________________ 126] / प्रज्ञापनासूत्र स्थान) में एवं समुद्घात को अपेक्षा से-सर्वलोक में तथा स्वस्थान को अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। 156. कहि णं भंते ! सुहुमते उकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुमते उकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा प्रणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो ! / [156 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [156 उ.] गौतम ! सूक्ष्म तेजस्कायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, अविशेष हैं, (उनमें विशेषता या भिन्नता नहीं है) उनमें नानात्व नहीं है, हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोकव्यापी कहे गए हैं। विवेचन-तेजस्कायिक के स्थान का निरूपण--प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 154 से 156 तक) में बादर-सूक्ष्म के पर्याप्त एवं अपर्याप्त तेजस्कायिकों के स्वस्थान, उपपातस्थान एवं समुद्घातस्थान की प्ररूपणा की गई है। बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों के स्थान-स्वस्थान की अपेक्षा से–वे मनुष्यक्षेत्र के अन्दरअन्दर हैं / अर्थात्-मनुष्यक्षेत्र के अन्तर्गत ढाई द्वीपों एवं दो समुद्रों में हैं। व्याघाताभाव से वे पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह इन पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं; और व्याधात होने पर पांच महाविदेह क्षेत्रों में होते हैं / तात्पर्य यह है कि अत्यन्तस्निग्ध या अत्यन्तरूक्ष काल व्याघात कहलाता है। इस प्रकार के व्याघात के होने पर अग्नि का विच्छेद हो जाता है। जब पांच भरत पांच ऐरवत क्षेत्रों में सुषम-सुषम, सुषम, तथा सुषम-दुष्षम पारा प्रवृत्त होता है, तब वह अतिस्निग्ध काल कहलाता है। उधर दुष्षम-दुष्षम पारा अतिरूक्ष काल कहलाता है। ये दोनों प्रकार के काल हों तो व्याघात-अग्निविच्छेद होता है। अगर ऐसी व्याघात की स्थिति हो तो पंचमहाविदेह क्षेत्रों में हो बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव होते हैं। अगर इस प्रकार के व्याघात से रहित काल हो तो पन्द्रह ही कर्मभूमिक क्षेत्रों में बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव होते हैं। विग्रहगति में यथोक्त स्वस्थान-प्राप्ति के अभिमुख–उपपात अवस्था में स्थान का विचार करने पर ये लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, क्योंकि उपपात के समय वे बहुत थोड़े होते हैं / समुद्घात की अपेक्षा से विचार करें तो मारणान्तिक समुद्घातवश दण्डरूप में प्रात्मप्रदेशों को फैलाने पर भी वे थोड़े होने से लोक के असंख्यातवें भाग में ही समा जाते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। क्योंकि मनुष्यक्षेत्र कुल 45 लाख योजनप्रमाण लम्बा-चौड़ा है, जो कि लोक का असंख्यातवां भागमात्र है।' बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तकों के स्थान–पर्याप्तकों के आश्रय से ही अपर्याप्त जीव रहते हैं, इस दृष्टि से जहाँ पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं अपर्याप्तकों के हैं। उपपात की अपेक्षा से लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों में तथा तिर्यग्लोकतट्ट में बादर तेजस्कायिक अप्तिक रहते हैं। आशय यह है 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 75 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org