________________ 214) प्रज्ञापनासूत्र सुखानुभव करते हैं / इतने से ही उनका वेद (काम) उपशान्त हो जाता है। शब्दपरिचारक देवों का विषयभोग शब्द से ही होता है। वे अपनी प्रिय देवांगनाओं के गीत, हास्य, भावभंगीयुक्त मधुर स्वर, आलाप एवं नूपुरों आदि की ध्वनि के श्रवण मात्र से कायिकपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुखानुभव करते हैं, उसी से उनका वेद उपशान्त हो जाता है / मनःपरिचारक देवों का विषयभोग मन से ही हो जाता है / वे कामविकार उत्पन्न होने पर मन से अपनी मनोनीत देवांगनाओं की अभिलाषा करते हैं और उसी से उनकी तृप्ति हो जाती है / कायिकविषयभोग की अपेक्षा उन्हें मानसिकविषयभोग से अनन्तगुणा सुख प्राप्त होता है, वेद भी उपशान्त हो जाता है। अप्रवीचारक नौ ग्रेवेयकों तथा पांच अनुत्तरविमानों के देव अपरिचारक होते हैं। उनका मोहोदय या वेदोदय अत्यन्त मन्द होता है। अतः वे अपने प्रशमसुख में निमग्न रहते हैं / परन्तु चारित्र-परिणाम का अभाव होने से वे ब्रह्मचारी नहीं कहे जा सकते। __दो प्रश्न : (1) किस प्रकार की तृप्ति ?-देवों को अपने-अपने तथाकथित विषयभोग से उसी प्रकार को तृप्ति एवं भोगाभिलाषा निवृत्ति हो जाती है, जिस प्रकार शीतपुद्गल अपने सम्पर्क से शान्तस्वभाव वाले प्राणी के लिए अत्यन्त सुखदायक होते हैं अथवा उष्णपुद्गल उष्णस्वभाव वाले प्राणी को अत्यन्त सुखशान्ति के कारण होते हैं। इसी प्रकार की तृप्ति, सुखानुभूति अथवा विषयाभिलाषानिवृत्ति हो जाती है। आशय यह है कि उन-उन देवों को देवियों के शरीर, स्पर्श, रूप, शब्द और मनोनीत कल्पना का सम्पर्क पाकर आनन्ददायक होते हैं। (2) कायिक मैथुनसेवन से मनुष्यों की तरह शुक्रपुद्गलों का क्षरण होता है, परन्तु वह वैक्रियशरीरवर्ती होने से गर्भाधान का कारण नहीं होता, किन्तु देवियों के शरीर में उन शुक्रपुद्गलों के संक्रमण से सुख उत्पन्न होता है तथा वे शुक्रपुद्गल देवियों के लिए पांचों इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, मनोहर रूप में तथा सौभाग्य, रूप, यौवन, लावण्य के रूप में बारबार. परिणत होते हैं।' कठिन शब्दार्थ-इच्छामणे- दो अर्थ—(१) इच्छाप्रधान मन, (2) मन में इच्छा या अभिलाषा / मणसीकए समाणे--मन करने पर। उच्चावयाई: दो अर्थ--(१) उच्च तथा नीच--- ऊबड़-खाबड़,(२) न्यूनाधिक-विविध / उवदंसेमाणीप्रो-दिखलाती हुई / समुदीरेमाणोनो-उच्चारण करती हुई / सिंगाराइं-शृगारयुक्त / तत्थगतानो चेव समाणीयो---अपने-अपने विमानों में रही हुई। अणुत्तराई उच्चावयाई मणाई संपहारेमाणीओ चिट्ठति--उत्कट सन्तोष उत्पन्न करनेवाले एवं विषय में आसक्त, अश्लील कामोद्दीपक मन करती हुई / ' // प्रज्ञापना भगवती का चौतीसवाँ पद सम्पूर्ण / 1. प्रज्ञापन. (प्रमेबोधिनी टीका) भाग 5, 5.852-854 2. बही भा. 5, पृ. 854 से 868 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org