेसा पडिहया आहिय सुदंसण सयंपभे य गिरिराया। रयणोचए सिलोचय-मज्झे लोगस्स त्ति वएजाएगे एवमाहंसु 12, एगे पुण एवमाहंसुता सूरियवरणंसिपव्ययंसि णाभी य॥ 1 / / अच्छे य सूरियावत्ते, सूरियावरणे इया उत्तमे य दिसाई सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वएज्जा, एगे एवमाहंसु 13, एगे पुण य, वडिंसे इ य सोलसे॥२॥" तथा धरण्या:-पृथिव्याः कीलक इव एवमासु उत्तमंसि णं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति धरणिकलिकः, तथा धरण्याः शृङ्गमिव धरणिशृङ्ग पर्वतानामिन्द्रः वइजा एगे एवमाहंसु 14, एगे पुण एवमाहंसु ता दिसादिस्सिणं पव्वयंसि पर्वतेन्द्रः, पर्वतानां राजा पर्वतराजः तदेवं सर्वेऽपि मन्दरादयः शब्दाः सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वइज्जा, एगे एवमाहंसु 15, एगे पुण परमार्थत एकार्थिकास्ततो भिन्नाभिप्रायतया प्रवृत्ताः प्राक्तनाः प्रतिएवमाहंसु ता अवतंसंसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय पत्तयः सर्वा अपि मिथ्यारूपा अवगन्तव्याः।याऽपि चलेश्याप्रतिहतिः त्ति वइल्जा एगे एवमाहंसु 16, एगे पुण एवमाहंसु ता धरणिखीलंसिणं सा मन्दरेऽप्यस्ति अन्य त्रापि च, तथा चाह-'ता जे णं' इत्यादि, ता पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वइज्जा एगे.एवमाहंसु 17, इति पूर्ववत् ये णमिति वाक्यालङ्कारे पुद्गला मेरुतटभित्तिसंस्थिता सूर्यस्य एगे पुण एवमाहंसुता धरणिसिंगसिणं पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया लेश्यां स्पृश्यन्ति ते पुद्गलाः सूर्यस्य लेश्यां प्रतिघ्नन्ति, अभ्यन्तरं आहिय ति वइन्जा एगे एवमाहंसु 18, एगे पुण एवमाहंसु ता पव्वइंदसिणं प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायास्तैः प्रतिस्खलितत्वात्, येऽपि पुद्गला पव्वयंसि सूरियस्स लेसा पडिहया आहिय त्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु 16, मेरुतटभित्तिसंस्थिता अपि दृश्यमानपुद्गलान्तर्गताः सूक्ष्मत्वान्न चक्षुः एगे पुण एवमाहंसु ता पव्वयरायंसिणं पव्वयंसि सूरियस्सलेसा पडिहया स्पर्शमुपयान्ति ते ऽप्यदृष्टा अपि सूर्यलेश्यां प्रतिघ्रति, तैरप्यभ्यन्तरं आहिय त्ति वइज्जा एगे एवमाहंसु 20 तदेवं परतीर्थिकप्रतिपत्तीरुपदर्थ्य प्रविशन्त्याः सूर्यलेश्यायाः स्वशक्त्यनुरूपं प्रतिस्खल्यमानत्वात्, येऽपि सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-'वयं पुण' इत्यादि, वयं पुनरुत्पन्नकेवल- मेरोरन्यत्रापि चरमलेश्यान्तरगताः-चरमलेश्याविशेषसंस्पर्शिनः ज्योतिष एवं वदामः, यदुत 'ता' इति पूर्ववत् यस्मिन् पर्वतेऽभ्यन्तरं पुद्गलास्तेऽपि सूर्यलेश्या प्रतिघ्रति, तैरपि चरमलेश्यासंस्पर्शितया प्रसरन्ती सूर्यस्य लेश्या प्रतिघातमुपगच्छतिसमन्दरोऽप्युच्यते यावत्प- चरमलेश्यायाः प्रतिहन्यमानत्वात्, सू० प्र०५ पाहु०। र्वतराजोऽप्युच्यते, सर्वेषामप्येतेषां शब्दानामेकार्थिकत्वात्, तथा मन्दरो सूरियसुद्धलेस्स त्रि० (सूर्यशुद्धलेश्य) सूर्यसदृशे तेजसि, सू०१श्रु० नाम देवस्तत्र पल्योपमस्थितिको महर्द्धिकः परिवसतितेन तद्योगान्मन्दर / ६अ। इत्यभिधीयते 1, सकलतिर्यग्लोकमध्यभागस्य मर्यादाकारित्वान्मेरुः सूरियाभ न० (सूर्याभ) स्वनामख्याते विमाने, रा०। स्वनामख्याते देवे 2, मनांसि देवानामपि अतिसुरूपतया रमयति मनोरमः 3, शोभनं च। पुं०। रा०। जाम्बूनदमयतया वज्ररत्नबहुलतयाच मनोनिवृतिकरं दर्शनं यस्यासी 'नयरीए बहवे उग्गा भोगा' इत्याद्यौपपातिकग्रन्थोक्तं सर्वमवसातव्यं सुदर्शनः, 4, स्वयमादित्यादिनिरपेक्षा रत्नबहुलतया प्रभाप्रकाशो यस्य यावत् समग्रापि राजप्रभृतिका परिषत्यपर्युपासीना अवतिष्ठते। स स्वयंप्रभः ५तथा सर्वेषामपि गिरीणामुच्चैस्त्वेन तीर्थकाजन्माभिषेका- ते णं काले णं ते णं समए णं सूरियामे देवे सोहम्मे श्रयतया च राजा गिरिराजः 6, तथा रत्नानानां नानविधानामुत्- कप्पे सूरियाभे विमाणे सभाए सुहम्माए सूरियामंसि प्राबल्येन चया-उपचयो यत्र सरत्नोचयः ७,तथा शिलानांपाण्डुकम्ब- | सिंहासणंसि चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं चउहिं अग्गमहि Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1081 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ सीहिं सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणियाहिं सत्तहिं / अणियाहिवईहिं सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहिय बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महयाऽऽहयनट्टगीयवाइयतंतीलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवादियरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणे विरहति, इमं च णं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं विउलेणं ओहिणा आभोएमाणे २पासति। 'तेणं काले ण' मित्यादि, ते इति प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, यस्मिन्काले भगवान् वर्द्धमानस्वामी साक्षाद्विहरति तस्मिन्काले 'ते णं समए णं तितस्मिन् समये यस्मिन्नवसरे भगवानाम्रशालवने चैत्ये देशनां कृत्वोपरतस्तस्मिन्नवसरे इति भावः, सूर्याभो नाम्ना देवो, नामशब्दो ह्यव्यसरूपोऽप्यस्ति, ततो विभक्ति लोपः, ततो सौधर्माख्ये कल्पे यत्सूर्याभनामकं विमानं तस्मिन् या सभा सुधर्माभिधा तस्यां यत्सूर्याभाभिधानं सिंहासनं तत्रोपविष्टः सन्निति गम्यते, 'च उहिं सामाणियसाहस्सीहि इति समाने द्युतिविभवादौ भवाः सामानिकाः, अध्यात्मादित्वादिकरण, विमानाधिपतिसूर्याभदेवसदृशद्युतिविभवादिका देवा इत्यर्थः, ते च मातृपितृगुरूपाध्यायमहत्तरवत्सूर्याभदेवस्य पूजनीयाः केवलविमानाधिपतित्वहीना इति सूर्याभं देवं स्वामिनं प्रतिपन्नाः तेषां सहस्राणि सामानिकसहस्राणि तैश्चतुर्भिः, प्राकृतत्वाच सूत्रे सकारस्य दीर्घत्वं, स्त्रीत्वं च / 'चतसृभिरग्रमहिषीभिः' इह कृताभिषेका देवी महिषीत्युच्यते,साचस्वपरिवारभूतानां सर्वासामपि देवीनामग्रे इत्यग्राः, अग्राश्चता महिष्यश्च अग्रमहिष्यस्ताभिश्चतसृभिः, कथम्भूमताभिरित्याह-'सपरिवाराभिः परिवारः सह यासां ताः सपरिवारास्ताभिः, परिवारश्चैकैकस्या देव्याः सहसं 2 देवीनां तथा तिसृभिः पर्षद्भिः तिस्रो हि विमानाधिपतेः सर्वस्यापि पर्षदः, तद्यथा-अभ्यन्तरा मध्या बाह्या च, तत्रया यस्य मण्डलीकस्थानीया परममित्रसंहतिसदृशीसा अभ्यन्तस्पर्षत, तया सहापर्यालोचितं स्वल्पमपि प्रयोजनन विदधाति अभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोचितं यस्यै निवेद्यतेयथेदमस्माकंपर्यालोचितं सम्मतमागतंयुष्माकमपीदं सम्मतं किंवा, नेतिसा मध्यमा, यस्याः पुनरभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोचितं मध्यमया च सह दृढीकृतं यस्यै करणायैव निरूप्यते यथेदं क्रियतामिति सा बाह्या, तथा 'सत्तहिं अणिएहिं' इति अनीकानि-सैन्यानि, तानि च सप्त, तद्यथा-हयानीकं गजानीकं रथानीकं पदात्यनीकं वृषमानीकं गन्धर्वानीकं, नाट्यानीकं तत्राद्यानि, पञ्चानीकानि संग्रामाय कल्प्यन्ते गन्धर्वनाट्यानीके पुनरुपभोगाय, तःसप्तभिरनीकैः, अनीकानि स्वस्वाधिपतिव्यतिरेकेण न सम्यक प्रयोजने समागते सत्युपकल्प्यन्ते ततः सप्तानीकाधिपतयोऽपि तस्य वेदितव्याः, तथा चाह-'सत्तहि अणियाहिवईहिं,' तथा 'षोडशभिरात्मरक्षदेवसपैरिति विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्यात्मानं रक्षयन्तीत्यात्मरक्षाः, कर्मणोऽण' इत्यण प्रत्ययः, ते च शिरस्त्राणकल्पाः, यथा हि / शिरस्त्राणं शिरस्याविद्धं प्राणरक्षकं भवति तथा तेऽप्यत्मरक्षका गृहीतधनुर्दण्डादिप्रहरणाः समन्ततः पृष्ठतः पार्श्वतोऽग्रतश्चावस्थायिनो विमानाधिपतेः सूर्याभस्य देवस्य प्राणरक्षकाः देवानामपायाभावात् तेषां तथाग्रहणपुरस्सर-मवस्थानं निरर्थकामिति चेत् न, स्थितिमात्रपरिपालनहेतुत्वात् प्रक्रर्षहेतुत्वाच, तथाहि ते समन्ततः सर्वासु दिक्षु गृहीतप्रहरणा ऊर्ध्वं स्थिता अवतिष्ठमानाः स्वनायकशरीररक्षणपरायणाः स्वनायकैकनिषण्णदृष्टयः परेषामसहमानानां क्षोभमापादयन्तोजनयन्ति स्वनायकस्यपरां प्रीतिमिति, एते च नियतसङ्ख्याकाः सूर्याभस्य देवस्य परिवारभूता देवा उक्ताः , ये तुतस्मिन् सूर्याभे विमाने पौरजनपद-स्थानीया ये त्वाभियोग्याः-दासकल्पास्ते ऽतिभूयांसः आस्थानमण्डल्यामपि चानियतसङ्ख्याका इति तेषां सामान्यत उत्पादानमाह-'अन्नेहिं बहूहिं सूरियाभविमाणवासीहिं देवेहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडे' एतैः सामानिकप्रभृतिभिः सार्द्ध संपरिवृत्तःसम्यगायकैकचित्ताराधनपरतया परिवृत्तः, 'महयाऽऽहये त्यादि, महता रवेणेतियोगः 'आहया' इति-आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धाः, अथवा--- अहतानि-अव्याहतानि अक्षतानीति भावः, नाट्यगीतवादितानि न तन्वी-वीणा तला-हस्ततालाः कंसिकाः तुडितानि-शेषतूर्याणि, तथा घनो-घनसदृशोध्वनिसाधर्म्यत्वात्यो मृदङ्गो-र्मदलः पटुना दक्षपुरुषेण प्रवादितः, तत एतेषां पदानां द्वन्द्वः, तेषां यो रवस्तेन, दिव्यान-दिवि भवान् अतिप्रधानानित्यर्थः, 'भोगभोगाई' इति भोगार्हा ये भोगाशब्दादयस्तान्, सूत्रे नपुसंकता प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि लिङ्गव्यभिचारः, यदाह पाणिनिःस्वप्राकृतलक्षणे-'लिंङ्ग व्यभिचार्यपि ति, भुजानो विहरति-आस्ते, न केवलमास्ते किंत्विम-प्रत्यक्षतया उप लभ्यमानं केवलकल्पम्-ईषदपरिसमाप्तं केवलं-केवलज्ञानं केवलकल्पं, परिपूर्णतया केवलसदृशमिति भावः, जम्ब्वा रत्नमय्या उत्तरकुरुरवासिन्या उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तं जम्बूद्वीप, भिधानं द्वीपे विपुलेन-विस्तीर्णेनावधिनातस्य हि सूर्याभस्य देवस्यावधिरधः प्रथमां पृथिवीं यावत्तिर्यक् असङ्ख्येयान् द्वीपसमुद्रानिति भवति विस्तीर्णस्तेनाभोगयन्-परिभावयन् पश्यति, अनेन सत्यप्यवधौ यदितंज्ञेयविषयमाभोगं न करोति तदा न किञ्चिदपि तेन जानाति पश्यति वत्यावदितम्। तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्पाए नयरीए बहिया अबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गह उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासति, पासित्ता हट्ठतुट्ठचित्त-माणं दिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियय विकसियवरकमलणयणे पयलियवरकडगतुडियके ऊरमउडकुंडलहारविरायंतरइयवच्छे पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियचवलं सुरवरे (०जाव)मसीहासणाओ अब्मुढेइरत्तापायपीढाओ पचोरुहति, २हित्तापासाडियं उत्तरासंगकरेति, २रित्तासत्तकृपयाई तित्थयराभिमुहं अणुगच्छति, स०२च्छित्ता, वामं जाणु अंचेति 2 चेत्ता Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ १०५२-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 7 सूरियाभ दाहिणं जाणुं धरणितलं सि णिहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि णिवेसेइ, णिवेसित्ता ईसिंपचुन्नमइ, ईसिंपचुन्नमित्ता करतलपरिपहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासीणमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं आदिगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसोत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंडरीयाणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहिआणं लोगपईवाणं लोगपज्जोगयगराणं अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं जीवदयाणं सरणदयाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं वियट्टछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोयगाणं सवन्नृणं सवदरिसीणं सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्सजावसंपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवन्तं तत्थगयं इह गते ] पासइ मे भगवं तत्थ गते इहगतं ति कट्ट वदंति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरगए पुष्वाभिमुहं सणिसण्णे। (सू०५) तण णं तस्स सुरियाभस्स इमे एतारूवे अन्मत्थिते चिंतिते मणोगते संकप्पे समुपज्जित्था तत्र-तस्मिन्विपुलेनावधिना जम्बूद्वीपविषये दर्शने प्रवर्तमाने सति श्रमणं-श्राम्यति-तपस्यति नानाविधमिति श्रमणः, भगः-समगैश्वर्यादिलक्षण , उक्तं च-''ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः / धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना॥१॥" भगोऽस्यास्तीति भगवान् भगवन्तं 'सूर वीर विक्रान्तौ, वीरयतिकषायान् प्रति विक्रामति स्मेति वीरः महांश्वासौ वीरश्च महावीरस्तं, जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आमलकल्पायां नगाँ बहिराम्रशालवने चैत्ये अशोकवरपादपस्याधः पृथिवीशिलापट्टके सम्पर्यङ्कनिषण्णं श्रमणगणसमृद्धिसंपरिवृत्तं प्रतिरूपमवग्रहं गृहीत्वा संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तं पश्यति, दृष्ट्वा च'हट्टतुट्ठमाणदिए' इति-हृष्टतुष्टोऽतीव तुष्ट इति भावः, अथवा-हृष्टो नाम विस्मयमापन्नः, यथा अहो भगवानास्ते इति, तुष्टः-सन्तोषं कृतवान्, यथा भव्यमभूत् यन्मया भगवानालोकितः, तोषवशादेव चित्तमानन्दितं-- स्फीतीभूतं 'टुनदि' समृद्धाविति वचनात्, यस्य स चित्तानन्दितः, सुखादिदर्शनात्पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः, मकारः प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्ततः पदत्रयस्य पदद्वयपदद्वयमीलने कर्मधारयः 'थीइमणे | इति प्रीतिर्मनसि यस्यासौ प्रीतिमनाः, भगवति बहुमानपरायण इति भावः, ततः क्रमेण बहुमानोकर्षवशात् 'परमसोमणस्सिए' इति–शोभनं मनो यस्य स सुमनास्तस्य भावः सौमनस्यं परमं च तत्सौमनस्यं च | परमसौमनस्यं तत्सञ्जतमस्येति परमसोमनस्थितः, एतदेव व्यक्तीकुर्वन्नाह-'हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशेन विसपत्-विस्तारयायि हृदयं यस्य स हर्षवशविसहृदयः हर्षवशादेव 'वियसियवरकमलनयणे' विकसिते वरकमलवत् नयेन यस्य स तथा, हर्षयशादेव शरीरोद्धर्षेण पयलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुडले त्तिप्रचलितानि वराणि कटकानिकलाचिकाभरणाणि त्रुटितानि वाहुरक्षकाः केयूराणिबाहाभरणविशेषरूपाणि मुकुटो-मौलिभूषणं कुण्डले-कर्णाभरणे यस्य सप्रचलितवरकटकत्रुटितकेयूरमुकुटकुण्डलः, तथा हारेण विराजमानेन रचितं-शोभितं वक्षो यस्य स हारविराजमानरचितवक्षः ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, तथा प्रलम्बते इति प्रलम्बः-पदकस्तं प्रलम्बमानम्-आभरणविशेष घोलन्ति च भूषणानि धरन्तीति प्रलम्बप्रलम्बमानघोलद्रूषणधरः, सूत्रे च प्रलम्बमानपदस्य विशेष्यात्परतो निपातः प्राकृतत्वात्, हर्षवशादेव 'ससभमं' संभ्रम इह विवक्षितक्रियाया बहुमानपूर्विका प्रवृत्तिः सह सम्भमो यस्य वन्दनस्य नमनस्य वा तत्सम्भ्रमं, क्रियाविशेषणमेतत्, त्वरितं-शीघ्र चपलं-सम्भ्रमवशादेव व्याकुलं यथा भवत्वेवं सुरवरी-देववरो यावत्करणात्- 'सीहासणाओ अब्भुट्टेअ अब्भुट्टित्ता पायपीढाओ पचोरुहति पचोरुहित्ता पाउयाओ ओमुयइओमुयित्ता तित्थयराभिमुहे सत्तकृपयाई अणुगच्छइणणुगच्छित्ता वामंजा[अचेइ [उत्पाटयति] दाहिणं जाणुधरणितलंसि निहटु तिखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि नमेइ नमित्ता (निवेसेइ 2 त्ता) ईसिं पचुन्नमइ पचुन्नमित्ता कडियतुडियथंभियभुयाओ साहरइ साहरित्ता करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कठुएवं क्यासीनमोऽत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव ठाणं संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तित्थयरस्स जाव संपाविउकामस्स, वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए' इति परिग्रहः, पश्यति मां स भगवान् तत्र गत इह गतमिति कृत्वा वन्दते-स्तौति नमस्यति-कायेन मनसा च यन्दित्वा नामस्यित्वा च भूयः सिंहासनवरं गतो गत्वा च पूर्वाभिमुखं सन्निषण्णः // 5 // 'तए णं तस्से' त्यादि, 'ततो निषदनानन्तरं तस्य-सूर्याभदेवस्य अयमेत दुपः सङ्कल्पः समुदपद्यत, कथम्भूत इत्याह- मनोगतः-मनसि गतो व्यवस्थिते, नाद्यापि वयसा प्रकासितस्वरूपस्य इति भावः, पुनः कथम्भूत इत्याहआध्यात्मिकः आत्मन्यध्यध्यात्म तत्र भव आध्यात्मिकः आत्मविषय इति भावः, सङ्कल्पश्च द्विधा भवति-कश्चिद्ध्यानात्मकः अपरश्चिन्तात्मकः, तत्रायं चिन्तात्मक इति प्रतिपादनार्थमाह-चिन्तितः चिन्ता सञ्जाताऽस्येति चिन्तितः, चिन्तात्मक इति भावः सोऽपि कश्चिदभिलाषात्मको भवति, कश्चिदन्यथा तत्रायमभिलाषात्मकः-तथा चाहप्रार्थितं प्रार्थनं प्रार्थो णिजन्तत्वात् अल्प्रत्ययः, प्रार्थः सञ्जातोऽस्येति प्रार्थितः, अभिलाषात्मक इति भावः। Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम १०८३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ किंस्वरूप इत्याहएवं (सेयं) (मे) खलु समणे भगवं महावीरे जंबूदीवे दीवे मारहे वासे आमलकप्पाणयरीए बहिया अंबसालवणे चेइए आहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तं महाफलं खलु तहारूवाणं भगवंताणं णामगोयस्स विसवणयाए किमंग! पुण अहिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपञ्जुवासणयाए? एगस्स वि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए ? किमंग ! पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि सकारेमि सध्माणेमि कल्लाणं मंगलं चेतियं देवयं पञ्जुवासामि, एयं मे पेचा हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, एवं संपेहित्ता आमिओगे देवे सदावेइ आमि सहावेत्ता एवं वयासी-(सू०६) एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे जंबूदीवे दीवे भारहे वासे आमलकप्याए नयरीए बहिया अंबसालवणे चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भविमाणे विहरइ। 'सेयं खलु' इत्यादि, श्रेयः 'खलु' निश्चितं 'मे' मम श्रमणं भगवन्तं महावीरं-वन्दितुं कायेन मनसा च प्रणन्तुं सत्कारयितुंकुसुमाञ्जलिमोचनेन पूजयितुं सत्मानयितुम-उचितप्रतिपत्तिभिराराधयितुं कल्याणं कल्याणकारित्वात् मङ्गलं दुरितोपशमकारित्वात् दैवतं-देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात् चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात्पर्युपासितुं संवितुम् इति कृत्वा-इति हंतोः ‘एवं' यथा वक्ष्यमाणं तथा सम्प्रेक्षते-बुद्ध्या परिभावयति, संप्रेक्ष्य च आभियोगिकान्-आभिमुख्योन योजनं अभियोगः-प्रेष्यकर्मसु व्यापार्यमाणत्वम् अभियोगेन जीवन्तीस्याभियोगिकाः 'वेतनादेर्जीवन्तीति इकणप्रत्ययः, आभियोगिकाः-स्वकर्मकराम्तान् शब्दापयति आकारयति शब्दापयित्वा च तेषां सम्मुखमेवमवादीत्-एवं खलु देवानां प्रियाः ! इत्यादि सुगम, नवरं देवानां प्रियाः ऋजवः प्राज्ञाः। तं गच्छह णं तु मे देवाणुप्पिया ? जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं अमालकप्पं एयरिं अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेह करेत्ता वंदह णमंसह वंदित्ता णमंसित्तासाइंसाइनामगोयाईसाहेह साहित्तासमणस्स भगवओ महावीरस्स (सव्वओ संमता) जोयणपरिमंडलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा कट्ठ वा सक्करं वा असुई अचोक्खं वा पूइअंदुब्भिगंधं सवं आहुणिय 2 एगते एडेह एडेत्ता णचोयगं णाइमट्टियं पविरलपप्फुसियं रयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदयवासं वासह वासित्ता णिहयरयं एद्वरयं भट्ठरयं उवसंतरयं पसंतरयं करेह करित्ता जलथलयमासुरप्पभूयस्स बिंटट्ठाइस्स दसद्ध- | वण्णस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं ओहिं वासं वासह वासित्ता कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवमघमघंतगंधु-द्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिवं सुरवराभिगमणजोग्गं करेह कारवेह करित्ता य कारवेत्ता य खिप्पामेव (मम.) एयमाणत्तियं पञ्चपिणह। (सू०७) 'तं गच्छह णमि' त्यादि, यस्मादेवं भगवान् विहरन् वर्तते तत्तस्माद्देवानां प्रिया ! यूयं गच्छत जम्बूद्वीपं द्वीपं तत्रापि भारतं वर्ष तत्राप्यामलकल्पां नगरी तत्राप्यामशालवनं चैत्यं श्रमणं भगवन्तं महावीर त्रिकृत्वः-त्रीन् वारान् आदक्षिणप्रदक्षिणं कुरुत, आदक्षिणाद्दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्यतो दक्षिण आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं कुरुत, कृत्वा च वन्दध्वं नमस्यत, वन्दित्वा नमस्यित्वा च 'साई साई ति-स्वानि २-आत्मीयानि 2 नामगोत्राणि, गोत्रम्अन्वर्थस्तेन युक्तानि नामानि नामगोत्राणि, राजदन्तादिदर्शनान्नामशब्दस्य पूवनिपातः साधयत-कथयत, कथयित्वा च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सर्व्वतः-सासु दिक्षु समन्ततः-सर्वासु विविक्षु योजनपरिमण्डलं परिमाण्डल्येनयोजनप्रमाणं यत् क्षेत्र तत्र यत् तृणंकिलिञ्चादि काष्ठ वा काष्ठशकलं वा पत्रं वा निम्बाऽश्वत्थादिपत्रजातं कचवरं वाश्लक्ष्णतृणधूल्यादिपुञ्जरूपं, कथम्भूतमित्याह-अशुचि-अशुचिसमन्वितमचोक्षम्-अप वित्रं पूयितं-कुथितम् अत एव दुरभिगन्धं तत्संवर्तकवातविकुर्वणेनाहत्याहत्य एकान्ते-योजनपरिमण्डलात्क्षेत्राद् दवीयसि देश एडयत-अपनयत एडयित्वा च नात्युदकं नाप्यतिमृत्तिकं यथा भवसि एवं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्षत कथम्भूतमित्याह-दिव्यंप्रधानं सुरभिगन्धोपेतत्वात्, पुनः कथम्भूतमित्याह 'पविरलपप्फुसिय' मिति-प्रकर्षेण यावद्रेणवः स्थगिता भवन्तितावन्मात्रेणोत्कर्षेणेति भावः, स्पर्शनानि प्रस्पृष्टानि प्रविरलानिधनभावे कर्दमसम्भवात् प्रस्पृष्टानिप्रकर्षवन्ति स्पर्शनानि मन्दस्पर्शसम्भवे रेणु स्थगनासम्भवात्यस्मिनन्वर्षे तत्प्रविरलप्रस्पृष्टम्, इत एव 'रयरेणुविणासणं' श्लक्ष्णजरा रेणुपुद्गलारजः त एव स्थूला रणवः, रजांसि च रेणवश्च रजोरेणवस्तेषां विनाशनम्, एवम्भूतं च सुरभिगन्धोदकं वर्ष वर्षित्वा योजनपरिमण्डलं क्षेत्र निहतरजः कुरुतेति योगः, निहतं रजो भूय उत्थानासम्भवात् यत्र तन्निहतरजः, तत्र निहतत्वं रजसः क्षणमात्रमुत्थानाभवेनापि सम्भवति, तत आह-नष्टरजः-नष्टं सर्वथाऽदृश्यीभूतं रजो यत्र तन्नष्टरजः, तथा भ्रष्टवातोद्धततया योजनमात्रात् क्षेत्रात् दूरतः पलायितं रजोयस्मात्तद् भ्रष्टरजः एतदेव एकाधिकद्वयेन प्रकटयति-उपशान्तरजः प्रशान्तरजः कुरुतः, कृत्वा च कुसुमस्च जातावेकवचनं कुसुमजातस्य जानू सेधप्रमाणमात्रमोघेन-सामान्येन सर्वत्र कुसुमस्येत्याह'जलथलयभासु-रम्भूयस्स 'जलज च स्थलज च जलजलस्थलजं जलजं पद्मापि स्थलज विचकिलादि भास्वरं-दीप्यमानं प्रभूतम् - अतिचतुरं, ततः कर्तधारयः, भास्वरं च तत्प्रभूतंच भास्वरप्रभूतं जलज Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1084 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम स्थलजं च तत् भास्वतरप्रभूतं च जलजस्थलजभास्वरप्रभूतं तस्य, पुनः कथम्भूतस्येत्याह--'विटट्ठाइस्स' वृन्तेन-अधोवर्तिना तिष्ठतीत्येवशीलं वृन्तस्थायि तस्य वृन्तस्थायनः, वृन्तमधोभागे उपरि पत्राणीत्येवं स्थानश्लस्यैत्यर्थ 'दसद्धवन्नस्स' दशानासर्द्ध पञ्च दशार्द्ध वर्णा यस्य | तद् दशार्द्धवर्ण तस्य पञ्चवर्णस्येति भावः, इत्थम्भूतस्य च कुसुमजातस्य वर्ष वर्षित्वा ततः योजनपरिमण्डलं क्षेत्रं दिव्यंप्रधानं सुरवराभिगमनयोग्यं कुरुत। कथम्भूत सत् कृत्वा सुरवराभिगमनयोग्यं करुतेत्यत आह–'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूक्मघमघंतगुंधुद्धयाभिराम' कालागुरुः प्रसिद्धः प्रवरः-प्रधानः कुन्दुरुक्क:-चीडा तुरुक्वंसिहकं कालागुरुश्च प्रवरकुन्दुरुक्कतुरुकौ च कालागुरु-प्रवरकुन्दुरुक्कतुरुक्काः तेषां धूपस्य यो मधमधाय-मानो गन्धः उद्धृतः-इतस्ततो विप्रसृतस्तेनाभिरामं रमणीयं कालागुरुप्रवरकुन्दुरुक्क-तुरुक्कधूपमघ-- मघायमानगन्धोद्भूताभिरामं तथा शोभनो गन्धो येषां ते सुगन्धास्तेच ते वरगन्धाश्चवासाः सुगन्धवरगन्धास्तेषां गन्धः सोऽस्यास्तीति सुगन्धवरगन्धिकम् 'अतोऽनेकस्वरादिति' इकप्रत्ययः अत एव गन्धिवर्तिभूतं, सौरभ्यातिशयात् गन्धगुटिकाकारिमिति भावः, न केवलं स्वयं कुरुत किन्त्वन्यैरपि कारयत, कृत्वा च कारयित्वा च एतां ममाज्ञप्तिकां क्षिप्रमेव शीघ्रमेव प्रत्यप्पयत, यथाक्तकार्यसम्पादनेन सफलां कृत्वा निवेदयत। तएणं ते आमियोगिया देवा सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठ० जाव हियया करयलपरिगहियं (दसनह) सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं देवो तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, एवं देवो तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसिभागं अवकमंति, उत्तरपुरच्छिमं पिसिभागं अवक्कमित्ता वेउध्वियसमुग्धाएणं समोहणंति २त्ता संखेसाई जोयणाई दंडं निस्सरन्ति, तंजहा-रयणाणं वयराणं वेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगल्लाणं हंसगब्भाणं पुग्लाणं सोगंधियाणं जोइरसाणं अंजणपुलगाणं अंजणाणं रयणाणं जायरूवाणं अंकाणं फलिहाणं रिट्ठाणं अहाबायरे पुग्गले परिसाडंति अहा त्ता अहासुहुमे पुग्गले परियायंति २त्ता दोचं पि वेउदिव्यसमुग्घाएणं समोहणंति २त्ता उत्तरवेउव्वियाई रुवाइं विउव्वंति २त्ताताए उकिट्ठाए (पसत्था ए) तुरियाएचवलाए चंडाएजयणाए सिग्याए उद्धयाए दिव्वए देवगइए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुदाणं मज्झं मज्झेणं वीईवयमाणे २जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव आमलकप्पा एयरी जेणेव अंबसालवणे चेतिएजेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छेति, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खु त्तो आयाहिंणपयाहिणं करेंति 2 त्ता वंदति नमसंति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-अम्हे णं भंते ! सूरियाभस्स देवस्स अभियोगा देवा देवाणुप्पियाणं वंदामो णमसामो सकारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पञ्जुवासामो। (सू०८) 'तए णमि' त्यादि, ततो णमिति पूर्ववत् ते अभियोगिका देवाः सूयाभेन देवन एवमुक्ताः सन्तो 'हट्टतुट्ठ जाव हियया' इति अत्र यावच्छब्दकरणात् 'हठ्ठ तुट्ठचित्तमाणं दिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया' इति द्रष्टव्यं,'करयलपरिग्गहिय मित्यादि द्वयोर्हस्तयोरन्योऽन्यान्तरिताङ्गुलिकयोः सम्पुटरूपतया यदेकर मीलन सा अञ्जलिस्तां करतलाभ्यां परिगृहीता निष्पादिता करतलपरिगृहीता तां दश नखा यस्याम् एकैकस्मिन् हस्तनखञ्चकसम्भवात् दशनखा तो तथा आवर्तनमावतः शिरम्यावर्तो यस्याः सा शिरस्यावर्ता कण्ठेकाल उरसिलोमे' त्यादिवत् अलुक्मासः, ताम्, अत एवाह-मस्तके कृत्वा विनयेन वचनं सूर्याभस्य देवस्य प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, कथम्भूतेन विनयेनेत्याह-'एवं देवो तह त्ति आणाए' इति हे देव ! एवंयथैव यूयमादिशत तथैवाज्ञया-भवदादेशेन कुम्म इत्येवरूपेण, 'देवो' इत्यत्रौकार आमन्त्रणे प्राकृतलक्षणवशात्, यथा 'अज्जो' इत्यत्र, प्रतिश्रुत्य वचनम् 'उत्तरपुरच्छिमं' उत्तरपूर्वदिग्भागम्, ईशानकोणमित्यर्थः, तस्यात्यन्तप्रशस्तत्वात्, अपक्रामन्ति गच्छन्ति, अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन वैक्रियकरणाय प्रयत्नविशेषेण समोहनन्तिसमवहन्यन्ते; समवहता भवन्तीत्यर्थः, समवहताश्चात्मप्रदेशान् दूरतो विक्षिपन्ति, तथा चाह-'संखेज्जाणि जोयणाणि दंडं निसिरन्ति' दण्ड इव दण्ड:-ऊर्ध्वाधः आयतः शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशसमूहस्तं शरीरादहिः सङ्ख्येयानि योजनानि यावन्निसृजन्ति-निष्काशयन्ति, निसृज्य तथाविधान् पुद्गलानाददते, एतदेव दर्शयति, तद्यथा-रत्नानां कतनादीनां 1 बज्राणां 2 वैडूर्याणा।३ लोहिताक्षाणां 4 मसारगल्लाणां 5 हंसगर्भाणां 6 पुद्गलानां 7 सुगन्धिकानां 8 ज्योतीरसानाम् / अञ्जनपुलकानाम् 10 अञ्जनानां 11 रजतानां 12 जातरूपाणाम् १३अङ्कानां 14 स्फटिकानां 15 रिष्ठानां 16 योग्यान् यथाबादरान्असारान् पुद्गलान् परिशायन्ति यथासूक्ष्मान् सारान् पुद्गलान् पर्याददते पर्यादाय चिकीर्षितरूपनिमाणार्थं द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्यन्ते, समवहत्य च यथोक्तानां रत्नादीनामयोग्यान् यथाबादरान् पुद्गलान् परिशातयन्ति यथासूक्ष्मानाददन्ते आदाय च ईप्सितानि उत्तरवैक्रियाणि विकुर्वन्तिा ननु रत्नादीनां प्रोयोग्याः पुद्गला औदारिका उत्तरवैक्रियरूपयोग्याश्च पुद्गला ग्राह्या वैक्रियास्तत् कथमेवं युक्तमिति ? उच्यत-इह रत्नादिग्रहणं सारतामात्रप्रतिपादनार्थं , ततो रत्नादीना-मिवेति द्रष्टव्यमिति न कश्चिद्दाषः; अथवा-औदारिका अपि तैः गृहीताः सन्तो वैक्रियतया परिणमन्ते, पुद्गलानां तत्तसामग्रीवशात् तथा) तथा-परिणमस्वभावत्वादतोऽपि न कश्चिद्दोषः, तत एवमुत्तरवैक्रियाणि रूपाणि कृत्वा तया देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशस्तविहायोगतिनामोदया प्रशस्तया शीघ्रसञ्चर Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1085 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ णात् त्वरितयात्वरा सञ्जाता अस्या इति त्वरिता तया प्रदेशान्त- [संघाय परिणए घननिचियवट्टवलिय (वलियवट्ट) खंधे चम्मेराक्रमणक्ती चपला तया क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् चण्डेव चण्डा ढगदुघणमुट्ठिसमाहयगत्ते उरस्सबलसमन्नागएतलजमलजुयल तया निरन्तरं शीघ्रत्वगुणयों गात् शीघ्रा तया शीघ्रया परमोत्कृष्ट - [फलिहनिभ] बाहू लंघणपवणजइणपमद्दणसमत्थे छेए दक्खे वेगपरिणामोपेता जवना तया वातोद्भूतस्य दिगन्तव्यापिनो रजस इव या पढे कुसले मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं दंडसंपुच्छणिं वा गतिः ससा उद्भूता तया दिव्यया-दिवि देवलोके भवा दिव्या तया देवगत्या सलागाहत्थर्ग वा वेणुसलाइयं वा गहाय रायंगणं वा रायंतेपुरं तिर्यगसंख्येयाना द्वीपसमुद्राणां मध्यं मध्येन; मध्येनेत्यर्थः गृहगृहेण वा देवकुलं वासमं वा पवं वा आरामंवा उजाणं वा अतुरियमचमध्यंमध्येन पदंपदेन सुखंसुखेनेत्यादयः शब्दाश्चिरन्तनव्याकरणेषु वलमसंभंते निरंतरं सुनिउणं सवतो समंता संपमज्जेजा, सुसाधवः प्रतिपादिता इति नायमपप्रयोगः, अवपतन्तोऽवपतन्तः, | एवामेवतेऽवि सूरियाभस्सदेवस्स आमिओगिया देवा संवट्टवाप, समागच्छन्तः इतिभावः, पूर्वान् पूर्वान्द्वीपसमुद्रान्व्यतिक्रामन्तो व्यति विउव्वंति, संवट्टवाए विउवित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स क्रामेन्तः; उल्लङ्घयन्त इत्यर्थः, शेषं सुगमं यावत्।। सव्वतो समंता जोयणपरिमण्डलं जं किंचि तणं वा पत्तं वा देवाइ समणे भगवं महावीरे देवा एवं वदासी-पोराणमेयं देवा ! तहेव सव्वं आहुणिय 2 एगते एडेंति एगते एडित्ता खिप्पामेव जीयमेयं देवा ! किच्चमेयं देवा! करणिजमेयं देवा! आइन्नमेयं उवसमंति, खिप्पा० 2 त्ता दोन पि वेउय्विय-समुग्धारणं समोहणंति, दोच्चं पि०२त्ता अन्मवद्दलए विउव्वंति अब्म० देवा ! अब्भणुण्णायमेयं देवा ! जण्णं भवणवइवाणमंतरजोइसियवेमाणिया देवा ! अरहते भगवं वंदंति नमसंति वंदित्ता २त्ता से जहाणामए भद्दगदारएसिया तरुणे०जाव सिप्पोवगए एग महं दगवारगं वा दगथालगं वा दगकलसगं वा दगकुंभगं वा नमंसित्ता तओ साइं साई णामगोयाइं साधिति तं पोराणमेयं आरामं वा ०जाव पवं वा अतुरिय ०जाव सय्वतो समंता देवा ! जाव अब्मणुण्णायमेयं देवा ! (सू०६) आवरिसेजा, एवामेव तेऽवि सूरियाभस्स देवस्स आमियोगिया 'देवाइ समणे' त्यादि, देवादियोगात् देवादिः श्रमणो भगवान् देवा अब्भवद्दलए विउव्वंति अब्भ० 2 टिवत्ता खिप्पामेव महावीरस्तान् देवानेवमवादीत्-पुराणेषु भवं पौराणमेतत्कर्म भो देवाः ! पयणुतणा-यन्ति०२त्ता खिप्पामेव विजुयायंतिरत्तासमणस्स चिरन्तनैरपि देवैः कृतमिदं चिरन्तनान् तीर्थङ्करान् प्रतीति तात्पर्यार्थः भगवओ महावीरस्स सव्वओ समंता जोयणपरिमंडलं णयोदगं जीतमेतद्-वन्दनादिकं तीर्थकृट्यो भो देवा ! यतोऽभ्यनुज्ञातमेतत् णातिमट्टियं तं पविरलपप्फुसियं रयरेणु विणासणं दिव्वं सर्वैरपि तीर्थकृद्धि देवास्ततः कर्त्तव्यमेतद्युष्मादृशां भो देवाः! एतदेव सुरभिगंधोदगं (वास) वासंति वासेत्ता णिहयरयं णहरयं भट्ठरयं व्याचष्ट करणीयमेतदभो देवाः! आचीर्णमेतत् कल्पभूतमेतद्भो देवाः ! उवसंतरयं पसंतस्यं करेंति, 2 जा छिप्पामेव उवमामंतिरता किं तदित्याह-'जन्न' मित्यादि, यत् णमिति पूर्ववत् भवनपतिव्यन्तर तचं पि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति 2 ता पुप्फवद्दलए ज्योतिष्कवैमानिका देवा अर्हतो भगवतो वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा विउव्वंति, से जहाणामए मालागारदारए सिया तरुणे ०जाव नमस्यित्वा पश्चात्स्वानि २-आत्मीयानि र नामगोत्राणि कथयन्ति ततो सिप्पोवगए एगं महं पुप्फपडलगंवा पुप्फचंगेरियं वा पुप्फछजियं युष्माकमपि भो देवाः ! पौराणमेतत्-यावदाचीर्णमेतदिति।। वा गहाय रायंगणं वा जाव सव्वतो समंता कयग्गाहगहियतएणं ते आमिओगिया देवा समणेणं भगवया महावीरेण एवं करयलपन्भट्ठविप्पमुक्केणं दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कपुष्फपुज्जोवुत्ता समाणा हट्ट 0 जाव हियया समणं भगवं महावीरं वंदंति वयारकलितं करेज्जा, एवामेव ते सूरियाभस्स देवस्स आभिणमंसंति वंदित्ताणमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमंदिसिभार्ग अवक्कमंति ओगिआ देवा पुप्फवद्दलए विउव्वंति २त्ता खिप्पामेव पयणुतअवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति 2 णित्ता संखेज्जाई णायन्ति खिप्पा०२त्ताजाव जोयणपरिमण्डलं जलथलभालजोयणाई दंडं निसिरंति, तं जहा-रयणाणं जाव रिट्ठाणं सुरप्पभूयस्स बिंटट्ठाइस्स दसद्धवन्नकुसुमस्स जाणुस्सेहपअहाबायरे पोग्गले परिसाडंति अहाबायरे०२ डित्ता दोचं पि माण,त्ति ओहिवासं वासंति वासित्ता कालागुरुपवरकुंदुरुवेउध्वियसमुग्घाएणं समोहणंति २त्ता संवट्टवाए विउव्वंति, से कतुरुकधूवमघमघंतगंधुधुयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवजहानामए भइयदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं अप्पायंके ट्टिभूतं दिव्वं सुरवराभिगमणजोगं करंति कारयंति करेत्ता व [थिरसंघयणे] थिरगहत्थे पडिपुण्णपाणिपायपिटुंतरोरु कारवेत्ताय, खिप्पामेव उवसामंति 2 मित्ता जेणेव समेणे भगवं TI. Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1086 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ महावीरे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव वंदित्ता नमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियतो अंबसालवणतो चेइयाआ पडिनिक्खमंति पडिनिक्ख-मित्ता ताए उक्किट्ठाए ०जाव वीइवयमाणे 2 जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सूरियामे विमाणे जेणेव सभा सुहम्मा जेणेव सूरियाभे देवे तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता सूरियामं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावेति २त्ता तमाणत्तियं पचप्पिणंति। (सू०१०) 'तए णमि' त्यादि सुगम, यावत् ‘से जहानामए भइयदारए सिया' इत्यादि, स वक्ष्यमाणगुणो यथानामकोऽनिर्दिष्टनामकः कश्चिभृतिकदारकः-भृतिं करोति भृतिकः-कर्मकरः तस्य दारको भृतिदारकः स्यात्, किंविशिष्ट इत्याह-तरुणः प्रवर्द्धमानवयाः (ननु दारकः वर्धमानवया) एव भवति ततः किमनेन विशेषणेन ? न आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमानवयस्त्वाभावात्, न ह्यासन्नमृत्युः प्रवर्धमानवया भवति, न च तस्य विशिष्टसामर्थ्यसम्भवः, आसन्नमृत्युत्वादेव, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थश्चैवम् आरम्भस्तोऽर्थवद्विशेषणम्, अन्ये तुव्याचक्षते-इह यद्रव्यं विशिष्टवर्णादिगुणोपेतमभिनवं च तत्तरुणमिति लोके प्रसिद्धं, तथा तरुणमिदमश्वत्थपत्रमिति, ततः स भृतिकदारकस्तरुण इति, किमुक्तं भवति? अभिनवो विशिष्टवण्णादिगुणोपेतश्चति, बलसामर्थ्य तद्द्यस्यातीति बलवान्, तथा युगं-सुषमदुषमादिकालः स स्वेन रूपेण यस्यास्ति न दोषदुष्टः स युगवान्, किमुक्तं भवति ? कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्यविघहेतुः स चास्य नास्तीति प्रतिपत्त्यर्थमेतद्विशेषणं, युवायौवनस्थः, युवावस्थायां हि बलातिशय इत्येतदुपादानम्, 'अप्यायंके' इति अल्पशब्दोऽभाववाची, अल्पः-सर्वथा अविद्यमान आतङ्कोज्वरादिर्यस्य सोऽल्पातङ्कः स्थिरोऽग्रहसतो यस्य स स्थिराग्रहस्तः, 'दढपाणिपायपिंटुंतरोरुपरिणए' इति दृढानि अतिनिविडचयापन्नानि पाणिपादपृष्ठान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपादपृष्ठान्तरोरुपरिणतः, सुखादिदर्शनात् पाक्षिकः क्तान्तस्य परनिपातः, तथा धनम् अतिशयेन निचितौ-निविडतरचयमापन्नौ वलिताविव वलितो वृत्तौ स्कन्धौ यस्य च धननिचितवलितवृत्तस्कन्धः, 'चम्मैट्ठगदुधणमुट्ठियसमाहयगत्ते' इति चर्मेष्टकेन द्रुघणेन मुष्टिकया च-मुष्ट्या समाहत्य 2 ये निचितीकृतगात्रास्ते चर्मेष्टकद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रास्तेषामिव गात्रं यस्य स चर्मेष्टकद्रु घणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रः, 'उरस्सबलसमण्णागए' इति उरसि भवम् उरस्यंतच तदलं च उरस्यबलं तत्समन्वागतः-समनुप्राप्तः उरस्यबलसमन्वागतः आन्तरोत्साह-वीर्ययुक्त इति भावः, 'तलजमलयुगलवाहु तलौतालवृक्षौ तयोर्य-मलयुगलं-समश्रेणीकं युगलं तलयमलयुगलं तद्वदतिसरलौ पीवरौ च बाहू यस्य स तलयमलयुगलबाहुः 'लंधणपवणजइणपमद्दणसमत्थे' इति लङ्घने-अतिक्रमणे मवने-मनाक् पृथुतरविक्रमवति गमने जवने अतिशीघ्रगतौ प्रमर्दनेकठिनस्यापि वस्तुनश्चूर्णनकरण समर्थः लङ्घनप्लवनजवनप्रमईनसमर्थः, क्वचित् 'लंघणपवणजइणवाया-मणसमत्थे' इति पाठः, तत्र व्यायामने-व्यायामकरणे इति व्याख्येयम्, छेकोद्वासप्ततिकलापण्डितो, दक्षः-कार्याणामविलम्बितकारी प्रष्ठो-वागमी कुशलः-सम्यक्रियापरिज्ञानवान् मेधावी परस्पराव्याहतः-पूर्वापरानु“सन्धानदक्षः, अत एव 'निपुणसिप्पोवए' इतिनिपुणः यथा भवति एवं शिल्पं-क्रियासु कौशलम् उपगतः, प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः एकं महान्तं शिलाहस्तकं सरित्पर्णादिशलाकासमुदायं सरित्पर्णादिशलाकामयीं सम्मार्जनीमित्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्थो, 'दंडसंपुच्छणिं वा' इतिदण्डयुक्ता सम्पुच्छनीसन्मार्जनी दण्डसम्पुच्छनी तां वा 'वेणुसिलागिगं वा' इति-वेणुः वंशस्तस्य शलाका वेणुशलाकास्ताभिर्निर्वृत्ता वेणुशलाकिकीवेणुशलाकामयी सम्मानीतांवा गृहीत्वा राजाङ्गणं राजान्तःपुरं वा देवकुलं वा सभांवा' सन्तो भान्त्यस्यामिति सभा ग्रामप्रधानानां नगरप्रधानानां यथासुखमवस्थानहेतुर्मण्डपिका तां वा प्रपां वापानीयशालाम् आरामं वेति-आगत्यागत्य भोगपुरुषा वरतरुणीभिः सह यत्र रमन्ते क्रीडन्तिस आरामोनगरान्नातिदूरवर्ती क्रीडाश्रयः तरुखण्डः तम्, 'उज्जाणं वे ति-उर्ध्व विलम्बितानि प्रयोजनाभावात् यानानि यत्र तदुद्यानंनगरात्प्रत्यासन्नवर्ती यानवाहनक्रीडागृहाद्याश्रयस्तरुखण्डः, तथा अत्वरितमचपलमसम्भ्रान्तं, त्वरायां चापल्ये सम्भ्रमे वा सम्यक्कचवराद्यपगमासम्भवात, निरन्तरं न त्वपान्तरालमोचनेन, सुनिपुणं श्लक्ष्णस्याप्यचोक्षस्यापसारणेन, सर्वतः-सर्वासुदिक्षु विदिक्षुसमन्ततःसामस्त्येनसम्प्रार्जयेत्, ‘एवमेवे त्यादि, सुगमयावत् 'खिप्पामेव पावसमंती' त्यादि, एकान्ते तृणकाष्ठाद्यपनीय क्षिप्रमेवशीध्रमेव प्रत्युपशाम्यन्ति प्रत्येकं ते आभियोगिका देवाः उपशाम्यन्ति-संवर्तकवायुविकुर्वणान्निवर्तन्ते, संवर्तकवातविकुर्वणमुपसंहरन्तीति भावः, ततो 'दोच्चं पिवेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणंति' संवर्तकवातविकुर्वणार्थं हि यद्वेलाद्वयमपि वैक्रियसमुद्धातेन समवहननं तत्किलैकम् इदं त्वभवादलकविकुर्वणार्थं द्वितीयमत उत्कम्-द्वितीयमपि वारं वैक्रियसमुद्धातेन समवहन्यन्ते (घन्ति), समवहत्य चाब्भवादलकानि विकुर्वन्ति, वाःपानीयं तस्य दलानि वार्दलानि तान्येव वादलकानि, मेघा इत्यर्थः, अपो विभ्रतीति अब्भ्राणिमेघाः, अब्भ्राणि सन्त्यस्मिन्निति अन्भ्रादिभ्यः' ।।७।२।४६|इति मत्वर्थीयोऽप्रत्ययः / आकाशमित्यर्थः, अब्भ्रे वार्दलकानि अब्भ्रवादलकानि तानि विकुर्वन्ति; आकाशे मेधानि विकुर्वन्तीत्यार्थः, 'से जहानामए भइगदारगे सिया' इत्यादि पूर्ववत् 'निउणसिप्पोवगए एणं महमि' त्यादि, सयथानामको भृतिकदारक एकं महान्तंदकवारक वा-मृत्तिकामयभाजनविशेष 'दगकुंभगं वे त्ति-दकघट, दकस्थालकं वाकंसादिमयमुदकभृतंभाजनंदक्कलसंवा-उदकभृतंभृङ्गारम्, आवरिसिज्जा' इति-आवर्षेत् आसमन्तात्सिचेत्, "खिप्पामेव पतणतणायं' ति-अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षेण स्तनितंकुर्वन्तीत्यर्थः, 'पविजुयाईति' ति-प्रकर्षण Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1087 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम विद्युतं विदधति, 'पुप्फबद्दलए विउव्वंति पुष्पवृष्टियोग्यानि वार्दलिकानि / यूयमाप, ‘णमि' ति पूर्ववद्, देवानां प्रियाः ! पूर्ववद् सर्वोपरिवारापुष्पवालिकानि-पुष्पवर्षुकान् मेघान् विकुर्वन्तीति भावः, 'एग महं दिकया सर्वद्युतया-यथा-शक्तिविस्फारितेन समस्तेन शरीरतेजसा पुप्फछज्जियं वा' एकां महतीं छाद्यते-उपरि स्थग्यते इति छाधा छाद्यैव सर्वबलेन-समस्तेन हस्त्यादिसैन्येन सर्वसमुदायेनस्वस्याभियोग्यादिछाधिका पुष्पैभृता छाधिका पुष्पछाधिका तांवा पटलकानि-प्रतीतानि, समस्तपरिवारेण, सर्वादरेणसमस्तयायच्छक्तितुलनेन सर्वविभूत्या 'कयग्गाहगहियकरयलपन्भट्ठवि (प्प) मुक्केणं ति-इह मैथुनसंरम्भे यत् सर्वया अभ्यन्तरवैक्रियकरणादिबाह्यरत्नादिसम्पदा सर्वविभूषयायुवतेः केशेषु ग्रहणं स कचग्रहणस्तेन गृहीतं तथा करतलाद्वि (प्र) मुक्तं, यावच्छक्तिस्फारोदारशृङ्गारकरणेन 'सव्वसंभमेणं' ति सर्वोत्कृष्टेन प्राकृतत्वात्पदव्यत्ययस्ततो विशेषणसमासः, तेन शेष सुगमयावत् 'जएणं संभ्रमेण, सर्वोत्कृष्टसम्भ्रमो नामेह स्वनायकविषयबहुमानख्यापनपरा विजएणं यद्धावेंति' जयेन विजयेन वर्धापयन्ति जयतु देवेत्येवं वद्धपिय स्वनायकोपदिष्टकार्यसम्पादनाय यावच्छक्तित्वरितत्वरिता प्रवृत्तिः, न्तीत्यर्थः, तत्र जयः-परैरनभिभूयमानता प्रतापवृद्धिश्च विजयस्तु 'सव्वपुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं' अत्र गन्धावासाः माल्यानिपरेषामसहमानानामभिभवोत्पादः, वर्धापयित्वा च तां पूर्वोक्तामा पुष्पदामानि अलङ्कारा-आभरणविशेषाः, ततः समाहारो द्वन्द्वस्ततः ज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति, आदिष्टकार्यसम्पादनेन निवेदयन्तीत्यर्थः। सर्वशब्देन सह विशेषणसमासः, 'सव्वदिव्यतुडियसवसंनिनाएण' मितितए णं से सूरियामे देवे तेसिं आमियोगियाणं देवाणं अंतिए सर्वाणि च तानि दिव्यत्रुटितानि च सर्वदिव्यत्रुटितानि तेषां शब्दाः एयमढे सोचा निसम्म हडतुट्ठ०जाव हियए, पायत्ताणियाहिवई सर्वदिव्यत्रुटितशब्दाः तेषामेकत्र मीलनेन यः सङ्गतेन नितरांनादो-महान् देवं सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं वदासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! घोषः सर्वत्रुटितदिव्यशब्दसन्निनादस्तेन, इह अल्पेष्वपि सर्वशब्दो दृष्टः, सूरियाभे विमाणे समाए सुहम्माए मेघोघरसियगंभीरमहुरसई यथा 'अनेन सर्वं पीतं धृतमि ति, तत आह-'महता इड्डीए' इत्यादि जोयणपरिमंडलं सुसरघंटं तिक्खुत्तो उल्लालेमाणे 2 महया महत्या यावच्छक्तितुलितया ऋद्ध्यापरिवारादिका, एवं 'महता जुईए' 2 सद्देणं उग्धोसेमाणे 2 एवं वयासी-आणवेति णं भो सूरियामे इत्याद्यपि भावनीयम्, तथा महतां-स्फूर्तिमतां वराणां--प्रधानानां देवे गच्छति णं भो सूरियाभे देवे जंबूदीवे दीवे मारहे वासे त्रुटितानाम् आतोद्यानां यमकयमकम्-एककालंपटुभिः पुरुषैः प्रवादिआमलकप्पाए णयरीए अंबसालवणे चेतिते समणं भगवं महावीरं तानां योरवस्तेन, एतदेव विशेषेणाचष्ट... 'संखपणवपडह-भेरिझल्लरिअभिवंदए, तुब्भेऽवि णं भो देवाणुप्पिया ! सविड्डीए ०जाव खरमुहिहुडु कमुरवमुइंगदुंदुभिनिग्घोसणाइतरवेण' शंख:-प्रतीतः, णातियरवेणं णियगपरिवालसद्धिं संपरिवुडा सातिं सातिं पणवो-भाण्डानां, पटहः-प्रतीतः भेरी ढक्का झल्लरी-चविनद्धा जाणविमाणाइंदुरूढा समाणा अकालपरिहीणं चेव सूरियाभस्स विस्तीर्णा वलयाकारा खरमुखी काहला हुडुक्का प्रतीता महाप्रमाणो देवस्स अंतियं पाउन्भवह। (सू०११) मईलो मुरजः स एव लघुर्मृदङ्गो दुन्दुभिः भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां 'तए णमि' त्यादि, ततो 'णमिति पूर्ववत् स सूर्याभो देवस्तेषाम् 'अभियोगाणं' ति-आ-समन्तादाभिमुख्येन युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मसु द्वन्द्वस्तासां निर्घोषो-महान्ध्वानो नादितं च घण्टायामिव वादनोत्तरव्यापार्यन्ते इत्याभियोग्या अभियोगिकाः; इत्यर्थः, तेषामाभियोग्यानां कालभावी सततध्वनिस्तल्लक्षणो ये रवस्तेन, 'नियगपरिवारसद्धिं देवानामन्तिके समीपे एवम्-अनन्तरोक्तमर्थ श्रुत्वा श्रवणविषयं कृत्वा संपरिखुडा इति निजकः-आत्मीयः आत्मीयो यः परिवारस्तेन लार्द्ध, श्रवणानन्तरं च निशम्य-परिभाव्य 'हट्ठतुट्ठ जाव हिययए ' इति तत्र सहभावः परिवाररीतिमन्तरेणापि सम्भवति तत आह-संपरिखुडा' यावच्छब्दकरणात्-'हद्वतुट्ठचित्तमाणदिए पीइभणे परमसोमणस्सिए सम्यक्-परिवाररीत्या परिवृताः सम्परिवृताः, 'अकालपरिहीणं चेवे' हरिसवसविसप्पमाणहियए' इति द्रष्टव्यं, पदात्यनीकाधिपतिं देवं ति परिहानिः-परिहीनं कालस्य परिहीनं कालविलम्ब इति भावः न शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानां प्रिय ! सभायां विद्यते कालपरिहीनंयत्र प्रादुर्भवने तदकालपरिहीनं, क्रियाविशेषणमेतत्, सुधर्माया-सुधर्माभिधानायां 'मेघोघरसियगंभीरमहुरसह' मिति 'अंतिए पाउडभवह' अन्तिके-समीपे प्रादुर्भवत्, समागच्छतेति भावः1 मेघानामोधः-सङ्घातो मेघौघस्तस्य रसितं गर्जितं तद्वद्गम्भीरो मधुरश्च तए णं से पायत्ताणियाहिवती देव सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते शब्दो यस्याः सा मेधौघरसितगम्भीरमधुरशब्दा तां' जायणपरिमंडलं' समाणे हद्वतुट्ठ०जाव हियए एवं देवा ! तह त्ति आणाए विएएणं ति योजनं योजनप्रमाणं परिमण्डलंगुणप्रधानोऽयं निर्देशः पारिमण्डल्यं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव सूरियाभे विमाणे यस्याः सा योजनपरिमण्डलातां सुस्वरां-सुस्वराभिधानांधण्टामुल्ला- जेणेव सभा सुहम्माजेणेव मेघोघेरसितगंभीरमहुरसद्दाजोयणलयन् २-ताड्यन्ताडयन्नित्यर्थः, महता 2 शब्देन उद्घोषयन् उद्घोषणां परिमंडला सुस्सरा घंटा तेणेव उवागच्छति 2 ता तं कुर्वन् एवं वदति आज्ञापयति भोः सूर्याभो देवो गच्छति भाः सूर्याभो देवो मेघोघरसितगंभीरमहुरसदं जोयणपरिमंडलं सुस्सरं घंटं जम्बूद्वीपं भारतं वर्षम् आमलकल्पां नगरीमामशालवनं चैत्यं यथा (तंत्र) तिक्खुत्तो उल्लालेति / तए णं तीसे मेघोधरसितगंभीर--- श्रमणं भगवन्तं महावीर, वग्दितुं तत्-तस्मात् 'तुब्भेऽवि णमि ति | महुरसद्दाते जोयणपरिमंडलाते सुस्सरातेघंटाए तिक्खुत्तोउल्ला Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1088 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम लियाए समाणीए से सूरियामे विमाणे पासायविमाणणिक्खुडावडियसद्दघंटापडिसुयससहस्ससंकुले जाए यावि होत्था। तए णं ते सूरियाभविमाणवासिणं बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य एणंतरइपसत्तनिचप्पमत्तविसयसुहमुच्छियाणंसुस्सरघंटारवविउलबोल (तुरियचवल) पडिबोहणे कए समाणे घोसणकोउलादिनकन्नएगग्गचित्तउवउत्तमाणसाणं से पायत्ताणीयाहिवई देवे तंसि घंटारवंसि णिसंतपसंतंसि महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उग्घोसेमाणे एवं वदासीहंत सुणंतु भवंतो सूरियाविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य सूरियाभविमाणवइणो वयणं हियसुहत्थं आणवणियं भो सूरियामे देवे गच्छइ णं भो ! सूरियाभे देवे जम्बूदीवं दीवं भारहं वासं आमलकप्पं नयरिं अंबसालवणं चेइयं समणं भगवं महावीरं अभिवंदए, तं तुम्भेऽवि देवाणुप्पिया ! सव्विड्डीए अकालपरिहीणा चेव सूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउन्भवह। (सू०१२) 'तए णं से' इत्यादि 'जाव पडिसुणित्ता' इति, अत्र यावच्छब्दकरणात्-'करयलपरिगहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं देवा! तहत्ति आणाए विण एणं वयणं पडिसुणेइ 'त्ति द्रष्टव्यं, 'तिक्खुत्तो उल्लालेइ'त्ति त्रिकृत्यः-त्रीन् वारान् उल्लालयति-ताडयति, ततो 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे तस्यां मेघौघरसितगम्भीरमधुरशब्दायां योजनपरिमण्डलायां सुस्वराभिधानायां घण्टायां त्रिकृत्वस्ताडितायां सत्यां यत् सूर्याभविमानं (तत्र) तत्प्रासादनिष्कुटेषु च आपतिताः शब्दाःशब्दवर्गणापुद्गलास्तेभ्यः समुच्छलितानि यानि घण्टाप्रतिश्रुतशतसहस्राणिघण्टाप्रतिशब्दलक्षाणि तैः संकुलमपि जातमभूत्, किमुक्ते भवति? घण्टायां महता प्रयत्नेन ताडितायां ये विनिर्गताः शब्दपुद्गलास्तत्प्रतिघातवशतः सर्वासु दिक्षु विदिक्षुच दिव्यानुभावतः समुच्छेलितैः प्रतिशब्दैः सकलमपि विमानमेकयोजनलक्षमानमपि वधिरितमजायत इति, एतेन द्वादशभ्यो योजनेभ्यः समागतः शब्दः श्रोतग्राह्यो भवति, न परतः ततः कथमेकत्र ताडितायां घण्टायां सर्वत्र तच्छब्दश्रुतिरूपजायते? इति यचोद्यते तदपाकृतमवसेयं, सर्वत्र दिव्यानुभावतः तथारूपप्रतिशब्दोच्छलने यथोक्तदोषासम्भवात्। 'तए णमि त्यादि ततो 'णमि' ति पूर्ववत् तेषां सूर्याभदेवविमानवासिनां बहूनां वैमानिकदेवानां देवीनां च एकान्तेन सर्वात्मना रतौ-रमणे प्रसक्ता एकान्तरुतिप्रसक्ता अत एव नित्यं-सर्वकालं प्रमत्ता नित्यप्रमत्ताः, कस्मादिति चेदत आह'विसयसुहमुच्छिय त्ति' विषयसुखेषु मूर्छिता-अध्युपपन्ना विषयसुखमूर्छिता यतोऽध्युपपन्नास्ततो नित्यप्रमत्ताः ततः पदत्रयस्यपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः तेषांसुस्सग्घंटारवविउल वोलतुरियचवलपडियोहणे' इति सुस्वराभिधानाया घण्टाया रवस्य यः सर्वासु दिक्षु / विदिक्षु च प्रतिशब्दोच्छलनेन, विपुलः-सकलविमानव्यापिलया विस्तीर्णो वोलः-को लाहलस्तेन त्वरितंशीघ्रं चपलम्-आकुलं प्रतिबोधने कृते सति 'घोसम्पकोउहलादिन्नकन्नएगग्गचितउवउत्तमाणसाणमिति कीदृग नाम घोषणं भविष्यतीत्येवं घोषणे कुतूहलेनदत्तौ कण्र्णो यैस्ते घोषणकुतूहलदत्तकण्र्णाः , तथा एकाग्रं-घोषणाश्रवणैकविषयं चित्तं येषां ते एकाग्रचित्ताः, एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिदनुपयोगः स्यादत आह-उपयुक्तमानसाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां, पदात्यनीकाधिपतिदेवस्तस्मिन् घण्टारवे 'निसंतपसंतंसी' ति नितरां शान्ती निशान्तः अत्यन्तमन्दीभूतस्ततः प्रकर्षण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः, ततश्छिन्नप्ररूढ इत्यादाविव विशेषणसमास्तस्मिन् महता 2 शब्देन उद्घोषयन्नेवमवादीत्-'हन्तसुणंतु' इत्यादि हर्षे, उक्तं च-'हन्त हर्षेऽनुकम्पा यामि' त्यादि, हर्षश्च स्वामिनाऽदिष्टत्वात् श्रीमन्महावीरपादवन्दनार्थ च प्रस्थानसमारम्भात्, शुण्वन्तु भवन्तो बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिकदेवा, देव्यश्च, सूर्याभविमानपतेर्वचनं हितसुखाथ हितार्थ सुखार्थं चेत्यर्थः, तत्र हितं जन्मान्तरेऽपि कल्याणवहं तथाविधकुशलं, सुखं तस्मिन् भवे निरुपद्रवता, आज्ञापयति भो देवानां प्रियाः! सूर्याभो देवो यथा गच्छति भोः ! सूर्याभो देवो 'जम्बूद्वीपंद्वीपमि' त्यादि तदेव यावदन्तिके प्रादुर्भवत। तए णं ते सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य पायत्ताणियाहिवइस्स देवस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हटतह जाव हियया अप्पेगइया वंदणवत्तियार अप्पेगइया पूयणवत्तियाए अप्पेगइया सकारवत्तियाए एक संभाणवत्तियाए कोउहलवत्तियाए अप्पे० असुयाइं सुणिस्समो सुयाई अट्ठाइं हेऊइं पसिणाई कारणाइं वागरणाइं पुच्छिस्सामो, अप्पेगइया सुरियाभस्स देवस्स वयणमणुयत्तमाणा अप्पेगतिया अनमन्नमणुयत्तमाणा अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया धम्मो त्ति अप्पेगइया जीयमेयं ति कट्ट सव्विड्डीए जाव अकालपरिहीणा चेव सूरियाभस्स देवस्स अंतियं पाउन्मवंति। (सू०१३)तएणं से सूरियाभो देवे ते सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य अकालपरिहीणा चेव अंतियं पाउब्भवमाणे पासति पासित्ता हट्टतुट्ठ जाव हियए आमिओगियं देवं सहावेति आमिओ० सहावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अणेगळाभसयसंनिविट्ठ लीलट्ठियसालमंजियागंईहामियउसमतुररानरमगरविहगवालगकिंनररु-रुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलमत्तिचित्तं खंभुग्गयवरवइरवेइयापरिगयाभिरामं विजाहरजमलजुय-लजंतजुत्तं पिव अधीहसहस्समालिणीयं रूवगसहस्सकलियं भिसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूवं घटावलिचलियमहुरमणहरसरं सुहं कंतं दरिसणि Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1056 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ जं णिउणोचियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं जोयणसयसहस्सवित्थिएणं दिव्वं गमणसजं सिग्घगमणं णाम दिव्वं जाणं (जाणविमाणं) विउव्वाहि, विउवित्ता खिप्पामेव एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि। (सू०१४) 'तए णं ते' इत्यादि, ततस्ते सूर्याभविमानवासिनो बहवो वैमानिका देवा देव्यश्च पदात्यनीकाधिपतेर्देवस्य समीपे एनम्-अनन्तरोक्तम) श्रुत्वा ‘णिसम्म हट्टतुट्ठ०जाव हियया' इति यावत्करणात्-'हट्टतुट्ठचित्तमाणदिया पीइमणा परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाणहियया' इति परिग्रहः, 'अप्पेगइया वंदणवत्तियाए' इति अपिः सम्भावनायामेककाः-केचन वन्दनप्रत्ययं वन्दनम्-अभिवादनं प्रशस्तकायवाग्मनः प्रवृत्तिरूपं तत्प्रत्ययं तन्मया भगवतः श्रीमन्महावीरस्य कर्त्तव्यमित्येवंनिमित्तम्, अप्येकका: पूजनप्रत्ययं पूजन-गन्धमाल्यादिभिः समभ्यर्चनं अप्पेककाः सत्कारप्रत्ययं सत्कारः-स्तुत्यादिगुणोन्नतिकरणम् अप्येककाः सन्मानो-मानसः प्रीतिविशेषः, अप्येककाः कुतूहलजिनभक्तिरागेण-कुतूहलेन-कौतुकेन कीदृशो भगवान् सर्वज्ञः सर्वदर्शी श्रीमन्महावीर इत्येवंरूपेण यो जिने- भगवति वर्द्धमानभस्वामिनि भक्तिरागोभसक्तिपूर्वकोऽनुरागस्तेन अप्येके सूर्याभस्य वचनम्आज्ञामनुवर्तमानाः अप्येककाः अश्रुतानिपूर्वमनाकर्णितानि स्वर्गमोक्षप्रसाधकानि वचांसि श्रोष्याम इति बुझ्या अप्येककाः श्रुतानि-- पूर्वमाकर्णितानि यानि शङ्कितानि जातानि तानि इदानीं निःशङ्कितानि करिष्याम इति बुद्ध्या अप्येकका जीतमेतत्-कल्प एष इति कृत्वा, 'सव्विड्डीए' इत्यादि प्राग्वत्। तए णं से आमिओगिए देवे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे हढे जाव हियए करयलपरिग्हियं जाव पडिसुणेइ ०जाव पडिसुणेत्ता उत्तरपुरच्छिम दिसिभागं अदक्कमंति अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्धाएणं समोहणइ 2 णित्ता संखेजाइं जोयणाई जाव अहाबायरे पोग्लेसमो०२त्ता अहासुहुमे पोग्गले परियाएइ २त्ता दोचं पिवेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणेइ२त्ता अणेगखंभसयसन्निविटुं जाव दिव्वं जाणविमाणं विउविउं पवत्ते याऽवि होत्था / तए णं से आमिओगिए देवे तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स तिदिसिं तओ तिसोवाणपडिरूवए विउव्वति, तं जहा-पुरच्छिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, तेसिं तिसोवाणपडिरूवगाणं इमे एयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-वइरामया णिम्मा रिट्ठामया पतिट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरूप्पमया फलगालोहितक्खमइयाओ सूइओवइरामया संधीणाणामणिमया अयलंबण / अवलंबणबाहाओ य पासादीया ०जाव पडिरूवा। ते सि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ तोरणे विउव्वति, तोरणा णाणामणिभएसुथंमेसु उवनिविट्ठसनिविट्ठ विविहमुत्तरोवचिया विविहतारारूवोवचिया ईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिंनरररुसरमचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गय [वर] वइरवेइयापरिगतामिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ता विव अचीसहससमालिणीया रूवगसहस्सकलिया मिसमाणामिब्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाइया] ०जाव पडिरूवा। 'तएणमि' त्यादि 'अणेगखंभसयसन्निविट्ठ' मिति अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्ट, 'लीलट्ठियसालिभंजियाग' मिति लीलया स्थिता लीलास्थिताः, अनेन तासां पुत्तलिकानां सौभाग्यमावेदयति, लीलास्थिताः शालभज्जिकाः पुत्तलिका यत्र तत्तथा 'ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालकुंजररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलय-भत्तिचित्तमि' ति ईहामृगा-वृकाव्यालाः-स्वापदभुजङ्गा ईहामृगऋषभतुरगनरमगरविहगव्यालकिनररुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलतानां भक्त्याविच्छित्या चित्रम्-आलेखो यत्र तत्तथा, तथा स्तम्भोगतयास्तम्भोपरिवर्त्तिन्या वजरत्नमय्या वेदिकया परिगतं सत् यदभिरामं तत्स्तम्भोगतवज्रवेदिकापरिगताभिरामं, 'विजाहर-जमलजुगलजंतजुत्तं पिव' इति विद्याधरयोर्ययमलयुगलं-समश्रेणीकं द्वन्द्वं विद्याधरयमलयुगलं तच्च तद्, यन्त्रंच सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिभाद्वयरूपंतेन युक्तंतदेव तथा, अर्चिषाकिरणानां सहस्रैर्मालिनीयं-परिचारणीयम् अर्चिः सहस्रमालिनीयं,तथा रूपकसहस्रकलितं, 'भिसमाणं ति दीप्यमानं 'भिब्भिसमान अतिशयेन देदीप्यमानं, 'चक्खुल्लोयणलेसं' ति चक्षुः-कर्तृलोकने लिसतीवदर्शनीयत्वातिशयात् श्लिष्यतीव यत्र तत्तथा, 'सुहफासं ति' शुभःकोमलः स्पर्शो यस्य तत्तथा, सश्रीकानि-सशोभाकानि रूपाणिरूपकाणि यत्र तत् सश्रीकरूपं, घण्टावलिचलियमहुरमणहरसर मिति घण्टावलेः-घण्टापडक्तेर्वातवशेन चलितायाः कम्पितायाः मधुरःश्रोत्रप्रियो मनोहरो-मनोनिवृत्तिकरः स्वरो यत्र तत्तथा, चलितशब्दस्य विशेष्यात्परनिपातः प्राकृतत्वात्, 'शुभं यथोदितवस्तुलक्षणोपेतत्वात्, कान्त-कमनीयम् अतएव दर्शनीय,तथा 'निउणचियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्त' मिति निपुणक्रियमुचितानि खचितानि 'मिसिमिसिंत' त्ति देदीप्यमानानि मणिरत्नानि यत्र तत्तथा तेन, कथंभूतेन ? घण्टिकाजालेन-क्षुद्रघण्टिकासमूहेन परिः-सामस्त्येन क्षिप्त-व्याप्तं यत्तत्तथा, योजनशतसहस्रविस्तीर्णयोजनलक्षविस्तारं दिव्यं-प्रधान गमनसज्ज-गमनप्रवणं शीघ्रगमननामधेयं 'जाणविमाणं' यानरूपं-वाहनरूपं विमानं यानविमानं, शेषं प्राग्वत् / 'तस्स ण' मित्यादि, तस्स णमिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्य 'तिदिसिं' इति तिस्रो दिशः समाहृतस्त्रिदिक् तस्मिन् त्रिदिशि, तत्र 'तिसोवाणपडिरूवए' इति त्रीणि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात् त्रि Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ १०१०-अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम सोपानप्रतिरूपकाणि प्रति-विशिष्ट रूपं येषांतानि प्रतिरूपकाणि त्रयाणां चामरज्झए जाव सुकिल्लचामरज्झए अच्छे सण्हे रुप्पपट्टे सोपानानं समाहारस्त्रिसोपानं त्रिसोपनानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति वइरामयदंडे जलयामलगंधिए सुरम्मे पासादीए दरिसणिज्जे विशेषणसमासः, विशेषणस्यात्र परनिपातः प्राकृतत्वात् 'तेसि णमि' अभिरूवे पडिरूवे विउव्वति / तेसि णं तोरणाणं उप्पिं बहवे त्यादि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयमेतद्रूपो--वक्ष्यमाणस्वरूपो छत्तातिच्छते घंटाजुगले पडागाइपडागे उप्पलहत्थए कुमुदणवर्णावासा-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वज्रमया-वज्ररत्नमया नेमी' | लिणसुभगसोगंधियपॉडीयमहापोंडरीयसतपत्तसहस्सपत्तनेमिभूमिका तत्र ऊर्द्ध निर्गच्छन्तःप्रदेशाः रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि हत्थए सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे विउव्वति। तए णं निष्ठानानि त्रिसोपानमूलप्रदेशाः वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यभयानि से आभिओगिए देवे तस्स दिव्वस्स जाणविमाणस्स अंतो फलकानि-त्रिसोपानाङ्गभूतानि, लोहिताक्षमय्यः सूचयः-फलकद्वय- बहुसमरमणिशं भूमिभागं विउव्वति। - सम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः व्रजमया--वज्ररत्नपूरिताः 'तेसिणं तोरणाणं उप्पिमि' त्यादि सुगम, नवरं 'जाव पडिरूवा' इति सन्धयः-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः नानामणिमयानि अवलम्ब्यन्ते यावच्छब्दकरणात्-'घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया इति अवलम्बनानि-अवतरतामुत्तरतां चालम्बनहेतुभूता अवलम्बन- समिरि(स्सिरी) या सउज्जोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा इति बाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः, अवलम्बणबाहाओय'त्ति अवलम्बन- द्रष्टव्यम्। 'तेसि णमि' त्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरबाहाश्च नानामणिमय्यः, अवलम्बनबाहानाम उभयोः पार्श्वयोरवलम्ब- युक्ता ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः,एवं बहवो नीलचाभरध्वजाः, लोहितनाश्रयभूता भित्तयः, 'पासाइयाओ' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत्। 'तेसि चामरध्वजाः, हरितचामरध्वजाः, शुक्लचामरध्वजाः, कथम्भूता एते ण' मित्यादि, तेषां 'णामि' ति वाक्यालङ्कारे त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां सर्वेऽपीत्यत आह-अच्छा-आकाशस्फटिकवदतिनिर्मलाः श्लक्ष्णापुरतः प्रत्येकं तोरणं प्रज्ञप्तं, तेषां च तोरणानामयमेतद्रूपो वर्णावासो- श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापिताः 'रूप्पपट्टा' इति रूप्यो-रूप्यमयो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तोरणा नानामणिमया इत्यादि, क्वचिदेवं वज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते रूप्यपट्टाः 'वइरदंडा' इति वज्रोपाठः-'तेसि णं तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरतो तोरणे विउव्वइ तोरणा वज्ररत्नमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां तेवढदण्डाः, तथा जलजानाणामणिया' इत्यादि, मणयः-चन्द्रकान्ताद्याः, विविधमणिमयानि नामिव-जलजकुसुमांना पद्मादीनामिवामलो नतु कुद्रव्यगन्धसम्मिश्रो तोरणानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उपनिविष्टानि-सामीप्येन स्थितानि, यो गन्धः स जलजामलगन्धः स विद्यते येषां ते जलजामजगन्धिकाः, तानि च कदाचिचलानि, अथवा-अपदपतितानि वाऽऽशङ्क्येरन् तत अत एव सुरभ्याः 'प्रासादीया' इत्यादिविशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्। 'तेसि आह-सम्यक् निश्चलतया अपदपरिहारेण च निविष्टानि, ततो विशेषण- ण' मित्यादि, तेषां तोरणानामुपरि बहूनि छत्रातिच्छत्राणि-छत्रात्समासः उपनिविष्ट-सन्निविष्टानि, 'विविहमुत्तंतरो(रारूवो) वचियाई' लोकप्रसिद्धात् एकसङ्ख्यात अतिशायीनिछत्राणि उपर्यधोभावेन द्विसंइति विविधा-विविधविच्छित्तिकलिता भुक्ता--मुक्ताफलानि 'अन्तरे' ख्याकानि त्रिसंख्याकानि वा छत्रातिच्छ-त्राणि, बाह्यपताकाभ्यो ति अन्तरशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि सामर्थ्याद्वीप्सां गमयति, अन्तरा 2 लोकप्रसिद्धाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तारेण चपताकाः पताकारूपोपचितानि यावता यत्र तानि तथा, "विविहतारो यचियाई' विविधै- तिपताकाः, बहूनि घण्टायुगलानि, बहूनि चामरयुगलानि, बहव स्तारारूपैः-तारिकारूपैरुपचितानि, तोर णेषु हि शोभार्थ तारिका उत्पलहस्ताः-उत्पलाख्यजलजकुसुम-समूहविशेषाः एवं बहवः निबध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपीति विविधतारारूपोपचितानि 'जाव पद्महस्तकाः नलिनहस्तकाः सुभगहस्तकाः सौगन्धिकहस्तकाः पडिरूवा' इति यावक्तरणात् 'ईहागिउसभतुरगनरमगरविहगवाल- शतपत्रहस्तकाः सहस्रपत्रहस्तकाः, पद्मादिविभागव्याख्यानं प्राग्वत्, एते किन्नर-रुरुसरभचरकुंजरवणलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेइया- च छत्रातिच्छत्रादयः सर्वेऽपि रत्नामया अच्छा-आकशस्फटिकवदतिपरिगयाभिरामा विजाहरजमलजुगलजंतजुत्ताविव एवंनामस्तम्भद्वय-- निर्मला यावत्करणात्-'सण्हा लण्हा घट्ठा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका सन्निविष्टानि तोरणानि व्यवस्थितानि यथा विद्याधरयमलयुगलयन्त्र- निक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरिया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा युक्तानीव प्रतिभासते इति, 'अचीसहस्समालणीया रूवगसहस्स- अभिरूवा' इति परिग्रहः। तस्स णमि' त्यादि, 'तस्सणं मिति पूर्ववत् कलिया भिसिमाणा भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा दिव्यस्य यानविमानस्य अन्तः-मध्ये बहुसमः सन्मणीयो बहुरमणीयो सस्सिरीयरू वा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा ' इति परिग्रहः, क्व भूमिभागः प्रज्ञप्त। चिदेतत्साक्षाल्लिखितमपि दृश्यते। किंविशिष्ट? इत्याहतेसि णं तोरणाणं उप्पिं अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तं जहा- से जहाणामए आलिंगपुक्खरे ति वा मुइंगपुक्खरे इ वा सरतले इ सोत्थियसिरिवच्छणांदियाक्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छदप्पणा | वा करतले इवा चंदमंडले इवा सूरमंडले इवा आयंसमंडले इवा (०जाव पडिरूवा)।तेसि च णं तोरणा णं उप्पिं बहवे किण्ह- उत्भचम्मेइवा (वसहचम्मे इवा) वराहचम्मेइवा सीहचम्मेइवा Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1091 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम वग्घचम्मे इ वा मिगचम्मे इ वा (छगलचम्मे इवा) दीवियचम्मे इवा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितए णाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं उवसोभिते आवडपचावडसेढिपसेढिसोत्थिय-सोवत्थियपूसमाणगवद्धमाणगमच्छंडगमगरंडाजारामाराफुल्लगवलिवपउमपत्तसागरतरंगवसंतलयपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीएहिं सउझोएहिं णाणाविहपंचवणेहिं मणीहिं उवसोमिएहिं तं जहा-किण्हेहिं णीलेहिं लोहिएहिं हालिद्देहिं सुकिल्लेहि, तत्थ णं जे ते किण्हा मणी तेसिणं मणीणं इमे एतारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहानामए जीमतूए इवा अंजणे इवा खंजणे इ वा कजले इ वा गवले इवा गवलगुलिया इ वा ममरे इ वा भमरावलिया इ वा भमरपतंगसारे ति वा जंबूफले ति वा अद्दारितु इ वा परहुते इ वा गए इ वा गयकलभे इ वा किण्हसप्पे इ वा किण्हकेसरे इवा आगासथिग्गले इवा किण्हातोए इवा किण्हकणवीरे इवा किण्हबंधुजीवे इवा, भये एयारूवे सिया? णो इणडे समढे, (ओवम्म समणाउसो! ते णं किण्हा मणी इत्तो इतराए चेव कंततराए चेवमणामतराए चेव मणुण्णतराए चेव वण्णेणं पण्णत्ता / तत्थ णं जे ते नीला मणी तेसिणं मणीणं इमे एयारूवे वण्णवासे पण्णत्ते, से जहानामए भिंगे इवा भिंगपत्ते इ वा सुए इ वा सुयपिच्छे इ वा चासे इ वा चासपिच्छे इवा णीली इवा णीलीभेदे इवा णीलीगुलिया इ वा सामा इवा उचन्ते इ वा वणराती इ वा हलधरवसणे इ वा मोरग्गीवा इ वा अयसिकुसुमे इ वा वाणकुसुमे इ वा अंजणके सिकुसुमे इ वा नीलुप्पले इवाणीलासोगे इवाणीलबंधुजीवे इवाणीलकणवीरे इवा, भवेयारूवे सिया ? णो इणट्टे समढे, ते णं णीला मणी एत्तो इट्ठतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता / तत्थ णं जे ते लोहियगा मणी तेसि णं मणीणं इमेयारूवे वण्णवासे पण्णत्ते, से जहाणामए उरभरुहिरे इ वा ससरुहिरे इ वा नररुहिरे इवा वराहरुहिरे इवा (महिसरुहिरे वा) बालिंदगोवे इ वा बालदिवाकरे इ वा संझब्भरागे इ वा गुंजद्धरागे इ वा जासुअणकुसुमे इ वा किंसुयकुसुमे इ वा पालियायकुसुमे इ वा जाइहिंगुलए ति वा सिलप्पवाले ति वा पवाल अंकुरे इवा लोहियक्खमणी इ वा लक्खारसगे ति वा किमिरागकंबले ति वा चीणपिट्टरासी ति वा रत्तुप्पले इ वा रत्तासोगे ति वा रत्तकणवीरे ति वा रत्तबंधु जीवे ति वा, भवेयारूवे सिया? णो इणढे समढे, ते णं लोहिया | मणी इत्तो इठ्ठतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते हालिद्दा मणी तेसि णं मणीणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते से जहाणामए चंपे ति वा चंपछल्ली ति वा (चंपगभेएइवा) हलिद्दा इवा हलिद्दागुलिया ति वा हरियालियाइ वा हरियालभेदे ति वा हरियागुलिया ति वा चिउरे इ वा चिउरंगारते ति वा वरकणगे इ वा वरकणगनिघसे इवा (सुवण्णसिपाए ति वा) वरपुरिसवसणे ति वा अल्लकीकुसुमे ति वा चंपाकुसुमे इ वा कुहंडियाकुसुमे इवा तडवडाकुसुमे इ वा घोसेडियाकुसुमे इ वा सुवण्णकुसुमे इ वा सुहिरण्णकुसुमे ति वा कोरंटवरमल्लदामे ति वा बीयो (यकुसुमे) इ वा पीयासोगे ति वा पीयकणवीरे ति वा पीयबंधुजीवे ति वा, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे, ते णं हालिद्दा मणी एत्तो इद्वतराए चेवजाव वण्णेणं पण्णत्ता। तत्थ णं जे ते सुकिल्ला मणी तेसि णं मणीणं इमेयारूवे वण्णवासे पण्णत्ते / से जहा नामए अंके ति वा संखे ति वा चंदे ति वा कुंदे इवा दंते इ वा (कुमुदोदकदयरयदहिघणगोक्खीरपुर) हंसावली इ वा कर्कोचावली ति वा हारावली ति वा चंदावलीति वा सारतियबलाहए ति वा धंतधोयरुप्पपट्टे इ वा सालिपिट्ठरासी ति वा कुंदपुप्फरासी ति वा कुमुदरासी ति वा सुक्कच्छिवाडी ति वा पिहुणमिंजिया ति वा मिसे ति मुणालिया ति वा गयदंते ति वा लवंगदलए ति वा पॉडरियदलए ति वा सेयासेगे ति वा सेयकणवीरे ति वा सेयबन्धुजीवे ति वा, भवेयारूवे सिया ? णो इणद्वे समढे, ते णं सुकिल्लामणी एत्तो इतराए चेव जाव वनेणं पण्णत्ता। ‘से जहा नाम ए' तत्-सकललोकप्रसिद्धं 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शने 'नामे' ति शिष्यामन्त्रणे, 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, 'आलिंगपुक्खरे इ वे ति आलिङ्गोमुरजनामा वाद्यविशेषः तस्य पुष्करंचर्मपुटं तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमाक्रियते, इति-शब्दाः सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूतवस्तुपरिसमाप्तिद्योतकाः, वाशब्दाः समुच्चये मृदङ्गो लोकप्रतीतो मर्दलस्तस्य पुष्करं मुदङ्गपुष्करं परिपूर्णपानीयेन भृतं तडाकं सरस्तस्य तलम्-उपरितनो भागः सरस्तलं, करतलं प्रतीतं, चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलं च यद्यपि तत्त्ववृत्त्या उत्तानीकृतार्द्धकपित्थाकारं पीठप्रासादापेक्षया वृत्तालेखमिति तद्गतो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम्, आदर्शमण्डलं सुप्रसिद्धम्, 'उरभचम्मे इवे' त्यादि, अत्र सर्वत्रापि 'अणेगसंकुकीलगसहस्स-वितते इति विशेषणयोगः, उरभ्रः-ऊरणः, वृषभव Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1092- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम राहसिंहव्याघ्रच्छगलाः प्रतीताः द्विपी-चित्रकः, एतेषां प्रत्येकं धर्म लभश्च प्रतीतः, कृष्णसर्पः-कृष्णवर्णसर्पजातिविशेषः, कृष्णकेसरःअनेकैः शङ्कप्रमाणेः कीलकसहस्रः महद्भिर्हि कीलकैस्ताडितं प्रायो मध्ये कृष्णवकुलः, 'आकाशथिग्गलं' शरदि मेघविनिर्मुक्तामाकाशखण्डं, तद्धि क्षामं भवति, तथारूपताडासम्भवात् अतःशडग्रहणं, विततं-चिततीकृत कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णाशोक-कृष्णकणवीरकृष्णताडितमिति भावः, यथाऽत्यन्तं बहुसमं भवति तथा तस्यापि यान- बन्धुजीवाः अशोककणवीरबन्धुजीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पञ्चवर्णा विमानस्यान्तर्बहुसमो भूमिभागः पुनः कभम्भूत इत्याह-'णाणाविह- भवन्ति ततः शेषवर्णव्युदासार्थं कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते त्वरावानिव पंचवन्नेहिं मणीहिं उवसोभिते' नानाविधाः-जातिभेदान्नानाप्रकारा ये | शिष्यः पृच्छति-'भवे एयारूवे' इति भवेत् मणीनां कृष्णो वर्णः 'एतद्रूपो' पञ्चवर्णा मणयस्तैरूपशोभितः कथम्भूतैरित्याह-'आवडे' इत्यादि, जीमूतादिरूपः? सूरिराह-'नायमर्थः समर्थः नायमर्थ उपपन्नो, यदुतआवर्तादीनि मणीनां लक्षणानि, तत्रावतः श्रेणिः-तथाविधबिन्दुजा एवम्भूतः कृष्णो वर्णो मणीनामिति, यद्येवं तर्हि किमर्थं जीमूतादीनां पक्तिस्तस्याश्च श्रेणेर्या च निर्गता अन्या श्रेणिः सा प्रश्नेणिः स्वस्तिकः दृष्टान्तत्वेनोप्रादानमत आह-औपम्यम्-उपमामात्रमेतत् उदितं हे प्रतीतः सौवस्तिकपुष्पमाणवी लक्षणविशेषौ लोकात्प्रत्येतव्यौ श्रमण ! आयुष्मन्। यावता पुनस्ते कृष्ण मण्य 'इतो' जीमूतादेरिष्टतरका वर्द्धमानकं-शरावसम्पुटं मत्स्यकाण्डक्रमकरकाण्डके प्रतीते 'जार- एव-कृष्णेन वर्णन अभीप्सिततरका एव, तत्र किञ्चिदकान्तमपि मारेति' लक्षणविशेषौ सम्यग्मणिलक्षणवेदिनो लोकादेदितव्यौ पुष्पा- केषाञ्चिदिष्टतमं भवति ततोऽकान्तताव्यव्यच्छित्त्यर्थमाह-कान्ततरका वलिपद्मपत्रससागरतरङ्गवासन्तीलतापद्मलताः सुप्रतीत तासां भक्त्या- एव-अतिस्निग्ध-मनोहारिकालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयविच्छित्या चित्रम्-आलेखो येषु ते आवर्त्तप्रत्यावर्त्तश्रेणिप्रश्रेणि- तरकाः, अत एव मनोज्ञतरका एव-मनसा ज्ञायते-अनुकूलतया स्वस्तिकसौवस्तिकपुष्पमाणववर्द्धमानकमत्स्याण्डक मकराण्ड- | स्वप्रवृत्तिविषयीक्रियते इति मनोज्ञं मनोऽनुकुलं ततः प्रकर्षविवक्षायां कजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागर-तङ्गवासन्तीलतापद्मलताभक्ति- तरप्प्रत्ययः, तत्र मनोज्ञतरमपि किञ्चिन्मध्यमं भवेत्, ततः सर्वोत्कर्षचित्रास्तैः, किमुक्तं भवति?- आवर्त्तादिलक्षणोपेतैः, तथा सच्छायैः प्रतिपादनार्थमाह-'मनआपतरका एव' दृष्टणां मनांसि आप्नुवन्तिसती शोभना छाया-निर्मलत्वरूपा येषां ते सच्छायाः तथा सती–शोभना आत्मवशतां नयन्तीति मनआपास्ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्प्रत्ययः, प्रभाकान्तियेषां ते सत्प्रभाः तैः, समरीएहिं' इति समरीचिकैः- प्राकृतत्वाच पकारस्य मकारे मणामतरा इति भवति। तथा तत्थ णमि' बहिर्विनिर्गतकिरणजालसहितैः सोद्योतैः-बहिव्यवस्थितप्रत्यासन्न- त्यादि, तत्र-तेषां मणीनां मध्ये ये ते नीला मणयस्तेषामयमेतद्रूपो वस्तुस्तोप्रकाशकरोद्यातसहितैः एवम्भूतैनांनाजातीयैः पञ्चवणे- वर्णावासो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्त, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि स मणिभिरूपशोभितः तानेव पञ्चवणानाह-'तं जहा-किण्हेहिं' इत्यादि यथानाम भृङ्ग:-कीटविशेषः पक्ष्मलः 'भृङ्गपत्रं तस्यैव भृङ्गाभिधानस्य सुगम, 'तत्थणमि' त्यादि, 'तत्र' तेषां पञ्चवर्णानां मणीनां मध्ये, 'णमि' कीटविशेषस्य पक्ष्म, शुकः-कीरः, शुक्रपिच्छं-शुकस्य पत्रे, चावःति वाक्यालङ्कारे, ये ते कृष्णा मणयः ते कृष्णमण्य इत्येव सिद्धे ये इति पक्षिविशेषः, चाषपिच्छे-चाषपक्षः, नीली प्रतीता, नीलीभेदी-- वचनं भाषाक्रमार्थ, तेषां 'णामि' तिपूर्ववत्, अयम्-अनन्तरमुद्दिश्यमान नीलीच्छेदः, नीलीगुलिका-गुलिकाद्रव्यगुटिका, श्यामाकोधान्यएतद्रूपः-अनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः विशेषः, 'उचंतगो' दन्तरागः, वनराजी प्रतीता, हलधरोबलदेवस्तस्य प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम 'जीमूत' इति वसनं हलधरवसनं, तच किल नीलं भवति सदैव तथास्वभावतया, जीमूतो-बलाहकः, स चेह प्रावृट्प्रारम्भसमये जलभृतो वेदितव्यः, हलधरस्य नीलवस्त्रपरिधानात्, मयूरग्रीवा पारापतग्रीवा अतसीकुसुमतस्यैव प्रायोऽति-कालिमसम्भवात् इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरि- वाणवृक्षकुसुमानि प्रतीतानि इत ऊर्ध्वं क्वचित् 'इंदनीले इवा महानीले समाप्तिद्योतकः, वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्र, इवा मरगते इवा' इति दृश्यते तत्रेन्द्रनीलमहानीलमरकता रत्नविशेषाः अञ्जनं-सौवीराजनं रत्नविशेषो वा, खञ्जनं-द्वीपमल्लिकामलः प्रतीताः, अञ्जनकेशिका-वनस्पतिविशेषस्तस्य कुसुममञ्जनकजलं-दीपशिखापतितं, मषी-तदेव कज्जलं ताम्रभाजनादिषु केशिकाकुसुम, नीलोत्पलं-कुवलयं, नीलाशोककणवीरनीलबन्धुजीवा सामग्रीविशेषेण धोलितं मषीगुलिकाघोलितकज्जलगुटिका, क्वचित् अशोकादिवृक्षविशेषाः, 'भवेयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् व्याख्येयम्। तथा (पुस्तकान्तरे) 'मसी इति वा मसीगुलिया' इति ग दृश्यते, 'गवलं' 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्र-तेषां मणीनांमध्ये ये ते लोहितामणयस्तेषामाहिषं शृङ्ग तदपिचोपरिततनत्वरभागापसारेण द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य मयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए,' इत्यादि, कालिस्रः सम्भवात्, तथा तस्यैव माहिषशृङ्गनिविडतरसारनिवर्तिता तद्यथानाम शशकरुधिरं उरभ्रः-ऊरणस्तस्यरुधिरं, वराहः शूकरस्तस्य गुटिका गवलगुटिका भ्रमरः-प्रतीतः भ्रमरावली-भ्रमरपङ्क्तिः भ्रमर- रुधिरं, मनुष्यरुधिरं महिषरुधिरं च प्रतीतम्, एतानि हि किल पतङ्गसार-भ्रमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितप्रदेशः, जम्बूफलं शेषरुधिरेभ्यो लोहितवर्णोत्कटानि भवन्ति तत एतेषामुपादानं, बालेन्द्रप्रतीतं, आरिष्ठकः-कोमलः काकः परपुष्टः-कोकिलः, गजो गजक- गोपकः-सद्योजातेन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन्नीणत्पाण्डुरो रक्तो भ Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1063- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ वतिततो बालग्रहणम्, इन्द्रगोपकः-प्रथमप्रावृत्कालभावी कीटविशेषः, बालदिवाकरः-प्रथममद्गच्छन् सूर्यः, सन्ध्याभ्ररागोवर्षासु सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः, गुञ्जालोकप्रतीता तस्यार्द्ध रागो गुजार्द्धरागः, गुञ्जाया हि अर्द्धमतिरक्तं भवति अर्द्ध चातिकृष्णमिति गुजार्द्धग्रहणं, जपाकुसुमकिंसुककुसुमपारिजातकुसुमजात्यहिङ्गुला लोकप्रसिद्धाः, शिलाप्रवालं--प्रवालनाम रत्नविशेषः प्रवालाकुरः-तस्यैव रत्नविशेषस्य प्रवालस्याङ्कुरः, स हि तत्प्रथमोगतत्वेनात्यन्तरक्तो भवति ततस्तदुपादान, लोहिताक्षणिर्नाम रत्नविशेषः, लाक्षारसकृमिरागरक्तकम्बलचीनपिष्टराशिक्तोत्पलरक्ता-शोककणवीररक्तबन्धुजीवाः प्रतीताः भवेयारूवे' इत्यादि प्राग्वत्। 'तत्थ णमि' त्यादि, 'तत्र' तेषां मणीनां मध्ये ये हरिद्रा मणयस्तेषामेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम चम्पकः सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षः चम्पकच्छल्ली सुवर्णचम्पकत्वक्. चम्पकभेदः-सुवर्णचम्पकच्छेदः, हरिद्रा प्रतीता, हरिद्राभेदोहरिद्राच्छेदः, हरिद्रागुटिका-हरिद्रासारनिर्वर्तिता गुटिका, हरितालिका-पृथिवी-विकारूपा प्रतीता हरितालिकाभेदोहरितालिकाच्छेदः, हरितालिका-गुटिका-हरितालिकासारनिर्वर्तिता गुलिका, चिकुरो-रागद्रव्यविशेषः, चिकुराङ्गरागःचिकुरसंयोगनिर्मितो वस्त्रादौ रागः, वरकनकस्य जात्यसुवर्णस्य यः कषपट्टके निघर्षः स वरकनकनिघर्षः वरपुरुषो-वासुदेवस्तस्य वसनं वरपुरुषवचनं, तच्च किल पीतमेव भवतीति तदुपादानम्, अल्लकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं, चम्पककुसुमं सुवर्णचम्पकपुष्पं कूष्माण्डीकुसुम पुष्पफलीकुसुमं, कोरण्टकः-पुष्पजातिविशेषः तस्य दाम कोरण्टकदाम तड़वडा अउली तस्याः कुसुमंतडवडाकुसुमं, घोशातकीकुसुमं सुवर्णयूथिकाकुसुमं च प्रतीतं, सुहिरण्यका-वनस्पतिविशेषस्तस्याः कुसुमं सुहिरण्यकाकुसुमं, बीयको वृक्षः प्रतीतः तस्य कुसुमं बीयककुसुमं पीताशोकपीतकणवीर-पीतबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'भवेयारूवे' त्यादि प्राग्वत् / 'तत्थ णमि' त्यादि, तत्र-तेषां मणीनां मध्ये ये शुक्ला मणयस्तेषामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम अङ्कोरत्नविशेषः, शंखचन्द्र (दन्तकुन्द) कुमुदौदकोदकरजोदधिधन-गोक्षीरपूरक्रौञ्चावलिहारावलिहंसावलिबलाकावलयः प्रतीताः, चन्द्रावलीतडागादिषु जलमध्यप्रतिबिम्बितचन्द्रपक्तिः , 'सारइयबलाहगे इति वा' शारदिकः-शरत्कालभावी बलाहको-मेघः, 'धन्तधोयरुप्पपट्टे इ वेति' ध्मातः- अग्निसम्पर्केण निर्मलीकृतो धौतः-भूतिखरण्टितहस्तसंतर्जनेन अतिनिशितीकृतो यो रूप्पपट्टो-रजतपत्रकं स ध्मातधौतरूप्यपट्टः, अन्ये तु व्याचक्षतेध्मातेन-अग्निसंयोगेन यो धौतः-शोधितो रूप्यपट्टः स ध्मातधौतरूप्यपट्टः, शालिपिष्टराशिः-शालिक्षोदपुञ्जः, कुन्दपुष्पराशिः कुमुदराशिश्च प्रतीतः, 'सुक्कछवाडिया इवे ति छेवाडि नाम वल्लादिफलिका सा चक्वचिद्देशविशेषे शुष्का सती अतीव शुक्ला भवति ततस्तदुपादानं, | 'पेहुणमिजिया इवेति' पेहुणं मयूरपिच्छं तन्मध्मवर्तिनी पेहुणमिञ्जिका सा चातिशुक्लेति तदुपन्यारसः, विसंपद्मनीकन्दः, मृणालं-पद्मतन्तु गजदन्तलवगदलपुण्डरीकदलश्वेताशोकश्वेतकणवीरश्वेतबन्धुजीवाः प्रतीताः, 'भवेयारूवे सिया' इत्यादि प्राग्वत्। तदेवमुक्तं वर्णस्वरूपम्। सम्प्रति गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाहते सिणं मणीणं इमेयारूवे गंधे पण्णत्ते, से जहा नाम एकोहपुडाण वा तगरपुडाण वा एलापुडाण वा चोयपुडाण वा चंपापुडाण वा दमणापुडाण वा कुंकुमपुडाण वा चंदणपुडाण वा उसीरपुडाण वा मरुआपुडाणया जातिपुडाण वा जूहियापुडाण वा मल्लियापुडाण वा पहाणमल्लियापुडाण वा केतगिपुडाण वापाडलिपुडाण वाणोमालियपुडाणवा अगुरुपुडाण वालवंगपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा वासपुडाण वा अणुवायंसिवा ओभिज्जमाणाण वा कोट्टिजमाणाण वा मंजिज्जमाणाण वा उकिरिजमाणाण वा विकिरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण वा परिभाइजमाणाण वा भंडाओ वा भंडं साहरिजमाणाण वाओरालामणुण्णा मणहरा घाणमणनिव्वुतिकरा सव्वतो समंता गंधा अभिनिस्सव(रं) ति, भवेयारूवे, सिया णो इणटुं, समट्टे, ते णं मणी एत्तो इट्ठतराए चेव गंधेणं पन्नत्ता। 'तेसि णमि' त्यादि, तेषां मणीनामयमेतद्रूपो गन्धः प्रज्ञप्तः, तद्यथा'से जहा नाम ए' इत्यादि, प्राकृतत्वात् से इति बहुवचनार्थः प्रतिपत्तव्यः, ते यथा नाम गन्धा अभिनिर्गछन्तीति सम्बन्धः, कोष्ठ-गन्धद्रव्यं तस्य पुटाः कोष्ठपुटास्तेषां, वाशब्दाः सर्वत्रापि समुधये, इह एकस्य पुटस्य प्रायो न तादृशो गन्ध आयाति, द्रव्यस्याल्पत्वात्, ततो बहुवचन, तगरमपि गन्धद्रव्यम, एलाः प्रतीताः चायं गन्धद्रव्यं चम्पकदमनककुकमवन्दनोशीरमरुकजातीयूथिकामल्लिकास्नातमल्लिकाकेतकीपाटलीनवमालिकाऽगुरुलवङ्गकुसुमवासकर्पूराणि प्रतीतानि, नवरमुशीरंवीरणीमूलं स्नानमल्लिका स्नानयोग्यो मल्लिकाविशेषः, एतेषां पुटानामनुवति-आघ्रायकविवक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते वाति सति उद्भिद्यमानानामुद्धाट्यमानानां वाशब्दः सर्वत्रापि समुचये 'कुट्टिजमाणाण वा' इति इह पुटैः परिमितानि यानि कोष्ठादीनि गन्धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठपुटादीनीत्युच्यन्तेतेषां कुट्यमानानाम्उदूखले खुद्यमानानां 'भंजिज्जमाणाण वा' इति श्लक्ष्णखण्डीक्रियमाणानाम् एतच विशेषणद्वयं कोष्ठादिद्रव्याणामवसेयं, तेषामेव प्रायः कृट्टनश्लक्ष्णखण्डीकरणसम्भवात्, न तु यूथिकादीनाम्, 'उक्किरिज्जमाणाण वा' इति क्षुरिकादिभिः कोष्ठादिपुटानां कोष्ठादिद्रव्याणां या उत्कीर्यमाणानां 'विकिरिजमाणाण वा' इति विकीर्यमाणानामिस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुज्जमाणाण वा' परिभोगाय उपयुज्यमानानां, क्वचित् 'परिभाइज्जमाणाण वा, इति पाठस्तत्र परिभाइज्जमाणानां पार्श्ववर्तिभ्यो मनाग दीयमानानां, भंडाओ भंड Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1064 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ साहरिजमाणाण वा' इति भाण्डात्-स्थानादकेस्मादन्यद् भाण्डं- जाव मणीणं फासो तस्स णं पेच्छाघरमंडवस्स उल्लोयं भाजनान्तरं संह्रियमाणानाम् उदाराःस्फारास्ते चामनोज्ञा अपि स्युरत विउव्वति पउमलयभत्तिचित्तंजाव पडिरूवं। तस्सणं बहुसआह-मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः तच्च मनोज्ञत्वं कुत इत्याह-मनोहराः- मरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थं णं महं एगं मनो हरन्ति-आत्मवशं नयन्तीति मनोहराः इतस्ततो विप्रकीर्यमाणेन वइरामयं अक्खाडगं विउव्वति / तस्स णं अक्खाडयस्स मनोहरत्वं, कुतः? इत्याह-घ्राणमनोनिवृतिकराः, एवंभूताः सर्वतः- बहुमज्झदेसभागे एत्थणं महेगं मणिपेढियं विउध्वति अट्ठजोयसर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन गन्धा अभिनिस्सरन्ति, जिघ्रता- णाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वं मभिमुखं निस्सरन्ति, क्वचित् 'अभिनिस्सवन्तीति' पाठः, तत्रापि स मणिमयं अच्छं सण्हं जाव पडिरूवं / तीसे णं मणिपेठियाए एवार्थे नवरमभितः सवन्तीति शब्दसंस्कारः,एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति- उवरि एत्थणं महेगं सिंहासणं विउव्वइ, तस्स णं सीहासणस्स 'भावेयारूवे सिया' स्यादेतत् यथा भवेद् एतद्रूपस्तेषां मणीनां गन्धः? इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते तवणिज्जमया चकला रययामया सूरिराह-'नो इणढे समढे' इत्यादि प्राग्वत्। सीहा सोवणिया पाया णाणामणिमयाइं पायसीसगाई जंबूणयतेसि णं मणीणं इमेयारूवे फासे पण्णत्ते, से जहा नाम ए मयाइंगत्ताई वइरामया संधीणाणमणिमये वेचे, सेणं सीहासणे आइणेति वा रूए ति वा बूरे इवा णवणीए इवा हंसगब्भतूलिया इहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरइवा सिरीसकुसुमनिचये इ वा बालकुसुमपत्तरासी तिवा, भवे वणलयपउमलयभत्तिचित्तं (सं) सारसारोवचियमणिरयणपागएयारूवे सिया? णो इणढे समढे, ते णं मणी एतो इतराए चेव लीढे अत्थरगमिउमसूरगणवत्तयकुसंतलिम्बकेसरपचत्थुयाभि०जाव फासेणं पन्नत्ता। रामे सुविरइयरयत्ताणे उवचियखोमदुगुल्लपट्पडिच्छायणे, 'तेसि णमि' त्यादि, तेषां 'णामि' ति प्राग्वन्मणीनामयमेतद्रूपः स्पर्शः __ रत्तंसुअसंदुए सुरम्मे आईणगरुयबूरणवणीयतूलफासे मउए प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'से जहा नाम ए' इत्यादि, तद्यथा-अजिनकंचर्ममयं पासाइए०४। वस्त्रं रुतं-प्रतीतं बूरो-वनस्पतिविशेषः नवनीतंभ्रक्षणं हंसगर्भतूली- 'तए णमि' त्यादि, ततः स आभियोगिको देवस्तस्य दिव्यस्य यानशिरीषकुसुमनिचयाश्च प्रतीताः, 'बालकुमुदपत्तरासी इवा' इति विमानस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महत्प्रेक्षागृहमण्डपं विकुर्वति, कथम्भूत-- बालानिअचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिबलिकुमुद- मित्याह-अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टतथा अभ्युद्गता-अत्युत्कटासुकृतापत्रराशिः क्वचिद्'बालकुसुमपत्रराशिः' इति पाठः, 'भवेएयारूवे इत्यादि सुछ निष्पादिता वरवेदिकानि तोरणानि वररचिताः शालभञ्जिकाश्य प्राग्वत्। यत्र तदभ्युद्गतसुकृतवरवेदिकातोरणवररचितशालभञ्जिकाकं, तथा तए णं से आमियोगिए देवे तस्स दिध्वस्स जाणविमणिस्स सुश्लिष्टा विशिष्टा लष्टसंस्थिताः-मनोज्ञसंस्थानाः प्रशस्ताः प्रशस्तवाबहुमज्झदेसभागे एत्थणं महं पिच्छाघरमंडवं विउव्वइ अणेग- स्तुलक्षणोपेता वैडूर्यविमलस्तम्भावैडूर्यरत्नमया विमलाः स्तम्भा यत्र खंभसयसंनिविटुं अन्मुग्गयसुकयवरवेइयातोरणवररइय- तत् सुश्लिष्टविशिष्टलष्टसंस्थितप्रशस्तवैडूर्यविमलस्तम्भं, तथा नाना सालभंजियांग सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरुलिय- मणयः खचिता यत्र भूमिभागे स नानामणिखचितः सुखादिदर्शनात् विमलखंभ णाणामणि (कणगरयण) खचियउज्जलबहुसमसु- क्तान्तस्य पाक्षिकः परनिपातः नानामणिखचित उज्ज्वलो बहुसमःविभत्तदेसमाइए ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नर- अत्यन्तसमः सुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत् नानामणिखचितोज्ज्वलरुरुसरचमरकुंजरवणलयपउमलभत्तिचित्तं कंचणमणिरयण- बहुसमसुविभक्तभूमिभागं, तथा इहामृगावृकाः ऋषभतुरगनरमगरथूभियागंणाणाविहपंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरं चवलं विहगाः प्रतीताःव्यालाः-स्वापदभुजगाः किंनराव्यन्तरविशेषाः रुरवोमरीतिकवयं विणिम्मुयंतं लाउल्लोइयमहियं गोसीस (सरस) मृगाः सरभा:-आटव्या महाकायाः पशवः चमरा-आटव्या गावः रत्तचंदणदहरदिन्नपचंगुलितलं उवचियचंदणकलसं चंदणघड- कुञ्जरादन्तिन वनलता अशोकादिलताः पद्मलता-पद्मिन्यः एतासां सुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारिय- भकूत्याविच्छित्या चित्रम्-आलेखे यत्र तदीहामृगऋषभतुरगनरमकरमल्लदामकलावं पंचवण्णसरससुरभिमुकपुप्फपुंजोवयार- विहगव्यालकिन्नररुरुसरभ्रचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रं, कलियं कालागुरुपवरकुंदरुकतुराकधूवमघमघंतगंधुद्धया- तथा स्तम्भोगतयास्तम्भोपरिवर्तिन्या वज्ररत्नमय्या वेदिकया मिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूतं दिव्वं तुडियसहसंपणाइयं परिगतं सद् यदभिरामं तत्, स्तम्भोगतवज्रवेदिकापरिगताभिरामं, अच्छरगणसंघविकिपणं पासाइयं दरिसणिज्जं जावपडिरूव। 'विजाहर-जमलजुगलजन्तजुतं पिव अचीसहस्समालिणीय' मिति तस्सणं पिच्छाघरमंडवस्स बहुसमरमणिजभूमिमागं विउध्वति विद्या धरन्तीति विद्याधराविशिष्टविद्याशक्तिमन्तः तेषां यमलयु Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1065 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ गलानि-समानशीलानि द्वन्द्वानि तेषां यन्त्राणि-प्रपञ्च विशेषास्तैर्युक्त- | मिव अर्चिषां मणिरत्नप्रभाज्वालानां सहस्रैर्मालनीयपरिचारणीयं, किमुक्तं भवति?-एवं नाम अत्यद्भुतैर्मणिरत्नप्रभाजालैराकलितमिव भाति यथा नूनमिदं न स्वाभाविकं, किन्तु विशिष्टविद्याशक्तिमत्पुरुष- / प्रपञ्चप्रभा वितमिति, 'रूवगसहस्सकलितं भिसिमाणं भिडिभसमाणं चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं सस्सिरीयरूव' मिति प्राग्वत् क्वचिदेतन्न दृश्यते, 'कश्चणमणिरयणथूभियाग' मिति काञ्चनं च मणयश्च रत्नानि च काञ्चनमणिरत्नानि तेषां- तन्मयी स्तूपिकाशिखरं यस्य तत्तथा नानाविधाभिः-नानाप्रकाराभिः पञ्चवर्णाभिघण्टाभिः पताकाभिश्च परि-सामस्त्येन मण्डितमग्रंशिखरं यस्य तन्नानाविधपञ्चवर्णघण्टापताकापरिमण्डिताग्रशिखरं, चपलं चञ्चलं चिकचिकायमानत्वात् मरीचिकवचं किरणजालपरिक्षेपं विनिर्मुञ्चत् ‘लाउल्लोइय-महिय' मिति लाइय नाम यद्भूमेर्गोमयादिनोपले पनम् उल्लोइयं-कुड्यानां मालस्य च सेटिकादिभिः सम्मृष्टीकरणं लाउल्लोइयाभ्यामिव महितं-पूजितं लाउल्लोयमहितं, तथा गोशीर्षेण-गोशीर्षनामकचन्दनेन ददरण-बहले नचपेटाकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यत्र सद्गोशीर्षरक्तचन्दनदर्दरदत्तपञ्चाङ्गुलितल, तथा उपचितानिवेशताः चन्दनकलशा-- भङ्गलकलशा यत्र तदुपचितचन्दनकलशं, चदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागमिति' चन्दनघटैः--चन्दनकलशैः सुकृतानि-सुष्टु कृतानि शोभितानीति तात्पर्यार्थः, यानि तोरणानि तानि चन्दनघटसुकृतानि तानि तोरणानि प्रतिद्वारदेशभागद्वारदेशभागेयत्र तत् चन्दनघटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेशभागं, तथा 'आसत्तोसत्तविपुलवद्द्वग्घारियमल्लदामकलाव' मिति आ अवाङ् अधोभूमौ लग्न इत्यर्थः उत्सतम्ऊर्ध्वसक्तं उल्लोचतले; उपरि सम्बद्ध इत्यर्थः विपुलो-विस्तीर्णः वृत्तोवर्तुलः 'वग्धारिय' इति–प्रलम्बितो माल्यदामकलापः पुष्पमालासमूहो यत्र तदासक्तोत्सक्तविपुलवृत्तप्रलम्बितमाल्यदामकलापं तथा पञ्चवर्णेन सरसेन-सच्छायेन सुरभिणा मुक्तेन क्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनौपचारेणपूजया कलितं पञ्चवर्णसरससुरभिमुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलितं, 'कालागुरुपवरकुन्दु-रुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगन्धुद्भुयाभिरामं सुगंधवर गंधियं गंधवट्टिभूय मिति प्राग्वत्, तथ अप्सरोगणानां संघः-समुदायस्तेन सम्यग् रमणीयतया विकीर्ण व्याप्तमप्सरोगणसंघविकीर्णं, तथा दिव्यानां त्रुटितानाम् आतोद्यानांवेणुवीणामृदङ्गादीनां ये शब्दास्तैः सम्प्रणादितं-सम्यक्श्रोत्रमनोहारितया प्रकर्षेण नादितं-शब्द-वद् दिव्यत्रुटितशब्द-सम्प्रणादितम्, 'अच्छं जाव पडिरूव' मिति यावच्छब्दकरणात्-'अच्छं सण्हं घ8 मट्ठ नीरयं निम्मलं निप्पकं निकंकडच्छार्य सप्पभंसमिरियंसउज्जोयं पासाइयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं मिति द्रष्टव्यम्, एतच्च प्राग्वद्वयाख्येयम्। 'तस्सणमि' त्यादि तस्य 'णमि' ति प्राग्वत् प्रेक्षागृहमण्डपस्यान्तः-मध्ये बहुसमरमणीयं भूमिभागं विकुर्वन्ति, तद्यथा-आलिङ्गपुष्पकरमिति वे त्यादि, तदेव तावद्वक्तव्यं यावन्मणिस्पर्शसूत्रपर्यन्तः, तथा चाह--'जाव मणीणं फासो' इति / 'तस्स णमि' त्यादि, तस्य णमिति पूर्ववत्, प्रेक्षागृहमण्डपस्य उल्लाकम् उपरिभागं विकुर्वन्ति पद्मलताभक्तिचित्रं जावं पडिरूवमि' ति,यावच्छब्दकरणात् 'अच्छंसण्ह' मित्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः / 'तस्स णमि' त्यादि, तस्य-बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र 'ण' मिति पूर्ववत् एकं महान्तं वज्रमयपमक्षपाटं विकुर्वन्ति, तस्य चाक्षपाटकम्य बहुमध्यदेशभागे तत्रैकां महती मणिपीठिका विकुर्वन्ति, अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन उचैस्त्वेनेति भावः, कथंभूतां तां विकुर्वन्तीत्यत आह "सर्वमणिमयींसर्वात्मना मणिमयीं यावत्करणादच्छामित्यादिविशेषणसमूहपरिग्रहः, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपर्यत्र महदेकं सिंहासनं विकुर्वन्ति, तस्य च सिंहासनस्यायमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमयाः चक्कला रजतमयाः सिंहास्तैरुपशोभितं सिंहासनमुच्यते, सौवर्णिकाःसुवर्णमयाः पादाः नानामणिमयानि पादशीर्षकाणिपादानामुपरितना अवयवविशेषाः, जम्बूनदमयानि गात्राणि मज्रमयावज्ररत्नापूरिताः सन्धयोगात्राणां सन्धिमेलाः नानामणिमयं वेचं-तज्जातः 'सेणं सीहासणं' इत्यादि तत् सिंहासनमीहामृगऋषतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरवनलतापद्मलताभक्तिचित्रं (सं) सारसारोवचियमणिरयणपायपीढ' मिति (सं) सारसारैः-प्रधानैः मणिरत्नैरुपचितेन पादपीठन सह यत्तत्तथा, प्राकृतत्याच पदोपन्यासव्यत्ययः अत्थरयमउमसूरगनवत्तय-कुसन्तलिम्बके सरपचत्थुयाभिरामे' इति अस्तरकम्-आच्छादकं मृदु यस्य मसूरकस्य तदस्तरकमृदु, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात्, नवा त्वक्येषां ते नवत्वचः कुशान्ताः-दर्भपर्यन्ता नवत्वचश्चते कुशान्ताश्च नवत्वकुशान्ताः-प्रत्यग्रत्वग्दर्भपर्यन्तरूपाणि लिम्बानिकोमलानि नमनशीलानि च केसराणि मध्ये यस्य मसूरकस्य तत् नवत्वकुशान्तलिम्बकेसरम् आस्तरक मृदृना मसूरकेण नवत्वकुशान्तलिम्बकेसरेण प्रत्यवस्तुतम्-आच्छादितं सत् यदभिरामं तत्तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात्, 'आईणगरुअबूरनवणीयतूलफासे' इति पूर्ववत्, तथा सुविरइयरयत्ताण तथा सुष्ठ विरचितं सुविरचितंरजस्त्राणमुपरियस्यतत्सुविरचितरजस्त्राणं, 'उवचियखोमियद्गुल्लपट्टपडिच्छयण' मिति, उपचितं-परिकर्मितं यत्क्षौमं दुकूलंकासिंकं वस्त्र परिच्छादनं रजस्राणस्योपरि द्वितीयमाच्छादनं यस्य तत्तथा, तत उपरि ‘रतंसुयसंवुडे' इति रक्तांशुकेन-अतिरमणीयेन रक्तेन वस्त्रेण संवृतम्-आच्छादितमत एव सुरम्यं, 'पासाईए दरिसणिज्ज अभिरूवे पडिरूवे' इति प्राग्वत्। तस्स णं सिंहासणस्स उवरि एत्थ णं महेगं विजयदसं विउव्वंति, संखंक (संख) कुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिगासंसव्वरयणामयं अच्छंसहं पासादीयं दरिसणिचं अभिरूवं पडिरूवं / तस्सणंसीहासणस्स उवरि विजयदूमस्सयबहुमज्झदेसमागे एत्थणं (महं एग) वयरामयं अंकुसं विउव्वंति, तस्सिंचणं वयरामयंसि अंकुसंसि कुंभिके मुत्तादामं विउव्वंति। से णं कुंभिक्के Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ १०९६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम मुत्तादामे अन्नेहिं चउहिं अद्धकुंभिक्केहिं मुत्तादामेहिं तदद्धचत्त- कृत्-विजयदुष्यं वस्वविशेष इति, तं विकुर्वन्तिस्वशक्त्यां निष्पादयन्ति, पमाणेहिं सवओ समंता संपरिक्खित्ते / ते णं दामा तवणिज- कथम्भूतमित्याह-शकुन्ददकरजोऽमृतमथित-फेनपुग्जसन्निकासम्, लंबूसगा सुवण्णपयरगमंडियग्गा णाणामणिरयणविविहहार- | शंखः प्रतीतः, कुन्देति-कुन्दकुसुमं दकरजः-उदककणाः अमृतस्यदहारउवसोभियसमुदाया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता बाएहिं क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य यः फेनपुञ्जोडिण्डीरोत्करः तत्सन्निकासंपुय्वावरदाहिणुत्तरागएहिं मंदाय मंदाय एइज्जमाणाणि 2 पलंब- तत्समप्रभं, पुनः कथम्भूतमित्याह-'सव्वरयणामयं सर्वात्मना रत्नमाणाणि 2 पेजंज (पज्झंझ] माणाणि 2 उरालेणं मणुनेणं मयम् 'अच्छं सण्हं पासाइयमि' त्यादिविशेषणजालं प्राग्वत्। 'तस्स मणहरेणं कण्णमणणिवुतिकरणं सद्देणं ते पएसे सवओ समंता णमि' त्यादि, तस्य सिंहासनस्योपरितस्य विजयदूष्यस्य बहुमध्यदेशआपूरेमाणे सिरीए अतीव 2 उवसोभेमाणा चिटुंति / तए णं से भागेऽत्र महान्तमेकं वज्रमयंवज्ररत्नमयमङ्कुशम् अकुशाकारं मुक्ताआमिओगिए देवे तस्स सीहासणस्स अवरूत्तरेणं उत्तरेणं दामवलम्बनाश्रयं विकुन्ति , तस्मिश्च वज्रमयेऽङ्कुशे महदेकं कुम्भाग्रंउत्तरपुरच्छिमेणं एत्थणं सूरिआभस्स देवस्स चउण्हं सामा मगधदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणं मुक्तादाम विकुर्वन्ति। से णमि' त्यादि, णियसाहस्सीणं चत्तारि महासणसाहस्सीओ विउव्वइ, तस्सणं तत्कुम्भाग्रं मुक्तादाम अन्यैश्चतुर्मिः कुम्भाग:-कुम्भपरिमाणैर्मुक्तादामसीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स चउण्ड भिस्तदर्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैः सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन अम्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारिभद्दासणसाहस्सीओ विउवइ, सम्परिक्षिप्तंव्याप्तम्। तेणं दामा' इत्यादि, तानिपञ्चापि दामानि तवणितस्सणं सीहासणस्स दाहिणपुरच्छिमेणं एत्थणं सूरियाभस्स्स ज्जलंबूसगा (गग्गा ?) तपनीयमया लम्बूसगा-आभरणविशेषरूपा (पाःसुवर्णप्रतरकाः सुवर्णपत्राणि तैः मण्डितं-शोभितं अग्रम्-अग्रभागो देवस्स अभिंतरपरिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठ महासण येषां तानि तथा अ) ग्रभागे येषां प्रलम्बमानानां तानि तथा, नानामणिसाहस्सीओ विउव्वइ, एवं दाहिजेणं मज्झिमपरिसाए दसण्हं रत्नैः-नानामणिरत्नमयैर्विविधैः-विचित्रहरिरैर्द्धहारैश्चोपशोभितः देवसाहस्सीणं दस महासणसाहस्सीओ विउव्वति दाहिणपञ्च सामस्त्येनोपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा, ईषत्-मनाक त्थिमेणं बाहिरपरिसाएवारसण्हं देवसाहस्सीणं बारस भद्दासण अन्योऽन्यं परस्परम् असंप्राप्तानि-असंलग्नानि दूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैः साहस्सीओ विउव्वति, पचत्थिमे णं सत्तण्हं अणियाहिवतीणं (वातैः) मन्दाय मन्दाय इति-मन्दं 'एजमानानि' कम्पमानानि सत्त महासणे विउव्वति, तस्सणं सीहासणस्स चउहिसिं एत्थ भृशाभीक्ष्ण्याऽविच्छेदे द्विः प्राक्तमवादे' रित्यविच्छेदे द्विवचनं तथा णं सूरियाभस्स देवस्स सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं पचन्तिपचन्तीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईषत्कम्पनवशादेव प्रकर्षत इतस्ततो सोलस भद्दासणसाहस्सीओ विउव्वति, तं जहा-पुरच्छिमेणं मनाक् चलनेन लम्बमानानि 2 ततः परस्परं सम्पर्कवशतः 'पेजंजमाणा चत्तारि साहस्सीओ दाहिणे णं चत्तारिसाहस्सीओ पञ्चत्थिमेणं पेजंजमाणा' इति शब्दायमानानि 2 उदारेण स्फारेण शब्देनेति योगः, चत्तारिसाहस्सीओ उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ। तस्स दिव्वस्स स च स्फारशब्दो मनःप्रतिकूलोऽपि भवति तत आह-'मनोज्ञेन' जाणविमाणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, से जहा नाम ए मनोऽनुकूलेन, तच्च मनोऽनुकूलत्वं लेशतोऽपि स्यादत आह-'मनोहरेण' अइरुग्गयस्स वा हेमंतियबालियसूरियस्सवाखयरिंगालाण वा मनांसि श्रोतृणां हरतिएकान्तेनात्मवशं नयतीति मनोहरो 'लिहादेरारतिं पञ्जलियाण वा जवाकुसुमवणस्स वा किंसुयवणस्स वा कृतिगणत्वादच् प्रत्ययः, तेन, तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह-कर्णमनोपरियायवणस्स वा सव्वतो समंता संकुसुमियस्स, भवेयारूवे निर्वृतिकरण, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्राया दर्शन मिति सिया ? णो इणढे समहे, तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स वचनात् हेतौ तृतीया, ततोऽयमर्थः-प्रतिश्रोतृ कर्णयोर्मनसश्च निर्वृतिएतो इतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते, गंधो य फासो य करः-सुखोत्पादकस्ततो मनोहरस्तेनेत्थम्भूतेन शब्देन तान् प्रत्यासन्नान जहा भणीणं / तए णं से आमिओगिए देवे दिव्वं जाणविमाणं प्रदेशान् सर्वतोदिक्षु समन्ततो विदिक्षु आपूरयन्ति २शवन्तस्य स्यादाविदं विउव्वइ 2 वित्ता जेणेव सूरियाभो देवे तेणेव उवागच्छह 2 रूपम्, अत एव श्रियाशोभया अतीवोपशोभमानानि 2 तिष्ठति। 'तए छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं जाव पञ्चप्पिणंति / णमि' त्यादि, ततः स आभियोगिको देवस्तस्य सिंहासनम्यापरो(सू०१५) त्तरेण, वायव्ये कोणे इत्यर्थः उत्तरेण उत्तरस्याम्' उत्तरपुरच्छिमे णं 'तस्स णमि' त्यादि, तस्य सिंहासनस्योपर्युल्लोके, 'अत्र' अस्मिन् | 'ईशान्याम्' अत्र-एतासुतिसृषु दिक्षुसूर्याभस्य देवस्य चतुर्णांसामानिकस्थाने महदेकं विजयदूष्यं-वस्त्रविशेषः, आह-च जीवाभिगममूलटीका- | सहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासनसहस्राणि विकुर्वति, पूर्वस्यां च Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1097 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ चतसृणामगमहिषीणां सपरिवाराणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि | दक्षिणपूर्वस्यामभ्यन्तरपर्षदोऽष्टाना देवसहस्राणां योग्यानि अष्टौ भद्रासनसहस्राणि दक्षिणस्यां मध्यमपर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनहस्राणि, दक्षिणापरस्या; नैर्ऋतकोण इत्यर्थः, बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां द्वादश भद्रासनसहस्राणि पश्चिमायां सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि विकुर्वति। तदनन्तरंतस्य सिंहासनस्य चतसृषु दिक्षु अत्र सामानिकाऽऽदिदेवभद्रासनानां पृष्ठतः सूर्याभस्य देवस्य सम्बन्धिनां षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश भद्रासनसहस्राणि विकुर्वति, तद्यथा-चत्वारि भद्रासनसहस्राणि पूर्वस्यां चत्वारि दक्षिणतश्चत्वारि पश्चिमायां चत्वारि उत्तरतः सर्वसङ्ख्यया सप्ताधिकानि चतुःपञ्चाशत्सहस्राणि 54007 भद्रासनानां विकुर्वति। 'तस्सणं दिव्वस्से' त्यादि, 'तस्स णमिति पूर्ववत् दिव्यस्य यानविमानस्यायम् अनन्तर वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेश, प्रज्ञाप्रः, तद्यथा-'से जहानामए' इत्यादि, स यथानाम अचिरोद्गतस्य-क्षणमात्रमुद्तस्य हैमन्तिकस्यशिशिरकालभाविनो बालसूर्यस्य स ह्यत्यन्तमारक्तो भवति दीप्यमानश्वेत्युपादानं, वाशब्दाः सर्वेऽपि समुच्चये, खादि राङ्गाराणि वा 'रत्ति' मिति सप्तम्यर्थे द्वितीया प्राकृतत्वात् यथा-'उय विणयभत्तिल्ले पूरेमसिसिरे दहे गए सूरे कत्तो रत्तिं सुद्धे पाणियसुद्धा सउणयाणमि त्यत्र, ततोऽयमर्थः- रात्रौ प्रज्वलितानां जपाकुसुमवनस्य वा किंशुकवनस्य वा पारिजातवनस्य वा सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्वतः-- सामस्त्येन-सकुसुमितस्य सम्यक् कुसुमितस्य, अत्रान्तरे शिष्यः पृच्छति यादृगप एतेषां वर्णः भवेयारूवे सिया' इति स्यात्-कथञ्चिद् भवेदेतद्रूपस्तस्य दिव्यस्य यानविमानस्य वर्णः ? सूरिराह-'नो इणढे समढे तस्स णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स एतो इद्वतराए चेव कंततराए चेव मणुन्नतराए चेव मणामतराए चेव वण्णे पण्णत्ते' इति प्राग्वत् व्याख्येयम्, 'गंधो फासो जाह मणीण' मितिगन्धः स्पर्शः यथा प्रागमणीनामुक्तस्तथा वक्तव्यः, स चैवं-'तस्सणं दिव्वस्स जाणविमानणस्स इमे एयारूवे गंधे पण्णते, तंजहा-से जहानामए कोट्टपुडाण वा तगरपुडाण वा ' इत्यादि। 'तएणं से आभिओगिए देवे' इत्यादि, यावत्करणात्-करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धावेइ वद्धावित्ता एयमाणत्तियमि' ति द्रष्टव्यम्। तए णं से सूरिआभे देवे आभिओगस्स देवस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म हट्ठ ०जाव हियए दिव्वं जिणिंदाभिगमणजोगं उत्तरवेउव्वियरूवं विउव्वति 2 वित्ता चउहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहिं अणीएहिं,तं जहा-गंधव्वाणीएणय एट्टाणीएण य सद्धिं संपरिवुडे तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरेमाणं 2 पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहति दुरूहित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 च्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे / तए णं तस्स सूरिआभस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ तं दिव्वं जाणविमाणं अणुपयाहिणीकरमाणा उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहंतिदुरूहित्ता पत्तेयं 2 पुटवणत्थेहि भद्दासणेहिं णिसीयंति, अवसेसा देवा य देवीओ य तं दिव्वं जाणविमाणं जाव दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं दुरूहंति 2 हित्ता पत्तेयं 2 पुटवणत्थेहिं भद्दासणेहिं निसीयंति / तए णं तस्स सूरियभस्स देवस्स तं दिव्वं जाणविमाणं दुरूढस्स समाणस्स अट्ठमंगलगा पुरतो अहाणुव्वीए संपत्थिता, तं जहा-सोत्थियसिरिवच्छ ०जाव दप्पणा / तयणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारदिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दसणरतिया आलोयदरिसणिज्जा वाउ यविजयवेजयंतीपड़ागा ऊसिया गगणतलमुणलिहंती पुरतो अहाणुपुटवीए संपत्थिया। तयणंतरंच णं वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंबकोरंटमल्ल्दामोवसोभितं चंदमंडलनिभं समुस्सियं विमलमायवत्तं पवरसीहासणं च मणिरयणभत्तिचित्तं सपायपीढं सपाउया जोयसमाउत्तं बहुकिंकरामरपरिग्गहियं पुरतो आहाणुपुष्वीए संपत्थियं / तयाणंतरं च णं वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपतिट्ठिए विसिट्टे अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सुस्सिए [परिमंडियाभिरामे] वाउद्भयविजयवेजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिते तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे जोअणसहस्समूसिए महतिमहालए महिंदज्झए पुरतो अहाणुपुटवीए संपत्थिए। तयाणंतरं च णं सुरूवणेवत्थपरिकच्छिया सुसज्जा सध्वालंकारभूसिया महया मडचडगहमहगरेणं पंचआणियाहिवइणो पुरतो अहाणुपुर्वीए संपत्थिया। तयाणंतरं चणं बहवे आमिओगिया देवा देवीओ य सएहिं 2 रूवेहि सएहिं 2 विसेसेहिं सएहिं 2 विदेहिं सएहिं 2 णेज्जाएहिं सएहिं 2 णेवत्थहिं पुरतो आहाणुपुष्वीए संपत्थिया] तयाणंतरं च णं सूरियाभविमाणवासिणो बहवे वेमाणिया देवा य देवीओ य सविड्डीए ०जाव रूवेणं सूरियाभं देवं पुरतो पासतोय मग्गतो य समणुगच्छति। (सू०१६) 'तएणं से सूरियाभेदेवे' इत्यादि, दिव्यं-प्रधानं जिनेन्द्रस्य भगवती वर्द्धमानस्वामिनोऽभिगमनाय-अभिमुखं गमनाय योग्यम्-उचितं जिनेन्द्राभिगमनयोग्यमुत्तरवैक्रिय रूपं विकुति, विकुर्वित्वा चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिभ्यामनीकाभ्यां, तद्यथा-गन्धर्वानीकेन नाट्यानीकेन च, सार्द्ध, तत्र सहभावः स्वस्वामिभावमन्तरेणापि दृष्टो, यथा समानगुणविभवयोर्द्धयोर्मित्रयोः, अतः स्वस्वामिभावप्रकटनार्थमाह-'संपरिवुडे' सम्यगाराधकभावं विभ्राणैः परिवृत्तः-सम्परिवृतः तत् दिव्यं यानावमानमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्पूर्वतोरणानुकूल्येन प्रदक्षिणीकुर्वन्तोरणेनानुप्रविश Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1068 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम ति-स्वसिंहासनानुकूलं प्रविशति, प्रविशन् पूर्वेण 'त्रिसोपानप्रतिरूपकेण' प्रतिविशिष्टरूपेण त्रिसोपानेन तद् यानविमानं 'दुरूहइ' त्ति आरोहति, आरुह्य च 'जेणेव' ति यस्मिन्नेव देशे तस्य मणिपीठिकाया उपरि सिंहासनं तत्रोपागच्छति, उपागत्य च सिंहासनवरगतः सन् पूर्वाभिमुखः सन्निषण्णः-सम्यक् सकलसेवकजनचमत्कारकारिण्या उपवेशनस्थित्योपविष्टः। 'तएणमि' त्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य चत्वारि सामानिकदेवसहस्राणि तद् दिव्य यानविमानमनुप्रदक्षिणीकुर्वन्ति, उत्तरण त्रिसोपानप्रतिरूपकेणारोहन्ति, 'पुव्यणत्थेहिं इत्यादि, अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, पूर्वन्यत्सेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति, अवशेषाःअभ्यन्तरपर्षदादयो देवा देव्यश्च दक्षिणेन त्रिसोपानप्रतिरूपकेणारोहन्ति, आरुह्य च स्वेषु भद्रासनेषु निषीदन्ति / 'तए णमि त्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य तद् दिव्यं यानविमानरूढस्य पुरतोऽष्टाष्टमङ्गलकानि यथानुपूविक्ष्यमाणपाठक्रमेणेत्यर्थः, सम्प्रस्थितानि, तद्यथा'सोत्थियसिरिवच्छे त्यादि, पूर्व स्वस्तिकः तदनन्तरं श्रीवत्सस्तदनन्तरं पूर्णकलशभृङ्गार-दिव्यातपत्रपताकाः सचामराः कथम्भूताः ? इत्याह'दर्शनरतिका' दर्शने-अवलोकेन रतिर्यासुता दर्शनरतिकाः, इह दर्शनरतिकमपि किश्चिदालोकदर्शनीयं न भवत्यमङ्गलत्वात् यथा गर्भवती युवतिः, अत आह-आलोके-बहिःप्रस्थानसमयभाविनि दशनीय द्रष्ट्र योग्या मङल्यत्वात्, अन्ये त्वाहुः-आलोके दर्शनीया न पुनरत्युच्चा आलोकदर्शनीया, तथा वातोद्भूता विजयसूचिका वैजयन्तीति विजयवैजयन्ती च उत्सृता ऊर्वीकृता गगनतलम् अम्बरतल-मनुलिखन्ती अभिलधयन्ती पुरतो यथानुपूव्यां सम्प्रस्थिता। 'तयणंतरं च णमि' त्यादि, तदनन्तरं 'वेरुलियभिसंतविमलदंड' मिति वैडूर्यो' वैडूर्यरत्नमयो भिसंतो दीप्यमानो विमलो निर्मलो दण्डो यस्य तत्तथा 'पलबकोरंटमल्लदामोवसोहिय' मिति, प्रलम्बते इति प्रलम्बि तेन प्रलम्बमानेन कोरण्टमाल्यदाम्ना कोरण्टपुष्पमालयोपशोभितं प्रलम्बकोरण्टमाल्यदामोपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं दीप्त्याशोभया वर्तुलतया चन्द्रमण्डलाकारं समुत्सृतं सम्यगूर्वी कृतं विमलमानपत्रं तथा प्रवरं सिंहासन मणिरत्नैः भक्त्या विच्छित्या चित्रं यत् तन्मणिरत्नभक्तिचित्रं, सह पादपीठं यस्य तत्सपादपीठं, तथा 'सपाउयाजोगसमाजुत' मिति, पादुकायोगः पादुकाद्वितयं तस्य समायोजनं समायुक्तंसह पादुकायोगसमायुक्तं यस्यतत्तथा बहुकिङ्करामरपरिग्गहियमिति बहुभिः किङ्करैःकिङ्करकल्पैरमरैः परिग्रहीतुं पुरतो यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितं, तदनन्तरं वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपइटिए' त्ति, वज्रमयो वज्ररत्नमयः तथा वृत्तं वर्तुलं लष्ट मनोज्ञसंस्थितः सस्थानमाकारो यस्य स वृत्तलष्टसंस्थित, तथ सुश्लिष्टः सुश्लेषापन्नावयवो; मसृण इत्यर्थः, परिघृष्ट इव परिघृष्टः खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् मृष्ट इव मृष्टः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितानतु तिर्यकपतिततया वक्रः ततः एतेषां पदानां पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः, अत एव शेषध्वजेभ्यो विशिष्टः अतिशायी, तथा अनेकानि-अनेकसङ्ख्याकानि वराणिप्रधानानि पञ्चवर्णानि कुडभी सहस्राणि उत्सृतानि यत्र सोऽनेकवरपञ्चवर्णकुडभीसहस्रोत्सृतः, क्तान्तस्य परनि पातो सुखादिदर्शनात्, वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाच्छत्रकलितः तुङ्गः- अत्युच्चो यो जनसहस्रप्रमाणोच्छत्वात्, तथा गगनतलम् अम्बरतलमनुलिखत् शिखरम्-अग्रभागो यस्य स तथा योजनसहस्रमुत्सृतः अत एव 'महइमहालए ' इति, अतिशयेन महान महेन्द्रध्वजः पुरतो-यथानुपूर्व्या संप्रस्थितः। तदनन्तरं 'सुरूवनेवत्थपरिकच्छिया' इति।सुरूपं नेपथ्यं परिकक्षितं परिगृहीतं यैस्ते तथा, तथा सुष्टु अतिशयेन सजा:--परिपूर्णाः स्वसामग्री-समायुक्ततया प्रगुणीभूताः-सर्वालङ्कारविभूषिताः महता भडचडगरपहकरेणं ' ति महता-अतिशयन भटचटकरपहकरेणचटकरप्रधानभटसमूहेन पञ्चानीकानि पश्चानीकाधिपतयः पुरतोयथाऽनुपूा सम्प्रस्थिताः। तदनन्तरं च सूर्याभविमानवासिनो बहवो वैमानिका देवा देव्यश्च सर्वद्ध्या यावत्करणात्-'सव्वजुईएसव्वबलेण' मित्यादि-परिग्रहः, सूर्याभं देवं पुरतः पार्श्वतो मार्गतः--पृष्ठतः समनुगच्छति। तएणं से सूरियामे देवे तेणं पंचाणीयपरिक्खित्तेणं वइरामयवट्टलट्ठसंठिएण जाव जोयणसहस्सभूसिएणं महतिमहालतेणं महिंदज्झएणं पुरतो कडिजमाणेणं चउहिं सामाणियसहस्सेहिं जाव सोलसहि आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहुहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि, देवीहि य सद्धिं संपरिखुडे सव्विडिए जाव रवेणं सोहम्मस्स कप्पस्स मज्झंभज्झेणं तं दिव्वं देविडिं दिव्वं देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं उवदंसेमाणे 2 एडिजागरेमाणे 2 जेणेव सोहम्मकप्पस्स उत्तरिल्ले णिजाणमग्गे तेणेव उवागच्छति 2 छित्ताजोयणसयसाहस्सितेहिं विग्गेहिं ओवयमाणे वीतीयवयमाणे ताए उकिट्ठाए जाव तिरियसंखिजाणं दीवसमुदाणं मज्झंमज्झेणं वीइवयमाणे 2 जेणेवनंदीसरवरदीवे जेणेव दाहिणपुरच्छिमिल्ले रतिकरपव्वते तेणेव उवागच्छति 2 छित्ता तं दिव्यं देविधिं जाव दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरेमाणे 2 पडिसंखेवेमाणे 2 जेणेव जंबूदीवे दीवे जेणेव मारहे वासे जेणेव आवलकप्पा नयरी जेणेव अंबंसालवणे चेइए जेणेवसमणे भगवं महावीरे तेणेव उदागच्छइ २छित्ता समणं भगवं महावीरं तेणं दिव्वेणं जाणविमाणेणं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ 2 रेत्ता समणस्स भगवतो महावीरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे तं दिव्वं जाणविमाणं ईसिं चउरंगुलमसंपत्तं धरणितलंसि ठवेइ ठवित्ता चउहिं अग्गमहिसहिं सपरिवाराहिं दोहिं अणीयाहिं, तं जहागंघव्वाणिएण य णट्टाणिएण य सद्धिं संपरिबुडे ताओ दिव्वाओ जाणविमाणाओपुरच्छिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरुहति। तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्सचत्तारिसमाणिसाहस्सीओता Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1066 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ ओ दिव्वाओ जाणविमाणाओ उत्तरिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं परोरुहति, अवसेसा देवा य देवीओ य ताओ दिवाओ जाणविमाणाओ दाहिणिल्लेणं तिसोवाणपभिरूवएणं पच्चोरुहंति / तए णं से सूरियाभो देवे च उहिं अग्ग्महिसीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अण्णेहि य बहुहिं सूरियाभविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डिए जाव णाइयरवेणं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति 2 छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति करित्ता वंदति नमसति वंदित्ता नमंसिता एवं वयासी-अहं णं भंते ! सूरियाभे देवे देवाणुप्पियाणं वंदासि णमंमासिजाव पज्जुवासामि (सू०१७) सूरियाभाति समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासीपोराणमेयं सूरियामा ! जीयमेयं सूरियामा ! किनमेयं सूरियामा ! करणिजमेयं सूरियामा ! आइण्णमेयं सूरियामा ! अब्मणुण्णायमेयं सूरियामा ! जे णं भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा अरहंते भगवंते वंदंति नमसंति वन्दित्ता नमंसित्ता तओ पच्छा साइं साइं नामगोत्ताई साहिति, तं पोराणमेयं सूरियामा! जाव अब्भणुनायमेयं सूरियामा ! (सू० 18) तए णं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठ जाव समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति वंदित्ता नमंसित्ता एचासण्णे णातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलि उडे पजुवासति / (सू०१६) 'तए ण' मित्यादि ततः स सूर्याभो देवः तेन पञ्चानीकपरिक्षिप्तेन यथोक्तविशेषणविशिष्टन महेन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृष्यमाणेन चतुर्भिः सामानिकसहश्चतसृभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषीभिस्तिसृभिः पर्षद्भि सप्तभिरनीकाधि पतिभिः षोडशमिरात्मरक्षदेवसहस्रैरन्यैश्च बहुभिः सूर्याभविमानवासिभिर्वैमानिकैर्देवैर्देवीभिश्च सार्द्ध सम्परिवृतः सर्वद्ध्या सर्वधुत्या यावत्करणात-'सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूसाए सव्वविभूइए सव्वसंभमेणं सव्वपुप्फपत्थगंधमल्लाल्लंकारेणं सव्वदिव्यतुडियसहसन्निनाएणं महया इवीएमहया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया वस्तुडियजमगसमगपडुप्पवाइयरवेणं संखपणवपडह-भेरिझल्लरिखरमुहिहुडुक्कमुरमुइंगदुंदुभिनिग्धोसनाइयरवेण' मिति परिगृह्यते, सौधर्मस्य कल्पस्य मध्येन तां दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवधुतिं दिव्यां देवानुभूतिं 'लालेमाणे 2' इति उपलालयन् 2 लीलया उपभुञ्जान इति भावः, येनैव सौधर्मस्य कल्पस्योत्तराहो निर्याणमाग्र्गानिर्गमनमार्गस्तेन्व पार्श्वेनोपागच्छति, 'ताए उक्किट्ठाए' इत्यादि पूर्ववद्यावत् दिव्यया देवगत्या योजनशतसहस्रकैः योजनलक्ष प्रमाणैर्विग्रह:-क्रभैरवपतन्–अधस्तादवतरन्गच्छंश्च तिर्यग् असङ्ख्येयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यंमध्येन 'जेणेव' त्ति नन्दीश्वरो द्वीपः यस्मिन् प्रदेशे यस्मिन्नेव च प्रदेशे तस्मिन्नन्दीश्वरे द्वीपे दक्षिणपूर्वः-आग्नेयकोणवर्ती रतिकरनामा पर्वतस्तस्मिन्नु पागच्छति, उपागत्य च तां दिव्यां देवर्द्धि यावद् दिव्यं देवानुभावं शनैः 2 पतिसंहरन 2 एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे प्रतिसंक्षिपन् 2 यस्मिन् प्रदेशे जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः तत्र च जम्बूद्वीपे यस्मिन् प्रदेशे भारतवर्ष तस्मिश्च भारतवर्षे यस्मिन् प्रदेशे आमलकल्पा नगरी तस्याश्चाऽऽमककल्पाया नगर्या बहिर्यस्मिन्प्रदेशे आम्रशालवनं चैत्यं तस्मिश्च चैत्ये यस्मिन् प्रदेशे श्रमणो भगवान महावीरः 'तेणेव ति तत्रोपागच्छति, सर्वत्र तृतीया सप्तम्यर्थे द्रष्टव्या प्राकृतत्वात् उपागत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीरं तेन प्रागुक्तस्वरूपेण दिव्येन यानेविमानेन सह त्रिकृत्वःत्रीन् वीरान् आदक्षिणप्रदक्षिणीकरोति, आदक्षिणप्रदक्षिणीकृत्य च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यापेक्षया य उत्तरपूर्वो दिग्भागस्तमपक्रामति-गच्छति अपक्रम्य च तद् दिव्यं यानविमानमीषद् एतदेव प्रकटयतिचतुरड्गुलं; चतुर्भिरडगुलैरित्यर्थः, असंप्राप्तं सत्धरणीतले स्थापयति स्थापयित्वा चतसृभिरग्रमहिषीभिः सपरिवाराभिः द्वाभ्यामनीकाभ्यां तद्यथा-गन्धर्वानीकेन नाट्यानीकेनच सार्द्ध सम्परिवृतस्तस्माद् दिव्यात् यानविमानात् पूर्वेण त्रिसोपनप्रतिरूपकेण प्रत्यवतरति, चत्वारि सामानिकदेवसहस्राण्युत्तरेण शेषा दक्षिणेन। 'तए णमि' त्यादि वंदामि नमसामि जाव पजुवासामी' त्यत्र यावच्छन्दकरणात्'सक्कारेमि सम्माणेमिं कल्लाणं मंगले देवयं चेइयं पज्जुवासोमि ' इति परिग्रहः ततः सूरियाभाइ' इत्यादि, सूरिपाभात् आदिः-मुख्यः पर्युपासकतया यस्य स सूर्याभादिः श्रमणो भगवान् महावीरस्तं सूर्याभं देवमवमादीत:-पोराणमेयमि' त्यादि प्राग्वत् 'नच्चासन्ने' इत्यादिनात्यासन्नः नातिनिकटोऽवग्रहपरिहारात् नात्यासन्ने वा स्थाने वर्तमान इति गम्यम् 'नाइदूरे' इति न नैवाति दूरः अतिविप्रकृष्टांऽनौचित्यपरिहारात् नातिदूरे वा 'सुस्सूसमाणे' इति भगद्वचनानि श्रोतुमिच्छन् 'अभिमुहे' इति अभि भगवन्तं लक्षीकृत्य मुखमस्येति अभिमुखो, भगवतः सम्मुख इत्यर्थः, वियनेन हेतुना 'पंजलिउडे' इति प्रकृष्टः प्रधानो ललाटतटघटितत्वेन अञ्जलिः हस्तन्यासविशेषः कृतो येन स प्राञ्जलिकृतः, सुखादिदर्शनात् क्तान्तस्य परनिपाते पर्युपास्तेसेवते। तए णं समणे भगवं महावीरे सूरियाभस्स देवस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए जाव परिसाजामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया (सू०२०)तएणं सूरियाभो देवे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोया निसम्मपहहतुट्ठ०जाव हयहियए उट्ठाए उठेति उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अहन्नं भंते / सूरियामे देवे कि भवसिद्धिए अवमसिद्धिते? सम्मदिवदिळ मच्छादिट्टि? Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1100- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम परित्तसंसारिते अणंतसंसारिए ? सुलभबोहिए दुल्लभबोहिए ? आराहते विराहते ? चरिमे अचरिमे ? सूरियाभाइसमणे भगवं महावीरे सूरिया देवं एवं वदासी-सूरियामा ! तुम णं-- भवसिद्धिए णो अभवसिद्धिते जाव चरिमे, णो अचरिमे। (सू० 31) तए णं से सूरियाभे देव समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्ठचित्तमाणंदिए परमसोमणस्से समणं भगवं महावीरं वदंति नमंसति 2 सित्ता एवं वदासी-तुम्मे णं भंते ! सव्वं जाणाह सव्वं पासह (सव्वओ जाणह सव्वओपासह) सव्वं कालं जाणह सव्वं कालं पासह सवे भावे जाणह सवे भावे पासह जाणंतिणं देवाणुप्पिया मम पुट्विं वा पच्छा वाममेयरूवं दिवं देविड्डि दिव्वं देवजुई दिवं देवाणुभावं लद्धं पत्तं अभिसमण्णागयं ति, तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाणं भत्तिपुटवगं गोयमातियाणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविड्डिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं दिव्वं बत्तीसतिसद्धं नट्टविहिं उवदंसित्तए। (सू० 22) तए णं समणे भगवं महावीरे सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्स एयमुटुंणो आढाति णो परियाणति तुसिणीए संचिट्ठति। (सू 23x) (रा०) तएणं से सूरियामे देवे तं दिव्वं देविड्डि दिवं देवजुई दिव्वं देवाणुभावं पडिसाहरइ पडिसाहरित्ता खणेणं जाते एगे एगभूए तए णं से सूरियाभे देवे समणं भगवं महावीरे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता नियगपरिवालसद्धिं संपरिबुडे तमेव दिव्वं जाणविमाणं दुराहति दुरुहिता जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया। (सू०२५) ततः श्रमणो भगवान् महावीरः सूर्याभस्य देवस्य श्वेतस्य राज्ञो धारणीप्रमुखानां च देवीनां तस्याश्च 'महइमहालिताए' इति अतिशयेन महत्या 'इसिपरिसाए' इति ) ऋषयः-त्रिकालदर्शनिनस्तेषां पर्षत तस्याः; अवध्यादिजिनपर्षद इत्यर्थः; मुनिपर्षदो यथोक्तानुष्ठानानुष्ठायिसाधुपर्षदः 'जतिपरिसाए' इत यतन्ते उत्तरगुणेषु विशेषत इति यतयो-विचित्रद्रव्याद्यभिग्रहाद्युपेताः साधवस्तेषां पर्षदो यतिपर्षदः, 'विदुपरिसाए' इति विद्वत्परिषदः-अनेकविज्ञानपर्षदो देवपर्षदः इक्ष्वाकुपर्षदः क्षत्रियपर्षदः कौरव्यपर्षदः कथम्भूताया इत्याह-'अणेगसयाए' इति अनेकानि पुरुषाणां शतानिसङ्ख्यया यस्यां सा अनेकशता तस्याः 'अणेगवंदाए' इति अनेकानि वृन्दानि यस्याः सा तथा तस्याः, 'अणेगसयवंदपरिवाराए' इति अनेकशतानि-अनेकशतसङ्ख्यानि वृन्दानि परिवारोयस्याः सा तथा तस्याः, 'महतिमहालियाए परिसाए' अतिशयेन महत्या पर्षदः ओहबले' इति ओघेन-प्रवाहेण बलं यस्य, न तु कथयतो बलहानिरुपजायते इति भावः, 'एवं जहा उववाइए तहा | भाणयिव्वमि' ति, एवं यथा औपपातिक ग्रन्थे तथा वक्तव्यं, तच्चवैम्'अइबले महाबले अपरिमियबलवीरियतेयमाहप्पकंतिजुते सारदनवथणियमहुरंगंभीरकुंचनिग्घोसदुंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्ठियाए सिरे समावन्नाए अगरलाए अमम्मणाए फुडविसयमहुरगंभीरगाहिगाए सव्वक्सरसन्नियाइयाए गिराए सव्वभासाणुगामिणीए सव्वसंसयविमोयणीए अपुणरुत्ताए सरस्सईए जोयणनीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ, अरिहा धम्म परिकहेइ, तं जहा-अत्थि लोए अत्थि अलोए अस्थि जीवे अस्थि अजीवे' त्यादि, तावत् 'तएणं सा महइमहालिया मणुस्सपरिसा समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिएधम्मं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ नमसइ 2 त्ता एवं वयासी-सुखक्खाए णं भंते ! निगंथे पावयणे, नत्थिणं केई समणे माहणे वा एरिसंधम्ममाइक्खित्तए, एवं वइत्ता जामेव दिसिंपाउन्भूता तामेव दिसिंपडिगया।तएणं सेए राया समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए जाव हरिसवसवि-सप्पमाणहियए समणं भगवं महावीरं वंदइनमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छइ पुच्छिता अट्ठाइं परियाएइ परियाइत्ता उहाए उट्लेइ उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ 2 त्ता एवं वयासीसुयक्खाएणं भंते! निग्गंथे पावयणे जाव एम्सिं धम्ममाइक्खित्तए, एवं वइत्ता हत्थिं दुरूहइ२ हित्तासमणस्स भगवातो महावीरस्स अंतियाओ अंबसालवणाओचेइयाओपडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगते' इति, इदं च प्रायः सकलमपि सुगमं नवरं यामेव दिशमलम्ब्य, किमुक्तं भवति?-यतो दिशः सकाशात् प्रादुर्भूतः-समवसरणे समागतस्तामेव दिशे प्रतिगतः / सम्प्रति सूर्याभो देवो धर्मदेशानाश्रवणतो जातप्रभूततरसंसारविरागः स्वविषयं भव्यत्वादिकं पिपृच्छषुर्यत्करोति तदाह-'तए णमि' त्यादि 'भवसिद्धिए' इति भवैः सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिको भव्य इत्यर्थः, तद्विपरीतोऽभवसिद्धिकः; अभव्य इत्यर्थः भव्योऽपि कश्चिन्मिथ्यादृष्टिर्भवति कश्चित्सम्यग-दृष्टिस्तत आत्म्नः सम्यग्दृष्टिनिश्चयाय पृच्छति-सम्यगदृष्टिको मिथ्यादृष्टिकः, सम्यगदृष्टिरपि कश्चीत्परिमितसंसारो भवति कश्चिदपरिमितसंसारः, उपशमश्रेणिशिरः प्राप्तानामपि केषांचिदनन्त-संसारभावाद, अतः पृच्छति-परीत्तसंसारिकोऽनन्तसंसारिकः ? परीत्तःपरिमित स चासौ संसारश्च परित्तसंसारः सोऽस्यास्तीति परित्तसंसारिकः, अतोऽनेकरवरादिती' कप्रत्यय, एवमनन्तश्चासौ संसारश्चानन्तसंसारः सोऽस्तीति अनन्तसंसारिकः,परीत्तसंसारिकोऽपि कश्चित् सुलभबोधिको भवति यथा शालिभद्रादिकः, कश्चिद्दुर्लभबोधिको यथा पुरोहितपुत्रजीवः, ततः पृच्छति सुलभा बोधिः-भवान्तरे जिनधर्मप्राप्तिर्यस्यासौ सुलभबोधिकः, एवं दुर्लभबोधिकः, सुलभबोधिकोऽपि कश्चिद्रोधिं लब्ध्वा विराधयति ततः पृच्छति-आराधयति Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1101 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ सम्यक् पालयति बोधिमित्याराधकः तद्विपरीतो विराधकः, आराध- गुलक: सन स्योभो देवः श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दतेस्तौति नमस्यतिकोऽपि कश्चित्तद्भवमोक्षगामी न भवति ततः पृच्छति-दरमोऽचरमी वा ? | कायन वन्दित्वा नगस्थित्या च 'उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागमि' त्यादि चरमोऽनन्तरभावी भवो यस्यासौ चरमः अभ्रादिभ्य इति मत्वर्थ थोड- सुगर्म, नादरं बहुसमभूमिवर्णनप्रेक्षागृहमण्डपवर्णनमणिपीठिकाप्रत्ययस्तद्विपरीतोऽचरमः, एवमुक्ते सूर्याभादिः श्रमण) भगवान मानतदपर्युत्ल्लोचाडकुशमुक्तादामवर्णनानि च प्राग्वद्भावनीमहावीरस्तं सूर्याभ देवमेवमवादीत्-भोः सूर्याभ ! त्वं भव-सिद्धिकी, यामि। 'तएणमि त्यादि, तत: सूर्याभो देवस्तीर्थङ्करस्य भगवतः आलोके नाभवसिद्धिकः / यावत्करणात्-'सम्मद्दिट्ठी नो मिच्छादिट्ठी प्रणामं करोति, कृत्वा चानुजानातु भगवान् मामित्यनुज्ञापनां कृत्वा परित्तसंसारिएनो अणंतसंसारिए सुलभबोहिए नो दुल्लभबोहिए आराहए सिहासनवरगतः सन तीर्थकराभिमुखः सन्निषण्णः। (रा०) नाट्यविधिः नो विराहए इति परिग्रहः, "तुब्भे णं भंते!, 'तुब्भे' इति यूां 'एमिति' 'ण' शब्दे चतुर्शभागे उक्ता।) वाक्यालङ्कारे भदन्त ! सर्व केवलवेदसा जानीथ सर्व केवलदर्शनेन भंते त्ति भयवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति 2 पश्यथ, अनेन द्रव्यपरिग्रह, तत्र सर्वशब्दो देशकात्स्ये ऽपि वर्तते यथा त्ता एवं वयासी सूरियाभस्सणं भंते ! देवस्स एसा दिव्वा देविडि अस्य सर्वस्यापि ग्रामस्यायमविपतिरिति सचराचरविषयज्ञानदर्शन- दिव्वा देवजुत्ती दिव्वे देवाणुभावे कहिं गते कहिं अणुपविहे ? प्रतिपादनार्थमाह-'सव्वतो जाणह सव्वओ पासह सर्वतः-सर्वत्र दिक्षु गोयमा ! सरीरं गते सरीरं अणुपविठू से केणदेठंणं भंते ! एवं ऊर्ध्वमधो लोकेऽलोके चेति भावः जानीथ पश्यथच, अनेन क्षेत्रपरिग्रहः, वुचइ ?सरीरं गते सरीरं अणुपविटे, गोयमा ! स जहा नाम ए तत्र सर्वद्रव्यसर्वक्षेत्रविषयं वार्त्तमानिक-मात्रमपि ज्ञानं दर्शनं वा सम्भाव्येत कूडागारसाला सिया दुहतो लित्ता दुहतो गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया ततः सकलकालविषयज्ञानदर्शन-प्रतिपादनार्थमाह-सर्वकालम्- णिवायगंभीरा, तीसे णं कूडागारसालाते अदूरसामंते एत्थ णं अतीतमनागतं वर्तमानं च जानीथ पश्यथ, एतेन कालपरिग्रहः, तत्र महेगे जणसमूहे चिट्ठति, तए णं से जणसमूहे एगं महं अब्भवकश्चित् सर्वद्रव्यसर्वक्षेत्रसर्वकालविषयमपि ज्ञानं सर्वपर्यायविष्यं न हलगं वा वासवद्दलगं वा महावायं वा इज्जमाणं पासति 2 सित्ता सम्भावयेत् यथा मीमांसकादिः, अत आह-सर्वान् भावान्-पर्यायान् तं कूडागारसालं अंतो अणुविसइ२ सित्ताणं चिट्ठइ,से तेणढेणं प्रतिद्रव्यमात्मीयान् परकीयांश्च केवलवेदसा जानीथ, केवलदर्शनने गोयमा ! एवं दुचति-सरीरं अणुपवितु। (सू०२६) पश्यथा अथ भावा दर्शनविशया न भवन्ति ततः कथमुक्तं-'सव्ये भावे भदन्तेत्यामन्त्रणपुरस्सरं भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरंवदन्ते पासह' इति ? नैष दोषः, उत्कलितरूपया हि ते भावा दर्शनविषया न | नमस्यति वन्दित्वा नभस्यित्वा ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेवादीत्, पुस्तभवन्ति अनुत्कलितरूपतया तु ते भवन्त्येव, तथा चोक्तम्-"निर्विशेष कान्तरं त्विदं वाचनान्तरं दृश्यते, 'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स विशेषाणां, ग्रहो दर्शनमुच्यते' इति, ततो 'जाणंति' 'ण' मिति पूर्ववत् भगवओ महावीरस्स जिट्टे अंतेवासी' इत्यादि, अस्य व्याख्या-तस्मिन् देवानांप्रियाः पूर्वमपि अनन्तरमुपदय॑माननाट्यविधेः पश्चादपि च काले तस्मिन् समये णशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, श्रमणस्य भगवतो उपदश्यमाननाट्यविधेः, उत्तकरकालं मम एतद्रूपां दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां महावीरस्य ज्येष्ठ' इति प्रथमोऽन्तेवासीशिष्यः, अनेन पदद्वयेन तस्य देवधुतिं दिव्यं देवानुभावं लब्धं (लब्ध) देशान्तरगतमपि किञ्चिद्भवति सकलसघाधिपतित्वमावेदयति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतं नामधेयं तत आह-प्राप्त, प्राप्तमपि किञ्चिदन्तरायवशादनात्मवशं भवति तत नामेति प्राकृतत्वात् विभक्तिपरिणामेन नाम्नेति द्रष्टव्यम्, एवमन्यत्रापि आह-अभिसमन्वागतं, तत 'इच्छामिणमित्यादि, इच्छामिणमिति-- यथायोग भावनीयम्, अन्तेवासी च किल विवक्षायां श्रावकोऽपि स्यादपूर्ववत्, देवानां प्रियाणां पुरतो भक्तिपूर्वकंबहुमानपुरस्सरं गौतमादीनां तस्तदाशङ्काव्यवच्छेदार्थमाह-'अनगारः, न विद्यते अगारंगृहमस्येत्यश्रमणानां निर्ग्रन्थानां दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभाव- नागरः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि सम्भाव्येत अत आह-गौतमो गोत्रेण, भुपदर्शयितुं द्वात्रिंशद्विधं-द्वात्रिंशत्प्रकारं नाट्यविधिनाट्यविधान- गौतमायगोत्रसमन्वित इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेहपरिमाणामुपदर्शयितुमिति / 'लए णमि' त्यादि, ततः श्रमणो भगवान महावीरः पेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादत आह-सप्तोत्सेधः-सप्तहस्तप्रमाणसूर्याभेण देवेन एवमुक्तः सन् सूर्याभस्य देवस्यैनम् अनन्तरोदित- शरीरोड्रायः, अयं चेत्थभूतो लक्षणहीनोऽपि शक्येतातस्तदाशङ्कापनोमर्थ नाद्रियते-न तदर्थकरणा-यादरपरो भवति, नापि परिजानाति- दार्थमाह-'समचउरंससंठाणसंटिए' इति, समाः-शरीरलक्षण-शास्त्रोअनुमन्यते, स्वतो वीतरागत्वात् गौतमादीनां च नाट्यविधेः स्वाध्याया- क्तप्रमाणाविरांवादिन्यश्चस्रोऽरत्रयो यस्य तत् समचतुरस्त्रं अस्रयस्त्विह दिविघातकारित्वात्, केवलं तूष्णीकोऽवतिष्ठते, एवं द्वितीयमपि वारं, चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा द्रष्टव्याः, अन्ये त्वाहुः-समातृतीयमपि वारमुक्तः सन् भगवानेवमवतिष्ठति। 'तएणमि' त्यादि, ततः अन्यूनाधिकाश्चतसोऽप्यस्रयो यत्र तत् समचतुरस्रं तच तत् संस्थानं च, पारिणामिक्या वुझ्या तत्त्वमवगम्य मौनमेव भगवत उचितं न पुनः किमपि संस्थानम् आकारः तच्चवामदक्षिणजान्वारन्तर आसनस्यललाटोपरिभागस्य वक्तुं केवलं मया भक्तिरात्मीयोपदर्शनीयेति प्रमोदातिशयतो जात- | चान्तरं वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति, अपरे त्वाः-विस्तारो Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1102 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ त्सेधयोः समत्वात् समचतुरस्रं तच्च तत्संस्थानं च 2, संस्थानम्आकारस्तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा 'जाव उहाए उद्वेइ' इति यावत्करणात्-वञ्जरिसहसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे दित्ततवे तत्ततवे महातवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरबंभचेरवासी उच्छूढसरीरे संखित्तविपुलतेयलसेसे चउद्दसपुथ्वी चउनाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाईसमणस्स भगवतोमहावीरस्स अदूरसामन्त उड्डजाणू / अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्याणं भावेमाणे विहरइ, तए णं से भगवं गोयमे जायसड्डे जायसंसए जायकोउहल्ले उप्पन्नसड्डे उप्पन्नसंसएउप्पन्नकोउहल्ले संजायसड्डे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पण्णसड्डे समुप्पणसंसए समुप्पण्णकोउहल्ले उहाए उट्टेइ' इति द्रष्टव्यं, तब नाराचमुभयतो मर्कटबन्धः ऋषभस्तदुपरि वेष्टनपट्टः कीलिका अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, तथा कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुलकोलवस्तस्य यो निकषः-कषपट्टके रेखारूपस्तथा पद्मग्रहणेन पद्मकेसराण्युच्यन्ते अवयवे समुदायोपचारात् यथा देवदत्तस्य हस्ताग्ररूपोऽवयवोऽपि देवदत्तः, तथा च देवदत्तस्थ हस्ताग्रं स्पृष्ट्वा लोको वदति-स्पृष्टो मया देवदत्त इति, कनकपुलकनिकषवत् पद्मवच्च यो गौरः स कनकपुलकनिकषपद्मगौरः, अथवाकनकस्य यः पुलकोद्रवत्वे सति बिन्दुस्तस्य निकषो वर्णतः सदृशः कनकपुलकनिकषः, तथा पद्मवत्-पद्मकेसरवत्यो गौरः सपद्मगौरः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयसमासः, अयं च विशिष्टचरण-रहितोऽपि शङ्कयेत तत आह-'उग्गतवे' इति, उग्रम्-अधृष्यंतपः-अनशनादियस्य सतथा, यदन्येन प्राकृतेनपुंसान शक्यते चिन्तयितुमपि मनसा तद्विधेन; तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीप्तंजाज्वल्यमानदहन इव कर्मवनगहनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपोधर्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवे' इति तप्तं तपो येन स तप्ततपाः, एवं हि तेन तपस्तप्तं येन सर्वाण्यपि अशुभानि कर्माणि भस्मसात् कृतानीति महत्वे' इति महान्-प्रशस्तमाशंसादोषरहितत्वात् तपो यस्य स महातपाः, तथा 'उराले' इति, उदारः-प्रधानः, अथवा-उरालो-भीष्मः उग्रादिविशिष्टतपः करणतः पार्श्वस्थानामल्पसत्त्वानामतिभयानक इति भावः, तथा घोरो-निघृणः परीषहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमधिकृत्य निर्दय इति यावत्, तथा / घोरा–अन्यैर्दुरनुचरा गुणा मूलगुणादयो यस्य स धोरगुणः, तथा घोरैस्तपोभिस्तपस्वी धोरतपस्वी, 'घोरबंभचेरवासी' इतिधोरंदारुणमल्पसत्त्वैर्दुदरनुचरत्वात् ब्रह्मचर्य यत् तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, 'उच्छूढसरीरे' इति उच्छूढम्-उज्झितमिवोज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स उच्छूढशरीरः, 'संखित्तविउलतेउलेसे' इति संक्षिप्ताशरीरान्तर्गतत्वेन हस्वतां गता विपुल-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्याविशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य सतथा,'चउद्दसपुव्वी' इति चतुईस पूर्वाणि विद्यन्ते। यस्य तेनैव तेषां रचित्वात् असौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेवलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह'चउनाणोवगए' मतिश्रुतावधिमनःपर्याय ज्ञानचतुष्टयसमन्वितः, उक्तविशेषण-द्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदामपि षट्स्थानपतितत्वेन श्रवणादत आह-'सर्वाक्षरसन्निपाती' अक्षराणां सन्निपाताः-संयोगाः अक्षरसन्निपाताः सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताश्च सर्वाक्षरसन्निपातास्ते यस्य ज्ञेयाः स तथा, किमुक्तं भवति?-या काचित् जगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा संभवति ताः सर्वा अपि जानातीति, एवंगुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिव साक्षादिति कृत्वा शिष्याचारत्वाच श्रमणस्य भगवतो महावीरस्यादूरसामन्ते विहरतीति योगः, तत्र दूरं-विप्रकृष्ट सामन्तं-सन्निकृष्टं तत्प्रतिषेधाददूरसामन्तं; ततो नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविशिष्टः सन् तत्र विहरतीत्यत आह-'उड्डेजाणू अहोसिरे' ऊर्ध्व जानुनी यस्यासावूर्ध्वजानुः अधःशिरा नोर्द्ध तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः, किन्तु-नियतभूभागनियमितदृष्टिरित्यर्थः, 'झाणकोट्ठो वगए' इति ध्यानधर्मध्यानं शुक्लध्यानंचतदेवकोष्ठः-कुशूलोध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथा हि कोष्ठको धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रसृतं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरित्यर्थः, 'संयमेन' पञ्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तपसा अनशनादिना चशब्दोऽत्र समुचयार्थों लुप्तो द्रष्टव्यः, संयमतपोग्रहणमनयोः प्रधानमोक्षाङ्गताख्यापनार्थ, प्राधान्य संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्चपुराणकर्म-निर्जराहेतुत्वेन, तथाहि-अभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच्च जायते सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्षस्ततो भवति संयमतपसोर्मोक्षं प्रति प्राधान्यमिति 'अप्पाणं भावेमाणे विहरति' इति, आत्मानं वासयन् तिष्ठति। 'तए ण' मित्यादि, ततोध्यानकोष्ठोपगतविहरणादनन्तरं 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे स भगवान् गौतमो 'जातसड्डे' इत्यादि, जातश्रद्धादिविशेषणविशिष्टः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाताप्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वावगमं प्रति यस्यासौ जातश्रद्धः तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः, संशयो नाम अवनधारितार्थ ज्ञानं, सचैवम्-इत्थं नामास्य दिव्या देवद्धिर्विस्तृता अभवत्, इदानींसा व गतेति, तथा 'जायाकुतूहले' इति जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलः जातौत्सुक्य इत्यर्थः, तथा कथममुमर्थ भगवान् प्ररूपयिष्यति इति, तथा 'उप्पन्नसड्ढे उत्पन्ना प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासौ उत्पन्नश्रद्ध इत्येतदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इति, प्रवृत्तश्रद्धत्वेनैवत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात्, न हि अनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तत इति, अत्रोच्यते-हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं प्रवृत्तश्रद्धः? उच्यते-यत उत्पन्नश्रद्धः, इति हेतुत्वदर्शनं चोपपन्नं, तस्य काव्यालङ्कारत्वात् यथा प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी' मित्यत्र, अत्र हि यद्यपि प्रवृत्तदीपादित्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमुपगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्वादेहे तुतयोपन्यस्जमिति सम्यक् 'उत्पन्नसड्ढे उत्पन्नसंसये' इतिप्राग्वत्, तथा 'संजायसड्डे' इत्यादि पदषटकंप्राग्वत्, नवरमिह संशब्दःप्रकर्षादिवचनोवेदितव्यः,'उठाए उट्टेड' Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1103 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ त्तिउत्थानमुत्था-ऊर्ध्वं वर्तनं तया उत्तिष्ठति, इह 'उठेइ इत्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयेत यथा वकुमुत्तिष्ठते ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुत्थायेत्युक्तम् उत्थया उत्थाय 'जेणेवे त्यादि यस्मिन् दिग्भागे श्रमणो भगवान् / महावीरो वर्तते 'तेणेवे तितस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, उपागत्य च श्रमणं त्रिकृत्वः-त्रिवारान् आदक्षिणप्रदक्षिणीकरोति, आदक्षिणप्रदक्षिणीकृत्य च वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्'सूरियाभस्स णं भंते ! इत्यादि, 'कहिंगए' इति व गतः ?' तत्र गमनमन्तरप्रवेशाभावेऽपि दृष्टं यथा भित्तौ गतोधूलिरिति एषोऽपि दिव्यानुभावो यद्येवं क्वचित्प्रत्यासन्ने प्रदेशे गतः स्यात्ततो दृश्येन नचासौदृश्यते, ततो भूयः पृच्छति-'कहिं अणुपविढे इतिक्वानुप्रविष्टः क्वान्तर्लीन इति भावः। भगवानाह-गौतम ! शरीरंगतः शरीरमनुप्रविष्टः, पुनः पृच्छति'सेकेणद्वेण' मित्यादि, अथ केनार्थेन केन हेतुना भदन्त ! एवमुच्यतेशरीरं गतः शरीरमनुप्रविष्टः? भगवानाह-गौतम ! 'से जहानामए' इत्यादि, कूटस्येवपर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा कूटाकारा, यस्या उपरि आच्छादानं शिखराकारं सा कूटाकारेति भावः, कूटाकारा चासौ शाला च कुटाकारशाला, यदिवा-कूटाकारेणशिखराकृत्योपलक्षिता शाला कूटाकाराशाला स्यात्, 'दुहतो लित्ता' इति बहिरन्तश्च गोमयादिना लिप्ता गुप्ता बहिः प्राकारावृता गुप्तद्वारा द्वारस्थगनात्, यदिवागुप्ता गुप्तद्वारा केषाञ्चित् द्वाराणां स्थगित्वात् केषाञ्चिचास्थगितत्वादिति निवातावायोरप्रवेशात् किल महद् गृहं निवातं प्रायो न भवति तत आह निवातगम्भीरा निवाता सती गम्भीरा निवातगम्भीरा; नियाता सती विशाला इत्यर्थः, ततस्तस्याः कूटाकारशालाया अदूरसामन्ते नातिदूरे निकट वा प्रदेशे महान् एकोन्यतरो जनसमूहस्तिष्ठति, स च एक महत् अभ्ररूपं वार्दलम् अभ्रवादलं, धाराभिपातरहितं सम्भाव्यवर्ष वार्दलमित्यर्थः, वर्षप्रधानं वादलकं वर्षवार्दलकं वर्ष कुर्वन्तं वादलकं महावातं वा 'एजमाण' मिति आयान्तम्-आगच्छन्तं पश्यति, दृष्ट्वा च तं 'कूडागारसालं' द्वितीया षष्ठ्यर्थे तस्याः कूटाकारशालाया अन्तरं ततोऽनुप्रविश्य तिष्ठति एवं सूर्याभस्यापि देवस्य सा तथा विशाला दिव्या देवर्धिर्दिव्या देवद्युतिर्दिव्यो देवानुभावः शरीरमनुप्रविष्टः 'से-एणतुण' मित्यादि, अनेन प्रकारेण गौतम ! एवमुच्यते-'सूरियाभस्से' त्यादि। भूयो गौतमः पृच्छतिकहिं णं भंते ! सूरियाभस्सा देवस्स सूरियाभे णामं विमाणे | पन्नते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पमाए पुढवीए बहुसमरमणिजातो भूमिभागातो उड्डं चंदिमसूरियगहगणण्यक्खत्ततारूवाणं बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसहस्सई बहूई जोयणसयहस्साई बहुईओ जोयणकोडीओ बहुईओ जोयणसयसहस्सकोडीओ उद्धं दूरं वीतीवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे कप्पे नामं कप्पे पन्नत्ते, पाईणपडीणआयते उदीणदाहिणवित्थिण्णे अद्धाचंदसंठाणसंठिते अचिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं इत्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीसं विमाणवाससयसहस्साई भवंतीति मक्खायं, ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा० जाव पडिरूवा, तेसिंणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडिंसया पण्णत्ता, तं जहा-१ असोगवडिंसते 2 सत्तवन्नवडिंसते 3 चंपकवडिंसते 4 चूयगवडिंसते 5 मज्झे सोहम्मवडिंसए, ते णं वडिंसगा सय्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तस्स णं सोहम्मदडिं सगस्स महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखेजाई जोयणसयसहस्साई वीईवइत्ता एत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सूरिया नाम विमाणे पन्नते, अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं गुणयालीसं च सय सहस्सइंबावन्नं च सहस्साई अद्धय अडयाले जोयणसते परिक्खेवेणं, से णं एगेणं पागारेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, से णं पागारे तिन्नि जोयणसयाई उठं उच्चतेणं मूले एगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्झे पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं उप्पिं पणवीसंजोयणाई विक्खंमेणं मूले वित्थिन्ने मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठा णसंठिए सवकणगामए अच्छे 0 जाव पडिरूवे, सेणं पागारे णाणा (मणि) विहपंचवन्नहिं कविसीसएहिं उवसोमिते,तं जहा-किण्हेहिं नीलेहिं लोहितेहिं हालिद्देहि सुकिल्लेहिं कविसीसएहिं, ते णं कविसीसगा एग जोयणं आयामेणं अद्धजोयणं विक्खंभेणं देसूणं जोयणं उर्ल्ड उचत्तेणं सव्वमणि (रयणा) मया अच्छा जाव पडिरूवा, सूरियाभस्स णं विमाणस्स एगमेगाए बाहाएदारसहस्सं 2 भवतीति मक्खायं, ते णं दारा पंच जोयणसयाई उठं उच्चत्तेणं अड्डाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया बरकणगथूभियागा ईहामियउसमतुरगणरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंमुग्गयवरवयवेझ्या परिंगयामिरामा विजाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव अचीसहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया मिसमाणा भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा ससिरीयरूवा वन्नो दाराणं तेसिं होइ, तं जहा-वइरामया णिम्मा रिट्ठामया पइहाणा वेरुलियमया सूइखंभा जायरूवोदचियपवरपंचवन्नमणिरयणकोट्टिमतला हंसगब्ममया एलुया गोमेज्जमया इंदकीला लोहियक्खमतीतो दारचेडीओ जोईरसमया उत्तरंगा लोहियक्खमईओ सूईओ वयरामया संधी नाणामणिमया समुग्गया वयरामया अग्गला अ Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम . 1104 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम ग्गलपासाया रययामयाओ आवत्तणपेठियाओ अंकुत्तरपासगा निरंतरियघणकवाडा मित्तीसुचेव भित्तिगुलिता छप्पन्ना तिण्णि होति गोमाणसिया तइया णाणामणिरयणवालरूवगलीलट्ठिअसाल-भंजियागा वयरामया कुड्डा रययामया उस्सेहा सव्वतवणिजमया उल्लोयाणाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमा अंकामया पक्खा पक्खबाहाओ जोइरसामया वंसा वंसकवेल्लुयाओ रयणामयाओ पट्टियाओ जायरूवमवईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुच्छणाओ सव्वसेयरवयामयाच्छायणे अंकामया कणगकूडतवणिजथूमियागासेया संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरययणिगरप्पगासा तिलगरयणद्धचंदचित्ता नाणामणिदामालंकिया अंतो बहिं च सण्हा तवणिजवालुयापत्थडासुहफासासस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। क्व सूर्याभस्य देवस्य सूर्याभं विमानं प्रज्ञप्तं ? भगवानाह-गौतम ! अस्मिन् जम्बूद्वीपे ये मन्दरः पर्वतस्तस्य दक्षिणतोऽस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयात् भूमिभागादूर्ध्वं चन्द्रसूर्यग्रहगणनक्षत्रतारारूपाणामपि पुरतो बहूनि योजनानि बहूनि योजनशतानि ततो बुद्ध्या बहुबहुतरोत्प्लवेन बहूनि योजनसहस्राण्येवमेव बहूनि योजनशतसहस्राणि एवमेव च बलीयोजनकोटीरेवमेव च बह्वीयोजनकोटीकोटीरूद्ध दूरमुप्तलुत्य अत्र-सार्द्धरज्जुप्रमाणे प्रदेशे सौधर्मो नाम कल्पः प्रज्ञप्तः, स च प्राचीनापाचीनायतः; पूर्वापरायत इत्यर्थः, उत्तरदक्षिणविस्तीर्णः, अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितः, द्वौ हि सौधर्मेशानदेवलोको समुदिती परिपूर्णचन्द्रमण्डलसंस्थानसंस्थितौ, त्योश्च मेरोदक्षिणवर्ती सौधर्मकल्प उत्तरवर्ती ईशानकल्पः ततो भवति सौधर्मकल्पः चन्द्रसंस्थानसंस्थितः, 'अचिमाली' इति अर्चीपिकिरणानि तेषां माला अर्चिमाला सा अस्यास्तीति अर्चिाली; किरणमालासङ्घल इत्यर्थः, असङ्ख्येययोजनकोटीकोटीः 'आयामविक्खंभेणं' ति आयामश्च विष्कम्भश्चायामविष्कम्भं समाहारो द्वन्द्वस्तेन; आयामेन च विष्कम्भेन चेत्यर्थः, असंख्येया योजनकोटीकोट्यः परिक्खेवेणं परिधिना 'सव्वरयणामए' इति सर्वात्मना रत्नमयः 'जाव पडिरूवे' इति यावत्करणात्-'अच्छे सण्हे घडे मढे' इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः, 'तत्थ ण' मित्यादि तत्र सौधर्मे कल्पे द्वात्रिंशत् विमानशतसहस्राणि भवन्ति इत्याख्यातं मया शेषैश्च तीर्थकृद्धिः / 'ते णं विमाणे' त्यादि, तानि विमानानि सूत्रे पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् सर्वरत्नमयानिसामस्त्येन रत्नमयानि 'अच्छानि' आकाशेस्फटिकवदतिनिर्मलानि, अत्रापि यावत्करणात्-'सहा लण्हा घवामट्ठा नीरया' इत्यादि, विशेषणजातं द्रष्टव्यं, तच प्रागेवानेकशो व्याख्यातं 'तेसिण' मित्यादि, तेषां विमानानां बहुमध्यदेशभागे त्रयोदशप्रस्तटे सर्वत्रापि विमानावतंसकानां स्वस्वकल्पचरप्रस्तटवर्तित्वात् | पञ्चावतंसकाः पञ्चविमानवतंसकाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- अशोकावतंसकः-अशोकावतंसकनामा, स च पूर्वस्यां दिशि, ततो दक्षिणस्यां सप्तपर्णावतंसकः पश्चिमायां चम्पावतंसक उत्तरस्यां चूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावतंसकः, ते च पञ्चापि विमानावतंसकाः सर्वरत्नमयाः 'अच्छा . जाव पडिरूवा' इति यावत्करणादत्रापि सहा लण्हाघवा मट्ठा' इत्यादि विशेषणजातमवगन्तव्यम्, अस्य च सौधर्मावतंसकस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यक् असंख्येयानि योजनशत-सहस्राणि व्यतिव्रज्य–अतिक्रम्यात्र सूर्याभस्य देवस्य सूर्याभं नाम विमनं प्रज्ञप्तम, अर्द्ध त्रयोदशं येषां तानि अर्द्धत्रयोदशानि, सर्द्धानि द्वादशेत्यर्थः, योजनशतसहस्राण्यायामविष्कम्भेन, एकोनचत्वारिंशत्योजनशतसहस्राणि द्विपञ्चाशत्सहस्राणि अष्टौ च योजनशतानि अष्टचत्वारिंशदधिकानि 3652548 किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेणपरिधिना इदं च परिक्षेपपरिमाणं 'विक्खंभवग्गदहगुणकरणी वट्टस्स परिरओ होइ' इति करणवशात् स्वयमानेतव्यं, सुगमत्वात्। 'सेणं एगेण मित्यादि, तद्विमानमेकेन प्राकारेण सर्वतःसर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येन परिक्षिप्तम्। 'से णं पागारे' इत्यादि स प्राकारः त्रीणि योजनशतानि ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन मूले एक योजनशतं विष्मम्भेण मध्यभागे पञ्चाशत्, मूलादारभ्य मध्यभागं यावत् योजने योजने योजनविभागस्य विष्कम्भतस्त्रुटितत्वात्, उपरिमस्तके पञ्चविंशतिर्योजनानि विष्कम्भेण, मध्यभागादारभ्योपरितनमस्तकं यावत् योजने योजने योजनषड्भागस्य विष्कम्भतो हीयमानतया लभ्यामानत्वात्, अत एव मूले विस्तीणो मध्ये संक्षिप्तः पञ्चाशतो योजनानां त्रुटितत्वात्, उपरि तुनकः-पञ्चविंशततियोजनमात्रविस्तारात्मकत्वात्, अत एव गोपुच्छसंस्थानसंस्थितः, सम्वरयणामए अच्छे' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्, 'से णं पागारे' इत्यादि, स प्राकारो ‘णाणाविहपंचवन्नेहिं' इति नानाविधानि च तानि पञ्चवर्णानि च नानाविधपञ्चवर्णानि तैः, नानाविधत्वं च पञ्चवर्णापक्षया द्रष्टव्यं कृष्णादिवर्णतारतम्यापेक्षया वा पञ्चवर्णत्वमेव प्रकटयति-'कण्हेहिं इत्यादि, तेणं कविसीसगा' इत्यादि, तानि कपिशीर्षकाणि प्रत्येकं योजनमेकमायामतो दैयेणार्द्ध योजन विष्कम्मेण देशोनयोनमुचैस्त्वेन 'सव्वस्यणामया' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्। 'सूरियाभस्सण' मित्यादि, एकैकस्यां बाहायां द्वारसहसमिति सर्वसङ्ख्यया चत्वारिद्वारसहस्राणि, तानि च द्वाराणि प्रत्येकं पञ्चयोजनशतान्यूर्ध्वम् उच्चस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः 'तावइयं चेवे' ति अर्द्धतृतीयान्येव योजनशतानि प्रवेशतः सेया' इत्यादि, तानिच द्वाराणि सर्वाण्युपरि श्वेतानिश्वेतवर्णोपेतानि बाहुल्येनाङ्करत्नमयत्वात् 'वरकणगथूभियागा' इति वर-कनका-वरकनकमयी श्तूपिका-शिखरं येषा तानि तथा, 'ईहामिग-उसभतुरगनरमगरविहगवालकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पउमयलयभत्तिचित्ता खंभुम्यवरवरवेइयाएरिगयाभिरामा विजाहरजमलयुयलजंतजुता विवअचीसहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिडिभसमाणा चक्म्खुल्लो Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1105 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम यणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा' इति विशेषणजातं यानविमानवद्भावनीय' 'वन्नो दाराणं तेसिं होइ' इति तेषां द्वाराणां वर्णः-स्वरूपं व्यावर्णनमयं भवति, तमेव कथयति, 'तंजहे त्यादि, तद्यथा-'वइरामया णिम्मा' इति नेमा नाम द्वाराणां भूमिभागादूर्ध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशास्ते सर्वे वज्रमया-वजरत्नमयाः, वज्रशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, एवमन्यत्रापि प्रतिष्ठानानि मूलपादाः वेरुलियमया खंभा' इति वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भाः 'जायरूवोवचियपवरपंचवन्न [वर] मणिरयण-कुठिमतला' जातरूपेण-सुवर्णेन उपचितैः युक्तैः प्रवरैः-प्रधानैः पञ्चवर्णमणिभिःचन्द्रकान्तादिभिः रत्नैः-कर्केतनादिभिः कुट्टिमतलं-बद्धभूमितलं येषां ते तथा 'हंसगब्भमया एलुया' हसंगर्भम्या-हंसगर्भाख्यरत्नमया एलुकादेहल्यः ‘गोमेजमया इंदकीला' इति गोमेजकररत्नमया इन्द्रकीलाः, 'लोहियक्खमईओ' लोहिताक्ष-रत्नमय्यः 'चेडाओ' इति द्वारशाखा 'जोइरसमया उत्तरंगा' इति द्वारस्योपरि तिर्यग्व्यवस्थितमुत्तरङ्गं तानि ज्योतिरसमयानि-ज्योतीरसाख्यरत्नात्मकानि 'लोहियक्ख मईओ' लोहिताक्षमय्यो लोहिताक्षरत्नाधिकाः सूचयः-फलकद्वयसमबन्धविघटनाभावहेतुः पादुकास्थानीया वइरामया संधी' वज्रमयाःसन्धयः सन्धिमेलाः फलकानां, किमुक्तं भवति ?-वज्ररत्नपूरिताः फलकानां सन्धयः 'नाणामणिमया समुग्गया' इति समुद्गका इव समुद्रकाःशूचिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि 'वयरामया अग्गला अग्गलपासाया' अर्गलाः-प्रतीताः अर्गलाप्रासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते, आह च | जीवाभिगम-मूलटीकाकाराः-'अर्गलाप्रासादो यत्रार्गला नियम्यन्ते इति' एते द्वये अपि वज्ररत्नमय्यौ 'रययामयाओ आवत्तणपेढियाओ' इति आवर्त्तनपीठिका नाम यत्रेन्द्रकीलको भवति, उत्कञ्चविजयद्वारचिन्तायां जीवभिगममूलटीकाकारेण 'आवर्तनपीठिका यत्रेन्द्रकीलको भवतीति' 'अंकुत्तरपासगा' इति अङ्का-अङ्करत्नमया उत्तरपार्यो येषां द्वाराणां तानि अङ्कोत्तरपार्श्वकानि 'निरंतरियघणकवाडा' इति निर्गता अन्तरिकालघ्यन्तररूपा येषां ते निरन्तरिका अत एव घनानिरन्तरिका घनाः कपाटा येषां द्वाराणां तानि निरन्तरिकघनकपाटानि भित्तिसुचेव भित्तिगुलिया छप्पन्ना तिन्नि होंति' इति तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः भित्तिषुभित्तिगताः भित्तिगुलिकाः-पीठकस्थानीयाः तिस्रः षट्पञ्चाशत्प्रमाणा भवन्ति 'गोमाणसिया (सज्जा) तइया' इति गोमानस्यः शय्या 'तइया' इति तावन्मात्राः; षट्पञ्चाशत्तिकसङ्ख्याका इत्यर्थः 'णाणामणिरयणवालरूवगलीलट्ठियसालभंजियागा' इति इदं द्वारविशेषणमेव, नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि व्याल-रूपकाणि लीलास्थितशालभञ्जिकाश्चलीलास्थितपुत्तलिका येषु तानि तथा 'बयरामया कूडा रययामया उस्सेहा' इति कूडोमाडभाग उच्छयः-- शिखरम्, आह च जीवाभिगममूलटीकाकृत्-'कूडो माडभाग उच्छयः शिखर' मिति, नवरमत्र शिखराणि तेषामेव माडभागानां सम्बन्धीनि वेदितव्यानि, द्वारशिखराणामुक्तत्वात् वक्ष्यमाणत्वाच, सव्वतवणिज्जमया उल्लोया, उल्लोकाउपरिभागाः सर्वतपनीयमयाः-सर्वात्मना / तपनीयरूपसुवर्णविशेषमयाः 'नाणामणिरयणजाल-पंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगग्ययभोमां' इति मणयो-मणिमया वंशा येषु तानि मणिमयवंशकानि लोहिताख्यानि-लोहिताख्यमयाः प्रतिवंशा येषु तानि लोहिताख्यप्रतिवंशकानि रजतारजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि प्राकृतत्वात्समासान्तः मणिवंशकानि लोहितख्य-प्रतिवशकानि रजतभूमानि नानामणिरत्नानि नानामणिरत्नमयानि जालपञ्जराणिगवाक्षापरपर्यायाणि येषु तानि तथा, पदानामनन्ययोपनिपातः प्राकृतत्यात्, 'अंकामया पक्खा पक्खबाहाओ' इति अङ्को रत्नविशेषस्तन्मयाः पक्षास्तदेकदेशभूताः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङ्कमय्यः आहे च जीवाभिगममूलटीकाकृत्-"अङ्कमयाः पक्षास्त-देकदेशभूता एवं पक्षबाहवोऽपि द्रष्टव्या''इति, जोइरसामया वंसा वंसकवेल्लुका य' इति ज्योतीरसं नाम रत्नंतन्मया वंशाः-महान्तः पृष्ठवंशा'वंसकवेल्लुया य इति महतां पृष्ठवंशानामुमयतस्तिर्यक् स्थाप्यमाना वंशाः कवेल्लुकानि प्रतीतानि 'रययामइओ पट्टिआओ' इति रजतमय्यः पट्टिकावंशानामुपरि कम्बास्थानीयाः 'जायरूव-मईओ ओहाडणीओ' जातरूपंसुवर्णविशेषस्तन्मय्यः 'ओहाडणीओ' अवघाटिन्यः आच्छादनहेतुकन्वोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणीकलिञ्चस्थानीयाः, 'वयरामईओ उवरि पञ्छणाओ' इति वज्रमय्यो-वज्ररत्नात्मिका अवघाटनीनामुपरि पुञ्छन्यो-निविडतराच्छादनहेतुश्लक्ष्णतरतृणविशेषस्थानीयाः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारेण "ओहाडणाग्रहणं महत् क्षुल्लकं च पुञ्छना' इति 'सव्वसेयरयया-मयाच्छायणे' इति सर्वश्वेतं रजतमयं पुञ्छनीनामुपरि कवेल्लुकानामध आच्छादनम् 'अंकमयकणगकूडतवणिज्जथूभियागा' अङ्कमयानि बाहुल्येनाङ्करत्नमयानि पक्ष 2 बाह्वादीनामङ्करत्नात्मकत्वात् कनकानि-कनकमयानि कूटानि-महान्ति शिखराणि येषां तानि कनककूटानि तपनीयानि तपनीयस्तूपिकानि, ततः पदत्रयस्यापि कर्मधारयः, एतेन यत् प्राक् सामान्येन उत्क्षिप्त 'सेयावरकणगथूभियागा' इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति / सम्प्रति तदेव श्वेतत्वमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-'सेया' श्वेतानि, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढयति-'संखतल-विमलनिम्मलदधिधणगोखीरफेणरययनिगरप्पगासा' इति विगतं मलं विमलं यत् शखतलंशंखस्योपरितनो भागो यश्च निर्मला दधिघनः-घनीभूतंदधि गोक्षीरफेनोरजतनिकरश्च तद्वत् प्रकाशः-प्रतिभासो येषां तानि तथा 'तिलगरयणद्धचंदचित्ता' इति तिलकरत्नानिपुण्ड्रविशेषास्तैरर्द्धचन्द्रैश्च चित्राणिनानारूपाणि तिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राणि, कृचित्-शंखतलविमलनिम्मलदहिघणगोखीरफेणरययनियरप्पगासद्धचंदचित्ताई' इति पाठः, तत्र पूर्ववत् पृथक् पृथक व्युत्पत्तिं कृत्वापश्चात् पदद्वसस्य 2 कर्मधारयः, नाणामणिदामालंकिया' इति नानामणयोनानामणिमयानि दामानिमालास्तैरलंकृतानि नानामणिदामालंकृतानि अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णानिश्लक्ष्णपुद्रलस्कन्धनिर्मापितानि 'तवणिज्जवालुयापत्थडा' इति तपनीयाःतपनीयमय्यो या वालुकाः सिकतास्तासां प्रस्तटः प्रस्तरो येषु तानि तथा Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ ११०६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम 'सुहफासा' इति सुखः-सुखहेतुः स्पर्शो येषु तानि सुखस्पर्शानि | चदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ सश्रीकरूपाणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत्। उका (विव उजोवेमाणाओ) विजुघणामिरियसूरदिप्पंततेयनैषेधिकीप्ररूपणायाह अहिययरसन्निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासादियाओ तेसिणंदाराणं उमओ पासे दुहओ निसीहियाए सोलस सोलस दरिसणिनाओ (पडिरूवाओ अभिरुवाओ) चिट्ठति। (सू०२७) चंदणकलसपरिवाडीओ पन्नत्ताओ, ते णं चंदणकलसा वर- तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन 'दुहतो' इति कमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदनकयचचागा | द्विधातो द्विप्रकारायां नैषेधिक्या, नैषेधिकीनिषीदनस्थानम्, आह च आविद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सव्वारयणामया अच्छा जाव जीवाभिगममूलटीकाकृत-"नषेधिकी निषीदनस्थान'' मिति, प्रत्येक पडिरूवा महया महया इंदकुंभसमाणा पन्नत्ता समणाउसो! तेसि षोडश 2 (कलश) परिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, ते च चन्दनकलशा वरकमलणंदाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस २णागदंत- पइट्ठाणा' इति वरं-प्रधानं यत्कमलं तत् प्रतिष्ठानम्-आधारो येषां ते परिवाडीओ पन्नत्ताओ, ते णं णागदंता मुत्ताजालंतरुसियहेम- दरकमलप्रतिष्ठानाः, यथा सुरभिवरवारिप्रतिपूर्णाश्चन्दन-कृतजालग-वक्खजालखिंखिणी (घंटा) जालपरिखित्ता अन्मुग्गया चर्चाकाः-चन्दनकृतोपरागाः आविद्धकण्ठेगुणा' इति आविद्धःअभिणिसिट्ठा तिरियसुसंपग्गहिया अहेपन्नगद्धरूवा पन्नगद्ध- आरोपितः कण्ठे गुणोरक्तसूत्ररूपो येषां ते आविद्धकण्ठेगुणाः, संठाणसंठिया सव्ववयरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया कण्ठेकालवत् सप्तम्या अलुक्, 'पउमुप्पलपिहाणा' इति पद्यमुत्पलं च महया गयदंतसमाणा पन्नत्ता समणाउसो ! तेसु णं णागदंतएसु यथायोगं पिधानं येषां तेपद्मोत्पलपिधानाः 'सव्वरयणामया अच्छा सहा बहवे किण्हसुत्तबद्धवट्ट-वग्धारितमल्लदामकलावा णीलसुत्त० लण्हा' इत्यादि यावत् 'पडिरूवगा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् लोहितसु० हालिहसु० सुकिल्लसुत्तवट्टवग्धारितमल्लदाम- 'महया' इति अतिशयेनमहान्तःकुम्भानामिन्द्रइन्द्रकुम्भोराजदन्तादिकलावा, ते णंदामा तवणिज्जलंबूसगा सुवन्नमयरमंडियगाजाव दर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः महाँश्चासौ इन्द्रकुम्भश्च तस्य समाना कन्नमणणुिव्युत्तिकरेणं सद्देणं ते पदेसे सव्वओ समंता आपूरे- महेन्द्रकुम्भमसमाना:--महाकलशप्रमाणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे माणा 2 सिरीए अईव 2 उवसोभेमाणा चिट्ठति / तेसि णं आयुष्मन् / 'तेसि णं दाराण' मिति तेषां द्वाराणां प्रत्येकंमुभयोः णागदंताणं उवरिं अन्नाओ सोलस नागदंतपरिवाडीओ पण्ण- पार्श्वयोरेकैकनैषधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां प्रत्येकं षोडश त्ताओ, ते णं णागदंता तं चेव जाव महता 2 गयदंतसमाणा षोडश नागदन्तपरिपाठ्यः प्रज्ञप्ताः, नागदन्ता-अड्कुटकाः, ते च पन्नत्ता समणाउसो! तेसुणं णागदंतएसुबहवे रययामया सिक्कगा नागदन्ताः 'मुत्ताजालंतरुसि यहेमजालगवक्खजालखिंखिणि (घंटा) पन्नत्ता, तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ जालपरिक्खित्ता' इति-मुक्ताजालानामन्तरेषु यानि उत्सृतानि-लम्बधूवघडीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवर- मानानि हेमजालानि-सुवर्णमयदामसमूहा यानि च गवाक्षजालानि कुंदुरुकतुरुकधूवमघमघंतगंधुद्धयामिरामाओ सुगंधवरगंधि- गवाक्षाकृतिरत्नविशेषमालासमूहा यानि च किङ्किणीघण्टाजालानियातो गंधवष्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं घाणमण- क्षुद्रधण्टासमूहास्तैः परिक्षिप्ताः-सर्वतो व्याप्ताः अब्भुग्गया' इति णिव्वुइकरेणं गंधेणं ते पदेसे सवओ समंता जाव चिट्ठति। अभिमुखमुद्गताः अग्रिमभागे मनाक् उन्नता इति भावः अभिनिसिट्ठा' तेसिणंदाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस इति अभिमुखंबहिर्भागाभिमुखं निस्पृष्टाः निर्गता अभिनिस्पृष्ट सालभंजियापरिवाडीओ पन्नत्ताओ, ताओ णं सालमंजियाओ | तिरियसुसंपरिग्गहिया' इति तिर्यक् भित्तिप्रदेशैः सुष्टु-अतिशयेन लीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुअलंकियाओ णाणाविहरागव- सम्यक्-मनागप्यचलनेन परिगृहीताः सुसम्परिगृहीताः, 'अहेपन्नसणाओ गाणामल्लपिणद्धाओ मुहिगिज्झसुमज्झाओ ... गद्धरूवा' इति अधः-अधस्तनं यत् पन्नगस्य सर्पस्या तस्येव आमेलगजमलजुयलवट्टियअब्भुन्नयपीणरइयसंठियपीवरपओह- रूपम्-आकारो येषां ते अधः-पन्नगार्द्धरूपाः अधःपन्नगार्द्धवदतिसरला राओ रतावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्थलक्खण- दीर्घाश्चेति भावः। एतदेवव्याचष्टे-'पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः' अधः संवेल्लियग्गसिरयाओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ पन्नगार्द्धसंस्थानाः 'सव्ववयरामया' सर्वात्मना वज्रमया 'अच्छा वामहत्थग्गहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकइक्खचिहिएणं सण्हा' इत्यारभ्य 'जाव पडिरूवा' इति विशेषणजातं प्राग्वत् 'महया' लूसमाणीओ विव चक्खुल्लोयणलेसेहिं अनमन्नं खेलमाणीओ इति अंतिशयेन महान्तो गजदन्तसमानागजदन्ताकाराः प्रज्ञप्ता हे (विव) पुढविपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चन्दाणणाओ श्रमण ! हे आयुष्मन् ! तेसुणं णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धा' तेषु Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1107- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम नागदन्तकेषु बहवःकुष्णसूत्रबद्धा ‘वग्घारिय' इति अव लम्बिता माल्यदामकलापाः-पुष्पमालासमूहा बहवो नीलसूत्रावलम्बितमाल्यदामकलापा एवं लोहितहारिद्रशुक्लसूत्रबद्धा अपि वाच्याः। तेणं दामा' इत्यादि, तानिदामानि, 'तवणिजलंबूसगा' इति तपनीयः-तपनीयमयो लम्बूसगोदाम्नामग्रिमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि यथा, तपनीयलम्बूसकानि, 'सुवन्नपयरगमंडिया' इति पार्श्वतः सामस्त्येन सुवर्णप्रतरेणसुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरमण्डितानि 'नाणाविहमणिरयणविविहहारउवसोहियसमुदया' इति नानारूपाणं मणीनां रत्नानां च विविधा विचित्रवर्णा हारा अष्टादशसरिका अर्द्धहारा नवसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा 'जाव सिरीए अईव 2 उवसोभेमाणा चिट्ठति' इति अत्र यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः' इसिमण्णोण्णमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदाय मंदायं एइज्जमाणा पइज्ज० पलंब० झंझमाणा ओरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे सव्वओसमंता आपरेमाणां२ सिरीए अईव 3 उवसोभेमाणा चिट्ठति' एतच्च प्रागेव यानविमानवर्णने व्याख्यातमिति न भूयो व्याख्यायते। 'तेसि णं णागदंताण' मित्यादि, तेषां नागदन्तानामुपरि प्रत्येकमन्याः षोडश षोडश नागदन्तपरिपाठ्यः प्रज्ञप्ताः ते च नागदन्ता यावत्करणात्-'मुत्ताजालंतरुसियहेमजालगवक्खजालखिंखिणिघंटाजालपरिक्खित्ता इत्यादि प्रागुक्तं सर्वं द्रष्टव्यं यावत् गजदन्तासमानाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'तेसु णं णागदंतएसु' इत्यादि, तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु सिक्ककेपु बहवो बह्यो वैडूर्यमय्यो वैडूर्यरत्नात्मिका धूपघटिकाः 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघभघते' त्यादि प्राग्वत् नवरं 'घाणमणनिव्वुइकरेण' मिति घ्राणेन्द्रियमनोनिवृतिकरणे / 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन द्विधातो द्विप्रकारायां नषेधिक्यां षोडश षोडश शालभञ्जिकापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, ताश्च शालभञ्जिका लीलया ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिता लीलास्थिताः, 'सुपइडियाओ' इति सुमनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः 'सुअलंकियाओ' सुष्टु-अतिशयेन रमणीयतया अलकृताः न्वलंकृताः 'णाणाविहरागवसणाओ' इति नानाविधोनानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि तानि वसनानि-वस्वाणि यासां तास्तथा 'नानामल्लपिनद्धाओ' इति नानारूपाणि माल्यानिपुष्पाणि पिनद्धानि आविद्धानि यासांता नानामाल्यपिनद्धाः क्तान्तस्यपरनिपातः सुखादिदर्शनात् 'मुट्ठिगिज्झसुमज्झाओ' इति मुष्टिग्राह्य सुष्टुशोभनं मध्यंमध्यभागो यासां तास्तथा, 'आमेलगजमलजुगलवट्टिय-अब्भुन्नपीणरइसठियपीवरपओहराओ' पीनंपीवरं रचितं संस्थितं-संस्थान यकाभ्यां तौ पीनरचितसंस्थानौ आमेलकः-आपीडः; शेखरक इत्यर्थः, तस्य यमलयुगलं समश्रेणिकं ययुगलं तद्वत् वर्तितौ बद्धस्वभावावुपचितकठिनभावाविति भावः अभ्युन्नतौ पीनरचितसंस्था नौ च पयोधरौ यासां तास्तथा, 'रत्तावंगाओ' इति रक्तोऽपाङ्गोनयनोपान्तरूपो यासां तास्तथा, 'असियकेसिओ' इति असिताः-कृष्णाः केशा यासां ता असितकेश्यः, एतदेव सविशेषमाचष्टे-'मिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ' मृदवः-कोमला विशदा निर्मलाः प्रशस्तानि शोभनानि अस्फुटिताग्रत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः 'संवेल्लित संवृतमग्रं येषां ते संवेल्लिताग्राः शिरोजाः केशा यासांता मृदुविशदप्रशस्तलक्षण-संवेल्लिलाग्रशिरोजाः, 'ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ' ईषत्-मनाक् अशोकवरपादपे समुपस्थिताः-आश्रिता ईषदशोकवरपादप-समुपस्थितास्तथा 'वाहमत्थग्गहियग्गसालाओ' वामहस्तेन गृहीतमग्रं शालायाः-शाखायाः अर्थादशोकपादस्य यकाभिस्ता वामहस्त-गृहीताप्रशालाः 'ईसि अद्धच्छिकडक्खचिट्ठिएणं लूसमाणीओ विवे' ति ईषत्-मनाक् अर्द्ध-तिर्यक् वलितमक्षि येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेसुतैर्मुष्णन्त्य इव सुरजनानां मनांसि 'चक्खुल्लोयणलेसेहि य अन्नमन्नं खिज्जमाणीओ विव' अन्योऽन्यपरस्परं चक्षुषां लोकनेन-आलोकनेन ये लेशा:-संश्लेषास्तैः खिद्यमाना इव, किमुक्त भवति?-एवंमानस्तिर्यम्वलिताक्षिकटाक्षः परस्स्परमवलोकमाना अवतिष्ठन्ति, यथा नूनं परस्परसौभाग्यसहनतस्तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षः परस्परं खिद्यन्त इवेति, 'पुढविपरिणामाओ' इति पृथिवीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपगता विमानवत् चंदाणणाओ इति चन्द्र इवाननं मुखं यासां तास्तथा 'चंदविलासिणीओ' इति चन्द्रवत् मनोहरं विलसन्तीत्येवंशीलाश्चन्द्रविलासिन्यः 'चंदद्धसमनिडालाओ' इति चन्द्रार्द्धसमम्अष्टमीचन्द्रसमान ललाट यासांतास्तथा 'चंदाहियसो मदंसणाओ' इति चन्द्रादपि अधिकं सोम-सुभगकान्तिमत् दर्शनम्-आकारो यासां तास्तथा उल्का इव उद्योतमानाः "विजुधणमरीचिसूरदिप्पंततेयअहिययरसन्निकासातो' इति विद्युतो ये घनाबहलतरा मरीचस्तेभ्यो यच सूर्यस्य दीप्मानं दीप्तंतेजस्तस्मादपि अधिकतरः सन्निकाशः-प्रकाशो यासांतास्तथा, "सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ पडिरूवाओ अभिरुवाओ चिट्ठति इति प्राग्वत्। तेसिणंदाराणं उभयो पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस जालकडगपरिवाडीओ पन्नताओ, ते णं जालकडगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिणं दाराणं उभयो पासे दुहओ निसीहियाए सोलस सोलस घंटापरिवाडीओ पन्नत्ताओ, तासि णं घंटाणं इमेयारूवे वन्नावासे पन्नत्ते, तं जहाजंबूणयामईओ घंटाओ वयरामयाओ लालाओ णाणाामणिमया घंटापासा तवणिजामझ्याओ संखलाओ रययामयाओ रज्जूतो, ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुहिस्सराओ कुंचस्सराओ णंदिस्सराओ णंदिघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सुस्सरणिग्घोसाओ उरालेणं मणुनेणं मणहरेणं कन्नमणनिवुइकरेणं सहेणंते पदेसे सव्वओ समंता आपूरेमाणीओ 20 जाव चिट्ठति / Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1105 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम तेसिणंदाराणं उभओ पासे दुहओ णिसीहियाए सोलससोलस दोवारंगा णाणामणिमया मंडला अणुग्घसितनिम्मलाते छायाते वणमालापरिवाडीओ पन्नत्ताओ,ताओणं वणमालाओणाणाम- समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महया अद्धकायसमणा पन्नत्ता णिमयदुमलकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरि-भुजमाणा समणाउसो ! तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो वइरनामथाला सोहंतसस्सिरीयाओ पासाईयाओ०४।तेसिणंदाराणं उभओ पण्णत्ता अच्छतिच्छडियसालितंदुलणहसंदिट्ठपडिपुन्ना इव पासे दुहओ णिसीहियाए सोलस सोलस 2 पगंठगा पन्नता, ते | चिट्ठतिसव्वजंबूणयमयाजावपडिरूवा महया महया रहचकणं पगंठगा अङ्कइजाई जोयणसयाइं आयामक्खिंभेणं पणवीसं वालसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो जोयणसयं बाहल्लेणं सव्ववयरामया अच्छा ०जाव पडिरूवा। दो पातीओ,ताओणं पाईओ अच्छोदगपरिहत्थाओ णाणामतेसिणं पगंठगाणं उवरि पत्तेयं 2 पासायवडेंसगा पन्नत्ता,तेणं णिपंचवन्नस्स फलहरियगस्स बहुपडिपुत्राओ विव चिट्ठति पासायवडेंसगा अढाइजाई उडं उच्चत्तेणं पणवीसं जोयणसयं सव्वरयणामईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ महया महया विक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसिअपहसिया इव विविहमणिरयण गोकलिंजरचकसमाणीओ पन्नत्ताओ समणाउसो / तेसि णं भत्तिचित्ता वाउद्धयविजयवेजयंतपडागछत्ताइछत्तकलिया तुंगा तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइट्ठा पन्नत्ता णाणाविहभंडविरइया गगणतलमणुलिहंतसिहरा जालंतरयणपंजरुम्मिलिय व्व इव चिट्ठति सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिणं मणिकणगथूभियागा वियसियसयवत्तपोंडरीया तिलगरयणद्ध तोरणाणं पुरओ दो दो मणगुलियाओ पन्नताओ, तासिणं मणगुचंदचित्ता णाणामणिदामालंकिया अंतो बहिं च सण्हा तवणिज्ज लियासु बहवे सुवन्नरुप्पमया फलगा पन्नत्ता, तेसुणं सुवन्नरुप्पवालुयापत्थडासुहफासा सस्सिरीयरूवा पासादियादरिसणिज्जा मएसु फलगेसु बहवे वयरामया नागदंतया पन्नत्ता, तेसु णं जावदामा उवरिं पगंठगाणं झया छत्ताइछत्ता। तेसिणंदाराणं वयरामएसुणागदंतएसुबहवे वयरामया सिक्कगा पन्नत्ता, तेसुणं उभओ पासे सोलस सोलस तोरणा पन्नत्ता, णाणामणिमया वयरामएसु सिक्कगेसु किण्हसुत्तसिक्कगवच्छिताणीलसुत्तसिक्कगणाणामणिमएसुखंभेसु उवणिविट्ठसन्निविट्ठाजावपउमहत्थगा, वच्छियालोहियसुत्तसिक्कगवच्छिया हालिहसुत्तसिक्कगवच्छिया तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सालभंजियाओ पन्नत्ताओ, जहा सुक्किल्लसुत्तसिक्कगवच्छिया बहवे वायकरगा पन्नत्ता सवे हेट्ठा तहेव तेसि णं तोरणाणं पुरओ नागंदता पन्नचा, जहा हेहा वेरुलियमया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिणं तोरणाणं पुरओ जाव दामा, तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो हयसंघाडा दो दो चित्ता रयणकरंडगापण्णत्ता, से जहाणामए रन्नो चाउरंतगयसंघाडानरसंघाडा किन्नरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरग चक्कवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडए वेरुलियमणिफलिहपडलसंघाडा गंधव्वसंघाडा उसमसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, एवं वीही पंतीओ मिहुणाई। तेसिणं तोरणाणं पचोयडे साते पहाते ते पतेसे सव्वतोसमंताओभासति उज्जोवेति तवति भासति एवमेव ते वि चित्ता रयणकरंडगा साते पभाते ते पुरओ दो दो पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवाओ। तेसिणं पएसे सव्वओसमंता ओभासंति उजोर्वेति तवंति पगासंति, तेसि तोरणाणं पुरओ दो दो अक्खय (दिसा) सोवत्थिया पन्नत्ता, / णं तोरणाणं पुरओ दो दो हयकंठा गयकंठा नरकंठा किन्नरकंठा सव्वरयणामया अच्छाजाव पडिरूवा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ किंपुरिसकंठा महोरगकंठा गंधव्वकंठगा उसभकंठा सव्ववयदो दो चंदणकलसा पन्नत्ता, तेणं चंदणकलसावरकमलपइहाणा रामया अच्छा०जावपडिरूवा,तेसुणं हयकंठएसुजाव उसमतहेव / तेसि णं तोरणाणं पुरतो दो दो भिंगारा पन्नत्ता, ते णं कंठएसु दो दो पुप्फचंगेरीओ (मल्लचंगेरीओ) चुम्नचंगेभिंगारा वरकमलपइट्ठाणा जाव महया मत्तगयमुहाऽऽकिति रीओ (गंधचंगेरीओ) वत्थचंगेरीओ आभरणचंगेरीओ सिद्धत्थसमाणा पन्नत्ता समणाउसो ! तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ पन्नत्ताओ सव्वरय-णामयाओ आयंसा पन्नत्ता, तेसिणं आयंसाणं इमेयारूवे वन्नावासे पन्नत्ते, अच्छाओ०जावपडिरूवाओ, तासुणं पुप्फचंगेरिआसु जाव तं जहा-तवणिज्जमया पगंठया वेरुलियमया सुरया वइरामया लोमहत्थचंगेरीसु दो दो पुप्फपडागाई जाव लोमहत्थएड Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1106 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम लगाइं सटारयणामयाइं अच्छाई जाव पडिरूवाइं / तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो सीहासणा पन्नत्ता, तेसिणं सीहासणाणं वन्नओजाव दामा, तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो रुप्पमया छत्ता पन्नत्ता, ते णं छत्ता वेरुलियविमलदंडा जंबूणयकनिया वइरसंधी मुत्ताजालपरिगया अट्ठसहस्सवरकचंणसलागा दद्दरमलयसुगंधी सव्वोउयसुरभी सीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो चामराओ पन्नत्ताओ, ताओ णं चामराओ (चंदप्पवभवेरुलियवरनानामणिरयणखचियचित्तदण्डाओ) णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिजुञ्जलविचित्तदंडाओ वल्लियाओ संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासातो सुहुमरययदीहवालातो सब्रयणामयाओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ / तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो तेल्लसमुग्गा कोट्ठसमुग्गा पत्तसमुग्गा चोयगसमुग्गा तगरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालस० हिंगुलयस० मणोसिलासमुग्गा अंजणसमुग्गा सय्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। (सू०२८) 'तेसि ण' मित्यादि तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां षोडश षोडशजालकटकाः प्रज्ञप्ताः, जालकटको-जालककीर्णो रम्यसंस्थानः प्रदेशविशेषः, ते च जालकटकाः 'सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति प्राग्वत्। 'तेसिण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोर्द्विधातो नैषेधिक्यां षोडशघण्टापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, तासांच घण्टानामयमेतद्रूपो वर्णावासोवर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जम्बूनदमय्यो घण्टा वज्रमय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापााः तपनीयमय्यः शङ्खला यासु ता अवलाम्बतास्तिष्ठन्ति रजतमय्यो रजवः 'ताओणं घण्टाओ' इत्यादि, ताश्च घण्टा ओघेनप्रवाहेण स्वरोयासांता ओघस्वरा मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यासांता मेघस्वरा हसस्येव मधुरः स्वरो यासांता हंसस्वराः, एवं क्रौञ्चस्वराः सिंहस्येव च प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां ताः सिंहस्वराः एव दुन्दुभिस्वरा द्वादशविधतूर्यसङ्घातो नन्दिः नन्दिस्वराः नन्दिवत् घोषो हादो यासांता नन्दिघोषाः मञ्जुः-प्रियः स्वरो यासांता मञ्जुस्वरा, एय 'मञ्जुघोषाः किं बहुना ? सुस्वराः सुस्वरघोषाः, 'उरालेण' मित्यादि प्राग्वत् / 'तेसि ण मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्विधातो नैषेधिक्यां षोडश षोडश वनमालापरिपाट्यः प्रज्ञप्ताः, ताश्च वनमाला नानाद्रुमाणां नानालतानां च यानि किशलयानि ये च पल्लवास्तैः समाकुलाः सम्मिश्राः 'छप्पयपरिभुजमाणा सोभन्तसस्सिरीया' इति षट्पदैः परिभुज्यमानाः सत्यः शोभमानाः षट्पदपरिभुज्यमानशोभमाना-अत एव सश्रीकाः पासाईया इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत्। 'तेसिणंदाराण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैक नैषेधिकीभावेन या द्विधा नैषेधिकी तस्यां षोडश षोडश प्रकण्ठकाः प्रज्ञप्ताः, प्रकण्ठो नाम पीठविशेषः, आह चजीवाभिगममूलटीकाकार:'प्रकण्ठौ पीठविशेषा' विति, ते च प्रकण्ठकाः प्रत्येकमर्द्धतृतीयानि योजनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां पञ्चविंशंपञ्चविंशत्यधिकं योजनशतं बाहल्योनपिण्डाभावेन 'सव्ववयरामया' इति सर्वात्मना ते प्रकण्ठकाः वज्रमया-वज्ररत्नमया, 'अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत्, 'तेसि णं पगंठगाण' मित्यादि, तेषां प्रकण्ठकानाम् उपरि प्रत्येक प्रत्येकम्-इह एकं प्रति प्रत्येकमित्याभिमुखे वर्तमानः प्रतिशब्दः समस्यते, ततो वीप्साविवक्षायां द्विर्वचनं, प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रासादावतंसका नाम प्रासाद-विशेषाः, उक्तंचजीवाभिगममूलटीकायां"प्रासादावतंसको-प्रासादविशेषा''विति, ते च प्रासादावतंसका अर्धतृतीयानि योजन-शतानि ऊर्ध्वम् उचैस्त्वेन पञ्चविंशं योजनशतं विष्कम्भेन, "अब्भुग्गय-मूसियपहसियाविव' अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गता उत्सृताः-प्रबलतया सर्वासु दिक्षु प्रसृता या प्रभा तया सिता इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव ते अभ्युद्गता निरालम्बाः तिष्ठन्तीति भावः, "विविहमणिरयणभत्तिचित्ता' विविधाअनेकप्रकारा ये मणयः-चन्द्रकान्तादयो यानि च रत्नानिकर्केतनादीनि तेषां भक्तिभिः विच्छित्तिविशेषैश्चित्रानानारूपाः आश्चर्यवन्तो वा नानाविधमणिरत्नभक्तिचित्राः, “वाउट्यविजयवेजयंतीपडागछत्ताइच्छत्तकलिया' वातोद्भूता-वायुकम्पिता विजयः अभ्युदयस्तत्सूचिका वैजयन्त्यभिधानायाः पताकाः, अथवा-विजया इति वैजयन्तीनांपार्श्वकर्णिका उच्यन्ते तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः, पताकास्ता एव विजयवर्जिता छत्रातिछत्राणि-उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिच्छत्रकलिताः, तुङ्गाउचा उच्चैस्त्वेनार्द्धतृतीययोजनशतप्रमाणत्वात् अत एव 'गगनतलमणुलिहंतसिहरा' इति गगनतलम्-अम्बरतलम् अनुलिखन्ति-अभिलङ्घयन्ति शिखराणि येषां ते तथा, जालानि-जालकानि तानि च भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभानिमित्तं रत्नानि येषु ते जालान्तररत्नाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, तथा पञ्जरात् उन्मीलिता इव बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिता इव यथा किल किमपि वस्तु पञ्जरात् वंशादिमयाच्छादनविशेषात् बहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायत्वात् शोभते एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भावः, तथा मणिकनकानिमणिक नकमय्यः स्तूपिका:-शिखराणि येषां ते मणिकनकस्तूपिकाः, तथा विकसितानि यानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि चद्वारादौ प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरत्नानिभित्त्यादिषु पुण्ड्रविशेषा अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तैश्चित्राः-तथा नानारूपा वा विकसितशतपत्रपुण्डरीकतिलकरत्नार्द्धचन्द्रचित्राः, तथा नाना-अनेकरूपाणि यानि मणिदाभानि-मणिमय-पुष्पमालास्तैरल कृतानिशोभितानि नानामणिदामा-लङ्कृतानितथा अन्तर्बहिश्चश्लक्ष्णामश्रृणाः, तथातप Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम १११०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम नीयं-सुवर्णविशेषस्तन्मय्या दालुकायाः प्रस्तट:-प्रस्तारा येषु ते / प्रज्ञप्ताः, तेसि ण मित्यादि तेषा तोरणानां पुरतो द्वौ द्वावादर्शको प्रज्ञप्ती तपनीयवालुकाप्रस्तटाः 'सुहफासा सरिस्सरीयरूवा पासाईया' इत्यादि तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूपो वर्णावासोवर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथाप्राग्वत्तेषां च प्रासादावतंसकानामन्तभूमिवर्णनमुपयुल्लोकवर्णनं तपनीयमयाः प्रकण्ठकाः-पीठविशेषाः, अङ्कमयानि-अङ्करत्नमयानि सिंहासनवर्णनमुपरिविजयदूष्यवर्णनं वज्राङ्कुशवर्णनं मुक्तादामवर्णन मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसम्भूतिः अणोग्घसियनिम्मलाए' इति अवधच यथा प्राक् यानविमाने भावितं तथा भावनीयम्। 'तेसि ण' मित्यादि, र्षणमवधर्षितं भावे क्तप्रत्ययः तस्य निर्मलता--अवघर्षितनिर्मलता, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोरेकैकनषेधिकीभावेन या द्विधा भूत्यादिना निर्मार्जनमित्यर्थः अवघर्षित स्थाभावोऽनवघर्षितः तेन नैषेधिकी तस्यां षोडश षोडश तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तानि च तोरणानि निर्मला तया अनवघर्षितनिर्मलया छायया समनुबद्धायुक्ता नानामणिमयनीत्यादि तोरणवर्णनं यानविमानमिव निरवशेष भावनीयम् 'चन्दमण्डल-पडिनिकासा' इति चन्द्रमण्डल सदृशाः 'महया महया' 'तेसिणं तोरणाणं पुरओ' इत्यादि, तेषां तोरणानापं पुरतः प्रत्येकं द्वे द्वे अतिशयेन महान्तोऽर्द्धकायसमानाः-कायार्द्धप्रमाणाः प्रज्ञप्ता हे श्रमण ! शालभजिके, शालभञ्जिकावर्णनं प्राग्वत्, 'तेसि // ' मित्यादि, तेषां हे आयुष्मन् ! 'तेसिण' मित्यादि, तेषां तोरणानांपुरतो द्वे द्वे वज्रनाभेतोरणानां पुरतो द्वौ द्रौ नागदन्तकौ प्रज्ञप्तौ, तेषां च नागदन्तकानां वर्णन वज्रमयो नाभिर्ययोस्तेवज्रनाभे स्थाले प्रज्ञप्ते तानि च स्थालानि तिष्ठन्ति, यथाऽधस्तादनन्तरमुक्तं तथा वक्तव्यं, नवरमत्रोपरि नागदन्तका न 'अच्छतिच्छडियतंदुलनहसंदट्ठपडिपुन्ना इव चिट्ठति' अच्छा-निर्मलाः वक्तव्या अभावात् 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ शुद्धाःस्फटिकवत् त्रिच्छटिताः-त्रीन् वारान् छटिताः अत एव हयसघाटौ, सङ्घाटशब्दो युग्मवाची यथासाधुसंघाट इत्यत्र, ततोद्वे द्वे 'नखसन्दष्टाः' नखाः-नखिकाः सन्दष्टा मुशलादिभिः छटिता येषां ते हययुग्मे इत्यर्थः, एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभसंधाटा तथा सुखादिदर्शनात् क्तान्तस्यपरनिपातः अच्छस्त्रिच्छटितैः शालि तण्डुलै खसन्दष्टः परिपूर्णाः, पृथ्वीपरिणामरूपाणि तानितथा केवलअपि वाच्याः, एते च कथम्भूताः? इत्याह-'सव्वरयणामया अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत्, यथा चामीषां हयादीनामष्टानां संघाटा मेवमाकाराणीत्युपमा, तथा चाह-सव्वजम्बूणयमया' सर्वात्मना जम्बूनदमयानि 'अच्छा सण्हा' इत्यादि प्राग्वत् 'महया महया इति उक्तास्तथा पङ्क्तयोऽपि वीथयोऽपि मिथुनकानि च वाच्यनि, तत्र अतिशयेन महान्ति रथचक्रसमानानि प्रज्ञातानि हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! संघाटाः- समानलिङ्गयुग्मरूपा पुष्पावकीर्णकाश्च एकदिग्व्यवस्थिताः 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे ‘पाईओ' इति पात्र्यौ श्रेणिः-पतिरुभयोः पाश्चयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथिः प्रज्ञप्ते, ताश्च पात्र्यः 'सोच्छोदगपडिहत्थाओ' इति स्वच्छपानीयस्त्रीपुरुषगुग्भं मिथुनकं 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वे परिपूर्णाः 'नाणाविहस्स फलहरियस्स बहुपडिपुन्नाविवे' ति अत्र षष्ठी पद्मलते यावत्करणात्-द्वेद्वे नागलते द्वे अशोकलते द्वे द्वे चम्पकलते द्वेद्वे तृतीयार्थे 'बहु पडिपुन्ने ति चैकवचनं प्राकृतत्वात्, नानावधैः फलचूतलतेद्वेद्वेवासन्तीलतेद्वेद्वेकुन्दलतेद्वेद्वेअतिमुक्तलते इति परिगृह्यते, हरितैर्हरितफलैर्बहुप्रभूतं प्रतिपूर्णा इव तिष्ठन्ति न खलु तानि फलानि द्वे द्वे श्यामलते, ताश्च कथम्भूता इत्याह 'णिचं कुसुमियाओ' इत्यादि किन्तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपागताः पृथ्वीपरिणामास्ततः उपमानयावत्करणात्-'निचं मउलियाओ निचं लवइयाओ निचं थवइयाओ मिति, 'सव्वरयणामईओ' इत्यादि प्राग्वत्, 'महये' ति अतिशयेन निचं गुच्छियाओ निचं जमलियाओ निचं जुयलियाओ नियं विनमियाओ महत्यो गोकलिञ्चगचक्रसमानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'तेसि निचं पणमियाओ निचं सुविभत्तपिण्डमञ्ज-रिवडिंसगधरीओ निचं ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ सुप्रतिष्ठको-आधारविशेषौ कु सुमियमउलियलवइयथवइयगुलइय-गोच्छियविणमिय प्रज्ञप्तौ, ते च सुप्रतिष्ठकाः सुसौषधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पञ्चवणः पणमियसुविभत्तपडिमञ्जरिवडिंसगधरीओ' इति परिगृह्यते, अस्य प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, उपमाभावना प्राग्वत्, व्याख्यानं प्राग्वत् पुनः कथम्भूता इत्याह-'सव्वरयणामया ०जाव 'सव्वरयणामईओ' इत्यादि तथैव, 'तेसि ण' मित्यादि तेषां तोरणानां पडिरूआ' इति, अत्रापि यावत्करणात्-'अच्छा सण्हा' इत्यादि पुरतोद्वे द्वे मनोगुलिका नाम पीठिका उक्तं च जीवाभिगममूलटीकायाम्विशेषणसमूहपरिग्रहः, सच प्राग्वद्भावनीयः, 'तेसिण' मित्यादि, तेषां "मनोगुलिका नाम पीठिके" ति, ताश्च मनोगुलिकाः सर्वात्मना तोरणानां पुरतः प्रत्येक द्वौ द्वौ दिक्सौवस्तिकौदिक्प्रोक्षको ते च सर्वे वैडूर्यमय्यः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् / 'तासु णं मणोगुलियासु बहवे' जाम्बूनदमयाः, क्वचित्पाठः-'सव्वरयणामया अच्छा' इत्यादि, प्राग्वत् इत्यादि तासु मनोगुलिकासु सुवर्णमयानि रूप्यमयानि च फलकानि 'तेसिण' मित्यादि, द्वौ द्वौ चन्दनकलशौ,प्रज्ञप्ती, वर्णकः चन्दकलशानां प्रज्ञप्तानि, तेषु सुवर्णरूप्यमयेषु फलकेषु बहवो वज्रमया नागदन्तकाः'वरकमलपइट्ठाणा' इत्यादिरूपः सर्वः प्राक्तनो वक्तव्यः, 'तेसि ण' अकुटकाः (सिवकेषु) तेषु च नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि मित्यादि, द्वौ द्वौ भृङ्गारी, तेषामपि कलशानामिव वर्णको वक्तव्यो, नवरं सिक्ककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु च रजतमयेषु बहवो वातकरका पर्यन्ते' महयामत्तगयमहामुहागिइसमाणा पन्नत्ता समणाउसो ! इति जलशून्याः करका प्रज्ञप्ताः-तद्यथा 'किण्हसुत्ते त्यादि गवच्छम्वक्तव्यम् 'मत्तगयमहामुहागिइसमाणा' इति मत्तो यो गजस्तस्य महत्- आच्छादनं गवच्छा सञ्जाता एष्विति गवच्छिकाः (ताः) अतिविशालयत् मुखं तस्याकृति-आकारस्तत्समानाः-तत्सदृशाः / कृष्णसूत्रमयैर्गवच्छिकै (तै) रितिगम्यते, सिक्केषुगवच्छिताः कृष्णसूत्र Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1111- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम सिक्कगगवच्छिता एवं नीलसूत्रसिक्कगगवच्छिता इत्याद्यपि भावनीयं, | इति 'शङ्ख' प्रतीतः अङ्कोरत्नविशेषः "कुंदे'ति कुन्दपुष्पं दकरजते च वातकरकाः सर्वात्मना वैडूर्यमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसि उदककणाः अमृतमथितफे णपुजः-क्षीरोदजलमथनसमुत्थः गं' तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चित्रौ-आश्चर्यभूतौ रत्नकरण्डको प्रज्ञप्ती फेनपुञ्जस्तेषामिव सन्निकाशः-प्रभा येषांतानि तथा, 'अच्छा इत्यादि 'से जहा नाम ए इत्यादि, स यथा नाम राज्ञश्यतुरन्तचक्रवर्तिनः-चतुर्दा प्राग्वत् / 'तेसि णं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ पूर्वापरदक्षिणोत्तररूपेषु अन्तेषु-पृथिवीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्तितुंशीलं यस्य तैलसमुद्कौ-सुगन्धितैलाधारविशेषौ, उक्तं च जीवाभिगममूलतस्यैव चित्रः-आश्चर्यभूतो नानामणिमयत्वेन नानावर्णो वा 'वेरुलिय- टीकाकारेण-'तैलसमुद्रकौ-सुगन्धितैलाधारौ' एवं कोष्ठादिसमुद्रका नाणामणिफलियपडलपच्चोयडे' इति बाहुल्येन वैडूयमणिय-मयः अपि वाच्याः, अत्र संग्रहणिगाथा--'तिल्ले कोट्ठसमुग्गे, पत्ते चोए य तगर 'फलिहपडलपनोयडे' इति स्फटिकपटलावच्छादितः 'साए पभाए' एला य / ' हरियाले हिंगुलए, मणोसिला अंजणसमुग्गा / / 1 / / ' इत्यादि स यथा राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् सर्वतः 'सव्वरयणामया इति एते सर्वेऽपि सर्वात्मना रत्नमया 'अच्छा' इत्यादि सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन अवभासयति एतदेव पर्यायत्रयेण प्राग्वत्। व्याचष्टे-उद्योतयति तापयति प्रभासयति एवमेवे त्यादि सुगम 'तेसि सूरियाणं विमाणे एगमेगे दारे अहसयं चक्कज्झयाणं अहसयं णं तोरणाणं' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हयकण्ठप्रमाणौ मिगज्झयाणं गरुडज्झयाणं छत्तच्छयाणं पिच्छज्झयाणं रत्नविशेषौ एवं गजनरकिन्नरकिंपुरुषमहोरगगन्धर्ववृषभकण्ठा अपि सउणिज्झयाणं सीहज्झयाणं उसमज्झयाणं अट्ठसयं सेयाणं वाच्याः, उक्तं च जीवाभिगममूलटीकाकारेण-"हयकण्ठौ-हयकण्ठ- चउविसाणाणं नागवरकेऊणं एवमेव सपुवावरेणं सूरियाभे प्रमाणौ रत्नविशेषौ एवं सर्वेऽपि कण्ठा वाच्या इति, तथा चाह- विमाणे एगमेगे दारे असीयं केउसहस्सं भवतीति मक्खायं, 'सव्वरयणामया' इति, सर्वे रत्नमया-रत्नविशेषरूपा 'अच्छा' इत्यादि सूरियामे विमाणे पण्णढेि पण्णढि भोमा पन्नत्ता,तेसिणं भोमाणं प्राग्वत्। 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ पुष्पचङ्गो भूमिभागा उल्लोया य भाणियव्वा, तेसि णं भोमाणं च प्रज्ञप्ते एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलो-महस्तकचङ्गेर्योऽपि बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं पत्तेयं सीहासणे, सीहासणवन्नतो वक्तव्याः, एताश्च सर्वाअपि सर्वात्मना रत्नमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् सपरिवारो, अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पन्नत्ता। एवं पुष्पादीनामष्टानां पटलकान्यपि द्विद्विस्ख्याकानि वाच्यानि, 'तेसि तेसिणंदाराणं उत्तमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उक्सोमिया, णं तोरणाण' मित्यादि, तेषां तोरणानां पुरतो द्वे द्वै सिंहासने प्रज्ञाप्ते, तेषां तं जहा-रयणे हिं जाव रिटेहिं, तेसिणं दाराणं उप्पिं च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुक्तो निरवशेषो वक्तव्यः, तेसिण' मित्यादि, अट्ठमंगलगा सज्झयाजाव छत्तातिछत्ता, एवमेव सपुष्वावरेणं तेषां तोरणानांपुरतोद्वेद्वेछत्रे रूप्यमये प्रज्ञप्ते, तानि च छत्राणि वैडूर्यरत्न- सूरियामे विमाणे चत्तारि दारसहस्सा भवंतीति मक्खायं, मयविमलदण्डानि जाम्बूनदकर्णिकानि वज्रसन्धीनिवज्ररत्नापूरित- असोगवणे सत्तिवणे चंपगवणे चूयगवणे, सूरियाभस्स विमाणस्स दण्डशलाकासन्धीनि मुक्ताजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणिअष्टसहस्र- चउद्विसिं पंचजोयणसयाई अबाहाए चत्तारिवणसंडा पन्नत्ता,तं संख्या वरकाञ्चनशलाका वरकाञ्चनमय्यः शलाका येषु तानि, तथा, जहा-पुरच्छिमेणं असोगवणे दाहिणणं सत्तवनवणे पचत्थिमेणं तथा 'दद्दरमलयसुगंधिसव्वोउयसुरभिसीयलच्छाया' इति दईर:- चंपगवणे उत्तरेणं चूयगवणे, ते णं वणखंडासाइरेगाइं अद्धतेरस चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्रपक्वा वा ये मलय जोयणसयसहस्साइ आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं इति मलयोद्भवं श्रीखण्ड तत्सम्बधिनः सुगन्धा ये गन्धवासास्तद्वत् सर्वेषु पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा किण्हो मासा ऋतुषु सुरभिः शीतला च छाया येषां तानि तथा, 'मंगलभत्तिचित्ता' वणखंडवन्नओ। (सू० 26) अष्टांना स्वस्तिकादीनां मङ्गलानां भक्त्या-विच्छित्या चित्रम्-आलेखो 'सूरियाभे णं विमाणे एगभेगे दारे अहसयं चक्कज्झयाण' मित्यादि, येषां तानि तथा 'चंदागारोवमा' चन्द्राकारः-चन्द्राकृतिः सा उपमा येषां तस्मिन् सूर्याभे विमाने एकैकस्मिन् द्वारे अष्टाधिकं शतं चक्रध्वजानां तानि तथा, चन्द्रमण्डलवत् वृत्तानीति भावः, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चक्रलेखरूपचिह्नोपेतानां ध्वजानामेवं मृगगरुडरूद्धछत्रपिच्छशकुनितोरणानां पुरतोद्वे द्वैचामरे प्रज्ञप्ते तानिचचामराणि 'चंदप्पभवेरुलिय- सिंहवृषभचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रत्येमष्टशतमष्टशतं वक्तव्यम् वयरनाणामणिरयणखचितचित्तदंडाओ' इति चन्द्रप्रभः-चन्द्रकान्तो वजं 'एवमेव सपुव्वावरेणं' एवमेव-अनेनैव प्रकारेण सपूर्वापरेण-सह पूर्वैः वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि अपरैश्च वर्तते इति सपूर्वापरं-सडख्यानं तेन सूर्याभे विमाने एकैकस्मिन् खचितानि येषु ते तथा एवंरूपाश्चित्रानानाकारा दण्डा येषां चामराणां द्वारे अशीतमशीत्-अशीत्यधिकं 2 केतुसहस्रं भवतीत्याख्यातं मया तानि तथा, 'सुहुमरययदीहवालाओ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला अन्यैश्च तीर्थकृद्भिः, 'तेसि ण मित्यादि, तेषां द्वाराणां संबन्धीनि येषां तानि तथा "शंखकंकुददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ' | प्रत्येकं पञ्चषष्टिः 2 भोमानि-विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तेषां' Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1112- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ भूमिभागा उल्लोकाश्च यानविमानवद्वक्तव्याः, तेषां च भौमाना बहुमध्यदेशभागे यानित्रयस्त्रिंशत्तमानि भौमानितेषां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक प्रत्येकं सूर्याभदेवयोग्यं सिंहासनंतेषां च सिंहासनानांवर्णकोऽपरोत्तरोत्तर | पूर्वादिषु सामानिकादिदेवयोग्यानि भद्रासनानि च क्रमेण यानविमानयद्वक्तव्यानि शेषेषु च भौमेषु प्रत्येकमेकैकं सिंहासनं परिवाररहितम्। 'तेसिण' मित्यादि, तेषां द्वाराणाम् उत्तमा आकारा-उपरितना आकारा उत्तरङ्गादिरूपाः क्वचित् 'उवरिमागारा' इत्येव पाठः, षोडशविधै रत्नैरुपशोभितास्तद्यथा-'रयणेल्जिाव रिटेहिं इति रत्नैः-सामान्यतः कर्केतनादिभिः१, यावत्करणात्-वजैः 2 वैडूर्यः 3 लोहिताक्षैः 4 मसारगल्लैः 5 हंसगर्भः 6 पुलकैः 7 सौगन्धिकैः ज्योतीरसैः अझैः / १०अञ्जनैः 11 रजतैः 12 अञ्जनपुलकैः 13 जातरूपैः 14 स्फटिकैरिति परिग्रहः 15 षोडशैरिष्टः 16 'तेसिण' मित्यादि, तेषां द्वाराणां प्रत्येकमुपरि अष्टौ अष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि इत्यादि / यानविमानतोरणवत्तावद्वाच्यं यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति अत ऊर्ध्व केषुचित् पुस्तकान्तरेष्वेवं पाठः-'एवमेव सपुव्वावरेणं सूरियाभे विमाणे चत्तारिदारसहस्सा भवंतीति मक्खाय' मितिसुगम सूरियाभस्स ण' मित्यादि सूर्याभस्य विमानस्य चतुर्दिश-चतस्रो दिशः समाहृता--- श्चतुर्दिक् तस्मिन् चतुर्दिशि चतसृषु दिक्षु पञ्च पञ्च योजनशतानि 'अबाहाए' इति बाधनं बाधा; आक्रमणमित्यर्थः, न बाधा अबाधाअनाक्रमणं तस्यामबाधायां कृत्वेति गम्यते, अपान्तराल मुक्त्वेतिभावः, चत्वारो वनखण्डाः प्रज्ञप्ताः, अनेकजातीयानामुत्तमानां महीरुहाणां समूहो वनखण्डः, उक्तश्च जीवाभिगमचूर्णा-'अणेगजाईहिं उत्तमेहिं रुक्खेहिं वणखंडे' इति, 'तद्यथे' त्यादिना तानेव वनखण्डान् नामतो दिग्भेदतश्च दर्शयति-अशोकवृक्षप्रधानं वनमशोकवनमेवं सप्तपर्णवचनं चम्पकवनं चूतवनमपि भावनीयं, 'पुरच्छिमेण मित्यादिपावसिद्धम् अत्र संग्रहणिगाथा-'पुव्वेण असोगवणं, दाहिणतो होइसत्तिवण्णवणं अवरेणं चंपकवणं, चूयवणं उत्तरे पासे॥१॥''तेण' मित्त्यादि, तेच वनखण्डाः सातिरेकाणि अर्द्धत्रयोदशानि सार्द्धानि द्वादश योजनशतसहस्राणि (आयामतः) पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भतः प्रत्येकं २प्राकारपरिक्षिप्ताः पुनः कथंभूतास्ते वनखण्डा ? इत्याह-'किण्हा किण्होभासा जाव पडिमोयणा सुरम्मा' इति यावत्करणादेवं परिपूर्णः पाठः सूचितः-'नीला नीलोभासा हरिया हरियोभासा भासा सीया सीयोभासा निद्धा निद्धोभासा तिव्वा तिव्वो भासा किण्हा किण्हच्छाया नीला नीलच्छाया हरिया हरियच्छाया सीया सीयच्छाया निद्धा निद्धच्छाया घण कडियकडियच्छाया रम्मा महामेहनिकुरुंबभूया, ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमंतो तयमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमंतो बीयमंतो फलमंतो आणुपुव्वसुजायरुइलवट्टपरिणया एगखंधा अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगनरवामप्पसारियअगेज्झघण-विपुलवट्टखंधा अच्छूिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाइणपत्ता अणीइयपत्ता निद्धराजरढपंडुपत्ता नवहरिय- | भिसंतपत्तभारंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवणिग्गयवरतरुणपत्तपल्ल्वकोमलउजलचलंतकिसलयकुसुम-पवालपल्लंवकरणसिहरा निचं कुसुमियानिच्चं निचं लवइया निचं थवइया निचं गुलझ्या निचं गोच्छिया निश्चंजमलिया निच्च जुयलिया निश्चं विणमिया निञ्च पणमिया, निचंकुसुमियमउलिपलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसयधरा सुयवरहिणमयणसलागाकोइलकोरकभिंगारककोंडलजीवंजीक्कनंदीमुखकविंजलपिंगलक्खगकारंडचक्कदागकलहंससारस-अणेगसउणिमिहुणवियरियसद्दइयमहुरसरनाइयसंपिडियदरिभमरमहुयरिपहकरपरिलेंतछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंत-गुंजंतदेसभागा अभिंतरपुप्फफलबाहिरपत्तच्छन्ना पत्तेहि य पुप्फेहि य उवच्छन्नपलिच्छन्नाज्ञ नीरोगका मउफासा अकंटगा णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगोवसहिया विचित्तसुहकेउभूया वाविपुक्खरणिदीहियासुससुनिवेसियरम्मजालघरगा पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुसुरभिमणहरं च गंधद्धणिं मुयंता सुहकेऊ केउबहुला अणेगसगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसीय-संदमाणीपडिमोयणा सुरम्मा' इति अस्यव्याख्या-इह प्रायो वृक्षाणां मध्यमेवयसि वर्तमानानि पत्राणि कृष्णानि भवन्तिततस्तद्योगात् वनखण्डा अपि कृष्णाः, न चोपचारमात्रात्ते कृष्ण इतिव्यपदिश्यन्ते किन्तु तथा प्रतिभासनात्, तथा चाह 'कृष्णावभासा' यावति भागे कृष्णाभासपत्राणि सन्ति तावति भागे ते वनखण्डाः कृष्णा अवमासन्ते, ततः कृष्णोऽवभासो येषां ते कृष्णावभासा इति, तथा हरितत्वमतिक्रान्तानि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पत्राणि नीलानि तद्योगाद्वनखण्डा अपि नीलाः, न चैतदुपचारमात्रेणोच्यते किन्तु तथावभासात्, तथा चाह-नीलावभासाः, समासः प्राग्वत्, यौवनेतान्येव पत्राणि किसलयत्वं रक्तत्वं चातिक्रान्तानि ईषत् हरितालाभानिपाण्डूनि सन्ति हरितानीतिव्यपदिश्यन्ते, ततस्तद्योगात्वनखण्डा अपिहरिताः, न चैतदुपचारमात्रादुच्यते, किन्तु तथाप्रतिभासात्, तथा थाह-हरितावभासाः, तथा बाल्यादतिक्रान्तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्तद्योगाद्वनखण्डा अपि शीता इत्युक्ताः, न च ते गुणतस्तथा किन्तु तथैव, तथा चाह-शीतावभासाः अधोभागवर्त्तिनां वैमानिक देवानां देवीनां तद्योगशीतवातसंस्पर्शतः ते शीता वनखण्डा अवभासन्ते इति, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथा स्वस्मिन् स्वरूपे अत्यक्ते स्निग्धा भण्यन्ते तीव्राश्च ततः तद्योगात् वनखण्डा अपि स्निग्धाः तीव्राश्च इत्युक्ताः, न चैतदुपचारमात्रं किन्तु तथावभासोऽप्यस्तिततउक्तं स्निग्धावभासास्तीवावभासा इति, इहावभासो भ्रान्तोऽपि भवति यथा मरुमरीचिकासु जलावभासस्ततोनावभासमात्रोपदर्शनेन यथावस्थितंवस्तुस्वरूपंवर्णित भवति किन्तु तथास्वरूपप्रतिपादनेन, ततः कृष्णत्वादीनां तथास्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरःसरं विशेषणान्तरमाह-'किण्हा किण्हच्छायाः' इत्यादि, कृष्णा वनखण्डाः कुत इत्याह-कृष्णच्छायाः 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, ततोऽय Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1113 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ मर्थः-यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सविसंवादितया तेषां तस्मात् कृष्णाः, एतदुक्तं भवति-सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावभासंपादितसत्ताकः सर्वाविसंवादीभवति, ततस्तत्त्ववृत्त्या ते कृष्णा न भ्रान्तावभासमात्रव्यवस्थापिता इति, एवं नीला नीलच्छाया इत्याद्यपि भावनीयं, नवरं शीताः शीतच्छाया इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः, 'घनकडितडियच्छाया' इति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यतेकटिस्तटमिव कटितटं घना-अन्योऽन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया येषां ते तथा, मध्यभागे निविडतरच्छाया इत्यर्थः, अत एव रम्यो-रमणीयः तथा महान् जलभारावनतप्रावृट्कालभावी यो मेघनिकुरुम्बो-मेघसमूहस्तं भूतागुणैः प्राप्ता महामेघनिकुरुम्बभूताः; महामेघवृन्दोपमा इत्यर्थः / 'ते णं पायवा' इत्यादि, अशोकवरपादपपरिवारभूतप्रागुक्ततिलकादि-वृक्षवर्णतवत् परिभावनीयं, नवरं 'सुयबरहिणमयणसलागा, इत्यादि विशेषणमत्रोपमया भावनीयम्, अणेगसगडरहजाणे' त्यादि तदाकारभावतः। तेसिंणं वणसंडाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता, से जहानामए आलिंगपुक्खरति वा जावणाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहि य तणेहि य उवसोभिया, तेसि णं गंधो फासो णेयव्वो जहशम, तेसिणं भंते ! तणाण य मणीण य पुटवावरदाहिणुत्तरातेहिं वातेहिं मंदाणं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं खोमियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे भवति? गोयमा ! से जहानामए सीयाए वा संदमाणीए वा रहस्स वा सच्छत्तस्स सज्झयस्स सघंटस्स सपडागस्स सतोरणवरस्स सनंदिघोसस्स सखिंखिणिहेमजालपरिक्खित्तस्स हेमवयचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुयायस्स संपिनद्धचक्कमंडलधुरागस्स कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियस्स सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडावयंसगस्स सचावसरपहरणावरणभरियजुज्झसअस्स रायंगणंसि वा रायंतेउरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिघट्टिजमाणस्स वा नियट्टिजमाणस्स वा ओरालमणुण्णा कण्णमणनिव्वुइकरा सदा सव्वओ समंता अभिणिस्सवंति, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे, से जहाणामए वेयालीयवीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइट्टियाए कुसलनरनारिसुसंपरिग्गहियाते चंदणकोणपरियट्टियाए पुटवरत्तावरत्तकालसमयंसि मंदायं 2 वेइयाए पवेइयाए चालियाए घट्टियाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा मणहरा कण्णमणनिव्वुइकरा सदा सव्वओ समंता अमिनिस्सवंति, भवेयारूवे सिया ? णो इणढे समढे, से जहानामए किन्नराण वा किपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाए वा भद्दसालणागयाण वानंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण व पंडगवणगयाण वा हिमवंतगच्छंगयमलयमंदरिगिरिगुहासिमन्नागयाण वा हिम-वंतगच्छंगयमलयमंदरगिरीगुहासमन्नागयाण वा एगओ सन्निहियाणं समागयाण सन्निसन्नाणं समुवविट्ठाणं पमुइयपक्कीलियाणं गीयरइगंधव्वहसियमणाणं गज पजं कत्थं गेयं पयबद्धं पायबद्धं उक्खित्तायपयत्तायं मंदायं रोझ्यावसाणं सत्तसरसमन्नागयं छहोसविप्पमुक्छ एक्कारसालंकारं अट्ठगुणोववेयं गुंजंतवसकुहरोवगूढं रत्तं तिट्ठाणकरणसुद्धं सकुहरगुंजंतवंसतंतीतलताललयगहसुसंपउत्तं महुरं समं सुललियमणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुणतिं वरचारुरूवं दिवं णटुं सज्जं गेयं पगीयाणं, भवेयारूवे सिया? हंता सिया। (सू०३१) तेसि णं वणसंडाणं तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे बहूओ खुड्डाखुड्डियातो वावियाओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सरपंतिआओ विलपंतिआओ अच्छाओ सण्हाओ रययामयकूलाओ समतीरातो वयरामयपासाणातो तवणिज्जतलाओ सुवण्णसुब्भरययवालुयाओ वेरुलियमणिफालियपडलपञ्चोयडाओ सुओयारसुउत्ताराओ णाणामणिसुबद्धाओ चउक्कोणाओ आणुपुटवसुजातगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तमिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियोडरीयसयवत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवचियाओ छप्पयपस्भुिजमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ अप्पेगइयाओ आसवोयगाओ अप्पेगइयाओ खोरोयगाओ अप्पेगतियातो घओयगा०अप्पे०खीरोय०अप्पे० खारोय० अप्पेगइयाओ उयगरसेणे पण्णत्ताओपासादीयाओदरिसणिज्जाओ अभिरुवाओ पडिरूवाओ, तासि णं वावीणं जाव बिलपंतीणं पत्तेयं 2 चउद्विसिं चत्तारि तिसोपाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोपाणपडिरूवगाणं वन्नओ, तोरणाणं झया छत्ताइछत्ता यणेयव्वा, तासु णं खुड्डाखुड्डियासु वावीसु जाव बिलपंतियासु तत्थ तत्थ देसे 2 बहवे उप्पायपव्वयगा नियइपव्वयगा जगइपव्वयगा दारुइजपवयगा दगमंडवा दगणालगा दगमंचगा उसडा खुडखुडुगा अंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा ०जाव पडिरूवा, तेसु णं उप्पायपटव-एसु ०जाव पक्खंदोलएसुबहूइं हंसासणाई, कोंचासणाइंगरुलासणाई उण्णयासणाइं पणयासणाई दीहासणाई पक्खासणाई Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम भहासणाई उसभासणाईसीहासणाईपउमासणाई दिसासोव- | शब्दः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह-'गोयमे' त्यादि, गौतम ! स यथानामकः त्थियाइं सव्वरयणामयाइं अच्छाई ०जाव पडिरूवाई, तेसु णं शिबिकाया वा स्यन्दमानिकाया वा रथस्य वा, तत्र 'सिबिया' जम्पानवणसंडेसु तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे बहवे आलियघरमा विशेषरूपा उपरिच्छदिता कोष्ठाऽऽकारा, तथा दीर्घोजम्पानविशेषः मालियघरगा कयलिघरगालयाघरगा अच्छणघरगा पिच्छणघ- पुरुषस्वप्रमाणावकाशदा या स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पारगा मंडणघरगापसाहणधरगा गब्मघरगामोहनघरगासालघरगा टितयोः क्षुद्रहेमघण्टिकादिचलनवशतोवेदितव्यः, स्थश्चेह संग्रामरथः जालघरगा चित्तघरगा कुसुमघरगा गंधघरगा आयंसघरगा .. प्रत्येयोऽग्रेतनविशेषणानामन्यथाऽसंभवात्, तस्य च फलकवेदिका सव्वरयणामया अच्छाजाव पडिरूवा, तेसुणं आलियघरगेसु यस्मिन् काले ये पुरुषास्तदपेक्षया ततिप्रमाणाऽवसेया, तस्य च रथस्य जाव गंधव्व०तहिं २घरएसु बहूई हंसासण जाव दिसासोव- विशेषणान्यभिधत्ते 'सच्छत्तस्स' इत्यादि, सच्छत्रस्य सध्वजस्य थिआसणाई सय्वरयणामयाइं जाव पडिरूवाई / तेसु णं सघण्टाकस्य उभयपाश्चविलम्बिमहाप्रमाणघण्टोपेतस्य सपताकस्य सह वणसंडेसु तत्थ तत्थ देसे देसे तहिं 2 बहदे जातिमंडवगा तोरणवरं-प्रधानतोरणं यस्य स सतोरणवरस्तस्य, सह नन्दीघोषोजूहियमंडवगा एवमालियमंडवगा वासंतिमंडवगा सूरमल्लिय- द्वादशतूर्यनिनादो यस्य स सनन्दिघोषस्तस्य तथा सह किङ्किण्यःमंडवगा दहिवासुयमंडवगा तंबोलिमंडवगा मुडियमंडवगा क्षुद्रघण्टा येषामिति सकिङ्किणीकानि, हेमजालानियानि हेममयदामसमूणागलयामंडवगा अतिमुत्तयलयामंडवगा आप्फोवगा मालुया- हास्तैः सवासु दिक्षु पर्यन्तेषु-बहिःप्रदेशेषु परिक्षिप्तोव्याप्तस्तस्य, तथा मंडवगा अच्छा सध्वरयणा मया जाव पडिरूवाओ,तेसु णं हैमवंतहिमवत्पर्वतभाविचित्रविचित्रमनोहारिविशेषोपेतंतिनिशतरुजालिमंडवएसुजाव मालुयामंडवएसुबहवे पुढविसिलापट्टगा संबन्धि कनकविच्छुरितंदारुकाष्ठंयस्य स हैमवतचित्रतैनिशकनकनियुहंसासणसंठिया०जाव दिसासोवत्थियासणसंठिया अण्णेयबहवे क्तदारुकस्तस्य, सूत्रे च द्वितीयः ककारः स्वार्थिकः पूर्वस्य च दीर्घत्वं मंसलघुविसिह-संठाणसंठिया पुठविसिलापट्टगा पण्णत्ता प्राकृतत्वात्, तथा सुष्टु-अतिशयेनसम्यक् पिनद्धंबद्धमरकमण्डलंधूश्च समणाउसो ! आईणगरुयबूरणवणीयतूलफासा सवरयणामया यस्य स सुसंपिनद्धारकमण्डलधूःकस्तस्य, तथा कालायसेनलोहेन सुष्ठ अच्छा०जावपडिरूवा, तत्थणं बहवे वेमाणिया देवाय देवीओ अतिशयेन कृतं नेमेः-बाह्यपरिधेर्यन्त्रस्य च-अरकोपरिफलकचक्रय आसयंति सयंति चिटुंति णिसीयंति तुयटुंति हसंति रमंति वालस्य कर्म, यस्मिन् स कालायसकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, तथा ललंति कीलंति किट्टंति मोहेंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं आकीर्णा-गुणैव्यप्तिाये वराः-प्रधानास्तुरगास्ते सुष्ठु-अतिशयेन सम्यक् सुपडिकंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणाणं कल्लाणं प्रयुक्तायोजित यस्मिन्सआकीर्णवरतुरगसुसंप्रयुक्तः तस्य, प्राकृतफलविवा(यं)गं पचणुब्भवमाणा विहरंति। (सू०३२) त्वात् बहुव्रीहावपिक्तान्तस्य परनिपातः, तथा सारथिकर्मणि ये कुशला "तेसि णं वणसंडाण' मित्यादि, तेषां वनखण्डानामन्तः-मध्ये | नरास्तेषां मध्ये अतिशयेन छेकोदक्षः सारथिस्तेन सुष्ठु-सम्यक् बहुसभरणीया भूमिभागाः प्रज्ञप्ताः तेषां च भूमिभागानां से जहानामए' परिगृहीतस्य, तथा सरसय-बत्तीसतोणपरिमंडियस्स' इति शराणांशतं आलिंगपुक्खरे इ वा' इत्यादि वर्णनं प्रागुक्तं तावद्वाच्यं यावन्मणीनां प्रत्येक येषु तानि शरशतानि तानिच तानिद्वात्रिंशत् तूणानितैर्मण्डितः स्पर्शा, नवरमत्र तृणान्यपि वक्तव्यानि, तानि चैवम्-'नाणाविह- शरशतद्वात्रिंशत्तूणमण्डितः, किमुक्तं भवति ?-एवं नाम तानि द्वात्रिंशत् पंचवण्णाहिं मणीहिय तणेहि य उवसोभिया, तंजहा-किण्हेहियनीलेहि शरभशतभृतानि तूणानि रथस्य सर्वतः पर्यन्तेष्ववलम्बितानि यथा तानि य जाव सुकिल्ले, तत्थ णं जे ते कण्हा तणा य मणी य तेसिणं संग्रामायोपकल्पित-स्यातीव मण्डनाय भवन्तीति, तथा कङ्कट-कवचं अयमेयारूवे वन्नावासेपन्नत्ते, से जहानामएजीमूतेइवा इत्यादि।सम्प्रति , सह कङ्कटो यस्य स सकङ्कटः सकङ्कटः अवतंसः-शेखरो यस्य स तेषां मणीनां तृणानांचवातेरितानां शब्दस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-'तेसि. सकङ्कटावतंसस्तस्य, तथा सह चाषं येषां ते सचापा ये शरा यानि च णं भंते ! तणाण य मणीण' इत्यादि, तेषां ‘णमिति' पूर्ववत् भदन्त ! कुन्तभल्लिभुसुण्ढिप्रभृतीनि नानाप्रकाराणि प्रहरणानि यानि च कवच परमकल्याणयोगिन् तृणानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरगतैतिर्मन्दायन्ति-मन्दं (कङ्कट) प्रमुखानि आवरणानि तैभृतः-परिपूर्णः, तथा योधानां युद्धं मन्दम् एजिताना-कम्पितानां व्येजितानां-विशेषतः कम्पितानां एतदेव तन्निमित्तं सज्जः-प्रगुणीभूतो यः स योधयुद्धसज्जस्ततः पूर्वपदेन सह पर्यायशब्देन व्याचष्टे-कम्पितानां चालितानाम्-इतस्ततो मनाक् विशेषणसमासः तस्य इत्थंभूतस्य राजाङ्गणे वा अन्तःपुरे या रम्ये वा विक्षिप्तानाम्, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे स्पन्दितानां तथा घट्टितानां- मणिकुट्टिमतलेमणिबद्ध-भूमितले अभीक्ष्णमभीक्ष्णं कुट्टिमतलपरस्परं संघर्षयुक्तानां, कथंघट्टिता इत्याह-क्षोभितानां, स्वस्थानाचा- प्रदेशे वा 'अभिघट्टिजमाणस्से' ति अभिखच्यमानस्य वेगेन गच्छतो लनमपि कुत इत्याह-उदीरितानामुत्-प्राबल्येन प्रेरितानां, कीदृशः | ये उदारा मनोज्ञा कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् जीवाभिग Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1115 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम ममूलटीकायामपि 'उप्पित्थं श्वासयुक्तमिति, तथा उत्प्राबल्येन अतितालमस्थानतालं वा उत्तालं, श्लक्ष्णस्वरेण काकखरं, सानुनासिकम् अनुनासिकाविनिर्गतस्वरानुगतमिति भावः, तथा 'अट्ठगुणोववेय' मिति अष्टाभिर्गुणैरुपेतमष्टगुणोपेतं, ते चाष्टावमी गुणाः-पूर्ण रक्तमलङ्क तं व्यक्तमविघुष्टं मधुरं समं सललितं च, तथा चोक्तम्-"पुण्णं रत्तं च अलं-कियं च वत्तं तहेव अविघुटुं / महुरं समं सललियं, अट्ठ गुणा होति गेयस्स॥१॥" तत्र सत् स्वरकलाभिः परिपूर्ण गीयते तत्पूर्ण, गेयरागानुरक्तेन यत् गीयते तत्क्त म्, अन्योऽन्यस्वरविशेषकरणेन यदलङ्कृतमिव गीयते तदल कृतम्, अक्षरस्वरस्फुटकरणतो व्यक्तं, विस्वरं क्रोशतीव विघुष्ट न तथा अवघुिष्ट, मधुरस्वरेणगीयमानं मधुरं कोकिलारुतवत्, तालवंशस्वरादिसमनुगतं समं, तथा यत् स्वरघोलनाप्रकारेण ललतीव तत् सह ललितेन ललनेनवर्त्तत इति सललितं, यदिवा-यत् श्रोत्रेन्द्रियस्य शब्दस्य स्पर्शनमतीव सूक्ष्ममुत्पादयति सुकुमारमिव च | प्रतिभासते तत्सललितम्। इदानीमेतेषामेवाष्टानां मध्ये कियतो गुणान् अन्यच प्रतिपिपादयिषुरिदमाह-रत्तं तिहाणकरणं सुद्धं तत्'कुहरगुंजंतवंसतंतीतलताललयगहसुसंपउत्तं महुरं समं सललियमणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरई सुनतिं वरचारुरूवं दिव्वं नट्ट सज्जं गेयं पगीयाण' मिति यथा प्राक् नाट्यविधौ व्याख्यातं तथा भावनीयं 'जारिसए सद्दे हवई' प्रगीतानांगातुमारब्धवतां याद्दशः शब्दोऽतिमनोहरो भवतिस्यात्-कथंचिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां तूणानां मणीनां च शब्दः? एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! स्यादेवंभूतः शब्दः। (सू०३१) 'तेसिणवणसंडाण' मित्यादि, तेषां 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे वनखण्डानां मध्ये तत्र तत्र देशे 'तत्र तत्रे' तितस्यैव देशस्यतत्रतत्र एकदेशे 'बहूई' इति वयः, 'खुड्डाखुडियाओ' इति क्षुल्लिक्षुल्लिकाः; लघवोलघव इत्यर्थः, वाप्यश्चतुरस्राः पुष्करिण्यो वृत्ताकाराः, अथवा पुष्कराणि विद्यन्ते यासु ताः पुष्करिण्यो दीर्घिकाऋजवो नद्यः वक्रा नद्यो गुजालिकाः, बहूनि केवलकेवलानि पुष्पावकीर्णकानि सरांसि एकपङ्क्त्या व्यवस्थितानि सरःपङ्क्तिः सललितास्ता बढ्यः सरः पङ्क्तयः तथा येषु सरःसु एड्क्त्या व्यवस्थितेषु कूपोदकं प्रणालिकया संचरति सा सरः पङ्क्तिः ता बढ्यः सरःसरः-पड्क्तयः, तथा बिलानीव बिलानि-कूपास्तेषां पक्तयो विलपङ्क्तयः, एताश्च सर्वा अपि कथंभूता इत्याह-अच्छाः स्फटिकवदाहिर्निर्मलप्रदेशाः श्लक्ष्णाः-श्लक्ष्णपुद्गलनिष्पादितबहिःप्रदेशाश्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत, तथा रजतमयं रूप्यमयं कूलं यासा ता रजतमयकूलाः, तथा समं न गर्ताभावात् विषमंतीरं-तीरवर्त्तिजलापूरितं स्थानं यासां ताः समतीराः, तथा वज़मयाः पाषाणा यासां ता वज्रमय-पाषाणाः, तथा तपनीयं-हेमविशेषः तपनीयमयं तलं यासां तास्तप-नीयतलाः, तथा "सुवण्णसुडभरययवालुयाओ" इति सुवर्ण पीतकान्ति हेम शुभ्रंरूप्यविशेषः रजतं प्रतीतं तन्मया वालुका यासुताः सुवर्णशुभ्ररजतवालुकाः, 'वेरुलियमणिफलिहपडलपचोयडाओ' इति वैडूर्यणिमयानि स्फटिकपटलमयानि च प्रत्यवतटानितटसमीपवर्तिनः अत्युन्नतप्रदेशाः यासां ता वैडूर्यमणिस्फटिकपटलप्रत्यवतटाः, 'सुओयारसुउत्ताराउ' इति सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः सुखावताराः तथा सुखेन उत्तारो-जलमध्यादहिर्निर्गमनं यासु ताः सुखोत्तारास्ततः पूर्वपदेन विशेषणमासः, 'नानामणितित्थसुवद्धाउ' इति नानामणिभिः नानाप्रकारैर्मणिभिस्तीर्थानि सुबद्धानि यासां ता नानामणितीर्थसुबद्धाः, अत्र बहुव्रीहावपि क्तान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनाद् प्राकृतशैलीवशादा 'चउक्कोणाउ' इति चत्वारः कोणा यासां ताश्चतुः कोणाः, एतच विशेषणं वापीः कूपांश्च प्रति द्रष्टव्यं, तेषामेव चतुष्कोणत्वसंभवात् न शेषाणां, तथा आनुपूर्येण-क्रमेण नीचैस्तराभावरूपेण सुष्टु -अतिशयेन यो जातवप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम्-अलब्धस्ताघं शीतलं जलं यासु ता आनुपूर्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलाः, 'संछन्नपत्तभिसमुणालाउ' इति संछन्नानि.जलेनान्तरितानि पत्रबिसमृणालानि यासु ताः संछन्नपत्रबिसमृणालाः, इह बिसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि, विसानिकन्दाः मृणालानिपदानालाः, तथा बहुभिरुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकशत-पत्रसहस्रपत्रैः केसरैः-केसरप्रधानैः फुल्लैः-- विकसितैरुपचिता बहूत्पलकुमुदनलिन-सुभगसौगन्धिक-पुण्डरीकशतपत्रसहस्र-पत्रकेसरफुल्लोपचिताः, तथा षटपदैः भ्रमरैः परिभुज्यमानकमलाः, तथा अच्छेनस्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन विमलेनआगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णा अच्छविमल-सलिलपूर्णाः, तथा 'पडिहत्था' अतिरेकिता; अतिप्रभूता इत्यर्थः "पडिहत्थमुद्धमायं अतिरिययं जाणमाउण्ण' मिति वचनात्, उदाहरणं चात्र-'घणपडिहत्थं गयणं, सराइ नवसलिलउ मायाई। अयरेइयं मह उण, चिंताए मणतुहं विरहे।।१।। इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्रताः परिहत्थभ्रमन्मत्स्यकच्छपाः, तथा अनेकैः शकुनिमिथुनकैः प्रविचरता-इतस्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः अनेकशकुनिमिथुनक-प्रविचरितास्ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता वाप्यादयः सरस्सरः पङ्क्तिपर्यन्ताः 'प्रत्येक प्रत्येक' प्रति प्रत्येकमवाभिमुख्य प्रतिशब्दस्ततो वीप्साविवक्षायां पश्चात्प्रत्येकशब्दस्य द्विवचनमिति, पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्ताः, प्रत्येक प्रत्येकं वनखण्डपरिक्षिप्ताः, अप्पेगइयाउ' इत्यादि अपिढिार्थे वाढमेककाः-काश्चनवाप्यादय आसवमिव चन्द्रहासादिपरमासवमिव उदकं यासां ता आसवादकाः, अप्येकका वारुणस्य-वारुणसमुद्रस्येव उदकं यासांता वारुणोदकाः, अप्येककाः क्षीरमिव उदकंयासांताः क्षीरोदकाः, अप्येकका घृतमिव उदकं यासांता धृतोदकाः, अप्येककाः क्षोद इवइक्षुरस इव उदकं यासां ताः क्षोदोदकाः, अप्येककाः स्वाभाविकेन उदकरसेन प्रज्ञप्ताः, 'पासाइया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्। 'तेसि ण' मित्यादि, तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावद्विलपङ्क्तीनामिति यावत् शब्दात् पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, प्रत्येकं चतुर्दिशि चत्वारि एकैकस्यां दिशि एकैकस्य भावात् त्रिसोपानप्रतिरूपकाणिप्रतिविशिष्टरूपाणि त्रिसोपानानि, त्रयाणांसोपानानां समाहारस्त्रिसोपानं, तानिप्रज्ञ-- Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम १११६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ गृहकाणि मालिगृहकाणि, कदलीगृहकाणि लतागृहकाणि च प्रतीतानि, 'अच्छणघरकाणि' इति अवस्थानगृहकाणि येषु यदा तदा वा आगत्य सुखासिकया अवतिष्ठन्ति, प्रेक्षणकगृहकाणि यत्रागत्य प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्षन्ते च, मज्जनकगृहकाणि पत्रागत्या स्वेच्छया मज्जनकं कुर्वन्ति, 'प्रसाधनगृहकाणि' यत्रागत्य स्वं परं च मण्डयन्ति 'गर्भगृह- काणि' गर्भगृहाकाराणि 'मोहणघराई' इति मोहनं-मैथुनसेवा ‘रमियं तानि, तेषां च त्रिसोपनाप्रतिरूपकाणामयं वक्ष्यमाणः एतद्रूपः-अनन्तरं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तस्तद्यथा वज्ररत्नमया 'वंगा' इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसिणं तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां प्रत्येकं तोरणानि | प्रज्ञप्तानि, तोरणवर्णकस्तु निरवशेषो यानविमानवद्भवनीयोयावत् बहवः सहस्रपत्रहस्तका इति, 'तासिण' मित्यादि, तासां क्षुल्लिका-क्षुल्लिकानां यावाद् विलपङ्क्तीनाम्, अत्रापि यावच्छब्दात्-पुष्करिण्यादिपरिग्रहः, तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्थतत्र तत्र एकदेशे बहव उत्पातपवता यत्रागत्या बहवः सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति, 'नियइपव्वया' इति नियत्यानैयत्येन व्यवस्थिताः पर्वता नियतिपर्वताः क्वचित् 'निययपव्वया' इति पाठः, तत्र नियताः-सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः, पर्वता नियतपर्वताः, यत्र सूर्याभविमानवासिनो वैमानिका देवा देव्यश्च भवधारणीयेनैव वैक्रियशरीरेण सदा रममाणा अवतिष्ठन्ते इति भावः, 'जगईपव्वया' इति जागतीपर्वतकाः पर्वतविशेषाः, दारुपर्वतकाः दारुनिर्मापिता इव पर्वतकाः, 'दगमंडवा' इति दकमण्डपाः-स्फटिकाः मण्डपाः, उक्तंच जीवाभिगममूलटीकायां-'दगमण्डपाः-स्फाटिका मण्डपा' इति, एवं दकमञ्चकाः दकमालका दकप्रासादाः, एते च दकमण्डपादयः केचित् 'उसड्ढा इतिउत्सृताः; उचा इत्यर्थः, केचित् 'खुलड्डाखुड तिक्षुल्लकाः क्षुल्लका इति, तथा अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च, इह यत्रागत्य मनुष्या आत्मानमन्दोलयन्ति तेऽन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगत्यात्मान-मन्दोलयन्ति ते पक्ष्यन्दोलकाः, तत्र अन्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च तेषुवनखण्डेषुतत्र 2 प्रदेशे देवक्रीडायोग्या बहवः सन्ति, एतेच उत्पातपर्वतादयः कथंभूता? इत्याह-'सर्वरत्नमयाः सर्वात्मना रत्नमयाः, अच्छा सण्हा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्। 'तेसुण' मित्यादि, तेषु उत्पातपर्वतेषुयावत्पक्ष्यन्दोलकेषु, यावत्करणान्नियतिपर्वतकादिपरिग्रहः, बहूनिहंसासनादीनि आसनानि, तत्र येषामासनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहाः तानि हंसासनानि, एवं क्रौञ्चासनानि गरुडासनानि च भावनीयानि, उन्नतासनानिउचासनानि प्रणतासनानि-निम्नासनानि दीर्घासनानि-शय्यारूपाणि भद्रासनानि येषामधोभागे पीठिकाबन्धः पक्ष्यासनानि येषामधोभागे नानास्वरूपाः पक्षिणः, एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पद्मासनानि-पद्माकाराणि आसनानि, 'दिसासोवत्थियासणाणि' येषामधोभागे दिक्सौवस्तिका आलिखिताः सन्ति, अत्र यथाक्रममासनानां संग्रहणिगाथा-'हंसे कोंचे गरुडे, उण्णय पणए य दीह भद्दे य। पक्खे मयरे पउमे, सीह दिसासोत्थि बारसमे // 1 // इति, तानि सर्वाण्यपि कथंभूतानीत्यत आह-'सव्वरयणामया' इत्यादि प्राग्वत् / 'तेसिण' मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु मध्येतत्र 2 प्रदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहूनि आलिगृहकाणि आलिः-वनस्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि आलिगृहकाणि, मालिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मयानि काणि वासभवनानीति भावः, शालागृहकाणिपट्टशालाप्रधानानि जालगृहकाणिगवाक्षयुक्तानि गृहकाणि कुसुमगृहकाणिकुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि, चित्रगृहकाणि-चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि गीतनृत्ययोग्यानि गृहकाणि आदर्शगृहकाणिआदर्शमयानीय गृहकाणि, एतानि च कथंभूतानीत्यत आह-'सव्वरयणामया' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्। तेसिण' मित्यादि, तेषु आलिगृहकेषु यावदादर्शगृहकेषु, अत्र यावच्छब्दात् मालिगृहकादिपरिग्रहः, 'बहूनि हंसासनानि इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसिण' मित्यादि, तेषु वनखण्डेषु तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहवो जातिमण्डपका यूथिकाभण्डपका मल्लिकामण्डपका नवमालिकामण्डपका वासन्तीमण्डपका दधिवासुकामण्डपकाः, दधिवासुका-वनस्पतिविशेषस्तन्मया मण्डपका दधिवासुकामण्डपकाः, सूरुल्लिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मया मण्डपकाः २,ताम्बूलीनागवल्ली तन्मया मण्डपकास्ताम्बूलीमण्डपकाः, नागोद्रुमविशेषः, स एव लता नागलता, इह यस्य तिर्यक् तथाविधा शाखा प्रशाखा वानप्रसृता सालतेत्यभिधीयते नागलतामया मण्डपका नागलतामण्डपकाः, अतिमुक्तमण्डपकाः, 'अप्फोया' इति वनस्पतिविशेषस्तन्मया मण्डपका अप्फोयामण्डपकाः, मालुका-एकास्थिकफला वृक्षविशेषास्तद्युक्ता मण्डपका मालुकामण्डपकाः, एते च कथंभूता इत्याह'सव्वरयणामया' इत्यादि प्राग्वत्। 'तेसिण' मित्यादि, तेषु जातिमण्डपकेषु यावन्मालुकामण्डपकेषु 'जाव' शब्दात्-यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलापट्टकाः प्रज्ञप्तास्तद्यथा-अप्येकका हंसासनवत् संस्थिता हंसासनसंस्थिता यावदप्येकका दिक्सौवस्तिकासनसंस्थिताः, यावत्करणात्-'अप्पेगइया हंसासणसंठिया अप्पेगइया गरुडासणसंठिया अप्पेगइया उण्णयासणसंठिया अप्पेगइया पणयासणसंठिया अप्पेगइया दीहासणसंठिया अप्पेगइया भद्दासणसंठिया अप्पेगइया पक्ख० अप्पे० आयंसासणसंठिया अप्पेगइया उसभासणसंठिया अप्पेगइया सीहासणसंठिया अप्पेगइया पउमासणसंठिया' इति परिग्रहः, अन्ये च बहवः शिलापट्टका यानि विशिष्टचिह्नानि विशिष्टनामानि च वराणि-प्रधानानि शयनानि आसनानि च तद्वत् संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः, क्वचित्-मांसलसुधट्ठविसिट्ठसंठाणसंठिया' इति पाठः, तत्रान्ये च बहवः शिलापट्टकाः मांसलाः; अकठिना इत्यर्थः, सुघृष्टा अतिशयेन मसृणा इति भावः विशि Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ . 1117 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ ष्टसंस्थानसंस्थिताश्चेति, 'आईणगरयबरूनवणीयतूलफासमउया 'तेसिण 'मित्यादि, तेषां वनखण्डानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येक सव्वरयणामया अच्छा' जावपडिरूवा' इति प्राग्वत्, तत्र तेषु उत्पाद- प्रासादावतंसका इति, अवतंसक इव-शेखरक इयावतंसकः प्रासादापर्वतादिगतहंसासनादिषु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथ्वीशिला- नामवतंसक इव प्रासादावतंसकः प्रासादविशेष इति भावः, तेच प्रसादापट्टकेषु 'ण' मिति पूर्ववत् बहवः सूर्याभविमानवासिनो देवा देव्यश्च वतंसकाः पञ्च योजनशतान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि यथासुखमासते शेरते-दीर्घकायप्रसारणेन वर्तन्ते न तु निद्रां कुर्वन्ति विष्कम्भतः, तेषां च 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविव' इत्यादिविशेषणजातं तेषां देवयोनिकत्वेन निद्राया अभावात्, तिष्ठन्ति-ऊर्ध्वस्थानेन वर्तन्ते प्राग्वत्, भूमिवर्णनम् उल्लोकवर्णनं सपरिवारं च प्राग्वत्, 'तत्थ ण' निषीदन्ति-उपविशन्ति तुयट्टन्तित्वग्वर्त्तनं कुर्वन्ति, वामपार्श्वतः परावृत्य मित्यादि, तत्र तेषु वनखण्डेषु प्रत्येकमेकैकदिग्भावेन चत्वारो देवा दक्षिणपार्श्वनावतिष्ठन्ति दक्षिणपार्वतौ वापरावृत्य वामपार्श्वेनेति भावः, महर्ट्सिका यावत्करणात्-'महज्जुझ्या महाबला महासुक्खा महाणुभावा' रमन्ते-रतिमाबध्नन्ति ललन्तिमनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तन्त इति इति परिग्रहः, पल्योपमस्थितिकाः परिवसन्ति, तद्यथा-'असोए' भावः, क्रीडन्ति--यथासुखमितस्ततो गमनविनोदेन गीतनृत्यादिविनोदेन इत्यादि, अशोकवने अशोकः सप्तपर्णवने सप्तपर्णः चम्पकवने चम्पकवा तिष्ठन्ति मोहन्तिमैथुनसेवां कुर्वन्ति इत्येवं पुरापोराणाण' मित्यादि श्चूतवने चूतः 'तेण मित्यादि,ते अशोकादयो देवाः स्वकीयस्य वनखपुरापूर्व प्राग्भवे इतिभावः कृतानां कर्मणामिति योगः, अत एव पौराणानां ण्डस्य सवकीयस्स प्रासादावतंसकस्य, सूत्रे बहुवचनं प्राकृतत्वात्, सुचीर्णानां सुचरितानाम्, इह सुचरितजनितं कर्मापि कार्ये कारणोप- प्राकृते हि वचनव्यत्ययोऽपि भवतीति, स्वस्वकीयानां सामानिकदेवानां चारात् सुचरितं ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषया- स्वासां स्वासामग्रमहिषीणां सपरिवाराणां स्वासांस्वास परिषदां स्वेषां प्रमादकरणक्षान्त्यादि-सुचरितजनितानामिति, तथा सुपराक्रान्तानाम्, स्वेषामनीकानां स्वेषां स्वेषामनीकाधिपतीतानां स्वेषां स्वेषामात्मअत्रापि कार्ये कारणोपचारात् सुपराक्रान्तिजनितानि सुपराक्रान्तानि रक्षकाणां 'आहेवचं पोरेवचं' इत्यादि प्राग्वत्, 'सूरियाभस्स ण' इत्युक्तं, किमुक्तं भवति ? सकलसत्त्वमैत्रीसत्यभाषणपरद्रव्यान- मित्यादि, सूर्याभस्य विमानस्यान्तः-मध्यभागे बहुसमरमणीयो भूमिपहारसुशीलादिरूपसुपराक्रमजनितानामिति, अत एव शुभानां शुभफ- भागः प्रज्ञप्तः, तस्य से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा इत्यादियानलानाम् इह किञ्चिदशुभफलमपि इन्द्रियमतिविपर्यासात् शुभफलं विमान इव वर्णनं तावद्वाच्यं यावन्मणीना स्पर्शः, तस्य बहुसमरमणीयस्य प्रतिभासते ततस्तात्त्विकशुभत्व-प्रतिपत्त्यर्थमस्यैव पर्यायशब्दमाह- भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र सुमहत् एकम् उपकारिकालयनं प्रज्ञप्त, कल्याणानां, तत्त्ववृत्त्या तथाविध-विशिष्टफलदायिनाम्, अथवा कल्या- विमानाधिप्रतिसत्कप्रासादावतंसकादीन् उपकरोति उपष्टम्नातीत्युणानाम् अनर्थोपशमकारिणां कल्याणरूपं फलविपाकं पचणुडभवमाणा' पकारिका, विमानाधिपतिसत्कप्रासादा-वतंसकादीनां पीठिका, अन्यत्र प्रत्येकमनुभवन्तो विहरन्ति आसते। त्वियमुपकार्योपकारिकेति प्रसिद्धा, उक्तं च-गृहस्थानां स्मृतं तेसि णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासाय- राज्ञामुपकार्योपकारिके ति, उपकारि-कालयनमिव उपकारिकावडेंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडेंसगा पंचजोयणसयाई उड्डं लयनं, 'तत् एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनशतउच्चत्तेणं अड्डाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अब्मुग्यमू- सहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे याजनशते सप्तविंशत्यधिके अष्टाविंशं सियपहसिया इव तहेव बहुसमरमणिजभूमिभागो उल्लोओ धनुःशतं त्रयोदश अङ्गुलान्याकुलं परिक्षेपतः, इदं च परिक्षेपप्रमाणं सीहासणं सपरिवार, तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव जम्बूद्वीपपरिक्षेपप्रमाणवत् क्षेत्रान्मासटीकातः परिभावनीयम्। पलिओवमद्वितीया परिवसंति, तं जहा-असोए सत्तपण्णे चंपए से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेण य सव्वतो चूए / सूरियाभस्स णं देवविमाणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे समंता संपरिक्खित्ते, सा णं पउमवरवेझ्या अद्धजोयणं उड़ भूमिभागे पण्णत्ते, तं जहा-वणसंडविहूणे जाव बहवे वेमाणिया उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खं भेणं उवकारियलेणसमा देवा देवीओ य आसयंतिजाव विहरंति, तस्स णं बहुसमरम- परिक्खेवेणं, तीसे णं पउमवरवेइयाए इमेयारूवे वण्णावासे णिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसे एत्थ णं महेगे उवगारि- पण्णत्ते, तं जहा-वयरामया णिम्मा रिट्ठामया पतिढाणा यालयणे पण्णत्ते, एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं वेरुलियामया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा लोहियक्खमईओ तिण्णि जोयणसयसहस्साइं सोलस सहस्साई दोण्णि य सूईओ नाणामणिमया कडेवराणाणामणिमया कडेवरसंघाडगा सत्तावीसं जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसंच धणुसयं तेरस जाणामणिमया रूवा णाणामणिमया रूवसंघाडगा अंकामया य अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं, जोयण- पक्खबाहाओ जोइरसामया वंसा वंसकवेल्लुगा रइआमईओ बाहल्लेणं, सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे। (सू०३३) | पट्टियाओजातरूवमई ओहाडणी वइरामयाउवरिपुच्छणीसवर Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1118 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम यणामई अच्छायणे, साणं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं गवक्खजालेणं खिंखिणीजालेणं घंटाजालेणंमुत्ताजालेणं मणिजालेणं कणगजालेणं रयणजालेणं पउमजालेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा जाव चिट्ठति / तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे दसे तहिं तहिं बहवे हयसंघाडा०जाव उसमसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा पासादीया / जाव वीहितो पंतीतो मिहुणाणि लयाओ। से केणटेणं मंते ! एवं दुचति-पउमवरवेइया ? गोयमा ! पउमवरवेइया णं तत्थ तत्थ देसे 2 तहिं 2 वेइयासु वेइयाबाहासु य वेइयफलतेसु य वेइयपुंडतरेसु य खंभेसु खंभबाहासु खंभसीलेसु खंभपुडंतरेसु सूयीसु सूयीमुखेसु सूईफलएसु सूईपुंडतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु पक्खपेरंतेसु पक्खपुडंतरेसु बहुयाई उप्पलाई पउमाइं कुमुयाइं णलिणातिं सुभगाइं सोगंधियाइं पुंडरीयाई महापुंडरीयाई सयवत्ताई सहस्सवत्ताई सस्वरयणामयाइं अच्छाइं पडिरूवाई महया वासिक्कयछत्तसमणाई पण्णत्ताई समणाउसो ! से एएणं अटेणं गोयमा ! एवं दुचइपउमवरवेइया / पउमवरवेइया णं भंते ! किं सासयाकिं अ०? गोयमा! सिय, सासया सिय असासया। से केणढणं मंते ! एवं वुचइ-सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया, वचपज्जवेहिं धपज्जवेहिं रसपनवेहि फासपज्जवेहिं असासया, से तेणं टेणं गोयमा ! एवं वुचतिसिय सासया सियं असासया। पउमवरवेइयाणं भंते ! कालओ केव चिरं होइ? गोयमा!ण कयाविणासि ण कयावि णत्थिन कयाविन भविस्सइ, भुविंच हवइय भविस्सइय,धुवा णिइया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया णिचा पउमवरवेइया। सेणं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चकवालविक्खंभेणं उवयारियालेणसमे परिक्खेवेणं, वण्णसंडवण्णतो भाणितव्वे जाव विहरंति। तस्सणं उवयारियालेणस्सचउहिसिंचत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता वण्णओ, तोरणाझया छत्ताइच्छत्ता,तस्स णं उवयारियालयणस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीणं फासो।(सू०-३५) तच एकया पद्मवरवेदिकया एकेन वनखण्डेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन सम्यग् परिक्षिप्तं 'सा णं पउमवरवेइया' इत्यादि सा पद्मवरवेदिका अर्द्ध योजनमूर्ध्वमुस्त्वेन पञ्च धनुःशतानि विष्क.. म्भतः परिक्षेपेण उपकारिकालयनसमानाउपकारियकालयनपरिक्षेपपरिमाणा प्रज्ञप्ता, 'तीसे ण' मित्यादि, तस्याः-पद्मवरवदिकाया अयमेतद्रूपो वर्णावासोवर्णः-श्लाघा यथावस्थितस्वरूपकीर्तनं तस्यावासोनिवासो ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावासो; वर्णकनिवेश इत्यर्थः, प्रज्ञप्तो मया | शेषतीर्थकरैश्च, तद्यथेत्यादिना तमेव दर्शयति-इह सूत्रपुस्तकेष्वन्यथाऽतिदेशबहुलः पाठो दृश्यते ततोमा भून्मतिसमोह इति विनेयजनानुग्रहाय पाठ उपदर्श्यते-'वयरामया णिम्मा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियामया खंभा सुवन्नरुप्पमया फलया लोहियक्खमईओ सुईओ वइरामया संधी नानमणिमया कडेवरा णाणामणिमया कडेवर संघाडा नानामणिमया रूवा नानामणिमया रूवसंघाडा अंकामया पक्ख अंकामया पक्खबाहाओ जोईरसामया वंसा वंसकवेल्लुपुया रझ्यामईओ पट्टियाओ जायरूमई ओहाडणी वयरामई उवरिपुंछणी सव्वरयणामए आच्छायणे एतत् सर्व द्वारवत् भावनीयं, नवरं कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि कलेवरसंघाटा मनुष्यशरीरयुग्मानि, रूपाणि-रूपकाणि रूपसंघाटा-रूपकयुग्मानि, 'सा णं पउमवरवेइया तत्थ 2 देसे 2 एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं घंटाजालेणं एगमेगेणं खिंखिणीजालेणं एगमेगेणं मुत्ताजालेणं एगमेगेणं कणगजालेणं एगमेगेणंमणिजालेणं एगमेगेणं रययजालेणं एगमेगेणं सव्वरयणजालेणं एगमेगेणंपउमजालेणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं जाला तवणज्जलंबूसगा सुवण्णपयरमंडिया नानामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुद्धयरूवा इसिमन्नमन्नमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणुत्त-रागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायमेइज्जमाणा एइज्जमाणा पलंवमाणा 2 पझुंझमाणा पझुंझमाणा ओरालेण मणुन्नेणं मणहरेणं कण्णमण-णिव्वुइकरेणं सद्देणं तं पदेसे सव्वतो समंता आपूरेमाणा सिरीएउवसोभेमाणा चिट्ठति, तीसे पउमवरवेइयाएतत्थ 2 देसे तहिं 2 हयसंघाडा नरसंघाडा किंनरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा उसभसंघाडा सव्वरयमणामया अच्छा जावपडिरूवा, एवं पंतिओ वि वीहिओ वि मिहुणाई, तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ 2 देसे तहिं 2 बहुयाओपउमलयाओणागलयाओ असोगलयाओ चंपगलयाओ वणलयाओ वांसतियलयाओ अइमुत्तगलयाओ कुंदलयाओ सामलयाओ निचं कुसुमियाओ निचं मउलियाओ निचं लवइयाओ निच्च थवइयाओ णिचं गुलइयाओ निचं गोच्छियाओ णिचं जमलियाओ निचं जुयलियाओ निचं विणमियाओ निचं पणमियाओ निश्चं सुविभत्तपडिमंजरीवडिंगसगधरीआ निचं कुसुमियमउलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुयलियविणमियपणमियपणमियसुविभत्तपङिमंजरिवडिंसगधरीओ सव्वरयणमईओ अच्छाओ०जाव पडिरूवाओ' इति अस्य व्याख्या-'सा' एवंस्वरूया 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे पद्मवरवेदिका तत्र 2 प्रदेशे एकेकेन हेमजालेनसर्वात्मना हेममयोन लम्बमानेन दामसमूहेन एकैकेन गवाक्षजालेनगवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहेन एकैकेन किङ्किणीजालेन, किङ्किण्यः-क्षुद्रघण्टिकाः, एकैकेन घण्टाजालेनकिङ्किण्यपेक्षया-किंचिन्यमहत्यो घण्टाघण्टाः, तथा एकै केन मुक्काजालेनमुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकेन मणिजालेनमणिमयेनदामसमूहेन एकैकेन कनकजालेन कनकः-पीतरूपः सुवर्णविशेषः तन्मयेन दामसमूहेन एवमेकैकेन रत्नजालेन एकैकेन पद्म Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1116 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ जालेन सर्वरत्नमयपद्मात्मकेन दामसमूहेन सर्वतः सर्वासु दिक्षु शाश्वती, कथंचिन्नित्या कथञ्चिदनित्या इत्यर्थः, स्याच्छब्दो निपातः समन्ततः सर्वासु विदिक्षु परिक्षिप्ताव्याप्ता, एतानि च दामसमूहरूपाणि कथंचिदित्येतदर्थवाची, ‘से केणखूण मित्यादि प्रश्नसूत्रं सुगम, हेमजालादीनि लम्बमानानि वेदितव्यानि, तथा चाह-- 'ते ण जाला' भगवानाह-गौतम ! द्रव्यार्थतया-द्रव्यास्तिकनयमतेन शाश्वती, इत्यादि, तानि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, प्राकृते हि लिङ्गमनियतं, | द्रव्यास्तिकनयो हि द्रव्यमेव तात्त्विकमभिमन्यते न पर्यायान्, द्रव्यं णमिति वाक्यालङ्कारे, हेमजालादीनिजालानि, क्वचित् दाम इति पाठः, चान्वयि परिणामित्वात् अन्वयित्वाच सकलकालभावीति भवतिद्रव्यातत्र तावत् हेमजालादिरूपा दामान इति, 'तवणिज्जलंबूसगा' इत्यादि र्थतया शाश्वती, वर्णपर्यायैस्तत्तदन्यसमुत्पद्यमानवर्णविशेषरूपैः, एवं हयसंघाटादिसूत्रं लतासूत्रे च प्राग्वत् / सम्प्रति पावरवेदिकाशब्दा गन्धपर्यायैः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैः उपलक्षणमेतत् तत्तदन्यपुगलप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छति-'सेकेण?णं भंते!' इत्यादि, सेशब्दोऽ विचटनोचटनैश्च अशाश्वती, किमुक्तं भवति ?