________________ सुदंसण 155 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुदंसण तत्थेव भूरिसाराः मालागारो वसइ, अज्जुणओ। सुकुमालपाणिपाया, बंधुमइ पणइणी तस्स / / 3 / / मुग्धःपाणिं जक्खं, नियकुलदेवं पुरस्स बाहिठियं। एवरेहिं कुसुमेह, अज्जुणओ निचमचेइ॥४॥ तत्थ य ललिया गोट्ठी, जं कयसुकया समत्थि अइरिद्धा। तम्मि पुरे अन्नदिणे, महूसवो काऽवि संपत्तो / / 5 / / कल्लं मुल्लं लाहई ति इत्थ कुसुमाई इय विचिंतेउ। अज्जुणओ सकलत्तो, गासे उजाणमणुपत्तो।।६।। गाहउं कुसुमाई तओ, जा जक्खगिह समेइ तुट्ठमणो। ता बहि जक्खगिहट्ठिय-गुट्ठियपुरिसेहिँ सो दिट्ठो|७|| पभणंति अन्नमन्नं, भा भो भद्दा समेइ एस इहं। अज्जुण मालागारो, बंधुमईए पियाइ समं // 8 // तं सयं णे एयं, बंधित्तु इमस्स भारियाइसमं। भोए भुत्तुं ते बिहु, अन्नुन्नं पडिसुणंति इमं // 6 तो ते कवाडपच्छा, भाग चिट्ठति निहुयतणुवयणे। इत्तो इयरो पत्तो, जक्खं पूएइ एगम्गा // 10 // अह दवदवस्स निस्सरि-य ते यततोतयं निइंधंति। बंधुभईए सद्धिं, किलिकिलिमाणा पकीलंति / / 11 / / तंतह दठ्ठ असरिस, अमरिय विवसो विचिंतएएसो। जक्खमिमं निचमहं, एमि वरेहिँ कुसुमेहिं // 12 // जइ इत्थ कोइ हुंती, जक्खो तो हं सहतओ नेवं / परपरिभवमसहंता, नूणमिमो पत्थरो चेव / / 13 / / तयणु अणुकंपियमणो, जक्खो अज्जुणगतणुमणुपविट्ठो। सो तडतड त्ति तोडइ, बंधणं आमततु व्य / / 14 // गहिउं लोहमयं पल-सहस्समाणं स मुग्गरं सकरे। ते छ वि पुरिसे लहु इ-त्थिसत्तमे हणइ हेलाए।।१५।। इय पइदिणमञ्जुणओ, छप्पुरिसे इत्धिसत्तमे हणइ। कमसो एसो जाओ, वुत्तंतोपायडो नयरे॥१६॥ अह सेणिएण नयरे, घासावियमिय अहो नयरलोया। निग्गंतव्वं न तुमेहिँ ,जाव हणिया न सत्तं जणा॥१७॥ तम्मिय समये सामी, समोसढो चरमजिणवरो तत्थ! पहुपायवंदणत्थं, निग्गच्छइ का विन भएण // 18 // तत्थ त्थि विमलदिट्ठी, अइधम्मट्ठी सुदंसणो सिट्ठी। जिणपवयणसवणरुई, नवतत्तवियारसारमई / / 16 / / सो सिरिवीरजिणेसर, वयणामयपाणउस्सुओ अहियं / सम्ममभिगम्म अम्मा, पिऊण नमिऊण भणइ इमं / / 20 / / (ध०२०।) ता बंदसु भगवंतं, समणं वीरं इहडिओ चेव। . सुमरेसुसुणियपुव्यं, सुदेसणं भयवओवच्छ!॥