________________ ११८२-अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 हरहरा 244 / / इति यय द्विरुक्तो मोवा, यस्य च लुक् / हम्मइ / हन्यते। प्रा० | हयरस्सि पुं० (हयरश्मि) खलीने, दश०१चू०। 4 पाद। हयलक्खण न० (हतलक्षण) दीर्घग्रीवाक्षिकूटेत्यादिके अश्वलक्षण* हर्म्य न० शिखररहिते धनवतां भवने, जी० 3 प्रति० 4 अधि०। / विज्ञाने, जं०२ वक्ष०। ज्ञा० / कल्प० / हम्ममाण पुं० (हन्यतान) कशाभिः (सूत्र०२ श्रु०१अ01) यष्टिमुष्टिल- | हयलाला स्त्री० (हयलाला) अश्वमुखजले, जं० 3 वक्ष० / औ० / कुटादिभिः, (सूत्र०१श्रु०६ अ01) तोद्यमाने, सूत्र०१श्रु०१अ०१ उ०! ___ 'हयलालापेलवाइरेग' जी०३ प्रति० 4 अधि०। हम्मियतलन० (हर्म्यतल) अट्टाले, आचा०२श्रु०१चू०२ अ०१ उ०। हयवर न० (हयवर) अश्वानां मध्ये प्रधाने, ज्ञा०१ श्रु०१७ अ०॥ *हम्मीरमहम्मद पुं० पारसीकोऽयं शब्दः, विक्रमादित्यस्य षष्ट्यधिक हयविलंबिय न० (हयविलम्बित) चतुर्विशतितमनाठ्यविधौ, रा०। त्रयोदशशततमे 1360 संवत्सरे जाते लक्ष्मणपुराधिषे यवनराजे, ती० हयवीहि स्त्री० (हयविथि) शुक्रस्य महाग्रहस्य नागवीथीत्यन्यत्र प्रसिद्ध 34 कल्प० / "नन्दानेकपशक्तिशीतगुमिते श्रीविक्रमार्थीपतेवर्षे शुक्रादिग्रहचारयोग्यक्षेत्रभागे,"भरणीस्वात्याग्नेयं नागाख्या वीथिरुत्तरे भाद्रपदस्यमास्यवरजे सौम्ये दशम्यां तिथौ। श्रीहम्मीरमहम्मदेक्षिति मार्गे" स्था०६ ठा०३ उ०। पतौ क्ष्मामण्डलाखण्डले, ग्रन्थोऽयं परिपूर्णतामभजत श्रीयोगिनीपत्तने हयसंघाडगपुं० (हयसंघाटक) अश्वद्वये, संघाटकशब्दो युग्मवाची यथा ॥१॥"ती०४८ कल्प साधुसंघाटक इत्यत्र, ततोद्वे द्वे हययुग्मे हयसंघाटक इत्युच्यते / रा०। जी० ज०। हय त्रि० (हत) यष्ट्यादिभिस्ताडिते, उत्त० 2 अ०। आचा० / ज्ञा० / हयसंठिय पुं० (हयसंस्थित) अश्वाकारे, भ०१श०२ उ०। 'हयमहियपरवीरघाइय' भ०७ श०६ उ० / व्यवच्छिन्ने, विशे01 मृते, उत्त०३२ अ०।"प्रत्यूषेण हता मार्गाः, परिहासहातास्त्रियः। मन्दबीज हयहसिय न० (हयहसित) हयशब्दविशेषे, प्रश्न०१आश्र0 द्वार। औ० / आ० म०1०1 हतं क्षेत्रं, हतं सैन्यमनायकम्॥१॥"बृ०१ उ०२ प्रक०। हयाणीय पुं० (हयानीक) घोटककटके, उत्त० 17 अ०। *हय पुं० अश्वे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। तुरगे, अनु०। हर पुं० (हर) हाः कालः स मनुष्यं हरति प्राणिनामायुरिति हरः। दिवसहयकंठग पुं० (हयकण्ठक) हयकण्ठप्रमाणे रत्नविशेषे, रा०। जी० रजन्यात्मके काले, उत्त०१४ अ०। रुद्रे, अनु०। हयकण्ण पुं० (हयकर्ण) लवणसमुद्रस्यान्तीपविशेषे, कर्म०५ कर्म०। *हधा० हरणे, "व्यञ्जनाददन्ते"||४|२३६ // इति अन्तेऽउत्त०।