Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित / RAJESS संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मा एकर मुनि प्रजापनासूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पाराष्ट्राष्ट युक्त) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं . जिनागम-प्रन्यमाला: ग्रन्था१६ [परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित ] श्री श्यामार्यवाचक-संकलित चतुर्थ उपांग प्रज्ञापनासूत्र [प्रथम खण्ड] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पणयुक्त ] - सन्निधि उपप्रवर्तक शासनसेवी स्वामी श्री व्रजलालजी महाराज संयोजक तथा प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' / सम्पादक-विवेचक-अनुवादक श्री ज्ञानमुनिजी महाराज [स्व. जैनधर्मदिवाकर, प्राचार्य श्री आत्मारामजी महाराज के सुशिष्य] 0 सह-सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' 0 प्रकाशक श्री पागम प्रकाशन-समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिमागम ग्रन्थमाला : मन्थाङ्क 16 [श्री व. स्था. जैन श्रमण संघ के प्रथमाचार्य प्राचार्यसम्राट् पूज्य श्री प्रात्मारामजी महाराज के जन्मशताब्दी वर्ष का विशेष उपहार] - सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' 7 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर / प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत् 2506 विक्रम सं. 2040 चैत्र ई. सन् 1983 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशनसमिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर-३०५९०१ - मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ LILY Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj FOURTH UPANGA PANNAVANA SUTTAM Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc.) Proximity Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Chief Editor Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj 'Madhukar' Translator & Angotator Shri Jnan muni Sub-Editor Shrichand Surana "Saras' Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.). Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Grantbmala Publication No. 16 : Board of Editors Anuyoga-pravartaka Munisri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill Man Managing Editor Srichand Surana 'Saras' Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni "Dinakar' O Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2509 Vikram Samvat 2040, April, 1983 Publishers Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305901 O Prioter Satishchandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer--305001 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने नागमों पर हिन्दी भाषा में टीकार लिखकर तथा आगम-संपादन की आधुनिक शैली का प्रथम प्रवर्तन कर महान ऐतिहासिक श्रुत-सेवा को परमश्रद्धेय आगम-रहस्यविज्ञ जैनधर्मदिवाकर श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज की पावन स्मृति में उन्हीं के जन्म-शताब्दी वर्ष के पावन-प्रसंग पर सविनय समति समर्पित .....मधुकर मुनि Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत आगम प्रकाशन के विशिष्ट अर्थ-सहयोगी श्रीमान् सेठ एस. सायरचंदजी चोरडिया, मद्रास [जीवन परिचय धर्मनिष्ठ समाजसेवी चोरडिया परिवार के कारण प्रसिद्ध नोखा (चांदावतों का, जिला नागौर, राजस्थान) आपका जन्मस्थान है। आपका जन्म सं. 1984 वि. आषाढ़ कृष्णा 13 को स्वर्गीय श्रीमान् सिमरथमलजी चोरडिया की धर्मपत्नी स्व. श्रीमती गटूबाई की कुक्षि से हुआ। आपका बाल्यकाल ग्राम में वीता / साधारण शिक्षण के बाद आपकी शिक्षा आगरा में सम्पन्न हुई और वहीं अपने ज्येष्ठ भ्राता श्रीमान् रतनचंदजी चोरडिया की देखरेख में व्यापार-व्यवसाय प्रारंभ किया। अपनी प्रतिभा और कुशलता से व्यापारिक क्षेत्र में अच्छी प्रतिष्ठा उपार्जित की। तत्पश्चात् आपने सं. 2008 में दक्षिण भारत के प्रमुख व्यवसायकेन्द्र मद्रास में फाइनेन्स का कार्य प्रारम्भ किया / आज तो वहां के इने-गिने फाइनेन्स व्यवसाइयों में से आप एक हैं / आपकी तरह ही धार्मिक सामाजिक कार्यों में सोत्साह सहयोग देने वाले युवक आपके सुपुत्र श्री किशोरचंदजी भी उदीयमान व्यवसायियों में गणनीय माने जाते हैं। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यावसायिक क्षेत्र में जैसे-जैसे ख्याति फैलती गई, वैसे-वैसे आपने धार्मिक और सामाजिक कार्यों में तन-मन-धन से योग देने की कीर्ति भी उपार्जित की है। शुभ कार्यों में सदैव अजित अर्थ को विनियोजित करते रहते हैं। संग्रह नहीं अपितु संविभाग करने की दृष्टि से मद्रास जैसे महानगर की प्रत्येक जनोपयोगी प्रवृत्ति से आप संबद्ध हैं / अनेक सार्वजनिक संस्थाओं को एक साथ पुष्कल अर्थ प्रदान कर स्थायी बना दिया है। आप मद्रास एवं अन्य स्थानों की जैन संस्थानों से किसी न किसी रूप में संबन्धित हैं। अध्यक्ष, मंत्री आदि आदि अधिकारी होने के साथ ऐसी भी संस्थायें है, जिनके प्रबन्ध-मंडल के सदस्य न होते हुए भी प्रमुख संचालक हैं / कतिपय संस्थाओं के नाम इस प्रकार हैं, जिनके साथ आपका निकटतम सम्बन्ध है 0 श्री एस. एस. जैन एज्यूकेशन सोसायटी, मद्रास 0 श्री राजस्थानी एसोशियेशन, मद्रास J श्री राजस्थानी श्वे. स्था. जैन सेवासंघ, मद्रास 0 श्री वर्धमान सेवासमिति, नोखा - श्री भगवान महावीर अहिंसा-प्रचार-संघ 1 स्वामीजी श्री हजारीमलजी म. जैन ट्रस्ट, नोखा ___ सदैव संत-सतियांजी की सेवा करना भी आपके जीवन का ध्येय है / आपकी धर्मपत्नी भी धर्मश्रद्धा की प्रतिमूर्ति एवं तपस्विनी हैं। आपके ज्येष्ठ भ्राता श्री रतनचंदजी और बादलचंदजी भी धार्मिक वृत्ति के हैं। वे भी प्रत्येक सत्कार्य में अपना सहयोग प्रदान करते हैं / आपका परिवार स्वामीजी श्री व्रजलालजी म. सा., पूज्य युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' का अनन्य भक्त है। आपने इस ग्रन्थ के प्रकाशन में श्री आगम प्रकाशन समिति को अपना महत्त्व पूर्ण सहयोग प्रदान किया है / एतदर्थ समिति प्रायकी आभारी है एवं अपेक्षा रखती है कि भविष्य में भी समिति को पापका संपूर्ण सहयोग मिलता रहेगा। मंत्री श्री प्रागम-प्रकाशन समिति, ब्यावर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय पाठकों के कर-कमलों में चतुर्थ उपांग श्रीप्रज्ञापनासूत्र समर्पित करते अतीव प्रमोद का अनुभव हो रहा है। प्रज्ञापनासूत्र विशालकाय आगम है और तत्त्वज्ञान की विवेचना से भरपूर है। इसे समझने के लिए विस्तृत विवेचन की परमावश्यकता है / इस कारण इसे एक जिल्द में प्रकाशित कर सकना संभव नहीं है / अतएव प्रथम खण्ड ही प्रकाशित किया जा रहा है / द्वितीय भाग के अधिकांश का मुद्रण हो चुका है / उसके भी शीघ्र ही तैयार हो जाने की संभावना है। ___ प्रस्तुत प्रागम की विस्तृत प्रस्तावना विख्यात विद्वान् श्री देवेन्द्र मुनिजी म. शास्त्री लिख रहे हैं, किन्तु अस्वस्थता के कारण मुनिश्री उसे पूर्ण नहीं कर सके हैं / अतएव वह प्रस्तावना अन्तिम खण्ड में दी जाएगी और मुद्रित हो रहा है / प्रश्नव्याकरणसूत्र प्रेस में दिया जा चुका है और मुद्रित हो रहा है। प्रज्ञापनासूत्र का अनुवाद और सम्पादन जैनभूषण पंजाबकेसरी पं. र. मुनिश्री ज्ञानमुनिजी महाराज ने किया है। इसके सम्पादन और अनुवाद में जो अर्थव्यय हुआ है, उसका भार जिन साहित्यप्रेमी सज्जनों ने वहन किया है, उनकी सूची साभार अन्यत्र प्रकाशित की जा रही है। श्रीमान् धर्मप्रेमी सेठ एस. सायरचन्दजी चोराडया, मद्रास के विशिष्ट आर्थिक सहयोग से यह पागम प्रकाशित किया जा रहा है, अतएव उनके प्रति भी हम आभारी हैं। श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य परमपूज्य श्री आत्मारामजी महाराज की जन्मशताब्दी-वर्ष के सुअवसर पर प्रज्ञापनासूत्र का प्रकाशन हो रहा है / अतएव स्व. प्राचार्यसम्राट के महान उपकारों को लक्ष्य में रख कर उन्हीं के कर-कमलों में यह समर्पित किया जा रहा है / आचार्यश्री का परिचय भी संक्षेप में प्रकाशित कर अन्त में जिन-जिन महानुभावों का समिति को प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में सहयोग प्राप्त हुआ या हो रहा है, उन सभी के प्रति हम हार्दिक आभार व्यक्त करना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। रतनचन्द मोदी जतनराज महता चांदमल विनायकिया कार्यवाहक अध्यक्ष प्रधान मंत्री मंत्री श्री प्रागम-प्रकाशन-समिति, ब्यावर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन-सहयोगी सत्कार प्रस्तुत आगम के अनुवाद तथा सम्पादन कार्य में जिन उदार सद्गृहस्थों तथा संस्थानों ने श्री शालिग्राम जैन प्रकाशन समिति खरड़ (रोपड़) के संयोजन में आर्थिक सहयोग प्रदान किया, उनकी शुभ नामावली इस प्रकार है D सेठ शोरीलालजी जैन (सुपुत्र-ला. बालमुकुन्दलाल जैन सर्राफ, रावलपिंडी वाले) [] धर्मशीला श्रीमती जसवंती देवी जैन [धर्मपत्नी---श्री प्रेमचन्दजी जैन, मोगा (पंजाब)] // श्री छज्जूराम एण्ड सन्स जी. टी. रोड, मण्डी गोविन्दगढ़ (पंजाब) - धर्मशीला श्रीमती कौशल्यादेवी अग्रवाल धर्मपत्नी-ला. नत्थूरामजी, मंडी गोविन्दगढ़ [] धर्मशीला श्रीमती वीणादेवी धर्मपत्नी--श्री ओमप्रकाशजी जी. टी. रोड, मंडी गोविन्दगढ़ D सेठ नरेन्द्रकुमार प्रेमनाथ अग्रवाल सहारनपुर (उ. प्र.) " धर्मशीला श्रीमती लेखा जैन धर्मपत्नी–ला. शादीरामजी जैन, बजाज, होशियारपुर (पंजाब) " शालिग्राम जैन प्रकाशन समिति खरड़ (रोपड़) पंजाब ला. शान्तिलालजी जैन जैन ट्रेडिंग कम्पनी, B. 34, जी. टी. करनाल रोड, दिल्ली 53 प्राशा है दानी सज्जनों का भविष्य में भी इसी प्रकार श्रुत-सेवा कार्य में सत्सहयोग मिलता रहेगा। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि वचन विश्व के जिन दार्शनिकों-दष्टाओं/चिन्तकों, ने "प्रात्मसत्ता" पर चिन्तन किया है, या आत्म-साक्षात्कार किया है उन्होंने पर-हितार्थ आत्म-विकास के साधनों तथा पद्धतियों पर भी पर्याप्त चिन्तन-मनन किया है / आत्मा तथा तत्सम्बन्धित उनका चिन्तन-प्रवचन आज आगम/पिटक/वेद उपनिषद् आदि विभिन्न नामों से विश्रुत है। जैनदर्शन की यह धारणा है कि आत्मा के विकारों-राग द्वष आदि को, साधना के द्वारा दूर किया जा सकता है, और विकार जब पूर्णतः निरस्त हो जाते हैं तो आत्मा की शक्तियाँ ज्ञान सुख वीर्य आदि सम्पूर्ण रूप में उद्घाटित-उद्भासित हो जाती हैं / शक्तियों का सम्पूर्ण प्रकाश-विकास ही सर्वज्ञता है और सर्वज्ञ प्राप्त-पुरुष की वाणी, वचन/कथन/प्ररूपणा-"पागम" के नाम से अभिहित होती है / आगम अर्थात् तत्त्वज्ञान, प्रात्म-ज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध देने वाला शास्त्र/सूत्र/प्राप्तवचन / सामान्यतः सर्वज्ञ के वचनों/वाणी का संकलन नहीं किया जाता, वह बिखरे सुमनों की तरह होती है, किन्तु विशिष्ट अतिशयसम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष, जो धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, संघीय जीवनपद्धति में धर्म-साधना को स्थापित करते हैं, वे धर्म प्रवर्तक अरिहंत या तीर्थकर कहलाते हैं। तीर्थकर देव की जनकल्याणकारिणी वाणी को उन्हीं के अतिशयसम्पन्न विद्वान् शिष्य गणधर संकलित कर "पागम' या शास्त्र का रूप देते हैं अर्थात् जिन-वचनरूप सुमनों की मुक्त वृष्टि जब मालारूप में ग्रथित होती है तो वह "आगम" का रूप धारण करती है। वही पागम अर्थात् जिन-प्रवचन आज हम सब के लिए आत्म-विद्या या मोक्ष-विद्या का मूल स्रोत है। 'आगम" को प्राचीनतम भाषा में “गणिपिटक" कहा जाता था। अरिहंतों के प्रवचनरूप समग्र शास्त्र-द्वादशांग में समाहित होते हैं और द्वादशांग/आचारांग-सूत्रकृतांग आदि के अंग-उपांग आदि अनेक भदोपभेद विकसित हुए हैं / इस द्वादशांगी का अध्ययन प्रत्येक मुमुक्षु के लिए आवश्यक और उपादेय माना गया है। द्वादशांगी में भी बारहवाँ अंग विशाल एवं समग्र श्रुतज्ञान का भण्डार माना गया है, उसका अध्ययन बहुत ही विशिष्ट प्रतिभा एवं श्रुतसम्पन्न साधक कर पाते थे। इसलिए सामान्यतः एकादशांग का अध्ययन साधकों के लिए विहित हुअा तथा इसी ओर सबकी गति/मति रही। जब लिखने की परम्परा नहीं थी, लिखने के साधनों का विकास भी अल्पतम था, तब अागमों/शास्त्रों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से कंठस्थ करके सुरक्षित रखा जाता था। सम्भवतः इसलिए प्रागमज्ञान को श्रुतज्ञान कहा गया और इसीलिए श्रुति/स्मृति जैसे सार्थक शब्दों का व्यवहार किया गया। भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के एक हजार वर्ष बाद तक आगमों का ज्ञान स्मृति श्रुति परम्परा पर ही आधारित रहा / पश्चात् स्मृतिदौर्बल्य, गुरुपरम्परा का विच्छेद, दुष्काल-प्रभाव आदि अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान लुप्त होता चला गया। महासरोवर का जल सूखता-सूखता गोष्पद मात्र रह गया / मुमुक्षु श्रमणों के लिए यह जहाँ चिन्ता का विषय था, वहाँ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिन्तन की तत्परती एवं जागरूकता को चुनौती भी थी। वे तत्पर हुए श्रुतज्ञान-निधि के संरक्षण हेतु / तभी महान श्रुतपारगामी देवद्धि गणि क्षमाश्रमण ने विद्वान् श्रमणों का एक सम्मेलन बुलाया और स्मृति-दोष से लुप्त होते आगम ज्ञान को सुरक्षित एवं संजोकर रखने का आह्वान किया। सर्वसम्मति से प्रागमों को लिपि-बद्ध किया गया / जिनवाणी को पुस्तकारूढ करने का यह ऐतिहासिक कार्य वस्तुतः आज की समग्र ज्ञान-पिपासु प्रजा के लिए एक अवर्णनीय उपकार सिद्ध हुआ। संस्कृति, दर्शन, धर्म तथा आत्म-विज्ञान की प्राचीनतम ज्ञानधारा को प्रवहमान रखने का यह उपक्रम वीरनिर्वाण के 680 या 663 वर्ष पश्चात् प्राचीन नगरी बलभी (सौराष्ट्र) में आचार्य श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न हुआ / वैसे जैन आगमों की यह दूसरी अन्तिम वाचना थी; पर लिपिबद्ध करने का प्रथम प्रयास था / आज प्राप्त जैन सूत्रों का अन्तिम स्वरूप-संस्कार इसी वाचना में सम्पन्न किया गया था। पुस्तकारूढ होने के बाद आगमों का स्वरूप मूल रूप में तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, श्रमण-संघों के आन्तरिक मतभेद, स्मृतिदुर्बलता, प्रमाद एवं भारतभूमि पर बाहरी आक्रमणों के कारण विपुल ज्ञान-भण्डारों का विध्वंस आदि अनेकानेक कारणों से आगम ज्ञान की विपुल सम्पत्ति, अर्थबोध की सम्यक गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण एवं विलुप्त होने से नहीं रुकी। प्रागमों के अनेक महत्वपूर्ण पद, सन्दर्भ तथा उनके गूढार्थ का ज्ञान, छिन्न-विच्छिन्न होते चले गए / परिपक्व भाषाज्ञान के अभाव में, जो आगम हाथ से लिखे जाते थे, वे भी शुद्ध पाठ वाले नहीं होते, उनका सम्यक् अर्थज्ञान देने वाले भी विरले ही मिलते / इस प्रकार अनेक कारणों से आगम की पावन धारा संकुचित होती गयी। विक्रमीय सोलहवीं शताब्दी में वीर लोकाशाह ने इस दिशा में क्रान्तिकारी प्रयत्न किया। आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुनः चालू हुआ। किन्तु कुछ काल बाद उसमें भी व्यवधान उपस्थित हो गये। साम्प्रदायिक-विद्वेष, सैद्धांतिक विग्रह, तथा लिपिकारों का अत्यल्प ज्ञान आगमों की उपलब्धि तथा उनके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गया / आगम-अभ्यासियों को शुद्ध प्रतियां मिलना भी दुर्लभ हो गया / उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो सुधी पाठकों को कुछ सुविधा प्राप्त हुई। धीरे-धीरे विद्वत्-प्रयासों से आगमों की प्राचीन चूणियाँ, नियुक्तियाँ, टीकायें आदि प्रकाश में आई और उनके आधार पर आगमों का स्पष्ट-सुगम भावबोध सरल भाषा में प्रकाशित हुआ। इसमें प्रागम-स्वाध्यायी तथा ज्ञान-पिपासु जनों को सुविधा हुई। फलतः आगमों के पठन-पाठन की प्रवृत्ति बढ़ी है / मेरा अनुभव है, आज पहले से कहीं अधिक आगम-स्वाध्याय की प्रवत्ति बढ़ी है, जनता में आगमों में प्रति आकर्षण व रुचि जागृत हो रही है। इस रुचि जागरण में अनेक विदेशी आगमज्ञ विद्वानों तथा भारतीय जैनेतर विद्वानों की आगम-श्रुत-सेवा का भी प्रभाव व अनुदान है, इसे हम सगौरव स्वीकारते हैं। __ आगम-सम्पादन-प्रकाशन का यह सिलसिला लगभग एक शताब्दी से व्यवस्थित चल रहा है / इस महनीय श्रुत सेवा में अनेक समर्थ श्रमणों, पुरुषार्थी विद्वानों का योगदान रहा है। उनकी सेवायें नींव की ईंट की तरह आज भले ही अदृश्य हों, पर विस्मरणीय तो कदापि नहीं, स्पष्ट व पर्याप्त साधनों के अभाव में हम अधिक विस्तृत रूप में उनका उल्लेख करने में असमर्थ हैं, पर विनीत व कृतज्ञ तो हैं ही। फिर भी स्थानकवासी जैन परम्परा के कुछ विशिष्ट प्रागम श्रुत-सेवी मुनिवरों का नामोल्लेख अवश्य करना चाहेंगे / Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज से लगभग साठ वर्ष पूर्व पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने जैन आगमों--३२ सूत्रों का प्राकृत से खड़ी बोली में अनुवाद किया था। उन्होंने अकेले ही बत्तीस सूत्रों का अनुवाद कार्य सिर्फ 3 वर्ष व 15 दिन में पूर्ण कर अद्भुत कार्य किया। उनकी दृढ लगनशीलता, साहस एवं पागमज्ञान की गम्भीरता उनके कार्य से ही स्वतः परिलक्षित होती है / वे 32 ही आगम अल्प समय में प्रकाशित भी हो गये। इससे पागमपठन बहुत सुलभ व व्यापक हो गया और स्थानकवासी-तेरापंथी समाज तो विशेष उपकृत हुआ। गुरुदेव श्रीजोरावरमलजी महाराज का संकल्प मैं जब प्रातःस्मरणीय गुरुदेव स्वामीजी श्री जोरावरमल जी म० के सान्निध्य में आगमों का अध्ययन-अनुशीलन करता था तब आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित प्राचार्य अभयदेव व शीलांक की टीकाओं से युक्त कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर मैं अध्ययन-वाचन करता था। गुरुदेवश्री ने कई बार अनुभव किया- यद्यपि यह संस्करण काफी श्रमसाध्य व उपयोगी है. अब तक उपलब्ध संस्करणों में प्रायः शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं, मूलपाठों में व वृत्ति में कहीं-कहीं अशुद्धता व अन्तर भी है। सामान्य जन के लिये दुरूह तो हैं ही। चूंकि गुरुदेवश्री स्वयं आगमों के प्रकाण्ड पण्डित थे, उन्हें आगमों के अनेक गूढार्थ गुरु-गम से प्राप्त थे। उनकी मेधा भी व्युत्पन्न व तर्क-प्रवण थी, अतः वे इस कमी को अनुभव करते थे और चाहते थे कि आगमों का शुद्ध, सर्वोपयोगी ऐसा प्रकाशन हो, जिससे सामान्य ज्ञानवाले श्रमण-श्रमणी एवं जिज्ञासुजन लाभ उठा सकें / उनके मन की यह तड़प. कई बार व्यक्त होती थी। पर कुछ परिस्थियों के कारण उनका यह स्वप्न-संकल्प साकार नहीं हो सका, फिर भी मेरे मन में प्रेरणा बनकर अवश्य रह गया। इसी अन्तराल में प्राचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज, श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनधर्मदिवाकर प्राचार्य श्री आत्माराम जी म०, विद्वद्रत्न श्री धासीलालजी म. प्रादि मनीषी मुनिवरों ने प्रागमों की हिन्दी, संस्कृत, गुजराती आदि में सुन्दर विस्तृत टीकायें लिखकर या अपने तत्त्वावधान में लिखवा कर कमी को पूरा करने का महनीय प्रयत्न किया है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आम्नाय के विद्वान् श्रमण परमश्रुतसेवी स्व० मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम-सम्पादन की दिशा में बहुत व्यवस्थित व उच्चकोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। विद्वानों ने उसे बहुत ही सराहा। किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् उस में व्यवधान उत्पन्न हो गया। तदपि आगमज्ञ मुनि श्री जम्बूविजयजी आदि के तत्त्वावधान में आगम-सम्पादन का सुन्दर व उच्चकोटि का कार्य प्राज भी चल रहा है। __वर्तमान में तेरापंथी सम्प्रदाय में आचार्य श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञजी के नेतृत्व में आगम-सम्पादन का कार्य चल रहा है और जो आगम प्रकाशित हुए हैं उन्हें देखकर विद्वानों को प्रसन्नता है / यद्यपि उनके पाठनिर्णय में काफी मतभेद की गुंजाइश है / तथापि उनके श्रम का महत्त्व है। मुनि श्री कन्हैयालाल जी म. “कमल" प्रागमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करके प्रकाशित कराने की दिशा में प्रयत्नशील हैं / उनके द्वारा सम्पादित कुछ आगमों में उनकी कार्यशैली की विशदता एवं मौलिकता स्पष्ट होती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य के वयोवृद्ध विद्वान् पं. श्री बेचरदासजी दोशी ने आगमसम्पादन के क्षेत्र में बहुमूल्य योग प्रदान किया। खेद है कि वे अब हमारे बीच नहीं रहे। विश्रुत-मनीषी श्री दलसुखभाई मालवणिया जैसे चिन्तनशील प्रज्ञापुरुष आगमों के आधुनिक सम्पादन की दिशा में स्वयं भी कार्य कर रहे हैं तथा अनेक विद्वानों का मार्ग-दर्शन कर रहे हैं / यह प्रसन्नता का विषय है / इस सब कार्य-शैली पर विहंगम अवलोकन करने के पश्चात् मेरे मन में एक संकल्प उठा। आज प्रायः सभी विद्वानों की कार्यशैली काफी भिन्नता लिये हुए है / कहीं आगमों का मूल पाठ मात्र प्रकाशित किया जा रहा है तो कहीं आगमों की विशाल व्याख्यायें की जा रही हैं। एक पाठक के लिये दर्बोध है तो दूसरी जटिल / सामान्य पाठक को सरलतापूर्वक प्रागमज्ञान प्राप्त हो सके, एतदर्थ म मार्ग का अनुसरण आवश्यक है। आगमों का एक ऐसा संस्करण होना चाहिये जो सरल हो, सुबोध हो, संक्षिप्त और प्रामाणिक हो / मेरे स्वर्गीय गुरुदेव ऐसा ही आगम-संस्करण चाहते थे। इसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने 5-6 वर्ष पूर्व इस विषय की चर्चा प्रारम्भ की थी, सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. 2036 वैशाख शुक्ला दशमी, भगवान् महावीर कैवल्यदिवस को यह दृढ निश्चय घोषित कर दिया और पागमबत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ भी। इस साहसिक निर्णय में गुरुभ्राता शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलाल जी म. की प्रेरणा/प्रोत्साहन तथा मार्गदर्शन मेरा प्रमुख सम्बल बना है। साथ ही अनेक मुनिवरों तथा सद्गृहस्थों का भक्ति-भाव भरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिनका नामोल्लेख किये बिना मन सन्तुष्ट नहीं होगा। आगम अनुयोग शैली के सम्पादक मुनि श्री कन्हैयालालजी म. “कमल", प्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्द्रमुनिजी म. शास्त्री, आचार्य श्री आत्मारामजी म. के प्रशिष्य भण्डारी श्री पदमचन्दजी म. एवं प्रवचनभूषण श्री अमरमुनिजी, विद्वद्रत्न श्री ज्ञानमुनिजी म.; स्व. विदुषी महासती श्री उज्ज्वलकुवरजी म. की सुशिष्याएं महासती दिव्यप्रभाजी, एम. ए., पी-एच. डी.; महासती मुक्तिप्रभाजी तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म. 'अर्चना', विश्रुत विद्वान् श्री दलसुखभाई मालवणिया, सुख्यात विद्वान् पं. श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल, स्व. पं. श्री हीरालालजी शास्त्री, डा. छगनलालजी शास्त्री एवं श्रीचन्दजी सुराणा "सरस” आदि मनीषियों का सहयोग प्रागमसम्पादन के इस दुरूह कार्य को सरल बना सका है। इन सभी के प्रति मन आदर व कृतज्ञ भावना से अभिभूत है / इसी के साथ सेवा-सहयोग की दृष्टि से सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार एवं महेन्द्र मुनि का साहचर्य-सहयोग, महासती श्री कानकुंवरजी, महासती श्री झणकारकंवरजी का सेवाभाव सदा प्रेरणा देता रहा है। इस प्रसंग पर इस प्रेरणा-स्रोत स्व. श्रावक चिमनसिंहजी लोढ़ा, स्व. श्री पुखराजजो सिसोदिया का स्मरण भी सहजरूप में हो पाता है जिनके अथक प्रेरणा-प्रयत्नों से प्रागमसमिति अपने कार्य में इतनी शीघ्र सफल हो रही है / अल्पकाल में ही पन्द्रह आगम ग्रन्थों का मुद्रण तथा करीब 15-20 अ. 'मों का अनुवादसम्पादन हो जाना हमारे सब सहयोगियों की गहरी लगन का द्योतक है / मुझे सुदृढ़ विश्वास है कि परम श्रद्धय स्वर्गीय स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज आदि तपोपत आत्मानों के शभाशीर्वाद से तथा हमारे श्रमणसंघ के भाग्यशाली नेता राष्ट. प्राचार्य श्री आनन्दऋषिजी म. आदि मुनिजनों के सद्भाव-सहकार के बल पर यह संकल्पित जिनवाणी का सम्पादन-प्रकाशन कार्य शीघ्र ही सम्पन्न होगा। इसी शुभाशा के साथ,. —मुनि मिश्रीमल "मधुकर" (युवाचार्य) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यसमा श्री प्रात्मारामजी महाराज [जीवन और साधना को एक संक्षिप्त झांको] हजारों जीव प्रतिक्षण जन्म लेते हैं और मनुष्य का शरीर धारण करके इस धरातल पर अवतरित होते रहते हैं, परन्तु, सबकी जयन्तियाँ नहीं मनाई जाती / ना ही सबको श्रद्धा और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है / आदर उन्हीं को सम्प्राप्त होता है जो अपने लिये नहीं, समाज के लिये जीते हैं / जन-जीवन के उत्थान, निर्माण एवं कल्याण के लिए जो अपनी समस्त जीवन-शक्तियां समर्पित कर देते हैं / वे स्वयं जहां प्रात्म-कल्याण में जागरूक रहते हैं, वहां वे दूसरों की हित-साधना का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं। ___आचार्य-सम्राट् पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज उन महापुरुषों में से एक थे जिनका जीवन सदा लोकोपकारी जीवन रहा है / जीवन के 78 वर्षों तक वे अहिंसा, संयम और तप के दीप जगाते रहे। इनकी जीवन-सरिता जिधर से गुजर गई वहीं पर एक अद्भुत सुषमा छा गई / आज भी उनकी वाणी तथा साहित्य जन-जीवन के लिये प्रकाश-स्तम्भ का काम दे रही है। जन्मकाल प्राचार्य-सम्राट् पूज्य श्री प्रात्मारामजी महाराज वि. सं. 1936 भादों सुदी द्वादशी को पंजाब-प्रान्तीय राहों के प्रसिद्ध व्यापारी सेठ मंशारामजी चोपड़ा के घर पैदा हुए / माताजी का नाम परमेश्वरी देवी था। सोने जैसे सुन्दर लाल को पाकर माता-पिता फूले नहीं समा रहे थे। पुण्यवान सन्तति भी जन्म-जन्मान्तर के पुण्य से ही प्राप्त हुआ करती है। संकट की घड़ियाँ प्राचार्य श्री का बचपन बड़ा ही संकटमय रहा। असातावेदनीय कर्म के प्रहारों ने इन्हें बुरी तरह से परेशान कर दिया था। दो वर्ष की स्वल्प आयु में आपकी माताजी का स्वर्गवास हो गया। आठ वर्ष की आयु में पिता परलोकवासी हो गए। मात्र एक दादी थी जिसकी देख-रेख में आपका शैशव काल गुजर रहा था। दो वर्षों के अनन्तर उनका भी देहान्त हो गया। इस तरह प्राचार्य देव का बचपन संकटों की भीषणता ने बुरी तरह से आक्रान्त कर लिया था। कर्म बड़े बलवान होते हैं। इनसे कौन बच सकता है ? संयम-साधना की राह पर माता-पिता और दादी के वियोग ने प्राचार्य-देव के मानस को संसार से बिल्कुल उपरत कर दिया था। संसार की अनित्यता साकार हो कर आपके सामने नाचने लगी थी / फलतः आत्म-साधना और प्रभु-भक्ति का महापथ ही आपको सच्चिदानन्ददायी अनुभव हुआ था। अन्त में 11 वर्ष की स्वल्प आयु में आप संवत् 1651 को बनूड में महामहिम गुरुदेव पूज्य श्री स्वामी शालिगरामजी महाराज के चरणों में दीक्षित हो गए। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यसेवा आपका शास्त्र-स्वाध्याय बड़ा ही व्यापक और तलस्पर्शी था। जैन शास्त्रों के महासागर में कौनसा मोती कहां पड़ा है, यह आपके ज्ञान-नेत्रों से ओझल नहीं था / आपके शास्त्रीय वैदुष्य की विलक्षणता के कारण ही जैन समाज ने आप को पंजाब सम्प्रदाय के उपाध्याय पद से विभूषित किया। आपने 60 के लगभग ग्रन्थ लिखे, बड़े-बड़े शास्त्रों का भाषानुवाद किया। 'तत्त्वार्थसूत्र जैनागम-समन्वय' आप की अपूर्व रचना है / जर्मन, फ्रान्स, अमरीका तथा कनाडा के विद्वानों ने भी इस रचना का हार्दिक अभिनन्दन किया था। जैन, बौद्ध और वैदिक शास्त्रो के आप अधिकारी विद्वान् थे। आपकी साहित्य-सेवा जैन-जगत् के साहित्य-गगन पर सूर्य की तरह सदा चमचमाती रहेगी। सहिष्णुता के महासागर वीरता, धीरता तथा सहिष्णुता के आपश्री महासागर थे / भयंकर से भयंकर संकटकाल में भी आपको किसी ने परेशान नहीं देखा। एक बार लधियाना में प्राप की जांघ की गयी, उसके तीन टुकड़े हो गये / लुधियाना के क्रिश्चियन हॉस्पीटल में डा. वर्जन ने आपका आपरेशन किया। ऑपरेशन-काल में आपको बेहोश नहीं किया गया था, तथापि आप इतने शान्त और गम्भीर रहे कि डा. वर्जन दंग रह गये / बरबस उनको जबान से निकला कि ईसा की शान्ति की कहानियाँ सुना करते थे, परन्तु इस महापुरुष के जीवन में उस शान्ति के साक्षात् दर्शन कर रहा हूँ। जीवन के संध्याकाल में आपको कैसर के रोग ने आक्रान्त कर लिया था। तथापि आप सदा शान्त रहते थे। भयंकर वेदना होने पर भी आपके चेहरे पर कभी उदासीनता या व्याकुलता नहीं देखी / लुधियाना जैन बिरादरी के लोग जब डाक्टर को लाए और डाक्टर ने जब पूछा---महाराज, आप को क्या तकलीफ है ? तब आप ने बड़ा सुन्दर उत्तर दिया / आप बोले-डाक्टर साहब ! - मुझे तो कोई तकलीफ नहीं, जो लोग आप को लाए है, उनको अवश्य तकलीफ है। उनका ध्यान करें। महाराजश्री जी की सहिष्णुता देखकर सभी लोग विस्मित हो रहे थे, और कह रहे थे कि कैंसर-जैसे भयंकर रोग के होने पर भी गुरुदेव बिल्कुल शान्त हैं, जैसे कोई बात ही नहीं है। प्रधानाचार्य पद वि. सं. 2003 लुधियाना में प्राप पंजाब के स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्राचार्य बनाए गए और वि. सं. 2006 में सादड़ी में आपको श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रधानाचार्य पद से विभूषित किया गया। सचमुच आप का वैदुष्यपूर्ण व्यक्तित्व यत्र, तत्र और सर्वत्र ही प्रतिष्ठा प्राप्त करता रहा है। क्या जैन, क्या अजैन, सभी आपकी प्राचार तथा विचार सम्बन्धी गरिमा की महिमा को गाते नहीं थकते थे / आज भी लोग जब आपके अगाध शास्त्रीय ज्ञान की चर्चा करते हैं तो श्रद्धा से झूम उठते हैं। सफल प्रवचनकार प्राचार्य-प्रवर अपने युग के एक सफल प्रवक्ता एवं प्रवचनकार रहे हैं। शास्त्रीय तथ्य एवं सत्य ही आपके प्रवचनों का आधार होते थे। उनसे हृदयस्पर्शी ठोस तत्त्व श्रोता को प्राप्त होता था। पं. जवाहरलाल नेहरू, सरदार-पटेल, श्री प्रतापसिंह कैरो, श्री भीमसेन सच्चर प्रभृति राष्ट्र के Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महान् नेताओं ने भी आपके प्रवचनों का लाभ लिया था। सचमुचं पापको वाणो में निराला माधुर्य था, सरलता इतनी कि साधारण पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी उसे अच्छी तरह समझ लेता था। आपके मंगलमय उपदेश आज भी जनजीबन को नवजागरण का सन्देश दे रहे हैं / प्रात्म-शताब्दी वर्ष वि. सं. 2036 आपका जन्म-शताब्दी वर्ष है / यह पावन वर्ष है। ऐतिहासिक है। यह वर्ष विशेषरूप से पूज्य गुरुदेव के चरणों में श्रद्धासुमन समर्पित करने का है / __ स्व. गुरुदेव की जीवन की महान्तम उपलब्थि थी-जैन आगम साहित्य का विद्वानों तथा सर्वसाधारण के लिए उपयोगी संस्करण / यही उनकी हादिक भावना थी कि जैनागमज्ञान का यथार्थ प्रसार हो, जन-जन के हाथों में प्रागमज्ञान की मूल्यवान् मणियां पहुँचे / गुरुदेव श्री की इसी भावना को साकार रूप देने हेतु मैंने प्रज्ञापनासूत्र का अनुवाद-विवेचन करने का दायित्व लिया है। अपने श्रद्धेय गुरुदेव के प्रति यही मेरी श्रद्धाञ्जलि है / --ज्ञान मुनि [17] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय नामकरण 'पण्णवणा' अथवा 'प्रज्ञापना'' जैन आगमसाहित्य का चतुर्थ उपांग है। प्रस्तुत उपांग के संकलयिता श्री श्यामाचार्य ने इसका नाम 'अध्ययन' दिया है, जो इसका सामान्य नाम है, इसका विशिष्ट और प्रचलित नाम 'प्रज्ञापना' है। आचार्यश्री ने स्वयं 'प्रज्ञापना' का परिचय देते हुए कहा है-'चूंकि भगवान् महावीर ने सर्वभावों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा) उपदिष्ट की है; उसी प्रकार मैं भी (प्रज्ञापना) करने वाला हूँ / '3 अतएव इसका विशेष नाम प्रज्ञापना है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' की भांति प्रस्तुत पागम का पूर्ण और सार्थक नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन' हो सकता है। प्रज्ञापना-शब्द का उल्लेख श्रमण भगवान् महावीर द्वारा दी गई देशनाओं का वास्तविक नाम 'पन्नवेति, परूवेति' आदि क्रियाओं के आधार पर 'प्रज्ञापना' या 'प्ररूपणा' है। उन्हीं देशनाओं का प्राधार लेकर प्रस्तुत उपांग की रचना होने से इसका नाम 'प्रज्ञापना' रखा हो, ऐसा ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त इसी उपांग में तथा अन्य अंगशास्त्रों में यत्र-तत्र प्रश्नोत्तरों में, अतिदेश में, तथा संवादों में पण्णसे, पण्णत्तं, पण्णता प्रादि शब्दों का अनेक स्थलों पर प्रयोग हुआ है। भगवतीसूत्र में आर्यस्कन्धक के प्रश्नों का समाधान करते हुए स्वयं भगवान् महावीर ने कहा है-'एवं खलु मए खंधया ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते; इन सब पर से भगवान् महावीर के उपदेशों के लिए 'प्रज्ञापना' शब्द का प्रयोग स्पष्टतः परिलक्षित होता है / 1. नन्दीसूत्र' अंगबाह्यसूची 2, अज्झयणमिणं चित्त-प्रज्ञापना. गा. 3 3. उवदंसिया भगवया पण्णवणा सब्वभावाणं." जह बणियं भगवया अहम वि तह वण्णइस्सामि // -प्रज्ञापना, गाथा 2-3 4. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्र 1 (ख) भगवती. श. 16 उ. 6 5. यथा—'कति गं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ'--प्रज्ञा पना पद 22, सू. 1567 इत्यादि सूत्रों में यत्रतत्र 'पण्णत्ते, पण्णतया पण्णत्ता-पण्णताओ' पद मिलते हैं। 6. भगवतीसूत्र 2 / 1 / 90 [18] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना की महत्ता और विशेषता सम्पूर्ण जैन-प्रागमसाहित्य में जो स्थान पंचम अंगशास्त्र-भगवती-व्याख्याप्रज्ञप्ति का है, वही उपांगशास्त्रों में प्रज्ञापना का है। बल्कि भगवतीसूत्र में यत्र-तत्र अनेक स्थलों में 'जहा पण्णवणाए' कह कर प्रज्ञापनासूत्र के 1, 2, 5, 6, 11, 15, 17, 24, 25, 26, और 27 वें पद से प्रस्तुत विषय की पूर्ति करने हेत सचना दी गई है। यह प्रज्ञापना की विशेषता है। इसके अतिरिक्त प्रज्ञापना उपांग होने पर भी भगवती आदि का सूचन इसमें क्वचित् ही किया गया है। इसका मुख्य कारण यह है कि प्रज्ञापना में जिन विषयों की चर्चा की गई है, उन विषयों का इसमें सांगोपांग वर्णन है। इस पर से प्रज्ञापनासूत्र को गहनता और व्यापक सिद्धान्त-प्ररूपणा स्पष्टतः परिलक्षित होती है।८। इसके अतिरिक्त पंचम अंगशास्त्र व्याख्याप्रज्ञप्ति का 'भगवती' विशेषण है, इसी प्रकार प्रस्तुत उपांगशास्त्र के प्रत्येक पद को समाप्ति पर "पण्णवणाए भगवईए' कह कर प्रज्ञापना के लिए भी 'भगवती' विशेषण प्रयुक्त किया गया है। यह विशेषण' 'प्रज्ञापना' की महत्ता का सूचक है / कहा जाता है कि भगवान महावीर के पश्चात् 23 वें पट्टधर भगवान् आर्यश्याम पूर्वश्रुत में निष्णात थे। उन्होंने प्रज्ञापना की रचना में अपनी विशिष्ट कलाकुशलता प्रदर्शित की, जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की विशेष जानकारी के लिए 'प्रज्ञापना' के अवलोकन का सूचन किया गया है। प्रजापना का अर्थ 'प्रज्ञापना' क्या है ? इसके उत्तर में स्वयं शास्त्रकार ने बताया है११_ 'जीव और अजीव के सम्बन्ध में जो प्ररूपणा है, वह 'प्रज्ञापना' है / ' प्रस्तुत आगम के प्रसिद्ध वृत्तिकार प्राचार्य मलयगिरि के अनुसार 'प्रज्ञापना' शब्द के प्रारम्भ में जो 'प्र' उपसर्ग है, वह भगवान् महावीर के उपदेश की विशेषता सूचित करता है। अर्थात्-... १२जीव, अजीव आदि तत्त्वों का जो सूक्ष्म विश्लेषण सर्वज्ञ भगवान् महावीर ने किया है, उतना सूक्ष्म विश्लेषण उस युग के किन्हीं अन्यतीथिक धर्माचार्यों के उपदेश में उपलब्ध नहीं होता। प्रज्ञापना का प्राधार प्राचार्य मलयगिरि ने इस पागम को समयावांगसूत्र का उपांग' बताया है। उसका कारण यह प्रतीत होता है कि समवायांग में जीव, अजीव आदि तत्त्वों का मुख्यरूप से निरूपण है और 7. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. 2 पृ. 84 8. जैन प्रागम-साहित्य, मनन और मीमांसा पृ. 230-231 9. 'पण्णवणासुत्तं' भा. 2 प्रस्तावना 10. (क) जैन-प्रागमसाहित्य मनन और मीमांसा पृ. 231 (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 72, 47, 385 (ग) सर्वेषामपि प्रावनिकसूरीणां मतानि भगवान् प्रार्यश्याम उपदिष्टवान्-प्रज्ञापना, पृ. 385 11. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) पृ. 1 12. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति पत्रांक 1-2 13. इदं च समवायाख्यस्य चतुर्थांगस्योपांगम् तदुक्तार्थप्रतिपादनात् / -प्रज्ञापना. म. बृत्ति, प. 1 [16] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना में भी जीव, अजीव आदि तत्त्वों से सम्बन्धित वर्णन है / अतः इसे समवायांग का उपांग मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है / प्रज्ञापनासूत्र के संकलयिता श्री श्यामाचार्य ने प्रज्ञापना को दृष्टिवाद का निष्कर्ष 4 बताया है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि दृष्टिवाद के विस्तृत वर्णन में से सारभूत वर्णन प्रज्ञापना में लिया गया है। दृष्टिवाद आज हमारे सामने उपलब्ध नहीं है, किन्तु सम्भव है, दृष्टिवाद में दृष्टिदर्शन से सम्बन्धित वर्णन हो; तथापि इतना तो कहा जा सकता है कि प्रज्ञापना में वर्णित विषयवस्तु का ज्ञानप्रवाद, प्रात्मप्रवाद, कर्मप्रवाद आदि के साथ मेल खाता है / 5 षट्खण्डागम और प्रज्ञापना दोनों का विषय प्रायः मिलता जुलता है / षट्खण्डागम की धवलाटीका में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणीपूर्व के साथ जोड़ा गया है। अतः प्रज्ञापना का सम्बन्ध भी अग्रायणीपूर्व के साथ संगत हो सकता है / विषयवस्तु की गहनता एवं दुरुहता दृष्टिवाद एवं पूर्वो का विषय कितना गहन और दुरूह है, यह जैनागम के अभ्यासी विद्वान् जानते हैं। उन्हीं में से साररूप में उद्धृत करना अथवा भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट सर्वभावों की प्रज्ञापना के सदृश प्रज्ञापना करना कितना कठिन और दुरूह है, यह अनुमान लगाया जा सकता है / इस पर से प्रज्ञापनासूत्र की विषयवस्तु की गहनता एवं दुरूहता का स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है। यद्यपि प्रज्ञापनासूत्र की विषयबद्ध संकलना करने में और उसे छत्तीस पदों में विभक्त करने में श्री श्यामाचार्य ने बहत ही कुशलता का परिचय दिया है। तथापि कहीं-कहीं भंगजाल इतना जटिल है अथवा विषयवस्तु की प्ररूपणा इतनी गढ़ है कि पाठक जरा-सा अनवधान-युक्त रहा कि वह विषयवस्तु के तथ्य-~-सत्य से दूर चला जाएगा, और वस्तुतत्त्व को नहीं पकड़ सकेगा। प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में से कई पद बहुत ही विस्तृत हैं, और कई पद अत्यन्त संक्षिप्त हैं। ये छत्तीस पद एक प्रकार से छत्तीस प्रतिपाद्य विषय के प्रकरण हैं, जिनके लिए प्रत्येक प्रकरण के अन्त में पदशब्द का प्रयोग किया गया है / रचनाशैली प्रस्तुत सम्पूर्ण उपांगशास्त्र की रचना प्रश्नोत्तरशैली में हुई है। प्रारम्भ से 81 वें सूत्र तक प्रश्नकर्ता और उत्तरदाता का कोई परिचय नहीं मिलता / इसके पश्चात् गणधर गौतम और भगवान् महावीर के प्रश्नोत्तररूप में वर्णन किया गया है। कहीं कहीं बीच-बीच में सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। 14. असायणमिणं चित्त सुपरयणं दिट्टिवायणीसंदं। -प्रज्ञापना, गा. 3 15. पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 9 16. षटखण्डागम 1, प्रस्तावना पृ.७२ 17. 'पदं प्रकरणमर्थाधिकारः' इति पर्याया:--प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र 6 [20] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस प्रकार प्रारम्भ में समग्रशास्त्र की अधिकारगाथाएँ दी गई है, उसी प्रकार कितने ही पदों के प्रारम्भ में विषय-संग्रहणी गाथाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं। जैसे 3, 18, 20, एवं 23 वें पद के प्रारम्भ और उपसंहार में गाथाएँ दी गई हैं, इसी प्रकार 10 वें पद के 18 अन्त में और ग्रन्थ के मध्य में, यथावश्यक गाथाएँ दी गई हैं। इसमें प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर कुल 231 गाथाएँ हैं और शेष गद्यपाठ है / प्रज्ञापनासूत्र में जो संग्रहणी गाथाएँ हैं, उनके रचयिता कौन हैं ? इस सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता / प्रस्तुत संपूर्ण प्रागम का श्लोकप्रमाण 7887 है / इसमें कहीं-कहीं सूत्रपाठ बहुत लम्बे-लम्बे हैं, कहीं अतिदेश युक्त अतिसंक्षिप्त हैं। कहींकहीं एक ही विषय की पुनरावृत्ति भी हुई है। प्रायः क्रमबद्ध संकलना है, परन्तु कहीं-कहीं व्युत्क्रम से भी संकलना की गई है। प्रज्ञापना के समग्र पदों का विषय जैन सिद्धान्त से सम्मत है। भगवतीसूत्र में जैसे कई उद्देशकों या प्रकरणों के प्रारम्भ में कहीं-कहीं अन्यतीथिकमत देकर तदनन्तर स्वसिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है, वैसे प्रस्तुत प्रज्ञापनासूत्र में नहीं दिया गया है। इसमें सर्वत्र प्रायः प्रश्नोत्तरशैली में स्वसिद्धान्तविषयक प्रश्न एवं उत्तर अंकित किये गए हैं। प्राचार्यश्री मलयगिरि ने प्रज्ञापना में प्ररूपित विषयों का सम्बन्ध जीव, अजीव प्रादि सात तत्त्वों के निरूपण के साथ इस प्रकार संयोजित किया है१-२ जीव-अजीव = पद 1,3,5,10 और 13 में 3 पासव पद 16 और 22 में 4 बन्ध ___ = पद 23 मे 5-6-7 संवर, निर्जरा और मोक्ष - पद 36 में इन पदों के सिवाय शेष पदों में कहीं-कहीं किसी न किसी तत्त्व का निरूपण है। प्राचार्य मलयगिरि ने जैन दृष्टि से द्रव्य का समावेश प्रथम पद में, क्षेत्र का द्वितीय पद में, काल का चतुर्थ पद में और भाव का शेष पदों में समावेश किया है। इस ग्रन्थ में विषयों का निरूपण पहले लक्षण बना कर नहीं किया गया, अपितु विभाग-उपविभाग द्वारा बताया गया है। अत: यह ग्रन्थ विभाग-प्रधान है / लक्षणप्रधान नहीं / / प्रज्ञापना-उपांग आर्य श्यामाचार्य की संकलना है; परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें अंकित सभी बातें उन्होंने स्वयं विचार करके प्रस्तुत की हैं। उनका प्रयोजन तो श्रुतपरम्परा में से तथ्यों का संग्रह करना और उनको संकलना अमुक प्रकार से करना था। जैसे--प्रथम पद में जीव के जो भेद बताए हैं, उन्हीं भेदों को लेकर द्वितीय स्थान' आदि द्वारों को घटित करके प्रस्तुत नहीं किया बल्कि स्थान आदि द्वारों का जो विचार जिन विविध रूपों में पूर्वाचार्यों द्वारा उनके समक्ष विद्यमान था, उन्होंने उन-उन द्वारों एवं पदों में उन-उन विचारों का संग्रह एवं संकलन किया। इसलिए यह 18. पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 10-11 19. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1 पृ. 446 20. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक 5 21. पाणवणासुत्त भा. 2 प्रस्तावना पृ. 13 [21] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जा सकता है कि भिन्न-भिन्न प्राचार्यों ने भिन्न-भिन्न काल में जो विचार किया, और परम्परा से श्यामाचार्य को जो प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने संगहीत-संकलित किया। इस दृष्टि से विचार करें तो प्रज्ञापना उस काल की विचार-परम्परा का व्यवस्थित संग्रह है। यही कारण है कि जब आगम लिपिबद्ध किये गए, तब उस-उस विषय की समग्र विचारणा के लिए प्रज्ञापनासूत्र का प्रतिदेश किया गया / जैनागमों के मुख्य दो विषय हैं. जीव और कर्म / एक विचारणा जीव को केन्द्र में रखकर उसके अनेक विषयों की--(जैसे कि उसके कितने प्रकार हैं, वे कहाँ-कहाँ रहते हैं ? उनका आयुष्य कितना है ? वे मर कर कहां-कहाँ जाते हैं ? कहाँ-कहाँ से किस गति या योनि में आते हैं ? उनकी इन्द्रियाँ कितनी ? वेद कितने ? ज्ञान कितने ? उनके कर्म कौन-कौन से बंधते हैं ? आदि) की जाती है / दूसरी विचारणा कर्म को केन्द्र में रख कर की जाती है। जैसे कि कर्म कितने प्रकार के हैं ? विविध प्रकार के जीवों के विकास और ह्रास में उनका कितना हिस्सा है ? अादि / 22 प्रज्ञापना में प्रथम प्रकार से विचारणा की गई है। प्रस्तुत सम्पादन स्थानकवासी जैनसमाज जागरूक रह कर आगमों एवं जैनसिद्धान्तों के प्रति पूर्ण श्रद्धाशील रहा है ।समय-समय पर आगमों के गढ़भावों को समझाने के लिए स्थानकवासी समाज के अनेक आगमवेत्ताओं ने अपने युग की भाषा में उनका अनुवाद एवं विवेचन किया है / जिस समय टब्बा युग पाया, उस समय प्राचार्य श्री धसिंहजी ने सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे, जो मूलस्पर्शी एवं शब्दार्थ को स्पष्ट करने वाले हैं। अनुवादयुग में शास्त्रोद्धारक आचार्यश्री अमोलकऋषिजी म. ने बत्तीस आगमों का हिन्दी-अनुवाद किया / पूज्य गुरुदेव श्रमण संघ के प्रथम आचार्य जैनधर्मदिवाकर श्री आत्मारामजी महाराज ने अनेक आगमों का हिन्दी-अनुवाद एवं विस्तृत व्याख्या लिखो। तत्पश्चात् पूज्य थो घासीलालजी महाराज ने संस्कृत में विस्तृत टीका हिन्दी-गुजराती-अनुवादसहित लिखी। और भी अनेक स्थलों से प्रागम-साहित्य प्रकाशित हया। किन्तु जनसाधारण को तथा वर्तमान-तर्कप्रधानयुग की जनता को संतुष्ट कर सके, ऐसे न अतिविस्तृत और न अतिसक्षिप्त संस्करण की मांग निरन्तर बनी रही। अतः प्रागममर्मज्ञ बहश्रत विद्वान श्रमणसंघ के युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' के प्रधानसम्पादन निर्देशन में तथा पं. कन्हैयालालजी म. 'कमल' पं. देवेन्द्रमुनिजी शास्त्री श्री रतन मुनि जी म. एवं पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल जैसे विद्वद्वर्य सम्पादकमण्डल के तत्वावधान में प्रज्ञापनासूत्र का प्रस्तुत अभिनव संस्करण अनुवादित एवं सम्पादित किया गया है। प्रज्ञापनासूत्र के इस संस्करण की यह विशेषता है कि इसमें श्री महावीर जैन विद्यालय, वम्बई से प्रकाशित 'पण्णवणासुत्तं' के शुद्ध मूलपाठ का अनुसरण किया गया है। इससे यह लाभ हुआ कि सूत्र संख्या छत्तीस पदों की क्रमशः दी गई है / प्रत्येक सूत्र में प्रश्न को अलग पंक्ति में रखा गया है, उत्तर अलग पंक्ति में। तथा प्रत्येक प्रकरण के शोर्षक-उपशीर्षक पृथक-पृथक् दिये गए हैं, जिससे 22. पण्णवणासुत्तं भा. 2 प्रस्तावना, पृ. 20-21 [22] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठक को प्रतिपाद्य विषय को ग्रहण करने में आसानी रहे। प्रत्येक परिच्छेद का मूलपाठ देने के पश्चात् सूत्र-संख्या के क्रम से उसका भाववाही अनुवाद दिया गया है। जहाँ कठिन शब्द हैं या मूल में संक्षिप्त शब्द हैं, वहाँ कोष्ठक में उनका सरल अर्थ तथा पूरा भावार्थ भी दिया गया है, ताकि पाठक को पिछले स्थलों को टटोलना न पड़े। शब्दार्थ के पश्चात् विवेच्यस्थलों का विवेचन दिया गया है। विवेचन प्रायः प्राचार्य मलयगिरि रचित वृत्ति को ध्यान में रख कर किया गया है। वृत्ति का पूरा का पूरा अनुसरण नहीं किया गया है / जहाँ वृत्ति में अतिविस्तार है, या प्रासंगिक विषय से हट कर चर्चा की गई है, वहाँ उसे छोड़ दिया गया है। मूल के शब्दार्थ में जो बात स्पष्ट हो गई है या स्पष्ट है, उसका विवेचन में पिष्टपेषण नहीं किया गया है / जहाँ मूलपाठ अतिविस्तृत एवं पुनरुक्त है, वहाँ विवेचन में उसका निष्कर्षमात्र दे दिया गया है। कहीं-कहीं मूलपाठ में उक्त विषयवस्तु को विवेचन में यक्ति-हेतपर्वक सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। विवेचन में प्रतिपादित विषय एवं उद्धत प्रमाणों के सन्दर्भस्थलों का उल्लेख टिप्पण में कर दिया गया है। कहीं-कहीं तत्त्वार्थसूत्र, जीवाभिगम, भगवती, कर्मग्रन्थ आदि तथा बौद्ध एवं वैदिक ग्रन्थों के तुलनात्मक टिप्पण भी दिये गए हैं। प्रत्येक पद के प्रारम्भ में प्राथमिक अर्थ देकर पद में प्रतिपादित समस्त विषयों की समीक्षा की गई है, जिससे पाठक को समग्र पद का हार्द मालम हो सके / पुनरुक्ति से बचने के लिए जहाँ 'जाव' 'जहा' 'एवं' आदि प्रागमिक पाठों के संक्षेपसूचक शब्द हैं, उनका स्पष्टीकरण प्रायः शब्दार्थ में ही दे दिया गया है। कहीं-कहीं मुलपाठ के नीचे टिप्पण में स्पष्टीकरण कर दिया गया है। प्रज्ञापना विशालकाय शास्त्र होने से हमने इसे तीन खण्डों में विभाजित कर दिया है। अन्त में, तीन परिशिष्ट देने का विचार है / एक परिशिष्ट में सन्दर्भ-ग्रन्थों की सूची, दूसरे परिशिष्ट में विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों की सूची पीर तीसरे में स्थलविशेष की सूची होगी। कृतज्ञता-प्रकाश प्रस्तुत सम्पादन में मूलपाठ के निर्धारण एवं प्राथमिक-लेखन में आगम-प्रभाकर स्व. पुण्यविजयजी म., पं. दलसुखभाई मालवणिया एवं पं. अमृतलाल मोहनलाल भोजक द्वारा सम्पादित एण्णवणासुतं भाग 1-2 का उपयोग किया गया है तथा अर्थ एवं विवेचन में प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति एवं प्रमेयबोधिनी टीका का प्रायः अनुसरण किया गया है / इसकी प्रति उपलब्ध कराने में सौजन्यमूर्ति श्री कृष्णचन्द्राचार्यजी (पंचकूला) का सहयोग स्मरणीय रहेगा / एतदर्थ उनके प्रति हम आभारी हैं / इसके अतिरिक्त अनेक आगमों, जैन-बौद्ध ग्रन्थों, पन्नवणासूत्र के थोकड़ों आदि से सहायता ली गई है, उन सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना हमारा कर्तव्य है / हम यहाँ प्रसंगवश श्रमणसंघ के प्रथम प्राचार्य जैनागमरत्नाकर स्व. गुरुदेव पूज्य श्री प्रात्मारामजी महाराज का पुण्यस्मरण किये बिना नहीं रह सकते; जो आजीवन आगमोद्धार के पुनीत कार्य में संलग्न रहे थे और अन्तिम समय में भी उनके आगम-निष्ठापूर्ण हृदयोद्गार थे—'मेरे पीछे भी श्रमणसंघीय आचार्यश्री, युवाचार्यश्री इस भगीरथ श्रुतसेवा को चलाते रहें, यही मेरी परमकृपालु शासनदेव से मंगलमयी हार्दिक प्रार्थना है।" उनके ही द्वारा परिष्कृत भागमोद्धार के पुण्यपथ पर चल कर श्रमणसंघीय युवाचार्य पंडितरत्न मिश्रीमलजी म. सा. के नेतृत्व में हमने प्रज्ञापना जैसे दुरूह एवं गहन पागम के सम्पादन का कार्य हाथ में लिया। इस सम्पादनकार्य में मैं अपने सहयोगीजनों को कैसे विस्मृत कर सकता हूँ? [23] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रागमतत्त्वमनीषी प्रवचनप्रभाकर श्री सुमेरमुनिजी, विद्वद्वर्य पं. रत्न मुनिश्री नेमिचन्द्रजी के प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हैं, जिन्होंने निष्ठापूर्वक इस आगमकार्य के सम्पादन में सहयोग दिया है। प्रागममर्मज पं. शोभाचन्द्रजी भारिल्ल एवं संपादनकलाविशारद साहित्यमहारथी श्री श्रीचन्दजी सुराना की श्रुतसेवानों को कैसे भुलाया जा सकता है ? जिन्होंने इस शास्त्रराज को संशोधित-परिष्कृत करके मुद्रित करने तक का दायित्व सफलतापूर्वक निभाया है। साथ ही, मैं अपने ज्ञात-अज्ञात सहयोगियों का हृदय से कृतज्ञ हूँ, जिन्होंने समय-समय पर योग्य परामर्श देकर मुझे उत्साहित किया है। अपने सम्पादन के विषय में क्या कहूँ ? जैसा भी, जितना भी अच्छा से अच्छा बन सकता था, 'यावबुद्धिबलोदयम्' प्रज्ञापना का सम्पादन करने का मैंने प्रयत्न किया है / मैं दावा तो नहीं करता, सर्वज्ञ महापुरुषों के पुनीत सिद्धान्त-रहस्यों को खोलने का ! मुझ जैसे अल्पज्ञ की भी आखिर एक सीमा है। फिर भी मुझे सात्त्विक सन्तोष अवश्य है कि प्रागमों के सुधी पाठकों को तथा शोधकर्ताओं को इस सम्पादन से अवश्य सन्तोष होगा। -ज्ञान मुनि जैनस्थानक वनूड [24] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानक्रमणिका सूत्र पृष्ठांक amar wm AM 14 6-13 प्रज्ञापनासूत्र-विषयपरिचय मंगलाचरण और शास्त्रसम्बन्धी चार अनुबन्ध प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीस पदों के नाम प्रथम प्रज्ञापनापद-पृष्ठ 1-116 प्रज्ञापनाः स्वरूप और प्रकार अजीवप्रज्ञापना: स्वरूप और प्रकार अरूपी-अजीव-प्रज्ञापना रूपी-जीव-प्रज्ञापना (वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-संठाण) रूपी अजीव की परिभाषा (28) धर्मास्तिकाय आदि की परिभाषा (28) वर्णपरिणत पुद्गलों के भेद तथा उनकी व्याख्या (26-30) जीव-प्रज्ञापनाः स्वरूप और प्रकार 15-17 असंसारसमापन्न जीव-प्रज्ञापना (असंसारसमापन्न जीवों (सिद्ध) के 15 भेद-(३२-३३) संसारसमापन्न जीव-प्रज्ञापना के पांच प्रकार एकेन्द्रिय संसारी जीवों की प्रज्ञापना 20-25 पृथ्वीकायिक जीवों की प्रज्ञापना 26-28 अप्कायिक जीवों की प्रज्ञापना 26-31 तेजस्कायिक जीवों की प्रज्ञापना 32-34 वायुकायिक जीवों की प्रज्ञापना 35-53 वनस्पतिकायिकों की प्रज्ञापना (प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति के 12 भेद--४८-५६) 5.4-55 साधारणशरीर बादर वनस्पतिकाय (अनन्तकाय) का स्वरूप तथा प्रकार (वृक्षादि 12 भेदों को व्याख्या (66) प्रत्येकशरीरी अनेक जीवों का एक शरीराकार कैसे ? दो दृष्टान्त (66) अनन्तजीवों वाली वनस्पति के लक्षण (67) बीज का जीव मूलादि का जीव बन सकता है या नहीं ? (68) साधारणशरीर वादर वनस्पतिकायिक जीवों का लक्षण (ER) mmm Mmm"" 46 [25] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 0 016 0 ur m द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना द्वीन्द्रिय जीवों की जाति एवं योनियां (70) त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना चतुर्विध पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों को प्रज्ञापना नैरयिक जीवों को प्रज्ञापना 61-68 समग्र पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की प्रज्ञापना 3 भेद-जलचर, स्थलचर, खेचर / जलचर के पांच भेद (74) 66-81 थलचर पंचेन्द्रिय के विविध भेद 82-85 प्रासालिक की उत्पत्ति कहाँ ? 86-61 खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक के विविध भेद चर्मपक्षी, लोमपक्षी, समुद्गपक्षी, विततपक्षी समग्र मनुष्य जीवों की प्रज्ञापना सम्मूच्छिम मनुष्य-उत्पत्ति के 14 स्थान गर्भज मनुष्य के तीन प्रकार अन्तर्वीपक मनुष्य के अट्ठाईस भेद अकर्मभूमक मनुष्य के तीस भेद कर्मभूमक मनुष्य : दो भेद----आर्य-म्लेच्छ म्लेच्छ (अनार्य) भेद आर्य के विविध भेद ऋद्धि-प्राप्त आर्य : 6 भेद (अरहंत, चक्रवर्ती आदि) 101 ऋद्धि-अप्राप्त प्रार्य : नौ भेद 102 क्षेत्रार्य : साढे छब्बीम पार्यक्षेत्र 103 जात्यार्य–छह प्रकार 104 कुलार्य-छह प्रकार 105-106 कर्यि----शिल्पार्य : विविध भेद 107 भाषार्य कौन ? लिपि के 18 भेद 108-138 ज्ञानार्य-दर्शनार्य-चारित्रार्य: विविध भेद (विवेचन--अन्तीपक मनुष्य-कहाँ, कैसे ? अकर्मभूमक तथा आर्य जातियां-विवेचन (107) चरित्रार्य : विविध समीक्षाएं (106-111) चतुर्विध देवों की प्रज्ञापना 140 दश प्रकार के भवनवासी देव आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव पांच प्रकार के ज्योतिषक देव WWWWWWWW Ym.xur 90 tee A.A AA E 2 2 4 A. PANA W0.00 mm MGG Gm me ne mom 62-103 103-106 141 112 [26] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ orowww 143-147 वैमानिक देव : दो प्रकार (देवों के विविध स्वरूप : भवन-प्रावास आदि 114) द्वितीय स्थानपद : 117-200 प्राथमिक 117-116 148-150 पृथ्वीकायिकों के स्थान का निरूपण पाठ पृथ्वी-रत्नप्रभा आदि का वर्णन (120) पृथ्वीका यिकों का तीनों लोकों में निवासस्थान कहाँ कहाँ ? (121) 151-153 अप्कायिकों के स्थान का निरूपण 123 सात घनोदधि आदि का वर्णन (123) 154-156 तेजस्कायिकों के स्थान का निरूपण 125 दो ऊर्ध्वकपाट : विवेचन (127) 157-156 वायुकायिकों के स्थान का निरूपण 126 160-162 वनस्पतिकायिकों के स्थानों का निरूपण 163 द्वीन्द्रिय जीवों के स्थानों का निरूपण 164-165 त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थानों का निरूपण 166 पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान की पृच्छा 134 167-174 नैरपिकों के स्थानों की प्ररूपणा रत्नप्रभा आदि सात पृथ्वियों का स्थान, वर्ण, गंध, मोटाई, संख्या आदि का निरूपण (136-145) पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों के स्थान की प्ररूपणा 145 मनुष्यों के स्थानों को प्ररूपणा 146 सर्व भवनवासी देवों के स्थानों की प्ररूपणा 146 178-180 असुरकुमार आदि के भवनावास तथा अन्य वर्णन 146-150 चमरेन्द्र व बलीन्द्र का वर्णन (152) दाक्षिणात्य असुरकुमारों (चमरेन्द्र) का वर्णन (153) उत्तरदिशावासी असुरकुमार बलीन्द्र-वैरोचनेन्द्र का वर्णन (155) 181-183 नागकुमारों का वर्णन 155 दाक्षिणात्य तथा उत्तरदिशावासी नागकुमारों का वर्णन 156 184-187 सुपर्णकुमार देवों के स्थान आदि का वर्णन 158-162 188-164 समस्त वाणव्यन्तर देवों के स्थानों की प्ररूपणा 163-170 165 ज्योतिष्क देवों के स्थानों की प्ररूपणा 170-172 सर्व वैमानिक देवों के स्थानों की प्ररूपणा 167 सौधर्मकल्पगत देवों के स्थान की प्ररूपणा 118 ईशानकल्पवासी देवों के स्थान की प्ररूपणा 176 196-206 सनत्कुमार आदि पारण-अच्युतकल्प-वासी देवों के स्थानों की प्ररूपणा 177-185 176 174 [27] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207-206 ग्रैवेयकवासी देवों के स्थानों की प्ररूपणां 210 अनुत्तरौपपातिक देवों के स्थानों की प्ररूपणा 187 ' कल्पों के अवतंसकों का रेखाचित्र 186 211 सिद्धस्थान का वर्णन 186-197 तृतीय बहुवक्तव्यता (अल्प-बहुत्व) पद : 198-263 प्राथमिक 168-200 212 दिशादि 27 द्वारों के नाम 201 213-224 दिशा की अपेक्षा से जीवों का अल्प-बहुत्व 201-211 225-226 पांच या आठ गतियों की अपेक्षा से जीवों का अल्प-बहुत्व 227-231 इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों का अल्प-बहुत्व 213 232-236 काय की अपेक्षा से सकायिक, अकायिक एवं षट्कायिक जीवों का अल्प-बहुत्व 217 237-251 सूक्ष्म-बादर काय का अल्प-बहत्व 222 252 योगों की अपेक्षा से जीवों का अल्प-बहत्व 240 253 वेदों की अपेक्षा से जीवों का अल्प-बहत्व 241 254 कषायों की अपेक्षा से जीवों का अल्प-बहत्व 242 255 लेश्या की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहुत्व 243 256 तीन दृष्टियों की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहुत्व 244 257-256 ज्ञान और अज्ञान की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहुत्व 244 260 दर्शन की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहुत्व 246 261 संयत आदि की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहत्व 247 262 उपयोगद्वार की दृष्टि से जीवों का अल्प-बहुत्व 247 पाहारक-अनाहारक जीवों का अल्प-बहुत्व 264 भाषा की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहुत्व 265 परित्त आदि की दृष्टि से जीवों का अल्प-बहुत्व 266 पर्याप्ति की अपेक्षा जीवों का अल्प-बहत्व 267 सूक्ष्म आदि की दृष्टि से जीवों का अल्प-बहत्व 268 संज्ञी आदि की दृष्टि से जीवों का अल्प-बहत्व 266 भवसिद्धिकद्वार के माध्यम से जीवों का अल्प-बहुत्व 270-273 अस्तिकायद्वार के माध्यम से षड्द्रव्य का अल्प-बहुत्व 252 274 चरम और अचरम जीवों का अल्प-बहुत्व 257 275 जीवादि का अल्प-बहुत्व 258 276-324 क्षेत्र की अपेक्षा से ऊर्वलोकादिगत विविध जीवों का अल्प-बहत्त्व 256 325 आयुष्यकर्म के बन्धक-प्रबन्धक आदि जीवों का अल्प-बहुत्व 277 326-333 पुद्गलों, द्रव्यों आदि का द्रव्यादि विविध अपेक्षाओं से अल्प-बहुत्व 280 334 विभिन्न विवक्षाओं से सर्व जीवों के अल्प-बहुत्व का निरूपण 286 UdW0.0. [28] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 307 mr r mr m चतुर्थ स्थितिपद : 264-353 / प्राथमिक 264-265 335-342 नैरयिकों की स्थिति की प्ररूपणा 266-300 343 देवों और देवियों की स्थिति की प्ररूपणा 301 345-353 भवनवासियों की स्थिति-प्ररूपणा 302 354-365 एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 366-368 वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 313 द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 314 श्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 315 371 चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 315 372-386 पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 316-325 360-362 मनुष्यों की स्थिति-प्ररूपणा 326 363-364 वाणव्यन्तर देवों की स्थिति-प्ररूपणा 327 315-406 ज्योतिष्क देवों की स्थिति-प्ररूपणा 328 407-437 वैमानिक देवों की स्थिति-प्ररूपणा 335-353 पंचम विशेषपद (पर्यायपद) : 354-436 प्राथमिक 354-358 (पर्याय के अर्थ, अन्य दर्शनों के साथ सैद्धान्तिक तुलना) 438 पर्यायों के प्रकार जीवपर्याय का निरूपण 440 नैरयिकों के अनन्त पर्याय : क्यों और कैसे? 360 (षट्स्थानपतित्व का स्वरूप) असुरकुमार आदि भवनवासी देवों के अनन्त पर्याय 443-447 पांच स्थावरों के अनन्त पर्यायों की प्ररूपणा 367 448-451 विकलेन्द्रिय एवं तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्यायों का निरूपण 371 452 मनुष्यों के अनन्त पर्यायों को सयुक्तिक प्ररूपणा 372 453-454 वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के अनन्त पर्यायों की प्ररूपणा 373 455-463 विभिन्न अपेक्षाओं से जघन्यादियुक्त अवगाहनादि वाले नारकों की प्ररूपणा 464-465 जघन्यादियुक्त अवगाहना वाले असुरकुमारादि भवनपति देवों के पर्याय 466-472 जघन्यादि युक्त अवगाहनादि विशिष्ट एकेन्द्रिय के पर्याय 373-480 जघन्यादि युक्त अवगाहनादि विशिष्ट विकलेन्द्रियों के पर्याय 481-488 जघन्य अवगाहनादि वाले पंचेन्द्रियतिथंचों की विविध अपेक्षाओं से पर्यायप्ररूपणा 362 486-468 जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम अवगाहनादि वाले मनुष्यों की पर्याय-प्ररूपणा 368 466 वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की पर्याय-प्ररूपणा 405. [26] لا MG GUR لل Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 407 अजीव-पर्याय 500-503 ग्रजीवपर्याय के भेद-प्रभेद और पर्यायसंख्या 406 504-524 परमाणुपुद्गल आदि की पर्याय सम्बन्धी वक्तव्यता (परमाणुपुद्गलों में अनन्त पर्यायों की सिद्धि (414) परमाणु चतुःस्पर्शी और षट्स्थानपतित (415) द्विप्रदेशी-यावत् दशंप्रदेशी स्कन्ध तक की हीनाधिकता : अवगाहना की दृष्टि से (415) 525-537 जघन्यादि विशिष्ट अवगाहना एवं स्थिति वाले द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की पर्याय-प्ररूपणा द्विप्रदेशी स्कन्ध में मध्यम अवगाहना नहीं होती (424) 538-553 जघन्यादि युक्त वर्णादियुक्त पुद्गलों को पर्याय-प्ररूपणा 425 554-558 जघन्यादि सामान्य पुद्गल स्कन्धों को विविध अपेक्षानों से पर्याय-प्ररूपणा छठा व्युत्क्रान्तिपद : 440-464 प्राथमिक 440-442 556 व्युत्क्रान्ति पद के आठ द्वार 443 560-568 नरकादि गतियों में उपपात और उद्वर्तना का विरहकाल निरूपण (प्रथमद्वादश द्वार) 444 566-608 नैर थिकों से अनुत्तरौपपातिकों तक के उपपात और उद्वर्तना के विरहकाल की प्ररूपणा (द्वितीय चतुर्विशति द्वार) 446 606-625 नैरयिकों से सिद्धों तक की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तर-निरन्तर निरूपण (तीसरा सान्तर द्वार) 626-638 (चौथा एक समय द्वारः) चौबीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति और उद्वर्तना की संख्या-प्ररूपणा 456 636-665 (पंचम कुतोद्वार) चातुर्गतिक जीवों की पूर्वभवों से उत्पत्ति (आगति) की प्ररूपणा 456 666-676 (छठा उद्वर्तना द्वार) चातुर्गतिक जीवों के उद्वर्तनानन्तर गमन एवं उत्पाद की प्ररूपणा 481 677-683 (सप्तम परभविकायुष्य द्वार) चातुर्गतिक जीवों की पारभविकायुष्य सम्बन्धी प्ररूपणा 488 684-662 (अष्टम आकर्षद्वार) सर्व जीवों के षड्विध आयुष्यबन्ध, उनके आकर्षों की संख्या और अल्प-बहुत्व सप्तम उच्छवासपद : 465-504 प्राथमिक 465 663 नैरयिकों में उच्छवास-निश्वासकाल-निरूपण 466 664 भवनवासी देवों में उच्छ्वास-विरहकाल-प्ररूपणा [30] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 467 467 467 468 505 507 667-668 एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्य पर्यन्त उच्छ्वास-विरहकाल-निरूपण 666 वाणव्यन्तर देवों में उच्छ्वास-विरहकाल-प्ररूपणा 700 ज्योतिष्क देवों में उच्छ्वास-विरहकाल-प्ररूपणा 701-724 वैमानिक देवों में उच्छवास-विरहकाल-प्ररूपणा (प्राणमंति, पाणमंति प्रादि पदों की व्याख्या (503) अष्टम संज्ञापद : 505-512 प्राथमिक 725 संज्ञाओं के दस प्रकार (संज्ञा की शास्त्रीय परिभाषा 507) 726-726 नैरयिकों से वैमानिकों तक (24 दण्डकों में) संज्ञा की सद्भाव-प्ररूपणा 730-731 नारकों में संज्ञाओं का विचार (अल्प-बहुत्व) 732-733 तिर्यचों में संज्ञानों का विचार (अल्प-बहुत्व) 734-735 मनुष्यों में संज्ञाओं का विचार (अल्प-बहुत्व) 736-737 देवों में संज्ञाओं का विचार (अल्प-बहुत्व) नवम योनिपद : 514-525 प्राथमिक शीतादि त्रिविध योनियों की नारकादि में प्ररूपणा 736-752 चौवीस दण्डकों में शीतादि योनियों की प्ररूपणा जीवों में शीतादि योनियों का अल्प-बहुत्व 754-762 नैरयिकादि जीवों में सचित्तादि विविध योनियों की प्ररूपणा 763 सचित्तादि विविधयोनिक जीवों का अल्प-बहत्व कथन 764-772 सर्वजीवों में संवृतादि त्रिविध योनियों की प्ररूपणा 773 मनुष्यों को त्रिविध विशिष्ट योनियां 508 506 510 511 512 514-515 516 520 522-523 524 [31] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसामज्जवायग-विरइयं चउत्थं उवंग पण्णव श्रीमत्-श्यामार्य वाचक-विरचित चतुर्थ उपांग प्रज्ञापनासूल Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमो वीतरागाय श्रीमत्-श्यामार्य-वाचक-विरचित चतुर्थ उपांग पण्णवरणा सुत्तं : प्रज्ञापनासूत्र विषय-परिचय प्रज्ञापना जैन आगम वाङमय का चतुर्थ उपांग एवं अंगबाह्यश्रुत है। इसमें 36 पद हैं / उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--- प्रज्ञापना का प्रथम पद 'प्रज्ञापना' है। इस पद में सर्वप्रथम प्रज्ञापना के दो भेद बतला कर अजीव-प्रज्ञापना का सर्वप्रथम निरूपण किया है, तदनन्तर जीव-प्रज्ञापना का। अजीव-प्रज्ञापना में प्ररूपी अजीव और रूपी अजीव के भेद-प्रभेद बताए हैं। जीव-प्रज्ञापना में जीव के दो भेद संसारी और सिद्ध बताकर सिद्धों के 15 प्रकार और समय की अपेक्षा से भेद बताए हैं / फिर संसारी जीवों के भेद-प्रभेद बताए हैं / इन्द्रियों के क्रम के अनुसार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में सब संसारी जीवों का समावेश करके निरूपण किया है / यहाँ जीव के भेदों का नियामक तत्त्व इन्द्रियों की क्रमश: वृद्धि है। दूसरे स्थानपद में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नैरयिक, तिर्यंच, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और सिद्ध जीवों के वासस्थान का वर्णन किया गया है / जीवों के निवासस्थान दो प्रकार के हैं--(१) जीव जहाँ जन्म लेकर मरणपर्यन्त रहता है, वह स्वस्थान और (2) प्रासंगिक वासस्थान (उपपात और समुद्धात)। ततीय अल्पबहुत्वपद है। इसमें दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, पाहार, भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव, अस्तिकाय, चरम, जीव, क्षेत्र, बन्ध, पुद्गल और महादण्डक, इन 27 द्वारों की अपेक्षा से जीवों के अल्प. बहुत्व का विचार किया गया है। * चतुर्थ स्थितिपद में नैरयिक, भवनवासी, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वि-त्रि-चतुः-पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक जीवों की स्थिति का वर्णन है / पंचम विशेषपद या पर्यायपद में चौबीस दण्डकों के क्रम से प्रथम जीवों के नेरयिक आदि विभिन्न भेद-प्रभेदों को लेकर वैमानिक देवों तक के पर्यायों की विचारणा की गई है / तत्पश्चात् अजोवपर्याय के भेद-प्रभेद तथा अरूपी अजीव एवं रूपी अजीव के भेद-प्रभेदों की अपेक्षा से पर्यायों की संख्या की विचारणा की गई है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र * छठे व्युत्क्रान्तिपद में बारह मुहुर्त और चौबीस मुहूर्त का उपपात और उद्वर्तन (मरण) सम्बन्धी विरहकाल क्या है ? कहाँ जीव सान्तर उत्पन्न होता है, कहाँ निरन्तर ?, एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते और मरते हैं ? , कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ?, मर कर कहाँ जाते हैं ?, परभव की आयु कब बन्धतो है ? , अायुबन्ध सम्बन्धी आठ आकर्ष कौन-से हैं ?, इन पाठ द्वारों से जीव की प्ररूपणा की गई है। सातवें उच्छ्वासपद में नैरयिक आदि के उच्छ्वास ग्रहण करने और छोड़ने के काल का वर्णन है। आठवें संज्ञापद में जीव की आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ इन 10 संज्ञाओं का 24 दण्डकों की अपेक्षा से निरूपण किया गया है। नौवें योनिपद में जीव की शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत, संवृतविवृत, कूर्मोन्नत, शंखावर्त और वंशीपत्र, इन योनियों के आश्रय से समग्र जीवों का विचार किया गया है। दसवें चरम-अचरम पद में-चरम है ?, अचरम है, चरम हैं, अचरम हैं, चरमान्तप्रदेश हैं, अचरमान्त-प्रदेश हैं, इन 6 विकल्पों को लेकर 24 दण्डकों के जीवों का गत्यादि की दृष्टि से तथा विभिन्न द्रव्यों का लोक-अलोक आदि की अपेक्षा से विचार किया गया है / ग्यारहवें भाषापद में भाषासम्बन्धी विचारणा करते हुए बताया है कि भाषा किस प्रकार उत्पन्न होती है ?, कहाँ पर रहती है ? उसकी प्राकृति किस प्रकार की है ? उसका स्वरूप तथा बोलने वाले व्यक्ति आदि प्रश्नों पर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। साथ ही सत्यभाषा, मृषाभाषा, तथा सत्यामुषा और असत्यामषा भाषा के क्रमश: दस, दस, दस और सोलह प्रकार बताए हैं। अन्त में 16 प्रकार के वचनों का उल्लेख किया है / * बारहवें शरीरपद में पांच शरीरों की अपेक्षा से चौबीस दण्डकों में से किसके कितने शरीर हैं ? तथा इन सभी में बद्ध-मुक्त कितने-कितने और कौन-से शरीर होते हैं ? इत्यादि सांगोपांग विवरण प्रस्तुत किया गया है। * तेरहवें परिणामपद में -जीव के गति आदि दस परिणामों और अजीव के बन्धन आदि दस परिणामों पर विचार किया गया है। * चौदहवें कषायपद में क्रोधादि चार कषाय, उनकी प्रतिष्ठा, उत्पत्ति, प्रभेद तथा उनके द्वारा कर्म-प्रकृतियों के चयोपचय एवं बन्ध की प्ररूपणा की गई है। * पन्द्रहवें इन्द्रियपद में दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में पांचों इन्द्रियों को संस्थान, बाहल्य आदि 24 द्वारों के माध्यम से विचारणा की गई है / दूसरे उद्देशक में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तना, निर्वर्तनासमय, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रिय-उपयोग प्रादि तथा इन्द्रियों की अवगाहना, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा आदि 12 द्वारों के माध्यम से चर्चा की गई है। अन्त में इन्द्रियों के भेद-प्रभेद का विचार प्रस्तुत किया गया है / Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ] * सोलहवें प्रयोगपद में सत्यमनःप्रयोग आदि 15 प्रकार के प्रयोगों का चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की अपेक्षा से विचार किया गया है। अन्त में 5 प्रकार के गतिप्रपात के स्वरूप का चिन्तन किया गया है। * सत्रहवें लेश्यापद में छह उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में समकर्म, समवर्ण, समलेश्या, समवेदना, समक्रिया और समयायु नामक अधिकार हैं / दूसरे में कृष्णादि 6 लेश्यामों के आश्रय से जीवों का निरूपण किया गया है। तीसरे उद्देशक में लेश्यासम्बन्धी कतिपय प्रश्नोत्तर हैं / चतुर्थ उद्देशक में परिणाम, वर्ण, रस, गन्ध, शुद्ध, अप्रशस्त, संक्लिष्ट, उष्ण, गति, परिणाम, प्रदेश, अवगाढ़, वर्गणा, स्थान और अल्प-बहुत्व नामक अधिकार हैं। लेश्याओं के वर्ण और स्वाद (रस) का भी वर्णन है। पांचवें में लेश्याओं के परिणाम बताए हैं और छठे उद्देशक में किस जीव के कितनी लेश्याएँ होती हैं ? इसका निरूपण है / अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है। इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी-अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं, इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। स्थितिपद और कायस्थितिपद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो 24 दण्डकवर्ती जीवों की भवस्थिति–एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है, जबकि कायस्थितिपद में जीव मर कर उसी भव में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की कालमर्यादा यानी सब भवों के आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा ?, इसका विचार किया गया है। इसके अतिरिक्त कायस्थितिपद में 'काय' शब्द से निरूपित धर्मास्तिकाय प्रादि का उस-उस रूप में रहने के काल (स्थिति) का भी विचार किया है / अतः इसमें जीव, गति, इन्द्रिय, योग, वेद आदि से लेकर अस्तिकाय और चरम इन द्वारों के माध्यम से विचार प्रस्तुत किया गया है। * उन्नीसवें सम्यक्त्वपद में 24 दण्डकवर्ती जीवों के क्रम से सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि का विचार किया गया है। र बीसवें अन्तक्रियापद में बताया गया है कि कौन-सा जीव अन्तक्रिया (कर्मनाश द्वारा मोक्षप्राप्ति) कर सकता है, और क्यों ? साथ ही अन्तक्रिया शब्द वर्तमान भव का अन्त करके नवीन भवप्राप्ति, (अथवा मृत्यु) के अर्थ में भी यहाँ प्रयुक्त किया गया है। और इस प्रकार को अन्तक्रिया का विचार चौबीस दण्डकवर्ती जीवों से सम्बन्धित किया गया है। कर्मों की अन्तरूप अन्तक्रिया तो एकमात्र मनुष्य ही कर सकते हैं; इसका वर्णन 6 द्वारों के माध्यम से किया गया है। * इक्कीसवें अवगाहना-संस्थान (या शरीर) पद में शरीर के विधि (भेद), संस्थान, प्रमाण, पुद्गलों के चय, शरीरों के पारस्परिक सम्बन्ध, उनके द्रव्य, प्रदेश, द्रव्यप्रदेशों तथा अवगाहना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। * बाईसवें क्रियापद में कायिकी, आधिकरणिकी, प्राषिकी, पारितापनिकी व प्राणातिपातिकी, इन 5 क्रियाओं तथा इनके भेदों की अपेक्षा से समस्त संसारी जीवों का विचार किया गया है। * तेईसवें कर्मप्रकृतिपद में दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ कर्मों में से कौन जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? इसका विचार है। द्वितीय उद्देशक में कर्मों की उत्तरप्रकृतियों और उनके बन्ध का वर्णन है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र * चौबीसवें कर्मबन्ध पद में यह चिन्तन प्रस्तुत किया गया है कि ज्ञानावरणीय प्रादि में से किस कर्म को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? * पच्चीसवें कर्मवेदपद में ज्ञानावरणीयादि कर्मों को बांधते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया गया है। * छन्वीसवें कर्मवेदबन्धपद में यह विचार प्रस्तुत किया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? सत्ताईसवें कर्मवेदपद में--ज्ञानावरणीय प्रादि का वेदन करते हुए जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? इसका विचार किया है / * अट्ठाईसवें आहारपद में दो उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में-सचित्ताहारी आहारार्थी कितने काल तक, किसका आहार करता है ? क्या वह सर्वात्मप्रदेशों द्वारा आहार करता है, या अमुक भाग से आहार करता है ? क्या सर्वपुद्गलों का आहार करता है ? किस रूप में उसका परिणमन होता है ? लोमाहार आदि क्या हैं ?, इसका विचार है। दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि आदि तेरह अधिकार हैं / उनतीसवें उपयोगपद में दो उपयोगों के प्रकार बताकर किस जीव में कितने उपयोग पाए जाते हैं ? इसका वर्णन किया है। * तीसवें पश्यत्तापद में भी पूर्ववत् साकारपश्यत्ता (ज्ञान) और अनाकारपश्यत्ता (दर्शन) ये दो भेद बताकर इनके प्रभेदों की अपेक्षा से जीवों का विचार किया गया है। * इकतीसवें संज्ञीपद में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी की अपेक्षा से जीवों का विचार किया है। * बत्तीसवें संयतपद में संयत, असंयत और संयतासंयत की दृष्टि से जीवों का विचार किया गया है। * तेतीसवें अवधिपद में विषय, संस्थान, अभ्यन्तरावधि, बाह्यावधि, देशावधि, सर्वावधि, वृद्धि-अवधि, प्रतिपाती और अप्रतिपाती, इन द्वारों के माध्यम से विचारणा की गई है / * चौतीसवें प्रविचारणा (या परिचारणा) पद में अनन्तरागत अाहारक, आहारविषयक आभोग अनाभोग, आहाररूप से गृहीत पुद्गलों की अज्ञानता, अध्यवसायकथन, सम्यक्त्वप्राप्ति तथा कायस्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित प्रविचारणा (विषयभोग-परिचारणा) एवं उनके अल्पबहत्व का विचार है। * पैंतीसवें वेदनापद में-शीत, उष्ण, शीतोष्ण, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, शारीरिक, मानसिक, शारीरिक-मानसिक साता, असाता, साता-असाता, दुःखा, सुखा, अदुःखसुखा, आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी, निदा (चित्त की संलग्नता) एवं अनिदा नामक वेदनामों की अपेक्षा से जीवों का विचार किया गया है। * छत्तीसवें समुद्घातपद के वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय, तेजस, आहारक और केवलि समुद्घात की अपेक्षा से जीवों की विचारणा की गई है। इसमें केवलिसमुद्घात का विस्तृत वर्णन है / Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणासुत्तं : प्रज्ञापनासूत्र पढमं पण्णवणापदं प्रथम प्रज्ञापनापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह प्रथम पद है, इसका नाम प्रज्ञापनापद है / * इसमें जैनदर्शनसम्मत जीवतत्त्व और अजीवतत्त्व की प्रज्ञापना--प्रकर्षरूपेण प्ररूपणा-भेद-प्रभेद बता कर की गई है। * जीव-प्रज्ञापना से पूर्व अजीव-प्रज्ञापना इसलिए की गई है कि इसमें जीवतत्त्व की अपेक्षा वक्तव्य अल्प है। अजीवों के निरूपण में रूपी और अरूपी, ये भेद और इनके प्रभेद प्रस्तुत किये गए हैं / रूपी में पुद्गल द्रव्य का और अरूपी में धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्यों का समावेश हो जाता है। तथा 'अद्धासमय' के साथ 'अस्तिकाय' शब्द जुड़ा हुआ न होने पर भी वह एक स्वतन्त्र प्ररूपी अजीव कालद्रव्य का द्योतक तो है ही। प्रस्तुत अरूपी अजीव का प्रतिपादन करने के साथ ही यहाँ धर्मास्तिकायादि तीन को देश और प्रदेश के भेदों में विभक्त किया गया है / तत्पश्चात् रूपी अजीव के स्कन्ध से लेकर परमाणु पुद्गल तक मुख्य 4 भेद बता कर उनके वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के रूप में परिणत होने पर अनेक प्रभेदों का कथन किया है / साथ ही वर्णादि के परस्पर सम्बन्ध से कुल 530 भंग होते हैं, उनका निरूपण भी यहाँ किया गया है / शास्त्रकार का आशय यही हैं कि यों प्रत्येक वर्ण आदि के अनन्त-अनन्त भेद हो सकते हैं / यहाँ मौलिक भेदों का निर्देश करके आगे शास्त्रकार ने इसी शास्त्र के पंचम विशेष पद में अजीव के पर्यायों तथा तेरहवें परिणामपद में परिणामों का विस्तृत वर्णन किया है।' __ जीव-प्रज्ञापना में जीव के दो मुख्य भेदों-सिद्ध और संसारी का असंसारसमापन्न और संसार समापन्न नाम से निर्देश किया है / तत्पश्चात् सिद्धों के 15 प्रकार तथा समय की अपेक्षा से सिद्धों का परस्पर अन्तर बताकर मुक्त होने के बाद आत्मा के परमात्मा में विलीन हो जाने के सिद्धान्त का निराकरण एवं प्रत्येक मुक्तात्मा के पृथक अस्तित्व के सिद्धान्त का मण्डन ध्वनित किया है / इसके पश्चात् एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक प्रत्येक संसारी जीव के भेद-प्रभेदों का निरूपण करके जीव को ईश्वर का अंश न मान कर प्रत्येक जीव का अपने-आप में स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध किया है। अगर ब्रह्म कत्व--(प्रात्मैकत्ववाद) माना जाए तो प्रत्येक जीद का स्वतन्त्र अस्तित्व, शुभाशुभकर्मबन्ध तथा उसके फल की एवं कर्मबन्ध से मुक्ति की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती / यही कारण है कि शास्त्रकार ने पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय से लेकर देवयोनि तक के समस्त संसारी-संसारसमापन्न जीवों का पृथक्-पृथक् कथन किया है / इस पर से यह भी ध्वनित किया है कि चार गतियों और 84 लक्ष योनियों या 24 दण्डकों में जब तक * (क) पण्णवणासुत्तं भा.-१, पृ. 3 से 45 तक (ख) पण्णवणासुत्त भा-२,प्रथम पद की प्रस्तावना, पृ. 29 से 36 तक / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र परिभ्रमण एवं आवागमन है, तब तक संसारसमापन्नता मिट नहीं सकती। किसी देवी-देव या ईश्वर अथवा अवतार (भगवान्) के द्वारा किसी की संसार-समापन्नता मिटाई नहीं जा सकती, वह तो स्वयं को रत्नत्रय-साधना से ही मिटाई जा सकती है। मनुष्य के ज्ञानार्य दर्शनार्य एवं चारित्रार्य-रूप भेद बताकर यह स्पष्ट कर दिया है कि उपशान्तकषायत्व, क्षीणकषायत्व, सक्षमसम्परायत्व. वीतरागत्व तथा केवलित्व अादि से यक्त प्रार्यता प्राप्त करना मनष्य के अपने अधिकार में है, स्वकीय-पुरुषार्थ के द्वारा ही वह उच्चकोटि का आर्यत्व और सिद्धत्व प्राप्त कर सकता है। पंचेन्द्रिय जीवों में नारकों और देवों की प्रज्ञापना तो अन्यत्र विस्तृतरूप में ही है, किन्तु मनुष्यों की प्रज्ञापना अन्यत्र इतनी विस्तृत रूप से नहीं है, अतएव प्रथम पद में मनुष्यों का विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया गया है, जो जैनदर्शन के सिद्धान्त को स्पष्ट करने में उपयोगी है। 0 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णवणासुतं प्रज्ञापना-सूत्र मंगलाचरण और शास्त्रसम्बन्धी चार अनुबन्ध [नमो अरिहंताणं / नमो सिद्धाणं। नमो प्राथरियाणं / नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्यसाहूणं // ] 1. ववगयजर-मरणभए सिद्ध अभिवंदिऊण तिविहेणं / वंदामि जिणरिदं तेलोक्कगुरु महावीरं // 1 // सुयरयणनिहाणं जिणवरेण भवियजणिब्युइकरेण / उवदंसिया भयवया पण्णवणा सवभावाण // 2 // प्रज्झयणमिणं चित्तं सूयरयणं दिदिवायणीसंदं / जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि // 3 // अरिहन्तों को नमस्कार हो, सिद्धों को नमस्कार हो, प्राचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायों को नमस्कार हो, लोक में (विद्यमान) सर्व-साधुनों को नमस्कार हो। 1. गाथाओं का अर्थ- जरा, मृत्यु, और भय से रहित सिद्धों को विविध (मन, वचन और काय से) अभिवन्दन करके त्रैलोक्यगुरु जिनवरेन्द्र श्री भगवान् महावीर को वन्दन करता हूँ॥१॥ भव्यजनों को निवृत्ति (निर्वाण या उसके कारणरूप रत्नत्रय का उपदेश) करने वाले जिनेश्वर भगवान् ने श्रुतरत्ननिधि रूप सर्वभावों को प्रज्ञापना का उपदेश दिया है // 2 // दृष्टिवाद के निःस्यन्द-(निष्कर्ष = निचोड़) रूप विचित्र श्रुतरत्नरूप इस प्रज्ञापना-अध्ययन का श्रीतीर्थंकर भगवान् ने जैसा वर्णन किया है, मैं (श्यामार्य) भी उसी प्रकार वर्णन करूंगा // 3 // विवेचन-मंगलाचरण और शास्त्रसम्बन्धी चार अनुबन्ध-प्रस्तुत सूत्र में तीन गाथाओं द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता श्री श्यामार्यवाचक शास्त्र के प्रारम्भ में विध्नशान्ति हेतु मंगलाचरण तथा प्रस्तुत शास्त्र से सम्बन्धित अनुबन्धचतुष्टय प्रस्तुत करते हैं। मंगलाचरण का औचित्य-यह उपांग समस्त जीव, अजीव आदि पदार्थों की शिक्षा (ज्ञान) देने वाला होने से शास्त्र है और शास्त्र के प्रारम्भ में विचारक को शास्त्र में प्रवृत्त करने तथा विघ्नोपशान्ति के हेतु तीन प्रयोजनों की दृष्टि से तीन मंगलाचरण करने चाहिए। शिष्टजनों का यह प्राचार है कि निर्विघ्नता से शास्त्र के पारगमन के लिए आदिमंगल, ग्रहण किये हुए शास्त्रीय पदार्थ (प्ररूपण) को स्थिर करने के लिये मध्यमंगल तथा शिष्यपरम्परा से शास्त्र की विचारधारा Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [प्रज्ञापनासूत्र को सतत चालू रखने के लिए अन्तिम मंगलाचार करना चाहिए / तदनुसार प्रस्तुत में 'ववगयजरामरणभए०' आदि तीन गाथाओं द्वारा शास्त्रकार ने आदिमंगल, 'कइविहे गं उवप्रोगे पनत्ते?' इत्यादि ज्ञानात्मक सूत्रपाठ द्वारा मध्यमंगल एवं सुही सुहं पत्ता' इत्यादि सिद्धाधिकारात्मक सूत्रपाठ द्वारा अन्तमंगल प्रस्तुत किया है।' अनुबन्ध चतुष्टय-शास्त्र के प्रारम्भ में समस्त भव्यों एवं बुद्धिमानों को शास्त्र में प्रवृत्त करने के उद्देश्य से चार अनुबन्ध अवश्य बताने चाहिए। वे चार अनुबन्ध इस प्रकार हैं-(१) विषय, (2) अधिकारी, (3) सम्बन्ध और (4) प्रयोजन / मंगलाचरणीय गाथात्रय से ही प्रस्तुत शास्त्र के पूर्वोक्त चारों अनुबन्ध ध्वनित होते हैं / अभिधेय विषय-प्रस्तुत शास्त्र का अभिवेय विषय-श्रुतनिधिरूप सर्वभावों की प्रज्ञापनाप्ररूपणा करना है / 'प्रज्ञापना' शब्द का अर्थ ही स्पष्ट रूप से यह प्रकट कर रहा है कि 'जिसके द्वारा जीव, अजीव आदि तत्त्व प्रकर्ष रूप से ज्ञापित किये जाएँ' उसे प्रज्ञापना कहते हैं / यहाँ 'प्रकर्षरूप से' का तात्पर्य है-समस्त कुतीथिकों के प्रवर्तक जैसी प्ररूपणा करने में असमर्थ हैं, ऐसे वस्तुस्वरूप का यथावस्थितरूप से निरूपण करना / ज्ञापित करने का अर्थ है--शिष्य की बुद्धि में प्रारोपित कर देनाजमा देना। अधिकारी-इस शास्त्र के पठन-पाठन का अधिकारी वह है, जो सर्वज्ञवचनों पर श्रद्धा रखता हो, शास्त्रज्ञान में जिसकी रुचि हो, जिसे शास्त्रज्ञान एवं तत्त्वज्ञान के द्वारा अपूर्व आनन्द की अनुभूति हो / ऐसा अधिकारी महाव्रती भी हो सकता है, अणुव्रती भी और सम्यग्दृष्टिसम्पन्न भी। जैसे कि कहा गया है जो मध्यस्थ हो, बुद्धिमान् हो और तत्त्वज्ञानार्थी हो, वह श्रोता (वक्ता) पात्र है। सम्बन्ध-सम्बन्ध प्रस्तुत शास्त्र में दो प्रकार का है-(१) उपायोपेयभाव-सम्बन्ध और (2) गुरुपर्वक्रमरूप-सम्बन्ध / पहला सम्बन्ध तर्क का अनुसरण करने वालों की अपेक्षा से है / वचनरूप से प्राप्त प्रकरण उपाय है और उसका परिज्ञान उपेय है। गुरुपर्वक्रमरूप-सम्बन्ध केवल 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलयगिरिवृत्ति, पत्रांक 2 (ख) प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थं, फलादित्रितयं स्फुटम् / मंगलं चैव शास्त्रादौ, वाच्यमिष्टार्थसिद्धये // 1 // (ग) तं मंगलमाईए मझे पज्जंतए य सत्यस्स। पढमं सत्थत्याविग्धपारगमणाय निद्दिढें // 1 // तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव / अव्वोच्छित्तिनिमित्त सिस्सपसिस्साइवंसस्स // 2 // 2. (क) 'प्रवृत्तिप्रयोजकज्ञानविषयत्वमनुबन्धत्वम्, विषयश्चाधिकारी च सम्बन्धश्च प्रयोजनमिति अनुबन्ध चतुष्टयम्।' (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक. 1-2 3. प्रकर्षण-नि:शेषकुतीथितीर्थकरासाध्येन यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोप्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना / --प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 1 4. मध्यस्थो बुद्धिमानर्थी श्रोता पामिति स्मृतः / --प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 7 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण j [11 श्रद्धानुसारी जनों की अपेक्षा से है, जिसे शास्त्रकार स्वयं आगे बताएँगे। प्रयोजन-प्रस्तुत शास्त्र का प्रयोजन दो प्रकार का है—पर (अनन्तर) प्रयोजन और अपर (परम्पर) प्रयोजन / ये दोनों प्रयोजन भी दो-दो प्रकार के हैं-(१) शास्त्रकर्ता का पर-अपर-प्रयोजन और (2) श्रोता का पर-अपर-प्रयोजन / शास्त्रकर्ता का प्रयोजन-द्रव्यास्तिकनय की दृष्टि से विचार करने पर 'आगम' नित्य होने से उसका कोई कर्ता है ही नहीं। जैसा कि कहा गया है'--'यह द्वादशांगी कभी नहीं थी, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं होगी, ऐसा भी नहीं है। यह ध्रव, नित्य और शाश्वत है इत्यादि / पर्यायाथिक नय की दृष्टि से विचार करने पर पागम अनित्य है, अतएव उसका कर्ता भी अवश्य होता है / वस्तुत: तात्त्विक दृष्टि से विचार करने पर आगम सूत्र, अर्थ और तदुभयरूप है / अतः अर्थ की अपेक्षा से नित्य और सूत्र की अपेक्षा से अनित्य होने से शास्त्र का कर्ता कथंचित् सिद्ध होता है / शास्त्रकर्ता का इस शास्त्रप्ररूपणा से अनन्तर प्रयोजन है-प्राणियों पर अनुग्रह करना और परम्परप्रयोजन है-मोक्षप्राप्ति / कहा भी है--'जो व्यक्ति सर्वज्ञोक्त उपदेश द्वारा दुःखसंतप्त जीवों पर अनुग्रह करता है, वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करता है। कोई कह सकता है कि अर्थरूप पागम के प्रतिपादक अर्हत् (तीर्थकर) भगवान् तो कृतकृत्य हो चुके हैं, उन्हें शास्त्रप्रतिपादन से क्या प्रयोजन है ? बिना प्रयोजन के अर्थरूप पागम का प्रतिपादन करना वृथा है। इस शंका का समाधान यह है कि ऐसी बात नहीं है / तीर्थकर भगवान् तीर्थकरनामकर्म के विपाकोदयवश अर्थागम का प्रतिपादन करते हैं। आवश्यकनियुक्ति में इस विषय में एक प्रश्नोत्तरी द्वारा प्रकाश डाला गया है-(प्र.) 'वह (तीर्थकर नामकर्म) किस प्रकार से वेदन किया (भोगा) जाता है?' (उ.) 'अग्लान माव से धर्मदेशना देने से (उसका वेदन होता है)। श्रोताओं का प्रयोजनश्रोताओं का साक्षात् (अनन्तर) प्रयोजन है-विवक्षित अध्ययन के अर्थ का परिज्ञान होना / अर्थात् पागम श्रवण करते ही उसके अभीष्ट अर्थ का ज्ञान श्रोता को हो जाता है। परम्पराप्रयोजन हैमोक्षप्राप्ति / जब श्रोता विवक्षित अध्ययन का अर्थ समीचीनरूप से जान लेता है, हृदयंगम कर लेता है, तो संसार से उसे विरक्ति हो जाती है / विरक्त होकर भवभ्रमण से छुटकारा पाने हेतु वह मानुसार संयममार्ग में सम्यक प्रवृत्ति करता है / संयम में प्रकर्षरूप से प्रवत्ति और संसार से विरक्ति के कारण श्रोता के समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। कहा भी है-वस्तुस्वरूप के यथार्थ परिज्ञान से संसार से विरक्त जन (मोक्षानुसारी) क्रिया में संलग्न होकर निविघ्नता से परमगति (मोक्ष) प्राप्त कर लेते हैं। कतिपय विशिष्ट शब्दों की व्याख्या-'वक्गय-जरमरणभए' = जो जरा, मरण और भय से सदा के लिए मुक्त हो चुके हैं। यह सिद्धों का विशेषण है / जरा का अर्थ है--वय की हानिरूप बद्धावस्था, मरण का अर्थ प्राणत्याग, और भय का अर्थ है-इहलोकभय, परलोकभय आदि सात प्रकार की भीति / सिद्ध भगवान् इनसे सर्वथा रहित हो चुके हैं। सिद्ध --जिन्होंने सित यानी बद्ध अष्टविध मागम -आव. नियुक्ति 1. नन्दीसूत्र, श्रुतज्ञान-प्रकरण 2. 'तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाए उ'। 3. सम्यग्भावपरिज्ञानाद् विरक्ता भवतो जनाः / क्रियासक्ता हविघ्नेन गच्छन्ति परम गतिम / / Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [ प्रज्ञापनासूत्र कर्मेन्धन को जाज्वल्यमान शुक्लध्यानाग्नि से घ्मात यानी दग्ध (भस्म) कर डाला है, वे सिद्ध हैं। अथवा जो सिद्ध -निष्ठितार्थ (कृतकृत्य) हो चुके हैं, वे सिद्ध हैं। या "षिध्' धातु शास्त्र और मांगल्य अर्थ में होने से इसके दो अर्थ और निकलते हैं--(१) जो शास्ता हो चुके हैं, अथवा (2) मंगलरूपता का अनुभव कर चुके हैं वे सिद्ध हैं। जिणरिदं जो रागादि शत्रुओं को जीतते हैं, वे जिन हैं / वे चार प्रकार के हैं.-श्रुतजिन, अवधिजिन, मनःपर्यायजिन और केवलिजिन / यहाँ केवलिजिन को सूचित करने के लिए 'वर' शब्द प्रयुक्त किया गया है। जिनों में जो वर यानी श्रेष्ठ हो तथा अतीत-अनागत-वर्तमानकाल के समस्त पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले केवलज्ञान से युक्त हो, वह जिनवर कहलाता है। परन्तु ऐसा जिनवर तो सामान्यकेवली भी होता है, अतः तीर्थकरत्वसूचक पद बतलाने के लिए जिनवर के साथ 'इन्द्र' विशेषण लगाया है, जिसका अर्थ होता है-'जिनवरों के इन्द्र'। यहां ऋषभदेव आदि अन्य तीर्थंकरों को वन्दन न करके तीर्थकर महावोर को ही वन्दन किया गया है, इसका कारण है-महावीर वर्तमान जिनशासन (धर्मतीर्थ) के अधिपति होने से प्रसन्न उपकारी हैं / महावीरं-जो महान् वीर हो, वह महावीर है। प्राध्यात्मिक क्षेत्र में वीर का अर्थ है--जो कषायादि शत्रुओं के प्रति वीरत्व =पराक्रम दिखलाता है। महावीर का 'महावीर' यह नाम परीषहों और उपसर्गों को जीतने में महावीर द्वारा प्रकट की गई असाधारण वीरता की अपेक्षा से सुरों और असुरों द्वारा दिया गया है। तेलोक्कगुरु-भगवान् महावीर का यह विशेषण है-तीनों लोकों के गुरु। गुरु उसे कहते हैं, जो यथार्थरूप से प्रवचन के अर्थ का प्रतिपादन करता है। भगवान् महावीर तीनों लोकों के गुरु इसलिए थे कि उन्होंने अधोलोकनिवासी असुरकुमार आदि भवनपति देवों को, मध्यलोकवासी मनुष्यों, पशुओं, विद्याधरों, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेवों को, तथा ऊर्ध्वलोकवासी सौधर्म आदि वैमानिक देवों, इन्द्रों आदि को धर्मोपदेश दिया। भगवान् महावीर के लिए प्रयुक्त 'जिनवरेन्द्र' 'महावीर' और 'त्रैलोक्यगुरु' ये तीनों शब्द क्रमशः उनके ज्ञानातिशय, पूजातिशय, अपायापगमातिशय एवं वचनातिशय को प्रकट करते हैं / जिणवरेणं भगवया सामान्य केवली भी जिन कहलाते हैं किन्तु इसके 'वर' शब्द जोड़ने से सामान्य केवलियों से भी वर-उत्तम तीर्थकर सूचित हो सकते हैं, किन्तु छद्मस्थ-क्षीणमोहजिन की अपेक्षा से सामान्यकेवली भी 'जिनवर' कहला सकते हैं, अतः तीर्थकर अर्थ द्योतित करने हेतु 'भगवया' विशेषण लगाया गया। भगवान महावीर में समग्र ऐश्वर्य (अष्ट महाप्रातिहार्य, त्रैलोक्याधिपतित्व ग्रादि), धर्म, यश, श्री, वैराग्य एवं प्रयत्न ये 6 भगवत्तत्व थे, इसलिए यहाँ 'तीर्थंकर भगवान् महावीर ने' यही अर्थ स्पष्टतः सूचित होता है। सितं-बद्धमष्टप्रकारं कर्मन्धनं, मातं-दग्ध जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यस्ते सिद्धाः। यदि वा 'षिध संराद्धौ'-सिध्यन्तिस्म निष्ठितार्था भवन्तिस्म; यद्वा 'षिध शास्त्रे मांगल्ये च'-सेधन्तेस्म-शासितारोऽभवन, मांगल्यरूपतां वाऽनुभवन्तिस्मेति सिद्धाः / / "ध्मातं सितं येन पुराणकर्म , यो वा गतो निर्वृतिसौधमूनि / ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठितार्थो, यः सोऽस्तु सिद्धः कृतमंगलो मे // -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 2-3 2. अयले भयभेरवाणं खंतिखमे परीसहोवसगाणं / देवेहि कए महावीर' इति / 3. ऐश्वर्यस्थ समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः / वैराग्यस्याथ प्रयत्नस्य षण्णां भग इतीङ्गना। ----प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 3-4 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण] [13 भवियजणणिन्वइकरेणं-इसके दो अर्थ फलित होते हैं तथाविध अनादिपारिणामिकभाव के कारण जो सिद्धिगमनयोग्य हो, वह भव्य कहलाता है। ऐसे भव्यजनों को जो निर्वृति-निर्वाण, शान्ति या निर्वाण के कारणभूत सम्यग्दर्शनादि प्रदान करने वाले हैं। निर्वाण का एक अर्थ हैसमस्त कर्ममल के दूर होने से स्वस्वरूप के लाभ से परम स्वास्थ्य / प्रश्न यह है कि ऐसे निर्वाण के हेतुभूत सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय भी केवल भव्यजनों को ही भगवान् देते हैं, यह तो एक प्रकार का पक्षपात हुआ भव्यों के प्रति / इसका समाधान यह है कि सूर्य सभी को समानभाव से प्रकाश देता है, किन्तु उस प्रकार के योग्य चक्षुष्मान् प्राणी ही उससे लाभ उठा पाते हैं, तामस खगपक्षी (उल्ल आदि) को उसका प्रकाश उपकारक नहीं होता, वैसे ही भगवान् सभी प्राणियोंको समानभाव से उपदेश देते हैं, किन्तु अभव्य जीवों का स्वभाव ही ऐसा है कि वे भगवान् के उपदेश से लाभ नहीं उठा पाते / उवदंसिया-जैसे श्रोताओं को झटपट यथार्थवस्तुतत्त्वबोध समीप से होता है, वैसे ही भगवान् ने स्पष्ट प्रवचनों से श्रोताओं के लिए यह (प्रज्ञापना) श्रवणगोचर कर दी, उपदिष्ट की। पण्णवणा=प्रज्ञापना-जीवादि भाव जिस शब्दसंहति द्वारा प्रज्ञापित-प्ररूपित किये जाते हैं।' प्रज्ञापनासूत्र के छत्तीस पदों के नाम 2. पण्णवणा 1 ठाणाई 2 बहुवत्तन्वं 3 ठिई 4 विसेसा य 5 / वक्कंती 6 उस्सासो 7 सण्णा 8 जोणी यह चरिमाई 10 // 4 // भासा 11 सरीर 12 परिणाम 13 कसाए 14 इंदिए 15 पयोगे य 16 / लेसा 17 काठिई या 18 सम्मत्ते 16 अंतकिरिया य 20 // 5 // प्रोगाहणसंठाणे 21 किरिया 22 कम्मे ति याबरे 23 / कम्मस्स बंधए 24 कम्मवेदए 25 वेदस्स बंधए 26 वेयवेयए 27 // 6 // प्राहारे 28 उवनोगे 26 पासणया 30 सण्णि 31 संजमे 32 चेव / प्रोही 33 पवियारण 34 वेयणा य 35 तत्तो समुग्घाए 36 // 7 // 2. [अर्थाधिकार-संग्रहिणी गाथाओं का अर्थ-] (प्रज्ञापनासूत्र में छत्तीस पद हैं / वे क्रमशः इस प्रकार हैं-) 1. प्रज्ञापना, 2. स्थान, 3. बहुवक्तव्य, 4. स्थिति, 5. विशेष, 6. व्युत्क्रान्ति (उपपात-उद्वर्तनादि), 7. उच्छ्वास, 8. संज्ञा, 6. योनि, 10. चरम // 4 // 11. भाषा, 12. शरीर, 13. परिणाम, 14. कषाय, 15. इन्द्रिय, 16. प्रयोग, 17. लेश्या, 18. कायस्थिति, 16. सम्यक्त्व और 20. अन्तक्रिया // 5 // 21. अवगाहना-संस्थान, 22. क्रिया, 23. कर्म और इसके पश्चात् 24. कर्म का बन्धक, 25. कर्म का वेदक, 26. वेद का बन्धक, 27. वेद-वेदक / / 6 / / 28. आहार, 26. उपयोग, 30. पश्यत्ता, 41. संज्ञी और 32. संयम, 33. अवधि, 34. प्रविचारणा, 35. तथा वेदना, एवं इसके अनन्तर 36. समुद्घात / / 7 / / (इन सबके अंत में 'पद' शब्द जोड़ देना चाहिए।) . 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक 2 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमं पण्णवणापदं प्रथम प्रज्ञापतापद प्रज्ञापना : स्वरूप और प्रकार 3. से किं तं पण्णवणा? पण्णवणा दुविहा पन्नत्ता / तं जहा–जीवपण्णवणा य 1 अजीवण्णवणा य 2 / [३-प्र.] वह (पूर्वोक्त) प्रज्ञापना (का अर्थ) क्या है ? [३-उ.] प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार—जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना। अजीवप्रज्ञापना : स्वरूप और प्रकार 4. से कि तं अजीवपण्णवणा ? अजीवपण्णवणा दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-रूविप्रजीवपण्णवणा य 1 अरूविधजीवपण्णवणा य 2 / [४-प्र.] वह अजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [४-उ.] अजीव-प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-१. रूपी-अजीव. प्रज्ञापना और 2. अरूपी-अजीव-प्रज्ञापना। अरूपी-अजीव प्रज्ञापना 5. से किं तं अरूविग्रजीवपण्णवणा ? अरूवियजीवपण्णवणा दसबिहा पन्नता। तं जहा-धम्मस्थिकाए 1 धम्मस्थिकायस्स देसे 2 धम्मस्थिकायस्स पदेसा 3, अधम्मत्थिकाए 4 अधम्मत्थिकायस्स देसे 5 अधम्मस्थिकायस्स पदेसा 6, आगासस्थिकाए 7 प्रागासस्थिकायस्स देसे 8 प्रागासस्थिकायस्स पदेसा, प्रद्धासमए 10 / से तं प्ररूवियजीवपण्णवणा। [५-प्र.] वह अरूपो-अजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [५-उ.] अरूपी-अजीव-प्रज्ञापना दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-१. धर्मास्तिकाय, 2. धर्मास्तिकाय का देश, 3. धर्मास्तिकाय के प्रदेश, 4. अधर्मास्तिकाय, 4. अधर्मास्तिकाय का देश, 6. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, 7. आकाशास्तिकाय, 8. आकाशास्तिकाय का देश, 9. आकाशास्तिकाय के प्रदेश और 10. अद्धाकाल / यह अरूपी-अजीव-प्रज्ञापना है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [15 रूपी-अजीव-प्रज्ञापना 6. से कि तं रूविग्रजीवपण्णवणा? रूविधजीवपण्णवणा चउब्विहा पण्णत्ता / तं जहा–खंधा 1 खंधदेसा 2 खंधप्पएसा 3 परमाणुपोग्गला 4 / [६-अ.] वह रूपी-अजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [६-उ.] रूपी-अजीव-प्रज्ञापना चार प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-१. स्कन्ध, 2. स्कन्धदेश, 3. स्कन्धप्रदेश और 4. परमाणुपुद्गल। 7. ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा- वण्णपरिणया 1 गंधपरिणया 2 रसपरिणया 3 फासपरिणया 4 संठाणपरिणया 5 / 7. वे (चारों) संक्षेप से पांच प्रकार के कहे गए हैं, यथा-(१) वर्णपरिणत, (2) गन्धपरिणत, (3) रसपरिणत, (4) स्पर्शपरिणत और (5) संस्थानपरिणत / 8. [1] जे वष्णपरिणया ते पंचविहा पण्णता / तं जहा-कालवण्णपरिणया 1 नीलवण्णपरिणया 2 लोहियवण्णपरिणया 3 हालिद्दवण्णपरिणया 4 सुक्किलवण्णपरिणया 5 / [8-1] जो वर्णपरिणत होते हैं, वे पांच प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) काले वर्ण के रूप में परिणत, (2) नीले वर्ण के रूप में परिणत, (3) लाल वर्ण के रूप में परिणत, (4) पीले (हारिद्र) वर्ण के रूप में परिणत, और (5) शुक्ल (श्वेत) वर्ण के रूप में परिणत / [2] जे गंधपरिणता ते दुविहा पन्नत्ता। तं जहा–सुभिगंधपरिणता य 1 दुन्भिगंधपरिणता य२। [8-2] जो गन्धपरिणत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं-(१) सुगन्ध के रूप में परिणत और (2) दुर्गन्ध के रूप में परिणत / [3] जे रसपरिणता ते पंचविहा पन्नत्ता / तं जहा--तित्तरसपरिणता 1 कडयरसपरिणता 2 कसायरसपरिणता 3 अंबिलरसपरिणता 4 महुररसपरिणता 5 / [8-3] जो रसपरिणत होते हैं, वे पांच प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१) तिक्त (तीखे) रस के रूप में परिणत, (2) कटु (कड़वे) रस के रूप में परिणत, (3) कषाय-(कसैले) रस के रूप में परिणत, (4) अम्ल (ख) रस के रूप में परिणत और (5) मधुर (मीठे) रस के रूप परिणत / [4] जे कासपरिणता ते अदविहा पणत्ता। तं जहा-कक्खडफासपरिणता 1 मउयफासपरिणता 2 गरुयफासपरिणता 3 लहुयफासपरिणता 4 सीयफासपरिणता 5 उसिणफासपरिणता 6 निद्धफासपरिणता 7 लुक्खफासपरिणता 8 / [8-4] जो स्पर्शपरिणत होते हैं, वे आठ प्रकार के कहे गए हैं, .यथा-(१) कर्कश (कठोर) स्पर्श के रूप में परिणत, (2) मृदु (कोमल) स्पर्श के रूप में परिणत, (3) गुरु (भारी) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [ प्रज्ञापमासूत्र स्पर्श के रूप में परिणत, (4) लधु (हलके) स्पर्श के रूप में परिणत, (5) शीत (ठंडे) स्पर्श के रूप में परिणत, (6) उष्ण (गर्म) स्पर्श के रूप में परिणत, (7) स्निग्ध (चिकने) स्पर्श के रूप में परिणत, और (8) रूक्ष (रूखे) स्पर्श के रूप में परिणत / [5] जे संठाणपरिणता ते पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा–परिमंडलसंठाणपरिणता 1 वट्ट. संठाणपरिणता 2 तंससंठाणपरिणता 3 चउरंससंठाणपरिणता 4 प्रायतसंठाणपरिणता 5 / 25 / [8-5] जो संस्थानपरिणत होते हैं, वे पांच प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१) परिमण्डल-संस्थान के रूप में परिणत, (2) वृत्त (गोल) चूड़ी के संस्थान के रूप में परिणत, (3) त्र्यस्त्र (तिकोन) संस्थान के रूप में परिणत, (4) चतुरस्र (चोकोन) संस्थान के रूप में परिणत और (5) अायत (लम्बे) संस्थान (आकार) के रूप में परिणत / 25 / 6. [1] जे वण्णमो कालवणपरिणता ते गंधयो सुन्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसनो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासग्रो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता विलयफासपरिणता वि सीयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफास. परिणता वि, संठाणग्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता विप्रायतसंठाणपरिणता वि 20 / [9-1] जो वर्ण से काले वर्ण के रूप में परिणत हैं, उनमें से कोई गन्ध को अपेक्षा से सुरभिगन्ध-परिणत भी होते हैं, दुरभिगन्ध-परिणत भी। रस से कोई तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कोई कटस-परिणत भी, इसी प्रकार कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं। उनमें से कोई स्पर्श से कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, कोई मृदुस्पर्श-परिणत भी एवं गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्ध स्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी / वे संस्थान से (प्राकार से) परिमण्डलसंस्थानपरिणत भी भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, व्यस्र (त्रिकोण) संस्थान-परिणत भी, चतुरस्र (चतुष्कोण) संस्थान-परिणत भी और पायतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 20 / / _ [2] जे वण्णप्रो नीलवण्णपरिणता ते गंधमो सुबिभगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासो काखडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता विलयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता बि, संठाणम्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि बट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता विनायतसंठाणपरिणता वि 20 / [1-2] जो वर्ण से नीले वर्ष में परिणत होते हैं, उनमें से कोई गन्ध की अपेक्षा सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी; रस से तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं / (वे) स्पर्श से कर्कश Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [17 प्रथम प्रज्ञापनापद] स्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं। .. (वे) संस्थान से परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, न्यस्र (त्रिकोण) संस्थान-परिणत भी चतुरस्र (चतुष्कोण) संस्थान-परिणत भी और आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / 20 // [3] जे वण्णनो लोहियवण्णपरिणता ते गंधनो सुब्भिगंधपरिणता वि दुनिभगंधपरिणता वि, रसओ तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणनो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठापरिणता वि तंससंठाणणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्रायतसंठाणपरिणता वि 20 / [6-3] जो वर्ण से रक्तवर्ण-परिणत हैं, उनमें से कोई गन्ध से सुगन्धपरिणत होते हैं, कोई दुर्गन्धपरिणत / (वे) रस से तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी मधुररस-परिणत भी होते हैं / स्पर्श से (वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्शपरिणत भी, उष्णस्पर्शपरिणत भी, स्निग्धस्पर्शपरिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। संस्थान से -परिमण्डल संस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, त्यस्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्त्रसंस्थानपरिणत भी होते हैं और आयतसंस्थान-परिणत भी // 20 // [4] जे वरुणो हालिद्दवण्णपरिणता ते गंधमो सुन्भिगंधपरिणता वि दुनिभगंधपरिणता वि, रसपो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणम्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि पायतसंठाणपरिणता वि 20 / [9-4] जो वर्ण से हारिद्र (पीत) वर्ण-परिणत होते हैं, उनमें से कोई गन्ध से सुगन्ध-परिणत भी होते हैं, कोई दुर्गन्ध-परिणत भी हो सकते हैं। रस से कोई तिक्तरस-परिणत होते हैं, कोई कटुरस-परिणत भी, कोई कषायरस-परिणत भी, कोई अम्लरस-परिणत और मधुररसपरिणत भी होते हैं। स्पर्श से उनमें से कोई कर्कशस्पर्श-परिणत होते हैं, कोई मृदुस्पर्श-परिणत एवं गुरुस्पर्शपरिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्शपरिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। संस्थान से कोई परिमण्डल संस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, यस्रसंस्थान-परिणत, भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी होते हैं और अायतसंस्थान-परिणत भी / / 20 / / [5] जे वण्णो सुक्किलवण्णपरिणता ते गंधग्रो सुन्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अविलरसपरिणता वि महुर रणता वि 20 / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [ प्रज्ञापनासून रसपरिणता वि, फासपो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफास. परिणता बि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणता बि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता बि प्राययसंठाणपरिणता वि 20 / 100 / 1 ! [9-5] जो वर्ण से शुक्लवर्ण-परिणत होते हैं, उनमें से कोई गन्ध की अपेक्षा से सुगन्धपरिणत भी होते हैं कोई दुर्गन्ध-परिणत भी / इसी प्रकार रस से-तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्ल रस-परिणत भी होते हैं और मधुररस-परिणत भी। स्पर्श से-(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं, और रूक्षपर्श-परिणत भी। संस्थान से परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, यस्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी और आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 20-100-1 / / 10. [1] जे गंधप्रो सुब्भिगंधपरिणता ते वण्णतो कालवण्णपरिणता विणीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिवण्णपरिणता वि सुविकलवण्णपरिणता वि, रसनो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहयफासपरिणता वि सीयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणमो परिमंडलसंठाणपरिणता वि बट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्राययसंठाणपरिणता वि 23 / [10-1] जो गन्ध से सुगन्ध-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / वे रस से---तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं / स्पर्श से--(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निधस्पर्श-परिणत भी होते हैं, और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। (वे) संस्थान से–परिमण्डलसंस्थानपरिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, त्र्यस्त्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी होते हैं और प्रायतसंस्थान-परिणत भी / / 23 / / धपरिणया ते वणो कालवण्णपरिणया वि नीलवण्णपरिणया वि लोहियवण्णपरिणया वि हालिद्दवण्णपरिणया वि सुक्किलवष्णपरिणया वि, रसतो तित्तरसपरिणया वि कडयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सोयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणनो परिमंडल Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] 19 संठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्रायतसंठाणपरिणया वि / 23 // 46 // 2 // [10-2] जो गन्ध से-दुर्गन्धपरिणत होते हैं, वे वर्ण से—कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी रक्तवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / रस से(वे) तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं / स्पर्श से-(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी होते हैं, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं / संस्थान से—(वे) परिमण्डल-संस्थानपरिणत होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, व्यत्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत और आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 23-46 / 2 11. [1] जे रसनो तित्तरसपरिणया ते वण्णो कालवण्णपरिणता वि णोलवण्णपरिणता वि लोहियवरुणपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुश्किलवण्णपरिणता वि, गंधयो सुब्भिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि प्राययसंठाणपरिणता वि 20 / [11-1] जो रस से तिक्तरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी होते हैं, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध से (वे) सुगन्ध-परिणत भी और दुर्गन्ध-परिणत भी होते हैं। स्पर्श से-(वे) कर्कशस्पर्शपरिणत होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं, और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। संस्थान सेवे परिमण्डलसंस्थानपरिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, व्यस्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी और अायतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 20 / / [2] जे रसग्रो कडुयरसपरिणता ते वण्णो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधप्रो सुबिभगंधपरिणता विभिगंधपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता वि वसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्रायतसंठाणपरिणता वि 20 / [11-2] जो रस से-कटुरस-परिणत होते हैं, वे वर्ष से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी होते हैं और शुक्लवर्ण-परिणत भी। गन्ध से—(वे) सुगन्धपरिणत होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। स्पर्श से-कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [ प्रज्ञापनासूत्र उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी / संस्थान से(वे) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, त्र्यस्त्र-संस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी एवं प्रायतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 20 // [3] जे रसम्रो कसायरसपरिणता ते वण्णओ कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधप्रो सुब्भिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, फासो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणनो परिमंडलसंठाणपरिणता वि बट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि श्राययसंठाणपरिणता वि 20 / [11-3] जो रस से कषायरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नील वर्ण-परिणत भी होते हैं, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध से-(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं, दुर्गन्धपरिणत भी / स्पर्श से-कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। संस्थान सेपरिमण्डलसंस्थान-परिणत भी हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी त्र्यसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थानपरिणत भी एवं आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं // 20 // [4] जे रसग्रो अंबिलरसपरिणता ते वण्णमो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुविकलवण्णपरिणता वि, गंधश्रो सुब्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणम्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि, चउरंससंठाणपरिणता वि आययसंठाणपरिणता वि 20 / [11-4] जो रस से अम्लरस-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, हारिद्र (पीत) वर्ण-परिणत भी तथा शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / वे गन्ध से सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। स्पर्श से-कर्कशस्पर्श-परिणत होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। संस्थान से(वे) परिमण्डलसंस्थानसंस्थित भी होते हैं, वृत्तसंस्थानसंस्थित भी, त्र्यस्रसंस्थानसंस्थित भी, चतुरत्रसंस्थानसंस्थित भी एवं प्रायतसंस्थानसंस्थित भी होते हैं। [5] जे रसग्रो महुररसपरिणता ते वण्णो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिवणपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुब्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम प्रज्ञापनापद] [21 लहुयफासपरिणता वि सोतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणग्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्राययसंठाणपरिणता वि 20110013 / [11-5] जो रस से मधुररसपरिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी होते हैं, तथा पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध से-(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी / स्पर्श से-(बे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं; मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी हैं, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी तथैव स्निग्धस्पर्श-परिणत भी और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं। संस्थान से-(वे) परिमण्डलसंस्थान-परिणत होते हैं वृत्तसंस्थान-परिणत भी, व्यस्रसंस्थानपरिणत भी, चतुरस्रसंस्थानपरिणत भी और आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / 20 / 100 / 3 / 12. [1] जे फासतो कक्खडफासपरिणता ते वणो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधयो सुब्भिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसग्रो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणम्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि बट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्राययसंठाणपरिणता वि 23 / [12-1] जो स्पर्श से कर्कशस्पर्शपरिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी, और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध से (वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। रस से-(वे) तिक्तरस-परिणत भी होते हैं. कटरस-परिणत भी, काषायरसपरिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मघर रस-परिणत भी होते हैं। स्पर्श (वे) गुरुस्पर्श-परिणत भी होते हैं, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी और उष्णस्पर्श-परिणत भी, एवं स्निग्धस्पर्श-परिणत भी तथा रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं / संस्थान से(a) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, यस्रसंस्थान-परिणत भी और चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी होते हैं, तथा अायतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 23 / / [2] जे फासतो मउयफासपरिणता ते वण्णतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणया वि, गंधओ सुभिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसश्रो तित्तरसपरिणता वि कडयरसपरिणता वि कसायरप्तपरिणता वि अंबिलरस परिणता वि महुररसपरिणता वि, फासनो गरुयफासपरिणया वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणलो परिमंडलसंठाणपरिणया वि बट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरससंठाणपरिणता विप्राययसंठाणपरिणता वि२३ / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [ प्रज्ञापनासून [12-2] जो स्पर्श से मृदु (कोमल)-स्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी एवं शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं। (वे) गन्ध से-सुगन्धपरिणत भी और दुर्गन्धपरिणत भी होते हैं / रस से-(वे) तिक्तरसपरिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, काषायरस-परिणत भी, अम्ल रस-परिणत भी होते हैं और मधुररस-परिणत भी / स्पर्श से—(वे) गुरुस्पर्श-परिणत भी होते हैं, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्शपरिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं / संस्थान से-परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, व्यस्रसंस्थान-परिणत भी और चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी होते हैं, तथा आयतसंस्थान-परिणत भी // 23 // [3] जे फासतो गरुयफासपरिणता ते वण्णतो कालबण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिहवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधनो सुन्भिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसो तित्तरसपरिणता वि कडयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महररसपरिणता वि, फासग्रो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि सोयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्राययसंठाणपरिणया वि 23 / / [12.3] जो स्पर्श से गुरुस्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध से-सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। रस से (वे) तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं / स्पर्श से (वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भो, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी. स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रुक्षस्पर्श-परिणत भी / संस्थान को अपेक्षा से--(वे) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं. वत्तसंस्थान-परिणत. यस्रसंस्थान-परिणत, तथा चतुरस्रसंस्थानपरिणत भी होते हैं और प्रायतसंस्थान-परिणत भी // 23 // [4] जे फासतो लहुयफासपरिणता ते वण्णो कालवण्णपरिणता वि गोलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधरो सुन्भिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसो तित्तरसपरिणता वि कड़यरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणया वि सोयफासपरिणया वि उसिणफासपरिणया वि णिद्धफासपरिणया वि लुक्खफासपरिणया वि, संठाणतो परिमंडलसंठाणपरिणया वि वट्टसंठाणपरिणया वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि प्राययसंठाणपरिणया वि 23 / [12-4] जो स्पर्श की अपेक्षा से---लघु (हलके) स्पर्श से परिणत होते हैं, वे वर्ण की अपेक्षा से--कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं; नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी एवं शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं। गन्ध की अपेक्षा से-(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रजापनापद] [23 दुर्गन्ध-परिणत भी / रस की अपेक्षा से--(वे) तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी कषायरस-परिणत भी, अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं। स्पर्श की अपेक्षा से-- (वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी और स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं, तथा रूक्षस्पर्श-परिणत भी। संस्थान की अपेक्षा से—(वे) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, त्र्यस्रसंस्थान-परिणत भी और चतुरस्त्रसंस्थान-परिणत भी होते हैं तथा आयतसंस्थान-परिणत भी // 23 // [5] जे फासतो सीयफासपरिणता ते वण्णतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुग्भिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसम्रो तितरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहयफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणम्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्रायतसंठाणपरिणता वि 23 / [12-5] जो स्पर्श को अपेक्षा से—-शीतस्पर्शपरिणत होते हैं, वे वर्ण की अपेक्षा सेकृष्णवर्ण-परिणत भी होते है, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भो, पोतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं। गन्ध की अपेक्षा से-(बे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं, और दुर्गन्धपरिणत भी। रस की अपेक्षा से-वे तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरसपरिणत भी और अम्लरस-परिणत भी तथा मधुररस-परिणत भी होते हैं। स्पर्श की अपेक्षा से(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, तथा स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं / संस्थान की अपेक्षा से--- (3) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, यस्रसंस्थान-परिणत भी और चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी तथा आयतसंस्थान-परिणत भी होते हैं / / 23 / / [6] जे फासतो उसिणफासपरिणता ते वण्णतो कालवणपरिणता विनोलवण्णपरिणता वि लोहियवाणपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुन्भिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, रसतो तित्तरसपरिणया वि कडयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिल. रसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि, संठाणतो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरंससंठाणपरिणता वि प्रायतसंठाणपरिणता वि 23 / [12-6] जो स्पर्श से उष्णस्पर्श-परिणत होते हैं, वे वर्ण की अपेक्षा से—कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी और पीतवर्ण-परिणत भी, होते हैं, तथा शुक्लवर्ण-परिणत भी। गन्ध की अपेक्षा से----(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी / रस की अपेक्षा से—(वे) तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [प्रशापनासूत्र तथा अम्लरस-परिणत भी होते हैं और मधुररस-परिणत भी / स्पर्श की अपेक्षा से—(वे) कर्कश. स्पर्श-परिणत भी होते हैं, मदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्शपरिणत भी और लघुस्पर्श-परिणत भी तथा स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी। तथा संस्थान की अपेक्षा से-(वे) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, त्र्यस्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी होते हैं और प्रायतसंस्थान-परिणत भी // 23 // [7] जे फासतो णिद्ध फासपरिणता ते वणतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुम्मिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, रसतो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि, संठाणतो परिमंडलसंठाणपरिणता वि वट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणता वि चउरससंठाणपरिणता वि प्राययसंठाणपरिणता वि 23 / [12-7] जो स्पर्श से स्निग्धस्पर्श-परिणत हैं, वर्ण की अपेक्षा से वे-कृष्णवर्ण-परिणत भी, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्णपरिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध की अपेक्षा से-(वे) सुगन्ध-परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी। रस की अपेक्षा से—(वे) तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भो, काषायरस-परिणत भी एवं अम्लरस-परिणत भी होते हैं और मधुररस-परिणत भी / स्पर्श की अपेक्षा से-वे कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी और उष्णस्पर्श-परिणत भी होते हैं / संस्थान की अपेक्षा से-(बे) परिमण्डलसंस्थान-परिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थान-परिणत भी, व्यस्त्रसंस्थान-परिणत भी, चतुरस्रसंस्थान-परिणत भी और आयातसंस्थान-परिणत भी होते हैं // 23 / / [-] जे फासतो सुक्खफासपरिणता ते वण्णतो कालवण्णपरिणता वि नोलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधप्रो सुब्मिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसमो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहयफासपरिणता बि सोयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि, संठाणग्रो परिमंडलसंठाणपरिणता वि बट्टसंठाणपरिणता वि तंससंठाणपरिणया वि चउरंससंठाणपरिणया वि पाययसंठाणपरिणता वि 23 / 184 / 8 / / 12-8] जो स्पर्श से रूक्षस्पर्शपरिणत होते हैं, वे वर्ण की अपेक्षा से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी और पीतवर्ण-परिणत भी होते हैं तथा शुक्लवर्णपरिणत भी। गन्ध की अपेक्षा से--(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी / रस की अपेक्षा से--वे तिक्तरस-परिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरस-परिणत भी, अम्लरसपरिणत भी और मधुरस-परिणत भी होते हैं / स्पर्श की अपेक्षा से--(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी और लघुस्पर्श-परिणत भी होते हैं तथा शीतस्पर्श-परिणत Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [25 भी होते हैं और उष्णस्पर्शपरिणत भी। संस्थान से-(वे) परिमण्डलसंस्थानपरिणत भी होते हैं, वृत्तसंस्थानपरिणत भी, व्यस्रसंस्थानपरिणत भी होते हैं और चतुरस्रसंस्थानपरिणत भी, तथा आयतसंस्थानपरिणत भी होते हैं / / 23 / 184 / 8 / / 13. [1] जे संठाणतो परिमंडलसंठाणपरिणता ते वाणतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता बि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुब्भिगंधपरिणता वि दुनिभगंधपरिणता वि, रसतो तित्तरसपरिणता वि कडयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सोयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि णिद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि 20 / [13-1] जो संस्थान की अपेक्षा से-परिमण्डलसंस्थानपरिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्ण-परिणत भी होते हैं नीलवर्ण-परिणत भी होते हैं, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीत-वर्णपरिणत भी और शुक्लवर्ण-परिणत भी होते हैं / गन्ध की अपेक्षा से-(वे) सुगन्ध-परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी। रस की अपेक्षा से---तिक्तरसपरिणत भी होते हैं, कटुरसपरिणत भी, कषायरसपरिणत भी, अम्लरसपरिणत भी और मधुररसपरिणत भी होते हैं। स्पर्श की अपेक्षा से--(वे) कर्कशस्पर्श-परिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लधुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्श-परिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी, स्निग्धस्पर्श-परिणत भी और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं / 20 / / [2] जे संठाणो वट्टसंठाणपरिणता ते वण्णो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता बि सुविकलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुभिगंधपरिणता वि दुन्भिगंधपरिणता वि, रसनो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंधिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासप्रो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि गिद्धफास. परिणता वि लुक्खफासपरिणता वि 20 / [13-2] जो संस्थान की अपेक्षा से-वृत्तसंस्थानपरिणत होते हैं, वे वर्ण से-कृष्णवर्णपरिणत भी होते हैं, नीलवर्णपरिणत भी, रक्तवर्णपरिणत भी, पीतवर्णपरिणत भी, और शुक्लवर्णपरिणत भी। गन्ध की अपेक्षा से--(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। (वे) रस की अपेक्षा से-तिक्तरसपरिणत भी होते हैं, कटुरसपरिणत भी, कषायरसपरिणत भी, अम्लरस. परिणत भी और मधुररसपरिणत भी होते हैं। स्पर्श की अपेक्षा से (वे) कर्कश-स्पर्शपरिणत भी होते हैं, मृदु-स्पर्शपरिणत भी, गुरु-स्पर्शपरिणत भी होते हैं, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्शपरिणत भी और उष्णस्पर्श-परिणत भी होते हैं, तथा स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्श-परिणत भी / / 20 // [3] जे संठाणतो तंससंठाणपरिणता ते वष्णतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिहवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणया वि, गंधप्रो सुभिगंधपरिणता वि दुन्मिगंधपरिणता वि, रसनो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 ] [प्रज्ञापनासूत्र अंबिलरसपरिणता वि महररसपरिणता वि, फासओ कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सोयफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि 20 / [13-3] जो संस्थान की अपेक्षा से-न्यत्रसंस्थान-परिणत हैं, वे वर्णत:-कृष्णवर्णपरिणत हैं, नीलवर्णपरिणत भी, रक्तवर्णपरिणत भी, पीववर्णपरिणत भी और शुक्लवर्णपरिणत भी होते हैं। गन्धतः (वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। रसत: (वे) तिक्तरसपरिणत भी होते हैं, कदरसपरिणत भो, कषायरसपरिणत भी, अम्लरसपरिणत भी होते हैं और मधररसपरिणत भी। स्पर्श की अपेक्षा से—(वे) कर्कशस्पर्शपरिणत भी होते है, मृदुस्पर्शपरिणत भी, गुरुस्पर्शपरिणत भी, लघुस्पर्शपरिणत भी, शीतस्पर्शपरिणत भी और उष्णस्पर्शपरिणत भी तथा स्निग्धस्पर्शपरिणत भी होते हैं और रूक्षस्पर्शपरिणत भी // 20 // [4] जे संठाणश्रो चउरंससंवाणपरिणता ते वण्णतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुक्किलवण्णपरिणता वि, गंधमो सुन्भिगंधपरिणता वि दुभिगंधपरिणता वि, रसतो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्ध फासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि 20 / [13-4] जो संस्थान से चतुरस्रसंस्थानपरिणत हैं, वे वर्ग से कृष्णवर्णपरिणत भी होते हैं, नीलवर्णपरिणत भी, रक्तवर्णपरिणत भी, पीतवर्णपरिणत भी और शुक्लवर्णपरिणत भी होते हैं। गन्ध की अपेक्षा से—(वे) सुगन्धपरिणत भी होते हैं और दुर्गन्धपरिणत भी। रस की अपेक्षा से-(वे) तिक्तरसपरिणत भी होते हैं, कटुरसपरिणत भी, कषायरसपरिणत भी, अम्ल रसपरिणत भी होते हैं और मधुररसपरिणत भी। स्पर्श की अपेक्षा से-(वे) कर्कशस्पर्शपरिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्शपरिणत भी, गुरुस्पर्शपरिणत भी, लघुस्पर्शपरिणत भो, शीतस्पर्शपरिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी और स्निग्धस्पर्श-परिणत भी होते हैं, तथा रूक्षस्पर्शपरिणत भी // 20 // [5] जे संठाणतो प्रायतसंठाणपरिणता ते बण्णतो कालवण्णपरिणता वि नीलवण्णपरिणता वि लोहियवण्णपरिणता वि हालिद्दवण्णपरिणता वि सुविकलवण्णपरिणता वि, गंधतो सुभिगंधपरिणता वि दुब्भिगंधपरिणता वि, रसतो तित्तरसपरिणता वि कडुयरसपरिणता वि कसायरसपरिणता वि अंबिलरसपरिणता वि महुररसपरिणता वि, फासतो कक्खडफासपरिणता वि मउयफासपरिणता वि गरुयफासपरिणता वि लहुयफासपरिणता वि सीतफासपरिणता वि उसिणफासपरिणता वि निद्धफासपरिणता वि लुक्खफासपरिणता वि 20110015 / से तं रूवियजीवपण्णवणा। से तं अजीवपण्णवणा। [13-5] जो संस्थान की अपेक्षा से प्रायतसंस्थानपरिणत होते हैं, वे वर्ण से--कृष्णवर्णपरिणत भी होते हैं, नीलवर्ण-परिणत भी, रक्तवर्ण-परिणत भी, पीतवर्ण-परिणत भी और शुक्लवर्णपरिणत भी होते हैं। गन्ध की अपेक्षा से-(वे) सुगन्ध-परिणत भी होते हैं और दुर्गन्ध-परिणत भी। रस की अपेक्षा से—(वे) तिक्तरसपरिणत भी होते हैं, कटुरस-परिणत भी, कषायरसपरिणत भी, Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] अम्लरस-परिणत भी और मधुररस-परिणत भी होते हैं। स्पर्श की अपेक्षा से-(वे) कर्कश-स्पर्शपरिणत भी होते हैं, मृदुस्पर्श-परिणत भी, गुरुस्पर्श-परिणत भी, लघुस्पर्श-परिणत भी, शीतस्पर्शपरिणत भी, उष्णस्पर्श-परिणत भी होते हैं, तथा स्निग्धस्पर्श-परिणत भी और रूक्षस्पर्श-परिणत भी होते हैं // 20 // 100 / 5 / / यह हुई वह (पूर्वोक्त) रूपी-अजीव-प्रज्ञापना। इस प्रकार अजीव-प्रज्ञापना का वर्णन भी पूर्ण हुआ। विवेचन-प्रज्ञापना : दो प्रकार तथा द्विविध अजीब-प्रज्ञापना का निरूपण-प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 3 से 13 तक) में प्रज्ञापना के जीव-अजीव सम्बन्धी मुख्य दो प्रकार, तत्पश्चात् अजीवप्रज्ञापना के अरूपी और रूपी के भेद से दो प्रकार और उनके विविध विकल्पों (भंगों) का निरूपण किया गया है। प्रथम प्रज्ञापनापद : प्रश्नकर्ता कौन, उत्तरदाता कौन? प्रज्ञापनासूत्र के रचयिता श्री श्यामार्य(श्यामाचार्य) वाचक हैं, उन्होंने प्रारम्भ में सामान्यरूप से किसी अनाग्रही, मध्यस्थ, बुद्धिमान् एवं तत्त्वज्ञानार्थी श्रोता या जिज्ञासु की ओर से स्वयं प्रश्न उठाए हैं और आगे अनेक स्थलों या पदों में श्री गौतम गणधर द्वारा प्रश्न उठाए हैं, तथा उत्तर भगवान् महावीर की ओर से प्रस्तुत किये हैं। यद्यपि साक्षात् गौतम गणधर या कोई मध्यस्थ प्रश्नकर्ता तथा भगवान् महावीर जैसे उत्तरदाता यहाँ नहीं है, किन्तु 'प्रत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं' (शास्त्रोक्त अर्थ का कथन अर्हन्त करते हैं और गणधर सूत्ररूप में उसका कुशलतापूर्वक ग्रथन (रचना) करते हैं / ) इस न्याय से परम्परागत शास्त्रप्रतिपादित अर्थ तीर्थंकर भगवान् महावीर और गौतमादि गणधरों से ही आयात है, इसलिए तथा सारा शास्त्रीयज्ञान तीर्थंकरों और गणधरों का है, मैं तो उसकी केवल संकलना करने वाला हूँ, इस प्रकार अपनी नम्रता प्रदर्शित करने के लिए, तीर्थंकर भगवान द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों की प्रश्नोत्तररूप में प्ररूपणा करना युक्तियुक्त ही है / यह शास्त्र कहाँ से उद्धत किया गया है ? इसमें प्रतिपादित अर्थ किन-किन के द्वारा वर्णित है ? यह दूसरी, तीसरी मंगलाचरणगाथा में स्पष्ट कह दिया है। प्रज्ञापना का प्रकारात्मक स्वरूप-प्रज्ञापन। क्या है ? यह प्रश्न या इस प्रकार के शास्त्रीयशैली के प्रश्नों का फलितार्थ यह है कि प्रज्ञापना या अन्य विवक्षित तत्त्वों का प्रकारात्मक स्वरूप क्या है ? प्रज्ञापना का व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ या स्वरूप तो पहले प्रतिपादित किया जा चुका है। वास्तव में जोव और अजीव से सम्बन्धित समस्त पदार्थों या तत्त्वों को शिष्य या तत्त्वजिज्ञासु की बुद्धि में स्थापित कर देना ही प्रज्ञापना का अर्थ या स्वरूप है।' जीवप्रज्ञापना और अजीवप्रज्ञापना-समस्त चेतनाशील एवं उपयोग वाले जीव कहलाते हैं, जिनमें चेतना नहीं होती, उपयोग नहीं होता, वे सब अजीव कहलाते हैं। जीवों की प्रज्ञापना में इन्द्रियों तथा विभिन्न गतियों एवं योनियों की दृष्टि से जीवों का वर्गीकरण करके उनके 1. (क) 'मध्यस्थो बुद्धिमानों, श्रोता पात्रमिति स्मृतः।' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 7 'प्रकर्षेण यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञाप्यन्ते-शिष्यबुद्धावारोष्यन्ते जीवाजीवादयः पदार्था अनयेति प्रज्ञापना।' -प्रज्ञापना, म. वृत्ति, प.१ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [प्रज्ञापनासूत्र भेद-प्रभेद प्रस्तुत किये गए हैं तथा अजीवप्रज्ञापना में अरूपी और रूपी अजीवों के भेद-प्रभेदों का वर्गीकरण तथा विविध वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के एक दूसरे के साथ सम्बन्धित होने से होने वाले विकल्प (भंग) भी प्रस्तुत किये गए हैं / वैसे देखा जाए तो जीव और अजीव इन दोनों के निमित्त से होने वाले विभिन्न तत्त्वों या पदार्थों का ही विश्लेषण समग्र प्रज्ञापनासूत्र में है। जीवप्रज्ञापना और प्रजीवप्रज्ञापना ये दो ही प्रस्तुत शास्त्र के समस्त पदों (अध्ययनों) की मूल आधारभूमि हैं।' रूपी अजीव को परिभाषा-जिनमें रूप हो, वे रूपी कहलाते हैं। यहाँ रूप के ग्रहण से, उपलक्षण से शेष रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान का भी ग्रहण कर लेना चाहिए, क्योंकि रस-गन्धादि के बिना अकेले रूप का अस्तित्व सम्भव नहीं है। प्रत्येक परमाणु रूप, रस, गन्ध और स्पर्श वाला होता है। केवल परमाणु को ही लीजिए, वह भी कारण ही है, कार्य नहीं तथा वह अन्तिम, सूक्ष्म, और द्रव्य रूप से नित्य तथा पर्यायरूप से अनित्य तथा उसमें एक रस, एक गन्ध, एक वर्ण और दो स्पर्श होते हैं / वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष से ज्ञात नहीं होता, केवल स्कन्धरूप कार्य से उसका अनुमान होता है। अथवा रूप का अर्थ है-स्पर्श, रूप आदिमय मति, वह जिनमें हो, वे मनिक या रूपी कहलाते हैं / संसार में जितनी भी रूपादिमान् अजीव वस्तुएँ हैं, वे सब रूपी अजीव में परिगणित हैं। प्ररूपी अजीव की परिभाषा-जिनमें वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श आदि न हों, वे सब अचेतन पदार्थ प्ररूपी अजीव कहलाते हैं / अरूपी अजीव के मुख्य दस भेद होने से उसकी प्रज्ञापना--प्ररूपणा भी दस प्रकार की कही गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों के स्कन्ध, देश और प्रदेश तथा प्रद्धाकाल, यों कुल 10 भेद होते हैं / ___ धर्मास्तिकाय प्रादि की परिभाषा-धर्मास्तिकाय-स्वयं गतिपरिणाम में परिणत जीवों और पुद्गलों की गति में जो निमित्त कारण हो, जीवों-पुद्गलों के गतिरूपस्वभाव का जो धारण-पोषण करता हो, वह धर्म कहलाता है / अस्ति का अर्थ यहाँ प्रदेश है, उन (अस्तियों) का काय अर्थात् संघात (प्रदेशों का समूह) अस्तिकाय है / धर्मरूप अस्तिकाय धर्मास्तिकाय कहलाता है / धर्मास्तिकाय कहने से असंख्यातप्रदेशी धर्मास्तिकाय रूप अवयवी द्रव्य का बोध होता है / अवयवी अवयवों के तथारूपसंघातपरिणाम विशेषरूप होता है, किन्तु अवयवों से पृथक् अर्थान्तर द्रव्य नहीं होता / धर्मास्तिकाय का देश-उसी धर्मास्तिकाय का बुद्धि द्वारा कल्पित दो, तीन आदि प्रदेशात्मक विभाग / धर्मास्तिकाय का प्रदेश-धर्मास्तिकाय का बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश, प्रदेश–जिसका फिर विभाग न हो सके, ऐमा निविभाग विभाग। अधर्मास्तिकाय-धर्मास्तिकाय का प्रतिपक्षभूत अधर्मास्तिकाय है। अर्थात्-स्थितिपरिणाम में परिणत जीवों और पुद्गलों की स्थित में जो सहायक हो, ऐसा अमूर्त, असंख्यातप्रदेशसंघातात्मक द्रव्य अधर्मास्तिकाय है / अधर्मास्तिकाय का देश, प्रदेश-अधर्मास्तिकाय का बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशात्मक आदि खण्ड अधर्मास्तिकायदेश, एवं उसका सबसे सूक्ष्म विभाग, जिसका फिर दूसरा विभाग न हो सके वह अधर्मास्तिकाय-प्रदेश है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात हैं, लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 12 से 45 तक 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 8 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [29 प्रथम प्रज्ञापनापद ] प्राकाशास्तिकाय-जिसमें अवस्थित पदार्थ (पा =मर्यादा से) अपने स्वभाव का परित्याग किये बिना (प्र)काशित स्वरूप से प्रतिभासित होते हैं, वह आकाश है; अथवा जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रकाशित होता (रहता) है, वह आकाश है। अस्तिकाय का अर्थ-प्रदेशों का संघात है। आकाशरूप अस्तिकाय को प्राकाशास्तिकाय कहते हैं। आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेश का अर्थ पूर्ववत् है / यद्यपि लोकाकाश असंख्यातप्रदेशात्मक है, किन्तु अलोकाकाश अनन्त है. इस दृष्टि से प्राकाशास्तिकाय के प्रदेश अनन्त हैं। __ प्रद्धासमय-अद्धा कहते हैं-काल को / अद्धारूप समय अद्धासमय है। अथवा अद्धा (काल) का समय अर्थात निविभाग भाग (अंश) 'अद्धासमय' कहलाता है। परमार्थ दष्टि से वर्तमान काल का एक ही समय 'सत्' होता है; अतीत और अनागत काल के समय नहीं; क्योंकि अतीतकाल के समय नष्ट हो चुके हैं और अनागतकाल के समय अभी उत्पन्न ही नहीं हुए / अतएव काल में देश-प्रदेशों के संघात की कल्पना नहीं हो सकती। असंख्यात समयों के समूहरूप प्रावलिका आदि की कल्पना केवल व्यवहार के लिए की गई है। स्कन्ध प्रादि की व्याख्या स्कन्ध–व्युत्पत्ति के अनुसार स्कन्ध का अर्थ होता है-जो पुद्गल अन्य पुद्गलों के मिलने से पुष्ट होते हैं-बढ़ जाते हैं, तथा विघटन हो जाने हट जाने या पृथक हो जाने से घट जाते हैं, वे स्कन्ध हैं / 'स्कन्ध' शब्द में बहुवचन का प्रयोग पुद्गल-स्कन्धों की अनन्तता बताने के लिए है, क्योंकि प्रागमों में स्कन्ध अनन्त बताए गए हैं / स्कन्धदेश- स्कन्धरूप परिणाम को नहीं त्यागने वाले स्कन्धों के ही बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशी आदि (द्विप्रदेश से लेकर अनन्तप्रदेश तक) विभाग स्कन्धदेश कहलाते हैं। यहाँ भी स्कन्धदेश के लिए बहुवचनान्त प्रयोग तथाविध अनन्तानन्तप्रदेशी स्कन्धों में, अनन्त स्कन्धदेश भी हो सकते हैं, इसे सूचित करने हेतु है / स्कन्ध-प्रदेश-स्कन्धों के बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश को अर्थात्- स्कन्ध में मिले हुए निविभाग अंश (परमाणु) को स्कन्धप्रदेश कहते हैं / परमाणु-पुद्गल-निविभागद्रव्य (जिनके विभाग न हो सके, ऐसे पूदगलद्रव्य) रूप परम अण, परमाणु-पुदगल कहलाते हैं। परमाणु स्कन्ध में मिले हुए नहीं होते, वे स्वतन्त्र पुद्गल होते हैं।' वर्णादिपरिणत स्कन्धादि चार-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुपुद्गल ये चारों रूपी-अजीव संक्षेपतः प्रत्येक पांच-पांच प्रकार के कहे गए हैं / यथा-जो वर्णरूप में परिणत हों वे वर्णपरिणत कहलाते हैं। इसी प्रकार गन्धपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत और संस्थानपरिणत भी समझ लेना चाहिए / 'परिणत' शब्द अतीतकाल का निर्देशक होते हुए भी उपलक्षण से वर्तमान और भविष्यत्काल का भी सचक है, क्योंकि वर्तमान और अनागत के बिना अतातत्व सम्भव नही है। जो वर्तमान अतिक्रमण कर जाता है, वही अतीत होता है, और वर्तमानत्व का वही अनुभव करता है, जो अभी अनागत भी है जो अभी वर्तमानत्व को प्राप्त है, वही प्रतीत होता है, और जो वर्तमानत्व को प्राप्त करेगा, वही अनागत है / इस दृष्टि से वर्णपरिणत का अर्थ है-वर्णरूप में जो परिणत हो चुके हैं, परिणत होते हैं, और परिणत होंगे। इसी प्रकार गन्धपरिणत प्रादि का त्रिकालसूचक अर्थ समझ लेना चाहिए। वर्णपरिणत प्रादि पुद्गलों के भेद तथा उनकी व्याख्या-वर्णपरिणत के 5 प्रकार–वर्णरूप में परिणत, जो पुद्गल हैं, वे 5 प्रकार के हैं-(१) कोई काजल आदि के समान काले होते हैं, वे 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 8-9-10 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रज्ञापनासूत्र कृष्णवर्णपरिणत, (2) कोई नील या मोर की गर्दन आदि के समान नीले रंग के होते हैं, वे नीलवर्णपरिणत, (3) कोई हींगल आदि के समान लाल रंग के होते हैं, वे लोहित (रक्त)वर्णपरिणत, (4) कोई हलदी आदि के समान पीले रंग के होते हैं, वे हारिद्र (पोत)वर्ण-परिणत, (5) शंख आदि के समान कोई पुद्गल श्वेत रंग के होते हैं, वे शुक्लवर्णपरिणत हैं। गन्धपरिणत के दो प्रकार-कोई पुद्गल चन्दनादि अनुकूल सामग्री मिलने से सुगन्ध वाले हो जाते हैं, वे सुगन्धपरिणत और कोई लहसुन आदि के समान सामग्री मिलने से दुर्गन्ध वाले हो जाते हैं, वे दुर्गन्धपरिणत हो जाते हैं / रसपरिणत पुगलों के पांच प्रकार-(१) कोई मिर्च आदि के समान तिक्त (तीखे या चटपटे) रस वाले होते हैं, (2) कोई नीम, चिरायता प्रादि के समान कटुरस वाले होते हैं, (3) कोई हरड आदि के समान कसैले (कषाय) रस वाले होते हैं, (4) कोई इमली आदि के समान खट्टे (अम्ल) रस वाले होते हैं और (5) कोई शक्कर आदि के समान मधुर (मीठे) रस वाले होते हैं / स्पर्शपरिणत पुद्गलों के पाठ प्रकार-(१) कोई पाषाण आदि के समान कठोरस्पर्श वाले, (2) कोई आक की रुई या रेशम के समान कोमल स्पर्श वाले, (3) कोई वज्र या लोह आदि के समान भारी (गुरु स्पर्श वाले) होते हैं, तो (4) कोई पुद्गल सेमल की रुई आदि के समान हलके (लघुस्पर्श वाले) होते हैं / (5) कोई मृणाल, कदलीवृक्ष आदि के समान ठण्डे (शीतस्पर्श वाले) होते हैं, तो कोई (6) अग्नि आदि के समान गर्म (उष्णस्पर्श वाले) होते हैं / (7) कोई घी आदि के समान चिकने (स्निग्धस्पर्श वाले) होते हैं तो (8) कोई राख आदि के समान रूखे (रूक्षस्पर्श वाले) होते हैं। संस्थानपरिणत के पांच प्रकार--(१) कोई पुदगल वलय (कड़ा-चूड़ी) आदि के समान परिमण्डलसंस्थान (आकार) के होते हैं, जैसे-०। (2) कोई चाक, थाली आदि के समान वृत्त (गोल) संस्थान वाले होते हैं, यथा कोई सिंघाड़े के समान तिकोने (व्यस्र) आकार के होते हैं, यथा-A | (4) कोई कुम्भिका आदि के समान चौकोर आकार के (चतुरस्रसंस्थान के) होते हैं, यथा--। और कोई पुद्गल दण्ड आदि के समान अायत संस्थान के होते हैं, यथा-- वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध से समुत्पन्न भंगजाल—अब शास्त्रकार पूर्वोक्त वर्णादि से युक्त स्कन्धादिचतुष्टय के पारस्परिक सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाले भंगजाल की प्ररूपणा करते हैं / अर्थात् - प्रत्येक वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान से परिणत स्कन्धादि लों के साथ जब अन्य वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों की अपेक्षा से यथायोग्य सम्बन्ध होता है तब जो भंग (विकल्प) होते हैं, उन्हीं का निरूपण यहाँ किया गया है। (1) जो पांच वर्षों में से किसी भी एक वर्ण के रूप में परिणत है, वे ही यदि दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श एवं पांच संस्थानों में से किसी एक के स्वरूप में परिणत हों तो पांचों वों के 20+ 20+20+20+20 = 100 भंग हो जाते हैं। (2) दो गन्धों में प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल, यदि पांच वर्ण, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थानों की अपेक्षा से परिणत हों तो उन दोनों गन्धों के 23+23= 46 भंग हो जाते हैं। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [ 31 . (3) पांच रसों में से प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल, यदि पांच वर्ण, दो गन्ध, पाठ स्पर्श और पांच संस्थानों के रूप से परिणत हों तो उन पांचों के 20+20+20+20+20 - 100 भंग हो जाते हैं। (4) आठ स्पर्शों में से प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल यदि पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, छह स्पर्श (प्रतिपक्षी और स्व स्पर्श को छोड़कर) तथा पांच संस्थानों के रूप से परिणत हों, तो उनके 23+231 23+23+23+23+23+23 = 184 भंग हो जाते हैं / (5) पांच संस्थानों में से प्रत्येक के रूप में परिणत पुद्गल, यदि पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस तथा आठ स्पर्शों के रूप से परिणत हों तो उनके 20+20+20+20+20 = 100 भंग होते हैं / इस प्रकार वर्णादि पांचों के पारस्परिक सम्बन्ध की अपेक्षा से 100+46 +100+184 +100 = कुल 530 भंग (विकल्प) निष्पन्न होते हैं। इसे स्पष्ट रूप से समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए—मान लो, कुछ स्कन्धरूप पुद्गल काले वर्ण वाले हैं, यानी कृष्णवर्ण के रूप में परिणत हैं, उनमें से गन्ध की अपेक्षा से कोई सुगन्धवाले होते हैं, कोई दुर्गन्ध वाले भी होते हैं / रस की अपेक्षा से-वे तिक्त रस वाले भी हो सकते हैं, कटुरस वाले भी, कषायरस वाले भी, अम्लरस वाले भी और मधुररस वाले भी होने संभव हैं / स्पर्श को दृष्टि से सोचें तो वे कर्कश आदि आठों ही स्पर्शों में से कोई न कोई किसी न किसी स्पर्श के हो सकते हैं / संस्थान की अपेक्षा से विचार किया जाए तो वे कृष्णवर्ण-परिणत पुद्गल परिमण्डल भी होते हैं, वृत्त भी, त्रिकोण भी, चतुष्कोण भी और आयत आकार के भी होते हैं / इस प्रकार एक कृष्णवर्णीय पुद्गल के साथ प्रत्येक गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से 20 भंग हो जाते हैं। इसी तरह पूर्वोक्त सभी भंगों का विचार कर लेना चाहिए। विकल्पों की संख्या स्थल दृष्टि से, सूक्ष्मदष्टि से नहीं-यद्यपि बादरस्कन्धों में पांचों वर्ण, दोनों गन्ध, पांचों रस पाए जाते हैं, अतएव अधिकृत वर्ण आदि के सिवाय शेष वर्ण आदि से भी भंग (विकल्प) हो सकते हैं, तथापि उन्हीं बादर स्कन्धों में जो व्यावहारिक दृष्टि से केवल कृष्णवर्णादि से युक्त बीच के स्कन्ध हैं, जैसे-देहस्कन्ध में ही एक नेत्रस्कन्ध काला है, तदन्तर्गत ही कोई लाल है, दूसरा अन्तर्गत ही शुक्ल है, उन्हीं की यहाँ विवक्षा की गई है। उनमें दूसरे वर्णादि संभव नहीं हैं। स्पर्श की प्ररूपणा में, प्रतिपक्षी स्पर्श को छोड़कर किसी एक स्पर्श के साथ अन्य स्पर्श भी देखे जाते हैं। अतएव यहां जो भंगों की संख्या बताई गई है, वह युक्तियुक्त है। किन्तु यह विकल्पसंख्या स्थलदृष्टि से ही समझनी चाहिए / सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाए तो तरतमता की अपेक्षा से इनमें से प्रत्येक के अनन्तअनन्त भेद होने के कारण अनन्त विकल्प हो सकते हैं। __ वर्णादि परिणामों का अवस्थान जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक रहता है।' जीवप्रज्ञापना : स्वरूप और प्रकार 14. से कि तं जीवपण्णवणा? जीवषण्णवण्णा दुविहा पण्णता। तं जहा-संसारसमावण्णजीवपण्णवणा य 1 असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा य 2 / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 10, 17-18 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] [प्रज्ञापनासूत्र [14 प्र] वह (पूर्वोक्त) जीवप्रज्ञापना क्या है ? [14 उ.] जीवप्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-(१) संसारसमापन्न (संसारी) जीवों की प्रज्ञापना और (2) असंसार-समापन्न (मुक्त) जीवों की प्रज्ञापना। विवेचन - जीवप्रज्ञापना : स्वरूप और प्रकार-प्रस्तुत सूत्र 14 से जीवों की प्रज्ञापना प्रारम्भ होती है, जो सू. 147 में पूर्ण होती है। इस सूत्र में जीव-प्रज्ञापना का उपक्रम और उसके दो प्रकार बताए गए हैं / __ जीव की परिभाषा--जो जीते हैं, प्राणों को धारण करते हैं, वे जीव कहलाते हैं। प्राण दो प्रकार के हैं--द्रव्यप्राण और भावप्राण / द्रव्यप्राण 10 हैं-पांच इन्द्रियां, तीन बल-मन-वचन-काय, श्वासोच्छ्वास और आयुष्यबल प्राण / भावप्राण चार हैं-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य / संसारसमापन्न समस्त जीव यथायोग्य भावप्राणों से तथा द्रव्यप्राणों से युक्त होते हैं। जो प्रसंसारसमापन्नसिद्ध होते हैं, वे केवल भावप्राणों से युक्त हैं।' संसारसमापन्न और प्रसंसारसमापन्न को व्याख्या-संसार का अर्थ है ससार-परिभ्रमण, जो कि नारक-तिर्यञ्च-मनुष्य-देवभवानुभवरूप है, उक्त संसार को जो प्राप्त हैं, वे जीव संसारसमापन्न हैं, अर्थात्--संसारवर्ती जीव हैं / जो संसार-भवभ्रमण से रहित हैं, वे जीव असंसारसमापन्न हैं / 2 असंसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना : स्वरूप और भेद-प्रभेद 15. से कि तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–अणंतरसिद्ध असंसारसमावण्णजीव. पण्णवणा य 1 परंपरसिद्धप्रसंसारसमावष्णजीवपण्णवणा य 2? [15 प्र.] वह (पूर्वोक्त) असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [15 उ.] असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-१अनन्तरसिद्ध-प्रसंसार-समापन्नजीव-प्रज्ञापना और २-परम्परासिद्ध-असंसार-समापन्नजीव-प्रज्ञापना / 16. से कि तं अणंतरसिद्धप्रसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? अणंतरसिद्धप्रसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पन्नरसविहा पन्नत्ता। तं जहा-तित्थसिद्धा 1 अतित्थसिद्धा 2 तित्थगरसिद्धा 3 प्रतित्थगरसिद्धा 4 सयंबुद्धसिद्धा 5 पत्तेयबुद्धसिद्धा 6 बुद्ध बोहियसिद्धा 7 इत्थोलिंगसिद्धा 8 पुरिसलिंगसिद्धा नपुंसकलिंगसिद्धा 10 सलिगसिद्धा 11 प्रणलिंगसिद्धा 12 गिहिलिंगसिद्धा 13 एगसिद्धा 14 प्रणेगसिद्धा 15 / से तं प्रणंतरसिद्धप्रसंसारसमावण्णजोवपण्णवणा। [16 प्र.] वह अनन्तरसिद्ध-असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [16 उ.] अनन्तर-सिद्ध-असंसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना पन्द्रह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है--(१) तीर्थसिद्ध, (2) अतीर्थसिद्ध, (3) तीर्थकरसिद्ध, (4) अतीर्थंकरसिद्ध, (5) स्वयं 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 7 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 18 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] बुद्धसिद्ध, (6) प्रत्येकबुद्धसिद्ध, (7) बुद्धबोधितसिद्ध, (8) स्त्रीलिंगसिद्ध, (9) पुरुषलिंगसिद्ध, (10) नपुंसकलिंगसिद्ध, (11) स्वलिंगसिद्ध, (12) अन्यलिंगसिद्ध, (13) गृहस्थलिंगसिद्ध, (14) एकसिद्ध और (15) अनेकसिद्ध / यह है---अनन्तरसिद्ध-प्रसंसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा)। 17. से कि तं परंपरसिद्धप्रसंसारसमावष्णजीवपण्णवणा ? परंपरसिद्धप्रसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-अपढमसमयसिद्धा दुसमय सिद्धा तिसमयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाच संखेज्जसमयसिद्धा असंखेजसमयसिद्धा प्रणंतसमयसिद्धा / से तं परंपरसिद्धअसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / से तं असंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / [17 प्र.] वह (पूर्वोक्त) परम्परासिद्ध-असंसारसमापन्न-जीव-प्रज्ञापना क्या है ? [17 उ.] परम्परासिद्ध-असंसारसमापन्न-जीव-प्रज्ञापना अनेक प्रकार को कही गई है। वह इस प्रकार है-अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतु:समयसिद्ध, यावत्-संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यात समयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध / यह हुई-परम्परासिद्ध-प्रसंसारसमापन्न-जोवप्रज्ञापना। इस प्रकार वह (पूर्वोक्त) असंसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना (प्ररूपणा) पूर्ण हुई / विवेचन-प्रसंसार-समापन-जीवप्रज्ञापना : स्वरूप और भेद-प्रभेद-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 15 से 17 तक) में असंसार-समापन्नजीवों को प्रज्ञापना का प्रकारात्मक स्वरूप तथा उसके भेदप्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। असंसारसमापन्नजीवों का स्वरूप-प्रसंसार का अर्थ है--जहाँ जन्ममरणरूप चातुर्गतिक संसारपरिभ्रमण न हो, अर्थात्-मोक्ष / उस मोक्ष को प्राप्त, समस्त कर्मों से मुक्त, सिद्धिप्राप्त जीव असंसारसमापन्न जीव कहलाते हैं।' अनन्तरसिद्ध-प्रसंसारसमापन्नजोव-जिन मक्त जीवों के सिद्ध होने में अन्तर अर्थात समय का व्यवधान न हो, वे अनन्तरसिद्ध होते हैं, अर्थात्-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान / जिन जीवों को सिद्ध हुए प्रथम ही समय हो, वे अनन्तरसिद्ध हैं। अनन्तरसिद्ध-असंसारसमापन्न जीवों के 15 भेदों की व्याख्या--(१) तीर्थसिद्ध-जिसके आश्रय से संसार-सागर को तिरा जाए-पार किया जाय, उसे तीर्थ कहते हैं। ऐसा तीर्थ वह प्रवचन है, जो समस्त जीव-अजीव ग्रादि पदार्थों का यथार्थरूप से प्ररूपक है और परमगुरु-सर्वज्ञ द्वारा प्रणीत (प्रतिपादित) है / वह तीर्थ निराधार नहीं होता / अतः चतुर्विध संघ अथवा प्रथम गणधर को भी तीर्थ समझना चाहिए। प्रागम में कहा है-.२ (प्र.) भगवन् ! तीर्थ को तीर्थ कहते हैं या तीर्थकर को तीर्थ कहते हैं ? (उ.) गौतम ! अरिहन्त भगवान् (नियम से) तीर्थंकर होते हैं; तीर्थ तो चात्वर्ण्य श्रमणसंघ (साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविक रूप) अथवा प्रथम गणधर है।' इस प्रकार के तीर्थ की स्थापना होने पर जो जीव सिद्ध होते हैं, वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 15 2. (प्र.) तित्यं भंते ! तित्थं, तित्यकरे तित्यं ? (उ.) गोयमा ! अरिहा ताव (नियमा) तित्थकरे, तित्थं पुण चाउवण्णो समणसंघो पढमगणहरो वा / ' Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [प्रज्ञापन सूत्र (2) प्रतीर्थसिद्ध-तीर्थ का अभाव अतीर्थ कहलाता है। तीर्थ का अभाव दो प्रकार से होता है-या तो तीर्थ की स्थापना ही न हुई हो, अथवा स्थापना होने के पश्चात् कालान्तर में उसका विच्छेद हो गया हो / ऐसे अतीर्थकाल में जिन्होंने सिद्धि प्राप्त की हो, वे प्रतीर्थसिद्ध कहलाते हैं / तीर्थ की स्थापना के अभाव में (पूर्व ही) मरुदेवी आदि सिद्ध हुई हैं। मरुदेवी आदि के सिद्धिगमनकाल में तीर्थ की स्थापना नहीं हुई थी। तथा सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थं का विच्छेद हो गया था। उस समय जातिस्मरणादि ज्ञान से मोक्षमार्ग उपलब्ध करके जो सिद्ध हुए वे तीर्थव्यवच्छेद-सिद्ध कहलाए / ये दोनों ही प्रकार के सिद्ध तीर्थसिद्ध हैं। (3) तीर्थकरसिद्ध--जो तीर्थकर होकर सिद्ध होते हैं, वे तीर्थंकरसिद्ध कहलाते हैं। जैसेइस अवसर्पिणीकाल में ऋषभदेव से लेकर श्री वर्द्धमान स्वामी तक चौबीस तीर्थकर, तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए। (4) प्रतीर्थकरसिद्ध-जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध कहलाते हैं। (5) स्वयंबुद्धसिद्ध-जो परोपदेश के बिना, स्वयं ही सम्बुद्ध हो (संसारस्वरूप समझ) कर सिद्ध होते हैं। (6) प्रत्येकबुद्धसिद्ध----जो प्रत्येकबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं / यद्यपि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही सिद्ध होते हैं, तथापि इन दोनों में अन्तर यह है कि स्वयम्बुद्ध बाह्यनिमित्तों के बिना ही, अपने जातिस्मरणादि ज्ञान से ही सम्बुद्ध हो जाते (बोध प्राप्त कर लेते) हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वे कहलाते हैं, जो वृषभ, वृक्ष, बादल आदि किसी भी बाह्य निमित्त कारण से प्रबुद्ध होते हैं / सुना जाता है कि करकण्डू आदि को वृषभादि बाह्यनिमित्त की प्रेक्षा से बोधि प्राप्त हुई थी। ये प्रत्येकबुद्ध बोधि प्राप्त करके नियमत: एकाकी (प्रत्येक) ही विचरते हैं, गच्छ (गण)वासी साधुओं की तरह समूहबद्ध हो कर नहीं विचरण करते / नन्दी-अध्ययन की चणि में कहा है-स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं तीर्थंकर और तीर्थकरभिन्न / तीर्थंकर तो तीर्थंकरसिद्ध की कोटि में सम्मिलित हैं। अतएव यहाँ तीर्थकर-भिन्न स्वयम्बुद्ध हो समझना चाहिए।' स्वयम्बुद्धों के पात्रादि के भेद से बारह प्रकार की उपधि (उपकरण) होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों की जघन्य दो प्रकार की और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) नौ प्रकार की उपधि प्रावरण (वस्त्र) को छोड़ कर होती है। स्वयंबुद्धों के श्रुत (शास्त्र) पूर्वाधीत (पूर्वजन्मपठित) होता भी है, नहीं भी होता / अगर होता है तो देवता उन्हें लिंग (वेष) प्रदान करता है, अथवा वे गुरु के सान्निध्य में जा कर मुनिलिंग स्वीकार कर लेते हैं। यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और उनकी एकाकी-विचरण की इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी हो कर रहते हैं। यदि उनके श्रत पूर्वाधीत न हो तो वे नियम से गुरु के निकट जा कर ही मुनिलिंग स्वीकार करते हैं और गच्छवासी हो कर ही रहते हैं / प्रत्येकबुद्धों के नियमतः श्रत पूर्वाधीत होता है / वे जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टत: दस पूर्व से किञ्चित् कम पहले पढ़े हुए होते हैं। उन्हें देवता मुनिलिंग देता है, अथवा कदाचित् वे लिंगरहित भी - -- 1. ते दुविहा सयंबुद्धा-तित्थयरा तित्थयरवरित्ता य, इह वइरित हि अहिगारो। -नन्दी.-अध्ययन चूणि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रजापनापद [ 5 विचरते हैं।' (7) बुद्धबोधितसिद्ध-बुद्ध अर्थात्-बोधप्राप्त आचार्य, उनके द्वारा बोधित हो कर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं। () स्त्रीलिंगसिद्ध-इन पूर्वोक्त प्रकार के सिद्धों में से कई स्त्रीलिंगसिद्ध होते हैं। जिससे स्त्री को पहिचान हो वह स्त्री का लिंग-चिह्न स्त्रीलिंग कहलाता है / उपलक्षण से स्त्रीत्वद्योतक होने से वह तीन प्रकार का हो सकता है वेद, शरीर को निष्पत्ति (रचना) और वेशभूषा / इन तीन प्रकार के लिंगों में से यहाँ स्त्री-शरीररचना से प्रयोजन है; स्त्रीवेद या स्त्रीवेशरूप स्त्रीलिंग से नहीं, क्योंकि स्त्रीवेद को विद्यमानता में सिद्धत्व प्राप्त नहीं हो सकता और बेश अप्रामाणिक है / अतः ऐसे स्त्रीलिंग में विद्यमान होते हुए जो जीव सिद्ध होते हैं, वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं। इस शास्त्रीय कथन से 'स्त्रियों को निर्वाण नहीं होता'; इस उक्ति का खण्डन हो जाता है। वास्तव में मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्ररूप है / यह रत्नत्रय पुरुषों की तरह स्त्रियों में भी हो सकता है। इस की साधना में तथा प्रवचनार्थ में रुचि एवं श्रद्धा रखने में स्त्रीलिंग बाधक नहीं है / ___(6) पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष-शरीररचनारूप पुल्लिग में स्थित हो कर सिद्ध होते हैं, वे पुरुषलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (10) नपुंसकलिंगसिद्ध-जो जीव न तो स्त्री के और न ही पुरुष के, किन्तु नपुंसक के शरीर से सिद्ध होते हैं, वे नपुंसकलिंगसिद्ध कहलाते हैं। (11) स्वलिंगसिद्ध–जो स्वलिंग से, अर्थात्-रजोहरणादिरूप वेष में रहते हुए सिद्ध होते हैं। (12) अलिगसिद्ध-जो अन्यलिंग से, अर्थात्--परिव्राजक आदि से सम्बन्धित वल्कल (छाल) या काषायादि रंग के वस्त्र वाले द्रव्यलिंग में रहते हुए सिद्ध होते हैं। (13) गृहिलिगसिद्ध-जो गृहस्थ के लिंग (वेष) में रहते हुए सिद्ध होते हैं / वे गृहिलिगसिद्ध होते हैं, जैसे-मरुदेवी आदि। "पत्तयं-बाह्य वषादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बद्धाः, बहिष्प्रत्ययं प्रति बुद्धानां च पत्तयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा ते पत्त यबुद्धा / " "पत्त यबुद्धाणं जहन्नेणं दुविहो, उक्कोसेणं नवविही नियमा उवही पाउरणवज्जो भवइ / ' "सयंबुद्धस्य पुब्वाहोयं सुयं से हवइ वा न वा, जइ से नत्थि तो लिगं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, जइ य एमविहार-विहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्यथा गच्छे विहरइ।" पत्त यबुद्धाणं पुवाहीयं सुयं नियमा हवइ, जहन्नेणं इक्कारस अंगा, उक्कोसेणं भिन्नदसपुव्वा / लिगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवज्जिओ वा हव। 2. इत्यीए लिंगं इथिलिंग उवलक्षणं ति वृत्तं भवइ / तं च तिविहं वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च। इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो, न वेय-नेवत्थेहि / ' --नन्दी.-अध्ययन चूणि 3. स्त्रीमुक्ति की विशेष चर्चा के लिए देखिये--प्रज्ञापना. म० वत्ति, पत्रांक 20 से 22 तक दिगम्बराचार्य नेमिचन्द्रकृत गोमद्रसार में देखिये--अडयाला पुबेया, इत्थीवेया हवंति चालीसा। वीस नपुसकवेया, समरणगेण सिज्झंति / / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र (14) एकसिद्ध-जो एक समय में अकेले ही सिद्ध होते हैं, वे एकसिद्ध हैं। (15) अनेकसिद्ध-जो एक ही समय में एक से अधिक-अनेक सिद्ध होते हैं, वे अनेकसिद्ध कहलाते हैं।' सिद्धान्तानुसार एक समय में अधिक से अधिक 108 जीव सिद्ध होते हैं / अनन्तर सिद्धों के उपाधि के भेद से ये 15 प्रकार कहे हैं। परम्परासिद्ध-प्रसंसार समापनजीवों के प्रकार---इनके अनेक प्रकार हैं, इसलिए शास्त्रकार ने इनके प्रकारों की निश्चित संख्या नहीं दी है / अप्रथमसमयसिद्ध से लेकर अनन्तसमयसिद्ध तक के जीव परम्परासिद्ध की कोटि में हैं / अप्रथमसमयसिद्ध-जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय न हो, अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए एक से अधिक समय हो चुके हों, वे अप्रथमसमयसिद्ध कहलाते हैं। अथवा जो परम्परसिद्धों में प्रथमसमयवर्ती हों वे प्रथमसमयसिद्ध होते हैं / इसी प्रकार तृतीय आदि समयों में द्वितीयसमयसिद्ध आदि कहलाते हैं। अथवा 'अप्रथमसमयसिद्ध' का कथन सामान्यरूप से किया गया है, आगे इसी के विषय में विशेषतः कहा गया है-द्विसमयसिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतु:समयसिद्ध आदि यावत अनन्त समयसिद्ध तक अप्रथमसमयसिद्ध-परंपरासिद्ध समझने चाहिए। अथवा परम्परसिद्ध का अर्थ इस प्रकार से है जो किसी भी प्रथम समय में सिद्ध है, उससे एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है / उससे भी एक समय पहले सिद्ध होने वाला 'पर' कहलाता है। परम्परसिद्ध का आशय यह है कि जिस समय में कोई जीव सिद्ध हुआ है, उससे पूर्ववर्ती समयों में जो जीव सिद्ध हुए हैं, वे सब उसकी अपेक्षा परम्परसिद्ध हैं / अनन्त अतीतकाल से सिद्ध होते पा रहे हैं, वे सब किसी भी विवक्षित प्रथम समय में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा से परम्परसिद्ध है / ऐसे मुक्तात्मा परम्परसिद्ध असंसारसमापन्न जीव है। 3 संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकार 18. से कि तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? संसारसमावण्ण नोवषण्णवणा पंचविहा पन्नत्ता। तं जहा-एगिदियसंसारसमावष्णजीवपण्णवणा 1 दियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा 2 तेंदियसंसारसमावन्नजीवपण्णवणा 3 चउरेंदियसंसारसमावण्णाजीवपण्णवणा 4 पंचेंदियसंसारसमावन्नजोवपण्णवणा 5 / [18 प्र.] वह (पूर्वोक्त) संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [18 उ.] संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है(१)एकेन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (2) द्वोन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (3) त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (4) चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना और (5) पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना / - -- 1. 'अनेक सिद्ध' का विस्तृत वर्णन देखें-प्रज्ञापना० म०वृत्ति, पत्रांक 22 'बत्तीसा अडयाला सट्टी बाबत्तरी य बोद्धव्वा / चुलसीइ छउन्नइ उ दुरहियं अटू तरसय च // 2. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 19 से 22 तक 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 23 तथा 18 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [37 विवेचन-संसारसमापन-जीवप्रज्ञापना के पांच प्रकार-संसारी जीवों की प्रज्ञापना के एकेन्द्रियादि पांच प्रकार क्रमशः इस सूत्र (सू. 18) में प्रतिपादित किये गए हैं। संसारी जीवों के पांच मुख्य प्रकारों की व्याख्या-(१) एकेन्द्रिय-पृथ्वीकायादि स्पर्शनेन्द्रिय वाले जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं / (2) द्वोन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय, ये दो इन्द्रियां होती हैं, वे द्वीन्द्रिय होते हैं। जैसे-शंख, सीप, लट, गिडीला आदि / (3) त्रीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसन और घ्राणेन्द्रिय हों, वे श्रीन्द्रिय कहलाते हैं / जैसे---जू, खटमल, चींटी आदि / (4) चतुरिन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षुरिन्द्रिय हों, वे चतुरिन्द्रिय कहलाते हैं / जैसे-टिड्डी, पतंगा, मक्खी, मच्छर आदि। (5) पंचेन्द्रिय-जिनके स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पांचों इन्द्रियां हों, वे पंचेन्द्रिय कहलाते हैं। जैसे-नारक, तिर्यञ्च (मत्स्य, गाय, हंस, सर्प), मनुष्य और देव / इन्द्रियां दो प्रकार की हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय के दो रूपनिवत्तिरूप और उपकरण रूप / इन्द्रियों की रचना को निर्वत्ति-इन्द्रिय कहते हैं और निर्वृत्ति-इन्द्रिय की शक्तिविशेष को उपकरणे न्द्रिय कहते हैं। भावेन्द्रिय लब्धि (क्षयोपशम) तथा उपयोग रूप है / एकेन्द्रिय जीवों में भी क्षयोपशम एवं उपयोगरूप भावेन्द्रिय पांचों ही सम्भव हैं; क्योंकि उनमें से कई एकेन्द्रिय जीवों में उनका कार्य दिखाई देता है। जैसे-जीवविज्ञानविशेषज्ञ डॉ. जगदीशचन्द्र बोस ने एकेन्द्रिय वनस्पति में भी निन्दा-प्रशंसा आदि भावों को समझने की शक्ति (लब्धि = क्षयोपशम) सिद्ध करके बताई है। एकेन्द्रिय संसारी जीवों की प्रज्ञापना 16. से कि तं एगेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? एर्गेदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा—पुढविकाइया 1 प्राउकाइया 2 तेउकाइया 3 वाउकाइया 4 वणस्सइकाइया 5 / [19 प्र.] वह (पूर्वोक्त) एकेन्द्रिय-संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना क्या है ? [16 उ.] एकेन्द्रिय-संसारसमापन्नजीव-प्रज्ञापना पांच प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार है-१-पृथ्वीकायिक, २-अप्कायिक, ३-तेजस्कायिक, ४-वायुकायिक और ५-बनस्पतिकायिक / विवेचन-एकेन्द्रियसंसारी जीवों को प्रज्ञापना-प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिक आदि पांच प्रकार के एकेन्द्रियजीवों को प्ररूपणा की गई है। एकेन्द्रिय जीवों के प्रकार अोर लक्षण-(१) पश्चोकायिक—पृथ्वी ही जिनका काय =शरीर है, वे पृथ्वीकाय या पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। (2) प्रकायिक-अप्-प्रसिद्ध जल ही जिनका काय = शरीर है, वे अप्काय या प्रकायिक कहलाते हैं / (3) तेजस्कायिक-तेज यानी अग्नि ही जिनका काय = शरीर है, वे तेजस्काय या तेजस्कायिक कहलाते हैं / (4) वायुकायिक-वायु = हवा ही जिनका काय-शरीर है, वे वायुकाय या वायुकायिक हैं। (5) वनस्पतिकायिक--लतादिरूप वनस्पति ही जिनका शरीर (काय) है, वे वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। 1. प्रज्ञापना० मलय० वृत्ति, पत्रांक 23-24 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [ प्रज्ञापनासूत्र पृथ्वो समस्त प्राणियों की आधारभूत होने से सर्वप्रथम पृथ्वीकायिकों का ग्रहण किया गया। अप्कायिक पृथ्वी के आश्रित हैं, इसलिए तदनन्तर अप्कायिकों का ग्रहण किया गया। तत्पश्चात् उनके प्रतिपक्षी अग्निकायिकों का, अग्नि वायु के सम्पर्क से बढ़ती है, इसलिए उसके बाद वायुकायिकों का और वायु दूरस्थ लतादि के कम्पन से उपलक्षित होता है, इसलिए तत्पश्चात् वनस्पतिकायिकों का ग्रहण किया गया।' पृथ्वीकायिक जीवों की प्रज्ञापना 20. से कि तं पुढविकाइया ? पुढविकाइया दुविहा पण्णता / तं जहा-सुहुमपुढविकाइया य बादरपुढविकाइया य / [20 प्र.] वे पृथ्वीकायिक जीव कौन-से हैं ? [20 उ.] पृथ्वीकायिक (मुख्यतया) दो प्रकार के कहे गए हैं—सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक। 21. से कि तं सुहमपुढविकाइया ? सुहुमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तसुहमपुढविकाइया य अपज्जत्तसुहमपुढविकाइया य / से त्तं सुहुमपुढविकाइया। [21 प्र.] सूक्ष्मपृथ्वीकायिक क्या हैं ? [22 उ.] सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक / यह सूक्ष्मपृथ्वोकायिक का वर्णन हुआ। 22. से किं तं बादरपुढविकाइया ? बादरपुढबिकाइया दुविहा पन्नता। तं जहा-सहबादरपुढविकाइया य खरबादरपुढविकाइया य। [22 प्र.] बादरपृथ्वीकायिक क्या हैं ? [22 उ.] बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–श्लक्ष्ण (चिकने) बादरपृथ्वीकायिक और खरबादरपृथ्वीकायिक / 23. से किं तं सहबादरपुढविकाइया ? सहबाबरपुढविकाइया सत्तविहा पन्नत्ता। तं जहा--किण्हमत्तिया 1 नीलमत्तिया 2 लोहियमत्तिया 3 हालिहमत्तिया 4 सुकिल्लमत्तिया 5 पंडुमत्तिया 6 पणगत्तिया 7 / से तं सहबादरपुढविकाइया। _ [21 प्र.] श्लक्ष्ण बादरपृथ्वीकायिक क्या हैं ? - [23 उ.] श्लक्ष्ण बादरपृथ्वोकायिक सात प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) कृष्ण 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 24 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रशापनापद [39 मृत्तिका (कालो मिट्टी), (2) नीलमृत्तिका (नीले रंग की मिट्टी), (3) लोहितमृत्तिका (लाल रंग की मिट्टी), (4) हारिद्रमृत्तिका (पीली मिट्टी), (5) शुक्लमृत्तिका (सफेद मिट्टी), (6) पाण्डुमृत्तिका (पाण्डु-मटमैले रंग की मिट्टी) और (7) पनकमृत्तिका (काई-सी हरे रंग की मिट्टी)। 24. से कि तं खरबादरपुढविकाइया ? खरबादरपुढविकाइया प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहापुढवी य 1 सक्करा 2 वालुया य 3 उवले 4 सिला य 5 लोणूसे 6-7 / प्रय 8 तंब 9 तउय 10 सोसय 11 रुप्प 12 सुवण्णे य 13 बइरे य 14 // 8 // हरियाले 15 हिंगुलुए 16 मणोसिला 17 सासगंजण 15-16 पवाले 20 / अन्भपडल 21 भवालुय 22 बाबरकाए मणिविहाणा // 6 // 'गोमेज्जए य 23 रुपए 24 अंके 25 फलिहे य 26 लोहियक्खे य 27 / मरगय 28 मसारगल्ले 26 भुयमोयग 30 इंदनोले य 31 // 10 // चंदण 32 गेरुय 33 हंसे 34 पुलए 35 सोगंधिए य 36 बोद्धव्वे / चंदप्पम 37 वेरुलिए 38 जलकते 36 सूरकते य 40 // 11 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा। [२४-प्र.] खर बादरपृथ्वीकायिक कितने प्रकार के हैं ? [24 उ.] खर बादरपृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१) पृथ्वी, (2) शर्करा (कंकर), (3) बालुका (बालू-रेत), (4) उपल (पाषाण - पत्थर), (5) शिला (चट्टान), (6) लवण (सामुद्र, सैंचल आदि नमक), (7) अष (ऊपर-क्षार वाली जमीन, बंजरभूमि), (8) अयस् (लोहा), (9) ताम्बा, (10) वपुष् (रांगा), (11) सीसा, (12) रौप्य (चांदी), (13) सुवर्ण (सोना), (14) वज्र (हीरा), (15) हड़ताल, (16) हींगलू (17) मैनसिल, (18) सासग (पारदपारा), (19) अंजन (सौवीर आदि), (20) प्रवाल (मूगा), (21) अभ्रपटल (अभ्रक-भोड़ल) (22) अभ्रवालुका (अम्रक-मिश्रित बालू), बादरकाय में मणियों के प्रकार--(२३) गोमेज्जक (गोमेदरत्न), (24) रुचकरत्न, (25) अंकरत्न. (26) स्फटिकरत्न, (27) लोहिताक्षरत्न, (28) मरकतरत्न, (26) मसारगल्ल रत्न, (30) भुजमोचकरत्न, (31) इन्द्रनीलमणि, (32) चन्दनरत्न, (33) गैरिकरत्न, (34) हंसरत्न (हंसगर्भ रत्त), (35) पुलकरत्न, (36) सौगन्धिकरत्न, (37) चन्द्रप्रभरत्न, (38) वैडूर्यरत्न, (39) जलकान्तमणि और (40) सूर्यकान्तमणि / / 8-6-10-11 // 1. 'गोमेज्जए य 23 रुयगे 24 अंके 25 फलिहे य 26 लोहियक्खे य 27 / चंदण 28 गेरुय 29 हंसग 30 भुयमोय 31 मसारगल्ले य 32 // 7 // चंदप्पह 33 वेरुलिए 34 जलकते 35 चेव सूरकते य 36 / एए खरपुढवीए नाम छत्तीसयं होइ॥७६॥' इस प्रकार प्राचारांग वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने प्राचारांगनियुक्ति की गाथाओं द्वारा खरपृथ्वीकाय के 36 भेद गिनाए हैं, जबकि प्रज्ञापना में 40 भेद वर्णित हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में प्रज्ञापना. के समान ही गाथाएँ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ] [ प्रज्ञापनासूत्र ___ इनके अतिरिक्त जो अन्य भी तथाप्रकार के (वैसे) (पद्मराग आदि मणिभेद हैं, वे भी खर बादरपृथ्वीकायिक समझने चाहिए / ) 25. [1] ते समासतो दुविहा पन्नता / तं जहा---पज्जत्तमा य अपज्जत्तगाय। [25-1] वे (पूर्वोक्त सामान्य बादरपृथ्वीकायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / [2] तस्थ णं जे ते अपज्जतगा ते णं असंपत्ता। [25-2] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे (स्वयोग्य पर्याप्तियों को) असम्प्राप्त होते हैं / [3] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसि णं वग्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सगासो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिप्पमुहसतसहस्साई। पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा बक्कमति-जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखिज्जा। से तं खरबादरपुढविकाइया। से तं बादरपुढविकाइया। से तं पुढविकाइया। [25-3] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, इनके वर्णादेश (वर्ण की अपेक्षा) से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों (सहस्रशः) भेद (विधान) हैं / (उनके) संख्यात लाख योनिप्रमुख (योनिद्वार) हैं। पर्याप्तकों के निश्राय (आश्रय) में, अपर्याप्तक (पाकर) उत्पन्न होते हैं / जहाँ एक (पर्याप्तक) होता है, वहाँ (उसके पाश्रय से) नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते हैं।):यह हुआ वह (पूर्वोक्त) खर बादरपृथ्वीकायिकों का निरूपण / (उसके साथ ही) बादरपृथ्वीकायिकों का वर्णन पूर्ण हुआ। (इसके पूर्ण होते हो) पृथ्वीकायिकों की प्ररूपणा समाप्त हुई। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों को प्रज्ञापना-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 20 से 25 तक) में पृथ्वीकायिक जीवों के मुख्य दो भेदों तथा उनके अवान्तर भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और बादर पृथ्वीकायिक की व्याख्या-जिन जीवों को सूक्ष्मनामकर्म का उदय हो, वे सूक्ष्म कहलाते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिक जीव सूक्ष्मपृथ्वोकायिक हैं / जिनको बादरनामकर्म का उदय हो, उन्हें बादर कहते हैं। ऐसे पृथ्वीकायिक बादरपृथ्वीकायिक कहलाते हैं 1 बेर और आंवले में जैसी सापेक्ष सूक्ष्मता और बादरता है, वैसी सूक्ष्मता और बादरता यहाँ नहीं समझनी चाहिए / यहाँ तो (नाम-) कर्मोदय के निमित्त से ही सूक्ष्म और बादर समझना चाहिए। मूल में 'च' शब्द सूक्ष्म और बादर के अनेक अवान्तरभेदों, जैसे--पर्याप्त और अपर्याप्त आदि भेदों तथा शर्करा, बालुका आदि उपभेदों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किया गया है। 'सूक्ष्म सर्वलोक में हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की इस उक्ति के अनुसार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव समग्र लोक में ऐसे ठसाठस भरे हुए हैं, जैसे किसी पेटी में सुगन्धित पदार्थ डाल देने पर उसकी महक उसमें सर्वत्र व्याप्त हो जाती है। बादरपृथ्वीकायिक नियत-नियत स्थानों पर लोकाकाश में होते हैं। यह द्वितीयपद में बताया जाएगा।' 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय० वृत्ति, पत्रांक 24-25 (ख) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३६-~'सुहुमा सव्वलोमंमि / ' Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [41 सूक्ष्मपृथ्वीकायिकों के पर्याप्त-अपर्याप्तक की व्याख्या--जिन जीवों की पर्याप्तियां पूर्ण हो चुकी हों, वे पर्याप्त या पर्याप्तक कहलाते हैं। जो जीव अपने योग्य पर्याप्तियां पूर्ण न कर चुके हों, वे अपर्याप्त या अपर्याप्तक कहलाते हैं। पर्याप्त और अपर्याप्त के प्रत्येक के दो-दो भेद होते हैं-~-लब्धिपर्याप्त और करण-पर्याप्त, तथा लब्धि-अपर्याप्तक और करण-अपर्याप्त / जो जीव अपर्याप्त रह क रही मर जाते हैं, वे लब्धि-अपर्याप्त और जिनकी पर्याप्तियां अभी पूरी नहीं हुई हैं, किन्तु पूरी होंगी, वे करण-अपर्याप्त कहलाते हैं। पर्याप्ति-पर्याप्ति आत्मा की एक विशिष्ट शक्ति की परिपूर्णता है, जिसके द्वारा प्रात्मा आहार, शरीर आदि के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और उन्हें आहार, शरीर आदि के रूप में परिणत करता है। वह पर्याप्तिरूप शक्ति पुद्गलों के उपचय से उत्पन्न होती है / तात्पर्य यह है कि उत्पत्तिदेश में पाए हुए नवीन आत्मा ने पहले जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, उनको तथा प्रतिसमय ग्रहण किये जा रहे अत्य पुद्गलों को, एवं उनके सम्पर्क से जो तद्र प परिणत हो गए हैं, उनको आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में जिस शक्ति के द्वारा परिणत किया जाता है, उस शक्ति की पूर्णता पर्याप्ति कहलाती है। पर्याप्ति छह हैं-(१) पाहारपर्याप्ति, (2) शरीरपर्याप्ति, (3) इन्द्रियपर्याप्ति, (4) श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, (5) भाषापर्याप्ति और (6) मनःपर्याप्ति / जिस शक्ति द्वारा जीव बाह्य आहार (आहारयोग्य पुद्गलों) को लेकर खल और रस के रूप में परिणत करता है, वह प्राहारपर्याप्ति है / जिस शक्ति के द्वारा रसीभूत (रसरूप-परिणत) आहार (आहारयोग्य पुद्गलों) को रस, रक्त, मांस, मेद, हड्डी, मज्जा और शुक्र, इन सात धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, वह शरीरपर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा धातुरूप में परिणमित आहार पुद्गलों को इन्द्रियरूप में परिणत किया जाता है, वह इन्द्रियपर्याप्ति है। इसे दूसरी तरह से यों भी समझा जा सकता है'पांचों इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके अनाभोगनिर्वतित (अनजाने ही निष्पन्न) वीर्य के द्वारा इन्द्रियरूप में परिणत करने वाली शक्ति इन्द्रियपर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा (श्वास तथा) उच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें (श्वास एवं) उच्छ्वासरूप परिणत करके और फिर उनका आलम्बन लेकर छोड़ा जाता है, वह (श्वास-) उच्छ्वास-पर्याप्ति है। जिस शक्ति से भाषा-योग्य (भाषावर्गणा के) पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें भाषारूप में परिणत करके, वचनयोग का आलम्बन लेकर छोड़ा जाता है. वह भाषापर्याप्ति है। जिस शक्ति के द्वारा मन के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके मन के रूप में परिणत करके, मतोयोग का आलम्बन लेकर छोड़ा जाता है, वह मनःपर्याप्ति है / इन छह पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय में चार, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा असंज्ञी पंचेन्द्रिय में पांच और संज्ञीपंचेन्द्रिय में छहों पर्याप्तियां होती हैं। जीव अपनी उत्पत्ति (जन्म) के प्रथम समय में ही, अपने योग्य सम्भावित पर्याप्तियों को एक साथ निष्पन्न करना प्रारम्भ कर देता है। किन्तु वे (पर्याप्तियां) क्रमशः पूर्ण होती हैं / जैसेसर्वप्रथम आहारपर्याप्ति, तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति, फिर इन्द्रियपर्याप्ति, तदनन्तर श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, उसके बाद भाषापर्याप्ति और सबसे अन्त में मनःपर्याप्ति पूर्ण होती है। पाहारपर्याप्ति प्रथम समय में ही निष्पन्न हो जाती है, शेष पर्याप्तियों के पूर्ण होने में प्रत्येक को अन्तमुहूर्त समय लग जाता है। किन्तु समस्त पर्याप्तियों के पूर्ण होने में भी अन्तर्मुहर्तकाल ही लगता है। क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के अनेक विकल्प हैं। इस पर से सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक दोनों के Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [प्रज्ञापनासूत्र पर्याप्तक और अपर्याप्तक का स्वरूप समझ लेना चाहिए।' __श्लक्ष्ण बादरपृथ्वीकायिक-पीसे हुए आटे के समान मृदु (मुलायम) पृथ्वी श्लक्ष्ण कहलाती है / इलक्षण प्रथिव्यात्मक जीव भी उपचार से इलक्ष्ण कहलाते हैं। जिन बादरपथ्वी के जीवों का शरीर श्लक्ष्ण-मृदु है, वे श्लक्ष्ण बादरपृथ्वीकायिक हैं। यह मुख्यतया सात प्रकार की होती है। उनमें से पाण्डुमत्तिका का अर्थ यह भी है कि किसी देश में मिट्री धुलिरूप में हो कर भी 'पाण्ड' नाम से प्रसिद्ध है / पनकमृत्तिका का अर्थ वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है नदी आदि में बाढ़ से डूबे हुए प्रदेश में नदी आदि के पूर के चले जाने के बाद भूमि पर जो श्लक्ष्णमृदुरूप पंक शेष रह जाता है, जिसे 'जलमल' भी कहते हैं, वही पनकमृत्तिका है / 2 / खर बादरपथ्वीकायिकों की व्याख्या-प्रस्तुत गाथाओं में खर बादरपृथ्वीकायिकों के 40 भेद बताए हैं / अन्त में यह भी कहा है कि ये और इसी प्रकार के अन्य जो भी पद्मरागादि रत्न हैं, वे सब इसी के अन्तर्गत समझने चाहिए / अपर्याप्तकों का स्वरूप --खर बादरपृथ्वीकायिक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जो दो भेद हैं, उनमें से अपर्याप्तक या तो अपनी पर्याप्तियों को पूर्णतया असंप्राप्त हैं अथवा उन्हें विशिष्ट वर्ण आदि प्राप्त नहीं हुए हैं। इस दृष्टि से उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि वे कृष्ण आदि वर्ण वाले हैं। शरीर आदि पर्याप्तियां पूर्ण हो जाने पर ही बादर जीवों में वर्ण आदि विभाग प्रकट होता है, अपूर्ण होने की स्थिति में नहीं। तथा वे अपर्याप्तक उच्छवास पर्याप्ति से अपर्याप्त रह कर ही मर जाते हैं, इसी कारण उनमें स्पष्टतर वर्णादि का विभाग सम्भव नहीं / इसी दृष्टि से उन्हें 'असम्प्राप्त' कहा है / पर्याप्तकों के वर्णादि के भेद से हजारों भेद-- इनमें से जो पर्याप्तक हैं, जिनकी अपने योग्य चार पर्याप्तियां पूर्ण हो चुकी हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के भेद से हजारों भेद होते हैं। जैसे-वर्ण के 5, गन्ध के 2, रस के 5 और स्पर्श के 8 भेद होते हैं / फिर प्रत्येक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में अनेक प्रकार की तरतमता होती है / जैसे-भ्रमर, कोयल और कज्जल आदि में कालेपन की न्यूनाधिकता होती है / अत: कृष्ण, कृष्णतर और कृष्णतम आदि अनेक कृष्णवर्णीय भेद हो गए। इसी प्रकार नील आदि वर्ण के विषय में समझना चाहिए। गन्ध, रस और स्पर्श से सम्बन्धित भी ऐसे ही अनेक भेद होते हैं / इसी प्रकार वर्गों के परस्पर मिश्रण से धूसरवर्ण, कर्बु र (चितकबरा) वर्ण आदि अगणित वर्ण निष्पन्न हो जाते हैं / इसी प्रकार एक गन्ध में दूसरी गन्ध के मिलने से, एक रस में दूसरा रस मिश्रण करने से, एक स्पर्श के साथ दूसरे स्पर्श के संयोग से हजारों भेद गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हो जाते हैं / ऐसे पृथ्वीकायिकों को लाखों योनियां-उपर्युक्त पृथ्वीकायिक जीवों की लाखों योनियां हैं / यही बात मूलपाठ में कही गई है'संखेज्जाई जोणिप्पमुहसयसहस्साई'-अर्थात् 'संख्यातलाख योनिप्रमुख-योनिद्वार हैं।' जैसे कि एकएक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृता योनि होती है / वह तीन प्रकार की हैसचित्त, अचित्त और मिश्र / इनके प्रत्येक के तीन-तीन भेद होते हैं- शीत, उष्ण और शीतोष्ण / इन शीत आदि प्रत्येक के भी तारतम्य के कारण अनेक भेद हो जाते हैं। यद्यपि इस प्रकार से स्वस्थान में विशिष्ट वर्णादि से युक्त योनियां व्यक्ति के भेद से संख्यातीत हो जाती हैं, तथापि वे सब जाति (सामान्य) को अपेक्षा एक ही योनि में परिगणित होती हैं। इस दृष्टि से पृथ्वीकायिक जीवों की 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 25-26 (ख) ग्राहारपर्याप्ति के सम्बन्ध में सूक्ष्मचर्चा देखिये-प्रजापना. 28 वां ग्राहारपद / 2. प्रज्ञापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 26 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [ 43 सख्यात लाख योनियां होती हैं। और वे सूक्ष्म और बादर सबकी सब मिलकर सात लाख योनियां समझनी चाहिए।' अप्कायिक जीवों को प्रज्ञापना 26. से कि तं प्राउक्काइया ? पाउकाइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सुहुमनाउक्काइया य बादराउक्काइया य / [26 प्र.] वे (पूर्वोक्त) अप्कायिक जीव किस (कितने) प्रकार के हैं ? [26 उ.] अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक / 27. से कि तं सुहमाउक्काइया? सुहुमनाउक्काइया दुविहा पन्नत्ता। तं जहा-पज्जत्तसुहुमनाउक्काइया य अपज्जत्तसुहुमप्राउक्काइया य / से तं सुहमाउक्काइया। [27 प्र.] वे (पूर्वोक्त) सूक्ष्म अप्कायिक किस प्रकार के हैं ? [27 उ.] सूक्ष्म अप्कायिक दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-पर्याप्त सूक्ष्मअप्कायिक और अपर्याप्त सूक्ष्म-अप्कायिक / (इस प्रकार) यह सूक्ष्म-अप्कायिक की प्ररूपणा हुई / 28. [1] से कि तं बादरमाउक्काइया ? बादरा उक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा--प्रोसा हिमए महिया करए हरतणुए सुद्धोदए सोतोदए उसिणोदए खारोदए खट्टोदए अंबिलोदए लवणोदए वारुणोदए खोरोदए घनोदए खोतोदए रसोदए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। [28-1 प्र.] वे (पूर्वोक्त) बादर-अप्कायिक क्या (कैसे) हैं ? 28.1 उ.] बादर-अप्कायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--प्रोस, हिम (बर्फ), महिका (गर्भमासों में होने वाली सूक्ष्म वर्षा-धुम्मस या कोहरा), प्रोले, हरतनु (भूमि को फोड़ कर अंकुरित होने वाले गेहूँ घास आदि के अग्रभाग पर जमा होने वाले जलबिन्दु), शुद्धोदक (आकाश में उत्पन्न होने वाला तथा नदी आदि का पानी), शीतोदक (नदी आदि का शीतस्पर्शपरिणत जल), उष्णोदक (कहीं झरने आदि से स्वाभाविकरूप से उष्णस्पर्शपरिणत जल), क्षारोदक (खारा पानी), खट्टोदक (कुछ खट्टा पानी), अम्लोदक (स्वाभाविकरूप से कांजी-सा खट्टा पानी), लवणोदक (लवण समुद्र का पानी), वारुणोदक (वरुणसमुद्र का या मदिरा जैसे स्वादवाला जल), क्षीरोदक (क्षीरसमुद्र 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 27-28 2. प्राचारांगसूत्रनियुक्तिकार ने बादर-अकाय के-"सुद्धोदए य 1 उस्सा 2 हिमे य 3 महिया य 4 हरतणू चेव 5 / बायरआउविहाणा पंचविहा वणिया एए // 108 // " इस गाथानुसार 5 ही भेदों का निर्देश किया है। तथा उत्तराध्ययनसूत्र अ. 36, गाथा 86 में भी ये ही पांच भेद गिनाए हैं, जबकि यहाँ अनेक भेद बताए हैं / —सं. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] [प्रज्ञापनासूत्र का पानी), घृतोदक (घृतवरसमुद्र का जल), क्षोदोदक (इक्षुसमुद्र का जल) और रसोदक (पुष्करवर समुद्र का जल)। ये और तथाप्रकार के और भी (रस-स्पर्शादि के भेद से) जितने प्रकार हों, (वे सब बादर-अप्कायिक समझने चाहिए / ) [2] ते समासतो दुविहा पन्नता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / [28-2] वे (प्रोस प्रादि बादर अप्कायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / [3] तत्थ जे जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता। ___ [28-3] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त (अपनी पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं कर पाए) हैं। [4] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाइं जोणीपमुहसयसहस्साई। पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति--जत्य एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा / से तं बादरग्राउक्काइया। से तं प्राउक्काइया / [28-4] उनमें से जो अपर्याप्तक है, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों (सहस्रशः) भेद (विधान) होते हैं / उनके सख्यात लाख योनिप्रमुख हैं / पर्याप्तक जीवों के आश्रय से अपर्याप्तक पाकर उत्पन्न होते हैं / जहाँ एक पर्याप्तक है, वहाँ नियम से (उसके आश्रय से) असंख्यात (अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं / ) यह हुमा, बादर अप्कायिकों (का वर्णन / ) (और साथ ही) अप्कायिक जीवों की (प्ररूपणा पूर्ण हुई।) विवेचन–प्रकायिक जीवों की प्रज्ञापना-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 26 से 28 तक) में अप्कायिक जीवों के दो मुख्य प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है / तेजस्कायिक जीवों की प्रज्ञापना 26. से किं तं तेउक्काइया ? तेउक्काइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमतेउक्काइया य बादरतेउक्काइया य / [29 प्र.] वे (पूर्वोक्त) तेजस्कायिक जीव किस प्रकार के हैं ? [26 उ.] तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-सूक्ष्म तेजस्कायिक और बादर तेजस्कायिक / 30, से कि तं सुहमतेउक्काइया ? सुहुमतेउक्काइया दुविहा पन्नता। तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / से तं सुहुमतेउक्काइया। [30 प्र.] सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव किस प्रकार के हैं ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रजापनापद) [30 उ.] सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह हुआ पूर्वोक्त सूक्ष्म तेजस्कायिक का वर्णन / 31. [1] ते किं तं बादरतेउक्काइया ? बादरतेउक्काइया प्रणेगविहा पण्णता / तं जहा-इंगाले जाला मुम्मुरे अच्चो अलाए सुद्धागणी उक्का विज्जू असणी णिग्घाए संघरिससमुट्ठिए सूरकंतमणिणिस्सिए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। [31-1 प्र.} वे (पूर्वोक्त) बादर तेजस्कायिक किस प्रकार के हैं ? [31-1 उ.] बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-अंगार, ज्वाला, (जाज्वल्यमान खैर आदि की ज्वाला अथवा अग्नि से सम्बद्ध दीपक की लौ), मुमुर (राख में मिले हुए अग्निकण या भोभर), अचि (अग्नि से पृथक् हुई ज्वाला या लपट), अलात (जलती हुई मशाल या जलती लकड़ी), शुद्ध अग्नि (लोहे के गोले को अग्नि), उल्का, विद्युत् (आकाशीय विद्युत्), अशनि (आकाश से गिरने वाले अग्निकण), निर्घात (वैक्रिय सम्बन्धित प्रशनिपात या विद्युत्पात), संघर्ष-समुत्थित (अरणि आदि की लकड़ी की रगड़ से पैदा होने वाली अग्नि), और सूर्यकान्तमणिनिःसृत (सूर्य की प्रखर किरणों के सम्पर्क से सूर्यकान्तमणि से उत्पन्न होने वाली अग्नि)। इसी प्रकार की अन्य जो भी (अग्नियां) हैं (उन्हें बादर तेजस्कायिकों के रूप में समझना चाहिए / ) [2] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / [31-2] ये (उपर्युक्त बादर तेजस्कायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस - प्रकार-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / [3] तत्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता / [31-3] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे (पूर्ववत्) असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्णतया अप्राप्त) हैं। [4] तत्थ गं जे ते पज्जत्तगा एएसि जं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिष्पमुहसयसहस्साई / पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति-- जत्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा / से तं बादरते उक्काइया / से तं तेउक्काइया। [31-4] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों (सहस्रशः) भेद होते हैं। उनके संख्यात लाख योनि-प्रमुख हैं। पर्याप्तक (तेजस्कायिकों) के प्राश्रय से अपर्याप्त (तेजस्कायिक) उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्तक होता है, वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्तक (उत्पन्न होते है।) यह हुई बादर तेजस्कायिक जीवों की प्ररूपणा / (साथ ही) तेजस्कायिक जीवों की भी प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन-तेजस्कायिक जीवों की प्रज्ञापना-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 26 से 31 तक) में तेजस्कायिक जीवों के मुख्य दो प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46) [प्रज्ञापनासूत्र वायुकायिक जीवों को प्रज्ञापना 32. से किं तं वाउक्काइया ? वाउक्काइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमवाउकाइया य बादरवाउक्काइया य / [32 प्र.] वायुकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? [33 उ.] वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-सूक्ष्म वायुकायिक और बादर वायुकायिक / 33. से कि तं सुहुमवाउक्काइया ? सुहुमवाउक्काइया दुविहा पन्नत्ता। तं जहा–पज्जत्तगसुहुमवाउक्काइया य अपज्जत्तगसुहुमवाउक्काइया य / से तं सुहुमवाउक्काइया / [33 प्र.] वे (पूर्वोक्त) सूक्ष्म वायुकायिक कैसे हैं ? [33 उ.] सूक्ष्म वायुकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक और अपर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक / यह हुआ, वह (पूर्वोक्त) सूक्ष्म वायुकायिकों का वर्णन / 34. [1] से किं तं बादरवाउक्काइया ? बादरवाउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-पाईणवाए पड़ीणवाए दाहिणवाए उदीणबाए उड़वाए अहोवाए तिरियवाए विदिसीवाए वाउम्भामे वाउक्कलिया वायमंडलिया उक्कलियावाए मंडलियावाए गुंजावाए झंझावाए संवट्टगवाए घणवाए तगुवाए सुद्धवाए, जे यावऽण्णे तहप्पगारे / [34-1 प्र.] वे बादर वायुकायिक किस प्रकार के हैं ? [34-1 उ.] बादर वायुकायिक अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-पूर्वी वात (पूर्वदिशा से बहती हुई वायु), पश्चिमी वायु, दक्षिणी वायु, उत्तरी वायु, ऊर्ध्ववायु, अधोवायु, तिर्यग्वायु (तिरछी चलती हुई हवा), विदिग्वायु (विदिशा से प्राती हुई हवा), वातोभ्राम (अनियतअनवस्थित वाय), वातोत्कलिका (समद्र के समान प्रचण्ड गति से बहती हई तुफानी हवा), वातमण्डलिका (वातोली), उत्कलिकावात (प्रचुरतर उत्कलिकाओं-आंधियों से मिश्रित हवा), मण्डलिकावात (मूलत: प्रचुर मण्डलिकानों---गोल-गोल चक्करदार हवाओं से प्रारम्भ होकर उठने वाली वायु), गुजावात (गूजती हुई-सनसनाती हुई-चलने वाली हवा), झंझावात (वृष्टि के साथ चलने वाला अंधड़), संवत कवात (खण्ड-प्रलयकाल में चलने वाली वायु अथवा तिनके आदि उड़ाकर ले जाने वाली आंधी), घनवात (रत्नप्रभादि पृथ्वियों के नीचे रही हुई सघन–ठोस वायु), तनुवात (घनवात के नीचे रही हुई पतली वायु) और शुद्धवात (मशक आदि में भरी हुई या धीमी-धीमी बहने वाली हवा)। अन्य जितनी भी इस प्रकार की हवाएँ हैं, (उन्हें भी बादर वायुकायिक ही समझना चाहिए / ) Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद। [47 [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जगा य / [34-2] वे (पूर्वोक्त बादर वायुकायिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा---पर्याप्तक और अपर्याप्तक / रणजे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता। [34-3] इनमें से जो अपर्याप्तक हैं. वे असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किये हुए) हैं। [4] तस्थ णं जे ते पज्जत्तगा एतेसि णं वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणियमुहसयसहस्साई। पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तया वक्कर्मति–जस्थ एगो तत्थ णियमा असंखेज्जा / से तं बादरवाउक्काइया। से तं वाउक्काइया / [34-4] इनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण की अपेक्षा से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार (विधान) होते हैं / इनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं / (सूक्ष्म और बादर वायुकायिक की मिला कर 7 लाख योनियाँ हैं / ) पर्याप्तक वायुकामिक के पाश्रय से, अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक (पर्याप्तक वायुकायिक) होता है वहाँ नियम से असंख्यात (अपर्याप्तक वायुकायिक) होते हैं / यह हुआ--बादर वायुकायिक (का वर्णन / ) (साथ ही), वायुकायिक जीवों की (प्ररूपणा पूर्ण हुई।) _ विवेचन-वायुकायिक जीवों को प्रज्ञापना--प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 32 से 34 तक) में वायुकायिक जीवों के दो मुख्य प्रकार तथा उनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। वनस्पतिकायिकों की प्रज्ञापना--- 35. से कि तं वणस्सइकाइया? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सुहुमवणस्सइकाइया य बादरवणस्सतिकाइया य / {35 प्र. वे (पूर्वोक्त) वनस्पतिकायिक जीव कैसे हैं ? [35 उ.] वनस्पतिकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और बादर बनस्पतिकायिक। 36 से कि तं सुहमवणस्सइकाइया ? सुहमवणस्सइकाइया दुविहा पनत्ता। तं जहा-पज्जत्तसुहमवणस्सइकाइया य अपज्जत्तसुहमवणस्सइकाइया य / से तं सुहुमवणस्सइकाइया। [36 प्र.] वे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? [36 उ.] सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—पर्याप्तकसूक्ष्मवनस्पतिकायिक और अपर्याप्तक सूक्ष्मवनस्पतिकायिक / यह हुआ सूक्ष्म वनस्पतिकायिक (का निरूपण)। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [प्रज्ञापनासूत्र 37. से किं तं बादरवणस्सइकाइया ? बादरवणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया य साहारणसरीरबादरवणफइकाइया य / [37 प्र.] अब प्रश्न है-त्रादर वनस्पतिकायिक कैसे हैं ? [37 उ.] बादर वनस्पतिकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक और साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिक / 38 से कि तं पत्तयसरीरबादरवणप्फइकाइया? पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया दुवालसविहा पन्नत्ता / तं जहारुक्खा 1 गुच्छा 2 गुम्मा 3 लता य 4 वल्ली य 5 पव्वगा चेव 6 / तण 7 वलय 8 हरिय 6 प्रोसहि 10 जलरुह 11 कुहणा य 12 बोद्धन्वा // 12 // [38 प्र] वे प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? [38 उ. प्रत्येकशरीरबादरवनस्पतिकायिक जीव बारह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार से हैं-(१) वृक्ष (आम, नीम आदि), (2) गुच्छ (बैंगन आदि के पौवे), (3) गुल्म (नवमालिका आदि), (4) लता (चम्पकलता आदि), (5) वल्ली (कूष्माण्डी अपुषी आदि बेलें), (6) पर्वग (इक्षु आदि पर्व-पोर-गांठ वाली वनस्पति), (7) तृण (कुश, कास, दूब आदि हरी धास), (8) वलय (जिनकी छाल वलय के आकार की गोल होती है, ऐसे केतकी, कदली अादि), (9) हरित (बथना आदि हरी लिलोती), (10) औषधि (गेहूँ आदि धान्य, जो फल (फसल) पकने पर सूख जाते हैं।), (11) जलरुह (पानी में उगने वाली कमल, सिंघाड़ा, उदकावक आदि बनस्पति) और (12) कुहण (भूमि को फोड़ कर उगने वाली वनस्पति), (ये बारह प्रकार के प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पतिकायिक जीव) समझने चाहिए। 39. से कि तं रक्खा ? रुक्खा दुविहा पन्नत्ता / तं जहा—एगडिया य बहुबीयगा य / [36 प्र.] वे वृक्ष किस प्रकार के हैं ? [36 उ.] वृक्ष दो प्रकार के कहे गए हैं-एकास्थिक (प्रत्येक फल में एक गुठली या बीज वाले) और बहुबीजक (जिनके फल में बहुत बीज हों)। 40. से कि तं एगढिया ? एगट्ठिया प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा णिबंब जंबु कोसंब साल अंकोल्ल पीलु सेलू य / सल्लइ मोयइ मालुय बउल पलासे करंजे य // 13 // पुत्तंजीवयारिठे बिभेलए हरडए य भल्लाए। उंबेभरिया खीरिणि बोधव्वे धायइ पियाले // 14 // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 49 पूई करंज सेण्हा (सहा) तह सोसवा य असणे य / पुग्णाग णागरुक्खे सोवणि तहा असोगे य // 15 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा। एतेसि णं मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदा वि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि / पत्ता पत्तेयजीविया / पुप्फा अणेगजीविया / फला एट्ठिया / से तं एगट्ठिया / [40 प्र] एकास्थिक (प्रत्येक फल में एक बोज-गुठली वाले) वृक्ष किस प्रकार के होते हैं ? [40 उ.] एकास्थिकवृक्ष अनेक प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ--] नीम, आम, जामुन, कोशम्ब (कोशाम्र = जंगली प्राम), शाल, अंकोल्ल (अखरोट या पिश्ते का पेड़), पीलू, शेलु (लिसोड़ा), सल्लकी (हाथी को प्रिय), मोचकी, मालुक, बकुल, (मौलसरी), पलाश (खाखरा या ढाक), करंज (नक्तमाल) / / 13 / / पुत्रजीवक (पितौझिया), अरिष्ट (अरीठा), बिभीतक (बहेड़ा), हरड या जियापोता, भल्लातक (भिलावा), उम्बेभरिया, खीरणि (खिरनी), धातकी और प्रियाल / / 14 / / पूतिक (निम्ब-निम्बौली), करञ्ज, श्लक्ष्ण (या प्लक्ष) तथा शीशपा, अशन और पुन्नाग (नागकेसर), नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक; (ये एकास्थिक वृक्ष हैं / ) इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हों, (जो विभिन्न देशों में उत्पन्न होते हैं तथा जिनके फल में एक ही मुठली हो; उन सबको एकास्थिक ही समझना चाहिए।) // 15 // इन (एकास्थिक वृक्षों) के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं, तथा कन्द भी, स्कन्ध भी, त्वचा (छाल) भी, शाखा (साल) भी और प्रवाल (कोंपल) भी (असंख्यात जीवों वाले होते हैं ), किन्तु इनके पत्ते प्रत्येक जीव (एक-एक पत्ते में एक-एक जीव) वाले होते हैं / इनके फल एकास्थिक (एक ही गुठली वाले) होते हैं / यह हुआ—उस (पूर्वोक्त) एकास्थिक वृक्ष का वर्णन / 41. से किं तं बहुबीयगा? बहुबोयगा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा अत्थिय तिदु कविठे अंबाडग मालिंग बिल्ले य। प्रामलग फणस दाडिम प्रासोत्थे उबर वडे य / / 16 / / जग्गोह णंदिरुक्खे पिप्परि सयरी पिलुक्खरुक्खे य / काउंबरि कुत्थु भरि बोधव्वा देवदाली य // 17 // तिलए लउए छत्तोह सिरीसे सत्तिवण्ण दहियन्ने / लोद्ध धव चंदणऽज्जुण णीमे कुडए कयंबे य // 18 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा। एएसि णं मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदा वि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि / पत्ता पत्तेयजीविया / पुष्फा अणेगजीविया / फला बहुबोया। से तं बहुबोयगा। से तं रुक्खा / __. [४१-प्र.] और वे (पूर्वोक्त) बहुबीजक वृक्ष किस प्रकार के हैं ? Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [४१-उ.] बहुबीजक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार से हैं [गाथार्थ-] अस्थिक, तेन्दु (तिन्दुक), कपित्थ (कवीठ), अम्बाडग, मातुलिंग (बिजौरा), बिल्व (बेल), आमलक (आँवला), पनस (अनन्नास), दाडिम (अनार), अश्वत्थ (पीपल), उदुम्बर (गुल्लर), वट (बड़), न्यगोध (बड़ा बड़), // 16 / / नन्दिवृक्ष, पिप्पली (पीपल), शतरी (शतावरी), प्लक्षवृक्ष, कादुम्बरी, कस्तुम्भरी और देवदाली (इन्हें बहुबीजक) जानना चाहिए / / 17 / / तिलक लवक (लकुच-लीची), छत्रोपक, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुरज (कुटक) और कदम्ब // 18 // इसी प्रकार के और भी जितने वृक्ष हैं, (जिनके फल में बहुत बीज हों; वे सब बहुबीजक वृक्ष समझने चाहिए। इन (बहुबीजक वृक्षों) के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं। इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा और प्रवाल भी (असंख्यात जीवात्मक होते हैं। इनके पत्ते प्रत्येक जीवात्मक (प्रत्येक पत्ते में एक-एक जीव वाले) होते हैं। पुष्प अनेक जीवरूप (होते हैं) और फल बहुत बीजों वाले (हैं / ) यह हुआ बहुबीजक (वृक्षों का वर्णन !) (साथ ही) वृक्षों की प्ररूपणा (भी पूर्ण हुई।) 42. से कि तं गुच्छा ? गुच्छा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा वाइंगण सल्लई' बोंडई य तह कच्छुरी य जासुमणा / रूवी प्राढइ नीलो तुलसी तह मालिंगी य॥१६॥ कत्थंभरि पिप्पलिया अतसी बिल्ली य कायमाई या। चुच्चु पडोला' कंदलि बाउच्चा' वत्थुले बदरे // 20 // पत्तउर सीयउरए हवति तहा जसए य बोधवे।। णिग्गुडि° अक्क तूबरि अट्टइ चेव तलऊडा // 21 // सण वाण' कास मद्दग' अग्घाडग साम सिंदुवारे य। करमद्द अद्दरूसग करीर एरावण महित्थे // 22 // जाउलग माल' परिली गयमारिणि कुच्चकारिया' भंडी१२ / जावइ3 केयइ तह गंज पाडला दासी अंकोल्ले१४ // 23 // जे यावऽण्णे तहपगारा / से त्तं पुच्छा। [42 प्र.] वे (पूर्वोक्त) गुच्छ किस प्रकार के होते हैं ? पाठान्तर–१ धुडई / 2 कत्थुरी य जीभुमणा / 3 कच्छुभरी। 4 वुच्चू / 5 पडोलकदे / 6 विउवा वरचलंदेरे। 7 णिग्ग मियंग तबरि, अत्थइ चेव तलउदाडा। 8 पाण। 9 मुद्दग। 10 मोल / 11 कुव्वकारिया। 12 भंडा। 13 जोवइ / 14 अकोले। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [51 [42 उ.] गुच्छ अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार है-बैंगन, शल्यको, बोंडी (अथवा थुण्डकी) तथा कच्छुरी, जासुमना, रूपी, पाढकी, नीली, तुलसी तथा मातुलिंगी // 19 // कस्तुम्भरी (धनिया), पिप्पलिका, अलसी, बिल्वी, कायमादिका, चुच्चू (वुच्चु), पटोला, कन्दली, बाउच्चा (विकुर्वा), बस्तुल तथा बादर / / 20 / / पत्रपूर, शीतपूरक तथा जवसक, एवं निर्गुण्डी (निल्गु), अर्क (मृगांक), तूवरी (तबरी), अट्टकी (अस्तकी) और तलपुटा (तलउडादा) भी समझना चाहिए // 21 // तथा सण (शण), वाण (पाण), काश (कास), मद्रक (मुद्रक), आघ्रातक, श्याम, सिन्दुवार और करमर्द, आर्द्र डूसक (अडूसा) करीर (कैर), ऐरावण तथा महित्थ / / 22 / / जातुलक, मोल, परिली, गजमारिणी, कुर्चकारिका (कुर्वकारिका), भंडी (भंड), जावको (जीवकी), केतकी तथा गंज, पाटला, दासी और अंकोल्ल / / 23 // अन्य जो भी इसी प्रकार के (इन जैसे) हैं, (वे सब गुच्छ समझने चाहिए।) यह हुअा गुच्छ का वर्णन। 43. से कि तं गुम्मा ? गुम्मा प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा सेरियए' णोमालिय कोरंटय बंधुजीवग मणोज्जे। पोईय पाण कणइर कुज्जय तह सिंदुवारे य // 24 // जाई मोग्गर तह जूहिया य तह मल्लिया य वासंती। वत्थुल कच्छुल सेवाल गंठि मगदंतिया चेव // 25 // चंपगजीती गवणीइया य कुदो तहा महाजाई / एवमणेगागारा हवंति गुम्मा मुणेयब्वा // 26 // से तं गुम्मा / [43 प्र.] वे (पूर्वोक्त) गुल्म किस प्रकार के हैं ? [43 उ.] गुल्म अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--'सेरित क (सेनतक), नवमालती, कोरण्टक, बन्धुजीवक, मनोद्य, पोतिक (पितिक), पान, कनेर (कर्णिकार), कुर्जक (कुजक), तथा सिन्दुवार / / 24 / / जाती (जाई), मोगरा, जूही (यूथिका), तथा मल्लिका और वासन्ती, बस्तुल, कच्छल (कस्थुल), शैवाल, ग्रन्थि एवं मृगदन्तिका / / 25 / / चम्पक, जीती, नवनीतिका, कुन्द, तथा महाजाति; इस प्रकार अनेक आकार-प्रकार के होते हैं, (उन सबको) गुल्म समझना चाहिए / / 26 / / यह हुई गुल्मों की प्ररूपणा / / 44. से कितं लयाओ? लयानो प्रणेगविहाम्रो पण्णत्ताप्रो / तं जहा पउमलता नागलता असोग-चंपयलता य चूतलता / वणलय वासंतिलया अइमुत्तय-कुद-सामलता // 27 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं लयात्रो। पाठान्तर-१ सेणयए। 2 कत्थल / 3 णीइया / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] [प्रज्ञापनासून [44 प्र.] वे (पूर्वोक्त) लताएँ किस प्रकार की होती हैं ? [44 उ.] लताएँ अनेक प्रकार की कही गई हैं। यथा--पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, और चूतलता, वनलता, वासन्तीलता, अतिमुक्तकलता, कुन्दलता और श्यामलता // 27 // और जितनी भी इस प्रकार की हैं, (उन्हें लता समझना चाहिए।) यह हुआ उन लताओं का वर्णन / 45. से कि तं वल्लीप्रो? वल्लीप्रो अणेगविहाम्रो पण्णत्तायो / तं जहा-- पूसफली कालिंगी तुबी तउसो य एलवालुको / घोसाडई' पडोला पंचंगुलिया य णालीया // 28 // कंगूया कद्दुइया कक्कोडइ कारियल्लई सुभगा। कुवधा(या) य वागली पाववल्लि तह देवदारूप य // 26 // अप्फोया अइमुत्तय णागलया कण्ह-सूरवल्ली य। संघट्ट सुमणसा बि य जासुवण कुविंदवल्ली य // 30 // मुद्दिय प्रष्पा भल्ली छीरविराली जियंति गोवाली। पाणी मासावल्ली गुंजावल्ली' य वच्छाणी'१ // 31 // ससबिंदु गोत्तफुसिया'२ गिरिकण्णइ मालुया य अंजणई / दहफुल्लइ3 कागणि' 4 मोगलो य तह प्रक्कबोंदी य / / 32 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं वल्लीयो / [45 प्र.] वे (पूर्वोक्त) वल्लियां किस प्रकार की होती हैं ? [45 उ.] वल्लियां अनेक प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ-] पूस फली, कालिंगी (जंगली तरबूज को बेल) तुम्बी, त्रपुषी (ककड़ी), एलवालुकी (एक प्रकार की ककड़ी), घोषातकी, पटोला, पंचांगुलिका और नालीका (प्रायनीली) // 28 / / कंगूका, कुद्दकिका (कण्डकिका), कर्कोटकी (कंकोड़ो या ककड़ी), कारवेल्लकी (कारेली), सुभगा, कुवधा (कुवया -कुयवाया) और वागली, पापवल्ली, तथा देवदारु (देवदाली) / / 26 / / अफ्फोया (अफेया), अतिमुक्तका, नागलता और कृष्णसूरवल्ली, संघट्टा और सुमनसा भी तथा जासुवन और कुविन्दवल्ली // 30 // मुद्रीका, अप्पा, भल्ली (अम्बावली), क्षीरविराली (कृष्णक्षीराली), जीयंती (जयन्ती), गोपाली, पाणी, मासाबल्ली, गुजावल्ली, (गुजीवल्ली) और वच्छाणी (विच्छाणी) // 31 / / शशबिन्दु, गोत्रस्पृष्टा (ससिवी, द्विगोत्रस्पृष्टा), गिरिकर्णकी, मालुका और अजनकी, दहस्फोटकी (दधिस्फोटकी), काकणी (काकली) और मोकली तथा अर्कबोन्दी / / 32 / / पाठान्तर--१ घोसाडइ पंडोला, घोसाई य पडोला। 2 आयणीली य। 3 कंडुइया। 