________________ सेण 1145 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 7 सेणि जओसज्झाएण पसत्थं, झाणं जाणइय सव्वपरमत्थं। सज्झाए वट्टतो, खणे खणे जाइ वेरग्गं / / 16 / / उड्डमह तिरियनरए, जोइसवेमाणिया य सिद्धी य। सव्वो लोगालोगो, सज्झायविउस्स पचक्खो // 20 // इय सोउतुट्ठमणो, सेणो सम्म गहित्तु गिहिधम्म। संज्झायभिग्गहजुयं, नमिउंच मुणिं गओ सगिह // 21 // तो धम्मकम्मनिरए, सज्झायपरे सया वि सिद्धिम्मि। वडियविहवे पसरिय-पुत्तपुत्ताइसंताणे / / 22 // बहुयाओ बहुयाओ, जहा तहा करगरंति अन्नुन्न / गलियसिणेहा तव्वय-णाओ ण लहंति पुत्ता वि // 23 // ते कलहंते दटुं, सिट्ठी भिन्ने करेइ तो तेउ। मग्गंति मूलगेहं, तयंमि सिट्ठी पयच्छेइ / / 24 // अह सो पियाइ वुत्तो, दविणजुयं नियघरं पि पुत्ताण। दाउं संपइ कह तं, होहिसि तो भणइ इय सिट्ठी।। 25 / / जस्स मणआलवाले,व जिणनाहधम्भकप्पतरू। भवणेण धणेण परेणं, वा वि का तस्स किर गणणा // 26 // सा पुण तं पइजपइ, संपइ भिक्खं भमसु गहियवयं। तह निवसेसु सुसाणे, देवउले सुन्नगेहे वा।। 27 // स भणइ हवेसुधीरा, इमं पि काहं कमेण नणु सुयणु। दंसेमि ताव इहलो-इयं पिधम्मप्पभावं ते॥ 28 // इय वुत्तु झत्ति नियमि-त मतिगेहमि गंतु साहेइ। सव्वं कुंटुंबवत्तं, तप्पुरओ मरगइ गिह पि॥२६॥ मंती पि भणइ मह गिह-मेगं अस्थि त्ति मुग्गडपविटुं। किंतु सदोसं न कया, वि कोइ निवसेइतं गिण्ह / / 30 // जइ पुण धम्मपभावे-ण पभविहि वंतरोन तुह किंचि। सो तयणु सउणगंठिं, बंधिय पत्तो गिहे तम्मि / / 31 / / निस्सीहियं करेउ, अणुजाणाविय गओ गिहस्संतो। पडिकमिऊण य इरियं, एवं च करेइ सज्झायं / / 32 / / तथाहिगयमेअज्ज महामुणि-खंदगसीसाइ साहुचरियाई। सुमरंतो कह कुप्पसि, इत्तियमित्ते चरे जीव ! // 33 // पिच्छसु पाणविणासे, वि नेव कुप्पंति जे महासत्ता। तुज्झ पुण हीणसत्त-स्स वयणमित्ते वि एस खमा।। 34 // रे जीव ! सुह दुहेसुं, निमित्तमित्तं परो जियाण ति। सकयफलं भुजतो, कीस मुहा कुप्पसि परस्स।। 35 / / हा हा मोहविमूढा, विहवे य घरे य मुच्छिया जीवा। निहणंति पुत्तमित्ते, भमंति तो चउगइभवम्मि / / 36 / / एवं सो सज्झायं, करेइ जा जामिणीइ जामदुर्ग। ता वंतरेण सुणिलं, पट्ठिचित्तेण इय भणियं // 37 // मह भवजलहिम्मि निम-जियस्स पोयाइय तए साहु। सो हं अमरो एयं, गह उव्वासियं जेण।। 38 // तो कहइ सेणपुलो, स वंतरो भद्द! एयगेहस्स। अहमासि पुरा सामी, अहेसि पुत्ता दुवे मज्झ / / 36 / / तेसुलहू अइइट्ठो, दिन्नं सव्वं पि तस्स गिहसार। दाऊणं किंपिमए, भिन्नगिहे ठाविओ जिट्ठो॥ 