-पर्यायास्तिकनयमतेन थशब्दार्थे, केनार्थेन केन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका पर्यायप्राधान्यविवक्षायानशाश्वती, पर्यायाणां प्रतिक्षणभावितया पद्मवरवेदिकात, किमुक्तं भवति? पद्मवरवेदि-केत्येवंरूयस्य शब्दस्य कियत्कालभावितया विनाशित्वात्, 'से एएणद्वेण' मित्याधुपसंहारतत्र प्रवृत्तौ किं निमित्तमिति, एवमुक्ते भगवानाह-गौतम! पद्मवरवेदि वाक्यं सुगमम् इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाहकायां तत्र तत्र एकदेशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे वेदिकासु नात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो नाशः 'नासतो विद्यते भावो, नाभावो उपदेशन-योग्यमत्तवारणरूपासु वेदिकाबाहासुवेदिकापार्श्वेषु वेइय विद्यते सतः' इति वचनात्, यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशौ तदाविर्भावतिरोभावमात्र, यथा सर्पस्य उत्फणत्व-विफणत्वे, तस्मात्सर्व पुडतरेसु' इतिद्ववेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि अपान्तरालानि तानि वस्तु नित्यमिति, एवं च तन्मतचिन्तायां संशयः-किं घटादिवत् वेदिकापुटान्तराणि तेषु, तथा स्तम्भेषु सामान्यतः स्तम्भबाहासुस्तम्भ द्रव्यार्थतया शाश्वती उत सकलकालमेकरूपेति, ततः संशयापनोदार्थ पार्श्वेषु 'खंभसीसेसु' इति स्तम्भशीर्षेषु 'खम्भपुडंतरेसु' इतिद्वौ स्तम्भौ भगवन्तं भूयः पृच्छति-पउमवरवेइयाण' मित्यादि, पद्मवरवेदिका प्राग्वत् स्तम्भपुटं तेषामन्तराणि स्तम्भपुटान्तराणि तेषु, सूचीषुफलसंबन्ध भदन्त! कालतः कियचिरं-कियन्तंकालं यावद्भति ? एवंरूपा हि कियन्तं विघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयासुतासामुपरीति तात्पर्यार्थः, 'सूईमु कालमवतिष्ठत इति? भगवानाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत् सर्वदेवाहेसु' इति यत्र प्रदेशे शूची फलकं भित्त्या मध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासन्नो सीदिति भावः अनादित्वात्, तथा न कदाचिन्न भवति, सर्वदैव वर्तमानदेशः सूचीमुखं तेषु, तथा सूचीफलकेषु सूचीभिः संबन्धिनो ये कालचिन्तायां भवतीति भावः सदैव भावात, तथा न कदाचिन्न फलकप्रदेशास्तेऽप्युपचारत् सूचिफलकानि तेषु सूचीनामध उपरि भविष्यति, किंतु भविष्यचिन्तायां सर्वदैव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यम्, वर्तमानेषु, तद्यथा सूईपुडतरेसु' इति द्वेसूच्यौ सूचीपुटं तदन्तरेषु, पक्षाः अपर्यवसितत्वात्, तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय पक्षबाहा वेदिकैकदेशविशेषास्तेषु, बहूनि उत्पलानिगर्दभकानि पद्मानि सम्प्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि च' इत्यादि, अभूच भवति च सूर्यविकासीनि कुमुदानि-चन्द्रविकासीनि नलिनानि-ईषद् रक्तानि भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रुवा मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव पद्मानि सुभगानिपद्मविशेषरूपाणि सौगन्धिकानिकहाराणि पुण्डरी सदैव स्वस्वरूपनियता नियतत्वादेव च शाश्वती-शश्वद्भनस्वभावा काणिसिताम्बुजानि तान्येव महान्ति महापुण्डरीकाणि शतपत्राणि-- शाश्वतत्वादेव च सततं गङ्गासिन्धुप्रवाह-प्रवृत्तावपि पौण्डरीकहृद पत्रशतकलितानि सहस्रपत्राणिपत्रसहस्रोपेतानि, शतपत्रसहस्रपत्रे च इदानेकपुद्गलविचटनेऽपि तावन्मात्रान्य-पुद्गलोचटनसंभवादक्षया, न पद्मविशेषौ पत्रसंख्याविशेषाच पृथगुपात्ते, एतानि सर्वरत्नमयानि विद्यते क्षयो यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा अक्षया, अक्षय'अच्छा' इत्यादि, विशेषणजातं प्राग्वत्, 'महया वासिकछत्तसमाणाई' त्वादेव अव्ययाअव्ययशब्दवाच्या मनागपिस्वरूपचलनस्यजातुचिदप्यइति महान्ति-महाप्रमाणानि वार्षिकाणि वर्षाकाले पानीयरक्षार्थ यानि भावात्, अव्ययत्वादेव सदैव स्वस्व-प्रमाणेऽवस्थिता, मानुषोत्तराद् कृतानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च तत्समानानि प्रज्ञप्तानि हे बहिः समुद्रवत्, एवं स्वप्रमाणे सदावस्थानेन चिन्त्यमानां नित्या श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'से एएणमटेण' मित्यादि, तदेतेन अर्थेन–अन्वर्थेन धर्मास्त्किायदिवत्, ‘से ण' मित्यादि, सा 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे गौतम ! एवमुच्यते-पद्मवरवेदिकेति तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु प्रदेशेषु यः | पद्मवरवेदिका एकेन वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् परिक्षिप्ता, स च थोक्तरूपाणि पद्मानि पद्मवरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमिति भावः, वनखण्डो देशोने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भतः उपकारिकालयनव्युत्पत्तिश्चैवं-पद्मवरा-पद्मप्रधाना वेदिका पद्मवरवेदिकेति। 'पउम- परिक्षेपपरिमाणः, वनखण्डवर्णकः "किण्हे किण्होमासे' इत्यादिरूपः वरवेझ्या णं भंते ! किं सासया' इत्यादि, पद्मवरवेदिका 'ण' मिति पूर्ववत् समस्तोऽपि प्राग्वत् यवद्धिहरन्ति, 'तस्स ण ' मित्यादि , तस्यकिं शाश्वती उताऽशाश्वती, याबन्ततया सूत्रे निर्देशः प्राकृतत्वात्, किं | उपकारिकालयनस्य 'चउद्दिसिं' तिचतुर्दिशिचतसृषु दिक्षुएकैकस्यां दिशि नित्या उताऽनित्येति भावः, भगवानाह-गौतम! स्यात् शाश्वती स्याद- | एकैकमावेन चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि-प्रतिविशिष्टलपकाणि त्रिसो Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1120 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ पानानि प्रज्ञप्तानि, त्रिसोपानवर्णको यानविमानवत् वक्तव्यः, तेषां च योजनशतं विष्कम्भेन, तेषामपि 'अब्भुग्गमूसिय-पहसियाविवे' त्यादि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकमेकैकं तोरणं, तोरणवर्णकोऽपि स्वरूपवर्णनं मध्यभूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं च प्राग्वत्, तेषां च तथैव, 'तस्सण' मित्यादि, तस्य उपकारिकालयनस्य 'बहुसमरमणिजे प्रासादावतंसकानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, भूमिभागे' इत्यादिना भूमिभागवर्णनकं यानविमानवर्णकवत्तावद्वाच्यं तेषां च सिंहासनानां वर्णनं प्राग्वत्, नवरमत्र शेषाणि परिवारभूतानि यावन्मणीनां स्पर्शः। भद्रासनानि वक्तव्यानि, 'तेणं पासायवडेंसया' इत्यादि,ते प्रासादावतस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए- तंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैः ‘तय चत्तप्पमाणमेत्तेहिं तेषां एत्थणं महेगे पासायवडेंसएपण्णत्ते, से णं पायासवडिंसते पंच मूलप्रासादावतंसकपरिवारभूतानां प्रासादावतंसकानां यदर्द्ध तदुचत्वजोयणसयाइं उखु उच्चत्तेणं अड्डाइजाइंजोयणसयाई विक्खंभेणं प्रमाणमात्रैः-मूलप्रासादावतंसकापेक्षया चतुर्भागमात्रप्रमाणैः सर्वतः अब्भुग्गयमूसिय वण्णतो भूमिभागो उल्लोओ सीहासणं समन्तात्संपरिक्षिप्ताः, तद|चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-'तेण' मित्यादि, सपरिवार भाणियव्वं, अट्ठ मंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता, सेणं ते प्रासादावतंसकाः पञ्चविंशं योजनशत-मूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन द्वाषष्टियोजनानि मूलपासाय-वडेंसगे अण्णेहिं चउहि पसायवडेंसरहिं तयधुच अर्द्धयोजनं च विष्कम्भतः, तेषामपि 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविवे' त्तप्पमाणमेत्तेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं पासाय त्यादि स्वरूपवर्णनं मध्यभागे भूमिवर्णनमुल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णन वडेंसगा अड्डाइजाई जोयणसयाई उद्धं उच्चत्तेणं पणवीसं च सर्व प्राग्वत्, केवलमत्रापि सिंहासनं सपरिवारं वक्तव्यं, 'ते ण' जोयणसयं विक्खंभेयं जाव वण्णओ, ते णं पासायवडिंसया मित्यादि, ते च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तअण्णेहिं चउहिं पासायवडिसएहिं तयधुचत्तप्पमाणमेत्तेहिं दोच्चत्वप्रमाणैः-अनन्तरोक्तप्रासादावंतसकार्बोच्चत्वप्रमाणैर्मूलसव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, ते णं पासायवडेंसया पणवीसं प्रासादावतंसकापेक्षया (अष्ट)भाग-प्रमाणैः सर्वतः समन्तात् संपजोयणसयं उद्धं उचत्तेणं बावडिं जोयणाई अद्धजोयणं च रिक्षिप्ताः, तदोचत्वप्रमाणमेव दर्शयति-'ते ण' मित्यादि, ते च विक्खंभेणं अन्भुण्यमूसिय वण्णओ भूमिभागे उल्लोओ प्रासादावतंसका द्वाषष्टियोजनानि अर्धयोजनं च ऊर्ध्वमुचेस्त्वेन एकत्रिंशतं योजनानि क्रोशं च विष्कमभतः, एषामपि 'अब्भुग्गयभूसिए' सीहासणं सपरिवार माणियव्वं, अट्ठ मंगलगा झया छत्ताति त्यादि स्वरूपर्णनं मध्यभागे भूमिवर्णनम् उल्लोकवर्णनं सिंहासनवर्णनं च्छत्ता, ते णं पासायवडेंसगा अण्णेहिं चउहिं पासायवडेंसएहिं च परिवाररहितं प्राग्वत्, 'ते ण मित्यादि, तेऽपि प्रासादावतंसका तदधुञ्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता, ते णं अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोच्चत्वप्रमाणैः-अनन्तरोक्तपासायवडेंसगा बावर्टि जोयणाई अद्धजोयणं च उडे उच्चत्तेणं प्रासादावतंसकार्बोच्चत्वप्रमाणैर्मूलप्रासादावतंसकापेक्षया षोडशभागएक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं वण्णओ, उल्लोओ प्रमाणैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, अझैच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयतिसीहासणं सपरिवार पासायउवरिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया एकत्रिंशद्योजनानि क्रोशं च ऊर्ध्वमुच्चेस्त्वेन पञ्चदश योजनानि अर्द्धछत्तातिछत्ता। (सू०३५) तृतीयांश्च क्रोशान् विष्कम्भतः, एतेषामपि स्वरूपादिवर्णनमनन्तरोक्तं, तस्य च बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्र महानेको 'ते ण' मित्यादि, तेऽपि च प्रासादावतंसका अन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतमूलप्रासादावतंसकः प्रज्ञप्तः, स च पञ्च योजनशतान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन सकैस्तदोचत्वप्रमाणैः-अनन्तरोक्तप्रासादावतंसका-ोच्चत्यप्रमाणे अर्द्धतृतीयानि योजनशतानि विष्कम्भतः 'अब्भुग्गयमूसियपहसियाविवे' सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः अोच्चत्वप्रमाणमेव दर्शयति-पञ्चदश त्यादि तस्य वर्णनं मध्ये भूमिभागवर्णनमुल्लोकवर्णनं द्वारबहिः योजनानि अर्द्धतृतीयांश्च क्रोशान् ऊर्ध्वमुच्चस्त्वेन देशोनान्यष्टौ स्थितप्रासादवद्भावनीयं, तस्य च मूलप्रासादावतंसकस्य बहुमध्ये योजनानि विष्कम्भेन एषामेव स्वरूपव्यावर्णनं भूमिभागवर्णनम् उल्लोदेशभागेऽत्र महती एव मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, अष्टौ योजनान्यायाम- कवर्णनं सिंहासनवर्णनं च परिवारवर्जितं प्राग्वत्। विष्काम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्यतः सर्वात्मनाः मणिमयी तस्सणं मूलपासायवडेंसयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थणं सभा 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् / 'तीसे ण' मित्यादि, सुहम्मा पण्णत्ता, एगं जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महदेकं सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तस्य विक्खंभेणं बावत्तरि जोयणाई उड्डं उच्चत्तेणं अणेगखंभसय सिंहासनस्य वर्णनं, परिवारभूतानि शेषाणि भद्रासनानि प्राग्वद्वक्त- संनिविट्ठा अब्मुग्गयसुकयवयरवेझ्यातोरणवररइसालिभंजिया व्यानि, 'सेण' मित्यादि,समूलप्रासादावतंसकोऽन्यैश्चतुर्भिः प्रासादाव- जाव अच्छरगणसंघविप्पकिण्णा पासादीया दरिसणिज्जा तंसकैस्तदोचत्वप्रमाणैः सर्वतः समन्ततः परिक्षिप्तः, तदोच्चत्व- अभिरुवापडिरूवासभाएणंसुहम्माएतिदिसिंतओदारापण्णत्ता, प्रमाणमेव दर्शयति-अर्द्धतृतीयानियोजनशतान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेन, पञ्चविंश तंजहा-पुरत्थिमेणंदाहिणेणं उत्तरेणं,तेणंदारासोलस जोयणाई Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1121 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ उल्लं उच्चत्तेणं अट्ठ जोयणाइं विक्खंभेणं तावतियं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूमियागा जाव वणमालाओ, तेसि णं दाराणं उवरिं अट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता, तेसि णं दाराणं पुरओ पत्तेयं 2 मुहमंडवा पण्णत्ता, ते णं मुहमंडवा एगं जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं साइरेगाई सोलस जोयणाई उड्ढे उच्चतेणं वण्णओ सभाए सरिसो, तेसि णं मुहमंडवाणं तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता, तं जहा-पुरस्थिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं, ते णं दारा सोलस जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अट्ठ जोयणाइं विक्खं भेणं तावइयं चेव पवेसेणं से या वरकणगथूभियागा जाव वणमालाओ / तेसि णं मुहमंडवाणं भूमिभागा उल्लोया तेसिणं मुहमंडवाणं उवरिं अट्ठट्ठ मंगलया झया छत्ताइछत्ता / तेसि णं मुहमंडवाणं पुरतो पत्तेयं 2 पेच्छाघरमंडवे पण्णत्ते, मुहमंडववत्तव्वया ०जावदारा भूमिभागा उल्लोया / तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामए अक्खाडए पण्णत्ते, तेसि णं | वयरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभागे पत्तेयं 2 मणिपेढियापण्णत्ता,ताओणं मणिपेढियातो अट्ठजोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारिजोयणाईबाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेठियाणं उवरि पत्तेयं 2 सीहासणे पण्णत्ते, सीहासणवण्णओ सपरिवारो, तेसिणं पेच्छाघरमंडवाणं उवरिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि णं | पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ पत्तेयं 2 मणिपेठियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेढियातो सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ पडिरूवाओ, तेसिणं उवरिं पत्तेयं २थूभे पण्णत्ते, ते णं थूमा सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं सोलस जोयणाई उड्डं उचत्तेणं, सेया संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिगासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिणं थूभाणं उवरि अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसि णं थूभाणं चउहिसिं पत्तेयं 2 मणिपेढियातो पण्णतओ, ताओ णं मणिपेढियातो अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सवमणिमईओ अच्छाओ ०जाव पडिरूवतो, तेसि णं मणिपेढियाणं उवरिं चत्तारि जिणपडिमातो जिणुस्सेहपमाणभेत्ताओ संपलियंकनिसन्नाओ थूभाभिमुहीओ सन्निखित्ताओ चिट्ठति, तं जहा-उसभा 1 वद्धमाणा 2 चंदाणणा 3 वारिसेणा 5, तेसि णं थूमाणं पुरतो पत्तेयं पत्तेयं मणिपेठियातो पण्णत्ताओ, ताओणं मणिपेढियातो सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ जाव पडिरूवातो, तासिणं मणिपेढियाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं चेइयरुक्खे पण्णत्ते, ते णं चेइयरुक्खा अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं अट्ट जोयणाई उव्वे हेणं दो जोयणाई खंधा अद्धजोयाणं विक्खंभेणं छ जोयणाई विडिमा बहुमज्झदेसभाए अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई अट्ठ जोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता, तेसिणं चेइयरुक्खाणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-वयरामया मूला रययसुपइट्ठिया सुविढिमा रिट्ठामयविउला कंदा वेरुलिया रुइलाखंधा सुजायवरजायरूवपढमगा विसालसाला नाणामणिमयरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिजपत्तबिंटा जंबूणयस्त्तमउय-सुकुमालपवालसोमिया वरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेण नमियसाला अहियं मणनयणणिटदुइकरा अमयरससमरसफला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया०४, तेसिणं चेइयरुक्खाणं उवरिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता, तेसिणं चेयरुक्खाणं पुरतो पत्तेयं रमणिपेढियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं मणिपेठियाओ अह जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाईबाहल्लेणं सवमणिमईओ सच्छाओ जाव पडिरूवाओ, तासि णं मणिपेढियाणं उवरि पत्तेयं 2 महिंदज्झया पण्णत्ता, ते णं महिंदज्झया सट्टि जोयणाई उठं उच्चत्तेणं जोयणं उव्वेहेणं जोयणं विक्खंभेणं वइरामया वट्टलट्ठसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्ठसुपतिहिया विसिट्ठा अणेग-वरपंचवण्णकुडमिसहस्सपरिमंडियामिरामा वाउद्भूयविजय-वेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिया तुंगा गयणतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया०४, अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिछत्ता, तेसिणं महिंदज्झयाणं पुरतो पत्तेयं 2 नंदा पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, ताओ णं पुक्खरिणीओ एग जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाई विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ०जाव वण्णओ एगइयाओ उदगरसेणं पण्णत्ताओ, पत्तेयं 2 पउमवरवेझ्यापरिक्खित्ताओ पत्तेयं 2 वणसंडपरिक्खित्ताओ, तासि णं णंदाणं पुक्खरिणीणं तिदिसिं तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तिसोवाणपडिरूवगाणं वण्णओ, तोरणा झया छत्तातिछत्ता / सभाए णं सुहम्माए अडयालीसं मणोगुलिासाहस्सीओ पण्णत्ताओ,तं जहा-पुरच्छिमेणं सोलस साहस्सीओ पञ्चच्छिभेणं सोलस साहस्सीओ दाहिजेणं अट्ठ साहस्सीओ, उत्तरेणं अट्ठसाहस्सीओ,तासुणं मणोगुलियासुबहवे Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ ११२२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम सुवण्णरुपमया फलगा पण्णत्ता, तेसुणंसुवन्नरप्पमएसु फलगेसु ते विशिष्टलष्टसंस्थिताः प्रशस्ताः-प्रशंसास्पदीभूता वैडूर्यस्तम्भाबहवे वइरामया णागदंतापण्णत्ता, तेसुणं वइरामएसुणागदंतएसु / वैडूर्यरत्नमयाः स्तम्भा यस्यां सा तथा, वररचितशालभञ्जिका किण्हसुत्तवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा चिटुंति, सभाए णं सुश्लिष्टविलिष्टलष्ट-संस्थितप्रशस्तवैडूर्यस्तम्भास्ततः पूर्वपदेन सुहम्माए अडयालीसंगोमाणसियासाहस्सीओ पन्नत्ताओ, जहा कर्मधारयः समासः, तथा नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स मणोगुलिया ०जाव णागदंतगा, तेसु णं णागदंतएसु बहवे नानामणिकरत्नखचितः, क्तान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्, रययामया सिक्कगा पण्णत्ता, तेसुणं रययामएसु सिक्कगेसु बहवे नानामणिकनकरत्नखचित उज्ज्वलो-निर्मलो बहुसमः-अत्यन्तसमः वेरुलियामईओ धूवघडियाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं धूपघडि- सुविभक्तो निचितो-निविडोरमणीयश्च भूमिभागोयस्यां सा नानामणियाओ कालागुरुपवर जाव चिटुंति, सभाए णं सुहम्माए अंतो कनकखचितरत्नोज्ज्वलबहुसमसुविभक्त (निचित) भूमिभागा, बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते ०जाव मणीहिं उवसोभिए 'ईहामियउसभतुरगनरमगरबिहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवमणिफासो य उल्लोयओ य, तस्सणं बहुसमरमणिज्जस्स भूमि- णलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्यवर-वेझ्याभिरामा विजाहरजमलजुभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता गलजंतजुत्ताविय अचीसहस्समालिणीया रूवगसहस्सकलिया मिसिसोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाई बाहल्लेणं माणा भिभिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा सव्वमणिमयी जाव पडिरूवा, तीसे णं मणिपेढियाए उवरि कंचणमणिरयणथूभियागा नानापंचवण्णघंटापडागपरिमंडियग्गसिहरा एत्थणं माणदए चेइयखंभे पण्णत्ते, सद्धिं जोयणाइंउडं उच्चत्तेणं धवला मरीइकवचं विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरससुरजोयणं उटवे हेणं जोयणं विक्खंभेणं अडयालीसं अंसिए भिरत्तचंदणददरदिन्नपंचंगुलितला उपचियचंदणकलसवंदणघडसुकयअडयालीसं सइकोडीए अडयालीसं सइविग्गहिए सेसं जहा तोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदाममहिंदज्झयस्स, माणवगस्स णं चेइयखंभस्स उवरिं बारस कलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपबरजोयणाई ओगाहेत्ता हेट्ठावि बारस जोयणाई वजेत्ता मज्झे कुंदुरु-कतुरुकधूवडज्झंतमघतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवबत्तीसाए जोयणेसु, एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा ट्टिभूया अच्छरगण-संघसंविकिण्णा दिव्वतुडियसहसंपणादि या पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पमएसु फलएसुबहवे वइरामया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ' इति प्राग्वत् / 'सभाए ण' णागदंता पण्णत्ता, तेसुणं वइरामएसुनागदंतेसुबहवे रययामया मित्यादि, सभायाश्च सुधर्मायास्त्रिदिशितिसुख दिक्षु एकैकस्यां दिशि सिक्कगा पण्णत्ता, तेसुणं रययामएसु सिक्कएसुबहवे वइरामया एकैकदूरभावेन त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-एक पूर्वस्यामेकं गोलवट्टसमुग्गया पण्णत्ता, तेसुणं वयरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु दक्षिणस्यामेकमुत्तरस्यां, तानिचद्वाराणि प्रत्येकं षोडश 2 योजनान्यूबहवे जिणसकहातो संनिखित्ताओ चिट्ठति। ताओ णं सूरिया- र्ध्वमुच्चैस्त्वेन अष्टौ योजनानि विष्कम्भतः 'तावइयं चेवे' तावन्त्येवाष्टौ भस्स देवस्स अन्नेसिंच बहूणं देवाणं य देवीण य अचणिज्जओ योजनानीति भावः प्रवेशेन, 'सेया वरकणगथूभिया' इत्यादि प्रागुक्त जाव पज्जुवासणिज्जातो माणवगस्स चेइयखंभस्स उवरिं अट्ठ द्वारवर्णनं तदेव तावद्वक्तव्यं यावद्वनमाला इति, तेषां च द्वाराणां पुरतः मंगलगा झया छत्ताइच्छत्ता / (सू०३६) प्रत्येकं 2 मुखमण्डपः प्रज्ञप्तः, तेच मुखमण्डपा एकं योजनशतमायामतः 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य मूलप्रासादावतंसकस्य 'उत्तरपुरच्छिमेणं' पञ्चाशत् योजनानि, विष्कम्भतः सातिरेकाणि षोडश योजनानि ति उत्तरपूर्वस्यामीशानकोणे इत्यर्थः, अत्र सभा सुधर्माप्रज्ञप्ता सुधर्मा ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, एतेषामपि 'अणेगखंभसयसंनिविट्ठा' इत्यादि वर्णन नाम विशिष्टच्छन्दकोपेता, सा एक योजनशतमायामतः पञ्चाशत्योज- सुधर्मसभाया इव निरवशेषं द्रष्टव्यं, तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रत्येक नानि विष्कम्भतः द्वासप्तत्तियोजनानि ऊर्ध्वमुचैस्त्वेन, कथंभूता सा ? | २प्रेक्षागृहमण्डपः प्रज्ञप्तः, तेच प्रेक्षागृहमण्डपा आयामविष्कमभोचैस्त्वैः इत्याह-'अणेगे' त्यादि, अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टा 'अब्भुग्गयसुकय- प्राग्वत् तावद्वाच्यं यावन्मणीनां स्पर्शः, तेषां च बहुरमणीयानां भूमिवयर-वेइयातोरणवररइयसालिभंजियासुसिलिट्ठविसिठ्ठलट्ठसंठिय- भागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येकं 2 वजमयोऽक्षपाटकः प्रज्ञप्तः, तेषां च पसत्थवेरुलियविमलखंभा' इति, अभ्युद्गता--अतिरमणीयतया द्रष्टणां वजमयानामक्षपाटकानां बहुमध्यदेशीभागे प्रत्येकं 2 मणिपीठिका अष्ट प्रत्यभिमुखं उत्-प्राबल्येन स्थिता सुकृतेव सुकृता निपुणशिल्पिरचितेति योजनान्यायाम-विष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन--पिण्डभावः, अभ्युद्ता चासौ सुकृता च अभ्युद्गतसुकृता वज्रवेदिका- भावेन सर्वात्मना मणिमयाः 'अच्छाओ' इत्यादि विशेषणजातं प्रागिव / द्वारमुण्डिकोपरि वज्ररत्नमया वेदिका तोरणं च अभ्युद्गतसुकृतं यत्र सा | तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं 2 सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तेषां च तथा, वराभिः-प्रधानाभिः रचिताभिः रतिदाभिर्वा शालिभञ्चिकाभिः |. सिंहासनानां वर्णनं परिवारश्च प्राग्वद्वक्तव्यः, तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपसुश्लिष्टाः-संबद्धा विशिष्ट-प्रधानलष्ट-मनोज्ञं संस्थितं-संस्थानं येषां | नामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि प्राग्व Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1123 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम त, तेषां प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतः प्रत्येकं 2 मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, ताश्य मणिपीठिकाः प्रत्येकं षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाहल्येन सर्वात्मना मणिमयाः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत्, तासां च मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं 2 चैत्यस्तूपः प्रज्ञप्तः, ते च चैत्यस्तूपाः षोडशयोजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि षोडश योजनान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेन 'संखंके' त्यादि तद्वर्णनं सुगम, तेषां च चैत्यस्तूपानामुपर्यष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि 'जाव सहस्सपत्तहत्थया' इति यावत्कारणात् 'तेसिं चेइयथूभाणं उप्पिं बहवे किण्हचामरज्झया जाव सुकिलचामरज्झया अच्छा सण्हा सप्पषट्टवइरदंडा जमलजामलगंधी सुरूवा पासाइया जाव पडिरूवा, तेसिं चेइयथूमाणं उप्पिं बहवे छत्ताइच्छत्ता पड़ागा घंटाजुगला उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्दारयणामया ०जाव पडिरूवा' इतिद्ध एतच समस्तं प्राग्वत् / 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्य-तूपानां प्रत्येकं 2 'चउद्विसि सि चतुर्दिसि-चतसृषु दिक्षु एकैकस्यां दिसि एकैकमणिपीठिकाभावेन चतस्रो मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारियोजनानि बाहल्येन सर्वात्मना मणिमया 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, तासांच मणिपीठिकानामुपरि एकैकप्रतिमाभावेनचतम्रो जिनप्रतिमा जिनोत्सेधप्रमाणमात्राः, जिनोत्सेध उत्कर्षतः पञ्च धनुःशतानि जघन्यतः सप्त हस्ताः, इह तु पञ्च धनुःशतानि संभाव्यन्ते, "पलियंकसंनिसन्नाउ' इति पर्यङ्कासन-सन्निषण्णाः, स्तूपाभिमुख्यः संनिक्षिप्ताः, तथा जगत्स्थितिस्वाभाव्येन सम्यग्निवेशितास्तिष्ठन्ति, तद्यथा-ऋषभावर्द्धमाना चन्द्रानना वारिषेणा इति, 'तेसिण' मित्यादि, तेषां चैत्यस्तूपानां पुरतः प्रत्येकं 2 मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताःताश्च मणिपीठिकाःषोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाहल्यतः 'सव्वमणिमईओ' इत्यादि प्राग्वत्, तासांच मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येक 2 चैत्यवृक्षा अष्टौ योजनान्यूज़-मुस्त्वेनाद्धयोजनमुद्वेधेन-उण्डत्वेन द्वे योजने उचैस्त्वेन स्कन्धः स एवार्द्ध योजनं विष्कम्भतया बहुमध्यदेशभागे विडिमा-उज़ विनिर्गताशाखा साऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन षड्योजनानि अष्टौ योजनानि विष्कम्भेन सर्वाग्रेण सातिरेकेणाष्टौ योजनानि प्रज्ञप्तास्तेषां चैत्यवृक्षाणामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तस्तथा 'वइरामयमूला रययसुपइष्ठियविडिमा वज्राणि-वज्रमयानि मूलानियेषां ते वज्रमयमूला रजते सुप्रतिष्टिता विडिमा बहुमध्यदेशभागे ऊर्ध्व विनिर्गता शाखा येषां ते रजतसु-प्रतिष्ठितविडिमास्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः समासः, 'रिहामयकंदे वेरुलियरुइलखंधे' रिष्ठमयो रिष्ठरत्नमयः कन्दो येषां ते रिष्ठमयकन्दाः, तथा वैडूर्यरत्नमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, 'सुजायवरजायरूवपढमगविसालसाला' सुजातंमूलद्रव्यशुद्धं वरं-प्रधानं यत् जातरूपं तदात्मकाः प्रथमका-मूलभूता विशालाः शाखा येषां ते सुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशालाः शाखा येषां ते सुजातवरजातरूपप्रथमकविशालशालाः 'नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरूलियपत्ततवणिज्जपत्तबिंटा' इति नानामणिरत्ना त्मिका विविधाः शाखाः प्रशाखा येषां ते तथा वैडर्याणि-वैडूर्यमयानि पत्राणि येषां ते तथा तपनीयमयानिपत्रवृन्तानि येषां तेतथा, ततः पूर्ववत् पदद्वय 2 मीलनेन कर्मधारयः, 'जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवरंकुरधरा' जाम्बूनदा-जाम्बूनदसुवर्णविशेषमया रक्तारक्तवर्णा मृदवः-मनोज्ञाः सुकुमारा-सुकुमारस्पर्शाः प्रवाला-ईषदुन्मीलितपत्रभावाः पल्लवाः-- संजातपरिपूर्णप्रथमपत्रभावरूपा वराकुराःप्रथममुद्विद्यमाना अड्कुरास्तान् धरन्तीति जाम्बूनदरक्तमृदुसुकुमारप्रवालपल्लवाकुरधराः 'विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरेण नमियसाला' इति विचित्रमणिरत्नमयानि यानि सुरभीणिं कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिताःशाला:-शाखायेषां तेतथा, तथा सतीशोभना छाया येषां ते सच्छायाः, सती–शोभना प्रभाकान्तिर्येषां ते. सत्प्रभाः, अत एव सश्रीकाः, तथा सह उद्द्योतेन वर्त्तन्ते मणिरत्नानामुद्द्योतभावात् सोयोताः, अधिकं नयनमनोनिवृतिकरा अमृतरससमरसानि फलानि येषां ते तथा, 'पासाईया' इत्यादिविशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्। एते च चैत्यवृक्षा अन्यैर्बहुभिस्तिलकलवकच्छत्रौप-गशिरीषसप्तपर्णदधिपर्णलुब्धकधवलचन्दननीपकुटजपनसतालतमालप्रियालप्रियड्गुपारापत-राजवृक्षनन्दिवृक्षैः सर्वतः-समन्तात् संपरिक्षिप्ताः, ते च तिलका यावन्नन्दिवृक्षा मूलमन्तः कन्दमन्त इत्यादि सर्वमशोकपादपवर्णनायामिव तावद्वक्तव्यं यावत् परिपूर्ण लातवर्णनं, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां चैत्यवृक्षाणामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णधामरध्वजा इत्यादि चैत्यस्तूप इव तावद्वक्तव्यं यावद् बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः सर्वरत्नमया यावत् प्रतिरूपका इति, 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरतः प्रत्येक मणिपीठिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च मणिपीठिका अष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि, बाहल्यतः 'सव्वरयणामईओ' इत्यादिप्राग्वत्, तासांच मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं महेन्द्रध्वजाः प्रज्ञप्ताः, ते च महेन्द्रध्वजाः षष्टियोजनान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेन अर्द्धक्रोशम्-अर्द्धगव्यूतमुद्वेधेन-उण्डत्वेन अर्द्धक्रोश विष्कम्भतः 'वइरामयवट्टलट्ठसंठिय-सुसिलिट्ठपरिघट्टमट्ठ-सुपइढ़िया' इति वज्रमया वज्ररत्नमया तथा वृत्तं-वर्तुलंलष्ट मनोज्ञंसंस्थित--संस्थानं येषां ते वृत्तलष्टसंस्थितास्तथा सुश्लिष्टा यथा भवन्ति एवं परिघृष्टा इव खरशाणया पाषाणप्रतिमेव सुश्लिष्टपरिघृष्टाः मृष्टाः सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत् सुप्रतिष्ठिता मनागपि चलनासंभवात्, ततो विशेषणसमासः, 'अणेगवरपंचवन्नकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्धृयविजय-वेजयंतीपडागा छत्ताइच्छत्तकलिया तुंगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासांईया जावपडिरूवा' इति प्राग्वत्, 'तेसिण' मित्यादि, तेषां महेन्द्रध्वजानामुपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानिबहवः कृष्णचामरध्वजा इत्यादि तोरणवत् सर्वं वक्तव्यं, तेषां च महेन्द्रध्वजानां पुरतः प्रत्येकं नन्दाभिधाना पुष्करिणी प्रज्ञप्ता, एकंयोजनशतमायामतः पञ्चाशत् योजनानि विष्कम्भतः द्वासप्ततियोजनान्युद्वेधेन-उण्डत्येन; तासांचनन्दापुष्करिणीनाम् अच्छाआ सहाओ रययामयकूलाओ' इत्यादि वर्णनं प्राग्वत्, ताश्च नन्दापुष्करिण्यः प्रत्येकं 2 पद्मवरवेदिकया प्रत्येक 2 वनखण्डन परिक्षिप्ताः, तासां च नन्दा Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1124 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ पुष्करिणीनां प्रत्येकं त्रिदिशि त्रिसोपानप्रतिरूपकतोरणवर्णनं प्रागिव / चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा जाव पडि'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादि, सभायां सुधर्मायामष्टचत्वारिंशन्मनो- रूवा, तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं महेगे देवसयणिज्जे गुलिकासहस्राणिपीठिकाससहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-पूर्वस्यां दिशि पण्णत्ते, तस्स णं देवसयणिज्जस इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, षोडश मनोगुलिकासहस्राणि, षोडश सहस्राणि पूर्वतः, षोडश सहस्राणि तं जहा-णाणामणिमया पडिपाया सोवनिया पाया णाणामणिपश्चिमायामष्टौ सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्त्राणि उत्तरतः, तेष्वपि मयाइं पायसीयगाई जंबूणयमयाइं गत्तगाई णाणामणिमए विचे फलकनागदन्तकमाल्यदामवर्णनं प्राग्वत् सिक्कगवर्णनं धूपघटिकावर्णन रययामया तूली तवणिञ्जमया गंडोवहाणया लोहियक्खमया द्वारवत्। 'सभाएणं सुहम्माए इत्यादि, सभायां सुधर्मायाम् अष्टाचत्वा- बिब्बोयणा, से णं सयणिले उभओ बिम्बोयणं दुहतो उण्णते रिंशत् गोमानसिकाः शय्यारूपस्थानविशेषास्तेषां सहस्राणि प्रज्ञप्तानि मज्झे एतगंभीरे सालिंगणवट्टिए गंगापुलिनवालुयाउद्दालतद्यथा-षोडश सहस्राणि पूर्वतः षोडश सहस्राणि पश्चिमायामष्टी सालिसए सुविरइयरयत्ताणे उवचियखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे सहस्राणि दक्षिणतोऽष्टौ सहस्राणि उत्तरतः, तास्वपि फलककर्णनं रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आईणगरूयबूरणवणी यतुलफासे मउले। नागदन्तवर्णनं सिक्कगवर्णनं धूपघटिकावर्णनं च द्वारवत्, 'सभाए णं (सू०३७) सुहम्माए' इत्यादिना भूमिभागवर्णनं 'सभाए णं सुहम्माए' इत्यादिना 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य माणवकस्य चैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि उल्लोकवर्णनं च प्राग्वत्, 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा च अष्टो योजनान्यायामविष्कभूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महती एका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, षोडश म्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन 'सव्वम-णिमया' इत्यादि प्राग्वत् / योजनान्यामविष्कम्भाभ्यां अष्टौ योजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयी तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्तं तस्य च इत्यादि प्राग्वत्, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि महानेको माणवकनामा देवशयनीयस्य अयमेतद्रूपो वर्णावासोवर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथाचैत्यस्तम्भः यज्ञप्तः, षष्टियोजनान्यूर्ध्वमुच्चेस्त्वेन योजनमद्धेन योजनं नानामणिमयाः प्रतिपादा-मूलपादानां प्रतिविशिष्टोपष्टम्भकरणाय पादाः विष्कम्भेण अष्टाचत्वारिंशदसिकः अडयालीसइ कोडीए अडयालीसइ प्रतिपादाः, सौवर्णिकाः-सुवर्णमयाः पादाः-मूलपादाः, नानामणिविग्गहिए' इत्यादि सम्प्रदायगम्यं, 'वइरामयवट्ठलट्ठसंठिए' इत्यादि मयानि पादशीर्षकाणि जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईषादीनि व्रजमयामहेन्द्रध्वजवत् वर्णनं निरवशेषं तावद्वक्तव्यं यावत् 'सहस्सपत्तहत्थगा वजरत्नापूरिताः सन्धयः 'नानामणिमये विचे' इति नानामणिमयं व्यूतंसव्वरयणामया ०जाव पडिरूवा इति, तस्य च माणवकस्य चैत्यस्त- विशिष्टवानं रजतमीय तूली लोहिताक्षमयानि "बिब्बोयणा' इति म्भस्य उपरि द्वादश योजनानि अवगाह, उपरि तनभागात् द्वादश उपधानकानि, आह च जीवाभिमग-मूलटीकाकारः-'बिब्बोयणायोजनानिवर्जयित्वेति भावः, अधस्तादपि द्वादशयोजनानि वर्जयित्वा उपधानकान्युच्यन्ते' इति, तपनीयमय्यो गण्डोपधानिकाः, 'सेणं देवसमध्ये षट्त्रिंशति योजनेषु' बहव सुवण्णरुप्पमया फलका' इत्यादि णिज्जे' इत्यादि, तद्देवशयीनयं सालिङ्गनवर्तिकं सह आलिङ्गनवाफलकवर्णनं नागदन्तवर्णनं सिक्कवर्णनं च प्राग्वत्, तेषु च रजतमयेषु शरीरप्रमाणेनोपधानेन यत् तत्तथा, 'उमओ बिब्बोयणे' इति उभयतःसिक्केषु बहवो वज़मया गोलवृत्ताः समुद्रकाः प्रज्ञप्ताः, तेषु च वजमयेषु उभौ-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य बिब्बोयणे-उपधानं यत्र तत् 'उभयतो समद्गकेषुबहूनि जिनसक्थीनि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, यानि सूर्याभस्य बिब्बोयणं 'दुहतो उन्नते' इति उभयत उन्नतं 'मझे एतगंभीरे' मध्ये नतं देवस्य अन्येषां च बहूनां वैमानिकानां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि च तत् निम्नत्वात् गम्भीरं च-महत्त्वान्नतगम्भीरं गङ्गापुलिमवालुकाया चन्दनैः वन्दनीयानि स्तुत्यादिना पूजनीयानि पुष्पादिना माननीयानि अवदालो-विदलनं पादादिन्यासे अधोगमनमिति भावः तेन 'सालिसए' बहुमानतः सत्करणीयानि वस्त्रादिना कल्याणं मङ्गल दैवतं चैत्यमिति इति सदृशकं गङ्गापुलिनवालुकावदातसदृशकं दृश्यते चायं प्रकारो बुद्ध्या पर्युपासनीयानि, 'तस्स णं चेइयखंभस्स उवरि बहवे अट्ठट्ठ हंसतूल्यादिष्विति, तथा 'उयविय' इति विशिष्ट परिकर्मित क्षामंमगलगा' इत्यादि प्राग्वत्। कासिकं दुकूलं वस्त्रंतदेव पट्टःउयवियक्षौमदुकूलपट्टः स प्रच्छिदनम्तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं महेगा आच्छादनं यस्य तत्तथा 'आईणगरूयवूरनवणीयतूलफासे' इति प्राग्वत्, मणिपेढियो पण्णत्ता, अट्ठ जोयणाइं आयामविक्खंभेणं चत्तारि 'रत्तंसुयसंवुए' इति रक्तांशुकेन संवृतं रक्तांशुकसंवृतम् अत एव सुरम्य जोअणाईबाहल्लेणं सव्वभणिमई अच्छाजावपडिरूवा, तीसे 'पासाइय' इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महेगे सीहासण० वण्णतो तस्स णं देवसयणिजस्स उत्तरपुरच्छिमेणं महेगा सपरिवारो, तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पचत्थिमेणं एत्थ मणिपेढिया पण्णत्ता, अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं णं महेगा मणिपोढिया पण्णत्ता अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं | चत्तारि जो अणाई बाहल्लेणं सवमणिमयी अच्छा Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1125 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम जाव पडिरूवा, तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं महेगे खुड्डए महिंदज्झए पण्णत्ते, सर्टि जोयणाई उलूं उच्चत्तेणं जोयणं विक्खंभेणं वइरामया वट्टलट्ठसंठियसुलिट्ठ ०जाव पडिरूवा, उवरिं अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता, तस्स णं खुड्डागम- | हिंदज्झयस्स पञ्चत्थिमेणं एत्थणं सूरियाभस्स देवस्स चोप्पाले 'नाम पहरणकोसे पन्नत्ते सव्ववइरामए अच्छे जाव पडिरूवे, तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स फलिहरयणखग्गगयाधणुप्पमुहा बहवे पहरणरयणा संनिखित्ता चिट्ठति, उज्जला निसिया सुतिक्खधारा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। सभाए णं सुहम्माए उवरिं अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता। (सू०३८) 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य देवशयनीयस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चाष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारियोजनानिबाहल्यतः 'सव्वमणिमयी' इत्यादि प्राग्वत, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि क्षुल्लको महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः, तस्य प्रमाणं वर्णकश्च महेन्द्रध्वजवद्वक्तव्यं, 'तस्स ण' मित्यादि तस्य क्षुल्लकमहेन्द्रध्वजस्यपश्चिमायामत्र सूर्याभस्य देवस्य महानेकः चोप्पालो नाम प्रहरणकोशः-प्रहरणस्थानं प्रज्ञप्त, किं विशिष्ट ? इत्याह 'सव्ववइरामए अच्छे०जावपडिरूवे' इति प्राग्वत्, 'तत्थ ण' मित्यादि, तत्र चोप्पालकाभिधाने प्रहरणकोशे बहूनि परिघरत्नखड्गगदाधनुः प्रमुखादीनि प्रहरणरत्नानि सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति, कथं भूतानीत्यत आहउज्ज्वलानि-निर्मलानि निशितानि-अतितेजितानि अतएव तीक्ष्णधाराणि प्रासादीयानीत्यादि प्राग्वत्, तस्याश्च समायाः सुधर्माया उपरि, बहून्यष्टावष्टौ भङ्गलकानित्यादि सर्व प्राग्वद्वक्तव्यम्। समाए णं सुहम्माए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थणं महेगे सिद्धायतणे पण्णत्ते, एग जोयणसयं आयामेणं पन्नासं जोयणाई विक्खंभेणं बावत्तरि जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं सभागमेणं ०जाव गोमाणसियाओ भूमिभागा उल्लोया तहेव, तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महेगा मणिपेढिया पण्णत्ता,सोलस जोयणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोयणाइं बाहल्लेणं, तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं महेगे देवछंदए पण्णत्ते, सोलस जोयणाई आयमविक्खंभेणं साइरेगाइं सोलस जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं सटवरयणामए ०जाव पडिरूवे, एत्थ णं अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमित्ताणं संनिखित्तं संचिट्ठति, तासिणं जिणपडिमाणं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते,तं जहातवणिज्जमया हत्थतलपायतला अंकामयाई नक्खाई अंतोलोहियक्खपडिसेगाई कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया ऊरू कणगामईओ गायलट्ठीओ तवणिज्जमयाओ नाभीओ रिट्ठामईओ रोमराईओ तवणिज्जमया चूचुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा सिलप्पवालमया ओष्ठा फालियामया दंता तवणिजमईओ जीहाओ तवणिजमया तालुया कणगाम्ईओ नासिगाओ अंतोलोहियक्खपडिसेगाओ अंकामयाणि अच्छीणि अंतोलोहियक्खपडिसेगाणि रिट्ठामईओ ताराओ रिट्ठामयाणि अच्छिपत्ताणि रिट्ठामईओ भमुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामईओ णिडालपट्टियातो वइरामईओ सीसघडीओ तवणिज्जमईओ के संतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरि मुद्धया, तासि णं जिणपडिमाणं पिट्ठतो पत्तेयं २छत्तधारगपडिमाओ पण्णत्ताओ, ताओणं छत्तधारगपडिमाओ हिमरययकुंदेंदुप्पगासाई सकोरेंटमल्लदामाइं धवलाइं आयवत्ताइ सलीलं धारेमाणीओ 2 चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं उमओ पासे पत्तेयं 2 चामरधारपडिमाओ पण्णत्ताओ, ताओ णंचामरधारपडिमातो नानामणिकणगरयणविमलमहरिह जाव सलीलं धारेमाणीओ 2 चिटुंति, तासिणं जिणपडिमाणं पुरतो दो दो नागपडिमातो भूयपडिमातो जक्खपडिमाओ कुंडधारपडिमाओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ जाव चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं पुरतो अट्ठसयं घंटाणं अट्ठसयं कलसाणं अट्ठसयं भिंगाराणं एवं आयंसाणं थालाणं पाईणं सुपइहाणं मणोगुलियाणं वायकरगाणं चित्तगराणं रयणकरंडगाणं हयकंडाणं जाव उसमकंडाणं पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अट्ठसयं धूवकडुच्छुयाणं संनिखित्तं चिट्ठति, सिद्धायतणस्सणं उवरिं अट्ठह मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता। (सू०३९) . 'सभाए ण' मित्यादि, सभायाः सुधर्मायाः 'उत्तरपुरच्छिमेण' मिति उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं सिद्धायतनं प्रज्ञप्तम्, एक योजनशतमायामतः पञ्चाशत् विष्कम्भतोद्वासप्ततिर्योजनान्यूर्ध्वमुचैस्त्वेनेत्यादि सर्व सुधर्मावत् वक्तव्यं यावत् गोमानसीवक्तव्यता, तथा चाह-'सभागमएण जाव गोमाणसियाओ' इति, किमुक्तं भवति ?-यथा सुधर्मायाः सभायाः पूर्वदक्षिणोत्तरवर्तीनि त्रीणि द्वाराणि तेषां च द्वाराणां पुरतो मुखमण्डपाः तेषां च मुखमण्डपानां पुरतः प्रेक्षागृहमण्डपाः तेषां च प्रेक्षागृहमण्डपानां पुरतश्चैत्यस्तृपाः सप्रतिमाः तेषांचचैत्यस्तूपानांपुरतः चैत्यवृक्षाः तेषां च चैत्यवृक्षाणां पुरतो महेन्द्रध्वजाः तेषामपि पुरतोनन्दापुष्परिण्यस्तदनन्तरं गुलिकागोमानस्यश्चोक्ताः तथाऽत्रापि सर्वमनेनैवक्रमेण निरवशेषं वक्तव्यम्, उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च प्राग्वत्, 'तस्स ण' मित्यादि, तस्य सिद्धायतनस्यानर्बहुमध्यदेशभागेऽत्र मद्दत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ . 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यामष्टौ योजनानि बाहल्यतः 'सव्यमणिमयी' त्यादि प्राग्वत्। 'तीसेण मित्यादि, तस्याश्च मणिपीठिकाया | उपरि अत्र माहनेको देवच्छन्दकः प्रज्ञप्तः, स च षोडश योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि षोडश योजनान्यूर्ध्वमुच्चैस्त्वेन 'सव्वरयणामए' इत्यादि प्राग्वत्, तत्र च देवच्छन्दके अष्टशतम्-अष्टाधिकं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां पञ्चधनुःशतप्रमाणानामिति भावः, सन्निक्षिप्तं तिष्ठति। 'तासि णं जिणपडिमाण मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानामयमेतद्रूपो वर्णावासोवर्णकनिवेशः प्रज्ञप्त, तपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि अङ्करत्नमया अन्तः-मध्ये लोहिताक्षरत्नप्रतिसेका नखाः कनकमया जङ्घा कनकमयानि जानूनि कनकमया ऊरवः कनकमय्यो गात्रयष्टयः तपनीयमया नाभयो रिष्ठामय्यो रोमराजयः तपनीयमयाः चूचुकाः-स्तनाग्रभागाः तपनीयमयाः श्रीवक्षसः शिलाप्रवालमया विद्रुममया ओष्टाः स्फटिकमया दन्ताः तपनीयमया जिह्वाः तपनीयमयानि तालुकानि कनकमय्यो नासिकाः अन्तर्लोहिताक्षप्रतिसेकाः, अङ्कमयान्यक्षीणि अन्तर्लोहिताक्षप्रतिसेकानि रिष्ठरत्नमयानि अक्षिपत्राणि रिष्ठरत्नमय्यो भुवः कनकमयाः कपोलाः कनकमयाः श्रवणाः कनकमय्यो ललाटपट्टिकाः वज्रमय्यः शीर्षघटिकाः तयनीयमय्यः केशान्तकेशभूमयः, केशान्तभूमयः केशभूमयश्चेति भावः, रिष्ठमया उपरि मूर्द्धजाः केशाः, तासां जिनप्रतिमानां पृष्ठत एकैका छत्रधारप्रतिमा हिमरजतकुन्देन्दुप्रकाशंसकोरेण्टमाल्यादिधवलमातपत्रं गृहीत्वा सलीलं धरन्ती तिष्ठति, तथा तासां जिनप्रतिमानां प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोर्दै द्वे चामरधारप्रतिमे प्रज्ञप्ते,तेच "चंदप्पभवयरवेरुलियनानामणिरयणख-चियचित्तदंडाओ' इति चन्द्रप्रभः-चन्द्रकान्तो वज्रं वैडूर्यं च प्रतीतं चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु ते तथा, एवंरूपाश्चित्रानानाप्रकारा दण्डा येषां तानि तथा, सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वात्, 'सुहमरययदीहवालाउ' इति सूक्ष्मा रजतमया दीर्घा वाला येषां तानि तथा "संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासाओ धवलाओ' इतिप्रतीतं, चामराणि गृहीत्वा सलील वीजयन्त्यस्तिष्ठन्ति, ताश्च 'सव्वरयणामईओ अच्छाओ' इत्यादि प्राग्वत, 'तासि ण मित्यादि, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो द्वे द्वे नागप्रतिमे द्वे द्वे यक्षप्रतिमे द्वे द्वे भूतप्रतिमे द्वे द्वे कुण्डधारप्रतिमे सन्निक्षिप्ते तिष्ठतः, तस्मिंश्च देवच्छन्दके तासां जिनप्रतिमानांपुरतः अष्टशतघण्टानामष्टशतं चन्दनकलशानामष्टशतं मङ्गलकलशानामष्टशतं भृङ्गाराणामष्टशतमादर्शानामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्टशते सुप्रतिष्ठानामष्टशत मनोगुलिकानांपीठिकाविशेषाणामष्टशतं वातकरकाणामष्टशतं चित्राणां रत्नकरण्डकानामष्टशतंहयकण्ठानामष्टशतं गजकण्ठानाम् अष्टशतं नरकण्ठानामष्टशतं किन्नरकण्ठानामष्टशतं किंपुरुषकण्ठानामष्टशते महोरगकण्ठानामष्टशतं वृषभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतमाल्यचेगरीणां, मुकुलानि पुष्पाणि ग्रथितानिमाल्यानि, अष्टशतं | चूर्णचङ्गेरीणामष्टशतं गन्धचङ्गेरीणामष्टशतं वस्त्रचङ्गेरीणामष्टशतमाभरणचङ्गेरीणामष्टशतं सिद्धार्थचङ्गेरीणामष्टशतं लोमहस्तचङ्गेरीणाम, अष्टशतं लोमहस्तकानां लोमहस्तकं च मयूरपुच्छपुजनिका, अष्टशतं पुष्पपटलकानामेवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकण्टलकानामपि प्रत्येकम् 2 अष्टयशत वक्तव्यम्, अष्टशतं सिंहासनानामष्टशतं छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्कानामष्टशतं कोष्ठसमुद्रकानामष्ठशतं पत्रसमुद्गकानामष्टशतं चोयकसमुद्गकानामष्टशतं तगरसमुद्गकानामष्टयशतमेलासमुद्गकानामष्टशतं हरितालसमुद्गकानामष्टशत हिड्डुलकसमुद्गकानामष्टशतं मनःशिलासमुद्गकानामष्टशतमञ्जन-समुद्गकानां सर्वाण्यपि अमूनि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि, अष्टशतं ध्वजानाम्, अत्र सङ्ग्रहणिगाथा, कथो ''दणकलसा भिंगारगा य आयंसया य थाला य। पाति स्स्युपइहा, मणगुलिका वायकरगा य // 1 // चित्ता रयणकरंडा कर गयनरकंठगा य चंगेरी। पडलगसीहणछत्त, चामरा रयणगक झया य॥२॥" अष्टशतं धूपकडुच्छुकानां संनिक्षिप्तं तिष्ठति, तस्य च सिद्धायतनस्य उपरि अष्टावष्टौ मङ्गलकानिध्वजच्छत्रातिच्छत्रादीनि तु प्राग्वत्। तस्स णं सिद्धायतणस्य उत्तरपुरच्छिमे णं एत्थ णं महेगा उववायसभा पण्णत्ता, जहा सभाए सुहम्भाए तहेव जाव मणिपेढिया अट्ठजोयणाई देवसयणिजं तहेव सयणिज्जवण्णओ अट्ठ मंगलगा झया छत्तातिच्छत्ता। तीसे णं उववाएसमाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं महेगे हरए पण्णत्ते एगं जोयणसयं आयामेणं पण्णासं जोयणाइं विक्खंभेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं तहेव, तस्स णं हरयस्स उत्तरपुरच्छिमे णं एत्थणं महेगा अभिसेयसभा पण्णत्ता सुहम्भागमएणं जाव गोमाणसियाओ मणिपेढिया सीहा सणं सपरिवारं जाव दामा चिट्ठति, तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स बहुअमिसेयमंडे संनिखित्ते चिट्ठइ, अट्ठ मंगलगा तहेव, तीसे णं अभिसेगसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं अलंकारियसभा पण्णत्ता, जहा सभा सुधम्मा मणिपेढिया अट्ठजोयणाईसीहासणं सपरिवारं, तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स सुहुबहुअलंकारियमंडे संनिक्खित्ते चिट्ठति, सेसं तहेव, तीसे णं अलंकारियसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं महेगा ववसायसभा पण्णत्ता जहा उववायसभा ०जाव सीहासणं सपरिवारं मणिपेढिया अट्ठ मंगलगा तत्थ णं सूरियाभस्स देवस्स, एत्थ णं महेगे पोत्थयरयणं सन्निखित्ते चिट्ठइ, तस्सणं पोत्थयरणस्स इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-रयणामयाई पत्तगाई रिट्ठामईओ कंबिआओ तवणिज्जमए दोरे नाणामणिमए गंठी वेरुलियमए लिप्पासणे रिहामए छंदणे तवणिज्जमई संकला रिट्ठामई मसी वइरामई लेहणी रिट्ठामयाइं अक्खराइं धम्मिए सत्थे, ववसायसभाए णं उवरिं अट्ठट्ट मंगलगा, तीसे णं ववसायसभाए उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थणं नंदापुक्खरिणी पण्णत्ता Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1127- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ हरयसरिसा, तीसे ण णंदाए पुक्खरिणीए उत्तरपुरच्छिमेणं महेगे बलिपीढे पण्णत्ते सव्वरयणामए अच्छे०जाव पडिरूवे। (सू०४०) तस्य च सिद्धायतनस्य उत्तरपूर्वम्यामत्र महत्येका उपपात सभा प्रज्ञप्ता, तस्याश्च सुधर्मागमेन स्वरूपवर्णनपूर्वादिद्वारत्रयवर्णनमुखमण्डपप्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनादिप्रकाररूपेण तावद्वक्तव्यं यावदुल्लोकवर्णनं, तस्याश्च बहुसमरमणीयभूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागेऽत्र महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, सा चाष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्येन 'सव्वमणिमयी' इत्यादि प्राग्वत्, तस्याश्च मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं देवशयनीयं प्रज्ञप्तं, तस्य स्वरूपं यथ सुधर्मायांसभायां देवशयनीयस्य, तस्या अप्युपपातसभाया उपरि अष्टाष्ट मङ्गलकादीनि प्राग्वत्। 'तेसिण' मित्यादि, तस्याउपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महानेको हृदः प्रज्ञप्तः, सचैकं योजनशतमायामतः पञ्चाशत् योजनानि विष्कम्भतो दश योजनान्युद्वेधेन 'अच्छेग्ययामयकूले इत्यादि नन्दापुष्करिण्या इव वर्णनं निरवशेषं वक्तव्यं, 'से 'मित्यादि, स हद एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः, पद्मवरवेदिकावर्णनं वनखण्डवर्णनं च प्राग्वत्, तस्य हदस्य त्रिदिशितिसृषु दिक्षु त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि प्रज्ञप्तानि, तेषां च त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां तोरणानां च वर्णन प्राग्वत्, तस्य च हृदस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका अभिषेकसभा प्रज्ञप्ता, साच सुधर्मसभावत्प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिप्रकारेण तावद्वक्तव्या यावद् गोमानसीवक्तव्यता, तदनन्तरं तथैव उल्लोकवर्णनं भूमिभागवर्णनं च तावत् यावन्मणीनां स्पर्शः, तस्य अभिषेकसभाया बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्यदेशभागे महत्येका मणिपीठिका प्रज्ञप्ता, साऽप्यष्टौ योजनान्यायामविष्कम्भाभ्यां चत्वारि योजनानि बाहल्यतः 'सव्वरयणामयी' इत्यादि प्राग्वत्, तस्या मणिपीठिकाया उपरि अत्र महदेकं सिंहासनं सिंहासनवर्णकः प्राग्वत्, नवरमत्र परिवारभूतानि भद्रासनानि च दक्तव्यानि, तस्मॅिश्च सिंहासने सूर्याभस्य देवस्य सुबहु अभिषेकभाण्डम्अभिषेकयोग्य उपस्कारः सन्निक्षिप्तः तिष्ठति, 'तीसे णं अभिसेयसभाए अट्ठ मंगलगा' इत्यादि प्राग्वत्, तस्याश्च अभिषेकसभाया उत्तरपूर्वस्या दिशि अत्र महत्येका अलङ्कारसभा प्रज्ञप्ता, सा चाभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्ड्य प्रेक्षागृहमण्डपादिवर्णनप्रकारेण तावद्वक्तव्या. यावद्परिवारसिंहासनं, तत्रसूर्याभस्य देवस्य अलंकारिकम्-अलंकारयोग्यं भाण्ड संनिक्षिप्तमस्ति शेषं प्राग्वत् / तस्याश्च अलंकारसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका व्यवसायसभा प्रज्ञप्ता, साच अभिषेकसभावत् प्रमाणस्वरूपद्वारत्रयमुखमण्डपादिवर्णनप्रकारेण तावद्वक्तव्या यावत् सिंहासनं सपरिवारं, तत्र महेदकं पुस्तकरत्नं सन्निक्षिप्तमस्ति, / तस्य च पुस्तकरत्नस्य अयमेतद्रूपो 'वर्णावासो' वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, रिष्ठमय्यौ रिष्ठरत्नमय्यौ कम्बिके पृष्ठके इति भावः रत्नमयो दवरको यत्र पत्राणि प्रोतानि सन्ति नानामणिमयो ग्रन्थिः दवरकस्यादौ येन पत्राणि न निर्गच्छन्ति, अङ्कारत्नमयानि पत्राणि, नानामणिमयं लिप्पासनं, मषीभाजनमित्यर्थः, तपनीयमयी शृङ्खला मषीभाजनसत्का, रिष्ठरत्नमयम् उपारतनं तस्य छादनं, रिष्ठमयी-रिष्ठरत्नमयी मषी वज्रमयी लेखनी, रिष्ठामयान्यक्षराणि, धार्मिक लेख्यं, क्वचित्–'धम्मिए सत्थे' इति पाठः, तत्र धार्मिकं शास्त्रमिति व्याख्येयं, तस्याश्य उपपातसभाया उत्तरपूर्वस्यां दिशि महदेकं बलिपीठं प्रज्ञप्त, तच्चाष्टौ योजनानि आयामविष्कम्भतः चत्वारियोजनानि बाहल्यतः सर्वरत्नमयम् 'अच्छ' मित्यादि प्राग्वत्। तस्य च बलिपीठस्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि अत्र महत्येका नन्दापुष्करिणी प्रज्ञप्ता, सा च हृदप्रमाणा, हृदस्येव च तस्या अपि त्रिसोपानवर्णनं तोरणवर्णनं च प्राग्वत्। तदेवं यत्र यादृग्रपंच सूर्याभस्य देवस्य विमानं तत्र ताग्रूपंचोपवर्णितं, सम्प्रतिसूर्याभो देव उत्पन्नःसन्यदकरोत्यथा च तस्याऽभिषेकोऽभवत् तदुपदर्शयतितेणं कालेणं तेणं समएणं सूरियामे देवे अहुणोववण्णमित्तए चेव समाणे पंचविहाए पजत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छद, तं जहाआहारपज्जत्तीए, सरीरपजत्तीए, इंदियपजत्तीए, आणपाणपञ्जत्तीए, भासामणपजत्तीए / तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स पंचविहाए पञ्जत्तीए पञ्जात्तीभावं गयस्स समाणस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुपञ्जित्था-किं मे पुट्विं करणिज्ज ? किं मे पच्छा करणिजं ? किं मे पुट्विं सेयं ? किं मे पच्छा सेयं ? किं मे पुट्विंपि पच्छावि हियाए सुहाए खमाए णिस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ? तए णं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसाववनगादेवा सूरियाभस्स देवस्स इमेयारूवमन्भत्थियं जाव समुप्पन्नं सममिजाणित्ता जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छंति, सूरिया देवं करयलपरि-ग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिकद्र जएणं विजएणं वद्धाविन्तिवद्धावित्ता एवंवयासी-एवंखलुदेवाणुप्पियाणंसूरियाभे विमाणे सिद्धायतणंसि जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमित्ताणं अट्ठसयं संनिखित्तं चिट्ठति, सभाए णं सुहम्माए माणवए चेइए खंभे वइ-रामएस गोलवट्टसमुग्गएसु बहुओ जिणसकहाओ संनिखित्ताओ चिट्ठति, ताओणं देवाणुप्पियाणं अण्णेसिं च बहूणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य अचणिज्जाओ जाव पज्जुदासणिज्जाओ, तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं करणिचं, तं एवं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा करणिचं तं एयं णं देवाणुप्पिय, णं पुटिव सेयं तं एयं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा सेयं तं एवं Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1128 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम णं देवाणुप्पियाणं पुव्विं पि पच्छा वि हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सति। (सू०४१) तएणं से सूरियामे देवे तेसिं सामाणियपरिसोववनगाणं देवाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म हट्टतुट्ठ ०जाव हयहियए सयणिजाओ अब्भुटेइ 2 द्वित्ता उववायसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ, जेणेव हरए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता हरयं अणुपयाहिणीकरेमाणे अणु० करेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं तोरणेणं अणुपविसइ अणुपविसित्ता पुरच्छि मिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पचोरहइ पचोरुहित्ता जलावगाह जलमज्जणं करेइ 2 रित्ता जलकिडं करेइ 2 रित्ता जलाभिसेयं करेइ 2 रित्ता आयंते चोक्खे परमसूईभूए हरयाओ पचुत्तरइ 2 रित्ता, जेणेव अमिसेयासभा तेणेव उवागच्छति जे ०तेणेव उवागच्छिता अभिसे यसभं अणुपयाहिणीक रेमाणे अणु ०करेमाणे पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ 2 त्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ २त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने / तएणं सूरियामस्स देवस्स सामाणियपरिसोववन्नगा देवा आमिओगिए देवे सद्दार्वेति सद्दावित्ता एवं वयासी खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया! सूरियाभस्स देवस्य महत्थं महग्धं महारिहं विउलं इंदामिसेयं उवट्ठवेह, तए णं ते आमिओगिआ देवा सामाणियपरिसोववन्नेहिं देवेहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ठा जाव हियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं देवो ! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिमुणंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीमागं अवक्कभंति, उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवक्कमित्ता वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणं ति समोहणित्ता संखे जाइ जोयपाई जाव दोचं पि वे उब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ समोहणित्ता अट्ठसहस्सं सोवनियाणं कलसाणं 1 अट्ठसहस्सं रुप्पमयाणं कलसाणं 2 अट्ठसहस्सं मणिमयाणं कलसाणं 3 अट्ठसहस्सं सुवण्णरुप्पमयाणं कलसाणं 4 असहस्सं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं 5 अट्ठसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं 6 असहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं 7 अट्ठसहस्सं भोमिज्जाणं कलसाणं 8, एवं भिंगाराणं आयंसाणं थालीणं पाईणं सुपतिवाणं रयणकरंडगाणं पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं छत्ताणं चामराणं तेल्लसमुग्गाणं जाव अंजणसमुग्गाणं अठ्ठसहस्संधूवकडुच्छुयाणं विउव्वं ति, विउवित्ता ते साभाविए य विउव्विए य कलसे य जाव कडुच्छुए य गिण्हंति गिणिहत्ता सूरियामाओ विमाणाओ पडिनिक्खमंति पडिनिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए चक्लाए जाव तिरियमसंखेजाणं जाव वीतिवयमाणे वीतिवयमाणे जेणेव खीरोदयसमुद्दे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता खीरोयगं गिण्हंति जाई तत्थुप्पलाइं ताई गेण्हति जाव सयसहस्सपत्ताई गिण्हंति 2 णिहत्ता जेणेव पुक्खरोदए समुद्दे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पुक्खरोदयं गेण्हति गिण्हित्ता जाई तत्थुप्पलाइं सयसहस्सपत्ताइं ताई जाव गिण्हंति गिण्हित्ता जेणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाई वासाई जेणेव मागहवरदामपभासाइं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति २त्ता तित्थोदगं गेण्हंति 2 णिहत्ता तित्थमट्टियं गेण्हंति 2 ता जेणेव गंगासिंधुरत्तारत्तवईओ महानईओ तेणेव उवागच्छंति 2 त्ता सलिलोदगं गेण्हंति सलिलोदगं गेण्हित्ता उमओ कूलमट्टियं गेण्हति कूलमट्टियं गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरिवासहरपव्वया तेणेव उवगच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता दगं गेण्हंति सव्वतुयरे सव्वपुप्फे सव्वगंधे सव्वमल्ले सम्वोसहिसिद्धत्थए गिण्हति गिण्हित्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता दहोदगं गेहंति गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं० जाव सयसहस्सपत्ताइं ताइं गेहंति गेण्हित्ता जेणेव हेमवयएरवयाई वासाइं जेणेव रोहियरोहियंसासुवण्णकूलरुप्पकूलाओ महाणईओ तेणेव उवागच्छंति, सलिलोदगं गेण्हति 2 ता उमओ कूलमट्टियं गिण्हंति 2 त्ता जेणेव सद्दावतिवियडावतिपरियागा वट्टवेयनपव्वया तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता सव्वतुयरे तहेव जेणेव महाहिमवंतरुप्पिवासहरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, तहेव जेणेव महापउममहापुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता दहोदगं गिण्हंतितहेवजेणेव हरिवासरम्मगवासाइं जेणेव हरिकंतनारिकताओ महाणईओ तेणेव उवागच्छंति, तहेव जेणेव गंधावइमालवंतपरियाया वट्टवेयडपव्वया तेणेव तहेव जेणेव णिसढणीलवंतवासधरपव्वया तहेव जेणेव तिगिच्छिकेसरिदहाओ तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता तहेव जेणेव महाविदेहे वासे जेणेव सीतासीतोदाओ महाणदीओ तेणेव तहेव जेणेव सय्वचक्कवट्टिविजया जेणेव सव्वमागहवरदामपभासाइं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता तित्थोदगं गेण्हंति गेण्हित्ता सव्वंतरणईओ जेणेव सव्ववक्खारपव्वया तेणेव उवागच्छंति सव्वतुयरे तहेव जेणेव मंदरे प-- Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ व्वते जेणेव भदसालवणे तेणेव उवागच्छंति सव्वातुयरे सव्वपुप्फे कालागुरुपवरकुं दुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघतगंधुद्धयाभिरामं सव्वमले सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेण्हंति गेण्हित्ता जेणेवणंदणवणे करेंति, अप्पेगइया देवा सूरियामं विमाणं सुगंधगंधियं गंधवट्टितेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता सव्वतुयरे जाव सव्वोसहि- भूतं करेंति अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति सुवण्णवासं सिद्धत्थए सरसगोसीसचंदणं गिण्हति गिण्हित्ता जेणेव सोमण- वासंति रययवासं वासंति वइरवासं वासंति पुप्फवासं० स्सवणे तेणेव उवागच्छंति सव्वतुयरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए फलवासं० मल्लवासं० गंधवासं० चुण्णवासं० आभणवासं य सरसगोसीसचंदणं च दिव्वं च सुमदामं दद्दरमलयसुगंधिए य वासंति अप्पेगतिया देवा हिरण्णविहिं भाएंति, एवं सुवन्नविहिं गंधे गिण्हंति गिणिहत्ता एगतो मिलायंति 2 यित्ता ताए उक्किट्ठाए भाएंति रयणविहिं पुप्फविहिं फलविहिं मल्लविहिं चुण्णविहिं जाव जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सूरियाभे विमाणे जेणेव वत्थविहिं गंधविहिं भाएंति, तत्थ अप्पेगतिया देवा आमरणविहिं अभिसेयसभा जेणेव सूरियामे देवे तेणेव उवागच्छंति उवाग- भाएंति, अप्पेगतिया चउव्विहं वाइतं वाइंति ततं विततं घणं च्छित्ता सूरियाभं देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए झुसिरं, अप्पेगइया देवा चउय्विहं गीयं गायंति, तं जहाअंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावितिं वद्धावित्ता तं महत्थं उक्खित्तायं पायत्तायं मंदाय रोइतावसाणं, अप्पेगतिया देवा दुयं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उवट्ठवेंति। तएणं तं सूरियामं नट्टविहिं उवदंसिंति अप्पेगतिया विलंबियनट्टविहिं उवदंसें ति देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अग्गमसीओ सपरिवारातो अप्पे गतिया देवा दुतविलंबियं णट्टविहिं उवदंसें ति, एवं तिन्नि परिसाओ सत्त अणियाहिवइणो ०जाव अन्नेवि बहवे अप्पेगतिया अंचियं नट्टविहिं उवदंसे ति अप्पेगतिया देवा सूरियाभविमाणवासिणो देवा य देवीओ य तेहिं साभाविएहि य आरभडं भसोलं आरभडभसोलं उप्पयनिचयपमत्तं संकुचियपवेउव्विएहि य वरकमलपइट्ठाणेहि य सुरभिवरवारिपडिपुग्नेहिं सारियं रियारियं मंतसंभंतणामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति चंदणकयचचिएहिं आविद्धकं ठेगुणे हिं पउमुप्पलपिहाणे हिं अप्पेगतिया देवा चउव्विहं अभिणयं अभिणयंति, तं जहासुकुमालकोमलकरयलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्सेणं सोवनियाणं दिट्ठतियं पाडंतियं सामंतोवणिवाइयं लोगअंतोमज्झावसाणियं, कलसाणं जाव अट्ठसहस्सेणं भोमिजाणं कलसाणं सव्वोदएहिं. अप्पेगतिया देवा वुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा पीणेति अप्पेगतिया सव्वमाट्टियाहिं सव्वतुयरेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहि य वासेंति अप्पेगतिया हक्कारेंति अप्पेगतिया विणेति तडवेति सव्विड्डीए जाव वाइएणं महया 2 इंदाभिसेएणं अमिसिंचति, अप्पेगइया वगंति अप्फोर्डे ति अप्पेगतिया अप्फोडेंति वग्गंति तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स महया 2 इंदामिसेए वट्टमाणे अप्पे० तिवई छिंदंति अप्पेगतिया हयहेसियं करेंति, अप्पेगअप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं णमोयगं नातिमट्टियं तिया हत्थिंयगुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगतिया रहघणघणाइयं पविरलफुसियरयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदगं वासं करेंति, अप्पेगतिया हयहेसियहत्थिगुलगुलाइयरहघणघणावासंति, अप्पेगतिया देवा हयरयं नहरयं भट्टरयं उवसंतरयं इयं करेंति, अप्पेगतिया उच्छोलेंति अप्पेगतिया पच्छोलेंति पसंतरयं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं आसिय- अप्पेगतिया उक्किट्ठियं करेंति अप्पे० उच्छोलेंति पच्छोलेंति संमजिओ वलित्तं सुइसमठ्ठरत्यंतरावणवीहियं करेंति, अप्पे- उक्कि० अप्पेगतिया तिनि वि, अप्पेगतिया उवयंति अप्पेगतिया गतिया देवा सूरियाभं विमाणं मंचाइमंचलियं करेंति, अप्पेगइया उववायंति अप्पेगतिया परिवयंति अप्पेगइया तिन्नि वि, देवा सूरियामं विमाणं णाणाविहरागोसियं झयपडागाइपडाग- अप्पेगइया सीहनायंति अप्पेगतिया दद्दरयं करेंति अप्पेगतिया मंडियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाण लाउल्लो- भूमिचवेडं दलयंति अप्पे० तिन्नि वि, अप्पेगतिया गचंति इयमहियं गोसीससरसरत्तचंदण-दद्दरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति अप्पेगतिया विजुयायंति अप्पेगतिया वासं वासंति अप्पेगतिया अप्पेगतिया देवा सूरियामं विमाणं उवचियचंदणकलसं चंदण- तिन्नि वि करेंति,अप्पेगतिया जलंति अप्पेगतिया तवंति अप्पेगघडसुकयतोरणेपडिदुवारदेसभागं करेंति, अप्पेगतिया देवा तिया पतति अप्पेगतिया तिन्नि वि, अप्पेगतिया हक्कारेंति सूरियामं विमाणं आसत्तोसत्तविउलवट्टवर घारियमल्लदामक- अप्पेगतिया थुक्कारेंति अप्पेगतिया धक्कारेंति, अप्पेगतिया साई लावं करेंति अप्पेगतिया देवा सूरियाभं विमाणं पंचवण्णसुरभि- साइं नामाइं साहेति अप्पेगतिया चत्तारि वि, अप्पेगइया देवा मुक्कपुप्फपुंजो वयारकलियं करेंति, अप्पेगतिया देवा सूरियामं देवसन्निवायं करेंति, अप्पेगतिया देवुञ्जोयं करेंति, अप्पेगझ्यादेवुक्क Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1130- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ लियं करेंति, अप्पेगइया देवा कहकहगं करेंति, अप्पेगतिया देवा दुहदुहगं करेंति, कप्पेगतिया चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगइया देवसन्निवायं देवुजोयं देवुक्कलियं देवकहकहगं देवदुहदुहगं चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगतिया उप्पलहत्थगया जाव सयसहस्सपत्तहत्थगया अप्पेगतिया कलसहत्थगया जाव धूवकडुच्छुयहत्थगया हट्ठ तुट्ठ० जाव हियता सव्वतो समंता आहावंति परिधावति / तए णं तं सूरियाभं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे सूरियाभरायहाणिवत्थव्वा देवाय देवीओयमहया इंदामिसेगेणं अभिसिंचंति अभिसिंचित्ता पत्तेयं 2 करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं वयासी-जय जय नंदा जय जय भद्दा ते अजियं जिणाहि जियं च पालेहि जियमज्झे वसाहि इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहूई पलिओवमाइं बहूई सागरोवमाई बहूई पलिओवमसागरोवमाई वउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं सूरियाभस्स विमाणस्स अन्नेसिं च बहूणं सूरियाभविमाणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवचं जाव महया 2 कारेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्ट जय 2 सदं पउंजंति। तएणं से सूरियामे देवे महया महया इंदामिसेगेणं अभिसित्ते समाणे अमिसेयसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छति निग्गच्छित्ता जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाहिणीरेमाणे 2 अलंकारियसभं पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति 2 सित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति सीहासणवरगते पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने / तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववनगा अलंकारियभंडं उवठ्ठवें ति, तए णं से सूरियाभे देवे तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाइ लूहेति लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपति अणुलिंपित्ता नासानीसासवायबोज्झं चक्खुहर वन्नफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियन्तकम्मं आगासफालियसमप्पभं दिव्वं देवदूसजुयलं नियंसेति नियंसेत्ता हारं पिणद्धेति 2 खेत्ता अद्धहारं पिणद्धेइ 2 वेत्ता एगावलिं पिणद्धति २त्ता मुत्तावलिं पिणद्धेति 2 देत्ता रयणावलिं पिणद्धेइ 2 द्धत्ता एवं अंगयाइं केयूराई कडगाइं तुडियाई कडिसुत्तगं दसमुद्दाणंतगं विकच्छसुत्तगं मुरविं पालंबं कुंडलाइं चूडामणिं पउर्ड पिणद्धेइ 2 खेत्ता गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउदिवहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अप्पाणं अलंकियंविभूसियं करेइ२ | रित्ता दहरमलयसुगंधगंधिएहिंगायाई भुखंडेइ दिव्वं च समुणदामं पिणद्धेइ। (सू०४२) 'तेणं कालेणं तेणं समएण' मित्यादि, तस्मिन् काले तस्मिन् समये सूर्याभो देवः सूर्याभे विमाने उपपातसभायां देवशयनीये देवदूष्यान्तरे प्रथमतोऽङ्खलासंख्येयभागमात्रयाऽवगाहनया समुत्पन्नः 'तए ण' मित्यादि सुगम, नवरम् इह भाषामनःपर्याप्त्योः समाप्तिकालान्तरस्य प्रायः शेषपर्याप्तिसमाप्तिाकालान्तरापेक्षया स्तोकत्वादेकत्वेन विवक्षणमिति 'पंचविहाए पञ्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ' इत्युक्तं 'तएण' मित्यादि, ततस्तस्य सूर्याभस्य देवस्य पञ्चविधया पर्याप्त्या पर्याप्तभावमुपगतस्य सतोऽयमेतद्रूपः संकल्पः समुदपद्यत। 'अब्भत्थिए' इत्यादिपदव्याख्यानं पूर्ववत्, किं 'मे' मम पूर्वं करणीयं किं मे पश्चात्करणीयं ? किं मे पूर्व कर्तुं श्रेयः ? किं मे पश्चात् कर्तुं श्रेयः? तथा कि मे पूर्वमपि च पश्चादपि च हिताय भावप्रधानोऽयं निर्देशो हितत्वायपरिणाम-सुन्दरतायै सुखायशर्मणे क्षमाय अयमपि भावप्रधानो निर्देशः संगतत्वाय निःश्रेयसाय निश्तिकल्याणोय अनुगामिकतायैपरम्परशुभानुबन्धसुखाय भविष्यश्यति, इह प्राक्तनो ग्रन्थः प्रायोऽपूर्वो भूयानपि च पुरुषेषु वाचनाभेदस्ततो माभूत् शिष्याणां सम्मोह इति क्वापि सुगमोऽपि यथावस्थितवाचनाक्रमप्रदर्शनार्थ लिखितः, इत ऊर्ध्वंतु प्रायः सुगमः प्राग्व्याख्यातस्वरूपश्च / न च वाचनाभेदोऽप्यतिबादर इति स्वयं परिभावनीयो, विषमपदव्याख्या तुविधास्यत इति। 'तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणिय-परिसोववन्नगा देवा इममेयारूव' मित्यादि 'आयते' इति नवानामपि श्रोतसां शुद्धोदकप्रक्षालनेन आचान्तो-गृहीताचमनश्चोक्षः स्वल्पस्यापि शङ्कितमलस्यापनयनात् अत एव परमशुचिभूतो, 'महत्थं महग्धं महरिहं विउलं इंदाभिसेय' मिति, महान् अर्थोमणिकनकरत्नादिक उपयुज्यमानो यस्मिन् स महार्थः तं, तथा महान् अर्घः-पूजा यत्र स महार्घः तं, महम्-उत्सवमर्हतीति महार्हस्तं, विस्तीर्णं शक्राभिषेकवत् इन्द्राभिषेकमुपस्थापयत 'अट्ठसहस्सं सोवणियाण कलसाणं विउव्वंति' इत्यादि, अत्र भूयान् वाचनाभेद इति यथावस्थितवाचनाप्रदर्शनाय लिख्यते-अष्टसहस्रम्-अष्टाधिकं सहस्र सौवर्णिकानां कलशानाम्-अष्टसहस्रं रूप्यमयानाम् 2 अष्टसहस्रं मणिमयानाम् 3 अष्टसहस्रं सुवर्णमणिमयानाम् 4 अष्टसहस्रं सुवर्णरूप्यमयानाम् 5 अष्टसहस्रं रूप्यमणिमयानाम् 6 अष्टसहनं सुवर्णमणिमयानाम् 7 अष्टसहस्रं भौमेयानांकलशानाम् 8 अष्टसहस्रं भृङ्गाराणामेवमादर्शस्थालपात्रीसुप्रतिष्ठितवातकरकचित्ररत्नकरण्डकपुष्प चङ्गेरीयावल्लोमहस्तकंपटलकसिंहासनच्छत्रचामरसमुद्नकध्वजधूपकडुच्छुकानां प्रत्येकं प्रत्येकमष्टसहस्रं 2 विकुर्वन्ति विकुर्खित्वा 'ताएउक्किट्ठाए' इत्यादि व्याख्यानार्थ, 'सव्व (तोतुवरा' इत्यादि, सर्वान्तु (तू) वरान् कषायान् सर्वाणि पुष्पाणि सर्वान् सर्वान् गन्धान्-गन्धवासादीन् सर्वा Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1131 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ णि माल्यानि ग्रथितादिभेदभिन्नानि सर्वोषधीन् सिद्धार्थकान्-सर्षपकान् गृह्णन्ति, इहैवं क्रमः-पूर्व क्षीरसमुद्रे उपागच्छन्ति तत्रोदकमुत्पलादीनि च गृह्णन्ति, ततः पुष्करोदे समुद्रे तत्रापि तथैव, ततो मनुष्यक्षेत्रे भरतैरावतवर्षेषु मागधादिषु तीर्थेषु तीर्थोदकं तीर्थमुत्तिकां च गृह्णन्ति, ततो गङ्गासिन्धुरक्तारक्तवतीषु नदीषु सलिलोदकं नधुदकमुभयतटमृत्तिका च गृह्णन्ति, ततः क्षुल्लहिमवच्छिशखरिषु सर्वतू (तु) वरसर्वपुष्पसर्वमाल्यसर्वोषधिसिद्धार्थकान, ततस्तत्रैव पद्महदपौण्डरीकहदेषु हृदोदकमुत्पलादीनि च तद्गतानि, ततो हेमवतैरण्यवतवर्षेषु रोहितारोहितांशासुवर्णकुलारूप्यकूलासु महानदीषु सलिलोदकमुभयतटमृत्तिका, तदनन्तरं शब्दापातिविकटापातिवृत्तवैताढयेषु सर्वतूवरादीन, ततो महाहिमवद्रूप्यिवर्षधरपर्वतेषु सर्वतूवरादीन्, ततो महापापुण्डरीकहदेषु हृदोदकादीनि, तदनन्तरं हरिवर्षरम्यकवर्षेषु हरिसलिलाहरिकान्तानारीकान्तासु महानदीषु सलीलोदक-मुभयतटमृत्तिकां च, ततो गन्धपातिमाल्यवत्पर्यायवृत्तवैताढ्येषु तूवरादीन्, ततो निषिधनीलवद्वर्षधरपर्वतेषु सर्वतूवरादीन्, तदनन्तरं तद्गतेषु तिगिच्छिकेसरिमहादेषु हृदोदकादीनि, ततः पूर्वविदेहापरविदेहेषु सीतासीतोदानदीषु सलिलोदकमुभयतटमृत्तिकां च ततः सर्वेषु चक्रवर्तिविजेतव्येषु मागधादिषु तीर्थेषु तीर्थोदकं तीर्थमुत्तिकां च, तदनन्तरं वक्षस्कारपर्वतेषु सर्वतूवरादीन, ततः सर्वासु अन्तरनदीषु सलिलोदकमुभयतटमृत्तिका च, तदनन्तरं मन्दरपर्वते भद्रशालवने तूवरादीन, ततो नन्दनवने तूवरादीन् सरसं च गोशीर्षचन्दनं तदनन्तरं सोमनसवने सर्वतूवरादीन सरसं च गोशीर्षचन्दनं दिव्यं च सुमनोदाम गृह्णन्ति, ततः पण्डकयने तूवरपुष्पगन्धमाल्यसरसगोशीर्षचन्दन-दिव्यसुमनोदामानि, 'दद्दरमलए सुगंधिए य गंधे गिण्हति' इति दईरः-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितं तत्र पक्कं वा यत् मलयोद्भवतया प्रसिद्धत्वात् मलयजश्रीखण्डं येषु तान् सुगन्धिकान्परमगन्धोपेतान् गन्धान् गृह्णन्ति, 'आसियसंमजिओवलित्तं सुइसम्मट्ठरत्यंतरावणवीहियं करेइ' इति आसिक्तम्-उदकच्छटकेन सन्मार्जित-संभाव्यमानकचवरशोधनेन उपलिप्तमिव गोमयादिना उपलिप्तं तथा सिक्तानि जलेनात एव शुचीनि पवित्राणि संमृष्टानिकचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि आपणवीथय इवहट्टमार्गा इवापणवीथयो-रथ्याविशेषा यस्मिन् तत्तथा कुर्वन्ति, 'अप्पेगइया देवा हिरण्णविहिं भाएंति' अप्येकका:-केचन देवा हिरण्यविधि-हिरण्यरूपं मङ्गलभूतं प्रकारं भाजयन्ति-विश्राणयन्ति, शेषदेवेभ्यो ददतीति भावः, एवं सुवर्णरत्नपुष्पफलमाल्यगन्धचूर्णाभरणविधिभाजनमपि भावनीयम् / 'उप्पायनिवये' त्यादि, उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पातनिपातस्तम्, एवं निपातोत्पातं संकुचितप्रसारितं 'रियारिय' मिति गमनागमनं भ्रान्तसंभ्रान्तनामम् आरभटभसोलं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति, अप्येकका देवा 'वुझारेंति' बुक्कारशब्दं कुर्वन्ति, 'पीणंति पीनयन्ति-पीनमात्मानं कुर्वन्ति स्थूला भवन्तीत्यर्थः,'लासतिलासयन्ति लास्यरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, 'तंडवेंति' त्ति ताण्डवयन्ति-ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति, 'वुक्कारेंति' वुक्कारं कुर्वन्ति 'अप्फोडति' आस्फोटयन्ति, भूम्यादिकमिति गम्यते, 'उच्छलंति 'त्ति उच्छलयन्ति 'पोच्छलंति' प्रोच्छलयन्ति 'उवयंति' ति अवपतन्ति 'उप्पयंति' ति उत्पतन्ति 'परिवयंति' त्ति परिपतन्ति; तिर्यक् निपतन्तीत्यर्थः / 'जलंति' ति ज्यालामालाकुला भवन्ति 'तविंति' ति तप्ता भवन्ति प्रतप्ता भवन्ति 'थुक्कारेंति' ति महता शब्देन थूत्कुर्वन्ति 'देवोक्कलियं करेंति' त्ति देवानां वातस्येवोत्कलिका देवोत्कलिका तां कुर्वन्ति, 'देवकहकहं करेंति' त्ति प्राकृतानां देवानां प्रमोदभरवशतः स्वेच्छावचनैर्वोलकोलाहलो देवकहकहकस्तं कुर्वन्ति 'दुहदुहकं करेंति दुहदुहकमित्यनुकरणमेतत्। 'तप्पढमयाए पम्हलाए सुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइयाए गायाइंलुहइ' इति तत्प्रथमतया-तस्यामलङ्कारसभायां प्रथमतया पक्ष्मला च सा सुकुमारा च पक्ष्मलसुकुमारा तया सुरभ्या गन्धकाषायिक्या सुरभिगन्धाकषायद्रव्यपरिकर्मितया लघुशाटिकया गात्राणि रूक्षयन्ति' नासानीसासवायवोज्झ' मिति नासिकानिः श्वासवातवाह्यमनेन तलक्षणतामाह, 'चक्खुहर' मिति चक्षुर्हरति आत्मवशं नयति विशिष्टरूपातिशयकलितत्वात् इति चक्षुहरं 'वण्णफरिसजुत्त मिति वर्णेन स्पर्शन चातिशयेनेति गम्यते युक्तं वर्णस्पर्शयुक्तं, 'हयलालापेलवाइरेग' मिति हयलालाअश्वलाला तस्य अपि पेलवमतिरेकेण हयलालापेलवातिरेक 'नाम नाम्नैकार्थे समासो बहुल' मिति समासः, अतिविशिष्टमृदुत्वलघुत्वगुणोपेतमिति भावः, धवलंश्वेतं, तथा कनकेन खचितानिविच्छुरितानि अन्तकर्माणि-अञ्चलयोनिलक्षणानि यस्य तत् कनकखचितान्तकर्मआकाशस्फटिकं नामातिस्वच्छः स्फटिक विशेषस्तत्समप्रभं दिव्यं देवदूष्ययुगलं 'नियंसेइ' परिधत्ते परिधाय हारादीन्याभरणानि पिनाति, तत्र हारः-अष्टादशसरिकः अर्द्धहारोनवसरिकः एकावली-विचित्रमणिका मुक्तावलीमुक्ताफलमयी रत्नावली-रत्नमयमणिकाल्मिका प्रालम्बः-तपनीयमयो विचित्रमणिरत्नभक्तिचित्र आत्मनः प्रमाणेन सुप्रमाण आभरणविशेषः, कटकानि-कलाचिकाभरणानि त्रुटितानिबाहुरक्षिकाः अङ्गदानिबाह्वाभरणविशेषाः दशमुद्रिकानन्तकं हस्ताङ्गुलिसंबन्धि मुद्रिकादशकं कुण्डले-करणाभरणे 'चूडामणि' मिति चूडामणि म सकलपार्थिवरत्नसर्वसारो देवेन्द्रमनुष्येन्द्रमूर्द्धकृतनिवासो निःशेषामङ्गलाशान्तिरोगप्रमुख-दोषापहारकारी प्रवरलक्षणोपेतः परममङ्गलभूत आभरणविशेषः 'चित्तरयणसंकड मउडमिति' चित्राणि-नानाप्रकाराणि यानि रत्नानि तैः संकटश्चित्ररत्नसङ्कटः प्रभूतरत्ननिचयोपेत इति भावः, तं 'दिव्यं सुमणदाम ति पुष्पमाला 'गंथिमे त्यादि, ग्रन्थिम-ग्रन्थनं ग्रन्थस्तेन निर्वृत्तं ग्रन्थिमं 'भावादिमः // 6 / 4 / 21 // प्रत्ययः यत्सूत्रादिना ग्रथ्यते तद्ग्रन्थिममिति भावः, पूरिमं यत् ग्रथितं सत् वेष्ट्यते, तथा पुष्पलम्बूसको; गण्डक इत्यर्थः पूरिमं येन वंशशलाकामयं पञ्जरादि पूर्यते, संघातिमं यत् परस्परतो नालसंघातेन संघात्यते। तए णं से सूरिया देवे के सालंकारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं वत्थालंकारेणं चउटिवहेणं अलंकारेणं Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1132- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम अलंकियविभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अहयाइंदेवदूसजुयलाई नियंसेइ नियंसित्ता पुप्फारुहणं मल्लाअब्मुडेति 2 द्वित्ता अलंकारियसभाओ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं रुहणं गंधारुहणं चुण्णारुहणं वन्नारुहणं वत्थारुहणं आभरणापडिणिक्खमइ 2 मित्ता जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छति रुहणं करेइ करित्ता आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामववसायसमं अणुपयाहिणीकरेमाणे 2 पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं कलायं करेइ आसत्तोसत्त० करेत्ता कयग्गाहगहियकरयलपब्भअणुपविसति, जेणेव सीहासणवरगए जाव सन्निसन्नं / तए णं ट्ठविप्पमुक्केणं दसद्धवन्नेणं कुसुमेणं मुक्कुपुप्फपुंजोवयारतस्स सूरियाभस्स देवस्स सामाणियपरिसोववनगा देवा पोत्थ- कलियं करेति करित्ता जिणपडिमाणं पुरतो अच्छेहिं सहेहिं यरयणं उवणेंति, तते णं से सूरियाभे देवे पोत्थयरयणं गिण्हति रययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं अहह मंगले आलिहइ, तं जहापोत्थ० गिणिहत्ता पोत्थयरयणं मुयइ पोत्थ० मुइत्ता पोत्थयरयणं सोत्थिय जाव दप्पणं, तयाणंतरंचणं चंदप्पभरयणवइरवेरुविहाडेइ विहाडित्ता पोत्थयरयणं वाएति पोत्थयरयणं वाएत्ता लियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुधम्मियं ववसायं गिण्हति गिण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिनिक्खमइ कतुरुकधूवमघमघंतगंधुत्तमाणुबिद्धं च धूववर्टि विणिम्मुयंतं सीहासणातो अब्भुढेति अब्भुट्टेत्ता ववसायसभातो पुरच्छि- वेरुलियमयं कडुच्छुयं पग्गहियं पयत्तेणं धूवं दाऊण जिणवराणं मिल्लेणं दारेणं पछिनिक्खमइ 2 मित्ता जेणेव नंदा पुक्खरणी अट्ठसयविसुद्धगन्थजुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं महावित्तेहिं तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ताणंदापुक्खरिणीपुरच्छिमिल्लेणं संथुणइ 2 णित्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चोसक्कई 2 त्ता वामं जाणुं अचेइ तोरणेणं पुरच्छिमिल्लेणं तिसोवापडिरूवएणं पचोरुहइ पचोरु- २त्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि निहट्ट तिक्खुत्तो मुद्धाणं हित्ता हत्थपादं पक्खालेति पक्खालित्ता आयंति चोक्खे परमसु- धरणितलंसि निवाडेइ २त्ताईसिं पञ्चुण्णमइ रत्ता करयलपरिइभूए एगं महं सेयं रययामयं विमलं सलिलपुण्णं मत्तगयमुहा- ग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अञ्जलिं कट्ट एवं वयासीनमोत्थु णं गितिकुंभसमाणं भिंगारंपगेण्हति 2 णिहत्ता जाइंतत्थ उप्पलाई अरहंताणं भगवंताणं० जाव संपत्ताणं, वंदइ वंदित्ता नमसइ 2 जाव सतसहस्सपत्ताइं ताइं गेण्ह ति 2 णिहत्ता गंदातो सित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसमाए पुक्खरिणीतो पचोरुहति पचोरुहित्ता जेणेव सिद्धायतणे तेणेव तेणेव उवागच्छइ २त्तालोमहत्थगं परामुसइ२ सित्ता सिद्धायपहारेत्थ गमणाए। (सू०४३) तणस्स बहुमज्झदेसभागं लोगहत्थेणं पमजति, दिव्वाए तएणं तं सूरियामं देवं चत्तारिय सामाणियसाहस्सीओ०जाव दगधाराए अन्भुक्खेइ, सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे सूरियामं जाव मंडलगं आलिहइत्ता कयग्गाहगहियं ०जाव पुंजोवयारकलियं देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पहत्थगया ०जाव सयसहस्सपत्त- करेइ करेत्ता धूवं दलयइ, जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले हत्थगया सूरियाभं देवं पिट्ठतो 2 समणुगच्छति / तए णं तं दारे तेणेव उवागच्छति 2 त्ता लोमहत्थगं परामुसइ 2 त्ता सूरिमं देवं बहवे आमिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया दारचेडीओ य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं कलसहत्थगया ०जाव अप्पेगतिया धूवकडुच्छयहत्थगता पमज्जइ 2 ता दिव्वाए दगधाराए अब्मुक्खेइ 2 त्ता सरसेणं हद्वतुट्ठ जाव सूरियाभं देवं पिट्ठतो समुणुगच्छति / तए णं से गोसीसचंदणेणं चचए दलयइ दलइत्ता पुप्फारुहणं मल्ला० जाव सूरियाभे देवे चउहि सामाणियसाहस्सीहिंजाव अन्नेहिय बहूहि आभरणारुहणं करेइ करेत्ता आसत्तोसत्त जाव धूवं दलयइ२ य सूरियाभं जाव देवेहियदेवीहि यसद्धिं संपरिखुडे सविडिए 'ता जेणेव दाहिणिल्ले दारे मुहमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स जाव णातियरवेणं जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति 2 मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता त्ता सिद्धायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुप- लोमहत्थगं परामुसइ 2 ता बहुमज्झदेसभागं लोमहत्थेणं विसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमाओ तेणेव उवा- पमजइ 2 ता दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ 2 त्ता सरसेणं गच्छति 2 त्ता जिणपडिमाणं आलोए पणामं करेति 2 ता लोम- गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं मंडलगं आलिहइ २त्ता कयग्गाहहत्थगं गिण्हति 2 त्ता जिणपडिमाणं लोमहत्थएणं पमजइ गहिय जाव धूवं दलयइ २त्ताजेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडपमजित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेइण्हाणित्ता वस्स पञ्चत्थिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छ 2 च्छित्ता लोमहत्थगं सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ अणुलिं पित्ता परामुसइ २त्ता दारचेडीओ य सालिभंजियाओ य वालरूवए सुरभिगंधकासाइएणं गायाइं लूहेति लेहिता जिणपमिमाणं | य लोमहत्थेणं पमज्जइ 2 त्ता दिव्वाए दगधाराए० सरसेणं Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1133 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ गोसीसचंदणेणं चचए दलयइ 2 त्ता पुप्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ २त्ता आसत्तोसत्त० कयग्गाहग्गहियं धूवं दलयइ रत्ता जेणेव दाहिणिल्लमुहमंडवस्स उत्तरिल्लाखंभपंती तेणेव उवागच्छइ 2 च्छित्ता लोमहत्थं परामुसइ 2 ता थंभे सालिभंजियाओ य वालरूवाए य लोमहत्थएणं पम० जहा चेव पचत्थिमिल्लस्स दारस्य जाव धूवं दलयइ २त्ता जणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स पुरथिमिल्लेदारे तेणेव उवागच्छद २त्ता लोमहत्थगं परामुसति दारचेडीओ तं चेव सव्वं जेणेव दाहिणिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ २त्ता दारचेडिओतं चेव सव्वं जेणेव दाहिणिल्ले पेच्छाघरमंडवे जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडवस्स बहुमज्झदेसभागे जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेव मणिपेढिया जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता लोमहत्थगं परमुसइ रत्ता अक्खाडगं च मणिपेढियं च सीहासणंच लोमहत्थएणं पमजइ२त्ता दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, पुप्फरुहणं आसत्तोसत्त ०जाव धूवं दलेइ 2 त्ता जेणेव दाहिणिल्लस्स पेच्छाघरमंडवस्स पचत्थिमिल्ले दारे तेणे० उत्तरिल्ले दारे तं चेव जं चेव पुरथिमिल्ले दारे तं चेव, दाहिणे दारे तं चेव, जेणेव दाहिणिल्ले चेइयथूभे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता थूभं च मणिपेढियं च दिव्याए दगधाराए अब्भु० सरसेणं गोसीस० चचए दलेइ रत्ता पुप्फारु० आसत्तो० जाव धूवं दलेइ, जेणेव पञ्चस्थिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव जिणपडिमा तं चेव, जेणेव उत्तरिल्ला जिण-पडिमा तं चे सव्वं, जेणेव पुरथिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव पुरथिमिल्ला जिणपडिमा तेणेव उवाच्छए २त्तातं चेव, दाहिणिल्ला मणिपेढियादाहिणिल्ला जिणपडिमा तं चेव, जेणेव दाहिणिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छइ 2 च्छित्ता तं चेव, जेणेव महिंदज्झए जेणेव दाहिणिल्ला तेणेव उवगच्छति २त्ता लोमहत्थगं परामुसति तोरणे य तिसोवाणपडिरूवए सालिभंजियाओ य वालरूवए यलोमहत्थएणं पमज्जए दिव्वाए दगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं० पुप्फारुहणं० आसत्तोसत्त० धूवं दलयति, सिद्धाययणं अणुपयाहिणीकरेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला गंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति 2 त्ता तं चेव, जेणेव उत्तरिल्ले चेइयरुक्खे तेणेव उवागच्छति, जेणेव उत्तरिल्ले चेइयथूभे तहेव, जेणेव पचत्थिमिल्लापेढिया जेणेव पचत्थिमिल्ला जिणपडिमा तं चेव, उत्तरिल्ले पेच्छाघरमंडवे तेणेव उवागच्छति २च्छित्ता जा चेव दाहिणिल्ल-वत्तव्वया सा चेव सव्वा पुरथिमिल्ले दारे, दाहिणिल्ला खंभपंतीतंचेव सव्वं, जेणेव उत्तरिल्ले मुहमंडवे जेणेव उत्तरिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाएतं चेव सव्वं, पचत्थिमिल्ले दारे तेणेव उवाग० त्ता उत्तरिल्ले दारे दाहिणिल्ला खंभपंतीसेसंतं चेव सव्वं जेणेव सिद्धायतणस्स उत्तरिल्ले दारे तं चेव, जेणेव सिद्धायतणस्स पुरथिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता तं चेव, जेणेव पुरस्थितिल्ले मुहमंडवे जेणेव पुरथिमिल्लस्स मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता तं चेव, पुरत्थिमिल्लस्स मुहमंडवस्स दाहिणिल्ले दारे पञ्चस्थिमिल्ला खंभपंति उत्तरिल्ले दारं ते चेव, जेणेव, पुरथिमिल्ले दारे तं चेव, जेणेव पुरथिमिल्ले पेच्छाघरमंडवे, एवं थूमे जिणपडिमाओ चेइयरुक्खा महिंदज्झया णंदापुक्खरिणीतं चेवजाव धूवं दलइ 2 त्ता जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छति २त्ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ 2 ता जेणेव माणवए चेइयखंभे जेणेव वइरामए गोलवट्टसमुग्गे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता लोमहत्थयं परामुसइ २त्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए लोमहत्थेणं पमन्जइ 2 त्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए विहाडेइ २त्ता जिणसगहाओ लोमहत्थेणं पमज्जइ 2 त्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ पक्खालित्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहि य मल्लेहि य अचेइ धूवं दलयइ 2 त्ता जिणसकहाओ वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसुपडिनिक्खमइमाणवगं चेइयखंभं लोमहत्थएणं पमज्जइ दिव्वाए दगधारए सरसेणं गोसीसचंदणेणं चचए दलयइ, पुप्फारुहणं जावधूवं दलयइ, जेणेव सीहासणे तं चेव, जेणेव देवसयणिज्जे तं चेव, जेणेव खुड्डागमहिंदज्झए तं चेव, जेणेव पहरणकोसे चोप्पालए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता लोमहत्थगं परामुसइ 2 सित्ता पहरणकोसं चोप्पालं लोमहत्थणं पमजइ२ जित्ता दिव्वाए दगधाराए सरसेणंगोसीस-चंदणेणं चचा दलेइ पुप्फारुहणं आसत्तोसत्त जाव धूवं दलयइ जेणेव सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभाएजेणेवमणिपेढिया जेणेव देवसयणिजे तेणेव उवागच्छइ 2 च्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ देवसयणिज्जं च मणिपेढियं च लोमहत्थएणं पमज्जइजाव धूवं दलयइ 2 त्ता जेणेव उववायसभाए दाहिणिल्ले दारे तहेव अभिसेयसभासरियं जाव पुरथिमिल्लाणंदापुक्खरिणी जेणेव हरएतेणेव उवागच्छह रत्तातोरणे यतिसोवाणे यसालिभंजियाओयवालरूवएयतहेव, जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता तहेव सीहा Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ सणं च मणिपे ढियं च सेसं तहेव आययणसरिसं जाव | पुरथिमिल्ला गंदा पुक्खरिणी जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छद 2 छित्ता जहा अमिसेयसभा तहेव सवं जेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता तहेव लोमहत्थयं परमुसति पोत्थयरयणं लोमहत्थएणं पमज्जइपमज्जित्ता दिव्वाए दगधाराए अग्गेहिं वरेहि य गंधेहिं मल्लेहि य अञ्चेति 2 चित्ता मणिपेढियं सीहासणं च सेसं तं चेव, पुरथिमिल्ला नंदा पुक्खरिणी जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता तोरणे य तिसोवाणे य सालिमंजियाओ य बालरूवएय तहेव। जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ 2 ता बलिविसज्जणं करेइ करिता आभिओगिए देवे सद्दावेइ सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु तिएसु चउक्केसु चच्चरेसु चउम्मुहेसुमहापहेसु पागारेसु अट्टालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसुतोरणेसु आरामेसु उज्जाणेसु वणेसु वणराईसु काणणेसु वणसंडेसु अचणियं करेह अचणियं करेत्ता एवमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह, तए णं ते आमिओगिया देवा सूरियाभेणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा जाव पडिसुणित्ता सूरियाभे विमाणे सिंघाडएसु तिएसु चउक्कएसु चचरेसु चउम्मुहेसु महापहेसु पागारेसु अट्टालएसु चरियासु दारेसु गोपुरेसु तोरणेसु आरामेसु उज्जाणेसु वणेसु वणरातीसु काणणेसु वणसंडेसु अचणियं करेइ 2 त्ता जेणेव सूरियाभे देवे जाव पचप्पिणंति, तते णं से सूरियाभे देवे जेणेव नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ 2 त्ता नंदापुक्खरिणी पुरथिमिल्लेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति 2 हित्ता हत्थपाए पक्खालेइ 2 लेत्ता गंदाओ पुक्खरिणीओ पचुत्तरइ जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव पहारित्थगमणाए। तएणं से सूरियाभे देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं सूरियामविमाणवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे सविडिए ०जाव नाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइसमंसुधम्म पुरस्थिमिल्लेणंदारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ२ त्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। (सू०५७) 'जेणेव ववसायसभा' इति व्यवसायसभा नाम व्यवसायनिबन्धनभूता सभा, क्षेत्रादेरपि कर्मोदयादिनिमित्तत्वात्, उक्तं च-''उदयक्खयक्खओवसमोवसमा जंच कम्मुणो भणिया। दव्वं खेत्तं काल, भावं च भवं च संपप्प / / 1 ।।इति, "पोत्थयरयणं मुयई' इति उत्सङ्गे स्थानविशेषे वा उत्तमे इति द्रष्टव्य, 'विहाडेइ' इति उद्घाटयति, 'धम्मियं ववसायं ववस्सइ' इति धार्मिकं धर्मानुगतं व्यवसायं व्यवस्यति, कर्तुमभिलष तीति भावः। 'अच्छरसातंदुलेहिं अच्छो रसो येषु ते अच्छरसाः; प्रत्ययासन्नवस्तुप्रतिबिम्बाधारभूता इवोतिनिर्मला इत्यर्थः, अच्छरसाश्व ते तन्दुलाश्चतैः, दिव्यतन्दुलैरिति भावः, 'पुप्फपुंजोवयारकलियं करित्ता, चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंड' मिति चन्द्रप्रभवजवैडूर्यमयो विमलो दण्डो यस्य सतथा तं, काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रं कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कसत्केन धूपेन उत्तमगन्धिनाऽनुविद्धा कालागुरुप्रवरकुन्दुरुक्कतुरुक्कधूपगन्धोत्तमानुविधा प्राकृतत्वात् पदव्यत्ययः धूपवर्ति विनिर्मुञ्चन्तं वैडूर्यमयं धूपकडुच्छुयं प्रगृह्य प्रयत्नतो धूपं दत्त्वा जिनवरेभ्यः, सूत्रे षष्ठी प्राकृतत्वात्, सप्ताष्टानि पदानि पश्चादपसत्य दशाङ्गुलिमञ्जलिं मस्तके रचयित्वा प्रयत्नतः 'अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं' ति विशुद्धोनिमलो लक्षणदोषरहित इति भावः यो ग्रन्थः-शब्दसंदर्भस्तेन युक्तानि, अष्टशतं चतानि विशुद्धग्रन्थयुक्तानि च तैः अर्थयुक्तैः-अर्थसारैरपुनरुक्तैर्महावृत्तैः, तथाविधदेवलब्धिप्रभाव एषः, संस्तौति संस्तुत्य वामं जानुम् अञ्चति इत्यादिना विधिना प्रणामं कुर्वन् प्रतिपातदण्डकं पठति, तद्यथा'नमोऽत्थु णं अरिहंताण' मित्यादि, नमोऽस्तु'ण' मिति वाक्यालंकारे देवादिभ्योऽतिशयपूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, सूत्रे षष्ठी 'छट्ठीविभत्तीए भन्नइ चउत्थी' इति प्राकृतलक्षणवशात्, ते चाहन्तो नामादिरूपा अपि सन्ति ततो भावार्हत्प्रतिपत्त्यर्थमाह-'भगवद्भ्यः भगः-समप्रैश्वर्यादिलक्षणः स एषामस्तीति भगवन्तस्तेभ्यः, आदि:-धर्मस्य प्रथमा प्रवृत्तिस्तत्करणशीलाः आदिकरास्तेभ्यः तीर्यते संसारसमुद्रोऽनेनेति तीर्थप्रवचनं तत्करणशीलास्तीर्थकराः तेभ्यः स्वयम् अपरोपदेशेन सम्यग् वरबोधिप्राप्त्या बुद्धामिथ्यात्वानिद्रापगमसंबोधेन स्वयंसंबुद्धास्तेभ्यः, तथा पुरुषाणामुत्तमाः पुरुषोत्तमाः भगवन्तो हिं संसारमप्यावसन्तः सदा परार्थव्यसनिन उपसर्जनीकृतस्वार्था उचितक्रियावन्तोऽदीनभावाः कृतज्ञतापतयोऽनुपहतचित्ता देवगुरुबहुमानिन इति भवन्ति पुरुषोत्तमास्तेभ्यः, तथा पुरुषाः सिंहा इव कर्मगजान्प्रति पुरुषसिंहास्तेभ्यः, तथा पुरुषवरपुण्डरीकाणीव संसारजलासङ्गादिनाकर्ममलाभावतो वा पुरुषेषु वरपुण्डरीकाणि तेभ्यः, तथा पुरुषवरगन्धहस्तेिन इव परचक्रदुर्भिक्षमारिप्रभृतिक्षुद्रगजनिराकरणेनेति पुरुषवरगन्धहस्तिनस्तेभ्यः तथा लोकोभव्यसत्त्वलोकः तस्य सकलकल्याणैकनिबन्धनतया भव्यत्वभावेनोत्तमा लोकोत्तमास्तेभ्यः, तथा लोकस्य नाथायोगक्षेमकृतो लोकानाथास्तेभ्यः, तत्र योगोबीजाधानोद्भेदपोषणकरणं क्षेमं च तत्तदुपद्रवाद्यभावापादनं, तथा लोकस्यप्राणिलोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्य वा हिता-हितोपदेशेन सम्यक्प्ररूपणया वा लोकहितास्तेभ्यः, तथा लोकस्य देशनायोग्यस्य प्रदीपा देशनांशुभिर्यथावस्थितबस्तुप्रकाशका लोकप्रदीपस्तेभ्यः, तथा लोकस्य उत्कृष्टमते व्यसत्त्वलोकस्य प्रद्योतकत्वविशिष्टा ज्ञानशक्तिस्तत्करणशीला लोकप्रद्योतकराः, तथा च भवन्ति भगवत्प्रसादात्तत्क्षणमेव भगवन्तो गणभृतो विशिष्टज्ञानसंपत्स-- Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1135 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ मन्विता यद्वशाद् द्वादशाङ्गमारचयन्तीति, तेभ्यः, तथा अभयं विशिष्ट- | वाचनाप्रदर्शनार्थ विधिमात्रमुपदर्शाते-तदनन्तरं लोमहस्तके न मात्मनः स्वास्थ्य, निःश्रेयसधर्मभूमिकानिबन्धनभूता परमा धृतिरिति देवच्छन्दकं प्रमार्जयति पानीयधारया अभ्युक्षति; अभिमुखं सिञ्चभावः, ततः अभयं ददतीत्यभयदास्तेभ्यः, सूत्रे च कः प्रत्ययः स्वार्थिकः तीत्यर्थः, तदनन्तरं गोशीर्षचन्दनेन पञ्चाङ्गुलितलं ददाति, ततः प्राकृतलक्षणवशात, एवमन्यत्रापि, तथा चक्षुरिवचक्षुः-विशिष्ट आत्मधर्मः पुष्पारोहणादिधूपदहनं च करोति, तदनन्तरं सिद्धायतनबहुमध्यदेशभागे तत्त्वावबोधनिबन्धनः श्रद्धास्वभावः, श्रद्धाविहीनस्याचक्षुष्मत इव रूपं उदकधाराभ्युक्षणचन्दनपञ्चाङ्गुलितलप्रदानपुष्पपुञ्जोपचार-धूपदातत्त्वदर्शनायोगात्, तद ददतीति चक्षुर्दास्तेभ्यः, तथा मार्गोविशिष्टगुण नादि करोति, ततः सिद्धायतनदक्षिणद्वारे समागत्य लोमहस्तकं गृहीत्वा स्थानावाप्तिप्रगुणः स्वरसवाही क्षयोपशमविशेषस्तं ददतीति मार्गदाः, तेन द्वारशाखे शालिभञ्जिकाव्यालरूपाणि च प्रमार्जयति, तत उदकतथा शरणंसंसारकान्तारगतानामतिप्रबलरागादिपीडितानां समाश्वा धारयाऽभ्युक्षणं गोशीर्षचन्दनचर्चापुष्याद्यारोहणं धूपदानं करोति। ततो सनस्थानकल्पं तत्त्वचिन्तारूपमध्यवसानं तद्ददतीति शरणदास्तेभ्यः, दक्षिणद्वारेण निर्गत्य दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य बहुमध्यदेशभागे तथा बोधिः-जिनप्रणीतधर्मप्राप्तिस्तत्त्वार्थश्रद्धनलक्षणसम्यग्दर्शन लोमहस्तकेन प्रमार्योदकधाराभ्युक्षणं चन्दनपञ्चाङ्गुलितलप्रदानपुष्परूपा तां ददतीति बोधिदास्तेभ्यः, तथा धर्मंचारित्ररूपं ददतीति धर्म पुञ्जोपचारधूपदानादि करोति, कृत्वा पश्चिमद्वारे समागत्य पूर्ववत् दास्तेभ्यः, कथं धर्मदा ? इत्याह--धर्म दिशन्तीति धर्मदेशकास्तेभ्यः, द्वारार्चनिकां करोति कृत्वा च तस्यैव दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्योत्ततथा धर्मस्य नायकाः-स्वामिनस्तद्वशीकरणभावात् तत्फलपरिभोगाच रस्यां स्तम्भपड्क्तौ समागव्य पूर्ववत्तदर्चनिकां विधत्ते, इह यस्यां दिशि धर्मनायकाः तेभ्यः, धर्मस्य सारथय इव सम्यक् प्रवर्तनयोगेनधर्मसा सिद्धायतनादिद्वारंतत्रेतरस्य मुखमण्डपस्य स्तम्भपङ्क्तिः , ततस्त-स्यैव रथयस्तेभ्यः, तथा धर्म एव वरं-प्रधानं चतुरन्त-हेतुत्वात् चतुरन्तं दाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्य पूर्वद्वारे समागत्य तत्पूजां करोति, कृत्वा चक्रमिव चतुरन्तचक्रेतेन वर्तितुंशीलं येषां ते तथा तेभ्यः, तथा अप्रतिहते तस्यदाक्षिणात्यस्य मुखमण्डपस्यदक्षिणद्वारे समागत्यपूर्ववत्पूजां विधाय अप्रतिस्खलिते क्षायिकत्वात् वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने धरन्तीति अप्रति तेन द्वारेण विनिर्गत्य प्रेक्षागृहमण्डपस्य बहुमध्य-देशभागे समागत्याक्ष पाटकं मणिपीठिका सिंहासनं च लोमहस्तकेन प्रमार्योदकधारयाऽभ्युहतवरज्ञानदर्शनधरास्तेभ्यः, तथा छादयन्तीति छद्मघातिकर्मचतुष्टयं क्ष्य चन्दनचर्चापुष्पपूजाधूपदानानि कृत्वा तस्यैव प्रेक्षामण्डपस्य क्रमेण व्यावृत्तम् अपगतं छद्म येभ्यस्ते व्यावृत्तच्छद्मानस्तेभ्यः, तथा रागद्वेष पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणद्वाराणामनिकां कृत्वा दक्षिणद्वारेण विनिर्गत्य कषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गघाति-कर्मशत्रून् स्वयं जितवन्तोऽन्यांश्च चैत्यस्तूपं मणिपीठिकां च लोमहस्तकेन प्रमार्योदकधारयाऽ-न्युक्ष्य जापयन्तीति जिनाः जापकास्तेभ्यो जिनेभ्यो जापकेभ्यः, तथा भवार्णवं सरसेन गोशीर्षचन्दनकेन पञ्चाङ्गुलितलं दत्त्वा पुष्पाधारोहणं च विधाय स्वयं तीर्णवन्तोऽन्याँच तारयन्तीति तीर्णास्तारकास्तेभ्यः तथा केवल धूपं ददाति, ततोयत्रपाश्चात्या मणिपीठिका तत्रागच्छति, तत्रागत्याऽsवेदसा अवगततत्त्वा बुद्धा अन्याँश्च बोधयन्तीतिबोधकास्तेभ्यः, मुक्ताः, लोके प्रणामं करोति, कृत्वा लोमहस्तकेन प्रमार्जन सुरभिगन्धोदकेन स्नानं कृतकृत्या निष्ठितार्था इति भावस्तेभ्योऽन्याँश्च मोचयन्तीति मोचका सरसेन गोशीर्षचन्दननेन गात्रानुलेपनं देवदूष्ययुगलपरिधानं पुष्पाद्यारोहणं स्तेभ्यः, सर्वज्ञेभ्यः सर्वदर्शिभ्यः, शिवं सर्वोपद्रवरहितत्वात् अचलं पुरतः पुष्पपुञ्जोपचारधूपदानंपुरतो दिव्यतन्दु-लैरष्टमङ्गलकालेखनमष्टोस्वाभाविकप्रायोगिकचलनक्रियाऽपोहात् अरुज शरीरमनसोरभावेना त्तरशतवृत्तैः स्तुति प्रणिपातदण्डकेपाठं च कृत्वा वन्दते नमस्यति, तत धिव्याध्यसम्भवात् अनन्तं केवलात्मनाऽनन्तत्वात् अक्षयं विनाशकार एवमेव क्रमेण उत्तरपूर्वदक्षिणप्रतिमानामप्यर्चनिकां कृत्वा दक्षिणद्वारेण णाभावात् अव्याबाध केनापि बाधयितुमशक्यममूर्त्तत्वात् नपुनरावृत्तिर्य निविर्गत्य दक्षिणस्य दिशि यत्र चैत्यवृक्षः तत्र समागत्य चैत्यवृक्षस्य स्मात् तदपुनरावृत्ति सिध्यन्तिनिष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः द्वारवदनिकां करोति, ततो महेन्द्रध्वजस्य ततो यत्र दाक्षिणात्या नन्दा लोकान्तक्षेत्रलक्षणा सैव गम्यमानत्वात् गतिः सिद्धिगतिरेव नामधेयं यस्य पुष्करिणी तत्र समागच्छति, समागत्य तोरणत्रिसोपा-नप्रतिरूपकगततत् सिद्धिगतिनामधेयं तिष्ठत्यस्मिन् इति स्थान-व्यवहारतः सिद्धिक्षेत्र शालभञ्जिकाव्यालकरूपाणां लोमहस्तकेन प्रमार्जनंजलधारयाऽभ्युक्षणं निश्चयतो यथावस्थितं स्वस्वरूपं स्थागस्थानिनोरभेदोपचारात् तत् चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोहणं धूपदान च कृत्वा सिद्धायतनमनुप्रदक्षिणीसिद्धिगतिनामधेयं स्थानं तत्संप्राप्तेभ्यः, एवं प्रतिपातदण्डकं पठित्वा कृत्योत्तरस्यां नन्दापुष्करिण्यां समागत्य पूर्ववत्तस्या अर्चनिकां करोति, ततो 'वंदइ नमसइ इति वन्दतेताःप्रतिमाश्चैत्यवन्दनविधिना प्रसिद्धेन, तत उत्तराहे महेन्द्रध्वजे तदनन्तरमुत्तराहे चैत्यवृक्षे तत उत्तराहे चैत्यस्तूपे नमस्करोति पश्चात्प्रणिधानादियोगेनेत्येके, अन्ये त्वभिदधतिविरति- ततः पश्चिमोत्तरपूर्वदक्षिणजिनप्रतिमानां पूर्ववत् पूजां विधायोत्तराहे मतामेव प्रसिद्धश्चैत्यवन्दनविधिरन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकाय- प्रेक्षागृहमण्डपेसमागच्छति,तत्र दाक्षिणात्यप्रेक्षागृहमण्डवत्सर्वावक्तव्यता व्युत्सर्गासिद्धेरिति वन्दते सामान्येन नमस्करोति आशयवृद्धेरभ्युत्थान- वक्तव्या, ततो दक्षिणस्तम्भपङ्क्त्या विनिर्गत्योत्तराहे मुखमण्डपे समानमस्कारेणेति, तत्त्वमत्र भगवन्तः परमर्षयः केवलिनो विदन्ति, अत गच्छति,तत्रापि दाक्षिणात्यमुखमण्डपवत्सर्व पश्चिमोत्तरपूर्वद्वाररुमेण कृत्वा ऊर्ध्वं सूत्रं सुगम केवलंभूयान् विधिविषयो वाचनाभेद इति यथावस्थित- | दक्षिणस्तम्भपड्क्त्या विनिर्गत्य सिद्धायतनस्योत्तरद्वारे समागत्य पूर्वव Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाम 1136 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम दर्चनिकां कृत्वा पूर्वद्वारेण समागच्छति, तत्रानिकां पूर्ववत्कृत्वा पूर्वस्य / मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य बहुमध्यदेशभागस्य चक्रमेण पूर्ववदर्चनिकां मुखमण्डपस्यदक्षिणद्वारे पश्चिमस्तम्भपक्त्योत्तरपूर्वद्वारेषुक्रमेणोक्त- करोति, तत्रापिक्रमेण सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वाराऽऽदिका पूर्वनन्दापुष्करूपांपूजां विधाय पूर्वद्वारेण विनिर्गत्य पूर्वप्रेक्षागृहमण्डपे समागत्य पूर्ववत् रिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेण द्वारमध्यभागदक्षिणद्वारपश्चिमस्तम्भपङ्क्त्योत्तरपूर्वद्वारेषु पूर्ववदर्चनिकां व्यवसायसभां प्रविशति, प्रविश्य पुस्तकरत्नं लोमहस्तकेन प्रमृज्योदककरोति, ततः पूर्वप्रकारेणैव क्रमेण चैत्यस्तूपजिनप्रतिमाचैत्यवृक्ष- धारया अभ्युक्ष्य चन्दनेन चर्चयित्वा वरगन्धमाल्यैरर्चयित्वा पुष्पाद्यामहेन्द्रध्वजनन्दापुष्करिणीनां, ततः सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण रोपणं धूपदानं च करोति / तदनन्तरं मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य प्रविशति, प्रविश्य यत्रैव मणिपीठिका तत्राऽऽगच्छति, आलोके च जिन- बहुमध्यदेशभागस्य च क्रमेण पूर्ववदर्चनिकां करोति, तदनन्तरमत्रापि प्रतिमानां प्रणाम करोति, कृत्वा यत्र माणकचैत्यस्तम्भो यत्र वज़मया सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्धनिका गोलवृत्ताः समुद्रकाः तत्रागत्य समुद्रकान् गृह्णाति, गृहीत्वा विघाटयति वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतो बलिपीठे समागत्य तस्य बहुमध्यविघाठ्य च लोमहस्तकं परामृश्य तेन प्रमाोदकधारया अभ्युक्ष्य देशभागवत् अर्चनिकां करोति कृत्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दापयति, गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, ततः प्रधानैर्गन्धमाल्यैरर्चयति धूपं दहति, शब्दापयित्वा एवमवादीत्-'खिप्पामेवे' त्यादि सुगम यावत् 'तमाणत्तियं तदनन्तरं भूयोऽपि वज्रमयेषु गोलवृत्तसमद्केषु प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनि- पञ्चप्पिणंति नवरं शङ्गाटकं शृङ्गाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिकोणं स्थानं क्षिप्त तान् वज्रमथान् गोलवृत्तसमुद्रकान् स्वस्थाने प्रतिनिक्षिपति, तेषु त्रिकं यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतुष्कं-चतुष्पथयुक्तं, चत्वरंबहुरथ्यापुष्पगन्धमाल्यवस्त्राभरणानि चारोपयति, ततो लोमहस्तकेन माणक- पातस्थानं, चतुर्मुखंयस्माचतसृष्वपि दिक्षु पन्थानो निस्सरन्ति, चैत्यस्तम्भं प्रभार्योदकधारयाऽभ्युक्षणचन्दनचर्चापुष्पाधारोपणं महापथो-राजपथःशेषः सामान्यः पन्थाःप्राकारः प्रतीतः, अट्टालिकाःधूपदानं च करोति, कृत्वा च सिंहासनप्रदेशे समागत्य मणिपीठिकायाः प्राकारस्योपरि भृत्याश्रयविशेषाः, चरिका-अष्टहस्तप्रमाणो नगरप्रासिंहासनस्य च लोमहस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदर्चनिकां करोति, कारान्तरालमार्गः द्वाराणि-प्रासादादीनां गोपुराणिप्राकारद्वाराणि कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया तोरणानि-द्वारादि-सम्बन्धीनि आरमन्ते यत्र माधवीलतागृहादिषु देवशनीयस्य च द्वारवदर्चनीकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुल्लकेन्द्र- दम्पत्यावित्यसावारामः, पुष्पादिमयवृक्षसंकुलमुत्सवादी बहुजनोपभोध्वजे पूजां करोति, ततो यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य / ग्यमुद्यानं, सामान्यवृक्षवृन्दनगरासन्नं काननं, नगरविप्रकृष्टं वनम्, लोमहस्तकेन परिघरत्नप्रमुखाणि प्रहरणरत्नानि प्रमार्जयति, प्रमार्यो- एकाऽनेकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो वनखण्डः, एकजातीयोत्तमवृक्षसमूहो दकधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्चा पुष्पाद्यारोपणं धूपदानं च करोति, ततः वनराजी, 'तए ण' मित्यादि, ततः सूर्याभदेवो बलिपीठे बलिविसर्जन सभायाः सुधर्माया बहुमध्यदेशभागेऽर्चनिकां पूर्ववत् करोति, कृत्वा करोति, कृत्वा चोत्तरपूर्वानन्दापुष्करिणीमनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वतोरणेसुधर्मायाः सभाया दक्षिणद्वारे सभागत्य तस्य अर्चनिका पूर्ववत् कुरुते, नानुप्रविशति, अनुप्रविश्य च हस्तौ पादौ प्रक्षालयति प्रक्षाल्य नन्दापुततो दक्षिणद्वारेण विनिर्गच्छति, इत ऊर्ध्वं यथैव सिद्धायतनानिष्क्रामतो | ष्करिण्याः प्रत्यवतीर्य सामानिकादि-परिवारसहितः सर्वद्ध्या यावद् दक्षिणद्वारादिका दक्षिणनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना पुनरपि प्रविशतः दुन्दुभिनिर्घोषनादितरवेण सूर्याभविमाने मध्य मध्येन समागच्छन् यत्र उत्तरनन्दापुष्करिण्यादिका उत्तरद्वारान्ता ततो द्वितीयद्वारान्निष्क्रामतः सुधर्मा सभा तत्रागत्य तां पूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य मणिपीठिकाया पूर्वद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसाना अर्चनिका वक्तव्यता सैव उपरि सिंहासने पूर्वाभिमुखो निषीदति। सुधर्मायां सभायामप्यन्यूनातिरिक्ता वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिण्या तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स अवरुत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं अर्चनिकां कृत्वा उपपातसभांपूर्वद्वारेण प्रविशति, प्रविश्य च मणिपीठि- दिसि माए णं चत्तारिय सामाणियसाहस्सीओ चउसु महासणकाया देवशयनीयस्य तदनन्तरं बहुमध्यदेशभागे प्राग्वदर्चनिकां साहस्सीसु निसीयंति, तए णं तस्स पुरथिमिल्लेणं चत्तारि विदधाति, ततो दक्षिणद्वारे समागत्य तस्यानिकां कुरुते, अतऊर्ध्वम- अग्गमहिसीओ चउसु भदासणेसु निसीयंति तए णं दाहिणत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वारादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाs- पुरस्थिमेणं अभिंतरियपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ अहसु र्चनिका वक्तव्या, ततः पूर्वनन्दापुष्करिणीतोऽपक्रम्य हृदे समागत्य पूर्ववत् भद्दासणसाहस्सीसु निसीयंति, तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स तोरणार्चनिकां करोति, कृत्वा पूर्वद्वारेणाभिषेकसभां प्रविशति, प्रविश्य दाहिणेणं मज्झिमाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ दससु मणिपीठिकायाः सिंहासनस्याभिषेकभाण्डस्य बहुमध्यदेशभागस्य च भद्दासणसाहस्सीसुनिसीयंति,तएणंदाहिणपञ्चत्थिमेणं बाहिक्रमेण पूर्ववदनिकां करोति ततोऽन्यत्रापि सिद्धायतनवत् दक्षिणद्वा- रियाएपरिसाएबारस देवसाहस्सीतोबारससुभद्दासणस, हस्सीसु रादिका पूर्वनन्दापुष्करिणीपर्यवसानाऽर्चनिका वक्तव्यता, ततः निसीयंति, तएणंदेवस्स पचत्थिमेणं सत्त अणियाहिवइणोसत्तहिं पूर्वनन्दापुष्करिणीतः पूर्वद्वारेणालङ्कारिकसभा प्रविशति, प्रविश्य | भद्दासणेहिं णिसीयंति,तएणं तस्स सूरियाभस्स देवस्स चउहि Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1137 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाम सिं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ सोलसहिं भद्दासण- महिड्डीए महज्जुतीए महब्वले महाजसे महासोक्खे महाणुभागे साहस्सीहिं णिसीयंति, तं जहा-पुरथिमिल्लेणं चत्तारि सूरियामे देवे, अहो णं भंते ! सूरियाभे देवे महिड्डीए० जाव साहस्सीओ दाहिणेणं चत्तारि साहस्सीओ पचत्थिमेणं चत्तारि महाणुभागे। (सू०४६) साहस्सीओ उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ, ते णं आयरक्खा (सूर्याभदेवस्य दिव्या देवर्द्धिः कथं प्राप्तेति 'पएसि' शब्दे पञ्चमभागे सन्नद्धबद्धवम्मियकवया उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेविजा उक्ता। बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टगहियाउहपहरणा तिणयाणि से णं भंते ! सूरियाभे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं तिसंधियाइं वयरामयाइं कोडीणि धणूइं पगिज्झ पडियाइय भवक्खएणं ठितिक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिति कैडकलावा नीलपाणिणो पीतपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो कहिं उववजिहिति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे जाइं इमाई चारुपाणिणो चम्मपाणिणो दंडपाणिणो खग्गपाणिणो पासपा कुलाई भवंति अढाई दित्ताई वित्थिण्णविउलाई भवणसथणाणिणो नीलपीयरत्तचावचारुचम्मदंडखग्गपासधरा आयरक्खा सणजाणवाहणेहिं बहुजातरूवरयगाइं आयपयोगं संपउत्ताई रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं वित्थडियपउरभत्तपाणाई बहुदासीदासगोमहिसगवलेगप्पभूयाई समयओ विणयओ किंकरभूया चिट्ठति। (सू०५५) बहुजणस्स अपरिभूयाइं तत्थ अन्नयरे सुकुमाले पुत्तत्ताए पचाततः प्रागुपदर्शितसिंहासनक्रमेण सामानिकादय उपविशन्ति, 'ते णं इस्सइतएणं तंसि दार सिगभगयंसि चेव समाणंसि अम्मापिआयरक्खा' इत्यादि, ते आत्मरक्षाः सन्नद्धबद्धवर्मितकवचा उत्पीडित ऊणं धम्मे दढपइण्णा भविस्सइ / तएणं तस्स दारगस्सं माया नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्ठमाणाणं राइंदियाणं शरासनपट्टिकाः पिनगवेयाग्रैवेयकामरणाः अविद्धविमलवरचिह्नपट्टा विइक्वंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरं गृहीताऽऽयुधप्रहरणास्विनतानि आदिमध्यावसानेषु नमनभावात् त्रिसन्धीनि आदिमध्यावसानेषु संधिभावात् वज्रमयकोटीनिधनूंषि अभिगृह्य लक्खणवंजणगुणोववेयं माणुम्माणपमाणपडिपुण्णसुजायस व्वंगसुंदरंगं ससिसोमकार कंतं पियं दंसणं सुरूवं दारयं पया'परियाइयकंडकलावा' इति पयत्तिकाण्डकलापा विचित्रकाण्डकलाप हिसि, तए णं तस्सदारगस्स अम्मापियते पढमे दिवसे ठियवयोगात, केऽपि 'नीलपाणिणो' इति नीलः काण्डकलाप इति गम्यते डियं करिस्संति, ततिए दिवसे चंदसूरदंसणियं करिस्संति छठे पाणौ येषां ते नीलपाणयः, एवं पीतपाणयो रक्तपाणयः चापं पाणौ येषां दिवसे जागरियं जागरिस्संति एकारसमे दिवसे विइक्कते संपत्ते ते चापपाणायः चारु:-प्रहरणविशेषः पाणौ येषां ते चारुपाणयः चर्म बारसमे दिवसे निव्वत्ते असुइजाइकम्मकरणे चोक्खे संमजितोअङ्गुष्ठागुल्योराच्छादनरूपं पाणौ येषां ते चर्मपाणयः, एवं दण्डपाणयः वलित्ते विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेसंति 2 खङ्गपाणयः पाशपाणयः, एतदेव व्याचष्टे यथायोगं नीलपीतरक्त त्ता मित्तगायनियगसयणसंबंधिपरिजणं आमंतिस्संति आमंतेत्ता चापचारुचर्म दण्डखड्गपाशधरा आत्मरक्षाः रक्षामुपगच्छन्ति तदेक तओ पच्छा०जाव अलंकितसरीराभोयणवेलाए भोयणमंडवंसि चित्ततया तत्परायणा वर्तन्ते इति रक्षोपगाः गुप्ता न स्वामिभेदकारिणः, सुहासणवरगया ते णं मित्तनाइनियगसयणसंबंधि सद्धिं विउलं तथा गुप्तापराप्रवेश्या पालिः सेतुर्येषां ते गुप्तपालिकाः, तथा युक्ताः असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा वासाएमाणा परिभुजेसेवकगुणोपेततया उचितास्तथा युक्ताः-परस्परसंबद्धा नतु बृहदन्तरा माणा परिभाएमाणा एवं च णं विहरिस्संति। जिमियभुत्तुत्तरागया पालिर्येषां ते युक्तपालिकाः, समयतः-आचारतः; आचारेणेत्यर्थः, वियणं समाणा आयंतो चोक्खा परिस्सुतिभूया न मित्तनाइजाव विनयतश्च किंकरभूता इव तिष्ठन्ति, न खलु ते किंकराः, किन्तु तेऽपि परिजणं विउलेणं वत्थगंधमल्लालङ्कारेण सकारिस्संति तस्सेव मान्याः, तेषामपि पृथगासननिपातनात्, केवलं ते तदानीं निजाचार- मित्त जाव परिजणस्स पुरतो एवं वदिस्संति जम्हा णं परिपालनतो विनीतत्येन च तथाभूता इव तिष्ठन्ति, तत उक्तं किंकरभूता देवाणुप्पिया अम्हंइमंसिदारगंसिगन्मगयंसिचेवसमाणंसिधम्मे इवेति, "तेहिं चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं ' इत्यादि सुगम, यावत् दढा पतिण्णाजायाणं होऊणं अम्हएसदारगे दठपइण्णे णामेणं / 'दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति' इति। तए णं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधेनं सूरियाभस्स णं भंते ! देवस्स केवइयं कालं ठिती पण्णता? करिस्संतिदढपइण्णोय। ततेणं तस्स दढपइण्णस्स अम्मापियरो गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, सूरियाभस्स णं अणुपुटिवणं ठिइवडियं चंदसूरदरिसणंचजागरियं नामधेनं करणं भंते ! देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं केवइयं कालं परं गमणं च पंचगमणं च पञ्चक्खाणगं च जमेणं च पिडबद्धाणं च ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, | वजपमाणां च कण्णवेहणगं च संवच्छरपडिलेणगं च चूलाव Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1138 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सूरियाभ रायणं उवणयणं च अण्णाणि य बहूणि य गम्भादाणजम्मणमाझ्याणं कोउयाई महया इड्डिसक्कारसमुदएणं करिस्संति, तते णं से दढपतिण्णे दारएपंचधाइपरिक्खित्ते,तं जहा-खीरधातीए मज्जणधातीए मंडणधाईए अंकधातीए कीलावणधाईए अन्नाहि य बहू हिं खुजाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वमेभियाहिं वत्थारियाहिं पउसियाईजोयणयाहिं पण्हवियाहिं ईसिणियाहिं वारुणियाहिं लउसियाहिं लउसियाहिं देमल्लीहिं सिंहलीहिं आरवीहिं पुलिदीहिं पञ्जणाहिं मरुडीहिं सवराहिं पारसीहिं नाणादेसीहिं विदेसपरिमंडियाहिं संदेसनेवत्थमहियवेसाइ इंगियविंतियपत्थियवियाणियाहिं निउणकुसलीहिं विणीयाहिं चेडियाचक्कवालवरतरुणीवंदपरियालं संपरिबुडे वरिसधरकंचुइज्जमहत्तरगविंदपरिक्खित्ते हत्थाओ हत्थं साहरिज्जमाणे 2 अंकाओ अंकं परिभुंजमाणे 2 उवनविज्जमाणे 2 उवागाइजमाणो 2 उवलालिज्जमाणे 2 उवगूहिज्जमाणे 2 अवयासिज्जमाणे 2 परिवंदिज्जमाणे 2 परिचूविजमाणे 2 रम्मेसु मणिकुट्टिमतलेसु परंगमाणा 2 गिरकंदरमल्लीणे विव चंपगवरपायवे निवाघायं सुहं सुहणं परिवहिस्सइ तए णं दढपइण्णं दारगं अम्मापियरो साइरेगअट्ठवासं जोयगंजाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहुत्तंसि पहायं कयवलिकम्मे कयकोउलमंगलं पायच्छित्तं सव्वालंकारभूसियं करेत्ता महया इडिसक्कारसमुदएणं कलायरिवस्स उवणेस्संति। तते णं से कलायरिए तंदपण्णदारगेहिं तियाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ वावत्तरिकलाओ सुत्ततो य अत्थओ य करणओ सिक्खावेहिइ से हावे हिइ, तं जहा-लेहं गणियं संनट्टगीयवाइयंसरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जणवायं पासगं अट्ठावयं पोरेवचं दगमट्टियं अन्नविहिं पाणविहिं क्त्थविहिं विलेवशविहिं लयणविहिं सयणविहिं अज्जं पहेलियं मागहियं गाहागाइयं सिलोगं हिरण्णजुत्तिं सुवण्णजुत्तिं आभरणविहिं तरुणीपडिकम्म इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं कुकुडलक्खणं छत्तलक्खणं दंडलक्खणं असिलक्खणं मणिलक्खणं कागिणिलक्खणं बकुविजंतगरमाणं वेधारमाणं वारपडिवारवूहपडिवूहं चक्कवूहं गरुडवूहं सगडवूहं जुद्धं निजुद्धं असि- | जुद्धं मुट्ठिजुद्धं बाहुजुद्धं लयाजुद्धं जुइजुद्धं छरुप्पवायं धणुव्वेहं हिरण्णपागं सुवण्णपागं मणिपागं धाउपागं सुत्तखेडं बट्टखेडं नालियाखेडं पत्तच्छेज्जंकडगच्छेज्जं सञ्जीवनिजीवसउणरुय- 1 मिति / तए णं से कलायरिते दढपइण्णं दारगं लोहाइयाओ गणिप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसीणाओ वावत्तरि कलाओ सुत्तओ य अत्थओय करणओय सिक्खोवत्ता सेहावेत्ता अम्मापिऊणं उवणेहिइ, ततेणं तस्स दढपइण्णस्स दारगस्स अम्मापियरोतं कलायरियं विउलेणं असणेणं जाव वत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारिस्संति सम्माणिस्संति वत्थगंधमल्ललंकारेणं सक्कारित्ता समाणित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइस्संति विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलइत्ता पडिविसज्जेहिति तते णं से दढपतिण्णे दारगे उम्मुक्कवालभावे विणयपरिणयमत्ते जोव्वणगमणुपत्ते वाबत्तरिकलापंडिते अट्ठारसविहदेसिप्पगारभासाविसारते नवंगसोतोपडिबोहिए गीयरती गंधवलट्ट कुसलेहिं सिंगारचाररूवे संगयगयहसियभणियचेट्ठियविलाससलावनिउणजुत्तोवयारकुसले हयजोहि बाहुजोहि गयजोहि बाहुप्पमद्दी अलं भोगसामत्थसाहसिए वियालचारी यावि भविस्सति / तए णं तं दढपइण्णं दारगं अम्मापियारो उम्मुक्कबालभवं जाव वियालचारगं वियाणित्ता विउलेहिं अन्नाभोगेहिं पाणभोगे हिं लेणभोगहिं वत्थभोगेहिं सयणभोगेहिं उवनितेहिं तते णं से दम्पइण्णे दारए तेहिं विपुलेहिं अन्नभोगेहिं 0 जाव सयणभोगेहिं नो सजिहिति नो रजिहिति नो गिज्झिहिति नो मुज्झिहिति नो अब्भोववज्झिहिति से जहानामए उप्पलेइवा पउमेति वाजाव सहस्सपत्तेइ वा पंके जाए जले संबुडे नो विलिप्पइ पंकरएणं नो विलिप्पइ जलरएणं, एवामेव दढपइण्णे विदारगे कामेहिं जाए भोगेहिं वढित्ते नो विलिप्पहिइ कामरएणं नो विलिप्पहिइ मोगरएण नो विलप्पहिइ मित्तनाइनियगसयण-संबंधिपरिजणेण सेणं तहारूवाणं थेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुज्झिहिति केवलं मुंडे भवित्ता अगारओ अणगारियं पध्वतिस्सति से णं अणगारं भविस्सति इरियासमिएन्जाव सुहुयहुयासणे इव तेयसा जलंते तस्स णं भगवओ अणुत्तरेणं नाणेणं एवं दंसणेणं चरित्तेणं आलएणं विहारेणं अज्जवेणं महवेणं लाघवेणं खंतीए गुत्तीए मुत्तीए अणुत्तरेणं सव्वं संजमलवसुचरियफलनिव्वाणमग्गेणं अप्याणं भावेमाणस्स अणंते अणुत्तरे निव्वाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे समुप्पजिहिति तए णं से भगवं अरहा केवली जिणे भविस्सइ सदेवमणुआसुरस्स लोगस्स परियागं जाणिहिति पासिहिति, तं जहा-आगतिगतिवित्तिचवणं उववायतकं पच्छाकम्मं पुरेकडं मणोमाणसियं खइयं भुत्तं कडं परिसेवि आविकम्मरहोकम्मं अरहा अरहस्स भागीतंतंका Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरियाभ 1136 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुलपाणि लं मणोवयकायजोगे वट्टमाणाणं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वे पञ्चवर्णा अशोककणवीरबन्धुजीवाः समानीताः सन्ति, वृत्तो च प्रतीता भावे जाणमाणे पासमाणे विहरिस्सइ / तए णं से पढपइण्णे इति व्याख्यातं ते वृक्षाः के ? कि च पुष्पादिकं तेषां पञ्चवर्णं भवतीति केवली एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणे बहुहिं वासाइं केवल- प्रश्नः; अत्रोत्तरम्-अशोकादयो वृक्षा जीवाभिगमवृत्त्यादिषु पञ्चवर्णा परिआयं पाउणिहिति पाउणित्ता अप्पणो आउसेसं आभोएइ व्याख्याताः सन्ति न तु तत्पुष्पादीनि, तेन तान्यपि तदनुसारेण अप्पणो आउसेसं आभोएत्ता बहूई भत्ताई पचक्खाइस्सइ ज्ञेयानीति // 347 // सेन०३ उल्ला०। पचक्खाइत्ता बहूहिं भत्ताई असणाए छेइस्सइ बहूहिं छेइत्ता | सूरियावत्त पुं० (सूर्यावर्त) सूर्य उपलक्षणमेतच्चन्द्रनक्षत्रतारकाश्च प्रतिजस्सहाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतधावणत्ते क्षणमावर्तन्ते यस्य स सूर्यावर्तः / मेरुपर्वते, सू० प्र०५ पाहु० / स०। केसलोचे बंभवेरवासे अत्थत्तगं अणुवाहणगं भूमिसिज्जातो | जं०। चं० प्र०। चतुर्थदेवलोकस्थे विमानभेदे, स०५ सम०। फलहसेज्जायरघरपवेसो लद्धावलद्धाई माणावमाणाई परेहिं | सूरियावरण पुं० (सूर्यावरण) सूर्यरुपलक्षणमेतचन्द्रनक्षत्रतारकाभिश्च हीलणाओ निंदणातो खिंसणाओ गरहणाओ तज्जणाओ समन्ततः परिभ्रमणशीलैरावियते आवेष्ट्यते इति सूर्यावरणः। मेरुपर्वते, तालणाओ परितावणाओ पव्वहणाओ उच्चावयविरूवरूवा चं० प्र०५ पाहु० / सू०प्र०। वावीसपरीसहोवसग्गा गामकं टका अहियासिज्जंति तमहूं सूरिल्लि पुं० (सूरिल्लि) वनस्पतिविशेषे, जं०१वक्ष०। आराहेइ 2 हित्ता चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं सिज्झिहिति | सूरीकंता स्त्री०(शूरीकान्ता) स्वनामख्यातायांपुरुषघधकारिकायाम्, तं०। बुज्झिहिति मुनिहिइ परिनिव्वाहिइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेहिइ। सूरुपमणमुहुत्त पुं० (सूर्योद्गमनमुहूर्त) उदयोपेते मुहूर्ते, जं० १वक्षः। सुखं सुखेन परिवर्धिष्यते अर्थत इति व्याख्यानमलङ्करणतः प्रयोगतः सूरोगमणपविभत्तिन० (सूर्योद्रमनप्रविभक्ति) नाट्यविधानभेदे, रा०| 'सेहावेहेइ' सेधयिष्यति निष्पादयिष्यति शिष्यापयिष्यत्यभ्यासं सूरोदय पुं० (सूर्योदय) प्रथमायां पौरुष्याम्, आ० म०१ अ०। प्रव०। करिष्यति 'नवङ्गसोतोपडिबोहिए' इति द्वे श्रोते द्वे नयने द्वे नासिके एक सूरोदयादि त्रि० (सूर्योदयादि) सूर्योदय आदौ यस्याः सा सूर्योदयादिः / जिव्हा एका त्वग् एकं मन इति सुप्तानीव बाल्यादव्यक्तचेतनानि प्रति सूर्योदयादारभ्येत्यर्थे, आ० म० 1 अ०। सूरोपराग पुं० (सूर्योपराग) सूर्यस्यसूर्यविमानस्योपरागोराहुविमानतेजबोधितानि यौवनेन व्यक्तचेतनावति कृतानि यस्य स तथा उक्तञ्च सोपरञ्जनं सूर्योपरागः / ग्रहणे, स्था० 10 ठा०३ उ० उत्पत्तिविशेषे, व्यवहारभाष्ये-'सोत्ताइं नव सुत्ताई इत्यादि अट्ठारसविहदेसीपयार भ०३ श०५ उ० / अनु०। भासाविसारए' अष्टादशविधाया-अष्टादशभेदाया देशीप्रकाराया विशा सूल न०त्रि० (शूल) त्रिशूले, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। उत्त०। एकशूले, रदो-विचक्षणः तथा गीतरतिस्तथा गन्धर्वे गीते नाट्ये च कुशलः हयेन औ० / आयुधभेदे, जं०३ वक्षः। सूत्र०। आ०म०। प्रश्न०। रोगभेदे, युध्यते इति हययोधी एवं गजयोधी रथयोधी बाहुयोधी तथा बाहुभ्यां ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०।