4 कुवया, कुयवाया। 5 देवदालो य / 6 अफेया। 7 अम्बावल्ली। 8 किण्हछीराली। 9 जयंती। 10 गुजीवल्ली। 11 विच्छाणी / 12 ससिवी दुगोत्तफुसिया / 13 दहिफोल्लइ / 14 काकली / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [53 इसी प्रकार की अन्य जितनी भी (वनस्पतियां हैं, उन सबको वल्लियां समझना चाहिए।) यह हुई, वल्लियों की प्ररूपणा / 46. से कि तं पव्वगा? पव्वगा प्रणेगविहा पन्नता / तं जहा इक्खू य इक्खुवाडी वीरण तह एक्कडे भमासे य / सुठे (सुबे) सरे य वेत्ते तिमिरे सतपोरग णले य // 33 // वंसे वेलू' कणए कंकावंसे य चाववंसे य / उदए कुडए विमए कंडावेलू य कल्लाणे // 34 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं पव्वगा। (46 प्र] वे पर्वक (वनस्पतियां) किस प्रकार की है ? [46 उ.] पर्वक वनस्पतियां अनेक प्रकार की कही गई हैं / वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ--] इक्षु और इावाटी, वीरण (वीरुणी) तथा एक्कड़, भमास (माष), सूठ (सुम्ब), शर और वेत्र (बेत), तिमिर, शतपर्वक और नल / / 33 / / वंश (बांस), वेलू (वेच्छ), कनक, कंकावंश और चापवंश, उदक, कुटज, विमक (विसक), कण्डा, वेल (वेल्ल) और कल्याण // 34 // और भी जो इसी प्रकार की वनस्पतियां हैं, (उन्हें पर्वक में हो समझनी चाहिए।) यह हुई, उन पर्वकों को प्ररूपणा / 47. से कि तं तणा? तणा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा सेडिय भत्तिय होत्तिय डब्भ कुसे पवए य पोडइला / प्रज्जुण असाढए रोहियंसे सुयवेय खीरतुसे५ // 35 // एरंडे कुरुविदे कक्खड सुठे तहा विभंगू य / महुरतण लुणय सिप्पिय बोधव्वे सुकलितणा य // 36 // जे यावऽणे तहप्पगारा। से तं तणा। [४७-प्र.] वे (पूर्वोक्त) तण कितने प्रकार के हैं ? [४६-उ.] तृण अनेक प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार [गाथार्थ-] सेटिक (सेंडिक), भक्तिक (मांत्रिक), होत्रिक, दर्भ, कुश और पर्वक, पोटकिला (पाटकिला–पोटलिका), अर्जुन,आषाढ़क, रोहितांश, शुकवेद और क्षीरतुष(क्षीरभुसा)।।३५।। एरण्ड, कुरुविन्द, कक्षट (करकर), सूठ (मुट्ठ), विभंगू और मधुरतृण, लवणक (क्षुरक), शिल्पिक (शुक्तिक) . पाठान्तर--१ एक्कडे य मासे / 2 वेच्छु / 3 विसए, कंडावेल्ले / 4 मंतिय / 5 खीरभसे / 6 कस्कर / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] [प्रज्ञापनासूत्र और सुकलीतृण (सुकलीवृण), (इन्हें) तण जानना चाहिए // 36 / / जो अन्य इसी प्रकार के हैं (उन्हें भी तृण समझना चाहिए / ) यह हुई उन (पूर्वकथित) तृणों की प्ररूपणा / 48. से कि तं वलया ? वलया प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा ताल तमाले तक्कलि तेयलि' सारे य सारकल्लाणे। सरले जावति केयइ कदली तह धम्मरुक्खे य // 37 // भुयरुक्ख हिंगुरुक्खे लवंगरुक्खे य होति बोधव्वे / पूयफली खजूरी बोधवा नालिएरो य // 38 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं वलया। [४८.प्र.] वे वलय (जाति की वनस्पतियां) किस प्रकार की हैं। , [48 उ.] वलय-वनस्पतियां अनेक प्रकार की कही गई हैं / वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ-] ताल (ताड़), तमाल, तर्कली (तक्कली), तेतली (तोतली), सार (शाली), सारकल्याण (सारकत्राण), सरल, जावती (जावित्री), केतकी (केवड़ा), कदली (केला) और धर्मवृक्ष (चर्मवृक्ष) / / 37 / / भुजवृक्ष (मुचवृक्ष), हिंगुवृक्ष, और (जो) लवंगवृक्ष होता है, (इसे वलय) समझना चाहिए। पूगफली (सुपारी), खजूर और नालिकेरी (नारियल), (इन्हें भी वलय) समझना चाहिए // 38 // 46. से किं तं हरिया? हरिया प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा~ प्रज्जोरह वोडाणे हरितग तह तंदुलेज्जग तणे य / वस्थुल पारग मज्जार पाइ बिल्लो य पालक्का // 36 // वगपिप्पली य दम्वी सोस्थियसाए तहेव मंडुक्की। मूलग सरिसव अंबिलसाए य जियंतए चेव // 40 // तुलसी कण्ह उराले फणिज्जए प्रज्जए य भूयणए। चोरग दमणग मरुयग सयपुफिदीवरे य तहा // 41 // जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं हरिया। [46 प्र.] वे (पूर्वोक्त) हरित (वनस्पतियां) किस प्रकार की हैं ? [46 उ.] हरित वनस्पतियां अनेक प्रकार की कही गई हैं / वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ-] अद्यावरोह, व्युदान, हरितक तथा तान्दुलेयक (चन्दलिया), तृण, वस्तुल (बथुआ), पारक (पर्वक), मार्जार, पाती, बिल्वी और पाल्यक (पालक) // 39 // दकपिप्पली और दर्वी, पाठान्तर-१ तोयली साली य सारकत्ताणे। 2 कयली तह चम्मरक्खे य / 3 पोरग मज्जार याइ / Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [55 स्वस्तिक शाक (सौत्रिक शाक), तथा माण्डुको, मूलक, सर्षप (सरसों का साग), अम्लशाक (अम्ल साकेत) और जीवान्तक / / 40 / / तुलसी, कृष्ण, उदार, फानेयक और आर्यक (पार्षक), भुजनक (भूसनक), चोरक (वारक), दमनक, मरुचक, शतपुष्पी तथा इन्दीवर // 41 // __ अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियां हैं, (वे सब हरित (हरी या लिलौती) के अन्तर्गत समझनी चाहिए।) पतियों की) प्ररूपणा / 50. से कि तं प्रोसहीरो ? प्रोसहोलो प्रणेगविहानो पण्णत्तायो / तं जहासाली 1 वीही 2 गोधूम 3 'जवजवा 4 कल 5 मसूर 6 तिल 7 मुग्गा / मास 6 निष्फाव 10 कुलत्थ 11 अलिसंद 12 सतीण 13 पलिमंथा 14 // 42 // प्रयसी 15 कुसुभ 16 कोदव 17 कंगू 18 रालग 16 २वरसामग 20 कोदूसा 21 / सण 22 सरिसव 23 मूलग 24 बोय 25 जा यावण्णा तहपगारा // 43 // [50 प्र] वे अोषधियां किस प्रकार की होती हैं ? [50 उ.] अोषधियां अनेक प्रकार की कही गई हैं / वे इस प्रकार है [गाथार्थ --] 1. शाली (धान), 2. व्रीहि (चावल), 3. गोधूम (गेहूँ), 4. जौ (यवयव), 5. कलाय, 6. ममूर, 7. तिल, 8. मूग, 6. माष (उड़द), 10. निष्पाव, 11. कुलत्थ (कुलथ), 11. अलिसन्द, 13. सतीण, 14. पलिमन्थ / / 42 / / 15. अलसी, 16. कुसुम्भ, 17. कोदों (कोद्रव), 18. कंगू, 19. राल (रालक), 20. वरश्यामाक (सांवा धान) और 21. कोदूस (कोइंश), 22. शणसन, 23. सरसों (दाने), 24. मूलक बीज; ये और इसी प्रकार की अन्य जो भी (वनस्पतियां) हैं, (उन्हें भी अोषधियों में गिनना चाहिए।) // 43 / / यह हुआ ओषधियों का वर्णन / 51. से कि तं जलरुहा? जलरुहा अणेगविहा पण्णता / तं जहा-उदए अबए पणए सेवाले कलंबुया हढे कसेरुया कच्छा भाणी उप्पले पउमे कुमुदे नलिणे सुभए सोगंधिए पोंडरोए महापोंडरोए सयपत्ते सहस्सपत्ते कल्हारे कोकणवे अरविंदे तामरसे भिसे भिसमुणाले पोक्खले पोक्खलस्थिभए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं जलरहा। [51 प्र.] वे जलरुह (रूप वनस्पतियां) किस प्रकार की हैं ? [51 उ.] जल में उत्पन्न होने वाली (जलरुह) वनस्पतियां अनेक प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-उदक, अवक, पनक, शैवाल, कलम्बुका, हढ (हठ), कसेरुका (कसेरू), कच्छा, भाणी, उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र, पाठान्तर--१ जव जवजवा / 2 वरट्ट साम / 3 पोक्खल स्थिभए / Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र कल्हार, कोकनद, अरविन्द, तामरस कमल, भिस, भिसमृणाल, पुष्कर और पुष्करास्तिभज (पुष्करास्तिभुक्)। इसो प्रकार को और भी (जल में उत्पन्न होने वाली जो वनस्पतियां हैं, उन्हें जलरुह के अन्तर्गत समझना चाहिए।) यह हुमा, जलरहों का निरूपण / 52. से कि तं कुहणा? कुहणा प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा-पाए काए कुहणे कुणक्के दम्वहलिया सफाए 'सज्जाए सित्ताए वंसी णहिया कुरए, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं कुहणा। {52 प्र.] वे कुहण वनस्पतियां किस प्रकार की हैं ? [52 उ ] कुहण वनस्पतियां अनेक प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार-पाय, काय, कुहण, कुनक्क, द्रव्यहलिका, शफाय, सद्यात (स्वाध्याय ?), सित्राक (छत्रोक) और वंशी, नहिता, कुरक (वशीन, हिताकुरक)। इसी प्रकार की जो अन्य वनस्पतियां उन सबको कुहण के अन्तर्गत समझना चाहिए / यह हुमा कुहण वनस्पतियों का वर्णन / 53. णाणाविहसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता / खंधो वि एगजीवो ताल-सरल-नालिएरीणं // 44 // जह सगलसरिसवाणं सिलेसमिस्साण वट्टिया वट्टी। पत्तेयसरीराणं तह होति सरीरसंघाया // 45 // जह वा तिलपप्पडिया बहुएहि तिलेहि संहता संतो। पत्तेयसरीराणं तह होंति सरीरसंघाया // 46 // से तं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया / [53 गाथार्थ---] वृक्षों (उपलक्षण से गुच्छ, गुल्म आदि) को प्राकृतियां नाना प्रकार को होती हैं / इनके पत्ते एकजीवक (एक जीव से अधिष्ठित) होते हैं, और स्कन्ध भी एक जीव वाला होता है। (यथा-) ताल, सरल, नारिकेल वृक्षों के पत्ते और स्कन्ध एक-एक जीव वाले होते हैं / / 31 / / 'जैसे श्लेष द्रव्य से मिश्रित किये हुए समस्त सर्षपों (सरसों के दोनों) की वट्टी (में सरसों के दाने पृथक्-पृथक् होते हुए भी) एकरूप प्रतीत होती है, वैसे हो (रागद्वेष से उपचित विशिष्टकर्मश्लेष से) एकत्र हए प्रत्येकशरीरी जीवों के (शरीर भिन्न होते हए भी) शरीरसंघात रूप होते हैं // 45 // जैसे तिलपपड़ी (तिलपट्टी) में (प्रत्येक तिल अलग-अलग प्रतीत होते हुए भी) बहुत-से तिलों के संहत (एकत्र) होने पर होती है, वैसे ही प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात होते हैं // 46 // इस प्रकार उन (पूर्वोक्त) प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीवों की प्रज्ञापना पूर्ण हुई। 54. [1] से कि तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया? साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पण्णता / तं जहा--- प्रवए पणए सेवाले लोहिणी मिहू स्थिहू स्थिभगा। असकण्णी सीहकण्णी सिउंढि तत्तो मुसुढी य // 47 // ___ पाठान्तर-१ सज्झाए छत्तोए / 2 वंसीण हिताकुरए / 3 मिहत्थु हुत्थिभागा य / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापदा [57 रुरु कंडुरिया 'जारू छोरविराली तहेव किट्ठीया / हलिद्दा सिंगबेरे य ालगा मूलए इ य // 48 // कंबू य कण्हकडबू महुप्रो क्लई तहेव महुसिंगो / णिरुहा सप्पसुयंधा छिण्णरुहा चेव बीयरुहा // 46 / / पाढा ४मियवालुको महुररसा चेव परायवल्ली य।। पउमा य माढरी दंती चंडी किट्टि ति यावरा // 50 // मासपण्णी मुगापण्णी जीवियरसभेय रेणुया चेव / कापोली खीरकापोली तहा भंगी णही इ य // 51 // किमिरासि भद्दमुत्था णंगलई पलुगा इय। किण्हे पउले य हढे हरतणुया चेव लोयाणी // 52 // कण्हे कंदे वज्जे सूरणकंदे तहेव खल्लूडे / एए अणंतजोवा, जे यावऽण्णे तहाविहा // 53 / / [54-1 प्र] वे (पूर्वोक्त) साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार के हैं ? [54-1 उ.] साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार [गाथार्थ --] अवक, पनक, शैवाल, लोहिनी, स्निहूपुष्प (थोहर का फूल), मिहू स्तिहू (मिहूत्थु), हस्तिभागा और अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिउण्डी (शितुण्डी), तदनन्तर मुसुण्ढी // 47 / / रुरु, कण्डुरिका (कुण्डरिका या कुन्दरिका), जीरु (जारु), क्षीरविरा (डा)ली; तथा किट्टिका, हरिद्रा (हल्दी), शृगवेर (आदा या अदरक) और आलू एवं मूला / / 48 / / कम्बू (काम्बोज) और कृष्णकटबू (कर्णोस्कट), मधुक (सुमात्रक), वलकी तथा मधुशृगी, नोरूह, सर्पसुगन्धा, छिन्नरुह और बीजरुह / / 49 / / पाढा, मृगवालुकी, मधुररसा और राजपत्री, तथा पद्मा, माठरी, दन्ती, इसी प्रकार चण्डी और इसके बाद किट्टी (कृष्टि) // 50 // माषपर्णी, मुद्गपर्णी, जीवित, रसभेद, (जीवितरसह) और रेणुका, काकोली (काचोली), क्षीरकाकोली, तथा भृगी, (भंगी), इसी प्रकार नखी / / 5 / / कृमिराशि, भद्रमुस्ता (भद्रमुक्ता), नांगलको, पलुका (पेलुका), इसी प्रकार कृष्णप्रकुल, और हड, हरतनुका तथा लोयाणी / / 52 / / कृष्णकन्द, वज्रकन्द, सूरणकन्द, तथा खल्लर, ये (पूर्वोक्त) अनन्तजीव वाले हैं / इनके अतिरिक्त और जितने भी इसी प्रकार के हैं, (वे सब अनन्त जीवात्मक हैं।) / / 53 / / [2] तणमूल कंदमूले समूले ति यावरे / संखेज्जमसंखेज्जा बोधव्वाऽणंतजीवा य // 54 // सिंघाडगस्स गुच्छो अणेगजीवो उ होति नायब्यो। पत्ता पत्तेयजिया, दोण्णि य जीवा फले भणिता // 55 // . 1 जोरु / 2 किट्टोया ! 3 कंबूयं कन्नुक्कइ मुमत्तयो / 4 मियमालुकी। 5 रायवत्ती / 6 बेलुगा इय / Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] [प्रज्ञापनासूत्र ..[54-2] तृणमूल, कन्दमूल और वंशीमूल, ये और इसी प्रकार के दूसरे संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त जीव वाले समझने चाहिए / सिंघाड़े का गुच्छ अनेक जीव वाला होता है, यह जानना चाहिए और इसके पत्ते प्रत्येक जीव वाले होते हैं / इसके फल में दो-दो जीव कहे गए हैं // 55 // [3] जस्स मूलस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसए / अणंतजोवे उ से मूले, जे यावऽण्णे तहाविहा // 56 // जस्स कंदस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसए। अणंतजीवे उ से कंदे, जे यावऽण्णे तहाविहा // 57 // जस्स खंधस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई / अणतजीवे उ से खंधे, जे यावऽण्णे तहाविहा // 5 // जीसे तयाए भग्गाए समो भंगो पदीसए / अणंतजीवा तया सा उ, जा यावण्णा तहाविहा // 56 // जस्स सालस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई / / अणंतजीवे उ से साले, जे यावऽपणे तहाविहा // 60 // जस्स पवालस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई / प्रणंतजीवे पवाले से, जे यावऽण्णे तहाविहा // 61 // जस्स पत्तस्स भग्गस्स समो भंगो पदोसई / अणंतजीवे उ से पत्ते, जे यावऽण्णे तहाविहा / / 62 / / जस्स पुप्फस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई। अणंतजीवे उ से पुष्फे, जे यावऽण्णे तहाविहा / / 63 // जस्स फलस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसतो।। अणंतजोवे फले से उ, जे यावऽण्णे तहाविहा // 64 / / जस्स बीयस्स भग्गस्स समो भंगो पदीसई। अणंतजीवे उ से बीए, यावऽण्णे तहाविहा // 65 // [54-3] जिस मूल को भंग करने (तोड़ने) पर समान (चक्राकार) दिखाई दे, वह मूल अनन्त जीव वाला है / इसी प्रकार के दूसरे जितने भी मूल हों, उन्हें भी अनन्तजीव समझना चाहिए / // 56 // जिस टूटे या तोड़े हुए कन्द का भंग समान दिखाई दे, वह कन्द अनन्तजीव वाला है / इसी प्रकार के दूसरे जितने भी कन्द हों, उन्हें अनन्तजीव समझना चाहिए / / 57 / / जिस टूटे हुए स्कन्ध का भंग समान दिखाई दे, वह स्कन्ध (भी) अनन्तजीव वाला है / इसी प्रकार के दूसरे स्कन्धों को (भी अनन्तजीव समझना चाहिए)॥५८।। जिस छाल (त्वचा) के टूटने पर उसका भंग सम दिखाई दे, वह छाल भी अनन्तजीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य छाल भी (अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए) ||56 / / जिस टूटी हुई शाखा (साल)का भंग समान दृष्टिगोचर हो, वह शाखा भी अनन्तजीव वाली है। इसी प्रकार की जो अन्य (शाखाएँ) हों, (उन्हें भी अनन्तजी व वाली समझो) / / 60 // Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] टूटे हुए जिस प्रवाल (कोंपल) का भंग समान दोखे, वह प्रवाल भी अनन्तजीव वाला है। इसी प्रकार के जितने भी अन्य (प्रवाल) हों, (उन्हें अनन्तजीव वाले समझो) / / 61 / / टूटे हुए जिस पत्ते का भंग समान दिखाई दे, वह पत्ता (पत्र) भी अनन्तजीव वाला है। इसी प्रकार जितने भी अन्य पत्र हों, उन्हें अनन्तजीव वाले समझने चाहिए / / 62 / / टूटे हुए जिस फूल (पुष्प) का भंग समान दिखाई दे, वह भी अनन्तजीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी पुष्प हों, उन्हें अनन्तजीव वाले समझने चाहिए / / 63 / / जिस टूटे हुए फल का भंग सम दिखाई दे, वह फल भी अनन्त जीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी फल हों, उन्हें अनन्तजीव वाले समझने चाहिए // 64|| जिस टटे हए बीज का भंग समान दिखाई दे, वह बीज भी अनन्तजीव वाला है। इसी प्रकार के अन्य जितने भी बीज हों, उन्हें अनन्तजीव वाले समझने चाहिए // 65 // [4] जस्स मूलस्स भग्गस होरो भंगे पदोसई / परित्तजीवे उ से मूले, जे यावऽण्णे तहाविहा // 66 // जस्स कंदस्स भग्गस्स होरो भंगे पदीसई / परितजीवे उ से कंदे, जे यावऽण्णे तहाविहा // 67 // जस्स खंधस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदीसई / परित्तजीवे उ से खंधे, जे यावऽण्णे तहाविहा // 6 // जीसे तयाए भग्गाए होरो भंगे पदीसई। परित्तजीवा तया सा उ, जा यावऽण्णा तहाविहा // 66 // जस्स सालस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदोसती। परित्तजीवे उ से साले, जे यावऽषणे तहाविहा // 7 // जस्स पवालस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदीसति / परित्तजीवे पवाले उ, जे यावण्णे तहाविहा // 71 // जस्स पत्तस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदीसति / परित्तजीवे उ से पत्ते, जे यावऽणे तहाविहा // 72 / / जस्स पुप्फस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदीसति / परित्तजीवे उ से पुष्फे, जे यावऽण्णे तहाविहा // 73 // जस्स फलस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदीसति / परित्तजीवे फले से उ, जे यावऽण्णे तहाविहा // 74 / जस्स बीयस्स भग्गस्स हीरो भंगे पदीसति / परित्तजीवे उ से बीए, जे यावऽण्णे तहाविहा // 7 // [54-4] टूटे हुए जिस मूल का भंग(-प्रदेश) हीर (विषमछेद) दिखाई दे, वह मूल प्रत्येक (परित्त) जीव वाला है / , इसी प्रकार के अन्य जितने भी मूल हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझने चाहिए) // 66 / / टूटे हुए जिस कन्द के भंग-प्रदेश में हीर (विषमछेद) दिखाई दे, वह कन्द ; Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र प्रत्येक जीव वाला है / इसी प्रकार के अन्य जितने भी (कन्द हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाले समझो) // 67 / / टूटे हुए जिस स्कन्ध के भंगप्रदेश में हीर दिखाई दे, वह स्कन्ध प्रत्येकजीव वाला है। इसी प्रकार के और भी जितने स्कन्ध हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझो।) // 68 / / जिस छाल के टूटने पर उसके भंग (प्रदेश) में हीर दिखाई दे, वह छाल प्रत्येक जीव वाली है / इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छाले (त्वचाएँ) हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझो।) // 66 // जिस शाखा के टूटने पर उसके भंग (प्रदेश) में विषम छेद दीखे, वह शाखा प्रत्येक जीव वाली है / इसी प्रकार की अन्य जितनी भी शाखाएँ हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाली समझनी चाहिए।) // 70 / / जिस प्रवाल के टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह प्रवाल भी प्रत्येकजीव वाला है / इसी प्रकार के और भी जितने प्रवाल हों, (उन्हें प्रत्येक जीव वाले समझो।) / / 71 / / जिस टूटे हुए पत्ते के भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह पत्ता प्रत्येकजीव वाला है। इसी प्रकार के और भी जितने पत्ते हों, (उन्हें भी प्रत्येकजीव वाले समझो।) / / 72 / / जिस पुष्प के ट्टने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दिखाई दे, वह पुष्प प्रत्येकजीव वाला है। इसी प्रकार के और भी जितने (पुष्प हों, उन्हें प्रत्येकजीवो समझना चाहिए)॥७३।। जिस फल के टूटने पर उसके भंगप्रदेश में विषमछेद दृष्टिगोचर हो, वह फल भी प्रत्येकजीव वाला है। ऐसे और भी जितने (फल हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाले समझने चाहिए।)।७४। जिस बीच के टूटने पर उसके भंग में विषमछेद दिखाई दे, वह बीज प्रत्येकजीव वाला है / ऐसे अन्य जितने भी बीज हों, (वे भी प्रत्येकजीव वाले जानने चाहिए) // 7 // [5] जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली बहलतरी मवे। अणंतजीवा उ सा छल्लो, जा यावऽण्णा तहाविहा // 76 / / जस्स कंदस्स कट्ठामो छल्लो बहलतरी भवे / अणंतजीवा तु सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा / / 77 / जस्स खंधस्स कट्ठामो छल्ली बहलतरी भवे / अणंतजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 7 // जोसे सालाए कट्ठाओ छल्ली बलतरी भवे / अणंतजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 79 // [54-5] जिस मूल के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा छल्ली (छाल) अधिक मोटी हो, वह छाल अनन्तजीव वाली है / इस प्रकार की जो भी अन्य छाले हों, उन्हें अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए / / 76 // जिस कन्द के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो, वह अनन्तजीव वाली है। इसी प्रकार की जो भी अन्य छाले हों, उन्हें अनन्तजीव वाली समझना चाहिए // 77 // जिस स्कन्ध के काष्ठ से छाल अधिक मोटी हो, वह छाल अनन्तजीव वाली है। इसी प्रकार की अन्य जितनी भी छाले हों, (उन सबको अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए / ) // 78 / / जिस शाखा के काष्ठ की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, वह छाल अनन्तजीव वाली है। इस प्रकार जितनी भी छाले हों, उन सबको अनन्त जीव वाली समझना चाहिए // 79 // [6] जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 10 // Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] जस्स कंदस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 1 // जस्स खंधस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्ली, जा यावऽण्णा तहाविहा // 2 // जोसे सालाए कट्ठाओ छल्ली तणुयतरी भवे / परित्तजीवा उ सा छल्लो, जा यावऽण्णा तहाविहा // 83 / / [54-6] जिस मूल के काष्ठ की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजोत्र वालो है। इस प्रकार जितनी भी अन्य छाले हों, (उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझो।) / / 8 / / जिस कन्द के काष्ठ से उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है। इस प्रकार की जितनी भी अन्य छाले हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझना चाहिए / / 8 / / जिस स्कन्ध के काष्ठ की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है। इस प्रकार की अन्य जो भी छाले हों, उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझना चाहिए / / 82 / / जिस शाखा के काष्ठ की अपेक्षा, उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकजीव वाली है। इस प्रकार की अन्य जो भी छाले हों, उन्हें, प्रत्येकजीव वाली समझना चाहिए / / 3 / / [7] चक्कागं भज्जमाणस्स गंठी चुण्णघणो भवे / पुढविसरिसेण भेएण अणंतजीवं वियाणाहि // 4 // गूढछिरागं पत्तं सच्छीरं जंच होति णिच्छोरं / जं पि य पणटुसंधि प्रणंतजीवं वियाणाहि // 75 // [54-7] जिस (मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प आदि) को तोड़ने पर (उसका भंगस्थान) चक्राकार अर्थात् सम हो, तथा जिसकी गांठ (पर्व, गांठ या भंगस्थान) चूर्ण (रज) से सघन (व्याप्त) हो, उसे पृथ्वी के समान भेद से अनन्तजीवों वाला जानो / / 84 // जिस (मूलकन्दादि) की शिराएँ गूढ़ (प्रच्छन्न या अदृश्य) हों, जो (मूलादि) दूध वाला हो अथवा जो दूध-रहित हो तथा जिस (मूलादि) की सन्धि नष्ट (अदृश्य) हो, उसे अनन्तजीवों वाला जानो // 8 // [8] पुष्फा जलया यलया य वेंटबद्धाय णालबद्धा य / संखेज्जमसंखेज्जा बोधवाऽणंतजीवा य॥८६॥ जे केइ नालियाबद्धा पुप्फा संखेज्जजीविया भणिता / णिहुया अणंतजीवा, जे यावऽणे तहाविहा // 8 // पउमुप्पलिणोकदे अंतरकंदे तहेव झिल्ली य / एते अणंतजीवा एगो जीवो भिस-मुणाले // 8 // पलंड-लहसणकंदे य कंदली य कुसुबए / एए परित्तजीवा जे यावऽण्णे तहाविहा // 16 // Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्रे पउमुष्पल-नलिणाणं सुभग-सोगंधियाण य। अरविंद-कोकणाणं सतवत्त-सहस्सवत्ताणं // 10 // बेंट बाहिरपत्ता य कणिया चेव एगजीवस्स / अभितरगा पत्ता पत्तेयं केसरा मिजा // 1 // वेणु णल इक्खुवाडियमसमासइख य इक्कडेरंडे / करकर सुठि विहुंगु तणाण तह पध्वगाणं च // 12 // अच्छि पब्वं बलिमोडो य एगस्स होति जोवस्स / पत्तेयं , पत्ताई पुफाई अणेगजीवाइं // 3 // पुस्सफलं कालिगं तुब तउसेलवालु वालुके / घोसाडगं पडोलं तियं चेव तेंदूसं // 14 // विटं गिरं कडाहं एयाहं होंति एगजीवस्स / पत्तेयं पत्ताई सकेसरमकेसरं मिजा // 5 // सप्फाए सज्जाए उब्वेहलिया य कुहण कंदुक्के / एए प्रणंतजीवा कंडुक्के होति भयणा उ // 66 // [54-8] पुष्प जलज (जल में उत्पन्न होने वाले) और स्थलज हों, वृन्तबद्ध हों या नालबद्ध, संख्यात जीवों वाले, असंख्यात जीवों वाले और कोई-कोई अनन्त जीवों वाले समझने चाहिए / / 6 / / जो कोई नालिकाबद्ध पुष्प हों, वे संख्यात जीव वाले कहे गए हैं। थूहर (स्निहका) के फल अनन्त जीवों वाले हैं। इसी प्रकार के (थूहर के फूलों के सदृश) जो अन्य फूल हों, (उन्हें भी अनन्त जीवों वाले समझने चाहिए।) // 87 // पद्मकन्द, उत्पलिनीकन्द और अन्तरकन्द, इसी प्रकार झिल्ली (नामक वनस्पति), ये सब अनन्त जीवों वाले हैं; किन्तु (इनके) भिस और मृणाल में एक-एक जीव है / 188|| पलाण्डकन्द (प्याज), लहसूनकन्द, कन्दली नामक कन्द और कुसुम्बक (कुस्तुम्बक या कुटुम्बक) (नामक वनस्पति) ये प्रत्येकजीवाश्रित हैं। अन्य जो भी इस प्रकार की वनस्पतियां हैं, (उन्हें प्रत्येकजीव वाली समझो / ) |89 // पद्म, उत्पल, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, अरविन्द, कोकनद, शतपत्र और सहस्रपत्र-कमलों के वृत्त (डंठल), बाहर के पत्ते और कणिका, ये सब एकजीवरूप हैं / इनके भीतरी पत्ते , केसर और मिजा (अर्थात् - फल) भी प्रत्येकजीव वाले होते हैं 1160-61 / / वेणु (बांस), नल (नड), इक्षुवाटिक, समासेक्षु और इक्कड़, रंड, करकर, सुठी (सोंठ), विहुंगु (विहंगु) एवं दूब आदि तृणों तथा पर्व (पोर = गांठ) वाली वनस्पतियों के जो अक्षि, पर्व तथा बलिमोटक (गाठों को परिवेष्टन करने वाला चक्राकार भाग) हों, वे सब एकजीवात्मक हैं। इनके पत्र (पत्ते) प्रत्येकजीवात्मक होते हैं, और इनके पुष्प अनेकजीवात्मक होते हैं / / 92-93 / / पुष्यफल, कालिंग, तुम्ब, अपुष, एलवालुक (चिर्भट-चीभड़ा-ककड़ी), वालुक (चिर्भट-ककड़ी), तथा घोषाटक (घोषातक), पटोल, तिन्दुक, तिन्दूस फल, इनके सब पत्ते प्रत्येक जीव से (पृथक-पृथक् ) अधिष्ठित होते हैं। तथा वृन्त (डंठल), गुद्दा और गिर (कटाह) के सहित तथा केसर (जटा) सहित या अकेसर (जटारहित) मिजा (बीज), ये सब एक-एक जीव से अधिष्ठित होते हैं / / 64-65|| सप्फाक, सद्यात (सध्यात), उव्वेहलिया और कुहण तथा कन्दुक्य Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] ये सब वनस्पतियां अनन्तजीवात्मक होती हैं; किन्तु कन्दुक्य वनस्पति में भजना (विकल्प) है, (अर्थात् --कोई कन्दुक्य अनन्तजीवात्मक और कोई असंख्यातजीवात्मक होती है / ) // 96 / / [8] जोणिन्भूए बीए जीवो वक्कमइ सो व अण्णो वा / जो वि य मूले जीवो सो वि य पत्ते पढमताए // 17 // सन्धो वि किसलनो खलु उग्गममाणो अशंतनो भणियो। सो चेव विवड्ढंतो होइ परित्तो अणंतो वा // 6 // [54-6] योनिभूत बीज में जीव उत्पन्न होता है, वह जीव वही (पहले वाला बीज का जीव हो सकता है,) अथवा अन्य कोई जीव (भी वहाँ पाकर उत्पन्न हो सकता है / ) जो जीव मूल (रूप) में (परिणत) होता है, वही जीव प्रथम पत्र के रूप में भी (परिणत होता) है। (अतः मूल और वह प्रथमपत्र दोनों एकजीवकर्तृक भी होते हैं।) / / 67 / / सभी किसलय (कोंपल) ऊगता हुमा अवश्य ही अनन्तकाय कहा गया है। वही (किसलयरूप अनन्तकायिक) वृद्धि पाता हुआ प्रत्येकशरीरी या अनन्तकायिक हो जाता है / / 98 // [10] समयं वक्ताणं समयं तेसि सरीरनिव्वत्ती। समयं प्राणुग्गहणं समयं ऊसास-नोसासे NEET एक्कस्स उ जंगहणं बहूण साहारणाण तं चेव / जं बहुयाणं गहणं समासो तं पि एगस्स // 10 // साहारणमाहारो साहारणमाणुपाणगहणं च / साहारणजीवाणं साहारणलखणं एवं // 101 // जह अयगोलो धंतो जाओ तत्ततवाणिज्जसंकासो। सम्वो अगणिपरिणतो निगोयजीवे तहा जाण // 102 // एगस्स दोण्ह तिण्ह व संखेज्जाण व न पासिउं सक्का / दीसंति सरीराइं णिपोयजीवाणऽणंताणं // 103 / / [54-10] एक साथ उत्पन्न (जन्मे) हुए उन (साधारण वनस्पतिकायिक जीवों की शरीरनिष्पत्ति (शरीररचना) एक ही काल में होती (तथा) एक साथ ही (उनके द्वारा) प्राणापान-(के योग्य पुद्गलों का) ग्रहण होता है, (तत्पश्चात्) एक काल में ही (उनका) उच्छ्वास और निःश्वास होता है ।।६६एक जीव का जो (आहारादि पुद्गलों का) ग्रहण करना है, वही बहुत-से (साधारण) जीवों का ग्रहण करना (समझना चाहिए।) और जो (आहारादि पुद्गलों का) ग्रहण बहुत-से (साधारण) जीवों का होता है, वही एक का ग्रहण होता है // 100 / / (एक शरीर में पाश्रित) साधारण जीवों का आहार भी साधारण (एक) ही होता है, प्राणापान (के योग्य पुद्गलों) का ग्रहण (एवं श्वासोच्छ्वास भी) साधारण होता है / यह (साधारण जीवों का) साधारण लक्षण (समझना चाहिए।) / / 101 / / जैसे (अग्नि में) अत्यन्त तपाया हुआ लोहे का गोला, तपे हुए (सोने) के समान सारा का सारा अग्नि में परिणत (अग्निमय) हो जाता है, उसी प्रकार (अनन्त) निगोद जीवों का निगोदरूप एक शरीर में परिणमन होना समझ लो / / 102 / / एक, दो, तीन, संख्यात अथवा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [प्रज्ञापनासूत्र (असंख्यात) निगोदों (के पृथक्-पृथक् शरीरों) का देखना शक्य नहीं है / (केवल) (अनन्त-) निगोदजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं / / 103 / / [11] लोगागासपएसे णिोयजीवं ठवेहि एक्केवक / एवं मवेज्जमाणा हवंति लोया प्रणता उ // 104 // लोगागासपएसे परित्तजीवं ठवेहि एक्केक्कं / एवं मविज्जमाणा हवंति लोया असंखेज्जा // 10 // पत्तेया पज्जत्ता पयरस्स असंखेभागमेत्ता उ। लोगाऽसंखाऽपज्जत्तगाण साहारणमर्णता // 106 // [एएहिं सरीरेहिं पच्चक्खं ते परूविया जीवा / सुहुमा प्राणागेज्झा चक्खुप्फासं ण ते एंति // 1 // ] [पक्खित्ता गाहा] जे यावण्णे तहप्पगारा। [54-11] लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में यदि एक-एक निगोदजीव को स्थापित किया जाए और उनका माप किया जाए तो ऐसे-ऐसे अनन्त लोकाकाश हो जाते हैं, (किन्तु लोकाकाश तो एक ही है, वह भी असंख्यातप्रदेशी है।) // 104 / / एक-एक लोकाकाश-प्रदेश में, प्रत्येक वनस्पति काय के, एक-एक जीव को स्थापित किया जाए और उन्हें मापा जाए तो ऐसे-ऐसे असंख्यातलोकाकाश हो जाते हैं // 105 / / प्रत्येक वनस्पतिकाय के पर्याप्तक जीव धनीकृत प्रतर के असंख्यातभाग मात्र (अर्थात्-लोक के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने) होते हैं। तथा अपर्याप्तक प्रत्येक वनस्पतिकाय के जीवों का प्रमाण असंख्यात लोक के बराबर है; और साधारण जीवों का परिमाण अनन्तलोक के बराबर है / / 106 // [प्रक्षिप्त गाथार्थ] "इन (पूर्वोक्त) शरीरों के द्वारा स्पष्टरूप से उन बादरनिगोद जीवों की प्ररूपणा की गई है। सूक्ष्म निगोदजीव केवल आज्ञाग्राह्य (तीर्थंकरवचनों द्वारा ही ज्ञेय) हैं। क्योंकि ये (सूक्ष्मनिगोद जीव) आँखों से दिखाई नहीं देते / / 1 / / " अन्य जो भी इस प्रकार की (न कही गई) वनस्पतियां हों, (उन्हें साधारण या प्रत्येक वनस्पतिकाय में लक्षणानुसार यथायोग्य समझ लेनी चाहिए।) 55. [1] ते समासप्रो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / [55-1] वे (पूर्वोक्त सभी प्रकार के वनस्पतिकायिक जीव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / [2] तस्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं असंपत्ता / [55-2] उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे असम्प्राप्त (अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण नहीं किये हुए) हैं। [3] तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा तेसि वण्णादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सग्गसो विहाणाई, संखेज्जाई जोणिप्पमुहसयसहस्साइं / पज्जत्तगणिस्साए अपज्जत्तगा वक्कमंति--जस्थ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] एगो तत्थ सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता। एएसि णं इमानो गाहाओ अणुगंतव्वानो। तं जहा-- कंदा य 1 कंदमूला य 2 रुक्खमूला इ 3 यावरे / गुच्छा य 4 गुम्म 5 बल्ली य 6 वेणुयाणि 7 तणाणि य 8 // 107 // पउमुप्पल 6-10 संघाडे 11 हढे य 12 सेवाल 13 किण्हए 14 पणए 15 / अवए य 16 कच्छ 17 भाणी 18 कंडुक्केक्कूणवीसइमे 16 // 108 / / तय-छल्लि-पवालेसु य पत्त-पुष्फ-फलेसु य / मूलऽग्ग-मज्झ-बीएसु जोणी कस्स य कित्तिया // 10 // से तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया। से तं बादरवणस्सइकाइया। से तं वणस्सइकाइया / से तं एगिदिया। [55-3] उनमें से जो पर्याप्तक हैं, उनके वर्ण की अपेक्षा से, गन्ध की अपेक्षा से, रस की अपेक्षा से और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार (विधान) हो जाते हैं। उनके संख्यात लाख योनिप्रमुख होते हैं / पर्याप्तकों के आश्रय से अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं / जहाँ एक (बादर)पर्याप्तक जीव होता है, वहाँ (नियम से उसके आश्रय से) कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त (प्रत्येक) अपर्याप्तक जीव उत्पन्न होते हैं। (साधारण जीव तो नियम से अनन्त ही उत्पन्न होते हैं / ) ___ इन (साधारण और प्रत्येक वनस्पति-विशेष) के विषय में विशेष जानने के लिए इन (आगे कही जाने वाली) गाथानों का अनुसरण करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं गाथार्थ--] 1. कन्द (सूरण आदि कन्द), 2. कन्दमूल और 3. वृक्षमूल (ये साधारण वनस्पति-विशेष हैं / ) 4. गुच्छ, 5. गुल्म, 6. वल्ली और 7. वेणु (बांस) और 8. तृण (अर्जुन आदि हरी घास), 6. पद्म, 10. उत्पल, 11. शृगाटक (सिंघाड़ा), 12. हढ (जलज वनस्पति), 13. शैवाल, 14. कृष्णक, 15. पनक, 16. अवक, 17. कच्छ, 18. भाणी, और 16. कन्दक्य (नामक साधारण वनस्पति) // 108 / / इन उपयुक्त उन्नीस प्रकार की वनस्पतियों की त्वचा, छल्ली (छाल), प्रवाल (कोंपल), पत्र, पुष्प, फल, मूल, अग्र, मध्य और बीज (इन) में से किसी की योनि कुछ और किसी की कुछ कही गई है / / 109 / / यह हुआ साधारणशरीर वनस्पतिकायिक का स्वरूप / (इसके साथ ही) उस (पूर्वोक्त) वादर बनस्पतिकायिक का वक्तव्य पूर्ण हुआ। (साथ ही) वह (पूर्वोक्त) वनस्पतिकायिकों का वर्णन भी समाप्त हुआ; और इस प्रकार उन एकेन्द्रियसंसारसमापन्न जीवों की प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन--समस्त वनस्पतिकायिकों की प्रज्ञापना-प्रस्तुत इक्कीस सूत्रों (सू. 35 से 55 तक) में वनस्पतिकायिक जीवों के भेद-प्रभेदों तथा प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिकों के वृक्ष, गुच्छ आदि सविवरण बारह भेदों तथा साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिकों की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र क्रम-सर्वप्रथम वनस्पतिकाय के सूक्ष्म और बादर ये दो भेद, तदनन्तर सूक्ष्म के पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो प्रकार, फिर बादर के दो भेद-प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर, तत्पश्चात् प्रत्येकशरीर के वृक्ष, गुच्छ प्रादि 12 भेद, क्रमशः प्रत्येक भेद के अन्तर्गत विविध वनस्पतियों के नामों का उल्लेख, तदनन्तर साधारणवनस्पतिकायिकों के अन्तर्गत अनेक नामों का उल्लेख तथा लक्षण एवं अन्त में उनके पर्याप्तक-अपर्याप्तक भेदों का वर्णन प्रस्तुत किया गया है / ' वृक्षादि बारह मेदों की व्याख्या-वृक्ष-जिसके आश्रित मूल, पत्ते, फूल, फल, शाखाप्रशाखा, स्कन्ध, त्वचा आदि अनेक हों, ऐसे आम, नीम, जामुन, आदि वृक्ष कहलाते हैं। वृक्ष दो प्रकार के होते हैं-एकास्थिक (जिसके फल में एक ही बीज या गुठली हो) और बहुबीजक (जिसके फल में अनेक बीज हों)। प्राम, नीम आदि वृक्ष एकास्थिक के उदाहरण हैं तथा बिजौरा, वट, दाडिम, उदुम्बर आदि बहुबीजक वृक्ष हैं / ये दोनों प्रकार के वृक्ष तो प्रत्येकशरीरी होते हैं, लेकिन इन दोनों प्रकार के वृक्षों के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा और प्रवाल, असंख्यात जीवों वाले तथा पत्ते प्रत्येक जीव वाले और पुष्प अनेक जीवों वाले होते हैं / गुच्छवर्तमान युग की भाषा में इसका अर्थ है-पौधा। इसके प्रसिद्ध उदाहरण हैं--वृन्ताकी (बैंगन), तुलसी, मातुलिंगी आदि पौधे / गुल्म-विशेषत: फूलों के पौधों को गुल्म कहते हैं। जैसे--चम्पा, जाई, जूही, कुन्द, मोगरा, मल्लिका आदि पुष्पों के पौधे / लता--ऐसी बेलें जो प्रायः वृक्षों पर चढ़ जाती हैं, वे लताएँ होती हैं। जैसे—चम्पकलता, नागलता, अशोकलता आदि / वल्ली-ऐसी बेलें जो विशेषतः जमीन पर ही फैलती हैं, वेवल्लियां कहलाती हैं। उदाहरणार्थ-कालिगी की बेल), तुम्बी (तूम्बे की बेल), कर्कटिकी (ककड़ी की बेल), एला (इलायची की बेल) आदि / पर्वक-जिन वनस्पतियों में बीच-बीच में पर्व-पोर या गांठे हों, वे पर्वक वनस्पतियां कहलाती हैं। जैसे-इक्षु, सूठ, बेंत, आदि / तृण-हरी घास आदि को तृण कहते हैं, जैसे-कुश, अर्जुन, दूब आदि / बलय--वलय के आकार की गोल-गोल पत्तों वाली वनस्पति 'वलय' कहलाती है। जैसेताल (ताड़), कदली (केले) आदि के पौधे / ओषधि-जो वनस्पति फल (फसल) के पक जाने पर दानों के रूप में होती है, वह ओषधि कहलाती है। जैसे-गेहूँ, चावल, मसूर, तिल, मूग आदि / हरित-~-विशेषतः हरी सागभाजी को हरित कहते हैं--जैसे–चन्दलिया, वथुआ, पालक आदि / जलरह-जल में उत्पन्न होने वाली वनस्पति जलरुह कहलाती है। जैसे—पनक, शैवाल, पद्म, कुमुद, कमल आदि / कुहण-भूमि को फोड़ कर निकलने वाली वनस्पतियां कुहण कहलाती हैं। जैसे-छत्राक (कुकुरमुत्ता) आदि / प्रत्येकशरीरी अनेक जीवों का एक शरीराकार कैसे? प्रथम दृष्टान्त जैसे---पूर्ण सरसों के दानों को किसी श्लेषद्रव्य से मिश्रित कर देने पर वे बट्टी के रूप में एकरूप--एकाकार हो जाते हैं / यद्यपि वे सब सरसों के दाने परिपूर्ण शरीर वाले होने के कारण पृथक्-पृथक अपनी-अपनी अवगाहना में रहते हैं; तथापि श्लेषद्रव्य से परस्पर चिपक जाने पर वे एकरूप प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक शरीरी जीवों के शरीरसंघात भी परिपूर्ण शरीर होने के कारण पृथक-पृथक अपनी-अपनी 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भाग-१, पृ. 16 से 27 तक 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 30 से 32 तक Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 67 अवगाहना में रहते हैं, परन्तु विशिष्ट कर्मरूपी श्लेषद्रव्य से मिश्रित होने के कारण वे जीव भी एकशरीरात्मक, एकरूप एवं एकशरीराकार प्रतीत होते हैं। द्वितीय दृष्टान्त-जैसे तिलपपड़ी बहुत-से तिलों के एकमेक होने से (गुड़ आदि श्लेषद्रव्य से मिश्रित करने से) बनती है। उस तिलपपड़ी में तिल अपनी-अपनी अवगाहना में स्थित हो कर अलगअलग रहते हैं, फिर भी वह तिलपदी एकरूप प्रतीत होती है। इसी प्रकार प्रत्येक शरीरीजीवों के शरीरसंघात पृथक्-पृथक् होने पर भी एकरूप प्रतीत होते हैं !' अनन्तजीवों वाली वनस्पति के लक्षण-(१) टूटे हुए या तोड़े हुए जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल, बीज का भंगप्रदेश समान अर्थात्-चक्राकार दिखाई दे, उन मूल आदि को अनन्तजीवों वाले समझने चाहिए। (2) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध और शाखा के काष्ठ यानी मध्यवर्ती सारभाग की अपेक्षा छाल अधिक मोटी हो, उस छाल को अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए / (3) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, स्वचा, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोड़े जाने पर उसका भंगस्थान चक्र के आकार का एकदम सम हो, वह मूल, कन्द प्रादि अनन्तजीव वाला समझना चाहिए। (4) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, पत्र और पुष्प आदि के तोड़े जाने पर पर्व--गांठ या भंगस्थान रज से व्याप्त होता है, अथवा जिस पत्र आदि को तोड़ने पर चक्राकार का भंग नहीं दिखता और भंग (ग्रन्थि-) स्थान भी रज से व्याप्त नहीं होता, किन्तु भंगस्थान का पृथ्वीसदृश भेद हो जाता है / अर्थात् सूर्य की किरणों से अत्यन्त तपे हुए खेत की क्यारियों के प्रतरखण्ड का-सा समान भंग हो जाता है, तो उसे अनन्तजीवों वाला समझना चाहिए / (5) क्षीरसहित (दूधवाले) या क्षीररहित (बिना दूध के) जिस पत्र की शिराएँ दिखती न हों उसे, अथवा जिस पत्र की (पत्र के दोनों भागों को जोड़ने वाली) सन्धि सर्वथा दिखाई न दे, उसे भी अनन्तजीवों वाला समझना चाहिए / (6) पुष्प दो प्रकार के होते हैं--जलज और स्थलज / ये दोनों भी प्रत्येक दो-दो प्रकार के होते हैं-वृन्तबद्ध (अतिमुक्तक आदि) और नालबद्ध (जाई के फूल आदि), इन-पुष्पों में से पत्रगत जीवों की अपेक्षा से कोई-कोई संख्यात जीवों वाले, कोई-कोई असंख्यात जीवों वाले और कोई-कोई अनन्त जीवों वाले भी होते हैं / अागम के अनुसार उन्हें जान लेना चाहिए। विशेष यह है कि जो जाई आदि नालबद्ध पूष्प होते हैं, उन सभी को तीर्थंकरों तथा गणधरों ने संख्यातजीवों वाले कहे हैं; किन्तु स्नि रों ने संख्यातजीवों वाले कहे हैं; किन्तु स्निहूपुष्प अर्थात-थोहर के फल या थोहर के जैसे अन्य फल भी अनन्तजीवों वाले समझने चाहिए। (7) पद्मिनीकन्द, उत्पलिनीकन्द, अन्तरकन्द (जलज बनस्पतिविशेषकन्द) एवं झिल्लिका नामक वनस्पति, ये सब अनन्तजीवों वाले होते हैं / विशेष यह है कि पद्मिनीकन्द आदि के विस (भिस) और मृणाल में एक जीव होता है / (8) सफ्फाक, सज्जाय, उव्वेहलिया, कहन और कन्दुका (देशभेद से) अनन्तजीवात्मक होती हैं / (6) सभी किसलय (कोपल) ऊगते समय अनन्तकायिक होते हैं। प्रत्येकवनस्पतिकाय, चाहे वह प्रत्येकशरीरी हो या साधारण, जब किसलय अवस्था को प्राप्त होता है, तब तीर्थकरों और गणधरों द्वारा उसे अनन्तकायिक कहा गया है। किन्तु वही किसलय बढ़ता-बढ़ता, बाद में पत्र रूप धारण कर लेता है तब साधारणशरीर या अनन्तकाय अथवा प्रत्येकशरीरी जीव हो जाता है। प्रत्येकशरीर जीव वाली वनस्पति के लक्षण-(१) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प अथवा फल या बीज को तोड़ने पर उसके टूटे हुए (भंग) प्रदेश (स्थान) में हीर 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 33 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 1 [ प्रज्ञापनासूत्र दिखाई दे, अर्थात्-उसके टुकड़े समरूप न हों, विषम हों, दंतीले हों, उस मूल, कन्द या स्कन्ध आदि को प्रत्येक(शरीरी)जीव समझना चाहिए / (2) जिस मूल, कन्द, स्कन्ध या शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वह छाल प्रत्येकशरीर जीव वाली समझनी चाहिए / (3) पलाण्डुकन्द, लहसुनकन्द, कदलीकन्द और कुस्तुम्ब नामक वनस्पति, ये सब प्रत्येकशरीरजीवात्मक समभने चाहिए। इस प्रकार की सभी अनन्त जीवास्मकलक्षण से रहित वनस्पतियां प्रत्येकशरीरजीवात्मक समझनी चाहिए / (4) पद्म, उत्पल, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, अरविन्द, कोकनद, शतपत्र और सहस्रपत्र, इन सब प्रकार के कमलों के वृन्त (डण्ठल), बाह्य पत्र और पत्तों की आधारभूत कणिका, ये तीनों एकजीवात्मक हैं। इनके भीतरी पत्ते, केसर (जटा) और मिजा भी एक जीवात्मक हैं। (5) बांस, नड नामक घास, इक्षुवाटिका, समासेक्षु, इक्कड घास, करकर, सूठि, विहंगु और दूब आदि तृणों तथा पर्ववाली वनस्पतियों की अक्षि, पर्व, बलिमोटक (पर्व को परिवेष्ठित करने वाला चक्राकार भाग) ये सब एकजीवात्मक हैं। इनके पत्ते भी एक जीवाधिष्ठित होते हैं। किन्तु इनके पूष्प अनेक जीवों वाले होते हैं। (6) पूष्यफल, कालिंग आदि फलों का प्रत्येक पत्ता (पृथक्-पृथक), वन्त, गिरि और गूदा और जटावाले या बिना जटा के बीज एक-एक जीव से अधिष्ठित होते हैं।' बीज का जीव मूलादि का जीव बन सकता है या नहीं?—बीज की दो अवस्थाएँ होती हैं— योनि-अवस्था और अयोनि-अवस्था / जब बीज योनि-अवस्था का परित्याग नहीं करता किन्तु जीव के द्वारा त्याग दिया जाता है, तब वह बीज योनिभूत कहलाता है / जीव के द्वार त्याग दिया गया है, यह छदमस्थ के द्वारा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। अतः अाजकल चेतन या अचेतन, जो अविध्वस्तयोनि है, उसे योनिभूत कहते हैं। जो विध्वस्तयोनि है, वह नियमतः अचेतन होने से अयोनिभूत बीज है। ऐसा बीज उगने में समर्थ नहीं रहता। तात्पर्य यह है कि योनि कहते हैं---जीव के उत्पत्तिस्थान को। अविध्वस्तशक्ति-सम्पन्न बीज ही योनिभूत होता है, उसी में जीव उत्पन्न होता है / प्रश्न यह है कि ऐसे योनिभूत बीज में वही पहले के बीज वाला जीव आकर उत्पन्न होता है अथवा दूसरा कोई जीव पाकर उत्पन्न होता है ? उत्तर है-दोनों ही विकल्प हो सकते हैं। तात्पर्य यह कि बीज में जो जीव था, उसने अपनी आयु का क्षय होने पर बीज का परित्याग कर दिया / वह बीज निर्जीव हो गया किन्तु उस बीज को पुनः पानी, काल और जमीन के संयोगरूप सामग्री मिले तो कदाचित् वही पहले वाला बीज मूल आदि का नाम-गोत्र बांध कर उसी पूर्व-बीज में पा कर उत्पन्न हो जाता है, और कभी कोई अन्य पृथ्वीकायिक आदि नया जीव भी उस बीज में उत्पन्न हो जाता है। __साधारणशरीर बादरवनस्पतिकायिकजीवों का लक्षण--साधारण वनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे प्राणापान के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही उनका श्वासोच्छ्वास होता है। एक जीव का आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करना ही (उस शरीर के आश्रित) बहुत-से जीवों का ग्रहण करना है, इसी प्रकार बहुत-से जीवों का आहारादि-पुद्गल-ग्रहण करना भी एक जीव का आहारादि-पुद्गल-ग्रहण 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 1, पृ. 300 से 325 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 35-36-37 20 प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 38 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] करना है; क्योंकि वे सब जीव एक ही शरीर में आश्रित होते हैं / एक शरीर में आश्रित साधारण जीवों का पाहार, प्राणापानयोग्य पुद्गलग्रहण एवं श्वासोच्छ्वास साधारण ही होता है। यही साधारणजीवों का साधारणरूप लक्षण है। एक निगोदशरीर में अनन्तजीवों का परिणमन कैसे होता है ? इसका समाधान यह है-अग्नि में प्रतप्त लोहे का गोला जैसे सारा-का-साग अग्निमय बन जाता है, वैसे ही निगोदरूप एकशरीर में अनन्त जीवों का परिणमन समझ लेना चाहिए / एक, दो, तीन, संख्यात या असंख्यात निगोद जीवों के शरीर हमें नहीं दिखाई दे सकते, क्योंकि उनके पृथक्-पृथक् शरीर ही नहीं हैं, वे तो अनन्तजीवों के पिण्डरूप ही होते हैं / अर्थात् अनन्तजीवों का एक ही शरीर होता है / हमें केवल अनन्तजीवों के शरीर ही दिखाई देते हैं, वे भी बादर निगोदजीवों के ही; सूक्ष्म निगोदजीवों के नहीं; क्योंकि सूक्ष्म निगोदजीवों के शरीर अनन्त जीवात्मक होने पर भी वे अदृश्य (दृष्टि से अगोचर) ही होते हैं। स्वाभाविकरूप से उसी प्रकार के सूक्ष्मपरिणामों से परिणत उनके शरीर होते हैं / अनन्त निगोदजीवों का एक ही शरीर होता है, इस विषय में वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान् के वचन ही प्रमाणभूत हैं। भगवान् का कथन है---'सूई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात-असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं।' अनन्त निगोदिया जीवों का शरीर एक ही होता है, यह कथन औदारिकशरीर की अपेक्षा जानना चाहिए। उन सब के तैजस और कार्मण शरीर भिन्न-भिन्न ही होते हैं। द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना 56. [1] से कि तं बंदिया ? बंदिया (से कि तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा) प्रणेगविहा पन्नता। तं जहा-पुलाकिमिया कुच्छिकिमिया गंडयलगा गोलोमा णेउरा सोमंगलगा वंसीमुहा सूईमुहा गोजलोया जलोया जलोउया संख संखणगा घुल्ला खुल्ला गुलया खंधा वराडा सोत्तिया मोत्तिया कलुयावासा एगोवत्ता दुह प्रोवत्ता गंदियावत्ता संवक्का माईवाहा सिप्पिसंपुडा चंदणा समुद्दलिक्खा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। सम्वेते सम्मुच्छिमा नपुंसगा। [56-1 प्र.] वे (पूर्वोक्त) द्वीन्द्रिय जीव किस प्रकार के हैं ? [वह द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना क्या है ? ] [56-1 उ.] द्वीन्द्रिय (द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीव-प्रज्ञापना) अनेक प्रकार के कहे गए हैं / (अनेक प्रकार की कही गई है।) वह इस प्रकार-पुलाकृमिक, कुक्षिकृमिक, गण्डयलग, गोलोम, नूपर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचीमुख, गौजलोका, जलोका, जलोयुक (जालायुष्क), शंख, शंखनक, घुल्ला, खुल्ला, गुडज, स्कन्ध, वराटा (वराटिका = कौडी), सौक्तिक, मौक्तिक (सौत्रिक मूत्रिक), कलुकावास, एकतोवृत्त, द्विधातोवृत्त, नन्दिकावत, शम्बूक, मातृवाह, शुक्तिसम्पुट, चन्दनक, समुद्र 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 39-40 (ख) 'गोला य असंखेज्जा होंति नियोगा असंखया गोले / एक्केको य निगोमो प्रणत जीवो मूणेयवो / ' Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 ] [ प्रज्ञापनासून लिक्षा / अन्य जितने भी इस प्रकार के हैं, (उन्हें द्वीन्द्रिय समझना चाहिए / ) ये (उपर्युक्त प्रकार के) सभी (द्वीन्द्रिय) सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं / [2] ते समासतो दुविहा पन्नत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / एएसि णं एवमादियाणं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽयज्जत्ताणं सत्त जाइकुलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / से तं बेइंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / [56-2] ये (द्वीन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार -पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रियों के सात लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा गया है / यह हुई द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना / विवेचन द्वीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत सूत्र (सू. 56) में द्वीन्द्रिय जीवों की विविध जातियों के नामों का उल्लेख है तथा उनके दो प्रकारों एवं उनकी जीवयोनियों की संख्या का निरूपण किया गया है। कुछ शब्दों के विशेष अर्थ-'पुलाकिमिया' = पुलाकृमिक एक प्रकार के कृमि होते हैं, जो मलद्वार (गुदाद्वार) में उत्पन्न होते हैं / कुच्छिकिमिया-कुक्षिकृमिक एक प्रकार के कृमि, जो उदरप्रदेश में उत्पन्न होते हैं। संखणगा- शंखनक-छोटे शंख, शंखनी। चंदणा - चन्दनक-यक्ष / गंडयलगा गिडोला / संवुक्का - शम्बूक = घोंघा / घुल्ला घोंघरी। खुल्ला= समुद्री शंख के आकार के छोटे शंख / सिप्पिसंपुटा= शुक्तिसंपुट- संपुटाकार सीप / जलोया = जौंक / ' सम्वेते सम्मच्छिमा-इसी प्रकार के मृतकलेवर में पैदा होने वाले कृमि, कीट आदि सब द्वीन्द्रिय और सम्मूच्छिम समझने चाहिए। क्योंकि सभी अशुचिस्थानों में पैदा होने वाले कीड़े सम्मूच्छिम ही होते हैं, गर्भज नहीं। और तत्वार्थसूत्र के 'नारक-सम्मूच्छिनो नपुंसकानि' इस सूत्रानुसार सभी सम्मूच्छिम जीव नपुसक ही होते हैं / 2 / जाति, कुलकोटि एवं योनि शब्द की व्याख्या-पूर्वाचार्यों ने इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-जातिपद से तिर्यञ्चगति समझनी चाहिए। उसके कूल हैं-कृमि, कोट, वृश्चिक आदि / ये कल योनि-प्रमुख होते हैं, अर्थात-एक ही योनि में अनेक कल होते हैं। जैसे--एक ही छगण (गोबर या कंडे) की योनि में कृमिकल, कीटकल और वश्चिककल आदि होते हैं। इसी प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जातिकुल के योनिप्रवाह होते हैं / द्वीन्द्रियों के सात लाख जातिकुलकोटिरूप योनियां हैं। त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना 57. [1] से कि तं तेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? तेदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा प्रणेगविहा पन्नत्ता। तं जहा–ओवइया रोहिणीया कुथू पिपीलिया उसगा उद्देहिया उक्कलिया 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 41, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 1, पृ-३४८-३४९ 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 41 (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 50 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 41 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद / [ 71 उपाया उक्कडा उप्पडा तणाहारा कट्ठाहारा मालुया पत्ताहारा तणविटिया पतविटिया पुष्फविटिया फलविटिया बीयविटिया तेदुरणमज्जिया' तउसमिजिया कप्पासटिसमिजिया हिल्लिया झिल्लिया झिगिरा किगिरिडा पाहुया सुभगा सोवच्छिया सुविटा इंदिकाइया इंदगोवया उरुलुचगा कोत्थलवाहगा जूया हालाहला पिसुया सतवाइया गोम्ही हस्थिसोंडा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। सम्वेते सम्मुच्छिम-णपुंसगा। [57.1 प्र.] वह (पूर्वोक्त) त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना किस प्रकार की है ? [57-1 उ.] त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-प्रीपयिक, रोहिणीक, कंथु (कुथुआ), पिपीलिका (चींटी, कीड़ी), उद्देशक, उद्देहिका (उदई-दीमक), उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, उत्पट, तृणाहार, काष्ठाहार (घुन), मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेदुरणमज्जिक (तेवुरणमिजिक या तम्बुरुण-उमज्जिक), पुषमिजिक, कापसास्थिमिजिक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिगिरा (झींगूर), किगिरिट, बाहुक, लधुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृन्त, इन्द्रिकायिक (इन्द्रकायिक), इन्द्रगोपक (इन्द्रगोप-~-बीरबहूटी), उरुलुचक (तुरुतुम्बक), कुस्थलवाहक, यूका (जू) हालाहल, पिशुक (पिस्सू--- खटमल), शतपादिका (गजाई), गोम्ही (गोम्मयी), और हस्तिशौण्ड / इसी प्रकार के जितने भी अन्य (जीव हों, उन्हें त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न समझना चाहिए।) ये (उपर्युक्त) सब सम्मूच्छिम और नपुंसक हैं। [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। एएसि णं एवमाइयाणं तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं अट्ठ जातिकुलकोडिजोणिप्पमुहसतसहस्सा भवंतीति मक्खायं / से तं तेंदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा / [57-2] ये (पूर्वोक्त त्रीन्द्रिय जीव) संक्षेप में, दो प्रकार के कहे गए है, यथा--पर्याप्तक और अपर्याप्तक। इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक श्रीन्द्रियजीवों के सात लाख जाति कूलकोटि-योनिप्रमुख (योनिद्वार) होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुई उन त्रीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना / विवेचन-तीन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत सूत्र (सू. 57) में तीन इन्द्रियों वाले अनेक जाति के जीवों का निरूपण किया गया है। गोम्ही का अर्थ-वृत्तिकार ने इसका अर्थ-'कर्णसियालिया' किया है / हिन्दी भाषा में इसे कनसला या कानखजूरा भी कहते हैं। चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना 58. [1] से कि तं चउरिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा? चरिदियसंसारसमावष्णजीवषण्णवणा अणेगविहा पण्णत्ता / तं जहापाठान्तर---१. तंबुरुणुमज्जिया, तिबुरणमज्जिया, तेबुरणमिजिया। 2. झिगिरिडा बाहुया / 3. उरुतु भुगा, तुम्तु बगा। 4. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 42 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 ] [ प्रज्ञापनासूत्र अंधिय त्तिय' मच्छिय मगमिगकोडे तहा पयंगे य / ढिकुण कुक्कुड कुक्कुह गंदावते य सिगिरिडे // 110 // किण्हपत्ता नीलपत्ता लोहियपत्ता हलिद्दपत्ता सुविकलपत्ता चित्तपक्खा विचितपक्खा श्रोभंजलिया जलवारिया गंभीरा णोणिया तंतवा अच्छिरोडा अच्छिवेहा सारंगा णेउला दोला भमरा भरिलो जरुला तोढा विच्छता पत्तविच्छ्या छाणविच्छुया जलविच्छ्या पियंगाला कणगा गोमयकोडगा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / सव्वेते सम्मुच्छिमा नपुंसगा। [58-1 प्र.] वह (पूर्वोक्त) चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना किस प्रकार की है ? [58-1 उ.] चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना अनेक प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है--- [गाथार्थ अंधिक, नेत्रिक (या पत्रिक), मक्खी, मगमृगकीट (मशक-मच्छर, कीड़ा अथवा टिड्डी) तथा पतंगा, ढिकुण (ढंकुण), कुक्कुड (कुकुट), कुक्कुह, नन्द्यावर्त और शृगिरिट (गिरट) / / 110 // ___ कृष्णपत्र (कृष्णपक्ष), नीलपत्र (नीलपक्ष), लोहितपत्र (लोहितपक्ष), हारिद्रपत्र (हारिद्रपक्ष), शुक्लपत्र (शुक्लपक्ष), चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, अवभांजलिक (मोहांजलिक), जलचारिक, गम्भीर, नोनिक (नीतिक), तन्तव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल (नपुर), दोला, भ्रमर, भरिलो, जरुला, तोट्ट, बिच्छू, पत्रवृश्चिक, छाणवश्चिक (गोबर का बिच्छ), जलवृश्चिक, (जल का बिच्छु), प्रियंगाल, कनक और गोमयकीट (गोबर का कीड़ा)। इसी प्रकार के जितने भी अन्य (प्राणी) हैं, (उन्हें भी चतुरिन्द्रिय समझना चाहिए। ये (पूर्वोक्त) सभी चतुरिन्द्रिय सम्मूच्छिम और नपुसक हैं। [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा—पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। एतेसि णं एवमाइयाणं चरिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं णव जातिकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवतीति मक्खायं / से तं चरिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा। [58-2] वे दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / इस प्रकार के चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के नौ लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा (तीर्थंकरों ने कहा है / यह हुई उन चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना / विवेचन-चतुरिन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना–प्रस्तुत सूत्र (सू. 58) में चतुरिन्द्रिय जीवों के अनेक प्रकारों और उनकी जातिकुलकोटि-योनियों की संख्या का निरूपण किया गया है। चतुर्विध पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवप्रज्ञापना 56. से कि तं पंचिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा ? पंचिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा चउव्विहा पण्णत्ता। तं जहा–नेरइयचिदियसंसार 1. पोसिय / 2. मसगाकीडे, भगसिरकोडे, मगासकोडे / Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [73 समावण्णजीवपण्णवणा 1 तिरिक्खजोणियचिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा 2 मणुस्सपंचिदियसंसारसमावण्णजीवपण्णवणा 3 देवचिदियसंसारसामावण्णजीवपण्णवणा 4 / [56 प्र.] वह पंचेन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना किस प्रकार की है ? [56 उ.] पंचेन्द्रिय-संसारसमापन्न जीवों की प्रज्ञापना चार प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-(१) नैयिक-पंचेन्द्रिय-संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (2) तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियसंसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना, (3) मनुष्य-पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न-जीवप्रज्ञापना और (4) देव-पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवप्रज्ञापना।। विवेचन–चतुविध पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवप्रज्ञापना–प्रस्तुत सूत्र (सू. 56) में नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव ; इन चतुर्विध पंचेन्द्रिय संसारसमापन्न जीवों का निरूपण किया गया है। नैरयिकजीवों की प्रज्ञापना 60. से कि तं नेरइया? नेरइया सत्तविहा पण्णत्ता / तं जहा-रयणप्पभापुढविनेरइया 1 सक्करप्पभापुढविनेरइया 2 बालुयप्पभापुढविनेरइया 3 पंकप्पभापुढविनेरइया 4 धूमप्पभापुढविनेरइया 5 तमप्पभापुढविनेरइया 6 तमतमप्पभापुढविनेरइया 7 / ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–पज्जतगा य अपज्जत्तगा य / से तं नेरइया / [60 प्र.] वे (पूर्वोक्त) नैरयिक किस (कितने) प्रकार के हैं ? [60 उ.] नैरयिक सात प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिक, (2) शर्कराप्रभापृथ्वी-नैरयिक (3) वालुकाप्रभापृथ्वी-नैरयिक, (4) पंकप्रभापृथ्वी-नरयिक, (5) धूमप्रभापृथ्वी-नैरयिक, (6) तमःप्रभापृथ्वी-नै रयिक और (7) तमस्तमःप्रभापृथ्वी-नैरयिक / वे (उपर्युक्त सातों प्रकार के नैरयिक) संक्षेप से दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह नैरयिकों की प्ररूपणा हुई / विवेचन-नरयिक जीवों की प्रज्ञापना-प्रस्तुत सूत्र (सू. 60) में नैरयिक और उनके सात प्रकारों की प्ररूपणा की गई है। 'नरयिक' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ-निर् +अय का अर्थ है-जिससे अय अर्थात् इष्टफल देने वाला (शुभ कर्म) निर् अर्थात् निर्गत हो गया हो-निकल गया हो, जहाँ इष्टफल की प्राप्ति न होती हो, वह निरय अर्थात् नारकावास है। निरय में उत्पन्न होने वाले जीव नैरयिक कहलाते हैं। ये नैरयिक (नारक) जीव संसारसमापन्न अर्थात्--जन्ममरण को प्राप्त हैं तथा पांचों इन्द्रियों से युक्त होते हैं, अतएव पंचेन्द्रिय-संसारसमापन्न कहलाते हैं / ' समग्र पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक जीवों की प्रज्ञापना 61. से कि तं पंचिदियतिरिक्खजोणिया? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 43 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] प्रज्ञापनासूत्र पंचिदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया 1 बलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया 2 खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया 3 / [61 प्र.] वे पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? [61 उ.] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तीन प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक, (2) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक और (3) खेचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक। 62. से कि तं जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ? जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा—मच्छा 1 कच्छभा 2 गाहा 3 मगरा 4 सुसुमारा 5 / [62 प्र.] वे जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक कैसे हैं ? [62 उ.] जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार(१) मत्स्य, (2) कच्छप, (कछुए), (3) ग्राह, (4) मगर और (5) सुसुमार। 63. से कि तं मच्छा ? मच्छा प्रणेगविहा पण्णत्ता / तं जहा-सोहमच्छा खवल्लमच्छा' जुगमच्छा विज्झिडियमच्छा हलिमच्छा मग्गरिमच्छा रोहियमच्छा हलीसागरा गागरा वडा वडगरा तिमी तिमिगिला पक्का तंदुलमच्छा कणिक्कामच्छा सालिसच्छियामच्छा लंभणमच्छा पडागा पडामातिपडागा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं मच्छा। [63 प्र.] वे (पूर्वोक्त) मत्स्य कितने प्रकार के हैं ? [63 उ.] मत्स्य अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-श्लक्ष्णमत्स्य, खवल्लमत्स्य, युगमत्स्य (जुगमत्स्य), विज्झिडिय (विज्झडिय) मत्स्य, हलिमत्स्य, मकरीमत्स्य, रोहितमत्स्य, हलीसागर, गागर, वट, वटकर, (तथा गर्भज उसगार), तिमि, तिमिंगल, नक्र, तन्दुल मत्स्य, कणिक्कामत्स्य, शालिशस्त्रिक मत्स्थ, लंभनमत्स्य, पताका और पताकातिपताका / इसी प्रकार के जो भी अन्य प्राणी हैं, वे सब मत्स्यों के अन्तर्गत समझने चाहिए। यह मत्स्यों की प्ररूपणा हुई। 64. से किं तं कच्छभा ? कच्छमा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-अट्टिकच्छभा य मंसकच्छमा य / से तं कच्छभा। [64 प्र.] वे (पूर्वोक्त) कच्छप किस प्रकार के हैं ? [64 उ.] कच्छप दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-अस्थिकच्छप (जिनके शरीर में हड्डियां अधिक हों, वे) और मांसकच्छप (जिनके शरीर में मांस की बहुलता हो, वे)। इस प्रकार कच्छप की प्ररूपणा पूर्ण हुई। पाठान्तर-१. जुगमच्छा / 2. 'गन्भया उसगारा' यह अधिक पाठ है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] 65. से कि तं गाहा? __ गाहा पंचविहा पण्णत्ता। तं नहा-दिली 1 वेढला' 2 मुद्धया 3 पुलगा 4 सोमागारा 5 / से तं गाहा / [65 प्र.] वे (पूर्वोक्त) ग्राह कितने प्रकार के हैं ? [65 उ.] ग्राह (घड़ियाल) पांच प्रकार के होते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) दिली, (2) वेढल या (वेटक), (3) मूर्धज, (4) पुलक और (5) सीमाकार / यह हुई ग्राह की वक्तव्यता / 66. से कि तं मगरा? मगरा दुविहा पण्णता / तं जहा—सोंडमगरा य मट्ठमगरा य / से तं मगरा। [66 प्र.] वे मगर किस प्रकार के होते हैं ? [66 उ.] मगर (मगरमच्छ) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-शौण्डमकर और मृष्टमकर / यह हुई (पूर्वोक्त) मकर की प्ररूपणा / 67. से कि तं सुसुमारा? सुसुमारा एगागारा पण्णत्ता / से तं सुसुमारा / जे यावऽण्णे तहप्पगारा। [67 प्र.] वे सुसुमार (शिशुमार) किस प्रकार के हैं ? [67 उ.] सुसुमार (शिशुमार) एक ही आकार-प्रकार के कहे गए हैं / यह हुआ (पूर्वोक्त) सुसुमार का निरूपण / अन्य जो इस प्रकार के हों। 68. [1] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सम्मच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य / [68-1] वे (उपर्युक्त सभी प्रकार के जलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) संक्षेप में दो प्रकार के हैं / यथा-सम्मूच्छिम और गर्भज (गर्भव्युत्क्रान्तिक)। [2] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सध्ने नपुंसगा। [68-2] इनमें से जो सम्मूच्छिम हैं, वे सब नपुंसक होते हैं। [3] तत्थ णं जे ते गम्भवक्कंतिया ते तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-इत्थी 1 पुरिसा 2 नपुंसगा३। [64-3] इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं-स्त्री, पुरुष और नपुसक / [4] एतेसि णं एवमाइयाणं जलयरपंचेदियतिरिक्खजोणि याणं पज्जत्तापज्जत्ताणं अद्धतेरस जाइकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खायं / से तं जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिया। [68-4] इस प्रकार (मत्स्य) इत्यादि इन (पांचों प्रकार के) पर्याप्तक और अपर्याप्तक पाठान्तर--१. वेढगा। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासून जलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के साढ़े बारह लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुई जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की प्ररूपणा / 66. से कि तं थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुबिहा पण्णत्ता। तं जहा-चउपयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य / [66 प्र.] वे (पूर्वोक्त) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? [66 उ.] स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकारचतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक और परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक / 70. से कि तं चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउम्विहा पण्णता / तं जहा-एगखुरा 1 दुखुरा 2 गंडोपदा 3 सणफदा 4 // [70 प्र.] वे (पूर्वोक्त) चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? [70 उ.] चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. एकनुरा (एक खुर वाले), 2. द्विखुरा (दो खुर वाले), 3. गण्डीपद (सुनार की एरण जैसे पैर वाले) और 4. सनखपद (नखसहित पैरों वाले) / 71. से कि तं एगखुरा? एगखुरा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-अस्सा अस्सतरा घोडगा गद्दमा गोरक्खरा कंदलगा सिरिकंदलगा प्रावत्ता, जे यावऽणे तहप्पगारा / से तं एगखुरा / [71 प्र.] वे एकखुरा किस प्रकार के हैं ? [71 उ.] एकखुरा अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं, जैसे कि--अश्व, अश्वतर, (खच्चर), घोटक (घोडा), गधा (गर्दभ). गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकन्दलक और आवर्त (आवर्तक)। इसी प्रकार के अन्य जितने भी प्राणी हैं, (उन्हें एकखुर-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के अन्तर्गत समझना चाहिए / ) यह हुआ एकखुरों का प्ररूपण / 72. से कि तं दुखुरा? दुखुरा अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-उट्टा गोणा गवया रोज्झा पसुया महिसा मिया संवरा वराहा अय-एलग-रुरु-सरभ-चमर-कुरंग-गोकण्णमादी / से तं दुखुरा। [72 प्र.] वे द्विखुर किस प्रकार के कहे गए हैं ? [72 उ.] द्विखुर (दो खुर वाले) अनेक प्रकार के कहे गए हैं / जैसे कि--उष्ट्र (ऊँट), गाय (गौ और वृषभ आदि), गवय (नील गाय), रोज, पशुक, महिष (भैंस-भैंसा), मृग, सांभर, वराह (सूअर) अज (बकरा-बकरी), एलक (बकरा या भेड़ा), रुरु, सरभ, चमर (चमरी गाय), कुरंग, गोकर्ण प्रादि / यह दो खुर वालों की प्ररूपणा हुई। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद [ 77 73. से कि तं गंडोपया ? गंडीपया अणेगविहा पण्णता। तं जहा-हत्थो हत्थी-पूयणया मंकुणहत्थी खग्गा गंडा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं गंडोपया / [73 प्र.] वे (पूर्वोक्त) गण्डीपद किस प्रकार के हैं ? [73 उ.] गण्डीपद अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुणहस्ती, (बिना दांतों का छोटे कद का हाथी), खड्गी और गंडा (गेंडा) / इसी प्रकार के जो भी अन्य प्राणी हों, उन्हें गण्डीपद में जान लेने चाहिए / यह हुई गण्डीपद जीवों की प्ररूपणा / 74. से कि तं सणफदा? सणकदा प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-सीहा बग्घा दीविया अच्छा तरच्छा परस्सरा सियाला बिडाला सुणगा कोलसुणगा' कोकेतिया ससगा चित्तगा चित्तलगा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं सणफदा। [74 प्र.] वे सनखपद किस प्रकार के हैं ? [74 उ.] सनखपद अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--सिंह, व्याघ्र, द्वीपिक (दीपड़ा), रीछ (भालू), तरक्ष, पाराशर, शृगाल (सियार), विडाल (बिल्ली), श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता और चित्तलग (चिल्लक)। इसी प्रकार के अन्य जो भी प्राणी हैं, वे सब सनखपदों के अन्तर्गत समझने चाहिए। यह हमा पूर्वोक्त सनखपदों का निरूपण / 75. [1] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--सम्मुच्छिमा य गन्भवतिया य / [75-1] वे (उपर्युक्त सभी प्रकार के चतुष्पद-स्थलचर पंचेन्द्रिय-तिर्थञ्चयोनिक) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सच्चे णपुसगा। [75-2] उनमें जो सम्मूच्छिम हैं, वे सब नपुसक हैं / [3] तत्थ णं जे ते गम्भवतिया ते तिविहा पण्णता। तं जहा - इत्थी 1 पुरिसा 2 णसगा 3 / [75-3] उनमें जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा-१. स्त्री. 2. पुरुष और 3. नपुसक। [4] एतेसि णं एवमादियाणं (चउप्पय) थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं दस जाईकुलकोडिजोणिप्पमुहसयसहस्सा हवंतीति मक्खातं / से तं च उप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिया। [75-4] इस प्रकार (एकखुर) इत्यादि इन स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के पर्याप्तक१. [ग्रन्थानम् 500 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] , [ प्रज्ञापनासून अपर्याप्तकों के दस लाख जाति-कुल-कोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुआ चतुष्पदस्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों का निरूपण / 76. से कि तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्सजोणिया ? परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया य भुयपरिसप्पथलयरपंचेवियतिरिक्खजोणिया य / [76 प्र.] वे (पूर्वोक्त) परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? / 76 उ.] परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक एवं भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक। 77. से कि तं उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया? उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउबिहा पण्णत्ता। तं जहा—अही 1 अयगरा 2 आसालिया 3 महोरगा 4 / [77 प्र.) उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस प्रकार के हैं ? [77 उ. उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अहि (सर्प), 2. अजगर, 3. प्रासालिक और 4. महोरग। 78. से किं तं मही? अहो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-दव्वीकरा य मउलिणो य / [78 प्र.] वे अहि किस प्रकार के होते हैं ? [78 उ.) अहि दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-दर्वीकर (फन वाले), और मुकुली (बिना फन वाले)। 79. से कि तं दधीकरा? दवीकरा प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा—प्रासोविसा दिट्ठीविसा उग्गविसा भोगविसा तयाक्सिा लालाविसा उस्सासविसा निस्सासविसा कण्हसप्पा सेदसप्पा कामोदरा दज्झपुष्फा कोलाहा मेलिमिदा, सेसिंदा; जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं दव्वीकरा / [76 प्र.] वे दर्वीकर सर्प किस प्रकार के होते हैं ? [79 उ.] दर्वीकर (फन वाले) सर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-आशीविष (दाढ़ों में विष वाले), दृष्टि विष (दृष्टि में विष वाले), उग्रविष (तीव्र विष वाले), भोगविष (फन या शरीर में विष वाले), त्वचाविष (चमड़ी में विष वाले), लालाविष (लार में विष वाले), उच्छवासविष (श्वास लेने में विष वाले), निःश्वासविष (श्वास छोड़ने में विष वाले), कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प (दर्भपुष्प), कोलाह, मेलिभिन्द और शेषेन्द्र / इसी प्रकार के और भी जितने सर्प हों, वे सब दर्वीकर के अन्तर्गत समझना चाहिए। यह हुई दर्वीकर सर्प की प्ररूपणा / Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [79 80. से कि तं मउलिणो ? मउलिणो प्रगविहा पण्णत्ता। तं जहा-दिव्वागा गोणसा कसाहिया वइउला चित्तलिणो मंडलिणो मालिणो अही अहिसलागा वायपडागा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा। से तं मउलिणो / से तं प्रही। [80 प्र.] वे (पूर्वोक्त) मुकुली (बिना फन वाले) सर्प कैसे होते हैं ? [80 उ.] मुकुली सर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-दिव्याक, गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका और वातपताका (वासपताका)। अन्य जितने भी इसी प्रकार के सर्प हैं, (वे सब मुकुली सर्प की जाति के समझने चाहिए।) यह हुआ मुकुली (सर्पो का वर्णन 1) (साथ ही), अहि सों की (प्ररूपणा पूर्ण हुई)। 81. से कि तं प्रयगरा ? अयगरा एगागारा पण्णत्ता / से तं प्रयगरा। [81 प्र.] वे (पूर्वोक्त) अजगर किस प्रकार के होते हैं ? [81 उ.] अजगर एक ही आकार-प्रकार के कहे गए हैं। यह अजगर की प्ररूपणा हुई। 82. से कि तं प्रासालिया ? कहि णं भंते ! प्रासालिया सम्मुच्छति ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइज्जेसु दोवेसु, निव्वाधाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु, वाधातं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु, चक्कवट्टिखंधावारेसु वा वासुदेवखंधावारेसु बलदेवखंधावारेसु मंडलियखंधावारेसु महामंडलियखंधावारेसु वा गामनिवेसेसु नगरनिवेसेसु निगमणिवेसेसु खेडनिवेसेसु कब्बडनिवेसेसु मडंबनिवेसेसु वा दोणमुहनिवेसेसु पट्टणनिवेसेसु प्रागरनिवेसेसु प्रासमनिवेसेसु संवाहनिवेसेसु रायहाणीनिवेसेसु एतेसि णं चेव विणासेसु एत्य णं प्रासालिया सम्मुच्छति, जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेत्तीए प्रोगाहणाए उक्कोसेणं बारसजोयणाई, तयणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं भूमि दालित्ताणं समुद्रुति अस्सण्णी मिच्छद्दिट्ठी अण्णाणी अंतोमुत्तद्धाउया चेव कालं करेइ / से तं प्रासालिया। 82 प्र.] आसालिक किस प्रकार के होते हैं ? भगवन् ! प्रासालिग (प्रासालिक) कहाँ सम्मूच्छित (उत्पन्न होते हैं ? [82 ज.] गौतम ! वे (प्रासालिक उरःपरिसर्प) मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में, निर्व्याघातरूप से (बिना व्याघात के) पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा से पांच महाविदेह क्षेत्रों में, अथवा चक्रवर्ती के स्कन्धावारों (सैनिकशिविरों-छावनियों) में, या बासुदेवों के स्कन्धावारों में, बलदेवों के स्कन्धावारों में, माण्डलिकों (अल्पवैभव वाले छोटे राजामों) के स्कन्धावारों में, महामाण्डलिकों (अनेक देशों के अधिपति नरेशों) के स्कन्धावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगम (वणिक-निवास)-निवेशों में, खेटनिवेशों में, कर्बटनिवेशों में, मडम्बनिवेशों में, द्रोणमुखनिवेशों में, पट्टणनिवेशों में, आकरनिवेशों में, आश्रमनिवेशों में, सम्बाधनिवेशों में और राजधानीनिवेशों में / इन (चक्रवर्ती स्कन्धावार आदि स्थानों) का विनाश होने वाला हो तब इन (पूर्वोक्त Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [ प्रज्ञापनासूत्र स्थानों में प्रासालिक सम्मूच्छिमरूप से उत्पन्न होते हैं। वे (प्रासालिक) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग-मात्र को अवगाहना से और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना से (उत्पन्न होते हैं / ) उस (अवगाहना) के अनुरूप ही उसका विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है। वह (आसालिक) चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि के नीचे की भूमि को फाड़ (विदारण) कर प्रादुर्भूत (समुत्थित) होता है / वह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है, तथा अन्तर्मुहूर्त काल की आयु भोग कर मर (काल कर) जाता है / यह हुई उक्त आसालिक की प्ररूपणा / / 83. से कि तं महोरगा? महोरगा प्रणेगविहा पण्णता / तं जहा-प्रत्थेगइया अंगुलं पि अंगुलपुहत्तिया वि वित्यि पि वियत्थिपुहत्तिया वि रयणि पि रर्याणपुत्तिया वि कुच्छि पि कुच्छिपुहत्तिया वि धणु पि धणुपुत्तिया वि गाउयं पि गाउयपुत्तिया वि जोयणं पि जोयणपुहत्तिया वि जोयणसतं पि जोयणसतपुहत्तिया वि जोयणसहस्सं पि / ते णं थले जाता जले वि चरंति थले वि चरंति / ते पत्थि इह, बाहिरएसु दीवसमुद्दएसु हवंति, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं महोरगा। [83 प्र.] महोरग किस प्रकार के होते हैं ? [83 उ.] महोरग अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--कई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कई अंगुलपृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) के, कई वितस्ति (बीता=बारह अंगुल) के भी होते हैं; कई वितस्तिपृथक्त्व (दो से नौ वितस्ति) के, कई एक रत्नि (हाथ) भर के, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के भी, कई कुक्षिप्रमाण (दो हाथ के) होते हैं ; कई कुक्षिपृथक्त्व (दो कुक्षि से नौ कुक्षि तक) के भी, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण भी, कई धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक) के भी, कई गव्यूति-(गाऊ=दो कोसदो हजारधनुष) प्रमाण भी, कई गव्यूति-पृथक्त्व के भी, कई योजनप्रमाण (चार गाऊ भर) भी, कई योजन पृथक्त्व के भी कई सौ योजन के भी, कई योजनशतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ योजन तक) के भी और कई हजार योजन के भी होते हैं / वे स्थल में उत्पन्न होते हैं, किन्तु जल में विचरण (संचरण) करते हैं, स्थल में भी विचरते हैं। वे यहाँ नहीं होते, किन्तु मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। इसी प्रकार के अन्य जो भी उर:परिसर्प हों, उन्हें भी महोरगजाति के समझने चाहिए। यह हुई उन (पूर्वोक्त) महोरगों की प्ररूपणा / 84. [1] ते समासतो दुविहा पण्णता / तं जहा सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य / [84-1] वे (चारों प्रकार के पूर्वोक्त उर:परिसर्प स्थलचर) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं-सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सव्वे नपुसगा। [84-2] इनमें से जो सम्मूच्छिम हैं, वे सभी नपुसक होते हैं / [3] तत्य णं जे ते गम्भवक्कंतिया ते णं तिविहा पण्णता। तं जहा-इत्थी 1 पुरिसा 2 नपुंसगा 3 / [84-3] इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। 1. स्त्री, 2. पुरुष और 3. नपुंसक। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [81 [4] एएसि णं एवमाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं उरपरिसप्पाणं दस जाइकुलकोडीजोणिप्प. मुहसतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / से तं उरपरिसप्पा / [84-4] इस प्रकार (अहि) इत्यादि इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक उर:परिसों के दस लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह उर:परिसॉं को प्ररूपणा हुई। 85. [1] से कि तं भुयपरिसप्पा ? भुयपरिसप्पा प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा--णउला गोहा सरडा सल्ला सरंठा सारा खारा घरोइला विस्तंभरा मूसा मंगूसा पयलाइया छोरविरालिया; जहा चउपाइया, जे यावणे तहप्पगारा। [85-11.] भुजपरिसर्प किस प्रकार के हैं ? [85-1 उ.] भुजपरिसर्प अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-नकुल (नेवले), गोह, सरट (गिरगिट), शल्य, सरंठ (सरठ), सार, खार (खोर), गृहकोकिला (घरोली छिपकली), विषम्भरा (विसभरा), मूषक (चूहे), मंगुसा (गिलहरी), पयोलातिक, क्षीरविडालिका; जैसे चतुष्पद (चौपाये) स्थलचर (का कथन किया, वैसे ही इनका समझना चाहिए।) इसी प्रकार के अन्य जितने भी (भुजा से चलने वाले प्राणी हों, उन्हें भुजपरिसर्प समझना चाहिए।) [2] ते समासतो दुविहा पण्णता / तं जहा–सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य। [85-2] वे (नकुल आदि पूर्वोक्त भुजपरिसर्प) संक्षेप में दो प्रकार के होते हैं। जैसे किसम्मूच्छिम और गर्भज / [3] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सम्वे णपुसगा। [85-3] इनमें से जो सम्मूच्छिम हैं, वे सभी नपुंसक होते हैं / [4] तत्थ णं जे ते गम्भवक्कंतिया ते णं तिविहा पणत्ता। तं जहा-इत्थी 1 पुरिसा 2 नपुंसगा। [85-4] इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। (1) स्त्री, (2) पुरुष और (3) नपुसक। [5] एतेसि णं एवमाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं भुयपरिसप्पाणं णव जाइकुलकोडिजोणीपमुहसतसहस्सा हवंतीति मक्खायं / से तं भयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। से तं परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। [85-5] इस प्रकार (नकुल) इत्यादि इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक भुजपरिसों के नौ लाख जाति-कुलकोटि-योनि-प्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। यह हुआ पूर्वोक्त भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों (का वर्णन / ) (साथ ही) परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों (की प्ररूपणा भी पूर्ण हुई / ) Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 [ प्रज्ञापनासूत्र 86. से कि तं खयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया चउन्विहा पण्णत्ता। तं जहा---चम्मपक्खी 1 लोमपक्खी समुन्गपक्खी 3 वियतपक्खी 4 / [८६-प्र.] वे (पूर्वोक्त) खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक किस-किस प्रकार के हैं ? [८६-उ.] खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं(१) चर्मपक्षी (जिनकी पांखें चमड़े की हों), (2) लोम (रोम) पक्षी (जिनकी पांखें रोंएदार हों), (3) समुद्गकपक्षी [जिनकी पांखें उड़ते समय भी समुद्गक (डिब्बे या पेटी) जैसी रहें), और (4) विततपक्षी (जिनके पंख फैले हुए रहें, सिकुड़ें नहीं)। 87. से कि तं चम्मपक्खी ? चम्मपक्खी प्रणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा–बग्गुली जलोया अडिला भारंडपक्खी जीवंजीवा समुद्दवायसा कण्णत्तिया पक्खिबिराली, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं चम्मपक्खो। [८७-प्र.] वे (पूर्वोक्त) चर्मपक्षी खेचर किस प्रकार के हैं ? [८७-उ.] चर्मपक्षी अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-वल्गुली (चमगीदड़ = चमचेड़), जलौका, अडिल्ल, भारण्डपक्षी, जीवंजीव (चक्रवाक-चकवे), समुद्रवायस (समुद्री कौए), कर्णत्रिक और पक्षिविडाली / अन्य जो भी इस प्रकार के पक्षी हों, (उन्हें चर्मपक्षी समझना चाहिए।) यह हुई चर्मपक्षियों (की प्ररूपणा / ) 88. से कि तं लोमपक्खी ? लोमपक्खी प्रणेगविहा पन्नत्ता। तं जहा-हंका कंका कुरला वायसा चक्कागा हंसा कलहंसा पायहंसा रायहंसा अडा सेडो बगा बलागा पारिप्पवा कोंचा सारसा मेसरा मसूरा मयूरा सतवच्छा गहरा पोंडरीया कागा कामंजुगा वंजुलगा तित्तिरा वट्टगा लावगा कवोया कविजला पारेवया चिडगा चासा कुक्कुडा सुगा बरहिणा मदणसलागा कोइला सेहा वरेल्लगमादी। से तं लोमपक्खी। [८८-प्र.] वे (पूर्वोक्त) रोमपक्षी किस प्रकार के हैं ? [८८-उ.] रोमपक्षी अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-ढंक, कंक, कुरल, वायस (कौए), चक्रवाक (चकवा), हंस, कलहंस, राजहंस (लाल चोंच एवं पंख वाले हंस), पादहंस, आड (अड), सेडी, बक (बगुले), बलाका (बकपंक्ति), पारिप्लव, क्रौंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर (मोर), शतवत्स (सप्तहस्त), गहर, पौण्डरीक, काक, कामंजुक (कामेज्जुक), वंजुलक, तित्तिर (तीतर), वर्तक (बतक), लावक, कपोत, कपिजल, पारावत (कबूतर), चिटक, चास, कुक्कुट (मुर्गे), शुक (सुग्गे-तोते), बही (मोर विशेष), मदनशलाका (मैना), कोकिल (कोयल), सेह और वरिल्लक आदि। यह है (उक्त) रोमपक्षियों (का वर्णन / ) 89. से कि तं समुग्गपक्खी ? समुग्गपक्खी एगागारा पण्णता। ते णं गस्थि इहं, बाहिरएसु दीव-समुद्दएसु भवंति / से तं समुग्गपक्खी। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] . [८६-प्र.] वे (पूर्वोक्त) समुद्गपक्षी कौन-से हैं? [८६-उ.] समुद्गपक्षी एक ही आकार-प्रकार के कहे गए हैं। वे यहाँ (मनुष्यक्षेत्र में) नहीं होते / वे (मनुष्यक्षेत्र से) बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं / यह समुद्गपक्षियों की प्ररूपणा हुई। 10. से कि तं विततपक्खी? विततपक्खी एगागारा पण्णत्ता / ते णं नत्थि इहं, बाहिरएसु दोव-समुद्दएसु भवंति / से तं विततपक्खी। [९०-प्र.] वे (पूर्वोक्त) विततपक्षी कैसे हैं ? [6o-उ.] विततपक्षी एक ही आकार-प्रकार के होते हैं / वे यहाँ (मनुष्यक्षेत्र में) नहीं होते। (मनुष्यक्षेत्र से) बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं / यह विततपक्षियों की प्ररूपणा हुई / / 61. [1] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य / [61-1] ये (पूर्वोक्त चारों प्रकार के खेचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] तत्थ णं जे ते सम्मुच्छिमा ते सम्वे नपुंसगा। [91-2] इनमें से जो सम्मूच्छिम हैं, वे सभी नपुंसक होते हैं / [3] तत्थ णं जे ते गम्भवक्कंतिया ते णं तिविहा पण्णता। तं जहा-इत्थी 1 पुरिसा 2 नपुंसगा 3 / [61-3] इनमें से जो गर्भज हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं। जैसे कि-(१) स्त्री, (2) पुरुष और (3) नपुसक / [4] एएसि णं एवमाइयाणं खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं बारस जातोकुलकोडीजोणिप्पमुहसतसहस्सा भवतीति मक्खातं / सत्तट्ठ जातिकुलकोडिलक्ख नव पद्धतेरसाई च / दस दस य होंति णवगा तह बारस चेव बोद्धव्वा // 11 // से तं खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया। से तं पंचेंदियतिरिक्खजोणिया। से तं तिरिक्खजोणिया। [61-4] इस प्रकार चर्मपक्षी इत्यादि इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यचयोनिकों के बारह लाख जाति-कुलकोटि-योनिप्रमुख होते हैं, ऐसा कहा है। [संग्रहणी गाथार्थ-] (द्वीन्द्रियजीवों की) सात लाख जातिकुलकोटि, (त्रीन्द्रियों की) पाठ लाख, (चतुरिन्द्रियों को) नौ लाख, (जलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की) साढ़े बारह लाख, (चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रियों की) दस लाख, (उर:परिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रियों को) दस लाख, (भुजपरिसर्पस्थलचर-पंचेन्द्रियों की) नौ लाख तथा (खेचर-पंचेन्द्रियों की) बारह लाख, (यों द्वीन्द्रिय से लेकर खेचर पंचेन्द्रिय तक की क्रमश:) समझनी चाहिए // 111 / / Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [प्रज्ञापनासूत्र . यह खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों की प्ररूपणा हुई। इसकी समाप्ति के साथ ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों की प्ररूपणा भी समाप्त हुई और इसके साथ ही समस्त तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की प्ररूपणा भी पूर्ण हुई। विवेचन-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत इकतीस सूत्रों (सू. 61 से 61 तक) में शास्त्रकार ने पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के जलचर प्रादि तीनों प्रकारों के भेद-प्रभेदों तथा उनकी विभिन्न जातियों एवं जातिकुलकोटियों की संख्या का विशद निरूपण किया है। गर्भज और सम्मूच्छिम की व्याख्या - जो जीव गर्भ में उत्पन्न होते हैं, वे माता-पिता के संयोग से उत्पन्न होने वाले गर्भव्युत्क्रान्तिक या गर्भज कहलाते हैं। जो जीव माता-पिता के संयोग के बिना ही, गर्भ या उपपात के बिना, इधर-उधर के अनुकूल पुद्गलों के इक? हो जाने से उत्पन्न होते हैं, वे सम्मूच्छिम कहलाते हैं / सम्मूच्छिम सब नपुंसक ही होते हैं; किन्तु गर्भजों में स्त्री, पुरुष और नपुसक, ये तीनों प्रकार होते हैं।' तिर्यञ्चयोनिक शब्द का निर्वचन-जो 'तिर' अर्थात् कुटिल-टेढ़े-मेढ़े या वक्र, 'अञ्चन' अर्थात् गमन करते हैं, उन्हें तिर्यञ्च कहते हैं / उनको योनि अर्थात्-उत्पत्तिस्थान को 'तिर्यग्योनि' कहते हैं / तिर्यग्योनि में जन्मने-उत्पन्न होने वाले तैर्यम्योनिक हैं / 'उरःपरिसर्प' और 'भुजपरिसर्प' का अर्थ-जो अपनी छाती (उर) से रेंग (परिसर्पण) करके चलते हैं, वे सर्प आदि स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय 'उरःपरिसर्प' कहलाते हैं और जो अपनी भुजाओं के सहारे चलते हैं, ऐसे नेवले, गोह आदि स्थलचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय प्राणी 'भुजपरिसर्प' कहलाते हैं / . 'प्रासालिक' (उरःपरिसर्प) की व्याख्या—'आसालिया' शब्द के संस्कृत में दो रूपान्तर होते हैं--प्रासालिका और प्रासालिगा। प्रासालिका या प्रासालिक किसे कहते हैं, वे किस-किस प्रकार के होते हैं और कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्नों के उत्तर में प्रज्ञापना सूत्रकार श्री श्यामार्य वाचक ने अन्य ग्रन्थ में भगवान् द्वारा गौतम के प्रति प्ररूपित कथन को यहाँ उद्धृत किया है / ___'प्रासालिया कहि संमुच्छइ ?' इस वाक्य में प्रयुक्त 'संमुच्छइ' क्रियापद से स्पष्ट सूचित होता है कि 'आसालिका' या 'प्रासालिक' गर्भज नहीं, किन्तु सम्मूच्छिम हैं / प्रासालिका की उत्पत्ति मनुष्यक्षेत्र के अन्दर अढाई द्वीपों में होती है। वस्तुतः मनुष्यक्षेत्र, अढाई द्वीप को ही कहते हैं, किन्तु यहाँ जो अढाई द्वीप में इनकी उत्पत्ति बताई है, वह यह सूचित करने के लिए है कि प्रासालिका की उत्पत्ति अढाई द्वीपों में ही होती है, लवणसमुद्र में या कालोदधिसमुद्र में नहीं। किसी प्रकार के व्याघात के अभाव में वह 15 कर्मभूमियों में उत्पन्न होता है, इसका रहस्य यह है कि अगर 5 भरत एवं 5 ऐरवत क्षेत्रों में व्याघातहेतुक सुषम-सुषम आदि रूप या दुःषमदुःषम आदिरूप काल व्याघातकारक न हों, तो 15 कर्मभूमियों में प्रासालिका की उत्पत्ति होती है / यदि 5 भरत और 5 ऐरवत क्षेत्र में पूर्वोक्त रूप का कोई व्याघात हो तो फिर वहाँ वह उत्पन्न नहीं होता। ऐसी (व्याघातकारक) स्थिति में वह पांच महाविदेहक्षेत्रों में उत्पन्न होता है। इससे यह भी 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. बृत्ति, पत्रांक 44 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 43 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 46 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद [85 ध्वनित हो जाता है कि तीस अकर्मभूमियों में प्रासालिका की उत्पत्ति नहीं होती तथा 15 कर्मभूमियों एवं महाविदेहों में भी इसकी सर्वत्र उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु चक्रवर्ती, बलदेव आदि के स्कन्धावारों (सैनिक छावनियों) में वह उत्पन्न होता है / इनके अतिरिक्त ग्राम-निवेश से लेकर राजधानी-निवेश तक में से किसी में भी इसकी उत्पत्ति होती है; और वह भी जब चक्रवर्ती आदि के स्कन्धावारों या ग्रामादि-निवेशों का विनाश होने वाला हो। स्कन्धावारों या निवेशों के विनाशकाल में उनके नीचे की भूमि को फाड़कर उसमें से वह प्रासालिका निकलती है। यही प्रासालिका की उत्पत्ति की प्ररूपणा है / प्रासालिका की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट बारह योजन की होती है / उसका विस्तार और मोटाई अवगाहना के अनुरूप होती है / प्रासालिका असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है / इसकी आयु सिर्फ अन्तर्मुहूर्त भर की होती है।' महोरगों का स्वरूप और स्थान-महोरग एक अंगुल को अवगाहना से लेकर एक हजार योजन तक की अवगाहना वाले होते हैं। ये स्थल में उत्पन्न होकर भी जल में भी संचार करते हैं, स्थल में भी: क्योंकि इनका स्वभाव ही ऐसा है। महोरग इस मनुष्यक्षेत्र में नहीं होते, किन्तु इससे बाहर के द्वीपों और समुद्रों में, तथा समुद्रों में भी पर्वत, देवनगरी आदि स्थलों में उत्पन्न होते हैं। अत्यन्त स्थूल होने के कारण ये जल में उत्पन्न नहीं होते। इसी कारण ये मनुष्यक्षेत्र में नहीं दिखाई देते। मूलपाठ में उक्त लक्षण वाले दस अंगुल आदि की अवगाहना वाले जो उरःपरिसर्प हों, उन्हें महोरग समझना चाहिए / 'दर्वोकर' और 'मकली' शब्दों का अर्थ-दर्वी कहते हैं-कडधी या चाट को. उसकी तरह दर्वी यानी फणा करने वाला दर्वीकर है / मुकुली अर्थात्-फन उठाने की शक्ति से विकल, जो बिना फन का हो। ग्राम प्रादि के विशेष अर्थ-ग्राम-बाड़ से घिरी हुई बस्ती / नगर-जहाँ अठारह प्रकार के कर न लगते हों। निगम-बहुत-से वणिजनों के निवास वाली बस्ती / खेट-खेड़ा, धूल के परकोटे से घिरी हुई बस्ती / कर्बट-छोटे-से प्राकार से वेष्टित बस्ती / मडम्ब-जिसके आसपास ढाई कोस तक दूसरी बस्ती न हो। द्रोणमुख-जिसमें प्रायः जलमार्ग से ही आवागमन हो या बन्दरगाह / पट्टणजहाँ घोड़ा, गाड़ी या नौका से पहुँचा जाए अथवा व्यापार की मंडी, व्यापारिक केन्द्र / प्राकरस्वर्णादि की खान / आश्रम-तापसजनों का निवासस्थान / संबाध-धान्यसुरक्षा के लिए कृषकों द्वारा निमित दुर्गम भूमिगत स्थान या यात्रिकों के पड़ाव का स्थान / राजधानी-राज्य का शासक जहाँ रहता हो। समग्र मनुष्य जीवों की प्रज्ञापना 62. से कि तं मणुस्सा? मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–सम्मुच्छिममणुस्सा य गम्भवक्कंतियमणुस्सा य / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 47-48 2. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक 48 3. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक 47 4. वही मलय, वृत्ति, पत्रांक 47-48 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86] / प्रज्ञापनासूत्र [92 प्र.] मनुष्य किस (कितने) प्रकार के होते हैं ? [62 उ.] मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार सम्मूच्छिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य / 63. से कि तं सम्मुच्छिममणुस्सा ? कहि णं भंते ! सम्मच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति ? गोयमा! अंतोमणुस्सखेत्ते पणुतालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देस पन्नरससु कम्मभूमोसु तोसाए प्रकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदीवएसु गम्भवक्कंतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा 1 पासवणेसु वा 2 खेलेसु वा 3 सिंघाणेसु वा 4 वतेसु वा 5 पित्तेसु वा 6 पूएसु वा 7 सोणिएसु वा 8 सुक्केसु वा 6 सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा 10 विगतजीवकलेवरेसु वा 11 थी-पुरिससंजोएसु वा 12 '[गोमणिद्धमणेमु वा 13] णगरणिद्धमणेसु वा 14 सव्वेसु चेव असुइएसु ठाणेसु, एत्थ णं समुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति / अंगुलस्स असंखेज्जइभागमेतीए प्रोगाहणाए असण्णी मिच्छट्ठिी सव्वाहि पज्जत्तोहि अपज्जत्तगा अंतोमुत्ताउया चेव कालं करेंति / से तं सम्मुच्छिममणुस्सा। [63 प्र.] सम्मूच्छिम मनुष्य कैसे होते हैं ?, भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्य कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [63 उ.] गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर, पैंतालीस लाख योजन विस्तृत द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में एवं छप्पन अन्तीपों में गर्भज मनुष्यों के--(१) उच्चारों (विष्ठानों-मलों) में, (2) पेशाबों (मूत्रों) में, (3) कफों में, (4) सिंधाण-नाक के मैलों (लीट) में, (5) वमनों में, (6) पित्तों में, (7) मवादों में, (8) रक्तों में, (9) शुक्रों-वीर्यों में, (10) पहले सूखे हुए शुक्र के पुद्गलों को गीला करने में, (11) मरे हुए जीवों के कलेवरों (लाशों) में, (12) स्त्री-पुरुष के संयोगों में या (13) ग्राम की गटरों या मोरियों में अथवा (14) नगर की गटरों-मोरियों में, अथवा सभी अशुचि (अपवित्र-गंदे) स्थानों में इन सभी स्थानों में सम्मूच्छिम मनुष्य (माता-पिता के संयोग के बिना स्वतः) उत्पन्न होते हैं / इन सम्मूच्छिम मनुष्यों की अवगाहना अंगल के असंख्यातवें भाग मात्र की होती है। ये असंज्ञी मिथ्यादृष्टि एवं सभी पर्याप्तियों से अपर्याप्त होते हैं / ये अन्तमुहूर्त की आयु भोग कर मर जाते हैं / यह सम्मूच्छिम मनुष्यों की प्ररूपणा हुई। 64. से कि तं गम्भवक्कंतियमणुस्सा ? गब्भवक्कंतियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता। तं जहा-कम्मभूमगा 1 अकम्मभूमगा 2 अंतरदीवगा। [14 प्र.] गर्भज मनुष्य किस प्रकार के होते हैं ? [64 उ.] गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-१. कर्मभूमिक, 9. अकर्मभूमिक और 3. अन्तरद्वीपक / 65. से कि तं अंतरदीवगा ? अंतरदीवया अट्ठावीसतिविहा पण्णत्ता। तं जहा-एगोरुया 1 आभासिया 2 वेसाणिया 3 1. “गामणिद्धमणेसु वा 13" पाठ मलगिरि नन्दी टीका के उद्धरण में है। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 87 गंगोलिया 4 हयकण्णा 5 गयकण्णा 6 गोकण्णा 7 सक्कुलिकण्णा 8 प्रायंसमुहा 6 मेंढमहा 10 प्रयोमुहा 11 गोमुहा 12 पासमुहा 13 हस्थिमुहा 14 सीहमुहा 15 वग्घमुहा 16 आसकण्णा 17 सोहकण्णा 18 प्रकण्णा 16 कण्णपाउरणा 20 उक्कामुहा 21 मेहमुहा 22 विज्जुमुहा 23 विज्जुदंता 24 घणदंता 25 लट्ठदंता 26 गूढदंता 27 सुद्धदंता 28 / से तं अंतरदीवगा। [65 प्र.] अन्तरद्वीपक किस प्रकार के होते हैं ? [65 उ.] अन्तरद्वीपक अट्ठाईस प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) एकोरुक, (2) प्राभासिक, (3) वैषाणिक, (3) नांगोलिक, (5) हयकर्ण, (6) गजकर्ण, (7) गोकर्ण, (8) शकुलिकर्ण, (E) आदर्शमुख, (10) मेण्ढमुख, (11) अयोमुख, (12) गोमुख, (13) अश्वमुख, (14) हस्तिमुख, (15) सिंहमुख, (16) व्याघ्रमुख, (17) अश्वकर्ण, (18) सिंहकर्ण (हरिकर्ण), (16) अकर्ण, (20) कर्णप्रावरण, (21) उल्कामुख, (22) मेघमुख, (23) विद्युन्मुख, (24) विद्युदन्त, (25) घनदन्त, (26) लष्टदन्त, (27) गूढ़दन्त और (28) शुद्धदन्त / यह अन्तरद्वीपकों की प्ररूपणा हुई। 66. से कि तं प्रकम्मभूमगा? अकम्मभूमगा तीसतिविहा पन्नत्ता / तं जहा-पंचहि हेमवहिं पंचहिं हिरण्णवहि पंचहि हरिवाहि पंचहि रम्मगवासेहिं पंचहिं देवकुरूहि पंचहि उत्तरकुरूहि / से तं अकम्मभूमगा। [66 प्र.] अकर्मभूमक मनुष्य कौन-से हैं ? [66 उ.] अकर्मभूमक मनुष्य तीस प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-पांच हैमवत क्षेत्रों में, पांच हैरग्यवत क्षेत्रों में, पांच हरिवर्ष क्षेत्रों में, पांच रम्यकवर्ष क्षेत्रों में, पांच देवकुरुक्षेत्रों में और पांच उत्तरकुरुक्षेत्रों में / इस प्रकार यह प्रकर्मभूमक मनुष्य की प्ररूपणा हुई / 67. [1] से कि तं कम्मभूमया ? कम्मभूमया पण्णरसविहा पण्णत्ता। तं जहा---पंचहि भरहेहि पंचहि एरवतेहिं पंचहि महाविदेहेहि। [97-1 प्र.] कर्मभूमक मनुष्य किस प्रकार के हैं ? [97-1 उ.] कर्मभूमक मनुष्य पन्द्रह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--पांच भरत क्षेत्रों में, पांच ऐरवतक्षेत्रों में और पांच महाविदेहक्षेत्रों में। [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता तं जहा---प्रारिया य मिलक्खू य / [67-2] वे (पन्द्रह प्रकार के कर्मभूमक मनुष्य) संक्षेप में दो प्रकार के हैं-आर्य और म्लेच्छ / 68. से कि तं मिलक्खू ? Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] [प्रज्ञापनासूत्र मिलक्ख' प्रणेगविहा पण्णता। तं जहा-सग-जवण-चिलाय-सबर-बब्बर-काय-मुरुडोड्डभडग-णिण्णग-पक्कणिय- कुलक्ख- गोंड-सिंहल- पारस-गांधोडंब- दमिल-चिल्लल- पुलिद-हारोस-डोंबबोक्काण-गंधाहारग-बहलिय-प्रज्जल-रोम-पास-पउसा-मलया य चुंचया य मूलि-कोंकणग-मेयपल्हव-मालव-गग्गर-प्राभासिय-णक्क-चीणा ल्हसिय-खस-खासिय-जेडुर-मंढ-डोंबिलग-लउस-बउसकेक्कया अरवागा हूण-रोसग-मरुग-रुय-विलायविसयवासी य एवमादी / से तं मिलक्खू / [98 प्र.) म्लेच्छ मनुष्य किस-किस प्रकार के हैं ? / [18 उ.] म्लेच्छ मनुष्य अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर, काय, मरुण्ड, उड्ड, भण्डक, (भडक), निन्नक (निष्णक), पक्कणिक, कुलाक्ष, गोंड, सिंहल, पारस्य, (पारसक) आन्ध्र (क्रौंच), उडम्ब (अम्बडक), तमिल (दमिल-द्रविड़), चिल्लल (चिल्लस या चिल्लक) पुलिन्द, हारोस, डोंब (डोम), पोक्काण (वोक्काण), गन्धाहारक (कन्धारक), बहलिक (बाल्हीक), अज्जल (अज्झल), रोम, पास (मास), प्रदुष (प्रकुष), मलय (मलयाली) और चंचूक (बन्धुक) तथा मूयली (चूलिक), कोंकणक, मेद (मेव), पल्हव, मालव, गग्गर (मग्गर), आभाषिक, णक्क (कणवीर), चीना, ल्हासिक (लासा के), खस, खासिक (खासी जातीय), नेडूर (नेदूर), मंढ (मोंढ), डोम्बिलक, लनोस, बकुश, कैकय, अरबाक (अक्खाग), हूण, रोसक (रूसवासी या रोमक), मरुक, रुत (भ्रमररुत) और विलात (चिलात) देशवासी इत्यादि / यह म्लेच्छों का (वर्णन हुआ।) 66. से कि तं पारिया ? | प्रारिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-इड्डिपत्तारिया य प्रणिड्विपत्तारिया य / [66 प्र.] प्रार्य कौन-से हैं ? [66 उ.] आर्य दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-ऋद्धिप्राप्त आर्य और ऋद्धिअप्राप्त आर्य। 100. से कि तं इडिपत्तारिया ? इडिपत्तारिया छविहा पण्णत्ता / तं जहा-अरहंता 1 चक्कवट्टी 2 बलदेवा 3 वासुदेवा 4 चारणा 5 विज्जाहरा 6 / से तं इडिपत्तारिया। 1. प्रवचनसारोद्धार की तीन गाथानों में म्लेच्छ के बदले अनार्यों के नाम इस प्रकार गिनाए हैं."सग-जवण. सबर-बब्बर-काय-मुरुडोड्ड-गोण-पक्कणया। अरबाग-होण-रोमय-पारस-खसखासिया चेव // 1583 // दुबिलयलउस-बोक्कस-भिल्लंऽध-पुलिद-कुच-भमररुया कोवाय-चीण-चंचय-मालव-दमिला कुलग्घा य // 1584 // केक्कय-किराय-ह्यमुह-खरमुह-गय-तुरय-मिढयमुहा य / हयकन्ना गयकन्ना अन्ने वि अणारिया बहवे // 1585 // " "शकाः यवना: शबराः बर्बराः कायाः मुरुण्डाः उड्डाः गोड्डाः पक्कणमाः अरबागाः हूणाः रोमकाः पारसाः खसाः खासिकाः दुम्बिलकाः लकुशाः बोक्कशाः भिल्लाः अन्ध्राः पुलिन्द्राः कुञ्चाः भ्रमररुचाः कोर्पका: चीनाः चञ्चकाः मालवाः द्रविडाः कुलार्धाः केकयाः किराताः यमुखाः खरमुखाः गजमुखाः तुरङ्गमुखाः मिण्ढकमुखाः हयकर्णाः गजकर्णाश्चेत्येते देशा अनार्याः / " इति वृत्तिः / पत्रं 445-2 // Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रजापनापद ] [ 89 - [100 प्र.] ऋद्धिप्राप्त आर्य कौन-कौन से हैं ? [100 उ.] ऋद्धिप्राप्त आर्य छह प्रकार के हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अर्हन्त (तीर्थकर), 2. चक्रवर्ती, 3. बलदेव, 4. वासुदेव, 5. चारण और 6. विद्याधर / यह हुई ऋद्धिप्राप्त पार्यों की प्ररूपणा। 101. से किं तं प्रणिढिपत्तारिया ? प्रणिढिपत्तारिया णवविहा पण्णत्ता। तं जहा-खेत्तारिया 1 जातिमारिया 2 कुलारिया 3 कम्मारिया 4 सिप्पारिया 5 भासारिया 6 णाणारिया 7 दंसणारिया 8 चरितारिया है। [101 प्र. ऋद्धि-अप्राप्त आर्य किस प्रकार के हैं ? [101 उ.] ऋद्धि-अप्राप्त आर्य नौ प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) क्षेत्रार्य, (2) जात्यार्य, (3) कुलार्य, (4) कार्य, (5) शिल्पार्य, (6) भाषार्य, (7) ज्ञानार्य, (8) दर्शनार्य और (9) चारित्रार्य / 102. से कि तं खेत्तारिया ? खेत्तारिया श्रद्धछन्वीसतिविहा पण्णत्ता / तं जहा रायगिह मगह 1, चंपा अंगा 2, तह तामलित्ति' वंगा य 3 / कंचणपुरं कलिगा 4, बाणारसि चेव कासी य 5 // 112 // साएय कोसला 6, गयपुरं च कुरु 7, सोरियं कुसट्टा य 8 / कंपिल्लं पंचाला 6, अहिछत्ता जंगला चेव 10 // 113 // बारवती य सुरट्ठा 11, मिहिल विदेहा य 12, वच्छ कोसंबी 13 / गंदिपुरं संडिल्ला 14, भद्दिलपुरमेव मलया य 15 // 114 // वइराड मच्छ 16, वरणा अच्छा 17, तह मत्तियावइ दसण्णा 18 / 1. 'तालित्ती' शब्द के संस्कृत में दो रूपान्तर होते हैं--तामलिप्ती और ताम्रलिप्ती। प्रज्ञापना मलय. वत्ति, तथा प्रवचनसारोद्धार में प्रथम रूपान्तर माना गया है, जब कि भगवती आदि की टीकाओं में 'ताम्रलिप्ती' शब्द को ही प्रचलित माना है। जो हो, वर्तमान में यह 'तामलक' नाम से पश्चिम बंगाल में प्रसिद्ध है।-सं. प्रवचनसारोद्वार की गाथा 1589 से 1592 तक की वृत्ति 13 में प्रार्यक्षेत्र से पाठक्रम तथा इसी के समान वृत्ति मिलती है—'वत्सदेशः कोशाम्बी नगरी 13 नन्दिपुरं नगरं शाण्डिल्यो शाण्डिल्या वा देशः 14 भदिलपुर नगरं मलयादेशः 15 वैराटो देशः वत्सा राजधानी, अन्ये तु 'वत्सादेशो बैराटं पुरं नगरम्' इत्याहुः 16 वरुणानगरं अच्छादेशः, अन्ये तु 'वरुणेषु अच्छापुरी' इत्याहुः 17 तथा मृत्तिकावती नगरी दशार्णो देशः 18 शुक्तिमती नगरी चेदयो देशः 19 वीतभयं नगरं सिन्धुसौवीरा जनपदः 20 मथुरा नगरी सूरसेनाख्यो देशः 21 पापा नगरी भङ्गयो देशः 22 मासपुरी नगरी वदेशः 23 तथा श्रावस्ती नगरी कुणाला देशः 24 / ' –पत्रांक 446 / 2 वैराट् नगर (वर्तमान में वैराठ) अलवर के पास है, जहाँ प्राचीनकाल में पाण्डवों का अज्ञातवास रहा है। यह वत्सदेश में न होकर मत्स्यदेश में है। क्योंकि वच्छ कोसांबी पाठ पहले पा चुका है। अतः मूलपाठ में यह 'वच्छ' न होकर मच्छ शब्द होना चाहिए। अन्यथा 'बहराड वच्छ पाठ होने से वत्सदेश नाम के दो देश होने का भ्रम हो जाएगा।-सं.। --देखिये, जैन साहित्य का बहद् इतिहास, भा-२, पृ. 91 / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 ] [प्रज्ञापनासूत्र सुत्तीमई य चेदी 16, वीइभयं सिंधुसोबोरा 20 // 11 // महुरा य सूरसेणा 21, पाना भंगी य 22, मास पुरिवट्टा 23 / सावत्थी य कुणाला 24, कोडीवरिसं च लाढा य 25 // 116 // सेयविया वि य णयरी केयइप्रद्धच 25 // आरियं भणितं / एत्थुष्पत्ति जिणाणं चक्कीणं राम-कण्हाणं // 117 // से तं खेत्तारिया। [102 प्र. क्षेत्रार्य किस-किस प्रकार के हैं ? [102 उ.] क्षेत्रार्य साढ़ पच्चीस प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार से हैं [गाथाओं का अर्थ-] (1) मगध (देश में) राजगृह (नगर), (2) अंग (देश में) चम्पा (नगरी), तथा (3) बंग (देश में) ताम्रलिप्ती (तामलूक नगरी), (4) कलिंग (देश में) काञ्चनपर और (5) काशी (देश में) वाराणसी (नगरी),॥११२।। (6) कौशल (देश में) साकेत (नगर), (7) कुरु (देश में) गजपुर (हस्तिनापुर), (8) कुशात (कुशावर्त देश में) सौरियपुर (सौरीपुर), (8) पंचाल (देश में) काम्पिल्य, (10) जांगल (देश में) अहिच्छत्रा (नगरी) // 113 / / (11) सौराष्ट्र में द्वारावती (द्वारिका), (12) विदेह (जनपद में) मिथिला (नगरी), (13) वत्स (देश में) कौशाम्बी (नगरी), (14) शाण्डिल्य (देश में) नन्दिपुर, (15) मलय (देश में) भद्दिलपुर // 114 / / / (16) मत्स्य (देश में) वैराट नगर, (17) वरण (देश में) अच्छा (पुरी), तथा (18) दशार्ण (देश में) मृत्तिकावती (नगरी), (16) चेदि (देश में) शुक्तिमती (शौक्तिकावती), (20) सिन्धु-सौवीर देश में वीतभय नगर / / 115 / / (21) शूरसेन (देश में) मथुरा (नगरी), (22) भंग (नामक जनपद में) पावापुरी (अपापा नगरी), (23) पुरिवर्त (परावर्त) (नामक जनपद में) मासा पुरी (माषा नगरी), (24) कुणाल (देश में) श्रावस्ती (सेहटमेहट), (25 // ) लाढ (देश में) कोटिवर्ष (नगर) // 116 / / और (253) केकयार्द्ध (जनपद में) श्वेताम्बिका (नगरी); (ये सब 25 / / देश) आर्य (क्षेत्र) कहे गए हैं। इन (क्षेत्रों) में तीर्थंकरों, चक्रवतियों, राम और कृष्ण (बलदेवों और वासुदेवों) का जन्म (उत्पत्ति) होता है / // 117 / / यह हुआ उक्त क्षेत्रार्यों का वर्णन / 103. से कि तं जातिप्रारिया ? जातिआरिया छम्विहा पण्णत्ता / तं जहा अंबट्ठा 1 य कलिदा 2 विदेहा 3 वेदगा 4 इ य। हरिया 5 चुचणा 6 चेव, छ एया इन्भजातियो' / / 11 / / से तं जातिप्रारिया। [103 प्र.] जात्यार्य किस प्रकार के हैं ? [103 उ.] जात्यार्य छह प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं--- 1. पाठान्तर --अज्जजातितो। 2 जात्यार्य-उमास्वातिकृत तत्वार्थभाष्य में इक्ष्वाकु, विदेह, हरि, अम्बष्ठ, ज्ञात , कुरु, बुबुनाल (?) उग्र, भोग, राजन्य आदि की गणना जात्यार्य में की गई है। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [ 91 [गाथार्थ]--(१) अम्बष्ठ', (2) कलिन्द, (3) वैदेहर, (4) वेदग (वेदंग) आदि और (5) हरित एवं (5) चुचुग; ये छह इभ्य (अर्चनीय-माननीय) जातियां हैं / / 118 / / यह हुआ उक्त जात्यार्यों का निरूपण। 104. से कि तं कुलारिया ? कुलारिया छब्विहा पन्नता। तं जहा-उग्गा 1 भोगा 2 राइण्णा 3 इक्खागा 4 णाता 2 कोरवा 6 / सेत्तं कुलारिया। [104 प्र.] कुलार्य कौन-कौन-से हैं ? [104 उ.] कुलार्य छह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) उग्र (2) भोग, (3) राजन्य, (4) इक्ष्वाकु, (5) ज्ञात और (6) कौरव्य / यह हुआ उक्त कुलार्यों का निरूपण / 105. से कि तं कम्मारिया ? कम्मारिया अणेगविहा पण्णत्ता। तं जहा-दोस्सिया सोतिया कप्पासिया सुत्तवेयालिया भंडवेयालिया कोलालिया गरदावणिया, जे यावण्णे तहप्पगारा / से तं कम्मारिया। [105 प्र.] कार्य कौन-कौन-से है ? [105 उ.] कार्य अनेक प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-दोषिक (दूष्यक), सौत्रिक, कार्पासिक, सूत्रवैतालिक, भाण्डवैतालिक, कौलालिक और नरवाहनिक / इसी प्रकार के भो (आर्यकर्म वाले हों, उन्हें कार्य समझना चाहिए)। यह हुई उक्त कार्यों (की प्ररूपणा)। 106. से कि तं सिप्पारिया ? सिप्पारिया प्रणेगविहा पण्णता। तं जहा-तुण्णागा तंतुवाया पट्टगारा देयडा वरणा' छविया कट्ठपाउयारा मजपाउयारा छत्तारा वज्झारा पोस्थारा लेप्पारा चित्तारा संखारा दंतारा भंडारा जिज्झगारा सेल्लगारा कोडिगारा, जे यावऽण्णे तहप्पगारा / से तं सिप्पारिया। [106 प्र.] शिल्पार्य कौन-कौन-से हैं ? [106 उ.] शिल्पार्य (भी) अनेक प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-तुन्नाक -(रफ्फूगर) दर्जी, तन्तुवाय-जुलाहे, पट्टकार (पटवा), दृतिकार (चमड़े की मशक बनाने वाले), वरण (या वरुट्ट =पिच्छिक-पिछी बनाने वाले), छविक (चटाई प्रादि बनाने वाले), काष्ठपादुकाकार (लकड़ी की 1. अम्बष्ठ--ब्राह्मण पुरुष और वैश्यस्त्री से उत्पन्न सन्तान, देखिये---मनुस्मृति तथा प्राचारांगनियुक्ति (20-27) 2. वैदेह--वैश्य पुरुष और ब्राह्मणस्त्री से उत्पन्न / देखिये-मनुस्मृति तथा प्राचारांगनियुक्ति (20-27) 3. कुलार्य-तत्त्वार्थभाष्य में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की गणना कुलार्य में की गई है। -तत्त्वार्थभाष्य अ. 3 / सू. 15 4. उन क्षत्रिय पुरुष और शूद्रस्त्री से उत्पन्न सन्तान / देखिये मनुस्मृति और प्राचारांग नियुक्ति / 5. पाठान्तर ----वरुणा, वरुट्टा / 6. जिब्भगारा, जिब्भारा। 7. सेल्लारा (शिलावट)। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 | प्रज्ञापनासूत्र खड़ाऊँ बनाने वाले), मुजपादुकाकार (मूज की खड़ाऊँ बनाने वाले), छत्रकार (छाते बनाने वाले), वज्झार-वाह्यकार (वाहन बनाने वाले), (अथवा बहकार = मोरपिच्छी बनाने वाले), पुच्छकार या पुस्तकार (पूछ के बालों से झाडू आदि बनाने वाले), या पुस्तककार--जिल्दसाज अथवा बनाने वाले, लेप्यकार (लिपाई-पुताई करने वाले, अथवा मिट्टी के खिलौने आदि बनाने वाले), चित्रकार, शंखकार, दन्तकार (दांत बनाने वाले, या दांती), भाण्डकार (विविध बर्तन बनाने वाले), जिज्झकार(जिह्वाकार = नकली जीभ बनाने वाले), सेल्लकार (शैल्यकार-शिला तथा पाषाण आदि घड़कर वस्तु बनाने वाले अथवा सैलकार = भाला बनाने वाले) और कोडिकार (कोडियों की माला आदि बनाने वाले), इसी प्रकार के अन्य जितने भी आर्य शिल्पकार हैं, उन सबको शिल्पार्य समझना चाहिए / यह हुई उन शिल्पार्यों की प्ररूपणा / 107. से कि तं भासारिया ? भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासिति, जत्थ वि य णं बंभी लिवी पवत्तइ / बंभीए णं लिवीए अट्ठारसविहे लेक्खविहाणे पण्णत्ते / तं जहा–बंभी 1 जवणाणिया 2 दोसापुरिया' 3 खरोट्ठी 4 पुक्खरसारिया 5 भोगवईया 6 पहराईयायो य 7 अंतक्खरिया 8 अक्खरपुट्ठिया 6 वेणइया 10 णिण्हइया 11 अंकलिवी 12 गणितलिवी 13 गंधवलिवी 14 प्रायंसलिवी 15 माहेसरी 16 दामिली२ 17 पोलिदी 18 / से तं भासारिया / [107 प्र.] भाषार्य कौन-कौन-से हैं ? [107 उ.] भाषार्य वे हैं, जो अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं, और जहाँ भी ब्राह्मी लिपि प्रचलित है / (अर्थात्-जिनमें ब्राह्मी लिपि का प्रयोग किया जाता है।) ब्राह्मी लिपि में अठारह प्रकार का लेखविधान (लेखन-प्रकार) बताया गया है / जैसे कि-१. ब्राह्मी, 2. यवनानी, 3. दोषापरिका, 4. खरोष्ट्री, 5. पुष्करशारिका, 6. भोगवतिका, 7. प्रहरादिका, 8. अन्ताक्षरिका, 6. अक्षरपुष्टिका, 10. बैनयिका, 11. निलविका, 12. अंकलिपि, 13. गणितलिपि, 14. गन्धर्वलिपि, 25. आदर्श लिपि, 16. माहेश्वरी, 17. तामिली-द्राविड़ी, 18. पौलिन्दी / यह हुआ उक्त भाषार्य का वर्णन / 108. से कि तं जाणारिया ? णाणारिया पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा-प्रामिणिबोहियणाणारिया 1 सुयणाणारिया 2 प्रोहिणाणारिया 3 मणपज्जवणाणारिया 4 केवलणाणारिया 2 / से तं णाणारिया। [108 प्र.] ज्ञानार्य कौन-कौन-से हैं। [108 उ.) ज्ञानार्य पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. आभिनिबोधिकज्ञानार्य, 2. श्रुतज्ञानार्य, 3. अवधिज्ञानार्य, 4. मनःपर्यवज्ञानार्य और 5. केवलज्ञानार्य / यह है उक्त ज्ञानार्यों की प्ररूपणा। पाठान्तर--१. दासापुरिया / 2. दोमिली, दोमिलिवी / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] 109. से किं तं दसणारिया ? दसणारिया दुविहा पण्णता / तं जहा-सरागदसणारिया य बीयरागदसणारिया य। [106 प्र. वे दर्शनार्य कौन-कौन-से हैं ? / [106 उ. दर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शनार्य / 110. से कि तं सरागसणारिया ? सरागदसणारिया दसविहा पण्णता / तं जहा--- निस्सग्गुवएसरुई 1.2 प्राणारुइ ३-सुत्त ४-बीयरुइ 5 मेव / अहिगम ६-वित्थाररुई 7 किरिया -संखेव ६-धम्मरुई 10 // 11 // भूप्रत्येणाधिगया जीवाऽजीवं च पुण्ण-पावं च / सहसम्मुइयाऽऽसब-संवरे य रोएइ उ णिसम्मो // 120 // जो जिदिठे भावे चउम्विहे सद्दहाइ सयमेव / एमेव पडण्णह त्ति य णिस्सग्गरुइ ति णायधो 1 // 121 // एते चेव उ मावे उवदिठे जो परेण सद्दहइ / छउमत्येण जिणेण व उवएसरुइ ति नायब्धो 2 // 122 // जो हेउमयाणंतो प्राणाए रोयए पवयणं तु / एमेव पऽण्णह ति य एसो प्राणारुई नाम 3 // 123 // जो सुत्तमहिज्जतो सुएण प्रोगाहई उ सम्मत्तं / अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ ति णायन्बो 4 // 124 // एगपएऽणेगाइं पदाइं जो पसरई उ सम्मत्तं / उदए व तेल्लबिंदू सो बीयरुइ ति णायव्यो 5 // 125 // सो होइ अहिगमरुई सुयणाणं जस्स प्रस्थो दिनें। एक्कारस अंगाई पइण्णगं दिद्विवानो य 6 // 126 // दव्वाण सव्वभावा सम्वपमाहि जस्स उवलद्धा / सव्वाहि णयविहीहि विस्थाररुइ त्ति णायन्यो 7 // 127 // दसण-णाण-चरित्ते तव-विणए सब्समिइ-गुत्तीसु / जो किरियामावरुई सो खलु किरियाई णाम 8 // 12 // अणभिगहियकुदिट्ठी संखेवरुइ त्ति होइ णायव्यो / अविसार यो पवयणे प्रणभिग्गहिरो य सेसेसु 9 // 126 / / जो अस्थिकायधम्मं सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च / सहइ जिणामिहियं सो धम्मरुइ ति मायन्यो 10 // 130 // Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 // प्रशापनासूत्र परमत्थसंथवो वा सुदिट्टपरमस्थसेवणा वा वि। वावग्ण-कुवंसणवज्जणा य सम्मत्तसद्दहणा // 131 // निस्संकिय 1 निक्कंखिय 2 निन्वितिगिच्छा 3 अमूढदिट्टी 4 य / उबवूह 5 थिरीकरणे 6 वच्छल्ल 7 पभावणे 8 अट्ठ // 132 // से तं सरागदसणारिया। [110 प्र.] सरागदर्शनार्य किस-किस प्रकार के होते हैं ? [110 उ.] सरागदर्शनार्य दस प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं गाथाओं का अर्थ-] 1. निसर्गरुचि, 2. उपदेशरुचि, 3. आज्ञारुचि, 4. सूत्ररुचि, और 5. बीजरुचि, 6. अभिगमरुचि, 7. विस्ताररुचि, 8. क्रियारुचि, 6. संक्षेपरुचि, और 10. धर्मरुचि / / 116 // 1. जो व्यक्ति (परोपदेश के बिना) स्वमति (जातिस्मरणादि) से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, प्राश्रव और संवर आदि तत्त्वों को भूतार्थ (तथ्य) रूप से जान कर उन पर रुचि-श्रद्धा करता है, वह निसर्ग-(रुचि सराग-दर्शनार्य) है / / 120 / / जो व्यक्ति तीर्थंकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट भावों (पदार्थों) पर स्वयमेव (परोपदेश के बिना) चार प्रकार से (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से) श्रद्धान करता है, तथा (ऐसा विश्वास करता है कि जीवादि तत्त्वों का स्वरूप जैसा तीर्थकर भगवान् ने कहा है,) वह वैसा ही है, अन्यथा नहीं, उसे निसर्गरुचि जानना चाहिए / / 121 / / 2. जो व्यक्ति छद्मस्थ या जिन (केवली) किसी दूसरे के द्वारा उपदिष्ट इन्हीं (जीवादि) पदार्थों पर श्रद्धा करता है, उसे उपदेशरुचि जानना चाहिए / / 122 / / 3. जो (व्यक्ति किसी अर्थ के साधक) हेतु (युक्ति या तर्क) को नहीं जानता हुआ, केवल जिनाज्ञा से प्रवचन पर रुचि-श्रद्धा रखता है, तथा यह समझता है कि जिनोपदिष्ट तत्त्व ऐसे ही हैं, अन्यथा नहीं; वह प्राज्ञाहीच नामक दशनाय है / / 123 / / 4. जो व्यक्ति शास्त्रों का अध्ययन करता हुआ श्रुत के द्वारा ही सम्यक्त्व का अवगाहन करता है, चाहे वह श्रुत अंग-प्रविष्ट हो या अंगबाह्य, उसे सूत्ररुचि (दर्शनार्य) जानना चाहिए / / 124 // 5. जैसे जल में पड़ा हुया तेल का बिन्दु फैल जाता है, उसी प्रकार जिसके लिए सूत्र (शास्त्र) का एक पद, अनेक पदों के रूप में फैल (परिणत हो जाता है, उसे बोजरुचि (दर्शनार्य) समझना चाहिए / / 125 / / 6. जिसने ग्यारह अंगों, प्रकीर्णकों (पइन्नों) को तथा बारहवें दृष्टिवाद नामक अंग तक का श्रुतज्ञान, अर्थरूप में उपलब्ध (दृष्ट एवं ज्ञात) कर लिया है, वह अभिगमरुचि होता है / / 126 / / 7. जिसने द्रव्यों के सर्वभावों को, समस्त प्रमाणों से एवं समस्त नयविधियों (नयविवक्षाओं) से उपलब्ध कर (जान) लिया, उसे विस्ताररुचि समझना चाहिए / / 127 / / 8. दर्शन, ज्ञान और चारित्र में, तप और विनय में, सर्व समितियों और गुप्तियों में जो क्रियाभावरुचि (आचरण-निष्ठा) वाला है, वह क्रियारुचि नामक (सरागदर्शनार्य) है / / 12 / / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] - 6. जिसने कुदर्शन (मिथ्यादर्शन) का ग्रहण नहीं किया है, तथा शेष अन्य दर्शनों का भी अभिग्रहण (परिज्ञान) नहीं किया है, और जो अर्हत्प्रणीत प्रवचन में विशारद (पटु) नहीं है, उसे संक्षेपरुचि (सराग दर्शनार्य) समझना चाहिए / / 126 / / 10. जो व्यक्ति जिनोक्त अस्तिकायधर्म (धर्मास्तिकाय आदि पांचों अस्तिकायों के धर्म) पर तथा श्रुतधर्म एवं चारित्रधर्म पर श्रद्धा करता है, उसे धर्मरुचि (सरागदर्शनार्य) समझना चाहिए / / 130 // परमार्थ (जीवादि तात्त्विक पदार्थों) का संस्तव करना (परिचय प्राप्त करना, अर्थात्-उन्हें समझने के लिए बहुमानपूर्वक प्रयत्न करना या संस्तुति-प्रशंसा, आदर करना); जिन्होंने परमार्थ (जीवादि तत्त्वार्थ) को सम्यक् प्रकार से श्रद्धापूर्वक जान लिया है, उनकी सेवा-उपासना करना (या उनका सेवन-सत्संग करना); और जिन्होंने सम्यक्त्व का वमन कर दिया है, उन (निह्नवों) से तथा कुदृष्टियों से दूर रहना, यही सम्यक्त्व-श्रद्धान (सम्यग्दर्शन) है / (जो इनका पालन करता है, वही सरागदर्शनार्य होता है / ) / / 131 / / (सरागदर्शन के) ये पाठ प्राचार हैं ---(1) निःशंकित, (2) निष्कांक्षित, (3) निविचिकित्स और (4) अमूढदृष्टि, (5) उपवृहण, (6) स्थिरीकरण, (7) वात्सल्य और (8) प्रभावना / (ये पाठ दर्शनाचार जिस में हो, वह सरागदर्शनार्य होता है / ) / / 132 / / यह हुई उक्त सरागदर्शनार्यों की प्ररूपणा। 111. से कि तं वीयरागदसणारिया ? वीयरागदसणारिया दुविहा पण्णता / तं जहा-उवसंतकसायवीयरायदंसणारिया खीणकसायवोयरायदंसणारिया। [111 प्र.] वीतरागदर्शनार्य कैसे होते हैं ? [111 उ ] वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-उपशान्तकषायवीतरागदर्शनार्य और क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य / 112. से कि तं उवसंतकसायवीयरायदंसणारिया ? उवसंतकसायवीयरायदंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा--पढमसमयउवसंतकसायवीयरायदसणारिया प्रपढमसमय उवसंतकसायवीयरायदंसणारिया, महवा चरिमसमयउवसंतकसायवीयरायदसणारिया य प्रचरिभसमय उवसंतकसायवीयरायदंसणारिया य / [112 प्र.] उपशान्तकषायवीतरागदर्शनार्य कैसे होते हैं ? [112 उ.] उपशान्त कषायवीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-प्रथमसमय उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अप्रथमसमय-उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य अथवा चरमसमय-उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अचरमसमय-उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य / 113. से कि तं खीणकसायवीयरायदसणारिया ? खोणकसायवीयरायदंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-छउमत्थखीणकसायवीयरागदसणारियाय केवलिखीणकसायवीयरागदंसणारिया य / Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 ] [प्रज्ञापनासूत्र [113 प्र.] क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य कैसे होते हैं ? [113 उ] क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-छद्मस्थक्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य / 114. से कि तं छउमस्थखीणकसायवीयरागदसणारिया ? ___ छउमत्थखीणकसायवीयरागदसणारिया दुविहा पण्णता। तं जहा-सयंबुद्धछउमस्थखीणकसायवीयरागदंसणारिया य बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरागदंसणारिया य / [114 प्र.] छद्मस्थ क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य किस प्रकार के हैं ? [114 उ.] छद्मस्थ क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य / 115. से कि तं सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरागदंसणारिया ? सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरागदंसणारियादुविहा पण्णत्ता / तं जहा–पढमसमयसयंबुद्धछउमस्थखीणकसायवीयरागदंसणारिया य अपढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया य, अहवा चरिमसमयसयंबुद्धछउमस्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया य अचरिमसमयसयंबुद्धछउमस्थखोणकसायवीयरायदसणारिया य / से तं सयंबुद्धछउमत्थखोणकसायवीयरायदंसणारिया। [115 प्र.] स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य किस प्रकार के होते हैं ? [115 उ] स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-प्रथमसमय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अप्रथमसमय-स्वयंबुद्धछद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य अथवा चरमसमय स्वयंबुद्धछद्मस्थ क्षीणकषाय वीतरागदर्शनार्य और अचरमसमय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-दर्शनार्य / यह हुआ उक्त स्वयंबुद्ध-छद्मस्थक्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्यों का वर्णन / 116. से किं तं बुधबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया ? बुद्धबोहियछ उमस्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया य अपढमसमयबद्धबोहियछउमस्थखीणकसायवीयरागदसणारिया य, अहवा चरिमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया य अचरिमसमयबुद्धबोहियछ उमत्थखोणकसायवीयरायदंसणारिया य / से तं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरागदसणारिया / से तं छउमत्थखीणकसायवीयरायदंसणारिया। [116 प्र.] बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य कैसे होते हैं ? [116 उ.] बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा--प्रथमसमय-बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अप्रथमसमय-बुद्धबोधितछद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य; अथवा चरमसमय-बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-बीतरागदर्शनार्य और अचरमसमय-बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य / Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] [ 97 यह हुआ उक्त बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य का निरूपण और इसके साथ ही उक्त छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य का निरूपण पूर्ण हुना। 117. से कि तं केवलिखीणकसायधीतरागदसणारिया ? केवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया दुविहा पण्णता / तं जहा–सजोगिकेवलिखोणकसायवीतरागदसणारिया य प्रजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदंसणारिया य। [117 प्र.] केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य किस प्रकार के कहे गए हैं ? [117 उ.] केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं—सयोगि-केवलि. क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अयोगि-केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य / 118. से कितं सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदंसणारिया? सजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा---पढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदंसणारिया य, अहवा चरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य अचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य / सेत्तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागदसणारिया / [118 प्र.] सयोगि-केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य किस प्रकार के हैं ? [118 उ.] सयोगि-केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--प्रथमसमय-सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अप्रथमसमय-सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य; अथवा चरमसमय-सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अचरमसमय-सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य / यह हुई उक्त सयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य की प्ररूपणा / 116. से कि तं प्रजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागसणारिया ? अजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागदसणारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पढमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य अपढमसमयप्रजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य, अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया य अचरिमसमयप्रजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागदंसणारिया य / से तं प्रजोगिकेवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया। सेत्तं केवलिखीणकसायवीतरागदसणारिया। से तं खीणकसायवीतरागदसणारिया। से तं वोयरायदंसणारिया / से त्तं दसणारिया। [116 प्र.] अयोगि-केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य किस प्रकार के होते हैं ? [116 उ.] अयोगि-केवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-प्रथमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अप्रथमसमय-अयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य, अथवा चरमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य और अचरमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीण कषाय-वीतरागदर्शनार्य / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 ] [ प्रज्ञापनासूत्र यह हुआ उक्त अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्यों (का वर्णन) / (साथ ही, पूर्वोक्त) केवलि-क्षीणकषाय वीतरागदर्शनार्यों का वर्णन (भी पूर्ण हुआ और इसके पूर्ण होने के साथ ही) क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्यों का वर्णन भी समाप्त हुआ / यह है उक्त दर्शनार्य (मनुष्यों) का (विवरण) / 120. से किं तं चरित्तारिया ? चरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–सरागचरित्तारिया य वीयरागचरित्तारिया य / [120 प्र.] चारित्रार्य (मनुष्य) कैसे होते हैं ? [120 उ.] चारित्रार्य (मनुष्य) दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-सरागचारित्रार्य और वीतरागचारित्रार्य। 121. से कि तं सरागचरित्तारिया ? सरागचरित्तारिया दुविहा पन्नता। तं जहा-सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य बायरसंपरायसरागचरित्तारिया य / [121 प्र.] सरागचारित्रार्य मनुष्य कैसे होते हैं ? [121 उ.] सरागचारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-सूक्ष्मसम्पराय-सराग-चारित्रार्य और बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य / 122. से कि तं सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया ? सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पढमसमयसुहमसंपरायसरागचरितारिया य अपढमसमयसुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयसुहमसंपरायसराग. चरित्तारिया य प्रचरिमसमयसुहमसंपरायसरागचरित्तारिया य; अहवा सुहमसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–संकिलिस्समाणा य विसुज्झमाणा य / से तं सुहुमसंपरायचरित्तारिया। [122 प्र.] सूक्ष्मसम्पराय-सरांगचारित्रार्य किस प्रकार के होते हैं ? [122 उ.] सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य दो प्रकार के होते हैं प्रथमसमय-सूक्ष्मससम्पराय. सरागचारित्रार्य और अप्रथमसमय-सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य; अथवा चरमसमय-सूक्ष्मसम्परायसरागचारित्रार्य और अचरमसमय-सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य / अथवा सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--संक्लिश्यमान (ग्यारहवें गुणस्थान से गिर कर दशम गणस्थान में आये हए) और विशयमान (नवम गणस्थान से ऊपर चढ़ कर दशम गुणस्थान में पहुँचे हुए)। यह हुई, उक्त सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य की प्ररूपणा / 123. से कि तं बादरसंपरायसरागचरितारिया ? बादरसंपरायसरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पढमसमयबादरसंपरायसरागचरितारिया य अपढमसमयबादरसंपरायसरागचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयबादरसंपरायसरागचरित्तारिया य अचरिमसमयबादरसंपरायसरागचरित्तारिया या अहवा बादरसंपरायसराग . Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 99 चरित्तारिया दुविहा पण्णता, तं जहा-पडिवाती य अपडिवाती य / से तं बादरसंपरायसरागचरित्तारिया / से तं सरागचरित्तारिया। [123 प्र.] बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य किस प्रकार के हैं ? [123 उ.] बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-प्रथमसमय-बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य और अप्रथमसमय-बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य अथवा चरमसमयबादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य और अचरमसमय-बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य अथवा (तीसरी तरह से) बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--प्रतिपाती और अप्रतिपाती। यह हुआ बादरसम्पराय-सराग-चारित्रार्य (का वर्णन) (और साथ ही) सराग चारित्रार्य (का वर्णन भी पूर्ण हुआ।) 124. से कि तं वीयरागचरित्तारिया ? बोयरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-उवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया य खोणकसायवीतरागचरित्तारिया य / [124 प्र.] वीतराग-चारित्रार्य किस प्रकार हैं ? [124 उ. वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार--उपशान्तकषाय-वीतरागचारित्रार्य और क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य / 125. से कि तं उपसंतकसायवीयरायचरित्तारिया ? . उवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पढमसमयउवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया य अपढमसमयउवसंतकसायवीयरायचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयउवसंतकसायवोयरागचरित्तारिया य अचरिमसमयउवसंतकसायवीयरागचरित्तारिया य / से तं उवसंतकसायवीयरागचरित्तारिया। [125 प्र.] उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य किस प्रकार के होते हैं ? [125 उ.] उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैंप्रथमसमय-उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य और अप्रथमसमय-उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य; अथवा चरमसमय-उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य और अचरमसमय-उपशान्तकषाय-वीतरागचारित्रार्य / यह हुआ उपशान्तकषाय-वीतराग-चारित्रार्य का निरूपण / 126. से कि तं खीणकसायवीयरायचरित्तारिया ? खोणकसायवीयरायचरित्तारिया दुविहा पण्णता। तं जहा-छउमस्थखोणकसायवीतरागचरित्तारिया य केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य। [126 प्र.] क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य किस प्रकार के हैं ? [126 उ.] क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-छद्मस्थ-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य और केवलि-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 1 / प्रज्ञापनासून 127. से कि तं छउमस्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया ? छउमत्थखीणकसायधीतरागचरित्तारिया दुविहा पण्णता / तं जहा—सयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरागचरित्तारिया य बोहियछउमस्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य। [127 प्र.] छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य कौन हैं ? [127 उ.] छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं। यथा-स्वयंबुद्धछद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य और बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य। 128. से कि तं सयंबुद्धछउमत्थखोणकसायवीयरागचरितारिया ? सयंबुद्धछउमस्थखोणकसायवीतरागचरित्तारिया दुविहा पण्णता। तं जहा-पढमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य अपढमसमयसयंबद्धछउमत्थखीणकसायवी रित्तारिया य, प्रहवा चरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य प्रचरिमसमयसयंबुद्धछउमत्थखोणकसायवीतरागचरित्तारिया य / से तं सयंबुद्धछउमस्थखोणकसायवीतरागचरित्तारिया। [128 प्र.] वे स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य कौन हैं ? [128 उ.] स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-प्रथमसमय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य और अप्रथमसमयस्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य; अथवा चरमसमय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य और अचरमसमय-स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य / यह हुआ, उक्त स्वयंबुद्ध-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य का वर्णन / 126. से कि तं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया ? बुद्धबोहियछ उमस्थखोणकसायवीतरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--पढमसमयबुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य अपढमसमयबद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य, अहया चरिमसमयबद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य अचरिमसमयबुद्धबोहियछ उमस्थखोणकसायवीयरायचरित्तारिया य / सेत्तं बुद्धबोहियछउमत्थखीणकसायवीयरायचरित्तारिया / से तं छउमत्थखीणकसायवीतरागचरित्तारिया। [126 प्र.] बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य कौन हैं ? [126 उ.] बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं—प्रथमसमयबुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य और अप्रथमसमय-बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य; अथवा चरमसमयबुद्धबोधित-छद्मस्थ क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य और अचरमसमय-बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतराग-चारित्रार्य / यह बुद्धबोधित-छद्मस्थ-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्यों और साथ ही छद्मस्थक्षीणकषायवीतरागचारित्रार्यों का वर्णन सम्पूर्ण हुआ। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 101 130. से किं तं केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया ? केवलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–सजोगिकेवलिखीणकसायबीयरागचरित्तारिया य प्रजोगिकेवलिखोणकसायवीतरागचरित्तारिया य / [130 प्र.] केवलि-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य कौन हैं ? [130 उ.] केवलि-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-सयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य और अयोगिकेवलि-क्षीणकषायवीतराग-चारित्रार्य / 131. से कि तं सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया ? सजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया दुविहा पण्णता। तं जहा-पढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य अपढमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य, अहया चरिमसमयसजोगिकेबलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य प्रचरिमसमयसजोगिकेवलिखीणकसायवीयरायचरित्तारिया य / से तं सजोगिकेबलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया। [231 प्र.] सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य किस प्रकार के कहे हैं ? [131 उ.] सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैंप्रथमसमय-सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य और अप्रथमसमय-सयोगिकेवलिक्षीणकषायवीतरागचारित्रार्य ; अथवा चरमसमय-सयोगिकेवलि-क्षीणकषायवीतरागचारित्रार्य और अचरमसमयसयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य। यह सयोगिकेवलिक्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्यों का निरूपण हुमा / 132. से कि तं प्रजोगिकेवलिखोणकसायवीयरागचरितारिया ? प्रजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया दुविहा पन्नता / तं जहा-पढमसमय प्रजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया य अपढमसमयप्रजोगिकेवलिखीणकसायवोयरागचरित्तारिया य, अहवा चरिमसमयअजोगिकेवलिखीणकसायवीयरागचरित्तारिया य अचरिमसमय प्रजोगिकेबलिखीणकसायवीतरागचरित्तारिया य / से तं अजोगिकेवलिखीणकसायवीय रागचरित्तारिया। से तं केलि. खोणकसायवीतरागचरित्तारिया / से तं खोणकसायवीतरागचरित्तारिया। से तं वीतरागचरित्तारिया। [132 प्र.] अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य कैसे होते हैं ? [132 उ.] अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-प्रथमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य और अप्रथमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषायवीतरागचारित्रार्य ; अथवा चरमसमय-अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्य और अचरमसमयअयोगिकेवलि-क्षोणकषाय-बीतरागचारित्रार्य / इस प्रकार अयोगिकेवलि-क्षीणकषाय-बीतरागचारित्रार्यों का, साथ ही केवलिक्षीणकषाय-वीतरागचारित्रार्यों का वर्णन (भी पूर्ण हुआ), (और इसके पूर्ण होने के साथ ही) वीतराग-चारित्रार्यों की प्ररूपणा (भी पूर्ण हुई)। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 ] [ प्रज्ञापनासूत्र 133. अहवा चरित्तारिया पंचविहा पन्नत्ता / तं जहा-सामाइयचरित्तारिया 1 छेदोवट्ठावणियचरित्तारिया 2 परिहारविसुद्धियचरित्तारिया 3 सुहमसंपरायचरित्तारिया 4 प्रहक्खायचरित्तारिया 5 / [133 प्र.] अथवा-प्रकारान्तर से चारित्रार्य पांच प्रकार के कहे गए हैं। यथा१. सामायिक-चारित्रार्य, 2. छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य, 3. परिहारविशुद्धिक-चारित्रार्य, 4. सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य और 5. यथाख्यात-चारित्रार्य / 134. से कि तं सामाइयचरित्तारिया ? सामाइयचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-इत्तरियसामाइयचरित्तारिया य प्रावकहियसामाइयचरित्तारिया य / से तं सामाइयचरित्तारिया / [134 प्र.] वे [पूर्वोक्त) सामायिक-चारित्रार्य किस प्रकार के हैं ? [134 उ.] सामायिक-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं-इत्वरिक सामायिक-चारित्रार्य और यावत्कथिक सामायिक चारित्रार्य / यह हुआ सामायिक-चारित्रार्य का निरूपण / 135. से किं तं छेदोक्ट्ठावणियचरित्तारिया ? छेदोवढावणियचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-साइयारछेदोवट्ठावणियचरित्तारिया य गिरइयारछेप्रोवट्ठावणियचरित्तारिया य / से तं छेदोवट्ठावणियचरित्तारिया / / / [135 प्र.] छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य किस प्रकार के है ? [135 उ.] छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-सातिचार-छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य और निरतिचार-छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य। यह हुआ छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्यों का वर्णन / 136. से कि तं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया ? परिहारविसुद्धियचरित्तारिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-निविसमाणपरिहारविसुद्धियचरित्तारिया य निन्विटुकाइयपरिहारविसुद्धियचरित्तारिया य / से तं परिहारविसुद्धियचरित्तारिया। [136 प्र.] परिहारविशुद्धि-चारित्रार्य किस प्रकार के हैं ? [136 उ.] परिहारविशुद्धि-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं—निविश्यमानक-परिहारविशुद्धि-चारित्रार्य और निर्विष्टकायिक-परिहारविशुद्धि-चारित्रार्य / यह हुआ उक्त परिहारविशुद्धिचारित्रार्यों का वर्णन / 137. से कि तं सुहमसंपरायचरितारिया ? सुहुमसंपरायचरित्तारिया दुविहा पण्णता। तं जहा -संकिलिस्समाणसुहुमसंपरायचरित्तारिया य विसुज्झमाणसुहमसंपरायचरित्तारिया य / से तं सुहमसंपरायचरित्तारिया। [137 प्र.] सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य कौन हैं ? Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद / [ 103 [137 उ.] सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य दो प्रकार के हैं -संक्लिश्यमान-सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य और विशुद्धचमान-सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य / / यह हुआ उक्त सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्यों का निरूपण / 138. से कि तं प्रहक्खायचरित्तारिया ? अहक्खायचरितारिया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-छउमस्थग्रहक्खायचरित्तारिया य केवलिअहक्खायचरित्तारिया य / सेत्तं महक्खायचरित्तारिया। से तं चरित्तारिया। से तं प्रणिडिपत्तारिया / से तं प्रारिया। से तं कम्मभूमगा। से तं गब्भववतिया / से तं मणुस्सा। [138 प्र.] यथाख्यात-चारित्रार्य किस प्रकार के हैं ? [138 उ.] यथाख्यात-चारित्रार्य दो प्रकार के कहे गए हैं-छद्मस्थयथाख्यात-चारित्रार्य और केवलियथाख्यात-चारित्रार्य / यह हुआ उक्त यथाख्यात-चारित्रार्यों का (निरूपण / ) इसके पूर्ण होने के साथ ही) चारित्रार्य का वर्णन (समाप्त हुा / ) इस प्रकार पार्यों का वर्णन, कर्मभूमिजों का वर्णन तथा उक्त गर्भजों के वर्णन के समाप्त होने के साथ ही मनुष्यों की प्ररूपणा पूर्ण हुई। विवेचन-समन मनुष्यजीवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत 47 सूत्रों (सू. 92 से 138 तक) में मनुष्यों के सम्मूच्छिम और गर्भज इन दो भेदों का उल्लेख करके गर्भजों के कर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तरद्वीपज, यों तीन भेद और फिर इनके भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है / कर्मभूमक और अकर्मभूमक की व्याख्या-कर्मभूमक-प्रस्तुत में कृषि-वाणिज्यादि जीवननिर्वाह के कार्यों को तथा मोक्षसम्बन्धी अनुष्ठान को कर्म कहा गया है / जिनकी कर्मप्रधान भूमि है, वे 'कर्मभूम' या 'कर्मभूमक' कहलाते हैं। अर्थात्---कर्मप्रधान भूमि में रहने और उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमक हैं / प्रकर्मभूमक--जिन मनुष्यों की भूमि पूर्वोक्त कर्मों से रहित हो, जो कल्पवृक्षों से ही अपना जीवन निर्वाह करते हों, वे अकर्मभूम या अकर्मभूमक कहलाते हैं।' 'अन्तरद्वीपक' मनुष्यों की व्याख्या-अन्तर शब्द मध्यवाचक है। अन्तर में अर्थात्-लवणसमुद्र के मध्य में जो द्वीप है, वे अन्तरद्वीप कहलाते हैं। उन अन्तरद्वीपों में रहने वाले अन्तरद्वीपग या अन्तरद्वीपक कहलाते हैं। ये अन्तरद्वीपग मनुष्य अट्ठाईस प्रकार के हैं, जिनका मूल पाठ में नामोल्लेख है। अन्तरद्वीपग मनुष्य वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, कंकपक्षी के समान परिणमन वाले, अनुकूल वायुवेग वाले एवं समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। उनके चरणों की रचना कच्छप के समान आकार बाली एवं सुन्दर होती है। उनकी दोनों जांघे चिकनी, अल्परोमयुक्त, कुरुविन्द के समान गोल होती हैं। उनके घुटने निगूढ़ और सम्यक्तयाबद्ध होते हैं, उनके उरूभाग हाथी की सूड के समान गोलाई से युक्त होते हैं, उनका कटिप्रदेश सिंह के समान, मध्यभाग वन के समान, नाभिमण्डल दक्षिणावर्त शंख के समान तथा वक्षःस्थल विशाल, पुष्ट एवं श्रीवत्स से लाञ्छित होता है। उनकी भुजाएँ नगर के फाटक की अर्गला के समान दीर्घ होती हैं। हाथ की कलाइयां (मणिबन्ध) सुबद्ध होती हैं / उनके करतल और पदतल रक्तकमल के समान लाल होते हैं। उनकी गर्दन चार अंगुल की, सम और वृत्ताकार शंख-सी होती है। उनका मुखमण्डल शरद्ऋतु के चन्द्रमा के समान सौम्य होता है / उनके छत्राकार मस्तक पर अस्फुटित-स्निग्ध, कान्तिमान एवं चिकने केश होते हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 50 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 ] [ प्रज्ञापनासूत्र वे कमण्डलु, कलश, यूप, स्तूप, वापी, ध्वज, पताका, सौवस्तिक, यव, मत्स्य, मगर, कच्छप, रथ, स्थाल, अंशुक, अष्टापद, अंकुश, सुप्रतिष्ठक, मयूर, श्रीदाम, अभिषेक, तोरण, पृथ्वो, समुद्र, श्रेष्ठभवन, दर्पण, पर्वत, हाथी, वृषभ, सिंह, छत्र और चामर; इन 32 उत्तम लक्षणों से युक्त होते हैं। वहाँ की स्त्रियां भी सुनिर्मित-सर्वांगसुन्दर तथा समस्त महिलागुणों से युक्त होती हैं / उनके चरण कच्छप के आकार के, तथा परस्पर सटी हुई अंगुलियों वाले एवं कमलदल के समान मनोहर होते हैं। उनके जंघायुगल रोमरहित एवं प्रशस्त लक्षणों से युक्त होते हैं, तथा जानुप्रदेश निगूढ एवं पुष्ट होते हैं, उनके उरू केले के स्तम्भसदृश संहत, सुकुमार एवं पुष्ट होते हैं। उनके नितम्ब विशाल, मांसल एवं शरीर के आयाम के अनुरूप होते हैं। उनकी रोमराजि मुलायम, कान्तिमय एवं सुकोमल होती है। उनका नाभिमण्डल दक्षिणावर्त की तरंगों के समान, उदर प्रशस्त लक्षणयुक्त एवं स्तन स्वर्णकलशसम संहत, उन्नत, पुष्ट एवं गोल होते हैं। पार्श्वभाग भी संगत होता है। उनकी बांहें लता के समान सुकुमार होती हैं। उनके अधरोष्ठ अनार के पुष्प के समान लाल, तालु एवं जिह्वा रक्तकमल के समान तथा आंखें विकसित नीलकमल के समान बड़ी एवं कमनीय होती हैं। उनकी भौहें चढ़ाए हुए धनुषबाण के आकार की सुसंगत होती हैं / ललाट प्रमाणोपेत होता है। मस्तक के केश सुस्निग्ध एवं सुन्दर होते हैं। करतल एवं पदतल स्वस्तिक, शंख, चक्र आदि की आकृति की रेखाओं से सुशोभित होते हैं। गर्दन ऊँची, मांसल एवं शंख के समान होती है। वे ऊँचाई में पुरुषों से कुछ कम होती हैं। स्वभाव से ही वे उदार, शृगार और सुन्दर वेष वाली होती हैं। प्रकृति से हास्य, वचन, विलास एवं विषय में परम नैपुण्य से युक्त होती हैं। वहाँ के पुरुष-स्त्री सभी स्वभाव से सुगन्धित वदन वाले होते हैं। उनके क्रोध, मान, माया और लोभ अत्यन्त मन्द होते हैं / वे सन्तोषी, उत्सुकता रहित, मृदुता-ऋजुतासम्पन्न होते हैं। मनोहर मणि, स्वर्ण और मोती आदि ममत्व के कारणों के विद्यमान होते हुए भी वे ममत्व के अभिनिवेश से तथा वैरानुबन्ध से रहित होते हैं। हाथी, घोड़े, ऊंट, गाय, भैंस आदि के होते हुए भी वे उनके परिभोग से पराङ मुख रह कर पैदल चलते हैं। वे ज्वरादि रोग, भूत, प्रेत, यक्ष आदि की प्रस्तता, महामारी आदि विपत्तियों के उपद्रव से भी रहित होते हैं। उनमें परस्पर स्वामि-सेवक का व्यवहार नहीं होता, अतएव सभी अहमिन्द्र जैसे होते हैं। उनकी पीठ में 64 पसलियां होती हैं। उनका श्राहार एक चतुर्थभक्त (उपवास) के बाद होता है और आहार भी शालि आदि धान्य से निष्पन्न नहीं, किन्तु पृथ्वी की मिट्टी एवं कल्पवृक्षों के पुष्प, फल का होता है। क्योंकि वहाँ चावल, गेहूं, मूग, उड़द आदि अन्न होते हुए भी वे मनुष्यों के उपभोग में नहीं आते, वहाँ को पृथ्वी ही शक्कर से अनन्तगुणी मधुर है, तथा कल्पवृक्षों के पुष्प-फलों का स्वाद चक्रवर्ती के भोजन से भी अनेक गुणा अच्छा है। वे इस प्रकार का स्वादिष्ट पाहार करके प्रासाद के आकार के जो गृहाकार कल्पवृक्ष होते हैं, उनमें सुख से रहते हैं। उस क्षेत्र में डांस, मच्छर, ज, खटमल, मक्खी आदि शरीरोपद्रवकारी जन्तु पैदा नहीं होते। जो भी सिंह, व्याघ्र, सर्प आदि वहाँ होते हैं, वे मनुष्यों को कोई पीड़ा नहीं पहुँचाते। उनमें परस्पर हिस्यहिंसकभाव का व्यवहार नहीं है। क्षेत्र के प्रभाव से वहाँ के जीव रौद्र (भयंकर) स्वभाव से रहित होते हैं। वहाँ के मनुष्यों (स्त्री-पुरुष) का जोड़ा अपने अवसान के समय एक जोड़े (स्त्री-पुरुष) को जन्म देता है और 76 दिन तक उसका पालन-पोषण करता है। उनके शरीर की ऊंचाई 800 धनुष की और उनकी आयु पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितनी होती है। वे मन्दकषायी, Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 105 मन्दराग-मोहानुबन्ध के कारण मर कर देवलोक में जाते हैं। उनका मरण भी जंभाई, खांसी या छींक प्रादि से होता है, किन्तु किसी शरीरपीड़ापूर्वक नहीं। अन्तरद्वीपगों के अन्तरद्वीप कहां और कैसी स्थिति में ?-आगमानुसार छप्पन अन्तरद्वीपगों के अन्तरद्वीप हिमवान् और शिखरी इन दो पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दाढ़ाओं पर स्थित हैं। हिमवान् पर्वत के अट्ठाईस अन्तरद्वीपों का वर्णन-जम्बूद्वीप में भरत और हैमवत क्षेत्रों की सीमा का विभाजन करने वाला हिमवान् नामक पर्वत है। वह भूमि में 25 योजन गहरा और सौ योजन ऊँचा तथा भरत क्षेत्र से दुगुना विस्तृत, हेममय चीनांशुक के-से वर्ण वाला है। उसके दोनों पाव नाना वर्गों से विशिष्ट कान्तिमय मणिसमूह से परिमण्डित हैं। उसका विस्तार ऊपर-नीचे सर्वत्र समान है। वह गगनमण्डल को स्पर्श करने वाले रत्नमय ग्यारह कूटों से सुशोभित है, उसका तल वज्रमय है, तटभाग विविध मणियों और सोने से सुशोभित है / वह दस योजन में अवगाहित-जगह घेरे हुए है। वह पूर्व-पश्चिम में हजार योजन लम्बा और दक्षिण-उत्तर में पांच योजन विस्तीर्ण है। उसके मध्यभाग में पद्मह्रद है तथा चारों ओर कल्पवृक्षों की पंक्ति से अतीव कमनीय है। वह पूर्व और पश्चिम के छोरों (अन्तों) से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। लवणसमुद्र के जल के स्पर्श से लेकर पूर्व-पश्चिम दिशा में दो गजदन्ताकार दाढ़ें निकली हैं। उनमें से ईशानकोण में जो दाढ़ा निकली है, उस प्रदेश में हिमवान् पर्वत से तीन सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में 300 योजन लम्बा-चौड़ा तथा कुछ कम 646 योजन की परिधिवाला एकोरुक नामक द्वीप है / जो कि 500 धनुष विस्तृत, दो गाऊ ऊँची पद्मवरवेदिका से चारों ओर से मण्डित है। उसी हिमवान् पर्वत के पर्यन्तभाग से दक्षिण-पूर्वकोण में तीन सौ योजन दूर स्थित लवणसमुद्र का अवगाहन करते ही दूसरी दाढ़ा आती है, जिस पर एकोरुक द्वीप जितना ही लम्बा-चौड़ा 'प्राभासिक' नामक द्वीप है तथा उसी हिमवान् पर्वत के पश्चिम दिशा के छोर (पर्यन्त) से लेकर दक्षिण-पश्चिमदिशा (नैऋत्यकोण) में तीन-सौ योजन लवणसमुद्र का अवगाहन करने के बाद एक दाढ़ आती है, जिस पर उसी प्रमाण का बैषाणिक नामक द्वीप है; एवं उसी हिमवान् पर्वत के पश्चिम दिशा के छोर से लेकर पश्चिमोत्तरदिशा (वायव्यकोण) में तीन-सौ योजन दूर लवणसमुद्र में एक दंष्ट्रा (दाढ़) आती है, जिस पर पूर्वोक्त प्रमाण वाला नांगोलिक द्वीप पाता है। इस प्रकार ये चारों द्वीप हिमवान् पर्वत से चारों विदिशाओं में हैं और समान प्रमाण वाले हैं। तदनन्तर इन्हीं एकोहक आदि चारों द्वीपों के प्रागे यथाक्रम से पूर्वोत्तर आदि प्रत्येक विदिशा में चार-चार सौ योजन आगे चलने के बाद चार-चार सौ योजन लम्बे-चौड़े, कुछ कम 1265 योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड से सुशोभित परिसर वाले तथा जम्बूद्वीप की वेदिका से 400 योजन प्रमाण अन्तर वाले हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलोकर्ण नाम के चार द्वीप हैं / एकोहक द्वीप के आगे हयकर्ण है, प्राभासिक के आगे गजकर्ण, वैषाणिक के आगे गोकर्ण और नांगोलिक के आगे शष्कुलीकर्ण द्वीप है। तत्पश्चात् इन हयकर्ण आदि चार द्वीपों के आगे पांच-पांच सौ योजन की दूरी पर फिर चार द्वीप हैं जो पांच-पांच सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और पहले की तरह ही चारों विदिशाओं में स्थित हैं / इनकी परिधि 1581 योजन की है। इनके बाह्यप्रदेश भी पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से सुशोभित हैं तथा जम्बूद्वीप को वेदिका से 500 योजन प्रमाण अन्तर वाले हैं। इनके Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 ] [प्रशापनासूत्र नाम हैं-प्रादर्शमुख, मेण्ढमुख, अयोमुख और गोमुख / इनमें से ह्यकर्ण के आगे आदर्शमुख, गजकर्ण के आगे मेण्ढमुख, गोकर्ण के आगे अयोमुख और शष्कुलीकर्ण के आगे गोमुख द्वीप है। इन आदर्शमुख आदि चारों द्वीपों के आगे छह-छह सौ योजन की दूरी पर पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में फिर चार द्वीप हैं--प्रश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख / ये चारों द्वीप 600 योजन लम्बे-चौड़े और 1897 योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से मण्डित बाह्यप्रदेश वाले एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से 600 योजन अन्तर पर हैं। इन अश्वमुखादि चारों द्वीपों के आगे क्रमश: पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में 700-700 योजन की दूरी पर 700 योजन लम्बे-चौड़े तथा 2213 योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से घिरे हुए एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से 700 योजन के अन्तर पर क्रमश: प्रश्वकर्ण, हरिकर्ण, प्रकर्ण और कर्णप्रावरण नाम के चार द्वीप हैं। फिर इन्हीं अश्वकर्ण अादि चार द्वीपों के आगे, यथाक्रम से पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में 800800 योजन दुर जाने पर आठ सौ योजन लम्बे-चौड़े, 2526 योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त प्रमाण वाली पद्मवरवेदिका-वनखण्ड से मण्डित परिसर वाले, एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से 800 योजन के अन्त पर उल्कामुख, मेघमुख, विद्य न्मुख और विद्यु हन्त नाम के चार द्वीप हैं / तदनन्तर इन्हीं उल्कामुख आदि चारों द्वीपों के आगे क्रमशः पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में 600-600 योजन की दूरी पर, नौ सौ योजन लम्बे-चौड़े तथा 2845 योजन की परिधि वाले, पूर्वोक्त प्रमाण वाली पद्मवरवेदिका एवं वनखण्ड से सुशोभित परिसर वाले, जम्बूद्वीप की वेदिका से 600 योजन के अन्तर पर वार द्वीप और हैं। जिनके नाम क्रमश: ये हैं-घनदन्त, लष्टदन्त, गूढ़दन्त और शुद्धदन्त / इस हिमवान् पर्वत की दाढों पर चारों विदिशानों में स्थित ये सब द्वीप (744 =28) अट्ठाईस हैं। शिखरी पर्वत के 28 अन्तरद्वीपों का वर्णन—इसी प्रकार हिमवान् पर्वत के समान वर्ण और प्रमाण वाले तथा पद्महद के समान लम्बे-चौड़े और गहरे पुण्डरीकहद से सुशोभित शिखरी पर्वत पर लवणसमुद्र के जलस्पर्श से लेकर पूर्वोक्त दूरी पर यथोक्त प्रमाण वाली चारों विदिशाओं में स्थित, एकोरुक आदि नाम के अट्ठाईस द्वीप हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई परिधि, नाम आदि सब पूर्ववत् हैं। अतएव दोनों ओर के मिल कर कुल अन्तरद्वीप छप्पन हैं। इन द्वीपों में रहने वाले मनुष्य भी इन्हीं नामों से पुकारे जाते हैं / जैसे पजाब में रहने वाले को पंजाबी कहा जाता है।' प्रकर्मभूमकों का वर्णन-अकर्मभूमक मनुष्य तीस प्रकार के हैं। अढाई द्वीप रूप मनुष्यक्षेत्र में पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु अकर्मभूमि के इन तीस क्षेत्रों में 30 ही प्रकार के मनुष्य रहते हैं। इन्हीं के नाम पर से इनमें रहने वाले मनुष्यों के प्रकार गिनाये गए हैं। इनमें से 5 हैमवत क्षेत्र और 5 हैरण्यवत क्षेत्र में मनुष्य एक गव्यूति (गाऊ) ऊँचे, एक पल्योपम को आयु और वज्रऋषभनाराचसंहनन तथा समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। इनकी पीठ की पांसलियाँ 64 होती हैं, ये एक दिन के अन्तर से भोजन करते हैं और 76 दिन तक अपनी संतान का पालन-पोषण करते हैं। पांच हरिवर्ष और पांच रम्यकवर्ष क्षेत्रों में मनुष्यों की प्रायु दो पल्योपम की, शरीर की ऊंचाई दो गव्यूति की होती है। 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 50 से 54 तक Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद [ 107 ये वज्रऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। ये दो दिन के अन्तर से आहार करते हैं / इनको पीठ को पसलियां 128 होती हैं और ये अपनी संतान का पालन 64 दिन तक करते हैं / पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्रों में मनुष्यों की आयु तीन पल्योपम की एवं शरीर की ऊँचाई तीन गाऊ की होती है। ये भी वज्रऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्त्रसंस्थान वाले होते हैं। इनकी पीठ की पसलियां 256 होती हैं। ये तीन दिनों के अनन्तर आहार करते हैं और 46 दिनों तक अपनी संतति का पालन करते हैं। इन सभी क्षेत्रों में अन्तरद्वीपों की तरह मनुष्यों के भोगोपभोग के साधनों की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है। इतना अन्तर अवश्य है कि पांच हैमवत और पांच हैरण्यवत क्षेत्रों में मनुष्यों के उत्थान, बल-वीर्य आदि तथा वहां के कल्पवृक्षों के फलों का स्वाद और वहाँ की भूमि का माधुर्य अन्तरद्वीप की अपेक्षा पर्यायों की दृष्टि से अनन्तगुणा अधिक है / ये ही सब पदार्थ पांच हरिवर्ष और पांच रम्यकवर्ष क्षेत्रों में उनसे भी अनन्तगुणे अधिक तथा पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु में इनसे भी अनन्तगुणे अधिक होते हैं / यह संक्षेप में अकर्मभूमकों का निरूपण है।' __ आर्य और म्लेच्छ मनुष्य-पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, इन 15 क्षेत्रों में आर्य और म्लेच्छ दोनों प्रकार के कर्मभूमक मनुष्य रहते हैं। आर्य का अर्थ है- हेय धर्मों (अधर्मों या पापों) से जो दूर हैं, और उपादेय धर्मों (अहिंसा, सत्य आदि धर्मों) के निकट हैं या इन्हें प्राप्त किये हुये हैं। म्लेच्छ वे हैं-जिनके वचन (भाषा) और आचार अव्यक्त-अस्पष्ट हों / दूसरे शब्दों में कहें तो जिनका समस्त व्यवहार शिष्टजनसम्मत न हो, उन्हें म्लेच्छ समझना चाहिए। __ म्लेच्छ अनेक प्रकार के हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है। इनमें से अधिकांश म्लेच्छों की जाति के नाम तो अमुक-अमुक देश में निवास करने से पड़ गए हैं, जैसे—शक देश के निवासी शक, यवन देश के निवासी यवन इत्यादि / आर्यों के प्रकार और उनके लक्षण क्षेत्रार्य-मूलपाठ में परिगणित साढे पच्चीस जनपदात्मक आर्य क्षेत्र में उत्पन्न होने एवं रहने वाले क्षेत्रार्य कहलाते हैं। ये क्षेत्र आर्य इसलिए कहे गए हैं कि / इनमें तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि उत्तम पुरुषों का जन्म होता है। इनसे भिन्न क्षेत्र अनार्य कहलाते हैं / जात्यार्य-मूलपाठ में वर्णित अम्बष्ठ आदि 6 जातियां इभ्य-अभ्यर्चनीय एवं प्रसिद्ध हैं। इन जातियों से सम्बद्ध जन जात्यार्य कहलाते हैं। कुलार्य-शास्त्र-परिगणित उग्न आदि 6 कुलों में से किसी कुल में जन्म लेने वाले कुलार्य-कुल की अपेक्षा से आर्य कहलाते हैं। कार्यअहिंसा आदि एवं शिष्टसम्मत तथा प्राजीविकार्य किये जाने वाले कर्म प्रार्यकर्म कहलाते हैं। शास्त्रकार ने दोषिक, सौत्रिक आदि कुछ आर्यकर्म से सम्बन्धित मनुष्यों के प्रकार गिनाये हैं / विशेषता स्वयमेव समझ लेना चाहिए। शिल्पार्य--जो शिल्प अहिंसा आदि धर्मांगों से तथा शिष्टजनों के प्राचार के अनुकूल हो, वह आर्य शिल्प कहलाता है। ऐसे आर्य शिल्प से अपना जीवननिर्वाह करने वाले शिल्पार्यों में परिगणित किये गए हैं। कुछ नाम तो शास्त्रकार ने गिनाये ही हैं / शेष स्वयं चिन्तन द्वारा समझ लेना चासिए / भाषार्य–अर्धमागधी उस समय आम जनता की, शिष्टजनों की भाषा थी, आज उसी का प्रचलित रूप हिन्दी एवं विविध प्रान्तीय भाषाएँ हैं। अतः वर्तमान युग 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 54 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 ] [ प्रज्ञापनासूत्र में भाषार्य उन्हें कहा जा सकता है, जिनकी भाषा उच्च संस्कृति और सभ्यता से सम्बन्धित हो, जिनकी भाषा तुच्छ और कर्कश न हो, किन्तु आदरसूचक कोमल, कान्त पदावली से युक्त हो। शेष ज्ञानार्य. दर्शनार्य और चारित्रार्य का स्वरूप स्पष्ट ही है / जो सम्यग्ज्ञान से युक्त हों, वे ज्ञानार्य, जो सम्यग्दर्शन से युक्त हों, वे दर्शनार्य और जो सम्यक्चारित्र से युक्त हों, वे चारित्रार्य कहलाते हैं / जो मिथ्याज्ञान से, मिथ्यात्व एवं मिथ्यादर्शन से एवं कुचारित्र से युक्त हों, उन्हें क्रमशः ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य नहीं कहा जा सकता / शास्त्रकार ने पांच प्रकार के सम्यग्ज्ञान से युक्त जनों को ज्ञानार्य, सराग और वीतराग रूप सम्यग्दर्शन से युक्त जनों को दर्शनार्य तथा सराग और वीतराग रूप सम्यक्चारित्र से युक्त जनों को चारित्रार्य बतलाया है। इन सबके अवान्तर भेद-प्रभेद विभिन्न अपेक्षाओं से बताए हैं। इन सब अवान्तर भेदों वाले भी ज्ञानार्य, दर्शनार्य एवं चारित्रार्य में ही परिगणित होते हैं। ___ सरागदर्शनार्य और वीतरागदर्शनार्य-जो दर्शन राग अर्थात् कषाय से युक्त होता है, वह सरागदर्शन तथा जो दर्शन राग अर्थात्-कषाय से रहित हो वह वीतरागदर्शन कहलाता है / सरागदर्शन की अपेक्षा से आर्य सरागदर्शनार्य और बीतरागदर्शन की अपेक्षा से आर्य वीतरागदर्शनार्य कहलाते हैं / सरागदर्शन के निसर्गरुचि आदि 10 प्रकार हैं / परमार्थसंस्तव आदि तीन लक्षण हैं और निःशंकित आदि 8 आचार है। वीतरागदर्शन दो प्रकार का है--उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय / इन दोनों के कारण जो आर्य हैं, उन्हें क्रमशः उपशान्तकषायदर्शनार्य और क्षीणकषायदर्शनार्य कहा जाता है। उपशान्तकषाय-वीतरागदर्शनार्य वे हैं---जिनके समस्त कषायों का उपशमन हो चुका है, अतएव जिनमें वीतरागदशा प्रकट हो चुकी है, ऐसे ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि / क्षीणकषायवीतरागदर्शनार्य वे हैं-जिनके समस्त कषाय समूल क्षीण हो चुके हैं, अतएव जिनमें वीतरागदशा प्रकट हो चुकी है. वे बारहवं से लेकर चौदहवें गुणस्थानवर्ती महामुनि / जिन्हें इस अवस्था में पहुँचे प्रथम समय ही हो, वे प्रथमसमयवर्ती, और जिन्हें एक समय से अधिक हो गया हो, वे अप्रथमसमयवर्ती कहलाते हैं। इसी प्रकार चरमसमयवर्ती और अचरमसमयवर्ती ये दो भेद समयभेद के कारण हैं। क्षीणकषाय-वीतरागदर्शनार्य के भी अवस्थाभेद से दो प्रकार हैं-जो बारहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग हैं, वे छद्मस्थ हैं और जो तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवाले हैं, वे केवली हैं। बारहवें गुणस्थानवर्ती छदमस्थक्षीणकषायवीतराग भी दो प्रकार के हैं-स्वयंबद्ध और बृद्धबोधित / फिर इन दोनों में से प्रत्येक के अवस्थाभेद से दो-दो भेद पूर्ववत् होते हैं—प्रथमसमयवर्ती और अप्रथमसमयवर्ती, तथा चरमसमयवर्ती और अचरमसमयवर्ती / स्वामी के भेद के कारण दर्शन में भी भेद होता है और दर्शनभेद से उनके व्यक्तित्व (आर्यत्व) में भी भेद माना गया है। केवलिक्षीणकषायवीतरागदर्शनार्य के सयोगिकेवली और अयोगिकेवली ये दो भेद होते हैं / जो केवल ज्ञान तो प्राप्त कर चुके, लेकिन अभी तक योगों से युक्त हैं, वे सयोगिकेवली, और जो केवली प्रयोग दशा प्राप्त कर चुके, वे अयोगिकेवली कहलाते हैं। वे सिर्फ चौदहवें गुणस्थान वाले होते हैं। इन दोनों के भी समयभेद से प्रथमसमयवर्ती और अप्रथमसमयवर्ती अथवा चरमसमयवर्ती और अचरमसमयवर्ती, यों प्रत्येक के चार-चार भेद हो जाते हैं। इनके भेद से दर्शन में भी भेद माना गया है और दर्शनभेद के कारण दर्शननिमित्तक आर्यत्व में भी भेद होता है। __ सरागचारित्रार्य और वीतरागचारित्रार्य-रागसहित चारित्र अथवा रागसहितपुरुष के चारित्र को सरागचारित्र और जिस चारित्र में राग का सद्भाव न हो, या वीतरागपुरुष का जो चारित्र हो, उसे वीतरागचारित्र कहते हैं / सरागचारित्र के दो भेद हैं--सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्र Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद ] [ 109 (जिसमें सूक्ष्म कषाय को विद्यमानता होती है) तथा बादरसम्पराय-सरागचारित्र (जिसमें स्थूल कषाय हो, वह)। इनसे जो आर्य हो, वह तथारूप आर्य होता है / सूक्ष्मसम्पराय-चारित्रार्य के अवस्था भेद से चार भेद बताए हैं-प्रथमसमयवर्ती व अप्रथमसमयवर्ती, तथा चरमसमयवर्ती और अचरमसमयवर्ती / इनकी व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए / सूक्ष्मसम्पराय-सरागचारित्रार्य के पुनः दो भेद बताए गए हैं-संक्लिश्यमान (ग्यारहवें गुणस्थान से गिरकर दसवें गुणस्थान में आया हुआ)। और विशुद्धयमान (नौवें गुणस्थान से ऊपर चढ़कर दसवें गुणस्थान में आया हुआ)। बादरसम्पराय-चारित्रार्य के भी पूर्ववत् प्रथमसमयवर्ती आदि चार भेद बताए गए हैं। इनके भी प्रकारान्तर से दो भेद किये गए हैं--प्रतिपाती और अप्रतिपाती। उपशमश्रेणी वाले प्रतिपाती (गिरने वाले) और क्षपकश्रेणीप्राप्त अप्रतिपाती (नहीं गिरने वाले) होते हैं। वीतराग के दो प्रकार हैं-उपशान्तकषायवीतराग और क्षीणकपायवीतराग / उपशान्तकषायवीतराग (एकादशम-गुणस्थान वर्ती) की व्याख्या तथा इसके चार भेदों की व्याख्या पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। क्षीणकषायवीतराग के भी दो भेद होते हैं-छद्मस्थक्षीणकषायवीतराग और केवलिक्षीणकषायवीतराग / इनमें से छद्मस्थक्षीणकषायवीतराग के दो प्रकार हैं स्वयंबुद्ध और बुद्धबोधित / इन दोनों के प्रथमसमयवर्ती आदि पूर्ववत् चार-चार भेद होते हैं। इन सबकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इसी प्रकार केवलिक्षीणकषायवीतराग के भी पूर्ववत् सयोगिकेवली और अयोगिकेवली तथा प्रथमसमयवर्ती आदि चार भेद होते हैं। इनकी व्याख्या भी पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। इन सबको अपेक्षा से जो प्रार्य होते हैं, वे तथारूप चारित्रार्य कहलाते हैं / सामायिकचारित्रार्य का स्वरूप-सम का अर्थ है-राग और द्वेष से रहित / समरूप प्राय को समाय कहते हैं / अथवा सम का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, इनके आय अर्थात् लाभ अथवा प्राप्ति को समाय कहते हैं / अथवा 'समाय' शब्द साधु की समस्त क्रियाओं का उपलक्षण है; क्योंकि साध की समस्त क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित होती हैं। पूर्वोक्त 'समाय' से जो निष्पन्न हो, सम्पन्न हो अथवा 'समाय' में होने वाला सामायिक है। अथवा समाय ही सामायिक है; जिसका तात्पर्य है-सर्व सावध कार्यों से विरति / महाव्रती साध-साध्वियों केच चारित्र कहा गया है; क्योंकि महाव्रती जीवन अंगीकार करते समय समस्तसावध कार्यों अथवा योगों से निवृत्तिरूप सामायिक चारित्र ग्रहण किया जाता है। यद्यपि सामायिक चारित्र में साध के समस्त चारित्रों का अन्तर्भाव हो जाता है, तथापि छेदोपस्थापना आदि विशिष्ट चारित्रों से सामायिकचारित्र में उत्तरोत्तर विशुद्धि और विशेषता आने के कारण उन चारित्रों को पृथक् ग्रहण किया गया है / सामायिकचारित्र के दो भेद हैं-इत्वरिक और यावत्कथिक / इत्वरिक का अर्थ है-अल्पकालिक और यावत्कथिक का अर्थ है-आजीवन (जीवनभर का, यावज्जीव का)। इत्वरिकसामायिक-चारित्र, भरत और ऐरवत क्षेत्रों में, प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के तीर्थ में, महाव्रतों का आरोपण नहीं किया गया हो, तब तक शैक्ष (नवदीक्षित) को दिया जाता है। अर्थात्-दीक्षाग्रहणकाल से महाव्रतारोपण से पूर्व तक का शैक्ष (नवदीक्षित) का चारित्र इत्वरिकसामायिक-चारित्र होता है। भरत और ऐरवत क्षेत्र के मध्यवर्ती वाईस तीर्थंकरों तथा महाविदेहक्षेत्रीय तीर्थंकरों के तीर्थ में साधुअों के यावत्कथिकसामायिक-चारित्र होता है / क्योंकि उनके उपस्थापना नहीं होती, अर्थात्१. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. बृत्ति, पत्रांक 55 से 60 तक, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 1, पृ. 453 से 513 तक Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 ] [ प्रज्ञापनासूत्र उन्हें महावतारोपण के लिए दूसरी बार दीक्षा नहीं दी जाती / इस प्रकार के सामायिकचारित्र की आराधना के कारण से जो आर्य हैं वे सामायिकचारित्रार्य कहलाते हैं। छेदोपस्थापनिक-चारित्रार्य-जिस चारित्र में पूर्वपर्याय का छेद, और महाव्रतों में उपस्थापन किया जाता है वह छेदोपस्थापन चारित्र है। वह दो प्रकार का है-सातिचार और निरतिचार / निरतिचार छेदोपस्थापनचारित्र वह है-जो इत्वरिक सामायिक वाले शेक्ष (नवदीक्षित) को दिया जाता है अथवा एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने पर अंगीकार किया जाता है। जैसे पार्श्वनाथ के तीर्थ से वर्द्धमान के तीर्थ में आने वाले श्रमण को पंचमहाव्रतरूप चारित्र स्वीकार करने पर दिया जाने वाला छेदोपस्थापनचारित्र निरतिचार है। सातिचार छेदोपस्थापनचारित्र वह है जो मूलगुणों (महाव्रतों) में से किसी का विघात करने वाले साधु को पुन: महाव्रतोच्चारण के रूप में दिया जाता है / यह दोनों ही प्रकार का छेदोपस्थापनचारित्र स्थितकल्प में-अर्थात्-प्रथम और चरम तीर्थकरों के तीर्थ में होता है, मध्यवर्ती बाईस तीर्थकों के तीर्थ में नहीं। छेदोपस्थापनचारित्र की आराधना करने के कारण साधक को छेदोपस्थापनचारित्रार्य कहा जाता है। परिहारविशुद्धिचारित्रार्य का स्वरूप-परिहार एक विशिष्ट तप है, जिससे दोषों का परिहार किया जाता है। अत: जिस चारित्र में उक्त परिहार तप से विशुद्धि प्राप्त होती है, उसे परिहारविशुद्धिचारित्र कहते हैं। उसके दो भेद हैं-निविशमानक और निविष्टकायिक / जिस चारित्र में साधक प्रविष्ट होकर उस तपोविधि के अनुसार तपश्चरण कर रहे हों, उसे निविशमानकचारित्र कहते हैं और जिस चारित्र में साधक तपोविधि के अनुसार तप का पाराधन कर चुके हों, उस चारित्र का नाम निविष्टकायिकचारित्र है। इस प्रकार के चारित्र अंगीकार करने वाले साधकों को भी क्रमश: निर्विशमान और निविष्टकायिक कहा जाता है। नौ साधु मिल कर इस परिहारतप की आराधना करते हैं। उनमें से चार साधु निविशमानक होते हैं, जो इस तप को करते हैं और चार साधु उनके अनुचारी अर्थात्-वैयावृत्त्य करने वाले होते हैं तथा एक साधु कल्पस्थित वाचनाचार्य होता है। यद्यपि सभी साध श्रतातिशयसम्पन्न होते हैं. तथापि यह एक प्रकार का उनमें एक कल्पस्थित प्राचार्य स्थापित कर लिया जाता है। निविशमान साधुओं का परिहारतप इस प्रकार होता है-ज्ञानीजनों ने पारिहारिकों का शीतकाल, उष्णकाल और वर्षाकाल में जघन्य, मध्यम और उत्कष्ट तप इस प्रकार बताया है-ग्रीष्मकाल में जघन्य चतुर्थभक्त, मध्यम षष्ठभक्त और उत्कृष्ट अष्टमभक्त होता है, शिशिरकाल में जघन्य षष्ठभक्त (बेला), मध्यम अष्टमभक्त (तेला) और उत्कृष्ट दशमभक्त (चौला) तप होता है / वर्षाकाल में जघन्य अष्टमभक्त, मध्यम दशमभक्त और उत्कृष्ट द्वादशभक्त (पंचौला) तप / पारणे में प्रायम्बिल किया जाता है। भिक्षा में पांच (वस्तुओं) का ग्रहण और दो का अभिग्रह होता है। कल्पस्थित भी प्रतिदिन इसी प्रकार प्रायम्बिल करते हैं। इस प्रकार छह महीने तक तप करके पारिहारिक (निविशमानक) साधु अनुचारी (वैयावृत्य करने वाले) बन जाते हैं; और जो चार अनुचारी थे, वे छह महीने के लिए पारिहारिक बन जाते हैं। इसी प्रकार कल्पस्थित (वाचनाचार्य पदस्थित) साधु भी छह महीने के पश्चात् पारिहारिक बन कर अगले 6 महीनों तक के लिए तप करता है और शेष साधु अनुचारी तथा कल्पस्थित बन जाते हैं / यह कल्प कुल 18 मास का संक्षेप में कहा गया है कल्प समाप्त हो जाने के पश्चात् वे साधु या तो जिनकल्प को अंगीकार कर लेते हैं, या अपने गच्छ में पुन: लौट आते हैं। परिहार तप के प्रतिपद्यमानक इस तप को या तो तीर्थंकर भगवान के सान्निध्य में प्रथवा जिसने इस कल्प को तीर्थकर Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापन ] [111 से स्वीकार किया हो, उसके पास से अंगीकार करते हैं; अन्य के पास नहीं। ऐसे मुनियों का चारित्र परिहारविशुद्धिचारित्र कहलाता है। इस चारित्र की आराधना करने वाले को परिहारविशुद्धिचारित्रार्य कहते हैं। परिहारविशुद्धिचारित्री दो प्रकार के होते हैं--इत्वरिक और यावत्कथिक / इत्वरिक वे होते हैं, जो कल्प की समाप्ति के बाद उसी कल्प या गच्छ में आ जाते हैं। जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के तत्काल जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे यावत्कथिकचारित्री कहलाते हैं। इत्वरिकपरिहारविशुद्धिकों को कल्प के प्रभाव से देवादिकृत उपसर्ग, प्राणहारक आतंक या दुःसह वेदना नहीं होती किन्तु जिनकल्प को अंगीकार करने वाले यावत्कथिकों को जिनकल्पी भाव का अनुभव करने के साथ ही उपसर्ग होने सम्भव है। सूक्ष्मसम्परायचारित्रार्य का स्वरूप-जिसमें सूक्ष्म अर्थात्-संज्वलन के सूक्ष्म लोभरूप सम्पराय =कषाय का ही उदय रह गया हो, ऐसा चारित्र सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। यह चारित्र दसवें गुणस्थान वालों में होता है; जहाँ संज्वलनकषाय का सूक्ष्म अंश ही शेष रह जाता है / इसके दो भेद हैं—विशुद्धधमानक और संक्लिश्यमानक / क्षपकश्रेणी या उपशमश्रेणी पर आरोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है, जबकि उपशमश्रेणी के द्वारा ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर वहाँ से गिरने वाला मुनि जब पुन: दसवें गुणस्थान में आता है, उस समय का सूक्ष्मसम्परायचारित्र संक्लिश्यमानक कहलाता है। सूक्ष्मसम्परायचारित्र की आराधना से जो आर्य हों, उन्हें सूक्ष्मसम्परायचारित्रार्य कहते हैं। यथाख्यातचारित्रार्य –'यथाख्यात' शब्द में यथा--प्रा+आख्यात, ये तीन शब्द संयुक्त हैं, जिनका अर्थ होता है--यथा (यथार्थरूप से) प्रा (पूरी तरह से) अाख्यात (कषायरहित कहा गया) हो अथवा जिस प्रकार समस्त लोक में ख्यात–प्रसिद्ध जो अकषायरूप हो, वह चारित्र, यथाख्यातचारित्र कहलाता है / इस चारित्र के भी दो भेद हैं-छाद्मस्थिक (छद्मस्थ-यानी ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवी जीव का) और कैवलिक (तेरहवें गुणस्थानवर्ती-सयोगिकेवली और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली का)। इस प्रकार के यथाख्यातचारित्र की आराधना से जो प्रार्य हों, वे यथाख्यातचारित्रार्य कहलाते हैं।' चतुर्विध देवों की प्रज्ञापना-- 136. से कि तं देवा? देवा चाउम्विहा पण्णत्ता / तं जहा-भवणवासी 1 वाणमंतरा 2 जोइसिया 3 वेमाणिया 4 / [136 प्र. देव कितने प्रकार के हैं ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 63 से 68 तक (ख) सम्वमिणं सामाइयं छेयाइविसेसियं पुण विमिन्नं / अविसेसं सामाइय चियमिह सामन्नसन्नाए॥ -प्र. म. वृ., प. 63 (ग) अह सद्दो उ जहत्थे, आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं / चरणमकसायमुइयं तहमक्खायं जहक्खायं / / -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 68 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [136 उ.] देव चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) भवनवासी, (2) वाणव्यन्तर, (3) ज्योतिष्क और (4) वैमानिक / 140. [1] से कितं भवणवासी ? भवणवासी दसविहा पन्नत्ता / तं जहा-असुरकुमारा 1 नागकुमारा 2 सुवण्णकुमारा 3 विज्जुकुमारा 4 अग्गिकुमारा 5 दीवकुमारा 6 उदहिकुमारा 7 दिसाकुमारा 8 वाउकुमारा 6 थणियकुमारा 10 // [140-1 प्र.] भवनवासी देव किस प्रकार के हैं ? [140-1 उ.] भवनवासी देव दस प्रकार के हैं—(१) असुरकुमार, (2) नागकुमार, (3) सुपर्णकुमार, (4) विद्युत्कुमार, (5) अग्निकुमार, (6) द्वीपकुमार, (7) उदधिकुमार, (8) दिशाकुमार, (6) पवन (वायु) कुमार और (10) स्तनितकुमार / [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। से तं मवणवासी। [140-2] ये (दस प्रकार के भवनवासी देव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। यथापर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह भवनवासी देवों की प्ररूपणा हुई। 141. [1] से कि तं वाणमंतरा ? वाणमंतरा अट्टविहा पण्णता। तं जहा–किन्नरा 1 किंपुरिसा 2 महोरगा 3 गंधव्या 4 जक्खा 5 रक्खसा 6 मूया 7 पिसाया / [141-1 प्र.] वाणव्यन्तर देव कितने प्रकार के हैं ? _ [141-1 उ.] वाणव्यन्तर देव आठ प्रकार के कहे गए हैं / जैसे—(१) किन्नर, (2) किम्पुरुष, (3) महोरग, (4) गन्धर्व, (5) यक्ष, (6) राक्षस, (7) भूत और (8) पिशाच / / [2] से समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। से तं वाणमंतरा। [141-2] वे (उपर्युक्त किन्नर आदि आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह हुआ उक्त वाण व्यन्तरों का वर्णन / 142. [1] से कि तं जोइसिया? जोइसिया पंचविहा पन्नत्ता / तं जहा—चंदा 1 सूरा 2 गहा 3 नक्खत्ता 4 तारा 5 / [142-1 प्र.] ज्योतिष्क देव कितने प्रकार के हैं ? [142-1 उ.] ज्योतिष्क देव पांच प्रकार के हैं / यथा-(१) चन्द्र, (2) सूर्य, (3) ग्रह, (4) नक्षत्र और (5) तारे / Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापद] 113 [2] ते समासतो दुविहा पण्णता तं जहा—पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। से तं जोइसिया। [142-2] वे (उपर्युक्त पांच प्रकार के ज्योतिष्क देव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैंपर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह ज्योतिष्क देवों का निरूपण है / 143. से किं तं वेमाणिया ? वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-कप्पोवगा य कप्पातीताय / [143 प्र.] वैमानिक देव कितने प्रकार के हैं ? [143 उ.] वैमानिक देव दो प्रकार के हैं—कल्पोपपन्न और कल्पातीत / 144. [1] से किं तं कप्पोवगा? कप्पोवगा बारसबिहा पण्णत्ता / तं जहा-सोहम्मा 1 ईसाणा 2 सणंकुमार 3 माहिंदा 4 बंभलोया 5 लंतया 6 सुक्का 7 सहस्सारा 8 प्राणता & पाणता 10 प्रारणा 11 अच्चुता 12 / [144-1 प्र.] कल्पोपपन्न कितने प्रकार के हैं ? [144-1 उ.] कल्पोपपन्न देव बारह प्रकार के कहे गए हैं--(१) सौधर्म, (2) ईशान, (3) सनत्कुमार, (4) माहेन्द्र, (5) ब्रह्मलोक, (6) लान्तक, (7) महाशुक्र, (8) सहस्रार, (6) आनत, (10) प्राणत, (11) पारण और (12) अच्युत / [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। से तं कप्पोवगा। [144-2] वे (बारह प्रकार के कल्पोपपन्न देव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैं / यथापर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह कल्पोपपन्न देवों की प्ररूपणा हुई / 145. से कि तं कप्पातीया? कप्पातीया दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-गेवेज्जगा य अणुत्तरोववाइया य / [145 प्र.] कल्पातीत देव कितने प्रकार के हैं ? [145 उ.] कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं--प्रैवेयकवासी और अनुत्तरौपपातिक / 146 [1] से कि तं गेवेज्जगा? गेवेज्जगा गवविहा पण्णत्ता / तं जहा हेट्टिमहे टिमगेवेज्जगा 1 हेटिममज्झिमगेवेज्जगा 2 हेट्ठिम उवरिमगेवेज्जगा 3 मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जगा 4 मज्झिममज्झिमगेवेज्जगा 5 मज्झिमउवरिमगेवेज्जगा 6 उवरिमहेटुिमगेवेज्जगा 7 उवरिमझिमगेवेज्जगा 8 उवरिमउवरिमगेवेज्जगा / [146-1 प्र.] | वेयक देव कितने प्रकार के हैं ? [146-1 उ.] ग्रे वेयक देव नौ प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) अधस्तनअधस्तन- वेयक, (2) अधस्तन-मध्यम-वेयक, (3) अधस्तन-उपरिम-ग्रंवेयक, (4) मध्यम Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [ प्रज्ञापनासूत्र अधस्तन-ग्न वेयक, (5) मध्यम-मध्यम-ग्र वेयक, (6) मध्यम-उपरिम-ग्रे वेयक, (7) उपरिम-अधस्तनग्रे वेयक, (8) उपरिम-मध्यम- वेयक और (9) उपरिम-उपरिम-ग्रं वेयक में रहने वाले / [2] ते समासतो दुविहा पण्णत्ता / तं जहा–पज्जतगा य अपज्जत्तगा य / से तं गेबेज्जगा / [146-2] ये (उपर्युक्त नौ प्रकार के ग्रे वेयक देव) संक्षेप में दो प्रकार के कहे गए हैंपर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह ग्रेवेयकों का निरूपण हुआ। 147. [1] से कि तं प्रणुत्तरोववाइया? अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा—विजया 1 वेजयंता 2 जयंता 3 अपराजिता 4 सम्वसिद्धा 5 / [147-1 प्र.] अनुत्तरोपपातिक देव कितने प्रकार के हैं ? [147-1 उ.] अनुत्तरौपपातिक देव पांच प्रकार के कहे गए हैं-(१) विजय, (2) वैजयन्त, (3) जयन्त, (4) अपराजित और (5) सर्वार्थसिद्ध, (विमानों में रहने वाले)। [2] ते समासतो विहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / से तं अणुत्तरोवबाइया। से तं कप्पाईया। से तं वेमाणिया। से तं देवा / से तं पंचिदिया। से तं संसारसमावण्णजीवपण्णवणा / से तं जीवपण्णवणा / से तं पण्णवणा। ॥पण्णवणाए भगवईए पढमं पण्णवणापयं समत्तं / / [147-2] ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं--पर्याप्तक और अपर्याप्तक / यह हुई अनुत्तरोपपातिक देवों की प्ररूपणा / साथ ही उक्त कल्पातीत देवों का निरूपण पूर्ण हुना, और इससे सम्बन्धित वैमानिक देवों का निरूपण भी पूर्ण हुआ / इसके पूर्ण होने पर देवों का वर्णन भी पूर्ण हुया / साथ ही पंचेन्द्रिय जीवों का वर्णन भी पूरा हा। इसकी समाप्ति के साथ ही उक्त संसारसमापन्न जोवों की प्रज्ञापना पूर्ण हई; और इससे सम्बन्धित जीवप्रज्ञापना भी समाप्त हई। इस प्रकार यह प्रथम प्रज्ञापनापद पूर्ण हुअा। विवेचन-चतुर्विध देवों की प्रज्ञापना--प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 136 से 147 तक) में चार प्रकार के देवों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा की गई है। __ भवनवासी देवों का स्वरूप-जो देव प्रायः भवनों में निवास किया करते हैं, वे भवनवासी देव कहलाते हैं / यह कथन बहुलता से नागकुमार आदि देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि वे (नागकुमारादि) ही प्रायः भवनों में निवास करते हैं, कदाचित् आवासों में भी रहते हैं ; किन्तु असुरकुमार प्रायः प्रावासों में रहते हैं, कदाचित् भवनों में भी निवास करते हैं / भवन और ग्रावास में अन्तर यह है कि भवन तो बाहर से वृत्त (गोलाकार) तथा भीतर से समचौरस होते हैं, और नीचे कमल की कणिका के आकार के होते हैं। जबकि आवास कायप्रमाण स्थान वाले महामण्डप होते हैं, जो अनेक प्रकार के मणि-रत्नरूपी प्रदीपों से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करते हैं / भवनवासी देवों के प्रत्येक प्रकार के नाम के साथ संलग्न 'कुमार' शब्द इनकी विशेषता का द्योतक है। ये दसों ही प्रकार के देव कुमारों के समान चेष्टा करते हैं अतएव 'कुमार' कहलाते हैं। ये कुमारों की तरह सुकुमार होते हैं, इनकी चाल (गति) कुमारों की तरह मृदु, मधुर और ललित होती है / शृंगार Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रज्ञापनापन [115 प्रसाधनार्थ ये नाना प्रकार की विशिष्ट एवं विशिष्टतर उत्तरविक्रिया किया करते हैं। कुमारों की तरह ही इनके रूप, वेशभूषा, भाषा, आभूषण, शस्त्रास्त्र, यान एवं वाहन ठाठदार होते हैं / ये कुमारों के समान तीव्र अनुरागपरायण एवं क्रीड़ातत्पर होते हैं / वाणव्यन्तर देवों का स्वरूप-अन्तर का अर्थ है-अवकाश, आश्रय या जगह / जिन देवों का अन्तर (प्राश्रय), भवन, नगरावास आदि रूप हो, वे व्यन्तर कहलाते हैं। वाणव्यन्तर देवों के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर और नीचे सौ-सौ योजन छोड़ कर शेष पाठ-सौ योजन-प्रमाण मध्यभाग में हैं। इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं; तथा इनके आवास तीन लोकों में हैं; जैसे ऊर्ध्वलोक में इनके आवास पाण्डुकवन आदि में हैं। व्यन्तर शब्द का दूसरा अर्थ है--- मनुष्यों से जिनका अन्तर नहीं (विगत) हो, क्योंकि कई व्यन्तर चक्रवर्ती, वासुदेव आदि मनुष्यों की सेवक की तरह सेवा करते हैं। अथवा जिनके पर्वतान्तर, कन्दरान्तर या वनान्तर आदि प्राश्रयरूप विविध अन्तर हों, वे व्यन्तर कहलाते हैं / अथवा वानमन्तर का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--वनों का अन्तर वनान्तर है, जो बनान्तरों में रहते हैं, वे वानमन्तर / वाणव्यन्तरों के किन्नर आदि आठ भेद हैं। किन्नर के दस भेद हैं-(१) किन्नर, (2) किम्पुरुष, (3) किम्पुरुषोत्तम, (4) किन्नरोत्तम, (5) हृदयंगम, (6) रूपशाली, (7) अनिन्दित, (8) मनोरम, (9) रतिप्रिय और (10) रतिश्रेष्ठ / किम्पुरुष भी दस प्रकार के होते हैं-(१) पुरुष, (2) सत्पुरुष, (3) महापुरुष, (4) पुरुषवृषभ, (5) पुरुषोत्तम, (6) अतिपुरुष, (7) महादेव, (8) मरुत, (9) मेरुप्रभ और (10) यशस्वन्त / महोरग भी दस प्रकार के होते हैं—(१) भुजग, (2) भोगशाली, (3) महाकाय, (4) अतिकाय, (5) स्कन्धशाली, (6) मनोरम, (7) महावेग, (8) महायक्ष, (9) मेरुकान्त और (10) भास्वन्त / गन्धर्व 12 प्रकार के होते हैं-(१) हाहा, (2) हूहू, (3) तुम्बरव, (4) नारद, (5) ऋषिवादिक, (6) भूतवादिक, (7) कादम्ब, (8) महाकदम्ब, (9) रैवत, (10) विश्वावसु, (11) गीतरति और (12) गीतयश / यक्ष तेरह प्रकार के होते हैं—(१) पूर्णभद्र, (2) मणिभद्र, (3) श्वेतभद्र, (4) हरितभद्र, (5) सुमनोभद्र, (6) व्यतिपातिकभद्र, (7) सुभद्र, (8) सर्वतोभद्र, (6) मनुष्ययक्ष, (10) वनाधिपति, (11) वनाहार, (12) रूपयक्ष और (13) यक्षोत्तम / राक्षस देव सात प्रकार के होते हैं-(१) भीम, (2) महाभीम, (3) विघ्न, (4) विनायक, (5) जलराक्षस, (6) राक्षस-राक्षस और (7) ब्रह्मराक्षस / भूत नौ प्रकार के होते हैं-(१) सुरूप, (2) प्रतिरूप, (3) अतिरूप, (4) भूतोत्तम, (5) स्कन्द, (6) महास्कन्द, (7) महावेग, (8) प्रतिच्छन्न और (8) आकाशग / पिशाच सोलह प्रकार के होते हैं-(१) कूष्माण्ड, (2) पटक, (3) सुजोष, (4) आह्निक, (5) काल, (6) महाकाल, (7) चोक्ष, (8) अचोक्ष, (9) तालपिशाच, (10) मुखरपिशाच, (11) अधस्तारक, (12) देह, (13) विदेह, (14) महादेह, (15) तृष्णीक और (16) वनपिशाच / ___ ज्योतिलक देवों का स्वरूप-जो लोक को धोतित--ज्योतित-प्रकाशित करते वे ज्योतिष्क कहलाते हैं / अथवा जो द्योतित करते हैं, वे ज्योतिष-विमान हैं, उन ज्योतिविमानों में रहने वाले देव ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। अथवा जो मस्तक के मुकुटों से आश्रित प्रभामण्डलसदृश सूर्यमण्डल आदि के द्वारा प्रकाश करते हैं, वे सूर्यादि ज्योतिष्कदेव कहलाते हैं। सूर्यदेव के मुकुट के अग्रभाग में सूर्य के आकार का, चन्द्रदेव के मुकुट के अग्रभाग में चन्द्र के आकार का, ग्रहदेव के मुकुट के अग्रभाग Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 [ प्रज्ञायनासूत्र में ग्रह के आकार का, नक्षत्रदेव के मुकुट के अग्रभाग में नक्षत्र के आकार का और तारकदेव के मुकुट के अग्रभाग में तारक के आकार का चिह्न होता है। इससे वे प्रकाश करते हैं। वैमानिक देवों का स्वरूप-वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-(१) कल्पोपग या कल्पोपपन्न और (2) कल्पातीत / कल्पोपपन्न का अर्थ है-कल्प यानी आचार-अर्थात-इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिशादि का व्यवहार और मर्यादा। उक्त कल्प से युक्त व्यवहार जिनमें हो. वे देव कहलाते हैं और जिनमें ऐसा कल्प न हो, वे कल्पातीत कहलाते हैं / सौधर्म प्रादि देव कल्पोपपन्न और नौ ग्रेवेयक तथा पांच अनुत्तरौपपातिक देव कल्पातीत कहलाते हैं। लोकपुरुष की ग्रीवा पर स्थित होने से ये विमान ग्रं वेयक कहलाते हैं। अनुत्तर का अर्थ है-~सर्वोच्च एवं सर्वश्रेष्ठ विमान / उन अनुत्तर विमानों में उपपात यानी जन्म होने के कारण ये देव अनुत्तरोपपातिक कहलाते हैं। // प्रज्ञापना सूत्र: प्रथम प्रज्ञापनापद समाप्त। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइयं ठाणपयं द्वितीय स्थानपद মাথমিক * प्रज्ञापनासूत्र का यह द्वितीय स्थानपद है / प्रथम पद में संसारी और सिद्ध, इन दो प्रकार के जीवों के भेद-प्रभेद बताए गए हैं। उन-उन जीवों के निवासस्थान का जानना आवश्यक होने से इस द्वितीय स्थानपद' में उसका विचार किया गया है। __ जीवों के निवासस्थान का विचार करना इसलिए भी आवश्यक है कि अन्य दर्शनों की तरह जैनदर्शन में प्रात्मा को सर्वव्यापक नहीं, किन्तु उस-उस जीव के शरीरप्रमाणव्यापी संकोचविकासशील माना गया है। इसके अतिरिक्त जैनदर्शन में अन्य दर्शनों की मान्यता की तरह प्रात्मा कूटस्थनित्य नहीं, किन्तु परिणामीनित्य मानी गई है। इस कारण संसार में नाना पर्यायों के रूप में उसका जन्म होता है तथा नियत स्थान में ही वह शरीर धारण करती है। अतएव कौन-सा जीव किस स्थान में होता है ?, इसका विचार करना अनिवार्य हो जाता है। दूसरे दर्शनों की दृष्टि से जीव सदैव सर्वत्र लोक में उपलब्ध है ही, वे केवल शरीर की दृष्टि से भले ही निवास स्थान का विचार कर लें, आत्मा की दृष्टि से जीव के स्थान का विचार उनके लिए अनिवार्य नहीं।' / प्रस्तुत 'स्थानपद' में अंकित मूलपाठ के अनुसार जीव के दो प्रकार के निवासस्थान फलित होते हैं-(१) स्थायी और (2) प्रासंगिक / जन्म धारण करने से लेकर मृत्यु पर्यन्त जीव जहाँ (जिस स्थान में) रहता है, उस निवासस्थान को स्थायी कहा जा सकता है, शास्त्रकार ने जिसका उल्लेख 'स्वस्थान' के नाम से किया है। प्रासंगिक निवासस्थान का विचार 'उपपात' और 'समुद्घात' इन दो प्रकारों से किया गया है। जैनशास्त्रीय परिभाषानुसार पूर्वभव की आयु समाप्त (मृत्यु) होते ही जीव नये नाम (पर्याय) से पहचाना जाता है। उदाहरणार्थ कोई जीव पूर्वभव में देव था, किन्तु वहाँ से मर कर वह मनुष्य होने वाला हो तो देवायु समाप्त होने से वह मनुष्य नाम से पहचाना जाता है। परन्तु जीव (आत्मा) सर्वव्यापक न होने से, शरीरप्रमाणव्यापी जीव को मृत्यु के पश्चात् नया जीवन स्वीकार करने हेतु यात्रा करके स्वजन्मस्थान में जाना पड़ता है। क्योंकि देवलोक तो उस जीव ने छोड़ दिया और मनुष्यलोक में अभी तक पहुँचा नहीं है, तब तक उसका यह यात्राकाल है / इस यात्रा के दौरान उस जीव ने जिस प्रदेश की यात्रा की, वह भी उस का स्थान तो है ही। 1. (क) प्रमाणनयतत्त्वालोक (रत्नाकरावतारिका) परि. 4, (ख) पण्णवणासुत्तं पद 2 की प्रस्तावना भा. 2, पृ. 47-48 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [प्रज्ञापनासूत्र इसी स्थान को शास्त्रकार ने 'उपपातस्थान' कहा है। स्पष्ट है कि यह स्थान प्रासंगिक है, फिर भी अनिवार्य तो है ही। दूसरा प्रासंगिक स्थान है—'समुद्घात' / वेदना मृत्यु या विक्रिया आदि के विशिष्ट प्रसंगों पर जैनमतानुसार जीव के प्रदेशों का विस्तार होता है, जिसे जैन परिभाषा में 'समुद्घात' कहते हैं; जो कि अनेक प्रकार का है। समुद्घात के समय जीव के (अात्म-) प्रदेश शरीरस्थान में रहते हुए भी किसी न किसी स्थान में बाहर भी समुद्घातकाल पर्यन्त रहते हैं। अत: समुद्घात की अपेक्षा से जीव के इस प्रासंगिक या कादाचित्क निवासस्थान का विचार भी आवश्यक है। इसीलिए प्रस्तुत पद में नानाविध जीवों के विषय में स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान, यों तीन प्रकार के निवासस्थानों का विचार किया गया है। षटखण्डागम में भी खेत्ताणगमप्रकरण में स्वस्थान, उपपात और समुद्घात को लेकर स्थान-क्षेत्र का विचार किया गया है।' प्रस्तुत 'स्थानपद' में जीवों के जिन भेदों के स्थानों के विषय में विचार और क्रम बताया गया है, उस पर से मालूम होता है कि प्रथमपद में निर्दिष्ट जीवभेदों में से एकेन्द्रिय जैसे कई सामान्य भेदों का विचार नहीं किया गया, किन्तु 'पंचेन्द्रिय' जैसे सामान्य भेदों का विचार किया गया है / प्रथमपद-निदिष्ट सभी विशेष भेद-प्रभेदों के स्थानों का विचार प्रस्तुत पद में नहीं किया गया है, किन्तु मुख्य-मुख्य भेद-प्रभेदों के स्थानों का विचार किया गया है / * अन्य सभी जीवों के भेद-प्रभेदों के स्थान के विषय में विचार करते समय पूर्वोक्त तीनों स्थानों का विचार किया गया है, परन्तु सिद्धों के विषय में केवल 'स्वस्थान' का ही विचार किया गया है / इसका कारण यह है कि सिद्धों का उपपात नहीं होता; क्योंकि अन्य जीवों को उसउस जन्मस्थान को प्राप्त करने से पूर्व उस-उस नाम, गोत्र और आयु कर्म का उदय होता है, इस कारण वे नाम धारण करके, नया जन्म ग्रहण करने हेतु उस गति को प्राप्त करते हैं। सिद्धों के कर्मों का अभाव है, इस कारण सिद्ध रूप में उनका जन्म नहीं होता, किन्तु वे स्व (सिद्धि) स्थान की दृष्टि से स्वस्वरूप को प्राप्त करते हैं, वही उनका स्वस्थान है। मुक्त जीवों की लोकान्त-स्थान तक जो गति होती है, वह जैनमान्यतानुसार प्राकाश-प्रदेशों को स्पर्श करके नहीं होती, इसलिए मुक्त जीवों का गमन होते हुए भी आकाशप्रदेशों का स्पर्श न होने से उस-उस प्रदेश में सिद्धों का 'स्थान' होना नहीं कहलाता। इस दृष्टि से सिद्धों का उपपातस्थान नहीं होता / समुद्घातस्थान भी सिद्धों को नहीं होता, क्योंकि समुद्घात कर्मयुक्त जीवों होता है, सिद्ध कर्मरहित हैं। इसलिए सिद्धों के विषय में 'स्वस्थान' का ही विचार किया गया है। 'एकेन्द्रिय जीव समग्र लोक में परिव्याप्त हैं' इस कथन का अर्थ केवल एक एकेन्द्रिय जीव से नहीं, अपितु समग्ररूप से-सामान्यरूप से एकेन्द्रिय जाति से है। तथा तीनों स्थानों का पृथक-पृथक कथन न करके तीनों स्थान समग्ररूप से समझना चाहिए। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव समग्र लोक में नहीं, किन्तु लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। सामान्य 1. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1., पृ. 46 से 80 (ख) पण्णवणासुत्तं पद दो को प्रस्तावना भा. 2, पृ. 47-48 (ग) पट्खण्डागम पुस्तक 7, पृ. 299 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद : प्राथमिक ] [119 पंचेन्द्रियों का स्थान भी लोक के असंख्यातवें भाग में है, किन्तु विशेषपंचेन्द्रिय के रूप में नारकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों एवं देवों के पृथक्-पृथक् सूत्रों में उन-उनके स्थानों का पृथक्-पृथक निर्देश है / सिद्ध लोक के अग्रभाग में हैं / ' * जीवभेदों के अनुसार स्थान-निर्देश इस क्रम से किया गया है--(१) पृथ्वीकायिक (बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त), (2) अप्कायिक (पूर्ववत्), (3) तेजस्कायिक (पूर्ववत्), (4) वायुकायिक (पूर्ववत्), (5) वनस्पतिकायिक (पूर्ववत्), (6) द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय (पर्याप्तअपर्याप्त), (7) पंचेन्द्रिय (सामान्य), (8) नारक (सामान्य, पर्याप्त-अपर्याप्त), (9) प्रथम से सप्तम नरक तक (पर्याप्त-अपर्याप्त), (10) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च (पूर्ववत्), (11) मनुष्य (पूर्ववत्), (12) भवनवासी देव (पर्याप्त-अपर्याप्त), (13) असुरकुमार आदि दस भवनवासी (दाक्षिणात्य, औदीच्य, पर्याप्त-अपर्याप्त) (14) व्यन्तर (पर्याप्त-अपर्याप्त), (१५)पिशाचादि 8 व्यन्तर (दक्षिण-उत्तर के, पर्याप्त-अपर्याप्त), (16) ज्योतिष्कदेव, (17) वैमानिकदेव, (18) सौधर्म से अच्युत तक, (पर्याप्त अपर्याप्त) (19) ग्रे वेयकदेव (पर्याप्त-अपर्याप्त) (20) अनुत्तरौपपातिकदेव (पर्याप्त-अपर्याप्त) और (21) सिद्ध / ' 1. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 46 से 80 तक (ख) पण्णवणासुतं पद दो की प्रस्तावना भा. 2, पृ. 49-50 (ग) उत्तराध्ययन अ. 36, गा. 'सुहमा सबलोगमि' 2. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) विषयानुक्रम, पृ. 31 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिइयं ठारणपयं द्वितीय स्थानपद पृथ्वीकायिकों के स्थानों का निरूपरण 148. कहि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! सट्टाणेणं अट्ठसु पुढवीसु / तं जहा–रयणप्पभाए 1 सक्करप्पभाए 2 वालुयप्पमाए 3 पंकप्पभाए 4 धूमप्पभाए 5 तमपभाए 6 तमतमप्पमाए 7 इसोपन्भाराए 8-1 / अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु णिरएसु निरयावलियासु निरयपत्थडेसु 2 / उडलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु 3 / तिरियलोए टंकेसु कूडेसु सेलेसु सिहरीसु पन्भारेसु विजएसु वक्खारेसु वासेसु वासहरपध्वएसु वेलासु वेइयासु दारेसु तोरणेसु दीवेसु समुद्देसु (-4) एक' / एत्थ णं बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयल्स असंखेज्जइभागे सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [148 प्र.] भगवन् ! बादरपृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [148 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से वे आठ पृथ्वियों में हैं। वे इस प्रकार(१) रत्नप्रभा में, (2) शर्कराप्रभा में, (3) वालुकाप्रभा में, (4) पंकप्रभा में, (5) धूमप्रभा में, (6) तमःप्रभा में, (7) तमस्तमःप्रभा में और (8) ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी में। . 1. अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, नरकों में, नरकावलियों में एवं नरक के प्रस्तटों (पाथड़ों) में / 2. ऊर्वलोक में कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों में और विमान के प्रस्तटों (पाथड़ों) में। 3. तिर्यक्लोक में-टंकों में, कूटों में, शैलों में, शिखर वाले पर्वतों में, प्राग्भारों (कुछ झुके हुए पर्वतों) में, विजयों में, वक्षस्कार पर्वतों में, (भारतवर्ष आदि) वर्षों (क्षेत्रों)में, (हिमवान् आदि) वर्षधरपर्वतों में, वेलाओं (समुद्रतटवर्ती ज्वारभूमियों) में, वेदिकाओं में, द्वारों में, तोरणों में, द्वीपों में और समुद्रों में। इन (उपर्युक्त भूमियों) में बादरपृथ्वीकायिक पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। 1. 'क' चार संख्या का द्योतक है। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [ 121 146. कहि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरपुढविकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता / तं जहा-उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सम्वलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। 149 प्र.] भगवन् ! बादरपृथ्वी कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [146 उ.] गौतम ! जहाँ बादरपृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं, वहीं बादरपृथ्वीकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे हैं। जैसे कि उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात को अपेक्षा से समस्त लोक में तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। 150. कहि णं भंते ! सुहमपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं य ठाणा पण्णता? गोयमा ! सुहमपुढविकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सम्वे एगविहा प्रविसेसा अणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णता समणाउसो ! [150 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [150 उ.] गौतम ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक, जो पर्याप्तक हैं और जो अपर्याप्तक हैं, वे सब एक हो प्रकार के हैं, विशेषतारहित (सामान्य) हैं, नानात्व (अनेकत्व) से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे समग्र लोक में परिव्याप्त कहे गए हैं। विवेचन--पृथ्वीकायिकों के स्थानों का निरूपण—प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 148 से 150 तक) में बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक सभी प्रकार के पृथ्वीकायिकों के स्थानों का निरूपण किया गया है। __'स्थान' की परिभाषा और प्रकार-जीव जहाँ-जहाँ रहते हैं, जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक जहाँ रहते हैं, उसे 'स्वस्थान' कहते हैं, जहाँ एक भव से छूट कर दूसरे भव में जन्म लेने से पूर्व बीच में स्वस्थानाभिमुख होकर रहते हैं, उसे 'उपपातस्थान' कहते हैं और समुद्घात करते समय जीव के प्रदेश जहाँ रहते हैं, जितने आकाशप्रदेश में रहते हैं, उसे 'समुद्घातस्थान' कहते हैं। पृथ्वीकायिकों के तीनों लोकों में निवासस्थान कहाँ-कहाँ और कितने प्रदेश में ? शास्त्रकार ने पृथ्वीकायिकों (बादर-सूक्ष्म-पर्याप्त अपर्याप्तों) के स्वस्थान तीन दृष्टियों से बताए हैं—(१) सात नरक पृथ्वियों में और आठवीं ईषत्प्रारभारा पृथ्वी में, तत्पश्चात् (2) अधोलोक, ऊर्ध्वलोक और तिर्यग्लोक के विभिन्न स्थानों में, तथा (3) स्वस्थान में भी लोक के असंख्यातवें भाग में / इसके अतिरिक्त बादर पर्याप्तक-अपर्याप्तक के उपपातस्थान क्रमश: लोक के असंख्यातवें भाग में तथा सर्वलोक में और समुद्घातस्थान पूर्वोक्त दोनों पृथ्वीकायिकों के क्रमश: लोक के असंख्यातवें भाग में तथा सर्वलोक में बताया गया है।' 1. (क) पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 64 (ख) पण्णवणासुत्त भा. 2, पद 2 को प्रस्तावना Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [ प्रज्ञापनासूत्र उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में~-बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीवों का जो स्वस्थान कहा गया है, उसकी प्राप्ति के अभिमुख होना उपपात है, उस उपपात को लेकर वे चतुर्दशरज्ज्वात्मक लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, क्योंकि उनका रत्नप्रभादि समुदित स्वस्थान भी लोक के असंख्यातवें भाग में है। पर्याप्त बादरपृथ्वीकायिक थोड़े हैं, इसलिए उपपात के समय अपान्तरालगत होने पर भी वे सभी स्वस्थान लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, इस कथन में कोई दोष नहीं है। समुद्धात की अपेक्षा से भी लोक के असंख्यातवें भाग में बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव समुद्घात-अवस्था में स्वस्थान के अतिरिक्त क्षेत्रान्तरवर्ती होने पर भी लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, कारण यह है कि बादर पृथ्वीकायिकजीव सोपक्रम आयु वाले हों या निरुपक्रम जब भुज्यमान आयु का तृतीय भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करके मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, तब उनके दण्डरूप में फैले हुए आत्मप्रदेश भी लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, क्योंकि वे जीव थोड़े ही होते हैं। उन बादर पृथ्वीकायिकों की आयु अभी क्षीण नहीं हुई, इसलिए वे बादर पृथ्वीकायिक तब (समुद्घात-अवस्था में) भी पर्याप्तरूप में उपलब्ध होते हैं / स्वस्थान की अपेक्षा से भी लोक के प्रसंख्यातवें भाग में--स्वस्थान हैं-रत्नप्रभादि / वे सब मिल कर भी लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। जैसे कि रत्नप्रभा पृथ्वी का पिण्ड हजार योजन का है / इसी प्रकार अन्य पृथ्वियों की भिन्न-भिन्न मोटाई भी कह लेनी चाहिए / पातालकलश भी एक लाख योजन अवगाह वाले होते हैं। नरकावास भी तीन हजार योजन ऊंचे होते हैं। विमान भी बत्तीस सौ योजन विस्तत होते हैं / अतएव ये सभी परिमित होने के कारण सब मिल कर भी असंख्यातप्रदेशात्मक लोक के असंख्यातवें भागवर्ती ही होते हैं। अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक : उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से दोनों अपेक्षाओं से ये समस्त लोक में रहते हैं / अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक उपपातावस्था में विग्रहगति (अपान्तराल गति) में होते हुए भी स्वस्थान में भी अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक की आयु का वेदन विशिष्ट विपाकवश करते हैं तथा वे देवों व नारकों को छोड़कर शेष सभी कायों से उत्पन्न होते हैं, उद्वत्त होने पर (मरने पर) भी वे देवों और नारकों को छोड़कर शेष सभी स्थानों में जाते हैं / मर कर स्वस्थान में जाते समय वे विग्रहगति में रहे हुए (उपपातावस्था में) भी अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक ही कहलाते हैं, ये स्वभाव से ही प्रचुरसंख्या में होते हैं, इसलिए उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोकव्यापी होते हैं। इनमें से किन्हीं का उपपात ऋजगति से होता है. और किन्हीं का वक्रगति से। ऋजुगति तो सुप्रतीत है। वक्रगति की स्थापना इस प्रकार है-जिस समय में प्रथम वक्र (मोड़) को कई जीव संहरण करते हैं, उसी समय दूसरे जीव उस बक्रदेश को आपूरित कर देते हैं / इसी प्रकार द्वितीय वक्रदेश के संहरण में भी, वक्रोत्पत्ति में भी प्रवाह से निरन्तर आपूरण होता रहता है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तों और अपर्याप्तों के तीन स्थान—सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के जो पर्याप्त और अपर्याप्त जीव हैं, वे सभी एक ही प्रकार के हैं, पूर्वकृत स्थान प्रादि के विचार की अपेक्षा से इनमें कोई भेद नहीं होता, कोई विशेष नहीं होता, जैसे पर्याप्त हैं, वैसे ही दूसरे हैं तथा वे नानात्व से रहित हैं, देशभेद से उनमें नानात्व परिलक्षित नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जिन आधारभूत Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद | 123 प्राकाशप्रदेशों में ये (एक) हैं, उन्हीं में दूसरे हैं / अत: वे सभी सूक्ष्म पृथ्वीकायिक उपपात, समुद्घात और स्वस्थान, इन तीनों अपेक्षाओं से सर्वलोकव्यापी हैं।' कठिन शब्दों के विशेष प्रर्थ--'भवणेस' = भवनपतियों के रहने के भवनों में, भवनपत्यडेसु' = भवनों के प्रस्तटों यानी भवनभूमिकाओं में (भवनों के बीच के भागों-अन्तरालों में) / "णिरएसु निरयावलिकासु'--नरकों (प्रकीर्णक नरकावासों) में, तथा आवली रूप से स्थित नरकवासों में 1 कप्पेस' =कल्पों-सौधर्मादि बारह देवलोकों में / 'विमाणेस-वेयकसम्बन्धी प्रकीर्णक विमानों में। 'टकेस' = छिन्न टंकों (एक भाग कटे हुए पर्वतों) में / 'कटेसु' = कूटों-पर्वत के शिखरों में / 'सेलेस' शैलों-शिखरहीन पर्वतों में / 'विजयेस' = विजयों-कच्छादि विजयों में / 'वक्खारेसु' = विद्युत्प्रभ आदि वक्षस्कार पर्वतों में / 'वेलासु' =समुद्रादि के जल की तटवर्ती रमणभूमियों में / 'वेदिकासु'-जम्बूद्वीप की जगती प्रादि से सम्बन्धित वेदिकानों में / 'तोरणेसु' = विजय आदि द्वारों में, द्वारादि सम्बन्धी तोरणों में / 'दीवेसु समुद्देसुण्क' = समस्त द्वीपों और समस्त समुद्रों में / यहाँ 'एक' शब्द 'चार' संख्या का द्योतक है, ऐसा किन्हीं विद्वानों का अभिप्राय है / अप्कायिकों के स्थानों का निरूपण 151. कहि णं भंते ! बादरमाउकाइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणोदधीसु सत्तसु घणोदधिवलएसु 1 / अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु 2 / उढलोए कप्पेसु बिमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु 3 / तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वायोसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सन्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु 4 / एल्थ गं बादरभाउक्काइयाणं पज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [151 प्र.] भगवन् ! बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए है ? [151 उ.] गौतम ! (1) स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनोदधियों में और सात घनोदधि-वलयों में उनके स्थान हैं। २-अधोलोक में---पातालों में, भवनों में तथा भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में हैं। ३-ऊर्ध्वलोक में--कल्पों में, विमानों में, विमानावलियों (प्रावलीबद्ध विमानों) में, विमानों के प्रस्तटों (मध्यवर्ती स्थानों) में हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 73-74 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 73 (ख) पण्णवणासुत्त मूलपाठ-टिप्पण पृ. 