40 // तो कहिउंरायउले, तेणं माराविओ अहं सहसा। लहुभायरं धरावियं, गेहमिणं अप्पणा गहियं // 41 // लहुबंधू गुत्तीए, मओ अहं इत्थ वंतरो जाओ। जिट्ठसुयविलसियमिणं, नायं मे निययनाणेण // 42 // तत्तो कुविएण मए, जिट्ठसुओ विहणिओ सपरिवारो। अन्नो वि वसइ जो इह, रयणीइ तयं हणेमि धुवं / / 43 / / संपइ तुह सज्झायं, सोउं बुद्धो विमुक्कवइरोय। तं मज्झ गुरु तो तुह, सनिहाणमिणं गिह दिन्नं। 44 / / निहिठाणं च कहे,खणेण अमरो अदंसणी हूओ। सिट्ठी वि इमं गोसे, साहइ निवमंतिमाईणं / / 45 / / तो विम्हिओ नरिंदो, तुट्ठा वरसचिवसयणपमुहजणा। पुत्ता उवसंतप्पा,जाया जाया वि धम्मपरा / / 46 // जियअंत रिऊसेणो, सेणो वि चिरं करेति गिहिधम्म। गहिऊण य पव्वज, पत्ता सासयपयं कमसो।। 47 // श्येनः सदैवं स्फुटशुद्धभावः, स्वाध्यायनिष्ठोऽजनि निष्ठितार्थः। विवेकपीयूषमयूखवा , तदत्र सन्तः सततं यतन्ताम्॥४८॥ इति श्येनश्रेष्ठिकथा / ध०र०२ अधि०३ लक्ष०। सेणंग न० (सेनाङ्ग) हस्त्यश्वरथपदातिलक्षणे सेनाङ्गे, ज्ञा०१ श्रु० 18 अ०॥ सेणग पुं० (श्येनक) पक्षिविशेषे, चं० प्र०४ पाहु० / सू० प्र०। * सेनकपुं० प्रत्यन्तनगरराजस्य जितशत्रोरमात्यपुत्रे, आ० क०४ अ०। आ०म०।कूणिकमहाराजस्य पूर्वभवजीवे, आ० क० 4 अ०। (एतत्कथा 'कूणिक' शब्दे तृतीयभागे 626 पृष्ठे उक्ता।) सेणा स्त्री० (सेना) चतुरङ्गकटकसमूह, उत्त० 30 अ०।हस्त्यश्वरथपदातिसन्नाहखडगकृन्तादिसमुदाये, अनु० / विशे० / बृ० / आव० / आ० म० / सम्भवनाथजिनस्य जनन्याम, "दो चेव सयसहस्सा, सीसाणं आसि सम्भवजिनस्स / अमितवीरियजुयस्स, सेणाए जियारितणयस्स // १॥"ति०। प्रव० / आव० स्थूलभद्रस्वामिनो भगिन्याम, आर्यसम्भूतविजयस्यान्तेवासिन्याम्, ति०। आ० क० / आ० चू०। सेणाकम्मन० (सेनाकर्मन्) सेनायाः सैन्यस्य कर्म-व्यापारः शत्रुसाधनलक्षणः, सेनाविषयं वा कर्म-इतिकर्तव्यतालक्षणं सेनाकर्म / सैन्यकर्मणि, स्था०हठा०३ उ०। सेणावह न० (सेनापति) सेनायाः पतिः सेनापतिः। आ० म०१ अ०। नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायके, प्रज्ञा० 16 पद / स्था० / भ० / कल्प० जी०। ओघ०। औ०। सकलानीकनायके, प्रश्न०४ आश्र० द्वारराजं०रा० स०।आव०॥औ०।आ०म०। सूत्र०।अनु०ज्ञा०। आ० का स्था०। प्रव०॥ सेणावइरयण न० (सेनापतिरत्न) सेनापतिः-सैन्यनायक स एव रत्नम्। उत्कृष्टसेनापतौ,स्था०७ठा०३उ०॥ सेणावच न० (सेनापत्य) सेनापतिः-सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म वा सेनापत्यम्। सैन्यनायकत्वे, औ०। विपा०1०। सेणि स्त्री०(श्रेणि) पङ्क्तौ, आचा०१ श्रु०६ अ०३ उ०। रा०। जं०। कुम्भकाराद्यष्टादश प्रकृतयः श्रेणिशब्देनोच्यन्ते / जं०३ वक्ष०। आ० म०।