पा०नि० चू०। प्रमृद्नातीति बाहुप्रमर्दी साहसिकत्वात्। विकाले चरतीति विकलचारी सूलग्ग न० (शूलाग्र) शूलकान्ते, प्रश्न० 3 आश्र० द्वार। 'सव्वसंजमतवसुचरियफलनियाणमग्गेणं' ति सर्वसंयमः सर्वात्मना सूलपाणि पुं० (शूलपाणि) ईशानदेवे तस्य हस्तधृतशूलस्वात् प्रज्ञा०२ मनोवाकायसंयमनं तस्य सुचरितस्य वाऽऽसंशादिदोषरहितस्य तपसो पद / अस्तिग्रामाभिधानसन्निवेशाद्वहिः शूलपाणिनामकयक्षायतनम् / यत्फलं निर्वाणं तन्मार्गेण, किमुक्तं भवति-सर्वसंयमेन सुचरितेन च स्था०। तपसा निर्वाणग्रहणमनयोर्निर्वाणफलत्वख्यापनार्थ 'मणोमाणसिय ति तवर्णनमाहमनसि भवं मानसिकं तच कदाचिद् वचसाऽपि प्रकटितं भवति तत उच्यते 'छयस्थकाले यदा किल भगवान् त्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखमहापथादिषु मनसि व्यवस्थितं मनोमानसिकं 'खझ्य' त्ति क्षयितं-क्षयं नीतमिति. पटुपटहप्रतिरवोद्धोषणापूर्व यथाकाममुपहतसकलजनदारिद्रयमनवभावः / 'पडिसेवियं ति प्रतिसेवितं स्त्र्यादि अधः कर्मभूमौ निखातं च्छिन्नमब्दंयावन्महादानंदत्त्वा सदेवमनुजासुरपरिषदापरिवृतः कुण्डपुरारहःकर्म गुप्तस्थानकृतं 'परेहिं हीलणाओ' इति हीलनानि सद्भूता- निर्गत्य ज्ञातखण्डवने मार्गशीर्षकृष्णदशम्यामेककः प्रव्रज्य मनःपर्यायसद्भूतहीलनजात्याधुच्वाक्चानि। परोक्षे जुगुप्साभाषणानि खिंसनानि ज्ञानमुत्पाद्याष्टौ मासान् विहृत्य मयूरकाभिधानसन्निवेशबहिः-स्थानां धिड्मुण्डनेत्यादिवाक्यानि तर्जनानि अडल्या निक्षेपपुरस्सर भत्सनानि दूयमानाभिधानानां पाखण्डिकानां सम्बन्धिन्येकस्मिन्नुटजे तदनुज्ञया ताडनानि कशादिघाताः / रा०। श्रीराजप्रश्नीये सूर्याभस्य शीघ्रगमन- वर्षावासमारभ्य अविधीयमानरक्षतया पशुभिरुपद्रूयमाणे उटजेऽप्रीतिकं नाम्नो वैक्रियविमानस्यान्तर्भूमिकावर्णनाधिकारे पश्चवर्णरत्नवर्णन कुर्याणमाकलय्य कुटीरकनायकमुनिकुमारकं ततोवर्षाणामर्द्धमासे गतेऽ Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूलपाणि ११५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेंटिय काल एव निर्गत्यास्थिकग्रामाभिधानसन्निवेशाबहिः शूलपाणिनामक- | सूसव पुं० (सुश्रव) कर्णसुखशब्दे, "सूसओ वायरोमा वा; निसंवा परियक्षायतने शेषं वर्षावासमारेभे, तत्र च यदा रात्रौ शूलपाणिर्भगवतः अत्तओ "आ० क० 4 अ०। क्षोभणाय झटिति टालिताहालकमट्टाट्टहासं मुञ्चन् लोकमुत्तासयामास सूसास त्रि० (सोछ्वास) 'ऊत्सोच्छवासे' || 8111157 / इति तदा विनाश्यते स भगवान् देवेनेति भगवदालम्बना जनस्याधुतिं जनित- | सोच्छ्वासशब्दे ओत ऊत्। सूसाणे। उच्छ्वाससहिते, प्रा०1 वान् पुनर्हस्तिपिशाचनागरूपैर्भगवतः क्षोभं कर्तुमशक्नुवन् शिरःकर्णना- | सूहव त्रि० (सुभग) 'ऊत्सुभगमुशले वा // 81113 // इति सादन्तनखाक्षिपृष्ठिवेदनाः प्राकृतपुरुषस्य प्रत्येक प्राणापहारप्रवणः ह्रस्वस्य दीर्घः / 'ऊत्वे दुर्भग-सुभगे वः / / 8 / 1 / 162 / सपदि सम्पादितवान् तथापि प्रचण्डपवनप्रहतसुरगिरिशिखरमिवा- अनयोरुत्वे गस्य वो भवति। सूहवो। सूभगः / स्त्रीभिः काम्यमाने, प्रा० विचलगावं वर्द्धमानस्वामिनमवलोक्य श्रान्तः सन्नसौ जिनपतिपादपद्म- १पाद! वन्दनपुरस्सरमाचचक्षेक्षमस्व क्षमाश्रमण ! इति, तथा सिद्धार्थाभिधानो से अव्य० (देशी) (से) अव्य प्रस्तुतपरामर्श, ज०१ वक्ष०१मागधीदेशीव्यन्तरदेवस्तन्निग्रहार्थमुद्दधाव, बभाण च-अरे रेशूलपाणे! अप्रार्थित प्रसिद्धो निपातः अथ शब्दार्थे, स च वाक्योपपन्नार्थः / प्रा० / ज्ञा०॥ प्रार्थक ! हीनपुण्यचतुर्दशीक ! श्रीन्हीधृतिकीर्त्तिवर्जित ! दुरन्तप्रान्त उपन्यासे, उत्त०२ अ०। निश्चये, सेनूनमिति। तन्नूनम्। उत्त० 2 अ० / लक्षण ! न जानासि सिद्धाथराजपुत्रं पुत्रीयितनिखिलजगजीवं जीवित से इति मागधदेशीवचनः प्रथमान्तो निर्देशः / आचा०२ श्रु०१ चू०१ सममशेषसुरासुरनरनिकायनायकानामेनं च भवदपराधं यदि जानाति अ०१उ० से शब्दस्तच्छशब्दार्थे सच वाक्योपन्यासार्थः। आचा०१ त्रिदशपतिस्ततस्त्वां निर्विषयं करोतीति, श्रुत्वा चासौ भीतो द्विगुणतरं श्रु०६ अ०१3०1 सूत्र०। उत्त०। आव० / जी० दश० / नि० चू० / क्षमयति स्म, तथा सिद्धार्थश्च तस्य धर्ममचकथत, स चोपशान्तो सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धो निपातस्तत्रशब्दार्थे अथशब्दार्थे वा द्रष्टव्यः, भगवन्तं भक्तिभरनिर्भरमानसो गीतनृत्तोपदर्शनपूर्वकमपूपुजत्, लोकश्च सच वाक्योपन्यासार्थः। दशा० 4 अ० निर्देशे, दशा०५ अ० / सेशब्दो चिन्तयाञ्चकारदेवार्यकं विनाश्येदानी देवः क्रीडतीति, स्वामी देशोना मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे / अथशब्दस्तु वाक्यो-पन्यासार्थः, श्चतुरो यामानतीव तेन परितापितः प्रभातसमये मुहूर्त्तमात्रं निद्राप्रमाद परिप्रश्नार्थो वा, यदा, ह-अथ प्रक्रिया प्रश्नानन्तर्यमङ्ग-लोपन्यासमुपगतवान् तत्रावसरे इति / स्था० 10 ठा० 3 उ०। प्रतिवचनसमुच्चयेषु, भ०१श०१ उ०। क्वचिदसावित्यर्थे, क्वचित्तस्येसूला स्त्री० (शूला) त्रिशूलिकायाम, सूत्र०१ श्रु०५ अ०१उ०। त्यर्थे, स्था० १०ठा०३ उ०। भ०। नि० चू०। औ०। रा० ज०। प्राकृ तत्वात्से इति बहुवचनार्थः / यथा से इति। जं०१ वक्ष०ा से इत्यात्मसूलाइय न० (शूलाचित) शूलपोते, ज्ञा० 1 श्रु० 6 अ01 औ० / सूत्र० / निर्देशे, सोऽहमेवमुपलब्ध्वाऽनेकाप्कायतत्त्ववृत्तान्तो ब्रवीमि / आचा० शूलारोपिते, यस्य गुदे प्रोती शूले वदने निर्गच्छति। दशा० 10 / / 1201 अ०३ उ०। "वेदंतदेतदोङसाम्भ्यां से-सिमौ"| * शूलायित त्रि० शूलसदृशे, आचरितशूलारूपभूकुटितपरिकत्वात्, 3 / 1 / / इदंतदेतदित्येतेषां स्थाने डस् आमित्येताभ्यां सह ज्ञा० 1 श्रु०६अ। यथासंख्यं से-सिमादेशौ भवतः। तस्येत्यर्थे, अस्येत्यर्थे च। से सील / सूलामिण्ण न० (शूलाभिन्न) मध्यविक्षते, स्था०६ अ०। से गुणा / प्रा० सूलारोवण न० (शूलारोपण) शूलिकाप्रोतने, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। सेअ धा० (सिच्) क्षरणे, "सिचेः सिच-सिम्पौ।।८।४।६६ // सूलि पुं० (शूलिन) शिवे, पाइ० ना०। सिञ्चतेरेतावादेशौ भवतः। सिंचड्। पक्षे / सेअइ। प्रा०। सूलिया स्त्री० (शूलिका) कीलकविशेषे, प्रश्न०१आश्र० द्वार। सेइया स्त्री० (सेतिका) द्वाभ्यां प्रसृतिभ्यां निष्पन्ने धान्यमानविशेषे, तं०। सूव पुं० (सूप) (दालि) सूपे, उपा०१०। सू०प्र०। आचा०। पत्रशाके, ज्ञा० / औ०। स्था०1 आचा०। सूत्र०१ श्रु० 4 अ०२ उ०। सेउ पुं०(सेतु) जलोपरिनिबद्ध मार्गविशेष, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। जं०। सूवच्छेज्जन०(सूपच्छेद्य) पत्रशाकच्छेदने, सूत्र०१श्रु०४ अ०२ उ०। / ___ आ० चू०। रा०। स्था०। ज्ञा० जी०। औ० ।अलिबन्धे, औ०। आलसूवणीय त्रि० (सूपनीत) सुष्ठूपनीते, आचा०१श्रु०५ अ०२ उ०। बालपाल्याम्, ज्ञा० 1 श्रु०१अ०॥ सूवविहिपरिमाण न० (सूपविधिपरिमाण) दालिप्रकारपरिमाणे, उपा० | सेउगर त्रि० (सेतकर) सेतुं मार्गपद्गतानां निस्तारणोपायं करोति यः स 1 अ०। ('आणंद' शब्दे 2 भागे विधिरुक्तः।) सेतुकरः / स्था०६ ठा० 3 उ०। मार्गप्रदर्शक, रा०। सूत्रज्ञा०1औ० / सूसधा०(शुष) शोषणे, "रुषादीनां दीर्घः" ||8||236 // इति उक्खेत्त न० (सेतुक्षेत्र) अरघट्टादिसेक्ये क्षेत्रे, आव०६ अ०। यदरधातोः स्वरस्य दीर्घः / सूसइ। शुष्यति / प्रा० 4 पाद। घट्टादिजलेन सिच्यते। ध०२ अधि०। सूसरवंटा स्त्री० (सुस्वरघण्टा) सुस्वराभिधानायां घण्टायाम्, रा०। | सेंटिय न० (सेण्टित) सेण्टने नासिकाशब्दविशेषकरणे, विशे० / प्रज्ञा०। Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेंधव ११५१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेढी सेंधवन० (सैन्धव) सिन्धुदेशजे, लवणे, अश्वेचा पुं० सूत्र०१श्रु०७ अ०। सेखरय पुं०(शेखरक) शिरोवेष्टने, स्था० 5 ठा०१उ०। सेजा स्त्री० (शय्या) संस्तारके, संथा०1 (एतद्वक्तव्यता 'संथारग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे उक्ता।) (एवंप्रकाराः शब्दाः 'सिज्जादि' शब्दप्रकरणे उक्ताः ) सेडसासव पुं० (श्वेतसर्षप) श्वेतवर्णे सर्षपभेदे, चत्वारि मधुरतृणफलानि मधुरतृणतन्दुलाः समयविषये सकलजगत्प्रसिद्ध एकः श्वेतसर्षपो भवति / ज्यो०१ पाहु०। सेडियग न० (सेटितक) तृणभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। सेडिया स्त्री० (श्वेतिका) खटिकायाम्, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०६ उ०।शुक्लमृत्तिकायाम्, दश 5 अ०१ उ०। सेडी स्त्री० (सेडी) लोमपक्षिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। सेडीवह पुं० (सेडीवह) लोमपक्षिभेदे, जी० 1 प्रति०। सेडुय पुं०(सेटुक) कासे, सेडुओ कप्पासो रूयं उट्टियं रूय पडलं पिंजयं तमेव वलित पेलू भणति। नि० चू०५ उ०। बृ०। कौशाम्बीनगरीवास्तव्यस्वनामख्याते विप्रे, आ० 0 4 अ०। (तत्कथानक 'कूणिक' शब्दे तृतीयभागे उक्तम्।) सेढी स्त्री० (श्रेणि) पङ्क्तौ , अनु० / भ० / अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे यः | श्रेणिः-राशिस्तत्र किलासंख्येयानि वर्गमूलानि तिष्ठन्तीति। अनु०॥ खेत्तओ असंखेजाओ सेठीओपयरस्स असंखिज्जइभागो,तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बिइअवग्गमूलपडुप्पण्णं अहवणं अंगुलबिइअवगमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ। क्षेत्रतस्तुप्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणीनां ये प्रदेशास्तत्सड्ख्यानि भवन्ति। ननु प्रतरासङ्ख्येयभागे असंख्येया योजनकोटयोऽनि भवन्ति, तत्किमेतावत्यपि क्षेत्र या नभःश्रेण्यो भवन्ति ता इह गृह्यन्ते? नेत्याह-'तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई' त्यादि, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिः-विस्तरश्रेणिèयेति शेषः। कियतीत्याह-'अंगुली' | त्यादि, अडगुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे यः श्रेणिः-राशिस्तत्र किलासंख्येयानि | वर्गमूलानि तिष्ठन्त्यतः प्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्न-गुणितं तथा च सति यावत्योऽत्र श्रेण्यो लब्धा एतावत्प्रमाणा श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्भवति; एतावत्यः श्रेण्योऽत्र गृह्यन्त इत्यर्थः, इदमुक्तं भवतिअङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे किलासत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिके द्वेशते 256, / श्रेणीनां भवतस्तद्यथा-अत्र प्रथमवर्गमूलं षोडश 16 द्वितीयं चत्वारः 4 चतुर्भिः षोडश गुणिता जाताश्चतुःषष्टिः, एषा चतुःषष्टिरपि सद्भावतोऽसंख्येयाः श्रेण्यो मन्तव्याः, एतावत्संख्या श्रेणीनां विष्कम्भसूचिरिह ग्राह्या। अहवाण मित्यादि, णमिति वाक्यालकारे, अथवा अन्येन प्रकारेण प्रस्तुताऽर्थ उच्यते इत्यर्थः, 'अहवण' त्ति क्वचित्पाठः, सचैवं व्याख्यायते--अथवा नैषपूर्वोक्तः प्रकारोऽपितु प्रकारान्तरेण प्रस्तुतोऽर्थोऽभिधीयते इति भावः, समुदितो वाऽयंशब्दोऽथवाशब्दस्यार्थे वर्तते, तदेव प्रकारान्तरमाह--'अंगुलबीय-वग्गमूलघणे' त्यादि, अङ्कुलप्रमाणप्रतरक्षेत्रवर्तिश्रेणिराशेर्य द्वितीयवर्गमूलमनन्तरं चतुष्टयरूपं दर्शितं तस्य योधनः-चतुःषष्टिलक्षणस्तत्प्रमाणाः-तत्संख्याः श्रेण्योऽत्रगृह्यन्त इति, प्ररूपणैव भिद्यते अर्थस्तु स एवेति , तदेवं कल्पनया चतुःषष्टिरूपाणां सद्भावतोऽसंख्येयानां श्रेणीनां यः प्रदेशराशिरेतावत्संख्यानि नारकाणां, बद्धवैक्रियाणि प्राप्यन्त इति / अनु०॥ श्रेणिप्ररूपणायाहसत्त सेढीओ पण्णत्ताओ,तं जहा-उजुआययो सेढी एगोयओ वंका दुहतो वंका एगओ खुहा। (भगवतीसूत्रे 'खहा' शब्दः।) दुहओ खुहा चकवाला अद्धचकवाला। (सू०५८१) 'सत्त सेढी' त्यादि, श्रेणयः प्रदेशपङ्क्तयः ऋज्वी-सरला सा चासावायता च दीर्घा ऋज्वायता स्थापना (-) 'एगओ वंका' एकश्यां दिशि वक्रा। स्थापना(-) 'दुहओ वंका' उभयतो वक्रा स्थापना () 'एगओखुहा' एकस्यां दिश्यङ्कुशाकारा (ॐ) 'दुहओखुहा' उभयतोऽ शाकारा (ॐ) चक्रवाला वलयाकृतिः (0) अर्द्धचक्रवाला अर्द्धवलया- . कारेति (1) एताश्चैकतो वक्राद्यालोकपर्यन्तप्रदेशापेक्षया संभाव्यन्ते। स्था०७ ठा०३ उ०। उजुआयताए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइएणं विग्गहेणं उववछेजा, एगओ वंकाए सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा, दुहओ वंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववभेजा से तेणटेणं गोयमा! जाव उववभेजा। तत्र 'उज्जुआययाए' त्ति यदा मरणस्थानापेक्षयोत्पत्तिस्थानं समश्रेण्यां भवति तदा ऋज्वायता श्रेणिर्भवति, तया च गच्छत एकसामयिकी गतिः स्यादित्यत उच्यते- 'एगसमइएण' मित्यादि, यदा पुनर्मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमेकप्रतरे विश्रेण्यां वर्तते तदैकतो वक्रा श्रेणिः स्यात, समयद्वयेन चोत्पत्तिस्थानप्राप्तिः स्यादित्यत उच्यते-'एगओ वंकाए सेढीए उवजमाणे दुसमइएणं विग्गहेण' मित्यादि, यदा तु मरणस्थानादुत्पत्तिस्थानमधस्तने उपरितने वा प्रतरे विश्रेण्यां स्यात्तदा द्विवक्रा श्रेणिः स्यात् समयत्रयेण चोत्पत्तिस्थानावाप्तिः स्यादित्यत उच्यते-'दुहओ वंकाए' इत्यादि। भ०३४ श०१उ०। सेढीओ णं भंते ! दट्वट्ठयाए कि संखेमाओ असंखेजाओ अणंताओ ? गोयमा ! नो संखेजाओ नो असंखेजाओ, अणंताओ। पाईणपडीणायताओ णं मंते ! सेढी Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेढी 1142 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेढी do प० ओ दव्याट्टयाए किंसंखेज्जाओ एवं चेव 3, एवं दाहिणुत्तरायताओ __ कडजुम्मिया जुत्ता // 3 // " विएवं उडमहायताओ वि। लोगागाससेढीओणं भंते ! दव्वट्ठयाए एवं च लोकवृत्तपर्यन्तश्रेणयः संयातप्रदेशात्मिका भवन्तीति 'नो अणं किं संखेजाओ असंखेज्जाओ अणंताओ ? गोयमा ! नो ताओ' त्ति लोकप्रदेशानामनन्तत्वाभावात्, "उड्ढमहाययाओ' 'नो संखेजाओ असंखेजाओ नो अणंताओ, पाईणपडीणायताओ | संखेज्जाओ असंखेज्जाओ त्ति यतस्ता पू० णं भंते! लोगागाससेढी ओ दवट्ठयाए किं संखेज्जाओ एवं चेव, सामुच्छितानामूर्ध्वलोकान्तादधोलो 00000 एवं दाहिणुत्तराययाओ वि, एवं उड्डमहायताओ वि। अलोयागा- कान्तेऽधोकान्तादूर्ध्वलोकान्ते 0000000 ससेढीओ णं भंते ! दव्वट्ठयाए किं असंखेज्जाओ, असंखेज्जाओ प्रतिघातोऽतस्ता असंख्यातप्रदेशा 00000000000 अणंताओ? गोयमा ! नो संखेज्जाओ, नो असंखेजाओ अणं- एवेति, या अप्यधोलोककोणता ब्रह्म 00000000000 00000000000 ताओ। एवं पाईणपडीणाययाओ वि एवं दाहिणुत्तराययाओ वि लोकतिर्यग्मध्यप्रान्ताद्वोत्तिष्ठन्ते ता | 00000000000 एवं उद्यमहायताओ वि / सेढीओ णं भंते ! पएसट्ठयाए किं अपिनसङ्ख्यातप्रदेशालभ्यन्ते, अत 0000000 00000 संखेजाओ जहा दव्वट्ठयाए तहा पएसट्टयाए वि०जाव उड्डमहा- एव सूत्रवचनादिति / 'अलोगागासययाओ वि सव्वाओ अणंताओ। लोयागाससेठीओ णं भंते ! सेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए' इत्यादि, पएसट्ठ० किं संखेज्जाओ पुच्छा गोयमा! सिय संखे० सिय असं० 'सिय संखेज्जाओ सि असंखेजाओ' ति यदुक्तं तत्सर्वं क्षुल्लकनो, अणंताओ, एवं पाईणपडीणायताओ दाहिणुत्तरायताओ वि प्रतरप्रत्यासन्ना ऊर्ध्वाधआयता अधोलोक श्रेणीराश्रित्येत्यवसेयं, ताहि एवं चेवं उड्ढमहायताओ वि नो संखेजाओ असंखे० नो आदिमाःसंख्यातप्रदेशास्ततोऽसंख्यातप्रदेशास्ततः परंत्वनन्तप्रदेशाः, अणंताओ।। अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्ठयाए पुच्छा, तिर्यगायतास्त्वलोकश्रेणयः प्रदेशतोऽनन्तता एवेति। गोयमा! सियसंखेजाओ सिय असंखे० सिय अणंताओपाईण- सेढीओणं भंते! किसाइयाओ सपज्जवसियाओ-१,साईयाओ पडीणाययाओ णं भंते ! अलोया पुच्छा, गोयमा!नो संखेज्जाओ अपञ्जवसि०२ अणादीयाओ (अत्र दीर्घत्वं चिन्त्यम्।) सपज्जनो असंखेजाओ अणंताओ, एवं दाहिणुत्तरायताओ वि, उड्डम- वासियाओ३ अणादीयाओ अप०५,? गोयमा! नो सादीयाओ हायताओ पुच्छा, गोयमा! सिय संखेजाओ सिय असंखेजाओ सप० नो सादीयाओ अप०णो अणादीयाओसप० अणादीयाओ सिय अणंताओ। (सू०७२८)। अप० एवं जाव उड्डमहायताओ, लोयागाससेढीयाओ णं भंते ! 'सेढी' त्यादि, श्रेणीशब्देन च यद्यपि पङ्क्तिमात्रमुच्यते तथाऽपीहा- किं सादीयाओ सप० पुच्छा, गोयमा! सादीयाओ सपज्जवसिकाशप्रदेशपङ्क्तयः श्रेणयो ग्राह्याः, तत्र श्रेणयोऽविवक्षितलोका- याओनो सादीयाओ अपञ्जवसियाओ नो अणादीयाओ सपञ्जव० लोकभेदत्वेन सामान्याः 1 तथा ता एव पूर्वापरायताः२ दक्षिणोत्तरायताः नो अणादीयाओ अपज्ज० एवं जाव उडमहायताओ / ३ऊर्ध्वाधआयताः 4 एवं लोकसम्बन्धिन्योऽलोकसम्बधिन्यश्चेति, अलोयागाससेढीओ णं भंते ! किं सादीयाओ सप० पुच्छा, तत्र सामान्ये श्रेणीप्रश्ने 'अणंताओ' ति सामान्याकाशास्तिकायस्य गोयमा ! सिय साईयाओ सपज्जवसियाओ 1 सिय साईयाओ श्रेणीनां विवक्षितत्वादनन्तास्ताः, लोकाकाशश्रेणीप्रश्ने त्वसङ्ख्याता अपज्जवसियाओ 2 सिय अणादीयाओ सपज्जवसियाओ 3 सिय एवंताः, असङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वाल्लोकाकाशस्य, अलोकाकाश- अणाईयाओ अपज्जवसियाओ ,पाईणपडीणाययाओदाहिणुत्तश्रेणीप्रश्ने पुनरनन्तास्ताः, अनन्तप्रदेशात्मकत्वादलोकाकाशस्य।तथा रायताओ य, एवं चेव, नवरं नो सादीयाओ सपज्जवसियाओ 'लोगागाससेढीओणं भंते ! पएसट्टयाए' इत्यादौ 'सिय संखेज्जाओ सिय सिय साईयाओ अपजवसियाओ सेसं ते चेव, उड्डमहायताओ असंखेजाओ' त्ति अस्येयं चूर्णिकारव्याख्यालोकवृत्तान्निष्क्रान्तस्या- जाव ओहियाओ तेहेव चउमंगो। सेढीओ णं भंते !दव्वट्ठयाए लोके प्रविष्टस्य दन्तकस्य याः श्रेणयस्ता द्वित्रादिप्रदेशा अपि संभवन्ति किं कडजुम्माओ तेओयाओ ? पुच्छा, गोयमा! कडजुम्माओ तेन ताः सङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्ते शेषा असङ्ख्यातप्रदेशा लभ्यन्त नो तेओयाओ नो दावरजुम्माओ नो कलियोगओ एवं जाव इति, टीकाकारस्तु साक्षेपपरिहारं चेह प्राह-"परिमंडलजहन्नं, भणियं उडमहायतयाओ,लोगागाससेठीओ एवं चेव, एवं अलोगागासकडजुम्मवट्टियं लोए। तिरियाययसेढीणं, संखेजपएसिया किह णु ? सेढीओ वि / सेठीओ णं मंते ! पएसद्वाए किं कडजुम्माओ // १॥दो दो दिसासु एक्के-क्कओय विदिसासु एस कडजुम्मे। पढमपरि- पुच्छा, एवं चेव एवं जाव उड्डमहायताओ। लोगागाससेढीओ मंडलाओ, बुड्डी किर जाव लोगंतो॥२॥" इत्याक्षेपः, परिहारस्तु- णं मंते ! पएसट्ठायाए पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजुम्माओ "अढ सया पसज्जइ, एवं लोगस्सन परिमंडलया। वट्टालेहेण तओ, वुड्डी नो तेओयाओ सिय दावरजुम्माओ नो कलिओगाओ Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेढी 1143- अभिधानराजेन्द्रः - भाग.७ सेढी एवं पाईणपडीणायताओ वि दाहिणुतरायताओ वि।। उड्डमहाययाओ णं पुच्छा, गोयमा ! कडजुम्माओ, नो ते ओगाओ नो दावरजुम्माओ नो कलियोगाओ / अलोगागाससेढीओ णं भंते ! पएसट्टयाए पुच्छा, गोयमा ! सिय कडजु- | म्मओ जाव सिय कलिओगाओ, एवं पाईणपडीणायताओ वि एवं दाहिणुत्तरायताओ वि, उड्डमहायताओ वि एवं चेव, नवरं नो कलिओगाओ सेसं तं चेव / (सू०७२६) कति णं भंते ! सेढीओ पण्ण? गोयमा ! सत्त सेढीओ पन्नत्ताओ, तं जहाउजुआयता एगओ वंका दुहओ वंका एगओ खहा दुहओ खहा चक्कवाला अद्धचक्कवाला / परमाणुपोग्गलाणं भंते / किं अणुसेढिं गती पवत्तति विसेंढि गती पवत्तति ? गोयमा ! अणुसेटिंगती पवत्तति नो विसेदि गती पवत्तति। दुपएसियाणं भंते ! खंधाणं अणुसेढिं गती पवत्तति विसेदि गती पवत्तति एवं चेव, एवं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं / नेरइयाणं भंते ! किं अणुसेढिं गती पवत्तति विसेटिं गती पवत्तति एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं / (सू०७३०) 'सेढीओ णं भंते ! किं साइयाओ' इत्यादिप्रश्नः, इह च श्रेणयोऽविशेषितत्वाद्या लोके चालोके च तासां सर्वासा ग्रहणं, सर्वग्रहणाच ता अनादिका अपर्यवसिताश्चेत्येक एव भङ्गकोऽनुमन्यते शेषभड्गकत्रयस्य तु प्रतिषेधः / 'लोगागाससेढीओ ण' मित्यादौ तु 'साइयाओ सपज्जवसियाओ' इत्येको भङ्गकः सर्वश्रेणीभेदेष्वनुमन्यते, शेषाणां तु निषेधः, लोकाकाशस्य परिमितत्वादिति / 'अलोगागाससेढी' त्यादौ 'सिय साइयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति प्रथमो भङ्गकः क्षुल्लकप्रतरप्रत्यासत्तौ ऊर्ध्वायतश्रेणीराश्रित्याऽवसेयः, 'सिय साइयाओ अपज्जवसियाओ' त्ति द्वितीयः, सच लोकान्तादवधेरारभ्य, सर्वतोऽवसेयः 'सिय अणाइयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति तृतीयः, स च लोकान्तसन्निधौ श्रेणीनामन्तस्य विवक्षणात्, 'सिय अणाइयाओ अपज्जवसियाओ' ति चतुर्थः, स च लोकं परिहत्य याः श्रेणयस्तदपेक्षयेति। 'पाईणपडीणाययाओ' इत्यादौ 'नो साइयाओ सपज्जवसियाओ' त्ति अलोके तिर्यक्श्रेणीनां सादित्वेऽपि सपर्यवसितत्वस्याभावान्न प्रथमो भङ्गः, शेषास्तुत्रयः संभवन्त्यतएवाह'सिय साइयाओ' इत्यादि / 'सेढीओ णं भंते ! दवट्ठयाए किं कडजुम्माओ ?' इत्यादि प्रश्नः, उत्तरंतु-'कडजुम्माओ' त्ति, कथं ? वस्तुस्वभावात्, एवं सर्वा अपि यः पुनर्लोका-लोकश्रेणीषु प्रदेशार्थतया विशेषोऽसावुच्यते-तत्र लोगागाससेढीओणं भंते! पएसट्ठयाए' इत्यादी स्यात् कृतयुग्या अपि स्यात् द्वापरयुग्मा इत्येतदेवं भावनीयरुचकाऱ्यादारभ्य यत्पूर्व दक्षिणं वा लोकार्द्ध तदितरेण तुल्यमतः पूर्वापरश्रेणयो दक्षिणोत्तरश्रेणयश्च समसंख्यप्रदेशाः, ताश्च काश्चित् कृतयुग्माः काश्चिद्वापरयुग्माश्च भवन्ति न पुनस्त्र्योजप्रदेशाः कल्योजप्रदेशा वा, 1 तथाहि-असद्भावस्थापनया दक्षिणपूर्वाद्चकप्रदेशात्पूर्वतोयल्लोकश्रेण्यर्द्ध तत्प्रदेशशतमानं भवति सच्चापरदक्षिणाद् रूचकप्रदेशादपरतो लोकश्रेण्यः तदपि प्रदेशशतमानं, ततश्च शतद्वयस्य चतुष्कापहारे पूर्वापरायतलोकश्रेण्याः कृतयुग्मता भवति, तथा दक्षिणपूर्वाद्रुचकप्रदेशाद्दक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत आरभ्य पूर्वतोयल्लोकश्रेण्य तन्नवनवतिप्रदेशमानं, ययापरदक्षिणायताद् रुचकप्रदेशाद्दक्षिणो योऽन्त्यः प्रदेशस्तत आरभ्यापरतो लोकश्रेण्यर्द्धं तदपि च नवनवतिप्रदेशमानं, ततश्च द्वयोर्नवनत्योर्मीलने चतुष्कापहारे च पूर्वापरायतलोकश्रेण्या द्वापरयुग्मता भवति, एवमन्यास्वपि लोकश्रेणीषु भावना कार्या, इह चेय संग्रहगाथा-"तिरियाययाउ कडबा-य-राउ लोगस्स संखऽसंखा था। सेढीओ कडजुम्मा, उडमहेआययमसंखा / / १"इति (तिर्यगायताः कृतयुग्माः लोकस्य संख्याता असंख्याता वा / श्रेणयः कृतयुग्माः ऊर्ध्वाधआयताः असंख्याताः॥ 1 // ) तथा 'अलोगागाससेढीओ ण भंते! पएसे' त्यादौ 'सिय कडजुम्माओ' त्ति याः क्षुल्लकप्रतरद्वयसामीप्यात्तिरश्चीनतयोत्थिता याश्च लोकमस्पृश्यन्त्यःस्थितास्ता वस्तुस्वभावात्कृतयुग्माः, यावत्करणात्-'सियतेओयाओ सियदायरजुम्माओ' त्ति दृश्य, तत्र च याः क्षुल्लक्प्रतरद्वयस्याधस्तनादुपरितनाद्वा प्रतरादुत्थितास्तास्त्र्योजाः, यतः क्षुल्लकप्रतरद्वयस्याध उपरि च प्रदेशतो लोकस्य वृद्धिभावेनालोकस्य प्रदेशत एव हानिभावदेकैकस्य प्रदेशस्यालोक श्रेणीभ्योऽपगमो भवतीति, एवं तदनन्तराभ्यामुत्थिता द्वापरयुग्माः, 'सिय कलिओगाओ' ति तदनन्तराभ्यामेवोत्थिताः कल्योजाः, एवं पुनः पुनस्ताएव यथासम्भवं वाच्या इति। 'उड्डाययाण' मित्यादि, इह क्षुल्लकप्रतरद्वयमानेन या उत्थिता उयितास्ताद्वापररयुग्माः तत ऊद्यमधश्चैकैकप्रदेशवृद्ध्या कृतयुग्माः क्वचिच्चैकप्रदेशवृद्ध्याऽन्यत्र वृद्ध्यभावेन त्र्योजाः, कल्योजास्त्विहन संभवन्ति वस्तुस्वभावात्, एतच भूमौ लोकमालिख्य केदाराकारप्रदेशवृद्धिमन्तं ततः सर्व भावनीयमिति। अथ प्रकारान्तरेण श्रेणीप्ररूपणायाह--'कइ ण' मित्यादि, श्रेणयः-प्रदेशपङ्क्तयो जीवपुद्गलसञ्चरणविशेषिताः तत्र 'उज्जुयायत त्ति ऋजुश्चासावायता चेति ऋज्वायता यया जीवादय ऊर्द्धवलोकादेरधोलोकादौ ऋजुतया यान्तीति, 'एगओ वंक' त्ति 'एकत' एकस्यां दिशि 'वङ्का' वक्रा यया जीवपुद्गला.ऋजु गत्वा वर्क कुर्वन्ति श्रेण्यन्तरेण यान्तीति, स्थापना चैवम् () 'दुहओ वंक' त्ति यस्यां वारद्वयं यत्रं कुर्वन्ति सा द्विधावक्रा, इयं चोर्ध्वक्षेत्रादानेयदिशोऽधः क्षेत्रे वायव्यदिशि गत्वा य उत्पद्यते तस्य भवति, तथाहि-प्रथमसमये आग्रेय्यास्तिर्यग् नैर्ऋत्यां याति ततस्तिर्यगेव वायव्यां ततोऽधो वायव्यामेवेति, त्रिसमयेयं त्रसनाड्या मध्ये बहिर्वा भवतीति, 'एगओ खह' ति यया जीवः पुद्गलो वा नाड्या वामपावदिस्तां प्रविष्टस्तयैव गत्वा पुनस्तद्वामपार्वादावुत्पद्यतेसा एकतः खा, एकस्यां दिशिवामादिपार्श्वलक्षणायां खस्य-आकाशस्य लोकनाडीव्यतिरिक्तलक्षणस्य Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेढी 1144- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेण भावादिति, इयं च द्वित्रियचतुर्वक्रोपेताऽपि क्षेत्रविशेषाश्रितेति भेदेनोक्ता, | ('अणसण' शब्दे प्रथमभागे 303 पृष्ठे दर्शितमेतत्।) स्थापना चयेम्-ला दुहओखह' तिनाड्या वामपादिर्नाडी प्रविश्य | सेढिसय न० (श्रेणिशत) ऋज्वायतादिश्रेणिप्रधाने शते, भ०३४ श० तयैव गत्वाऽस्या एव दक्षिणपादिौ ययोत्पद्यते सा द्विधा खा, नाडि- 1 उ०। बहिर्भूतयोमिदक्षिणपार्श्वलक्षणयोर्द्वयोराकाशयोस्तया स्पृष्टत्वादितिः / सेण पुं० (श्येन) पक्षिविशेष, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१3०। प्रव०ानगरानस्थापना चेयम्- 'चकवाल' त्ति चक्रवालंमण्डलं, ततश्च यया गरीवास्तव्यस्य वस्तुश्रेष्ठितः स्वनामख्याते पुत्रे, ध०२ अधि० / मण्डलेन परिभ्रम्य परमाण्वादिरुत्पद्यते सा चक्रवाला, सा चैवम्-० काञ्चीनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ध०र०। काचा 'अद्धचक्क-वाल' ति चक्रवालार्द्धरूपा, सा चैवम्-। अनन्तरं श्रेणय श्येनश्रेष्ठिकथा चेयम्उक्ताः, अथ ता एवाधिकृत्य परमाण्वादिगतिप्रज्ञापनायाह-'परमाणु इह अस्थिपुरी कंची-कंचणचिंचइयचेइहरकलिया। तत्थ य सेणो सिट्टी, कुवलयमाला पिया तस्स॥१॥ पोग्गलाणं भंते !' इत्यादि, 'अणुसेंढि' ति अनुकूलापूर्वादिदिगभिमुखा ताणं च तिन्नि पुत्ता, सिट्ठिगिहे मासखमणपारणए। श्रेणियंत्र तदनुश्रेणि, तद्यथा भवत्येवं गतिः प्रवर्तते, 'विसेटिं' ति विरुद्धा भिक्खत्थमणुपविट्ठो, कयादि साहू चउन्नाणो॥२॥ विदिगाश्रिता श्रेणी यत्र तद्विश्रेणि, इदमपि क्रियाविशेषणम् / भ० 25 गहिउंसत्तुगथालं, सिट्ठी उट्टेइझत्ति से दाउं। श० 3 उ०। आ० म० / जं०। रा०! श्रेणयो भवनपतीनां परिमाणाव संसत्ता सुहमजिएहि, ममन कप्पंति भणइ मुणी॥३॥ धारणाय द्रष्टव्याः। पं० सं०२ द्वार / जं०1०। आ० मा सम्प्रति को पचओ त्ति वुत्तं-मि सिट्ठिणा दसए मुणी तस्स। श्रेणिनिरूपणायाह-'तद्दीहेग-पएसा सेढि' तिस एव धनीकृतलोकः तव्वन्नजिए उवर-तफुभदावणउवाएण॥ 4 // सप्तरजुप्रमाणो दीर्घ दैर्ध्य यस्याः सा तद्दीर्घा एकप्रदेशेति वीप्साप्रधान तोतइयदिवसदहिय-मि ढोइए दंसए तहेव जिए। त्वान्निर्देशस्य एकैकाकाशप्रदेशा शूचिः श्रेणिरित्युच्यते / एतेन च यत्र अह सिट्ठी से ढोएइ, मोयगाणं भरियथालं // 5 // कुत्राप्यविशेषितायाः श्रेणेः, सामान्येन ग्रहणं तत्र सर्वत्रास्य घनीकृत- विसमोयगा इमे, मुणि-कहिए स भणइ कह, मुणी आहे। लोकस्य संबन्धिनीयमेव सप्तरज्जुप्रमाणा एकप्रदेशिकी श्रेणियाह्या। कर्म० जा इह लग्गइ सा मर-इ मच्छिया, पिच्छ, नणु सिट्टी // 6 // 5 कर्म०। क्र० प्र०। पं० सं०। अनन्तरे निर्णीतप्रमाणाङ्गुलेन यद्योजनं तो सो विम्हियहियओ, जंपइ विसदायगं कहसु मज्झ। तेन योजनेनासंख्येययोजनकोटीकोट्यः संवर्तितसमचतुर-स्रीकृत- पच्चाह साहुपवरो, जा कम्मयरी मया कल्ले॥७॥ लोकस्यैका श्रेणिः / अनु०। ('किइकम्मइ' शब्दे तृतीयभागे 510 पृष्ठे किं तीइ कयमिमं, इय पुढे साहू भणेइ जह तुमए। संयमश्रेणयः।) सकुडुबेण वि अमुगे, अवराहे तज्जिया सा उ।।८।। अथ श्रेणिप्ररूपणामाह तो तीए तुम्ह कए, विसजुत्ता मोयगा इमे विहिया! अविभागपलिच्छेया, ठाणंतरकंडए य छट्ठाणा। तह अत्तणो निमित्तं, विसरहिया मोयगा दुन्नि / / 6 // हिट्ठा पञ्जवसाणे, वड्डी अप्पावहुं जीवा।।३३।। तो अइछुहाइयाए, संभंतमणाइ मोयगा तीए। अविभागपरिच्छेदप्ररूपणा स्थानान्तरप्ररूपणा कण्डकप्ररूपणा षड् विससंजुत्ताभुत्ता, पंचत्तं तक्खणा पत्ता / / 10 // स्थानप्ररूपणा अधःप्ररूपणा पर्यवसानप्ररूपणा वृद्धिप्ररूपणा अल्प विसमविसवज्जियं इह, थाले पुण मोयगाण दुगमेव। सेसा सव्दे सविसा, तो मज्झ इमे न कप्पंति॥११॥ बहुत्वप्ररूपणा जीवप्ररूपणा चामूनि प्रतिद्वाराणि / जइ कहवि इमे तुमए, सकुडुवेणावि भक्खिया हुंता। तद्यथा तोपावंतो मरणं, तमसरणो धम्मपरिमुक्को // 12 // आलावगणणविरहिय-मविरहियं फासणा परूवणया। तत्तो सेणो पुच्छइ, धम्म पत्तो मुणी उसट्ठाणं / गणणपयसेठिअक्खर-भागेअप्पाबहुं समया / / 834 / / भिक्खगएहिं धम्मो, न कहिज्जइ इय भणेऊण / / 13 / / आलापकप्ररूपणा गणनाप्ररूपणा विरहितप्ररूपणा अविरहितप्ररूपणा अह मज्झण्हे सिट्ठी, सकुडुबो गंतु साहुमूलंमि। श्रेण्यपहारप्ररूपणा अल्पबहुत्वप्ररूपणा समयप्ररूपणा चेति द्वारगाथा पणमिय पुच्छइ धम्म, एवं से कहइ साहू वि।। 14 / / द्वयम्। बृ०३ उ०। जह सुरकरी करीसु, अमरेसु हरी गिरिसु कणयगिरी। सेढिआयय न० (श्रेण्यायत) प्रदेशिकश्रेणिरूपे आयते, भ० 25 श० तह धम्मेसु पहाणो, दाणाई चउह जिणधम्मो।। 15 / / 3 उ०। तत्थ वि सुनिकाइयक–म्मघम्मजलहरसमो तवो पवरो। सेढिचारण पुं०(श्रेणिचारण) चतुर्योजनशतोच्छ्रितस्य निषधस्य नीलस्य तत्थ विय विसेसिज्जइ, सज्झाओ जेणिम भणियं / / 16 / / वा अद्रेष्टइच्छिन्नां श्रेणिमुपर्यधो वा पादनिक्षेपोत्क्षेपपूर्वकमुत्तरणावत- कम्ममसंखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। णनिपुणे चारणभेदे, प्रव०६८ द्वार। ग० अन्नयरंमि वि जोगे, सज्झायमि य विसेसेण // 17 // सेढितवन० (श्रेणितपस्) श्रेणिः-पङ्क्तिस्तदुपलक्षितं तपः श्रेणितपः। बारसबिहंमि वि तवे, सब्भितरबाहिरे कुसलदिटे। चतुर्थादिक्रमेण क्रियमाणे षण्मासान्ते तपोभेदे, उत्त० 30 अ०।। नवि अत्थि नविय होही, सज्झायसमं तबोकम्म॥१८॥ Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेण 1145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेणि जओसज्झाएण पसत्थं, झाणं जाणइय सव्वपरमत्थं। सज्झाए वट्टतो, खणे खणे जाइ वेरग्गं / / 16 / / उड्डमह तिरियनरए, जोइसवेमाणिया य सिद्धी य। सव्वो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पचक्खो // 20 // इय सोउतुट्ठमणो, सेणो सम्म गहित्तु गिहिधम्म। संज्झायभिग्गहजुयं, नमिउंच मुणिं गओ सगिह // 21 // तो धम्मकम्मनिरए, सज्झायपरे सया वि सिद्धिम्मि। वडियविहवे पसरिय-पुत्तपुत्ताइसंताणे / / 22 // बहुयाओ बहुयाओ, जहा तहा करगरंति अन्नुन्न / गलियसिणेहा तव्वय-णाओ ण लहंति पुत्ता वि // 23 // ते कलहंते दटुं, सिट्ठी भिन्ने करेइ तो तेउ। मग्गंति मूलगेहं, तयंमि सिट्ठी पयच्छेइ / / 24 // अह सो पियाइ वुत्तो, दविणजुयं नियघरं पि पुत्ताण। दाउं संपइ कह तं, होहिसि तो भणइ इय सिट्ठी।। 25 / / जस्स मणआलवाले,व जिणनाहधम्भकप्पतरू। भवणेण धणेण परेणं, वा वि का तस्स किर गणणा // 26 // सा पुण तं पइजपइ, संपइ भिक्खं भमसु गहियवयं। तह निवसेसु सुसाणे, देवउले सुन्नगेहे वा।। 27 // स भणइ हवेसुधीरा, इमं पि काहं कमेण नणु सुयणु। दंसेमि ताव इहलो-इयं पिधम्मप्पभावं ते॥ 28 // इय वुत्तु झत्ति नियमि-त मतिगेहमि गंतु साहेइ। सव्वं कुंटुंबवत्तं, तप्पुरओ मरगइ गिह पि॥२६॥ मंती पि भणइ मह गिह-मेगं अस्थि त्ति मुग्गडपविटुं। किंतु सदोसं न कया, वि कोइ निवसेइतं गिण्ह / / 30 // जइ पुण धम्मपभावे-ण पभविहि वंतरोन तुह किंचि। सो तयणु सउणगंठिं, बंधिय पत्तो गिहे तम्मि / / 31 / / निस्सीहियं करेउ, अणुजाणाविय गओ गिहस्संतो। पडिकमिऊण य इरियं, एवं च करेइ सज्झायं / / 32 / / तथाहिगयमेअज्ज महामुणि-खंदगसीसाइ साहुचरियाई। सुमरंतो कह कुप्पसि, इत्तियमित्ते चरे जीव ! // 33 // पिच्छसु पाणविणासे, वि नेव कुप्पंति जे महासत्ता। तुज्झ पुण हीणसत्त-स्स वयणमित्ते वि एस खमा।। 34 // रे जीव ! सुह दुहेसुं, निमित्तमित्तं परो जियाण ति। सकयफलं भुजतो, कीस मुहा कुप्पसि परस्स।। 35 / / हा हा मोहविमूढा, विहवे य घरे य मुच्छिया जीवा। निहणंति पुत्तमित्ते, भमंति तो चउगइभवम्मि / / 36 / / एवं सो सज्झायं, करेइ जा जामिणीइ जामदुर्ग। ता वंतरेण सुणिलं, पट्ठिचित्तेण इय भणियं // 37 // मह भवजलहिम्मि निम-जियस्स पोयाइय तए साहु। सो हं अमरो एयं, गह उव्वासियं जेण।। 38 // तो कहइ सेणपुलो, स वंतरो भद्द! एयगेहस्स। अहमासि पुरा सामी, अहेसि पुत्ता दुवे मज्झ / / 36 / / तेसुलहू अइइट्ठो, दिन्नं सव्वं पि तस्स गिहसार। दाऊणं किंपिमए, भिन्नगिहे ठाविओ जिट्ठो॥ 40 // तो कहिउंरायउले, तेणं माराविओ अहं सहसा। लहुभायरं धरावियं, गेहमिणं अप्पणा गहियं // 41 // लहुबंधू गुत्तीए, मओ अहं इत्थ वंतरो जाओ। जिट्ठसुयविलसियमिणं, नायं मे निययनाणेण // 42 // तत्तो कुविएण मए, जिट्ठसुओ विहणिओ सपरिवारो। अन्नो वि वसइ जो इह, रयणीइ तयं हणेमि धुवं / / 43 / / संपइ तुह सज्झायं, सोउं बुद्धो विमुक्कवइरोय। तं मज्झ गुरु तो तुह, सनिहाणमिणं गिह दिन्नं। 44 / / निहिठाणं च कहे,खणेण अमरो अदंसणी हूओ। सिट्ठी वि इमं गोसे, साहइ निवमंतिमाईणं / / 45 / / तो विम्हिओ नरिंदो, तुट्ठा वरसचिवसयणपमुहजणा। पुत्ता उवसंतप्पा,जाया जाया वि धम्मपरा / / 46 // जियअंत रिऊसेणो, सेणो वि चिरं करेति गिहिधम्म। गहिऊण य पव्वज, पत्ता सासयपयं कमसो।। 47 // श्येनः सदैवं स्फुटशुद्धभावः, स्वाध्यायनिष्ठोऽजनि निष्ठितार्थः। विवेकपीयूषमयूखवा , तदत्र सन्तः सततं यतन्ताम्॥४८॥ इति श्येनश्रेष्ठिकथा / ध०र०२ अधि०३ लक्ष०। सेणंग न० (सेनाङ्ग) हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणे सेनाङ्गे, ज्ञा०१ श्रु० 18 अ०॥ सेणग पुं० (श्येनक) पक्षिविशेषे, चं० प्र०४ पाहु० / सू० प्र०। * सेनकपुं० प्रत्यन्तनगरराजस्य जितशत्रोरमात्यपुत्रे, आ० क०४ अ०। आ०म०।कूणिकमहाराजस्य पूर्वभवजीवे, आ० क० 4 अ०। (एतत्कथा 'कूणिक' शब्दे तृतीयभागे 626 पृष्ठे उक्ता।) सेणा स्त्री० (सेना) चतुरङ्गकटकसमूह, उत्त० 30 अ०।हस्त्यश्वरथपदातिसन्नाहखडगकृन्तादिसमुदाये, अनु० / विशे० / बृ० / आव० / आ० म० / सम्भवनाथजिनस्य जनन्याम, "दो चेव सयसहस्सा, सीसाणं आसि सम्भवजिनस्स / अमितवीरियजुयस्स, सेणाए जियारितणयस्स // १॥"ति०। प्रव० / आव० स्थूलभद्रस्वामिनो भगिन्याम, आर्यसम्भूतविजयस्यान्तेवासिन्याम्, ति०। आ० क० / आ० चू०। सेणाकम्मन० (सेनाकर्मन्) सेनायाः सैन्यस्य कर्म-व्यापारः शत्रुसाधनलक्षणः, सेनाविषयं वा कर्म-इतिकर्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म / सैन्यकर्मणि, स्था०हठा०३ उ०। सेणावह न० (सेनापति) सेनायाः पतिः सेनापतिः। आ० म०१ अ०। नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायके, प्रज्ञा० 16 पद / स्था० / भ० / कल्प० जी०। ओघ०। औ०। सकलानीकनायके, प्रश्न०४ आश्र० द्वारराजं०रा० स०।आव०॥औ०।आ०म०। सूत्र०।अनु०ज्ञा०। आ० का स्था०। प्रव०॥ सेणावइरयण न० (सेनापतिरत्न) सेनापतिः-सैन्यनायक स एव रत्नम्। उत्कृष्टसेनापतौ,स्था०७ठा०३उ०॥ सेणावच न० (सेनापत्य) सेनापतिः-सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म वा सेनापत्यम्। सैन्यनायकत्वे, औ०। विपा०1०। सेणि स्त्री०(श्रेणि) पङ्क्तौ, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। रा०। जं०। कुम्भकाराद्यष्टादश प्रकृतयः श्रेणिशब्देनोच्यन्ते / जं०३ वक्ष०। आ० म०। Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेणिय 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेयंबर सेणिय पुं० (श्रेणिक) स्वनामख्याते राजगृहनगरराजे, स्था० 4 ठा० 3 उ०। कूणिकस्य पिता श्रेणिकराजः। स्था० 4 ठा०३ उ०। आव०। उत्त०।राजगृहनगरराजस्य प्रसेनजितः पुत्रे, आ० क० 1 अ०i अन्त०। (श्रेणिकस्य महाराजस्य सुनन्दापेषणाद्याः पत्न्यः स्वस्वस्थाने दर्शिताः / ) अयमुत्तरभवे महापद्मो नाम तीर्थंकरो भविष्यति।आ० चू० 4 अ०। अन्त०।ध०र०। विशे० आव०।स०। आ० म०। प्रव० / आ० क०।दशा०नि० चू०। भ०। (श्रेणिकजीवो महापद्मस्तत्कथा 'महापउम' शब्दे षष्ठे भागे उक्ता।) स्थविरस्य आर्यशान्तिश्रेणिकस्य शिष्ये, कल्प०२ अधि०५क्षण / नं०। सेणी स्त्री० (श्येनी) परिव्राजकप्रयुक्ताया मयूरविकुर्वणात्मिकायाः प्रति मन्थिन्यां श्येनविकुर्वणात्मिकायां विद्यायाम, नि०१ श्रु०१ वर्ग०१अ०। सेण्ण न० (सैन्य) ऐत एत् // 8/11158 // इत्यादौ वर्तमानम्यत एत्वम् / सेण्णं / प्रा / हस्त्यश्वरथपदाति-वृषभनर्तकगाथकजनरूपेऽनीके, औ०। सेण्हग पुं० (श्येनक) पक्षिविशेषे, उपा०७ अ०जी०। सेत त्रि० (श्वेत) शुक्ले, प्रज्ञा० 17 पद। सेतई स्त्री० (श्वेतवी) स्वनामख्यातायां नगर्याम्, आ० म०१ अ०। सेधा स्त्री० (सेधा) भुजसर्पिणीभेदे,जी०२ प्रति०। सेफ न० (श्लेष्मन्) श्लेष्मणि वा' / / 2 / 55 / / इतिष्मस्य फः / सेफो। कफजे मुखमले, प्रा०२ पाद। सेभण्ड न०(तद्भाण्ड) तस्य विवक्षितस्य भाण्डे, भ०५श०६ उ०। सेमुसी स्त्री० (शेमुषी) बुद्धौ, आ० म० १अ० / आचा०। सेयन० (श्रेयस्) कल्याणे, भ०२श०१उ०। स्था०। पञ्चा० शोभनतरे, / दश०२अ०॥षो०। सूत्र०ा अष्ट० / श्रा०।०।अहोरात्रस्य त्रिंशन्मुहूर्तेषु द्वितीयो मुहूर्तः श्रेयान्। जं०७ वक्ष पुण्ये आत्महिते, आचा०१ श्रु० 3 अ०३ उ०। श्रेयस्करे, सूत्र०१श्रु०३ अ०३ उ०औ०ा पथ्ये, हिते सेयमित्यत्र "स्नमदामशिरोनभः "1811132 // इति सूत्रात्पुंस्त्वं न बहुलाधिकारात्। प्रा०। * श्वेत त्रि० शुभ्रे, धवले, औ / शक्रस्य देवेन्द्रस्य नाट्यानीकाधिपतौ, स्था०७ ठा०३ उ०। दाक्षिणात्यानां कुम्भडानामिन्द्र, स्था०२ ठा० 3 उ०। श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य नाट्यानीकाधिपतौ, स्था०८ ठा०३उ०। * सेक पुं०सीयन्ते वा बध्यन्ते यस्मिन्नसौ सेकः / कर्दमे, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सजले पङ्के, आव०४ अ० बृ०। *स्वेद पुं० श्रमजे शरीरजले, प्रव०४० द्वार। नि० चू०। स्था०। तं०। दशा०। * सेजस् त्रि० सकम्पे, भ०५ श०७ उ० बृ०। रा०। (सेजनिरैजसा दण्डकः 'एजणा' शब्दे तृतीयभागे गतः।) सेयआसंठिइ स्वी० (श्वेततासंस्थिति) श्वेततायाः संस्थाने, चं० प्र० 3 पाहु०। सेयई स्त्री० (श्वेतवी) सूर्याभपूर्वभवजीवस्य प्रदेशिनो राज्ञो नगर्याम्, स्था० 8 ठा०३ उ०। सेयंकर पुं० (श्रेयस्कर) अष्टाशीतिग्रहेषु सप्तषष्टितमे महाग्रहे, चं० प्र० .20 पाहु०। दो सेयंकरा। (सू०) स्था०२ ठा०३ उ०। सेयंकरअणुओग पुं० (श्रेयस्करानुयोग) द्रव्यानुयोगभेदे, स्था० / 'सेयंकरे' त्ति / इहाप्यकारोऽलाक्षणिकस्तेन सेकार इति तदनुयोगो यथा। ‘से भिक्खू वा' इत्यत्र सेशब्दोऽथार्थः, अथशब्दश्च प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेष्वित्यानन्तर्यार्थः, सेशब्द इति क्वचिदसावित्यर्थः, क्वचित् तस्येत्यर्थः, अथवा-सेयंकार इति श्रेय इत्येतस्य करणं श्रेयस्कारः, श्रेयस उच्चारणमित्यर्थः, तदनुयोगो यथासेयं मे अहिज्जिओ अज्झयणमि' त्यत्र सूत्रे श्रेयः अतिशयेन प्रशस्यं कल्याणमित्यर्थः, अथवा-'सेयकाले अकम्म वावि भवइ' इत्यत्र सेयशब्दो भविष्यदर्थः / स्था० 10 ठा०३ उ०॥ सेयंकाल पुं० (श्रेयस्काल) छान्दसत्वात्सेयंकाल त्ति। आगामिनि काले, भ०५ श०५ उ०। अनु०।। सेयंगुली पुं० (श्वेताङ्गुली) भार्याप्रेम्णा चुल्ल्याः भस्मसमाकर्षणेन श्वेतकराग्रे, पिं०। सेयंबर न० (श्वेताम्बर) श्वेतवस्त्रे, श्वेतमम्बरं यस्येति गच्छवासिनि श्वेतवस्त्रपरिधानकर्तरि निर्ग्रन्थसाधौ, पुं०।"सेयंबरो य आसंबरो य बुद्धो य अन्नो य / समभावभावियप्पा, लहइ य मुक्खं न संदेहो।" नि००। निर्ग्रन्थसाधूनां श्वेतवस्त्रमेव, अन्यथा करणे प्रायश्चित्तमुक्तंनिशीथसूत्रे चतुर्दशे उद्देशके तथा च तत्सूत्रम् जे भिक्खू नवए मे वत्थे लद्धे त्ति कट्ट तेल्लेण वा घएण णवणीएण वा वसाए वा मंखेज वा मिलिगेज वा मखं-(मक्ख) तं वा भिलिंगंतं वा साइजह // 12 // एवं लोद्धेण वा कक्केणं वा वनेण वा चुण्णेण वा उल्लोलेज वा उच्छोलेज वा उल्लोलतं वा उच्छोलंतं वा साइज्जइ / 13 / एवं सीतोदगवियडेण वा उसिणो० साइजइ॥१४॥ नि०चू०१४ उ०। आचाराङ्गेऽपि से भिक्खू वा भिक्खुणी वा अहेसणिज्जाई वत्थाई जाएज्जा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेज्जा नो धोएज्जा नीरएज्जा नो धोतरत्ताइं वत्थाई धारेजा।। टीकाकारेणापिस-भिक्षुर्यथैषणीयान्यपरिकर्माणि वस्त्राणि याचेता यथापरिगृहीतानि च धारयेन्न तत्र किश्चित्कुर्यादिति दर्शयति / तद्यथा-न तद्वस्वं गृहीतं सत्प्रक्षालयेत्, नापि रज्जयेत् / तथा नापि वा कुत्सिकतया धौतरक्तानि धारयेत् तथा-भूतानि न गृहीयादित्यर्थः / तथाभूतोऽधौतारक्तवस्त्रधारी च ग्रामान्तरे गच्छन् 'अपिलयंचमाणे'त्ति अगोपयन् सुखेनैव Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेयंबर 1147 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेयंबर उगच्छेत् / यतोऽसाववमचेलिको दुःसारवस्त्रधारीत्येतस्य भिक्षोर्वस्त्रधारिणः सामायं संपूर्णो भिक्षुभावोयदेवंभूतवस्त्रधारणमिति। एतच सूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन द्रष्टव्यं वस्त्रधारित्वविशेषणात्। एवं गच्छान्तर्गतेऽपि चाऽविरुद्धम्। आचा०२ श्रु०५ अ०२ उ०। (इतीह मूलटीकाकाराभ्यां सुस्पष्टमेव वसनरञ्जनधावनयोनिषेधो विहितः। अत्र वस्वधारित्वविशेषणादिदं सूत्रं जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकोद्देशविषयकमिति द्रष्टव्यम्।) अन्यदपि आचाराङ्गेजे मिक्खू तिहिं वत्थेहिं परिउसिते पादचउत्थेहिं तस्स णं णो एवं भवति / चउत्थं वत्थं जाइस्सामि त्ति अहेसणिजाई वत्थाई जाएजा, अहापरिग्गहियाई वत्थाई धारेवाणो धोएडा णो रएज्जा, णो धोतरत्ताइं वत्थाई धारेज्जा / अपलिउंचमाणे गामंतरेसु ओमचेलिए। एतं खु वत्थधारिस्स सामग्गियं / टीकायामपि‘णो धोवेजा' नो धावेत्-प्रासुकोदकेनापिन प्रक्षालयेत्। गच्छवासिनो ह्यप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थाया वा प्रासुकोदकेन यतनया धावनमनुज्ञातं नतु जिनकल्पिकस्येति / तथाहि-नच धौतरक्तानि वस्त्राणि धारयेत् पूर्व धौतानि पश्चाद्रक्तानि / तथा ग्रामान्तरेषु गच्छन् वस्त्राण्यगोपयन् व्रजेत् / एतदुक्तं भवति तथाभूतान्यसावन्तप्रान्तानि बिभर्ति यानि गोपनीयानि न भवन्ति / तदेवमसाववमचेलिकः। अवमं च तत् चेलं च अवमचेलम्, प्रमाणतः परिमाणतो मूल्यतश्च / तद्यथाऽस्यास्त्यसाववमचेलिक इति / एतत्पूर्वोक्तस्तुरवधारणे / एतदेव वस्त्रधारिणः सामग्यं भवति। आचा० 1 श्रु०५१०४ उ०। (इति मूलमनुसरता टीकाकारेण वस्त्ररञ्जनं प्रतिषिध्यते / किं बहुना अतथाभूतवस्त्राणामगोपनमिति वदता सूत्रकारेण तदेव व्याचक्षाणेन शीलङ्गाचार्येण चरञ्जितवस्त्राणां गोपनीयत्वप्रतिपादनाद्धारणस्यातिहेयत्वमिति स्फुटमेव व्यज्यते। इति प्रतिषिद्धरञ्जितवसनधारणस्पृहया प्रधानतमसूत्रमप्युत्थापयतो रञ्जितवसनधारिणो निहवेभ्यः किमतिरेकः स्यादिति सूक्ष्मदृशः सुधियो विभावयन्तु।) सूत्रकृताङ्गे नवमाध्ययनेऽपिधोअणं रयणं चेव, वत्थीकम्मविरेयणं / वमणंजणपलीमथं, तं विजं परिजाणिया॥ 12 // टीकायामपि'धोयण मित्यादि / धावनं-प्रक्षालनं हस्तपादवस्त्रादेः रञ्जनमपि तस्यैव / चकारः समुच्चयार्थः / एवकारोऽवधारणे / तथा वस्तिकर्मअनुवासनारूपम्, तथा विरेचननिरूहात्मकमधोविरेको वा, वमनमूर्ध्वविरेकः, तथा अञ्जनं नयनयोरित्येवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत्संयमपलिमन्थकारिसंयमोपघातरूपं तदेव तद्विद्वान् स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च परिज्ञाय प्रत्याचक्षीत। सूत्र०१श्रु० अ०। (एवं च वस्त्राजनस्य संयमोपघातरूपतया वर्णनात्तत्करणे संयमोपघात एव संपद्यते।) | अन्यदपि सूत्रकृताङ्गे सप्तमाध्ययनेजे धम्मलद्धं विणिहाय मुंजे, वियडेण साहट्ट य जे सिणाई। जे धोवई लूसयई य वत्थं, अहाहु से णागहियस्स दूरे। 21 // [इत्यत्र प्रासुकोदकेनापि क्षारा (साक्नु) दिना वस्त्रधारावने साधूनां कुशीलित्वं टीकाकारेण भणितमिति स्वच्छन्दं तदाचरन्तः कुशीलिनः शुद्धजैनधर्मप्रतिकूला एवेत्यलं बहुना। गच्छाचारप्रकीर्णकेऽपि-- जत्थ य वारडियाणं, तत्तडिआणं च तह य परिभोगो। मुत्तुं सुकिल्लवत्थं, का मेरा तत्थ गच्छम्मि||६ तत्रैव टीकायामपियत्र गच्छे 'वारडियाणं ति' रक्तवस्त्राणाम् 'तत्तडियाणं' ति नीलपीतादिरजितवस्त्राणां च परिभोगः क्रियते। किं कृत्वेत्याह / मुक्त्वापरित्यज्य, किम् ? शुक्लवस्त्रं-यति-योग्याम्बरमित्यर्थः। तत्र का मेर त्ति का मर्यादा, न काचिदपीत्यर्थः / अन्यदपितत्रैवगणि ! गोतम ! जा अज्जा उचिअंसेयवत्थं विवजिउं। सेवए चित्तरूवाणि, न सा अज्जा विआहिआ।।११२॥ टीकाहे गणिन् ! गौतम ! या आर्या उचितं श्वेतवस्त्रं विवर्ण्य चित्ररूपाणिविविधवर्णानि विविधचित्राणि वा वस्त्राणि सेवते, उपलक्षणत्वात्पात्रदण्डाद्यपि चित्ररूपंसेवतेसा आर्या नव्याहृतान कथितेति विषमाक्षरेति गाथाच्छन्दः / ग०। स्थानाङ्गवृत्तावपिसरीरे उवगरणे वा, वओसियत्तं दुहा समक्खायं। सुकिल्लवत्थाणि धरे, देसे सव्वे सरीरम्मि॥ 4 // इति श्वेतवस्त्राणामेव धारणं सर्वथाऽनुज्ञाप्यते / इति पुनः सूत्रपाठमप्रमाणीकृत्य पीतपट परिदधतः श्वेताम्बरविरोधिनो जैनमार्गानुयायिनो विचारयन्तु सूत्रार्थतात्पर्यम्, त्यजन्तु स्वकीयाज्ञानताम्, स्वीकुर्वन्तु श्वेताम्बरत्वम्।) साधूनां सदचेलकत्वं तथा चोक्तं बृहत्कल्पेदुविहो होति अचेलो, संता चेलो असंतचेलोय। तित्थगरऽसंतचेला, संत चेला भवे सेसा / / 286 // अन्यदपि-सति चेले अचेलकत्वम् आगमे लोकेच रूढत्वात्। सदसंतचेलगोऽचे-लगो यजं लोगसमयसंसिद्धो। तेणाचेल मुणिओ, संतेहि जिणा असंतेहिं / / 260 // किंचपरिसुद्धजुनकुत्थी, जं थोवा निययभोगभोगेहिं / मुणिणो मुच्छारहिया, संतेहि अचेलया हॉति // 26 // Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेयंबर 1148- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेयंबर निरुवहयलिंगभेदे, गुरुगा कप्पंति कारणलाए। गेलण्णलोयरोगे, सरीरवेतावडियमादी / / 292 // टीका-निरुपहतो नाम नीरोगस्तस्य लिङ्गभेदं कुर्वतश्चतुर्गुरुकाः। अथवा-निरुपहतं नाम यथाजातलिङ्गं तस्य भेदे चतुर्गुरु बृ (व्याख्या 'अचेलग' शब्दे 1 भाग 188 पृष्ठे उक्ता।) पुनरपि तदेवाहजे भिक्खू वण्णमंतं विवण्णं करेइ करतं वा साइजइ। 10 / जं भिक्खू विवण्णं वण्णमंतं करेइ करतं वा साइजइ।११। जे भिक्खू णवए मे वत्थे (पुस्तकान्तरे 'पडिग्गहे' इति।) लद्ध त्ति कट्ट तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज वा मिलिंगेज वा मंखंतं वा भिलिंगंतं वा साइजइ। 12 जे भिक्खू णवए मे वत्थे लद्धे त्ति कट्ट लोद्धेण वा कोण वा ण्हाणेन वा चुण्णेण वा उल्लोलेज वा उव्वलेज्ज वा उल्लोलंतं वा उव्वलंतं वा साइजइ। 13 / जे मिक्खू णवए मे वत्थे लद्धे त्ति कहसीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेज वा पधोएड वा उच्छोलतं वा पपोयतं वा साइजइ।।१४।। जे भिक्खू णवए मे वत्थे लद्धे त्ति कट्ट बहुदिवसिएण तेल्लेण वा धरण वा वसाए वा णवणीएण वा मंखेज वा मिलिंगेज वा मंखंत वा मिलिंगंतं वा साइजइ 15, 16, 17 / जेभिक्खू णवए मे वत्थे लद्धे त्ति कट्ट बहुदिवसिएण लोद्धेण वा कक्केण वा पउमेण वापउमचुण्णेण वा वण्णेण वा उल्लोलेज वा उव्वदृज्ज वा उल्लोलंतं वा उव्वटुंतं वा साइज्जइ॥१८॥ नि०चू०१४ उ०। (पुनरपि निशीथचूर्णी अष्टादशे उद्देशे तुर्दशोद्देशकवत् वस्त्रादिग्रहणविधिरित्युक्तम्।) "जो वत्थं किणति किणावेति कीयमाह दिन्जमाणं पडिगाहेति" इत्यादि सुत्ताणि पशुवीसं उचारेयव्वाणि जाव समत्तो उद्देसगो। एतेसिं अत्थो चोद्दसमे जहा, चोद्दसमे पादं भणितं तहा अट्ठारसमे वत्थं भाणियव्वं / नि० चू० 18 उ०। (इति तत्र 'पात्र' पदस्थाने वस्त्रपदोचारणपुरस्सरं सकलं सूत्रं पठितव्यम्, ततश्च पात्ररञ्जननिषेधाद् वस्त्ररञ्जननिषेधः प्रतिफलति।) पुनरपितदेवाहअचेलगो य जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो। देसिओ वद्धमाणेण, पासेण स महायसा / / 26 // एककजपवन्नाणं, विसेसे किं नु कारणं / लिंगे दुविहे मेहावी, कहं विप्पचओ न ते // 30 // लक्ष्मीवल्लभ्यामपिवर्धमानेन-चतुर्विशतितमतीर्थकरेण यो धर्मोऽचेलकः, प्रमाणोपेतजीर्णप्रायधवलवस्त्रधारणात्मकः साध्वाचारो निर्दिष्टः / च-पुनः पार्श्वजिनेन महायशसा त्रयोविंशतितमतीर्थकरेण योऽयं धर्मः सान्तरुत्तरः-पञ्चवर्णः बहुमूल्यप्रमाणरहितवस्त्रधारणात्मकः साध्वाचारः प्रदर्शितः, हे मेधाविन्! एककार्यप्रतिपन्नयोः श्रीवीरपार्श्वयोविशेषे भेदेकिं कारणं-को हेतुः? हे गौतम ! द्विविधे लिने-द्विप्रकारके साधुवेषे 'ते'-तव कथं किं विप्रत्ययो न उत्पद्यते-कथं संदेहो न जायते / उभौ अपि तीर्थकरौ मोक्षसाधको कथं ताभ्यां वेषभेदः प्रकाशितः, इति कथं तवायं संशयो न भवति। उत्त०२३ अ०। (इत्युपक्रम्य महावीरसमयादनन्तरं साधूनां श्वेतवस्त्रधारणमेवोचितमिति अचेलकपदेन सूचयता ग्रन्थकारेण तदेव व्याचक्षाणेन टीकाकारेण च स्थिरीकृतम्।) आवश्यकवृत्तावपि-- अचेलकञ्चोक्तन्यायेन अविद्यमानचेलकः कुत्सितचेलको वा यो धर्मो वर्द्धमानेन देशित इत्यपेक्षते / तथा 'जो इमो त्ति' पूर्ववत् / यश्चायं सान्तराणि वर्धमानस्वामिसत्कयतिवस्त्रापेक्षया कस्यचित्कदाचिन्मानवर्णविशेषतः सविशेषाणि, उत्तराणि च महाधनमूल्यतया प्रधानानि प्रक्रमाद्वस्त्राणि यस्मिन्नसौ सान्तरुत्तरो धर्मः प्ररूपितः / (इत्यादिना स्फुटीकृतमेतन्महावीरदेशनाप्रवृत्तानां साधूनां श्वेतमानोपेतवस्त्रधारणमेवोचितामिति दिक्।) आव०। भगदतीसूत्रेऽपिलिंगंतरहिं 1 भ०। __ तद्वत्तावपिलिग साधुवेषस्तत्र च यदि मध्यमजिनैर्यथालब्धवस्वरूपं लिङ्गंसाधूनामुपदिष्ठं तदा किमिति प्रथमचरमजिनाभ्यां सप्रमाणधवलवसनरूपं तदेवोक्तं सर्वज्ञानामविरोधिवचनत्वादिति ? प्रश्ने ऋजुजडवक्रजङऋजुप्रज्ञशिष्यानाश्रित्य भगवतां तस्यापदेशस्तथैव तेषामुपकारसभवादिति। भ०। कल्पसूत्रेऽपि किरणावलीवृत्तौअचेलककल्पाधिकारे वीरजिनसाधूनां श्वेतमानाद्युपेतवस्त्राधारित्वे-- नाचेलकत्वमित्याधुक्तम्। पुनस्तत्रैव श्री ऋषभवीरतीर्थयतीनां च सर्वेषामपि श्वेतमानोपेतजीर्णप्रायवस्त्रधारित्वेनाचेलकत्वमेव। कल्पकिरणावलीवृत्तेः प्रशस्तौतेषां पट्टे संप्रति, विजयन्तो हीरविजयसूरीशाः। ये श्वेताम्बरयतिनां, सर्वेषामाधिपत्यभृतः / / 6 / / इतिजैनसाधूनां श्वेतवस्त्रमेवोपयुज्यते।। विनयविजयकृतकल्पसुवोधिकायामपिप्रथमकल्पे श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वेन साधूनामचेलकत्वमपीति। तथा हेमविमलसूरिकृतटव्वाऽपरपण्डितोपाध्यायकृतकल्पसूत्रटव्वावालावबोधप्रमुखैषु बहुषु ग्रन्थेषु सर्वत्र अचेलकत्वं श्वेतमानोपेतवस्त्रधारित्वमिति स्थिरीकृतम्। विवेकविलासेऽपि अष्टमोल्लासेसरजोहरणा भैक्ष-भुजो लञ्चितमूर्धजाः। श्वताम्बराः क्षमाशीला, तिःसङ्गा जैनसाधवः। 1 / संबोधसत्तरीग्रन्थेऽपि"सेयंबरो य आसं बरो य बुद्धो य अहव अन्नो वा", इत्यादि Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेयंबर 1146 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेरपयारि अनुयोगद्वारसूत्रेऽपि तेहिं तावसेहिं राया गामं दाहिति त्ति मोयगेहिं लोभित्ता रायगिह नीओ, पांडुपाउरणा। अनु०। णयरं पवेसेत्ता बद्धो सालाए, अण्णया कुलवती तेण चेव पुवठभासेण आवश्यकनियुक्तौ च दुक्को किं पुत्ता ! सेयणग! ओच्छगं च से पणामेइ. तेण सो मारिओ, अण्णे सुकंबरा य समणा, निरंबरा मज्झ धाउरत्ताई। भणंति-जूहवइत्तणे ठिएणं मा अण्णावि वियांति त्ति से तावसउडया भग्गा हुंतु अ मे वत्थाई, अरिहोऽम्हि कसायकलुसमई // 17 // तेहिं तावसेहि रुदेहिं सेणियस्स रण्णो कहियं, ताहे सेणिएण गहिओ, वृत्तावपि एसा सेयणगस्स उप्पत्ती। पुव्वभवो तस्स एगो धिज्जाइओ जन्नं जयइ, शुक्लान्यम्बरानि येषां ते शुक्लाम्बराः शुक्लाम्बराश्च श्रमणाः। तथा तस्सदासो तेण जन्नवाडे ठविओ, सो भणइ-जइ सेसे मम देहि तो ठामि निर्गतमम्बरं येभ्यस्ते निरम्बरा-जिनकल्पिकादयः। 'मज्झि' त्ति मम इयरहा ण, एवं होउ त्ति सो वि ठिओ, सेसं साहूण देइ, देवाउयं निबद्धं च एते श्रमणाः। एतेन तत्कालोत्पन्नतापसश्रमणव्युदासः, धारतुरक्तानि देवलोगाओ चुओ सेणियस्स पुत्तो नंदिसेणो जाओ, धिज्जाइओवि संसारं भवन्तु मम वस्त्राणि किमि त्योऽस्मि योग्योऽस्मि तेषामेव, कषायैः हिंडित्ता सेयणगोजाओ। जाहे किर नंदिसेणा विलग्गइ ताहे ओहयमणकलुषा मतिर्यस्य सोऽहं कषायकलुषमतिरिति गाथाक्षरार्थः / आव संकप्पो भवइ, विमणो होइ, ओहिणाजाणइ,सामी पुच्छिओ, एयं सव्वं कहेइ, एस सेयणगस्स पुव्वभवो।" आव० 4 अ०। शुक्लाम्बराः। ___ कल्पकिरणावल्यामपि मरीचिभवप्रकरणे सेयणवह पुं० (सेचनपथ) सिक्तमार्गे, आचा०२ श्रु०२ चू०। तथा शुक्लाम्बराः श्रमणाः निरम्बराश्च जिनकल्पिकादयः कषाया सेयपड पुं०(श्वेतपट) श्वेताम्बरे जैने, नि० चू०३ उ०1 कलुषितमतयो यतयः, नाहमेवमतो मे कषायकलुषितस्य धातुरक्तानि सेयप्पभ त्रि०(श्वेतप्रभ) श्वेता-उज्ज्वला श्रेया वा आश्रयणयोग्या प्रभा कान्तिर्यस्य स तथा। उज्ज्वलकान्तौ, कल्प०१ अधि० 3 क्षण। वस्त्राणि भवन्तु। कल्प०। रत्ना०। सेयंबिया स्त्री० (श्वेताम्बिका) केकयजनपदार्धराजधान्याम्, प्रज्ञा०१ सेयबन्धुजीव पुं०(श्वेतबन्धुजीव) श्वेतवर्णपुष्पे वनस्पतिभेदे, रा०। पद / सूत्र०। उत्त०। कल्प०। आ० चू०। आ० म०। रा०1 आ० क०। सेयभह पुं० (श्वेतभद्र) यक्षभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। प्रव०॥ सेयमलपुचड न० (श्वेतमलपुचट) दुर्गन्धिस्येदमलचिगचिगायमाने सेयंस त्रि०(श्रेयस्) अतिशयेन प्रशस्ये, स्था० 4 ठा० 4 उ०।। शरीरे, तं! * श्रेयांस पुं० बाहुबलिसुतसोमप्रभसुते, कल्प०१ अधि०७ क्षण। सेयमाल पुं० (श्वेतमाल) सुषमसुषमाभाविनि कल्पवृक्षभेदे, जं०२वक्ष० / भगवत्प्रतिमादर्शनेन अस्य सामायिकलाभः / आव० 4 अ०। सेयविया स्त्री० (श्वेतविका) केकयजनपदस्य स्वनामख्यातायां प्रधानसेयंसा स्त्री० (श्रेयांसा) विदिशि रुचकनिवासिन्यां तृतीयायां विधृत्कुमा नगर्याम्, विशे० रिमहत्तरिकायाम्, स्था० 4 ठा०१ उ०।। सेयसबपरक्कम पुं० (श्रेयःसत्यपराक्रम) श्रेयसि अतिप्रशस्ये सत्ये संयमे सेयकंठ पुं० (श्वेतकण्ठ) भूतानन्दनागकुमारेन्द्रस्य महिषानीकाधिपतौ, पराक्रमः सामर्थ्य, यस्यासौ श्रेयःसत्यपराक्रमः संयते, उत्त०१८ अ० / स्था० 5 ठा०१०। सेयसरिसव पुं०(श्वेतसर्षप) श्वेतवर्णे सर्षपभेदे, चत्वारि समधुरतृणसेयकणवीर पुं०(श्वेतकणवीर) श्वेतवर्णपुष्पे कणवीरे, रा०। फलान्येकः श्वेतः सर्षपः। सुवर्णमानभेदे, स्था०५ ठा० 3 उ०। सेयचंदण न० (श्वेतचन्दन) श्रीखण्डे, प्रश्न०५ संब० द्वार। सेयापीय त्रि० (श्वेतापीत) रजतसुवर्णमये श्वेतपीतवर्णे, भ०६ शं० सेयण न० (स्वेदन) सप्तधान्यादिभिः स्वेदोत्पादने, ज्ञा०१ श्रु०१३ अ०। / 34 उ० : विपा०। सेयणग पुं० (सेचनक) चम्पायां कूणिकस्य महाराजस्य स्वनामख्याते सेयावंग त्रि०(श्वेतापाङ्ग) सितनेत्रप्रान्ते, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। गन्धहस्तिनि, भ०७ श० 6 उ० / नि० / आव० / "सेयणगस्स का सेयावण्ण त्रि० (स्वेदापन्न) जातस्वेदे, ज्ञा०१ श्रु०३ अ०। उप्पत्ती ? एगत्थ वणे हत्थिजूहं परिवसइ, तम्मि जूहे एगो हत्थी जाए सेयाल पुं० (एष्यत्काल) ग्रहणोत्तरकाले, भ०१ श०१ उ०। जाए हत्थिचेल्लए मारेइ, एगा गुठ्विणी हस्थिणिगा, सा य ओसरित्ता सेयासेय न० (श्वेताश्वत) कनकपुरनगरे स्वनामख्याते उद्याने, विपा० एकलिया चरइ, अण्णया कयाइ तणपिंडियं सीसे काऊण तावसासमं 2 श्रु०६ अ०। (अस्य वक्तव्यता 'धणवइ' शब्दे चतुर्थभागे गता।) गया, तेसिं तावसाणं पाएसुपडिया, तेहिं णायंसरणागया वराई।अण्णया सेयाऽसोग पुं०(श्वेताशोक) श्वेतवर्णपुष्पे वृक्षविशेषे, रा०। तत्थ चरंति वियाया पुत्तं, हथिजूहेण सम चरंती छिद्देण आगंतूण थणं सेर त्रि० (स्मेर) अधोम-न-याम्'।८।२।७८ || मनयां संयुक्तस्य देइ, एवं संवड्डइ, तत्थतावसपुत्ता पुप्फजाईओ सिंचंति, सो वि सोडाए | अधोवर्तमानस्य लुग भवति। इति मस्क लुक् / सहित', प्रा०२ पादा पाणियं नेऊण सिंचइ ताहे नाम कयं सेयणओ त्ति, संवडिओ मयगलो | सेरडी स्त्री० (सेरटी) भुजसर्पिणीभेदे, जी० 2 प्रति०। जाओ, ताहे णेण जूहवई मारिओ, अप्पणा जूहं पडिवण्णो, अण्णया | सेरपयारिपुं० (स्वैरप्रचारिन्) स्वच्छन्दविहारिणी, ज्ञा० 1 श्रु०१८ अ०। Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेरिणी ११५०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेलेसी सेरिणी स्त्री० (स्वैरिणी) स्वेच्छाचारिण्या नर्तक्याम्, आचा०१ श्रु० | सेलसुआस्त्री० (शैलसुता) पार्वत्याम्, को०। 2 अ०२ उ० सेलास्त्री० (शैला) सप्तमानां नरकपृथिवीनां मध्ये तृतीयस्यां नरकपृथिसेरियय पुं० (सेरितक) गुल्मभेदे, प्रज्ञा०१पदा व्याम्, स्था० 7 ठा०३ उ०। भुजसर्पिणीभेदे, जी०२ प्रतिका सेरी स्त्री० (सेरी) देशीवचनमेतत्, यन्त्रमय्यां नर्तक्याम्, व्य०२ उ०। | सैलियघर न० (शैलिकगृह) पाषाणेष्टकादिभिः कृते गृहे, व्य० 430 / सरीस पुं० (सेरीश) स्वनामख्याते नगरे, यत्र देवेन्दसूरिः कायोत्सर्गम- सेलु पुं० (शैलु) श्लेष्मान्तके कफे, प्रज्ञा० १पद! कार्षीत्। व्य०२ उ०। सेलूस पुं० (शैलूष) स्वनामख्याते अन्यथावादिनि नटे, शैलूषा इवान्यसेलपुं० (शैल) शिलाया विकारःशैलः। स्था०३ठा०३ उ०। श्लक्ष्णरूपे थावादितोऽन्यथाकारिणः / आचा०१ श्रु०२ अ०.२ उ०। पाषाणे, स्था० 4 ठा०३ उ०। विशे० शिखरहीनपर्वते, प्रज्ञा०२ पद। सेलेस पुं० (शैलेश) मेरौ,विशे० स्था०। आ० चू०। मुण्डपर्वते, भ०५ श०१ उ०। आ० क० / प्रश्न० / हिमवदादिपर्वतेषु, सेलेसिपडिवण्णगपुं० (शैलेशीप्रतिपन्नक) अयोग्यावस्थां प्राप्ते, प्रज्ञा० 22 पद। स०। विशे० नं०॥ कृष्णवासुदेवसमकालिके नन्दिपुरराजे, ज्ञा०२ श्रु० सेलेसिसत्तागा स्त्री० (शैलेशीसत्ताका) शैलेशी-अयोग्यावस्था तस्याः 1 वर्ग०१अ०।पर्वतगृहे, कल्प०१ अधि० 4 क्षण। सत्ता यासां प्रकृतीनां ताः शैलेशीसत्ताकाः / तथाविधासु कर्मप्रकृतिषु, सेलग पुं० (शैलक) अश्वरूपधारकेस्वनामख्याते यक्षे, रत्नदीपदेवताक्षु क० प्र० 10 प्रक०। ताश्च द्विधा तद्यथाउदयवत्यः, अनुदयवत्यश्च / भितमाकन्दीदारकरक्षको हि सः / ज्ञा० 1 श्रु०६ अ० / ध० 20 / तत्रोदयवत्यो मनुष्यगतिमनुष्यायुः पञ्चेन्द्रियजातित्रससुभगादेयस्वनामख्याते शैलकपुरराजे, ज्ञा० 1 श्रु०५ अ०। (थावचापुत्त' शब्दे पर्याप्तबादरयशःकीर्तितीर्थकरोचैर्गोत्रसाता-सातान्यतरवेदिनीयरूपा चतुर्थभागे 2368 पृष्ठे कथा / ) तद्वक्तव्यताप्रतिपादके पञ्चमे द्वादश तासां प्रकृतीनां तेनायोगिकालेनतुल्यानिस्पर्द्धकानि एकैकेनाज्ञाताध्ययने च। आव०१अ० स्था०। ज्ञा०। धिकानि भवन्ति। क० प्र० 10 प्रक०। सेलगराय पुं० (शेलकराज) नेमिनाथशिष्यस्यान्तिके श्रमणोपासक सेलेसी स्त्री० (शैलेशी) शैलेश इव मेरोरिव स्थिरता शैलेशी / दर्श०४ धर्मप्रतिपन्ने शैलकपुरराजे, ग० 1 अधि०। पञ्चा०1 'तत्त्व / चतुर्दशगुणस्थानस्थायित्वे, उत्त० 26 अ० / विशे० / आचा० / सेलगिह न० (शैलगृह) पर्वतमुत्कीर्यकृते गृहे, भ० 2 10 8 उ०। कर्म० 1 औ० / आ० म०। आ० चू०। ('अकम्मया' शब्दे प्रथमभागे सेलगुहास्त्री० (शैलगुहा) गिरिकन्दरायाम, शैलगुहायांतपस्यन्तं महात-- एतत्फलमुक्तम्।) पस्विनं पश्यतु। हा०२३ अष्ट०। शैलेशीशब्दव्युत्पत्तिमाहसेलगोलय पुं० (शैलगोलक) वृत्ते पाषाणगोलके, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। सेलेसो किल मेरू, सेलेसी होइ जाय तदचलया। सेलधर न० (शैलगृह) पर्वतमुत्कीर्यकृते गृहे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। होउंच असेलेसो, सेलेसी होइ थिरयाए॥३०६५।। कल्प०॥ अहवा सेलु व्व इसी, सेलेसी होइ सोऽतिथिरयाए। सेलपाय पुं० (शैलपात्र) पाषाणपात्रे, आचा०२ श्रु०१चू०६ अ०१3०। से व असेलेसी होइ, सेलेसी हो अलोवाओ / / 3066 // सेलपुरन० (शैलपुर) स्वनामख्याते, नगरभेदे, वृ०१३०३ प्रक०। सीलं व समाहाणं, निच्छयओ सव्वसंवरो सोय। सेलयपुर न० (शैलकपुर) शैलकराजावासभूते नगरे, ज्ञा०१ श्रु० तस्सेसो सीलेसो, सेलेसी होइ तदवत्था / / 3067 // 5 अ०। शैलेशो-मेरुस्तस्येवाऽचलता-स्थिरताऽस्यामवस्थायां सा शैलेशी। सेलयय पुं० (शैलकज) वत्सगोत्रान्तर्गतगोत्रविशेषप्रवर्तके ऋषौ, स्था० अथवा-अशैलेशः शैलेश इव स्थिरतया भवति शैलेशीभवति, 'भवति' 7 ठा०३ उ०। इत्यध्याहारः / अथवा-प्राकृत-संज्ञामाश्रित्य स्थिरतया सेलुव्व इसी सेलवाल पुं० (शैलपाल) धरणभूतानन्दयो गकुमारेन्द्रयोर्लोकपाले, महरिसी तस्य संबन्धिनी स्थिरतावस्थाऽप्युपचारतः शैलेशी। अथवास्था० 4 ठा० 1 उ० / कालोदाय्यादिष्वन्यतमे यूथिके, भ०७ श० प्राकृतत्वादेव "से भिक्खू वा भिक्खुणी वा'' इत्यादिन्यायतः ‘से त्ति 10 उ०। सो महरिसी' अलेश्यो-लेश्यारहितो भवति यस्यामवस्थायां सा सेलवियारि पुं० (शैलविचारिन्) ऋषभदेवपुत्राणामेकाशीतितमे पुत्रे, शैलेशी, अकारलोपादिति / अथवा-शीलं समाधानं, तच्च निश्चयतः कल्प०१ अधि०७ क्षण। प्रकर्षप्राप्तसमाधानरूपत्वात् सर्वसंवरः, ततस्तस्य सर्वसंवररूपस्य सेलसंकड पुं० (शैलसंकट) पर्वतैः संकीर्णे, स०१४६ सम०। शीलस्येशः शीलेशस्तस्येयमवस्था शैलेशीति! विशे०। Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेलेसीकरण 1151 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेह सेलेसीकरण न० (शैलेशीकरण) शैलेशो मेरुस्तस्येयं स्थिरता चू०१ उ० शक्रस्य देवेन्द्रस्याष्टास्वामहिषीषु द्वितीयायामग्रमहिष्याम्, साम्यावस्था शैलेशी। यद्वा सर्वसंवरः शीलं तस्य य ईशः शीलेशः भ०१० श०५ उ01 तस्येयं योगनिरोधावस्था शैलेशी तस्यां करणम् / पूर्वविरचितशैले- | सेवाल न० (शैवाल) तन्त्वाकारे जलरुहभेदे, प्रसिद्धं चैतत् जले भवति। शीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य वेदनीयनामगोत्राख्याघातिकर्मत्रित- प्रज्ञा०१पद। शैवाल जलोपरि मलरूपम्। आचा०१श्रु०२ अ०।आ० यस्यासंख्येयगुणया श्रेण्या आयुःशेषस्य तु यथास्वरूपस्थितया श्रेण्या म० / अष्टापदपर्वतस्य द्वितीयमेखलायां पञ्चशतीतापसयूथाधिपतौ निर्जरणे, कर्म०२ कर्म०। प्रव०। गौतमप्रवाजिते तापसे, उत्त० 10 अ०। पङ्के, दे० ना०५ वर्ग 43 गाथा / सेलेसीमद्धा स्त्री० (शैलेश्यद्धा) शैलेशीकाले, औ०। सेवालोदाइ पुं० (शैवलोदायिन) कालोदाय्यादिषु अन्ययूथिकेष्वन्यतमे सेलोदाइपुं० (शैलोदायिन्) राजगृहनगरस्य शिलापट्टकस्यादूरे सामन्त- | यूथिक, भ०७ श० 10 उ०। परिवास्यन्याथिकभेदे, भ०७ श०१० उ०। सेविय त्रि० (सेवित) जुष्ट, क्षिप्ते च स्था०४ ठा०३ उ०। प्रश्न०। सेलोवट्ठाण न० (शैलोपस्थान) पाषाणमण्डपे, आचा०२ श्रु०१ चू०२ सेवियव्व त्रि० (सेवितव्य) सेवनीये, उत्त०३२ अ०। अ०२ उ०। सेस त्रि० (शेष) उक्तादन्यस्मिन्, पञ्चा० 16 विव० / प्रज्ञा० / उत्त / सेलोवट्ठाणकम्मत न० (शैलोपस्थानकान्त) स्थानविशेषे, यत्र स्था०। आव०। आचा०उदलनासंक्रमाभिधानेऽवसरे, यत्प्रागभिहितं पाषाणपरिकर्म क्रियते। आचा०२ श्रु०१ चू०१अ० 11 उ०। चरमखण्ड तत्र शेषमित्युच्यते। क० प्र०।अल्पे कृते, आ०म०१० सेलोववाणघर न० (शैलोपस्थानगृह) पाषाणमण्डपे, स्था० 5 ठा० 1 नागराजे, ती०३२ कल्प। सेसदग्विया स्त्री० (शेषद्रव्या) गृहोपयुक्तशेषद्रव्येण कृता शेषद्रव्या। उ०। सेल्लन० (शल्य) बालमये झुषिरे, सेल्लं बालमयं झुसिरं तं खारे वुञ्जति लेपोपासकस्य गृहपतेः सम्बन्धिन्या नालन्दायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि किं खारो संजाओ न वि तत्थ अंसकिलिटुं कम्म भणियं / नि० चू०१ उदकशालायाम, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। (अत्रत्यो विशेषः 'पेढालपुत्त' शब्दे पञ्चमभागे उक्तः) उ०। सेसमइस्त्री० (शेषमति) पूर्वरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, सेल्लग पुं० (शल्यक) भुजपरिसर्पजन्तुभेदे, यधर्मकर्त्तलकैरङ्गरक्षका द्वी०। विधीयन्ते, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। सेसव न०(शैशव) शिशोरवस्थायाम्, आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सेव त्रि० (शैव) शिवो भक्तिरस्येति। पाशुपते, 'शैवो द्वादशवर्षाणि, व्रतं सूत्र०। कृत्वा ततः परम् / यद्यसक्तस्त्यजेद्वापि, योगं कृत्वा व्रतेश्वरे॥१॥' * शेषवत् न० अनुमानभेदे, अनु० ('अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 403 विशे०। आचा०। आ० म०। शैवीदीक्षात एव मोक्ष इत्येवं व्यवस्थिताः। पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) सूत्र० 1 श्रु०१ अ०३ उ०। (एतद्वक्तव्यता'कडवाइ' शब्दे तृतीयभागे सेसवई स्त्री० (शेषवती) दक्षिणरुचकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्त२०५ पृष्ठे उक्ता।) शिवनिर्मिते व्याकरणभेदे, कल्प० 1 अधि०१क्षण / रिकायाम्, स्था०६ ठा०३ उ०। आ० म० / प्रति०१ आव० / आ० सेवग त्रि० (सेवक) भजके, प्रश्न०२ आश्र० 4 द्वार। अनुष्ठानरते, पञ्चा० क० / आ० चू० / जं० / सप्तमवासुदेवमातरि, आव०१ अ०। स०। 12 विव० / कारके, नि० चू०१ उ० / चोरभट्टके, बृ०३ उ०। भगवतो महावीरस्य दौहित्र्यां जमालिपुत्र्याम, आचा०२ श्रु०३ चू०। सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगो भवति। सूत्र०१ श्रु०१३ अ०। आ०चू०। कल्प०॥ सेवण न० (सेवन) पर्युपासने, उत्त० 35 अ०। भजने, स्था० 4 ठा०२ सेसिंदपुं० (शेषेन्द्र) दर्वीकरसर्पभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। उ०। प्रव० / आव०। सेसिय त्रि० (शेषित) अल्पीकृते, 'कम्म सेसियमट्टहा' सेसियमट्टह' त्तिसेवणास्त्री० (सेवना) भजनायाम, विशे०। सूत्र०। आश्रयणे, पञ्चा०१६ ज्ञानावरणााष्टप्रकारैः पूर्व से' तस्य सितमित्यर्थः / अथवा-'सेसियं' विव०। उपभोगे, आचा०१ श्रु०६ अ०१उ०। विशोधौ, नि० चू०१ उ०। ति अनाभोगनिर्वर्तितयथाप्रवृत्तकरणेन सम्यग्ज्ञानादुपायतश्च क्रमेण सेवणाहिगार पुं० (सेवनाधिकार) सेवनायां चौर्यादिसेक्ना यामधिकारो शेषितं-शेष कृतं स्थित्यनुभवादिभिरल्पीकृतम्। विशे०। नियोगः सेवनाधिकारः / गौणमैथुने, अब्रह्मप्रवृत्तो हि चौर्याद्यनर्थसेवा- सेसीकय त्रि० (शेषीकृत) स्थित्यादिभिरल्पीकृते, आ० म०१ अ०। स्वधिकृतो भवति, आह च– 'सर्वेऽनर्था विधीयन्ते, नरैरर्थकलालसैः। सेह पुं० (सेध) 'सिध' संराद्धाविति वचनात्, सेध्यते-निष्पाधते यः स अर्थस्तु प्रार्थ्यते प्रायः, प्रेयसीप्रेमकामिभिः // 1 // ' प्रश्न०४ आश्र० सेधः। शिष्ये, स्था० 3 ठा०२ उ०। द्वार। * शैक्ष पुं० शिक्षा वाऽधीते इति शैक्षः / स्था०३ ठा०२ उ० / सेवमाण त्रि० (सेवमान) कुर्वाणे, उत्त० 12 अ०। सूत्र०। अभिनवप्रव्रजिते,स्था०५ ठा०१ उ०। सूत्र०। प्रति०। 'तिहि सेवा स्त्री० (सेवा) पर्युपासनायाम्, अभ्युत्थानदण्डग्रहणासनदानादौ, नि० | उत्तराहिं रोहिणीहिं, कुज्जा उ सेहनिक्खमणं / सेहोवट्ठा Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेह 1152- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेहभूमि वणं कुजा, अणुन्ना गणिवायए ' / / 26 / 872 / / द०५०। आचा०। लघुसाधौ, कल्प०३ अधि०६ क्षण / नि० चू० / अल्पपर्याये, दशा० 3 अ० प्रथमकल्पिके साधौ, ध०३ अधि०। शिक्षा साधौ, ध० 3 अधि० / ग०। बृ०॥ *णश् धा० अदर्शने, "णशेर्णिरिणास-णिवहावसेह-पडिसासेहावहराः ||4|178|| इति णश्धातोः सेह इत्यादेशः / सेहइ। नश्यति। प्रा०४ पाद।" सेहट्ठवणाकप्प पुं० (शैक्षस्थापनाकल्प) अभिनवशिष्यप्रव्राजनायाम्, सेहट्टवणाकप्पो नाम अट्ठारसपुरिसेसुं वीसुंइत्थीसुं पुव्वभणियजीवदवियकप्पे एए जो पव्वावेइ सो सेहट्ठवणाकप्पो। पं० चू०२ कल्प। सेहणन० (शिक्षण) ग्रहणासेवनाभ्यासे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०१ उ०। सेहणिक्खमण न० (शैक्षनिष्क्रमण) शिष्यस्य प्रव्रजने, द०प०। पढमी पञ्चमी दसमी, पन्नरसिकारसीविय तहेव। एएसु य दिवसेसुं सेहे निक्खमणं करे। 8/954| द०प०। नंदे जएय पुन्ने, सेहनिक्खमणं करे। (1101855 द०प०१) तिहिं उत्तराहिँ,रोहिणीहिं, कुज्जा उसेहनिक्खमणं / सेहोवठ्ठावणं कुजा, अणुन्ना गणिवायए।२६।८७२द०प०। सेहणिप्फेडण न० (शैक्षनिष्फेटन) शिष्यापहारे, द०प०। पढमी पश्चमी दसमीए, पन्नरसिकारी दिय। तह एएसु दिवसेसुं, सेहणिप्फेडणं करे। द०प०। सेहणिप्फेडिया स्त्री० (शैक्षनिष्फेटिका) शैक्षकस्य दीक्षितुमिष्टस्य निष्फेटिका-अपहरणम्। तद्योगाद्यो मातापित्रादिभिरननुज्ञातोऽपहृत्य दीक्षितुमिष्यते सोऽपि शैक्षनिष्फेटिकः / ग०१ अधि०। दीक्षितुमिष्टस्यापहरणे, ध० 3 अधि० / नि० चू० / तदपहरणकर्तरि, त्रि० / ग०१ अधि०। इयाणिं सेहणिप्फेडिताततियव्वयाइयारे, निप्फेडगतेणियं वियाणाहि। अतिसेसियम्मि भयणा, अमूढलक्खे य पुरिसम्मि।। 43 // सेहणिप्फोडियं जो करेति से ततियं वयं अदिण्णादाणवेरमणं अतिचरति,तं केरिसं कहं वा णिप्फेडतो ततियव्वतं अतिचरति? गाहाअपडप्पण्णो वालो, वरिट्ठवरिसूणों अहव अणिविट्ठो।। अम्मापितुअविदिण्णो,ण कप्पती तत्थ वाऽण्णत्थ।। 435 // अपडुप्पन्नो अट्ठवरिसो किंवाऽधिको वा अट्ठवरिसूणं वा सोलसवरिसूणं वा अवंजणं जातं, अहवा–अणिविट्ठ अविवाहितं तहप्पगारं अम्मापितिअविदिन्नं तत्थ वा गामे अन्नत्थ वाण कम्पति पव्वावेतुं। अह निप्फेडितो तं निप्फेडगतेण वियाणाहि। इमो एत्थ तेणगविगप्पो। गाहातेणे य तेणयेणे, अपडिच्छग पडिच्छगे य णायव्वं / एते तु सेहणिप्फे-डियाएँ चत्तारि उ विगप्पा॥ 436 / / इमं वक्खाणं / गाहा जो तं उप्पासयए, से तेणे होति लोगउत्तरिते। भिक्खातिए गतंमि उ, हरमाणो तेणतेणो उ॥ 437 // अपडुप्पन्नं बालं हरंतो तेणो, से तेणो तं सेहं बाहिं गामादियाण ठवेत्ता अप्पणा भिक्खस्स पविट्ठो, एत्थंतरे जो तं सेहं अण्णो उप्पासेत्ता हरति सो तेणतेणो (नि० चू०) (प्रतिच्छकविषयः ‘पडिच्छग' शब्दे पञ्चमभागे गतः।) सेहनिप्फेडियं करेंतस्स चउगुरुं आणादिया य दोसा, इमे य। गाहाअम्मापियरो कस्स वि, विपुलं घेत्तूण अत्थसारं तु / रायादीणं कहिए, कढणम्मिय गिण्हणादीया।। 436 / / गाहाविपरिणमेजा सण्णी, केई संबंधिणो भवे तस्स। विपहिणताए धम्म,सुएज कुजा व गहणादी॥ 40 // णिप्फेडण सेहस्स उ, सुयधम्मो खलु विराहितो होति। सुयधम्मस्स व लोवा, चरित्तलोवं वियाणाहि॥४१॥ सेयमवहडं नाउं सन्नी विपरिणमेजा सेहस्सवा संबंधी ते य विपरिणता धम्म सुएज्जा, रायमादिएहिं वा गहणादि कारवेजा। गाहाआयरिय उवज्झाया, कुलगणसंघो य धम्मो य। सवेऽवि परिचत्ता, सेहं णिप्फेडयंतेण / / 442 / / रायादिरुट्ठीततेसिं कड़गम करेज तम्हा मातापियरेण अदत्ता सेहणिप्फेडिया ण कायव्वा / बितियपदेण वा करेजा। अतिसेसगंमि भयणेति अस्य व्याख्या। गाहाहोहिति जुगप्पहाणो, दोसा विन केवि तत्थ होहिंति। तेणऽतिसेसा दिक्खे, अमोहहत्थे य तत्थेव / / 43|| जो ओहिमादीअतिसएण जाणति एस नित्थारगो जुगप्पहाणो होहिति, दोसा य ण केऽवि भविस्संति तेण अतिसयी दिक्खति / अह जाणति होहिंति दोसा तो ण पव्वावेति। एस भयणा 'अमूढलक्खो व आयरिओ' अमोहहत्थो जं जं पव्वावेति सो अवस्सं णित्थरति न य केऽवि दोसा उप्पचंतितं च नान्यत्र नयंतीत्यर्थः / सेहणिप्फेडिता अट्ठारसपुरिसुत्ति गतं! नि० चू० 11 उ०। पं० भी०। पं० चळू तोसलिपुत्राऽऽचार्येणार्यरक्षिताचार्यश्वारित इति प्रथमशैक्षनिष्फेटितेति / आ० क 01 अ०॥ ('अणवठ्ठप्प' शब्दे प्रथमभागे शैक्षचौर्यमुक्तम्।) सेहभूमि स्त्री० (शैक्षभूमि) शिष्यस्य महाव्रतारोपणकाले, व्य०। तओ सेहभूमिओ पण्णत्ताओ, तं जहा-सत्तराईदिया, चाउम्मासिया, छम्मासियायाछम्मासिया उक्कोसिया, चाउम्मासिया मज्झिमिया, सत्तराईदिया जहन्निया।। (सू०१५) अस्य संबन्धमाह-- तुल्लाउ भूमिसंखा, ठिया व ठावेंति ते इमे हुंति। पडिवक्खतो व सुत्तं, परियाए दीहहस्से य॥५०॥ तुल्या भूमिसंख्या शैक्षकाणामिति कृत्वा, अथवा-पूर्व Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेहभूमि 1153- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेहभूमि सूत्रे स्थविरा उक्तास्ते च स्वयं स्थित्वा अन्यान् स्थापयन्ति ते चाप्येवं स्थाप्यमाना इमे वक्ष्ययाणा भवन्तीति तत्प्रतिपादनार्थमिदं सूत्रम् / अथवा-प्रतिपक्षत इदं सूत्रमापतितम्। तद्यथा-पूर्वसूत्रे स्थविराः, तेषां च प्रतिपक्षाः शैक्षाः, यदि वास्थविराणां दीर्घः पर्यायः, शैक्षकाणां शैक्षकत्वेन ह्रस्व इति स्थविरसूत्रानन्तरं शैक्षकसूत्रम्। अस्याक्षरगमनिका प्रास्वत्। सम्प्रति शैक्षकाणां यद्वक्तव्यं तत्संसूच नाय द्वारगाथामाहसेहस्स तिन्नि भूमिउ, दुविहा परिणामगा दुवे जड्डा। पत्तजहंते संभु-जणा य भूमित्तियविवेगो॥५१॥ शैक्षकस्य तिस्रो भूमयो वक्तव्याः, सूत्रोपात्तत्वात्तथा शैक्षका द्विविधाःपरिणामका, अपरिणामकाः वक्तव्याः / द्वौ च जड्डौ / तथा पात्राणि पात्रभूतान् त्यजति दोषा वक्तव्याः, संभोजना च तथा भूमित्रिकस्य जलमूकैलमूककरणज) लक्षणस्य विवेकः परित्यागोवक्तव्यः, एष द्वारगाथासंक्षेपार्थः / व्यासार्थवस्तुप्रतिद्वारमभिधातव्यः। तत्र प्रथमतो भूमिद्वारमाहसेहस्स तिण्णि भूमि, जहण्णा तह मज्झिमा य उक्कोसा। राइंदिसत्त चउमा-सिया य छम्मासिया चेव / / 52 / / शैक्षकस्य तिस्रो भूमयस्तद्यथा-जघन्या मध्यमा उत्कृष्टा च / तत्र जघन्या सप्तरात्रिन्दिवा, मध्यमा चातुर्मासिकी, उत्कृष्टा पाण्मासिकी। पुष्वोवट्ठपुराणे, करणजयट्ठा जहणिया भूमी। उक्कोसा दुम्मेहं, पडुच अस्सद्दहाणं च / / 53 // पूर्वमुपस्थः-उपस्थितः पूर्वोपस्थः स चासौ पुराणश्च पूर्वोपस्थपुराणस्तस्मिन् करणजयाय जघन्या भूमिर्भवति / इयमत्र भावना यः पूर्व प्रवज्योत्प्रव्रजितः पश्चात्पुनरपि प्रव्रज्यां प्रतिपन्नवान् स सप्तमे दिवसे उपस्थापयितव्यः, तस्य हि यावद्भिर्दिवसः, पूर्वविस्मृतसामाचारीकरणमत्यन्तंदुःप्रभवति एषा जघन्या भूमिः, दुर्मेधसमश्रद्दधानंच प्रतीत्य | उत्कृष्टा पाण्मासिकी भूमिः। एमेव य मज्झिमिया, अणहिजंते असद्दहते य। भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठाय मज्झिमिया / / 54 // एवमुक्ते उत्कृष्ट अनधीयाने अश्रद्दधाने च माध्यमिकी भूमिः प्रतिपत्तव्या / अथवा-भावितस्यापि श्रद्दधानस्यापि मेधाविनश्चापिच करणजयार्थ माध्यमिकी भूमिः / गतं भूमिद्वारम्। अधुना द्विविधपरिणामकद्वारमाहआणादिलुतेण य, दुविहो परिणामगो समासेणं / आणापरिणामो खलु, तत्थ इमो होइ नायव्वो // 55 // स द्विविधः परिणामको भवति, तद्यथा-आज्ञया, दृष्टान्तेन च / तत्र समासेन-संक्षेपेण--आज्ञापरिणामः खल्वयंवक्ष्यमाणो भवति। तमेवाहतमेव सर्च नीसंकं,जं जिणेहिं पवेदियं / आणाएँ एस अक्खाओ, जिणेहिं परिणामगो।। 56 // तदेव सत्यं यज्जिनैः प्रवेदितमित्येवं यो निःशङ्क श्रद्दधाति न च कारणं / जनयते एष आज्ञया परिणामको जिनराख्यातः। दृष्टान्तपरिणामकमाहपरोक्खं हेउगं अत्थं, पचक्खेण व साहियं / जिणेहिं एस अक्खातो, दिहतपरिणामगो।। 57 / / परोक्षं हेतुकं हेतुना लिङ्गेन गम्यं हेतुकमर्थं प्रत्यक्षेण प्रत्यक्षप्रसिद्धेन दृष्टान्तेन साधयन् आत्मबुद्धावारोपयन् यो वर्तते दृष्टान्तपरिणामको जिनैराख्यातः। दृष्टान्तेन विवक्षितमर्थ परिणमयत्यात्मबुद्धा-वारोपयतीति दृष्टान्तपरिणामक इति व्युत्पत्तेः / तत्राज्ञापरिणामकः, आज्ञयैव कायान् श्रद्दधाति, दृष्टान्तपरिणामकस्तु दृष्टान्तेन श्रद्दधापयितव्य इति। तस्य कायश्रद्धानोत्पादनार्थमिदमाहतस्सिदियाणि पुय्वं,सीसंते जइ उताणि सद्दहइ। तो से नाणावरणं, सीसइ ताहे दसविहं तु / / 58 // तस्य दृष्टान्तपरिणामस्य पूर्वमिन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि शिष्यन्ति तत्र यदि तानीन्द्रियाणि श्रद्दधाति ततः तमेतस्य ज्ञानावरणं दशविधं शिक्ष्यते। कथमित्याहइन्दियावरणं चेव, नाणावरणे इय। नो नाणावरणं चेव, माहियं तु दुपंचहा / / 56 // इन्द्रियावरणं, ज्ञानावरणं च। तत्रेन्द्रियावरणं नाम इन्द्रियविषयशब्दादिसामान्योपयोगावरणं, ज्ञानावरण-मिन्द्रियविषयेष्वेव शब्दादिषु विशेषोपयोगावरणम्। इन्द्रियावरणं ज्ञानावरणं च श्रोत्रेन्द्रियादिभेदतः प्रत्येक पञ्चप्रकारमेव ज्ञानावरणम् / द्विपञ्चधा-एवं दशप्रकारमाख्यातम्। तानेव दश भेदान् विवेक्तुमाह-- सोयावरणं चेव, णाणावरण होइ तस्सेव। एवं दुयभेएणं, णायव्वं जाव फासो त्ति / / 60 // श्रोत्रावरणं तथा तस्यैव श्रोत्रस्य ज्ञानावरणमेवं द्विकभेदेन तावत् ज्ञातव्यं यावत्स्पर्शः, तद्यथा-चक्षुरिन्द्रियावरणम्, चक्षुरिन्द्रियज्ञानावरणम् / घ्राणेन्द्रियावरणम्, घ्राणेन्द्रियज्ञानावरण। रसनेन्द्रियावरणम्, रसनेन्द्रियज्ञानावणम्। स्पर्शेन्द्रियावरणम्, स्पर्शेन्द्रियज्ञानावरणमिति / साम्प्रतमिन्द्रियावरणस्य विज्ञानावरणस्य च विषयविभागार्थमिदमाहबहिरस्स उ विन्नाणं, आवरियं न उण सोयमावरियं / अपडुप्पण्णो वालो, अतिवुड्डो तह असन्नी वा।। 61 // विनाणावरियं तेसिं, कम्हा जम्हा उते सुणंता वि। म वि जाणते किमयं, सहो संखस्स पडहस्स / / 62 / / वधिरस्य विज्ञानं श्रोतेन्द्रियविज्ञानमावृतम्, सामान्यतः शब्दमात्रश्रवणेऽपितद्गतविशेषापरिज्ञानात्, नतु श्रोत्रमावृतं सामान्यतः शब्दमात्रश्रवणात्, तथा योऽपटुप्रज्ञो-बालो यश्चातिवृद्धो यो वा असंज्ञी अमनस्कः पञ्चेन्द्रियः, एतेषां विज्ञानमावृतम् / कस्मात् ? यस्मात्ते शृण्वन्तोऽपि न विजानते किमयं शब्दः शलस्य, उतपटहस्येति। किं ते जीवमजीवं,जीवा एवेति तेण उदियम्मि। भण्णइ एवं विजाणसु, जीवा चउरिंदिया विंति।। 63 / / Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेहभूमि 1154 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेहभूमि किं ते वधिरादयो जीवा, अजीवा वा ? तत्र जीवा एवेति तेनोदिते (परिणामकविषयः परिणामग' शब्दे पञ्चमभागे गतः।) भण्यते-एवं वधिरादिवत् चतुरिन्द्रिया अपि जीवा इति विजानीहि एतदर्थं सुखेन जीवत्वप्रतिपत्त्यर्थमुपसंहरन्नाहश्रोत्रावरण-मात्रेण जीवत्वाप्रच्युतेः। एस परिणामगो भणितो, अहुणा उ जड़ें वोच्छामि। एवं चक्खिदियघा-णिंदियजिभिदिओवधाएहिं। सो दुविहो नायव्वो, भासाऍ सरीस्जड्डो उ॥७७॥ एकेकयहाणीए, जाव उ एगिदिया नेया॥६५॥ एष द्विविधो विपरिणामक उक्तः। अधुनाज(ड्ड)डं वक्ष्ये, सजडो द्विविधो एवमेकैकहान्या एकैकेन्द्रियपरिहानितः चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रिय- |-. ज्ञातव्यः, तद्यथा-'भासाए त्ति भाषाजडः, शरीरजडश्च। जिव्हेन्द्रिययोपघातैः क्रमेण त्रीन्द्रियादयः तावत् ज्ञेया यावदेकेन्द्रियाः, जलमूगएलमूगो, मम्मणमूको य भासजडो य / तद्यथा-चक्षुरिन्द्रियोपघातेऽपि त्रीन्द्रियाः घ्राणेन्द्रियोपघातेऽपि द्वी दुविहो सरीरजडो, थुल्लाकरणे अनिपुणो य / / 78 // न्द्रियाः, जिव्हेन्द्रियोपघातेऽप्येकेन्द्रियाः / इह पूर्व विज्ञानावरणे भाषाजडस्त्रिविधः, तद्यथा-जलमूकः, एलमूको, मम्मनमूकश्च / ऽपीन्द्रियमनावृतमुक्तम्। शरीरजडो द्विविधस्तद्यथा-शरीरेण, क्रियायामनिपुणश्च / इदानीमिन्द्रियावरणेऽपि विज्ञानमनावृतमुपदर्शयति पढमस्स नत्थि सद्दो, जलमज्झे व भासतो। सन्निस्सिदियघाए वि, तन्नाणं न विरिजइ। वीयो उ एलगो चेव, अव्वत्तं बुब्बुयायइ / / 76 // विन्नाणं नतु सन्नीणं, विजमाणे वि इंदिए।। 65 / / प्रथमस्य जलमूकस्य जलमध्ये इव भाषमाणस्य नास्तिशब्दः, द्वितीय संज्ञिन इन्द्रियघातेऽपिन ज्ञानमुपहतेन्द्रियज्ञानं नाऽऽवियते।एतचाग्रे एडमूकः एडकमिव बुद्दायते। भावयिष्यते। असंज्ञिनांपुनर्विद्यतमानेऽपीन्द्रिये विज्ञानं नास्तिा यथोक्तं मम्मणो पुण भासंतो, खलए अंतरंतरा। प्राक् तथा चाग्रे वक्ष्यते। चिरेणं नीति से वायं, अविसुद्धा व भासतो।। 80 // एतदेव भावयति मन्मनः पुनर्भाषमाणोऽन्तरा अन्तरा स्खलति, यदिवा--'से' तस्य जो जाणइ य जचंधो, वन्ने रूवे विकप्पसो। भाषमाणस्य वाक् चिरेण 'नीति' निर्गच्छति अविशुद्धा वा। नेत्ते वाऽऽवरिते तस्स, विनाणं तं तु चिट्ठइ।। 66|| सम्प्रति 'दुवे जड्डु' त्ति द्वारमाहपासन्ता विन याणंति, विसेसं वण्णमादी णं। दुविहेहिं जडदोसेहि, विसुद्धं जो उ उज्झति। बाला असन्निाणो चेव, विनाणावरियम्मि उ॥६७॥ कायाचत्ता भवे तेणं,मासा चत्तारि भारिया (गुरुकंत)॥१॥ यो नाम जात्यन्धः अस्पृष्टचक्षुर्वान् रूपाणि च विकल्पशोऽनेकप्रकार द्विविधेन जाड्यदोषेण विशुद्धं य उज्झति तेनु कायाः-षट् कायाजानाति तस्य नेत्रे अप्यावृते तत् विजानाति अन्धीभूतोऽपि वर्णविशेषान् स्त्यक्ता भवेयुः, न संरक्षिताः, तथास्य प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुका रूपविशेषांश्च; तथैव स्पर्शतो जानातीत्यर्थः; तथा बाला असंज्ञिनश्च मासाः / एतेन संभोजनद्वारं व्याख्यातम्। पश्यन्तोऽपि विज्ञाने आवृतेवण्र्णादीनां विशेषं न जानन्ति। तदेवमिन्द्रि कहिए सहहिए चेव, उववेति परिगहे। योपघातेऽपि न विज्ञानोपधातः, ज्ञानोपधातेऽपि नेन्द्रियोपधात इति विज्ञानेन्द्रिययोर्भेदः, तेनेह तयोर्भेदात्तदावरण योरपि भेद इति। ज्ञाना मंडलीए उ वट्टतो, इमे दोसा उ अंतरा॥५२॥ अन्तराऽन्तराषजीवनिकाये कथिते श्रद्धितेच 'उववेंति' पतद्ग्रहेः, वरणं दशधा। सांप्रतमेकैकेन्द्रियहान्या यत् एकेन्द्रियत्वं पूर्वमुक्तं तद्भावयति तत्र समुद्देशाप्यते इत्यर्थः, एतदनुपस्थापितो भवति, तदा तं मण्डल्या इंदियउवघाएणं, कमसो एगिंदिओवसंवुत्तो। समुद्देशयेत् अन्तरा पुनर्भेद्यमाने इमे वक्ष्यमाणा दोषाः। अणुवहए उवकरणे, विसुज्झए ओसहादीहिं॥६५॥ तान् (दोषान्) एवाहअवचिज्जए य उवचि-जए उजह इंदिएहिं सो पुरिसो। पायस्स वा विराहण, अतिही दठूण उड्गमणं वा। एस उवमा पसत्था, संसारीणिंदियविभागे // 66 // सेहस्स वा दुगुंछा, सव्वे दुद्दिधम्म ति॥१३॥ कोऽपि पुरुषः क्रमशः-क्रमेणेन्द्रियाणां श्रोत्रादीनामुपघातेन एकेन्द्रिय उत्पाटयतो-नयत आनयतो वा पात्रस्य विराधना स्यात् / यदिवाएव संवृत्तः, तत्र चानुपहते उपकरणे--उपकरणेन्द्रिये पुनरौषधादि- अतिथीन् दृष्ट्वा तस्य 'उड्डे' ति वमनं प्रवर्तते, गमनं वा तत एव प्रदेशात् भिर्विशुध्यति-सर्वस्पष्टेन्द्रियो भवति। तत्र यथासपुरुष इन्द्रियैरपचीयते कुर्यात्, शैक्षकस्य वा जुगुप्सा जनेन क्रियते, यथा केनापि दोषेण दुष्ट उपचीयते च एषा उपमा संसारिणामिन्द्रियविभागे प्रशस्ता / तथैव एषः। ततः पृथग्भुङ्क्ते सर्वान्वा कश्चित् जुगुप्सते,यथा--पात्रमप्येवंभूतं संसारिणोऽपि पञ्चेन्द्रिया भूत्वा चतुरिन्द्रियास्त्रीन्द्रिया द्वीन्द्रिया एकेन्द्रिय भोजनात् बहिःकुर्वन्ति आहे दुर्दृष्टधर्माण इति। भूत्वा पुनर्दीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाश्च भवन्तीत्यर्थः / सम्प्रति 'भूमितियविवेगो' इति व्याख्यानार्थमाह(व्य०।) जलमूग एलमूगो, सरीरजडो य जो य अतिथुल्लो। Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेहभूमि 1155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोइंदिय जं वुत्तं तु विवेगो, भूमितियं ते न दिक्खिजा॥५॥ देति अजंगमथेरा-ण वावि अहवा वि दट्तुणं जो उ। यदुक्तं भूमित्रिकस्य विवेक इति तस्यायमर्थः जलमूक एडमूकः भण्णति मज्झं कर्ज, दिञ्जति तस्सेव सो ताहे // 11 // शरीरजड़श्च योऽतिस्थूलस्तानेतान् त्रीन् न दीक्षयेत्। अथवा अजङ्गमस्थविराणां सवैयावृत्तिकरणाय दीयते। यदिवा-यस्तं दुम्मेहमणतिसेसी, न जाणती जो तु करणतो जड्डो। दृष्ट्वा भणति मम कार्यमेतेन, तस्माद्दीयतामिति ततस्तस्यैव दीयते। ते दुन्नि वि तेण उसो, दिक्खेइ सिया तों अतिसेसी।।५।। जो पुण करणे जड्डो, उक्कोसं तस्स होइ छम्मासा। दुर्मेधसं यश्च करणतो जडस्तमनतिशेषी अनतिशयी न जानाति तेन कुलगणसंघनिवेयण, एयं तु विहिं तहिं कुजा // 2 // कारणेन तौ द्वावपि स दीक्षयेत्। यःपुनः करणजङः तस्योत्कृष्ट परिपालनं भवति, यावत्षण्मासाः, ततः अथ स्यात्सोऽतिशेषी ततो न दीक्षयति परं कुलस्य गणस्य संघस्य वा निवेदनं क्रियतेस यत्करोति तत्प्रमाणमेतं अहव न भासाजा, जहाति परंपरागयं छउमा। विधिं तत्र कुर्यादिति। व्य०१० उ०। इयरं पिदेसहिंडग-असतीए वा विविंचि(ठवि)जा॥६॥ | सेहम्बदालियंड न० (सिद्धाम्लदालिकाम्र) सिद्धे आम्लसंस्कृते अथवा 'भासाजड्डु' ति दुर्मेधसं परंपरागतं मातृपक्षपरंपरागतं मुगादिमये दालिपदार्थे, 'सेहे' सिद्धे सति यानि अम्लेन तीमनादिना गुरुपक्षपरंपरागतं च छद्मस्थानत्यजन्ति, इतरमपि करणजडं देशहिण्ड- संस्क्रियन्ते तानि सिद्धाम्लानि, यानि दाल्या मुद्गादिमय्या निष्पादिकस्य देशदर्शनाय असति वा अन्यस्मिन् साधौ दीक्षयेदन्यथा विवेचयेत्- तानि अम्लानि च तानि दालिकाम्लानीति संभाव्यन्ते। उपा०१ अ01 नदीक्षयेत्, दीक्षयन् वा परिष्ठापयेत्। सेहय पुं० (शैक्षक) अभिनवप्रव्रजिते, स्था०८ ठा०३ उ०। अत्रैव मतान्तरं दूषयति सेहर पुं० (शेखर) शिरोभूषणे, लोमपक्षिभेदे च। जी०१ प्रति। मानुसनाएणं वा, दुम्मेह तमं पि केइ इच्छंति। सेहाविय त्रि० [शिक्षा(सेधा) यित] उपाध्यायादिप्रयोजनतः व्रतित्वेन तं न भवति पलिमंथो, णया वि चरणं विणा णाणं / / 87 / / सेविते, पा०। व्रतिसमाचारसेवायाम, तस्य भगवतो हेतुभूतत्वात् / भ० केचित् मनुष्यज्ञातेन दुर्मेधास्तमपि दीक्षितुमिच्छन्ति, तन्न भवति, 15 श० / शिक्षिते, स्वयमेव गुरुभिः शिक्षा ग्राहिते, उपाध्यायादियतो दुर्मेधसः पाठने स्वयं सूत्रार्थयोः पलिमन्थः, नचापि तस्य ज्ञानं पार्वात्संगृहीते आचारविशेषविनयविशेषेषु कुशलीकृते, ध०३ अधि० / विना चरणं ततः आत्मनः परस्य च केवलक्लेशान्न तद्दीक्षणमिति। सेहिय त्रि० (सेधित) निष्पादिते, आचारविशेषविनयविशेषेषु कुशलीकृते, नातिथल्लं न उज्झंति, मेहावी जो अ वोचडो। पा०। ज्ञा० / प्रत्युपेक्षणादिक्रियाकलापतो निष्पादिते, भ०२ श०१उ०। जलमूगेलमूगं च, परिहावेज दोणि वि / / 58 // * शिक्षित त्रि० गुरुभिः स्वयमेव शिक्षा ग्राहिते, पा०॥ध०। भ०। नातिस्थूलं नोज्झन्तीत्यर्थः यश्च मेधावी बोचडो भाषाजडस्तमपि * सैद्धिक त्रि० सिद्धापवर्गलक्षणायां भवे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। नोज्झन्ति, जलमूकैडमूकं द्वावप्येतौ परिष्ठापयेत्। सेही स्त्री० (शैक्षी) नवशिक्षितायाम्, ग०३ अधिo! मुत्तूण करणजङ्खु, परियट्टति जाव सेसछम्मासा। सेहोवट्ठावण न० (शैक्षोपस्थापन) शिष्यस्य उपस्थापनाकरणे, "तिहिं एक्ककं छम्मासा, जस्स व दहूं विविंचणया // 6 // उत्तराहिं रोहिणीहि, कुजा उसेहनिक्खमणं सेहोवट्ठावणं कुजा, अणुन्ना मुक्त्वा करणजडं शेषं दुर्मेधसं भाषाजडं यावत् षण्मासास्तावत् | गणिवायए।"द०प०। परिवर्तयन्ति-अनुवर्तयन्ति, ततः परमन्यस्याचार्यस्य समर्प्यते सोऽपि | सोअन० (शौच) परद्रव्यापहारमालिन्याभावे, स०१४३ सम०। षण्मासान् परिवर्त्तयति तदनन्तरमन्यस्य सोऽपि षण्मासान् परमेकैकं | सोअणवत्तिया स्वी० (स्वप्नप्रत्यया) स्वप्ननिमित्तविराधनाया अतितस्य षण्मासाः। तंत्र त्रयाणां मध्ये यस्य समीपे संख्यांगृहीतवान्यावन्तं चारभेदे, आव०१०। दृष्ट्वा वाचते ममैनं शिक्षा देहि इति तस्य विवेचनं-तस्य दानमित्यर्थः। -- सोअण न० (शोचन) अश्रुपरिपूर्णनयनस्य दैन्ये, आव०४ अ०। अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह सोअमल्ल न० (सौकुमार्य) "उतो मुकुलादिष्वत् " // 8 // 1 // तिण्हं आयरियाणं, जो तं गाहेइ सीसों तस्सेव। 107 // इत्यादेरुतोऽत्वम् / सोअमल्लं / प्रा०।"पर्यस्त-पर्याणजइ एत्तिएण गाहितों, तो न परिहावए ताहे // 10 // सौकुमार्ये ल्लः॥ 8 / 2 / 68 // इति र्यस्य ल्ल : / सोअमल्लं। त्रयाणामाचार्याणां मध्ये यो ग्राहयति तस्यैव शिष्यः स दीयते, यदि शरीरसौष्ठवे, प्रा०२ पाद। एतावता आचार्यत्रिकेण परिपाट्या मिलित्वा ग्राहितो भवति ततस्तदान सोआमिणी स्त्री० (सौदामिनी) विद्युति, जं० 3 वक्ष०। परिष्ठाप्यते। सोइंदिय न० (श्रोत्रेन्द्रिय) श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रं तच तदिन्द्रियं Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोइंदिय ११५६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोक्ख च श्रोत्रेन्द्रिमम्। शब्दग्राहके इन्द्रिये, आ०म०१ अ०। ज्ञा० / प्रज्ञा०। आ० क० श्रोत्रेन्द्रिय उदाहरणम्गाथकः पुष्पशालोऽभू-द्वसन्तपुरपत्तने। कर्णानन्दी स्वरस्तस्य, वैरूप्यं चाक्षिदुःखदम्॥१॥ गायता तेन सर्वोऽपि,लोको हृतमनाः कृतः। सार्थवाहो धनस्तस्मात्, पुरो देशान्तरं गतः // 2 // पश्चाद्भद्राऽस्ति तद्भार्या, तत्र प्रोषितभर्तृका। दास्यस्तस्या गता आसन, बहिः कार्येण केनचित्॥३॥ तास्तं गायन्तं शृण्वानाः, कालं नाज्ञासिषुर्गतम्। चिरागताच तास्तीक्ष्णै-वचोभिः संततक्ष सा॥४॥ ऊचुस्ता देवि! मा कुप्य, श्रुतमस्माभिरद्य यत्। गीतं तत्कस्य नानन्दि, पशूनामपि वल्लभम् // 5 // दध्यौ सा तत्कथं श्राव्यं, कथं प्रेष्यः सगीतकृत्। इतः पूर्ववनागारे, यात्रारम्भस्तदाऽभवत्॥६॥ पौराः सर्वे ययुस्तत्र, साऽपि तत्र तदाऽगमत्। गाथाकः स च निःशेषां, रात्रि गीत्वा परिश्रमात्॥७॥ तत्रैवायतने पश्चाद्, भागे निद्रामुपागतः। . . सार्थवाही च तां देवीं, प्रणम्याभ्यर्च्य भक्तितः॥८॥ प्रदक्षिणीकृतस्तस्याः, श्रेष्ठिभिर्दर्शितोऽथ सः। दृष्ट्वोचे रूपमानेन, भावी गीतस्वरोऽपि हि॥६॥ इत्युक्त्वा तत्र निष्ठीव्य, साऽगमन्मन्दिरं निजम्। गाथकस्य प्रबुद्धस्या-ख्यातं तचेष्टितं नटैः॥ 10 // गाथकः सोऽथ सामर्षः, प्रातस्तस्या गृहान्तिके। जगौ विरहसंबद्ध-गीतं स्फीतं रसोर्मिभिः // 11 // आसवेन प्रपीतेन, तेन गीतेन पूरिता। मत्तेवास्ववशा साऽभू-त्संनिपातभृतेव वा॥१२॥ तत्क्षणादुत्थितोत्कण्ठा, कण्ठाश्लेषे प्रियस्य सा। तदैवाप्रेषयल्लेखं, प्रेयसे जविनः करे।।१३।। अध्यारुरोह सौधाग्रे, तन्मार्गान्वेषणाय सा। ऊचे च सखि! लेखस्य, गतस्यासन् दिना घनाः॥ 14 // स लेखदर्शनादेव, चलितः कलितं मया ! अत्रैष्यति दिनैत्रि-र्वहन्नस्त्यधुना पथि॥ 15 // अथोत्थाय सखीनां सा, प्रेक्ष्यालक्षं दिशोऽखिलाः। अदर्शयत्कराग्रेण, हला ! पश्यत पश्यत॥१६॥ अयमयमयि प्रेयान् श्रेयान् स एव मनोहरो, नयननलिनोल्लासन्यासक्रियासु निशांपतिः। वपुषि पुलको दस्वेदोद्गमक्षमसंगमः, किमपि रमयत्यन्तः कान्तः सुखं सखि ! मेऽधुना॥१७॥ मंस्यते दुर्विनीतां मां, चेद्यास्यामि न संमुखी। अभ्रेलिहानसौधाग्रा-दित्यात्मानं मुमोच सा॥१८॥ मृता च तत्क्षणादेवं, श्रोत्रेन्द्रियदुरन्तता! ध्यायितुंतन दृष्टाङ्गा, मुच्येते कर्णतर्णकौ // 16 // आ०क०१अ०।ग० आ० चू०। ('पुटुंसुणेइ सई' इति श्रोत्रेनिद्रयस्य स्पृष्टविषयग्राहकत्वम् 'इंदिय शब्दे द्वितीयभागे 547 पृष्ठ गतम्।) सोइंदियणिग्गह पुं०(श्रोत्रेन्द्रियनिग्रह) श्रवणेन्द्रियस्यावरोधे, उत्त। सोइंदियणिग्गहेणं मणुण्णामणुण्णेसु सद्देसु रागदोसनिग्गहं जणयह, तप्पचइयं च कम्मण बंधइ, पुटवबंधं निखरेइ। उत्त० 29 अ०। सोइंदियत्थ पुं० (श्रोत्रेन्दियार्थ) श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रं तच तद् इन्द्रियं च श्रोत्रेन्द्रियं तस्यार्थो-ग्राह्यः श्रोत्रेन्द्रियार्थः। शब्दे, स्था०५ ठा०३ उ०। सोइंयियबल न० (श्रोत्रेन्द्रियबल) श्रोत्रबलसामर्थ्यग्राहके, स्था० 10 ठा०३ उ० सोइंदियमुंड पुं० (श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड) श्रोत्रेन्द्रियनिबन्धने मुण्डभेदे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सोइंदियवसत्त त्रि० (श्रोत्रेन्द्रियवशात) श्रोत्रेन्द्रियवशेन तत्पारतन्त्र्येण ऋतः-पीडितः। श्रवणेन्द्रियपरतन्त्रतया दुःखिते, भ०१२ श०२ उ० सोइंदियविसयप्पयार पुं० (श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचार) श्रोत्रेन्द्रियस्य यो विषयेष्विष्टानिष्टशब्देषु प्रचारः स श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचारः। श्रवणलक्षणाप्रवृत्तौ, भ० 25 श०७०। सोइय न० (शोकित) मानसे विकारे, अनु०। सोइयव त्रि० (शोकितव्य) शोकविषये, संधा० 1 अधि०१ प्रस्ताo सोउआण अव्य० (श्रुत्वा)"क्त्वस्तुमत्तूण-तुआणाः" // 8 // 2 // 156 // इति क्त्वाप्रत्ययस्य तुआणादेशः। सोउआणं / आकर्येत्यर्थे, प्रा०२ पाद। सोऊण अव्य० (श्रुत्वा)"युवर्णस्य गुणः" // 8 // 237 / / धातोरिवर्णस्योवर्णस्य च नित्यपि गुणो भवति। सोऊण। प्रा०।"चिजि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगांणो हस्वचा"||८१४१२४१॥ च्यादीनां धातूनामन्ते णकारागमः, एषां स्वरस्य च ह्रस्वो भवति / बहुलाधिकारात्क्वचिद्विकल्पः / सोऊण / प्रा०। निशम्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१ अ० 1 उ०। आकर्णयितुमित्यर्थे, पञ्चा०२ विव०। सोएव त्रि० (शोचितव्य)"तव्यस्य इएव्वउंएव्यउंएवाः"||| 538 // इति अपभ्रंशे तव्यप्रत्ययस्य एवादेशः। शोचनीये, प्रा०४ पादा सोंड न० (शौण्ड) गर्वे, स्था० 10 ठा०३ उ०। सोंडामगर पुं० (शौण्डमकर) मकरभेदे, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०। सोंडीरन० (शौण्डीर्य) "ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शौण्डीर्ये योरः" / / 2 / 63 // इति र्यस्य रः। सोंडीरं। प्रा०ा त्यागसम्पन्नतायाम्, सूत्र०१ श्रु०८ अ०। कर्मशत्रून्प्रति शूरे, कल्प०१ अधि०६ क्षण। स्था० / शौर्यवतांशूर इव रणकरणेन वशीकृतः। पुत्रतया प्रतिपाद्यमाने पुत्रभेदे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। चारभटे, प्रश्न०५ संब० द्वार। सोक्ख न० (सौख्य) आनन्दे, स्था०२ ठा०३ उ०। सुखे, ज्ञा०१ श्रु० 13 अ० / गन्धरसस्पर्शलक्षणविषयसंपाद्ये, स्था०६ ठा०३ उ०। प्रज्ञा०। उत्त०। गन्धोपादाने, स्था०६ ठा०३ उ०। Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोग 1157 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोत्तिदिय सोग पुं० (शोक) इष्टवियोगोत्थदुःखे, औ० / प्रश्न० / उत्त०नि० चू०। ठा०१ उ०। तं०॥ दश० कल्प० / भ०। आगमापेक्षे, भ०६ श०३२ चित्तखेदे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ० दैन्ये, आव० 4 अ०। चित्तवैधुर्ये, प्रव० / उ० अवधार्येत्यर्थे, विपा० 1 श्रु०२-१० / भ०। आचा०। ५१द्वार। आ० म०। मानसे दुःखविशेषे, ल०। आव० / स च सचित्ता- | सोबिय त्रि० (शोचित)"सेवादीवा"|||२१ // इति द्वित्वम् / चित्तमिश्राणामिष्टानां वियोगेन, अनिष्टानां संयोगेन च भवति। जीत०। / शोकविषये, प्रा०२ पाद। स्था० / प्रश्न० / ध० / बृ० / औ० / इष्टाप्राप्तिविनाशोद्भवे (आचा०१ सोमोय त्रि० (सोद्योत) उद्द्योतभावसहिते, जी०३ प्रति० 4 अधि०।श्रु०३ अ०१ उ०। आतु०। स०1) इष्टवियोगनाशादिजनिते चित्तोद्वेगे, बहिर्व्यवस्थितवस्तुस्तोमप्रकाशकरे, जी०३ प्रति०४ अधि०। दर्श० 1 तत्त्व / नोकषायवेदनीयकर्मभेदे, यदुदयेन शोकरहितस्यापि सोड न० (शोड) सीधुनि, आचा०२ श्रु०१चू०१ अ०३ उ०। जीवस्याक्रन्दनादिः शोको जायते। स्था०६ ठा०३ उ०। शोचनं शोको सोङसय पुं० (षोडशक) षोडशावयवे समुदाये, "प्रकृतेर्महांस्ततोदैन्यमुपलक्षणत्वादेवास्य सकलमानसदुःखपरिग्रहः / भ० 16 श०२ ऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः।" आ० म०१ अ०। उ०। 'सोगभरपवेवियंगमंगी' शोकभरेण प्रवेपितं कम्पितमङ्ग यस्यास्सा सोडसिगा स्त्री० (षोडशिका) मगधदेशप्रसिद्ध रसमानविशेषे, रा०। तथा। भ०६ श०३३ उ० / प्रियविप्रयोगादि-विकलचेतोवृत्तितयाऽऽ सोढ त्रि० (सोढ) अनुभूते, उत्त० 16 अ०। क्रन्दनादि येन करोति स शोकः / बृ०१ उ०२ प्रक०। सोण न० (शोण) दन्तकाष्ठिकामध्ये रक्तवर्णे, तं०। सौगंधिय न० (सौगन्धिक) कहारे, जी०३ प्रति०४ अधि० / आ० सोणिचक न० (श्रोणिचक्र) कटितटे, कल्प०१ अधि० 2 क्षण। सोणिय न० (शोणित) पललरुधिरे, उत्त०२ अ०। आचा० / ज्ञा० त०। म० / प्रज्ञा०। रा०॥ ज०ा रत्नविशेषे, रा०। प्रज्ञा० आ० म०। शा०। स्था० / आर्त्तवे रुधिरे, सामान्येन वा रुधिरे, ज्ञा०१ श्रु०८ अ०। सूत्र० / यः सुभगं मन्वानः स्वलिङ्गं जिघ्रति स सौगन्धिकः / पुं०। शोणितं-रुधिर, द्वितीयो धातुः / तं०। आचा०। आ० म०। नपुंसकभेदे, ग० 1 अधि० / सौगन्धिको नाम सागारिकस्य गन्धं शुभं सोणियलवपुं० (शोणितलव) शोणितबिन्दौ, तं०। मन्यते स च सागारिकं जिघ्रतिमलयित्वा वा हस्तं जिध्रति। बृ०४ उ०1 सोणियानुसारिपुं० (शोणितानुसारिन्) शोणितान्तव्यापके धातौ, स्था० नि० चू०। प्रव०। पं० चू०। पं०भा०। ६ठा०३ उ०। सौगंधियकंड न० (सौगन्धिककाण्ड) रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सौगन्धि सोणिसुत्त न० (श्रोणिसूत्र) कटीसूत्रे, भ०६ श०३३ उ०। बालकानां करत्ननिभे काण्डे, स्था० 10 ठा० 3 उ०। धर्मादिदवरकरूपे कटीसूत्रे, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०॥ सौगंधिया स्त्री० (सौगन्धिकी) स्वनामख्यातायां नगर्याम्, ज्ञा०१ श्रु० सोणी स्त्री० (श्रोणी) कटेरग्रभागे, ज०२ वक्ष० / कटौ, प्रश्न० 4 आश्र० 5 अ०॥ द्वार। सोगमल्ल न० (सौकुमार्य) अतिसुकुमारतायाम्, 'आयावयाही चय सोण्हग पुं० (सोण्हक) पक्षिविशेषे, उत्त०५ अ०। सोगमल्लं' दश० 2 अ०। सोण्हियालिंग न० (शोणिकालिङ्ग) अनेराश्रयविशेषे, जी० 3 प्रति० सोगमोहणिज्ज न० (शोकमोहनीय) मोहनीयकर्मभेदे, यदशात्प्रिय- | १अधि०२ उ०। अधि०२०। विप्रयोगे सोरस्ताङमाक्रदन्ति परिदेवते दीर्घ च निः-श्वसिति भूपीठे च सोत्तन० (श्रोत्र) श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्। शब्दप्राहकेन्द्रिये, स्था० 8 ठा० लुठति तच्छोकमोहनीयम्। कर्म०६ कर्म०। ३उ० / प्रज्ञा० / अचित्तं जीवरहितं सोत्तं छिदं पुणसद्धो भेदप्पदरिसणे तं सोगविहाण न० (शोकविधान) प्राजमनकेक्षारितादिके, व्य०१ उ०। अचित्तसोत्तं तिविहं-देहजुयं, पडिमजुयं, वेरयं च। नि० चू०१ उ०। सोग्गइ स्त्री० (सुगति) मोक्षमार्गे, सुदेवत्वादिके, 'एत्थ सुग्गती णाणदं- *श्रोतस न० "तैलादो"|||२|६८॥ इति अन्तव्यञ्जनस्य सणचरणा भवंति / अथवा सुग्गई सुदेवत्तादिका। आ० चू० 1 अ०। द्वित्वम्। जलप्रवाहे, प्रा०२ पाद। सोबा अव्य० (श्रुत्वा)"त्व-थ्व-द्र-ध्यां-च-छ-ज-माःचित्" | सोत्तबंधण न० (श्रोतोबन्धन) जलप्रवाहबन्धने, प्रश्न०१आश्र० द्वार। / / 8 / 2 / 15 // इति त्वास्थाने या इत्यादेशः / सोचा / प्रा०। | सोत्तामणि स्त्री० (सौत्रामणि) रुचकद्वीपभवायां दिक्कुमारिकायाम्, आ० निशम्येत्यर्थे, अवगम्येत्यर्थे, सूत्र० 1 0 3 अ० 2 उ० / आचा०। / क०१०। गुरुमुखात्कणे धृत्वेत्यर्थे, उत्त०२ अ०।श्रोत्रेण निशम्येत्यर्थे, स्था०३ ] सोतिंदियन० (पोत्रेन्द्रिय) श्रवणेन्द्रिये, आ०म०१०। Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोत्तिय 1158 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमणस सोत्तिय त्रि० (सौत्रिक) सूत्रं पण्यमस्येति सौत्रिकः। सूत्रक्रयविक्रयकारिणि, | सोभित्ता अव्य० (शोभयित्वा) विधिवत्करणेन शोभां कृत्वेत्यर्थे, कल्प० अनु० जीवा०। 3 अधि०६ क्षण। *शौक्तिक पुं० द्वीन्द्रियभेदे, प्रज्ञा० 1 पद। सोभिय त्रि० (शोभित) तत्समाप्तौ गुर्वादिप्रदानशेषभोजनासेवनेन शोभां सोत्तियमई स्वी० (शौक्तिकवति) केकयार्द्धजनपदार्द्धराजधान्याम्, प्रापिते अतिचारवर्जनेन कृतशोधे, स्था० 7 ठा०३ उ० / रा०। प्रज्ञा० 1 पद। आ० चू०। सोत्थिय पुं०(स्वस्तिक) लोकप्रसिद्ध माङ्गलिके चिहभेदे, रा०। प्रश्न०। / सोम पुं० (सोम) चतुर्थबलदेववासुदेवयोः पितरि, आव०१०।स्था०। जं०। प्रज्ञा०।आ० म०। अष्टासीतिमहाग्रहेषु षष्टितमे ग्रहे, स्था०२ ठा० ति०। यज्ञेषु देवपेये लताविशेषे, 'अपाम सोमममृता अभूवम्' / आ० म० 3 उ० आ० म०। सू० प्र०। आ० चू०। चं० प्र०। 1 अ० / तद्रसे, विशे० / चन्द्रे, जं०७ वक्ष० ! ज्यो० / चं० प्र० / दो सोत्थिया। स्था०२ठा०३ उ01 मृगशिरोनक्षत्रस्याधिपः सोमः / ज्यो०६ पाहु० / सू० प्र० / अनु० / सोत्थियकूड न० (स्वस्तिककूट) जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणे रुचकवर- स्था०। अष्टाशीतिग्रहेषु द्वादशे महाग्रहे,जं०७ वक्ष०। सू०प्र०। कल्प० / पर्वतस्य प्रथमे कूटे, स्था०८ ठा०३ उ०। द्वी०। चं० प्र०। शक्रस्य देवेन्दस्येशानस्य चस्वनामख्याते उत्तरदिग्लोकपाले सोदयबंधिणी स्त्री० (स्वोदयबन्धिनी) स्वस्योदय एव बन्धो यासां चमरस्यासुरेन्द्रस्येन्दे, भ० 3 श०७ उ०। आ० म० / ग० / स्था०। तास्तथा। तथाविधासु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं०३ द्वार। (वक्तव्यताऽस्य 'लोगपाल' शब्दे षष्ठे भागे गता।) (अस्याग्रभहिष्यः सोदर पुं०(सोदर) एकमातृके, उत्त०२२१०। 'अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे 171 पृष्ठे उक्ताः।) पार्श्वस्वामिनः पञ्चमे सोदामिन् पुं० (सौदामिन्) चमरस्यासुरेन्द्रस्याश्वानीकाधिपतौ, स्था० गणधरे, कल्प०१ अधि०७ क्षण / स्था०। शान्तदृष्टौ, प्रव०६५ द्वार। 5 ठा०१ उ०1 शान्ताकृती, व्य०६ उ० / सुभगे, जं०१ वक्ष०। रा०! अरौद्राकारे, सोदामिणी स्त्री० (सौदामिनी) विद्युति, औ० / विदिगुचक वास्तव्यायां रा०ासू०प्र०। विपा०।जंगानीरोगे च। भ०१२श०६ उ० उत्तमया दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम्, जं०५ वक्ष०। कीर्त्या सहिते, कल्प०१ अधि०३क्षण। गुर्जरधरित्रीपण्डलीमहानगर्याः सोदासपुं० (सौदास) स्वनामख्याते मांसप्रिये राजनि, आ० चू०५अ० / श्रीमद्वीसलदेवराजस्य पुरोहिते, ती० 41 कल्प / चम्पावास्तव्ये आ० क० / आ० म० 1 जिह्वेन्द्रिये उदाहरणम् / आ० चू० 1 अ० / स्वनामख्याते ब्राह्मणे, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। ('दुवई शब्दे चतुर्थभागे आचा० / आ० क०। 2577 पृष्ठे कथा गता। कोडीनगरवासिनि स्वनामख्याते ब्राह्मणे, ती० सोहपुं० (शौद्र) शुष्ककाष्ठे, बृ०२ उ०। 55 कल्प। ('कोहंडिदेव' शब्दे तृतीयभागे 684 पृष्ठे कथा।) सोपारग पुं० (सोपारक) स्वनामख्याते समुद्रतटीयनगरे, आ० म०१ | सोमंगलग पुं० (सौमङ्गलक) द्वीन्द्रियजीवभेदे, जी० 1 प्रति० / प्रज्ञा०| अ०। आ० क० / उज्जेणी नगरी, जितसत्तू राया , तस्स अट्टणो मल्लो, सोमकाइय पुं० (सोमकायिक) सोमस्य कायो निकायो येषामस्ति ते सव्वरज्जेसु अजेयो। इतोय समुद्दतडेसोपारगं नगरं तत्थसीयगिरी राया। सोमकायिकाः। सोमपरिवारभूतेषु देवेषु, भ०३ श०७ उ०। आ० चू० 4 अ०1 सोमचंदपुं० (सोमचन्द्र) भरतक्षेत्रजसुपार्श्वजिनकालिकैरवतजे तीर्थकरे, सोप्पासन० (सोत्प्रास) उत्प्रासयुक्ते गाने, स्था०७ ठा०३ उ०॥ ति०। प्रव०।स०। स्वनामख्याते शिवचन्द्रनृपपुत्रे, ध०२०। (अस्य सोभग्ग न० (सौभाग्य) सुभगत्वे, प्रज्ञा० 34 पद। वृत्तम् 'सिवभद्द' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गतम्।) स्वनामख्याते पोतनपुरसोभग्गकरन० (शौभाग्यकर) एकचत्वारिंशे कलाभेदे, स०७२ समका राजे, आ० चू०१०॥ सोभग्गसुंदरी स्त्री० (सौभाग्यसुंदरी) इभ्यश्रेष्ठिनः पुत्रस्नुषायाम्, आ० | सोमचंदसूरि पुं० (सोमचन्द्रसूरि) तपागच्छीये श्रीरत्नशेखरसूरिशिष्ये, क०१ अ०॥ येन विक्रम-१५०४ वर्षे कथामहोदधिनामग्रन्थो रचितः / जै० इ० / सोभग्गसेवहि पुं० (सौभाग्यसेवधि) सौभाग्यनिधौ, कल्प०१ अधि०७ | सोमजसा स्त्री० (सोमयशस्) सौर्यपुरे यज्ञयशसस्तापसस्यपुत्रस्नुषायाम् क्षण। आव० 4 अ०। आ० क० आ० म०। आ० चू०। द्वी०। सोभण न० (शोभन) सुन्दरे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। जी०। कल्प०। सोमणतिय न० (स्वप्नान्तिक) स्वप्नस्य स्वप्नक्रियाया अन्ते अवसाने सोभद्दपुं० (सौभद्र) सुभद्रात्मजे चम्पानगरीवास्तव्यस्य कौशिकाचार्यस्य भवं स्वप्नान्तिकम् / स्वप्नविशेषे क्रियमाणे प्रतिक्रमणभेदे, स्था०६ शिष्ये, आ० चू० 4 अ०। ('अज्जव' शब्दे प्रथमभागेऽस्य कथा।) ठा०३ उ०॥ सोभावजण न० (शोभवर्जन) विभूषापरित्यागे, दश०६ अ०। सोमणस न० (सौमनस्य) शोभनं मनो यस्यासो समुनास्तस्य Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमणस 1156 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमणस भावः सौमनस्यम् / शोभने मनसि, रा०। भ० जी०। आ० म०। *सोमनस पुं० जम्बूद्वीपे मन्दरस्य दक्षिणतः देवकुरुषु अश्वस्कन्धसदृशे वक्षस्कारपर्वते, तदधिपतौ च / स्था०२ ठा०३ उ०। दो सोमणसा / स्था०२ ठा०३ उ०। निषधस्य पर्वतस्योत्तरस्यां मन्दरस्या दक्षिणपूर्वस्यामानेयदिशि मङ्गलावतीविजयस्य पश्चिमायां देवकुरूणां पूर्वस्यां सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः। जं०४ वक्ष। कहिणं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपल्टाएपण्णत्ते ? गोयमा ! णिसहस्सवासहरपटायस्स उत्तरेणं मन्दरस्स पव्वयस्स दाहिणपुरथिमेणं मंगलावईविजयस्स पचत्थिमेणं देवकुराए पुरथिमेणं एत्थ णं जम्बुद्दीवे दीवे महाविदेहे वासे सोमणसे णामं वक्खारपटाएपण्णत्ते, उत्तरदाहिणायए पाईणपडीणवित्थिपणे जहा मालवन्ते वक्खोरपवए तहाणवरंसव्वरययामए अच्छे०जावपडिरूवे। णिसहवासहरपव्वयंतेणं चत्तारिजोअणसयाई उठं उच्चत्तेणं चत्तारि गाऊ(उ) असयाई उटवेहेणं सेसं तहेव सव्वं णवरं अट्ठो से गोअमा ! जाव सोमणसे वक्खारपव्वए बहवे देवा य देवीओ अ सोमा सुमणा सोमणसे अ इत्थ देवे महिड्डीए ०जाव परिवसइ, से एएणतुणं गोअमा! ०जाव णिचे। (सू०+६७) 'कहिण' मित्यादि,व भदन्तेत्यादिप्रश्नः सुलभः, उत्तरसूत्रे निषधस्य वर्षधरपर्वतस्य उत्तरस्यां मन्दरस्यपर्वतस्य पूर्वदक्षिणस्याम्-आग्रेयकोणे मङ्गलावतीविजयस्य पश्चिमायां देवकुरूणां पूर्वस्यां यावत् सौमनसो वक्षस्कारपर्वतः प्रज्ञप्तः इत्यादि सर्वं माल्यवद्गजदन्तानुसारेण भाव्यम्, यत्तु सप्रपञ्च प्रथमं व्याख्याते गन्धमादनेऽतिदेशयितव्ये माल्यवतोऽतिदेशनं तदस्यासन्नवर्तित्वेन सूत्रकारशैलीवैचित्र्यज्ञापनार्थं, नवरं सर्वात्मना रजतमयोऽयं, माल्यवांस्तुनीलमणिमयः, अयं च निषधवर्षधरपर्वतान्ते चत्वारि योजनशतान्यूर्वोच्चत्वेन चत्वारि गव्यूतिशतान्युद्वेधेन माल्यवांस्तु नीलवत्समीपे इति विशेषः, अर्थे च विशेषमाह- 'से केणटेण' मित्यादि, प्राग्वत्, भगवानाह-गौतम! सौमनसवक्षस्कारपर्वते बहवो देवा देव्यश्च सौम्याः- कायकुचेष्टाया अभावात्, सुमनसोमनःकालुष्याभावात् परिवसन्ति, ततः सुमनसामयमावास इति सौमनसः, सोमनसनामा चात्र देवो महर्द्धिकः परिवसति तेन तद्योगात् सौमनस इति। 'से एएणद्वेण' मित्यादि, प्राग्वत्, 'सौमणसे' इति प्रायः सूत्रं व्यक्तम्। जं०४ वक्ष०। कूटपृच्छाजंबुद्दीवे दीवे सोमणसे वक्खारपव्वए सत्त कूडा पण्णत्ता, तं जहा-"सिद्धे 1 सोमणसे 2 तह, बोधव्वे मंगलावईकूडे 3 / देवकुरु / विमल 5 कंचण 6, विसिट्ठकूडे ७य बोधय्वे " 119 // (सू०+५६०) स्था०७ ठा० 3 उ०। मेरोः परितः स्थिते वने, नपुं०। जं० 4 वक्ष०। मेरोद्धितीयमेखलायां स्वनामख्याते वने, जं०१ वक्ष०। सूत्र०। कहिणं भंते ! मन्दरए पव्वए सोमणसवणे णामं वणे पण्णते ? गोयमा ! णन्दणवणस्स बहुसमरमणिनाओ भूमिभागाओ अद्धतेवट्टि जोअणसहस्साई उद्धं उप्पइत्ता एत्थणं मन्दरे पटवए सोमणसवणे णामं वणे पण्णत्ते / पञ्चजोयणसयाई चकवालविक्खम्मेणं बट्टे वलयाकारसंठाणसंठिए जे णं मन्दरं पध्वयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिहइ, चत्तारिजोअणसहस्साई दुण्णि य बावत्तरे जोअणसए अट्ठ य इक्कारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भेणं तेरस जोअणसहस्साई पंच य एक्कारे जोअणसए छच इकारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिपरिरएणं तिणि जोअणसहस्साई दुण्णि अबावत्तरे जोअणसए अट्ट य इक्कारसभाएजोअणस्स अंतो गिरिविक्खम्भेणं दस जोअणसहस्साई तिण्णि अ अउणापण्णे जोअणसए तिणि अ इक्कारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिपरिरएणं ति। से णं एगाए परमवरवेइआए एगेण य वणसंडेणं सवओ समन्ता संपरिक्खित्ते / वण्णओ किण्हे किण्होभासे जाव आसयन्ति एवं कूडवज्जा सच्चेव णन्दणवणवत्तव्वया माणियव्वा, तं चेव ओगाहिऊण जाव पासायवडेंसगा सकीसाणाणं ति। (सू०१०५) 'कहिण' मित्यादि,व भदन्त! मेरौ सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! नन्दनवनस्य बहुसमरमणीयाभूमिभागादड़त्रिषष्टि; सार्द्धद्वाषष्टिरित्यर्थः, योजनसहस्राण्यूर्ध्वमु, त्पत्त्याऽत्रान्तरे मन्दरपर्वते सौमनसवनं नाम वनं प्रज्ञप्त, पञ्चयोजनशतानि चक्रवालविष्कम्भेनेत्यादिपदानि प्राग्वत्, यन्मन्दरंपर्वतं सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्य तिष्ठतिएतच कियता विष्कम्भेन कियताच परिक्षेपेणेत्याह-'चत्तारी त्यादि, प्रथममेखलायामिव द्वितीयमेखलायामपि विष्कम्भद्वयं वाच्यं, तत्र बहिनिरिविष्कम्भेन चत्वारियोजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्विसप्तत्यधिके अष्टौ चैकादशभागा योजनस्य, एतदुपपत्तिरेवम्-धरणीतलात् सौमनसं यावद् गमने मेरुच्छ्यस्य त्रिषष्टिसहस्रयोजनान्यतिक्रान्तानि एषां चैकादशभिगि लब्धम् ५७२७३/११अस्मिश्च राशौ धरणीतलगतमेरुव्यासादशसहस्रयोजनप्रमाणाच्छोधिते जातं यथोक्तं मानमिति / बहिनिरिपरिरयेण त्रयोदश योजनसहस्राणि पञ्चयोजनशतानि एकादशानिएकादशाधिकानि षट् च एकादशभागायोजनस्य, तथाऽन्तर्गिरिविष्कम्भेन त्रीणि योजनसहस्राणि द्वे द्वासप्तत्यधिके योजनशते अष्टौ चैकादशभागा योजनस्य, उपपत्तिस्तुबहिर्गिरिविष्कम्भात् उभयतो मेखलाद्वयव्यासे पञ्चशत 2 योजनरूपेऽपनीते यथोक्तं मानम्, अन्तर्गिरिपरिरयेण तु दश सहस्रयोजनानि त्रीणि च योजनशतानि एकोनपञ्चाशदधिकानित्रयश्चैकादशभागा योजनस्येति। अथास्य वर्णकसूत्रम् -'सेणं Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमणस ११६०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमलच्छि एगा 'इत्यादि, व्यक्तं, नवरम् एवमुक्ताभिलापेन कूटवर्धा सैव नन्दन- | सोमदेव पुं० (सोमदेव) दशपुरनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राह्मणे, यत्पुत्र वनवक्तव्यता भणितव्या, कियत्पर्यन्तमित्याह-तदेव मेरुतः पञ्चाशद्- आर्यरक्षितः सूरिरासीत्। विशे०। आ०म०। आ० क०। आचू०।ती०। योजनरूपं क्षेत्रमवगाह्य यावत्प्रासादावतंसकाः शक्रेशानयोरिति, उत्त० / पद्मप्रभस्य प्रथमभिक्षादायके, आ० म० 1 अ० / स०। वापीनामानि त्विमानि तेनैव क्रमेण, सुमनाः 1 सौमनसा 2 सौमनांसा सोमदेवयाकाइय पुं० (सोमदेवताकायिक) सोमदेवतास्तत्सामनिकासौमनस्या वा 3 मनोरमा 4, तथा उत्तरकुरुः 1 देवगुरुः 2 वारिषेणा 3 दयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमकायिकाः। सोमसामानिकादिदेवसरस्वती 4, तथा विशाला 1 माघभद्रा 2 अभयसेना 3 रोहिणी 4, तथा परिवारभूतेषु देवेषु, भ०३श०५ उ०। भद्रोत्तरा१भद्रारसुभद्रा३भद्रावती भद्रवती वा 4 / जं० 4 वक्ष० / पक्षस्य सोमधम्मगणि पुं० (सोमधर्मगणिन्) उपदेशसप्ततिकाग्रन्थकारके नवमे दिवसे, ज्यो०३ पाहु० / जं० ! ग्रैवेयकविमानानां चतुर्थे प्रस्तटे, तपागच्छीयचारित्रगणिशिष्ये, जै० इ०। स्था०६ ठा० 3 उ० / प्रव० / सनत्कुमारस्य देवेन्द्रस्य पारियानिके सोमप्पभ पुं० (सोमप्रभ) बाहुबलिपुत्रे, श्रेयांस भ्रातरीति केषांचिन्मतम्। विमाने, औ०। ज०। रुचकपर्वतस्य स्वनामख्याते देवे, सू० प्र०१६ आ० चू०१ अ०। आ० क०।आवश्यकवृत्त्यनुसारेण बाहुबलिसुतसोमपाहु० / चं० प्र० / जं० शोभनं मनो यस्ताः सकाशाद्भवति सा प्रभसुतः श्रेयांसो राजा। कल्प०१ अधि०७क्षण। चमरस्योत्पातपर्वते, सुमनास्ततः स्वार्थेऽण् / जम्ब्वां सुदर्शनायाम्, स्त्री०। जं० 4 वक्ष० / आ० म० 1 अ०1"सोमस्स महारणे सोमप्पभे उप्पायपव्वए' स्था० दक्षिणपूर्वस्य रतिकरपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि स्वनामख्यातायां 10 ठा०३ उ० (अत्रत्यो विस्तरः उप्पायपव्वय' शब्दे द्वितीयभागे 537 राजधान्याम,जी 3 प्रति० 4 अधि०। दी०। ती०। पक्षस्य पञ्चाम्यां रात्रौ, पृष्ठे गतः।) ज०७ वक्ष० / सन्तुष्टचित्तत्वे, नपुं०। कल्प०१ अधि०१क्षण। ज्यो०। सोमप्पमसूरि पुं० (सोमप्रभसूरि) तपागच्छीये धर्मघोषसूरिसमनन्तरे आचार्य, ग०१अधि०।"श्रीसोमप्रभसूरः, पट्टे श्रीसोमतिलकसूरीन्द्राः सोमणसकूड पुं०न० (सौमनसकूट) सौमनसनामकस्वाधिष्ठातृ अथ सोमप्रभूसूरि--स्तस्य विनेयास्तु चत्वार ॥१॥श्रीविमलप्रभसूरिः, देवभवनोपलक्षिते कूटे, स्था० 7 ठा० 3 उ० / (अस्य वक्तव्यता श्री परमानन्दसूरिगुरुराजः / श्रीपद्मतिलकसूरिगणितिलकः सोमति'सोमणस' शब्देऽनुपदमेव गता।) लकगुरुः।।२॥"ग०३ अधि०। एतज्जन्म विक्रम 1310 संवत्सरे दीक्षा सोमणसवण न० (सौमनसवन) मेरोर्द्वितीयमेखलायां स्वनामख्यातेवने, 1326 सूरिपदम् 1332 स्वर्गतिः 1373 वर्षे अनेन चित्रबन्धस्तवो नाम स्था० 4 ठा०२ उ०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'सोमणस' शब्दे गता।) ग्रन्थो रचितः। द्वितीयोऽपि सोमप्रभाचार्यो विजयसिंहसूरिशिष्यः, तेन दो सोमणसवणा। स्था०२ठा०३उ०। हेमकुमारचरित्रं सूक्तिमुत्तावलिशृङ्गार-वैराग्यतरङ्गिणीत्यादयो ग्रन्था सोमणसा स्त्री० (सौमनसा) पञ्चमीतिथिरात्रौ, सू० प्र०१० पाहु०। रचिताः। जै० इ०. सोमणसी स्त्री० (सौमनसी) पक्षस्य पञ्चदश्यां तिथौ, ज्यो०४ पाहु०। सोमप्पमा स्त्री० (सोमप्रभा) सोमप्रभस्य चमरोत्पातपर्वतस्य दक्षिणसोमणाह पुं० (सोमनाथ) सौराष्ट्रप्रसिद्ध महादेवे, ती 16 कल्प! दिग्वतिराजधान्याम्, द्वी०। (एतद्भञ्जनकथा 'सच्चउर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) सोमभूइपुं०(सोमभूति) चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राह्मणे, ज्ञा० सोमतिलग पुं० (सोमतिलक) तपागच्छे देवेन्द्रसूरिशिष्यविद्यानन्द १श्रु०१५ अ० गणिशिष्यधर्मघोषसूरिशिष्यसोमप्रभूसूरिशिष्ये, तस्य जन्म विक्रम से किं तं कुलाइं? कुलाई एवमाहिअंति, तं जहा, "पढमंच 1355, संवत्सरे दीक्षा 1366, वर्षे सूरिपदं 1373, वर्षे स्वर्गतिः 1424 | नागभूयं, बीयं पुण सोमभूइ होइ। “कल्प०२ अधि०८ क्षण / वर्षे / अनेन यमकस्तुतिटीकाशीलतरङ्गिणी नव्यक्षेत्रसमाससूत्रे जीत- सोममित्ता स्त्री० (सोममित्रा) सौर्यपुरवास्तव्यस्य यज्ञयशसो भार्यायाम्, कल्पवृत्तिश्चेति ग्रन्था रचिताः। यशस्तिलकचम्पूनामग्रन्थकारकेदिगम्ब / आव० 4 अ० 1 आ० क० / आ० चू०। राचार्य, एकाशीत्यधिकाष्टशते शकेऽयमासीत्। जै० इ०। सोमय पुं० (सोमक) कौत्सगोत्रान्तर्गते गोत्रविशेषप्रवर्तके ऋषौ, स्था० सोमदत्त पुं० (सोमदत्त) चन्द्रप्रभस्वामिनः प्रथमभिक्षादायके, आ० म० | 0ठा0 3 301 1 अ० स०। कौशाम्बीनगरीस्वामिशतानीकस्य पुरोहिते, विपा० सोमल पुं० (सोमल) द्वारवतीवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राह्मणे, अन्त० 1 श्रु०५ अ०। भद्रबाहुस्वामिनः चतुर्थे शिष्ये, कल्प०२ अधि०८ क्षण। | १श्रु०३ वर्ग० 8 अ०। ('गजसुकुमार' शब्दे तृतीयभागेऽस्य कथा।) सोमदिहि पुं० (सौम्यदृष्टि) कस्याप्यनुद्वेजके साधौ, प्रव० 236 द्वार। सोमलच्छी स्त्री० (सौम्यलक्ष्मी) सौम्या-प्रशस्ता या लक्ष्मीः। प्रशस्तायां सोमलोचने, स हि सर्वस्याप्याश्रयणीयो भवति दर्श०२ तत्त्व। लक्ष्म्याम्, कल्प०१ अधि०३क्षण। Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमलेस्स 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमवसु सोमलेस्स त्रि० (सोमलेश्य) अनुपतापकारिपरिणामे, स्था० 6 ठा० ३उ०। सोमवदण त्रि० (सोमवदन) सोम-सश्रीकं वदनं येषां ते सोमवदनाः। सश्रीकास्ये, जं०२ वक्ष०। सोमवसुपुं० (सोमवसु) कौशाम्बीनगरीवास्तव्ये जन्मदरिद्रे विप्रे,ध००। तत्कथा चैवम्'कोसंबी अत्थिपुरी, पभूयपव्वा सुउच्छुलट्ठि व्य। आजम्म अइदरिद्दो, सोमवसूतत्थ वरविप्पो॥१॥ जज करेइ कम्म, तं तं सयलं पि होइ से विहलं। ता उदिवम्गो धणियं, जाओ धम्मुम्मुहो किंचि // 2 // सोधम्मसत्थपाढे-ण धम्मसालाइ अन्नदियहमि। सिस्साण कहिजंतं, धम्मफलं इय निसामेइ॥३॥ गिरिसिहरतुरंगा दंतिणो भूरिदाणा, जियजलहितरंगा वाउवेगा तुरंगा। रहवरभडकोडीलच्छिविच्छड्डुसारा, नगरनिगममाई हुंति धम्मा जियाणं // 4 // अमरनियरपुजं वासवत्तं पवित्तं, सयलभरहरलं भूरिभोगेहि सजं / / हलहरनिवइत्तं जं इह केसवतं, कयभुवणचमकं धम्मलीलाइयं तं // 5 // रहसवसनमंतुद्दाम देविंदविंद पणयमसमसुक्खं जंच तित्थाहिवत्त। अवरमविपसत्थं पाणिणो जं लहते, तमिह फलयसेसं धम्मकप्पद्रुमस्स!॥६॥ तं सोउ जंपइ दिओ, सचमिणं किंतु कहसुपसिऊण। कस्स सयासे एसो, धम्मो भे गिण्हियव्यु त्ति // 7 // सो पडिभेणेइ मिटुं. मुंजेयव्वं सुहं च सोयध्वं / लोयप्पिओय अप्पा, कायव्वो इय पए तिन्नि॥ 8 // जो सम्मं अवबुज्झइ, अणुचिट्ठइतस्सपायमूलम्भि। गिहिज्ज तुमं धम्मं, भद्दपयं भद्द! लहु लहिसि // 6 // को पुण एसिं अत्थु , ति पुच्छिओ कहइधम्मपाढी वि। भो भव ! विमलभइणो, परमत्थं एस बुज्झंति॥ 10 // अह सुद्धधम्महेउं. दंसणिणो बहुविहे विपुच्छंतो। एगम्मि सन्निवेसे, समागओ भिक्खवेलाए॥११॥ ओयरिओ मढियाए, एगस्स व्वत्तलिंगधारिस्स। होसु अतिहि तितं ठवि-य अप्पणा सो गओ भिक्खं // 12 // गहिउँ खणेण भिक्खं, सो पत्तो तो हुवे वि ते भुत्ता। समयंमि धम्मतत्तं, दिएण पुट्ठो कहइ लिंगी॥ 13 // भद्द! इह सोमगुरुणो, अम्हे जससुजसनामया सीसा। उवइट्टणे तत्तं, मिट्ठ भुत्तव्वमिच्चाइ॥१४॥ नय अत्थो परिकहिओ, अचिरेण गओ गुरूय परलोयं। णो हं नियबुद्धीए, इय आराहेमि गुरुवयणं / / 15 / / मंतोसहमाईहिं, विहिजे मे लोगवल्लहो अप्पा। पावेमि मिट्ठमन्नं, इह मढियाए सुवेमि सुहं।। 16 // अह चिंतइ सोवमसू, अहो इमो गुरुवइद्रुतत्तस्स। समइवयइ जं गुरुणो, भिप्पाओ संभवइ नेवं / / 17 // तथाहि मंतोसहिपमुहेहि,जायइ जीवाण घायणं नूणं / तो लोगपिओ अप्पा, कह परमत्थेण इह होइ॥१८॥ पाएण मिट्ठमन्नं, जणेइ जीवाण गाढरसगिद्धिं / तत्तो भवपरिवुड्डी, ता परमत्थेण कडुयमिणं / / 16 / / हिमधामधामनिम्मल-सीलाण रिसीण विजियकरणाणं / एगंतवासबद्धा, नणु सुहसिज्जा विपडिसिद्धा // 20 // तथा चोक्तम्सुखशय्यासनं वस्त्रं,ताम्बूलं स्नानमण्डनम्। दन्तकाष्ठं सुगन्धं च, ब्रह्मचर्यस्य दूषणम्॥२१॥ इय चिंतिऊण तेणं, पुट्ठो लिंगी कहेसु भद्द! तुहं। गुरुभाया कत्थस आह, अमुगग्गामंमि निवसेइ / / 22 // बीयदिणे सोमवसू, तत्थेव गओ ठिओ य सुजसमढे। भुत्ता दुवे वि गेहे, इक्कस्स महिड्डिसिद्गुस्स / / 23 / / पुट्ठोयतेण तत्तं, सुजसो कहिऊण पुव्ववुत्तत्तं / भणइ इगंतर मह यं, जिमेमि मह होइ तो मिट्ठ // 24 // झाणज्झयणपसंतो, जत्थ व तत्थ व सुहं सुवामि ति। लोयप्पिओ निरीहु, त्ति एव पकरेमि गुरुवयणं / / 25 / / तं मुणिय दिओ चिंतेइ, चारुतरोएस किंतु गुरुवयणं। अइगंभीरं को नणु, जाणइ गुरुयाणऽभिप्यायं / / 26 // कहवि वईइ इमीए, सुद्धं अत्थं अहं मुणिस्सामि। इय चिंतासंतत्तो, संपत्तो पाडलिपुरम्मि / / 27 // सत्थपरमत्थवित्था-र वेइणो जइण समयकुसलस्स। विबुहस्स तिलोयण ना--मगस्स गिहमेस संपत्तो॥२८॥ पविसंतोय निरुद्धो, जा अणवसरु त्तिदारवालेणं। पंतवणकुसुमहत्थो, ता एगो किंकरो पत्तो॥ 26 // मग्गिजंतो वि अदा-उदंतवणमाइ सो गओ मज्झे। निस्सरिय खणेण अम-ग्गिओ वितं दाउमारद्धो // 30 // एस न दितो पुट्विं, किंमिण्हि देइ त्ति सोमवसुपुट्ठो। पभणइ वित्ती पढम,पहुणो दिन्ने हवइ भत्ती॥ 31 // इहराऽवन्ना तस्स उ, उद्धरियं सेसयाण सेसे व। इत्तो व दोहि पुरिसेहि, मग्गियं तत्थ आयमणं // 32 // एगाएतरुणीए, दिन्नं तं वालुगाइ एगस्स। बीयस्स दीहदंडग, उल्लंकेणं दिएण तओ॥३३॥ पुट्ठो भणइ दुवारी, भो भद्द! इमीऍ पढमओ भत्ता। . बीओ उण परपुरिसो, ता एवं चेव उचियं ति॥३४॥ इत्थंतरम्मि बहुभ-दृचट्टपयडिजमाणमइविहवा। वरसिवियं आरूढा, तत्थेगा आगया तरुणी॥ 35 // का एसा कि एवं, समेइइय पुच्छिए पुणो तेणं। दोवारिएण भणियं, पंडियधूया इमा भद्द ! // 36 // रायउलम्मि समस्सा-पयपूरणपत्तगरुयसम्माणा। सगिहं समेइ एवं, सरस्सई नाम विक्खाया।॥३७॥ कह पूरियं इमीए, पयं ति दियपुच्छिओ भणइ वित्ती। "तेन शुद्धेन शुध्यति" अवलंबियं पयमिम, रन्ना इया पूरियमिमीए॥३८॥ तद्यथायत्सर्वव्यापकं चित्तं, मलिनं दोषरेणुभि सद्विवेकाम्बुसंपर्कात्, तेन शुद्धेन शुद्ध्यति॥३६॥ Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमवसु 1162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमा अह सा गिहं पविट्ठा, जणगेण ऽभिनंदिया तओ विप्पो। चिंतइ इमस्स सयलो, परिवारो वि हु अहो विवुहो॥ 40 // लद्धावसरो य गओ, पणओ य तिलोयणस्स पयकमलं। विन्नवइ विबुहपुंगव ! वयगहणं काउमिच्छामि।। 41 // ता पसिय साहसु गुरुं, कस्स सयासम्मि हंगहेमि वयं। सो आह जो पयतियं, मिट्ठ भुत्तव्वमिचाइ।। 42 // वक्खाणइ तह पालइ, तस्स सयासे गहेसुतुं दिक्खं / तो जंपइ सोमवसू, को पुण एएसि परमत्थो।। 43 // भणइ बुहो वि महायस ! अकयमकारियमकप्पियं सुद्धं / महुयरवित्तीलद्धं, रागद्दोसेहि परिमुक्कं // 44 // मणिमंतमूलहओसह-पओगपरिवज्जियं च आहारं। जो भुंजइ सो इहयं, परमत्थेणं जिमइ मिट्ट।। 45 // जं सुद्धं आहार, भुंजतो न खलु बंधए कम्म। कडुयविववागं तेणं, एरिसमिह वुच्चए मिट्ठ।। 46 / / एयव्विवरीयं पुण, भुंजतो हिंसगुत्ति बधेइ। असुहविवागं कम्म, तेण अमिटुंजओ भणियं / / 47 // अजयं भुंजमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं होइ कडुयं फलं॥४८॥ जो सयलआहिमुक्को, सज्झायज्झाणसंजमुजुत्तो। गुरुणुनाए विहिणा, निसि सुवइ सुहेण सो सुवइ // 46 // धणधन्नसुवन्नसुहिर-नरयण चउचरणपमुहदविणम्मि। जो निचनिप्पिवासो, लोयपिओ होइ सो चेव / / 50 // यतःविश्वस्याऽपिसवल्लभो गुणगणस्तं संश्रयत्यन्वहं, तेनेयं समलंकृता वसुमती तस्मै नमः संततम्। तस्माद्धन्यमः समस्ति न परस्तस्यानुगा कामधुक्, तस्मिन्नाश्रयतां यशांसि दधते संतोषभाक् यः सदा॥५१॥ एवं निसामिऊणं, तिलोयणं पइभणेइ सोमवसू। परमत्थवत्थुपयडण-निउणस्स नमो हवउ तुज्झ॥५२॥ बभणइ बुहो विभो भद्द! तं सिद्धं नो सुलक्खणो तं सि। अवितहधम्मवियारं, जो एवं नियसि मज्झत्थो॥ 53 // अह पुच्छिऊण विबुहं, तम्गेहाओ विणिम्गओएस। अइसुद्धधम्मगुरुला-भलालसो नालसो जाव।। 54 / / पुव्वुत्तजुत्तिजुत्तं, आहारं फासुयं गवसंते। जुगमित्तनिहियनयणे, जिणमयसमणे नियइ ताव / / 55 / / तो चिंतइ सो हिट्ठो, मज्झं पुण्णा मणोरहा सव्ये। कप्पतरु व्व सुगुरुपाय-संगया जं इमे दिट्ठा / / 56 // तेसिं पिट्ठीइ गओ, आरामे वंदिउंसुघोसगुरुं। पुट्ठो पयतिगअत्थो, कहिओ सूरीहि वि तहेव / / 57 // नाओ पमहपयत्थो, मुणिजणआहारमहणओ चेव। सेसपयजाणणत्थं, तत्थेव ठिओ य सो रत्तिं / / 58 // आवस्सयाई काउं, भणिउं पोरिसिमणुन्नविय सूरि। आगमविहिणा सुत्ता मुणिणो गुरुणो पुणुहिता / / 56 / / उवउत्ता वेसमण-ज्झयणं परियट्टिउंलहु पयट्टा। चलियासणो कुवेरो, समागओ तत्थ तव्वेलं॥६०॥ तं निसुणइ एगगो, झाणसमितीइ नमियगुरुचरणे। जंपेइ वरेसुवरं, भणइ गुरु धम्मलाहो ते॥६१॥ तो अइहरिसियहियओ, भासुरदिप्पंतकंतरूवधरो। नमिऊणं गुरुपाए, पत्तो धणओ सयं ठाणं / / 62 // तंदठू पहिट्ठमणो, सोमवसूलद्धसुद्धधम्मवसू। चिंतइ आहे भयवओ, तिजयपसिद्धं निरीहत्तं // 63 // साहियनियवुत्तंतो, दिक्खं गिण्हइ सुघोसगुरुपासे। मज्झत्थसोमदिट्ठी, कमेण जाओ सुगइभागी // 64 / / इत्येवमुच्चैस्तरबोधिलाभो, मुख्यं फलं सोमवसोर्विशिष्टम्। माध्यस्थभाजः परिभाव्य भव्याः, भव्येन भावेन तदेव धत्त / / 65 / / (इति सोमवसुकथा समाप्ता।) ध०२०१अधि०१२ गुण। सोमविजय पुं० (सोमविजय) हीरविजयसूरीणां प्रथमशिष्ये, कल्प० 3 अधि०६ क्षण! सोमसिरि स्त्री० (सोमश्री) द्वारवतीनगरीवास्तव्यस्य सोमलस्य भार्यायाम, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अ०। आ० चू०। दर्श०। सोमसुन्दर पुं० (सोमसुन्दर) तपागच्छे स्वनामख्याते देवसुन्दरसूरीणां शिष्ये, ग०३ अधि०। अयमाचार्यः विक्रम १४३०सवसरे जातः 1466 स्वर्गतः। प्रथमप्रकीर्णक प्रत्याख्यानभाष्ये चानेन टीका रचिता, योगशास्त्रोपदेशमालाषडावश्यकनवतत्त्वादिष्वनेन टीका रचिता जै० इ०। सोमहिंद (देशी) उदरे, दे० ना०८ वर्ग 45 गाथा। सोमा स्त्री० (सौम्या/सोमा) सोमदेवतादिक्सोमा सौम्या वा। भ०१० श० 1 उ० / उत्तरदिशि, स्था० 3 ठा०२ उ०1 आ० म०। सोमस्य लोकपालस्याग्रमहिष्याम्, भ० 10 श० 5 उ० / सोमलोकपालस्य राजधान्याम्, भ०। संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे सपक्खिं सपडिदिसिं असंखेन्जाइं जोयणसयसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमा नामं रायहाणी पण्णत्ता। एगंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं जम्बूद्रीवप्पमाणा वेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं नेयव्वं जाव उवरियलेणं सोलसजोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णासं जोयणसहस्साइं पंचय सत्ताणउएजोयणसएकिंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पासायणं चत्तारि परिवाडिओ नेयव्याओ सेसा नत्थि / भ०३ श०७ उ०।दो सोमा / स्था०२ ठा०३ उ०। द्वारवतीवास्तव्यस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य सुतायाम, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अ०। आ० चू०। बहुपुत्रिकाजीवरू, पायां वेभेलसन्निवेशवासिन्यां स्वनामख्यातायां ब्राह्मण्याम, ति०१ ग०। ('बहुपुत्तिया' शब्दे कथा।) सोमप्रभशैलस्य पौरस्त्यदिक्स्थायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम, द्वी०। सप्तमतीर्थकरस्य प्रथमप्रवर्तिन्यान, स० प्रव०। वीरजिनसमकालिकायां पार्श्वनाथस्वामितीर्थीयसाध्य्याम, आ० म०१ अ०। Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमागार 1163 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमिल सोमागार त्रि० (सौम्याकार) सुन्दराकृती, कल्प०१ अधि०।२ क्षण। अरौद्रदर्शन, औ०। रा०। ज्ञा०। सोमाण (देशी) (श्मशाने) दे० ना०८ वर्ग 45 गाथा। सोमाल त्रि० (सुकुमार) "हरिद्रादी लः" 811 / 254 / इत्यसंयुक्तस्य रस्य लः / सोमालं / प्रा०। "न वा मयुख-लवणचतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश-चतुर्वार-सुकुमार-कुतूहलोदूखलोलूखले"|| 8 | 1 | 171 // इत्यादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह वैकल्पिक ओत्। सोमालं। कोमले, प्रा०१पाद। सोमिल पुं० (सोमिल) द्वारवत्यां नगर्यां गजसुकुमारकुमार मारके स्वनामख्याते ब्राह्मणे, आ० चू०१ अ०। अन्त०। दर्श०। आ० क०। आ० म०। ('गजसुकुमार' शब्दे तृतीयभागेऽस्य कथा 1) कुण्डग्रामे नगरे कोडालगोत्रब्राह्मणः सोमिलाभिधानोऽस्ति, तस्य भार्यायानुत्पन्न झत प्रियमित्रप्राग्भवकथा / आ० म०१ अ० / वाराणसी वास्तव्ये पार्श्वनाथस्वामिशिष्ये, नि०१ श्रु०३ वर्ग 3 अ० (यो मृत्वा शुक्रविमाने शुक्रो नाम महाग्रहो जातः 'सुक्क' शब्देऽस्मिन्नेव भागे तत्कथा / ) अपापावास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राह्मणे, यस्य यज्ञे समायाता इन्द्रभूत्यादयो वीरजिनान्तिके प्रव्रजिताः। आ० म०१ अ०। कल्प०। उज्जयिनिवास्तव्येऽन्धब्राह्मणे, "उज्जेणी नाम नगरी तत्थ सोमिलो नाम बंभणो परिवसइ, सोय अन्धलीभूओ। तस्सय अठ्ठपुत्ता तेसिं अट्ठ भज्जाओ सो पुत्तेहि भण्णति अच्छीणं किरिया कीरउ, सो पडिभणति तुम्भ अट्ठण्हं पुत्ताण सोलस अच्छीणि सुण्हाण विसोलस बंभणीए दोन्नि / एते चउतीसं अन्नस्स य परियणस्स जाणि अच्छीणि ताणि सव्वणि मम / एते चेव पभूया। अन्नया घरं पलित्तं तत्थ तेहिं अप्पदत्तेहिं सो न च नीणिओ तत्थेवरडतो दड्डो।"बृ०१ उ०२प्रक०/वाणियग्रामवास्तव्ये स्वनामख्याते ब्राह्यणे, भा तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नगरे होत्था, वन्नओ, दूतिपलासए चेतिए वन्नओ, तत्थणं वाणियगामे नगरे सोमिले नामं माहणे परिवसति अड्ढ० जाव अपरिभूए रिउव्वेद जाव सुपरि-निट्ठिए। पंचण्हं खंडियसयाणं सयस्स कुडुवस्स आहेवचं जाव विहरति, तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे जाव परिसा पञ्जुवासति / तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमीसे कहाए लद्धहस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पञ्जित्था- एवं खलु समणे णायपुत्ते पुटवाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं ०जाव इहमागए जाव दूतिपलासए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ / तं गच्छामि णं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउन्मवामि इमाई चणं एयारूवाणं अट्ठाईजाव वागरणाइं पुच्छिस्सामि, तंजर इमे से इमाई एयारूवाइं अट्ठाइं जाव वागरणाई वागरेहिति।। ततो णं वंदीहामि नमसीहामि जाव पजुवासीहामि, अहमेयं से इमाइं अट्ठाइं जाव वागरणाइं नो वागरेहिति तो णं एएहिं चेव अढे हिं य ०जाव वागरणे हि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करेस्सामीति कटु एवं संपेहेइ 2 हित्ता हाए जाव सरीर साओ गिहाओ पडिनिक्खमति 2 मित्ता पायविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धिं संपरिवुडे वाणियगाम नगरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ २छित्ताजेणेवदूतिपलासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा रत्ता समणस्स भग०३ अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-जत्ता ते भंते ! जवणिज्जं० अवाबाहं ०फासुयविहारं०? सोमिला ! जत्तावि मे जवणिज्जं पि मे अव्वावाह पि मे फासुयविहारं पि मे, (भ०) किं ते मंते ! जवणिजं ? सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाइंदियजवणिजे य, नोइंदियजवणिजे य / से किं तंइंदियजवणिज्जे ? 2 जं मे सोइंदियचक्खिदियधाणिंदियजिब्मिदियफासिंदियाई निरुवहयाईवसे वट्टति, सेत्तं इंदियजवणिजे / से किं तं नोइंदियजवणिजे ? 2 जं मे कोहमाणमायालोमा वोच्छिन्ना नो उदीरेंति / सेत्तं नोइंदियजवणिज्जे / सेत्तं जवणिजे / (भ०)किं ते भंते ! फासुयविहारं? सोमिला ! जम्नं आरामेसु उज्जाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु इत्थीपसुपंडगविवजियासु वसहीसु फासुएसणिजं पीढफलगसेजासंथारगं उवसंपछिताणं विहरामि। सेत्तं फासुयविहारं। सरिसवा ते भंते ! किं भक्खेया अभक्खेया ? सोमिला ! सरिसवा भक्खेया वि, अभक्खेया वि।से केणढे सरिसवा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि? से नूणं ते सोमिला ! बंभन्नएस नएसु दुविहा सरिसवा पन्नत्ता,तं जहा-मित्तसरिसवाय, धन्न सरिसवा यातत्थ णं जे ते मिससरिसवा ते तिविहा पं० तं० सहजायया सहवडियया सहपंसुकीलियया / ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवा ते दुविहा प०, तं०सत्थपरिणया य, असत्थपरिणया य / तत्थ णं जे ते असत्थपरि-णया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे से सत्थपरिणया ते दुविहा पं०, तं०, एसणिज्जा य, अणेसणिज्जा य / तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते एसणिजाते दुविहा प० तं०-जाइया य, अजाइया य / तत्थ णं जे ते अजाइया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते जातिया ते दुविहा प० तं०-लद्धा य, अलद्धा य / तत्थ णं जे ते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं भक्खेया। से तेणट्टेणं सोमिला ! एवं दुबइ० जाव अमक्खेयादि / (भ०) कुलत्था ते भंते ! किं Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमिल 1165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमिलुद्देश भक्खेया अभक्खेया ?सोमिला ! कुलत्था भक्खेया वि देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर० एवं जहा रायप्पसेणइले अभक्खेया वि, से के णटेणं० जाव अभक्खेया वि? से नूणं चित्तो० जाव दुवालसविहं सावगधम्म पडिवजति पडिवचित्ता सोमिला! ते बंभन्नएसु नएसु दुविहा कुलत्था पं० 20 इत्थि- समणं भगवं महावीरं वंदति० जाव पडिगए। तए णं से सोमिले कुलत्था य, धनकुलत्था य, तत्थ णं जे ते इत्थिकुलत्था ते / माहणे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजाव विहरइ भंते त्ति तिविहापं०, तंजहा-कुलकन्नयाइवा कुलवहूयाति वा कुलमा भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति वंदित्ता नमसति 2 उयाइवा, ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जेते / सित्ता पभू णं भंते ! सोमिले माहणे देवाणुप्पियाण अंतिए मुंडे घन्नकुलत्था एवं जहा धन्नसरिसवा से तेणटेणं ०जाव भवित्ताजहेव संखे तहेव निरवसेसं० जाव अंतं काहिति। सेवं अभक्खाया वि। (सू०६४६+) मंते ! सेवं भंते तिजाव विहरति / (सू०६४७) 'ते ण मित्यादि, 'इमाइं च णं' ति इमानि च वक्ष्यमाणानि यात्रा 'एगे भव' मित्यादि, एको भवानित्येकत्वाभ्युपगमे भगवताऽऽत्मनः यापनीयादीनि 'जत्त' त्ति यानं यात्रा-संयम-योगेषु प्रवृत्तिः 'जवणिजं' कृते श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽनेकतोपलक्षित एकत्वं ति यापनीयं-मोक्षाध्वनि गच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादि-वश्यतारूपो दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगः सोमिलभट्टेन कृतः, द्वौ भवानिति च धर्माः 'अव्वाबाह' ति शरीरबाधानामभावः 'फासुयविहारं ति प्रासुक द्वित्वाभ्युपगमेऽहमित्येकत्वविशिष्टस्यार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं विहारो--निर्जीव आश्रय इति, 'तवनियमसंजमसज्झायझाणावस्स दूषयिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगो विहितः, अक्खर भव' मित्यादिनाच यमाइएसु'त्तिइह तपः-अनशनादि नियमाः-तद्विषया अभिग्रहविशेषाः पदत्रयेण नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः,'अणेगभूयभावभविए भव' ति अनेके यथा एतावत्तपः स्वाध्यायवैयावृत्त्यादि मयाऽवश्यं रात्रिन्दिवादौ भूता-अतीताः भावाः-सत्तापरिणामा भव्याश्च भाविनो यस्य यतथा, विधेयमित्यादिरूपाः संयमः-प्रत्युपेक्षणादिः स्वाध्यायो-धर्मकथादि अनेन चातीतभविष्यत्सत्ताप्रश्नेनानित्यतापक्षः पर्यनुयुक्तः, एकतरध्यानं धादिः आवश्यकं षड्विधम्, एतेषु च यद्यपि भगवतः किश्चिन्न परिग्रहे तस्यैव दूषणायेति, तत्र च भगवाता स्याद्वादस्य निखिलदोष गोचरातिक्रान्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि-'एगेवि अह' मित्यादि, तदानी विशेषतः संभवति तथाऽपि तत्फलसद्भावात्त-दस्तीत्यवगन्त कथमित्येतत् ? इत्यत आह-'दव्वट्ठयाए एगोऽहं' ति जीवद्रव्यस्यैव्यम्, 'जयण' त्ति प्रवृत्तिः, इंदियजवणिज्जति इन्द्रिय-विषयं यापनीयं कत्वेनैकोऽहं न तु प्रदेशार्थत्या तथा हि-अनेकत्वान्म-मेत्यवयवादीवश्यत्वमिन्द्रिययापनीयम्, एवं नोइन्द्रिययापनीयं, नवरं नोशब्दस्य नामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः, तथा कञ्चित्स्वभाव-माश्रित्यैकत्वसंमिश्रवचनत्वादिन्द्रियैर्मिश्राः सहार्थत्वाद्वा इन्द्रियाणां सहचरिता ख्याविशिष्टस्यापि पदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपिन विरुद्धनोइन्द्रियाः कषाया, एषां च यात्रादिपदानां सामयिक-गम्भीरार्थत्वेन मित्यत उक्तम् 'नाणदंसणठ्याए दुवे वि अहं ति, न चैकस्य स्वभावभेदो भगवतस्तदर्थपरिज्ञानसम्भावयता तेनापभ्रजनार्थं प्रश्नः कृत इति / न दृश्यते, एको हि देवदत्तादिः पुरुष एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्व'सरिसव' त्ति एकत्र प्राकृतशैल्या सदृशवयसः समानवयसः अन्यत्र भ्रातृत्वभ्रातृव्यत्वादीननेकान्स्वभावाल्लभत इति, तथा प्रदेशार्थतयासर्षपा:-थिर्धाथकाः, (द्रव्यमाषवक्तव्यता कालमासवक्तव्यता च ऽसंख्येयप्रदेशतामाश्रित्याक्षतोऽप्यहं सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात्, 'मास' शब्दे पञ्चमभागे गता।) 'कुलत्थ' त्ति एकत्र कुले तिष्ठन्तीति तथाऽव्ययोऽप्यहं कतिपयानामपि च व्ययाभावात्, किमुक्तं भवति?-- कुलस्था:-कुलाङ्गनाः, अन्यत्र कुलत्थाः धान्यविशेषाः सरिसवादि अवस्थितोऽप्यह-नित्योऽप्यहम्, असंख्येय-प्रदेशिता हि न कदाचनापि पदप्रश्नश्च छलग्रहणेनोपहासार्थं कृत इति। व्यपैति अतो नित्यताऽभ्युपगमेऽपि न दोषः, तथा 'उवओगट्टयाए' त्ति ___ अथच-सूरिं विमुच्य भगवतो वस्तुतत्त्व विविधविषयानुपयोगानाश्रित्या-नेकभूतभावभविकोऽप्यहम्, अतीताज्ञानजिज्ञासयाऽऽह-- नागतयोर्हि कालयोरनेकविषय-बोधानामात्मनः कथञ्चिदभिन्नानां एगे भवं दुवे भवं अक्खए भवं अव्वए भवं अवहिए भवं अणेग भूतत्वाद भावित्वाचेत्यनित्यपक्षोऽपि न दोषायेति। एवं जहा रायप्पभूयभावमविए भवं? सोमिला! एगे वि अहं० जाव अणेगभूय- सेणइज्जे' इत्यादि, अनेनचयत्सूचितंतस्यार्थलेशोदय॑ते यथा देवानांभावभविए वि अहं, से केण?णं भंते ! एवं वुचइ ०जाव भविए प्रियाणामन्तिके बहवो राजेश्वरतलवरादयस्त्यक्त्वा हिरण्यसुवर्णादि वि अहं? सोमिला!दव्वट्ठयाए एगे अहं नाणइदंसणठ्ठयाए दुविहे मुण्डा भूत्वाऽगारादनगारितां प्रव्रजन्ति, न खलु तथा शक्नोमि प्रव्रजितुअहं पएसट्टयाए अक्खए वि अहं अव्वए वि अहं अविट्ठए वि अहं,' मितीच्छाम्यहमणुव्रतादिकं गृहिधर्मं भगवदन्तिके प्रतिपत्तुम् / ततो उवयोगट्ठयाए अणेगभूयभावभविए वि अहं से तेणष्टेणं जाव भगवानाह-यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धोऽस्तु, ततस्तमसौ भविए वि अहं / एत्थ णं से सोमिलेमाहणे संबुद्धे समर्ण भगवं प्रत्यपद्यत इति। भ०१८ श०१० उ०। महावीरं जहा खंदओ० जाव से जहेयं तुज्झे वदह जहा णे | सोमिलुहेश पुं० (सोमिलो द्देश) सोमिलब्राह्मणवक्तव्यताप्र Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोमिलुद्देश 1165 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोयरंध तिपादके भगवत्या अष्टादशशतस्य दशमोद्दशके , भ०२५ श०७ उ०! पयोगस्वभावमिति, तेन श्रोत्रेण परिः समन्ताद्धट-पटशब्दादिविषयाणि सोम्म त्रि० (सौम्य) सर्वजननयनमनोरमणीयगणुशतकलिते, आचा० ज्ञानानि परिज्ञानानि तैःश्रोत्रपरिज्ञानर्जरा-प्रभावात्परिहीयमानः 1 श्रु०१ अ०१ उ०। नीरोगे, औ०। शान्तदृष्टितया प्रीत्युत्पादके, ग० सद्भिस्ततोऽसौ प्राणी एकदा वृद्धावस्थायां रोगोदयावसरे वा मूढभावं१ अधि०। दर्शनमात्रादेवाह्लादके, दर्श०४ तत्त्व। उपशान्ते, ज्ञा०१ श्रु० मूढतां कर्त्तव्याकर्त्तव्याज्ञता-मिन्द्रियपाटवाभावादात्मनो जनयति; 10 / सुखदर्शने, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। अरौद्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। हिताहितप्राप्तिपरिहार-विवेकशून्यतामापद्यत इत्यर्थः, 'जनयन्तीति' शीतले. विशे०। औ०। ओघ०। चैकवचनावसरे "तिडां तिडो भवन्ती' ति बहुवचनमकारि। अथवासोम्मया स्त्री० (सौम्यता) अक्रूराकारे, क्रूरो हि लोकस्योद्वेगकारणं तानि वा श्रोत्रविज्ञानानिपरिक्षीयमाणान्यात्मनः सदसद्विवेकविकलतासौम्यश्च सर्वजनसुखाराध्यो भवति। ध०१ अधि०। मापादयन्तीति श्रोतादिविज्ञानानां च, तृतीया प्रथमार्थे सुब्व्यत्ययेन सोम्मवयण त्रि० (सौम्यवदन) सौम्य-सुन्दरं वदनं-मुखं यस्य स तथा! द्रष्टव्येति, एवं चक्षुरादिविज्ञानेष्वपि योज्यम्। आचा०१श्रु०२ अ०१ उ०। सुन्दरास्ये, प्रश्न० 4 आश्र0 द्वार। * स्रोतस् न० प्रवाहे, स्था० 4 ठा०४ उ०। सूत्र०। जलावतरणद्वारे, सोय न० (शौच) शुचेविः शौचम्। शुद्धौ, स्था०। सूत्र० 1 श्रु०१५ अ० / मिथ्यात्वविरतिप्रमादकषायात्मके कर्माश्रवद्वारे, पंचविहे सोएपण्णत्ते,तं जहा-पुढविसोए आउसोएतेउसोए सूत्र०१ श्रु०६ अ० पापोपादाने, आचा०१ श्रु०४ अ०४ उ०। मंतसोए बंभसोए। (सू०४४९) भावश्रोतः शब्दादिकामगुणविषयाभिलाषः। आचा०१ श्रु०२ अ०१ उ०। 'पंचविहे' त्यादि व्यक्तं, नवरं शुचेर्भावः शौचं, शुद्धिरित्यर्थः, तच्च उडुं सोया अहे सोया, तिरियं सोया वियाहिया। द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्चातत्राद्यं चतुष्टयं द्रव्यशौचं, पञ्चमंतुभावशौचम्, एते सोया वियक्खाता, जेहिं संगंति पासहा॥१॥ तत्र पृथिव्या-मृत्तिकया शौचं-जुगुप्सितमलगन्ध-योरपनयनं शरीरा आचा० 1 श्रु०५ अ०६ उ०। (व्याख्या 'लोगसार' शब्दे षष्ठे भागे दिभ्यो घर्षणोपलेपनादिनेति पृथिवीशौचम्, इह च पृथिवी शौचाभि उक्ता।) द्विविधानि श्रोतांसि द्रव्यश्रोतांसि स्वविषये इन्द्रियवृत्तयः धानेऽपि यत्परैस्तल्लक्षणमभिधीयते, यदुत-''एका लिङ्गे गुदे तिस भावश्रोतांसि तु शब्दादिष्वेव अनुकूलप्रतिकूलेषु रागद्वेषोद्भवः मानसस्तथैकत्र करे दश। उभयोः सप्त विज्ञेया, मृदः शुद्धौ मनीषिभिः॥१॥ विकारः। सूत्र०१ श्रु०१६ अ०। भावश्रोतः संसारपर्यटन-स्वभावम् / एतच्छौचं गृहस्थानां, द्विगुणं ब्रह्मचारिणाम्। त्रिगुणं वानप्रस्थानां यतीनां सूत्र०१ श्रु०११ अ० / वेगे, ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। आचा० / इन्द्रिये, आ०म०१ अ०। छिद्रे, औ०। स्था०। नासामुखादिरन्ध्रे, प्रश्न०१ च चतुर्गुणम्।२।" इति, तदिह नाभिमतं, गन्धाधुपघातमात्रस्य शौचत्वेन आश्र० द्वार। विवक्षितत्वात्, तस्यैव च युक्तियुक्तत्वात् इति 1, तथा अद्विः शौचम *शोक पुं० इष्टानिष्टवियोगसंप्रयोगकृते मानसे दुःखे, सूत्र०२ श्रु०१ पशौचं प्रक्षालनमित्यर्थः, 2, तेजसाऽग्निना तद्विकारेण वा भस्मना शौचं अ०। ईप्सितस्यार्थस्याप्राप्तौ तद्वियोगे चस्मृत्यनुबन्धे, आचा०१ श्रु० तेजःशौचम् 3, एवं मम्वशौच शुचिविद्यया 4 ब्रह्म ब्रह्मचर्यादिकुशलानुष्ठानं 2 अ०५ उ०1 तदेव शोचं ब्रह्मशौचम् 5, अनेन च सत्यादिशौचं चतुर्विधमपि संगृहीतं, सोयकारि(ण)पुं० (श्रोतकारिन्) यथोपदेशकारिणि, सूत्र० 2 श्रु० तचदेम्-"सत्यं शौचंतपः शौचं, शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचं, 14 अ०। जलशौचञ्च पञ्चमम्॥ १॥"स्था० 5 ठा०३ उ०। ('सुइ'शब्दे अस्मिन्नेव सोयगय त्रि० (स्रोतोगत) नद्यादिप्रवाहपतिते, दश०६ अ०२ उ०! भाग उदाहरणानि।) "सोयमूले धम्मे पन्नत्ते' परिव्राजकाना शौचमूलो सोयणया स्त्री० (शोचनता) दीनतायाम्, स्था०४ ठा० 1 उ० / भ०। धर्मः / ज्ञा०१ श्रु०५ अ०। (अयं 'थावचापुत्त' शब्दे चतुर्थभागे आ००। व्याख्यातः।) तृतीये महाव्रते, स्था०६ ठा०३ उ०। (शौचफलं 'तारा' सोयणवत्तिया स्त्री० (स्वप्नप्रत्यया) स्वप्रनिमित्तविराधनायाम, आव० शब्दे चतुर्थभागे गतम्।) (शौचं कृत्वैव जिनपूजा कर्तव्येति चेइय' शब्द 4 अ०। तृतीयभागे 1277 पृष्ठे गतम् / ) शरीरसंस्कारे / तं०। संयमनिरुप-. सोयतत्त त्रि० (शोकतप्त) शोकवितप्ते, सूत्र०१श्रु०५ अ०३ उ०। लेपतायां निरतिचारतायाम्, ध०३ अधि० / आव० / शौचं भावतो | सोयमय पुं० (शौचमद) स्नानचन्दनादिना पवित्रत्वविधेये पवित्रत्वानिरुपलेपता अचौर्यमिति सद्भावसारतायाम,बृ०१उ०२ प्रक०। पञ्चा०। गीकारे, शौचेन वस्त्रचन्दनाभरणादिना मदो यत्र स तथा। शौचजमसर्वोपाधिशुचित्वे समताव्रतधारणे, आचा०१ श्रु०६ अ०५ उ०। दोपेते, तं०। *श्रोत्र न० श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम्। कर्णे, विशे०। उत्त०। तं० शृणोति | सोयमादि त्रि० (शौचादि) शौचमाचमनं तदादिर्येषाम्। आचमनप्रभृतिषु, भाषापरिणतान्पुद्गलानिति श्रोत्रम्। कदम्बपुष्पाकारे शब्दग्राहके इन्द्रिये, | प्रश्न०१ आश्र० द्वार। द्वा० 26 द्वा० / आचा० / शृणोति भाषापरिणतान्पुद्गलानिति श्रोत्रम्। | सोयर पुं० (सोदर) भ्रातरि, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२ उ० अष्टः / आघा० / तच कदम्बपुष्पाकारं द्रव्यतो भावतो भाषाद्रव्यग्रहणलब्ध्यु- | सोयरंध न० (स्रोतोरन्ध्र) मुखे, स०३० सम०। Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोयरिय 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोरियदत्त सोयरिय त्रि० (शौकरिय) शूकरेण शूकरवधार्थं चरन्ति शूकरान् वा णीलसाडगणियच्छं मच्छकंटएणं गलए अणुलग्गेणं कट्ठाई घ्नन्तीति शौकरिकाः / स्था० 7 ठा०३ उ० प्रश्न० / सूत्र०। शूकर- कलुणाई विसराई कूवेमाणं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले मृगयोपजीविषु, स्था० 4 ठा०३ उ० / प्रश्नः / श्वपचेषु, सूत्र० य रुहिरकवले य किमिकवले यवम्ममाणं पासति। इमे अज्झ२श्रु०२ अ०। स्थिए०५पुरा पोराणाणं जाव विहरति / एवं संपेहेति जेणेव * सोदर्य त्रि० भ्रातृभगिन्यादिषु, सूत्र० 1 श्रु०१ अ०१उ०। समणे भगवं० जाव पुटवभवपुच्छा जाव वागरणं, एवं खलु सोयविय न० (शौच) भावशौचे सर्वोपाधिशुद्धतायां व्रतामालन्ये, सत्र० / गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे 2 श्रु०१ अ० / आचा०। वासे नंदिपुरे नाम णगरे होत्था मित्ते राया, तस्स णं मित्तस्स सोयामय त्रि० (स्रोतोमय) ऐन्द्रिये विकारे, स्था० 10 ठा०३ उ०। रनो सिरीए नामं महाणसिए होत्था, अहम्मिए जाव दुप्पडिसोयामिणी स्त्री० (सौदामिनी) विदिग्रुचकवास्तव्यायां दिक्कुमारीमहत्त याणंदे / तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया या रिकायाम, स्था० 6 ठा०३ उ०। आव० / आ० म० / विद्युति, को०। वागुरियाय साउणियाय दिनेभति० कल्लाकल्लं बहवे सण्हसोयावणा स्त्री० (शोकापना) दैन्यप्रापणायाम्, भ० 3 श० 3 उ०।। मच्छा य ०जाव पडागातिपडागे य अए य जाव महिसे य सोरट्ठ पुं० (सौराष्ट्र) द्वारवतीनगरीप्रतिबद्धे जनपदभेदे, कल्प०१ अधि० तित्तिरे य जाव मयूरे य जीवियाओ ववरोवेंति, सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति / अन्ने य से बहवे तित्तिरा य जाव 7 क्षण / ज्ञा० / अनु०! नि० चू०। मयूरा य पंजरंसि संनिरुद्धा चिट्ठति, अन्ने य बहवे पुरिसे सोरट्ठिया स्त्री० (सौराष्ट्रिका) तुवरिकायाम्, आचा० 2 श्रु० 1 चू०१ दिनभति० ते बहवे तित्तिरे य जाव मयूरे य जीवियाओ चेव अ०।६ उ०। दश। सोरठ्ठिया तुवरमादिया भण्णति। नि० चू० 4 उ० / निप्पक्छेति सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति / तते णं से स्थविराद् ऋषिगुप्तान्निर्गतस्य माणवगणस्य चतुर्थशाखायाम्, कल्प० सिरीए महाणसिए बहूणं जलयरथलयरखहयराणं मंसाई 2 अधि० 8 क्षण। कप्पणीयकप्पियाई करेंति, तं जहा-सण्हखंडियाणि य वट्ट सोरहपाहुडिय पुं० (षोडशप्राभृतिक) यज्ञविशेषे, विशे०। खंडियाणि० दीह खंडि० हस्सखं० हिमपक्काणि य जम्मघम्म सोरियन० (शौर्य) "स्याद्रव्य-चैत्य-चौर्यसमेषु यात्"।।८।२। (वेग) मारुयपक्काणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिठ्ठाणि य 107 / / इति संयुक्तयात् पूर्व इद् / सोरियं / शूरत्वे, प्रा०२ पाद / आमलरसियाणि य मुद्दिया रसिया० कविट्ठरसि० मच्छरसि० स्वनामख्याते यक्षे, विपा०१ श्रु० 8 अ०। तलियाणिय भजिया णिय सोल्लियाणि य उवक्खडावे ति अन्ने सोरियदत्त पुं० (शौर्यदत्त) स्वनामख्याते मत्स्यबन्धपुत्रे, विपा०। य बहवे मच्छरसे य एणेजरसे य तित्तिररसे य जाव मयूररसे जइण मंते। अट्ठमस्स उक्खेदो-एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं य अन्नं विउलं हरियसागं उवक्खडावेति उवक्खडावेत्ता मित्तस्स तेणं समएणं सोरियपुरं णगरं सोरियव.सगं उजाणं सोरियो रनो भोयणमंडवंसि भोयणवेलाए उवणेति अप्पणा विय णं से जक्खो सोरियदत्तो राया, तस्स णं सोरियपुरस्स णगरस्स सिरिए महाणसिएतेसिंच बहूहिं जाव जलचरथलयर खहयरेहि बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीमागे एत्थ णं एगे मच्छंधवाडए च रसतेहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य तलेहिय भिजेहिं य होत्था, तत्थ णं समुद्ददत्ते नाम मच्छंधे परिवसति अहम्मिए सुरंच०६आसाएमाणे० विहरति। ततेणं से सिरिए महाणजाव दुप्पडियाणंदे, तस्स णं समुद्ददत्तस्स समुद्ददत्ता नाम सिए एयकम्मे० सुबहुं पावकम्मं समञ्जिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई भारिया होत्था अहिणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा, तस्स णं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुठवीए समुद्ददत्तस्स पुत्ते समुद्ददत्ताभारियाए अत्तए सोरियदत्ते नामंदारए उववन्नो। ततेणं सा समुहदत्ता मारिया निंदूयावि होत्था, जाया होत्था, अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरे / तेणं कालेणं तेण जाया दारणा विणिहायमावजंतिजह गंगदत्ताए चिंता आपुच्छणा समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया / तेणं कालेणं उवातियं दोहला जाव दारयं पयाता, जाव जम्हा णं अम्हं तेणं समएणं जेट्टे सीसे जाव सोरियपुरे णगरे उच्चनीयम- इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स उवाइयलद्धे तम्हाणं होउ अम्हं ज्झिमकुलाइं अहापज्जत्तं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ नगराओ दारए सोरियदत्ते नामेणं / तए णं से सोरियदत्ते दारए पंचधाइ पडिनिक्खमति, तस्स मच्छंधपाडगस्स अदूरसामंतेणं वीईव- oजाव उम्मुकबालभावे विण्णयपरिणयमित्ते जोवणगमणुपत्तेयमाणे महतिमहालियाए मणुस्सपरिसाए मज्झगयं पासति एगं होत्था। तते णं से समुद्ददत्ते अन्नया कयाइंकालधम्मुणा संजुते, पुरिसं सुकं भुक्खं निम्मंसं अट्ठिचम्मावणद्ध किडिकिडीभूयं / तते णं से सोरियदत्ते बहूहिं मित्तणाइ० रोयमाणे समुह Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोरियदत्त 1167 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोल्लिय दत्तस्स णीहरणं करेंति लोइयमयाई किच्चाई करेंति, अन्नया गोयमा ! सोरियदत्ते पुरापोराणाणं जाव विहरति / सोरिए णं कयाइसयमेव मच्छंधम हत्तरगत्तं उवसंपज्जित्ताणं विहरति।तए मंते ! मच्छंधे इओ य कालमासे कालं किया कहिं गच्छिणं से सोरियए दारए मच्छंचे जाते अहम्मिए जाव दुप्पडि- हिति? कहिं उववजिहिति? गोयमा! सत्तरि वासाइं परमाउयं याणंदे। तते णं तस्स सोरियमच्छंधस्स बहवे पुरिसा दिनभति० पालइत्ता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए कल्लाकल्लं एगट्ठियाहिं जउणामहानदिं ओगाहिंति बहूहिं संसारो तहेव पुडवीओ हत्थिणाउरे णगरे मच्छत्ताए उववने / दहगालणेहि य दहमलणेहि य दहमहणेहिं दहवहणेहिं दहपव सेणं ततो मच्छिएहिं जीवियाओ ववरोविए तत्थेव सेहिकुलंसि हणेहि य अयपुलेहि य पंचपुलेहि य मच्छंधलेहि य मच्छपुच्छेहि बोहिं सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति। निक्खेवो॥ यजंभाहि य तिसिराहिय मिसिराहिय घिसराहि स विसिराहि | (सू० 26) विपा०१ श्रु०८ अ०। य हिल्लिरीहिय झिल्लिरीहिय जालेहिय गलेहिय कूडेपासेहि स्वनामख्याते अध्ययने, विपा०१श्रु०८ अ०। य वक्कबंधणेहि य सुत्तबंधणे हि य बालबंधणे हि य बहवे | सोरियपुर न० (शौर्यापुर) कुशावर्तजनपदप्रधाननगरे, प्रव० 273 द्वार। सण्डमच्छे य जाव पडागातिपडागे य गिण्हंति एगट्ठियाओ सूत्र० / उत्त०। आ० क० / विपा०। नि० चू०। आव०। ती०। नावा भरंति कूलं गाहंति मच्छखलए करेंति आयवंसि दलयंति, सोलग पुं०(सोलक) तुरगचिन्ताभियुक्ते, बृ०१उ०२प्रक०। अन्ने य से बहवे पुरिसा दिनभइमत्तवेयणा आयवतत्तएहिं सोलेहि सोलस त्रि० (षोडशन) षडधिकदशसंख्यायाम, प्रज्ञा० 15 पद। रा०। य तलेहि य भजेहि य रायमगंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। सूत्र० / आगमैकदेशत्वादस्य षोडशकस्यापि नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्र कालभावभेदात् षोडा निक्षेपः। तत्र नामस्थापने क्षुण्णे / द्रव्यषोडशकं अप्पणा वि य णं सोरियदत्ते बहूहिं सण्हमच्छेहि य जाव ज्ञशरीभव्यशरीरविनिर्मुक्तं सचित्तादीनि षोडश द्रव्याणि। क्षेत्रषोडशक पडागा० सोलेहि य भजेहि य सुरं च०६ आसाएमाणे० 4 षोडशाकाप्रदेशाः, कालषोडशकं षोडश समया एतत्कालावस्थायि वा विहरति। तते णं तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाई द्रव्यमिति, भावषोडशकमिदमेवाध्ययनषोडशकं क्षायोपशमिकभावते मच्छसोल्ले तले भने आहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे मृत्तित्वादिति। सूत्र०१ श्रु०१ अ०१3०। 'सोलसवीसइवासपरमाआवि होत्था।तएणं से सोरियमच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूते उस'' इह कदाचित्षोडशवर्षाणि कदाचिन्न विंशतिवर्षाणि परमायुर्येषां ते समाणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेति 2 वेत्ता एवं वयासी-गच्छह तथा। भ०१श०५ उ०। णं तुम्हे देवाणुप्पिया ! सोरियपुरे नगरे सं घाडग जाव पहेसु * षोडश त्रि० षोडशसंख्यापूरणे, प्रज्ञा० 15 पद। य महया 2 सद्देणं उग्घोसेमाणा 2 एवं वयह, एवं खलु देवाणु सोलसखुत्तोअव्य० (षोडशकृत्वस्) षोडशभेदनाश्रित्येयर्थे,भ०३५ श० प्पिया ! सोरियस्स मच्छकंटए गले लग्गे तं जो णं इच्छति १उ०। विज्जो वा०६ सोरियमच्छियस्स मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तते सोलसम त्रि० (षोडश) षोडशसंख्यापूरणे, स्था० 3 ठा० 4 उ०। तस्स णं सोरियदत्ते विउलं अत्थसंपयाणं दलयति। तते णं ते सोलसिया स्त्री० (षोडशिका) माणिकाया एव षोडशभागवर्तित्वात् कोडुंबियपुरिसा जाव उग्धोसंति / तए णं ते बहवे विजा य० षोडशपलप्रमाणा षोडशिका / अनु०। षोडशभागमाने मानविशेषे, भ० ६इमेयारूवं उग्घोसणं उग्घोसिज्जमाणं निसाति 2 मित्ताजेणेव ७श०८ उ०। सोरियदत्ते गेहे जेणेव सोरियमच्छंधे तेणेव उवागच्छंति बहूहिं सोलहविह त्रि० (षोडशविध) षोडशप्रकारे, स्था० 10 ठा०३ उ०। उप्पत्तियाहिं०४ बुद्धीहिय परिणममाणा वमणेहिय छडणेहिय | मोल्ल घाल पिच ओटनाटिरन्धन विपा० 1 03 अ०। "पचे: उव्वीलणेहिय कवलग्गाहेहिय सल्लुद्धरणेहि य विसल्लकरणेहि | सोल्ल-पउल्लो"TEO || इति पचेः सोल्लादेशः / य इच्छंति सोरियमच्छंधे मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, नो सोल्लइ / पचति / प्रा० / विपा०। चेव णं संचाएंति नीहरित्तए वा विसोहित्तए वा ।.तते णं बहवे * क्षिप् धा० प्रेरणे, "क्षिपेर्गलत्थाजक्खसोल्ल-पेल्ल-गोल्लविजाय०६ जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलाओ छुह-हुल परिघत्ताः"||||१४३।। इति क्षिपतेः सोल्लादेशः। नीहरित्तए ताहे सताजाव जामेव दिसिंपाउन्भूया तामेव दिसिं सोल्लइ / क्षिपति। प्रा०। मांसे, पुं। दे० ना०५ वर्ग 44 गाथा। पडिगया। तते णं से सोरिय० मच्छ० विज० पडियारनिविण्णे | सोल्लिय त्रि० (शौल्य) शूलसंस्कृते, शूलिभिश्च घृतादिनाऽनौ संस्कृते, तेणं दुक्खेणं महया अभिभूते सुके जाव विहरति / एवं खलु | उपा / शूलपक्के, विपा०१ श्रु०८ अ०। कुसुमविशेषे, नपुं०। औ०। Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोव 1168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोव्वओ सोवधा० (स्वप) शयने, "स्वपावुच "||१|६४॥इति स्वपिते- 4 अधि० / रा० / स्था० / र्धातोरस्योत्। सोवइ / सुवइ / स्वपिति। प्रा०१ पाद। सोवत्थ (देशी) उपकारे, दे० ना०८ वर्ग 45 गाथा। सोवओगपुं० (सोपयोग) उपयोगसहिते, स्था०२ ठा०४ उ०1(उपयोग- | सोवत्थिय पुं० (सौवस्तिक) स्वस्तिवादके, औ०। मणिलक्षणविशेषे, वक्तव्यता 'उवओग' शब्दे द्वितीयभागे द्रष्टव्या।) रा००।द्वी०। जी०। पञ्चकमित्यन्ये। प्रासादविशेष इत्यपरे, ज्ञा० सोवक्कम न० (सोपक्रम) सहोपक्रमेणापवर्तनाकरणाख्येन वर्तत इति [.. १श्रु०१ अ०। त्रीन्द्रियभेदे, जी०१ प्रति०१अधि01 प्रज्ञा०। अङ्गारसोपक्रमः / कर्मभेदे, उत्त०५ अ०। आचा० / कर्मा द्विधा--सोपक्रम, कादिषु ग्रहेषु षष्टितमे महाग्रहे, चं० प्र०२०पाहु01 कल्प०। प्रश्न०। निरुपक्रमं च। तत्र यानि वैरादीनि सोपक्रमसाध्यानि तान्येव जिनाति दो सोवत्थिया। स्था०२ ठा०३ उ०। शयादुपशाम्यति सदौषधात्साध्यव्याधिवत्। विपा०१ श्रु०३ अ०। सोवत्थियकूड न० (सौवस्तिककूट) पूर्वरुचकपर्वतस्य षष्ठे कूटे, सोवक्कमाउस त्रि० (सोपक्रमायुष) अकालमरणधर्मसहिते, श्रा०। विद्युत्प्रभस्य वक्षस्कारपर्वतस्य तृतीये कूटे, स्था०६ ठा०३ उ०। सोपक्रमायुरिमाह सोवयार पुं०(सोपचार) वर्णाधुचितपरिणामे, विशे०1 अनिष्ठुराविरुद्धादेवा नेरझ्यावा, असंखवासाउआ अतिरिमणुया। लज्जनीयाभिधाने, स्था०७ ठा०३ उ०। अग्राम्याभिधानमितनियतउत्तमपुरिसा य तहा, चरमसरीराय निरुवकमा।। 75 // वर्णादिपरिणामे, आ० म०१अ०। अनु०। ग्राम्यभणितिरहिते, अनु०॥ देवानारकाश्चैते सामान्येनैव असंख्येयवर्षायुषश्च तिर्यड्यनुष्या एतेन सोवरी स्त्री० (शाम्बरी) शम्बरासुरीये विद्याभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ01 सोवहि पुं० (सोपधि) मायाविनि परव्यंसके, दश०१ अ०। संख्येयवर्षायुषांव्यवच्छेदः। उत्तमपुरुषाश्चक्रवदियो गृह्यन्ते। चरम सोवहि त्रि० (सोपधिक) उपधीयते संगृह्यते इत्युपधिः, द्रव्यतो हिरण्यादि, शरीराश्चाविशेषेणैव तीर्थकरादयः निरुपक्रमा इत्येते निरुपक्रमायुष एव भावतो। माया सहोपधिना वर्तत इति सोपधिकः / आचा०१ श्रु० अकालमरणरहिता इति। 4 अ०१ उ०॥ द्रव्यभावोपधियुक्ते, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। पुष्ट, सेसा संसारत्था, भइया सोवक्कमा व इयरे वा। कल्प० 1 अधि० 6 क्षण। सोवकमनिरुवकम-भेओ भणिओ समासेणं / / 75 / सोवाग त्रि० (श्वपाक) चाण्डाले, स्था०४ ठा०४ उ०। व्य०॥ पं० चू०। शेषाः संसारस्थाअनन्तरोदितव्यतिरिक्ताः संख्येयवर्षायुषः अनुत्तम माजरि, आचा०१ श्रु०६ अ०४ उ०। पुरुषा अचरमशरीराश्च। एतेभाज्या-विकल्पनीयाः कथं सोपक्रमा वा सोवगकरंडय पुं० (श्वपाककरण्डक) चाण्डालपेट्याम्, स्था० 4 ठा० इतरेवा? कदाचित्सोपक्रमाः कदाचिन्निरुपक्रमाः, उभयमप्येतेषु संभव 4 उ०। तीति सोपक्रमनिरुपक्रमभेदो भणितः समासेन संक्षेपेण न तु कर्मभूम सोवागी स्त्री० (श्वपाकी) स्वपाकजातिप्रसिद्ध विद्याभेदे, सूत्र०२ श्रु० जादिविभागविस्तरेणेति / श्रा०। २अ०। सोवक्केस त्रि० (सोपक्लेश) सदुःखे गृहवासे, 'सोवक्केसे मिहिवासे | मोबाण नमोणन जन्नतारोहणमार्गविशेषे स०। निरुवक्केसे परिआए' उपक्लेशैः सह सोपक्लेशः-गृहाश्रमः।दश०१०। सोवीर न० (सौवीर) सिन्धुनदप्रतिबद्धेजनपदभेदे, सूत्र०१ श्रु०५ अ० सोवचलन० (सौवर्चल) लवणभेदे, सूत्र०१ श्रु०७ अ०। आचा० 1301 कल्प० / पज्ञा० / प्रव०। उत्त०। काञ्जिके, दर्श०४ तत्त्व। ग०। सोवट्ठाण त्रि० (सोपस्थान) सहोपस्थानेन धर्मचरणाभासोद्यमेन सह कल्प०1 पञ्चा० / पिं०। प्रव०। आरनाले, आचा०२ श्रु०१चू०१० वर्त्तन्ते इति सोपस्थानाः। वयमपि प्रव्रजिताः। सदसद्धर्मविशेषविकला 7 उ० / उत्त०। पा० / अम्ले, उत्त० 15 अ०। स्था० / मध्यमग्रमस्य इति सावद्यारम्भतया वर्तमानेषु, आचा०१ श्रु०५ अ०६ उ०। षष्ठ्या मूर्छनायाम्, स्त्री० स्था०७ ठा०३ उ०। सोवण (देशी) वासगृहे, दे० ना०५ वर्ग 58 गाथा। सोवीरगन० (सौवीरक) मद्यभेदे, “सोवीरयं पिट्टवजिय जाणे" पिष्टवसोवणिय त्रि० (शौवनिक) श्वभिश्चरतीतिशौवनिकः / क्रूरसारमेयपरिग्रहे र्जितं द्राक्षाखर्जूरादिभिर्द्रव्यैर्निष्पाद्यमानं सौवीरकं विजानीयात्। वृ०४ पुरुष, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। श्वपाके, सूत्र०२२०२ अ०। उ० / सोवीरयं रसंजणं वा ते पुढविपरिणामा वणिया, जेण सुवण्णं सोवण्ण त्रि० (सौवर्ण) सुवर्णमये आभूषणादौ, स्था०६ ठा०३ उ०। वणिजति ! नि० चू०४ उ०। सोवण्णमक्खिय (देशी) मधुमक्षिकाभेदे, दे० ना०८ वर्ग 46 गाथा। सोवीरिणी स्त्री० (सौवीरिणी) रसिन्यां सुरायाम, बृ० 1 उ०२ प्रक० सोवण्णिय त्रि० (सौवर्णिक) सुवर्णमये आभूषणादौ, जी० 3 प्रति० | सोव्वओ (देशी) पतितदन्ते, दे० ना०८ वर्ग ४५गाथा। Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोस 1166 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोहम्मकप्प सोस पुं० (शोष) स्नेहविमाने, औ०।संथा०। जी०। शरीर-स्नेहशोष- | भवति कर्तव्य इति व्यक्तम्, इति गाथार्थः। णरोगे, जी०३ प्रति०४ अधि०। इहैव विधिशेषमाहसोसण (देशी) पवने दे० ना० 8 वर्ग 45 गाथा। दाणं च जहासत्तिं, एत्थ समत्तीऍ कप्परुक्खस्स। सोसणी (देशी) कठ्याम् दे० ना०८ वर्ग 55 गाथा। ठवणाय विविहफलहर-संणामियचित्तडालस्स॥३६ / / सोसिअत्रि० (शोषित) नीरसीकृते, ज्ञा० १श्रु०१०। दानंचसाध्वादिभ्यो देयं यथाशक्तिअत्रतपसि, समाप्तौवाऽस्य तपसः सोसियकसाय त्रि० (शोषितकषाय) शोषिताः-कृशीकृताः कषायाः कल्पवृक्षस्य सुवर्णतन्दुलादिमयस्य, स्थापनाचन्यासश्च। किंविधस्य ? सभेदाः क्रोधमानमायालोभाख्या येन सशोषितकषायः। सूक्ष्मसंपराये, विविधफलभरेण-नानाविधफलभारेण संनमितान्यवनतीकृतानि ग०१अधि०। चित्राणि विविधानि डालानिशाखा यस्य स तथा तस्य, इति गाथार्थः। सोसियप्पाण त्रि० (शोषितप्राण) शोषिताः म्लानिं प्रापिताः प्राणा एए अवझोसणगा, इट्ठफलसाहगा व सहाणे। इन्द्रियादयो येषां ते शोषितप्राणाः / तपः कृशेषु, ग०२ अधिक। अण्णत्थजुया य तहा, विण्णेया बुद्धिमतेहिं // 37 // सोह पुं० (सोफ) शरीरादिशोथे, "सोफः स्यात् षड्विधो धोरो, एतानि अवजोषण्कानि-तपोविशेषसेवाः, इष्ट फलसाधकानि दोषैरुत्सेधलक्षणः / व्यस्तैः समस्तैश्चापीह, तथा रक्ताभिघातजः स्वस्थाने-स्वविषये अव्युत्पन्नविनेयलक्षणे, अन्वर्थयुक्तानि च, तथा ॥१॥"आचा०१श्रु०६ अ०१3०1 अन्वर्थश्चैषां प्राग्दर्शित एव / विज्ञेयानि बुद्धिमद्भिः इति गाथार्थः। पञ्चा० सोहंजणी स्त्री० (शोभाजनी) स्वनामख्याते नगरीभेदे, विपा० 1 0 | 16 विव०। 4 अ० 1 उ०। (तत्र शकटकुमार आसीत्।) सोहण न० (शोधन) निरतिचारकरणे, उपा०१०। सोहंत त्रि० (शोभमान) शोभत इति शोभमानः। शोभां बिभ्रति, प्रज्ञा० *शोभन त्रि० प्रधाने, पञ्चा०७विव०।आव०।आ० म०। मङ्गले, आ० २पद। कल्प। म०१ अ० अन्वेषणे, 'भो देवाणुप्पिया ! सोहणपुरेणयरे चारगसोहणं सोहग्ग न० (सौभग्य) सुभगत्वे, औ०। रूवं पुण जत्थतत्थ सोहग्गा दर्श० करेह' / आ० चू०१अ०। ३तत्व। सोहणगन० (शोधनक) कर्णशोधने, दन्तशोधनेच! बृ०३ उ०।पं०व० / सोहग्गकप्परुक्खतवन० (सौभाग्यकल्पवृक्षतपस्) सौभाग्यस्यसुभग- सोहणदेव पुं० (शोभनदेव) स्वनामख्याते देवविशेषे, "अहो शोभनदेवस्य, तायाः संपादने कल्पवृक्ष इवयःससौभाग्यकल्पवृक्षस्तद्रूपंतपः।लौकि- / सूत्रधारशिरोमणेः / तचैत्यरचनाशिल्पान्नाम लेभे यथार्थताम् // 1 // " कविशेषार्थे चित्रतपोभेदे, पञ्चा०। ती०७ कल्प०। बत्तीसं आयाम, एगंतरपारणेण सुविसुद्धो।। सोहणपुर न० (शोभनपुर) स्वनामख्याते नगरे, आ० चू०१अ०। तह परमभूसणो खलु, भूसणदाणप्पहाणो य॥६॥ सोहम्म पुं० (सौधर्म) सकलविमानसौधर्मावतंसकाभिधानद्वात्रिंशदायान्याचाम्लानिएकान्तरपारणेन--एकायामव्यवहितभोजनेन / विमानविशेषोपलक्षितत्वात्सौधर्मः ! शक्रेन्द्रपालिते प्रथमदेवलोके, सुविशुद्धानि-निर्दोषाणि तथेति समुच्चये, परमभूषणः खलूक्तशब्दार्थः / अनु० / चं० प्र०।उत्त०। प्रव० / जी०। ('ठाण' शब्दे चतुर्थभागे वैमानिभूषणदानप्रधानश्च जिनाय तिलकाद्याभरणदानसारः, इति गाथार्थः। कानां स्थाननिरूपणेऽयं वर्णितः।) भगवतो महावीरस्य पञ्चमे गणधरे, एवं आयइजणगो, विण्णेओ एवरमेस सव्वत्थ। स०। (अस्य वक्तव्यत्ता 'सुहम्म'शब्देऽस्मिन्नेव भागे गता।) अणिगृहियबलविरिय-स्स होइ सुद्धो विसेसेणं // 34 // सोहम्मकप्प पुं० (सौधर्मकल्प) प्रथमदेवलोके, रा०॥ चतुर्दशपूर्वधारिणो एवमित्येकान्तरितद्वात्रिंशदायामरूपम्, आयतिजनक उक्तार्थः जघन्यतो लान्तकदेवलोकंयावयान्ति, कार्तिकश्रेष्ठिजीवस्तुचतुर्दशविज्ञेयः, नवरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः, एषोऽयं सर्वत्र सर्वधर्मकृत्येषु पूर्व्यपि सौधर्मदेवलोकं गतस्तत्र को हेतुरिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्अनगृहितबलवीर्यस्य भवति शुद्धो विशेषेणेति व्यक्तम् / नवरं बलं- तत्र पूर्वविस्मृतिरेव हेतुः सम्भाव्यत इति।। 165 ! / सेन० 4 उल्ला०। शारीरः प्राणाः,वीर्य-चित्तोत्साहः इति गाथार्थः / सौधर्मादिदेवलोकेषु प्रतिप्रतरं सकलविमानानामाधारभूतैका चित्ते एगंतरओ, सव्वरसं पारणं च विहिपुवं / / भूमिरस्ति न वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-सकल-विमानानासोहग्गकप्परक्खो, एस तवो होइणायव्वो।। 35 // माधारभूतैका भूमिर्नास्तीत्यवसीयते ,यतो भगवत्यादौ पृथिवप्रश्न चैत्रेमासे एकान्तरकः-एकदिनव्यवहितः उपवासइतिगम्यते। सर्वरसं, रत्नप्रभादय ईषत्प्राग्भारपर्यन्ता अष्टावेव पृथिव्य उक्ताः सन्ति सविकृतिकमित्यर्थः, पारणं च भोजनम्ः विधिपूर्वं गुरुदानादिपूर्वक- नत्वधिका इति।।३५ / / सेन०१ उल्ला०। सौधर्मे किल्बिषिकाणां मित्यर्थः, सौभाग्यकल्पवृक्ष उक्तार्थः, एषोऽयम् 'तवो' त्ति तपोविशेषो विमानानि द्वात्रिंशल्लक्षमध्येऽन्यानि वा ? तेषां देवानां च सम्यक्त्वं Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहम्मकप्प 1170- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोहि भवति न वा ? तथा तत्र प्रतिमास्सन्ति नवेति / प्रश्नः, अत्रोत्तरम्सौधर्मे द्वात्रिंशल्लक्षविमानानि, देवलोकमध्ये, किल्बिषिकविमानानि तु स्वर्लोकादधः संग्रहिण्यादौ प्रतिपादितानि सन्ति, तथा तेषां सम्यक्त्यपूजाप्रतिमाक्षराणिशास्त्रे दृष्टानिनस्मरन्तीति॥ 136 / / सेन० 3 उल्ला०1 ('ठाण' शब्दे 4 भागे सौधर्मकल्पविशेषः।) सोहम्मवडिंसय पुं० (सौधर्मावतंसक) सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभाग-- वर्तिनि शक्रनिवासभूते प्रधानविमाने, स० सोहम्मवडिंसयस्सणं विमाणस्स एगमेगाए बाहाए पणसटिं पणसर्हि भोमा पण्णत्ता / (सू०६५४) 'सोहम्मे' त्यादि, सौधर्मावतंसकं विमानं सौधर्मदेवलोकस्य मध्यभागवर्ति शक्रनिवासभूतम् 'एगमेगाए' त्ति एकैकस्यां दिशि प्राकाराभ्यर्णवर्तीनि भौमानि नगराकाराणि विशिष्टस्थानानीत्येके। स०६५सम० / सौधर्मे कल्पे चतुर्दिक्षु चत्वारि विमानानि मध्ये पञ्चमः सौधर्मावतंसकः, पुंस्त्वं च प्राकृतत्वात्। रा०। सोहम्मिंदपुं० (सौधर्मेन्द्र) शक्रे, प्रज्ञा०२ पद। सोहय त्रि० (शोधक) शोधयतीति शोधकः / अनेकजन्मभाविकर्मादि तापने, आ०म०१ अ०। सोहा स्त्री० (शोभा)"ख-घ-थ-ध-भाम्" // 8 / 1 / 187 // इत्यनेन भस्य हः / शृङ्गारे, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। प्रभायाम, ज्ञा० 1 श्रु० ६अ। सोहि स्त्री० (शुद्धि) शुध-शौचे, स्त्रियां क्तिन्। शोधन शुद्धिः। विमलीकरणे, आव०। इदानीं शुद्धिः 'शुध' शौचे, अस्य स्त्रियां क्तिन, शोधनं शुद्धिः विमलीकरणमित्यर्थः, सा च नामादिभेदतः षोदैव, तथा चाऽऽहनाम ठवणा दविए, खित्ते काले तहेव भावे य। एसो खालु सुद्धीए, निक्खेवो छव्विहो होइ / / 1241 // तत्र नामस्थापने गतार्थे द्रव्यशुद्धिस्तापसादीनां स्वगुर्वालोचनादिना अनुपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टरुपयुक्तस्य वा निवस्य वस्त्रसुवर्णादा जलक्षारादिभिरिति, क्षेत्रशुद्धिर्यत्र व्यावय॑ते क्रियते वा क्षेत्रस्य वा कुलिकादिनाऽस्थ्यादिशल्योद्धरणमिति, कालशुद्धिर्यत्र व्यावय॑ते क्रियते वा शुवादिभिर्वा कालस्य शुद्धिः क्रियते इति। भावशुद्धिर्द्विधाप्रशस्ता, अप्रशस्ता च / प्रशस्ता ज्ञानादेरप्रशस्ता चाशुद्धस्य सतः क्रोधादेवैमल्याधानं-स्पष्टतापादनमित्यर्थः, अथवौवत एवोपयुक्तस्य सम्यग्दृष्टः प्रशस्ता, तयेहाधिकारः, प्रतिक्रमणपर्यायता चास्याः स्फुटा, एवं प्रतिक्रमणमष्टधा भवतीति गाथार्थः / आव०१ अ० / आ० म०। आ०चू०। दोषविनाशने, आ०चू०१अ० शल्योद्धारणे, ध०२ अधि० / नि० चू० / प्रायश्चित्ते, व्य० 1 उ० / आलोचना व्यवहारः प्रायश्चित्तं शुद्धिरिति पर्यायाः / व्य०१ उ० 1 आ० चू० / स्था० / दुष्टकर्मनाशस्वरूपायां लघुकर्मतायाम्, उत्त०१उ०। विशे०। मिथ्यात्वममत्वापगमात्सम्यक्त्वं शुद्धिरुच्यते। विशे०। यथा तिरश्चां गुरुसमक्ष प्रायश्चित्तं विनाऽपि शुद्धिर्जायते, तथा नृणां सा कथं न भवतीति ? प्रश्नः / अत्रोत्तरम् तिरश्चां गुरुसमक्षं प्रायश्चित्तं विना शुद्धिर्भवति, तथाविधसामग्यभावात् मनुष्याणा प्रायः तथाविधसामग्रीसद्भावात् तद्विना न शुद्धिः, अत एव गुद्यियोगे तत्परिणामवतां तदग्रहणेऽपि शुद्धिः तद्योगे चतदगृह्णतां तत्परिणामाभावादशुद्धिरिति॥१०६।। सेन०२ उल्ला०॥ पाक्षिक प्रतिक्रमणमुखवस्त्रिकाप्रतिलेखनानन्तरं पौषधिकं विना प्रतिक्रमणसूत्रादेशो दत्तः शुद्ध्यति न वा इति? प्रश्नः अत्रोत्तरम्मुख्यवृत्त्या पौषधिकस्य दीयते ईदृशं वृद्धवचोऽस्ति, परमेकान्तो ज्ञातो नास्तीति।। 120 // सेन०२ उल्ला०। तथा-सिंहदिसक्रान्तित्रयमध्ये तथा वर्द्धितमासमध्येचकानि कर्मकार्याणि शुद्ध्यन्ति ? कानि नेति प्रश्नः अत्रोत्तरम्-दीक्षाप्रतिष्ठादिकं न शुद्ध्यति, अन्यानितुशुद्ध्यन्तीति॥ 24 // तथा-विक्रयकारिसमुच्छेदितनामलाञ्छनानां प्रतिष्ठितार्हत्प्रतिमानां पुनर्लक्ष्मादिकरणं शुद्ध्यति नवेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-तासामभिधानलक्ष्मादिकरणं प्रायो न शुद्ध्यति, कदाचित्कारणे यद्यावश्यकं कर्त्तव्यं स्यात् तदा तद्विधानानन्तरं प्रतिष्ठितवाक्षेपादिना शुद्धिर्भवतीति श्रीभगवत्पादानामनुशिष्टिरिति / / 25 / / सेन०३ उल्ला० / तथा-उपवासी श्राद्धः सन्ध्यायां समायिक विधाय मुखवस्त्रिका प्रतिलिख्य प्रत्याख्यानं करोत्यन्यथा वा ? यदि तथैव तदा वन्दनकदाननिषेधः कस्मादिति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-सामाचारीप्रमुखग्रन्थेषु भोजनदिवसे वन्दनकदानानन्तरं प्रत्याख्यानकरणाक्षराणि सन्ति, परमुपवासदिने वन्दनकदानानन्तरं प्रत्याख्यानकरणविधिर्नास्ति, मुखपोत्तिका तु प्रतिलेखिता युज्यते यस्मात्तां विना प्रत्याख्यानंन शुद्ध्यतीति सामाचार्यस्ति, तथोपधानेऽपि तथैव करणादिति॥ 76 / / सेन०३ उल्ला०।तथा-कृतगृहसत्कप्रत्याख्यानः श्राद्धो गृहे गत्वाऽन्यत्र भोजनं करोति तदा शुद्ध्यति किं वा तत्र दन्तधावनं विधायेति ? प्रश्नः अत्रोत्तरम्-कृत गकृहसत्कप्रत्याख्यानः श्रावको गृहे गत्वा पारित गृहसत्कप्रत्याख्यानो दन्तधावनकरणमन्तराऽप्यन्यत्र भुङ्क्ते तदा शुद्ध्यतीति वृद्धाः // 63 // सेन०३ उल्ला०1 तथाचैत्रमासीयकायोत्सर्गविस्मृतौ यत् स्वयं योगोद्वहनं न कल्पते, तथा अन्येषां योगक्रियाप्रवेदनादिकं कारयितुं शक्यतीति न वा? तथा कालग्रहणं दण्डिकाधारणं दिगालोगश्च शुद्ध्यतीति नवेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-चैत्रसम्बन्धिकायोत्सर्गाऽकरणे तस्य योगसम्बन्धिनी क्रिया स्वयं कर्तुं परेषां कारयितुंचन कल्पत इति।।१५८॥ सेन०३ उल्ला०। तथा प्रवालाद्यक्षमालाग्रे प्रतिक्रान्तिः शुद्ध्यतिन वेति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्सूत्रीयनिश्चलमणिकाक्षमालाग्रे स्थापनपुरःसिरक्रियाकरणविधिदृश्यते परम्परयेति॥ 125 / / सेन०३ उल्ला०ा तथा सूर्यग्रहणं यद्भवति तदस्वाध्यायिका कृत आरभ्य कियद्यावद्भवति? तथा यौगिकानां कियन्तिप्रवेदमानिनशुद्ध्यन्तीति? प्रश्नः,अत्रोत्तरं यत्सूर्यग्रहणं भवतितत आरभ्याहोरात्रंयावदस्वाध्यायिका, तदनुसारेणैकंप्रवेदनमशुद्धंज्ञायतइति॥ 210 // सेन० 3 उल्ला० / तथा जिनालये प्रत्याख्यानं पारयितुं शुद्ध्यति नवेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम् शुद्ध्यतीति सम्प्रदाय इति॥१८४ // सेन०२ उल्ला०। Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहि ११७१-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोअरिय जयदशमी यावत् खण्डाविहरणं कथं न शुद्ध्यतीति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्- सर्वस्नानकरणेऽप्येकान्तो ज्ञातो नास्ति, हस्तपादप्रक्षालनेन शुद्ध्यपरम्परया खण्डाविहरणं निषिध्यते इति-॥३१७।। सेन०३ उल्ला०। न्तीति // 167 / / सेन० ४उल्ला० / तथा-श्राद्धा दन्तधावनं कृत्वैव तथा कश्चिद् श्राद्ध एकाशनद्व्यशनप्रत्याख्यानेन विना प्रासुकजलं देवपूजां कुव॑न्त्यन्यथा वेति ? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्--'शुचिः पुष्पाभिषपिबति पाणस्साद्याकारनुचरति तस्य रात्रौ द्विधाहारस्त्रिधाहारो वा कृतः स्तोत्रै' रिति योगशास्त्रादिवचनान्मुख्यवृत्त्या दन्तधावनं कृत्वैव देवपूजां शुद्ध्यति किं वा चतुर्विधाहार इति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-रात्रौ चतुर्वि कुर्वन्ति, पोषधोपवासादिकर्तुकामाश्च दन्तधावनं विनाऽपि देवपूजां धाहारं करोतीति परम्पराऽस्ति // 4 // सेन०४ उल्ला० / तथा येन कुर्वन्ति, प्रत्याख्यानस्य बहुफलत्वादिति ज्ञायते / / 168 || सेन०४ नमस्कारसहितप्रत्याख्यानं कालवेलायां न कृतं तस्य पश्चात्पौरु उल्ला ष्यादिप्रत्याख्यानं कर्तुं शुद्ध्यति न वा ? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम् * शोधिन् त्रि० शोधयत्यात्मपराविति शोधिः / स्वपरशोधके, ज्ञा० नमस्कारसहितप्रत्याख्यानं विना पौरुष्यादिप्रत्याख्यानं कर्तुन शुद्ध्य १श्रु०१ अ०। त्येवंविधाक्षराणि श्राद्धविधिप्रमुखग्रन्थेषु सन्तीति ज्ञेयम्॥३३।। तथा सोहिकप्पपुं० (शोधिकल्प)शोधिः प्रायश्चित्तं द्रव्यादिषुरुषभावेन कल्पते प्रतिष्ठितजिनप्रतिमा विक्रयकारिभिः समुच्छेदितनामलक्षणाः श्राद्धैर्द्र यत्र सशोधिकल्पः। शुद्धाचारे, नि० चू०२० उ०। व्यव्ययेन गृहीताः सन्ति, तेन तन्नामोच्चारावसरे कस्य जिनस्येयं प्रतिमेति सोहिय त्रि० (सोधित) मार्जनिकादिभिः शुद्धिमापादिते, स्था० 4 ठा० वक्तुं कथं शक्यते ? ततो यदि लक्ष्मादिकरणविधिर्भवति तर्हि तथा 2 उ०। सूत्र० / उत्त०।"इणं पच्चक्खाणं सोहियं तीरियं पारियं"गुर्वादिप्रसाद्यमिति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रतिष्ठितजिनप्रतिमानामभिधानलक्ष प्रदत्तशेषभोजनासेवनेन राजिते, प्रव० 4 द्वार / गुरुदत्ताद्दर्शनादिशेषणादि प्रायस्तु न कर्त्तव्यं, पुनः प्रतिष्ठाकर्तुरज्ञातत्वादिकारणेन यद्यावश्यकं कर्तव्यं भवति तदा तद्विधाय प्रतिष्ठितवासक्षेपादिना शुद्धिर्भवतीति भोजनसेवनयैव हेतुभूतया सेविते, पं०व०२ द्वार।दशा०।शोधितस्तज्ञायते इति / 41 / / सेन०४ उल्ला० / तथा-प्रतिमाधरः श्रावकः त्समाप्तावुचितानुष्ठानकरणतः स्था०शोधितमन्येषामपि तदुचिताना श्राविका वा चतुर्थी प्रतिमात आरभ्य चतुष्पवर्वीपौषधं करोति तदा दानादतिचाग्वर्जनाद्वारा प्रश्न०१ संब० द्वार/आ०म०/आव० शाधितो पाक्षिकपूर्णिमाषष्ठकरणाभावे पाक्षिकपौषधं विधायोपवासं करोति निराकृतातिचारत्वात्। भ०२श०१ उ०। पूर्णिमायां चैकाशनकं कृत्वा पौषधं करोति तत् शद्ध्यति न वा ? इति सोहियर त्रि० (शोधिकर) अनन्तानुबन्धक्षयप्रक्रमेणशुद्धिजनके, आचा० प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रतिमाधरः श्रावकः श्राविका वा चतुर्थीप्रतिमात १श्रु०६ अ०१ उ०। आरभ्यचतुष्पीपौषधं करोति तदा मुखवृत्त्या पाक्षिकपूर्णि-मयोश्चतु सोहिल्ल त्रि० (शोभावत्)"आल्विल्लोल्लाल-वन्त-मन्तेत्तेरविधाहारः षष्ठ एव कृतो युज्यते कदाचिच्च यदि सर्वथा शक्तिर्न भवति मणा मतोः" / / 8 / 21156 / / इति मतोः स्थाने इल्लादेशः। तदा पूर्णिणमायामाचामाम्लं निर्विकृतिकं वा क्रियते, एवंविधाक्षराणि सोहिल्लो। शोभाविशिष्टे, प्रा०२ पाद। सामाचारीग्रन्थे सन्ति, परमेकाशनकं शास्त्रे दृष्ट नास्तीति॥४२॥सेन० सोही (देशी) भूतभविष्यत्कालयोः, दे० ना०५ वर्ग 58 गाशा। 4 उल्ला०। तथा-त्रिकालपूजाकरणे प्रभाते मालादि निर्माल्यमपास्य साहेउं अव्य० (शोधयित्वा)उद्धृत्येत्यर्थे, पं०व०२ द्वार। सवस्नानेन वासपूजा क्रियतेऽन्यथा वेति? प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-प्रभाते / सोअरिय पुं० (सौदर्य) समाने उदरे शेते इति सौदर्यः। सहोदरभ्रातरि, पुष्पमालादि निर्माल्यमनपास्य श्राद्धा वासपूजां कुर्वन्तो दृश्यन्ते, | प्रा० 1 पाद। A इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु. श्रीमद्भारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 / श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते _ "अभिधानराजेन्द्रे" सकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1172 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हंस . . . . . .. . . . DIDIOID हकार गमद्योतने, अनु०। संप्रेषणे, सूत्र०१ श्रु०१ अ०२ उ०। खेदे, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। प्रति० / अष्ट० / एवमेवेत्यर्थे, औ० / निर्देशे, प्रति०। वाक्यारम्भे, जं०२ वक्ष०। आमन्त्रणे, आचा०२ श्रु०१ चू०१ अ०४ उ०। हर्षे, अनुकम्पायाम, रा०॥ ह अव्य० (ह) कण्ठस्थानीय ऊष्मसंज्ञकोऽयं वर्णः। अधिक्षेपार्थे, स्था० * हन्त अव्य० दीर्घत्वं च मागधदेशीयत्वात्, 'हंता अत्थेि णो चेव। अत्र 7 ठा० 3 उ०। पादपूरणे, संबोधने, नियोगे क्षेपे निग्रहे, प्रसिद्धौ च / " "भगवानाह-हंतेत्यादि, आमन्त्रणे, जं०२ वक्ष०। "हकारः पुंसि यजने, वरुणे हरिहंसयोः। ईश्वरे चावलेपे च, रणरोमा हंतव्य त्रि० (हन्तव्य)"हन्खनोऽन्त्यस्य"|5||२४ // अत्र अवाजिषु " 64 || एका०। हीरे, हारे, एका० / "हा स्त्रियां त्यजेन बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि द्वित्वं तच्च क्वचिन्न भवतीत्युक्तेन भवति। गत्याँ, वीणायां वा निगद्यते। नपुंसके हकारस्तु, क्वणिते मणिरोचिषु // हंतव्वं / प्रा०।दण्डकशादिभिर्वध्ये, आचा०१ श्रु०४ अ०१ उ०। 65 // " एका०ा खेदे, बृ०४ उ०। हंता अव्य० (हत्वा) विनाश्येत्यर्थे, स्था० 3 ठा० 2 उ०। लगुडादि मिरभ्याहार्येत्यर्थे, भ०८ श०५ उ०॥ * हा अव्य० "वाऽव्ययोत्खातादावदातः"||११६७॥ इति / आकारस्य वा अकारः / विषादे, शोके, पीडायाम, कुत्सायाञ्च / प्रा० *हंत त्रि० ताच्छ्रीलिकस्तृन् मृगशूकरादिकत्रसप्राणिहन्तरि, सूत्र० १पाद। २श्रु०२ अ०॥ आचा०। हअ त्रि० (हत) हन् क्त / नाशिते, प्रतिहते प्रबिद्धे, आशारहिते गुणिते हंतुं अव्य० (हन्तुम्) विनाशयितुमित्यर्थे, बृ० 1 उ०२ प्रक०। च, भावे क्तः। हनने, गुणने, न० / प्रा०। हंतूण अव्य० (हत्वा)"हन्खनोऽन्त्यस्य"||८||२४|| अत्र *हृत त्रि० ह–क्त / अत्र केचित् / ऋत्वादिषु द इत्यारष्ववन्तः स तु बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि द्वित्वे,तच क्वचिन्न भवतीत्युत्केर्न भवति। शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते। प्राकृते हि। हृतम्। ह। प्रा० / विनोश्येत्यर्थे, संथा०। आतु०। प्रा०ा"हन्खनोऽन्त्यस्य"||||२४४॥ इत्यन्त्यस्य द्वित्वंन, हंद अव्य० (गृहाण) 'हन्दच गृहाणार्थे"||२११५१॥ गृहाणार्थे क्वचिन्न भवतीत्युक्तेः। प्रा०। अपहृते, स्थानान्तरंगमितेच। प्रा०। हन्द इति प्रयोक्तव्यम्, 'हंद एलाएसु इमे' गृहाणेत्यर्थः / प्रा०। हआस त्रि० (हतास) अत्र केचित् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु * हन्त अव्य० कोमलामन्त्रणे, स्था० 5 ठा० 1 उ० / आमन्त्रेण, नि० शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते / प्राकृते हि-हताशः, चू०४ उ० हर्षे, आ० म०१ अ०। हआशो / प्रा० / आशाशून्ये, बध्ये, निर्दये, पिशुने च। प्रा०॥ हंदि अव्य० (हन्दि)"हंदि-विषाद-विकल्प-पश्चात्ताप-निश्चयहइ स्त्री० (हृति) हन्-क्रिन्-हनने, मारणे, व्याघाते, अपकर्षे, गुणने च / सत्ये"॥८१२/१८०॥हंदि इति विषादादिषु प्रयोक्तव्यम्। "हंदि प्रा०४ पाद। चलणे णओ सो, ण माणिओ हंदि हुज्ज एत्ताहे। हंदिण होही भणिरी, सा हउं त्रि० (अहम्) "सावस्मदो हउं" ||8||375 / / इत्यपभ्रंशे सिज्जइहंदितुह कजे।" प्रा०। उपप्रदर्शने, बृ०४ उ०।अनु०। आचा०। अस्मच्छब्दस्य सौ परे हउं इत्यादेशः। तसु हउं कलिजुगि दुल्लहहो। स्था०॥ दश० / पञ्चा०। सम्म०।०। आ० चू०। आव०। आमन्त्रणे, प्रा०४ पाद। ज्ञा०१ श्रु०१५ अ० कोमलामन्त्रणे, जीवा०१६ अधि०।चोदकाहं अव्य० (ह) हर्षे, हिंसायां च / एका। मन्त्रणे, व्य०१० उ०। स्वसंबोधने, पिं०। प्रत्यक्षवाक्यदर्शने, नि० चू० * अहम् त्रि०'अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि-ह-अहं अहयं सिना॥ 12 उ० लोकसाधककारणोपप्रदर्शने, बृ०३ उ०।। 8 / 3 / 105 / / इति सिना सहितस्य अरमच्छब्दस्य हं इत्यादेशः। / | हंभो अव्य० (हम्भो) आमन्त्रणे, ज्ञा० 1 श्रु०१४ अ०1 शिष्याऽऽमन्त्रणे, अस्मच्छब्दस्य प्रथमैकवचनार्थे, जेण हं विद्धा / प्रा०। ज्ञा०।" दश०१चू01 हंजे अव्य० (हजे)"हंजे चेव्याहाने"॥११२१॥शौरसेन्यां हंश पुं० (हंस) "रसोर्लशौ" ||8|| 288 // इति मागध्यां चेट्याहाने हंजे इति निपातः प्रयोक्तव्यः / हंजे। चतुरिके! नाट्यक्रियायां दच्त्यसकारस्य तालव्यशकारः। स्वनामख्याते पक्षिभेदे, प्रा०। नटाभिनये कृते चेटीसंबोधने, प्रा० 4 पाद। हंस पुं० (हंस) चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, अनु०। स्वनामख्याते पक्षिभेदे, हंडिया स्त्री० (इण्डिका) लघुकुम्भ्याम्, मस्तकन्यस्तदधिहण्डिका।। "अम्लत्वेन रसज्ञाया, मिश्रयोः क्षीरनीरयोः। विवेच्य पिबति क्षीरं, विशे०। नीरं हंसो विमुञ्चति," आ० क०१ अ०। अनुयोगे हंसोदारणमुक्तम् हंत अव्य० (हन्त) वाक्योपन्यासे, आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। प्रत्यव- आ० म०१ अ०। अनु० / प्रश्न० / रजके, “बत्थधोवा हवंति हंसा धारणे, कोमलामन्त्रणे, हा०१६ अष्ट० / द्वा०। औ० / अनु० / प्रति०। वा, "वस्वधावकावस्त्रप्रक्षालका हंसा इव रजका इव भवन्ति। सूत्र० पञ्चा०।दर्श०। शिष्यामन्त्रणे, आचा०२ श्रु०२.अ०३ उ०1अभ्युप- - 104 अ०२ उ०। परिव्राजकमते यतिविशेषेषु, ये पर्वतकुहर Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंस 1173 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हढकारग पथ्याश्रमदेवकुलारामवासिनो भिक्षार्थं च ग्राम प्रविशन्ति। औ01 | हक्खुप्प धा० (उत्क्षिप) ऊर्ध्व प्रक्षेपे, "उत्क्षिपेर्गुलगुञ्छोत्थङ्हंसगब्भ पुं० (हंसगर्भ) हंसः-पतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषः, गर्भस्तु घाल्ल-त्थोग्भुत्तोस्सिक-हक्खुप्पाः" ||4|144 // इति तन्निर्वर्तितः कोसिकारः, हंसस्य गर्भो हंसगर्भः। हंसनिर्वर्तिते कोसिकारे, उत्पूर्वस्य क्षिपेः हक्खुप्प इत्यादेशः। हक्खुप्पइ। उक्खिप्पइ / प्रा० / अनु०। जं०रत्नविशेषे। जी०३ प्रति०४ अधि०। सूत्र०। रत्नप्रभायाः | हगे त्रि० (अहम/वयम्) "अहं-वयमोहंगे" // 8 / 4 / 301 / / पृथिव्याः षष्ठे रत्नगर्भकाण्डे, आ०म०१०। ज्ञा० स्था०। प्रज्ञा०। मागध्यामहंवयमोः स्थाने हगे इत्यादेशः / अस्मच्छब्दस्यैकत्वे, बहुत्वे हंसगन्भमय न० (हंसगर्भमय) हंसगर्भाख्यरत्नमये, रा०। च। प्रा०४ पाद। हंसतेल्ल(ल)न० (हंसतैल) हंसपक्षिपाकतैले, "हंसो पक्खी भण्णति, हच्छंकर पुं० (हच्छङ्कर) वनस्पतिभेदे, आचा०२ श्रु०२चू०३ अ०॥ सोफाडेऊण मुत्तपुरीसाणिणीहरिजन्ति, ताहेसो हंसो दव्वाण भरिजति, | हट्ट पुं० (हट्ट) आपणे, नानागृहाध्यासिते त्रिकोणे भूभागविशेषे, अनु०। ताहे पुणरवि सोसीविज्जति। तेण तदवत्थेण तेल्लं पचति तं हंसतेल्लं पण्यशालायाम्, आचा०१ श्रु०६ चू०२ अ० आ०म०। भण्णति ! नि० चू०१ उ०। हट्ट त्रि०(हृष्ट) हर्षिते, उत्त०१८ अ०। विस्मयमापन्ने, यथा-अहो भगवान् हंसदीव पुं० (हंसद्वीप) स्वनामख्याते तीर्थभेदे, यत्र श्रीसुमतिनाथ तीर्थकरः समुत्पन्न इति / आ० म०१ अ० जी०भ० औ० / रा०1 देवपादुका। ती०४३ कल्प०। ज्ञा०ानीरोगे, प्रव०४ द्वार। भ०। नि० चू० स्था०। स०। तारुण्येन हंसलक्खण त्रि० (हंसलक्षण) हंसस्येव लक्षणं स्वरूपं शुक्लता हंसा वा समर्थे, तरुणा अपि केचिद्रागिणो निर्बलशरीराश्च भवन्ति। कल्प०३ लक्षणं चिहं यस्य सः। ज्ञा०१श्रु०१०। शुक्ले हंसचिह्ने, भ०६श० अधि०६ क्षण। हृष्टतुष्टानन्दिताः एकार्थाश्चैते, विपा० 1 श्रु०१ अ०। 33 उ०। हंसवद्विशदे, जं०२ वक्ष०। हतु त्रि० (हृष्टतुष्ट) अतितुष्टे, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ०। आ० म०१ अ०। हंससर त्रि० (हंसस्वर) हंसस्येद मधुरः स्वरो येषां ते ! हं ससदृश भ० / औ०। विपा०। दशा०। भ०। हट्ठतुट्ठचित्तमाणदिए हृष्टतुष्टोऽतीव मधुरस्वरयुक्तेषु, जं०२ वक्ष०ा तं०जी०। तुष्टः / अथवा-हृष्टो नाम विस्मयमापन्नो यथा अहो भगवानास्ते इति हंससरिसग्गइ त्रि० (हंससदृशगति) हंसस्य सदृशी गतिर्येषांते। हंसतुल्य तुष्टस्तोपं कृतवान् यथाभव्यमभूत्यन्मथा भगवानलोकितः तोषवशादेव गतिषु, जी०३ प्रति०४ अधि०। चित्तमानन्दितं-स्फीतीभूतं 'टुनदि' समृद्धाविति वचनात् यस्य स हंसासन न० (हंसासन) येषामासनानां मध्यभागे हंसा व्यवस्थितास्तानि चित्तानन्दितः सुखादिदर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपातः। मकारः हंसासनानि। हंसाकृतिव्यवस्थितेषु आसनेषु, जं०१ वक्ष०ा जी०। प्राकृतत्वादलाक्षणिकस्तस्तः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः। हंसासनसंठिय त्रि० (हंसासनसंस्थित) हंसासनवत्संस्थिते, जी० रा०। भ० / कल्प० / जी०। 3 प्रति०२ अधि०। हड (देशी) वनस्पतिविशेषे, उत्त०२२ अ०। हंहो अव्य० (हंहो) हमित्यव्यक्तं जहाति हा-डो। संबोधने, दर्प, दम्भे, प्रश्ने च / प्रा०। *हत त्रि० अपहृते, स्थानान्तरंगमिते च। कल्प०१अधि०४ क्षण! हक धा० (निषिध्) प्रतिषेधे, "निषेधेकः "||||१३५॥इति हडप्प (देशी) आभरणकरण्डके, ज्ञा०१ श्रु०१ अ०। इम्मादिभाजने, निषेधतेर्हक्क इत्यादेशः। हक्कइ। निसेहइ। प्रा०। कुमारेण स करी हक्कितः। ताम्बूलार्थ पूगफलादिभाजने, भ०६श०३३ उ०। औ०। उत्त०१३ अ०। हडाला पुं० (हडाला) स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र वस्तुपालतेजःपालाभ्यां हक्कार पुं० (हाकार) हा इति हाकारलक्षणा या नीतिः-प्रवृत्तिः सा निधिलब्धः। ती०५१ कल्प०1 हाकारः / आ० म०१ अ०। प्रथमद्वितीयकुलकरदण्डनीतौ, "हक्कारे हडाहड न० (हृताहृत) अत्यर्थे, "फुट्टहडाहडसीसे'' विपा० 1 श्रु० . मक्कारे धिक्कारे चेव दंडनीतीओ" आ० म०१ अ० / दण्डनीतिस्तावत् | 1 अ०॥ज्ञा०। विमलवाहनचक्षुष्मत्कुलकरकाले अल्पापराधित्वेन हक्काररूपैवाभूत्। हडि पुं० (हडि) खोटके, औ० / विपा० / कर्म० / काष्ठधोटके, दशा० यशस्विनोऽभिचन्द्रस्य च काले अल्पेऽपराधे हक्काररूपा महतिच अपराधे / ६अ। काष्ठविशेषे, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। मक्काररूपा, अथ प्रसेनजिन्मरुदेवनाभिलकुलकरकाले च जघन्य- हडिबंधण न० (हडिबन्धन) खोटकक्षेपके, प्रश्न० 5 संब० द्वार। सूत्र०। मध्यमोत्कृष्टापराधेषु क्रमेण हक्कारमकारधिक्काररूपा दण्डनीतयो- हा (देशी) अस्थनि, तं० ऽभूवन् / कल्प०१ अधि०७ क्षण। ति०। आ० म०। रा०। आ० चू०। हढ पुं०(हढ)जलरुहवनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा०१पद। आचा०। हक्कोद्ध (देशी) अभिलषिते, दे० ना०८ वर्ग 60 गाथा। . हठकारग त्रि० (हठकारक) हठेन कुर्वन्ति येते हठकारकाः! हठपूर्वकहक्खुत्त (देशी) उत्पाटिते, दे०५ वर्ग 60 गाथा। कर्मकर्त्तरि, प्रश्न०३ आश्रद्वार। Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हण 1174 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थकम्म हण धा० (श्रु) श्रवणे, स्वादि-पर० सक० अनिट् / "श्रृणोतेहणः" राज्यश्रीभवताऽर्जिताऽर्थिनिवहस्त्यागैः कृतार्थीकृतः, 814 / 58 // इति शृणोतेर्हण इत्यादेशः / हणइ। सुणइशृणोति। प्रा० संतुष्टोऽपि गृहाण दानमधुना तत्वम् दयां दानिषु / 4 पाद। इत्यब्दं प्रतिबोध्य हस्तयुगलं श्रेयांसतः कारयन, *हन्धा० वधे, गतौ च / भ्वादि-पर० सक० अनिट् / हन्ति अवधीत्। [. प्रत्यग्रेक्षुरसेन पूर्णमृषभः पायात्स वः श्रीजिनः।। 3 // " "कुजं हन्ति कृशोदरी" इत्यादौ आलाङ्कारिकास्तु निहतार्थमाहुः / कल्प०१ अधि०७ क्षण। (हस्तनिक्षेपो 'हत्थकम्म' शब्दे अनुपदमेव वाच०। प्रा०। वक्ष्यते।) चतुर्विशत्यङ्गुलमाने अवमानविशेष, अनु० स्था०। हत्थेसु हणंत त्रि० (घ्नन्) प्राणवियोगकर्तरि, सूत्र०१ श्रु०११ अ०। प्रश्न० / अंगुलीओ' उपा०२ अ० स्वनाख्याते नक्षत्रविशेषे, जं०७ वक्ष०। गोधूमादिदलनेन घातयति। स्था०६ ठा०३ उ०। स्था०। विशे०। हस्तनक्षत्रं पञ्चतारम्।ज्यो०५ पाहु०। स० हणण न० (हनन) हिंसने, सूत्र०२ श्रु०१ अ०। आचा० / व्यापादने, | हत्थकम्मन० (हस्तकर्मन्) हन्ति दशति वा मुखमावृत्याऽनेनेति हस्तः, सूत्र० / गुणने, विनाशने, ज्ञा०१ श्रु०१८ अ०। प्रश्न० / जिघांसने, शरीरैकदेशो निक्षेपादानादिसमर्थस्तेन यत्कर्म क्रियते तद्धस्तकर्म। बृ० श्रा०पीडने, सूत्र०१ श्रु०५ अ०२ उ01 1303 प्रक०। समयप्रसिद्धे (स्था०५ ठा०२ उ०1) लिङ्गस्य करमर्दनेन हणावण न० (घातन)घ्नतोऽनुज्ञायाम, स्था०६ ठा०३ उ०। शुक्रपुद्गलनिष्काशने, जी०। हस्तकर्म आगमप्रसिद्धम्, स्था०३ ठा०४ हणुपुं०स्त्री० [ह(नु)न] हन्-उन्-वा-ऊडाकपोलद्वयोपरिस्थे मुखभागे, उ०। वेदविकारविशेषे, दशा०२ अ०।"णो सयंपाणिणा णिलज्जेज्जा"। हट्टविलासिन्याम्, रोगे, अस्त्रविशेषे, मृतौ च / स्त्री ! वाचा चिबुके, नसंबाधनं कुर्यात् यतस्तदपि हस्तसंबाधनं चारित्रंशबलीकरोति।सूत्र० तं० / औ०। प्रश्न० / अणु०। सूत्र०। १श्रु०४ अ०२ उ० स० हणुमंत पुं० (हनूमत्) "उर्दू-हनूमत्कण्डूय-वातूले"||८|| हस्तकर्मकरणे प्रायश्चितम् - 121 / / इति ऊत्कारस्य उकारः / प्रा०1"आल्विल्लोल्लाल- जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ करतं वा साइबइ। (सू०१) वन्त-मन्तेत्तेर-मणा मतोः" / / 2 / 156 / / इति मतोः स्थाने इदाणिं सुत्तालावगो भणति-जे-त्ति पदं, मि त्ति पदं, खु त्ति, पयं, मन्त इत्यादेशः / प्रा० / रामस्य अनुचरे अञ्जनागर्भजाते पवनतनये हत्थ, त्ति पयं, कम्मं ति पदं, करेति पदं, सातिञ्जति ति पदं। वानरभेदे, प्रा०। इदाणिं पदत्थो भण्णइहणुया स्त्री० (हनुका) दंष्ट्राविशेषे, उत्त०२ अ०। जे त्ती खलु णिसे, मित्ती पुण भेदणे खुवस्स खलु / हतसंक त्रि० (हतशङ्क) हास्यादिविकारविकलतया भावनीयव्यली- हत्थेण जंच करणं, कीरति तं हत्थकम्मं ति॥१॥ कशङ्के.बृ०३ उ०। जे इति निर्देशे, खलु विशेषणे, किं विशिनष्टि ? भिक्षोर्नान्यस्य, भि हतसार त्रि० (हृतसार) अपहृतद्रव्ये, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। इति विदारणं क्षु इति कर्मण आख्यानं ज्ञानावरणादिकर्म भिनत्तीति हत्तास्त्री० (हत्या) विघातिते, नि० चू० 130 // हनने, विपा० 1 श्रु०७ अ०। भिक्षुः / भावभिक्षोर्विशेषणे पुनः 'हत्थे ति हन्यते अनेनेति हस्तः, हसति हत्थ पुं० (हस्त) हन्यतेऽनेनेति हस्तः, हसति वा मुखमावृत्येति हस्तः। वा मुखमावृत्येति हस्तः, आदाननिक्षेपादिसमर्थः शरीरैकदेशो हस्तः; नि० चू०१उ०। "स्तस्य थोऽसमस्त-स्तम्बे"||८||५॥ अतस्तेन यत्करणव्यापार इत्यर्थः, सच व्यपारः क्रिया भवति, अतःसा इति स्तस्य थकारः / प्रा०।"द्वितीय-तुर्ययोरुपरि पूर्वः // 8 // हस्तक्रिया क्रियमाणा कर्म भवतीत्यर्थः / नि० चू०१ उ०। 2160 // इति द्वित्वप्रसङ्गे द्वितीयस्य थकारस्योपरि प्रथमस्तकारः। हस्तकर्मादीनां त्रयाणां पदानां प्रत्येकं पृथक् पृथक् प्ररूपणां वक्ष्ये। प्रा० / आदाननिक्षेपादिसमर्थे शरीरैकदेशे, नि० चू०१ उ०। सूत्र०। यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयितुकामो हस्तकर्मप्ररूपणां तावदाहउत्त० / द्वे वितस्तिः हस्तः। प्रव० 254 द्वार। ज्यो०। यद्यप्यजादीनां नामंठवणा हत्थो य, दव्वहत्थो य भावहत्थो य। हस्तो न विद्यते तथाप्यग्रे पादौ हस्त इव हस्तौ। उपा०७ अ०। दुविहो य दय्वहत्थो, मूलगुणे उत्तरगुणे य / / 1216 // अत्र कविः नामहस्तः स्थापनाहस्तो द्रव्यहस्तो भावहस्तश्चेति, चतुर्धा हस्तः। "स्वाम्याह दक्षिणं हस्तं, कथां भिक्षा नलासि भो ! / तत्र नामस्थापनाहस्तौ गतार्थी / द्रव्यहस्तो, ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिस प्राह दातृहस्तस्या-धो भवामि कथं प्रभो ! // 1 // " रिक्तो द्विविधो भवति / तद्यथा-मूलगुणनिवर्तिते उत्तरगुणनिवर्तिते च पूजाभोजनदानशान्तिककलापाणिग्रहस्थापना यो जीवविप्रमुक्तस्य शरीरस्य हस्तः स मूलस्य-जीवस्य गुणेन-- चोक्षप्रेक्षणहस्तकार्पणमुखव्यापारबद्धस्त्वहम्। प्रयोगेण निवर्तित इति मूलगुणनिवर्तितः। यस्तु काष्ठचित्रलेप्यकर्मादिषु (इत्यभिधाय दक्षिणहस्ते स्थिते) निवर्तितो हस्तः स उत्तरगुणनिवर्तित उच्यते। वामोऽहं रणसंमुखाङ्कगणनावामागशय्यादिकृत, अथ भावहस्तमाहद्यूतादिव्यसनी त्वसौ स तु जर्गी चोक्षोऽस्मिन त्वं शुचिः॥१॥ जीवो उ भावहत्थो,णेयध्वो होइ कम्मसंजुत्तो। ततः बितिओ विय आदेसो, जो तस्स विजाणओ पुरिसो।।१२२।। Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थकम्म 1175 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थकम्म 'जीवो त्ति-विभक्तिव्यत्ययात्यो जीवस्य हस्तः कर्मसंयुक्त-आदाननिक्षेपादिक्रियायुक्तः स नोआगमतो भावहस्त उच्यते / द्वितीयोऽपि चात्रादेशः समस्ति, यस्तस्य विज्ञायकस्तदुपयुक्तः पुरुषः सोऽपि भावहस्तः; आगमत इत्यर्थः। अत्र नोआगमतो भावहस्तेनेहाधिकारः / (बृ०)(कर्मपदव्याख्या कम्म' शब्दे तृतीयभागे 244 पृष्ठे गता।) एषां मध्ये अत्र कतमेनाधिकारः, इति चेदत आह-अधिकारोऽत्र भावकर्मणो मोहोदयलक्षणेन शेषास्तु शिष्यमति-व्युत्पादनार्थ प्ररूपिताः ततो भावहस्तेन यत्कर्म क्रियते तत् हस्तकर्म भण्यते इति प्रक्रमः। अथभावकर्मव व्याचिख्यासुराहदुविहं च भावकम्मं, असंकिलिडं च संकिलिहुंच। थप्पं तु संकिलिहूं, असंकिसिटुं तु वोच्छामि // 1222 / / द्विविधं च भावकर्म, तद्यथा-असंक्लिष्टं च, संक्लिष्टं च / चशब्दौ स्वागतानेकभेदसूचकौ, तत्र संक्लिष्ट स्थाप्यं-पश्चाद्वक्ष्यते। असंक्लिष्ट तु साम्प्रतमेत वक्ष्यामि। यथा प्रतिज्ञातमेव प्रमाणयतिछेदणे भेदणे चेव, घंसणे पीसणे तहा। अहिधाते सिणेहे य, काये खारे त्ति या वरे।। 1223 / / छेदनं भेदनं चैव घर्षणं पेषणं तथा अभिघातः स्नेहश्च काये क्षार इतिवा परः। एवमसंक्लिष्टस्य कर्मणोऽष्टौ भेदाः भवन्ति। एतानि च छेदनादीनि शुषिरे या कुर्यात्, अशुषिरे वा। पुनरेकैकं शुषिरादिछेदनं द्विधा कथमिति चेत् दुच्यतेएकेक तं दुविहं, अणंतरं परंपरं ण णायव्वं / अट्ठाणट्ठा य पुणो, होति अणहाएँ मासलहुं / 1224 / यत् शुषिरस्य अशुषिरस्य वा छेदनं तदेकैकं द्विविधम् अनन्तरं, परंपरं च ज्ञातव्यम् / पुनरेकैकं द्विधा-अर्थाद्, अनर्थाच; सार्थकं निरर्थक चेत्यर्थः / अनर्थकं छेदनादिकं कुर्वता मासलघुअसमाचारीनिष्पन्नमिति भावः। कथं पुनःछेदनमनन्तरं परंपरं वा संभवतीत्याहनहदंतादि अणंतर, पिप्पलमादी परंपरे आणा। छप्पइमादि असंजमे, छेदे परितावणादीया / / 1225 / / नखैर्दन्तरादिग्रहणात्-पादेन वा यच्छिद्यते तदनन्तरछेदनमुच्यते, पिप्पलकेन, आदिग्रहणात्-पाइल्लकछुरिकाकुठारादिभिर्यच्छिद्यते तत् परंपरछेदनम्, परस्परं वा छिन्दता तीर्थकरवणधराणामाज्ञा न कृता भवति। तं छिन्दन्त दृष्टा अन्येऽपि छिन्दन्ति इत्यनवस्था, एते तिष्ठन्तः छेदनादिकं सिहरं कुर्वन्ति न स्वाध्यायम, एवं शय्यातरादौ चिन्तयति मिथ्यात्वम्। विराधना द्विविधा-संयमे, आत्मनि च। तत्र वस्त्राद्वौ छिद्यमानेषट्पदिकादयो यद्विनाशमश्नुवते सोऽसंयमः; संयमविराधनेत्यर्थः, अथ छेदनं कुर्वतो हस्तस्य वा पादस्य वा छेदो भवति तत आत्मविराधना। तत्र च परितापमहादुःखादिनिष्पन्नं पाराश्चिकान्तं प्रायश्चित्तम्। अथ शुद्धं शुद्धेन प्रायश्चित्तमाहझुसिरमझुसिरे लहुगा, लहुगा गुरुगो य होति गुरुगा य। संघट्टणपरितावण, लहुगुराग तिवायणे मूलं / / 1226 // अशुषिरमनन्तरं छिनत्ति मासलघु, शुषिरमनस्तरं छिनत्ति चतुर्लघुकम्। अशुषिरं परं परं छिन्दतो गुरुको मासः, शुषिरं परंपर छिदन्तश्चतुर्गुरुका भवन्ति, शुषिरे बहुतरदोषत्वात् गुरुतरं परंपरे शत्रुग्रहणे संक्लिष्टतरं चित्तमिति कृत्वा गुरुतमं प्रायश्चित्तम् / एवं शुद्धपदेवष्वप्कायविराधनाभावे मन्तव्यम्, अशुद्धपदे पुनरिदमपरं प्रायश्चित्तम्-''संघट्टणमि'' त्यादि, छेदनादिकंकुर्वन् द्वीन्द्रियान् संघट्टयति चतुर्लघु, परितापयति चतुर्गुरु, उपद्रावयतिषड्लघुत्रीन्द्रियान् संघट्टयति चतुर्गुरु, परितापयति षलघु, उपद्राषयतिषगुरु, चतुरिन्द्रियान् संघट्टयति षड्लघु, परितापयतिषड्गुरु,उपद्रावयति छेदः, पञ्चेन्द्रियान्संघट्टयतिषड्गुरु, परितापयति छेदः, पञ्चेन्द्रियमतिपातयति मूलम्। एवमिन्द्रियानुलोम्येन सविस्तरं यथा पीठिकायामुक्तं तथैवात्राऽपि मन्तव्यम्। अथ द्वितीयोऽयमादेशःअझुसिरणंतर लहुओ, गुरुगो अपरंपरे अझुसिरम्मि। झुसिराण चरें लहुगा, गुरुगा तु परंपरे अहवा / / 1227 / / अशुषिरे अनन्तरे लघुको मासः, अशुषिरे परंपरे गुरुको मासः, शुषिरे अनन्तरे चतुर्लघु, शुषिरे परंपरे चतुर्गुरवः / अथ वेति प्रायश्चित्तस्य प्रकारान्तरद्योतकः एवं तावच्छेदनपरंपरं व्याख्यातम्। अथ भेदनादीनि व्याख्यातुकाम इदमाहएमेव सेसएसु वि, करपादादी अणंतरं होइ। जंतु परंपरकरणं, तस्स विहाणं इमं होति // 1228 // एवमेव छेदनवत् शेषेष्वपि भेदनादिषु च वक्तव्यं नवरं करपादाभ्यामादिशब्दात्-जानुकूर्परादिभिः शरीरावयवैः क्रियमाणाभ्यां भेदनादिकमनन्तरं भवति, यत् भेदनदिः परंपराकरण तस्य विधानमिदं भवति। तद्यथाकुवणयमादी भेदो, घंसणमणिगादियाण कट्ठादी। पट्टगवरादिपीसण-गोप्फणधणुनादि अभिवातो। 1226 / कुवणयो-लगुडस्तेन आदिशब्दादुपललेष्टुकादिभिर्वा घटादिभेदः भेदनं; द्विधा त्रिधा छिद्रपातनमित्यर्थः, एतत्परंपराभेदनमुच्यते / एवं घर्षणं मणिकादीनां मन्तव्यं, यथा मणिकारा लुगडवेधान् कृत्वा मणिकान् घर्षयन्ति, आदिशब्दात्प्रवालादिपरिग्रहः, 'कट्ठाइ ति चन्दनकाष्ठफलकादिकं वा यत् घर्षति तद्वा घर्षणम्, 'पट्टग' त्ति, गन्धपट्टकस्तत्र वराः प्रधानाः ये गन्धास्तदादीनां पेषणं मन्तव्यम्। गोफणा चर्मदवरकमयी प्रसिद्धा तया, धनुःप्रभृतिभिर्वा लेष्टुकमुपलं वा यत्प्रक्षिपति एषोऽभिघात उच्यते (अभिघातव्याख्या अभिधाय' शब्दे प्रथमभागे 714 पृष्ठे गता।) ततः शस्त्रेण परंपराकरणभूतेन पत्रछेद्यादिषु निवर्तयति। क्षारो लवणं तमशुषिरे शुषिरे वा कलिञ्चादिभिः प्रक्षिपति। कलिचो वंशकर्परी। Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थकम्म 1176 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थकम्म एषु दोषानाह वसहीए दोसेणं, दटुं सरितुं च पुटवभुत्ताइं! . एकेकवेयणातो, आणादीया य संजमे दोसा। एतेहि संकिलिटुं, तमहं वोच्छं समासेणं // 1236 // एवं तु अणट्ठाए, कप्पइ अट्ठाऐं जयणाए। 1231 / / वसतेयॊषेण वा स्त्रीणां वा आलिङ्गनादिकं विधीयमानं दृष्ट्वा, पूर्वभुक्तानि एकैकस्माद्वेदनादिपदादागाढानागाढादयो दोषाः संयमे आत्मनि च | वा स्त्रीभिः सह हसितक्रीडितादीनि स्मृत्वा, एतैः कारणैः संक्लिष्टंप्रागुक्ताः; संयमात्मविराधनायामेते दोषा अनर्थकं छेदनादिकं कुर्वतो हस्तकर्म यथोत्पद्यतेतदहं वक्ष्ये समासेना भवन्ति। अथ-अर्थः-प्रयोजनं तस्मिन्प्राप्ते यतनया छेदनादिकं करोति तत्र वसतिदोषं तावदाहतदा कल्पते। दुविहो वसहीदोसो, वित्थरदोसो य रूवदोसोय। इदमेव द्वितीयपदं भावयति दुविहो य रूवदोसो, इत्थिगतणपुंसगो चेव // 1237 // असती अहाकडाणं, दसिगादिगछेदणंच जयणाए। द्विविधो वसतिदोषो भवति, तद्यथा-विस्तरदोषो, रूपदोषश्च / तत्र गुलमादि लाउणाले, कप्परभेदादि एमेव / / 1232 // विस्तरदोषो घशालादिकं कुशीलादिसंसर्गतो वा, रूपदोषः-स्त्रीरूपयथाकृतानां वस्त्राणामभावे दशिका छेत्तव्या, आदिशब्दात्प्रमाणाधि- गतो, नपुंसकरूपगतश्च। सचदोषः एकैको द्विविधः-सचित्तः; अचित्तश्च; कस्य वा वस्त्रादेः छेदनं यतनया यथा संयमात्मविराधना न भवति तथा / जीवविषयः अजीवविषयश्चेत्यर्थः। कर्तव्यम्। भेदनद्वारे गुडा दिपिण्डस्य, भेदं कुर्यात्, अलावु-तुम्बकं तस्य अचित्तः पुनरपि द्विविधस्तत्रगत, आगन्तुकश्च। वा नालमधिकरणं भिन्द्यात्। कपरं-कपालं तदादिना वा कार्यमुत्पन्नं उभयमपिव्याचष्टेततो घटग्रीवादेर्भेदमेवमेव यतनया कुर्यात्।। कढे पुत्थे चित्ते, दंतोवलमट्टियं व तत्थगतं / अक्खाणचंदणे वा, विघंसंण पीसणं तु अगतादी। एमेव य आगंतुं, पालत्तय वेट्टिया जवणा / / 1238 // वग्धातीणऽभिघातो, अमतादि यताव सुणगादी।।१२३३॥ याः काष्ठकर्मणि वा पुस्तकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा निर्वर्तिताः घर्षणद्वारे अक्षाः प्रसिद्धास्तेषां समीकरणार्थ चन्दनस्य वा ग्लानादेः स्त्रीप्रतिमाः, यद्वा दन्तमयमुपलमयं मृत्तिकामयंवा स्त्रीरूपं यस्यां वसतौ परिहारोपशमनार्थं घर्षणं कर्त्तव्यम्। पेषणद्वारे ग्लानादिनिमित्तमेवमेव अस्ति तत् तत्रगत मन्तव्यम्। तद्विषयो दोषोऽप्युपचारात्तत्रगत उच्यते। अगदादेः पेषणं विधेयम्। अभिघातद्वार व्याघ्रादीनामभिभवतां गोफणया एवमेव चागन्तुकमपि मन्तव्यम्, आगन्तुकं नाम यदन्यत आगतं ततो धनुषा वा अभिघातः। कार्यः, अगदादेर्वा प्रताप्यमानस्य शुनककाका- यथा तत्र गताः स्त्रीप्रतिमा भवन्ति तथा आगन्तुका अपि भवेयुः, तथा दयोऽभिपतन्तो लेष्टुना भेषयितव्याः। चात्र पादलिप्ताचार्यकृता 'वेट्टक' त्ति राजकन्यकादृष्टान्तः, स चायं वितिए उज्झण जतणा, दाहे वा भूमिदेहसिंचणता। "पा(य)लित्तायरिएहिं रन्नो भगिणीसरिसिया चंकमणुम्मेसनिमेसमयी पडिणीगासिवसमणी, पडिमा खारो तु सेल्लादि।। 1235 / / बालर्विटहत्था आयरियाणं पुरतो वियइ। राया वि अईव पा(य)लित्तस्नेहद्वारे द्वितीयमपवादपदं प्रतीत्य स्नेहमुद्ररितं क्षारमध्ये प्रक्षिप्य गसिणेहं करेइ घिजाइएहिं पउडेहिं रन्नो कहियं-भगिणी ते समणएणं परिठापयेत्, द्रवं-पानकं तस्योज्झनं यतनया विधेयम्, 'दाहे' त्ति अभिओगिया / राया न पत्तियति भणिओ आयच्छ दंसेसु / ततो राया लताया उष्णस्य वा गाढतरमभितापेप्रतिश्रयभूमिकायामाकर्षणं कुर्यात्, आगतोपासित्ता पालित्तायरियाणंरुट्टो पचोसरिओ। तओसा आयरिएहि तृषाभिभूतं वा देहं सिञ्चेत् ग्लानं भक्तप्रत्याख्यायिनं वा दाहामिभूतं कड ति विगरणीकया, राया सुटुतरं आउट्ठो'"एवमान्तुका अपि स्त्रीप्रतिमा सिञ्चेत् / कायद्वारे कश्चिद् गृहस्थः प्रत्यनीकस्तस्योपशमनी प्रतिमां भवन्ति। 'जवणे' त्तिजवनविषये ईदृशानि स्त्रीरूपाणि प्राचुर्येण क्रियन्ते। कृत्वा ततो यावद् सावनुकूलो भवति तावन्मत्रं जपेत्, अशिवप्रशमनी व्याख्यातं द्विविधमप्यचित्तम् / अथ सचित्तं व्याख्यायते, तदपि वा प्रतिमां विदध्यात्। क्षारद्वारे अनन्तरे परंपरे वा शुषिरे वा प्रस्तृतिश- द्विविधम्-तत्रगतम्, आगन्तुकं च। मनाथ क्षारं प्रक्षिपेत् -तत्र शुषिर दर्शयति "खारो तु सेल्लादि" त्ति तदुभयमपि व्याख्यानयतिसेल्लं बालमयं सिन्दूरं तत्र क्षारः क्षेपणीय किं संजातं न वेति। पडिवेसिग एकाघरे, सचित्तरूवं तु होति तस्थगतं। उपसंहरन्नाह सुण्णमसुण्णघरे वा, एमेव य हॉति आगंतू / / 1236 // कम्मं असंकिलिटुं. एवमियं वणियं समासेणं / प्रातिवेश्मिकगृहे एकत्रैवोपाश्रये कारणतः स्थितानां यत् स्त्रिया रूपं कम्मं तु संकिलिहूं, वोच्छामि आहाणुपुटवीए / 1235 / / दृश्यते तत्तत्रगतं सचित्तरूपं भवति। अथवाशून्यगृहमशून्य गृहं वा प्रविष्टन एवमिदमसंक्लिष्ट हस्तकर्म समासेन वर्णितम् / साम्प्रतं संक्लिष्ट या तत्र स्थिता स्त्री विलोक्ष्यते, तदपि तत्रगतमः। एवमेव चागन्तुकमपि हस्तकर्म यथानुपूर्वं वक्ष्यामि। सचित्तं स्त्रीरूपं भवति, प्रतिश्रये या स्त्री समागच्छति तदागन्तुकमिति तदेवाह भावः। Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थकम्म 1177 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थकम्म अत्र तिष्ठतां दोषानुपदर्शयतिआलिंगणादी पडिसेवणं वा, दव्वं सचित्ताणमचेदणं वा। सद्देहिं रूवेहि य इंधिते तु, मोहग्गी संदिप्पति हीणसत्ते॥ 1240 / / तेषां तत्रगतानाम्-आगन्तुकानां वा सचित्तानां स्त्रीरूपाणाम् आलिङ्गनादीनि प्रतिसेवनां कुर्वतो दृष्ट्वा अचेतनानि वा स्त्रीरूपाणि विलोक्य प्रतिसेव्यमानाया वा स्त्रियाः शब्दान् श्रुत्वा तैः शब्दै रूपैश्च इन्धितःप्रज्वालितो मोहाग्निः कस्यापि हीनसत्त्वस्य भुक्तभोगिनाऽभुक्तभोगिनो या संदीप्यते, ततः स्मृतिकरणकौतुकदोषा भवेयुः। कथमित्याहकुतूहलं च गमणं, सिंगारं कुड्डछिडकरणे य / दिडे परिणयकरणे, भिक्खुणों मूलं दुवे इतरे। 1241 / / कुतूहलं तस्योत्पद्यते यथाऽत्रगत्वा पश्यामि शृणोमि शब्दम् एवं कुतूहले उत्पन्ने तत्र गमनं कुर्यात्, शृङ्गारं वा गायन्तीं श्रुत्वा गच्छेत्, कुड्यस्य वा छिद्रं कृत्वा प्रलोकयेत्। दृष्ट च सोऽपि तद्भावपरिणतो भवेत् अहमप्येवं करोमीति। एवं तद्भावपरिणतः कश्चित्तदेवालिङ्गनाऽऽदिकरणं कुर्यात्। एतेषु स्थानेषु भिक्षोर्मूलं यावत्प्रायश्चित्तम्। इतरयोरुपाध्यायाचार्ययोर्यथाक्रम, द्वे अनवस्थाप्यपाराश्चिके चरमपदे भवतः। इदमेव व्याचष्टेलहुगो लहुआ गुरुगा, छम्मासा छेदमूलदुगमेव / दिढे च गहणमादी, पुटवुत्ता पच्छकम्मं वा / / 1242 // तत्र गतः शृणोति मासलघु, कुतूहलं तस्योत्पद्यते मासगुरु, वज्रतश्चतुर्लधुकाः, शृङ्गारं शुण्वतश्चतुर्गुरुकाः, कुड्यस्य छिद्रकरणे षण्मासा लघवः, छिद्रेण पश्यन्नास्तेषड्गुरवः, तद्भावपरिणते छेदः, आलिङ्गनादिकरणे मूलम्, एवं भिक्षोः प्रायश्चित्तमुक्तम्। उपाध्यायस्य मासगुरुकादारब्धमनवस्थाप्ये पर्यवस्यति। आचार्यस्य चतुर्लघुकादारब्धं पाराञ्चिके तिष्ठति।अन्यच आरक्षिकादिभिदृष्ट सति ग्रहणाऽऽकर्षणादयः पूर्वोक्ता दोषाः, या प्रतिमा सा कदाचिदालिङ्ग्यमाना भज्येत ततः पश्चात्कर्मदोषः, एष वसतिविषयो रूपदोष उक्तः। ___ अथ विस्तरतो दोषमाहअप्पो य गच्छो महती य साला, निक्कारणे ते य तहिं ठिताओ। कजट्ठियावा जतणाएँ हीणा, पावंति दोसं जतणा इयं तु // 1253 // अल्पश्चासौ गच्छस्तत्र प्रतिश्रये स्थितः, शाला च सा महतीविस्तीर्णा, ते च साधवो निष्कारणे तत्रोपाश्रये स्थिता वर्तन्ते। अथवाकार्यस्थिताः परं यतनया वक्ष्यमाणया हीनास्ततो वेश्याप्रभृतिषु स्त्रीषु समागच्छन्तीषु दोषं कौतुकस्मृतिकरणादिकं प्राप्नुवन्ति, कारणे तुतत्र तिष्ठतामियं यतना। यतनास्वरूपमाहआसिवादिकारणेहि,अण्णासति वित्थडीऍठायंति। ओतप्पोत करिती, संथारगवत्थपादेहिं / / 1245 // अशिवादिभिः कारणैः क्षेत्रान्तरे अतिष्ठन्तस्तत्राऽन्यस्या वसतेरभावे विस्मृतायामपि वतसौ तिष्ठन्ति, तत्र च संस्तारकैर्वस्त्रपात्रैश्च भूमिकाम् 'ओतप्पोतं' ति (आस्तृतां) कुर्वन्ति; पालयन्तीत्यर्थः / इदमेव व्यनक्तिभूमीए संथारे, अद्धवियड्डे करिति तह दटुं / ठातुमणा वि दिवसओ, नठति रत्तिं तिमा जयणा। 1245 / विस्तीर्णायां वसतौ तथा भूम्यां संस्तारकमर्दू विवर्द्धितं ते कुर्वन्ति, तथा तान् दृष्ट्वा स्थातुंमनसोऽपिन तिष्ठन्ति, एषा दिवसतो यतना। रात्रौ पुनरियं यतना। वेसत्थीआगमणे, अवारणे चउगुरू व आणादी। अणुलोममनिग्गमणे, ठाणं अन्नत्थ रुक्खादी॥१२४६॥ वेश्यास्त्री यदि रात्रावागच्छति भणति च अहमप्यत्र वसामीति सा वारणीया / अथ न वारयन्ति ततश्चतुर्गुरुकम्, आज्ञादयश्च दोषाः / 'अणुलोम' ति अनुक्तैर्वचनैः सा प्रतिषेद्धव्या न खरपरुषैः, सा साधूनामभ्याख्यानं दद्यादिति कृत्वा 'निग्गमणे' त्ति यदि सा वेश्या गन्तुं नेच्छतिततःसाधुभिर्गन्तव्यम्, अन्यस्मिन्-अन्यगृहादिस्थाने स्थातव्यम्, तदभावे वृक्षमूलादावपिस्थेयं न पुनस्तत्रेति। इदमेव व्यक्तीकरोतिपुढवीउ सासजोती, हरियतसा तेणउवहि वासं वा। सावगसरीरतणग, फरसादीजाव ववहारो॥१२४७।। यद्यपि बहिः पृथिवीकायः, सा वेश्या सज्योतिर्वा साग्निका, अन्या वसतिः हरितकायस्त्रसप्राणिनो वा तत्र सन्ति तथापि निर्गन्तव्यम्। अथ बहिरुपधिस्तेनभयं वर्ष वा वर्षति,स्वापदा शरीरस्तेनका वा तत्र सन्ति, ततः परुषवचनैरपि सा वेश्या भणितव्यानिर्गच्छास्मदीयप्रतिश्रयात्, आदिशब्दात्तथाप्यनिर्गच्छन्त्यां बन्धनादिकमपि विधीयते यावद् व्यवहारोऽपि करणे उपस्थितायाः कर्तव्यः। इदमेव भावयतिअम्हे दाणि वि सहिमो, इड्डिमपुत्तबलवं असहणो ऽयं / णीहि अणिते बंधण, णिवकहणे सिरिघरोहरणं / 1248 / साधवो भणन्ति-वयं क्षमाशीलाः इदानी विविधं विशिष्टं या सहामहे, ततो यस्त्वाकारवान् साधुः स दर्शनीयः, अयं तु ऋद्धिमत्पुत्रो राजकुमारादिर्बलवान् सहस्रयोधी असहनः कोपनो बलादपि भवन्तीं निष्काशयिष्यति, ततः स्वयमेव निर्गच्छ, यदि निर्गच्छति ततो लष्टम्, अथ न निर्गच्छति तदा सर्वेऽपि साधव एको वा बलवान् तां बध्नाति, ततः प्रभाते मुच्यते / मुक्ता च यदि नृपस्यान्तिके साधूनाकर्षयति तदा करणे गत्वा कारणिकादीनां व्यवहारो दीयते। तत्र च श्रीगृहोदाहरणं कर्त्तव्यम्। यथा-यदि राज्ञः श्रीगृहे रत्नापहार Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थकम्म 1178 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थकम्म कुर्वन् कश्चितचौरः प्राप्यते ततस्तस्य कं दण्डं प्रयच्छथ ? कारणिका विजले वा कईमाकुले व्रजन् प्रयत्नं कुर्वाणोऽपि अवशः पतनं यथा प्राहुः--शिरस्तदीयं गृह्यते। साधवो भणन्ति अस्माकमप्येषा रत्नापहा- प्राप्नोति, तथा श्रमणसुविहितानां सर्वप्रयत्नेनापि निर्विकृतिकविधानरिणी अव्यापादिता मुधैव मुक्ता / ते प्राहुः कानि युष्माकं रत्नानि ? वाचनाप्रदानादिना यतमानानां वसतिदोषेण अनाचारदर्शनान्मोहोदयः साधवो भणन्ति-ज्ञानादीनि / कथं तेषामपहारः ? अनाचारप्रति- संजायते, ततश्च कर्मोदयप्रत्ययिका कस्यचिद् नवचारित्रविराधना सेक्नादपध्यानगमनादिनेति। भवेत् / पञ्चमासादुदीर्णमोहो धृतिदुर्बलश्च उदयमधिसोढुमशक्तो अथ सस्त्रीकः पुरुषः समागच्छेत् सोऽपिवारणीयः। |-- हस्तकर्म करोति। तथा चाह तत्र प्रायश्चित्तमाह-- अहिकारों वारणम्मि, जत्तिय अप्फुण्ण तत्तिया वसही। पढमाएँ पोरिसीए, बितियाततियाएँ तह चउत्थीए। अतिरेगदोस भगिणी, रत्तिं आरखें णिच्छुभणं / / 1246 / मूलं छेदो छम्मा-समेव चत्तारिया गुरुगा / / 1254 / / यत्र केवला पुरुषमिश्रीभावा स्त्री समागच्छति तत्र सर्वत्रापि वारणाया- प्रथमायां पौरुष्यां हस्तकर्म करोति मूलं, द्वितीयायां छेदः, तृतीयायां मधिकारः, साऽपि कर्त्तव्येति भाव अत एव चोत्सर्गतो धङ्घशालायां न षण्मासा गुरवः, चतुर्थ्यां चतुर्मासा गुरवः। वस्तव्यं, किंतु यावद्धि, साधुभिः सा अप्फुण्ण' त्ति व्याप्ता भवति ताव एनामेव नियुक्तिगाथां (भाष्यकारः) व्याचष्टेतीतावत्प्रमाणावसतिन्वेषणीया। अथातिरिक्तायां वसतौ वसन्ति ततो निसि पढमपोरिसीए, अदढधिती सेवणे भवे मूलं। दोषाः पूर्वोक्ता भवन्ति / कारणतस्तस्यामपि स्थितानां कश्चित्पुरुषः पोरिसी पोरिसी हसणे, एक्कं ठाणगं हसई / / 1255 / / निशि-रात्रौ प्रथमपौरुष्यां मोहोद्भवोऽजनियतस्तस्यामेवादृढधृतिर्यदि स्त्रीसहितः समागच्छति, सचानुत्कटैर्वचोभिरिणीयः, वार्यमाणश्च ब्रूयात्-एषा मे भगिनी संरक्षणीया, साधूनां समीपे वा न शङ्कनीया इति हस्तकर्म सेवते तदा मूलम् / अथ प्रथमपौरुषीमतीत्य द्वितीयायां सेवते छद्मना भणित्वा स्थितः, रात्रौ च प्रारब्धवांस्तां प्रतिसेवितुम्, ततः छेदः, द्वेपौरुष्यावधिसह्य तृतीयायां सेवतेषड्गुरवः, मिश्रपौरुषीरधिसह्य चतुर्थ्यां सेवमानस्य चतुर्गुरुकाः। एवं पौरुषीं पौरुषीम् एकैकपौरुषीहसने साधुभिर्वक्तव्यः, अरे! निर्लज्ज ! किमस्मान् स्थितान्न पश्यसि,यदेव प्रायश्चित्तस्थानं हसति। मकार्यं करोषि एवमुक्त्वा निष्काशनं तस्य कर्त्तव्यम्। बितियम्मि वि दिवसम्मि, पडिसेवंतस्स मासियं गुरु। अथासौ निष्काश्यमानो रुष्येत्, रुषश्च छढे पचक्खाणं, सत्तमणे होति तेगिच्छं / / 1256 // आवरितो कम्मेहि, सत्तू विव ऽवहितो थरथरंतो। 'एवं रात्रौ चतुरो यामानविसह्य द्वितीये दिवसे प्रथमपौरुष्यां प्रतिसेवमुंचति य भेंडिता तो, एकेकं ते निवादेमि / / 1250 // मानस्य मांसगुरुकं, ततः परं सर्वत्रापि मासगुरुं, लघूनितु प्रायश्चित्तानि कर्मभिः-कषायमोहनीयादिभिरावृतः-आच्छादितः साधूनामुपरि अत्र न भवन्ति, अत एवेदं हस्तकर्मसेवनमनुद्धातिक-मुच्यते, एवमसौ शत्रुरिव रोषेण थरथरंतो त्तिभृशं कम्पमानः प्रहारं दातुमुत्थितो वाग्योगेन प्रतिसेव्य साङ्घाटिकस्यान्यस्य वा कस्याप्यालोचयेत्। स च प्रागुक्तचभेदिकां गिरं महता शब्देन मुञ्चति, यथा-युष्माकमेकैकं निपातयामि / हस्तकर्मकारकं साधु पञ्चकापेक्षया षष्ठः साधुस्तं प्रति ब्रवीति / यत्कृतं निग्गमणं तह चेव य, णिद्देसें सदोसनिग्गमे जतणा। यदकृतं न भवति, संप्रतिभक्तप्रत्याख्यानमङ्गीकुरु। सप्तमको चैकित्स्यं सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे य॥१२५१॥ भवति। इयमत्र भावना-सप्तमो ब्रवीति, अस्य मोहोदयस्य निर्विकृतिका एवं तस्मिन् विरुद्ध तस्या वसतेः साधुभिर्निर्गमनं तथैव कर्त्तव्यम्, यथा वाऽमौदरिकादिरूपा चिकित्सा कर्त्तव्या। पूर्व वेश्यास्त्रियामुक्तं यदि बहिर्निर्दोषम्, अथ सदोषं ततः अनिर्गमे तथाअनिर्गच्छतामियं यतना-स्वाध्यायो महता शब्देन क्रियते, ध्यानं वा पडिलाभणऽट्ठमम्मि, एवमे सङ्गी उवस्सए फासे। ध्यायते, यस्य स्वाध्याये ध्याने वा लब्धिर्न भवति स आवरणं-कर्णयोः दसमम्मि पिता पुत्ता, एकारसमम्मि आयरिए / / 1257 / / स्थगनं विदधाति, शब्दकरणं वा महता शब्देन बोलो विधीयते। एवमपि अष्टमसाधोः प्रतिलाभनायाः उपदेशो भवति, नवमो ब्रूते श्राद्धिका यतमानस्य कस्यापि तत्प्रतिसेवनं दृष्ट्वा कर्मोदयो भवेत्। उपाश्रये समानीयते सा भवतः शरीरं स्पृशेत, दशमसाधोः पितापुत्री ___कथम् ? इति चेदुच्यते युवां संज्ञातिकग्रामं गत्वा चिकित्सां कुरुतमित्युपदेशो भवति, एकादशस्य वडपादवउम्मूलण, तिक्खम्मि वि विजलम्मि वचंतो। साङ्घाटिकसाधोः आचार्या इत्युल्लेखनोपदेशो भवति / किमुक्तं कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जह पावती पडणं // 1252 / / भवति-एकादशोब्रवीति यदाचार्या आदिशन्ति तद्विधेहि, अयं शुद्धः। तह समणसुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वीजतंताणं / शेषेषु प्रायश्चित्तमाहकम्मोदयपचइया, विराधणा कस्स वि हवेजा / / 1253 / / छटो य सत्तमो य, अह सुद्धा तेसि मासियं लहुयं / यथा वटपादपस्याऽनेकमूलप्रतिबद्धस्यापि गिरिनदीसलिलवेगेनोन्मू- / उवरिल्ल जं भणंती, थेरस्स वि मासियं गुरअं॥ 1258 // लनं भवति, यथा वा--तीक्ष्णेन नदीपूरेण कृतप्रयत्नोऽपि पुरुषो ह्रियते, षष्ठ सप्तमौ यथा शुद्धौ न, दोषयुक्तादेशं ददाते; यतश्च Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थकम्म ११७६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थागय गुरूणामुपदेशमन्तरेण स्वेच्छया भणतस्ततो मासिकं लघुकं तयोः तपः-कालविशेषिता भवन्ति / तत्र प्रथमे द्वाभ्यामपि लघवः, द्वितीये प्रायश्चित्तम्। उपरितना अष्टमनवमदशमा यत्सदोषमुपदेशं भणन्ति तेन तपसा लघवः तृतीये कालेन लघवश्चतुर्थे द्वाभ्यामपि गुरव इति। अथ ते त्रयाणामपि मासगुरुकम् / स्थविरस्यापि पितुः पुत्रेण सह संज्ञातं ग्राम हस्तकर्मकृत्वा पश्चात्कर्म कुर्वन्ति-उदकेन हस्तौ धावन्तीत्यर्थः, तत्रापि गच्छतो मासिकं गुरुकम्। तएव चतुर्लघवः। तथा उक्तेन च षष्ठादिसाधूनामुपदेशेन विवृणोति एसेव कमो णियमा, इत्थीसु वि होइ आणुपुथ्वीए। संघाडगादिकहणे, जंकतॆतं कर्ते इयाणि पचक्खा। चउरो य अणुग्घाया, पच्छाकम्मम्मिते लहुगा / / 1263 / / अविसुद्धो दुट्ठवणो,ण समिति किरिया सें कायव्वा / / 1256 / / एष एव सारूपिकादिकः क्रमो नियमात्स्त्रीणामप्यानुपूर्व्या वक्तव्यो संघाटकस्यादिशब्दादन्यस्य वा हस्तकर्मकृतंमयेत्येवं कथेन कृते सति भवति। तद्यथा-प्रथमो ब्रवीति सिद्धपुत्रिकया हस्तकर्म कार्यताम् / एवं ब्रूयात् यत्कृतं तत्कृतमेव इदानी भक्तं प्रत्याचक्ष्व, किं ते भ्रष्टप्रतिज्ञस्य द्वितीयो गृहस्थपुराणिकया, तृतीयो मिथ्यादृष्टिगृहस्थया, चतुर्थः जीवितेनेति। सप्तमः प्राह-अविशुद्धो दुष्टव्रणोऽप्युक्तादिकां क्रियां विना परतीर्थिकया चतुर्णामप्येवं भणतां स्त्रीस्पर्शकारापणप्रत्ययाश्चत्वारो नशाम्यति अतः क्रिया से तस्य कर्तव्या, एवं भवताऽस्य मोहोदयव्रणस्य ऽनुद्धाता गुरुका मासाः, तथैव तपःकालविशेषिताः प्रायश्चित्तम्। पश्चानिर्विकृतिकावमौदरिका क्रिया विधेया, येनोपशमो भवति / कर्मणि तु एवं चत्वारो मासा लघुकाः। तदेवं गतं वसतेदोर्षेणेतिद्वारम्। पडिलाभणा उ सड्डी, करसीसे वंद ऊरु दोचंगे। दृष्ट्वा स्मृत्वा पूर्वभक्तानीति द्वारद्वयं तु यथा निशीथे प्रथमोद्देशकेप्रथमसूत्रे मेलादिस्यसमजण ओअट्टणें सड्डिमाणेमो // 1260 / / व्याख्यातं तथैवात्राप्यगन्तव्यम्। तदेवमुक्तं हस्तकर्म। बृ०४ उ०। नि० चू०। हस्तक्रियायां परस्परं हस्तव्यापारप्रधाने कलहे, सूत्र०१ श्रु०१ अष्टमः प्राह-'श्राद्धी श्राविका सा प्रतिलाभनां करोति, प्रतिलाभयन्त्यां चोर्वोः पात्रके स्थिते यथाभावेनाभ्युपेत्य वाचालिते ऊरुमध्ये अ०१ उ०। (हस्तकर्मविषयकं त्रयोदशं बृहत्कल्पसूत्रम् 'मेहुण' शब्दे षष्ठे भागे गतम्।) द्वितीयाङ्गादिकमवगलति, ततः सा श्राविका करेण स्पृशन्ती वन्दते हत्थणिक्खेव त्रि० (हस्तनिक्षेप)न्यासः समर्पणं यस्यद्रव्यस्य तद्धस्तशीर्षेण वा वन्दमाना पादौ स्पृशेत्, ततः स्त्रीस्पर्शन बीर्यनिसर्गो भवेत, निक्षेपम् करन्यस्तद्रव्ये, विपा०१ श्रु०२ अ०। नवमः प्राह--'मूलादिरुये ति मूलमादिग्रहणादन्यतरद्वा तनुरूपं रुग्जा हत्थताल पुं० (हस्तताल) हस्तेन ताडने, स्था० 3 ठा० 4 उ०। तकमस्मादुत्पद्यते ततः श्राद्धिका आनीयते, सा स्वतश्चेलादिकं हत्थताडण त्रि० (हस्तताडन) मुष्टियष्ट्यादिभिर्मरणनिरपेक्षतयाऽऽत्मनः प्रमार्जयति'ओअट्टण'त्ति गाढतरमुद्वर्तयति एवं वीर्यनिसर्गो भवेत्, ततः परस्य वा स्वपक्षगतस्यपरपक्षगतस्य वा घोरपरिणामतः प्रहरणे, पश्चात श्राद्धिकामानयामः। 16 विव०॥ सन्नायपल्लिं णेहि, मेहुणि खुडुत निग्गमोवसमो। हत्थन्दुयन० (हस्तान्दुक) हस्तयोः काष्ठादिमयबन्धनविशेषे, विपा०१ अविधितिगिच्छा एसा, आयरिकहणे विधिक्कारो॥१२६१|| श्रु०६अ। यस्य मोहोदयः समुत्पन्नस्तस्य पितरं प्रतिदशमो भणतिसंज्ञातकपल्लिं | हत्थपाय पुं०(हस्तपाद) करचरणरूपे युगले, प्रश्न०३ संब० द्वार। संज्ञातक्यामं 'ण' मित्येनमात्मीयं पुत्रं नय त्वंतत्र मैथुनिका मातुलदुहिता हत्थपायनिहुय त्रि० (हस्तपादनिभृत) हस्तौ पादौ च निभृतो परधनातया सह 'खुटुंत' त्ति सोपहासवचनैर्भिन्नकथाभिः परस्परं हस्तसंकर्षण दानव्यापारादुपरतौ यत्र तत्। अदत्तादानबद्धे, प्रश्न०३ संब० द्वार। च क्रीडतो वीर्यनिर्गमो भवेत्, ततश्च मोहोपशमो भवति। एषा सर्वाप्य हत्थपायपडिच्छण्ण त्रि० (हस्तपादप्रतिच्छन्न) कृतकरचरणे, दश० विधिचिकित्सा भणिता। यस्तु ब्रवीति-आचार्याणां गत्वा आलोचयत 8 अ०। ततस्ते यां चिकित्सामुपदिशन्ति सा कर्त्तव्या / एतदेवास्य साधोर्विधि- हत्थमालय पुं०(हस्तमालव) अङ्गणेत्रिकाख्ये आभरणविशेषे, औ०। कथनमुच्यते। हत्थलिज्जन० (हस्तलीय) आर्यरोहणनिर्गतस्य उद्देहगणस्य चतुर्थे कुले, अत्रैव प्रकारान्तरमाह कल्प०२ अधि० 8 क्षण। सारूविए गिहत्थे, परतित्थिनपुंसगे य सूयणया। हत्थाइधोवण न० (हस्तादिधावन) करचरणप्रभृतिशरीरावयावानां चउरो य हुंति लहुगा, पच्छाकम्मम्मिते चेव / / 1262 // कारणमुद्दिश्य प्रक्षालने, पिं०। कश्चित् ब्रूयात्-सारूपिकः सिद्धपुत्रस्तद्रूपोयो नपुंसकस्तेन हस्तकर्म हत्थागय त्रि० (हस्तागत) हन्तिहसतिवा मुखमावृत्य अनेनेतिहस्तस्तकार्यताम्। द्वितीयः प्राह-गृहस्थपुराणपुंसकेन, तृतीयो भणतिमिथ्या- मागताः हस्तागताः। करगतेषु, उत्त०५ अ०। हस्ते आगताः हस्तागताः / दृष्टिनपुंसकेन, चतुर्थो ब्रवीतिपरतीर्थिकनपुंसकेन / एतेषां चतुर्णामपि स्वाधीनतया वर्तमानेषु, उत्त० 5 अ०। 'सूयणय' ति हस्तकर्मकरणसूचना-प्रेरणां कुर्वाणानां चत्वारो लघवः | *हस्तायत त्रि० विस्तीर्णे, पं०व०२द्वार। Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थादाण ११८०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हत्थिणार हत्थादाण न० (हस्तादान) परस्परहस्तदाने, बृ०४ उ०। (हस्तताडनं | हत्थिणाउर न० (हस्तिनापुर) कुरुजनपदे नागपुरनगरे, स्था० 10 ठा० दददनवस्थाप्यो भवतीति, 'अणवट्ठप्प' शब्दे प्रथमभागे गतम्।) 3 उ०। उत्त० / विपा० / आ० चू०। हत्थादान पुं० (हस्ताताड) हस्तेनाताडनं हस्ताताङ / हस्तताडने हस्तिनापुरकल्पःपूर्वोक्तार्थे, प्रज्ञा०२ पद। बृ०। "सिरिसंतिकुंथुअरम-ल्लिसामिणो गयउरट्ठए नमिउं / पभणामि हत्थाभरण न० (हस्ताभरण) हस्ताभरणाङ्गुलीयकादिके करभूषणे, हथिणाउर-तित्थस्स समासओ कप्पं ॥१॥"सिरि आइतित्थेसरस्स स्था०८ ठा०३ उ०। | दोण्णि पुत्ता, भरहेसर-बाहुबली नामाणो आसि / भरहस्स सहोयरा हत्थामास पुं० (हस्तामर्ष) हस्तने हिरण्यस्यामर्षः-परामर्षों ग्रहोहस्ता- अट्ठाणउईकुमारा।तत्थ भगवया पव्वयंतेण भरहो निअपए। अभिसित्तो, मर्षः। करेण स्वर्णग्रहे, तत्परिमाणे सुवर्णे च। ज्ञा०१ श्रु०८ अ०) बाहुबलिणो तक्खसिला दिण्णा। एवं सेसाण वितेसुतेसुरजाइं दिण्णाई हत्थालंब पुं० (हस्तालम्ब) करालम्बने, हस्तालम्ब इव हस्तालम्बस्तं अंगकुमारनामेणं अंगदेसोजाओ, कुरुनामेणं कुरुखित्तं पसिद्धं, एवं वंगकहस्तालम्बंददत् अशिवपुररोधादौ तत्पशमनार्थमभिचारुकमन्त्रविद्यादि लिंगसूरसेण अचंतमाइसु विभासा / कुरू तस्स पुत्तो हत्थी नाम राया प्रयुञ्जान इत्यर्थः / स्था०३ ठा०४ उ०। (सच अनुद्धातिको भवतीति हुत्था, तेण हत्थिणाउरं विदेसिअंतत्थ भागीरही महानई पवित्तवारिपूरा 'अणुग्घाइय' शब्दे प्रथमभागे 364 पृष्ठे उक्तम्।) परिवहइ। तत्थ सिरिसंतिकुंथुअरनाहा जहासंखं सोलसमसत्तरसमहत्थि(ण) पुं०(हस्तिन्) कुञ्जरे, करिवरे, सूत्र०१ श्रु०६ अ०1अनु०। अट्ठारसमा जिणिंदा जाया। पंचम-छट्ठ-सत्तमा य कमेण चक्कवट्टी होउं आचा०। छखंडभरहवासरिद्धिं भुंजिंसु दिक्खागहणं केवलनाणं च तेसिं तत्थेव चत्तारि हत्थीपण्णत्ता,तं जहा-मद्दे मंदे मिते संकिने / चत्तारि संजाय।तत्थेवसंवच्छरमणासिओ भयवं उसभसामी, बाहुबलिनतुअस्स हत्थी पण्णत्ता, तं जहा- भद्दे णाममेगे महमणे, भद्दे णाममेगे सिजंसकुमरस्स तिहुअणगुरुदंसण-जायजाईसरणजणिअदाणविहिणो मंदमणे, भहे णाममेगे मियमणे, भहे नाममेगे किन्नमणे / चत्तारि गेहे अक्खयतइयादिणे इक्खुरसेणं पढमपारणयमकासी। तत्थ पंच हत्थी पण्णत्ता, तं जहा-मंदे णाममेगे भहमणे, मंदे णाममेगे दिव्वाई पाउन्भूआई मल्लिसामी अ तत्थेव नयरे समोसढो, तत्थ मंदमणे, मंदे णाममेगे मियमणे, मंदे णाममेगे संकिण्णमणे। विण्हमुकारोमहरिसी तवसत्तीए विउव्विअ लक्खजोअणप्पमाणसरीरो चत्तारि हत्थी पण्णत्ता, तं जहा-मिते णाममेगे महमणे, मिते तिहिं पएहिं अकंततेलुक्को नमुई सासित्था, तत्थ पुरिसे'णं कुमारणाममेगे मंदमणे, मिते णाममेगे मियमणे, मिते णाममेगे महापउमसुभूमपरसुरामाईमहापरिसा उप्पण्णा। तत्थ पंच पंडवा उत्तमसंकिन्नमणे / चत्तारि हत्थी पण्णत्ता,तं जहा-संकिण्णे नाममेगे पुरिसा चरमसरीरा दुजोहणपमुहा य महाबलनिवा अणेगे समुप्पण्णा। महमणे, संकिन्ने नाममेगे मंदमणे, संकिन्ने नाममेगे मियमणे, तत्थ सत्तकोडिसुवण्णाहिवई गंगदत्तसिट्ठी, तहा सोहम्मिदस्स जीवो संकिन्ने णाममेगे संकिन्नमणे / (सू० 2814) स्था० 5 ठा० रायाभिओगेणं परिवायगस्स परिवेसणं काउं पवेरग्गेणं नरगणसह२ उ०। स्सपडिवुडो कत्तियसिट्ठी सिरिमुणिसुव्वयसामिसमीवे निक्खंतो। तत्थ (अत्रत्यविस्तरः 'पुरिसजाय' शब्दे पञ्चमभागे उक्तः। हस्तिनापुर- महानयरे संतिकुंथुअरमल्लिजिणाणं चेइयाई, महराई, अंबादेवीए य नगरनिवेशके कुरुपुत्रे राज्ञि, ती०४८ कल्प०।स्वनामख्याते काश्यप- देउलं आसि, एवमणेगअच्छरिअसहस्सनिहाणे तत्थ महातित्थे जे गोत्रोत्पन्ने स्थविरे, कल्प०२ अधि० 8 क्षण।) जिणसासणंपभावणं कुणंति विहिपुव्वं, जन्नाममहूसवं निम्मवंति ते हत्थिकण्ण पुं० (हस्तिकर्ण) लवणसमुद्रस्यान्तर्वर्तिनि स्वनामख्याते कइवयभवग्णेहिं धुअकम्मकिलेसा सिद्धिमुवगच्छंतत्ति"श्रीगंजाह्वय अन्तीप, स्था० 5 ठा०१ उ०। ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 तीर्थस्य, कल्पः स्वल्पतरोऽप्ययम्। संता संकल्पसंपूर्ती, धत्तां कल्पद्रुपृष्ठेऽयं व्याख्यातः) कल्पताम्॥१॥" इति श्रीहस्तिनापुरतीर्थकल्पः समाप्तः / ती०१५ हत्थिकप्पन० (हस्तिकल्प) स्वनामख्याते सौराष्ट्रदेशमध्यगे नगरे, यत्र कल्प मासिकी संलेखनां कृत्वा शत्रुञ्जये पर्वते आरुह्य पञ्चपाण्डवाः सिद्धाः। "अभिवन्द्य जगद्वन्द्यान् श्रीमतः शान्तिकुन्थ्वरान्। ज्ञा०१ श्रु०१६ अ०। स्तुतिं वा स्तोष्यति स्तोमैः, स्तौमि तीर्थं गजाह्रयम् // 1 // हत्थिगुलगुलाइयन० (हस्तिगुलगुलायित) हस्तिनो गुलगुलशब्दे, रा०। शतपुत्र्यामभून्नाभि-सूनोः सूनुः कुरुर्नृपः। 'अप्पेगइया हत्थिगुलगुलाई करेंति' आ० म०१ अ०। हस्तिनो यद् कुरुक्षत्रमिति ख्यातं, राष्ट्रमेतत्तदाख्यया / / 2 // गुलगुलायितं शब्दविशेष एव। प्रश्न०३ आश्र० द्वार। कुरोः पुत्रोऽभवद्धस्ती, तदुपज्ञमिदं पुरम्। हत्थिजामन० (हस्तियाम) नालन्दायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशिस्वनामख्याते हस्तिनापुरमित्याहु-रनेकाश्चर्यसेवधिम् // 3 // वनखण्डे, सूत्र०२ श्रु०७ अ०1 (विशेषस्त्वत्रत्यः 'पेढालपुत्त' शब्दे श्रीयुगादिप्रभोराद्या, चोक्षैरिक्षुरसैरिह। पञ्चमभागे गतः।) श्रेयांसस्य गृहे पञ्च, दिव्याद्यजनि पारणा / / 4 / / Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हत्थिणार 1181 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हम्म जिनास्त्रयोऽत्र जायन्ते, शान्तिः कुन्थुररस्तथा। हस्तिनं व्यापाद्याऽऽत्मनो बृत्तिं कल्पयत्सु बौद्धसाधुषु, सूत्र०२ श्रु० आहिमालूसार्वभौमा, द्विभुजस्ते महीभुजः।। 5 // 6 अ०। ('अद्दगकुमार' शब्दे प्रथमभागे 560 पृष्ठे हस्तितापसमतं मल्लिश्च समवासार्षी-तेन चैत्यचतुष्टयी। व्याख्यातम्) अत्र निर्मापिता श्राद्ध-वीक्ष्यते महिमाऽद्भुता॥६॥ हत्थिदीवपुं० (हस्तिद्वीप) राजगृहनगरबाहिरिकाया नालन्दाभिधानाया भासतेऽत्र जगन्नेत्र-पवित्रीकारकारणम्। उत्तरपूर्वस्यां दिशि खण्डे, स्था०६ ठा०३ उ०। भवनं चाम्बिकादेव्या, यात्रिकोपप्लवच्छिदः // 7 // हत्थिपाल पुं० (हस्तिपाल) पापायां मध्यमायां नगयाँ स्वनामख्याते जाह्नवी क्षालयत्येत-चैत्यभित्तीः स्ववारिभिः। राजनि, यस्य शालायां वीरजिनो निर्वृतः / स०५ सम०। ती०। कल्लोलोच्छालितैर्भूयो, भक्त्या स्नात्रचिकीरिव // 8 // हत्थिपिप्पली स्त्री० (हस्तिपिप्पली) गजपिप्पल्याम्, उत्त०३४ अ०। सनत्कुमारः सुभूओ, महापद्मश्च चक्रिणः। हत्थिबंधणखंभ पुं० (हस्तिबन्धनस्तम्भ) हस्तिनां बन्धनभूते स्तम्भे, अत्रासन् पाण्डवाः पञ्च, मुक्तिश्रीजीवितेश्वराः // 6 // पाइ० ना० 203 गाथा। गङ्गदत्तः कार्तिकश्च, श्रेष्ठिनौ सुव्रतप्रभोः। हत्थिभूइ पुं० (हस्तिभूति) हस्तिमित्रपुत्रे, उत्त०१अ०। शिष्यावभूतां विष्णुश्च, नमुचेरत्र शासिता॥१०॥ हत्थिमित्त पुं० (हस्तिमित्र) उज्जयिन्यां स्वनामख्याते गृहफ्तौ, उत्त० कलिदर्पहृतं स्फीत-सङ्गीतां सदसुव्ययाम्। 2 अ०1 यात्रामासूत्रयन्त्यत्र, भव्या निर्व्याजभक्तयः।।११।। हत्थिमुह पुं० (हस्तिमुख) लवणसमुद्रस्यान्तपि, स्था० 4 ठा०२ उ० / शान्तेः कुन्थोरथ चतुः-कल्याणीचात्रपत्तने। प्रज्ञा०।०।उत्त०। (सच'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठ विशेषतो जज्ञे जगज्जनानन्दा, सम्मेताऽद्रौ च निवृतिः / / 12 // व्याख्यातः।) भाद्रस्य सप्तमी श्यामा, नभसो नवमी शितिः। हत्थिरयण न० (हस्तिरत्न) उत्कृष्ट हस्तिनि, स्था०७ ठा०३ उ०। द्वितीया फाल्गुनस्यैषां, तिथ्योऽभूवन् दिवश्च्युतेः॥ 13 // हत्थिरायपुं० (हस्तिराज) हस्त्यनीकाधिपती, स्था० 4 ठा०२ उ०।स० / ज्येष्ठे त्रयोदशी कृष्णा, माधवे च चतुर्दशी। हत्थिलावय पुं० (हस्तिलावक) हस्ती च शालीनां लावकाश्च हस्तिमार्गे च दशमी शुक्ला, तिथयो जनुषस्तु वः // 14 / / लावकाः / करिणी व्रीहिच्छेदकेषु च व्याक्षेपे, व्य०६ उ०। शुक्ला चतुर्दशी श्यामा, राधे बहुलपञ्चमी / हत्थिवाउय पुं०(हस्तिव्यापृत) महामात्रे, औ०। साहस्यैकादशी शुभ्रा, जझुर्दीक्षादिनानि च॥ 15 // हत्थिवाहण पुं० (हस्तिवाहन) नन्दीश्वरद्वीपदेवे, सू० प्र०१६ पाहु०। पौषस्य नवमी श्वेता, तृतीया धवला मधोः। हत्थिसिक्खा स्त्री० (हस्तिशिक्षा) कलाविशेषे, स०७२ सम० / ऊर्जस्य द्वादशी श्वेता, ज्ञानोत्पत्तेरहानि वः // 16 // हस्तिदभने, औ०। शुक्ले त्रयोदशी कृष्णा, वैशाखे पक्षतिः शितिः। हत्थिसीसग न० (हस्तिशीर्षक) स्वनामख्याते नगरे, ज्ञा०१ श्रु०१७ मार्ग बलक्षा दशमी, मुक्तेर्वस्तिथयः क्रमात्॥१७॥ अ०। "इहास्ति भरतक्षेत्रे, नगरं हस्तिशीर्षकम् / सुवृत्तरङ्गमुक्तेदं, भवादृशानां पुरुष-रत्नानां जन्मभूरियम्। हस्तिशीर्षमिवोद्यतम्, "आ० क०१अ० आ० म०। ज्ञा०। 'हत्थिसीयं स्पृष्टाऽप्यनिष्टं शिष्टानां, पिनष्टि किमुत स्तुता // 18 // नगरं तत्थं दमयन्तो राया' आ० म० 1 अ०। तादृगविधैरतिशयैः पुरुषप्रणीतै हत्थिसुंडिया स्त्री० (हस्तिशुण्डिका) यत्र पुताभ्यामुपविष्टः सन् एकं विभाजितं जिनपरि(र)त्रितयैर्महैश्च। पादमुत्पाट्यास्ते सा हस्तिशुण्डिका। निषद्याभेदे, स्था० 5 ठा० 1 उ०। भागीरथीसलिलसङ्गपवित्रमेत हत्थिसोंडा स्त्री० (हस्तिशुण्डा) त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा०१ पद। जी०। जीयाच्चिरं गजपुरं भुवि तीर्थरत्नम् // 16 // हत्थुत्तरा स्त्री० (हस्तोत्तरा) हस्तोपलक्षिता उत्तरायासांता हस्तोत्तराः / इष्टं पृथक्त्वविषयार्कमिते शकाब्दे, उत्तराफाल्गुनीषु, स्था०५ ठा०१ उ० आचा०। आ० म०। कल्प०। वैशाखमासि शितिपक्षगषष्ठतिथ्याम्। हत्थुल्ल पुं० (हस्त) "स्वार्थे कश्च वा" || 8 / 2 / 16 / / इति यात्रोत्सवोपनतसङ्घयुतो यतीन्द्रः, स्वार्थे उल्लप्रत्ययः। हत्थुल्लो। करे, प्रा०२ पाद। स्तोत्रं व्यधात् गजपुरस्य जिनप्रभाख्यः // 20 // " हदण पुं० (हदन) स्वनामख्याते स्त्रीवशवर्तिनि, (हदनव्याख्या माणर्पिड' श्रीहस्तिनापुरस्तवनकृतिः श्रीजिनप्रभसूरिणाम्॥ती०४८ कल्प०! ] शब्दे षष्ठ भागे गता।) स्था०ाज्ञा०। कल्प०। *हद्धी अव्य०"हद्धी, निर्वेदे"॥१२।१९२॥ हद्धी इत्यव्ययमत हत्थिणिया स्त्री० (हस्तिनिका) करेणुकायाम, आ० म०१ अ01 एव निर्देशात्, हाधिकशब्दादेशो वा निर्वेदे प्रयोक्तव्यम्। हद्धी। निर्वेद, हत्थितावसपुं० (हस्तितापस)तापसविशेषेषु, ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव | प्रा०२ पाद। बहुकालं भोजनतो यापयन्ति / भ० 11 श० ( उ० / औ० / नि०। हम्म धा० (हन्) हिंसायाम, "हन्खनोऽत्यस्य" ||8|| Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरहरा 244 / / इति यय द्विरुक्तो मोवा, यस्य च लुक् / हम्मइ / हन्यते। प्रा० | हयरस्सि पुं० (हयरश्मि) खलीने, दश०१चू०। 4 पाद। हयलक्खण न० (हतलक्षण) दीर्घग्रीवाक्षिकूटेत्यादिके अश्वलक्षण* हर्म्य न० शिखररहिते धनवतां भवने, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। / विज्ञाने, जं०२ वक्ष०। ज्ञा० / कल्प० / हम्ममाण पुं० (हन्यतान) कशाभिः (सूत्र०२ श्रु०१अ01) यष्टिमुष्टिल- | हयलाला स्त्री० (हयलाला) अश्वमुखजले, जं० 3 वक्ष० / औ० / कुटादिभिः, (सूत्र०१श्रु०६ अ01) तोद्यमाने, सूत्र०१श्रु०१अ०१ उ०! ___ 'हयलालापेलवाइरेग' जी०३ प्रति० 4 अधि०। हम्मियतलन० (हर्म्यतल) अट्टाले, आचा०२श्रु०१चू०२ अ०१ उ०। हयवर न० (हयवर) अश्वानां मध्ये प्रधाने, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०॥ *हम्मीरमहम्मद पुं० पारसीकोऽयं शब्दः, विक्रमादित्यस्य षष्ट्यधिक हयविलंबिय न० (हयविलम्बित) चतुर्विशतितमनाठ्यविधौ, रा०। त्रयोदशशततमे 1360 संवत्सरे जाते लक्ष्मणपुराधिषे यवनराजे, ती० हयवीहि स्त्री० (हयविथि) शुक्रस्य महाग्रहस्य नागवीथीत्यन्यत्र प्रसिद्ध 34 कल्प० / "नन्दानेकपशक्तिशीतगुमिते श्रीविक्रमार्थीपतेवर्षे शुक्रादिग्रहचारयोग्यक्षेत्रभागे,"भरणीस्वात्याग्नेयं नागाख्या वीथिरुत्तरे भाद्रपदस्यमास्यवरजे सौम्ये दशम्यां तिथौ। श्रीहम्मीरमहम्मदेक्षिति मार्गे" स्था०६ ठा०३ उ०। पतौ क्ष्मामण्डलाखण्डले, ग्रन्थोऽयं परिपूर्णतामभजत श्रीयोगिनीपत्तने हयसंघाडगपुं० (हयसंघाटक) अश्वद्वये, संघाटकशब्दो युग्मवाची यथा ॥१॥"ती०४८ कल्प साधुसंघाटक इत्यत्र, ततोद्वे द्वे हययुग्मे हयसंघाटक इत्युच्यते / रा०। जी० ज०। हय त्रि० (हत) यष्ट्यादिभिस्ताडिते, उत्त० 2 अ०। आचा० / ज्ञा० / हयसंठिय पुं० (हयसंस्थित) अश्वाकारे, भ०१श०२ उ०। 'हयमहियपरवीरघाइय' भ०७ श०६ उ० / व्यवच्छिन्ने, विशे01 मृते, उत्त०३२ अ०।"प्रत्यूषेण हता मार्गाः, परिहासहातास्त्रियः। मन्दबीज हयहसिय न० (हयहसित) हयशब्दविशेषे, प्रश्न०१आश्र0 द्वार। औ० / आ० म०1०1 हतं क्षेत्रं, हतं सैन्यमनायकम्॥१॥"बृ०१ उ०२ प्रक०। हयाणीय पुं० (हयानीक) घोटककटके, उत्त० 17 अ०। *हय पुं० अश्वे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तुरगे, अनु०। हर पुं० (हर) हाः कालः स मनुष्यं हरति प्राणिनामायुरिति हरः। दिवसहयकंठग पुं० (हयकण्ठक) हयकण्ठप्रमाणे रत्नविशेषे, रा०। जी० रजन्यात्मके काले, उत्त०१४ अ०। रुद्रे, अनु०। हयकण्ण पुं० (हयकर्ण) लवणसमुद्रस्यान्तीपविशेषे, कर्म०५ कर्म०। *हधा० हरणे, "व्यञ्जनाददन्ते"||४|२३६ // इति अन्तेऽउत्त०।०। स्था०। (अस्य व्याख्या 'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 कारः / हरइ। हरति / प्रा०४ पाद। पृष्ठे उक्ता।) आर्यदेशविशेषे, प्रव० 274 द्वार। *ग्रह धा० ग्रहणे, "ग्रहो वल-गेह हर पङ्ग निरुवाराहिपचुआः" हयगय पुं० (हयगत) अश्वारूढे, औ01 ||8||206 // इति हर इत्यादेशः / हरति / गृह्णाति। प्रा० / हयजूहियट्ठाणन० (हययूथिकस्थान)हयोऽश्वः तेषां परस्परतो युद्धंयत्र हरडई स्त्री० (हरीतकी)"हरीतक्यामीतोऽत्" ||1218 | पश्चात्सन्धिश्च क्रियते तादृशे स्थाने, नि० चू०१२ उ०। आचाo! इति आदेरीकारस्याऽद्भवति, "प्रत्ययादौडः" ||1|206 // हयजोह पुं० (हतयोध) हता-विनाशिता योधा-अश्वारोहादयो यैस्ते इति तस्य डः, हरडई। हरीतकी। स्वनामख्याते वृक्षे, तत्फले च। प्रा० हतयोधाः। विनाशितयोधेषु, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। १पाद। हयजोहि(ण) पुं० (हययोधिन्) हयेन युध्यते इति हययोधी। ज्ञा०१ हरण न० (हरण) हृतौ, "हारो त्ति वा हरणं त्ति वा हरइ त्ति वा एगट्ठा" श्रु०१अ०रा० / अश्वारोहण युध्यमाने, औ०। हारः हृतिर्हरणं ह्रियते इति वा एकार्थाः इत्यर्थः / व्य 1 उ / परद्रव्यस्य हयधी स्त्री० (हतधी) मूलाच्छिन्नबुद्धौ, बहुव्रीहीसमासे तु तादृशबृद्धि- | हृतो, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। युक्ते, त्रि० / प्रति०। हरतणुपुं०(हरतनु) तृणाग्रव्यवस्थिते जलबिन्दौ, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। हयपरपुं० (हतपर)हता अधमाये परे तीर्थान्तरीयास्तेतथा।कुतीर्थिकषु, पं०व०॥धा यो भुवमुद्भिद्य गोधूमा रतुणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुरुपजायते। स्या०। बादरकायभेदे, प्रज्ञा०१ पद। कल्प०। दश० / जी०। हयपुटव त्रि० (हतपूर्व) पूर्वहते, आचा० 1 श्रु०६ अ० 3 उ०। हरय पुं०(हृद) महागाधजले, आचा०१श्रु०६अ०१ उ०। उत्त० भ०। हयमहिय त्रि० (हतमथित) प्रहारतो हते मानमन्थनात् मथिमे, ज्ञा०१ स्था० जी०रा०! श्रु०१६ अ०। हरहरा स्त्री० (हरहरा) अतीव भिक्षाप्रस्तावे, " निमगंच गामं, महिलाहयमुह पुं० (हयमुख) लवणसमुद्रस्यान्तीपविशेषे, उत्त०३६ अ०। थूमं च सुण्णयं द© / नीयं च काया ओलिंति, जाया भिक्खस्स हरहरा ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठेवक्तव्यतोक्ता।) अनार्यदेशविशेषे, // 2064 / / ' विशे० 1 (इयं नियुक्तिगाथा 'देसकाल'शब्दे 4 भागे प्रव०२७४ द्वार। व्याख्याता / ) Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरि 1153 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस हरिपुं० (हरि) वासुदेवे, सूत्र०१ श्रु०१अ०१ उ०।स्था० / अष्ट०। सिंह, स्था० 4 ठा०२ उ० / शाखामृगे, आव० 4 अ०। स्था० / हरिवर्षक्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवे, स्था०६ ठा०३ उ०1०। विद्युत्कुमारेन्द्रे, आ० चू०१ अ० / महाग्रहे, चं० प्र० 20 पाहु० / (अत्रत्या व्याख्या 'महग्गह' शब्दे पञ्चमभागे 171 पृष्ठे गता।) औत्तराहाणामग्निकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा०३ उ०। हरिअंद पुं० (हरिश्चन्द्र)"श्चो हरिश्चन्द्रे" |10|2|7 // इति श्वस्य लुक् / हरिअंदो। सूर्यवंशजे त्रिशङ्कपुत्रे नृपविशेष, प्रा०। हरिएस पुं० (हरिकेश) मातङ्गेचाण्डाले, उत्त०। हरिकेशनिक्षेपमाह नियुक्तिकृत्हरिएसे णिक्खेवो, चउविहाँ दुविहाँ होइ दवम्मि। आगम नोआगमतो, नोअगमतो य सो तिविहो // 318 // जायणसरीरभविए, तव्वइरित्ते य सो पुणो तिविहो। एग भवियबद्धाउ य, अभिमुहतो नामगोए य॥३१९ // हरिएसनामगोअं, वेअंतो भावओ अहरिएसो। तत्तो समुट्ठियमिणं, हरिएसिजं ति अज्झयणं / / 320 // हरिकेशे निक्षेपश्चतुर्विधो नामादिः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्विविधो | भवति द्रव्ये-द्रव्यविषयः-आगमतो, नोआगमतश्च / तत्र आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतश्च स त्रिविधो ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तश्च / स पुनः त्रिविधः-एकमविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च / हरिकेशनामगोत्रं वेदयन् भाववस्तु हरिकेश उच्यते, ततोऽभिधेयभूतात् समुत्थितमिदं हरिकेशीयमित्यध्ययनमुच्यते इति शेषः, इतिगाथात्रयार्थः / सम्प्रति हरिकेशवक्तव्यतामाह नियुक्तिकृत्पुव्वभवे संखस्स उ, जुदरम्नो अंतिअंतु पव्वजा। जाईमयं तु काउं, हरिएसकुलम्मि आयाओ।। 321 // महुराए संखो खलु, पुरोहिअसुओ अ गयउरे आसी। दट्ठण पाडिहेरं, हुयवहरत्थाइनिक्खंतो // 322 / / हरिएसा चंडाला, सोवाग मयंग बाहिरा पाणा। साणधणा य मयासा, सुसाणवित्तीय नीया य। 323 / जम्मं मयंगतीरे, वाणारसिगंडितिदुगवणं च। कोसलिएसु सुभद्दा, इसिवंता जन्नवाडम्मि।। 324 / / बलकुट्टे बलकुट्टो, गोरी गंधारि सुविणगवसंतो। नामनिरुत्ती छण स-प्प संभवो दुंदुहे बीओ / / 325 // भहएणेव होअव्वं, पावइ भवाणि भइओ। सविसो हम्मए सप्पो, भेरुंडो तत्थ मुचई / / 326 / / इत्थीण कहित्थ वट्टई, जणवयरायकहित्थ वट्टई। पडिगच्छह रम्मतिंदुअं, अइसहसा बहुमुंडिएजणे / 327 / / एतदक्षरार्थः सुगम एव, णवरं 'अंतियं तु इति अन्तिकेसमीपेतुः पूरणे, 'पाडिहरं ति प्रतिहारो-दौवारिकस्तद्वत्सदा सन्निहितवृत्तिर्देवतावि- | शेषोऽपि प्रतिहारस्तस्य कर्म प्रातिहार्यम्, तचेह हुतवहरथ्यायाः शीतलत्वम् तथा हरिकेशाश्चाण्डालाः श्वपाकाः मातङ्गा बाह्याः पाणाः श्वधनाश्चमृताशाः श्मशानवृत्तयश्च नीचाश्चेत्येकार्थिकाः, तथा 'मयङ्गतीरे' त्ति मृतेव मृता विवक्षितभूदेशे तत्कालप्रवाहिणी साचासौ गङ्गाच मृतगङ्गा तस्यास्तीरं तस्मिन् ऋषिवान्ताऋषित्यक्ता, तथा भद्र एव भद्रको; यो न कस्यचिदशुभे प्रवर्त्तते, भद्राणि-कल्याणानि, तथा स्त्रीणां कथा तासां नेपथ्याभरणभाषादिविषयाअत्र-अस्मिन् यत्याश्रमे प्रवर्तते, 'जणवयरायकह त्ति जनपदकथा मालवकादिदेश-प्रशंसा-निन्दात्मिका राजकथाच राज्ञां शौर्यादिगुणवर्णनादिरूपा, 'पडिगच्छह त्ति तिव्यत्ययात् प्रतिगच्छामो-निवर्तावहे, 'अयी' त्यामन्त्रणे 'सहसेत्यपर्यालोच्य, कोऽर्थः? अपरीक्षितयोग्यताविशेषो, 'बहुर्मुण्डितो जनो' मुण्डमात्रेणैव गृहीतदीक्षः प्रायोजनो, गृहीतभावदीक्षस्तुस्वल्प एवेति भावः। तथेहाद्यगाथाया एव पादद्वयं द्वितीयगाथाया स्पष्टीकृतं, ततस्तृतीयपादः स्पष्ट एवेति, शेषगाथाभिश्चतुर्थपादस्य पर्यायदर्शनतस्तस्तूचितार्थाभिधानतश्चाभित्यञ्जनम्। भावार्थस्तुकथानकादवसेयः, तत्र च सम्प्रादयः"महुराए नयरीए संखो नाम जुवराया, सो धम्म सोउं पव्वतितो, विहरतो य गयउरंगओ, तहिं च भिक्खं हिंडतो एग रत्थं पत्तो, साय किर अतीव उण्हा मुम्मुरसमा, उण्हकाले ण सक्कति कोऽवि वोलेडं / जो तत्थ अजाणतो उप्फंपदंति सो विणस्सति। तीसे पुणणामं चेव हुयवहरत्था, तेण साहुणा पुरोहियपुत्तो पुच्छितो-एस रत्था निव्वहति? सो पुरोहियस्स पुत्तो चिंतेति एस डज्झउत्ति निव्वहति इइ वुत्तं, सो पट्ठिओ, इयरो य अलिंदडिओ पेच्छति आतुरियाए गईए वचंततं, सो आसंकाए उइण्णोतं रत्थं, जाव सा तस्स तव्वपभावेणं, सीतीभूया / आउट्ठो-अहो इमो महातवस्सी मए आसादितो, उज्जाणट्ठियं गन्तुं भणति-भगवं ! मए पावकम्मं कयं, कहं वा तस्स मुंचेजामि? तेण भण्णति-पव्ययह, पव्वइतो, जातिमयं रूवमयं च काउंमओ। देवलोगगमणं, चुओ संतो मयगंगाए तीरे बलकोट्टा नाम हरिएसा, तेसिं अहिदई बलकोट्टो नाम, तस्स दुवे भारियाओ-गोरी, गंधारी य / गोरीए कुच्छिसि उववण्णो, सुमिणदसणं, वसंतमासं पेच्छति, तत्थ कुसुमियं चूयपायवं पेच्छइ, सुमिणपाढयाणं कहियं, तेहिं भण्णति महप्पा तेपुत्तो भविस्सति।समएण पसूया, दारगोजाओ कालो विरूओपुव्वभवजाइरूवमयदोसेणं, बलकोट्टेसु जाउ त्ति बलो से नाम कयं / भंडणसीलो असहणो। अण्णया ते छणेण समागया भुंजति सुरं च पिवंति, सोऽवि अप्पियणियं करेइ त्ति निच्छूढो अच्छति समंतओपलोएंतो, जाव अही आगतो। उट्विया सहसा सव्वे, सो अही णेहिं मारिओ, अण्णमुहुत्तस्स भेरुंडसप्पो आगतो / भेरुंडो नाम दिव्वगो, भीया पुण उडिया, णाए दिव्वगो त्ति काऊण मुक्को। बलस्स चिंता जाया--अहो सदोसेण जीवा किलेसभागिणो भवंति, तम्हा--"भद्दएणेव होयव्वं, पावति भवाणिभदिओ। सविसो हम्मति सप्पो, भेरुंडोतत्थ मुचति ॥१॥"एयं चिंतेतो संबुद्धो पव्वतिओविहिरंतोवाणारसिंगओ। उजाणंतेंदु Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1154- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस यवणं, तेंदुगंनाम जक्खाययणं, तत्थ गंडीतेंदुगो नाम जक्खो परिवसति, सो तत्थ अणुण्णवेउं ठितो, जक्खो उक्संतो, अण्णो जक्खो, अण्णहिं वणे वसति, तत्थ वि अण्णे बहू साहुणो ठिया, सोयमंडीजक्खं पुच्छति-- ण-दीससि? पुण तेण भणियं-साहुं पज्जुवासामि, तत्थ यतेंदुएण ट्ठिो, सो वि उवसंतो, सो भणति-मम विउजाणे बहवेसाहू ठिया, एहि पासामो, ते गया, तेऽवि सामवत्तीए साहुणो विकहमाणा अच्छंति। ततो सो जक्खो इमं भणति-"इत्थीण कहऽत्थ वट्टई,जणवयरायकहत्थ वट्टई। पडिगच्छह रम्मतेंदुर्ग, अइसहसा बहुमुंडिए जणं // 1 // " अह अण्णया जक्खाययणं कोसलिरायधूआ भद्दा नाम पुष्फधूवमादी गहाय अचिरं निग्गया, पयाहिणं करेमाणा तं दट्टण कालं विगरालं छि त्ति काऊण णिट्ठवति, जक्खेण रुटेण अण्णइट्ठा कया, णीया नीयघरं, आवेसिया भणति ते, णवर मुंचामि जइणं तस्सेव देह, तं च साहति-जहा एईए सो साहू ओदूढो, रण्णा वि जीवउ त्ति काऊण दिण्णा, महत्तरियाहिं समं तत्थाणीया, रतिं ताहि भण्णति-वच्च पतिसगासंति, पविट्ठाजक्खाययणं सोपडिमं ठिओ ऐच्छति, ताहे जक्खो विइसिसरीरं छाइऊण दिव्वरूपं दंसेति, पुणो मुणिरूवं, एवं सव्वरत्तिं वेलंबिया, षभाएणेच्छएत्ति काऊणं पविसंती सधरंपुरोहिएणराया भणिओ-एसा रिसिभज्जा बंभणाणं कप्पड़ त्ति, दिण्णा तस्सेव / सो य जण्णे दिक्खिजिउकामो सा अण्णेण लद्धा, सा विजण्णपत्ति त्ति काऊण दिक्खिया।" इत्युक्तः सम्प्रदायोऽवसितश्च नामनिष्पन्ननिक्षेपः। सम्प्रति सूत्रालापकिनिष्पन्नस्यावसरः, सच सूत्रे सति सम्भवत्यतः सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयं, तचेदम्सोवागकुलसंभूओ, गुणुत्तरधरो मुणी। हरिएसबलो नाम, आसि भिक्खू जिइंदिओ॥१॥ श्वपाका:-चाण्डालास्तेषां कुलम्-अन्वयस्तस्मिन् सम्भूतः-- समुत्पन्नः श्वपाककुलसम्भूतः, तत्किं तत्कुलोत्पत्त्यनुरूप एवायम् उत नेत्याह-गुणेषूत्तराः-प्रधानाः गुणोत्तराः-ज्ञानादयः तान् धारयति गुणोत्तरधरः,पठन्ति च-'अणुत्तरधरे' त्ति, तत्र न विद्यते उत्तरम्अन्यत्प्रधानमेषामित्यनुत्तराः, ते च प्रक्रमात्प्रकर्षप्राप्ता ज्ञानादय एव गुणास्तान् धारयत्यनुत्तरधरः, यद्वा-अनुत्तरान्-गुणान् धारयतीत्यनुत्तरधर इति मयूरव्यंसकादिषु द्रष्टव्यो, मुणतिप्रतिजानीते सर्वविरतिमिति मुणिः, श्वपाककुलोत्पन्नोऽपि कदाचितत्संवसादिनाऽन्यथैव प्रतीतः स्यादत आह-हरिकेशः सर्वत्र हरिकेशयतैव प्रतीतो बलोनामबलाभिधानः आसीद्-अभूत, तस्य च मुनित्वं प्रतिज्ञामात्रेणापि स्यादत आह-'भिक्खु ति भिनत्ति-यथाप्रतिज्ञातेनानुष्ठानेन क्षुधमष्टविधं वा कर्मेति भिक्षुः, अत एव जितानिवशीकृतानीन्द्रियाणिस्पर्शनादीन्यनेनेति जितेन्द्रिय इति सूत्रार्थः / तथाइरिएसणभासाए, उच्चारसमिईसुय। जओ आयाणणिक्खेवे, संजओ सुसमाहिओ॥