46 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 } [प्रज्ञापनासूत्र ४-तिर्यग्लोक में प्रवटों (कुओं) में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (चौकोर बावड़ियों), पुष्करिणियों (गोलाकार बावड़ियों या पुष्कर= कमल वाली बावड़ियों) में, दीपिकानों (लम्बी बावड़ियों, सरल-छोटी नदियों) में, गुंजालिकाओं (टेढ़ीमेढ़ी बावड़ियों) में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सरासरःपंक्तियों (नाली द्वारा जिनमें कुए का जल बहता है, ऐसे पंक्तिबद्ध तालाबों में), बिलों में (स्वाभाविक बनी हुई छोटी कुइओं में), पंक्तिबद्ध बिलों में, उज्झरों में (पर्वतीय जलस्रोतों में), निर्भरों (झरनों) में, गड्ढों में, पोखरों में, वनों (क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा समस्त जलाशयों में और जलस्थानों में (इनके स्थान) हैं। इन (पूर्वोक्त) स्थानों में बादर-अप्कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से-लोक के असंख्यातवें भाग में और स्वस्थान की अपेक्षा से (भो वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं / 152. कहि णं भंते ! बादरग्राउक्काइयाणं प्रपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? गोयमा ! जत्थेव बादराउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरनाउक्काइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [152 प्र.] भगवन् ! बादर-प्रकायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [152 उ.] गौतम ! जहाँ बादर-अप्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं, वहीं बादरअप्कायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से सर्वलोक में, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं / 153. कहि णं भंते ! सुहुमनाउक्काइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा! सुहुमनाउक्काइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा प्रबिसेसा प्रणाणत्ता सव्वलोयपरियावष्णगा पन्नत्ता समणाउसो ! [153 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? (153 प्र.] गौतम ! सूक्ष्म-अप्कायिकों के जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक हैं, वे सभी एक प्रकार के हैं, अविशेष (विशेषतारहित- सामान्य या भेदरहित) हैं, नानात्व से रहित हैं, और आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोकव्यापी कहे गए हैं। विवेचन-प्रकायिकों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 151 से 153 तक) में बादर, सूक्ष्म, पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक प्रकायिकों के स्वस्थान, उपपात और समुद्घात, इन तीनों अपेक्षओं से स्थानों का निरूपण किया गया है / 'घणोदधिवलएस' इत्यादि शब्दों की व्याख्या-'घणोदधिवलएसु' = स्व-स्वपृथ्वी-पर्यन्त प्रदेश को वेष्टित करने वाले वलयाकारों में / 'पायालेसु'-वलयामुख आदि पातालकलशों में / क्योंकि उनमें भी दूसरे में देशतः त्रिभाग में और तीसरे में विभाग में सर्वात्मना जल का सद्भाव रहता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 125 'भवणेस कप्पेस विमाणेस' =भवनपतियों के भवनों में, कल्पों देवलोकों में, तथा विमानों- सौधर्मादिकल्पगत विमानों में, तथा इसके प्रस्तटों एवं विमानावलियों में जल बावडी आदि में होता है। ग्रेवेयक आदि विमानों में बावड़ियां नहीं होतीं, अतः वहाँ जल नहीं होता।' तेजस्कायिकों के स्थानों का निरूपण--- 154. कहि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सटाणेणं अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देसु निवाघाएणं पण्णरससु कम्मभूमीसु, वाघायं पडुच्च पंचसु महाविदेहेसु / एत्थ णं बादरतेउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [154 प्र.] भगवन् ! बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [154 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से- मनुष्यक्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीप-समुद्रों में, निर्व्याघात (बिना व्याघात) से पन्द्रह कर्मभूमियों में, व्याघात की अपेक्षा से-पांच महाविदेहों में (इनके स्थान हैं / ) इन (उपर्युक्त) स्थानों में बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में, तथा स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में (वे) होते हैं। 155. कहि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जत्थेव बादरतेउकाइयाणं पज्जतगाणं ठाणा तत्थेव बादरतेउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता। उबवाएणं लोयस्स दोसु उड्ढकवाडेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [155 प्र.] भगवन् ! बादर तेजस्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [155 उ.] गौतम ! जहाँ बादर तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों के स्थान हैं वहीं बादर तेजस्कायिकों के अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से—(वे) लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों में तथा तिर्यग्लोक के तट्ट (स्थालरूप -- -- -- -- -- 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 74-75 2. पाठान्तर-तोसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे 3. पाठान्तर–दोसुद्धक्क Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] / प्रज्ञापनासूत्र स्थान) में एवं समुद्घात को अपेक्षा से-सर्वलोक में तथा स्वस्थान को अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। 156. कहि णं भंते ! सुहुमते उकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सुहुमते उकाइया जे पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा प्रणाणत्ता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णत्ता समणाउसो ! / [156 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [156 उ.] गौतम ! सूक्ष्म तेजस्कायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, अविशेष हैं, (उनमें विशेषता या भिन्नता नहीं है) उनमें नानात्व नहीं है, हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोकव्यापी कहे गए हैं। विवेचन-तेजस्कायिक के स्थान का निरूपण--प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 154 से 156 तक) में बादर-सूक्ष्म के पर्याप्त एवं अपर्याप्त तेजस्कायिकों के स्वस्थान, उपपातस्थान एवं समुद्घातस्थान की प्ररूपणा की गई है। बादर तेजस्कायिक पर्याप्तकों के स्थान-स्वस्थान की अपेक्षा से–वे मनुष्यक्षेत्र के अन्दरअन्दर हैं / अर्थात्-मनुष्यक्षेत्र के अन्तर्गत ढाई द्वीपों एवं दो समुद्रों में हैं। व्याघाताभाव से वे पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह इन पन्द्रह कर्मभूमियों में होते हैं; और व्याधात होने पर पांच महाविदेह क्षेत्रों में होते हैं / तात्पर्य यह है कि अत्यन्तस्निग्ध या अत्यन्तरूक्ष काल व्याघात कहलाता है। इस प्रकार के व्याघात के होने पर अग्नि का विच्छेद हो जाता है। जब पांच भरत पांच ऐरवत क्षेत्रों में सुषम-सुषम, सुषम, तथा सुषम-दुष्षम पारा प्रवृत्त होता है, तब वह अतिस्निग्ध काल कहलाता है। उधर दुष्षम-दुष्षम पारा अतिरूक्ष काल कहलाता है। ये दोनों प्रकार के काल हों तो व्याघात-अग्निविच्छेद होता है। अगर ऐसी व्याघात की स्थिति हो तो पंचमहाविदेह क्षेत्रों में हो बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव होते हैं। अगर इस प्रकार के व्याघात से रहित काल हो तो पन्द्रह ही कर्मभूमिक क्षेत्रों में बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक जीव होते हैं। विग्रहगति में यथोक्त स्वस्थान-प्राप्ति के अभिमुख–उपपात अवस्था में स्थान का विचार करने पर ये लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, क्योंकि उपपात के समय वे बहुत थोड़े होते हैं / समुद्घात की अपेक्षा से विचार करें तो मारणान्तिक समुद्घातवश दण्डरूप में प्रात्मप्रदेशों को फैलाने पर भी वे थोड़े होने से लोक के असंख्यातवें भाग में ही समा जाते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से भी वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। क्योंकि मनुष्यक्षेत्र कुल 45 लाख योजनप्रमाण लम्बा-चौड़ा है, जो कि लोक का असंख्यातवां भागमात्र है।' बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तकों के स्थान–पर्याप्तकों के आश्रय से ही अपर्याप्त जीव रहते हैं, इस दृष्टि से जहाँ पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं अपर्याप्तकों के हैं। उपपात की अपेक्षा से लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों में तथा तिर्यग्लोकतट्ट में बादर तेजस्कायिक अप्तिक रहते हैं। आशय यह है 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 75 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 127 कि अढाई द्वीप-समुद्रों से निकले हुए, अढाई द्वीप-समुद्रप्रमाण विस्तृत एवं पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में स्वयम्भूरमण समुद्रपर्यन्त जो दो कपाट हैं, वे केवलिसमुद्घातसमय के कपाट की तरह ऊपर भी लोक के अन्त को स्पृष्ट (छुए हुए) हैं और नीचे भी लोकान्त को स्पृष्ट (छुए हुए) हैं, ये ही 'दो ऊर्ध्वकपाट' कहलाते हैं। इसके अतिरिक्त तट्ट का अर्थ है-स्थाल (थाल) / अर्थात्स्थालसदृश तिर्यग्लोकरूप तट्ट (स्थाल) कहलाता है / आशय यह है कि स्वयम्भूरमणसमुद्र की वेदिकापर्यन्त अठारह सौ योजन मोटा समस्त तिर्यग्लोकरूप तट्ट (स्थाल) है। निष्कर्ष यह है कि उपपात की अपेक्षा से लोक के दो ऊर्ध्वकपाटों एवं तिर्यग्लोकरूप तट्ट में बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक जीवों के स्थान हैं / 'लोयस्स दोसुद्ध कवाडेसु तिरियलोयत?' इस पाठान्तर के अनुसार यह अर्थ भी हो सकता है-लोक के उन दोनों ऊर्ध्वकपाटों में जो स्थित हो, वह तछ–'तत्स्थ' / इस प्रकार---तिर्यग्लोक रूप तत्स्थ में-अर्थात-उन दो ऊर्ध्वकपाटों के अंदर स्थित तिर्यग्लोक में वे होते हैं / निष्कर्ष यह हुआ कि पूर्वोक्त दोनों ऊर्ध्वकपाटों में और तिर्यग्लोक में भी (स्थित) उन्ही कपाटों में अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकजीवों का उपपातस्थान है, अन्यत्र नहीं। अभिमुखनामगोत्र अपर्याप्त बादरतेजस्कायिक का प्रस्तुत प्रधिकार--यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक तीन प्रकार के होते हैं (1) एकभविक, (2) बद्घायुष्क और (3) अभिमुखनामगोत्र / जो जीव एक विवक्षित भव के अनन्तर आगामी भव में बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकरूप में उत्पन्न होंगे वे एकविक कहलाते हैं, जो जीव पूर्वभव की प्रायु का त्रिभाग आदि समय शेष रहते बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक की आयु बांध चुके हैं, वे बद्धायुष्क कहलाते हैं और जो पूर्वभव को छोड़ने के पश्चात् बादर अपर्याप्ततेजस्कायिक की आयु, नाम और गोत्र का साक्षात् वेदन (अनुभव) कर रहे हैं, अर्थात् बादर अपर्याप्ततेजस्कायिक-पर्याय का अनुभव कर रहे हैं, वे 'अभिमुखनामगोत्र' कहलाते हैं। इन तीन प्रकार के बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों में से प्रथम के दो-एकभविक और बद्धायुष्क-द्रव्यनिक्षेप से ही बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक हैं, भावनिक्षेप से नहीं, क्योंकि ये दोनों उस समय प्रायु, नाम और गोत्र का वेदन नहीं करते; अतएव यहाँ इन दोनों का अधिकार नहीं है, किन्तु यहाँ केवल अभिमुखनामगोत्र बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिकी का ही अधिकार समझना चाहिए, क्योंकि वे ही स्वस्थानप्राप्ति के प्राभिमख्यरूप उपपात को प्राप्त करते हैं। यद्यपि ऋजसत्रनय की दष्टि से वे भी बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक के आयुष्य, नाम एवं गोत्र का वेदन करने के कारण पूर्वोक्त कपाटयुगलतिर्यग्लोक के बाहर स्थित होते हुए भी बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम को प्राप्त कर लेते हैं, तथापि यहाँ व्यवहारनय की दृष्टि को स्वीकार करने के कारण जो स्वस्थान में समश्रेणिक कपाटयुगल में स्थित हैं, और जो स्वस्थान से अनुगत तिर्यग्लोक में प्रविष्ट हैं, उन्हीं को बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम से कहा जाता है; शेष जो कपाटों के अन्तराल में स्थित हैं, उनका नहीं, क्योंकि वे विषमस्थानवर्ती हैं / इस प्रकार जो अभी तक उक्त कपाटयुगल में प्रवेश नहीं करते और न तिर्यग्लोक में प्रविष्ट होते हैं, वे अभी पूर्वभव में ही स्थित हैं, अतएव उनकी गणना बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों में नहीं की जाती / कहा भी है पणयाललक्खपिहला दुन्नि कवाडा य छहिसि पृट्टा। लोगंते तेसिंऽतो जे तेज ते उ विपति। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [प्रज्ञापनासूत्र अर्थात्-पंतालीस लाख योजन चौड़े दो कपाट हैं, जो छहों दिशाओं में लोकान्त का स्पर्श करते हैं। उनके अन्दर-अन्दर जो तेजस्कायिक हैं, उन्हीं का यहाँ ग्रहण किया जाता हैं। इसकी स्थापना (प्राकृति) इस प्रकार हैअतः इस सूत्र की व्याख्या व्यवहारनय की दृष्टि से की गई है। समघात की अपेक्षा से बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों का स्थान-समुद्घात की दृष्टि से ये सर्वलोक में होते हैं। इसका आशय यों समझना चाहिए-पूर्वोक्तस्वरूप वाले दोनों कपाटों के मध्य (अपान्तरालों) में जो सूक्ष्मपृथ्वीकायिकादि जीव हैं, वे बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिकों में उत्पन्न होते हुए मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, उस समय वे विस्तार और मोटाई में शरीर प्रमाण और लम्बाई में उत्कृष्टतः लोकान्त तक अपने आत्मप्रदेशों को बाहर फैलाते हैं। जैसा कि अवगाहनासंस्थानपद में आगे कहा जाएगा *[प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात किये हुए पृथ्वीकायिक के तैजसशरीर की शारीरिक अवगाहना कितनी बड़ी होती है ? [उ.] गौतम ! (उन की शरीरावगाहना) विस्तार और मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाण होती है, और लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट लोकान्तप्रमाण होती है। उसके पश्चात् वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि अपने उत्पत्तिदेश तक दण्डरूप में आत्मप्रदेशों को फैलाते हैं और अपान्तरालगति (विग्रहगति) में वर्तमान होते हुए वे बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक की आयु का वेदन करने के कारण बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक नाम को धारण करते हैं / वे समुद्घात अवस्था में ही विग्रहगति में विद्यमान होते हैं तथा समुद्घात-गत जीव समस्त लोक को व्याप्त करते हैं। इस दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से इन्हें सर्वलोकव्यापी कहा गया है। दूसरे आचार्यों का कहना है- बादर अपर्याप्त-तेजस्कायिक जीव संख्या में बहुत अधिक होते हैं; क्योंकि एक-एक पर्याप्त के आश्रय से असंख्यात अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है। वे सूक्ष्मों में भी उत्पन्न होते हैं और सूक्ष्म तो सर्वत्र विद्यमान हैं / इसलिए बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक अपने-अपने भव के अन्त में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए समस्त लोक को आपूरित करते हैं / इसलिए इन्हें समग्र की दृष्टि से, समुद्घात की अपेक्षा सकल लोकव्यापी कहने में कोई दोष नहीं है।' ___ स्वस्थान की अपेक्षा से बादर अपर्याप्तक-तेजस्कायिक लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, क्योंकि पर्याप्तों के आश्रय से अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है। पर्याप्तों का स्थान मनुष्यक्षेत्र है, जो कि सम्पूर्ण लोक का असंख्यातवां भागमात्र है। इसलिए इन्हें लोक के असंख्यातवें भाग में कहना उचित ही है। * 'पुढवीकाइयस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स के महालिया सरीरोगाहणा प. ?' 'गोयमा ! सरीरपमाणमेत्तविक्खंभबाहल्लेणं, आयामेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागे, उक्कोसेणं लोगतो।' —प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 76 में उद्धत 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक 75 से 77 तक Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [129 वायुकायिकों के स्थानों का निरूपण 157. कहि गं भंते ! बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! सट्टाणेणं सत्तसु घणवाएसु सत्तसु घणवायवलएसु सत्तसु तणुवाएसु सत्तसु तणुवायवलएस 1 / अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु भवणछिद्देसु भवणिक्खुडेसु निरएसु निरयावलियासु णिरयपस्थडेसु णिरयछिद्देसु णिरयणिखुडे सु 2 / उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेस विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु विमाणछिद्देसु बिमाणणिक्खु डेसु 3 / तिरियलोए पाईण-पडीण-दाहिण-उदोण सम्वेसु चेव लोगागासछिद्देसु लोगनिक्खुडेसु य 4 / एत्थ णं बायरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु, समुग्धाएणं लोयस्स प्रसंखेज्जेसु भागेसु, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु। [157 प्र.] भगवन् ! बादर वायुकायिक-पर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [175 उ.] १-गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से सात घनवातों में, सात घनवातवलयों में, सात तनुवातों में और सात तनुवातवलयों में (वे होते हैं / ) 2. अधोलोक में-पातालों में, भवनों में, भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में, भवनों के छिद्रों में, भवनों के निष्कुट प्रदेशों में नरकों में, नरकावलियों में, नरकों के प्रस्तटों में, छिद्रों में और नरकों के निष्कुट-प्रदेशों में (वे हैं / ) 3. ऊर्ध्वलोक में-(वे) कल्पों में, विमानों में, पावली (पंक्ति) बद्ध विमानों में, विमानों के प्रस्तटों (पाथड़ों-बीच के भागों) में, विमानों के छिद्रों में, विमानों के निष्कुट-प्रदेशों में (हैं / ) 4. तिर्यग्लोक में-(वे) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर में समस्त लोकाकाश के छिद्रों में, तथा लोक के निष्कुट-प्रदेशों में, इन (पूर्वोक्त सभी स्थलों) में बादर वायुकायिक-पर्याप्तक जीव के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-लोक के असंख्येयभागों में, समुद्घात की अपेक्षा से---लोक के असंख्येयभागों में, तथा स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्येयभागों में (बादर वायुकायिकपर्याप्तक जीवों के स्थान हैं। 158. कहि णं भंते अपज्जत्तबादरवाउकाइयाणं ठाणा पन्नत्ता? गोयमा ! जत्थेव बादरवाउक्काइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरवाउकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सबलोए, समुग्घाएणं सब्वलोए, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु / [158 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त-बादर-वायुकायिकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [158 उ.] गौतम ! जहाँ बादर-वायुकायिक-पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादरवायुकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) सर्वलोक में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से -(वे) सर्वलोक में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यात भागों में हैं। 156. कहि णं भंते ! सुहमबाउकाइयाणं पज्जतगाणं अपज्जतगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! सहुमवाउकाइया जे य पज्जत्तगा जे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा प्रविसेसा प्रणाणत्ता सवलोयपरियावण्णगा पणत्ता समणाउसो! / [156 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मवायुकायिकों के पर्याप्तों और अपर्याप्तों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [156 उ.] गौतम ! सूक्ष्मवायुकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, अविशेष (विशेषता या भेद से रहित) हैं, नानात्व से रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो! वे सर्वलोक में परिव्याप्त हैं। विवेचनवायुकायिकों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 157 से 156 तक) में वायुकायिक जीवों के बादर, सूक्ष्म और उनके पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों के स्थानों का निरूपण तीनों अपेक्षाओं से किया गया है। ___ 'भवणछिद्देसु' भवणिक्खुडे' प्रादि पदों के विशेषार्थ--भवणछिद्देस = भवनपतिदेवों के भवनों के छिदों--अवकाशान्तरों में / "मवणणिक्खुडेसु' = भवनों के निष्कुटों अर्थात् गवाक्ष आदि के समान भवनप्रदेशों में। णिरयणिक्खुडेसु = नरकों के निष्कुटों यानी गवाक्ष आदि के समान नरकावास प्रदेशों में / ' पर्याप्त बादरवायुकायिक : उपपात आदि तीनों की अपेक्षा से ये तीनों की अपेक्षा से लोक के असंख्यात भागों में हैं; क्योंकि जहाँ भी खाली जगह है-पोल है, वहाँ वायु बहती है। लोक में खाली जगह (पोल) बहुत है। इसलिए पर्याप्त वायुकायिक जीव बहुत अधिक हैं / इस कारण उपपात, समुद्घात और स्वस्थान इन तीनों अपेक्षाओं से बादर पर्याप्तवायुकायिक लोक के असंख्येय भागों में __ अपर्याप्त बादरवायुकायिकों के स्थान--उपपात और समुद्घात की अपेक्षा से अपर्याप्त बादरवायुकायिक जीव सर्वलोक में व्याप्त हैं; क्योंकि देवों और नारकों को छोड़ कर शेष सभी कायों से जीव बादर अपर्याप्तवायुकायिकों में उत्पन्न होते हैं / विग्रहगति में भी बादर अपर्याप्तवायुकायिक पाए जाते हैं तथा उनके बहुत-से स्वस्थान हैं। अतएव व्यवहारनय की दृष्टि से भी उपपात को लेकर बादरप र्याप्त-अपर्याप्तवायुकायिकों की सकललोकव्यापिता में कोई बाधा नहीं है। समुद्घात की अपेक्षा से उनकी समग्रलोकव्यापिता प्रसिद्ध ही है; क्योंकि समस्त सूक्ष्म जीवों में और लोक में सर्वत्र वे उत्पन्न हो सकते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से बादर-अपर्याप्तवायुका यिकजीव लोक के असंख्येयभागों में होते हैं, यह पहले बतलाया जा चुका है। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 78 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय वृत्ति, पत्रांक 78 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 131 वनस्पतिकायिकों के स्थानों का निरूपण-- 160. कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा! सटाणेणं सत्तसु घणोदहीसु सत्तसु घणोदहिवलएस 1 / अहोलोए पायालेसु भवणेसु भवणपत्थडेसु 2 / उड्ढलोए कप्पेसु विमाणेसु विमाणावलियासु विमाणपत्थडेसु 3 / तिरियलोए अगडेसु तडागेसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दोहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सम्वेसु चेव जलासएसु जलट्ठाणेसु 4 / एत्थ णं बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पन्नता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [160 प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [160 उ.] गौतम ! १-स्वस्थान की अपेक्षा से-सात घनोदधियों में और सात घनोदधिवलयों में (हैं।) २-अधोलोक में—पातालों में, भवनों में और भवनों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में (हैं / ) ३–ऊर्ध्वलोक में-कल्पों में, विमानों में, पावलिकाबद्ध विमानों में और विमानों के प्रस्तटों (पाथड़ों) में (वे हैं / ) ४–तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (चौरस बावड़ियों) में, पुष्करिणियों में, दीपिकायों में, गुजालिकाओं (वक्र—टेढ़ी मेढ़ी बावड़ियों) में, सरोवरों में, पंक्तिबद्धसरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों (स्वाभाविकरूप से बनी हई कूइयो) म / में, पंक्तिबद्ध बिलों में, उभरों (पर्वतीयजल के अस्थायी प्रवाहों) में, निझरों (झरनों) में, तलैयों में, पोखरों में, क्षेत्रों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा जल के स्थानों में; इन (सभी स्थलों) में बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से (ये) सर्वलोक में है, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में हैं और स्वस्थान की अपेक्षा से (ये) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। 161. कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! जत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा तत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं प्रपज्जत्तगाणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं सव्वलोए, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [161 प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [प्रज्ञापनासूत्र [161 उ.] गौतम ! जहाँ बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से--(वे) सर्वलोक में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से (भी) सर्वलोक में हैं; (किन्तु) स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। 162. कहिणं भंते ! सुहुमवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपज्जतगाण य ठाणा पण्णता? गोयमा ! सुहमवणस्सइकाइया जे य पज्जतगाजे य अपज्जत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसा प्रणाणता सव्वलोयपरियावण्णगा पण्णता समणाउसो! / ___ [162 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [162 उ. गौतम ! सूक्ष्मवनस्पतिकायिक, जो पर्याप्त हैं और जो अपर्याप्त हैं, वे सब एक ही प्रकार के हैं, विशेषता से रहित हैं, नानात्व से भी रहित हैं और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सर्वलोक में व्याप्त कहे गए हैं। विवेचन-वनस्पतिकायिकों के स्थानों की प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में बादर-सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक-भेदों के स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान की प्ररूपणा की गई है। पर्याप्त-बादरवनस्पतिकायिकों के स्थान जहां जल होता है, वहाँ वनस्पति अवश्य होती है, इस दृष्टि से समस्त जलस्थानों में पर्याप्त बादरवनस्पतिकायिक जीव होते हैं। उपपात की अपेक्षा से वे सर्वलोक में हैं, क्योंकि उनके स्वस्थान धनोदधि ग्रादि हैं, उनमें शवाल आदि बादरनिगोद के जीव होते हैं। सूक्ष्मनिगोद जीवों की भवस्थिति अन्तमुहर्त की ही होती है, तत्पश्चात् वे बादर पर्याप्तनिगोदों में उत्पन्न होकर बादर निगोदपर्याप्त की आयु का वेदन करते हुए सुविशुद्ध ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से बादर पर्याप्तवनस्पतिकायिक नाम पा लेते हैं; उपपात की अपेक्षा से (वे) समस्त काल और समस्त लोक को व्याप्त कर लेते हैं / __ समुद्घात की अपेक्षा से भी वे सर्वलोक में व्याप्त हैं; क्योंकि जब बादरनिगोद सूक्ष्मनिगोदसम्बन्धी आय का बन्ध करके और आयु के अन्त में मारणान्तिकसमुद्घात करके प्रात्मप्रदेशों को उत्पत्तिदेश तक फैलाते हैं, तब तक उनकी पर्याप्तबादरनिगोद की आयु क्षीण नहीं होती। अतएव वे उस समय भी बादर पर्याप्तनिगोद ही रहते हैं और समुद्घातावस्था में वे समस्तलोक में व्याप्त होते हैं / इस दृष्टि से कहा गया है कि बादर पर्याप्तवनस्पतिकायिक समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में व्याप्त होते हैं। स्वस्थान की अपेक्षा से वे लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, क्योंकि धनोदधि आदि पूर्वोक्त सभी स्थान मिल कर भी लोक के असंख्यातवें भागमात्र में ही हैं।" 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 78 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 133 द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय-सामान्य पंचेन्द्रियों के स्थानों की प्ररूपरणा 163. कहि णं भंते ! बेइंदियाणं पज्जत्तगाऽपज्जत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेकदेसभागे 1, अहोलोए तदेवकदेसभाए 2, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दोहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देस सम्वेसु चेव जलासएस जलढाणेसु 3, एत्थ णं बेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइमागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जहभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [163 प्र.] ! भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ)कहे गए हैं ? [163 उ.] गौतम ! 1. ऊर्ध्वलोक में-उसके एकदेशभाग में (वे) होते हैं, 2. अधोलोक में-- उसके एकदेशभाग में (होते हैं), 3. तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों (बावड़ियों) में, पुष्करिणियों में, दीपिकाओं में, गुजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जल प्रवाहों में, निर्भरों में, तलैयों में, पोखरों में, वनों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में मौर सभी जलाशयों में तथा समस्त जलस्थानों में द्वीन्द्रिय पर्याप्तक भौर अपर्याप्तक जीवों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं, समुद्घात की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। 164. कहि णं भंते ! तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? ___ गोयमा! उड्ढलोए तदेकदेसभाए 1, अहोलोए तदेक्कदेसभाए 2. तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावोसु पुक्खरिणीसु दोहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सध्वेसु चेव जलासएसु जलढाणेसु 3, एत्थ णं तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उबवाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [164 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [164 उ.] गौतम ! 1. ऊर्ध्वलोक में-उसके एकदेशभाग में (होते हैं), 2. अधोलोक मेंउसके एकदेशभाग में (होते हैं), 3. तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में, पर्वतीय जलप्रवाहों में, निझरों में, तलैयों (छोटे गड्ढों) में, पोखरों में, वों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और सभी जलाशयों में तथा समस्त जलस्थानों में, इन (सभी स्थानों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गए हैं। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 [प्रज्ञापनासूत्र उपपात की अपेक्षा से—(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। 165. कहि णं भंते ! चरिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए 1, अहोलोए तदेक्कदेसभाए 2, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेस सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सब्वेसु चेव जलासएसु जलढाणेसु 3 / / एस्थ णं चरिंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता। उववाएणं लोयरस असंखेज्जइमागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। [165 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [165 उ.] गौतम ! 1. (वे) उर्ध्वलोक में-उसके एकदेशभाग में (होते हैं), 2. अधोलोक में-उसके एकदेशभाग में (होते हैं), 3. तिर्यग्लोक में-कूपों में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीपिकाओं में, गुजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सरपंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, वप्रों (खेतों या क्यारियों) में, द्वीपों में, समुद्रों में और समस्त जलाशयों में तथा सभी जलस्थानों में (होते हैं / ) इन (पूर्वोक्त सभी स्थलों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय जीवों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा क के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं)। 166. कहि णं भंते ! पंचिदियाणं पज्जत्ताऽपत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! उड्ढलोए तदेक्कदेसभाए 1, अहोलोए तदेक्कदेसभाए 2, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदोसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निज्झरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दीवेसु समुद्देसु सम्वेसु चेव जलासएस जलढाणेसु 3, एत्थ णं पंचेंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [166 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थापदन ] [ 135 [166 उ.] गौतम ! 1. (वे) ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग में (होते हैं), अधोलोक में उसके एकदेशभाग में (होते हैं), और 3. तिर्यग्लोक में-कुओं में, तालाबों में, नदियों में, ह्रदों में, वापियों में, पुष्करिणियों में, दीपिकानों में, गुजालिकामों में, सरोवरों में, सरोवर-पंक्तियों में, सर-सरपंक्तियों में, बिलों में, बिलपंक्तियों में, पर्वतीय जलप्रवाहों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, वत्रों में, द्वीपों में, समुद्रों में, और सभी जलाशयों तथा समस्त जलस्थानों में (होते हैं)। इन (सभी उपयुक्त स्थलों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रियों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से--(वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं) और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं)। विवेचन-द्वि-त्रि-चतुः-पंचेन्द्रिय जीवों के स्थानों की प्ररूपणा--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 163 से 166 तक) में क्रमश: द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। द्वीन्द्रियादि जीवों के तीनों लोकों की दष्टि से स्वस्थान-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय, इन चारों के सूत्रपाठ एक समान हैं। ये सभी ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग मेंअर्थात् -मेरुपर्वत आदि को वापी आदि में होते हैं। अधोलोक में भी उसके एकदेशभाग में, अर्थात्- अधोलौकिक वापी, कुप तालाब आदि में होते हैं तथा तिर्यग्लोक में भी कूप, तड़ाग, नदी आदि में होते हैं। तथा पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार उपपात, समुद्घात एवं स्वस्थान की अपेक्षा से द्वीन्द्रिय से सामान्य पंचेन्द्रिय तक के जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं।' नैरयिकों के स्थानों की प्ररूपणा 167. कहि णं भंते ! नेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! नेरइया परिवति? ___ गोयमा ! सटाणेणं सत्तसु पुढवीसु / तं जहा-रयणपभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए तमप्पभाए तमतमप्पभाए, एत्थ णं गैरइयाणं चउरासीति णिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खायं। ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-णक्खत्त-जोइसपहा मेद-बसा-पूय-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुब्भिगंधा; काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभा णरगेसु वेपणानो, एत्थ णं णेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता। ___उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 79 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 ] [प्रज्ञापनासूत्र एत्य गं बहवे णेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकण्हा वण्णणं पण्णत्ता समणाउसो!" तेणं तत्थ णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया पिच्चं उब्धिग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्ध णरगमयं पच्चणुभवमाणा विहरंति / [167 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहाँ, किस और कितने, तथा कैसे प्रदेश में कहे गए हैं ? नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ? [167 उ.] गौतम ! स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) सात (नरक) प्रथ्वियों में रहते हैं। तथा इस प्रकार हैं-(१) रत्नप्रभा में, (2) शर्कराप्रभा में, (3) वालुकाप्रभा में, (4) पंकप्रभा में, (5) धूमप्रभा में, (6) तमःप्रभा में और (7) तमस्तम:प्रभा में। इन (सातों नरक-पृथ्वियों) में चौरासी लाख नरकावास होते हैं, वे नरक (नारकावास) अन्दर से गोल और बाहर से चोकौर (होते हैं / ), नीचे से छुरे के आकार (संस्थान) से युक्त (संस्थित) हैं। सतत अन्धकार होने से वे गाढ़ अंधकार (से ग्रस्त होते हैं।) (वे नारकाबास) ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं / उनके तलभाग (फर्श) मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर (रक्त) और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त, अशुचि (गंदे), बीभत्स (घिनौने), अत्यन्त दुर्गन्धित, (धधकती) कापोत वर्ण की अग्नि जैसे रंग के, कठोरस्पर्श वाले, दुःसह एवं अशुभ नरक हैं। नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं। इन (ऐसे अशुभ नरकावासों) में पर्याप्त-अपर्याप्त नारकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से-लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से- लोक के असंख्यातवें भाग में, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में, इनमें (पूर्वोक्त नरकावासों में) बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं / हे आयुष्मन् श्रमणो! वे (नारक) काले, काली आभा वाले, (भयवश) गम्भीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयानक), उत्कट त्रासजनक, तथा वर्ण (रंग) से अतीव काले कहे गए हैं / वे (वहाँ) नित्य भीत (डरते), सदैव त्रस्त, सदा (परमाधार्मिक असुरों से परस्पर) त्रासित (त्रास पहुँचाए हुए), सदैव उद्विग्न (घबराए हुए) तथा नित्य अत्यन्त अशुभ, अपने नरक का भय प्रत्यक्ष अनुभव करते रहते हैं / 168. कहि णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! रयणप्प भापुढविणेरइया परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पमाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हेडा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं रयणप्पभापुढविनेरइयाणं तीसं णिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / तेणं गरगा तो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगय-गहचंद-सूर-णक्खत्तजोइसप्पभा मेद-बसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिविखल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमम्मिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा टुरहियासा असुभा गरगा प्रसुभा णरगेसु वेयणायो, एत्थ णं रयणप्पभापुढविणेरइयाणं पज्जत्ताऽगज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद 1 [137 उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धातेणं लोयम्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे। एस्थ णं बहवे रयणप्पभापुढविनेरइया परिवसंति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वणेणं पण्णता समणाउसो! __ ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उध्विग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्धं गरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति / [168 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ? [168 उ.] गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करने पर, तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर, मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (जगह) में, रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नारकावास होते हैं. ऐसा कहा गया है। वे नरक अन्दर से गोल, बाहर से चौकोर और नीचे से छुरे के आकार से युक्त (संस्थित) हैं, वे नित्य घने अंधकार से ग्रस्त, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं / उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं / (अतएव) अशुचि (अपवित्र-गंदे), बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धित, कापोतरंग की अग्नि के वर्ण-सदृश, कर्कश स्पर्श वाले, दुःसह तथा अशुभ नरक हैं। नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। इनमें रत्नप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (होते हैं), और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ रत्नप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैयिक निवास करते हैं। (वे) काले, काली प्राभा बाले, (भयवश) गम्भीर रोमाञ्च वाले, भीम (भयंकर), उत्कट त्रासजनक और हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे वर्ण से अत्यन्त काले कहे गए हैं। वे (वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव अस्त, सदा (परमाधार्मिक असुरों द्वारा एवं परस्पर) त्रासित (त्रास पहुँचाए हुए), नित्य उद्विग्न (घबराये हुए), तथा सदैव अत्यन्त अशुभ (स्व-)सम्बद्ध (लगातार) नरक का भय प्रत्यक्ष अनुभव करते रहते हैं। 169. कहि णं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! सक्करप्पभापुढविनेरइया परिवसंति ? गोयमा ! सक्करप्पभाए पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हेढा वेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मझे तोसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं सक्करप्पभापुढविणेरइयाणं पणवीसं णिरयावासतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] [प्रज्ञापनासूत्र ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहि चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-णक्खत्तजोइसपहा मेद वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमदुन्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणाओ, एत्थ णं सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता।। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे। तत्थ णं बहवे सक्करप्पभापुढविणेरइया परिवति, काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वणेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं णिच्च भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उविग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्ध नरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरति / [166 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ निवास करते हैं ? [166 उ.] गौतम ! एक लाख बत्तीस हजार योजन मोटी शर्कराप्रभा पृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करने पर तथा नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर, मध्य में एक लाख, तीस हजार योजन (जगह) में, शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पच्चीस लाख नारकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक अन्दर से गोल, बाहर से चौकोर और नीचे से छुरे के प्राकार से युक्त (संस्थित) हैं। वे नित्य घने अन्धकार से ग्रस्त, ग्रह, चन्द्र, सर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं / (अतएव वे) अशुचि, बीभत्स (घृणास्पद) हैं, अथवा अपक्व गन्ध वाले हैं, घोर दुर्गन्ध से युक्त हैं, कापोत अग्नि के वर्ण-सदृश (धोंकी जाती हुई लोहाग्नि के समान नीली आभा वाले) हैं; उनका स्पर्श बड़ा कठोर होता है, (अतएव वे) नरक दुःसह और अशुभ हैं। नरकों की वेदनाएँ अशुभ हैं / इन (पूर्वोक्त नरकावासों) में शर्कराप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के (स्व-) स्थान कहे गए हैं / उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (और) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / उनमें बहुत-से शर्कराप्रभापृथ्वी के नारक निवास करते हैं / (वे) काले, काली आभा वाले, अत्यन्त गम्भीर रोमाञ्चयुक्त, भयंकर, उत्कट त्रासजनक, तथा वर्ण से अत्यन्त काले कहे गए हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे (नारक) वहाँ नित्य भयभीत, नित्य त्रस्त, तथा (परमाधार्मिकों द्वारा) सदैव त्रासित, सदा उद्विग्न (घबराए हुए) और नित्य अत्यन्त अशुभ तत्सम्बद्ध नरक के भय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। 170. कहि गं भंते ! वालुयप्पमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! बालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 139 प्रोगाहेत्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मझे छन्वीसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एस्थ णं वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं पण्णरस णिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / तेणं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्खत्तजोइसप्पहा भेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई बीसा परमदुनिभगंधा काऊनगणिवण्णाभा कवखडफासा दुहियासा असुभा नरगा प्रसभा नरएसु वेदणाम्रो, एत्थ णं वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उवदाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे वालुयप्पभापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! / ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिता णिचं उब्विग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्धं णरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरति / [170 प्र.] भगवन् ! वालुकाप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहां कहे गए हैं ? [170 उ. गौतम ! एक लाख अट्ठाईस हजार योजन मोटी वालुकाप्रभापृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन अवगाहन (पार) करके अर्थात नीचे. और नीचे से एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख छव्वीस हजार योजन प्रदेश में, वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पन्द्रह लाख नारकावास हैं, ऐसा कहा है। वे नरक अन्दर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छुरे के आकार से युक्त, नित्य गाढ़ अन्धकार से व्याप्त, ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों को प्रभा से रहित हैं / उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद-पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं; अतएव वे अशुचि (अपवित्र), बीभत्स, अतीव दुर्गन्धित, कापोत रंग की धधकती अग्नि के वर्णसदृश, दुःसह एवं अशुभ नरक हैं / उन नरकों में वेदनाएँ अशुभ हैं। इन (ऐसे नारकावासों) में वालुकाप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नारकों के स्थान कहे हैं / उपपात की अपेक्षा से (वे नारकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); (और) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं)। जिनमें वहुत-से वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे काले, काली आभा वाले गम्भीर-लोमहर्षक, भीम, उत्कृष्ट त्रासजनक, वर्ण से अत्यन्त कृष्ण कहे हैं। वे नारक (वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदा (परमाधार्मिक असुरों द्वारा) त्रास पहुँचाये हुए, नित्य उद्विग्न और सदैव परम अशुभ तत्सम्बद्ध नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] [प्रज्ञापनासूत्र 171. कहि णं भंते ! पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा ! पंकप्पभाए पुढवीए वीसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हिट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठारसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं पंकप्पभापुढविनेरइयाणं दस गिरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / तेणं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्षत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणलेवणतला असई वीसा परम: दुग्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा प्रसुभा नरगा असुभा नरगेसु वेयणामो, एस्थ गं पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे पंकप्पभापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वणणं पण्णत्ता समणाउसो ! / ते णं निच्चं भीता निच्चं तत्था निच्चं तसिया निच्चं उम्विग्गा निच्च परममसहं संबद्ध परगभयं पच्चणुभवमाणा विहरंति / [171 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [171 उ.] गौतम! एक लाख बीस हजार योजन मोटी पंकप्रभापृथ्वी के ऊपर से एक हजार योजन भाग अवगाहन (पार) करके और नीचे का एक हजार योजन भाग छोड़ कर, बीच के एक लाख अठारह हजार योजन प्रदेश में, पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के दस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा है। वे नरक (नारकावास) अन्दर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छरे के आकार से युक्त, सदा अन्धकार से व्याप्त: ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से रहित: मेद, चर्बी. मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त तलवाले, अपवित्र, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, कापोतरंग की (धधकती) अग्नि के वर्ण-सदृश, कठोरस्पर्शयुक्त हैं अतएव अत्यन्त दुःसह एवं अशुभ हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं; जहाँ कि पंकप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान बताए गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे नरकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं) और स्वस्थान की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); जहाँ पंकप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं; जो काले, काली प्रभावाले, गम्भीर रोमहर्षक, भयंकर, उत्त्रासजनक एवं परम कृष्णवर्ण के कहे गए हैं। हे आयुष्मन श्रमणो ! वे नारक (वहाँ) सदैव भयभीत, सदा त्रस्त, नित्य परस्पर त्रासित, नित्य उद्विग्न और सदैव सम्बद्ध (निरन्तर) अतीव अशुभ नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं। 172. कहि णं भंते ! धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! धमप्पभाए पुढवीए अट्ठारसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [141 द्वितीय स्थानपद प्रोगाहित्ता हिट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं धूमप्पभापुढविनेरइयाणं तिन्नि निरयावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं णरगा अंतो बट्टा बाहि चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता णिच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्षत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला असुई वौसा परमबिभगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा प्रसुभा गरगेसु वेयणानो, एत्य णं धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे धमप्पभापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णणं पण्णत्ता समणाउसो / ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उद्विग्गा णिच्चं परममसहं संबद्ध णरगभयं पच्चणुभवमाणा बिहरंति / [172 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ (किस प्रदेश में) कहे हैं ? / [172 उ.] गौतम ! एक लाख अठारह हजार योजन मोटी धूमप्रभापृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन को अवगाहन (पार) करके, नीचे के एक हजार योजन (क्षेत्र) को छोड़ कर बीच के एक लाख सोलह हजार योजन प्रदेश में, धूमप्रभापृथ्वी के नारकों के तीन लाख नारकावास हैं, ऐसा कहा है। वे नरक (नारकावास) भीतर से गोल और बाहर से चौकोर हैं, नीचे से छुरे के-से आकार के तीक्ष्ण हैं, (वे) सदैव गाढ अन्धकार से (पूर्ण रहते हैं); वे ग्रह, चन्द्रमा, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा से दूर हैं। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं। अतः वे नरक अत्यन्त अपवित्र, बीभत्स, अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त, कापोत रंग की जाज्वल्यमान अग्नि के वर्ण के समान, कठोरस्पर्श वाले दुःसह एवं अशुभ हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के अख्सयातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, (तथा) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, जहाँ उन (नरकावासों) में धूमप्रभापृथ्वी के बहुत-से नैरयिक रहते हैं, जो काले, काली कान्तिवाले, गंभीर रोमाञ्चकारी, भयानक, उत्त्रासदायक, वर्ण से परम कृष्ण कहे गए हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे (नारक वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदैव परस्पर त्रासित, नित्य उद्विग्न और सदैव अविच्छिन्नरूप से परम अशुभ नरकभय का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं। 173. कहि णं भंते ! तमप्पभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? गोयमा! तभप्पभाए पुढवीए सोलसुत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हिट्ठा वि एगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे चोद्दसत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं तमप्पभापुढविनेरइयाणं एगे पंचूणे परगावाससतसहस्से हवंतीति मक्खातं / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 ] [ प्रज्ञापनासूत्र ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरंसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता निच्चंधयारतमसा ववगयगहचंद-सूर-नक्खत्तजोइसप्पहा मेद-बसा-पूयपडल-रुहिर-मंसचिविखल्ललिताणुलेवणतला असुई बीसा परमभिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा गरगा असुभा नरगेसु वेदणामो, एस्थ णं तमध्यभापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उवधाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे तमप्पमापुढविणेरइया परिवसंति / काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणगा परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं णिच्चं भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उब्धिग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्ध नरगभयं पच्चणुभवमाणा विहरति / [173 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नैरयिकों के स्थान कहाँ कहे हैं ? [173 उ.] गौतम ! एक लाख सोलह हजार योजन मोटी तमःप्रभापृथ्वी के ऊपर का एक हजार योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके और नीचे का एक हजार योजन (प्रदेश) छोड़कर मध्य में एक लाख चौदह हजार योजन (प्रदेश) में, वहाँ तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के पांच कम एक लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नरक (नारकावास) भीतर से गोल, बाहर से चौरस और नीचे से छुरे के (आकार केसे तीक्ष्ण) संस्थान से युक्त हैं। वे सदैव (घने) अंधेरे से (भरे होते हैं,) वे ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों के प्रकाश से वंचित हैं, उनके तल मेद, वसा, मवाद की मोटी परत, रक्त और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त होते हैं, अतएव वे अपवित्र, बीभत्स, अतिदुर्गन्धित, कर्कश स्पर्शयुक्त, दुःसह एवं अशुभ या सुखरहित (असुख)नरक हैं; इन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं। इन (नरकावासों) में तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त एवं अपर्याप्त नारकों के स्थान कहे हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे नरकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में (हैं); जहाँ कि बहुत-से तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक निवास करते हैं / (वे नैरयिक) काले, काली प्रभा वाले, गम्भीरलोमहर्षक, भयानक, उत्त्रासदायक, वर्ण से अतीव कृष्ण कहे गए हैं। हे प्रायुष्मन् श्रमणो! वे (वहाँ) सदैव भयभीत, सदैव त्रस्त, नित्य त्रासित, सदैव उद्विग्न, नित्य परम अशुभ तत्सम्बद्ध नरकभय का सतत प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए रहते हैं / 174. कहि णं भंते ! तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तमतमाए पुढवीए अट्ठोत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई प्रोगाहिता हिट्ठा वि अद्धतेवण्णं जोयणसहस्साई वज्जेत्ता मज्झे तिसु जोयणसहस्सेसु, एत्थ णं तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं पंचदिसि पंच अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया पण्णत्ता, तं जहा Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [143 काले 1 महाकाले 2 रोरुए 3 महारोरुए 4 अपइट्ठाणे 5 / ते णं गरगा अंतो वट्टा बाहिं चउरसा अहे खुरप्पसंठाणसंठिता निच्चंधयारतमसा क्वगयगहचंद-सूर-नक्खत्तजोइसपहा मेद-वसा-पूयपडल रुहिर-मंसचिखल्ललित्ताणुलेवणतला असुई बोसा परमदुन्भिगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा प्रसुमा नरगेसु वेयणानो, एत्य णं तमतमापुढविनेरइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइमागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे तमतमापुढविनेरइया परिवसंति काला कालोभासा गंभीरलोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता समणाउसो ! __ते णं णिच्च भीता णिच्चं तत्था णिच्चं तसिया णिच्चं उब्विग्गा णिच्चं परममसुहं संबद्धं परगभयं पच्चणभवमाणा विहरति / प्रासोतं 1 बत्तीसं 2 अट्ठावीसं च होइ 3 वीसं च 4 / अट्ठारस 5 सोलसगं 6 अठ्ठत्तरमेव 7 हिटिमया // 133 // अडहुत्तरं च 1 तीसं 2 छव्वीसं चेव सतसहस्सं तु 3 / अट्ठारस 4 सोलसगं 5 चोइसमहियं तु छट्ठीए 6 // 134 // अद्धतिवण्णसहस्सा उरिमऽहे वज्जिऊण तो भणियं / मज्झे उ तिसु सहस्सेसु होति नरगा तमतमाए 7 // 135 // तीसा य 1 पण्णवीसा 2 पण्णरस 3 दसेब सयसहस्साई 4 / तिणि य 5 पंचूणेगं 6 पंचेव प्रणुत्तरा नरगा 7 // 136 // [174 प्र.] भगवन् ! तमस्तमपृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नरयिकों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? [174 उ.] गौतम ! एक लाख, आठ हजार मोटी तमस्तमपृथ्वी के ऊपर के साढ़े बावन हजार योजन (प्रदेश) को अवगाहन (पार) करके तथा नीचे के भी साढ़े बावन हजार योजन (प्रदेश) को छोड़कर बीच के तीन हजार योजन (प्रदेश) में, तमस्तमप्रभा पृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के पांच दिशाओं में पांच अनुत्तर, अत्यन्त विस्तृत महान् महानिरय (बड़े-बडे नरकावास) कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--(१) काल, (2) महाकाल, (3) रौरव, (4) महारौरव और (5) अप्रतिष्ठान / वे नरक (नारकावास) अंदर से गोल और बाहर से चौरस हैं, नीचे से छुरे के समान तीक्ष्णसंस्थान से युक्त हैं। वे नित्य अन्धकार से प्रावृत रहते हैं; वहाँ ग्रह, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र आदि ज्योतिष्कों की प्रभा नहीं है। उनके तलभाग मेद, चर्बी, मवाद के पटल, रुधिर और मांस के कीचड़ के लेप से लिप्त रहते हैं। अतएव वे अपवित्र, घृणित, अतिदुर्गन्धित, कठोरस्पर्शयुक्त, दुःसह एवं Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 ] [प्रज्ञापनासूत्र अशुभ (अनिष्ट) नरक (नारकावास) हैं। उन नरकों में अशुभ वेदनाएँ होती हैं / यहीं तमस्तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्त और अपर्याप्त नारकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे नारकावास) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्धात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं तथा स्वस्थान की अपेक्षा से (भी वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! इन्हीं (पूर्वोक्त स्थलों) में तमस्तमःपृथ्वी के बहुत-से नैरयिक निवास करते हैं; जो कि काले, काली प्रभा वाले, (भयंकर) गंभीररोमाञ्चकारी, भयंकर, उत्कृष्ट त्रासदायक (अातंक उत्पन्न करने वाले), वर्ण से अत्यन्त काले कहे हैं / __ वे (नारक वहाँ) नित्य भयभीत, सदैव त्रस्त, सदैव परस्पर त्रास पहुँचाये हुए, नित्य (दुःख से) उद्विग्न, तथा सदैव अत्यन्त अनिष्ट तत्सम्बद्ध नरकभय का सतत साक्षात् अनुभव करते हुए जीवनयापन करते हैं। [संग्रहणी गाथाओं का अर्थ--] (नरकपृथ्वियों की क्रमशः मोटाई एक लाख से ऊपर की संख्या में)-१. अस्सी (हजार), 2. बत्तीस (हजार), 3. अट्ठाईस (हजार), 4. बीस (हजार), ठारह (हजार), 6. सोलह (हजार) और 7. सबसे नीचली की पाठ (हजार), (सबके साथ 'योजन' शब्द जोड़ देना चाहिए।) / / 133 / / / (नारकावासों का भूमिभाग---) (ऊपर और नीचे एक-एक हजार योजन छोड़कर छठी नरक तक: एक लाख से ऊपर की संख्या में).-१. अठहत्तर (हजार). 2. तीस (हज छव्वीस (हजार), 4. अठारह (हजार), 5. सोलह (हजार), और 6. छठी नरकपृथ्वी में--चौदह (हजार) ये सब एक लाख योजन से ऊपर (की संख्याएँ) हैं / और 7. सातवीं तमस्तमा नरकपृथ्वी में ऊपर और नीचे साढ़े बावन-साढ़े बावन हजार छोड़ कर मध्य में तीन हजार योजनों में नरक (नारकावास) होते हैं, ऐसा कहा है / / 134-135 // (नारकावासों की संख्या) (छठी नरक तक लाख की संख्या में)-१. (प्रथम पृथ्वी में) तीस (लाख), 2. (दूसरी में) पच्चीस (लाख), 3. (तीसरी में) पन्द्रह (लाख), 4. (चौथी पृथ्वी में) दस लाख, 5. (पांचवीं में) तीन (लाख), तथा 6. (छठी पृथ्वी में) पांच कम एक (लाख) और 7. (सातवीं नरकपृथ्वी में) केवल पांच ही अनुत्तर नरक (नारकावास) हैं / / 136 // विवेचन-नैरयिकों के स्थानों की प्ररूपणा–प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 167 से 174 तक) में सामान्य नैरयिकों तथा तत्पश्चात् क्रमशः पृथक्-पृथक् सातों नारकों के नैरयिकों के स्थानों की संख्या तथा उन स्थानों के स्वरूप एवं उन स्थानों में रहने वाले नारकों की प्रकृति एवं परिस्थिति पर प्रकाश डाला गया है। पाठों सूत्रों में उल्लिखित निरूपण कुछ बातों को छोड़ कर प्रायः एक सरीखा है। नारकावासों की संख्या-सातों नरकों के नारकावासों की कुल मिला कर 84 लाख संख्या होती है; जिसका विवरण संग्रहणी गाथाओं में दिया गया है। इसके अतिरिक्त नारक कहाँ (किस प्रदेश में) रहते हैं ?, इसका विवरण भी पूर्वोक्त संग्रहणी गाथाओं में दिया है, जैसे कि-१ हजार योजन ऊपर और 1 हजार योजन नीचे छोड़ कर बीच के एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रदेश में प्रथम पृथ्वी के नारक रहते हैं; इत्यादि / सातों पृथ्वियों के नारकों के स्थानादि का वर्णन प्रायः समान है। 1. देखिये संग्रहणी गाथाएँ–पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 54-55 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 145 नारकावासों की भूमि---नारकावासों का भूमितल कंकरीला होने पर भी नारकों के पैर रखने पर कंकड़ों का स्पर्श ऐसा लगता है, मानो छुरे से पैर कट गए हों। उनमें प्रकाश का अभाव होने से सदैव गाढ़ अन्धकार व्याप्त रहता है। बादलों से आच्छादित काली घोर रात्रि की तरह वहाँ सदैव अन्धकार रहता है; क्योंकि प्रकाशक ग्रह-सूर्य-चन्द्रादि का या उनकी प्रभा का वहाँ अभाव है। वहाँ मेद, चर्बी, मवाद, रक्त, मांस प्रादि दुर्गन्धित वस्तुओं के कीचड़ से भूमितल व्याप्त रहता है, इसलिए वे नारकावास सदैव गंदे, धुणित या दुर्गन्धयुक्त रहते हैं। मरी हुई गाय, भैंस आदि के कलेवरों की-सी दुर्गन्ध से भी अत्यन्त अनिष्ट घोर दुर्गन्ध वहाँ रहती है / धौंकनी से लोहे को खूब धौंकने पर जैसे गहरे नीले रंग की (कपोत के रंग-जैसी) ज्वाला निकलती है, वैसी ही आभा वाले नारकावास होते हैं, क्योंकि नारकों के उत्पत्तिस्थान को छोड़ कर वे सर्वत्र उष्ण होते हैं। यह कथन छठी-सातवीं पृथ्वी के सिवाय अन्यपृथ्वियों के विषय में समझना चाहिए। आगे कहा जाएगा कि छठी और सातवीं नरक के नारकावास कापोतवर्ण की अग्नि के वर्ण-सदृश नहीं होते / उन नारकावासों का स्पर्श तलवार की धार के समान अतीव कर्कश और दुःसह होता है। वे देखने में भी अत्यन्त अशुभ होते हैं। उन नरकों की बेदनाएँ भी दुःसह शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के कारण अतीव अशुभ या असुखकर होती हैं। नारकों को शरीररचना, प्रकृति और परिस्थिति–वे रंग से काले-कलूटे और भयंकर होते हैं। उनके शरीर से काली प्रभा निकलती है। उनको देखने मात्र से रोमांच हो जाता है, अथवा वे दूसरे नारकों में अत्यन्त भय उत्पन्न करके रोमांच खड़ा कर देते हैं। इस कारण वे अत्यन्त आतंक पैदा करते रहते हैं। तथा वे सदैव भयभीत, त्रस्त, आतंकित, उद्विग्न रहते हैं, तथा सतत अनिष्ट नरकभय का अनुभव करते रहते हैं।' पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों के स्थानों की प्ररूपरणा 175. कहि णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जताणं ठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! उड्ढलोए तदेवकदेसभाए 1, अहोलोए तदेक्कदेसभाए 2, तिरियलोए अगडेसु तलाएसु नदीसु दहेसु वावीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिलेसु बिलपंतियासु उज्झरेसु निझरेसु चिल्ललेसु पल्ललेसु वप्पिणेसु दोवेसु समुद्देसु सम्वेसु चेव जलासएसु जलढाणेसु 3, एत्थ णं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोगस्स असंखेज्जइभागे। [175 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त पंचेन्द्रियतिथंचों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [175 उ.] गौतम ! 1. ऊर्ध्वलोक में उसके एकदेशभाग में, 2. अधोलोक में उसके एकदेशभाग में, 3. तिर्यग्लोक में कुओं में, तालाबों में, नदियों में, वापियों में, द्रहों में, पुष्करिणियों में, दीपिकाओं में, गुजालिकाओं में, सरोवरों में, पंक्तिबद्ध सरोवरों में, सर-सर-पंक्तियों में, बिलों में, पंक्तिबद्ध बिलों में, पर्वतीय जलस्रोतों में, झरनों में, छोटे गड्ढों में, पोखरों में, क्यारियों अथवा खेतों 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति. पत्रांक 80-81 का सारांश Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 ] [प्रज्ञापनासून में, द्वीपों में, समुद्रों में तथा सभी जलाशयों एवं जल के स्थानों में; इन (सभी पूर्वोक्त स्थलों) में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) वे लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के स्थानों की प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्र (सू. 175) में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। इसमें प्रयुक्त शब्दों का स्पष्टीकरण पहले ही किया जा चुका है / मनुष्यों के स्थानों की प्ररूपणा 176. कहि णं भंते ! मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखेत्ते पणतालीसाए जोयणसतसहस्सेसु अड्ढाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पण्णाए अंतरदोवेसु, एत्थ णं मणुस्साणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं सव्वलोए, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / [176 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहाँ (-कहाँ) कहे गए हैं ? [176 उ.] गौतम ! मनुष्यक्षेत्र के अन्दर पैंतालीस लाख योजनों में, ढाई द्वीप-समुद्रों में, पन्द्रह कर्मभूमियों में, तीस अकर्मभूमियों में, और छप्पन अन्तर्वीपों में; इन स्थलों में पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्यों के स्थान कहे गए हैं। उपपात की अपेक्षा से (वे) लोक के असंख्यातवें भाग में, समुद्घात की अपेक्षा से सर्वलोक में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। विवेचन-मनुष्यों के स्थानों को प्ररूपणा-प्रस्तुतसूत्र (सू. 176) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक मनुष्यों के स्थानों की प्ररूपणा की गई है। समदघात की अपेक्षा से सर्वलोक में--समुद्घात की अपेक्षा से पर्याप्त और अपर्याप्त मनुष्य सर्वलोक में होते हैं, कह कथन केवलिसमुद्धात की अपेक्षा से सम्भव है।' सर्व भवनवासी देवों के स्थानों की प्ररूपणा 177. कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वजेत्ता मज्झिमअट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं भवणवासोणं देवाणं सत्त भवणकोडीयो बावरिं च भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 84 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [147 - ते गं भवणा बाहिं वट्टा अंतो समचउरसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिता उक्किण्णंतरविउलगंभीरखात-परिहा पागार-ऽट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवारदेसभागा जंत-सयग्घि-मुसल-मुसंढिपरियरिया प्रउज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयालकोटगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीस-सरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितला उचियचंदणकलसा चंदणघडसुकततोरणपडिदुवारदेसभागा पासत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुप्फपुजोक्यारकलिया' कालागरु-पवरकुदुरुक्क-तुरुक्कधूवमघमघेतगंधुद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूता अच्छरगणसंघसंविगिण्णा दिव्वतुडितसहसंपणदिता सम्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा पोरया णिम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पहा सस्सिरिया समरिया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरुवा, एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। __उववाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोगस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति / तं जहा असुरा 1 नाग 2 सुवण्णा 3 विज्जू 4 अग्गी य 5 दीव 6 उदही य 7 / दिसि 8 पवण 6 थणिय 10 नामा दसहा एए भवणवासी // 137 // चूडामणिमउडरयण १-भूसणनिउत्तणागफड २.गरुल ३-बइर ४-पुष्णकलसविउप्फेस ५-सीह ६-मगर ७-गयअंक ८-हयवर ६-वद्धमाण १०-निज्जुत्तचित्तचिधगता सुरूवा महिड्डीया महज्जुतीया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडग-तुडियथंभियभुया अंगद-कुडल-मट्ठगंडतल कण्णपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउलोमउडा कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वपणेणं दिग्वेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिव्वेणं संघयणेणं दिव्वेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्डीए दिवाए जुतीए दिवाए पभाए दिव्याए छायाए दिव्वाए अच्चोए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाम्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाहिवतीणं साणं साणं पायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं प्राणाईसरसेगावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महताहतनट्ट-गीत-वाइततंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुयंग-पडुप्पवाइयरवेण दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति / [177 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भवनवासी देव कहाँ निवास करते हैं ? [177 उ.] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभाथ्वी के ऊपर एक 1. ग्रन्थानम् 1000 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] 1 प्रज्ञापनासूत्र हजार योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके और नीचे भी एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन में भवनवासी देवों के सात करोड़, बहत्तर लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचतुरस्र (चौकोर), तथा नीचे पुष्कर (कमल) की कणिका के आकार के हैं / (उन भवनों के चारों ओर) गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएँ खुदी हुई होती हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट (प्रतीत होता) है। (यथास्थान) प्राकारों (परकोटों), अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से (वे भवन) सुशोभित हैं / (तथा वे भवन) विविध यन्त्रों, शतघ्नियों (महाशिलाओं या महायष्टियों), मूसलों, मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से चारों ओर वेष्टित (घिरे हुए) होते हैं; तथा वे शत्रुओं द्वारा अयोध्य (युद्ध न कर सकने योग्य), सदाजय (सदैव जयशील), सदागुप्त (सदैव सुरक्षित) एवं अड़तालीस कोठों (प्रकोष्ठों-कमरों) से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से ससज्जित, क्षेममय (उपद्रवरहित), शिव (मंगल)मय किंकरदेवों के दण्डों से उपरिक्षत हैं। (गोबर आदि से) लीपने और (चूने आदि से) पोतने के कारण (वे भवन) प्रशस्त रहते हैं / (उन भवनों पर) गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से (लिप्त) पांचों अंगुलियों (वाले हाथ) के छापे लगे होते हैं / (यथास्थान) चन्दन के कलश (मांगल्यघट) रखे होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वारदेश के भाग चन्दन के घड़ों से सुशोभित (सुकृत) होते हैं। (वे भवन) ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी विपुल एवं गोलाकार पुष्पमालाओं के कलाप से युक्त होते हैं; तथा पंचरंगे ताजे सरस सुगन्धित पुष्पों के उपचार से भी युक्त होते हैं / वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगन्ध से रमणीय, उत्तम सुगन्धित, होने से गंधवट्टी के समान लगते हैं / वे अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों के शब्दों से भलीभांति शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने (स्निग्ध), कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, आवरणरहित कान्ति (छाया) वाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योतयुक्त (शीतल प्रकाश से युक्त), प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) एवं सरूप होते हैं। इन (पूर्वोक्त विशेषतामों से युक्त भवनों) में पर्याप्त और अपर्याप्त भवनवासी देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे) उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, और स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / वहाँ बहुत-से भवनवासी देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं [गाथार्थ-] १-असुरकुमार, २-नागकुमार, ३-सुप(वर्णकुमार, ४-विद्युत्कुमार, ५-अग्निकुमार, ६-द्वीपकुमार, ७-उदधिकुमार, ८-दिशाकुमार, ६-पवनकुमार और १०-स्तनितकुमार; इन नामों वाले दस प्रकार के ये भवनवासी देव हैं / / 137 / / इनके मुकुट या आभूषणों में अंकित चिह्न क्रमश: इस प्रकार हैं- (1) चूडामणि, (2) नाग का फन, (3) गरुड़, (4) वज्र, (5) पूर्णकलश चिह्न से अंकित मुकुट, (6) सिंह, (7) मकर (मगरमच्छ), (8) हस्ती का चिह्न, (6) श्रेष्ठ अश्व और (10) वर्द्धमानक (शरावसम्पुट = सकोरा), इनसे युक्त विचित्र चिह्नों वाले, सुरूप, महद्धिक (महती ऋद्धि वाले) महाद्युति (कान्ति) वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग (अनुभाव-प्रभाव या शापानुग्रहसामर्थ्य) बाले, महान् (अतीव) सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कड़ों और बाजूबन्दों से स्तम्भित भुजा वाले, कपोलों को चिकने बनाने वाले अंगद, कुण्डल तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 149 (नानारूप) आभूषण वाले, विचित्र पुष्पमाला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक, देदीप्यमान शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान (प्राकृति) से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्यति (कान्ति) से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (शोभा) से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, सुशोभित करते हुए वे (भवनवासी देव) वहाँ अपने-अपने लाखों भवनावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिकदेवों का, अपने-अपने त्रास्त्रिश देवों का, अपने-अपने लोकपालों का अनमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदानों का, अपने-अपने सैन्यों (अनीकों) का, अपने-अपने सेनाधिपतियों का, अपने-अपने प्रात्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य (अग्रेसरत्व), स्वामित्व (नायकत्व), भतत्व (पोषकत्व), महात्तरत्व (महानता), आजैश्वरत्व (अपनी आज्ञा का पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व (अपनी सेना को आज्ञा पालन कराने का प्राधान्य) करते-कराते हए तथा पालन करते-कराते हए, अहत (3 (अव्याहत-व्याघात. रहित अथवा पाहत-पाख्यानकों से प्रतिबद्ध) नृत्य, गीत, वादित, एवं तंत्री, तल, ताल (कांसा), त्रुटित (वाद्य) और घनमृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। 178. [1] कहि गं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए प्रसोउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हेवा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्य णं असुर. कुमाराणं देवाणं चोट्टि भवणावाससतसहस्सा हवंतीति मक्खायं / ते णं भवणा बाहि वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकणियासंठाणसंठिता उक्किण्णंतरविउल. गंभीरखाय-परिहा पागार-ट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवारदेसभागा जंतसयग्घि मुसल-मुस विपरियरिया असोझा सदाजया सदागुत्ता अडयालकोटगर इया अडयालकवणमाला खेमा सिवा किकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसीस-सरसरत्तचंदणदददिण्णपंचंगुलितला उवचितचंदणकलसा चंदगघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा प्रासत्तोसत्तविउलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुजोवयारकलिया कालागरु-पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्कधूवमघमघेतगंधुदधुयाभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूता अच्छरगणसंघसंविगिण्णा दिन्वतुडितप्तद्दसंपणदिया सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया निम्मला निप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। ___ उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सट्ठाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। तत्य गं बहवे असुरकुमारा देवा परिवसंति; काला लोहियक्ख-बिबोटा धवलपुप्फदंता असियकेसा वामेयकुडलधरा प्रदचंदणाणुलित्तगत्ता, ईसीसिलिधपुप्फपगासाई असंकिलिट्ठाई सुहमाई वत्थाई Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] [ प्रज्ञापनासूत्र पवरपरिहिया, वयं च पढम समइक्कता, बिइयं च प्रसंपत्ता, भद्दे जोवणे वट्टमाणा, तलभंगय-तुडितपवर भूसण-निम्मलमणि-रयणमंडितभुया दसमुद्दामंडियग्नहत्था चूडामणिचिचिधगता सुरुवा महिड्डीया महज्जुइया महायसा महब्बला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडय-तुडियथंभियभुया अंगय-कुंडल-मट्टगंडयल कण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणा विचित्तमाला-म उलो कल्लाणगपवर वत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वण्णेणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिव्वाए पभाए दिव्याए छायाए दिवाए प्रच्चीए दिव्वेणं तेएणं दिव्वाए लेसाए दस दिसाम्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तस्थ साणं साणं भवणावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अगमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं प्रणियाधिवतोणं साणं साणं पायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य आहेबच्चं पोरेवच्चं सामिच्चं भट्टित्तं महत्तरगत्तं प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महताऽतणट्ट-गीत-वाइयतंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपचुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहरति / [178-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? असुरकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [178-1 उ.] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके और नीचे एक हजार योजन (प्रदेश) छोड़ कर, बीच में (स्थित) जो एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश है,) वहाँ असुरकुमारदेवों के चौंसठ लाख भवन-पावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल, अंदर से चौरस (चौकोर), और नीचे से पुष्कर-(नीलकमल) कणिका के आकार में संस्थित हैं / (उन भवनों के चारों ओर) गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएँ खुदी हुई हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट (प्रतीत होता) है। (यथास्थान) प्राकारों (परकोटों), अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से भवनों के एकदेशभाग सुशोभित होते हैं, (तथा वे भवन) यंत्रों, शतघ्नियों (महाशिलाओं या महायष्टियों), मूसलों और मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से (चारों ओर से) वेष्टित (घिरे हुए) होते हैं; तथा शत्रुओं द्वारा अयोध्य (युद्ध न कर सकने योग्य), सदाजय, सदागुप्त (सदैव सुरक्षित) तथा अड़तालीस कोठों से रचित, अड़तालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिवमय, किंकर-देवों के दण्डों से उपरक्षित हैं / (गोबर आदि से) लीपने और (चूने आदि से) पोतने के कारण (वे भवन) प्रशस्त रहते हैं। (उन भवनों पर) गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से (लिप्त) पांचों अंगुलियों (वाले हाथ) के छापे लगे होते हैं; (यथास्थान) चन्दन के (मांगल्य य) कलश रखे होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वारदेश के भाग चन्दन के घड़ों से सुशोभित (सुकृत) होते हैं। (वे भवन) ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी विपुल एवं गोलाकार पुष्पमालाओं के समूह से युक्त होते हैं ; तथा पंचरंगे ताजे सरस सुगन्धित पुष्पों के द्वारा उपचार से भी युक्त होते हैं / (वे भवन) काले अगर, श्रेष्ठ चीड़ा, लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगन्ध से रमणीय, उत्तम सुगन्ध से सुगन्धित, गन्धवट्टी (अगरबत्ती) के समान लगते हैं। (वे भवन) अप्सरागण के संघों से व्याप्त, Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 151 दिव्य वाद्यों के शब्दों से शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, चिकने (स्निग्ध), कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक (कलंकरहित), प्रावरणरहित-कान्तिमान्, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, रणों से युक्त उद्योतयक्त (प्रकाशमान), प्रसन्नता (आहाद) उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) एवं प्रतिरूप (सुन्दर) होते हैं / इन (पूर्वोक्त विशेषताओं से युक्त भवनावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं / (वे) उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं (और) स्वस्थान की अपेक्षा से (भी) लोक के असंख्यातवें भाग में उन (पूर्वोक्त स्थानों) में बहुत-से असुरकुमार देव निवास करते हैं। (वे असुरकुमार देव) काले, लोहिताक्षरत्न तथा बिम्बफल के समान अोठों वाले, श्वेत (धवल) पुष्पों के समान दांतों तथा काले केशों वाले, बाएँ एक कुण्डल के धारक, गीले चन्दन से लिप्त शरीर (गात्र) वाले, शिलिन्धपुष्प के समान थोड़े-से प्रकाशमान (किञ्चित् रक्त) तथा संक्लेश उप्पन्न न करने वाले सूक्ष्म अतीव उत्तम वस्त्र पहने हुए, प्रथम (कौमार्य) वय को पार किये हुए (कुमारावस्था के किनारे पहुँचे हुए) और द्वितीय वय को असंप्राप्त (प्राप्त नहीं किये हुए) (अतएव) भद्र (प्रतिप्रशस्त) यौवन में वर्तमान होते हैं / (तथा वे) तलभंगक (भुजा का आभूषण विशेष), श्रुटित (बाहरक्षक) एवं अन्यान्य श्रेष्ठ आभूषणों में जटित निर्मल मणियों तथा रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं (अंगूठियों) से सुशोभित अग्रहस्त (अंगुलियों) वाले, चूडामणिरूप अद्भुत चिह्न वाले, सुरूप, मद्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग (सामर्थ्य) युक्त, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कड़ों और बाजूबंदों से स्तम्भित भुजा वाले, अंगद एवं कुण्डल से चिकने कपोल वाले तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र आभरण वाले, विचित्र पुष्पमाला मस्तक में धारण किये हुए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक देदीप्यमान (चमकते हुए) शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्यवर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से. दिव्य संस्थान (शरीर के डीलडौल) से. दिव्य ऋद्धि से. दिव्य धति से. दिव्य प्रभा से. दिव्य छाया (कान्ति) से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से और दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, सुशोभित करते हुए वे (भवनवासी देव) वहाँ अपने-अपने लाखों भवनावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने त्रास्त्रिश देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनी अग्नमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सैन्याधिपतिदेवों का, अपने-अपने आत्मरक्षकदेवों का तथा और भी अन्य बहुत-से भवनवासी देवों और देवियों का प्राधिपत्य, पौरपत्य (अग्रेसरस्व), स्वामित्व (नेतृत्व), भर्तृत्व (पोषणकर्तृत्व), महत्तरत्व (महानता), प्राज्ञेश्वरत्व एवं सेनापत्य करते-कराते तथा पालन करते-कराते हुए, महान् आहत से (बड़े जोरों से अथवा महान् व्याघातरहित) नृत्य, गीत, वादित, तल, ताल, त्रुटित और धनमृदंग के बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों का उपभोग करते हुए विहरण करते हैं। [2] चमर-बलिणो यस्य दुवे असुरकुमारिदा असुरकुमाररायाणो परिवसंति काला महानीलसरिसा गोलगुलिय-गवल-प्रयसिकुसमपगासा वियसियसयवत्तणिम्मलईसोसित-रत्त-तंबणयणा गरुलाययउज्जुतुगणासा प्रोयवियसिलप्पवालबिबफलसन्निभाहरोहा पंडरससिसगलविमल-निम्मलदहि Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [ प्रज्ञापनासूत्र घण-संख-गोखीर-कुद-दगरय-मुणालियाधवलदंतसेढी हुयवहणिधंतधोयतत्ततवणिज्जरत्ततल-तालुजोहा अंजण-घणकसिणरुयगरमणिज्जणिद्धकेसा वामेयकुडलधरा, प्रद्दचंदणाणुलित्तगत्ता, ईसीसिलिंधपुप्फपगासाई असंकिलिट्ठाई सुहुमाइं वत्थाई पवर परिहिया, वयं च पढम समइक्कंता, बिइयं तु असंपत्ता, भद्दे जोवणे वट्टमाणा, तलभंगय-तुडित-पवरभूसण-निम्मलमणि-रयणमंडितभया दसमुद्दामंडियागहत्था चूडामणिचिचिंधगता सुरुवा महिड्ढीया महज्जुईया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडय-तुडियर्थभियभुया अंगद-कुंडल-मट्टगंडतलकण्णपीढधारी विचित्त. हत्थाभरणा विचित्तमाला-मउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वण्णणं दिवेणं गंधेणं दिव्वेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्ढीए दिवाए जुतीए दिवाए पभाए दिखाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाम्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा / ते णं तत्थ साणं साणं भवणावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अगमहिसोणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतीणं साणं साणं प्रातरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णसिं च बहूणं भवणवासीणं देवाण य देवीण य ाहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महघरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महताऽहतनट्ट-गीत-वाइततंती-तल-तालतुडित-घणमइंगपडप्पवाइतरवेणं दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणा विहरति / [178-2] यहाँ (इन्हीं स्थानों में) जो दो असुरकुमारों के राजा-चमरेन्द्र और बलीन्द्र निवास करते हैं, वे काले, महानील के समान, नील की गोली, गवल (भंस के सींग), अलसी के फूल के समान (रंग वाले), विकसित कमल (शतपत्र) के समान निर्मल, कहीं श्वेत, रक्त एवं ताम्रवर्ण के नेत्रों वाले, गरुड़ के समान विशाल सीधी और ऊँची नाक वाले, पुष्ट या तेजस्वी (उपचित) मूगा तथा बिम्बफल के समान अधरोष्ठ वाले ; श्वेत विमल एवं निर्मल चन्द्रखण्ड, जमे हुए दही, शंख, गाय के दूध, कुन्द, जलकण और मृणालिका के समान धवल दन्तपंक्ति वाले, अग्नि में तपाये और धोये हुए तपनीय (सोने) के समान लाल तलवों, तालु तथा जिह्वा वाले, अंजन तथा मेघ के समान काले, रुचकरत्न के समान रमणीय एवं स्निग्ध (चिकने) केशों वाले, बांए एक कान में कुण्डल के धारक, गीले (सरस) चन्दन से लिप्त शरीर वाले, शिलीन्ध्र-पुष्प के समान किंचित् लाल रंग के एवं क्लेश उत्पन्न न करने वाले (अत्यन्त सुखकर) सूक्ष्म एवं अत्यन्त श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, प्रथम वय (कौमार्य) को पार किये हुए, दूसरी वय को अप्राप्त, (अतएव) नवयौवन में वर्तमान, तलभंगक, त्रुटित तथा अन्य श्रेष्ठ प्राभूषणों एवं निर्मल मणियों और रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं (अंगूठियों) से सुशोभित अग्रहस्त (हाथ की अंगुलियों) वाले, विचित्र चूड़ामणि के चिह्न से युक्त, सुरूप, महद्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबलवान्, महासामर्थ्यशाली (प्रभावशाली), महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले, कड़ों तथा बाजूबंदों से स्तम्भित भुजाओं वाले, अंगद, कुण्डल तथा कपोल भाग को मर्षण करने वाले कर्णपीठ (कर्णाभूषण) के धारक, हाथों में विचित्र आभूषणों वाले, अद्भुत मालाओं से युक्त मुकुट वाले, कल्याणकारी श्रेष्ठ वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक, देदीप्यमान (चमकते हुए) शरीर वाले, लम्बी वनमालाओं के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान (आकृति) से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य कान्ति से, दिव्य अचि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [ 153 (ज्योति) से, दिव्य तेज से और दिव्य लेश्या (शारीरिकवर्ण-सौन्दर्य) से दसों दिशाओं को प्रकाशित एवं प्रभासित (सुशोभित) करते हुए, वे (असुरकुमारों के इन्द्र चमरेन्द्र और बलीन्द्र) वहाँ अपनेअपने लाखों भवनावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिकों का, अपने-अपने त्रास्त्रिशक देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सैन्याधिपतियों का, अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य (अग्रेसरत्व), स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व (महानता) और प्राज्ञैश्वरत्व तथा सेनापत्य करते-कराते तथा पालन करते-कराते हुए महान् आहत (बड़े जोर से, अथवा अहत-व्याघातरहित) नाट्य, गीत, वादित, (बजाए गए) तंत्री, तल, ताल, श्रुटित और घनमृदंग आदि से उत्पत्र महाध्वनि के साथ दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। 179. [1] कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वतस्स दाहिणेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्स प्रोगाहित्ता हेढा वेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता माझे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं चोत्तीस भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं भवणा बाहिं बट्टा अंतो चउरंसा, सो च्चेव वष्णमो' जाव पडिरूवा / एत्थ णं दाहिणिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला असुरकुमारा देवा य देवीप्रो य परिवसंति / काला लोहियवखा तहेवजाव भुजमाणा विहरति / एतेसि णं तहेव तायत्तीसगलोगपाला भवंति / एवं सम्वत्थ भाणितन्वं भवणवासीणं / [179-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त एवं अपर्याप्त दाक्षिणात्य (दक्षिण दिशा वाले) असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् दाक्षिणात्य असुरकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [176-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सुमेरुपर्वत के दक्षिण में, एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नाप्रभापृथ्वी के ऊपर के एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे के एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में जो एक लाख अठहत्तर हजार योजन क्षेत्र है, वहाँ दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों के एक लाख चौंतीस हजार भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे (दाक्षिणात्य असुरकुमारों के) भवन (भवनावास) बाहर से गोल और अन्दर से चौरस (चौकोर) हैं, शेष समस्त वर्णन यावत् 'प्रतिरूप हैं', तक सूत्र 178-1 के अनुसार समझना चाहिए। यहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं, जो कि तीनों अपेक्षाओं 1. 'वण्णो ' से सूत्र 178 [1] के अनुसार पाठ समझना चाहिए। 2. 'तहेव' से सूत्र 178 [1] के अनुसार तत्स्थानीय पूर्ण पाठ ग्राह्य है। 3. 'तहेव' से सूत्र 178-1 के अनुसार तत्स्थानीय समग्र पाठ समझना चाहिए। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [प्रज्ञापनासूत्र (उपपात, समुद्घात एवं स्वस्थान की अपेक्षा) से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ दाक्षिणात्य असुरकुमार देव एवं देवियाँ निवास करती हैं / वे (दाक्षिणात्य असुरकुमार देव) काले, लोहिताक्ष रत्न.. के समान अोठ वाले हैं,......' इत्यादि सब वर्णन यावत् 'भोगते हुए रहते हैं (भुजमाणा विहरंति) तक सूत्र 178-1 के अनुसार समझना चाहिए। इनके उसी प्रकार त्रायस्त्रिशक और लोकपाल देव आदि होते हैं, (जिन पर वे आधिपत्य आदि करते-कराते, पालन करते-कराते हुए यावत् विचरण करते हैं / ) इस प्रकार सर्वत्र 'भवनवासियों के' ऐसा उल्लेख करना चाहिए। [2] चमरे अत्थ असुरकुमारिदे असुरकुमाराया परिवसति काले महानीलसरिसे जाव' पभासेमाणे। से णं तत्य चोत्तीसाए भवणावाससतसहस्साणं चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सोणं तावत्तीसाए तायत्तीसाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तहं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउण्हं य चउसट्ठीणं पायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं दाहिणिल्लाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं पोरेवच्चं जाव' विहरति / [179-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (दाक्षिणात्य) असुरकुमारों का इन्द्र असुरराज चमरेन्द्र निवास करता है, वह कृष्णवर्ण है, महानीलसदृश है, इत्यादि सारा वर्णन यावत् प्रभासित-सुशोभित करता हुआ ('पभासेमाणे') तक सूत्र 178-2 के अनुसार समझना चाहिए। वह (चमरेन्द्र) वहाँ चौंतीस लाख भवनावासों का, चौसठ हजार सामानिकों का, तेतीस प्रायस्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, पांच सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार चौसठ हजार अर्थात्-दो लाख छप्पन हजार प्रात्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से दाक्षिणात्य असुरकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ यावत् विचरण करता है। 180. [1] कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दोवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं तीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा, सेसं जहा' दाहिणिल्लाणं जाव' विहरंति / 1. 'जाव' तथा 'जहा' से सूचित तत्स्थानीय समग्र पाठ समझना चाहिए / 2. ग्रन्थागम् 1100 . Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [155 [180-1 प्र.] भगवन् ! उत्तरदिशा में पर्याप्त और अपर्याप्त असुरकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उत्तरदिशा के असुरकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [180-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, सुमेरुपर्वत के उत्तर में, एक लाख अस्सी हजार योजन मोटो इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे (भी) एक हजार योजन छोड़ कर, मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रदेश में, वहाँ उत्तरदिशा के असुरकुमार देवों के तीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल और अन्दर से चौरस (चौकोर) हैं, शेष सब वर्णन यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) तक, दाक्षिणात्य असुर कुमार देवों के समान (सूत्र 176-1 के अनुसार) जानना चाहिए। [2] बली यऽथ वरोर्याणदे वइरोयणराया परिवसति काले महानोलसरिसे जाव (सु. 178 [2]) पभासेमाणे। से तत्थ तीसाए भवणावाससयसहस्साणं सट्टीए सामाणियसाहस्सीणं तावत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अम्गमर्माहसीणं सपरिवाराणं तिहं परिसाणं सत्तण्हं प्रणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउण्ह य सट्ठीणं प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य ाहेवच्चं पोरेवच्चं कुबमाणे विहरति / [180-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलीन्द्र निवास करता है, (जो) कृष्णवर्ण है, महानीलसदृश है, इत्यादि समग्र वर्णन यावत् 'प्रभासित-सुशोभित करता हुआ' ('पभासमाणे' तक सूत्र 178-2 से अनुसार समझना चाहिए।) वह वहाँ तीस लाख भवनावासों का, साठ हजार सामानिक देवों का, तैतीस त्रायस्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार साठ हजार अर्थात् दो लाख चालीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से उत्तरदिशा के असुरकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य एवं पुरोत्तित्व (अग्रेसरत्व) करता हुआ विचरण करता है। 181. [1] कहि णं भंते ! णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पणत्ता? कहि गं भंते ! णागकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए प्रसीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जिऊण मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं चुलसीइ भवणावाससयसहस्सा हवंतीति मयखातं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरसा जाव (सु. 177) पडिरूवा / तस्थ णं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे णागकुमारा देवा परिवसंति महिड्डीया महाजुतीया, सेसं जहा प्रोहियाणं (सु. 177) जाव विहरति / [181-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! नागकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [181-1 उ.] गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] [ प्रज्ञापनासूत्र एक हजार योजन अवगाहन करके और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के चौरासी लाख भवनावास (भवन) हैं, ऐसा कहा है। वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से चौरस (चौकोर) हैं, यावत् प्रतिरूप (अत्यन्त सुन्दर) हैं तक, (सू. 177 के अनुसार सारा वर्णन जानना चाहिए।) वहाँ (पूर्वोक्त भवनावासों में) पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। तानो अपेक्षाओं से (उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से) (वे स्थान) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / वहाँ बहुत-से नागकुमार देव निवास करते हैं। वे महद्धिक हैं, महाधुति वाले हैं, इत्यादि शेष वर्णन, यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) तक, औघिकों (सामान्य भवनवासी देवों) के समान (सू. 177 के अनुसार समझना चाहिए।) [2] धरण-भूयाणंदा एत्थ दुहे णागकुमारिदा णागकुमाररायाणो परिवसंति महिड्ढीया, सेसं जहा प्रोहियाणं जाव (सु. 177) विहरंति / [181-2] यहाँ (इन्हीं पूर्वोक्त स्थानों में) जो दो नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज-धरणेन्द्र और भूतानन्देन्द्र-निवास करते हैं, (वे) महद्धिक हैंशेष वर्णन औधिकों (सामान्य भवनवासियों) के समान (सूत्र 177 के अनुसार) यावत् विचरण करते हैं' (विहरंति) तक समझना चाहिए। 182. [1] कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पणत्ता ? कहिणं भंते ! दाहिणिल्ला णागकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबहीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए प्रसीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उरि एग जोयणसहस्सं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं बज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लागं गागकुमाराणं देवाणं चोयालीसं भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते गं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा जाव' पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। एत्थ णं बहवे दाहिणिल्ला नागकुमारा देवा परिवसंति महिड्ढीया जाव (सू. 177) विहरति / [182-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य नागकुमारों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! दाक्षिणात्य नागकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [182-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सुमेरुपर्वत के दक्षिण में, एक लाख अस्सी हजार मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाह करके और नीचे एक हजार योजन छोड़ कर, मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, यहाँ दाक्षिणात्य नागकुमार देवों के चवालीस लाख भवन हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल और भीतर से चौरस हैं, यावत् प्रतिरूप (अतीव सुन्दर) हैं। यहाँ (इन्हीं भवनावासों में) दाक्षिणात्य पर्याप्त और अपर्याप्त नागकुमारों के स्थान कहे गए हैं। 1. 'जाव' शब्द से तत्स्थानीय ममग्र वर्णन सू. 177 के अनुसार समझना चाहिए / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [157 (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से (उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की अपेक्षा से) लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, जहाँ कि बहुत से दाक्षिणात्य नागकुमार देव निवास करते हैं, जो मद्धिक हैं; (इत्यादि शेष समग्र वर्णन) यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) तरु (सू. 177 के अनुसार समझना चाहिए।) [2] धरणे यऽत्थ णागकुमारिदे णागकुमारराया परिवसति महिड्ढोए जाव (सु. 178) पभासेमाणे / से गं तत्थ चोयालीसाए भवणावाससयसहस्साणं छह सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं प्रणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं चउम्बोसाए पायरक्खदेवसाहस्सीणं असि च बहूणं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुब्वमाणे विहरति / [182-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरणेन्द्र निवास करता है, जो कि महद्धिक है, (इत्यादि समग्र वर्णन) यावत् प्रभासित करता हुमा ('पभासमाणे') तक (सू. 178-2 के अनुसार समझना चाहिए / ) वहाँ वह (धरणेन्द्र) चवालीस लाख भवनावासों का, छह हजार सामानिकों का, तेतीस त्रास्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सैन्यों का, सात सेनाधिपति देवों का, चौवीस हजार आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से दाक्षिणात्य नागकुमार देवों और देवियों का आधिपत्य और अग्रेसरत्व करता हुमा विचरण करता है। 183. [1] कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला णागकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वतस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए उरि एगं जोयणसहस्सं प्रोगाहेत्ता हेट्ठा वेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्य णं उत्तरिल्लाणं णागकुमाराणं देवाणं चत्तालीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं भवणा बाहिं वट्टा सेसं जहा दाहिणिल्लाणं (सु. 182 [1]) जाव विहरति / [183-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उत्तरदिशा के नागकुमार देवों के स्थान कहा कह गए ह / भगवन् / उत्तरादशा के नागकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [183-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, समेरुपर्वत के उत्तर में, एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर एक हजार योजन अवगाहन करके तथा नीचे एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, वहाँ उत्तरदिशा के नागकुमार देवों के चालीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल हैं, शेष सारा वर्णन दाक्षिणात्य नागकुमारों के वर्णन, सू. 182.1 के अनुसार यावत् विचरण करते हैं (विहरंति) (तक समझ लेना चाहिए / ) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [प्रज्ञापनासून [2] भूयाणंदे यऽत्थ गागकुमारिदे नागकुमारराया परिवसति महिड्ढोए जाव (सु. 177) पभासेमाणे / से णं तत्थ चत्तालीसाए भवणावाससतसहस्साणं प्राहेवच्चं जाव' (सु. 177) विहरंति / [183-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (प्रौदीच्य) नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द निवास करता है, जो कि महद्धिक है, (शेष वर्णन) यावत् प्रभासित करता हुआ ('पभासमाणे') तक (सू. 177 के अनुसार समझ लेना चाहिए।) वहाँ वह (भूतानन्देन्द्र) चालीस लाख भवनावासों का यावत् प्राधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ विचरण करता है, तक (सारा वर्णन सू. 177 के अनुसार समझ लेना चाहिए / ) 184. [1] कहि णं भंते ! सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! सुवग्णकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव एत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं बावरि भवणावाससतसहस्सा भयंतीति मक्खातं / ते णं भवणा बाहि वट्टा जाव पडिरूवा। तत्थ णं सुवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिड्ढीया, सेसं जहा प्रोहियाणं (सु. 177) जाव विहरति / (184-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सुपर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [184-1 उ. गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक-एक हजार ऊपर और नीचे के भाग को छोड़ कर शेष भाग में यावत् सुपर्णकुमार देवों के बहत्तर लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप तक (समग्र वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए / ) वहाँ पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) (पूर्वोक्त) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / वहाँ बहुत-से सुपर्णकुमार देव निवास करते हैं, जो कि महद्धिक हैं; (इत्यादि समग्र वर्णन) यावत् 'विचरण करते हैं' (तक) औधिक (सामान्य असुरकुमारों) की तरह (सू. 177 के अनुसार समझना चाहिए।) [2] वेणुदेव-वेणुदाली यऽत्थ सुवण्णकुमारिदा सुवण्णकुमाररायाणो परिवसंति महड्ढीया जाव (सु. 177) विहरंति। [184-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में दो सुपर्णकुमारेन्द्र सुपर्णकुमारराज-वेणुदेव और वेणुदाली निवास करते हैं, जो महद्धिक हैं; (शेष समग्र वर्णन सू. 177 के अनुसार) यावत् 'विचरण करते हैं'; तक समझ लेना चाहिए। 185. [1] कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे जाव माझे अट्ठहत्तरे जोयणसतसहस्से, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं सुवण्णकुमाराणं प्रत्तीसं भवणावाससतसहस्सा भवतीति मक्खातं / ते णं भवणा बाहिं बट्टा जाव पडिरूवा / 1. 'जाव' एवं 'जहा' शब्द से तत्स्थानीय समग्र वर्णन संकेतित सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 159 एस्थ णं दाहिणिलाणं सुवण्णकुमाराणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / एत्थ णं बहवे सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति / [185-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! दाक्षिणात्य सुपर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? 185-1 उ ] गौतम ! इसी रत्नप्रभापृथ्वी के यावत् मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजन (प्रदेश) में, दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के अड़तीस लाख भवनावास हैं; ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) बाहर से गोल यावत् प्रतिरूप हैं; (यहाँ तक का शेष वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए), यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक दाक्षिणात्य सुपर्णकुमारों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। यहाँ बहुत-से सुपर्णकुमार देव निवास करते हैं। [2] वेणुदेवे यऽत्य सुण्णिदे सुवण्णकुमारराया परिवसइ / सेसं जहा गागकुमाराणं (सु 182 [2]) / [185-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (दाक्षिणात्य) सुपर्णेन्द्र सुपर्णकुमारराज वेणुदेव निवास करता है; शेष सारा वर्णन नागकुमारों के वर्णन की तरह (सू. 182-2 के अनुसार) समझ लेना चाहिए। 186. [1] कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं सवण्णकुमाराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला सुवष्णकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणपभाए जाव एत्थ णं उत्तरिल्लाणं सुवष्णकुमाराणं चोत्तीसं भवणावाससतसहस्सा भवंतीति मश्वातं। तेणं भवणा जाय एस्थ णं बहवे उत्तरिल्ला सुवण्णकुमारा देवा परिवसंति महिड्ढिया जाव (सु. 177) विहरंति / [186-1 प्र.] भगवन् ! उत्तरदिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उत्तरदिशा के सुपर्णकुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [186-1 उ. गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभापथ्वी के एक लाख अठहत्तर योजन में, आदि (समग्र वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए।) यावत् 'यहाँ उत्तरदिशा के सुपर्णकुमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भवन (भवनावास) (जिनका समग्र वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिए) यावत् यहाँ (इन्हीं भवनावासों में) बहुत-से उत्तरदिशा के सुपर्णकुमार देव निवास करते हैं, जो कि महद्धिक हैं; यावत् विचरण करते हैं (तक का शेष समग्र वर्णन सू. 177 के अनुसार) समझ लेना चाहिए। [2] वेणुदाली यऽत्थ सुवण्णकुमारिदे सुवणकुमारराया परिवसति महिड्ढोए, सेसं जहा णागकुमाराणं (स. 183[2]) / [186-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में यहाँ सुपर्णकुमारेन्द्र सुपर्णकुमारराज वेणुदाली निवास Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16. ] [ प्रज्ञापनासूत्र करता है, जो महद्धिक है; शेष सारा वर्णन नागकुमारों की तरह (सू. 183-2 के अनुसार) समझना चाहिए। 187. एवं जहा सुवष्णकुमाराणं वत्तव्वया भणिता तहा सेसाण वि चोद्दसण्हं इंदाणं माणितव्वा। नवरं भवणनाणत्तं इंदणाणत्तं वण्णणाणत्तं परिहाणणाणत्तं च इमाहि गाहाहि अणुगंतव्वं-- चोटुिं प्रसुराणं 1 चुलसीती चेव होंति जागाणं 2 / बावतरि सुवण्णे 3 वाउकुमाराण छष्णउई 4 // 138 / / दोब-दिसा-उदहीणं विज्जुकुमारिद-णिय-मग्गीणं / छह पि जुअलयाणं छावत्तरिमो सतसहस्सा 10 // 136 / / चोत्तोसा 1 चोयाला 2 अट्टत्तीस च सयसहस्साई 3 / पण्णा 4 चत्तालीसा 5.10 दाहिणतो होंति भवणाई // 140 // तीसा 1 चत्तालीसा 2 चोत्तीस चेव सयसहस्साई 3 / छायाला 4 छत्तीसा 5-10 उत्तरप्रो होंति भवणाइं // 141 // चउसट्ठी सट्टी, 1 खलु छ च्च सहस्सा 2-10 उ प्रसुरवज्जाणं / सामाणिया उ एए, चउग्गुणा पायरक्खा उ // 142 // चमरे 1 धरणे 2 तह वेणुदेव 3 हरिकंत 4 अग्गिसीहे य / पुण्णे 6 जलकंते या 7 अमिय 8 विलंबे यह घोसे य 10 // 143 // बलि 1 भूयाणंदे 2 घेणुदालि 3 हरिस्सहे 4 अग्गिमाणव 5 वसिढे 6 / जलप्पहे 7 अमियवाहण 8 पभंजणे या महाघोसे 10 // 144 // उत्तरिल्लाणं जाव विहरति / काला असुरकुमारा, जागा उदही य पंडरा दो वि / वरकणगणिहसगोरा होंति सुवण्णा दिसा थणिया // 145 / / उत्तत्तकणगवन्ना विज्जू अग्गी य होति दीवा य / सामा पियंगुवण्णा वाउकुमारा मुणयन्वा // 146 // असुरेसु होंति रत्ता, सिलिघपुप्फप्पभा य नागुदही / प्रासासगवसणधरा होंति सुवण्णा दिसा थणिया // 147 // णीलाणुरागवसणा विज्जू अग्गी य होंति दोवा य / संझाणुरागवसणा वाउकुमारा मुणेयव्वा / / 148 // [187] इस प्रकार जैसी वक्तव्यता सुपर्णकुमारों की कही है, वैसी ही शेष भवनवासियों की भी और उनके चौदह इन्द्रों की भी कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि उनके भवनों की संख्या में, इन्द्रों के नामों में, उनके वर्णों तथा परिधानों (वस्त्रों) में अन्तर है, जो इन गाथानों द्वारा समझ लेना चाहिए -- Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [161 (गाथाओं का अर्थ-) भवनावास-१-(असुरकुमारों के) चौसठ लाख हैं, २-(नागकुमारों के) चौरासी लाख हैं, ३-(सुपर्णकुमारों के) बहत्तर लाख हैं, ४-(वायुकुमारों के) छियानवे लाख हैं / / 138 / / 5 से 10 तक अर्थात् (द्वीपकुमारों, दिशाकुमारों, उदधिकुमारों, विद्युत्कुमारों, स्तनिलकुमारों और अग्निकुमारों,) इन छहों के युगलों के प्रत्येक के छहत्तर-छहत्तर लाख (भवनावास) हैं / / 139 // ___ दक्षिणदिशा के (असुरकुमारों आदि के) भवनों की संख्या (इस प्रकार है)-१-(असुरकुमारों के) चौंतीस लाख, २--(नागकुमारों के) चवालीस लाख, ३-(सुपर्णकुमारों के) अड़तीस लाख, ४-(वायुकुमारों के) पचास लाख, 5 से 10 तक-(द्वीपकुमारों, उदधिकुमारों, विद्युत्कुमारों, स्तनितकुमारों और अग्निकुमारों के) प्रत्येक के चालीस-चालीस लाख भवन (भवनावास) हैं // 140 / / ___ उत्तरदिशा के (असुरकुमारों आदि के) भवनों की संख्या (इस प्रकार है-) 1- (असुरकुमारों के) तीस लाख, २-(नागकुमारों के) चालीस लाख, ३-(सुपर्णकुमारों के) चौंतीस लाख, ४-(वायुकुमारों के) छयालीस लाख, 5 से १०तक-अर्थात् द्वीपकुमारों, दिशाकुमारों, उदधिकुमारों, विद्युत्कुमारों, स्तनितकुमारों और अग्निकुमारों के प्रत्येक के छत्तीस-छत्तीस लाख भवन हैं // 141 / / सामानिकों और प्रात्मरक्षकों की संख्या- इस प्रकार है-१--(दक्षिण दिशा के) असुरेन्द्र के 64 हजार और (उत्तरदिशा के असुरेन्द्र के) 60 हजार हैं; असुरेन्द्र को छोड़ कर (शेष सब 2 से १०–दक्षिण-उत्तर के इन्द्रों के प्रत्येक) के छह-छह हजार सामानिकदेव हैं। आत्मरक्षकदेव (प्रत्येक इन्द्र के सामानिकों की अपेक्षा) चौगुने-चौगुने होते हैं / / 142 / / दाक्षिणत्य इन्द्रों के नाम- १-(असुरकुमारों का) चमरेन्द्र, २-(नागकुमारों का) धरणेन्द्र, ३--(सुपर्णकुमारों का) वेणुदेवेन्द्र, ४-(विद्युत्कुमारों का) हरिकान्त, ५-(अग्निकुमारों का) अग्निसिंह (या अग्निशिख), ६-(द्वीपकुमारों का) पूर्णेन्द्र, ७–(उदधिकुमारों का) जलकान्त, ८-(दिशाकुमारों का) अमित, ६–(वायुकुमारों का) वैलम्ब और १०-(स्तनितकुमारों का) इन्द्र घोष है / / 143 // उत्तरदिशा के इन्द्रों के नाम- 1- (असुरकुमारों का) बलीन्द्र, २-(नागकुमारों का) भूतानन्द, 3-- (सुपर्णकुमारों का) वेणुदालि, ४-(विद्युत्कुमारों का) हरिस्सह, 5- (अग्निकुमारों वा) अग्निमाणव, ६-द्वीपकुमारों का वशिष्ठ, ७--(उदधिकुमारों का) जलप्रभ, ८--(दिशाकुमारों का) अमितवाहन, ६-(वायुकुमारों का) प्रभंजन और १०-(स्तनितकुमारों का) महाघोष इन्द्र है / / 144 / / (ये दसों) उत्तरदिशा के इन्द्र..."यावत् विचरण करते हैं। वर्णों का कथन-सभी असुरकुमार काले वर्ण के होते हैं, नागकुमारों और उदधिकुमारों का वर्ण पाण्डुर अर्थात्-- शुक्ल होता है, सुपर्णकुमार, दिशाकुमार और स्तनितकुमार कसौटी (निकषपाषाण) पर बनी हुई श्रेष्ठ स्वर्ण रेखा के समान गौर वर्ण के होते हैं / / 145 / / विद्युत्कुमार, अग्निकुमार और द्वीपकुमार तपे हुए सोने के समान (किञ्चित् रक्त) वर्ण के होते हैं और वायुकुमार श्याम प्रियंगु के वर्ण के समझने चाहिए / / 146 / / इनके वस्त्रों के वर्ण-असुरकुमारों के वस्त्र लाल होते हैं, नागकुमारों और उदधिकुमारों के Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [प्रज्ञापनासूत्र वस्त्र शिलिन्ध्रपुष्प की प्रभा के समान (नीले) होते हैं, सुपर्णकुमारों, दिशाकुमारों और स्तनितकुमारों के वस्त्र अश्व के मुख के फेन के सदृश अतिश्वेत होते हैं / / 147 / / विद्युत्कुमारों, अग्निकुमारों और द्वीपकुमारों के वस्त्र नीले रंग के होते हैं और वायुकुमारों के वस्त्र सन्ध्याकाल की लालिमा जैसे वर्ण के जानने चाहिए / / 148 // विवेचन --सर्व भवनवासी देवों के स्थानों की प्ररूपणा–प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (स. 177 से 187 तक) में शास्त्रकार ने सामान्य भवनवासी देवों से लेकर असुरकमारादि दस प्रकार कं, तथा उनमें भी दक्षिण और उत्तर दिशाओं के, फिर उनके भी प्रत्येक निकाय के इन्द्रों के (विविध अपेक्षाओं से) स्थानों, भवनावासों की संख्या और विशेषता तथा प्रत्येक प्रकार के भवनवासी देवों और इन्द्रों के स्वरूप, वैभव एवं सामर्थ्य, प्रभाव आदि का विस्तृत वर्णन किया है। अन्त में संग्रहणी गाथाओं द्वारा प्रत्येक प्रकार के भवनवासी देवों के भवनों, सामानिकों और प्रात्मरक्षक देवों की संख्या, दाक्षिणात्य और औदीच्य कुल 20 इन्द्रों के नाम तथा दस प्रकार के भवनवासियों के प्रत्येक के शारीरिक और वस्त्र सम्बन्धी वर्ण का उल्लेख किया है।' कुछ कठिन शब्दों की व्याख्या-पुक्खरकणियासंठाणसंठिया= पुष्कर-कमल की कणिका के समान आकार में संस्थित हैं। कणिका उन्नत एवं समान चित्रविचित्र बिन्दु रूप होती है। 'उक्किण्णंतरविउलगंभीरखातपरिहा' == उन भवनों के चारों ओर खाइयाँ और परिखाएँ हैं। जिनका अन्तर उत्कीर्ण की तरह स्पष्ट प्रतीत होता है / वे विपुल यानी अत्यन्त गंभीर (गहरी) हैं। जो ऊपर से चौड़ी और नीचे से संकड़ी हो, उसे परिखा कहते हैं और जो ऊपर-नीचे समान हो, उसे खात (खाई) कहते हैं / यही परिखा और खाई में अन्तर है। पागारऽट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवारदेसभागा–प्रत्येक भवन में प्राकार, अद्रालक, कपाट, तोरण और प्रतिद्वार यथास्थान बने हुए हैं। प्राकार कहते हैं-साल या परकोटे को। उस पर भृत्यवर्ग के लिए बने हुए कमरों को अट्टालक या अटारी कहते हैं / बड़े दरवाजों (फाटकों) के निकट छोटे द्वार 'तोरण' कहलाते हैं। बड़े द्वारों के सामने जो छोटे द्वार रहते हैं, उन्हें प्रतिद्वार कहते हैं। अउज्झा जहाँ शत्रुओं द्वारा युद्ध करना अशक्य हो, ऐसे अयोध्य भवन / खेमा-शत्रुकृत उपद्रव से रहित / सिवा-सदा मंगलयुक्त / चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा-जिन भवनों के प्रतिद्वारों के देशभाग में चन्दन के घड़ों से अच्छी तरह बनाए हए तोरण हैं। 'सब्बर यणामया"लण्हावे असुरकूमारों के भवन पूर्ण रूप से रत्नमय अच्छा स्फटिक के समान स्वच्छ, सहा-स्निग्ध पुद्गलस्कन्धों से निर्मित, और कोमल होते हैं। निप्पंका = कलंक या कीचड़ से रहित / निक्कंकडछाया = वे भवन उपघात या आवरण से रहित (निष्ककट) छाया यानी कान्ति वाले होते हैं / समरिया- उनमें से किरणों का जाल बाहर निकलता रहता है / सउज्जोया = उद्योतयुक्त अर्थात् --बाहर स्थित वस्तुओं को भी प्रकाशित करने वाले / पासादीया =मन को प्रसन्न करने वाले। दरिसणिज्जा = दर्शनीय = दर्शनयोग्य, जिन्हें देखने में नेत्र थकें नहीं। दिव्वतुडियसहसंपणादिया = दिव्य वीणा, वेणु, मृदंग आदि वाद्यों की मनोहर ध्वनि सदा गूजते रहने वाले / पडिरूवा प्रतिरूप-उनमें प्रतिक्षण नया-नया रूप दृष्टिगोचर होता है / धवलपुप्फदंता=कुद आदि के श्वेतवर्ण-पुष्पों के समान श्वेत दांत वाले, असियकेसा= काले केश वाले / ये दांत और केश औदारिक पुद्गलों के नहीं, वैक्रिय के समझने चाहिए। महिड्ढिया = -- - - 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 55 से 63 तक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 163 भवन, परिवार आदि महान् ऋद्धियों से युक्त / महज्जुइया - जिनके शरीरगत और आभूषणगत महती द्यति है। महबला शारीरिक और प्राणगत मरती शक्ति वाले। महा =महान् अनुभाग-सामर्थ्यशील, अर्थात् जिनमें शाप और अनुग्रह का महान् सामर्थ्य हो / दिब्वेण संघयणेणं = दिव्य संहनन से / यहाँ देवों के संहनन का कथन शक्तिविशेष की अपेक्षा से कहा गया है। क्योंकि संहनन अस्थिरचनात्मक (हड्डियों की रचना विशेष) होता है, देवों के हड्डियाँ नहीं होतीं / इसीलिए जीवाभिगमसूत्र में कहा है-'देवा असंघयणी, जम्हा तेसि नेवट्ठी नेव सिरा....' (देव असंहनन होते हैं, क्योंकि उनके न तो हड्डी होती है, न ही नसें (शिराएँ) होती हैं, दिव्वाए पभाए = दिव्य प्रभा से, भवनावासगत प्रभा से / दिव्वाए छायाए-दिव्य छाया से—देवों के समूह की शोभा से / दिवाए अच्चीए = शरीरस्थ रत्नों आदि के तेज की ज्वाला से / दिव्वेण तेएण= शरीर से निकलते हुए दिव्य तेज से। दिवाए लेसाए - देह के वर्ण की दिव्य सुन्दरता से / प्राणाईसरसेणावच्चं = आज्ञा से ईश्वरत्व (प्राज्ञा पर प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व करते हुए। भवनवासियों के मुकुट और अाभूषणों में अंकित चिह्न-मूलपाठ में असुरकुमारादि की पहिचान के लिए चिह्न बताए हैं / वे उनके मुकुटों तथा अन्य प्राभूषणों में अंकित होते हैं।' समस्त वाणव्यन्तर देवों के स्थानों की प्ररूपरणा 188. कहि णं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! वाणमंतरा देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि एगं जोयणसतं प्रोगाहित्ता हेट्ठा वि एगं जोयणसतं वज्जेता मझे अटुसु जोयणसएसु, एत्थ णं वाणमंतराणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं भोमेज्जा णगरा बाहि वट्टा अंतो चउरंसा अहे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिता उक्किण्णंतरविउलगंभीरखाय-परिहा पागार-ऽट्टालय-कवाड-तोरण-पडिदुवारदेसभागा जंत-सयग्घि-मुसल-मुसु ढिपरियरिया प्रयोज्झा सदाजता सदागुत्ता अडयालकोटुगरइया अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किकरामरदंडोवरक्खिया लाउल्लोइयमहिया गोसोस-सरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उचितचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टबग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुप्फपुजोक्यारकलिया कालागरु-पवरकु दुरुक्क-तुरुक्कधूक्मघमधेतगंधुळ्याभिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंधवट्टिभूता अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिव्धतुडितसद्दसंपणदिता पडागमालाउलाभिरामा सम्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्टा नीरया निम्मला निष्पंका णिक्कंकड़च्छाया सप्पभा समरीया सउज्जोता पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, एस्थ णं वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा परिचसंति / तं जहापिसाया 1 भूया 2 जक्खा 3 रक्खसा 4 किन्नरा 5 किपुरिसा 6 भुयगवइणो य महाकाया 7 गंधव्व 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. बृत्ति, पत्रांक 85 से 95 तक Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [प्रज्ञापनासूत्र गणा य निउणगंधव्वगीतरहणो 8 अणवणिय १-पणवाणिय २-इसिवाइय ३-भूयवाइय ४-कंदित ५-महाकंदिया य ६-कुहंड ७-पयगदेवा / __ 8 चंचलचलचवलचित्तकीलण-दवप्पिया गहिरहसिय-गीय-णच्चणरई वणमाला-मेल-मउलकुडल-सच्छंदवि उब्धियाभरणचारुभूसणधरा सब्बोउयसुरभिकुसुमसुरइयपलबसोहंतकंतवियसंतचित्त. वणमालरइयवच्छा कामकामा' कामरूबदेहधारी णाणाविहवण्णरागवरवत्थचिचिल्ल[ल] गणियंसणा विविहदेसिणेवच्छगहियवेसा पमुइयकंदप्प-कलह-केलि-कोलाहलप्पिया हास-बोलबहुला प्रसि-मोग्गरसत्ति-कोंत-हत्था अणेगमणि-रयणविविहणिजुत्तविचितचिधगया सुरूवा महिड्ढोया महज्जुतीया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडय-तुडितर्थभियभुया अंगय-कुडलमट्टगंडयलकन्नपीढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउली कल्लाणगपवरवस्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाणुलेवणधरा भासुरबोंदी पलंबवणमालधरा दिवेणं वण्णणं दिवेणं गंधेणं दिवेणं फासेणं दिग्वेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिव्वाए इड्ढीए दिवाए जुतीए दिवाए पभाए दिव्वाए छायाए दिवाए प्रच्चोए दिव्वेणं तेएणं दिवाए लेस्साए दस दिसामो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भोमेज्जगणगरावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सोणं साणं साणं अगमहिसोणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतीणं साणं साणं पायरक्खदेव. साहस्सोणं असं च बहूर्ण बाणमंतराणं देवाण य देवीण य पाहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महतरगत्तं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा मयाऽहतणट्ट-गीय-वाइयतंती-तल-ताल-तुडियघणमुइंगपडुपवाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइ भुजमाणा विहरति / [188 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कहाँ निवास करते हैं ? [188 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर से एक सौ योजन अवगाहन (प्रवेश) करके तथा नीचे भी एक सौ योजन छोड़ कर, बीच में आठ सौ योजन (प्रदेश) में, वाणव्यन्तर देवों के तिरछे असंख्यात भीमेय (भूमिगृह के समान) लाखों नगरावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे भौमेयनगर बाहर से गोल और अंदर से चौरस तथा नीचे से कमल की कणिका के आकार में संस्थित हैं। (उन नगरावासों के चारों ओर) गहरी और विस्तीर्ण खाइयां एवं परिखाएं खुदी हुई हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट (प्रतीत होता) है। (यथास्थान) प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों प्रतिद्वारों से (वे नगरावास) युक्त हैं / (तथा वे नगरावास) विविध यन्त्रों, शतघ्नियों, मूसलों एवं मुसुण्ढी नामक शस्त्रों से परिवेष्टित (घिरे हुए) होते हैं। (वे शत्रुओं द्वारा) अयोध्य (युद्ध न कर सकने योग्य), सदाजयशील, सदागुप्त (सुरक्षित), अडतालीस कोष्ठकों (कमरों) से रचित, अडतालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिव (मंगल)मय, और किंकर देवों के दण्डों से उपरक्षित है। लिपे-पुते होने के पाठान्तर-मलय वृत्ति में 'कामगमा' पाठ है, जिसका अर्थ किया है-काम-इच्छानुसार गम-प्रवृत्ति करने वाले अर्थात-स्वेच्छाचारी। ___For Private & Personal use Only . Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [165 कारण (वे नगरावास) प्रशस्त रहते हैं / (उन नगरावासों पर) गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से (लिप्त) पाँचों अंगुलियों (वाले हाथ) के छापे लगे होते हैं। उनके तोरण और प्रतिद्वार-देश के भाग चन्दन के घड़ों से भलीभांति निर्मित होते हैं; (वे नगरावास) ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी विपुल एवं गोलाकार पुष्पमालाओं के समूह से युक्त होते हैं। पांच वर्षों के सरस सुगन्धित मुक्त पुष्पज से उपचार (अर्चन)-युक्त होते हैं। वे काले अगर, उत्तम चोड़ा, लोबान, गुग्गल आदि के धूप की महकती हुई सौरभ से रमणीय तथा सुगन्धित वस्तुओं की उत्तमगन्ध से सुगन्धित, मानो गन्धवट्टी (अगरबत्ती) के समान (वे नगरावास लगते हैं / ) अप्सरागण के संघों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों की ध्वनि से निनादित, पताकानों की पंक्ति से मनोहर, सर्वरत्नमय, स्फटिकसम स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे, पौंछे, रजरहित, निर्मल, निष्पंक, आवरण-रहित छाया (कान्ति) वाले, प्रभायुक्त किरणों से युक्त, उद्योतयुक्त, (प्रकाशमान), प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप होते हैं। इन (पूर्वोक्त नगरावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों के स्थान कहे गए हैं। (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ कि बहुत-से वाणव्यन्तरदेव निवास करते हैं / वे इस प्रकार हैं १-पिशाच, २-भूत, ३–यक्ष, ४-राक्षस, ५--किन्नर, ६–किम्पुरुष, ७--महाकाय भुजगपति तथा ८-निपुणगन्धव-गीतों में अनुरक्त गन्धर्वगण / (इनके पाठ अवान्तर भेद-) १-प्रणपणिक, २–पणपणिक, ३-ऋषिवादित, ४-भूतवादित, ५-ऋन्दित, ६-महाऋन्दित, ७--कूष्माण्ड और ८–पतंगदेव / / ये अनवस्थित चित्त के होने से अत्यन्त चपल, क्रीडा-तत्पर और परिहास- (द्रव) प्रिय होते हैं / गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति रहती है। वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा इच्छानुसार विकुर्वित आभूषणों से वे भलीभांति मण्डित रहते हैं। सभी ऋतुनों में होने वाले सुगन्धित पुष्पों से सुरचित, लम्बी, शोभनीय, सुन्दर एवं खिलती हुई विचित्र वनमाला से (उनका) वक्षस्थल सुशोभित रहता है। अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करने वाले, इच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, नाना प्रकार के वर्णों वाले, श्रेष्ठ, विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं, इन्हें प्रमोद, कन्दर्प (कामक्रीड़ा) कलह, केलि ( क्रीड़ा) और कोलाहल प्रिय है / इनमें हास्य और विवाद (बोल) बहुत होता है / इन के हाथों में खङ्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले भी रहते हैं। ये अनेक मणियों और रत्नों के विविध चिह्न वाले होते हैं। ये महद्धिक, महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाबली, महानुभाव या महासामर्थ्यशाली, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले होते हैं / कड़े और बाजूबंद से इनकी भुजाएँ मानो स्तब्ध रहती हैं / अंगद और कुण्डल इनके कपोलस्थल को स्पर्श किये रहते हैं / ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं, इनके हाथों में विचित्र आभूषण एवं मस्तक में विचित्र मालाएँ होती हैं / ये कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी माला एवं अनुलेपन धारण किये रहते हैं / इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं। ये लम्बी वनमालाएँ धारण करते हैं तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान (आकृति) से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (कान्ति) से दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से दशों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए वे (वाणव्यन्तर देव) वहाँ (पूर्वोक्त स्थानों में) अपने-अपने लाखों भौमेय नगरावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 [प्रज्ञापनासूत्र अपनी अग्नमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का और अन्य बहुत-से वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आजैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करते-कराते हुए वे (वाणव्यन्तर देवगण) महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल (कांसा), त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं / 186. [1] कहि णं भंते ! पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि गं भंते ! पिसाया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्यमाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि एग जोयणसतं प्रोगाहित्ता हेढा वेगं जोयणसतं वज्जेत्ता मज्झे अट्टस जोयणसएस, एस्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जणगरावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं भोमेज्जणगरा बाहिं वट्टा जहा प्रोहियो भवणवण्णमो (सु. 177) तहा भाणितन्वो जाव पडिरूबा। एत्थ णं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइमागे / तत्थ णं बहवे पिसाया देवा परिवसंति महिड्ढिया जहा प्रोहिया जाव (सु. 188) विहरंति / [189-1 प्र.] भंते ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिचाश देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! पिशाच देव कहाँ रहते हैं ? [189-1 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर के एक सौ यौजन (प्रदेश) को अवगाहन (पार) करके तथा नीचे एक सौ योजन (प्रदेश) को छोड़कर, बीच के आठ सौ योजन (प्रदेश) में, पिशाच देवों के तिरछे असंख्यात भूगृह के समान लाखों (भौमेय) नगरावास हैं, ऐसा कहा है। वे भौमेय नगर (नगरावास) बाहर से गोल (वर्तुल), हैं, इत्यादि सब वर्णन जैसे सू. 177 में सामान्य भवनों का कहा, वैसा ही यहाँ यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए / इन (नगरावासों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक पिशाच देवों के स्थान कहे गए हैं / (वे स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं ; जहाँ कि बहुत-से पिशाच देव निवास करते हैं। जो महद्धिक हैं, (इत्यादि सब वर्णन) जैसे (सू. 188 में) सामान्य वाणव्यन्तरों का कहा गया है, वैसे ही यहाँ यावत् 'विचरण करते हैं' (विहरंति) तक जान लेना चाहिए। [2] काल-महाकाला यऽथ दुहे पिसायइंदा पिसायरायाणो परिवसंति महिड्ढिया महज्जुइया जाव (सु. 188) विहरति / [189-2] इन्हीं (पूर्वोक्त नगरावासों) में जो दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज - काल और महाकाल, निवास करते हैं, वे 'महद्धिक हैं, महाद्युतिमान हैं,' इत्यादि आगे का समस्त वर्णन, यावत् 'विचरण करते हैं' ('विहरंति') तक सू. 188 के अनुसार कहना चाहिए। 190. [1] कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसंति ? Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [167 गोयमा! जंबुद्दीवे दोवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवोए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि एगं जोयणसतं ओगाहित्ता हेट्ठा वेगं जोयणसतं वज्जेता मज्झे असु जोयणसएसु, एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा भोमेज्जनगरावाससतसहस्सा भवतीति मक्खातं / ते णं भोमेज्जणगरा बाहि बट्टा जहा ओहिओं भवणवण्णो (सु. 177) तहा भाणियम्वो जाव पडिरूवा। एत्थ णं दाहिणिल्लाणं पिसायाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तस्थ गं बहवे दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिवसं ति महिड्ढिया जहा प्रोहिया जाव (सु. 188) विहरंति / [160-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! दाक्षिणात्य पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? [190-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर का एक सौ योजन (प्रदेश) अवगाहन (पार) करके तथा नीचे एक सौ योजन छोड़ कर बीच में जो आठ सौ योजन (प्रदेश) हैं, उनमें दाक्षिणात्य पिशाच देवों के तिरछे असंख्येय भूमिगृह-जैसे (भौमेय) लाखों नगरावास हैं, ऐसा कहा है / वे (भौमेय) नगर बाहर से गोल हैं, इत्यादि सब कथन जैसे (सू. 177 में) औधिक (सामान्य) भवनों का कहा, उसी प्रकार यहाँ भी यावत्-'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए / इन (पूर्वोक्त नगरावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त दाक्षिणात्य पिशाच देवों के स्थान कहे गए हैं / (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। इन्हीं (स्थानों) में बहुत-से दाक्षिणात्य पिशाच देव निवास करते हैं, वे महद्धिक हैं', इत्यादि समग्र वर्णन जैसे (सू. 188 में) सामान्य वाणव्यन्तर देवों का किया है, तदनुसार यावत् 'विचरण करते हैं' (विहरंति) तक करना चाहिए / [2] काले यस्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसति महिड्ढीए (सु. 188) जाव पभासेमाणे / से गं तस्य तिरियमसंखेज्जाणं भोमेज्जगनगरावाससतसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सोणं चउण्हमग्गहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं प्रणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं सोलसण्हं प्रातरक्खदेवसाहस्सोणं प्रणेसि च बहूणं दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं देवाण य देवोण य प्राहेवच्चं (सु. 188) जाव विहरति / [160-2] इन्हीं (पूर्ववणित स्थानों) में पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल निवास करते हैं, जो महद्धिक है, (इत्यादि सब वर्णन सू. 188 के अनुसार) यावत् प्रभासित करता हुआ ('पभासेमागे') तक समझना चाहिए। वह (दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र काल) तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नगरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से दक्षिण दिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का 'प्राधिपत्य करता हुआ' यावत् 'विचरण करता है' (विहरति) तक (आगे का सारा कथन सू. 188 के अनुसार करना चाहिए।) Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] [ प्रज्ञापनासूत्र 161. [1] उत्तरिल्लाणं पुच्छा। गोयमा ! जहेव दाहिणिल्लाणं वत्तव्वया (सु. 160 [1]) तहेव उत्तरिल्लाणं पि / नवरं मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं / [161-1 प्र.] भगवन् ! उत्तर दिशा के पर्याप्त और अपर्याप्त पिशाच देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उत्तर दिशा के पिशाच देव कहाँ निवास करते हैं ? [161-1 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 161-1 में) दक्षिण दिशा के पिशाच देवों का वर्णन किया है, वैसे ही उत्तर दिशा के पिशाच देवों का वर्णन समझना चाहिए। विशेष यह है कि (इनके नगरावास) मेरुपर्वत के उत्तर में हैं। [2] महाकाले यऽत्थ पिसायइंदे पिसायराया परिवसति जाव (सु. 160 [2]) विहरति / [161-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में (उत्तर दिशा का) पिशाचेन्द्र पिशाचराज-- महाकाल निवास करता है, (जिसका सारा वर्णन) यावत् 'विचरण करता है' (विहरति) तक, सू. 160-2 के अनुसार (समझना चाहिए।) 162. एवं जहा पिसायाणं (सु. 186-190) तहा भूयाणं पि जाब गंधव्वाणं / णवरं इंदेसु णाणत्तं भाणियव्वं इमेण विहिणा-भूयाणं सुरूव-पडिरूवा, जक्खाणं पुण्णभद्द-माणिभद्दा, रक्खसाणं भीम-महाभीमा, किण्णराणं किण्णर-किपुरिसा, किपुरिसाणं सप्पुरिस-महापुरिसा, महोरगाणं अइकायमहाकाया, गंधव्वाणं गीतरती-गीतजसे जाब (सु. 188) विहरति / काले य महाकाले 1 सुरूव पडिरूव 2 पुण्णभद्दे य / प्रमरवइ माणिभद्दे 3 भीमे य तहा महामीमे 4 // 146 // किण्णर किंपुरिसे खलु 5 सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे 6 / अइकाय महाकाए 7 गीयरई चेव गीतजसे 8 / / 150 / / [162] इस प्रकार जैसे (सू. 189-160 में) (दक्षिण और उत्तर दिशा के) पिशाचों और उनके इन्द्रों (के स्थानों) का वर्णन किया गया, उसी तरह भूत देवों का यावत् गन्धों तक का वर्णन समझना चाहिए / विशेष—इनके इन्द्रों में इस प्रकार से भेद (अन्तर) कहना चाहिए। यथा--भूतों के (दो इन्द्र)-सुरूप और प्रतिरूप, यक्षों के (दो इन्द्र)-पूर्णभद्र और माणिभद्र, राक्षसों के (दो इन्द्र)-भीम और महाभीम, किन्नरों के (दो इन्द्र)-किन्नर और किम्पुरुष, किम्पुरुषों के (दो इन्द्र) सत्पुरुष और महापुरुष, महोरगों के (दो इन्द्र)-अतिकाय और महाकाय तथा गन्धर्वो के (दो इन्द्र)-गीतरति और गीतयश; (आगे का इनका सारा वर्णन) सूत्र 188 के अनुसार, यावत् 'विचरण करता है, (विहरति)' तक समझ लेना चाहिए। [संग्रहगाथाओं का अर्थ--] (आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के प्रत्येक के दो-दो इन्द्र क्रमश: इस प्रकार है)-१. काल और महाकाल, 2. सुरूप और प्रतिरूप, 3. पूर्णभद्र और माणिभद्र इन्द्र, 4. भीम तथा महाभीम, 5. किन्नर और किम्पुरुष, 6. सत्पुरुष और महापुरुष, 7. अतिकाय और महाकाय तथा 8. गीतरति और गीतयश / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [169 . 193. [1] कहि णं भंते ! अणवनियाणं देवाणं [पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं] ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! प्रणवणिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स उरि हेटा य एगं जोयणसयं वज्जेत्ता मज्झे अहसु जोयणसतेसु, एत्थ णं अणवष्णियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा णगरावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं जाव (सु. 188) पडिरूवा। एत्थ णं प्रणवणियाणं देवाणं ठाणा। उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सटाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहवे प्रणवनिया देवा परिवसंति महड्डिया जहा पिसाया (सु. 186[1]) जाव विहरंति / __[193-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अणपणिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! अणपणिक देव कहाँ निवास करते हैं ? [193-1 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर और नीचे एक-एक सौ योजन छोड़ कर मध्य में आठ-सौ योजन (प्रदेश) में, अणपणिक देवों के तिरछे असंख्यात लाख नगरावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे नगरावास (सू. 188 के अनुसार) यावत् प्रतिरूप तक पूर्ववत् समझने चाहिए / इन (पूर्वोक्त स्थानों) में अणपणिक देवों के स्थान हैं / (वे स्थान) उपपात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, समुद्घात की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं, स्वस्थान की अपेक्षा से भी लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत-से अणपणिक देव निवास करते हैं, वे महद्धिक हैं, (इत्यादि आगे का समग्र वर्णन) (सू. 186-1 में) जैसे पिशाचों का वर्णन है, तदनुसार यावत् 'विचरण करते हैं (विहरंति) तक (समझना चाहिए।) [2] सन्निहिय-सामाणा यऽस्थ दुवे अणणिदा प्रणवणियकुमाररायाणो परिबसंति महिड्डीया जहा काल-महाकाला (सु. 186 [2]) / [193-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में दोनों अणपणिकेन्द्र अणपणिककुमारराज-सन्निहित और सामान निवास करते हैं, जो कि महद्धिक हैं, (इत्यादि सारा वर्णन सू. 186-2 में वर्णित) काल और महाकाल की तरह (समझना चाहिए / ) 164. एवं जहा काल-महाकालाणं दोण्हं पि दाहिणिल्लाणं उत्तरिल्लाण य भणिया (सु. 160 [2],161[2]) तहा सन्निहिय-सामाणाई णं पि भाणियव्वा / संगहणिगाहा प्रणवन्निय 1 पणवन्निय 2 इसिवाइय 3 भूयवाइया चेव 4 / कंद 5 महाकंदिय 6 कुहंडे 7 पययदेवा 8 इमे इंदा / / 151 // सणिहिया सामाणा 1 धाय विधाए 2 इसी य इसिपाले 3 / ईसर महेसरे या 4 हवइ सुवच्छे विसाले य 5 // 152 // हासे हासरई वि य 6 सेते य तहा भवे महासेते 7 / पयते पययपई वि य 8 नेयन्वा प्राणुपुवीए // 153 // Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [प्रज्ञापनासूत्र [194] इस प्रकार जैसे दक्षिण और उत्तर दिशा के (पिशाचेन्द्र) काल और महाकाल के सम्बन्ध में जैसे (क्रमश: सूत्र 190-2 और 161-2 में) कहा है, उसी प्रकार सन्निहित और सामान आदि (दक्षिण और उत्तर दिशा के अणपणिक आदि देवों के समस्त इन्द्रों) के विषय में कहना चाहिए। संग्रहणी गाथाओं का अर्थ--] (वाणव्यन्तर देवों के पाठ अवान्तर भेद--.) 1. अणपणिक, 2. पणपणिक, 3. ऋषिवादिक, 4 भूतवादिक, 5 क्रन्दित, 6. महाक्रन्दित, 7 कुष्माण्ड और 8. पतंगदेव / इनके (प्रत्येक के दो-दो) इन्द्र ये हैं-||१५१।। 1. सन्निहित और सामान, 2. धाता और विधाता, 3. ऋषि और ऋषिपाल, 4. ईश्वर और महेश्वर, 5. सुवत्स और विशाल // 152 / / 6. हास और हासरति, तथा 7. श्वेत और महाश्वेत, और 8. पतंग और पतंगपति क्रमशः जानने चाहिए / / 153 // विवेचन-समस्त वाणव्यन्तर देवों के स्थानों का निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 188 से 194 तक) में सामान्य वाणव्यन्तर देवों तथा पिशाच आदि उनके मूल पाठ भेदों तथा अणणिक आदि पाठ अवान्तर भेदों एवं तत्पश्चात् इनके दक्षिण और उत्तर दिशा के देवों तथा इन सोलह के प्रत्येक के दो-दो इन्द्रों के स्थानों, उनकी विशेषताओं, उन सबकी प्रकृति, रुचि, शरीर-वैभव, तथा अन्य ऋद्धि आदि का स्पष्ट वर्णन किया गया है।' ज्योतिष्कदेवों के स्थानों की प्ररूपरणा 195. [1] कहि णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागानो सत्ताणउते जोयणसते उद्दे उप्पइत्ता दसुत्तरे जोयणसतबाहल्ले तिरियमसंखेज्जे जोतिसविसये, एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा जोइसियविमाणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा अद्धकविटुगसंठाणसंठिता सव्वफलियामया प्रभुग्गयमूसियपहसिया इव विविहमणि-कणग-रतणभत्तिचित्ता वाउद्धतविजयवेजयंतीपडाग-छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगणतलमणुलिहमाणसिहरा जालंतररतण-पंजरुम्मिलिय व्व मणि-कणगथभियागा वियसियसयवत्तडरीया (य-)तिलय-रयणद्धचंदचित्ता णाणामणिमयदामाकिया अंतो बहिं च सण्हा तर्वाणज्जरुइलवालुयापत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सुरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा।। __एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्स प्रसंखिज्जतिभागे। तत्थ णं बहवे जोइसिया देवा परिवसंति, तं जहा-बहस्सतो चंदा सूरा सुक्का सणिच्छरा राहू धूमकेऊ बुहा अंगारगा तत्ततवणिज्जकणगवण्णा, जे य गहा जोइसम्मि चारं चरंति केतू य गइरइया अट्ठावीसतिविहा य नक्खसदेवयगणा, णाणासंठाणसंठियायो य पंचवण्णाश्रो तारयानो, ठितलेस्सा चारिणो अविस्साममंडलगई पत्तेयणामंकपागडियांचधमउडा महिड्डिया जाव (सु. 188) पभासेमाणा। 1. (क) पण्णवणा सुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 64 से 67 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 96-97 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [171 ते गं तत्थ साणं साणं विमाणावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं अगमहिसोणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतीणं साणे साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य माहेवच्चं पोरेवच्चं जाव (सु. 188) विहरंति / [195.1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक ज्योतिष्क देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भंते ! ज्योतिष्क देव कहाँ निवास करते हैं ? [195-1 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से सात सौ नव्वे (790) योजन की ऊंचाई पर एक सौ दस योजन विस्तृत एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे असंख्यात लाख ज्योतिष्कविमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान (विमानावास) आधे कवीठ (कपित्थ) के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं / वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे (निकले) हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं / विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र-विचित्र हैं; हवा से उड़ी हुई विजय-वैजयन्ती, पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त हैं, वे बहुत ऊँचे, गगनतलचुम्बी शिखरों वाले हैं। (उनकी) जालियों के बीच में लगे हुए रत्न ऐसे लगते हैं, मानों पीजरे से बाहर निकाले गए हों। वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं / तिलकों तथा रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्र-विचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अंदर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तट (पाथड़े) सोने की रुचिर बालू वाले हैं। वे सुखद स्पर्श वाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता-उत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) एवं प्रतिरूप (अतिसुन्दर) इन (विमानावासों) में पर्याप्त और अपर्याप्त ज्योतिष्कदेवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से-लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / वहाँ (ज्योतिष्क विमानावासों में) बहुत-से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं। वे इस प्रकार हैं -वृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहु, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल), ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्ण वाले हैं (अर्थात्-ये किञ्चित रक्त वर्ण के हैं।) और जो ग्रह ज्योतिष्कक्षेत्र में गति (संचार) करते हैं तथा गति में रत रहने वाला केतु, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्रदेवगण, नाना आकारों वाले, पांच वर्षों के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त (बिना रुके) मंडल (वृत्त, गोलाकार) में गति करने वाले, (ये सभी ज्योतिष्क देव हैं / ) (इन सब में से) प्रत्येक के मुकुट में अपने-अपने नाम का चिह्न व्यक्त होता है / 'ये महद्धिक होते हैं,' इत्यादि सब वर्णन (सू. 188 के अनुसार), यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमाणे') तक (पूर्ववत् समझना चाहिए।) बे (ज्योतिष्क देव) वहाँ (ज्योतिष्कविमानावासों में) अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी-अपनी सपरिवार अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने हजारों प्रात्मरक्षक देवों का तथा और भी बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवत्तित्व (अग्रेसरत्व), Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 [ प्रज्ञापनासूत्र करते हुए ...(आगे का समग्र वर्णन) यावत् विचरण करते हैं (विहरंति') तक सू. 188 के अनुसार समझना चाहिए / [2] चंदिम-सूरिया यऽत्थ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवति महिड्डिया जाव (सु. 188) पभासेमाणा / ते णं तत्थ साणं साणं जोइसियविमाणाकाससतसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमाहितीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं सोलसण्हं प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं जोइसियाणं देवाण य देवीण य पाहेबच्चं पोरेवच्चं जाव विहरंति / [195-2] इन्हीं (पूर्वोक्त ज्योतिष्कविमानावासों) में दो ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज-चन्द्रमा और सूर्य-निवास करते हैं; 'जो महद्धिक हैं' (इत्यादि सब वर्णन सू. 188 के अनुसार) यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमागे') (तक पूर्ववत् समझना चाहिए / ) वे वहाँ अपने-अपने लाखों ज्योतिष्कविमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, सपरिवार चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, सोलह हजार प्रात्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवत्तित्व करते हुए यावत् विचरण करते हैं। विवेचन--ज्योतिष्क देवों के स्थानों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (सू. 195-1, 2) में ज्योतिष्क देवों तथा उनके परिवारों एवं उनके चन्द्र, सूर्य नामक दो इन्द्रों के स्थानों, उनकी प्रकृति, विशेषता, प्रभुता एवं ऐश्वर्य श्रादि की प्ररूपणा की गई है / ' सर्व वैमानिक देवों के स्थानों की प्ररूपरणा 166. कहि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! वेमाणिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढको ए बहुसमरमणिज्जातो भूमिभागातो उड्डे चंदिम-सूरियगह-णक्खत्त-तारारूवाणं बहूइं जोयणसताई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहुगोरो जोयणकोडोप्रो बहुगीग्रो जोयणकोडाकोडीनो उड्ढ दूरं उप्पइत्ता एस्थ णं सोहम्मोसाण-सणंकुमारमाहिद-बंभलोय-लंतग-महासुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणय-प्रारण-अच्चुत-गेवेज्ज-अणुत्तरेसु एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं चउरासीइ विमाणावाससतसहस्सा सत्ताणउई च सहस्सा तेवीसं च विमाणा भवंतीति मक्खातं। तेणं विमाणा सध्वरतणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निष्पंका निवकंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / एत्थ णं वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता / तिसु वि लोयस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ णं बहवे वेमाणिया देवा परिवसंति / तं जहा-सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिद-बंभलोगलंतग-महासुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणय-आरण-ऽच्चुय-गेवेज्जगा-ऽणुत्तरोववाइया देवा। 16. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 99 (ख) पग्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ) पृ. 67-68 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 173 ते णं मिग १-महिस २-वराह ३-सोह ४-छगल ५-दह र ६-हय ७-गयवइ -भुयम ६-खग्ग १०-उसभंक ११-विडिम १२-पागडियांचधमउडा पढिलवरमउड-किरीडधारिणो वर-कुडलुज्जोइयाणणा मउडदित्तसिरया रत्ताभा पउमपम्हगोरा सेया सुहवण्ण-गंध-फासा उत्तमवेउविणो पवरवत्यगंध-मल्लाणुलेवणधरा महिदडीया महाजुइया महायसा महाबला महाणुभागा महासोक्खा हारविराइयवच्छा कडय-तुडियथंभियभुया अंगद-कुंडल-मट्टगंडतलकण्णपोढधारी विचित्तहत्थाभरणा विचित्तमाला-मउली कल्लाणगपवरवत्थपरिहिया कल्लाणगपवरमल्लाऽणुलेवणा भासरबोंदी पलंबवणमालधरा दिव्वेणं वण्णेणं दिवेणं गंधेणं दिग्वेणं फासेणं दिवेणं संघयणेणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इदडीए दिव्वाए जतीए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिवाए लेस्साए दस दिसाप्रो उज्जोवेमाणा पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं तायत्तीसगाणं साणं साणं लोगपालाणं साणं साणं अग्गहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं अणियाणं साणं साणं अणियाधिवतोणं साणं साणं प्रायरक्खदेवसाइस्सीणं अण्णेसि च बहूणं वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महयरगत्तं प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महयाऽहतनट्ट-गीय-वाइततंती-तलताल-तुडित-घणमुइंगपडुपवाइतरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाई भुजमाणा विहरति / [166 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! वैमानिक देव कहाँ निवास करते हैं ? [166 उ ] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊार, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जा कर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, पानत, प्राणत, आरण, अच्युत, ग्रे वेयक और अनुत्तर विमानों में वैमानिक देवों के चौरासी लाख, सत्तानवे हजार, तेईस विमान एवं विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे विमान सर्वरत्नमय, स्फटिक के समान स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने बनाए हुए, रजरहित, निर्मल, पंक-(या कलंक) रहित, निरावरण कान्ति वाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतसहित, प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, रमणीय-रूपसम्पन्न और प्रतिरूप (अप्रतिम सुन्दर) हैं / इन्हीं (विमानावासों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक वैमानिक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान), तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षानों से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहुत-से वैमानिक देव निवास करते हैं। वे (वैमानिक देव) इस प्रकार हैं---सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, पानत, प्राणत, आरण, अच्युत, (नौ) अवेयक एवं (पांच) अनुत्तरोपपातिक देव / / वे (सौधर्म से अच्युत तक के देव क्रमश:)-१. मृग, 2. महिष, 3. वराह (शूकर), 4. सिंह, 5. बकरा (छगल), 6. दर्दुर (मेंढक), 7. हय (अश्व), 8. गजराज, 9. भुजंग (सर्प), 10. खङ्ग, (चौपाया वन्य जानवर या गैंडा), 11. वृषभ (बैल) और 12. विडिम के प्रकट चिह्न से युक्त मुकुट वाले, शिथिल और श्रेष्ठ मुकुट और किरीट के धारक, श्रेष्ठ कुण्डलों से उद्योतित मुख वाले, मुकुट Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] [प्रज्ञापनासून के कारण शोभायुक्त, रक्त आभायुक्त, कमल के पत्र के समान गौरे, श्वेत, सुखद वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले, उत्तम विक्रियाशक्तिधारी, प्रवर वस्त्र, गन्ध, माल्य और अनुलेपन के धारक, महद्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबली, महानुभाग, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षस्थल वाले हैं / कड़े और बाजुबंदों से मानो भुजाओं को उन्होंने स्तब्ध कर रखी हैं, अंगद, कुण्डल आदि आभूषण उनके कपोलस्थल को सहला रहे हैं, कानों में वे कर्णपीठ और हाथों में विचित्र कराभूषण धारण किये हुए हैं। विचित्र पुष्पमालाएँ मस्तक पर शोभायमान हैं। वे कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए तथा कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन धारण किये हुए होते हैं। उनका शरीर (तेज से) देदीप्यमान होता है। वे लम्बी वनमाला धारण किये हुए होते हैं तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से, दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया से, दिव्य अचि (ज्योति) से, दिव्य तेज से, दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए ; बे (वैमानिक देव) वहाँ अपने-अपने लाखों विमानावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने त्रायस्त्रिशक देवों का, अपने-अपने सपरिवार अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनामों का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने हजारों आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोत्तित्व (अग्रेसरत्व), स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व तथा सेनापतित्व करते-कराते और पालते-पलाते हुए निरन्तर होने वाले महान् नाट्य, गीत तथा कुशल वादकों द्वारा बजाये जाते हुए वीणा, तल, ताल, त्रुटित, घनमृदंग आदि वाद्यों की समुत्पन्न ध्वनि के साथ दिव्य शब्दादि कामभोगों को भोगते हुए विचरण करते हैं। 167. [1] कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्वतस्स दाहिणेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढबीए बहुसमरमणिज्जाम्रो भूमिभागानो उड्ढं चंदिम-सूरिम-गह-नक्षत्त-तारारूवाणं बहूणि जोयणसताणि बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसतसहस्साई बहुगीप्रो जोयणकोडोप्रो बहुगीनो जोयणकोडाकोडीनो उड्ढे दुरं उप्पइत्ता एत्थ णं सोहम्मे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण-पडोणायते उदीण-दाहिणविस्थिपणे प्रद्धचंदसंठाणसंठिते अच्चिमालिभासरासिवण्णाभे असंखेज्जाम्रो जोयणकोडीओ असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीनो आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडोप्रो परिक्खेवेणं, सब्बरयणामए अच्छे जाव (सु. 166) पडिरूवे / तत्थ णं सोहम्मगदेवाणं बत्तीसं विमाणावाससतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सम्वरयणामया अच्छा जाव (सु. 196) पडिरूवा / तेसि णं विमाणाणं बहुमझदेसभागे पंच वडेंसया पण्णत्ता। तं जहा–प्रसोगवडेंसए 1 सत्तिवण्णव.सए 2 चंपगवडेंसए 3 चयव.सए 4 मझे यऽथ सोहम्मव.सए 5 ते णं वडेंसया सध्वरयणामया अच्छा जाव (सु. 166) पडिरूवा / एत्थ णं सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तीसु बि लोगस्स असंखेज्जइभागे। तत्थ गं बहवे सोहम्मगदेवा परिवसंति महिड्डीया जाव (सु 196) पभासेमाणा। ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससतसहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सोणं एवं जहेव प्रोहियाणं Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 175 (सु. 196) तहेव एतेसि पि भाणितव्वं जाव प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसि च बहूणं सोहम्मगकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य प्राहेवच्चं पोरेवच्चं जाव (सु. 196) विहरति / [197-1 प्र.] भगवन ! पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मकल्पगत देवों के स्थान कहाँ कहे हैं ? भगवन् ! सौधर्मकल्पगत देव कहाँ निवास करते हैं ? [197-1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीपनामक द्वीप में सुमेरु पर्वत के दक्षिण में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र तथा तारकरूप ज्योतिष्कों के अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर सौधर्म नामक कल्प कहा गया है / वह पूर्व-पश्चिम में लम्बा, उत्तर दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्द्ध चन्द्र के आकार में संस्थित, अचियों-ज्योतियों की माला तथा दीप्तियों की राशि के समान वर्ण-कान्ति वाला है। उसकी लम्बाई और चौड़ाई असंख्यात कोटि योजन ही नहीं, बल्कि असंख्यात कोटाकोटि योजन की है, तथा परिधि भी असंख्यात कोटाकोटि योजन की है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, (इत्यादि सब वर्णन, ) यावत् 'प्रतिरूप है' तक सू. 166 के अनुसार (समझना चाहिए / ) उस (सौधर्मकल्प) में सौधर्मक देवों के बत्तीस लाख विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है / वे विमान पूर्ण रूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, (इत्यादि सब वर्णन) सू. 166 के अनुसार यावत् प्रतिरूप हैं, तक, समझना चाहिए। ___ इन विमानों के बिलकुल मध्यदेशभाग में (ठीक बीचोंबीच) पांच अवतंसक कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-१ अशोकावतंसक, २-सप्तपर्णावतंसक, ३-चंपकावतंसक ४-चूतावतंसक और इन चारों के मध्य में ५-पांचयां सौधर्मावतंसक / ये अवतंसक पूर्णतया रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक सब वर्णन सू. 166 के अनुसार समझ लेना चाहिए / इन्हीं (अवतंसकों) में पर्याप्त और अपर्याप्त सौधर्मक देवों के स्थान कहे गए हैं / (वे स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहुत से सौधर्मक देव निवास करते हैं, जो कि 'महद्धिक हैं' (इत्यादि शेष वर्णन) यावत् प्रभासित करते हुए ('पभासेमाणा') तक (सू. 196 के अनुसार) (पूर्ववत् कहना चाहिए।) वे वहाँ अपने-अपने लाखों विमानों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, इस प्रकार जैसे औधिक (सामान्य) वैमानिकों के विषय में (सू 196 में) कहा है, वैसे ही इनके विषय में भी कहना चाहिए / यावत् हजारों प्रात्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरोवत्तित्व इत्यादि यावत् विचरण करते हैं ('विहरंति') तक (सू. 166 के अनुसार) कहना चाहिए। [2] सक्के यऽत्थ देविदे देवराया परिवसति वज्जपाणी पुरंदरे सतक्कतू सहस्सखे मघवं पागसासणे दाहिणड्ढलोगाधिवती बत्तीसविमाणावाससतसहस्साधिवती एरावणवाहणे सुरिंदे परयंबरवस्थधरे प्रालइयमाल-मउडे णवहेमचारुचित्तचंचलकुडलविलिहिज्जमाणगंडे महिड्ढिए जाव (सु. 166) पभासेमाणे। से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससतसहस्साणं चउरासोए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं च उण्हं लोगपालाणं अट्ठण्हं अगमहिसोणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाधिवतीणं च उण्हं च उरासीईणं प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं अण्णेसि च बहूणं सोहम्मगकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य पाहेबच्चं पोरेवच्चं कुब्वमाणे जाव (सु. 166) विहरइ / Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [167-2] इन्हीं (पूर्वोक्त स्थानों) में देवेन्द्र देवराज शक्र निवास करता है; जो वज्रपाणि, पुरन्दर, शतक्रतु, सहस्राक्ष, मघवा, पाकशासन, दक्षिणार्द्धलोकाधिपति, बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है। ऐरावत हाथी जिसका वाहन है, जो सुरेन्द्र है, रजरहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है, संयुक्त माला और मुकुट पहनता है तथा जिसके कपोलस्थल नवीन स्वर्णमय, सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से विलिखित होते हैं। वह महद्धिक है, (इत्यादि आगे का सब वर्णन) यावत् प्रभासित करता हुआ, तक (सू. 196 के अनुसार) पूर्ववत् (जानना चाहिए / ) वह (देवेन्द्र देवराज शक) वहाँ बत्तीस लाख विमानावासों का, चौरासी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रायस्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार चौरासी हजार-अर्थात्-तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से सौधर्मकल्पवासी वैमानिक देवों और देवियों का आधिपत्य एवं अग्रेसरत्व करता हुआ, (इत्यादि सब वर्णन सू. 166 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक पूर्ववत् (समझना चाहिए।) 198. [1] कहि णं भंते ! ईसाणगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! ईसाणगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरास पव्वतस्स उत्तरेणं इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागाओ उड्ढे चंदिम-सूरिय-गहगण-णक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणसताई बहूई जोयणसहस्साई जाव (सु. 167 [1]) उप्पइत्ता एस्थ णं ईसाणे णामं कप्पे पण्णत्ते पाईण-पडीणायते उदीण-दाहिणविस्थिण्णे एवं जहा सोहम्मे (सु. 167 [1]) जाव पडिरूवे / तत्थ णं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावाससतसहस्सा हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सम्वरयणामया जाव पडिरूवा / तेसि गं बहुमज्झदेसभाए पंच बडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा-अंकवडेंसए 1 फलिहबडेसए 2 रतणवडेंसए 3 जातरूववडेंसए 4 मज्झे एत्थ ईसाणव.सए 5 / ते वडेंसया सवरयणामया जाव (सु. 196) पडिरूवा। एत्थ णं ईसाणाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे / सेसं जहा सोहम्मगदेवाणं जाव (सु. 167 [1]) विहरंति / 198-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ईशानक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! ईशानक देव कहाँ निवास करते हैं ? [198.1 उ.] गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में सुमेरुपर्वत के उत्तर में, इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम और रमणीय भूभाग से ऊपर, चन्द्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्कों से अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जा कर ईशान नामक कल्प (देवलोक) कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, इस प्रकार (शेष वर्णन) सौधर्म (कल्प के वर्णन) के समान (सू. 197-1 के अनुसार) यावत्-'प्रतिरूप है' तक समझना चाहिए। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [177 . उस (ईशानकल्प) में ईशान देवों के अट्ठाईस लाख विमानावास हैं / वे विमान सर्वरत्नमय यावत् (पूर्ववत्) प्रतिरूप हैं / उन विमानावासों के ठीक मध्यदेशभाग में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं१-अंकावतंसक, २-स्फटिकावतंसक, ३-रत्नावतंसक, ४-जातरूपावतंसक और इनके मध्य में ५-ईशानावतंसक / वे (सब) अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं, (यह सब वर्णन सू. 166 के अनुसार जानना चाहिए / ) इन्हीं (अवतंसकों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक ईशान देवों के स्थान कहे गए हैं / (वे स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / शेष सब (वर्णन) सौधर्मक देवों के (सू. 197-1 में कथित) (वर्णन के) अनुसार यावत् विचरण करते हैं ('विहरंति') तक (समझना चाहिए।) [2] ईसाणे यऽत्य देविदे देवराया परिवसति सूलपाणी वसभवाहणे उत्तरड्ढलोगाधिवती अट्ठावीसविमाणावाससतसहस्साधिवती प्ररयंबरवत्थधरे सेसं जहा सक्कस्स (सु. 167 [2]) जाव पभासेमाणे। से णं तत्थ अट्ठावीसाए विमाणावाससतसहस्साणं असोतीए सामाणियसाहस्सोणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं च उण्हं लोगपालाणं अटण्हं अग्गहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तरहं अणियाधिवतीणं चउण्हं असोतीणं प्राय रक्खदेवसाहस्सोणं अण्णेसि च बहूणं ईसाणकप्पवासीणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं कुब्वमाणे जाव (सु. 166) विहरति / [198-2] इस ईशानकल्प में देवेन्द्र देवराज ईशान निवास करता है, जो शूलपाणि, वृषभवाहन, उत्तरार्द्धलोकाधिपति, अट्ठाईस लाख विमानावासों का अधिपति, रजरहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है; शेष वर्णन (सू. 197-2 में अंकित) शक्र के (वर्णन के) समान, यावत् 'प्रभासित करता हुआ' तक, (समझना चाहिए।) वह (ईशानेन्द्र) वहाँ अट्ठाईस लाख विमानावासों का, अस्सी हजार सामानिक देवों का, तेतीस त्रास्त्रिशक देवों का, चार लोकपालों का, आठ सपरिवार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपति देवों का, चार अस्सी हजार, अर्थात्-तीन लाख बीस हजार प्रात्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत-से ईशानकल्पवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, अग्रेसरत्व करता हुआ, (आगे का सब वर्णन सू. 166 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (पूर्ववत् समझना चाहिए / ) 166. [1] कहि णं भंते ! सणंकुमारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! सणंकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा ! सोहम्मस्स कप्पस्स उम्पि सपक्खि सपडिदिसि बहूई जोयणाई बहूई जोयणसताई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसतसहस्साइं बहुगीयो जोयणकोडीनो बहुगीयो जोयणकोडाकोडीयो उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं सणंकुमारे णामं कप्पे पाईण-पडीणायते उदीण-दाहिण-विस्थिपणे जहा सोहम्मे (सु. 167 [1]) नाव पडिरूवे / Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175] [प्रज्ञापनासूत्र एत्थ णं सणंकुमाराणं देवाणं बारस विमाणावाससतसहस्सा भवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सब्वरयणामया जाव (सु. 166) पडिरूवा। तेसि णं विमाणाणं बहुमज्झदेसभागे पंच वडेंसगा पष्णता / तं जहा-प्रसोगवडेंसए 1 सत्तिवण्णव.सए 2 चंपगवडेंसए 3 चयव.सए 4 मझे यथ सणकुमारवडेसए 5 / ते णं वडेंसया सव्वरयणाया अच्छा जाव (सु. 166) पडिरूबा। एत्थ णं सर्णकुमारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पणत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्थ णं बहबे सणंकुमारा देवा परिवसंति महिड्ढिया जाव (स. 166) पभासेमाणा विहरंति / णवरं अग्गमहिसीओ णथि / [166-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सनत्कुमार देव कहाँ निवास करते हैं ? [166-1 उ.] गौतम ! सौधर्म-कल्प के अपर समान (पूर्वापर दक्षिणोत्तररूप) पक्ष (पार्श्व) और समान प्रतिदिशा (विदिशा) में बहुत योजन, अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, अनेक करोड़ योजन और अनेक कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर वहाँ सनत्कुमार नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, (इत्यादि सब वर्णन) सौधर्मकल्प के (सू. 197-1 में उल्लिखित वर्णन के) अनुसार यावत् 'प्रतिरूप है' तक (समझना चाहिए।)। __इसी (सनत्कुमारकल्प) में सनत्कुमार देवों के बारह लाख विमान हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, यावत् 'प्रतिरूप है', तक (सू.१६६ को अनुसार पूर्ववत् वर्णन समझना चाहिए।) उन विमानों के एकदम बीचोंबीच में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१अशोकावतंसक, २---सप्तपर्णावतंसक, ३-चंपकावतंसक, ४-चूतावतंसक और इनके मध्य में ५-सनत्कुमारावतंसक है। वे अवतंसक सर्वरत्नमय, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं, (तक का वर्णन सू. 196 के अनुसार) (पूर्ववत् समझना चाहिए / ) इन (अवतंसकों) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक सनत्कुमार देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उन (स्थानों) में बहुत-से सनत्कुमार देव निवास करते हैं, जो महद्धिक हैं, (इत्यादि सब वर्णन सू. 196 के अनुसार) यावत् 'प्रभासित करते हुए विचरण करते हैं' तक पूर्ववत् समझना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ अग्रम हिषियां नहीं हैं। [2] सणंकुमारे यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति, प्ररयंबरवत्यधरे सेसं जहा सक्कस्स (सु. 167 [2]) / से णं तत्थ बारसण्हं विमाणावाससतसहस्साणं बावत्तरीए सामाणियसाहस्सोणं सेसं जहा सक्कस्स (सु. 167 [2]) अगमहिसोवज्जं / णवरं चउण्हं बावत्तरीणं प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं जाव (सु. 166) विहरइ / [166-2] यहीं देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार निवास करता है, जो रज से रहित वस्त्रों के धारक है, (इत्यादि) शेष वर्णन जैसे (सू. 197-2 में) शक्र का कहा है, (उसी प्रकार इसका समझना चाहिए / ) वह (सनत्कुमारेन्द्र) बारह लाख विमानावासों का, बहत्तर हजार सामानिक देवों का' (इत्यादि) शेष सब वर्णन (जैसे सू. 197-2 में) शकेन्द्र का किया गया है, इसी प्रकार (यहाँ भी) 'अग्रमहिषियों को छोड़ कर (करना चाहिए / ) विशेषता यह कि चार बहत्तर हजार, अर्थात-दो लाख अठासी हजार प्रात्मरक्षक देवों का यावत् 'विचरण करता है।' (यह कहना चाहिए।) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 179 200. [1] कहि णं भंते ! माहिदाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! माहिंदगदेवा परिक्संति ? गोयमा ! ईसाणस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि बहूइं जोयणाई जाव (सु. 166 [1]) बहगीयो जोयणकोडाकोडीमो उड्ढं दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं माहिदे णामं कप्पे पायीण-पडीणायए एवं जहेब सणंकुमारे (सु. 166 [1]), णवरं अट्ठ विमाणावाससतसहस्सा / वडेंसया जहा ईसाणे (सु. 168 [1]), णवरं मज्झे यऽत्थ माहिंदवडेंसए / एवं सेसं जहा सणंकुमारगदेवाणं (सु. 166) जाव विहरति / _[200-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक माहेन्द्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! माहेन्द्र देव कहाँ निवास करते हैं ? [200-1 उ.] गौतम ! ईशानकल्प के ऊपर समान पक्ष (पार्श्व या दिशा) और समान विदिशा में बहुत योजन, यावत्-- (सू. 166-1 के अनुसार) बहुत कोडाकोड़ी योजन ऊपर दूर जाने पर वहाँ माहेन्द्र नामक कल्प कहा गया है, पूर्व-पश्चिम में लम्बा इत्यादि वर्णन जैसे (सू. 196-1 में) सनत्कुमारकल्प का किया गया है, वैसे इसका भी समझना चाहिए / विशेष यह है कि इस कल्प में विमान आठ लाख हैं। इनके अवतंसक (सू. 198-1 में प्रतिपादित) ईशानकल्प के अवतंसकों के समान जानने चाहिए / विशेषता यह है कि इनके बीच में माहेन्द्रप्रवतंसक है / इस प्रकार शेष सब वर्णन (सू. 166 में वर्णित) सनत्कुमार देवों के समान, यावत् 'विचरण करते हैं', तक समझना चाहिए। [2] माहिदे यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे (सु. 166 [2]) जाव विहरति / गवरं अट्ठण्हं विमाणावाससतसहस्साणं सत्तरीए सामाणियसाहस्सोणं चउण्हं सत्तरोणं आयरक्खदेवसाहस्सोणं जाव (स . 196) विहरइ / [200-2] यहीं देवेन्द्र देवराज माहेन्द्र निवास करता है; जो रज से रहित स्वच्छ-श्वेत वस्त्र-धारक है, इस प्रकार (आगे का समस्त वर्णन सू. 199-2 में उक्त) सनत्कुमारेन्द्र के वर्णन की तरह यावत 'विचरण करता है' तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि माहेन्द्र पाठ लाख विमानावासों का, सत्तर हजार सामानिक देवों का, चार सत्तर हनार अर्थात-दो लाख अस्सी है आत्मरक्षक देवों का-(शेष सू. 166 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' (तक समझना चाहिए / ) 201. [1] कहि गं भंते ! बंभलोगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहिणं भंते ! बंमलोगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! सणकुमार-माहिदाणं कप्गणं उम्पि सपक्खि सपडिदिसि बहूई जोयणाई जाव' (सु. 166 [1]) उध्यइत्ता एस्थ णं बंभलोए णामं कप्पे पाईण-पडीणायए उदोणदाहिणवित्थिण्णे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिते अच्चिमालो-मासरासिप्पभे अवसेसं जहा सणंकुमाराणं (सु. 166 [1]), णवरं चत्तारि विमाणावाससतसहस्सा। वडिसगा जहा सोहम्मवडेंसया (सु. 167 [1]), णवरं मज्झे यऽत्थ बंभलोयवडिसए / एक्थ णं बंभलोगाणं देवाणं ठाणा पन्नत्ता / सेसं तहेव जाव (सु. 166) विहरंति / 1, 'जाव' और 'जहा' शब्द से तत्स्थानीय सारा बीच का पाठ ग्राह्य है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [प्रज्ञापनासूत्र [201-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! ब्रह्मलोक देव कहाँ निवास करते हैं ? 201-1 उ.] गौतम ! सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों के ऊपर समान पक्ष (पार्श्व या दिशा) और समान विदिशा में बहुत योजन यावत् ऊपर दूर जाने पर, वहाँ ब्रह्मलोक नामक कल्प है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का, ज्योतिमाला तथा दीप्ति राशि को प्रभा वाला है। शेष वर्णन, सनत्कुमारकल्प की तरह (सू. 166-1 के अनुसार) समझना चाहिए / विशेष यह है कि (इस कल्प में) चार लाख विमानावास हैं। इनके अवतंसक (स. 197-1 में कथित) सौधर्म-अवतंसकों के समान समझने चाहिए / विशेष यह है कि इन (चारों अवतंसकों) के मध्य में ब्रह्मलोक अवतंसक है; जहाँ कि ब्रह्मलोक देवों के स्थान कहे गए हैं। शेष वर्णन उसी प्रकार (सू. 196 में कथित वर्णन के अनुसार) यावत् 'विचरण करते हैं', तक समझना चाहिए। [2] बंभे यऽथ देविदे देवराया परिवसति प्ररयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणंकुमारे (सु. 166 [2]) जाव विहरति / णवरं चउण्हं विमाणावाससतसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य सट्ठीणं पायरक्खदेवसाहस्सीणं प्रणेसि च बहूणं जाव (सु. 166) विहरति / [201-2] ब्रह्मलोकावतंसक में देवेन्द्र देवराज ब्रह्म निवास करता है; जो रज-रहित स्वच्छ वस्त्रों का धारक है, इस प्रकार जैसे (सू. 196-2 में) सनत्कुमारेन्द्र का वर्णन है, वैसे ही यहाँ यावत् 'विचरण करता है', तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि (यह ब्रह्मन्द्र) चार लाख विमानावासों का, साठ हजार सामानिकों का, चार साठ हजार अर्थात्-दो लाख चालीस हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ब्रह्मलोककल्प के देवों का प्राधिपत्य करता हुआ (इत्यादि शेष वर्णन सू. 166 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (समझना चाहिए।) 202. [1] कहि णं भंते ! लतगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! लंतगदेवा परिवसंति ? गोयमा ! बंभलोगस्स कप्पस्स प्पि सपक्खि सपडिदिसि बहूई जोयणसयाइं जाव (सु. 166 [1]) बहुगोप्रो जोयणकोडाकोडोप्रो उड्डे दूरं उप्पइत्ता एत्थ णं लंतए णामं कप्पे पण्णत्ते पाईणपडीणायए जहा बंभलोए (सु. 201 [1]), णवरं पण्णासं विमाणावाससहस्सा भवंतीति मक्खायं / वडेंसगा जहा ईसाणवडेंसगा (सु. 168 [1]), णवरं माझे यऽथ लंतगवडेंसए / देवा तहेव जाव (सु. 166) विहरति / [202-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त लान्तक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! लान्तक देव कहाँ निवास करते हैं ? 202-1 उ.] गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में अनेक सौ योजन यावत् बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाने पर, लान्तक नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा है; (इत्यादि सब वर्णन) जैसे (सू. 201-1 में) ब्रह्मलोक (कल्प) का (किया गया) है, (उसी तरह यहाँ भी करना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इस कल्प में) पचास Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [181 हजार विमानावास हैं, (इनके) अवंतसक ईशानावतंसकों (सू. 198-1 में उक्त) के समान समझने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के मध्य में (पांचवां) लान्तक अवतंसक है। (सू. 196 में) (जिस प्रकार सामान्य वैमानिक देवों का वर्णन है, उसी प्रकार (लान्तक) देवों का भी यावत् 'विचरण करते हैं,' तक (वर्णन समझना चाहिए / ) [2] लंतए यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे। (सु. 166 [2]) णवरं पण्णासाए विमाणावाससहस्साणं पण्णासाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य पण्णासाणं प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं प्रणेसि च बहूणं जाव (सु. 166) विहरति / [202-2] इस लान्तक अवतंसक में देवेन्द्र देवराज लान्तक निवास करता है, (इसका समग्र वर्णन) (सू. 199.2 में अंकित) सनत्कुमारेन्द्र की तरह (समझना चाहिए !) विशेष यह है कि (लान्तकेन्द्र) पचास हजार विमानावासों का, पचास हजार सामानिकों का, चार पचास हजार अर्थात्-दो लाख आत्मरक्षक देवों का, तथा अन्य बहुत-से लान्तक देवों का आधिपत्य करता हुआ इत्यादि (शेष समग्र वर्णन सू. 196 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (समझ लेना चाहिए।) 203. [1] कहि णं भंते ! महासुक्काणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! महासुक्का देवा परिवसंति ? गोयमा! लंतयस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि जाव (सु. 169 [1]) उपइत्ता एत्थ णं महासुक्के जाम कप्पे पण्णत्ते पायीण-पडीणायए उदीण-दाहिणविस्थिपणे जहा बंभलोए णवरं चत्तालीसं विमाणावाससहस्सा भवंतीति मक्खातं / वडेंसगा जहा सोहम्मवडेंसगा (सु. 167[1]), णवरं मज्झे यऽत्थ महासुक्कवडेंसए जाव (सु. 166) विहरति / [203-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक महाशुक्र देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! महाशुक्र देव कहाँ निवास करते हैं ? [203-1 उ.] गौतम ! लान्तककल्प के ऊपर समान दिशा में (स. 199-1 के आगे का वर्णन) यावत् ऊपर जाने पर, महाशुक्र नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण है, इत्यादि, जैसे (सू. 201-1 में) ब्रह्मलोक का वर्णन है, उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। विशेष इतना ही है कि (इसमें) चालीस हजार विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। इनके अवतंसक (सू. 197-1 में उक्त) सौधर्मावतंसक के समान समझने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के मध्य में (पांचवां) महाशुक्रावतंसक है, (इससे आगे का) यावत् 'विचरण करते हैं, तक (का वर्णन) (सू. 196-1 के अनुसार) (कह देना चाहिए / ) [2] महासुक्के यऽस्थ देविदे देवराया जहा सणंकुमारे (सु. 166 [2]), गवरं चत्तालीसाए विमाणावाससहस्साणं चत्तालोसाए सामाणियसाहस्सीणं चउण्ह य चत्तालीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सीण जाव (सु. 166) विहरति / [203-2] इस महाशुक्रावतंसक में देवेन्द्र देवराज महाशुक्र रहता है, (जिसका सर्व वर्णन सू. 199 में उक्त) सनत्कुमारेन्द्र के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि (वह महाशुक्रेन्द्र) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 ] / प्रज्ञापनासूत्र चालीस हजार विमानावासों का, चालीस हजार सामानिकों का, और चार चालीस हजार, अर्थात् एक लाख साठ हजार आत्मरक्षक देवों का अधिपतित्व करता हुआ.......(आगे का वर्णन सू. 196 के अनुसार) यावत् 'विचरण करता है' तक (समझना चाहिए / ) 204. [1] कहि णं भंते ! सहस्सारदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पणत्ता ? कहि णं भंते ! सहस्सारदेवा परिवसंति ? __ गोयमा ! महासुक्कस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपडिदिसि जाव (स. 166 [1]) उप्पहत्ता एत्थ णं सहस्सारे णामं कप्पे पण्णते पाईण-पडीणायते जहा बंभलोए (सु. 201 [1]), णवरं छविमाणावाससहस्सा भवंतीति मक्खातं / देवा तहेव (स. 197 [1]) जाव बडेंसगा जहा ईसाणस्स वडेंसगा (सु. 168 [1]), णवरं मझे यऽथ सहस्सारवडेंसए जाव (सु. 166) विहरंति / 204-1 प्र.! भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त सहस्रार देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सहस्रार देव कहाँ निवास करते हैं ? 204-1 उ.] गौतम ! महाशुक्र कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् (सू. 199-1 के अनुसार) ऊपर दूर जाने पर, वहाँ सहस्रार नामक कल्प कहा गया है, जो पूर्वपश्चिम में लम्बा है, (इत्यादि समस्त वर्णन) जैसे (सू. 201-1 में) ब्रह्मलोक कल्प का है, (उसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इस सहस्रार कल्प में) छह हजार विमानावास हैं, ऐसा कहा गया है। (सहस्रार) देवों का वर्णन सू. 197.1 के अनुसार यावत् 'अवतंसक हैं' तक उसी प्रकार (पूर्ववत्) कहना चाहिए। इनके अवतंसकों के विषय में ईशान (कल्प) के अवतंसकों की तरह (सू. 198-1 के अनुसार) जानना चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के बीच में (पांचवां) 'सहस्रारावतंसक' समझना चाहिए। (इससे आगे) यावत् 'विचरण करते हैं' तक का भी वर्णन (सू. 196 के अनुसार) जान लेना चाहिए / [2] सहस्सारे यऽत्थ देविदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे (सु. 166 [2]), णवरं छण्हं विमाणावाससहस्साणं तीसाए सामाणियसाहस्सोणं चउण्ह य तीसाए प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं जाव (सु. 166) प्राहेवच्चं कारेमाणे विहरति / [204-2] इसी स्थान पर देवेन्द्र देवराज सहस्रार निवास करता है। (उसका वर्णन) जैसे (सू. 199-2 में) सनत्कुमारेन्द्र का वर्णन है, उसी प्रकार (समझना चाहिए।) विशेष यह है कि (सहस्रारेन्द्र) छह हजार विमानावासों का, तीस हजार सामानिक देवों का और चार तीस हजार, अर्थात् -एक लाख बीस हजार आत्मरक्षक देवों का यावत् (सू. 196 के अनुसार बीच का वर्णन) आधिपत्य करता हुमा विचरण करता है। 205. [1] कहि णं भंते ! प्राणय-पाणयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपरजत्ताणं ठाणा पण्णत्ता ? कहि णं भंते ! प्राणय-पाणया देवा परिवसंति ? गोयमा! सहस्सारस्स कप्पस्स उम्पि सपक्खि सपडिदिसि जाव (सु. 166 [1]) उप्पइत्ता एल्थ णं प्राणय-पाणयनामेणं दुवे कप्पा पण्णत्ता पाईण-पडीणायता उदीण-दाहिणविस्थिण्णा प्रद्धचंद. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद ] [ 183 संठाणसंठिता अच्चिमाली-भासरासिप्पभा, सेसं जहा सणंकुमारे (सु. 166 [1]) जाव पडिरूवा / तत्थ णं प्राणय-पाणयदेवाणं चत्तारि विमाणावाससता भवंतीति मक्खायं जाव पडिरूवा। वडिसगा जहा सोहम्मे (सु. 197 [1]), गवरं मज्झे पाणयव.सए / ते णं बडेंसगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा (सु. 166) / एत्थ णं प्राणय-पाणयदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जात्ताणं ठाणा पण्णत्ता / तिसु वि लोगस्त असंखेज्जइभागे। तस्थ णं बहवे प्राणय-पाणयदेवा परिबसंति महिड्ढीया जाव (सु. 166) पभासेमाणा / ते णं तत्थ साणं साणं विमाणावाससयाणं जाव (सु. 196) विहरंति / [205-1 प्र. भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक आनत एवं प्राणत देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! प्रानत-प्राणत देव कहाँ निवास करते हैं ? [205-1 उ.] गौतम ! सहस्रार कल्प के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में, (इत्यादि सू. 199-1 के अनुसार) यावत् ऊपर दुर जा कर, यहाँ अानत एवं प्राणत नाम के दो कल्प कहे गए हैं; जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित, ज्योतिमाला और दीप्तिराशि की प्रभा के समान हैं, शेष सब वर्णन (स. 199-1 में उक्त) सनत्कुमारकल्प के वर्णन की तरह यावत् प्रतिरूप हैं, तक (समझना चाहिए।) उन कल्पों में आनत और प्राणत देवों के चार सौ विमानावास हैं, ऐसा कहा है; विमानावासों का वर्णन यावत् प्रतिरूप हैं, तक पूर्ववत् कहना चाहिए। जिस प्रकार सौधर्मकल्प के अवतंसक सू. 197-1 में कहे हैं, इसी प्रकार इनके अवतंसक कहने चाहिए। विशेष यह है कि इन (चारों) के बीच में (पांचवां) प्राणतावतंसक है / वे अवतंसक पूर्णरूप से रत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, (बीच का वर्णन सू. 196 के अनुसार) यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक कहना चाहिए / इन (अवतंसकों) में पर्याप्त-अपर्याप्त पानत-प्राणत देवों के स्थान कहे गए हैं / ये स्थान तीनों अपेक्षाओं से, लोक के असंख्यातवें भाग में हैं; जहाँ बहुत-से आनत-प्राणत देव निवास करते हैं, जो महद्धिक हैं, यावत् (बीच का पाठ सू. 196 के अनुसार) 'प्रभासित करते हुए' तक समझ लेना चाहिए / वे (मानत-प्राणत देव) वहाँ अपने-अपने सैकड़ों विमानों का यावत् प्राधिपत्य करते हुए विचरते हैं। [2] पाणए यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति जहा सणंकुमारे (सु. 169 [2]), णवरं चउण्हं विमाणावाससयाणं वीसाए सामाणियसाहस्तीणं असीतीए आयरक्खदेवसाहस्सोणं अण्णेसि च बहूणं जाव (सु. 166) विहरति / [205-2] यहीं देवेन्द्र देवराज प्राणत निवास करता है, जिस प्रकार (सू. 199-2 में) सनत्कुमारेन्द्र का वर्णन है, (तदनुसार यहाँ भी प्राणतेन्द्र का समझना चाहिए।) विशेष यह है कि (यह प्राणतेन्द्र) चार सौ विमानावासों का, बीस हजार सामानिक देवों का तथा अस्सी हजार प्रात्मरक्षकदेवों का एवं अन्य बहुत-से देवों का अधिपतित्व करता हुआ यावत् 'विचरण करता है' तक (का वर्णन सू. 196 के अनुसार समझना चाहिए / ) 206. [1 / कहि णं भंते ! धारण-उच्चुताणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जाणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! पारण-ऽच्चुता देवा परिवसंति ? गोयमा ! प्राणय-पाणयाणं कप्पाणं उपि सपक्खि सपडिदिसि एत्य णं पारणऽच्चुया णाम दुवे Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [प्रज्ञापनासूत्र कप्पा पण्णत्ता, पाईण-पडीणायया उदोण-दाहिणवित्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिता अच्चिमालीभासरासिवण्णप्पभा प्रसंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीग्रो प्रायामविक्खंभेणं असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीनो परिक्खेवेण सव्वरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा, एस्थ णं पारण-ऽच्चुताण देवाणं तिनि विमाणावाससता हवंतीति मक्खायं / ते णं विमाणा सम्धरयणामया अच्छा साहा लण्हा घट्टा मट्टा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सध्यभा सस्सिरीया सउज्जोता पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा / तेसिणं विमाणाणं बहुमज्झदेसभाए पंच वडेंसगा पण्णता, तं जहा-अंकवडेंसए 1 फलिहब.सए 2 रयणवडेंसए 3 जायरूववडेंसए 4 मज्झे यऽथ अच्चुतवडेंसए 5 / ते णं वडेंसया सव्वरयणामया जाब (सु. 206 [1]) पडिरूवा / एत्थ णं आरणऽच्चुयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता / तिसुवि लोगस्स असंखेज्जइभागे / तत्य णं बहवे पारणऽच्चुता देवा जाव (सु. 166) विहरंति / [206-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पारण और अच्युत देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! प्रारण और अच्युत देव कहाँ निवास करते हैं ? [206-1 उ.] गौतम ! अानत-प्राणत कल्पों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में, यहाँ पारण और अच्युत नाम के दो कल्प कहे गए हैं, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण हैं, अर्द्धचन्द्र के आकार में संस्थित और अचिमाली (सूर्य) की तेजोराशि के समान प्रभा वाले हैं। उनकी लम्बाई-चौड़ाई असंख्यात कोटा-कोटी योजन तथा परिधि भी असंख्यात कोटा-कोटी योजन की है। वे विमान पूर्णतः रत्नमय, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए तथा चिकने किये हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण कान्ति से युक्त, प्रभामय, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रसन्नताउत्पादक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप (अतीव सुन्दर) हैं। उन विमानों के ठीक मध्यदेशभाग में पांच अवतंसक कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. अंकावतंसक, 2. स्फटिकावतंसक, 3. रत्नावतंसक, 4. जातरूपावतंसक और इन चारों के मध्य में 5. अच्युतावतंसक है / ये अवतंसक सर्वरत्नमय हैं, (तथा सू. 206-1 में कहे अनुसार) यावत् प्रतिरूप हैं / इनमें पारण और अच्युत देवों के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / इनमें बहुत-से पारण और अच्युत देव यावत् (सू. 196 के वर्णन के अनुसार) विचरण करते हैं। [2] अच्चुते यऽस्थ देविदे देवराया परिवसति जहा पाणए (सु. 205[2]) जाव विहरति / णवरं तिण्हं विमाणावाससताणं दसण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तालीसाए प्रायरक्खदेवसाहस्सोणं आहेवच्चं कुब्वमाणे जाव (सु. 196( विहरति / बत्तीस अट्ठवीसा बारस अट्ट चउरो सतसहस्सा। पण्णा चत्तालीसा छ च्च सहस्सा सहस्सारे // 154 // प्राणय-पाणकप्पे चत्तारि सयाऽऽरण-उच्चुए तिन्नि / सत्त विमाणसयाई चउसु वि एएसु कप्पेसु // 15 // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [ 185 सामाणियसंगहणीगाहा चउरासीइ 1 असीई 2 बावत्तरि 3 सत्तरी य 4 सट्ठी य 5 / पण्णा 6 चत्तालीसा 7 तीसा 8 वीसा 6-10 दस सहस्सा 11-12 // 156 / / एते चेव प्रायरक्खा चउगुणा / [206-2] यहीं अच्युतावतंसक में देवेन्द्र देवराज अच्युत निवास करता है। इसका सारा वर्णन (सू. 205-2 में अंकित) प्राणत की तरह, यावत् विचरण करता है, तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि अच्युतेन्द्र तीन सौ विमानावासों का, दस हजार सामानिक देवों का तथा चालीस हजार प्रात्मरक्षक देवों का आधिपत्य करता हुआ यावत् विचरण करता है। (द्वादश कल्प-विमानसंख्या-संग्रहणीगाथामों का अर्थ---क्रमशः) 1. बत्तीस लाख, 2. अट्ठाईस लाख, 3. बारह लाख, 4. पाठ लाख, 5. चार लाख, 6. पचास हजार, 7. चालीस हजार, 8. सहस्रारकल्प में छह हजार, 6-10. आनत-प्राणत कल्पों में चार सौ, तथा 11-12 आरण-अच्युत कल्पों में तीन सौ विमान होते हैं। अन्तिम इन चार कल्पों में (कुल मिला कर 400+300 =700) सात सौ विमान होते हैं // 154-155 / / / (द्वादशकल्प) सामानिक (संख्या)-संग्रहणीगाथा (का अर्थ-) 1. चौरासी हजार, 2. अस्सी हजार, 3. बहत्तर हजार, 4. सत्तर हजार, 5. साठ हजार, 6. पचास हजार, 7. (महाशुक्र में) चालीस हजार, 8. (सहस्रार में) तीस हजार, 9-10, बीस हजार, 11-12. (आरण-अच्युत में) दस हजार (क्रमशः हैं / ) // 156 // इन्हीं बारह कल्पों के प्रात्मरक्षक इन (सामानिकों) से (क्रमश:) चार-चार गुने हैं। 207. कहि णं भंते ! हेट्ठिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! हेडिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा! प्रारणच्चुताणं कप्पाणं अपि जाव (सु. 206[1]) उड्ढे दूरं उप्पइत्ता एस्थ णं हेटिमगेवेज्जगाणं देवाणं तमो गेवेज्जगविमाणपत्थडा पण्णता पाईण. पडीणायया उदीण-दाहिणविस्थिण्णा पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिता अच्चिमाली-मासरासिवण्णाभा सेसं जहा बंभलोगे जाव (सु. 201[1]) पडिरूवा। तत्थ णं हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं एक्कारसुत्तरे विमाणावाससते हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा सव्वरयणामया जाव (सु. 206[1]) पडिरूवा / एत्थ णं हेट्ठिमगेवेज्जगाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखिज्जइभागे / तत्थ गं बहवे हेट्ठिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति सम्वे समिड्ढिया सब्वे समज्जतीया सन्चे समजसा सम्वे समबला सव्वे समाणुभावा महासोक्खा अणिदा अप्पेस्सा अपुरोहिया अहमिदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो ! / [207 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त अधस्तन ग्रेवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! अधस्तन ग्रं वेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? [207 उ.] गौतम ! आरण और अच्युत कल्पों के ऊपर यावत् (सू. 206-1 के अनुसार) ऊपर दूर जाने पर अधस्तन-ग्न वेयक देवों के तीन वेयक-विमान–प्रस्तट कहे गए हैं; जो पूर्व Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [प्रज्ञापनासूत्र पश्चिम में लम्बे और उत्तर-दक्षिण में विस्तीर्ण हैं। वे परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार में संस्थित हैं, सूर्य की तेजोराशि के वर्ण की-सी प्रभा वाले हैं, शेष वर्णन (सू. 201-1 में अंकित) ब्रह्मलोक-कल्प के समान यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक (समझना चाहिए।) उनमें अधस्तन ग्रेवेयक देवों के एक-सौ ग्यारह विमान हैं, ऐसा कहा गया है। वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय हैं, (इत्यादि सब वर्णन) यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक (सू. 206-1 के अनुसार समझना चाहिए।) यहाँ पर्याप्तक और अपर्याप्तक अधस्तन-वेयक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। उनमें बहत-से अधस्तन-गवेयक देव निवास करते हैं, वे सब समान ऋद्धि वाले, सभी समान द्युति वाले, सभी समान यशस्वी, सभी समान बली, सब समान अनुभाव (प्रभाव) वाले, महासुखी, इन्द्र रहित, प्रेष्य (दास) रहित, पुरोहितहीन हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो! वे देवगण 'अहमिन्द्र' नाम से कहे गए हैं। 206. कहि णं भंते ! मज्झिमगाणं गेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता? कहि णं भंते ! मज्झिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! हेट्ठिमगेवेज्जगाणं उपि सपक्खि सपडिदिसि जाव (सु. 206 [1]) उप्पइत्ता एत्थ गं मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं तमो गेविज्जगविमाणपत्थडा पण्णता / पाईण-पडीणायता जहा हेटुिमगेवेज्जगाणं गवरं सत्तुत्तरे बिमाणावाससते हवंतीति मक्खातं / ते णं विमाणा जाव (सु. 206 [1]) पडिरूवा / एत्थ णं मज्झिमगेवेज्जगाणं देवाणं जाव (सु. 207) तिसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे / तत्थ णं बहवे मज्झिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति जाव (सु. 207) प्रहमिदा नाम ते देवगणा पण्णता समणाउसो ! / [208 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक मध्यम वेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! मध्यम ग्रेवेयक देव कहाँ रहते हैं ? [208 उ.] गौतम ! अधस्तन वेयकों के ऊपर समान दिशा और समान विदिशा में यावत् ऊपर दूर जाने पर, मध्यम ग्रेवेयक देवों के तीन ग्रेवेयकविमान-प्रस्तट कहे गए हैं; जो पूर्वपश्चिम में लम्बे हैं, इत्यादि वर्णन जैसा अधस्तन ग्रंवेयकों का (सू. 207 में) कहा गया है, वैसा ही यहाँ कहना चाहिए। विशेष यह है कि (इनके) एक सौ सात विमानावास कहे गये हैं। वे विमान (विमानावास) (सू. 206-1 के अनुसार) यावत् 'प्रतिरूप हैं' तक (समझने चाहिए।) यहाँ (इन विमानावासों में) पर्याप्त और अपर्याप्त मध्यम-वेयक देवों के स्थान कहे गए हैं / (ये स्थान) तीनों (पूर्वोक्त) अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं / वहाँ बहुत-से मध्यम प्रैवेयकदेव निवास करते हैं (इत्यादि शेष वर्णन सू. 207 के अनुसार) यावत् हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे गए हैं; (तक समझना चाहिए।) 206. कहि णं भंते ! उरिमगेबेज्जगदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता? कहि णं भंते ! उरिमगेवेज्जगा देवा परिवसंति ? गोयमा ! मज्झिमगेवेज्जगदेवाणं उप्पि जाव (सु. 206 [1]) उप्पइत्ता एस्थ णं उरिमगेवेज्जगाणं देवाणं तमो गेविज्जगविमाणपत्थडा पण्णता पाईण-पडीणायता सेसं जहा हेदिमगेविज्जगाणं Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [157 (सु. 207), नवरं एगे विमाणावाससते भवंतीति मक्खातं / सेसं तहेव भाणियव्वं (सु. 207) जाव प्रहमिदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! / एक्कारसुत्तरं हेटिमेसु सत्तुत्तरं च मज्झिमए / सयमेगं उबरिमए पंचेव अणुत्तरविमाणा // 157 / / [206 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त और अपर्याप्त उपरितन ग्रेवेयक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! उपरितन नैवेयक देव कहाँ निवास करते हैं ? 206 उ.] गौतम ! मध्यम वेयकों के ऊपर यावत् (सू. 206-1 के अनुसार) दूर जाने पर, वहाँ उपरितन ग्रेवेयक देवों के तीन ग्रेवेयक विमान प्रस्तट कहे गए हैं, जो पूर्व-पश्चिम में लम्बे हैं; शेष वर्णन (सू. 207 में कथित) अधस्तन ग्रेवेयकों के समान (जानना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इनके) विमानावास एक सौ होते हैं, ऐसा कहा है। शेष वर्णन (जैसा सु. 207 में कहा गया है,) वैसा हो यहाँ यावत् हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे गए हैं; तक कहना चाहिए / [विमानसंख्याविषयक संग्रहणी गाथार्थ-] अधस्तन ग्रेवेयकों में एक सौ ग्यारह, मध्यम ये वेयकों में एक सौ सात, उपरितन के ग्रेवेयकों में एक सौ और अनुत्तरोपपातिक देवों के पांच ही विमान हैं / / 157 // 210. कहि णं भंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णता ? कहि गं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाप्रो भूमिभागाओ उद्धं चंदिम-सूरिया गह-नक्खत्त-तारारूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई जोयणसतसहस्साई बहुगीनो जोयणकोडीमो बहुगीग्रो जोयणकोडाकोडोप्रो उड्ढे दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिदबंभलोय-लंतग-सुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणय-आरण-अच्चुयकप्पा तिणि य अद्वारसुत्तरे गेविज्जविमाणावाससते वीतीवतित्ता तेण परं दूरं गता णोरया निम्मला वितिमिरा विसुद्धा पंचदिसि पंच अणुत्तरा महतिमहालया विमाणा पण्णत्ता। तं जहा-विजये 1 वेजयंते 2 जयंते 3 अपराजिते 4 सम्वट्ठसिद्ध 5 / ते णं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, तस्थ णं अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पण्णत्ता। तिसु वि लोगस्स असंखेज्जतिभागे। तत्थ णं बहवे अणुत्तरोववाइया देवा परिवसंति सम्वे समिडिया सव्वे समबला सवे समाणुभावा महासोक्खा अणिदा अपेस्सा अपुरोहिता अहमिदा णामं ते देवगणा पण्णत्ता समणाउसो! / [210 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? अनुत्तरौपपातिक देव कहाँ निवास करते हैं ? Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [ प्रज्ञापनासूत्र [210 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अत्यधिक सम एवं रमणीय भूभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देवों के अनेक सौ योजन, अनेक हजार योजन, अनेक लाख योजन, बहुत करोड़ योजन और बहुत कोटाकोटी योजन ऊपर दूर जाकर, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, प्रारण और अच्युत कल्पों तथा तीनों ग्रे वेयकप्रस्तटों के तीन सौ अठारह विमानवामों को पार (उल्लंघन) करके उससे आगे सुदूर स्थित, पांच दिशाओं में रज से रहित, निर्मल , अन्धकाररहित एवं विशुद्ध बहुत बड़े पांच अनुत्तर (महा) विमान कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं--१. विजय, 2. वैजयन्त, 3. जयन्त, 4. अपराजित और 5. सर्वार्थसिद्ध / वे विमान पूर्णरूप से रत्नमय, स्फटिकसम स्वच्छ, चिकने, कोमल, घिसे हुए, चिकने किये हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, निरावरण छायायुक्त, प्रभा से युक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतयुक्त, प्रसन्नताकारक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। वहीं पर्याप्त और अपर्याप्त अनुत्तरोपपातिक देवों के स्थान कहे गए हैं। (ये स्थान) तीनों अपेक्षाओं से लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। वहाँ बहुत-से अनुतरोपपातिक देव निवास करते हैं। हे आयुष्मन् श्रमणो ! वे सब समान ऋद्धिसम्पन्न सभी समान बली, सभी समान अनुभाव (प्रभाव) वाले, महासुखी, इन्द्ररहित, प्रेष्यरहित, पुरोहितरहित हैं। वे देवगण 'अहमिन्द्र' कहे जाते हैं। विवेचन-सर्व धैमानिक देवों के स्थानों को प्ररूपणा–प्रस्तुत पन्द्रह सूत्रों (सू. 196 से 210 तक) में सामान्य वैमानिकों से ले कर सौधर्मादि विशिष्ट कल्पोपपन्नों एवं नो ग्रैवेयक तथा पंच अनुत्तरोपपातिकरूप कल्पातीत वैमानिकों के स्थानों, विमानों, उनकी विशेषताओं, वहाँ बसने वाले देवों, इन्द्रों, अहमिन्द्रों आदि सबका स्फुट वर्णन किया गया है। __सामान्य वैमानिकों को विमानसंख्या सौधर्म आदि विशिष्ट कल्पोपपन्न वैमानिकों के क्रमश: बत्तीस, अट्ठाईस, बारह, पाठ, चार लाख विमान प्रादि ही कुल मिला कर 84 लाख 97 हजार 23 विमान, सामान्य वैमानिकों के होते हैं। द्वादश कल्पों के देवों के पृथक-पृथक् मुकटचिह्न-१. सौधर्म देवों के मुकुट में मृग का, 2. ऐशान देवों के मुकुट में महिष (भैंसे) का, 3. सनत्कुमार देवों के मुकुट में वराह (शूकर) का, 4. माहेन्द्र देवों के मुकुट में सिंह का, 5. ब्रह्मलोक देवों के मुकुट में छगल (बकरे) का, 6. लान्तक देवों के मुकुट में दर्दुर (मेंढक) का, 7. (महा) शुक्रदेवों के मुकुट में अश्व का, 8. सहस्रारकल्पदेवों के मुकुट में गजपति का, 9. पानतकल्पदेवों के मुकुट में भुजग (सर्प) का, 10. प्राणतकल्पदेवों के मुकुट में खङ्ग (वन्य पशु या मेंडे) का, 11. आरणकल्पदेवों के मुकुट में वृषभ (बैल) का और 12. अच्युतकल्पदेवों के मुकुट में विडिम का' चिह्न होता है। सक्खि सपडिदिसि को व्याख्या-जिनके पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिणरूप पक्ष अर्थात् पार्श्व समान हैं, वे 'सपक्ष' यानी समान दिशा वाले कहलाते हैं तथा जहाँ प्रतिदिशाएँ-विदिशाएँ समान हैं, वे 'सप्रतिदिश' कहलाते हैं / 2 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 100 2. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 105 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [189 द्वितीय स्थानपद कल्पों के अवतंसकों का रेखाचित्र कल्प का नाम मध्य में पूर्वदिशा में | दक्षिण दिशा में पश्चिमदिशा में उत्तरदिशा में | सौधर्मकल्प सौधर्मावतंसक अशोकावतंसक सप्तपर्णावतंसक चम्पकावतंसक चतावतंसक | सनत्कुमारकल्प सनत्कुमारावतंसक | ब्रह्मलोककल्प ब्रह्मलोकावतंसक | महाशुक्रकल्प महाशुक्रावतंसक | (मानत) प्राणतकल्प प्राणतावतंसक ईशानकल्प ईशानावतंसक अंकावतंसक स्फटिकावतंसक | रत्नावतंसक जातरूपावतंसक माहेन्द्रकल्प माहेन्द्रावतंसक लान्तककल्प लान्तकावतंसक | सहस्रारकल्प सहस्रारावतंसक (11) (प्रारण) अच्युतकल्प अच्युतावतंसक 'अणिदा' प्रादि शब्दों को व्याख्या-णिदा' = जिन देवों के कोई इन्द्र यानी अधिपति नहीं है, वे अनिन्द्र / 'प्रपेस्सा'—जिनके कोई दास या भृत्य नहीं है, वे अप्रेष्य / 'अपुरोहिया'—जिनके कोई पुरोहित-शान्तिकर्म करने वाला नहीं होता, वे अपुरोहित हैं, क्योंकि इन कल्पातीत देवलोकों को किसी प्रकार की अशान्ति नहीं होती। 'प्रहमिदा' = 'अहमिन्द्र', जिनमें सबके सब स्वयं इन्द्र हों, वे अहमिन्द्र कहलाते हैं।' तात्पर्य यह है कि बारह कल्पों में जैसा स्वामी-सेवक आदि का भेद होता है, वैसा भेद नवअवेयकों एवं अनुत्तरविमानों के देवों में नहीं है / वहाँ के सभी देवों को ऋद्धि प्रादि समान है, अतएव सभी अपने को इन्द्र-जैसा (स्वाधीन) अनुभव करते हैं / हाँ, सर्वार्थसिद्ध विमान को छोड़ कर उनकी आयु में अन्तर हो सकता है। 211. कहि णं भंते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णता ? कहि णं भंते ! सिद्धा परिवसंति ? गोयमा ! सम्वट्ठसिद्धस्स महाविमाणस्स उबरिल्लानो थूभियग्गाम्रो दुवालस जोयणे उड्ढं प्रबाहाए एत्थ णं ईसीपब्भारा णामं पुढवी पण्णत्ता, पणतालीसं जोयणसतसहस्साणि प्रायाम१. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 105-106 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 / [ प्रज्ञापनासून विक्खंभेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च सतसहस्साई तीसं च सहस्साई दोणि य अउणापण्णे जोयणसते किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ता। ईसीपम्भाराए णं पुढवीए बहुमज्झदेसमाए पट्टजोयणिए खेत्ते अट्ट जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते, ततो अणंतरं च णं माताए माताए पएसपरिहाणीए परिहायमाणी परिहायमाणो सब्वेसु चरिमंतेसु मच्छियपत्तातो तणुययरी अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं बाहरूलेणं पण्णत्ता। ईसीपल्भाराए णं पुढबीए दुवालस नामधिज्जा पण्णत्ता / तं जहा-ईसी ति वा 1 ईसीपभारा इ वा 2 तणू ति वा 3 तणुतणू ति वा 4 सिद्धी ति वा 5 सिद्धालए ति वा 6 मुत्ती इ वा 7 मुत्तालए ति वा 8 लोयग्गे इ वा 6 लोयग्गभिया ति वा 10 लोयग्गपडिवुझणा इ वा 11 सन्वपाण-भूतजोवसत्तसुहावहा इ वा 12 / ईसीपब्भारा णं पुढवी सेता संखदलविमलसोस्थिय-मुणाल-दगरय-तुसार-गोक्खीर-हारवण्णा उत्ताणय छत्तसंठाणसंठिता सव्वज्जुणसुवण्णमई अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पका निक्कंकडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोता पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा / ईसीपम्भाराए णं सीताए जोयणम्मि लोगतो। तस्स णं जोयणस्स जे से उरिल्ले गाउए तस्स णं गाउयस्स जे से उरिल्ले छमागे एत्य णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपज्जवसिता अणेगजाति-जरामरण-जोणिसंसारकलंकलीभाव-पुणभवगम्भवासवसहीपवंचसमतिक्कता सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठति / तत्थ विय ते अवेदा अवेदणा निम्ममा प्रसंगा य / संसारविष्यमुक्का पदेसनिव्वत्तसंठाणा // 18 // कहि पडिहता सिद्धा? कहिं सिद्धा पइद्विता? / कहिं बोंदि चइत्ता गं ? कहिं गंतूण सिज्झई ? // 156 / / प्रलोए पडिहता सिद्धा, लोयम्गे य पइटिया। इह बोंदि चइत्ता णं तत्थ गंतूण सिज्झई // 16 // दोहं वा हस्सं वा जं चरिमभवे हवेज्ज संठाणं / तत्तो तिभागहीणा सिद्धाणोगाहणा भणिया // 161 // जं संठाणं तु इहं भवं चयंतस्स चरिमसमयम्मि / पासी य पदेसघणं तं संठाणं तहिं तस्स // 162 // तिण्णि सया तेत्तीसाधणुत्तिभागो य होति बोधब्बो। एसा खलु सिद्धाणं उक्कोसोगाहणा भणिया // 163 / / चत्तारि य रयणीप्रो रयणितिभागूणिया य बोद्धब्बा। एसा खलु सिद्धाणं मज्झिम प्रोगाहणा भणिया / / 164 / / एगा य होइ रयणी अद्वैव य अंगुलाई साहीया / एसा खलु सिद्धाणं जहण्ण प्रोगाहणा भणिता // 16 // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद [191 प्रोगाहणाए सिद्धा भवत्तिमागेण होंति परिहीणा / संठाणमणित्थंथं जरा-मरणविप्पमक्काणं // 166 // जस्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुषका / अण्णोण्णसमोगाढा पुट्ठा सम्वे वि लोयंते // 167 / / फुसइ प्रणते सिद्ध सम्यपएसेहि नियमसो सिद्धा। ते वि असंखेज्जगुणा देस-पदेसेहि जे पुट्ठा // 16 // प्रसरीरा जीवघणा उवउत्ता दंसणे य नाणे य / सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं / / 166 // केवलणाणुवउत्ता जाणंती सव्वभावगुण-मावे / पासंति सव्वतो खलु केवलट्ठिीहऽणंताहिं // 17 // न वि अस्थि माणुसाणं तं सोक्खं न वि य सव्वदेवाणं / जं सिद्धाणं सोक्खं अम्बाबाहं उवगयाणं // 17 // सुरगणसुहं समत्तं सम्वद्धापिडितं प्रणतगुणं / ण वि पावे मुत्तिसुहं गंताहिं वि वग्गवग्गृहि // 172 / / सिद्धस्स सुहो रासी सव्वद्धापिडितो जइ हवेज्जा / सोऽणंतवग्गभइतो सव्वागासे ण माएज्जा // 173 // जह णाम कोइ मेच्छो जगरगुणे बहुविहे वियाणंतो। न चएइ परिकहेउं उवमाए तहिं असंतोए / / 174 / / इय सिद्धाणं सोक्खं प्रणोवम, णस्थि तस्स प्रोवम्म / किचि विसेसेणेत्तो सारिक्खमिणं सुणह वोच्छं / / 17 / / जह सम्वकामगुणितं पुरिसो भोत्तण भोयणं कोइ। तण्हा-छुहाविमुक्को प्रच्छेज्ज जहा अमियतित्तो // 176 // इय सव्वकालतित्ता अतुलं व्याणमुवगया सिद्धा। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 177 / / सिद्ध त्ति य बुद्ध त्ति य पारगत त्ति य परंपरगत त्ति / उम्मुक्ककम्मकवया अजरा अमरा प्रसंगा य // 17 // णित्थिन्नसव्वदुक्खा जाति-जरा-मरणबंधणविमुक्का / प्रवाबाहं सोक्खं अणुहुंती सासयं सिद्धा // 17 // // पण्णवणाए भगवईए बिइयं ठाणपयं समत्तं / / 1. [ग्रन्थाग्रम् 1500] 2. ग्रन्थाग्रम् 1520] Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [ प्रज्ञापनासूत्र [211 प्र.] भगवन् ! सिद्धों के स्थान कहाँ कहे गए हैं ? भगवन् ! सिद्ध कहाँ निवास करते हैं ? [211 उ.] गौतम ! सर्वार्थसिद्ध महाविमान की ऊपरी स्तूपिका के अग्रभाग से बारह योजन ऊपर बिना व्यवधान के, ईषत्प्राग्भारा नामक पृथ्वी कही है, जिसकी लम्बाई-चौड़ाई पैंतालीस लाख योजन है / उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख, तीस हजार, दो सौ उनचास योजन से कुछ अधिक है। ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी के बहुत (एकदम) मध्यभाग में (लम्बाई-चौड़ाई में) आठ योजन का क्षेत्र है, जो पाठ योजन मोटा (ऊँचा) कहा गया है। उसके अनन्तर (सभी दिशाओं और विदिशाओं में)' मात्रा-मात्रा से प्रर्थात्-अनुक्रम से प्रदेशों की कमी होते जाने से, हीन (पतली) होती-होती वह सबसे अन्त में मक्खी के पंख से भी अधिक पतली, अंगुल के असंख्यातवें भाग मोटी कही गई है। ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी के बारह नाम कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) ईषत्, (2) ईषत्प्रारभारा, (3) तनु, (4) तनु-तनु, (5) सिद्धि, (6) सिद्धालय, (7) मुक्ति, (8) मुक्तालय (9) लोकाग्र, (10) लोकाग्र-स्तुपिका, या (11) लोकाग्रप्रतिवाहिनी (बोधना) और (12) सर्वप्राण-भूत-जीव-सत्त्वसुखावहा / / ईषत्प्राग्भारा-पृथ्वी श्वेत है, शंखदल के निर्मल चूर्ण के स्वस्तिक, मृणाल, जलकण, हिम, गोदुग्ध तथा हार के समान वर्ण वाली, उत्तान (उलटे किये हुए) छत्र के आकार में स्थित, पूर्णरूप से अर्जुनस्वर्ण के समान श्वेत, स्फटिक-सी स्वच्छ, चिकनी, कोमल, घिसी हुई, चिकनी की हुई (मृष्ट), निर्मल, निष्पंक, निरावरण छाया (कान्ति) युक्त, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, उद्योतमय, प्रसन्नताजनक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप (सर्वांगसुन्दर) है। ईषत्प्रारभारा-पृथ्वी से निःश्रेणीगति से एक योजन पर लोक का अन्त है / उस योजन का जो ऊपरी गम्यूति है, उस गव्यूति का जो ऊपरी छठा भाग है, वहाँ सादि-अनन्त, अनेक जन्म, जरा, मरण, योनिसंसरण (गमन), बाधा (कलंकली भाव), पुनर्भव (पुनर्जन्म), गर्भवासरूप वसति तथा प्रपंच से अतीत (अतिक्रान्त) सिद्ध भगवान् शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं / / [सिद्धविषयक गाथाओं का अर्थ-] वहाँ (पूर्वोक्त सिद्धस्थान में) भी वे (सिद्ध भगवान्) वेदरहित, वेदनारहित, ममत्वरहित, (बाह्य-प्राभ्यन्तर-) संग (संयोग या आसक्ति) से रहित, संसार (जन्म-मरण) से सर्वथा विमुक्त एवं (प्रात्म) प्रदेशों से बने हुए आकार वाले हैं // 158 // सिद्ध कहाँ प्रतिहत रुक जाते हैं ? सिद्ध किस स्थान में प्रतिष्ठित (विराजमान) हैं ? कहाँ शरीर को त्याग कर, कहाँ जा कर सिद्ध होते हैं ? ||156 / / (आगे) अलोक के कारण सिद्ध (लोकान में) रुके हुए (प्रतिहत) हैं। वे लोक के अग्रभाग (लोकाग्र) में प्रतिष्ठित हैं तथा यहाँ (मनुष्यलोक में) शरीर को त्याग कर वहाँ (लोक के अग्रभाग में) जा कर सिद्ध (निष्ठितार्थ) हो जाते हैं // 160 / / दीर्घ अथवा ह्रस्व, जो अन्तिमभव में संस्थान (आकार) होता है, उससे तीसरा भाग कम सिद्धों की अवगाहना कही गई है / / 161 // Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद इस भव को त्यागते समय अन्तिम समय में (त्रिभागहीन जितने) प्रदेशों से सघन संस्थान (आकार) था, वही संस्थान वहाँ (लोकान में सिद्ध अवस्था में) रहता है, ऐसा जानना चाहिए।॥