________________ 278] [प्रज्ञापनासूत्र लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को ही व्याप्त करता है। एकेन्द्रिय की सारी वक्तव्यता समुच्चय जीव के समान समझनी चाहिए।' वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा / ___2156. [1] जीवे गं भंते ! वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि गं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुडे ? / गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, पायाभेणं जहण्णेणं अंगुलस्स प्रसंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाई एगदिसि विदिसि वा एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुड़े। [2156-1 प्र.] भगवन् ! वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ जीव, समवहत होकर (वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हए) जिन पदगलों को बाहर निकालता है (यात्म करता है), उन युद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है, कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [2159-1 उ.] गौतम ! जितना शरीर का विस्तार और बाहल्य (स्थूलत्व) है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा या विदिशा में प्रापूर्ण होता है और उतना ही क्षेत्र व्याप्त होता है। [2] से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विगहेण एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे / सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। [2156-2 प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त) क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण होता है और कितने काल में स्पृष्ट होता है ? [2156-2 उ.] गौतम ! एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से, अर्थात् इतने काल से (वह क्षेत्र) आपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है / शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् 'पांच क्रियाएँ लगती हैं', यहाँ तक कहना चाहिए। 2160. एवं रइए वि। णवरं पायामेणं जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाई एगदिसि एवतिए खेत्ते / केवतिकालस्स० तं चेव जहा जीवपए (सु. 2156) / [2160] इसी प्रकार नै रयिकों की (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी वक्तव्यता) भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यातयोजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। यह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है , इसके उत्तर में (सू. 2156 में उक्त समुच्चय) जीवपद के समान कथन किया गया है / 2161. एवं जहा रइयस्स (सु. 2160) तहा असुरकुमारस्स / णवरं एगदिसि विदिसि वा / एवं जाव थणियकुमारस्स। [2161] जैसे नारक का वैक्रियसमुद्घातसम्बन्धी कथन किया गया है, वैसे ही असुरकुमार 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1083-84 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org