________________ [245 छत्तीसवाँ समुद्घातपद] . 2117. [1] वेउब्वियसमुग्धानो जहा कसायसमुग्धामो (सु. 2105-15) तहा गिरवसेसो माणियन्वो / णवरं जस्स पत्थि तस्स ण वुच्चति / [2117-1] वैक्रियसमुद्घात की समग्र वक्तव्यता कषायसमुद्घात (सू. 2105 से 2115 तक में उक्त) के समान कहनी चाहिए। विशेष यह है कि जिसके (वैक्रियसमुद्घात) नहीं होता, उसके विषय में कथन नहीं करना चाहिए / [2] एत्थ वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियन्वा / [2117-2] यहाँ भी चौवीस दण्डक चौवीस दण्डकों में कहने चाहिए। 2118. [1] तेयगसमुग्धाओ जहा मारणतियसमुग्घानो (सु. 2116) / णवरं जस्स अस्थि / [2118-1] तैजस समुद्घात का कथन (सू. 2116 में उक्त) मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना चाहिए / विशेष यह है कि जिसके वह होता है, (उसी के कहना चाहिए / ) [2] एवं एते वि चउवीसं चउवोसा दंडगा भाणियब्वा / [2118-2] इस प्रकार ये भी चौवीसों दण्डक चौवीस दण्डकों में घटित करना चाहिए। 2119. [1] एगमेगस्स गं भंते ! रइयस्स थेरइयत्ते केवतिया पाहारगसमुग्धाया प्रतीया? गोयमा! णस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! णस्थि। [2116-1 प्र. भगवन् ! एक-एक नारक के नारक अवस्था में कितने प्राहारकसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2116-1] गौतम ! (नारक के नारकपर्याय में अतीत आहारकसमुद्धात) नहीं होते। [प्र.] भगवन् उसके भावी आहारकसमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! (भावी आहारकसमुद्घात भी) नहीं होते। [2] एवं जाव वेमाणियत्ते / णवरं मणूसत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि / जस्सऽस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा, उक्कोसेणं तिणि / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि / जस्सऽस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिम्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि। [2116-2] इसी प्रकार (नारक के) यावत् वैमानिक-अवस्था में (अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात का कथन समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि (नारक के) मनुष्यपर्याय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org