१६२।। (जिनकी यहाँ पांच सौ धनुष की उत्कृष्ट अवगाहना थी, उनकी वहाँ) तीन सौ तेतीस धनुष और एक धनुष के तीसरे भाग जितनी अवगाहना होती है / यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है / / 163 // (पूर्ण) चार रत्नि (मुण्ड हाथ) और त्रिभागन्यून एक रत्नि, यह सिद्धों की मध्यम अवगाहना कही है, ऐसा समझना चाहिए / / 164 // एक (पूर्ण) रत्नि और आठ अंगुल अधिक जो अवगाहना होती है, यह सिद्धों की जघन्य अवगाहना कही है / / 165 // (अन्तिम) भव (चरम शरीर) से त्रिभाग हीन (कम) सिद्धों की अवगाहन होती है / जरा और मरण से सर्वथा विमुक्त सिद्धों का संस्थान (ग्राकार) अनित्थंस्थ होता है / अर्थात् 'ऐसा है' यह नहीं कहा जा सकता // 166 / / / जहाँ (जिस प्रदेश में) एक सिद्ध है, वहाँ भवक्षय के कारण विमुक्त अनन्त सिद्ध रहते हैं / वे सब लोक के अन्त भाग (सिरे) से स्पृष्ट एवं परस्पर समवगाढ़ (पूर्ण रूप से एक दूसरे में समाविष्ट) होते हैं / / 176 / / एक सिद्ध सर्वप्रदेशों से नियमतः अनन्त सिद्धों को स्पर्श करता(स्पृष्ट हो कर रहता) है / तथा जो देश-प्रदेशों से स्पृष्ट (हो कर रहे हुए) हैं, वे सिद्ध तो (उनसे भी) असंख्यातगुणा अधिक हैं / / 168 / / सिद्ध भगवान् अशरीरी हैं, जीवधन (सघन प्रात्मप्रदेश वाले) हैं तथा ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त (सदैव उपयोगयुक्त) रहते हैं; (क्योंकि) साकार (ज्ञान) और अनाकार (दर्शन) उपयोग होना, यही सिद्धों का लक्षण है / / 166 / / केवलज्ञान से (सदैव) उपयुक्त (उपयोगयुक्त) होने से वे समस्त पदार्थों को, उनके समस्त गुणों और पर्यायों को जानते हैं तथा अनन्त केवलदर्शन से सर्वतः [समस्त-पदार्थों को सर्वप्रकार से) देखते हैं / / 170 // अव्याबाध को प्राप्त (उपगत) सिद्धों को जो सुख होता है, वह न तो (चक्रवर्ती आदि) मनुष्यों को होता है, और न ही (सर्वार्थसिद्धपर्यन्त) समस्त देवों को होता है / / 171 / / देवगण के समस्त सुख को सर्वकाल के साथ पिण्डित (एकत्रित या संयुक्त) किया जाय, फिर उसको अनन्त गुणा किया जाय तथा अनन्त वर्गों से वर्गित किया जाए तो भी वह मुक्ति-सुख को नहीं पा सकता (उसकी बराबरी नहीं कर सकता) // 172 / / एक सिद्ध के (प्रतिसमय के) सुखों की राशि, यदि सर्वकाल से पिण्डित (एकत्रित) की जाए, और उसे अनन्तवर्गमूलों से भाग दिया (कम किया) जाए, तो वह (भाजित = न्यूनकृत) सुख भी (इतना अधिक होगा कि) सम्पूर्ण आकाश में नहीं समाएगा / / 173 / / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [प्रज्ञापनासूत्र जैसे कोई म्लेच्छ (भारण्यक अनार्य) अनेक प्रकार के नगर-गुणों को जानता हुआ भी उसके सामने कोई उपमा न होने से कहने में समर्थ नहीं होता / / 174 / / इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है। उसकी कोई उपमा नहीं है। फिर भी कुछ विशेष रूप से इसकी उपमा (सदृशता) बताऊंगा, इसे सुनो / / 175 / / जैसे कोई पुरुष सर्वकामगुणित भोजन का उपभोग करके प्यास और भूख से विमुक्त हो कर ऐसा हो जाता है, जैसे कोई अमृत से तृप्त हो / वैसे ही सर्वकाल में तृप्त अतुल (अनुपम), शाश्वत, एवं अव्याबाध निर्वाण-सुख को प्राप्त सिद्ध भगवान् (सदैव) सुखी रहते हैं / / 176-177 / वे मुक्त जीव सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, पारगत हैं, परम्परागत हैं, कर्मरूपी कवच से उन्मुक्त हैं, अजर, अमर और प्रसंग हैं। उन्होंने सर्वदुःखों को पार कर दिया है। वे जन्म जरा, मरण के बन्धन से सर्वथा मुक्त, सिद्ध (होकर) अव्याबाध एवं शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं / / 178-179 / / विवेचन-सिद्धों के स्थान प्रादि का निरूपण-प्रस्तुत गाथावहुल सूत्र (सू.२११) में शास्त्रकार ने सिद्धों के स्थान, उसकी विशेषता, उसके पर्यायवाचक नाम, सिद्धों के गुण, अवगाहना सुख तथा उनकी विशेषता आदि का निरूपण किया है। ईषत्प्रागभारा पृथ्वी के अन्वर्थक पर्यायवाची नाम--(१)संक्षेप में कहने के लिए 'ईषत्' नाम है। (2) थोड़ी-सी आगे को झुकी हुई होने से ईषत्प्राग्भरा है। (3) शेष पृथ्वियों की अपेक्षा पतली होने से 'तनु' नाम है / (4) जगत् प्रसिद्ध पतली मक्खी की पांख से भी पतली होने से इसका 'तनुतन्वी' नाम है। (5) सिद्ध क्षेत्र के निकट होने से इसका नाम 'सिद्धि' है, (6) सिद्ध क्षेत्र के निकट होने से उपचार से इसका नाम 'सिद्धालय' भी है। (7-8) इसी प्रकार 'मुक्ति' और 'मुक्तालय' नाम भी सार्थक हैं। (6) लोक के अग्रभाग में स्थित होने से 'लोकान' नाम है। (10) लोकाग्र की स्तूपिकासमान होने से इसका नाम 'लोकाग्रस्तूपिका' भी है 1 (11) लोक के अग्रभाग में होने से उसके आगे जाना रुक जाता है, इसलिए एक नाम 'लोकान-प्रतिवाहिनी' भी है / (12) समस्त प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए निरुपद्रवकारी भूमि होने से 'सर्व प्राण-भूत-जीव-सत्वसुखावहा' नाम भी सार्थक है।' सिद्धों के कुछ विशेषणों की व्याख्या-'सादीया अपज्जवसिता' = सादि-अपर्यवसित-अनन्त / प्रत्येक सिद्ध सर्वकर्मों का सर्वथा क्षय होने पर ही सिद्ध-अवस्था प्राप्त करता है। इस कारण से सिद्ध सादि (आदि युक्त) हैं, किन्तु सिद्धत्व प्राप्त कर लेने पर कभी उसका अन्त नहीं होता, इस कारण उन्हें अपर्यवसित-'अनन्त' कहा है। इस विशेषण के द्वारा 'अनादिशद्ध' / पुरुष की मान्यता का निराकरण किया गया है। सिद्धों के रागद्वेषादि विकारों का समूल विनाश हो जाने के कारण उनका सिद्धत्वदशा से प्रतिपात नहीं होता, क्योंकि पतन के कारण रागादि हैं, जो उनके सर्वथा निर्मूल हो चुके हैं। जैसे बीज के जल जाने पर उससे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही संसारबीजरागद्वेषादि के विनष्ट हो जाने से पुनः संसार में आना और जन्ममरण पाना नहीं होता। इसीलिए उन्हें 'अणेगजाति-जरा-मरण-जोणि-संसार-कलंकलीभाव-पुणभव-गम्भवासवसही-पपंचसमतिकता' कहा गया है। अर्थ स्पष्ट है / अवेदा = सिद्ध भगवान् स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुसकवेद (काम) से अतीत होते हैं। अर्थात्-शरीर का अभाव होने से उनमें द्रव्यवेद नहीं रहता और नोकषायमोहनीय का 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 107 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [195 अभाव हो जाने से भाववेद भी नहीं रहता; इसलिए इन्हें प्रवेदी कहा है। अवेदणा-साता और असातावेदनीय कर्म का अभाव होने से वे वेदना से रहित होते हैं / 'निम्ममा प्रसंगा य' ममत्व से तथा बाह्य एवं प्राभ्यन्तर संग (आसक्ति या परिग्रह) से रहित होने के कारण वे निर्मम और प्रसंग होते हैं / संसारविप्पमुक्का-संसार से वे सर्वथा मुक्त और अलिप्त हैं, ऊपर उठे हुए हैं / पदेसनिव्वत्तसंठाणा-सिद्धों में जो आकार होता है, वह पौद्गलिक शरीर के कारण नहीं होता, क्योंकि शरीर का वहाँ सर्वथा अभाव है, अत: उनका संस्थान (प्राकार) आत्मप्रदेशों से ही निष्पन्न होता है। सम्वकालतित्ता--सर्वकाल यानी सादि-अनन्तकाल तक वे तृप्त हैं, क्योंकि औत्सुक्य से सर्वथा निवृत्त होने से वे परमसंतोष को प्राप्त हैं / 'अतुलं सासयं प्रवाबाहं व्वाणं सुहं पत्ता=सिद्ध भगवान् अतुल-उपमातीत-अनन्यसदृश शाश्वत तथा अव्याबाध (किसी प्रकार की लेशमात्र भी बाधा न होने से) निर्वाण (मोक्ष) संबंधी-सूख को प्राप्त हैं। 'सिद्धत्तिय' -सित यानी बद्ध जो अष्टप्रकारक कर्म. उसे जिन्होंने ध्मात-भस्मोक्रत कर दिया है. वे सिद्ध / सामान्यतया जो कर्म, शिल्प, विद्या, मंत्र, योग, पागम, अर्थ, यात्रा, अभिप्राय, तप और कर्मक्षय, इन सबसे सिद्ध होता है, उसे भी उस-उस विशेषणयुक्त कहते हैं, किन्तु यहाँ इन सबकी विवक्षा न करके एक 'कर्मक्षयसिद्ध' की विवक्षा की गई है / शेष सबको निरस्त करने हेतु 'बुद्ध' शब्द का प्रयोग किया गया है। बुद्ध का अर्थ है----अज्ञाननिद्रा में प्रसुप्त जगत् को स्वयं जिन्होंने तत्त्वबोध देकर जागृत किया है, सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी होने से उनका स्वभाव ही बोधरूप है। परोपदेश के बिना ही केवलज्ञान के द्वारा स्वतः वस्तुस्वरूप या जोवादितत्त्वों को जान लिया है। अर्हन्त भगवान् भी 'बुद्ध' होते हैं, इसलिए विशेषण दिया हैपारगता-जो संसार से या समस्त प्रयोजनों से पार हो चुके हैं / अतएव कृतकृत्य हैं / अक्रमसिद्धों का निराकरण करने के लिए यहाँ कहा गया है-'परंपरगता' =जो परम्परागत हैं। अर्थात्---जो ज्ञानदर्शन-चारित्र रूप परम्परा से अथवा मिथ्यात्व से लेकर यथासंभव चतुर्थ, षष्ठ, आदि गुणस्थानों को पार करके सिद्ध हुए हैं / अमरा=पायुकर्म से सर्वथा रहित होने से वे अजर-अमर हैं। देह के प्रभाव में जन्म, जरा, मरण आदि के बन्धनो से विमुक्त है। जन्मजरामरणादि हो दू:ख रूप है और सिद्ध इन सब दुःखों से पार हो चुके हैं / इसलिए कहा गया है--णित्थिन्नसव्वदुक्खा-जाति-जरा-मरणबंधणो विमुक्का' / सिद्धों के 'असरीरा', व्वाणमुवगया, उम्मुक्ककम्मकवचा, सव्वकालतित्ता आदि विशेषण प्रसिद्ध हैं, इनके अर्थ भी स्पष्ट हैं। _ 'अलोए पडिहता सिद्धा' की व्याख्या-सिद्ध भगवान् लोकाग्र के आगे अलोकाकाश होने से अलोक के कारण प्रतिहत हो (रुक) जाते हैं। गति में निमित्त कारण धर्मास्तिकाय है। वह लोकाकाश में ही है, अलोकाकाश में नहीं होता। इसलिए ज्यों ही आलोकाकाश प्रारम्भ होता है, सिद्धों की गति में रुकावट या जाती है। इस प्रकार वे धर्मास्तिकाय के अभाव के कारण प्रतिहत हो जाते हैं और मनुष्य क्षेत्र का परित्याग करके एक ही समय में अस्पृशद्गति से लोक के अग्रभाग (ऊपरी भाग) में स्थित हो जाते हैं 13 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 108 से 112 तक 2. (क) सितं बद्ध अष्टप्रकारं कर्मध्यातं भस्मीकृतं यैस्ते सिद्धाः / (ख) 'कम्मे सिप्पे य विज्जाए, मते जोगे य आगमे। अत्थजताभिप्पाए, तवे कम्मक्खए इय।।' 3. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. पत्रांक 108 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 ] / प्रज्ञापनासूत्र चरमभव में सिद्धों का संस्थान-अन्तिम भव में जो भी दीर्घ (500 धनुष), ह्रस्व (दो हाथ प्रमाण) अथवा विचित्र प्रकार का मध्यम संस्थान (आकार) उनका होता है, सिद्धावस्था में उससे तीसरा भाग कम आकार (संस्थान) रह जाता है, क्योंकि सिद्धावस्था में मुख, पेट, कान आदि के छिद्र भी भर जाते हैं; आत्मप्रदेश सधन हो जाते हैं / तात्पर्य यह है कि भवपरित्याग से कुछ पहले सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती नाम तीसरे शुक्लध्यान के बल से मुख, उदर आदि के छिद्र भर जाने से जो त्रिभागन्यून संस्थान रह जाता है, वही संस्थान सिद्धावस्था में बना रहता है। सिद्धों की अवगाहना-जिन सिद्धों की चरमभव में अन्तिम समय में 500 धनुष की अवगाहना होती है, उनकी विभागन्यून होने पर 333, धनुष की होती है, यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है / इस सम्बन्ध में एक शंका है, कि जैन इतिहासप्रसिद्ध नाभिकुलकर की पत्नी मरुदेवी सिद्ध हुई हैं। नाभिकुलकर के शरीर की अवगाहना 525 धनुष की थी, और इतनी ही अवगाहना मरुदेवी की थी; क्योंकि प्रागमिक कथन है-'संहनन, संस्थान और ऊंचाई कुलकरों के समान ही समझनी चाहिए।' अतः सिद्धिप्राप्त मरुदेवी के शरीर की अवगाहना में से तीसरा भाग कम किया जाए तो वह 350 धनष सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में ऊपर जो उत्कृष्ट अवगाहना 3331 धनुष बतलाई है, उसके साथ इसकी संगति कैसे बैठेगी? इसका समाधान यह है कि मरुदेवी के शरीर की अवगाहना नाभिराज से कुछ कम होना सम्भव है; क्योंकि उत्तम संस्थान वाली स्त्रियों को अवगाहना उत्तम संस्थान वाले पुरुषों की अवगाहना से अपने अपने समय की अपेक्षा से कुछ कम होती है उक्ति के अनुसार मरुदेवी की अवगाहना 500 धनुष की मानी जाए तो कोई दोष नहीं। इसके अतिरिक्त मरुदेवी हाथी के हौदे पर बैठी-बैठी सिद्ध हुई थी, अतएव उनका शरीर उस समय सिकुड़ा हुआ था। इस कारण अधिक अवगाहना होना संभव नहीं है। इस प्रकार सिद्धों की जो उत्कृष्ट अवगाहना ऊपर कही गई है, उसमें विरोध नहीं पाता। सिद्धों की मध्यम अवगाहना चार हाथ पूर्ण और एक हाथ में विभाग कम है। आगम में जघन्य सात हाथ की अवगाहना वाले जीवों को सिद्धि बताई गई है, इस दृष्टि से यह अवगाहना मध्मम न हो कर जघन्य सिद्ध होती है. इस शंका का समाधान यह है कि सात हाथ की अवगाहना वाले जीवों की जो सिद्धि कही गई है, वह तीर्थंकर की अपेक्षा से समझनी चाहिए। सामान्य केवली तो इससे कम अवगाहना वाले भी सिद्ध होते हैं। ऊपर जो अवगाहना बताई गई है, वह सामान्य की अपेक्षा से ही है, तीर्थंकरों की अपेक्षा से नहीं। सिद्धों की जघन्य अवगाहना एक हाथ और पा की है। यह जघन्य अवगाहना कूर्मापुत्र प्रादि की समझनी चाहिए, जिनके शरीर की अवगाहना दो हाथ की होती है। भाष्यकार ने कहा है—'उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष वालों की अपेक्षा से, मध्यम अवगाहना 10 द्वाथ के शरीर वालों की अपेक्षा से और जघन्य अवगाहना दो हाथ के शरीर वालों की अपेक्षा से कही गई है, जो उनके शरीर से त्रिभागन्यून होती है।' सिद्धों का संस्थान अनियत-जरामरणरहित सिद्धों का आकार (संस्थान) अनित्थंस्थ होता है। जिस प्रकार को इस प्रकार का है, ऐसा न कहा जा सके, वह अनित्थंस्थ----यानी अनिर्देश्य कहलाता है। मुख एवं उदर आदि के छिद्रों के भर जाने से सिद्धों के शरीर का पहले वाला आकार बदल जाता है, इस कारण सिद्धों का संस्थान अनित्थंस्थ कहलाता है, यही भाष्यकार ने कहा है। आगम में जो यह कहा गया है कि 'सिद्धात्मा न दीर्घ हैं, न ह्रस्व हैं' आदि कथन भी संगत हो जाता Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय स्थानपद] [ 197 है। अतः सिद्धों के संस्थान की अनियतता पूर्वाकार की अपेक्षा से है, अाकार का प्रभाव होने के कारण नहीं / क्योंकि सिद्धों में संस्थान का एकान्ततः अभाव नहीं है।' सिद्धों का अवस्थान--जहाँ एक सिद्ध अवस्थित है, वहाँ अनन्त सिद्ध अवस्थित होते हैं / वे परस्पर अवगाढ़ होकर रहते हैं, क्योंकि अमूत्तिक होने से सिद्धों को परस्पर एक दूसरे में समाविष्ट होने में कोई बाधा नहीं पड़ती। जैसे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एक दूसरे में मिले हुए लोक में अवस्थित हैं, इसी प्रकार अनन्त सिद्ध एक ही परिपूर्ण अवगाहनक्षेत्र में परस्पर मिलकर लोक में अवस्थित हैं। वे सभी सिद्ध लोकान्त से स्पृष्ट रहते हैं। नियम से अनन्त सिद्ध प्रात्मा के सर्वप्रदेशों से स्पृष्ट रहते हैं। इसका अर्थ यह है कि अनन्त सिद्ध ऐसे हैं, जो पूर्ण रूप से एक दूसरे से मिले हुए रहते हैं और जिनका स्पर्श देश-(किंचित्) प्रदेशों से है ऐसे सिद्ध तो उनसे भी असंख्यात गुणे अधिक हैं। क्योंकि अवगाढ प्रदेश असंख्यात हैं। सिद्ध, केवलज्ञान से सदैव उपयुक्त-सिद्ध भगवान् के केवलज्ञान-दर्शन का उपयोग सदैव लगा रहता है, इसलिए वे केवलज्ञानोपयुक्त होकर जानते हैं, अन्तःकरण प्रादि से नहीं, क्योंकि वे शुद्ध प्रात्ममय होने से अन्तःकरणादि से रहित हैं। सिद्ध : जीवधन कैसे ?--सिद्धों को जीवधन अर्थात् सघन आत्मप्रदेशों वाला, इसलिए कहा गया है कि सिद्धावस्था प्राप्त करने से पूर्व तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम काल में उनके मुख, उदर आदि रन्ध्र प्रात्मप्रदेशों से भर जाते हैं, कहीं भी आत्मप्रदेशों से वे रिक्त नहीं रहते / / // प्रज्ञापनासूत्र : द्वितीय स्थानपद समाप्त / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 108 से 110 तक (ख) कहं मरुदेवामाणं ? नाभीतो जेण किंचिदूणा सा / तो किर पंचसयच्चिय अहवा संकोचो सिद्धा / / -भाष्यकार (ग) जेट्ठा उ पंचधणुसय-तणुस्स, मज्झा य सत्तहत्थस्स / देहत्तिभागहीणा जहनिया जा बिहत्थस्स // 1 // सत्तूसियं एसु सिद्धी जनप्रो कहमिहं बिहत्येसु ? सा किर तित्थयरेसु, सेयाणं सिझमाणाणं // 2 // ते पुण होज्ज बिहत्था कुम्मापुत्तादयो जहन्ने णं / / अन्ने संवट्टिय सत्तहत्थ सिद्धस्स हीणत्ति // 3 / / -भाष्यकार (घ) सुसिरपरिपूरणायो पुब्वागारबहावबत्थायो / संठाणमणित्थंत्थं जं भणिय मणिययागारं। एतोच्चिय पडिस्सेहो सिद्धाइगुणे सु दीयाईणं / जमणित्थंथं पवागाराबिवखाए नाभावो / / 2 / / -----भाष्य दीहं वा हस्से वा।२. प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 110 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं बहुवत्तव्वयपयं (अप्पाबहुत्तंपयं) तृतीय बहुवक्तव्यपद (अल्पबहुत्वपद) प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह तृतीय पद है, इसके दो नाम हैं-'बहुवक्तव्यपद' और 'अल्पबहुत्वपद' / * तत्त्वों या पदार्थों का संख्या की दृष्टि से भी विचार किया जाता है। उपनिषदों में वेदान्त का दृष्टिकोण बताया है कि विश्व में एक ही तत्त्व-'ब्रह्म' है, समग्र विश्व उसी का 'विवत' या 'परिणाम' है, दूसरी ओर सांख्यों का मत है कि जीव तो अनेक हैं, परन्तु अजीव एक ही है / बौद्धदर्शन अनेक चित्त' और अनेक 'रूप' मानता है। जैनदर्शन में षड्द्रव्यों की दृष्टि से संख्या का निरूपण ही नहीं, किन्तु परस्पर एक दूसरे से तारतम्य, अल्पबहुत्व का भी निरूपण किया गया है / अर्थात् कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है ? इसका पृथक्-पृथक् अनेक पहलुओं से विचार किया गया है / प्रस्तुत पद में यही वर्णन है। ___ इसमें दिशा, गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से लेकर महादण्डक तक सत्ताईस द्वारों के माध्यम से केवल जीवों का ही नहीं. यथाप्रसंग धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का. पदगलास्तिकाय का वर्गीकरण करके उनके अल्प-बहत्व का विचार किया गया है। षटखण्डागम में गति आदि 14 द्वारों से अल्पबहुत्व का विचार है / ' * सर्वप्रथम (सू. 213-224 में) दिशाओं की अपेक्षा से सामान्यतः जीवों के, फिर पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों के, तीन विकलेन्द्रियों के, नैरयिकों के, सप्त नरकों के नैरयिकों के, तिर्यचपंचेन्द्रिय जोवों के, मनुष्यों के, भवनपति-वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिक देवों के पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व का एवं सिद्धों के भी अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। / तत्पश्चात् सू. 225 से 275 तक दूसरे से तेईसवें द्वार तक के माध्यम से नरकादि चारों गतियों के. इन्द्रिय-अनिन्द्रिययुक्त जीवों के, पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के, षटकायिक-अकायिक. अपर्याप्तकपर्याप्तक, पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के, बादर-सूक्ष्मषट्कायिकों के, सयोगी-मनोयोगी-वचनयोगी काययोगी-अयोगी के, सवेदक-स्त्रीवेदक-पुरुषवेदक-नपुंसक वेदक-अवेदकों के, सकषायी-क्रोध 1. (क) पण्णवणासुत्तं भाग-२, प्रस्तावना पृष्ठ 52 (ख) प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पत्रांक 113 (ग) षट्खण्डागम पुस्तक 7, पृ. 520 (घ) प्रज्ञापना.-प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 203 2. पण्णवणासुत्तं भाग-१, पृ. 81 से 24 तक Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यपव: प्राथमिक ] [199 मान-माया-लोभ कषायी-अकषायी के, सलेश्य-षट्लेश्य-अलेश्य जीवों के, सम्यग् मिथ्या-मिश्र दृष्टि के, पांच ज्ञान-तीन अज्ञान से युक्त जीवों के, चक्षुर्दर्शनादि चार दर्शनों से युक्त जीवों के, संयत-असंयत संयतासंयत-नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीवों के, साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्त जीवों के, आहारक-अनाहारक जीवों के, भाषक-अभाषक जीवों के, परीत्त-अपरीत्तनोपरीत्त-नोअपरीत्त जीवों के, पर्याप्त-अपर्याप्त-नोपर्याप्त-नोअपर्याप्तकों के, सूक्ष्म-बादरनोसूक्ष्म-नोबादरों के, संज्ञी-असंज्ञी-नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिकनोभवसिद्धिक-नोप्रभव सिद्धिक जीवों के, धर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यों के द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य-प्रदेश की दृष्टि से पृथक-पृथक् एवं समुच्चय जीवों के, चरम-अचरम जीवों के, जीव पुद्गल-काल-सर्वद्रव्य सर्वप्रदेश-सर्वपर्यायों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है।' * इसके पश्चात् सू. 276 से 323 तक चौबीसवें क्षेत्रद्वार के माध्यम से ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यक् लोक, ऊर्ध्वलोक-तिर्यकलोक, अधोलोक-तिर्यक्लोक एवं त्रैलोक्य में सामान्य जीवों के, तथा नैरयिक, तिर्यचयोनिक पुरुष-स्त्री, मनुष्यपुरुष-स्त्री, देव-देवी, भवनपति देव-देवी, वाणव्यन्तर देव-देवी, ज्योतिष्क देव-देवी, वैमानिक देव-देवी, एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियपर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों के तथा षट्कायिक पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। पच्चीसवें बन्धद्वार (सू. 325) में प्रायुष्यकर्मबन्धक-प्रबन्धक, पर्याप्तक-अपर्याप्तक, सुप्त-जागत, समवहत-असमवहत, सातावेदक-असातावेदक, इन्द्रियोपयुक्त-नोइन्द्रियोपयुक्त, एवं साकारोपयुक्तअनाकारोपयुक्त जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा है / छन्वीसवें पुद्गलद्वार में क्षेत्र और दिशाओं की अपेक्षा से पुद्गलों तथा द्रव्यों का एवं द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से परमाण पुदगलों एवं संख्यात, असंख्यात, और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का तथा एक प्रदेशावगाढ़ संख्यातप्रदेशावगाढ़ एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों का, एकसमयस्थितिक, संख्यातसमयस्थितिक और असंख्यातसमयस्थितिक पुद्गलों का एवं एकगुण काला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला और अनन्तगुण काला आदि पुद्गलों का अल्पबहुत्व प्ररूपित किया गया है। सत्ताईसवें महादण्डकद्वार में समग्रभाव से पृथक्-पृथक् सविशेष जीवों के अल्पबहुत्व का 68 क्रमों में कथन किया गया है। षट्खण्डागम के महादण्डक द्वार में भी सर्वजीवों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। * महादण्डक द्वार में समग्ररूप से जीवों की अल्पबहुत्व-प्ररूपणा की है। इस लम्बी सूची पर से फलित होता है कि उस युग में भी आचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य बताने का प्रयत्न * किया है तथा मनुष्य हो, देव हो या तिर्यंच हो, सभी में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियों की संख्य अधिक मानी गई है। अधोलोक में पहली से सातवीं नरक तक क्रमश: जीवों की संख्या घटती जाती ....------ 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 84 से 101 तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 113 से 168 तक 2. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 101 से 111 तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 2, पृ. 52-53 (प्रस्तावना) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [प्रज्ञापनासून है, जबकि ऊर्वलोक में इससे उलटा क्रम है, वहाँ सबसे ऊपर के अनुत्तर विमानवासी देवों की संख्या सब से कम है, फिर नीचे के देवों में क्रमशः बढ़ते-बढ़ते सौधर्म देवों की संख्या सबसे अधिक बताई गई है / पर मनुष्य लोक के नीचे भवनपति देव हैं, उनकी संख्या सौधर्म से अधिक है, उससे ऊँचे होते हुए भी व्यन्तर तथा ज्योतिष्क देवों की संख्या उत्तरोत्तर अधिक है। सबसे कम संख्या मनुष्यों की है, इसी कारण मनुष्यभव दुर्लभ माना जाता है / जैसे-जैसे इन्द्रियां कम हैं, वैसे-वैसे जीवों की संख्या अधिक होती है, अर्थात् विकसित जीवों की अपेक्षा अविकसित जीवों की संख्या अधिक है। सिद्ध (पूर्णताप्राप्त) जीवों की संख्या एकेन्द्रिय जीवों से कम है। सबसे नीची सातवें नरक में और सर्वोच्च अनुत्तर देवलोक में सबसे कम जीव हैं, इस पर से ध्वनित होता है, जैसे अत्यन्त पुण्यशाली कम होते हैं , वैसे अत्यन्त पापी भी कम हैं।' 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ 54 (ख) पखण्डागम पुस्तक 7, पृ. 575 से Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तइयं बहुवत्तव्वयपयं (अप्पाबहुत्तपयं) तृतीय बहुवक्तव्यतापद (अल्पबहुत्वपद) द्वारसंग्रह-गाथाएँ दिशादि 27 द्वारों के नाम 212. दिसि 1 गति 2 इंदिय 3 काए 4 जोगे 5 वेदे 6 कसाय 7 लेस्सा य 8 / सम्मत्त दणाण 10 दंसण 11 संजय 12 उवयोग 13 प्राहारे 14 // 10 // भासग 15 परित्त 16 पज्जत्त 17 सुहुम 18 सग्णी 16 भवऽथिए 20-21 चरिमे 22 // जीवे य 23 खेत्त 24 बंधे 25 पोग्गल 26 महदंडए 27 चेव // 181 // [212 गाथार्थ-] 1. दिक् (दिशा), 2. गति, 3. इन्द्रिय, 4. काय, 5. योग, 6. वेद, 7. कषाय, 8. लेश्या, 9. सम्यक्त्व, 10. ज्ञान, 11. दर्शन, 12. संयत, 13. उपयोग, 14. पाहार, 15. भाषक, 16. परीत, 17. पर्याप्त, 18. सूक्ष्म, 16. संज्ञी, 20. भव, 21. अस्तिक, 22. चरम, 23. जीव, 24. क्षेत्र, 25. बन्ध, 26. पुद्गल और 27. महादण्डक; (तृतीय पद में ये 27 द्वार हैं, जिनके माध्यम से पृथ्वीकाय आदि जीवों के अल्पबहुत्व को प्ररूपणा की जाएगी) / / 181-182 // प्रथम दिशाद्वार : दिशा की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व 213. दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा जीवा पच्चस्थिमेणं, पुरथिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। [213] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े जीव पश्चिम दिशा में हैं, (उनसे) विशेषाधिक पूर्वदिशा में हैं, (उनसे) विशेषाधिक दक्षिण दिशा में हैं, (और उनसे) विशेषाधिक (जीव) उत्तरदिशा में है। 214. [1] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा पुढविकाइया दाहिणणं, उत्तरेणं विसेसाहिया, पुरस्थिमेणं विसेसाहिया, पच्चस्थिमेणं विसेसाहिया / [214-1] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक जीव दक्षिण दिशा में हैं, (उनसे) उत्तर में विशेषाधिक हैं, (उनसे) पूर्वदिशा में विशेषाधिक हैं, (उनसे भी) पश्चिम में (पृथ्वीकायिक) विशेषाधिक हैं। [2] दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा पाउक्काइया पच्चत्थिमेणं, पुरथिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [ प्रज्ञापनासूत्र [214-2] दिशात्रों की अपेक्षा से सबसे थोड़े अप्कायिक जीव पश्चिम में हैं, उनसे विशेषाधिक पूर्व में हैं, (उनसे) विशेषाधिक दक्षिण में हैं और (उनसे भी) विशेषाधिक उत्तरदिशा में हैं। [3] दिसाणुवाएणं सम्बत्योवा तेउक्काइया दाहिणुत्तरेणं, पुरथिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया। [214-3] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े तेजस्कायिक जीव दक्षिण और उत्तर में हैं, . पूर्व में (उनसे) संख्यातगुणा अधिक हैं, (और उनसे भी) पश्चिम में विशेषाधिक हैं / [4] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा वाउकाइया पुरथिमेणं, पच्चस्थिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया। [214-4] दिशानों की अपेक्षा से सबसे कम वायुकायिक जीव पूर्व दिशा में हैं, उनसे विशेषाधिक पश्चिम में हैं, उनसे विशेषाधिक उत्तर में हैं और उनसे भी विशेषाधिक दक्षिण में हैं। [5] दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया पच्चत्थिमेणं, पुरस्थिमेणं विसे साहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। [214-5] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े वनस्पतिकायिक जीव पश्चिम में हैं, (उनसे) विशेषाधिक पूर्व में हैं, (उनसे) विशेषाधिक दक्षिण में हैं, (और उनसे भी) विशेषाधिक उत्तर में हैं। 215. [1] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा बेइंदिया पच्चस्थिमेणं, पुरस्थिमेणं विसेसाहिया, दक्खिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। [215-1] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम द्वीन्द्रिय जीव पश्चिम में हैं, (उनसे) विशेषाधिक पूर्व में हैं, (उनसे) विशेषाधिक दक्षिण में हैं, (और उनसे भी) विशेषाधिक उत्तरदिशा [2] दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा तेइंदिया पच्चत्थिमेणं, पुरस्थिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया / [215-2] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम त्रीन्द्रिय जीव पश्चिमदिशा में हैं, (उनसे) विशेषाधिक पूर्व में हैं, (उनसे) विशेषाधिक दक्षिण में हैं और (उनसे भी) विशेषाधिक उत्तर में हैं / [3] दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा चरिदिया पच्चत्थिमेणं, पुरस्थिमेणं विसेसाहिया, दाहिणणं विप्लेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया। (215-3] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम चतुरिन्द्रिय जीव पश्चिम में हैं, (उनसे) विशेषाधिक पूर्वदिशा में हैं, (उनसे) विशेषाधिक दक्षिण में हैं (और उनसे भी) विशेषाधिक उत्तरदिशा में हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [ 203 . 216. [1] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा नेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणेणं, असंखेज्जगुणा। [216-1] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं / [2] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा रयणप्पभापुढविनेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। [216-2] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं और (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिण दिशा में हैं। [3] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा. सक्करप्पभापुढविनेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / [216-3] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं और (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं। [4] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा वालुयप्पभापुढविनेरइया पुरथिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। [216-4] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं (और उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं। [5] दिसाणुवाएणं सम्बत्थोवा पंकप्पभापुढविनेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / [216-5] दिशात्रों की अपेक्षा से सबसे अल्प पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर में हैं (और उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं। [6] दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा धूमप्पभापुढविनेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / 216-6] दिशात्रों की अपेक्षा से सबसे थोड़े धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं, एवं (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं। [7] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा तमप्पभापुढविनेरइया पुरथिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। [216-7] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर में हैं और (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिण दिशा में हैं। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [8] दिसाणवाएणं सव्वत्थोवा अहेसत्तमापुढविनेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेजगुणा। [216-8] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े अधःसप्तमा (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी के नैरयिक जीव पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर में हैं और (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक दक्षिणदिशा में हैं। 217. [1] दाहिणिल्ले हितो आहेसत्तमापुढविनेरइएहितो छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / [217-1] दक्षिण दिशा के अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों से छठी तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर में असंख्यातगुणे हैं, और (उनसे भी) असंख्यातगुणे दक्षिणदिशा में हैं। [2] दाहिणिल्लेहितो तमापुढविणेरइएहितो पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिमपच्चत्थिम-उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। [217-2] दक्षिणदिशावर्ती तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से पांचवीं धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर में असंख्यातगुणे हैं और (उनसे भी) असंख्यातगुणे दक्षिणदिशा में हैं। [3] दाहिणिल्लेहितो धूमप्पभापुढविनेर इएहितो चउत्थीए पंकप्पभाए पुढयीए नेरइया पुरथिम पच्चस्थिम-उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / [217-3] दक्षिण दिशावर्ती धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से चौथी पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर में असंख्यातगुणे हैं; (उनसे) असंख्यातगुणे दक्षिण दिशा में हैं। [4] दाहिणिल्लेहितो पंकप्पभापुढबिनेरइएहितो तइयाए बालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिम-पच्चत्थिम-उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं प्रसंखिज्जगुणा। 2i17-4] दाक्षिणात्य पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से तीसरी वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर में असंख्यातगुणे हैं और दक्षिणदिशा में (उनसे भी) असंख्यातगुणे हैं। [5] दाहिणिल्लेहितो बालुयप्पभापुढविनेरइएहितो दुइयाए सक्करप्पभाए पुढवीए रइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं असंखिज्जगुणा, दाहिणणं असंखिज्जगुणा / [217-5] दक्षिणदिशा के वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से दूसरी शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम तथा उत्तर में असंख्यातगुणे हैं और दक्षिण दिशा में उनसे भी असंख्यातगुणे हैं। [6] दाहिणिल्लेहितो सक्करप्पभापुढविनेरइएहितो इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / [217-6] दक्षिणदिशा के शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से इस पहली रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक पूर्व, पश्चिम और उत्तर में असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी दक्षिण दिशा में असंख्यातगुणे हैं। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [ 205 ... 218. दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया पच्चत्थिमेणं, पुरथिमेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया / [218} दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव पश्चिम में हैं / पूर्व में (इनसे) विशेषाधिक हैं, दक्षिण में (इनसे) विशेषाधिक हैं और उत्तर में (इनसे भी) विशेषाधिक हैं। 216. दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा मणुस्सा दाहिणउत्तरेणं, पुरथिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चस्थिमेणं विसेसाहिया। {216] दिशात्रों की अपेक्षा सबसे कम मनुष्य दक्षिण एवं उत्तर में हैं, पूर्व में (उनसे) संख्यातगुणे अधिक हैं और पश्चिमदिशा में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं। 220. दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा भवणवासी देवा पुरथिम-पच्चस्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं असंखेज्जगुणा / [220] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम में हैं / (उनसे) असंख्यातगुणे अधिक उत्तर में हैं और (उनसे भी) असंख्यातगुणे दक्षिणदिशा में हैं / 221. दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा वाणमंतरा देवा पुरस्थिमेणं, पच्चस्थिमेणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया, दाहिणेणं विसेसाहिया। [221] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प वाणव्यन्तर देव पूर्व में हैं, उनसे विशेषाधिक पश्चिम में हैं, उनसे विशेषाधिक उत्तर में है और उनसे भी विशेषाधिक दक्षिण में हैं। 222. दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा जोइसिया देवा पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं,दाहिणणं विसेसाहिया, उत्तरेणं विसेसाहिया / [222] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे थोड़े ज्योतिष्क देव पूर्व एवं पश्चिम में हैं, दक्षिण में उनसे विशेषाधिक हैं और उत्तर में उनसे भी विशेषाधिक हैं। 223. [1] दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा देवा सोहम्मे कप्पे पुरस्थिम-पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणणं विसेसाहिया। [223-1] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प देव सौधर्मकल्प में पूर्व तथा पश्चिम दिशा में है, उत्तर में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं और दक्षिण में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं / [2] दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा देवा ईसाणे कप्पे पुरथिम-पच्चस्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया। [223-2] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम देव ईशान-कल्प में पूर्व एवं पश्चिम में हैं / उत्तर में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं और दक्षिण में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं / , Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] / प्रज्ञापनासूत्र [3] दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा देवा सणंकुमारे कप्पे पुरस्थिम-पच्चस्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्ज. गुणा, दाहिणणं विसेसाहिया। (223-3] दिशाओं की अपेक्षा सबसे अल्प देव सनत्कुमारकल्प में पूर्व और पश्चिम में हैं, उत्तर में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं और दक्षिण में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं। [4] दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा देवा माहिदे कप्पे पुरथिम-पच्चस्थिमेणं, उत्तरेणं असंखेज्जगुणा, दाहिणेणं विसेसाहिया। [223-4] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प देव माहेन्द्रकल्प में पूर्व तथा पश्चिम में हैं, उत्तर में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं और दक्षिण में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं। [5] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा देवा बंभलोए कप्पे पुरस्थिम-पच्चत्थिम-उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। [223-5] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम देव ब्रह्मलोककल्प में पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं; दक्षिणदिशा में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं / [6] दिसाणुवातेणं सब्बत्थोवा देवा लंतए कप्पे पुरथिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। [223-6] दिशात्रों को लेकर सबसे थोड़े देव लान्तककल्प में पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं / (उनसे) असंख्यातगुणे दक्षिण में हैं / [7] दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा देवा महासुक्के कप्पे पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणणं असंखेज्जगुणा। [223-7] दिशाओं की दृष्टि से सबसे कम देव महाशुक्रकल्प में पूर्व, पश्चिम एवं उत्तर में हैं / दक्षिण में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं / [8] दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा देवा सहस्सारे कप्पे पुरस्थिम-पच्चस्थिम-उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। {223.8] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम देव सहस्रारकल्प में पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं / दक्षिण में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं / [6] तेण परं बहुसमोववण्णगा समणाउसो ! / [223-6] हे आयुष्मन् श्रमणो ! उससे आगे (के प्रत्येक कल्प में, प्रत्येक ग्रैवेयक में तथा प्रत्येक अनुत्तरविमान में चारों दिशाओं में) बहुत (बिलकुल) सम उत्पन्न होने वाले हैं। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] 207 224, दिसाणुवातेणं सम्वत्थोवा सिद्धा दाहिणुत्तरेणं, पुरथिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया / दारं 1 // [224] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प सिद्ध दक्षिण और उत्तरदिशा में हैं / पूर्व में (उनसे) संख्यातगुणे हैं और पश्चिम में (उनसे) विशेषाधिक हैं / ----प्रथमद्वार // 1 // विवेचन प्रथम दिशाद्वार : दिशात्रों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व--प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 213 से 224 तक) में से प्रथमसूत्र में दिशा की अपेक्षा से औधिक जीवों के अल्पबहुत्व की और शेष 11 सूत्रों में पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर अनुत्तर विमानवासी वैमानिक देवों तक के पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है / दिशाओं की अपेक्षा से—आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में द्रव्यदिशा और भावदिशा के अनेक भेद बताए गए हैं, किन्तु यहाँ उनमें से क्षेत्रदिशाओं का ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि अन्य दिशाएँ यहाँ अनुपयोगी हैं और प्रायः अनियत हैं / क्षेत्रदिशाओं की उत्पत्ति (प्रभव) तिर्यक्लोक के मध्य में स्थित आठ रुचकप्रदेशों से है। वही सब दिशाओं का केन्द्र है / औधिक जीवों का अल्पबहत्व-दिशानों की अपेक्षा से सबसे अल्प जीव पश्चिम दिशा में हैं, क्योंकि उस दिशा में बादर वनस्पति की अल्पता है। यहाँ बादर जीवों की अपेक्षा से ही अल्पबहुत्व का विचार किया गया है, सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि सूक्ष्मजीव तो समग्र लोक में व्याप्त प्रायः सर्वत्र समान ही हैं। बादर जीवों में वनस्पतिकायिक जीव सबसे अधिक हैं। ऐसी स्थिति में जहाँ वनस्पति अधिक है, वहाँ जीवों की संख्या अधिक है, जहाँ वनस्पति की अल्पता है,वहाँ जीवों की संख्या भी अल्प है / वनस्पति वहीं अधिक होती है, जहाँ जल की प्रचुरता होती है / 'जत्थ जलं तत्थ वर्ण' इस उक्ति के अनुसार जहाँ जल होता है, वहाँ वन अर्थात् पनक, शैवाल आदि वनस्पति अवश्य होती है। बादरनामकर्म के उदय से पनक प्रादि की गणना बादर वनस्पतिकाय में होने पर भी उनकी अवगाहना अतिसूक्ष्म होने तथा उनके पिण्डीभूत हो कर रहने के कारण सर्वत्र विद्यमान होने पर भी वे नेत्रों से ग्राह्य नहीं होते। 'जहाँ अप्काय होता है, वहाँ नियमत: वनस्पतिकायिक जीव होते हैं;' इस वचनानुसार समुद्र आदि में प्रचुर जल होता है और समुद्र द्वीपों की अपेक्षा दुगुने विस्तार वाले हैं। उन समुद्रों में भी प्रत्येक में पूर्व और पश्चिम में क्रमश: चन्द्रद्वीप और सूर्यद्वीप हैं। जितने प्रदेश में चन्द्र-सूर्यद्वीप स्थित हैं, उतने प्रदेश में जल का अभाव है। जहाँ जल का अभाव है, वहाँ वनस्पतिकायिक जीवों का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त पश्चिम दिशा में लवणसमद्र के अधिपति सस्थित नामक देव का आवासरूप गौतमद्रीप है. जो लवणसमद से भी अधिक विस्तृत है / वहाँ भी जल का अभाव होने से वनस्पतिकायिकों का अभाव है। इसी कारण पश्चिम दिशा में सबसे कम जीव पाए जाते हैं / पश्चिमदिग्वर्ती जीवों से पूर्व दिशा में विशेषाधिक जीव हैं, क्योंकि पूर्वदिशा में गौतमद्वीप नहीं है, अतएव वहाँ उतने जीव अधिक हैं, दक्षिणदिशा में पूर्वदिग्वर्ती जीवों से विशेषाधिक जीव हैं, क्योंकि दक्षिण में चन्द्र-सूर्यद्वीप न होने से प्रचुर जल है, इस कारण वनस्पतिकायिक जीव भी बहुत हैं। उत्तर में दक्षिणदिग्वर्ती जीवों की अपेक्षा विशेषाधिक जीव हैं, क्योंकि उत्तरदिशा में संख्यात योजन वाले द्वीपों में से एक द्वीप में संख्यातकोटि-योजन-प्रमाण लम्बाचौड़ा एक मानस-सरोवर है, उसमें जल की प्रचुरता होने से वनस्पतिकायिक जीवों की बहुलता है। इसी प्रकार जलाश्रित शंखादि द्वीन्द्रिय जीव, समुद्रादितटोत्पन्न शंख आदि के पाश्रित चींटी Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] [प्रज्ञापनासूत्र (पिपीलिका) आदि त्रीन्द्रिय जीव, कमल आदि में निवास करने वाले भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीव तथा जलचर मत्स्य आदि पंचेन्द्रिय जीव भी उत्तर में विशेषाधिक हैं।' विशेषरूप से दिशात्रों को अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-(१) पृथ्वीकायिकों का अल्पबहुत्वदक्षिणदिशा में सबसे कम पृथ्वीकायिक इसलिए हैं कि पृथ्वी कायिक जीव वहीं अधिक होते हैं, जहाँ ठोस स्थान होता है, जहाँ छिद्र या पोल होती है, वहाँ बहुत कम होते हैं। दक्षिण दिशा में बहुत-से भवनपतियों के भवन और नरकावास होने के कारण छिद्रों और पोली जगहों की बहुलता है / दक्षिण दिशा की अपेक्षा उत्तरदिशा में पृथ्वीकायिक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उत्तरदिशा में भवनपतियों के भवन और नरकावास कम हैं। अत: वहाँ सघन स्थान अधिक है / पूर्वदिशा में चन्द्र-सूर्यद्वीप होने से पृथ्वीकायिक जीव विशेषाधिक हैं। इसको अपेक्षा भी पश्चिम में पृथ्वीकायिकजीव विशेषाधिक हैं क्योंकि वहाँ चन्द्र-सूर्यद्वीप के अतिरिक्त लवणसमुद्रीय गौतमद्वीप भी है / (2) प्रकायिकों का अल्पबहत्व-पश्चिम में वे सब से कम हैं, क्योंकि पश्चिम में गौतमद्वीप होने के कारण जल कम है। पूर्व में गौतमद्वीप नहीं होने से अप्कायिक विशेषाधिक हैं, दक्षिण में चन्द्रसूर्यद्वीप न होने से अप्कायिक विशेषाधिक हैं और उत्तर में मानससरोवर होने से जल की प्रचुरता है, इसलिए वहाँ अप्कायिक विशेषाधिक हैं। (3) तेजस्कायिकों का अल्पबहुत्व-दक्षिण और उत्तर दिशा में अग्निकायिक जीव सबसे कम इसलिए हैं कि मनुष्यक्षेत्र में ही बादर तेजस्कायिक जीवों का अस्तित्व होता है, अन्यत्र नहीं उसमें भी जहाँ मनुष्यों की संख्या अधिक होती है, वहाँ पचन-पाचन की प्रवृत्ति अधिक होने से तेजस्कायिक जीवों की अधिकता होती है / दक्षिण में पांच भरत क्षेत्रों तथा उत्तर में पांच ऐरवत क्षेत्रों में क्षेत्र की अल्पता होने से मनुष्य कम हैं, अतएव वहाँ तेजस्कायिक भी कम हैं। स्वस्थान में (अर्थात् दोनों में) प्रायः समान हैं। इन दोनों दिशाओं की अपेक्षा पूर्व में क्षेत्र संख्यातगुण अधिक होने से तेजस्कायिक पूर्व में संख्यातगुण अधिक हैं, तथा उनसे भी विशेषाधिक तेजस्कायिक पश्चिमदिशा में हैं, क्योंकि वहाँ अधोलौकिक ग्राम होते हैं, जहाँ मनुष्यों की बहुलता होती है। (4) वायुकायिक जीवों का अल्पबहुत्व-सब से अल्प वायुकायिक जीव पूर्व में हैं, क्योंकि जहाँ पोल होती है वहीं वायु का संचार होता है, सघन स्थान में नहीं / पूर्व में सघन (ठोस) स्थान धक होने से वायू अल्प है। पर्व की अपेक्षा पश्चिम में वायुकायिक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ अधोलौकिक ग्राम होते हैं / उत्तर में उससे विशेषाधिक हैं, क्योंकि नारकावासों की वहाँ बहुलता होने से पोल अधिक है / दक्षिण में उत्तर की अपेक्षा पोल अधिक है, क्योंकि दक्षिण में भवनों और नारकावासों की प्रचुरता है, इसलिए दक्षिण में वे विशेषाधिक हैं। (5) बनस्पतिकायिक जीवों का अल्पबहुत्व-वे सबसे कम पश्चिम में हैं, क्योंकि पश्चिम में 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 113-114 (ख) अट्टपएसो रुयगो तिरियलोयस्स मज्झयारम्मि / एस पभवो दिसाणं, एसेव भवे अणुदिसाणं // 1 // (ग) 'ते णं बालग्गा सुहुमपणग जोवस्स सरीरोगाहणाहितो असंखेज्जगुणा / ' –अनुयोगद्वारसूत्र (घ) 'जत्थ पाउकायो, तत्थ नियमा वणस्सइकाइया।' Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [209 गौतमद्वीप होने से जल की अल्पता है और जल अल्प होने से वनस्पतिकायिक जीव भी कम हैं। पश्चिम की अपेक्षा पूर्व में वनस्पतिकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि पूर्व में गौतमद्वीप न होने से जल अधिक है / उनसे दक्षिण दिशा में वनस्पतिकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ चन्द्र-सूर्य द्वीप का अभाव होने से जल की प्रचुरता है। (6) द्वीन्द्रिय जीवों का प्रल्पबहत्व- सबसे कम द्वीन्द्रिय पश्चिमदिशा में हैं, क्योंकि वहाँ गौतमद्वीप होने से जल कम है और जल कम होने से शंख आदि द्वीन्द्रिय जीव कम हैं। उनसे पूर्वदिशा में विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ गौतमद्वीप का अभाव होने से जल का प्राचुर्य है, इस कारण शंख आदि द्वीन्द्रिय जीवों की अधिकता है। दक्षिण में उनसे भी विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ चन्द्रसूर्य द्वीप न होने से जल अधिक है और इस कारण शंखादि भी अधिक हैं। उत्तर में तो मानससरोवर होने से जलाधिक्य है ही, इसलिए वहाँ द्वीन्द्रिय विशेषाधिक हैं / (7) त्रीन्द्रिय जीवों का अल्पबहत्त्व-कुथुआ, चींटी आदि त्रीन्द्रिय शंखादि-कलेवरों के अधित होने से द्वीन्द्रिय जीवों की तरह जलाधिक्य पर निर्भर हैं / इसलिए इनके अल्पबहुत्व का समाधान भी द्वीन्द्रिय की तरह समझ लेना चाहिए। (8) चतुरिन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व-भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीव भी प्रायः कमल आदि के आश्रित होते हैं और कमल (जलज) भी जलजन्य होने से चतुरिन्द्रिय जीवों की अल्पता-अधिकता भी जलाभाव-जलप्राचुर्य पर निर्भर है / अत: इनके अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण भी द्वीन्द्रियों की तरह समझना चाहिए। (8) नारकों का अल्पबहुत्व-पूर्व, पश्चिम और उत्तर में सबसे कम नारक हैं, क्योंकि इन दिशाओं में पुष्पावकीर्ण नरकावास थोड़े हैं, और वे प्रायः संख्यात योजन विस्तृत हैं / इन दिशाओं की अपेक्षा दक्षिणदिशा में असंख्यात-गुणा नारक हैं, क्योंकि दक्षिण में पुष्पावकीर्णनरकावासों की बहुलता है और वे प्रायः असंख्यात योजन विस्तृत हैं / इसके अतिरिक्त कृष्णपाक्षिक जीवों की उत्पत्ति दक्षिणदिशा में बहुत होती है / संसार में दो प्रकार के जीव हैं-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक / जिनका संसार (भवभ्रमण) कुछ कम अपार्द्ध पुद्गलपरावर्तन मात्र ही शेष है, वे शुक्लपाक्षिक हैं और जिनका संसार (भवभ्रमण) इससे बहुत अधिक है, वे कृष्णपाक्षिक हैं / शुक्लपाक्षिक (परिमितसंसारी) जीव त है, जबकि कृष्णपाक्षिक जीव अत्यधिक होते हैं / वे क्रूरकर्मा एवं दीर्धतर भवभ्रमणकर्ता जीव स्वभावतः दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। प्रायः ऋरकर्मा भवसिद्धिक जीव भी दक्षिण दिशा में स्थित नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों और असुरों आदि के स्थानों में उत्पन्न होते हैं। (10) विशेषरूप से रत्नप्रभादि के नारकों का अल्पबहत्व-रत्नप्रभा नामक प्रथम नरकभूमि से तमस्तमःप्रभा नामक सप्तम नरकभूमि तक के नारक पूर्व, पश्चिम और उत्तर में सबसे कम हैं, किन्तु दक्षिण दिशा में उनसे असंख्यातगुणे अधिक हैं / इसका कारण पहले बतलाया जा चुका है / (11) सातों नरकश्वियों के जीवों का परस्पर अल्पबहुत्व-सप्तम नरकपृथ्वी के पूर्वपश्चिमोत्तरदिगवर्ती नारकों की अपेक्षा इसी पृथ्वी के दक्षिणदिगवर्ती नारक असंख्यातगुणे अधिक हैं, इसका कारण पहले बताया जा चुका है। सप्तम नरकपृथ्वी के दक्षिणदिग्वर्ती नैरयिकों की अपेक्षा छठी नरकपृथ्वी (तमःप्रभा) के पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्वर्ती नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, इसका कारण यह है कि संसार में सबसे अधिक पापकर्मकारी संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य सप्तम Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 ] [प्रज्ञापनासूत्र नरकपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं, किञ्चित् हीन, हीनतर पापकर्मकारी छठी, पांचवी आदि पृथ्वियों में उत्पन्न होते हैं / सर्वोत्कृष्ट पापकर्मकारी सबसे थोड़े हैं। इसलिए सप्तम नरकपृथ्वी के दक्षिण में सबसे कम नारक हैं, उनसे छठी नरकपृथ्वी के पूर्व-पश्चिमोत्तरदिग्वर्ती नारक असंख्येयगुणे हैं; छठी नरकपृथ्वी के पूर्व-पश्चिम-उत्तरदिग्वर्ती नारकों की अपेक्षा दक्षिणदिग्वर्ती नारक असंख्यातगुणे हैं / कारण पहले बताया जा चुका है। उनसे क्रमशः पंचम, चतुर्थ, तृतीय, द्वितीय और प्रथम नरक के पूर्वपश्चिमोत्तरदिग्वर्ती तथा दक्षिणदिग्वर्ती नैरयिक अनुक्रम से असंख्यातगुणे समझ लेने चाहिए। (12) तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व-तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व अप्कायिक सूत्र की तरह समझ लेना चाहिए। (13) मनुष्यों का अल्पबहुत्व-सबसे कम मनुष्य दक्षिण और उत्तर दिशा में हैं, क्योंकि इन दिशाओं में पांच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्र छोटे ही हैं। उनसे पूर्व दिशा में संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वहाँ क्षेत्र संख्यातगुणे बड़े हैं। पश्चिम दिशा में इनसे भी विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ अधोलौकिक ग्राम हैं, जिनमें स्वभावतः मनुष्यों की बहुलता है। (14) भवनवासी देवों का अल्पबहुत्व-सबसे अल्प भवनवासी देव पूर्व और पश्चिम में हैं, क्योंकि इन दोनों दिशाओं में उनके भवन थोड़े हैं। इनकी अपेक्षा उत्तर में असंख्यात गुणे अधिक हैं, क्योंकि स्वस्थान होने से वहाँ भवन बहुत हैं। दक्षिणदिशा में इनसे भी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वहाँ प्रत्येक निकाय के चार-चार लाख भवन अधिक हैं तथा बहुत-से कृष्णपाक्षिक इसी दिशा में उत्पन्न होते हैं, अत: वे असंख्यातगुणे अधिक हैं / (15) वाणव्यन्तर देवों का अल्पबहुत्व-जहाँ पोले स्थान हैं, वहीं प्रायः व्यन्तरों का संचार होता है, पूर्व दिशा में ठोस स्थान अधिक हैं, इस कारण वहाँ व्यन्तर थोड़े ही हैं। पश्चिमदिशा में उनसे विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ अधोलौकिक ग्रामों में पोल अधिक है, उनकी अपेक्षा उत्तरदिशा में विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ उनके स्वस्थान होने से नगरावासों की बहुलता है। उत्तर की अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक हैं, क्योंकि दक्षिण दिशा में उनके नगरावास अत्यधिक हैं। (16) ज्योतिष्क देवों का अल्पबहुत्व-सबसे कम ज्योतिष्क देव पूर्व एवं पश्चिम दिशाओं में होते हैं, क्योंकि इन दोनों दिशाओं में चन्द्र और सूर्य के उद्यान जैसे द्वीपों में ज्योतिष्क देव अल्प ही होते हैं / दक्षिण में उनकी अपेक्षा विशेषाधिक हैं, क्योंकि दक्षिण में उनके विमान अधिक हैं और कृष्णपाक्षिक दक्षिण दिशा में ही होते हैं। उत्तरदिशा में उनसे भी विशेषाधिक हैं, क्योंकि उत्तर में मानससरोवर में ज्योतिष्क देवों के क्रीडास्थल बहत हैं। क्रीडारत होने के कारण वहाँ ज्योतिष्क देव सदैव रहते हैं। मानससरोवर के मत्स्य आदि जलचरों को अपने निकटवर्ती विमानों को देख कर जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे वे किचित् व्रत अंगीकार कर अशनादि का त्याग करके निदान के कारण वहाँ उत्पन्न होते हैं / इस कारण उत्तर में दक्षिण की अपेक्षा ज्योतिष्क देव विशेषाधिक हैं। (17) सौधर्म प्रादि वैमानिक देवों का अल्पबहत्व-वैमानिक देव सौधर्मकल्प में सबसे कम पूर्व और पश्चिम में हैं, क्योंकि प्रावलिकाप्रविष्ट विमान तो चारों दिशाओं में समान हैं, किन्तु बहसंख्यक और असंख्यातयोजन-विस्तत पूष्पावकीर्ण विमान दक्षिण और उत्तर में ही हैं, पूर्व और पश्चिम में नहीं। इसी कारण पूर्व और पश्चिम में सबसे कम वैमानिक देव हैं। इनकी अपेक्षा उत्तर में वे असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उत्तर में असंख्यात योजन-विस्तृत पुष्पावकीर्ण विमान बहुत हैं Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [211 और उनसे भी विशेषाधिक हैं, क्योंकि कृष्णपाक्षिकों का वहाँ अधिकतर गमन होता है। ईशान, सनत्कुमार एवं माहेन्द्र कल्प के देवों का भी दिशा की अपेक्षा से अल्पबहुत्व इसी प्रकार है और उनका कारण भी पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिए। ब्रह्मलोककल्प के देव सबसे कम पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा में हैं, क्योंकि :बहुसंख्यक कृष्णपाक्षिक दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं और शुक्लपाक्षिक थोड़े ही होते हैं। दक्षिणदिशा में उनकी अपेक्षा असंख्यातगुणे देव हैं, क्योंकि वहाँ बहुत कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं / इसी प्रकार लान्तक, महाशुक्र एवं सहस्रार कल्प के देवों का (दिशाओं की अपेक्षा) अल्पबहुत्व एवं कारण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / सहस्रारकल्प के बाद ऊपर के कल्पों के तथा नौ ग्रेवेयक एवं पांच अनुत्तर विमानों के देव चारों दिशाओं में समान हैं, क्योंकि वहाँ मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं। (18) सिद्धजीवों का अल्पबहुत्व-सबसे अल्प सिद्ध दक्षिण और उत्तर में हैं, क्योंकि मनुष्य ही सिद्ध होते हैं, अन्य जीव नहीं। सिद्ध होने वाले मनुष्य चरम समय में जिन आकाश प्रदेशों में अवगाढ़ (स्थित) होते हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों की दिशा में ऊपर जाते हैं, उसी सीध में ऊपर जाकर वे लोकाग्न में स्थित हो जाते हैं / दक्षिणदिशा में पांच भरतक्षेत्रों में तथा उत्तर में पांच ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्य अल्प हैं, क्योंकि सिद्धक्षेत्र अल्प है। फिर सुषम-सुषमा आदि प्रारों में सिद्धि प्राप्त नहीं होती / इस कारण दक्षिण और उत्तर में सिद्ध सबसे कम हैं। पूर्व दिशा में उनसे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि भरत और ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा पूर्वविदेह संख्यातगुणा विस्तृत है, इसलिए वहाँ मनुष्य भी संख्यातगुणे हैं और वहाँ से सर्वकाल में सिद्धि होती रहती है। उनसे भी पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं; क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में मनुष्यों को अधिकता है।' द्वितीय गतिद्वार : पांच या पाठ गतियों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 225. एएसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाण य पंचगति' समासेणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वस्थोवा मणुस्सा 1, नेरइया असंखेज्जगुणा 2, देवा असंखेज्जगुणा 3, सिद्धा अणंतगणा 4, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा 5 / [225 प्र.] भगवन् ! नारकों, तिर्यंचों, मनुष्यों, देवों और सिद्धों की पांच गतियों की अपेक्षा से संक्षेप में कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? / [225 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े मनुष्य हैं, 2. (उनसे) नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) देव असंख्यातगुणे हैं, 4. उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं और 5. (उनसे भी) तिर्यंचयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं। 226. एतेसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं मणस्साणं मस्सीणं देवाणं देवीणं सिद्धाण य प्रगति समासेणं कतरे कतरेहितो प्रप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 116 से 119 तक 2. 'पंचगति अणुवाएणं समासेणं' यह पाठान्तर मिलता है। -सं. 3. 'अट्ठमति अणुवाएणं समासेणं' यह पाठान्तर मिलता है। सं. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सम्वत्थोवाओ मणुस्सीमो 1, मणुस्सा असंखेज्जगणा 2, नेरइया असंखेज्जगुणा 3, तिरिक्खजोणिणोप्रो असंखेज्जगुणाम्रो 4, देवा असंखेज्जगुणा 5, देवीप्रो संखेज्जगुणानो 6, सिद्धा अणंतगुणा 7, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा 8 / दारं 2 // [226 प्र.] भगवन् ! इन नै रयिकों, तिर्यंचों, तिर्यचिनियों, मनुष्यों, मनुष्यस्त्रियों, देवों, देवियों और सिद्धों का पाठ गतियों की अपेक्षा से, संक्षेप में, कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? [226 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम मानुषी (मनुष्यस्त्री) हैं, 2. (उनसे) मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) तिर्यचिनियां असंख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) देव घसंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) देवियां संख्यातगुणी हैं, 7. (उनसे) सिद्ध अनन्तगुणे हैं, और 8. (उनसे भी) तियंचयोनिक अनन्तगुणे हैं। द्वितीय द्वार // 2 // विवेचन-द्वितीय गतिद्वार-पांच या पाठ गतियों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 225-226) में नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव और सिद्धि, इन पांच गतियों की अपेक्षा से तथा नारक, तिर्यंच, तिर्यंचनी, मनुष्य, मानुषी, देव, देवी और सिद्ध, इन पाठ गतियों की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। पांच गतियों की अपेक्षा से अल्पवहुत्व-गतियों की अपेक्षा से सबसे थोड़े मनुष्य हैं, क्योंकि वे 96 छेदनक-छेद्यरा शिप्रमाण ही हैं। उनके नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का द्वितीय वर्गमूल से गुणाकार करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उतनी ही धनीकृतलोक की एकप्रादेशिकी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतना ही नारकों का प्रमाण है / नैरयिकों की अपेक्षा देव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि व्यन्तर और ज्योतिष्क देव प्रतर की असंख्यातभागवर्ती श्रेणियों के आकाशप्रदेशों की राशि के तुल्य हैं / सिद्ध उनसे भी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अभव्यों से अनन्तगुणे हैं / सिद्धों से तिर्यञ्च अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही सिद्धों से अनन्तगुणे हैं।' पाठ बोलों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-पांच गतियों के ही अवान्तर भेद करके प्रस्तुत पाठ गतियां बता कर उनकी दृष्टि से अल्पबहुत्व का निरूपण करते हैं सबसे कम मानुषी (मनुष्यस्त्रियां) हैं, क्योंकि उनकी संख्या संख्यातकोटाकोटी प्रमाण है / उनसे मनुष्य असंख्यातगुणे अधिक हैं; क्योंकि इनमें वेद की विवक्षा न करने से सम्मूच्छिम मनुष्यों का भी समावेश हो जाता है और सम्मूर्च्छनज मनुष्य उच्चार, प्रस्रवण, वमन आदि से लेकर नगर की नालियों (मोरियों) आदि (14 स्थानों) में असंख्येय उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों की अपेक्षा नारक असंख्यातगणे हैं, क्योंकि मनुष्य उत्कृष्ट संख्या में श्रेणी के असंख्यातवें भागगत प्रदेशों की राशि प्रमाण पाए जाते हैं, जबकि नारक अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशिवर्ती तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूलप्रमाण-श्रेणिगत आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं / अत: वे उनसे असंख्यातगुणे हैं। नारकों से तिर्यचिनी असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि वे प्रतरासंख्येय भाग में रहे हुए असंख्यातश्रेणियों के आकाशप्रदेशों के समान हैं / देव इनसे भी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्येयगुणप्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणिगतप्रदेशों की राशि 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 119 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] (213 प्रमाण हैं / देवों की अपेक्षा देवियां संख्येयगुणी अधिक हैं, क्योंकि वे देवों से बत्तीसगुणी हैं / देवियों की अपेक्षा सिद्ध अनन्तगुणे हैं और सिद्धों से तिर्यञ्च अनन्तगुणे अधिक हैं। इनकी अधिकता का कारण पहले बताया जा चुका है।' तृतीय इन्द्रियद्वार : इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व 227. एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चरिदियाणं पंचेंदियाणं प्रणिदियाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा बिसेसाहिया वा ? / गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदिया 1, चरिदिया विसेसाहिया 2, तेइंदिया विसेसाहिया 3, बेइंदिया विसेसाहिया 4, प्रणिदिया अणंतगुणा 5, एगिदिया अणंतगुणा 6, सइंदिया विसेसाहिया 7 / [227 प्र.] भगवन् ! इन इन्द्रिययुक्त, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रियों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [227 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय जीव हैं, 2. (उन से) चतुरिन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) त्रीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) द्वीन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) अनिन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं, 6. (उनसे) एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं और 7. उनसे इन्द्रियसहित जीव विशेषाधिक हैं / 228. एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचेंदियाणं अपज्जतगाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया ? गोयमा! सम्वत्थोवा पंचेंदिया अपज्जलगा 1, चरिदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 2, तेइंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 3, बेइंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 4, एगिदिया अपज्जत्तया अणतगुणा 5, सइंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 6 / [228 प्र.] भगवन् ! इन इन्द्रियसहित, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [228 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनन्तगणे हैं और 6, (उनसे भी) इन्द्रियसहित अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं। 229. एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं बेइंदियाणं तेइंदियाणं चउरिदियाणं पंचेंदियाणं पज्जत्तयाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाधिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा चरिदिया पज्जत्तगा 1, पंचेंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 2, बेंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 3, तेदिया पज्जतगा विसेसाहिया 4, एगिदिया पज्जत्तगा अणंतगुणा 5, सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 6 / 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 120 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 [ प्रज्ञापनासूत्र [226 प्र.] भगवन् ! इन इन्द्रियसहित, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [226 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव हैं, 2. (उनसे) पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, 3 (उनसे) द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5, (उनसे) एकेन्द्रिय पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और 6. उनसे भी इन्द्रियसहित पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं।। __230. [1] एतेसि णं भंते ! सइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वस्थोवा सइंदिया अपज्जत्तगा, सइंदिया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [230-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिययुक्त (सेन्द्रिय) पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [230-1 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं, (उनसे) से न्द्रिय पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं। [2] एतेसि णं भंते ! एगिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा एगिदिया अपज्जत्तगा, एगिदिया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [230-2 प्र.] भगवन् ! इन एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [230-2 उ.] गौतम ! सबसे अल्प एकेन्द्रिय अपर्याप्तक हैं, (उनसे) एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [3] एतेसि णं भंते ! बेंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा दिया पज्जत्तगा, बेंदिया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा / [230-3 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक द्वीन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [230-3 उ.] गौतम ! सबसे कम द्वीन्द्रिय पर्याप्तक हैं, (उनसे) द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। [4] एतेसि णं भंते ! तेइंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा तेंदिया पज्जत्तगा, तेंदिया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [215 [230-4 प्र. भगवन् ! इन त्रीन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [230-4 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े त्रीन्द्रिय पर्याप्तक हैं, (उनसे) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / [5] एतेसि णं भंते ! चरिदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया बा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा चरिदिया पज्जत्तगा, चरिंदिया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / [230-5 प्र.] भगवन् ! इन चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [230-5 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं, (उनसे) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। [6] एएसि णं भंते ! पंचेंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा बा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदिया पज्जत्तगा, पंचेंदिया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। [230-6 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ?" [230-6 उ.] गौतम ! सबसे अल्प पर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीव हैं, उनसे अपर्याप्तक पंचेन्द्रिय जीव असंख्यातगुणे हैं। 231. एएसि णं भंते ! सइंदियाणं एगिदियाणं दियाणं तेंदियाणं चरिदियाणं पंचेंदियाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा चउरिदिया पज्जत्तगा 1, पंचेंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 2, बंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 3, तेइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 4, पंचेदिया अपज्जत्तगा असंखेज्जगणा 5, चरिदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 6, तेइंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 7, बेंदिया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 8, एगेंदिया अपज्जत्तगा अणंतगुणा 6, सइंदिया अपज्जत्तगा बिसेसाहिया 10, एगिदिया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 11, सइंदिया पज्जत्तगा विसेसाहिया 12, सइंदिया विसेसाहिया 13 / दारं 3 // [231 प्र.] भगवन् ! इन सेन्द्रिय, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [231 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं / 2. (उनसे) पंचेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 3. (उनसे) द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 4. (उनसे) त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं / 5. (उनसे) पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / 6. (उनसे) चतुरिन्द्रिय Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं / 7. (उनसे) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 8 (उनसे) द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं / 6. (उनसे) एकेन्द्रिय अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं / 10. (उनसे) सेन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 11. (उनसे) एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं 12. (और उनसे) सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं 13. (तथा उनसे भी) सेन्द्रिय (इन्द्रियवान्) विशेषाधिक हैं। हार ||3|| विवेचन-तृतीय इन्द्रियद्वार : इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व—प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 227 से 231 तक) में इन्द्रियों की अपेक्षा से सेन्द्रिय, अनिन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों तक के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा विभिन्न पहलुओं से की गई है। (1) सेन्द्रिय-अनिन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों का अल्पबहुत्व-सबसे कम पंचेन्द्रिय (पांचों इन्द्रियों वाले नारक, तियंच, मनुष्य और देव) जीव हैं, क्योंकि वे संख्यात कोटाकोटी-योजनप्रमाण विष्कम्भसूची से प्रमित प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणीगत प्राकाशप्रदेशों की राशि-प्रमाण हैं। उनसे विशेषाधिक चार इन्द्रियों वाले भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीव हैं; क्योंकि वे विष्कम्भसूची के प्रचुर संख्येयकोटाकोटीयोजनप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय (चींटी आदि तीन इन्द्रियों वाले) जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे विष्कम्भसूची से प्रचुरतर संख्यातकोटाकोटीयोजनप्रमाण हैं / द्वीन्द्रिय (शंख आदि दो इन्द्रियों वाले) जीव उनकी अपेक्षा विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे विष्कम्भसूची के प्रचुरतम संख्येयकोटाकोटीयोजनप्रमाण हैं। द्वीन्द्रियों से अनिन्द्रिय (सिद्ध) जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अनन्त हैं। अनिन्द्रियों से एकेन्द्रिय जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव सिद्धों से अनन्तगुणे अधिक हैं। एकेन्द्रिय जीवों से भी सेन्द्रिय (सभी इन्द्रियों वाले) जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय प्रादि सभी जीवों का उसमें समावेश हो जाता है / यह समुच्चय जीवों का अल्पबहुत्व हुआ। (2) अपर्याप्त समुच्चय जीवों का अल्पबहुत्व-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वे एक प्रतर में जितने भी अंगुल के असंख्यात भागमात्र खण्ड होते हैं, उतने ही हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक इसलिए हैं कि वे प्रचुर अंगुल के असंख्यातभाग खण्डप्रमाण हैं। उनसे त्रीन्द्रिय अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतरप्रतरांगुल के असंख्येयभागखण्डप्रमाण हैं। द्वीन्द्रिय अपर्याप्त उनसे विशेषाधिक हैं; क्योंकि वे प्रचुरतम प्रतरांगुल के असंख्यातभागखण्ड-प्रमाण हैं / एकेन्द्रिय अपर्याप्त उनसे अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अपर्याप्त वनस्पतिकायिक सदैव अनन्त पाए जाते हैं। इनसे विशेषाधिक सेन्द्रिय अपर्याप्त जीव हैं, क्योंकि सेन्द्रिय सामान्य जीवों में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि सभी इन्द्रियवान् जीवों का समावेश हो जाता है। (3) पर्याप्तक जीवों का अल्पबहत्व-चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक जीव सबसे अल्प हैं, क्योंकि चतुरिन्द्रिय जीवों की आयु बहुत अल्प होती है, इसलिए अधिक काल तक न रहने से वे प्रश्न के समय थोड़े ही पाए जाते हैं। उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुर प्रतरांगुल के असंख्येयभाग-खण्ड-प्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतर प्रतरांगुल के संख्यातभाग-प्रमाण खण्डों के बराबर हैं। उनकी अपेक्षा त्रीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि वे स्वभावतः प्रचुरतम प्रतरांगुल के संख्यातभागप्रमाण खण्डों के बराबर हैं। उनसे अनन्तगुणे एकेन्द्रिय पर्याप्तक हैं, क्योंकि अकेले बनस्पतिकायिक जीव अनन्त होते हैं। सेन्द्रिय-पर्याप्त उनसे भी विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तक द्वीन्द्रिय आदि का भी समावेश हो जाता है। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [217 (4) पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों का प्रल्पबहत्व-सबसे कम सेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव हैं, क्योंकि, सेन्द्रियों में सूक्ष्म-एकेन्द्रिय ही सर्वलोकव्याप्त होने के कारण बहुत हैं, किन्तु उनमें अपर्याप्त सबसे कम होते हैं। उनकी अपेक्षा सेन्द्रिय-पर्याप्त संख्यातगुणे अधिक हैं। इसी प्रकार एकेन्द्रिय अपर्याप्त सबसे कम और पर्याप्त उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं। द्वीन्द्रियों में पर्याप्तक सबसे कम हैं, क्योंकि वे प्रतरांगुल के संख्येयभागमात्रखण्ड-प्रमाण हैं, जबकि द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक प्रतरवर्ती अंगुल के असंख्येयभागखण्ड-प्रमाण होते हैं। इसके पश्चात् त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों में प्रत्येक में पर्याप्तक सबसे कम हैं, अपर्याप्तक उनसे असंख्यातगुणे हैं, कारण वही पूर्ववत् समझना चाहिए / (5) समुच्चय में सेन्द्रिय आदि समुदित पर्याप्त-अपर्याप्त जीवों का अल्पबहुत्व-इनमें सबसे कम चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक हैं, कारण पहले बताया जा चुका है। उनसे पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, ये तीनों क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं। उनसे पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त एवं द्वीन्द्रिय अपर्याप्तक क्रमश: उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे, विशेषाधिक, विशेषाधिक एवं विशेषाधिक हैं। आगे क्रमशः एकेन्द्रिय अपर्याप्त उनसे अनन्त गुणे सेन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक, एकेन्द्रिय पर्याप्तक संख्यातगुणे, सेन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक तथा सेन्द्रिय जीव इनसे भी विशेषाधिक होते हैं। इनके अल्पबहुत्व का कारण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए।' चतुर्थ कायद्वार : काय की अपेक्षा से सकायिक, अकायिक एवं षट्कायिक जीवों का अल्पबहुत्व 232. एएसि णं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं प्राउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सतिकाइयाणं तसकाइयाणं प्रकाइयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा तसकाइया 1, तेउकाइया असंखेज्जगुणा 2, पुढविकाइया विसेसाहिया 3, प्राउकाइया विसेसाहिया 4, वाउकाइया विसेसाहिया 5, प्रकाइया अणंतगुणा 6, वणस्सइकाइया असंखगुणा 7, सकाइया विसेसाहिया 8 / [232 प्र.] भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, असकायिक और अकायिक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [232 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प त्रसकायिक हैं, 2. (उनसे) तेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) अप्कायिक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) वायुकायिक विशेषाधिक हैं, 6. (उनसे) अकायिक अनन्तगुणे हैं, 7. (उनसे) वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, 8. और (उनसे भी) सकायिक विशेषाधिक हैं। 233. एतेसि णं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं प्राउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सतिकाइयाणं तसकाइयाण य अपज्जत्तयाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 121, 122 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [प्रज्ञापनासन गोयमा ! सम्वत्थोवा तसकाइया अपज्जत्तगा 1, तेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 3, प्राउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 4, वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 5, वणप्फइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा 6, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 7 / [233 प्र.] भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक [233 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े त्रसकायिक अपर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं. 6. (उनसे) वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 7. और (उनसे भी) सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 234. एतेसि गं भंते ! सकाइयाणं पुढधिकाइयाणं पाउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाण य पज्जत्तयाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया बा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा 1, तेउकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 3, आउकाइया पज्जत्तगा विसे साहिया 4, वाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 5, वणप्फइकाइया पज्जत्तगा अणंतगुणा 6, सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 7 / [234 प्र.] भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक [234 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प त्रसकायिक पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं. 5. (उनसे) बायकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 6. (उनसे) वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और 7. (उनसे भी) सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 235. [1] एतेसि णं भंते ! सकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सकाइया अपज्जत्तगा, सकाइया पज्जत्तगा संखिज्जगुणा / [235-1 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्त और अपर्याप्त सकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य, अथवा विशेषाधिक हैं ? [235-1 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सकायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] - [219 . [2] एतेसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सव्वस्थोवा पुढविकाइया अपज्जत्तगा, पुढविकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [235-2 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक पृथ्वीकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [235-2 उ.] गौतम ! सबसे अल्प पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) पृथ्वीकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं / [3] एतेसि णं भंते ! अाउकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सम्वत्थोवा पाउकाइया अपज्जत्तगा, पाउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [235-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक अप्कायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [235-3 उ.] गौतम ! सबसे कम अप्कायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) अप्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [4] एतेसि णं भंते ! तेउकाइयाणं पज्जताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा तेउकाइया प्रपज्जत्तगा, तेउक्काइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [235-4 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [235-4 उ.] गौतम ! सबसे कम अपर्याप्तक तेजस्कायिक हैं। (उनसे) पर्याप्तक तेजस्कायिक संख्यातमुगे हैं। [5] एतेसि णं भंते ! वाउकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वाउकाइया अपज्जत्तगा, वाउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / / [235-5 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक और अपर्याप्तक वायुकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [235-5 उ.] गौतम ! सबसे अल्प अपर्याप्तक वायुकायिक हैं, (उनसे) पर्याप्तक वायुकायिक संख्यातगुणे हैं। [6] एएसि णं भंते ! वणस्सइकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्तगाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा वणफइकाइया अपज्जत्तगा, वणप्फइकाइया पज्जलगा संखेज्जगुणा / Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 [ प्रज्ञापनासूत्र [235-6 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक वनस्पतिकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? __[235-6 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े अपर्याप्तक वनस्पतिकायिक हैं, (उनसे) पर्याप्तक वनस्पतिकायिक संख्यातगुणे हैं। [7] एतेसि णं भंते ! तसकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। [235-7 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्तक और अपर्याप्तक त्रसकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [235-7 उ.] गौतम ! सबसे कम पर्याप्तक सकायिक हैं, (उनसे) अपर्याप्तक त्रसकायिक असंख्यातगुणे हैं। 236. एतेसिणं भंते ! सकाइयाणं पुढविकाइयाणं प्राउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं वणस्सइकाइयाणं तसकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तगा 1, तसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, तेउकाइया अपज्जत्तमा असंखेज्जगुणा 3, पुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 4, प्राउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 5, वाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 6, तेउकाइया पज्जत्तगा संखेज्ज. गुणा 7, पुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 8, प्राउकाइया पज्जतगा विसेसाहिया 6, बाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 10, वणस्सइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा 11, सकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 12, वणफतिकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 13, सकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 14, सकाइया विसेसाधिया 15 / [236 प्र.] भगवन् ! इन सकायिक, पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तक में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [236 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प त्रसकायिक पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) सकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं. 6. (उनसे) वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 7. (उनसे) तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 9. (उनसे) अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 10. (उनसे) वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 11. (उनसे) वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 12. (उनसे) सकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 13. (उनसे) वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 14. (उनसे) सकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 15. और (उनसे भी) सकायिक विशेषाधिक हैं। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 221 विवेचन-चतुर्थ कायद्वार : काय की अपेक्षा से सकायिक, प्रकायिक एवं षटकायिक जीवों का अल्पवहुत्व--प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 232 से 236 तक) में काय की अपेक्षा षट्कायिक, सकायिक, तथा अकायिक जीवों का समुच्चयरूप में, इनके अपर्याप्तकों तथा पर्याप्तकों का एवं पृथक्-पृथक् एवं समुदित पर्याप्तक, अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है। (1) षटकायिक, सकायिक, प्रकायिक जीवों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े त्रसकायिक हैं, क्योंकि त्रसकायिकों में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, वे अन्य कायों (पृथ्वीकायादि) की अपेक्षा अल्प हैं। उनसे तेजस्कायिक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुर असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे अप्कायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतर असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं / उनसे वायुकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचुरतम असंख्येय लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनकी अपेक्षा अकायिक (सिद्ध भगवान्) अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेशराशि-प्रमाण हैं। उनसे भी सकायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पृथ्वीकायिक आदि सभी कायवान् प्राणियों का समावेश हो जाता है / (2) सकायिक आदि अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-इनमें सबसे अल्प त्रसकायिक अपर्याप्तक से लेकर क्रमश: सकायिक अपर्याप्तक पर्यन्तविशेषाधिक हैं / यहाँ तक के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। (3) सकायिक प्रादि पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-इनका अल्पबहुत्व भी पूर्ववत् युक्ति से समझ लेना चाहिए। (4) सकायिकादि प्रत्येक के पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े सकायिक अपर्याप्तक हैं. उनसे सकायिक पर्याप्तक संख्येयगणे हैं। इसी तरह आगे के सभी सत्रपाठ सुगम हैं। इन सब में अपर्याप्तक सबसे थोड़े और उनकी अपेक्षा पर्याप्तक संख्यातगुणे बताए गए हैं, इसका कारण यह है कि पर्याप्तकों के प्राश्रय से अपर्याप्तकों का उत्पाद होता है। अर्थात् पर्याप्तक अपर्याप्तकों के अाधारभूत हैं। (5) समुच्चय में सकायिक प्रादि समुदित पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व- इनमें सबसे कम त्रसकायिक पर्याप्तक हैं, उनसे त्रसकायिक अपर्याप्तक असंख्यात गणे हैं, क्योंकि पर्याप्त द्वीन्द्रियादि से अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि असंख्यातगुणे अधिक हैं / उनसे तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाशप्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वायुकायिक अपर्याप्तक क्रमश: विशेषाधिक है। पृथ्वीकाय के अपर्याप्तकों की प्राय अधिक होने से वे तेजस्कायिक अपर्याप्त से अधिक हैं। उनसे अप्काय के अपर्याप्तक बहुत अधिक होने से विशेषाधिक हैं। उनसे वायुकायिक अपर्याप्तक पूर्वोक्त युक्ति से विशेषाधिक है / उनसे पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वायुकायिक पर्याप्तक क्रमशः विशेषाधिक हैं, क्योंकि अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक विशेषाधिक होते हैं। प्रागे वनस्पति काय के अपर्याप्तक अनन्तगुणे पर्याप्तक संख्यातगुणे तथा सकायिक पर्याप्त उनसे संख्यातगुणे हैं। इसका कारण पहले बता चुके हैं / ' यद्यपि इस सूत्र (सू. 236) के अल्पबहुत्व में 15 पद हैं, जिनका उल्लेख अन्य प्रतियों में है, किन्तु वृत्तिकार ने प्रज्ञापनावृत्ति में केवल 12 पदों का ही निर्देश किया है / अत: 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 123 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र प्रज्ञापनासूत्र (मूलपाठ-टिप्पणसहित) में अन्य प्रतियों के अनुसार तीन पद अधिक अंकित किये गए हैं-यथा 13. सकायिक अप्तिक विशेषाधिक हैं, 14. (उनसे) सकायिक पर्याप्तक (बीच में वनस्पति कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं के पश्चात्), विशेषाधिक हैं, तथा 15. सकायिक विशेषाधिक हैं।' कायद्वार के अन्तर्गत सूक्ष्म-बादरकायद्वार 237. एतेसि णं भंते ! सुहमाणं सुहमपुढविकाइयाणं सुहुमाउकाइयाणं सुहुमतेउक्काइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहुमवणफइकाइयाणं सुहमणिओयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? . गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया 1, सुहमपुढविकाइया विसेसाहिया 2, सुहुमप्राउकाइया विसेसाहिया 3, सुहुमवाउकाइया विसेसाहिया 4, सुहमनिगोदा असंखेज्जगुणा 5, सुहुमवणप्फइकाइया अणंतगुणा 6, सुहमा विसेसाहिया 7 / 237 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्मनिगोदों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [237 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक हैं, 2. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) सूक्ष्म निगोद असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं और 7. (उनसे भी) सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। 238. एतेसि गं भंते ! सुहमअपज्जत्तगाणं सुहुमपुढविकाइयापज्जतयाणं सुहुमनाउकाइयापज्जत्तयाणं सुहुमतेउकाइयापज्जत्तयाणं सुहुमवाउकाइयापज्जत्तयाणं सुहुमवणप्फइकाइयापज्जत्तयाणं सुहमणिगोदापज्जत्तयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया 1, सुहमपुढविकाइया अपज्जत्तया विसेसा. हिया 2, सुहुमनाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 3, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 4, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 5, सुहुमवणफतिकाइया अपज्जत्तगा प्रणतगुणा 6, सुहमा अपज्जत्तगा विसेसाहिया 7 / [238 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अप्तिक, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 124 (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 88 (ग) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग. 2, पृ. 74 एवं 92 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [ 223 [238 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं. 3. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक, अपर्याप्त विशेषाधिक हैं; 4. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुण हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और 7. (उनसे भी) सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं। 236. एतेसि णं भंते ! सुहमपज्जत्तगाणं सुहुमयुढविकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमनाउकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमतेउकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमवाउकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमवणप्फइकाइयपज्जत्तगाणं सुहुमनिगोदपज्जत्तगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा सहमतेउषकाइया पज्जत्तगा 1, सुहमपुढविकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 2, सुहुम ग्राउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 3, सुहमवाउकाइया पज्जत्तगा विसेसाहिया 4, सुहमणिपोया पज्जत्तगा असंखेगुणा 5, सुहुमवणप्फइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा 6, सुहुमा पज्जत्तगा विसेसाधिया / 239 प्र.] भगवन् ! इन सक्ष्म पर्याप्तक, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक और सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [239 उ.] गौतम ! 1 सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और 7. (उनसे भी) विशेषाधिक सूक्ष्म पर्याप्तक जीव हैं। 240. [1] एतेसि णं भंते ! सुहुमाणं पज्जत्ताऽपज्जत्तयाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहमा अपज्जत्तगा, सुहुमा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [240-1 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों में कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [240 1 उ.] गौतम ! सबसे अल्प सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव हैं, उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं। [2] एतेसि णं भंते ! सुहमपुढविकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहमपुढविकाइया अपज्जत्तगा, सुहुमपुढविकाइया पज्जतगा संखेज्जगुणा / Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 ] [प्रज्ञापनासूत्र [240-2 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [240-2 उ.] गौतम ! सबसे अल्प सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [3] एतेसि णं भंते ! सुहुमनाउकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहुमनाउकाइया अपज्जत्तया, सुहुमाउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [240-3 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [240-3 उ.] गौतम ! सबसे कम सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [4] एतेसि णं भंते ! सुहुमतेउकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सम्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया, सुहुमतेउकाइया पज्जतगा संखेज्जगुणा। [240-4 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तकों में से कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [२४०-उ.] गौतम ! सबसे कम सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [5] एएसि णं भंते ! सुहुमवाउकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा सुहमवाउकाइया अपज्जत्तया, सुहमवाउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा / [240-5 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [240-5 उ ] गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक जीव हैं, (उनसे) सूक्ष्म वायुकाधिक पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं / [6] एएसि णं भंते ! सुहुमवणष्फइकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा सुहमवणफइकाइया अपज्जत्तगा, सुहमवणफइकाइया पज्जत्तमा संखेज्जगुणा। [240-6 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापर] [225 [240-6 उ.] गौतम ! सबसे अल्प सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अप्तिक हैं, (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं / [7] एएसि णं भंते ! सुहुमनिगोदाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्योवा सुहुमनिगोदा अपज्जत्तगा, सुहुमनिगोदा पज्जत्तया संखेज्जगुणा / [240-7 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म निगोद के पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [240-7 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक हैं, (उनसे) सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक संख्यातगुणे हैं / 241. एतेसि णं भंते ! सुहमाणं सुहमपुढविकाइयाणं सुहमाउकाइयाणं सुहंमतेउकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहमवणस्सइकाइयाणं सुहुमनिगोदाण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया बा तुल्ला वा बिसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा 1, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 2, सुहुमनाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 3, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 4, सुहंमतेउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 5, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 6, सुहंमअाउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 7, सुहृमवाउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 8, सुहुमनिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 6, सुहमनिगोदा पज्जत्तया संखेज्जगुणा 10, सुहुमवणप्फइकाइया अपज्जत्तया अणंतगुणा 11, सुहमा अपज्जत्तया विसेसाहिया 12, सुहुमवणफइकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा 13, सुटुमा पउजत्तया विसेसाहिया 14, सुहुमा विसेसाहिया 15 / [241 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोदों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [241 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 7. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 8. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 10. (उनसे) सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 11. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 12. (उनसे) सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, 13. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 14. (उनसे) सूक्ष्म पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं और 15. (उनसे भी) सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] [प्रज्ञापनासूत्र 242. एतेसि णं भंते ! बादराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरप्राउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तेयसरीरबादरवणफइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सन्धत्थोवा बादरा तसकाइया 1, बादरा तेउकाइया असंखेज्जगुणा 2. पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया असंखेज्जगुणा 3, बादरा निगोदा असंखेज्जगुणा 4, बादरा पुढविकाइया असंखेज्जगुणा 5, बादरा पाउकाइया असंखेज्जगुणा 6, बादरा वाउकाइया असंखेज्जगुणा 7, बादरा वणप्फइकाइया अणंतगुणा 8, बादरा विसेसाहिया 6 / [242 प्र.] भगवन् ! इन बादर जीवों, बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, बादर तेजस्कायिकों, बादर वायुकायिकों, बादर वनस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [242 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े बादर सकायिक हैं, 2. (उनसे) बादर तेजस्कायिक असंख्येयगणे हैं, 3. (उनसे) प्रत्येक शरीर बादर बनस्पतिकायिक असंख्येयगणे हैं, 4. (उनसे) बादर निगोद असंख्येयगुणे हैं, 5. (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक असंख्येयगुणे हैं, 6. (उनसे) बादर अप्कायिक असंख्येयगुणे हैं, 7. (उनसे) बादर वायुकायिक असंख्येयगुणे हैं, 8. (उनसे) बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, और ह. (उनसे भी) बादर जीव विशेषाधिक है। 243. एतेसि गं भंते ! बादरअपज्जत्तगाणं बादरपुढविकाइयअपज्जत्तगाणं बादरप्राउकाइयअपज्जत्तगाणं बादरतेउकाइयनपज्जत्तगाणं बादरवाउकाइयश्रपज्जत्तगाणं बादरवणफइकाइयप्रपज्जत्तगाणं पत्तेयसरीरबादरवणाफइकाइयअपज्जत्तगाणं बादरनिगोदापज्जत्तगाणं बादरतसकाइयापज्जत्ताण य कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुंया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतसकाइया अपज्जत्तगा 1, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, पत्तेयसरीरबादरवण'फइकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगणा 3, बादरनिगोदा प्रपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 5, बादराउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 6, बादरवाउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 7, बादरवणप्फइकाइया अपज्जत्तगा अणंतगुणा 8, बादरअपज्जत्तगा विसेसाहिया है। __[243 प्र.] भगवन् ! इन बादर अपर्याप्तकों, बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तकों, बादर अप्कायिक-अपर्याप्तकों, बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तकों, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तकों, बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों, बादर निगोदअपर्याप्तकों एवं बादर त्रसकायिक-अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [243 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम बादर त्रसकायिक अपर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) बादर निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) बादर पृथ्वी Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद]] [ 227 कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) बादर अप्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 7. (उनसे) बादर वायुकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 8. (उनसे) बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और 9. (उनसे भी) बादर अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं / 244. एतेसि णं भंते ! बादरपज्जत्तयाणं बादरपुढविकाइयपज्जतयाणं बादरग्राउकाइयपज्जत्तयाणं बादरतेउकाइयपज्जत्तयाणं बादरवाउकाइयपज्जत्तयाणं बादरवणफइकाइयपज्जत्तयाणं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइयपज्जत्तयाणं बादरनिगोदपज्जत्तयाणं बादरतसकाइयपज्जत्तयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतेउक्काइया पज्जत्तया 1, बादरतसकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 2, पत्तेयसरीरबायरवणप्फइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, बायरनिगोदा पज्जतगा असंखेज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 5, बादरग्राउकाइया पज्जत्तगा असंखिज्जगुणा 6, बादरवाउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 7, बादरवणप्फइकाइया पज्जत्तया प्रगतगुणा 8, बायरपज्जत्तया विसेसाहिया है। __[244 प्र.] भगवन् ! इन बादर पर्याप्तकों, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों, बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों, बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तकों, बादर वायुकायिक-पर्याप्तकों, बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों, प्रत्येक-शरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों, बादर निगोद-पर्याप्तकों एवं बादर त्रसकायिक-पर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? / [244 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणें हैं, 5. (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) बादर अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 7. (उनसे) बादर वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 8. (उनसे) बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) 6. बादर पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं। 245. [1] एतेसि णं भंते ! बादराणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा बादरा पज्जतगा, बायरा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा / [२४५-१प्र.) भगवन् ! इन बादर पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [245-1 प्र.] गौतम ! सबसे अल्प बादर पर्याप्तक जीव हैं, (उनसे) बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। [2] एतेसि णं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [प्रज्ञापनासून [245-2 प्र.] भगवन् ! इन बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [245-2 उ.) गौतम ! सबसे थोड़ें बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक हैं, (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणें हैं। [3] एतेसि णं भंते ! बादरप्राउकाइयाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया था ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरप्राउकाइया पज्जत्तगा, बादरग्राउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। [245-3 प्र.] भगवन् ! इन बादर अप्कायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [245-3 उ.] गौतम ! सबसे कम बादर अप्कायिक-पर्याप्तक हैं, (उनसे) बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। [4] एतेसि णं भंते ! बादरतेउकाइयाणं पज्जताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तया, बादरतेउक्काइया अपज्जत्तया असंखेज्ज गुणा। [245-4 प्र.] भगवन् ! इन बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [245-4 उ.] गौतम ! सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक हैं, (उनसे) बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। [5] एतेसि णं भंते ! बादरवाउकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सस्वत्थोवा बादरवाउकाइया पज्जत्तगा, बादरवाउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा। [245-5 प्र.] भगवन् ! इन बादर वायुकायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [245-5 उ.] गौतम ! सबसे अल्प बादर वायुकायिक-पर्याप्तक हैं और (उनसे) बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। [6] एतेसि णं भंते ! बादरवणप्फइकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरोहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 229 गोयमा सम्वत्थोवा बादरवणप्फइकाइया पज्जत्तगा, बादरवणफइकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा / [245-6 प्र.] भगवन् ! इन बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [245-6 उ.] गौतम ! सबसे कम बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक हैं, (उनसे) बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुण हैं। [7] एतेसि णं भंते ! पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया था ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया पज्जत्तगा, पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा। [245-7 प्र.] भगवन् ! प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [245-7 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक हैं, (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / [8] एतेसि णं भंते ! बादरनिगोदाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया का तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरनिगोदा पज्जत्तगा, बादरनिगोदा अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा / [245-8 प्र.] भगवन् ! इन बादर निगोद-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [245-8 उ.गौतम ! सबसे अल्प बादर निगोद-पर्याप्तक हैं, (उनसे) असंख्यातगुणे बादर निगोद-अपर्याप्तक हैं। [6] एएसि णं भंते ! बादरतसकाइयाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतसकाइया पज्जत्तगा, बादरतसकाइया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा। [245.9 प्र.] भगवन् ! इन बादर सकायिक-पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? _ [245-9 उ.] गौतम ! सबसे कम बादर त्रसकायिक-पर्याप्तक हैं (और उनसे) बादर सकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 [प्रज्ञापनासूत्र 246. एएसि णं भंते ! बावराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरग्राउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणस्सइकाइयाणं पत्तयसरीरबादरवणप्फइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य पज्जत्ताऽयज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तया 1, बादरतसकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 2, बादरतसकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 4, बादरनिगोदा पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 5, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 6, बावराउकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 7, बादरवाउकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 8, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 6, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया प्रपज्जत्तया असंखेज्ज. गुणा 10, बादरनिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 11, बादरपुढधिकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 12, बादरग्राउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 13, बादरवाउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 14, बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तगा अणंतगुणा 15, बादरपज्जत्तगा बिसेसाहिया 16, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगणा 17, बादरनपज्जत्तगा विसेसाहिया 18, बादरा विसेसाहिया 16 / [246 प्र.] भगवन् ! इन बादर-जीवों, बादर-पृथ्वीकायिकों, बादर-अप्कायिकों, बादरतेजस्कायिकों, बादर-वायुकायिकों, बादर-वस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिकों, बादर निगोदों और बादर त्रसकायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [246 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े बादर-तेजस्कायिक-पर्याप्तक हैं। 2. (उनसे) बादरत्रसकायिक-पर्याप्तफ असंख्यातगुणे हैं। 3. (उनसे) बादर-त्रसकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 4. (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 5. (उनसे) बादरनिगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 6. (उनसे) बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 7. (उनसे) बादर-अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 8. (उनसे) बादर-वायुकायिक-पर्याप्तक असख्यातगुण है। 6. (उनस) बादर-तेजस्कायिक-अपयोप्तक असंख्यातगुणं है / 10. (उनस) प्रत्येक. शरीर-बादर-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 11. (उनसे) बादर-निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 12. (उनसे) बादर-पृथ्वी कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 13. (उनसे) बादर-अप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / 14. (उनसे)बादर-वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / 15. (उनसे) बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं। 16. (उनसे) बादर-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं। 17. (उनसे) बादर बनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। 18. (उनसे) बादर-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं और 16. (उनसे भी) बादर जीव विशेषाधिक हैं। 247. एतेसि णं भंते ! सुहमाणं सुहमपुढविकाइयाणं सुहुमनाउकाइयाणं सुहुमतेउकाइयाणं सुहमवाउकाइयाणं सुहमवणफइकाइयाणं सुहुमनिगोदाणं बादराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरग्राउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकाइयाणं बादरवणप्फइकाइयाणं पत्तेयसरीरबायरवणफइकाइयाण बादरणिगोदाणं बादरतसकाइयाण य कतरे कतरोहितो अप्पा वा बहया वा तल्ला वा विसेस गोयमा ! सवत्थोबा बादरतसकाइया 1, बादरतेउकाइया प्रसंखेज्जगुणा 2, पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया असंखेज्जगुणा 3, बादरनिगोदा असंखेज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया असंखेज्ज. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [231 गुणा 5, बादरप्राउकाइया असंखेज्जगुणा 6, बादरवाउकाइया असंखेज्जगुणा 7, सुहमतेउकाइया असंखेज्जगुणा 8, सुहुमपुढविकाइया विसेसाहिया 6, सुहुम ग्राउकाइया विसेसाहिया 10, सुहुमबाउकाइया विसेसाहिया 11, सुहमणिगोदा असंखेज्जगुणा 12, बादरवणस्सइकाइया अणंतगुणा 13. बादरा विसेसाहिया 14, सुहुमवणस्सइकाइया असंखेज्जगुणा 15, सुहुमा विसेसाहिया 16 / [247 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्मजीवों, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिकों, सूक्ष्म-अप्कायिकों, सूक्ष्मतेजस्कायिकों, सूक्ष्मवनस्पतिकायिकों, सूक्ष्मनिगोदों तथा बादरजीवों, बादर-पृथ्वीकायिकों, बादरअप्कायिकों, बादर-तेजस्कायिकों, बादर-वायुकायिकों, बादर-वनस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पतिकायिकों, बादर-निगोदों और बादर-त्रसकायिकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [247 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े बादर-त्रसकायिक हैं, 2. (उनसे) बादर तेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर-बनस्पतिकायिक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) बादरनिगोद असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) बादर-पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) बादरअप्कायिक असंख्यातगुणे हैं, 7. (उनसे) बादर-वायुकायिक असंख्यातगुणे हैं, 8. (उनसे) सूक्ष्मतेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, ह. (उनसे) सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, 10. (उनसे) सूक्ष्मअप्कायिक विशेषाधिक हैं, 11. (उनसे) सूक्ष्म-वायुकायिक विशेषाधिक हैं, 12. (उनसे) सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुणे हैं, 13. (उनसे) बादर-वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, 14. (उनसे) बादरजीव विशेषाधिक हैं, 15. (उनसे) सूक्ष्म-बनपतिकायिक असंख्यातगुणे हैं 16. (और उनसे भी) सूक्ष्मजीव विशेषाधिक हैं। 248. एतेसि णं भंते ! सुहमअपज्जत्तयाणं सुहुमपुढविकाइयाणं प्रपज्जत्तगाणं सुहुमनाउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं सुहमतेउकाइयाणं प्रपज्जत्तयाणं सुहमवाउकाइयाणं अपज्जत्तयाणं सुहमवणफइकाइयाणं अपज्जत्तगाणं सुहमणिगोदापज्जत्तयाणं बादरापज्जत्तयाणं बादरपुढविकाइयापज्जत्तयाणं बादरग्राउकाइयापज्जत्तयाणं बादरते उकाइयापज्जत्तयाणं बादरवाउकाइयापज्जत्तयाणं बादरवणप्फइकाइयापज्जत्तयाणं पत्तेयसरीरबादरवणफइकाइयापज्जत्तयाणं बादरणिगोदापज्जत्तयाणं बादरतसकाइयापज्जत्तयाणं कतरे कतरोहितो अस्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतसकाइया अपज्जत्तगा 1, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, बादरणिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया प्रपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 5, बादरप्राउक्काइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 6, बादरवाउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा७, सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्ज. गुणा 8, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 6, सुहृमनाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 10, सुहमवाउकाइया अपज्जतगा विसेसाहिया 11, सुहृमणिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 12, बादरवणप्फइकाइया अपज्जत्तगा अगंतगुणा 13, बादर अपज्जत्तगा विसेसाहिया 14, सुमवणफइकाइया अपज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा 15, सुहृमा अपज्जत्तगा विसेसाहिया 16 / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [248 प्र. भगवन् ! इन सूक्ष्म-अपर्याप्तकों, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तकों, सूक्ष्म-अप्कायिक अपर्याप्तकों, सूक्ष्म-तेजस्कायिक-अपर्याप्तकों, सूक्ष्म-वायुकायिक-अपर्याप्तकों, सूक्ष्म-वनस्पतिकायिकअपर्याप्तकों, सूक्ष्म-निगोद-अपर्याप्तकों, बादर-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तकों, बादर-अप्कायिकअपर्याप्तकों, बादर-तेजस्कायिक-अपर्याप्तकों, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तकों, बादर-वनस्पतिकायिकअपर्याप्तकों, प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तकों, बादर-निगोद-अपर्याप्तकों, बादर निगोद-अपर्याप्तकों एवं बादर-त्रसकायिक-अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [248 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े बादरत्रसकायिक-अपर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादरतेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) प्रत्येकशरीर-बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुण हैं, 4. (उनसे) बादरनिगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) बादर-पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुण हैं, 6. (उनसे ) बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 7. (उनसे) वादर-वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 8. (उनसे) सूक्ष्मतेजस्कायिकअपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 10. (उनसे) सूक्ष्म-अप्कायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 11. (उनसे) सूक्ष्मवायुकायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 12. (उनसे) सूक्ष्म-निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 13. (उनसे) बादरवनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 14. (उनसे) बादर-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 15. (उनसे) सूक्ष्मवनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) 16. सूक्ष्म-अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं। 246. एतेसि णं भंते ! सुहमपज्जत्तयाणं सुहमपुढविकाइयपज्जत्तयाणं सुहुमनाउकाइयपज्जत्तयाणं सुहुमतेउकाइयपज्जत्तयाणं सुहुमवाउकाइयपज्जत्तयाणं सुहृमवणप्फइकाइयपज्जत्तयाणं सुहमनिगोयपज्जत्तयाणं बादरपज्जतयाणं बादरपुढविकाइयपज्जत्तयाणं बादरग्राउकाइयपज्जत्तयाणं बादरतेउकाइयपज्जत्तयाणं बादरवाउकाइयपज्जत्तयाणं बादरवणप्फइकाइयपज्जत्तयाणं पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइयपज्जत्तयाणं बादरनिगोदपज्जत्तयाणं बादरतसकाइयपज्जत्तयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तगा 1, बादरतसकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, पत्तयसरीरबादरवणप्फइकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, बादरनिगोदा पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 4, बादरपुढविकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 5, बादरग्राउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 6, बादरवाउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 7, सुहुमतेउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 8, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 6, सुहुमनाउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 10, सुहमवाउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 11, सुहम निगोदा पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 12, बादरवणष्फइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा 13, बादरा पज्जत्तया विसेसाहिया 14, सुटुमवणस्सइकाया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 15, सुटुमा पज्जत्तया विसेसाहिया 16 / [246 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म-पर्याप्तकों, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों, सूक्ष्म-अप्कायिकपर्याप्तकों, सूक्ष्म-तेजस्कायिक-पर्याप्तकों, सूक्ष्म-वायुकायिक-पर्याप्तकों, सूक्ष्म-वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 233 सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तकों, बादर-पर्याप्तकों, बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तकों, बादर-अप्कायिक-पर्याप्तकों, बादर-तेजस्कायिक-पर्याप्तकों, बादर-वायुकायिक-पर्याप्तकों, बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों, प्रत्येकशरीर बादर-वनस्पतिकायिक-पर्याप्तकों, बादर-निगोद-पर्याप्तकों और बादरत्रसकायिक-पर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [246 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर त्रसकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) प्रत्येकशरीर-बादरवनस्पतिकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) बादर-निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुण हैं, 5. (उनसे) बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) बादर-अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 7. (उनसे) बादर-वायुकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 8. (उनसे) सूक्ष्म-तेजस्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वोकायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं. 10. (उनसे) सूक्ष्मअप्कायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 11. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 12. (उनसे) सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 13. (उनसे) बादरवनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 14. (उनसे) बादर-पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, 15. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) 16. सूक्ष्म-पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं / 250. [1] एएसि गं भंते ! सुहमाणं बादराण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सवयोवा बादरा पज्जत्तगा 1, बादरा अपज्जत्तगा असंखेज्ज गुणा 2, सुहमा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, सुहुमा पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 4 // 250-1 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म और बादर जीवों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [250-1 उ.] गौतम ! 1. (इनमें) सबसे थोड़े बादर पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं और 4. (उनसे भी) सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [2] एएसि गं भंते ! सुहुमपुढविकाइयाणं बादरपुढविकाइयाण य पज्जत्ताऽपज्जताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सम्वत्थोवा बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा 1, बादरपुढविकाइया अपज्जतया असंखेज्जगुणा 2, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 3, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा 4 / [250-2 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों और बादर पृथ्वीकायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [250-2 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वोकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) 4. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [प्रज्ञापनासूत्र [3] एएसि णं भंते ! सुहमाउकाइयाणं बादराउकाइयाण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादराउकाइया पज्जत्तया 1, बादरग्राउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 2, सुहुमनाउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 3, सुहमप्राउकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा 4 // [250-3 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म अप्कायिकों और बादर अप्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [250-3 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प बादर अप्कायिक-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं; 3. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) 4. सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [4] एएसि णं भंते ! सुहुमतेउकाइयाणं बादरतेउकाइयाण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तगा 1, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, सुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 4 / [250-4 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म तेजस्कायिकों और बादर तेजस्कायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [250-4 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुण हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे भी)सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [5] एएसि गं भंते सुहुमवाउकाइयाणं बादरवाउकाइयाण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुंया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरवाउकाइया पज्जत्तया 1, बादरवाउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 2, सुहुमवाउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 3, सुहुमवाउकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा 4 / [250-5 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म वायुकायिकों तथा बादर वायुकायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [250-5 उ.] गौतम ! 1. सवसे थोड़े बादर वायुकायिक-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे अधिक हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक हैं, 4. (और उनसे भी) सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं / [6] एएसि णं भंते ! सुहुमवणस्सतिकाइयाणं बादरवणस्सतिकाइयाण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरोहितो अध्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [235 . गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरवणस्सइकाइया पज्जत्तया 1, बादरवणस्सतिकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 2, सुहमवणस्सइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 3, सुहमवणस्सइकाइया पज्जत्तया संखेज्जगुणा 4 / [250-6 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [250-6 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम बादर बनस्पतिकायिक-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर बनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक जीव असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) 4. सूक्ष्म वनस्पति कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। [7] एतेसि णं भंते ! सुहमनिगोदाणं बादरनिगोदाण य पज्जताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्योवा बादरनिगोदा पज्जत्तगा 1, बायरनिगोदा अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 2, सुहुमनिगोया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 3, सुहुमानगोदा पज्जतगा संखेज्जगुणा 4 / [250-7 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म निगोदों एवं बादर निगोदों के पर्याप्तकों तथा अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 250-7 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े बादर निगोद-पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर निगोदअपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, (और उनसे भी) 4. सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं / 251. एएसि णं भंते ! सुहमाणं सुहुमपुढविकाइयाणं सुहुमनाउकाइयाणं सुहुमतेउकाइयाणं सुहुमवाउकाइयाणं सुहमवणस्सइकाइयाणं सुहुमनिगोदाणं बादराणं बादरपुढविकाइयाणं बादरग्राउकाइयाणं बादरतेउकाइयाणं बादरवाउकायाणं बादरवणस्ततिकाइयाणं रबादरवणस्सइकाइयाणं बादरनिगोदाणं बादरतसकाइयाण य पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा बादरतेउकाइया पज्जत्तया 1, बादरतसकाइया पज्जतगा असंखेज्जगुणा 2, बादरतसकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 3, पत्तेयसरीरबादरवणफइकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 4, बादरनिगोदा पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 5, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 6, बादरमा उकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 7, बादरवाउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 8, बादरतेउक्काइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 6, पत्तेयसरीरबादरवणफइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 10, बायरणिगोया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 11, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगणा 12, बायरमा उकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 13, बादरवाउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 14, सुहुमते उकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 15, सुहुमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 16, सुहुमपाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 17, सुहुमबाउकाइया अपज्जत्तया विसेसाहिया 18, सुहुमतेउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 16, सुहुमपुढविकाइया पज्जत्तगा विसे साहिया 20, सुहमपाउकाइया Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 / [प्रज्ञापनासूत्र पज्जत्तया विसेसाहिया 21, सुहमवाउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 22, सुहमनिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 23, सुहमनिगोदा पज्जत्तया संखेज्जगुणा 24, बादरवणप्फइकाइया पज्जत्तया अणंतगुणा 25, बादरपज्जत्तमा विसेसाहिया 26, बादरवणफइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 27, बादरअपज्जत्तया विसेसाहिया 28, बादरा विसेसाहिया 29, सुहुमवणफतिकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगणा 30, सुहमा अपज्जत्तया विसेसाहिया 31, सुहुमवणफतिकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 32, सुहुमपज्जत्तया विसेसाहिया 33, सुहमा विसेसाहिया 34 / दारं 4 // [251 प्र.] भगवन् ! इन सूक्ष्म-जीवों, सूक्ष्म-पृथ्वीकायिकों, सूक्ष्म-अप्कायिकों, सूक्ष्मतेजस्कायिकों, सूक्ष्म-वायुकायिकों, सूक्ष्म-वनस्पतिकायिकों, सूक्ष्म-निगोदों, बादर-जीवों, बादर-पृथ्वीकायिकों, बादर-अप्कायिकों, बादर-तेजस्कायिकों, बादर-वायुकायिकों, बादर-वस्पतिकायिकों, प्रत्येकशरीर-बादर-वनस्पतिकायिकों, बादर-निगोदों और बादर-त्रसकायिकों के पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [251 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, 2. (उनसे) बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) बादर असकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) बादर निगोद पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 7. (उनसे) बादर अकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 8. (उनसे) बादर वायुकायिक पर्याप्त असंख्यातगणे हैं, 1. (उनसे) बादर तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 10. (उनसे) प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 11. (उनसे) बादर निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगणे हैं. 12. (उनसे) बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 13. (उनसे) बादर अकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 14. (उनसे) बादर वायुकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 15. (उनसे) सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 16. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 17. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 18. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 16. (उनसे) सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 20. (उनसे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 21. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 22. (उनसे) सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 23. (उनसे) सक्ष्म निगोद पर्याप्तक असंख्यातगणे हैं, 24. (उनसे) सक्ष्म निगोद पर्याप्तक संख्यातगा 25. (उनसे) बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 26. (उनसे) बादर पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, 27. (उनसे) बादर वनस्पतिकाय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 28 (उनसे) बादर अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, 29. (उनसे) बादर जीव विशेषाधिक हैं, 30. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 31. (उनसे) सूक्ष्म अपर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं; 32. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 33. (उनसे) सूक्ष्म पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, (और उनसे भी) 34. सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं। चतुर्थ-द्वार / / 4 / / विवेचनकायद्वार के अन्तर्गत सूक्ष्म-बादर-कायद्वार–प्रस्तुत 15 सूत्रों (सू. 237 से 251 तक) में सूक्ष्म और बादर को लेकर कायद्वार के माध्यम से विभिन्न पहलुओं से अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [237 1. समुच्चय में सूक्ष्म जीवों का अल्पबहुत्व-सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव सबसे अल्प हैं, वे असंख्यात लोकाकाश प्रदेश के बराबर है। इनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक विशेषाधिक है, क्योंकि वे प्रचुर असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर हैं। इनसे सूक्ष्म अप्कायिक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रचरतर असंख्येय लोकाकाश प्रदेशों के बराबर हैं। इनसे सूक्ष्म वायुकायिक विशेषाधिक हैं; क्योंकि वे प्रचरतम असंख्यात लोकाकाश प्रदेश-प्रमाण हैं। उनकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद असंख्यातगुणे हैं / जो अनन्तजीव एक शरीर के आश्रय में रहते हैं, वे निगोद जीव कहलाते हैं। निगोद दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और बादर / सूरणकन्द आदि में बादर निगोद हैं, सूक्ष्म निगोद समस्त लोक में व्याप्त हैं। वे एक-एक गोलक में असंख्यात-असंख्यात होते हैं / इसलिए वे वायुकायिकों से असंख्यात. गुणे हैं। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येकनिगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। उनकी अपेक्षा सामान्य सूक्ष्मजीव विशेषाधिक है, क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकाय आदि का भी उनमें समावेश हो जाता है। 2. सूक्ष्म-अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व-सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व भी पूर्वोक्त क्रम से समझ लेना चाहिए। 3. सूक्ष्म पर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व-इसके अल्पबहुत्व का क्रम भी पूर्ववत् है / 4. सूक्ष्म से लेकर सूक्ष्मनिगोद तक के पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों का पृथक-पृथक् अल्पबहुत्व-इनके प्रत्येक के अल्पबहुत्व में सूक्ष्म अपर्याप्तक सबसे कम हैं और उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक जीव चिरकालस्थायी रहते हैं। इसलिए वे सदैव अधिक संख्या में पाए जाते हैं। 5. समुदितरूप से सूक्ष्म पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व--सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त हैं, कारण पहले बता चुके हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमश: सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक हैं ; विशेषाधिक का अर्थ है--थोड़ा अधिक; न दुगुना, न तिगुना। इनकी विशेषाधिकता का कारण पहले कहा जा चुका है। उनकी (सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त की) अपेक्षा सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, अपर्याप्त से पर्याप्त संख्यातगुणे अधिक होते हैं, यह पहले कहा जा चुका है। अतः उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक एवं सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं, उनसे सक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगूगे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचर संख्या में हैं। उनसे सक्ष्म निगोद पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तों से पर्याप्त सामान्यतः संख्यातगुणे अधिक होते हैं। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक निगोद में वे अनन्त-अनन्त होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्त जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायादि का भी उनमें समावेश हो जाता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, इसका कारण पहले कहा जा चुका है / उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायादि पर्याप्तकों का भी उनमें समावेश है। उनसे सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों, सभी का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्माश्रित पांच सूत्र हुए। अब बादराश्रित पांच सूत्र इस प्रकार हैं-- 6. समुच्चय में बादर जीवों का अल्पबहुत्व-सबसे कम बादर त्रसकायिक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियादि ही बादर त्रस हैं, और वे शेष कायों से अल्प हैं। उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्यातगुणे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238]. [ प्रज्ञापनासूत्र हैं, क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश-प्रदेश-प्रमाण हैं। उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक तो सिर्फ मनुष्यक्षेत्र में ही होते हैं जबकि प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकों का क्षेत्र उनसे असंख्यातगुणा अधिक है / प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद में बताया है कि स्वस्थान में 7 घनोदधि, 7 घनोदधिवलय, इसी तरह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिरछे लोक आदि में जहाँ-जहाँ जलाशय होते हैं, वहाँ सर्वत्र बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों के स्थान हैं। जहाँ बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्तकों के स्थान है, वहीं इनके अपर्याप्तकों के स्थान होते हैं। अतः क्षेत्र असंख्यातगुणा होने से वे भी असंख्यातगुणे हैं। उनसे वादर निगोद असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहनावाले होने के कारण जल में शैवाल आदि के रूप में सर्वत्र पाए जाते हैं। इनकी अपेक्षा बादर पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे आठों पथ्वियों में तथा विमानों, भवनों एवं पर्वतों आदि में विद्यमान हैं। बादर अप्कायिक उनसे भी अनन्तगुणे अधिक है, क्योंकि समुद्रों में जल की प्रचुरता होती है। उनकी अपेक्षा बादर वायुकायिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सभी पोली जगहों में वायु विद्यमान रहती है। उनसे बादर बनस्पतिकायिक अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि बादर निगोद में अनन्त जीव होते हैं। बादर जीव उनसे विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि बादर द्वीन्द्रिय आदि सभी जीवों का उनमें समावेश होता है। 7-8. बादर अपर्याप्तकों तथा पर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-बादर जीवों के अपर्याप्तकों एवं पर्याप्तकों के अल्पबहुत्व का क्रम भी प्रायः पूर्वसूत्र (सू. 242) के समान है। बादर पर्याप्तकों के अल्पबहुत्व में सिर्फ प्रारम्भ में अन्तर है-वहाँ सबसे अल्प बादर त्रसकायिक अर्याप्तक के बदले वादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं। शेष सब पूर्ववत् ही है। इनके अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण भी पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 6. बादर पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का पृथक-पृथक् अल्पबहुत्व-बादर जीवों में एक-एक पर्याप्तक के आश्रित असंख्येय बादर अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। इस नियम से बादर जीवों, वादर पृथ्वीकायिकों आदि में सर्वत्र पर्याप्तकों से अपर्याप्तक असंख्यातगुणे अधिक होते हैं। 10. समदितरूप से बादर, बादर पृथ्वोकायिकादि पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्वसबसे कम बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक हैं, बादर सकायिक पर्याप्तक उनसे असंख्यातगुण हैं, बादर त्रसकायिक अपर्याप्तक, बादर प्रत्येकवनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर निगोद पर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक, बादर अप्कायिक पर्याप्तक एवं बादर वायुकायिक पर्याप्तक क्रमशः उत्तरोत्तर असंख्यगुणे हैं। इनके अल्पबहुत्व को पूर्वोक्त युक्तियों से समझ लेना चाहिए / उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुगे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद में वे अनन्त-अनन्त होते हैं। उनकी अपेक्षा समुच्चय बादर पर्याप्त विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर तेजस्कायिक प्रादि सभी का समावेश हो जाता है। बादर पर्याप्तों की अपेक्षा बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक एवं बादर क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, इसका कारण पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 11. समुच्चय में सूक्ष्म-बादरों का अल्पबहुत्व-(सू. 247 के अनुसार) सबसे कम बादर त्रसकायिक हैं, उसके बाद बादर वायुकायिकपर्यन्त बाद रगत विकल्पों का अल्पबहुत्व पूर्ववत् समझता चाहिए / तदनन्तर सूक्ष्म निगोदपर्यन्त सूक्ष्मगत विकल्पों का अल्पबहुत्व भी पूर्ववत् जान लेना चाहिए। उसके पश्चात बादर वनस्पतिकायिक अनन्तगूणे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। उनसे वादर अपर्याप्तक विशेषाधिक है, क्योंकि बादर तेजस्कायिक आदि का भी उनमें Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [ 239 समावेश हो जाता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक असंख्यातगुणे हैं; क्योंकि बादर निगोदों से सूक्ष्म निगोद असंख्यातगुणे हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म विशेषाधिक हैं, क्योंकि सूक्ष्म तेजस्कायिकादि का भी उनमें समावेश हो जाता है / 12-13. सक्षम-बादर के पर्याप्तकों एवं अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-(सू. 248 में अनुसार) अप्तिकों में सबसे अल्प बादर त्रसकायिक अपर्याप्त है / उसके पश्चात् बादर तेजस्कायिक, प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, वादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त उत्तरोत्तर क्रमश: असंख्यातगुणे हैं। इसका स्पष्टीकरण द्वितीय अपर्याप्तकसूत्र की तरह समझना चाहिए। बादर वायुकायिक अपर्याप्तकों से सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों के बराबर हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमश: असंख्यातगुणे हैं; इसका समाधान सूक्ष्मपंचसूत्रो में द्वितीयसूत्रवत् समझ लेना चाहिए। सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तकों से बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद में अनन्त जीवों का सद्भाव है। उनसे सामान्यतः बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर त्रसकायिक अपर्याप्तकों का भी उनमें समावेश है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादर निगोद-अपर्याप्तकों से सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्मापर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तकों का भी समावेश हो जाताहै / पर्याप्तकों में (सू. 246 के अनुसार) बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक सबसे थोड़े हैं। उसके पश्चात् बादर त्रसकायिक, बादर प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक एवं बादर वायुकायिक-पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगणे हैं, क्योंकि बादर बायकायिक असंख्यातप्रतरप्रदेश-राशिप्रमाण हैं। उसके पश्चात् सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं / सूक्ष्म वायुकाथिक-पर्याप्तकों से सूक्ष्मनिगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर होने से प्रत्येक गोलक में विद्यमान हैं। उनसे बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक है, क्योंकि उनमें सूक्ष्म तेजस्कायिकादि पर्याप्तकों का भी समावेश होता है। 14. सूक्ष्म-बादर पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-(सूत्र. 250 के अनुसार) सबसे कम बादर पर्याप्तक हैं, क्योंकि वे परिमित क्षेत्रवर्ती हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक-एक बादर पर्याप्तक के आश्रित असंख्यात बादर अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं; उनसे सक्ष्म अपर्याप्तक असंख्यातगूणे हैं, क्योंकि सर्वलोक में व्याप्त होने के कारण उनका क्षेत्र असंख्यातगुणा है; उनसे सक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि चिरकालस्थायी रहने के कारण वे सदैव संख्यातगणे पाए जाते हैं। इसी प्रकार आगे सूक्ष्म-बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं निगोदों के पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों के पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की घटना कर लेनी चाहिए। 15. समुदितरूप में सूक्ष्म बादर के पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व-(सू. 251 के अनसार) सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक हैं, क्योंकि कुछ समय कम प्रावलिका-समयों से गणित आवलिका-समयवर्ग में जितनी समयराशि होती है, वे उतने प्रमाण हैं। उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि प्रतर में जितने अंगुल के संख्यातभाग-मात्र खण्ड होते हैं, ये उतने Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [प्रज्ञापनासूत्र प्रमाण हैं / उनसे बादरत्रसकायिक अपर्याप्त संख्यातगुणे हैं / जो पूर्ववत् युक्ति से समझना चाहिए। उनसे प्रत्येक बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक-पर्याप्तक यथोत्तरक्रम से असंख्यातगुणे हैं / इसके समाधान के लिए पूर्ववत् युक्ति सोच लेनी चाहिए। उनसे बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं; क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं / उसके बाद प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर-पृथ्वी यक, बादर अप्कायिक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रम से असंख्यातगणे हैं। उनसे सक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगणे हैं, उनसे सक्ष्म पथ्वीकायिक, सक्ष्म अप्कायिक, सक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं. उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त संख्यातगुणे हैं, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों की अपेक्षा पर्याप्त प्रोघतः ही संख्येयगणे होते हैं / उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक एवं सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रम से विशेषाधिक हैं। उनसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुररूप में सर्वलोक में होते हैं। उनसे पूर्व नियमानुसार सूक्ष्मनिगोद-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे हैं; यह भी पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए। उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं; क्योंकि उनमें बादर पर्याप्त तेजस्कायिकादि का भी समावेश हो जाता है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक-बादर निगोद के आश्रित असंख्यात बादर निगोदअपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। उनकी अपेक्षा सामान्यतया बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तकों का समावेश भी होता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगणे हैं, क्योंकि बादरनिगोदों से सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे होते ही हैं। उनसे सामान्यतया सूक्ष्म-अपर्याप्तक संख्यातगुणे हैं; क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायादि के अपर्याप्तकों का भी उनमें समावेश होता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त संख्यातगुणे हैं, क्योंकि इनके अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्यातगुणे होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि का भी समावेश होता है। उनकी अपेक्षा पर्याप्त-अपर्याप्तविशेषणरहित केवल सूक्ष्म (सामान्य) विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें पर्याप्त-अपर्याप्त दोनों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्म-बादर-समुदायगत अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए।' // चतुर्थ कायद्वार समाप्त / / पंचम योगद्वार : योगों की अपेक्षा से जोवों का अल्पबहुत्व 252. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीण य कतरे कतरेहितों अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? / गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी 1, वइजोगी असंखेज्जगुणा 2, अजोगी अणंतगुणा 3, कायजोगी प्रणतगुणा 4, सजोगो विसेसाहिया 5 / दारं 5 // [252 प्र.] भगवन् ! इन सयोगी (योगसहित), मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 1. (क) पण्णवणासुत्त (मूलपाठ युक्त) भा. 1, पृ. 88 से 96 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक पृ. 124 से 134 तक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [241 - [252 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प जीव मनोयोग वाले हैं, 2. (उनसे) वचनयोग वाले जीव असंख्यातगणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) अयोगी अनन्तगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) काययोगी अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) 5. सयोगी विशेषाधिक हैं। -पंचम द्वार // 1 // विवेचन--पंचम योगद्वार : योगों को अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व-प्रस्तुत सत्र (252) में सयोगी, अयोगी, मनो-वचन-काययोगी की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। सबसे कम मनोयोगी जीव हैं, क्योंकि संज्ञीपर्याप्त जीव ही मनोयोग वाले होते हैं और वे थोडे ही हैं। उनसे वचनयोगी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय आदि वचनयोगी संज्ञीजीवों से असंख्यातगुणे हैं, उनकी अपेक्षा अयोगी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्धजीव अनन्त हैं। उनसे काययोग वाले जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिकजीव ही सिद्धों से अनन्त हैं / यद्यपि अनन्त निगोदजीवों का एक शरीर होता है, तथापि उसी शरीर से सभी आहारादि ग्रहण करते हैं, इसलिए उन सभी के काययोगी होने के कारण उनके अनन्तगुणत्व में कोई बाधा नहीं पाती / उनकी अपेक्षा सामान्यतः सयोगी विशेषाधिक हैं, क्योंकि सयोगी में द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव आ जाते हैं।' छठा वेदद्वार : वेदों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व 253. एएसि णं भंते ! जीवाणं सवेदगाणं इत्थीवेदगाणं पुरिसवेदगाणं नपुंसकवेदगाणं अवेदगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोचा जीवा पुरिसवेदगा 1, इत्थीवेदगा संखेज्जगुणा 2, प्रवेदगा अणंतगुणा 3, नपुंसगवेदगा अणंतगुणा 4, सवेयगा विसेसाहिया 5 / दारं 6 // [253. प्र.] भगवन् ! इन सवेदी (वेदसहित), स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुसकवेदी और अवेदी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [253 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े जीव पुरुषवेदी हैं, 2. (उनसे) स्त्रीवेदी संख्यातगुणे हैं; 3. (उनसे) अवेदी अनन्तगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) नपुसकवेदी अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) 5. सवेदी विशेषाधिक हैं। छठा द्वार / / 6 / / विवेचन-छठा वेदद्वारः वेदों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (253) में वेदद्वार के माध्यम से जीवों में अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है। सबसे थोड़े पुरुषवेदी हैं, क्योंकि संज्ञी तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों में ही पुरुषवेद पाया जाता है। उनसे स्त्रीवेदी जीव संख्यातगणे अधिक हैं, क्योंकि जीवाभिगमसूत्र में कहा है-"तिर्यचयोनिक पुरुषों की अपेक्षा तिर्यंचयोनिक स्त्रियां तीन गुनी और त्रि-अधिक होती हैं तथा मनुष्यपुरुषों से मनुष्यस्त्रियां सत्तावीसगुणी एवं सत्तावीस अधिक होती हैं; एवं देवों से देवियां (देवांगनाएँ) बत्तीसगुणी तथा बत्तीस अधिक होती हैं।" इनकी अपेक्षा अवेदक (सिद्ध) अनन्तगुणे होते हैं, क्योंकि स्त्रीवेद, पुरवद और नपुसकवेद से रहित, नौवें गुणस्थान के कुछ ऊपरी भाग से आगे के सभी जीव तथा सिद्ध जीव; ये सभी अवेदी कहलाते हैं, और सिद्ध जीव अनन्त हैं / अवेदकों की अपेक्षा नपुसकवेदी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि नारक, एकेन्द्रिय जीव आदि सब नपुसकवेदी होते हैं और अकेले 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 134 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [प्रज्ञापनासूत्र वनस्पतिकायिक जीव अनन्त है, जो सब नपुसकवेदी ही हैं। उनकी अपेक्षा सामान्यतः सवेदी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि स्त्री-पुरुष-नपुसकवेदी सभी जीवों का उनमें समावेश हो जाता है।' सप्तम कायद्वार : कषायों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व 254. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायकसाईणं लोभकसाईणं अकसाईण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा अकसायी 1, माणकसायी अणंतगुणा 2, कोहकसायी विसेसाहिया 3, मायकसाई विसेसाहिया 4, लोहकसाई विसेसाहिया 5, सकसाई विसेसाहिया 6 / दारं 7 // [254 प्र.] भगवन् ! इन सकषायी, क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी, लोभकषायी और अकषायी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [254 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े जीव अकषायी हैं, 2. (उनसे) मानकषायी जीव अनन्तगुणे हैं, 3. (उनसे) क्रोधकषायी जीव विशेषाधिक है, 4. उनसे मायाकषायी जीव विशेषाधिक हैं, 5. उनसे लोभकषायी विशेषाधिक हैं और (उनसे भी) 6. सकषायी जीव विशेषाधिक है। विवेचन-सप्तम कषायद्वारः कषायों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र(२५४) में कषाय की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है / ___ कषायों की अपेक्षा जीवों की न्यूनाधिकता अकषायी-कषायपरिणाम से रहित जीव सबसे कम हैं, क्योंकि कतिपय क्षीणकषाय आदि गुणस्थानवी मनुष्य एवं सिद्ध जीव ही कषाय से रहित होते हैं / उनसे मानकषायी जीव अनन्तगुणे इसलिए हैं कि छहों जीव-निकायों में मानकषाय पाया जाता है / उनसे क्रोधकषाय वाले, मायाकषाय वाले एवं लोभकषाय वाले क्रमशः उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, क्योंकि क्रोधादिकषायों के परिणाम का काल यथोत्तर विशेषाधिक है / पूर्व-पूर्व कषायों का उत्तरोत्तर कषायों में क्रमशः सद्भाव है ही तथा लोभकषायी की अपेक्षा सकषायी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि सामान्य कषायोदय वाले जीव कुछ अधिक ही हैं, उनमें मानादि कषायोदय वाले सभी जीवों का समावेश हो जाता है। सकषायी शब्द का विशेषार्थ-कषाय शब्द से कषायोदय अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इस दृष्टि से सकषाय का अर्थ होता है कषायोदयवान् या जिसमें वर्तमान में कषाय विद्यमान है वह, अथवा जिसमें विपाकावस्था को प्राप्त कषायकर्म के परमाणु अपने उदय को प्रदर्शित कर रहे हैं, वह जीव / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 134-135 (ख) तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो तिरिक्खजोणिय-इत्थीओ तिगुणीओ, तिरूवाहियाओ य। तहा मणुस्स पुरिसेहितो मणुस्सइत्थीओ सत्तावीसगुणीओ सत्तावीसावुत्तराओ य, तथा देवपुरिसेहितो देवित्थीओ बत्तीसगुणाओ बत्तीसरूवुत्तराओ॥ -जीवाभिगमसूत्र 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 135 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [ 243 अष्टम लेश्याद्वार : लेश्या की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 255. एएसि णं भंते ! जीवाणं सलेस्साणं किण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा 1, पम्हलेस्सा संखेज्जगुणा 2, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा 3, अलेस्सा अणंतगुणा 4, काउलेस्सा प्रणंतगुणा 5, गोललेस्सा विसेसाहिया 6, किण्हलेस्सा विसेसाहिया 7, सलेस्सा विसेसाधिया 8 / दारं 8 // [255 प्र.] भगवन् ! इन सलेश्यों, कृष्णलेश्या वालों, नीललेश्या वालों, कापोतलेश्या वालों तेजोलेश्या वालों, पद्मलेश्या वालों, शुक्ललेश्या वालों एवं लेश्यारहित (अलेश्य) जीवों में से कोन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [255 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले जीव हैं, 2. (उनसे) पद्मलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) तेजोलेश्या वाले जीव संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) लेश्यारहित जीव अनन्तगुणे हैं, 5. (उनसे) कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे हैं, 6. (उनसे) नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं; 7. (उनसे) कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं, 8. (उनसे) सलेश्य जीव विशेषाधिक हैं। अष्टमद्वार // 8 // विवेचन-अष्टम लेश्याद्वारः लेश्या की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व प्रस्तुत सूत्र (255) में सलेश्य, पृथक्-पृथक् षट्लेश्यायुक्त एवं अलेश्य जीवों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है / लेश्याओं की अपेक्षा से अल्पबहुंत्व-सबसे अल्प शुक्ललेश्या वाले जीव हैं, क्योंकि शुक्ललेश्या लान्तक से ले कर अनुत्तर वैमानिक देवों तक में, कतिपय गर्भज कर्मभूमि के संख्यातवर्ष की आयु वाले मनुष्यों में तथा कतिपय संख्यातवर्ष की आयुवाले तिर्यंच-स्त्रीपुरुषों में ही पाई जाती है / उनकी अपेक्षा पद्मलेश्या वाले जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि पद्मलेश्या सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक-कल्प वासी देवों में, बहुसंख्यक गर्भज-कर्मभूमिज संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य-स्त्रीपुरुषों में तथा गर्भजतिर्यञ्च-स्त्रीपुरुषों में पाई जाती है और ये समुदित सनत्कुमार देव आदि, लान्तकदेव आदि से संख्यातगुणे अधिक हैं। उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, क्योंकि समस्त सौधर्म, ईशानकल्प के वैमानिक देवों में, सभी ज्योतिष्क देवों में तथा कतिपय भवनपति, वाणव्यन्तर, गर्भज तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में, बादर-पर्याप्त-एकेन्द्रियों में तेजोलेश्या पाई जाती है / यद्यपि ज्योतिष्कदेव भवनवासी देवों तथा सनत्कुमार आदि देवों से असंख्यातगुणे होने से तेजोलेश्या वाले जीव असंख्यातगुणे कहने चाहिए, तथापि पद्मलेश्या वालों से तेजोलेश्या वाले जीव संख्यातगुणे ही हैं / यह कथन केवल देवों की लेश्याओं को लेकर नहीं किया गया है, अपितु समग्रजीवों को लेकर किया गया है, इसलिए पद्मलेश्या वालों में देवों के अतिरिक्त बहुत-से तिर्यञ्च भी सम्मिलित हैं। इसी तरह तेजोलेश्या वालों में भी हैं, और पदमलेश्या वाले तिर्यञ्च भी बहत हैं। अतएव उनसे तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणे ही अधिक हो सकते हैं, असंख्यातगुणे नहीं / तेजोलेश्या वालों से अलेश्य (लेश्यारहित-सिद्ध) अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्धजीव अनन्त हैं। उनसे कापोतलेश्या बाले जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों में भी कापोतलेश्या सम्भव है और वनस्पतिकायिक Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [ प्रज्ञापनासून जीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। उनसे नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि नीललेश्या वाले जीव कापोतलेश्या वालों से प्रचुरतर होते हैं / उनसे कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततम हैं / उनकी अपेक्षा सामान्यतः सलेश्य जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सलेश्य में नीललेश्यादि वाले सभी लेश्यावान् जीवों का समावेश हो जाता है।' नौवाँ दृष्टि (सम्यक्त्व) द्वार : तीन दृष्टियों की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 256. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सम्मट्ठिीणं मिच्छट्ठिीणं सम्मामिच्छादिट्ठीणं च कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा सम्मामिच्छट्ठिी 1, सम्मट्ठिी अणंतगुणा 2, मिच्छट्टिी अणंतगुणा 3 / दारं // / [256 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [256 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े सम्यग्मिध्यादृष्टि जीव हैं, 2. (उनसे) सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं और 3. (उनसे भी) मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं। नौवाँ दृष्टिद्वार // 6 // विवेचन-नौवां दृष्टि द्वार: तीन दृष्टियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (256) में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि की अपेक्षा जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। सबसे थोड़े सम्यगमिथ्या (मिश्र) दृष्टि जीव हैं, क्योंकि मिश्रदृष्टि के परिणाम का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है, अतएव बहुत ही अल्पकाल होने से प्रश्न के समय वे थोड़े से पाए जाते हैं। उनकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि जीव अनन्त गुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं और वे सम्यग्दृष्टियों में ही सम्मिलित हैं। सम्यग्दृष्टियों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक आदि जीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं और वनस्पतिकायिक मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। दसवाँ ज्ञानद्वार : ज्ञान और प्रज्ञान की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-- __257. एतेसि णं भंते ! जीवाणं प्राभिणिबोहियणाणीणं सुतणाणीणं प्रोहिणाणीणं मणपज्जवणाणीणं केवलणाणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी 1, प्रोहिणाणी असंखेज्जगुणा 2, आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी दो वि तुल्ला विसेसाहिया 3, केवलणाणी अणंतगुणा 4 / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 135-136 (ख) ....."पम्हलेसा गब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणिणीयो संखेज्जगुणायो, तेउलेसा गब्भवतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगणा, तेउलेसानो तिरिक्खजोणिणीओ संखेज्जगुणायो।' प्रज्ञापना. महादण्डक (म. वृ. पृ. 136) 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 137 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से) वि तृतीय बहुवक्तव्यतापद [ 245 [257 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [257 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी हैं, 2. (उनसे) अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं 3. आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी और और श्रुतज्ञानी; ये दोनों तुल्य हैं और (अवधिज्ञानियों से) विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं। 258. एतेसि णं भंते ! जीवाणं मइअण्णाणोणं सुतअण्णाणीणं विहंगणाणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? __ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा विभंगणाणी 1, मइअण्णाणी सुतअण्णाणी दो वि तुल्ला प्रणंतगुणा 2 / [258 प्र.] भगवन् ! इन मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? [258 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, 2. मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों तुल्य हैं और (विभंगज्ञानियों से) अनन्तगुणे हैं / 259. एतेसि गं भंते ! जीवाणं प्राभिणिबोहियणाणीणं सुयणाणीणं प्रोहिणाणीणं मणपज्जवणाणीणं केवलणाणोणं मतिअण्णाणीणं सुतअण्णाणोणं विभंगनाणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी 1, प्रोहिणाणी असंखेज्जगुणा 2, प्राभिणिबोहियणाणी सुतणाणी य दो वि तुल्ला विसेसाहिया 3, विहंगणाणी असंखेज्जगुणा 4, केवलणाणी अणंतगुणा 5, मइअण्णाणी सुतअण्णाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा 6 / दारं 10 // [259 प्र.] भगवन् ! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [256 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प मन:पर्यवज्ञानी जीव हैं, 2. (उनसे) अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, 3. प्राभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों तुल्य हैं और (अवधिज्ञानियों से) विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) विभंगज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, 6. मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी, दोनों तुल्य हैं और (केवलज्ञानियों से) अनन्तगुणे हैं। दशम (ज्ञान) द्वार / / 10 // विवेचन-दसवाँ ज्ञानद्वार : ज्ञान-प्रज्ञान की अपेक्षा से जीवों का प्रल्पबहुत्व-प्रस्तुत तीन सूत्रों (257 से 256 तक) में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की दृष्टि से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। ज्ञान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े मनःपर्यायज्ञानी हैं, क्योंकि मनःपर्यवज्ञान आमर्षऔषधि आदि ऋद्धिप्राप्त संयमी पुरुषों को ही होता है / उनकी अपेक्षा अवधिज्ञानी असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अवधिज्ञान नारकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों और देवों को भी होता है / उनसे आभिनिबोधिक Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र ज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि जिन संज्ञी-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को अवधिज्ञान नहीं होता है, उन्हें भी आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो सकते हैं। इन दोनों ज्ञानों को परस्पर तुल्य कहने का कारण यह है कि ये दोनों ज्ञान परस्पर सहचर हैं। इन दोनों ज्ञानियों से केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध केवलज्ञानी होते हैं और वे अनन्त हैं। प्रज्ञान की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं, क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्यादष्टि नैरयिकों व देवों और किन्हीं-किन्हीं तिर्यंचपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को ही होता है / विभंगज्ञान की अपेक्षा मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान दोनों अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव भी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी होते हैं, और वे अनन्त होते हैं / स्वस्थान में मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी दोनों तुल्य हैं, क्योंकि ये दोनों अज्ञान परस्पर सहचर हैं।। ज्ञानी और प्रज्ञानी दोनों का सामुदायिकरूप से अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े मनःपर्यवज्ञानी हैं, तथा उनसे आगे का अल्पबहुत्व पूर्ववत् ही पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए / मति-श्रुतज्ञानियों से विभंगज्ञानी जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि देवगति और मनुष्यगति में सम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणे हैं। तथा देवों और नारकों में जो सम्यग्दृष्टि होते हैं, वे अवधिज्ञानी और मिथ्यादष्टि विभंगज्ञानी होते हैं, इस दृष्टि से विभंगज्ञानी उनसे असंख्यातगुणे हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त होते हैं। उनसे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि मतिश्रत-अज्ञानी वनस्पतिकायिकजीव भी होते हैं, और सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं / स्वस्थान में ये दोनों अज्ञान परस्पर तुल्य हैं। ग्यारहवाँ दर्शनद्वार : दर्शन को अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 260. एतेसि णं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणोणं अचवखुदंसणीणं प्रोहिदलणोणं केवलदसणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा प्रोहिदसणी 1, चक्खुदंसणी असंखेज्जगुणा 2, केबलदंसणी अणंतगुणा 3, अचक्खुदंसणी अणंतगुणा 4 / दारं 11 // [260 प्र.] भगवन् ! इन चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [260 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े अवधिदर्शनी जीव हैं, 2. (उनसे) चक्षुदर्शनी जीव असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) केवल दर्शनी अनन्तगुणे हैं, (और उनसे भी) 4. अचक्षुदर्शनी जीव अनन्तगुणे हैं ! ___ ग्यारहवाँ (दर्शन) द्वार // 11 // विवेचन-ग्यारहवाँ दर्शनद्वार : दर्शन की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (260) में चार दर्शनों की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। 1. 'जत्थ मइनाणं, तत्थ सुयनाण, जत्थ सुयनाणं, तत्थ मइनाणं' 2. 'जत्थ मइ-अन्नाणं, तत्थ सुय-अन्नाणं, जत्थ सुय-अन्नाणं तत्थ मइ-अन्नाणं / ' -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 137 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 137 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [247 सबसे थोड़े अवधिदर्शनी जीव इसलिए हैं कि अवधिदर्शन देवों, नारकों और कतिपय संज्ञीतिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को ही होता है / उनकी अपेक्षा चक्षुदर्शनी जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि चक्षुदर्शन सभी देवों, नारकों, गर्भज मनुष्यों, संज्ञी तियंचपंचेन्द्रियों, असंज्ञो तिर्यंचयंचेन्द्रियों रिन्द्रिय जीवों को भी होता है। उनकी अपेक्षा केवलदर्शनी अनन्तगणे हैं. क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं / उनकी अपेक्षा भी अचक्षुर्दशनी अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अचक्षुर्दर्शनियों में वनस्पतिकायिक भी हैं, जो अकेले ही सिद्धों से अनन्तगणे हैं।' बारहवाँ संयतद्वार : संयत आदि की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व 261. एतेसि णं भंते ! जीवाणं संजयाणं असंजयाणं संजयासंजयाणं नोसंजयनोअसंजयनोसंजतासंजताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा संजता 1, संजयासंजता असंखेज्जगुणा 2, नोसंजतनोप्रसंजतनोसंजतासंजता अणंतगुणा 3, असंजता प्रणतगुणा 4 / दारं 12 // 261 प्र.] भगवन् ! इन संयतों, असंयतों, संयतासंयतों और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [261 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प संयत जीव हैं, 2. (उनसे) संयतासंयत असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव अनन्तगुणे हैं (और उनसे भी) 4. असंयत जीव अनन्तगुणे हैं। बारहवाँ (संयत) द्वार / / 12 / / विवेचम--बारहवाँ संयतद्वार : संयत प्रादि की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (261) में संयत, असंयत, संयतासंयत एवं नोसंयत-तोअसंयत-नोसंयतासंयत की दृष्टि से जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। सबसे थोड़े संयत हैं, क्योंकि मनुष्यलोक में वे उत्कृष्टत: (अधिक से अधिक) कोटिसहस्रपृथक्त्व, अर्थात् -दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक ही पाए जाते हैं। उनकी अपेक्षा संयतासंयत (देशविरत) असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि मनुष्य के अतिरिक्त असंख्यात तिर्यचपंचेन्द्रियों में भी देशविरति पाई जाती है। उनसे नोसंयत-नोअसंयत (नोसंयतासंयत) अनन्तगुणे हैं, क्योंकि जो संयत, असंयत तथा संयतासंयत तीनों नहीं कहे जा सकते, ऐसे सिद्ध जीव अनन्त हैं। उनसे असंयत अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव भी असंयत हैं और वे अकेले ही सिद्धों से अनन्तगुणे हैं 13 तेरहवां उपयोगद्वार : उपयोगद्वार की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व 262. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा प्रणागारोवउत्ता 1, सागारोवउत्ता संखेज्जगुणा 2 / दारं 13 / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 138 2. 'कोडिसहस्सपुहुत्तं मणुयलोए संजयाणं' ---प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पृ. 138 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 138 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2481 [प्रज्ञापनासूत्र [262 प्र.] भगवन् ! इन साकारोपयोग-युक्त और अनाकारोपयोग-युक्त जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [262 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प अनाकारोपयोग वाले जीव हैं, 2. (उनसे) साकारोपयोग वाले जीव संख्यातगुणे हैं। तेरहवाँ (उपयोग) द्वार // 13 // विवेचन तेरहवां उपयोगद्वार : उपयोग की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (262) में साकारोपयोगयुक्त और अनाकारोपयोगयुक्त जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। अनाकारोपयोग का काल थोड़ा होता है, जबकि साकारोपयोगकाल उससे असंख्यातगुणा अधिक होता है। इसीलिए कहा गया है कि पृच्छासमय में अनाकारोपयोग-(दर्शनोपयोग) काल थोड़ा होने से वे बहुत थोड़े पाए जाते हैं, उनकी अपेक्षा साकारोपयोग-(ज्ञानोपयोग) उपयुक्त जीव संख्यातगुणे होते हैं। क्योंकि साकारोपयोगकाल लम्बा होने से पृच्छा के समय वे बहुत संख्या में पाये जाते हैं। चौदहवाँ आहारद्वार : आहारक-अनाहारक जीवों का अल्पबहुत्व-- 263. एतेसिणं भंते ! जीवाणं पाहारगाणं प्रणाहारगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा अणाहारगा 1, पाहारगा असंखेज्जगुणा 2 / दारं 14 // [263 प्र.] भगवन् ! इन आहारकों और अनाहारकजीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [263 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम अनाहारक जीव हैं, 2. (उनसे) आहारक जीव असंख्यातगुणे हैं। चौदहवाँ (आहार) द्वार // 14 // विवेचन-चौदहवाँ प्राहारद्वार : प्राहार की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (263) में आहारक-अनाहारक जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। सबसे थोड़े अनाहारक जीव हैं, क्योंकि विग्रहगति करते हुए जीव, समुद्घातप्राप्त केवली, और अयोगी सिद्ध जीव ही अनाहारक होते हैं। उनकी अपेक्षा आहारक जीव असंख्यात गुणे हैं / प्रश्न हो सकता है कि आहारक जीवों में वनस्पतिकायिक भी हैं और वे सिद्धों से अनन्त हैं, तो अनाहारकों से वे अनन्तगुणे क्यों नहीं बताए गए ? असंख्यातगुणे ही क्यों बताए गए ? इसका समाधान यह है कि सूक्ष्म निगोद सब मिलकर भी असंख्यात हैं, उसमें भी वे अन्तर्मुहूर्तसमय की राशि के तुल्य हैं, तथा सदैव विग्रहगति में ही रहते हैं, इसलिए उनमें अनाहारक भी बहुत अधिक होते हैं और वे समग्रजीवराशि के असंख्येयभाग के तुल्य होते हैं / अत: उनकी अपेक्षा आहारकजीव असंख्यातगुणे ही हैं, अनन्तगुणे नहीं। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 138 2. विग्गहगइमावन्ना केवलियो समुहया अजोगी य / सिद्धाय अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा // -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 138 3. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 138 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [249 पन्द्रहवाँ भाषकद्वार : भाषा की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व 264. एते सि णं भंते ! जीवाणं भासगाणं प्रभासहाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सम्वत्थोवा जीवाभासगा१. प्रभासगा प्रणंतगणा 2 दारं 15 // [264 प्र.] भगवन् ! इन भाषक और अभाषक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? [264 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प भाषक जीव हैं, 2. (उनसे) अनन्तगुणे अभाषक हैं। पन्द्रहवाँ (भाषक) द्वार // 15 // विवेचन-पन्द्रहवां भाषकद्वार : भाषा की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र में भाषक और अभाषक जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। भाषक और प्रभाषक की व्याख्या-जो जीव भाषालब्धि-सम्पन्न हैं, वे भाषक और जो भाषालब्धि-विहीन हैं, वे अभाषक कहलाते हैं / भाषकों की अपेक्षा प्रभाषक अनन्तगणे क्यों ?–भाषक जीव द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव हैं, जबकि अभाषकों में एकेन्द्रिय जीव हैं, जिनमें अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं, इसलिए भाषकों से अभाषक अनन्तगुणे कहे गए हैं / ' सोलहवाँ परित्तद्वार : परित्त आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व 265. एतेसि णं भंते ! जीवाणं परित्ताणं अपरित्ताणं नोपरित्तनोअपरित्ताण य कतरे कतरेहितो अध्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जोवा परित्ता 1, नोपरित्तनो अपरित्ता अणंतगुणा 2, अपरित्ता प्रणतगुणा 3 / दारं 16 // [265 प्र.] भगवन् ! इन परीत, अपरीत और नोपरीत-नोअपरीत जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? / [265 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े परीत जीव हैं, 2. (उनसे) नोपरीत-नोअपरीत जीव अनन्तगुणे हैं और 3. (उनसे भी) अपरीत जीव अनन्तगुणे हैं। सोलहवाँ (परीत्त) द्वार / / 16 / / विवेचन-सोलहवाँ परीतद्वार : परीत आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (265) में परीत, अपरीत और नोपरीत-नोअपरीत जीवों की न्यूनाधिकता का प्रतिपादन किया गया है। परीत प्रादि की व्याख्या–परोत का सामान्यतया अर्थ होता हैं-परिमित या सीमित / इस दृष्टि से 'परीत' दो प्रकार के बताए गए हैं-भवपरीत और कायपरीत / भवपरीत उन्हें कहते हैं, 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] [ प्रज्ञापनासूत्र जिनका संसार (भवभ्रमण) कुछ कम अपार्द्ध-पुद्गलपरावर्तनमात्र रह गया है। 'कायपरीत' कहते हैं--प्रत्येकशरीरी को। भवपरीत शुक्लपाक्षिक होते हैं और कायपरीत प्रत्येकशरीरी होते हैं / अपरीत उन्हें कहते हैं-~-जिनका संसार परीत-परिमित न हुआ हो, ऐसे जीव कृष्णपाक्षिक होते हैं। परीत प्रादि की दृष्टि से अल्पबहुत्व–पूर्वोक्त दोनों प्रकार के परीत जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि समस्त जीवों की अपेक्षा शुक्लपाक्षिक एवं प्रत्येकशरीरी कम हैं। उनकी अपेक्षा नोपरीतनोअपरीत अर्थात् इन दोनों से अलग सिद्ध भगवन् हैं, जो कि अनन्त हैं, इसलिए अनन्तगुणे हैं और उनसे अपरीत यानी कृष्णपाक्षिक जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अकेले वनस्पतिकायिक जीव ही अनन्त हैं / वे सिद्धों से अनन्तगुणे हैं।' सत्रहवाँ पर्याप्तद्वार : पर्याप्ति की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व 266. एएसि णं भंते ! जीवाणं पज्जत्ताणं अपज्जत्ताणं नोपज्जत्तनोअपज्जत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्तगनोअपज्जत्तगा 1, अपज्जत्तगा अणंतगुणा 2, पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 3 / दारं 17 // [266 प्र.] भगवन् ! इन पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [266 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, 2. (उनसे) अपर्याप्तक जीव अनन्तगुणे हैं, (और उनसे भी) 3. पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं। सत्रहवाँ (पर्याप्त) द्वार / / 17 / / विवेचन-सत्रहवाँ पर्याप्तद्वारः पर्याप्ति की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत (२६६वें) सूत्र में पर्याप्तक, अपर्याप्तक और नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। पर्याप्ति की अपेक्षा से जीवों की न्यूनाधिकता-सबसे कम नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव हैं, क्योंकि पर्याप्ति और अपर्याप्ति से रहित सिद्ध हैं, जो पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों से कम हैं। उनकी अपेक्षा से अपर्याप्तक अनन्तगणे हैं, क्योंकि साधारणवनस्पतिकायिक सिद्धों से अनन्तगणे हैं, जो सर्वकाल में अपर्याप्तक ही पाए जाते हैं / उनकी अपेक्षा पर्याप्तक जीव संख्यातगुणे हैं / अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार : सूक्ष्म आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहत्व-~-- 267. एएसि णं भंते ! जीवाणं सुहमाणं बादराणं नोसुहमनोबादराण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा णोसुहुमणोबादरा 1, बादरा अणंतगुणा 2, सुहुमा असंखेज्जगुणा 3 / दारं 18 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 . Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [251 तृतीय बहुव क्तव्यतापद ] [267 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म, बादर और नोसूक्ष्म-नोबादर जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [267 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प नोसूक्ष्म-नोबादर जीव हैं, 2. (उनसे) बादर जीव अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) 3. सूक्ष्म जीव असंख्यातगुणे हैं। अठारहवाँ (सूक्ष्म) द्वार // 18 // विवेचन-अठारहवाँ सक्ष्मद्वार-प्रस्तुत सूत्र (267) में सूक्ष्म, बादर एवं नोसूक्ष्म-नोबादर जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। सूक्ष्मद्वार के माध्यम से अल्पबहुत्व-सबसे अल्प नोसूक्ष्म-नोबादर अर्थात् सिद्धजीव हैं, क्योंकि वे सूक्ष्म जीवराशि और बादर जीवराशि के अनन्तभाग के बराबर हैं। उनसे बादरजीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि बादर निगोदजीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। उनसे सूक्ष्म जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादरनिगोदों की अपेक्षा सूक्ष्मनिगोद असंख्यातगुणे अधिक हैं।' उन्नीसवाँ संज्ञोद्वार : संज्ञो आदि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व 268. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सण्णोणं असण्णीणं नोसण्णोनोअसण्णोण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? | __ गोयमा! सम्वत्थोवा जीवा सण्णी 1, गोसण्णीणोअसण्णी अणंतगुणा 2, असण्णी अणंतगुणा 3 / दारं 16 / / [268 प्र.] भगवन् ! संज्ञी, असंज्ञी और नोसंजी-नोअसंज्ञी जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [268 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प संज्ञी जीव हैं, 2. (उनसे) नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव अनन्तगुणे हैं (और उनसे भी) 3. असंज्ञीजीव अनन्त गुणे हैं। उन्नीसवाँ (संज्ञी) द्वार // 19 // विवेचन--उन्नीसवाँ संज्ञोद्वार : संज्ञी प्रादि की दृष्टि से जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (268) में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / सबसे कम संज्ञी जीव हैं, क्योंकि विशिष्ट मन वाले जीव ही संज्ञी होते हैं और ऐसे जीव सबसे कम हैं / संज्ञियों की अपेक्षा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी (सिद्ध) जीव अनन्तगुणे हैं, उनकी अपेक्षा असंजीजीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वनस्पतिकाय आदि जीव अनन्त हैं, जो सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं। बीसवाँ भवसिद्धिकद्वार : भवसिद्धिकद्वार के माध्यम से अल्पबहत्व 266. एतेसि णं भंते ! जीवाणं भवसिद्धियाणं प्रभवसिद्धियाणं णोभवसिद्धियणोप्रभवसिद्धियाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जोवा प्रभवसिद्धिया 1, णोभवसिद्धियणोअभवसिद्धिया अणंतगुणा 2, भवसिद्धिया अणंतगुणा 3 / दारं 20 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 139 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [ प्रज्ञापनासूत्र [266 प्र.] भगवन् ! इन भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों में से कौन किन से अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [266 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े अभवसिद्धिक जीव हैं, 2. (उनसे) नोभवसिद्धिकनोप्रभवसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं और (उनसे भी) 3. भवसिद्धिक जीव अनन्तगुणे हैं / ___ बीसवाँ (भव) द्वार // 20 // विवेचन-बीसवाँ भवसिद्धिकद्वार : भवसिद्धिकद्वार के माध्यम से जीवों का अल्पबहत्वप्रस्तुत सूत्र (266) में भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक नोप्रभवसिद्धिक जीवों का अल्पबहुत्व प्रतिपादित किया गया है। सबसे कम अभवसिद्धिकः अभव्य-मोक्षगमन के अयोग्य जीव हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्तानन्तक प्रमाण वाले हैं। अनुयोगद्वार के अनुसार-'उत्कृष्ट परीतानन्त में एक रूप (संख्या) मिलाने से 'जघन्य युक्तानन्तक' होता है; अभवसिद्धिक उतने ही हैं। उनकी अपेक्षा नोभवसिद्धिक-नोश्रभवसिद्धिक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि जो भव्य भी नहीं और अभव्य भी नहीं, ऐसे जीव सिद्ध हैं और वे अजघन्योत्कृष्ट युक्तानन्तक-परिमाण हैं, इस कारण वे अनन्त हैं / उनकी अपेक्षा भवसिद्धिक-भव्यमोक्षगमनयोग्य जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि सिद्ध एक भव्यनिगोदराशि के अनन्तभागकल्प होते हैं और ऐसी भव्य जीवनिगोदराशियाँ लोक में असंख्यात हैं। इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार : अस्तिकायद्वार के माध्यम से षड्द्रव्य का अल्पबहुत्व 270. एतेसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय-प्रधम्मस्थिकाय-मागासथिकाय-जीवस्थिकाय-पोग्गलथिकाय-प्रद्धासमयाणं दवट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए प्रागासस्थिकाए य एए तिन्नि वि तुल्ला दन्वयाए सम्वत्थोवा 1, जीवस्थिकाए दवट्ठयाए अणंतगुणे 2, पोग्गलस्थिकाए दवट्ठयाए अणंतगुणे 3, प्रद्धासमए दव्धट्टयाए अणंतगुणे 4 / 270 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धा-समय (काल) इन द्रव्यों में से, द्रव्य की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [270 उ.] गौतम ! 1. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीनों ही तुल्य हैं तथा द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प हैं; 2. (इनकी अपेक्षा) जीवास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण है; 3. (इससे) पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण है; 4. (और इससे भी) अद्धा-समय (कालद्रव्य) द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुण है। 271. एएसि णं भंते ! धम्मस्थिकाय-अधम्मस्थिकाय-पागासस्थिकाय-जीवस्थिकाय-पोग्गलत्थिकाय-श्रद्धासमयाणं पदेसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? 1. 'उक्कोसए परित्ताणतए रूके पक्खिते जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अभवसिद्धिया वि तत्तिया चेव' –अनुयोगद्वार 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 140 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 253 - गोयमा ! धम्मत्यिकाए अधम्मस्थिकाए य एते णं दो वि तुल्ला पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा 1, जीवत्यिकाए पदेसटुताए अणंतगुणे 2, पोग्गलस्थिकाए पदेसट्टयाए अणंतगुणे 3, श्रद्धासमए पदेसट्टयाए अणंतगुणे 4, पागासत्थिकाए पदेसट्टताए अणंतगुणे 5 / [271 प्र. हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय ; इन (द्रव्यों) में से प्रदेश की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [271 उ.] गौतम ! 1. धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं और सबसे थोड़े हैं, 2. (इनकी अपेक्षा) जीवास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण है, 3. (इसकी अपेक्षा) पुद्गलास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण है, 4. (इसकी अपेक्षा) प्रद्धा-समय (काल) प्रदेशापेक्षया अनन्तगुण है; 5. (इससे) आकाशास्तिकाय प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुण है। 272. [1] एतस्स णं भंते ! धम्मस्थिकायस्स दवट्ठ-पदेसद्वताए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुंया वा तुल्ला वा विसे साहिया वा ? गोयमा ! सव्वस्थोवे एगे धम्मस्थिकाए दवट्ठताए, से चेव पदेसटुताए असंखेज्जगुणे / {272-1 प्र.] भगवन् ! इस धर्मास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [272-1 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प द्रव्य की अपेक्षा से एक धर्मास्तिकाय (द्रव्य) है और 2. वही प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा है। [2] एतस्स णं भंते ! अधम्मस्थिकायस्स दव्वट्ठ-पदेसट्टताए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा बिसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे एगे प्रधम्मत्थिकाए दव्वट्ठताए, से चेव पदेसटुताए असंखेज्जगुणे / [172-1 प्र.] भगवन् ! इस अधर्मास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [272-2 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प द्रव्य की अपेक्षा से एक अधर्मास्तिकाय (द्रव्य) है; और 2. वही प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा है / [3] एतस्स णं भंते ! मागासस्थिकायस्स दव्वटु-पदेसटुताए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सब्वत्थोवे एगे पागासत्थिकाए दवद्वताए, से चेव पदेसद्वताए अणंतगुणे / [272-3 प्र.] भगवन् ! इस आकाशास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [272-3 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प द्रव्य की अपेक्षा से एक आकाशास्तिकाय (द्रव्य) है और 2. वही प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 ] [प्रज्ञापनासूत्र [4] एतस्स णं भंते ! जीवत्थिकायस्स दवट्ठ-पदेसटुताए कतरे कतरेहितो प्रध्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्योवे जीवस्थिकाए दवट्ठयाए, से चेव पदेसद्वताए असंखेज्जगुणे। [272-4 प्र.] भगवन ! इस जीवास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [272-4 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प द्रव्य की अपेक्षा से जीवास्तिकाय है और 2. वही प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुण है। [5] एतस्स णं भंते ! पोग्गलस्थिकायस्स दवट्ठ-पदेसटुताए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवे पोग्गलस्थिकाए दवट्टयाए, से चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणे / [272-5 प्र.] भगवन् ! इस पुद्गलास्तिकाय के द्रव्य और प्रदेशों की दृष्टि से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? . [272.5 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से है, 2. प्रदेशों की अपेक्षा से वही असंख्यातगुणा है / [6] श्रद्धासमए ण पुच्छिज्जइ पदेसाभावा / [272-6] काल (अद्धा-समय) के सम्बन्ध में प्रश्न नहीं पूछा जाता, क्योंकि उसमें प्रदेशों का अभाव है। 273. एतेसि गं भंते ! धम्मस्थिकाय-अधम्मस्थिकाय-पागासस्थिकाय-जीवस्थिकाय-पोग्गलस्थिकाय-श्रद्धासमयाणं दवट्ठ-पदेसट्टताए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए अागासस्थिकाए य एते णं तिण्णि वि तुल्ला दवट्ठपाए सव्वत्थोवा 1, धम्मत्थिकाए अधम्मस्थिकाए य एते णं दोणि वि तुल्ला पदेसटुताए असंखेज्जगुणा 2, जीवस्थिकाए दवट्ठयाए अणंतगुणे 3, से चेव पदेसट्ठताए असंखेज्जगुणे 4, पोग्गलत्थिकाए दवट्टयाए अणंतगुणे 5, से चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणे 6, प्रद्धासमए दबटु-पदेसट्टयाए अणंतगुणे 7, पागासस्थिकाए पएसट्टयाए अणंतगुणे 8 / दारं 21 // [273 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धा-समय (काल), इनमें से द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [273 उ.] गौतम ! 1. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, ये तीन (द्रव्य) तुल्य हैं तथा द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प हैं, 2. (इनसे) धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं तथा असंख्यातगुणे हैं, 3. (इनसे) जीवास्तिकाय, द्रव्य Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [ 255 की अपेक्षा अनन्तगण है, 4. वह प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणा है, 5. (इससे) पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणा है, 6. वही (पुद्गलास्तिकाय) प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुण है। 7. श्रद्धा-समय (काल) (उससे) द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा है, 7. और (इससे भी) आकाशास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा अनन्तगुण है। इक्कीसवाँ (अस्तिकाय) द्वार / / 21 // विवेचन---इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार : अस्तिकायद्वार के माध्यम से षड्द्रव्यों का अल्पबहुत्वप्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 270 से 273 तक) में द्रव्य, प्रदेशों व द्रव्य और प्रदेशों-दोनों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय आदि षड्द्रव्यों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। द्रव्य की अपेक्षा से षड्द्रव्यों का अल्पबहत्व-(१) धर्मास्तिकायादि तीन द्रव्य, द्रव्य रूप से एक-एक संख्या वाले होने से सबसे अल्प हैं / जीवास्तिकाय इन तीनों से द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि जीव अनन्त हैं और वे प्रत्येक पृथक-पृथक् द्रव्य हैं। उससे भी पुद्गलास्तिकाय द्रव्यापेक्षया अनन्तगुणा है, क्योंकि परमाणु, द्विप्रदेशीस्कन्ध आदि पृथक्-पृथक द्रव्य स्वतन्त्र द्रव्य हैं, और वे सामान्यतया तीन प्रकार के हैं-प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विस्रसापरिणत। इनमें से सिर्फ प्रयोगपरिणत पुद्गल जीवों की अपेक्षा अनन्तगुणे हैं / इसके अतिरिक्त प्रत्येक जीव अनन्त-अनन्त ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय अादि कर्मपरमाणुओं (स्कन्धों) से आवेष्टित-परिवेष्टित (सम्बद्ध) है, जैसा कि व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) में कहा है- 'सबसे थोड़े प्रयोगपरिणत पुद्गल हैं, उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे हैं और उनसे भी विस्त्रसापरिणत अनन्तगुणे हैं / ' अतः यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलास्तिकाय, द्रव्य की अपेक्षा से जीवास्तिकाय द्रव्य से अनन्तगणा है। पुदगलास्तिकाय की अपेक्षा प्रद्धा-काल द्रव्यरूप से अनन्तगणा है; क्योंकि एक ही परमाण के भविष्यत काल विप्रदेशी यावत् दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के साथ परिणत होने के कारण एक ही परमाणु के भावीसंयोग अनन्त हैं और पृथक्-पृथक् कालों में होने वाले वे अनन्त संयोग केवलज्ञान से ही जाने जा सकते हैं। जैसे एक परमाणु के अनन्त संयोग होते हैं, वैसे द्विप्रदेशीस्कन्ध आदि सर्वपरमाणुओं के प्रत्येक के अनन्त-अनन्त संयोग भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं। ये सब परिणमन मनुष्यलोक (क्षेत्र) के अन्तर्गत होते हैं / इसलिए क्षेत्र की दृष्टि से एक-एक परमाणु के भावी संयोग अनन्त हैं। जैसे- यह परमाणु अमुक काल में अमुक आकाश-प्रदेश में अवगाहन करेगा, दूसरे समय में किसी दूसरे आकाश-प्रदेश में / जैसे--एक परमाणु के क्षेत्र की दृष्टि से विभिन्नकालवर्ती अनन्त भावीसंयोग हैं, वैसे ही अनन्तप्रदेशस्कन्धपर्यन्त द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के प्रत्येक के एक-एक प्राकाशप्रदेश में अवगाहन-भेद से भिन्न-भिन्न कालों में होने वाले भावीसंयोग अनन्त है / इसी प्रकार काल की अपेक्षा भी यह परमाणु इस प्राकाशप्रदेश में एक समय की स्थिति वाला, दो ग्रादि समयों की स्थिति वाला है. इस प्रकार एक परमाण के एक आकाशप्रदेश में असंख्यात भावीसंयोग होते हैं, इसी तरह सभी आकाशप्रदेशों में प्रत्येक परमाणु के असंख्यातअसंख्यात भावी संयोग होते हैं, फिर पुनः पुन: उन अाकाशप्रदेशों में काल का परावर्तन होने पर और काल अनन्त होने से, काल की अपेक्षा से भावी संयोग अनन्त होते हैं। जैसे एक परमाणु के क्षेत्र एवं काल की अपेक्षा से अनन्त भावीसंयोग होते हैं तथा सभी द्विप्रदेशी स्कन्धादि परमाणुओं के प्रत्येक के पृथक्-पृथक् अनन्त-अनन्त संयोग होते हैं। इसी प्रकार भाव की अपेक्षा से भी समझ लेना चाहिए / यथा- यह परमाणु अमुक काल में एक गुण काला होगा। इस प्रकार एक ही परमाणु के 1. 'सव्वथोवा पुग्गला पयोगपरिणया, मोसपरिणया अणंतगुणा, वीससापरिणया अणंलगुणा।' - व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] [प्रज्ञापनासूत्र भाव की अपेक्षा से भिन्न-भिन्नकालीन अनन्त संयोग समझ लेने चाहिए / एक परमाणु की तरह सभी परमाणुओं एवं द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों के पृथक-पृथक् अनन्त संयोग भाव की अपेक्षा से भी होते हैं। इस प्रकार विचार करने पर एक ही परमाणु के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-विशेष के सम्बन्ध से अनन्त भावीसमय सिद्ध होते हैं और जो बात एक परमाणु के विषय में है, वही सब परमाणुओं एवं द्विप्रदेशिक आदि स्कन्धों के सम्बन्ध में भी समझ लेनी चाहिए। यह सब परिणमनशील काल नामक वस्तु के बिना, और परिणमनशील पुद्गलास्तिकाय आदि वस्तुओं के बिना संगत नहीं हो सकता।' जिस प्रकार परमाणु, द्विप्रदेशिक आदि स्कन्धों में से प्रत्येक के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावविशेष के सम्बन्ध से अनन्त भावी अद्धाकाल प्रतिपादित किये गए हैं, इसी प्रकार भूत अद्धाकाल भी समझ लेने चाहिए। (2) धर्मास्तिकाय प्रादि का प्रदेशों को अपेक्षा से अल्पबहुत्व-धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय, ये दोनों प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं, क्योंकि दोनों के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के जितने ही हैं / अतः अन्य द्रव्यों से इनके प्रदेश सबसे कम हैं 1 इन दोनों से जीवास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण है, क्योंकि जीव द्रव्य अनन्त हैं, उनमें से प्रत्येक जीवद्रव्य के प्रदेश लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर हैं। उससे भी पुदगलास्तिकाय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुण है / क्योंकि पुद्गल की अन्य वर्गणाओं को छोड़ दिया जाए और केवल कर्मवर्गणाओं को ही लिया जाए तो भी जीव का एक-एक प्रदेश अनन्त-अनन्त कर्मपरमाणुओं (कर्मस्कन्ध प्रदेशों) से प्रावृत है। कर्मवर्गणा के अतिरिक्त औदारिक, वैक्रिय आदि अन्य अनेक वर्गणाएँ भी हैं / अतएव सहज हो यह सिद्ध हो जाता है कि जीवास्तिकाय के प्रदेशों से पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश अनन्तगुणे हैं। पुद्गलास्तिकाय की अपेक्षा भी अद्धाकाल के प्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि पहले कहे अनुसार एक-एक पुद्गलास्तिकाय के उस-उस (विभिन्न) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के साथ सम्बन्ध के कारण अतीत और अनागत का काल अनन्त-अनन्त है। अद्धाकाल की अपेक्षा आकाशास्तिकाय प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुण है, क्योंकि अलोकाकाश सभी और अनन्त और असीम है / द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय प्रादि का अल्पबहुत्व-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों द्रव्य की दृष्टि से थोड़े हैं, क्योंकि ये दोनों एक-एक द्रव्य ही हैं। किन्तु प्रदेशों की अपेक्षा से वे द्रव्य से असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि दोनों असंख्यातप्रदेशी हैं / आकाशास्तिकाय द्रव्य की दृष्टि से सबसे कम है, क्योंकि वह एक है, मगर प्रदेशों की अपेक्षा से वह अनन्तगुण है क्योंकि उसके प्रदेश अनन्तानन्त हैं। जीवास्तिकाय द्रव्य की दृष्टि से अल्प है और प्रदेशों की दष्टि से असंख्यातगुण है, क्योंकि एक-एक जीव के लोकाकाश के प्रदेशों के तुल्य असंख्यातअसंख्यात प्रदेश हैं / द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय कम है, क्योंकि प्रदेशों से द्रव्य कम ही होते हैं, प्रदेशों की दृष्टि से पुद्गलास्तिकाय असंख्यातगुणे हैं। यह प्रश्न हो सकता है कि लोक में अनन्तप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध बहुत हैं, अतएव पुद्गलास्तिकाय द्रव्य की अपेक्षा प्रदेशों से अनन्तगुण होना चाहिए, -. .. ..---- 1. संयोगपुरस्कारश्च नाम भाविनि हि युज्यते काले / न हि संयोगपुरस्कारो ह्यसता केचिदुपपत्तः // 1 // -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 141 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक 141 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापर] [257 इसका समाधान यह है कि द्रव्य की दृष्टि से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध सबसे स्वल्प हैं, परमाणु आदि अत्यधिक हैं / आगे प्रज्ञापनासूत्र में कहा जाएगा'-"सबसे कम द्रव्य की दृष्टि से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध हैं, द्रव्यदृष्टि से परमाणुपुद्गल अनन्तगुणे हैं। द्रव्यदृष्टि से संख्यातप्रदेशी स्कन्ध संख्यातगुणे हैं और असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध असंख्यातगुणे हैं / " इस पाठ के अनुसार जब समस्त पुद्गलास्तिकाय का प्रदेशदृष्टि से चिन्तन किया जाता है, तब अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अत्यन्त कम और परमाणु अत्यधिक तथा पृथक्-पृथक् द्रव्य होने से असंख्यप्रदेशी स्कन्ध परमाणुओं की अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं / अतः प्रदेशों की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय असंख्यातगुणा ही हो सकता है, अनन्तगुणा नहीं। कालद्रव्य के विषय में द्रव्य और प्रदेशों के अल्पबहुत्व को लेकर प्रश्न ही नहीं उठाना चाहिए, क्योंकि काल के प्रदेश नहीं होते / काल सिर्फ द्रव्य ही है, उसके प्रदेश नहीं होते, क्योंकि जब परमाणु परस्पर सापेक्ष (एकमेक) होकर परिणत होते हैं, तभी उनका समूह स्कन्ध कहलाता है और उसके अवयव प्रदेश कहलाते हैं। यदि वे परमाणु परस्पर निरपेक्ष हों तो उनके समूह को स्कन्ध नहीं कह सकते / प्रद्धा-समय (काल) परस्पर निरपेक्ष हैं, स्कन्ध के समान परस्पर (पिडित) सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं / जब वर्तमान समय होता है तो उसके आगे-पीछे के समय का अभाव होता है / अतएव उनमें स्कन्धरूप परिणाम का अभाव है। अतएव अद्धा-समय (कालद्रव्य) के प्रदेश नहीं होते। धर्मास्तिकायादि का एक साथ द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा से प्रापबहत्व—सबसे कम द्रव्यदृष्टि से धर्मास्तिकाय आदि तीनों द्रव्य हैं, क्योंकि तीनों एक-एक द्रव्य हैं। इनकी अपेक्षा प्रदेशों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय दोनों तुल्य व असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि दोनों के प्रदेश असंख्यात-असंख्यात हैं। इन दोनों से जीवास्तिकाय द्रव्यदृष्टि से अनन्तगुणा है, क्योंकि जीवद्रव्य अनन्त हैं। उनसे जीवास्तिकाय प्रदेशदृष्टि से असंख्यातगुणा है, क्योंकि प्रत्येक जीव के असंख्यातअसंख्यात प्रदेश होते हैं। प्रदेशरूप जीवास्तिकाय से द्रव्यरूप पुद्गलास्तिकाय अनन्तगुणा है, क्योंकि जीव के एक-एक प्रदेश के साथ अनन्त-अनन्त कर्मपुद्गलद्रव्य सम्बद्ध हैं। द्रव्यरूप पुद्गलास्तिकाय से प्रदेशरूप पुद्गलास्तिकाय असंख्यातगुणा है / इसका कारण पहले बताया जा चुका है। प्रदेशरूप पुद्गलास्तिकाय की अपेक्षा अद्धा-समय (काल) द्रव्य और प्रदेश की दृष्टि से पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार अनन्तगुणा है, इसकी अपेक्षा अाकाशास्तिकाय प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुणा है, क्योंकि आकाशास्तिकाय सभी दिशाओं में अनन्त है, उसकी कहीं सीमा नहीं है; जबकि प्रद्धा-समय (काल) सिर्फ मनुष्यक्षेत्र में होता है। बाईसवाँ चरमद्वार : चरम और अचरम जीवों का अल्पबहुत्व 274. एतेसि णं भंते ! जीवाणं चरिमाणं प्रचरिमाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्योवा जीवा अचरिमा ?, चरिमा अणंतगुणा 2 / दारं 22 // 'सम्वत्योवा अणंतपएसिया खंधा दन्वयाए, परमाणुपोग्गला दव्वट्टयाए अगंतगुणा, संखेज्जपएसिया खंधा दव्वट्ठयाए संखेज्जगुणा, असंखेज्जपएसिया खंधा दम्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा / ' -प्रज्ञापना: पद, 3 सु. 330 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 142-143 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [274 प्र.] भगवन् ! इन चरम और अचरम जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [274 उ.] गौतम ! अचरम जीव सबसे थोड़े हैं, (उनसे) चरम जीव अनन्तगुणे हैं / बावीसवाँ (चरम) द्वार / / 22 // विवेचन-बावीसवाँ चरमद्वार--चरम और अचरम जीवों का अल्पबहुत्व-चरम प्रौर प्रचरम की व्याख्या--जिन जीवों का इस संसार में चरम-अन्तिम भव (जन्म-मरण) संभव हैं, वे चरम कहलाते हैं अथवा जो जीव योग्यता से भी चरम भव (निश्चितरूप से मोक्ष) के योग्य हैं, वे भव्य भी चरम कहलाते हैं। अचरम (चरमभव के अभाव वाले) अभव्य हैं या जिनका अब चरमभव (शेष) नहीं हैं, वे अचरम-सिद्ध कहलाते हैं। चरम और अचरम का अल्पबहुत्व-सबसे कम अचरम जीव हैं, क्योंकि अभव्य और सिद्ध, दोनों प्रकार के अचरम मिलकर भी अजघन्योत्कृष्ट अनन्त होते हैं; जबकि उभयविध चरम (चरमशरीरी तथा भव्यजीव) उनकी अपेक्षा अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्तपरिमाण हैं।' तेईसवाँ जीवद्वार : जीवादि का अल्पबहुत्व 275. एतेसि णं भंते ! जीवाणं पोग्गलाणं प्रद्धासमयाणं सव्वदव्वाणं सवपदेसाणं सव्वपज्जवाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा 1, पोग्गला अणतगुणा 2, प्रद्धासमया अणंतगुणा 3, सव्वदव्वा विसेसाहिया 4, सम्वपदेसा प्रणतगुणा 5, सव्वपज्जवा प्रणतगुणा 6 / दारं 23 // [275 प्र.] भगवन् ! इन जीवों, पुद्गलों, अद्धा-समयों, सर्वद्रव्यों, सर्वप्रदेशों और सर्वपर्यायों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [275 उ.] गौतम ! 1. सबसे अल्प जीव हैं, 2. (उनसे) पुद्गल अनन्तगुणे हैं, 3. (उनसे) अद्धा-समय अनन्तगुणे हैं, 4. (उनसे) सर्वद्रव्य विशेषाधिक हैं, 5. (उनसे) सर्वप्रदेश अनन्तगुणे हैं (और उनसे भी) 6. सर्वपर्याय अनन्तगुणे हैं / तेईसवाँ (जीव) द्वार // 23 // विवेचन-तेईसवाँ जीवद्वार-प्रस्तुत सूत्र (275) में जीव, पुद्गल, काल, सर्वद्रव्य, सर्वप्रदेश और सर्वपर्याय, इनके परस्पर अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / जीवादि के अल्पबहत्व को युक्तिसंगतता-सबसे कम जीव, उनसे अनन्तगुणे पुद्गल तथा उनसे भी अनन्तगुणे काल (श्रद्धासमय), इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त युक्ति से विचार कर लेना चाहिए। प्रद्धासमयों से सर्वद्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि पुद्गलों से जो श्रद्धासमय अनन्तगुणे कहे गए हैं, वह प्रत्येक प्रद्धासमय द्रव्य हैं, अतः द्रव्य के निरूपण में वे भी ग्रहण किये जाते हैं / साथ ही अनन्त जीव. द्रव्यों, समस्त पुद्गल द्रव्यों, धर्म,अधर्म एवं आकाशास्तिकाय, इन सभी का द्रव्य में समावेश हो जाता है, ये सभी मिल कर भी अद्धासमयों से अनन्तवें भाग होने से उन्हें मिला देने पर भी सर्वद्रव्य, अद्धासमयों से विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा सर्वप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अाकाश अनन्त है। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 143 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 256 प्रदेशों से सर्वपर्याय अनन्तगुणे हैं, क्योंकि एक-एक आकाशप्रदेश में अनन्त-अनन्त अगुरुलघुपर्याय होते हैं।' चौबीसवां क्षेत्रद्वार : क्षेत्र की अपेक्षा से ऊर्ध्वलोकादिगत विविध जीवों का अल्पबहुत्व 276. खेत्ताणुवाएणं सध्वत्थोवा जीवा उड्डलोयतिरियलोए 1, अहेलोयतिरियलोए विसेसा. हिया 2, तिरियलोए असंखेज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 4, उडलोए असंखेज्जगुणा 5, अहेलोए विसेसाहिया 6 // [276] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में हैं, 2. (उनसे) अधोलोक-तिर्यग्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) त्रैलोक्य में (तीनों लोकों में अर्थात् तीनों लोकों का स्पर्श करने वाले) असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं / 277. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा नेरइया तेलोक्के 1, अहेलोकतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, अहेलोए असंखेज्जगुणा 3 / / [277] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े नैरयिकजीव त्रैलोक्य में हैं, 2. (उनसे) अधोलोकतिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (और उनसे भी) अधोलोक में असंख्यातगुणे हैं / 278. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया उड्डलोयतिरियलोए 1, पहेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखेज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 4, उड्डलोए असंखेज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [278] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प तियंचयोनिक (पुरुष) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) विशेषाधिक अधोलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 3. (उनसे) तिर्यकलोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। ___ 276. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवानो तिरिक्खजोणिणीनो उडलोए 1, उड्डलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाप्रो 2, तेलोक्के संखेज्जगुणामो 3, अधेलोयतिरियलोए संखेज्जगुणानो 4, अधेलोए संखेज्जगुणानो 5, तिरियलोए संखेज्जगुणानो 6 / [276] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम तिर्यचिनी (तिर्यचस्त्री) ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 143 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260] [ प्रज्ञापनासूत्र 280. खेताणुवाएणं सव्वत्थोवा मणुस्सा तेलोक्के 1, उडलोयतिरियलोए असंखेज्जगणा 2, अधोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा 3, उडलोए संखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / __ [280] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोड़े मनुष्य त्रैलोक्य में , 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। 281. खेत्ताणवाएणं सव्वस्थोवानो मणुस्सीनो तेलोक्के 1, उडलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ 2, प्रधेलोयतिरियलोए संखेज्जगुणानो 3, उडलोए संखेज्जगुणानो 4, अधेलोए संखेज्जगुणाओ 5, तिरियलोए संखेज्जगुणानो 6 / [281] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोडी मनुष्यस्त्रियाँ (नारियाँ) त्रैलोक्य में हैं, 2. ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, 3. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं। 282. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा देवा उडलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के संखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / [282] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोड़े देव ऊर्वलोक में हैं, 2. (उनसे) असंख्यातगुणे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। 283. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवानो देवीलो उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणासो 2, तेलोक्के संखेज्जगुणासो 3, अधेलोयतिरियलोए संखेज्जगुणाओ 4, अधेलोए संखेज्जगुणानो 5, तिरियलोए संखेज्जगुणासो 6 / [283] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) असंख्यागुणी ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) अधोलोकतिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगणी हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं। 284. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा भवणवासी देवा उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए प्रसंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के संखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, तिरियलोए असंखेज्जगुणा 5, अधोलोए असंखेज्जगुणा 6 / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [ 269 [24] क्षेत्रानुसार 1. सबसे थोड़े भवनवासी देव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) अधोलोक में असंख्यातगुणे हैं। 285. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवानो भवणवासिणीनो देवीप्रो उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए प्रसंखेज्जगुणालो 2, तेलोक्के संखेज्जगुणाओ 3, अधोलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाश्रो 4, तिरियलोए प्रसंखेज्जगुणामो 5, अधोलोए असंखेज्जगुणासो 6 / [285] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोड़ी भवनवासिनी देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 6. (और उनसे भी) अधोलोक में असंख्यातगुणी हैं। 286. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्योवा वाणमंतरा देवा उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोषके संखेज्जगुणा 3, अधोलोयतिरियलोए प्रसंखेज्जगुणा 4, पहेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / / [286] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे अल्प वाणव्यन्तर देव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। 287. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवानो वाणमंतरीमो वेवीप्रो उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणाश्रो 2, तेलोक्के संखिज्जगणाप्रो 3, प्रधोलोयतिरियलोए असंखिज्जगुणाम्रो 4, अधोलोए संखिज्जगुणानो 5, तिरियलोए संखिज्जगुणासो 6 / [287] क्षेत्रानुसार 1. सबसे थोड़ी वाणव्यन्तर देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, 6. (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं / 288. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा जोइसिया देवा उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के संखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, प्रधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए प्रसंखेज्जगुणा 6 / [288] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम ज्योतिष्क देव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] [प्रज्ञापनासूत्र 286. खेताणुवाएणं सम्वत्थोवारो जोइसिणीनो देवीप्रो उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणाओ 2, तेलोक्के संखेज्जगुणासो 3, अधेलोयतिरियलोए प्रसंखेज्जगुणासो 4, अधेलोए संखेज्जगुणानो 5, तिरियलोए प्रसंखेज्जगुणानो 6 / [289] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे अल्प ज्योतिष्क देवियाँ ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं, 5 (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणी हैं। 260. खेत्ताणुवाएणं सब्वत्थोवा बेमाणिया देवा' उड्ढलोयतिरियलोए 1, तेलोक्के संखेज्जगुणा 2, अधोलोयतिरियलोए संखेज्जगुणा 3, अधेलोए संखेज्जगुणा 4, तिरियलोए संखेज्जगुणा 5, उड्ढलोए असंखेज्जगुणा 6 / [260] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं। 261. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवानो वेमाणिणीनो देवीप्रो उड्ढलोयतिरियलोए 1, तेलोक्के संखेज्जगुणालो 2, अधेलोयतिरियलोए संखेज्जगुणानो 3, अधेलोए संखिज्जगुणानो 4, तिरियलोए संख जगुणाओ 5, उड्ढलोए असंख ज्जगुणाम्रो 6 / _ [291] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प वैमानिक देवियाँ ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) त्रैलोक्य में संख्यातगुणी हैं, 3. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, 4. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणी हैं, 5. (उनसे) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणी हैं, 6. (और उनसे भी) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणी हैं। 262, खत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिदिया जीवा उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखेज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखेज्जगुणा 5, अधोलोए विसेसाहिया 6 / [292] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोड़े एकेन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) अधोलोक-तिर्यकलोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यकलोक में असंख्यातगणे हैं, 4. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं और 6. (उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 263. खत्ताणवाएणं सम्वत्थोवा एगिदिया जीवा अपज्जत्तगा उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधो. लोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए प्रसंखेज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 4, उड्ढलोएअसंखेज्जगुणा 5, अधोलोए विसे साहिया 6 / 1. ग्रन्थानम् 2000 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापर] [ 263 [263] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम एकेन्द्रिय-अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, और 6. (उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। ___264. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा एगिदिया जीवा पज्जत्तगा उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधोलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखेज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखेज्जगुणा 5, अहोलोए विसेसाहिया 6 / [294] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव सबसे थोड़े ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. उनसे ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, 6. और (उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 265. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा बेइंदिया उडढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा / [265] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुण हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. (और उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं / 266. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा बेइंदिया अपज्जतया उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखिज्जगुणा 3, अधेलोतिरियलोए प्रसंखिज्जगुणा 4, अधोलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / [296] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में है, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. और (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं / 267. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा बेंदिया पज्जत्तया उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखिज्जगुणा 3, अधोलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / [297] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं। 6. और (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [ प्रज्ञापनासूत्र 298. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा तेइंदिया उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, सिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / [298] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े त्रीन्द्रिय ऊर्ध्वलोक में है, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, और 6. (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। ___266. खेत्ताणुवाएणं सबथोवा तेइंदिया अपज्जत्तगा उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधोलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / / [299] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. और (उनकी अपेक्षा भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। 300. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्योवा तेइंदिया पज्जत्तगा उड्डलोए 1, उड्डलोयतिरियलोए प्रसंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, अधेलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / [300] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. और (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं / 301. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा चरिदिया जीवा उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, अधोलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधोलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / [301] क्षेत्र की दृष्टि से 1. सबसे अल्प चतुरिन्द्रिय जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. और (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं / 302, खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चरिदिया जीवा अपज्जत्तगा उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, अधोलोयतिरियलोए असंखेज्जगुणा 4, अधेलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [265 302] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्व लोक-तिर्यक्लोक में असंख्यात गुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यकुलोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, 6. और (उनसे भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं / 303. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा चरिदिया जीवा पज्जत्तया उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरिय लोए असंखेज्जगुणा 2, तेलोक्के असंखेज्जगुणा 3, पहेलोयतिरियलोए प्रसंखेज्जगुणा 4, अहोलोए संखेज्जगुणा 5, तिरियलोए संखेज्जगुणा 6 / ___ [303] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक् लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुण हैं, 6. और (उनकी अपेक्षा भी) तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं। 304. खेत्ताणवातेणं सम्वत्थोवा पंचिदिया तेलोक्के 1, उड्ढलोयतिरियलोए संखज्जगणा 2, अधोलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 3, उड्ढलोए संखज्जगुणा 4, अधेलोए संखज्जगुणा 5, तिरियलोए असंख ज्जगुणा 6 / / [304] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प पंचेन्द्रिय त्रैलोक्य में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुण हैं, 4. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं और 6. (उनकी अपेक्षा भो) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं। 305. खेत्ताणवाएणं सव्वत्थोवा पंचिदिया अपज्जत्तया तेलोक्के 1, उड्ढलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 2, प्रधेलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 3, उड्ढलोए संख ज्जगुणा 4, अधेलोए संखज्जगुणा 5, तिरियलोए असंखज्जगुणा 6 / / [305] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक त्रैलोक्य में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 3. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में संख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, और 6. (उनकी अपेक्षा भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं। 306. खताणुवाएणं सव्वत्थोवा पंचिदिया पज्जत्तया उड्ढलोए 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखज्जगुणा 2, तेलोक्के संखज्जगुणा 3, अधोलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 4, अधेलोए संखज्ज.. गुणा 5, तिरियलोए असंख ज्जगुणा 6 / [306) क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक में हैं, 2. (उनसे) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) त्रैलोक्य में संख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अधोलोक-तिर्यक्लोक में संख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं 6. और (उनकी अपेक्षा भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं / Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [ प्रज्ञापनासूत्र 307. खताणुवाएणं सम्वत्थोवा पुढविकाइया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधो लोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए प्रसंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [307] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोड़े पृथ्वीकायिक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, और 6. (उनकी अपेक्षा भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 308. खेत्ताणुवाएणं सबथोवा पुढविकाइया अपज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधोलोयतिरियलोए विसेसाधिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए प्रसंखज्जगुणा 5, अहोलोए विसेसाधिया 6 / [308] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं और 6. (उनकी अपेक्षा भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 306. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोया पुढविकाइया पज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाधिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए प्रसंखज्जगुणा 5, प्रधेलोए विसेसाधिया 6 / [30] क्षेत्र के अनुसार 1. पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव सबसे अल्प ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं और 6. (उनकी अपेक्षा भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 310. खत्ताणवाएणं सम्वत्थोवा पाउकाइया उड्लोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अहेलोए विसेसाहिया 6 / _[310] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे थोड़े अप्कायिक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यकुलोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 5. ऊर्ध्वलोक में (इनसे) असंख्यातगुणे हैं, 6. (और इनसे भी) विशेषाधिक अधोलोक में हैं। 311. खत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा प्राउकाइया अपज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाधिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के प्रसंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 267 तृतीय बहुवक्तव्यतापद . [311] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम अप्कायिक-अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं और 6. अधोलोक में (उनकी अपेक्षा भी) विशेषाधिक हैं / ___312. खत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा पाउकाइया पज्जत्तया उड्ढलोयतिरिलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाधिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंख ज्जगुणा 4, उड्ढलोए प्रसंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [312] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. अप्कायिक-पर्याप्त जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में सबसे कम हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनको अपेक्षा)ऊवलोक में असंख्यागुणे हैं, 5. (उनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 6. और (उनसे भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 313. खत्ताणुवाएणं सवस्थोवा तेउकाइया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसे साहिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंख ज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [313] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. तेजस्कायिक जीव सबसे कम अवलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यात. गुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. ऊर्ध्वलोक में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, और 6. अधोलोक में (उनसे भी) विशेषाधिक हैं। 314. खेत्ताणुवाएणं सव्वत्योवा तेउकाइया अपज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाधिया 6 / [314] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प तेजस्कायिक-अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (उनसे) विशेषाधिक हैं, 3. तिर्यक्लोक में (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (इनसे) असंख्येयगुणे हैं, 5. ऊर्ध्वलोक में (इनसे) असंख्यातगुणे हैं, 6. और (इनकी अपेक्षा भी) विशेषाधिक अधोलोक में हैं। ___315. खेत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा तेउक्काइया पज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए प्रसंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [315] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम तेजस्कायिक-पर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. तिर्यक्लोक में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनको अपेक्षा) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं और (उनकी अपेक्षा भी) 6. अधोलोक में विशेषाधिक हैं / Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 ] [ प्रज्ञापनासूत्र 316. खताणुवाएणं सम्वत्थोवा वाउकाइया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंख ज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / 316] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे अल्प वायुकायिक जीव अर्वलोक-तिर्यक्लोक हैं, 2. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (इनसे) विशेषाधिक हैं, 3. तिर्यक्लोक में (इनसे) असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (इनसे) असंख्यातगुणे हैं, 5. (इनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं, 6. और (इनसे भी) विशेषाधिक अधोलोक में हैं। 317. खत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया अपज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधे. लोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [317] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. वायुकायिक-अपर्याप्तक जीव सबसे कम ऊर्ध्वलोक-तिर्यकलोक में है, 2. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (उनकी अपेक्षा) विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में अर्थात् तीनों लोकों का स्पर्श करने वाले जीव (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे हैं और 6. (उनकी अपेक्षा भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 318. खे ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वाउकाइया पज्जतया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / 318] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े वायुकायिक-पर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (इनकी अपेक्षा) विशेषाधिक हैं, 3. (इनकी अपेक्षा) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुण है, 4. (इनसे) त्रैलोक्य में असंख्यातगुणे हैं, 5. (इनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे ऊर्ध्वलोक में हैं और (इनकी अपेक्षा भी) 6. अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 316. खताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाधिया 2, तिरियलोए असंखज्जगुणा 3, तेलोक्के असंख ज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाधिया 6 / [319] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे अल्प वनस्पतिकायिक जीव ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 2. (उनसे) विशेषाधिक अधोलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 5. ऊर्ध्व लोक में (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 6. और अधोलोक में ( उनसे भी) विशेषाधिक हैं। 320. खत्ताणुवाएणं सव्वत्थोवा वणस्सइकाइया अपज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधो ito ino w संखे ज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 266 तृतीय बहुवक्तव्यतापद |320] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक जीव ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में हैं, 2 (उनको अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 5. ऊर्ध्वलोक में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं तथा 6. अधोलोक में (इनकी अपेक्षा भी) विशेषाधिक हैं। 321. खताणुवाएणं सम्वत्थोवा वणस्सइकाइया पज्जत्तया उड्ढलोयतिरियलोए 1, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 2, तिरियलोए असंख ज्जगुणा 3, तेलोक्के असंखज्जगुणा 4, उड्ढलोए असंखज्जगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [321] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक जीव अवलोक-तिर्यकलोक में हैं, 2. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (उनसे) विशेषाधिक हैं, 3. (उनसे) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं, 4. त्रैलोक्य में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) असंख्यातगुणे ऊर्ध्वलोक में हैं, 6. (और उनकी अपेक्षा भी) विशेषाधिक अधोलोक में हैं। 322. खताणुवाएणं सम्वत्थोवा तसकाइया तेलोक्के 1, उड्ढलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 2, अहेलोयतिरियलोए संख जगुणा 3, उडलोए संखज्जगुणा 4, अधेलोए संखज्जगुणा 5, तिरियलोए असंखज्जगुणा 6 / [322, क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे थोड़े त्रसकायिक जीव त्रैलोक्य में हैं, 2. ऊर्ध्वलोकतिर्यक्लोक में (इनकी अपेक्षा) संख्यातगुणे हैं, 3. (इनकी अपेक्षा) संख्यातगुणे अधोलोक-तिर्यकलोक हैं, 4. ऊर्वलोक में (इनसे) संख्यातगुणे हैं, 5. अधोलोक में (इनकी अपेक्षा) संख्यातगुणे हैं, 6. और (इनकी अपेक्षा भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं / 323. खत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा तसकाइया अपज्जत्तया तेलोक्के 1, उड्ढलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 2, अधेलोयतिरियलोए संखज्ज गुणा 3, उड्ढलोए संखज्जगुणा 4, अधेलोए संखज्जगुणा 5, तिरियलोए असंखज्जगुणा 6 / [323] क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे कम उसकायिक अपर्याप्तक जीव त्रैलोक्य में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) संख्यातगुणे ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में हैं, 3. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (उनकी अपेक्षा) संख्यातगुणे हैं, 4. ऊर्ध्वलोक में (उनसे) संख्यातगुण हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक में संख्यातगुणे हैं और 6. (उनको अपेक्षा भी) तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं / 324. खत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा तसकाइया पज्जत्तया तेलोक्के 1, उड्ढलोयतिरियलोए असंखज्जगुणा 2, अधेलोयतिरियलोए संखज्जगुणा 3, उड्ढलोए संखज्जगुणा 4, अधेलोए संख ज्जगुणा 5, तिरियलोए संज्जगुणा 6 / दारं 24 // 324| क्षेत्र की अपेक्षा से 1. सबसे अल्प त्रसकायिक-पर्याप्तक जीव त्रैलोक्य में हैं, 2. ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 3. अधोलोक-तिर्यक्लोक में (उनकी अपेक्षा) संख्यातगुणे हैं, 4. ऊध्र्वलोक में (उनसे) संख्यातगुणे हैं, 5. अधोलोक में (उनसे) संख्यातगुणे हैं (और उनसे भी) 6. तिर्यक्लोक में असंख्यातगुणे हैं। -चौवीसवाँ (क्षेत्र) द्वार // 24 // Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] [ प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-चौवीसवाँ क्षेत्रद्वार : क्षेत्र को अपेक्षा से ऊर्ध्वलोकादिगत विविध जीवों का अल्पबहुत्व—प्रस्तुत 49 सूत्रों (सू. 276 से 324 तक) में क्षेत्र के अनुसार ऊर्व, अधः, तिर्यक् तथा त्रैलोक्यादि विविध लोकों में चौबीसदण्डकवर्ती जीवों के अल्पबहुत्व की विस्तार से चर्चा की गई है। __'खेत्ताणुवाएणं' की व्याख्या-क्षेत्र के अनुपात अर्थात् अनुसार अथवा क्षेत्र की अपेक्षा से विचार करना क्षेत्रानुपात कहलाता है। ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक प्रादि पदों की व्याख्या-जैनशास्त्रानुसार सम्पूर्ण लोक चतुर्दश रज्जपरिमित है। उसके तीन विभाग किए जाते हैं-ऊर्ध्वलोक, तिर्यग्लोक (मध्यलोक) और अधोलोक / रुचकों के अनुसार इनके विभाग (सीमा) निश्चित होते हैं / जैसे-रुचक के नौ सौ योजन नीचे और नौ सौ योजन ऊपर तिर्यक्लोक है। तिर्यक्लोक के नीचे अधोलोक है और तिर्यक्लोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है। ऊर्ध्वलोक कुछ न्यून सात रज्जू-प्रमाण है और अधोलोक कुछ अधिक सात रज्जू-प्रमाण है। इन दोनों के मध्य में 1800 योजन ऊँचा तिर्यग्लोक है। ऊर्ध्वलोक का निचला आकाश-प्रदेशप्रतर और तिर्यक्लोक का सबसे ऊपर का आकाश-प्रदेशप्रतर है, वही ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक कहलाता है। अर्थात रुचक के समभूभाग से नौ सौ योजन जाने पर, ज्योतिश्चक्र के ऊपर तिर्यग्लोकसम्बन्धी एकप्रदेशी आकाशप्रतर है, वह तियंग्लोक का प्रतर है। इसके ऊपर का एकप्रदेशी आकाशप्रतर ऊर्ध्वलोक-प्रतर कहलाता है। इन दोनों प्रतरों को ऊवलोक-तिर्यग्लोक कहते हैं। अधोलोक के ऊपर का एकप्रदेशी आकाशप्रतर और तिर्यग्लोक के नीचे का एकप्रदेशी आकाशप्रतर अधोलोक-तिर्यकलोक कहलाता है / त्रैलोक्य का अर्थ है–तीनों लोक; यानी तीनों लोकों को स्पर्श करने वाला। इस प्रकार क्षेत्र (समग्रलोक) के 6 विभाग समझने के लिए कर दिये हैं-(१) ऊर्ध्वलोक, (2) तिर्यग्लोक, (3) अधोलोक, (4) ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक, (5) अधोलोक-तिर्यक्लोक और (6) त्रैलोक्य / ' क्षेत्रानुसार लोक के उक्त छह विभागों में जीवों का अल्पबहुत्व-ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में सबसे कम जीव हैं, क्योंकि यहाँ का प्रदेश (क्षेत्र) बहत थोडा है। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि विग्रहगति करते हुए या वहीं पर स्थित जीव विशेषाधिक ही हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यक्लोक में जीव असंख्यातगुण है, क्योंकि ऊपर जिन दो क्षेत्रों का कथन किया गया है, उनकी अपेक्षा तिर्यक्लोक का विस्तार असंख्यातगुणा है। तिर्यग्लोक के जीवों की अपेक्षा तीनों लोकों का स्पर्श करने वाले जीव असंख्यातगुणे हैं / जो जीव विग्रहगति करते हुए तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, उनकी अपेक्षा यह कथन समझना चाहिए। उनकी अपेक्षा अवलोक में असंख्यातगुणे जीव इसलिए हैं कि उपपातक्षेत्र की वहाँ अत्यन्त बहुलता है / उनको अपेक्षा अधोलोकवर्ती जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि अधोलोक का विस्तार सात रज्जू से कुछ अधिक प्रमाण है / 2 क्षेत्रानुसार चार गतियों के जीवों का अल्पबहुत्व-(१) नरकगतोय अल्पबहुत्व-सबसे कम नरकगति के जीव त्रैलोक्य में अर्थात्-तीनों लोक को स्पर्श करने वाले हैं / यह शंका हो सकती है, 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय, वृत्ति, पत्रांक 144 2. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 144 (ख) 'सव्वत्थोवा जीवा नोपज्जत्ता-नोअपज्जता, अपज्जत्ता अणंतगुणा, पज्जत्ता संखेज्जगुणा' --प्रज्ञापना. मूलपाठ टिप्पण भा. 1, पद 3 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [ 271 कि नारक जीव तीनों लोकों को स्पर्श करने वाले कैसे हो सकते हैं, क्योंकि वे तो अधोलोक में ही स्थित हैं, तथा वे सबसे कम कैसे हैं ? इसका समाधान यह है कि मेरुपर्वत के शिखर पर अथवा अंजन या दधिमुखपर्वतादि के शिखर पर जो वापिकाएँ हैं, उनमें रहने वाले जो मत्स्य आदि नरक में उत्पन्न होने वाले हैं, वे मरणकाल में इलिकागति से अपने आत्मप्रदेशों को फैलाते हुए तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं, और उस समय वे नारक हो कहलाते हैं, क्योंकि तत्काल ही उनकी उत्पत्ति नरक में होने वाली होती है, और वे नरकायु का वेदन करते हैं। ऐसे नारक थोड़े ही होते हैं, इसलिए उन्हें सबसे कम कहा है / त्रिलोकस्पर्शी नारकों की अपेक्षा पूर्वोक्त अधोलोकतिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे नारक हैं; क्योंकि असंख्यात द्वीप-समुद्रों में रहने वाले बहुत-से पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जब नरकों में उत्पन्न होते हैं, तब इन दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं, इस कारण वे त्रैलोक्यस्पर्शी नारकों से असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका क्षेत्र असंख्यातगुणा है / मेरु प्रादि क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात द्वीप-समुद्ररूप क्षेत्र असंख्यातगुणा है / (2) तिर्यंचगतिक अल्पबहुत्व-सबसे कम तिर्यञ्च ऊर्वलोक-तिर्यग्लोक में हैं, क्योंकि ये तिर्यग्लोक के उपरिलोकवर्ती और ऊर्ध्वलोक के अधोलोकवर्ती दो प्रतरों में हैं, उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में-अधोलोक के ऊपरी और तिर्यग्लोक के निचले दो प्रतरों मेंविशेषाधिक हैं। इनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक, त्रैलोक्य एवं ऊर्ध्वलोक में उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणे हैं / त्रैलोक्यसंस्पर्शी तिर्यंचों की अपेक्षा ऊर्ध्वलोक (ऊर्ध्वलोकसंज्ञक प्रतर में) असंख्यातगुणे तिर्यञ्च हैं। इनकी अपेक्षा अधोलोक में विशेषाधिक हैं। तिर्यचस्त्रियाँ-क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम तिर्य चिनी ऊर्ध्वलोक का स्पर्श करने वाली हैं, क्योंकि मेरु आदि की वापी आदि में भी पंचेन्द्रिय स्त्रियाँ विद्यमान हैं। उनका क्षेत्र अल्प है। अतएव वे सबसे कम कही गई हैं, इनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में (ऊर्ध्वलोक और तिर्यग्लोक के दो प्रतरों को स्पर्श करने वाली) तिर्यंचस्त्रियाँ असंख्यातगुणी हैं। इसका कारण यह है कि सहस्रार देवलोक तक के देव, गर्भजपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च स्त्रियों में उत्पन्न हो सकते हैं और शेष काया के जीव भी उनमें उत्पन्न हो सकते हैं / जब सहस्रार देवलोक तक के देव या शेष काया के जीव ऊर्ध्वलोक से तिर्यक्लोक में पंचेन्द्रिय तिर्यंचस्त्री के रूप में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तब वे तिर्यंचस्त्री की आयु का वेदन करते हैं। इसके अतिरिक्त तिर्यक्लोकवर्ती पंचेन्द्रिय-तिर्यंचस्त्रियाँ जब ऊर्ध्वलोक में देवरूप से या अन्य किसी रूप में उत्पन्न होने वाली होती हैं, तब वे मारणान्तिक समुदघात करके अपने उत्पत्तिदेश तक अपने आत्मप्रदेशों को फैलाती हैं। उसस वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों को स्पर्श करती हैं। उस समय वे तिर्यंचयोनिक स्त्रियाँ कहलाती हैं, अतएव असंख्यातगुणी कही गई हैं। इनकी अपेक्षा त्रैलोक्य में-त्रिलोक का स्पर्श करने वाली स्त्रियां तिर्यंचस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं / जब अधोलोक से भवनवासी, वाणव्यन्तर, नैरयिक तथा अन्यकायों के जीव ऊर्ध्व लोक में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्री के रूप में उत्पन्न होते हैं, अथवा ऊर्ध्वलोक से कोई देवादि अधोलोक में तिर्यंचस्त्री के रूप में उत्पन्न होते हैं और वे समुद्घात करके अपने प्रात्मप्रदेशों को दण्डरूप में फैलाते हुए तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं / ऐसे जीव बहुत हैं, अतएव त्रैलोक्य में तिर्यचस्त्री को संख्यातगुणी कहना सुसंगत है / इनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यक्लोक का स्पर्श करने वाली तिर्यग्योनिकस्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं। बहुत-से नैरयिक आदि समुद्घात किये बिना ही तिर्यक्लोक में तिर्यञ्चपंचेन्द्रियस्त्री के रूप में उत्पन्न होते हैं ; तथा तिर्यग्लोकवर्ती जीव अधोलौकिक ग्रामों में तिर्यंचस्त्री के रूप में उत्पन्न होते हैं, उस समय वे पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं, और तियचस्त्री के आयूष्य का वंदन करते है, अतः उन्ह सख्यातगुणा कहा है। इनकी अपेक्षा भी अधोलोक में अर्थात् –अधोलोक के प्रतर में विद्यमान तिर्यञ्चस्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं। अधोलौकिक Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] [प्रज्ञापनासूत्र ग्राम और सभी समुद्र एक हजार योजन अवगाह वाले हैं / अतः नौ सौ योजन से नीचे मत्सी आदि तिर्यञ्चयोनिकस्त्रियों के स्वस्थान होने से वे प्रचुर संख्या में हैं / इस कारण उन्हें संख्यातगुणी कहा है। उनका क्षेत्र भी संख्यातगुणा अधिक है। अधोलोक की अपेक्षा तिर्यकलोक में तिर्यञ्चस्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं। (3) मनुष्यगतिविषयक अल्पबहुत्व-क्षेत्रापेक्षया विचार करने पर त्रैलोक्य में (त्रिलोकस्पर्शी) मनुष्य सबसे कम हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलौकिक ग्रामों में उत्पन्न होने वाले और मारणान्तिक समुद्घात करने वालों में से कोई-कोई समुद्घातवश बाहर निकाले हुए स्वात्मप्रदेशों से तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। कोई-कोई वैक्रिय या आहारक समुद्घात को प्राप्त होकर विशेष प्रयत्न के द्वारा बहुत दूर तक ऊपर और नीचे अपने प्रात्मप्रदेशों को फैलाते हैं, केवलीसमुद्घात को प्राप्त थोड़े-से मानव तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं। इस कारण सबसे कम मनुष्य त्रिलोक में हैं। उनकी अपेक्षा ऊर्वलोक-तिर्यग्लोक संज्ञक दो प्रतरों को स्पर्श करने वाले मनुष्य असंख्यातगुणे हैं। वैमानिक देव अथवा अन्य काय वाले जीव यथासम्भव उर्वलोक से तिर्यक्लोक में मनुष्यरूप में उत्पन्न होते हैं, तब वे पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इसके अतिरिक्त विद्याधर आदि भी जब मेरु आदि पर गमन करते हैं, तब उनके शुक्र, शोणित आदि पुद्गलों में सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होती है, और वे विद्याधर रुधिरादिपुद्गलों के साथ सम्मिश्र होकर जब लौटते हैं, तब पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं, वे संख्या में अधिक होते हैं, इस कारण असंख्यातगुणे हैं / इनकी अपेक्षा अधोलोक-तियक्लोक नामक दो प्रतरों को स्पर्श करने वाले मनुष्य संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में स्वभावतः ही बहुत-से मनुष्यों का सद्भाव है / अतः जो तिर्यक्लोक से मनुष्यों या अन्य कायों से प्राकर अधोलौकिक ग्रामों में गर्भज मनष्य या सम्मच्छिम उत्पन्न होने वाले हैं, अथवा अधोलौकिक ग्रामों से या अधोलोकवर्ती किसी अन्य स्थान से तिर्यक्लोक में गर्भज या सम्मूच्छिम मनुष्य के रूप में उत्पन्न होते हुए मनुष्य पूर्वोक्त दो प्रतरों का स्पर्श करते हैं / अतएव इन्हें संख्यातगुणे कहे हैं। इनकी अपेक्षा अवलोक में मनुष्य संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि सौमनस आदि वनों में क्रीड़ा आदि करने के लिए प्रचुरतर विद्याधरों एवं चारणमुनियों का गमनागमन होता है, और उनके यथायोग रुधिरादिपुद्गलों के योग से सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। इनकी अपेक्षा भी अधोलोक में संख्यातगुणे मनुष्य हैं; क्योंकि अधोलोक स्वस्थान होने से वहाँ अधिकता होनी स्वाभाविक है / इनकी अपेक्षा भी तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे मनुष्य अधिक हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक का क्षेत्र संख्यातगुणा अधिक है, और मनुष्यों का वह स्वस्थान है, इस कारण अधिकता सम्भव है। मनुष्यस्त्रियों का क्षेत्र को अपेक्षा से अल्पबहुत्व--सबसे कम मनुष्यस्त्रियाँ तीनों लोक को स्पर्श करने वाली हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में उत्पन्न होने वाली मारणान्तिक-समुद्घातवश जब वे अपने आत्मप्रदेशों को बाहर निकालती हैं, अथवा जब वे वैक्रियसमुद्घात या केवलीसमुद्घात करती हैं, तब तीनों लोकों का स्पर्श करती हैं और ऐसी मनुष्यस्त्रियाँ अत्यन्त कम होती हैं, इस कारण सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियाँ त्रैलोक्य में बताई गई हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोकसंज्ञक दो प्रतरों का स्पर्श करने वाली स्त्रियाँ संख्यातगुणी होती हैं / वैमानिकदेव अथवा शेष कायवाले कोई जीव जब ऊर्वलोक से तिर्यग्लोक में मनुष्यस्त्री के रूप में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तथा तिर्य ग्लोकगत मनुष्यस्त्रियाँ जब ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते समय मारणान्तिक समुद्घात करती हैं, तब दूर तक ऊपर अपने आत्मप्रदेशों को फैलाती हैं, फिर भी तब तक जो कालगत नहीं हुई हैं, वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करती हैं, और वे दोनों प्रकार की स्त्रियाँ बहुत अधिक होती रूप में Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [ 273 हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक पूर्वोक्त प्रतरद्वयका स्पर्श करने वाली मनुष्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक से मनुष्यस्त्रीपर्याय से या अन्य पर्याय से अधोलौकिक ग्रामों में अथवा अधोलौकिक ग्राम से तिर्यग्लोक में मनुष्यस्त्री के रूप में उत्पन्न होने वाली होती हैं, उनमें से कई अधोलौकिक ग्रामों में अवस्थान करके भी उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करती हैं / ऐसी स्त्रियाँ पूर्वोक्तप्रतरद्वय की स्त्रियों से बहुत अधिक होती हैं। इनकी अपेक्षा भी ऊर्ध्व लोक में (ऊर्ध्वलोक नामक प्रतरगत) मनुष्यस्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं; क्योंकि सौमनस आदि वनों में क्रीड़ार्थ बहुत-सी विद्यारियों का गमन सम्भव है / अधोलोक में उनकी अपेक्षा भी वे संख्यातगणी क हैं, क्योंकि वहाँ स्वस्थान होने से प्रचरतर होती हैं। उनकी अपेक्षा भी तिर्यग्लोक में वे संख्यातगुणी हैं, क्योंकि वहाँ क्षेत्र भी संख्यातगुणा अधिक है, और स्वस्थान भी है। (4) देवगति के जीवों का अल्पबहत्व क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम देव ऊर्वलोक में हैं, क्योंकि वहां वैमानिक जाति के देव ही रहते हैं, और वे थोड़े हैं, और जो भवनपति आदि देव तीर्थंकरों के जन्मोत्सवादि पर मन्दरपर्वतादि पर जाते हैं, वे भी स्वल्प ही होते हैं, इस कारण सबसे थोड़े देव ऊर्ध्वलोक में हैं / उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक दो प्रतरों में असंख्यातगुणे देव हैं; ये दोनों प्रतर ज्योतिष्कदेवों के निकटवर्ती हैं, अतएव उनके स्वस्थान हैं। इसके अतिरिक्त भवनपति, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्कदेव सुमेरु आदि पर गमन करते हैं; अथवा सौधर्म आदि कल्पों के देव अपने स्थान में आते-जाते हैं, या सौधर्म आदि देवलोकों में देवरूप से उत्पन्न होने वाले देव, जो देवायु का वेदन कर रहे होते हैं, वे जब अपने उत्पत्तिदेश में जाते हैं, तब पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श उन्हें होता है / ऐसे देव पूर्वोक्त देवों से असंख्यातगुणे अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्य में (लोकत्रयस्पर्शी) देव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकदेव तथारूप विशेष प्रयत्न से जब वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। वे पूर्वोक्त प्रतरद्वयसंस्पर्शी देवों से संख्यातगणे अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय का स्पर्श करने वाले देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि ये दोनों प्रतर भवनपति और वाणव्यन्तर देवों के निकटवर्ती होने से स्वस्थान हैं, तथा बहुत-से स्वभवनस्थित भवनपतिदेव तिर्यग्लोक में गमनागमन करते हैं, उद्वर्तन करते हैं; तथा वैक्रियसमुद्घात करते हैं; अथवा तिर्यग्लोकवर्ती पंचेन्द्रियतिर्यञ्च या मनुष्य भवनपतिरूप में उत्पन्न होने वाले होते हैं, और भवनपति की आयु का वेदन करते हैं, तब उनके पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है। ऐसे जीव बहुत होने के कारण संख्यातगुणे कहे गए हैं / उनकी अपेक्षा अधोलोक में देव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलोक भवनपतिदेवों का स्वस्थान है / उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में रहने वाले देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक ज्योतिष्क और वाणव्यन्तयदेवों का स्वस्थान है / देवियों का अल्पबहुत्व-देवियों का अल्पबहुत्व भी सामान्यतया देवसूत्र की तरह समझ लेना चाहिए।' भवनपति प्रादि देव-देवियों का पृथक-पृथक् अल्पबहुत्व-(१) भवनपतिदेव सबसे कम ऊर्ध्वलोक में हैं; क्योंकि, कोई-कोई भवनपतिदेव अपने पूर्वभव के संगतिकदेव की निश्रा से सौधर्मादि देवलोकों में जाते हैं। कई-कई मेरुपर्वत पर तीर्थकरजन्ममहोत्सवादि के निमित्त से, तथा अंजन, दधिमुख आदि पर्वतों पर आष्टाह्निक महोत्सव के निमित्त से एवं कई मन्दरादि पर क्रीड़ा के निमित्त जाते हैं। परन्तु ये सब स्वल्प होते हैं, इसलिए ऊर्ध्वलोक में भवनपतिदेव सबसे कम है। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 146 से 148 तक Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 ] [प्रज्ञापनासूत्र उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोकतिर्यग्लोक नामक दो प्रतरों में असंख्यातगुणे होते हैं, क्योंकि तिर्यग्लोकस्थभवनपतिदेव वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब वे ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक का स्पर्श करते हैं, तथा तिर्यग्लोकस्थ जो भवनपति मारणान्तिकसमुद्घात करके ऊर्ध्वलोक में सौधर्मादि देवलोकों में बादरपर्याप्तपृथ्वीकायिक, बादरपर्याप्त-अप्कायिक एवं बादरपर्याप्त-बनस्पतिकायिक रूप से अथवा शुभमणि-प्रकारों में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तब वे अपने भव की ही प्रायु का वेदन करते हैं, पारभविक पृथ्वीकायिकादि की आयु का नहीं; तब वे भवनपति ही कहलाते हैं उस समय वे ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक का स्पर्श करते हैं। इस प्रकार के वे भवनपतिदेव ऊर्ध्वलोक में गमनागमन करने से और दोनों प्रतरों के समीपवर्ती उनका क्रीड़ास्थान होने से वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों को स्पर्श करते हैं, इसलिए ये पूर्वोक्त देवों से असंख्यातगणे हैं। इनकी अपेक्षा त्रिलोकस्पर्शी भवनपति देव संख्यातगुणे होते हैं। ऊर्ध्वलोक में रहे हुए जो तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय भवनपति रूप से उत्पन्न होने वाले होते हैं, वे तथा स्वस्थान में तथाविध प्रयत्न विशेष से वैक्रिय समुद्धात या मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, तब वे त्रैलोक्यस्पर्श करते हैं। वे संख्यातगुणे इसलिए हैं कि अन्य स्थान में समुद्घात करने वालों की अपेक्षा स्वस्थान में समुद्घात करने वाले संख्यातगुणे होते हैं / अधोलोक-तिर्यग्लोक संज्ञक प्रतरद्वय में इनकी अपेक्षा भी वे असंख्यातगुणे होते हैं / तिर्यग्लोक इनके स्वस्थान से निकटवर्ती होने से गमनागमन होने के कारण तथा स्वस्थान में स्थित रहते हुए भी क्रोधादि कषायसमुद्घातवश गमन होने से बहुत-से भवनपतिदेव पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में वे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि तीर्थंकर समवसरणादि में वन्दननिमित्त, रमणीय द्वीपों में क्रीड़ा के निमित्त वे तिर्यग्लोक में आते है, और आते हैं तो चिरकाल तक भी रहते हैं उनकी अपेक्षा भी अधोलोक में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलोक तो भवनवासियों का स्वस्थान है। भवनवासीदेवों की तरह ही भवनवासीदेवियों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए / 'व्यन्तरदेव-देवियों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-क्षेत्रानुसार चिन्तन करने पर व्यन्तर देव सबसे कम ऊर्ध्वलोक में हैं, पाण्डकवन आदि में कुछ ही व्यन्तरदेव पाये जाते हैं। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक रूप दो प्रतरों में असंख्यातगुणे हैं कुछ व्यन्तरों के स्वस्थान के अन्तर्गत होने से तथा कई व्यन्तरों के स्वस्थान के निकट होने से तथा बहुत-से व्यन्तरों के मेरु आदि पर गमनागमन होने से उनके पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है / इन सब की सामूहिक रूप से विचारणा करने पर वे अत्यधिक हो जाते हैं। उनकी अपेक्षा त्रिलोकवर्ती व्यन्तर संख्यातगुणे हैं, क्योंकि तथाविध प्रयत्नविशेष से वैक्रिय समुद्घात करने पर वे आत्मप्रदेशों से तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, और ऐसे व्यन्तरदेव पूर्वोक्त देवों से अत्यधिक है, इसलिए संख्यातगणे हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक तिर्यग्लोक-संज्ञक प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि ये दोनों प्रतर बहुत-से व्यन्तरों के स्वस्थान हैं, इसलिए इनका स्पर्श करने वाले व्यन्त र बहुत अधिक होने से असंख्यातगुणे हैं। इनकी अपेक्षा अधोलोक में वे संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अधोलौकिक ग्रामों में उनका स्वस्थान है, तथा अधोलोक में बहुत से व्यन्तरों का क्रीड़ानिमित्त गमन भी होता है। इनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में वे संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक तो उनका स्वस्थान है ही। इसी प्रकार व्यन्तरदेवियों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए / ज्योतिष्कदेव पृथक-पृथक् देवियों का अल्पबहत्य-क्षेत्र की अपेक्षा विचार करने पर सबसे कम ज्योतिष्क देव ऊर्ध्वलोक में हैं, क्योंकि कुछ ही ज्योतिष्क देवों का तीर्थकरजन्ममहोत्सव निमित्त, या अंजन-दधिमुखादि पर अष्टाह्निका निमित्त अथवा कतिपय देवों का मन्दराचलादि पर क्रीड़ानिमित्त गमन होता है / उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, उन दोनों प्रतरों Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [275 को कई ज्योतिष्कदेव स्स्वथान में स्थित रहे हुए स्पर्श करते हैं, कोई वैक्रियसमुद्घात करके आत्मप्रदेशों से उनका स्पर्श करते हैं, कोई ऊर्ध्वलोक में जाते-आते उनका स्पर्श करते हैं / इस कारण दोनों प्रतरों का स्पर्श करने वाले ऊर्ध्वलोकगत देवों से असंख्यातगुणे हैं। उनसे त्रैलोक्यवर्ती ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि जो ज्योतिष्कदेव तथाविध तीव्र प्रयत्नवश वैक्रिय समुद्घात करते हैं, वे तीनों लोकों को अपने प्रात्मप्रदेशों से स्पर्श करते हैं; वे स्वभावतः अत्यधिक हैं, इस कारण पूर्वोक्त देव संख्यातगणं हैं। उनसे अधोलोक-तियग्लोक प्रतरद्वय-सस्पशी ज्योतिष्कदेव असंख्यातगणं हैं; क्योंकि बहुत-से देव अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादिनिमित्त या अधोलोक में क्रीड़ानिमित्त जातेआते हैं, तथा बहत-से देव अधोलोक से ज्योतिष्कदेवों में उत्पन्न होने वाले होते हैं, तब वे पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं। इसलिए पूर्वोक्त देवों से ये देव असंख्यातगुणे हो जाते हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक में संख्यातगुणे हैं; क्योंकि बहुत-से देव अधोलोक में क्रीड़ा के लिए या अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि के लिए चिरकाल तक रहते हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक तो उनका स्वस्थान है। इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवियों के अल्पबहुत्व का भी विचार कर लेना चाहिए। वैमानिक देव-देवियों का पृथक् पृथक् अल्पबहुत्व-क्षेत्रानुसार विचार करने पर सबसे अल्प वैमानिक देव ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक संज्ञक प्रतरद्वय में हैं, क्योंकि अधोलोक-तिर्यग्लोकवर्ती जो जीव वैमानिकों में उत्पन्न होते हैं, तथा जो वैमानिक तिर्यग्लोक में गमनागमन करते हैं, एवं जो उक्त दोनों प्रतरों में स्थित क्रीड़ास्थान में आश्रय लेकर रहते हैं, और जो तिर्यग्लोक में रहे हए ही वैक्रियसमदघात या मारणान्तिक समुदघात करते हैं, वे तथाविधप्रयत्नविशेष से अपने प्रात्मप्रदेशों को ऊर्ध्वदिशा में निकालते हैं, तब पूर्वोक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं, ऐसे वैमानिक देव बहुत ही अल्प होते हैं, इसलिए सबसे कम वैमानिक देव पूर्वोक्तप्रतरद्वय में हैं। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्यवर्ती वैमानिक पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार संख्यातगुणे अधिक हैं / उनकी अपेक्षा अधोलोक तिर्यग्लोक-संज्ञक दो प्रतरों में संख्यातगुणे हैं, क्योंकि उनका अधोलौकिक ग्रामों में तीर्थंकर समवसरणादि में गमनागमन होने से तथा उक्त दो प्रतरों में होने वाले समवसरणादि में अवस्थान के कारण बहुत-से देवों के उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है, उनकी अपेक्षा अधोलोक तथा तिर्यग्लोक में उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यातगुणे हैं, पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार बहुत से देवों का उभयत्र समवसरणादि तथा क्रीडा-स्थानों में अवस्थान होता है। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में वे असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि ऊर्वलोक तो उनका स्वस्थान ही है, वहाँ तो अत्यधिक होना स्वाभाविक है। वैमानिक देवियों का अल्पबहुत्व भी देवसूत्र की तरह समझ लेना चाहिए।' क्षेत्रानुसार एकेन्द्रियादि जीवों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-(१) एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व-क्षेत्रानुसार चिन्तन करने पर एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय अपर्याप्तक एवं एकेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव सबसे कम ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय में हैं। कई एकेन्द्रिय जीव वहीं स्थित रहते हैं. कई ऊर्ध्वलोक से तिर्यग्लोक में तथा तिर्यग्लोक से उर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले जब मारणान्तिकसमुद्घात करते हैं, तब वे उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं, वे बहुत अल्प होते हैं, इसलिए सबसे अल्प उक्त प्रतरद्वय में बताए गए हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधोलोक से तिर्यग्लोक में या तिर्यग्लोक से अधोलोक में इलिकागति से उत्पन्न होने वाले एकेन्द्रिय उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श करते हैं / वहीं रहने वाले एकेन्द्रिय भी ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में अधिक होते हैं, उनसे 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 149 से 151 तक Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] [ प्रज्ञापनासूत्र भी अधिक अधोलोक से तिर्यग्लोक में उत्पन्न होने वाले जीव पाए जाते हैं, इस कारण उक्त दोनों प्रतरों में विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में एकेन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उक्त प्रतरद्वय के क्षेत्र से तिर्यग्लोक का क्षेत्र प्रसंख्यातगुणा अधिक है। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्यस्पर्शी असंख्यातगुणे हैं। क्योंकि बहुत-से एकेन्द्रिय ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में और अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होते हैं, और उनमें से बहुत-से मारणान्तिक-समुद्घातवश अपने प्रात्मप्रदेश-दण्डों को फैला कर तीनों लोकों को स्पर्श करते हैं, इस कारण वे असंख्यातगुणे हो जाते हैं / उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में वे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उपपातक्षेत्र अत्यधिक है। उनसे अधोलोक में विशेषाधिक हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोकगत क्षेत्र से अधोलोकगत क्षेत्र विशेषाधिक है। एकेन्द्रिय अपर्याप्तक तथा पर्याप्तक के विषय में भी इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। (2) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक-पर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व-- क्षेत्रानुसार विचार करने पर सबसे कम द्वीन्द्रिय जीव ऊर्वलोक में हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक के एकदेशमेरुशिखर की वापी आदि में ही शंख आदि द्वीन्द्रिय पाए जाते हैं, उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि जो ऊर्ध्वलोक से तिर्यग्लोक में या तिर्यग्लोक से ऊर्ध्वलोक में द्वीन्द्रियरूप से उत्पन्न होने वाले होते हैं, द्वीन्द्रियायु का अनुभव कर रहे होते हैं, तथा इलिकागति से उत्पन्न होते हैं, अथवा जो द्वीन्द्रिय तिर्यग्लोक से ऊर्ध्वलोक में, या ऊर्ध्वलोक से तिर्यग्लोक में द्वीन्द्रियरूप से या अन्य किसी रूप से उत्पन्न होने वाले हों, जिन्होंने पहले मारणान्तिकसमुद्घात किया हो, अतएव जो द्वीन्द्रियायु का वेदन कर रहे हों, समुद्घातवश अपने प्रात्मप्रदेशों को जिन्होंने दूर तक फलाया हो, ओर जा प्रतरद्वय के अधिकृतक्षेत्र में हो रह रहे है, ऐसे जीव उक्त प्रतरद्वय का स्पर्श करते हैं, और वे अत्यधिक होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त से असंख्यातगणे अधिक कहे गए हैं। उनकी अपेक्षा त्रैलोक्यस्पर्शी द्वीन्द्रिय असंख्येयगुणे होते हैं, क्योंकि द्वीन्द्रियों के उत्पत्तिस्थान अधोलोक में बहुत हैं, तिर्यग्लोक में और भी अधिक है। उनमें से अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में द्वीन्द्रियरूप से या अन्यरूप से उत्पन्न होने वाले द्वीन्द्रिय पहले मारणान्तिक समुद्घात किये हुए होते हैं, वे समुद्घातवश अपने उत्पत्तिदेश तक अपने प्रात्मप्रदेशों को फैला देते हैं, तथा द्वीन्द्रियायु का वेदन करते हैं तथा जो द्वीन्द्रिय या शेष काय वाले ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में द्वीन्द्रियरूप से उत्पन्न होते हुए द्वीन्द्रियायु का अनुभव करते हैं, वे त्रैलोक्यस्पर्शी और अत्यधिक होते हैं, इसलिए पूर्वोक्त से असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा पूर्वोक्तयुक्ति के अनुसार अधोलोक-तिर्यग्लोक-प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं। उनसे उत्तरोत्तरक्रमशः अधोलोक एवं तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे हैं / जैसे औधिक द्वीन्द्रिय-अल्पबहुत्वसूत्र कहा गया है, वैसे ही त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा इन सबके अपर्याप्तकों एवं पर्याप्तकों के अल्पबहुत्व का विचार कर लेना चाहिए। मौधिक पंचेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व-क्षेत्रानुसार चिन्तन करने पर सबसे कम पंचेन्द्रिय त्रैलोक्यसंस्पर्शी हैं, क्योंकि वे ही पंचेन्द्रियजीव तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं, जो ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में या अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हो रहे हों, पंचेन्द्रियायु का वेदन कर रहे हों और इलिकागति से उत्पन्न होते हों, अथवा ऊर्ध्वलोक से अधोलोक में या अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में पंचेन्द्रियरूप से या अन्यरूप से उत्पन्न होते हुए जिन्होंने मारणान्तिक समुद्घात किया हो, उस समुद्घात के समय अपने उत्पत्तिदेशपर्यन्त जिन्होंने आत्मप्रदेशों को फैलाया हो और जो पंचेन्द्रियायु का अनुभव करते हों। वे बहुत अल्प होते हैं, इसलिए उन्हें सब से थोड़े कहा गया है। उनकी अपेक्षा Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [ 277 ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक-प्रतरद्वय में संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उपपात या समुद्धात के द्वारा इन दो प्रतरों का स्पर्श करने वाले अपेक्षाकृत अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अत्यधिक उपपात या समुद्घात द्वारा इन दोनों प्रतरों का अत्यधिक स्पर्श होता हैं। उनको अपेक्षा ऊवलोक में संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वहाँ वैमानिकों का अवस्थान हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक में संख्यातगुणे अधिक इसलिए हैं कि वहाँ नैरयिकों का अवस्थान है। उनसे तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वहाँ सम्मूछिम, जलचर, खेचर आदि का, व्यन्तर व ज्योतिष्क देवों का तथा सम्मूछिम मनुष्यों का बाहुल्य है। इसी तरह पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का विचार कर लेना चाहिए / पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक जीव सबसे कम हैं--ऊर्ध्वलोक में, क्योंकि वहां प्रायः वैमानिक देवों का ही निवास है / उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक-रूप प्रतरद्वय में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि उक्त प्रतरद्वय के निकटवर्ती ज्योतिष्कदेवों का तद्गतक्षेत्राश्रित व्यन्तर देवों का तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों का, एवं वैमानिक, व्यन्तर, ज्योतिष्कों, तथा विद्याधर-चारणमुनियों तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों का ऊर्वलोक और तिर्यग्लोक में गमनागमन होता है, तब इन दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है / उनकी अपेक्षा त्रैलोक्य-स्पर्शी संख्यातगुणे हैं, क्योंकि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक तथा अधोलोकस्थ विद्याधर जब तथाविध प्रयत्नविशेष से वैक्रियसमुद्धात करते हैं, और अपने आत्मप्रदेशों को ऊर्ध्वलोक में फैलाते हैं, तब वे तीनों लोकों का स्पर्श करते हैं। इस कारण वे संख्यातगुणे कहे गए हैं। उनसे अधोलोक-तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे हैं / बहुत-से व्यन्तरदेव, स्वस्थाननिकटवर्ती होने से भवनपति, तिर्यग्लोक या ऊर्ध्वलोक में व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अधोलौकिक ग्रामों में समवसरणादि में, या अधोलोक में क्रीड़ार्थ गमनागमन करते हैं, तथा समुद्रों में किन्हीं-किन्हीं पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का स्वस्थान निकट होने से तथा कतिपय तिर्यचपंचेन्द्रियजीवों के वहीं रहने के कारण उक्त दोनों प्रतरों का स्पर्श होता है / अतएव ये संख्यातगुणे कहे गए हैं। उनकी अपेक्षा अधोलोक में संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वहाँ नै रयिकों तथा भवनपतियों का अवस्थान है। उनकी अपेक्षा तिर्यग्लोक में असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वहाँ तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों और व्यन्तरों का निवास है।' पृथ्वीकायिक प्रादि पांच स्थावरों का पृथक-पृथक् अल्पबहुत्व—पृथ्वीकायिक आदि के प्रौधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक मिल कर 15 सूत्र हैं। इन 15 ही सूत्रों में उल्लिखित अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पूर्वोक्त एकेन्द्रिय सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। सकायिक जीवों का अल्पबहुत्व-त्रसकायिक औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक जीवों के अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पंचेन्द्रियसूत्र की तरह समझ लेना चाहिए।' पच्चीसवाँ बन्धद्वार : आयुष्यकर्म के बन्धक-प्रबन्धक आदि जीवों का अल्पबहुत्व 325. एतेसि गं भंते ! जीवाणं पाउयस्स कम्मरस बंधगाणं प्रबंधगाणं पज्जत्ताणं अपज्जताणं सुत्ताणं जागराणं समोहयाणं असमोहयाणं सातावेदगाणं असातावेदगाणं इंदियउवउत्ताणं नोइंदियउथउत्ताणं सागारोवउत्ताणं अणागारोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 151 से 154 तक 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 155 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] [ प्रमापनासूत्र गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा प्राउयस्स कम्मस्स बंधगा 1, अपज्जत्तया संखज्जगुणा 2, सुत्ता संखज्जगुणा 3, समोहता संखेज्जगुणा 4, सातवेदगा संखज्जगुणा 5, इंदिनोवउत्ता संखेज्जगुणा 6, अणागारोवउत्ता संखज्जगुणा 7, सागारोवउत्ता संखज्जगुणा 8, नोइंदियउवउत्ता विसेसाहिया , असातावेदगा विसेसाहिया 10, असमोहता विसेसाहिया 11, जागरा विसेसाहिया 12, पज्जत्तया विसेसाहिया 13, पाउयस्स कम्मस्स अबंधगा विसेसाहिया 14 / दारं 25 / / [325 प्र.] भगवन् ! इन आयुष्यकर्म के बन्धकों और अबन्धकों, पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों, सुप्त और जागृत जीवों, समुद्घात करने वालों और न करने वालों, सातावेदकों और असातावेदकों, इन्द्रियोपयुक्तों और नो-इन्द्रियोपयुक्तों, साकारोपयोग में उपयुक्तों और अनाकारोपयोग में उपयुक्त जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? __[325 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े आयुष्यकर्म के बन्धक जीव हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) अपर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) सुप्तजीव संख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) समुद्घात वाले संख्यातगुणे हैं, 5. (उनसे) सातावेदक संख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) इन्द्रियोपयुक्त संख्यातगुणे हैं, 7. (उनकी अपेक्षा) अनाकारोपयुक्त संख्यातगुणे हैं, 8. (उनकी अपेक्षा) साकारोपयुक्त संख्यातगुणे हैं, 9. (उनकी अपेक्षा) नो-इन्द्रियोपयुक्त जीव विशेषाधिक हैं, 10. (उनकी अपेक्षा) असातावेदक विशेषाधिक हैं, 11. (उनकी अपेक्षा) समुद्घात न करते हुए जीव विशेषाधिक हैं, 12. (उनकी अपेक्षा) जागृत विशेषाधिक हैं, 13. (उनसे) पर्याप्तक जीव विशेषाधिक हैं, 14. (और उनकी अपेक्षा भी) आयुष्यकर्म के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। पच्चीसवाँ (बन्ध) द्वार // 25 / / विवेचन-पच्चीसौं बन्धद्वार-बन्धद्वार के माध्यम से प्रायुष्यकर्म के बन्धक-प्रबन्धक प्रादि जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र (325) में आयुष्यकर्म के बन्धक-प्रबन्धक, पर्याप्तकअपर्याप्तक, सुप्त-जागृत, समुद्घात-कर्ता-अकर्ता, सातावेदक-असातावेदक, इन्द्रियोपयुक्त-नो-इन्द्रियोपयुक्त एवं साकारोपयुक्त-अनाकारोपयुक्त; सामूहिक रूप से इन सात युगलों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण-आयुष्यकर्म के बन्धक जीव सबसे अल्प इसलिए हैं कि आयुष्यकर्म के बन्ध का काल प्रतिनियत और स्वल्प है / अनुभूयमान भव के आयुष्य का तीसरा भाग अवशेष रहने पर अथवा उस तीसरे भाग में से भी तीसरा भाग आदि अवशेष रहने पर ही जीव परभव का आयुष्य बांधते हैं / अतः त्रिभागों में से दो भाग अबन्धकाल और एक भाग बन्धकाल है और वह बन्धकाल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है। आयुष्यकर्म-बन्धकों की अपेक्षा अपर्याप्तक संख्यातगुणे कहे गए हैं / अपर्याप्तकों से सुप्त जीव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि सुप्तजीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक, दोनों में पाए जाते हैं और अपर्याप्तक की अपेक्षा पर्याप्तक संख्यातगुणे अधिक है। सुप्त जीवों की अपेक्षा समवहत (समुदघात वाले) जीव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि बहुत-से पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीव सदा मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाए जाते हैं। समवहत जीवों से सातावेदक जीव संख्यातगुणे हैं; क्योंकि आयुष्यबन्धक, अपर्याप्त और सुप्त जीवों में भी साता का वेदन करने वाले उपलब्ध होते हैं। सातावेदकों की अपेक्षा इन्द्रियोपयुक्त जीव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि इन्द्रियों का उपयोग लगाने वाले सातावेदकों के अतिरिक्त असातावेदकों में भी पाए जाते हैं। उनकी अपेक्षा Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [ 279 दोनों में अनाकारोपयोग पाया जाता है। अनाकारोपयुक्तों की अपेक्षा साकारोपयुक्त जीव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि अनाकारोपयोग की अपेक्षा साकारोपयोग का काल अधिक है / साकारोपयुक्त जीवों की अपेक्षा नो-इन्द्रियोपयोग-उपयुक्त जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि इनमें नो-इन्द्रियोपयोग और अनाकारोपयोग वाले दोनों सम्मिलित हैं। इनकी अपेक्षा असातावेदक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन्द्रियोपयोगयुक्त जीव भी असातावेदक होते हैं / असातावेदकों से असमवहत (समुद्घात न किये हुए) विशेषाधिक होते हैं; क्योंकि सातावेदक भी असमवहत होते हैं, इस कारण असमवहतों की विशेषाधिकता है / इनकी अपेक्षा जागृत विशेषाधिक हैं, क्योंकि कतिपय समवहत जीव भी जागृत होते हैं। जागृतों की अपेक्षा पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि कतिपय सुप्तजीव भी पर्याप्तक हैं। बहुत-से जीव ऐसे भी हैं, जो जागृत न होते हुए-अर्थात् सुप्त होते हुए भी पर्याप्तक हैं। जो जागृत हैं, वे तो पर्याप्त हो होते हैं, किन्तु सुप्त जीवों के विषय में ऐसा नियम नहीं है / पर्याप्तक जीवों की अपेक्षा आयुकर्म के प्रबन्धक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि अपर्याप्तक भी आयुकर्म के प्रबन्धक होते हैं।' प्रत्येक युगल का अल्पबहुत्व-(१) आयुष्यकर्म के बन्धक कम हैं, प्रबन्धक उनसे असंख्यातगुणे अधिक हैं; पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार बन्धकाल की अपेक्षा प्रबन्धकाल अधिक है / बन्धकाल सिर्फ तीसरा भाग और वह भी अन्तर्मुहुर्त मात्र होता है। इस कारण बन्धकों की अपेक्षा प्रबन्धक संख्यातगुणे अधिक हैं / (2) अपर्याप्तक जीव अल्प हैं, पर्याप्तक उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं; यह कथन सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्म जीवों में बाह्य व्याघात न होने मे बहसंख्यक जीवों की निष्पत्ति (उत्पत्ति) और अल्प जीवों की अनिष्पत्ति (अनुत्पत्ति) होती है। (3) सुप्त जीव कम हैं, जागृत जीव उनकी अपेक्षा संख्यातगुणे अधिक हैं / यह कथन सूक्ष्म एकेन्द्रियों की अपेक्षा से समझना चाहिए; क्योंकि अपर्याप्त जीव तो सुप्त ही पाए जाते हैं, जबकि पर्याप्त जागृत भी होते हैं / (4) समवहत जीव थोड़े हैं, उनकी अपेक्षा असमवहत जीव असंख्यातगुणे अधिक हैं / यहाँ मारणान्तिक समुद्घात से समवहत ही लिये गए हैं और मारणान्तिक समुद्धात मरणकाल में ही होता है, शेष समय में नहीं; वह भी सब जीव नहीं करते / अतएव समवहत थोड़े ही कहे गए हैं; असमवहत अधिक, क्योंकि उनका जीवनकाल अधिक है। (5) इसी प्रकार सातावेदक जीव कम हैं, क्योंकि साधारणशरीरी जीव बहुत हैं और प्रत्येकशरीरी अल्प हैं। अधिकांश साधारणशरीरी जीव असातावेदक होते हैं, इस कारण सातावेदक कम हैं। प्रत्येकशरीरी जीवों में तो सातावेदकों की बहुलता है और असातावेदकों की अल्पता है। अतएव सातावेदक कम और असातावेदक उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं। (6) इन्द्रियोपयुक्त कम है, नो-इन्द्रियोपयुक्त संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि इन्द्रियोपयोग तो वर्तमानविषयक ही होता है, इस कारण उसका काल स्वल्प है। नो-इन्द्रियोपयोग अतीत-अनागतकाल-विषयक भी होता है। अत: उसका समय बहुत है, इस कारण नो-इन्द्रियोपयुक्त संख्यातगुणे कहे गए हैं। (7) अनाकार (दर्शन) उपयोग का काल अल्प होने से अनाकारोपयोग वाले अल्प हैं, उनकी अपेक्षा साकारोपयोग वाले का काल संख्यातगणा होने से साकारोपयोग वाले संख्यातगुणे अधिक हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 156-157 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय, वृत्ति, पत्रांक 156 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28.] [प्रज्ञापनासूत्र छव्वीसवाँ पुद्गलद्वार : पुद्गलों, द्रव्यों आदि का द्रव्यादि विविध अपेक्षाओं से अल्प बहुत्व 326 खत्ताणुवाएणं सम्वत्थोवा पोग्गला तेलोक्के 1, उडलोयतिरिलोए प्रणंतगुणा 2, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहिया 3, तिरियलोए असंखज्जगुणा 4, उड्डलोए असंख ज्नगुणा 5, अधेलोए विसेसाहिया 6 / [326] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम पुद्गल त्रैलोक्य में हैं, 2. ऊर्ध्वलोक-तिर्यग्लोक में (उनसे) अनन्तगुणे हैं, 3. अधोलोक-तिर्यग्लोक में विशेषाधिक हैं, 4. तिर्यग्लोक में (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 5. ऊर्ध्वलोक में (उनकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे हैं, 6. (और उनकी अपेक्षा भी) अधोलोक में विशेषाधिक हैं। 327. दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवा पोग्गला उद्धृदिसाए 1, अधेदिसाए विसेसाहिया 2, उत्तरपुरस्थिमेणं दाहिणपच्चत्थिमेण य दो वि तुल्ला असंखज्जगुणा 3, दाहिणपुरस्थिमेणं उत्तरपच्चत्थिमेण य दो वि तुल्ला विसेसाधिया 4, पुरस्थिमेणं असंखज्जगुणा 5, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया 6, दाहिणणं विसे साहिया 7, उत्तरेणं विसे साहिया 8 / [327] दिशाओं के अनुसार 1. सबसे कम पुद्गल अर्ध्वदिशा में हैं, 2. (उनसे) अधोदिशा में विशेषाधिक हैं, 3. उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पश्चिम दोनों में तुल्य हैं, (पूर्वोक्त दिशा से) असंख्यातगुणे हैं, 4. दक्षिण-पूर्व और उत्तर-पश्चिम दोनों में तुल्य हैं और (पूर्वोक्त दिशाओं से) विशेषाधिक हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) पूर्वदिशा में असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनकी अपेक्षा) पश्चिम दिशा में विशेषाधिक हैं, 7. (उनकी अपेक्षा) दक्षिण में विशेषाधिक हैं, (और उनकी अपेक्षा भी) 8. उत्तर में विशेषाधिक हैं। 328. खेत्ताणुवाएणं सध्यस्थोवाइं दवाई तेलोक्के 1, उड्डलोयतिरियलोए अणंतगुणाई 2, अधेलोयतिरियलोए विसेसाहियाइं 3, उड्डलोए असंखज्जगुणाई 4, अधेलोए अणंतगुणाई 5, तिरियलोए संखज्जगुणाई 6 / [328] क्षेत्र के अनुसार 1. सबसे कम द्रव्य त्रैलोक्य में (त्रिलोकस्पर्शी) हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) ऊर्ध्वलोक-तिर्यक्लोक में अनन्त गुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक-तिर्यक्लोक में विशेषाधिक हैं, 4. (उनसे) ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे अधिक हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) अधोलोक में अनन्तगुणे हैं, 6. (और उनकी अपेक्षा भी) तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे हैं / 326. दिसाणुवाएणं सम्वत्थोवाई दवाई अधेदिसाए 1, उड्डदिसाए अणंतगुणाई 2, उत्तरपुरस्थिमेणं दाहिणपच्चस्थिमेण य दो वि तुल्लाई असंखज्जगुणाई 3, दाहिणपुर त्यिमेणं उत्तरपच्चस्थिमेण य दो वि तुल्लाई विसेसाहियाई 4, पुरस्थिमेणं असंखज्जगुणाई 5, पच्चस्थिमेणं विसेसाहियाइं 6, दाहिणणं विसेसाहियाई 7, उत्तरेणं विसेसाहियाई 8 / [326] दिशाओं के अनुसार, 1. सबसे थोड़े द्रव्य अधोदिशा में हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणे हैं, 3. उत्तरपूर्व और दक्षिणपश्चिम दोनों में तुल्य हैं, (पूर्वोक्त ऊर्ध्वदिशा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [281 से) असंख्यातगुणे हैं, 4. दक्षिणपूर्व और उत्तरपश्चिम, दोनों में तुल्य हैं तथा (पूर्वोक्त दो दिशाओं से) विशेषाधिक हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) पूर्व में असंख्यातगुणे हैं, 6. (उनकी अपेक्षा) पश्चिम में विशेषाधिक हैं, 7. (उनसे) दक्षिण में विशेषाधिक हैं, 8. (और उनकी अपेक्षा भी) उत्तर में विशेषाधिक हैं। 330. एतेसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं संखज्जपदेसियाणं असंखोज्जपदेसियाणं अणंतपदेसियाण य खंधाणं दव्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दवट्ठपदेसट्टताए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा प्रणंतपदेसिया खधा दवट्टयाए 1, परमाणुपोग्गला दन्वट्ठताए अणंतगुणा 2, संखज्जपदेसिया खधा दवट्ठयाए संख ज्जगुणा 3, असंखज्जपएसिया खंघा दबद्वयाए असंखज्जगुणा 4; पदेसट्टयाए–सम्वत्थोवा प्रणेतपदेसिया खधा पएसयाए 1, परमाणुपोग्गला अपदेसट्टयाए अणंतगुणा 2, संखज्जपदेसिया खधा पदेसट्टयाए संखज्जगुणा 3, असंखज्जपदेसिया खधा पएसट्टयाए असंखज्जगुणा 4; दवटुपदेसट्टयाए-सम्वत्थोवा अणंतपदेसिया खधा दवट्टयाए 1, ते चेव पदेसट्टयाए अणंतगुणा 2, परमाणुपोग्गला दव्वटुप्रपदेसटुयाए अणंतगुणा 3, संखेज्जपएसिया खधा दवट्ठयाए संख जगुणा 4, ते चेव पदेसट्टयाए संख जगुणा 5, असंखज्जपदेसिया खधा दव्वट्ठयाए असंखज्जगुणा 6, ते चेव पएसट्टयाए प्रसंखज्जगुणा 7 / [320 प्र.] भगवन् ! इन 1. परमाणुपुद्गलों तथा 2. संख्यातप्रदेशिक, 3. असंख्यातप्रदेशिक और 4. अनन्तप्रदेशिक स्कन्धों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से, और द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 330 उ.] गौतम ! 1. सबसे थोड़े द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) परमाणुपुद्गल द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-१. सबसे कम अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध प्रदेशापेक्षया हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) परमाणुपुद्गल अप्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-१. सबसे अल्प, द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) वे (अनन्तप्रदेशी स्कन्ध) ही प्रदेशों को अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) परमाणुपुद्गल, द्रव्य एवं अप्रदेश की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) वे (संख्यातप्रदेशी स्कन्ध) ही प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 6. (उनसे) असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, 7. वे (असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध) प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। 331. एतेसि णं भंते ! एगपदेसोगाढाणं संखज्जपएसोगाढाणं असंखज्जपएसोगाढाण य पोग्गलाणं दवढयाए पदेसट्टयाए दवटुपदेसटुताए कतरे कतरेहितो प्रप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सम्वत्थोवा एगपदेसोगाढा पोग्गला दवढयाए 1, संखज्जपदेसोगाढा पोग्गला दत्वयाए संखेज्जगुणा 2, असंखज्जपएसोगाढा पोग्गला दवट्ठयाए असंखज्जगुणा 3; पएसट्टयाएसव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला पएसट्ठयाए 1, संखजपएसोगाढा पोग्गला पदेसट्टयाए संखज्जगुणा 2, असंखज्जपएसोगाढा पोग्गला पएसट्टयाए असंख ज्जगुणा 3, दवट्ठपएसट्टयाए-सव्वत्थोवा एगपएसोगाढा पोग्गला दवट्ठपएसट्टयाए 1, संखज्जपएसोगाढा पोग्गला दवढयाए संखे जगुणा 2, ते चेव पएसटुयाए संखज्जगुणा 3, असंख जपदेसोगाढा पोग्गला दब्वट्ठयाए असंखज्जगुणा 4, ते चेव पदेसट्टयाए असंखज्जगुणा 5 / [331 प्र.] भगवन् ! इन एकप्रदेशावगाढ़, संख्यातप्रदेशावगाढ़ और असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों में द्रव्य की अपेक्षा से प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [331 उ.] गौतम ! 1. सबसे कम द्रव्य की अपेक्षा से एक प्रदेश में अवगाढ़ पुद्गल हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) संख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुण हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ पुद्गल असंख्यात हैं। प्रदेशों को दृष्टि से प्रल्पबहुत्व-१. सबसे कम, प्रदेशों की अपेक्षा से, एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गल हैं, 2. (उनकी अपेक्षा) संख्यातप्रदेशावगाढ पुदगल, प्रदेशों की अपेक्षा से, संख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) असंख्यातप्रदेशावगाढ पुदगल, प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से अल्पबहुत्व--१. सबसे कम एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से हैं, 2. (उनको अपेक्षा) संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) वे (संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल) ही प्रदेश की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 4. (उनकी अपेक्षा) असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) वे (असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल) ही, प्रदेश की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। 332. एतेसि णं भंते ! एगसमयठितीयाणं संखेज्जसमयठितीयाणं असंखेज्जसमयठितीयाण य पोग्गलाणं दध्वट्ठयाए पदेसट्टयाए दबटुपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयया ! सम्वत्थोवा एगससमयठितीया पोग्गला दबट्टयाए 1, संखेज्जसमठितीया पोग्गला वव्वयाए संखेज्जगुणा 2, असंखेज्जसमयठितीया पोग्गला दवढयाए असंखेज्जगुणा 3; पदेसट्टयाएसम्वत्थोवा एगसमयठितीया पोग्गला पदेसट्टयाए 1, संखेज्जसमयठितीया पोग्गला पदेसट्टयाए संखेज्जगूणा 2, असंखेज्जसमयठितीया पोग्गला पदेसटुवाए असंखेज्जगुणा 3; दवटुपदेसट्टयाएसम्वत्थोवा एगसमयठितीया पोग्गला दब्वट्ठपदेसट्टयाए 1, संखेज्जसमयठितीया पोग्गला दवट्टयाए संखेज्जगुणा 2, ते चेव पदेसट्टयाए संखेज्जगुणा 3, असंखेज्जसमठितीया पोग्गला दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा 4, ते चेव पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा / / [332 प्र.] भगवन् ! इन एक समय की स्थिति वाले, संख्यात समय की स्थिति वाले और असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से एवं द्रव्य तथा प्रदेश की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापव] [283 - [332 उ.] गौतम ! 1. द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प एक समय की स्थिति वाले पुद्गल हैं, 2. (उनको अपेक्षा) संख्यात समय को स्थिति वाले पुद्गल, द्रव्य को अपेक्षा से संख्यातगुण हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं / प्रदेशों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व-१. सबसे कम, एक समय की स्थिति वाले पुद्गल, प्रदेशों की अपेक्षा से हैं, 2. (उनको अपेक्षा) संख्यात समय को स्थिति वाले पुद्गल, प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से प्रल्पबहुत्व-१. द्रव्य एवं प्रदेश की अपेक्षा से सबसे कम पुद्गल, एक समय की स्थिति वाले हैं, 2. संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 3. (इनकी अपेक्षा) वे (संख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल) ही प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणे हैं, 4. (इनसे) असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गल, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, 5. (और इनसे भी) वे (असंख्यात-समयस्थितिक पुद्गल) ही प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातगुणे हैं। 333. एतेसि णं भंते ! एगगुणकालगाणं संखेज्जगुणकालगाणं असंखेज्जगुणकालगाणं अणंतगुणकालगाण य पोग्गलाणं दवट्टयाए पदेसट्टयाए दवटुपदेसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा! जहा परमाणुपोग्गला (सु. 330) तहा भाणितव्वा / एवं संखेज्जगुणकालयाण वि / एवं सेसा वि वण्ण-गंध-रसा भाणितव्या / फासाणं कक्खड-मउय गरुय-लहुयाणं जधा एगपदेसोगाढाणं (सु. 331) भणितं तहा भाणितव्वं / प्रवसेसा फासा जघा वण्णा मणिता तथा माणितन्वा / दारं 26 // [333 प्र.] भगवन् ! इन एकगुण काले, संख्यातगुण काले, असंख्यातगुण काले और अनन्तगुण काले पुद्गलों में से, द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य तथा प्रदेश की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 333 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परमाणुपुद्गलों के विषय में (सू. 330 में) कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। इसी प्रकार संख्यातगुण काले (एवं असंख्यातगुण काले तथा अनन्तगुण काले) पुद्गलों के विषय में भी (पूर्ववत् सू. 330 के अनुसार) समझ लेना चाहिए। इसी प्रकार शेष वर्ण (नीले, लाल, पीले प्रादि) तथा (समस्त) गन्ध एवं रस के (एकगुण से अनन्तगुण तक के) पुद्गलों के अल्पबहुत्व के सम्बन्ध में कहना चाहिए तथा कर्कश, मृदु (कोमल), गुरु और लघु स्पर्शो के (अल्पबहुत्व के) विषय में भी जिस प्रकार (सू. 331 में) एकप्रदेशावगाढ़ आदि का (अल्पबहुत्व) कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए / अवशेष (चार) स्पशों के विषय में जैसे वर्णों का (अल्पबहुत्व) कहा है, वैसे ही कहना चाहिए। छब्बीसवाँ (पुद्गल) द्वार // 26 // विवेचन-छन्वीसवां पुद्गलद्वार-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 326 से 333 तक) में पुद्गलद्वार के माध्यम से क्षेत्र एवं दिशा की अपेक्षा से पुद्गलों और द्रव्यों के तथा द्रव्य, प्रदेश, एवं द्रव्यप्रदेश की दृष्टि से परमाणुपुद्गल, संख्यातप्रदेशी आदि के एकप्रदेशावगाढ़ से असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [प्रज्ञापनासूत्र तक के एकसमयस्थितिक से असंख्यातसमयस्थितिक पुद्गलों तक के तथा विविध वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के पुद्गलों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। क्षेत्रानुसार पुद्गलों का प्रल्पबहुत्व-त्रैलोक्यस्पर्शी पुद्गल द्रव्य सबसे थोड़े इसलिए बताए हैं कि महास्कन्ध ही त्रैलोक्यव्यापी होते हैं और वे अल्प ही हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्वलोक-तिर्यग्लोकसंज्ञक प्रतरद्वय में अनन्तगुणे पुद्गलद्रव्य हैं, क्योंकि इन दोनों प्रतरों में अनन्त संख्यातप्रदेशी, अनन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्ध स्पर्श करते हैं, इसलिए द्रव्यार्थतया वे अनन्तगुणे हैं / उनकी अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक नामक दो प्रतरों में वे विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनका क्षेत्र पायामविष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) में कुछ विशेषाधिक है। उनसे तिर्यग्लोक में पुद्गल असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि इसका क्षेत्र (पूर्वोक्त से) असंख्यातगुणा है। उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि तिर्यग्लोक के क्षेत्र से ऊर्ध्वलोक का क्षेत्र असंख्यातगुणा अधिक है। उनसे अधोलोक में विशेषाधिक पुद्गलद्रव्य हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक से अधोलोक का क्षेत्र कुछ अधिक है। ऊर्ध्वलोक कुछ कम 7 रज्जूप्रमाण है, जबकि अधोलोक कुछ अधिक 7 रज्जूप्रमाण है। दिशात्रों के अनुसार पुद्गलद्रव्यों का अल्पबहुत्व सबसे कम पुद्गल ऊर्ध्व दिशा में है, क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी के समतल भूभाग वाले मेरुपर्वत के मध्य में जो अष्टप्रदेशात्मक रुचक से निकली हुई और लोकान्त को स्पर्श करने वाली चतुःप्रदेशात्मक (चार प्रदेश वाली) ऊर्ध्वदिशा है / उसमें सबसे कम पुद्गल हैं / अधोदिशा भी रुचक से निकलती है और वह चतुःप्रदेशात्मक और लोकान्त तक भी है, किन्तु ऊर्ध्वदिशा की अपेक्षा वह कुछ विशेषाधिक है, इसलिए वहाँ पुद्गल विशेषाधिक हैं / उनसे उत्तरपूर्व तथा दक्षिणपश्चिम में प्रत्येक में असंख्यातगुणे अधिक पुदगल हैं, स्वस्थान में तो दोनों तुल्य हैं, यद्यपि ये दोनों दिशाएँ रुचक से निकली हैं तथा मुक्तावली के आकार की हैं, तथापि ये तिर्यग्लोक, अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के अन्त तक जा कर समाप्त होती हैं, इसलिए इनका क्षेत्र असंख्यातगुणा होने से वहाँ पुद्गल भी असंख्यातगुणे हैं। इनसे दक्षिणपूर्व और उत्तरपश्चिम दोनों में प्रत्येक में विशेषाधिक पुद्गल हैं, स्वस्थान में तो ये परस्पर तुल्य हैं। इनमें विशेषाधिक पुद्गल होने का कारण यह है कि सौमनस एवं गंधमादन पर्वतों के सात-सात कूटों (शिखरों) पर तथा विद्युत्प्रभ और माल्यवान् पर्वतों के नौ-नौ कूटों पर कोहरे, ओस आदि के सूक्ष्मपुद्गल बहुत होते हैं, इसलिए इन दोनों दिशाओं में पूर्वोक्त दिशाओं से पुद्गल विशेषाधिक हैं / इनसे पूर्व दिशा में असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि पूर्व में क्षेत्र असंख्येयगुणा है। उनसे पश्चिम में विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्रामों में पोलार होने से वहाँ पुद्गल बहुत होते हैं। पश्चिम की अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ भवन तथा पोल अधिक हैं। उनसे उत्तर दिशा में विशेषाधिक है, क्योंकि उत्तर में संख्यातकोटा-कोटी योजन लम्बा-चौड़ा मानससरोवर है, जहाँ जलचर तथा काई, शैवाल आदि बहुत प्राणी हैं, उनके तैजस-कार्मणशरीर के पुद्गल अत्यधिक पाए जाते हैं। इस कारण पश्चिम से उत्तर में विशेषाधिक पुद्गल कहे गए हैं।' क्षेत्रानुसार सामान्यतः द्रव्यविषयक अल्पबहुत्व-क्षेत्र की अपेक्षा से सबसे कम द्रव्य त्रैलोक्य हैं. क्योंकि धर्मास्तिकाय. अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय, महास्कन्ध और जीवास्तिकाय में से मारणान्तिक समुद्घात से अतीव समवहत जीव ही त्रैलोक्यस्पर्शी होते हैं और वे अल्प हैं। इसलिए ये सबसे कम हैं। इनकी अपेक्षा ऊर्ध्व लोक-तिर्यक्लोक नामक दो प्रतरों में अनन्तगुणे द्रव्य है, 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 158-159 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [285 क्योंकि इन दोनों प्रतरों को अनन्त पुद्गलद्रव्य और अनन्त जीवद्रव्य स्पर्श करते हैं। इन दोनों प्रतरों की अपेक्षा अधोलोक-तिर्यग्लोक नामक प्रतरों में कुछ अधिक द्रव्य हैं / उनको अपेक्षा ऊर्ध्वलोक में असंख्यातगुणे द्रव्य अधिक हैं, क्योंकि वह क्षेत्र असंख्यातगुणा विस्तृत है / उनको अपेक्षा अधोलोक में अनन्तगुणे अधिक द्रव्य हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्रामों में काल है, जिसका सम्बन्ध विभिन्न परमाणुओं, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के पर्यायों के साथ होने के कारण प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्य अनन्त प्रकार का होता है / अधोलोक की अपेक्षा तिर्यग्लोक में संख्यातगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि अधोलोकिक ग्राम-प्रमाण खण्ड कालद्रव्य के आधारभूत मनुष्यलोक में संख्यात पाए जाते हैं। दिशात्रों को अपेक्षा से सामान्यतः द्रव्यों का अल्पबहुत्व---सामान्यतया सबसे कम द्रव्य अधोदिशा में हैं, उनकी अपेक्षा ऊर्ध्वदिशा में अनन्तगुणे हैं, क्योंकि ऊर्ध्वलोक में मेरुपर्वत का पांच सौ योजन का स्फटिकमय काण्ड है, जिसमें चन्द्र और सूर्य की प्रभा के होने से तथा द्रव्यों के क्षण आदि काल का प्रतिभाग होने से तथा पूर्वोक्त नीति से प्रत्येक परमाणु आदि द्रव्यों के साथ काल अनन्त होने से द्रव्य का अनन्तगुणा होना सिद्ध है। ऊर्ध्वदिशा की अपेक्षा उत्तरपूर्व-ईशानकोण में तथा दक्षिणपश्चिम-नैऋत्यकोण में असंख्यातगुणे द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ के क्षेत्र असंख्यातगुणा हैं, किन्तु इन दोनों दिशाओं में बराबर-बराबर ही द्रव्य हैं, क्योंकि इन दोनों का क्षेत्र बराबर है। इन दोनों की अपेक्षा दक्षिणपूर्व-आग्नेयकोण में तथा उत्तरपश्चिम-वायव्यकोण में द्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि इन दिशाओं में विद्युत्प्रभ एवं माल्यवान् पर्वतों के कूट के आश्रित कोहरे, अोस आदि श्लक्ष्ण पुद्गलद्रव्य बहुत होते हैं। इनकी अपेक्षा पूर्वदिशा में असंख्यातगुणा क्षेत्र अधिक होने से द्रव्य भी असंख्यातगुणे अधिक हैं। पूर्व की अपेक्षा पश्चिम दिशा में द्रव्य विशेषाधिक हैं, क्योंकि वहाँ अधोलोकिक ग्रामों में पोल होने के कारण बहुत-से पुद्गलद्रव्यों का सद्भाव है। उसकी अपेक्षा दक्षिण में विशेषाधिक द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ बहुसंख्यक भुवनों के रन्ध्र (पोल) हैं। दक्षिण से उत्तर दिशा में विशेषाधिक द्रव्य हैं, क्योंकि वहाँ मानससरोवर में रहने वाले जीवों के आश्रित' तैजस और कार्मण वर्गणा के पुद्गलस्कन्ध द्रव्य बहुत हैं। संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी-परमाणुपुद्गलों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्रों में द्रव्य, प्रदेश और द्रव्य-प्रदेश की दृष्टि से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है / पाठ सुगम है / यहाँ सर्वत्र अल्पबहुत्व-भावना में पुद्गलों का वैसा स्वभाव ही कारण माना गया है।। क्षेत्र की प्रधानता से पुद्गलों का अल्पबहुत्व-एकप्रदेश में अवगाढ़ (आकाश के एक प्रदेश में स्थित) पुद्गल (द्रव्यापेक्षया) सबसे कम हैं / यहाँ क्षेत्र की प्रधानता से विचार किया गया है / इसलिए आकाश के एक प्रदेश में जो भी परमाणु, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध अवगाढ़ हैं, उन सब को एक ही राशि में परिगणित करके 'एकप्रदेशावगाढ़' कहा गया है। इस दृष्टि से संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल पूर्वोक्त की अपेक्षा द्रव्यविवक्षा से संख्यातगुणे हैं / यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि आकाश के दो प्रदेशों में द्वयणुक भी रहता है, व्यणुक भी और असंख्यातप्रदेशी या अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी रहता है, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से उन सबकी एक ही राशि है / इसी प्रकार तीन प्रदेशों में ज्यणुक से लेकर अनन्ताणुक स्कन्ध तक रहते हैं, उनकी भी एक राशि समझनी चाहिए। इस दृष्टि से एकप्रदेशावगाढ़ पुद्गलों की अपेक्षा द्विप्रदेशावगाढ़, द्विप्रदेशावगाढ़ की 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 159 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [प्रज्ञापनासूत्र अपेक्षा त्रिप्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्य, इसी प्रकार चारप्रदेशावगाढ़, पंचप्रदेशावगाढ़, यावत् संख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गलद्रव्य द्रव्य की विवक्षा से उत्तरोत्तर संख्यातगुणे अधिक हैं। उनकी अपेक्षा असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल द्रव्यविवक्षा से असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि असंख्यात के असंख्यात भेद कहे गए हैं / इसी प्रकार द्रव्यार्थतासूत्र, प्रदेशार्थतासूत्र एवं द्रव्यप्रदेशार्थता सूत्र सुगम होने से सर्वत्र घटित कर लेना चाहिए। ___ काल एवं भाव की दृष्टि से पुद्गलों का अल्पबहुत्व-काल की अपेक्षा से-एक समय की स्थिति से लेकर अनन्तसमयों तक की स्थिति वाले पुद्गलों का अल्पबहुत्व भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए / भाव की अपेक्षा से--काले प्रादि 5 वर्ण, दो गन्ध, तिक्त, कटु आदि पांच रस और शीत, उष्ण स्निग्ध और रूक्ष इन बोलों का अल्पबहुत्व मूलपाठ में कथित काले वर्ण के समान समझ लेना चाहिए / एकगुण काले पुद्गलों के अल्पबहुत्व की वक्तव्यता सामान्य पुद्गलों की तरह कहनी चाहिए। यथा---१. सबसे कम अनन्तप्रदेशी स्कन्ध एकगण काले हैं, 2. द्रव्य की अपेक्षा से परमाणपुद्गल एकगुण काले अनन्तगुणे हैं, (उनसे) संख्यातप्रदेशी स्कन्ध एकगुण काले संख्यातगुणे हैं, उनसे असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध एकगुण काले असंख्यातगुणे हैं / इसी प्रकार प्रदेश को अपेक्षा से समझना चाहिए / कर्कश, मृदु, गुरु और लघु स्पर्श का प्रत्येक का अल्पबहुत्व एकप्रदेश-अवगाढ के समान समझना चाहिए / यथा-एकप्रदेशावगाढ़ एकगुण कर्कशस्पर्श द्रव्यार्थरूप से सबसे कम हैं, उनसे संख्यातप्रदेशावगाढ़ एकगुण कर्कशस्पर्श पुद्गल द्रव्यार्थरूप से संख्यातगुणे हैं, उनसे असंख्यातप्रदेशावगाढ़ एकगुण कर्कशस्पर्श द्रव्यार्थरूप से असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि / इसी प्रकार संख्यातगुण कर्कशस्पर्श असंख्यातगुण कर्कशस्पर्श एवं अनन्तगुण कर्कशस्पर्श के अल्पबहुत्व के विषय में समझ लेना चाहिए।' सत्ताईसवाँ महादण्डकद्वार : विभिन्न विवक्षाओं से सर्वजीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण 334. प्रह भंते ! सव्वजोवष्पबहुं महादंडयं वत्तइस्सामि-सव्वस्थोवा गम्भवक्कंतिया मणुस्सा 1, मणुस्सोओ संखेज्जगुणाओ 2, बादरतेउक्काइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 3, प्रणुत्तरोववाइया देवा असंखेज्जगुणा 4, उवरिमगेवेज्जगा देवा संखेज्जगुणा 5, मज्झिमगेवेज्जगा देवा संखेज्जगणा 6, हेट्टिमगेवेज्जगा देवा संखेज्जगुणा 7, अच्चुते कप्पे देवा संखेज्जगुणा 8, प्रारणे कप्पे देवा संखेज्जगुणा 6, पाणए कप्पे देवा संखेज्जगुणा 10, आणए कप्पे देवा संखेज्जगणा 11, अधेसत्तमाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा 12, छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा 13, सहस्सारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा 14, महासुक्के कप्पे देवा असंखेज्जगुणा 15, पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा 16, लंतए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा 17, चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा 18, बंभलोए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा 16, तच्चाए वालुयप्पभाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा 20, माहिंदकप्पे देवा असंखेज्जगुणा 21, सणकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा 22, दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा 23, सम्मुच्छिममणुपसा असंखेज्जगुणा 24, ईसाणे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा 25, ईसाणे कप्पे देवोनो संखेज्जगुणाम्रो 26, सोहम्मे कप्पे देवा संखेज्जगुणा 27, सोहम्मे कप्पे देवोनो संखेज्जगुणानो 28, भवणवासी देवा असंखेज्जगुणा 26, भवणवासिणीनो देवोनो संखेज्जगुणानो 30, इमोसे रतणप्पभाए पुढवीए नेरइगा असंखेज्जगुणा 31, 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 161 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद [27 खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा असंखेज्जगुणा 32, खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिणीसो संखेज्जगुणानो 33, थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा संखेज्जगुणा 34, थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिणीसो संखेज्जगुणासो 35, जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया पुरिसा संखेज्जगुणा 36, जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिणीनो संखेज्जगुणासो 37, वाणमंतरा देवा संखेज्जगुणा 38, वाणमंतरीश्रो देवीमो संखेज्जगुणानो 36, जोइसिया देवा संखेज्जगुणा 40, जोड सिणोप्रो देवीमो संखेज्जगुणासो 41, खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णपुसया संखेज्जगुणा 42, थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णपु सया संखेज्जगुणा 43, जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णसया संखेज्जगुणा 44, चरिदिया पज्जत्तया संखेज्जगुणा 45, पंचेंदिया पज्जत्तया विसेसाहिया 46, बेइंदिया पज्जत्तया विसेसाहिया 47, तेइंदिया पज्जतया विसेसाहिया 48, पंचिदिया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 46, चरिदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 50, तेइंदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 51, बेईदिया अपज्जत्तया विसेसाहिया 51, पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया पज्जत्तया प्रसंखेज्जगुणा 53, बादरणिगोदा पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 54, बादरपुढविकाइया पज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 55, बादरग्राउकाइया पज्जत्तया असंखेज्जगुणा 56, बादरवाउकाइया पज्जत्तगा प्रसंखेज्जगुणा 57, बादरतेउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 58, पत्तेयसरीरबादरवणप्फइकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 56, बादरणिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 60, बादरपुढविकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 61, बावरआउकाइया अपज्जत्तगा असंखेज्जगुणा 62, बादरवाउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 63, सुहुमतेउकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 64, सुहमपुढविकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 65, सुहमप्राउकाइया अपज्जत्तगा बिसेसाहिया 66, सुहमवाउकाइया अपज्जत्तगा विसेसाहिया 67, सुहुमतेउकाइया पज्जत्तगा संखेज्जगुणा 68, सुहमपुढविकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 66, सुहुमआउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 70, सुहमवाउकाइया पज्जत्तया विसेसाहिया 71, सुहमणिगोदा अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 72, सुहमणिगोदा तया संखेज्जगणा 73, प्रभवसिद्धिया अणंतगणा 74, परिबडितसम्मत्ता' अणंतगणा 75, सिद्धा अणंतगुणा 76, बादरवणस्सतिकाइया पज्जत्तगा प्रणंतगुणा 77, बादरपज्जत्तया विसेसाहिया 78, बादरवणस्सइकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 76, बादरअपज्जगा विसेसाहिया 80, बादरा बिसेसाहिया 81, सुहमवणस्सतिकाइया अपज्जत्तया असंखेज्जगुणा 82, सुहमा अपज्जत्तया विसेसाहिया 83, सुहुमवणस्सइकाइया पज्जत्तया संखेज्जगणा 84, सुहमपज्जत्तया विसेसाहिया 85, सुहमा विसेसाहिया 86, भवसिद्धिया विसेसाहिया 87, निगोदजीवा विसेसाहिया 88, वणप्फतिजीवा विसेसाहिया 86, एगिदिया विसेसाहिया 60, तिरिक्खजोणिया विसेसाहिया 61, मिच्छट्ठिी विससाहिया 62, अविरता विसेसाहिया 63, सकसाई विसेसाहिया 64, छउमस्था विसेसाहिया 65, सजोगी विसेसाहिया 66, संसारत्था विसेसाहिया 67, सव्वजीवा विसेसाहिया 68 / दारं 27 // ॥पण्णवणाए भगवईए तइयं बहुवत्तव्ययपयं समत्तं // 1. पाठान्तर-सम्मत्ता' के स्थान में 'सम्महिद्री' पद मिलता है। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [ प्रज्ञापनासून [334] हे भगवन् ! अब मैं समस्त जीवों के अल्पबहुत्व का निरूपण करने वाले महादण्डक का वर्णन करूगा-१. सबसे कम गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) हैं, 2. (उनसे) मानुषी (मनुष्यस्त्री) संख्यातगुणी अधिक हैं, 3. (उनकी अपेक्षा) बादर तेजस्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 4. (उनसे) अनत्तरीपपातिक देव असंख्यातगणे हैं, 5. (उनकी अपेक्षा) ऊपरी वेयकदेव संख्यातगणे, (उनकी अपेक्षा) मध्यमवेयकदेव संख्यातगुणे हैं, 7. (उनकी अपेक्षा) निचले प्रैवेयक देव संख्यातगुणे हैं, 8. अच्युतकल्प-देव (उनसे) संख्यातगुणे हैं, ह. आरणकल्प के देव (उनसे) संख्यातगुणे हैं, 10, (उनसे) प्राणतकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, 11. (उनसे) प्रानतकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, 12. (उनकी अपेक्षा) सबसे नीची सप्तम पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 13. (उनसे) छठी तमःप्रभा पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 14. (उसकी अपेक्षा) सहस्रारकल्प के देव असंख्यातगुणे' हैं, 15. (उनकी अपेक्षा) महाशुक्रकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, 16. (उनकी अपेक्षा) पांचवीं धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 17. (उनसे) लान्तककल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, 18. (उनकी अपेक्षा) चौथी पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 16. (उनसे) ब्रह्मलोककल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, 20. (उनसे) तीसरी बालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 21. (उनसे) माहेन्द्रकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, 22. (उनकी अपेक्षा) सनत्कुमारकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, 23. (उनसे) दूसरी शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 24. (उनकी अपेक्षा) सम्मूच्छिम मनुष्य असंख्यात गुणे हैं, 25. (उनसे) ईशानकल्प के देव असंख्यातगुणे हैं, 26. ईशानकल्प की देवियां (उनसे) संख्यातगुणी हैं, 27. (उनकी अपेक्षा) सौधर्मकल्प के देव संख्यातगुणे हैं, 28. (उनको अपेक्षा) सौधर्मकल्प की देवियां संख्यातगुणी हैं, 26. (उनकी अपेक्षा) भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, 30. (उनसे) भवनवासी देवियां संख्यातगुणी हैं, 31. (उनसे) प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुणे हैं, 32. (उनकी अपेक्षा) खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक-पुरुष असंख्यातगुणे हैं, 33. (उनसे) खेचरपंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक स्त्रियां असंख्यातगुणी हैं, 34. (उनसे) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, 35. (उनसे) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, 76. (उनकी अपेक्षा) जलचर-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, 37. उनसे जलचर-पंचेन्द्रियतियंचयोनिक स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, 38. (उनसे) वाणव्यन्तर देव संख्यातगुणे हैं, 36. (उनकीअपेक्षा) वाणव्यन्तर देवियों संख्यातगुणी हैं, 40. (उनकी अपेक्षा) ज्योतिष्क-देव संख्यातगुणे हैं, 41. (उनकी अपेक्षा) ज्योतिष्क-देवियाँ संख्यातगुणी हैं, 42. (उनसे) खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक नपुंसक संख्यातगुणे हैं, 43. (उनकी अपेक्षा) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक नपुंसक संख्यातगुणे हैं, 44. (उनसे) जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकनपुसक संख्यातगुणे अधिक हैं, 45. (उनकी अपेक्षा) चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं. 46. (उनकी अपेक्षा) पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 47. (उनकी अपेक्षा) द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 48. (उनकी अपेक्षा) त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 46. (उनकी अपेक्षा) पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 50. (उनसे) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 51. (उनसे) त्रीन्द्रिय अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 52. (उनसे) द्वीन्द्रिय पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 53. (उनकी अपेक्षा) प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 55. बादर निगोद-पर्याप्तक (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 54. (उनसे) बादर-पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 56. (उनसे) बादर-अप्कायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 57. (उनसे) बादर-वायुकायिक-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 58. बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 56. प्रत्येकशरीर-बादर-वनस्पतिकायिक-अपर्याप्त क (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 60. Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुबक्तव्यतापद] [289 (उनसे) बादरनिगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 61. बादर पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 62. बादर-अप्कायिक-अपर्याप्तक (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, 63. (उनकी अपेक्षा) बादर-वायुकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 64. (उनकी अपेक्षा) सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 65. (उनकी अपेक्षा) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 66. (उनकीअपेक्षा) सूक्ष्म अप्कयिक-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं.६७. (उनसे) सक्षम वायका , अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 68. (उनकी अपेक्षा) सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 69. (उनकीअपेक्षा) सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 70. (उनसे) सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 71. (उनकी अपेक्षा) सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 72. (उनसे) सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 73. (उनसे) सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 74. (उनकी अपेक्षा) अभवसिद्धिक (अभव्य) अनन्तगुण हैं, 75. (उनसे) सम्यक्त्व से भ्रष्ट (प्रतिपतित) अनन्तगुणे हैं, 76. (उनकी अपेक्षा) सिद्ध अनन्तगुणे हैं, 77. (उनकी अपेक्षा) बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, 75. (उनसे) बादरपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 76. (उनकी अपेक्षा) बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 80. (उनकी अपेक्षा) बादर-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 81. (उनसे) बादर विशेषाधिक हैं, 82. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, 83. (उनकी अपेक्षा) सूक्ष्म-अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 84. (उनसे) सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, 85. (उनसे) सूक्ष्म-पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, 86. (उनकी अपेक्षा) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं, 87. (उनसे) भवसिद्धिक (भव्य विशेषाधिक हैं. 9. (उनकी अपेक्षा) निगोद के जीव विशेषाधिक हैं, 89. (उनसे) वनस्पति जीव विशेषाधिक हैं, 90. (उनसे) एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, 61. (उनसे) तिर्यञ्चयोनिक विशेषाधिक हैं, 62. (उनसे) मिथ्यादृष्टि-जीव विशेषाधिक हैं, 63. (उनसे) अविरत जीव विशेषाधिक हैं, 64. (उनकी अपेक्षा) सकषायी जीव विशेषाधिक हैं, 95. (उनसे) छद्मस्थ जीव विशेषाधिक हैं, 96. (उनकी अपेक्षा) सयोगी जीव विशेषाधिक हैं, 97. (उनकी अपेक्षा) संसारस्थ जीव विशेषाधिक हैं, 18. (उनकी अपेक्षा) सर्वजीव विशेषाधिक हैं। सत्ताईसवाँ (महादण्डक) द्वार / / 27 / / विवेचन–सत्ताईसवाँ महादण्डकद्वार : सर्व जीवों के अल्पबहुत्व का विविध विवक्षाओं से निरूपण-प्रस्तुत सूत्र (334) में महादण्डकद्वार के निमित्त से विविध विवक्षाओं से समस्त जीवों के अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है / ___ महादण्डक के वर्णन की अनुज्ञा-शिष्य को गुरु की अनुज्ञा लेकर ही शास्त्र प्ररूपणा या व्याख्या करनी चाहिए। इस दृष्टि से श्री गौतमस्वामी महादण्डक का वर्णन करने की अनुमति लेकर कहते हैं कि-भगवन् ! मैं जीवों के अल्पबहुत्व के प्रतिपादक महादण्डक का वर्णन करता हूँ अथवा रचना करता हूँ। समस्त जीवों के अल्पबहुत्व का क्रम-(१) गर्भज जीव सबसे कम इसलिए हैं कि उनकी संख्या संख्यात-कोटाकोटि परिमित है। (2) उनकी अपेक्षा मनुष्य स्त्रियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि मनुष्यपुरुषों की अपेक्षा सत्ताईसगुणी और सत्ताईस अधिक होती हैं / (3) उनसे बादर 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 163 2. 'सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिआ चेव' -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 163 में उद्धत Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] [ प्रज्ञापनासूत्र तेजस्कायिक पर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे कतिपय वर्ग कम आवलिकाधन-समय-प्रमाण हैं। (4) उनकी अपेक्षा अनुत्तरोपपातिक देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं / (5) उनकी अपेक्षा उपरितन ग्रैवेयकत्रिक के देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तर क्षेत्रपल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। इसे जानने का मापदण्ड है उत्तरोत्तर विमानों की अधिकता / अनुत्तर देवों के 5 विमान हैं, किन्तु ऊपर के तीन वेयकों में सौ विमान हैं और प्रत्येक विमान में असंख्यात देव हैं। नीचे-नीचे के विमानों में अधिक-अधिक देव होते हैं, इसीलिए अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा ऊपरी तीन ग वेयकों के देव संख्यातगुणे हैं। आगे भी आनतकल्प के देवों (6 से 11) तक उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं, कारण पहले बताया जा चुका है / यद्यपि आरण और अच्युत कल्प समश्रेणी में स्थित हैं और दोनों की विमानसंख्या समान हैं तथापि स्वभावतः कृष्णपक्षी जीव प्रायः दक्षिणदिशा में उत्पन्न होते हैं, उत्तरदिशा में नहीं और कृष्णपाक्षिक जीव शुक्लपाक्षिकों की अपेक्षा अधिक होते हैं। इसलिए अच्युत से पारण प्राणत, और आनत कल्प के देव उत्तरोत्तर संख्यातगुणे अधिक हैं / (12) उनकी अपेक्षा सप्तम नरकपृथ्वी के नैरयिक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे श्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमश: (13) छठी नरक के नारक, (14) सहस्रारकल्प के देव, (15) महाशुक्रकल्प के देव, (16) पंचम धूमप्रभा नरक के नारक, (17) लान्तककल्प के देव, (18) चतुर्थ पंकप्रभानरक के नारक, (16) ब्रह्मलोककल्प के देव, (20) ततीय बालकाप्रभा नरक के नारक, (26) कल्प के देव, (22) सनत्कुमारकल्प के देव, (23) दूसरी शर्कराप्रभा नरक के नारक असंख्यातअसंख्यातगुणे हैं। सातवीं पृथ्वी से लेकर दूसरी पृथ्वी तक के नारक प्रत्येक अपने स्थान में प्ररूपित किये जाएँ तो सभी धनीकृत लोकश्रेणी के असंख्यातवें भाग में स्थित आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं, मगर श्रेणी के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं / अतः इनमें सर्वत्र उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा अल्पबहुत्व कहने में कोई विरोध नहीं आता। शेष सब युक्तियाँ पूर्ववत् समझनी चाहिए / (24) उनकी अपेक्षा सम्मूच्छिम मनुष्य असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित तीसरे वर्गमूल में जितनी प्रदेश राशि होती हैं, उतने प्रमाण में सम्मूच्छिम मनुष्य होते हैं। (25) उनसे ईशानकल्प देव संख्यातगुणे हैं, यह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। (26) ईशानकल्प की देवियाँ उनसे संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि देवियाँ देवों से बत्तीस गुणी और बत्तीस अधिक होती हैं / (27) इनसे सौधर्मकल्प के देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि ईशानकल्प में अट्ठाईस लाख विमान हैं, जबकि सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। (28) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार सौधर्मकल्प की देवियाँ देवों से बत्तीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होने से संख्यातगुणी हैं। (26) इनकी अपेक्षा भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं। अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के तीसरे वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल में जितने प्रदेशों की राशि होती है, उतनी प्रमाण वाली घनीकृत लोक की एक प्रदेश वाली श्रेणियों में जितने अाकाश प्रदेश होते हैं, उतनी ही संख्या भवनपति देवों और देवियों की है। (30) देवों की अपेक्षा देवियां वत्तीस गुणी एवं बत्तीस अधिक होती हैं,' इस कारण भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं। (31) उनकी अपेक्षा 1. (क) 'बत्तीसगुणा बत्तीसरुवअहिया उ होंति देवीओ।' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 164 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद ] [291 रत्नप्रभापृथ्वी के नारक असंख्यातगुणे हैं। वे अंगुलमात्र परिमित क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल की जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी श्रेणियों में रहे हुए आकाशप्रदेशों के बराबर हैं / (32) उनकी अपेक्षा खेचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पुरुष असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हई असंख्यात श्रेणियों के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं / (33) उनकी अपेक्षा खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियाँ संख्यातगुणी हैं, * क्योंकि तिर्यञ्चों में पुरुष की अपेक्षा स्त्रियां तीन गुणी और तीन अधिक होती हैं।' (34) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक पुरुष संख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यात श्रेणियों की प्राकाश-प्रदेशराशि के बराबर हैं / (35) इनकी अपेक्षा स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यचस्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यातगुणी हैं। (36) उनकी अपेक्षा जलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यचपुरुष संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे बृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्यातश्रेणियों की आकाशप्रदेशराशि के तुल्य हैं। (37) उनकी अपेक्षा जलचर-तिर्यच पंचेन्द्रिय स्त्रियाँ पूर्वोक्त युक्ति से संख्यातगुणी हैं। (38-36) उनकी अपेक्षा वाणव्यन्तर देव एवं देवी उत्तरोत्तर क्रमश: संख्यातगुण हैं। क्योंकि संख्यात योजन कोटाकोटीप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने ही सामान्य व्यन्तरदेव हैं / देवियाँ देवों से बत्तीसगुणा और बत्तीस अधिक होती हैं। (40) उनकी अपेक्षा ज्योतिष्क देव (देवी सहित) संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे सामान्यतः 256 अंगुलप्रमाण सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं / 2 (41) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार इनसे ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगणी हैं। (42) इनकी अपेक्षा पर्याप्त चतुरिन्द्रय संख्यातगणे हैं, क्योंकि वे अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने हैं। (43-44-45) उनकी अपेक्षा स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यच नपुसक, जलचर पंचेन्द्रियतिर्यंचनपुसक, चतुरिन्द्रिय पर्याप्तक, क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुणे हैं। (46 से 52) उनकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-अपर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-अपर्याप्तक और द्वीन्द्रिय-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमश: विशेषाधिक हैं, क्योंकि ये सब अंगुल के असंख्यातवें भागमात्र सूचीरूप जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उतने प्रमाण में होते हैं, किन्तु अंगुल के असंख्यातभाग के असंख्यात भेद होते हैं। अतः अपर्याप्त-द्वीन्द्रिय पर्यन्त उत्तरोत्तर अंगुल का असंख्यातवां भागकम अंगल का असंख्यातवां भाग लेने पर कोई दोष नहीं। (53 से 68 तक) प्रत्येकशरीर बादर बनस्पतिकायिक-पर्याप्तक, वादर निगोद-पर्याप्तक, बादर पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, बादर अप्कायिकपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-पर्याप्तक, बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक, प्रत्येकशरीर-बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक, बादर निगोद-अपर्याप्तक, बादर पृथ्वी कायिक-अपर्याप्तक, बादर अप्कायिक-अपर्याप्तक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक, और सूक्ष्म तेजस्कायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमश: असंख्यातगणे हैं, उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, यह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए तथा अपर्याप्तक सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा पर्याप्तक सूक्ष्म स्वभावतः 1. (क) 'तिगुणा तिरूवअहिआ तिरियाणं इत्यिो मुणेयम्वा / ' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्र.क 165 2. (क) 'छपन्नदोसयंगुल सूइपएसेहि भाइयं पयरं / जोइसिएहि हीरइ / ' (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति. पत्रांक 166 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [ प्रज्ञापनासूत्र अधिक होते हैं। प्रज्ञापना की संग्रहणी में कहा गया है-बादर जीवों में अपर्याप्त अधिक होते हैं, तथा सूक्ष्म जीवों में समुच्चरूप से पर्याप्तक अधिक होते हैं। (66 से 73 तक) उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म अप्कायिक-पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमश: / विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं तथा उनसे सूक्ष्म निगोदपर्याप्तक-संख्यातगुणे अधिक हैं / यद्यपि अपर्याप्त तेजस्कायिक से लेकर पर्याप्त सूक्ष्म निगोद पर्यन्त जीव सामान्य रूप से असंख्यात लोकाकाशों की प्रदेशराशि प्रमाण (तुल्य) अन्यत्र कहे गए हैं, तथापि लोक का असंख्येयत्व भी असंख्यात भेदों से युक्त होने के कारण यह अल्पबहुत्व संगत ही है। 74 उनको अपेक्षा अभव्य अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे जघन्य युक्त-अनन्तक प्रमाण हैं। (75) उनसे भ्रष्टसम्यग्दृष्टि अनन्तगुणे हैं, (76) उनसे सिद्ध अनन्तगुणे हैं, (77) उनसे बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं। (78) उनकी अपेक्षा सामान्यतः बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें बादर पर्याप्तक-पृथ्वीकायिकादि का भी समावेश हो जाता है / (79) उनसे बादर वनस्पतिकायिक-अपर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि एक एक बादर निगोद पर्याप्त के प्राश्रय से असंख्यातअसंख्यात बादर निगोद-अपर्याप्त रहते हैं / (80) उनकी अपेक्षा बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें बादर अपर्याप्त पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश हो जाता है। (81) उनसे सामान्यतः बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तक-अपर्याप्तक दोनों का समावेश हो जाता है। (82) उनकी अपेक्षा सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं / (83) उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्तक विशेषाधिक है, क्योंकि उनमें सूक्ष्म अपर्याप्तक पृथ्वीकायादि का भी समावेश हो जाता है। (84) उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि पर्याप्तक सूक्ष्म, अपर्याप्तक सूक्ष्म से स्वभावत: सदैव संख्यातगुणें पाये जाते हैं। (85) उनकी अपेक्षा सामान्यरूप से सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सूक्ष्म पृथ्वीकायिक आदि भी सम्मिलित हैं। (86) उनसे भी पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषणरहित (सामान्य) सूक्ष्म विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक के जीव सम्मिलित हैं। (87) उनकी अपेक्षा भव्य जीव विशेषाधिक है, क्योंकि जघन्य युक्त अनन्तक प्रमाण अभव्यों को छोड़कर शेष सभी जीव भव्य हैं। (88) उनकी अपेक्षा निगोद जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि भव्य और अभव्य अतिप्रचुरता से सूक्ष्म और बादर निगोद जीवराशि में ही पाए जाते हैं, अन्यत्र नहीं। अन्य सभी मिलकर असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों की राशि-प्रमाण ही होते हैं / (89) उनकी अपेक्षा वनस्पतिजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सामान्य बनस्पतिकायिकों में प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक जीव भी सम्मिलित हैं। (90) वनस्पति जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म एवं बादर पृथ्वीकायिक आदि का भी समावेश है। (91) एकेन्द्रियों की अपेक्षा तिर्यञ्चजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि तिर्यञ्च सामान्य में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त सभी तिर्यञ्च सम्मिलित हैं। (62) तिर्यञ्चों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि विशेषाधिक हैं, क्योंकि थोड़े-से अविरत सम्यग्दृष्टि आदि संज्ञी तिर्यञ्चों को छोड़कर शेष सभी तिर्यञ्च मिथ्यादृष्टि हैं, इसके अतिरिक्त अन्य गतियों के मिथ्यादृष्टि भी यहाँ सम्मिलित हैं, जिनमें असंख्यात नारक भी हैं / (93) मिथ्यादृष्टि जीवों की अपेक्षा अविरत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें अविरत सम्यग्दृष्टि भी समाविष्ट हैं। (64) अविरत जीवों की अपेक्षा सकषाय जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सकषाय जीवों में देशविरत और दशम गुणस्थान तक के सर्वविरत जीव भी सम्मिलित हैं। (65) उनकी अपेक्षा छद्मस्थ विशेषाधिक हैं, क्योंकि उपशान्तमोह आदि भी छद्मस्थों में सम्मिलित हैं / (66) सकषाय जीवों Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 293 तृतीय बहुवक्तध्यतापद ] को अपेक्षा सयोगी विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीवों का समावेश हो जाता है / (97) सयोगियों की अपेक्षा संसारी जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि संसारी जीवों में अयोगीकेवली भी हैं और (98) संसारी जीवों की अपेक्षा सर्वजीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि सर्वजीवों में सिद्धों का भी समावेश हो जाता है।' // प्रज्ञापनासूत्र : तृतीय बहुवक्तव्यतापद समाप्त / (क) 'तत्तो नपुसग खयरा संखेज्जा थलयर-जलयर-नपुसगा चरिन्दिय तो पणवितिपज्जत्त किंचि अहिरा।' -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, प. 166 में उद्धत (ख) 'जीवाणमपज्जत्ता बहतरगा बायराण विन्नेया / सुहमाण य पज्जत्ता मोहेण य केवली बिंति // ' -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, प. 167 में उद्धत (ग) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 166 से 168 तक / Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं ठिइपयं चतुर्थ स्थितिपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के इस चतुर्थपद में जीवों के जन्म से लेकर मरण-पर्यन्त नारक आदि पर्यायों में अव्यवच्छिन्न रूप से कितने काल तक अवस्थान (स्थिति या टिकना) होता है ? , इसका विचार किया गया है। अर्थात् इस पद में जीवों के जो नारक, तिर्यच, मनुष्य, देव प्रादि विविध पर्याय हैं, उनकी आयु का विचार है / यों तो जीवद्रव्य (प्रात्मा) नित्य है, परन्तु वह जो नानारूप (नाना जन्म) धारण करता है, वे पर्यायें अनित्य हैं / वे कभी-न-कभी तो नष्ट होती ही हैं। इस कारण उनकी स्थिति का विचार करना पड़ता है। यही तथ्य यहाँ प्रस्तुत किया गया है / 'स्थिति' शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी इस प्रकार का है-प्रायकर्म की अनुभूति करता हुमा जीव जिस (पर्याय) में अवस्थित रहता है, वह स्थिति है। इसलिए स्थिति, आयुःकर्मानुभूति और जीवन, ये तीनों पर्यायवाची शब्द हैं।' ___ यद्यपि मिथ्यात्वादि से गृहीत तथा ज्ञानावरणीयादि रूप में परिणत कर्मपुद्गलों का जो अवस्थान है, वह भी स्थिति' नाम से प्रसिद्ध है, तथापि यहाँ नारक अादि व्यपदेश की हेतु 'आयुष्यकर्मानुभूति' ही 'स्थिति' शब्द का वाच्य है, क्योंकि नरकगति आदि तथा पंचेन्द्रियजाति आदि नामकर्म के उदय के आश्रित नारकत्व आदि पर्याय कहलाती है, किन्तु यहाँ नरक आदि क्षेत्र को अप्राप्त जीव नरकायु आदि के प्रथम समय के संवेदनकाल से ही नारकत्व आदि कहलाने लगता है। अतः उस-उस गति के प्रायुष्यकर्म की अनुभूति को ही स्थिति मानी गई है / प्रायुष्यकर्म की अनमति (प्राय) सिर्फ संसारी जीवों को ही होती है, इसलिए इस पद में संसारी जीवों की ही स्थिति का विचार किया गया है। सिद्ध तो सादि-अपर्यवसित होते हैं, अत: उनको अायु का विचार अप्राप्त होने से नहीं किया गया है तथा अजीवद्रव्य के पर्यायों की स्थिति का भी विचार इस पद में नहीं किया गया है ; क्योंकि अजीवों के पर्याय जीवों की तरह आयु की अनुभूति पर आश्रित नहीं हैं और न उनके पर्याय जीवों की आयु की तरह काल की दृष्टि से अमुक सीमा में निर्धारित किये जा सकते हैं। स्थिति (आयु) का विचार यहाँ सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट, दो प्रकार से किया गया है। * प्रस्तुत पद में स्थिति का निर्देशक्रम इस प्रकार है--सर्वप्रथम जीव की उन-उन सामान्य पर्यायों को लेकर, तत्पश्चात् उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद करके आयु का विचार किया गया है / 1. 'स्थीयते-अवस्थीयते अनया आयुःकर्मानुभूत्येति स्थितिः / स्थितिरायुःकर्मानुभूति वनमिति पर्यायाः / -प्रज्ञापना, म. वृत्ति, पृ. 169 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 169 (ख) पण्णवणा. भा. 2 प्रस्तावना, पृ. 58 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद : प्राथमिक ] [295 * इस पद में सर्वप्रथम सामान्य नारक, तत्पश्चात् रत्नप्रभादि विशिष्ट नारकों को, भवनवासी देवों की, पृथ्वीकायादि पांच स्थावरों की, द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रियों की, विभिन्न पंचेन्द्रियतिर्यंचों की, फिर विविध मनुष्यों की, समस्त वाणव्यन्तर देवों की, समस्त ज्योतिष्कदेवों की, तत्पश्चात् वैमानिक देवों की एवं नौ ग्रेवेयक तथा पंच अनुत्तरविमानवासी देवों की स्थिति का निरूपण किया गया है। * स्थिति विषयक पाठ पर से फलित होता है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री की स्थिति (आयु) कम है। नारकों और देवों की स्थिति मनुष्य और तिर्यंच की अपेक्षा अधिक है / एकेन्द्रिय में तेजस्कायिक की सबसे कम और पृथ्वीकायिक की स्थिति सबसे अधिक है / द्वीन्द्रिय से वीन्द्रिय की तथा चतुरिन्द्रिय से भी त्रीन्द्रिय की स्थिति कम मानी गई है, यह रहस्य केवलिगम्य है / ' 00 1. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 112 से (ख) पण्णवणासुतं भा. 2, परिशिष्ट पृ. 58 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउत्थं ठिइपयं चतुर्थ स्थितिपद नरयिकों की स्थिति की प्ररूपणा 335. [1] नेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं, उश्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [335-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [335-1 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की कही गई है। [2] अपज्जत्तयनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [335-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? / [335.2 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की कही गई है। [3] पज्जत्तयणेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई। [335-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [335.3 उ.] गौतम! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की कही गई है। 336. [1] रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सागरोवमं / [336-1 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नारकों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [336-1 उ.] गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम कही गई है। [2] अपज्जत्तयरयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [336-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य स्थितिपद ] [ 297 [336-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भो अन्तर्मुहूर्त को कही गई है। [3] पज्जत्तयरयणप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठितो पण्णता ? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुतूणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूणं / [336-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [336-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक सागरोपम की कही गई है। 337. [1] सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठितो पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं एगं सागरोवमं, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई। [337-1 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [337-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य एक सागरोपम की और उत्कृष्ट तीन सागरोपम की कही गई है। [2] अपज्जत्तयसक्करप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [337-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों को कितने काल की स्थिति कही गई है ? [337-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयसक्करप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेगं तिणि सागरोवमाइं अंतोमुहुतूणाई। [337-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [337-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन सागरोपम की (कही गई) है / 338. [1] वालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं तिणि सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई। [338-1 प्र.] भगवन् ! वालुकाप्रभापृथ्वी के नरयिकों की स्थिति कितने काल को कही [338-1 उ.] गौतम ! जघन्य तीन सागरोपम की और उत्कृष्ट सात सागरोपम को है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] [प्रज्ञापनासूब [2] अपज्जत्तयवालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं / [338-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक-बालुकाप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [338-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयवालुयप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहष्णेणं तिणि सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। [338-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-वालुकाप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [338-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम तीन सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम की है। 336. [1] पंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठितो पण्णत्ता! गोयमा ! जहण्णेणं सत्त सागरोवमाइं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई। [336-1 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [336-1 उ.] गौतम ! जघन्य सात सागरोपम की और उत्कृष्ट दस सागरोपम की है। [2] अपज्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [336-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक-पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [339-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहुर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयपंकप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्त सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई अंतोमुहृत्तूणाई। [339-3 प्र.] भगवन् पर्याप्तक-पंकप्रभापृथ्वी के नारकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [339-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम दस सागरोपम की है / 340. [1] धूमपभापुढविने रइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहणणं दस सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाई / Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [299 [340-1 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही [340-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस सागरोपम की और उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम को है / [2] अपज्जत्तयधूमप्पभापुढविनेरइयाणं अंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहणेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुन् / [340-2 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के अपर्याप्त नैरयिकों की स्थिति कितने काल को कही गई है ? __ [340-2 उ.] गौतम ! (उनको स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भो अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयधमपभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहष्णेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्तरस सागरोवमाइं अंतोमहत्तूणाई। [340-3 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल को कही गई है ? [340-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस सागरोपम को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सत्तरह सागरोपम की है / 341. [1] तमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहणेणं सत्तरस सागरोवमाई, उक्कोसेणं बाबीसं सागरोवमाई। [341-1 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की कितने काल की स्थिति कहो गई है ? [341-1 उ.] गौतम ! जघन्य सत्तरह सागरोपम की और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की है। [2] अपज्जत्तयतमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णण वि अंतोमहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [341-2 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [341-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयतमप्पभापुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णणं सत्तरस सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं बाबीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। _[341-3 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300] [प्रज्ञापनासूत्र [341-3 उ.] गौतम जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सत्तरह सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बाईस सागरोपम की है / 342. [1] अधेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहष्णेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [342-1 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तम (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [342-1 उ.] गौतम ! जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट लेतीस सागरोपम की (कही गई) है। [2] अपज्जत्तयअधेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पणत्ता? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / |342-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक-अधःसप्तम(तमस्तमःप्रभा)पृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [342-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयअधेसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते ! केवतिय कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहृत्तूणाई। [342-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [342-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है। विवेचन--नरयिकों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 335 से 342 तक) में सामान्य नारकों, सात नरकभूमियों में रहने वाले नारकों और फिर उनके अपर्याप्तकों तथा पर्याप्तकों की स्थिति पृथक्-पृथक् प्ररूपित की गई है / अपर्याप्तदशा और पर्याप्तदशा-अन्य संसारी जीवों की तरह नैरयिकों की भी दो दशाएँ हैं-अपर्याप्तदशा और पर्याप्तदशा। अपर्याप्तदशा दो प्रकार से होती है---लब्धि से और करण से / नारक, देव तथा असंख्यातवर्षों की आयु वाले तिर्यञ्च एवं मनुष्य करण से ही अपर्याप्त होते हैं, लब्धि से नहीं / ये उपपात काल में ही कुछ काल तक करण से अपर्याप्त समझने चाहिए। शेष तिर्यञ्च या मनुष्य लब्धि और करण-दोनों प्रकार से उपपातकाल में अपर्याप्तक हो सकते हैं / यहाँ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अपर्याप्तक अवस्था जघन्यत: और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक ही रहती है। उसके बाद पर्याप्तदशा आ जाती है। इसलिए सामान्य स्थिति में से अपर्याप्तदशा की अन्तमुहर्त की स्थिति को कम कर देने पर शेष स्थिति पर्याप्तकों की रह जाती है। जैसे-प्रथम नरकपृथ्वी में सामान्य स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट एक सागरोपम की है। इसमें से अपर्याप्तदशा की Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद ] [301 अन्तर्मुहूर्त की स्थिति कम कर देने पर पर्याप्त अवस्था की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम एक सागरोपम की होती है। आगे भी सर्वत्र इसी प्रकार समझ लेना चाहिए।' पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति, आगे-आगे की जघन्य--पहले-पहले की नरकपृथ्वी की जो उत्कृष्ट स्थिति है, वही अगली-अगली नरकपृथ्वी को जघन्य स्थिति है / जैसे—प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी की उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है, वहीं द्वितीय शर्कराप्रभापृथ्वी की जघन्य स्थिति है।' देवों और देवियों की स्थिति की प्ररूपरणा 343. [1] देवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई / [343-1 प्र.] भगवन् ! देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [343-1. उ.] गौतम ! (देवों की स्थिति) जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। [2] अपज्जत्तयदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [343-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक देवों की कितने काल तक स्थिति कही गई है ? [343-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उफ्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [343-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-देवों की कितने काल तक स्थिति कही गई है ? [343-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है ! 344. [1] देवीणं भंते ! केवतिय कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिग्रोवमाई। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 170 (ख) नारगदेवा तिरिमणयगन्भजा जे असंखवासाऊ / एए अप्पज्जत्ता उववाए चेव बोद्धव्वा // 1 // सेसा य तिरिमणु या लद्धि पप्पोववायकाले य / दुहनो वि य भयइयव्वा पज्जत्तियरे य जिणवयणे // 2 // -~~-प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, प. 170 में उद्ध त 2. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, प्र.४५० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302] [प्रज्ञापनासूत्र [344-1 प्र.] भगवन् ! देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? _ [344-1 उ.] गौतम ! (देवियों की स्थिति) जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तगदेवीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [344-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [343-2 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तमुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयदेवीणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमहत्तणाई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिग्रोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [344-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [344-3 उ.] गौतम ! (पर्याप्तक देवियों की स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तमुहर्त कम पचपन पल्योपम को है। विवेचन-देवों और देवियों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 343-344). द्वारा देवों, देवियों और उनके अपर्याप्तकों और पर्याप्तकों की स्थिति का निरूपण किया गया है। निष्कर्ष-देवों की अपेक्षा देवियों की स्थिति (आयु) कम है, यह इस पाठ पर से फलित होता है। भवनवासियों की स्थिति की प्ररूपरणा 345. [1] भवणवासीणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं / [345-1 प्र.] भगवन् ! भवनवासी देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [345-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम की है। * [2] अपज्जत्तयभवणवासीणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहपणेण वि अंतोमुत्तं, उपकोसेण वि अंतोमहत्तं / [345-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक भवनवासी देवों की स्थिति कितने काल की कही [345-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [ 303 . [3] पज्जत्तयभवणवासीणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहणेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोयम अंतोमुहुत्तूणाई। [345-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक भवनवासी देवों को कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? [345-3 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम कुछ अधिक सागरोपम की है। 346. [1] भवणवासिणीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठितो पण्णता ? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं श्रद्धपंचमाई पलिग्रोवमाई। [346-1 प्र.] भगवन् ! भवनवासी देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [346-1 उ.] गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट साढ़े चार पल्योपम की है ? [2] अपज्जत्तियाणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [346-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक भवनवासी देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [346-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तियाणं भंते ! भवणवासिणीणं देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं श्रद्धपंचमाई पलिग्रोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। [346-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तकभवनवासी देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही [346-3 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की, और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम साढ़े चार पत्योपम की है। 347. [1] असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं / [347-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [347-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपम की है। .. [2] अपज्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 ] [ प्रज्ञापनासूत्र ___[347-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त असुरकुमार देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [347-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है, और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयअसुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं अंतोमुत्तूणं / - [347-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक असुरकुमार देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [347-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम कुछ अधिक सागरोपम की है। 348. [1] असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उपकोसेणं अद्धपंचमाइं पलिपोवमाई। [348-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? _ [348-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट साढ़े चार पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तियाणं असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [348-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक असुरकुमार देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [348-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त को है। [3] पज्जत्तियाणं असुरकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं अद्धपंचमाई पलिग्रोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। [348-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक असुरकुमार देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [348-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम साढ़े चार पल्योपम की है। 346. [1] णागकुमाराणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा! जहणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं दो पलिग्रोवमाई देसणाई। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [305 चतुर्थ स्पितिपद] [346-1 प्र.] भगवन् ! नागकुमार देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [346-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन (कुछ कम) दो पल्योपमों की है। [2] अपज्जत्तयाणं भंते ! णागकुमाराणं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं वि अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [349-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त नागकुमारों को स्थिति कितने काल तक को कही [349-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयाणं भंते ! णागकुमाराणं देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई अंतोमुहंतूणाई, उक्कोसेणं दो पलिग्रोवमाई देसूणाई अंतोमुत्तूणाई। [349.3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त नागकुमारों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [349-3 उ.] गोतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम देशोन दो पल्योपम की है। 350. [1] नागकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस बाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूर्ण पलिग्रोवमं / [350-1 प्र.] भगवन् ! नागकुमार देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [350-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन पल्योपम की है / [2] अपज्जत्तियाणं णागकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेण वि अंतोमुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [350-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त नागकुमार देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [350-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तियाण णागकुमारीणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं देसूणं पलिप्रोवमं अंतो. मुहुत्तूणाई। [350.3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त नागकुमार देवियों को स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [350-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहत कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन पल्योपम में अन्तर्मुहूर्त कम की है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र 351. [1] सुवण्णकुमाराणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं दो पलिप्रोवमाई देसूणाई। [351-1 प्र.] भगवन् ! सुपर्ण (सुवर्ण) कुमार देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [351-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उपकोसेण वि अंतोमहत्तं / [351-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक सुपर्णकुमार देवों को स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [351-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई अंतोमहत्तणाई, उक्कोसेणं दो पलिग्रोवमाई देसूणाई अंतोमुत्तूणाई। [351-3 प्र.) भगवन् ! पर्याप्तक सुपर्णकुमार देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [351-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तमुंहत कम देशोन दो पल्योपम की है। 352. [1] सुवण्णकुमारीणं भंते ! देवीणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूर्ण पलिप्रोवमं / [352-1 प्र.] भगवन् ! सुपर्णकुमार देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [352-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट देशोन पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [352-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सुपर्णकुमार देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [352-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं देसूर्ण पलिअोवमं अंतोमुहुत्तूणं / Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद [ 307 _[352-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त सुपर्णकुमार देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [352-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त कम दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम देशोन पल्योपम की है। 353. एवं एएणं अभिलावेणं प्रोहिय-अपज्जत्त-पज्जत्तसुत्तत्तयं देवाण य देवीण य णेयव्वं जाव थणियकुमाराणं जहा णागकुमाराणं (सु. 346) / [353] इस प्रकार इस अभिलाप से (इसी कथन के अनुसार) औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक के तीन-तीन सूत्र (आगे के भवनवासी) देवों और देवियों के विषय में, यावत् स्तनितकुमार तक नागकुमारों (के कथन) की तरह समझ लेना चाहिए। विवेचन–सामान्य देव-देवियों तथा भवनवासी देव-देवियों की स्थिति का निरूपण--प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 343 से 353 तक) में सामान्य देव-देवियों, औधिक भवनवासी देव-देवियों तथा असुरकुमार से स्तनितकुमार देव-देवियों (पर्याप्तक-अपर्याप्तकसहित) तक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है। एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपरणा--- 354. [1] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। [354-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति बताई गई है ? [354-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तयपुढविकाइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [354-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति बताई [354-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयपुढविकाइयाणं भंते ! केवतिय कालं ठितो पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं बावोसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [354-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त पृथ्वीकायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? [354-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष की है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [ प्रज्ञापनासूत्र 355. [1] सुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उपकोण वि अंतोमहत्तं / / [355-1 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति कही [355-1 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [2] अपज्जत्तयसुहुमपुढविकाइयाणं पुच्छा।। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [355-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [355-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] पज्जत्तयसुहमपुढविकाइयाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [355-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [355-3 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। 356. [1] बादरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहष्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। [656-1 प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? 356-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तयबावरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [356-2 प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्तक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [356-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयबादरपुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [356-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्पितिपद ] [ 309 [356-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष की है। 357. [1] पाउकाइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठितो पण्णता ? मोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई। [357-1 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? [357-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तय ग्राउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [357-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त अप्कायिक जीवों की कितने काल तक की स्थिति कही [357-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयाउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तत्त वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [357-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक अप्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [357-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सात हजार वर्ष की है। 358. सुहमआउकाइयाणं श्रोहियाणं प्रपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण य जहा सुहमपुढविकाइयाणं (सु. 355) तहा माणितव्वं / [358] सूक्ष्म अप्कायिकों के औधिक (सामान्य), अपर्याप्तकों और पर्याप्तकों की स्थिति जैसी सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की (सू. 355 में) कही, वैसी कहनी चाहिए / 359. [1] बादरग्राउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई। [359-1 प्र.] भगवन् ! बादर अप्कायिकों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [359-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट सात हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तयबादरग्राउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [359-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर अप्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? , Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] [प्रतापनासूत्र [359-2 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साइं अंतोमुत्तूणाई। [356-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर अप्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [356-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सात हजार वर्ष की है। 360. [1] तेउकाइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि रातिदियाई / [360-1 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीवों को कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? [360-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन रात्रि-दिन (अहोरात्र) को है। [2] अपज्जत्तयाणं पुच्छा / गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [360-2 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक अपर्याप्तकों को स्थिति कितने काल को कही गई है? [360-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त को है। [3] पज्जत्तयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि रातिदियाई अंतोमुत्तूणाई / [360-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त तेजस्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक को कही __[360-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त को तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन रात्रिदिन की है। 361. सुहुमतेउकाइयाणं प्रोहियाणं अपज्जत्तयाणं पज्जत्तयाण य जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहृत्तं / [361] सूक्ष्म तेजस्कायिकों के औधिक (सामान्य), अपर्याप्त और पर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है / 362. [1] बादरतेउकाइयाणं पुच्छा। गोपमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि रातिदियाई / Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [ 311 . [362-1 प्र.] भगवन् ! बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [362-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन रात्रिदिन की है। [2] अपज्जत्तयबादरतेउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / __ [362-2 प्र.] भगवन् अपर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [362-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और और उत्कृष्ट भी अन्तर्मु हत की है। [3] पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि रातिदियाई अंतोमुहत्तूणाई। [362-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर तेजस्कायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [362-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन रात्रिदिन की है। 363. [1] वाउकाइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई। [363-1 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [363-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तयवाउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [363-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [363-2 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई अंतोमहत्तूणाई। _ [363-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? - [366-3 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन हजार वर्ष की है। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [प्रतापनासूत्र 364. [1] सुहमवाउकाइयाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [364-1 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [364-1 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है / [2] अपज्जत्तयसुहुमवाउकाइयाणे पुच्छा / गोयमा! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [364-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही [364-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट (स्थिति) भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [364-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक सूक्ष्म वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [364-3 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। 365. [1] बादरवाउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिनि वाससहस्साई / [365-1 प्र.] भगवन् ! बादर वायुकायिकों की कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? [365-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तबादरवाउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [365-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक को कही गई है ? [365-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एक अन्तर्मुहर्त तक की होती है। [3] पज्जत्तयवादरवाउकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [365-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [313 [365-3 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्त कम तीन हजार वर्ष की है। 366. [1] वणप्फइकाइयाणं भंते ! केवतियं कालं ठितो पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई। {366-1 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [366-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तवणप्फतिकाइयाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [366-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [366-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयवणप्फइकाइयाणं पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई / [366-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक वनस्पतिकायिक जीवों को स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [366-3 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की है। 367. सुहमवणप्फइकाइयाणं प्रोहियाणं प्रपज्जताणं पज्जत्ताण य जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [367] सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों के प्रौधिक, अपर्याप्तकों और पर्याप्तकों की स्थिति जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त की है। 368. [1] बादरवणप्फइकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं। [368-1 प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [368-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तवादरवणप्फइकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] [ प्रज्ञापनासूत्र [368-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [368-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तबादरवणप्फइकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [368-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [368-3 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की है। विवेचन—एकेन्द्रिय जीवों की स्थिति को प्ररूपणा--प्रस्तुत 15 सूत्रों (सू. 354 से 368 तक) में पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक औधिक, अपर्याप्तक, पर्याप्तक, सूक्ष्म, बादर आदि भेदों की स्थिति की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा की गई है। इनमें तेजस्कायिक जीवों की तीन अहोरात्रि की उत्कृष्ट स्थिति बताई गई है, उसका रहस्य यह है कि तेजस्कायिक जीव अग्नि के रूप में जलते और बुझते प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। इसी कारण अन्य एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा आयुष्य अत्यन्त अल्प है / द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपरणा 366. [1] बेइंदियाण भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई। [366-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [366-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट बारह वर्ष की है। [2] अपज्जत्तबेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [366-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों की कितने काल तक की स्थिति कही [369-2 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त की है। [3] पज्जत्तबेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई अंतोमुत्तूणाई। [366-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त द्वीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [369-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बारह वर्ष की है। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद [315 त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपरणा 370. [1] तेइंदियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं एगूणवरुणं रातिदियाई। [370-1 प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [370-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट उनपचास रात्रिदिन की है। [2] अपज्जत्ततेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [370-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त श्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [370-2 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्ततेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं एगूणवण्णं रातिदियाइं अंतोमुत्तणाई। __ [370-2 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक त्रीन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [370-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम उनपचास रात्रिदिन की है। चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति-प्ररूपरणा 371. [1] चरिदियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा / [371-1 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [371-1 उ.] गौतम ! इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति छह मास की है। [2] अपज्जत्तयचउरिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [371-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [371-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयचरिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा तोमुत्तूणा। [371-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही [371-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम छह मास की है। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316]] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-विकलेन्द्रियों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 366 से 371 तक) में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है / पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीवों की स्थिति-प्ररूपणा 372. [1] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिम्रोवमाई। [372-1 प्र.) भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [372-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की कही गई है। [2] अपज्जत्तयचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वितोमुहुतं / [372-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [372-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जतगपंचेवियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं प्रतोमुत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिप्रोवमाई तोमुत्तूणाई। [372-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [372-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम की है। 373. [1] सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। [373-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [373-1 उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि (करोड़ पूर्व) की है। [2] अपज्जत्तयसम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहणेण वि उक्कोसेण विनंतोमुहत्तं / [373-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [373-2 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [317 [3] पज्जत्तयसम्मच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा! जहणणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडो अतोमुत्तूण।। [373-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [373-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त की है, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है / 374. [1] गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्त, उक्कोसेणं तिणि पलिप्रोवमाई / [374-1 प्र.] भगवन् ! गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [374-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट तीन पल्योपम की कही गई है। [2] अपज्जत्तयगम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अतोमुहत्तं / / [374-2 प्र. भगवन् ! अपर्याप्त गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [374-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। [3] पज्जत्तयगम्भवषकतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं प्रतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिषिण पलिश्रोवमाइं अतोमहत्तूणाई। _ [374-3 प्र.] भगवन् ! गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की है ? [374-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम की कही गई है। 375. [1] जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी।। [375-1 प्र.] भगवन् ! जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [375-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है / [2] अपज्जत्तयजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [375-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की कितनी स्थिति कही गई है ? Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 [प्रज्ञापनासूत्र [375-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुस्खकोडी अंतोमुत्तूणा। [375-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [375-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है। 376. [1] सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। [376-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [376-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है / [2] अपज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [376-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सम्मूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [376-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुत्तूणा / [376-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त सम्मूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [376-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है। 377. [1] गम्भवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी / [377-1 प्र.] भगवन् ! गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [377-1 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि (करोड़ पूर्व) को है। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद ] [319 [2] अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [377-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [377-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहर्त की है। [3] पज्जत्तयगम्भवक्कंतियजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी अंतोमुहुतूणा। [377-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? _ [377-3 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है। 378. [1] चउप्पयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई। [378.1 प्र.] भगवन् ! चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? {378.1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है / [2] अपज्जत्तयचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ! गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि तोमुत्तं / [378-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [378-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूत्त की है। [3] पज्जत्तयचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिष्णि पलिग्रोवमाई तोमहुत्तूणाई। [378-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [378-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम की है। 376. [1] सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं चउरासीई वाससहस्साई। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [ प्रज्ञापनासून [379-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [379-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की एवं उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तयसम्मच्छिमच उपयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुछा। गोयमा ! जहाणेण वि उक्कोसेण वि अतोमुहुत्तं / [376-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सम्मूच्छिम चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [379-2 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति भी और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं चउरासीई वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [379-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक सम्मूच्छिम चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मु हत्त की है और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम चौरासी हजार वर्ष की है। 380. [1] गम्भवक्कतियचउपयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमहत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिपोवमाई। [380-1 प्र.] भगवन् ! गर्भज चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों को स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [380-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [380-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भज चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जोवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [380-2 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूत की है। [3] पज्जत्तगगमवक्कंतियचउपयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिप्रोवमाइं अंतोमुहुतणाई। [380-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भज चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [380-3 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम की है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [321 - 381. [1] उरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। [381-1 प्र.] भगवन् ! उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों को स्थिति कितने काल की कही गई है ? [381-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट पूर्वकोटि को है / [2] अपज्जत्तयउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वितोमुत्तं / [381-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जोवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [381-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तगउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोणमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं पुधकोडो अतोमुहुत्तूणा। [481-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [381-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है। 382. [1] सम्मुच्छिमसामण्णपुच्छा कायव्वा / गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेवष्णं वाससहस्साई / [382-1 प्र.] भगवन् ! सामान्य सम्मूच्छिम उर:परिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [382-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तिरेपन हजार वर्ष की है। [2] सम्मुच्छिमअपज्जत्तगउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि प्रतोमुहत्तं / [382-2 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम अपर्याप्तक उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [382-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त को है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तगसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेवण्णं वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322]. [ प्रज्ञापनासूत्र [382-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक सम्मूच्छिम उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों . की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [382-3 उ.] गौतम ! उनकी स्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तिरेपन हजार वर्ष की है। 383. [1] गम्भवतिय उरपरिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। / [383.1 प्र.] भगवन् ! गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [383-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट पूर्वकोटि (करोड़पूर्व) की है। [2] अपज्जत्तगगम्भवक्कैतियउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि तोमुहत्तं / [383-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [383-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] पज्जत्तगगम्भवक्फंतियउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं तोमहत्तं, उक्कोसेणं पुव्यकोडी अंतोमुहुत्तूणा / [383-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है। 384. [1] भयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। [384-1 प्र.] भगवन् ! भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [384-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है / [2] अपज्जत्तयभयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [384-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? 384-2 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य स्थितिपद ] [323 [3] पज्जतयभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं प्रतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडो अतोमुत्तूणा / [384-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [384-3 7.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वकोटि की है। 385. [1] सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अतोमुहुँतं, उक्कोसेणं बायांलीसं वाससहस्साई / ___[385-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [385-1 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बयालीस हजार वर्ष की है। [2] अपज्जत्तयसम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि तोमुहत्तं / [385-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक सम्मूच्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक ___ जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [385-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयसम्मच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहणणं अतोमुत्तं, उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई। [385-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक सम्मूच्छिम भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? 6385-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बयालीस हजार वर्ष की है। 386. [1] गम्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। [386-1 प्र.] भगवन् ! गर्भज भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [386-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है / [2] अपज्जयगम्भवक्कतियभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्सजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [386-2 प्र.) भगवन् ! अपर्याप्तक गर्भज भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [386-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयगम्भवक्कंतियभयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुब्बकोडी अंतोमुत्तूणा। [386-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त गर्भज भुजपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [386-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम पूर्वकोटि की है / 387. [1] खहयरपंचेंदितिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागो। [387-1 प्र.] भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [387-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्येयभाग की है। [2] अपज्जत्तयखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेणं वि तोमुत्तं / [387-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही है ? [387-2 उ.) गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं प्रच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागो अतोमुत्तूगो। [387-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [387-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है। 388. [1] सम्मुच्छिमखहयरपंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावरिं वाससहस्साई / [388-1 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [388-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट बहत्तर हजार वर्ष की है / Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद ] [ 325 [2] अपज्जत्तयसम्मच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि तोमहत्तं / [388-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त सम्मूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [388-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है, और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयसम्मुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावत्तरि वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई। [388-3 प्र.) भगवन् ! पर्याप्त सम्मूच्छिम खेचर पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? . / [388-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम बहत्तर हजार वर्ष की है। 386. [1] गब्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागो। [386-1 प्र.] भगवन् ! गर्भज-खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? _ [589-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है। [2] अपज्जत्तयगम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अतोमुहत्तं / [386-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त गर्भज खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [386-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयगम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागो तोहतूणो। [386-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त गर्भज खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [386-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग की है। विवेचन—तियंच पंचेन्द्रिय जीवों को स्थिति का निरूपण--प्रस्तुत 18 सूत्रों (सू. 372 से 386) में तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों के विभिन्न प्रकारों की स्थिति का निरूपण किया गया है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] [प्रज्ञापनासूत्र मनुष्यों की स्थिति को प्ररूपरणा--- 360. [1] मणुस्साणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिमोवमाई। [360-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों की कितने काल तक की स्थिति कही गई है ? [360-1 उ.] गौतम ! (मनुष्यों की स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तगमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [360-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक मनुष्यों की स्थिति कितने काल की है ? [360-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिग्रोवमाई तोमुत्तूणाई। [360-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [390-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम की है। 361. सम्मुच्छिममणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि तोमुत्तं / [361 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [391 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। 392. [1] गन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णणं अतोमुत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिम्रोवमाई। [392-1 प्र. भगवन् ! गर्भज मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [362-1 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। [2] अपज्जतयगब्भवक्कंतियमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेण वि उपकोसेण वि तोमुहुत्तं / [392-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक गर्भज मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [392-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। . [3] पज्जत्तयगन्भवतियमणुस्साणं पुच्छा / गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिप्रोवमाई तोमुत्तूणाई। [362-3 प्र] भगवन् ! पर्याप्तक गर्भज मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद ] [ 327 [392-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम की है। विवेचन--मनुष्यों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 360 से 392 तक) में सामान्य, अपर्याप्तक, पर्याप्तक, सम्मूच्छिम तथा गर्भज (औधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक) मनुष्यों की स्थिति का निरूपण किया गया है / वारणव्यंतर देवों की स्थिति-प्ररूपरणा 363. [1] वाणमंतराणं भंते ! देवाणं केवतिय कालं ठिती पण्णता? गोयमा! जहन्नेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं / [393-1 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [393-1 उ.] गौतम ! (वाणव्यन्तर देवों की स्थिति) जघन्य दस हजार वर्ष की है, उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तयवाणमंतराणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहाणेण वि उक्कोसेण बि अंतोमुहत्तं / [393-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [393-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयाणं वाणमंतराणं देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं पलिश्रोवमं अंतोमुहुतणं / [393-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक वाणव्यन्तर देवों को स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [393-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम की है। 364. [1] वाणमंतरीणं भंते ! देवीणं केवतिय कालं ठिती पण्णता ? गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साइं, उक्कोसेणं प्रद्धपलिप्रोवमं / [394-1 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [394-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तियाणं भंते ! वाणमंतरोणं देवीणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [394-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त वाणव्यन्तर देवियों की स्थिति कितने काल को कही [394-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [प्रज्ञापनासून [3] पज्जत्तियाणं भंते ! वाणमंतरीणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं अद्धपलिप्रोवमं अंतोमुहुत्तूणं / [394-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक वाणव्यन्तर देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [394-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम अर्द्ध पल्योपम की है। विवेचन-वाणव्यन्तर देव-देवियों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 393-394) में वाणव्यन्तर देवों तथा देवियों (ौधिक, अपर्याप्तक और पर्याप्तक) की स्थिति का निरूपण किया गया है। ज्योतिषक देवों की स्थिति-प्ररूपरणा 365. [1] जोइसियाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहणेणं पलिप्रोवमट्ठभागो, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससतसहस्समभहिय / [365-1 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [395-1 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवाँ भाग है और उत्कृष्ट स्थिति एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम की है। [2] अपज्जत्तयजोइसियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [395-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त ज्योतिष्क देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [395-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तयजोइसियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिप्रोवमट्ठभागो अंतोमुत्तूणो, उक्कोसेणं पलिनोवमं वाससतसहस्समहियं अंतोमुत्तूणं। [395-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त ज्योतिष्क देवों को स्थिति कितने काल तक की कही [395-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। 366. [1] जोइसिणोणं भंते ! देवोणं केवतियं कालं ठितो पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिग्रोवमट्ठभागो, उक्कोसेणं अद्धपलिपोवमं पण्णासवाससहस्समहिय। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [329 [396-1 प्र.] भगवन्! ज्योतिष्क देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [396-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है। [2] अपज्जत्तियाणं जोइसियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उपकोसेण वि अंतोमुहत्तं / [396-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त ज्योतिष्क देवियों की स्थिति कितने काल की कही [396-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जतियाणं जोइसियाणं पुच्छा / गोयमा ! जहणेणं पलिनोवमट्ठभागो अंतोमुत्तूणो, उक्कोसेणं अद्धिपलिनोवमं पण्णासाए वाससहस्सेहि अमहियं अंतोमुहुत्तूणं / [396-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त ज्योतिष्क देवियों को स्थिति कितने काल की कही गई है ? [396-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम फल्योपम के आठवें भाग की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है। 367. [1] चंदविमाणे णं भंते ! देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं च उभागपलिग्रोवम, उक्कोसेणं पलिमोबमं वाससतसहस्सममहियं / [397-1 प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में देवों की स्थिति कितने काल की है ? [397-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम का चौथाई भाग है, उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। [2] चंदविमाणे णं भंते ! अपज्जत्तयदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [397-2 प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही [397-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] चंदविमाणे णं पज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिप्रोवमं अंतोमुहत्तणं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससतसहस्समन्भहियं अंतोमुत्तूणं। [397-3 प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 ] [प्रज्ञापनासूत्र [397-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम का चतुर्थ भाग और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है।' 398. [1] चंदविमाणे णं भंते ! देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण चउभागपलिग्रोवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं पण्णासाए वाससहस्से. हिमन्भहियं / [398-1 प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [398-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम का चतुर्थ भाग है और उत्कृष्ट पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है। [2] चंदविमाणे णं भंते ! अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [398-2 प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [398-2 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] चंदविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं चउभागपलिनोवमं अंतोमुत्तणं, उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहियं अंतोमुत्तूणं / . [398-3 प्र.] भगवन् ! चन्द्रविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [398-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थ भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचास हजार वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है / 396. [1] सूरविमाणे णं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहणणं चउभागपलिनोवमं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससहस्सममहिय / [399-1 प्र.] भगवन् ! सूर्यविमान में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? 1. चन्द्रविमान में चन्द्रमा उत्पन्न होता है, इसलिए वह चन्द्रविमान कहलाता है। चन्द्रविमान में चन्द्र के अतिरिक्त सभी उसके परिवारभूत देव होते हैं। उन परिवारभूत देवों की जघन्य स्थिति पल्योषम का चतुर्थभाग और उत्कृष्ट किन्हीं इन्द्र, सामानिक आदि की लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। चन्द्रदेव की उत्कृष्ट स्थिति तो मूलपाठ में उक्त है ही। इसी प्रकार सूर्यादि के विमानों के विषय में समझ लेना चाहिए। -प्रज्ञापना. म. वत्ति, पत्रांक 175 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य स्थितिपद ] [ 331 .. [399-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम के चौथाई भाग की और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है। [2] सूरविमाणे अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [399-2 प्र.] भगवन् ! सूर्य विमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [399-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की है / [3] सूरविमाणे पज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं चउभागपलिपोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमं वाससहस्समभहियं अंतोमुत्तूणं / [399-3 प्र.] भगवन् ! सूर्यविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [399-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थभाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक हजार वर्ष अधिक एक पल्योपम की है / 400. [1] सूरविमाणे देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चउभागलिनोवमं, उक्कोसेणं अद्धपलिनोवम पंचहि वाससतेहिमभहियं / [400-1 प्र.] भगवन् ! सूर्यविमान में देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [400-1 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) पल्योपम के चतुर्थभाग की है और उत्कृष्ट पांच सौ वर्ष अधिक अर्द्धपल्योपम की है। [2] सरविमाणे अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोधमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / ___ [400-2 प्र.] भगवन् ! सूर्यविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कहो गई है ? ' / [400-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] सूरविमाणे पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं चउभागपलिप्रोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं प्रद्धपलिनोवमं पंचहि वाससतेहिं अमहियं अंतोमुहुत्तूणं। विमान में पर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [ प्रज्ञापनासून [400-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चौथाई भाग की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पांच सौ वर्ष अधिक अर्द्ध पल्योपम की है। 401. [1] गह विमाणे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिग्रोवमं, उक्कोसेणं पलिओवमं / [401-1 प्र.] भगवन् ! ग्रहविमान में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [401-1 उ.] गौतम ! जघन्य पत्योपम के चौथाई भाग की है और उत्कृष्ट एक पल्योपम की है। [2] गहविमाणे प्रपज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [401.2 प्र.] भगवन् ! ग्रहविमान में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [401-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] गहविमाणे पज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं चउभागपलिप्रोवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं पलिग्रोवमं अंतोमुत्तूणं / [401-3 प्र.] भगवन् ! ग्रहविमान में पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई [401-3 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थ भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम की है। 402. [1] गहविमाणे देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहष्णेणं चउभागपलिग्रोवम, उक्कोसेणं प्रद्धपलिनोवमं / [402-1 प्र.] भगवन् ! ग्रहविमान में देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [402-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम के चतुर्थभाग की और उत्कृष्ट अर्द्धपल्योपम की The [2] गहविमाणे अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [402-2 प्र.] भगवन् ! ग्रह विमान में कितने काल की स्थिति अपर्याप्त देवियों की कही [402-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त की है। [3] पज्जत्तियाणं गहविमाणे देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहष्णेणं चउभागपलिप्रोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धपलिग्रोवमं अंतोमुत्तूणं / Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [333 _[402-3 प्र.] भगवन् ! ग्रहविमान में पर्याप्तक देवियों की कितने काल तक की स्थिति कही है ? [402-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के चतुर्थ भाग की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम अर्द्ध पल्योपम की है। 403. [1] णक्खत्तविमाणे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णं चउभागपलिग्रोवम उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं / / [403-1 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमान में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [403-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम के चतुर्थभाग की और उत्कृष्ट अर्द्ध पल्योपम की है। [2] णक्खत्तविमाणे अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा / गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [403-2 3.] भगवन् ! नक्षत्रविमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [403-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] पक्खत्तविमाणे पज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिप्रोक्मं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं अद्धपलिनोवमं अंतोमुत्तणं / [403-3 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [403-3 उ] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम चौथाई पल्योपम की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम अर्द्ध-पल्योपम की है / 404. [1] नक्खत्तविमाणे वेवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं चउभागपलिप्रोवम, उक्कोसेणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं / [404-1 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमान में देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [404-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम का चतुर्थभाग है और उत्कृष्ट कुछ अधिक चौथाई पल्योपम की है। [2] पक्खत्तविमाणे अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [404-2 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमान में अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [404-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] नक्खत्तविमाणे पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चउभागपलिनोवमं अंतोमहत्तूणं, उक्कोसेणं सातिरेगं चउभागलिनोवमं अंतोमुत्तूणं। [404-3 प्र.] भगवन् ! नक्षत्रविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [404-3 उ.] गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त कम चौथाई पल्योपम की है और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम पल्योपम के चौथाई भाग से कुछ अधिक की है। 405. [1] ताराविमाणे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अट्ठभागपलिप्रोवम, उक्कोसेणं चउभागपलिम्रोवमं / [405-1 प्र.] भगवन् ! ताराविमान में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [405.1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम के आठवें भाग की और उत्कृष्ट चौथाई पल्योपम की है। [2] ताराविमाणे अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [405-2 प्र.] भगवन् ! ताराविमान में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही [405-2 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] ताराविमाणे पज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अट्ठभागपलिग्रोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं चउमागपलिग्रोवमं अंतोमुहुत्तूणं। [405-3 प्र.] भगवन् ! ताराविमान में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही [405.3 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम का आठवाँ भाग है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम चौथाई पल्योपम की है। 406. [1] ताराविमाणे देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अट्ठभागपलिओवमं, उक्कोसेणं सातिरेगं अटुभागपलिप्रोवमं / [406-1 प्र] भगवन् ! तारा विमान में देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [406-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम का आठवाँ भाग और उत्कृष्ट पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक की है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद [335 [2] ताराविमाणे अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [406-2 प्र.] भगवन् ! ताराविमान में अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [406-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] ताराविमाणे पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अट्ठभागपलिनोवमं अंतोमुहत्तणं, उक्कोसेणं सातिरेगं अट्ठभागपलिनोवमं अंतोमहत्तणं। [406-3 प्र.] भगवन् ! ताराविमान में पर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (406.3 उ.] गौतम ! जघन्यतः अन्तमुहर्त कम पल्योपम के आठवें भाग की है और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम के आठवें भाग से कुछ अधिक है। विवेचन-ज्योतिष्क देव-देवियों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 395 से 406 तक) में ज्योतिष्क देवों और देवियों के (औधिक, अपर्याप्तकों एवं पर्याप्तकों) की तथा चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा के विमानों के देव-देवियों (ौघिक, अपर्याप्तकों के और पर्याप्तकों) की स्थिति का निरूपण किया गया है / वैमानिक देवों की स्थिति की प्ररूपरणा 407. [1] वेमाणियाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं पलिम्रोवम, उक्कोसेगं तेत्तीसं सागरोवमाई। [407-1 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [407-1 उ.] गौतम ! (वैमानिक देवों की स्थिति) जघन्य एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट ततीस सागरोपम की है। [2] अपज्जत्तयवेमाणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [407-2 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक वैमानिक देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [407-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] पज्जत्तयवेमाणियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिनोवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमहत्तूणाई / [407-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त वैमानिक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [407-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त कम एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | प्रज्ञापनासूत्र 408. [1] वेमाणिणोणं भंते ! देवीणं केवतियं कालं ठिती षण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं पलिपोवम, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिनोवमाई। [408-1 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [408-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट पचपन पल्योपमों की है। [2] अपज्जत्तियाणं वेमाणिणोणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [408-2 प्र.] भगवन् ! वैमानिक अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [408-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पज्जत्तियाणं वेमाणिणीणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं पलिनोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिपोधमाई अंतोमुत्तूणाई। [408-3 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त वैमानिक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [408-3 उ. गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त कम एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम पचपन पल्योपमों की है / 406. [1] सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं पलिग्रोवमं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई। [409-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प (देवलोक) में, देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [409-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट दो सागरोपम की है। [2] सोहम्मे कप्पे अपज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [409-2 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [409-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] सोहम्मे कप्पे पज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिप्रोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई / [406-3 प्र] भगवन् ! सौधर्मकल्प में पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कहो Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [ 337 [409-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दो सागरोपम की है। 410. [1] सोहम्मे कप्पे देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिम्रोवम, उक्कोसेणं पण्णासं पलिप्रोवमाई। [410-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में देवियों को स्थिति कितने काल की कही गई है ? [410-1 उ.] गौतम ! जधन्य एक पल्योपम को है और उत्कृष्ट पचास पल्योपमों की है / [2] सोहम्मे कप्पे अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा / गोयमा जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / ' __ [410-2 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [410-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] सोहम्मे कप्पे पज्जत्तियाणं देवोणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं पलिग्रोवमं अंतोमुहुतूणं उक्कोसेणं पण्णासं पलि ग्रोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। 410-3 प्र. भगवन् ! सौधर्मकल्प की पर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल को कही गई है ? [410-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचास पल्योपमों की है। 411. [1] सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णणं पलिग्रोवम, उक्कोसेणं सत्त पलिग्रोवमाई / [411-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिगृहीता देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [411-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक पल्योपम को और उत्कृष्ट सात पल्योपम की है। [2] सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [411-2 प्र.) भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिगृहीता अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [411-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है। [3] सोहम्मे कप्पे परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं पलिग्रोवमं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसेणं सत्त पलि प्रोवमाइं अंतोमुत्तूणाई। 1. ग्रन्धानम् 2500 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र . [411-3 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में परिगृहीता पर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [411-3 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम सात पल्योपम की है। 412. [1] सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं पलिओवमं, उक्कोसेणं पण्णासं पलिपोवमाई / [412-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपरिगृहीता देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [412-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक पल्योपम को और उत्कृष्ट पचास पल्योपमों की है / [2] सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [412-2 प्र. भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपरिगृहीता अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [412-2 उ.] गौतम ! उनकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। [3] सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं पलिप्रोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पण्णासं पलिप्रोवमाइं अंतोमुहुतूणाई। 1412-3 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प में अपरिगृहीता पर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [412-3 उ.] गौतम ! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम एक पल्योपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचास पल्योपमों की है / 413. [1] ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा / गोयमा! जहण्णेणं सातिरेगं पलिप्रोवम, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई। [413-1 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [413-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक की और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागरोपम की है। [2] ईसाणे कप्पे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहष्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [413-2 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [339 [413-2 उ.] गौतम ! उनको जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। [3] ईसाणे कप्पे पज्जताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिग्रोवमं अंतोमुत्तूर्ण, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [413-3 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प के पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही [413-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम कुछ अधिक एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दो सागरोपम से कुछ अधिक की है। 