०। स्था०। (अस्य व्याख्या 'अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 कारः / हरइ। हरति / प्रा०४ पाद। पृष्ठे उक्ता।) आर्यदेशविशेषे, प्रव० 274 द्वार। *ग्रह धा० ग्रहणे, "ग्रहो वल-गेह हर पङ्ग निरुवाराहिपचुआः" हयगय पुं० (हयगत) अश्वारूढे, औ01 ||8||206 // इति हर इत्यादेशः / हरति / गृह्णाति। प्रा० / हयजूहियट्ठाणन० (हययूथिकस्थान)हयोऽश्वः तेषां परस्परतो युद्धंयत्र हरडई स्त्री० (हरीतकी)"हरीतक्यामीतोऽत्" ||1218 | पश्चात्सन्धिश्च क्रियते तादृशे स्थाने, नि० चू०१२ उ०। आचाo! इति आदेरीकारस्याऽद्भवति, "प्रत्ययादौडः" ||1|206 // हयजोह पुं० (हतयोध) हता-विनाशिता योधा-अश्वारोहादयो यैस्ते इति तस्य डः, हरडई। हरीतकी। स्वनामख्याते वृक्षे, तत्फले च। प्रा० हतयोधाः। विनाशितयोधेषु, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। १पाद। हयजोहि(ण) पुं० (हययोधिन्) हयेन युध्यते इति हययोधी। ज्ञा०१ हरण न० (हरण) हृतौ, "हारो त्ति वा हरणं त्ति वा हरइ त्ति वा एगट्ठा" श्रु०१अ०रा० / अश्वारोहण युध्यमाने, औ०। हारः हृतिर्हरणं ह्रियते इति वा एकार्थाः इत्यर्थः / व्य 1 उ / परद्रव्यस्य हयधी स्त्री० (हतधी) मूलाच्छिन्नबुद्धौ, बहुव्रीहीसमासे तु तादृशबृद्धि- | हृतो, प्रश्न०३ आश्र० द्वार। युक्ते, त्रि० / प्रति०। हरतणुपुं०(हरतनु) तृणाग्रव्यवस्थिते जलबिन्दौ, सूत्र०२ श्रु०३ अ०। हयपरपुं० (हतपर)हता अधमाये परे तीर्थान्तरीयास्तेतथा।कुतीर्थिकषु, पं०व०॥धा यो भुवमुद्भिद्य गोधूमा रतुणाग्रादिषु बद्धो बिन्दुरुपजायते। स्या०। बादरकायभेदे, प्रज्ञा०१ पद। कल्प०। दश० / जी०। हयपुटव त्रि० (हतपूर्व) पूर्वहते, आचा० 1 श्रु०६ अ० 3 उ०। हरय पुं०(हृद) महागाधजले, आचा०१श्रु०६अ०१ उ०। उत्त० भ०। हयमहिय त्रि० (हतमथित) प्रहारतो हते मानमन्थनात् मथिमे, ज्ञा०१ स्था० जी०रा०! श्रु०१६ अ०। हरहरा स्त्री० (हरहरा) अतीव भिक्षाप्रस्तावे, " निमगंच गामं, महिलाहयमुह पुं० (हयमुख) लवणसमुद्रस्यान्तीपविशेषे, उत्त०३६ अ०। थूमं च सुण्णयं द© / नीयं च काया ओलिंति, जाया भिक्खस्स हरहरा ('अंतरदीव' शब्दे प्रथमभागे 86 पृष्ठेवक्तव्यतोक्ता।) अनार्यदेशविशेषे, // 2064 / / ' विशे० 1 (इयं नियुक्तिगाथा 'देसकाल'शब्दे 4 भागे प्रव०२७४ द्वार। व्याख्याता / )