Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 206] [ प्रज्ञापनासूत्र इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ पाँच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होतीं। जिसकी होती हैं, उसको पांच, दस, पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं / इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) असुरकुमारत्व से लेकर यावत् स्तनितकुमारत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ नहीं हैं। 1066. [1] पुढविक्काइयत्ते जाव बेइंदियत्ते जहा दन्विदिया। [1066-1] (एक-एक नैरयिक को) पृथ्वीकायत्व से लेकर यावत् द्वीन्द्रियत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन) द्रव्येन्द्रियों की तरह (करना चाहिए / ) [2] तेइंदियत्ते तहेव, गवरं पुरेक्खडा तिष्णि वा छ वा णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा। [1066-2] त्रीन्द्रियत्व के रूप के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि (इसकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ तीन, छह, नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। [3] एवं चरिदियत्ते वि नवरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [1066-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियत्व रूप के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि (इसकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ चार, पाठ, बारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं। 1067. एवं एते चेव गमा चतारि गेयत्वा जे चेव दविदिएसु / नवरं तइयगमे जाणियन्वा जस्स जइ इंदिया ते पुरेक्खडेसु मुणेयवा। चउत्थगमे जहेव दव्वेंदिया जाय सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं सन्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया भाविदिया प्रतीता? णत्थि, बद्धलगा संखेज्जा, पुरेक्खडा णस्थि / 12 // / / बोप्रो उद्देसो समत्तो॥ / पण्णवणाए भगवतीए पनरसमं इंदियपयं समत्तं / / 1067] इस प्रकार ये (द्रव्येन्द्रियों के विषय में कथित) हो चार गम यहाँ समझने चाहिए। विशेष-तृतीय गम (मनुष्य सम्बन्धी अभिलाप) में जिसकी जितनी भावेन्द्रियाँ हों, (वे) उतनी पुरस्कृत भावेन्द्रियों में समझनी चाहिए। चतुर्थ मम (देवसम्बन्धी अभिलाप) में जिस प्रकार सर्वार्थसिद्ध की सर्वार्थसिद्धत्व के रूप में कितनी भावेन्द्रियाँ अतीत हैं ? 'नहीं हैं।' बद्ध भावेन्द्रियाँ संख्यात हैं, पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ नहीं हैं यहाँ तक कहना चाहिए। / / 12 / / विवेचन-बारहवां भावेन्द्रियद्वार--प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 1056 से 1067 तक) में नैरयिक से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक की एकत्व-बहुत्व को अपेक्षा से तथा नै रयिकत्व से सर्वार्थसिद्धत्व तक के रूप में अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत इन्द्रियों का प्ररूपण किया है। नारक को नारकत्वरूप में पुरस्कृत (भावो) भावेन्द्रियां-किसी की होती हैं, किसी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org