414. [1] ईसाणे कप्पे देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिनोवमं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिनोवमाई। [414-1 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [414-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक पल्योपम से कुछ अधिक को और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है। [2] ईसाणे कप्पे देवीणं अपज्जत्तियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेणं वि अंतोमुहत्तं / [414.2 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल को कही [414-2 उ.] गौतम जघन्य भो और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] ईसाणे कप्पे पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिग्रोवमं अंतोमुत्तणं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिपोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [414-3 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में पर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही [414-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त कम पल्योपम से कुछ अधिक को और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम की है। 415. [1] ईसाणे कप्पे परिगहियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सातिरेगं पलिग्रोवमं, उक्कोसेणं णव पलिश्रोवमाइं। ___ [415-1 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में परिगृहीता देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [415-2 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम से कुछ अधिक को और उत्कृष्ट नो फ्ल्योपम की है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340] [प्रज्ञापनासूत्र [2] ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / {415-2 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में परिगृहीता अपर्याप्त देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [415-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिनोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं नव पलिनोवमाई अंतोमुहुतूणाई। [415-3 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में परिगृहीता पर्याप्तक देवियों को स्थिति कितने काल की कही गई है ? [415-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पल्योपम से कुछ अधिक की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम नौ पल्योपम की है। 416. [1] ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सातिरेगं पलिप्रोवमं, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिश्रोवमाई। [416-1 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में अपरिगृहीता देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [416-1 उ.] गौतम ! जघन्य पल्योपम से कुछ अधिक की और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है। [2] ईसाणे करपे अपरिग्गहियाणं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [416-2 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प में अपरिगृहीता अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [416-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियाणं देवीणं पज्जत्तियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सातिरेगं पलिप्रोवमं अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पणपणं पलिअोवमाइं तोमुहुत्तूणाई। [416-3 प्र.) भगवन् ! ईशानकल्प में अपरिगृहीता पर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [416-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सातिरेक पल्योपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम पचपन पल्योपम की है। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [341 417. [1] सणंकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दो सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई। (417-1 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमारकल्प में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही [417-1 उ.] गौतम ! जघन्य दो सागरोपम की और उत्कृष्ट सात सागरोपम की है / [2] सणंकुमारे कप्पे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [417-2 प्र. भगवन् ! सनत्कुमारकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [417-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] सणंकुमारे कप्पे पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दो सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाइं अंतोमुहुतूणाई। ___ [417-3 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमारकल्प में पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [417-3 उ.गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दो सागरोपम और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम की है। 418. [1] माहिंदे कप्पे देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णणं सातिरेगाइं दो सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्त साहियाइं सागरोवमाई। [418-1 प्र. भगवन् ! माहेन्द्रकल्प के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? (418-1 उ.! गौतम! जघन्य दो सागरोपम से कुछ अधिक की और उत्कृष्ट सात सागरोपम से कुछ अधिक की है। [2] माहिदे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [418-2 प्र.] भगवन् ! माहेन्द्रकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [418-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] माहिदे पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहणणं सातिरेगाइं दो सागरोवमाइं अंतोमुहुतूणाई, उक्कोसेणं सातिरेगाई सत्त सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342] [प्रज्ञापनासून [418-3 प्र.] भगवन् ! माहेन्द्रकल्प में पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही [418-3 उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दो सागरोपम से कुछ अधिक की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम से कुछ अधिक की है / 416. [1] बंभलोए कप्पे देवाणं पुन्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सत्त सागरोवमाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई / [419-1 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोककल्प में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [419-1 उ.] गौतम ! जघन्य सात सागरोपम की और उत्कृष्ट दस सागरोपम की है। [2] बंभलोए अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [416.2 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोककल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? __ [416-2 उ.] गौतम ! (उनकी) जघन्य (स्थिति) भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट (स्थिति) भी अन्तर्मुहुर्त की है। [3] बंभलोए पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सत्त सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई। [419-3 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोककल्प में पर्याप्त देवों को स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [419-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सात सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम दस सागरोपम की है। 420. [1] लंतए कप्पे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं दस सागरोवमाई, उक्कोसेणं चउदस सागरोवमाइं। [420-1 प्र.] भगवन् ! लान्तककल्प में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [420-1 उ.] गौतम ! जघन्य दस सागरोपम की और उत्कृष्ट चौदह सागरोपम की है। [2] लंतए अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा / जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [420-2 प्र.] भगवन् ! लान्तककल्प में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [420-2. उ.) गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भो अन्तर्मुहूर्त को है। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपदा [343 [3] लंतए पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं दस सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं चोद्दस सागरोवमाइं अंतोंमुहुत्तूणाई। [420-3 प्र.] भगवन् ! लान्तककल्प में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [420-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम चौदह सागरोपम की है। 421. [1] महासुक्के देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चोद्दस सागरोवमाइं, उक्कोसेणं सत्तरस सागरोक्माई। [421-1 प्र.] भगवन् ! महाशुक्रकल्प में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [421-1 उ.] गौतम ! जघन्य चौदह सागरोपम की तथा उत्कृष्ट सत्तरह सागरोपम की है। [2] महासुक्के अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / __ [421-2 प्र.] भगवन् ! महाशुक्रकल्प में अपर्याप्त देवों को स्थिति कितने काल की कही गई है? 021-2 प्र.] भगवन ! [421-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहुर्त को है। [3] महासुक्के पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं चोद्दस सागरोवमाइं अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्तरस सागरोबमाई अंतोमुत्तूणाई। [421-3 प्र.] भगवन् ! महाशुक्रकल्प में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [421-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम चौदह सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम सत्रह सागरोपम को है। 422. [1] सहस्सारे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सत्तरस सागरोवमाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई। [422-1 प्र.] भगवन् ! सहस्रारकल्प में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [422-1 उ.] गौतम ! जघन्य सत्तरह सागरोपम की और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम [2] सहस्सारे पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उपकोसेण वि अंतोमुहत्तं / Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [422-2 प्र.] भगवन् ! सहस्रारकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [422-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहर्त की है। [3] सहस्सारे पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं सत्तरस सागरोवमाइं अंतोमुहुतूणाई उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [422-3 प्र.] भगवन् ! सहस्रारकल्प में पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही [422-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सत्तरह सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूत्त कम अठारह सागरोपम की है। 423. [1] प्राणए देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाई, उक्कोसेणं एकूणवीसं सागरोवमाइं। (423-1 प्र.] भगवन् ! आनतकल्प के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [423-1 उ.] गौतम ! जघन्य अठारह सागरोपम की और उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम की है। [2] प्राणए अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेणं वि अंतोमुत्तं / [423-2 प्र.] भगवन् ! अानतकल्प में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [423-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] प्राणए पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं एगूणवीसं सागरोबमाई अंतोमुत्तूणाई। [423-3 प्र.] भगवन् ! प्रानतकल्प में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [423-3 उ. गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम अठारह सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम उन्नीस सागरोपम की है। 424. [1] पाणए कप्पे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं एगूणवीसं सागरोवमाइं, उक्कोंसेणं वीसं सागरोवमाइं। [424.1 प्र.] भगवन् ! प्राणतकल्प में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य स्थितिपद] [424-1 उ.] गौतम ! जघन्य उन्नीस सागरोपम की है और उत्कृष्ट बीस सागरोपम की है। [2] पाणए अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [424-2 प्र.] भगवन् ! प्राणतकल्प में अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? __ [424-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] पाणए पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगूणवीसं सागरोंवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं वीसं सागरोंकमाई अंतोमुत्तूणाई। [424-3 प्र.] भगवन् ! प्राणतकल्प में पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [424-3 उ ] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहर्त कम उन्नीस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम बीस सागरोपम की है। 425. [1] आरणे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं वीसं सागरोबमाई, उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई। [425-1 प्र.] भगवन ! पारणकल्प में देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [425-1 उ.] गौतम ! जघन्य बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम की है। [2] प्रारणे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [425-2 प्र.] भगवन् ! पारणकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [425-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] प्रारणे पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहणणं वीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं एक्कवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [425-3 प्र.] भगवन् ! आरणकल्प में पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [425-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुंहत कम इक्कीस सागरोपम की हैं। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र 426. [1] अच्चुए कप्पे देवाणं पच्छा। गोंयमा ! जहण्णेणं एक्कवीसं सागरोंकमाई, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई। [426-1 प्र.] भगवन् ! अच्युतकल्प में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [426-1 उ / गौतम ! जघन्य इक्कीस सागरोपम की और उत्कृष्ट बाईस सागरोपम की है। [2] अच्चुए अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [426-2 प्र.] भगवन् ! अच्युतकल्प में अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [426-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है। [3] अच्चुते पज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एक्कवीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं बावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुतूणाई। [426-3 प्र.] भगवन् ! अच्युतकल्प में पर्याप्तकदेवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [426-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त कम इक्कीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम बाईस सागरोपम की है। 427. [1] हेटिमहेटिमगेवेज्जदेवाणं पुच्छा / गोयमा! जहणणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाइं / [427-1 प्र.) भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन (सबसे निचले अवेयकत्रिक में नीचे वाले) ग्रैवेयक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? 427-1 उ.] गौतम ! (सबसे निचली अवेयकत्रिक के नीचे के देवों की स्थिति) जघन्य बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेईस सागरोपम की है / [2] हेट्ठिमहेटिमअपज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / [427-2 प्र. भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक के अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल की है? [427-2 उ.] मौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहर्त की है। [3] हेटिमहेट्ठिमपज्जत्तदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं बावीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तणाई। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [347 . [427-3 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन ग्रैवेयक के पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [427-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम तेईस सागरोपम की है। 428 [1] हेटिममज्झिमगेवेज्जदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं तेवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई / __ [428-1 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-मध्यम अवेयक देवों की स्थिति कितने काल को कही गई है ? [428-1 उ.] गौतम ! जघन्य तेईस सागरोपम की और उत्कृष्ट चौवीस सागरोपम की है। [2] हेटिममज्झिमनपज्जत्तयदेवाणं घुच्छा। गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [428-2 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयक अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [428-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] हेदिममज्जिमगेवेज्जदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं तेवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं चउवीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। [428-3 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-मध्यम ग्रैवेयक पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? - [428-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम तेईस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम चौवीस सागरोपम की है / 426. [1] हेट्ठिमउरिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं चउवीसं सागरोक्माई, उक्कोसेणं पणुवीसं सागरोक्माई। [426-1 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-उपरितन (सबसे नीचे के त्रिक में ऊपर वाले) ग्रेवेयक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [426-1 उ.] गौतम ! जघन्य चौवीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट पच्चीस सागरोपम की है। [2] हेट्ठिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं प्रपज्जत्ताणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [426-2 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-उपरितन ग्रैवेयक अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 348 1 [ प्रज्ञापनासून [429.2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है। [3] हेदिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जताणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं च उवासं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं पणवीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई। [426-3 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-उपरितन अवेयक पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [426-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम चौवीस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पच्चीस सागरोपम की है। 430. [1] मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं पणुवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं छब्बीसं सागरोवमाई। [430.1 प्र.] भगवन् ! मध्यम-अधस्तन (बीच के त्रिक में सबसे निचले) ग्रैवेयक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [430-1 उ.] गौतम ! जघन्य पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्ट छब्बीस सागरोपम की है। [2] मज्झिमहेट्ठिमगेवेज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं। [430.2 प्र.] भगवन् ! मध्यम-अधस्तन ग्रेवेयक अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक कही गई है ? [430-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] मज्झिमहे टिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा! जहणेणं पणुवीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं छन्वीसं सागरोधमाई अंतोमुत्तूणाई। [430-3 प्र] भगवन् ! मध्यम-अधस्तन ग्रैवेयक पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [430-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम पच्चीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम छब्बीस सागरोपम की है। 431. [1] मज्झिममज्झिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं छब्बीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाइं। [431.1 प्र.] भगवन् ! मध्यम-मध्यम (बीच के त्रिक के बिचले) ग्रैवेयक देवों की स्थिति कितने काल तक कही गई है ? Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद] [349 - [430-1 उ.] गौतम ! जघन्य छब्बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट सत्ताईस सागरोपम [2] मज्झिममझिमगेवेज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [431-2 प्र.] भगवन् ! मध्यम-मध्यम प्रैवेयक अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [431-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] मज्झिममज्झिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं छन्वीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [431-3 प्र.] भगवन् ! मध्यम-मध्यम ग्रैवेयक पर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [431- 3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम छब्बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम सत्ताईस सागरोपम की है। 432. [1] मज्झिमउवरिमगेवेज्जाणं देवाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं सत्तावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई / [432-1 प्र.] भगवन् ! मध्यम-उपरितन (बीच के त्रिक में सबसे ऊपर वाले) ग्रेवेयक देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? [432-1 उ.] गौतम ! जघन्य सत्ताईस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अट्ठाईस सागरोपम की है। [2] मज्झिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा / गोंयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [432-2 प्र.] भगवन् ! मध्यम-उपरितन ग्रैवेयक अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [432-2 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] मज्झिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा / गोयमा ! जहणणं सत्तावीसं सागरोबमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। [432-3 प्र.) भगवन् ! मध्यम-उपरितन ग्रैवेयक पर्याप्तक देवों की कितने काल की स्थिति कही है ? Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350] प्रज्ञापनासूत्र [432-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम सत्ताईस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम अट्ठाईस सागरोपम की है। 433. [1] उवरिमहेटिममेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एगणतीसं सागरोवमाइं। [433-1 प्र.] भगवन् ! उपरितन-अधस्तन (ऊपर के त्रिक के निचले) अवेयक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है। [433-1 उ.] गौतम ! जघन्य अट्ठाईस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट उनतीस सागरोपम की है। [2] उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [433-2 प्र.] भगवन् परितन-अधस्तन ग्रंवेयक अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [433-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] उरिमहेटुिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा! जहणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाइं, अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसणं एगूणतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [433-3 प्र.] भगवन् ! उपरितन-अधस्तन ग्रेवेयक पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [433-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त कम अट्ठाईस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम उनतीस सागरोपम की है। 434. [1] उवरिममज्झिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एगणतीसं सागरोबमाई, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाई / [434-1 प्र.] भगवन् ! उपरितन-मध्यम (ऊपर के त्रिक में बीच वाले) ग्रैवेयक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? / [434-1 उ.] गौतम ! जघन्य उनतीस सागरोपम को तथा उत्कृष्ट तीस सागरोपम की है। [2] उवरिमझिमगेवेज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [434-2 प्र.] भगवन् ! उपरितन-मध्यम अवेयक अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [434-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की है। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्य स्थितिपद] [351 [3] उवरिममज्झिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगणतोसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [434-3 प्र.] भगवन् ! उपरितन-मध्यम ग्रैवेयक पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [434-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम उनतीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त कम तीस सागरोपम को है। 435. [1] उपरिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं तीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एक्कतीसं सागरोवमाई। [435-1 प्र.] भगवन् ! उपरितन-उपरितन (ऊपर के त्रिक के सबसे ऊपर वाले) ग्रंवेयकदेवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [435-1 उ.] गौतम ! जघन्य तीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम की है। [2] उवरिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [435-2 प्र.] भगवन् ! उपरितन-उपरितन | वेयक अपर्याप्त देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [435-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त की है। [3] उरिमउवरिमगेवेज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं तीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसणं एक्कतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई। [435-3 प्र.] भगवन् ! उपरितन-उपरितन वेयक पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है? [435-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम तीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम इकतीस सागरोपम की है। 436. [1] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिएसु णं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! जहणणं एक्कतीसं सागरोवमाइं, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई / [436-1 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [436-1 उ.] गौतम ! (इन सब देवों की स्थिति) जघन्य इकतीस सागरोपम की तथा उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है / Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352]] [ प्रज्ञापनासूत्र [2] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [436-2 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों में (स्थित) अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [436-2 उ.) गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है / [3] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोम हुत्तूणाई। [436-3 प्र. भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित विमानों में स्थित पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही है ? [436-3 उ.] गौतम ! (इनकी स्थिति)जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम इकतीस सागरोपम की है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की है। 437. [1] सवसिद्धगदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पण्णता ? [437-1 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों की कितने काल तक की स्थिति कही [437-1 उ.] गौतम ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। [2] सव्वदसिद्धगदेवाणं अपज्जताणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [437-2 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमानवासी अपर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? [437-2 उ.] गौतम ! जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [3] सम्वदसिद्धगदेवाणं पज्जत्ताणं [भंते ! ] केवतियं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! प्रजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई ठिती पण्णत्ता / // पण्णवणाए भगवई चउत्थं ठिइपयं समत्तं / [437-3 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध-विमानवासी पर्याप्तक देवों की स्थिति कितने काल तक की कही गई है ? ___ [437-3 उ.] गौतम ! इनकी स्थिति अजधन्य-अनुत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम की कही गई है। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्थितिपद [ 353 विवेचन-वैमानिक देवगणों की स्थिति का निरूपण-प्रस्तुत इकतीस सूत्रों (सू. 307 से 337 तक) में वैमानिक देवों के निम्नोक्त प्रकार से स्थिति का निरूपण किया गया है-(१) वैमानिक देवों (औधिक, अपर्याप्त एवं पर्याप्त) की, (2) वैमानिक देवियों (औधिक, अपर्याप्त एवं पर्याप्त) को (3) तथा सौधर्मकल्प से लेकर अच्युतकल्प तक के देवों (औधिक, अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक) की तथा सौधर्म एवं ईशान कल्प की देवियों (ौधिक, अपर्याप्तक, पर्याप्तक, परिगृहीता, अपरिगृहीता) की और (4) नौ सूत्रों में नौ प्रकार के अवेयकों (औधिक, अपर्याप्त एवं पर्याप्त) को तथा (5) विजय, वैजयन्त, जयन्त एवं अपराजित देवों एवं सर्वार्थसिद्ध देवों (प्रोधिक, अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक) की स्थिति / // प्रज्ञापनासूत्र : चतुर्थ स्थितिपद समाप्त // Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * पंचमं विसेसपयं (पज्जवपयं) पंचम विशेषपद (पर्यायपद) प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह पंचम विशेषपद' अथवा 'पर्यायपद' है। 'विशेष' शब्द के दो अर्थ फलित होते हैं—(१) जीवादि द्रव्यों के विशेष अर्थात्-प्रकार और (2) जीवादि द्रव्यों के विशेष अर्थात्-पर्याय / प्रथम पद में जीव और अजीव, इन दो द्रव्यों के प्रकार, भेद-प्रभेद सहित बताये गए हैं। उसकी यहाँ भी संक्षेप में (सू. 436 एवं 500-501 में) पुनरावृत्ति की गई है / वह इसलिए कि प्रस्तुत पद में यह बात स्पष्ट करनी है कि जीव और अजीव के जो प्रकार हैं, उनमें से प्रत्येक के अनन्त पर्याय हैं / यदि प्रत्येक के अनन्त पर्याय हों तो समग्र जीवों या समग्र अजीवों के अनन्त पर्याय हों, इसमें कहना ही क्या ? इस पद का नाम 'विशेषपद' रखा जाने पर भी इस पद के सूत्रों में कहीं भी विशेष शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, समग्र पद में पर्याय' शब्द उनके लिए प्रयुक्त हुआ है। जैनशास्त्रों में भी यत्रतत्र 'पर्याय' शब्द को अधिक महत्त्व दिया गया है / इससे ग्रन्थकार ने एक बात सूचित कर दी है-वह यह है कि पर्याय या विशेष में कोई अन्तर नहीं है / जो नाना प्रकार के जीव या अजीव दिखाई देते हैं, वे सब द्रव्य के ही पर्याय हैं। फिर भले ही वे सामान्य के विशेषरूप--प्रकाररूप हों या द्रव्यविशेष के पर्याय रूप हो / जीव के जो नारकादि भेद बताए हैं, वे सभी प्रकार उसउस जीव द्रव्य के पर्याय हैं, क्योंकि अनादिकाल से जीव अनेक बार उस-उस रूप में उत्पन्न होता है / जैसे किसी एक जीव के वे पर्याय हैं, वैसे समस्त जीवों की योग्यता समान होने से उन सब ने नरक, तिर्यञ्च आदि रूप में जन्म लिया ही है। इस प्रकार जिसे प्रकार या भेद अथवा विशेष कहा जाता है, वह प्रत्येक जीवद्रव्य की अपेक्षा से पर्याय ही है, वह जीव की एक विशेष अवस्था पर्याय या परिणाम ही है। प्रस्तुत में 'पर्याय' शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है-(१) प्रकार या भेद अर्थ में तथा (2) अवस्था या परिणाम अर्थ में। जीव सामान्य के नारक आदि अनेक भेद-विशेष हैं, अत: उन्हें जीव के पर्याय कहे हैं और जीवसामान्य के अनेक परिणाम-पर्याय भी हैं, इस कारण उन्हें भी जीव के पर्याय कहे हैं / इसी प्रकार अजीव के विषय में भी समझ लेना चाहिए / इस प्रकार शास्त्रकार ने 'पर्याय' शब्द का दो अर्थों में प्रयोग किया है तथा पर्याय और विशेष दोनों एकार्थक माने हैं। जैनागमों में पर्याय शब्द ही प्रचलित था, किन्तु वैशेषिकदर्शन में 'विशेष' शब्द का प्रयोग' होने लगा था, अतः उस शब्द का प्रयोग पर्याय अर्थ में एवं बस्तु 1. देखें, तर्कसंग्रह तथा वैशेषिकदर्शन Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम विशेषपद (पर्यायपद) : प्राथमिक] [355 के भेद अर्थ में भी हो सकता है, यह सूचित करने हेतु प्राचार्य ने इस पद का नाम 'विशेषपद' रखा हो, यह भी संभव है। * शास्त्रकारों ने पर्याय शब्द का प्रयोग करके सूचित किया है कि कोई भी द्रव्य पर्यायशून्य कदापि नहीं होता / प्रत्येक द्रव्य किसी न किसी पर्यायावस्था में ही होता है। जिसे द्रव्य कहा जाता है, उस का भी प्रस्तुत पद में पर्याय के नाम से ही परिचय कराया गया है। सारांश यह है कि द्रव्य और पर्याय में अभेद है, इसे ध्वनित करने के लिए शास्त्रकार ने द्रव्य के प्रकार के लिए भी पर्याय शब्द का प्रयोग (सू. 439, 501 में) किया है / * यों द्रव्य और पर्याय का कथंचित् अभेद होते हुए भी शास्त्रकार को यह स्पष्ट करना था कि द्रव्य और पर्याय में भेद भी है। ये सब पर्याय या परिणाम किसी एक ही द्रव्य के नहीं हैं, इस की सूचना पृथक्-पृथक् द्रव्यों की संख्या और पर्यायों की संख्या में अन्तर बताकर की है। जैसे कि शास्त्रकार ने नारक असंख्यात (सू. 439) कहे, परन्तु नारक के पर्याय अनन्त कहे हैं। जीवों के जो अनेक प्रकार हैं, उनमें वनस्पति और सिद्ध, ये दो प्रकार ही ऐसे हैं, जिनके द्रव्यों की संख्या अनन्त है। इस कारण समग्रभाव से जीवद्रव्य अनन्त कहा जा सकता है, परन्तु उनउन प्रकारों में उक्त दो के सिवाय सभी द्रव्य असंख्यात हैं, अनन्त नहीं। फिर भी उन सभी प्रकारों के पर्यायों की संख्या अनन्त है, यह इस पद में स्पष्ट प्रतिपादित है।' वेदान्तदर्शन की तरह जैनदर्शन के अनुसार जीव द्रव्य एक नहीं, किन्तु अनन्त हैं / इसका अर्थ यह हुआ कि इस दृष्टि से जीवसामान्य जैसी कोई स्वतंत्र एक वस्तु (इकाई) नहीं है, परन्तु अनेक जीवों में जो चैतन्यधर्म दिखाई देते हैं, वे ही हैं, तथा वे नाना हैं और उस-उस जीव में ही व्याप्त हैं और वे धर्म अजीव से जीव को भिन्न करने वाले हैं। इसलिए अनेक होते हुए भी समानरूप से अजीव से जीव को भिन्न सिद्ध करने का कार्य करने वाले होने से सामान्य कहलाते हैं। यह सामान्य तिर्यक्-सामान्य है जो एक समय में अनेक व्यक्तिनिष्ठ होता है / जैनदर्शनानुसार एक द्रव्य अनेकरूप में परिणत हो जाता है, जैसे-कोई एक जीव (द्रव्य) नारक आदि अनेक परिणामों (पर्यायों) को धारण करता है / ये परिणाम कालक्रम से बदलते रहते हैं, किन्तु जीवद्रव्य ध्र व है, उसका कभी नाश नहीं होता; नारकादि-पर्यायों के रूप में उसका नाश होता है। नारकादि अनेक पर्यायों को धारण करते हुए भी वह कभी अचेतन नहीं होता। इस जीवद्रव्य को सामान्य-ऊर्ध्वतासामान्य कहा है, जो अनेक कालों में एक व्यक्ति में निष्ठ होता है और उस सामान्य के नाना पर्याय-परिणाम या विशेष अथवा भेद हैं। इस अपेक्षा से व्यक्तिभेदों का सामान्य तिर्यक्सामान्य है, जबकि कालिकभेदों का सामान्य ऊर्ध्वतासामान्य है; जो द्रव्य के नाम से जाना जाता है और एक है तथा अभेदज्ञान में निमित्त बनता है, जबकि तिर्यक सामान्य अनेक है, और समानता में निमित्त बनता है। निष्कर्ष यह है कि जीवसामान्य अनेक जीवों की अपेक्षा से तिर्यक्सामान्य है, जबकि एक ही जीव के नानापर्यायों की अपेक्षा से वह ऊर्ध्वतासामान्य है। 1. (क) पण्णवणासुत्तं मूल, सू. 438 से 454, (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 179. 202 2. न्यायावतार वार्तिक वत्ति-प्रस्तावना पृ. 25-31, पागम युग का जैनदर्शन, पृ. 76-86, Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 ] [ प्रज्ञापनासूत्र इसी प्रकार अजीवद्रव्य कोई पृथक एक ही द्रव्य नहीं है, परन्तु अनेक अजीव (अचेतन) द्रव्य हैं, वे सब जीव से भिन्न हैं, अतः उस अर्थ में उनकी समानता (एकता नहीं, अमुक अपेक्षा से एकता)' अजीवद्रव्य कहने से व्यक्त होती है। इस कारण वह सामान्य अजीवद्रव्यतिर्यक्सामान्य है / तथा इस तिर्यक्सामान्य के पर्याय, विशेष या भेद वे ही प्रस्तुत में जीव और अजीव के पर्याय, विशेष या भेद हैं, यह समझना चाहिए / संसारी जोवों में ककृत जो अवस्थाएँ, जिनके आधार से जीव पुदगलों से सम्बद्ध होता है, उस सम्बन्ध को लेकर जीव की विविध अवस्थाएँ–पर्याय बनती हैं। वे पौद्गलिक पर्याय भी व्यवहारनय से जीव की पर्याय मानी गई हैं। संसारी अवस्था में जीव और पुद्गल अभिन्नसे प्रतीत होते हैं, यह मानकर जीव के पर्यायों का वर्णन है। जैसे स्वतंत्र रूप से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की विविधता के कारण पुद्गल के अनन्त पर्याय (सू. 519 में) बताए हैं, वैसे ही जब वे ही पुद्गल जीव से सम्बद्ध होते हैं, तब वे सब जीव के पर्याय (सू. 440 में) माने गए हैं, क्योंकि जब वे जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, तब पुद्गल में होने वाले परिणमन में जीव भी कारण है, इस कारण वे पर्याय पुद्गल के होते हुए भी जीव के माने गए हैं। संसारी अवस्था में अनादिकाल से प्रचलित जीव और पुद्गल का कथंचित् अभेद भी है। कर्मोदय के कारण ही जीवों में आकार, रूप आदि की विविधता है, और नाना पर्यायों का सर्जन होता है / अत: जीव ज्ञानादिस्वरूप होते हुए भी वह अनन्तपर्याययुक्त है / * प्रस्तुत पद में जीव और अजीव द्रव्यों के भेदों और पर्यायों का निरूपण है। जीव-अजीव के भेदों के विषय में तो प्रथमपद में निरूपण था ही, किन्तु उन प्रत्येक भेदों में जो अनन्तपर्याय हैं, उनका प्रतिपादन करना इस पंचम पद की विशेषता है। प्रथम पद में भेद बताए गए, तीसरे पद में उनकी संख्या बताई गई, किन्तु तृतीयपद में संख्यागत तारतम्य का निरूपण मुख्य होने से किस विशेष की कितनी संख्या है, यह बताना बाकी था, अत: प्रस्तुत पद में उन-उन भेदों की तथा बाद में उन-उन भेदों के पर्यायों की संख्या भी बता दी गई है। सभी द्रव्यभेदों की पर्यायसंख्या तो अनन्त है, किन्तु भेदों की संख्या में कितने ही संख्यात हैं, असंख्यात हैं, तो कई अनन्त (वनस्पतिकायिक और सिद्धजीव) भी हैं।' जीवद्रव्य के नारक आदि भेदों के पर्यायों का विचार अनेक प्रकार से, अनेक दृष्टियों से किया गया है, और उनमें जैनदर्शनसम्मत अनेकान्त दृष्टि का उपयोग स्पष्ट है। जैसे-जीव के नारकादि जिन भेदों के पर्यायों का निरूपण है, उसमें निम्नोक्त दस दष्टियों का सापेक्ष वर्णन किया गया है, अर्थात्-नारकादि जीवों के अनन्तपर्यायों की संगति बताने के लिए इन दसों दष्टियों से पर्यायों की संख्या बताई गई है। उसमें कितनी ही दृष्टियों से संख्यात, तो कई दृष्टियों से असंख्यात और कई दृष्टियों से अनन्त संख्या होती है / अनन्तदर्शक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकार ने नारकादि प्रत्येक के पर्यायों को अनन्त कहा है, क्योंकि उस दृष्टि से सबसे अधिक पर्याय घटित होते हैं। तथा उन-उन संख्याओं का सीधा प्रतिपादन नहीं किया 1. 'एगे पाया' इत्यादि स्थानांगसूत्र वाक्य कल्पित एकता के हैं। 2. पण्णवणासुत्त मूल. सू. 439, 591 3. पण्णवणा. मूल, सू. 440 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम विशेषपद (पर्यायपद) : प्राथमिक [557 गया, किन्तु एक नारक की दूसरे नारक के साथ तुलना करके वह संख्या फलित की गई है। जैसे कि दस दृष्टियों के क्रम से वर्णन इस प्रकार है-(१) द्रव्यार्थता-द्रव्य दृष्टि से कोई नारक, अन्य नारकों से तुल्य है। अर्थात्-द्रव्यापेक्षया कोई नारक एक द्रव्य है, वैसे ही अन्य नारक भी एक द्रव्य है। निष्कर्ष यह कि किसी भी नारक को द्रव्य दृष्टि से एक ही कहा जाता है, उसकी संख्या एक से अधिक नहीं होती, अत: वह संख्यात है। (2) प्रदेशार्थता-प्रदेश की अपेक्षा से भी नारक जीव परस्पर तुल्य हैं / अर्थात्-जैसे एक नारक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं, वैसे अन्य नारक के प्रदेश भी असंख्यात हैं, न्यूनाधिक नहीं। (3) अवगाहनार्थताअवगाहना (जीव के शरीर की ऊँचाई) की दृष्टि से विचार किया जाए तो एक नारक अन्य नारक से हीन, तुल्य या अधिक भी होता है, और वह असंख्यात-संख्यात भाग हीनाधिक या संख्यात-असंख्यातगुण हीनाधिक होता है। निष्कर्ष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से नारक के असंख्यात प्रकार के पर्याय बनते हैं। (4) स्थिति की अपेक्षा से विचारणा भी अवगाहना की तरह ही है। अर्थात्-वह पूर्वोक्त प्रकार से चतु:स्थान हीनाधिक या तुल्य होती है / निष्कर्ष यह है कि स्थिति की दृष्टि से भी नारक के असंख्यात प्रकार के पर्याय बनते हैं। (5 से 8) कृष्णादि वर्ण, तथा गन्ध, रस, एवं स्पर्श को अपेक्षा से-वर्णादि की अपेक्षा से भी नारक के अनन्तपर्याय बनते हैं, क्योंकि एकगुण कृष्ण आदि वर्ण तथैव गन्ध, रस और स्पर्श से लेकर अनन्तगुण कृष्णादि वर्ण, तथा गन्ध, रस, और स्पर्श होना सम्भव है। इस प्रकार वर्णादि चारों के प्रत्येक प्रकार की दृष्टि से नारक के अनन्त पर्याय घटित हो सकने से उसके अनन्त पर्याय कहे हैं / (9.10) ज्ञान और दर्शन को अपेक्षा से---ज्ञान (अज्ञान) और दर्शन की दृष्टि से भी नारक के अनन्त पर्याय हैं, ऐसा शास्त्रकार कहते हैं। आचार्य मलयगिरि कहते हैं-इन दसों दृष्टियों का समावेश चार दृष्टियों में किया जा सकता है। जैसे-द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता का द्रव्य में, अवगाहना का क्षेत्र में, स्थिति का काल में तथा वर्णादि एवं ज्ञानादि का भाव में समावेश हो सकता है।' * इसी प्रकार आगे जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना, स्थिति, वर्णादि और ज्ञानादि को लेकर चौवीस दण्डक के जीवों के पर्यायों की विचारणा की गई है। * इसके पश्चात्-अजीव के दो भेद-अरूपी अजीव और रूपी अजीव करके रूपी अजीव के परमाणु, स्कन्ध, स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश, यों चार प्रकार होते हुए भी यहाँ मुख्यतया परमाणुपुद्गल (निरंशी अंश) और स्कन्ध (अनेक परमाणुओं का एकत्रित पिण्ड) दो के ही पर्यायों का निरूपण किया गया है। * प्रथमपद में पुद्गल (रूपी अजीव), जो नाना प्रकारों में परिणत होता है, उसका निरूपण है, जबकि इस पद में, बताए गए रूपी अजीव-भेदों के पर्यायों की संख्या का निरूपण है। सर्वप्रथम समग्रभाव से रूपी अजीव के पर्यायों की संख्या अनन्त बता कर फिर परमाणु द्विप्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध, यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के प्रत्येक के अनन्त पर्याय कहे हैं। इन सबके पर्यायों का विचार जीव की तरह द्रव्य, 1. पण्णवणासुत्त मू. पा. सू. 455 से 499 तक तथा पण्णवणासुत्त भा. 2 पंचमपद-प्रस्तावना पृ. 63-64 2. पग्णवणासुत्तं मूल पा. सू. 519, 440 तथा पण्णवणासुत्त भा. 2 पंचमपद की प्रस्तावना पृ. 62 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र क्षेत्र, काल, और भाव अथवा पूर्वोक्त दस दृष्टियों से किया गया है। परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी पूदगलस्कन्ध तक के पर्यायों का निरूपण करते हए शास्त्रकार कहते हैं कि लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है, तथापि अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी एक से लेकर असंख्यातप्रदेश में समा सकता है। इसे प्रदीप के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। इसी प्रकार परमाणु को तरह स्कन्धों की स्थिति एक समय से लेकर असंख्यात काल से अधिक नहीं है / वर्णादि पर्याय भी अनन्त हैं। तदनन्तर स्थिति, अवगाहना और वर्णादिकृत भेदों में भी जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम, इन तीन प्रकारों की अपेक्षा से भी पर्याय का विचार किया है / ' अन्य दर्शनीय मान्यता से अन्तर- यह है कि द्रव्य के यदि पर्याय (परिणाम) होते हैं तो वह द्रव्य कूटस्थनित्य नहीं, किन्तु परिणामिनित्य मानना चाहिए। परमाणुवादी नैयायिक वैशेषिक परमाणु को कूटस्थनित्य मानते हैं जबकि जैनदर्शन परिणामिनित्य मानता है / तथा स्कन्ध और परमाणु में अवयव-अवयवी का प्रात्यन्तिक भेद भी जैनदर्शन नहीं मानता, न ही परमाणु में पार्थिवपरमाणु आदि के रूप में जाति-भेद मानता है, तथा परमाणु में रूप रसादि चारों का होना अनिवार्य मानता है। 1. पण्णवणासुत्त मू. पा सू. 500 से 558 तक तथा प्रज्ञापना. म. वृत्ति पत्रांक 242, 2. पण्णवणासुत्त भा. 2, पंचमपद प्रस्तावना, पृ. 67 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमं विसेसपयं (पज्जवपयं) पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद) पर्यायों के प्रकार और अनन्तजीवपर्याय का सयुक्तिक निरूपण 438. कतिविहा णं भंते ! पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पज्जवा पण्णत्ता / तं जहा-जीवपज्जवा य अजीवपज्जवा य / [438 प्र.] भगवन् ! पर्यव या पर्याय कितने प्रकार के कहे हैं ? [438 उ.] गौतम ! पर्यव (पर्याय) दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-(१) जीवपर्याय और (2) अजीवपर्याय / जीव-पर्याय 436. जीवपज्जवा शं भंते ! कि संखेज्जा असंखेज्जा, अणंता ? गोयमा! णो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं वच्चति जीवपज्जवा नो संखेज्जा नो असंखेज्जा प्रणता ? गोयमा ! असंखेज्जा नेरइया, असंखेज्जा असुरा, असंखेज्जा णागा, असंखेज्जा सुवण्णा, असंखेज्जा विज्जुकुमारा, असंखेज्जा अग्गिकुमारा, असंखेज्जा दीवकुमारा, असंखेज्जा उदहिकुमारा, असंखेज्जा दिसाकुमारा, असंखेज्जा वाउकुमारा, असंखेज्जा थणियकुमारा, असंखेज्जा पुढविकाइया, असंखेज्जा पाउकाइया, असंखेज्जा तेउकाइया, असंखेज्जा वाउकाइया, अणंता वण्णफइकाइया, असंखेज्जा बेइंदिया, असंखेज्जा तेइंदिया, असंखेज्जा चरिंदिया, असंखेज्जा पंचिदियतिरिवखजोणिया, असंखेज्जा मणुस्सा, असंखेज्जा वाणमंतरा, असंखेज्जा जोइसिया, असंखेज्जा वेमाणिया, अणंता सिद्धा, से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति ते णं णो संखेज्जा णो असंखेज्जा, अणंता / [439 प्र.] भगवन् ! जीवपर्याय क्या संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? [436 उ.] गौतम ! (वे) न (तो) संख्यात हैं, और न असंख्यात हैं, (किन्तु) अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! यह किस कारण से कहा जाता है कि जीवपर्याय, न संख्यात हैं, न असंख्यात (किन्तु) अनन्त हैं ? [उ ] गौतम ! असंख्यात नैरयिक हैं, असंख्यात असुर (असुरकुमार) हैं, असंख्यात नाग (नागकुमार) हैं, असंख्यात सुवर्ण (सुपर्ण) कुमार हैं, असंख्यात विद्युत्कुमार हैं, असंख्यात अग्निकुमार हैं, असंख्यात द्वीपकुमार हैं, असंख्यात उदधिकुमार हैं, असंख्यात दिशाकुमार हैं, असंख्यात वायुकुमार हैं, असंख्यात स्तनितकुमार हैं, असंख्यात पृथ्वीकायिक हैं, असंख्यात अप्कायिक हैं, असंख्यात तेजस्कायिक हैं, असंख्यात वायुकायिक हैं, अनन्त वनस्पतिकायिक हैं, असंख्यात द्वीन्द्रिय हैं, असंख्यात Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] [प्रज्ञापनासूत्र त्रीन्द्रिय हैं, असंख्यात चतुरिन्द्रिय हैं, असंख्यात पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, असंख्यात मनुष्य हैं, असंख्यात वाणव्यन्तर देव हैं, असंख्यात ज्योतिष्क देव हैं, असंख्यात वैमानिक देव हैं और अनन्त हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि वे (जीवपर्याय) संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं। विवेचन-पर्याय के प्रकार और अनन्त जोवपर्याय का सयुक्तिक निरूपण-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 438-436) में पर्याय के दो प्रकारों तथा जीवपर्याय की अनन्तता का युक्तिपूर्वक निरूपण किया गया है। पर्याय : स्वरूप पीर समानार्थक शब्द-यद्यपि पिछले पद में नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव आदि के रूप में जीवों को स्थितिरूप पर्याय का प्रतिपादन किया गया है, तथापि औदयिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक भावरूप जीवपर्यायों का तथा पुद्गल आदि अजीव-पर्यायों का निश्चय करने के लिए इस पद का प्रतिपादन किया गया है। जोव और अजीव दोनों द्रव्य हैं। द्रव्य का लक्षण ‘गुण-पर्यायवत्त्व' कहा गया है। इसीलिए इस पद में जीव और अजीव दोनों के पर्यायों का निरूपण किया गया है / पर्याय, पर्यव, गुण, विशेष और धर्म; ये प्रायः समानार्थक शब्द हैं। पर्यायों का परिमाण जानने की दृष्टि से गौतम स्वामी इस प्रकार का प्रश्न करते हैं कि जीव के पर्याय संख्यात हैं, असंख्यात हैं या अनन्त हैं ? भगवान् ने जीव के पर्याय अनन्त इसलिए बताए कि जब पर्याय वाले (बनस्पतिकायिक, सिद्ध जीव आदि) अनन्त हैं तो पर्याय भी अनन्त हैं। यद्यपि वनस्पतिकायिकों और सिद्धों को छोड़ कर नैरयिक आदि सभी असंख्यात-असंख्यात हैं, किन्तु उक्त दोनों अनन्त हैं, इस अपेक्षा से जीव के पर्याय समुच्चय रूप से अनन्त ही कहे जाएंगे। संख्यात या असंख्यात नहीं।' नरयिकों के अनन्तपर्याय : क्यों और कैसे ? 440. नेरइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं कुच्चति नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स दन्वट्ठयाए तुल्ले, पदेस?ताए तुल्ले; भोगाहणटुताए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए-जति होणे असंखेज्जतिभागहोणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोने वा, अह अम्भहिए असंखेज्जभागभहिए वा संखेज्जभागभहिए वा संखेज्जगुणमभहिए वा असंखेज्जगुणमब्महिए वा; ठिईए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अभहिए-~-जइ होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जति भागहीणे वा संखेज्जगुणहोणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अमहिए असंखेज्जइभागमभ हिए वा संखेज्जइमागमभहिए वा संखेज्जइगुणहिए वा असंखेज्जइगुणभहिए वा; कालवणपज्जवेहि सिय होणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए-जदि होणे अणंतभागहीणे वा असंखेज्जइभागहीणे वा संखेज्जइ. भागहीणे वा संखिज्जइगुणहीणे वा असंखिज्जइगुणहोणे वा प्रणंतगुणहीणे वा, अह अब्भहिए प्रणंतभाग१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 179 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 361 महिए वा असंखेज्जतिभागममहिए वा संखेज्जतिभागमभहिए वा संखेज्जगुणमन्महिए वा असंखेज्जगुणमभहिए वा अणंतगुणममहिए वा; णोलवणपज्जवेहि लोहियवण्णपज्जवेहि हालिद्दवण्णपज्जवेहि सुक्किलवण्णपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए; सुब्मिगंधपज्जवेहि दुन्भिगंधपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए; तित्तरसपज्जवेहि कडुयरसपज्जवेहि कसायरसपज्जवेहि प्रबिलरसपज्जवेहि महुररसपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए; कक्खडफासपज्जवेहि मउयफासपज्जवेहि गरुयफासपज्जवेहिं लहुयफासपज्जवेहिं सीयफासपज्जवेहि उसिणफासपज्जवेहि निद्धफासपज्जवेहि लुक्खफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिए; प्रामिणिबोहियणाणपज्जवेहि सुयणाणपज्जवेहि प्रोहिणाणपज्जवेहि मतिअण्णाणपज्जवेहि सुयअण्णाणपज्जवेहि विभंगणाणपज्जवेहिं चक्खुदंसणपज्जवेहिं प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि प्रोहिदसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति नेरइयाणं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता पज्जवा पण्णत्ता। [440 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने पर्याय (पर्यव) कहे गए हैं ? [440 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र.] भगवन् ! आप किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि नैरयिकों के पर्याय अनन्त हैं ? [उ.] गौतम ! एक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है। प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है; अवगाहना की अपेक्षा से-कथंचित् (स्यात्) होन, कथंचित् तुल्य और कथंचित् अधिक (अभ्यधिक) है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है अथवा संख्यातभाग हीन है; या संख्यातगुणा हीन है, अथवा असंख्यातगुणा हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक है या संख्यातभाग अधिक है; अथवा संख्यातगुणा अधिक या असंख्यातगुणा अधिक है। __ स्थिति की अपेक्षा से--(एक नारक दूसरे नारक से) कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन या संख्यातभाग हीन है; अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन है / अगर अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग :अधिक है। अथवा संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक है। कृष्णवर्ण-पर्यायों की अपेक्षा से-(एक नारक दूसरे नारक से) कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित अधिक है। यदि हीन है, तो अनन्त भाग हीन, असंख्यातभाग होन य या संख्यातभाग हीन होता है; अथवा संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन या अनन्तगुण हीन होता है। यदि अधिक है तो अनन्तभाग अधिक, असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग अधिक होता है; अथवा संख्यातगुण अधिक, असंख्यातगुण अधिक या अनन्तगुण अधिक होता है। नीलवर्णपर्यायों, रक्तवर्णपर्यायों, पीतवर्णपर्यायों, हारिद्रवर्णपर्यायों और शुक्लवर्णपर्यायों की अपेक्षा से--(विचार किया जाए तो एक नारक, दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित होनाधिक होता है। सुगन्धपर्यायों और दुर्गन्धपर्यायों की अपेक्षा से-(एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक है। तिक्तरसपर्यायों, कटुरसपर्यायों, काषायरसपर्यायों, आम्लरसपर्यायों तथा मधुररसपर्यायों की अपेक्षा से-(एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित होनाधिक होता है / कर्कशस्पर्श-पर्यायों, मृदु-स्पर्शपर्यायों, गुरुस्पर्शपर्यायों, लस्पर्शपर्यायों, शीतस्पर्शपर्यायों, उष्णस्पर्शपर्यायों, स्निग्धस्पर्श Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362] [ प्रज्ञापनासून पर्यायों तथा रूक्ष-स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से--- (एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। (इसी प्रकार) अाभिनिबोधिकज्ञानपर्यायों, श्रुतज्ञानपर्यायों, अवधिज्ञानपर्यायों, मति-अज्ञानपर्यायों, श्रुत-अज्ञानपर्यायों, विभंगज्ञानपर्यायों, चक्षुदर्शनपर्यायों, अचक्षुदर्शनपर्यायों तथा अवधिदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से- (एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित होनाधिक होता है / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है, कि 'नारकों के पर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त कहे हैं।' विवेचन--नरयिकों के अनन्त पर्याय : क्यों और कैसे ?--प्रस्तुत सूत्र में अवगाहना, स्थिति, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं क्षायोपशमिकभावरूप ज्ञानादि के पर्यायों की अपेक्षा से हीनाधिकता का प्रतिपादन करके नैरयिकों के अनन्तपर्यायों को सिद्ध किया गया है / प्रश्न का उद्भव और समाधान सामान्यतः जहाँ पर्यायवान् अनन्त होते हैं, वहाँ पर्याय भी अनन्त होते हैं, किन्तु जहाँ पर्यायवान् (नारक) अनन्त न हों (असंख्यात हों), वहाँ पर्याय अनन्त कैसे होते हैं ? इस आशय से यह प्रश्न श्रीगौतमस्वामी द्वारा उठाया गया है / भगवान् के द्वारा उसका समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के पर्पयों की अपेक्षा से किया गया है। द्रव्य की अपेक्षा से नारकों में तुल्यता-प्रत्येक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, अर्थात्-प्रत्येक नारक एक-एक जीव-द्रव्य है / द्रव्य की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है / इस कथन के द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रत्येक नारक अपने आप में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र जीव द्रव्य है / यद्यपि कोई भी द्रव्य, पर्यायों से सर्वथा रहित कदापि नहीं हो सकता, तथापि पर्यायों की विवक्षा न करके केवल शुद्ध द्रव्य की विवक्षा की जाए तो एक नारक से दूसरे नारक में कोई विशेषता नहीं है। प्रदेशों की अपेक्षा से भी नारकों में तुल्यता--प्रदेशों की अपेक्षा से भी सभी नारक परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि प्रत्येक नारक जीव लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशी होता है। किसी भी नारक के जीवप्रदेशों में किञ्चित् भी न्यूनाधिकता नहीं है। सप्रदेशी और अप्रदेशी का भेद केवल पुद्गलों में है, परमाणु अप्रदेशी होता है, तथा द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि स्कन्ध सप्रदेशी होते हैं। क्षेत्र (अवगाहना) की अपेक्षा से नारकों में होनाधिकता-अवगाहना का अर्थ सामान्यतया प्राकाशप्रदेशों को अवगाहन करना-उनमें समाना होता है। यहाँ उसका अर्थ है-- शरीर की ऊँचाई / अवगाहना (शरीर की ऊँचाई) की अपेक्षा से सब नारक तुल्य नहीं हैं। जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के वैक्रियशरीर की जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल की है। आगे-आगे को नरकपृथ्वियों में उत्तरोत्तर दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है / सातवीं नरकपृथ्वी में अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की है। इस दृष्टि से किसी नारक से किसी नारक की अवगाहना हीन है, किसी की अधिक है, जबकि किसी की तुल्य भी है। यदि कोई नारक अवगाहना से हीन (न्यून) होगा तो वह असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन होगा, अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होगा, किन्तु यदि कोई नारक अवगाहना में अधिक होगा तो असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] होगा; अथवा संख्यातगुण अधिक या असंख्यातगुण अधिक होगा। यह होनाधिकता चतुःस्थानपतित कहलाती है। नारक असंख्यातभाग हीन या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातभाग अधिक या असंख्यातभाग अधिक इस प्रकार से होते हैं, जैसे-एक नारक की अवगाहना 500 धनुष की है और दूसरे की अवगाहना है--अंगुल के असंख्यातवें भाग कम पांच सौ धनुष की / अंगुल का असंख्यातवाँ भाग पांच सौ धनुष का असंख्यातवाँ भाग है / अतः जो नारक अंगुल के असंख्यातवें भाग कम पांच सौ धनुष को अवगाहना वाला है, वह पांच सौ धनुष की अवगाहना वाले नारक की अपेक्षा असंख्यातभाग हीन है, और पांच सौ धनुष की अवगाहना वाला दूसरे नारक से असंख्यातभाग अधिक है / इसी प्रकार एक नारक 500 धनुष की अवगाहना वाला है, जबकि दूसरा उससे दो धनुष कम है, अर्थात् 468 धनुष की अवगाहना वाला है / दो धनुष पांच सौ धनुष का संख्यातवाँ भाग है। इस दृष्टि से दूसरा नारक पहले नारक से संख्यातभाग हीन हुआ, जबकि पहला (पांच सौ धनुष वाला) नारक दूसरे नारक (498 धनुष वाले) से संख्यातमाग अधिक हुआ / इसी प्रकार कोई नारक एक सौ पच्चीस धनुष की अवगाहना वाला है और दूसरा पूरे पांच-सोधनुष की अवगाहना वाला है। एक सौ पच्चोस धनुष के चौगुने पांच सौ धनुष होते हैं। इस दृष्टि से 125 धनुष को अवगाहना वाला, 500 धनुष की अवगाहना वाले नारक से संख्यातगुण हीन हुआ और पांच सौ धनुष की अवगाहना वाला, एक सौ पच्चीस धनुष की अवगाहना वाले नारक से संख्यातगुण अधिक हुआ / इसी प्रकार कोई नारक अपर्याप्त अवस्था में अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाला है और दूसरा नारक पांच सौ धनुष की अवगाहना वाला है / अंगुल का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात से गुणित होकर पांच सौ धनुष बनता है / अतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाला नारक परिपूर्ण पांच सौ धनुष की अवगाहना वाले नारक से असंख्यातगुण होन हुआ और पांच सौ धनुष की अवगाहना वाला नारक, अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना वाले नारक से असंख्यातगण अधिक हुआ। काल (स्थिति) की अपेक्षा से नारकों को न्यूनाधिकता—स्थिति (आयुष्य की अनुभूति) की अपेक्षा से कोई नारक किसी दूसरे नारक से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / अवगाहना की तरह स्थिति की अपेक्षा से भी एक नारक दूसरे नारक से असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुणा या असंख्यातगुणा हीन होता है, अथवा असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक अथवा संख्यातगुणा या असंख्यातगुणा अधिक स्थिति वाला चतु:स्थानपतित होता है। उदाहरणार्थ-एक नारक पूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा नारक एक-दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है। अतः एक-दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नारक, पूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारक से असंख्यातभाग हीन हुआ, जबकि परिपूर्ण तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला नारक, एक दो समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारक से असंख्यातभाग अधिक हुआ; क्योंकि एक-दो समय, सागरोपम के असंख्यातवें भाग मात्र हैं। इसी प्रकार एक नारक तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है, और दूसरा है-पल्योपम कम तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला / दस कोटाकोटी पल्योपम का एक सागरोपम होता है। इस दृष्टि से पल्योपमों से होन स्थिति वाला नारक, पूर्ण तेतीस सागरोपम स्थिति वाले नारक से संख्यातभाग हीन स्थिति वाला हुआ, जबकि दूसरा, पहले से संख्यातमाग अधिक स्थिति वाला हुआ / इसी प्रकार एक नारक तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा है-एक सागरोपम की स्थिति वाला। इनमें एक सागरोपम-स्थिति वाला, तेतीस सागरोपम-स्थिति वाले नारक से संख्यातगुण-हीन हुआ, Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र क्योंकि एक सागर को तेतीस सागर से गुणा करने पर तेतीस सागर होते हैं। इसके विपरीत तेतीस सागरोपम-स्थिति वाला नारक एक सागरोपम स्थिति वाले नारक से संख्यातगुण अधिक हुआ। इसी प्रकार एक नारक दस हजार वर्ष की स्थिति वाला है, जबकि दूसरा नारक है तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला / दस हजार को असंख्यात वार गुणित करने पर तेतीस सागरोपम होते हैं / अतएव दस हजार वर्ष की स्थिति वाला नारक, तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारक की अपेक्षा असंख्यातगुण होन स्थिति वाला हुआ, जबकि उसकी अपेक्षा तेतीस सागरोपम की स्थिति वाला असंख्यातगुण अधिक स्थिति वाला हुआ / भाव की अपेक्षा से नारकों की षट्स्थानपतित होनाधिकता-(१) कृष्णादि वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से पुद्गल-विपाकी नामकर्म के उदय से होने वाले औदयिक भाव का आश्रय लेकर वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की हीनाधिकता की प्ररूपणा की गई है / यथा-(१) कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से एक नारक दूसरे नारक से अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन संख्यातभागहीन होता है, अथवा संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन या अनन्तगुणहीन होता है। यदि अधिक होता है तो अनन्तभाग, असंख्यातभाग या संख्यात भाग अधिक होता है अथवा संख्यातगुण, असंख्यातगुण या अनन्तगुण अधिक होता है। यह षट्स्थानपतित हीनाधिकता है। इस षट्स्थानपतित होनाधिकता में जो जिससे अनन्तभाग-हीन होता है, वह सर्वजीवानन्तक से भाग करने पर जो लब्ध हो, उसे अनन्तवें भाग से हीन समझना चाहिए। जो जिससे असंख्यातभाग हीन है, असंख्यात लोकोकाशप्रदेश प्रमाणराशि से भाग करने पर जो लब्ध हो, उतने भाग कम समझना चाहिए / जो जिससे संख्यातभाग हीन हो, उसे उत्कृष्टसंख्यक से भाग करने पर जो लब्ध हो, उससे हीन समझना चाहिए। गुणनसंख्या में जो जिससे संख्येय गुणा होता है, उसे उत्कृष्टसंख्यक के साथ गुणित करने पर जो (गूणनफल) राशिलब्ध हो, उतना समझना चाहिए। जो जिससे असंख्यातगुणा है, उसे असंख्यातलोकाकाश प्रदेशों के प्रमाण जितनी राशि से गुणित करना चाहिए और गुणाकार करने पर जो राशि लब्ध हो, उतना समझना चाहिए / जो जिससे अनन्तगुणा है, उसे सर्वजीवानन्तक से गुणित करने पर जो संख्या लब्ध हो, उतना समझना चाहिए। इसी तरह नीलादि वर्गों के पर्यायों की अपेक्षा से एक नारक से दूसरे नारक की षट्स्थानपतित हीनाधिकता घटित कर लेनी चाहिए। इसी प्रकार सुगन्ध और दुर्गन्ध के पर्यायों की अपेक्षा से भी एक नारक दूसरे नारक की अपेक्षा षट्स्थानपतित होनाधिक होता है। वह भी पूर्ववत् समझना लेना चाहिए। तिक्तादिरस के पर्यायों की अपेक्षा से भी एक नारक दूसरे नारक से षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है, इसी तरह कर्कश आदि स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा भी हीनाधिकता होती है, यह समझ लेना चाहिए / क्षायोपशमिक भावरूप पर्यायों की अपेक्षा से होनाधिकता–मति आदि तीन ज्ञान, मति अज्ञानादि तीन अज्ञान और चक्षुदर्शनादि तीन दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से भी कोई नारक किसी अन्य नारक से हीन, अधिक या तुल्य होता है। इनकी हीनाधिकता भी वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से उक्त होनाधिकता की तरह षट्स्थानपतित के अनुसार समझ लेनी चाहिए। आशय यह है कि जिस प्रकार पुद्गलविपाको नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले प्रौदयिकभाव को लेकर नारकों को षट्स्थानपतित कहा है, उसी प्रकार जीवविपाकी ज्ञानावरणीय प्रादि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न 1. प्रज्ञापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 181-182 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) j [365 होने वाले क्षायोपशमिक भाव को लेकर आभिनिबोधिक ज्ञान प्रादि पर्यायों की अपेक्षा भी षट्स्थानपतित हानि-वृद्धि समझ लेनी चाहिए।' षट्स्थानपतितत्व का स्वरूप-यद्यपि कृष्णवर्ण के पर्यायों का परिमाण अनन्त, है, तथापि असत्कल्पना से उसे दस हजार मान लिया जाए और सर्वजीवानन्तक को सौ मान लिया जाए तो दस हजार में सौ का भाग देने पर सौ की संख्या लब्ध होती है। इस दृष्टि से एक नारक के कृष्णवर्णपर्यायों का परिमाण मान लो दस सहस्र है और दूसरे के सौ कम दस सहस्र है / सर्वजीवानन्तक में भाग देने पर सौ की संख्या लब्ध होने से वह अनन्तवाँ भाग है, अतः जिस नारक के कृष्णवर्ण के पर्याय सौ कम दस सहस्र हैं वह पूरे दस सहस्र कृष्णवर्णपर्यायों वाले नारक को अपेक्षा अनन्तभागहीन कहलाता है / उसकी अपेक्षा से दूसरा पूर्ण दस सहस्र कृष्णवर्णपर्यायों वालों नारक अनन्तभाग-अधिक है। इसी प्रकार दस सहस्र परिमित कृष्णवर्ण के पर्यायों में लोकाकाश के प्रदेशों के रूप में कल्पित पचास से भाग दिया जाए तो दो सौ संख्या आती है, यह असंख्यातवाँ भाग कहलाता है। इस दृष्टि से किसी नारक के कृष्णवर्ण-पर्याय दो सौ कम दस हजार हैं और किसी के पूरे दस हजार हैं। इनमें से दो सौ कम दस हजार कृष्णवर्ण-पर्याय वाला नारक पर्ण दस हजार कृष्णवर्णपर्या नारक से असंख्यातभागहीन कहलाता है और परिपूर्ण कृष्ण वाला नारक, दो सौ कम दस सहस्र वाले की अपेक्षा असंख्यातभागअधिक कहलाता है। इसी प्रकार पूर्वोक्त दस सहस्रसंख्यक कृष्णवर्णपर्यायों में संख्यातपरिमाण के रूप में कल्पित दस संख्या का भाग दिया जाए तो एक सहस्र संख्या लब्ध होती है। यह संख्या दस हजार का संख्यातवा भाग है। मान लो, किसी नारक के कृष्णवर्णपर्याय में संख्यात परिमाण के रूप में कल्पित दस संख्या का भाग दिया जाए तो एक सहस्र संख्या लब्ध होती है / यह संख्या दस हजार का संख्यातवाँ भाग है। मान लो, किसी नारक के कृष्णवर्णपर्याय 6 हजार हैं और दूसरे नारक के दस हजार हैं, तो नौ हजार कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक, पूर्ण दस हजार कृष्णवर्णपर्यायवाले नारक से संख्यातभागहीन हुआ; तथा उसकी अपेक्षा परिपूर्ण दस हजार कृष्णवर्णपर्यायवाला नारक संख्यातभाग-अधिक हुआ / इसी प्रकार एक नारक के कृष्णवर्णपर्याय एक सहस्र हैं, दूसरे नारक के दस सहस्र हैं। यहाँ उत्कृष्ट संख्या के रूप में कल्पित दस संख्या को हजार से गणाकार करने पर दससहनसंख्या पाती है। इस दष्टि से एक सहस्र कष्णवर्णपर्याय वाला नारक, दससहस्रसंख्यक कृष्णवर्णपर्याय वाले नारक से संख्यातगुणहीन है और उसकी अपेक्षा दस सहस्र कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक संख्यातगुण-अधिक है। इसी प्रकार एक नारक के कृष्णवर्णपर्यायों का परिमाण दो सौ है, और दूसरे के कृष्णवर्णपर्यायों का परिमाण दस हजार है। दो सौ का यदि असंख्यात रूप में कल्पित पचास के साथ गुणा किया जाए तो दस हजार होता है। अतः दो सौ कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक दस हजार कृष्णवर्ण-पर्याय वाले नारक को अपेक्षा असंख्यातगुण होन है और उसकी अपेक्षा दस हजार कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक असंख्यातगुणा अधिक है। इसी प्रकार मान लो, एक नारक के कृष्णवर्णपर्याय सौ हैं, और दूसरे के दस हजार हैं। सर्वजीवान्तक परिमाण के रूप में परिकल्पित सौ को सौ से गुणाकार किया जाए तो दस हजार संख्या होती है / अतएव सौ कृष्णवर्णपर्याय वाला नारक दस हजार कृष्ण वर्णवाले नारक से अनन्तगुणा हीन हया और उसकी अपेक्षा दुसरा अनन्तगणा अधिक प्रा। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 182 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 183 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366] [ प्रज्ञापनासून निष्कर्ष-यहाँ कृष्णवर्ण आदि पर्यायों को लेकर जो षस्थानपतित होनाधिक्य बताया गया है, उससे स्पष्ट ध्वनित हो जाता है कि जब एक कृष्णवर्ण को लेकर ही अनन्तपर्याय होते हैं तो सभी वर्गों के पर्यायों का तो कहना ही क्या? इसके द्वारा यह भी सूचित कर दिया है कि जीव स्वनिमित्तक एवं परनिमित्तक विविध परिणामों से युक्त होता है। कर्मोदय से प्राप्त शरीर के अनुसार उसके (जीव के) प्रात्मप्रदेशों में संकोच-विस्तार तो होता है, किन्तु हीनाधिकता नहीं होती। असुरकुमार आदि भवनवासी देवों के अनन्त पर्याय 441. असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया पज़्जवा पण्णता ? गोयमा ! प्रणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ असुरकुमाराणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! असुरकुमारे असुरकुमारस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिए, ठितीए चउठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहि छट्ठाणवडिए, एवं गोलवण्णपज्जवेहि लोहियवण्णपज्जवेहिं हालिदवण्णपज्जवेहि सुविकलवण्णपज्जवेहि, सुब्भिगंधपज्जवेहिं दुनिभगंधपज्जवेहि तित्तरसपज्जवेहि कडुपरसपज्जवेहिं कसायरसपज्जवेहि अंबिलरसपज्जवेहिं महुररसपज्जवेहि, कक्खडफासपज्जवेहि मउयफासपज्जवेहि गरुयफासपज्जवेहि लहुयफासपज्जवेहिं सोतफासपज्जवेहि उसिणफासपज्जवेहि निद्धफासपज्जवेहि लुक्खफासपज्जवेहि, प्राणिबोहियणाणपज्जवेहि सुतणाणपज्जवेहि प्रोहिणाणपज्जवेहि, मतिअण्णाणपज्जवेहि सुयअण्णाणपज्जवेहि विभंगणाणपज्जवेहि, चक्खुदंसणपज्जबेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहिं प्रोहिदसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, से तेगट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चति असुरकुमाराणं प्रणंता पज्जवा पण्णत्ता। [441 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने पर्याय कहे हैं ? [441 उ.] गौतम ! उनके अनन्तपर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'असुरकुमारों के पर्याय अनन्त हैं ?' [उ.] गौतम ! एक असुरकुमार दूसरे असुरकुमार से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है; (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्णपर्यायों की अपेक्षा से षस्थानपतित है। इसी प्रकार नीलवर्ण-पर्यायों, रक्त(लोहित)वर्ण-पर्यायों, हारिद्रवर्ण-पर्यायों, शुक्लवर्ण-पर्यायों की अपेक्षा से; तथा सुगन्ध और दुर्गन्ध के पर्यायों की अपेक्षा से; तिक्तरस-पर्यायों, कटुरस-पर्यायों, काषायरस-पर्यायों, आम्लरस-पर्यायों एवं मधुरस-पर्यायों की अपेक्षा से; तथा कर्कशस्पर्श-पर्यायों, मृदुस्पर्श-पर्यायों, गुरुस्पर्श-पर्यायों, लघुस्पर्श-पर्यायों, शीतस्पर्श-पर्यायों, उष्णस्पर्श-पर्यायों, स्निग्धस्पर्श-पर्यायों, और रूक्षस्पर्श-पर्यायों की अपेक्षा से तथा आभिनिबोधिकज्ञान-पर्यायों, श्रुतज्ञान-पर्यायों, अवधिज्ञान-पर्यायों, मति-अज्ञानपर्यायों, श्रुत-अज्ञान-पर्यायों, विभंगज्ञान-पर्यायों, चक्षुदर्शनपर्यायों, अचक्षुदर्शन-पर्यायों और अवधि 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 184 . Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 367 दर्शन-पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि असुरकुमारों के पर्याय अनन्त कहे हैं। 442. एवं जहा नेरइया जहा असुरकुमारा तहा नागकुमारा वि जाव थणियकुमारा। [442] इसी प्रकार जैसे नैरयिकों के (अनन्तपर्याय कहे गए हैं,) और असुरकुमारों के कहे हैं, उसी प्रकार नागकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों के (अनन्तपर्याय कहने चाहिए / ) / विवेचन-असुरकुमार प्रादि भवनयतिदेवों के अनन्तपर्याय-प्रस्तुत दो सूत्रों (441-442) में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपतियों के अनन्तपर्यायों का, नैरयिकों के अतिदेशपूर्वक सयुक्तिक निरूपण किया गया है। असुरकुमारों के पर्यायों को अनन्तता- एक असुर कुमार दूसरे असुरकुमार से पूर्वोक्त सूत्रानुसार द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति के पर्यायों की दृष्टि के पूर्ववत चतुःस्थानपतित हीनाधिक हैं तथा कृष्णादिवर्ण, सुगन्ध-दुर्गन्ध, तिक्त आदि रस, कर्कश आदि स्पर्श एवं ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से पूर्ववत् षट्स्थानपतित हैं / आशय यह है कि कृष्णवर्ण को लेकर अनन्तपर्याय होते हैं, तो सभी वर्गों के पर्यायों का तो कहना ही क्या ? इस हेतु से असुरकुमारों के ' अनन्तपर्याय सिद्ध हो जाते हैं / पांच स्थावरों (एकेन्द्रियों) के अनन्तपर्यायों की प्ररूपरणा-- 443. पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति पुढविकाइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! पुढविकाइए पुढविकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले; अोगाहणट्टयाए सिय होणे सिय सुल्ले सिय प्रभइए-जदि होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे बा, अह अब्भहिए असंखेज्जतिभागप्रभतिए वा संखेज्जतिभागअमहिए वा संखेज्जगुणप्रभहिए वा असंखेज्जगुणप्रभहिए वा; ठितीए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए-जति होणे असंखेज्जभागहोणे वा संखेज्जभागहोणे वा संखेज्जगुणहीणे वा, अह अब्भतिए असंखेज्जभागमभतिए वा संखेज्जभागमभतिए वा संखेज्जगुणप्रभतिए वा; वर्णेहि गंधेहिं रसेहि फासेहि, मतिअण्णाणपज्जवेहि सुयअण्णाणपज्जवेहि अचवखुदंसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते / [443 प्र] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [443 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, (प्रात्म) प्रदेशों की अपेक्षा से (भो) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् - तुल्य है और कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है अथवा संख्यातभाग हीन है, 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा-२, प्र. 576 से 579 तक Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] [प्रज्ञापनासूत्र अथवा संख्यातगुण हीन है, या असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यातभाग अधिक हैं या संख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है अथवा असंख्यातगुण अधिक है / स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है कदाचित् तुल्य है, कदाचित् अधिक है / यदि हीन है तो असंख्यातभाग होन है, या संख्यातभाग हीन है, अथवा संख्यातगण हीन है। यदि अधिक है तो असं अधिक है, या संख्यात भाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है / वर्णों (के पर्यायों) गन्धों, रसों और स्पर्शों (के पर्यायों) की अपेक्षा से, मति-अज्ञान-पर्यायों, श्रुत-अज्ञानपर्यायों एवं अचक्षुदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से (एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वी कायिक से) षट्स्थानपतित है। 444. प्राउकाइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति पाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! पाउकाइए पाउकाइयस्स दवढयाए तुल्ले, पदेसताए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस फास-मतिअण्णाण-सुतअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [444 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक जीवों के कितने पर्याय कहे हैं ? [444 उ.] गौतम (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि अप्कायिक जीवों के अनन्तपर्याय हैं ? [उ] गौतम ! एक अप्कायिक दूसरे अप्कायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थान-पतित (हीनाधिक) है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श मति-अज्ञान, श्रत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 445. तेउक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति तेउकाइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! तेउक्काइए तेउक्काइयस्स दवढयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, श्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-मतिअण्णाण-सुयअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। {445 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [445 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहा जाता है कि तेजस्कायिक जीवों के अनन्तपर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक तेजस्कायिक, दूसरे तेजस्कारिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से (भी) तुल्य है, किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) है / Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [369 स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) ह, तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। 446. वाउक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! वाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ! से केपट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति वाउकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! वाउकाइए वाउकाइयस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवाडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-मतिअण्णाण-सुयअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [446 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [446 उ.] गौतम ! (वायुकायिक जीवों के) अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि 'वायुकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?' [उ.] गौतम ! एक वायुकायिक, दूसरे वायुकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से तुल्य है. (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है / स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) है / वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 447. बणप्फइकाइयाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चति बणकइकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! बणष्फइकाइए वणप्फइकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिद्वाणवडिए, वण-गंध-रस-फास-मतिअण्णाण-सुयअण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठागडिते, से तेणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति वणस्सतिकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। [447 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [447 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक वनस्पतिकायिक दूसरे वनस्पतिकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है तथा स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है किन्तु वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [ प्रज्ञापनासूत्र और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थान-पतित(हीनाधिक) है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि वनस्पतिकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। विवेचन-पांच स्थावरों के अनन्तपर्यायों की प्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 443 से 447 तक) में पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पांचों एकेन्द्रिय स्थावरों के प्रत्येक के पृथक्-पृथक अनन्त-अनन्त पर्यायों का निरूपण किया गया है / पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय जीवों के पर्यायों की अनन्तता : विभिन्न अपेक्षानों से-मूलपाठ में पूर्ववत् अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित तथा समस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से एवं मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से पूर्ववत् षट्स्थानपतित होनाधिकता बता कर इन सब एकेन्द्रिय जीवों के प्रत्येक के पृथक-पृथक अनन्तपर्याय सिद्ध किये गए हैं / जहाँ (अवगाहना में) चतुःस्थानपतित होनाधिकता है, वहाँ एक पृथ्वीकायिक आदि दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से असंख्यातभाग, संख्यातभाग अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन होता है, अथवा असंख्यातभाग, संख्यातभाग, या संख्यातगुण अथवा असंख्यातगुण अधिक होता है / यद्यपि पृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग ण होती है, किन्तु अंगुल के असंख्यातवें भाग के भी असंख्यात भेद होते हैं, इस कारण पृथ्वीकायिक जीवों की पूर्वोक्त चतु:स्थानपतित होनाधिकता में कोई विरोध नहीं है / जहाँ (स्थिति में) त्रिस्थानपतित होनाधिकता होती है, वहाँ पृथ्वीकायिकादि में हीनाधिकता इस प्रकार समझनी चाहिए.--एक एकेन्द्रिय दूसरे एकेन्द्रिय से असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुणा हीन होता है अथवा असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है / इनकी स्थिति में चतु:स्थानपतित हीनाधिकता नहीं होती, क्योंकि इनमें असंख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणवृद्धि सम्भव नहीं है / इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक आदि की सर्वजघन्य आयु क्षुल्लकभवग्रहणपरिमित है। क्षुल्लकभव का परिमाण दो सौ छप्पन प्रावलिकामात्र है। दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है / और इस एक मुहूर्त में 65536 भव होते हैं / इसके अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि की उत्कृष्ट स्थिति भी संख्यात वर्ष की ही होती है। अत: इनमें असंख्यातगुणा हानि-वृद्धि (न्यूनाधिकता) नहीं हो सकती। अब रही बात असंख्यातभाग, संख्यातभाग और संख्यातगुणा हानिवृद्धि की, वह इस प्रकार है / जैसे-एक पृथ्वीकायिक की स्थिति परिपूर्ण 22 हजार वर्ष की है, और दूसरे की एक समय कम 22000 वर्ष की है, इनमें से परिपूर्ण 22000 वर्ष की स्थिति वाले पृथ्वीकायिक की अपेक्षा, एक समय कम 22000 वर्ष की स्थिति वाला पृथ्वीकायिक असंख्यातभाग हीन कहलाएगा, जबकि दूसरा असंख्यातभाग अधिक कहलाएगा। इसी प्रकार एक की परिपूर्ण 22000 वर्ष की स्थिति है, जबकि दूसरे की अन्तर्मुहूर्त आदि कम 22000 वर्ष की है। अन्तमुहर्त आदि बाईस हजार वर्ष का संख्यातवाँ भाग है। अत: पूर्ण 22 हजार वर्ष की स्थिति वाले की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम 22 हजार वर्ष की स्थिति वाला संख्यात-भाग हीन है और उसकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम 22000 वर्ष की स्थिति वाला संख्यातभाग अधिक है। इसी प्रकार एक पृथ्वीकायिक की पूरी 22000 वर्ष की स्थिति है, और दूसरे की अन्तर्मुहूर्त की, एक मास की, एक वर्ष की या एक हजार वर्ष की है। अन्तमुहर्त आदि किसी नियत संख्या से गुणाकार करने पर 22000 वर्ष की संख्या होती है / अत: अन्तर्मुहूर्त आदि की आयुवाला पृथ्वीकायिक, पूर्ण बाईस हजार वर्ष की स्थिति वाले की अपेक्षा संख्यातगुण-हीन है और इसकी अपेक्षा 22000 बर्ष की Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपर (पर्यायपद)] [371 स्थिति वाला पृथ्वीकायिक संख्यातगुण अधिक है। इसी प्रकार अप्कायिक से वनस्पतिकायिक तक के एकेन्द्रिय जीवों की अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार त्रिस्थानपतित न्यूनाधिकता समझ लेनी चाहिए / ___ भावों (वर्णादि या मति-अज्ञानादि के पर्यायों) की अपेक्षा से षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता होती है, वहाँ उसे इस प्रकार समझना चाहिए---एक पृथ्वीकायिक आदि, दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन और संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन, असंख्यातगुणहीन और अनन्तगुणहीन तथा अनन्तभाग-अधिक, असंख्यातभाग-अधिक और संख्यातभाग-अधिक तथा संख्यातगुणा, असंख्यातगुणा और अनन्तगुणा अधिक है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव के वर्गादि या मतिप्रज्ञानादि विभिन्न भावपर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित हीनाधिकता की तरह अप्कायिक आदि एकेन्द्रियजीवों की षट्स्थानपतित हीनाधिकता समझ लेनी चाहिए। इन सब दृष्टियों से पृथ्वीकायिकादि प्रत्येक एकेन्द्रिय जीव के पर्यायों की अनन्तता सिद्ध होती है।' विकलेन्द्रिय एवं तियंच पंचेन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्यायों का निरूपण 448. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति बेइंदियाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! बेइंदिए बेइंदियस्स दबटुयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रभहिएजति होणे प्रसंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अन्महिए असंखेज्जभागममहिए वा संखेज्जभागमभहिए वा संखेज्जगुणमभइए वा असंखेज्जगुणमन्भहए वा; ठितीए तिढाणवडिते; वण्ण-गंध-रस-फास-प्राभिणिबोहियणाण-सुतणाण-मतिअण्णाण-सुत अण्णाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते / [448 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [448 उ] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक द्वीन्द्रिय जीव दूसरे द्वीन्द्रिय से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है / यदि हीन होता है, (तो) या तो असंख्यातभाग हीन होता है, या संख्यातभागहीन होता है, अथवा संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन होता है। अगर अधिक होता है तो असंख्यातभाग अधिक, या संख्यातभाग अधिक, अथवा संख्यातगुणा या असंख्यातगुणा अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थान-पतित हीनाधिक होता है, तथा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श के तथा प्राभिनि 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 186 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372] [ प्रज्ञापनासूत्र बोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और प्रचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। 446. एवं तेइंदिया वि। 449] इसी प्रकार श्रीन्द्रिय जीवों के (पर्यायों की अनन्तता के) विषय में समझना चाहिए / 450. एवं चउरिदिया वि / णवरं दो दंसणा-चक्खुदंसणं अचक्खुदंसणं च / [450[ इसी तरह चतुरिन्द्रिय जीवों (के पर्यायों) की अनन्तता होती है। विशेष यह है कि उनमें चक्षुदर्शन भी होता है / (अतएव इनके पर्यायों की अपेक्षा से भी चतुरिन्द्रिय की अनन्तता समझ लेनी चाहिए।) 451. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जवा जहा नेरइयाणं तहा भाणितव्वा / [451] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों के पर्यायों का कथन नैरयिकों के समान (440 सूत्रानुसार) कहना चाहिए। विवेचन-विकलेन्द्रिय एवं तिर्यचपंचेन्द्रिय जीवों के अनन्तपर्यायों का निरूपण--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 448 से 451 तक) में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्यायों का सयुक्तिक निरूपण किया गया है। विकलेन्द्रिय एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों के अनन्तपर्यायों के हेतु-इन सब में द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा परस्पर समानता होने पर भी अवगाहना की दृष्टि से पूर्ववत् चतु:स्थानपतित, स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित एवं वर्णादि के तथा मतिज्ञानादि के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता होती है, इस कारण इनके पर्यायों की अनन्तता स्पष्ट है।' मनुष्यों के अनन्तपर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपरणा 452. मणुस्साणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति मणुस्साणं अणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! मणुस्से मणुस्सस्स दवट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फास-प्रामिणिबोहियणाण-सुतणाण-प्रोहिणाण-मणपज्जवणाणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहि तुल्ले, तिहि अण्णाणेहि तिहिं देसणेहि छट्ठाणवडिते, केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले। [452 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [452 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मनुष्यों के अनन्तपर्याय हैं ?' 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 186 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाँचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [373 [उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है, स्थिति की दृष्टि से भी चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) है, तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है, तथा केवलज्ञान के पर्यायों की दृष्टि से तुल्य है, तीन अज्ञान तथा तीन दर्शन (के पर्यायों) की दृष्टि से षट्स्थानपतित है, और केवल दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है / विवेचन-मनुष्यों के अनन्तपर्यायों को सयुक्तिक प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (452) में अवगाहना और स्थिति की दृष्टि से चतुःस्थानपतित तथा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आभिनिबोधिक आदि चार ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होनाधिकता बता कर तथा द्रव्य, प्रदेश तथा केवलज्ञान-केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से परस्पर तुल्यता बता कर मनुष्यों के अनन्त पर्याय सिद्ध किये गए हैं। चार ज्ञान, तीन अज्ञान, और तीन दर्शनों को होनाधिकता-पांच ज्ञानों में से चार ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शन क्षायोपशमिक हैं। वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सब मनुष्यों का क्षयोपशम समान नहीं होता / क्षयोपशम में तरतमता को लेकर अनन्तभेद होते हैं। अतएव इनके पर्याय षस्थानपतित हीनाधिक कहे गये हैं, किन्तु केवल और केवलदर्शन क्षायिक है। वे ज्ञानावरण और दर्शनावरण के सर्वथा क्षीण होने पर ही उत्पन्न होते हैं, अतएव उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं होती। जैसा एक मनुष्य का केवलज्ञान या केवलदर्शन होता है, वैसा ही सभी का होता है, इसीलिए केवलज्ञान और केवलदर्शन के पर्याय तुल्य कहे हैं / स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित कैसे—पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों की स्थिति अधिक से अधिक तीन पल्योपम की होती है। पल्योपम असंख्यात हजार वर्षों का होता है। अतः उसमें असंख्यातगुणी वृद्धि और हानि सम्भव होने से उसे चतुःस्थानपतित कहा गया है / वारणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के अनन्त पर्यायों की प्ररूपरणा 453. वाणमंतरा प्रोगाहणट्टयाए ठितीए य चउट्ठाणवडिया, वण्णादीहिं छट्ठाणवडिता / [453] वाणव्यन्तर देव अवगाहना और स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) कहे गए हैं तथा वर्ण आदि (के पर्यायों) की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (होनाधिक) हैं / 454. जोइसिय-वेमाणिया वि एवं चेव / णवरं ठितीए तिट्ठामवडिता / [454[ ज्योतिष्क और वैमानिक देवों (के पर्यायों) की हीनाधिकता भी इसी प्रकार (पूर्वसूत्रानुसार समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि इन्हें स्थिति को अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) समझना चाहिए / 1. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ-टिप्पण युक्त), पृ. 139-140 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलयवत्ति, पत्रांक 186, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 612-613 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 ] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन--वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के अनन्त पर्यायों को प्ररूपणा-प्रस्तुत दो सूत्रों (453, 454) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के अनन्त पर्याय बताने हेतु उनकी यथायोग्य चतु:स्थानपतित षट्स्थानपतित तथा त्रिस्थानपतित न्यूनाधिकता का प्रतिपादन किया गया है।' वाणव्यन्तरों को चतुःस्थानपतित तथा ज्योतिष्क-वैमानिकों की त्रिस्थानपतित होनाधिकतावाणव्यन्तरों की स्थिति जघन्य 10 हजार वर्ष को, उत्कृष्ट एक पल्योपम को होती है, अतः वह भी चतःस्थानपतित हो सकती है, किन्त ज्योतिष्कों और वैमानिकों की स्थिति हीनाधिकता ही होती है। क्योंकि ज्योतिष्कों को स्थिति जघन्य पल्योपम के आठवें भाग को और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक पल्योपम की है। अतएव उनमें असंख्यातगुणी हानि-वृद्धि संभव नहीं है / वैमानिकों की स्थिति जघन्य पल्योपम की और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। एक सागरोपम दस कोड़ाकोड़ी पल्योपम का होता है। अतएव वैमानिकों में भी असंख्यातगुणी हानिवृद्धि संभव नहीं है। इसी कारण ज्योतिष्क और वैमानिकदेव स्थिति को अपेक्षा से त्रिस्थानपतित होनाधिक ही होते हैं / विभिन्न अपेक्षाओं से जघन्यादियुक्त अवगाहनादि वाले नारकों के पर्याय 455. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं नेरइयाणं अणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए नेरइए जहण्णोगाहणगस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितोए चउट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहिं णाणेहिं तिहिं अण्णाहिं तिहि सणेहि य छट्ठाणवडिते। [455-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [455-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य अवगाहना वाले नारकों के अनन्त पर्याय हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला नैरयिक, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है; अवगाहना की अपेक्षा से (भी) तुल्य है; (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थान पतित (हीनाधिक) है, और वर्ण गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] उक्कोसोगाहणयाणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति उक्कोसोगाहणयाणं नेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता ? 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 140 2. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 186 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [375 __ गोयमा ! उक्कोसोगाहणए णेरइए उयकोसोगाहणगस्स नेरइयस्स दब्धट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले; ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अमहिए-जति होणे असंखेज्जभागहोणे वा संखेज्जभागहीणे वा, अह अभहिए असंखेज्जइभागअभइए वा संखेज्जइभागप्रमइए वा; वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहि जाणेहि तिहि अण्णाणेहिं तिहि दसणेहि छट्ठाणवडिते। [455-2 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [455-2 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ? उ गौतम ! एक उत्कष्ट अवगाहना वाला नारक, दुसरे उत्कष्ट अवगाहना वाले से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से (भी) तुल्य है; किन्तु स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है / यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है या संख्यातभाग हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यात भाग अधिक है, अथवा संख्यातभाग अधिक है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तथा तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (होनाधिक) है। [3] अजहण्णुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! नेर इयाणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति प्रजहष्णुक्कोसोगाहणगाणं नेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अजहण्णुक्कोसोगाहणए गैरइए अजहण्णुक्कोसोगाहणगस्स गैरइयस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले; ओगाहणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अमहिए-जति होणे असंखज्जभागहोणे वा संखेज्जभागहोणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अभतिए असंखेज्जतिभागमभतिए वा संखेज्जतिभागप्रमभतिए वा संखेज्जगणप्रभतिए वा असंखेज्जगणग्रमातिए वा: ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रभतिए---जति होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेजतिभागहीणे वा संखेज्जगुणहोणे वा असंखेज्जगुणहीणे वा, अह अभइए असंखेज्जतिभागप्रभइए वा संखेज्जतिभागअब्भहिए वा संखेज्जगुणअब्भइए वा असंखेज्जगुणग्रन्महिए वा; वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहिं णाणेहि तिहि अण्णाणेहि तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिते, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति अजहण्णुक्को सोगाहणगाणं नेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। [455-3 प्र.] भगवन् ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? _ [455-3 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मध्यम अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ?' Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! मध्यम अवगाहना वाला एक नारक, अन्य मध्यम अवगाहना वाले नैरयिक से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है। यदि होन है तो, असंख्यातभाग हीन है अथवा संख्यातभाग हीन है, या संख्यातगुण होन है, अथवा असंख्यातगुण हीन है। यदि अधिक है तो असंख्यात भाग अधिक है अथवा संख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातगुण अधिक है, या असंख्यातगुण अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है और कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो असंख्यातभाग हीन है, अथवा संख्यातभाग होन है; अथवा संख्यातगुण हीन है, या असंख्यातगुण हीन है / यदि अधिक है तो प्रसंख्यातभाग अधिक है अथवा संख्यातभाग अधिक है, या संख्यातगुण अधिक है, अथवा असंख्यातगुण अधिक है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'मध्यम अवगाहना वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे हैं।' 456. [1] जहण्णठितीयाणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अर्णता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहण्णट्टितोयाणं नेरइयाणं अणता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णद्वितीए नेरइए जहण्णद्वितीयस्स नेरइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहिं णाणेहि तिहि अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिते। [456-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले नारकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [456-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले नैरयिकों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला नारक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नारक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों की अपेक्षा षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। [2] एव उक्कोसद्वितीए वि। [456-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले नारक (के विषय में भी यथायोग्य तुल्य, चतु:स्थानपतित, षट्स्थानपतित आदि कहना चाहिए / [3] प्रजहण्णुक्कोसद्वितीए वि एवं चेव / णवरं सट्टाणे चउट्ठाणवडिते। [456-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति वाले नारक के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में चतु:स्थानपतित है। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [ 377 457. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पज्जया पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णगुणकालयाणं नेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए नेरइए जहण्णगुणकालगस्स नेरइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, अवसेसेहि वण्णगंध-रस-फासपज्जवेहि तिहिं गाणेहि तिहिं अण्णाणेहि तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिते, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति जहण्णगुणकालयाणं नेरहयाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। [457-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [457-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले नैरियकों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला नैरयिक, दूसरे जघन्यगुण काले नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है किन्तु अवशिष्ट वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तीन ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया कि 'जघन्यगुण काले नारकों के अनन्त पर्याय कहे हैं / ' [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [457-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (नारकों के पर्यायों के विषय में भी) समझ लेना चाहिए। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / णवरं कालवण्णपज्जवेहिं छट्ठाणवड़िते। [457-3] इसी प्रकार अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले नैरयिक के पर्यायों के विषय में जान लेना चाहिए। विशेष इतना ही है कि काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से भी षट्स्थानपतित (हीनाधिक) होता है। 458. एवं प्रवसेसा चत्तारि वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा भाणितन्वा / [458] यों काले वर्ण के पर्यायों की तरह शेष चारों वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श की अपेक्षा से भी (समझ लेना चाहिए।) 456. [1] जहण्णाभिणिबोहियणाणोणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! जहण्णााभिणिबोहियणाणीणं णेरइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केण?णं भंते ! एवं उच्चति जहण्णाभिणिबोहियणाणोणं नेरइयाणं अर्णता पज्जवा पण्णता? Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378] [प्रशापनासूत्र गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणी णेरइए जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स नेरइयस्स दव्यद्वयाए तुल्ले, पदेसटुताए तुल्ले, प्रोगाहणटुयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणडिते, प्राभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुतणाणमोहिणाणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, तिहिं दंसह छट्ठाणवडिते। [459-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [459-1 उ.] गौतम ! जघन्य प्राभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं ?' ___ [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से (भी) चतु:स्थानपतित है, वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, श्रुतज्ञान और . अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा तीन दर्शनों की अपेक्षा (भी) षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसामिणिबोहियणाणी वि। [456-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी नैरयिकों के (पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव / नवरं प्राभिणिबोहियणाणपज्जवेहि सट्टाणे छट्ठाणवडिले। [459-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि वह आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से भी स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 460. एवं सुतणाणी प्रोहिणाणी वि / णवरं जस्स णाणा तस्स अण्णाणा गस्थि / [460] श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार (आभिनिबोधिकज्ञानीपर्यायवत्) जानना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके ज्ञान होता है, उसके अज्ञान नहीं होता। 461. जहा नाणा तहा अण्णाणा वि माणितव्वा / नवरं जस्स अण्णाणा तस्स नाणा न भवंति। [461] जिस प्रकार त्रिज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहा, उसी प्रकार त्रिअज्ञानी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिसके अज्ञान होते हैं, उसके ज्ञान नहीं होते। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद [पर्यायपद) ] [279 462. [1] जहण्णचक्खुदंसणीणं भंते ! नेरइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चति जहण्णचक्खुदंसणीणं नेरइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णचक्खुदंसणो णं नेरइए जहण्णचक्खुदंसणिस्स नेरइयस्स दव्यद्वयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि तिहि णाणेहि तिहि अण्णाहि छट्ठाणवडिते, चक्खुदंसणपज्जवेहि तुल्ले, अचक्खुदंसणपज्जवेहि प्रोहिदसणपज्जवेहि य छट्ठाणवड़िते। [462-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [462-2 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'जधन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक के अनन्तपर्याय कहे हैं ?' उ.] गौतम ! एक जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक, दूसरे जघन्य चक्षुदर्शनी नैरयिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है; वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, तथा तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की अपेक्षा से, षट्स्थानपतित है। चक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसचक्खुदंसणी वि / [462-2] इसी प्रकार उत्कृष्टचक्षुदर्शनी नैरयिकों (के पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिए।) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसचक्खुदंसणी वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिते / [462-2] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) चक्षुदर्शनी नरयिकों के (पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए / ) विशेष इतना ही है कि स्वस्थान में भी वह षट्स्थानपतित होता है। 463. एवं चक्खुदंसणो वि ओहिवंसणी वि। [463] चक्षदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों की तरह ही प्रचक्षुदर्शनी नै रयिकों एवं अवधिदर्शनी नैरयिकों के पर्यायों के विषय में जानना चाहिए। विवेचन-जघन्यादियुक्त अवगाहनादि वाले नारकों के विभिन्न अपेक्षानों से पर्याय-प्रस्तुत 9 सूत्रों (सू. 455 से 463 तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना आदि से युक्त नारकों के पर्यायों का कथन किया गया है / जधन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक द्रव्य, प्रदेश और प्रवगाहना की दृष्टि से तुल्यजघन्य एवं उत्कृष्ट अवगाहना वाला एक नारक, दूसरे नारक से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, क्योंकि 'प्रत्येक द्रव्य अनन्तपर्याय वाला होता है, इस न्याय से नारक जीवद्रव्य एक होते हुए भी अनन्तपर्याय Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [ प्रज्ञापनासून वाला हो सकता है। अनन्तपर्याय वाला होते हुए भी वह द्रव्य से एक है, जैसे कि अन्य नारक एक-एक हैं। इसी प्रकार प्रत्येक नारक जीव लोकाकाशप्रमाण असंख्यात प्रदेशों वाला होता है, इसलिए प्रदेशों की अपेक्षा से भी वह तुल्य है; तथा अवगाहना की दृष्टि से भी तुल्य है, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना का एक ही स्थान है, उसमें तरतमता-हीनाधिकता संभव नहीं है। स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित-जघन्य अवगाहना वाले नारकों की स्थिति में समानता का नियम नहीं है। क्योंकि एक जघन्य अवगाहना वाला नारक 10 हजार वर्ष की स्थितिवाला रत्नप्रभापृथ्वी में होता है और एक उत्कृष्ट स्थितिवाला नारक सातवीं पृथ्वी में होता है / इसलिए जघन्य या उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक स्थिति की अपेक्षा असंख्यातभाग या संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन भी हो सकता है / अथवा असंख्यातभाग या संख्यातभाग अधिक अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण अधिक भी हो सकता है / इसलिए स्थिति की अपेक्षा से नारक चतु:स्थानपतित होते हैं। जघन्य अवगाहना वाले नारक को तीन ज्ञान या तीन अज्ञान कैसे ?--कोई गर्भज-संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नारकों में उत्पन्न होता है, तब वह नरकायु के वेदन के प्रथम समय में ही पूर्वप्राप्त औदारिकशरीर का परिशाटन करता है, उसी समय सम्यग्दृष्टि को तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को तीन अज्ञान उत्पन्न होते हैं। तत्पश्चात् अविग्रह से या विग्रह से गमन करके वह वैक्रियशरीर धारण करता है, किन्तु जो सम्मूच्छिम असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरक में उत्पन्न होता है, उसे उस समय विभंगज्ञान नहीं होता। इस कारण जघन्य अवगाहना वाले नारक को भजना से दो या तीन अज्ञान होते हैं, ऐसा समझ लेना चाहिए। उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक स्थिति की अपेक्षा से द्विस्थानपतित-उत्कृष्ट अवगाहना वाले सभी नारकों की स्थिति समान ही हो, या असमान ही हो, ऐसा नियम नहीं है / असमान होते हए यदि हीन हो तो वह या तो असंख्यातभागहीन होता है या संख्यातभागहीन और अगर अधिक हो तो असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग अधिक होता है। इस प्रकार स्थिति की अपेक्षा से द्विस्थानपतित होनाधिकता समझनी चहिए / यहाँ संख्यातगुण और असंख्यातगुण हीनाधिकता नहीं होती, इसलिए चतु:स्थानपतित सम्भव नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारक 500 धनुष्य की ऊँचाई वाले सप्तम नरक में ही पाए जाते हैं; और वहाँ जघन्य बाईस और उत्कृष्ट 33 सागरोपम की स्थिति है। अतएव इस स्थिति में संख्यात-असंख्यातभाग हानिवृद्धि हो सकती है, किन्तु संख्यात-असंख्यातगुण हानि-वृद्धि की संभावना नहीं है।' उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में तीन ज्ञान या तीन प्रज्ञान नियम से-उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में तीन ज्ञान या तीन अज्ञान नियमतः होते हैं, भजना से नहीं क्योंकि उत्कृष्ट अवगाहना वाले नारकों में सम्मूच्छिम असंज्ञीपंचेन्द्रिय की उत्पत्ति नहीं होती। अतः उत्कृष्ट अवगाहना वाला नारक यदि सम्यग्दृष्टि हो तो तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि हो तो तीन अज्ञान नियमतः होते हैं। मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) अवगाहना का अर्थ-जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के बीच की अवगाहना अजघन्य-अनुत्कृष्ट या मध्यम अवगाहना कहलाती है। इस अवगाहना का जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना के समान नियत एक स्थान नहीं है। सर्वजघन्य अवगाहना अंगुल के 1. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 188, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 632 से 638 Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपब)] [381 असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष्य की होती है। इन दोनों के बीच की जितनी भी अवगाहनाएं होती हैं, वे सब मध्यम अवगाहना की कोटि में आतो हैं / तात्पर्य यह है कि मध्यम अवगाहना सर्वजघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग अधिक से लेकर अंगुल के असंख्यातवें भाग कम पांच सौ धनुष की समझनी चाहिए। यह अवगाहना सामान्य नारक की अवगाहना के समान चतुःस्थानपतित हो सकती है।' जघन्यस्थिति वाले नारक स्थिति की अपेक्षा से तुल्य-जघन्य स्थिति वाले एक नारक से, जघन्यस्थिति वाला दूसरा नारक स्थिति की दृष्टि से समान होता है; क्योंकि जघन्य स्थिति का एक ही स्थान होता है, उसमें किसी प्रकार की हीनाधिकता संभव नहीं है। जघन्य स्थिति वाले नारक प्रवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित-एक जघन्य स्थिति वाला नारक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नारक से अवगाहना में पूर्वोक्त व्याख्यानुसार चतुःस्थानपतित हीनाधिक होता है, क्योंकि उनमें अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर उत्कृष्ट 7 धनुष तक पाई जाती है। मध्यम स्थिति वाले नारकों की स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होनाधिकता-जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों की स्थिति तो परस्पर तुल्य कही गई है, मगर मध्यम स्थिति वाले नारकों की स्थिति में परस्पर चतु:स्थानपतित होनाधिक्य है, क्योंकि मध्यम स्थिति तारतम्य से अनेक प्रकार की है। मध्यमस्थिति में एक समय अधिक दस हजार वर्ष से लेकर एक समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति परिगणित है। इसलिए इसका चतु:स्थानपतित हीनाधिक होना स्वाभाविक है। कृष्णवर्णपर्याय की अपेक्षा से नारकों की तुल्यता--जिस नारक में कृष्णवर्ण का सर्वजघन्य अंश पाया जाता है, वह दूसरे सर्वजघन्य अंश कृष्णवर्ण वाले के तुल्य ही होता है, क्योंकि जघन्य का एक ही रूप है, उसमें विविधता या हीनाधिकता नहीं होती। ज्ञान और अज्ञान दोनों एक साथ नहीं रहते-जिस नारक में ज्ञान होता है, उसमें अज्ञान नहीं होता और जिसमें अज्ञान होता है उसमें ज्ञान नहीं होता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं / सम्यग्दृष्टि को ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को अज्ञान होता है। जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह मिथ्यादृष्टि नहीं होता और जो मिथ्यादृष्टि होता है, वह सम्यक् दृष्टि नहीं होता / 3 जघन्यादियुक्त प्रवगाहना वाले असुरकुमारादि भवनपति देवों के पर्याय 464. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! असुरकुमाराणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा! अगंता पज्जवा पण्णत्ता। से केण→णं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं असुरकुमाराणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए असुरकुमारे जहण्णोगाहणगस्स असुरकुमारस्स दब्वट्ठयाए तुल्ले, 1. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 188, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 638 से 639 2. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्राक 189, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 644 से 647 3. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 189, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 649, 654 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [प्रज्ञापनासूत्र पदेसद्वयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितोए चउढाणवडिते, वन्नादीहिं छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाण-सुतणाण-प्रोहिणाणपज्जवेहि तिहिं अण्णाणेहि तिहिं दंसणेहि य छट्ठाणवडिते। [464-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के कितने पर्याय कहे [464-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले असुरकुमारों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला असरकुमार, दुसरे जघन्य अवगाहना वा असुरकुमार से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से भी तुल्य है; (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) है, वर्ण आदि की दृष्टि से षट्स्थानपतित है; आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान एवं अवधिज्ञान के पर्यायों, तीन अज्ञानों तथा तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसोगाहणए वि। एवं प्रजहन्नमणुक्कोसोगाहणए वि / नवरं उक्कोसोगाहणए वि असुरकुमारे ठितीए चउट्ठाणवडिते। [464-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले असुरकुमारों के (पर्यायों के) विषय में (समझ लेना चाहिए।) तथा इसी प्रकार मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) अवगाहना वाले असुरकुमारों के (पर्यायों के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए।) विशेष यह है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले असुरकुमार भी स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) हैं। 465. एवं जाव थणियकुमारा / [465] असुरकुमारों (के पर्यायों की वक्तव्यता) की तरह ही यावत् स्तनितकुमारों तक (के पर्यायों की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए।) विवेचना-जघन्यादियुक्त प्रवगाहना वाले असुरकुमारादि भवनवासियों के पर्याय-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 464-465) में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना वाले दशाविध भवनपतियों के अनन्त पर्यायों का सयुक्तिक निरूपण किया गया है / जघन्यादियुक्त अवगाहनादि विशिष्ट एकेन्द्रियों के पर्याय 466. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! पुढविकाइयाणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता। से केण→णं भंते ! एवं बुच्चति जहण्णोगाहणगाणं पुढविकाइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! जहण्णोगाहणए पुढबिकाइए जहण्णोगाहणगस्स पुढविकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि दोहि अण्णाणेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणडिते / Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [383 [466-1 प्र. भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के कितने पर्याय प्ररूपित किये गए है ? [466-1 उ. गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय प्ररूपित किये गए हैं। [प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्तपर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! जघन्य अवगाहना वाला एक पृथ्वीकायिक, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, दो अज्ञानों की अपेक्षा से एवं अचक्षुदर्शन के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसोगाहणए वि। [466-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों का कथन भी करना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं सटाणे च उढाणवड़िते। [466-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए / विशेष यह है कि मध्यम अवगाहना वाले पृथ्वोकायिक जीव स्वस्थान में अर्थात् अवगाहना की अपेक्षा से भी चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) हैं। 467. [1] जहण्णद्वितीयाणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं कुच्चति जहण्णद्वितीयाणं पुढविकाइयाणं प्रणता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णठितीए पुढविकाइए जहण्णठितीयस्स पुढविकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणटुताए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि मतिअण्णाण-सुतप्रणाण-प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवड़िते / [467-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों के पर्याय कितने कहे गए हैं? [467-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे गए हैं / [प्र.] भगवन ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला पृथ्वीकायिक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित (हीनाधिक) है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षु-दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं उक्कोसठितीए वि। [467-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / गवरं सट्टाणे तिढाणवडिते। [467-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि वे स्वस्थान में त्रिस्थानपतित हैं। 468. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णगुणकालयाणं पुढविकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! जहण्णगुणकालए पुढविकाइए जहण्णगुणकालगस्स पुढविकाइयस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, अवसेसेहि वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, दोहि अण्णाणेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवड़िते। [468-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले पृथ्वीकायिक जीवों (के पर्यायों के परिमाण) की पृच्छा है ! [468-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य गुण काले पृथ्विीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! जघन्य गुण काला एक पृथ्वीकायिक, दूसरे जघन्य गुण काले पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है; (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है; काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; तथा अवशिष्ट वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; एवं दो अज्ञानों और अचक्षुदर्शन के पर्यायों से भी षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए धि / [468-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले पृथ्वीकायिक जीवों के (पर्यायों के विषय में कथन करना चाहिए।) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / णवरं सट्ठाणे छट्ठाणडिते। [468-3] मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) गुण काले पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। " 466. एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अढ फासा भाणितव्वा। [466] इसी प्रकार (पृथक्-पृथक् जघन्य-मध्यम-उत्कृष्टगुण वाले) पांच वर्णों, दो गन्धों, Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपव)] [385 पांव रसों और पाठ स्पर्शों (से युक्त पृथ्वोकायिकों के पर्यायों) के विषय में (पूर्वोक्तसूत्रानुसार) कहना चाहिए। 470. [1] जहण्णमतिप्रणाणोणं भंते ! पुढविकाइयाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुमति जहण्णमतिअण्णाणोणं पुढविकाइयाणं अणंता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! जहण्णमतिअण्णाणी पुढविकाइए जहण्णमतिअण्णाणिस्स पुढविकाइयस्स दबढयाए तुल्ले, पदेसटुयाए तुल्ले, मोगाहणट्टयाए च उढाणवडिते, ठितोए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणडिते, मतिअण्णाणपज्जवेहि तुल्ले, सुयप्रण्माण पज्जवेहि अचखुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [470-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [470-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? उ.] गौतम ! एक जघन्य'मति-अज्ञानो पृथ्वोकायिक, दूसरे जघन्य मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित है; तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; मति-अज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; (किन्त) श्रुत-अज्ञान के पर्यायों तथा अचक्षु-दर्शन के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित (होनाधिक) है। [2] एवं उक्कोसमतिअण्णाणी वि / [470-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट-मति-अज्ञानी (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कथन करना चाहिए / ) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसमइअण्णाणी वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते / [470-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट-मति-अज्ञानी (पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों) के विषय में भी इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि यह स्वस्थान अर्थात् मति-अज्ञान के पर्यायों में भी षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। 471. एवं सुयअण्णाणी वि / अचवखुदंसणी वि एवं चेव / [471] (जिस प्रकार जघन्यादियुक्त मति-अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कहा गया है) उसी प्रकार श्रुत-अज्ञानी तथा प्रचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिक जीवों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386] [ प्रज्ञापनासूत्र 472. एवं जाव वणफइकाइयाणं / [472] (जिस प्रकार जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम मति-श्रुताज्ञानी एवं अचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिकपर्यायों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक का (पर्यायविषयक कथन करना चाहिए।) _ विवेचन--जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम प्रवगाहनादियुक्त पृथ्वीकायिक प्रादि पंच स्थावरों को पर्यायविषयक प्ररूपणा~प्रस्तुत सात सूत्रों (सू-४६६ से 472 तक) में जघन्य मध्यम एवं उत्कृष्ट अवगाहना से लेकर अचक्षुदर्शन तक से युक्त पृथ्वीकायिक आदि पांच एकेन्द्रिय जीवों का पर्यायविषयक कथन किया गया है / ___ जघन्यादियुक्त प्रवगाहना वाले पृथ्वीकायिक प्रादि का अवगाहना की दृष्टि से पर्याय परिमाणजघन्य और उत्कृष्ट अवगाहनावाले दो पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से परस्पर तुल्य होते हैं ! किन्तु मध्यम अवगाहना वाले दो पृथ्वीकायिकादि अवगाहना की अपेक्षा से स्वस्थान में परस्पर चतुःस्थानपतित होते हैं / अर्थात्-एक मध्यम अवगाहना वाला पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, दूसरे मध्यम अवगाहनावाले पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय से अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है, क्योंकि सामान्यरूप से मध्यम अवगाहना होने पर भी वह विविध प्रकार की होती है। जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना की भाँति उसका एक ही स्थान नहीं होता। कारण यह है कि पृथ्वीकायिक आदि के भव में पहले उत्पत्ति हुई हो, उसे स्वस्थान कहते हैं। इस प्रकार के स्वस्थान में असंख्यात वर्षों का प्रायुष्य संभव होने से असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन या असंख्यातगुणहीन होता है, अथवा असंख्यातभाग अधिक, संख्यात भाग अधिक या संख्यातगुण अधिक अथवा असंख्यातगुण अधिक होता है। इस प्रकार चतुःस्थानपत्तित होता है। इसी प्रकार स्थिति, वर्णादि, मति-श्रुताज्ञान एवं अचक्षुदर्शन से युक्त पृथ्वीकायिकादि की हीनाधिकता अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होती है।' __जघन्यादि स्थिति प्रादि वाले पृथ्वीकायिकादि का विविध अपेक्षानों से पर्याय-परिमाणस्थिति की अपेक्षा से एक पृथ्वीकायिक आदि दूसरे पृथ्वीकायिक आदि से तुल्य होता है, किन्तु अवगाहना, वर्णादि, तथा मति-श्रुताज्ञान के एवं अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य नहीं होता है; क्योंकि पृथ्वीकायिक आदि की स्थिति संख्यातवर्ष की होती है, यह बात पहले समुच्चय पृथ्वीकायिकों की वक्तव्यता के प्रसंग में कही जा चुकी है। इसलिए जघन्यादियुक्त अवगाहनादि बाले पृथ्बीकायिक आदि परस्पर यदि हीन हो तो असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यातभाग-अधिक, संख्यातभाग-अधिक अथवा संख्यातगुण-अधिक होता है। वह पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार असंख्यातगुण हीन या अधिक नहीं होता। पूर्वोक्त पृथ्वीकायिक प्रादि में दो अज्ञान और अचक्षुदर्शन को ही प्ररूपणा क्यों ? -पृथ्वीकायिक आदि में सभी मिथ्यादृष्टि होते हैं। इनमें सम्यक्त्व नहीं होता, और न सम्यग्दृष्टि जीव पृथ्वीकायिकादि में उत्पन्न होता है / अतएव उनमें दो अज्ञान ही पाए जाते हैं। इसी कारण यहाँ 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, पृ. 675 से 678 2. (क) प्रज्ञापना. म. वत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, . 679-680 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [387 दो अज्ञानों को ही प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकादि में चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से चक्षुदर्शन भी नहीं होता। इसलिए यहां केवल अचक्षुदर्शन की हो प्ररूपणा की गई है / ' मध्यम वर्णादि से युक्त गुण वाले पृथ्वीकायिकादि का पर्यायपरिमाण-जैसे जघन्य और उत्कृष्ट कृष्ण वर्ण आदि का स्थान एक ही होता है, उनमें न्यूनाधिकता का सम्भव नहीं, उस प्रकार से मध्यम कृष्णवर्ण का स्थान एक नहीं है / एक अंश काला कृष्णवर्ण आदि जघन्य होता है और सर्वाधिक अंशों वाला कृष्ण वर्ण आदि उत्कृष्ट कहलाता है। इन दोनों के मध्य में कृष्णवर्ण आदि के अनन्त विकल्प होते हैं / जैसे-दो गुण काला, तीन गुण काला, चार गुण काला, दस गुण काला, संख्यातगुण काला, असंख्यातगुण काला, अनन्तगूण काला / इसी प्रकार अन्य वर्णों तथा गन्ध, रस और स्पों के बारे में समझ लेना चाहिए। अतएव जघन्य गुण काले से ऊपर और उत्कृष्ट गुण काले से नीचे कृष्ण वर्ण के मध्यम पर्याय अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि जघन्य और उत्कृष्टगुण वाले इत्यादि का पर्याय एक है, किन्तु मध्यमगुण कृष्णवर्ण आदि के पर्याय अनन्त हैं। यही कारण है कि दो पृथ्वीकायिक जीव यदि मध्यमगुण कृष्णवर्ण हों, तो भी उनमें अनन्तगुणहोनता और अधिकता हो सकती है / इसी अभिप्राय से यहाँ स्वस्थान में भी सर्वत्र षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता बताई है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र षट्स्थानपतित समझ लेना चाहिए। पृथ्वोकायिकों की तरह अन्य एकेन्द्रियों का पर्याय-विषयक निरूपण--सूत्र 472 में बताये अनुसार पृथ्वीकायिक सूत्र की तरह अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जोवों के जघन्य, उत्कृष्ट एवं मध्यम, द्रव्य, प्रदेश, अवगाहना, स्थिति, वर्णादि तथा ज्ञान-अज्ञानादि की दृष्टि से पर्यायों की यथायोग्य हीनाधिकता समझ लेनी चाही / ' जघन्यादियुक्त अवगाहनादि विशिष्ट विकलेन्द्रियों के पर्याय 473. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं बेइंदियाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए बेइंदिए जहण्णोगाहणगस्स बेइंदियस्स दवट्टयाए तुल्ले, पएसटुयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं दोहिं णाणेहि दोहि अण्णाणेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। _[473-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [473-1 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, पृ. 682 2. (क) प्रजापना. म. वृत्ति, पत्रांक 193, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टोका, भा. 2, पृ.६८२ से 684 तक 3. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 2, पृ.६८५ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [प्रजापनासूत्र / जीव से, द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य हैं, प्रदेश की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अवगाहना की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थानपतित हैं, वर्ण, गंध रस एवं स्पर्श के पर्यायों, दो ज्ञानों, दो अज्ञानों तथा प्रचक्षु-दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / . [2] एवं उक्कोसोगाहणए वि / णवरं णाणा णस्थि / [473-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए / किन्तु उत्कृष्ट अवगाहना वाले में ज्ञान नहीं होता, इतना अन्तर है। _[3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए जहा जहण्णोगाहणए। णवरं सटाणे प्रोगाहणाए चउट्ठाणवडिते। [473-3] अजघन्य-अतुत्कृष्ट अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में जघन्य अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय जीवों के पर्यायों की तरह कहना चाहिए / विशेषता यह है कि स्वस्थान में अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है। 474. [1] जहण्णठितीयाणं भंते ! बेइंदियाणं पुच्छा / गोयमा ! प्रणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णठितीयाणं बेइंदियाणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! जहण्णठितीए बेइंदिए जहण्णठितीयस बेइंदियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि दोहि अण्णाणेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [474-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय हैं ? [474-1 उ.) गौतम ! (उनके ) अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस दृष्टि से आप ऐसा कहते हैं कि जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति बाला द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय से द्रव्यापेक्षया तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है; तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों, दो अज्ञानों एवं अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसठितीए वि / णवरं दो गाणा अभइया / [474-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रियजीवों का भी (पर्यायविषयक कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि इनमें दो ज्ञान अधिक कहना चाहिए [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए जहा उक्कोसठितीए / णवरं ठितीए तिद्वाणवडिते। [474-3] जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रिय जीवों के पर्याय के विषय में कहा गया Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [389 है, उसी प्रकार मध्यम स्थिति वाले द्वीन्द्रियों के पर्याय के विषय में कहना चाहिए / अन्तर इतना ही है कि स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है / 475. [1] जहण्णगुणकालयाण बेइंदियोणं पुच्छा / गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केण→णं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णगुणकालयाणं बेइंदियाणं अणंता पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए बेइंदिए जहण्णगुणकालयस्स 'बेइंदियस्स दध्वट्टयाए तुल्ले, पबेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणटुयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, प्रवसेसेहिं वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि दोहिं णाणेहिं दोहि अण्णाणेहि अचखुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [475-1 प्र.] जघन्यगुण कृष्णवर्ण वाले द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [475-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्यगुण काले द्वीन्द्रियों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला द्वीन्द्रिय जीव, दूसरे जघन्यगुण काले द्वीन्द्रिय जीव से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित (न्यूनाधिक) है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, कृष्णवर्णपर्याय की अपेक्षा से तुल्य है, शेष वर्णों तथा गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से; दो ज्ञान, दो अज्ञान एवं अचक्षुदर्शन पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [475-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले द्वीन्द्रियों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / णवरं सट्टाणे छट्ठाणवड़िते / [475-2] अजघन्य-अनुत्कृष्ट गुण काले द्वीन्द्रिय जीवों का (पर्यायविषयक कथन भी) इसी प्रकार (करना चाहिए / ) विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित (हीनाधिक) होता है / 476. एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणितन्वा / [476] इसी तरह पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और पाठ स्पर्शों का (पर्याय विषयक) कथन - करना चाहिए। 477. [1] जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं भंते ! बेंदियाणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणो बेइंदिए जहाजाभिणिबोहियणाणिस्स बेइंदियस्स दन्वट्ठ. Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39. ] [प्रज्ञापनासूत्र याए तुल्ल, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुयणाणपज्जवेहिं छट्ठाणडिते, प्रचक्खुदसणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते। ' [477-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य-प्राभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के कितने पर्याय कहे [477-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय, दूसरे जघन्य प्राभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय से द्रव्यापेक्षया तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षया तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा से तुल्य है; श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा अचक्षुदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से भी षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। [477-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय जीवों के (पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / ) __ [3] प्रजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि एवं चेव / गवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिते। (477-3] मध्यम-आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार से करना चाहिए किन्तु वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 478. एवं सुतणाणी वि, सुतअण्णाणी वि, मतिअण्णाणी वि, प्रचक्खुदंसणी वि / गवरं जत्थ गाणा तस्थ अण्णाणा स्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ गाणा गस्थि / जस्थ दंसणं तत्थ गाणा वि अण्णाणा वि। [478] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, मलि-अज्ञानी और अचक्षुदर्शनी द्वीन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / विशेषता यह है कि जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ अज्ञान नहीं होते, जहाँ अज्ञान होता है, वहाँ ज्ञान नहीं होते। जहाँ दर्शन होता है, वहाँ ज्ञान भी हो सकते हैं और अज्ञान भी। 476. एवं तेइंदियाण वि। [479] द्वीन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कई अपेक्षाओं से कहा गया है, उसी प्रकार त्रीन्द्रिय के पर्याय-विषय में भी कहना चाहिए / 480. चरिदियाण वि एवं चेव / णवरं चक्खुदंसणं अमहियं / [480] चतुरिन्द्रिय जीवों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / अन्तर केवल इतना है कि इनके चक्षुदर्शन अधिक है / (शेष सब बातें द्वीन्द्रिय की तरह हैं / ) Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद ] [ 361 . विवेचन-जघन्यादिविशिष्ट विकलेन्द्रियों का विविध अपेक्षाओं से पर्याय-परिमाण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 473 से 480 तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के अनन्तपर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपणा की गई है। मध्यम अवगाहना वाले द्वीन्द्रिय चतुःस्थानपतित क्यों ? मध्यम अवगाहना वाला एक द्वीन्द्रिय, दूसरे मध्यम अवगाहना वाले दूसरे द्वीन्द्रिय से अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य नहीं होता, अपितु चतुःस्थानपतित होता है, क्योंकि मध्यम अवगाहना सब एक-सी नहीं होती, एक मध्यम अवगाहना दूसरी मध्यम अवगाहना से संख्यातभाग हीन, असंख्यातभाग हीन, संख्यातगुण हीन या असंख्यातगुण हीन तथा इसी प्रकार चारों प्रकार से अधिक भी हो सकती है। मध्यम अवगाहना अपर्याप्त अवस्था के प्रथम समय के अनन्तर ही प्रारम्भ हो जाती है। अतएव अपर्याप्तदशा में भी उसका सद्भाव होता है। इस कारण सास्वादनसम्यक्त्व भी मध्यम अवगाहना के समय संभव है। इसी से यहाँ दो ज्ञानों का भी सद्भाव हो सकता है। जिन द्वीन्द्रियों में सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता, उनमें दो अज्ञान होते हैं। जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रियों में दो अज्ञान को ही प्ररूपणा जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय जीवों में दो अज्ञान ही पाए जाते हैं, दो ज्ञान नहीं, क्योंकि जघन्य स्थिति वाला द्वीन्द्रिय जीव लब्धि. अपर्याप्तक होता है, लब्धि-अपर्याप्तकों के सास्वादनसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता, इसका कारण यह है कि लब्धिअपर्याप्तक जीव अत्यन्त संक्लिष्ट होता है और सास्वादन सम्यक्त्व किंचित् शुभपरिणामरूप है। अतएव सास्वादन सम्यग्दृष्टि का जघन्य स्थिति वाले द्वीन्द्रिय रूप में उत्पाद नहीं होता। उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रिय जीवों में दो ज्ञानों को प्ररूपणा-उत्कृष्टस्थितिक द्वीन्द्रिय जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व वाले जीव भी उत्पन्न हो सकते हैं। अतएव जो वक्तव्यता जघन्यस्थितिक द्वीन्द्रियों के पर्यायविषय में कही है, वही उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रियों की भी समझनी चाहिए, किन्त उनमें दो ज्ञानों के पर्यायों को भी प्ररूपणा करना चाहिए। मध्यमस्थिति वाले द्वीन्द्रियों को वक्तव्यता-इनसे सम्बन्धित पर्यायपरिमाण की वक्तव्यता उत्कृष्ट स्थिति वाले द्वीन्द्रियों के समान समझनी चाहिए, किन्तु इसमें स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित कहना चाहिए, क्योंकि सभी मध्यमस्थिति वालों की स्थिति तुल्य नहीं होती। जपल्यगणकष्ण द्वीन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित-एक जघन्यगुण कृष्ण, दूसरे जघन्यगुण कृष्ण से स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित होता है, क्योंकि द्वीन्द्रिय की स्थिति संख्यातवर्षों की होती है, इसलिए वह चतुःस्थानपतित नहीं हो सकता / मध्यम प्राभिनिबोधिकज्ञानी द्वीन्द्रिय को पर्याय-प्ररूपणा-इसकी और सब प्ररूपणा तो जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी के समान ही है, किन्तु विशेषता इतनी ही है कि वह स्वस्थान में भी षटस्थानपतित हीनाधिक होता है। जैसे उत्कृष्ट और जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का एक-एक ही पर्याय है, वैसे मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी द्वीन्द्रिय का नहीं, क्योंकि उसके तो अनन्त हीनाधिकरूप Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392) [प्रज्ञापनासूत्र पर्याय होते हैं / ' त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा यथायोग्य द्वीन्द्रियों की तरह समझ लेना चाहिए। जघन्य अवगाहनादि वाले पंचेन्द्रियतियंचों की विविध अपेक्षाओं से पर्याय प्ररूपणा 481. [1] जहणोगाहणगाणं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णता। - से केणयॊणं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं प्रणता पज्जया पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णोगाहणए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णोगाहणयस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहि दोहिं गाणेहि दोहि अण्णाहिं दोहिं दंसहि छट्ठाणवडिते। [481-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यंचों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [481-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस अपेक्षा से कहा जाता कि 'जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तियंच, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यच से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना को अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, दो ज्ञानों, अज्ञानों और दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / णवरं तिहि पाहि तिहि अण्णाहि] तिहि दंसह छट्ठाणवडिते। [481-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का (पर्याय-विषयक कथन) भी इसो प्रकार कहना चाहिए, विशेषता इतनी ही है कि तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / [3] जहा उक्कोसोगाहणए तहा अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि। गवरं प्रोगाहणट्ठयाए चउढाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए। [481-3] जिस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रियतिथंचों का (पर्यायविषयक) कथन (किया गया) है, उसी प्रकार अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 193 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी भा. 2, पृ. 701 से 707 तक Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 393 तिर्यञ्चों (से सम्बन्धित पर्यायविषयक कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि ये अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित हैं, तथा स्थिति की दृष्टि से चतुःस्थानपतित हैं / / 482. [1] जहण्णठितोयाणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं केवतिया पज्नवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! जहण्णठितोए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहन्नठितीयस्स पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणबडिते, ठितीए तुल्ले, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं दोहि अण्णाणेहि दोहि दंसणेहि छट्ठाणवडिते। _[482-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [482-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि 'जघन्य स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्यस्थिति वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्च दूसरे जघन्यस्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, दो अज्ञान एवं दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] उक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं दो नाणा दो अन्नाणा दो दंसणा। [482-2] उत्कृष्टस्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यचों का पर्याय-विषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। विशेष यह है कि इसमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शनों (की प्ररूपणा करनी चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउट्ठाणवडिते, तिणि णाणा, तिण्णि अण्णाणा, तिण्णि दंसणा। [482-3) अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का (पर्याय विषयक कथन भी) इसी प्रकार (पूर्ववत् करना चाहिए।) विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से (यह) चतुःस्थानपतित हैं, तथा (इनमें) तीन ज्ञान, तीन अज्ञान और तीन दर्शनों (की प्ररूपणा करन चाहिए / ) 483. [1] जहष्णगुणकालगाणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं उच्चति ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णगुणकालगस्त पंचदियतिरिक्ख Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 ] [प्रज्ञापनासूत्र जोणियस्स दबट्टयाए तुल्ले, पएसद्वयाए तुल्ले, प्रोगाहणद्वयाए चउदाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, प्रवसेसेहिं वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं तिहि जाणेहि तिहि अण्णाहिं तिहिं दसणेहिं छट्ठाणवडिते। [483-1 प्र.) भगवन् ! जघन्यगुणकृष्ण पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के कितने पर्याय हैं ? [483-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि 'जघन्यगुणकृष्ण पंचेन्द्रियतिर्यंचों के अनन्त पर्याय हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य गुण काला पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, दूसरे जघन्यगुण काले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है, शेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श के तथा तीन ज्ञान, तीन अज्ञान एवं तीन दर्शनों की अपेक्षा से षस्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [483-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के पर्यायों के विषय में भी समझना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / णवरं सदाणे छट्ठाणवडिते। [483-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के (पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि वे स्वस्थान (कृष्णगुणपर्याय) में भी षट्स्थानपतित हैं / 484. एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा / [454] इस प्रकार पांचों वर्णो, दो गन्धों, पांच रसों और आठ स्पर्शों से (युक्त तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए।) 485. [1] जहण्णाभिणिबोहियणाणीणं भंते ! पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केण?णं भंते ! एवं बुच्चति ? / गोयमा ! जहण्णाभिणिबोहियणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठित्तीए चउट्ठाणवडिते, वण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, प्राभिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुयणाणपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, चक्खुदंसणपज्जवेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते / [485-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य प्राभिनिवोधिकज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [395 [485-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि 'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, श्रुतज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। __ [2] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि / गवरं ठितीए तिटठाणवडिते, तिणि गाणा, तिण्णि दसणा, सटठाणे तुल्ले, सेसेसु छट्ठाणबडिते / [485-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यचों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तीन ज्ञान, तीन दर्शन तथा स्वस्थान में तुल्य है, शेष सब में षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / [3] अजहण्णुक्कोसाभिणिबोहियणाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियणाणी / णवरं ठितीए चउठासबडिते, सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [485.3] मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानो तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों का पर्यायविषयक कथन, उत्कृष्ट अभिनिबोधिकज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की तरह समझना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति को अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है; तथा स्वस्थान में षट्स्थानपतित है / 486. एवं सुतणाणी वि। [486] जिस प्रकार (जघन्यादिविशिष्ट) आभिनिबोधिक ज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्दिय के पर्यायों के विषय में कहा है, उसी प्रकार (जघन्यादियुक्त) श्रुतज्ञानो तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। 487. जहण्णोहिणाणोणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वच्चति ? गोयमा ! जहण्णोहिणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिए जहण्णोहिणाणिस्स पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स दध्वट्ठयाते तुल्ले, पदेसट्टयाते तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाते चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्णगंध-रस-फासपज्जवेहि प्राभिणिबोहियणाण-सुतणाणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते, ओहिणाणपज्जवेहि तुल्ले, अण्णाणा णत्थि, चक्खुदंमणपज्जवेहि प्रचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते / [487-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [487-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि 'जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, दूसरे जघन्य अवधिज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, (किन्तु) अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के पर्यायों और प्राभिनिबोधिकज्ञान तथा श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है / (इसमें) अज्ञान नहीं कहना चाहिए / चक्षुदर्शन-पर्यायों और अचक्षुदर्शन-पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।। [2] एवं उक्कोसोहिणाणो वि / [487-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट अवधिज्ञानी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीवों का (पर्यायविषयक कथन करना चाहिए / ) [3] अजहण्णुक्कोसोहिणाणी वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवड़िते / [487-3] मध्यम अवधिज्ञानी (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों) की (भी पर्यायप्ररूपणा) इसी प्रकार करनी चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 488. जहा प्राभिणिबोहियणाणी तहा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य / जहा प्रोहिणाणी तहा विभंगणाणी वि चक्खुदसणी प्रचक्खुदंसणी य जहा प्राभिणिबोहिणाणी। प्रोहिदसणी जहा प्रोहिणाणी / जस्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णस्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ गाणा स्थि, जत्थ सणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि अस्थि त्ति भाणितत्वं / 488] जिस प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी तिर्यंचपंचेन्द्रिय की पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्यता है, उसी प्रकार मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी की है ; जैसी अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय-प्ररूपणा है, वैसी ही विभंगज्ञानी की है / चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी की (पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता) आभिनिबोधिकज्ञानी की तरह है / अवधिदर्शनी की (पर्याय-वक्तव्यता) अवधिज्ञानी की तरह है। (विशेष बात यह है कि) जहां ज्ञान हैं, वहां अज्ञान नहीं हैं; जहां अज्ञान हैं, वहाँ ज्ञान नहीं हैं; जहाँ दर्शन हैं, वहाँ ज्ञान भी हो सकते हैं, प्रज्ञान भी हो सकते हैं, ऐसे कहना चाहिए / विवेचन---जघन्य-प्रवगाहनादि विशिष्ट पंचेन्द्रियतियंचों की विविध अपेक्षानों से पर्यायप्ररूपणा-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 581 से 588 तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना आदि वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की, द्रव्य, प्रदेश, अवगाहना, स्थिति, वर्णादि, ज्ञानाज्ञानदर्शनयुक्त आदि विभिन्न अपेक्षाओं से पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। जघन्य अवगाहना वाले तिर्यंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थानपतित-जघन्य अवगाहना वाला तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय आयु सम्बन्धी कालमर्यादा (स्थिति) की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित होता है, चतु:स्थानपतित नहीं; क्योंकि जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च संख्यात वर्षों की आयु वाला Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 397 ही होता है, असंख्यातवर्षों की आयु वाले के जघन्य अवगाहना नहीं होती। इसी कारण यहां जघन्य अवगाहनावान् तियंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित कहा गया है, जिसका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। जघन्य अवगाहना वाले तिर्यचपंचेन्द्रिय में अवधि या विभंगज्ञान नहीं-जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्त होता है, और अपर्याप्त होकर अल्पकाय वाले जीवों में उत्पन्न होता है, इसलिए उसमें अवधिज्ञान या विभंगज्ञान संभव नहीं। इस कारण से यहाँ दो ज्ञानों और दो अज्ञानों का ही उल्लेख है। यद्यपि आगे कहा जाएगा कि कोई जीव विभंगज्ञान के साथ नरक से निकल कर संख्यात वर्षों की आयु वाले पंचेन्द्रियतिथंचों में उत्पन्न होता है, किंतु वह महाकायवालों में हो उत्पन्न हो सकता है, अल्पकाय वालों में नहीं / इसलिए कोई विरोध नहीं समझना चाहिए। अवगाहना में षट्स्थानपतित होता नहीं है / मध्यम अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तियंच अवगाहना एवं स्थिति को दृष्टि से चतुःस्थानपतित-चूकि मध्यम अवगाहना अनेक प्रकार की होती है; अतः उसमें संख्यात-असंख्यातगुणहीना. धिकता हो सकती है तथा मध्यम अवगाहना वाला असंख्यातवर्ष की आयुवाला भी हो सकता है, इसलिए स्थिति की अपेक्षा से भी वह चतु:स्थानपतित है। उत्कृष्ट स्थिति वाले तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय को पर्यायवक्तव्यता-उत्कृष्ट स्थिति वाले पंचेन्द्रियतिर्यच तीन पल्योपम की स्थिति वाले होते हैं / अतः उनमें दो ज्ञान दो अज्ञान होते हैं। जो ज्ञान वाले होते हैं, वे वैमानिक की आयु बांध लेते हैं, तब दो ज्ञान होते हैं / इस प्राशय से उनमें दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान कहे हैं।' मध्यम स्थिति वाला तियंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा चतुःस्थानपतित-मध्यम स्थिति वाला तिर्यंचपंचेन्द्रिय संख्यात अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाला भी हो सकता है, क्योंकि एक समय कम तीन पल्योपम की आयुवाला भी मध्यमस्थितिक कहलाता है / अत: वह चतुःस्थानपतित है। प्राभिनिबोधिक ज्ञानी तियंचपंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा चतःस्थानपतित-असंख्यात वर्ष की प्रायु वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में भी अपनी भूमिका के अनुसार जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान पाए जाते हैं / इसी प्रकार संख्यातवर्ष की आयु वालों में जघन्य मतिश्रुतज्ञान संभव होने से यहाँ स्थिति की अपेक्षा से इसे चतुःस्थानपतित कहा है / मध्यम प्राभिनिबोधिकज्ञानी तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा से षटस्थानपतित-क्योंकि आभिनिबोधिक ज्ञान के तरतमरूप पर्याय अनन्त होते हैं / अतएव उनमें अनन्तगुणहीनता-अधिकता भी हो सकती हैं। मध्यम अवधिज्ञानो तिथंचपंचेन्द्रिय स्वस्थान में षट्स्थानपतित-इसका मतलब है वह स्वस्थान अर्थात् मध्यम अवधिज्ञान में षट्स्थानपतित होता है। एक मध्यम अवधिज्ञानी दूसरे मध्यम-अवधिज्ञानी तिर्यंचपंचेन्द्रिय से षट्स्थानपतितहीना अधिक हो सकता है। विभंगज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित--चू कि अवधि ज्ञान और विभंगज्ञान असंख्यातवर्ष की आयु वाले को नहीं होता, अतःअवधिज्ञान और विभंगज्ञान में नियम से' त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) होता है। 1. (क) प्रज्ञापना. म. बत्ति, पत्रांक 193-194, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 2, पृ. 721 से 727 तक 2 (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 194, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 2, पृ. 728 से 737 तक Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 ] प्रज्ञापनासूत्र जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम अवगाहनादि वाले मनुष्यों की पर्यायप्ररूपरणा 486. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहण्णोगाहणगाणं मणुस्साणं प्रणता पज्जवा पणत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए मणसे जहण्णोगाहणगस्स मणूसस्स दव्वट्ठयाते तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए तुल्ले, ठितीए तिढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं तिहिं णाणेहिं दोहि अण्णाणेहि तिहि दंसणेहिं छट्ठाणवडिते। [486-1 प्र.) भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [486-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे गए हैं / [प्र. भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता हैं कि 'जघन्य अवगाहना वाले मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला मनुष्य, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, एवं तीन ज्ञान, दो अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिते--- जति होणे असंखेज्जतिभागहीणे, अह अभहिए असंखेज्जतिभागमभहिते; दो णाणा दो अण्णाणा दो दसणा। [486-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि होन हो तो असंख्यातभाग हीन होता है, यदि अधिक हो तो असंख्यात भाग अधिक होता है। उनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन होते हैं / [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणाए वि एवं चेव / णवरं ओगाहणटुयाए चउट्ठाणवडिते, ठितोए चउट्ठाणवडिते, पाइल्लेहि चउहि नाणेहि छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहि तुल्ले, तिहि अण्णाणेहि तिहिं दंसणेहि छट्ठाणवडिते, केवलदसणपज्जवेहिं तुल्ले / [486-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले मनुष्यों का (पर्याय-विषयक कथन) भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, तथा आदि के चार ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा तीन अज्ञान और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है / Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [ 399 460. [1] जहण्णठितीयाणं भंते ! मस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! जहणठितीए मणुस्से जहष्णठितीयस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणटुयाए चउढाणवडिते, ठितोए तुल्ले, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि दोहि अण्णाणेहिं दोहि दसणेहि छट्ठाणवडिते। [490-1 प्र. भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [490-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले मनुष्यों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला मनुष्य, दूसरे जघन्य स्थिति वाले मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से, दो अज्ञानों और दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसठितोए वि / नवरं दो णाणा, दो अण्णाणा, दो दंसणा। [490-2] उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्यों के (पर्यायों के विषय में) भी इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि (उनमें) दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन (पाए जाते) हैं। [3] अजहण्णमणुककोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउट्ठाणवड़िते प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, आदिल्लेहिं च उनाहिं छट्ठाणवडिते, केवल नाणपज्जवेहि तुल्ले, तिहि अण्णाहिं तिहिं दसणेहि छट्ठाणवडिते, केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले / [490-3] मध्यमस्थिति वाले मनुष्यों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, तथा आदि के चार ज्ञानों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, एवं तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है / 461. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णता / से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए मणसे जहण्णगुणकालगस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितोए चउढाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, अवसेसेहि वण्णगंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, चहिं णाणेहिं छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहि तुल्ले, तिहिं अण्णाणेहि तिहि सणेहि छट्ठाणडिते, केवलदसणपज्जवेहि तुल्ले / Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [प्रज्ञापनासून. [461-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [461-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि जघन्यगुण काले मनुष्यों के अनन्तपर्याय हैं ? _ [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला मनुष्य दूसरे जघन्यगुण काले मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है; तथा अवशिष्ट वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों के पर्यायों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; चार ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, तथा तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [491-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले मनुष्यों के (पर्यायों के) विषय में भी (समझना चाहिए।) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [461-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले मनुष्यों का पर्याय-विषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं / 462. एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ट फासा भाणितव्वा / [462] इसी प्रकार पाँच वर्ण, दो गन्ध, पाँच रस एवं पाठ स्पर्श वाले मनुष्यों का (पर्यायविषयक) कथन करना चाहिए / 463. [1] जहण्णामिणिबोहियणाणोणं भंते ! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा! जहण्णाभिणिबोहियणाणी मणूसे जहण्णाभिणिबोहियणाणिस्स मणसस्स दबट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणडिते, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, प्रामिणिबोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, सुतणाणपज्जवेहि दोहिं दसणेहि छठाणवडिते। [463-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य प्राभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [463-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी मनुष्य दूसरे जघन्य प्राभिनियोधिक-ज्ञानी Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) ] [401 मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है. किन्तु श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से और दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। नवरं आभिणिवोहियणाणपज्जवेहि तुल्ले, ठितीए तिवाणवडिते, तिहि णाहि तिहि सणेहि छट्ठाणवडिते / [493-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिकज्ञानी (मनुष्यों की पर्यायों के विषय में जानना चाहिए।) विशेष यह है कि वह आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा तीन ज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [3] अजहण्णमणुक्कोसाभिणिबोहियणाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियणाणी / णवरं ठितीए चउट्ठाणवडिते, सट्ठाणे छट्ठाणवडिते / [463-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) प्राभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों की तरह हो कहना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित हैं, तथा स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं / 464. एवं सुतणाणी वि। [464] इसी प्रकार (जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम) श्रुतज्ञानी (मनुष्यों) के (पर्यायों के) विषय में (सारा पाठ कहना चाहिए / ) 465. [1] जहण्णोहिणाणीणं भंते ! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! जहण्णोहिणाणी मणुस्से जहण्णोहिणाणिस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठिईए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि दोहि नाणेहि छट्ठाणवडिए, प्रोहिणाणपज्जवेहि तुल्ले, मणपज्जवणाणपज्जवेहि छट्ठाणवडिए, तिहि सणेहि छट्ठाणवडिए। [465-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [465-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं (कि जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्यों के अनन्तपर्याय हैं) ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्य, दूसरे जघन्य अवधिज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से (भी) तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित (पाठान्तर की दृष्टि से 'त्रिस्थानपतित') है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402] [प्रज्ञापनासूत्र रस और स्पर्श के पर्यायों एवं दो ज्ञानों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवधिज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है. मनःपर्यवज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसोहिणाणी वि / [495-2] इसी प्रकार का (कथन) उत्कृष्ट अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में (करना चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसोहिणाणी वि एवं चेव / णवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए / [495-3] इसी प्रकार मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि पाठान्तर की अपेक्षा से–'अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्वस्थान में वह षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 466. जहा प्रोहिणाणी तहा मणयज्जवणाणी वि भाणितवे / नवरं प्रोगाहणट्टयाए तिट्टाणवडिए / जहा प्राभिणिबोहियणाणी तहा मतिअण्णाणो सुतअण्णाणी य भाणितवे। जहा प्रोहिणाणी तहा विभंगणाणी वि भाणियन्वे / चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी य जहा प्राभिणिबोहियणाणी / ओहिदसणी जहा प्रोहिणाणो / जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णस्थि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा स्थि, जत्थ दसणा तत्थ णाणा वि अण्णाणा वि। [496] जैसा (जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम) अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में कहा, वैसा ही (जघन्यादियुक्त) मनःपर्यायज्ञानी (मनुष्यों) के (पर्यायों के) विषय में कहना चाहिए / विशेषता यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से (वह) त्रिस्थानपतित है। जैसा (जघन्यादियुक्त) प्राभिनिबोधिक ज्ञानियों के पर्यायों के विषय में कहा है, वैसा ही मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में (कहना चाहिए / ) जिस प्रकार (जघन्यादिविशिष्ट) अवधिज्ञानी (मनुष्यों) का (पर्याय-विषयक) कथन किया है, उसी प्रकार विभंगज्ञानी (मनुष्यों) का (पर्यायविषयक) कथन करना चाहिए। चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी (मनुष्यों) का (पर्यायविषयक) कथन आभिनिबोधिकज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के समान है। अवधिदर्शनी का (पर्यायविषयक) कथन अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायविषयक कथन) के समान है। जहाँ ज्ञान होते हैं, वहाँ अज्ञान नहीं होते जहाँ अज्ञान होते हैं, वहां ज्ञान नहीं होते और जहाँ दर्शन हैं, वहां ज्ञान एवं प्रज्ञान दोनों में से कोई भी संभव है। 417. केवलणाणोणं भंते ! मणस्साणं केवतिया पज्जका पण्णता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ केवलणामीणं मणुस्साणं प्रणता पज्जवा पण्णता? गोयमा ! केवलनाणी मणूसे केवलणाणिस्स मणूसस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए तुल्ले, ओगाहणठ्ठयाए चउढाणवडिते, ठितीए तिढाणडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, केवल. णाणपज्जवेहि केवलदसणपज्जवेहि य तुल्ले / Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) 1 [467 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [467 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि 'केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' [उ.] गौतम ! एक केवलज्ञानी मनुष्य, दूसरे केवलज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, एवं केवलज्ञान के पर्यायों और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है। 468. एवं केवलदसणी वि मणसे भाणियन्वे / [468] (जैसे केवलज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में कहा गया,) वैसे ही केवलदर्शनी मनुष्यों के (पर्यायों के) विषय में कहना चाहिए। विवेचन--मनुष्यों के पर्यायों की विभिन्न अपेक्षाओं से प्ररूपणा--प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 489 से 498 तक) में जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम अवगाहना, स्थिति, वर्णादि तथा ज्ञान प्रादि वाले मनुष्य के पर्यायों की विविध अपेक्षाओं से प्ररूपणा की गई है। जघन्य-प्रवगाहनायुक्त मनुष्य स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित-जधन्य अवगाहना वाला मनुष्य नियम से संख्यातवर्ष की आयु वाला ही होता है, इस दृष्टि से वह त्रिस्थानपतित हीनाधिक ही होता है, अर्थात् वह असंख्यात-संख्यातभाग एवं संख्यातगुण हीनाधिक ही होता है / जधन्य-प्रवगाहनायुक्त मनुष्यों में तीन ज्ञानों और दो अज्ञानों की प्ररूपणा-किसी तीर्थंकर का अथवा अनुत्तरौपपातिक देव का अप्रतिपाती अवधिज्ञान के साथ जघन्य अवगाहना में उत्पाद होता है, तब जघन्य अवगाहना में भी अवधिज्ञान पाया जाता है। अतएव यहां तीन ज्ञानों का कथन किया गया है, किन्तु नरक से निकले हुए जीव का जघन्य अवगाहना में उत्पाद नहीं होता, क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए जघन्य अवगाहना में विभंगज्ञान नहीं पाया जाता; इस कारण यहाँ (मूलपाठ में) दो अज्ञानों की ही प्ररूपणा की गई है। उत्कृष्ट अवगाहनावाले मनुष्य की स्थिति को दृष्टि से हीनाधिकतुल्यता-उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों की अवगाहना तीन गव्यूति (कोस) की होती है और उनकी स्थिति होती है---जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम तीन पल्योपम की और उत्कृष्ट पूरे तीन पल्योपम की। तीन पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, तीन पल्योपमों का असंख्यातवाँ ही भाग है। अतएव पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम तीन पल्योपम वाला मनुष्य, तीन पल्योपम की स्थिति वाले मनुष्य से असंख्यात भागहीन होता है और पूर्ण तीन पल्योपम वाला मनुष्य उससे असंख्यातभाग अधिक स्थिति वाला होता है। इनमें अन्य किसी प्रकार की हीनता या अधिकता सम्भव नहीं है। इस प्रकार के किन्हीं दो मनुष्यों में कदाचित् स्थिति की तुल्यता भी होती है / उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों में दो ज्ञान और दो प्रज्ञान की प्ररूपणा-उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों में मति और श्रुत, ये दो ही ज्ञान अथवा मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान, ये दो ही अज्ञान और दो ही दर्शन पाए जाते हैं। इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्य Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 ] [ प्रज्ञापनासूत्र असंख्यातवर्ष की आयु वाले हो होते हैं, और असंख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्य में न तो अवधिज्ञान ही हो सकता है और न ही विभंगज्ञान, क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है / मध्यम प्रवगाहना वाले मनुष्य अवगाहनापेक्षया चतुःस्थानपतित-मध्यम अवगाहना संख्यातवर्ष की आयु वाले की भी हो सकती है और असंख्यतावर्ष की आयु वाले की भी हो सकती है / असंख्यातवर्ष की आयु वाला मनुष्य भी एक या दो गन्यूत (गाऊ) की अवगाहना वाला होता है / अतः अवगाहना की अपेक्षा से इसे चतु:स्थानपतित कहा गया है। चारों ज्ञानों की अपेक्षा से मध्यम-अवगाहनायुक्त मनुष्य षट्स्थानपतित-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव, ये चारों ज्ञान द्रव्य आदि की अपेक्षा रखते हैं तथा क्षयोपशमजन्य हैं / क्षयोपशम में विचित्रता होती है, अतएव उनमें तरतमता होना स्वाभाविक है। इसी कारण चारों ज्ञानों की अपेक्षा से मध्यम अवगाहनायुक्त मनुष्यों में षट्स्थानपतित होनाधिकता बताई गई है। __ केवलज्ञान के पर्यायों को अपेक्षा से वे तुल्य हैं- समस्त आवरणों के पूर्णतया क्षय से उत्पन्न होने वाले केवलज्ञान में किसी प्रकार की तरतमता नहीं होती; इसलिए केवलज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से मध्यम अवगाहनायुक्त मनुष्य तुल्य हैं। जघन्य स्थिति वाले मनुष्यों में दो अज्ञान ही क्यो? –सिद्धान्तानुसार सम्मूच्छिम मनुष्य ही जघन्य स्थिति के होते हैं और वे नियमतः मिथ्यादृष्टि होते हैं। इस कारण जघन्यस्थिति वाले मनुष्यों में दो अज्ञान ही हो सकते हैं, ज्ञान नहीं / अतः यहाँ ज्ञानों का उल्लेख नहीं किया गया है / उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्यों में दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन क्यों ?-- उत्कृष्ट स्थिति वाले मनुष्यों की आयु तीन पल्योयम की होती है। अतएव उनमें दो ज्ञान, दो अज्ञान और दो दर्शन ही पाए जाते हैं। जो ज्ञान वाले होते हैं वे वैमानिक की आयु का बन्ध करते हैं, तब उनमें दो ज्ञान होते हैं। असंख्यात वर्ष की आय वाले मनुष्यों में अवधिज्ञान, अवधिदर्शन या वि अभाव होता है। इस कारण इन में दो ज्ञानों, दो अज्ञानों और दर्शनों का उल्लेख किया गया है। तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों का नहीं / मध्यमगुण कृष्ण मनुष्य स्वस्थान में षट्स्थानपतित-मध्यमगुण कृष्णवर्ण के अनन्त तरतमरूप होते हैं, इस कारण वह स्वस्थान में भी षट्स्थानपतित होता है। जघन्य और उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्यों में ज्ञानादि का अन्तर--जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य के प्रबल ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने से उसमें अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान नहीं होते जबकि उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य में तीन ज्ञान और तीन दर्शन होते हैं / उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिक मनुष्य त्रिस्थानपतित-चूकि उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य नियमतः संख्यातवर्ष की आयु वाला ही होता है। संख्यातवर्ष की आयुवाला मनुष्य स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित ही होता है। किन्तु जो असंख्यातवर्ष की आयुवाला होता है, उसे भवस्वभाव के कारण उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिक ज्ञान नहीं होता। ___ मध्यम प्राभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य स्वस्थान में षट्स्थानपतित-जैसे एक उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य, दूसरे उत्कृष्ट प्राभिनिबोधिक ज्ञानी से तुल्य होता है, वैसे मध्यम आभिनिबो१. (क) प्रज्ञापना. म, वृत्ति, पत्रांक 194, (ख) प्रज्ञापनाधिनो प्रमेयबो. टीका भा. 2, पृ. 753 से 759 तक Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचयाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [ 405 धिकज्ञानी, मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी के तुल्य ही हो, ऐसा नियम नहीं है। इसलिए उनमें स्वस्थान में षट्स्थानपतित हीनाधिकता सम्भव है। जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानी मनुष्य अवगाहना को अपेक्षा से विस्थानपतित क्यों ?-- मनुष्यों में सर्वजघन्य अवधिज्ञान पारभविक (पूर्वभव से साथ आया हुआ) नहीं होता, किन्तु वह तद्भव (उसी भव) सम्बन्धी होता है और वह भी पर्याप्त-अवस्था में, अपर्याप्त अवस्था में उसके योग्य विशुद्धि नहीं होती तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञान भाव से चारित्रवान् मनुष्य को होता है। इस कारण जघन्यावधिज्ञानी और उत्कृष्टावधिज्ञानी मनुष्य अवगाहना की अपेक्षा विस्थानपतित ही होते हैं, किन्तु मध्यम अवधिज्ञानी चतुःस्थानपतित होता है, क्योंकि मध्यम अवधिज्ञान पारभविक भी हो सकता है, अतएव अपर्याप्त अवस्था में भी सम्भव है। स्थिति की अपेक्षा से जघन्यादियुक्त अवधिज्ञानी मनुष्य शिस्थानपतित क्यों ?–अवधिज्ञान असंख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्यों में सम्भव नहीं, वह संख्यातवर्ष की आयु वालों को ही होता है। अतः जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों में संख्यातवर्ष की आयु की दृष्टि से त्रिस्थानपतित हीनाधिकता ही हो सकती है, चतुःस्थानपतित नहीं। ___ जघन्यादियुक्त मनःपर्यवज्ञानी स्थिति को दृष्टि से विस्थानपतित-मनःपर्यायज्ञान चारित्रवान् मनुष्यों को ही होता है, और चारित्रवान् मनुष्य संख्यातवर्ष की आयुवाले ही होते हैं। अत: जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट मनःपर्यायज्ञानी मानव स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित ही होते हैं।' केवल ज्ञानी मनुष्य अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित क्यों और कैसे ? - यह कथन केवलीसमुद्घात की अपेक्षा से है, क्योंकि केवलीसमुद्घात करता हुअा केवलज्ञानी मनुष्य, अन्य केवली मनुष्यों की अपेक्षा असंख्यातगुणी अधिक अवगाहना वाला होता है और उसकी अपेक्षा अन्य केवली असंख्यातगुणहीन अवगाहना वाले होते हैं। अतः अवगाहना की दृष्टि से केवलज्ञानी मनुष्य चतु:स्थानपतित होते हैं। स्थिति की अपेक्षा केवलोमनुष्य शिस्थानयतित-सभी केवली संख्यातवर्ष की आयुवाले ही होते हैं, अतएव उनमें चतु:स्थानपतित हीनाधिकता संभव नहीं है। इस कारण वे त्रिस्थानपतित हीनाधिक हैं। वारणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को पर्याय-प्ररूपरणा 466. [1] वाणमंतरा जहा असुरकुमारा। [466-1] वाणव्यन्तर देवों में (पर्यायों की प्ररूपणा) असुरकुमारों के समान (समझ लेनी चाहिए।) [2] एवं जोइसिया वेमाणिया / नवरं सटाणे ठितीए तिट्ठाणडिते भाणितब्वे / से तं जीवपज्जवा। 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 194-195-196, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, भा-२, पृ. 760-770 2. (क) प्रज्ञापना. म. वत्ति, पत्रांक 196, (ख) प्रज्ञापता प्र. बोध. टीका भा-२, पृ. 772 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [466-2] ज्योतिष्कों और वैमानिक देवों में (पर्यायों की प्ररूपणा भी इसी प्रकार की समझनी चाहिए)। विशेष बात यह है कि वे स्वस्थान में स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित (हीनाधिक) हैं। यह जीव के पर्यायों को प्ररूपणा समाप्त हुई / विवेचन-वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के पर्यायों को प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (499) में पूर्वोक्तसूत्रानुसार तोनों प्रकार के देवों के पर्यायों के कथन अतिदेशपूर्वक किया गया है। अजीव-पर्याय अजीवपर्याय के भेद-प्रभेद और पर्यायसंख्या 500. अजीवपज्जवा णं भंते कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-रूविग्रजीवपज्जवा य अरूविधजीवपज्जवा य / [500 प्र.] भगवन् ! अजीवपर्याय कितने प्रकार के कहे हैं ? [500 उ.] गौतम ! (अजीवपर्याय) दो प्रकार के कहे हैं; वे इस प्रकार--(१) रूपी अजीव के पर्याय और अरूपी अजीव के पर्याय / 501. अरूविग्रजीवपज्जवा णं भंते ! कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता / तं जहा-धम्मस्थिकाए 1, धम्मस्थिकायस्स देसे 2, धम्मस्थिकायस्स पदेसा 3, अधम्मस्थिकाए 4, अधम्मस्थिकायस्स देसे 5, अधम्मस्थिकायस्स पदेसा 6, प्रागासस्थिकाए 7, आगासस्थिकायस्स देसे 8, प्रागासस्थिकायस्स पदेसा 6, प्रद्धासमए 10 / [501 प्र.] भगवन् ! अरूपी अजीव के पर्याय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [501 उ.] गौतम ! वे दस प्रकार के कहे हैं / यथा-(१) धर्मास्तिकाय, (2) धर्मास्तिकाय का देश, (3) धर्मास्तिकाय के प्रदेश, (4) अधर्मास्तिकाय, (5) अधर्मास्तिकाय का देश, (6) अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, (7) आकाशास्तिकाय, (8) आकाशास्तिकाय का देश, (9) आकाशास्तिकाय के प्रदेश और (10) अद्धासमय (काल) के पर्याय / 502. रूवियजीवपज्जवा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! चउविहा पण्णत्ता / तं जहा-खंधा 1, खंधदेसा 2, खंधपदेसा 3, परमाणुपोग्गले 4 / [502 प्र] भगवन् ! रूपी अजीव के पर्याय कितने प्रकार के कहे हैं ? [502 उ.] गौतम ! वे चार प्रकार के कहे हैं। यथा-(१) स्कन्ध, (2) स्कन्धदेश, (3) स्कन्ध-प्रदेश और (4) परमाणुपुद्गल (के पर्याय)। 503. ते णं भंते ! कि संखेज्जा प्रसंखेज्जा प्रणता? गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, प्रणेता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति नो संखेज्जा, नो प्रसंखेज्जा, अणता? Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) ] [407 गोयमा ! अणंता परमाणुपोग्गला, अणंता दुपदेसिया खंधा जाव प्रणता दसपदेसिया खंधा, प्रणंता संखेज्जपदेसिया खंधा, अणंता असंखेज्जपदेसिया खंधा, प्रणता प्रणतपदेसिया खंधा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं उच्चति--ते गं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता। [503 प्र.] भगवन् ! क्या वे (पूर्वोक्त रूपीअजीवपर्याय-चतुष्टय) संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ? [503 उ गौतम ! वे संख्यात नहीं असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि वे (पूर्वोक्त चतुर्विध रूपी अजीवपर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं ? [उ.] गौतम ! परमाणु-पुद्गल अनन्त हैं; द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, यावत् दशप्रदेशिकस्मन्ध अनन्त हैं, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, और अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं / हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वे न संख्यात हैं, न ही असंख्यात हैं, किन्तु अनन्त हैं। विवेचन-अजीवपर्याय के भेद-प्रभेद और पर्यायसंख्या--प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 500 से 503 तक) में अजीवपर्याय, उसके मुख्य दो प्रकार, तथा अरूपी और रूपी अजीव-पर्याय के भेद एवं रूपी अजीवपर्यायों की संख्या का निरूपण किया गया है। रूपी और अरूपी प्रजीवपर्याय की परिभाषा-रूपी-जिसमें रूप हो. उसे रूपी शब्द से 'रूप' के अतिरिक्त 'गन्ध'. रस और स्पर्श का भी उपलक्षण से ग्रहण किया जाता है / प्राशय यह है कि जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वह रूपी कहलाता है / रूपयुक्त अजीव को रूपी अजीव कहते हैं / रूपी अजीव पुद्गल ही होता है, इसलिए रूपी अजीव के पर्याय का अर्थ हुआ-पुद्गल के पर्याय / अरूपी का अर्थ है-जिसमें रूप (रस, गन्ध और स्पर्श) का अभाव हो, जो अमूर्त हो / अतः अरूपी अजीव-पर्याय का अर्थ हुअा-अमूर्त अजीव के पर्याय / धर्मास्तिकायादि की व्याख्या-धर्मास्तिकाय-धर्मास्तिकाय का असंख्यातप्रदेशों का सम्पूर्ण (अखण्डित) पिण्ड (अवयवी द्रव्य)। धर्मास्तिकायदेश--धर्मास्तिकाय का अर्द्ध आदि भाग / धर्मास्तिकायप्रदेश-धर्मास्तिकाय के निरंश (सूक्ष्मतम) अंश / इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय आदि के त्रिकों को समझ लेना चाहिए / प्रद्धासमय अप्रदेशी कालद्रव्य / ' द्रव्यों का कथन या पर्याय का ?–पर्यायों की प्ररूपणा के प्रसंग में यहाँ पर्यायों का कथन करना उचित था, उसके बदले द्रव्यों का कथन इसलिए किया गया है कि पर्याय और पर्यायी (द्रव्य) कथंचित् अभिन्न हैं, इस बात की प्रतीति हो। वस्तुतः धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकायदेश अादि पदों के उल्लेख से उन-उन धर्मास्तिकायादि त्रिकों तथा अद्धासमय के पर्याय ही विवक्षित हैं, द्रव्य नहीं / परमाणुपुद्गल आदि को पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्यता 504. परमाणुपोग्गलाणं भंते ! केवतिया पज्जवा पण्णता? गोयमा ! परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। 1. प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक 202 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 202 Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408] [प्रज्ञापनासूत्र से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दम्वट्ठयाते तुल्ले, पदेसठ्ठयाते तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाते तुल्ले; ठितीए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अभहिते-जति होणे असंखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिभागहीणे वा संखेज्जतिगुणहीणे वा असंखेज्जतिगुणहीणे वा, अह अभतिए असंखेज्जतिभागअब्भहिए वा संखेज्जतिभागमभहिए वा संखेज्जगुणअन्भहिए वा असंखेगुणप्रबभहिते वा; कालवण्णपज्जवेहि सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्भहिए-जति होणे अणंतभागहीणे वा असंखेज्जतिभागहोणे का संखेज्जमागहोणे वा संखेज्जगुणहीणे वा असंखेज्जगुणहोणे वा अणंतगुणहोणे वा, अह अहिए अणंतभागमम्महिते वा असंखेज्जतिभागमभहिए वा संखेज्जभागमभहिते वा संखेज्जगुणमअहिए वा असंखेज्जगुणमन्भहिए वा अणंतगुणमब्भहिए वा; एवं प्रवसेसवण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, फासा णं सोय-उसिण-निद्ध-लुखेहि छट्ठाणवडिते, से तेणट्ठणं गोयमा ! एवं वुच्चति परमाणुपोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। [504 प्र.] भगवन् ! परमाणुपुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [504 उ.] गौतम ! परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक परमाणुपुद्गल, दूसरे परमाणुपुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है; अवगाहना की दृष्टि से (भी) तुल्य है, (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, कदाचित् अभ्यधिक है / यदि हीन है, तो असंख्यातभाग हीन है, संख्यातभाग 'हीन है अथवा संख्यातगुण हीन है, अथवा असंख्यातगुण हीन है; यदि अधिक है, तो असंख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातभाग अधिक है, या संख्यातगुण अधिक है, अथवा असंख्यातगुण अधिक है / कृष्णवर्ग के पर्यायों की अपेक्षा से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य है, और कदाचित् अधिक है। यदि हीन है तो अनन्तभाग हीन है, या असंख्यातभाग-हीन है अथवा संख्यातभाग हीन है; अथवा संख्यातगुण हीन है, असंख्यातगुण हीन है या अनन्तगुण-हीन है / यदि अधिक है तो अनन्तभाग अधिक है, असंख्यातभाग अधिक है, अथवा संख्यातभाग अधिक है। अथवा संख्यातगुण अधिक है, असंख्यातगुण अधिक है, या अनन्तगुण अधिक है। इसी प्रकार अवशिष्ट (काले वर्ण के सिवाय बाकी के) वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। स्पर्शों में शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा गया है कि परमाणु-पुद्गलों के अनन्त पर्याय प्ररूपित हैं / 505. दुपदेसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! दुपदेसिए दुपदेसियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अभहिते -- जति होणे पदेसहोणे, अह अब्भहिते पदेसमभहिते; ठितीए च उट्ठाणवडिते, वण्णादोहिं उरिल्लेहिं चढहिं फासेहि य छट्ठागडिते। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [409 [505 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [505 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा गया है कि द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक द्विप्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे द्विप्रदेशिक स्कन्ध से, द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तल्य है. अवगाहना की अपेक्षा कदाचित हीन है, कदाचित तल्य है और कदाचित अधिक है। यदि हीन हो तो एक प्रदेश हीन होता है / यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक होता है। स्थिति को अपेक्षा से चतु:स्थानपतित होता है, वर्ण आदि की अपेक्षा से और उपर्युक्त चार (शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष) स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। 506. एवं तिपएसिए वि। नवरं प्रोगाहणठ्याए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्महितेजति होणे पएसहीणे वा दुपएसहोणे वा, अह अम्महिते पएसमन्महिते वा दुपएसमन्महिते वा। __[506] इसी प्रकार त्रिप्रदेशिक स्कन्धों के (पर्यायों के विषय में कहना चाहिए / ) विशेषता यह है कि अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो एकप्रदेशहीन या द्विप्रदेशों से हीन होता है। यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक अथवा दो प्रदेश अधिक होता है / 507. एवं जाव दसपएसिए / नवरं प्रोगाहणाए पएसपरिवुड्डी कायवा जाव दसपएसिए णवपएसहीणे ति। [507] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशिक स्कन्धों तक का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से प्रदेशों की (क्रमशः) वृद्धि करना चाहिए; यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध नौ प्रदेश-हीन तक होता है। 508. संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा! संखेज्जयएसिए खंधे संखेज्जपएसियस्स खंधस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले; पदेसठ्ठयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रमाहिते-जति होणे संखेज्जभागहीणे वा संखेज्जगुणहीणे वा, प्रह प्रभइए एवं चेव; प्रोगाहणट्ठयाए वि दुट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-उवरिल्लचउफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [508 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [508 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [प्रज्ञापनासूत्र तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से कदाचित् होन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि हीन हो तो, संख्यातभाग हीन या संख्यातगुण हीन होता है। यदि अधिक हो तो संख्यातभाग अधिक यासंख्यात गुण अधिक होता है / अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित होता है। स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है / वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित होता है। 506. असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? गोयमा ! प्रसंखेज्जपएसिए खंधे असंखेज्जपएसियस खंधस्स दबट्ट्याए तुल्ले, पएसठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्याए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणडिते, वण्णादि-उरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवडिते। [509 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [509 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि असंख्यातप्रदेशिक स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध, दूसरे असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 510. अणंतपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केपट्टेणं भंते ! एवं वच्चति ? गोयमा ! प्रणंतपएसिए खंधे प्रणंतपएसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणबडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवड़िते। [510 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [510 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? उ. गौतम ! एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [411 511. एगपएसोगाढाणं पोग्गलाणं पुच्छा / गोयमा ! प्रणेता पज्जवा पण्णत्ता / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! एगपएसोगाढ-पोग्गले एगपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, अोगाहणव्याते तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-उवरिल्लचउफासेहि य छाणवड़िते। [511 प्र.] भगवन् ! एक प्रदेश में अवगाढ पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [511 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि एक प्रदेश में अवगाढ पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? उ.] गौतम ! एक प्रदेश में अवगाढ एक पुद्गल, दूसरे एक प्रदेश में अवगाढ पुद्गल से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा मे चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 512. एवं दुपएसोगाढे वि जाव दसपएसोगाढे / [512] इसी प्रकार द्विप्रदेशावगाढ से दशप्रदेशावगाढ स्कन्धों तक के पर्यायों की वक्तव्यता समझ लेना चाहिए। 513. संखेज्जपएसोगाढाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! संखेज्जपएसोगाढे पोग्गले संखेज्जपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसठ्ठयाए छठाणवडिते, प्रोगाहणठ्ठयाए दुट्ठाणवडिते, ठितोए चउट्ठाणवीडिते, वण्णाइ-उबरिल्लचउफासेहि य छठाणवडिते / {513 प्र.} भगवन् ! संख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [513 उ.] गौतम ! (उनके ) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि संख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्धों (पुद्गलों) के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल, दूसरे संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412] [ प्रज्ञापनासूत्र 514. असंखेज्जपएसोगाढाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पउजवा / से केणद्वेणं भंते ! एवं उच्चति ? गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढे पोग्गले असंखेज्जपएसोगाढस्स पोग्गलस्स दवट्ठाए तल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवउिते, ठितीए चउठाणवडिते, वण्णादि-अट्ठफासेहि छठाणवड़िते। [514 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [514 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.[ गौतम ! एक असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल, दूसरे असंख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा प्रष्ट स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 515. एगसमयठितीयाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! एगसमयठितीए पोम्गले एगसमयठितीयस्स पोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए छट्ठाणवडिते, ओगाहणठ्याए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, धण्णादि-अहफासेहि छट्ठाणवड़िते। [515 प्र.] भगवन् ! एक समय की स्थिति वाले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [515 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि एक समय की स्थिति वाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक समय की स्थिति वाला एक पुद्गल, दूसरे एक समय की स्थिति वाले पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 516. एवं जाव दससमयठिईए। [516] इस प्रकार यावत् दस समय की स्थिति वाले पुद्गलों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [413 517. संखेज्जसमयठितीयाणं एवं चेव / नवरं ठितीए दुट्ठाणवडिते / [517] संख्यात समय की स्थिति वाले पुदगलों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि वह स्थिति की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है। 518. असंखेज्जसमयठितीयाणं एवं चेव / नवरं ठिईए चउट्ठाणवडिते / [518] असंख्यात समय की स्थिति वाले पुद्गलों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार है / विशेषता यह है कि वह स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है। 516. एगगुणकालगाणं पुच्छा / गोयमा ! प्रणता पज्जवा / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले' एगगुणकालगस्स पोग्गलस्स दव्वठ्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, अवसेसेहिं वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, अहिं फासेहिं छठाणवडिते / [519 प्र.] भगवन् ! एकगुण काले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [519 उ.] गौतम ! (उनके ) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि एक गुण काले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक गुण काला एक पुद्गल, दूसरे एक गुण काले पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है तथा अवशिष्ट (कृष्णवर्ण के अतिरिक्त अन्य) वर्णों, गन्धों, रसों और स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है एवं अष्ट स्पर्शों की अपेक्षा से (भी) षट्स्थानपतित है / 520. एवं जाव दसगुणकालए। [520] इसी प्रकार यावत् दश गुण काले (पुद्गलों) की (पर्याय सम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए / ) 521. संखेज्जगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे दुट्ठाणवडिते। [521] संख्यातगुण काले (पुद्गलों) का (पर्याय विषयक कथन) भी इसी प्रकार (जानना चाहिए।) विशेषता यह है कि (वे) स्वस्थान में द्विस्थानपतित हैं / 1. ग्रन्थानम् 3000 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 414] [प्रज्ञापनासूत्र 522. एवं असंखेज्जगुणकालए वि / णवरं सट्ठाणे चउट्ठाणवडिते / [522] इसी प्रकार असंख्यातगुण काले (पुद्गलों) की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि (वे) स्वस्थान में चतुःस्थानपतित हैं / 523. एवं अणंतगुणकालए वि / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवड़िते / [523] इसी तरह अनन्तगुण काले (पुद्गलों) की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता जाननी चाहिए / विशेष यह है कि (वे) स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं। 524. एवं जहा कालवण्णस्स बत्तब्वया भणिया तहा सेसाण वि वण्ण-गंध-रस-फासाणं वतव्वया भाणितवा जाव प्रणतगुणलुक्खे। [524] इसी प्रकार जैसे कृष्णवर्ण वाले (पुद्गलों) की (पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता कही है,) वैसे ही शेष सब वर्गों, गन्धों, रसों और स्पर्णी (वाले पुद्गलों) की (पर्यायसम्बन्धी) वक्तव्यता यावत् अनन्तगुण रूक्ष (पुद्गलों) की (पर्यायों सम्बन्धी) वक्तव्यता तक कहनी चाहिए। विवेचन-परमाणुपुदगल आदि की पर्यायसम्बन्धी प्ररूपणा--प्रस्तुत इक्कीस सूत्रों (सू. 504 से 524 तक) में विविध प्रकार के पुद्गलों की विभिन्न अपेक्षाओं से पर्यायसम्बन्धी प्ररूपणा को रूपी-अजीव-पर्यायप्ररूपणा का क्रम- (1) परमाणुपुद्गल तथा द्वि-त्रि-दश-संख्यातअसंख्यात-अनन्तप्रदेशिक पुद्गलों के विषय में, (2) प्राकाशीय एकप्रदेशावगाढ से लेकर असंख्यातप्रदेशावगाढ पुदगलों के विषय में, (3) एकसमयस्थितिक से असंख्यातसमयस्थितिक पुदगलो के विषय में, (4) एकगुण कृष्ण से अनन्त गुण कृष्ण पुद्गलों के विषय में तथा शेष वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श पुद्गलों के विषय में पर्याय-प्ररूपणा क्रमश: को गई है / ' परमाणुपुदगलों में अनन्तपर्यायों की सिद्धि-प्रस्तुत में यह प्रतिपादन किया गया है कि परमाणु द्रव्य और प्रत्येक द्रव्य अनन्त पर्यायों से युक्त होता है / एक परमाणु दूसरे परमाणु से द्रव्य, प्रदेश और अवगाहना की दृष्टि से तुल्य होता है, क्योंकि प्रत्येक परमाणु एक-एक स्वतंत्र द्रव्य है / वह निरंश ही होता है तथा नियमतः आकाश के एक ही प्रदेश में अवगाहन करके रहता है / इसलिए इन तीनों की अपेक्षा से वह तुल्य है। किन्तु स्थिति की अपेक्षा से एक परमाणु दूसरे परमाणु से चतु:स्थानपतित हीनाधिक होता है, क्योंकि परमाण की जघन्य स्थिति एक समय की और उत्कृष्ट असंख्यात काल को है, अर्थात-कोई पदगल परमाणरूप पर्याय में कम से कम एक समय तक रहता है और अधिक से अधिक असंख्यात काल तक रह सकता है। इसलिए सिद्ध है कि एक परमाणु दूसरे परमाणु से चतु:स्थानपतित हीन या अधिक होता है तथा वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श, विशेषतः चतुःस्पर्शों की अपेक्षा परमाणु-पुद्गल में षट्स्थानपतित होनाधिकता होती है। अर्थात्-- वह असंख्यात-संख्यात-अनन्तभागहीन, या संख्यात-असंख्यात-अनन्तगुण हीन अथवा असंख्यात-संख्यातअनन्तभाग अधिक अथवा संख्यात-असंख्यात-अनन्तगुण अधिक है। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठटिप्पणयुक्त) भाग 1, पृ. 151 से 154 तक Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचयाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [ 415 प्रदेशहीन परमाण में अनन्त पर्याय कैसे?-परमाणु को जो 'अप्रदेशी' कहा गया है, वह सिर्फ द्रव्य की अपेक्षा से है, काल और भाव की अपेक्षा से वह अप्रदेशी या निरंश नहीं है / __ परमाणः चतःस्पर्शी और षटस्थानपतित-एक परमाणु में आठ स्पों में से सिर्फ चार स्पर्श ही होते हैं। वे ये हैं--शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष / बल्कि असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध तक में ये चार ही स्पर्श होते हैं। कोई-कोई अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी चार स्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार एकप्रदेशावगाढ से लेकर संख्यातप्रदेशावगाढ पुद्गल (स्कन्ध) भी चार स्पर्शों वाले होते हैं। अत: इन अपेक्षाओं से परमाणु को षट्स्थानपतित समझना चाहिए।' द्विप्रदेशी स्कन्ध अवगाहना को दष्टि से हीन, अधिक और तल्य : क्यों और कैसे ?–जब दो द्विप्रदेशी स्कन्ध प्रकाश के दो-दो प्रदेशों या दोनों---एक-एक प्रदेश में अवगाढ हों, तब उनकी अवगाहना तल्य होती है। किन्तु जव एक द्विप्रदेशी स्कन्ध एक प्रदेश में अवगाढ हो और दूसरा दो प्रदेशों में, तब उनमें अवगाहना की दृष्टि से हीनाधिकता होती है। जो एक प्रदेश में अवगाढ है, वह दो प्रदेशों में अवगाढ स्कन्ध की अपेक्षा एक प्रदेश हीन अवगाहना वाला कहलाता है, जबकि दो प्रदेशों में अवगाढ स्कन्ध एकप्रदेशावगाढ की अपेक्षा एकप्रदेश-अधिक अवगाहना वाला कहलाता है। द्विप्रदेशी स्कन्धों को अवगाहना में इससे अधिक होनाधिकता सभव नहीं है। त्रिप्रदेशो स्कन्धों में होनाधिकता : अवगाहना की दृष्टि से-तीन प्रदेशों का पिण्ड त्रिप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है / वह आकाश के एक प्रदेश में भी रह सकता है, दो प्रदेशों में भी और तीन आकाश प्रदेशों में भी रह सकता है / तीन अाकाशप्रदेशों से अधिक में उसको अवगाहना संभव नहीं। स्थति में यदि त्रिप्रदेशी स्कन्धों की अवगाहना में हीनता और अधिकता हो तो एक या दो प्राकाशप्रदेशों की ही हो सकती है. अधिक की नहीं। दशप्रदेशी स्कन्ध तक की होनाधिकता : अवगाहना की दष्टि से-जब दो त्रिप्रदेशी स्कन्ध तीन-तीन प्रदेशों में, दो-दो प्रदेशों में या एक-एक प्रदेश में अवगाढ होते हैं, तब वे अवगाहना की दृष्टि से परस्पर तुल्य होते हैं, किन्तु जब एक त्रिप्रदेशीस्कन्ध त्रिप्रदेशावगाढ और दूसरा द्विप्रदेशावगाढ होता है, तब वह एकप्रदेशहीन होता है। यदि दूसरा एकप्रदेशाबगाढ होता है तो वह द्विप्रदेशहीन होता है और वह त्रिप्रदेशावगाढ़ द्विप्रदेशावगाढ़ से एकप्रदेशाधिक और एकप्रदेशावगाढ से द्विप्रदेशाधिक होता है। इस प्रकार एक-एक प्रदेश बढ़ा कर चारप्रदेशी से दशप्रदेशी तक के स्कन्धों में अवगाहना की अपेक्षा से हानिवृद्धि का कथन कर लेना चाहिए। इस दृष्टि से दशप्रदेशी स्कन्ध में होनाधिकता इस प्रकार कही जाएगी-दशप्रदेशी स्कन्ध जब हीन होता है तो एकप्रदेशहीन, द्विप्रदेशहीन यावत् नौप्रदेशहीन होता है और अधिक तो एकप्रदेशाधिक यावत् नवप्रदेशाधिक होता है / / संख्यातप्रदेशी स्कन्ध की अनन्तपर्यायता-संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य-दृष्टि से तुल्य होता है / वह द्रव्य है, इस कारण अनन्तपर्याय वाला भी है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य अनन्तपर्याययुक्त होता है / प्रदेशों की दृष्टि से वह हीन, तुल्य या अधिक भी हो सकता है / यदि हीन या अधिक हो तो संख्यातभाग हीन या संख्यातगुण हीन अथवा संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण ..----- ... -- 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 201, 2. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 201, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयवोधिनी पृ. 798-801 (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका पृ. 806-807 Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416 [ प्रज्ञापनासूत्र अधिक होता है। इसीलिए इसे द्विस्थानपतित कहा है / अवगाहना की दृष्टि से भी वह द्विस्थानपतित है। स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है / वर्णादि में तथा पूर्वोक्त चतुःस्पर्शों में षट्स्थानपतित समझना चाहिए। अनन्तप्रदेशी स्कन्ध प्रवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित ही क्यों ? अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित ही होता है, षट्स्थानपतित नहीं. क्योंकि लोकाकाश के असंख्यातप्रदेश ही हैं और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी अधिक से अधिक असंख्यात प्रदेशों में ही अवगाहन करता है / अतएव उसमें अनन्तभाग एवं अनन्तगुण हानि-वृद्धि की सम्भावना नहीं है। इस कारण वह षट्स्थानपतित नहीं हो सकता / हाँ, वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से एक अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से वर्णादि की दृष्टि से अनन्त-असंख्यात-संख्यातभाग हीन, अथवा संख्यातगुण या असंख्यातगुण हीन, अनन्तगुण हीन और इसी प्रकार अधिक भी हो सकता है। इसलिए इसमें षट्स्थानपतित हो सकता है।' एकप्रदेशावगाढ़ परमाणु प्रदेशों की दृष्टि से षट्स्थानपतित हानिवृद्धिशील--द्रव्य की अपेक्षा से तल्य होने पर भी प्रदेशों की अपेक्षा से इसमें षटस्थानपतित हीनाधिकता है। क्योंकि एकप्र परमाणु भी एक प्रदेश में रहता है और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी एक ही प्रदेश में रह सकता है। किन्तु अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है। स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है तथा वर्णादि एवं चतुःस्पर्शो की दृष्टि से षट्स्थानपतित होता है / असंख्यातप्रदेशावगाढ़ पुद्गल प्रवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित---च कि लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं, जिनमें पुद्गलों का अवगाहन है। अत: अनन्तप्रदेशों में किसी भी पुद्गल की अवगाहना संभव नहीं है / 2 / संख्यातगुण काला पुदगल स्वस्थान में द्विस्थानपतित-संख्यातगुण काला पुद्गल या तो संख्यातभाग हीन कृष्ण होता है अथवा संख्यातगुण हीन कृष्ण होता है। अगर अधिक हो तो संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है / ___ अनन्तगुण काला पुद्गल स्वस्थान में षट्स्थानपतित-अनन्तगुण काले एक पुद्गल में दूसरा अनन्तगुण काला पुद्गल अनन्तभाग हीन, असंख्यातभाग हीन, संख्यातभाग हीन अथवा संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन अनन्तगुण हीन होता है / यानी वह षट्स्थानपतित होता है। जघन्यादि विशिष्ट अवगाहना एवं स्थिति वाले द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की पर्यायप्ररूपरणा 525. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? 1. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 202, 2. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 203, 3. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 203-204, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 811 से 813 (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 814 से 819 तक (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 821-822 Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [ 417 ____गोयमा ! जहण्णोगाहणए दुपएसिए खंधे जहण्णोगाहणगस्स दुपएसियस्स खंधस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसठ्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणठ्ठयाए तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवग्णपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, सेसवण्ण-गंध-रसपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, सोय-उसिण-णिद्ध-लुक्खफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते, से तेणठेणं गोतमा ! एवं बुच्चति जहण्णोगाहणगाणं दुपएसियाणं पोग्गलाणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता। [525-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? {525-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, (किन्तु) स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, कृष्ण वर्ण के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित है, शेष वर्ग, गन्ध और रस के पर्यायों की दृष्टि से षट्स्थानपतित है तथा शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशिक पुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / [525-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले [द्विप्रदेशी पुद्गल-(स्कन्धों) के पर्यायों] के विषय में भी इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणो नत्यि। [525-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध नहीं होते। 526. [1] जहण्णोगाहणयाणं भंते ! तिपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता पज्जवा / से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! जहा दुपएसिते जहण्णोगाहणते / [526-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [526-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे गए हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवमाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [3] गौतम ! जैसे जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी (पुद्गलों की पर्यायविषयक वक्तव्यता कही है,) वैसी हो (वक्तव्यता) जघन्य अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के विषय में कहनी चाहिए / Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] [प्रज्ञापनासूत्र [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / [526-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] एवं अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि। [526-3] इसी तरह मध्यम अवगाहना वाले त्रिप्रदेशी पुद्गलों के (पर्यायों के) विषय में (कहना चाहिए।) 527. [1] जहण्णोगाहणयाणं भंते ! चउपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहा जहण्णोगाहणए दुपएसिते तहाँ जहण्णोगाहणए चउपएसिते / [527-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी पुद्गलों के पर्याय कितने [527-1 उ.] गौतम ! जघन्य अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी पुद्गल-पर्याय जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के पर्याय की तरह (समझना चाहिए।) [2] एवं जहा उक्कोसोगाहणए दुपएसिए तहा उक्कोसोगाहणए चउप्पएसिए वि। [527-2] जिस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले द्विप्रदेशी पुद्गलों के पर्यायों का कथन किया गया है, उसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले चतु:प्रदेशी पुद्गल-पर्यायों का कथन करना चाहिये। [3] एवं अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि चउच्पएसिते। णवरं प्रोगाहणट्ठयाते सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अभइए-जति होणे पएसहीणे, प्रहऽमइते पएसम्भतिए / [527-3] इसी प्रकार मध्यम अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी स्कन्ध का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य, कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन होता है, यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक होता है। 528. एवं जाव दसपएसिए यवं / गवरमजहण्णुक्कोसोगाहणए पदेसपरिवुड्डी कातव्वा, जाव दसपएसियस्स सत्त पएसा परिवटिज्जति / [528] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक का (पर्यायविषयक कथन करना चाहिए / ) विशेष यह है कि मध्यम अवगाहना वाले में एक-एक प्रदेश की परिवृद्धि करनी चाहिए / इस प्रकार यावत् दशप्रदेशी तक सात प्रदेश बढ़ते हैं। 526. [1] जहष्णोगाहणगाणं भंते ! संखेज्जपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा! जहण्णोगाहणगे संखेज्जपएसिए जहण्णोगाणगस्स संखेज्जपएसियस्स दध्वट्ठयाते तुल्ले, पएसद्वयाते दुट्टाणवडिते. प्रोगाहणट्टयाते तुल्ले, ठितीए चउठाणवडिए, वण्णादि-चउफासपज्जवेहि य छाणवडिते। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [419 _[529-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [529-1 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि 'जघन्य अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों (स्कन्धों) के अनन्त पर्याय हैं ?' [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध दूसरे जघन्य अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है और वर्णादि चार स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। [2] एवं उपकोसोगाहणए वि / [529-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले (संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / णवरं सट्ठाणे दुट्ठाणवडिते। [529-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी ऐसा ही समझना चाहिए। विशेष यह है कि वह स्वस्थान में (अवगाहना की अपेक्षा से) द्विस्थानपतित है। 530. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा। गोंयमा ! अणंता! से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए असंखेज्जपएसिए खंधे जहण्णोगाहणगस्स असंखेज्जपएसियस्स खंघस्स दव्वद्र्याए तुल्ले, पएसठ्ठयाते चउट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्याते तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-उवरिल्लफासेहि य छट्ठाणवडिते। [530-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? - [530-1 उ.] गौतम ! अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है और वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसोगाहणए वि / [530-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले (असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्याय) के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [3] प्रजहण्णमणुक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे चउट्ठाणवडिते। 6530-3] मध्यम अवगाहना वाले (असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों) का (पर्याय-विषयक कथन भी) इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि (वह) स्वस्थान में चतुःस्थानपतित है। 531. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! अणंतपएसियाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए प्रणतपएसिए खंधे जहण्णोगाहणगस्स अणंतपएसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितोए चउट्ठाणवडिते, वण्णादिउरिल्लचउफासेहिं छट्ठाणवडिए / [531-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [531-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से घटस्थानपतित है. अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं ठितीए वि तुल्ले। 6531-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का (पर्यायविषयक कथन) भी इसी प्रकार (समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा भी तुल्य है / [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! अणंतपएसियाणे पुच्छा। गोयमा ! प्रणंता। से केपट्टणं? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए अगंतपएसिए खंधे अजहण्णमणुक्कोसोगाहणगस्स अणंतपदेसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-अट्ठफासेहि छठाणवडिते / [531-3 प्र.] भगवन् ! मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [535-3 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के अनन्त पर्याय हैं ? Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)j [ 421 [उ.] गौतम ! मध्यम अवगाहना वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शी की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 532. [1] जहण्णठितीयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णठितीए परमाणुपोग्गले जहण्णठितीयस्स परमाणुपोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणठ्याए तुल्ले, ठितीए तुल्ले, वण्णादि-दुफासेहि य छाणवड़िते। [532-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले परमाणुपुद्गल के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [532-1 उ.] गौतम ! (उसके) अनन्त पर्याय (कहे हैं / ) [प्र] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्य स्थिति वाले परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ?) [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला परमाणुपुद्गल, दूसरे जघन्य स्थिति वाले परमाणपुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है तथा स्थिति की अपेक्षा से (भी) तुल्य है एवं वर्णादि तथा दो स्पर्शो की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसठितीए वि। [532-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले (परमाणुपुद्गलों के पर्यायों) के विषय में (समझना चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितोए चउट्ठाणवड़िते। [532-3] मध्यम स्थिति वाले (परमाणुपुद्गलों के पर्यायों) के विषय में भी इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है। 533. [1] जहण्णठितीयाण दुपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणढेणं भंते ! ? गोयमा ! जहण्णठितीए दुपएसिते जहण्णठितीयस्स दुपएसियस्स दस्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए तुल्ले ; प्रोगाहणट्ठयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अन्महिए / जति होणे पदेसहीणे, अह अभतिए पदेसम्भतिते, ठितीए तुल्ले, वण्णादि-चउष्फासेहि य छट्ठाणवडिते। [533-1 प्र.) भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [533-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय कहे हैं ? Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य हैं, अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है / यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन और यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक है। स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है और वर्णादि तथा चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसठितीए वि। [533.2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउढाणवडिते / [533-3] मध्यम स्थिति वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए / विशेषता यह है कि स्थिति की अपेक्षा से वह चतु:स्थानपतित (हीनाधिक) है / 534. एवं जाव दसपदेसिते। नवरं पदेसपरिवुड्डी कातव्वा / प्रोगाहणट्टयाए तिसु वि गमएसु जाव दसपएसिए णव पएसा बडिज्जति / [534] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक के पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि इसमें एक-एक प्रदेश की क्रमशः परिवृद्धि करनी चाहिए / अवगाहना के तीनों गमों (मालापकों) में यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक ऐसे ही कहना चाहिए। (क्रमश:) नौ प्रदेशों की वृद्धि हो जाती है। 535. [1] जहण्णद्वितीयाणं भंते ! संखेज्जपदेसियाणं पुच्छा / गोयमा! अणंता। से केणढणं? गोयमा ! जहण्णद्वितीए संखेज्जपदेसिए खंधे जहण्णठितीयस्स संखेज्जपएसियस खंधस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए दुट्ठाणडिते, प्रोगाहणट्टयाए दुट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्णादि-चउफासेहि य छट्ठाणवाडिते। [535-1 प्र.] जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [535-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे गए हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेश की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्णादि तथा चतुःस्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 423 [2] एवं उक्कोसठितीए वि / (535-2] इसी प्रकार उत्कष्ट स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसट्टितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउठाणडिते। [535-3] मध्यम स्थिति वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है / 536. [1] जहण्णठितीयाणं असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणट्रेणं? गोयमा ! जहण्णठितीए असंखेज्जपएसिए जहण्णठितीयस्स असंखेज्जपदेसियस्स दवट्टयाए तुल्ले, पदेसट्टयाते चउट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाते चउट्ठाणवडिते, ठितीए तुल्ले, वण्णादि-उरिल्ल. चउप्फासेहि य छट्ठाणवड़िते। [536-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [536-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति बाला असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्य स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसठिईए वि / [536-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउट्ठाणवडिते / [536-3] मध्यम स्थिति वाले असंख्यात प्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा चतु:स्थानपतित है / 537. [1] जहण्णठितीयाणं अणंतपदेसियाणं पुच्छा / गोयमा! अणंता। से केण?णं? गोयमा ! जहण्णठितीए अणंतपएसिए जहण्णठितीयस्स अणंतपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणडिते, प्रोगाहणट्ठयाए चउठाणबडिते, ठितीए तुरुले, वण्णादि-अट्ठफासेहि य छठाणवडिते। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 ] [प्रज्ञापनासून [537-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [537-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय कहे हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध दूसरे जघन्य स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से तुल्य है और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।। [2] एवं उक्कोसठितीए वि / [537-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के पर्यायों के विषय में समझना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसठितीए वि एवं चेव / नवरं ठितीए चउट्ठाणवडिते। [537-3] अजघन्य-अनुत्कष्ट (मध्यम) स्थिति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए। विशेषता यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है। विवेचन-जघन्यादिविशिष्ट अवगाहना एवं स्थिति वाले द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशो स्कन्ध तक के पर्यायों को प्ररूपणा--प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 525 से 537 तक) में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना एवं स्थिति वाले परमाणु पुद्गलों तथा द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक, यावत् संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कन्ध चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित-जघन्य अवगाहना वाले द्विप्रदेशी स्कन्धों में शीत, उष्ण, रूक्ष और स्निग्ध, ये चार स्पर्श ही पाए जाते हैं, इनमें शेष कर्कश, कठोर, हलका (लघु) और भारी (गुरु), ये चार स्पर्श नहीं पाए जाते / इनमें षट्स्थानपतित हीनाधिकता पाई जाती है। द्विप्रदेशीस्कन्ध में मध्यम अवगाहना नहीं होती-दो परमाणुओं का पिण्ड द्विप्रदेशी स्कन्ध कहलाता है / उसकी अवगाहना या तो अाकाश के एक प्रदेश में होगी अथवा अधिक से अधिक दो आकाशप्रदेशों में होगी। एक प्रदेश में जो अवगाहना होती है, वह जघन्य अवगाहना है और दो प्रदेशों में जो अवगाहना है, वह उत्कष्ट है / इन दोनों के बीच की कोई अवगाहना नहीं होती। अतएव मध्यम अवगाहना का अभाव है। ___मध्यम अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी स्कन्धों को होनाधिकता-चतुःप्रदेशी स्कन्ध की जघन्य अवगाहना एक प्रदेश में और उत्कृष्ट अवगाहना चार प्रदेशों में होती है। मध्यम अवगाहना दो प्रकार की है ---दो प्रदेशों में और तीन प्रदेशों में / अतएव मध्यम अवगाहना वाले एक चतुःप्रदेशी स्कन्ध से दूसर। चतुःप्रदेशी स्कन्ध यदि अवगाहना से हीन होगा तो एकप्रदेशहीन ही होगा और अधिक होगा तो एकप्रदेशाधिक ही होगा। इससे अधिक होनाधिकता उनमें नहीं हो सकती। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद) ] [ 425 - मध्यमावगाहनाशील चतुःप्रदेशी से लेकर दशप्रदेशी स्कन्ध तक उत्तरोत्तर एक-एकप्रदेशवृद्धि-हानि-मध्यम अवगाहना वाले चतुःप्रदेशी स्कन्ध से लेकर दशप्रदेशी स्कन्ध तक उत्तरोत्तर एक-एक प्रदेश की वृद्धि-हानि होती है। तदनुसार चतुःप्रदेशी स्कन्ध में एक, पंचप्रदेशी स्कन्ध में दो, षट्प्रदेशी स्कन्ध में तीन, सप्तप्रदेशी स्कन्ध में चार, अष्टप्रदेशी स्कन्ध में पांच, नवप्रदेशी स्कन्ध में छह और दशप्रदेशी स्कन्ध में सात प्रदेशों की वृद्धि-हानि होती है / ___ जघन्य अवगाहना वाला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशों से द्विस्थानपतित-जघन्य अवगाहना वाला संख्यातप्रदेशी एक स्कन्ध, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से संख्यातभाग प्रदेशहीन या संख्यातगुण प्रदेशहीन होता है, यदि अधिक हो तो संख्यातभागप्रदेशाधिक अथवा संख्यातगुणप्रदेशाधिक होता है। इसीलिए इसे प्रदेशों की दृष्टि से द्विस्थानपतित कहा गया है / मध्यम अवगाहना वाला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध स्वस्थान में द्विस्थानपतित-एक मध्यम अवगाहना वाला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध दूसरे मध्यम अवगाहना वाले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से अवगाहना की दृष्टि से संख्यातभाग हीन या संख्यातगुण हीन होता है, अथवा संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है। मध्यम अवगाहना वाले प्रसंख्यातप्रदेशी स्कन्ध की पर्याय-प्ररूपणा-इसकी पर्याय-प्ररूपणा जघन्य अवगाहना वाले असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध की पर्याय-प्ररूपणा के समान ही है। मध्यम अवगाहना वाले अर्थात्-आकाश के दो से लेकर असंख्यात प्रदेशों में स्थित पुद्गलस्कन्ध की पर्यायप्ररूपणा इसी प्रकार है, किन्तु विशेष बात यह है कि स्वस्थान में चतुःस्थानपतित है / मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रवेशी स्कन्ध का अर्थ-आकाश के दो आदि प्रदेशों से लेकर असंख्यातप्रदेशों में रहे हुए मध्यम अवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध कहलाते हैं।' जधन्यस्थितिक संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेशों की दृष्टि से द्विस्थानपतित-यदि हीन हो तो संख्यातभाग हीन या संख्यातगुण हीन होता है, यदि अधिक हो तो संख्यातभाग अधिक या संख्यातगुण अधिक होता है / इसलिए यह द्विस्थानपतित है / जघन्यादियुक्त वर्णादियुक्त पुद्गलों की पर्याय-प्ररूपरणा 538. [1] जहण्णगुणकालयाणं परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए परमाणुपोग्गले जहण्णगुणकालगस्स परमाणुपोग्गलस्स दवठ्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए तल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए चउठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसा वण्णा गस्थि, गंध-रस-फासपज्जवेहि य छठाणवडिते। [538. 1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले परमाणुपुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [538-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 203, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, पृ. 841 से 858 तक 2. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 204, (ख) प्रज्ञापना प्र. बो. टीका, पृ. 859-860 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला परमाणुपुद्गल, दूसरे जघन्यगुण काले परमाणुपुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, शेष वर्ण नहीं होते तथा गन्ध, रस और दो स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [538-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (परमाणुपुद्गलों की पर्याय-प्ररूपणा समझनी चाहिए।) [3] एवमजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि / णवरं सट्ठाणे छठाणवडिते / [538-3] इसी प्रकार मध्यमगुण काले परमाणुपुद्गलों की भी पर्याय-प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है / 536. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! दुपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए दुपएसिए जहण्णगुणकालगस्स दुपएसियस्स दब्बठ्ठयाए तुल्ले, पएसठ्ठयाए तुल्ले; प्रोगाहणठ्ठयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय प्रभतिते-जति होणे पदेसहोणे, अह अम्भतिए पएसमन्भतिए; ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, प्रवसेसवण्णादि-उरिल्लचउफासेहि य छठाणवडिते। [539-1 प्र.भगवन् ! जघन्यगुण काले द्विप्रदेशिक स्कन्धों के पर्याय कितने कहे गए हैं ? [539-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले (द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?) [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला द्विप्रदेशो स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले द्विप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है; अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक है / यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन होता है, यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होता है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और शेष वर्णादि तथा उपर्युक्त चार स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि। [539-2| इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (परमाणुपुद्गलों की पर्याय-प्ररूपणा समझनी चाहिए / ) Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा विशेषपद (पर्यायपव)] [427 - [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छठाणवडिते। [539-3] अजधन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले द्विप्रदेशी स्कन्धों का पर्याय विषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित कहना चाहिए। 540. एवं जाव दसपएसिते / गवरं पएसपरिवुड्डी, प्रोगाहणा तहेव / [540] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि प्रदेश की उत्तरोत्तर वृद्धि करनी चाहिए / अवगाहना से उसी प्रकार है। 541. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! संखेज्जपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणछैणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए संखेज्जपएसिए जहण्णगुणकालगस्स संखेज्जपएसियस्स दवठ्याते तुल्ले, पएसठ्ठयाते दुट्ठाणवडिते, ओगाहणट्ठयाए दुट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, अवसे सेहिं बण्णादि-उवरिल्लच उफासेहि य छट्ठाणवाहिते। [541-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी पुद्गलों के कितने पर्याय कहे हैं ? [541-1 उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि (जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?) [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है तथा स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और अवशिष्ट वर्ण आदि तथा ऊपर के चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [541-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते / [541-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण काले संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए।) विशेषता यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 542. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णगुणकालए प्रसंखेज्जपएसिए जहण्णगुणकालगस्स असंखेज्जपएसियस्स दवट्ठ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428] [प्रज्ञापनासूत्र याए तुल्ले, पएसठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवड़िते, प्रोगाहणठ्याए चउठाणवडिए, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, प्रवसेसेहि वण्णादि-उरिल्लचउफासेहि य छट्ठाणवड़िते। [542-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [542-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारणं से ऐसा कहते हैं कि (जघन्यगुण काले असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ?) [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला असंख्यातप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले असंख्यातप्रदेशी पुद्गलस्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है तथा कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और शेष वर्ण आदि तथा ऊपर के चार स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [542-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्याय-विषयक कथन करना चाहिए / ) [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / णवरं सट्ठाणे छट्ठाणवड़िते / [542-3] इसी प्रकार मध्यमगुण काले (असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए / ) विशेष इतना है कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है / 543. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! अणंतपएसियाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! जहणगुणकालए अणंतपएसिए जहष्णगुणकालयस्स अणंतपएसियस्स दस्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहि तुल्ले, प्रवसेसेहिं वण्णादि-अट्ठफासेहि य छट्ठाणवडिते। [543-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणकाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [543-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुण काले अनन्तप्रदेशी स्कन्धं से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, कृष्णवर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है तथा अवशिष्ट वर्ण आदि एवं अष्टस्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [429 [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि / [543-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले (अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में जानना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सहाणे छट्ठाणवड़िते। [543-3] इसी प्रकार (का पर्याय-विषयक कथन) मध्यमगुण काले (अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का करना चाहिए।) 544. एवं नील-लोहित-हालिह-सुकिल्ल-सुभिगंध-दुन्भिगंध-तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुर. रसपज्जवेहि य बत्तव्वया भाणियन्वा। नवरं परमाणुपोग्गलस्स सुभिगंधस्स दुन्भिगंधो न भणति, दुभिगंधस्स सुन्भिगंधो न भण्णति, तित्तस्स अवसेसा ण भण्णंति / एवं कडुयादीण वि / सेसं तं चेव / [544] इसी प्रकार नील, रक्त, हारिद्र (पीत), शुक्ल (श्वेत), सुगन्ध, दुर्गन्ध, तिक्त (तीखा), कटु, काषाय, आम्ल (खट्टा), मधुर रस के पर्यायों से भी अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय सम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि सुगन्ध वाले परमाणुपुद्गल में दुर्गन्ध नहीं कहा जाता और दुर्गन्ध वाले परमाणुपुद्गल में सुगन्ध नहीं कहा जाता / तिक्त (तीखे) रस वाले में शेष रस का कथन नहीं करना चाहिए, कटु आदि रसों के विषय में भी ऐसा ही समझना चाहिए। शेष सब बातें उसी तरह (पूर्ववत्) ही हैं। 545. [1] जहण्णगुणकक्खडाणं प्रणतपएसियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणेता। से केण?णं? गोयमा! जहण्णगुणकक्खडे अणंतपएसिए जहष्णगुणकक्खडस्स अणंतपदेसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए छठ्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णगंध-रसेहिं छट्ठाणवडिते, कक्खडफासपज्जवेहि तल्ले, अवसेसेहि सत्तफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते। [545-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणकर्कश अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे हैं ? [545-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) [प्र.] भगवन् ! किस आशय से आप ऐसा कहते हैं कि जघन्यगुणकर्कश अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुणकर्कश अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणकर्कश अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है एवं वर्ण, गन्ध एवं रस की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, कर्कशस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और अवशिष्ट सात स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसगुणकवखडे वि। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [545-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणकर्कश (अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में समझना चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणकक्खडे वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणडिते / [545-3] मध्यमगुणकर्कश (अनन्तप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी) इसी प्रकार (करना चाहिए / ) विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 546. एवं मउय-गरुय-लहुए वि भाणितब्वे / [546] मृदु, गुरु (भारी) और लघु (हलके) स्पर्श वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के पर्यायविषय में भी इसी प्रकार कथन करना चाहिए। 547. [1] जहण्णगुणसीयाणं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं पुच्छा। गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा! जहण्णगुणसीते परमाणुपोग्गले जहण्णगुणसीतस्स परमाणुपोग्गलस्स दव्वयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए च उट्ठाणडिते, वण्ण-गंध-रसेहि छहाणवडिते, सोतफासपज्जवेहि य तुल्ले, उसिण फासो न भणति, णिद्ध-लुक्खफासपज्जवेहि छठाणवडिते / [547-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [548-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) . [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गल, दूसरे जघन्यगुणशीत परमाणुपुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना को दष्टि से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध और रसों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, शीतस्पर्श के पर्यायों से तुल्य है। इसमें उष्णस्पर्श का कथन नहीं करना चाहिए। स्निग्ध और रूक्षस्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोगुणसोते बि। [547-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत (परमाणुपुद्गलों) के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिते। [547-3] मध्यमगुण शीत (परमाणुपुद्गलों) के (पर्यायों के सम्बन्ध में भी) इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है / 548. [1] जहण्णगुणसीयाणं दुपएसियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 431 से केणठेणं ? गोयमा ! जहन्नगुणसोते दुपएसिए जहण्णगुणसीयस्स दुपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले; प्रोगाहणट्टयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय अभहिते-जइ होणे पएसहीणे, अह अब्भहिए पएसमन्भतिए; ठिईए चउढाणवडिए, वरुण-गंध-रसपज्जवेहिं छठ्ठाणडिए, सोतफासपज्जवहिं तुल्ले, उसिण-निद्ध-लुक्खफासपज्जयहिं छट्ठाणडिए / [548-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशिक स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [५४८-१उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण शीत द्विप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणशीत द्विप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से कदाचित् हीन, कदाचित् तुल्य और कदाचित् अधिक होता है। यदि हीन हो तो एकप्रदेश हीन होता है, यदि अधिक हो तो एकप्रदेश अधिक होता है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध और रस के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है एवं शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध तथा रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणसीए वि। [548-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत (द्विप्रदेशी स्कन्धों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए।) [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव / नवरं सट्ठाणे छट्ठाणवडिए। [548-3] मध्यमगुणशीत (द्विप्रदेशी स्कन्धों) का पर्यायसम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 546. एवं जाव दसपएसिए। नवरं प्रोगाहणट्टयाए पदेसपरिवड्डी कायम्वा जाव दसपएसियस्स णव पएसा वडिज्जति / 549] इसी प्रकार यावत् दशप्रदेशी स्कन्धों तक का (पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्य समझ लेना चाहिए।) विशेषता यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से पर्यायों की वृद्धि करनी चाहिए। (इस दृष्टि से) यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध तक नौ प्रदेश बढ़ते हैं। 550. [1] जहण्णगुणसीयाणं संखेज्जपएसियाणं भंते ! पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केणठेणं ? गोयमा ! जहण्णगुणसीते संखेज्जपएसिए जहण्णगुणसीयस्स संखेज्जपएसियस्स दन्वयाए तुल्ले, पएसट्टयाए दुट्ठाणडिए, प्रोगाहणट्टयाए दुवाणवडित, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णाईहिं छट्ठाणवडिए, सीतफासपज्जवेहि तुल्ले, उसिण-निद्ध-लुक्खेहि छट्ठाणवडिए। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र |550-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [550-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि जघन्यगुणशीत संख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! जघन्यगुणशीत संख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणशीत संख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से द्विस्थानपतित है; स्थिति की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है तथा शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष स्पर्श की दृष्टि से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसगुणसीए वि। [550-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण शीत(संख्यातप्रदेशी स्कन्धों की भी पर्यायसम्बन्धी प्ररूपणा समझनी चाहिए।) [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणसीए वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिए / __ [550-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण शीत संख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्याय सम्बन्धी कथन भी ऐसा ही समझना चाहिए / विशेष यह कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 551. [1] जहष्णगुणसीताणं असंखेज्जपएसियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केणढेणं? गोयमा ! जहण्णगुणसोते असंखेज्जपएसिए जहण्णगुणसीयस्स प्रसंखेज्जपएसियस्स दवट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए चउढाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाए चउढाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवाडिते, वण्णादिपज्जवेहि छट्ठाणवडित, सीतफासपज्जवेहिं तुल्ले, उसिण-निद्ध-लुक्खफासपज्जवेहि छट्ठाणवड़िते / [551-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे [551-1 उ.] गौतम ! उनके अनन्त पर्याय (कहे हैं / ) [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [433 [2] एवं उपकोसगुणसीते वि। [551-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय सम्बन्धी प्ररूपणा करनी चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणसोते वि एवं चेव / नवरं सहाणे छट्ठाणडिते / [551-3] मध्यमगुणशीत असंख्यातप्रदेशी स्कन्धों का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेष यह है कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित होता है। 552. [1] जहण्णगुणसीताणं प्रणतपदेसियाणे पुच्छा। गोयमा ! प्रणेता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णगुणसोते अणंतपदेसिए जहण्णगुणसीतस्स प्रणंतपएसियस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्टयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिते, ठितोए चउट्ठाणवडिते वण्णादिपज्जवेहि छट्ठाणवडित, सीतफासपज्जवेहि तुल्ले, अवसेसेहि सत्तफासपज्जवेहि छट्ठाणवडिते। [552-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [552-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं।) प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे जघन्यगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, वर्णादि के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; शीतस्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है और शेष सात स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] एवं उक्कोसगुणसोते वि / [552-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। [3] अजहण्णमणुक्कोसगुणसीते वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिते। [552-3] मध्यमगुणशीत अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय-सम्बन्धो प्ररूपणा भी इसी प्रकार करनी चाहिए। विशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। 553. एवं उसिणे निद्ध लुक्खे जहा सोते / परमाणुपोग्गलस्स तहेव पडिवक्खो, सव्वेसि न भण्णइ त्ति भाणितन्वं / [553] जिस प्रकार [जघन्यादियुक्त] शीतस्पर्श-स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहा गया Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 434] [प्रज्ञापनासूत्र है, उसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पों [वाले उन-उन स्कन्धों के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए।) इसी प्रकार परमाणुद्गल में इन सभी का प्रतिपक्ष नहीं कहा जाता, यह कहना चाहिए। विवेचना-जयन्यादियुक्त वर्णादि-पुद्गलों की पर्याय-प्ररूपणा–प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. 538 से 553 तक) में कृष्णादि वर्ण, गन्ध, रस, और स्पों के परमाणुपुद्गलों, द्विप्रदेशी से संख्यातअसंख्यात-अनन्त प्रदेशी स्कन्धों तक के पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। कृष्णादि वर्गों तथा गन्ध-रस-स्पर्शों के पर्याय-कृष्ण, नील आदि पाँच वर्णों, दो प्रकार के गन्धों, पांच प्रकार के रसों और आठ प्रकार के स्पों के प्रत्येक के तरतमभाव की अपेक्षा से अनन्तअनन्त विकल्प हात है / तदनुसार कृष्ण आदि अनन्त-अनन्त प्रकार के हैं / जघन्यगुण उत्कृष्टगुण एवं मध्यमगुण कृष्णादि वर्ण की व्याख्या-कृष्णवर्ण की सबसे कम मात्रा जिसमें पाई जाती है, वह पुद्गल जघन्यगुण काला कहलाता है। यहाँ गुणशब्द अंश या मात्रा के अर्थ में प्रयुक्त है / जघन्यगुण का अर्थ है---सबसे कम अंश / दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिस पुद्गल में केवल एक डिग्री का कालापन हो-जिससे कम कालापन का सम्भव ही न हो, वह जघन्यगुण काला समझना चाहिए। जिसमें कालेपन के सबसे अधिक अंश पाए जाएँ, वह उत्कृष्टगुण काला है / एक अंश कालेपन से अधिक और सबसे अधिक (अन्तिम) कालेपन से एक अंश कम तक का काला मध्यमगुणकाला कहलाता है / कृष्णवर्ण की तरह ही जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यमगुणयुक्त नीलादि वर्गों, तथा गन्धों, रसों एवं स्पर्शों के विषय में समझना चाहिए।' अवगाहना की अपेक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध को होनाधिकता--एक द्विप्रदेशी स्कन्ध दूसरे द्विप्रदेशी स्कन्ध से अवगाहना की अपेक्षा से यदि हीन हो तो एक-एक प्रदेश कम अवगाहना वाला हो सकता है और यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक अवगाहना वाला हो सकता है / तात्पर्य यह है कि द्विप्रदेशी स्कन्ध की अवगाहना में एक प्रदेश से अधिक न्यूनाधिक अवगाहना का सम्भव नहीं है। द्विप्रदेशी स्कन्ध से दशप्रदेशी स्कन्ध तक उत्तरोत्तर प्रदेशति--इनकी पर्याय-वक्तव्यता द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान है, किन्तु उनमें उत्तरोत्तर प्रदेशों की वृद्धि करनी चाहिए / अर्थात्-- दशप्रदेशी स्कन्ध तक कमशः नौ प्रदेशों की वृद्वि कहनी चाहिए। __ जघन्यगुण कृष्ण संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेश एवं अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतितप्रदेशों की अपेक्षा से वह द्विस्थानपतित होता है, अर्थात्-वह संख्यातभागहीन अथवा संख्यातगुणहीन या संख्यातभाग-अधिक प्रथया संख्यातगुण-अधिक होता है। इसी प्रकार अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतित है / परस्पर विरोधी गन्ध, रस और स्पर्श का परमाणुषुद्गल में प्रभाव-जिस परमाणपुद्गल में सुरभिगन्ध होती है, उनमें दुरभिगन्ध नहीं होती, और जिसमें दुरभिगन्ध होती है, उसमें सुरभिगन्ध नहीं होती, क्योंकि परमाणु एक गन्ध वाला ही होता है / इसलिए जिस गन्ध का कथन किया जाए, वहाँ दूसरी गन्ध का अभाव कहना चाहिए / इसी प्रकार जहाँ एक रस का कथन हो, वहाँ दूसरे रसों का अभाव समझना चाहिए / अर्थात्-जहाँ तिक्त रस हो, वहाँ शेष कटु आदि रस नहीं होते ; क्योंकि 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 885-886 2. प्रज्ञापनासूत्र; प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 887 से 890 तक Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपद)] [ 435 उनमें परस्पर विरोध है। इसी प्रकार जहाँ पुद्गल परमाण में शीतस्पर्श का कथन हो, वहाँ उष्णस्पर्श का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों स्पर्श परस्पर विरोधी हैं। इसी प्रकार अन्यान्य स्पर्शों के बारे में समझ लेना चाहिए / जैसे-स्निग्ध और रूक्ष, मृदु और कर्कश, लघु और गुरु परस्पर विरोधी स्पर्श हैं / एक ही परमाणु में ये परस्पर विरोधी स्पर्श भी नहीं रहते / अतएव परमाणु में इनका उल्लेख नहीं करना चाहिए।' जघन्यादि सामान्य पुदगल स्कन्धों की विविध अपेक्षाओं से पर्यायप्ररूपरणा 554. [1] जहण्णपदेसियाणं भंते ! खंधाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता। से केण?णं ? गोयमा ! जहण्णपदेसिते खंधे जहण्णपएसियस्स खंधस्स दम्वट्ठयाए तल्ले; पदेसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणट्ठयाए सिय होणे सिय तुल्ले सिय मन्भहिते-जति होणे पदेसहोणे, अह प्रभतिए पदेसमन्भतिए; ठितीए चउढाणवडिते, वण्ण-गंध-रस- उरिल्लचउफासपज्जवेहि छटाणवड़िते / [554-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? |554-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्यप्रदेशी स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं ) ? उ.] गौतम ! एक जघन्यप्रदेशी स्कन्ध दूसरे जघन्यप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से भी तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से कदाचित् हीन है, कदाचित् तुल्य हैं और कदाचित् अधिक है / यदि हीन हो तो एक प्रदेशहीन होता है, और यदि अधिक हो तो भी एक प्रदेश अधिक होता है। स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है और वर्ण, गन्ध, रस तथा ऊपर के चार स्पों के पर्यायों को अपेक्षा से षट्स्थानपतित है / [2] उक्कोसपएसियाणं भंते खंधाणं पुच्छा। गोयमा! प्रणंता। से केण?णं? गोयमा ! उक्कोसपएसिए खंधे उक्कोसपएसियस्स खंधस्स दव्वट्ठयाए तुरुल, पएसट्टयाए तुल्ले, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-अट्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते। [554-2 प्र.] भगवन् उत्कृष्टप्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? {554-2 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस अपेक्षा से आप ऐसा कहते हैं (कि उत्कृष्ट प्रदेशो स्कन्धों के अनन्त पर्याय हैं) ? [उ.] गौतम ! एक उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्ध, दूसरे उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से 1. प्रज्ञापनासूत्र प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 895 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से , अवगाहना की अपेक्षा से चत:स्थानपतित है. स्थिति की अपेक्षा से भी चतुःस्थानपतित है, किन्तु वर्णादि तथा अष्टस्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसपदेसियाणं भंते ! खंधाणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता। से केणठेणं ? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसपदेसिए खंधे प्रजहण्णमणुक्कोसपदेसियस खंधस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-अठ्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणबडिते।। [554-3 प्र.] भगवन् ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) प्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [554-3 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है (कि मध्यमप्रदेशी स्कन्धों के अनन्तपर्याय हैं)? [उ.] गौतम ! एक मध्यमप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे मध्यमप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 555. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णोगाहणए पोम्गले जहण्णोगाहणगस्स पोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, भोगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-उवरिल्लफासेहि य छट्ठाणवडिते। [555-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [555-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्य अवगाहनावाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं) ? [उ.] 'गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला पुद्गल दूसरे जघन्य अवगाहना वाले पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, तथा वर्णादि और ऊपर के स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं ठितीए तुल्ले / _[555-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले पुद्गल-पर्यायों के विषय में इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवाँ विशेषपद (पर्यायपद)] [437 [3] अजहण्णमणुक्कोसोगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रणंता। से केणठेणं? गोयमा ! अजहण्णमणक्कोसोगाहणए पोग्गले अजहण्णमणुक्कोसोगाहणगस्स पोग्गलस्स दध्वट्ठयाए तल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउठाणवडिते, वण्णादि-अट्ठफासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते / [555-3 प्र. भगवन् ! मध्यम अवगाहना वाले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [555-3 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि मध्यम अवगाहना वाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं) ? [उ.] गौतम ! एक मध्यम अवगाहना वाला पुद्गल, दूसरे मध्यम अवगाहना वाले पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है। प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 556. [1] जहण्णद्वितीयाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठे ? गोयमा ! जहण्णठितीए पोग्गले जहण्णठितीयस्स पोग्गलस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्याए चउट्ठाणडिते, ठितीए तुल्ले, वण्णादि-अट्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणवड़िते। [556-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य स्थिति वाले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे हैं ? [556-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं / प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य स्थिति वाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ? [उ.] गौतम ! एक जघन्य स्थिति वाला पुद्गल, दूसरे जघन्य स्थिति वाले पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है। प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; अवगाहना की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है, और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] एवं उक्कोसठितीए वि। [556-2] इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थिति वाले (पुद्गलों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए।) Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438] [प्रज्ञापनासून [3] प्रजहण्णमणुक्कोसठितीए एवं चेव / नवरं ठितीए वि चतुट्ठाणवड़िते / [556-3] अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) स्थिति वाले पुद्गलों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार कहनी चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से भी वह चतुःस्थानपतित है। 557. [1] जहण्णगुणकालयाणं भंते ! पोग्गलाणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता। गोयमा ! अणंता। से केणठेणं ? गोयमा ! जहण्णगुणकालए पोग्गले जहण्णगुणकालयस्स पोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्याए चउठाणडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, कालवण्णपज्जवेहिं तुल्ले, प्रवसेसेहि वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहि य छट्ठाणवडित, से एएण?णं गोयमा ! एवं वुच्चति जहण्णगुणकालयाणं पोग्गलाणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता। [557-1 प्र.] भगवन् ! जघन्यगुण काले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [557-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्तपर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्यगुण काले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं ?) उ.] गौतम ! एक जघन्यगुण काला पुद्गल, दूसरे जघन्यगुण काले पुद्गल से द्रव्य को अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है; अवगाहना की दृष्टि से चतु:स्थानपतित है; स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है; कृष्णवर्ण के पर्यायों की दृष्टि से तुल्य है, शेष वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शो के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। हे गौतम! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्यगुण काले पुद्गलों के अनन्त पर्याय कहे हैं। / [2] एवं उक्कोसगुणकालए वि। [557-2] इसी प्रकार उत्कृष्टगुण काले पुद्गलों को पर्याय-सम्बन्धी वक्तव्यता समझनी चाहिए। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव / नवरं सट्टाणे छट्ठाणवड़िते / [557-3] मध्यमगुण काले पुद्गलों के पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। वशेष यह है कि स्वस्थान में षट्स्थानपतित है / 558. एवं जहा कालवण्णपज्जवाणं वत्तव्वया भणिता तहा सेसाण वि वण्ण-गंध-रसफासपज्जवाणं वत्तव्वया भाणितव्वा, जाव अजहण्णमणुक्कोसलुक्खे सट्टाणे छट्ठाणडिते / से तं रूविग्रजीवपज्जवा / से तं अजीवपज्जवा। // पण्णवणाए भगवईए पंचमं विसेसपघं (पज्जवपयं) समत्तं // [558] जिस प्रकार कृष्णवर्ण के पर्यायों के विषय में वक्तव्यता कही है उसी प्रकार शेष वर्गों, गन्धों, रसों और स्पों की पर्यायसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए; यावत् अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) गुण रूक्षस्पर्श स्वस्थान में षट्स्थानपतित है, यहाँ तक कहना चाहिए। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवां विशेषपव (पर्यायपद)] [439 यह हुई रूपी-अजीव-पर्यायों की प्ररूपणा / और इस प्रकार अजीवपर्याय-सम्बन्धी निरूपण भी पूर्ण हुआ। विवेचन-जधन्यादियुक्त सामान्य पुदगल-स्कन्धों की विभिन्न अपेक्षानों से पर्याय-प्ररूपणाप्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 554 से 558 तक) में जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट प्रदेशी स्कन्धों, तथा जघन्यादि गुण विशिष्ट अवगाहना, स्थिति, तथा कृष्णादि वर्गों, गन्ध-रस-स्पर्शों के पर्यायों की विभिन्न अपेक्षाओं से प्ररूपणा की गई है। __ मध्यमगुण काले पुद्गल स्वस्थान में षट्स्थानपतित होनाधिक-एक मध्यमगुण काले पुद्गल से दूसरे मध्यमगुण काले पुद्गल में कृष्णवर्ण की अनन्तभागहीनता या अनन्तगुणहीनता, तथैव अनन्तंभाग-अधिकता अथवा अनन्तगुण-अधिकता भी हो सकती है, क्योंकि मध्यमगुण के अनन्त विकल्प हैं। इसी तरह मध्यमगुण वाले सभी वर्णादि स्पर्शपर्यन्त स्वस्थान में षट्स्थानपतित होते हैं / उत्कृष्ट प्रवगाहना वाले अनन्तप्रदेशी स्कंध की स्थिति तल्य क्यों ?—उत्कृष्ट अवगाहना वाला, अनन्त प्रदेशी स्कंध सर्वलोकव्यापी होता है वह या तो अचित्त महास्कंध होता है अथवा केवलीसमुद्घात की अवस्था में कर्मस्कंध हो सकता है। इन दोनों का काल दण्ड, कपाट, प्रतर और अन्तरपूरण रूप चार समय का ही होता है / अतएव इसको स्थिति समान कही गई है। // प्रज्ञापनासूत्र : पंचम विशेषपद (पर्यायपद) समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पु. 927 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठ वक्कंतिपयं छठा व्युत्क्रान्तिपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह छठा व्युत्क्रान्तिपद है / * प्रस्तुत पद का विषय नाना प्रकार के जीवों की व्युत्क्रान्ति'--अर्थात्-उस-उस गति में उत्पत्ति और उस-उस गति में से अन्यत्र उत्पत्ति से सम्बन्धित प्रश्नों की चर्चा करना है ! संक्षेप में, जीवों की गति और आगति से सम्बन्धित विचारणा इस पद में की गई है। * यह विचारणा निम्नोक्त पाठ द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत पद में की गई है-(१) द्वादश द्वार (उपपात और उद्वर्तना का विरहकाल), (2) चविशतिद्वार-(जीव के प्रभेदों के उपपात और उद्वर्तन का विरहकाल), (3) सान्तरद्वार (जीवप्रभेदों का सान्तर एवं निरन्तर उपपात और उद्वर्तन-सम्बन्धी विचार), (4) एकसमयद्वार (एक समय में कौन से कितने जीवों का उपपात और उद्वर्तन होता है, यह विचार), (5) कुतःद्वार-(जीव उन-उन पर्यायों मेंक हाँकहाँ से मरकर उत्पन्न होता है, इसकी प्ररूपणा), (6) उद्वर्तनाद्वार-(जीव वर्तमान भव से मर कर किस-किस भव में जाता है. इसकी विचारणा), (7) पारभविकायुष्यद्वारअागामी नये भव का आयुष्य जीव वर्तमान भव में कब बांधता है ?, इसका चिन्तन, और (8) आकर्ष द्वार--(आयुष्यबन्ध के 6 प्रकार, कितने आकर्षों में जीव जाति आदि नाम विशिष्ट आयुकर्म बांधता है? तथा न्यूनाधिक अाकर्षों वाले जीवों के अल्पबहुत्व का विचार)।' प्रथम द्वार का नाम 'बारस' (द्वादश) इसलिए रखा गया है कि इसमें नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव, इन चारों गतियों के जीवों का उपपातविरह (नरकादि जीव उस-उस रूप में उत्पन्न होते रहते हैं, उनमें बीच में उत्पत्तिशून्य) काल तथा उद्वर्तनाविरह (नरकादि जीव मरते रहते हैं, उनमें बीच में मरणशून्य) काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट 12 मुहूर्त का है। * द्वितीय द्वार का नाम 'चउवीसा' (चतुर्विशति) इसलिए रखा गया है कि नरकादि गतियों के प्रभेदों की दृष्टि से प्रथम नरक में उपपातविरहकाल और उद्वर्तनाविरहकाल जघन्य एक 1. (क) पण्णवणासुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 163 (ख) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 205 (ग) पण्णवणासुत्त भा. 2, छठे पद की प्रस्तावना, पृ. 67 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद : प्राथमिक ] [441 समय और उत्कृष्ट 24 मुहूर्त है। यद्यपि चतुर्गतिक जीवों के प्रभेदों में सबका उपपातविरह काल और उद्वर्तनाविरहकाल 24 मुहूर्त का नहीं है, किन्तु प्रथम रत्नप्रभा नरक के उपपात एवं उद्वर्तन के विरह का काल चौबीस ही मुहूर्त है, इस दृष्टि से प्रारम्भ का पद पकड़ कर इस द्वार का नाम 'चौबीस' रखा गया है। तृतीय सान्तर द्वार-उन-उन जीवों के प्रभेदों में जीवों का उपपात और उद्वर्तन निरन्तर होता रहता है या उसमें बीच में व्यवधान (अन्तर) भी पा जाता है ? इसका स्पष्टीकरण अनेकान्त दृष्टि से इस द्वार में किया गया है कि पृथ्वीकायादि एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष सभी जीवों का निरन्तर भी उत्पाद एवं उद्वर्तन होता रहता है और सान्तर भी / यद्यपि षट्खण्डागम के अन्तरानुगम-प्रकरण में इसका विचार किया गया है, परन्तु वहाँ इस दृष्टि से 'अन्तर' का विचार किया गया है कि एक जीव उस-उस गति आदि में भ्रमण करके उसी गति में पुन: कब प्राता है ? तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से अन्तर है या नहीं? तथा नाना जीवों की अपेक्षा से नरक आदि में नारक जीव आदि कितने काल तक रह सकते हैं ? इस प्रकार का विचार किया गया है।' * चौथे द्वार में यह बताया गया है कि एक समय में उस-उस मति के जीवों के प्रभेदों में कितने जीवों का उपपात और उद्वर्तन होता है ? इस सम्बन्ध में वनस्पतिकाय तथा पृथ्वीकायादि एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष समस्त जीवों में एक समय में जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात जीवों की उत्पत्ति तथा उद्वर्तना का निरूपण है। वनस्पतिकायिकों में स्वस्थान में निरन्तर अनन्त तथा परस्थान में निरन्तर असंख्यात का तथा पृथ्वीकायिकादि में निरन्तर असंख्यात का विधान है। * पांचवें द्वार में जीवों की प्रागति का वर्णन है। चारों गतियों के जीवों के प्रभेदों में किन-किन जीवों में से मर कर आते हैं ? अर्थात् -किस जीव में मर कर कहाँ-कहाँ उत्पन्न होने की योग्यता है ? इसका निर्णय प्रस्तुत द्वार में किया गया है / छठे द्वार में उद्वर्तना अर्थात् --जीवों के निकलने का वर्णन है। अर्थात्--कौन-से जीव मर कर कहाँ-कहाँ (किस-किस गति एवं योनि में) जाते हैं ? मर कर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इसका निर्णय इस द्वार में प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि पाँचवें द्वार को उलटा करके पढ़ें तो छठे द्वार का विषय स्पष्ट हो जाता है, क्योंकि पांचवें में बताया गया है-जीव कहाँ से आते हैं ? उस पर से ही स्पष्ट हो जाता है कि जीव मर कर कहाँ जाते हैं ? तथापि स्पष्ट रूप से समझाने के लिए इस छठे द्वार का उपक्रम किया गया है। * सप्तम द्वार में बताया गया है कि जीव पर भव का अर्थात्-आगामी भव का आयुष्य कब बांधता है ? अर्थात्-किस जीव की वर्तमान प्रायु का कितना भाग शेष रहने या कितना भाग बीतने पर वह आगामी भव का आयुष्य बांधता है ? नारक और देव तथा असंख्यातवर्षायुष्क (मनुष्य-तिर्यञ्च) आगामी आयुष्यबन्ध 6 मास पूर्व ही कर लेते हैं, जबकि शेष समस्त जीव 1. षटखण्डागम पुस्तक 7, पृ. 187, 462; पुस्तक 5, अन्तरानुगमप्रकरण पृ. 1 2. षट्खण्डागम पु. 6, पृ. 418 से गति-प्रागति की चर्चा Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [प्रज्ञापनासूत्र (मनुष्यों में चरमशरीरी एवं उत्तमपुरुष को छोड़कर) सोपक्रम एवं निरुपक्रम, दोनों ही प्रकार का आयुर्बन्ध करते हैं। निरुपक्रमी जीव आयु का तृतीय भाग शेष रहते और सोपक्रमी वर्तमान आयु का विभाग, अथवा विभाग का त्रिभाग या विभाग के विभाग का त्रिभाग शेष रहते आगामी भव का आयुष्य बांधते हैं / इस प्रकार परभविक आयुष्यबन्ध की प्ररूपणा की गई है। * अष्टमद्वार में जातिनामनिधत्तायु गतिनामनिधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु, अवगाहनानाम निधत्तायु, प्रदेशनामनिधत्ताय और अनुभाव-नामनिधत्ताय, यों आयबन्ध के 6 प्रकार बताकर यह स्पष्ट किया गया है कि जातिनामादि विशिष्ट अायुबन्ध कौन जीव कितने-कितने आकर्ष से करता है ? जातिनामनिधत्तायु आदि से युक्त आयुबन्ध सामान्य जीव तथा नैरयिकादि वैमानिकपर्यन्त जीव जघन्य एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से करते हैं, यह प्ररूपणा की गई है / अन्त में, एक से पाठ आकर्षों से प्रायुबन्ध करने वालों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। 1. (क) पण्णवणासुत्त भा. 2, छठे पद की प्रस्तावना-पृ. 67 से 74 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 205 (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टोका भा. 2, पृ. 929 से 931 तक Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छट्ठ वक्कंतिपयं छठा व्युत्क्रान्तिपद व्युत्क्रान्तिपद के पाठ द्वार 556. बारस 1, चउवीसाइं 2, सअंतरं 3, एगसमय 4, कत्तो य 5 / उन्वट्टण 6, परभवियाउयं 7, च अठेव आगरिसा 8 // 182 // [556 गाथार्थ--] 1. द्वादश (बारह), 2. चतुर्विशति (चौबीस), 3. सान्तर (अन्तरसहित), 4. एक समय, 5. कहाँ से ? 6. उद्वर्तना, 7. परभव-सम्बन्धी आयुष्य और 8. पाकर्ष, ये आठ द्वार (इस व्युत्क्रान्तिपद में) हैं। विवेचन-व्युत्क्रान्तिपद के पाठ द्वार-प्रस्तुत सूत्र में एक संग्रहणीगाथा के द्वारा व्युत्क्रान्तिपद के 8 द्वारों का उल्लेख किया गया है। प्रथम द्वादशद्वार : नरकादि गतियों में उपपात और उद्वर्तना का विरहकाल-निरूपण-- 560. निरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता / [560 प्र.] भगवन् ! नरकगति कितने काल तक उपपात से विरहित कही गई है ? [560 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य (कम से कम) एक समय तक और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) बारह मुहूर्त तक (उपपात से विरहित रहती है / ) 561. तिरियगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं एगं समय, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। [561 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चगति कितने काल तक उपपात से विरहित कही गई है ? [561 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उपपात से विरहित रहती है।) 562. मणुयगती णं भंते ! केवइयं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। [562 प्र.} भगवन् ! मनुष्यगति कितने काल तक उपपात से विरहित कही गई है ? [562 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उपपात से विरहित रहती है। 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 205 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] [प्रज्ञापनासूत्र 563. देवगती गं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। [563 प्र.] भगवन् ! देवगति कितने काल तक उपपात से विरहित कही गई है ? [563 उ.] गौतम ! (देवगति का उपपातविरहकाल) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक का है / 564. सिद्धगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता सिझणयाए पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / [564 प्र.] भगवन् ! सिद्धगति कितने काल तक सिद्धि से रहित कही गई है ? [564 उ.] गौतम ! (सिद्धगति का सिद्धिविरहित काल) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट छह महीनों तक का है / 565. मिरयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उव्वट्टणयाए पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुता। [565 प्र.] भगवन् ! नरकगति कितने काल तक उद्वर्त्तना से विरहित कही गई है ? [565 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उद्वर्तना से विरहित रहती है।) 566. तिरियगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उठबट्टणयाए पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। [566 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चगति कितने काल तक उद्वर्तना से विरहित कही गई है ? [566 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उद्ववर्तनाविरहित रहती है।) 567. मणुयगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उव्वट्टणाए पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एग समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। [567 प्र.] भगवन् ! मनुष्यगति कितने काल तक उद्वर्त्तना से विरहित कही गई है ? [567 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उद्वर्तना से विरहित कही गई है।) 568. देवगती णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उब्वट्टणाए पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं एग समयं, उक्कोसेणं बारस मुत्ता / दारं 1 // [568 प्र.] भगवन् ! देवगति कितने काल तक उद्वर्तना से विरहित कही गई है ? [568 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उद्वर्त्तना से विरहित रहती है / ) प्रथम द्वार // 1 // Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्कान्तिपद ] [445 विवेचन---प्रथम द्वादश (बारस = बारह) द्वार : चार गतियों के उपपात और उद्वर्त्तना का विरहकाल-निरूपण-प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 560 से 568 तक) में नरकादि चार गतियों और पांचवीं सिद्धगति के जघन्य-उत्कृष्ट उपपातविरहकाल का तथा उन के उद्वर्तनाविरहकाल का निरूपण किया गया है। निरयगति आदि चारों गतियों के लिए एकवचनप्रयोग क्यों ? निरयगति अर्थात्नरकगति नामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाले जीव का प्रौदयिक भाव / इसी प्रकार तिर्यञ्चादिगति के विषय में समझना चाहिए / वह प्रौदयिकभाव सामान्य की अपेक्षा से सभी गतियों में अपनाअपना एक है / नरकगति का औदयिकभाव सातों पृथ्वियों में व्यापक है, इसलिए नरकगति आदि चारों गतियों में प्रत्येक में एकवचन का प्रयोग किया गया है / उपपात और उसका विरहकाल-किसी अन्य गति से मर कर नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, देव या सिद्ध के रूप में उत्पन्न होना उपपात कहलाता है। नरकगति में उपपात के विरहकाल का अर्थ है-जितने समय तक किसी भी नये नारक का जन्म नहीं होता; दूसरे शब्दों में-नरकगति नये नारक के जन्म से रहित जितने काल तक होती है, वह नरकगति में उपपात-विरहकाल है। इसी प्रकार अन्य गतियों में उपपातविरहकाल का अर्थ समझ लेना चाहिए। नरकादि गतियाँ कम से कम एक समय और अधिक से अधिक 12 मुहूर्त तक उपपात से रहित होती हैं / बारह मुहत्त के बाद कोई न कोई जोव नरकादि गतियों में उत्पन्न होता ही है। सिद्धगति का उपपातविरहकाल उत्कृष्टतः का बताया है, उसका कारण यह है कि एक जीव के सिद्ध होने के पश्चात् संभव है कोई जीव अधिक से अधिक छह मास तक सिद्ध न हो। छह मास के अनन्तर अवश्य ही कोई न कोई सिद्ध (मुक्त) होता है। चौबीस मूहर्त-प्रमाण उपपातविरह क्यों नहीं ?--आगे कहा जाएगा कि उपपातविरहकाल चौबीस मुहूर्त का है, किन्तु यहाँ जो बारह मुहूर्त का उपपातविरहकाल बताया है, वह सामान्यरूप से नरकगति का उपपातविरहकाल है, किन्तु जब रत्नप्रभा आदि एक-एक नरकपृथ्वी के उपपातविरहकाल की विवक्षा की जाती है, तब वह चौबीस मुहूर्त का ही होता है। इसी प्रकार अन्य गतियों के विषय में समझ लेना चाहिए।' उद्वर्तना और उसका विरहकाल-नरकादि किसी गति से निकलना उद्वर्तना है, प्रश्न का आशय यह है कि ऐसा कितना समय है, जबकि कोई भी जीव नरकादि गति से न निकले? यह उद्वर्तनाविरहित काल कहलाता है / उद्वर्तना-विरहकाल चारों गतियों का उष्कृष्टत: 12 मुहर्त का है / सिद्धगति में उतना नहीं होती, क्योंकि सिद्धगति में गया हुआ जीव फिर कभी वहाँ से निकलता नहीं है / इसलिए सिद्धगति में उद्वर्तना नहीं होती। अतएव वहाँ उद्वर्तना का विरहकाल भी नहीं है। वहाँ तो सदैव उद्वर्तनाविरह है, क्योंकि सिद्धपर्याय सादि होने पर भी अनन्त (अन्तरहित) है, सिद्ध जीव सदाकाल सिद्ध ही रहते हैं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 205. 2. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति. पत्रांक 205, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 935 से 937 (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 837 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 ] / সাধনার द्वितीय चतुर्विशतिद्वार : नैरयिकों से अनुत्तरौपपातिकों तक के उपपात और उद्वर्तना के विरहकाल को प्ररूपरणा 566. रयणप्पभापुढविनेरइया गं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पग्णता ? गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउन्बोसं मुहुता। [569 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए 5] भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के के [569 उ.] गौतम ! (उनका उपपातविरहकाल) जघन्य एक समय का, उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक का (कहा गया है।) 570. सक्करप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं एगं समर्थ, उक्कोसेणं सत्त रातिदियाणि / [570 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नारक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [570 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्टतः सात रात्रि-दिन तक (उपपात से विरहित रहते हैं।) 571. वालुयप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं एग समयं, उक्कोसेणं अद्धमासं / [571 प्र.] भगवन् ! वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [571 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अर्द्धमास तक (उपपात से विरहित रहते हैं / ) 572. पंकप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? गोयमा ! जहण्णणं एग समयं, उक्कोसेणं मासं / / [572 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [572 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः एक मास तक (उपपातविरहित रहते हैं। 573. धूमप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहणेणं एगं सययं, उक्कोसेणं दो मासा / __ [573 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के नारक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [447 [573 उ ] गौतम ! जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टतः दो मास तक (उपपात से विरहित होते हैं / ) 574. तमापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? गोयमा ! जहणणं एग समयं, उक्कोसेणं चत्तारि मासा / [574 प्र. भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के नारक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [574 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टत: चार मास तक (उपपात-विरहित रहते हैं / ) 575. अधेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / [575 प्र.] भगवन् ! सबसे नीची तमस्तमा नामक सप्तम पृथ्वी के नैरयिक कितने काल तक उपपात से रहित कहे गए हैं ? [575 उ.] गौतम ! वे एक समय तक और उत्कृष्ट छह मास तक (उपपात से विरहित रहते हैं / ) 576. असुरकुमारा णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। [876 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [576 उ.] गौतम ! (बे) जघन्यतः एक समय तक और उत्कृष्टत: चौबीस मुहूर्त तक (उपपातविरहित रहते हैं / ) 577. णागकुमारा गं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। [577 प्र.] भगवन् ! नागकुमार कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [577 उ. गौतम ! (उनका उपपातविरहकाल) जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त का है। 578. एवं सुवण्णकुमाराणं विज्जुकुमाराणं अग्गिकुमाराणं दीवकुमाराणं उदहिकुमाराणं दिसाकुमाराणं वाउकुमाराणं थणियकुमाराण य पत्तेयं पत्तेयं जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउन्धोसं मुहुत्ता। [578 / इसी प्रकार सुपर्ण (सुवर्ण) कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, दिशाकुमार, वायुकुमार और स्तनितकुमार देवों का प्रत्येक का उपपातविरहकाल एक समय का तथा उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त का है। Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 ] [ प्रज्ञापनासूत्र 576. पुढविकाइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? गोयमा ! अणुसमयमविरहियं उववाएणं पण्णता / [579 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकजीव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [579 उ.] गौतम ! (वे) प्रप्तिसमय उपपात से अविरहित कहे गए हैं / अर्थात् उनका उपपात निरन्तर होता ही रहता है / 580. एवं प्राउकाइयाण वि तेउकाइयाण वि वाउकाइयाण वि वणप्फइकाइयाण वि अणुसमयं अविरहिया उववाएणं पण्णत्ता / [580 प्र.] इसी प्रकार अप्कायिक भी तेजस्कायिक भी, वायुकायिक भी, एवं वनस्पतिकायिक जीव भी प्रतिसमय उपपात से अविरहित कहे गए हैं। 581. बेइंदिया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [581 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों का उपपातविरह कितने काल तक का कहा गया है ? [581 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (उनका उपपातविरहकाल रहता है।) 582. एवं तेइंदिय-चरिंदिया। [582] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय के उपपातविरहकाल के विषय में समझ लेना चाहिए।) 583. सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहणेणं एग समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [583 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [583 उ.] गौतम ! (उनका उपपातविरह) जघन्य एक समय तक का और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक का है। 584. गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उववाएण पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता। [584 प्र.] भगवन् ! गर्भजपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [584 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त तक (उपपात से विरहित रहते हैं।) Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [449 585. सम्मुच्छिममणुस्सा गं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता? गोयमा ! जहणेणं एगं समय, उक्कोसेणं चउव्वीसं महत्ता। [585 प्र.] भगवन् ! सम्भूच्छिम मनुष्य कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [585 उ.] गौतम ! जधन्य एक समय तक और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक (उपपात से विरहित कहे हैं।) 586. गम्भवक्कलियमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता / [586 प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्य कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? i [586 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त लक (उपपात से विरहित कहे हैं।) 587. वाणमंतराणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एणं समय, उक्कोसेणं चउन्धोसं मुहुत्ता। [587 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [587 उ.] गौतम! (वे) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक (उपपात से विरहित कहे गए हैं।) 588. जोइसियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्को सेणं चउव्वीसं मुहुत्ता। [588 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [588 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक (उपपातविरहित कहे हैं।) 586. सोहम्मे कप्पे देवा गं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पण्णता ? गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउन्धोसं मुहत्ता / [589 प्र. भगवन् ! सौधर्मकल्प में देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे हैं ? [589 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक (उपपात से विरहित कहे हैं।) 560. ईसाणे कप्पे देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहणणं एग समय, उक्कोसेणं चउन्वीसं मुहुत्ता। [560 प्र] गौतम ! ईशानकल्प में देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [590 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक (उपपात से विरहित कहे गए हैं / ) Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] [ प्रज्ञापनासूत्र 561. सणंकुमारदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं नव रातिदियाई वीसा य मुहुत्ता। [591 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमार देवों का उपपातविरहकाल कितना कहा गया है ? [561 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट नौ रात्रि दिन और बीस मुहूर्त तक (उपपातविरहित कहे हैं।) 562. माहिददेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं बारस राइंदियाई दस मुहुत्ता। [592 प्र.] भगवन् ! माहेन्द्र देवों का उपपातविरहितकाल कितना कहा गया है ? [592 उ.] गौतम ! (उनका उपपातविरहकाल) जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट बारह रात्रिदिन और दस मुहूर्त का है। 563. बंभलोए देवाणं पुच्छा। . गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अद्धतेवीसं रातिदिया। [593 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोक में देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [593 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट साढ़े बाईस रात्रिदिन तक (उपपातविरहित रहते हैं।) 594. लतगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समय, उक्कोसेणं पणतालीसं रातिदिया। [564 प्र.] भगवन् ! लान्तक देवों का उपपातविरह कितने काल तक का कहा गया है ? [564 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट पैंतालीस रात्रिदिन तक (उपपात से रहित कहे हैं / ) 565. महासुक्कदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असोति रातिदियाई। [595 प्र.] भगवन् ! महाशुक्र देवों का उपपातविरह कितने काल का कहा गया है ? [595 उ.] गौतम ! (उनका उपपातविरहकाल) जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट अस्सी रात्रिदिन तक का है। 566. सहस्सारदेवाणं पुच्छा। गोयमा! जहणेणं एगं समयं, उक्कोसेणं रातिदियसतं / [566 प्र.] भगवन् ! सहस्रार देवों का (उपपातविरहकाल) (कितना कहा गया है) ? [566 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक का तथा उत्कृष्ट सौ रात्रिदिन का (उनका उपपातविरह काल कहा गया है। Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद 567. पाणयदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं एग समयं, उक्कोसेणं संखेज्जा मासा / [597 प्र.] भगवन् ! प्रानतदेव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [597 उ.] गौतम ! उनका उपपातविरह काल जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट संख्यात मास तक का है। 548. पाणयदेवाणं पृच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एग समयं, उक्कोसेणं संखेज्जा मासा / [598 प्र.] भगवन् ! प्राणतदेव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [598 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट संख्यात मास तक उपपात से विरहित कहे हैं। 566. प्रारणदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जा वासा / [599 प्र.] भगवन् ! पारणदेवों का उपपातविरह कितने काल का कहा गया है ? [599 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट संख्यात वर्ष तक (उपपातविरहित रहते हैं।) 600. अच्चुयदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जा वासा / {600 प्र.] भगवन् ! अच्युतदेव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [600 उ.] गौतम ! (उनका उपपातविरह) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट संख्यात वर्ष तक रहता है। 601. हेट्ठिमगेवेज्जाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णणं एगं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससताई। - [601 प्र.] भगवन् ! अधस्तन वेयक देव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? [601 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट संख्यात सौ वर्ष तक (उपपात से विरहित कहे हैं / ) 602. मज्झिमगेवेज्जाणं पुच्छा / / गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई। [602 प्र.] भगवन् ! मध्यम ग्रं वेयकदेव कितने काल तक उपपात से विरहित कहे गए हैं ? Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [प्रज्ञापनासूत्र [602 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष तक (उपपातविरहित कहे हैं। 603. उवरिममेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं संखिज्जाई वाससतसहस्साई। [603 प्र.] भगवन् ! ऊपरी वेयक देवों का उपपातविरह कितने काल तक का कहा गया है ? [603 उ.] गौतम ! (उनका उपपात-विरहकाल) जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टतः संख्यातलाख वर्ष का है। 604. विजय-वेजयंत-जयंताऽपराजियदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं / [604 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों का उपपातविरह कितने काल तक का कहा है ? [604 उ.] गौतम ! (इनका उपपात-विरहकाल) जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट असंख्यातकाल का है। 605. सव्वदसिद्धगदेवा णं भंते ! केवतियं कालं विरहिता उववाएणं पन्नत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं एग समयं, उक्कोसेणं पलिप्रोवमस्स संखेज्जइभागं / [605 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों का उपपातविरह कितने काल तक का कहा गया है ? [605 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय का, उत्कृष्ट पल्योपम का संख्यातवां भाग है। 606. सिद्धा णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया सिझणयाए पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / [606 प्र.] भगवन् ! सिद्ध जीवों का उपपात-विरह कितने काल तक का कहा गया है ? [606 उ.] गौतम ! उनका उपपात-विरहकाल जघन्य एक समय का तथा उत्कृष्ट छह मास का है। 607. रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केवतियं कालं विरहिया उन्वट्टणाए पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं चउव्वीसं मुहुत्ता? [607 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा के नैरयिक कितने काल तक उद्वर्त्तना से विरहित कहे गए हैं ? ___ [607 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक समय तक तथा उत्कृष्ट चौबीस मुहूर्त तक उद्वर्तना से विरहित कहे हैं। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद } [453 608. एवं सिद्धवज्जा उज्वट्टणा वि भाणितच्या जाव प्रणुत्तरोक्वाइय त्ति / नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयणं ति महिलावो कायध्वो / दारं 2 // [608] जिस प्रकार उपपात-विरह का कथन किया है, उसी प्रकार सिद्धों को छोड़ कर अनुत्तरोपपातिक देवों तक (पूर्ववत्) उद्वर्तनाविरह भी कह लेना चाहिए। विशेषता यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के निरूपण में (उद्वर्तना के स्थान पर) 'च्यवन' शब्द का अभिलाप (प्रयोग) करना चाहिए। विवेचन-द्वितीय चतुर्विशतिद्वार : नैरयिकों से लेकर अनुत्तरौपपातिक जीवों तक के उपपात और उद्वर्तना के विरहकाल को प्ररूपणा-प्रस्तुत 40 सूत्रों (सू. 566 से 608 तक) में विभिन्न विशेषण युक्त विशेष नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवों के उपपातरहितकाल एवं उद्वर्तनाविरहकाल की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायिकादि प्रतिसमय उपपादविरहरहित-पृथ्वीकायिक आदि जीव प्रति समय उत्पन्न होते रहते हैं। कोई एक भी समय ऐसा नहीं, जब पृथ्वीकायिकों का उपपात न होता हो।' इसलिए उन्हें उपपातविरह से रहित कहा गया है। __ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में उद्वर्तना नहीं—ज्योतिष्क और वैमानिक इन दोनों जातियों के देवों के लिए 'च्यवन' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। च्यवन का अर्थ है नीचे आना / ज्योतिष्क और वैमानिक इस पृथ्वी से ऊपर हैं, अतएव देव मर कर ऊपर से नीचे पाते हैं, नीचे से ऊपर नहीं जाते। तीसरा सान्तरद्वार : नैरयिकों से सिद्धों तक की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तरनिरन्तर-निरूपण 606. नेरइया णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उबवज्जति ? गोयमा! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / [606 प्र.] भगवन् ! नै रयिक सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [606 उ.] गौतम (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 610. तिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि संतरं उक्वज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा! संतरं पिउववज्जंति. निरंतरं पिउववज्जंति / [610 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीव सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 207, (ख) देखिये, संग्रहणीगाथा, मलय. वृत्ति, पत्रांक 207 (ग) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका. भा. 2, पृ. 958 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 207 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 970 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 454] [प्रज्ञापनासूत्र [610 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 611. मणुस्सा णं भंते ! किं संतरं उववज्जंति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / [611 प्र.] भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [611 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर की उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 612. देवा णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / [612 प्र.] भगवन् ! देव सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [612 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 613. रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पिउववज्जंति, निरंतरं पिउववज्जति / [613 प्र.] भगवन् ! क्या रत्नप्रभापृथ्वी के नारक सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [613 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 614. एवं जाव अहेसत्तमाए संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / [614] इसी प्रकार सातवीं नरकपृथ्वी तक (के नैरयिक) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 615. प्रसुरकुमारा णं भंते ! देवा कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जंति ? [615 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं। [615 उ.] गौतम ! वे सान्तर भी होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 616. एवं जाव थणियकुमारा संतरं पि उववज्जति, निरंतरं पि उववज्जति / [616] इसी प्रकार स्तनितकुमार देवों तक सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 617. पुढविकाइया णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उबवज्जति ? गोयमा! नो संतरं उववज्जति, निरंतरं उववज्जंति / [617 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [617 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं। Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [455 618. एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं उववज्जंति, निरंतरं उववज्जंति / [618] इसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों तक सान्तर उत्पन्न नहीं होते, किन्तु निरन्तर उत्पन्न होते हैं (ऐसा कहना चाहिए)। 616. बेइंदिया णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतर पि उववज्जति / [616 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते है ? [616 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 620, एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया / [620] इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों तक कहना चाहिए। 621. मणस्सा णं भंते ! कि संतरं उववज्जति ? निरंतरं उववज्जति ? गोयमा ! संतरं पि उववज्जति, निरंतर पि उववति / [621 प्र.] भगवन् ! मनुष्य सान्तर उत्पन्न होते हैं अथवा निरन्तर उत्पन्न होते हैं ? [621 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं / 622. एवं वाणमंतरा जोइसिया सोहम्म-ईसाण-सणंकुमार-माहिद-बंभलोय-लंतग-महासुक्कसहस्सार-आणय-पाणय-पारण-उच्चुय-हेठिमगेवेज्जग-मज्झिमगेवेज्जग-उवरिमगेवेज्जग-विजय-वेजयंत. जयंत-अपराजित-सम्वसिद्धदेवा य संतरं पि उववज्जंति, निरंतरं पि उववति / [622] इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, प्रारण, अच्युत, अधस्तन ग्रेवेयक, मध्यम प्रैवेयक, उपरितन ग्रेवेयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं। 623. सिद्धाणं भंते ! कि संतरं सिझंति ? निरंतर सिझंति ? गोयमा ! संतरं पिसिझंति, निरंतरं पि सिझंति / [623 प्र.] भगवन् ! सिद्ध क्या सान्तर सिद्ध होते हैं अथवा निरन्तर सिद्ध होते हैं ? [623 उ.] गौतम ! (वे) सान्तर भी सिद्ध होते हैं, निरन्तर भी सिद्ध होते हैं। 624. नेरइया णं भंते ! कि संतरं उज्वट्टति ? निरंतरं उबट्टति ? गोयमा ! संतरं पि उव्वट्टति, निरंतरं पि उन्चट्ट ति / [624 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सान्तर उद्वर्तन करते हैं अथवा निरन्तर उद्वर्तन करते हैं ? [624 उ.] गौतम ! वे सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं और निरन्तर भी उद्वर्तन करते हैं / Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र 625. एवं जहा उववानो भणितो तहा उध्वट्टणा वि सिद्ध वज्जा भाणितवा जाव वेमाणिता। नवरं जोइसिय-वेमाणिएसु चवणं ति अभिलावो कातन्वो / दारं 3 // [625] इस प्रकार जैसे उपपात (के विषय में कहा गया है, वैसे ही सिद्धों को छोड़कर उद्वर्त्तना (के विषय में) भी यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिष्कों और वैमानिकों के लिए 'च्यवन' शब्द का प्रयोग (अभिलाप) करना चाहिए। तृतीय सान्तर द्वार / / 3 / / विवेचन-तीसरा सान्तरद्वार-रयिकों से लेकर सिद्धों तक की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तर-निरन्तरनिरूपण-प्रस्तुत 17 सूत्रों (सू. 606 से 625 तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक देव पर्यन्त चौवीस दण्डकों और सिद्धों की सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति एवं उद्वर्त्तना की प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष-पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पांच प्रकार के एकेन्द्रियों को छोड़ कर समस्त संसारी एवं सिद्ध जीवों की सान्तर और निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पत्ति और उद्वर्तना होती है। किन्तु सिद्धों की उत्पत्ति भी सान्तर-निरन्तर होती है, किन्तु उद्वर्त्तना कभी नहीं होती।' सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति की व्याख्या-बीच-बीच में कुछ समय छोड़कर व्यवधान से उत्पन्न होना सान्तर उत्पन्न होना है, और प्रतिसमय लगातर--विना व्यवधान के उत्पन्न होना, बीच में कोई भी समय खाली न जाना निरन्तर उत्पन्न होना है / चतुर्थ एक समयद्वार : चौबीसदण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति और उद्वर्तना की संख्या को प्ररूपणा 626. नेरइया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उघवजंति ? गोयमा! जहण्णणं एगो वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उचवज्जति / [626 प्र.] भगवन् ! एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ? [626 उ.] गौतम ! जघन्य (कम से कम) एक, दो या तीन और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं / 627. एवं जाव अहेसत्तमाए। [627] इसी प्रकार सातवीं नरकपृथ्वी तक समझ लेना चाहिए / 628. असुरकुमारा णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा बा। [628 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? 1. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 166 से 168 तक 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 208, (ख) प्रज्ञापना प्र. बो. टोका भा. 2, पृ. 976-977 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा ध्युत्क्रान्तिपव ] [457 [628 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात (उत्पन्न होते हैं।) 626 एवं णागकुमारा जाव थणियकुमारा वि भाणियव्वा। [626] इसी प्रकार नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक कहना चाहिए / 630. पुढविकाइया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उवबज्जति ? गोयमा ! अणुसमयं अविरहियं असंखेज्जा उववज्जति / [630 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [630 उ.] गौतम ! (वे) प्रतिसमय विना विरह (अन्तर) के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। 631. एवं जाव बाउकाइया / [631] इसी प्रकार वायुकायिक जीवों तक कहना चाहिए / 632. वणप्फतिकाइया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उववज्जति ? गोयमा ! सट्टाणुववायं पडुच्च अणुसमयं प्रविरहिया अणंता उवधज्जति, परट्टाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखेज्जा उववज्जंति / [632 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [632 उ.] गौतम ! स्वस्थान (वनस्पतिकाय) में उपपात (उत्पत्ति) की अपेक्षा से प्रतिसमय बिना विरह के अनन्त (वनस्पतिजीव) उत्पन्न होते रहते हैं तथा परस्थान में उपपाल की अपेक्षा से प्रतिसमय बिना विरह के असंख्यात (वनस्पतिजीव) उत्पन्न होते हैं। 633. बेइंदिया णं भंते ! केवतिया एगसमएणं उववज्जति ? गोयमा ! जहण्णणं एगो वा दो वा तिष्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा। [633 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [633 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात (उत्पन्न होते हैं / ) 634. एवं तेइंदिया चरिदिया सम्मुच्छिमपंचेदियतिरिक्खजोणिया गब्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सम्मुच्छिममणूसा वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मोसाण-सणंकुमार-माहिद-बंभलोयलंतग-सुक्क सहस्सारकप्पदेवा, एते जहा नेरइया। [634] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, सम्मूच्छिम मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र एवं सहस्रार कल्प के देव, इस सब की प्ररूपणा नैरयिकों के समान समझनी चाहिए। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458] [ प्रजापनासूत्र 635, गम्भवतियमणूस-प्राणय-पाणय-प्रारण-अच्चुय-गेवेज्जग-अणुत्तरोववाइया य एते जहण्णेणं एषको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / ___ [635] गर्भज मनुष्य, पानत, प्राणत, पारण, अच्युत, (नौ) वेयक, (पांच) अनुत्तरौपपातिक देव ; ये सब जघन्यतः एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्टत: संख्यात उत्पन्न होते हैं / 636. सिद्धा णं भंते ! एगसमएणं केवतिया सिझंति ? गोयमा ! जहणेणं एकको वा दो वा तिणि वा, उक्सोसेणं अट्ठसतं / [636 प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवन् एक समय में कितने सिद्ध होते हैं ? [636 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः एक, दो, अथवा तीन और उत्कृष्टत: एक सौ आठ सिद्ध होते हैं। 637. नेरइया णं भंते ! एगसमएणं केवतिया उव्वति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उज्वट्ट ति। [637 प्र.] भगवन् ! नैरयिक एक समय में कितने उद्वतित होते (मर कर निकलते) हैं ? [637 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य एक दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उत्तित होते (मरते) हैं। 638. एवं जहा उवधानो भणितो तहा उध्वट्टणा वि सिद्धवज्जा भाणितम्या जाव अणुत्तरो. ववाइया / गवरं जोइसिय-वेमाणियाणं चयणेणं अभिलादो कातव्यो / दारं 4 // 6638] इसी प्रकार जैसे उपपात के विषय में कहा, उसी प्रकार सिद्धों को छोड़ कर अनुत्तरोपपातिक देवों तक की उद्वर्तना के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए (उद्वर्तना के बदले) 'च्यवन' शब्द का प्रयोग (अभिलाप) करना चाहिए। -चतुर्थ एकसमयद्वार / / 4 / / विवेचन-चतुर्थ एकसमय-द्वार: चौबीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति तथा उद्वर्तना की संख्या को प्ररूपणा--प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. 626 से 638 तक) में एक समय में समस्त संसारी जीवों की उत्पत्ति एवं उद्वर्त्तना तथा सिद्धों की सिद्धिप्राप्ति की संख्या के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है। वनस्पतिकायिकों के स्वस्थान-उपपात एवं परस्थान-उपपात की व्याख्या- यहाँ स्वस्थान का अर्थ 'वनस्पतिभव' समझना चाहिए। जो वनस्पतिकायिक जीव मर कर पुनः वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होते हैं, उनका उत्पाद स्वस्थान में उत्पाद कहलाता है और जब पृथ्वी काय आदि किसी अन्य काय का जीव वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है, तब उसका उत्पाद परस्थान-उत्पाद कहलाता है / स्वस्थान में उत्पत्ति की अपेक्षा प्रत्येक समय में निरन्तर अनन्त वनस्पतिकायिक जीव उत्पन्न होते रहते हैं; क्योंकि प्रत्येक निगोद में असंख्यातभाग का निरन्तर उत्पाद और उद्वर्तन होता रहता है, और वे वनस्पतिकायिक अनन्त होते हैं / परस्थान-उत्पाद की अपेक्षा से प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात जीवों का उपपात होता रहता है, क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के जीव असंख्यात हैं / तात्पर्य यह है कि Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [459 एक समय में वनस्पतिकाय से मर कर वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होने वाले जीव अनन्त होते हैं एवं अन्य कायों से मर कर वनस्पतिकाय में उत्पन्न होने वाले असंख्यात हैं।' गर्भज मनुष्य तथा आनतादि का एक समय में संख्यात ही उत्पाद क्यों ? अानतादि देवलोकों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं, जो कि संख्यात ही हैं। तिर्यंच उनमें नहीं उत्पन्न होते। पंचम कुतोद्वार : चातुर्गतिक जीवों की पूर्वभवों से उत्पत्ति (प्रागति) को प्ररूपरणा 636. [1] नेरइया णं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? कि नेरइएहितो उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? मणुस्से हितो उववज्जति ? देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नेरइया नो नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिहितो उबवज्जंति, मणुस्सेहितो उववज्जंति, नों देवेहितो उववज्जंति / [636-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? क्या (वे) नैरयिकों में से उत्पन्न होते हैं ? तिर्यग्योनिकों में से उत्पन्न होते हैं ? मनुष्यों में से उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) देवों में से उत्पन्न होते हैं ? [639-1 उ.] गौतम ! नैरयिक, नैरयिकों में से उत्पन्न नहीं होते, (वे) तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (तथा) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) देवों में से उत्पन्न नहीं होते। [2] जदि तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? बेइंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवज्जति ? तेइंदियतिरिक्खजोगिएहितो उक्वज्जति ? चरिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो एगिदिय० तो बेदिय० नो तेइंदिय० नो चरिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति, पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति / [639-2 प्र.] भगवन् ! यदि (नैरयिक) तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) एकेन्द्रियतियंञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, द्वीन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, त्रीन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? / [639-2 उ.] गौतम ! (वे) न तो एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से, न द्वीन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से, न ही त्रीन्द्रियतिर्यञ्चयोतिकों से और न चतुरिन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं। [3] जति पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? थलयरपंचेंदितिरिक्खजोणिएहितों उववज्जति ? खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 208, 206, (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका भा. 2, पृ 992 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति, थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिहितो वि उववज्जंति, खहयरपंचेंदितिरिक्खजोणिएहितो वि उववति / [639-3 प्र.] भगवन् ! यदि (नैरयिक) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? , (अथवा) खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-3 उ.] गौतम ! (वे नैरयिक) जलचरपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं, स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं और खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं। [4] जइ जलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदितिरिक्खजोणिहितो उवयजंति ? गम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जंति, गम्भवतियजलयरपंचेंदिएहितो वि उववज्जति / [636-4 प्र.] (भगवन् !) यदि (वे नारक) जलचरपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? या गर्भज जलचरपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-4 उ.] गौतम ! (वे) सम्मूच्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं और गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / [5] जति सम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति कि पज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिहितो उववज्जति ? अपज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोगिएहितो उववज्जति ? ___ गोयमा ! पज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवज्जंति, नो अपज्जत्तयसम्मुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोंणिएहितो उववज्जति / [636-5 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे नारक) सम्मूच्छिमजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तक सम्मूच्छिमजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं अथवा अपर्याप्तक सम्मूच्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [636-5 उ.] गौतम ! पर्याप्तक सम्मूच्छिमजलचरपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तक सम्मूच्छिमजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न नहीं होते। [6] जति गम्भवतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं पज्जत्तगगम्भवतियजलयरपंचेंदिएहितो उववज्जति ? अपज्जत्तयगमवक्कलियजलयरपंचेंदियेहितो उववज्जति ? गोयमा! पज्जत्तयगम्भवक्कंतियजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, नो अपज्जसगगन्भवतियजलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति / Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपव [ 461 [639-6 प्र.] भगवन् ! यदि गर्भज जलचर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से (नारक) उत्पन्न होते हैं, तो क्या पर्याप्तक-गर्भज-जलचर-पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) अपर्याप्तकगर्भजजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [336-6 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक-गर्भज-जलचर-पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तकगर्भ-जजलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से नहीं उत्पन्न होते / [7] जइ थलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिहितो उववज्जति कि चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जंति, परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति / |639-7 प्र.] (भगवन !) यदि (वे) स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ?, (अथवा) परिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्प [636-7 उ ] गौतम ! (वे) चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं और परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / [8] जदि चउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि सम्मुच्छिमेहितो उववज्जति ? गम्भवक्कतिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जंति, गमवक्कतियचउप्पएहितो वि उववज्जति / [636-8 प्र.] भगवन् ! यदि चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं ? अथवा गर्भज-स्थल चरपंचेन्द्रिय-तियंञ्चों से उत्पन्न होते हैं ? [639-8 उ.] गौतम ! (वे) सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं, और गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं। [6] जइ सम्मुच्छिमचउप्पएहितो उवयज्जति कि पज्जत्तगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदिएहितो उववज्जति ? अपज्जत्तगसम्मुच्छिमचउम्पयथलयरपंचेंदिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तगसम्मुच्छिमचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति। [639-9 प्र.] (भगवन् ! ) यदि सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो क्या पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462 [ प्रज्ञापनासूत्र [636.6 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से नहीं उत्पन्न होते। [10] जति गम्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववजंति कि संखेज्जवासाउगगब्भवक्कंतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? असंखेज्जवासा. उयगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिनहितो उववज्जंति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउएहितो उववज्जंति, नो असंखेज्जवासाउएहितों उववज्जंति / [639-10 प्र.] (भगवन् )! यदि गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से (नारक) उत्पन्न होते हैं, तो क्या (वे) संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? / [639-10 उ.] गौतम ! (वे) संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) असंख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-चतुष्पद-स्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से नहीं उत्पन्न होते। [11] जति संखेज्जवासाउयगम्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगन्भवतियचउप्पयथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियच उप्पयथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएहितो उववज्जति, नो अपज्जत्तयसंखेज्जवासाउएहितो उववज्जति / [639-11 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे नारक) संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-चतुष्पदस्थलचर-पचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क गर्भज चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) अपर्याप्तक-संख्यात-वर्षायुष्क गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-11 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-चतुष्पद-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-चतुष्पद-स्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से नहीं उत्पन्न होते / [12] जति परिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि उरपरिसप्पथलयर. पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववउति? गोयमा! दोहितो वि उववज्जंति / [639-12 प्र.] भगवन् ! यदि (वे) परिसर्प-स्थलचर पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद [463 होते हैं, तो क्या उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) भुजपरिसर्प स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-12 उ.] गौतम ! वे दोनों से ही–अर्थात् - उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से भी उत्पन्न होते हैं, और भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से भी उत्पन्न होते हैं। [13] जदि उरपरिसप्पयलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उवज्जति कि सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति ? गम्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! सम्मुच्छिमेहितो वि उववज्जति, गब्भवक्कतिहितो वि उववज्जंति / [639-13 प्र.] भगवन् ! यदि उरःपरिसर्पस्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मूच्छिम-उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं, अथवा गर्भज-उर परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-13 उ.] गौतम ! (वे) सम्मूच्छिम-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से भी उत्पन्न होते हैं और गर्भज-उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं। [14] जति सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि पज्जत्तरोहितो उववज्जंति ? अपज्जत्तहितो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तगसम्मुच्छिमेहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तगसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति / __[639-14 प्र.] भगवन् ! यदि (वे) सम्मूच्छिम-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? . [639-14 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-उरःपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय तिर्यगयोनिकों से उत्पन्न नहीं होते। [15] जति गम्भवपकंतियउरपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिएहितो उबवज्जति कि पज्जत्तएहितो? अपज्जत्तएहितो? __ गोयमा ! पज्जत्तगगम्भवक्कतिरहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तगगब्भवक्कंतिउरपरिसप्पथलयरपंचेदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति / [636-15 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) गर्भज-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) पर्याप्तक-गर्भज-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, या अपर्याप्तक गर्भज-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 464] [प्रज्ञापनासूत्र / [639-15 उ.] गौतम ! पर्याप्तक-गर्भज-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से अपर्याप्तक-गर्भज-उर:परिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न नहीं होते। / [16] जति भुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिरहितो उववज्जति ? गब्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदिय. तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितो वि उववज्जति / [639-16 प्र.] (भगवन् !) यदि (वे) भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या (वे) सम्भूच्छिम-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-16 उ.] गौतम ! (वे) दोनों से (सम्मूच्छिम-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से भी, तथा गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से) भी उत्पन्न होते हैं। [17] जति सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि पज्जत्तयसम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिहितो उववज्जंति ? अपज्जत्तय सम्मुच्छिमभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहितो उववज्जति / [636-17 प्र.] (भगवन् ! ) यदि सम्मूच्छिम-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-भुजपरिसर्प-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-17 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक-सम्मूच्छिम-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न नहीं होते। [18] जति गम्भवक्कंतियभुयपरिसप्पथलयरपंचेंदियतिरिषखजोणिएहितो उववज्जति किं पज्जत्तएहिंतो उववज्जति ? अपज्जत्तएहितो उववज्जंति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहितो उववति / [639.18 प्र.] (भगवन् ! ) यदि गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे नारक) पर्याप्तक-गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उप्पन्न होते हैं, या अपर्याप्त-गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [636-18 उ.] गौतम ! पर्याप्तक-गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तक-गर्भज-भुजपरिसर्प-स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न नहीं होते। Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [ 465 - [16] जति खहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं सम्मुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितों वि उववज्जति / [639-16 प्र.] (भगवन् ! ) यदि खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मूच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं, या गर्भज खेचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [639-16 उ. गौतम ! दोनों से (सम्मूच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से तथा गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से) उत्पन्न होते हैं। [20] जति सम्मुच्छिमखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं पज्जत्तएहितो उववज्जति ? अपज्जत्तएहिंतो उबवज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहितो उववज्जति / [639-20 प्र.] (भगवन् !) यदि सम्मूच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं. तो क्या (3) पर्याप्तक सम्मच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्प अथवा अपर्याप्तक सम्मूच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [636-20 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक सम्मूच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) अपर्याप्तक सम्मूच्छिम खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न नहीं होते। [21] जति गम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं संखिज्जवासाउएहितो उववज्जति ? असंखेज्जवासाउएहितो उववज्जति ? गोयमा ! संखिज्जवासाउएहितो उववज्जति, नो असंखेज्जवासाउएहितो उववज्जति / [636-21 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [636-21 उ.] गौतम ! (वे) संख्यातवर्ष की आयु वाले गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) असंख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न नहीं होते। [22] जति संखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियखहयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं पज्जत्तएहिंतो उववज्जति ? अपज्जत्तएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पज्जत्तएहिंतो उववजंति, नो अपज्जत्तएहितो उक्वज्जति / [639-22 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) संख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 466] [प्रज्ञापनासूत्र होते हैं, अथवा अपर्याप्तक असंख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [636-22 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक संख्यातवर्षायूष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं (किन्तु) अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क गर्भज खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न नहीं होते। [23] जति मणुस्सेहितो उववज्जति किं सम्मुच्छिममणुस्सेहितो उववज्जति ? गम्भवक्कतियमणुस्से हिंतो उववति ? गोयमा ! नो सम्मुच्छिममणुस्सेहितो उववज्जंति, गब्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति / [636-23 प्र.] (भगवन् !) यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? __[636-23 उ.] गौतम ! (वे) सम्मूच्छिम मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते, गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं। _ [24] जइ गब्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति किं करमभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्से हितो उववज्जति ? अकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्से हिंतो उबवज्जति ? अंतरदीवगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! कम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति, नो अकम्मभूमगगब्भवतियमस्से हिंतो उक्वजंति, नो अंतरदीवगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति / [639-24 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं अथवा अन्तर्वीपज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [636-24 उ.] गौतम ! (वे) कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं; (किन्तु) न तो अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं और न अन्तर्वीपज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं / [25] जति कम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति किं संखेज्जवासाउएहितो उववज्जति ? असंखेज्जवासाउएहिंतो उबवज्जति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगन्भवतियमणसे हितो उववज्जंति, नो असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसेहिंतो उववति / [639-25 प्र.] (भगवन् ! ) यदि कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [636-25 उ.] गौतम ! (वे) संख्यात वर्ष की प्राय वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [467 [26] जति संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवतियमसेहितो उबवजंति किं पज्जत्तगेहितो उववज्जति ? अपज्जत्तगेहिंतो उववज्जंति ? / गोयमा ! पज्जत्तएहितो उववज्जंति, नो अपज्जत्तएहिंतो उववज्जति / [636-26 प्र. (भगवन् ! ) यदि (वे) संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [636-26 उ.] गौतम! पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। 640. एवं जहा ओहिया उवबाइया तहा रयणप्पभापुढविनेरइया वि उववाएयग्वा / [640] इसी प्रकार जैसे औधिक (सामान्य) नारकों के उपपात (उत्पत्ति) के विषय में कहा गया है, वैसे ही रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के उपपात के विषय में कहना चाहिए। 641. सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा। गोयमा ! एते वि जहा प्रोहिया तहेवोववाएयव्वा / नवरं सम्मुच्छिमेहितो पडिसेहो कातव्यो। [645 प्र.] शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में पृच्छा ? [641 उ.] गौतम ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों का उपपात भी औधिक (सामान्य) नैरयिकों के उपपात की तरह ही समझना चाहिए / विशेष यह है कि सम्मूच्छिमों से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए / 642. वालुयप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! कतोहिंतो उबवज्जति ? गोयमा ! जहा सक्करप्पभापुढविनेरइया / नवरं भुयपरिसपेहितो वि पडिसेहो कातव्वो। [642 प्र.] भगवन् ! वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? [642 उ.] गौतम ! जैसे शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इनकी उत्पत्ति के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि भुजपरिसर्प (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च) से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए / 643. पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहा वालुयप्पभापुढविनेरइया / नवरं खयरेहितो वि पडिसेहो कातव्यो / [643 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नै रयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? [643 उ.] गौतम ! जैसे वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इनकी उत्पत्ति के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि खेचर (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों) से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4681 [ प्रज्ञापनासूत्र 644. धूमप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहा पंकप्पभापुढविनेरइया / नवरं चउप्परहितो वि पडिसेहो कातव्वो। [644 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? [644 उ.] गौतम ! जैसे पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के उत्पाद के विषय में कहा, उसी प्रकार इनके उत्पाद के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि चतुष्पद (स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों) से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए। 645. [1] तमापुढविनेरइया णं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? गोयमा ! जहा धूमप्पभापुढबिनेरइया / नवरं थलयरेहितो वि पडिसेहों कातब्बो / [645-1 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? [641-1 उ.] गौतम ! जैसे धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इस पृथ्वी के नै रयिकों की उत्पत्ति के विषय में समझना चाहिए / विशेष यह है कि स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों से इनकी उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए। [2] इमेणं अभिलावेणं-जति पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि जलयरपंचेंदिएहितो उववज्जति ? यलयरपंचेंदिएहितो उववज्जंति ? खहयरपंचिदिएहितो उववज्जंति ? गोयमा ! जलयरपंचें दिएहितो उववज्जति, नो थलयरेहितो नो खयरेहिंतो उववज्जति / [645-2 प्र.] इस (पूर्वोक्त) अभिलाप (कथन) के अनुसार--यदि वे (धूमप्रभापृथ्वी नारक) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं ?, या स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं ? अथवा खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं ? [645-2 उ.] गौतम ! (वे) जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु न तो . स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं और न ही खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं। [3] जति मणुस्सेहितो उववति किं कम्मभूमएहितो अकम्मभूमएहितो अंतरदोवएहितो? गोयमा ! कम्मभूमीहितो उववज्जंति, नो अकम्मभूमएहितो उक्वजंति, नो अंतरदीवहितो। [645-3 प्र] भगवन् ! यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या कर्मभूमिज मनुष्यों से या अकर्मभूमिज मनुष्यों से अथवा अन्तर्वीपज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [645-3 उ.] गौतम ! (वे) कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु न तो अकर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं और न अन्तर्वीपज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं। [4] जति कम्मभूमएहितो उववज्जति किं संखेज्जवासाउएहितो असंखेज्जवासाउएहितो उववज्जति ? गोयमा ! संखेज्जवासाउएहितो उववज्जति, नो असंखेज्जवासाउएहितों उववज्जति / Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [469 645.4 प्र.] भगवन् ! यदि कर्मभूमिज मनुष्यों स उत्पन्न होते हैं तो क्या संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं अथवा असंख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [645-4 उ.] गौतम ! (वे) संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) असंख्यातवर्षायुप्क कर्मभूमिज मनुष्यों से नहीं उत्पन्न होते / [5] जति संखेज्जवासाउएहितो उववज्जति किं पज्जत्तएहिंतो उववज्जति ? अपज्जत्तएहितो उववज्जंति? [645-5. प्र.] (भगवन्) ! यदि (तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिक) संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं अथवा अपर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं ? [645-5 उ.] गौतम ! पर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं, अपर्याप्तकों से उत्पन्न नहीं होते। [6] जति पज्जत्तयसंखेज्जवासाउयकम्मभूमएहितो उववज्जति कि इत्थीहितो उववज्जति ? पुरिसे हिंतो उववज्जति ? नपुंसएहितो उववज्जंति ? गोयमा ! इत्थोहितो वि उववजंति, पुरिसेहितो वि उववज्जति, नपुसएहितो वि उववज्जति। [645-6 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या स्त्रियों से उत्पन्न होते हैं ? या पुरुषों से उत्पन्न होते हैं ? अथवा नपुंसकों से उत्पन्न होते हैं ? [645-6 उ.] गौतम ! (वे) स्त्रियों से भी उत्पन्न होते हैं, पुरुषों से भी उत्पन्न होते हैं और नपुसकों से भी उत्पन्न होते हैं / 646. अधेसत्तमापुढविनेरइया गं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? गोयमा! एवं चेव / नवरं इत्थोहितो [वि] पडिसेधो कातन्यो। [646 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तमी (तमस्तमा) पृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? [646 उ.] गौतम ! इनकी उत्पत्ति-सम्बन्धी प्ररूपणा इसी प्रकार (छठी तमःप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के समान) समझनी चाहिए। विशेष यह है कि स्त्रियों से इनके उत्पन्न होने का निषेध करना चाहिए। 647. अस्सण्णी खलु पढम, दोच्चं च सिरीसिवा, तइयं पक्खी। सीहा जति चउत्थिं, उरगा पुण पंचमीपुढविं / / 183 / / छट्टि च इत्थियानो, मच्छा मणुया य सत्तमिं पुढविं। एसो परमुववाप्रो बोधयो नरयपुढवीणं // 184 // [647 संग्रहगाथार्थ-] असंज्ञी निश्चय ही पहली (नरकभूमि) में, सरीसृप (रेंग कर चलने वाले सर्प आदि) दूसरी (नरकपृथ्वी) तक, पक्षी तीसरी (नरकपृथ्वी) तक, सिंह चौथी (नरक Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 ] / प्रज्ञापनासूत्र पृथ्वी) तक, उरग पांचवीं पृथ्वी तक, स्त्रियां छठी (नरकभूमि) तक और मत्स्य एवं मनुष्य (पुरुष) सातवीं (नरक) पृथ्वी तक उत्पन्न होते हैं। नरकपृथ्वियों में (पूर्वोक्त जीवों का) यह परम (उत्कृष्ट) उपपात समझना चाहिए / 183-184 / / 648. असुरकुमारा णं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उववज्जति, तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति, मणुएहितो उववज्जंति, नो देवेहिंतो उबवज्जंति / एवं जेहितो नेरइयाणं उववानो तेहितो असुरकुमाराण वि भाणितध्वो / नवरं असखेज्जवासाउय-प्रकम्मभूमग-अंतरदीवगमणुस्सतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति / सेसं तं चेव / [648 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार कहाँ से (पाकर) उत्पन्न होते हैं ? [648 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिकों से उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं परन्तु देवों से उत्पन्न नहीं होते / इसी प्रकार जिन-जिन से नारकों का उपपात कहा गया है, उन-उन से असुरकुमारों का भी उपपात कहना चाहिए / विशेषता यह है कि (ये) असंख्यातवर्ष की आयु वाले, अकर्मभूमिज एवं अन्तीपज मनुष्यों और तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / शेष सब बातें वही (पूर्ववत्) समझनी चाहिए। 646. एवं जाव थणियकुमारा / [646] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक के उपपात के विषय में कहना चाहिए / 650. [1] पुढविकाइया णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? किं नेरइएहितो जाव देवेहितो उववज्जति ? गोयमा! नो नेरइएहितो उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएहितो मणुयजोणिएहितो देवेहितो वि उववज्जति। [650-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नारकों से, तिर्यंचों से, मनुष्यों से अथवा देवों से उत्पन्न होते हैं ? [650-1 उ.] गौतम ! (वे) नारकों से उत्पन्न नहीं होते (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों से, मनुष्ययोनिकों से तथा देवों से भी उत्पन्न होते हैं / _[2] जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उक्वजति ? गोयमा ! एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो वि जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो वि उववज्जति / [650-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) तिर्यञ्चयोनिकों से (या कर) उत्पन्न होते हैं, तो क्या (वे) एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ? Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [471 [650-2 उ.] गौतम ! (वे) एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न होते हैं / [3] जति एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं पुढविकाइएहितो जाव वणफइकाइएहितो उववज्जति ? गोयमा ! पुढविकाइएहितो वि जाव वणष्फइकाइएहितो वि उववज्जति / [650-3 प्र] (भगवन् ! ) यदि एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं तो क्या पृथ्वीकायिकों से यावत् वनस्पतिकायिकों से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? [650-3 उ.] गौतम ! वे पृथ्वीकायिकों से भी यावत् वनस्पतिकायिकों से भी (पाकर) उत्पन्न होते हैं। [4] जति पुढविकाइएहितो उववति किं सुहमपुढविकाइएहितो उववज्जति ? बादरपुढविकाइएहितो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितो वि उववति / 6650-4 प्र. (भगवन् ! ) यदि पृथ्वीकायिकों से (पाकर) उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं या बादर पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं ? [650-4 उ] गौतम ! (वे उपर्युक्त) दोनों से उत्पन्न होते हैं / [5] जति सुहमपुढविकाइएहितो उववज्जति किं पज्जतसुहमपुढविकाइएहितो उववज्जति ? अपज्जत्तसुहमपुढविकाइएहितो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितो वि उववज्जति / [650-5 प्र. (भगवन् ! ) यदि सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों से (पाकर वे) उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं अथवा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं ? [650-5 उ.] गौतम ! (वे उपर्युक्त) दोनों से ही (प्राकर) उत्पन्न होते हैं / [6] जति बादरपुढविकाइएहितो उववज्जति किं पज्जत्तएहितो अपज्जत्तरहितो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितो वि उववज्जंति / {650-6 प्र.] (भगवन् ! ) यदि बादर पृथ्वीकायिकों से (आकर) वे उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं ? [650-6 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त) दोनों से ही (वे) उत्पन्न होते हैं / [7] एवं जाव वणप्फतिकाइया चउक्कएणं भेदेणं उववाएयवा। {650-7] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों तक चार-चार भेद करके उनके उपपात के विषय में कहना चाहिए। Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] [प्रज्ञापनासूत्र [] जति बेइंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जंति कि पज्जत्तयबेइंदिरहितो उववज्जति ? अपज्जत्तयबेइंदिएहितो उववज्जंति ? गोयमा ! दोहितो वि उववज्जति / [650.8 प्र.] (भगवन् ! ) यदि द्वीन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से (पाकर) वे (एकेन्द्रिय जीव) उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्त द्वीन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्त द्वीन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं ? [650.8 उ.] गौतम ! (वे उपर्युक्त) दोनों से भी उत्पन्न होते हैं। [6] एवं तेइंदिय-चरिदिएहितो वि उववज्जंति / [650-9] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से भी (वे) उत्पन्न होते हैं। [10] जति पंचेंदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति कि जलयरपंचेंदियहितो उववज्जति ? एवं जेहितो नेरइयाणं उववानो भणितो तेहितो एतेसि पि भाणितब्बो। नवरं पज्जत्तगअपज्जत्तहितो वि उववज्जति, सेसं तं चेव / [650-10 प्र.] (भगवन् !) यदि (वे) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या जलचर पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं (या अन्य स्थलचर आदि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से उत्पन्न होते हैं ?) [650-10 उ.] (गौतम ! ) एवं जिन-जिन से नरयिकों के उपपात के विषय में कहा है, उन-उन से इनका (पृथ्वीकायिकों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक का) भी उपपात कह देना चाहिए। विशेष यह है कि पर्याप्तकों और अपर्याप्तकों से भी उत्पन्न होते हैं / शेष (सब निरूपण) पूर्ववत् समझना चाहिए। [11] जति मणुस्सेहितो उववज्जति कि सम्मुच्छिममणूसे हितो उववज्जति ? गम्भवक्कतियमसेहितो उववज्जति ? गोयमा ! दोहितो वि उववजंति / __ [650-11 प्र. (भगवन् ! ) यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? {650-11 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक दोनों (सम्मूच्छिम और गर्भज) से उत्पन्न होते हैं। - [12] जति गम्भवक्कंतियमणूसेहितो उववज्जति किं कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमसेहितो उववज्जति ? अकम्मभूमगगभवक्कंतियमणूसेहितो उववजंति ? सेसं जहा नेरइयाणं (सु. 636 [4-26]) / नवरं अपज्जतहितो वि उववज्जति / [650-12 प्र.) (भगवन् ! ) यदि गर्भज मनुष्यों से (नाकर) उत्पन्न होते हैं तो क्या कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं अथवा अकर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपदा [650-12 उ.] (गौतम !) शेष जो (कथन) नैरयिकों के (उपपात के) सम्बन्ध में (सू.. 639-4 से 24 तक में) कहा है. वही (पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियों के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।) विशेष यह है कि (ये) अपर्याप्तक (कर्मभूमिज गर्भज) मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं / [13] जति देवेहितो उववति किं भवणवासि-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहितो? गोयमा ! भवणवासिदेवेहितो वि उववज्जति जाव वेमाणियदेहितो वि उववज्जति / [650-13 प्र.] (भगवन् ! ) यदि देवों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं ? [650-13 उ.] गौतम ! भवनवासी देवों से भी उत्पन्न होते हैं, यावत् वैमानिक देवों से भी उत्पन्न होते हैं। [14] जति भवणवासिदेवेहितो उववज्जति किं असुरकुमारदेवहितो जाव थणियकुमारदेवहितो उववज्जति। गोयमा ! असुरकुमारदेहितो वि जाव थणियकुमारदेवेहितो वि उववज्जति / [650-14 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (ये) भवनवासी देवों से उत्पन्न होते हैं तो असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक (दस प्रकार के भवनवासी देवों में से) किनसे उत्पन्न होते हैं ? [650-14 उ.] गौतम ! (ये) असुरकुमार देवों से यावत् स्तनितकुमार देवों तक से भी (दस ही प्रकार के भवनवासी देवों से) उत्पन्न होते हैं / [15] जति वाणमंतरेहितो उववज्जति किं पिसाएहितो जाव गंधर्वहितो उववज्जति ? गोयमा! पिसाएहितो वि जाव गंधर्वहितो वि उववज्जति / 650-15 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) वाणव्यन्तर देवों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या पिशाचों से यावत् गन्धों से उत्पन्न होते हैं ? [650-15 उ.] गौतम ! (वे) पिशाचों से यावत् गन्धर्वो (तक के सभी प्रकार के वाणव्यन्तर देवों) से उत्पन्न होते हैं / [16] जइ जोइसियदेवेहितो उववज्जति किं चंदविमाहितो जाव ताराविमाणेहितो उववज्जति ? गोयमा !चंदविमाणजोइसियदेवेहितो वि जाव ताराविमाणजोइसियदेवेहितो वि उववज्जति / [650-16 प्र.] (भगवन ! ) यदि (वे) ज्योतिष्क देवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या चन्द्रविमान के ज्योतिष्क देवों से उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् ताराविमान के ज्योतिष्क देवों से उत्पन्न होते हैं ? [650-16 उ ] गौतम! चन्द्रविमान के ज्योतिष्क देवों से भी उत्पन्न होते हैं तथा यावत् ताराविमान के ज्योतिष्कदेवों से भी उत्पन्न होते हैं / [17] जति वेमाणियदेवेहिंतो उववज्जति किं कप्पोवगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति ? फप्पातीतगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति ? Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 ] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति, नो कप्पातीयवेमाणियदेवेहितो उववज्जति / [650-17 प्र.] (भगवन् !) यदि वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं या कल्पातीत वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं ? _ [650-17 उ.] गौतम ! (वे) कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते। [18] जति कप्पोवगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति कि सोहम्मेहिंतो जाव अच्चुएहितो उववज्जति। ___ गोयमा ! सोहम्मोसाणेहितो उववज्जंति, नो सणंकुमार जाव अच्चुएहितो उववति / _ [650-18 प्र.] (भगवन् ! ) यदि कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे (पृथ्वीकायिक) सौधर्म (कल्प के देवों) से यावत् अच्युत (कल्प तक के) देवों से उत्पन्न होते हैं ? [650-18 उ.] गौतम ! (वे) सौधर्म और ईशान कल्प के देवों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक के देवों से उत्पन्न नहीं होते। 651. एवं प्राउक्काइया वि। [651] इसी प्रकार अप्कायिकों की उत्पत्ति के विषय में भी कहना चाहिए। 652. एवं तेउ-वाऊ वि / नवरं देववहितो उववज्जति / [652] इसी प्रकार तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों की उत्पत्ति के विषय में समझना चाहिए / विशेष यह है कि (ये दोनों) देवों को छोड़कर (दूसरों-नारकों, तिर्यञ्चों तथा मनुष्यों-- से) उत्पन्न होते हैं। 653, वणस्सइकाइया जहा पुढधिकाइया / [653] वनस्पतिकायिकों की उत्पत्ति के विषय में कथन, पृथ्वीकायिकों के उत्पत्ति-विषयक कथन की तरह समझना चाहिए। 654. बेइंदिय-तेइंदिय-चउरेंदिया एते जहा तेउ-वाऊ देववहितो भाणितव्वा / [654] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की उत्पत्ति के समान समझनी चाहिए / देवों को छोड़ कर (अन्यों-नारकों, तिर्यञ्चों तथा मनुष्यों से) इनकी उत्पत्ति कहनी चाहिए। 655. [1] पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? किं नेरइएहितो उववज्जति ? जाव देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! नेरइएहितो वि तिरिक्खजोणिएहितो वि मणूसे हितो वि देवेहितो वि उववज्जति / [655-1 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक कहाँ से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नारकों से उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों से उत्पन्न होते हैं ? Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [475 [655-1 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिकों से भी उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों से भी, मनुष्यों से भी और देवों से भी उत्पन्न होते हैं। [2] जति नेरइएहितो उववज्जति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहितो उववज्जति ? जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएहितो उववज्जति ? गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइएहितो वि जाव असत्तमापुढविनेरइएहितो वि उववज्जति / [655-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत् अधःसप्तमी (तमस्तमा) पृथ्वी (तक) के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं ? __[655-2 उ.] गौतम ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से भी उत्पन्न होते हैं, यावत् अधःसप्तमीपृथ्वी के नैरयिकों से भी उत्पन्न होते हैं / [3] जति तिरिक्खजोणिएहितो उबवज्जति किं एगिदिएहितो उववजंति ? जाव पंचेंदिएहिंतो उववज्जंति ? गोयमा! एगिदिएहितो वि जाव पंचेंदिएहितो वि उववज्जति / 655.3 प्र.] (भगवन् !) यदि तिर्यञ्चयोनिकों से (वे) उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं, (या) यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से उत्पन्न होते हैं ? [655-3 उ.] गौतम ! (वे) एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों से भी यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों से भी उत्पन्न होते हैं। [4] जति एगिदिएहितो उववज्जति किं पुढविकाइएहितो उववज्जति ? एवं जहा पुढविकाइयाणं उबवालो भणितो तहेव एएसि पि भाणितव्यो / नवरं देवेहितो जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवेहितो वि उववज्जति, नो प्राणयकम्पोवगवेमाणियदेवेहितो जाव अच्चुए. हितो वि उववति / [655-4 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) एकेन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या पृथ्वीकायिकों से उत्पन्न होते हैं या यावत् वनस्पतिकायिकों (तक) से उत्पन्न होते हैं ? [655.4 उ.] गौतम ! इसी प्रकार जैसे पृथ्वीकायिकों का उपपात कहा है, वैसे ही इनका (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का) भी उपपात कहना चाहिए। विशेष यह है कि देवों से-यावत सहस्रारकल्पोपपन्न वैमानिक देवों तक से भी उत्पन्न होते हैं, किन्तु मानतकल्पोपपन्न वैमानिक देवों से लेकर अच्युतकल्पोपपन्न वैमानिक देवों तक से (वे) उत्पन्न नहीं होते। 656. [1] मणस्सा णं भंते ! कतोहितो उधवज्जति ? किं नेरइएहितो जाव देवेहितो उववज्जति ? - गोयमा ! नेरइएहितो वि उववज्जति जाव देवेहितो वि उववति / Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र [656-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्य कहाँ से (पाकर) उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों से उत्पन्न होते हैं ? [656-1 उ.] गौतम! (वे) नैरयिकों से भी उत्पन्न होते है और यावत् देवों से भी उत्पन्न होते हैं। [2] जति नेरइएहितो उववज्जति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहितो जाव आहेसत्तमापुढविनेरएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! रतणप्पभापुढविनेरइएहितो वि जाव तमापुढविनेरएहितो वि उववज्जंति, नो अहेसत्तमापुढविनेरइएहितो उबवति / [656-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, यावत् अधःसप्तमी (तमस्तमा) पृथ्वी के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं ? [656-2 उ.] गौतम ! (वे) रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से लेकर यावत् तमःप्रभापृथ्वी तक के नैरयिकों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अधःसप्तमीपृथ्वी के नैरयिकों से उत्पन्न नहीं होते। [3] जति तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति ? एवं जेहितो पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं उववाओ भणितो तेहितो मणुस्साण वि गिरवसेसो माणितम्वो। नवरं अधेसत्तमापुढविनेरइय-तेउ-वाउकाइएहितो ण उववज्जंति / सम्वदेवेहितो वि उवधज्जावेधवा जाव कप्पातीतगवेमाणिय-सव्वट्ठसिद्धदेवेहितो वि उववज्जावेयधा। [656-3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि मनुष्य तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं, (या यावत् पंचेन्द्रिय तक के तिर्यञ्चयोनिकों से उत्पन्न होते हैं ?) (656-3 उ.] (गौतम !) जिन-जिनसे पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों का उपपात (उत्पत्ति) कहा गया है, उन-उनसे मनुष्यों का भी समग्र उपपात उसी प्रकार कहना चाहिए / विशेषता यह है कि (मनुष्य) अधःसप्तमीनरकपृथ्वी के नैरयिकों, तेजस्कायिकों और वायुकायिकों से उत्पन्न नहीं होते / (दूसरी विशेषता यह है कि मनुष्य का) उपपात सर्व देवों से कहना चाहिए, यावत् कल्पातीत वैमानिक देवों-सर्वार्थसिद्धविमान तक के देवों से भी (मनुष्यों की) उत्पत्ति समझनी चाहिए। 657. वाणमंतरदेवा णं भंते ! कमोहितो उववज्जति ? किं नेरइएहितो जाव देवेहितो उववज्जति? गोयमा ! जेहितो असुरकुमारा। [657 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देव कहाँ से (आकर) उत्पन्न होते हैं ? [657 उ.] गौतम ! जिन-जिनसे असुरकुमारों की उत्पत्ति कही है, उन-उनसे वाणव्यन्तर देवों की भी उत्पत्ति कहनी चाहिए / Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद [ 477 658. जोइसियदेवा गं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? गोयमा! एवं चेव / नवरं सम्मच्छिम प्रसंखेज्जवासाउयखहयर-अंतरदीवमणुस्सवज्जेहितो उववज्जावेयवा। [658 प्र] भगवन् ! ज्योतिष्क देव किन (कहाँ) से (माकर) उत्पन्न होते हैं ? [658 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (ज्योतिष्क देवों का उपपात भी पूर्ववत् असुरकुमारों के उपपात के समान ही) समझना चाहिए। विशेषता यह है कि ज्योतिष्कों की उत्पत्ति सम्भूच्छिम असंख्यातवर्षायुष्क-खेचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिकों को तथा अन्तीपज मनुष्यों को छोड़कर कहनी चाहिए / अर्थात् इनसे निकल कर कोई जीव सीधा ज्योतिष्क देव नहीं होता।। 656. वेमाणिया णं भंते ! कतोहितो उववज्जंति ? कि रइएहितो, तिरिक्खजोणिएहितो, मणुस्से हितो, देवेहितो उववज्जति ? गोयमा ! णो रइएहितो उववज्जंति, पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति, मणुस्सेहितो उववज्जति, णो देवेहितो उववज्जति / एवं चेव वेमाणिया वि सोहम्मीसाणगा भाणितचा / {659 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देव किनसे उत्पन्न होते हैं ? क्या (वे) नैरयिकों से या तिर्यञ्चयोनिकों से अथवा मनुष्यों से या देवों से उत्पन्न होते हैं ? [656 उ.] गौतम ! (वे) नारकों से उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों से तथा मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं / देवों से उत्पन्न नहीं होते। इसी प्रकार सौधर्म और ईशान कल्प के वैमानिक देवों (की उत्पत्ति के विषय में) कहना चाहिए। 660. एवं सणंकुमारगा वि / णवरं असंखेज्जवासाउयप्रकम्मभूमगवज्जेहितो उववज्जति / [660] सनत्कुमार देवों के उपपात के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि ये असंख्यातवर्षायुष्क अकर्मभूमिकों को छोड़कर (पूर्वोक्त सबसे) उत्पन्न होते हैं / 661. एवं जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवा भाणितव्वा / {661] सहस्रारकल्प तक (अर्थात् माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र और सहस्रार कल्प) के देवों का उपपात भी इसी प्रकार कहना चाहिए। 662. [1] प्राणयदेवा गं भंते ! कतोहितो उववज्जति ? कि नेरइएहितो जाव देवेहितो उववज्जति? गोयमा ! नो नेरइएहितो उववज्जति, नो तिरिक्खजोणिएहितो उधवजंति, मणुस्से हितो उववज्जंति, नो देवेहितो। [662-1 प्र.] भगवन् ! अानत देव कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों से (अथवा) यावत् देवों से उत्पन्न होते हैं ? Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478] [प्रज्ञापनासून [662.1 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिका से उत्पन्न नहीं होते, तिर्यञ्चयोनिकों से भी उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं / देवों से (उत्पन्न) नहीं (होते / ) [2] जति मणुस्सेहितो उववज्जति किं सम्मुच्छिममणुस्सेहितो गम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जंति ? गोयमा ! गम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववजंति, नो सम्मुच्छिममणस्सेहितो। 662-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [662-2 उ.] गौतम ! (वे आनत देव) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सम्मूच्छिम मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। [3] जति गम्भवतियमणुस्सेहितो उववज्जति कि कम्मभूमगेहितो उववज्जति ? अकम्मभूमगेहितो उववज्जति ? अंतरदीवहितो उववज्जति ? गोयमा ! कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसेहितो उववज्जति, नो प्रकम्मभूमगेहितो उववज्जंति, नो अंतरदोवहितो। [662-3 प्र. (भगवन् ! ) यदि (वे) गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, (या) अकर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) अन्तर्वीपज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [662-3 उ.] गौतम ! (वे) कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु न तो अकर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं और न अन्तर्वीपज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं / [4] जइ कम्मभूमगगभवतियमणुस्सेहितो उववज्जति कि संखेज्जवासाउएहितो उववज्जति ? असंखेज्जवासाउहितो उबवज्जंति ? / गोयमा ! संखेज्जवासाउएहितो, नो असंखेज्जवासाउएहितो उववज्जति / [662-4 प्र. (भगवन्) यदि (वे) कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या संख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, या असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [662-4 उ.] गौतम ! (वे) संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। [5] जति संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति कि पज्जत्तएहितो अपज्जत्तएहितो उबवज्जंति ? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणसेहितो उववजंति, णो अपज्जत्तएहितो। Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद] [ 479 [662-5 प्र. (भगवन्) यदि संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से (वे मानत देव) उत्पन्न होते हैं, तो क्या (वे) पर्याप्तकों से या अपर्याप्तकों से उत्पन्न होते हैं ? [662-5 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं. (किन्तु) अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। [6] जति पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणसेहितो उववज्जति कि सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगेहितो उववज्जति ? मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउएहितो उववज्जति ? सम्मामिच्छद्दिष्टुिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जति ? गोयमा ! सम्मद्दिटुिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणुस्सेहितो वि उववज्जति, मिच्छदिटिपज्जत्तरोहितो वि उववज्जति, णो सम्मामिच्छद्दिटिपज्जत्तरोहितो उववज्जति / [662-6 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या (वे) सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? (या) मिथ्यादष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायूष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) सम्यमिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [662-6 उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से भी (वे) उत्पन्न होते हैं, मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं; (किन्तु) सम्यगमिथ्यादृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते। _[7] जति सम्मििटपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्सेहितो उववज्जंति कि संजतसम्मट्ठिीहितो? प्रसंजतसम्मद्दिटिपज्जत्तहितो ? संजयासंजयसम्मद्दिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउहितो उववज्जति ? गोयमा ! तोहितो वि उबवज्जंति / [662-7 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) संयत सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं अथवा संयतासंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? / [662-7 उ.] गौतम ! (वे आनत देव) (उपर्युक्त) तीनों से ही (संयतसम्यग्दृष्टियों से, असंयतसम्यग्दृष्टियों से तथा संयतासंयतसम्यग्दृष्टियों से) उत्पन्न होते हैं / 663. एवं जाव अच्चुओ कप्पो / [663] अच्युतकल्प के देवों तक (के उपपात के विषय में) इसी प्रकार कहना चाहिए / 'nofic. Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [ प्रज्ञापनासूत्र 664. एवं गेबेज्जगदेवा वि / णवरं प्रसंजत-संजतासंजतेहितो वि एते पडिसेहेयन्वा / [664] इसी प्रकार (नौ) ग्रेवेयकदेवों के उपपात के विषय में भी समझना चाहिए / विशेषता यह है कि असंयतों और संयतासंयतों से इनकी (अवेयकों की) उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए। 665. [1] एवं जहेब गेवेज्जगदेवा तहेव अणुत्तरोववाइया वि / णवरं इमं णाणतंसंजया चेव / - [665-1] इसी प्रकार जैसी (वक्तव्यता) वेयक देवों की उत्पत्ति (के विषय में) कही, वैसी ही उत्पत्ति (-वक्तव्यता) पांच अनुत्तर विमानों के देवों की समझनी चाहिए। विशेष यह है कि संयत ही अनुत्तरौपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं / [2] जति संजतसम्मद्दिटिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणुस्से हितो उववज्जंति कि पमत्तसंजतसम्मद्दिटिपज्जत्तएहितो अपमत्तसंजतेहितो उववज्जति ? गोयमा ! अपमत्तसंजएहितो उववजंति, नो पमत्तसंजएहितो उबवति / [665-2] (भगवन् !) यदि (वे) संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? 1665-2 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त तथारूप) अप्रमत्तसंयतों से (वे) उत्पन्न होते हैं किन्तु (तथारूप) प्रमत्तसंयतों से उत्पन्न नहीं होते / [3] जति प्रपमत्तसंजएहितो उववज्जति किं इड्डिपत्तप्रपमत्तसंजतेहितो उववज्जति ? प्रणिडिपत्तप्रपमत्तसंजतेहितो उववज्जति ? गोयमा! दोहितो वि उववज्जंति / दारं 5 // [665-3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वे (अनुत्तरौपपातिक देव) (पूर्वोक्त विशेषणयुक्त) अप्रमत्तसंयतों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या ऋद्धिप्राप्त-अप्रमत्तसंयतों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा) अनृद्धिप्राप्तअप्रमत्तसंयतों से (वे) उत्पन्न होते हैं ? [665-3 उ.] गौतम ! (वे) उपर्युक्त दोनों (ऋद्धिप्राप्त-अप्रमत्तसंयतों तथा अनृद्धि प्राप्तअप्रमत्तसंयतों) से भी उत्पन्न होते हैं। -पंचम कुतोद्वार // 5 // विवेचन--पंचम कुतोद्वार : नारकादि चारों गतियों के जीवों की पूर्वभवों (प्रागति) से उत्पत्ति की प्ररूपणा–प्रस्तुत सत्ताईस सूत्रों में कुतः (कहाँ से या किन-किन भवों से) द्वार के माध्यम से जीवों की उत्पत्ति के विषय में विस्तृत प्ररूपणा की गई है। किनकी उत्पत्ति, किन-किनसे ? का क्रम-इस द्वार का क्रम इस प्रकार है- 1. सामान्य नारकों की उत्पत्ति किन-किनसे ?, 2. रत्नप्रभादि पृथ्वियों के नारकों की उत्पत्ति, 3. असुर Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [ 481 कुमारादि भवनवासी देवों की उत्पत्ति, 4. पृथ्वीकायिकादि पंचविध एकेन्द्रियों की उत्पत्ति, 5. त्रिविध विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति, 6. पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों की उत्पत्ति, 7. मनुष्यों की उत्पत्ति, (8) वाणव्यन्त र, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की उत्पत्ति / निष्कर्ष सामान्य नैरयिकों और रत्नप्रभा के नैरयिकों में देव, नारक, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रिय स्थावर, त्रिविध विकलेन्द्रिय तथा असंख्यातवर्षायुष्क चतुष्पद खेचरों तथा शेष पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में भी अपर्याप्तकों एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों तथा गर्भजों में अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज मनुष्यों तथा कर्मभूमिजों में जो भी असंख्यातवर्षायुष्कों तथा संख्यातवर्षायुष्कों में भी अपर्याप्तक मनुष्यों से उत्पन्न होने का निषेध किया है, शेष से उत्पत्ति का विधान है। शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में सम्मूच्छिमों से, वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में भुजपरिसॉं से, पंकप्रभा के नैरयिकों में खेचरों से, धूमप्रभा-नैरयिकों में चतुष्पदों से, तमःप्रभा-नैरयिकों में उर:परिसॉं से तथा तमस्तमापृथ्वी के नैरयिकों में स्त्रियों से (पाकर) उत्पन्न होने का निषेध है / भवनवासियों में देव, नारक, पृथ्वीकायिकादि पांच, त्रिविध विकलेन्द्रिय, अपर्याप्त तिर्यक्पंचेन्द्रियों तथा सम्मूच्छिम एवं अपर्याप्तक गर्भज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है, शेष का विधान है। पृथ्वी-जल-वनस्पतिकायिकों में सर्व नैरयिक तथा सनत्कुमारादि देवों से एवं तेजो-वाय-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों में सर्व नारकों, सभी देवों से उत्पत्ति का तिर्यक् पंचेन्द्रियों में आनतादि देवों से उत्पत्ति का निषेध है। मनुष्यों में सप्तमनरकपृथ्वी के नारकों तथा तेजोवायुकायिकों से उत्पत्ति का निषेध है। व्यन्तरदेवों में देव, नारक, पृथ्वी आदि पंचक, विकलेन्द्रियत्रिक, अपर्याप्त तिथंच पंचेन्द्रिय तथा सम्मच्छिम एवं अपर्याप्त गर्भज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है / ज्योतिष्कदेवों में सम्मूच्छिम तिर्यक पंचेन्द्रिय, असंख्यातवर्षायुष्क खेचर तथा अन्तद्वीपज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है / सौधर्म और ईशानकल्प के देवों में तथा सनत्कुमार से सहस्रारकल्प तक के देवों में अकर्मभूमिक मनुष्यों से भी उत्पत्ति का, प्रानत आदि में तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों से, नौ ग्रे वेयकों में असंयतों तथा संयतासंयतों एवं विजयादि पंच अनुत्तरोपपातिकों में मिथ्यादृष्टि मनुष्यों तथा प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है।' 'कुतोद्वार' की प्ररूपणा का उद्देश्य-कौन-कौन जीव कहाँ से, अर्थात्-किन-किन भवों से उद्वर्त्तना (मृत्यु प्राप्त) करके नारकादि पर्यायों में (पाकर) उत्पन्न होते हैं ? यही प्रतिपादन करना कुतोद्वार का उद्देश्य और विशेष अर्थ है / 2 छठा उद्वर्तनाद्वार : चातुर्गतिक जीवों के उद्वर्तनानन्तर गमन एवं उत्पाद की प्ररूपणा 666. [1] नेरइया णं भंते ! अणंतरं उववट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहि उववज्जति ? कि नेरइएसु उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति ? मणुस्सेसु उववज्जति ? देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! णो नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववज्जंति, नो देवेसु उववज्जंति। [666-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अनन्तर (साक्षात् या सीधा) उद्वर्तन करके (निकल 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 214 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका भा. 2, पृ. 1007 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 482] [ प्रज्ञापनासूत्र कर) कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं अथवा तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं ? मनुप्यों में उत्पन्न होते हैं या देवों में उत्पन्न होते हैं ? [666-1 उ.] गौतम ! (नरयिक जीव अनन्तर उद्वर्तन करके) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं या मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं; (किन्तु) देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। _[2] जति तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिय जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति ? गोयमा ! नो एगिदिएसु जाव नो चरिदिएसु उववज्जति, पंचिदिएसु उववज्जति / [666-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं, (अथवा) यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं ? [666-2 उ.] गौतम ! (वे) न तो एकेन्द्रियों में और न ही द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं / [3] एवं जेहितो उववानो भणितो तेसु उव्वट्टणा वि भाणितव्वा / णवरं सम्मुच्छिमेसु ण उववज्जंति। [666-3] इस प्रकार जिन-जिनसे उपपात कहा गया है, उन-उनमें ही उद्वर्त्तना भी कहनी चाहिए / विशेष यह है कि वे सम्मूच्छिमों में उत्पन्न नहीं होते / 667. एवं सन्यपुढवीसु भाणितव्वं / नवरं आहेसत्तमानो मणुस्सेसु ण उववति / [667] इसी प्रकार समस्त (नरक-)पृथ्वियों में उद्वर्तना का कथन करना चाहिए / विशेष बात यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी से मनुष्यों में नहीं उत्पन्न होते / 668. [1] असुरकुमारा णं भंते ! अणंतरं उन्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहि उववज्जति ? कि नेरइएसु उववज्जति ? जाव देवेसु उववज्जति ? गोयमा ! णो नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उधवजंति, नो देवेसु उववज्जति / [668-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार साक्षात् (अनन्तर) उद्वर्त्तना करके कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या (वे) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ? [668-1 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं किन्तु देवों में उत्पन्न नहीं होते। [2] जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिएसु जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति? Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति, नो बेइंदिएसु' जाव नो चरिदिएसु उववज्जति, पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति / [668-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या वे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रियों तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं ? [668-2 उ.] गौतम ! (वे) एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु द्वीन्द्रियों में, श्रीन्द्रियों में और चतुरिन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते, (वे) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं। [3] जति एगिदिएसु उववजंति कि पुढविकाइयएगिदिएसु जाव वणस्सइकाइयएगिदिएसु उववज्जति? गोयमा ! पुढविकाइयएगिदिएसु वि पाउकाइयएगिदिएसु वि उववज्जंति, नो सेउकाइएसु नो बाउकाइएसु उववज्जति, वणस्सइकाइएसु उववज्जति / [668-3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं तो क्या पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियों में यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? [668-3 उ.] गौतम ! (वे) पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, अप्कायिक एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं. किन्तु न तो तेजस्कायिक एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं और न वायुकायिक एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। [4] जति पुढविकाइएसु उववज्जति कि सुहुमधुढविकाइएसु उववज्जति ? बादरपुढविकाइएसु उववज्जति ? गोयमा ! बादरपुढविकाइएसु उववज्जति, नो सुहमपुढविकाइएसु / [668-4 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं या बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं ? [668-4 उ.] गौतम ! (वे) बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न नहीं होते / [5] जइ बादरपुढविकाइएसु उववज्जंति किं पज्जत्तगबादरपुढविकाइएसु उववज्जति ? अपज्जत्तयबायरपुढविकाइएसु उववज्जंति ? गोयमा ! पज्जत्तएसु उववज्जति, नो अपज्जत्तएसु / [668-5 प्र.] भगवन् ! यदि बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या (वे) पर्याप्तक बादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तक वादर पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं ? [668-5 उ.] गौतम ! (वे) पर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं किन्तु अपर्याप्तकों में उत्पन्न नहीं होते। 1. ग्रन्थानम् 3500 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] [ प्रज्ञापनासूत्र [6] एवं पाउ-वणस्सतोसु वि भाणितव्वं / [668-6] इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में (उत्पत्ति के विषय में) भी कहना चाहिए। [7] पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसेसु य जहा नेरइयाणं उच्वट्टणा सम्मुच्छिमवज्जा तहा भाणितवा। [668-7] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में (असुरकुमारों की उत्पत्ति के विषय में) उसी प्रकार कहना चाहिए, जिस प्रकार सम्मूच्छिम को छोड़कर नैरयिकों की उद्वर्तना कही है। [8] एवं जाव थणियकुमारा। [668-8] इसी प्रकार (असुरकुमारों की तरह) स्तनितकुमारों तक की उद्वर्तना समझ लेनी चाहिए। 666. [1] पुढविकाइया णं भंते ! अणंतरं उध्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहि उववज्जति ? कि नेरइएसु जाव देवेसु ? गोयमा ! नो नेरइएसु उवबजंति, तिरिक्खजोणिय-मणूसेसु उववज्जंति, नो देवेसु / [669-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सीधे निकल कर (अनन्तर उद्वर्तन करके) कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नारकों में यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ? [669-1 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। [2] एवं जहा एतेसि चेव उववाओ तहा उच्वट्टणा वि' भाणितव्वा / [669-2] इसी प्रकार जैसा इनका उपपात कहा है, वैसी ही इनकी उद्वर्तना भी (देवों को छोड़कर) कहनी चाहिए। 670. एवं प्राउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरेंदिया वि / _ [670] इसी प्रकार अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों (की भी उद्वर्त्तना कहनी चाहिए।) 671. एवं तेऊ वाऊ वि / णवरं मणुस्सवज्जेसु उववति / [671] इसी प्रकार तेजस्कायिक और वायुकायिक की भी उद्वर्तना कहनी चाहिए / विशेष यह है कि (वे) मनुष्यों को छोड़ कर उत्पन्न होते हैं। 672. [1] पर्चेदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! प्रणतरं उट्टित्ता कहिं गच्छंति कहि उववज्जंति ? कि नेरइएसु जाव देवेसु ? 1. पाठान्तर-'देववज्जा' यह अधिक पाठ किसी-किसी प्रति में है। Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [ 485 गोयमा ! नेरइएसु उववज्जति जाव देवेसु उववज्जति / [672-1 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक अनन्तर उद्वर्तना करके कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या (वे) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, (अथवा) यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ? _ 672-1 उ.] गौतम ! (वे) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों में भी उत्पन्न होते हैं। [2] जदि जेरइएसु उववज्जति किं रयणप्पभापुढविनेरइएसु उववज्जति जाव आहेसत्तमापुढविनेरइएसु उववज्जति ? गोयमा! रयणप्पभापुढ विनेरइएसु वि उववज्जंति जाव अहेसत्तमापुढविनेरइएसु वि उववज्जति। [672-2 प्र.] (भगवन् !) यदि (वे) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तो क्या रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं अथवा यावत् अधःसप्तमीपृथ्वी के नैरयिकों में (से किन्हीं में) उत्पन्न होते हैं ? [672-2 उ.] गौतम ! (वे) रत्तप्रभापृथ्वी नरयिकों में भी उत्पन्न होते हैं, यावत् अध:सप्तमीपृथ्वी के नैरयिकों में भी उत्पन्न होते हैं / [3] जइ तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति किं एगिदिएसु जाव पंचिदिएसु ? गोयमा ! एगिदिएसु वि उववज्जति जाव पंचेंदिएसु वि उववज्जंति / / 672-3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? [672-2 उ.] गौतम ! (वे) एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। [4] एवं जहा एतेसि चेव उववानो उबट्टणा वि तहेव भाणितव्वा / नवरं असंखेज्जवासाउएसु वि एते उववज्जति / [672-4] यों जैसा इनका उपपात कहा है, वैसी ही इनकी उद्वर्तना भी कहनी चाहिए। विशेषता यह है कि ये असंख्यातवर्षों की आयु वालों में भी उत्पन्न होते हैं / [5] जति मणुस्सेसु उववज्जति किं सम्मुच्छिममणुस्सेसु उववज्जति गम्भवक्कंतियमणूसेसु उववज्जंति ? गोयमा ! दोसु वि उववज्जंति / [672-5 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं अथवा गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 ) [ प्रज्ञापनासूत्र [672-5 उ.] गौतम ! (वे) दोनों में ही उत्पन्न होते हैं / [6] एवं जहा उववानो तहेव उव्वट्टणा वि भाणितव्या। नवरं प्रकम्मभूमग-अंतरदीवगअसंखेज्जवासाउएसु वि एते उववज्जति ति भाणितव्वं / [672-6] इसी प्रकार जैसा इनका उपपात कहा, वैसी ही इनकी उद्वर्तना भी कहनी चाहिए। विशेषतया अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज और असंख्यातवर्षायुष्क मनुष्यों में भी ये उत्पन्न होते हैं, यह कहना चाहिए। [6] जति देवेसु उववज्जति किं भवणवतोसु उववज्जति ? जाव कि वेमाणिएसु उववज्जति ? गोयमा ! सच्चेसु चेव उववति / [672-7 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) देवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या भवनपति देवों में उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) यावत् वैमानिकों में भी उत्पन्न होते हैं ? [672-7 उ.] गौतम ! (वे) सभी (प्रकार के) देवों में उत्पन्न होते हैं। [8] जति भवणवतोसु उववज्जति किं असुरकुमारेसु उववज्जति ? जाव थणियकुमारेसु उववज्जति ? __ गोयमा ! सम्वेसु चेव उववति / __[672-8 प्र.] (भगवन् ! ) यदि (वे) भवनपति देवों में उत्पन्न होते हैं तो क्या असुरकुमारों में उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) यावत् स्तनित्कुमारों में उत्पन्न होते हैं ? [672-8 उ.] गौतम ! (वे) सभी (भवनपतियों) में उत्पन्न होते हैं। [6] एवं वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु निरंतरं उववज्जति जाव सहस्सारो कप्पो त्ति / [672-9) इसी प्रकार वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और सहस्रारकल्प तक के वैमानिक देवों में निरन्तर उत्पन्न होते हैं / 673. [1] मणुस्सा णं भंते ! अणंतरं उच्वट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहि उववज्जति ? कि नेरइएसु उववज्जति जाव देवेसु उबवज्जति ? गोयमा! नेरइएसु वि उववज्जंति जाव देवेसु वि उववज्जति / [673-1 प्र. भगवन् ! मनुष्य अनन्तर उद्वर्तन करके कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) यावत् देवों में भी उत्पन्न होते हैं ? _ [673-1 उ.] गौतम ! (बे) नैरयिकों में भी उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों में भी उत्पन्न होते हैं। [2] एवं निरंतरं सम्वेसु ठाणेसु पुच्छा। गोयमा! सव्वेसु ठाणेसु उववज्जति, ण कहिचि पडिसेहो कायवो जाव सम्वद्वसिद्धदेवेसु वि उववज्जंति, प्रत्थेगतिया सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिवायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति / Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [47 [673-2 प्र] भगवन् ! क्या (मनुष्य) नैयिक आदि सभी स्थानों में उत्पन्न होते हैं ? [673-2 उ.] गौतम! वे (इन) सभी स्थानों में उत्पन्न होते हैं, कहीं भी इनके उत्पन्न होने का निषेध नहीं करना चाहिए; यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों तक में भी (मनुष्य) उत्पन्न होते हैं और कई मनुष्य सिद्ध होते हैं, बुद्ध (केवलबोधप्राप्त) होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण प्राप्त को करते हैं और सर्वदुःखों का अन्त करते हैं / 674. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया सोहम्मीसाणा य जहा असुरकुमारा। नवरं जोइसियाणं वेमाणियाण य चयंतीति अभिलावो कातव्यो। [674} वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म एवं ईशान देवलोक के वैमानिक देवों की उद्वर्तन-प्ररूपणा असुरकुमारों के समान, समझनी चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए ('उद्वर्त्तना करते हैं के बदले) 'च्यवन करते हैं', यों कहना चाहिए। 675. सणकुमारदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहा असुरकुमारा / नवरं एगिदिएसु ण उववज्जति / एवं जाव सहस्सारगदेवा / [675 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमार देव अनन्तर च्यवन करके कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं ? [675 उ.] इनकी (च्यवनानन्तर उत्पत्तिसम्बन्धी) वक्तव्यता असुरकुमारों के (उपपातसम्बन्धी वक्तव्य के) समान समझनी चाहिए / विशेष यह है कि (ये) एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते / इसी प्रकार की वक्तव्यता सहस्रार देवों तक की कहनी चाहिए। 676. प्राणय जाव अणुत्तरोववाइया देवा एवं चेव / णवरं णो तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणूसेसु पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसेसु उववज्जंति / दारं 6 // 1676] आनत देवों से लेकर अनुत्तरौपपातिक देवों तक (च्यवनानन्तर उत्पत्ति-सम्बन्धी) वक्तव्यता इसी प्रकार समझनी चाहिए। विशेष यह है कि (ये देव) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न नहीं होते, मनुष्यों में भी पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं / -छठा उद्वर्तनाद्वार / / 6 / / विवेचन-छठा उद्वर्तनाद्वार : चातुर्गतिक जीवों के उद्वर्तनानन्तर गमन एवं उत्पाद की प्ररूपणा--प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 666 से 676 तक) में नैरयिकों से लेकर देवों तक के उद्वर्त्तनानन्तर गमन एवं उपपात के सम्बन्ध में सूक्ष्म ऊहापोहपूर्वक प्ररूपणा की गई है। उद्वर्तना की परिभाषा-नारकादि जीवों का अपने भव से निकलकर (मरकर या च्यवकर) सोये (बीच में कहीं अन्तर-व्यवधान न करके) किसी भी अन्य गति या योनि में जाना और उत्पन्न होना' उद्ववर्तना कहलाता है। निष्कर्ष-अपने भव से (मृत या च्युत होकर) निकले हुए नैरयिकों का सीधा (साक्षात्) उत्पाद गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यक्पंचेन्द्रियों और मनुष्यों में होता है; सातवीं नरकपृथ्वी के नैरयिकों 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ 1109 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488 ] [प्रज्ञापनासूत्र का उत्पाद गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में होता है, असुरकुमारादि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशान कल्प के वैमानिक देवों का उत्पाद बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिकों में तथा गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में होता है / पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक तथा द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों का उत्पाद तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति में तथा तेजस्कायिक-वायुकायिकों का केवल तिर्यञ्चगति में ही होता है / तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों का उत्पाद नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देवगति में, विशेषतः सहस्रारकल्पपर्यन्त वैमानिकों में होता है। मनुष्यों का उत्पाद चारों गतियों के सभी स्थानों में होता है तथा सनत्कुमार से लेकर सहस्रार देव पर्यन्त वैमानिक देवों का उत्पाद गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यंचपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में होता है, और पानत कल्प से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के देवों का उत्पाद गर्भज संख्यातवर्षायुष्क मनुष्यों में ही होता है।' सप्तम परभविकायुष्यद्वार : चातुर्गतिक जीवों की पारभविकायुष्यसम्बन्धी प्ररूपरणा 677. नेरइया णं भंते ! कतिभागावसेसाउया परभवियाउयं परिति ? गोयमा ! णियमा छम्मासावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति / [677 प्र.] भगवन् ! आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर नरयिक परभव (अागामी जन्म) को आयु (का बन्ध) करते हैं ? [677 उ.] गौतम ! (वे) नियम से छह मास प्रायु शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं। 678. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। __ [678] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक (का परभविक-पायुष्यबन्ध सम्बन्धी कथन करना चाहिए / ) 676. पुढविकाइया णं भंते ! कतिमागावसेसाउया परभक्यिाउयं पकरेंति ? गोयमा! पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता। तं जहा- सोवक्कमाउया य निरुवक्कमाउया य / तत्थ णं जे ते निरुवक्कमाउया ते णियमा तिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति / तत्थ णं जे ते सोवक्कमाउया ते सिय तिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिभागतिभागावसे साउया परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिभागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति / __ [676 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्य बांधते हैं ? [679 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार-(१) सोपक्रम आयु वाले और (2) निरुपक्रम आयु वाले। इनमें से जो निरुपक्रम (उपक्रमरहित) आयु वाले हैं, वे नियम से आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करते हैं तथा इन में जो सोपक्रम (उपक्रमसहित) आयु वाले हैं, वे कदाचित् आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं, कदाचित् प्रायु के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 216 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [489 आयुष्यबन्ध करते हैं और कदाचित् आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं / 680. आउ-तेउ-वाउ-वणप्फइकाइयाणं बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाण वि एवं चेव / [680] अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायकायिक और वनस्पतिकायिकों तथा द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियों (के पारभविक-आयुष्यबन्ध) का कथन भी इसी प्रकार (करना चाहिए)। 681. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति ? गोयमा! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया विहा पन्नत्ता / तं जहा–संखेज्जवासाउया य प्रसंखेज्जवासाउया य / तत्थ णं जे ते असंखेज्जवासाउया ते नियमा छम्मासावसेसाउया परमवियाउयं पकरेंति / तत्थ णं जे ते संखेज्जवासाउया ते दुविहा पण्णता। तं जहा--सोवक्कमाउया य निरुवक्कमाउया य / तत्थ णं जे ते निरुवक्कमाउया ते णियमा तिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति / तत्थ णं जे ते सोवक्कमाउया ते णं सिय तिभागे परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिभागतिभागे य परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिमागतिभागतिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति / [681 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक, आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करते हैं ? [681 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार(१) संख्यातवर्षायुष्क और (2) असंख्यातवर्षायुष्क / उनमें से जो असंख्यात वर्ष की आयु वाले हैं, वे नियम से छह मास आय शेष रहते परभव का प्रायष्यबन्ध कर लेते हैं और जो इ. की आयु वाले हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) सोपक्रम अायु वाले और (2) निरुपक्रम आयु वाले। इनमें जो निरुपक्रम प्राय वाले हैं, वे नियमतः आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं। जो सोपक्रम आयु वाले हैं, वे कदाचित् आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहते पारभविक आयुष्यबन्ध करते हैं, कदाचित् आयु के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहते परभव का आयुष्यबन्ध करते हैं और कदाचित् आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहते पारभविक आयुबन्ध करते हैं। 682. एवं मणसा वि। [682] मनुष्यों का (पारभविक आयुष्यबन्ध-सम्बन्धी कथन भी) इसी प्रकार (करना चाहिए।) 683. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरइया / दारं 7 // [683] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों (के परभव का आयुष्यबन्ध) नैरयिकों के (पारभविक आयुष्यबन्ध के) समान (छह मास शेष रहने पर) कहना चाहिए। सप्तम पारभविकायुष्यद्वार // 7 // विवेचन-सप्तम पारभविकायुष्यद्वार : चातुर्गतिक जीवों को पारभविक प्रायुष्यबन्ध-सम्बन्धी तवर्ष Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490 [ प्रज्ञापनासूत्र प्ररूपणा तरकादि चारों गतियों के जीवों की आयु का कितना भाग शेष रहते परभवसंबंधी आयुष्य बन्ध होता है ? इस विषय में प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 677 से 683 तक) में प्ररूपणा की गई है। पारभविकायुष्यद्वार का तात्पर्य--वर्तमान भव में नारकादिपर्याय वाले जीव अपने वर्तमान भव सम्बन्धी आयु का कितना भाग शेष रहते अथवा आयुष्य का कितना भाग बीत जाने पर अगले जन्म (आगामी-परभव) की आयु का बन्ध करते हैं ? यही बताना इस द्वार का आशय है। सोपक्रम और निरुपक्रम की व्याख्या-~~जो आयु उपक्रमयुक्त हो, वह सोपक्रम कहलाती है और जो आयु उपक्रम से प्रभावित न हो सके, वह निरुपक्रम कहलाती है। आयु का विघात करने वाले तीव्र विष. शस्त्र. अग्नि. जल आदि उपक्रम कहलाते हैं। इन उपक्रमों के योग से दीर्घकाल में धीरे-धोरे भोगी जाने वाली प्राय बन्धकालीन स्थिति से पहले (शीघ्र ही भोग ली ज इन उपक्रमों के निमित्त से जो आयु बीच में ही टूट जाती है, जिस प्राय का भोगकाल बन्धकालीन स्थितिमर्यादा से कम हो, उसे अकालमृत्यु, सोपक्रम आयु अथवा अपवर्तनीय आयु भी कहते हैं / जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके, अर्थात्-जिसका भोगकाल बन्धकालीन स्थितिमर्यादा के समान हो, वह निरुपक्रम या अनपवर्तनीय आयु कहलाती है / औपपातिक (नारक और देव), चरमशरीरी, उत्तमपुरुष और असंख्यातवर्षजीवी (मनुष्य-तिर्यञ्च), ये अनपवर्तनीय-निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। निष्कर्ष-निरुपक्रमी जीवों में औपपातिक और असंख्यातवर्षजीवी अनपवर्तनीय आय वाले होते हैं / वे आयुष्य के 6 मास शेष रहते आगामी भव का आयुष्यबन्ध करते हैं, जैसे--नैरयिक, सब प्रकार के देव और असंख्यातवर्षजीवी मनुष्य-तिर्यञ्च / पृथ्वीकायिका दि से लेकर मनुष्यों तक दोनों ही प्रकार की आयु वाले होते हैं। इनमें जो निरुपक्रम आयु वाले होते हैं, वे आयु (स्थिति) के दो भाग व्यतीत हो जाने पर और तीसरा भाग शेष रहने पर आगामी भव का आयुष्य बांधते हैं, किन्तु जो सोपक्रम आयु वाले हैं, वे कदाचित् वर्तमान आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की पायु का बन्ध करते हैं, किन्तु यह नियम नहीं है कि वे तीसरा भाग शेष रहते परभव का आयुष्यबन्ध कर ही लें। अतएव जो जीव उस समय प्रायुबन्ध नहीं करते, वे अवशिष्ट तीसरे भाग के तीन भागों में से दो भाग व्यतीत हो जाने पर और एक भाग शेष रहने पर आय का बन्ध करते हैं। कदाचित इस तीसरे भाग में भी पारभविक आयु का बन्ध न हुआ तो शेष आयु का तीसरा भाग शेष रहते आयु का बन्ध करते हैं / अर्थात् आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग के तीसरे भाग में आयुष्यबन्ध करते हैं / कोई-कोई विद्वान् इसका अर्थ यों करते हैं कि कभी आयु का नौवां भाग शेष रहने पर अथवा कभी प्रायु का सत्ताईसवां भाग शेष रहने पर सोपक्रम आयु वाले जीव आगामी भव का आयुष्य बांधते हैं। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 1142-1143 (ख) तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन, पं. सुखलालजी, नवसंस्करण) 'प्रोपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः / ' 2.25 -तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 52 पर विवेचन / पृ. 79-80 (ग) श्री पन्नवणासूत्र के थोकड़े, प्रथम भाग, पृ. 150 (घ) 'कभी-कभी अपनी आयु के 27 वें भाग का तीसरा भाग यानी 81 वां भाग शेष रहने पर, कभी 81 वें भाग का तीसरा भाग यानी 243 वां भाग और कभी 243 3 भाग का तीसरा भाग यानी 729 वां भाग शेष रहने पर यावत् अन्तमुहूर्त शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं।' -किन्हीं प्राचार्यों का मत - श्री पन्नवणासूत्र के थोकड़े, प्रथमभाग 1. 150, प्रज्ञापना प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 1144-45 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [491 अष्टम आकर्षद्वार : सर्वजीवों के षड्विध आयुष्यबन्ध, उनके आकर्षों की संख्या और अल्पबहुत्व 684. कतिविधे गं भंते ! पाउयबंधे पणते? ____ गोयमा ! छविधे पाउयबंधे पण्णत्ते / तं जहा--जातिणामणिहत्ताउए 1 गइनामनिहत्ताउए 2 ठितीनामनिहत्ताउए 3 प्रोगाहणाणामणिहत्ताउए 4 पदेसणामणिहत्ताउए 5 अणुभावणामणिहत्ताउए 6 / [684 प्र.] भगवन् ! आयुष्य का बन्ध कितने प्रकार का कहा है ? [684 उ.] गौतम! आयुष्यबन्ध छह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है(१) जातिनामनिधत्तायु, (2) गतिनामनिधत्तायु, (3) स्थितिनामनिधत्तायु, (4) अवगाहनानामनिधत्तायु, (5) प्रदेशनामनिधत्तायु और (6) अनुभावनामनिधत्तायु / 685. नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पाउयबंधे पण्णते ? गोयमा ! छब्बिहे पाउयबंधे पण्णत्ते / तं जहा-जातिनामनिहत्ताउए 1 गतिणामनिहत्ताउए 2 ठितीणामणिहत्ताउए 3 प्रोगाहणानामनिहत्ताउए 4 पदेसणामनिहत्ताउए 5 प्रणभावनामनिहत्ताउए 6 / [685 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का आयुष्यबन्ध कितने प्रकार का कहा है ? [685 उ.] गौतम ! (नै रयिकों का) आयुष्यबन्ध छह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) जातिनामनिधत्तायु, (2) गतिनामनिधत्तायु, (3) स्थितिनामनिधत्तायु, (4) अवगाहनानामनिधत्तायु, (5) प्रदेशनामनिधत्तायु और (6) अनुभावनामनिधत्तायु / 686. एवं जाव वेमाणियाणं / [686] इसी प्रकार (मागे असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक के श्रायुष्यबन्ध की प्ररूपणा समझनी चाहिए। 687. जीवा णं भंते ! जातिणामणिहत्ताउयं कतिहि आगरिसेहि पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णणं एक्केण वा दोहि वा तीहिं बा, उक्कोसेणं अहि / [687 प्र.] भगवन् ! जीव जातिनामनिधत्तायु को कितने आकर्षों से बांधते हैं ? [687 उ.] गौतम ! (जीव जातिनामनिधत्तायु को) जघन्य एक, दो या तीन अथवा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से (बांधते हैं।) 688. नेरइया णं भंते ! जाइनामनिहत्ताउयं कतिहिं प्रागरिसेहि पकरेंति ? गोयमा ! जहणणं एक्केण वा दोहि वा तीहिं वा, उक्कोसेणं प्रदहि / [688 प्र.] भगवन् ! नारक जातिनामनिधत्तायु को कितने प्राकर्षों से बांधते हैं ? Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492 1 [प्रज्ञापनासूत्र [688 उ.] गौतम ! (नारक जातिनामनिधत्तायु को) जघन्य एक, दो या तीन, अथवा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से बांधते हैं / 686. एवं जाव वेमाणिया / [686] इसी प्रकार (आगे असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिक तक (के जातिनामनिधत्तायु की आकर्ष-संख्या का कथन करना चाहिए / ) 660. एवं गतिणामणिहत्ताउए वि ठितीणामनिहत्ताउए वि ओगाहणाणामनिहत्ताउए वि पदेसणामनिहत्ताउए वि अणुभावणामनिहत्ताउए वि। [690] इसी प्रकार (समस्त जीव) गतिनामनिधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु, अवगाहनानामनिधत्तायु, प्रदेशनामनिधत्तायु और अनुभावनामनिधत्तायु का (बन्ध) भी जघन्य एक, दो या तीन अथवा उत्कृष्ट आठ अाकर्षों से करते हैं। 661. एतेसि णं भंते ! जीवाणं जातिनामनिहत्ताउयं जहणेणं एक्केण वा दोहिं वा तोहि वा उक्कोसेणं अहिं प्रागरिसेहिं पकरेमाणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा जातिणामणिहत्ताउयं अहिं प्रागरिसेहिं पकरेमाणा, सत्तहिं प्रागरिसेहि पकरेमाणा संखेज्जगुणा, छहि प्रागरिसेहिं पकरेमाणा संखेज्जगुणा, एवं पंचर्चाह संखेज्जगुणा, चउहिं संखेज्जगुणा, तिहि संखेज्जगुणा, दोहिं संखेज्जगुणा, एगेणं आगरिसेणं पगरेमाणा संखेज्जगुणा / [691 प्र.] भगवन् ! इन जीवों में जघन्य एक, दो और तीन, अथवा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से बन्ध करने वालों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [661 उ.] गौतम ! सबसे कम जीव जातिनामनिधत्तायु को आठ आकर्षों से बांधने वाले हैं, सात आकर्षों से बांधने वाले (इनसे) संख्यातगुणे हैं, छह आकर्षों से बांधने वाले (इनसे) संख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार पांच (आकर्षों से बांधने वाले इनसे) संख्यातगुणे हैं, चार (आकर्षों से बांधने वाले इनसे) संख्यातगुणे हैं, तीन (आकर्षों से बांधने वाले, इनसे) संख्यातगुणे हैं, दो (आकर्षों से बांधने वाले, इनसे) संख्यातगुणे हैं और एक आकर्ष से बांधने वाले, (इनसे भी) संख्यातगुणे हैं / 662. एवं एतेणं अभिलावेणं जाव अणुभावनिहत्ताउयं / एवं एते छ प्पि य अप्पाबहुदंडगा जीवादीया माणियन्या / दारं८॥ ॥पण्णवणाए भगवईए छठें वक्कंतिपयं समत्तं / [692] इसी प्रकार इस अभिलाप से (ऐसा ही अल्पबहुत्व का कथन) गतिनामनिधत्तायु, स्थितिनामनिधत्तायु, अवगाहनानामनिधत्तायु, प्रदेशनामनिधत्तायु और यावत् अनुभावनामनिधत्तायु को बांधने वालों का (जान लेना चाहिए / ) इस प्रकार ये छहों ही अल्पबहुत्वसम्बन्धी दण्डक जीव से प्रारम्भ करके कहने चाहिए / -आठवां आकर्षद्वार // 8 // Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद | / 493 विवेचन–पाठवां प्राकर्षद्वार : सभी जीवों के छह प्रकार के प्रायुष्यबन्ध, उनके प्राकर्षों की संख्या और अल्पबहुत्व-प्रस्तुत अष्टमद्वार में नौ सूत्रों (सू. 684 से 692 तक) द्वारा तीन तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं 1. जीवसामान्य के तथा नारकों से वैमानिकों तक का छह प्रकार का आयुष्यबन्ध / 2. जीवसामान्य तथा नारकादि वैमानिकपर्यन्त जीवों द्वारा जातिनामनिधत्तायु आदि छहों का जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट पाठ आकर्षों से बन्ध की प्ररूपणा। 3. जातिनामनिधत्तायु आदि प्रत्येक प्रायु को जघन्य-उत्कृष्ट आकर्षों से बांधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व। आयुष्यबन्ध के छह प्रकारों का स्वरूप-(१) जातिनामनिधत्तायु-जैनदृष्टि से एकेन्द्रियादिरूप पांच प्रकार की जातियां हैं। वे नामकर्म की उत्तरप्रकृतिविशेष रूप है, उस 'जातिनाम' के साथ निधत्त अर्थात्-निषिक्त जो आयु हो, वह 'जातिनामनिधत्तायु' है। 'निषेक' कहते हैं-कर्मपुद्गलों के अनुभव करने के लिए रचनाविशेष को। वह रचना इस प्रकार की होती है-अपने अबाधाकाल को छोड़कर (क्योंकि अबाधाकाल में कर्मपुद्गलों का अनुभव नहीं होता, इसलिए उसमें कर्मदलिकों की रचना नहीं होती / ) प्रथम-जघन्य अन्तर्मुहूर्तरूप स्थिति में बहुतर द्रव्य होता है। एक आकर्ष में ग्रहण किये हुए कर्मदलिकों में बहुत-से जघन्य स्थिति वाले ही होते हैं। शेष एक समय प्रादि से अधिक अन्तमुहर्तादि स्थिति में विशेष हीन (कम) द्रव्य होता है, एवं यावत् उत्कृष्ट स्थिति में उत्कृष्टत: (विशेषहीन अर्थात्-सर्वहीन सबसे कम) दलिक होते हैं। (2) गतिनामनिधत्तायुगतियां चार हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति / गतिरूप नामकर्म 'गतिनाम' है। उनके साथ निधत्त (निषिक्त) आयु 'गतिनामनिधत्तायु' कहलाती है / (3) स्थितिनामनिधत्तायु-उस-उस भव में (आयुष्यबल से) स्थित रहना स्थिति है / स्थितिप्रधान नाम (नामकर्म) स्थितिनाम है / उसके साथ निधत्त आयु 'स्थितिनामनिधत्तायु' है। जो जिस भव में उदयप्राप्त रहता है, वह स्थितिनाम है; जो कि गति, जाति तथा पांच शरीरों से भिन्न है। (4) अवगाहनानामनिधत्तायु-जिसमें जीव अवगाहन करे, उसे अवगाहना कहते है। औदारिकादि शरीर, उनका निर्माण करने वाला औदारिकादि शरीरनामकर्म–अवगाहनानाम है / उसके साथ निधत्त आयु 'अवगाहनानामनिधत्तायु' कहलाती है। (5) प्रदेशनामनिधत्तायु-प्रदेश कहते हैं-कर्मपरमाणुओं को / वे प्रदेश संक्रम से भी भोगे जाने वाले ग्रहण किये जाते हैं / उन (प्रदेशों) की प्रधानता वाला नाम (नामकर्म) प्रदेशनाम कहलाता है / तात्पर्य यह है कि जो जिस भव में प्रदेश से विपाकोदय के विना ही भोगा (अनुभव किया जाता है, वह प्रदेशनाम कहलाता है / उक्त प्रदेशनाम के साथ निधत्त अायु को 'प्रदेशनामनिधत्तायु' कहते हैं। (6) अनुभावनामनिधत्तायु-अनुभाव कहते हैं-विपाक को / यहाँ प्रकर्ष अवस्था को प्राप्त विपाक ही ग्रहण किया जाता है / उस अनुभाव-विपाक की प्रधानता वाला नाम (नामकर्म) 'अनुभावनाम' कह हलाता है। तात्पर्य यह है कि जिस भव में जो तीव्र विपाक वाला नामकर्म भोगा जाता है, वह अनुभावनाम कहलाता है। जैसे-नरकाय में अशुभ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, उपघात, दुःस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति आदि नामकर्म हैं। अतः अनुभावनाम के साथ निधत्त आयु 'अनुभावनामनिधत्तायु' कहलाती है। प्रस्तुत में आयुकर्म की प्रधानता प्रकट करने के लिए जाति, गति, स्थिति, अवगाहना नामकर्म Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प्रजापनासूत्र आदि को आयु के विशेषण के रूप में कहा है / नारक आदि की आयु का उदय होने पर ही जाति आदि नामकर्मों का उदय होता है / अन्यथा नहीं, प्रतएव आयु की ही यहाँ प्रधानता है।' आकर्ष का स्वरूप-आकर्ष कहते हैं—विशेष प्रकार के प्रयत्न से जीव द्वारा होने वाले कर्मपुद्गलों के उपादान--ग्रहण को / प्रस्तुत सूत्रों (सू. 687 से 690 तक) में इस विषय की चर्चा की गई है कि जीवसामान्य तथा नारक से लेकर वैमानिक तक कितने आकर्षों यानी प्रयत्नविशेषों से जातिनामनिधत्तायु आदि षड्विध आयुष्यकर्म-पुद्गलों का ग्रहण, बन्ध करने हेतु, करते हैं ? उदाहरणार्थ-जैसे-कई गायें एक ही घूट में पर्याप्त जल पी लेती हैं, कई भय के कारण रुक-रुक कर दो, तीन या चार अथवा सात-आठ घंटों में जल पीती हैं। उसी प्रकार कई जीव उन-उन जातिनाम आदि से निधत्त आयुकर्म के (बन्धहेतु) पुद्गलों का तीन अध्यवसायवश एक ही मन्द आकर्ष में ग्रहण कर लेते हैं, दूसरे दो या तीन मन्दतर आकर्षों में या चार या पांच मन्दतम अाकर्षों में या फिर छह, सात या आठ अत्यन्त मन्दतम आकर्षों में ग्रहण करते हैं / यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि प्राय के साथ बन्धने वाले जाति आदि नामों (नामकों) में ही आकर्ष का नियम है ; शेष काल में नहीं। कई प्रकृतियाँ 'ध्र वबन्धिनी' होती हैं और कई 'परावर्तमान' होती हैं / उनका बहुत काल तक बन्ध सम्भव होने से उनमें आकर्षों का नियम नहीं है। आकर्ष करने वाले जीवों का तारतम्य-बन्ध के हेतु आयुष्यकर्मपुद्गलों का ग्रहण अधिक-सेअधिक पाठ आकर्षों में करने वाले जीव सबसे कम हैं, उनसे क्रमश: कम आकर्ष करने वाले जीव उत्तरोत्तर संख्यातगुणे अधिक हैं, सबसे अधिक जीव एक आकर्ष करने वाले हैं। // प्रज्ञापनासूत्रः छठा व्युत्क्रान्तिपद समाप्त / 2. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 218 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 217-218 3. पण्णवणासुत्तं भा. 2, छठे पद की प्रस्तावना, पृ. 74 Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं उस्सासपयं (सप्तम उच्छ्वासपद) प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के सप्तम 'उच्छ्वासपद' में सिद्ध जीवों के सिवाय समस्त संसारी जीवों के श्वासोच्छ्वास के विरहकाल की चर्चा है / जीवनधारण के लिए प्रत्येक प्राणी को श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता है। चाहे वह मुनि हो, चक्रवर्ती हो, राजा हो अथवा किसी भी प्रकार का देव हो, नारक हो अथवा एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक किसी भी जाति का प्राणी हो / इसलिए श्वासोच्छ्वासरूप प्राण का अत्यन्त महत्त्व है और यह 'जीवतत्त्व' से विशेषरूप से सम्बन्धित है। इस कारण शास्त्रकार ने इस पद की रचना करके प्रत्येक प्रकार के जीव के श्वासोच्छ्वास के विरहकाल को प्ररूपणा की है। इस पद के प्रत्येक सूत्र के मूलपाठ में 'प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा यों चार क्रियापद हैं / वृत्तिकार प्राचार्य मलयगिरि 'प्राणमंति' और 'ऊससंति' को तथा 'पाणमंति' और 'नोससंति' को एकार्थक मानते हैं, परन्तु उन्होंने अन्य आचार्यों का मत भी दिया है। उसके अनुसार प्रथम के दो क्रियापदों को बाहा श्वासोच्छ्वास क्रिया के अर्थ में माना गया है / * प्रस्तुत पद में सर्वप्रथम नैरयिकों के उच्छवासनि:श्वास-विरहकाल की, तत्पश्चात् दस भवन पति देवों, पृथ्वीकायिकादि पांच एके न्द्रियों, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों, मनुष्यों के श्वासोच्छ्वास-विरहकाल की चर्चा की है। अन्त में वाणव्यन्त रों, ज्योतिष्कों, सौधर्मादि वैमानिकों एवं नौ ग्रैवेयकों तथा पांच अनुत्तरविमानवासी देवों के उच्छ्वास-निःश्वास विरह काल की पथक्-पृथक् प्ररूपणा की है।' * समस्त संसारी जीवों के उच्छवास-निःश्वास-विरहकाल की इस प्ररूपणा पर से एक बात स्पष्ट फलित होती है, जिस की ओर वृत्तिकार ने ध्यान खींचा है। वह यह कि जो जीव जितने अधिक दुःखी होते हैं, उन जीवों को श्वासोच्छ्वासक्रिया उतनो ही अधिक और शीघ्र चलती है और अत्यन्त दु:खी जीवों के तो यह क्रिया सतत अविरत रूप से चला करती है। जो जीव जितने-जितने अधिक, अधिकतर या अधिकतम सुखी होते हैं, उनकी श्वासोच्छवास क्रिया उत्तरोत्तर देर से चलती है। अर्थात् उनका श्वासोच्छ वास-विरहकाल उतना ही अधिक, अधिकतर और अधिकतम है; क्योंकि श्वासोच्छ्वास क्रिया अपने आप में दुःखरूप है, यह बात स्वानुभव से भी सिद्ध है, शास्त्रसथित भी है। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 220-221 (ख) पणवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 184 से 187 तक। 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 220 (ख) पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट प्रस्तावनात्मक) भा. 2, पृ. 75 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तमं उस्सासपयं सप्तम उच्छ्वासपद 663. नेरइया णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा? गोयमा ! सततं संतयामेव प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा / . [693 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कितने काल से अन्तःस्फुरित उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं तथा बाह्यस्फुरित उच्छ्वास (ऊँचा श्वास) और निःश्वास (नीचा श्वास) लेते हैं ? (अथवा उच्छ्वास अर्थात् श्वास लेते और निःश्वास अर्थात् श्वास छोड़ते हैं।) [693 उ.] गौतम ! वे सतत सदैव निरन्तर अन्तःस्फुरित उच्छ्वास-निःश्वास एवं बाह्यस्फुरित उच्छ बास-नि:श्वास लेते रहते हैं। 664. असुरकुमारा णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंतिवा? __ गोयमा ! जहण्णेण सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं सातिरेगस्स पक्खस्स वा प्राणमंति वा जाव नीससंति वा। [694 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं तथा बाह्यस्फुरित उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया करते हैं ? [694 उ.] गौतम ! वे जघन्यतः सात स्तोक में और उत्कृष्टतः सातिरेक एक पक्ष में (अन्तःस्फुरित) उच्छ वास और निःश्वास लेते हैं तथा (बाह्य) उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं। 695. णागकुमारा णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नोससंति वा? . गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं मुहत्तपुहुत्तस्स / [695 प्र.] भगवन् ! नागकुमार कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं तथा (बाह्य) उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं ? [695 उ.] गौतम ! वे जघन्य सात स्तोक में और उत्कृष्टतः मुहर्तपृथक्त्व में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास और निश्वास लेते हैं तथा (बाह्य) उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं। 666. एवं जाव थणियकुमाराणं / [696 प्र.] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक के उच्छ्वास-निःश्वास के विषय में समझ लेना चाहिए। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उच्छ्वासपद ] इयाणं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा जावनीससंति वा? गोयमा ! वेमायाए प्राणमंति वा जाव नीससंति वा / [667 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) श्वासोच्छ्वास लेते हैं एवं (बाह्य) उच्छ्वास तथा निःश्वास लेते हैं ? [697 उ.] गौतम ! (पृथ्वीकायिक जीव) विमात्रा (अनियत काल) से (अन्तःस्फुरित) श्वासोच्छ्वास लेते हैं एवं (बाह्य) उच्छ्वास तथा निःश्वास लेते हैं / 668. एवं जाव मसा। [698} इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् मनुष्यों तक (के आन्तरिक एवं बाह्य श्वासोच्छ्वास के विषय में जानना चाहिए / ) 666. वाणमंतरा जहा गागकुमारा / [699) वाणव्यन्तर देवों के (पान्तरिक एवं बाह्य उच्छवास और निःश्वास के विषय में) नागकुमारों के (उच्छ्वास-निःश्वास) के समान (कहना चाहिए / ) 700. जोइसिया णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा पाणमंति वा जाव नीससंति वा? गोयमा ! जहण्णेणं मुहत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं वि मुहत्तपुहुत्तस्स जाव नीससंति वा / [700 प्र. भगवन् ! ज्योतिष्क (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास-निःश्वास एवं (बाह्य) श्वासोच्छ्वास कितने काल से लेते हैं ? [700 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः मुहर्तपृथक्त्व और उत्कृष्टतः भी मुहूर्तपृथक्त्व से (आन्तरिक और बाह्य) उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं / 701. वेमाणिया णं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति का? गोयमा ! जहणणं मुहत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा / 1701 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास और निःश्वास लेते हैं तथा (बाह्य) उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? [701 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः मुहूर्तपृथक्त्व में और उत्कृष्टत: तेतीस पक्ष में (आन्तरिक एवं बाह्य) उच्छ्वास तथा निःश्वास लेते हैं / 702. सोहम्मगदेवा गं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति वा। गोयमा ! जहण्णेणं मुहत्तपुहुत्तस्स, उक्कोसेणं दोहं पक्खाणं जाव नीससंति वा / [702 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? Jain Education international Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498] [ प्रज्ञापनासूत्र [702 उ.] गौतम ! जघन्य मुहूर्तपृथक्त्व में, उत्कृष्ट दो पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं / 703. ईसाणगदेवा णं भंते ! केवइकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति का? गोयमा ! जहणणं सातिरेगस्स महत्तपुहत्तस्स, उक्कोसेणं सातिरेगाणं दोण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। [703 प्र.] भगवन् ! ईशानकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [703 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः सातिरेक (कुछ अधिक) मुहूर्त्तपृथक्त्व में और उत्कृष्टतः सातिरेक (कुछ अधिक) दो पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं। 704. सणंकुमारदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स आणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहणेणं दोण्हं पक्खाणं जाव णीससंति वा, उक्कोसेणं सत्तण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। [704 प्र.] भगवन् ! सनत्कुमार देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [704 उ.] गौतम ! वे जघन्यतः दो पक्ष में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं और उत्कृष्टत: सात पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं। 705. माहिंदगदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा जाव नोससंति वा ? गोयमा ! जहणणं सातिरेगाणं दोण्हं पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं सातिरेगाणं सत्तण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा / 705 प्र.] भगवन् ! माहेन्द्रकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? 705 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यत: सातिरेक (कुछ अधिक) दो पक्षों में और उत्कृष्टतः सातिरेक (कुछ अधिक) सात पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं / 706. बंभलोगदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा जाव नोससंति वा ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं दसहं पक्खाणं जाव नीससंति वा। [706 प्र.] भगवन् ! ब्रह्मलोककल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [706 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः सात पक्षों में और उत्कृष्टतः दस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं। Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उच्छ्वासपद] 707. लंतगदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति वा? गोयमा ! जहणणं दसव्ह पवखाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं चोद्दसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। [707 प्र.] भगवन् ! लान्तककल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं ? [707 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य दस पक्षों में और उत्कृष्ट चौदह पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं / 708. महासुक्कदेवा णं भंते ! केतिकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहण्णेणं चोद्दसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं जावनीससंति वा। [708 प्र.] भगवन् ! महाशुक्रकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं ? [708 उ.] गौतम ! (बे) जघन्यतः चौदह पक्षों में और उत्कृष्टतः सत्रह पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावन् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 706. सहस्सारगदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स प्राणमंति वा जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तरसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं अट्ठारसण्हं पक्खाणं जाव नीससंति वा। [709 प्र.] भगवन् ! सहस्रारकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) नि:श्वास लेते हैं ? [709 उ. गौतम ! (वे) जघन्य सत्रह पक्षों में और उत्कृष्ट अठारह पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। 710. प्राणयदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स जाव नोससंति वा ? गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठारसण्हं पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं एक्कूणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा / [710 प्र. भगवन् ! प्रानतकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) नि:श्वास लेते हैं ? [710 उ.] गौतम ! (वे) जघन्य अठारह पक्षों में और उत्कृष्ट उन्नीस पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 711. पाणयदेवा णं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहणणं एगूणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं वीसाए पक्खाणं जाब नीससंति वा। Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500 | प्रज्ञापनासूत्र ___ [711 प्र.] भगवन् ! प्राणतकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं ? [711 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः उन्नीस पक्षों में और उत्कृष्टतः बीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 712. पारणदेवा णं भंते ! केतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहणणं वीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं एगवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा / [712 प्र.] भगवन् ! पारणकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बायस्फुरित) निःश्वास लेते हैं ? [712 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः बीस पक्षों में और उत्कृष्टत: इक्कीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। 713. अच्चयदेवा णं भंते ! केतिकालस्स जाव नोससंति वा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं बावीसाए पवखाणं जाव नीससंति वा। [713 प्र.] भगवन् ! अच्युतकल्प के देव कितने काल से (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं ? [713 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यत: इक्कीस पक्षों में और उत्कृष्टत: बाईस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) नि:श्वास लेते हैं / 714. हेट्रिमहिट्रिमगेविज्जगदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा / गोयमा ! जहन्नेणं बावीसाए पक्खाणं जाव नोससंति था, उक्कोसेणं तेवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। [714 प्र. भगवन् ! अधस्तन-अधस्तनौवेयक देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [714 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः बाईस पक्षों में और उत्कृष्टतः तेईस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 715. हेटिममझिमगेवेज्जगदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहण्णणं तेवीसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं चउवीसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा। [715 उ.] भगवन् ! अधस्तन-मध्यमवेयक देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उच्छ्वासपद [501 [715 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः तेईस पक्षों में और उत्कृष्टतः चौवीस पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। 