२८|| जंपइ सुदंसणो विह, तिलोयनाहे सयं इहं पत्ते। अनमिय असुणिय धम्म, च किहणु किर जुज्जए भुत्तुं // 26 // किंचसिरिवीरवयणसवणा-मयपाणसुसित्तसव्वगत्तस्स। विसमविसं पिव किं ए- स मज्झ काहिइ धुवं मचू // 30 // तम्हा जं किंचिवि इ-स्थ होइत होउ इय भणिय वाढं। पियरो य अणुन्नविउं, निग्गच्छइ सामिनमणत्थं // 31 / / तंपासिवि अजुणओ, मुग्गरमुग्गाविउं पहावित्था। दिवो मुदंसणेणं, सो इंतो कुवियकालु ध्व // 32 // तत्ता अभीयचित्तो, भुवं पमजित्तु पुत्तअंतेण। वंदिय जिणिंदचंदे, जयउचारं, सयं कुणइ // 33 // भुवणजियाण सरना, जिणा य सिद्धाय सव्यसाहू य। तह केवलिपन्नत्तो, धम्मो सरण मह होउ // 34 // नीसेसजंतुसंता-ण ताण पम्मलपयाबदुल्ललिओ। तिहुयणजणनयचलणो, वीरजिणो चव मज्झ गई|३५|| सागारं संवरणं, करेइ खामेइजंतुणो सव्ये। निंदेह दुक्कडाई, अणुमोयइ सवलसुकयाई॥३६॥ जइ मच्चिस्समियाओ, उवसग्गाओ तओ य पारिस्सं। इय वितिय नवकारं, झायतो ठाइ उस्सग्ग।।३७॥ मुग्गरमुल्लालंतो, जक्खोतं अक्कमउमवयंतो। पुरओ चिट्ठइ संतो, अणमिसनयणेहि पिच्छंतो॥३८|| खणमित्तेण, सठाणं, पत्तो नियमुग्गरे गहिय जक्खो। छिन्नतरु व्वज्जुणओ, पडिओ सहसत्ति धरणीए॥३६॥ नाऊण निरुवसगं, सिट्ठी पारेइ तयणु उस्सगं। जंपइ सुदंसणं पइ, इयरो बहु लहियचेयन्नं / / 4 / / कोऽसि तुमं कत्थ यप-थिओ सि सो भणइसावओ अहयं। संपत्थिआ म्हि वीरं, नमिउं सोउं च धम्मकह॥४१॥ अह भणइ अजुणो विहु सिहि! तए सह अहं जिणं नमिउं। सोउंच धम्ममिच्छा-मि आह सिट्ठी तओ एवं / / 42 / / भद्द ! इह मणुयजम्म-स्स चारफलमित्तियं चिय जयम्मि। जं कीरइ जिणवंदण, धम्मकहासवणमाईवं // 43 // इय भणिय तेण सहिओ, सुदंसणो पत्तआ समोसरणे। पणविह अभिगमपुव्वं, पयओ पणमेइ जिणनाहं / / 44 // हस्सं सुपुन्ननयणो, वियसियवयणो कयंजली सुमणो। भत्तिबहुभाणपवणो, इय निसुणइ देसणं पहुणो।।४५।। तथाहिभो भविया ! कहमवि लहि-य मणुयजम्म हवेइ पवणमणा। जिणवरपवयणसवणे, दुहहरण सयलगुणकरणे॥४६॥ जओसआ जाणइ. कल्लाणं, सुआ जाणइ पायगं। उभयं पिजाणइ, सुआ, जं सेयं तं समायरे / / 47|| अहंः संहतिभूधरे कुलिशति क्रोधानले नीरति। स्फूर्जजाउय तमोभरे मिहिरति श्रेयोद्रुमे मेघति॥४८| माद्यन्मोहसमुद्रशोषणविधा कुम्भोद्भवत्यन्वहं, सम्यग्धर्मविचारसारवचनस्याकणंनं देहिनाम्॥४८|| धम्मो यतत्थ दुविहो, सव्वे देसे यतत्थ सव्वंमि। पंच य महव्वयाई, देसे पुण वारस वयाई॥४६॥ इह सुणिय हट्ठतुट्ठा, सिट्ठी नमिउं जिणिंदपयकंमलं। कयकिचं मन्नतो, अप्पाणं नियगिहं पत्तो॥५०॥ अज्जुणओ पुण वेर-गपहिगओ जिणवरिंदपयमूले। छट्टक्खमणअभिग्गह जुत्तं दिक्खं पवजेइ / / 51 / / अक्कोसतालणाई, सहिउ काउं वयं च छम्मासं। पासद्धं संलिहिलं सियं गआ बदियं कम्माई।।५२|| सिट्ठी-सुदंसणो वि हु, चिरकालं दसणं पभावित्ता। पालेऊण वयाई, सुक्खाणं, भायणं जाओ॥५३।। इत्यागमाकर्णनबद्धवितः सुदर्शनः प्राय फल विशिष्टम् / ततः सुधर्मद्रमवाटिकायां, धर्मश्रुतौ भव्यजना ! यतध्यम्॥५४॥