२॥ ईरणमी- एष्यत इत्येषणा अनयोर्द्वन्द्वस्ततस्ताभ्यां सहिता भाष्यत इति माषा ईर्येषणाभाषेति मध्यपदलोपी समासः, तस्याम्, तथा उञ्चारम्, पुरीषपरिष्ठापनमपीहोच्चार उक्तः, प्रश्रवणपरिष्ठापनोपलक्षणं चैतत् तद्विषया समितिः-सम्यगमनं, तत्र सम्यक्प्रवर्तनमिति यावत्, उच्चारसमितिः, तस्यां च, यतत इति यतो-यत्नवान्, तथा आदानंचग्रहणं पीडफलकादेर्निक्षेपश्च-स्थापनंतस्यैव आदाननिक्षेपं, ततइहापि चकारानुवृत्तेस्तस्मिंश्च, इह च 'उच्चारसमिएसुति एकत्वेऽपि बहुवचनं सूत्रत्वात्, समितिशब्दश्च मध्यव्यवस्थितो डमरुकमणिरिवाद्यन्तयोरपि सम्बध्यते, ततश्च ईर्यासमितावेषणासमितौ भाषासमितावादाननिक्षेपसमिताविति योज्यं, यद्वा-ईर्येषणाभाषोचारसमितिष्वित्येकमेव पदं, 'भासाए' इति च एकारोऽ लाक्षणिकः, स चैवं कीदृगित्याह-संयतःसंयमान्वितः सुसमाहितः-सुष्टुं समाधिमानिति सूत्रार्थः / तथामणगुत्तो वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइंदिओ। भिक्खट्टाबंभइजम्मि, जन्नावाडमुवडिओ // 3 // मनोगुप्त्या मनोनियन्त्रणात्मिकया गुप्तः-संवृतो मनोगुप्तो, मध्यपदलोपी समासः, मनो गुप्तमस्येति वा मनोगुप्तः, अहिताग्न्यादित्वाच गुप्तशब्दस्य परनिपातः, एवं वाग्गुप्तोनिरुद्धवाक्प्रसरः, कायगुप्तः असत्कायक्रियाविकलो, जितेन्द्रियः प्राग्वत्, पुनरुपादानमस्य कादाचित्कवनिराकरणार्थमतिशयख्यापनार्थ वा भिक्षार्थभिक्षानिमित्तं, न तु निष्प्रयोजनमेव, निष्प्रयोजनगमनसयागमे निषिद्धत्वात्, 'बंभइज्जमि' त्ति ब्रह्मणां-ब्राह्मणानामिज्यायजनं यस्मिन् सोऽयं ब्रोज्यस्तस्मिन्, 'जण्णवाडं ति यज्ञवाट यज्ञपाट वा उपस्थितः प्राप्तइति सूत्रार्थः। तंच तत्राऽऽयान्तमवलोक्य तत्रत्यलो का यदकुर्वस्तदाहतंपासिऊणमिजंतं, तवेण परिसोसियं। पंतोवहिउवगरणं, उवहसंति अणोरिया // 4 // 'त' मिति बलनामानं मुनि "पासिऊणं' ति दृष्ट्वा-निरीक्ष्य 'इजंतं' तिआयन्तमागच्छन्तंतपसा-षष्ठाष्टमदिरूपेण परि-समन्ताच्छोषितम्अपचीतिकृतमांसशोणितं कृशीकृतमिति यावत्परिशोषितं, तथा प्रान्तजीर्णमलिनत्वादिभिरसारमुपधिः वर्षाकल्पादिः स उव च उपकारणंधर्मशरीरोपष्टम्भहेतुरस्येति प्रान्तापध्युपकरणस्तं, यदा-उपधिः स एवोपकरणम्-औपग्रहिकं, द्वन्द्वगर्भश्च बहुव्रीहिः उवहसंति' त्ति उपहसन्ति आर्याः-उक्तनिरुक्ता न तथा अनार्याः, यद्वा-अनार्याम्लेच्छाः, ततश्च साधुनिन्दादिना अनार्या एवं अनार्या इति सूत्रार्थः। कथं पुनरनार्याः? कथं चोपहसितवन्तस्ते? इत्याहजाइमयं पडिथद्धा, हिसगा अजिइंदिया। अबंभचारिणो बाला, इमं वयमब्बवी॥५॥ कयरे आगच्छाई दित्तरूवे, काले विकरलो पुक्कनासे। ओमचेलए पंसुपिसायभूए, संकरदसं परिहरिय कंठे // 6 // Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1185 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस जातिमदो-जातिदप्पो यदुत ब्राह्मणा वयमिति तेन प्रतिस्तब्धाः पाठान्तरतः प्रतिबद्धा वा ये ते तथा, हिंसका:-प्राण्युपमईकारिणः अजितेन्द्रियाः-न वशीकृतस्पर्शनाद-योऽत एवाब्रह्म-मैथुनंतचरितुम्आसेवितुं शीलं धर्मों वा येषां तेऽमी अब्रह्मचारिणः, वर्ण्यते हि तन्मते मैथुनमपि "धर्मार्थ पुत्रकामस्य, स्वदारेष्वधिकारिणः / ऋतुकाले विधानेन, तत्र दोषो न विद्यते // 1 // ' तथा 'अपुत्रस्य गतिनास्ति' इत्यादि, अत एव बाला इव बालक्रीडितानुकारिष्वग्निहोत्रादिषु तत्प्रवृत्तेः, उक्तं हि केनचिद्-"अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेति लक्ष्यते" ईदृशास्ते किमित्याह इदंवक्ष्यमाणलक्षणं वचनं-वचः 'अब्बवि' त्ति आर्षत्वाद्वचनव्यत्ययेन अब्रुवन्-उक्तवन्तः। किं तदित्याह-'कयरे' त्ति कतरः, एकारस्तु प्राकृतत्वात्, तथा च तल्लक्षणम् 'ए होति अयारंते' इत्यादि, एवमन्यत्रापि, आगच्छति-आयाति, पठ्यते च 'को रे आगच्छइ' ति, ते ह्यन्योऽन्यमाहुः कोऽयमीदृक् 'रे' इति लघोरामन्त्रणं साक्षेपवचनेषु च दृश्यते "दित्तरूवे' त्ति दीप्तं रूपमस्येति दीप्तरूपः, दीप्तवचनं त्वतिबीभत्सोफ्लक्षणम्, अत्यन्तदाहिषु स्फोटकेषु शीतलकव्यपदेशवत्, विकृततया वा दुर्दर्शमिति दीप्तमिव दीप्तमुच्यते, कालो वर्णतो विकरालो दन्तुरतादिना भयानकः पिशाचवत् स एव विकरालकः, 'फोक्क' ति देशी पदं, ततश्च फोक्का अग्रे स्थूलोन्नता च नासाऽस्येति फोकनासः अवमानि-असाराणि लघुत्वजीर्णत्वादिना चेलानिवस्त्राण्यस्येत्यमचेलकः, पांशुना-रजसा-पिशाचवद्भूतोजातः पांशुपिशाचभूतः, गमकत्वात्समासः, पिशाचो हि लौकिकानां दीर्घश्मश्रुनखरोमा पुनश्च पांशुभिः समविघ्वस्त इष्टः ततः सोऽपि निष्परिकर्मतयारजोदिग्धदेहतया चैवमुच्यते, 'संकरे' ति सङ्करः, स चेह प्रस्तावात्तृणभस्मगोमयाङ्गारादिमीलक उकुरुडिकेति यावत् तत्र दूष्यवस्त्र सङ्करदूष्यं, तत्र हि यदत्यन्तनिकृष्टं निरुपयोगि तल्लोकैरुत्सृज्यतेततस्तत्प्रायमन्यदपि तथोक्तं, यदा-उज्झितधर्मकमेवासौ गृहातीत्येवमभिधानं, 'परिहरिय' ति परिहत्य, निक्षिप्येत्यर्थः, क्व?कण्ठे-गले, सह्यनिक्षिप्तोपकरण इति स्वमुपधिमुपादायैव भ्राम्यति, अत्र कण्ठैकपार्श्वः कण्ठशब्द इति कण्ठे परिहत्येत्युच्यत इति सूत्रद्वयार्थः। इत्थं दूरादागच्छन्नुक्तः,सन्निकृष्टं चैनं किमूचुरित्याहकयरे तुम इय अदंसणिज्जे ? काए व आसाइहमागओऽसि? अवमचेलगापंसुपिसायभूया, गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओऽसि ? // 7 // कतरस्त्वं, पाठान्तरश्च–को रे त्वम्, अधिक्षेपे रेशब्दः 'इती' त्येवमदर्शनीयो-द्रष्टुमनर्हः, 'कया वा' किंरूपया वा? आसा इहमागओऽसि' त्ति 'अचां सन्धिलोपीबहुल मिति वचनादेकारलोपो, मकारश्चागमिकः, तत आशया वाञ्छ्या इह-अस्मिन्यज्ञपट्टके आगतः-प्राप्तोऽसि-भवसि, अवमचेलकः पांसुपिशाचभूत इति च प्राग्वत्, पुनरनयोरुपादानमत्यन्ताधिक्षेपदर्शनार्थं , गच्छ प्रव्रज, प्रक्रमादितो यज्ञवाटकात्, 'खलाहि' त्ति देशीपदमपसरेत्यस्यार्थे वर्त्तते, तातेऽयमर्थः-अस्मदृष्टिपथादपसर, तथा किमिह स्थितोऽसि त्वं ? नैवेह त्वया स्थातव्यमिति भाव इति सूत्रार्थः। एवमधिक्षिप्तेऽपि तस्मिन् मुनौ प्रशमपरतया किञ्चिदप्यजल्पति तत्सान्निध्यकारी गण्डीतिन्दुकयक्षो यदचेष्टत तदाह जक्खो तहिं तिंदुयरुक्खवासी, ऽणुकंपओ तस्स महामुणिस्स। पच्छायइत्ता नियगं सरीरं, इमाईवयणाई उदाहरित्था // 8 // यक्षो-व्यन्तरविशेषः तस्मिन् अवसर इति गम्यते, तिन्दुको नाम वृक्षस्तद्वासी, तथा च सम्प्रदायः-"तस्स तिंदुगवणस्स मज्झे महतो तिंदुगरुक्खो, तहिं सो वसतितस्सेव हेट्ठा चेइयं, जत्थ सो साहू चिट्ठति। ''अणुकंपओ' त्ति अनुशब्दोऽनुरूपार्थे ततश्चानुरूपं कम्पते-चेष्टत इत्यनुकम्पक:-अनुरूपक्रियाप्रवृत्तिः, कस्येत्याह-तस्य-हरिकेशबलस्य महामुनेः-प्रशस्यतपस्विनः प्रच्छाद्य-प्रकर्षणावृत्त्य निजकम्आत्मीयं शरीरं, कोऽभिप्रायः? तपस्विशरीर एवाविश्य स्वयमनुपलक्ष्यः सन्निमानि वक्ष्यमाणानि-वचनानि वचांसि 'उदाहरित्थ' ति उदाहार्षीदुदाहृतवानित्यर्थः, इति सूत्रार्थः। कानि पुनस्तानि ? इत्याहसमणो अहं संजओ बंभयारी, बिरओ धणपयणपरिग्गहाओ। परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले, अन्नस्स अट्ठा इहमागओ मि // 6 // वियरिसइ खजइ मुजई य, अन्नं पभूयं भवयाणमेयं / जाणाहि मे जायणजीविणु त्ति, सेसावसेसं लहओ तवस्सी॥१०॥ श्रमणो-मुनिः 'अह' मित्यात्मनिर्देशः, किमभिधानत एवेत्याशङ्कयाह-- सम्यग् यतः संयतः-असद्व्यापारेभ्य उपरतः, अत एव च ब्रह्मचारीब्रह्मचर्यवान, तथा विरतो निवृत्तः, कुतो?धनं च पचनं च परिग्रहश्य धनपचनपरिग्रहमिति समहारः तस्मात्, तत्र धनं चतुष्पदादि, पचनमाहारनिष्पादनं, परिग्रहो द्रव्यादिषु मूर्छा, अतएव च परस्मै प्रवृत्तं परैः स्वार्थ निष्पादितत्वेन परप्रवृत्तं तस्य, तुरवधारणे, ततः परप्रवृत्तस्यैव, न तु मदर्थ साधितस्येति भावः, भिक्षाकालेभिक्षाप्रस्तावे, कदाचिदकालाऽयं ब्रूयादित्येवमुक्तम्, अन्नस्य अशनस्य 'अट्ठ' त्ति सूत्रत्वादयि, भोजनार्थमिति भावः, इह-अस्मिन् यज्ञवाटके आगतोऽस्मि, अनेन यदुक्तं-कतरस्त्वं किमिहागतोऽसि ? तत्प्रतिवंचनमुक्तम्, एवमुक्ते च ते कदाचिदभिदध्युः-नेह किञ्चित् कस्मैचिद्दीयते न वा देयमस्त्यत आह-वितीर्यतेदीयते दीनानाथादिभ्यः खाद्यते खण्डखाद्यादिः, भुज्यते च भक्तसूपादि, अद्यत इत्यन्नं स सर्वमपि सामान्येनोच्यते, तदप्यल्पमेव स्यादत आह-प्रभूतं-बहु, प्रभूतमपि परकीयमेव स्यात्, अत आह भवतां युष्माकमेव सम्बन्धि एतदि तिप्रत्यक्षत Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1186 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस थाच जानीत-अवगच्छत 'मे' त्ति सूत्रत्वान्मां 'जायणजीविणो' त्ति ति आराधका-आवर्जका गम्यमानत्वात्पुण्यस्य भवत, अनेनदानफलयाचनेन जीवनं-प्राणधारणमस्येति याचनजीवनम्,आर्षत्वादिकारः / माह, कुत एतदित्याह-इदं पुण्यक्षेत्रं-पुण्यप्राप्तिहेतुः क्षेत्रं यत इतिगम्यते, पठ्यते च-'जायणजीवणो' त्ति, इतिशब्दः स्वरूपपरामर्शकः, तत इति सूत्रार्थः। एवंस्वरूपम्, यतश्चैवमतो मह्यमपि ददध्वमिति भावः, कदाचिदुत्कृष्ट यक्षवचनानन्तरंत इदमाहुःमेवासौ याचनइति तेषामाशयः स्यादत आह, अथवा-जानीतमा याचन खित्ताणि अम्हं विइमाणि लोए, जीविनं-याचनेन जीवनशील, द्वितीयार्थे षष्ठी, पाठान्तरे तु प्रथमा, / जहिं पकिन्ना विरुहंति पुण्णा। 'इती त्यस्माद्धेतोः, किमित्याह शेषावशेषम्-उद्भरितस्याप्युद्वरितम्; जे माहणा जाइविज्जोववेया, अन्तप्रान्तमित्यर्थः लभतांप्राप्नोतु तपस्वी यतिर्वराको वा भवदभि ताइंतु खित्ताई सुपेसलाई // 13 // प्रायेण, अनेनात्मानं निर्दिशतीति सूत्रद्वयार्थः। 'क्षेत्राणि' इति क्षेत्रोपमानि पात्राण्यस्माकं विदितानि ज्ञातानि, वर्तन्त एवं यक्षेणोक्ते यज्ञवाटवासिनः प्राहुः इतिगम्यते, लोके-जगति 'जहिं तिवचनव्यत्ययायेषु क्षेत्रेषु प्रकीर्णानीव उवक्खडं भोयण माहणाणं, प्रकीर्णानि-दत्तान्यशनादीनि विरोहन्तिजन्मान्तरोपस्थानतः प्रादुर्भअत्तट्ठियं सिद्धमिहेगपक्खं। वन्ति पूर्णानि-समस्तानि, न तु तथाविधदोषसद्भावतः कानिचिदेव, नऊवयं एरिसमनपाणं, स्यादेतद्-अहमपि तन्मध्यवर्त्यवत्याशङ्क्याह-ये ब्राह्मणा-द्विजाः, दाहासु तुज्झं किमिहं ठिओऽसि // 11 // तेऽपि न नामत एव, किन्तु जातिश्चब्राह्मणजातिरूपा विद्या चउपस्कृतं-लवणवेसवारादिसंस्कृतं 'भोयण' त्ति भोजनं माहनानां- चतुर्दशविद्यास्थानात्मिका ताभ्याम् ‘उववेय' ति उपेता-अन्विता ब्राह्मणानाम् आत्मनोऽर्थः आत्मार्थस्तस्मिन भवमात्मार्थिक, ब्राह्मणैर- जातिविद्योपेताः,'ताईतुति तान्येव क्षेत्राणि 'सुपेसलाणि' त्ति सुपेशल प्यात्मनैव भोज्यं न त्वन्यस्मै देयं, किमिति? यतः सिद्धं-निष्पन्नम् नाम शोभनं प्रीतिकरं वा इति वृद्धाः, ततश्च सुपेशलानि-शोभनानि इह-अस्मिन् यज्ञे एकः पक्षोब्राह्मणलक्षणो यस्य तदेकपक्ष, किमुक्तं प्रीतिकराणि वा, नतुभवादृशानिशूद्रजातीनि, शूद्रजातित्वादेववेदादिभवति? यदस्मिन्नुपस्क्रियते नतद्ब्राह्मणव्यतिरिक्तायान्यस्मै दीयते, विद्याबहिष्कृतानीति, यत उक्तम्-"सममश्रोत्रिये दानं, द्विगुणं विशेषतस्तुशूद्राय, यत उक्तम्-"नशूद्राय मतिं दद्यान्नोच्छिष्ट नहविः ब्राह्मणब्रुवे / सहस्रगुणमाचार्य, अनन्तं वेदपारगे॥१॥ इति सूत्रार्थः / कृतम्। न चास्योपदिशेधर्म,न चास्य व्रतमादिशेत्॥१॥" यतश्चै यक्ष उवाचवमतो 'न तु' नैव वयमीदृशमुक्तरूपम् अन्नं च ओदनादि पानं च- कोहो य माणो य वहोय जेसं, द्राक्षापानादि अन्नपानं 'दाहामो त्ति दास्यामः 'तुज्झं तितुभ्यं, किमिह __ मोसं अदत्तं च परिग्गहं च। स्थितोऽसि ? नैवेहावस्थितावपि तव किञ्चिदिति भाव इति सूत्रार्थः। ते माहणा जाइविजाविहीणा, यक्ष आह ताइंतु खित्ताई सुपावयाई / / 15 // थलेसु बीयाई वयंति कासगा, क्रोधश्च-रोषं मानञ्च-गर्वः, चशब्दान्मायालोभौच, वधश्चप्राणिघातो तहेव निन्नेसु य आससाए। 'येषा' मिति प्रक्रमाद्भवतां ब्राह्मणानां 'मोस ति मृषा-अलीकभाषणम् एयाई सद्धाई दलाह मज्झं, 'अदत्ते' ति पदेऽपि पदैकदेशस्य दर्शनात्सत्यभामा-सत्या इतिवत् आराहए पुण्णमिणं खु खित्तं / / 12 // अदत्तादानमुक्त, चशब्दान्मैथुनं, परिग्रहश्च--गोभूम्यादिस्वीकारः, स्थलेषु-जलावस्थितिविरहितेषूचभूभागेषु बीजानि-गोधूमशाल्या- | अस्तीति सर्वत्र गम्यते 'ते' इति क्रोधाद्युपेता यूयं ब्राह्मणा जातिविद्याभ्यां दीनि वपन्ति-रोपयन्ति 'कासग' त्ति कर्षकाः कृषीवलाः तथैव यथो- विहीना-रहिताजातिविद्याविहीनाः क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वर्ण्यव्यघस्थलेष्वेवमेव निम्नेषुच-नीचभूभागेषु च 'आससाए त्ति आशंसयाय- वस्था, यत उक्तम्-"एकवर्णमिदं सर्वं , पूर्वमासीधुधिष्ठिर! क्रियाकर्मद्यत्यन्तप्रवर्षणं भावि तदा स्थलेषु फलावाप्तिरथान्यथा तदा निम्नेब्वि- विभागेन, चातुर्वर्ण्य व्यवस्थितम् // 1 // ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण, यथा त्येवमभिलाषात्मिकया, एतयैव एतया-एतदुपमया, कोऽर्थः? उक्त- शिल्पन शिल्पकः। अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपककीटवत्॥२॥" रूपकर्षकाशंसातुल्यया श्रद्धयावाञ्छया 'दलाह' त्ति ददध्वं मह्यं, न चैवंविधक्रिया ब्रह्मचर्यात्मिका कोपाद्युपेतेषु तत्त्वतः सम्भवत्यतो न किमुक्तंभवति? यद्यपि भवतां निम्नोपमत्यबुद्धिरात्मनि मयितुस्थल- तावजातिसम्भवः, तथा विद्याऽपि सच्छास्त्रात्मिका, सच्छास्त्रेषु च तुल्यताधीः तथापि मह्यमपि दातुमुचितम्, अथ स्याद्-एवं दत्तेऽपि न सर्वेष्वहिंसादिपञ्चकमेव वाच्यं, यत उक्तम्-"पञ्चैतानि पवित्राणि, फलावाप्तिरित्याह-'आराहए पुण्णमिणं खुत्ति खुशब्दस्याव-धारणा- सर्वेषां धर्मचारिणाम्। अहिंसा सत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुनवर्जनम् र्थस्य भिन्नक्रमत्वादाराधयेदेवसमन्तात्साधयेदेव, नात्रान्यथ-भावः, | // 1 // " तद्युक्तत्वं च तत्तज्ज्ञानादेव भवति, ज्ञानस्य तु विरतिः पुण्यंशुभमिदंपरिदृश्यमानं क्षेत्रमिव क्षेत्रं पुण्यशस्यप्ररोह-हेतुतया, फलं रागाद्यभावश्च, यत उक्तम्--''तज्ज्ञानमेव न भवति, यस्मिन्नुदिते आत्मानमेव पात्रभूतमेवमाह, पठ्यते च-'आराहगा होहिम पुण्णखेत्तं' / विभाति रागगणः / तमसः कुतोऽस्ति ? शक्ति दिनकरकिर Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1187 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस णाग्रतः स्थातुम्।।१।।"न चैवमग्न्याद्यारम्भिषु कोपादिमत्सु च भवत्सु विरते रागाद्यभावास्य च सम्भवोऽस्ति, न च निश्चयनयमतेन फलरहितं वस्तुसत्, तथा च निश्चयो यदेवार्थक्रियाकारितदेव परमार्थसदित्याह, ततः स्थितमेतत्-'ताइंतु'त्ति तुरवधारणे, भिन्नक्रमश्च। ततश्च तानि भवद्विदितानि ब्राह्मणलक्षणानि क्षेत्राणि सुपापकान्येव, नतुसुपेशलानि, क्रोधाद्युपेतत्वेनातिशयपापहेतुत्वादिति सूत्रार्थः। कदाचित्ते वदेयुः-वेदविद्याविदो वयमत एव च ब्राह्मणजातयस्तत्कथं जातिविद्याविहीना इत्युक्तवानसीत्याहतुमित्थ भो! मारहरा गिराणं, अटुं न याणाह अहिज्ज वेए। उचावयाइं मुणिणो चरंति, ताइंतु खित्ताई सुपेसलाई॥१५॥ यूयमत्रेति-लोके भो' इत्यामन्त्रणे भारं धरन्तीति भारधराः, पाठान्तरतो वा-'भारवहा'वा, कासां? गिरां-वाचां, प्रक्रमाद्वेदसम्बन्धिनीनाम्, इह च भारस्तासां भूयस्त्वमेव, किमिति भारधरा भारवहा वेति उच्यते, यतोऽर्थम्-अभिधेयं न जानीथनावबुध्यध्वे ? 'अहिज' त्ति अपेर्गम्यमानत्वादधीत्यापि वेदान्-ऋग्वेदादीन्, तथाहि-'आत्मा वा रे ज्ञातव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' तथा 'कर्मभिर्मृत्युमृषयो निषेदुः, प्रजावन्तो द्रविणमन्विच्छमानाः, अथा परं कर्मभ्योऽमृतत्वमानशुः "परेण नाकं निहितं गुहायां, विभ्राजते यद्यतयो विशन्ति / वेदाहमेनं पुरुषं महान्तं तमेव विदित्वा अमृतत्वमेति // 1 // " नान्यः पन्थाः अयनाये' त्यादिवचनानां यद्यर्थवेत्तारः स्युस्तत्किमित्थं यागादि कुरिन् ? ततस्तत्त्वतो वेदविद्याविदो भवन्तो न भवन्ति, तत्कथं जातिविद्यासम्पन्नत्वेन क्षेत्रभूताः स्युः ? कानि तर्हि भवदभिप्रायेण क्षेत्राणीत्याह–'उच्चावयाई ति उच्चावचानि-उत्तमाधमानि मुनयश्चरन्ति भिक्षानिमित्तं पर्यटन्ति गृहाणि, ये इति गम्यते, न तु भवन्त इव पचनाद्यारम्भप्रवृत्तयः त एव परमार्थतो वेदार्थ विदन्ति तत्रापि भेक्षवृत्तेरेव समर्थितत्वात्, तथा च वेदानुवादिनः-चरेद् माधुकारी वृत्तिमपिम्लेच्छकुलादपि। एकान्नं नैव भुञ्जीत, बृहस्पतिसमादपि।। १॥"यदिवोचावचानि-विकृष्टाविकृष्टतया नानाविधानि, तपासीति गम्यते, उच्चव्रतानि वा शेषव्रतापेक्षया महाव्रतानि ये मुनयश्चरन्ति आसेवन्ते, न तु यूयमिवाऽजितेन्द्रिया अशीला वा, तान्येव मुनिलक्षणानि क्षेत्राणि सुपेशलानीति प्राग्वदिति सूत्रार्थः। इत्थमध्यापकं यक्षेण निर्मुखीकृतमवलोक्य तच्छात्राः प्राहुःअज्झावयाणं पडिकूलभासी, पभाससे किन्नु सगासि अम्हं? अवि एवं विणस्सउ अन्नपाणं, न यणं दाहामु तुमं नियंठा ! // 13 // अध्यापयन्ति-पाठ्यन्तीत्यध्यापकाः-उपाध्यायस्तेषां प्रतिकूलंप्रतिलोमं भाषते वक्तीत्येवंशीलः प्रतिकूलभाषी सन् प्रकर्षण भाषसे ब्रूपे प्रभाषसे, किमिति क्षेपे, तुरित्यक्षमायां, ततश्च धिग् भवन्तं न वयं क्षमामहे यदित्यं भवान् ब्रूते सकाशे-समीपे 'अम्हं तिअस्माकम्, अपिः सम्भावनायाम् एतत्-परिदृश्यमानं विनश्यतुक्वथितत्वादिना स्वरूपहानिमाप्नोतु अन्नपानम् ओदनकाञ्जिकादि, 'न च' नैव 'ण' मिति वाक्यालङ्कारे 'दाहामु त्ति दास्यामस्तव हे निर्ग्रन्थ ! निष्किञ्चन ! गुरुप्रत्यनीको हि भवान, अन्यथा तु कदाचिदनुकम्पया किश्चिदन्तप्रान्तादि दद्यमोऽपीति भाव इति सूत्रार्थः। यक्ष आहसमिईहिँ मज्झं सुसमाहियस्स, गुत्तीहि गुत्तस्स जिइंदियस्स। जइ मे न दाहित्थ अहेसणिज्ज, किमज जन्नाण लमित्थ लाभं? // 17 // समितिभिः-ईसिमित्यादिभिर्मह्यं सुष्टु समाहितास-समाधिमते सुसमाहिताय गुप्तिभिः-मनोगुप्यादिभिर्गुप्ताय जितेन्द्रियायेति च प्राग्वत्, सर्वत्र च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, 'यदीत्यभ्युपगमे' 'मे' मह्यं 'मज्झं तीत्यस्य व्यवहितत्वात् क्रियां प्रति पुनरुपादनामदुष्टमेव न दास्यथ-न वितरिष्यथ, 'अथे' त्युपन्यासे आनन्तर्ये वा, एषणीयम्-एषणा-विशुद्धमन्नादिकं, किं न किञ्चिदित्यर्थः, अज्जत्ति अद्य ये यज्ञास्तेषामिदानीमारब्धयज्ञानां, यद्वा 'अज' त्ति हे आर्या ! यज्ञानां 'लभित्थ' त्ति सूत्रस्थाल्लप्स्यव्वे--प्राप्स्यध्वे लाभंपुण्यप्राप्तिरूपं, पात्रदानादेव हि विशिष्टपुण्यावाप्तिः, अन्यत्रतु तथाविधफलाभावेन दीयमानस्य हानिरेव, उक्तं हि-"दधिमधुघृतान्यपात्रे, क्षिप्तानि यथाऽशु नाशमुपयान्ति। एवमपात्रे दत्ता-नि केवलं नाशमुपयान्ति॥ 1 / / इति सूत्रार्थः / इत्थं तेनोक्ते यदध्यापकप्रधान आह तदुच्यतेके इत्थ खत्त उवजोइया वा, अज्झावया वा सह खंडिएहिं? एयं खु दंडेण फलेण हंता, कंठम्मि धितूण खलिज जो णं / / 18 // के 'अत्रे' त्येतस्मिन् स्थाने क्षत्राः-क्षत्रियजातयो वर्णसङ्करोत्पन्ना वा तत्कर्मनियुक्ताः 'उवजोइय'त्ति ज्योतिषः समीपे येत उपज्योतिषस्त एवोपज्योतिष्काः अग्निसमीपवर्त्तिनो महानसिका ऋत्विजो वा अध्यापकाः-पाठकाः, ते वा उभयत्र वा विकल्प 'सहे' ति युक्ताः कैः ? 'खण्डिकैः छात्रैः, ये किमित्याह-एन-श्रवणकं दण्डेन वंशयष्ट्यादिना फलेन-विल्वादिना 'हते' ति हत्वा ताडयित्वा, यदा-'दण्डेने' ति कूर्पराभिघातेन फलेन-च मुष्टिप्रहारेणेति वृद्धाः, ततश्च कण्ठे-गले गृहीत्वा-उपादाय 'खल्लेन्ज' त्ति स्खलयेयु:-निष्काशयेयुः, यो त्ति वचनव्यत्ययाद्ये इत्थमेतदभिघाते निष्काशनेवाशक्ताः, 'णमि वाक्यालङ्कारे, इतिसूत्रार्थः। अत्रान्तरे यदभूत्तदाहअज्झावयाणं वयणं सुणित्ता। उद्धाइया तत्थ बहू कुमारा। Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1188- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस | दंडेहिं वित्तेहिं कसेहि चेव, समागया तं इंसिं तालयंति // 16 // अध्यापकानाम्-उपध्यायानाम्, एकत्वेऽपि पूज्यत्वाद्वहुवचनं, वचनम्-उक्तरूपं श्रुत्वा-आकर्ण्य उद्घावितागन प्रसृताः तत्र यत्रासौ मुनिस्तिष्ठति बहवः-प्रभूताः कुमाराद्वितीयवयोवर्तिनश्छात्रादय इति गम्यते, ते हि क्रीडनकपरा इत्यहो क्रीडनकमागतमिति रभसतो दण्डैःवंशयष्ट्यादिभित्रैः-जलजवंशात्मकः कशैः-वर्धविकारैः, चः समुच्चये, एवेति पूरणे, समागताः-सम्प्राप्ता मिलिता वा तमृषिमुनिं ताडयन्तिघन्ति, सर्वत्र वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् इति सूत्रार्थः। अस्मिश्चावसरेरण्णो तहिं कोसलियस्स धूया, मद्दत्ति नामेण अणिंदियंगी। तं पासिया संजय हम्ममाणं। कुद्धे कुमारे परिनिव्ववेइ / / 20 / / राज्ञो नृपतेस्तत्र-यज्ञवाटे कोशलायां भवः कौशलिकस्तस्य 'धूय' त्ति दुहिता भद्रेति नाम्ना-अभिधानेन अनिन्दिताङ्गीकल्याणशरीरातंहरिकेशबलं पासिय' त्ति दृष्ट्वा सञ्जय' त्ति संयतं तस्यामप्यवस्थायां हिंसादेः सम्यगुपरतं हन्यतानं दण्डादिभिस्ताङ्यमानं कुद्धान् कोपवतः कुमारान् उक्तरूपान् परिनिर्वापयति-कोपाग्निविध्यापनात् समन्तात् शीतीकरोति-उपशमयतीति यावदिति सूत्रार्थः / सा च तान् परिनिर्वापयन्ती तस्य माहा - त्म्यमतिनिःस्पृहतां चाहदेवामिओगेण निओइएणं, दिन्ना मुरण्णा मणसान झाया। नरिंददेविंदऽभिवंदिएणं, जेणामि वंता इसिणा स एसो॥२१॥ एसो हुसो उमगतवो महप्पा, जिइंदिओ संजओं बंभयारी। जो मे तया निच्छह दिल्जमाणी, पिउणा सयं कोसलिएण रण्णा // 22 // महाजसो एस महाणुभागो, घोरव्वओ घोरपरक्कमो य। मा एयं हीलह अहीलणिलं, मा सव्वे तेएण भे निहहिज्जा / / 23 // देवस्य अमरस्याभियोगो बलात्कारो देवाभियोगस्तेन नियोजितेनव्यापारितेन न त्वप्रियेति कृत्वा 'दिन्नामु'त्ति दत्ताऽस्मि, अहं यस्मै इति गम्यते, दत्ता च केन ? राज्ञा प्रक्रमात्कौशलिकेन, तथापि 'मणस त्ति अपेर्गम्यमानत्वान्मनसाऽपि चित्तेनापिनध्याता-न चिन्तिता नाभिलषितेति यावत्, प्रक्रमादेतेन मुनिना, कीदृशेन ? नरेन्द्राश्च-नृपतयो देवेन्द्राश्चशक्रादयो नरेन्द्रदेवेन्द्रास्तैरभिआभिमुख्येन वन्दितः-स्तुतो नरेन्द्रदेवेन्द्राभिवन्दितस्तेन, अनभिध्याताऽपि नृपोपरोधतः स्वीकृता स्यादत आह येनास्म्यहं वान्ता-त्यक्ता ऋषिणा-मुनिना, स एष युष्माभिर्यः कदर्थयितुमारब्धः, ततोनकदर्थयितुमुचित इति भावः। पुनरिममेवाएं समर्थयितुमाह 'एसो हुसो' त्ति, एष एव सनमनागप्यत्र संशयः, उग्रम्-उत्कटं दारुणं वा कर्मशत्रून् प्रतितपः-अनशनाद्यस्येति उग्रतपाः, अत एव महान्-प्रशस्यो विशिष्टवीर्योल्लासत आत्मा अस्येति महात्मा, जितेन्द्रियः संयतो ब्रह्मचारी च प्राग्वत्, स इति क ? इत्याहयो 'मि' त्ति मां तदा-तस्मिन् विवक्षितसमये नेच्छति–नाभिलषतिदीयमानां निसृज्यमानां, केन ? पित्रा-जनकेन स्वयम्-आत्मना, नतु प्रधानप्रेषणा, तेनापि कीदृशा ? कौशलिकेन राज्ञा, न वितरजनसाधारणेन, तदनेन विभूतावपि निःस्पृहत्वमुक्तं, पुनस्तन्माहात्म्यमाहमहायसा-अपरिमितकीर्तिः एष-प्रत्यक्षो मुनिमहानुभागः अतिशयाचिन्त्यशक्तिः पाठान्तरतो महानुभावो वा, तत्र चानुभावः शापानुग्रहसामर्थ्य ,घोखतो धृतात्यन्तदुर्द्धरमहाव्रतः-घोरपराक्रमश्च–कषायादिजयं प्रति रौद्रसामर्थ्यो, यतोऽयमीदृक् ततः किमित्याह 'मा' इति निषेधेएनयतिंहीलयत-अवधूतं पश्यत अहीलनीयम्-अवज्ञातुमनुचितं, किमित्यत आह-मा सर्वान् समस्तांस्तेजसा तपोमाहात्म्यने 'भे' भवतो निर्धाक्षीद्-भस्मसात्मा/द, अयं हि हीलितो यदि कदाचिद्रुष्येत्तदा सर्व भस्मसादेव कुर्यादिति भाव इति सूत्रत्रयार्थः / अत्रान्तरे मा भूदेतस्या वचनं मृषेति यद्यक्षः ___ कृतवांस्तदाहएयाई तीसे वयाणाई सुचा, पत्तीइ भत्ताइ सुभासियाई। इसिस्स वेयावडियट्ठयाए, जक्खा कुमारे विणिवारयति // 25 // ते घोररूवा ठिअ अंतलिक्खे, असुरा तहिं तं जण तालयंति। ते मिन्नदेहे रुहिरं वमंते, पासित्तु भत्ता इणमाहु मुखो।। 25 // एतानि-अनन्तरोक्तानि तस्याः-अनन्तरोक्तायाः वचनानिभाषितानि श्रुत्वा-निशम्य पल्ल्याः -यज्ञवाटकाधिपतेः सोमदेव• पुरोहितस्य, तस्यैव वा मुनेरिति गम्यते, भद्राया-भद्राभिधानायाः सुभाषितानि सूक्तानि वचनानीति योज्यते, ऋषेः-तस्यैव तपस्विनः 'वेयावडियट्ठयाए' त्ति सूत्रत्वाद्वैयावृत्त्यार्थमेतत् प्रत्यनीकनिवारणलक्षणे प्रयोजने व्यावृत्ता भवाम इत्येवमर्थं यक्षाः, यक्षपरिवारस्य बहुत्वात् बहुवचनं, कुमारान् प्रक्रमात्तानेवोपहन्तृन विनिपातयन्तिविविधं नितरां पातयन्ति-भूमौ विलायन्ति, पठ्यते च-'विणिवारयति' त्ति विशेषेणोपहतिं कुर्वतो निराकुर्वन्ति, तथा 'ते' इति यक्षाः धोररूपा Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस ११८६-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस रौद्राकारधारणिः "ठिय' त्ति स्थिताः अन्तरिक्षे-आकाशे असुराआसुरभावान्वितत्वात् त एव यक्षाः तस्मिन्-यज्ञवाटे तम्-उपसर्गकारिणं जनं-छात्रलोकं ताडयन्ति घ्नन्ति, ततस्तान् कुमारान् भिन्नाविदारिताः प्रक्रमाद्यक्षप्रहारैर्देहा:-शरीराणि येषां ते भिन्नदेहास्तान् रुधिरं-शोणितं वमतः-उद्रिरतः पासित्त'त्ति दृष्ट्वा भद्रा सैव कौशलिकराजदुहिता इदं वक्ष्यमाणम् 'आहुति वचनव्यत्ययेन आह-ब्रूते भूयः-पुनरिति सूत्रद्वयार्थः। किं तदित्याहगिरि नहेहिं खणह, अयं दंतेहिं खायह। जायतेयं पायेहि हणह, जे भिक्खं अवमन्नह / / 26 / / आसीविसो उगतवो महेसी, घोरवओ घोरपरकमो या अगणिं व पक्खंद पयंगसेणा, __ जे भिक्खु मत्तकाले वहेह // 27 // सीसेण एवं सरणं उवेह, समागया सव्वजणेण तुम्हे। जइ इच्छह जीवियं वा घणं वा, लोगं पि एसो कुविओ डहिजा // 28 // गिरि-पळतं नखैः-कररुहै: खनथ--विदारयथ हइ च मुख्यखननक्रियाद्यसम्भवादिवचनमन्तरेणाप्युपमार्थो गम्यतेततश्च खनथेवखनथ, अयो-लोहं दन्तैः-दशनैः खादथेव खादथ, जाततेजसम् अग्निं पादैःचरणैईथेव हथ; ताडयथेत्यर्थः, ये वयं किं कुर्मः इत्याह-ये यूयं भिक्षु प्रक्रमादेनम्, 'अवमन्नह' ति अवमन्यध्वे-अवधीरयथ, अनर्थफलत्वात् भिक्ष्वपमानस्येति भावः, कथमिदमित्याह-आस्यो-दंष्ट्रास्तासु विषमस्येत्यासीविषः आसीविषलब्धिमान; शापानुग्रहसमर्थ इत्यर्थः, यद्वाआसीविष इव आसीविषः, यथा हि-तमत्यन्तमवजानानो मृत्युमेवाप्नोति, एवमेनमपि मुनिमवमन्यमानानामवश्यं भावि मरणमित्याशयः, कुतः पुनरयमेवंविधो ? यतः-उग्रतपाः प्राग्वत्, 'महेसि' त्ति महान्बृहन् शेषस्वर्गाद्यपेक्षया मोक्षस्तमिच्छति-अभिलषतीति महदेषी महर्षिर्वा, घोरव्रतो घोरपराक्रमश्च पूर्ववत्, यतश्चैवमतः 'अगणिं वत्ति अग्निज्वलनं, वाशब्द इवार्थो, भिन्नक्रमश्च / ततः 'पक्खंद' त्ति प्रस्कन्दथेव-आक्रामथेव, केव ?-'पतंगसेण' त्ति उपमार्थस्य गम्यमानत्वात्पतङ्गाना- शलभाना सेनेवसेनामहती सन्ततिः पतङ्गसेना तद्वत्, तथा हि-असौ तत्र निपतत्याशु घातमाप्नोत्येवं भवन्तोऽपीति भावः, ये यूयमनुकम्पितं भिक्षु-भिक्षुकंभक्तकाले-भोजनसमये, तत्र दीनादेरवश्यं देयमिति शिष्टसमयो यूयं तु न केवलं न यच्छतः, किन्तु तत्रापि वधह' त्ति विध्यथताडयथ, अयमाशयो-यतोऽयमासीविषादिविशेषणान्वितो मुनिरतो गिरिनख-खननादिप्रायमेव यदेनं भक्तकालेऽपि भक्तार्थिनमित्थं विध्यथ / अथ स्वकृत्योपदेशमाह-शीर्षण-शिरसा एनं-मुनि शरणार्थ-रक्षणार्थ-माश्रयमुपेत-अभ्युपगच्छत, किमुक्तं भवति-शिरःप्रणामपूर्वक-मयमेवास्माकं शरणमिति प्रपद्यध्वं, समागताः-सम्मि लिताः सर्वजनेन-समस्तलोकेन, सहार्थे तृतीया, यूयं-भवन्तो, यदीच्छत-अभिलषतजीवितं-प्राणधारणात्मकं धनं वा द्रव्यं, न तस्मिन् कुपिते जीवितव्यादिरक्षाक्षममन्यच्छ रणमस्ति, किमित्येवमत आहलोकमपि-भुवनमप्येष कुपितः कुद्धो 'दहेद्' भस्मसात्कुर्यात्, तथा च वाचक:-"कल्पान्तोग्रानलवत्प्रज्वलनं तेजसैकतस्तेषाम् ' तथा लौकिका अप्याहुः "न तत् दूरं यदश्वेषु, यवाग्नौ यच्च मारुते। विषे च रुधिरप्राप्ते, साधौ च कृतनिश्चये // 1 // " इति सूत्रत्रयार्थः। सम्प्रति तत्पतिस्तान् यादृशान् ददर्श दृष्ट्वा चयदचेष्टत तदाहअवहेडियपिट्ठिसउत्तमंगे, पसारियाबाहुअकम्मचिठे। निन्भेरियच्छे रुहिरं वमंते, उजमहे निग्ग्यजीहनित्ते / / 26 / / ते पासिया खंडियकट्ठभूए, विमणो विन्नसो अह माहणो सो। इसिं पसाएइ सभारियाओ, हीलं च निंदं च खमाह भंते ! // 30 // 'अवे' ति अधो 'हेडिय' ति हेठितानि-'बाधितानि' किमुक्तं भवति ? अधोनामितानि, पठन्ति च-'आवडिए' त्ति तत्र सूत्रत्वादवकोटितानि अधस्तादामोटितानि, 'पट्टि ति पृष्ठं यावत् तदभिमुखं वा सन्ति शोभनान्युत्तमाङ्गानियेषां ते अवहेठितपृष्ठसदुत्तमाङ्गाः अवकोटितपृष्ठसदुत्तमाङ्गा वा प्राग्वन्मध्यपदलोपी समासस्तान्, 'पसारियाबाहु अकम्मचिट्ठ' त्ति प्रसारिता विरलीकृता बाहवो भुजा यैर्येषां वा ते तथा, ततस्ते च ते अकर्मचेष्टाश्च अविद्यमानकर्महेतुव्यापारतया प्रसारित-- बाहुकर्मचेष्टास्तान्, यद्वाक्रियन्त इति कर्माणि अग्नौ समित्प्रक्षेपणादीनि तद्विषया चेष्टा कर्मचेष्टेहगृह्यते, 'निब्भेरिय'त्ति प्रसारितान्यक्षीणिलोचनानि येषां ते तथोक्तास्तान, रुधिरं वमतः-उद्रिरतः ‘उड्डेमुह' त्ति ऊर्ध्वमुखान्-उन्मुखीभूतवक्त्रान् अत एव निर्गतानि-निःसृतानि जिह्वाश्च प्रतीता नेत्राणि च-नयनानि जिह्वानेत्राणि येषां ते तथा तान्, 'तान्' इत्युक्तरूपान् दृष्ट्वा-अवलोक्य 'खंडिय'त्ति आर्षत्वात्सुपो लुकि खण्डिकान्-छात्रान् काष्ठभूतान्-अत्यन्तनिश्चेष्टतया काष्ठोपमान् विगतमिव विगतं मनः-चित्तमस्येति विमनाः, विषण्णः-कथममी प्रवणीभविष्यन्तीति चिन्तया व्याकुलितः 'अथे' त्ति दर्शनानन्तरं ब्राह्मणो-द्विजातिः 'स' इति सोमदेवनामा ऋषि--तमेव हरिकेशबलनामानं मुनि प्रसादयति-प्रसत्तिं ग्राहयति, सह भार्यया-पल्या तथैव भद्राभिधानया वर्तते इति सभार्यकः; कथमित्याह-हीलांच अवज्ञां निन्दा च दोषद्धट्टन',खमाह' त्ति क्षमस्व-सहस्व 'भंते ति सूत्रद्वयार्थः / पुनः स प्रसादनामेवाहबालेहि मूठेहिं अयाणएहिं, जं हीलिया तस्स खमाह मंते ! महप्पसाया इसिणो हवंति, नहू (हू) मुणि कोवपरा हवंति // 31 // Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस ११९०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस बालैः-शिशुभिर्मूः-कषायमोहनीयोदयाद्विचित्ततां गतैः अत एव चा :-- हिताहितविवेकविकलैः 'यद्रि' त्युपप्रदर्शने, हीलिताः-अवज्ञाताः 'तस्स' त्ति सूत्रत्वात् तत् 'खमाह' त्ति क्षमध्वं भदन्त ! अनेनैतदाहयतोऽमी शिशवो मूढा अज्ञानाश्च तत्किमेषामुपरि कोपेन ? यतोऽनुकम्पनीया एवामी, उक्तंचकेनचिद्-"आत्मद्रुहममर्याद, मूढमुज्झित- | सत्पथम् / सुतरामनुकम्पेत, नरकार्चिष्मदिन्धमन् // 1 // " किं चमहान् प्रसादः चिततप्रसत्तिरूपो येषां ते महाप्रसादा ऋषयः-साधवो भवन्ति, व्यतिरेकमाह--'न हुत्ति न पुनर्मुनयो-यतयः कोपपराःक्रोधवशगा भवन्ति, भिन्नवाक्यत्वाच मुनिग्रहणमदुष्टमेवेति सूत्रार्थः। मुनिराहपुट्विं च इम्हि च अणागयं च, मणप्पओसो न में अस्थि कोई। जक्खा हु वेयावडियं करिति, तम्हा हु एए निहया कुमारा // 32 // 'पुट्विं च' त्ति पूर्वं च पुरा इदानीं च-अस्मिन् काले 'अणागयं चे' ति अनागते च भविष्यत्काले मनःप्रद्वेषः-चित्तानुशयलक्षणो न 'मे' ममास्तीत्युपलक्षणत्वादासीद्भविष्यति च, कोऽपी' त्यल्योऽपि, इह च भाविनि प्रमाणाभावेऽपि 'अनागतं प्रत्याचक्षे' इति वचनादनागतस्यापि तस्य निषिद्धत्वाच्छुतज्ञानबलतः कालत्रयपरिज्ञानसम्भवाचैवमभिधानम्, पठन्ति च–'पुट्विं च पच्छा व तहेव मज्झे तत्रच पूर्ववापश्चाद्वेति विहेठनकालापेक्षं तथैव मध्ये विहेठनकाल एव, नचकुमारावहेठनादिदर्शनात्प्रत्यक्षविरुद्धता शङ्कनीया, यक्षा-देवविशेषा 'हु रिति यस्माद्वैयावृत्त्यं प्रत्यनीकप्रतिघातरूपं कुर्वन्ति-विदधति, 'तम्ह' त्ति तस्मात् हुरवधारणे, ततस्तस्मादेव हेतोरेतेपुरोवर्तिनो नितरां हताः-ताडिता कुमाराः, न तु मम मनःप्रद्वेषाऽत्र हेतुरिति भाव इति सूत्रार्थः। सम्प्रति तद्गुणाकृष्टचेतस उपाध्यायप्रमुखा इदमाहुःअत्थं च धम्मच वियाणमाणा, तुन्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना। तुमं तु पाए सरणं उवेमो, समागया सव्वजणेण अम्हे // 33 // अर्यत इत्यर्थो-ज्ञेयत्वात्सर्वमेव वस्तु, इह तु प्रक्रमाच्छुभाशुभकर्मविभागो रागद्वेषविपाको वा परिगृह्यते, यद्वाअर्थः-अभिधेयः स चार्थाच्छास्त्राणामेव तं, चशब्दस्तद्गतानेभेदसंसूचकः,धर्मः-सदाचारो दशविधो क यतिधर्मस्तं च 'वियाणमाणे' त्ति विशेषेण विविध वा जानन्तः-अवगच्छन्तो यूयं नापि-नैव कुप्यथ-क्रोधं कुरुध्वं, भूतिप्रज्ञा इति, भूतिभङ्गलं वृद्धी रक्षा चेति वृद्धवाः, प्रज्ञायतेऽनया वस्तुतत्त्वमिति प्रज्ञा, ततश्च भूतिः-मङ्गलं सर्वमङ्गलोत्तमत्वेन वृद्धिर्वा वृद्धिविशिष्टत्वेन रक्षा वा प्राणिरक्षकत्वेन प्रज्ञा-वुद्धिरस्येति भूतिप्रज्ञः, अतश्च 'तुभंतु त्ति तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् युष्माकमेव पादौ-चरणौ शरणमुपमःउपगच्छामः समागताः-मिलिताः, केन सह-सर्वजनेन, वयमितिसूत्रार्थः / किंच अचेमु मे महाभागा ! न ते किंचन नाचिमो। मुंजाहि सालिमं कूर, नाणावंजणसंजुयं // 34 // अर्चयामः-पूजयामः 'ते'-तव सम्बन्धि सर्वमपीति गम्यते, प्रविश पिण्डिमित्युक्ते यथा गृहमिति भक्षयेति च / महाभाग ! अतिशयाचिन्त्यशक्तियुक्तत्वनेति, नैव'ते' तव किश्चिदिति चरणरेवादिकमपि नार्चयामो-न पूजयामः, अपि तु सर्वमचंयामः, अस्य च पूर्वेणैव गतार्थत्वे पुनरभिधानमन्वयव्यतिरेकाभ्यामुक्तोऽर्थः सुखावगमो भवतीति कृत्वा। अथवा अर्चयामस्ते इति सुब्ब्यत्ययात्त्वाम्, अनेन स्वतस्तस्य पूज्यत्वमुक्तम्, उत्तरेण तु तत्स्वामित्वमपि पूज्यताहेतुरिति, तथा भुक्ष्वेतो गृहीत्वेति गम्यते 'सालिम' तिशालिमयं, कोऽर्थः ? शालिनिष्पन्न कूरम् ओदनं नानाव्यञ्जनैः-अनेकप्रकारैर्दध्यादिभिः संयुतंसम्मिश्रं नानाव्यञ्जनसंयुतं,नत्वेकमेवेतिसूत्रार्थः। अन्यचइगं च मे अत्थिपभूयमन्नं, तं मुंजसू अम्ह अणुग्गहट्ठा। वाढंतिपडिच्छइ भत्तपाणं, मासस्स ऊपारणए महप्पा / / 35 // 'इदं च' प्रत्यक्षत एव परिदृश्यमानं 'मे' ममास्ति-विद्यते प्रभूतंप्रचुरमन्नं मण्डकखण्डखाद्यादिसमस्तमपि भोजनं, यत्प्राक्पृथगोदनग्रहण तत्तस्य सन्निप्रधानत्वख्यापनार्थं , तद्भुङक्ष्वास्माकमनुग्रहार्थवयमनुगृहीता भवाम इति हेतोः। एवं च तनोक्ते मुनिराह-'वाढम्' एवं कुर्मा इतीत्येवं बुवाण इति शेषः, प्रतीच्छति-द्रव्यादितः शुद्धमिति गृह्णाति, भक्तपानमुक्तरूपं, 'मासस्स उत्ति मासादेव, यद्वाअन्तइत्यध्याहियते, ततश्च मासस्यैवान्ते यत्पार्यते-पर्यन्तः क्रियते गृहीतनियमस्यानेनेति पारणं तदेव पारणके, भोजनमित्युक्तं भवति, तस्मिन्तन्निमित्तं, 'निमित्तात्कर्मयोगे सप्तमीति' (पा० 2-3-36 वार्तिकम्) सप्तमी, महात्मेति प्राग्वत् इति सूत्रार्थः / तदा च तत्र यदभूत्तदाहतहियं गंधोदयपुप्फवासं, दिव्वा तहिं वसुहारा य वुट्ठा। पहया दुंदुहीओ सुरेहिं, आगासे आहो दाणं च घुटुं // 36 // "तहियं ति तस्मिन् मुनौ भक्तपानं प्रतीच्छति यज्ञवाटे वा गन्धआमोदस्तत्प्रधानमुदकं-जलं गन्धोदकं तय पुष्पाणि च-कुसुमानि तेषां वर्ष-वर्षणं गन्धोदकपुष्पवर्ष; तच्च पुष्पाणि च कुसुमानि तेषां वर्ष -- वर्षणं गन्धोदकपुष्पवर्ण; सुरैरिति सम्बन्धात् कृतमिति गम्यते, दिव्याश्रेष्ठा, यदिवा-दिति- गगने भवा दिव्या 'तहिं ति तस्मिन्नेव अनेन कथमियता-मेकत्र कल्याणानां मीलक इत्यन्यत्रैवान्यतरकल्याणान्तरं भविष्यतीत्याशङ्का निराकृता / वसु-द्रवय तस्य धारासततपातजनिता सन्ततिर्व-सुधारा सा च 'वृष्टे' ति पातिता 'सुरैरित्यत्रापि सम्बध्यते' तथा प्रकर्षेण हताः-ताडिताः प्रहताः के ते? "दुन्दुभया 'देवानकाः,उपलक्षणत्वा-च्छेषातोद्यानिचा कैः? सुरैः-देवैः, तैरेव, तथा तैरेवे आकाशेनभसि 'अहो 'इति विस्मये, विस्मयनीयमिदं दानं कोऽ Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1161 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस न्यः किलैवं शक्नोति दातुम् ? एवं दत्तं सुदत्तमिति च घुष्टंसंशब्दितमिति सूत्रार्थः। तेऽपि ब्राह्मणा विस्मितमनस इदमाहुःसक्खं खुदीसइतवोविसेसो, नदीसई जाइविसेसों कोई। सोवागपुत्तं हरिएससाहु, - जस्सेरिसा इड्डिमहाणुभागा॥३७॥ साक्षात्-प्रत्यक्षं 'खु' रिति निश्चित अवधारणेवा तःसाक्षादेव दृश्यतेअवलोक्यते, कोऽसौ ?-तपो-लोकप्रसिद्ध्या व्रतमुपवासादिर्वा तस्य विशेष-विशिष्टत्वमाहात्म्यमिति यावत्तपोविशेषो, 'न' नैव दृश्यते जातिविशेषोजातिमाहात्म्यलक्षणः कोऽपी' ति स्वल्पोऽपि किमित्येवमत आह-यतः स्वपाकपुत्रः-चाण्डालसुतो हरिकेशश्चासौ मातङ्गत्वन प्रसिद्धत्वात् साधुश्च यतित्वाद्धरिकेशसाधुः, पठ्यते च-'सोवागपुत्तं हरिएससाहुति अत्र च पश्यतेतिशेषः, कदाचिदन्यएव कश्चिदत आहयस्येदृशी-दृश्यमानरूपा ऋद्धिः-देवसन्निधानात्मिका सम्पत् महानुभागा सातिशयमाहात्म्या, जातिविशेषे हि सति सर्वोत्तमत्वाद् ब्राह्मणजातेस्तद्वतामस्माकमेव देवा वैयावृत्त्यं कुर्युरिति भाव इति सूत्रार्थः / साम्प्रतं स एव मुनिस्तापशान्तमिथ्यात्वमोहनीयोदया निव पश्यन्निदमाहकिं माहणा! जोइसमारभंता, उदएण सोहिं बहिया विमग्गहा। जं मग्गहा बाहिरियं विसोहिं, नतं सुदिलु कुसला वयंति॥३८॥ 'कि' मिति क्षेपे, ततो न युक्तमिदं, यत् माहना-ब्राह्मणा ज्योतिः- | अग्निं समारभमाणाः-प्रस्तावाद्यागकरणतः प्रवर्त्तमानाः; यागं कुर्वन्त इत्यर्थः, उदकेन जलेन 'सोहिं तिशुद्धिं निर्मलतां 'बाहिय'त्ति बाह्यां, कोऽर्थो ? बाह्यहेतुकां, यागं हि समारभमाणैर्जलेन या शुद्धिार्यते तत्र यागस्नाने एव तत्त्वतो हेतुत्वेनेष्ट, तेच भवदभिमते बाह्येएवेति विमार्गयथ-। विशेषेणान्वेषयथ, किमेवमुपदिश्यत इत्याह-यद्यूयं मार्गयथ बाह्यांबाह्यहे तुकां विशद्धिं, नतत् सुदृष्ट सुष्ठ प्रेक्षितं कुशलाः-तत्त्वविचारं प्रति निपुणा वदन्ति-प्रतिपादयन्तीति सूत्रार्थः। यथा चैतत् सुदृष्ट न भवति तथा स्वत एवाहकुसं च जूवं तणकट्ठमग्गिं, सायं च पायं उदयं फुसंता। पाणाई भूयाई विहेडयंतो, भुज्जोऽवि मंदा ! पकरेह पावं // 39 // कुशं च-दर्भ च यूपं-प्रतीतमेव तृणं च-वीरणादि काष्ठ-समिदादि तृणकाष्ठम् अग्निं प्रतीतं सर्वत्र परिगृह्णन्त इति शेषः सायं-सन्ध्यायां; चशब्दो भिन्नक्रमस्ततः 'पाय' तिप्रातश्च प्रभाते उदक-जलं स्पृशन्तः- / आचमनादिषु परामृशन्तः ‘पाणाई' ति प्राणयोगात् प्राणिनो, यद्वा-- प्रकर्षणानन्तीति वसन्तीति प्राणाः द्वीन्द्रियादयः, सम्भवन्ति हि जले पूतरकादिरूपास्त इति, 'भूयाई' इति भूतान्-तरून् 'भूताश्च तरवः स्मृता' इति वचनात्, पृथिव्यायेकेन्द्रियोपलक्षणं चैतत् 'विहेडयंति' त्ति विहेटयन्तो-विशेषेण विविधं वा बोधमानाः; विनाशयन्त इत्यर्थः, किमित्याह भूयोऽपि-पुनरपि, न केवलं पुरा किन्तु विशुद्धिकालेऽपि जलानलादिजीवोपमईतो मन्दा:-जड़ाः प्रकुरुथ--प्रकर्षणोपचिनथुयूयं, किंतत् ? पापम् अशुभकर्म, अयमाशयः-कुशला हि कर्ममलविलयात्मिकां तात्त्विकीमेव शुद्धिं मन्यन्ते, भवदभिमतयागस्नानेचयूपादिपरिग्रहजलस्पर्शाविनाभावित्वेन भूतोपमईहेतुतया प्रत्युत कम्ममलोपचयनिबन्धने एवेति नातः तस्सम्भवइति कथं तद्धेतुकशुद्धिमार्गणं सुदृष्ट ते वदेयुः? तथा च वाचक:-"शौचमाध्यात्मिकं त्यक्त्या, भावशुद्ध्यात्मकं शुभम्। जलादिशौचं यत्रेष्ट, मूढविस्मापकं हि तत्॥१॥" इति सूत्रार्थः / इत्थं तद्वचनतः समुत्पन्नशङ्कास्ते यागंप्रति तावदेवं पप्रच्छु:कहं चरे भिक्खु ! वयं यजामो? पावाई कम्माई पणुल्लयामो। अक्खाहिणे संजय जक्खपूइआ, कहं सुइट्ठ कुसला वयंति? ||40 // कथं-केन प्रकारेण 'चरित्ति"विभाषा कथमि लिङ्च" इति (पा० 3-3-143) लिङि वचनव्यत्ययाचरेमाहियागार्थ प्रवर्तेमहि, हे भिक्षो ! मुने! वयमित्यात्मनिर्देशः, तथा यजामोयांग कुर्मः, कथमिति योगः? पापानि अशुभानि कर्माणि पुरोपचिताऽविद्यारूपाणि 'पणुल्लयामो' त्ति प्रणुदामः-प्रेरयामो येनेति गम्यते, आख्याहि-कथय न:-अस्माकं संयतः-पापस्थानेभ्यः सम्यगपुरतः यक्षपूजित ! यक्षार्चित ! किमुक्तं भवति? योह्यस्मद्विदितः कर्मप्रणोदनोपायत्वेन यागः सयुष्माभिर्दूषित इति भवन्त एवापरं यागमुपदिशन्तु, कदाचितविशिष्टमेव यजनमुपदिशेदित्याशङ्कयाह-कथं-केन प्रकारेणे स्विष्टंशोभनं यजनं कुशलाउक्तरूपा वदन्ति प्रतिपादयन्ति, न तं 'सुदिट्ठ कुसला वयंति' त्ति कुशलमुखेनैव मुनिनादूषितमिति तैरपि पृष्टमिति सूत्रार्थः। मुनिराहछज्जीवकाए असमारभंता, मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इत्थिउमाण मायं, एवं परिनायं चरंति दंता॥४१॥ षड्जीवकायान्-पृथिव्यादीन् 'असमारभमाणा' अनुपमईयन्तः 'मोसं' ति मृषा अलीकभाषणम् 'अदत्तं चेत्यदत्तादानं चानासेवमानाः अनाचरन्तः परिग्रहं मूच्छा स्त्रियो-योषितो 'माणा' त्ति मानम्अहङ्कार माया परवञ्चनात्मिकां तत्सहचारित्वात्कोपलोभौ च, एतद्अनन्तरोक्तं परिग्रहादि परिज्ञाय-ज्ञपरिज्ञया सर्वप्रकारं ज्ञात्वा Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1192 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिएस प्रत्याख्यानपरिज्ञया च प्रत्याख्याय 'चरेज दन्त' त्ति वचनव्यत्ययाचरेयुर्याग प्रवर्तेरन्, भवन्त इति गम्यते। पठन्ति च–'चरन्ति दंत त्ति अत्र च यत एवं दान्ताश्चरन्त्यतो भवद्भिरप्येवं चरितव्यमिति भाव इति सूत्रार्थः। प्रथमप्रश्नप्रतिवचनमुक्तं, शेषप्रश्नप्रतिवचनमाहसुसंवुडा पंचर्हि संवरेहि, इह जीवियं अणवकंखमाणो। वोसट्टकाओ सुइचत्तदेहो, महाजयं जयई जन्नसिहूं // 12 // सुष्ठ संवृतः-स्थगितसमस्ताश्रवद्वारः सुसंवृतः कैः ? पञ्चभिः-पञ्चसंख्यैः संवरै-प्राणातिपातविरत्यादिव्रतैः 'इहे' त्यस्मिन् मनुष्यजन्मनि, उपलक्षणत्वात्परत्रचजीवितं-प्रस्तावादसंयमजीवितम् अनवकासन्अनिच्छन्, यद्वाअपेर्गम्यमानत्वाञ्जीवितमपि-आयुरप्यास्तामन्यद्धनादि, अनवकाङ्क्षन् यत्र हि व्रतबाधा तत्रासौजीवितमपि न गणयति, अत एव व्युत्सृष्टोविविधैरुपायैर्विशेषेण वा परीषहोपसर्गसहिष्णुतालक्षणेनोत्सृष्टः-त्यक्तः कायःशरीरमनेनेति व्युत्सृष्टकायः, शुचिःअकलुषव्रतःस चासौ त्यक्तदेहश्च अत्यन्तनिष्प्रतिकर्मतया शुचित्यक्तदेहः, महान् जयःकर्मशत्रुपराभवनलक्षणो यस्मिन् यज्ञश्रेष्ठऽसौ महाजयस्तं, क्रियाविशेषणं वा महाजयं यथा भवत्येवं यजते यतिरिति गम्यते, ततो भवन्तोऽप्येवमेव यजन्तामिति भावः ‘तिवचनव्यत्ययने वा 'जइय' त्ति यजतां, कमित्याह-'जण्णसिटुं' प्राकृतत्वाच्छ्ठयज्ञ, श्रेष्ठवचनेन चैतद्यजन एव स्विष्ट कुशला वदन्ति, एष एव च कर्मप्रणोदनोपाय इत्युक्तं भवतीति सूत्रार्थः। यदीदृग्गुणः श्रेष्ठयज्ञयजतेअतस्त्वमपीदृग्गुण एव, तथा चतंयजमानस्य कान्युपकरणानि को वा वजनविधिरित्यभिप्रायेण त एवमाहुःके ते जोई के व ते जोइठाण? का ते सूया किं च ते कारिसंऽगं? एहा य ते कयरा संति भिक्खू ? कयरेण होमेण हुणासि जोइं? // 13 // किम्, अयमर्थः-किं रूपं ते-तव 'ज्योति' रिति अग्निः 'के व ते जोइठाण' ति किं वा ते-तव ज्योतिःस्थानं यत्र ज्योतिर्निधीयते, का | श्रुवो? -घृतादिप्रक्षेपिका दर्व्यः, 'किं च त्ति किं वा करीषः-प्रतीतःस एवाङ्गम्-अग्न्युद्दीपनकारणं करीषाङ्गं येनासौ सन्धुक्ष्यते, एधाश्चसमिधो यकाभिरग्निः प्रज्वाल्यते, ते-तव कतरा इति–का? 'संति-' त्ति चस्य गम्यमानत्वाच्छान्तिश्चदुरितोपशमनहेतुरध्ययनपद्धतिः कतरेति प्रक्रमः, "भिक्खु' इति भिक्षो ! कतरेण होमेन-हवनविधिना, समेन धावतीत्यादिवत् तृतीया जुहोषि-आहुतिभिः प्रीणयसि, किं?--- ज्योतिः--अग्रिम् षड्जीवनिकायसमारम्भनिषेधेन ह्यस्मदभिमतो होमः तदुपकरणानि च पूर्व निषिद्धानीति कथं भवतो यजनसम्भवः ? इति सूत्रार्थः। मुनिराह तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरीरं करीसंऽगं। कम्म एहा संजमजोग संती, होम हुणामी इसिणं पसत्थं // 4 // तपो-बाह्याभ्यन्तरभेदभिन्नज्योतिः-अग्निः, यथा हिज्योतिरिन्धनानि भस्मीकरोत्येवं तपोऽपि भावेन्धनानिकर्माणि, जीवो-जन्तुर्योतिः स्थान-तपोज्योतिषस्तदाश्रयत्वात्, युज्यन्ते-सम्बध्यन्तेस्वकर्मणेति योगाः-मनोवाकायाः श्रुवः, ते हि शुभव्यापाराःस्नेहस्थानीयाः, तपोज्योतिषो ज्वलनहेतुभूताः तत्र संस्थाप्यन्त इति, शरीरं-करीषाङ्ग, तेनैव हि तपोज्योतिरुद्दीप्यते, तद्भावभावित्वात्तस्य, कर्म-उक्तरूपम् एधास्तस्यैव तपसा भस्मीभावनयनात्, 'संजमजोग' त्ति संयमयोगाःसंयमव्यापाराः शान्तिः सर्वप्राण्युपद्रवापहारित्वात्तेषां, तथा 'होम' ति होमेन जुहोति तपोज्योतिरिति गम्यते, ऋषीणां-मुनीनां सम्बन्धिना 'पसत्थं ति प्रशस्तेन जीवोपघातरहित्वेन विवेकिभिः ग्लाघितेन सम्यक्चारित्रेणेति भावः / अनेन च कतरेण होमेन जुहोषि ज्योतिरिति प्रत्युक्तमिति सूत्रार्थः। तदेतेन 'किं माहना जोइसमारहंता' इत्यादिना लोकप्रसिद्धयज्ञानां स्नानस्य च निषिद्धत्वाद्यज्ञस्वरूपं तैः पृष्ट कथितंच मुनिना। इदानीं स्नानस्वरूपं पिपृच्छिषव इदमाहुःके ते हरए के य ते संतितित्थे? कहंसि ण्हाओ व रंय जहासि?। आयक्खणे संजय ! जक्खपूइया,! इच्छामुनाउं भवओ सगासे // 45 // कस्ते तव ह्रदः-नदः? 'के य ते संतितित्थे' त्ति किं च 'ते' -तव शान्त्यै-पापोपशमननिमित्तं तीर्थं-पुण्यक्षेत्रं-शान्तितीर्थम्, अथवा-- 'कानि च' किंरूपाणि 'ते'-तव सन्ति-विद्यन्ते तीर्थानि--संसारोदधितरणोपायभूतानि, लोकप्रसिद्धतीर्थानि हि त्वया निषिद्धनीति, तथा च-'कहिंसिण्हाओ वे' तिवाशब्दस्य भिन्नक्रमत्वात्कस्मिन् वा स्नातः-- शुचिर्भूतो रज इव रजः-कर्म जहासि-त्यजसित्वं ? गम्भीराभिप्रायो हि भवांस्तत् किमस्माकमिव भवतोऽपिहृदतीर्थ एव शुद्धिस्थानमन्यद्वेति नविद्म इति भावः-आचक्ष्व-व्यक्तं वद संयत! यक्षपूजित! इच्छामःअभिलषामो ज्ञातुम् अवगन्तुंभवतः-तवसकाशे-समीपे इतिसूत्रार्थः। ___ मुनिराहधम्मे हरए बंभे संतितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे। जहि सि बहाओ विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ पजहामि दोसं॥ 46 // एवं सिणाणं कुसलेण दिलु, महासिणाणं इसिणं पसत्थं / जहिं सिण्हाया विमला विसुद्धा, महारिसी उत्तमं ठाण पत्ति॥४७॥ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिएस 1193 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिकूड धर्मः-अहिंसाद्यात्मको हृदः-कर्मरजोऽपहन्तृत्वाद्ब्रह्मेति-ब्रह्मचर्य भंजित्ता चलंतेण दिलु हरिकंखीगामे तं चेइयं / भज्झं पविसित्ता भग्गा शान्तितीर्थ, तदासेवनेन हि सकलमलमूलं रागद्वेषावुन्मूलितावेव भवतः, भगवओ पासनाहपडिमा / तं च गामं उवद्दवित्ता चलिओ सुट्ठाणं पइ तदुन्मूलनाच नकदाचिन्मलस्य सम्भवोऽस्ति, सत्याधुपलक्षणं चैतत्, मल्लारो। पुणो वसिओ गामो समागया गुट्ठियसवाया भगवंतं भग्गं तं तथा चाऽऽह-"ब्रह्मचर्येण सत्येन, तपसा संयमेन च / मातङ्गर्षिर्गतः निरूवित्ता परुप्परं भणिओऽहिवती अहो ! भगवओ महामहप्पस्सावि शुद्धिं, न शुद्धिस्तीर्थयात्रया / / १॥"अथवा-'ब्रो' ति ब्रह्मचर्यवन्तो कहं नाम भंगो विहिओ चिलाएहिं, कत्थ पुण सा भगवओ तारिसी कला मतुब्लोपादभेदोपचारद्वा साधव उच्यन्ते, सुव्वयत्ययाचैकवचनं, सन्ति- गय त्ति? तओ तेसिं पसुत्ताणं सुमिणे आइट्टमहिट्ठायगसुरेहिं, जहा एयाए विद्यन्ते तीर्थानि ममेति गम्यते, उक्तं हि "साधूनां दर्शनं श्रेष्ठ, तीर्थभूत पडिमाए खंडाणि सव्वाणि एगट्ठीकाऊण गब्भहरे ठवित्ता दुवारकवाडं हि साधवः। तीर्थं पुनाति कालेन, सद्यः साधुसमागमः॥१॥' किं च रुधित्ता भयं दाऊण छम्मासे जाव पडियालेयव्वं / तओ परं दुवारभवत्प्रतीततीर्थानि प्राण्युपमईहेतुतया प्रत्युत मलोपचयनिमित्तानीति मुग्धाडियव्वं पडिमा निरिक्खियव्वा संपुण्णमंगोवंगा होहिइ / गुडिएहिं कुतस्तेषां शुद्धिहेतुता? तथा चोक्तम्-"कुर्याद्वर्षसहस्रंतु, अहन्यहनि भोग काऊण तहेव कयं जाव पंच मासा बोलीणा, छट्ठस्स पारंते मजनम् / सागरेणापि कृत्स्नेन, वधको नैव शुद्ध्यति॥१॥" हृदशा उस्सुगीहोऊण गोडिएहिं दुवारमुग्घाडियं जाव दिट्ठा भगवओ संपुण्णंन्तितीर्थे एव विशिनष्टि-अनाविले मिथ्यात्वगुप्तिविराधना-दिभिरकलुषे गोवंगकप्पा केवलं ठाणे ठाणे मसनिवहपूरिआ / तओ तत्तमवियारित्ता अनाविलत्वादेवात्मनोजीवस्य प्रसन्ना-मनागप्यकलुषा पीताद्यत्यतरा तेहिं आहूओ सुत्तधारो / तेण टंकियाए मसा छिंदिउमारद्धा जाव निसरियं मसेहिंतो रुहिरं। तओ भीआ गुडिआ भूओ-भूओ भोगाइएहिं लेश्या यस्मिंस्तदात्मप्रसन्नलेश्यं तस्मिन्, अथवा-आप्ता प्राणिनामिह पसाएउमारद्धा, तओरत्तीए सुमिणो आइट्टमहिट्ठायगेहिं, जहा-नसोहणं पत्र च हिता प्राप्ता वा तैरेव प्रसन्नलेश्या-उक्तरूपा यस्मिंस्तदात्मप्रसन्नलश्य तस्मिन्नेवंविधे धर्महदे, ब्रह्माख्यशान्तितीर्थे च यदाह-ब्रह्मशब्देन कयं तुम्मेहिं जओ अपुन्नाए वि छम्मासीए दुआरमुग्धाडिअमिति / दारे दिवा पाससामिस्स पडिमा निरुवहयअखंडिअंगोवंगा केवलं नहसुत्तीसु ब्रह्म-वर्यवन्त उच्यन्ते तत्पक्षे वचनविपरिणामेन विशेषणद्वयं व्याख्येयं, अंगुढे य मणागं तुच्छा, परिट्ठियंगुट्ठियापुव्वं च पूइओ पवद्यागच्छंति 'जहिंसि' त्ति यत्रास्मि स्नात इव स्नातः-अत्यन्तशुद्धिभवनाद्विमलो चाउद्दिसाओ संघा, करिति जत्तामहूसवं। एव च सुकरकारी माहप्पनिही भावमलरहितोऽत एवाऽतिविशुद्धो-गतकलङ्क, 'सुसीतीभूओ' त्ति सिरीपासनाहो "इय हरिकंखीनयरे, पारहिअस्सासएण तणयस्स / सुशीतीभूतो रागाद्युत्पत्तिविरहतः सुष्टु शैत्यं प्राप्तः, पठ्यते च-'सुसील सिरिजिणपहसूरीहिं, कप्पो विहिओ समासेणं॥१॥" इति। ती०२८ भूओ' ति सुष्टु-शोभनं शीलं-समाधानं चारित्रं वाभूतः-प्राप्तः सुशील कल्प। भूतः प्रजहामि-प्रकर्षण त्यजामि दूषयति-विशुद्धमप्यात्मानं विकृति हरिकंत पुं० (हरिकान्त) दक्षिणात्यानां कुमाराणामिन्द्रे, भ० 3 श० नयतीति दोषः-कर्मतम्, अनेनैतदाह-ममापि हृदतीर्थे एव शुद्धिस्थानं 8 उ० / स्था० स०। प्रज्ञा० / परमेवंविधे एवेति, निगमयितुमाह–'एतदि' त्यनन्तरमुक्तं स्नानं- हरिकंतप्पवायदह पुं० (हरिकान्ताप्रपातहद) हरिकान्तायाः महानद्याः रजोहीनं कुशलैः-प्रागुक्तरूपैर्दृष्ट-प्रेक्षितमिदमेव महास्नानं, न तु प्रपातहदे, हरिकान्तोक्तरूपा महानदी यत्र निपतति, यश्य हरित्कुण्डयुष्मत्प्रतीतम्, अस्यैव सकल-मलापहारित्वाद्, अत एव चेदं ऋषीणां समानो हरिद्वीपसमानेन हरिकान्तादेवीद्वीपेन सभवनेन भूषितमध्यप्रशस्तं-प्रशंसास्पदं, न तु जलस्नानवत्सदोषतया निन्द्यम्, अस्यैव भागः स हरिकान्ताप्रपातहद इति। स्था०२ ठा०३ उ०। फलमाह-'जहिंसि' त्ति सुब्व्यत्ययाद्येन स्नाता विमला विशुद्धा इति हरिकता स्त्री० (हरिकान्ता) हरिवर्षे महानद्याम्, रा० / जं० / स०। च प्राग्वत् महर्षयो-महामुनय उतमं स्थानं मुक्तिलक्षणं प्राप्ताः-गता हरिकान्ता तु महापद्महदा देवोत्तरेण तोरणेन निर्गत्स पश्चोत्तराणि षोडश इति सूत्रद्वयार्थः / इतिः परिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववद्, गतोऽनुगमः शतानि सातिरेकाणि उत्तराभिमुखीपर्वतने गत्वा सातिरेकयोजनशतसम्प्रति नयास्ते च प्राग्वदेव / उत्त० 12 अ० 1 स्था० / ती० / व्य० / द्वयप्रमाणेन प्रपातेन हरिकान्ताकुण्डे तथैव प्रपति ( मकर-मुखजिति प्रश्न०। राजगृहनगरे श्रेणिकस्याध्यापक, नि० चू०१ उ०। काप्रमाणं पूर्वोक्तद्विगुणं, ततः प्रपातकुण्डादुत्तरतोरणेन निर्गत्य हरिवर्षहरिओभास पुं० (हरितावभास) हरितत्वेन अवभासमाने, रा०। जी०।" मध्यभागवर्त्तिनं गन्धापातिवृत्तवैताढ्यं योजनेनासम्प्राप्ता पश्चिमाभिहरिकंखीणयर न० (हरिकंखीनगर) स्वनामख्याते नगरे, ती० / मुखीभूता षट्पञ्चाशता सरित्सहसौः समग्रा समुद्रमभि-गच्छति, इयं "पणमिय पासजिणेस, हरिकंखीणयरचेइयनिविट्ठ। तस्सेव कप्पमप्पं | घ हरिकान्ता प्रमाणतो रोहिन्नदीतो द्वीगुणेति / स्था० 2 ठा० 3 उ०। भणामि निद्दलिअकप्पमयं // 1 // ' गुञ्जरधराए हरिकंखी नामो अभिरामो | हरिकंताकूड पुं० (हरिकान्ताकूट) नदीदेवतासत्के कूटे, स्था० 5 ठा० गामो अच्छइ / तत्थ जिणभवणे उत्तुंगसिहरे सन्निहियपाडिहेरा 3 उ०। जम्बूद्वीपे महाहिमवतः षष्ठे कूटे, स्था०२ ठा०३ उ०। सिरिफार ह-पडिमा विविहपूआहिं पूइजइ भविअजणेणं ति काउं। | हरिकण्ण पुं० (हरिकर्ण) अपरनामके अन्तीपे, नं०। अन्नया चोलुक्कवंसपईवेण सिरिभीमदेवरज्जे तुरुक्कमंडलाओ आगएणं | हरिकू ड पुं० (हरिकूट) नीलवत्पर्वतस्य नीलवत्कू टाइक्षिसबल-वाहणेण अतनुचुक्काभिहाणमल्लारेण अणहिलवाडयपट्टणगढ़ | णतः सहस्रप्रमाणे विद्युत्प्रभवतिकूटे, स्था०९ ठा०३ उ०। Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिकूड 1194 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिय उमाल्यवद्वक्षष्कारपर्वतस्य कूटे, निषधवर्षधरस्य पञ्चमे कूटे। जं०१ | हरिभह पुं०(हरिभद्र) श्वेताम्बराचार्यजिनभद्रनिगदानुसारिणि विद्याधरवक्षन कुलतिलकाचार्यजिनदत्तशिष्ये धर्मतो याकिनीमहत्तरासूनौ स्वनामहरिकेसीबल पुं० (हरिकेशीबल) स्वनामख्याते साधौ, उत्त०१२ अ०। ख्याते आचार्ये, आव० 6 अ०। दश०। हरिभद्रसूरिवृत्तलेशस्त्वेवं प्रभाव (अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता 'हरिएस' शब्देऽस्मिन्नेव भागेऽनुपदमेव गता।) चरितादावाण्यायते-चित्रकूटनगरे हरिभद्रो नाम विद्यागर्वाध्मातो ब्राह्मण हरिचंद पुं० (हरिश्चन्द्र) अयोध्यायामिक्ष्वाकुवंशे त्रिशडपत्रे उशीनरनुप- | आसीत्। सच यद्वाक्यं नाहं बोर्बुशक्नुयाम्तस्य शिष्यः स्यामितिकृतसुतायाः सुतारादेव्याः पत्यौ रोहिताश्वपितरि, ती० / कल्प० / आ० ..प्रतिज्ञः, "चक्किजुगं हरिपणगं पणगं चक्कीण केसवो चक्की / केसव चक्की म०। (वनवराहरूपधारिभ्यां देवाभ्यां हरिश्चन्द्रस्य परीक्षेति'वाणारसी' केसव, दुचक्की केसीय चक्की य।" इति गाथा भणन्तीं याकिनी नाम शब्दे षष्ठे भागे दर्शितम्।) साकेतनगरवास्तव्ये गृहपतौ, अन्त०६वर्ग० महत्तरिक तदर्थपरिज्ञानाय पृष्टवान, साचतंस्वाचार्यपायें नीत्वाऽदी५ अ०। (सच वीरान्तिके प्रव्रज्य दश वर्षाणि श्रामण्यं परिपाल्य विपुल- क्षयत्। तत्र सोऽखिलं समयमध्यगमत, हंसपरमहंसनामानौ च शिष्यौ पर्वते सिद्ध इत्यन्तकुद्दशानां षष्ठवर्गस्य पञ्चमाध्ययने सूचितम्।) अदीक्षयत्। तौ च प्रमाणशास्त्राधिजिगांसया बौद्धेषु गतौ, तत्र जैनाविति हरिचंदण (देशी ) कुडकुमे, दे० ना०८ वर्ग०६५ गाथा। ज्ञातौ मारितौ। ततः क्रुद्धेन हरिभद्रसूरिणा अग्रावाहोतुं सपरिवारो हरिण पुं० (हरिण) मृगे, प्रव०२६ द्वार! बौद्धाचार्य आकृष्टः, ततोगुरुणाऽनुकम्पया मोचितः।तदनुस हरिभद्रश्चहरिणंदी पुं० (हरिनन्दी) उज्जयिनीवास्तव्ये स्वनामख्याते गृहपतौ, ध० तुर्दश शतानि प्रबन्धानांचक्रिरे, विक्रमवर्षे 535 अयमास / द्वितीयोऽपि 202 अधि०४ लक्ष०। (अत्रत्या वक्तव्यता 'उज्जुववहार' शब्दे द्वितीयभागे हरिभद्रसूरिः नागेन्द्रगच्छीयाऽऽनन्दसूरिशिष्यः कलिकाल-गौतमविरुद७३६ पृष्ठे गता।) धारकः तत्त्वप्रबोधाद्यनेकग्रन्थकर्ता, अयं विक्रमवर्षे 1235-1260 हरिणेगमे सि(ण)पुं०(हरिनैगमेषिन) हरिरिन्द्रस्तत्सम्बन्धित्वात् मध्ये आसीत्। तथा श्रीहरिभद्रसूरिणा सौगता हुता एव होतुमारभ्य मुक्ता हरिनैगमेषी। भ० 5 श० 4 उ० / शक्रस्य पदातिकटकनायके, कल्प० वा कुत्र वाऽयं संबन्धो वर्तते इत्याश्रित्य श्रीहरिभद्रसूरिभिः सौगता होतुं 1 अधि० 2 क्षण / हरेरिन्द्रस्य नैगममादेशमिच्छतीति हरिनैगमेषी। खेआकृष्टस्तदनुगुरुभितिंसाधूप्रहितौताभ्यां "गुणसेणि अग्गिसम्मा, अथवा-हरेरिन्द्रस्य नैगमेषी नामा देवः योदेवानन्दायाः कुक्षेर्वीरजिनम सीहाणंदाघे "त्यादिचरित्रकथनमूलगाथात्रयं दत्तं, ततः प्रबुद्धेन सूरिणा तेमुक्ता इतितत्प्रबन्धे। प्रभावकचरित्रेतुपणपूर्वकं वादे जितः सौगतगुरुः पहृत्य त्रिशलागर्भे प्रावेशयत् / आ० म०२ अ०1 ('वीर'शब्दे षष्ठे भागे स्वयमेव तप्तकटाहतैले प्राविशदिति / तथा तत्रैव इह किल कथयन्ति वक्तव्यताऽस्य द्रष्टव्या।) शक्रस्य देवेन्द्रस्य पदात्यनीकाधिपतौ, स्था० केचिदित्थं गुरुतरमन्त्रजपप्रभावतोऽत्र सुगतमतबुधान् विकृष्य तप्तेन तु 7 ठा०३ उ०। हरिभद्रगुरुर्जुहाव तैलेन, इत्यपि लिखितमस्तीति / ही०१ प्रका०। हरितग पुं० (हरितक) नीलके दूर्वादिवनस्पतौ, प्रश्न०३ संव० द्वार। पञ्चाशकाख्यप्रकरणकारके आचार्ये, पञ्चा०१६ विव०॥"आचार्यहरिप्रज्ञा०। भद्रेण, दृष्ट्या सन्तापसङ्गता। चैत्यवन्दनसूत्रस्य, वृत्तिर्ललितविस्तरा से किं तं हरिया ? हरिया अणेगविहो पण्णत्ता, तं जहा ॥१॥"ल01 अनुयोगद्वारटीकाकारके, ज्यो०२ पाहु० / “मध्ये "अञ्जोरुह वोडाणे, हरितगतह तंदुलेग्जगतणे यावत्थल पोरग समस्तभूपीठं यशो यस्याभिवर्द्धते / तस्मै श्रीहरिभद्राय, नमष्टीकामज्जा-रयाइ विल्ली य पालक्का // 37 // दगपिप्पलीय दवी, विधायिने // 1 // " नं०। सोत्तिय साए तहेव मंडुक्की / मूलग सरिसव अंबिल, साएय हरिमन्थ न० (हरिमन्थ) धान्यविशेषे, प्रव० 156 द्वार / कृष्णचणके, जियंतए चेव॥ 38 // तुलस कण्ह ओराले, फणिजए अज्जए य ध०२अधि० ग०॥ नि० चू०। भूयणए। वारगदमणगमरुयग, सतपुष्फिदीवरे यतहा॥३६॥" हरिमहाणई स्वी० (हरिमहानदी) निषधपर्वते पाहृदनिर्गते महानदीभेदे, जे या वन्ना तहप्पगारा। सेत्तं हरिया। प्रज्ञा०१पद। जं०४ वक्ष०। ('तिगिच्छदह' शब्देचतुर्थभागे 2240 पृष्ठेव्याख्यातैषा।) 'हरितगरेरिज्जमाणा'-हरितकाश्च ते नीलका रेरिज्यमानाश्च देदीप्य- | हरिमिच्छ पुं० (हरिमिच्छ) कृष्णचणके, दश०६ अ०। माना हरितकरेरिज्यमानाः। भ०१श०२ उ०। हरिमेला स्वी० (हरिमेला) वनस्पतिविशेषे, औ०। हरिप्पवायदह पुं० (हरित्प्रपातहूद) हरिन्नद्याः प्रपातहदे, स्था० ! हरिय त्रि० (हरित) शुकपुच्छवद् वर्णविशेषपरिणते, हरितभेदे च इति 'हरिप्पवायदहे चेव' त्ति हरिन्नदीप्रागुक्तलक्षणा यत्र निपतति। यश्च द्वे वृद्धाः ।औ01उपरिबीजेषु, सूत्र०१श्रु०६ अ01 ज्ञा० / अड्डरोद्भिन्नबीजे, शते चत्वारिंशदधिके आयामविष्कम्भाभ्यां सप्तशतानि एकोनषध्यधि दृ०। मधुरतृणादिविशेषे, स्था०६ ठा०३ अ०। दूर्वादिके, भ०७श०६ कानि परिक्षेपेण यस्य च मध्यभागे हरिदेवताद्वीपः द्वात्रिंशद्योजनाया उ०। प्रश्न० / सूत्र० / आचा० / शार्दूले, जी०३ प्रति० 4 अधि०। भविष्कम्भः एकोत्तरशतपरिक्षेपः जलान्ताद् द्विक्रोशोच्छ्रितो हरिदेवता- हरितसूक्ष्ममत्यन्ताभिनवोद्भिन्ने पृथिवीसमानवणे,स्था०८ ठा०३उ०। भवन-भूषि तोपरितनभागोऽसौ हरित्प्रपातहद इति। स्था० 2 ठा० तन्दुलीयकाध्यारुहवसुलवदरकमार्जारपादिकालिल्लीपालक्यादिषु, 3 उ०। आचा०१ श्रु०१अ०५ उ०। Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिय 1195 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिवास कइणं भंते हरियकाया हरियकायसया पण्णत्ता ? गोयमा! | हरियालगुलिया स्वी० (हरितालगुटिका) हरितालिकासारनिर्वर्त्तिततओ हरियकाया तओ हरियकायसया पण्णत्ता, फलसहस्संच गुटिकायाम्, जी०३प्रति० ४अधि० / रा० बिंटबद्धाणं फलसहस्संच णालबद्धाणं,ते सम्वे हरितकायमेव हरियालभेय पुं० (हरितालभेद) हरितालिकाच्छेद, जी० ३प्रति०४ समोयरंति। अधिकारा०। 'कइण' मित्यादि, कति भदन्त ! हरितकायाः कति हरितकायशतानि हरियालिया स्त्री० (हरितालिका) दूर्वायाम्, ज्ञा० १श्रु० 110 / दे० प्रज्ञप्तानि ? भगवानाह-गौतम ! त्रयो हरितकायाः प्रज्ञप्ता-जलजाः ना० / कल्पका पृथिवीविकारवर्णकद्रव्ये, रा०। जं०। स्थलजा उभयजाः, एकैकस्मिन् शतमवान्तरभेदानामिति, त्रीणि | हरियाहडिया स्त्री० (हृताहृतिका) पूर्वं हृतं पश्चादाहृतम् आनीतं वस्त्रं हरितकायशतानि। फलसहस्संचे त्यादि, फलसहसंच'वृन्तबन्धानां हृताहृतं तदेव हृताहृतिका / स्वार्थे कप्रत्ययः, अतिवर्तन्ते स्वार्थिक'वृन्ताकप्रभृतीनां फलसहस्रं च नालबद्धानां, 'तेऽवि सव्वे' इत्यादि, प्रत्ययप्रकृतिलिङ्गवचनानीतिवचनादत्र रूढितः स्त्रीलिङ्गनिर्देशः।स्तेनैः तेऽपि सर्वे भेदा अपिशब्दादन्येऽपि तथाविधाः हरितकायमेव समवत- | पूर्व हृते पश्चादानीत्ते, बृ०१३०३ प्रक०। रन्ति हरितकायेऽन्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि वनस्पतौ वनस्पतिरपि * हरिताहतिका त्रि० हरितेषु वनस्पतिषु आहृतं हरिताहृतिक। वनस्पस्थावरेषु स्थावरा अपि जीवेषु / जी० ३प्रति० 130 / जात्यार्यभेदे, तिष्वाहते, स्तेनानीतप्रतीच्छायां च / व्य० उ० / ('उवहि' शब्दे प्रज्ञा० १पद / (वक्तव्यता 'आयरिय' शब्दे द्वितीयभागे 337 पृष्ठे द्वितीयभागे 1075 पृष्ठे हृताहृतिकावस्वग्रहणं निषिद्धम्।) उक्ता / ) हरिरेणु पुं० (हरिद्रेणु) नीलवर्णपांशौ, ज्ञा० १श्रु०१६ अ०। हरियग पुं० (हरितक) जीरकादिके, चं० प्र०२०पाहु० / भ०। सू०प्र०। हरिल पुं०(हरिल) नागदत्ता-यशोमती-रत्नवतीनाम्नांब्रह्मदत्तचक्रिभास्था०। ह्रस्वतृणे, ज्ञा० १श्रु०१अ०। र्याणां पितरि, उत्त०१३ अ०। हरियपण्णी स्त्री० (हरितपर्णी) केषुचिद्गृहेषु राज्ञो दण्डं दत्त्वा देशता- हरिवंस पुं० (हरिवंश) हरिः-पूर्वभक्वैरिसुरानीतहरिवर्षक्षेत्रयुगलं तस्य पहारार्थमागन्तुकः पुरुषो मार्यते गृहस्योपरिष्टात् आम्रवृक्षशाखा चिह्न वंशो हरिवंशः। कल्प 1 अधिरक्षण! हरेः पुरुषविशेषस्य वंशो, हरिवंशः / क्रियते योऽप्यन्योऽविज्ञात आगमिष्यति सोऽप्येवं भविष्यतीति सूचके हरिवर्षजातहरिनाम्नः पुरुषजातायां पुत्रपौत्रादिपरम्परायाम, स्था०१० चिह्न, बृ० १उ०२प्रक०। ठा०३ उ०। कल्प०। कौशाम्बीनगरे केनचिद् राज्ञा काचित् शालापतिहरियकति स्त्री० (हरितकान्ति) शाकबहुलदेशे शाकभक्षणे, वृ० 130 भार्या वनमाला नाम्नी सुरूपेति स्वान्तःपुरे क्षिप्ता, सशालापतिस्तस्या २प्रक०। औ०। वियोगेने विकलो जातो यं कंचन पश्यति तं वनमाला वनमालेति हरियभद्दपुं० (हरितभद्र) यक्षभेदे, प्रज्ञा० १पद। जल्पति / एवं च कौतुकाक्षिप्तैरनेकैः लोकैः परिवृत्तः पुरे भ्रमन् वनमालया हरियमोयण न० (हरितभोजन) हरितानि मधुरतृणकटुभाण्डादीनि एव, समं क्रीडता राज्ञा दृष्टस्ततश्चास्माभिरनुचितं कृतम्, इति चिन्तयन्ती भुज्यन्ते इति भोजनानि / औ०। मधुरतृणादिविशेषरूपेषु भोजनेषु, तौ दम्पती तत्क्षणात् विद्युत्पातेन मृतौ हरिवर्षक्षेत्रे युगलित्वेन समुप्तन्नौ, स्था०६ठा०३उ०। शालापतिश्चतौ मृतौ श्रुत्वा आः पापिनोः पापंलग्रम्, इति सावधानोऽहरियभोयणा स्त्री० (हरितभोजना) हरितानि भोजनानि यस्यां सा भूत्। ततोऽसौ वैराग्यात्तस्तप्त्या व्यन्तरोऽभूत्, विभङ्गज्ञानेन च तौ दृष्ट्या हरितभोजना। हरितभोजनवत्याम, आव० ४अ०। चिन्तितवान्, अहो! इमौ मद्वैरिणौ युगलसुखमनुभूय देवौ भविष्यतस्तत हरियवेरुलियवण्णाभ पुं० (हरितवैडूर्यवर्णाभ) हरितश्चासौ वरुलिय- इमौ दुर्गतौ पातयामीति विचिन्त्य स्वशक्त्या संक्षिप्तदेहौ तौ इहानीतवान, वर्णाभश्चेति।नीलवणे वैडूर्यभेदे, भ०१६श०६उ०। आनीय च राज्यं दत्त्वा सप्त व्यसनानि शिक्षितौ, ततस्तौ तथाभूतौ नरकं हरियसाग न० (हरितशाक) पत्रशाके, विपा०१श्रु०८अ०। गतौ। अथ तस्य वंशो हरिवंशः / कल्प०१ अधि०२ क्षण। आ० म०। हरियसुहुम न० (हरितसूक्ष्म) अत्यन्ताभिनवोद्भिन्ने पृथिवीसमानवणे | हरिवंसकुलुप्पति स्वी० (हरिवंशकुलोत्पत्ति) हरिवंशलक्षणस्य कुलहरितके, स्था०६ठा०३उ० दश०। कल्प०। स्योत्पत्तौ, स्था० 10 ठा० 3 उ०। (अस्या व्याख्या 'अच्छेर' शब्दे से किं तं हरियसुहुमे ! हरियसुहुमे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रथमभागे 200 पृष्ठे गता।) किण्हे जाव सुकिल्ले अत्थि हरियसुहुमे। पुढवी समाणवण्णए | हरिवंसग पुं० (हरिवंशक) हरिवंशजे मनुष्ये, स्था०६ ठा०३ उ०। णामं पण्णत्ते, जे निग्गंथाण वा निग्गंथीणं वा जाव पडिलेहि- | हरिवंसगंडिया स्त्री० (हरिवंशगण्डिका) हरिवंशमात्रवक्तव्यतार्थाधियव्वे भवइ / से तं हरियसुहुमे / कल्प०३अधि०६क्षण। / कारानुगतायां वाक्यपद्धतौ, स०। हरिया स्त्री० (हरिता) जम्बूद्वीपे पूर्वावरेण लवणसमुद्रं समुत्सर्पन्त्यां | हरिवास पुं०(हरिवास) जम्बूद्वीपस्य भरतापेक्षया तृतीये वर्षक्षेत्रे, स्वनामस्वनामख्यातायां नद्याम्, स०१४सम०। ख्याते तदधिपतिदेवे च। स्था० 10 ठा०३ उ०। हरियाल पुं० (हरिताल) पृथिवीकायरूपे, (जी० ३प्रति० ४अधि०१) | कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे वर्णकद्रव्ये, ज्ञा०१श्रु०१अ०।आचा०। पण्णत्ते ? गोयमा ! णिसहस्स वासहरपब्वयस्स दक्खिणेणं Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवास 1196- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरिवासकूड महाहिमवन्तवासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुहस्स | स्तृणैश्चोपशोभितः, एवं मणीनां तृणानां च वर्णो गन्धः स्पर्शः शब्दश्च पचत्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुहस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं भणितव्यः, पद्मवरवेदिकानुसारेणेत्यर्थः, अत्र जलाशयस्वरूपं निरूपजम्बूद्दीवे दीवे हरिवासे णामं वासे पण्णत्ते, एवं ०जाव पचत्थि- यन्नाह-'हरिवासे ण' मित्यादि, क्षेत्रस्य सरसत्वेन तत्र तत्र देशप्रदेशेषु मिल्लाए कोडीए पचत्थिमिल्लं लवणसमुहं पुढे अट्ठ जोअण- क्षुद्रिकादयो जलाशया अखाता एव सन्तीत्यर्थः, अत्रैकदेशग्रहणेन सहस्साईचत्तारि अएगवीसे जोअणसए एगंच एगूणवीसइभागं सर्वोऽपि वाप्यादिजलाशयालापको ग्राह्यः, अत्र कालनिर्णयार्थमाहजोअणस्स विक्खम्भेणं,तस्स बाहा पुरथिमपञ्चत्थिमेणं तेरस | 'एवं जो सुसमाए' इत्यादि, एवम्-उक्तप्रकारेण वर्ण्यमाने तस्मिन् क्षेत्रे जोअणसहस्साई तिण्णि अएगसढे जोअणसए छच एगूणवीस- यः सुषमायाः अवसर्पिणीद्वितीयारकस्यानुभावः स एवापरिशेषःइभाए जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणंति / तस्स जीवा सम्पूर्णो वक्तव्यः, सुषमाप्रतिभागनामकावस्थितकालस्य तत्र सम्भउत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुहं पुट्ठापुरथिमिल्लाए वात् / अथास्य क्षेत्रस्य विभाजकगिरिमाह-'कहिण' मित्यादि, प्रश्नसूत्र कोडीए पुरथिमिल्लंजाव लवणसमुहं पुट्ठा तेवत्तरिं जोअण- व्यक्तम्, उत्तरसूत्रे हरितो-हरिसलिलाया महानद्याः पश्चिमाया सहस्साई णव य एगुत्तरे जोअणसए सत्तरस य एगूणवीसइभाए हरिकान्ताया महानद्याः पूर्वस्यां हरिवर्षस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागे जोअणस्स अद्धभागं च आयामेणं 2 / तस्स धणुं दाहिणेणं अत्रान्तरे विकटापातिनामा वृत्तवैताट्यपर्वतः प्रज्ञप्तः, अत्र निगमयल्लाचउरासीइंजोअणसहस्साई सोलस जोयणाईचत्तारिएगूणवी- घवार्थमतिदेशसूत्रमाह-एवं विकटापातिवृत्तवैताढ्यवर्णने क्रियमाणे य एव सइभाए जोअणस्स परिक्खेवेणं 3 / हरिवासस्स णं भंते ! शब्दापातिनो विष्कम्भोच्चत्वोद्वेधपरिक्षेपसंस्थानानां वर्णव्यासो, वासस्स के रिसए आगारभावपडोआरे पण्णत्ते ? गोअमा ! वर्णकग्रन्थविस्तरः चकारात्तत्रत्यप्रासादतत्स्वामिराज-धान्यादिसंग्रहः, बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणीहि तणेहि अ विकटापातिप्रभाणि विकटापातिवर्णाभानिच तेन विकटापातीनि नाम, उवसोभिए एवं मणीणं तणाण य वण्णो गन्धो फासो सहो अरुणश्चात्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि तथा नाम भाणिअव्वो। हरिवासेणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे खुडा प्रसिद्धम्। आह–विसदृशनामकदेवाद्विकटापातीति नाम कथमुपपद्यते ? खुडिआओ एवं जो सुसमाए अणुभावो सो चेव अपरिसेसो उच्यते-अरुणाविकटापातिपतिरिति तत्कल्पपुस्तकादिषु आख्यायते, वत्तव्यो त्ति / कहिणं भन्ते ! हरिवासे वासे विअडावई णामं सामानिकादीनामप्यनेनैव नाम्ना प्रसिद्धिरिति सामाद्विकटापातीति / वट्टवेअनुपव्वए पण्णत्ते ? गोयमा ! हरीए महाणईए पचत्थिमेणं सुस्थितलवणोदाधिपतेर्गीतमाधिपतित्वाद् गौतमद्वीपे इव बृहत्क्षेत्रदिहरिकंताए महाणईए पुरत्थिमेणं हरिवासस्सवासस्स बहुमज्झ- चारादिषु हैरण्यवते विकटापाती, हरिवर्षे गन्धापातीत्युक्तं, तत्त्वं तु देसभाए एत्थ णं विअडावई णामं वट्टवेअङ्कपब्वए पण्णत्ते, एवं केवलिगम्यम् / एवं यावद्दक्षिणस्यां दिशि मेरो राजधानी नेतव्या। अथ जो चेव सद्दावइस्स विक्खंभुचत्तुव्वेहपरिक्खेवसंठाणवण्णा- हरिवर्षनामार्थं पिपृच्छिषुराह-'सेकेण?णं हत्यादि, प्रश्नसूत्रसुगमम्। वासो सो चेव विअडावइस्स वि माणिअव्वो, णवरं अरुणो देवो उत्तरसूत्रे हरिवर्षे वर्षे केचन मनुजा अरुणा रक्तवर्णाः, अरुणं च चीनपिष्टापउमावई जाव विअडावइवण्णाभाई अरुणे अ इत्थदेवे दिकम् आसन्नवस्तूनि अरुणप्रकाशं न कुरुते अभास्वरत्वाद् इमे च न महिड्डीए एवं जाव दाहिणेणं रायहाणी णेअव्वा, से केण?णं तथा इत्याह-अरुणावभासा इति, केचनश्वेताःणं पूर्ववत्, शङ्खदलानी भर्ते! एवं वुचइ हरिवासे, वासे ? गोअमा ! हरिवासे णं वासे शवखण्डास्ते हि अतिश्वेताः स्युस्तेषां सन्निकाशाः-सदृशाः तेन मणुआ अरुणा अरुणोभासा सेआ णं संखदलसण्णिकासा तद्योगाद्धरियवर्ष क्षेत्रमुच्यते, कोऽर्थः ? हरिशब्देन सूर्यश्चन्दश्च तत्र हरिवासे अइत्थ देवे महिड्डिए०जाव पलिओवमहिईए परिवसइ, केचनमनुष्याः सूर्य इवारुणा अरुणावभासाः, सूर्यश्चात्र रक्तवर्णाप्रस्तावासे तेणटेणं गोअम ! एवं वुच्चइ। (सू०८२) दुद्रच्छन् गृह्यते, केचन चन्द्र इव श्वेता इति, हरय इव हरयो हनुष्याः 'कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दीवे' इत्यादि व्यक्तं, नवरं अष्टौ / साध्यवसानलक्षणयाऽभेदप्रतिपत्तिः, ततस्तद्योगात् क्षेत्रं हरय इति योजनसहस्राणि चत्वारि च योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि एक ध्यपदिश्यते, हरयश्च तद्वर्षं च हरिवर्ष, यदा च मनुष्ययोगात् हरिशब्दः चैकोनविंशतितमं भाग योजनस्य विष्कम्भेन, महाहिमवतो द्विगुणवि- क्षेत्रे वर्त्तते तदा स्वभावाद्बहुवचनान्तः प्रयुज्यते, यदाह तत्त्वार्थमूलटीकम्भकत्वादिति / अधुनाऽस्य बाहादित्रयमाह-"तस्स बाहा" काकृद् गन्धहस्ती-'हरयो विदेहाश्च पञ्चालादितुल्या" इति, यदिवाइत्यादि, 'तस्स जीवा' इत्यादि, 'तस्स धणु' मित्यादि, सूत्रत्रयमपि हरिवर्षनामा अत्र देव आधिपत्यं परिपालयति तेन तद्योगादपि हरिवर्षम् / व्यक्तम्। अथास्यस्वरूपं पिपृच्छिषुराह–'हरिवास' इत्यादि, हरिवर्षस्य जं०४ वक्ष०। वर्षस्य भगवन् ! कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! दो हरिवासाइं। स्था०२ ठा०३ उ०। बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञाप्तः, अत्रातिदेशवाक्यमाह-यावन्मणिभि- | हरिवासकूड पुं० (हरिदासकूट) जम्बूद्वीपे सन्दरस्य दक्षिणे Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिवासकूड 1167- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हलधरवसण महाहिमवति वर्षधरपर्वते स्वनामख्याते कूटे, स्था० 8 ठा० 3 उ० / स्त्रीणि चाधिकानि प्रव्रज्यां पालितवान् / दशवर्षसहस्रत्वात्तदायुष्कजम्बूद्वीपे हरिवर्षस्य क्षेत्रविशेषस्याधिष्ठातृदेवेन स्वीकृते निषधवर्षधर- | स्येति। स०६७ सम० / स्वनामख्याते ऋषभदेवपुत्रे, तन्निवेशिते देशपर्वतस्य स्वनामख्याते कूटे, स्थाई ठा० 3 उ०। विशेषे च। कल्प०१ अधि०७ क्षण। हरिवासय पुं० (हरिवासक) हरिवर्षे जातो हरिवर्षों वाऽस्य वासः। हरिवर्षे | हरी स्त्री० (हरी) जम्बूद्वीपे पूर्वाभिसुखेन लवणसमुद्रं समुत्सर्पन्त्यां उत्पन्ने, अनु०॥ स्वनामख्यातायां महानद्याम्, स्था०७ ठा०३ उ०1 हरिवाहण पुं० (हरिवाहन) नन्दीश्वरद्वीपस्य अपरार्धादिपतौ देवे, जी० / हरीडक पुं० (हरीतक) कोङ्कणदेशप्रसिद्ध कषायबहुले पय्याफले, प्रज्ञा० 3 प्रति० 4 अधि०। द्वी०। १पद। हरिवेरुलियवण्णाभ न० (हरिवैडूर्यवर्णाभ) हरिः षिङ्गो वर्णो, वैडूर्य | हरीयई स्त्री० (हरीतकी) स्वनामख्याते वृक्षे, हरीतकीफले च। विशे०! मणिविशेषस्तस्यवर्णो नीलो वैडूर्यवर्णस्ततो द्वन्द्वस्तद्वादाभाति यत्तद्धरि "ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, तुल्यां शर्करया वैडूर्यवर्णाभम् / स्था० 10 ठा०३ उ०। नीलवैडूर्यवर्णाभे, भ०१६श० शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे। पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण ६उ०। संयोजितां, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा नश्यन्तु ते शत्रवः // 1 // " हरिस धा० (हष) हर्षे, "वृषादीनामरिः" / / 8 / 4 / 235 / / इति सूत्र०१ श्रु०८ अ०। ऋतः 'अरि' इत्यादेशः। हरिसइ। हृष्यति। प्रा० 4 पाद। हरे अव्य० (हरे) क्षेपादिषु, "हरे क्षेपे च" ||812 / 220 // क्षेपे * हृष पुं० हर्षणं हर्षः / आतु०। मनःप्रमोदे, ध०१ अधि० आ० म०। संभाषणे रतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम् / क्षेपे-हरे णिलज्ज / ज्ञा०। मनसः प्रीतिविशेषे, विशारूढिगम्याभरणविशेषे, औ०।सन्तोषे, संभाषणे-हरे पुरिसा। रतिकलहे-हरे बहुवल्लह। प्रा० ढुं० 2 पाद। हरेडगाइ पुं० (हरीतक्यादि) पथ्याप्रभृतौ, पञ्चा० 10 विव०। जीवा० 20 अधिo "हरिसवसविसप्पमाणहियया' हर्षवशेन विसर्पद् हरेणुया स्त्री० (हरेणुका) प्रियङ्गी, उत्त० 3 अ०। विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा। भ० 6 श०३३ उ०। कल्प० / रा०।। हल पुं० (हल) लाङ्गले, औ०। प्रश्न० ! ज्ञा०। हलधरे बलदेवे, नामैकहरिसपुर पुं० (हर्षपुर) अजमेरनिकटवर्तिनि सुभटपालसम्बन्धिनि देशग्रहणात्-नचंतस्सयलीलापातुक्खेवेन कंपिता वसुधा। उच्छल्लन्ति स्वनामख्याते पुरे, कल्प० 2 अधि० 5 क्षण। समुद्दा, सइला निपतन्ति तं हलं नमथ।। १॥"प्रा० 4 पाद। श्रेणिकहरिसप्पओसावण्णपुं० (हर्षप्रद्वेषापन्न) हर्षश्च प्रद्वेषश्च हर्षप्रद्वषंतदापन्नः। राजस्य कुक्षिजे पुत्रे, अणु०। (स च वीरान्तिके प्रव्रज्य षोडश वर्षाणि रागद्वेषसमाकुले, सूत्र०१ श्रु०३ अ०१ उ०। श्रामण्यं परिपाल्य जयन्ते कल्पे उपपद्य महाविदेहे सेत्स्यतीति हरिसह पुं० (हरिसह)आलम्बिकायां वीरजिनस्य प्रियपृच्छके, आ०म० अनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीये वर्गे षष्ठेऽध्ययने सूचितम्।) 1 अ०। दाक्षिणात्यानामग्निकुमाराणामिन्द्रे, स्था०२ ठा० 3 उ०। हलकुहाल पुं० (हलकुद्दाल) हलस्योपरितने भागे, उपा० 2 अ० / हरिसहकूड न० (हरिसहकूट) जम्बूद्वीपे वक्षस्कारपर्वते स्वनामख्याते "हलकुद्दालसंठिया से हणुया गल्लकडिल्लं च तस्स खड़े" उपा० कूटे, स्था०६ ठा०३ उ०। उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्रस्य माल्यव 22 अ०। द्वर्षधरकूटे, जं० 4 वक्षः। हलद्दा स्त्री० (हरिद्रा) "पथि पृथिवी-प्रतिश्रुन्मूषिक-हरिद्राहरिसाहु पुं० (हरिसाधु) आचारागसूत्रकृताङ्गयोष्टीकाकारकस्यशीलाङ्ग- | विभीतकेष्वत्" // 811188 // इति आदेरितोऽकारोदेशः / चार्यस्य टीकाकरणसहायके साधौ, आचा०१श्रु० अ०४ उ०। "हरिद्रादौ लः " // 8/11254 / / इति रस्य लः। हलद्दा। प्रा० / हरिसिहपुं० (हरिशिख) उत्तरश्रेणिपतिविद्युत्कुमारेन्द्र, स्था० 4 ठा०१७०। "छायाहरिद्रयोः"।।३॥३५॥ इति स्त्रियां ङीर्वा / हलद्दी। हरिसेण पुं० (हरिषेण) काम्पिल्यनगरे जाते दशमचक्रवर्तिनि, ती०२४ हलद्दा / पीतवर्णे मूलभेदे, प्रा०३ पाद। कल्प! स०। प्रव०। आव० स्था०। हलधर पुं० (हलधर) बलदेवे, प्रव० 206 द्वार। ज्ञा० / प्रज्ञा० / जं०। हरिसेणे णं राया चाउरंतकवट्टी एगूणणउई वाससयाई रा०। आ० म०। महाराया होत्था। (सू०१६) स०८६ सम०। हलधरकोसेज न० (हलधरकौशेय) बलदेववस्त्रे, औ०। रा०। हरिसेणे णं राया चाउरंतचक्कवट्टी देसूणाईसत्ताणउइवाससयाई हलधरवसण न० (हलधरवसन) हलधरो बलदेवस्तस्य वसनम् / अगारमज्झे वसित्ता मुंडे भवित्ता णं जाव पव्वइए। (सू०६७x) बलदेववस्त्रे तच किल नीलं भवति / सदैव तथास्वभावतो हलधरस्य हरिषेणो दशमचक्रवर्ती देशोनानि सप्तनवति वर्षशतानि गृहमव्युषित- नीलवस्त्रपरिधानात् इति, नीलापमायामिदं वर्ण्यते / रा०। Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हलप्प 1168 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हसंत हलप्प (देशी) बहुभाषिणि, दे० ना० 8 वर्ग 61 गाथा / अच्छोडिया भग्गा, तत्थ एगम्मि कुंडलजुयलं एगम्मि वत्थजुयलं तुद्वाए हलबोल (देशी) कलकले, दे० ना०५ वर्ग 64 गाथा। गहियाणि / अन्नया अभओ सामि पुच्छइ-'को अपच्छिमो रायरिसि' हला अव्य० (हला) देशविशेषगौरवार्थं स्त्र्यामन्त्रवचने, दश०७ अ० | त्ति / सामिणा उदायणो वागरिओ, अओ परं बद्धमउडा न पव्वयंति। हले देशी (हले) सख्या आमन्त्रणे, "मामि-हला-हले सख्या वा" | ताहे अभएण रज्जं दिज्जमाणं न इच्छियं ति पच्छा सेणिओ चिंतेइ // 8/21 195 // एते सख्या आमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः। “पणवह ... 'कोणियस्स दिजिहि 'त्ति हल्लस्स हत्थी दिनो सेयणगो विहल्लस्स माणस्स हला। हले हयासस्स "प्रा०। विशेषगौरवार्थ स्त्र्यामन्त्रणे, देवदिन्नो हारो, अभएण वि एव्वयंतेण सुनंदाए खोमजुयलं कुंडलजुयलं दश०७ अ०। (अत्रत्या व्याख्या 'भासा' शब्दे पञ्चमभागे गता।) चहल्लविहल्लाणं दिन्नाणि। महया विहवेण अभओ नियजणणीसमेओ त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। पव्वइओ। सेणियस्स चेल्ल्णादेवीअंगसमुभूया तिन्नि पुत्ता कूणिओ हलि स्त्री० (हली) पक्षिविशेषे, जं०७ वक्ष०। हल्लविहल्लाय।" नि०१ श्रु०१ वर्ग 1 अ०। आ०क०। आव०। हलिअ पुं०(हालिक) "वाऽव्ययोत्खातादावदातः" ||8|| आ०म० / गोवालिकातृणसमाकारे कीटविशेषे, भ० 15 श० / राजगृहे 67 / / इति आदेराकारस्य अद्धा। हलिओ। हालिओ। हलवाहके, श्रेणिकराज्ञोधारिण्यांजाते पुत्रे, ("जयंते दोन्नि" जयन्ते विमाने उपपद्य प्रज्ञा०१ पाद। सेत्स्यतीत्यादि 'महासीहसेण' शब्दे षष्ठे भागे व्याख्यातम्।) हलिवपत्तन० (हरिद्रपत्र) चतुरिन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा०१पदा जी01 | हल्लप्फलिअ (देशी) आकुलत्वे, दे० ना०५ वर्ग 56 गाथा। हलिहमच्छ पुं० (हरिद्रमत्स्य) मत्स्यविशेषे, प्रज्ञा०१ पद। विपा०। हल्लिअ (देशी) चलिते, दे० ना० 8 वर्ग 62 गाथा। हलिहमत्तिया स्त्री० (हरिद्रमृत्तिका) श्लक्ष्णबादरपृथिवीकायविशेषे, हल्लीस (देशी) रासे, दे० ना० 8 वर्ग 61 गाथा। प्रज्ञा० 1 पद। हल्लोहलिआ स्त्री० (हल्लोहलिका) सरट्याम्, "हल्लो हलिआ हलिद्दागुलिया स्त्री० (हरिद्रागुटिका) हरिद्रासारनिर्वर्तितायां गुटिका- | अहिलोडी सरडी कक्किंडी'' इत्येकार्थाः / कल्प०३ अधि०६ क्षण! याम्, जी०३ प्रति० 4 अधिo! हव धा० (भू) सत्तायाम्, "भुवे:-हुव-हवाः" / / 815 / 60 // हलिहाभेय पुं० (हरिद्राभेद) हरिद्राच्छेदे, जी०३ प्रति०४ अधिकारा०॥ इति भुवो धातोर्हो हुव हवा इत्येते आदेशा वा होइ / होन्ति। हुवइ / हलिहुग पुं० (हरिद्रुक) स्वनामख्याते नगरे / यत्र विहारक्रमेण स्वामी हुवन्ति / हवइ। हवन्ति भवति। भवन्ति। प्रा०४ पाद। गतः / आo चू०१०। हविअ अव्य० (भूत्वा) उत्पद्येत्यर्थे, "क्त्व इय-दूणौ" ||8|| हलिसागर पुं० (हरिसागर) मत्स्यविशेष, जी०१ प्रति० / प्रज्ञा०। २७१॥शौरसेन्यां क्त्वाप्रत्ययस्य इय दूण इत्यादेशौवा भवतः। हविअ / हलुअ न० (लधुक) "लघुके ल-होः" // 812 / 122 / / इति / होदूण / प्रा० / मक्षिते, 'हवि मेक्षित्तम्। दे० ना०५ वर्ग 62 गाथा / लघुकशब्दे घस्य हत्वे कृते लहोर्व्यत्ययो वा भवति / हलु। लहु। | हवै अव्य० (हवै) हवै इत्येतदपि निपातद्वयं हिशब्दार्थत्वाद्यस्माद्यर्थे, "न शीघ्र, प्रा०२ पाद। हवै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति'' इति श्रुतिः। विशे०। हलूर (देशी) सतृष्णे, दे० ना० 8 वर्ग 62 गाथा। हव्व न० (हव्य) शीघ्र, अनु० / स्था० / आचा० / ज्ञा० / जी०। औ०। हल्ल पुं० (हल्ल) चम्पायां कूणिकराजभ्रातरि श्रेणिकस्य चेल्लणागर्भजे नं० भ०। विपा०नि०॥ पुत्रे, भ०७ श०६ उ०। हव्ववाह पुं० (हव्यवाह) अग्नौ, आचा०१ श्रु० 4 अ०३ उ०। "हल्लविहल्लनामाणो कूणियस्स चिल्लणादेवीअंगजाया दो भायरा हस धा० (हस) हासे, दन्तनिष्कासने, "व्यञ्जनाददन्ते"||1| अन्नेऽवि अत्थि। अहुणा हारस्स उप्पत्ती भन्नइ-इत्थ सक्को सेणियस्स 236 / / इति अन्तेऽकारः / हसइ / प्रा। "हसेर्गुजः" ||8|| भगवंतं पइ निचलभत्तिस्स पसंसं करेइ / तओ सेडुयस्स जीवदेवो 166 / / इति हसेर्गुञ्जादेशः / गुंजइ / हसति / प्रा० / "वर्तमानातब्भत्तिरंजिओ सेणियस्स तुट्ठो संतो अट्ठारसवंक हारं देइ, दोन्नि य पञ्चमी-शतृषु वा" |||3| 158 // इति अकारस्थाने एकारो वट्टगोलके देइ। सेणिएणं सो हारोचेल्लणाए दिन्नो पियत्तिकाउं, वट्टदुग वा / हसेइ। हसइ / प्रा०३ पाद। सुनंदाए अभयमंतिजणणीए / ताए रुहाए किं अहं चडरूवं ति काऊण | हसंत त्रि०(हसत्) परिहासं कुर्वति, भ०१३ श०६ उ०1"ईतः Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हसंत 1196 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हाउं सेश्चा आ वा" ||8 / 3 / 28 / / इति जश्शसोश्च स्थाने आकारो वा / सागरियमातिकजेसु सागारियं मेहुणं को विपडिवुद्ध वसहीए सेवति, एसा हसंतीआ / प्रा०३ पाद / ताहे हसिज्जति जेण णातोऽयमिति लज्जियाण मोहो णासति। अहवा मा हसण न० (हसन) हासे, स्था० 4 ठा०१ उ०। पञ्चा० / नि० चू०। अपरिणया इत्थिगाए सदं सुणेतु त्ति हसिज्जति / आदिसहातो कारणे जे भिक्खू मुहं विप्फालिय विप्फालिय हसइ हसंतं वा | जागरातिसु। नि० चू०४ उ०। साइजइ॥२९॥ हसणिज्ज त्रि० (हसनीय) हसितुंयोग्ये, आचा०१श्रु०२ अ०१ उ०। मुखं वक्कं वयणं च एगढ़, विप्फालेति विहाडेति अतीव फालेति हसमाणि स्वी० (हसन्ती)"अजाते पुंसः" / / 8 / 3 / 32 / / इति विप्फालेति / वियंभमाणो व्व विविधैः प्रकारैः कालेति विप्फालेति।। स्त्रियां वर्तमानात् पुल्लिङ्गा डी। हसभाणी। हसमाणा। हासं कुर्वत्याम, विणाड(डि) कारवत् / वीप्सा पुनः पुनः मोहनीयोदयो हास्यं, तस्स प्रा०३ पाद। चउव्विहा उप्पत्ती। हसहसेऊण अव्य० (जाज्वलित्वा) भृशमुद्दीपितो भूत्वेत्यर्थे , बृ० गाहा 3 उ०। पासित्ता भासित्ता, सोतुं सरितूण वा विजे भिक्खू। हसाविअ पुं० (हासित) "लुगावी क्त-भाव-कर्मसु"।। 8 / 3 / विप्फालेत्ताण मुहं, सुवियार कहकहं हसती / / 256 / / 152 / / इतिणेः स्थाने लुगावि इत्यादेशौ भवतः।हासि। हसाविअं। असंवुडादि पासित्ता वा अतिविक्खलियं भासित्ता, णमोक्कारणिज्जुत्तीए हास प्रापिते, प्रा०३ पाद। कागसरडादि अक्खाणगं सुणेत्ता, पुव्वरयपुव्वकीलियाति सरिऊण हसिअ त्रि० (हसित)"क्ते"।।३।१५६॥क्ते परतोऽत इत्त्वम्, मोहमुदीरकं अण्णस्स वा हासुप्पायागं सविकारं महंतेण वा उक्कलिया हसि। हासकारिते, प्रा०३ पाद। सद्देण कहकह भण्णति, जो एवं हसति। हसिऊण अव्य० (हसित्वा) "एच क्त्वा-तुम्-तव्य-भविष्यत्सु" गाहा |||3 / 157 // इति अत एकारः इकारश्च / हसेऊणं / हसिऊण। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं तहा दुविधा। हासं कृत्वेत्यर्थे, प्रा०३ पाद। पावति जम्हा तेणं, सवियारकहकहं ण एसे / / 257 / / हसिजंत त्रि० (हास्यमान) "ईअ इजौ क्यस्य" / / 8 / 3 / 160 // को दोसो? इति क्यस्य स्थाने ईअ इज्ज इत्येतावादेशौ / हसिअंतो। हसिखंतो। गाहा हासविषयीक्रियमाणे, प्रा०३ पाद। पुवामयप्पकोवो, अहो व धमणी गलस्स गहणं वा। असंवुडणं भवेजा, तावसमरणेण दिलुतो। 218 // हसितून अव्य० (हसित्वा)"क्त्वस्तूनः"||||३१२॥ इति __ पैशाच्यां क्त्वाप्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशः / हसितून / हासं पुष्वामयो सूलातिरोगो सो उक्संतो पकोवं गच्छति / कण्णस्स अहो महंती गलसरणी मता भवति, ता घेपेज, मुहस्स वा असंवुडणं भवेज, कृत्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद। जहा सेविस्स मुहं विप्फाडिय हसमाणस्स तारिसं चेव बद्धं, ताहे वेजेण हसिय न० (हसित) वक्रोक्तिगर्भे हसने, प्रव० 166 द्वार। दश० / ईषत् आयपिंडतावित्ता मुहस्स होइतं, संवुडं जातं, किंचान्यत् पंचसता तावसा हासे, प्रश्न०४ संव० द्वार। औ०। कपोलविकाशिनि प्रेमसंदर्शिनि च णं मोयए भक्खंति / तत्थ एगेण अदेसकाले दाढिया मोडिया, सव्वे हसने, जं० 2 वक्ष० / जी० / हसितं यत् कपोलविकाशमात्रसूचितं पहसिता गललग्गेहिं मोयगेहि सव्वे मता। नत्वट्टहासदि। रा०! उबुद्धे, विशे०। गाहा हसिर त्रि० (हसिन्) "शीलाधर्थस्येरः" ||8|21145 // इति आसंकवरजणगं, परपरिभवकारगं च हासं तु। शीलार्थप्रत्ययस्येरादेशः। हसनीशीले, , प्रा०२पाद। संपातिमाण य वहो, हसयंत मयगदिलुतो // 256 / / हसिरिआ (देशी) हास्ये, दे० ना०८ वर्ग 62 गाथा। परस्स आसंका अहं अणेण हसितो त्ति / किंच, अहमणेण हसितो त्ति | हस्स त्रि० (हस्व) वामनकादौ, सूत्र०१ श्रु०१ अ०। आचा० / को०। वेरसंभवो भवति। हसंतेहिं परपरिभवो कतो भवति, संपातिमादि मुहे. ] पविसंति, मयगदिढतोयभणियव्वो। राया सह देवीए उल्लोचणे चिट्ठति, *हस्य न० हसने, भ०१श०६ उ०। प्रश्न०। देवी भणति-रायं ! मतं माणुसं ति हसति / राया ससंभंते कहं कत्थ | *घर्ष पुं० घर्षणे, प्रज्ञा०२ पद। वा ? साधुं दरिसेति, राया भणति कहं मतो ति, देवी भणति-इह भवे *हस ध० हसने, "गमादीनां द्वित्वम्" |8||246 / / इति सव्वसुहवर्जितत्वात् मृतो मृतवत् सकारस्य द्वित्वम्। हस्सइ। हसति। प्रा० 4 पाद। गाहा हहा अव्य० (हहा) खेदे, स्या०। बितियपदमणप्पज्झे, उप्पात विकोविते य अप्पज्झे। हा अव्य० (हा) महत्खेदे, उत्त०२१ अातं०। जाणते वावि पुणो, सागारितमाइकज्जेसु / / 260 // हाउं अव्य० (हापयित्वा) वञ्चयित्वेत्यर्थे, बृ०३ उ०। प्रश्न०। Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हांसल 1200- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हार हांसल न० (हांसल) अर्धचन्द्राकृतिगलाभरणे, अनु० / से पुत्ता जेमेइ, ताण वितहेव, संतती कालंतरेण पिउणालजिउमारद्धा / हाडहड न० (देशी) तत्काले, व्य०५उ०। पच्छिमे से निलओ कओ। ताओ वि से सुण्हाओ न तहा वट्टिउमारहाडहडा स्त्री० (देशी) यल्लघुगुरुमासादिकमापन्नत्सत्सद्य एव यस्थां द्धाओ,पुत्तावि नाढायंति। तेण चिंतियं-एयाणि मम दव्वेण वड्डियाणि दीयते सा हाडहडा। आरोपणाभेदे, स्था०५ ठा०२ उ०नि० चू०।। ममचेव नाढायंति, तहा करेमिजहेयाणि विवसणं पाविति। अन्नया तेण व्य०1 (अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता आरोवणा' शब्दे द्वितीयभागे 36 पृष्ठे पुत्ता सद्दाविया, भणइ-पुत्ता! किं मम जीविएणं ? अम्ह कुलपरंपरागओ गता।) पसुवहो तं करेमि, तो अणसणं काहामि। तेहिं से कालगओ छगलओ हाणि स्त्री० (हानि) धनधान्यादिविषयायां क्षतौ, पञ्चा०३ विव०। (जीवाः दिण्णो सो तेण अप्पगं उल्लिहावेइ, उल्लोलियाओ य खवावेइ, जाहे किं वर्द्धन्ते हीयन्तेवा इति 'विड्डि' शब्दे षष्ठे भागे उक्तम्) अवधिज्ञाने, नायं सुगहिओ एस कोढेणं ति ताहे लोमाणि उप्पाडेइ फुसि त्ति एन्ति। तस्य चतुर्विधा हानिरुक्ता / आ० म०१ अ०। आ० चूल। ताहे मारेत्ता भणइ-तुब्भेहिं चेव एस खाएयव्यो, तेहिं खइओ, कोढेण हाणोवाय पुं० (हानोपाय) त्यागसामग्याम्, द्वा० 24 द्वा०। गहियाणि। सो विउलेता नट्ठो, एगत्थ अडवीए पव्वयदरीए णाणाविहाणं हायण पुं०न० (हायन) वर्षे,ध०२अधि० संवत्सरे, ज्ञा०१श्रु०१अ०। रुक्खाणं तयापत्तफलाणि पडताणि तिफला य पडिया / सो सारएण हायणी स्त्री० (हापनी) हापयति पुरुषमिन्द्रियेष्विति, इन्द्रियाणि मनाक् उण्हेण कक्को जाओ तं निविण्णो पियइ, तेणं पोट्टे भिण्णं, सोहिए, सज्जो स्वार्थग्रहणाय पटूनि करोतीति हापनी। स्त्रियाम, स्था० 10 ठा०३ जाओ।आगओ सगिह,जणो भणइ किहते नटुंभणइ-देवेहि मे नासियं, उ०। दशविशेषे, तं०। ताणि पेच्छइ-सडसडिंताणि, किह तो तुम्भे वि मम खिंसह ? ताहे ताणि भणंति-किंतुमे पावियाणि? भणइ-वाढं ति, सोजणेण खिंसिओ, छट्ठी उहायणी नामा, जं नरो दसमस्सिओ। विरलई उ कामेसु, इंदिएसु य हायई // 6 // ताहेनट्ठो गओरायगिहं दारवालिएणसमंदारेवसइ, तत्थ वारजक्खणीए सो मरुओ भुंजइ, अण्णया बहू उंडेरया खइया, सामिस्स समोसरणं / षष्ठी हापनी नाम्नी दशा वर्तते, यां हापनी दशां नर आश्रितः "विरज्जइ' सोवारवालिओतंठवेत्ता भगवओवंदओएइ।सो बारंनछड्डेइ, तिसाइओ त्ति प्रवाहेण विरक्तो भवति। केभ्यः ? कामेभ्यः, काम्यन्त इति कामाः मओ वावीए मंडुको जाओ। पुत्वभवं संभरइ उत्तिण्णो वावीए पहाइओ कन्दाभिलाषास्तेभ्यः इन्द्रियेषु श्रवणघ्राणचक्षुर्जिह्वास्पर्शनलक्षणेषु सामिवंदओ, सेणिओय नीति,तत्थेगेण वारवालिओ किसोरेण अक्कतो हीयते-हानि गच्छतीत्यर्थः / त। मओ देवो जाओ, सक्को सेणियं पसंइ। सो सोमसरणे सेणियस्स मूले हार पुं० (हार) अष्टादशसरिके, रा० / जं० / कल्प० / जी० / ज्ञा० / कोढियरूवेणं निविट्ठो तं चिरिका फोडित्ता सिंचइ तत्थ सामिणा छियं आभरणविशेषे, जी० 3 प्रति० 4 अघि० / ज्ञा०। "सेणियस्स किर भणइ-मर-सेणियं जीव, अभयं जीव वा मर वा कालसोरियं मा मरमा राणो जावतियं रज्जस्स मोल्लंतावतियं देवदिन्नस्स हारस्सा (आव०) जीव। सेणिओ कुविओ भट्ठारओ मर भणिओ, मणुस्सा सणिया, उहिए हारस्स का उप्पत्ती-कोसं-वीएणयरीए धिज्जाइणी गुठ्विणी पई भणइ समोसरणे पलोइओ, न तीरइ जाउं देदो त्तिगओ घरं, बिइयदिवसे पए घयमोल्लं विढवेहि, कं मग्गामि ? भणइ-रायाणं पुप्फेहि ओलग्गाहि, न आगओ, पुच्छइ--सो को त्ति ? तओ सेडुगवत्तंतं सामी कहेइ, जाव देवो य वारिजिहिसी। सो य ओलग्गिओ पुप्फफलादीहिं, एवं कालो वचइ, जाओ। ता तुडभेहिं छीए किं एवं भणइ ? भगवं मम भणइ-किं संसारे पजोओ य कोसंबिं आगच्छइ, सो य सयाणीओ तस्स भएण जउणाए अच्छह निव्वाणं गच्छेति, तुमं पुण जाव जीवसि ताव सुह, मओ नरयं दाहिणं कूलं उट्ठवित्ता उत्तरकूलं एइ / सो य पञ्जोओ न तरइ जउणं जाहिसि त्ति। अभवो इहविचेइयसाहुपूयाएपुण्णं समजिणइमओ देवलोगं उत्तरिठ, कोसंवीए दक्षिणपासे खंधावारं निवेसित्ता चिट्ठाता वेइ-जे जाहिति। कालो जइ जीवइ दिवसे दिवसे पंच महिससयाई वावाएइ मओ य तस्स तणहारिगाई तेसिं वायस्सिओ गहिओ कन्ननासादि छिंदइ, नरए गच्छइ। राया भणइ-अहं तुब्मेहिं नाहेहिं कीस नरयं जामि ? केण सयाणि य मणुस्सा एवं परिखीणा / एमाए रत्तीए पालाओ, तं च तेण उवाएण वानगच्छेजा ? सामी भणद-जइ कविलं माहणिं भिक्खंदावेसि पुप्फपुडियागएण दिलु, रण्णो य निवेइयं, रया तुट्ठो भणइ-किं देमि ? कालसूरियं सूर्ण मोएसि तो न गच्छसि नरयं! वीमंसियाणि सव्वप्पगारेण भणति-बंभणि पुच्छामि, पुच्छित्ता भणइ-अग्गासणे कूरूं मग्गाहि त्ति, नेच्छंति, सोय किर अभवसिद्धीओ कालो, धिज्जाइयाणिया कविला न एवं सो जेमेइ दिवसे दिवसे दीणारं देइ दक्खिणं, एवं ते कुमारामचा पडिवज्जइ जिणवयणं / सेणिण्ण धिजाइणी भणिया सामेण-साहू वंदहि, चिंतेति-एस रण्णो अग्गासणिओ दाणमाणग्गिहीओ कीरउत्तिते दीणारा सा नेच्छइ, मारेमि ते, जहा वि नेच्छइ। कालो विनेच्छइत्ति, भणइ-मम देंति, खद्धादाणिओ जाओ, पुत्ता वि से जाया, सो तं बहुयं जेमेयव्वं, न गुणेण एत्तिओ जणो सुहिओ नगरं च एत्थ को दोसो ? तस्स पुत्तो पालगो तीरइ / ताहे दक्खिणालोभेण वमेउ वमेउ जिमिओ, पच्छा से कोढो / नाम सो अभएण उवसामिओ, कालो मरिउमारद्धो, तस्स पंचमहिसजाओ, अभिग्रस्तस्तेन, ताहे कुमारामचा भणंति-पुत्ते ! विसजेह, ताहे | गसयघातेहिं से ऊणं अहेसत्तमयापाउग्गं / अण्णया महिससयाणि पंच Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार 1201 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हालिय पुत्तेण से पलावियाणि, तेण विभंगेण दिहाणि मारियाणि य सोलस य | हारविराइय त्रि० (हारविराजित) मौक्तिकादिमालया शोभमाने, कल्प० रोगायंका पाउब्भूया, विवरीया इंदियत्था जाया, जं दुग्गंधं त सुगंधं / १अधि०२ क्षण। स्था०। "हारविराइयवच्छे हारेण विराजमानं 'वच्छ मन्नइ / पुत्तेण य से अभयस्स कहियं, ताहे चंदणिउयगं दिजइ। भणइ- त्ति' हृदयं यस्य / कल्प०१ अधि० १क्षण / हारैर्विराजितं वक्षा येषां ते अहो मिटुं विष्टेण आलिप्पइ पूइमसं आहारो, एवं किसिऊण मओ, अहे हारविराजितवक्षसः / जी० 3 प्रति० 4 अधि० / 'हारविराइयरइयसत्तमंगओ। ताहे सयणेण पुत्तोसे ठविजइसोनेच्छइ, मा नरगंजाइस्सामि वच्छा'" हारेण विराजमानेन रचितं शोभितं वक्षो यस्य स हारविराजत्ति सो नेच्छइ। ताई भणंति-अम्हे विगिंचिस्सामो तुम नवरं एक मारेहि मानरचितवक्षः / रा०।औ०। सेसए सव्वे परियणो मारेहिति / इत्थीए महिसओ बिइए कुहाडो य / हारि त्रि० (हारिन्) मनआह्लादकारिणि, आचा०१ श्रु०६ अ०२ उ०॥ रत्तचंदणेणं रत्तकणवीरेहि, दोवि डंडीया मा तेण कुहाडएणं अप्पा हओ हारिभह पुं०(हारिभद्र) हरिभद्रस्येदंहारिभद्रम्।हरिभद्रसूरेः सम्बन्धिनि, पडिओ विलवइ, सयण भणइ-एयं दुक्खं अवणेह, भणंति-नतीरंति। षो०१६ विव०। तो कह भणह-अम्हे विगिचामो ति? एयं पसंगेण भणियं, तेण देवेणं हारि(री)य स्त्री० (हारीत) कौत्सगोत्रविशेषप्रवर्तक स्वनामख्याते ऋषौ, सेणियस्स तुट्टेण अट्ठारसवंको हारो दिण्णो, दोण्णि य अक्खलियवट्टा स्था० 7 ठा०३ उ० नं० / हारितोऽचलभ्राता / आ० म० 1 अ०। दिण्णा / सो हारो चेल्लणाए दिण्णो पिय त्ति काउं, वट्टा नंदाए। ताण गोत्रभेदे, कल्प०२ अधि०८ क्षण। रुट्ठाए किमहं चेडरूव त्ति काऊण अनिरक्खिया खंभे आवडिया भग्गा, हारि(री)या स्त्री० (हारीता) श्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगलस्य प्रथमतत्थ एगम्मि कुंडलजुयलं, एगम्मि देवदूसजुयलं, तुट्ठाए गहियाणि। एवं शाखायाम, कल्प०२ अधि० 8 क्षण। हारस्स उप्पत्ती। "आव०४ अ०। 'हारुत्थयसकयरहयवत्थे हारेण हारि(री)यायणपुं०(हारीतायन) हारीतर्षिगोत्रापत्ये, कल्प०२ अधि० अवस्तृतम्-आच्छादितम्। अत एव सुष्ठ कृतं रतिकं दृष्टीनां प्रमोददायि क्षण। एवंविधं वक्षो हृदयं यस्य स तथा। कल्प०१ अधि०३क्षण। हरणं हारः। हारीस पुं० (हारीश) म्लेच्छदेशभेदे, तत्र जातेऽनार्यसनुष्ये च / प्रज्ञा० हृती, व्य०१उ० स्वनामख्यातेद्वीपे, जी०३ प्रति०४ अधि०।सू०प्र०। 17 पद 2 उ०। हारज्झयण न० (हाराध्ययन) गृद्धिदशानां नवमाध्ययने, स्था० 1 ठा० हारोत्थय त्रि० (हारावस्तृत) हारेणाऽऽच्छादिते, कल्प० 2 अधि० 3 ३उ०। क्षण / "हारोत्थयसुकयरइयवच्छा' हारावस्तृतेनहारावच्छादनेन सुष्टु हारणिगर पुं० (हारनिकर) पुजीकृतमुक्ताहारे, कल्प०१अधि०२क्षण। कृतरतिक वक्ष-उरो यस्याः / औ० / भ० / हारेणावस्तृतमाच्छादित हारपुडपाय न० (हारपुटपात्र) लोहपात्रे, आचा०२ श्रु०१चू०६ अ० तेनैव सुष्ठु कृत रतिदंच वक्ष-उरो यस्याः / तं०। १उ०। हारोदपुं० (हारोद) हारदीपस्याभितः समुद्रे, जी०३ प्रति० 4 अधि० हारभद्द पुं० (हारभद्र) हारद्वीपे स्वनामख्याते देवे, जी० 3 प्रति० 4 हाल पुं०(हाल) पणिहि' शब्दे पञ्चमभागे उदाहृते भृगुकच्छराजे, आ० अधि०। क०४ अ०। हारमहामहपुं०(हारमहाभद्र) हारद्वीपे स्वनामख्याते देवे,जी०३ प्रति० हाला (देशी) कस्मॅिश्चिद्देशे पुरुषाधामन्त्रणे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ०। 4 अधि०। हालाहल पुं० (हालाहाल) श्रावस्त्यां नगर्यामाजीविकोपासके स्वनामहारमहावर पुं० (हारमहावर) हारसमुद्रे स्वनामख्याते देवे, जी० 3 प्रति० ख्याते कुम्भकारे, भ० 15 श० त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा० 1 पद। 4 अधि०। स्थावरविषभेदे, ग०२ अधि०! हारवधा० (नश) अदर्शने,"नशेविउड-नासव-हारव-विप्पगाल- | हालिज न० (हारीत) स्थविरात् श्रीगुप्तान्निर्गतस्य चारणगणस्य तृतीये पलावाः" / / 811131 // इति नशधातोहरिवाऽऽदेशः। हारवइ। कुले, कल्प० 2 अधि०८ क्षण। नश्यति / प्रा० 4 पाद। हालिद्द त्रि० (हारिद्र) हरिद्रावर्णे पीते, कर्म०१ कर्म०। सू०प्र०। रा०। हारवर पुं० (हारवर) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च / चं० प्र०२० पाहु। जी०। एगे हालिद्दे / स्था०१ठा०। जी० / सू० प्र० / हारवरद्वीपे स्वनामख्याते देवे, जी०३ प्रति० | हालिद्दणाम न० (हारिद्रनामन्) यदुदयात् जन्तुशरीरं हारिन्द्रं-पीतं 4 अधि०। हरिद्रादिवद्भवति तद् हारिद्रनाम। वर्णनामभेदे, कर्म० 1 कर्म०। हारवरोभास पुं० (हारवरावभास) स्वनामख्याते द्वीपे, समुद्रे च हारवर- | हालियंड न० (हालिकाण्ड) गृहकोलिकायोः ब्राह्मण्या वा अण्डे, कल्प० भासे स्वनामख्याते देवे, जी०३ प्रति०४ अधि०। 3 अधि० 6 क्षण। हारवरोभासमहाभह पुं० (हारवरावभासमहाभद्र) हारवरावभाससमुद्रे | हालिय पुं० (हालिक) हलेन व्यवहरतीति हालिकः। अनु०ालाङ्गलिके स्वनामख्याते देवे, जी०३ प्रति० 4 अधि०। ज्ञा०१ श्रु०१ अ01 Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हालिया 1202 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हासीअ हालिया स्त्री० (हालिका) गृहकोलिकायाम, ब्राह्मण्यां च / कल्प० | हासंझाण न० (हासध्यान) हासो- हास्यं तस्य ध्यानं चण्डरुद्राचार्य३ अधि०६ क्षण। शिष्यस्येव मित्रसहितस्य यज्ञबाहुकुमारं प्रति सुन्दरमृषाऽस्य च वा। हाव पुं० (हाव) मुखविकारलक्षणे स्त्रीणां चेष्टाविशेषे, ज्ञा० 1 श्रु०१ | दुर्ध्यानभेदे, आतु०। अ० / रा०। हासकम्मन० (हास्यकर्मन) यदुदयेन सनिमित्तनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास पुं० (हास) हसनं हासः / हास्यमोहनीयकर्मोदयतो विवृतवण- हास्यम्। मोहनीयकर्मभेदे, स्था०६ ठा०३ उ०। विधीयमाने,दर्श 1 तत्त्व। हीभयादिनिमित्ते चेतोविप्लवे, आचा०१श्रु०३ हासकर पुं० (हास्यकर) हास्योपजीवितेषु, भ०६ श०३३ उ०। औ०। अ० 220 / मोहोदयजनितवविकारे, स्था०३ ठा०१ उ०। स्त्रीभिः सह जंग। हास्यच विचित्रवेषवचनैः स्वस्य परेषां हासनं भाण्डवत्परछिद्राहसिते, निचू०१ उ०। हासाद्भवन्ति, हाससम्भूत्वाद्वा हासाः / हासजेषू- न्वेषणं चेति तत्करः।ध०३अधि०।वेषरचनादिनांस्वपरहासोत्पादके, पसर्गेषु, स्था० 4 ठा०४ उ०।दाक्षिणात्यानां महाक्रन्दव्यन्तराणामिन्द्रे, स्था० 4 ठा०४ उ०। स्था०२ठा०३ उ०। अथहासकरमाह* हास्य न० हास्यतेऽनेनेति हासस्तद्भावो हास्यम् / हास्यमोहनीये वेसवयणेहि हासं,जणयंतो अप्पणो परेसिंच। कर्माणि, दश०१ अ०। हसने, ग० २अधि०। यत्तु सनिमित्तमनिमित्तं अह हासणो त्ति भन्नइ, धयणो व्व छले नियच्छंतो॥ 470 / / वा हसति तद्धास्यम्। बृ०१उ०३ प्रक 0 / उत्त 0 / आचा०। प्रव०। 'घयणो व्व' भाण्ड इव परेषां छिद्राणि विरूपवेषभाषाविषयाणि विकृतासम्बद्धपरवचनवेषालंकारादिहास्याहप्रभवे मनः प्रकर्षादि नियच्छन् निरन्तरमन्वेषयन्तादृशैरेव वेषवचनैर्विचित्रैरात्मनः परेषां च चेष्टात्मके रसभेदे, अनु। प्रेक्षकाणां हास्यं जनयन् उत्पादयन्, अथैष हासतो हास्यकर इति हास्यरसं हेतुलक्षणाभ्यामाह भण्यते। बृ०१ उ०२ प्रक०।पं०व०! रूववयवेसभासा, विवरीअविलंबणासमुप्पण्णो। हासकुहय पुं० (हास्यकुहक) हास्यकारिकुहके, 'आविहासं कुहराजे स हासो मणप्पहासो, पगासलिंगो रसो होइ॥१४॥ भिक्खू' दश० 10 अ०। हासो रसो जहा हासणिस्सिय न० (हासनिश्रित) मृषाभेदे, यथा कन्दर्पिकाणां कस्मिँपासुत्तमसीमंडिअ, पडिबुद्धं देवरं पलोअंता। श्चित्संबन्धिनि गृहीते पृष्टानां न दृष्टमित्यादि। स्था० 10 ठा० 3 उ०। ही जहथणभरकंपण-पणमिअमज्झा हसइ सामा॥ 15 // हासबोलबहुल पुं० (हासबोलबहुल) हासबोलौ चबहलावतिप्रभूतौ येषां रूपवयोवेषभाषाणां हास्योत्पादनार्थं वैपरीत्येन या विडम्बनानिर्वर्तना ते हासबोलबहुलाः। हास्यकलकलप्रचुरेषु, जी०३ प्रति० 4 अधि० / तत्समुत्पन्नो हासो रसो भवतीति संयोगः, तत्रपुरुषादेोषिदादिरूपकरणं हासमोहणिज न० (हास्यमोहनीय) मोहनीयकर्मभेदे, यदुदयवशात्सरूपवैपरीत्यं, तरुणादेवृद्धादिभावापादनं वयोवैपरीत्यं, राजपुत्रादेर्वणि निमित्त मनिमित्तं वा हसति स्मयते वा तद् हासमोहनीयम्।पं सं३ द्वार। गादिवेषधारणं वेषवैपरीत्यं, गुर्जरादेस्तु मध्यदेशादिभाषाभिधानं भाषा कर्म। वैपरीत्यम्। सच कथंभूतः? स्यादित्याह मणप्पहासो' त्ति मनः प्रहर्ष हासयिता त्रि० (हासयितृ) परिहासकारिणि, प्रश्न०१आश्र० द्वार। कारी प्रकाशो नेत्रवक्त्रादिविकाशस्वरूपो लिङ्गं यस्य स तथा, अथवाप्रकाशानि-प्रकटान्युदरप्रकम्पनाऽदृट्टहासादीनि लिङ्गानि यस्येति स हासण पुं० (हासन) हास्यकरे, पं०व०५ द्वार। तथेति // 14 // ‘पासुत्तमसी' त्यादि निदर्शनगाथा इह कदाचिद्वध्वा हासरइ पुं० (हास्यरति) औत्तराहाणां महाक्रन्दव्यन्तराणामिन्द्रे, स्था० प्रसुप्तो निजदेवरश्च मषीमण्डनेन मण्डितः, तं प्रबुद्धं च सा हसति।तांच २ठा०३ उ०। हास्यरतियुगले, 'हासरइकुच्छाभयभेदा' हास्यं चरतिश्च हसन्तपलभ्य कश्त्पिार्श्ववर्तिनं कञ्चिदामन्त्र्य प्राह-हीति कन्दप्पाति कुत्सा च भयं च हास्यरतिकुत्साभयानि तेषां भेदा व्यवच्छेदो हास्यशयद्योतकं वचः पश्यत भो श्यामा स्त्री यथा हसतीति सम्बन्धः, किं कु रतिकुत्साभयभेदः / कर्म०४ कर्म०। र्वती? देवरं प्रलोकयन्ती। कथं भूतम् ? 'पासुत्ते' त्यादि दिन्नप्ररूढादि | हासा स्त्री० (हासा) उत्तररुचकपर्वतवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, आ० चू० वदत्र कर्मधारयः-पूर्व प्रसुप्तश्च असौ ततो मषीमण्डितश्वासौ ततोऽपि १अ०।जंग। आ० क०। प्रबुद्धश्च स तथा तं, कथंभूता ? स्तनभरकम्पनेन प्रणतं मध्यं यस्याः हासाइछक्क न० (हास्यादिषट्क) हास्यरलरतिशोकभयजुगुप्सारूपे सा तथेति। अनु० / प्रहसिकाभिधाने रसविशेषे, प्रश्न०५ संव०१ द्वार। हास्योपलक्षिते षट्के, कम्मे 06 कर्म पं०सं०। "हासं खेड्ढ कंदप्पणाहं वापकरेजा उवहाणं' महा०१ अ० हास्यं न हासविअन० (हासित) हस णिच् क्त / णेरायादेशे कृते। “अदेल्लुसेवितव्यमिति सत्यवचनस्य पञ्चमी भावना ! प्रश्न०२ संव० द्वार। (सा क्यादेरत आः"||१३१५३ / / इति आदरेत आ भवति। हास्यं च'मुसावायवेरमण' शब्दे षष्ठे भागे दृष्टव्या। )व्यन्तरभेदे, स्था०२ ठा० / कारिते, प्रा०३ पाद। 3 उ०। आचा०। हासीय (देशी) हास्ये, दे० ना० 8 वर्ग 62 गाथा। Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हासुस्सित 1203 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग हासुस्सित पुं० (हासोत्सृत) हासेन युक्त उत्सृतो हृष्टो हासोत्सृतः। त्कृत्रिमश्च स्वत एव उभावप्यचित्तौ ज्ञायेते, तद्ग्रहणं तु अनाचीएतया हसितमुखे प्रहृष्टे, व्य०२ उ०। बृ०। तेन साम्प्रतं संवर्तितःसन्गृह्यते इति यतिव्यवहार इति॥३३५।। सेन० हाहकिय त्रि० (हाहाकृत) धिगिति भणनपूर्वकं थूत्कृते, बृ०३ उ०। / 3 उल्ला०। हाहा अव्य० (हाहा) दुःखार्तलोकवचने, जं० 2 वक्ष० / विपा०। | हिंगुलयसमुग्गय पुं० (हिड्डुलकसमुद्गक) हिड्डुलकरक्षार्थसम्पुटे, जी० गन्धर्वविशेषे, प्रज्ञा०१पद। 3 प्रति०४ अ०। हाहाभूअपुं० (हाहाभूत) हाहा इत्येतस्य शब्दस्य दुःखार्तलोकेन करणं | हिंगुसिवपुं० (हिङ्गुशिव) हिडमयशिवलिङ्गे, स्था०४ ठा०३ उ०।दश। हाहोच्यते / तद्भूतः प्राप्तो यः कालः स हाहाभूतः / हाहेति शब्दं प्राप्ते ('ठवणाकम्म' शब्दे चतुर्थभागे 1684 पृष्ठे व्याख्यातमेतत्।) काले, भ०७ श० 6 उ०। हिंगोल न० (हिङ्गोल) मृतकभक्ते, यक्षदियात्राभोजने च / आचा०२ "दुस्समदुसमाए समाए हाहामूए काले भविस्सइ" जं०२ | श्रु०१चू०१ अ०४ उ०। वक्ष० हिंडग पुं० (हिंडक) पर्यटके साधौ, सूत्र०१श्रु०२ अ०३ उ०। हि अव्य० (हि) यस्मादर्थे, विशे० / सूत्र० / रत्ना० / निश्चिते, ध०३ इदानीं हिण्डक उच्यतेअधि० / अष्टछ / प्रति० / पुनरर्थे, विशे० / भावनासूचने, पञ्चा० 14 उवएस अणुवएसा, दुविहा अहिंडआ समासेणं। विव०। एवकारार्थे, पञ्चा०२ विव०। प्रशान्तिभावातिशये, अनु०।। उवएस देसदसण, अणुवएसा इमे होति॥११८।। हिअ त्रि० (हृत) "इत्कृपादौ" ||1128 || कृपादित्वादत उपदेशहिण्डका, अनुपदेशहिण्डकाश्य / एवं द्विविधा हिण्डकाः इत्वम् / अपहृते, स्थानान्तरे गमिते च / प्रा०१ पाद। समासतः सङ्केपेण / 'उवएस' त्ति उपदेशहिण्डको यो देशदर्शनार्थ *हित न० कल्याणकप्रापके, दश०५ अ०१ उ०। सूत्रार्थोभयनिष्पन्नो हिण्डते-विहरति। 'अणुवदेस'त्ति अनुपदेशहिण्डका किंकर्तव्यमित्याह इमे भवन्ति वक्ष्यमाणकाःअप्पहियं कायध्वं, जइ सक्का परिहियं च पयरेजा। चक्के थूभे पडिमा, जम्मण निक्खमण नाण निव्वाणे। अत्तहियपरहियाणं, अत्तहियं चेव कायव्वं // महा०४ अ०। संखडि विहार आहा-र उवहि तह दंसणट्ठाए। 116 // हिअअ न० (हृदय) "स्वार्थे कश्च वा" || 812 / 165 / / इति चक्र-धर्मचक्रं स्तूपो-मथुरायां प्रतिमा-जीवन्त-स्वामिसंबन्धिनी प्राकृते स्वार्थिक कप्रत्ययः! अन्तः करणे, प्रा०२ पाद / पुरिकायां पश्यति, 'जम्मण' त्ति जन्मयत्रार्हता सौरिकपुरादौ व्रजति, हिअडड न० (हृदय) "योगजाश्चैषाम् // 8111430 // इति निष्क्रमणभुवम्-उज्जयन्ता द्रि द्रष्टुं प्रयाति, ज्ञानं यत्रैवोत्पन्नं तत्प्रदेश स्वार्थे डडप्रत्ययः। “फोडेंति जे हिअडडं अप्पणउं।" अन्तःकरणे, दर्शनार्थ प्रयाति निर्वाणभूमिदर्शनार्थं प्रयाति / संखडीप्रकरणं तदर्थ प्रा० / हिअडा फुट्टितड त्ति करिकालक्खेवं काई / प्रा०४ पाद। व्रजति, 'विहारे ति विहारार्थं व्रजति, स्थानाजीण ममात्रेति-'आहार' हिअपवित्ति स्त्री० (हितप्रवृत्ति) परार्थपरमार्थकरणे, पं०व०२ द्वार।। त्ति यस्मिन् विषये स्वभावेनैव चाहारः शोभनस्तत्र प्रयाति / 'उवहित्ति हिअय न० (हृदय)"इत्कृपादौ" ||1128 // इति आदेर्ऋत अमुकत्र विषये उपधिःशोभनोलभ्यत इत्यतः प्रयाति, 'तह दंसणट्ठाए' इत्त्वम्। हिअयं / अन्तःकरणे, प्रा०१ पाद। तथा रम्यदेशदर्शनार्थ व्रजति। * हितक पुं० हितकारिणी, कल्प०१ अधि०३ क्षण। एते अकारणा सं-जयस्स असमत्त तदुभयस्स भवे। हिअयगमणिज्जा स्त्री० (हृदयगमनीया) हृदयप्रह्लादिहगतशोकाद्युच्छेदि- ते चेव कारणा पुण, गीयत्थविहारिणो भणिआ। 120 / कायाम्, कल्प०१ अधि०३ क्षण। एतान्यकारणानि संयतस्य, किंविशिष्टस्य ? असमत्ततदुभयस्यहिंगुन० (हिड) रामटदेशोद्भवे वृक्षे, हिङ्गौ च।यस्य निर्यासो हिङ्गु द्रव्यम् / असमाप्तसूत्रार्थोभयस्य संयतस्य भवन्ति अकारणानीति। 'ते चेव त्ति तान्येव धर्मचक्रादीनि कारणानि भवन्ति, कस्य ? 'गीयत्थविहारिणो' हिंगुरुक्ख पुं० (हिडवृक्ष) वृक्षविशेषे, यस्य निर्यासो हिड्ड भवति, भ० 6 गीतार्थविहारिणः सूत्रार्थोभयनिष्पन्नस्यदर्शनादिस्थिरीकरणार्थ विहरत श०३उ०। हिंगुलय न० (हिड्डुलक) स्वनामख्याते वर्णकद्रव्ये, ज्ञा०१ श्रु०१०। / तथा चाह-- सूत्र० / आचा० / उत्त० / खनिजोऽपि हिङ्गुलः "जोअणसयं तु गंतुं' गीयत्थो य विहारो, विइओ गीत्थमीसिओ मणिओ। इत्यक्षरबलात् प्रवहणादागतोऽचित्ती भवति कृत्रिमस्य तदचित्तत्वे किं एत्तो तइअविहारो, नाणुनाओ जिणवरेहिं / / 121 // वाच्यम् ? तथापि तस्य सचित्तताव्यवहारः क्रियते, तत्र को हेतुरिति 'गीयत्थो' गीतार्थानां विहारः-विहरणमुक्तम् / 'विइता प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-हिङ्गुलः खानिजो योजनशतादेः परत आयातत्वा- गीयत्थमीसिओ' द्वितीयो विहार:-द्वितीयं विहरणं ल। इति। Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग गीतार्थमिश्र-गीतार्थेन सह, इतस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातोनोक्तो जिनवरैः। किमर्थमित्यत आहसंजमआयविराहण, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ। आणालोव जिणाणं, कुय्वइ दीहं तु संसारं / / 122 // संयमविराधना आत्मविराधना तथा ज्ञानदर्शनचारित्राणां विराधना, आज्ञालोपश्च जिनानां कृतो भवति, तथा अगीतार्थ एकाकी हिण्डन् करोति दीर्घ च संसारमिति। इदानीमेव (नियुक्ति) गाथां भाष्यकारो व्याख्यानमाहसंजमतो छक्काया, आयाकंटऽट्ठिाजीरगेलने। नाणे नाणायारो, देसण चरगाइवुग्गाहे // 67 / / 'संजमतो छक्काया' संयमविराधनमङ्गीकृत्य षट्कायविराधना संभवति।'आय' त्ति आत्मविराधना संभवति, कथं ? 'कंटऽविजीरगेलण्णे' कण्ट केभ्यः अस्थिशकलेभ्यः आहारस्याजरणेन तथा ग्लानत्वेन। 'नाणे' ज्ञानविराधना भवति, कथं ? स हिण्डन ज्ञानाचार न करोति, 'दंसण चरगाइउग्गाहे' दर्शनविराधना, कथं संभवति? स ह्यगीतार्थश्चरकादिभिर्युद्ग्राह्यते, ततश्चापेति दर्शमन् , किं पुनः कारणं चारित्रं न व्याख्यातम् ? उच्यते-ज्ञानदर्शनभावे चारित्रस्याप्यभाव एव द्रष्टव्यः। द्वारम्। एवं तावदेकः कारणिको 'निक्कारणिओयसोविठाणट्ठिओ दूतिजंतओ य भणिओ इदानीमनेकान् प्रत्युपेक्षकान् प्रतिपापयन्नाहणेगावि होंति दुविहा, कारणनिक्कारणे दुविहभेओ। जं एत्थं नाणतं, तमहं वोच्छं समासेणं // 123 // अनेकेऽपि द्विविधा भवन्ति, कतमेन द्वैविध्येन? अत आह 'कारणनिकारणि' ति कारणमङ्कीकृत्य अकारणं चाङ्गीकृत्य द्विविधाः, 'दुविहभेद' त्ति पुनधिो भेदः, ये ते कारणिकास्ते स्थानस्थिता 'दूइज्जमानाश्च'येऽपि ते निष्कारणिकास्तेऽपि स्थानस्थिता 'दूइजमानाच। तत्थ जे कारणिआ दूतिजंतगा ठाणठिआ अ ते तहेव असिवादिकारणेहिं जहापुटवं एगस्स गमणविहिं वक्खाणंतेण भणिअं, जे वि निक्कारणिआ दूइजंता ठाणद्विआ य तेऽवि तह चेव थूभाइहिं, 'जं एत्थ नाणत्तं यदत्र नानात्वं यो विशेषस्तमहं वक्ष्ये समासतः।। इदानीमनन्तरगाथोक्ताः सर्व एव सामान्येन चतु विधाः साधवो भवन्ति। जयमाणा विहरंता, ओहाणा हिंडगा चउद्घाउ। जयमाणा तत्थ तिहा,नाणहादसणचरित्ते / / 124 // 'यती' प्रयत्ने यतमानः-प्रयत्नपराः विहरन्तः-विहरमाणा मासकल्पेन पर्यटन्तः 'ओहाण' त्ति अवधावमानाः; प्रव्रज्यातोऽवसर्पन्त इत्यर्थः, तथा आहिण्डकाः-भम्रणशीलाः, एवमेते चतुर्विधाः, इदानीं "यथोद्दशं निर्देशः "इति न्यायाद्यतमाना उच्यन्ते-'जयमाणा तत्थ तिहा' यतमानास्त्रिप्रकाराः, कथं? 'नाणदंसणचरित्ते' तत्थ णाणट्ठा कधंजयन्ति? जदि आयरिआणं जंसुअं अत्थो वा पग्गहिअ अण्णाय से सत्ती अस्थि घेत्तुं धारेउं वा ताहे विसञ्जावेत्ता अत्ताणं अन्नओ वचंति, एवं चेव दंसणपभावगाणं सत्थाणं अट्ठाए वश्चंति, तत्त्वार्थादीनां, तथा चरित्तट्ठाए देसंतरंगयाण केणइ कारणेणं, तत्थ जदि पुढविकाइयाइपउरं ततो न चरितं सुज्झइ ताहे निग्गच्छन्ति, एसा चरित्तजयणा खलु एवं तिविहा समासतो समक्खाया। दारं। इदानीं विहरमाणका उच्यन्ते, अत आह–'विहरंता वि अदुविहा' विहरमाणका द्विप्रकाराः, गच्छगता निग्गया चेव' एतदेव-व्याख्यानयन्नाहपत्तेयबुद्ध जिणक-प्पिया य पडिमासु चेव विहरता। आयरिअथेरवसभा, मिक्खू खुड्डा न गच्छम्मि / / 125 / / प्रत्येकबुद्धा जिनकल्पिकाश्च प्रतिमाप्रतिपन्नाश्य-- 'मासाई सत्तंता' इत्येवमादि एते गच्छनिर्गता विहरमाणकाः / इदानी गच्छप्रविष्टा उच्यन्ते-'आयरिअ' आचार्यः-प्रसिद्धः, स्थविरा-यःसीदन्तंज्ञानादौ स्थिरीकरोति, वृषभो-वैयावृत्त्यकरणसमर्थः भिक्षवः-एतद्व्यतिरिक्ताः, क्षुल्लकाः प्रसिद्धाः, एते गच्छगता गच्छनिर्गताश्च' इत्थमुपन्यासःप्राक् कृतः, तत्कस्माजिनकल्पिकादयो गच्छनिर्गता आदौ व्याख्याताः? उच्यते जिनकल्पिकादीनां प्राधान्यख्यापनार्थम्, आहः प्रथममेव कस्मादित्थं नोपन्यासः कृतः ? उच्यते-तेऽपि जिनकल्पिकादयो गच्छगतपूर्वा एवास्यार्थस्य ज्ञापनार्थम्, आह-प्रत्येकबुद्धा न गच्छनिर्गताः, न, तेषामपि जन्मान्तरे तन्निर्गतत्वसद्भावात्, यतस्तेषां नव पूर्वाणि पूर्वाधीतानि विद्यन्ते। ओघ०। (अवधावनवक्तव्यता ओहाक्ते' शब्दे तृतीयभागे।) अधुना ये ते गच्छगता विहरमाणकास्तेषामेव विधिं प्रतिपादयन्नाहपुण्णम्मि मासकप्पे, वासावासासु जयणसंकमणा। आमंतणा य भावे, सुत्तत्थ न हायई जत्थ / / 128 / / मासकल्पे-मासावस्थाने पूर्णे सति तथा 'वासावासासु' त्ति वर्षायां वासो वर्षावासः तस्मिन् वा यो वास कल्पस्तस्मिन् पूर्णे सति / पुनश्च यतनया-संक्रामणया क्षेत्रसंक्रान्तिः कर्तव्या। किं कृत्वा ?-'आमंतणा य'त्ति आमन्त्रणं आचार्यः शिष्यानामन्त्रयति पृच्छति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकप्रेषणकाले, चशब्दादागतेषु क्षेत्रप्रत्युपेक्षकेषु क्षेत्रगमने वा, 'भावे' त्ति आगतेषु क्षेत्रप्रत्युपेक्षकेषु भावं प्रतीक्षत, कस्य किंक्षेत्रं रोचते ? तत्र सर्वेषां मतं गृहीत्वा यत्र सूत्रार्थहानिर्न भवति तत्र गमने करिष्यत्याचार्यः / इदनीमेनामेव गाथां व्याख्यानयति, अत्र यदुपन्यस्ते 'जयणसंकमण' त्ति तद् व्याख्यानयन्नाहअप्पडिलेहियदोसा, वसही भिक्खं च दुल्लहं होज्जा। बालाइगिलाणाण व, पाउग्गं अहव सज्झाओ // 126 // अप्रत्युपेक्षणे दोषा भवन्ति, ते चामी-'वसहि'त्ति कदाचिद्वसतिर्दुर्लभा भवेत्, तथा भिक्षा वा दुर्लभा भवेत्, तथा बालादिग्लानानां प्रायोग्य दुर्लभं भवेत। अथवा-स्वाध्यायो दुर्लभः, मांसाद्याकीर्णत्वात्। तस्मात् किम् ? तम्हा पुष्वं पडिले-हिऊण पच्छा विहीऍ संकमणं। पेसेइ जइ अणापु-च्छिउंगणं तत्थिमे दोसा।। 130 // Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1205 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग तस्मात्पूर्वमेव प्रत्युपेक्ष्य-निरूप्य पश्चाद् विधिना-यतनया संक्रमणं कर्तव्यम्। इदानीं यदुपन्यस्तम् 'आमंतणा ये' त्यवयवेनतंव्याख्यानयन्नाह-'पेसेति जइ अणापुच्छिउं गणं प्रेषयति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् यदि गणमनापृच्छ्य तत्रेमे दोषाः वक्ष्यमाणलक्षणाः। अइरेगोवहिपडिले-हणाए कत्थ वि गय त्ति तो पुच्छे। खेत्ते पडिलेहेळं, अमुगत्थ गय त्ति तं दुई / / 131 // यदा क्षेत्रप्रत्युपेक्षकाः शेषप्रव्रजिताननापृच्छ्य गतास्तदा कथं ज्ञायन्ते ? अत आह-अतिरिक्तोपधिप्रत्युपेक्षणायां सत्यां ते पृच्छन्तिकुत्र गतास्त इत्येवं पृच्छन्ति। आचार्याऽप्याह-क्षेत्रं प्रत्युपेक्षितुममुकत्र क्षेत्रे गता इति, तेऽप्याहुः-'तंदुटुं' तत्-क्षेत्रं न शोभनम्। यतस्तत्र गच्छतामतेणा सावय मसगा, ओमऽसिवे सेह इत्थिपडिणीए। थंडिल्लअगणि उट्ठा-ण एवमाई भवे दोसा / / 132 // स्तेनाः अर्द्धपथे स्वापदानि-व्याघ्रादीनि मशका वाऽतिदुष्टाः ओमंदुर्भिक्षम् 'असिवं' देवताकृत उपद्रवो, यदि वा 'सेह' त्ति अभिनवप्रव्रजितस्य स्वजना विद्यन्ते, ते चोत्प्रव्राजयन्ति, 'इत्थि त्ति स्त्रियो वा मोहप्रचुराः, 'पडिणीए' त्ति प्रत्यनीकोपद्रवश्च, 'थंडिल्ल' ति स्थण्डिलानि वा न तत्र विद्यन्ते, 'अगणि' त्ति अग्निना वा दग्धःसदेशः, 'उहाणे' त्ति उत्थितः-उदसितः प्रदेशो वाऽपान्तराले इत्येवमादयो दोषा भवन्ति। तत्रापि प्राप्तस्यैते दोषाःपञ्चंतितावसीओ, सावयदुभिक्खतेणपउराइं। णियगपदुट्ठाणे, फेडणहरियाइपण्णीए / / स हि प्रत्यन्तदेशः म्लेच्छाधुपद्रवोपेतः तापस्यः-तापसप्रवाजिकाः ताश्च प्रचुरमोहाः संयमाझंशयन्तिस्वापदभयदुर्भिक्षभयस्तेनप्रचुराणि वा क्षेत्राणि 'नियग' त्ति अभिनवप्रव्रजितस्य निजः-स्वजनादिः स चोत्प्रव्राजयति पदुट्ट' त्ति प्रद्विष्टो वा तत्र कश्चित् 'उठाणे ति उत्थितःउदसितः स कदाचिद्देशो भवेत् 'फेडण' ति प्राक् तत्र वसतिरासीत् इदानीं तु कदाचिदपनीता भवेत्। (हरि) हरितपण्णीय त्ति हरितं तत्र शाकादि बाहुल्येन भक्ष्यते, तच्च साधूनां न कल्पते दुर्भिक्षप्रायं वा 'हरितपर्णी ति तत्र देशे केषुचिद् गृहेषु राज्ञो दण्डं दत्त्वा देवतायै बल्यर्थ पुरुषो मार्यते, से च प्रव्रजितादिर्भिक्षा प्रविष्टः सन्, तत्र गृहस्योपरि आर्द्रा वृक्षशाखा चिह्न क्रियते, तच गृहीतसङ्केतो दूरत एव परिहरति, अगृहीतसङ्केतश्च विनश्यति, तस्मागणं पृष्ट्वा गन्तव्यमिति। अथवा अन्यकर्तृकीयं गाथा, ततश्च न पुनरुक्तदोषः। इदानींस आचार्यः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकान् प्रेषयन् सर्वं गणमालोचयति, अथ तु विशेष्यं कश्चिदेकमालोचयति शिष्यादिकं ततश्चैते दोषा भवन्ति-- सीसे जइ आमंतइ, पडिच्छगा तेण बाहिरं भाव / जइ इयरा तो सीसा, ते वि समत्तम्मि गच्छति॥१३॥ शिष्यान विशिष्य केवलान् यद्यामन्त्रयति ततश्च को दोषः ? 'पडिच्छ' त्ति सूत्रार्थग्रहणार्थं ये आयाताः साधवस्ते प्रतीच्छकाः 'तेण' त्ति तेन अनालोचनेन 'बाहिरं भावं' ति बहिर्भाव चिन्तयन्ति, बाह्या वयमत्र / अथेतरान्-प्रतीच्छकानालोचयति ततः शिष्या बहिवं मन्यन्ते, प्रतीच्छकाश्च सूत्रार्थग्रहणसमाप्तौ गच्छन्ति ततश्चाचार्य एकाकी संजायत इत्येवं दोषस्तावत्। अथवृद्धान् पृच्छतिततःतरुणा बाहिरभावं,न य पडिलेहोवहीन किइकम्मं / मूलयपत्तसरिसया, परिभूया वच्चिमो थेरा।। 135 // वृद्धानालोचयति तरुणा बहिर्भावं मन्यन्ते, ततश्च ते तरुणाः किं कुर्वन्त्यत आह-'नय पडिलेहोवही' उपधेः प्रत्युपेक्षणां न कुर्वन्ति, नच कृतिकर्म-पादप्रक्षालनादि कुर्वन्ति / अथ तरुणानेव पृच्छति ततः को दोषः ? वृद्धा एवं चिन्तयन्ति-'मूलयपत्तसरिसया मूलम्-आद्यं यत्पूर्ण निस्सारं परिपक्वप्रायं तत्तुल्या वयमत एव च परिभूतास्ततश्च व्रजामः इत्येवं स्थविराश्चिन्तयन्ति, यदिवा-'मूलयपत्तसरिसया' मूलकपत्रतुल्याः -शाकपत्रप्राया वयम्, अथ मतं स्थविरा न प्रष्टव्या एव, ततुन, यत, आहजुण्णमएहि विहूणं, जंजूहं होइ सुद वि महल्लं / तं तरुणरहसपोईय-मयगुम्मइ सुहं हंतुं / / 136 // जीर्णमृगैर्विहीनं यूद्यथं भवति सृथ्वपि महत्तथं तरुणरभसे-रागे पोतितं-निमग्नं मदेन गुल्मयितं-मूढं सुखं हन्तुं विनाशयितुं-सुखेन तद्व्यापाद्यते। यस्मादेतदेवं तस्मात्सर्व एव मिलिताः सन्तः प्रष्टव्याः, कथम्? थुइमंगलमामंतण, नागच्छद जो य पुच्छिओ न कहे। तस्सुवरि ते दोसा, तम्हा मिलिएसु पुच्छेज्जा / / 137 / / स्तुतिमङ्गलं कृत्वा-प्रतिक्रमणस्यान्ते स्तुतित्रयं पठित्वा ततश्चामन्त्रयति आकारिते च दूरस्थो यदि नागच्छति कश्चिद्यो वा पृष्टः सन्न कथयति ततस्योपरि ते दोषाः, तस्मान्मिलितेषु प्रच्छनीयमेक-त्रीभूतेषु। केई भणति पुवं, पडिलेहिअ एवमेव गंतव्वं / तं च न जुज्जइ वसही, फेडण आगंतु पडिणीए // 138 / / केचनाचार्या एवं ब्रुक्ते प्राक् प्रत्युपक्षिते यस्मिन् क्षेत्रे प्रागपि स्थिता आसन्तस्मिन् पुनरप्रत्युपेक्ष्य गम्यते, तच्चनयुज्यते, यस्मात्तत्र कदाचित् 'वसही फेडण' ति सा प्राक्तनी वसतिरपनीता, आगन्तुको वा प्रत्यनीकः संजातः, अत एव दोषभयात्पूर्वदृष्टाऽपि वसतिः प्रत्युपेक्षणीया। इदं च ते प्रष्टव्याःकयरी दिसा पसत्था ? अमुई सवेसि अणुमई गमणं / चउदिसि ति दुएगं वा, सत्तग पणगं तिगजहण्णं // 136 / / कतरा दिक् प्रशस्ता-शोभना ? सुक्षेमपथेत्यर्थः तेऽप्याहुः 'अमुई' अमुका दिक् सुक्षेमेति / एवं सर्वेषां यदा अनुमता-अभिरुचिता भवति, दिगित्यर्थः, तदा गमनं कर्तव्यम् / तत्र चतसृष्वति दिक्षु पूर्वदक्षिणपश्चितोत्तरासु प्रत्युपेक्षकाः प्रयान्ति, अथवा-चतसृणां Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग दिशामुपद्रवादिसम्भवे तिसृषु यान्ति, तदभावे द्वयोर्दिशोर्यान्ति, तदभावेऽप्येकस्यां दिशि / तासु च दिक्षु व्रजन्तः कियन्तो व्रजन्त्यत आह–'सत्तग पणगं तिग जहण्णं' एकैकस्यां दिशि उत्कृष्टतः सप्त सप्त प्रयान्ति, सप्तानामभावे पञ्च पञ्च व्रजन्ति, पश्चानामभावे जघन्येन त्रयस्त्रयः प्रयान्तीति। अत्र च ये आभिग्रहिकास्ते प्रहेतव्याः तेषां त्वभावेअणभिग्गहिए वावा-रणा उ तत्थ उ इमे न वावारे। बालं वुड्डमगी, जोगिं वसहं तहाखमगं // 140 // 'अणभिग्गहिए' त्ति यैरभिगहो न गृहीतस्तान् व्यापारयेद्-गमनाय चोदयेदित्यर्थः। तत्रतुबालं वृद्धम् अगीतार्थं योगिनं वृषभं-वैयावृत्त्यकर तथा क्षपकं-मासक्षपकादिकम्, एतान्न व्यापारयेद्गमनाय। इदानीमेतामेव गाथां भाष्यकृद् व्याख्यानयन्नाहहीलेज व खेलेज व, कज्जाकजं न याणई बालो। सो वाऽणुकंपणिजो, न दिति वा किंचि बालस्स // 65 // बाले प्रेष्यमाणेऽयं दोषः-ह्रियते म्लेच्छादिना क्रीडेत वा बालस्वभावत्वात् कार्याकार्यं च कर्तव्याकर्तव्यं वा न जानाति बालः, स च बालः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थ प्रहितः सन् अनुकम्पया सर्वं लभते, आगत्य धाचार्याय कथयति यदुत सर्व लभ्यते, गतश्च तत्र गच्छो यावन्न किञ्चिल्लभते, चेल्लकस्यैवानुकम्पया स लाभ आसीत्, अथवा-- न ददाति वा किञ्चिद्वालाय परिभवेनातस्तं न व्यापारयेत्। वृद्धोऽपि न प्रेषणीयो, यतस्तत्रैते दोषाःवुड्डोऽणुकंपणिज्जो, चिरेण न य मग्गथंडिले पेहे। अहवावि बालवुड्डा, असमत्था गोयरतिअस्स। 66 / (भा०) वृद्धोऽनुकम्पनीयस्ततश्चासावेव लभते, नान्यः, तथा 'चिरेणे' ति चिरेण-प्रभूतेन कालेन गमनम् आगमनं च करोति, न च मार्ग-पन्थानं प्रत्युपेक्षितुं समर्थः, नापि स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षितुं समर्थः, इदानीं तु द्वयोरपि बालवृद्धयोस्तुल्यदोषोद्भावनार्थसाह-अथवा-बाला वृद्धाश्च असमर्थाः-अशक्ताः गोचरत्रिकस्य-त्रिकालभिक्षाटनस्येत्यर्थः / दारं। अगीतार्थेऽपि प्रेष्यमाणे एते दोषाःपंथं च मासवासं, उवस्सयं एचिरेण कालेणं। एहामो तिन याणइ, चउविहमणुण्ण ठाणं च / 70 / (भा०) पन्थानं-मार्ग न जानाति वक्ष्यमाणं 'मास' ति मासकल्पं न जानाति 'वासं' ति वर्षाकल्पं न जानाति, तथा उपाश्रयं-वसतिं परीक्षितुं न जानाति, तथा शय्यातरेण पृष्टः-कदा आगमिष्यथ ? ततश्च ब्रवीति'एचिरेण एहामो त्ति इयता कालेन-अर्द्धमासादिना एष्याम इत्येवं वदतो यो दोषः अविधिभाषणजनितस्तं न जानाति, यतः कदाचिदन्या दिक् शोभनतरा शुद्धा भवति तत्र गम्यते, अतो नैवं वक्तव्यम्-एतावता कालेनैष्यामः / तथा 'चउव्विहमणुण्ण' ति तत्रोपाश्रये शय्यातरश्चतुविधमनुज्ञाप्यते-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति। तत्रद्रव्यतस्तृणडगलादि अनुज्ञाप्ये, क्षेत्रतः पात्रकप्रक्षालनभूमिरनुज्ञाप्यते, कालतो दिवा रात्रौ वा निस्सरमनुज्ञाप्यते, भावतो ग्लानस्य कस्यचिद्भावप्रणि धानार्थ कायिकासंज्ञादि निरूप्यते, एतां चतुर्विधामनुज्ञामनुज्ञापयितुं न जनाति। 'ठाणं च त्ति वसतिः कीदृशे प्रशस्ते स्थाने भवतीत्येतन्न जानाति। दारं। योगिनमपि न प्रेषयेत्, कस्मात् ? तूरंतो अण पेहे, पंथं पाठडिओ न चिर हिंडे। विगई पडिसेहेइ, तम्हा जोगिं न पेसेजा। 71 / / (भा०) त्वरमाण: सन्न प्रत्युपेक्षतेपन्थानं,तथा पाठार्थी सन्न चिरंभिक्षां हिण्डते, तथा लभ्यमाना विकृतीः-दध्यादिकाः प्रतिषेधयति, तस्माद्योगिनं न प्रेषयेत्। दारं। वृषभोऽपि न प्रेषणीयो यत एते दोषा भवन्तिठवणकुलाणि न साहे, सिट्ठाणि न देंति जा विराहणया। परितावणअणुकंपण, तिण्हऽसमत्थो भवे खमगो।७२॥ (भा०) वृषभो हि प्रेष्यमाणः कदाचिद्रुषा स्थापनाकुलानि 'न साहे' ति न कथयति, अथवा-"सिट्ठाणि न देंति' त्ति कथितान्यपितानि स्थापनाकुलानि न ददति अन्यस्य, तस्यैव तानि परिचितानि, 'जा विराहणय' त्ति ततश्च स्थापनाकुलेषु अलभ्यमानेषु या विराधना ग्लानादीनां सा सर्वा आचार्यस्य दोषेण कृता भवति। दारं। अथ क्षपकोऽपि न प्रेष्यते, यतः परितापना-दुःखासिका आतपादिना भवति क्षपकस्य, 'अणुकंपण' त्ति अनुकम्पया वा लोकः क्षपकस्यैव ददाति नान्यस्य, तथा "तिण्हऽसमत्थो भवे खमओ' त्रयोवारा यद्भिक्षाटनं तस्य-वारत्रयाटनस्यासमर्थःक्षपकः।दार--- यदा तु पुनः प्रेषणार्हा न भवन्तिएए चेव हवेजा, पडिलोमेणं तु पेसए विहिणा। अविही पेसिखंते, ते चेव तहिं तु पडिलोमं / / 141 // एतएवबालादयो भवेयुस्तदा किं कर्तव्यमित्याह-'पडिलोमेणं तुपेसए विहिणा' अनुलोमः-उत्सर्गस्तद्विपरीतः प्रतिलोमः-अपवादस्तं प्रतिलोमम्-अपवादमङ्गीकृत्य एतानेव बालादीन् प्रेषयेत्, कथम् ?विधिना-यतनया-वक्ष्यमाणया। यदा पुनस्त एव बालादयोऽविधिना प्रेष्यन्ते, तदाऽविधिना प्रेष्यमाणेषुत एव दोषाः, क्व ? 'तहिं तु तस्मिन् क्षेत्रे प्रेष्यमाणानां कथयन् ?