________________ सुट्ठिय 936 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सुणंद श्रान्ते, बृ०१ उ०३ प्रक० / सुविहितक्रियानिष्ठे, कल्प०२ अधि०८ | क्षण। सुठियप्प-पुं०(सुस्थितात्मन्) शोभनेन प्रकारेण आगमनीत्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानः। सुविहितेषु, दश० 3 अ०। सुट्ठिया-स्त्री०(सुस्थिता) सुस्थितस्य लवणसमुद्राधिपते राजधान्याम्, जी०३ प्रति० 4 अधि०। सुठु-अव्य०(सुष्टु) अतिशये, प्रति०। प्रश्न० / अतीवार्थे, आव०४ 1. अातं० / वाढे,ध०२ अधि०ा प्रश्न० शोभने, बृ०१उ०३ प्रति०। प्राकृतभाषयाऽधिकारे, ध०३ अधि०। प्रश्न०। सुट्ठुतरमायामा-स्त्री०(सुष्टुतरायामा) गन्धारग्रामस्य षष्ठयां मूर्छनायाम्, स्था०७ ठा०३ उ०॥ सुठुयवर-त्रि०(सुष्ठुतर) अतिशोभन, आव० 3 अ०। आ० म०। सुढिय (देशी) श्रान्ते, बृ० 1 उ०३ प्रक०। सुण-धा०(श्रु) श्रवणे, "चि-जि-श्रु-हु-स्तु-लू-पू-धू -गां-णो-हस्वच"||४२४१॥ इत्यन्तोणकारागमः।सुणइ। शृणोति / प्रा०। स्था०। 'आया सद्दाह सुणेइ इत्यादि "सुण संखेवाणि सदा दिट्ठिवायस्य" आचा०। सुणअ-पुं०(शुनक) कुक्कुरे, आव० 4 अधि०। सुणइ-त्रि०(सुनति) शोभना नतिरवनतावसाने यस्मिन्नसौ सु-नतिः। शोभननतिके, जी०३ प्रति०४ अधि०। सुणंद-पुं०(सुनन्द) ऋषभदेवस्यद्वाविंशतितमे पुत्रे, कल्प०१अधि०७ क्षण / आ० म०। चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते श्रावके, ती०६४ कल्प। उत्त०। ('चंपा' शब्दे तृतीयभागे 1068 पृष्ठे ऽस्य कथोक्ता।) पार्श्वनाथस्य स्वनामख्याते श्रावके. उत्त०२३ अ०भविष्यतः सप्तमतीर्थकृतः पूर्वभवजीवे,सला सप्तमदेवलोकस्य विमानभेदे, नपुं०। स०१५ सम०। द्वादशतीर्थकरस्य भिक्षादायके, (स०।) स्वनामख्याते राजर्षों, पु०॥ध००। सुनन्दराजर्षिकथा पुनरेवम्"इह कंपिल्लपुरे सो, अइपवलपयावनिज्जियदिणसो। उप्पाडियरिउकंदो, आसि नरिंदो सुनंदु त्ति॥१॥ सुद्धगिहिधम्मपरिपा-लणुज्जुओ सत्ततत्तकुसलमई। पाणेहिं पिहु दइओ, मित्तो वजाउहो तस्स // 2 // अइसरयऽऽगमणुप्प-न्नपबलउस्सासरुद्धकठेण / कइयावि सुनंदनिवो, इय भणिओ संधिपालेणं / / 3 / / देव ! महच्छरियमिणं,जं किर केसरभरो विकेसरिणो। तोडिज्जइ हरिणेणं, रवीवि जिप्पइ तमभरेण // 4|| उत्तरदिसि पहुणा भी- मराइणा दुद्दमेण गुणनिवहो। इंदियगामेणं पिव, देसो तुह हम्मए सयलो।।५।। तं सोउ निवो कुविओ, जा ताडावेइ झत्ति रणभेरि। ता सुद्ध बुद्धिजुत्ते–ण मंतिवगेण इय दुतं // 6 // देवेस ! अरी सुरकय-सनिज्झो संगरे गई विसभा। संदहो पुण विजय, पहाणपुरिसक्खओय धुवं // 7 // ता सामभयदाणा-इँ मुत्तु संपइन अन्नमपि नीइं। रिउविजए पिच्छामो, ता देव ! इहं कुणसु जुत्तं / / 8 / / जआ॥ सामेण कोइ मित्तो, परो वि भेएण भिज्जइ सुही वि। दाणेण सेलघडिया, देवा वि वसं पवजंति ll जह जोगमिमं नणु जु-जिऊण दंडे वि जइ समुञ्जभसि। मसिकुचं अरिवयणं-सुतयणुतं देव ! देसि धुवं॥१०॥ इय कयजत्ता पत्ता, तुच्छा वि निवा अतुच्छलच्छिभरं। गरुआ वि गया निहणं, इत्तो विवरीयनीइस्या // 11 // ता देव ! सत्तुसाम--तमंतिमित्ताण जाणिउं हिययं / तदुचियसामाइ पउं-जिऊण पञ्चझ्यपुरिसेहिं // 12 // कुणसु बहु विजयजत्तं, जयलच्छि लहसु फुरियजसपसरो। भंजसु भडवायं रिउ--भडाण कयनीइसंनाहो।।१३।। इय सोउ मंतिवयणं, इसि हसिऊण जंपियं रन्ना। वणियाण माहणाण य, होइ मई एरिसा चेव // 14 // कहमन्नह दुजयरिउ-करडिघडा विघडणिक्ककेसरिणो। मज्झ विपुरओ एवं, रणकम्ममहम्ममुवइसह ? / / 15 / / इत्तुच्चिय अविमंसिय, जहा तहा इह जणा पयंपंता। हुति तणाउ विलहुया, वचंति पराभवट्ठाणं॥१६|| इय पभणिय भालत्थल-कयउब्भडभिउडिभासुरो राया। उक्तपियरिउचक्की, लहु ताडावेइ जयढक्कं / / 17 / / ता तीइ सद्दपसरे-ण मिलियचउरंगपबलबलकलिओ। वजाउह मित्तविदि-न अग्गसिन्निक्कवावारो॥१८॥ अविलंबियप्पयाणे-हिंसतु निवमंडलं अणुपयिहो / नाउ तदागमणं झ--त्ति आगओ संमुहो भीमो ||16 // अह जोहमुक्कहक्का, भयभरनस्संतकायरनरोहं। हयहरिकारभडनिवडण-दुग्गपहाउलभमंतजण // 20 // जणवयजणआसंकिय-अवितक्कियपलयकीलामागमणं / दुण्ह वि अग्गाणीया-ण ताण जायं महाजुज्झं // 21 // अह खणमित्ताम्म गए, लद्धोगासेहि परबलमहेहिं। भग्गं सुनंदसिन्नं, सीयं पिव भाणुकिरणेहिं / / 22 / / वजाउहजयकुंजर -- सत्तुंजयमाइणो महीवड्णो। पडिया समरमहीए, सुनंदराएण नायमिणे॥२३॥ अह सचिवेहि भणियं, अज्ज विविरमेसु देव ! समराओ। मा पूरेसु रिऊणं, मणोरहे, नियसु नियसत्तिं // 24 // अजहाबलमारंभो, खयस्स मूलं वयंति इह विबुहा। तो सव्वपयारेहिं, अप्पचिय रक्खियव्यु त्ति॥२५।। जओ॥ विक्कमबलेण पुणरवि, अजिज्जइ चिरगया वि रायसिरी। देवगयं पुण जीयं, न लडभए तम्मि जम्मम्मि॥२६।। भावय राहुमुहाओ, नीहरिउमखंडमंडलो सूरो। अवहरिउं रायसिरिं परतेयभरं पुणो हरइ // 27 // सुचइय पुरावि, इम, अपत्तवेलं मुणे वि अप्पाणं / बंभो चक्की नट्ठो, सपरियणो जादवपहू वि॥२८|| इय सचिवेहिं भणिआ, नियकुम्महविरहिओ सुनंदनियो। ओसरिओ समराओ, जं अवसरवेइणो विबुहा॥२६॥ पडिभग्गं पडिवक्खं, पलायमाणं निए वि भीमनिवो। वलिओ अणुकंपाए, तप्पुट्ठिपहारमकरित्ता // 30 //