________________ सोमवसु 1162 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सोमा अह सा गिहं पविट्ठा, जणगेण ऽभिनंदिया तओ विप्पो। चिंतइ इमस्स सयलो, परिवारो वि हु अहो विवुहो॥ 40 // लद्धावसरो य गओ, पणओ य तिलोयणस्स पयकमलं। विन्नवइ विबुहपुंगव ! वयगहणं काउमिच्छामि।। 41 // ता पसिय साहसु गुरुं, कस्स सयासम्मि हंगहेमि वयं। सो आह जो पयतियं, मिट्ठ भुत्तव्वमिचाइ।। 42 // वक्खाणइ तह पालइ, तस्स सयासे गहेसुतुं दिक्खं / तो जंपइ सोमवसू, को पुण एएसि परमत्थो।। 43 // भणइ बुहो वि महायस ! अकयमकारियमकप्पियं सुद्धं / महुयरवित्तीलद्धं, रागद्दोसेहि परिमुक्कं // 44 // मणिमंतमूलहओसह-पओगपरिवज्जियं च आहारं। जो भुंजइ सो इहयं, परमत्थेणं जिमइ मिट्ट।। 45 // जं सुद्धं आहार, भुंजतो न खलु बंधए कम्म। कडुयविववागं तेणं, एरिसमिह वुच्चए मिट्ठ।। 46 / / एयव्विवरीयं पुण, भुंजतो हिंसगुत्ति बधेइ। असुहविवागं कम्म, तेण अमिटुंजओ भणियं / / 47 // अजयं भुंजमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसइ। बंधई पावयं कम्म, तं होइ कडुयं फलं॥४८॥ जो सयलआहिमुक्को, सज्झायज्झाणसंजमुजुत्तो। गुरुणुनाए विहिणा, निसि सुवइ सुहेण सो सुवइ // 46 // धणधन्नसुवन्नसुहिर-नरयण चउचरणपमुहदविणम्मि। जो निचनिप्पिवासो, लोयपिओ होइ सो चेव / / 50 // यतःविश्वस्याऽपिसवल्लभो गुणगणस्तं संश्रयत्यन्वहं, तेनेयं समलंकृता वसुमती तस्मै नमः संततम्। तस्माद्धन्यमः समस्ति न परस्तस्यानुगा कामधुक्, तस्मिन्नाश्रयतां यशांसि दधते संतोषभाक् यः सदा॥५१॥ एवं निसामिऊणं, तिलोयणं पइभणेइ सोमवसू। परमत्थवत्थुपयडण-निउणस्स नमो हवउ तुज्झ॥५२॥ बभणइ बुहो विभो भद्द! तं सिद्धं नो सुलक्खणो तं सि। अवितहधम्मवियारं, जो एवं नियसि मज्झत्थो॥ 53 // अह पुच्छिऊण विबुहं, तम्गेहाओ विणिम्गओएस। अइसुद्धधम्मगुरुला-भलालसो नालसो जाव।। 54 / / पुव्वुत्तजुत्तिजुत्तं, आहारं फासुयं गवसंते। जुगमित्तनिहियनयणे, जिणमयसमणे नियइ ताव / / 55 / / तो चिंतइ सो हिट्ठो, मज्झं पुण्णा मणोरहा सव्ये। कप्पतरु व्व सुगुरुपाय-संगया जं इमे दिट्ठा / / 56 // तेसिं पिट्ठीइ गओ, आरामे वंदिउंसुघोसगुरुं। पुट्ठो पयतिगअत्थो, कहिओ सूरीहि वि तहेव / / 57 // नाओ पमहपयत्थो, मुणिजणआहारमहणओ चेव। सेसपयजाणणत्थं, तत्थेव ठिओ य सो रत्तिं / / 58 // आवस्सयाई काउं, भणिउं पोरिसिमणुन्नविय सूरि। आगमविहिणा सुत्ता मुणिणो गुरुणो पुणुहिता / / 56 / / उवउत्ता वेसमण-ज्झयणं परियट्टिउंलहु पयट्टा। चलियासणो कुवेरो, समागओ तत्थ तव्वेलं॥६०॥ तं निसुणइ एगगो, झाणसमितीइ नमियगुरुचरणे। जंपेइ वरेसुवरं, भणइ गुरु धम्मलाहो ते॥६१॥ तो अइहरिसियहियओ, भासुरदिप्पंतकंतरूवधरो। नमिऊणं गुरुपाए, पत्तो धणओ सयं ठाणं / / 62 // तंदठू पहिट्ठमणो, सोमवसूलद्धसुद्धधम्मवसू। चिंतइ आहे भयवओ, तिजयपसिद्धं निरीहत्तं // 63 // साहियनियवुत्तंतो, दिक्खं गिण्हइ सुघोसगुरुपासे। मज्झत्थसोमदिट्ठी, कमेण जाओ सुगइभागी // 64 / / इत्येवमुच्चैस्तरबोधिलाभो, मुख्यं फलं सोमवसोर्विशिष्टम्। माध्यस्थभाजः परिभाव्य भव्याः, भव्येन भावेन तदेव धत्त / / 65 / / (इति सोमवसुकथा समाप्ता।) ध०२०१अधि०१२ गुण। सोमविजय पुं० (सोमविजय) हीरविजयसूरीणां प्रथमशिष्ये, कल्प० 3 अधि०६ क्षण! सोमसिरि स्त्री० (सोमश्री) द्वारवतीनगरीवास्तव्यस्य सोमलस्य भार्यायाम, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अ०। आ० चू०। दर्श०। सोमसुन्दर पुं० (सोमसुन्दर) तपागच्छे स्वनामख्याते देवसुन्दरसूरीणां शिष्ये, ग०३ अधि०। अयमाचार्यः विक्रम १४३०सवसरे जातः 1466 स्वर्गतः। प्रथमप्रकीर्णक प्रत्याख्यानभाष्ये चानेन टीका रचिता, योगशास्त्रोपदेशमालाषडावश्यकनवतत्त्वादिष्वनेन टीका रचिता जै० इ०। सोमहिंद (देशी) उदरे, दे० ना०८ वर्ग 45 गाथा। सोमा स्त्री० (सौम्या/सोमा) सोमदेवतादिक्सोमा सौम्या वा। भ०१० श० 1 उ० / उत्तरदिशि, स्था० 3 ठा०२ उ०1 आ० म०। सोमस्य लोकपालस्याग्रमहिष्याम्, भ० 10 श० 5 उ० / सोमलोकपालस्य राजधान्याम्, भ०। संझप्पभस्स णं महाविमाणस्स अहे सपक्खिं सपडिदिसिं असंखेन्जाइं जोयणसयसहस्साई ओगाहित्ता एत्थ णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो सोमा नामं रायहाणी पण्णत्ता। एगंजोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं जम्बूद्रीवप्पमाणा वेमाणियाणं पमाणस्स अद्धं नेयव्वं जाव उवरियलेणं सोलसजोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं पण्णासं जोयणसहस्साइं पंचय सत्ताणउएजोयणसएकिंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते / पासायणं चत्तारि परिवाडिओ नेयव्याओ सेसा नत्थि / भ०३ श०७ उ०।दो सोमा / स्था०२ ठा०३ उ०। द्वारवतीवास्तव्यस्य सोमिलस्य ब्राह्मणस्य सुतायाम, अन्त०१ श्रु०३ वर्ग 8 अ०। आ० चू०। बहुपुत्रिकाजीवरू, पायां वेभेलसन्निवेशवासिन्यां स्वनामख्यातायां ब्राह्मण्याम, ति०१ ग०। ('बहुपुत्तिया' शब्दे कथा।) सोमप्रभशैलस्य पौरस्त्यदिक्स्थायां दिक्कुमारीमहत्तरिकायाम, द्वी०। सप्तमतीर्थकरस्य प्रथमप्रवर्तिन्यान, स० प्रव०। वीरजिनसमकालिकायां पार्श्वनाथस्वामितीर्थीयसाध्य्याम, आ० म०१ अ०।