-'पडिलोमं ति प्रतिलोमं अपवादमङ्गीकृत्य / अथवा--अविधिना प्रेष्यमाणेषु त एव दोषाः, तत्र 'पडिलोमं ति अविधिप्रतिलोमो विधिस्तेन अप्रतिलोमविधिना प्रेषयेत् / ओघ० / (हिण्डकसामाचारी 'सामायारी' शब्दे उक्ता।) इदानीं तेषां गमनविधि प्रतिपादयन्नाह - पंथुचारे उदए, ठाणे मिक्खंतराय वसहीओ। तेणा सावगबाला, पचावाया य जाणविही / / 153 / / 'पंथ' त्ति पन्थानं-मार्ग चतुर्विधया प्रत्युपेक्षणया निरूपयन्तो गच्छन्ति, 'उच्चारे' त्ति उच्चारप्रश्रवणभूमिं निरूपयन्तो व्रजन्ति, 'उदए' त्ति पानकस्थानानि निरूपयन्ति, येन बालादीनां पानीयमानीय दीयते, 'ठाणे' त्ति विश्रामस्थानं गच्छस्य निरूपयन्तो व्रजन्ति, 'भिक्खं ति भिक्षां निरूपयन्ति, येषु प्रदेशेषु लभ्यते येषु वा न लभ्यत इति / 'अंतरा य वसहीउ' त्ति अन्तराले वसतीश्च निरूपयन्तो Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1207 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग गच्छन्ति यत्र गच्छः सुखेन वसितुं याति, स्तेनाश्च यत्र न सन्ति, यत्र व्यालाः तथा स्वापदान सन्ति स्वापदभुजगादयो न सन्ति, 'पञ्चावाय' त्ति एकस्मिन् पथि गच्छतां दिवा प्रत्यप्रायः, अन्यत्र रात्रौ प्रत्यपायः, ततो निरूप्य गन्तव्यम्। 'जाणविहि' त्ति अयं गमनविधिः। कथं पुनस्ते व्रजन्तीत्याहसुत्तत्थं अकरिता, भिक्खं काउं अइंति अवरण्हे। बिइयदिणे सज्झाओ, पोरिसिअद्धाइ संघाडो।। 144 // सूत्रपौरुषीम् अर्थपौरुषीं चाकुर्वन्तो व्रजन्ति तावद्यावदभिमतं क्षेत्र प्राप्ता भवन्ति, पुनश्च ते किं कुर्वन्तीत्यत आह-'भिक्खं काउं अइंति अवरण्हे' भिक्षां कृत्वा तदासन्नग्रामे तदहिर्वा भक्षयित्वा पुनश्यापहाले प्रविशन्ति, ततो वसतिमन्वेषयन्ति, लब्धाया च वसतौ कालं गृहीत्वा द्वितीयदिवसे किञ्चिन्न्यूनपौरुषीमात्रं कालं स्वाध्यायं कुर्वन्ति। पुनश्च 'पोरिसिअद्धाइ संघाडो' 'पोरुसिअद्धाए' पौरुषीकाले सङ्घाटकंकृत्वा भिक्षार्थ प्रविशन्ति, अथवा-स्वाध्यायं कियन्तमपि कालं कृत्वा पोरुसिअद्धाए' अर्द्धपौरुष्यामित्यर्थः, सङ्घाटकं कृत्वा प्रविशन्तीति! इदानीं ते सङ्घाटकेन प्रविष्टास्तत् क्षेत्रं त्रिधा विभजयन्ति, एतदेवाहखेत्तं तिहा करेत्ता, दोसीणे नीणिअम्मिण वयंति। अण्णो लद्धो बहुओ, थोवंदे मा य रूसेजा / / 155 // क्षेत्रं त्रिधा कृत्वा-त्रिभिर्भागैर्विभज्य एको विभागः प्रत्युषस्येव हिण्ड्यते, अपरो मध्याह्ने हिण्ड्यते, अपरोऽपराह्न, एवं ते भिक्षामटन्ति। 'दोसीणे नीणियम्मिउवदंति' 'दोसीणे' पर्युषिते आहारे निस्सारितेसति वदन्ति'अण्णो लट्टे बहुओ' अन्य आहारो लब्धः प्रचुरः, ततश्च 'थोव दे' त्ति स्तोकं ददस्वस्वल्पं प्रयच्छ, ‘मा य रूसेज' त्ति मा वा रोषं ग्रहीष्यस्यनादरजनितम्, एतच्चासौ परीक्षार्थं करोति, किमयं लोको दानशीलो? न वेति। अहव ण दोसीणं चिअ, जायामो देहि दहि घयंखीरं। खीरे घयगुलपेज्जा, थोवं थोवं च सव्वत्थ / / 153 // अथवा-एतदसौ साधुर्ब्रवीति-नवयं 'दोसीणं चिअ याचयामः, किन्तु दधि याचयामः, तथा क्षीरं याचयामः, तथा क्षीरेलब्धेसति गुडघृतं पेयां / ददस्व / सर्वत्र सर्वेषु कुलेषु स्तोकं स्तोकं गृह्णन्ति ते साधयः, एवं तावत्प्रत्युषसि भिक्षाटनं कुर्वन्ति। अधुना मध्याह्नाटनविधिरुच्यतेमज्झण्हि पउरमिक्खं, परिताविअपिञ्जजूसपयकठि। ओभट्ठमणोभटुं, लन्भइ जं जत्थ पाउग्गं / / 147 // मध्याह्ने प्रचुरा भिक्षा लभ्यते 'परिताविय' त्ति परितलितं सुकुमारि.. कादि, तथा पेया लभ्यते, जूषः पाटलादेः, (पटोलादेः)तथा पयः-- कथितम् 'ओहट्ठभणोभट्ठ लब्मति' प्रार्थितमप्रार्थितं वा लभ्यते 'जं जत्थ' यद्-वस्तुयत्र क्षेत्रे प्रायोग्यम्-इष्ट तदित्थंभूतं क्षेत्र प्रधानमिति। इदानीमपराहे भिक्षावेलां प्रतिपादयन्नाह चरिमे परितावियपे-ज जूस आएस अतरणट्ठाए। एकेकगसंजुत्तं, भत्तटुं एक्कमेक्कस्स / / 148 // चरिमे-चरमपौरुष्यामटन्ति, तत्र च परितलितानि पेया यूषश्च यदि लभ्यते ततः 'आएस' त्ति प्राघूर्णकः 'अतरण' त्ति ग्लानस्तदेषामर्थाय भवति, ततश्च तत्प्रधानम् / एवं तेऽटित्वा भत्तटुं' ति उदरपूरणमेकस्यानयन्ति, कथम् ?-'एक्कक्कगसंजुत्तं' एकः साधुरेकेन संयुक्तो यस्मिन्नानयने तदेकैकसंयुक्तमानयन्ति, 'एक्कमेक्कस्स' ति परस्परस्य आनयन्ति, एतदुक्तं भवति द्वौ साधू अटतः एक आस्ते प्रत्युषसि पुनर्द्वितीयवेलायां तयोर्द्वयोर्मध्यादेक आस्ते अपरः प्रयाति प्रथमव्यवस्थितं गृहीत्वा, तृतीयवेलायां च यो द्वितीयवेलायां रक्षपालः स्थितः स प्रथमस्थितरक्षपालेन सह व्रजति, इतरस्तु येन वारद्वयमटितं स तिष्ठति / एवमेव एषां त्रयाणामेकैकस्य सङ्घाटककल्पनया पर्यटनं 'द्वयोर्योजनीयम्। एवम्ओसह मेसजाणि अ, कालं च कुले यदाणमाईणि। सग्गामे पेहिता, पेहंति ततो परग्गामे || 146 / / एवम् औषधं-हरीतक्यादि, भेषजं-पेयादि, एतच्च प्रार्थनाद्वारेण प्रत्युपेक्षते, 'कालं च त्तिकालं प्रत्युपेक्षते, 'कुले यदाणमाईणि' कुलानि च दानश्राद्धकादीनि, "दाणे अहिगमसद्धे' एवमादि, एतानि कुलानि प्रत्युक्षेपते। एतानि चस्वग्रामे पेहेत्ता प्रत्युपेक्ष्य ततः परनामे प्रत्युपेक्षत। चोयगवयणं दीहं, पणीयगहणे य नणु भवे दोसा। जुज्जइ तं गुरुपाहुण-गिलाणगट्ठान दप्पहा / / 150 // चोदकवचनं, किमित्यत आह-दीहं दीर्घ भिक्षाटनं कुर्वन्ति ते 'पणीयगहणे ति स्नेहवद्र्व्यग्रहणे च ननु भवन्ति दोषाः / आचार्यस्त्वाह'जुञ्जति तं' युज्यते तत्सर्वं दीर्घ भिक्षाटनं यत् प्रणीतग्रहणं च, यतः 'गुरुपाहुणगिलाणगट्ठा' गुरुप्राघूर्णकग्लानार्थमसौ प्रत्युपेक्षते नदार्थ, न चात्मार्थ प्रणीतादेहणमिति। जइ पुण खद्धपणीए, अकारणे एकसिं पि गिण्हेजा। तहि दोसा तेण उ, अकारणे खद्धनिद्धाइं।। 151 / / यदि पुनः खद्धं-प्रचुर प्रणीतं-स्निग्धम्, एतानि अकारणे स कृदपि गृह्णीयात् 'तहिअंदोसा' ततस्तस्मिन् ग्रहणे दोष भवेयुः। किं कारणम् ? यतः 'तेण उ' तेन-साधुना 'अकारणे खद्धनिद्धाइं अकारणे-कारणमन्तरेणैव 'खद्धाई' भक्षितानि स्निग्धनि-स्नेहवन्ति द्रव्याणि, अथवाअकारणे 'खद्धनिद्धाई' प्रचुरस्निग्धानि तेनासेवितानीति। एवं-रुहए थंडिल वसही, य देउलिअसुण्णगेहमाईणि। पाओगमणुण्णावण, वियालणे तस्स परिकहणा।। 152 // एवम्-उक्तेन प्रकारेण 'रुचिए' ति 'रुचिते' अभीष्टे क्षेत्रे सति 'थंडिल' ति ततः स्थण्डिलानि प्रत्युपेक्षन्ते, येषु मृतः परिष्ठाप्यते महास्थण्डिलं 'वसहि ति वसतिं निरूपयन्ति / १-एवमित्यधिकमपि पुस्तकानुरोधात् टीकाकृता व्याख्यातत्त्वाच मूले एव गृहीतम्। - Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1208 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग किं प्रशस्ते प्रदेशे आहोश्विदंप्रशस्ते-सिंगखोडादियुक्ते इति, पत्तनमध्ये शालादि, तदभावे 'देउलिआ' देवकुलं शून्यं प्रत्युपेक्ष्यते 'सुन्नगेहमादीणि' शून्यगृहादीनि आदिशब्देन-सभा गृह्यते, तां च वसतिं लब्ध्वा | किं कर्तव्यम् ?-'पाउग्गमणुण्णवणा' प्रायोग्यानां तृणडगलकादीनां शय्यातरोऽनुज्ञापनां कार्यते-यथा उत्संकलय एतानि वस्तूनि। अथासौ प्रायोग्यानि न जानाति 'वियालणे ति विचारयति, प्रायोग्यं किमभिधीयते ? इति, एवंविधे विचारे तस्य शय्यातरस्य कथ्यते 'परिकहणा' यथाऽस्माकं तृणक्षारडगलादि उत्सकलयेत्। एतां नियुक्तिगाथा भाष्यकरो व्याख्यानयति, तत्ररुचित क्षेत्रेस्थण्डिलं परीक्ष्यते, तब बहुवक्तव्यत्वादुपरिष्टावक्ष्यति, वसतिस्तु कीदृशे स्थाने कर्त्तव्या कीदृशे च न कर्त्तव्येति व्याख्यानयन्नाहसिंगक्खोडे कलहो, ठाणं पुण नेव होइ चलणेसुं। अहिठाणि मोठरोगो, पुच्छम्मि अ फेडणं जाण 76 (भा०) मुहमूलम्मि अचारी, सिरे य कउहे य पूयसकारो। खंधे पट्ठी भरो, पोट्टम्मिय धायओ वसहो।। 77 // (भा०) तत्र वामपार्वोपविष्टपूर्वाभिमुखवृषभरूपं क्षेत्रं बुद्ध्या कल्पयित्वा तत इदमुच्यते-श्रृङ्गखोडे-श्रृङ्गप्रदेशे यदि वसतिं करोति ततः कलहो भवतीति क्रियां वक्ष्यति, स्थानम्-अवस्थिति स्ति चरणेषुपादप्रदेशेषु, अधिष्ठाने-अपानप्रदेशे वसतौ क्रियमाणायामुदररोगो भवतीति क्रिया सर्वत्र योजनीया। 'पुच्छे पुच्छप्रदेशे फेडणं' अपनयनं भवति वसत्याः। मुखमूले चारी भवति, शिरसि-श्रृङ्गयोर्मध्ये ककुदें च पूजासत्कारो भवति, स्कन्धे पृष्ठे च भारो भवति, साधुभिरागच्छद्भिराकुलो भवति, उदरप्रदेशे तु नित्यं तृप्त एव भवति क्षेत्रवृषभः। वसतिर्व्याख्यात, तद्व्याख्यानाच देवकुलशून्यगृहाद्यपि व्याख्यातमेव द्रष्टव्यम् / इयं च वृषभपरिकल्पना यावन्मात्रं वसतिनाऽऽक्रान्तं तस्मिन् नोपरिष्टात्, उपरिष्टात्तु तदनुसारेण कर्तव्या वसतिः। अधुना ‘पाउग्गअणुण्णवणे' त्यमुमेवावयवं व्याख्यानयन्नाह, तत्र प्रायोग्यानामनुज्ञापना कर्तव्या-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतःदव्वे तणडगलाई, अच्छणभाणाइधोवणा खेत्ते / काले उच्चाराई, भावेण गिलाणकूरुवमा // 78 // (भा०) द्रव्यतः-द्रव्यमङ्गीकृत्य तृणानां संस्तारकार्थं डगलानां च अधिष्ठानप्रोञ्छनार्थ लेष्ठूनामनुज्ञापना--क्रियते 'अच्छणं ति आस्या यत्राऽऽस्यते यथासुखेन स्वाध्यायपूर्वकं 'भाणादिधोवणा' भाजनादिधावनंक्षालनं पात्रकादेर्यत्र क्रियते सा क्षेत्रानुज्ञा / कालविषयाऽनुज्ञा दिवा रात्री वा उचारादिव्युत्सर्जनम्। भावविषयाऽनुज्ञापना ग्लानादेः साम्यकरणार्थनिवातप्रदेशाद्यनुज्ञापना क्रियते / इदानीं 'वियालणे तस्स परिकहण' त्ति अमुमवयवं-व्याख्यानयन्नाह-'कूरुवमा' यदा शय्यातर एवं ब्रूतेइयति प्रदेशे मयाऽवस्थानमनुज्ञातं भवतां नोपरिष्टात, तदा तस्य परिकथना क्रियते कूरदृष्टान्तेन / यो हि भोजनं कस्यचिद्ददाति स नियमेनैव भोजनोदकासेचनाद्यपि ददात्यनुक्तमपि सामर्थ्याक्षिप्तम्, एवं वसतिं प्रयच्छता उचारप्रश्रवणभूम्यादि सामाक्षिप्तं सर्वमेव दत्तं भवति / अथवा-इदमसौ शय्यातरो विचारयति-कियन्तं कालमत्र स्थास्यन्ति भवन्तः? अस्मिन् विचारे "तस्सपरिकहणा"जाव गुरूण य तुज्झ य, केवइया तत्थ सागरेणुवमा। केवइकालेणेहिह ?,सागार ठवंति अण्णे वि॥ 153 / / यावद् गुरूणां 'ते'-तव च प्रतिभाति तावदवस्थानं करिष्यामः, अथैवमसौ विचारयति-'वियालणा' यदुत 'कंवइआ' कियन्त इहावस्थास्यन्ते? 'तस्स परिकहणा' क्रियतेसागरेणोपमा, यथा हि सागरः वचित्काले प्रचुरसलिलो भवति क्वचित्पुनर्मर्यादावस्थ एव भवति, एवं गच्छोऽपि कदाचिद्रहुप्रव्रजितो भवति कदाचित्स्वल्पप्रव्रजित इति / अथासौ पुनरपि 'विआल' ति विचारयति यथा 'केवइ कालेणेहिह' त्ति कियता कालनागमिष्यथ? एवमुक्ताः सन्तः साधवः तत्र 'सागारठर्विति' सविकल्पं कुर्वन्तीत्यर्थः / कथं कुर्वन्ति ?-'अन्ने वि' अन्येऽपि साधवः क्षेत्रप्रत्युपेक्षणार्थं गता एव, ततश्च तदालोचनेनागमिष्याम इति। पुष्वद्दिढे इच्छइ, अहव भणिज्जा हवंतु एवइया। तत्थन कप्पइ वासो, असई खेत्ताणऽणुनाओ // 15 // यदा त्वसौ पूर्वद्दष्टानेवेच्छतियैः प्राग्मासकल्पः कृतःस्वभावेनेालुः स दृष्टप्रत्ययानिच्छति, नान्यान्, तत्र न कल्पते वासः। अथवा-भणेदसौ एतावन्त एवात्र तिष्ठन्तु, तत्र'नकल्पते वासः नयुज्यतेऽवस्थानं, यतः साधवः कदाचित्स्तोकाः कदाचिद्रहवो भवन्ति। अथान्यानि क्षेत्राणि न सन्ति तदा असति-क्षेत्राणामन्येषामभावे 'अणनाउ' त्ति तस्यामेव वसतावनुज्ञातो वासः। शेषक्षेत्राभावे सति तत्र च नियतपरिमितायां वसतौ यदि प्राधूर्णका आगच्छन्ति ततः को विधिरित्यत आहसकारो सम्माणो, भिक्खग्गहणं च होइ पाहुणए। जइजाणउ वसइतहिं, साहम्मिअवच्छलाऽऽणाई॥ 15 // सत्कारः-दन्दनाभ्युत्थानादिकः सन्मानः-पादप्रक्षालनादिकः भिक्षाग्रहणं-भिक्षानयनं च एतत्प्राघूर्णके आगते सति क्रियते / पुनश्च तस्य प्राघूर्णकस्य वसतिस्वरूपं कथ्यते यथा-परिमितैरेवैषा लब्धा, नान्यस्यावकाशः, ततश्च त्वयाऽन्यत्र वसितव्यम्। 'यदि जाणउ वसई तहिं ति एवमसावुक्तोज्ञोऽपि सन्-यदिजानन्नपि तत्र वसति ततः को दोषोऽत आह-'साहम्मिअवच्छलाऽऽणाई' साधर्मिकवात्सल्यं न कृतं भवति, यतोऽसौ शय्यातरो रुष्टस्तानपि निर्धाटयति, आज्ञाभङ्गश्च कृतः-आज्ञालोपश्चैवं कृतो भवति सूत्रस्य, आदिशब्दात्तद्रव्यान्यद्रव्यव्यवच्छेदः। इदानी ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षका आचार्यसमीपमागच्छन्तः किं कुर्वन्तीत्यत आहजइ तिनि सव्वगमणं, एसुन एसु त्ति दोसु वि अ दोसा। अण्णपहेणऽसुणंता, निययावासोऽहमा गुरुणो / 156 // यदि ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षकास्त्रय एव ततः सर्व एव गमनं कुर्व Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1206 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग न्ति अथ सप्त पञ्च वा ततः सङ्घाटकमेकं मुक्त्वा व्रजन्ति, 'एसुन एसुत्ति शय्यातरेण पृष्टाः सन्तस्तेनैव वदन्तिएष्यामोनवा एष्याम इति, यत एवं भणने दोषः, किं कारणं ? यदैवं भणन्ति यदुत आगमिष्यामः, ततश्च शोभनतरे क्षेत्रे लब्धे सति नागच्छन्ति ततश्चानृतदोषः, अथ भणन्तिनागमिष्यामः ततश्च कदाचिदन्यत्क्षेत्रं न परिद्धषध्यति ततञ्च पुनस्तत्रागच्छतां दोषोऽनृतजनितः। अण्णपहेणं' ति ते हि क्षेत्रप्रत्यु-पेक्षका गुरुसमीपमागच्छन्तोऽन्येन मार्गेणागच्छन्ति, कदाचित्स शोभनतरो भवेत्, 'अगुणंत' त्ति सूत्रपौरुषीमकुर्वन्तः प्रयान्ति, मा भून्नित्यवासो गुरोरिति, किं कारणं? यतस्तेषां विश्रब्धमागच्छतां मासकल्पाऽधिको भवति, ततश्च नित्यवासो गुरोरिति। गंतूण गुरुसमीवं, आलोएत्ता कहेंति खेत्तगुणा। नय सेसकहण मा हो-ज्ज संखडं रत्ति साहति / / 157 / / गत्या गुरुसमीपम् आलोचयित्वा ईर्यापथिकातिचारं कथयन्त्याचार्याय क्षेत्रगुणान्। 'नयसेसकहणं तिनच शेषसाधुभ्यः क्षेत्रगुणान् कथयन्ति। किं कारणं!-माहोज्ज संखड ' मा भवेत् स्वक्षेत्रपक्षपातजनिता राटिरिति, तस्मात् 'रत्ति साहेति' त्ति रात्रौ, मिलितानां सर्वेषां साधूनां क्षेत्रगुणान् कथयन्ति। तेच गत्वा एतत्कथयन्तिपढमाएँ नत्थि पढमा, तत्थ उधयखीरकूरदहिलंभो। विइयाए विइ तइया-ऍ दोवि तेसिं च धुवलंभो / / 158 // ओहासिअधुवलंभो, पाउग्गाणं चउत्थिए नियमा। इहरावि जहिच्छाए, तिकालजोगं च सव्वेसिं / / 156|| प्रथमायां-पूर्वस्यं दिशि नास्ति प्रथमा-नास्ति सूत्रपौरुषीत्यर्थः किन्तु तत्र घृतक्षीरकूरदधिलाभोऽस्ति, अन्ये त्वन्यस्यां दिशि कथयन्ति, द्वितीयायां दिशि नास्ति द्वितीयानास्त्यर्धपौरुषी, यतस्तत्र द्वितीयायां पौरुष्यामेव भोजनं, घृतादिवस्तु लभ्यत एव, 'ततिआए दो वि' त्ति तृतीयायां दिशि द्वे अपि सूत्रार्थपौरुष्यो विद्येते 'तेसिं च धुवलंभो' त्ति तेषां घृतादीनां निश्चितं लाभः / 'अभासिअधुवलंभो' त्ति प्रार्थितस्य ध्रुवो लाभः, केषां ?-प्रायोग्यानां घृतादीनाम् 'चउत्थीए चतुर्थ्यां दिशि नियमात्-अवश्यम् 'इहरावित्ति' अप्रार्थितेऽपि यदृच्छया त्रिकालयोग्य प्रातमध्याह्नसायाल्लेषु त्रिकालमपि 'सव्वेसिं' ति सर्वेषां बालादीनां योग्य प्राप्यत इति। एवं तैः सर्वैः क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैराख्याते सत्या चार्यः किं करोतीत्याहमयगहणं आयरिओ, कत्थ वयामो त्ति ?तत्थ ओयरिआ। . खुभिआ भणंति पढम,तं चिअ अणुओगतत्तिल्ला।। 160 // * मतग्रहणम् अभिप्रायग्रहणम् आचार्यः शिष्याणां करोति यदुत भो आयुष्मन्तः ! तत्क्क व्रजामः?–कया दिशा गच्छामः ? तत्रैवमामन्त्रिते शिष्यगणे आचार्येण 'तत्र औदरिका' उदरभरणैकचित्ताः क्षुभिता:आकुला भणन्ति यदुत 'पद्मं तिप्रथमांदिशं व्रजामः यत्र प्रथमपौरुष्यां भुज्यते, 'तं चिय' त्ति तामेव दिशम्, 'अणुओगतत्तिल्ला' व्याख्याना र्थिन इच्छन्ति, यतस्ते सूत्रग्रहणनिरपेक्षाः केवलमर्थग्रहणार्थिनः, तेषां चार्थग्रहणप्रपञ्चो द्वितीयायां पौरुष्यां भवतीत्यतस्तामेवेछन्तीति। बिइयं सुत्तग्गाही, उभयग्गाही अतइययं खेत्तं / आयरिओ अ चउत्थं, सो उपमाणं हवइ तत्थ / / 161 // द्वितीयांच दिशंसूत्रग्राहिण इच्छन्ति, यतः प्रथमपौरुष्यामेव स्वाध्यायो भवति, स च तेषामस्ति, उभयग्राहिणश्च सूत्रार्थग्राहिणस्तृतीय क्षेत्रमिच्छन्ति, आचार्यस्तु चतुर्थ क्षेत्रमिच्छति यतस्तत्र चतुर्थ्यामपि पौरुष्यां प्राघूर्णकादेः प्रायोग्यं लभ्यत इति, स एव प्रमाणम्' आचार्य एव सर्वेषां प्रमाणं भवति 'तत्थे' ति तत्र शिष्यगणमध्ये। किं पुनः कारणम् आचार्याश्चतुर्थमेव क्षेत्रमिच्छन्ति ? अत आहमोहब्भवो उबलिए, दुम्बलदेहो न साहए जोए। तो मज्झबला साहू, दुस्सेणेत्थ दिलुतो / / 162 / / प्रथमद्वितीययोः क्षेत्रयोः प्रचुरभक्तपानकेभ्यः सकाशादलवान् भवति, बलिनश्च मोहोद्भवो भवति-कामोद्भवो भवतीत्यर्थः / आह-एवं तर्हि यत्र भिक्षा न लभ्यते तत्र प्रयान्तु, उच्यते-दुर्बलदेहः कृशशरीरोनसाधयतिनाराधयति योगान्-व्यापारान् यतस्ततो मध्यमबलाः साधव इष्यन्ते। दुष्टाश्वेन चात्र दृष्टान्तः, दुष्टाश्वोगर्दभउच्यते, सयथा प्रचुरभक्षणाद्दर्पितः सन् कुम्भकारारोपितभाण्डकानि भनक्ति दर्पोत्सेकादुत्प्लुत्य, पुनस्तेनैव कुम्भकारेण निरुद्धाहारः सन्नतिदुर्बलत्वात्प्रस्खलितःसन् भनक्ति, स एव च गर्दभो मध्यमाहाराक्रियया सम्यग् भाण्डानि वहति, एवं साधवोऽपि संयमक्रियां मध्यमबला वहन्ति। पणपण्णगस्स हाणी, आरेणं जेण तेण वा धरइ। जइ तरुणा नीरोगा, वचंति चउत्थगं ताहे // 163 // अथ तस्मिन् गच्छे पञ्चपञ्चाशद्वर्षदेशीयाः त्रिंशद्वर्षा वा चत्वारिंशद्वर्षा वा भवन्ति,ततो गम्यते चतुर्थ क्षेत्रं, यतस्ते येन केनचिद् ध्रियतेयापयन्ति तथा यदि च तरुणा नीरोगाः-शक्ता भवन्ति ततश्चतुर्थमेव क्षेत्रं व्रजन्ति / अह पुण जुण्णा थेरा, रोगविमुक्काय साहुणो तरुणा। ते अणुकूलं खेत्तं, पेसंति न यावि खग्गूडे / / 164 // अथ पूनर्जूर्णाः (जीर्णाः) स्थविरा भवन्ति, रोगेण च-ज्वरादिना मुक्तमात्रास्तरुणाः, नाद्यापि येषां साम्यं भवति शरीरस्य, ततस्ताननुकूलं क्षेत्रं प्रेषयन्त्याचार्याः / 'न यावि खग्गूडे' त्ति 'खगूडा' अलसा निर्द्धर्मप्रायास्तान्न प्रेषयन्ति। कियता पुनः कालेन वृद्धादय आप्याय्यन्ते ?,उच्चते पञ्चमात्रैर्दिवसैः, यत उक्तं वैद्यकेएगपणअद्धमासं, सही सुणमणुयगोणहत्थीणं। राइंदिएण उ बलं, पणगं तो एक दो तिनि / / 165 / / एके न रात्रिन्दिवेन शुनो बलं भवति, पशभिर्दिनै मुनुजस्य बलं भवति, अर्द्धमासे न बलीवर्दस्य, षष्टि भिर्दिनै हस्तिनो बलं भवति / एवमेतद्यथासंख्यं योजनीयम् / 'पणगं तो एक Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1210 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग दो तिण्णि' एवमसौ तस्मिन् क्षेत्रे पञ्चकमेकं धार्यते, अथ तथाऽपि बलं न गृह्णाति द्वौ पञ्चको धार्यते, त्रीन् वा पञ्चकान् धार्यते, पुनरानीयत इति। एवं ते आलोचितशिष्यगणा आचार्याः शय्यातरमापृच्छय क्षेत्रान्तरं संक्रामन्ति। अथन पृच्छन्ति ततो दोष उपजायते। एतदेवाहसागरिअपुच्छगमणं, बाहि(ही)रा मिच्छ, छय कयनासी। / गिहिसाहू अभिधारण, तेणगसंकाइजं चऽणं / / 166 // सागरिकं-शय्यातरम् अनापृच्छ्य यदि गमनं क्रियते ततो 'बाहिर त्ति बाह्या लोकधर्मस्यैते भिक्षवः इत्येवं वक्ति शय्यातरः,येच धर्म लोकधर्म नजानन्ति दृष्ट, ते कथमदृष्टं जानन्ति ? इत्यतः "मिच्छ' त्ति मिथ्यात्वं प्रति पद्यते, 'छेद' ति अपच्छेदो वसतिदानस्य, पुनस्तेऽन्ये वा वसतिन लभन्ते, 'कयणासि' त्ति अकृतज्ञा ह्येते प्रव्रजिता इत्येवं मन्यते; 'गिहिसाधू अभिधारण ति गृही कश्चिछावकस्तमाचार्यमभिधार्यसंचिन्त्यायातः प्रव्रज्यार्थं , तेनाप्यागत्य शय्यातरः पृष्टः-काऽऽचार्यः? सोऽपि रुष्टः सन्नाह-यः कथयित्वा व्रजति सज्ञायते, तंतुको जानाति ? तमाकर्ण्य स श्रावकः कदाचिद्दर्शनमप्युज्झति, लोकज्ञानामप्येषां नास्ति कुतः परलोकज्ञानमिति? कदाचित्साधुः कश्चित्तमाचार्यम् अभिधार्यमनसि कृत्वा उपसंपदादानार्थमायाति, सोऽपि शय्यातरं पृच्छति, शय्यातरोऽप्याह-नजाने क्वगत इति, ततः ससाधुः अनाचारवानाचार्य इति विचिन्त्यान्यत्र गतः, सोऽपि निर्जराया आचार्योऽनाभागी जात इति / तेणग' त्ति कदाचित्तद्गृहं केनचित्तस्मिन्नेव दिवसे मुष्टं भवेत्तत एवंविधा बुद्धिर्भवेत्--यदुतस्तेनास्ते इत्येवं शङ्कां करोति, आदिशब्दाघोषित् केनचित्सह गता, ततो गृहात् तेऽप्यनाख्याय गताः ततश्च शङ्कोपजायते, 'जंचऽपणं तियच्चान्यत् शङ्कादिजातंपत्तनगतंतत्सर्वमुपजायत इति गच्छद्भिश्च शय्यातर आपृच्छनीयः। सच विधिना, यतोऽविधिना पृच्छत एते दोषाःअविहीपुच्छा उग्गा-हिएण सिज्जातरी उरोएज्जा। सागरियस्स संका, कलहे य सएजिआ खिंसे / / 167 // अविधिपृच्छा इयं वर्तते, यदुत-'उग्गाहितेन' उत्क्षिप्तेन उपकरणेन पृच्छति, तत्र 'सेजातरी उ रोएज्जा' तेनाकस्मिकेन गमनेन शय्यातों रोदनं कुर्युः, ततश्च सागारिकस्य-शय्यातरस्य शङ्कोपजायते, कलहे च सति 'साइजिआए' सह सखिक्रियया 'खिंस' त्ति यथा न शोभना त्वं येन त्वया तत्र काले भिक्षोर्गच्छतो रुदितम्। किं च ते स पिता भवति? येन रोदिषीति। अथानागतमेव कथयन्ति-अमुकदिवसे गमिष्यामः, तत्राप्येते दोषाः-- हरिअच्छेपण छप्पइ-य घचणं किचणं च पोत्ताणं / छण्णेयरं च पगयं, इच्छमणिच्छे य दोसा उ॥१६॥ तद्धि शय्यातरकुटुम्ब साधवोयास्यन्तीति विमुक्तशेषव्यापारं सत्गृह एव तिष्ठति, कृष्यादिप्रतिजागरणं न करोति, ततश्च क्षणिकं सत्स्वगृह- | जातहरितच्छेदं करोति। तथा निर्व्यापारत्वादेव चता रण्डाः षट्पदीनां परस्परनिरूपणेनोपमर्द कुर्वन्ति / 'किच्चणं च पोत्ताणं' ति तत्र दिवसे क्षणिका विमुक्तकृषिलवनव्यापारा वस्त्राणि शोधयन्ति। 'छण्णेयरं च पगय' प्राकृतं-भोजनं छन्नं कुर्वन्ति, अप्रगटमित्यर्थः, 'इयरं व' त्ति प्रकटमेव भोजनं संयतार्थ कुर्वन्ति; तत्र चेच्छतामनिच्छतां च दोषा भवन्ति कथं ? यदि तद्भोतनं गृह्णन्ति, ततस्तदकल्पनीयम्, अथ न गृह्णन्तिततो रोषभावं कदाचित्प्रतिपद्यन्ते। एतेदोषा अनागतकथने ततश्च कः / पृच्छाविधिरित्याहजइआ चेव उखेत्तं, गया उपडिलेहगा तओ पाए। सागारियस्स भावं, तणुएंति गुरू इमेहिं तु // 166 // यदैव क्षेत्रं गताः प्रत्युपेक्षकाः 'ततो पाए त्ति ततः प्रभृति सागरिकस्यशय्यातरस्य भावं-स्नेहप्रतिबन्ध तनूकुर्वन्ति, के ? गुरवः एभिः वक्ष्यमाणैर्गाथद्वयोपन्यस्तैर्वचनैरितिउच्छू बोलिंति वइं. तुंबीओ जायपुत्तभंडाय। वसमा जायत्थामा, गामा पव्वायचिक्खल्ला।। 170 // अप्पोदगा यमग्गा, वसुहा वि अपक्कमट्टिआ जाया। अण्णकंता पंथा, साहूणं विहरि कालो // 171 / / एतद्गाथाद्वयं शृण्वतः शय्यातरस्य पठन्ति। ततः सोऽपि श्रुत्वा भणतिकिं यूयं गमनोत्सुकाः? आचार्योऽप्याहसमणाणं सउणाणं, भमरकुलाणं च गोउलाणं च / अनियाओ वसहीओ, सारझ्याणं च मेहाणं // 172 / / सुगमा ततश्चैतां गाथां पठित्वा इदमाचरन्तिआवस्सगकयनियमा, कल्लं गच्छाम तो उ आयरिआ। सपरिजणं सागारिअ,बाहिरि दिति अणुसिहिं / / 173 // आवश्यककृतनियमाः कृतप्रतिक्रमणा इत्यर्थः, विकालवेलायां कृतावश्यका इदं भणन्ति-यदुत कल्लंगच्छामः / पुनश्चतत आचार्याः सपरिजनं सागारिकम् शय्यातरं आहूय अनुशास्तिं ददति-धर्मकथां कुर्वन्तीत्यर्थः। पध्वज सावओवा, दंसणमहो जहण्णयं वसहिं। जोगम्मि वट्टमाणे, अमुगं वेलं गमिस्सामो // 174 // सोऽपिसागारिको धर्मकथा श्रुत्वा एवंविधो भवति-प्रव्रज्यां प्रतिपद्यते, श्रावको वा भवति, दर्शनधरो वा भवति, भद्रको वा भवति, सर्वथा जघन्यतो वसतिमात्रमवश्यं ददाति।पुनश्च धर्मकथां कृत्वाऽऽचार्या एवं ब्रुवते यदुत 'योगे वर्तमाने' योऽसौ योगो गमनाय मां प्रेरयति तस्मिन् वर्तमाने-भवति सति अमुकवेलायां गमिष्याम इति। इदानीं ते विकालवेलायां कथयित्वा प्रत्युषसि व्रजन्ति, किं कृत्वेत्यत आहतदुभयसुत्तं पडिले-हणा य उग्गयमणुग्गये वावि। Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1211- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग पडिछाहिगरण तेणे, नढे खग्गूड संगारो॥ 175 / / तदुभयं-सूत्रपौरुषीमर्थपौरुषी च कृत्वा व्रजन्ति, 'सुत्तं' ति सूत्रपौरुषीं वा कृत्वा व्रजन्ति, अथ दूरतरं क्षेत्रं भवति तत: पादोनप्रहर एव पात्रप्रतिलेखनामकृत्वा व्रजन्ति, 'उगाय' त्ति उद्गतमात्र एव वा सूर्ये गच्छन्ति, 'अणुग्गय' त्ति अनद्गते वा सूर्ये रात्रावेव गच्छन्ति, 'पडिच्छं' तिते साधवस्तस्माद्विनिर्गता: परस्परं प्रतीक्षन्ते, 'अधिकरणं' त्ति अथ ते साधवो न प्रतीक्षन्ते ततो साधमजामाना: परस्परत: पूत्कुर्वन्ति, तेन च पूत्कृतेन लोको विवुध्यते, ततश्चाकरण भवति, 'तेण' त्ति स्तेनका था विबुद्धाः सन्तो मोषणार्थं पश्चाद् व्रजन्ति, 'नट्ठ' ति कदाचित्काश्चिनश्यति,ततश्च प्रदोष एव सङ्गारः क्रियते, अमुकत्र विश्रमणं करिष्याम: अमुकत्र भिक्षाममुकत्र वसतिमिति। ततश्च रात्रौगच्छद्भिः संडेत: क्रियते। 'खगूडे' त्ति कश्चित् खगूडप्रायो भवति, सइदं ब्रूते-यदुतसाधूनां रात्री न युज्यते एवं गन्तु पुन:, स आस्ते, ततश्च , 'संगारो' त्ति संकेतं खग्गूडाय प्रयच्छन्ति, यदुतत्वयाऽमुकत्र देशे आगन्तव्यमिति। इदानीमस्या एव गाथाया भाष्यकृत् कांश्चिदवयवान् व्याख्यानयति, तत्र प्रथमावयवं व्याख्यानयन्नाहपडिलेहंतधिबें-टियाउ काऊण पोरिसि करिति। चरिमा उग्गाहेउं, सोचा मज्झणिह वचंति // 79 // ते हि साधवः प्रभातमात्र एव प्रतिलेखयित्वा उपधिकां पुनश्च वेण्टलिका कुर्वन्ति-संवर्तयन्तीत्यर्थः / ततश्चानिक्षिप्तोषध्य एव पोरिसि करेंति' सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति, 'चरिमा उग्गाहेउ' त्ति चरिमवेलायां पादोनपौराष्या पात्रकाणि उद्गृह्य-संयन्त्रयित्वा पुनश्चानिक्षिप्तैरेव पात्रकै: 'सोय' त्ति श्रुत्वा अर्थपौरुषीं कृत्वेत्यर्थः, ततो मध्याहे व्रजन्तीति। ते च शोभन एवाहि व्रजन्तीति। अतएवाह-(भा०) तिहिकरणम्मि पसत्थे, नक्खत्ते अहिवइस्स अणकूले।। घेत्तूण निति वसभा, अक्खे सउणे परिक्खंता॥५०॥ 'तिथौ प्रशस्तायां, करणे' च बवादिके प्रशस्ते नक्षत्रे वा अधिपते:आचार्यस्य अनुकूले सति गृहीत्वा अक्षान् प्राग् वृषभा निर्गच्छन्ति। किंकुर्वाणा अत आह- 'सउणे परिक्खंता' शकुनान्-प्रशस्तान्परीक्षमाणा: सन्तो वृषभा निर्गच्छन्तीति पश्चादाचार्याः / किं पुन: कारणं पश्चादाचार्या निर्गच्छति ? तत्र कारणमाह-(भा०) वासस्सय आगमणे, अवसउणे पठिआ निवत्तंति। ओभावणा पयवणे, आयरिआमग्गओ तम्हा // 1 // वर्षणं वर्षस्तस्यागमनं कदाचिद्भवति, अपशकुने वा दृष्टे प्रस्थिता अपि निवर्तन्ते वृषभाः। यदि पुनराचार्या एव प्राग् निर्गच्छन्ति ततोऽपशकुनदर्शन वृष्टौ च निवर्तमानस्य सत: किं भवति? अत आह- 'ओहवणा पवयणे' प्रवचने हीलना भवति, यदुत-यदति ज्योतिषिकाणां विज्ञानं तदप्येतेषां नास्तीति, 'आयरिया मग्गओ' त्ति अत आचार्या मार्गत:पृष्ठतो निर्गच्छन्तीति। गच्छद्भिश्च शकुना अशकुना वा निरूपणीयाः, तत्रापशकुन प्रतिपादयन्नाह-(भा०) मइलकुचेले अब्भ-गिएलए साण खुजवडभे य / एए उ अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ निंताणं // 12 // नारी पीवरगन्मा,वडकुमारी य कट्ठभारो अ। कासायवत्थ कुचं-घराय कजं न साहेति / / 3 / / मलिनः शरीरकर्पटै: कुचेलो-जीर्णकपट:, 'अब्भंगिएल्लिय' त्ति स्नेहाभ्यक्त शरीर: श्वा यदि वामपादक्षिणपार्श्व प्रयाति कुब्जो-वक्र: वडभो-वामन:, एतेऽप्रशस्ता:-पीवरगर्भा-आसन्नप्रसवकाला। शेवं सुगमम्। चकयरम्मि (चक्रधरे भ्रमणं क्षुधा मरणं च पाण्डुराने तब कित्र रुधिरपातं वोटिके शिते ध्रवं मरणम्) भमाडो, भुक्खामारो य पंडुरंगम्मि। तबनि रुहिरपडणं, बोडियमसिए धुवं मरणं / / जंबू चासमऊरे, भारद्दाएतहेव नउले अ। दंसणमेव पसत्थं, पयाहिणे सव्वसंपत्ती॥५४॥ (भा०) सुगमा। नंदी तूरं पुण्ण-स्स दंसणं संखपडहसदो य। भिंगारछत्तचामर, धयप्पडागा पसत्थाई॥५५॥ (भा०) सुगमम्। नवरं-पूर्णकलशदर्शनं, ध्वज एव पताका ध्वजपताका। समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दहिं। मीणं घंटे पडागं च, सिद्धमत्थं विआगरे॥८६॥ (भा०) श्रमण:-लिगमात्रधारी संयतः सम्यक् संयमानुष्ठाने यत:-यत्नपर: दान्तः इन्द्रियनोदन्द्रियैः सुमनस:-पुष्पाणि, शेषं सुगमम्। गच्छंश्वासौसेजातरेऽणुभासइ, आयरियो सेसगा चिलिमिलीए। अंतो गिणहन्तुवर्हि, सारविअपडिस्सया पुटिव // 187 / / व्रजनसमये शय्यातराननुभाषते-व्रजाम इत्येवमादिआचार्य: / 'सेसगा चिलिमिलिए अंतो' शेषा: साधव: विलिमिलिण्या:-जवनिकाया: अन्त:अभ्यन्तरे, किम् ? उपधिं गृह्णन्ति-संयन्त्रयन्तीत्यर्थः / 'सारविअपडिस्सया पुटिव' ति किंविशिष्टाः सन्तस्ते साधव उपधिं गृह्णन्ति? समार्जित:-उपलिप्त: प्रतिश्रयो यैस्ते संमार्जित प्रतिश्रया: 'पुटिव व'प्रागेव, प्रथममेवेत्यर्थः। इदानीं क: कियदुपकरणे गलातीत्याहबालाई उवगरणं, जावइयं तरति तत्तिअंगिण्हं। जहण्णे जहाजायं, सेसं तरुणा विरिंचिंति // 55 // बालादयः, आदिशब्दाद्-वृद्धा गह्यन्ते, ते झुपकरणं याव Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1212- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग न्मानंतरन्ति-शक्नुवन्तितावन्मात्रं गृह्णन्ति तैश्च बालादिभिः,जघन्येन- / खुड्डलिआ' इत्येवमादि 'छ8 ठाणट्टिओ होति' षष्ठेद्वारे स्थानस्थितो जघन्यत: 'जहाजायं' रजोहरणं चोलपट्टकश्च, एतदशक्नुवद्भिरपि ग्राह्य भवति। द्वारगाथेयम्। शेषम् उपकरणं तरुणा: अभिग्रहिका: विरिश्चन्ति-विभजन्ति बालादि इदानीं नियुक्तिकृतोपन्यस्तंस गारद्वयं सत्कम्। भाष्यकृद्व्याख्यानयन्नाहयदा तु पुनराभिग्रहिका नसन्ति तदा-- आओसे संगारो, अमुई वेलाएँ निग्गए ठाणं। आयरिओवहि बाला-इयाण गिण्हंति संघयणजुत्ता। अमुगत्थ वसहिमिक्खं, बीओ खग्गूडसंगारो // 11 // दो सुत्ति उण्णिसंथा-रए य गहणेकपासेणं // 6 // (भा०) 'आओसे ' त्ति प्रदोषे 'संगारो' त्ति संडे केत: आचार्येण कर्त्तव्य:, आचार्योपधिं 'बालाइयाण' ति बालादीनां च संबन्धिनमुपधिंगृह्णन्ति, कथम् ? 'अमुई वेलाए' त्ति अमुकया वेलया यास्यामः, पुनश्च 'निग्गए के ? 'लंघयणजुत्ता' येऽन्ये शेषा अनाभिग्रहिका: संहननोपेतास्ते ठाणं अमुगत्थ' निर्गतानां सताम् अमुकत्र स्थानविश्रामसंस्थानं गृह्णन्ति, कथं पुनर्गृह्णन्ति ते उपाधिं ? 'दो सुत्तिउ' ति द्वौ सौत्रिकी करिष्यामः, 'वसहि' ति अमुकत्र वसतिर्भविष्यतिवासको भविष्यकल्पौ एक और्णिक: कल्प: संस्तारकश्चशब्दादुत्तरपट्टकश्च, एषां ग्रहणम् जीत्यर्थः, 'भिक्ख' त्ति अमुकत्र ग्रामे भिक्षाटनं कर्तव्यम्, एकस्तावदयं 'एक्कपासेणं' त्ति ग्रहणम् एकस्मिन् पार्श्वे-एकत्र स्कन्धे ग्रहणं करोति 'सङ्गार:' संड्.केतः। 'बितिओ खग्गूडसंगारो' त्ति द्वितीय: संकेत: द्वितीये तुपार्श्वे स्कन्धे पात्रकाणि गृह्णन्ति, आत्मीयांतूपछि विण्टलिका खग्गूडस्य दीयते। कृत्वा यत्र स्कन्धे उपधिः कृतस्तयैव दिशा कक्षायां करोति। सचैवमाहइदानीम् 'अधिकरणतेणे' त्ति अमुमवयवं रतन चेव कप्पइ, नीयदुवारे विराहण दुविहा। व्याख्यानयन्नाह पण्वण बहुतरगुणे, अणिच्छ बीउव्व उवहीवा ||2 // (भा०) आउज्जोवण वणिए, अगणि कुडुवी कुगम्म कम्मरिए। 'रत्तिं न चेव कप्पति' त्ति रात्रौ साधूनां गमनं न कल्पते, द्विविधतेणे मालागारे, उन्भामग पंथिए जंते॥१०॥ (भा०) विराधनासंभावात्, यत उक्तं-दिवाऽपि तावत् - 'नीयदुवारे विराहणा ते हि यदि सशब्दं व्रजन्ति ततश्च लोको विबुध्यते, विबुद्धश्च सन् दुविह' ति दिवाऽपि तावदयं दोष: "नीयदुवारं तमसं, कोट्टगंपरिवज्जए" 'आउज्जोवण' त्ति अप्काययन्त्राणि योज्यन्तेवहनाय सञ्जीक्रियन्ते। इति वचनात्, नीचद्वारे द्विविधा विराधना सलमस्कत्वाद् आस्तां अथवा- 'आउ' ति अप्कायाय योषितो विवुद्धा व्रजन्ति 'जोवणं' त्ति तावद्रात्रौ, एष चधर्मश्रद्धयान निर्गच्छति। 'पणवण बहुतरगुण' त्ति पुनश्च धान्यप्रकर: तदर्थ लोको याति, प्रकरो-मर्दनं धान्यस्य, लाटविषये तस्य प्रज्ञापना-प्ररूपणा क्रियते, तत्र रात्रिगमने बहवो गुणा दृश्यन्ते, 'जोवणं धण्णपइरणं भण्णइ', 'वणिय' त्ति वणिजो-बाल का बालवृद्धादय: सुखेन गच्छन्तिरात्रौ, न तृषा बाध्यन्त इति। 'अणिच्छ' विभातमिति कृत्वा व्रजन्ति / 'अगणि' ति लोहकारशालादिषु अनि: त्ति अथ तथाऽपि नेच्छतिगमनम् 'बितिओव' त्ति द्वितीयस्तस्य दीयतेप्रज्वाल्यते 'कुडुंबि' त्ति कुटुम्बिन: स्वकर्मणि लगन्ति 'कुगम्म' त्ति तदर्थे मुच्यत इति / 'उवहीव' त्ति उपधिस्तस्य दीयते जीर्णा, तदीयश्च कुत्सितं कर्म येषां ते कुकर्माण: मात्सिकादयः कुत्सिता मारा: कुमारा:- शोभनो गृह्यत इति, मा भूत्तत्पार्चे स्थितमुपधिं स्तेनका आच्छेत्स्यन्ति। सौकरिका:, एषां बोधो भवति रात्रौ पूत्कारयता, 'तेणे' त्ति स्तेनकानां इदानीमसावेकाकी यदिस्वपिति तत्रो दोष: प्रमादजनितस्ततश्चोपधिच, 'मालाकार ' त्ति मालिका विबुध्यन्ते 'उडभामग' ति पारदारिका रुपहन्यते, उपहतश्चाकल्प्यो भवति। विबुध्यन्ते 'पंथिए' त्ति पथिका विबुध्यन्ते 'जंते' त्ति यान्त्रिका: विबुद्धा एतदेवाहसन्तो यन्त्राणि वाहयन्ति चाक्रिकादयः। सुवणे वीसुवघातो, पडिबज्झंतो अजो उन मिलेज्जा! तत्र यदुक्तं प्राक् 'नटे खग्गूडसिंगारो' तत्रेदमक्ते नियुक्ति कृता जमाणअप्पडिबज्झण,जइविचिरेणंनउवहम्मे // 13 // (भा०) सझगारकरणमात्रम्, इह पुनः स एव नियुक्तिकारः ससझगार: कया स्वापे 'वीसुं' एकाकिनो निद्रावशे सति, को दोष:? 'उवघाउ' त्ति यतनया कर्त्तव्यः? कूस्यां च वेलायां कर्त्तव्य: ? इत्येदाह तस्यैकाकिन: सुप्तस्य उपधिरुपहन्यते, सह्योकाकी स्वपन, प्रमादवान् संगार बीय वसही, तइए सण्णी चउत्थ साहम्मी। भवति रुयाद्यभियोगसंभवात्, ततश्च निद्रावशं प्राप्तस्य उपधिरुपहन्यते, पंचमगम्मि अवसही, छ8 ठाणहिओ होति॥ 176 // अतोऽकल्पनीयो भवति परिष्ठापनीयश्चासौ / गच्छे तु स्वपतोऽपि 'संगार' त्ति सङ्केतोऽभिधीयते तद्विधिर्वक्तत्य: 'बितिय वसहि' त्ति नोपहन्यते, किं कारणम् ? यतस्तत्र केचित्सूत्रपौरुषीं कुर्वन्ति, अन्ये द्वितीये द्वारे वसति: कर्तव्य, पूर्वप्रत्युपेक्षित्ता तस्या व्याघाते वा द्वितीयप्रहरेऽर्थानुचिन्तनं कुर्वन्ति, तृतीये तु प्रहरे आचार्य उत्तिष्ठति वसतेग्रहणविधिवक्तव्य:, 'ततिए सण्णि' त्ति तृतीयेद्वारे संज्ञी श्रावको ध्यानाद्यर्थ, चतुर्थे तु प्रहरे सर्व एव भिक्षव उत्तिष्ठन्ति, ततश्च रात्रे कोऽपि वक्तव्य:, 'चउत्थ साहम्मि' त्ति चतुर्थे द्वारे साधर्मिका वक्तव्याः, प्रहर: शून्यः, ततो नोपहन्यते उपधिः / एकाकिनस्तु जागरण नास्त्यत 'पंचमगम्मि अ वसहि' त्ति पश्चमे द्वारे वसतिर्वक्रव्या-'विच्क्षिज्जा | उपघात:, 'पडिबझंतेवजो उन मिलेज्ज' त्ति प्रतिबध्यमानो बा व्रजा Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1213- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग दिष्टु क्षीरयाचनेच्छया प्रतिबध्यमानो यो न मिलेत् तस्याप्युपहन्यते उपधिः / किं कारणम् ? एकाकिन: पर्यटनं नोक्तम / एकाकी च पर्यटन प्रमादभाग् भवति अतो व्रजादिप्रतिबन्धेऽप्युपधिरुपहन्यते। यस्तु पुनर्जागर्ति तस्मिन् दिवसेऽभुक्तो न व्रजादिषु प्रतिबध्यते स एवंविधस्तस्मिन् दिवसे मिलन्नपि नोपधिमुपहन्ति। 'जइवि चिरेणं' ति किं बहुना ? जाग्रन्निशि गोकुलादिषु वाऽप्रतिबध्यमानो यद्यपि चिरेण मिलति बहुभिर्दिवसैस्तथाऽप्युपधिस्तस्य नोपहन्यते, अप्रमादपरत्वात्तस्येति। इदानीं गच्छस्य गमनविधिं प्रतिपादयन्नाहपुरओ मज्झे तह म-ग्गओ य ठायंति खित्तपडिलेहा। दाइंतुचाराई, भावासणणाइरक्खट्ठा / / 177 // क्षेत्रप्रत्युपेक्षका एषु विभागेषु भवन्ति-केचन पुरत:-अग्रतो गच्छस्य, केचन मध्ये गच्छस्य, ते हि मार्गानभिज्ञा: / मार्गतश्च -पृष्ठतक्ष तिष्ठन्ति क्षेत्रप्रत्युपेक्षका: / किमर्थं पुरत एव तिष्ठन्ति ? 'दाइंतुश्चाराई' उचारप्रश्रवणस्थानानिदर्शयन्ति गच्छस्य, 'भावासण्णादिरक्ख?' ति भावासण्णो-अणहियासओ, तद्रक्षणार्थम्। एतद्रक्तं भवति-उचारादिना बाध्यमानस्य ते मार्गज्ञा: स्थण्डिलानि दर्शयन्ति। डहरे भिक्खग्गामे, अंतरगामम्मि ठावए तरुणे। उवगरणगहण असहू, व ठावए जाणगं चेगं // 178 / / 'डहरे भिक्खग्गामे ' ति यत्र ग्रामे वासकोऽभिप्रेत: भिक्षा च | अटितुमभिप्रेता तस्मिन् ‘डहरे 'क्षुल्लके ग्रामे सति किं कर्तव्यमत आह'अंतरगामम्भि' अमान्तराल एव यो ग्रामस्तस्मिन् भिक्षार्थ तरुणान् स्थापयेत्, 'उवगरणगहणं' ति तदीयमुपकरणमन्ये भिक्षवो ग्रह्णन्ति, 'असहू व ठावए ' त्ति अथतेतत्स्थापितेतरभिक्षुसत्कमुपकरणं अहीतुन शक्नुवन्ति ततोऽसहिष्णव एव तत्रान्तरग्रामे भिक्षार्थ स्थाप्यन्ते 'जाणगं चेग' तिझंचैकमार्गज्ञं चैकं तेषां मध्ये स्थापयेत् येन सुखेनैवागच्छन्ति। दुरुट्टिअ खुड्डलए,चव भड अगणीय पंत पडिणीए। संघाडेगो धुवक-म्मिओ व सुण्णे नवरि रिखा 11 176 // अथवा-असौ वासकभिक्षार्थमभिप्रेतो ग्रामो दूरे स्थित: स्याद्, उत्थितो वा-उद्घसित: क्षुल्लको वा प्राक् संपूर्णो दृष्टः इदानीमर्द्धमुद्रसितमत: क्षुल्लकः, नव:-प्राग् यस्मिन् स्थाने दृष्टस्तत: स्थानादन्यत्र प्रदेशे जात: “भड ' त्ति भटाक्रान्तो जात: 'अगणि ' त्ति अग्निनां वा इदानीं दग्ध: प्रान्त:- प्राक् शोभनो दृष्ट इदानीं प्रान्तीभूतो विरूपो जात: 'पडिणीए' त्ति प्रत्यनीकाक्रान्त इदानीं जात: प्राक् प्रतिलेखनाकाले प्रत्यनीकस्तत्र नासीत् इदानी तु आयात:, पूर्वप्रतिलेखिते ग्रामे एवंविधे जाते सति दूरोत्थितादिदोषाभिभूते सति किं कर्तव्यम् ? 'संघाड' त्ति तत्र सङ्घाटक; स्थाप्यते, पाश्चात्यप्रव्रजितमीलनार्थम् एगोवि त्ति सङ्घाट- | काभावे एक: स्थाप्यते साधु: 'धुवकम्मिओ' त्ति ध्रुवकर्मिकोलोहकारा- | दिस्तस्य कथ्यते-यथा वयमन्यत्र ग्रामेयास्यामः, त्वया पाश्चात्यसाधुभ्यः कथनीयं- यथाऽनेन मार्गेणागन्तव्यमिति, एवं तावत् वसति ग्रामे 'एस विही' / 'सुण्णे नवरि रिक्ख' त्ति यदा त्वसौ शून्यो ग्रामस्तदा किं कर्तव्यम् ? 'नवरि रिक्ख' त्ति वर्मनि-अनभिप्रेते तिरश्चीनं रेखाद्वयं पाल्यते, येन तु वर्त्मना गतास्तत्र दीर्घा रेखां कुर्वन्ति।यदातुपुनरेभिरुक्तदोषैर्युक्तौन भवति सग्रामस्तदा तत्रैव या वसतिस्तस्यां प्रविशन्ति। ततश्च येते भिक्षार्थमन्तरालग्रामे स्थिता आसन्तेषां मध्ये यदि वसतिमार्गज्ञो भवति ततस्तस्यामेव वसतौ आगच्छन्ति, न कश्चित्प्रति पालयति। एतदेवाहजाणंतठिएँ ता एउ, वसहीए नत्थि कोइ पडियरइ। अण्णाए जाणते-सुवावि संघाड धुवकम्मी।।१८०॥ 'जाणंतठिए' मार्गाभिज्ञे स्थिते तस्यां वसतावागच्छन्ति 'नत्थि कोइ पडियरइ' ति न कश्चित् तान् प्रतिपालयति बहि:-स्थित:, 'अण्णाए' त्ति यदा तस्या: पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतेव्याघात: संजात: किन्त्वन्या, तस्यामन्यस्यां वसतौ जातायां 'अजाणतेसु वावि' अथवा-ये ते भिक्षानिमित्तं स्थिता: पश्चादागमिष्यन्ति तेषु अजानत्सु 'संघाडधुवकम्मि' त्ति वसतिपरिज्ञानार्थ सङ्घाटको बहिः स्थाप्यते, धुवकर्मिकोलोहकारस्तस्य कथ्यते, यदुत-साधव आगमिष्यन्ति तेषामियं वसतिदर्शनीया कथनीया वेति। इदानीं ये ते भिक्षार्थं पश्चाद्ग्रामे स्थापितास्तै: किं कर्त्तव्यमत आहजइ अन्भासे गमणं, दूरे गंतुं दुगाउयं पेसे। ते वि असंथरमाणा, इंती अहवा विसज्जंति / / 161 // यदि अभ्यासे-आसन्ने गच्छस्ततस्ते 'गमणं' त्ति गच्छसमीपमेव गच्छन्ति, 'दूरे' त्ति अथ दूरे गच्छस्ततो गन्तुं द्विगव्यूत-गत्वा क्रोशद्वयं, किम् ? 'पेसे' ति एकं श्रमणं गच्छसमीपे प्रेषयन्ति? 'तेवि असंथरमाणा इति' तेऽपि गच्छगता: साधव: असंस्तरमाणा:-अतृप्ताः सन्त: किं कुर्वन्ति ? 'एंति' आगच्छन्ति, क?- यत्र ते साधवो भिक्षया गृहीतया तिष्ठन्ति, अथ चतृप्तास्ततस्तंसाधुं विसर्जयन्ति यदुत-पर्याप्तमस्माकं, यूयं भक्षयित्वाऽनगच्छत। 'संगारे' त्ति दारं, व्याख्यातं, तत्प्रसङ्गाकायातं च व्याख्यातम्। इदानीं वसतिद्वारमुच्यते, तत्प्रतिपादनायेदमाहपठमवियाए गमणं, गहणं पडिलेहणा पवेसो उ। काले संघाडेगो, वसंथरंताण तह चेव / / 152 // 'पढम' त्ति तस्यां च वसतौ गमनं-प्राप्ति: कदाचित्प्रथमपौरुष्यां भवति, कदाचिच्च ‘बितियाए' त्ति द्वितीयपौरुष्यां गमनं: प्राप्तिरित्यर्थः। 'गहणं' ति दंडउंछयणदोरयचिलिमिलीणं कृत्वा ग्रहणं वृषभाः प्रविशन्ति। पुनश्च 'पडिलेहणा' तावसतिप्रमार्जयन्ति पसो' तिततोगच्छ:प्रविशति काले' त्तिकदाचिदिक्षाकाल एव प्राप्तास्ततश्चंको विधि:? अत आह-सनाटकएको वसति प्रमार्जयति अन्ये मिक्षार्थ व्रजन्ति। 'एगोव' ति यदा सङ्घाटको न पर्याप्यते तदा एको गीतार्थो वसति प्रत्युपेक्षणार्थ प्रेष्यते, यदा तु पुनरेको Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1214 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग ऽपिन पर्याप्यते तदा किम् ? असंथरंताणं अणुघट्टताणं अतृष्यन्त: सर्व एवाटन्ति, या तु वसति: पूर्वलब्धा तां कथमन्विषन्ति ? 'तह चेव' त्ति यथा भिक्षामन्विषन्ति एवं वसतिमपि सर्वे पूर्वप्रप्युपेक्षितामन्विषन्ति, अन्विष्य च तत्रैव प्रविशन्ति। यदा तु पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतेयाघातो जातस्तदाऽपि तह चेव' त्ति यथा हि भिक्षा मार्गयन्ति तथा वसतिमपि, लब्धायांच तत्रैव परस्परंहिण्डन्त:कथयन्ति। वसहीएनिअट्टिअव् 'ति। इदानी "पढमबिइयाए"त्ति इदं द्वारं भाष्यकृत् व्याख्यानयन्नाह- / पढमबितियाए गमणं, बाहिं ठाणं च चिलिमिणी दोरे। घित्तूण इंति बसहा, बसहिं पडिलेहिउंपुट्विं // 3 // * प्रथमपौरुष्यां गमनं-प्राप्तिर्भवति तत्र क्षेत्रे, कदाचिद् द्वितीयायां प्राप्तिस्तत: को विधिरित्यत आह- 'बाहिं ठाणंच' बहिरेव तावदवस्थानं कुर्वन्ति, स्थिताश्चोत्तरकालं ततश्विलिमिणी-जवनिकां दवरिकाश्च गृहीत्वा प्रविशन्ति वसतौ वृषभाः, ग्रहणद्वारं व्याख्यातम् / किं कर्तुं ? - वसतिं प्रत्युपेक्षितुम्, वसति प्रत्युपेक्षणार्थं प्राग् वृषभा गृहीतचिलिमिलिन्युपकरणा आगच्छन्ति पडिलेहण' त्तिद्वारं भणितम्। दारं एवं तावत्पूर्वप्रत्युपक्षितायां वसतौ विधि:, यदा तु पुन: पूर्वप्रत्युपेक्षितायां व्याघातस्तदावाघाए अण्णं म-ग्गिऊण चिलिमिणिपमज्जणा वसहे। तत्ताण मिक्खवेलं,संघाडेगो परिणओ वा / / 103 || पूर्वप्रत्युपेक्षिताया वसतेयाघाते सति अन्यां वसतिं मार्गयित्वा तत: किश्चित् 'चिलिमिणिपमज्जणा वसहे' त्ति ततो वृषभाश्चिलिमिलिन्यादीनि गृहीत्वा प्रमार्जयन्ति। 'पत्ताण भिक्खवेलं' यदा तु नुपर्भिक्षावेलायामेव प्राप्तास्तदा किं कर्तव्यम् ? 'काले' त्ति भणितं, 'संघाडे ' त्ति सङ्घाटको वसतिप्रत्युपेक्षणार्थ प्रेष्यते, 'संघाडेत्ति भणिअं' 'एगोव' ति सङ्घाटकाभावे एको वा प्रेष्यते, किंविशिष्ट: ? परिणत:-गीतार्थ:, 'एगो त्तिभणिअं' यदा तु पुनरेको नास्तितदा किम् ? सवे वा हिडंता, वसहिं मग्गंति जह व समुयाणं। लद्धे संकलिअनिवे-अणं तु तत्थेव उ निय? || 184 // सर्वे वा हिण्डन्त एव वसतिं मार्गयन्ति-अन्विषन्ति, कथं ? 'जह व समुदाणं' यथा समुदान-भिक्षां प्रार्थयन्ति-निरूपयन्ति एवं वसतिमपि अन्विषन्ति, 'तह चेव' ति अवयवो भणित:, 'लद्धे संकलिअनिवेअणं तु' भिक्षामटर्लिन्धायां वसतौ संकलिकया निवेदन-यो यथा यं पश्यति सतथा तं वक्ति-यदुत इह वसतिलब्धा इह निवर्तनीयं, तस्मात्तस्यामेव च वसतौ निवर्तते। तत्र च प्रवेशे को विधि:? एक्को धरेइ भाणं, एक्को दोण्ह वि पवेसए उवहि। सव्वो उवेइ गच्छो, सबालवुड्डाउलो ताहे // 183 / / एको धारयति-संघट्टयति भाजनं पात्रकम् एक:-अन्यस्तस्य द्वितीय: बहिर्व्यवस्थित: गच्छात् सकाशाद् भिक्षामटद्भयां भुक्तामुपधिंद्वयोरपीति आत्मन: संबंन्धिनं तस्य च पात्रकसंघट्टयितु: संबन्धिनीमुपधिं प्रवेशयति, ततउत्तरकालंगच्छ उपैति-प्रविशति सबालवृद्धत्वादाकुल: तदा-तस्मिन् काले। दारं। चोयगपुच्छा दोसा, मंडलिबंधम्मि होइ आगमणं / संजमआयक्तिहण, वियालगहणे य जे दोसा / / 106 / / चोदकस्य पृच्छा चोदकपृच्छा, चोदक एवमाह-यदुत बाह्यतएव भुक्त्वा प्रवेश: क्रियते, किं कारणम् ? उपधिमानयत: क्षुधार्तस्य तृषितस्य च ईर्यापथमशोधयत: संयमविराधना, उपधिभाराक्रान्तस्वः कण्टकादीननिरूपयत आत्माविराधना, ततश्च बहिरेव भुक्त्वा विकाले प्रविशन्तु। आचार्यस्त्वाह-बहिर्भुञ्जतां दोषाः कथं ? मण्डलिबन्धे सति आगमनं भवति सागरिकाणाम्, तत्र च संयमात्मविराधना भवति 'वियालगहणे' त्ति विकालवेलायां च वसतिग्रहणे ये दोषा भवन्ति ते वक्ष्यन्ते। द्वारगाथेयम्। चोदकपृच्छेति व्याख्यानयन्नाह अइभारेण उ इरिअं, न सोहए कंठगाइ आयाए। मुत्तहिअ वोसिरिआ, अइंतु एवं जढा दोसा / / 187 // चोदक एवमाह-यदुतगच्छसमीपादुपधिं प्रवेशयन्तदतिभारेण बुभुक्षया चपीडित: सन्नीर्यापथिकां न शोधयति यतोऽत: संयमविराधना भवति, तथा कण्टकादी निचन पश्यति बुभुक्षितत्वादेव यतोऽत आत्मविराधना भवति, तस्माद् ‘भुत्तट्टिय' त्ति बहिरेव भक्ता: सन्त:, तथा 'वोसिरिय' त्ति उच्चारप्रश्रवणं कृत्वा तत: 'अइंतु' ति प्रविशन्तुक ? वसती, एवं जढा 'दोस' ति एवं क्रियमाणे दोष: आत्मविराधनादयः परित्यक्ता भवन्ति / एवमुक्ते सत्याहाचार्य:आयरिअवयण दोसा, दुविहा नियमा उसंजमायाए। वग्रह न तुज्झ सामी, असंखडं मंडलीए वा।। 188|| आचार्यस्य वचनम्, आचार्यवचनं, किं तदित्याह- 'दोसा' बाह्यतो भुञ्जतां दोषा भवन्ति द्विविधा: नियमाद्-अवश्यतया, 'संजम' त्ति संयमविराधनादोष: 'आयाए' त्ति आत्मविराधनादोषः / तत्र संयमविराधनादोष एवं भवति-तत्रच भोजनस्थाने सागारिका यदि बहवस्तिष्ठन्ति ततस्ते साधयो भिक्षामटित्वाऽऽगता: सन्तो यद्येवं भणन्ति-यदुत 'वच्चह' हे सागारिका गच्छतास्मात्स्थानात्, ततश्चैवमुच्यमाने संयमविराधना भवति। आत्मविराधना चैवं भवति-यदा ते सागारिका उच्यमाना न गच्छन्ति, किन्त्वेवं भणन्ति- 'न तुज्झ सामी' नास्य प्रदेशस्य भवन्त: स्वामिनः, ततश्च असंखडं भवति। 'मंडलीए व ' ति अथ मण्डल्यांजातायां सत्याम्कोऊहल आगमणं, संखोभेण अकंठगमणाई। ते चेद संखडाई, वसहिं वनदेति जे वनं / / 106 / / मण्डलकायांजातायांकौतुकेन सागारिका आगमनं कुर्वन्ति,ततश्च ‘संखोभेणं" त्ति संक्षोभेण तेषां प्रवजितानां अकण्ठगमनादि-कण्ठेन भक्तकवलो नोपक्रामति, 'तेचेव संखडाई' तितएव वा संखडादयो दोषा भवन्ति बसहिं Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1215 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग वण देंति' एवं च सागारिका रुष्टाः सन्तो वसतिं न प्रयच्छन्ति, तत्र ग्रामे 'जं वण्ण' ति ग्रहणाकर्षणादि कुर्वन्ति। इदानीं तस्माद् ग्रामादन्यत्र ग्रामे भोजनं गृहीत्वा गन्तव्यं, तत्र चैते दोषा: - भरेण वेयणाए, न पेहए थाणुअंटआयाए। हरियाइ संजमम्मि अ, परिगलमाणेण छक्काया / / 160 / / उपधिभिक्षाभारेण या वेदना क्षुद्वेदना वा तया न 'पेहइ' तिनपश्यति स्थाणुकण्टकादीन्, ततश्चात्मविराधना भवति 'हरियाई' ति संयमविषया विराधना ईर्यादि, तथा परिगलमानेच पानादौ षट्कायविराधना भवति। तथा चैते चान्यत्र ग्रामे गच्छतांदोषा भवन्तिसावयतेणा दुविहा, विराहणा जाय उवहिणा उ विणा। तणअग्गिहणसेवण, वियालगमणे इमे दोसा / / 161 || श्वापदभयं भवति, तथा 'तेणा दुविहा भवन्ति' - शरीरापहारिणः, उपध्यपहारिणश्च / 'विराहणाजा य उवहिणा उविणा' या च उपधिनासंस्तारकादिना विना विराधना भवति, का चासौ ? 'तणअग्गिगहणसेवणा' यथासंख्यं तृणाना ग्रहणे संयमविराधना, अग्नेश्च सेवने संयमविराधनेति। द्वारम्। एवं तावद्वाह्यतो भुजानानामन्यग्रामेच गच्छता दोषा व्याख्याताः / इदानीं तु यदुक्तमासीचोदेकेन यदुत विकाले प्रवेष्टुं युज्यते तन्निरस्यन्नाह- 'वियालगम (ह) णे इमे दोसा' विकालगमने वसतौ एते-वक्ष्यमाणलक्षणा दोषा भवन्ति / ते चामीपविसणमग्गणठाणे, वेसित्थिदुगुंछिए य बोद्धव्वे / सज्झाए संथारे, उच्चारे चेव पासवणे / / 192 // 'पविसण' त्ति तत्र ग्राम विकाले प्रविशतां ये दोषास्तान् वक्षयाम:, 'मग्गण' त्ति वसतिमार्गणा अन्वेषणे च विकालवेलायां ये दोषास्तान वक्षयामः। 'ठाणे वेसित्थिदुगुंछिए अ' इत्येतद्वक्ष्यतीति विकालवेलायां बोद्धव्यं-ज्ञेयम्। 'सज्झाए' ति स्वाध्यायम् अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ अगृहीते काले कुर्वतो दोषः, अथ न करोति तथाऽपि दोष: हानिलक्षण:। 'संथार' त्ति अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ संस्तारकभुवं गृह्णत: संयमात्मविराधनादोषः। 'उच्चारे' त्ति अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ स्थण्डिलेष्वनिरू पितेषु व्युत्सृजना दोषः, धारणेऽपि दोष: 'पासवणे' ति अप्रत्युपेक्षितेषु स्थण्डिलेषु व्युत्सृजतो दोषः, धारयतोऽपि दोष एव। इयं द्वारगाथा, इदानीं प्रतिपदं व्याख्यायतेसावयतेणा दुविहा, विराहणा जाय उवहिणा उ विणा।। / गुम्मिअगहणाऽऽणणा, गोणाईचमढणाचेव।। 163 / / विकाले प्रविशतां ग्रामे श्वापदभयं भवति। स्तेना द्विप्रकारा:शरीरस्तेना, उपधिस्तेनाश्च / तद्भयं भवति विकाले प्रविशताम् विराधना या च उपधिना विना भवति अनितृणयोहणसेवनादिका, साच विकाले | प्रवेशे दोषः / 'गुम्मिय' त्ति मुल्म-स्थानं तद्रक्षपाला गुल्मिकास्तैर्ग्रहणमाहननं च भवति विकाले प्रविशतामयं दोषः। 'गोणादिवमढणा' बलीवर्दादिपादप्रहारादिश्च, एवमयं विकालप्रवेशेदोषः / 'पविसणे' त्तिगयं। इदानीं 'मग्गणे' ति व्याख्यायतेफिडिए अण्णोण्णारण, तेण य राओ दिया य पंथम्मि। सांणाइ वेसकुत्थिअ, तवोवणं मूसिआ जं च / / 195 // 'फिडिए' त्ति विकालवेलायां वसतिमार्गणे अन्वेषणे 'फिडित:' भ्रष्टो भवेत्, तत्र अन्योऽन्यपरस्परत: 'आरण' संशब्दनं तच्छ्रुत्वा स्तेनका रात्रौ मुषितुमभिलषन्ति, 'दिया य पंथम्मि' त्ति दिवा वा प्रभाते पथि गच्छतस्तान् श्रमणान् मुष्णन्ति 'सागादि' ति रात्री वसतेरन्वेषणे श्वादिर्दशति / 'मम्गणे' त्ति भणि 'वेसत्थिदुगुछिए' ति व्याख्यायतेऽवयवः, तत्राह- 'वेसकुत्थिअ तवोवणं मूसिगा चेव' रात्रौ वसतिलाभेन जानन्ति किमेतत्स्थानं वेश्यापाटकासन्नमनासन्नं वा ? ते चानानानास्तस्यां वसतौ निवसन्ति, तत्र चायं दोष:-वेश्यासमीपे वसतां लोको भणति, अहो तपोवनमिति। कुत्सितछिम्पकादिस्थानासन्ने लोको ब्रवीति-स्वस्थाने मूषिका गताः, एतेऽप्येवंजातीया एव। 'वेसित्थिकुच्छिते' त्ति गतम्। स्वाध्यायद्वारं व्याख्यातमेव द्रष्टव्यम्। इदानीं 'संथार' त्ति व्याख्यायतेअप्पडिलेहिअकंटा-बिलम्मि संथारगम्मि आयाए। छकायसंजमम्मि अ, चिलिणे सेहऽनहाभावो || 195|| अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ कण्टका भवन्ति, बिलं वा। तत्र संस्तारके क्रियमाणे 'आयाए' त्ति आत्मविराधना भवति 'छक्काय' त्ति षट्कायस्यापि अप्रत्युपेक्षितवसतौ स्वपत: 'संजमम्मि' त्ति संयमविषया विराधना भवति। 'चिलिणे' त्ति तथा चिलीनम्-अशुचिकं भवति, तस्मिश्च सेहस्य जुगुप्सया अश्रुतार्थस्यान्यथाभाव:-उन्निष्क्रमणा दिर्भवति। 'संथार' त्तिगयं। इदानीम् ‘उच्चारपासवणे 'त्ति व्याख्यायतेकंटगथाणुगबाला-विलम्मिजइ वोसिरेज आयाए। संजमओ छकाया, गमणे पत्ते अइंते य / / 196 / / अप्रत्युपेक्षितायां वसतौ कण्टकस्थाणुव्यालाविले-समाकुले प्रदेश व्युत्सृजत आत्मविराधना भवति, 'संजमओ' ति संयमतो विराधना षट्कायोपमर्दे सति रात्रौ भवति। 'गमणे' त्ति कायिकाव्युत्सर्तनार्थ गमने दोषा: 'पत्ते' त्ति कायिकाभुवं प्राप्तस्य व्युत्सृजत: 'अयंते य' त्ति पुन: कायिकां व्युत्सृज्य क्सतिं प्रविशतोषट्कायोपमर्दो भवतीति। अथ तु पुनर्निरोधं करोति ततश्चैते दोषा भवन्तिमुत्तनिरोहे चक्खू, वचनिरोहेण जीवियं चयई। उजुनिरोहे कोटुंगेलनं वा भवे तिस वि / / 197 // सुगमा। 'उच्चारपासवणि ' त्ति गयं। जइ पुण वियालपत्ता, पए व पत्ता उवस्सयं न लभे। सुन्नवरदेउले वा, उजाणे वा अपरिभोगे / 198|| यदि पुनर्विकाल एव प्राप्ताः, ततश्च तेषां विकालवेलायां वसतौ प्रविशतां प्रमादकृ तो दोषो न भवति / 'पए व पत्तं' त्ति प्रागेव प्रत्यूषस्येव प्राता:- किन्तु उपाश्रयं न लभन्ते Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग तत:क्व समुद्दिशन्तु ? शून्यगृहे देवकुले या उद्याने वा अपरिभोगे- | लोकपरिभोगरहिते समुद्दिशन्तीति क्रियां वक्ष्यति।। आयरिअचिलिमिणीए, रणे वा निब्भए समुद्दिसणं / सभए पच्छान्नाऽसइ-कमढय कुरुया य संतरिआ॥ 16 // अथ शून्यगृहादौ सागारिकाणामापातो भवति, तत आणते सति चिलिमिणी-यवनिका दीयते, 'रणे व' त्ति अथशून्यगृहादि सागारिकाक्रान्तं ततः अण्ये निर्भये समुद्दिशनं क्रियते, सभयेऽरण्ये प्रच्छन्नस्य वा असति-अभावे ततो वसतिसमीप एव कमढकेषु शुक्लेन लेपेन सबाह्याभ्यन्तरेषु लिप्तेषु भुज्यते 'कुरुआ य' त्ति कुरुकुचा-पादप्रक्षालनादिका क्रियते 'संतरित' त्ति सान्तरा:-सावकाशा वृहदन्तराला उपविशन्ति। इदानी भुक्त्वा बहिः पुनर्विकाले वसतिमन्विषन्ति, साच कोष्ठकादिका भवति। (ओघ०) (लब्धाया वसतेर्विधि: 'संथारग' शब्देऽस्मिनेव भागे गतः।) इदानीं संज्ञिद्वारं व्याख्यायते-दारं। दुविहो य विहरियाविह-रिओ उ भयणाउ विहरिए होइ। संदिट्ठोंजो विहरितो, अविहरिअविही इमो होइ॥ 210 / / एवं तेव्रजन्तः कश्चिद्ग्रमं प्राप्ता:, स च ग्रामो द्विविधः-विहतोऽविहृतश्चः / विहृतः साधुभिर्यः क्षुण्ण:-आसेवित इत्यर्थः, अविहृतो य: साधुभिर्न क्षुण्णो-नासेवित इत्यर्थः / तुशब्दो विशेषणार्थः / किं विशिनष्टि ? योऽसौ विहृत: स संज्ञियुक्त: संज्ञिरहितो वा। 'भयणा उ विहरिए होति' त्ति योऽसौ विहृत: संज्ञियुक्तस्तत्र भजना-विकल्पना, यऽसौ संज्ञी संविग्नभावितस्ततः प्रविशन्ति, अथ तु पार्श्वस्थादिभावितस्ततो न प्रविशन्ति / 'सदिट्ठो जो विहरितो' त्ति संविग्नविहृते संज्ञिगृहे संदिष्टःउक्त: यथाऽऽचार्यप्रायोग्यंत्वया संज्ञिकुलादानयनीयमित्यत: प्रविशन्ति। अथवाऽन्यथा ध्याख्यायते-द्विविध:, कतर: ? संज्ञिद्वारस्य प्रक्रान्तत्वाद् संज्ञिनो वा, कतमेन द्वैविध्यमत आह-विहृतोऽविहतश्च, साधुभिः क्षुण्णोऽक्षुण्णश्च तत्रभजना विहृत श्रावके सति, यद्यसौ संविनविहृतः प्रवेश: क्रियते, अथ पार्श्वस्थादिविहृतस्ततोन प्रवेष्टव्यम्। संदिष्टो विहृतोऽवस संविग्नै: साम्भोगिकैश्च यैर्विहसस्तेतीऽत्राचार्यसंदिष्टः प्रविशति, आत्रार्यप्रायोग्यग्रहणार्थम् 'अविहरिअविही इमोहोति' त्ति अविहृते ग्रामे संज्ञिमि वा अयं विधि:-वक्ष्यभाणलक्षण: सप्तभगाथायाम् 'अविहरिअमसंदिट्ठो चेतिश्च पाहुडिअ' अस्यां गाथायामिति। इदानीं भाष्यकार एनामेव गाथा व्याख्यानयन्नाहअविहरिअ विहरिओवा, जइसको नत्थिनथि उनिओगो। नाए जइओसण्णा, पविसंति तओय पण्णरस ||6|| अविहृतो विहृतौ वा ग्रामः, तत्र विहृते यदि श्राद्धको नास्तिततो नास्ति नियोग:-न नियुज्यते साधु: आचार्यप्रायोग्यानयनार्थम्। 'णाए' त्ति अथ | तुज्ञाते-विज्ञाते एवं यदुतास्ति श्रावकः, तत्रच 'यदि ओसन्ना पविसंति' यद्यवसन्नाः प्रविशन्ति तथाऽपिनास्ति नियोगः, अथतु प्रविशन्ति तओ उपन्नरस' त्ति पञ्चदशोद्गमनदोषा भवन्ति, ते चामी- 'आहाकम्मुद्देसिअ पूईकम्मै य मीसजाए अठवणा पाहुडियाए,पाउयरकीय पामिश्चे // 1 // परियट्टिए अभिहडं, उब्भिन्नेमाजोहडे इ।अच्छेजे अणिसट्टे, अज्झोयरए असोलसमे // 22 // " ननुचामी षोडश उच्यन्ते- "अज्झोयरतोय मीसजाये च दोहिं वि एक्को चेव भेदो।" अथवा-इयमपि गाथा संझिनमेवाङ्गीकृत्य व्याख्यायते-द्विविध: श्रावको-विहृत:, अविहृतो वा। "जइ सड्ढो नत्थिणत्थि उ निओगो तओ विहरितो" यदि श्राद्धो नास्ति ततो नास्ति नियोग: साधो: / ‘णाए' त्ति अथ ज्ञाते सति श्राद्धके यदुतास्ति ततश्च तत्र ज्ञाते सति 'जइ ओसण्णा पविसंति' यद्यवसन्नाः प्रविशन्ति तथाऽपि नास्ति नियोगः / अथैवंविधेऽपि प्रविशन्ति तंतश्च पञ्चदश दोषा उद्मादयो नियमाद्भवन्ति। यद्यपि तत्रावमग्ना नगृह्णन्तिसंविग्गमणुणणाए, अइंति अहवा कुले विरिंचंति। अण्णाउंछं व सह, एमेव य संजईदग्गे // 66 // (भा०) अथ तु ससौ : संवित्रैश्च विहन:-अमनोहर्वसद्भिर्भावित: तत: 'अणुण्णाए अइंति' त्ति तैरेवानुज्ञाते सति श्रावकगृहे प्रविशन्ति। अथवाश्रावककुलानि विरिञ्चन्तिविभजन्ति, एते चान्यसाम्भोगिका: संविग्नाः 'अण्णाउँछं व सहू' अण्णाउंछंजत्थ सावगा नत्थितहिं हिंडंतिवत्थव्या। जइ सहू समत्था इयरे अ पाहुणगा जप्पसरीरा ततो सावगकुलानि हिण्डन्ति। अह वत्थव्या जप्पसरीरगा पाहुणगाय सहू ततो अण्णायउंछ हिंडंति। 'एमेवय संजईवग्गे' एवमेव संयतीवर्गे विधिः, यदुत ताभिरनुज्ञातेषु श्रावककुलेषु प्रवेष्टव्यम् / बहुषु च कुलेषु सत्सुता एवं विरिश्चन्ति "अण्णाउंछंव सहू' इति, अयं च विधिद्रष्टव्यः" / एवं तु अण्णसंभो-इयाण संभोइयाण ते चेव। जणित्ता निब्बंधं, वत्थध्वेणं स उपमाणं / / 67 // (भा०) एवमन्यसाभ्भोगिकानां संभवे उक्ललक्षणो विधिद्रष्टव्यः / 'संभोइयाण ते चेव' त्ति अथ साम्भोगिकास्तत्र ग्रामे भवन्ति तत: 'ते चेव' त्ति त एव वास्तव्याः साधवो भैक्षमानयन्ति। अथ तत्र साम्भोगिक समीपे प्राप्तमात्राणां कश्चिच्छ्रावक आयातः, स च प्राघूर्णकवत्सल एवं वदति यदुत मदीये गृहे भिक्षार्थ साधु: प्रहेतव्यः, तत्रोच्यतेवास्तव्या एव गमिष्यन्ति। अथैवमुक्तेऽपि निब्बन्ध' ति निर्बन्धं करोति-आग्रहं करोत्यसौ श्रावकस्तत: 'वत्थव्वेणं' वास्तव्येन सहैकेन गन्तव्यं, यत: स एव वास्तव्य: प्राघूर्णकानां प्रमाणमल्पाधिकवस्तुग्रहणे। अथासौ साम्भोगिकवसति: संकुला भवति तत:असइ वसहीऍ वीसुं, राइणिए वसहि भोयणागम्म। असहू अपरिणया वा, ताहे वीसुं सहू वियरे॥१८॥ (भा०) असति-अभावे विस्तीर्णाया वसते: 'वींसु' ति पृथग्-अन्यत्र वसतौ अवस्थानं कुर्वन्ति, तत्र च तेषां को भोजननविधिरित्यत आह'राइणिए वसहि भोयणागम्म' त्ति रत्नाधिकस्य वसतौ भोजनमागभ्य कर्तव्यं, सच रत्नाधिक: कदाचिद्वास्तव्यो भवति, कदाचिदागन्तुक इति। अथान्यतरौ रत्नाधिका: 'असहु' त्ति भिक्षावेलां प्रतिपालयितुमशक्त: तथापरिणता वा साधव: सेहप्राया मा भूद् राटिं करिष्यन्ति तत: 'वी Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1217- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग सुं' पृथग वसतिर्भवति। तथा यदि च ते वास्तव्या: साधवः 'सहू' समस्तितो 'वियरे' ति भिक्षामटित्वा प्राघूर्णकेभ्यः प्रयच्छन्ति। तिण्हं एकेण सम, मतहो अप्पणो अवडंतु। पच्छा इयरेण समं, आगमणविरेगु सो चेवः ||6|| (भा०) अथ तत्रत्रय आचार्या भवन्ति, द्वावागन्तुकौ एको वास्तव्य तदा 'एक्केण सम' तिएकेनागन्तुकाचार्यप्रव्रजितेन सह वास्तव्य: पर्यटति। तावद्यावद् 'भत्त' त्ति एकस्य प्राघूर्णकाचार्यस्य भक्तार्थो भवति-उदरपुरणमात्रमित्यर्थः, अत: 'अप्पणो अवढं तु' त्ति आत्माचार्यार्थ वाऽसौयास्तव्य: 'अवडंतु' अर्धध्रुवमानं श्रावककुलेभ्यो गृह्णाति। पच्छा इयरेण समं' ति पश्चादितरेण द्वितीयागन्तुकाचार्यप्रव्रजितेन समं पर्यटति। तत्रापि भक्तार्थो यावद्भवति प्राघूर्णकस्य तावत्पर्यटति, आत्मनश्वार्द्धध्रुवमात्रं गृह्णाति, एवं पूर्ण ध्रुवो भवति वास्तव्याचार्यस्य। 'आगमणं' ति एवं ते पर्यटित्वाऽऽत्मीयायां वसतौ आगमनं कुर्वन्ति। 'विरेगु सो चेव' त्ति स एव 'विरेगो' विभजनं श्रावककुलेषु, योऽसौ भिक्षामटद्भिः कृतः, न तु पुनर्वसतिकायाम् आगतानां भवतीति। 'असति वसहीऍ वीसुं, राइणिए वसहि भोयणगगम्म। असहू अपरिणया वा, ताये वीसुंसह वियरे।।१।' त्ति यो विधिरुक्त:, अयं च द्वितीयाद्याचार्येष्वप्यागतेषु द्रष्टव्य इति / एवं तावद्विहृतक्षेत्रेयत्र साधुषु तिष्ठत्सु यो विधि: स उक्तः // इदानीमविहृते क्षेत्रे साधुरहिते च यो विधिस्तत्प्रतिपादयन्नाहचेइअवंदनिमंतण, गुरूहिँ सदिट्ट जो वऽसंदिहो। निब्बंध जोगगहणं, निवेय नयणं गुरुसगासे ||100 / (भा०) एवं विहरन्त: कचिद्ग्रामादौ प्राप्ताः, तत्र च यदि सन्जी विद्यते ततश्चैत्यवन्दनार्थमाचार्यो व्रजति, ततश्च श्रावको गृहागतमाचार्य निमन्त्रयति, यथा-प्रायोग्यं गृहाणततश्च यो गुरुसंदिष्टः स गृह्णाति। 'जो वऽसंदिहो' त्ति यो त्वा असंदिष्टः-अनुक्त: स या गृह्णाति, श्रावकनिर्बन्धे सति। एतदुक्तं भवति-योऽसावाचार्येण संदिष्टः स यावन्नागच्छत्येव तावत्तेन | श्रावकेणान्य: सङ्घाटको दृष्टः, स च निर्बन्धग्रहणे कृते सति योग्यग्रहणंप्रायोग्योपादानं करोति। ततश्च 'निवेयणं' ति अन्येभ्य: सङ्घाटकेभ्यो निवेदयति, यथा यदुत मया श्रावकगृहे प्रायोग्यं गृहीतं न तत्र भवद्भिः प्रवेष्टव्यम्। ततश्च 'नयणं गुरुसगासे' त्ति तत्प्रायोग्यं गृहीत्वा गुरुसमीपं | नयति तत्क्षणादेव येनासावुपभक्त इति। इदानीं यदुक्तं प्राक् ‘अविहरिअविही इमो होति' त्ति तद्व्याख्यानयन्नाह - अविहरिअमसंदिट्ठो, चेइय पाहुडिअमेत्त गेण्हंति। पाउग्गपउरलंभे, नऽम्हे किं वा न भुजंति? ||101 // (भा०) अविहते ग्रामादौ असंदिष्टा एव सर्वे भिक्षार्थं प्रविष्टाः, तत्रच भिक्षामटन्त: श्रावकगृहे प्रविष्टाः, तत्रच 'चेइए' तिचैत्यानिचवन्दन्ते, तत्र च ‘पाहुडि अमेत्तं गिण्हन्ति' त्ति प्राभृतिकामात्रं यदि तत्र लभ्यते ततो गृह्णन्त्येव। अथाचार्यप्रायोग्यं लभ्यते प्रचुरं वा लभ्यते तत: ‘पाउग्गपउरलंभे सति' इदमुच्यते- 'णऽम्हे' त्ति न वयमाचार्यप्रायोग्यग्रहणे नियुक्ताः , किन्त्वन्ये / एवमुक्ते श्रावकोऽप्याह-'किं वा न भुंजंति' ति किं भवद्भिनीतं न भुञ्जते आचार्य:? एवं निर्बन्धे सति त एव गृह्णन्ति। कियत्पुनर्गृह्णन्तीत्यत आहगच्छस्स परीमाणं, नाउं घेत्तुं तओ निवेयंति। गुरुसंघाडग इयरे, लद्धं नेयं गुरुसमीवं // 102 // (भा०) गच्छस्य परिमाणं ज्ञात्वा गृह्णन्ति, गृहीत्वा च ततो निवेदयन्ति, कस्मै ? अत आह-गुरुसंघाटकाय, यदुताचार्यप्रायोग्यमन्येषां च गुडघृतादि लब्धं प्रधुरम्, 'इयरेवे' त्ति इतरसङ्घाटकेभ्यो वा-शेषसङ्घाटकेभ्यो निवेदयति, 'मा वचह' ति मा व्रजत गृह्णीत गुरुयोग्यं, ततश्च लब्धमात्रमेव तद् गुरुसमीपं नेतव्यम्। तथा चाहएगागिसमुद्दिसगा, भुत्ता उपहेणएण दिलुतो। हिंडणदव्वविणासो, निद्धं महुरं च पुव्वं तु / / 103 / / (भा०) 'एगागिसमुद्दिसगा' ये न मण्डल्युपजीविनः पृथग्भुञ्जते, व्याध्याद्याक्रान्ताश्च; तेषां भुक्तानां सतां पश्चादानीतं नोपयुज्यते, अत्र च 'पहेणएण दिलुतो' “काले दिण्णस्स पहेणयस्स अग्यो न तीरए काउं। तस्सेव अथक्कपणामियस्स गेण्हतया नत्थि ॥१॥"तथाऽऽनयनेऽयमपरो दोष:-येन द्रव्येण घृतादिना गृहीतेन हिण्डतां द्रव्यविनाशो भवति, कथञ्चित्प्रमादात्पात्रकविनाशे सति क्षीरादि च विनश्यत्येव। तथा 'निद्धमहुराइंपुधि' यदुक्तमागमेतच कृतंनभवति। “सणि" ति दारंगये। इदानीं साधर्मिकदारं प्रतिपादयन्नाहम (भु) त्तहिअ आवस्सग, सोहेउं तो अइंति अवरण्हे / अन्मुट्ठाणं दंडा-इयाण गहणेकवयणेणं // 211 / / इदानीं ते साधर्मिकसमीपे प्रविशन्त: 'भ (भु) त्तहिअत्ति भुक्त्वा तथा 'आवस्सग साहेउ' त्ति आवश्यकं च कायिकोचारादि शोधयित्वाकृत्वेत्यर्थः, अतोऽपराह्नसमये आगच्छन्ति,येनवास्तव्यानां भिक्षाटनाद्याकुलत्वं न भवति / वास्तव्या अपि कुर्वन्ति, किमित्यत आह'अब्भुट्ठाणं' त्ति तेषसं प्रविशतामभ्युत्थानादि कुर्वन्ति, 'दंडादियाण गहणं' त्ति दण्डकादीनां ग्रहणं कुर्वन्ति, कथं ? 'एगवयणेणं' त्ति एकेनैव वचनेन उक्ता:, सन्त: पात्रकादीन् समर्पयन्ति, वास्तव्येनोक्ते मुशस्वेति ततश्च मुञ्चन्ति। अथ न मुञ्चत्येकवचने: ततोन गृह्यन्ते, मा भूत प्रमाद इति। खुड्डुलविगिट्टतेणा, उण्हं आवरण्हि तेण उपए वि। पक्खि तं मोत्तूणं, निक्खिवमुक्खित्तमोहेणं // 212 / / यदातुपुनस्तै: साधुभिरभिप्रेतोग्राम: सक्षुल्लकः, नतत्र भिक्षा भवति ततश्च प्रत्युषस्येवागच्छन्ति, "विगिट्ठ' त्ति विक्रष्टमध्वानंयत्र साधर्मिकास्ति-ष्ठन्ति तत: प्रत्यूषस्येवागच्छन्ति 'तेण' ति अथ तत: अपराह्ने आगच्छता स्तेन Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1218 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग भयं भवेत्ततश्च प्रत्यूषस्येवागच्छन्तीति। उष्णं वा अपराह्न आगच्छता भवतियतोऽत: प्रत्यूषस्येवागच्छन्ति। एवं ते प्रत्यूषसितस्माद्ग्रामात्प्रवृत्ता साधुभोजनकाले प्राप्ता: साधर्मिकसमीपं नैषेधिकीं कृत्वा प्रविशन्ति। ततश्च तेषां प्रविशतां वास्तव्यसाधुभिः किं कर्तव्यमित्यत आह- 'पक्खित्तं मोत्तूणं' ति प्रक्षिप्तम्-आस्यगतं मुखे प्रक्षिप्तं केवलं मुक्त्वा 'निक्खिवमुक्खित्त' ति यदुत्क्षिप्तं भाजनगतं तत् निक्षिपन्ति, मुञ्चन्ति नैषेधिकीश्रवणनन्तरमेव, ततस्ते प्राघूर्णका: 'ओघेणं' ति संक्षेपेण आलोचनां प्रयच्छन्ति। ततो भुञ्जते मण्डल्यां, सा चेयम्, अप्पा मूलगुणेसुं. विराहणा अप्प उत्तरगुणेसुं। अप्पा पासत्थाइसु, दाणग्गहसंपओगोहा।।२१३ / / अल्पा मूलगुणेषु एतदुक्तं भवति-मूलगुणविषया न काचिद्विराधना, अल्पा उत्तरगुणविषया विराधना, अल्पा पार्श्वस्थादिषु दानग्रहणसेवाविराधना 'संपओगो' त्ति तैरेव पार्श्वस्थादिभिः संप्रयोगे-संपर्के। एतदुक्त भवति-न पार्श्वस्थादिभिः सह संप्रयोग आसीत् / 'ओघ त्ति गयं' ओघत: सझे.पत आलोचना दीयते, दत्त्वा चालोचनां यदि तु अभुक्तास्ततो भुञ्जते। अथ भुक्तास्ते साधवस्तत इदं भणन्तिमुंजह भुत्ता, अम्हे, जो वा इच्छे अभुत्त सह भोजं / सव्वं च तेसि दाउं, अन्नं गेण्हति वत्थव्वा / / 214 / / भुजीत यूयं भुक्ता वयं 'यो वा इच्छे' त्ति येवा साधवो भोक्तुमिच्छन्ति तत: 'अभुत्त सह भोज्ज' तितेनाभुक्तेन सह भोज्यं कुर्वन्ति / एवं यदि तेषामात्मनश्च पूर्यानीतं भक्तं पर्याप्यते तत: साध्वेव , अथ न पयीप्यते ततः सर्वं तेभ्य:-प्राघूर्णकेभ्यो दत्त्वा भक्तमन्यद् गृह्णन्ति-पर्यटन्ति वास्तव्यभिक्षवः। एवमानीय कति दिनानि भक्तं प्राघूर्णकेभ्यो दीयते इत्यत आहतिण्णि दिणे पाहुन्नं सव्वेसिं असइ बालवुड्डाणं। जे तरुणा सग्गामे, वत्थव्वा बाहि हिडंति // 215 / / त्रीणि दिनानि प्राघूर्णकं सर्वेषामसति बानवृद्धानां कर्त्तव्यं, ततश्च ये प्राघूर्णकास्तरुणास्ते स्वग्राम एव भिक्षामटन्ति, वास्तव्यास्तु बहिग्रामे हिण्डन्ति। अथ ते प्राघूर्णका: केवला हिण्डितुं न जानन्ति तत: किं कर्तव्यमित्यत आहसंघाडगसंजोगो, आगंतुगभद्दएयरे बाहिं। आगंतुगा व बाहिं, वत्थव्वगभद्दए हिंडे / / 216 / / सङ्घाटकसंयोगः क्रियते। एकदुक्तं भवति-एको वास्तव्य एकश्च प्राघूर्णकः, ततश्चैवंसङ्घाटकयोगं कृत्वा भिक्षामटन्ति। 'आगंतुगभद्दएयरे' त्ति अथासौ ग्राम आगन्तुकानामेव भद्रकस्तत: 'इयरे' त्ति वास्तव्या | 'बाहिं ति बहिमि हिण्डन्ति, आगन्तुका वा अहिम हिण्डन्ति वास्तव्यभद्रके सतिग्रामे / उक्तं साधर्मिकद्वारम्। इदानीं वसतिद्वारं प्रतिपादयन्नाहवित्थिण्णाखुडलिआ, पमाणजुत्ताय तिविहँ वसहीओ। पढमबिइयासु ठाणे, तत्थ य दोसा इमे होति / / 217 // विस्तीर्णा क्षुल्लिका प्रमाणयुक्ता वा त्रिविधा वसतिः। 'पढमबितियासु ठाणे' त्ति यदा प्रथमायां वसतौ स्थानं भवति; विस्तीर्णायामित्यर्थः, द्वितीया क्षुल्लिका, तस्यां वसतौ वा यदा भवति तदा, तत्र तयोर्वसत्योः एते-वक्ष्यमाणका दोषा भवन्ति। खरकम्मिअवाणियगा, कप्पडिअसरक्खगा य वंठाय। संमीसाऽऽवासेणं, दोसाय हवंतिणेगविहा / / 218 // तत्र विस्तीर्णायां वसतौ 'खरकम्मिअ' त्ति दण्डपासका रात्रिं भ्रान्त्वा स्वपन्ति, वणिज्यकाश्च वालुञ्जकप्राया आगत्य स्वपन्ति, तथा कार्पटिका: स्वपन्ति, सरजस्काश्चभौता: स्वपन्ति, वण्ठाश्च स्वपन्त्यागत्य "अकयविवाहा भीतिजीविणोयवंठ"त्ति। एभिः सह यदा संमिश्र आवासो भवति तदा तेन संमिश्रावासेन दोषा वक्ष्यमाणका अनेकविधा भवन्ति। तेचाभीआवासगअहिकरणे, तदुभय उचारकाइयनिरोहे। संजयआयविराहण, संका तेणे नपुंसित्थी॥ 216 // आवश्यके-प्रतिक्रमणे क्रियमणे सागारिकाणामग्रतस्त एव उद्धट्टकान् कुर्वन्ति, ततश्च केचिदसहनाराटिंकुर्वन्ति, ततश्चाधिकरणदोष: / तदुभए' त्ति सूत्रपौरुषीकरणे अर्थपौरुषीकरणे च दोष:-उद्धट्टकान् कुर्वन्ति। निरोधश्च उच्चारस्य कायिकायाश्च निरोधे दोषः / अथ करोति तथाऽपि दोषः, संयमात्मविराधनाकृतोऽप्रत्युपेक्षितस्थण्डिले। 'संका तेणे' त्ति स्तनकशड्.कादोषश्च-चौराशड्का, नपुंसककृतदोष: संभवति ततश्च स्त्रीदोषश्च भवतीति द्वारगाथेयम्। इदानीं प्रतिपदं व्याख्यानयन्नाहआवस्सयं करिते, पवंचए झाणजोगवाघाओ। असहण अपरिणया वा, मायणभेओ य छकाया।। 220 // आवश्यकं-प्रतिक्रमणं कुर्वताम् ‘पवंचए' त्ति ते सागारिका उद्धट्टकान् कुर्वन्ति, तथा ध्यानयोगव्याघातश्च भवति-चलनमापद्यते चेतो यतः / दारं / अहिगरणं भण्णइ-'असहणे' त्ति कश्चिद् असहन: कोपनोपयात्ति अपरिणतोवा-सेहपया:, एतेराटिंसागारिकैसह कुर्वन्ति, ततश्चभाजनानिपात्रकाणि तद्भेदो-विनाशो भवति, षट्कायाश्च विराध्यन्ते। दारं। 'तदुभयं' तिव्याख्यायतेसुत्तत्थऽकरण नासो, करणे उबुचगाइ अहिगरणं / पासवणिअरनिरोहे, गेलनं दिहि उड्डाहो // 221 // 'सुत्तत्थकरण' त्ति सूत्रार्थपौरुष्यकरणे नाश: तयोरेव विस्मरणम् / अथ सूत्रार्थपौरुष्यौ क्रियेते ततश्च 'उडुचकादि' उद्घट्टकानि कुर्वन्ति।ततश्चा सहना राटिं कुर्वन्ति, ततोऽधिकरणदोष इति / दारं। “उच्चारकाई Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1216 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग अनिरोहो" त्ति व्याख्यायते- 'पासवणि' त्ति प्रश्रवणस्य कायिकाया: ‘इयर' त्ति पुरीषस्य च निरोहे 'गेलन्नं' ग्लानत्वं भवति। अथ व्युत्सृजन्तिततो 'दिडे उड्डाहो' त्ति सागारिकैदृष्टे सति उड्डाह:-उपघात; प्रवचनस्य भवति। "संजमआयविराहण"त्ति व्याख्यायतेमा दिच्छिहिंति तो अ-प्पडिलिहिए दूरं गंतु वोसिरति। / संजमआयविराहण-गहणं आरक्खितेणेहिं / / 222 // अथ सागारिका मां मा द्राक्षुरिति कृत्वाऽस्थण्डिल एव दूरे गत्वा व्युत्सृजतितत: संयमात्मनोविराधना भवति, ग्रहणं चारक्षिका: कुर्वन्ति। 'तेण' ति स्तेनका वा ग्रहणं कुर्वन्ति / दारं।। “संकातेण" त्ति व्याख्यायतेओणयपमज्जमाणं, दट्ट तेणे त्ति आहणे कोई। सागारिअसंघट्टण, अपुमेत्थी गेण्ह साहइवा॥२२३ // स हि रात्रौ कायिकाद्यर्थमुत्थितः सन्नवनत: प्रमार्जयन् निर्गच्छति, ततस्तमवनतकायं दृष्ट्वा स्तेन इति मत्वा आहन्यात्कश्चित्। दारं। 'नपुंमित्थि' त्ति व्याख्यायते- 'सागारिअसंघट्टण' ति सागारिकसंस्पर्श सति, स हि रात्रौ हस्तेन परामृशन् गच्छति, यतस्तत: स्पर्शने सति कश्चित्सागारिको विबुद्ध एव चिन्तयति-यदुताय अपुमेत्थि' त्ति नपुसकं तेन कारणेनमा स्पृशति, तत: सागारिकस्तंसाधुनपुंसकबुद्ध्या गृह्णाति। अथकदाचित्स्त्री स्पृष्टा तत: साश.कते, यदुतायं मम समीपेआगच्छति, तत: ‘साहेति' कथयति निजभर्तुः सौभाग्यं ख्यापयन्ती परमार्थेन वा। ओरालसरीरं वा, इत्थि नपुंसा बला वि गेण्हति। सावाहाए ठाणे, निते आवडणपडणाई // 224 // औदारिकशरीरं वा तं साधुं दृष्ट्वा दिवा, ततो रात्रौ स्त्री नपुंसकं बलाद् | गृह्णाति, औदारिकं चाडि.कम् / एते विस्तीर्णवसतिदोषा व्याख्याताः / / इदानीं क्षुल्लिकावसतिदोषान् प्रतिपादयन्नाह- 'सावाहाए' त्ति संकटायां यसतौ स्थाने-अवस्थाने सति ‘णिते आवडणपडणादी' ति निर्गच्छन्नापतितश्व-निर्गच्छन्नापतनपतनादयो दोषाः / तथातेणो त्ति मण्णमाणो, इमो वि तेणो त्ति आवडइ जुद्धं / संजमआयविराहण-भायणभेयाइणो दोसा / / 225 / / एवं साधोरुपरि प्रस्खलिते साधौ यस्योपरि प्रस्खलित: स तं स्तेनकमिति मन्यमानः, अयं च सुप्तोत्थित: अमुंप्रस्खलितं स्तेनकं मन्यमान:, सन, आपतति युद्धं-युद्धं भवति, ततश्च संयमात्मनोविराधना भाजनभेदादयश्च दोषाः / भाजनं-पात्रकं भण्यते। उक्ता क्षुल्लिका वसतिः / यस्मात्क्षुल्लिकायामेते दोषास्तस्मात्प्रमाणयुक्ता वसतिाया। एतदेवाहतम्हा मपाणजुत्ता, एक्केकस्स उतिहत्थसंथारो। मायणसंथारंतर, जह वीसं अंगुला हुंति / / 226 / / तस्मात्प्रमाणयुक्ता वसतिर्लाह्या, तत्र चैकैकस्य साधोर्बाहुल्यत- स्विहस्तप्रमाण: संस्तारक: कर्त्तव्यः / तुशब्दो विशेषणार्थ: / किं विशिनष्टि ? संस्तारकोऽत्र भूमिरूप इति, तत्र तेषु त्रिषु हस्तेषुऊर्णामयः संस्तारको हस्तं, “चत्तारि अ अंगुलाई रुभइ भायणाई हत्थं रुधंति" इदानी संस्तारकभाजनयोर्यदन्तरालं तत्प्रमाणं प्रतिपादयन्नाह'भायणसंथारंतर' भाजनसंस्तारान्तरे-अन्तराले यथा विंशतिरडलानि भवन्ति तथा कर्त्तव्यम् / एवं त्रिहस्तप्रमाणोऽपि संस्तारकः पूरित:। किं पुन: कारणमिह दूरे भाजनानि न स्थाप्यन्ते ? उच्चतेमजारमूसगाइ य, वारे नवि अ जाणुघट्टणया। दो हत्थाय अबाहा, नियमा साहुस्स साहूओ / / 227 / / मार्जारमूषकादीन् पात्रकेषु लगतो वारयेत्। अथ कस्मादासन्नतराणि न क्रियन्ते ? उच्यते-'नविय जाणुघट्टणय' त्ति तावति प्रदेशे तिष्ठति पात्रकेषुजानुकृतोद्घट्टना-जानुकृतंचलनं न भवति। इदानीं प्रव्रजितस्य प्रवजितस्य चान्तरालं प्रतिपादयन्नाह-द्वा हस्तौ अबाधा-अन्तरालं नियमात्साधो: साधोश्च भवति, साधुश्चात्र त्रिहस्तसंस्तारकप्रमाणो ग्राह्याः स्थापना चेयम् - 'उण्णामओ संथारओ 28 अट्ठावीसंगुलप्पमाणो, संथारभायणाणं अंतरं वीसंगुला 20, भायणाणि अहत्थप्पमाणे पाउंछणे ठविचंति 54, एवं तिहिंघरएहिं सव्वे वि तिष्णि हत्था, साहुस्संयसाहुस्स य अंतरं दो हत्था // 28 / 28 / 24 हत्था ३-हत्था 2 // एवमगाथाद्वयं व्याख्यातम्। अत्र च द्विहस्तप्रमाणायामबाधायां महदन्तरालं साधोः साधोश्च भवति, ततश्च तदन्तरालं शून्यं महद्दृष्ट्वा सागारिको बलात्स्वपिति, तस्मादन्यथा व्याख्यायत-“तम्हा पमाणजुत्ता एक्केकस्स उ तिहत्थसंथारो / " अत्र हस्तं साधू रुणद्धि, भाजनानि संस्तारक-- द्विशत्यङ्गुलानि भवन्ति एतदेवाह- 'भायणसंथारंतर जह वीसं अंगुलाई होंति' पात्रकमष्टाङ्गुलानि रुणद्धिः पात्रकाविंशत्यङगुलानि मुक्त्वा परतोऽन्यः साधुः स्वपिति। एतश्च कुतो निश्चीयते ? यदुतपात्रकात्परतो विशल्यङ्गुलान्यतीत्य साधुः स्वपिति, यतउक्तम्- 'दो हत्थे य अबाहा नियमा साहुस्स साहूओ' 1 स्थापना चेयम्- 'साहू सरीरेणं हत्थं रुंधइ 24, साहुस्स सरीरप्पमाणं, संथारयस्स पत्तयाणंच अंतरं वीसंगुला 20 अहहिं अंगुलेहिं पत्तया ठइंति 8, पत्तस्स वितियसाहुस्स य अंतरं वीसंगुलाई 20, एवं एते सव्वेऽवितिणि हत्था, एसो वितिओ साहू। 24 / 20 / 8 / 20 एवं सव्वत्था' अत्र चोमियः' संस्तारक: अष्टाविंशत्यङ्गुलप्रमाण एव आहुल्येन द्रष्टव्यः, किन्तु साधुना शरीरेण चतुर्विशत्यगुलानि रुद्धानि, अन्यानिऊमयसंस्तारकसंबन्धीनि यानि चत्वार्यड्डलानि तैः सह यानि विशल्यङ्गुलानि, तत्परत: पात्रकाणि भवन्ति। अत्र हस्तद्वयमबाधा साधुशरीराद्यावदन्यसाधुशरीरं तावद् दृष्टव्यम्। "मजाय" इत्येतद्वयाख्यातमेव। भुत्तामुत्तसमुत्था, भंडणदोसाय वञ्जिया एवं। सीसंतेण व कुडं, तु हत्थं मोत्तूण ठायंति // 228 / / द्विहस्तान्तराले न मुच्यमानेन 'भुत्ताभुत्तसमुत्था' इति यो भुक्तभोग: 'अभुक्त,' इति यः कुमार एव प्रव्रजित.. Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1220- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग तत्र भुक्तभोगस्य आसन्नस्य स्वपतोऽन्यसाधुसंस्पर्शादन्यत्पूर्वक्रीडि- यदा प्रमाणयुक्ता वसतिनास्ति तदा क्षुल्लिकाथामेव वसतौ वसन्ति तानुस्मरणं भवति, यदुतास्मद्योषितोऽप्येवंविध: स्पर्श इति, अभुक्त- यतनया। का चासौ यतना? 'पुरहत्थ पच्छपाए' त्ति पुरत:- अग्रतो भोगस्याप्यन्यसाधुसंस्पर्शन सुकुमारेण कौतुकं स्त्रियं प्रति भवति। / हस्तेन परामृशति पश्चात्पादौ प्रमृज्यन्यस्यति, ततश्चैवंयतनया बाह्यतो आयमभिप्राय:-तस्या: सुकुमारतर: स्पर्श इति, ततश्च द्विहस्ताबाधायां | निर्गच्छति। एवं तावत्कायिकाद्यर्थ गमनागमने विधिरुक्तः / स्वपतामेते दोषा: परिहृता भवन्ति। तथा भण्डनं-कलह: परस्परं इदानीं स्वपनविधिं प्रतिपादयन्नाहहस्तस्पर्शजनित आसन्नशयने,तेच दोषा एवं वर्जिता भवन्ति। 'सीसंतेण -उस्सीसभायणाई, मज्झे विसमे अहाकडा उवरिं। व कुटुंतु हत्थं मोत्तूणं ठायंति' त्ति शिरो यतो यत्र कुड्यं तत्र हस्तमात्रं ओवग्गहिओ दोरो, तेण य वेहासिलंबणया।। 232 / / मुक्त्वा 'ठायंति' त्ति स्वपन्ति, पादान्तेऽनुगमनमार्ग विभुच्य हस्तमात्रं उपशीर्षकाणां गध्ये भाजनाति-पात्रकाणि क्रियन्ते। स्थापना चेयम्-: स्वपन्ति। अथवाऽप्यथा पाठ:- 'सीसंतेण व कुडं तिहत्थे मोत्तूण ठायंति' विसमे त्ति विषमा भू: गतॊपेता भवति, ततश्च तस्यां गर्तायां पात्रकाणि तत्र प्रदीर्घायां वसतौ स्वापविधिरुक्त:, यदि पुनश्चतुरस्रा भवति तदा पुञ्जीक्रियन्ते। 'अहागडा उवरिं' ति प्राशुकानि-अल्पपरिकर्माणि च 'सीसंतेण व कुड्डे' ति शिरो यतो यत्कुड्यं तस्मात्कुड्यात् हस्तत्रयं यानि तान्येतेषां पात्रकाणामुपरि पुञ्जीक्रियन्ते, माङ्गलिंकत्वात्तेषाम्। मुक्त्वा स्वपन्ति। तत्र कुज्यं हस्तमात्रेण प्रोज्झय ततो भाजनानि अथातिसइकटत्वाद्वसते मौनास्तिस्थानं पात्रकाणांततश्च ओवगहितो स्थाप्यन्ते, तानि, तानि च हस्तमात्रे पादप्रोञ्छने क्रियन्ते,ततोहस्तमात्रं दोरो' औपग्रहिको यो दवरको यवनिकार्थं गृहीत: 'ओवग्गहितोव्याप्नुवन्ति, भाजनसाध्वोश्चान्तरालं हस्तमात्रमेव मुच्यते, तत: साधुः गच्छसाहरणो' तेन विहायसि-आकाशे 'लंबणय' त्ति तेन दवरकेण स्वपिति। लम्बयन्ते-कीलिकादौ क्रियन्ते। एवमनया भङ्गया स्वपता तिर्यक् साधो: साधोश्चान्तरालं खुड्डलियाए असई, वित्थिन्नाए उ मालणा भूमी। हस्तद्वयं द्रष्टव्यम्-- बिलधम्मो चारभडा, साहरणेगंतकडपोत्ती॥ 233 / / पुथ्वुद्दिट्ठो उ विही, इह वि वसंताण होइ सो चेव। क्षुल्लिकाया वसतेरभावे 'वित्थिन्नाए उ' त्ति विस्तीर्णायां वसतौ आसज तिन्नि वारे, निसन्न आउंटए सेसा / / 229 / / स्थातव्यम्। तत्र को विधिरित्यत आह- 'मालणा भूमी विस्तीर्णअत्र स्वापकाले पूर्वोद्दिष्ट एव विधिर्द्रष्टव्य:, कश्चासौ ? “पोरिसिआ वसते मिर्माल्यते-व्याप्यते पुष्पप्रकरसदृशैः स्वपद्भिः, 'बिलधम्मो पुच्छणया, सामाइयउभयकायपडिलेहा। साहणिय दुवे पट्टे, पमज पाए चारभडे' त्ति अवलगकादय आगत्य इदं भणन्ति-यदुत बिलधर्मो यस्मिन् जओ भूमिं // 1 // अणुजागण संथारं" इत्येवमादिक: / इहापि वसतां बिले यावतामवस्थानं भवति तावन्त एव प्रविशन्ति, तत: साधवः किं स्वपतां भवति स एव विधि:, किं त्वयं विशेष:- 'आसज्ज तिन्नि वारे कुर्वन्ति ? 'साहरणे' त्ति संहल्य उपकरणजातं बिरलत्यै च 'एगंत' त्ति निसन्नो' त्ति आसज्जं त्रयो वारा: करोति 'निसन्नो' ति तत्रैव संस्तारके एकान्ते तिष्ठन्ति। कडपोत्ती' तियदि कटोऽस्तिततस्तमन्तराले ददति, उपविष्टः सन्, शेषाश्च साधवः किं कुर्वन्तीत्याह-'आउंटए सेसा' शेषाः अथ सनास्ति तत: पोत्तिं' चिलिमिनीं ददति। साधव: पादान् आकुञ्चयन्ति। असई य चिलिमिलीए, भए व पच्छन्न भूइए लक्खे। पुनश्चासौ कायिका) व्रजन किं करोंतीत्यत आह आहारो नीहारो, निग्गमणपवेस वजेह // 23 // आवस्सिअमासजं, नीइ पयजंतु जाव उच्छन्नं / सागारिय तेणुब्मा-मए य संका तट परेणं / / 230 // असति-अभावे चिलिमिलिन्सा: "भएव' त्ति चिलिमिनीहरणभये वान आवश्यिकीम् आसज्जं च पुन: पुन: कुर्वन् प्रमार्जयन्निगच्छन्ति, कियद् ददति। किं वा कुर्वन्त्यत आह- 'पच्छण्णे' त्ति तत: प्रच्छन्नतरे प्रदेशे दूरं यावदित्यत आह- "जाव उच्छन्नं या वच्छण्णं" यावद्वसतेरभ्यन्तर- | तिष्ठन्ति। 'भूइए लक्खे' त्ति स च प्रदेशो भूत्या लक्षयते-चिह्नयते मित्यर्थः बाह्यतश्च नैवं प्रमार्जनादि कर्त्तव्यं, यत: 'सागरिय तेणुब्भामए अवटोऽयं प्रदेश इति कथ्यते। इदं च तेऽभिधीयन्ते-आहारानीहारो य संका तदु परेणं' सागारिकाणां स्तेनशड्.कोपजायते, यदुत किमयं भवत्यवश्यमतो निर्गमनप्रवेशौ वर्जनीयाविति। चौर: ? 'उब्भामओ' पारदारिकस्ततस्तदाशड्कोपजायते, अतस्तत्प इदं च कर्त्तव्यं साधुभि:रेणसंछन्नाद्वाह्यतो नेदंप्रमार्जनादि कर्त्तव्यमिति। एवं प्रमाणयुक्तायां पिंडेण सुत्तकरणं, आसज्ज निसीहियं च न करिति। वसतौ वसतां विधिरुक्तः। कासण न पमजणया, न य हत्थो जयण वेरतिं / / 235 / / यदा ते पुन: पिण्डेन-समुदायेन सूत्रपौरुषीकर। कर्तव्यं, मा भूत् कश्चित्पदं वाक्यं वा नत्थि उपभाणजुत्ता, खुडुलिया चेव वसति जयणाए। 'कण्णाहिढिस्सति' त्ति। तथा आसज्ज निसीहिअंच' तत्र न कुर्वन्ति। किं पुरहत्थ पच्छपाए, पमज जयणाऐं निग्गमणं // 231 // वाकर्त्तव्यामित्यत आह- 'कासणं' तिकाशनंखाकरणकरोति,नचप्रमार्जन Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1221 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग . करोति, ‘ण य हत्थो' त्ति न च हस्तेन पुरस्तात्परामृश्य निर्मच्छति, यतनया च 'वेरत्ति कुर्वन्ति। 'वेरात्तिओ कालो घेप्पइ दौणहं पहराणं उवरिं, ततो सज्झाओ कीरति, यदिवा ताए वेलाए सज्झाओ' उक्र वसतिद्वारम्। इदानीं स्थानस्थितद्वारमुच्यते, तत्राहपत्ताण खेते जयणा, काऊणावस्सयं ततो ठवणा। पडणीयपत्तभामण, भद्दगसद्धेय अचियत्ते // 236 / / एवं तेषां विहरतां प्राप्तानामभिमतक्षेत्रे 'जयणे तियथा यतना कर्तव्या तथा च वक्ष्यति, 'काउंआवस्सकं कृत्वा चावश्यकं प्रतिक्रमणं 'ततो ठवण' ति तत: स्थापना क्रियते केषाञ्चित्कुलानाम्, कानिच तानीत्यत | आह- प्रत्यनीक: शासनादे:, प्रान्त:- अदानशील: मामको य एवं यक्ति - 'मामम समणा घरमइंतु' भद्रकश्राद्धौ प्रसिद्धौ ‘अचिअत्ति' त्ति / यः साधुभिरागच्छद्भिर्दुःखेनास्ते, शोभनं भवति यद्येते नायान्ति गृहे। एतेषां कुलानां यो विभाग: क्रियते प्रतिषेधाप्रतिषेधरूप: स स्थापनेत्युच्यते। इदानीं भाष्यकार एनां गाथां प्रतिपदं व्याख्यानयन्नाह दारगाहाबाहिरगामे वुच्छा, उज्जाणे ठाण वसहिपडिलेहा। इहरा उगहिअभंडा, वसहीवाघाय उड्डाहो // 104 / / (भा०) एवं ते बाह्यग्रामे-आसन्नग्रामे पर्युषिताः सन्तोऽभिमतं क्षेत्रं प्राप्य तावदवतिष्ठन्ते। 'उज्जाणे ठाणं' ति उद्याने तावत्स्थाने आस्थां कुर्वन्ति। 'वसहिपडिलेह' ति पुनर्वसतिप्रत्युपेक्षका: प्रेष्यन्ते। 'इहरा उ' त्ति यदि प्रत्युपेक्षका तसतेर्न प्रेष्यन्ते तत: गृहीतभाण्डा:-गृहीतोपकरणावसतिव्याघाते सति निवर्तन्ते ततश्च उड्डाहा भवति-उपघात इत्यर्थः / तत्र च प्रविशतां शकुनापशकुननिरूपणायाहमइल कुचेले अभं-गिएलए साण खुज वडभे य। एएउ अप्पसत्था, हवंति खित्ताउ निताणं // 105 / / (भा०) नारी पीवरगब्भा, वइढकुमारी य कट्ठभारो य। कासायवत्थ कुचं-धरा य कजं न साहति / / 106 / / (भा०) चक्कयरम्मि भमाडो, भुक्खा मारो य पंडुरंगम्मि। तबग्निरुहिरपडणं, घोडियमसिए धुवं मरणं // 107 // (भा०) जंबूअचास मउरे, भारद्वाए तहेव नउले अ। दंसणमेव पसत्थं,पयाहिणे सव्वसंपत्ती॥ 106 / / (भा०) नदीतूरं पुण्ण-स्स दंसणं संखपडहसहो य। भिगारछत्तचामर, घयप्पडागा पसत्थाई।।१०६ / / (भा०) समणं संजयं दंतं, सुमणं मोयगा दहि। मीणं घंटं पडागं च, सिद्धमत्थं विआगरे / / 110 // (भा०) एता निगदसिद्धा तम्हा पडिलहिअदी-वियम्मि पुष्वगय असइ सारविए। फड्डयफडपवेसो, कहणा न य उट्ठ इयरेसिं // 111 / / (भा०) | यस्मात्पूर्वमप्रत्युपेक्षितायां वसतौ उड्डाहो भवति तस्मात्प्रत्युपेक्ष्य प्रवेष्टव्यम्। 'दीवियम्मि' दीपिते-कथिते-कथितेशय्यातराय, यदुताचार्य आगता:, 'पुव्वगय' तिपूर्वगतक्षेत्रप्रत्युपेक्षकै: प्रमार्जित: तत: साध्वेय, 'असति' त्ति पूर्वगतक्षेत्रप्रत्युपेक्षकाभावे, तत: क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैः प्रविश्य सारविते-प्रमार्जितायां वसतौ, कथं प्रवेष्टव्यमित्यत आह-फड्कफङ्गुकैः प्रवेश: कर्तवयः / 'कहण' त्ति यो धर्मकथालब्धिसंपन्न: स पूर्वमेव गत्वा शय्यातराय वसतेर्बहिधर्मकथां करोति। 'नय उद्ध' तिन चासौधर्मकथा कुर्वन् उत्तिष्ठति-अभ्युत्थानं करोति, 'इयरेसिं' ति ज्येष्ठार्याणाम्, आहकिमाचार्यागमने धर्मकथी अभ्युत्थानं करोति उत नेति? आचार्य आहअवश्यमेवाभ्युत्थानमाचार्याय करोति। यतोऽकरणे एते दोषा:आयरियअणुट्ठाणे, ओहावण बाहिरायऽदक्खिण्णा। साहणयवंदणिज्जा,अणालवंतेऽवि आलावो॥११२।। (भा०) आचार्यागमने सत्यनुत्थाने 'ओहावण' तिमलना भवति, 'बाहिर' त्ति लोकाचारस्य बाह्या एत इति / पञ्चानामप्यङ्गुलीनामेका महत्तरा भवति, 'अदक्खिण्ण' त्ति दाक्षिण्यमप्येषामाचार्याणां नास्तीत्येवं शय्यातरश्चिन्तयति। 'साहणय' त्ति तेन धर्मकथिनाऽऽचार्याय कथनीय यदुतायमस्मद्वसतिदाता। 'वंदणिज्ज' त्ति शय्यातरोऽपि धर्मकथिनेदं वक्रव्योवन्दनीया आचार्या: / एवमुक्ते यदि असौ वन्दनं करोति तत: साध्येव, अथ न करोति तत: 'अणालवंतेऽवि' तस्मिन् शय्यातरेऽनालपत्यपि आचार्येणालापक: कर्त्तव्यः, यदुत कीदृशा यूयम् ? __ अथाचार्य आलपनं न करोति तत एतेदोषा:(भा०) वुड्डा निरोवयारा, अग्गहणं लोग जत्तवोच्छेओ। तम्हा खलु आलवणं, सयमेव उतत्थ धम्मकहा / / 113 // तथाहि-एत आचार्यास्तथा निरुपकारा-उपकारमपि न बहु मन्यन्ते, 'अग्गहणं' ति अनादारोऽस्याचार्यस्य मां प्रति, 'अलोगजत्त' त्तिलोकयात्राबाह्या: 'वोच्छेओ' त्ति व्यवच्छेदो वसतेरन्यद्रव्यस्य वा, तस्मात्खल्वालपना कर्तव्या, स्वयमेव च तत्र धर्मकथा कर्तव्याऽऽचार्येणेति। वसहिफलं धम्मकहा, कहणअलद्धी उसीस वावारे। पच्छा अइंति वसहिं, तत्थ य भुञ्जो इमा जयणा / / 114 // धर्मकथां कुर्वन् वसते: फलं कथयति, 'कहणअलद्धी उ' यदा तु पुनराचार्यस्य धर्मकथालब्धिर्न भवति तदा 'सीस वावारि' त्ति शिष्यं, व्यापारयति-नियुक्ते धर्मकथाकथने, शिष्यं च धर्मकथायां व्यापार्य पश्चादाचार्यः प्रविशन्ति वसतिम्, तत्र च वसतौ भूयः- पुन: इयं यतना वक्ष्यमाणलक्षणा कर्तव्या। (माष्यम्)पडिलेहण संथारग, आयरिए तिणि सेस उ कमेण / विटिअउक्खेवणया, पविसइ ताहे य धम्मकही॥११५ / / तत्र च वसतौ प्रविष्टाः सन्तः पात्रकादेः प्रत्यपक्षणां कुर्वन्ति, संस्थारकग्रहणं च क्रियते, तत आचार्यस्य त्रयः Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1222 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग संस्थारका निरूप्यन्ते, शेषाणां क्रमेण यथारत्नाधिकतया।तेच साधव आत्मीयात्मीयोपधिवेण्टलिकानामुत्क्षेपणं कुर्वन्ति येन भूमिभागो ज्ञायते, अस्मिन्नवसरे बाह्यतो धर्मकथी संस्तारकग्रहणार्थ प्रविशति। (भा०) उचारे पासवणे, लाउयनिलेवणे य अच्छणए। पुवट्ठिय तेसि कहे-ऽकहिए आयरणवोच्छेआ। ते हि क्षेत्रप्रत्युपेक्षका उच्चाराय भुवं दर्शयन्ति ग्लानाद्यर्थ, 'पासवणे' त्ति कायिकाभूमिं दर्शयन्ति, 'लाउए' त्ति तुम्बकक्षेपणभुवं दर्शयन्ति, निर्लेपनस्थानंच दर्शयन्ति 'अच्छणए' त्ति यत्र स्वाध्यायं कुर्वद्भिरास्यते, पूर्वस्थिता:, क्षेत्रप्रत्युपेक्षका:, एवं तेषाम्-आगन्तुकानां कथयन्ति। 'अकहिए' ति यदिन कथयन्ति तत: 'आयरणवोच्छेओ' त्ति अस्थाने कायिकादेराचरणे सति व्यवच्छेदस्तद्रव्यान्यद्रव्ययो:, वसतेर्निर्धाटयतीति। (भा०) भत्तहिआ व खवग्गा, अमंगलं चोयए जिणाहरणं। जइ खमगा वंदंता, दायंतियरे विहिं वोच्छं / / 117 // ते हि श्रमणा: क्षेत्रं प्रविशन्त: कदाचिद्भक्तार्थिन: कदाचित्क्षपका: उपवासिका इत्यर्थः, तत्रोपवासिकानां प्रविशताम् 'अमंगलं चोयए' त्ति चोदक इदं वक्ति-यदुत क्षेत्रे प्रविशताम् अमड्.गलमिदं यदुपवास: क्रियते, तत्र 'जिनाहरण' मिति जिनोदाहरणम्-यथा हि जिना निष्क्रमणकाले उपवासं कुर्वन्ति न च तेषां तदमड्.गलं, किन्तु प्रत्युत मड्.गलं तत्तेषामेवमिदमपीति। इदानीं यदि क्षपकास्तस्मिन् दिवसे साधव उपवासिकास्तत्र च सन्निवेशे यदि श्रावका: सन्ति ततस्तद्गृहेषु चैत्यानि वन्दतो दर्शयन्ति, कानि? स्थापनादीनि कुलानि आगन्तुकेभ्य:, 'इयरे' त्ति भक्तार्थिषु यो विधिस्तं वक्ष्ये / कश्चासौ विधिरित्ययत आहसव्वे दद्वं उग्गा-हिएण ओयरिअ भयं समुप्पजे। तम्हा तिदु एगो वा, उग्गाहिअ चेइए वंदे॥११॥ (भा०) ते हि भक्तार्थिनः श्रावककुलेषु चैत्यवन्दनार्थं व्रजन्त: यदि सर्व एव पात्रकाण्ग्राह्य प्रविशन्ति तत: को दोष इत्यत आह- 'द मुग्गाहिएहिं ओदारिअ' त्ति दृष्ट्वा तान् साधून पात्रकैरुद्ग्राहितै: औदरिका एत इतिभट्टपुत्रा इति, एवं श्रावकश्चिन्तयति। 'भयं समुप्पजे' त्ति भयं च श्रावकस्योत्पद्यते, यदुत कस्याहमत्र ददामि? कस्य वा न ददामीति? कथं वा एतावतां दास्यामीति, यस्मादेवं तस्मात् 'ति दु एगो वा' त्रय उद्ग्राहितेन प्रविशन्ति आचार्येण सह द्वौवाएको वा उद्ग्राहितेन प्रविशति चैत्यवन्दनार्थमिति अत्:सद्धाभंगोऽणुग्गा-हियम्मि ठवणाझ्या य दोसाउ। घरचेइअ आयरिए, कइवयगमणंच गहणंच // 11 // (भा०) अथानुदग्राहितपात्रका एव प्रविशन्ति, दातव्ये चमतिर्जाता श्राद्धस्य, ततश्च पात्रकाभावेऽग्रहणमग्रहणाच श्रद्धाभड्गो भवति। अथैवं भणन्ति पात्रकं गृहीत्वाऽऽगच्छामि ततश्च स्थापनादिका दोषा भवन्ति, आदिशब्दात्-कदाचित्संस्कारमपि कुर्वन्ति, तस्माद् गृहचैत्यवन्दनार्थम् आचार्येण कतिपयैः साधुभिः सहगमनं कार्य, ग्रहणं घृतादे: कर्त्तव्यमिति। पत्ताण खेत्तजयण' त्ति व्याख्यायतेखेत्तम्मि अपुव्वम्मी, तिट्ठाणट्ठा कहिंति दाणाई। असई अचेदयाणं, हिंडता चेवदायंति / / 120 // (मा०) यदि तत्क्षेत्रमपूर्व न तत्र मासकल्प: कृत आसीत् तत: 'तिट्ठाणट्ट' त्ति त्रिषुस्थानेषु श्रावकगृहचैत्यवन्दनवेलायां भिक्षामटन्त:प्रतिक्रमणावसाने वा कथयन्ति दानादीनि कुलानि। 'असइ अ चेदयाणं' यदा पुनस्तत्र श्रावककुलेषु चैत्यानि न सन्ति ततोऽसति चैत्यानां भिक्षामेव हिण्डन्त: कथयन्ति। __कानि पुनस्तानि कथयन्तीत्यत आहदाणे अभिगमसद्धे, संमत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते। मामाए अचियत्ते, कुलाइं दायंति गीयत्था // 121 // (भा०) दानश्राद्धकान् अभिगमश्राद्धः अभिनवसम्यक्त्वसाधु: तथा मिथ्यादृष्टिकुलानि कथयन्ति। शेषं सुगमम्।। इदानीं यदि तत्र चैत्यानि न सन्ति उपवासैन भिक्षा पर्यटिता, तत आवश्यकान्ते क्षेत्रप्रत्युपेक्षका: कथयन्त्याचार्याय / एतदेवाऽऽह(मा०) कयउस्सग्गामंतण, पुच्छणया अकहिएगयरदोसा। ठवणकुलाण य ठवणा, पविसइ गीयत्थसंघाडो // 122 // आवश्यककायोत्सर्गस्यान्ते 'आमंतण' ति आचार्य आमन्त्र्य तान् प्रत्युपेक्षकान् 'पुच्छणय' ति पृच्छति, यदुत कान्यत्र स्थापनाकुलानि? कानि चेतराणि ? पुनश्च ते पृष्टाः कथयन्ति, 'अकहिएगतरदोस' त्ति क्षेत्रप्रत्युपेक्षकैरकथितेषु कुलेषु सत्सु एकतर:-अन्यतमो दोष:संयमात्मविराधनाजनित:, कथितेच सति स्थापनादिकुलानां स्थापना क्रियते / पुनश्च स्थापनाकुलेषु गीतार्थसङ्घाटक: प्रविशति। गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्ध। गामागरनिगमेसुं, अइसेसी ठावए सही॥१२३ / / (भा०) गच्छे एष कल्प:-एष विधिरित्यर्थ: यत: स्थापनाकुलानां स्थापना क्रियते, कदा? 'वासावासे तहेव उडुबद्धे' वर्षाकलि शीतोष्णकालयोश्च / केषु पुनरयं नियमः कृत: ? इत्यत आह- ‘गामागरनिगमेसुं' ग्राम:प्रसिद्धः आकर:-सुवर्णादरुत्पत्तिस्थानं निगमोवाणिजकप्राय: सन्निवेश:, एषु स्थापनाकुलानिस्थापयेत्। किंविशिष्टानीत्यत आह- 'अतिसेसि' त्ति स्फीतानीत्यर्थ: 'सड्डि' त्ति श्रद्धावन्ति कुलानि स्थापयेदिति। किं कारणं चमढणा, दव्वखओ उग्गमोऽवि अन सुज्झे। गच्छम्मि निययकजे, आयरियगिलाणपाहुणए / 237 // किं कारणं तानि कुलानि स्थाप्यन्ते?, यतः 'चमढण' ति अन्यैरयैश्व साधुभिः प्रविशद्भिश्चमढयन्ते-कदर्थ्यन्त इत्यर्थः, तत: को दोष इत्यत आह- 'इव्वखओ' आचार्यादियोग्यानां द्रव्याणां क्षयो भवति / 'उग्गमोऽवि अन सुज्झे' उद्गमस्तत्र गृहे न शुद्धयति / गच्छे' त्ति नि Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1223 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग यत कार्य योग्येन, केषामित्यत आह- 'आयरिअगिलाणपाहुणए' आचार्यग्लानप्राघूर्णकानामर्थाय नित्यमेव कार्यं भवति इति नियुक्तिगाथेयम्। इदानीं भाष्यकारो व्याख्यानयति, तत्र 'चमण' त्ति व्याख्यानयन्नाह (दारगाहा)पुटिव पि वीरसुणिआ, छिक्का छिक्का पहावए तुरि। सा चमढणाएँ सिन्ना, संतं पिन इच्छए घेत्तुं // 124 // (मा०) जहा काचित् वीरसुणिआ केणइ आहिंडइल्लेणं तित्तिर मयूराईणं गहणे छिक्कारिआ तित्तिराईणि गिण्हेइ, एवं पुणो तित्तिराईहिं विणा वि सो छिछिक्कारेइ साय पहाविआ जया न किंचि पेच्छइ तया विअरिआ संती कज्जे वि न धावति। एवं सड्ढयकुलाई अण्णमण्णेहिं चमढिजंताई पओयणे कारणे समुप्पण्णेऽवि संतं पिन देति। किं कारणं ? जता अकारणाएव निच्चोइयाणि तेण कारणे समुप्पण्णे वि न देंतित्ति / इदानीं गाथाऽक्षरार्थ उच्यते-पुनरपि वीरशुनी छीत्कृता छीत्कृता प्रधावति त्वरितं, पुनश्वासौ अलीकचमढणतया सिन्ना-विश्रान्ता सदपि मयूरादि नेच्छति ग्रहीतुम्। (भा०) एवं सङ्घकुलाइं, चमढिज्जंताई ताई अणेहिं। निच्छंति किंचि दाउं, संतं पि तयं गिलाणस्स // 125 / / सुगमा। 'चमढण' त्ति गयं। “दव्वक्खय" ति व्याख्यायतेदव्वक्खएण पंतो, इत्थिं घाएज कीस ते दिणं? भद्दो हट्ठपहट्ठो, करेन्ज अन्नं पि समणट्ठा / / 126 // (भा०) बहूनां साधूनां घृतादिद्रव्ये दीयमाने-तद्र्व्यक्षय: संजातस्ततस्तेन द्रव्यक्षयेण यदि प्रान्तो गृहपतिस्तत: स्वियं घातयेत्, एतच्च भणतिकिमिति तेभ्य:-प्रव्रजितेभ्यो दत्तम् ? “दव्वक्खए" त्ति गयं / / 'उग्गमो विअनसुज्झे' त्ति व्याख्यायते,तत्राह- 'भद्दो हट्ठपहट्टो करेज्ज अन्नं पि साहूणं' भद्रो यदि गृहपतिस्ततो दत्तमपि मोदकादि पुनरपि कारयेत्।। "उग्गमोऽवियन सुज्झे" त्तिगयं। "गच्छम्मि निययकजं आयरिए"त्ति व्याख्यानयन्नाहआयरिअणुकंपाए, गच्छो अणुकंपिओ महाभागो। गच्छाणुकंपयाए, अव्वोच्छित्तीकया तित्थे॥१२७।। (भा०) सुगमा। इदानीं "गिलाण" त्ति व्याख्यायते(भा०) परिहीणं तं दध्वं, चमढि जंतं तु अण्णमण्णेहिं।। परिहीणम्मि य दवे, नत्थि गिलाणस्स णं जोगं / / 128 / / सुगमा। तथा चात्र दृष्टान्तो द्रष्टव्य:चत्ता हॉति गिलाणा, आयरिया बालवुड्डसेहाय। खमगा पाहुणगा वि य, मञ्जायमइक्कमंतेणं॥ 129 / / (भा०) | सारक्खिया गिलाणा, आयरिया बालवुड्डसेहाय। खमगा पाहुणगा वि य, मजायंठावयंतेणं // 130 // (भा०) सुगमे। जड्डे महिसे चारी, आसे गोणे अतेसि जावसिआ। एएसिंपडिवक्खे, चत्तारिउ संजया हुंति / / 238 // जहा एक महाबीयं परिसूअं, तत्थ य चारीओ नाणाविहाओ अत्थि, तंजहा-जहुस्स-हत्थिस्सजा होइ सा तत्थ अस्थि, महिसस्ससुकुमारा जोग्गा सावि तत्थ अत्थि ,आसस्स महुरा जोग्गा सावि तत्थ अस्थि, गोणस्स सुयंधा जोग्गा सावि तत्थ अत्थि। तं च रायपुरिसेहिं रक्खिज्जइ / ताणं चेव जड्डाईणं, जइ परं कारणे धसिआ आणेति, अह पुणतं मोक्कलयं मुचइताहे पट्टणगोणेहिंगामगोणेहिं चमढिाइ चमढिए अतस्सि महापरिसूएताणं रायकराणं जड्डाईणं अणुरुवाचारीण लब्भइ विध्वंसितत्वात् गोधनस्तस्य। एवं सड्डयकुलाणि वि जइ न रक्खिनंति ततो अन्नमन्नेहिं चमढिजंति, तेसुचमढिएसुजंजड्डाइसब्भावपाहुणयाण पाउंग्गं तंन देति। इदानीमक्षरार्थ उच्यते-जड्डो-हस्ती महिषः प्रसिद्धस्तयोरनुरूपांचारी यावसिकाधासवाहिका ददति, तथा अश्वस्य गोणोबलीवर्दस्तस्य च चारीमानयन्ति यावसिकाः। एतेषां-जड्डादीनां प्रतिरूप:अनरूप: पक्ष: प्रतिपक्षः, तुल्यपक्ष: इत्यर्थः, तस्मिन् चत्वार: संयता: प्राघूर्णका भवन्ति। इदानीमेतेषामेव जड्डादीनां यथासड्.ख्येन भोजनं प्रतिपादयन्नाहजड्डा जं वा तं वा, सुकुमारं महिसिओ महुरमासो। गोणो सुगंधदग्द, इच्छह एमेव साहू वि // 131 / / (भा०) सुगमा / नवरं साधुरप्येवमेव द्रष्टव्य:- तत्थ पढमो पाहुणसाहू भणइ-जं मम दोसीणं अण्हगंवा कंजिअंवा लब्भइतंचेव आणेहि, तेण एवं भणिते किं? दोसीणंचेव आणिअव्वं, न विसेसेणं तस्स, सोहणं तस्स आणेयव्यं / वितिओ पाहुणसाहू भणइ-वरं मेणेहरहियाविपूपलिआ सुकुमाला होउ। ततीओ भणति-महुरंनवरि मे होउचउत्थो भणतिनिप्पडिगंधं अंबपाणं वा होउ। एवं ताणं भयंताणं जं जोग्गं तं सड्डयकुलेहिंतो वि सेसयं आणिज्जइ। एवमुक्ते सत्याह पर: यस्मादेवं तस्मान्न कदाचित्केनचित्प्रवेष्टव्यं प्राघूर्णकागमनमन्तरेण श्रावककुलेषु, यदैव प्राघूर्णका आगमिष्यन्ति तदैव तेषु प्रवेशो युक्तः। एवमुक्ते सत्याहाऽऽचार्य:एवं च पुणो ठविए, अप्पविसंते भवे इमे दोसा। वीसरण संजयाणं, विसुक्खगोणी अ आरामो॥१३२॥ एवं च पुन: ‘ठविते' स्थापिते स्थापनाकुले यदि सर्वथान प्रवेश: क्रियते तदैते दोषाः / अप्रविशत्सु एते दोषा:- 'वीसरणसंजयाणं' विस्मरण संयतविषयं तेषां श्रावकाणां भवति तत्रच विशुष्कगोण्या-गया आरामेण चदृष्टान्त: ।जहा एगस्स माहणस्स गोणी सा कुंडदोहणीताहे सो चिंतेतिएसा गावी बहुअंखीरं देइ मज्झय मासण पगरणं होहिति। तो अच्छा ताहेचेवएकवारिआए दुहिज्जति। एवं सोन दुहति।ताहे सा तेण कालेण विसुक्ला तदिवसं बिंदु पिन देइ। एवं संजया तेसिं सड्डाणं अणल्लिअंता तेसिं सवाणं पम्हुट्ठाणचेव जाणंति किं सजया अत्थिनवा? तेविसंजय Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1224 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग जम्मि दिवेस कजं जाय तदिवसे गया जाव नत्थिताणि दव्वाणि, तम्हा हिण्डन्ति। अत्र चोदक: पृच्छति-पूर्वमेव क्षेत्र प्रत्युपेक्षितंयत्र सबालवृद्धस्य दोण्हं वा तिण्हं वा दिवसाणं अवस्स गंतव्वं / अथवा आरामदिलुतो, एगो गच्छस्यान्नपानं पर्याप्त्या भवति तत्रैव स्थीयते तत: कस्मात्तरुणा मालिओ चिंतेइ-अच्छंतु एयाणि पुप्फाणि अहं कोमुईए एकवारिआए बहिमि हिण्डन्ति ? आचार्य आह "दिटुंतऽगारीए' एकस्या अगार्या उव्वेहामि जेण बहूणि हुंति, ताहे सो आरामे उप्फुल्लो कोमुईए न एक पि दृष्टान्तो दातव्य:, तं च तृतीयगाथायां भाष्यकारो वक्ष्यति। फुल्लं जायं / एवं सावगकुलसुएए चेव दोसा एक्कवारिआए पविसणे तम्हा तथा इयमपरा द्वारगाथापविसिअव्वं कहिंचि दिवसे त्ति। (ओघ०) पुच्छा गिहिणो चिंता, दिलुतो तत्थ खज्जबोरीए। (आचार्यादीनां वैयावृत्त्यकरवक्तव्यता साहु' शब्दे उक्ता।) आपुच्छिऊण गमणं, दोसा य इमे अणापुच्छे / / 236 / / कीदृशं पुन: कारयेद्वैयावृत्त्यम् ? इत्यत आह 'पुच्छ त्ति चोदक: पृच्छति-ननु च तस्या अगार्या घृतादिसंग्रहः कर्तु एयद्दोसविमुकं, कडजोर्गिनायसीलमायारं। युक्तो भृर्तप्रदत्ततवणिमध्यात् येन प्राघूर्णकादे: सुखनैवोपचारः क्रियते, गुरुभत्तिसंविणीयं, वेयावच्चं तु कारेला // 134 // (मा०) / साधूनांपुन: स्थापनाकुलसंरक्षणे न किञ्चित्प्रयोजनं यतस्तत्रयावन्मात्रएभिरुक्तदोषैर्विमुक्तं, किंविशिष्टम् ? इत्याह- 'कडजोगि' ति कृतो स्याहारस्य पाक:' क्रियते तत्सर्वं प्रतिदिवसमुपयुज्यते, न तु तानि योगोघटना ज्ञानदर्शनचारित्रै: सह येन स कृतयोगीगीतार्थ: तं, पुनर- कुलानि संचयित्वा साधुप्राधूर्णकागमने सर्वमेकमुखेनैव प्रयच्छन्ति, एवं सावेव विशिष्यते-ज्ञातौ शीलमाचारश्च यस्य तं वैयावृत्यं कारयेत्। गुरौ चोदकेनोक्त आचार्य आह- 'गिहिणो चिंता' गृहिणश्चिन्ता भवति, यदुत भक्ति:-भावप्रतिबन्ध: संविनीतो-बाह्योपचारेण। एते साधवः प्राघूर्णकाद्यागमने आगच्छन्ति ततश्च एतेभ्यो यत्नेन (भा०) साहति अपि अधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे। देयमिति, एवं विधाएमादरपूर्विकां चिन्तां करोति। यच्चोक्तं-तरुणा एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं वळूति गीयत्था / / 135 // बहिमे किमिति हिणडन्ति ? "दिटुंतो तत्थ खुजबोरीए' स च दृष्टान्तो ते चैव वैयावृत्त्यकरा: श्राद्धकुलेषु प्रविष्टा: सन्तः कथयन्ति एषणादोषान्- वक्ष्यमाणः / 'आपुच्छिऊण गमणं' ति तत्र च बहिर्दामादौ आचार्यमाशडि.कतादीन् अभिग्रहविशेषांश्श्वसाधुसंबन्धिनः / कीदृशास्तेवैयावृत्त्य- पृच्छ्य गन्तव्यं यत: 'दोसा य इमे अणापुच्छे' त्ति दोषा अनापृच्छायाम्, करा: ? प्रियः-इष्टो धर्मो येषां ते प्रियधर्माण: एवम्-उक्तेन प्रकारेण एते च वक्ष्यमाणलक्षणा भवन्ति। इदानीं भाष्यकार: प्रतिपदमेतानि विधिग्रहणं द्रष्टव्यं, घृतादिवृद्धिं नयन्ति अव्यवच्छित्तिलाभेन, के ? द्वाराणि व्याख्या नयति। तत्र च यदुक्तं दृष्टान्तोऽगार्याः, स उच्यतेगीतार्थाः “एगो वाणिओ परिमिश्र भत्तं अप्पणो महिलाए ईद, सा य ततो दिणे थोवं तैश्च गीतार्थर्भिक्षां गहद्भिः श्राद्धकुले इदं ज्ञातव्यम् थोव अवणेइ, किं निमित्तं ? जदा एयस्स अवेलाए मित्तो वा सही वा दव्वप्पमाणगणणा,खारिअफोडिअतहेव अद्धाय। एइस्सइ तदा किं सक्का आवणाउ आणेउं ? एवं सव्वतो संगहं करोति। संविग्ग एगठाणे, अणेगसाहूसु पन्नरस / / 136 // (भा०) अण्णया तस्स अवेलाए पाहुणगो आगतो, ताहे सो भणइ-किं कीरउ ? द्रव्यं-गोधूमादि तद्विज्ञेयं कियत्सूपकारशालाया प्रावशति दिने दिने रयणीवट्टइ, णीसंचाराओ रत्थाओ,ताहेताए भणि-मा आतुरो होहि। ततश्च तदनरूपं गृह्णति, 'गणण' त्ति एतावन्मात्राणि घृतगुडादीनि प्रविश- ताहे तस्स पाहुणगस्स उवक्खडिअं, गतो तग्गुणसहस्सेहिं वड्तो न्त्यस्मिन् इत्येतावन्मानं ग्राह्यम्। 'खारिअ'त्ति सलवणानि कानि? भत्तारोऽवि से परितुट्टो। एवं आयरिआ वि ठवणकुलाई ठवेंति, जेण व्यञ्जनानि सलवणकरीरादीनि कियन्ति सन्ति? इति, ततश्च ज्ञात्वा अवेलागयस्स पाहुणयस्स तेहिंतो आणेउं दिजइ, तेण तरुणा संतेसु वि यथाऽरूपाणि गृह्याति 'फोडिअ' त्ति बाइंगणाणि मत्थाफोडिआणि कुलेसु बाहिरगामे हिडंति त्ति। इदाणिं एसिं चेव विवरीओ भूण्णइ, अण्णो कत्तिआणि घरे सिज्झिज्जंति नाऊण वाणिरूवाणि घेप्पंति। तथा 'अद्धा अण्णाए अगारीए परिमिअंदेइसा यतओमज्झाओ थोवंथोवंन गेण्हइ, य' त्ति काल उच्यते, किमत्र प्रहरे वेला आहोश्वित्प्रहरद्वये इति विज्ञेयं, तओ पाहुणए आगए विसूरेति। 'संविग्ग एगठाणे' त्ति संविग्नो-मोक्षाभिलाषी 'एगठाणे' ति एक: सङ्घाटक: अमुमेवार्थं गाथाद्वयेनोपसंहरन्नाहप्रविशति, 'अणेगसाहूसु' ति अनेकेषु साधुषु प्रविशत्सु ‘पण्णरस' त्ति (भा०) परिमिअमत्तपदाणे, नेहादवहरइ थो थोवंतु। पञ्चदश दोषा नियमाद्भवन्ति “आहाकम्मुद्देसिअ" इत्येवमादयः / पाहुणवियालआगम, विसन्न आसासणादाणं // 138 // अज्झोयरओ मीसजायं च एका भेओ। परिमितभक्तप्रदाने सति साऽगारी स्नेहादि-घृतादि स्तोकं स्तोकमयस्मादनेकेषु साधुषु दोषास्तस्मात् पहरति। पुनश्च प्राधूर्णकस्य विकालागमने विषण्ण: स्त्रिया आश्वासित: संघाडेगो ठवणा-कुलेसु सेसेसु बालवुड्डाई। 'दाणं' ति तया स्त्रिया भक्तदानं दत्तं प्राघूर्णकायेति। तरुणा बाहिरगामे, पुच्छा दिटुंतऽगारीए / 137 / / (भा०) / (भा०) एवं पीइविवुड्डी, विवरीयण्णेण होइ दिटुंतो। सङ्घाटक: एक: स्थापनाकुलेषु प्रविशति, शेषेषु कुलेषु बाला वृद्धाश्च लोउत्तरे विसेसो, असंचया जेण समणा उ॥ 136 // प्रविशन्ति, आदिशब्दात्क्षपकाश्च / तरुणा:-शक्तिमन्तो बहिर्गामे | एवं तयोर्दम्पत्योः प्रीतिवृद्धिः संजाता, विपरीतश्चान्येन Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1225 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग प्रकारेण भवति दृष्टान्त: ।एवं तावद्यदि गृहस्था अपि सञ्चयपरा भवन्तिअनागतमेव चिन्तयन्ति, साधुना पुन: कुक्षिशम्बलेन सुतरामनागतमेव चिन्तनीयं, यदि परं लोकोत्तरेऽयं विशेष:, युदत नि:सञ्चया सुतरां चिन्तामाचार्या वहन्तीति। "पुच्छा दिटुंतऽगारि" त्ति भणिअं। इदानीं "पुच्छा गिहिणो चिंत"त्ति गाथायाः प्रथमावयव (भाष्यकार:) व्याख्यानयन्नाह जणलावो परगामे, हिंडन्ताऽऽणेति वसइ इह गामे। दिजइ बालाईणं, कारणजाए य सुलभं तु॥१०॥ यश्चोदकेन पृष्ठमासीत्तत्रेदमुत्तरं-जनानामालापो जनाऽऽलापो लोक एवं ब्रवीति, यदुत परग्रामे हिण्डयित्वाऽऽनयन्ति अत्र भुञ्जते। वसहि इह गामे' ति वसति: केवलमत्र एतेषां साधूनाम् / ततश्च 'देज्जइ' बालादीनां ददध्वम्, आदिशब्दात्प्राघूर्णकादयो गृह्यन्ते, एवंविधां चिन्तां गृहस्थ: करोति। ततश्च 'कारणजाते य सुलभं तु' त्ति एवंविधायां चिन्तायां प्राघूर्णकादिकारणे उत्पन्ने घृतादि सुलभं भवतीति। (भाष्यकार:) आह-किं पुन: कारणं प्राघूर्णकानां दीयते ? तथा चायमपरौ गुण:पाहुणविसेसदाणे, निजर कित्ती अइहर विवरीयं / पुव्वं चमढणसिग्गा, न देंति संतं पिकज्जेसु // 141 // प्राधूर्णकाय विशेषदाने सति निर्जरा-कर्मक्षयो भवति, इहलोके च कीर्तिश्च भवति। 'इहर विवरीय' ति यदि प्राघूर्णकविशेषदानं न क्रियते ततश्च निर्जराकीर्तीन भवत: / एवं प्राघूर्णकविशेषदानं न भवति यस्मात्पूर्व 'चमढणसिग्गा' ततश्च न देंति संतं पि कज्जेसु गिहिणो चिंत' त्ति वक्खाणि। इदानीं (भाष्यकार:) कुब्जबदरीदृष्टान्तं व्याख्यानन्नाहगामब्भासे बयरी, नीसंदकडुप्फला य खुज्जाय। पक्कामालसडिंभा, घायंति घरे गया दूरं / / 142 // एगो गामो तत्थ खुज्जबोरी, सा य नाम निज्जासेण कडुया। तत्थ चेडरूवाणि भणंति-वजामो बोराणि खामा / तत्थ खुज्जबोरीविलग्गाई ताइंडिंभरुवाणि तूवराईणि विखायंति, नयपज्जत्तीए होइ। अण्णाणि भणंति-किं एएहि, ताहे अडविं गतया तत्थ बोराणि धरणीए खाइऊण बहूणि पोट्टलगा बंधिऊण आगया सिग्यतरंजावइमे झाडेंताचेव अच्छंति न तत्तिया जाया।ताहेते तेसिं अन्नेसिंचदेति। एवं चेव इमं खेत्तं चमढिअं, एत्थ अंबिलकूरो घेत्तूणं चेव आगच्छंति दिवसं च हिंडेयव्वं एवं किलेसो अप्पगंच भत्तं होति। जहा ते अणालसर्चडा (तहा जे तरुणा) आयपरहिआवहा ते बाहिरगामभिक्खायरिअंजंति, ताहे ते अचमढिअगामाओ खीरं दहि माइयाई घेत्तूण लहुं आगया उग्गमदोसाई य जढा होति, बालवुड्डा य अणुकंपिया होंति, वीरियायारो य अणुचिन्नो होइ तम्हा गंतव्वं बाहिरगामे हिंडएहिं तरुणएहिं। इदानीममुमेवार्थ (भाष्यकार:) गाथाभिरुपसंहारन्नाहगामन्भासे बयरी, नीसंदकडुप्फला य खुज्जा य। पक्कामालसडिंभा, खायंतियरे गया दूरं / / 143 / / सिग्घयरं आगमणं, तेसिण्णेसिं च देंति सयमेव / खायंती एमेव उ, आयपरहिआवहा तरुणा / / 144 / / खीरदहिमाझ्याणं,लंभो सिग्घतरगं च आगमणं। पइरिक उणमाई, विजढा अणुकंपिआ इयरे / / 145 // ग्रामभ्यासे बदरी सा च निस्स्वादुकटुकफला कुब्जा च / सा चफलिता, तत्र च फलानि 'पक्काम' त्ति तानि च फलानि पक्वानि आमानि च पक्वामानि-अर्द्धपक्वानीत्यर्थः, ये अलसा डिम्भास्ते भक्षयन्ति। 'इयर' त्ति अनलसा; उत्साहवन्तो डिम्भास्ते दूरं गताः / तेषां च शीव्रतरमागमनं संजातं, ततश्च बाह्यत आगत्य 'तेसिं अण्णेसिंच दिति' तेषामलसशिशूनामन्येषां च ददति, स्वयमेव च भक्षयन्ति। एवमेव तरुणा अपि आत्मपरयोर्हितमावहन्तीति आत्मपरहितावहास्तरुणा: एवं तरुणानां क्षीरदध्यादीनांलम्भः शीघ्रतरं चागमनम्। 'पइरिक्के' तिप्रचुरतरं लभन्ते, उद्गमादयश्च दोषा: परित्यक्ता भवन्ति तथाऽनुकम्पिताश्चेतरे बालादयो भवन्तीति उक्त: कुजबदरीदृष्टान्तः / इदानीम् "आपुच्छिऊण गमणं" ति (भाष्यकार:) व्याख्यानयन्नाहआपुच्छिअ उग्गाहिअ, अण्णं गामं वयं तु वचामो। अण्णं च अपज्जत्ते, हॉति अपुच्छे इमे दोसा || 146 / / आपृच्छ्य गुरुमुद्ग्राहितपात्रका एवं भणन्ति, यदुत अन्यं ग्रामं वयं व्रजाम:, 'अण्णं च अपज्यत्ते' त्ति यदितस्मिन् ग्रामे पर्याप्त्यान भविष्यति ततस्तस्मादपि अन्य ग्रामं गमिष्यामः / “आपुच्छिऊण गमणं" त्ति भणियं, इदाणिं "दोसा य इमे अणापुच्छि" ति व्याख्यानयन्नाह, दोषा एतेऽनापृच्छयगतानां भवन्ति। के च ते दोषा:? (भाष्यकारस्तान्) व्याख्यानयन्नाहतेणाएसगिलाणे, सावय इत्थी नपुंसमुच्छाय। आयरिअबालबुड्ढा, सेहाखमगा परिचता // 147 // कदाचिदन्यनामान्तराले व्रजतां स्तेना भवन्ति, ततश्च तद्ग्रहणे (तत्र गमने।) उपधिशरीरापहरणं भवति; आचार्योऽप्यकथितो न जानाति कया दिशागता? इति, ततश्च दुःखेनान्वेषणं करोति। अथवा-आदेश:प्राघूर्णक आयातः, ते चानापृच्छय गताः, ते ये आयरिया एवं भयंता जहा पाहुणयस्स वट्टविह, अहवा गिलाणस्स पाउरगं गेण्हह, अहवा अंतराले सावयाणि अत्थि तेहिं भक्खियाणि होति, अहवा तत्थ गाने इत्थिदोसा नपुंसगदोसा वा अहवा मुच्छाए पडेज्जा ताहे न नज्जइ, अपुच्छिए कयराए दिसाए गय त्ति न नज्जति / ततश्चानापृच्छय गच्छता बालवृद्धसेहक्षपका: परित्यक्ता भवन्ति। यत आचार्यादीनां प्रायोग्यमानं नानयन्ति अनुक्तत्वात् न च प्रच्छनं कृतं येनोच्यन्ते। यत एते दोषा: परित्यागजनितास्तस्मादेतद्दोषभयात्आयरिए आपुच्छा, तस्संदिहे व तम्मि उवसंते। चेइयगिलाणकन्ना-इएसु गुरुणो अनिग्गमणं / / 240 / / Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग 1226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग तस्मादाचार्यमापृच्छ्य गन्तव्यम् अथाचार्य: कथञ्चिन्न भवति 'तस्संदिढे व' त्ति तेनाचार्येण य: संदिष्ट: यथाऽमुमापृच्छय गन्तव्यं ततस्तमापृच्छ्य व्रजन्ति। तस्मिन्नसति-आचार्य अविद्यमाने कचिन्निर्गते, केन पुन: कारणेनचार्यो निर्गच्छति? अत आह-'चेइय' चैत्यवन्दनार्थ ग्लानादिकार्येषु गुरोनिर्गमनं भवति। अथाचार्येण गच्छता न कश्चिन्नियुक्तस्तत:? भण्णइ पुव्वनिउत्ते, आपुच्छित्ता वयति ते समणा। अणभोगे आसन्ने, काइयउच्चारभोमाई / / 241 // अभणिते पूर्वनियुक्तान्- कस्मिंश्चिद्भिक्षावेलायां य: प्रागेव नियुक्त आस्ते तमापृच्छय व्रजन्ति ते श्रमणा भिक्षार्थम् 'अणाभोग' त्ति अनाभोगेन-अत्यन्तस्मृतिभ्रंशेन गता: तत: 'आसन्ने' त्ति आसन्ने भूमिप्रदेशे यदि स्मृततत आगत्य पुन: कथयित्वा यान्ति, 'काइय' त्ति कायिकार्थ यो निर्गत: साधुस्तस्मै कथयन्ति, यदुत वयममुकत्र गताः / 'उच्चारभोमादि' त्ति संज्ञाभूमिं यो गतस्तस्मै कथयन्ति, यदुत कथनीयमहममुकत्र गत इति। आदिग्रहणात्प्रथमानिकार्थ वा यो गतस्तस्य वा हस्ते संदिशन्ति। दवमाइनिग्गयं वा, सेजायर पाहुणं च अप्पाहे / असई दूरगओ वि अ, नियत्त इहरा उ ते दोसा // 212 // द्रवं-पानकंतदर्थ निर्गतोय: साधुस्तं दृष्ट्वा कथयन्ति, 'सेजायर पाहुणं च अप्पाहे' त्ति शय्यातर वा दृष्ट्वा संदिशन्ति प्राघूर्णकं वा साध्वादि दृष्ट्वा संदिशन्ति, यत: कथनीयं मम विस्मृतमिति। यदा त्वेतान् गच्छन्न पश्यति तदा दूरगत: 'वि अणियत्तइ' ति दूरगत: सन्निवर्तत, 'इंहरा उ' त्ति यदि न निर्वत्तते तत: 'ते दोस' त्ति ते पूर्वोक्ता: स्तेनादयो दोषाः भवन्तीति / अण्णं गामं च वए, इमाई कजाई तत्थ नाऊणं / तत्थ वि अप्पाहणया, नियत्तई वा सई काले // 253 / / अथासौ साधुस्तस्माद्यामादन्यं ग्राम: व्रजेत्, एतानि कार्याणिवक्ष्यमाणलक्षणाणि, कानि ? 'दूरट्टिअखुड्डलए' इत्येवमादीनि 'तत्रे' ति तस्मिन् ग्रामे योऽसावभिप्रेतो ज्ञात्वा-विज्ञाय, ततश्च किं कर्तव्यमित्यत आह-तत्रापि अन्यस्मिन्ग्रामे व्रजता 'अप्पाहणया' संदेशकस्त थैव दातव्यः / अथ किश्चन्नास्ति यस्य हस्ते संदिश्यते ततो निवर्त्तनं वा क्रियते। कदा ? अत आह-सति काले विद्यमाने 'पहुप्पंति' काले तत्तदनुष्ठीयते। यदुक्तम्, एतानि कार्याणि तत्र ज्ञात्वाऽन्यत्र ग्रामे व्रजन्ति। तानि दर्शयन्नाहदूरहिअखुडलए, नव भड अगणीय पंत पडिणीए। पाओग्गकालइकम, एकगलंभो अपजत्तं // 20 // प्रथम गाथाई सुगमम् / एतानि दूरस्थितादीनि कारणानि अर्द्धपथ एव ज्ञातानि, कदाचिद्गत:सन्तत्र पाउग्ग' त्ति तत्रग्रामे प्रायोग्यमाचार्यादीनां नलब्धं ततोऽन्यत्र व्रजति, 'कालातिक्कम' त्ति भिक्षाकालस्य वाऽतिक्रमो | जात:, एकस्य वा साधोस्तत्र भोजनलाभो जातस्ततोऽन्यग्रामे व्रजन्ति. (अत्र ग्राम्यकृतएकत्वं बहुत्वं चसाधुसंघाटकपरत्वेनोक्तम्) / 'अपज्जत्तं' तिनवा पर्याप्त्या तत्र भक्तजातंलब्ध, पानकंवानलब्धम्, एभिरनन्तरोक्तै: कारणैन्यग्रामं व्रजन्तीति। उपाउग्गाईणमसइ, संविग्गं सण्णिमाइ अप्पाहे। ...जइ य चिरं तो इयरे, ठवित्तु साहारणं मुंजे // 245 / / एवमसौ प्रायोग्यादीनाम् असति अन्यग्रामं व्रजति, व्रजंश्च संविग्नं-साधु यदि पश्यति ततस्तस्य हस्ते संदिशति, सङ्घी-श्रावकस्तस्य हस्ते संदिशत्यन्यस्य वा आदिग्रहणात्-पूर्ववच्छेषम्। एवं तावद्भिक्षामटतां विधिरुक्तः। ये पुनर्वसतौ तिष्ठन्ति। साधवस्तै: किं कर्त्तव्यमित्यत आह'जइ य चिरं' यदि च चिरं तेषां ग्रामंगतानां तत इतर वसतिनिवासिन: साधवः 'ठवेत्तु साहारणं' यद्गच्छसाधारणं विशिष्टं किञ्चित्तत्स्थापयित्वा शेषमपरं प्रान्तप्रायं भुञ्जते। अथ तथाऽपि चिरयन्तिजाएँ दिसाए उ गया, भत्तं घेत्तुं तओ पडियरंति। अणपुच्छनिग्गयाणं, चउहिसं होइ पडिलेहा / / 256 // 'जाए दिसाए उगया' यया दिशा भिक्षाटनार्थ गतास्तया दिशा गृहीतभक्तपानका: साधवः 'पडियरंति' त्ति प्रतिजागरणां-निरूपणां कुर्वन्ति। अथ तु ते भिक्षाटका अनाभोगेनाकथयित्वैव गतास्तत: किं कर्तव्यमित्यत आह अनापृछ्य निर्गतानां भिक्षाहिण्डकानां चतसृष्वपि दिक्षु प्रतिजागरणं-निरूपणं कर्तव्य साधुभिः / प्रतिजागरणगमनविधि: क:? पंथेणेगो दो उ-प्पहेण सह करेंति वच्चंता। अक्खरपडिसाडणया, पडियरणिअरेसिमग्गेणं // 247 // पथा-मार्गेण प्रसिद्धेन एकः साधु: प्रश्नयति, द्वौ साधूउत्पथेन-उन्मार्गेण व्रजत:, वर्त्तन्या एक एकया दिशाऽन्यश्चान्यया। ते च त्रयोऽपि व्रजन्त: शब्दं कुर्वन्ति।तेच व्रजन्त: स्तेनादिना नीयमाना: साधवः किं कुर्वन्तीत्यत आह. 'अक्खर' त्ति वर्तिन्यामक्षराणि लिखन्तः पादादिना व्रजन्ति, 'परिसाडणय' त्ति परिशातनं वस्त्रादे: कुर्वन्तो व्रजन्ति येन कश्चित्तेन मार्गेणान्वेषयन्ति। 'पडिअरणियरेसिं' ति इतरेषामन्वेषणार्थ निर्गतानां साधूनां मार्गेण तत्कृतेन चिडून प्रतिजागरणं कर्त्तव्यम्। गामे गंतुं पुच्छे, घरपरिवाडीऍ जत्थ उन दिहा। तत्थेव बोलकरणं, पिडियजणसाहणं चेव / / 248 // यदा तु पुनस्तेषां स्तेननीतानां चिहन किञ्चित्पश्यति तदाऽपि ग्राममेव गत्वा पृच्छति, कथं ? गृहपरिपाट्या, 'जत्थ उ ण दिट्ठ' त्ति यत्र न दृष्टास्तस्मिन् ग्रामे, न च तद्ग्रामनिर्गतानां वार्ता, तत्रैव 'बोलकरणं' बोलं कुर्वन्ति, पश्चाच्च 'पिंडितजणसाहणं' पिण्डितो-मिलितो यो जनस्तस्य कथयन्ति, यदुत अस्मिन् ग्रामे प्रव्रजिता भिक्षार्थं प्रविष्टा: न च तेषां पुनरस्मात् ग्रामाद्वार्ता श्रुतेति। एवं तैस्तरुणैरेतदेव च कृतं भवति अन्यग्रामेऽटद्भिःएवं उग्गमदोसा, विजढा पहरिकया अणोमाणं / Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग १२२७-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंडग मोहतिगिच्छा अकया, विरियारीय अणुजिण्णो / / 248 // एवम्-अन्यग्रामे भिक्षाटनेन उद्गमदोषा:-आधाकर्मादय: 'विजढा' परित्यक्ता भवन्ति। 'पइरिक्कय' त्ति प्रचुरस्य भक्तादेर्लाभो भवति। 'अणोमाणं ति न वा अपमानम्-अनादरकृतं भवति लोके / तथा मोहचिकित्सा च कृता भवति, श्रमाऽऽतपवैयावृत्त्यादिभिर्मोहस्य निग्रहः कृतो भवति-अवकाशो दत्तो न भवतीति। 'विरियायारो य' वीर्याचारश्व अनुचीर्ण:-अनुष्ठितो भवति। अणुकंपायरियाई, दोसा पइरिकजयसंसटुं। पुरिसे काले खमणे, पढमालिय तीसु ठाणेसु // 250 // एवमुक्ते सति चोदक आह-सत्यमाचार्यादयोऽनुकम्पिता भवन्ति किन्तु त एव वृषभाः परित्यक्ता भवन्ति। आचार्योऽप्यनेनैव वाक्येन प्रत्युत्तरं ददाति काक्वा- 'अणुकंपायरिआइ' त्ति एवमाचार्यादीनामनुकम्पा, यत एव परलोके निर्जरा इह लोके प्रशंसा। पुनरप्याह पर:- ‘दोसा' इति भवतु नाम परलोकाऽ (अचार्या) नुकम्पा किन्तु क्षुत्पीडा पिपासापीडा च तदवस्थैव / आचार्याऽप्याह-क्रियत एव प्रथमालिका, किन्तु ? त्रिषु स्थानेषु, कानिचतानि ? अत आह- 'पुरिसे' ति पुरुष:- असहिष्णु:, पुरुषो यद्यसहिष्णुस्तत: करोति, काले-उष्णकालादौ, यधुष्णकालस्तत: करोति, 'खवण' त्ति कदाचित्क्षपको भवति अक्षपको वा यदि क्षपकस्तत: करोति, एवमेतेषु त्रिषु स्थानकेषु प्रथमालिकां करोति / क्व करोति ? आचार्याऽप्यनेनैव वाक्येनोत्तरं ददाति। कथं वा करोति ? अत आह. पतिरिक्के जयण' ति प्रतिरिक्ते एकान्ते यतनया करोति, पुनरप्याह पर:-आचार्यादीनां तेन तद्भक्तं संसृष्टं कृतं भवति, आचार्योsप्यनेनैव वाक्येनेत्तरं ददाति- 'पतिरिकजयणसंसट्ठ' एकान्ते यतनयाऽसंसृष्टं च यथा भवति तथा पढमालिय' ति-मात्रके प्रथममाकृष्य भुक्ते हस्तेन वा द्वितीयहस्ते कृत्या, अकारप्रश्लेष आचार्यवाक्ये द्रष्टव्यः / इदानीमेनामेव गाथां भाष्यकार: प्रतिपदं व्याख्यानयन्नाह-तत्र प्रथमावयवव्याचिख्यासुराहचोयगवयणं अप्पा-णुकंपिओ ते अभे परिचत्ता। आयरियऽणुकंपाय, परलोए इह पसंसणया / / 14 / / चोदकस्य वचनं, किं तद् ? आत्मैवैवमनुकम्पित आचार्येण, ते च भगवता परित्यक्ता भवन्ति। आचार्योऽप्याह-आचार्यानुकम्पया परलोको भवति, इहलोकेच प्रशंसा भवति। 'अणुकंपाऽऽयरियाई' वक्खाणि। इदानीं (भाष्यकार:) 'दोस' त्ति व्याख्यानयन्नाहएवं पि अपरिचत्ता, काले खवणे अ असहुपुरिसे य। कालो गिम्हो उ भवे,खमगो वा पढमबिइएहिं / / 146 || चोदक: पुनरप्याह-एवमपिते परित्यक्ता एव, यत: क्षुधादिना बाध्यन्ते। आचार्योऽप्याह- 'काले' त्ति काले उष्णकाले करोति 'खवण' त्ति क्षपको यदि भवति तत: स करोति प्रथमालिकाम् असहिष्णुश्च पुरुषो यदि भवति तत: स करोति प्रथमालिकाम्, तत्र कालो-ग्रीष्मो यदि भवेत्ः पुरुषः क्षपको यदि भवेत् 'पढमविइएहिं' ति अत्र पुन: केन कारणेनासहिष्णु भवति? 'पढमे त्ति प्रथमपरीषहेण बाध्यमान: क्षुधित इत्यर्थ: / द्वितीयपरीषहेण तृषा बाध्यमान:-पिपासया पीड्यमानोऽसहिष्णुर्भवति। अत्राऽऽह पर:(भा०) जइ एवं संसहूं, अप्पत्ते दोसिणाइणं गहणं। लंबणमिक्खा दुविहा, जहण्णमुक्कोस तिअपणए।। 150 / / यद्येवमसौ बाह्यत एव प्रथमालिकांकरोति ततो भक्तं संसृष्टं कृतं भवति। आचार्योऽप्याह 'अप्पते दोसिणादिणं गहणं' अप्राप्तायामेव भिक्षावेलायां पर्युषितान्नग्रहणं कृत्वा प्रथमालयति। कियत्प्रमाणां पुन: प्रथमालिकां करोत्यसौ ? द्विविधा प्रथमालिका भवति- 'लंबणभिक्खा दुविहा' लम्बनै:-कवलैमिक्षाभिश्च द्विविधा प्रथमालिका भवति। इदानीं जघन्योतृकृष्टत:, प्रमाणप्रतिपादनायाह- 'जहन्नमुक्कोस तिअपणए' यथासंख्येन जघन्यतस्त्रयः कवलास्तिस्स्रो वा भिक्षा:, उत्कृष्टत: पञ्च कवला: पञ्च वा भिक्षाः। इदानीं तेन सङ्घाटकेन किं वस्तु केषु पात्रकेषु गृह्यते ? का वा प्रथमालिकाकरणे यतना क्रियते? एतत्प्रतिपादयन्नाहएगत्थ होइ भत्तं, बिइअम्मि पडिग्गहे दवं होइ। पाउग्गायरियाई, मत्ते बिइए उसंसत्तं // 351 // एकस्मिन् पात्रके भक्तं गलाति, द्वितीय च एतद्हे द्रवं भवति। तथा 'पाउग्गायरियाई मत्ते' त्ति प्रायोग्यमाचार्यादीनामेकस्मिन् मात्रके भक्तं गृह्यते। 'बितिए उसंसतं' द्वितीये तुमात्रके संसृष्टं किञ्चित्पानकं गृह्यते। जइ रित्तो तो दवम-त्तगम्मि पढमालियाए करणं तु / संसत्तगहण दवहु-लहे य तत्थेव जं पत्तं // 352 / / यदि रिक्तः संसक्तद्रवमात्रकस्ततस्तस्मिन् प्रथमालिकायाः करणं, 'संसत्तगहणं' तिअथ तस्मिन् द्रवमात्रके संसक्तद्रवग्रहणं कृतं ततस्तत्रैव पात्रके यत्प्रान्तं तद्भुङ्क्ते। 'दवदुल्लभेय' त्ति अथ दुर्लभं (द्रवं) पानकं तत्र क्षेत्रे ततश्च तत्रापि संसक्तमात्रके पानकाक्षणिके सति 'तत्थेव' तितस्मिन्नेव भक्तपतद्ग्रहे यत्प्रान्तं तद्धस्तेनाकृष्यान्यस्मिन् हस्ते कृत्वा समुद्दिशति। एवं चासौ संघाटक: प्रथमालिकां करोतिअंतरपल्लीगहि पढमागहियं व सव्व मुंजेजा। धुवलंभसंखडीय व, जंगहिअंदोसिणं वावि / / 253 / / अन्तरपल्ली-तस्माद् ग्रामात्परतो योऽन्य आसन्नग्रामस्तत्र यद् गृहीतं तद्भुङ्क्ते, पुनस्तत्तत्र क्षेत्रातिक्रान्तत्वादभोज्यं भवति। 'पढमागहिअं व' तिप्रथमायां वा यौरुष्यां यद् गृहीतं तत्सर्वभुते, तृतीयपौरुष्यामकल्प्य यतस्तद्भवति। 'धुवलंभ संखडीयं व' ध्रुवो वा-अवश्यं भावीअत्र संखड्या लाभो भविष्यतीतिमत्वा, ततश्च यद् गृहीतं 'दोषिणं वावि' पर्युषितमन्नं तत्सर्व भुड्.क्ते। दरहिंडिए व भाणं, भरि, भोचा पुणो वि हिंडिज्जा। कालो वाऽइक्कमई, मुंजेज्जा अंतरं सव्वं // 24 // अर्द्धहिण्डिते वा यत्पात्रकं गृहीतं तद्भुतं, ततश्च तद् Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंडग १२२८-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंसा कत्वा पुनरपि हिण्डेत। 'कालो वाऽतिक्कमति' त्तिं भाजनकालो वा प्रव्रजितानामतिक्रामति यावदसौ तद्भक्तं गृहीत्वा व्रजन्ति ततश्चान्तराल एव सर्व भुतवा प्रविशति। ओघ०। अनु० / आ० म०। हिण्डकत्वेन हिण्डकः। जीवे, भ०२० श०२ उ०। हिंडन्त त्रि० (हिण्डमान) इतस्तत: पर्यटति, बृ०२ उ०२ प्रक०। हिंडमाण त्रि०(हिण्डमान) अधिगच्छति, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / हिंडिऊण अव्य० (हिण्डित्वा) अटित्वेत्यर्थे, पं० व०२ द्वार। हिंडिय त्रि० (हिण्डित) विहृले, ज्ञा० श्रु०६ अ०। हिंडुपुं० (हिन्दु)सिन्धुनदोपलक्षितदेशवासिनि मनुष्ये, सचदेश: पश्चिमायाम् आ सिन्धुनदात्प्राच्याम् आब्रह्मपुत्रनदात् उत्तरस्याम् आ हिमालयादक्षिणश्रेणेर्दक्षिणस्याम् आ समुदात्, सिन्धुरिति संस्कृतशब्द: / सिन्धो: पाश्चात्यात् आ ऐरावतपारसीकयवनैर्लेच्छैः स्वदेशोचारणशैल्या हिन्दुरिति व्यवहारतो जनपदपरोऽपि तात्स्थ्यादार्य मनुष्यपरोऽजायत क्रमादेतद्देशप्रसिद्धवेदमूलकलोकागमानुसारिष्वपि बोधको जातः। ती० 20 कल्प। नि० चू०। हिंडोल (देशी) क्षेत्ररक्षणयन्त्रे, दे० ना० 8 वर्ग 66 गाथा। हिंडोलय (देशी) क्षेत्रे मृगनिषेधरवे, दे० ना० 8 वर्ग 66 गाथा। हिंविअ (देशी) एकपद्गमनक्रीडने, दे० ना० 8 वर्ग 68 गाथा। हिंस त्रि०(हिंस्त्र) हिनस्तीत्येवं शीलो हिस्स्रः / स्वभावत: प्राणव्यपरोप णकृति, उत्त० पाई०७ अ०। हिंसनशीले, उत्त०७ अ०। स्था०। हिंसग त्रि० (हिंसक) जीवहिंसाकरणशीले, उत्त०१२ अ० / स्था०। हिंसप्पयाण न० (हिंसाप्रदान) हिंसाहेतुत्वादयुधानलविषादयो हिंसोच्यते, कारणे कार्योपचारात्, तेषां प्रदानमन्यस्मै क्रोधाऽभिभूताय अनभिभूताय वा। आव०६अ० / हिंस्नं हिंसाकारि शस्त्रादि, तत्प्रदानं परेषां समर्पणम्। उपा०१ अ० हिंसनशीलानि हिंस्रकाणि, हिंसोपकरणानि-आयुधानलविषादयस्तेषां प्रदानम्-अर्पणम्।अनर्थदण्डभेदे, ध० 2 अधि। हिंसप्पेहि (ण) पुं० (हिंसाप्रेक्षिन) हिंसां-बधंसाध्वादे: प्रेक्षतेगवेषयतीति हिंसाप्रेक्षी। साध्वादिबधके पाराञ्चिताहे, स्था०५ ठा०१ उ०।। हिंसविहींसास्त्री० (हिंस्रविहिंसा) गौणहिंसायाम्, प्रश्न०१आश्र० द्वार (अस्या व्याख्या 'पाणवह' शब्दे पञ्चमभागे 833 पृष्ठे गता।) हिंसा स्त्री० (हिंसा) हिंसनं हिंसा, हिंसि हिंसायामित्यस्य "इदितो नुम् धातो" रिति नुमि कृते स्त्र्यधिकारे टाप् / दश० 1 अ०। प्राण्युपमर्दै, सूत्र०२ श्रु०२ अ० / सावबधे, विशे० / व्यापादने, उत्त०५ अ०। प्राणवियोगप्रयोजके व्यापारे, द्वा० 21 द्वा०। सूत्र०। प्रमादानाभोगाभ्यां व्यापादने, दश०४ अ०जीवबधे, कर्म०१ कर्म०। प्रश्र० / प्रमत्ततद्योगात्प्राणिव्यपरोपणे, सावानां वधबन्धनादिभिः प्रकारैः पीडायाम्, स्था० 4 ठा०१उ०।सा आ०म० आ० चू०। “पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच, उच्छवासनि: श्वासमथान्यदायुः / प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषा वियोजीकरणं तु हिंसा // 1 // " आचा० 1 श्रु० 5 अ० 5 उ०। विशे०। आव० / स्था०। अधुना मीमांसकभेदाभिमतं वेदविहितहिंसाया धर्महेतुत्वमुपपत्तिपुरस्सरं निरस्यन्नाहन धर्महेतुर्विहिताऽपि हिंसा, नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च / स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सा- . सब्रह्मचारिस्फुरितं परेषाम् // 11 // इह खल्वर्चिर्गिप्रतिपक्षधूममार्गाश्चिता जैमिनीया इत्थमाचक्षते-या हिंसा गााद्, व्यसनितया वा क्रियते, सैवाऽधर्मानुबन्धहेतुः, प्रमादसंपादितत्वात्, शौनिकलुब्धकादीनामिव / वेदविहिता तु हिंसा प्रत्युत धर्महेतु:, देवताऽतिथिपितृणा प्रीतिसंपादकत्वात्, तथाविध-पूजोपचारवत्। न च तत्प्रीतिसम्पादकत्वमसिद्धम्, कारीरीप्रभृतियज्ञानां स्वसाध्ये वृष्ट्यादिफलेय:खल्वव्यभिचारः,सतत्प्रीणितदेवताविशेषानुग्रहहेतुकः / एवं त्रिपुरार्णववर्णितच्छगलजाङ्गलहोमात्परराष्ट्रवशीकृतिरपि तद्नुकूलितदैवतप्रसादसंपादा। अतिथिप्रीतिस्तुमधुपर्कसंस्काराऽऽदिसमास्वादजा प्रत्यक्षोपलक्ष्यैव / पितॄणामपि तत्तदुपयाचितश्राद्धाऽऽदिविधानेन प्राणिताऽऽत्मनां स्वसन्तानवृद्धिविधानं साक्षादेव वीक्ष्यते। आगमश्चात्र प्रमाणम् सच देवप्रीत्यर्थमश्वमेधगोमेधनरमेधाऽऽदिविधानाभिधायक: प्रतीत एव। अतिथिविषयस्तु- “महोत्तं वा महाजंवा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत्" इत्यादिः / पितृप्रीत्यर्थस्तु-“द्वौ मासौ मात्स्यमांसेन, त्रीनू मासान् हारिणेन तु औरभ्रेणाथ चतुरः, शाकुनेनेह पञ्चतु"।।१॥ इत्यादि: एवं पराभिप्राय हृदि संप्रधार्याऽऽचार्य: प्रतिविधत्ते 'नधर्मे त्यादि, विहीताऽपि-वेदप्रतिपादिताऽपि, आस्तां तावदविहिता, हिंसा प्राणिप्राणव्यपरोपणरूपा, न धर्महेतु:-न धर्मानुबन्धनिबन्धनम्। यतोऽत्र प्रकट एव स्ववचनविरोधः / तथाहि-हिंसा चेद्धर्महेतुः कथम् 'धर्महेतुश्चेद्-हिंसा कथम्? "श्रूयतांधर्मसर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्यताम्" इत्यादिः / न हि भवति माता च, वन्ध्या चेति। हिंसा कारणं धर्मस्तु तत्कार्यमिति पराभिप्राय:, नचायं निरपाय:, यतो-यद्यस्यान्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते तत् तस्य कार्यम्, यथा मृत्पिण्डादेर्घटादिः / न च धर्मो हिंसात एव भवतीति प्रातीतिकम्, तपोविधानदानध्यानादीनां तदकारणत्वप्रसङ्गात् / अथ न वयं सामान्येन हिंसांधर्महेतुं ब्रूम:, किन्तु विशिष्टामेव; विशिष्टा च सैव-या वेदविहिाता इति चेत्-ननु तस्या धर्महेतुत्वं किं वध्यजीवानां मरणाऽभावेन, मरणेऽपितेषामार्तध्यानाऽभावात्, सुगतिलाभेन वा? नाद्य: पक्ष:-प्राणत्यागस्य तेषांसाक्षादवेक्ष्यमा Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा 1226 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंसा णत्वात्। न द्वितीय:-परचेतोवृत्तीनां दुर्लक्ष्यातयाऽऽर्तध्यानाऽभावस्य वाड्.मात्रत्वात्, प्रत्युत हा / कष्टमस्ति-न कोऽपि कारुणिक: शरणम् ? इति स्वभाषया विरसमारसत्सु तेषु वदनदैन्यनयनतरलताऽऽदीनां लिङ्गाना दर्शनाद् दुर्ध्यानस्य स्पष्टमेव निष्टड्क्य मानत्वात्। अथेत्थमाचक्षीथा:-यथा अय:पिण्डो गुरुतया मज्जनाऽऽत्मकोऽपि तनुतरपत्राsऽदिकरणेन संस्कृत: सन् जलोपरिप्लवते, यथा च मारणाऽऽत्मकमपि विषं मन्त्राऽऽदिसंस्कारविशिष्टं सद् गुणाय जायते, यथा वा दहनस्वाभावोऽप्यग्नि: सत्यादिप्रभावप्रतिहतशक्तिः सन्नही दहति / एवं मन्त्राऽsदिविधिसंस्काराद् न खलु वेदविहिता हिंसा दोषपोषाय / न च तस्याः कुत्सितत्वं शड्कनीयम्, तत्कारिणां याज्ञिकानां लोके पूज्यत्वदर्शनादिति। तदेतद् न दक्षाणां क्षमते क्षोदम्, वैषम्येण दृष्टान्तानामसा धकतमत्वात् / अय: पिण्डादयो हि पत्राऽदिभावान्तराऽऽपन्नः सवन्त: सलिलतरणादिक्रियासमर्थोः, न च वैदिकमन्त्रसंस्कारविधिनाऽपि विशस्यमानानां पशूनां काचिद् वेदनाऽनुत्पादार्दिरूपा भावान्तराऽऽपत्ति: प्रतीयते। अथ तेषां वधाऽनन्तरं देवत्वाऽऽपत्तिर्भावान्तरमस्त्येवेति चेकिमत्र प्रमाणम् ? न तावत् प्रत्यक्षम्-तस्य संबद्धवर्तमानार्थग्राहकत्यात्- “सम्बद्धं वर्तमान च गृह्यते चक्षुरादिना" इति वचनात्। नोप्यनुमानम्-तत्प्रतिबद्धलिङ्गानुपलब्धेः / नाप्यागमः-तस्याद्यापि विवादाऽऽस्पदत्वात्। अर्थापत्त्युपमानयोस्त्वनुमानान्तर्गततया तदूषणेनैव गतार्थत्वात्। अथ भवतामपि जिनाऽऽयतनाऽऽदिविधाने परिणामविशेषात् पृथिव्यादिजन्तुजातघातनमपि यथा पुण्याय कल्प्यते इति कल्पना, तथा अस्माकमपि किं नेष्यते? वेदोक्तविधिविधरूपस्य परिणामविशेषस्य निर्विकल्पं तत्रापि भावात्। नैवम्, परिणामविशेषोऽपि स एव शुभफलो, यत्राऽनन्यान्योपायत्वेन यतनयाऽप्रकृष्टप्रतनुचैतन्यानां पृथिव्यादिजीवानां वधेऽपि स्वल्पपुण्यव्ययेनाऽपरिमितसुकृतसंप्राप्ति:, न पुनरित रः। भवत्पक्षे तु सत्स्वपि तत्तछुतिस्मृतिपुराणेतिहासप्रतिपादिषु यमनियमादिषु स्वर्गावाप्त्युपायेषु तांस्तान् देवानुद्दिश्य प्रतिप्रतीकं प्रत्यवयकम् कर्तनकदर्थनया कान्दिशीकान् कृपणपञ्चेन्द्रियान् शौनिकाधिकं मारयतां कृत्स्नसुकृतव्ययेन दुर्गतिमेवानुकूलयतां दुर्लभ: शुभपरिणामविशेष:, एवं चयंकञ्चन पदार्थ किश्चित्साधर्म्यद्वारेणैव दृष्टान्तीकुर्वतां भवतामतिप्रसङ्गः, सङ्गच्छते / न च जिनाऽऽयतनविधापनादौ पृथिव्यादिजीवबधेऽपि न गुणः / तथाहि-तद्दर्शनाद् गुणाऽनु रागितया भव्यानां बोधिलाभ:, पूजाऽतिशय-विलोकनाऽऽदिना च मन: प्रसाद:, तत: समाधिः, ततश्च क्रमेण निःश्रे यसप्राप्तिरिति / तथा च | भगवान् पञ्चलिङ्गीकार:"पुढवाइयाण जइ वि हु, होइ विणासो जिणालयाहिन्तो। तविसया विसुदिट्ठि-स्स णियमओ अत्थि अणुकंपा // 1 // एयाहिंतो बुद्धा, बिरया रक्खन्ति जेण पुढवाई। इत्तो निव्वाणगया, अवाहिया आभवमिमाणं // 2 // रोगिसिरावेहो इव, सुविज्जकिरिया व सुप्पउत्ताओ। परिणामसुंदरचिय, चिट्ठा से बाहजोगे वि // 3 // " इति। वैदिकबधविधाने तु न कश्चित्पुण्यार्जनानुगुणं पश्यामः // अथ विप्रेभ्यः पुरोडाशाऽऽदिप्रदानेन पुण्यानुबन्धी गुणोऽस्त्येव इति चेत्, न, पवित्रसुवर्णाऽऽदिप्रदानमात्रेणैव पुण्योपार्जनसम्भवात् कृपणपशुगणप्यपरोपणसमुत्थमांसदानं केवलं निपुणत्वमेव व्यनक्ति। अथ न प्रदानमात्रं पशुवधक्रियाया: फलं किन्तु भूत्यादिकम्, यदाह श्रुति:-"श्वेतं वायव्यमजमालभेत् भूतिकामः" इत्यादि। एतदपिव्याभिचारपिशाचग्रस्तत्वादप्रमाणमेव, भूतेश्चौपयिकान्तरैरपिसाध्यमानत्वात्। अथ तत्र सत्रे हन्यमानानां छागादीनां प्रेत्य सद्गतिप्रारूपोऽस्त्येवोपकार इति चेत्; वाड्.मात्रमेतत्, प्रमाणाऽभावात्, नहि ते निहता: पशव: सद्गतिलाभमुदितसनस: कस्मैचिदागत्य तथाभूतमात्मानं कथयन्ति। अथास्त्यागमाऽऽख्यं प्रमाणम्। यथा “औषध्य: पशवो वृक्षा-स्तिर्यश्च: पक्षिणस्तथा। यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः, प्राप्नुवन्त्युचिछूतं पुनः" // 1 // इत्यादि। नैवम्, तस्य पौरुषेयाऽपौरुषेयविकल्पाभ्यां निराकरिष्यमाणत्वात्। नच श्रौतेन विधिना पशुविशसनविधायिनां स्वर्गावाप्तिरुपकार इति वाच्यम्, यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्गप्राप्ति: स्यात्, तर्हि वाढं पिहिता नरकपुरप्रतोल्य:, शौनिकादीनामपि स्वर्गप्राप्ति प्रसङ्गात् / तथा च पढ़न्ति पारमर्षा:- “यूपं छित्त्वा पशून्हत्वा' कृत्वा रुधिरकर्दमम् / यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते?" किञ्च-अपरिचिताऽस्पष्टचैतन्याऽनुपकारिपशुहिंसनेनापि यदि त्रिदिवपदवीप्राप्ति:, तदा परिचितस्पष्टचैतन्यपरमोपरिमातापित्रादिव्यापादनेन यज्ञकारिणामधिकत रपदप्राप्तिः प्रसज्यते। अथ अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभाव: इति वचनाद् वैदिकमन्त्राणामचिन्त्य-प्रभावत्वात् तत्संस्कृतपशुबधे संभवत्येव स्वर्गप्राप्तिः, इति चेत्। न, इह लोके विवाहगर्भाऽऽधानजातकर्माऽऽदिषु तन्मन्त्राणां व्यभिचारोपलम्भाद, अदृष्टे स्वर्गादावपि तद्व्यभिचारोऽनुमीयते। दृश्यन्ते हि वेदोक्त मन्त्रसंस्कारविशिष्टेभ्योऽपि विवाहाऽऽदिभ्योऽनन्तरं वैधव्याऽल्पा-युष्कतादारिद्याऽऽधुपद्रवविधुरा: पर: शता:, अपरे च मन्त्रसंस्कारं विना कृतेभ्योऽपि तेभ्योऽनन्तरं तद्विपरीताः / अथ तत्र क्रियावैगुण्यं विसंवादहेतुः, इति चेत्। न, संशयाऽनिवृत्ते: / किं तत्र क्रियावैगुण्यात् फले विसंवादः, किं वा मन्त्राणामसामर्थ्याद् ? इति न निश्चयः, तेषांक लेनाविनाभावासिद्धेः / अथ यथा युष्मन्मते- "आरोग्ग बोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु" इत्यादीनां वाक्यानां लोकान्तर एय फलमिष्यते, एवमस्मदभिमतवेदवाक्यानामपि नेह जन्मनि फलमिति किंन प्रतिपद्यते? अतश्च विवाहाऽऽदौ नोम्भावकाश:, इति चेत्। अहो। वचनवैचित्री यथा वर्तमानजन्मनि विवाहाऽऽदिषु प्रयुक्तैर्मन्त्रसंस्कारैरागामिनी जन्मनितत्फलम्, एवं द्वितीयादिजन्मान्तरेष्वपि विवाहाssदीनामेवं प्रवृत्तिधर्माणां पुण्यहेतुत्वाङ्गीकारेऽनन्तभवानुसन्धान प्रसज्यते, एवं चन कदाचन संसारस्य परिसमाप्ति:, तथा च न कस्यचिदपवर्गप्राप्ति:, इति प्राप्त भवदभिमतवेदस्य पर्यवसितसंसारवल्लरीमूलकन्दत्वम् / आरोग्याऽऽदिप्रार्थना तु असत्याऽमृषाभाषापरिणामविशुद्धिकारणत्वाद् नदोषाय,तत्र हि-भावाऽऽरोग्याऽऽदिकमेव विवक्षितम्, तच्च चातुर्गतिकसंसारलक्षेण भावरोगपरिक्षयस्वरूपत्वाद्-उत्तमफलम्, तद्विषया च Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा 1230- अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंसा प्रार्थना कथमिव विवेकिनामनादरणीया? नच तज्जन्यपरिणामविशुद्धेस्तत्फलं न प्राप्यते, सर्ववादिनां भावशुद्धेरपवर्ग फलसम्पादनेऽविप्रतिपत्तेरिति। न च वेदनिवेदिता हिंसा न कुत्सिता, सम्यग्दर्शनज्ञानसम्पन्नैरर्चिर्गिप्रपन्नैर्वेदान्तवादिभिश्च गर्हितत्वात्। तथा च तत्त्वदर्शिनः पठन्ति"देवोपहारथ्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा। घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा, घोरां ते यान्ति दुर्गतिम्" // 1 // / वेदान्तिका अप्याहु:"अन्धे तमसि मज्जामः, पशुभिर्ये यजामहे। हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति" ||1|| तथा 'अग्रिममितस्माद्धिंसाकृतादेनसो मुञ्चतु' छान्दसत्वाद् मोचयतु इत्यर्थः, इति। व्यासेनाप्युक्तम"ज्ञानपालिपरिक्षिप्ते ब्रह्मचर्यदयाम्भसि। स्नात्वाऽतिविमले तीर्थे, पापपड़.कापहारिणि // 1 // ध्यानानौ जीवकुण्डस्थे, दममारुतदीपिते / असत्कर्मसमित्क्षेपै-रग्रिहोत्रं कुरुत्तमम् // 2 // कषायपशुभिर्दुष्टै-धर्मकामार्थनाशकैः। शममन्त्रहुतैर्यज्ञं, विधेहि विहितं बुधैः / / 3 / / प्राणिघातात् तु यो धर्म-मीहते मूढमानसः / स वाञ्छति सुधावृष्टिं, कृष्णाऽहिमुखकोटरात्" ||4|| इत्यादि। यच याज्ञिकानां लोकपूज्यत्वोम्भादित्युक्तम् तदप्यसारम्, अबुधा एव हि पूजयन्ति तान् न तु विविक्तबुद्धयः / अबुधपूज्यता तु न प्रमाणम्, तस्या: सारमेयाऽऽदिष्वप्युपलम्भात्। (स्या०) ('अग्रिहोत्रविषय: अग्गिहोत्त' शब्दे प्रथमभागे) पितॄणां पुन: प्रीतिरनैकान्तिकी, श्राद्धाऽऽदिविधानेनापि भूयसांसन्तानवृद्धेरनु-पलब्धेः, तदविधानेऽपि च केषाञ्चिद् गर्दभशूकराऽजादीनामिव सुतरांतदर्शनात्, ततश्च श्राद्धादिविधानं मुग्धजनविप्रतारणमात्रफलमेव / ये हि लोकान्तरं प्राप्तास्ते तावत् स्वकृतसुकृतदुष्कृतकर्मानुसारेण सुरनारकादिगतिषु सुखमसुखं वा भुजाना एवासते, ते कथमिव तनयाऽऽदिभिरावर्जितं पिण्डमुपभोक्तुं स्पृहयालवोऽपि स्यु: ? तथा च युष्मद्यूथिन: पठन्ति- "मृतानामपि जन्तूनां, श्राद्धं चेद् तृप्तिकारणम्। तन्निर्वाणप्रदीपस्य, स्नेह: संवर्द्धयेच्छिखाम्" / / 11 // इति कथं च श्राद्धविधानाघर्जितं पुण्यं तेषां समीपमुपैतु, तस्य तदन्यकृतत्वात्, जडत्वाद्, निश्चरणत्वाच्च / अथ तेषामुद्देशेन श्राद्धादिविधानेऽपि पुण्यं दातुरेव तनयादे: स्यादिति चेत्। तन्न, तेन तजन्यपुण्यस्य स्वाध्यवसायादुत्तारितत्वात्। एवं च तत्पुण्यं नैकतरस्यापि इति-विचाल एव विलीनं त्रिशड्.कुज्ञातेन, किन्तु पापानुबन्धिपुण्यत्वात्तत्वत: पापमेव। अथ विप्रोपभुक्तं तेभ्य उपतिष्ठत इति चेत् क इवैतत्प्रत्येतु ? विप्राणामेव मेदुरोदरतादर्शनात्, तद्वपुषि च तेषां संक्रम: श्रद्धातुमपि न | शक्यते, भोजनावसरे तत्संक्रमलिङ्गस्य कस्याप्यनवलोकनात्, विप्राणामेव च तृप्ते: साक्षात्करणात् यदि परंतएव स्थूलकवलैराकुलतरमतिगाा भक्षयन्त: प्रेतप्रायाः, इति मुधैव श्राद्धादिविधानम् / यदपि च गयाश्राद्धादियाचनमुपलभ्यते, तदपि तादृशविप्रलम्भक-विभङ्गज्ञानिव्यन्तराऽऽदिकृतमेव निश्चेयम्। (स्या०) (आगमविषय: 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे 53 पृष्ठे उक्त:।) नच वयमेव यागविधे: सुगतिहेतुत्वं नाङ्गीकुर्महे, किन्तु भवदाप्ता अपि / यदाह व्यासमहर्षिः- “पूजया विपुलं राज्य-मग्निकार्येण संपद: / तप: पापविशुद्ध्यर्थ, ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम" ||1 // अत्राग्निकार्यशब्दवाच्यस्य यागादि-विधेरुपायान्तरैरपि लभ्यानां संपदामेव हेतुत्वं वदन्नाचार्य:- तस्य सुगतिहेतुत्वमर्थात् कदार्थितवानेव। तथा च स एव भावाग्निहोत्रं 'ज्ञानपाली' त्यादिश्लोकैः स्थापितवान् / तदेव स्थिते तेषां वादिनां चेष्टामुपमया दूषयतिस्वपुत्रेत्यादि। परेषांभवत्प्रणीतवचन-पराङ्मुखानां स्फुरितं-चेष्टितं, स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सास ब्रह्मचारिनिजसुतनिपातनेन राज्यप्राप्तिमनोरथसदृशम्।यथा किल कश्चिद्विपश्चित्पुरुष: परुषाऽऽशयतया निजमङ्गजं व्यापाद्य राज्यश्रियं प्रामीहते, नच तस्य तत्प्राप्तावपि पुत्रघातपातककलड्.कंपड्क: क्वचिदपयाति, एवं वेदविहितहिंसया देवताऽऽदिप्रीतिसिद्धावपि, हिंसासमुत्थं दुष्कृतंनखलुपराहन्येत। अत्र च लिप्साशब्दप्रयुञ्जान: स्तुतिकारोज्ञापयति-यथा तस्य दुराशयस्याऽसदृशतादृशदुष्कर्म-निर्माणनिर्मूलितसत्कर्मणो राज्यप्राप्तौ केवलं समीहामात्रमेव, न पुनस्तत्सिद्धिः, एवं तेषां दुर्वादिनां वेदविहितां हिंसामनुतिष्ठतामपि देवताऽऽदिपरितोषणे मनोराज्यमेव, न पुनस्तेषामुत्तमजनपूज्यत्वमिन्द्राऽऽदिदिवौकसां च तृप्ति:, प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात्। इति काव्यार्थः / स्या०। पुरुषव्याघातेन तदन्यजीवव्याधात:तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे. जाव एवं वयासीपुरिसेणं भंते। पुरिसं हणमाणे किं पुरिंस हणइ नो पुरिसे हणइ ? गोयमा ! पुरिसं पि हणइ नो पुरिसे वि हणति। से केणटेणं भंते / एवं दुबइ पुरिसं पि हणइ नो पुरिसे वि हणइ ? गोयमा! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि से णं एगं पुरिसंहणमाणे अणेगजीवा हणइ, से तेणतुणं गोयमा ! एवं वुचइ पुरिसं पि हणइ नो पुरिसे वि हणति / पुरिसे णं भंते / आसं हणमाणे किं आसं हणइ नो आसे वि हणइ ? गोयमा ! आसं पि हणइनो आसे विहणइ, सेकेणतुणं अट्ठो तहेव, एवं हत्थिं सीहं वग्धं० जाव चिल्ललगं। पुरिसे णं भंते / अन्नयरं तसपाणं हणमाणे किं अन्नयरंतसपाणं हणइनो अन्नयरे तसपाणे हणइ? गोयमा !अन्नयरं पि तसपाणं हणइ नो अन्नयरे पि तसे पाणे नो अन्नयरे वि तसे पाणे हणइ ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ, एवं खलु अहं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणामि, से णं एग अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे हणइ, सेतेणटेणं गोयमा! तं चेव एए सव्वे वि एकगमा। पुरिसे णं भंते। इसिं हणमा Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा 1231 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंसा णे किं इसिंहणइ नो इसिं? गोयमा ! इसिं पिहणइ नो इर्सि पि / हणइ। से केणतुणं भंते / एवं वुचइ० जाव नो इसिं पि हणइ? गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं इसिं हणामि, से | णं एग इर्सि हणमाणे अणंते जीवे हणइ, से तेणतुणं निक्खेवओ। पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसवेरेणं पुढे नो पुरिसवेरेणं पुढे? गोयमा। नियमा ताव पुरिसवेरेणं धुढे,अहवा पुरिसवेरेण य णो पुरिसवेरेण य पुढे अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेहि य पुढे, एवं आसं एवं० जाव चिल्ललगं० जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य णो चिल्ललगवेरेहि य पुढे / पुरिसे णं मंते। इसिं हणमाणे किं इसिवेरेणं पुढे, नो इसिवेरेणं? गोयमा ! नियमा इसिवेरेण य नो इसिवेरेहिय पुढे। (सू०३६१) 'तेण' मित्यादि 'नो पुरिसं हणइ'त्ति पुरुषव्यतिरिक्तंजीवान्तरं हन्ति। 'अणेगे जीवे हणइ' त्ति अनेकान् जीवान् यूकाषट्पदिकाकृमिगण्डोलकादीन् तदाश्रितान् तच्छरीरावष्टब्धांस्तद्रुधिरप्लावितादींश्च हन्ति, अथवा-स्वकायस्याकुञ्चनप्रसारणादिनेति, 'छणइत्तिक्कचित्पाठस्तत्रापि स एवार्थः, क्षणधातोर्हिसार्थत्वात्, बाहुल्याश्रयं चेदं सूत्रम्, तेन पुरुषं घ्नतथाविधसामग्रीवशात् कश्चित्तमेव हन्ति कश्चिदेकमपि जीवान्तरं हन्तीत्यपि द्रष्टव्यम्, वक्षयमाणभड़कत्रयान्यथाऽनुपपत्तेरिति / एते सव्वे एकगंमा' एत-हस्त्यादयः एकगमा:-सदृशाभिलाषा: 'इसिं' ति ऋषिम् 'अणंते जीवे हणइ' ति ऋषि घ्नन्नन्तान् जीवान् हन्ति, यतस्मद्घातेऽनन्तानां घातो भवति, मृतस्य तस्य विरतेरभावेनानन्तजीवघातकत्वभावात्, अथवा-ऋषिर्जीवन बहून् प्राणिन: प्रतिबोधयति, ते च प्रतिबुद्धाः क्रमेण मोक्षमासादयन्ति, मुक्ताश्वानन्तानामपि संसारिणामघातका भवन्ति, तद्भधे चैतत्सर्वं न भवत्यतस्तद्धेऽनन्तजीववधो भवतीति, 'निक्खेवओ' त्ति निगमनम्।' नियमा पुरिसवेरेर्णे त्यादि, पुरुषस्य हतत्वान्नियमात्पुरुषवधपापेन स्पृष्ट इत्येको भङ्गः, तत्र च यदि प्राणयन्तरमपि हतं तदा पुरुषवरेण नो पुरुषवैरेण चेति द्वितीय: / यदितु बहवः प्रणिनो हतास्तत्र तदा पुरुषवैरेण नो पुरुषवैरैश्त्येति तृतीयः / एवं सर्वत्र त्रयम् / ऋषिपक्षे तु ऋषिवैरेण नो ऋषिवैरेश्चेत्येवमेक एव, ननु यो मृतो मोक्षं यास्यत्यविरतो न भविष्यति तस्यर्वधे ऋषिवरमेव भवत्यत: प्रथमविकल्पसम्भवः / अथचरमशरीरस्य निरुपक्रमायुष्कत्वान्नहननसम्भवस्ततोऽचरम-शरीरापेक्षया यथोक्तभङ्गकसम्भव:, नैवम्, यतो यद्यपि चरमशरीरो निरुपक्रमायुष्कस्तथाऽपि तद्धाय प्रवृत्तस्य यमुनराजस्येव वैरमस्त्येवेति प्रथमभङ्गकसम्भव इति, सत्यम् किन्तु यस्य ऋषे: सोपक्रमायुक्तत्वात् पुरुषकृत्वावधो भवति तमाश्रित्येदं सूत्रं प्रवृत्तम, तस्यैव हननस्यः, मुख्यवृत्त्या पुरुषकृतत्वादिति। भ०६ श० 34 उ० / (एकान्तनित्येऽनित्ये वाऽऽत्मनि हिंसा नघटते किन्तुस्याद्वादे इति) 'अहिंसा' शब्दे प्रथमभागे 881 पृष्ठे उक्तम्।) षड्जीवनिकायव्यापादनं न कुर्यादिति पृथिवीकायादिशब्देषु, विस्तरत उक्तम्।) | षड्जीवनिकायानां हिंसान कर्तव्या / ग०२ अधि०। (जिनायतननिर्माण जिनपूजायां च कायवथदोष: 'चेझ्य' शब्दे तृतीयभागे 1230 पृष्ठे प्रतिक्षिप्तः।) प्रथमहिंसाभेदमाहउचालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए। वावजिज्ज कुलिंगी, मरिज्जतं जोगमासज्ज / / 223 / / उच्चालिते-उत्क्षिप्ते पादे संक्रमार्थ गमनार्थमिति योगः, ईर्यासमितस्योपयुक्तस्य साधोः किं व्यापद्येत महती वेदनां प्राप्नुपात्, म्रियेतप्राणत्यागं कुर्यात् कुलिङ्गी कुत्सितलिङ्गवान् द्वीन्द्रियादिसत्त्व: तं योगमासाद्य-तथोपयुक्मसाधुव्यापारं प्राप्येति। नय तस्स तन्निमित्तो, बंधो सुहुमो विदेसिओ समए। जम्हा सो अपमत्तो, सा उपमाओ त्ति निद्दिट्ठा // 224 // नच तस्य साधोस्तन्निमित्त: कुलिङ्गिव्यापत्तिकारणे वन्धः सुक्ष्मोऽपि देशित: समये। किमिति ? यस्मात्सोऽप्रमत्तः सूत्रज्ञया प्रवृत्तेः, सा च हिंसा प्रमाद इत्येवं निर्दिष्टा तीर्थकरगणधरैरिति। इयं द्रव्यतो हिंसा न भावत:। सामप्रतं भावतो न द्रव्यत इत्युच्यतेमंदपगासे देसे, रज्जु किण्हाहिसरिसयं दटुं। अच्छित्तु तिक्खखग्गं, वहिजतं तप्परीणामो / / 225 / / मन्दप्रकाशे देशे-ध्यामले निम्नादौ रज्जुदर्भादिविकाररूपां कृष्णाहिसदृशीं कृष्णसर्पतुल्यां दृष्ट्वा आकृष्य जीक्ष्णखङ्ग वधेत्ता-हन्यादित्यर्थः, तत्परिणामो वधपरिणाम इति। सप्पवहाभावम्मि वि, वहपरिणामा उ चेव एयस्स।नियमेण संपराइय-बंधो खलु होइ नायव्यो / / 225 / / सर्पवधाभावेऽपि तत्त्वत: वधपरिणामादेवैतस्य व्यापादकस्य नियमेन साम्परायिको बन्धो-भवपरंपराहेतुः कर्मयोग: खलु भवति ज्ञातव्य इति। तृतीयं हिंसाभेदमाहमिगवहपरिणामगओ, आयण्णं कड्डिऊण कोदंडं / मोत्तूणमिसुं उमओ, वहिज तं पागडो एस // 227 // मृगवधपरिणामपरिणत: सन्नाकर्णमाकृष्य कोदण्डं धनुर्मुक्त्वा इषु-बाणं उभयतो बधेत्-हन्यात् द्रव्यतो भावतश्च तं मृगं प्रकट एष हिंसक इति। चतुर्थभेदमाहउमयाभावे हिंसा, धणिमित्तं भंगयाणुपुथ्वीए। तह वि य दंसिज्जती, सीसमइविगोवणमदुट्ठा / / 228 / / उभयाभावे-द्रव्यतो भावतश्च वधाभावे हिंसा ध्वनिमात्रं न विषयत: भङ्गकानुपूर्ध्यायाता, तथापि च दीमाना शिष्यमतिविकापनं विनेयबुद्धिविकाशाऽदुष्टैवेति। इयपरिणामा बंधे, बालो वुद्धत्ति थोवमियमित्थ। बाले वि सोन तिव्वो, कयाई वुड्ढे वि तिव्वु त्ति / / 229 / / Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा 1232- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंसा 'इय' एवं परिणामाद्वन्धे सति बालो वृद्ध इति स्तोकमिदमत्रहिंसाप्रक्रमे, किमिति ? बालोऽप्यसौ न तीव्र: परिणाम: कदाचिद् वृद्धेऽपि तीव्र इति जिघांसतामाशयवैचित्र्यादिति। अह परिणामाभावे, वहे वि बंधो न पायई एवं / कहं न वहे पॅरिणामो, तब्भावे कहँ य नो बंधो / / 230 // अथैवं मन्यसे परिणामाभावे सति वधेऽप्यबन्ध एव प्राप्नोत्येवं परिणामवादे एतदाक्याह-कथं न वधे परिणामः किं तर्हि भवत्येवादुष्टाशयस्य तत्राप्रवृत्ते: तद्भावे-वधमभावे कथंच वधेन बन्धो, बन्ध एवेति। सिय न वहे परिणामो, अन्नाणकुसत्थभावणाओ य। उभयत्थ तदेव तओ, किलिट्ठबंधस्स हेउत्ति।। 231 / / स्यान्न वधे परिणाम: क्लिष्ट: अज्ञानात्, अज्ञानं व्यापादयंत: कुशास्त्रभावनातच, योगादावेतदाफ्याह-उभयत्र तदेवाज्ञानमासौ परिणाम: क्लिष्टबन्धस्य हेतुरिति साम्परायिकस्येति। जम्हा सो परिणामो, अन्नाणादवगमेण नो होइ। तम्हा तयभावत्थी, नागाईसुं सइ जइज्जा / / 232 / / यस्मादसौ वधपरिणामः अज्ञानाद्यपगमेन हेतुना न भवति सति त्वज्ञानादौ भवत्येव, वस्तुतस्तस्यैव तद्रूपत्वात्, तस्मात्तदभावार्थीवधपरिणामाभावार्थी ज्ञानादिषु सदा यतेत तत्प्रतिपक्षत्वात् इति।। एवं वस्तुस्थितिमभिधायाधुना परोपन्यस्तहेतोरनैकान्तिकत्वमुद्भा- | वयतिबहुतरकम्मोवक्कम-भावो वेगंतिओ न जं केइ। बाला विय थोवाऊ, हवंति वृड्डा विदीहाऊ / / 233 / / बहुतरकर्मोपक्रमभावोऽपि बालादिवृद्धादिष्चकान्तिको न, यद्यस्मात्केचन बाला अपि स्तोकायुषो भवन्ति, वृद्धा अपि दीर्घायुषस्तथा लोके दर्शनादिति। तम्हा सव्वेसिं चिय, वहम्मिपावं अपावभावेडिं। भणियमहिगाइभावो, परिणामविसेसओ पायं / / 234 / यस्मादेवं तस्मात्सर्वेषामेव बालादीनां बधे पापमपापभावैर्वीतरागैर्भणितम् अधिकादिभावस्तस्य पाप्मन: परिणामविशेषत: प्रायो भणित इति वर्तते। प्रायोग्रहणं तपस्वीत रादिभेदसंग्रहार्थमिति। साम्प्रतमन्यद्वादशस्थानकम्संभवइ वहो जेसि, जुञ्जइ तेसिं निवित्तकरणं पि। आवडियाकरणम्मिय, सत्तिनिरोहा फलं तत्थ / / 235 // संभवति वधो येषु कृमिपिपीलिकादिषु युज्यते तेषु निवृत्तिकरणमपि विषयाप्रवृत्तेः, आपतिताकरणे च पर्युपस्थितानासेवने च सति शक्तिनिरोधात्फलं तत्र युज्यत इति वर्तते। अविषयशक्त्यभावयोस्तु कुत: फलमिति। तथा चाहनो अविसए पवित्ती, तन्निवित्तीइ अचरणपाणिस्स। झसनायधम्मतुल्लं, तत्थ फलमबहुमयं केइ / / 236 / / नो अविषये नारकादी प्रवृत्तिवर्धक्रियायास्ततश्च तन्निवृत्त्या अविषय- | प्रवृत्तिनिवृत्त्या अचरणपाणे:-छिन्नगोदुकरस्य (सर्वेषूपलब्ध-पुस्तकेषु एतादृशमेवेति नास्माकं मनीषोन्मेषोऽत्र।) झषज्ञातधर्मतुल्यं-छिन्नगोदु- . करस्य मत्स्यनाशे धर्म इत्येवं कल्पम् तत्र निवृत्तौ फलम् अबहुमतं विदुषामश्लाध्यं केचन मन्यन्त इत्येष पूर्वपक्षः / अत्रोत्तरमाह-संभवति बधो येष्वित्युक्तम्। ___ अथ कोऽयं संभव इतिकिं ताव तव्वहु च्चिय, उयाहु कालंतरेण वहणं तु / किं वा बहु त्ति किं वा, सत्ती को संभवो एत्थ // 237 // किं तावत्तद्वध एव तेषां व्यापाद्यमानानां वधस्तद्वधः क्रियारूप एव, उताहो कालान्तरेण हननं-जिघांसनमेव वा किमवध:-अव्यापादनमित्यर्थः? किंवा शक्ति; व्यापादकस्य व्यापाद्यविषया? क: सम्भवोऽत्र प्रक्रम इति सर्वेऽप्यमी पक्षा दुष्टाः। तथा चाहजइ ताव तय्वहु चिय, अलं निवित्तीइ अविसयाए उ। कालंतरवहणम्मि वि, किं तीए नियमभंगाओ॥२३८ / / यदि तावत्तद्ध एव तेषां व्यापाद्यमानवधक्रियैव संभव इति। अत्र दोषमाह-अलं निवृत्त्या न किञ्चिद्धनिवृत्यविषययेति हेतु:, निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शन मिति वचनात् अविषयत्वंचवधक्रियाया एव असंभवात्, संभवे च सति निवृत्त्यभ्युपगमात्, ततश्चवधक्रियानियमभावे अविषया वधनिवृत्तिरिति / कालान्तरहननैऽपि नियमत: सम्भवेऽभ्युपगम्यमाने किं तया निवृत्त्या न किञ्चिदियर्थः, कुत इत्याह-नियमभङ्गात् संभव एव सति निवृत्त्यभ्युपगमः। संभवञ्च कालान्तरहननमवेति नियमभङ्ग इति! चरमविकल्पद्वयाभिधित्सयाऽऽहअवह वि नो पमाणं, सुट्टयरं अविसओय विसओ से। सत्ती उ कजगम्मा, सइ तम्मिय किं पुणो तीए॥ 23 // अवधेऽपि न प्रमाणम्, यद्यवधः सम्भवः इत्यत्रापि प्रमाणं न ज्ञायते एतेषामस्मादवध इति। सुष्टुतरम् अतितराम् अविषयश्च, विषय: 'से' तस्या निवृत्तेः, अविषयत्वं तु तेषां वधासंभवात् अवधस्यैव संभवत्वात्। अस्मिश्च सति निवत्याभ्युपगमादिति शक्तिस्तु कार्यगम्या वधशक्तेरपि संभवो न युज्यते यतोऽसौ कार्यगम्यैवेति,न वधमन्तरेण ज्ञायते। सति च तस्मिन्वधे किं पुनस्तया निवृत्त्या तस्य संपादितत्वादेविति। संभवमधिकृत्य पक्षान्तरमाहजजाईयो अहओ, तजाईएस संभवो तस्स। तेसु सफला निवित्ती, न जुत्तमेयं पि वभिचारा // 240 / / यजातीय एव द्वतः स्यात् कृम्यादिस्तजातीयेषु सम्भवस्तस्य वधस्य, अतस्ते सफला निवृत्तिः, सविषयत्वादिति एतदाशइक्याह नयुक्तमेतदपि व्यभिचारात्। व्यभिचारमेवाहवावाइज्जइ कोई, हए वि मणुयम्मि अन्नमणुएणं। १.सर्वेषूपलब्धपुस्तेषु एतादृशमेवेति पास्माकं मनीषोन्मेषोऽत्र / Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा १२३३-अमिधानराजेन्द्रः-भाग 7 हिंसा अहए विय सीहाओ, दीसइवहणं पि वमिचारो // 241 // व्यापाद्यते कश्चिदेव हतेऽपि मनुष्ये सकृत् अन्यमनुष्येण तथा लोके दर्शनात्; अतो यज्जातीयस्तुहतस्तज्जातीयेषु सम्भवस्तयेति नैकान्त: तेनैव-अन्यमनुष्येणैव व्यापादनात्। तथा अहतेऽपि च सिंहादौ आजन्म दृश्यन्ते हननं कादाचित्कमिति व्यभिचार इति। नियमो न संभवो इह, हंतव्वा किं तु सत्तिमित्तं तु / सा जेण कजगम्मा, तयभावे किं न सेसेसु // 242 // नियमोन संभव:- इहावश्यतयानसम्भवः, इहोच्यते-यदुत यज्जातीय एको हतस्तज्जातीया: सर्वेऽपिहन्तव्या:, यज्जातीयस्तुनहतस्यज्जातीया न हन्तव्याएव किन्तु शक्तिमात्रमेव-तज्जातीयेतरेषु व्यापादन- / शक्तिमात्रमेव सम्भवः, तत्कथं दोषोऽनन्तरोदितो नैवेत्यभिप्राय इति, एतदाशड्क्याह- ‘सा येन कार्यगम्ये' ति सासक्रियस्मात्कार्यगम्या वर्तते अतो दोष इति, वधमन्तरेण तदपरिज्ञानात्, सति च तस्मिन् किंतयेत्यभिहितमेवैतत्।अथसा कार्यमन्तरेणाभ्युगम्यते इति एतदासशक्याहतदभावे-कार्याभावे किंन शेषेषुसत्त्वेषु साऽभ्युपगम्यते, तथा च सत्यविशेषत एव निवृत्तिसिद्धिरिति। स्यादेतन्न सर्वसत्त्वेषु सा अतोनाभ्युपगम्यत इति आह चनारगदेवाईसुं, असंभवा समयमाणसिद्धीओ। इत्तो चिय तिस्सद्धी, असुहासयवन्त्रणमदुट्ठा / / 253 // नारकदेवादिष्वसंभवाद्व्यापादनशक्तेर्निरुपक्रमायुषस्ते इति / आदिशब्दाद्दे व कुरुनिवास्यादिपरिग्रहः, कुत एतदिति चेत् समयमानसिद्धेः- आगमप्रामाणयादिति। एतदाशङ्कयाह-अत एव समयमानसिद्धेः तत्सिद्धिः:-सर्वप्राणातिपातनिवृत्तिसिद्धिः “सव्वं भंते ! पाणाइवायं कचक्खामि" इत्यादिवचनप्रामाण्याद्, आगमस्याप्यविषयप्रवृत्तिर्दुष्टैवेति एतदाश:इ.क्याह-अशुभाशयवर्जनमिति कृत्वा अदुष्टा तद्धनिवृत्तिः अन्तः करणादिसंभवालम्बनत्वाच्चेति वक्ष्यतीति। आवडियाकरणं पिहु, न अप्पमायाउ नियमओ अभं / अन्नते तब्भावे, विहंत विहला तई होइ॥ 24 // आपपिताकरणमपि पूर्वपक्षवाद्युपन्यस्तं नाप्रमादानियमतोऽन्यत् अपि त्वप्रमाद एव तदिति। अन्यत्वे-अप्रमादादर्थान्तरत्वे आपतिताकरणस्य, तद्भावेऽपि-अप्रमादभावेऽपि हन्त। विफलाऽसौ निवृत्तिर्भवति, इष्यते चाविप्रतिपत्त्या अप्रमत्ततायां फलमिति। अह परपीडाकरणे, ईसिं वहसत्तिविप्फुरणभावे। जो तीइ निरोहो खलु, आवडियाकरणमेयं तु / / 245 // अथैवं मन्येत्पर:-परपीडाकरणे-व्यापाद्यपीडासंपादने सति ईषद्धशक्ति विस्फुरणभावे व्यापादकस्य मनाग्वधसामर्थ्यविजृम्भणसत्तायां सत्यां यस्तस्याः शक्तेर्निरोधोदुष्करतर आपतिताकरणमेतदेवेति। एतदाशङ्कयाहविहिउत्तरमेवेयं, अणेण सत्ती उ कजगम्म त्ति। विप्फुरणं पि हु तीए, बुहाण नो बहुमयं लोए॥ 246 // विहितोत्तरमेवेदम्, केनेति अत्राह-अनेन शक्तिस्तु कार्यगम्येति। विस्कुरणमपि तस्याः शक्तेर्बुधानां न बहुमतं लोके मरणाभावेऽपि परपीडाकरणे बन्धादिति। एवं च जा निवित्ती, सा चेव वहोऽहबा कि वहहेऊ। विसओ विसु चिय फुडं, अणुबंधा होइनायव्वा // 247 // एवं च व्यवस्थिते सति, या अनिवृत्तिः सैव वधो निश्चयत: प्रभारूपत्वात्, अथवाऽपि वधहेतुरनिवृत्तितो वधप्रवृत्ते:, विषयाऽपि-वस्तुतो गोचरोऽपि सैवानिवृत्तिर्वधस्य स्फुटव्यक्तम्, अनुबन्धात्प्रवृत्त्यध्यवसायानुपरमलक्षणाद्भवति, ज्ञातव्या, अस्या एव वधसाधकत्वप्राधान्यख्यापनार्थ हेतुविषयाभिधानमदुष्टमेवेति। अमुमेवार्थसमर्थयन्नाहहिंसाइपायगाओ, अप्पडिविरयस्स अत्थि अणुबंधो। अत्तो अणिवत्तीओ, कुलाइवेरं व नियमेण || 248 // हिंसादिपातकादादिशब्दात् मृषावादादिपरिग्रहः, अप्रतिविरतस्यानिवृत्तस्यास्त्यनुबन्धः प्रर्वत्यध्यवसायानुपरमलक्षणः / उपपत्तिमाहअत एवानिवृत्ते:, प्रवृत्ते: कुलादिवरवन्नियमेनावश्यंतयेति। दृष्टान्तंच्याचिख्यासुराहजेसिमिहो कुलवेरं, अप्पडिविरई उ तेसिमन्नोन्नं / वहकिरियाभावम्मि वि, नतं सयं चेव उवसमा // 246 / येषां पुरुषाणां मिथ:-परस्परं कुलवैरमन्वसासंखडम् अप्रतिविरते: कारणात्तेषाम् अन्योऽन्यपरस्परं वधक्रियाभावेऽपि सति न तत्स्वयमेवोपशाम्यति किं तूपशमितं सदिति। तत्तोय तनिमित्तं, इह बंधणमाइ जह तहा बंधो। सवेसु नामिसंधी, जह तेसुंतस्स तो नत्थि।। 250 / / ततश्च तस्मादनुपशमात्तन्निमित्तं वैरनिबन्धनमिह बन्धनादिबन्धवधादि यथा भवति तेषां, तथेतरेषामनिवृत्तानां तन्निबन्धनो बन्ध इति। अत्राह-सर्वेषु प्राणिषु नाभिसन्धिर्व्यापादनपरिणाम: यथा तेषु द्रगनिवासिषु वैरवत इति तस्य प्रत्याख्यातुस्ततो नास्ति बन्ध: इति। तथाहि-तेऽपि न यथादर्शनमेव प्राणिनां वधादि कुर्वन्ति किन्तु वैरिद्रगनिवासिनामेव, एवं प्रत्याख्यातुरपि न सर्वेषु वधाभिसंधिरिति तद्विषये बन्धाभाव इति। एतदाङ्कयाहअत्थि च्चिय अभिसंधी, अविसेसपवित्तिओ जहा तेसु। अपवित्ती विणिवित्ती, जो उतेसिं वदोसो उ / / 251 // अस्त्येवाभिसंधिरनन्तरोदितलक्षण: वर्सेषु कुतोऽविशेषप्रवृत्तितः सामान्येन वधप्रवृत्तेः, न यथा तेषु रिपुद्रगनिवासिषु वैरवतः, ततश्चाप्रवृत्तावपि वधे अनिवृत्तिज एव तेषामिव वैरवतां दोषः।। एवमनिवृत्तस्य गर्भार्थो भावित एवेति अदृष्टान्त एवायं सर्वसत्त्वैर्वैरासंभवादिति आड्याहसव्वेसि विराहणओ, परिभोगाओ यहंत वेराई। Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा 1234 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंसाणंद सिद्धा अणाइनिहणो,जं संसारो विचित्तोय // 252 // कृत:) (एकेन्द्रियादीनां हिंसायां सदृशं पापमिति 'अणायार' शब्दे सर्वेषां प्राणिनां विराधनात्तेन तेन प्रकारेण परिभोगाच्च स्त्रक्चन्द- प्रथमभागे सम्यगभ्यधायि।) (कूपखननाद्यर्थं राजादिना पृष्टो हिंसानुनोपकरणत्वेन हन्त। वैरादयः सिद्धाः हन्त! संप्रेषणे स्थानान्तरप्रापणे मोदनपरं नवदेदिति 'दाण' शब्दे चतुर्थभागे 2666 पृष्ठे प्रतिपादिकम्।) सति वैरोन्माथकादय: कूटयन्त्रकादयः प्रतिष्ठिता: सर्वसत्त्वविषया इति। (आत्मैव हिंसेति शब्दनयानां मतं प्राणातिपातेन क्रिया क्रियत इति उपपत्त्यन्तरमाह- अनादिनिधनो यत्संसारो विचित्रश्चातो युज्यते प्रस्तावे 'किरिया' शब्दे तृतीयभागे 553 पृष्ठे उपपादितम् ('एवं खु सर्वमेतदिति। नाणिणो सारं, जन्न हिंसइ किंचण। अहिंसा समयं चेव, एतावंतं वियणिये' उपसंहरन्नाह ति 'अहिंसा' शब्देप्रथमभागे 878 पृष्ठे व्याख्यातम्।) (दर्पिका कल्पिका ताबंधमणिच्छंतो, कुज्जा साजजोगविनिवित्तिं। च हिंसा 'मूलगुणपडिसेवणा' शब्देषष्ठभागे उक्ता) अविसयअनिवित्तिए, सुहभावादढयरं स भवे / / 253 // एगो वेदिए पाणी एग सयमेव हत्थेण वा पाएण वा अन्नयरेण वा यस्मादेवं तस्माद्वन्धमनिच्छन्नात्मनः कर्मणां कुर्यात् सावद्ययोग सलागाइअहिगरणभूओवगरणजाएणं जेणं केइ संघट्टावेजापासं निविवृत्तिमोघत: सपापव्यापारनिवृत्तिमित्यर्थः / अविषयानिवृत्त्या वट्टियं वा अपरं समणुजाणेनासेणं तकम्मंजया उदिण्णं भवेजा नारकादिवधभावेऽपि तदनिवृत्त्या अशुभभावादविषयेऽपि वधविरतिं न तया जहा उच्छखंडाइ जंते तहा निप्पीडिजमाणे छम्मासेणं रोतीत्यशुभो भाव:, तस्मात् दृढतरं सुतरां स भवेद्वन्धो भावप्रधान खवेजा। एवं गाढे दुबालसेहिं संवच्छरेहिं तं कम्मं वेदेजा। एवं त्वात्तस्येति। अगाढपरियावणे वाससहस्संगाढपरियावणे दसवाससहस्सं एवं इत्तो य इमा जुत्ता, योगतिगनिबंधणा पवित्तीओ। आगाढकिलावणे वासलक्खं गाढकिलावणे दसवासलक्खाई उद्दवणं वासकोडी एवं तेइंदियाइसं पिणेयं ता एवं वियाणमाणे जंता इमीइ विसओ, सव्वु चिय होइ विनेओ॥ 25 // मा तुम्हे मुज्झह त्ति। (महा०६ अ०) इतश्चेयं निवृत्तियुक्ता योगत्रिकनिबन्धनामनोवाकाययोगपूर्विका "परिनिव्वुयम्मि भग-वंते धम्मतिथंकरे। प्रवृत्तिर्यद्यस्मादस्या अनिवृत्तेर्विषय: सर्व एव भवति विज्ञेयः, पाठान्तरं जिणाभिहियं सुत्तत्थं, गणहरो जो परूवई / / योगत्रिकनिबन्धना निवृत्तिर्यस्मात्संगतार्थमेवेति। ताव मालावगं एयं वक्खाम्मि समागयं / / तथा चाह पुढवीकाइगमेगं,जो वावाए सो ऽसंजओ। किं चिंतेइन मणसा, किं वायाए नजंपए पावं। ताईसरो विचिंतेइ, सुहुमे पुढविकाइए। न य इत्तो वि नबंधो, ता विरई सव्वहा कुज्जा / / 255 // सवत्थ उद्दविजंति, को ताइंरक्खिउं तरे। किं चिन्तयति न मनसा अनिरुद्धत्वात्सर्वत्राप्रतिहतत्वात् तस्य, किं लहुईकरेइ अत्ताणं, एस एव महायसो / वाचा न जल्पति पापं तस्या अपि प्रायोऽनिरुद्धत्वादिति। न चातोऽपि असद्धेयं जणे सयले,किमट्ट य पव्वइक्खइ / / योगद्वयव्यापारान्नबन्ध: किन्तुबन्ध एव, यस्मादेवं तत्तस्माद्विरतिं सर्वथा अच्चंतकडुयं एयं, वक्खाणंतस्स वीफुड। कुर्यात् अविशेषेण कुर्यादित्यर्थः / कट्ठे व सोयरं लाभे, एरिसं को णु चिट्ठइ।" (महा०६ अ०) एवं मिच्छादसण, वियप्पक्सओऽसमंजसं केइ। (विकलेन्द्रियहिंसायां जीतव्यवहारो 'जीयववहार' शब्दे चतुर्थभागे जंपति जंपि अनं, तं पि असारं मुणेयव्वं / / 253 // 156 पृष्ठे उक्तः।) “पीडाकर्तृत्वतो देहव्यापत्त्या दुष्टभावतः।" इत्यादि एवमुक्तप्रकारं मिथ्वादर्शनविकल्पसामर्थ्येन असमञ्जसम्अघटक 'वाद' शब्दे षष्ठभागे उक्तम्।) दुःखितप्राणिहिंसाया धर्मत्वसाधकानां मानक केचन कुवादिनो जल्पन्ति, यदप्यन्यत्-किंचित्तदप्यसारं संसारमोचकानां मतं 'संसारमोयग' शब्दे खण्डितम्।) मुणितव्यम्, उक्तन्यायानुसारत एवेति श्रा०ाओध०। विशे० स्था०।। | हिंसाज्झाण न० (हिंसाध्यान) हिंसा महिषादिजीवमारणं तस्या ध्यानंस०। (त्रिचत्वारिंशदधिकशतद्वयविधा हिंसा 'पाणाइवायवेरमण' शब्दे ___ उपक्षिप्तकालसौकरिकस्येव / मारणाध्यवसाये, आतु०। पञ्चमभागे व्याख्याता।) (यतनया कर्मबन्धो न भवतीति 'बंध' शब्दे | हिंसाणंद न० (हिंसानन्द) हिंसायामानन्दोरुचिर्यस्मिस्तत हिंसानन्दम्। पश्चमभागे। 'सम्मत्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे च उक्तम्।) ('जले जीवाः / आर्त्तध्यानभेदे, सम्म० / एतदपि बाह्याध्यात्मिकभेदात् द्विविधं, स्थले जीवा, आकाशे जीवमालिनि। जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षु- परुषनिष्ठुरवचनाक्रोशनिर्भत्सनाताडनपरदारातिक्रमाभिनिवेशादिरूपं रहिंसकः॥१॥' इति 'अस्थिवाय' शब्दे प्रथमभागे 522 पृष्ठे सिद्धि- बाह्यं स्वपराभ्यां स्वसंवेदनानुमानगम्यं बाह्यम्। आध्यात्मिकं-हिंसायां साधनप्रस्तावे उपापादि।) (केषांचित्परतीर्थिकानां हिंसकानां निन्दा संरम्भादिलक्षणयां नैपुण्येन प्रवर्त्तमानस्य संकल्पाध्यवसानं, संकल्प'पुरिसविजय विभंग' शब्दे प्रश्चमभागे अकारि।) जिनसमवसरणे श्चित्ताप्रबन्धस्तस्याध्यवसानंतीव्रकषयानुषक्तत्वंप्रथमं हिंसानन्दंनाम। बल्युपभोगे हिंसादोषपरिहार: 'अदृगकुमार' शब्दे प्रथमभागे 554 पृष्ठे | सम्म०३काण्ड। Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसाणुबंधि 1235 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिंमवंत हिंसाणुबंधि न०( हिंसानुबन्धिन) हिंसा सत्त्वानां वधयेधवन्धनादिभिः | हेट्ठादेश: / संयोगपूर्वस्यैकारस्य ह्रस्व इकार;। अधस्तादर्थे, प्रा०। प्रकारैः पीडामनुबध्नाति सततप्रवृत्तां करोतीत्येवंशीलं यत् प्रणिधानं, स्था० / आकुले, दे० ना० 8 वर्ग 67 गाथा। हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तत् हिंसानुबन्धि। आर्तध्यानभेदे, भ० / हिट्ठगइ स्त्री० (अधस्ताद्गति) नरकेषूपपाते, दश०१चू०। 25 श०७ उ० / दश०। हिट्ठाहिड (देशी)आकुले, दे० ना०८ वर्ग 67 गाथा। हिंसादंड पुं० (हिंसादण्ड) हिंसामाश्रित्य हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यति | हिट्ठिमउवरिमगेविज्जग (पुं०.) अधस्तादुपरितनवेयक-गैवेयकदेवभेदे, वा अयं वैरिकादिमित्येवं प्रणिधानेन दण्डो विनाशनं हिंसादण्डः / / स्था०६ ठा०३ उ०। 10 सम। हिसितयान हिनस्ति हिसिष्यत्ययमित्यभिसंधे / हिट्ठिमगेविज पुं० (अधस्तनौवेय) ग्रैवेयकदेवभेदे, स्था०६ ठा०३ उ०। सप्पवैरिकादिवधे, स्था०५ ठा०२ उ०। हिहिममज्झिमगेविज्जग पुं०(अधस्तनमध्यमग्रैवेयक) ग्रैवेयकदेवभेदे, तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमाख्यायते स्था०६ ठा०३ उ०। अहावरे तबे दंडसमादाने हिंसादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ, से जहा हिडिल्ल त्रि० (अधस्तन) नीचे, अनु० / णामए केइ पुरिसे ममं वा ममि वा अन्नं वा अन्निं वा हिंसिंसु वा *हिडि धा०। गतौ / भ्रमणे, भ्वादि आत्मनेपद सकर्मक सेट् इदित्। हिंसइ वा हिंसिस्सइ वा तं दंडं तसथावरहि पाणहि सयमेव - हिंडइ। प्रा०। णिसिरति अण्णेण वि णिसिरावेति अन्नं पि णिसिरंतं समणुजाणइ हिडिंबा स्वी०(हिडिम्बा) भीमसेनस्य भार्यायां घटोत्कचस्य मातरि हिंसादंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज ति आहिजइ, तच्च स्वनामख्यातायां राक्षस्याम्, प्रा० 4 पाद / दंडसमादाणे हिंसादंडवत्तिएत्ति आहिए। (सू०१६) हिडु (देशी)वामने, दे० ना०८ वर्ग 67 गाथा। अथापरं तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमाख्यायते, तद्यथा हित न०(हित)पथ्यान्नवत्, (भ०२श०१3०1) उपकारके, उत्त०२अ०। हितपक न० (हृदयक)स्वार्थे कः / कृपादित्वात् इ: / “तदोस्तः" नाम कश्चित्पुरुषः - पुरुषकारं वहन् स्वतो मरणभीरुतया या मामयं / / 8 / / ||307 / / इति दस्य तः। “हृदये यस्य प:" घातयिष्यतीत्येवं मत्वा कंसवद्वेवकीसुतान् भावतो जघान, मदीयं वा ||||||310 / / इति यस्य प:। हितपकं / अन्त: करणे, प्रा० पितरमन्यं वामाभकं ममीकारोपेतं परशुरामवत्कार्तवीर्य जधान, अन्यं 4 पाद। वा कंचनायं सर्पसिंहादिव्यापादयिष्यतीति मत्वा सादिकं व्यापादयति, हितमितमोजिपुं०(हितमितभोजिन्) पथ्याल्पाहाराभ्यवहारिणि, पश्चा० अन्यदीयस्य वा कस्यचिद्धिरण्यपश्वादेरयमुपद्रयकारीति कृत्वा तत्र दण्डं 16 विव०। निसृजति तदेवमयं मां मदीयमन्यदीयं वा हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्य हित्थ (पुं०) त्रस्त-"प्रस्तस्य हित्थ-तट्ठी" || ||2 / 136 // इति तीत्येवं संभाविते असे स्थावरे वा तंदण्डं प्राणव्यपरोपणलक्षणं स्वयमेव त्रस्तस्थाने हित्थादेशः / उद्विग्ने, प्रा०। लञ्जिते, दे० ना०५ वर्ग 67 निसृजति अन्येन निसर्जयति निसृजन्तं वाऽन्यं समनुजानीते इत्येत गाथा। पाइ० ना०। तृतीयं दण्डसमादानं हिंसादण्डप्रत्ययिकमाख्यातमिति / सूत्र०२ श्रु० / हित्था (देशी) लज्जायाम्, दे० ना०८ वर्ग 67 गाथा। 2 अ०। प्रव०। हिम न०( हिम) तुषारे, "तुहिणं हिमं तुसारं" पाइ० ना० 157 गाथा। हिंसाययण न०( हिंसायतन) व्यापत्तिधामसु, ओघ०। शीते, वृ० 1 उ० 3 प्रक०। ओघ०। तुहिने, ध० 2 अधि०। स्था०। हिंसिय न० (हिंसित)हिंसाप्राप्ते, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। स्त्यानोदके, जी०१ प्रति०। प्रज्ञा०1हिमं तु शिशिरसमये शीतपुद्रलहिक्का (देशी) रजक्याम्, दे० ना०८ वर्ग। सम्पञ्जिलमेव कठिनीभूतमिति। आचा०१ श्रु०१अ०३ उ०।हिक्कास (देशी) पड्के, दे० ना०८ वर्ग 66 गाथा। हिमग न०(हिमक) हिम एव हिमकम्। तुहिने, स्था० ४ठा०1 शिशिरादौ हिकिअ (देश) अश्वरवे, दे० ना० 8 वर्ग 68 गाथा। वातेरिते हिमकणे, सूत्र० 2 श्रु०३ अ०। संस्त्याने जलबिन्दौ, कल्प हिच्चा अव्य० (हित्वा) उपशमे उषित्त्वेत्यर्थे, आवा० / 'हि' गतावित्य- 3 अघि०६ क्षण / भ० आचा०। बृ०। स्मात् पूर्वकाले क्त्वा। हित्वा गत्वा-प्रतिपद्येत्यर्थे, आचा०१ श्रु०४ | हिमयर पुं०(हिमकर) चन्द्रे, "मयलंछणो हिमयरो"पाइ० ना०५ गाथा। अ०४ उ० / 'ओहाक्' त्यागे, हाधातो:क्त्वा / त्यक्त्वेत्यर्थे, आचा०१ हिमवंत पुं०(हिमवत्) वर्षधरपर्वतविशेष, स्था०६ ठा०३ उ० अन्त०। श्रु०६अ०४ उ०। प्रश्न० / रा०। नं०। इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य हिज्ज अव्य० (ह्यस्)कल्ये, दे० ना० 8 वर्ग 66 गाथा। सीमाकारी भूमिनिमग्नपश्चविंशनियोजनो योजनशतोच्छ्रायप्रमाणो हिह (अव्य०) अधस्- “अधसो" हेहूं / / 8 / 2 / 141 / / इति | भरतक्षेत्राऽपेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममय: चीनपट्टवर्णो नानावर्णवि Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिमवंत 1236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हियसुहणिस्सेसकामय 'शिष्टद्युतिमणिनिकरपरिमण्डितपार्श्व: सर्वत्र तुल्यविस्तारो गगन- तत्र कामोऽस्येति हितकामः / भ० 15 श०। प्रति०1 हिताभिलाषिणि, मण्डलोल्लिखितरत्नमयैकादशकूटोपशोभित: तपनीयमयतलविविध- षो०६ विव०। मणिकनकमण्डितटदशयोजनावगाढपूर्वपश्चिमयोजनसहस्त्रयाम- | हियण्णेसि (हितान्वेषिन्) हितमन्वेषयत इत्येवंशीलो हितान्वेषी। हितगदक्षिणोत्तरयोजनपञ्चशतविस्तृतपद्महदोपशोभित शिरोमध्यभाग: वेषके, ध०३ अधि०। कल्पपादपश्रेणिरमणीय: पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणार्णवजलसंस्पर्शी | हियत्थ पुं०(हितार्थ) हितमनर्थप्रतिघातार्थप्राप्तिरूपंतदेवार्थ: प्रार्थ्यमाहिमवन्नामा पर्वतः। नं०। नत्वात्। हितलक्षणेऽर्थे, स० 140 सूत्र / उत्त० / दो हिमवंताई। स्था०।२ ठा०३ उ०। हियमासि वि०(हितभाषिण) हितं-परिणामसुन्दरं तद्भाषते इत्येवंशीलो (अत्र सूत्रप्रतिबद्धवक्तव्यता चुलहिमवन्महाहिमवच्छब्दयो: तृतीयषष्ट- 1 हितभाषी: / हितवक्तरि, व्य०१उ०। भागयोरुक्ता।) स्कन्दिलाचार्यस्य स्वनामख्याते शिष्ये, न०। | हियमियअफरुसवाइपुं०(हितमितापरुषवा (च))दिन्-हितस्याभिमतहिमवाय पुं०(हिमपात) तुहिनपाते आचा०१ श्रु० अ०२ उ०। “गिरिप स्यापरुषस्यच वक्तरि हितमितापरुषवागिति' / हितवाक् हितं वक्ति ज्जुन्नवयारे, अंविअआसमयं च नामेण / तत्थ विपावा पुढवी, हिमवाए | परिणामसुन्दरं मितवाग्मितं स्तोकैरक्षरै: अपरुषवाक् अपरुषमनिष्ठुरम्। होइ वरहेमं // " ती०३ कल्प०। दश० 6 अ०१ उ०। हिमसीयल पुं०(हिमशीतल) अत्यन्तशीतले, अत्यन्तशीतलवेदनो - हियय त्रि०( हितक) प्रकृत्यनुकूले, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०। त्पादकत्वात् तथाविधे नैरयिकाणामाहारे, स्था० 4 ठा० 4 उ० / चन्द्रं *हृदय-न०। आशये, पाइ० ना० 270 गाथा / सम्यगभिप्राये, व्य०२ उ०। मनसि, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। आ० म०। शरीरप्रदेशे, द्वा० 26 सूर्य च गृह्णतो राहो: कृष्णपुद्गलभेदे, चं० प्र०२० पाहु०। सू०प्र०1 द्वा०। सूत्र० हिय न०(हित्) एहिके आमुष्मिके च पथ्ये, उत्त०१०। आव०। दर्श०। हिययउट्ठन०(हृदयोत्थ) हृदयमांसपिण्डे,विपा०१ श्रु०५अ० ज्ञा० / प्रश्न०। स्था०। दशा० / भ०। पथ्यान्नवत् (भ०६ श०३३ उ०। हिययंगम पुं०( हृदयंगम) किन्नरविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / ति०।) अदोषकरे, स्था० 3 ठा० 4 उ०। सद्गतिप्रापके, अनर्थनिवारके हिययगमणिज्न त्रि० (हृदयगमनीय) अर्थप्राकट्यचातुरी सचिवत्वाच। सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। परिणामसुखावहत्वात् सामायिके, आ०म० त्सुबोधे, ज०२ वक्ष०। औ०। हृदये ये गच्छन्ति कोमलत्वासुबोध१ अ० जी०। परिणामपथ्ये, कुशलानुबन्धिनि, आ० .म० 2 अ०। त्वाच्च / ज्ञा०१ श्रु०१ अ०भ०। हृदयगमे, स०३४ सम०। परमार्थतो मुक्स्यवाप्तिस्तत्कारणं वा हितं तच्च सम्यग्दर्शनचारित्रा हिययग्गाहि (ण) त्रि० (हृदयग्राहिन) हृदयं गृह्णाति हृदयेसम्यग निविशते ख्यमवगन्तव्यमिति। सूत्र०१ श्रु०११ अ०। उत्त०। अशेषापायरहिते, इत्येवंशील: हृद्यग्राही! अन्तरभिनिविष्टे, व्य०१ उ०। ईप्सितस्थानप्रापके च। सूत्र०१ श्रु०१४ अ०। अभिप्रेतार्थसाधनात्, | हियग्गाहित्त न०(हृदयग्राहित्व) श्रोत्मनोहरतायाम, स०३५ सम०। (आचा० 1 श्रु० 8 अ०८ उ०। जन्मान्तरेऽपि कल्याणवहे, रा०। / | औ०। दुर्गयस्याप्यर्थस्य परहृदयप्रवेशकरणे, रा०॥ अनर्थपरिहाररुपे (स० 146 सूत्र / ) प्राणिगणानुपतापके, दर्श० हिययह त्रि० (हृदयस्थ) चित्तेस्थे, षो०१२ विव०। 5 तत्त्व० / अनर्थप्रतिघातार्थप्रप्तिरूपे (स०१४० सूत्र / ) अभ्युदयनि: हिययणयणकंत त्रि० (हृदयनयनकान्त) लोकानां हृदयनयनयोवृल्लभे, श्रेयसयोः, नं०।उत्त०। (अत्रत्यव्याख्या 'कविल' शब्देतृतीयभागे 386 कल्प०१ अधि०३ क्षण। पृष्ठे गता।) आत्यन्तिकतद्रक्षाप्रकषरूपणेनाकूलवृत्तौ, स० 1 सम०। हिययद पुं० (हृदयद) वल्लभे, प्रति०। उपकारके, विशे० / कल्याणे, पा०। हिययदइया स्त्री० (हृदयदयिता) वल्लभायाम, प्रश्न० 4 आश्र० द्वार। हियउड्डावण न० (हृदयोड्डापन) चित्ताकर्षणहेतौ, ज्ञा० १श्रु०१४ अ०। हिययपल्हावणिज त्रि० (हृदयप्रह्लादनीय) हृदयगतकोषशोकादि-ग्रन्थिशून्यचित्तकारके, विपा०१श्रु०२ अ०। विलयनकारिणि, भ० 6 श० 33 उ०। औ०। जं०। हियउप्पाडिय त्रि० (उत्पादिहृदय) आकृष्टकालेज्यकमांसे, ओ०। / हिययसूल पुं०,न०(हृदयशूल) हृदयपीडायाम्, जी०३ प्रति० 4 अधि०। हियकं खि पुं० (हितकाड्.क्षिन)हिताभिलाषिणि, षो०१६ विव०। हिययाणंदजणण न० (हृदयानन्दजनन) मन:समृद्धिकारके, भ० हितेच्छौ, ध०३ अधि०। श०३३ उ०। हियकर पुं०(हितकर) निर्वाहाभ्युदयहेतौ, स्था०६ ठा०३ उ०1। हियसुहणिस्सेसकामय (पु०) हितसुखनिश्शेषकामकहितं सुखम्हियकरी पुं० (हितकरी) इह परत्र च तथ्यविधायिन्याम, उत्त० 3 अ०। अदुःखानुबन्धमित्यर्थः, निश्शेषाणां सर्वेषां कामयते बाञ्छति यः स हियकाम त्रि० (हितकाम ) सुखनिबन्धनं वस्तु इह हितम् अपायाभावात् तथेति। सर्वेषां सुखप्रार्थके, प्रति०। Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हियाऽकारय 1237- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हिल्लिया हियाऽकारय पुं० (हिताकारक ) जनहितस्याऽकर्तरि, ज्ञा०१ श्रु० हिरिअ पुं०(हीक) ह-श्री-हि-कृत्स्न-क्रिया-दिष्टयामित् 2 अ०। // 82104 // इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः / लज्जाहियाणुप्पेहि त्रि०(हितानुप्रेक्षिण) हितंपथ्यमनुप्रेक्षतेपर्यालोचयतीत्येवं- 1 युक्ते, प्रा० / उत्त०। शीलो हितानुप्रेक्षी। हितपर्यालोचके, उत्त० 13 अ०। हिरिव (देशी०) पल्वले, दे० ना० 8 वर्ग 66 गाथा। हियारंभपु०(हितारम्भ) पारलौकिकप्रशस्तानुष्ठानप्रवृत्तौ, द्वा० 22 द्वा० | हिरिकूड पुं०,न० (दह्रिकूट) महापद्माख्यतद्हृदनिवासि-ही-नामकहियाहार पुं० (हिताहार)हितं द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च / द्रव्यतोऽविरुद्धानि देवतासत्के महाहिमवत: कूटे, स्था० 8 ठा०३ उ०। द्रव्याणि, भावत एषणीयंतदाहारयन्तियेतेहिताहारा: हितभोजिषु, पिं०। हिरिमंथा(देशी०)चणके, दे० ना० 8 वर्ग 70 गाथा। हिरणा (देशी )लज्जायाम्, दे० ना०८ वर्ग 67 गाथा। हिरिमाणसत्त पुं०( ह्रीमनःसत्त्व) व्हिया हसिष्यन्ति मामुचकुलजातं जना हिरण्ण न० (हिरण्य) अघटिते, (जी० 3 प्रति० 4 अधि० / आ० म०1) इति लज्जया मनस्येव न काये रोमहर्षकम्पादिभयलिङ्गोपदर्शनात् सत्त्वं सुवर्णे, पञ्चा०१ विव० ! उत्त० / रूप्ये, ज्ञा 1 श्रु०१ अ० / उत्त०नि० यस्य सः हीमन:सत्त्वं / स्था० 4 ठा०३ उ०।व्हियाऽपि मनस्येव सत्त्वं चू०।द्रव्यजाते, सूत्र०१ श्रु०३ अ०२उ० आव० / अघटितस्वर्णात्मके न देहे शीतादिषु कम्पादिविकारभावात् यस्य स -हीमनः सत्त्वः / द्रव्ये, दशा०६अ। तथाविधसत्त्वशालिनि पुरुष, स्था० 5 ठा० 3 उ०। हिरण्णगब्भ पुं० (हिरण्यगर्भ)हिरण्यं स्वर्णमयाख्यं गर्भ उत्पत्तिस्थान हिरिली स्त्री०(हिरिली)कन्दविशेषे, उत्त० 35 अ० / भ० हरिवत्तिय न०(हीप्रत्यय) -ही-लज्जा संयमो वा प्रत्ययो निमित्तं यस्य मस्य। चतुर्मुखे ब्रह्मणि, हिरण्यगर्भादीनामनादिद्विवक्षित-भगयोगेऽभ्यु धारणस्य तत्तथा / लज्जार्थे, 'हिरिवत्तियं वत्थं धारेजा' स्था० 3 ठा० पगम्यते। उक्तंच "ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं चतगत्पतेः / ऐश्वर्य चैव ३उ०। धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम् // 1 // " आ० म०१०। हरिवेर पुं०,न०(हीवेर) बालके, गन्धद्रव्यविशेषे च। ज्ञा० 1 श्रु० 17 हिरणजुत्ति स्त्री० (हिरण्ययुक्ति) रूप्यस्य यथोचितस्थाने योजने, ज्ञा० अ०। उत्त० / पाइ०। ना० 215 गाथा। १श्रु०१ अ०। जं०। हिरिसत्त पुं०(हीसत्त्व)हिया-लज्जया सत्त्वं परीषहेषु साधोः संग्रामाहिरण्णपाग पुं० (हिरण्यपाक) रजतसिद्धौ, ज्ञा० 1 श्रु० 1 अ० ज०। दावितरस्य वाऽवष्टभ्योऽविचलनं यस्य स हीसत्त्वः / स्था० 5 ठा० 3 स० आचा०। उ०ाव्हिया-लज्जया सत्त्वं परीषहादिसहने रणाङ्गणे वाऽवष्टम्भो यस्य स हिरण्यपेडा स्त्री०(हिरण्यपेटा) हिरण्यमञ्जूषायाम् भ०१३ श०६ उ०। हीसत्त्व: / तथाविधसत्त्व पुरुषजाते, स्था० 4 ठा० 3 उ०। हिरण्यवासपुं० (हिरण्यवर्ष) रूप्यस्य अघटितसुवर्णस्यवा वर्षणे, कल्प० हिरी स्त्री०( व्ही) "ह-श्री-ही-कृत्स्न-क्रिया-दिष्ट्यामित्" अधि०८ क्षण / जी०। भला // 8 / 2 / 104 // इति संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकार: / ही। हिरण्णसुवण्णपमाणाइक्कम पुं० (हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम) हिरण्य हिरी। प्रा० / लज्जायाम्, आचा०१ श्रु०८ अ०७ उ० / स्था०। सूत्र० सुवर्णयोः प्रत्याख्यानकालगृहीतप्रमाणेल्लङ्घने, उपा०। 'हिरण्णसुवण द्वा०। ध०। विशे०। सूत्र०। रा०। देवताविशेषे, अनु०। जम्बूद्वीपे मन्द-- णपमाणाइक्कमे' त्ति प्राग्वत्। अथवा-राजादेः सकाशालब्धं हिरण्याघभि रस्य दक्षिणे महापद्महदवास्तव्यायां स्वनामख्यातायां देव्याम, स्था० ग्रहोऽवधिं यावदन्यस्मै प्रयच्छत: पुनरवधे: पूर्ती ग्रहीष्यामीत्यध्यवसाय 3 ठा० 4 उ० / उत्तररुचकपर्वतवास्तव्यायां दिकुमारीमहत्तरिकायाम् वतोऽयमतिचारः / उपा० 1 अ०। आ०म० अ० ज० ।आ० क० 1द्वी० / आ० चू० / सुपुरुषस्य किंपुरुहिरण्णसुवण्णविहिपुं०(हिरण्यसुवर्णविधि) रजतस्य सुवर्णस्य च प्रकारं, षेन्द्रस्यात्र-महिष्याम्, स्था० 4 ठा०१ उ०। भ० / शक्रादिलोकउपा० / हिरण्यं-रजतं सुवर्ण प्रतीतम् विधिः प्रकार: / उपा० 1 अ० / .. सोममहाराज-स्याग्रमहिष्याम्, ज्ञा०२ श्रु०४ वर्ग 1 अ०। हिरण्णाऽऽगर पुं०(हिरण्याऽऽकर)हिरण्योत्पत्तिभूमौ, ज्ञा० 1 श्रु०१६ | हिरिवंग (देशी)- लगुडे, दे० ना० 8 वर्ग 63 गाथा। अ०जी०॥ हिरीमण पुं०( हीमनस)हीर्लज्जा संयमो मूलोत्तगुणभेदभिन्नस्तत्र मनो हिरण्णुक्कडी स्त्री०(हिरण्योत्कटी) सुगृहीतनामधेयायाः आर्यायाः यस्यासौ हीमनाः, यदि वा-अनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लज्जते स पूर्वभवजीवस्यधर्माचार्योपलब्धिस्थानभूतायां राजधान्याम्, महा०२चू०। एवमुच्यते। पापभीरुतया लज्जालौ, सूत्र० १श्रु०१३ अ०। हिरमिक पुं०(हिरमिक)प्राणिनां पूज्ये आण्डवरापस्नामके यक्षे, व्य० | हिल्ला-(देशी)-वालुकायाम्, देव ना० 8 वर्ग 66 गाथा। ७उ०। हिल्लिया स्त्री०(हिल्लिका) त्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्रज्ञा०१ पद / Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिल्लूरी १२३५-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हीयमाणय हिलूरी (देशी) लहाम, दे० ना० 8 वर्ग 67 गाथा। "रायगिहे सामी समोसढो, तत्थ एगो विजाहरो वंदिउंपडिनिउत्तो विज हिल्लोडग (देशी) क्षेत्रे मृगनिषेधकरवे, दे० ना०५ वर्ग 66 गाथा। आवाहेइ, तस्स तीए विज्जाए कइचि अक्खराणि विस्सरियाणि सो हिसीय न०(हृषीक) इन्द्रिये, नं० / 'हृषीकं करणं स्मृत' मिति वचनात्। उप्पयणं पडणं च करेइ। अभओ तं दळूण तस्स सगासे गओ। पुच्छइआ०म०१ अ०। द्वा०। तेण सिटे अभएण जइ ममं विदेसि तो वावारेमि इयरेण पडिवन्नं। तओ हिसोहिसा-(देशी)-स्पर्धने, दे० ना०५ वर्ग 66 गाथा। अभओ भणइ-तो खायं भण एगं पयं, तेण भणियं ताहे अभएण ही अव्य (हि) कन्दतिशयद्योतने, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उ०।अनु०।। पयाणुसारिणा तिण्णि अक्खराणि समरियाणि, विज्जाहरो उप्पइत्ता निश्चये, अष्ट० 15 अष्ट०। गओ। अभयस्स विजं दाउं।" अक्षरगमनिका-राजगृहे विद्याधरः, -ही- (स्त्री०)- लज्जायाम, सूत्र०१श्रु०२ अ०२ उ०। कतिपयविद्याक्षरगलनात् हीनदोषेण उत्पतनं पतनं च करोति, ततो हीण त्रि०(हीन) असमग्रे, ज्ञा० १श्रु०८ अ०। असंपूर्णे, उपा०२ अ०॥ विद्यापदानामभयस्य श्रवणात् तत्प्रवणतो अभयस्य पदानुसारिप्रज्ञाया न्यूने, ज्ञा०१श्रु०१अ०। विस्मृतपदानां स्मारणात्तदनन्तरं पदानुसारिणोऽभयस्य विद्यादानं कृत्वा हीणक्खर न०(हीनाक्षर) अक्षरन्यूने, ध०३ अधि० / आव० बृ०।तत्र विद्याधरस्य स्वस्थाने गमनम्। बृ०१ उ०१ प्रक०। (तादृशं विद्याधरं हीनं द्विधा-द्रव्यहीन, भावहीनं च। दृष्ट्वा श्रेणिको भगवन्तमप्राक्षीत् कथमयमुत्पातनिपातं करोति ? द्रव्यहीने उदाहरणमाह भगवतोक्तम्-अस्यैकं विद्याक्षरं विस्मृतमिति अनुयोगद्वारचूाश्रयेण तित्त कडु भेसयाई, माणं पीलेजऊण ते देइ। संघाचारेऽधिकम्) पउणइ ण तेहि अहिते-हि मरइ बालो तहाहारो॥२६१॥ हीणणाय न०(हीनज्ञात) तुच्छोदाहरणे, पं०व०२द्वार / पश्चा०॥ “एगाए अविरझ्याए पुत्तो गिलाणो, तीए विजो पुच्छिओ, तेण ओसहाणि | हीणणेत्त पुं०(हीननेत्र) अपगतचक्षुषि, सूत्र०१ श्रु०१२ अ०। दिनाणि। सा चिंतेइ-इमाणि कड्डय त्ति ताणिमाणि पीडिज्जते ऊणाइ हीणपुण्णचाउद्दस पुं०(हीनपुण्यचातुर्दश)हीना-असम्पूर्णा चतुर्दशी एअद्धाणि अवणीयानि सो तेहिं न पगुणीकओ मओ। तओ एगा उण तिथिर्जन्मकाले यस्य स हीनपुण्यचतुर्दशकः / उपा०२ अ०। हीनायां अहिगं देइ तीसे विमओ" अक्षरगमनिका-तत्र कटुकौषधानि मा अमुं चतुर्दश्यां जाते, भ०। बालं पीडयेयुरिति नतानि परिपूर्णानि ददाति कित्व नि।नच तैर बाल: हीणपुण्णचाउद्दसे जंणं / (सू०१४४४) प्रगुणति, किन्तु म्रियते स तथा आहारे ऊने मियतें, एष दृष्टान्तः। 'हीणपुण्णचाउद्दसे' त्ति हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातो हीनपुण्यअयमर्थोपनयः - यथा तौ बालावेकभविकं दुःखं प्राप्तावेवं यो भावहीन- चातुर्दश: / किल चतुर्दशी तिथि: पुण्या जन्माश्रित्य भवति, सा च स्सूत्रमुच्चरतिपठतिवा, अक्षरहीनमित्यर्थः, तस्य प्रायश्चित्तंमासलघु, पूर्णाऽत्यन्तभाग्यवतोजन्मनि भवति अत आक्रोशतोक्तं 'हीणपुण्णवाआज्ञा तीर्थकराणामतिचरतश्चतुर्गुरु, अनवस्थायां चतुर्गुरु, मिथ्यात्वे उद्दसे' त्ति। भ०३ श०२ उ०। चतुर्लघु / विराधना द्विविधा-आत्मविराधना, संयमविराधना च।। हीणसत्तया स्त्री०(हीनसत्त्वता) सत्त्वाभावे,स्था० 4 ठा०४ उ०। तत्रात्मविराधना-प्रसज्य देवता छलयेत् अन्योवा साधुब्रूयात् किंचिद्रवसि हीणस्सर त्रि०(हीनस्वर)लघुध्वनौ, तं०।अल्पस्वरे, भ०१श०७ उ०1 सूत्रं कलहप्रसङ्गे अस्थिभङ्गमरणादिदोषप्रसङ्गः श्रुतं हीनं कुर्वता संयमो स्था०। विराधित एव। हीनायारपुं०(हीनाचार) पार्श्वस्थावसन्नकुशीलसंसक्ताहाच्छन्दनित्यकथमित्याह वासिषु, दर्श०४ तत्त्व! अक्खरपयाइएहिं, हीणइरेगं च तेसु यं चेव। हीमंत त्रि०(हीमत्) हीरसंयम प्रति लज्जा तद्वान। असंयमजुगुप्सावति, दोसु वि अत्थविवत्ती, चरणे अत्थे य न य मुक्खो // 292 // सूत्र०१श्रु०१०२ अ०२ उ०। हीनमक्षरपदादिभिरूनं तैरेवाक्षरपदादिभिरतिरेकं साधिकं द्वयोरपि *हीमाणहे- अव्य० / विस्मयनिर्वेदयो:,"हीमाणहे-विस्मयनिर्वेदे" हीनाक्षरे अधिकाक्षरे चेत्यर्थः / अर्थस्यापत्ति: अर्थस्य विसंवाद: ।८।४।२२।।शौरसेन्यां हीमाणहे इत्ययं निपातो विस्मये निर्वेदेच अतश्चार्थस्य विसंवा, दः, चरणस्य विसंवा, द., चरणविसंवादान्न मोक्ष- | प्रयोक्तव्यः। प्रा०। विस्मये-यथा उदात्तराघवे राक्षस:- "हीमाणहे भाव:-मोक्षाभावे: सर्वादीक्षा निरर्थका, एष भावहीने दोषः / जीवन्त-वश्चा मे जणणी।" निर्वेदे यथा विक्रान्तभीमे राक्षस:- "हीमाणहे तस्मिन्नेव भावहीने दृष्टान्तमाह पलिस्संताहगे एदेण नियविधिणो दुव्ववशिदेण।" प्रा०४ पाद। विजाहरों रायगिहे, उप्पयपडणं च हीणदोसेणं / हीयमाणय न०(हीयमानक) हीयते तथाविधसामा यभावतो सुणणा सरणागमणं, दयाणुसारिस्स दाणं च / 293 / / हानिमुपगच्छति हीयमानम्, कर्मकर्तृविवक्षायामानश् - Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीयमाणय 1236 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हीसमण प्रत्ययः। हीयमानमेव हीयमानकम् ‘कुत्सिताल्पाज्ञाते' // 7 / 3 / 33 / परम्परया कलिकालयुगप्रधानसमानश्रीहरिविजयसूरय: त्रिषष्टितमण्टे (सिद्धहै०) इति क: प्रत्ययः / पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हासमुपगच्छत्य- केधन वदन्ति एकषष्टितमपट्टे उपाध्यायश्रीधसमसागरगणि-कृतपट्टावधिज्ञाने, 'हीयमाणं पुव्वावत्थाओ 'अहोहो हस्समाणं' इति।नं०। वल्यां त्वष्टञ्चाशत्तमपट्टे सन्तीति त्रयाणां मध्ये किं प्रमाणमिति प्रश्न:, से किं तं हीयमाणयं ओहिनाणं ? हीयमाणयं ओहिनाणं | अत्रोत्तरम्-श्रीमहावीरशिष्यसुधर्मस्वामिन आरभ्य परम्परया श्रीहीरअप्पसत्थेहिं अज्झवसाणट्ठाणेहिं वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स- विजयसूरयोऽष्टपञ्चाशत्तमपट्टेसन्तीतिज्ञेयम्॥७६२॥ सेन०४ उल्ला० / संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता हीलण न०(हीलन) जात्याधुघट्टनतोऽवमाने, स्था० 3 ठा० 1 उ०। ओही परिहायइ / से तं हीयमाणयं ओहिनाणं / (सू०१३) सूत्र० / गुरुकुलाधुद्धाटनत: (ज्ञा०१श्रु०३ अ०1) जात्याधुद्घाटनतो ‘से किंत' मित्यादि, अथ किं तद्धीयमानकमवधिज्ञानम् ? सूरिराह- वा। ज्ञा०११०८ अ01) अनभ्युत्थानादिके, अन्त०।) असूयया दुष्टाहीयमानकवधिज्ञानं कथं चिदवाप्तं सत् अप्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेषु भिधाने, दश०६ अ०३ उ०। वर्तमानस्याविरतसम्यग्दृष्टवर्तमानचारित्रस्यदेशविरतादे: संक्लिश्य- हीलणा स्त्री०(हीलना) जन्मकर्ममर्मोद्धाटने, औ०। आव०। मानस्य उत्तरोत्तरं संक्लेशमासादयतः, इदं च विशेषणमविरत- | हीलणिज्ज त्रि०(हीलनीय) अवज्ञातुमुचिते, उत्त०१२ अ०। सम्यग्दृष्टेरवसेयं तथा संक्लिश्यमानचारित्रस्य देशविरतादे: सर्वत:- हीला स्त्री०(हीला) निन्दायाम्, सूत्र०१ श्रु०२ अ०२ उव / अवमाने, समन्तादवधिः परिहीयते पूर्वावस्थातो हानिमुपगच्छति तदेतत् उत्त०१२ अ०। हीयमानकमवधिज्ञानम् / नं०। कर्म० / स्था०। हीलिजमाण त्रि०(हील्यमान) निन्द्यमाने, आ० म०१ अ०। हीर न०( हीर) लघुकुत्सिते तृणे, जी०३ प्रति०४ अधि०। वृक्षमध्यसारे, हीलिय न०(हीलित) कदर्थिते, आचा०२ श्रु०४ चू०। निन्दिते, वन्दननि० चू०१५ उ०। वजमणौ, प्रज्ञा०१ पद / सूचीमुखाभेदा दिवस्तुनि, दोषे, न० 1 बृ०॥ भस्मनिचा दे० ना०८ वर्ग७० गाथा। एकविंशतितमंदोषमाहहीरग पुं०(हीरक) सकोणकर्करिकाविशेषे, दशा०७ अ० / वज्र, मणि- गणि वायग जिट्टजति, हीलियं किन्तु मे घढम्मि। विशेषे, अनु०। गणिन्। वाचक !ज्येष्ठार्य ! किन्तु यो वन्दते तत्पादौ सोत्प्रासं हीलयित्वा हीरपसिण पुं०(हीरप्रश्न) विमलगणिप्रभृतिकृतप्रश्नोत्तरग्रन्थे, ही०। यत्र वन्दते तद् हीलितं वन्दनकम्।०३ उ०। आव० आ० चू०।१० "स्वस्ति श्रियो निदानं,जन्तूनां धर्मकारिणां सम्यक् / श्रीवर्धमानतीर्था- | हीलियवयण (न०) हीलितवचन- सासूयमवगणयता वाचकज्येष्ठार्येधिराजमभिनम्य सद्भक्तया॥१॥ गीतार्थसार्थनिर्मित-पृच्छाना- त्यादिजल्पने, प्रव० 225 द्वार। स्था०॥ मुत्तराणि लिख्यन्ते / श्रीहीरविजयसूरि-प्रसादितानि प्रबोधाय // 2 // " अथ हीलितवचनं व्याख्यातिही०१प्रका०। गणिवायए बहुस्सुय, मेहावीयरियधम्मकहिवादी। हीरमाण त्रि०(ह्रियमाण) नीयमाते, आचा०२ श्रु०१चू०४ अ०४ उ० | अप्पकसाए थूले, तणुए दीहे य मड हे य॥३१॥ हीरविजय पुं०(हीरविजय) अकब्बरशाहप्रतिबोधके तपागच्छीयसूरी, इह गणिवाचकादिपदै: सूचया असूचया वा परं हीलयति, सूचया यथा द्वा०। “प्रतापार्के येषां स्फुरति विहिताऽकब्बरमनः, सरोजप्रोल्लासे भवति वयं नगरवृषभाः अत: को नाम गणिवृषभै: सहास्माकं विरोध:, असूचया कुमतध्वान्तविलयः / विरेजु: सूरीन्द्रास्त इह जयिनो हीरविजया, यथा कस्त्वं गणी नामासि किं वा त्वया गणिना निष्पद्यते। यद्वा-गणी दयावल्लीवृद्धौ जलदजलधारायितगिरः // 1 // " द्वा०३२ द्वा०। प्रति०। भवन्नपि त्वं न किंचित् जानासि केन वा त्वं गणी कृत इति, एवं वाचका"येनाऽकब्बरभूधरेऽपि हि दयावल्लि: समारोपिता, विश्वव्याप्तिमतीवभूरि दिष्वपि पदेषु भावनीयम्। नवरं वाचक: पूर्वगतश्रुतधारी बहुश्रुत:फलिता धर्मोर्जितैः कर्मभिः / हीर: क्षीरसमुद्रसान्द्रलहरीप्रस्पर्द्धि- अधीतविचित्रश्रुत:, मेधावी-ग्रहणधारणामर्यादा भेदात् त्रिधा। आचार्यो कीर्तिव्रजः, स श्रीमान जिनशासनोन्नतिकरस्तत्पट्टनेताऽजनि॥२॥" गच्छाधिपति: धर्मकथावादी च प्रतीतः। 'अप्पकसाए' त्ति बहुकषाया: प्रति०। द्वा० / “प्रख्यावानजनिष्ट हीरविजयः सूरि: सतामग्रणी:"|ध० वयं को नामाल्पकषायैः सह विरोध: 'थूले तणुए' ति स्थूलशरीरा वयं 3 अधि०। “आसंस्तदीयपट्टे, प्रभवश्रीविजयदानसूरीन्द्राः। सर्वत्र कस्तनुदेहै: सह विरोध: 'दीहे मडहे य' त्ति दीघदेहा वयं सदैवोपरि विजयवन्तो, नयवन्त: समयवन्तश्च // 1 // तेषां पट्टे सम्प्रति, विजयन्ते शिरोद्घट्टनं प्राप्नुमः, को मडहदैहै: समं विरोधः, एषा सूचा असूचायांतु सर्वसूरिपारीन्द्राः / सुविहितसाधुप्रभवः, श्रीमन्तोहीरविजयाहाः // 2 // " 'बहुकषायत्वंस्थूलशरीरस्त्वमित्यादिकं परिस्फुटमेव जल्पति। एवं सूचया ग०३ अधि०। (अवत्यविस्तार: 'कप्पसुबोहिया' शब्दे तृतीयभागे 238 वा यत्परं हीलयति तदेतत् हीलितवचनम्। बृ०६ उ०। पृष्ठे गतः।) केचन वदन्ति श्रीमहावीरशिष्यश्रीसुधर्मस्वामिन: आरभ्य | हीसमण न०( हेषित) 'क्तेनाप्फुण्णादयः' / / 8 / 4258 || इति Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हीसमण १२४०-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हुरत्था हेषितस्थाने हीसमणेति निपात्यते। हीसमणं / अश्वशब्दे, प्रा० / | हुंडी स्त्री०(हुण्डी) घटिकायाम्, "हुंडी घडा" पाइ० ना०२६५ गाथा ! दे० ना०। हुंतए (अव्य०) भवितुम्- सत्ता लब्धुमित्यर्थे, वृ०६ उ०। हीही- (देशी)-अव्य०। हर्षे, प्रा०। “हीही विदूषकस्य" हुंतावायपगासण न०(भाव्यपायप्रकासन) अशुद्धव्यवहारकृतां ||8 / 4 / 285 / / शौरसेन्या हीही इति निपातो विदूषकस्य हर्षद्योत्ये भाविनोऽपायस्स प्रकटने, 'मा कृथा: पापानि चौर्यादीनि, इह परत्र प्रयोक्तव्य: "हीही भो सम्पन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स" प्रा०। चानर्थकराणी' त्याश्रितं शिक्षयति, ध०२ अधि०। ध० 20 / हु अव्य०(हु)निश्चये, उत्त०१अ०। व्याआ० मा यस्मादर्थे, आचा० हिंबउट्ठ पू०(हम्बतुष्ट) कुण्डिकाश्रमणे, भ०११श०६ उ०नि०।औ०। १श्रु०६अ०१ उ०। सूत्र०। नि० चू० / शब्दार्थे, विशेषणे च। सूत्र०१ हुड-(देशी) -मेषे, दे० ना०८ वर्ग 70 गाथा। ' श्रु०१२ अ० आचा० आ० म०। हेतौ, अवधारणेच! आचा०१ श्रु० हुडुअ-(देशी)-प्रवाहे, दे० ना०५ वर्ग 70 गाथा।पाइ०ना० 6 अ०१उ०। सूत्र०नि० चू० श्रा० सम्म०। पश्चा०। वाक्यालकारे, हुडका स्त्री०(हुड्डुक्का) काहलानामके तूर्यविशेषे, जी०३ प्रति 4 अधि० / आ० म०१०। सूत्र० / तं० / प्रश्र० / पश्चा० / प्राकट्ये, प्रव०१ द्वार। आ० म०। औ०। रा०। स्फुटार्थे, आतु०। पादपूरणार्थ, जीवा० 28 अधि०। पं० 50 / हुडुम-(देशी) पताकायाम्, दे० ना०८ वर्ग 70 गाथा। पाइ० ना० एवकारार्थे, उत्त०१अादर्श आ० म०।पं० सं०।तर्कितार्थसमर्थने, हुड्डा स्त्री०(हुड्डा) हुड्डांपारापतनालिकेरादिसम्बन्धिनीं विधत्ते। द्वाषष्टितमे आव०२ अ०1- “हु खु निश्चयवितर्क-संभावन-विस्मये" || श्रावकस्य आशातनादोषे, प्रव०३८ द्वार। ८१२/१९८॥हु खुइत्येतौ निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यौ। निश्चये-तंपिहु हुण धा०(हु) दानादानयोः, "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धूगांणो अच्छिन्न सिरी परहस्सं। वितर्क ऊह: संशयो वा। ऊहे- 'न हुणवरं हस्वच" |10|241 // इति अन्ते णकारागम: / हुणइ / जुहोति। संगहिया' बहुलाधिकारादनुस्वारात्परो हुर्न प्रयोक्तव्यः / प्रा०२ पाद। प्रा०नि०1 चू० / “न वा कर्मभावे व्व: क्यस्य च लुक" || हुअवह पुं०(हुतवह) अग्नौ, “धूमद्धओ हुअवहो" पाइ० ना०६ गाथा / 8 / 4 / 252 // इति अन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा क्यस्य च लुक्। हुआस पुं०(हुताश) वह्नौ, आव० 4 अ०॥ हुव्वइ / हुणिज्ज। हूयते / प्रा० 4 पाद। हुआसण पुं०(हुताशन) राजगृहे नगरे स्वनामख्याते. ब्राह्मणे "नगरे हुत्त (त्रि०) हुत- 'सेवादी' वा // 8 // 26E | इति अन्त्यस्य द्वित्त्वं पाटलीपुत्रे, श्रावकोऽभूत हुताशनः / तद्भार्याज्वलनशिखा, दहनज्वलनौ वा। हुत्तं / हुअं। अग्निक्षिप्ते घृतादिके, प्रा० / स्था० / सूत्र० / अभिमुखे, सुतौ" आ० क० 4 अ० / अग्नौ, पाइ० ना० 6 गाथा। दे० ना० 8 वर्ग 60 गाथा। (अस्य व्याख्या 'कुसील' शब्दे तृतीयभागे हुं अव्य०( हु) दानादिषु प्रा० / “हुँ दानपृच्छानिवारणे" 610 पृष्ठे। 'उदग' शब्दे द्वितीयभागे 766 पृष्ठे च द्रष्टव्या।) ||2|167 II, हुं इति दानादिषु प्रयुज्यते / दानेहुं गेण्ह अप्पणच्चिअ। पृच्छायां-हुँ साहुसु सम्भावं। निवारणे-हुं निल्लज्ज ! हुन्त (त्रि०) भवत्- "अविति हुः" || 8161 // इति भुवो हु समोसर / प्रा०२पाद। इत्यादेश: / विद्यमानार्थे, प्रा०४ पाद०। हुंकअ- (देशी)-अञ्जलौ, दे० ना०५ वर्ग७१ गाथा। हुयवह (पुं०) हुतवह- वैश्वानरे, जी०३ प्रति० 4 अधि० / प्रज्ञा० / अनौ, हुंकार पुं०(हुंकार) वन्दने, हुंकारं दद्यात्-वन्दनं कुर्यादित्यर्थः / विशे०। ज्ञा०१श्रु०१अ०॥ तं०। औ०। आ० / म०। को० आव०। 'हुयवआ०म०। प्रा०1०। हणिद्धतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततलतालुजीहा' हुतवहेन-अम्निना निर्मात हुंकुरुव- (देशी)- अञ्जलौ; दे० ना० 8 वर्ग 71 गाथा। सत् यत् धौतं शोधितमलं तप्तं तपनीयं सुवर्णविशेषस्तद्वत् रक्ते तले हुंड न०( हुण्ड) अव्यवस्थिताङ्गावयवे, विपा०१ श्रु०१ अ०। सर्वत्रा- | हस्ततले तालु ककुदं जिह्वा च-रसना येषां ते हुतवहनिर्मातधौतसंस्थितं, यस्य हि प्रायेणैकोऽप्यवयव: शरीरलक्षणोक्तप्रमाणे न संवदति तप्ततपनीयरक्ततलतालुजिह्वा: / जी०३ प्रति० 4 अधि०। तं०। सर्वत्रासंस्थितं हुण्डमिति / स्था० 6 ठा० 3 उ० / प्रश्न / कर्म०। हुण्डं हुयहुयासण (पुं०) हुतहुताशन-दीप्तब्रौ, सूत्र०२ श्रु०२ अ०। प्राय: सर्वावयवेषु आदिलक्षणविसंवादोपेतमिति। भ०१४ श०७ उ०! हुयासण (पुं०) हुताशन-वैश्वानरे, ज्ञा०१ श्रु०५ अ० / अग्नौ, कल्प० तका अनु०। प्रज्ञा०ाजी०। विशे०। सर्वावयवप्रमाणविकले संस्थान- १अधि० 6 क्षण। देवमायाकृते वह्नौ, उत्त०१६ अ०। माहेश्वर्यां नगर्या विशेषे, विपा० 1 श्रु० 1 अ० / कर्म०। स्वनामख्याते व्यन्तरगृहे , पञ्चा०६ विव०। आ० म० आ० चू०। हुंडणामन०(हुण्डनामन) संस्थाननामकर्मभेदे, यदुदयाजन्तुशरीरं हुण्ड- हुरत्था-(देशी०) बहिर्वा निर्गत्येत्यर्थे, आचा०२ श्रु० 1 चू० 1103 संस्थानं भवति। कर्म०१ कर्म०। उ०। उपाश्रयाबहिर्वर्तिन्यां वगडायाम्, बृ०२ उ०। Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुरब्भ 1241 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हेउ हुरख्म पुं० (हुरभ) वाद्यविशेषे, उपा०२ अ०। 'हुरत्भवुडसंठाणसंठिए' हुरब्भो वाद्यविशेषस्तस्य पुटं पुष्कर तत्संस्थानेन संस्थितः / उपा० २अ०। हुरुडी (देशी)- विपादिकायाम्, दे० ना० 5 वर्ग 71 गाथा। हुल (धा०) क्षिप्-प्रेरणे "क्षिपेगलत्थाडक्ख-सोल-पेल्ल-णोलछुह-हुल-परी-घत्ता: / / 8 / 143 // इति क्षिप्रस्थाने हुलेत्यादेश: / हुलइ। क्षिपति। प्रा०४ पाद। *मृज-धा० / शुद्धौ, "मृजेरुग्घुस-लुञ्छ-पुञ्छ-पुंस-फुस-पुसलुह-हुल-रोसाणा:" ||8|4|105 // इति मृज्धातोर्डलेत्यादेशः। हुलइ। मार्टि। प्रा०४ पाद हुलिय-(देशी)- शीघ्र, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। प्रा० / औ०। दे० ना० / हुलुव्व-(देशी)- प्रसवपरायां स्त्रियाम्, दे० ना०५ वर्ग 71 गाथा। हुव (धा०) भू-सत्तायाम् “भुवेहो-हुव-हवा:"||८४६०॥ इति भूधार्तो वादेश: / हुवइ / भवति। प्रा०४ पाद। हुहुय न०(हुहुक) चतुरशीतिलक्षगुणितेषु हुहुकाङ्गेषु, अनु०। स्था०। जी०। भ० ज०। कर्म०। हुहुयंग न०(हुहुकाङ्ग) चतुरशीतिलक्षगुणिते अववे, स्था० 2 ठा० 4 / उ०। चतुरशीतिरववशतसहस्त्राणि एकं हुहुकाङ्गम्। जी०३ प्रति०४ अधि० / भ०। कर्म० / अनु० ज०। हुहुरु अव्य०(हुहुरु) शब्दानुकरणे, प्रा०। “हुहुरु घुग्धादयः शब्द चेष्टानुकरणयोः" ||8||423 || अपभ्रंशे हुहुर्वादयः शब्दानुकरणे घुग्धादयश्चेष्टानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः / “मइँजाणिउँ बुड्डीसुहउँ, पेम्भद्रहि हुहुरु ति।" प्रा०४ पाद्। हुहुहुहुयन०(हुहुहुहुक) अणुकरणवचने,"अप्पेगइया हुहुहुहुएंति" आ० म०१ अ०रा०। हूअत्रि०(भूत) “क्ते हू:"||८४६५ / भुव: क्ते प्रत्यये हू: आदेशः। हूअं। अणुहूअं। जाते, प्रा०४ पाद। हूण पुं०(हूण) अनार्यक्षेत्रविशेषे, तद्वासिनि जने च / त्रि० / सूत्र०१ श्रु०५ अ०१ उ० / प्रज्ञा०। *हीन त्रि० “फीनविहीने वा" ||811 / 103 / / इति ईतऊत्वम्, हूणो, हीणो। त्यक्ते, रहिते, प्रा० 1 पाद। हूम-(देशी) - लोहकारे, दे० ना०८ वर्ग७१ गाथा। हूयच्छी स्त्री०(हूताक्षी) कन्दविशेषे, उत्त०३६ अ०। हूयमाण त्रि०(हूयमान) मयूराक्ग्रामवासिषु पाखण्डिगृहिषु, पश्चा०७ विव०। हे अव्य० (हे) सम्बोधने, आह्वाने, असूयादौ च / प्रा०। हेआल-(देशी०)- सर्पशिरः संज्ञेन हस्तेन निषेधे, दे० ना० 8 वर्ग 172 गाथा। हेउ पुं०(हेतु) हिनोति गमयति ज्ञेयमिति हेतुः / अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणे, स्था०1 हेऊ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-जावते 1, थावते 2, वंसते २,लूसते / / उक्तञ्च- "अन्यथाऽनुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्। तदप्रसिद्धिसंदेहविपर्यासस्तदाभता / / 1 / / " इति। प्रागुक्तश्च हेतु: पर्यनुयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रम्-अयन्तु साध्यं प्रत्यन्वयव्यतिरेकवान् तथाविधदृष्टान्तस्मृततद्भाव इति। स चैकलक्षणोऽपि किञ्चिचद्विशेषाचतुर्दा। तत्र 'जावए' त्ति यापयतिवादिन: कालयापनां करोति, यथा काचिदसती एकैरूपकेण एकैकमुष्ट्रलिण्ड दातव्यमिति दत्तशिक्षस्य पत्युस्तद्विक्रयार्थमुज्जयनीप्रेषणोपायेन विटसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापकः। उक्तञ्च- "उन्भामिया य महिला, जावगहेउम्मि उट्टलिंडाई॥” इति, इह वृद्धव्याख्यातम्-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहुलो हेतु: कर्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततोऽसौ नावगच्छति प्रकृतमिति, स चेदृश: संभाव्यते-सचेतना वायवः अपरप्रेरणे सति तिर्यगनियतत्वाभ्यां गतिमत्त्वात् गोशरीरवदिति। अयं हि हेतुर्विशेषणबहुलतया परस्य दुरधिगत्वात् वादिन: कालयापनां करोति, स्वरूपमस्यानवबुद्ध्यमानो हि परो नझगित्येवानैकान्ति-कत्वादिदूषणोद्भावनाय प्रवर्तितुं शक्नोति, अतो भवत्यस्माद् वादिन: कालयापनेति। अथवा-योऽप्रतीतव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधक-प्रमाणान्तरसव्यपेक्षत्वान्न झगित्येव साध्यप्रतीति करोति, अपितु-कालक्षेपेणेत्यसौ साध्यप्रतीति प्रति कालयापनाकारित्वाद् यापकः / यथा-क्षणिकं वस्त्विति पक्षे बौद्धस्य सत्त्वादिति हेतु:. नहि सत्त्वा श्रवणादेव क्षणिकत्वं प्रत्येति पर इत्यतो बौद्धः सत्त्वं क्षणिकत्वेन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमु-पक्रमते,तथाहि-सत्त्वं नामार्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यथा बन्ध्यासुतस्यापि सत्त्वप्रसङ्गः, अर्थक्रिया तु नित्यस्यैकरूपत्वान्न क्रमेण, नापियोगपद्येन, क्षणान्तरे अकर्तृत्वप्रसङ्गादित्यतोऽर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिकान्निवर्तमानं क्षणिक एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपेण साध्यसाधने कालयापनाकारित्वाद् यापक: सत्त्वलक्षणो हेतुरिति 11 स्था० 4 ठा०३ उ०। (द्वितीयस्थापक-हेतुवक्तव्याता 'थावय' शब्दे 4 भागे 2408 पृष्ठे गता।) (तृतीयव्यंसक-हेतुवक्तव्यता 'वंसग' शब्दे षष्ठे भागे द्रष्टव्या।) तथा 'लूसए' त्ति लूषयति-मुष्णाति व्यंसकापादितमनिष्टमिति लूषको हेतुः, स एव शाकटिकः, यथाधूर्तान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ धूर्तः, तर्हि देहि में तर्पणालोडिकामिति, ततो धूर्तेनोक्तास्वभार्यादेह्यस्मै सक्तूनालोड्येति, ताञ्च तथा कुर्वतीं तद्भायर्या गृहीत्वाऽसौ प्रस्थितोऽवादीच धूर्तमभिमदीयेयं तर्पणमिति सक्तूनालोडयति तर्पणालोडिकेति भवतैव दत्तत्वादिति।सचायं यदिजीवघटयोर-स्तित्ववृत्त्या एकत्वंसम्भावयसि तदा सर्वभावानामेकत्वं स्यात्, सर्वेष्वप्यस्तित्ववृत्तेरविशेषात् न चैवमिति, इहास्तित्ववृत्तेरविशेषादित्ययं लूषको जीवघटयोरेकत्वापादनलक्षणस्याभावापत्तिलक्षणस्य वाऽनिष्टस्य परापादितस्यानेन लूषितत्वादिति / स्था० 4 ठा० 3 उ०। अन्वयव्यतिरेकलक्षणे, (अनु० / सूत्र० / आ० म०।व्य।) साध्यार्थगमके युक्तिविशेष, विशे०। हेऊ अणुगमवइरे-गलक्खणो सज्झवत्थुपज्जाओ। आहरणं दिलुतो, कारणमुवपत्तिमेत्तं तु // 1077 // Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेउ 1242 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हेउ देश एवं पयाणनिवहो, हेऊदाहरणकारणत्थाणं / अहवा पयनिवहो चिय, कारणमाहरणहेऊणं / / 1078 // यत्र साधनंतत्र साध्यं भवत्येवेत्येवंलक्षण: साध्यस्य साधनेनसहान्वयोऽनुगमः, साध्याभावे साधनाभावरूपोव्यतिरेक; अनुगमश्च व्यतिरेकश्व तौ लक्षणस्वरूपं यस्य स एवंभूतो हेतु:, यथा अनित्यत्वादि-विशिष्टे शब्दादौ साध्ये कृतकत्वादिः, कथंभूतोऽयम् ? इत्याह-साध्यस्य नित्यत्वादिविशिष्टस्य शब्दादिवस्तुन: पर्याय:, अन्यस्य वैयधिकरण्या दिदोषदुष्टत्वेन साध्यसाधकत्वायोगादिति / विशे०। हेतुरूपं निरूपयन्तिनिश्चितान्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुः // 11 // अन्यथा साध्यं विनाऽनुपपत्तिरेव न मनागप्युपपत्ति:, प्रयत्नानन्तरीयकत्वे साध्ये विपक्षकदेशवृत्तेरनित्यत्वस्यापि गमकत्वापत्तेः / ततो निश्चिता निर्णीताऽन्यथानुपपत्तिरेवैका लक्षणं यस्य स तादृशो हेतु यः, अनन्थाऽनुपपत्तिश्चात्र हेतुप्रक्रमात्साध्यधर्मेणैव सार्द्धः ग्राह्या। तेन तदिरान्यिथानुपपन्नैः- प्रत्यक्षादिज्ञानै तिव्याप्तिः। एतद्व्यवच्छेद्यं दर्शयन्तिन तु त्रिलक्षणकादिः // 12 // त्रीणि-पक्षधर्मत्व-सपक्षसत्त्व-विपक्षसत्त्वानि लक्षणानि यस्यासौ / गतसम्मतस्य हेतोः. आदिशब्दाधौगसंगीतपञ्चलक्षणकहैत्ववरोधः। तेनाबाधितविषयत्वासत्प्रतिपक्षत्वयोरपि तल्लक्षणत्वकथनात्, तथा हिवह्निमत्वे साध्ये धूमवत्त्वं पक्षस्य पर्वतस्य धर्म:,नशब्दे चाक्षुषत्वदतद्धर्म: सपक्षे पाकस्थाने सन्, न तुप्राभाकरेण शब्दनित्यत्वे साध्ये श्रावणत्ववत्ततोव्यावृत्तं विपक्षेपयस्वति प्रदेशे सन्न तु तत्रैव साध्ये प्रमेयत्ववत् तत्र वर्तमानम् अबाधितविषयं, प्रत्यक्षागमाभ्यामवाध्यमानसाध्यत्वात्, नतु अनुष्णस्तेजोऽवयवी द्रव्यत्वाज्जलवद्विप्रेण सुरा पेया द्रवत्वात्तद्वदेवेतिवत् ताभ्यां बाधितविषयम् / असत्प्रतिपक्ष, साध्यविपरीतार्थोपस्थापकानुमानरहितं न पुनर्नित्य: शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुमानसमन्वितम्, अनित्यः, शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेरित्यनुमानमिव सत्प्रतिपक्षमिति लक्षणत्रयपञ्चकसद्भावात् गमकम् / तत एतादृक्षलक्षणलक्षितमेवासूणं लिङ्गम्, इति सौगतयोग-योरभिप्रायः। न चायं निरपाय:। एतदुपपदियन्तितस्य हेत्वाभासस्यापि संभवात्॥१३॥ अनेनातिव्याप्तिप्रागुक्तलक्षणस्याचख्यु:-स श्यामस्तत्पुत्रत्वात्, प्रेक्ष्यमाणेतरतत्पुत्रवदित्यत्र समग्रतल्लक्षणवीक्षणेऽपि हेतुत्वाभावात्। अत्र विपक्षेऽसत्त्वं निश्चितं नास्ति न हि श्यामत्वासत्वे तत्पुत्रत्वेनावश्यं निवर्तनीयमित्यत्र प्रमाणमस्तीति सौगतः / स एवं निश्चितान्यथानुपपत्तिमेवशब्दान्तरोपदेशेन शठः शरणीकरोतीति सैव भगवती लक्षणत्वेनास्तु, यौगस्तुगर्जति-अनौपाधिक: संबन्धो व्याप्ति: / नचायं तत्पुत्रत्वेऽस्ति, शाकाद्याहारपरिणामाधुपाधिनिबन्धत्वात्। साधनाव्यापक: साध्येनसमव्याप्तिक: किलोपाधिराश्रयते,तथा चात्र शाकाद्या हारपरिणाम इत्युपाधिसद्भावान्न तत्पुत्रे विपक्षासत्त्वसंभव इति। सोऽपि न निश्चिताऽन्यथानुपपत्तरेतिरिक्तमुक्तवानिति सैवैकाऽस्तु। नानौपाधिकसम्बन्धे सति किंचिदवशिष्यते यदपोहाय शेषलक्षणप्रणयनमसूर्ण स्यात्, पक्षधर्मत्वाभावे रसवतीधूमोऽपि पर्वते सप्तार्थिषं गमयेत्, इत्यभिदधानो बौद्धो न बुद्धिमान्, यत: पक्षधर्मत्वभावेऽपि किं नैष तत्र तं गमयेत् ? ननु कौतुकमेतत्कथं हि नाम पक्षधर्मातोपगमे रसवतीधर्म: सन् धूमो महीध्रकन्दराधिकरणं धनंजयं ज्ञापयत्विति चेत्: एवं तर्हि जलचन्द्रोऽपि नभश्चन्द्रमा जिज्ञपत, जलचन्द्रस्य जलधर्मत्वात्। अथ जलनश्चन्द्रान्तरालवर्त्तिनस्तावतो देशस्यैकस्य धर्मित्वेन जलचन्द्रस्य तद्धर्मत्वनिश्चयात् कुतो न तत् ज्ञापकत्वमिति चेतः एवं तर्हि रसवतीपर्वतान्तरालवर्तिवसुंधराप्रदेशस्यधर्मकत्वमस्तु, तथा च महानसधूमस्यापि पर्वतधर्मातानिर्णयात् जलचन्द्रवत् कथं नतत्रतद्भकत्वंस्यात् ? पक्षधर्माता खलूभयत्रापि निमित्तं, ततो यथाऽसौ स्वसमीपदेशे धूमस्य धूमध्वजं गमयतोऽभ्लानतनुरास्ते तथा व्यवहितदेशेऽपि पर्वतादौ तदवस्थैव, अन्यथा जलचन्द्रेऽपि नासौ स्याद्देशव्यवधानात् / अथ नेयमेवात्र गमकत्वानं किंतु कार्यकारणभावोऽपि। कार्य च किमपि कीदृशं, तदिह कृपीटजन्मा स्वसमीपप्रदेशमेव धूमकार्यमर्जयितुमधीशान:, नभश्चन्द्रस्तुव्यवहितदेशमपीतिनमहानसधूमो महीधरकन्दराकोणचारिमाशुशुक्षणिं गमयतीति चेत्, नन्वेवं धूमस्तद्देशेनैव पावकेनान्यथानुपपन्न:, नीरचन्द्रमा:, पुनरतद्दशेनापि नभश्चन्द्रेण, इम्त्यन्यथानुपपत्तिनिर्णयमात्रसद्भावादेव साध्यसिद्धेः संभवात्किं नाम जलाकाशमृगाड्कमण्डलान्तरालादेर्धर्मित्वकल्पनाकदर्थनमात्रनिमित्तेन पक्षधर्मतावर्णनेन, योगस्याष्येवमेव च पक्षधर्मत्वानुपयोगो दर्शनीयः / सपक्षसत्त्वमप्यनौपयिकं सत्त्वादेरगमकत्वापत्तेः / यस्तुपक्षावहिष्कृत्य किमपि कुटादिकं दृष्टान्तयति तस्यापूर्व: पाण्डित्यप्रकार:, कुटस्यापि पटादिवद्विवादास्पदत्वेन पक्षावहिष्कारणानुपपत्तेः / तथा च कथमयं निदर्शनतयोपदयंत, प्रमाणान्तरात्तत्रैव क्षणिकत्वं प्राक् प्रसाध्य निदर्शनतयोपादानमिति चेत् ? ननुतत्रापिक: सपक्षीकरिष्यते यदिक्षणिकत्वप्रसाधनपूर्व पदार्थान्तरमेव तदा दुर्वारमनवस्थाकदर्थनम्, अन्यथा तु न स पक्ष: कश्चित्, यतएवच प्रमाणात् क्षणिकत्वनिष्टड्कन कुटे प्रकट्यते, ततएव पटादिपदार्थान्तरेष्वपि प्रकट्यतां किमपरप्रमाणोपन्यासालीकप्रागल्मीप्रकाशनेन, यस्तुसाध्यधर्मवान्स सपक्ष इति सपक्षलक्षयित्वां पक्षमेव सपक्षमाचक्षीत, साध्यधर्मवत्तया हि सपक्षत्वं साध्यत्वेनेष्टतया तुपक्षत्वं, न च विरोध:, वास्तव्यस्य सपक्षत्वस्येच्छाव्यवस्थितेन पक्षत्वेन निराकर्तुमशक्यत्वादिति / स महात्मा निश्चितं निर्विण्ण: सत्यादेः क्षणिकत्वाद्यनुमाने सपक्षसत्वावसायवेलायामेव साध्यधर्मस्यावबोधेनानुमानानर्थक्यात, पक्षो हि साध्यधर्मवत्तया सपक्षश्चेन्निश्चिक्ये, हेतोश्च तत्र सत्त्वं, तदा किंनाम पश्चाद्धेतुनासाधनीयम् ? किं चैवमनेनपक्षलक्षयता "साध्यधर्म-सामान्येन समानोऽर्थः सपक्ष" इति दिग्नागस्य, "अनुमेयेऽथ तत्तुल्ये, सद्भावोनास्तिताऽसति" इति। धर्मकीर्तेश्च वचो निश्चितंवञ्चितमेव स्यात्यौगश्व केवलान्वयव्यतिरेकमनुमानमनुमन्यमान: कथं पश्चलक्षण Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेउ १२४३-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 पराक तां लिङ्गस्य संवाहयेत् ? इति निश्चितान्यथानुपपत्तिरेवैक लिङ्गलक्षणम- क्षितिधरकन्धरायास्तदानीं संवेदनात् / तृतीये तूभाभ्याम् / नहि क्षुणम्। तत्त्वमेतदेव, प्रपञ्च पुनरयमिति चेत्, तर्हि सौगतेनाबाधित- श्रूयमाणादन्येषां देशकालस्वभावव्यवहितध्वनीनां ग्राहकं किश्चित् विषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वम् ज्ञातव्यं च; योगेनच ज्ञातत्वं लक्षणमाख्या- तदानींप्रमाणं प्रवर्त्तत इति विकल्पादेव तेषां सिद्धिः / ननु नास्ति नीयम्। अथ विपक्षानिश्वितव्यावृत्तिमात्रेणाबाधित-विषयत्वमस्त्पति- विकल्पसिद्धो धर्मी, तन्मात्रेण सिद्धेः कस्याप्यसंभवात् / अन्यथाऽहंपक्षत्वं च ज्ञापकहेत्वधिकारात्, ज्ञातत्वं च लब्धमेवेति चेत्, तर्हि प्रथमिकया प्रमाणपर्येषणप्रयास: परीक्षकाणामकक्षीय-करणीय एव गमकहेत्वधिकारादशेषमपि लब्धमेवेति किं शेषेणापि प्रपञ्चेनेति। भवेत्, प्रमाणमूलतायां पुनरेतस्य प्रमाणसिद्धप्रकारेणैव गतार्थत्वादिति। साध्यविज्ञानमित्युक्तमिति साध्यमभिदधति सोऽयं स्वयं विकल्पसिद्ध धर्मिणमाचक्षाण: परोक्तं प्रत्याचक्षाणश्च अप्रतीतमनिराकृतमभीप्सितं साध्यम्॥१४॥ नियतमुत्स्वप्नाायते। 'यदि हि विकल्पसिद्धो धर्मी नास्त्येव, 'तदा अप्रतीतम्-अनिश्चितम्, अनिराकृतम्-प्रत्यक्षाद्यबाधितम्, अभीप्सि- नास्ति विकल्पसिद्धो धर्मी, तन्मात्रेण सिद्धेः कस्याप्यसंभवात्' इत्यत्र तम्-साध्यत्वेनेष्टम् कथं तमेवावोचथा:? परोपगमादयमस्त्येवेति चेत् / “यदि परोपगम: अप्रतीतत्वं समर्थयन्ते प्रमितिस्तदा, कथमयं प्रतिषेधविधिर्भवेत् / अथ तथा न तदापि शंकितविपरीतानध्यवसितवस्तूनां साध्यताप्रतिपत्त्यर्थम- वतोच्यता, कथमयं प्रतिषेधविधिर्भवत्" // 1 // तस्मात्प्रमाणात्पृथग्प्रतीतवचनम् / / 15 // भूतादपि विकल्पादस्ति काचित्तथाविधा सिद्धः, यामनाश्रयता तार्किएवंविधमेव हि साध्यम्, अन्यथा साधनवैफल्यात्। केण न क्षेमेणासितुं शक्यत इति। रत्ना०३ परि० / हिनोति-गमयति अनिराकृतत्वं सफलयन्ति ज्ञानमिति हेतु:, सूत्र०२ श्रु०५ अ०। स०।हिनोतिगमयति जिज्ञासितप्रत्यक्षादिविरुद्धस्य साध्यत्वं मा प्रसज्यतामित्यनिराकृत- धर्मविशिष्टमर्थमिति हेतु: / 0 / उत्त० दश०। अनुमानोत्थापके लिङ्गे, ग्रहणम् // 16 // स्था० 10 ठा०३ उ०। उपघारात् (आव० 4 अ०) पञ्चावयववाक्यरू प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य धनंजयादौ शैत्यादेः। (उत्त०६ अ०1) अनुमाने, स्था०। हिनोतिगमयतीति हेतु: / साध्यअभीप्सितत्यं व्यञ्जयन्ति सद्भावतदभावाभावलक्षणेऽर्थे, स्था० 10 ठा०३ उ०। अनभिमतस्यासाध्यत्वप्रतिपत्तयेऽभीप्सितपदोपादानम् 17 प्रागुक्तमेव हेतुंप्रकारतो दर्शयन्तिअनभिमतस्य-साधयितुमनिष्टस्य। उक्तलक्षणो हेतुर्दिप्रकार:, उपलब्ध्यनुपलब्धिभ्यां भिधमासाध्यत्वं सूत्रत्रयेण विषयविभागेन संगिरन्ते नत्वात् // 55 / / रत्ना० 3 परि०। व्याप्तिग्रहणसमयापेक्षयासाध्यं धर्मएवान्यथा तदनुपपत्तेः // 18 // हेतुप्रयोगप्रकारं दर्शयन्तिधर्मों वह्निमत्त्वादिः, तस्या व्याप्तेरनुपपत्तेः / हेतुप्रयोगस्तथोपपत्त्यन्यथानुपपत्तिभ्यां द्विप्रकार: // 26 // एतदेव भावयन्ति तथैव साध्यसंभवप्रकारेणैवोपपत्तिस्तथोपपत्ति:, अन्यथा साध्याभावनहि यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र चित्रभानोरिव धरित्रीधरस्याप्यनु- प्रकारेणानुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः।। वृत्तिरस्ति / / 16 // अभू एव स्वरूपतो निरूपयन्तिव्यक्तमेतत्। सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्तथोपपत्तिः,असति साध्ये आनुमानिकप्रतिपत्त्यवसरापेक्षया तुपक्षाऽपरपर्यायस्तद्विशिष्टः | हेतोरनुपपत्तिरेवान्यथानुपपत्तिः // 30 // प्रसिद्धो धर्मी // 20 // निगदव्याख्यानम्। आनुमानिकी प्रतिपत्तिरनुमानोद्भवा प्रमितिः, तद्विशिष्ट: व्याप्तिकाला प्रयोगतोऽपि प्रकटयन्तिपेक्षया साध्यत्वाभिमतेन धर्मेण विशिष्टः प्रसिद्धो-धर्मीत्युक्तम्। यथा कृशानुमानयंपाकप्रदेश: सत्येव कृशानुमत्त्वे धूमत्त्वस्योअथ यतोऽस्य प्रसिद्धिस्तदभिदधति पपत्ते:, असत्यनुपपत्तेर्वा // 31 // धर्मिणः प्रसिद्धः क्वचिद् विकल्पतः, कुत्रचित्प्रमाणतः, एतदपि तथैव। वापि विकल्पप्रमाणाभ्याम्॥२१॥ अमुयो: प्रेयोगी नियमयन्तिविकल्प:- अध्यवसायमात्रम्। अनयोरन्यतरप्रयोगेणैव साध्यप्रतिपत्तौ द्वितीयप्रयोगस्यैअथात्र क्रमेणोदाहरन्ति कत्रानुपयोगः // 32 // यथा समस्ति समस्तवस्तुवेदी, क्षितिधरकन्धरेयं अयमर्थः, प्रयोगयुग्मेऽपि वाक्यविन्यासः एव विशिष्यते धूमध्वजवती, ध्वनिः परिणतिमान्॥२२॥ नार्थः / स चान्यतरप्रयोगेणैव प्रकटबिभूवेति किमपरप्रयोगेण ? अत्राद्योदाहरणं धर्मिणो विकल्पेन सिद्धिः / नहि हेतुप्रयोगात्पूर्व विकल्प इति / रत्ना० 3 परि० / 'उपलब्ध्यनुपलब्धी स्वस्वस्थाने विहाय विश्ववित् कुतोऽपि प्रासिध्यत्। द्वितीये प्रमाणेन-प्रत्यक्षादिना, व्याख्याते / ) अनुभाव-प्रतिपादके वसि परार्थानुमाने, आ० Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेउ 1244 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 म०१ अ01 आ० चू०। आ० क० / फलसाधनयोग्ये कारणे, संघा०१ अधि०१ प्रस्ता० / कारणे, विशे०। निमित्ते, सूत्र 1, श्रु०७ अ०। नि० चू०। कल्प० / उपपत्ती, चं० प्र०१पाहु० / हेतुर्द्विधा-कारको, ज्ञापकश्च / तत्र कारको यथा-घटस्य कर्ता कुम्भकार:, ज्ञापको यथा-तमसि घटादीनामभिव्यञ्जक: प्रदीपः / ग०१अधि०। प्रश्न० / आ०म०। ति०। यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुरिति। उपन्यासोपनयभेदे, स्था०। तथा 'हेउ' त्ति, यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुरिति / यथा केनापि कश्चित्पर्यनुयुक्त:-अहो ! किंयवा: क्रीयन्ते त्वया? सत्वाह-येन मुधैव न लभयन्ते इति, तथा कस्मात् ब्रह्मचर्यादिकष्टमनुष्ठीयते ? यस्मादकृततपसां नरकादौ गुरुतरा वेदना भवतीति, इदमपि उपपत्तिमात्रमेव ज्ञातत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिति / अथवाऽयमपि यथारूढं ज्ञातमेव तथा ह्यस्यैवं प्रयोग:-कस्मात् त्वया प्रव्रज्या क्रियत इति पृष्टः सन् केनापि साधुराह-यतस्तां विना मोक्षो न भवति, एतत्समर्थनायैव साधुस्तमाहभो यवग्राहिन! किमिति त्वया यवा: क्रीयन्ते ? सत्वाह-येन मुधान लभ्यन्ते, साधोश्चायमभिप्रायो यथामुधा लाभाभावात् तान् क्रीणासि त्वमेहमहं, तां विना तदभावात्तां करोमीति। इह च मुधा यवालाभस्य क्रयणे हेतोः सतो दृष्टान्तत-योपन्यस्तत्वाद्धेतूपन्यासोपनयज्ञाततेति / इह च किञ्चिद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदा: संभवन्त्यन्येऽपि किन्तु तेन विवक्षिताः, अन्तर्भावो वा कथश्चित् गुरुभिविवक्षित:, नच तं वयं सम्यगजा भइति। स्था० 4 ठा० 3 उ०।दश। साम्प्रतं हेतुरुच्यतेअहवा वि इमो हेऊ, विन्नेओ तत्थिमो चउविअप्पो। जावग थावग वंसग, लूसग हेऊ चउत्थो उ॥८६॥ अथवा-तिष्ठतु एष उपन्यासः, उदाहरणचरमभेदलकणो हेतुः / अपि:सम्भावने। किं सम्भावयति? 'इमो' अयम् अन्यद्वारे एवोपन्यस्तत्वात्तदुपन्यासनान्तरीयकत्येन गुणभूतत्वादहेतुरपि, किंतु 'हेऊ' विण्णेओ तथिमो' त्ति व्यवहितोपन्यासात् तत्रायं-वक्ष्यमाणो हेतुर्विज्ञेयः 'चतुर्विकल्प' इति चतुर्भेदः, विकल्पानुपदर्शयति-याषक:,स्थापक:, व्यंसकः,लूषक: हेतुश्चतुर्थस्तु अन्ये त्वेवं पठन्ति- 'हेउ त्ति दारमहणा, चउविहो सो उहोइनायव्यो' त्ति, अत्राप्युक्तमुदाहरणम्, हेतु-रित्येतद् द्वारमधुनातुशब्दस्य पुन:शब्दार्थत्वात् स पुनर्हेतुश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इत्येवं गमनिका क्रियते, पश्चार्द्ध तु पूर्ववदेवेति गाथाक्षरार्थः / दश०१ अ०। प्रमेयस्य प्रक्षमित्तौ कारणे प्रमाणे, स्था०। सच चतुर्विध: प्रत्यक्षादिभेदात्अथवा हेऊ चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-पच्चक्खे, अणुमाणे ओवमे, आगमे / अथवा हेऊ चउविहे पन्नत्ते, तंजहा-अत्थित्तं अस्थि सो हेऊ, अत्थित्तं णत्थि सो हेऊ, णत्थित्तं अत्थि सो हेऊ, णत्थित्तं णत्थि सो हेऊ / (338) अथवेति हेतोः प्रकारान्तरताद्योतको विकल्पार्थः, हिनोति-गयमति- | प्रमेयमर्थं स वा हियते-अधिगम्यते अनेनेति हेतु:-प्रमेयस्य प्रमितौ कारणं; प्रमाणमित्यर्थः, स चतुर्विध: स्वरूपादिभेदात्। (तत्र प्रत्यक्षहेतुवक्तव्यता 'पचक्ख' शब्दे पञ्चमभागे 73 पृष्टे प्रष्टव्या।) अन्वितिलिङ्गदर्शनसम्बन्धानुस्मरणयो: पश्चान्मानं-ज्ञानमनुमानम्, एतलक्षणमिदम्- “साध्ययाविनाभुवो लिङ्गात्, साध्यनिश्चायकं स्मृतम्। अनुमान तदभ्रान्तं, प्रमाणत्वात् समक्षवद्॥१॥" इति। एतच साध्याविनाभूतहेतुजन्यत्वेनाष्युपचाराद्धेतुरि, तु, तथा उपमानमुपमा, सैवौपम्यम्, अनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरितिसादृश्यप्रतिपत्तिरूपम्। उक्तञ्च- "गां दृष्ट्वाऽयभरण्येऽन्यं, गवयं वीक्षते यदा। भूयोऽवयवसामान्य-भाज वर्तुलकण्ठकम्॥१॥तस्यामेव त्ववस्थायां, यद्विज्ञानं प्रवर्तते। पशुनैतेन तुल्योऽसौ, गोपिण्ड इति सोपमा॥२॥"इति, अथवा-'श्रुतातिदेशवाक्यस्य, समानार्थोपलम्भने। संज्ञासंज्ञिसम्बन्धज्ञानमुपमानमुच्यते' इति। आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था, अनेनेत्यागम:- आप्तवचनसम्पाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्यय:, उक्तञ्च- "दृष्टेष्टाव्याहताद् वाक्यात्परमार्थाभिधायिनः / तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं, मानं शाब्दंप्रकीर्तितम्॥१॥ आप्तोपज्ञमनुल्लमय-मदृष्टेष्टविरोधकम्। तत्त्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्र कापथघट्टनम् / / 2 // " इति / इहान्यथानुप-पन्नत्वलक्षणहेतुजन्यत्वादनुमानमेव, कार्ये कारणोपचाराद्धेतु: सचचतुर्विधः, चतुर्भङ्गीरूपत्वान्, तत्र अस्ति विद्यते तदिति-लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इति कृत्वा अस्ति सअग्न्यादिक: साध्योऽर्थ इत्येव हेतुरिति अनुमानम्। तथा अस्ति तदग्न्यादिकं वस्त्वतो नास्त्यसौ तद्विरुद्धः शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति तद्न्न्यादिकमत: शीतकालेऽस्ति स शीतादिरर्थः इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति। तथा नास्ति तद्वृक्षत्वादिकमिति नास्ति शिंशपत्वादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनुमानमिति / इह च शब्दे कृतकत्वस्यास्तित्वादस्यनित्यत्वं घटवत्, तथा धूमस्यास्तित्वादिहास्त्यनिर्महानस इवेत्यादिकं स्वभावानुमान कार्यानुमानञ्च प्रथमभङ्गकेन सूचितम् 1 / तथा अग्नरस्तित्वाद्भूमास्तित्वाद्वा नास्ति शीतस्पर्श इत्यादिविरुद्धोपलम्भानुमानं विरुद्धकार्योपलम्भानुमानश्च तथा अग्नेधूमस्य वाऽस्तित्वान्नास्ति शीतस्पर्शजनितदन्तवीणारोमहर्षादि: पुरुषविकारो महानसवदित्यादिकारणविरुद्धोपलम्भानुमानम्, कारणविरुद्धकार्योपलम्भानुमानंच द्वितीयभङ्गकेनाभिहितम् शतथाछत्रादेरने, नास्तित्वादस्ति कचित्कालादिविशेषे आतपः शीतस्पर्शो वा पूर्वोपलब्धप्रदेश इवेत्यादिकं विरुद्धकारणानुपलम्भानुमानं विरुद्धानुपलम्भानुमानञ्चतृतीयभङ्गकेनोपात्तम् 3 / तथा दर्शनसामग्यांसत्यां घटोपलम्भस्य नास्तित्वान्नास्तीह घटो विवक्षितप्रदेशवदित्यादि-स्वभावानुपलब्ध्यनुमानं, तथा धूमस्य नास्तित्वान्नास्त्यविकलो धूमकारणकलाप: प्रदेशान्तरवदित्यादिकार्यानुपलब्ध्यनुमानम्, तथावृक्षनास्तित्वातशिंशपा नास्तीत्यादिव्यापकानुपलम्भानुमानम्, तथाऽरने स्तित्वाचूमोनास्तीत्यादि कारणानुपलम्भानुमानञ्च चतुर्थभङ्गवेनावरुद्धमिति। नच वाच्यं न जैनप्रक्रियेयम् सर्वत्र जैनाभिमतान्यथानुपपन्नत्वरूपस्य हेतुलक्षणस्य वि Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेउ 1245 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हेउभाव - द्यमानत्वादिति। स्था० 4 ठा० 3 उ० / हेतुषु वर्तमाने पुरुष, तदुपयोगा- न्तिकविरुद्धा हेत्वाभासाः, हेतुवदाभासन्त इति हेत्वा-भासाः, तत्र नन्यत्वात, स पञ्चविधः / भ०। सम्यहेतूनामपि न तत्त्वव्यवस्थिति: किं पुनस्तदाभासानाम् / तथाहिपञ्च हेतवः इह यन्नियतं वस्त्वस्ति तदेव तत्त्वं भवितुमर्हति हेतुवस्तु कनिद्वस्तुनि पंच हेऊ पण्णता, तं जहा-हेउं जाणइ, हेउं पासइ, हेउं साध्ये हेतवः कचिदहेतव इत्यनियतास्त इति। बुज्झइ, हेउं अभिसमागच्छइ, हेउं छउमत्थमरणं मरइ। पंच सूत्र०१ श्रु० 12 अ०। यश्च नित्य: शब्द: श्रावणत्वादित्यादि। सपक्षहेऊ पण्णता, तं जहा-हेउणा जाणइ० जाव हेउणा छउमत्थ- विपक्षव्यावृत्तत्वेनसंशयजनकत्वादसाधारणानैकान्तिक: सौगतै: समामरणं मरइ / पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेउं न जाणइ० जाव ख्यायते, नैष सूक्ष्मतामञ्चति श्रावणत्वाद्धि शब्दस्य सर्वथैव नित्यत्वं हेउं अण्णाणमरणं मरइ। पंच हेऊ पण्णत्ता, तं जहा-हेउणा न यदि साध्यते तदाऽयं विरुद्ध एव हेतु:, कथंचिदनित्यत्वसाधनात्। जाणइ० जाव हेउणा अण्णाणमरणं मरइ। (सूत्र 20x) प्राच्याश्रावणत्वस्वभावत्यागेनात्तरश्रावणत्वस्वभावोत्पत्तेः कथंचिद"पंच हेऊ' इत्यादि, इह हेतुषु वर्तमान: पुरुषो हेतुरेव तदुपयोगा- | नित्यत्वमन्तरेण शब्देऽनुपपत्तेः / अथ कथंचिन्नित्यत्वमस्मच्छरदे साध्यते नन्यत्वात्, पञ्चविधत्वं चास्य क्रियाभेदादित्यत आह- 'हेउं जाणइ' तदाऽसौ सम्यगृहेतुरेव कथंचिन्नित्यत्वेनसार्द्धमन्यथा-ऽनुपपत्तिसद्भावात्ति, हेतुंसाध्याविनाभूतं साध्यनिश्चयार्थजानाति,, विशेषत: सम्यगव- दिति नायमनैकान्तिकः, यं च विरुद्धाव्यभिचारिनामानमनैकान्तिगच्छति सम्यग्दृष्टित्वात्, अयं पञ्चविधोऽपि सम्यग्दृष्टिमन्तव्यो मिथ्या- कविशेषमेतेव्यतानिषुः यथा अनित्यः शब्दः, कृतकत्वाद्घटवत् / नित्यः दृष्टेः सूत्रद्वयात्परतो वक्ष्यमाणत्वादित्येक: / एवं हेतुं पश्यति सामान्यत शब्दः, श्रावणत्वाच्छब्दत्ववदिति; सोऽपि नित्यानित्यस्वरूपानेकान्तएवावबोधादिति द्वितियः / एवं बुध्यते सम्यक् श्रद्धत्ते इति बोधे: सम्यक् सिद्धौ सम्यग्हेतुरेव, तदपरपरिणामित्यादिहेतुवत्। सर्वथैकान्तसिद्धये श्रद्धानपर्यायत्वादिति तृतीयः / तथा हेतुम् अभिसमागच्छति साध्य- पुनरुपन्यस्तोऽसौ भवत्येव हेत्वाभास; स तु विरुद्धौ वा संदिग्धविपक्षसिद्धौ व्यापारणत: सम्यक् प्राप्नोतीति चतुर्थः / तथा 'हेउं छउमत्थे' वृत्तिरनैकान्तिको वेति, न कश्चिद्विरुद्धाव्यभिचारी नाम / एवं च असिद्धत्यापि हेतु:-अध्यवसानादिर्मरणकारणं तद्योगान्मरणमपि हेतुरतस्तं विरुद्धानैकान्तिकास्वय एव हेत्वाभासा इति स्थितम्। नन्यन्योऽप्यहेतुमदित्यर्थः / छद्मस्थमरणं, न केवलिमरणं, तस्याऽहेतुकत्वात्, नाप्य- किंचित्कराख्यो हेत्वाभास: परैरुक्त: / (स 'अकिंचिकर' -शब्दे ज्ञानमरणमेतस्य सम्यणज्ञानित्वात्, अज्ञानमरणस्य च वक्ष्यमाणत्वा- प्रथमभागे 126 पृष्ठे गतः।) नन्वेष हेतुनिश्चितान्यथानुपपत्त्या सहित: न्मियते करोतीति पञ्चमः / प्रकारान्तरेण हेतूनेवाह- 'पंचे' त्यादि, स्याद्रहितो वा ? प्रथमपक्षे हेतो: सम्यक्त्वेऽपि प्रतीतसाध्यधर्मविशेहेतुनाऽनुमानोत्थापकेन जानाति, अनुमेयं सम्यगवच्छति सम्यग्दृष्टि- षणमत्यक्षनिराकृतसाध्यधर्मविशेषणागमनि राकृतसाध्यधर्मविशेषत्वादित्येकः, एवं पश्यतीति द्वितीय:, एवं बुध्यते श्रद्धत्ते इति तृतीयः, णादिपक्षाभासानां निवारयितुमशक्यत्वात्तैरेव दुष्टमनुमानम् / नच यत्र एवमभिसमागच्छति प्राप्नोतीति चतुर्थः, तथा अकेवलित्वाद्धेतुना- पक्षदोषस्तत्रावश्यं हेतुदोषोऽपि वाच्यः, दृष्टान्तादिदोषस्याप्यवश्यं अध्यवसानादिना छद्मस्थमरणं म्रियत इति पञ्चमः। अथ मिथ्यादृष्टि- वाच्यत्वप्रसक्ते: / द्वितीयपक्षे तुयथोक्तहेत्वाभासानामन्यतमेनौवानुमाश्रित्य हेतूनाह- 'पंचे' त्यादि, पञ्च क्रियाभेदात् हेतवो हेतुव्यवहारि- मानस्य दुष्टत्वं, तथा ह्यान्यथानुपपत्तेरभावोऽनध्यवसायाद्विपर्ययात्संशत्वात्, तत्र हेतुलिङ्गन जानाति, नञः कुत्सार्थत्वाद-सभ्यगवैति मिथ्या- याद्वा स्यात्प्रकारान्तरासम्भवात् : तत्र चक्रमेण यथोक्तहेत्वाभासावतार दृष्टित्वात् १,एवंनपश्यति २,एवं न बुध्यते ३.एवं नाभिसमागच्छति 4, इतिनोक्तहेत्वाभासेभ्योऽभ्यधिक: कश्चिदकिंचित्करो नाम / रत्ना०६ तथा हेतुम्-अध्यवसानादिहेतुयुक्तम् अज्ञानमरणं म्रियते-करोति, परि०। (अत्रत्या व्याख्या 'कालचयावदिट्ठ' शब्दे तृतीयभागे 461 पृष्ठे मिथ्यादृष्टि त्वेनासम्यग्ज्ञानत्वादिति। हेतूनेव प्रकारान्तरेणाह- 'पंचे' गता।) (अत्रत्या व्याख्या 'पगरणसम' शब्दे पञ्चभागे७१-७२ पृष्ठेगता।) त्यादि, हेतुनालिङ्गेन न जानाति-असम्यगवगच्छति, एवमन्येऽपि ] हेउगोवएस पुं०(हेतुकोपदेश) कारणोपदेशे, प्रकरणोपदेशे, आ० चू०१ चत्वारः / भ० 5 श०७ उ०। स्था०। अ०। (अस्यैकार्थिकानि 'कारणोवएस' शब्दे तृतीयभागे 466 पृष्ठे हेउअंतर पुं० (हेत्वन्तर) पञ्चमे निग्रहस्थानभेदे, स्या०। गतानि।) हेउआभास पुं० (हेत्वाभास) हेतुवदाभासमानेषु अहेतुषु, ते च त्रयः। / हेउजुत्त त्रि०(हेतुयुक्त) अन्वयव्यतिरेकलक्षणैर्हेतुभिर्युक्ते, अनु०। रत्ना०। विशे० आ० म०। हेत्वाभासानाहु: हेउणिज्जुत्ति त्रि०(हेतुनियुक्ति) सोपपत्तिके, दश०२ अ०। असिद्धविरुद्धानकान्तिकास्त्रयो हेत्वाभासाः // 47 // हेउदोस पुं०(हेतुदोष) असिद्धविरुद्धनैकान्तिकलक्षणे हेत्वाभासे, स्था० निश्चितान्यथानुपपत्त्याख्यैकहेतुलक्षणविकलत्वेनाहेतवोऽपि / 10 ठा०३ उ०। हेतुस्थाने निवेशाद्धेतुवदाभासमाना हेत्वाभासा: / रत्ना०६ परि०। / हेउप्पभव पुं०(हेतुप्रभव) हेतुजन्मनि, दश०४ अ०। (असिद्धादय:स्वस्थाने उक्ता:।) नैत एवहेत्वाभासा: असिद्धानैका- | हेउमाव पुं०(हेतुभाव) कारणभावे, पं०व०१द्वार। Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेउय 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हेमचंद हेउय पुं०(हैतुक) हेतुभ्यो जातो हैतुक: / कायाकारपरिणतभूतनिष्पादिते मासानां मध्ये चतुर्थो मास: / ज्ञा० 1 श्रु०८ अ०। (अत्रत्या व्याख्या लौकायतिकसम्मतात्मनि, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। 'आउट्टि शब्दे द्वितीयभागे 30 पृष्ठे गता।) हेउवाय पुं० (हेतुवाद) हेतुरनुमानोत्थापकं लिङ्गमुपचारादनुमानमेव वा | हेमंतगिम्ह पुं०(हेमन्तग्रीष्म) शीतकालोष्णकालयो:, व्य०४ उ०। तद्वादो हेतुवाद: / दृष्टिवादे। स्था०१०ठा०३द०।शुष्कतर्कवादे,पं० / | हेमंधर पुं०(हेमन्धर) कलिकुण्डसरोवरसमीपविहारिणो महीधरस्य व०४ द्वार। “ज्ञायेरन् हेतुवादेन, पदार्था यद्यतीन्द्रिया: / कालेनैतावता | हस्तियूथपस्य विदेहजे पूर्वभवजीवे, ती०५३ कल्प०। प्राज्ञैः, कृत: स्यात्तेषु निश्चयः।" द्वा० 24 द्वा०। (अत्रत्या व्याख्या हेमकड पुं०(हेमकृत) स्वनामख्याते राज्ञि, बृ०४ उ०। (अस्य पुत्रस्य 'आगम' शब्दे द्वितीयभागे७६ पृष्ठे गता।) वेदोपघातो बभूव तद्वृत्तम् ‘उवधायपंडग', शब्दे द्वितीयभागे 881 पृष्ठे हेउवायउवएस पुं० (हेतुवादोपदेश) हेतुर्निमित्तं कारणमित्यनान्तरं, गतम्।) तस्य वदनं वाद: तद्विषय उपदेश:। कारणोपदेशे, आ० म०१ अ०। हेमकलस पुं०(हेमकश) धर्मरत्नवृत्तिसंशोधके स्वनामख्याते सूरौ, प्रव०। (हेतुवादोपदेशेमसंज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च सण्णियसुय' शब्देऽस्मिन्नेव "श्रीहेमकलशवाचक-पण्डितवरधर्मकीर्तिमुख्यबुधैः / स्वपरसमयैकभागे दर्शिताः।) कुशलैस्तदैव संशोधिताचेयम् // 1 // " ध० 202 अधि। हेउविजयपुं०(हेतुविजय) तर्कानुसारिबुद्धेः पुंस:स्थाद्वादप्ररूपकागमक- हेमकूड पुं०(हेमकूट) हेमपुरनगरराजे हेमकुमारपितरि, नि० 50 11 उ०। षच्छेदतापशुद्धिसमाश्रयणीयतत्त्वगुणानुचिन्तने, सम्म०३ काण्ड। | हेमग पुं०(हैमक) हिम-तुहिनं तदेव हिमकं तस्यैते हैमका: / हिमपातरूपेषु हेउविवागा स्त्री०(हेतुविपाका) हेतुतो हेतुमधिकृत्य विपाको निर्दिष्टो यासां | जलकणेषु, स्था० 4 ठा० 4 उ०। ता:। 'कम्म' शब्दे उक्तासु विपाकतो भिन्नासु कर्मप्रकृतिषु, पं० सं० हेमचंदपुं०(हेमचन्द्र) कुमारपालगुरौ, सिद्धहेमचन्द्रव्याकरणकर्तरि स्व३द्वार। नामख्याते सूरौ, प्रा० 4 पाद। हेउसंपया स्त्री० (हेतुसम्पदा) साधारणासाधारणरूपायां स्तोतब्यस- इय रयणावलिणामो, देसीसद्दाण संगहो एसो। म्पदि, प्रव०१द्वार। वायरणसेसलेसो, रइओ सिरिहेमचन्दमुणिवइणा / / 77 // हेऊवण्णास-हेतूपन्यास-उपन्यासभेदे, दश० / अत्रत्या सर्वा वक्तव्यता इति एष देशीशब्दसंग्रहः स्वोपज्ञशब्दानुशासनाष्टमाध्यायशेषलेशो 'अणुमाण' शब्दे प्रथमभागे 406 पृष्ठे गता।) रत्नावजीनामाचार्यश्रीहेमचन्द्रेण विरचित इति / दे० ना०५ वर्ग। हेचा (अव्य०) हित्वा-त्यक्त्वेत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु०१५ अ०। "आशीद्विशांपतिरमुद्रचतु:समुद्र हेज त्रि०(हेय) उपेक्षणीये, अनु०। मुद्रासड्.कितक्षितिभरक्षमबाहुदण्डः / हे? (अव्य०) अधस्-"अधसो हेटुं" ||82141 / / इति श्रीमूलराज इति दुर्धरवैरिकुम्भिअधस्शब्दस्य हेट्ठ इत्यादेश: / हेहूं। पाताले, अध: स्थापनमात्रे च। कण्ठीरवः शुचिचुलुक्यकुलावतंस: // 1 // अनु०। प्रा०॥ तस्यान्वये समजनि प्रबलप्रतापहेट्ठिल त्रि०(अधस्तन)-"डिल्ल-डुलौ भवे" ||82/163 // इति तिग्मद्युतिः क्षितिपतिर्जयसिंहदेवः / भावार्थे डिलप्रत्ययः। अधोवर्तमाने, प्रा०। जं जस्स आदीए तं तस्स येन स्ववंशसवितर्यपरं सुधांशौ हिडिल्लं। जंजस्स उवरितंतस्स उवरिलं / नि० चू० 2070 / स्था०। श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यलेखि // 2 // अधस्तनो यत आरभ्य लोकस्याधोमुखा वृद्धिः / भ०१३ श०४ उ०। सम्यड्. निषेव्य चतुरश्चतुरोऽप्युपायान्, हेठय पुं०(हेठक) बाधके ऋक्संस्थानीये मन्त्रे, यथा “षट् शतानि जित्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धिकाञ्चीम्। नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमे अहनि। अश्वमेधस्य वचनान्न्यूनानिपशुभि- विद्या चतुष्टयविनीतमतिर्जितात्मा, स्त्रिभिः // 1 // " सूत्र०१ श्रु०८ अ०। काष्ठामवाप पुरुषार्थचतुष्टये यः / / 3 / / हेमन०(हैम) भेषजभेदे, जाम्बूनदे (सूत्र० 1 श्रु०६ अ०1) सुवर्णे, द्वा०५ तेनातिविस्तृतदुरागमविप्रकीर्णद्वा० / स्वनामख्याते राजपुत्रे, 'हेमपुरिसे नगरे हेमकूडो राया हेमसंभवा शब्दानुशासनसमूहकदर्थितेन। भारिया, तस्स पुत्तो वरतिविज्जसन्निभो हेमो णाम कुमारो' / नि० चू० अभ्यर्थितो निरवमं विधिवद्व्यधत्त, 11 उ०। पं०भा०। (अस्य वेदोपघातो बभूव तवृत्तम् 'उवधायपंडग' शब्दानुसनमिदं मुनिहेमचन्द्रः / / 4 / / " प्रा०४ पाद। शब्दे द्वितीयभागे 881 पृष्ठे गतम्।) एतचरित्रलेशस्त्वित्थम्-गुर्जरदेशे बन्धुकाग्रामे चावश्रेष्ठिन: पाहिनीहेमन्त पुं०(हेमन्त) शीतकाले, व्य०४ उ० पाइ० ना० / ऋतुभेदे,जी० नाम्यां भार्यायां चङ्गदेवनामा पुत्रो जातः / स च देवचन्द्राचार्येण याचित्वा 1 प्रति०। पौषमाघौ हेमन्त: ज्ञा०१ श्रु०१अ०।ज्यो० / शीतकाल- दीक्षित: / वैक्रमीये 1150 संवत्सरे तेनैवतर्कव्याकरणसाहित्यादि पाठितः। Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचंद 1247- अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हेमवय (सं 1166) वर्षे सूरिपदेऽभिषिक्त: हेमचन्द्र इति नाम्ना प्रख्यापित:, . हेमवय त्रि० (हेमवत्) हिमवत्पर्वतोद्भवे, ज्ञा० 1 श्रु०१ अ०। औ०। अणहिलपट्टनपुरराजेन सिद्धराजेनाभ्यर्थित: सिद्धहेमनाम व्याकरणं ___ हेमवयचित्तविचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुयागस्य। हैमवतं हिमवचक्रे। अनेनैव प्रक्षतबोधित: कुमारपालराज: जैनो जात:, येन च महती त्पर्वतभावि चित्रविचित्रं मनोहारि चित्रोपेतं तैनिशंतिनिशदारुसंबन्धि शासनोन्नति: कृपा। अनेन सार्द्धत्रिकोटिश्लोकमिता ग्रन्थाः कृता इति कनकनियुक्तं कनकविच्छुरितं दारु काष्ठं यस्य स हैमवतचित्रविचित्रकिंवदन्ती प्रसिद्धा / अस्य स्वर्गति: (सं० 1226 वर्षे आसीत्) तैनिशकनकनियुक्तदारुकस्तस्य सूत्रे च द्वितीयककार: स्वार्भिकः, “यस्य ज्ञानमनन्तवस्तुविषयं य: पूज्यते दैवतै पूर्वस्य च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्। जी०३ प्रति० 4 अधि० 1 उ०। भ०॥ नित्य यस्य वचो न दुनय-कृतै: कोलाहलैलृप्यते। स्थ०। अनु०। जं०स०। राग द्वेषमुखद्विषां च परिषत्क्षिप्ता क्षणाद्येन सा॥ अथानेन वर्षधरेण विभक्तस्य हैमवतक्षेत्रस्य वक्तव्यतामाहस श्रीवीरविभुर्विधूतकलुषां बुद्धि विधत्तां मम॥१॥ कहि णं मंते ! जंबूद्दीवे दीवे हेमवए णामं वासे पण्णत्ते।, निस्सीमप्रतिभैकजीवितधरौ निश्शेषभूमिस्पृशां, गोयमा !महाहिमवंतस्सवासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं चुल्लहिमपुण्यौधेन सरस्वती-सुरगुरू स्वाङ्गेकरूपेदधत्। वन्तस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरेणं पुरथिमलवणसमुदस्स य: स्याद्वादमसाधयन्निजवपुर्दृष्टान्तत: सोऽस्तु मे, पचत्थिमेणं पचत्थिमलवणसमुदस्स पुरत्थिमेणं एत्थ णं सद्बुद्ध्यम्बुनिधिप्रबोधविधये श्रीहेमचन्द्रः प्रभुः // 2 // जंबुद्दीवे दीवे हेमवए णाम वासे पण्णत्ते, पाईणपडीणायए ये हेमचन्द्रं मुनिमेतदक्त-ग्रन्थार्थसेवामिषत: श्रयन्ते। उदीणदाहिणवित्थिपणे पलिअंकसंठाणसंठिए दुहा लवणसमुई संप्राप्यते गौरव-मुज्ज्वलानां, पदं करवानामुचितं भजन्ति॥३॥ पुढे पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं लवणसमुहं पुढे मातर्भारति! सन्निधेहि हृदि मे येनेयमाप्तस्तुति पुरथिमिल्लाए कोडीए पचत्थिमिलं लवणसमुदं पुढे, दोण्णि निर्मातुं विवृतिं प्रसिद्-धयति जवादारम्भसंभावना। जोअणसहस्साई एगं च पंचुत्तरं जोअणसयं पंच य एगूणवीसइयद्वा विस्मृतगोष्ठयो: स्फुरति यत् सारस्वत: शाश्वतो, भागे जोअणस्स विक्खंभेणं / तस्स वाहा पुरत्थिमपचस्थिमेणं मन्त्र: श्रीउदयप्रभेति रचनारभ्यो ममाहर्निशम्॥४॥" छजोअणसहस्साई सत्त य पणवण्णे जोअणसए तिण्णि अ इह हि विषमदुःषमाररजनितिमिरतिरष्कारभास्करानुकारिणा वसु- एगूणवीसइमागे जोअणस्स आयामेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं धातलायतीर्णसुधासारणीदेश्यदेशनावितानपरमार्हतीकृतश्रीकुमारपा- पाईणपडीणायया दुहओ लवणसई पुट्ठा पुरथिमिलाए कोडीए लक्ष्मापालप्रवर्तिताऽभयदानाभिधानजीवातुसंजीवितनानाजीवप्रदत्ता- पुरथिमिलं लवणसमुहं पुट्ठा, पञ्चत्थिमिलाए० जाव पुट्ठा शीर्वादमाहात्म्यकल्पावधिस्थायिविशदयश:शरीरेण निरवद्यचातु- सत्ततीसं जोअणसहस्साइंछच्च चउरुत्तरे जोअणसए सोलस विद्यनिर्माणकब्रह्मणा श्रीहेमचन्द्रसूरिणा जगत्प्रसिद्धश्रीसिद्धसेनदिवाकर य एगूणवीसइभाए जोअणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं / तस्स विरचितद्वात्रिंशद्वात्रिंशिकानुसारि श्रीवद्धमानजिनस्तुतिरूपमयोग- धणुं दाहिणेणं अकृतीसं जोअणसहस्साइं सत्त य चत्ताले व्यवच्छेदान्ययोगध्यवच्छेदाभिधानं द्वात्रिंशिकाद्वितयं विद्वज्जनमनस्त- जोअणसए दस य एगूणवीसए भागे जोअणस्स परिक्खेवेणं / त्वावबोधनिबन्धनं विदधे / स्या०। अभयदेवसूरिशिष्ये स्वनामख्याते हेमवयस्स णं भंते। वासस्स के रिसए आयारभावपडोआरे सूरौ, (एतद्वंशवर्णनम् 'अणुओगदार' शब्दे प्रथमभागे 356 पृष्ठे पण्णते? गोयम ! बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, एवं तइअदर्शितम्।) समाणुभावो णेअव्वो त्ति। (सूत्र०७६)॥ हेमचंदवागरण न०(हेमचन्द्ररचितव्याकरणे,) कल्प०१अधि०१क्षण। 'कहिण' मित्यादिक्क भदन्त! जम्बूद्वीपेद्वीपे हैमवतंनामवर्ष प्रज्ञप्तम् ? हेमजालन०(हेमजाल) सुवर्णमयदाससमूहे.रा०ा औ०। जी01(अत्रत्या गौतम ! महाहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य 'दक्खिणेणे' त्यादि, व्यक्तम्। व्याख्या 'लवणसमुद्द' शब्दे षष्ठे भागे गता।) अत्रान्तरे जम्बूद्वीपे द्वीपे हैमवतं नाम वर्ष प्रज्ञप्तमित्यादि सर्वं प्राग्वत्, हेमपुरिस न०(हेमपुरुष) स्वनामख्याते नगरे, हेमपुरिसनगरे हेमकूडो नवरंपल्यड्कसंस्थानसंस्थितमायतचतुरस्रत्वात्, तथा द्वेयोजनसहस्त्रे राया हेमसंभवा भारिया तस्स पुत्तो वरतिविज्जसन्निभो हेमो णाम कुमारो। एकं च पञ्चोत्तरं योजनशतं पञ्च चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य नि० चू०११ उ०। यावद्विष्कम्भेन, क्षुद्रहिमवगिरिविष्कम्भादस्य द्विगुणविष्कम्भ इत्यर्थः / हेमप्पह पुं०(हेमप्रभ) भुवनमल्लपितरि कुसुमपुरीनाथे, संघा०१ अधि० अथास्य बाहाद्याह- 'तस्स बाहा' इत्यादि व्यक्तम् 'तस्स जीवा उत्तरेण' १प्रस्ता०। मित्यादिप्राग्वत्, सप्तत्रिंशद्योजनसहस्राणिषट्चतु:सप्ततीनियोजनशतानि हेमव पुं०(हेमवत्) लोकोत्तररीत्या फाल्गुनमासे, चं० प्र०१० पाहु०। षोडशकला: किंचिदूना आयामेनेति, 'तस्सधणु' मित्वादि, तस्य धनुः पृष्ठज्यो०। सू० प्र०। जं०। कल्प०। मष्टत्रिंशद्योजनसहस्राणि सप्त च चत्वारिंशानिचत्वारिंशदधिकानियोजनश Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमवय 1248 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हेमवय तानि दश चएकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेणेति। अथ कीदृशमस्य स्वरूपमित्याह- 'हेमवयस्स' ण मित्यादि, व्याख्यातप्रायम्, नवरम् एव मिति-उक्तप्रकारेण तृजीयसभा-सुषमदुष्षमारकस्तस्या भाव:-स्वभावः; स्वरूपमिति यावत्नेतव्यः-स्मृतिपथं प्रापणीय इत्यर्थः / अथात्र क्षेत्रविभागकारिगिरिस्वरूपं निर्दिशतिकहिणं भंते / हेमवए वासे सद्दावा (व) ईणामं वट्टवेअद्धपव्वए पण्णते ? गोयमा! रोहियाए महाणईए पच्चत्थिमेणं रोहिअंसाए महाणईए पुरत्थिमेणं हेमवयवासस्स बहुमज्झदेसभाए, एत्थ णं सद्दावई णामं वट्टवेअद्धपव्वएपण्णते एगंजोअणसहस्सं उद्धं उच्चत्तेणं अद्धाइजाइं जोयणसयाइं उटवेहेणं सम्वत्थसमे पल्लंगसंठाणसंठिए एग जोअणसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिण्णि ओअणसहस्साइं एगं च बावढे जोअणसयं किंचि विसेसाहिअं परिक्खेवेणं पण्णते, सव्वरयणामए अच्छे, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते, 'वेइआवणसंडवण्णओ भाणिअय्दो / सद्दावइस्स णं वट्ठवेअङ्कपव्वयस्स उवरिं बहुसमरणिज्जे भूमिभागे पण्णते, तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायव.सएपण्णते, बावहिँजोअणाई अद्धजोयणं च उद्धं उच्चत्तेणं इकतीसंजोअणाईकोसंच आयामविक्खंभेणं० जाव सीहासणं सपरिवारं / से केणटेणं भंते / एवं बुच्चइ-सद्दावई वट्टवेयद्धपव्वए ? गोयमा ! सद्दावइवट्टवेअद्धपव्वएणं खुद्दाखुद्दिआसु बावीसु० जाव विलपंतिआसु बहवे उप्पलाइं पउमाई सहावइप्पभाई सद्दावतिवण्णाभाइंसद्दावई अइत्थ देवे महिद्धीए जाव महाणुभावे पलिओवमट्टिइए परिवसइ त्ति / से णं तत्थ चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं०जावरायहाणीमंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं अण्णम्मि जम्बुद्दीवे दीवे / (सू०७७) 'कहि णं भंते !' इत्यादि, क्व भदन्त ! हैमवतवर्षे शब्दापाती नाम्ना वृत्तवैताट्यपर्वत: प्रज्ञप्त:, वैताढक्यान्वर्थस्तु प्रागुक्त:, असौ च वृत्ताकारो न भरतादिक्षेत्रवर्तिवैतान्यपर्वतवत् पूर्वापरायतस्तेन वृत्तवैताढ्य इत्युच्यते, अत एवं एतत्कृत: क्षेत्रविभाग: पूर्वतोऽपरतश्च भवति, यथापूर्वहैमवतमपरहैमवतमिति। आह-पञ्चकलाधिकैकविंशति-शतयोजनप्रमाणविस्तास्य हैमवतस्य मध्यवर्ती योजनसहस्रमान एष गिरिः कथं क्षेत्रं द्विधा विभजति? उच्यते-प्रस्तुतक्षेत्रव्यासो हि उभयो: पार्श्वयोः, रोहितारोहितांशाभ्यां नदीभ्यां रुद्धः मध्यतस्त्वनेन / अथ नदीरुद्धक्षेत्रं वर्जयित्वाऽवशिष्ट क्षेत्रमसौ द्विधा करोतीत्यस्मिन्नन्वर्थवती वैताळ्यशब्दप्रवृत्तिरिति एवं शेषेष्वपि वृत्तवैताढ्येषु स्वस्वक्षेत्रनदीनामभिलापेन भाव्यम, दिग्विभागनियमनं सुलभमिति नव्याख्यायते। एक योजनसह स्रमूर्वोचत्वेन अर्द्धतृतीयानि योजनशतान्युद्वेधेन सर्वत्र सम:-तुल्योऽधोमध्योर्ध्वदेशेषु सहस्रसहस्रविस्तारकत्वात्, अत एव पल्यड्क-' संस्थानसंस्थितः / पल्यड्कश्चलाटदेशप्रसिद्धो वंशदलेन निर्मापितो धान्याधारकोष्ठक:, एकं योजनसहस्रमायामविष्कम्भायां त्रीणि योजनसहस्राणि एकंच द्वाषष्ट्यधिक योजनशतं किञ्चिद्विशेषेण करणवशादागतेन सूत्रानिर्दिष्टेन राशिना अधिक परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम्। सर्वात्मना रत्नमय:, केचन रजतमयान् वृत्तवैताढ्यानाहुः, परं तेषामनेन ग्रन्थेन सह विरुद्वत्वमिति। अथात्र पद्मवरवेदिकाद्याह- 'सेण' मित्यादि, व्यक्तम्, 'सद्दावइस्सण' मित्यादि, व्यक्तम् / अथनामार्थं निरूपयन्नाह- से केणद्वेणं भंते' इत्यादि प्रागुक्तऋषभकूटप्रकरणवव्याख्येयम्, नवरम् ऋषभकूटप्रकरणे ऋषभकूटप्रभै: ऋषभकूटवगैरुत्पलादिभिर्ऋषभकूटनामनिरुक्तिशिता अत्र तु शब्दापातिप्रभैः शब्दापातिवण: उत्पलादिभिः शब्दापातिवृत्तवैताढ्यनामनिरुक्तिद्रष्टव्या, शब्दापाती चात्र देवो महद्धिको यावन्महानुभाव: पल्योपमस्थितिक: परिवसति। अथशब्दापातीदेवमेव विशिनष्टि- ‘से तेणं तत्थ' इत्यादि , स-शब्दापाती देवस्तत्रप्रस्तुतगिरौ चतुर्णां सामानिकसहस्राणायावत्पदात् विजयदेववर्णकसूत्रं सर्वमपि ज्ञेयं व्याख्येयं च। कियत्पर्यन्तमित्याह-राजधानी मन्दरस्य दक्षिणस्यामन्यस्मिन् जम्बूद्वीपे द्वीपे इति। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादर्शषु एतत्सूत्रदृष्टोऽपि 'पलिओवमट्टिई परिवसती त्ययं सूत्रादेश: पूर्वसूत्रे यद्योतिस्तद्बहुषु' विजयदेवप्रकरणादिसूवेष्वित्थमेव दृष्टवात्। बहुग्रन्थसाम्मत्येन क्वचिदादर्शवैगुण्यमुद्भाव्यान्यथा योजनंबहुश्रुतसम्मतमेवास्ति इत्यलं विस्तरेण / ननु अस्य शब्दापातिवृत्तवैताब्यस्य क्षेत्रविचारादिग्रन्थेषु अधिप: स्वातिनामा उक्तः; तत्कथन तै: सह विरोध: ? उच्यतेनामन्तरं, मतान्तरं वा। अथ हैमवतवर्षस्य नामार्थ पृच्छतिसे केणऽद्वेणं भंते। एवं दुबइ हेमवए वासे हेमवए वासे ? गोयमा ! चुलहिमवन्तमहाहिमवन्तेहिं वासहरपव्वएहिं दुहओ समवगूढे णिचं हेमंदलइ, णिचं हेमंदलइत्ता णिचं हेमं पगासइ। हेमवए अ इत्थ देवे महिड्डीए पलिओवमट्टिइए परिवसइ, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुबइ हेमवए वासे हेमवए वासे। (सू०७८) 'सेकेणढणं' मित्यादि, अथकेतार्थेन भगवन्! एयमुच्यते-हैमवतंवर्षहैमवतं वर्षमिति ? गौतम ! क्षुद्रहिमवन्महाहिमवद्भयां वर्षधरपर्वताभ्यां द्विधातो दक्षिणोत्तरपार्श्वयो: समवगाढं-संश्लिष्टं, ततो हिमवतोरिदं हैमवतम्। अयं भाव:- क्षुद्रहिमवतो महाहिमवतश्चापान्तराले तत्, क्षेत्रम्, ततो द्वाभ्यामपि ताभ्यां यथाक्रममुभयोर्दक्षिणोत्तरपार्श्वयोः कृतसीमाकमिति भवति तयोः सम्बन्धि। यदि वानित्यं कालत्रयेऽपि हेम-सुवर्णं ददाति आसनप्रदानादिना प्रयच्छति, कोऽर्थ: ? तत्रत्ययुग्मिमनुष्याणामुपवेशनाद्युपभोगे Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमवय 1246 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 होया हेममया शिलापट्टका उपयुज्यन्ते,तत उपचारेण ददातीत्युक्तम्। नित्यं हेलियामच्छ पुं०(हेलिकामत्स्य) मत्स्यभेदे, जी०१ प्रति०। हेम-प्रकाशयति, ततो हेम नित्ययोगि प्रशस्यं चाऽस्यास्तीति हेमवत्, | हेलुअ-(देशी) - छिक्कायाम्, दे० ना० 8 वर्ग 72 गाथा। हेमवदेव हैमवतम्, प्रज्ञादेराकृतिगणतया 'प्रज्ञादिभ्यः' (श्रीसिद्ध० अ० हेलुका-(देशी) - हिक्कायाम्, दे० ना०८ वर्ग 72 गाथा। 7 पा०२ सू० 165) इति स्वार्थेऽणप्रत्यय:, हैमवतश्चात्र देवो महर्द्धिक: हेलि (सम्बो०) हेसखि-हेसखि इत्यस्य हेल्लि इति निपात्यते। संख्या पल्योपमस्थितिक परिवसति, तेन तद्योगाद्वैमवतमिति च्यपदिश्यते।। आमन्त्रणे, 'हेलि म झंखहि आलु'। प्रा०४ पाद। हैमवतो देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति,* अभ्रादित्यादप्रत्ययो चा। जं० हेवाग पुं०( हेवाक) स्वभावे, स्था० 4 ठा०४ उ०। अभ्यासे च। नि० 4 वक्ष०। चू०१ उ०। हेमवयकूड न०(हैमवतकूट) -हैमवद्वषेशसुरकूटे जं० 4 वक्षः। जम्बुद्वीपे | *हेव्वस-पुं० पारसीक: शब्द: / अलाउद्दीनसुरत्राणस्य मल्लिके, “कलिहिमवर्षधरपर्वत स्वनामख्याते कूटे, स्था०२ ठा०३ उ०। कालदुललिअवसेण अलाउद्दीनसुरत्ताणस्स मल्लिकेण 'हेव्वस' नामेणं।" हेमविमलसूरिपुं०(हेमविमलसूरि) हीरविजयसूरिगुरो: आनन्दविजयसूरः | ती०३५ कल्प०। हेसिय न०(हेषित) हयशब्दे, अनु०।०। गुरौ सोमसुन्दरसूरिशिष्ये, ग० 3 अघि०।। हेमसंभवा स्त्री०(हेमसंभवा) हेमकृतराजस्य भार्यायाम, बृ० 4 उ० / हेहभूय न०(हेहभूत) गुणदोषपरिज्ञानविकलेऽशठभावे, व्य०१३० / हेहय पुं०(हैहय) स्वनामख्याते क्षत्रियराजे, आव०४ अ०। (बालिकासु अत्यन्तंगृद्धस्य अस्या: पुत्रस्य वेदोपधातो जात:, तवृत्तम् हो अव्य०( हो) विस्मये, पाइ० ना० 274 गाथा। 'उवधायपंडग' शब्दे द्वितीयभागे निरूपितम्)। होअऊण (अव्य०) भूत्वा- "स्वरादनतो वा" ||841240 // हेमसरोवर न०(हेमसरोवर) स्वनामख्याते तीर्थे, यत्र द्वासप्ततिर्जिना इति अकारागमो वा। होअऊण। होऊण / भूत्वा / उप्तयेत्यर्थे, प्रा० लया: / ती०४३ कल्प। 8 अ० 4 पाद। हेमसुत्तग न०(हेमसूत्रक) हेमसड्कलके, ज्ञा० 1 श्रु०१०। होउकाम पुं०(भवितुकाम) मोक्षार्थिनि भव्यसत्त्वे, पं० सू०१ सूत्र। हेरपुं०(हैर) माण्डव्यगोत्रे गोत्रविशेषप्रवर्तकेच ऋषो, तदपत्येषु च / स्था० होन्त त्रि० भवत्-"शत्रानाश:"||८१३/१८१॥ इतिशतृप्रत्ययस्थाने ७ठा०३ उ०। न्तः। प्रा० जायमाने विशे०। हेरव-(देशी)-महिष-डिण्डिमयो:, दे० ना०८वर्ग७६ गाथा।पाइ० ना० / होड पुं०(होढ) - मोषे, ज्ञा०१ श्रु०२ अ01 हेरण्णवय पुं०(हैरण्यवत) जम्बूद्वीपे स्वनामख्याते वर्षक्षेत्रे, स्था०६ठा० होत्ता (अव्य०) भूत्वा-"क्त्व इअ-दूणौ”॥४२७१।। इति 3 उ०।०। प्रज्ञा० / रुक्मिवर्षधरे अष्टकूटानां मध्ये सप्तमे कूटे, स्था० क्त्वाप्रत्ययस्य इय-दूणौ वा भवतः / होत्ता। उत्पद्येत्यर्थे, प्रा० 8 अ० 2 ठा०३ उ०५७ सूत्र टी०॥ 4 पाद। दो हेरण्णवयाई (सूत्र-१२+) स्था०२ ठा०३ उ०। होत्तिय पुं०(होत्रिक) अग्निहोत्रिके, भ० 1 श० 5 उ० / औ० / (अस्य) व्याख्या 'रुप्पि' शब्दे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (111) सूत्रेण षष्ठे भागे तृणवनस्पतिविशेषे, प्रज्ञा०१पद! गतार्था। होत्था (क्रिया०) अभवत्-जात इत्यर्थे, पिवा० 1 श्रु० 1 अ०। हेरण्णवयकूड न०(हरण्यवतकूट) शिखरिवर्षधरपर्वतस्य कूटे, स्था० होदूण (अव्य०) भूत्वा-भू-क्त्वा / “कत्व इय-दूणौ" ||8|| ३ठा०३ उ०। हैरण्यवतक्षेत्राधिपसत्केरुक्मिवर्षधरकूटे, जं.०४ वक्ष०॥ 271 / / इति क्त्वास्थाने दूणादेशः / उत्पद्येत्यर्थे, प्रा०४ पाद / होन्तो। हेरण्णिय पुं०(हैरण्यिक) स्वर्णकारे, आ०म०१ अनं०। अभविष्यत्। “न्त-माणी"|| 8|3|180 // इति न्ताऽऽदेशः। हेरिंब-(देशी)- गणेशे, दे० ना०५ वर्ग७२ गाथा। होन्तो। होमाणो। अभविष्यदित्यर्थे, प्रा० 5 अ०३ पाद। हेरिय पुं०(हैरिक) उद्भ्रामके, कल्प० 1 अधि०६ क्षण। होम पुं०(होम) अग्रिहोतृभिः क्रियमाणे अग्निहोमे, अनु०। नि० चू०। हेरुयाल पुं०(हेरुताल) वृक्षविशेषे, ज्ञा०१ श्रु०६ अ० ज०। पं०५०। हेला स्त्री०(हेला) लीलायाम्, जीवा० 16 अधि०। पाइ० ना० / वेगे, दे० | होयव्य न०(भवितव्य) भाव्ये, पञ्चा० 4 विव० / आ० म० / नि० चू०। ना०८ वर्ग 71 गाथा / अनादरे, पाइ० ना० 162 गाथा। | होया पुं० (होतृ) होतरि, अग्नौ हविः प्रदातरि, ज्ञा०१ श्रु(१अ०। Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होरंभा १२५०-अभिधानराजेन्द्रः- भाग 7 होरंभा स्त्री०( होरम्भा) महाढक्कायाम्, रा०ा तं०। भ०। होरण-(देशी)-वस्त्रे, दे० ना० 8 वर्ग 72 गाथा। होरा स्त्री०(होरा) ज्योतिषोक्ते लग्ने राश्यर्द्धभागे होराज्ञापकशास्त्रभेदे, रेखायाञ्च / द० प०। सूत्र०।। होल-(देशी)- देशप्रसिद्ध नैष्ठुर्ये, दश०७ अ०। ज्ञा० / होल इतिवा बोल इति वा एतौ च देशान्तरे अवज्ञासंसूचकौ / आचा०२ श्रु०१चू०४ अ० १उ०॥ होलवायपुं०(होलवाद) होलेत्येवं वादो होलवाद: / होलेत्येवं पुरुषामन्त्रणे, सूत्र०१ श्रु०६ अ01 ह अव्य०(ह) वाक्याल.कारे, सूत्र०२ श्रु०७ अ०। हुसास्त्री०(स्नुषा) पुत्रवध्वाम्, सूत्र 2 श्रु०७ अ०। ह(देशी) ह्व-सांड्.केतिक: शब्द / चतुष्के, हशब्दोपादानात् नारकतिर्यग्नरदेवाश्चत्वारो ग्राह्या: / ग० 2 अधि० / नि० चू०। वासे पुण्णरसंकचन्दपमिए चित्तम्मि मासे वरे, हत्थे भे सुहतेरसीबुहजुए पक्खे य सुब्भे गए। सम्मं संकलिओ य सूरयपुरे संपुण्णयं संगओ, राइंदायरिएण देउ भुवणे राइंदकोसो सुहं // 1 // ************* अथ प्रशस्ति:-- शाखाप्रशाखा मिरतिप्रवृद्धे, वीरोक्तिविस्तार विधानदक्षे / सद्धय॑सौधर्मवृहत्तपाऽऽख्य-गच्छे जगत्यां जनितप्रतिष्ठे // 1 // श्रुतावगाहप्रवरा महान्त:, सच्छासनाऽशेषधुरं वहन्त: / श्रीसङ्घवाटी परिफुल्लयन्त:, सुरीन्द्रमुख्या बहवो बभूवुः // 2 // तदन्वयेऽभूद् वररत्नसूरिः, स्वब्रह्मतेजस्वितया करिष्णुः। भानु नभोगं हरिमब्धिवासं, त्रिषट्तमं पट्टमलड्.करिष्णुः / / 3 / / निरन्तराऽऽचाम्लकर: सुखेन, क्षमा-श्रुत-प्राज्यमतिप्रवृद्धः। वृद्धक्षमासूरिरलञ्चकार, तत्पट्टमेरुं सवितेव धीरः // 4 // स्वपरसमयवेदी षट्सु भाषासु दक्षो, विजितयवनवृन्दो मेदपाटीयभर्तुः। सदसि जनसमक्षं श्रीलदेवेन्द्रसूरिः, समभवदतितेजा: पट्टकेऽमुष्य जिष्णुः // 5 // शिश्राय तत्पट्टमशेषकाल-विन्मारजित्स्वाऽन्यशुभं करिष्णुः। नैमित्तिकानां प्रथमश्च लोके, कल्याणसूरिगणितप्रवीणः / / 6 // अन्वर्थनामा समभूत् प्रमोद-सूरिजगज्जीवसुमोदहेतुः / समाधिलीनो निजकर्मदक्ष-स्तदासनेऽखण्डितशीलशाली / / 7 // तत्पट्टमेरावुदियाय भानु-जैनागमाब्धिं परिमथ्य कोशम्।। राजेन्द्रसूरिजंगदर्चनीयो-ऽभिधानराजेन्द्रमसावकार्षीत् // 8 // Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1251 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 अस्मत्पट्टप्रभावी धनविजयमुनिर्वादिवृन्दप्रजेता, श्रीलोपाध्यायवर्यः प्रतिसमयमदाद् भूरिसाहाय्यमेषः। कोशाब्धेरस्य सृष्टौ सकलजनपदश्लाघनीयत्वलिप्सोः, सद्विद्वन्मानसाब्जे दिनकरसमतां यास्यमानस्य लोके // 9 // धन्वन्यभूत्तकर्मयुगक पृथ्वी-वर्षे सियाणानगरेऽस्य सृष्टिः। पूर्णोऽभवत् सूर्यपुरे ह्यविघ्नं, शून्याङ्गनिध्येक मिते सुवर्षे / / 10 / / तावन्महान् प्राकृतकोश एष, यावत् क्षितौ मेरुरवीन्दव: स्युः। सज्जैनजैनतरविज्ञवर्ग-मानन्दयेत् कोकमिवोष्णरश्मिः // 11 // इति श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पप्रभु... श्रीमद्भट्टारक-जैनश्वेताम्बराऽऽचार्यश्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते “अभिधानराजेन्द्रेप्राकृतमहाकोशे” हकारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् / तत्समाप्तौ च समाप्तश्चायं ग्रन्थः। >CO WW Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- _