716. हेट्रिमउवरिमगेवेज्जगा देवा णं भंते ! केतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहण्णेणं चउवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं पणुवीसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा। [716 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-उपरितन ग्रैवेयक के देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [716 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यत: चौवीस पक्षों में और उत्कृष्टत: पच्चीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास, यावत् (बाह्यस्फुरित) नि:श्वास लेते हैं / 717. मज्झिमहेटिमगेवेज्जगा गं भंते ! देवा केवतिकालस्स जाव नीससंति वा? गोयमा ! जहणणं पणवीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं छव्वीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। [717 प्र.] भगवन् ! मध्यम-अधस्तन वेयक देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [717 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः पच्चीस पक्षों में और उत्कृष्टत: छव्वीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 718. मज्झिममझिमगेवेज्जगदेवा गं भंते ! केवलिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहणेणं छव्वीसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं सत्तावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति का। [718 प्र.] भगवन् ! मध्यम-मध्यमवेयक देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [718 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः छब्बीस पक्षों में और उत्कृष्टत: सत्ताईस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 716. मज्झिमाउरिमगेवेज्जगा एं भंते ! देवा केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! जहणणं सत्तावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं अट्ठावीसाए पक्खाणं जावनीससंति वा। [719 प्र.] भगवन् ! मध्यम-उपरितनने वेयक देव कितने काल से (पान्तरिक) उच्छवास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [719 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः सत्ताईस पक्षों में और उत्कृष्टत: अट्ठाईस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502] [ प्रज्ञापनासूत्र 720. उद वेज्जगाणं भंते ! देवा केवतिकालस्स जावनीमसंतिवा? गोयमा ! जहण्णणं अट्ठावीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा, उक्कोसेणं एगूणतीसाए पक्खाणं जावणीससंति वा। [720 प्र.] भगवन् ! उपरितन-अधस्तन वेयक देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [720 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः अट्ठाईस पक्षों में और उत्कृष्टतः उनतीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं। 721. उरिमझिमगेवेज्जगा णं भंते ! देवा केवतिकालस्स जाव नोससंति का ? गोयमा ! जहण्णेणं एगणतीसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं तीसाए पक्खाणं जाव नीसति बा। [721 प्र. भगवन् ! उपरितन-मध्यमग्रे वेयक देव कितने काल से (पान्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) नि:श्वास लेते हैं ? [721 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यत: उनतीस पक्षों में और उत्कृष्टत: तीस पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) नि:श्वास लेते हैं / 722. उवरिमउवरिमगेवेज्जगा णं भंते ! देवा णं केवतिकालस्स जाव नीससंति वा? गोयमा ! जहणणं तोसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं एक्कतोसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। [722 प्र.] भगवन् ! उपरितन-उपरितन वेयक देव कितने काल से (प्रान्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [722 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यत: तीस पक्षों में और उत्कृष्टतः इकतीस पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं / 723. विजय-वेजयंत-जयंताऽपराजितविमाणेसु णं भंते ! देवा केवतिकालस्स जाव नोससंति वा? गोयमा ! जहणेणं एक्कतीसाए पक्खाणं जाव नोससंति वा, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा / [723 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों के देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास" यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [723 उ.] गौतम ! (वे) जघन्यतः इकतीस पक्षों में और उत्कृष्टत: तेतीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। 724. सम्वसिद्धगदेवा गं भंते ! केवतिकालस्स जाव नीससंति वा ? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा। // पण्णवणाए भगवईए सत्तमं उस्सासपयं समत्तं // Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उच्छ्वासपद] [503 [724 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमान के देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) निःश्वास लेते हैं ? [724 उ ] गौतम ! (वे) अजघन्य-अनुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस पक्षों में (अन्त:स्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) निःश्वास लेते हैं। विवेचन नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के श्वासोच्छवास की प्ररूपणा-प्रस्तुत पद के कुल बत्तीस सूत्रों (सू. 693 से 724 तक) में क्रमश: नैरयिक से लेकर वैमानिक देवों तक चौवीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों की अन्त:स्फरित एवं बाह्यस्फरित उच्छवास-नि:श्वासक्रिया जघन्य एवं उत्कृष्ट कितने काल के अन्तर से होती है ? इसकी प्ररूपणा की गई है। प्रश्न का तात्पर्य—जो प्राणी नारक आदि पर्यायों में उत्पन्न हुए हैं और श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त हैं, वे कितने काल के बाद उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं ? अर्थात् एक श्वासोच्छ्वास लेने के पश्चात् दूसरा श्वासोच्छ्वास लेने तक में उनके उच्छ्वास-निःश्वास का विरहकाल कितना होता है ?, यही इस पद के प्रत्येक प्रश्न का तात्पर्य है। प्राणमंति, पाणमंति, ऊससंति, नीससंति पदों की व्याख्या-'अन् प्राणने' धातु से 'पाङ' उपसर्ग लगने पर 'आनन्ति' और 'प्र' उपसर्ग लगने पर 'प्राणन्ति' रूप बनता है तथा सामान्यतया 'मानन्ति' और 'उच्छ्वसन्ति' का तथा प्राणन्ति' और 'नि:श्वसन्ति' का एक ही अर्थ है,फिर समानार्थक दो-दो क्रियापदों का प्रयोग यहाँ क्यों किया गया ? ऐसी शंका उपस्थित होती है। इसके दो समाधान यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं- एक तो यह है कि भगवान् के पट्टधर शिष्य श्री गौतमस्वामी ने अपने प्रश्न को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने के लिए समानार्थक दो-दो शब्दों का प्रयोग किया है-जैसे कि 'नैरयिक कितने काल से श्वास लेते हैं अथवा यों कहें कि ऊँचा श्वास और नीचा श्वास लेते हैं ?' भगवान् के ऐसे प्रश्न के उत्तर में अपने शिष्य के पुनरुक्त वचन के प्रति आदर प्रदर्शित करने हेतु उन्हीं समानार्थक दो-दो शब्दों का प्रयोग किया है, क्योंकि गुरुओं के द्वारा शिष्यों के वचन को प्रादर दिये जाने से शिष्यों को सन्तोष होता है, वे पुनः-पुनः अपने प्रश्नों का निर्णयात्मक उत्तर सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं तथा उन शिष्यों के वचन भी जगत् में आदरणीय समझे जाते हैं। दूसरा समाधान यह है कि 'प्रानन्ति' और 'प्राणन्ति' का अर्थ अन्तर में स्फुरित होने वाली उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया और 'उच्छ्वसन्ति' एवं 'निःश्वसन्ति' का अर्थ बाहर में स्फुरित होने वाली उच्छ्वास-निःश्वासक्रिया समझना चाहिए। अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं किन्तु अर्थभेद के कारण पृथक-पृथक् क्रियापदों का प्रयोग किया गया है। ___नारकों को सतत उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया का रहस्य-भगवान् ने नैरयिकों के उच्छ्वास सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में फरमाया कि नैरयिक सदैव निरन्तर अविच्छिन्न रूप से उच्छ्वास-निश्वास लेते रहते हैं, इस कारण उनका श्वासोच्छ्वास लगातार चालू रहता है, एक बार श्वासोच्छ्वास लेने के बाद दूसरी बार के श्वासोच्छ्वास लेने के बीच में व्यवधान (विरह) नहीं रहता। विमात्रा से उच्छवास-निःश्वास लेने का तात्पर्य—पृथ्वीकायिक आदि समस्त एकेन्द्रिय जीव तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य, ये विमात्रा से उच्छ्वासनिःश्वास लेते हैं। इसका अर्थ है-इनके उच्छ्वास के विरह का कोई काल नियत नहीं है; Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504 [प्रज्ञापनासूत्र जो स्वस्थ और सुखी अथवा प्राणायाम करने वाले योगी होते हैं, वे दीर्घकाल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं, किन्तु अस्वस्थ और दुःखी या भोगी-जल्दी जल्दी श्वास लेते हैं / देवों में उत्तरोत्तर दीर्घकाल के अनन्तर उच्छवास-निःश्वास लेने का रहस्य-देवों में जो देव जितनी अधिक आयु वाला होता है, वह उतना ही अधिक सुखी होता है और जो जितना अधिक / होता है, उसके उच्छवास-निःश्वास का विरहकाल उतना ही अधिक लम्बा होता है, क्योंकि उच्छ्वास-निःश्वासक्रिया दुःखरूप है। इसलिए देवों में जैसे जैसे आयु के सागरोपम में वृद्धि होती है, उतने-उतने श्वासोच्छ्वासविरह के पक्षों में वृद्धि होती जाती है।' / / प्रज्ञापनासूत्र : सप्तम उच्छ्वासपद समाप्त / / सूखी 1. प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक 220-221 Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं सण्णापयं अष्टम संज्ञापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह पाठवाँ पद है, इसका नाम है--'संज्ञापद। * 'संज्ञा' शब्द पारिभाषिक शब्द है / संज्ञा की स्पष्ट शास्त्रीय परिभाषा है- वेदनीय तथा मोहनीय कर्म के उदय से एवं ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विचित्र आहारादिप्राप्ति की अभिलाषारूप, रुचिरूप मनोवृत्ति / यों शब्दशास्त्र के अनुसार संज्ञा के दो अर्थ होते हैं--(१) संज्ञान (अभिलाषा, रुचि, वत्ति या प्रवत्ति) अथवा आभोग (झुकाव या रुझान, ग्रहण करने की तमन्ना) और (2) जिससे या जिसके द्वारा यह जीव है ऐसा सम्यक् रूप से जाना-पहिचाना जा सके। * वर्तमान में मनोविज्ञानशास्त्र, शिक्षामनोविज्ञान, बालमनोविज्ञान, काममनोविज्ञान (सेक्स साइकोलॉजी) आदि शास्त्रों में प्राणियों की मूल मनोवृत्तियों का विस्तृत वर्णन मिलता है; इन्हीं से मिलती-जुलती ये संज्ञाएँ हैं, जो प्राणी की आन्तरिक मनोवृत्ति और बाह्यप्रवृत्ति को सूचित करती हैं, जिससे प्राणी के जीवन का भलीभांति अध्ययन हो सकता है। इन्हीं संज्ञाओं द्वारा मनुष्य या किसी भी प्राणी की वृत्ति-प्रवृत्तियों का पता लगा कर उसके जीवन में सुधार या परिवर्तन लाया जा सकता है। * इस दृष्टि से संज्ञाओं का जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है, स्वयं की वृत्तियों को टटोलने और तदनुसार उन में संशोधन-परिवर्धन करके अात्मचिकित्सा करने में। * प्रस्तुत पद में सर्वप्रथम पाहारादि दस संज्ञाओं का नामोल्लेख करके तत्पश्चात् सामान्यरूप से * तारकों से लेकर वैमानिकों तक सर्वसंसारी जीवों में इन दसों संज्ञायों का न्यूनाधिक रूप में एक या दूसरी तरह से सद्भाव बतलाया है। एकेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएं अव्यक्तरूप से रहती हैं और उत्तरोत्तर इन्द्रियों के विकास के साथ ये स्पष्टरूप से जीवों में पाई जाती हैं / तत्पश्चात् इन दस संज्ञाओं में से आहारादि मुख्य चार संज्ञाओं का चार गति वाले जीवों की अपेक्षा से विचार किया गया है कि किस गति के जीव में कौन-सी संज्ञा अधिकांश रूप में पाई जाती है ? यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है कि नैरयिकों में प्राय: भयसंज्ञा का, तिर्यंचों में आहारसंज्ञा का, मनुष्यों में मैथुनसंज्ञा का और देवों में परिग्रहसंज्ञा का प्राबल्य है। यों सामान्य रूप से चारों गतियों के जीवों में ये चारों संज्ञाएँ न्यूनाधिक रूप में पाई जाती हैं / तत्पश्चात् प्रत्येक गति के जीव में इन चारों संज्ञानों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 506 ] [ प्रज्ञापनासूत्र है / वृत्तिकार ने प्रत्येक गति के जीव में बाहुल्य से पाई जाने वाली संज्ञा का तथा तथारूप संज्ञासम्पन्न जीव की अल्पता या अधिकता का युक्तिपुरःसर कारण बताया है / ' * कुल मिला कर 13 सूत्रों (सू. 725 से 737 तक) में जीवतत्त्व से सम्बद्ध संज्ञाओं का प्रस्तुत पद में सांगोपांग विश्लेषण किया है / 10 (क) पण्णवणासृत्तं (परिशिष्ट और प्रस्तावना) भा. 2, पृ. 76-77 (ख) पण्णवणासुतं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 188-189 / (ग) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा पृ. 242 (घ) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 222 Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठमं सण्णापयं अष्टम संज्ञापद संज्ञाओं के दस प्रकार 725. कति णं भंते ! सण्णाश्रो पण्णत्तानो ? गोयमा ! दस सण्णाश्रो पण्णत्ताओ। तं जहा-पाहारसण्णा 1 भयसण्णा 2 मेहुणसण्णा 3 परिग्गहसण्णा 4 कोहसण्णा 5 माणसण्णा 6 मायासण्णा 7 लोमसण्णा 8 लोगसण्णा होघसण्णा 10 / [725 प्र.] भगवन् ! संज्ञाएँ कितनी कही गई हैं ? [725 उ.] गौतम ! संज्ञाएँ दस कही गई हैं / वे इस प्रकार हैं--(१) आहारसंज्ञा, (2) भयसंज्ञा, (3) मैथुनसंज्ञा, (4) परिग्रहसंज्ञा, (5) क्रोधसंज्ञा, (6) मानसंज्ञा, (7) मायासंज्ञा, (8) लोभसंज्ञा, (8) लोकसंज्ञा और (10) ओघसंज्ञा / विवेचन-संज्ञाओं के दस प्रकार-प्रस्तुत सूत्र (725) में आहारसंज्ञा प्रादि दस प्रकार की संज्ञानों का निरूपण किया गया है / संज्ञा के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ और शास्त्रीय परिभाषा-संज्ञा की व्युत्पत्ति के अनुसार उसके दो अर्थ फलित होते हैं-(१) संज्ञान अर्थात्-प्राभोग संज्ञा है / (2) जीव जिस-जिसके निमित्त से सम्यक प्रकार से जाना-पहिचाना जाता है, उसे संज्ञा कहते हैं; किन्तु संज्ञा की शास्त्रीय परिभाषा इस प्रकार है-वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विचित्र पाहारादिप्राप्ति की (अभिलाषारूप, रुचिरूप या मनोवृत्तिरूप) क्रिया / यह संज्ञा उपाधिभेद से दस प्रकार की है। संज्ञा के दस मेदों को शास्त्रीय परिभाषा-(१) प्राहारसंज्ञा-क्षुधावेदनीयकर्म के उदय से ग्रासादिरूप पाहार के लिए तथाविध पूदगलों को ग्रहणाभिलाषारूप क्रिया / (2) भयसंज्ञा-भयमोहनीयकर्म के उदय से भयभीत प्राणी के नेत्र, मुख में विकारोत्पत्ति, शरीर में रोमाञ्च, कम्पन, घबराहट आदि मनोवृत्तिरूप क्रिया / (3) मैथुनसंज्ञा-पुरुषवेद (मोहनीयकर्म) के उदय से स्त्रीप्राप्ति की अभिलाषा रूप तथा स्त्रीवेद के उदय से पुरुष-प्राप्ति की अभिलाषारूप एवं नपुंसकवेद के उदय से दोनों की अभिलाषारूप क्रिया / (4) परिग्रहसंज्ञा- लोभमोहनीय के उदय से संसार के प्रधानकारणभूत सचित्त-अचित्त पदार्थों के प्रति आसक्तिपूर्वक उन्हें ग्रहण करने की अभिलाषारूप किया। (5) क्रोधसंज्ञा-क्रोधमोहनीय के उदय से प्राणी के मुख, शरीर में विकृति होना, नेत्र लाल होना तथा अोठ फड़कना आदि कोपवृत्ति के अनुरूप चेष्टा / (6) मानसंज्ञा-मानमोहनीय के उदय से अहंकार, दर्य, गर्व आदि के रूप में जीव की परिणति (परिणामधारा) / (7) मायासंज्ञा-मायामोहनीय के उदय से अशुभ-अध्यवसायपूर्वक मिथ्याभाषण आदि रूप क्रिया करने की वृत्ति / (8) लोभसंज्ञा--लोभमोहनीय के उदय से सचित्त-अचित्त पदार्थों की लालसा। Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508]] [ प्रज्ञापनासूत्र : (8) लोकसंज्ञा-लोक में रूढ़ किन्तु अन्धविश्वास, हिंसा, असत्य आदि के कारण हेय होने पर भी लोकरूदि का अनुसरण करने की प्रबल वत्ति या अभिलाषा अथवा मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर, रुचिकर पदार्थों को (या लोकप्रचलित शब्दों के अनुरूप पदार्थो) को विशेषरूप से जानने की तीव्र अभिलाषा। (10) प्रोघसंज्ञा-बिना उपयोग के (बिना सोचे-विचारे) धुन-ही-धुन में किसी कार्य को करने की वृत्ति या प्रवृत्ति अथवा सनक / जैसे- उपयोग या प्रयोजन के बिना ही यों ही किसी वृक्ष पर चढ़ जाना अथवा बैठे-बंठे पैर हिलाना, तिनके तोड़ना आदि / अथवा मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर रुचिकर पदार्थों या लोकप्रचलित शब्दों के अनुरूप पदार्थों (अर्थों) को सामान्यरूप से जानने की अभिलाषा / इन दस ही प्रकार की संज्ञाओं में पूर्वोक्त व्युत्पत्तिलभ्य दोनों अर्थ भी घटित हो जाते हैं / उक्त दसों संज्ञाओं में से प्रारम्भ की चार संज्ञाओं में से जिस प्राणी में जिस संज्ञा का बाहुल्य हो, उस पर से उसे जान-पहिचान लिया जाता है / जैसे-नरयिकों को भयसंज्ञा की अधिकता के कारण जान लिया जाता है / अथवा जिसमें जिस प्रकार की अभिलाषा, मनोवृत्ति या प्रवृत्ति हो, उसे वह संज्ञा समझ ली जाती है।' नैरयिकों से वैमानिकों तक में संज्ञानों को प्ररूपरणा 726. नेर इयाणं भंते ! कति सण्णाम्रो पण्णत्ताओ? गोयमा ! दस सण्णाम्रो पण्णत्तायो। तं जहा-पाहारसण्णा 1 भयसण्णा 2 मेहुणसण्णा 3 परिग्गहसण्णा 4 कोहसण्णा 5 माणसण्णा 6 मायासण्णा 7 लोभसण्णा 8 लोगसण्णा प्रोघसण्णा 10 / [726 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों में कितनी संज्ञाएँ कही गई हैं ? [726 उ.] गौतम ! उनमें दस संज्ञाएँ कही गई हैं / वे इस प्रकार हैं--(१) आहारसंज्ञा, (3) भयसंज्ञा, (3) मैथुनसंज्ञा, (4) परिग्रहसंज्ञा, (5) क्रोधसंज्ञा, (6) मानसंज्ञा, (7) मायासंज्ञा (8) लोभसंज्ञा, (9) लोकसंज्ञा और (10) अोघसंज्ञा / 727. असुरकुमाराणं भंते ! कति सण्णाम्रो पण्णत्तानो ? गोयमा ! दस सण्णासो पण्णत्तानो / तं जहा-पाहारसण्णा जाव प्रोघसण्णा। [727 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों में कितनी संज्ञाएँ कही हैं ? [727 उ.] गौतम ! असुरकुमारों में दसों संज्ञाएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार पाहारसंज्ञा यावत् ओघसंज्ञा। 728. एवं जाव थणियकुमाराणं / [728] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार देवों तक (में पाई जाने वाली संज्ञाओं के विषय में) कहना चाहिए। ---- - 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 222 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका भा. 3, पृ-४०-४१ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम संज्ञापन ] | 509 726. एवं पुढविकाइयाणं वेमाणियावसाणाणं णेयध्वं / [729] इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों से लेकर वैमानिक-पर्यन्त (में पाई जाने वाली संज्ञाओं के विषय में) समझ लेना चाहिए / विवेचन-नरयिकों से वैमानिकों तक में संज्ञानों की प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक में दसों संज्ञाओं में से पाई जाने वाली संज्ञाओं की प्ररूपणा की गई है। सामान्यरूप से चौबीस दण्डकवर्ती समस्त सांसारिक जीवों में प्रत्येक में दसों ही संज्ञाएँ पाई जाती हैं / एकेन्द्रिय जीवों में ये संज्ञाएँ अव्यक्तरूप से रहती हैं, जबकि पंचेन्द्रियों में ये स्पष्टतः जानी जाती हैं। यहाँ ये संज्ञाएं प्रायः पंचेन्द्रियों को लेकर बताई गई हैं।' नारकों में संज्ञाओं का विचार 730. नेरइया णं भंते ! कि आहारसण्णोवउत्ता भयसण्णोवउत्ता मेहुणसण्णोवउत्ता परिग्गहसण्णोक्उत्ता? गोयमा ! प्रोसणं कारणं पडुच्च भयसण्णोवउत्ता, संतइभावं पडुच्च प्राहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि / [730 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या आहारसंज्ञोपयुक्त (आहारसंज्ञा से युक्तसम्पन्न) हैं, भयसंज्ञा से उपयुक्त हैं, मैथुनसंज्ञोपयुक्त हैं अथवा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त हैं ? [730 उ.] गौतम ! उत्सन्नकारण (बहुलता से बाह्य कारण की अपेक्षा से वे भयसंज्ञा से उपयुक्त हैं, (किन्तु) संततिभाव (आन्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव) की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त भी हैं यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी हैं। 731. एतेसि णं भंते ! नेरइयाणं प्राहारसण्णोवउत्ताणं भयसण्णोवउत्ताणं मेहुणसण्णोवउत्ताणं परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा नेरइया मेहुणसण्णोवउत्ता, प्राहारसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, परिग्गहसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, भयसण्णोधउत्ता संखेज्जगुणा / [731 प्र.] भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त, भयसंज्ञोपयुक्त, मैथुनसंज्ञोपयुक्त एवं परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारकों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [731 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त नैरयिक हैं, उनसे संख्यातगुणे पाहारसंज्ञोपयुक्त हैं, उनसे परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नैरयिक संख्यातगुणे हैं और उनसे भी संख्यातगुणे अधिक भयसंज्ञोपयुक्त नैरयिक हैं। विवेचन-नारकों में पाई जाने वाली संज्ञानों के अल्पबहुत्व का विचार–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 730-731) में दो दृष्टियों से आहारादि चार संज्ञाओं में से नारकों में पाई जाने वाली संज्ञाओं तथा उनके अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। 1. प्रज्ञापना सूत्र मलयवृत्ति, पत्रांक 223 Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 / प्रज्ञापनासूत्र 'प्रोसन्नकारणं' तथा 'संतइभावं' की व्याख्या-'मोसन्न'—(उत्सन) का अर्थ यहाँ 'बाहुल्य अर्थात् प्रायः अधिकांशरूप' से है। 'कारण' शब्द का अर्थ है-बाह्यकारण। इसी प्रकार संतइभाव (संततिभाव) का अर्थ है-सातत्य (प्रवाह) रूप से आन्तरिक अनुभवरूप भाव / नैरयिकों में भयसंज्ञा को बहलता का कारण नैरयिकों में नरकपाल परमाधार्मिक असुरों / द्वारा विक्रिया से कृत शूल, शक्ति, भाला आदि भयोत्पादक शास्त्रों का अत्यधिक भय बना रहता है / इसी कारण यहां बताया गया है कि बाह्य कारण की अपेक्षा से नैरयिक बहुलता से (प्राय:) भयसंज्ञोपयुक्त होते हैं। सतत आन्तरिक अनुभवरूप कारण को अपेक्षा से चारों संज्ञाएँ-पान्तरिक अनुभवरूप मनोभाव की अपेक्षा से नैरयिकों में आहारादि चारों संज्ञाएँ पाई जाती हैं। नैरयिकों में चारों संज्ञानों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार-सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त नारक हैं, क्योंकि नै रयिकों के शरीर रातदिन निरन्तर दुःख की अग्नि में संतप्त रहते हैं, आँख की पलक झपने जितने समय तक उन्हें सुख नहीं मिलता। अहर्निश दुःख की आग में पचने वाले नारकों को मैथुनेच्छा नहीं होती! कदाचित् किन्हीं को मैथुनसंज्ञा होती भी है तो वह भी थोड़े-से समय तक रहती है / इसीलिए यहाँ नैरयिकों में सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं / मैथुनसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा आहारसंज्ञोपयुक्त नारक संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उन दुःखी नारकों में प्रचुरकाल तक आहार की संज्ञा बनी रहती है। आहारसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारक संख्यातगुणे अधिक इसलिए होते हैं कि नैरयिकों को प्राहारसंज्ञा सिर्फ शरीरपोषण के लिए होती है, जबकि परिग्रहसंज्ञा शरीर के अतिरिक्त जीवन रक्षा के लिए शस्त्र प्रादि में होती है और वह चिरस्थायी होती है और परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा भयसंज्ञा वाले नारक संख्यातगुगे अधिक इसलिए बताए हैं कि नरक में नारकों में मृत्युपर्यन्त सतत भय की वृत्ति बनी रहती है। इस कारण भय संज्ञा वाले नारक पूर्वोक्त तीनों संज्ञानों वालों से अधिक हैं तथा पृच्छा समय में भी नारक अतिप्रभूततम भयसंज्ञोपयुक्त पाये जाते हैं।' तिर्यञ्चों में संज्ञाओं का विचार 732. तिरियखजोणिया णं भंते ! कि प्राहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा ! प्रोसणं कारणं पडुच्च प्राहारसण्णोव उत्ता, संतइभावं पडुच्च प्राहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि / [732 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं यावत् (अथवा) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [732 उ.] गौतम ! बहुलता से बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) अान्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, भयसंज्ञोपयुक्त भी यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 223 Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम संज्ञापद] [511 733. एलेसि णं भते ! तिरिक्खजोणियाणं पाहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया परिग्गहसण्णोव उत्ता, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, भयसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, प्राहारसपणोवउत्ता संखेज्जगुणा / [733 प्र.] भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? 7i33 उ.] गौतम ! सबसे कम परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक होते हैं, (उनसे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे होते हैं, उनसे) भयसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे होते हैं और उनसे भी पाहारसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे अधिक होते हैं। _ विवेचन-तिर्यञ्चों में पाई जाने वाली संज्ञाएँ तथा उनके अल्पबहुत्व का विचार---प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 732-733) में से प्रथम सूत्र में तिर्यञ्चों में बहुलता से तथा आन्तरिक अनुभवसातत्य से पाई जाने वाली संज्ञाओं का निरूपण है और द्वितीय सूत्र में उन-उन संज्ञानों से उपयुक्त तिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। संज्ञानों को दृष्टि से तिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व-परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च सबसे कम होते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चों में एकेन्द्रियों की संज्ञा बहुत ही अव्यक्त होती है, शेष तिर्यञ्चों में भी परिग्रहसंज्ञा अल्पकालिक होती है, अतः पृच्छासमय में वे थोड़े ही पाए जाते हैं। परिग्रहसंज्ञा वालों की अपेक्षा मैथुनसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक इसलिए बताए हैं कि उनमें मैथुनसंज्ञा का उपयोग प्रचुरतर काल तक बना रहता है। उनकी अपेक्षा भयसंज्ञा में उपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उन्हें सजातीयों (तिर्यञ्चों) और विजातीयों (तिर्यञ्चेतर प्राणियों) से भय बना रहता है और भय का उपयोग प्रचुरतम काल तक रहता है। उनकी अपेक्षा भी प्राहारसंज्ञा में उपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि सभी तिर्यञ्चों में प्राय: सतत (हर समय) आहारसंज्ञा का सद्भाव रहता है।' मनुष्यों में संज्ञाओं का विचार ---- 734. मणुस्सा णं भंते ! कि प्राहारसण्णोव उत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा। प्रोसण्णकारणं पडुच्च मेहुणसण्णोवउत्ता, संततिभावं पडुच्च श्राहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि / [734 प्र] भगवन् ! क्या मनुष्य आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, अथवा यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [734 उ.] गौतम ! बहुलता से (प्रायः) बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्यानुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) अाहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं / -- -- -...--- 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 223 Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 [प्रज्ञापनासूत्र 735. एतेसि गं भंते ! मणुस्साणं पाहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा मणूसा भयसण्णोवउत्ता, पाहारसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, परिग्गहसणोवउत्ता संखेज्जगुणा, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा। [735 प्र.] भगवन् ! इन अाहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्यों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ? [735 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य भयसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (उनसे) आहारसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे होते हैं, (उनसे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं (और उनसे भी) संख्यातगुणे (अधिक मनुष्य) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं / विवेचन-मनुष्यों में पाई जाने वाली संज्ञाओं और उनके अल्पबहुत्व का विचार–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 734-735) में क्रमशः मनुष्य में बहुलता से तथा सातत्यानुभवभाव से पाई जाने वाली संज्ञाओं एवं उन संज्ञाओं वाले मनुष्यों का अल्पबहुत्व प्रस्तुत किया गया है / चारों संज्ञानों की अपेक्षा से मनुष्यों का प्रल्पबहत्व-भयसंज्ञोपयुक्त मनुष्य सबसे कम इसलिए बताए हैं कि कुछ ही मनुष्यों में अल्प समय तक ही भयसंज्ञा रहती है / उनकी अपेक्षा आहारसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे हैं, क्योंकि मनुष्यों में ग्राहारसंज्ञा अधिक काल तक रहती है। प्राहारसंज्ञा वाले मनुष्यों की अपेक्षा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि आहार की अपेक्षा मनुष्यों को परिग्रह को चिन्ता एवं लालसा अधिक होती है। परिग्रहसंज्ञा वाले मनुष्यों की अपेक्षा भी मैथुनसंज्ञा में उपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक पाए जाते हैं, क्योंकि मनुष्यों को प्रायः मैथुनसंज्ञा अतिप्रभूत काल तक बनी रहती है।' देवों में संज्ञाओं का विचार 736. देवा णं भंते ! कि आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता? गोयमा ! उस्सणं कारणं पडुच्च परिग्गहसण्णोवउत्ता, संततिभावं पडुच्च प्राहारसग्णोवउत्ता वि जाव परिम्गहसण्णोवउत्ता वि / [736 प्र.] भगवन् ! क्या देव आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (अथवा) यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ? [736 उ.] गौतम ! बाहुल्य से (प्रायः) बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) अान्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) पाहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं / 737. एतेसि णं भंते ! देवाणं आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 223 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 513 अष्टम संज्ञापन - गोयमा ! सव्वस्थोवा देवा प्राहारसण्णोवउत्ता, भयसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, परिग्गहसण्णोषउत्ता संखेज्जगुणा / ॥पण्णवणाए भगवईए पटुमं सण्णापयं समत्तं // [737 प्र.] भगवन् ! इन प्राहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देवों में से कौन किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? [737 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े पाहारसंज्ञोपयुक्त देव हैं, (उनकी अपेक्षा) भयसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे हैं, (उनको अपेक्षा) मैथुनसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे हैं और उनसे भी संख्यातगुणे परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देव हैं। विवेचन-देवों में पाई जाने वाली संज्ञानों और उनके अल्पबहुत्व का विचार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 736-737) में देवों में बाहुल्य से परिग्रहसंज्ञा का तथा प्रान्तरिक अनुभव की अपेक्षा से चारों ही संज्ञाओं के निरूपण पूर्वक चारों संज्ञाओं की अपेक्षा से उनके अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। देवों में बाहत्य से परिग्रहसंज्ञा क्यों?—देव अधिकांशतः परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं। क्योंकि परिग्रहसंज्ञा के जनक कनक, मणि, रत्न आदि में उन्हें सदा आसक्ति बनी रहती है / देवों का चारों संजात्रों की अपेक्षा से अल्पबहत्व—सबसे कम पाहारसंज्ञोपयुक्त देव होते हैं, क्योंकि देवों की प्राहारेच्छा का विरहकाल बहुत लम्बा होता है तथा आहारसंज्ञा के उपयोग का काल बहुत थोड़ा होता है। अतएव पृच्छा के समय वे थोड़े ही पाए जाते हैं। आहारसंज्ञोपयुक्त देवों की अपेक्षा भयसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि भयसंज्ञा बहुत-से देवों को चिरकाल तक रहती है। भयसंज्ञोपयुक्त देवों की अपेक्षा मैथुनसंज्ञा वाले देव संख्यातगुणे अधिक और उनसे भी परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे कहे गए हैं, कारण पहले बताया जा चुका है / ' / / प्रज्ञापनासूत्र : अष्टम संज्ञापद समाप्त / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 224 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवमं जोणिपयं नौवां योनिपद प्राथमिक * प्रज्ञापना सूत्र का यहं नौवां 'योनिपद' है। एक भव का आयुष्य पूर्ण होने पर जीव अपने साथ तैजस और कार्मण शरीर को लेकर जाता है। फिर जिस स्थान में जाकर वह नये जन्म के योग्य औदारिक आदि शरीर के पुद्गलों को ग्रहण करता है या गर्भरूप में उत्पन्न होता है, अथवा जन्म लेता है, उस उत्पत्तिस्थान को 'योनि' कहते हैं। योनि का प्रत्येक प्राणी के जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है, क्योंकि जिस योनि में प्राणी उत्पन्न होता है, वहाँ का वातावरण, प्रकृति, संस्कार, परम्परागत प्रवत्ति आदि का प्रभाव उस प्राणी पर पड़े बिना नहीं रहता। इसीलिए प्रस्तुत पद में श्री श्यामाचार्य ने योनि के विविध प्रकारों का उल्लेख करके उन-उन योनियों की अपेक्षा से जीवों का विचार प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत पद में योनि का अनेक दृष्टियों से निरूपण किया गया है। सर्वप्रथम शीत, उष्ण और शीतोष्ण, इस प्रकार योनि के तीन भेद करके नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक में किस जीव की कौन-सी योनि है, इसकी प्ररूपणा की गई है, तदनन्तर इन तीनों योनियों वाले और अयोनिक जीवों में कौन किससे कितने अल्पाधिक हैं ? इसका विश्लेषण है / तत्पश्चात् सचित्त, अचित्त और मिश्र, इस प्रकार त्रिविधयोनियों का उल्लेख करके इसी तरह की चर्चा-विचारणा की है। तत्पश्चात् संवृत, विवृत और संवृत-विवृत यों योनि के तीन भेद करके पुन: पहले की तरह विचार किया गया है और अन्त में मनुष्यों की कूर्मोन्नता आदि तीन विशिष्ट योनियों का उल्लेख करके उनकी अधिकारिणी स्त्रियों का तथा उनमें जन्म लेने वाले मनुष्यों का प्रतिपादन किया है। कुल मिलाकर समस्त जीवों की योनियों के विषय में इस पद में सुन्दर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। * जो चौरासी लक्ष जीवयोनियां हैं, उनका मुख्य उद्गमस्रोत ये ही 9 प्रकार की सर्व प्राणियों की योनियां हैं / इन्हीं की शाखा-प्रशाखा के रूप में 84 लक्ष योनियां प्रस्फुटित हुई हैं। * समस्त मनुष्यों के उत्पत्तिस्थान का निर्देश करने वाली तीन विशिष्ट योनियां अन्त में बताई गई हैं—कूर्मोन्नता, शंखावर्ता और वंशीपत्रा। तीर्थंकरादि उत्तमपुरुष कर्मोन्नता योनि में जन्म धारण करते हैं, स्त्रीरत्न की शंखावर्ता योनि में अनेक जीव आते हैं, गर्भरूप में रहते हैं, उनके Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा योनिपद : प्राथमिक] [515 शरीर का चयोपचय भी होता है, किन्तु प्रबल कामाग्नि के ताप से वे वहीं नष्ट हो जाते हैं, जन्म धारण नहीं करते, गर्भ से बाहर नहीं आते। इससे विदित होता है कि प्रबल कामभोग से गर्भस्थ जीव पनप नहीं सकता / तीसरी वंशीपत्रा योनि सर्वसाधारण मनुष्यों की होती है।' 00 (क) पण्णवणासुत्तं मूलपाठ भा. 1, पृ. 190 से 192 / (ख) पण्णवणासुत्त (परिशिष्ट और प्रस्तावना) भा. 2, पृ. 77-78 / (ग) जैनागम साहित्य: मनन और मीमांसा, पृ. 243 / Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णवमं जोणिपयं नौवाँ योनिपद शीतादि त्रिविध योनियों की नारकादि में प्ररूपणा___७३८. कतिविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता? / गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता। तं जहा-सीता जोणी 1 उसिणा जोणी 2 सीतोसिणा जोणी३। [738 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [738 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की गई है / वह इस प्रकार-शीत योनि, उष्ण योनि और शीतोष्ण योनि / 736. नेरइयाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! सीता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, नो सीतोसिणा जोणी। [739 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [739 उ.] गौतम ! (नैरयिकों की) शीत योनि भी होती है और उष्ण योनि भी होती है, (किन्तु) शीतोष्ण योनि नहीं होती। 740. असुरकुमाराणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणो सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! नो सीता, नो उसिणा, सोतोसिणा जोणी। (740 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार देवों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [740 उ.] गौतम ! उनकी न तो शीत योनि होती है और न ही उष्ण योनि होती है, (किन्तु) शीतोष्ण योनि होती है। 741. एवं जाव थणियकुमाराणं। [741] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक (की योनि के विषय में समझना चाहिए / ) 742. पुढविकाइयाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सोतोसिणा जोणी ? गोयमा ! सीता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि जोणी। [742 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की क्या शीत योनि होती है उष्ण योनि होती है अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां योमिपद] [517 [742 उ.] गौतम ! उनकी शीत योनि भी होती है, उष्ण योनि भी होती है और शीतोष्ण योनि भी होती है। ___743. एवं प्राउ-चाउ-वणस्सति-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाण वि पत्तेयं माणियन्वं / [743] इसी तरह अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की प्रत्येक की योनि के विषय में कहना चाहिए। 744. तेउक्काइयाणं नो सीता, उसिणा, नो सोतोसिणा। [744] तेजस्कायिक जीवों की शीत योनि नहीं होती, उष्ण योनि होती है, शीतोष्ण योनि नहीं होती। 745. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! सीता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि जोणी। [745 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है, अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [745 उ.] गौतम ! (उनकी) योनि शीत भी होती है, उष्ण भी होती है और शीतोष्ण भी होती है। .746. सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव / __ [746] सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों (की योनि) के विषय में भी इसी तरह (कहना चाहिए।) 747. गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! नो सोता जोणी, नो उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी / [747 प्र.] भगवन् ! गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है या शीतोष्ण योनि होती है ? [747 उ.] गौतम ! उनकी न तो शीत योनि होती है, न उष्ण योनि होती है, किन्तु शीतोष्ण योनि होती है। 748. मणुस्साणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! सोता वि जोणी, उसिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि जोणी। [748 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है, अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [748 उ.] गौतम ! मनुष्यों की शीत योनि भी होती है, उष्ण योनि भी होती है और शीतोष्ण योनि भी होती है। Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518] [प्रज्ञापनासूत्र 746. सम्मुच्छिममणुस्साणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! तिविहा वि जोणी। [749 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्यों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [746 उ.] गौतम ! उनको तीनों प्रकार की योनि होती है। 750. गम्भवक्कंतियमणुस्साणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी? गोयमा ! नो सीता जोणी, नो उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणो। [750 प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्यों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [750 उ.] गौतम ! उनकी न तो शीत योनि होती, न उष्ण योनि होती है, किन्तु शीतोष्ण योनि होती है। 751. वाणमंतरदेवाणं भंते ! कि सीता जोणी उसिणा जोणी सीतोसिणा जोणी ? गोयमा ! नो सीता, नो उसिणा जोणी, सीतोंसिणा जोणी / [751 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों की क्या शीत योनि होती है, उष्ण योनि होती है, अथवा शीतोष्ण योनि होती है ? [751 उ.] गौतम ! उनकी न तो शीत योनि होती है और न ही उष्ण योनि होती है, किन्तु शीतोष्ण योनि होती है। 752. जोइसिय-वेमाणियाण वि एवं चेव / [752] इसी प्रकार ज्योतिष्कों और वैमानिक देवों की (योनि के विषय में समझना चाहिए)। 753. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सीतजोणियाणं उसिणजोणियाणं सीतोसिणजोणियाणं अजोणियाण य कतरे कतरेहितो प्रध्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा सीतोसिणजोणिया, उसिणजोणिया असंखेज्जगुणा, प्रजोणिया अणंतगुणा, सीतजोणिया अणंतगुणा / 1 // [753 प्र.] भगवन् ! इन शीतयोनिक जीवों, उष्णयोनिक जीवों, शीतोष्णयोनिक जीवों तथा अयोनिक जीवों में से कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं, अथवा विशेषाधिक हैं ? [753 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े जीव शीतोष्णयोनिक हैं, उष्णयोनिक जीव उनसे असंख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे अयोनिक जीव अनन्तगुणे अधिक हैं और उनसे भो शोतयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं // 1 // विवचन-नरयिकादि जीवों का शोतादि त्रिविध योनियों की दृष्टि से विचार–प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. 738 से 753 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौबीस दण्डकवर्ती जीवों का शीत, उष्ण एवं शीतोष्ण, इन त्रिविध योनियों की दृष्टि से विचार किया गया है। Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां योनिपद] [519 योनि और उसके प्रकारों की व्याख्या—'योनि' शब्द 'यु मिश्रणे' धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका व्युत्पत्त्यर्थ होता है-जिसमें मिश्रण होता है, वह 'योनि' है। इसकी शास्त्रीय परिभाषा हैतेजस और कार्मण शरीर वाले प्राणी, जिसमें औदारिक आदि शरीरों के योग्य पुद्गलस्कन्धों के समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, वह योनि है। योनि से यहाँ तात्पर्य है--जीवों का उत्पत्तिस्थान / शीत योनि का अर्थ है--जो योनि शीतस्पर्श-परिणाम बाली हो। उष्ण योनि का अर्थ है-जो योनि उष्णस्पर्श-परिणाम वाली हो। शीतोष्ण योनि का अर्थ है-जो योनि शीत और उष्ण उभय स्पर्श के परिणाम वाली हो। सप्त नरकवियों की योनि का विचार-यों तो सामान्यतया नैरयिकों की दो ही योनियां बताई हैं-शीत योनि और उष्ण योनि, तीसरी शीतोष्ण योनि उनके नहीं होती। किस नरकपृथ्वी में कौन-सी योनि है ? यह वृत्तिकार बताते हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में नारकों के जो उपपात (उत्पत्ति) क्षेत्र हैं, वे सब शीतस्पर्श परिणाम से परिणत हैं। इन उपपातक्षेत्रों के सिवाय इन तीनों पृथ्वियों में शेष स्थान उष्णस्पर्श-परिणामपरिणत हैं / इस कारण यहाँ के शीत योनि वाले नैरयिक उष्णवेदना का वेदन करते हैं। पंकप्रभापृथ्वी में अधिकांश उपपातक्षेत्र शीतस्पर्श-परिणाम से परिणत हैं, थोड़े-से ऐसे क्षेत्र हैं जो उष्णस्पर्श-परिणाम से परिणत हैं। जिन प्रस्तटों (पाथड़ों) और नारकावासों में शोतस्पर्शपरिणाम वाले उपपातक्षेत्र है, उनमें उन क्षेत्रों के अतिरिक्त शेष समस्त स्थान उष्णस्पर्शपरिणाम वाले होते हैं तथा जिन प्रस्तटों और नारकावासों में उष्णस्पर्शपरिणाम वाले उपपातक्षेत्र हैं, उनमें उनके अतिरिक्त अन्य सब स्थान शीतस्पर्शपरिणाम वाले होते हैं। इस कारण वहाँ के बहुत-से शीतयोनिक नैरयिक उष्ण वेदना का वेदन करते हैं, जबकि थोड़े-से उष्णयोनिक नैरयिक शीतवेदना का वेदन करते हैं। धूमप्रभापृथ्वी में बहुत-से उपपातक्षेत्र उष्णस्पर्शपरिणाम से परिणत हैं, थोड़े-से क्षेत्र शीतस्पर्शपरिणाम से परिणत होते हैं। जिन प्रस्तटों और जिन नारकावासों में उष्णस्पर्शपरिणाम-परिणत उपपातक्षेत्र हैं, उनमें उनके अतिरिक्त अन्य सब स्थान शीतपरिणाम वाले होते हैं। जिन प्रस्तटों या नारकावासों में शीतस्पर्शपरिणाम-परिणत उपपातक्षेत्र हैं, उनमें उनसे अतिरिक्त अन्य सब स्थान उष्णस्पर्शपरिणाम वाले हैं। इस कारण वहाँ के बहत-से उष्णयोनिक नैरयिक शीतवेदना का वेदन करते हैं. थोडे-से जो शीतयोनिक हैं, वे उष्णवेदना का वेदन करते हैं। तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभा पृथ्वी में सभी उपपातक्षेत्र उष्णस्पर्शपरिणाम-परिणत हैं। उनसे अतिरिक्त अन्य सब स्थान वहाँ शीतस्पर्शपरिणाम वाले हैं। इस कारण वहाँ के उष्णयोनिक नारक शीतवेदना का वेदन करते हैं। भवनवासी देव प्रादि को योनियां शीतोष्ण क्यों ? --सर्व प्रकार के भवनवासी देव, गर्भज तिर्यच पंचेन्द्रिय, गर्भज मनुष्य तथा व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के उपपातक्षेत्र शीत और उष्ण, दोनों स्पर्शों से परिणत हैं, इस कारण उनकी योनियां शीत और उष्ण दोनों स्वभाव वाली (शीतोष्ण) हैं। तेजस्कायिकों के सिवाय पृथ्वीकायिकों प्रादि की तीनों प्रकार को योनि-तेजस्कायिक उष्णयोनिक ही होते हैं, यह बात प्रत्यक्षसिद्ध है। उनके सिवाय अन्य समस्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मच्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और सम्मच्छिम मनुष्यों के उत्पत्तिस्थान शीतस्पर्श वाले, उष्णस्पर्श बाले और शीतोष्णस्पर्श वाले होते हैं, इस कारण उनकी योनि तीनों प्रकार की बताई गई है। Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 520 ] [प्रज्ञापनासून त्रिविध योनि वालों और प्रयोनिकों का अल्पबहुत्व-सबसे थोड़े जीव शीतोष्ण योनि वाले होते हैं, क्योंकि शीतोष्ण योनि वाले सिर्फ भवनपति देव, गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय, गर्भज मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव ही हैं। उनसे असंख्यातगुणे उष्णयोनिक जीव हैं, क्योंकि सभी सूक्ष्म-बाद भेदयुक्त तेजस्कायिक, अधिकांश नैरयिक, कतिपय पथ्वीकायिक, अप्कायिक, वायूकायिक तथा प्रत्येक बनस्पतिकायिक उष्णयोनिक होते हैं। उनकी अपेक्षा अयोनिक (योनिरहित-सिद्ध) जीव अनन्त गुणे होते हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं। इनकी अपेक्षा शीतयोनिक अनन्तगुणे होते हैं, क्योंकि सभी अनन्तकायिक जीव शीत योनि वाले होते हैं और वे सिद्धों से भी अनन्तगुणे हैं।' नरयिकादि में सचित्तादि त्रिविध योनियों की प्ररूपणा 754. कतिविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा! तिविहा जोणी पण्णता / तं जहा-सचित्ता 1 अचित्ता 2 मीसिया 3 / [754 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [754 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-(१) सचित्त योनि, (2) अचित्त योनि और (3) मिश्र योनि / 755. रइयाणं भंते ! कि सचित्ता जोणी प्रचित्ता जोणी मीसिया जोणी? गोयमा ! नो सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, णो मीसिया जोणी। [755 प्र.] भगवन् ! नरयिकों की क्या सचित्त योनि है, अचित्त योनि है अथवा मिश्र योनि होती है ? [755 उ.] गौतम ! नारकों की योनि सचित्त नहीं होती, अचित्त योनि होती है, (किन्तु) मिश्र योनि नहीं होती। 756. असुरकुमाराणं भंते ! कि सचित्ता जोणी प्रचित्ता जोणी मोसिया जोणी? गोयमा ! नो सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, नो मीसिया जोगी। [756 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों की योनि क्या सचित्त होती है, अचित्त होती है अथवा मिश्र योनि होती है ? [756 उ.] गौतम ! उनके सचित्त योनि नहीं होती, अचित्त योनि होती है, (किन्तु) मिश्र योनि नहीं होती। 757. एवं जाव थणियकुमाराणं / [757] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक की योनि के विषय में समझना चाहिए। 758. पुढविकाइयाणं भंते ! कि सचित्ता जोणी प्रचित्ता जोणी मीसिया जोणी ? गोयमा ! सचित्ता वि जोणी, प्रचित्ता वि जोणी, मीसिया वि जोणी। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 225-226 / Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां योनिपटा [521 [758 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की योनि क्या सचित्त होती है, अचित्त होती है अथवा मिश्रयोनि होती है ? [758 उ.] गौतम ! उनकी योनि सचित्त भी होती है, अचित्त भी होती है और मिश्र योनि भी होती है। 756. एवं जाव चरिंदिया। [756] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक (की योनि के विषय में समझना चाहिए।) 760. सम्मुच्छिमचिदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मुच्छिममणुस्साण य एवं चेव / [760] सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों की योनि के विषय में इसी प्रकार समझ लेना चाहिए। 761. गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गम्भवतियमणस्साण य नो सचित्ता, नो अचित्ता, मीसिया जोणी। [761] गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों तथा गर्भज मनुष्यों की योनि न तो सचित्त होती है और न ही अचित्त, किन्तु मिश्र योनि होती है / 762. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं / [762] वाणव्यन्तर देवों, ज्योतिष्क देवों एवं वैमानिक देवों (की योनि के विषय में) असुरकुमारों के (योनिविषयक वर्णन के) समान ही (समझना चाहिए / ) 763. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सचित्तजोणोणं प्रचित्तजोणोणं मीसजोणोणं अजोणीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सध्वयोवा जीवा मोसजोणिया, अचित्तजोणिया असंखेज्जगुणा, प्रजोणिया अणंतगुणा, सचित्तजोणिया अणंतगुणा / 2 // [763 प्र.] भगवन् ! इन सचित्तयोनिक जीवों, अचित्तयोनिक जीवों, मिश्रयोनिक जीवों तथा अयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? [763 उ.] गौतम ! मिश्रयोनिक जीव सबसे थोड़े होते हैं, (उनसे) अचित्तयोनिक जीव असंख्यातगुणे अधिक होते हैं, (उनसे) अयोनिक जीव अनन्तगुणे होते हैं (और उनसे भी) सचित्तयोनिक जीव अनन्तगुणे होते हैं // 2 // विवेचन-प्रकारान्तर से सचित्तादि विविधि योनियों की अपेक्षा से सर्व जीवों का विचार-~ प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 754 से 763 तक) में योनि के प्रकारान्तर से सचित्तादि तीन भेद बताकर, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के क्रम से किस जीव के कौन-कौन-सी योनियां होती हैं ? तथा कौन-सी योनि वाले जीव अल्प, बहुत या विशेषाधिक होते हैं ? इसकी चर्चा की गई है। Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522) [प्रज्ञापनासूब ___ सचित्तादि योनियों के अर्थ सचित्त योनि-जो योनि जीव (प्रात्म) प्रदेशों से सम्बद्ध हो। प्रचित्त योनि--जो योनि जीव रहित हो। मिश्र योनि--जो योनि जीव से मुक्त और अमुक्त उभयस्वरूप वाली हो, यानी जो सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार की हो। किन जीवों की योनि कैसी और क्यों ?–नारकों के जो उपपात क्षेत्र हैं, वे किसी जीव के द्वारा परिगृहीत न होने से सचित्त (सजीव) नहीं होते, इस कारण उनकी योनि अचित्त ही होती है / यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव समस्त लोक (लोकाकाश) में व्याप्त होते हैं, तथापि उन जीवों के प्रदेशों से उन उपयातक्षेत्रों के पुद्गल परस्परानुगमरूप से सम्बद्ध नहीं होते, अर्थात्-वे उपपातक्षेत्र उन सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों के शरीररूप नहीं होते, इस कारण नैरयिकों की योनि अचित्त ही कही गई है। इसी प्रकार असुरकुमारादि दशविध भवनपति देवों, व्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिक देवों की योनियां भी अचित्त ही समझनी चाहिए। पृथ्वीकायिकों से लेकर सम्मूच्छिम मनुष्य पर्यन्त सबके उपपातक्षेत्र जीवों से परिगहीत भी होते हैं, अपरिगहीत भी और उभयरूप भी होते हैं, इसलिए इनकी योनि तीनों प्रकार की होती है। गर्भज तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और गर्भज मनुष्यों को जहाँ उत्पत्ति होती है, वहाँ अचित्त शुक्र-शोणित आदि पुद्गल भी होते हैं, अतएव वे मिश्र योनि वाले हैं। सचित्तादि योनियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व--सबसे थोड़े जीव मिश्रयोनिक इसलिए बताए गए हैं कि मिश्रयोनिकों में केवल गर्भज तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य ही हैं / उनसे अचित्तयोनिक जीव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि समस्त देव, नारक तथा कतिपय पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, प्रत्येकवनस्पतिकायिक, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियजीव, सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं सम्मच्छिम मनुष्य अचित्त योनि वाले होते हैं। अचित्तयोनिकों की अपेक्षा अयोनिक (सिद्ध) जीव अनन्त हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं और अयोनिकों की अपेक्षा भी सचित्तयोनिक जीव अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि निगोद के जीव सचित्तयोनिक होते हैं और वे सिद्धों से भी अनन्तगुणे अधिक होते हैं / ' सर्वजीवों में संवतादि त्रिविधयोनियों की प्ररूपणा 764. कतिविहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णता / तं जहा-संखुडा जोणी 1 वियडा जोणी 2 संवुडवियडा जोणी [764 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [764 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार-(१) संवृत योनि, विवृत योनि और (3) संवृत-विवृत योनि / 765. नेरइयाणं भंते ! कि संवडा जोणी वियडा जोणी संखुडवियडा जोणी ? गोयमा ! संवुडा जोणी, नो वियडा जोणी, नो संखुडवियडा जोणी। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 226-227. Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवा योनिपद ] [523 [765 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को क्या संवृत योनि होती है, विवृत योनि होती है, अथवा संवृत-विवृत योनि होती है ? [765 उ.] गौतम ! नैरयिकों की योनि संवृत होती है, परन्तु विवृत नहीं होती और न ही संवृत-विवृत होती है। 766. एवं जाव वणस्सइकाइयाणं / [766] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक (की योनि के विषय में कहना चाहिए)। 767. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! नो संवुडा जोणी, वियडा जोणी, णो संवुडवियडा जोणो / [767 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की योनि संवृत होती है, विवृत होती या संवृत-विवृत होती है ? [767 उ.] गौतम ! उनको योनि संवृत नहीं होती, (किन्तु) विवृत होती है, (पर) संवृतविवृत योनि नहीं होती। 768. एवं जाव चरिदियाणं / [768] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक (की योनि के विषय में समझ लेना चाहिए / ) 766. सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सम्मुच्छिपमणुस्साण य एवं चेव / [766] सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों की (योनि के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / ) 770. गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गम्भवक्कंतियमणुस्साण य नो संवडा जोणी, नो वियडा जोणी, संवुडवियडा जोणी / [770] गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों और गर्भज मनुष्यों की योनि संवृत नहीं होती और न विवृत योनि होती है, किन्तु संवृत-विवृत होती है / 771. बाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं / [771] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की (योनि के सम्बन्ध में) नरयिकों की (योनि की) तरह समझना चाहिए / 772. एतेसि णं भंते ! जीवाणं संवुडजोणियाणं वियडजोणियाणं संवुडवियडजोणियाणं प्रजोणियाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? / ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा संबुडवियउजोणिया, वियडजोणिया असंखेज्जगुणा, प्रजोणिया अणंतगुणा, संवुडजोणिया अणंतगुणा / 3 // Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [772 प्र.] भगवन् ! इन संवृतयोनिक जीवों, विवृतयोनिक जीवों, संवृत-विवृतयोनिक जीवों तथा अयोनिक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? [772 उ.] गौतम ! सबसे कम संवृत-विवृतयोनिक जीव हैं, (उनसे) विवृतयोनिक जीव असंख्यातगुणे (अधिक) हैं, (उनसे) अयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं (और उनसे भी) संवृतयोनिक जीव अनन्तगुणे (अधिक) हैं // 3 // विवेचन तीसरे प्रकार से संवृतादि त्रिविध योनियों की अपेक्षा से जीवों का विचार प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 764 से 772 तक) में शास्त्रकार ने तृतीय प्रकार से योनियों के संवतादि तीन भेद बता कर किस जीव के कौन-कौन-सी योनि होती है ? तथा कौन-सी योनि वाले जीव अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? इसका विचार प्रस्तुत किया है। संवतादि योनियों का अर्थ-संवत योनि = जो योनि आच्छादित (ढंकी हुई) हो। विवृत. योनि = जो योनि खुली हुई हो, अथवा बाहर से स्पष्ट प्रतीत होती हो। संवृत-विवृत योनि = जो संवृत और विवृत दोनों प्रकार की हो। किन जीवों की योनि कौन और क्यों ?--नारकों की योनि संवत इसलिए बताई है कि नारकों के उत्पत्तिस्थान नरकनिष्कुट होते हैं और वे आच्छादित (संवत) गवाक्ष (झरोखे) के समान होते हैं। उन स्थानों में उत्पन्न हुए नारक शरीर से वृद्धि को प्राप्त होकर शीत से उष्ण और उष्ण से शीत स्थानों में गिरते हैं। इसी प्रकार भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की योनि संवृत होती है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति (उपपात) देवशैय्या में देवदूष्य से आच्छान्दित स्थान में होती है। एकेन्द्रिय जीव भी संवृत योनि वाले होते हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्तिस्थली (योनि) स्पष्ट उपलक्षित नहीं होती। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों तथा सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पंचेद्रियों एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों की योनि विवृत है, क्योंकि इनके जलाशय आदि उत्पत्तिस्थान स्पष्ट प्रतीत होते हैं / गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों और गर्भज मनुष्यों की योनि संवत-विवृत होती है। क्योंकि इनका गर्भ संवृत और विवृत उभयरूप होता है। अन्दर (उदर में) रहा हुमा गर्भ स्वरूप से प्रतीत नहीं होता, किन्तु उदर के बढ़ने आदि से बाहर से उपलक्षित होता है। संवृतादि योनियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व-सबसे थोड़े संवृत-विवृत योनि वाले जीव होते हैं, क्योंकि गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य ही संवत-विवृत योनि वाले हैं। उनकी अपेक्षा विवृतयोनिक जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव तथा सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं सम्मूच्छिम मनुष्य विवृत योनि वाले हैं। उनसे अयोनिक जीव अनन्त गुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त होते हैं और उनसे भी अनन्तगुणे संवृतयोनिक जीव होते हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव संवृतयोनिक होते हैं और वे सिद्धों से भी अनन्तगुणे होते हैं।' मनुष्यों को त्रिविध विशिष्ट योनियां 773. [1] कतिबिहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता। तं जहा-कुम्मुण्णया 1 संखावत्ता 2 वंसीपत्ता 3 / 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 227 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां योनिपद [525 [773-1 प्र.] भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ? [773-1 उ.] गौतम ! योनि तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--(१) कूर्मोन्नता, (2) शंखावर्ता और (3) वंशीपत्रा। [2] कुम्मुण्णया णं जोणी उत्तमपुरिसमाऊणं / कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गम्भे बक्कमति / तं जहा-अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा / [773-2] कर्मोन्नता योनि उत्तमपुरुषों की माताओं की होती है / कर्मोन्नता योनि में (ये) उत्तमपुरुष गर्भ में उत्पन्न होते हैं / जैसे—अर्हन्त (तीर्थंकर), चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव / [3] संखावत्ता णं जोणी इत्थिरयणस्स / संखावत्ताए णं जोणीए बहवे जोवा य पोग्गला य वक्कमति विउक्कमति चयंति उवचयंति, नो चेव णं निप्फज्जति / [773-3] शंखावर्ता योनि स्त्रीरत्न की होती है। शंखावर्ता योनि में बहुत-से जीव और पुद्गल आते हैं, गर्भरूप में उत्पन्न होते हैं, सामान्य और विशेषरूप से उनकी वृद्धि (चय-उपचय) होती है, किन्तु उनकी निष्पत्ति नहीं होती। [4] वंसोपत्ता गं जोणी पिहुजणस्स / वंसीपत्ताए णं जोणोए पिहुजणे गम्भे वक्कमति / // पणवणाए भगवईए णवमं जोणीपयं समत्तं / / 7i73-4] वंशीपत्रा योनि पृथक् (सामान्य) जनों की (मातागों की) होती है। वंशीपत्रा योनि में पृथक् (साधारण) जीव गर्भ में पाते हैं / विवेचन--मनुष्यों को त्रिविध योनिविशेषों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (773/1,2,3,4) में मनुष्यों को कूर्मोन्नता आदि तीन विशिष्ट योनियों, योनि वाली स्त्रियों एवं उनमें जन्म लेने वाले मनुष्यों का निरूपण किया गया है। कर्मोन्नता प्रादि योनियों का अर्थ-कर्मोन्नता योनि = जो योनि कछुए की पीठ की तरह उन्नत-ऊँची उठी हुई या उभरी हुई हो। शंखावर्ता योनि - जिसके आवर्त शंख के उतार-चढ़ाव के समान हों, ऐसी योनि / वंशीपत्रा योनि- जो योनि दो संयुक्त (जुड़े हुए) वंशीपत्रों के समान प्राकार वाली हो। शंखावर्ता योनि का स्वरूप---शंखावर्ता स्त्रीरत्न की अर्थात्-चक्रवर्ती की पटरानी की होती है। इस योनि में बहुत-से जीव अवक्रमण करते (आते) हैं, व्युत्क्रमण करते (गर्भ-रूप में उत्पन्न होते) हैं, चित होते (सामान्यरूप से बढ़ते) हैं और उपचित होते (विशेषरूप से बढ़ते) हैं। परन्तु वे निष्पन्न नहीं होते, गर्भ में ही नष्ट हो जाते हैं / इस सम्बन्ध में वृद्ध प्राचार्यों का मत है कि शखावा योनि में आए हुए जीव अतिप्रबल कामाग्नि के परिताप से वहीं विध्वस्त हो जाते हैं। 1 प्रज्ञापनासूत्र : नौवाँ योनिपद समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 228 (ख) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 83-84 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट प्रज्ञापनासूत्र : स्थान 1-9 गाथानुक्रमसूची 5YAL في 0 الله AM 145 गाथा गाथांक सूत्रांक पृष्ठांक अच्छि पव्वं बलिमोडमो 93 54 62 प्रज्जो रुहवोडाणे अज्झयणमिणं चित्तं अडहुत्तरं च तीसं 134 174 147 प्रणभिग्महियकुदिट्टी 129 110 93 अणवन्निय पणवन्निय 151 194 169 अस्थिय तिदु कविट्ठ अद्धतिवण्णसहस्सा 135 174 147 अप्फोया अइमुत्तय प्रयसी कुसुभकोद्दव अलोए पडिहता सिद्धा 160 211 अवए पणए सेवाले असरीरा जीवधणा 169 211 191 असुरा नाग सुवण्णा 177 147 असुरेसु होति रत्ता 160 अस्सग्णी खलु पढम 183 647 अंघिय पत्तिय मच्छिय 110 अंबडा य कलिंदा पाणय पाणकप्पे 155 184 प्रासीतं बत्तीसं पाहारे उवयोगे इक्खू य इक्खुवाडी इय सव्वकालतित्ता 177 211 191 इय सिद्धाणं सोक्खं 175 211 191 उत्तत्तकणगवन्ना / 146 187 160 एएहिं सरीरेहि (प्रक्षिप्त गाथा) 1 एक्कस्स उ जं गहणं एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु 157 209 187 एगपएऽणेगाई 125 110 93 एगस्स दोण्ह तिण्ह व ur गाथा गायांक सूत्रांक पृष्ठांक एमा य होइ रयणी 165 211 190 एते चेव उ भावे 122 110 93 एरंडे कुरुविदे प्रोगाहणसंठाणे प्रोगाहणाए सिद्धा 211 191 कण्हे कदे वज्जे 54 57 कहिं पडिहता सिद्धा 159 211 कंगूया कद्दुइया ___45 52 कंदा य कंदमूला य 107 ___55 65 कंबू य कण्हकडबू काला असुरकुमारा 187 160 काले य महाकाले 149 किण्णर किंपुरिसे खलु 192 किमिरासि भद्दमुत्था 57 कत्थ भरि पिपलिया 42 केवलणाणुवउत्ता गूढछिरागं पत्तं मोमेज्जए य रुपए चउरासोइ असीई 206 185 चउसट्ठी सट्ठी खलु 142 187 160 चक्कागं भज्जमाणस्स 8454 चत्तारि य रयणीमो 164 211 190 चमरे धरणे तह वेणुदेव 143 187 चंदण गेरुय हंसे 11 24 चंपगजीती णवणीइया चोत्तीसा चोयाला 140 187 चोवर्द्वि असुराणं 138 187 छट्टि च इत्थियाओ 184 जत्थ य एगो सिद्धो 167 211 191 जस्स कंदस्स कट्ठामो छल्ली तणयतरी 81 54 61 211 r 118 133 143 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट : गाथानुक्रमसूची ] [527 58 54 54 रामा 54 54 . 87 54 о 130 л 121 о л о л 01 M0 WWWW о 0 л 179 211 л а x जस्स कंदस्स कट्ठामो छल्ली जीसे तयाए भन्माए समो. 59 बहलतरी 77 54 जीसे तयाए भग्गाए हीरो 69 जस्स कंदस्स भग्गस्स समो जीसे सालाए कट्ठामो छल्ली जस्स कंदस्स भग्गस्स हीरो 67 तणुयतरी 83 जस्स खंधस्स कट्ठामो छल्ली / जीसे सालाए कट्ठामो छल्ली तणुयतरी 82 बहलतरी 79 जस्स खंधस्स कट्ठामोछल्ली जे केइ नालियाबद्धा . बहलतरी 78 . 54 जो अस्थिकायधम्म जम्स खंधस्स भग्गस्स समो 58 54 जो जिणदिदु भावे जस्स खंधस्स भग्गस्स हीरो 68 54 जोणिब्भूए बीए जस्स पत्तस्स भग्गस्स समो 62 54 जो सुत्तमहिज्जतो 124 जस्स पत्तस्स भग्गस्स हीरो 72 54 जो हे उमयाणतो 123 जस्स पवालस्स भग्गस्स समो 61 54 गोह णंदिरुक्खे जस्स पबालस्स भग्गस्स हीरो 71 54 णाणाविहसंठाणा 44 जस्स पुप्फस्स भग्गस्स समो६३ णित्थिन्नमव्वदुक्खा जस्स पुप्फस्स भग्गस्स होरो 73 54 णिबंब जंबु कोसंब जस्स फलस्स भग्गस्स समो णीलाणरागवसणा 148 जस्स फलस्स भग्ग-स हीरो तणमूल कंदमूले जस्स बीय स भग्गस्स समो तत्थ वि य ते अवेदा 158 जास बीयस्स भग्गस्स हीरो 75 तयछल्लिपवालेसु य 109 जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली ताल तमाले तक्कलि तणुयतरी 80 तिण्णि सया तेत्तीसा 163 जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली तिलए लउए छत्तोह बहलतरी 76 तीसा चत्तालीसा 141 जस्स मूलस्स भग्गम्स समो 56 तीसा य पण्णवीसा 136 जस्स मूलस्स भग्गस्स हीरो 66 54 59 / / तुलसी कण्ह उराले 41 जस्स सालस्स भग्गस्स समो 60 54 * 58 दगपिप्पली य दव्वी 40 जस्स सालस्स भग्मस्स हीरो 70 54 59 / दव्वाण सव्वभावा 127 जह अयगोलो धंतो दसण-णाण-चरिते 128 जह णाम कोइ मेच्छो 174 211 191 दिसिगति इंदियकाए 180 जह वा तिलपप्पडिया दीव-दिसा-उदहीण 139 जह सगलसरिसवाणं दोहं वा हस्सं वा जह सब्वकामगुणितं 176 211 191 न बि अस्थि माणुसाणं जं संठाणं तु इहं 162 211 190 निस्मग्गुवएसरुई जाई मोग्गर लह जहिया 25 43 51 निस्संकिय निक्कखिय जाउलग माल परिली 2342 50 पउमलता नागलता л 2 а 3 54 190 ar 143 187 174 49 49 110 110 212 54 54 93 M __ 201 187 211 211 171 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 528 [ प्रज्ञापनासूत्र . axm 64 89 106 42 re 131 95 ___ 54 92 . 0 22 अ 152 14 पउमुप्पल नलिणाणं पउमुपल संघाडे पउमुष्पलिणीकंदे पण्णवणा ठाणाई पत्तउर सीयउरए पत्तेया पज्जत्ता परमत्थसंथवो वा पलंडू-ल्हसणकंदे य पाढा मियवालुकी पुढवी य सक्करा वालुया पुत्तंजीवयऽरिठे पुष्फा जलया थलया पुस्तफलं कालिग पूई करंज सेण्हा (सण्हा) पूसफली कालिंगी फुसइ प्रणेते सिद्ध बत्तीस अट्ठवीसा बलि भूयाणंदे वेणुदालि बारवती य सुरट्ठा वारस चउवीसाई भासग परित्त पज्जत्त भासा सरीर परिणाम भुय रुक्ख हिंगुरुक्खे भूप्रत्थेणाधिगया महुरा य सूरसेणा मासपण्णी मुग्गपण्णी मुद्दिय अप्पा भल्ली रायगिह मगह चंपा रुक्खा गुच्छा गुम्मा रुरु कंडरिया जारू McMUMWWW.WWW 60% 40 लोगागासपएसे णिग्रोयजीवं 104 108 55 65 लोगागासपएसे परित्तजीवं 105 54 वइराड वच्छ वरणा 115 102 वगयजर-मरणभए वंसे वेलु कणए वाइंगण सल्लइ बोंडइ विटं गिरं कडा वेणु गल इक्खुवाडिय वेंट बाहिर पत्ता सण वाण कास मग 48 सणिहिया सामाणा सत्तट्ठ जातिकुलकोडिलक्ख 111 सप्फाए सज्जाए 49 समयं बक्कताणं सव्वो वि किसलयो खलु 211 191 ससबिंदु गोत्तफुसिया ___45 184 साएय कोसला गयपुरं 102 144 187 160 साली वीही गोधम 4250 114 10289 साहारणमाहारो 101 54 सिद्ध ति य बुद्ध त्तिय 178 211 181 212 201 / सिद्धस्स सुहो रासो 173 211 सिंघाडगस्स गुच्छो 48 सुयरयणनिहाणं जिनवरेण 2 सुरगणसुहं समत्तं 172 211 सेडिय भत्तिय होत्तिय 35 47 सेयवियावियणवरी 117 102 सेरियए थोमालिय 24 43 सो होइ अहिगमरुई 126 110 हरियाले हिंगुलए 48 हासे हासरई विय 154 206 182 191 38 Go NK 0 1 xx 153 194 ___ 169 Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वणित किया गया है, जैसे कि दस विधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा-उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, निग्धाते, जुबते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे पोरालिते असज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायबुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो प्रोरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीरण वा च उहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहाप्रासाढपाडिवए, इंदमहपाडिवए, कत्तप्रपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए, तं जहा–पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढ रत्त / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा पुन्वण्हे, अवरण्हे, परोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस प्राकाश से सम्बन्धित, दस प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा. चार महाप्रतिपदा की पणिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं। जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेअाकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन—यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण को हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 3. गजित-बादलों के गरजने पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 530] [अनध्यायकाल गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अतः पार्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता / 5. निर्घात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत धोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो पहर तक अस्वाध्याय काल है। 6 यूपक- शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के . मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 8. धूमिका-कृष्ण---कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण को सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 6. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरतो रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज-उद्घात-वायु के कारण अाकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13 हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं / इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमश: सात एवं पाठ दिन पर्यन्त का माना जाता है / 14. प्रशुचि---मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15 श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण-चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल 1 [ 531 18. पतन--किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह--समीपस्थ राजारों में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कातिकपूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है।। 29-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मद्रास ब्यावर गोहाटी जोधपुर मद्रास उपाध्यक्ष ब्यावर मेड़ता सिटी ब्यावर पाली ब्यावर ब्यावर मद्रास श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (कार्यकारिणी समिति) 1. श्रीमान सेठ मोहनमलजी चोरड़िया अध्यक्ष 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष 3. श्रीमान् कँवरलालजी बैताला उपाध्यक्ष 4. श्रीमान् दौलतराजजी पारख उपाध्यक्ष 5. श्रीमान् रतनचन्दजी चोरड़िया उपाध्यक्ष 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया 7 श्रीमान् जतनराजजी मेहता महामन्त्री 8. श्रीमान् चाँदमलजी विनाय किया मन्त्री 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा मन्त्री 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा सहमन्त्री 11. श्रीमान् जौहरीलालजी शीशोदिया कोषाध्यक्ष 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया कोषाध्यक्ष 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा सदस्य 14. श्रीमान जी. सायरमलजी चोरडिया सदस्य 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरड़िया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा सदस्य 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता सदस्य 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा सदस्य 19. श्रीमान् माणकचन्दजी बैताला सदस्य 20. श्रीमान भंवरलालजी गोठी सदस्य 21. श्रीमान् भंवरलालजी श्रीश्रीमाल सदस्य 22. श्रीमान् सुगनचन्द जी चोरडिया सदस्य 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरडिया सदस्य 24. श्रीमान् खींवराजजी चोरडिया सदस्य 25. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन सदस्य 26. श्रीमान् भवरलालजी मूथा सदस्य 27. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल (परामर्शदाता) नागौर मद्रास सदस्य बंगलौर ब्यावर इन्दौर सिकन्दराबाद बागलकोट मद्रास दुर्ग मद्रास मद्रास मद्रास भरतपुर जयपुर ब्यावर Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजो मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया. बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बेताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्रीमली सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ___ चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री पार. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर डिया, मद्रास 12 श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्माचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया. स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तुरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16. श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा५. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 6. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 534] [सदस्य-नामावली mmmmmm 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी० अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजो जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री जंवरी३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, लालजी गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपूर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, अागरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री आसूमल एण्ड कं०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा * Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [535 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई 41. श्री ओकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री धीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.)। 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर। 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री प्रासकरणजी जसराज जी पारस्त्र, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया भैरूदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी. मेडता कोठारी. गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एन्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61 श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, राज- 14. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी नांदगाँव 65. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 16. श्री अखेचंदजी लणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 536 ] [ सदस्य-नामावली 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, भरतपुर 116. श्रीमती रामकुवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर), मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरड़िया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरडिया मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी पासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं. बैंगलोर 115 श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मनि प्रजापनासत्र (मूल-अजवाद-विवेचन-टिप्पण-पारीघाट युक्त) Jein E cation International For Private & Personal use only wanmidinelibrary.org Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत 0 प्रख्यात विद्वान् प्रो. डॉ. जगदीशचन्द्रजी जैन, बम्बई ......"कितना श्रम किया है सम्पादकों, लेखकों, विवेचन-कर्ताओं एवं प्रस्तावना के लेखकों ने, यह जान कर प्रसन्नता होती है / इस महती योजना का श्रेय है योजना के संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी को, जो दुर्भाग्य से आज हमारे बीच नहीं रहे हैं। उनके प्रति शतशत श्रद्धाञ्जलियाँ ! समस्त आगमों की छपाई, साजसज्जा आदि खूब ही आकर्षक है और आजकल की मंहगाई को देखते हुए उनका मूल्य नहीं के बराबर है। जैन आगम-साहित्य को प्रकाश में लाने का आप महान् कार्य कर मैं पुनः आगमप्रकाशन समिति के उत्साही कार्यकर्ताओं एवं हजारीमल स्मृतिप्रकाशन के महानुभावों, विशेषतः इस महती योजना के कार्यवाहक कर्मठ दिवंगत युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिजी को हार्दिक साधुवाद देता हूँ जो उन्होंने इस गुरुतर कार्य का भार वहन करने का उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लेकर ज्ञानके प्रचार और प्रसार की योजना को कार्यान्वित कर जनसमूह को लाभान्वित किया। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क 20 [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में आयोजित ] श्रीश्यामार्यवाचक-संकलित चतुर्थ उपाङ्ग प्रज्ञापना सूत्र [द्वितीय खण्ड, पद 10-22] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, टिप्पणयुक्त ] प्रेरणा 0 उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज प्राद्यसंयोजक तथा प्रधान सम्पादक 0 (स्व०) युवाचार्य श्रीमिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक श्रीज्ञानमुनिजी महाराज बि. जैनधर्म दिवाकर प्राचार्य श्रीमान्मारामजी म. के शिष्य | मुख्य सम्पादक पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल सहायक-सम्पादक / श्रीचन्द सुराणा 'सरस' प्रकाशक 0 श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला: ग्रन्थाङ्क 20 0निर्देशन: महासती उमराववरजी 'अर्चना' D सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल 0 सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' / प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' " अर्थसहयोगी श्रीमान सेठ हुक्मीचन्दजी सा. चोरडिया 0 प्रकाशनतिथि वीरनिर्वाण संवत् 2511 - वि.सं. 2041 ई. सन् 1984 प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर--३०५९०१ 0मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, प्रजमेर-३०५००१ 0 मूल्य : 45) रुपये Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published on the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fourth-Upanga PANNAVANA SUTTAM Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations etc. ] Inspiring-Soul Up-pravartaka Shasansevi Rev. Late Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Translator & Annotater Shri Jnan Muni Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharilla Sub-Editor Shrichand Surana 'Saras' Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar ( Raj. ) Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 20 Direction Mahasati Umravakunwar Archana Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla O Managing Editor Srichand Surana 'Saras' O Promotor Munisri Vinayakumar Bhima' Sri Mahendramuni Dinakar Financial Assistance Shri Seth Mangilalji Surana Date of Pablication * Vir nirvana Samvat 2511 Vikram Samvat 2041, June 1984 Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) India) Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer Price : Rs. 45/ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण वर्तमान में जिन्होंने अर्धमागधी भाषा की अनुपम सेवा की, अर्द्धमागधोव्याकरण और कोश की तथा संस्कृत, गुजरातो एवं हिन्दी भाषाओं में अनेक मौलिक ग्रन्थों को रचना करके जैन साहित्य के भण्डार को श्रीवृद्धि को, ___o सरलता और सौम्यभाव के साकार अवतार थे, अपने महान और विशिष्ट व्यक्तित्व एवं दुष्य से जिन्होंने जन-जेनेतर विद्वानों को प्रभावित किया, उन भारतमधरण शतावधानी स्व. मुनिश्री रत्नचन्द्रजी स्वामी की पुण्य-रमति में सादर समर्पित Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय पण्णवणा-प्रज्ञापनासूत्र जैन तत्त्वज्ञान का एक विशिष्ट पाकरग्रन्थ है। यह जैसे विशालकाय है, उसी प्रकार गंभीर भी है / तत्त्व का तलस्पर्शी बोध प्राप्त करने के लिए इस पागम का अध्ययन, चिन्तन एवं मनन आवश्यक हो नहीं, अनिवार्य भी कहा जा सकता है। प्रज्ञापनासूत्र 36 पदों में विरचित है। प्रस्तुत संस्करण में मूलपाठ के साथ हिन्दी में अर्थ और स्पष्टीकरण के उद्देश्य से उसका विवेचन भी दिया गया है। इस कारण ग्रन्थ का परिमाण और अधिक बढ़ गया है। मगर इसके विना प्रत्येक पाठक को भूल का आशय हृदयंगम करना संभव न होता। ऐसी स्थिति में इस आगम को तीन खण्डों में प्रकाशित किया जा रहा है। प्रथम खण्ड पहले प्रकाशित हो चुका है / यह दूमग खण्ड पाठकों के हाथों में है। विवेचन आदि की जो पद्धति प्रथम खण्ड में अपनाई गई थी, वही इसमें अपनाई गई है। अन्तिम अर्थात तीसरे खण्ड में भी यही पद्धति रहेगी। विस्तृत प्रस्तावना तथा आवश्यक परिशिष्ट ग्रादि तीसरे खघट में ही दिए जाएंगे। इसके अनुवादक-मम्पादक जैनजगत के विख्यात विद्वान् एवं वक्ता पं. र. श्रीज्ञानमुनिजी महाराज हैं। मुनिश्री के बहुमूल्य सहयोग के लिए समिति अति प्राभारी है। उत्तराध्ययनसूत्र मुद्रित होकर लगभग तैयार हो गया है / व्याख्याप्रज्ञप्ति के मुद्रण का कार्य भी चालू है। प्राशा है ये सब आगम शीघ्र पाठकों की सेवा में प्रेषित किए जा सकेंगे। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन में विशेष आर्थिक सहयोग माननीय श्री हुक्मीचन्दजी मा. चोरड़िया से प्राप्त हना है। हम उनके प्रति अत्यन्त प्रभारी हैं। अत्यन्त परिताप का विषय है कि प्रागमप्रकाशन की इस माहसघूर्ण विराट योजना के सूत्रधार परमश्रद्धय युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. सा. 'मधुकर' अब हमारे बीच नहीं हैं, तथापि उनके परोक्ष शुभाशीर्वाद से तथा विदुषी महासती श्री उमरावकुवरजी म. 'अर्चना' के मूल्यवान् सहयोग तथा पं. श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल प्रभति के श्रम से प्रकाशन-कार्य यथावत् चालू है और रहेगा। अन्त में सभी अर्थमहायक महानुभावों तथा कार्यकर्ताओं के आभारी हैं, जिनके समन्वित सहयोग से प्रकाशन-कार्य सुचारु रूप से अग्रसर हो रहा है। रतनचंद मोदी / जतनराज महता / / चांदमल विनायकिया कार्यवाहक अध्यक्ष प्रधानमंत्री मंत्री आगम-प्रकाशन-समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ के विशिष्ट अर्थसहायक श्री हुक्मीचन्दजी सा. चोरडिया [जीवन-रेखा] प्रागमप्रकाशनममिति का एकमात्र उद्देश्य वीतरागवाणी के निर्देशक जैन अागमों को मवमाधारण के लि कम से कम मूल्य में पठनपाठन के लिए सुलभ करना है। अतएव समिति की न कोई प्रादेशिक सीमाएं हैं और न साम्प्रदायिक / वह मभी अंचलों, प्रान्तों एवं देशों के लिए तथा समस्त गणों, गच्छों एवं सम्प्रदायों के लिए समान है। यही कारण है कि भारत के विभिन्न अंचलों में निवास करने वाले प्रागमप्रेमी सज्जनों का सहयोग समिति को प्राप्त हो रहा है। तथापि यह उल्लेख न करना अनुचित होगा कि नोखा (चांदावतों) के वृहत् चोरडिया-परिवार का योगदान अतिशय महत्त्वपूर्ण और मराहनीय है। इस परिवार के विभिन्न सदस्यों ने प्रागमप्रकाशन के इस भगीरथ-अनुष्ठान में जो आर्थिक सहयोग प्रदान किया है, वह असाधारण है। इससे पूर्व अनेक ग्रागमों का प्रकाशन इसी परिवार के श्रीमनों की आर्थिक सहायता से हुअा है और प्रस्तुत प्रागम भी इसी परिवार के एक प्रतिष्ठित मदस्य एवं श्रीमन्त सेठ हक्मीचन्दजी चोरडिया के विशेष अर्थमहयोग से हो रहा है। श्री हुक्मीचन्दजी चोरडिया म्व. सेठ जोरावरमलजी सा. के चार सुपुत्रों में मब मे छोटे हैं। आप सन् 1958 मे 1958 तक अपने बड़े भ्राता श्रीमान् दुलीचन्दजी सा., जिनका परिचय हम औपपातिकसूत्र में दे चुके हैं, के माथ भागीदार के रूप में व्यवसाय करते रहे / तत्पश्चात् अापने स्वतंत्र रूप से फाइनेन्म का व्यत्रमाय प्रारम्भ किया, जो अाज अापकी मूझबूझ और लगन के कारण पूरी तरह फल-फूल रहा है। श्री हक्मीचन्दजी सा. युवा हैं और युवकोचित उत्साह से सम्पन्न हैं, पर अापके उत्माह का प्रवाह एकमुखी नहीं है / वह जैसे व्यवसायोन्मुख है, उसी प्रकार मेवोन्मुख भी है। अपने व्यवसायकेन्द्र मद्रास में चलने वाली शैक्षणिक, माहित्यिक एवं मामाजिक अनेक संस्थानों के माथ आप विभिन्न रूप से जड़े हुए हैं और उनके माध्यम मे समाजसेवा का पुनीत दायित्व निभा रहे हैं / निम्नलिखित संस्थानों को आपका सहयोग मिला और मिल रहा है (1) जैनभवन (2) मानव-राहतकोष (3) श्री एम. एम. जैन एज्यूकेशन मोमाइटी (4) मुनि श्री हजारीमल म्मतिप्रकाशन (5) जैन मेवाममिति, नोखा (6) श्वे. स्था. जैन महिलासंघ (7) अहिंसाप्रचारसंघ (5) राजस्थानी युथ एसोसिएशन आप जैन मेडिकल रिलीफ सोमायटी, श्री गणेशीबाई गल्सं हाईस्कूल, श्री देवराज माणक चन्द हॉस्पीटल ग्रादि अनेक संस्थाओं के सदस्य हैं। इनके अतिरिक्त प्रापने जाहत की प्रशस्त भावना से ‘जोगवरमल हुक्मीचन्दजी चोरड़िया ट्रस्ट' स्थापित किया है। 'हवमोचन्द चोरडिया रोलिंग ट्राफी' अापके द्वारा प्रदान की जाती है। इस प्रकार आपका जीवन मेवामय है / हम अापके दीर्थ और मंगलमय जीवन की कामना करते है। Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका दसवाँ चरमपद प्राथमिक पाठ पृश्वियों और लोकालोक की चरमाचरमवक्तव्यता परमाणपुद्गलादि की चरमाचरमादि-वक्तव्यता संस्थान की अपेक्षा में चरमादि की प्ररूपणा गति आदि की अपेक्षा में जीवों की चरमाचरम-वक्तव्यता ग्यारहवाँ भाषापद प्राथमिक अवधारिणी एवं चविध भापा विविध पहलूग्रा से प्रजापनी भाषा की प्ररूपणा अबोध बालक-बालिका तथा उट ग्रादि की अनुपयुक्त-अपरिपक्व दशा की भाषा एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि से युक्त भापा की प्रज्ञापनीयता का निर्णय विविध दृष्टियों में भाषा का मर्वागीण स्वरूप पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों का निरूपण ममस्त जीवों के विषय में भापक-प्रभाषक-प्ररूपणा जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भापाद्रव्यों के विभिन्न रूप भेद-अभद रूप में भापाद्रव्यों के नि:मरण तथा ग्रहण-नि:सरण संबंधी प्ररूपणा मोलह वचनों तथा चार भाषाजातों के आराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व को प्ररूपणा बारहवाँ शरीरपद प्राथमिक पाच प्रकार के शरीगे का निरूपण चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में शरीरप्ररूपणा पांचों शरीरो के बद्ध-मक शरीरों का परिमाण नयिकों के बद्ध-मुक्त पंच शरीगे की प्ररूपणा भवनवामियों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त, शरीरों की प्ररूपणा 108 द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रियतिर्यचों तक वद्ध-मुक्त गरीरों का परिमाण मनुष्यों के ग्रौदारिकादि शरीरों का परिमाण वाणव्यन्तर, ज्योतिप्क एवं वैमानिक देवों के वद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा 118 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 123 132 Imm तेरहवाँ परिणामपद प्राथमिक परिणाम और उसके दो प्रकार दणविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेद नैरयिकों में दविध परिणामों की प्ररूपणा असुरकूमागदि भवनवामियों की परणाममबधी प्ररूपणा एकेन्द्रिय से तिर्यचपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणाम की प्ररूपणा मनुष्यों की परिणाम मम्बन्धी प्ररूपणा बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा अजीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा चौदहवाँ कषायपद प्राथमिक कषाय और उसके चार प्रकार चौबीम दण्डकों में कपाय की प्ररूपणा कपायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण कपायों के भेद-प्रभेद कपायों मे अप्ट कर्मप्रकृतियों के चयादि की प्ररूपणा पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद प्रथम उद्देशक प्राथमिक प्रथम उद्देशक के चौवीस द्वार इन्द्रियों की संख्या प्रथम संस्थानद्वार द्वितीय-तृतीय वाहल्य-पृथत्वद्वार चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं अवगाहार अवगाहनादि की दृष्टि से अल्पवहत्वद्वार चौवीस दंडकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा सप्नम-ग्रष्टम स्पष्ट एवं प्रविष्ट द्वार नौवां विषय (--परिमाण) द्वार दसवाँ अनगारद्वार ग्यारहवाँ याहारद्वार बारहवें यादर्श द्वार मे अठारहवे धमादार तक की प्ररूपणा उन्नीसवाँ-बीसवाँ कम्बलद्वार-स्थणादार इबक्रीम-बाईस-तईम-चौवीसवाँ थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-ग्रलोकद्वार 145 Go .ता . 159 161 .00 . 162 164 567 0ii 6 169 [10] Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 173 173 द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के बारह द्वार प्रथम इन्द्रियोपचयद्वार द्वितीय-तृतीय निर्वतं नाहार चतुथ-पंचम-पाटलब्धिद्वार, उपयोगट्टार उपयोगाद्वाद्वार मातवा, पाटवा. नीवाँ, दमवाँ इन्द्रिय-अवग्रहण-अवाय-ईहा-अवग्रह द्वार भ्यारहवां द्रव्ये न्द्रियद्वार बारहवाँ भावेन्द्रिबहार 174 175 177 सोलहवाँ प्रयोगपद प्राथमिक प्रयोग और उसके प्रकार ममुच्चयजीवों और चौवीम दंडका में प्रयोग की प्ररूपणा समुच्चय जीवां में विभाग में प्रयोगप्ररूपणा नारकों और भवनपतियों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा एकेन्द्रियों, विकलन्द्रियों और ति. पंचेन्द्रियों की प्रयोगप्ररूपणा मनुष्यों में विभाग में प्रयोगप्ररूपणा वाणव्यन्तरादि देवों की विभाग में प्रयोगप्ररूपणा गतिप्रगत के भेद-प्रभेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण . . . सत्तरहवाँ लेश्यापद प्रथम उद्देशक प्राथमिक प्रथम उद्देशक में वणित मप्त द्वार नारकों में समाहागदि मात दारों की प्ररूपणा अमरकुमारादि में , पथ्वीकायिकों में लि. पं. ., मनुप्य में वाणव्यन्तर, ज्योतिक व वैमानिकों की आहारादि-प्ररूपणा मलेण्य चौवीम दंडकावर्ती जीवों की कृष्णादिलण्याविशिष्ट चौवीम दंडकों में .. SIA Nxxx NA 5 . X 256 द्वितीय उद्देशक लेण्या के भेदों का निरूपण चौवीम दण्डकों में लेण्यासंबंधी प्ररूपणा मन्नध्य अलेण्य जीवों का अल्पबहुत्व [ 11 ] Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविध लेश्या विशिष्ट चौवीस दण्डकवर्ती जीवों का अल्पवहत्व मलेण्य सामान्य जीवों और चौबीम दण्डकों में ऋद्धिक ,, 271 282 तृतीय उद्देशक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद वतन-प्ररूपणा देण्यायुक्त .. . " कृष्णादि लेश्या बाले नै रयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य कृष्णादि लेण्यायुक्त जीवों में ज्ञान की प्ररूपणा // U0.00 - 00 295 . 295 . . 299 303 . 0 . 0 . चतुर्थ उद्देशक चतुर्थ उद्देशक के अधिकारों की गाथा लेण्या के छह प्रकार प्रथम परिणामाधिकार द्वितीय वर्णाधिकार ततीय रसाधिकार चतुर्थ गन्धाधिकार से नवम गति-अधिकार तक का निरूपण दशम परिणामाधिकार ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार की प्ररूपणा पन्द्रहवां अल्पबहुत्वद्वार पंचम लेश्यापद लेण्याओं के छह प्रकार छठा उद्देशक लेण्या के छह प्रकार मनुष्यों में लेश्यानों की प्ररूपणा लेश्या को लेकर गर्भोत्पत्ति सम्बन्धी प्ररूपणा 0 . 8 . . अठारहवाँ कायस्थितिपद / . . " प्राथमिक कायस्थितिपद के. वाईम द्वार प्रथम-द्वितीय जीवद्वार-गतिद्वार ननीय इन्द्रियहार चतुर्थ कायद्वार पंचम योगद्वार छठा वेदद्वार मानवाँ कपायद्वार ग्राठवाँ लश्याद्वार KKA 06 . . [12] Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmm mmm 357 358 नौवाँ सम्यक्त्वद्वार दमवाँ ज्ञानद्वार ग्यारहवाँ दर्शनद्वार वारहवाँ संयतद्वार तेरहवाँ उपयोगद्वार चौदहवाँ अाहारदार पन्द्रहवाँ भापकद्वार सोलहवाँ पतिद्वार सत्तरहवाँ पर्याप्नद्वार अठारहवाँ मूक्ष्मद्वार उन्त्रीमवाँ संजीद्वार वोमवाँ भवमितिद्वार इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार बाईसवाँ चरमद्वार HG TAm' उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद Imm m प्राथमिक समुच्चय जीवों के विषय में दप्टि की प्ररूपणा चौवीस दंडकवत्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्वप्ररूपणा m वीसवाँ अन्तक्रियापद प्राथमिक अर्थाधिकार प्रथम-अन्तक्रियाद्वार द्वितीय-अनन्तरद्वार ततीय-एकममयदार चतुर्थ-उद्वत्तद्वार असुरकुमारादि की उत्पत्ति की प्ररूपणा पंचम तीर्थकरद्वार छठा चक्रिवार सातवा बलदेवत्वद्वार अष्टम वासुदेवत्वद्वार नवम माण्डलिकत्वहार दशम रत्नद्वार भव्य द्रव्यदेव-उपपात प्ररूपणा असजि-पायुप्यप्ररूपणा mmmmmmm7704 405 409 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oory Prir 443 इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थानपद प्राथमिक अर्थाधिकारप्ररूपणा विधि-संस्थान-प्रमाणद्वार यौदारिक शरीर में विधिद्वार औदारिक शरीर म सस्थानद्वार प्रौदारिक शरीरों की संस्थानसंबंधी तालिका औदारिक शरीर में प्रमाणद्वार वैक्रियशरीर में विधिद्वार बैंक्रियशरीर में संस्थानद्वार क्रियशरीर में प्रमाणद्वार पाहारकारीर-भेद-स्वामी पाहारकशरीर में संस्थानद्वार पाहारक शरीर में प्रमाणद्वार तेजसशरीर में विधिद्वार तैजसशरीर में संस्थानद्वार जमशरीर में प्रमाणदार कार्मणशरीर में विविध संस्थान-प्रमाणद्वार पुद्गलचयनद्वार शरीरसंयोगद्वार द्रव्य-प्रदेश-अल्पबहुत्वद्वार शरीरावगाहना-अन्य बहुत्वट्टार 0 0 0 471 474 476 बाईसवाँ क्रियापद प्राथमिक क्रिया-भेद-प्रभेदप्ररूपणा जीवों के सक्रियन्व-प्रक्रियत्व की प्ररूपणा जीवों की प्राणातिपातादिक्रिया तथा विषय की प्ररूपणा क्रियाहेतुक कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा जीवादि के कर्मबन्ध को लेकर क्रियाप्ररूपणा जीवादि में एकरव और पथक्त्व से क्रियाप्ररूपणा चौवीस दण्डकों में क्रियाप्ररूपमा जीवादि में क्रियाओं के सदभाव की प्ररूपणा जीवादि में प्रायोजिता क्रिया की प्ररूपणा जीव में क्रियाओं के स्पष्ट-अस्पृष्ट होने की चर्चा 189 491 493 499 499 "0, 504 [ 14 ] - Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510 प्रकारान्तर से क्रियानों के भेद और उनके स्वामित्व की प्ररूपणा चौवीम दण्डकों में क्रियाओं की प्ररूपणा जीव ग्रादि में पापस्थानों में विरति की प्ररूपणा पापस्थानविग्त जीवों के कमप्रकृतिवन्ध की प्ररूपणा पापस्थानविरत जीवादि में क्रियाभेद निरूपण प्रारम्भिको प्रादि क्रियाओं का अल्पवहुत्व 511 515 00 [ 15 ] Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति अध्यक्ष मद्रास कार्यवाहक अध्यक्ष ब्यावर उपाध्यक्ष गोहाटी जोधपुर उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष मद्रास उपाध्यक्ष ब्यावर मेडतासिटी महामन्त्री मन्त्री ब्यावर मन्त्री पाली ब्यावर महमन्त्री कोषाध्यक्ष ब्यावर कोषाध्यक्ष मद्रास सदस्य नागौर 1. श्रीमान् सेठ मोहनमलजी चोरडिया 2. श्रीमान सेठ रतनचन्दजी मोदी 3. श्रीमान् कॅवरलालजी वैताला 4. धीमान दौलतराजजी पारख 5. श्रीमान रतनचन्दजी चोरड़िया 6. श्रीमान् खूबचन्दजी गादिया 7. श्रीमान् जतनराजजी मेहता 8. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया 9. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा 10. श्रीमान् चाँदमलजी चौपड़ा 19. श्रीमान् जोहरीलालजी शीशोदिया 12. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया 13. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा 14. श्रीमान् जो. सायरमलजी चोरड़िया 15. श्रीमान् जेठमलजी चोरडिया 16. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा 17. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा 19. श्रीमान् माणकचन्दजी वैताला 20. श्रीमान् भवरलालजी गोठी 21. श्रीमान् भंवरलालजी श्रीश्रीमाल 22. श्रीमान् सुगनचन्दजी चोरडिया 23. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरडिया 24. श्रीमान खींवराजजी चोरडिया 25. श्रीमान् प्रकाशचन्दजी जैन 26. श्रीमान् भवरलालजी मूथा 27. श्रीमान् जालमसिंहजी मेड़तवाल मद्रास बैंगलौर सदस्य मदस्य व्यावर मदस्य मदस्य इन्दौर मिकन्दराबाद बागलकोट सदस्य सदस्य मद्रास मदस्य सदस्य मद्रास मदस्य मदास मदस्य मद्रास सदस्य भरतपुर मदस्य जयपुर (परामर्शदाता) ब्यावर Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसामज्जवायग-विरइयं चउत्थं उबंगं पण्णवणासुत्तं [ बिइयं खंडं ] श्रीमत-शामार्य वाचक-विरचित चतुर्थ उपांग प्रज्ञापनासूत्र [ द्वितीय खण्ड ] Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं चरिमपयं दसवाँ चरमपद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का दसवाँ 'चरमपद' है। जगत् में जीव हैं, अजीव हैं एवं अजीवों में भी रत्नप्रभादि पृथ्वियां, देवलोक, लोक, अलोक एवं परमाणु-पुद्गल, स्कन्ध, संस्थान आदि हैं; इनमें कोई चरम (अन्तिम) होता है, कोई अचरम (मध्य में) होता है। इसलिए किसको एकवचनान्त चरम या अचरम कहना, किसे बहुवचनान्त चरम या अचरम कहना, अथवा किसे चरमान्तप्रदेश या अचरमान्तप्रदेश कहना ? यह विचार प्रस्तुत पद में किया गया है। वत्तिकार ने चरम और अचरम आदि शब्दों का रहस्य खोलकर समझाया है कि ये शब्द सापेक्ष है, दूसरे की अपेक्षा रखते हैं / इस दृष्टि से सर्वप्रथम रत्नप्रभादि आठ पृथ्वियों और सौधर्मादि, लोक, अलोक आदि के चरमअचरम के 6 विकल्प उठाकर चर्चा की गई है। इसके उत्तर में छः ही विकल्पों का इसलिए निषेध किया गया है, जब रत्नप्रभादि को अखण्ड एक मानकर विचार किया जाये तो उक्त विकल्पों में से एक रूप भी वह नहीं हैं, किन्तु उसकी विवक्षा असंख्यात प्रदेशावगाढ़रूप हो और उसे अनेक अवयवों में विभक्त माना जाए तो वह नियम से अचरम-अनेकचरमरूप चरमान्त प्रदेश और अचरमान्तप्रदेश रूप है।' इस उत्तर का भी रहस्य वृत्तिकार ने खोला है।' * इसके पश्चात् चरम आदि पूर्वोक्त 6 पदों के अल्पबहुत्व का विचार किया है। वह भी रत्न प्रभादि पाठ पृथ्वियों, लोक-अलोक आदि के चरमादि का द्रव्याथिक, प्रदेशार्थिक एवं द्रव्यप्रदेशार्थिक तीनों नयों से विचारणा की गई है। इसके पश्चात् चरम, अचरम और प्रवक्तव्य इन तीनों पदों के एकवचनान्त, बहुवचनान्त 6 पदों पर से असंयोगी, द्विकसंयोगो, त्रिकसंयोगी 26 भंग (विकल्प) बना कर एक परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी तक स्कन्ध आदि की अपेक्षा से गहन चर्चा की गई है कि इन 26 भंगों में से किसमें कितने भंग पाए जाते हैं, और क्यों? * इसके बाद परिमण्डल आदि 5 संस्थानों, उनके प्रभेदों, उनके प्रदेशों तथा उनकी अवगाहना और उनके चरमादि की चर्चा की गई है। 1. (क) पावणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ) पृ. 193 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 2 प्रस्तावना पृ. 84 (ग) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 229 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र * तदनन्तर गति, स्थिति, भव, भाषा, श्वासोच्छ्वास, आहार, भाव, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, इन 11 बातों की अपेक्षा से चौवीस दण्डकों के जीवों के चरम-अचरम आदि का विचार किया गया है / अर्थात्-गति आदि की अपेक्षा से कौन जीव चरम है, अचरम है ? इत्यादि विषयों पर गंभीर विचार किया गया है।' 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2 प्रस्तावना पृ. 82-84 (ख) प्रज्ञापना मलय. वृत्ति पत्रांक 229 से 246 तक / Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसमं चरिमपयं दसवाँ चरमपद पाठ पृश्वियों और लोकालोक को चरमाचरमवक्तव्यता 774, कति णं भंते ! पुढवीप्रो पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ट पुढवीनी पण्णतायो। तं जहा-रयणप्यभा 1 सक्करप्पभा 2 वालुयप्पभा 3 पंकप्पभा 4 धूमप्पभा 5 तमप्पभा 6 तमतमप्पभा 7 ईसीपब्भारा 8 / [774 प्र.] भगवन् ! पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? [774 उ.] गौतम ! आठ पृथ्वियां कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) रत्नप्रभा, (2) शर्करप्रभा, (3) बालुकाप्रभा, (4) पंकप्रभा, (5) धूमप्रभा, (6) तमःप्रभा, (7) तमस्तमःप्रभा और (8) ईषत्प्राग्भारा। 775. इमा णं भंते ! रयणप्यमा पुढवी किं चरिमा अचरिमा चरिमाइं परिचमाई चरिमंतपदेसा अचरिमंतपदेसा? गोयमा ! इमा णं रतणप्पभा पुढवी नो चरिमा नो प्रचरिमा नो चरिमाइं नो अचरिमाइं नो चरिमंतपदेसा नो अचरिमंतपदेसा, णियमा प्रचरिमं च चरिमाणि य चरिमंतपदेसा च प्रचरिमंतपएसा य / [775 प्र.] भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम है, अचरम है, अनेक चरमरूप (बहुवचनान्त चरम) है, अनेक अचरमरूप (बहुवचनान्त अचरम) है, चरमान्त बहुप्रदेशरूप है अथवा अचरमान्त बहुप्रदेश रूप है ? [775 उ.] गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी न तो चरम है, न ही अचरम है, न अनेक चरमरूप और न अनेक अचरमरूप है तथा न चरमान्त अनेकप्रदेशरूप है, और न अचरमान्त अनेकप्रदेशरूप है, किन्तु नियमतः (वह एक ही पृथ्वी) अचरम और अनेकचरमरूप है तथा चरमान्त अनेकप्रदेशरूप और अचरमान्त अनेकप्रदेशरूप है। 776. एवं जाव अहेसत्तमा पुढयो / सोहम्मादी जाव अणुत्तरविमाणा एवं चेव / ईसीपन्भारा वि एवं चेव / लोगे वि एवं चेव / एवं प्रलोगे वि। [776] यों (रत्नप्रभापृथ्वी की तरह) यावत् अधःसप्तमी (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी तक इसी प्रकार प्ररूपणा करनी चाहिए / सौधर्मादि से लेकर यावत् अनुत्तर विमान तक की वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। ईषत्प्रारभारापृथ्वी की वक्तव्यता भी इसी तरह (रत्नप्रभापृथ्वी के समान) कह लेनी चाहिए / लोक के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए और अलोक (अलोकाकाश) के विषय में भी इसी तरह (कहना चाहिए।) Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनासूत्र विवेचना-पाठ पृथ्वियों और लोकालोक की चरमाचरम सम्बन्धी वक्तव्यता प्रस्तुत तीन सूत्रों में से प्रथम सूत्र में रत्नप्रभादि पाठ पृथ्वियों का नामोल्लेख करके, द्वितीय सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के चरम-अचरम प्रादि के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है तथा तृतीय सूत्र में शेष पृथ्वियों, सौधर्म से अनुत्तर विमान तक के देवलोक एवं लोकालोक के चरम-अचरमादि की वक्तव्यता से सम्बन्धित अतिदेश दिया गया है। चरम, अचरम की शास्त्रीय परिभाषा-वैसे तो चरम का अर्थ अन्तिम है और अचरम का अर्थ है-जो अन्तिम न हो, मध्य में हो। परन्तु यहाँ समग्र लोक के रत्नप्रभादि विविध खण्डों तथा अलोक की अपेक्षा से चरम-अचरम आदि का विचार किया गया है। इसलिए चरमादि यहाँ पारिभाषिक शब्द हैं, इसी दृष्टि से वृत्तिकार ने इनका अर्थ किया है / चरम का अर्थ है-पर्यन्तवर्ती यानी अन्त में स्थित / चरम शब्द यहाँ सापेक्ष है, अर्थात् दूसरे की अपेक्षा रखता है / उससे कोई पहले हो, तभी किसी दूसरे को 'चरम' कहा जा सकता है। जैसे--पूर्वशरीरों की अपेक्षा से चरम (अन्तिम) शरीर (पूर्वभवों की अपेक्षा से अन्तिम भव को चरमभव) कहा जाता है। जिससे पहले कुछ न हो, उसे चरम नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार 'प्रचरम' शब्द का अर्थ है-जो चरम== अन्तवर्ती न हो, अर्थात् मध्यवर्ती हो / यह पद भी सापेक्ष है, क्योंकि जब कोई अन्त में हो, तभी उसकी अपेक्षा से बीच वाले को 'अचरम' कहा जा सकता है। जिसके आगे-पीछे दूसरा कोई न हो, उसे 'अचरम' यानी मध्यवर्ती (बीच में स्थित) नहीं कहा जा सकता। जैसे चरम शरीर एवं तथाविध अन्य शरीरों की अपेक्षा से मध्यवर्ती शरीर को अचरम शरीर कहा जाता है। जिस प्रकार यहाँ दो प्रश्न एकवचन के आधार पर किये गए हैं, उसी प्रकार दो प्रश्न बहुवचन को लेकर किये गए हैं। 'चरिमाइं अचरिमाई' दोनों चरम और अचरम के बहुवचनान्त रूप हैं। उनका अर्थ होता है-अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप / ये चारों प्रश्न तो रत्नप्रभादि पृथ्वियों को तथाविध एकत्वपरिणाम विशिष्ट एक द्रव्य मान कर किये गए हैं। इसके प्रश्चात् दो प्रश्न उसके प्रदेशों को लक्ष्य करके किये गए हैं.-'चरिमंतपदेसा,' 'प्रचरिमंतपदेसा' (चरमान्तप्रदेशा अचरमान्तप्रदेशा)। अर्थ होता है-चरमरूप अन्त प्रदेशों वाली और अचरमरूप अन्तप्रदेशों वाली / इसका अर्थ हुआ क्या रत्नाप्रभा पथ्वी चरमान्त बहुप्रदेशरूप है, अथवा अचरमान्त बहुप्रदेशरूप है ? इसका स्पष्ट अर्थ हमा-क्या अन्त के प्रदेश रत्नप्रभापथ्वी है, अथवा मध्य के प्रदेश रत्नप्रभायथ्वी है? पर्ववत चरमान्त और अचरमान्त ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं / न ही अकेले कोई प्रदेश चरमान्त हो सकते हैं, और न ही अचरमान्त। पूर्वोक्त छह प्रश्नों का उत्तर -- गौतम स्वामी के पूर्वोक्त प्रश्नों का उत्तर भगवान् पहले निषेधात्मकरूप से देते हैं-यह रत्नप्रभापृथ्वी चरम नहीं है, क्योंकि वह तो द्रव्य की अपेक्षा एक और अखण्डरूप है / उसे चरम नहीं कहा जा सकता (चरमत्व तो सापेक्ष है, रत्नप्रभापृथ्वी से पहले कोई हो तो उसकी अपेक्षा से उसे चरम कहा जाए। मगर ऐसा कोई दूसरा नहीं, क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी तो एक अखण्ड और निरपेक्ष है, जिसके विषय में तुमने (गौतमस्वामी ने) प्रश्न किया है / इसी प्रकार पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार रत्नप्रभापृथ्वी अचरम भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अचरमत्व अर्थात् मध्यवर्तित्व भी किसी दूसरे की अपेक्षा रखता है, इसलिए सापेक्ष है / यहाँ कोई दूसरा ऐसा है नहीं, जिसकी अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी को अचरम कहा जाए। इसके पश्चात् किये हुए बहुवचनात्मक 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 229 Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसर्वा चरमपद ] प्रश्नों का भी भगवान् निषेधरूप में उत्तर देते हैं-रत्नप्रभापृथ्वी न अनेक चरम है और न ही अनेक अचरमरूप है / क्योंकि पूर्वकथनानुसार जब रत्नप्रभापृथ्वी एकत्वविशिष्ट चरम और अचरम नहीं है तो बहुत्वविशिष्ट चरम-अचरम भी कैसे हो सकती है ? अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी न तो बहुत चरम द्रव्यरूप है और न ही बहुत अचरमद्रव्यरूप है। इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी को न तो चरमान्तप्रदेशों के रूप में कह सकते हैं और न ही अचरमान्तप्रदेशों के रूप में कह सकते हैं। क्योंकि जब रत्नप्रभापृथ्वी में चरमत्व और अचरमत्व संभव ही नहीं है, तब उसे चरमप्रदेश या अचरमप्रदेश भी नहीं कहा जा सकता।' प्रश्न होता है कि रत्नप्रभापथ्वी चरम, अचरम आदि पूर्वोक्त छह विकल्पों बाली नहीं है तो क्या है ? उसे किस रूप में कहना और समझना चाहिए ? भगवान ने इसके उत्तर में कहा-.-'रत्नप्रभापथ्वी अचरम और अनेक चरमरूप (चरमाणि) है तथा चरमान्तप्रदेशरूप और अचरमान्त प्रदेशरूप है / इसका आशय यह है कि जब एक और अखण्डरूप में विवक्षित रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न किया जाए तो वह पूर्वोक्त छह भंगों में से किसी भी भंग में नहीं आ सकती, किन्तु जब रत्नप्रभापृथ्वी को असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ और अनेक अवयवों में विभक्त मान कर प्रश्न किया जाए तो उसे अचरम और अनेक चरम रूप (चरमाणि) कहा जा सकता है। क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी ! इस प्रकार के आकार में स्थित है। ऐसी स्थिति में इसके प्रान्तभागों में विद्यमान प्रत्येक खण्ड तथाविध-विशिष्ट एकत्वपरिणाम परिणत हैं, उन खण्डों को अनेक चरम रूप (चरमाणि) कहा जा सकता है और जो उन प्रान्तभागों के मध्य में बड़ा खण्ड हैं, उसे तथाविध-एकत्वपरिणाम होने से एक मान लिया जाए तो वह 'अचरम' है। इस प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी प्रान्तवर्ती अनेक खण्डों और मध्यवर्ती एक महाखर सम्मिलित समुदायरूप है, ऐसा न मानने पर रत्नप्रभापृथ्वी के अभाव का प्रसंग आ जाएगा। इस प्रकार एक ही पृथ्वी को अवयव-अवयवीरूप में मान लेने पर जैसे उसे अचरम-अनेक चरम रूप (चरमणि) अर्थात्-अखण्ड और एक निर्वचनविषय कहा जा सकता है, उसी प्रकार प्रदेशों की विवक्षा करने पर उसे 'चरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' तथा 'अचरमान्त अनेकप्रदेशरूपा' भी कहा जा सकता है, क्योंकि इसके बाह्यखण्डों में रहे हुए प्रदेश चरमान्तप्रदेश कहलाते हैं और मध्यवर्ती एक महाखण्ड में रहे हुए प्रदेश 'अचरमान्तप्रदेश' कहलाते हैं। इस प्रकार मुख्यतया एकान्तदुर्नय का निराकरण करने वाले भगवान् के उत्तर से रत्नप्रभा आदि वस्तुएं अवयव-अवयवीरूप हैं, अवयव और अवयवी में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद है, यह अनेकान्त सिद्धान्त सूचित हो गया / ___इस प्रकार जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के विषय में प्रश्न और निर्वचन का (युक्तिपूर्वक विश्लेषण) करके प्ररूपणा की गई, वैसी ही प्ररूपणा शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर तमस्तम:पृथ्वी तक तथा सौधर्म से लेकर अनुत्तर विमान तक एवं ईषतप्रारभारापृथ्वी और लोक के विषय भी प्रश्न प्रश्न एवं उत्तर का युक्तिपूर्वक विश्लेषण करके करनी चाहिए / अलोक के विषय में भी इसी प्रकार प्रश्नोत्तररूप सूत्र बना कर प्ररूपणा करना चाहिए / अलोक के लिए लोक के निष्कुटों में प्रविष्ट जो खण्ड हैं, वे चरम हैं, शेष अन्य सब अचरम हैं तथा चरमखण्डगतप्रदेश चरमान्तप्रदेश हैं एवं अचरमखण्डगत प्रदेश अचरमान्त प्रदेश हैं। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 229 2. वही मलय. वृत्ति, पत्रांक 229 Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र चरमाचरमादि पदों का अल्पबहुत्व 777. इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए प्रचरिमस्स य चरिमाण य चरिमलपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दवटुपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सम्वत्थोवे इमोसे रतणप्पभाए पुढवीए दव्वट्ठयाए एगे प्रचरिमे, चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई / पदेसट्टयाए सम्वत्थोवा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया। दव्वटुपदेसट्टयाए सम्वत्थोवा इमोसे रतणप्पभाए पुढवीए दम्वट्ठयाए एगे प्रचरिमे, चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, पएसट्टयाए चरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, प्रचरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, चरिमंतपएसा य प्रचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया। [777 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के अचरम और बहुवचनान्त चरम, चरमान्तप्रदेशों तथा अचरमान्तप्रदेशों में द्रव्यों की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य-प्रदेश (दोनों) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं अथवा विशेषाधिक हैं ? [777 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से इस रत्नप्रभापथ्वी का एक अचरम सबसे कम है। उसकी अपेक्षा (बहुवचनान्त) चरम (चरमाणि) असंख्यातगुणे हैं। अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं / प्रदेशों की अपेक्षा से इस रत्नप्रभापृथ्वी के 'चरमान्तप्रदेश' सबसे कम हैं / (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं / चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम इस रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम है। (उसको अपेक्षा) असंख्यातगुणे (बहुवचनान्त) चरम हैं। अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों ही विशेषाधिक हैं। (उनसे) प्रदेशापेक्षया चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) असंख्यातगुणे अचरमान्तप्रदेश हैं / चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं / 778. एवं जाव प्रसत्तमा / सोहम्मस्स / जाव लोगस्स य एवं चेव / [778] इसी प्रकार (शर्कराप्रभापृथ्वी से लेकर) यावत् नीचे की सातवीं (तमस्तमः) पथ्वी तक तथा सौधर्म से लेकर यावत् लोक (अच्युत, नौ ग्रेवेयक, पंच अनुत्तर विमान, ईषत्प्रारभारापृथ्वी एवं लोक) तक पूर्वोक्त प्रकार से अचरम, (बहुवचनान्त) चरमों, चरमान्तप्रदेशों तथा अचरमान्तप्रदेशों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करनी चाहिए। 776. अलोगस्स णं भंते ! अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दवट्ठयाए पदेसट्टयाए दवटुपदेसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वस्थोवे अलोगस्स दवट्टयाए एगे प्रचरिमे, चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अचरिम च चरिमाणि य दों वि विसेसाहियाइं। पदेसट्टयाए सव्वत्थोवा प्रलोगस्स चरिमंतपदेसा, अचरिमंतपदेसा प्रणतगुणा, चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया। दवटुपदेसट्टयाए सम्बत्थोवे Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसयाँ चरमपद ] प्रलोगस्स दवट्टयाए एगे अचरिमे, चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, चरिमंतपदेसा असंखेज्जगुणा, प्रचरिमंतपदेसा अणंतगुणा, चरिमंतपएसा य प्रचरिमंतपएसा य दो दि विसेसाहिया। [776 प्र.] भगवन् ! अलोक के अचरम, चरमों, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से एवं द्रव्य-प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं, अथवा विशेषाधिक हैं ? [779 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है। (उसकी अपेक्षा) असंख्यातगुणे (बहुवचनान्त) चरम हैं / अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं / प्रदेशों की अपेक्षा से- सबसे कम अलोक के चरमान्तप्रदेश हैं, (उनसे) अनन्तगुणे अचरमान्त प्रदेश हैं / चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं / द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है। (उससे) बहुवचनान्त चरम असंख्यातगुणे हैं / अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। (उनसे) चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, (उनसे भी) अनन्तगुणे अचरमान्तप्रदेश हैं / चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। 780. लोगालोगस्स णं भंते ! अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दवयाए पदेसट्टयाए दन्वटुपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवे लोगालोगस्स दवट्टयाए एगमेगे अचरिमे, लोगस्स चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अलोगस्स चरिमाइं विसेसाधियाई, लोगस्स य अलोगस्स य अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाधियाई / पदेसट्टयाए सम्वत्थोवा लोगस्स चरिमंतपदेसा, अलोगस्स चरिमंतपदेसा विसेसाहिया, लोगस्स अचरिमंतपदेसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स अचरिमंतपदेसा अणंतगुणा, लोगस्स य अलोगस्स य चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया। दव्वटुपदेसट्टयाए सव्वत्थोवे लोगालोगस्स दस्वट्टयाए एगमेगे अचरिमे, लोगस्स चरिमाइं असंखेज्जगुणाई, अलोगस्स चरिमाई विसेसाहियाई, लोगस्स य अलोगस्स य अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई, लोगस्स चरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स चरिमंतपएसा विसेसाहिया, लोगस्स अचरिमंतपएसा असंखेज्जगुणा, अलोगस्स अचरिमंतपएसा अणंतगुणा, लोगस्स य अलोगस्स य चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया, सव्वदव्वा विसेसाहिया, सव्वपएसा अणंतगुणा, सव्वपज्जवा अणंतगुणा / [780 प्र.] भगवन् ! लोकालोक के अचरम, (बहुवचनान्त) चरमों, चरमान्तप्रदेशों और अचरमान्तप्रदेशों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से, द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किनसे अल्प हैं, बहुत हैं, तुल्य हैं, अथवा विशेषाधिक हैं ? [780 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से---सबसे कम लोकालोक का एक-एक अचरम है। (उसको अपेक्षा) लोक के (बहुवचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं, अलोक के (बहुवचनान्त) चरम विशेषाधिक हैं, लोक और अलोक का अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। प्रदेशों को अपेक्षा से सबसे थोड़े लोक के चरमान्तप्रदेश हैं. अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [प्रज्ञापनासूत्र हैं, (उनसे) लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं। लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक और प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे कम लोक-अलोक का एक-एक अचरम है, (उसकी अपेक्षा) लोक के (बहुवचनान्त) चरम असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलोक के (बहुवचनान्त) चरम विशेषाधिक हैं। लोक और अलोक का अचरम और (बहुवचनान्त) चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं। लोक के चरमान्तप्रदेश (उनसे) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं, (उनसे) लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों विशेषाधिक हैं। (उनकी-लोक और अलोक के चरम और अचरम प्रदेशों को-अपेक्षा) सब द्रव्य (मिलकर) विशेषाधिक हैं। (उनकी अपेक्षा) सर्व प्रदेश अनन्तगुणे हैं (और उनकी अपेक्षा भी) सर्व पर्याय अनन्तगुणे हैं। विवेचन-चरमाचरमादि पदों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 777 से 780 तक) में रत्नप्रभादि पाठ पृथ्वियों के सौधर्म से अनुत्तर विमान तक के देवलोकों के, लोक, अलोक एवं लोकालोक के चरम, अचरम आदि चार भेदों के अल्पबहुत्व का द्रव्य, प्रदेशों तथा द्रव्यप्रदेश की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। रत्नप्रभा से लोक तक के अल्पबहुत्व को मीमांसा द्रव्य की अपेक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी का एक अचरम सबसे कम है, क्योंकि तथाविध एकस्कन्धरूप (एकत्व) परिणाम-परिणत होने के कारण अचरमखण्ड एक है, अतएव वह सबसे अल्प है। उसकी अपेक्षा (अनेक) चरमखण्ड (चरमाणि) असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि वे असंख्यात हैं। अब यह प्रश्न उठा कि अचरम और अनेक चरम, ये दोनों मिलकर क्या चरमों के बराबर हैं या विशेषाधिक ? शास्त्रकार इसका समाधान देते हैं कि अचरम और अनेक चरम ये दोनों विशेषाधिक हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक अचरम द्रव्य को चरम द्रव्यों में सम्मिलित कर दिया जाए तो चरमों की संख्या एक अधिक हो जाती है, इस कारण इनका समुदाय विशेषाधिक होता है / प्रदेशों की दृष्टि से चिन्तन किया जाए तो चरमान्तप्रदेश सबसे कम हैं, क्योंकि चरमखण्ड मध्यम (अचरम) खण्डों की अपेक्षा अतिसूक्ष्म होते हैं। यद्यपि चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं, तथापि उनके प्रदेश मध्य (अचरम) खण्ड के प्रदेशों की अपेक्षा सबसे थोड़े हैं। उनकी अपेक्षा अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे होते हैं / एक अचरमखण्ड चरमखण्डों के समुदाय की अपेक्षा क्षेत्र से असंख्यातगुणा होता है। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्त प्रदेश दोनों मिलकर अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक होते हैं। इसका कारण यह कि चरमान्तप्रदेश अचरमान्तप्रदेशों की अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं / ऐसी स्थिति में अचरमान्तप्रदेशों में चरमान्तप्रदेश सम्मिलित कर देने पर भी वे अचरमान्त प्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। ___ द्रव्य और प्रदेश दोनों की दृष्टि से विचार किया जाए तो पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार रत्नप्रभापृथ्वी का अचरम एक होने से बह सबसे थोड़ा है। उसकी अपेक्षा बहुवचनान्त चरम (अनेक चरम) असंख्यातगुणे अधिक हैं। उनकी अपेक्षा अचरम और अनेक चरम दोनों विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा भी चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि यद्यपि अचरमखण्ड असंख्यातप्रदेशों से अवगाढ़ Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसवाँ चरमपद / [ 11 होता है, तथापि द्रव्य की अपेक्षा से वह एक है, जबकि चरमखण्डों में प्रत्येक (खण्ड) असंख्यातप्रदेशी होता है, अत: चरम और अचरम द्रव्य के समुदाय की अपेक्षा चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा भी अचरमान्तप्रदेश (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) असंख्यातगुणे हैं। उनसे भी चरमान्त प्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, दोनों मिलकर (पूर्ववत्) विशेषाधिक होते हैं। रत्नप्रभापृथ्वी के चरमाचरमादि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की तरह ही शर्कराप्रभा से लेकर लोक तक के चरमाचरमादि का अल्पबहुत्व समझना चाहिए।' अलोक के चरम-अचरमादि का अल्पबहुत्व--द्रव्य की अपेक्षा से सबसे कम अलोक का अचरम है, इसकी अपेक्षा चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं, अचरम और चरम खण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की दृष्टि से सबसे कम अलोक के चरमान्तप्रदेश हैं, क्योंकि निष्कुट प्रदेशों में ही उनका सद्भाव होता है। इन चरमान्तप्रदेशों की अपेक्षा अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि अलोक अनन्त है। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, क्योंकि चरमान्तप्रदेश, अचरमान्तप्रदेशों के अनन्तवें भागमात्र होते हैं। उन्हें अचरमान्तप्रदेशों में सम्मिलित कर देने पर भी वे सब मिलकर अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेश दोनों की दृष्टि से-सबसे कम अलोक का एक अचरम है। उसकी अपेक्षा चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं / अचरम और चरम खण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं और उनसे भी अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं। चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिल कर विशेषाधिक हैं। लोकालोक के चरमाचरमादि का अल्पबहुत्व-द्रव्य की अपेक्षा से सबसे कम लोक और अलोक का एक-एक अचरम = अचरमखण्ड है, क्योंकि वह एक ही है। उसकी अपेक्षा लोक के चरमखण्ड असंख्यातगुणे हैं। उससे अलोक के चरमखंड विशेषाधिक हैं। उनसे लोक का और प्रलोक का अचरमखण्ड एवं (बहत) चरमखंड मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा सब से कम लोक के चरमान्तप्रदेश हैं. उनसे अलोक के चरमान्त प्रदेश विशेषाधिक हैं। उनसे लोक के अचरमान्त प्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनसे अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणित हैं। उनसे लोक के और अलोक के चरमान्त प्रदेश और अचरमान्त प्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। द्रव्यार्थ-प्रदेशार्थ की अपेक्षा सबसे कम लोक और अलोक का द्रव्यापेक्षया एक-एक अचरमखंड है। उससे लोक के चरमखंड असंख्यातगुणित हैं / उनसे अलोक के चरमखंड विशेषाधिक हैं। उनसे लोक और अलोक के अचरमखंड और घरमखंड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं, इत्यादि / वास्तव में लोक के चरमखण्ड असंख्यात हैं, फिर भी पृथ्वी की स्थापना [] इस प्रकार की होने से वे आठ माने जाते हैं / वे इस प्रकार हैं-एक-एक चारों दिशाओं में और एक-एक चारों विदिशाओं में / अलोक के चरमखण्ड अलोक की स्थापना की परिकल्पना के आधार पर बारह जाते हैं यह बारह संख्या आठ से न तो दुगुनी है, और न ही तिगुनी, अत: यह विशेषाधिक ही कही जा सकती है। अलोक के चरमखण्डों की अपेक्षा लोक और अलोक का अचरम और उनके चरमखण्ड, 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 231 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 232 Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [ प्रज्ञापनासूत्र दोनों मिल कर विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार लोक के चरमखण्ड पाठ हैं और अचरमखण्ड एक ही है, दोनों मिल कर नौ होते हैं। इसी प्रकार अलोक के भी चरम और अचरमखण्ड मिल कर 13 हैं / इन दोनों को मिला दिया जाए तो बाईस होते हैं / यह बाईस की संख्या बारह से दुगुनी, तिगुनी आदि नहीं है, अत: विशेषाधिक ही है। प्रदेशों की दृष्टि से सबसे कम लोक के चरमान्तप्रदेश हैं, क्योंकि उसमें पाठ ही प्रदेश हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं। उनसे लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अचरम क्षेत्र बहुत अधिक है, इस कारण उसके प्रदेश भी बहुत अधिक हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वह क्षेत्र अनन्तगुणा है। उनकी अपेक्षा भी लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों विशेषाधिक हैं, क्योंकि अलोक के अचरमान्तप्रदेशों में लोक के चरमान्तप्रदेशों को, अचरमान्त प्रदेशों को तथा अलोक के चरमान्तप्रदेशों को मिला देने पर भी वे सब असंख्यात ही होते हैं और असंख्यात, अनन्त राशि की अपेक्षा कम हो है, अतएव उन्हें उनमें सम्मिलित कर देने पर भी वे अलोक के अचरमान्तप्रदेशों से विशेषाधिक ही होते हैं। द्रव्य और प्रदेशों की दृष्टि से अल्पबहुत्व का पूर्वोक्त युक्ति से स्वयं विचार कर लेना चाहिए। लोक के चरमखण्डों की अपेक्षा से अलोक के चरमखण्ड विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा लोक और अलोक का अचरम और उनके चरमखण्ड दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं / इसका कारण पूर्ववत् है। उनकी अपेक्षा लोक के चरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं, उनसे अलोक के चरमान्तप्रदेश विशेषाधिक हैं। उनकी अपेक्षा लोक के अचरमान्तप्रदेश असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा अलोक के अचरमान्तप्रदेश अनन्तगणे हैं। यक्ति पर्ववत है। उनकी अपेक्षा लोक और अलोक के चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं / लोक और अलोक के चरम और अचरमप्रदेशों की अपेक्षा सब द्रव्य मिलकर विशेषाधिक हैं, क्योंकि अनन्तानन्तसंख्यक जीवों, परमाणु आदि, तथा अनन्त परमाण्वात्मक स्कन्ध पर्यन्त सब पृथक् पृथक् भी (प्रत्येक) अनन्त-अनन्त हैं और वे सभी द्रव्य हैं। समस्त द्रव्यों की अपेक्षा सब प्रदेश अनन्तगुणे हैं और सब प्रदेशों की अपेक्षा सर्व पर्याय अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक प्रदेश के स्वपरपर्याय अनन्त हैं। यह सब स्पष्ट है। परमाणुपुद्गलादि की चरमाचरमादि-वक्तव्यता 781. परमाणपोग्गले णं भंते ! कि चरिमे 1 प्रचरिमे 2 प्रवत्तन्वए 3 ? चरिमाइं 4 प्रचरिमाइं 5 अवत्तव्ययाइं 6 ? उदाहु चरिमे य प्रचरिमे य 7 उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च 8 उदाहु चरिमाइं च अचरिमे य 6 उदाहु चरिमाइं च अचरिमाई च 10? पढमा चउभंगी, उदाहु चरिमे य अवत्तब्वए य 11 उदाहु चरिमे य अवत्तवयाई च 12 उदाह चरिमाई च प्रवत्तव्वए य 13 उदाहु चरिमाइं च प्रवत्तव्वयाइं च 14 ? बीया चउभंगी। उदाहु अचरिमे य प्रवत्तव्यए य 15 उदाहु अचरिमे य प्रवत्तव्वयाई च 16 उदाहु अचरिमाइं च प्रवत्तव्बए य 17 उदाहु अचरिमाइं च अवतब्बयाई च 18 ? तइया चउभंगी। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृति, पत्रांक 232 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसवां चरमपद [16 उदाहु चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य 16 उदाहुं चरिमे य प्रचरिमे य अवत्तव्वयाई च 20 उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वए य 21 उदाहु चरिमे य अचरिमाइं च प्रवत्तव्वयाई च 22 उदाहु चरिमाइं च अचरिमे य प्रवत्तव्यए य 23 उदाहु चरिमाइं च प्रचरिमे य अवत्तव्ययाइं च 24 उदाहु चरिमाइं च प्रचरिमाइं च अवत्तम्बए य 25 उदाहु चरिमाइं च अचरिमाइं च अवत्तव्वयाई च 26 ? एवं एते छव्वीसं भंगा। गोयमा ! परमाणुपोग्गले नो चरिमे 1 नो प्रचरिमे 2 नियमा अवत्तव्वए ||3, सेसा भंगा पडिसेहेयन्वा / (781 प्र.] भगवन् परमाणुपुद्गल क्या 1. चरम है ? 2. अचरम है ?, 3. अवक्तव्य है ? 4. अथवा 5. (बहुवचनान्त) अनेक चरमरूप है ?, 5. अनेक अचरमरूप है ?, 6. बहुत अवक्तव्यरूप है ? अथवा 7. चरम और अचरम है ? 8. या एक चरम और अनेक अचरमरूप है ? 6. अथवा अनेक चरमरूप और एक अचरम है ? 10. या अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप है ? यह प्रथम चतुर्भगी हुई।१। अथवा (क्या परमाणुपुद्गल) 11. चरम और प्रवक्तव्य है ? 12. अथवा एक चरम और बहुत अवक्तव्यरूप है ? या 13. अनेक चरमरूप और एक प्रवक्तव्यरूप है ? अथवा 14. अनेक चरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है ? यह द्वितीय चतुभंगी हुई // 2 // अथवा (परमाणुपुद्गल) 15. अचरम और प्रवक्तव्य है ? अथवा 16. एक अचरम और बहप्रवक्तव्यरूप है? या 17. अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्यरूप है ? अथवा 19. अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है ? यह तृतीय चतुर्भगी हुई / 3 / अथवा (परमाणुपुद्गल) 16. एक चरम, एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है ? 20. या एक चरम, एक अचरम और बहुत प्रवक्तव्यरूप है ? अथवा 21. एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्यरूप है ? अथवा 22. एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्य है ? अथवा 23. या अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है ? अथवा 24. अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्य है ? या 25. अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है ? अथवा 26. अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्य है ? इस प्रकार ये छव्वीस भंग हैं। |781 उ.] हे गौतम ! परमाणुपुद्गल (उपर्युक्त छब्बीस भंगों में से) चरम नहीं, अचरम नहीं, (किन्तु) नियम से अवक्तव्य | 0 है / शेष (तेईस) भंगों का भी निषेध करना चाहिए। 782. दुपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! दुपएसिए खंधे सिय चरिमे 1 नो अचरिमे 2 सिय प्रवत्तव्वए।०३, सेसा भंगा पडिसेहेयवा। [782 प्र.] भगवन् ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी इसी प्रकार की छठवीस भंगात्मक) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान है ?) Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 [प्रजापनासून [782 उ.] गौतम ! द्विप्रदेशिक स्कन्ध 1. कथंचित् चरम 0 है, 2. अचरम नहीं है, 3. कथंचित् अवक्तव्य 0 0. है / शेष तेईस भंगों का भी निषेध करना चाहिए / 783. तिपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! तिपएसिए खंधे सिय चरिमे 101 नो अचरिमे 2 सिय अवत्तम्वए| | 3 नो चरिमाइं 4 को अचरिमाई 5 नो प्रवत्तव्वयाई 6, नो चरिमे य अचरिमे य 7 नो चरिमे य प्रचरिमाई 8 सिय चरिमाइं च प्रचरिमे य ह नो चरिमाइं च प्रचरिमाइं च 10, सिय चरिमे य प्रवत्तव्वए य / 11, सेसा (15) भंगा पडिसेहेयव्वा / [783 प्र.] भगवन् ! त्रिप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी उपर्युक्त प्रकार की) पृच्छा है, (उसका समाधान क्या है ?) [783 उ.] गौतम ! त्रिप्रदेशिक स्कन्ध 1. कथञ्चित् चरम 000/ है, 2. अचरम नहीं है, 3. कयंचित् अवक्तव्य / 0deg है, 4. वह न तो अनेक चरमरूप है, 5. न अनेक अचरमरूप है, 6. न अनेक प्रवक्तव्यरूप है, 7. न एक चरम और एक अचरम है, 8. न एक चरम और अनेक अचरमरूप है, 9. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम 0 00/ है , 10. (वह) अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप नहीं है, (किन्तु) 11. कथंचित् एक चरम और एक प्रवक्तव्य 0 0 है / शेष पन्द्रह भंगों का निषेध करना चाहिए। 784. चउपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! चउपएसिए णं खंधे सिय चरिमे |0000 1 नो प्रचरिमे 2 सिय प्रवत्तव्वए। / / 3 नो चरिमाइं 4 तो अचरिमाइं 5 नो प्रवत्तब्वयाई 6, नो चरिमे य अचरिमे य 7 नो चरिमे य अचरिमाई च 8 सिय चरिमाइं च अचरिमे य || 0 सिय चरिमाइं च प्रचरिमाइं च ||10| 10, सिय चरिमे य अवत्तव्यए य 1000/--, 11 सिय चरिमे य अवत्तम्बयाई च|| 12 नो चरिमाइंच | | प्रवत्तध्वए 13 नो चरिमाइं च अवत्तन्वयाइं च 14, नो अचरिमे य प्रवत्तव्वए य 15 नो प्रचरिमे य अवत्तब्धयाई च 16 नो प्रचरिमाइं च अवत्तम्बए य 17 नो अचरिमाइं च प्रवत्तब्बयाई च 18, नो चरिमे य प्रचरिमे य अवत्तव्वए य 16 नो चरिमे य प्रचरिमे य अवत्तन्वयाइं च 20 नो चरिमे य अचरिमाइं च अनननाए 21 नो चरिमे य अचरिमाइं च प्रवत्तव्वयाइं च 22 सिय चरिमाइं च प्रचरिमे य अवत्तव्वए यम 23, सेसा (3) भंगा पडिसेहेयव्वा / [784 प्र.] भगवन् ! चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान है ?) Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 15 दसवाँ चरमपद ] [784 उ.] गौतम ! चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध 1. कथंचित् चरम 0 0i0 0 है, 2. अचरम नहीं है, 3. कथंचित् अवक्तव्य :: है। 4. (वह) न तो अनेक चरमरूप है, 5. न अनेक अचरमरूप है, 6. न ही अनेक प्रवक्तव्यरूप है, 7. न (वह) चरम और अचरम है, 8. न एक चरम और अनेक अचरमरूप है, (किन्तु) 9. कथञ्चित् अनेक चरमरूप और एक अचरम !000 0 है, 10. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप 600 है, 11. कथंचित् एक चरम और एक प्रवक्तव्य |000_ है (और) 12. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप 00: है, 13. (वह) न तो अनेक चरमरूप और एक प्रवक्तव्य है, 14. न अनेक चरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, 15. न एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है, 16. न एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, 17. न अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य है, 18. न अनेक अचरमरूप और न अनेक अवक्तव्यरूप है (और) 19. न (ही वह) एक चरम, एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है, 20. न एक चरम, एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, 21. न एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, 22. न एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 23. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है / शेष (तीन) भंगों का निषेध करना चाहिए। 785. पंचपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! पंचपएसिए णं खंधे सिय चरिमे 818|1 नो अचरिमे 2 सिय प्रवत्तव्वए।: 0 | 3 णो चरिमाइं 4 नो अचरिमाइं 5 नो प्रवत्तध्वयाई 6, सिय चरिमे य अचरिमे चरिमे य प्रचरिमाइं च 8 सिय चरिमाइं च प्रचरिमे य | 100 सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च ||*|| | 10, सिय चरिमे य अवत्तव्वए य 0000/- 11, सिय चरिमे य प्रवत्तव्वयाइं च 12 सिय चरिमाइं च प्रवत्तम्वए या 13 नो चरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च 14, णो अचरिमे य प्रवत्तव्वए य 15 नो प्रचरिमे य प्रवत्तव्वयाई च 16 नो अचरिमाइं च प्रवत्तब्वए य 17 नो अचरिमाइं च अवत्तवयाइं च 18, नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तवए य 19 नो चरिमे य अचरिमे य अवत्तन्वयाई च 20 नो चरिमे य अचरिमाई च प्रवत्तव्वए य 21 नो चरिमे य अचरिमाइंच प्रवत्तत्रयाईच 22 सिय चरिमाइंच प्रचरिमेय प्रवत्तन्वए य सिय चरिमाइंच Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रचरिमे य अवतव्वयाइं च 24 सिय चरिमाइं च अचरिमाइं च प्रवत्तव्वए यार 25 नो चरिमाइं च अचरिमाइं च प्रवत्तव्बयाई च 26 / [785 प्र.] भगवन् ! पञ्चप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है; (उसका क्या समाधान है ?) [785 उ.] गौतम ! पंचप्रदेशिक स्कन्ध 1. कथंचित् चरम है, 2. अचरम नहीं है, 3. कथंचित् प्रवक्तव्य | 8 | है, (किन्तु वह) 4 न तो अनेक चरमरूप है, 5. न अनेक अचरमरूप है, 6. न ही अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 7. कथञ्चित् चरम और अचरम ! 0 0 0 है, (वह)८. एक चरम और अनेक चरमरूप नहीं है, (किन्तु) 9. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम 00 000 है, 10. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप 00 00 0 है, 11. कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य - है, 12. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, (तथा) ܘܘܐ 13. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक प्रवक्तव्य है, (किन्तु वह) 14. न तो अनेक चरमरूप और न अनेक प्रवक्तव्यरूप है, 15. न एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है, 16. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, 17. न अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, 18. न अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप है, 16. (तथा) न एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्यरूप है, 20. न एक चरम, एक अचरम और अवक्तव्यरूप है, 21. न एक चरम अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य रूप है 22. (और) न एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 23. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य ' है, 24. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप 25. क क चरमरूप, अनेक प्रचरमरूप और एक अवक्तव्य है; (किन्तु) 26. अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप नहीं है। 786. छप्पएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! छप्पए सिए णं खंधे सिय चरिमे | |१नो प्रचरिमे 2 सिय प्रवत्तवए।:। Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ घरमपद ] [ 17 3 नो चरिमाई 4 नो प्रचरिमाइं 5 नो प्रवत्तव्वयाई 6, प्तिय चरिमे य प्रचरिमे य| / 7 / सय चरिमेय प्रचरिमाइंच 10 8 सिय चरिमाइं च अचरिमे य 18181816 सिय चरिमाइं च प्रचरिमाईच|81 सिय चरिमेय प्रवत्तव्यए य सय चरिमे य अवत्तव्वए या 1 11 सिय चरिमे य प्रवत्तव्वयाई सय चरिमेय प्रवत्तव्वयाई 12 सिय चरिमाइं च प्रवत्तव्बए य 010 | 13 सिय चरिमाइं च प्रवत्तब्वयाई च नो प्रचरिमेय अवत्तव्वए य 15 नो प्रचरिमेय प्रवत्तव्ययाइंच 16 नो प्रचरिमाइंच प्रवत्तवए य 17 णो प्रचरिमाइं च अवत्तव्ययाइं च 18, सिय चरिमे य अचरिमे य प्रवत्तव्यए य 10 16 नो चरिमे य अचरिमे य प्रवत्तवयाइं च 20 नो चरिमे य अचरिमाइं च प्रवत्तव्वए य 21 नो चरिमे य अचरिमाइं च प्रवत्तव्ययाई च 22 सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्यए य |23 सिय चरिमाइं च प्रचरिमे य प्रवत्तव्वयाई च 101010|-' 24 सिय चरिमाइंच प्रचरिमाइंच प्रवत्तम्बए य 25 सिय चरिमाइंच प्रचरिमाइं च प्रवत्तम्बयाईच [786 प्र.] भगवन् ! षट्प्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान है ?) [786 उ.] गौतम ! षट्प्रदेशिक स्कन्ध 1. कचित् चरम है, 2. अचरम नहीं है, 3. कथंचित् अवक्तव्य 000 है, (किन्तु) 4. न तो (वह) अनेक चरमरूप है, 5. न अनेक अचरमरूप है; 6. (और) न ही अनेक अवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 7. कथंचित् चरम और अचरम | . Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] [प्रज्ञापनासूत्रः 8. कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप .है, 9. कथंचित् अनेक चरम और एक अचरम :: : है, 10. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप :: 0 0. है, 11. कञ्चित् एक चरम और प्रवक्तव्य का है, 12. कथंचित् एक चरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप - है, 13. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक प्रवक्तव्य 0 0 | है, 14. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप --- है, (किन्तु) 15. न तो एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है, 16. न एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, 17. न अनेक अचरमरूप और एक अवक्तव्य है, (और) 18. न ही अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, ( किन्तु ) 16. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य 0 0 0 है, 20. न एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, 21. न एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य है, 22. न ही एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 23. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक प्रवक्तव्य - है, 24. कथंचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप 00 / / है. 25. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य है, और 26. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप 0000' है। 787. सत्तपएसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! सत्तपदेसिए णं खधे सिय चरिमे 9 :०१नो प्रचरिमे 2 सिय अवत्तवए 18 0 : 1 / 3 नो चरिमाइं 4 नो प्रचारमाई 5 नो प्रवत्तव्बयाई 6, सिय चरिमे य अचरिमे य 101 06/7 सिय चरिमे य अचरिमाइं च | 0 0 01010[8 सिय चरिमाइं च अचरिमे य81818. Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद सिय चरिमाइं च प्रचरिमाइंच सिय चरिमेय अवत्तव्यए 12 सिय चरिमाइंच अवत्तव्वए य 13 सिय सिय चरिमेय प्रवत्तब्वयाइंच चरिमाइंच अवत्तवियाई * 14, नो प्रचरिमे य अवत्तध्वए य 15 नो अचरिमे य अवत्तवव्याई च 16 नो प्रचरिमाइं च प्रवत्तन्वए य 17 नो प्रचरिमाइं च अवत्तन्वयाइं च 18, सिय चरिमे अचरिमे य प्रवत्तवए। 16 सिय चरिमे य प्रचरिमेय अवत्तव्ययाइंच 101010] 20 सिय चरिमे य अचरिमाइंच प्रवत्तवए य 21 नो चरिमे य अचरि|| | माइं च प्रवत्तव्ययाइं च 22 सिय चरिमाइं च अचरिमे य प्रवत्तव्यए यमग-२३ सिय चरिमाई च प्रचरिमेय प्रवत्तव्बयाई सिय चरिमाइंच अचरिमाइं च प्रवत्तब्धए य I0 ITI- 25 सिय चरिमाइं च प्रचरिमाइं च प्रवत्तब्धयाई च / / 26 / [787 प्र.] भगवन् ! सप्तप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत) पृच्छा है, (उसका समाधान क्या है ?) [787 उ.] गौतम ! सप्तप्रदेशिक स्कन्ध 1. कथंचित् चरम : 0 है, 2. अचरम नहीं है, 3. कथंचित् अवक्तव्य |: ::है, 4. (किन्तु वह) अनेक चरमरूप नहीं है, 5. न अनेक अचरमरूप है और 6. न ही अनेक प्रवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 7. कथंचित् चरम और अचरम 1. .... है, 8. कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप 60000/ है, 6. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम 18:818 0 है, 10. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप .::1:10 है, 11. कथंचित् एक चरम और एक प्रवक्तव्य है, 12. कथंचित् एक Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [प्रज्ञापनासून 00 चरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप :- है, 13. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक 000 प्रवक्तव्य 14. कचित नेक चरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप | . ! है, (किन्तु) 15. न तो (वह) एक अचरम और एक अवक्तव्य है, 16. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, 17. न अनेक अचरम और एक प्रवक्तव्य है और 19. न ही अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 19. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है, 20. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप 0 0 है, 21. कथंचित् एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य 0000 है, 22. एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप नहीं है, 23. कचित् अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक प्रवक्तव्य , 24. कथंचित नेक चरमरूप एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप - है, 25. कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक o/ अचरमरूप और एक अवक्तव्य है (और) 26. कथंचित् अनेक चरमरूप अनेक 0 . अचरमरूप और अनेक अवक्तव्यरूप 000 - है। 788. अद्रुपदेसिए णं भंते ! खंधे पुच्छा। गोयमा ! अटुपदेसिए खंधे सिय चरिमे 8818|1 णो अचरिमे 2 सिय प्रवत्तव्वए ::|3 नो चरिमाई 4 नो अचरिमाइं 5 नो अवत्तव्वयाई 6, सिय चरिमे य प्रचरिमे य Leal सिय चरिमे य अचरिमाई च [Bhole 8 सिय चरिमाई च अचरिमे य 181818| सिय चरिमाइं च प्रचरिमाइं च 8181818110, सिय चरिमे य अवत्तव्वए य Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ घरमपद ] [21 11 सिय चरिमे य प्रवत्तध्वयाई च|88181१२ सिय चरिमाई च प्रवत्तव्वए य 100113 सिय चरिमाइं च प्रवत्तव्वयाईच 14 नो अचरिमे य प्रवत्तब्बए य 15 नो अचरिमे य प्रवत्तव्वयाई च 16 नो प्रचरिमाइं च अवत्तवए य 17 नो प्रचरिमाइं च प्रवत्तव याइं च 18, सिय चरिमे य अचरिमे य प्रवत्तव्यए य| य अबलम्बए पनि | 16 सिय चरिमे य अचरिमे सिय चरिम य अचरिने य प्रवत्तव्बयाई 20 सिय चरिमे य प्रचरिमाइंच अवत्तब्वए य सिय भरिने व अवस्मिाई व भावलम्याई छ ! - 22 सिय जरिमाई च अवस्लेि या सिय चरिमे य प्रचरिमाइं च प्रवत्तक 22 सिय चरिमाइं च अचरिमे य प्रवत्तवए यानावान-२३ सिय चरिमाइं च अचरिमे य प्रवत्तव्वयाइं च 1818 24 सिय चरिमाइं च प्रचरिमाइं च प्रवत्तव्वए याबावामान 25 सिय चरिमाई च प्रचरिमाइं च प्रवत्तव्वयाई च वाला [788 प्र. भगवन् ! अष्टप्रदेशिक स्कन्ध के विषय में (मेरी पूर्ववत्) पृच्छा है, इसका क्या समाधान है ? [788 उ.] गौतम ! अष्टप्रदेशिक स्कन्ध 1. कथंचित् चरम ::: : / / है, 2. अचरम नहीं है, 3. कथंचित् अवक्तव्य है, :: (किन्तु) 4. न तो अनेक चरमरूप है, 5. न अनेक अचरम रूप है (और) 6. न ही अनेक अवक्तव्यरूप है, 7. कथंचित् एक चरम और एक अचरम है, 8. कथंचित् एक चरम और अनेक अचरमरूप [81 : है, 6. कथंचित् अनेक चरमरूप और एक अचरम !::: | है, 10. कथंचित् अनेक चरमरूप और अनेक अचरमरूप Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [प्रज्ञापनासूत्र 388181 है, 11. कथंचित् चरम और प्रवक्तव्य है, 12. कथंचित एक चरम / और अनेक अवक्तव्यरूप 8818_ है, 13. कथंचित अनेक चरमरूप और एक प्रवक्तव्यरूप 1000 14. कथंचित अनेक चरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप |000 15. न तो (वह) एक अचरम और एक प्रवक्तव्य है, 16. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप है, 17. न अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्यरूप है, (और) 18. न ही अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप है, (किन्तु) 19. कथंचित चरम, अचरम और प्रवक्तव्य ! |8| है, 20. कथंचित् एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्य रूप है, 21. कथंचित् एक चरम, अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य 0 / 0 है, 22. कथंचित एक चरम, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप 0 0 00 है, 23. कथंचित अनेक चरमरूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य का है, 24. कथंचित अनेक चरमरूप, एक अचरम और अनेक प्रवक्तव्यरूप: है, 25. कथंचित अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और एक प्रवक्तव्य या है, और कचित् अनेक चरमरूप, अनेक अचरमरूप और अनेक प्रवक्तव्यरूप: 0018 है। 786. संखेज्जपएसिए असंखेज्जपएसिए अगंतपएसिए खंधे जहेव अट्ठपदेसिए तहेव पत्तेयं भाणितव्वं / [786] संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी प्रत्येक स्कन्ध के विषय में, जैसे अष्टप्रदेशी स्कन्ध के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार कहना चाहिए / Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद ] [23 760. परमाणुम्मि य ततिम्रो पढमो ततिमो य होति दुपदेसे / पढमो ततिम्रो नवमो एक्कारसमो य तिपदेसे // 18 // पढमो ततिनो नवमो दसमो एक्कारसो य बारसमो। भंगा चउप्पदेसे तेवीस इमो य बोद्धव्वो // 186 // पढमो ततिम्रो सत्तम नव दस एक्कार बार तेरसमो। तेवीस चउन्धीसो पणुवीसइमो य पंचमए // 187 // बि चउत्थ पंच छठें पणरस सोलं च सत्तरऽद्वारं / वीसेक्कवीस बावीसगं च वज्जेज्ज छट्टम्मि / / 188 // बि चउत्थ पंच छठें पण्णर सोलं च सत्तरऽद्वारं / बावीसइमविहूणा सत्तपदेसम्मि खंधम्मि // 186 // बि चउत्थ पंच छठें पण्णर सोलं च सत्तरऽद्वारं / एते वज्जिय भंगा सेसा सेसेसु खंधेसु // 160 // [760 संग्रहणीगाथाओं का अर्थ-] परमाणुपुद्गल में तृतीय (अवक्तव्य) भंग होता है। द्विप्रदेशी स्कन्ध में प्रथम (चरम) और तृतीय (प्रवक्तव्य) भंग होते हैं। त्रिप्रदेशी स्कन्ध में प्रथम, तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवाँ भंग होता है। चतुःप्रदेशीस्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवा बारहवाँ और तेईसवाँ भंग समझना चाहिए। पंचप्रदेशी स्कन्ध में प्रथम, तृतीय, सप्तम, नवम, दशम, एकादश, द्वादश, त्रयोदश, तेईसवाँ, चौवीसवां और पच्चीसवाँ भंग जानना चाहिए // 185, 186, 187 / / षट्प्रदेशी स्कन्ध में द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवाँ, अठारहवाँ, बोसवाँ, इक्कीसवाँ और बाईसवाँ छोड़कर, शेष भंग होते हैं // 188 / / सप्तप्रदेशी स्कन्ध में दूसरे, चौथे, पाँचवें, छठे, पन्द्रहवें, सोलहवें, सत्रहवें, अठारहवें और बाईसवें भंग के सिवाय, शेष भंग होते हैं / / 186 // शेष सब स्कन्धों (अष्टप्रदेशी से लेकर संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों) में दूसरा, चौथा, पांचवाँ, छठा, पन्द्रहवाँ, सोलहवाँ, सत्रहवा, अठारहवाँ, इन भंगों को छोड़कर, शेष भंग होते हैं / / 160 / / विवेचन–परमाणु से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक की चरमाचरमादि संबन्धी वक्तव्यता--प्रस्तुत दस सूत्रों में परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशी से अष्टप्रदेशी स्कन्ध तथा संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के चरम, अचरम और अवक्तव्य भंगों की प्ररूपणा की गई है। बीस भंगों की अपेक्षा से चरम, अचरम और प्रवक्तव्य का बिचार-प्रस्तुत छन्वीस भंग इस प्रकार हैं--असंयोगी 6 भंग-१. चरम, 2. अचरम, 3. अवक्तव्य, (एकवचनान्त), (बहन चनान्त) 4. अनेक चरम, 5. अनेक अचरम, 6. अनेक अवक्तव्य / द्विकसंयोगी तीन चतुभंगी-१२ भंगप्रथम चतुभंगी-७. एक चरम और एक अचरम, 8. एक चरम-अनेक अचरम, 9. अनेक चरम-एक अचरम, 10. अनेक चरम–अनेक अचरम / द्वितीय चतुर्भगी-११. एक चरम--एक अवक्तव्य, 12. एक चरम-अनेक प्रवक्तव्य, 13. अनेक चरम–एक प्रवक्तव्य, 14. अनेक चरम-अनेक प्रवक्तव्य / तृतीय चतुभंगी-१५. एक अचरम—एक प्रवक्तव्य, 16. एक अचरम-अनेक अवक्तव्य, 17. अनेक Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 ] [ प्रज्ञापनासूत्र अचरम--एक प्रवक्तव्य, और 18. अनेक अचरम–अनेक प्रवक्तव्य / त्रिकसंयोगी-८ भंग--१६. एक चरम, एक अचरम, एक प्रवक्तव्य, 20. एक चरम, एक अचरम, अनेक अवक्तव्य, 21. एक चरम, अनेक अचरम, एक प्रवक्तव्य, 22. एक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य, 23. अनेक चरम, एक अचरम, एक प्रवक्तव्य, 24. अनेक चरम, एक अचरम, अनेक प्रवक्तव्य, 25. अनेक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य, 26. अनेक चरम, अनेक अचरम, अनेक अवक्तव्य / ' परमाणुपुद्गल प्रवक्तव्य ही क्यों ?–भगवान् ने उपर्युक्त 26 भंगों में से परमाणुपुद्गल को केवल तृतीय भंग नियमतः प्रवक्तव्य' बताया है, शेष पच्चीस भंग उसमें घटित नहीं होते। इसका कारण यह है कि चरमत्व दूसरे की अपेक्षा रखता है, यहाँ किसी दूसरे की विवक्षा न होने से अपेक्षणीय कोई दूसरा पदार्थ है नहीं। इसके अतिरिक्त एक परमाणुपुद्गल सांश (अनेक अंशोंअवयवों वाला) भी नहीं है, जिससे कि अंशों की अपेक्षा से उसके चरमत्व की कल्पना की जा सके, परमाणु तो निरंश-निरवयव है। परमाणु अचरम (मध्यम) भी नहीं है, क्योंकि निरवयव होने से उसका मध्यभाग होता नहीं है। इसी कारण परमाणु को नियम से प्रवक्तव्य कहा गया है। अथोत-न तो उसे चरम कहा जा सकता है, न हो अचरम / जो चरम या अचरम शब्द से वक्तव्यकहने योग्य-न हो, वह अवक्तव्य होता है। द्विप्रदेशीस्कन्ध में दो भंग-द्विप्रदेशीस्कन्ध में केवल प्रथम (एक चरम) और तृतीय (एक प्रवक्तव्य), ये दो भंग ही घटित होते हैं, शेष चौबीस भंग नहीं। इसको चरम कहने का कारण यह है कि द्विप्रदेशीस्कन्ध जब दो आकाशप्रदेशों में समश्रेणि में स्थित होकर अवगाढ़ होता है तब उसके दो परमाणुओं में से एक परमाणु की अपेक्षा चरम होता है, दूसरा परमाणु भी प्रथम परमाणु की अपेक्षा चरम होता है। इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध चरम कहलाता है, किन्तु द्विप्रदेशीस्कन्ध अचरम नहीं कहलाता, क्योंकि समस्त द्रव्यों का भी केवल अचरमत्व सम्भव नहीं है / द्विप्रदेशीस्कन्ध कथंचित् प्रवक्तव्य तब होता है, जब वह एक ही प्राकाशप्रदेश में प्रवगाढ़ होता है, उस समय वह विशेष प्रकार के एकत्वपरिणाम से परमाणुवत् परिणत होता है / इस कारण द्विप्रदेशीस्कन्ध को उस समय चरम या अचरम कहने का कोई कारण नहीं होता। इसलिए उसे न चरम कहा जा सकता है और न अचरम, उसे उस समय 'प्रवक्तव्य' ही कहा जा सकता है। त्रिप्रदेशीस्कन्ध में चार भंग-त्रिप्रदेशीस्कन्ध में प्रथम भंग-'चरम' और भंग-- 'प्रवक्तव्य' पूर्वोक्त द्विप्रदेशी की युक्ति के अनुसार समझना चाहिए। फिर नौवाँ भंग-'दो चरम और एक अचरम' पाया जाता है। जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणि में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होता है, तब उसके आदि और अन्त के दो परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम (द्वय) होते हैं और मध्यम परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण अचरम होता है ! अतः त्रिप्रदेशीस्कन्ध कथंचित् दो चरम और एक अचरमरूप कहा जाता है। इसमें दसवाँ भंग-'बहुत चरम और बहुत अचरम' घटित नहीं हो सकता, क्योंकि तीन प्रदेशों वाले स्कन्ध में (बहुवचनान्त) अनेक चरम और अनेक अचरम नहीं हो सकते। ग्यारहवाँ भंग उसमें घटित होता है। वह इस प्रकार है--कथंचित् चरम और प्रवक्तव्य / जब त्रिप्रदेशीस्कन्ध समश्रेणी और विश्रेणी में इस प्रकार अवगाढ़ होता है, तब उसके दो परमाणु समश्रेणी में स्थित होने के कारण दो प्रदेशों में अवगाढ़ द्विप्रदेशो स्कन्ध के समान चरम कहे जा सकते हैं और एक परमाणु विश्रेणी में स्थित होने के कारण चरम 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, प. 240 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ टिप्पण) पृ. 199 से 201 Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपन ] [25 और अचरम शब्दों द्वारा व्यवहार के योग्य न होने से 'प्रवक्तव्य' होता है / इस प्रकार त्रिप्रदेशी स्कन्ध में पहला, तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवाँ, ये चार भंग होते हैं, शेष 22 भंग नहीं पाए जाते / ___ चतुष्प्रदेशोस्कन्ध में सात भंग-इसमें पहला और तीसरा, नौवाँ और ग्यारहवाँ भंग तो द्विप्रदेशी एवं त्रिप्रदेशी स्कन्ध में उक्त युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। इसके पश्चात् दसवाँ भंग भी चतुष्प्रदेशी स्कन्ध में घटित होता है। वह इस प्रकार है-दो चरम और दो अचरम / क्योंकि जब चतुःप्रदेशी स्कन्ध समश्रेणी में स्थित चार आकाशप्रदेशों में 0 0 0 0 इस प्रकार अवगाहन करता है, तब आदि और अन्त में अवगाढ़ दो परमाणु (प्रदेश), दोनों चरम होते हैं और बीच के दो परमाणु अचरम (द्वय) कहलाते हैं। इस कारण इसे कथंचित् 'दो चरम और दो अचरम' कहा जा सकता है। इसी प्रकार बारहवाँ भंग-कथंचित् चरम और दो प्रवक्तव्यरूप--भी उसमें घटित होता है। वह इस प्रकार-जब चतुष्प्रदेशात्मक स्कन्ध चार आकाशप्रदेशों में अवगाहना करता है, तब इस प्रकार की स्थापना के अनुसार उसके दो परमाणु समश्रेणी में स्थित दो प्राकाशप्रदेशों में होते हैं. और दो परमाणु विश्रेणी में स्थित दो आकाशप्रदेशों में होते हैं। ऐसी स्थिति में समश्रेणी में स्थित दो परमाणु द्विप्रदेशावगाढ़ द्विप्रदेशी स्कन्ध के समान 'चरम' होते हैं और विश्रेणी में स्थित दो परमाणु अकेले परमाणु के समान चरम या अचरम शब्दों से कहने योग्य न होने से प्रवक्तव्य होते हैं / अतएव समन चतुष्प्रदेशीस्कन्ध कथंचित् एक चरम और दो (अनेक) अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इसके पश्चात् तेईसवाँ भंग इसमें घटित होता है / वह इस प्रकार---जब चतुष्प्रदेशी स्कन्ध चार आकाशप्रदेशों में इस प्रकार की स्थापना के अनुसार अवगाहना करता है, तब तीन परमाणु तो समश्रेणी में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं और एक परमाणु विश्रेणी में स्थित आकाशप्रदेश में रहता है। ऐसी स्थिति में समश्रेणी में स्थित तीन परमाणुगों में से प्रादि और अन्त के परमाणु पर्यन्तवर्ती होने के कारण चरम होते हैं और बीच का परमाण म होता है तथा विश्रेणी में स्थित एक परमाणु चरम या अचरम कहलाने योग्य न होने से प्रवक्तव्य होता है। इस प्रकार समन चतुष्प्रदेशीस्कन्ध दो (अनेक) चरमरूप, एक अचरम और एक प्रवक्तव्यरूप कहलाता है। इस प्रकार पहला, तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेईसवाँ, इन 7 भंगों के सिवाय शेष 19 भंग इसमें नहीं पाये जाते। पंचप्रदेशी स्कन्ध में ग्यारह भंग-पांच प्रदेशों वाले स्कन्ध में चरमादि 11 भंग पाये जाते हैं / पहला, तीसरा, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेईसवाँ, ये सात भंग तो पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार समझ लेने चाहिए। इसमें सातवाँ भंग कथंचित् एक चरम और एक अचरम इस प्रकार घटित होता है, जब पंचप्रदेशात्मक स्कन्ध पांच अाकाशप्रदेशों में इस प्रकार की स्थापना : के अनुसार अवगाहन करके रहता है, तब उभय पर्यन्तवर्ती चार परमाणु एकसम्बन्धिपरिणाम से परिणत होने से एक वर्ण, एक गन्ध, एक रस ओर एक समान स्पर्श वाले होने के कारण उनके लिए एकत्व का व्यपदेश (कथन) होने से वे 'चरम' कहे जा सकते हैं, किन्तु बीच का परमाणु मध्यवर्ती होने के कारण 'अचरम' होता है। इस प्रकार पंचप्रदेशो स्कन्ध कथंचित् उभ यरूप 'चरम और Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [ प्रज्ञापनासूत्र अचरम' कहलाता है। इसमें तेरहवां भंग- कथंचित् दो चरम एवं अवक्तव्य घटित होता है। वह 0 : इस प्रकार-जब कोई पंचप्रदेशी स्कन्ध इस प्रकार की स्थापना के अनुसार पंच. प्रदेशावगाढ़ होकर पांच आकाशप्रदेशों में अवगाहन करता है, तब उनमें से दो परमाणु ऊपर समश्रेणी में स्थित दो आकाशप्रदेशों में प्रवगाढ़ होते हैं, इसी प्रकार से दो परमाणु नीचे समश्रेणी में स्थित दो प्राकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं और एक परमाणु अन्त में बीचोंबीच स्थित होता है। ऐसी स्थिति में ऊपर के दो परमाणु द्विप्रदेशीगाढ़ द्वयणुकस्कन्ध की तरह 'चरम', तथैव नीचे के दो परमाण भी 'चरम' इस प्रकार चार चरम और एक परमाण, अकेले परमाणु के समान प्रवक्तव्य होने से समग्र पंचप्रदेशी स्कन्ध 'कथंचित् अनेक चरम और प्रवक्तव्य' कहा जा सकता है। पंचप्रदेशी स्कन्ध में चौबीसवाँ भंग-कथंचित् अनेक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्यरूप भी घटित होता है / वह इस प्रकार-जब पंचप्रदेशीस्कन्ध इस प्रकार की स्थापना के अनुसार पांच आकाशप्रदेशों में समश्रेणी और विश्रेणी में अवगाहन करके रहता है, तब उनमें से तीन परमाणु समश्रेणी में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं और दो परमाण विश्रेणी में स्थित दो आकाशप्रदेशों में अवगाढ़ होते हैं। ऐसी स्थिति में आदि-अन्तप्रदेशवर्ती दो परमाणु तो चरम कहलाते हैं, मध्यवर्ती परमाणु 'अचरम' कहलाता है तथा विश्रेणी में स्थित दो अकेले-अकेले परमाणु दो अवक्तव्य कहलाते हैं। इस प्रकार इनका समूहरूप पंचप्रदेशीस्कर चरम, एक अचरम, दो प्रवक्तव्य रूप कहा जा सकता है। इसी प्रकार 25 वाँ भंग-कथंचित् अनेक चरम, अनेक अचरम और एक प्रवक्तव्य भी घटित हो सकता है / वह इस प्रकार-जब पंचप्रदेशीस्कन्ध पांच आकाशप्रदेशों में , - इस प्रकार की स्थापना के अनुसार समश्रेणी और विश्रेणी में अवगाहन करके रहता है, तब चार परमाणु चार आकाशप्रदेशों में समश्रेणी में स्थित होते हैं और एक परमाणु विश्रेणीस्थ होकर रहता है। ऐसी स्थिति में उक्त चार प्रकाशप्रदेशों में से दो आदि-अन्तप्रदेशवर्ती 'चरम' तथा दो मध्यवर्ती 'अचरम' कहलाते हैं और एक जो अकेला परमाणु विश्रेणीस्थ है, वह अवक्तव्य है। इस प्रकार समग्र पंच प्रदेशीस्कन्ध को दो चरम, दो दो चरम और एक प्रवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। यों पहला, तीसरा, सातवां, नौवाँ, दसवाँ, ग्यारहवाँ, बारहवाँ, तेरहवाँ, तेईसवाँ, चौवीसवाँ और पच्चीसवाँ, ये 11 भंग पंचप्रदेशीस्कन्ध में होते हैं, शेष 15 भंग इसमें नहीं होते। षट्प्रदेशीस्कन्ध में पन्द्रह भंग- इसमें 11 भंग तो पंचप्रदेशीस्कन्ध में उक्त हैं, वे पूर्वयुक्ति के अनुसार समझ लेने चाहिए। शेष चार भंग इस प्रकार हैं--पाठवाँ, चौदहवां, उन्नीसवाँ और छव्वीसवाँ भंग / आठवाँ भंग है-एक चरम और दो (अनेक) अचरमरूप / वह इस प्रकार घटित होता है जब कोई षट्प्रदेशीस्कन्ध छह आकाशप्रदेशों में इस प्रकार की स्थापना / के अनुसार समश्रेणी से एकाधिक अवगाहन करता है, तब समश्रेणी में स्थित चार परमाणु पहले कहे Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद] [27 अनुसार 'चरम' और मध्यवर्ती दो परमाणु अचरम कहलाते हैं। दोनों का समूहरूप षट्प्रदेशीस्कन्ध भी कथंचित् एक चरम और दो अचरमरूप कहा जा सकता है। चौदहवां भंग-'दो चरम और दो अवक्तव्य' इस प्रकार घटित होता है-जब कोई षट्प्रदेशी स्कन्ध, इस प्रकार की स्थापना --- के अनुसार छह आकाशप्रदेशों में समश्रेणी और विश्रेणो से अवगाहन करता है, तब 1. उनमें से दो परमाणु तो समश्रेणी में स्थित आकाशप्रदेशों में ऊपर और दो नीचे रहते हैं, एक परमाणु दोनों श्रेणियों के मध्यभाग की समश्रेणी में स्थित प्रदेश में रहता है, और एक परमाणु दोनों के ऊपर विश्रेणी में रहता है। ऐसी स्थिति में ऊपर के दो परमाणु और नीचे के दो परमाणु भी 'चरम' कहलाते हैं, ये दोनों चरम 'अनेक चरम' कहलाए तथा दोनों अलग-अलग रहे हुए दोनों परमाणु दो अवक्तव्य कहलाये। इन सबका समुदायरूप षट्प्रदेशीस्कन्ध कथंचित् अनेक चरमरूप, अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है / उन्नीसवाँ भंग-चरम-अचरम-प्रवक्तव्य भी इसमें घटित हो सकता है। यह इस प्रकार-जब षट्प्रदेशी स्कन्ध छह आकाशप्रदेशों में, इस स्थापना के अनुसार 10 एक परिक्षेप से विश्रेस्थि एकाधिक :को अवगाहन करता है, तब एकवेष्टक (एक को घेरने वाले) चार परमाणु पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार 'चरम' होते हैं, मध्यवर्ती एक अचरम और विश्रेणीस्थ एक परमाणु अवक्तव्य होता है। इनके समूहरूप षट्प्रदेशात्मकस्कन्ध को चरम-अचरम-प्रवक्तव्य कहा जा सकता है / षट्प्रदेशीस्कन्ध में 26 वा भंग-अनेक चरम-अनेक अचरम-अनेक अवक्तव्यरूप भी घटित होता है। उसकी युक्ति इस प्रकार है-जब षट्प्रदेशीस्कन्ध इस स्थापना के अनुसार 00/... __छह अाकाशप्रदेशों में समश्रेणी से और विश्रेणी से अवगाहन करता है, तब आदि और अन्त के प्रदेशावगाढ़ दो चरम तथा मध्यप्रदेशावगाढ़ दो अचरम एवं विश्रेणीस्थ दो प्रदेशों में पृथक्-पृथक् अवगाढ़ एकाकी परमाणु होने से दोनों अवक्तव्य कहलाते हैं। इस प्रकार समुदितरूप से षट्प्रदेशीस्कन्ध को कथंचित् अनेक चरम-अनेक अचरम-अनेक प्रवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इस प्रकार षट्प्रदेशीस्कन्ध में पूर्वोक्त 15 भंग होते हैं, शेष 11 भंग इसमें नहीं होते। सप्तप्रदेशीस्कन्ध में 17 भंग---इस स्कन्ध में पूर्वोक्त षट्प्रदेशीस्कन्ध में कहे गए 15 भंग तो उसी प्रकार हैं / उनका विश्लेषण पूर्वोक्त युक्तियों के अनुसार कर लेना चाहिये। इस स्कन्ध में दो भंग विशेष हैं / वे हैं-बीसवाँ और इक्कीसवाँ भंग / सप्तप्रदेशीस्कन्ध में बीसवाँ भंग-कथंचित एक चरम-एक अचरम-अनेक (दो) प्रवक्तव्य / वह इस प्रकार घटित होता है-जब सात आकाश प्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब उसकी स्थापना के अनुसार 100 समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्ती दो-दो परमाणुओं के कारण वह 'चरम' है, मध्यवर्ती परमाणु के कारण 'अचरम' Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [प्रज्ञापनासूत्र है और विश्रेणी में स्थित पृथक्-पृथक् दो परमाणुओं के कारण वह अनेक प्रवक्तव्य भी है। इस प्रकार इन तीनों के समुदितरूप में सप्तप्रदेशीस्कन्ध को एक चरम, एक, अचरम एवं अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इसमें 21 वाँ भंग कथंचित् एक चरम, अनेक अचरम और एक अवक्तव्यरूप भी घटित होता है। वह इस प्रकार जब सात प्रकाशप्रदेशों में उसका अवगाहन होता है, तब उसकी स्थापना के अनुसार 10 | 0 deg0 समश्रेणी में स्थित उभयपर्यन्तवर्ती एक-एक परमाणु की अपेक्षा से वह 'चरम' है, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से वह अनेक अचरमरूप है और विश्रेणी में स्थित एक परमाणु के कारण वह अवक्तव्य है। इन तीनों के समुदायरूप सप्तप्रदेशी स्कन्ध को एक चरम, अनेक अचरम, एक अवक्तव्य कहा जा सकता है। यों सप्तप्रदेशी स्कन्ध में 17 भंगों के सिवाय शेष 9 भंग नहीं पाए जाते।' अष्टप्रदेशीस्कन्ध में 18 भंग--इस स्कन्ध में 17 भंग तो सप्तप्रदेशी स्कन्ध में जो बताए गए हैं, वे ही हैं / केवल 22 वा भंग-एक चरम, अनेक (दो) अचरम और अनेक (दो) प्रवक्तव्य अधिक है। 22 वाँ भंग इस प्रकार घटित होता है-पाठ आकाशप्रदेशों में जब अष्टप्रदेशीस्कन्ध अवगाहन करता है, तब उसकी स्थापना | 0 0 के अनुसार समश्रेणी में स्थित पर्यतवर्ती परमाणुनों की अपेक्षा से चरम, मध्यवर्ती दो परमाणुओं की अपेक्षा से दो अचरम एवं विश्रेणी में स्थित दो परमाणुओं के कारण दो प्रवक्तव्य होते हैं। इन तीनों के समुदायरूप अष्टप्रदेशीस्कन्ध का एक चरम, अनेक अचरम तथा अनेक अवक्तव्यरूप कहा जा सकता है। इस प्रकार अष्टप्रदेशीस्कन्ध में 18 भंग होते हैं, शेष 8 भंग इसमें नहीं पाये जाते / / ___ असंख्येयप्रदेशात्मक लोक में अनन्तानन्त स्कन्धों का अवगाहन कैसे- यहाँ एक शंका उपस्थित होती है कि समग्र लोक तो असंख्यात प्रदेशात्मक है, उसमें असंख्यात प्रदेशात्मक और अनन्त प्रदेशात्मक स्कन्धों का अवगाहन कैसे हो जाता है ? इसका समाधान है, लोक का माहात्म्य ही ऐसा है कि केवल ये दो स्कन्ध नहीं, बल्कि अनन्तानन्त द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तानन्त संख्यातप्रदेशी, अनन्तानन्त असंख्यातप्रदेशी और अनन्तानन्त अनन्तप्रदेशी स्कन्ध इसी एक लोक में ही अवगाढ होकर उसी तरह रहते हैं, जिस तरह एक भवन में एक दीपक की तरह हजारों दीपकों की प्रभा के परमाणु रहते हैं। संस्थान की अपेक्षा से चरमादि की प्ररूपणा-- 761. कति णं भंते ! संठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच संठाणा पण्णत्ता / तं जहा-परिमंडले 1 वट्टे 2 तंसे 3 चउरसे 4 प्रायते 5 / [761 प्र.] भगवन् ! संस्थान कितने कहे गए हैं ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पृ. 240 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ टिप्पण), पृ. 199 से 201 2. प्रज्ञापना. म. वत्ति, पत्रांक 234 से 239 तक 3. बही, म. वृत्ति, पत्रांक 242 Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद ] [ 29 [791 उ.] गौतम ! पांच संस्थान कहे गए हैं। वे इस प्रकार-१. परिमण्डल, 2. वृत्त 3. त्र्यस्र, 4. चतुरस्र और 5. पायत / 762. परिमंडला गं भंते ! संठाणा किं संखेज्जा प्रसंखेज्जा अणंता ? गोयमा ! णो संखेज्जा, नो प्रसंखेज्जा, अणंता / एवं जाव प्रायता / [762 प्र.] भगवन् ! परिमण्डलसंस्थान संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं ? [762 उ.) गौतम ! (वे) संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं। इसी प्रकार (वृत्त से लेकर) यावत् आयत (तक के विषय में समझना चाहिए / ) 763. परिमंडले णं भंते ! संठाणे कि संखेज्जपएसिए असंखेज्जपएसिए अणंतपएसिए ? गोयमा ! सिय संखेज्जपएसिए सिय असंखेज्जपदेसिए सिय अणंतपदेसिए / एवं जाव प्रायते / [763 प्र.] भगवन् ! परिमण्डलसंस्थान संख्यातप्रदेशी है, असंख्यातप्रदेशी है अथवा अनन्तप्रदेशी है ? [793 उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् संख्यातप्रदेशी है, कदाचित् असंख्यातप्रदेशी है और कदाचित् अनन्तप्रदेशी है / इसी प्रकार (वृत्त से लेकर) यावत् आयत (तक के विषय में समझ लेना चाहिए।) 764. परिमंडले णं भंते ! संठाणे संखेज्जपदेसिए कि संखेज्जपदेसोगाढे असंखेज्जपएसोगाढे अगंतपएसोगाढे ? गोयमा ! संखेज्जपएसोगाढे, नो प्रसंखेज्जपएसोगाढे नो प्रणंतपएसोगाढे / एवं जाव प्रायते / [794 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ होता है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है ? [794 उ.] गौतम! (संख्यातप्रदेशो परिमण्डलसंस्थान) संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, किन्तु न तो असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और न अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ / इसी प्रकार पायतसंस्थान तक (के विषय में कहना चाहिए / ) 765. परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेज्जपदेसिए कि संखेज्जपदेसोगाढे असंखिज्जपदेसोगाढे अणंतपएसोगाढे ? गोयमा ! सिय संखेज्जपएसोगाढे सिय असंखेज्जपदेसोगाढे, णो अणंतपदेसोगाढे। एवं जाव प्रायते। 1795 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है ? [795 उ.] गौतम ! (असंख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान) कदाचित संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और कदाचित असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, किन्तु अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ नहीं होता। इसी प्रकार (वृत्त से लेकर) आयत संस्थान तक (के विषय में कहना चाहिए।) Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 ] [प्रज्ञापनासूब 766. परिमंडले णं भंते ! संठाणे अणंतपएसिए कि संखेज्जपएसोगाढे असंखेज्जपएसोगाढे अणंतपएसोगाढे ? गोयमा ! सिय संखेज्जपएसोगाढे असंखेज्जपएसोगाढे, नो अणंतपएसोगाढे। एवं जाव प्रायते। [796 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, अथवा अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ होता है ? [766 उ ] गौतम ! (अनन्तप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान) कदाचित् संख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है और कदाचित असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ होता है, (किन्तु) अनन्त प्रदेशों में अवगाढ़ नहीं होता। इसी प्रकार (वृत्तसंस्थान से लेकर) आयतसंस्थान तक (के विषय में समझना चाहिए।) 767. परिमंडले णं भंते ! संठाणे संखेज्जपदेसिए संखेज्जपएसोगाढे कि चरिमे अचरिमे चरिमाई प्रचरिमाइं चरिमंतपदेसा प्रचरिमंतपदेसा? गोयमा! परिमंडले णं संठाणे संखेज्जपदेसिए संखेज्जपदेसोगाढ नो चरिमे नो अचरिमे नो चरिमाई नो प्रचरिमाइंनो चरिमंतपदेसा नो अचरिमंतपएसा, नियमा प्रचरिमं च चरिमाणि य चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य / एवं जाव प्रायते / [797 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम है, अचरम है, (बहुवचनान्त) अनेक चरमरूप है, अनेक अचरमरूप है, चरमान्तप्रदेश है अथवा अचरमान्त प्रदेश है ? [797 उ.] गौतम ! संख्यातप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान, न तो चरम है, न अचरम है, न (बहुवचनान्त) चरम है, न (बहुवचनान्त) अचरम है, न चरमान्तप्रदेश है और न ही अचरमान्तप्रदेश है, किन्तु नियम से अचरम, (बहुवचनान्त) अनेक चरमरूप, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश है। ___ इसी प्रकार (संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ वृत्तसंस्थान से लेकर) यावत् प्रायतसंस्थान तक (के विषय में कहना चाहिए।) 798, परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेज्जपएसिए संखेज्जपदेसोगाढे कि चरिमे० पुच्छा। गोयमा ! असंखेज्जपएसिए संखेज्जपएसोगाढे जहा संखेज्जपएसिए (सु. 767) / एवं जाव प्रायते। [798 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान क्या चरम है, अचरम है, (बहुवचनान्त) अनेक चरम, अनेक अचरमरूप है, चरमान्तप्रदेश है, अथवा अचरमान्तप्रदेश है ? [798 उ.] गौतम ! असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के विषय में (सू. 797 में उल्लिखित) संख्यातप्रदेशी के समान ही समझना चाहिए। इसी प्रकार (असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ वृत्तसंस्थान से लेकर) यावत आयतसंस्थान तक समझना चाहिए। Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवां परमपव] [31 796. परिमंडले णं भंते ! संठाणे असंखेज्जपदेसिते असंखेज्जपएसोगाढे कि चरिमे० पुच्छा। गोयमा! असंखेज्जपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे नो चरिमे जहा संखेज्जपदेसोगाढे (सु. 768) / एवं जाव प्रायते / [799 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम है, अचरम है, अनेक चरमरूप है, अनेक अचरमरूप है, चरमान्त प्रदेश है अथवा अचरमान्त प्रदेश है ? [799 उ.] गौतम ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम नहीं है, इत्यादि समग्र प्ररूपणा सू. 798 में उल्लिखित संख्यातप्रदेशावगाढ़ की तरह समझना चाहिए / इसी प्रकार (को प्ररूपणा) यावत् आयतसंस्थान तक (करनी चाहिए / ) 800. परिमंडले णं भंते ! संठाणे अणंतपएसिए संखेज्जपएसोगाढे कि चरिमे० पुच्छा / गोयमा ! तहेव (सु. 767) जाव प्रायते / [800 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी और संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान चरम है, अचरम है, (इत्यादि पूर्ववत्) पृच्छा (का क्या समाधान ?) [800 उ.] गौतम ! इसकी प्ररूपणा सू. 797 के अनुसार संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ के समान यावत अायतसंस्थान पर्यन्त समझनी चाहिए। 801. अणंतपदेसिए असंखेज्जपदेसोगाढे जहा संखेज्जपदेसोगाढे (सु. 800) / एवं जाव प्रायते। 801] जैसे (सू. 800 में) अनन्तप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ (परिमण्डलादि संस्थानों के चरमाचरमादि के विषय में कहा,) उसी प्रकार अनन्तप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ (परिमण्डलादि के विषय में) यावत् आयतसंस्थान (तक कहना चाहिए / ) 802. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स संखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपदेसाण य अचरिमंतपदेसाण य दवट्टयाए पदेसट्टयाए दन्वटुपदेसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 // गोयमा ! सम्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स दवट्टयाए एगे अचरिमे 1 चरिमाइं संखेज्जगुणाई 2 अचरिमं च चरिमाणि य दो वि बिसेसाहियाई 3 / पदेसट्टयाए सव्यस्थोवा परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपदेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स चरिमंतपदेसा 1 प्रचरिमंतपदेसा संखेज्जगुणा 2 चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसेसाहिया 3 / दबटुपदेसट्टयाए सम्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स संखेज्जपवेसियस्स संखेज्जपदेसोगाढस्स दबट्टयाए एगे प्रचरिमे 1 चरिमाइं संखेज्जगुणाई 2 अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई 3 चरिमंतपदेसा संखेज्जगुणा 4 प्रचरिमंतपएसा संखेज्जगुणा 5 चरिमंतपदेसा य अचरिमंतपदेसा य दो वि विसे साहिया 6 / एवं बट्टतंस-चउरंस-प्रायएसु वि जोएप्रव्वं / [802 प्र.] भगवन् ! संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 ] [प्रज्ञापनासूत्र चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्यप्रदेश इन दोनों की अपेक्षा से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [802 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से--संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे अल्प है। (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, अचरम और बहुवचनान्त चरम, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरमान्तप्रदेश सबसे थोड़े हैं, (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे अधिक हैं, उनसे चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से—संख्यातप्रदेशी-संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे अल्प है, (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे हैं, (उनसे) एक अचरम और अनेक चरम, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) चरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं। ___ इसी प्रकार की योजना वृत्त, त्यस्र, चतुरस्र और पायत संस्थान के (चरमादि के अल्पबहुत्व के) विषय में कर लेनी चाहिए। 803. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स प्रसंखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स अचरिमस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य प्रचारमंतपएसाण य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स दब्वट्ठयाए एगे प्रचरिमे 1 चरिमाइं संखेज्जगुणाई 2 अचरिमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई 3 / पदेसट्टयाए सम्वत्योवा परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स चरिमंतएएसा 1 अचरिमंतपएसा संखेज्जगुणा 2 चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो धि विसेसाहिया 3 / दवट्ठपएसट्टयाए सव्वत्थोवे परिमंडलस्स संठाणस्स असंखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स दबट्टयाए एगे अचरिमे 1 चरिमाई संखेज्जगुणाई 2 प्रचारमं च चरिमाणि य दो वि विसेसाहियाई 3 चरिमंतपएसा संखेज्जगुणा 4 अचरिमंतपएसा संखेज्जगुणा 5 चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य दो वि विसेसाहिया 6 / एवं जाव प्रायते। [803 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [803 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान का एक अचरम सबसे थोड़ा है, (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, (उनसे) एक अचरम और अनेक चरम, ये दोनों विशेषाधिक हैं / प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशो संख्यात प्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरमान्तप्रदेश सबसे कम हैं, (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उससे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डल Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद ] [ 33 संस्थान का एक अचरम सबसे कम है, (उसकी अपेक्षा) अनेक चरम संख्यातगुणे अधिक हैं, (उनसे) एक अचरम और बहुत चरम, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अचरमान्तप्रदेश संख्यातगुणे हैं, (उनसे) चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश, ये दोनों (मिलकर) विशेषाधिक हैं / ___इसी प्रकार यावत् प्रायत तक के (चरमादि के अल्पबहुत्व के) विषय में (कथन करना चाहिए।) 804. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स असंखेज्जपदेसियस्स असंखेज्जपएसोगाढस्स अचरि. मस्स य चरिमाण य चरिमंतपएसाण य अचरिमंतपएसाण य दवट्ठयाए पएसट्टयाए दवटुपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 / __ गोयमा ! जहा रयणप्पभाए अप्पाबहुयं (सु. 777) तहेव गिरवसेसं भाणियव्वं / एवं जाव प्रायते। [804 प्र.] भगवन् ! असंख्यातप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [804 उ.] गौतम ! जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी के चरमादि का अल्पबहुत्व (सु. 777 में) प्रतिपादित किया गया है, वह सारा उसी प्रकार कहना चाहिए / इसी प्रकार (की प्ररूपणा) अायतसंस्थान तक (समझनी चाहिए।) 805. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स प्रणंतपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स अचरिमस्स य 4 दव्वट्ठयाए 3 कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! जहा संखेज्जपएसियस्स संखेज्जपएसोगाढस्स (सु. 802) / णवरं संकमे अणंतगुणा / एवं जाव प्रायते। .. [805 प्र. भगवन् ! अनन्तप्रदेशी एवं संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेशों की अपेक्षा एवं द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [805 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 802 में) संख्यातप्रदेशावगाढ़ संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान के चरमादि के अल्पबहुत्व के विषय में कहा, वैसे ही इसके विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि संक्रम में अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार (वृत्तसंस्थान से लेकर) यावत् आयतसंस्थान (तक कहना चाहिए / ) 806. परिमंडलस्स णं भंते ! संठाणस्स प्रणंतपएसियस्स असंखेज्जपएसोगाढस्स अचरिमस्स य४? जहा रयणप्पभाए (सु. 777) / णवरं संको अणंतगुणा / एवं जाव प्रायते / [806 प्र.] भगवन् ! अनन्तप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डल संस्थान के अचरम, अनेक चरम, चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक है ? Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [ प्रज्ञापनासूत्र [806 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 777 में) रत्नप्रभापृथ्वी के चरम, अचरम आदि के विषय में अल्पबहुत्व कहा गया है, उसी प्रकार अनन्तप्रदेशी एवं असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलसंस्थान के चरम, अचरम आदि के अल्पबहुत्व के विषय में समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि संक्रम में अनन्तगुणा है। इसी प्रकार (वृत्तसंस्थान से लेकर) यावत् प्रायतसंस्थान (के चरमादि के अल्पबहुत्व के विषय में समझ लेना चाहिए। _ विवेचन-विशिष्ट परिमण्डलादि के चरमादि के अल्पबहत्व की प्ररूपणा-प्रस्तुत सोलह सूत्रों (सू. 791 से 806 तक) में परिमण्डलादि संस्थानों के संख्यातप्रदेशिकादि तथा संख्यातप्रदेशावगाढ़ादि विविध रूपों का प्रतिपादन करके उनके अचरम-चरमादि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की संख्यातप्रदेशी आदि संस्थानों के अवगाहन की प्ररूपणा-संख्यात प्रदेशी परिमण्डल आदि संस्थान संख्यातप्रदेशों में ही अवगाढ़ होता है, असंख्यातप्रदेशों में या अनन्तप्रदेशों में प्रवगाढ़ नहीं होता, क्योंकि संख्यातप्रदेशी परिमण्डल आदि संस्थानों के प्रदेश संख्यात ही होते हैं / असंख्यातप्रदेशी परिमण्डल प्रादि संस्थानों का कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात प्रदेशों में अवगाह होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है, किन्तु उसका अनन्त प्रदेशों में अवगाह होना विरुद्ध है। इसी प्रकार अनन्तप्रदेशी परिमण्डलादि संस्थानों का अवगाह भी कदाचित् संख्यातप्रदेशों में और कदाचित् असंख्यातप्रदेशों में होता है, किन्तु अनन्तप्रदेशों में नहीं; क्योंकि अनन्तप्रदेशी परिमण्डलादि संस्थान का अनन्त आकाशप्रदेशों में अवगाह नहीं हो सकता। सैद्धान्तिक दृष्टि से समग्र लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं, अनन्त नहीं और लोकाकाश के बाहर पुद्गलों की गति या स्थिति हो नहीं सकती। अतः अनन्तप्रदेशी परिमण्डलादि संस्थान या तो संख्यात प्रदेशों में अवगाहन करता है या असंख्यातप्रदेशों में / अनन्तप्रदेशों में उसका अवगाह सम्भव नहीं है।' पंचविशेषणविशिष्ट परिमण्डलादि संस्थानों का चरमादि की दृष्टि से स्वरूपविचार--प्रस्तुत 5 सूत्रों (797 से 801 तक) में निम्नोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डलसंस्थानादि का चरमादि 6 की दृष्टि से विचार किया गया है 1. संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान 2. असंख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान 3. असंख्यातप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान 4. अनन्तप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान 5. अनन्तप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़ परिमण्डलादि संस्थान चरमादि 6 पद वे ही हैं, जिनको लेकर रत्नप्रभापृथ्वी के चरमादि स्वरूप का विचार किया गया था और उपर्युक्त विशेषणविशिष्ट सभी परिमण्डलादि संस्थानों के चरमादिस्वरूप विषयक प्रश्न का उत्तर भी वही है, जो रत्नप्रभा के चरमादिविषयक प्रश्नों का उत्तर है। वह है---ये चरम, अचरम, अनेक चरम, अनेक अचरम तथा चरमान्तप्रदेश या अचरमान्तप्रदेश नहीं हैं; किन्तु रत्नप्रभा 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 244 Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवाँ चरमपद ] [ 35 पृथ्वी के समान इन संस्थानों की अनेक अवयवों के अविभागात्मक रूप में विवक्षा की जाए तो ये प्रत्येक एक अचरम हैं, अनेक चरमरूप हैं तथा प्रदेशों की विवक्षा की जाए तो चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश हैं।' पूर्वोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डलादि का अचरमादिचार की दृष्टि से अल्पबहुत्व-- संख्यातप्रदेशी संख्यातप्रदेशावगाढ़ आदि पूर्वोक्त पांच विशेषणों से युक्त परिमण्डल आदि 5 संस्थानों के अचरम, अनेकचरम, चरमान्तप्रदेश एवं अचरमान्तप्रदेश, इन चारों के अल्पबहुत्व का विचार किया है-द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य-प्रदेश दोनों की दृष्टि से / इन पांचों में से तीसरे और पांचवें को छोड़ कर बाकी के अचरमादि चार की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का उत्तर प्रायः एक-सा ही है, जैसे-द्रव्य की अपेक्षा से एक अचरम सबसे अल्प है, उससे अनेक चरम संख्यातगुण हैं, उनसे एक अचरम और अनेक चरम दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। प्रदेशों की अपेक्षा- सबसे कम चरमान्तप्रदेश हैं, अचरमान्तप्रदेश उनसे संख्यात गणे अधिक हैं, उनसे चरमान्तप्रदेश और अचरमान्तप्रदेश दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं तथा द्रव्य और प्रदेश की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व का क्रम और निर्देश इसी प्रकार है। शेष दो (असंख्यातप्रदेशी--असंख्यातप्रदेशावगाढ़ तथा अनन्तप्रदेशी असंख्यातप्रदेशावगाढ़) के अचरमादि चार की दृष्टि से अल्पबहुत्व का विचार रत्नप्रभापृथ्वी के चरमादिविषयक अल्पबहत्व के समान है / इसमें दो जगह अन्तर पड़ता है, पूर्व में जहाँ अनेक चरम और अचरमान्तप्रदेश को उपर्य क्त में संख्यातगणा बताया है, वहाँ यहाँ पर अनेक चरम और अचरमान्तप्रदेश को असंख्यात. गुणा अधिक बताया गया है। शेष सब पूर्ववत् ही है। एक अचरम से अनेक चरम को संख्यातगुण अधिक इसलिए बताया है कि समग्ररूप से परि. मण्डलादि संस्थान संख्यातप्रदेशात्मक होते हैं। _ 'संक्रम में अनन्तगुणा' का तात्पर्य-जब क्षेत्रविषयक चिन्तन से द्रव्यचिन्तन के प्रति संक्रमण अर्थात् परिवर्तन होता है, तब बहुवचनान्त चरम अनन्तगुणे होते हैं। उसकी वक्तव्यता इस प्रकार है-सबसे कम एक अचरम है, क्षेत्रत: बहुवचनान्त चरम असंख्यातगुणे हैं और द्रव्यतः अनन्तगुणे हैं। उनसे अचरम और बहुवचनान्त चरम दोनों मिलकर विशेषाधिक हैं। इस प्रकार की अल्पबहुत्वविषयक विशेषता केवल दो प्रकार के परिमण्डलादि संस्थानों में है---(१) अनन्तप्रदेशी-संख्यातप्रदेशावगाढ़ संस्थान में और अनन्तप्रदेशी-असंख्यातप्रदेशावगाढ़ संस्थान में / गति आदि की अपेक्षा से जीवों की चरमाचरमवक्तव्यता 807. जीवे णं भंते ! गतिचरिमेणं कि चरिमे प्रचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे / [807 प्र.] भगवन् ! जीव गतिचरम (की अपेक्षा से) चरम है अथवा अचरम है ? [807 उ.] गौतम ! (जीव गतिचरम की अपेक्षा से) कथंचित् (कोई) चरम है, कथंचित् (कोई) अचरम है। 1. (क) पग्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ) पृ. 202-203 (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 244 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 202 से 204 तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 244 Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 [ प्रज्ञापनासून 808. [1] रतिए णं भंते ! गतिचरिमेणं किं चरिमे प्रचरि मे ? गोयमा! सिय चरिमे सिय अचरिमे / [808-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक गतिचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [808-1 उ.] गौतम ! (वह गतिचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं पिरंतरं जाव वेमाणिए / [808-2] इसी प्रकार (एक असुरकुमार से लेकर) लगातार (एक) वैमानिक देव तक (जानना चाहिए 1) 806. [1] रतिया गं भंते ! गतिचरिमेणं कि चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि। [809-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक गतिचरम से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [806-1 उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक गतिचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं णिरंतरं जाव वेमाणिया / [809-2] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (कहना चाहिए / ) 810. [1] णेरइए णं भंते ! ठितीचरिमेणं कि चरिमे प्रचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे। [810-1 प्र.) भगवन् ! (एक) नै रयिक स्थितिचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [810-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक स्थितिचरम की दृष्टि से) कथंचित चरम है, कथंचित अचरम है। [2] एवं पिरंतरं जाव बेमाणिए। [810-2j लगातार (एक) वैमानिक देव-पर्यन्त इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) 811. [1] रतिया णं भंते ! ठितीचरिमेणं कि चरिमा प्रचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि / [811-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक स्थितिचरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [811-1 उ.] गौतम ! (स्थितिचरम की दृष्टि से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [811-2] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए / ) Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A0 दसवां चरमपद 812. [1] णेरइए णं भंते ! भवचरिमेणं कि चरिमे प्रचारमे ? गोयमा! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे / [812-1 प्र. भगवन् ! (एक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम है या अचरम ? [812-1 उ.] गौतम ! (भवचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। [812-2] (यों) लगातार (एक) वैमानिक तक इसी प्रकार (कहना चाहिए।) 813. [1] रइया णं भंते ! भवचरिमेणं किं चरिमा प्रचरिमा? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि। [813-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक भवचरम की दृष्टि से चरम हैं या अचरम हैं ? [813-1 उ.] गौतम! (अनेक नैरयिक जीव भवचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [813-2] लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। 814. [1] रइए णं भंते ! भासाचरिमेणं कि चरिमे प्रचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे। [814-1 प्र.] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (एक) नै रयिक चरम है या अचरम? [814-1 उ.] गौतम ! (भाषाचरम की दृष्टि से) एक नैरयिक कथंचित् चरम है तथा कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए। [814-2] इसी तरह लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। 815. [1] रतिया णं भंते भासाचरिमेणं कि चरिमा प्रचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि / [815-1 प्र] भगवन् ! भाषाचरम की अपेक्षा से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [815-1 उ.] गौतम ! (वे भाषाचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं एगिदियवज्जा निरंतरं जाव वेमाणिया। [815-2] एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर यावत् वैमानिक देवों तक लगातार इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38) [प्रज्ञापनासून 816. [1] रइए णं भंते ! प्राणापाणुचरिमेणं कि चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे / [816-1 प्र. भगवन् ! (एक) नैरयिक आनापान (श्वासोच्छ्वास)-चरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम? [816-1 उ.] गौतम ! (प्रानापानचरम की दृष्टि से एक नैरयिक कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है। [2] एवं णिरंतरं जाव वेमाणिए / [816-2] इसी प्रकार लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त (प्ररूपणा करनी चाहिए।) 817. [1] गैरइया णं भंते ! आणापाणुचरिमेणं कि चरिमा प्रचारमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि / [817-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आनापानचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम ? [817-1 उ.] गौतम ! (मानापानचरम को दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [817-2] इसी प्रकार अविच्छिन्न रूप से (अनेक) वैमानिक देवों तक (प्ररूपणा करनी चाहिए / ) 818. [1] रइए णं भंते ! आहारचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे / [818-1 प्र.] भगवन् ! आहारचरम की अपेक्षा से (एक) नैरयिक चरम है अथवा अचरम ? [818-1 उ.] गौतम ! (आहारचरम की दृष्टि से एक नैरयिक) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [818-2] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) 819. [1] नेरइया णं भंते ! पाहारचरिमेणं कि चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि / [819-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक आहारचरम की दृष्टि से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [816-1 उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक आहारचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया / [816-2] वैमानिक देवों तक निरन्तर इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए / ) Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसवाँ चरमपद ] 820. [1] णेरइए णं भंते ! भावचरिमेणं कि चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे / [820-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम ? [820-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से) कथंचित् चरम और कथञ्चित् अचरम है। . [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [820-2] इसी प्रकार लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त (कथन करना चाहिए।) 821. [1] णेरइया णं भंते ! भावचरिमेणं कि चरिमा अचरिमा ? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि। [821-1 प्र.] भगवन् (अनेक) नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ? [821-1 उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक भावचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [821-2] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिकों तक (प्रतिपादन करना चाहिए / ) 822. [1] णेरइए णं भंते ! वण्णचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा! सिय चरिमे सिय अचरिमे। [822-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक वर्णचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है ? [822-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक वर्णचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [822-2] इसी प्रकार निरन्तर (एक) वैमानिक पर्यन्त (कहना चाहिए / ) 823. [1] रइया णं भंते ! वण्णचरिमेणं कि चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि / [823-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक वर्णचरम की अपेक्षा से चरम हैं या अचरम हैं ? [823-1 उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक वर्णचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया / [823-2] इसी प्रकार लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (कथन करना चाहिए / ) Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनासूब 824. [1] गैरइए णं भंते ! गंधचरिमेणं किं चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे। [824-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक गन्धचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है? [824-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक गन्धचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [824-2] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (प्ररूपणा करनी चाहिए।) 825. [1] रइया णं भंते ! गंधचरिमेणं किं चरिमा प्रचरिमा? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि। [825-1 प्र.] भगवन् ! गन्धचरम की अपेक्षा से (अनेक) नैरयिक चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [825-1 उ.] गौतम ! (अनेक नैरयिक गन्धचरम की अपेक्षा से) चरम भी हैं और अचरम [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [825-2] इसी प्रकार अविच्छिन्नरूप से वैमानिक देवों तक (प्ररूपणा करनी चाहिए / ) 826. [1] जेरइए णं भंते ! रसचरिमेणं कि चरिमे प्रचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय प्रचरिमे। [826-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नरयिक रसचरम की अपेक्षा से चरम है या अचरम है ? [826-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक रसचरम की अपेक्षा से) कथंचित् चरम है और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाब वेमाणिए / [826-2] निरन्तर (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (प्रतिपादन करना चाहिए / ) 827 [1] नेरइया णं भंते ! रसचरिमेणं कि चरिमा अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि प्रचारमा वि। [827-1 प्र. भगवन् ! (अनेक) नरयिक रसचरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम ? [827.1 उ.] गौतम ! (वे रसचरम की दृष्टि से) चरम भी हैं और अचरम भी हैं / [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। [827-2] इसी प्रकार लगातार वैमानिक देवों तक (कहना चाहिए।) 828. [1] मेरइए णं भंते ! फासचरिमेगं कि चरिमे अचरिमे ? गोयमा ! सिय चरिमे सिय अचरिमे। Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद ] [41 [828-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम है अथवा अचरम है ? [828-1 उ.] गौतम ! (एक नैरयिक स्पर्शचरम की दृष्टि से) कथंचित् चरम और कथंचित् अचरम है। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिए / [828-2] लगातार (एक) वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (निरूपण करना चाहिए / ) 826. [1] णेरइया णं भंते ! फासचरिमेणं कि चरिमा प्रचरिमा? गोयमा! चरिमा वि अचरिमा वि / [829-1 प्र.] भगवन् (अनेक) नैरयिक स्पर्शचरम की अपेक्षा से चरम हैं अथवा अचरम हैं ? [829-1 उ.] गौतम ! (स्पर्शचरम की अपेक्षा से अनेक नैरयिक) चरम भी हैं और प्रचरम भी हैं। [2] एवं निरंतरं जाव वेमाणिया। संगहणिगाहा–पति ठिति भवे य भासा प्राणापाणुचरिमे य बोद्धध्वे / पाहार भावचरिमे वण रसे गंध फासे य // 11 // // पण्णवणाए भगवईए दसमं चरिमपयं समत्तं / / [829-2] इसी प्रकार (को प्ररूपणा) लगातार (अनेक) वैमानिक देवों तक (करनी चाहिए।) [संग्रहणीगाथार्थ-] 1. गति, 2. स्थिति, 3. भव, 4. भाषा, 5. आनापान (श्वासोच्छवास), 6. पाहार, 7. भाव, 8. वर्ण, 6. गन्ध, 10. रस और 11. स्पर्श, (इन ग्यारह द्वारों की अपेक्षा से जीवों की चरम-अचरम प्ररूपणा) समझनी चाहिए / / 161 // विवेचन-गति प्रादि ग्यारह को अपेक्षा से जीवों के चरमाचरमत्व का निरूपण--प्रस्तुत 23 सूत्रों (मू. 807 से 829 तक) में गति आदि ग्यारह द्वारों को अपेक्षा से चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के चरम-अचरम का निरूपण किया गया है / गतिचरम प्रादि पदों को व्याख्या-(१) गतिचरम-गतिप्रचरम-गतिपर्यायरूप चरम को गतिचरम कहते हैं / प्रश्न के समय जो जीव मनुष्यगति में विद्यमान है और उसके पश्चात् फिर कभी किसी गति में उत्पन्न नहीं होगा, अपितु मुक्ति प्राप्त कर लेगा, इस प्रकार उस जीव की वह मनुष्यगति चरम अर्थात् अन्तिम है, वह गतिचरम है, जो जीव पृच्छाकालिक गति के पश्चात् पुनः किसी गति में उत्पन्न होगा, वही गति जिसकी अन्तिम नहीं है, वह गति-अचरम है। सामान्यतया गतिचरम मनुष्य ही हो सकता है, क्योंकि मनुष्यगति से हो मुक्ति प्राप्त होती है / इस दृष्टि से तद्भवमोक्षगामी जोव गतिचरम है, शेष गति-अवरम हैं / विशेष को दृष्टि से विचार किया जाय तो जो जोव जिस गति Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] [ प्रज्ञापनासूत्र में अन्तिम बार है, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है / जैसे-पृच्छा के समय कोई जीव नरकगति में विद्यमान है, किन्तु नरक से निकलने के बाद फिर कभी नरकगति में उत्पन्न नहीं होगा, उसे (विशेषापेक्षया) 'नरकगतिचरम' कहा जा सकता है, किन्तु सामान्यतया उसे 'गतिचरम' नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नरकगति से निकलने पर उसे दूसरी गति में जन्म लेना ही पड़ेगा। अतएव सामान्य गतिचरम मनुष्य ही होता है। सामान्य जीव विषयक जो गतिचरम सुत्र है, वहाँ सामान्यदृष्टि से मनुष्य को ही कथंत्रित गतिचरम समझना चाहिए। परन्तु यहाँ आगे के जितने भी सूत्र हैं, वे विशेषदृष्टि को लेकर हैं, इसलिए गतिचरम का अर्थ हुआ-जो जीव जिस गतिपर्याय से निकल कर पुनः उसमें उत्पन्न नहीं होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिचरम है और जो पुनः उसमें उत्पन्न होगा, वह उस गति की अपेक्षा से गतिअचरम है।' (2) स्थिति-चरम-अचरम-स्थितिपर्याय रूप चरम को स्थितिचरम कहते हैं। जो नारक जीव घृच्छा के समय जिस स्थिति (आयु) का अनुभव कर रहा है, वह स्थिति अगर उसकी अन्तिम है, फिर कभी उसे वह स्थिति प्राप्त नहीं होगी तो वह नारक स्थिति की अपेक्षा चरम कहलाता है / यदि भविष्य में फिर कभी उसे उस स्थिति का अनुभव करना पड़ेगा तो वह स्थिति-अचरम (3) भव-चरम-अचरम-भवपर्यायरूप चरम भवचरम है। अर्थात्-पृच्छाकाल में जिस नारक आदि जीव का वह वर्तमान भव अन्तिम है, वह भवचरम है और जिसका वह भव अन्तिम नहीं है, वह भव-अचरम है / बहुत-से नारक ऐसे भी हैं, जो वर्तमान नारकभव के पश्चात् पुनः नारकभव में उत्पन्न नहीं होंगे, वे भवचरम हैं, किन्तु जो नारक भविष्य में पुनः नारकभव में उत्पन्न होंगे, वे भव-अचरम हैं। (4) भाषा-चरम-प्रचरम-जो जीव भाषा की दृष्टि से वरम हैं, अर्थात्--जिन्हें यह भाषा अन्तिम रूप में मिली है, फिर कभी नहीं मिलेगी, वे भाषाचरम हैं, जिन्हें फिर भाषा प्राप्त होगी, वे भाषा-अचरम हैं / एकेन्द्रिय जीव भाषा रहित होते हैं, क्योंकि उन्हें जिह्वन्द्रिय प्राप्त नहीं होती, इसलिए वे भाषाचरम या भाषा-अचरम की कोटि में परिगणित नहीं होते / (5) प्रान-प्राण (श्वासोच्छ्वास)-चरम-अचरम-ग्रानप्राणपर्यायरूप चरम अानप्राणचरम कहलाता है / पृच्छा के समय जो जीव उस भव में अन्तिम श्वासोच्छ्वास ले रहा होता है, उसके बाद उस भव में फिर श्वासोच्छ्वास नहीं लेगा, वह श्वासोच्छ्वासचरम है, उससे भिन्न जो हैं, वे श्वासोच्छ्वास-अचरम हैं। (6) प्राहार-चरम-अचरम--आहारपर्यायरूप चरम को प्राहारचरम कहते हैं / सामान्यतया आहारचरम मुक्त मनुष्य होते हैं / विशेषतया उस गति या भव की दृष्टि से जो अन्तिम आहार ले रहा हो, वह उस गति या भव की अपेक्षा आहारचरम है, जो उससे भिन्न हो, वह पाहारअचरम है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक 245 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 245-246 Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां चरमपद ] [43 (7) भाव-चरम-अचरम-ग्रौदयिक आदि पांच भावों के अर्थ में यहाँ भाव शब्द है / औदयिक आदि भावों में से कोई भाव जिस जीव के लिए अन्तिम हो, फिर कभी अथवा वर्तमान गति में फिर कभी वह भाव नहीं प्राप्त होगा. तब उस जीव को भावचरम कहा जायेगा, इसके विपरीत भावअचरम है। (8-11) वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-चरम अचरम-जिस जीव के लिए वर्ण, गन्ध, रस या स्पर्श अन्तिम हो, फिर उसे प्राप्त न हो, वह वर्णादि-चरम है, जिसे पुन: वर्णादि प्राप्त हो रहे हैं, होंगे भी, वह वर्णादि-अचरम है / इन ग्यारह द्वारों के माध्यम से एकवचन और बहुवचन के रूप में नारकों से लेकर वैमानिकों तक के चरम-अचरम विषयक प्रश्नों के उत्तर एक से हैं। एकवचनात्मक नारकादि जीव कथंचित् चरम है, कथंचित् अचरम है, अर्थात कोई नारक आदि चरम होता है, कोई अचरम / इसी प्रकार बहुवचनात्मक नारकादि जीव चरम भी हैं और अचरम भी हैं।' // प्रज्ञापनासत्र : दसवां चरमपद समाप्त // 1. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 219 से 231 (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 246 Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं भासापयं ग्यारहवाँ भाषापद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का ग्यारहवाँ भाषापद' है / * भाषापर्याप्त जीवों को अपने मनोभाव प्रकट करने के लिए भाषा एक मुख्य माध्यम है, इसके विना विचारों का आदान-प्रदान, शास्त्रीय एवं व्यावहारिक अध्ययन. तथा ज्ञानोपार्जन में कठिनता होती है। मन के बाद 'वचन' बहुत बड़ा साधन है जीव के लिए। इससे कर्मबन्धन और कर्मक्षय दोनों ही हो सकते हैं, आराधना भी हो सकती है, विराधना भी। इस हेतु से शास्त्रकार ने भाषापद की रचना की है। प्रस्तुत भाषापद में विशेषरूप से यह विचार किया गया है कि भाषा क्या है ? वह अवधारिणीअवबोधबीज है या नहीं ? अवधारणी है तो ऐसी अवधारणी भाषा सत्यादि चार प्रकार की भाषाओं में से कौन-सी है ? यदि चारों प्रकार की है, तो कैसे है ? विरोधनी भाषा कौन-सी है ? भाषा का मूल स्रोत क्या है ? यदि जीव है तो क्यों ? भाषा की उत्पत्ति कहाँ से और कैसे होती है ? भाषा की प्राकृति कैसी है ? भाषा का उद्भव और अन्त किस योग से व कहाँ होता है ? भाषाद्रव्य में पुद्गलों का ग्रहण और निर्गमन किस-किस योग से होता है ? भाषा का भाषणकाल कितना है ? भाषा मुख्यतया कितने प्रकार की है ? प्रस्तुत चार प्रकार की भाषाओं में भगवान द्वारा अनुमत भाषाएँ कितनी हैं ? तथा भाषाओं में प्रतिनियत रूप से समझी जा सके, ऐसी पर्याप्तिका कौन-कौन-सी हैं तथा इससे विपरीत अपर्याप्तिका कौन कौन-सी हैं ? * फिर पर्याप्तिका के सत्या और मषा इन दो भेदों के प्रत्येक के जनपदसत्यादि, तथा क्रोधनिःसृतादि रूप से क्रमशः दस-दस प्रकार बताए गए हैं। तदनन्तर अपर्याप्तिका के सत्यामृषा, और असत्यमृषा ये दो भेद बताकर इनके क्रमशः दस और बारह भेद बताए गये हैं / तत्पश्चात् समस्त जीवों में कौन-कौन भाषक हैं, कौन अभाषक ? तथा दैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक पूर्वोक्त चार भाषाओं में कौन-कौन-सी भाषा बोलते हैं ? इसका स्पष्टीकरण किया गया है। * प्रस्तुत पद में बीच में और अन्त में व्यक्ति और जाति की दृष्टि से स्त्री-पुरुषन्नपुसक वचन, स्त्री-पुरुष-नपुसक-प्राज्ञापनी, स्त्री-पुरुष-नपुसक प्रज्ञापनी भाषा, प्रज्ञापनी-सत्या है या अप्रज्ञापनी (मृषा) है ? विशिष्ट संज्ञानवान् के अतिरिक्त नवजात अबोध शिशुओं या अपरिपक्कावस्था में उष्ट्रादि पशुओं द्वारा बोली जाने वाली भाषा क्या सत्य है ? तत्पश्चात् पुनः पुरुषवाचक Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद : प्राथमिक ] 645 एकवचन-बहुवचन, स्त्रीवाचक एकवचन-बहुवचन, नपुंसकवाचक एकवचन-बहुवचन शब्दों के प्रयोग वाली भाषा प्रज्ञापनी (सत्या) है या मृषा ? तथा सोलह प्रकार के वचन, भाषा के चार प्रकार तथा इन्हें उपयोगपूर्वक बोलने वालों तथा उपयोगरहित बोलने वाले जीवों में से पाराधक-विराधक कौन-कौन हैं ? एवं सत्यभाषक, असत्यभाषक, मिश्रभाषक और व्यवहारभाषक, इन चारों में से कौन, किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? इन सब पर विशद चर्चा की गई है। भाषा के योग्य अर्थात् भाषा-वर्गणा के द्रव्य (पुद्गल) अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक होते हैं तथा वह स्कन्ध भी क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यातप्रदेश में स्थित हो तभी भाषायोग्य होता है, अन्यथा नहीं। काल की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति वाले होते हैं, अर्थात् उन पुद्गलों की भाषारूप में परिणति एक समय तक भी रहती है और अधिक से अधिक असंख्यात समयों तक भी रहती है। भाषा के लिए ग्रहण किये गए पुद्गलों में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के जो प्रकार हैं, वे प्रत्येक भाषापुद्गलों में एकसरीखे नहीं होते, उनमें पूद गलों के सभी प्रकारों का समावेश हो जाता है। अर्थात पुद्गल का रस, गन्धादि रूप में कोई भी परिणाम भाषायोग्यपुद्गलों में न हो, ऐसा सम्भव नहीं है। हाँ, स्पर्शों में विरोधी स्पर्शों में से एक ही स्पर्श होता है, इसलिए प्रत्येक भाषापुद्गल में दो से लेकर चार स्पों तक के पुद्गलों होते हैं / ग्रहण किये गए भाषा के पुद्गल भाषा के रूप में परिणत होकर बाहर निकलते हैं, इसमें सिर्फ दो समय जितना काल व्यतीत होता है; क्योंकि प्रथम समय में ग्रहण और द्वितीय समय में उसका निसर्ग होता है / इस प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये जाने वाले भाषा-द्रव्यों के अनेक विकल्पों की सांगोपांग चर्चा है / वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शादिविशिष्ट जिन भाषाद्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित होते हैं या अस्थित ? यदि स्थित होते हैं तो आत्मस्पृष्ट होते हैं या नहीं? इसका तात्पर्य यह है कि पुद्गल तो समग्र लोकाकाश में भरे हैं, परन्तु अात्मा तो शरीरप्रमाण ही है। ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि जीव चाहे जहाँ से भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है या आत्मा के साथ स्पर्श में पाए हुए पुद्गलों को ही ग्रहण करता है ? इसके साथ ही अन्य समाधान भी किये गये हैं-(१) जीव प्रात्मस्पृष्ट भाषापुद्गलों का ही ग्रहण करता है / (2) आत्मा के प्रदेशों का अवगाहन आकाश के जितने प्रदेशों में है, उन्हीं प्रदेशों में रहे हुए भाषापुद्गलों का ग्रहण होता है। (3) उस-उस आत्मप्रदेश से जो भाषापुद्गल निरन्तर हों, अर्थात् आत्मा के उस-उस प्रदेश में अव्यवहित रूप से जो भाषापुद्गल होते हैं, उनका ग्रहण होता है। (4) चाहे वे पुद्गल छोटे स्कन्ध के रूप में हों या बादर रूप में हों, उनका ग्रहण होता है। (5) ऐसे ग्रहण किये जाने वाले भाषा द्रव्य ऊर्ध्व, अधः या तिर्यग् दिशा में स्थित होते हैं। (6) इन भाषाद्रव्यों का जीव आदि में, मध्य में और अन्त में भी ग्रहण करता है। (7) तथा उन्हें वह प्रानुपूर्वी (क्रम से) ग्रहण करता है, जो आसन्न (निकट) हो उसे ग्रहण करता है तथा (8) छह ही दिशानों में से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है / (9) जीव अमुक समय तक सतत बोलता रहे तो उसे निरन्तर भाषाद्रव्य ग्रहण करना पड़ता है / (10) यदि बोलना सतत चालू न रखे तो सान्तर ग्रहण करता है। (11) भाषा लोक के अन्त तक जाती है। इसलिए भाषारूप में गृहीत पुद्गलों का निर्गमन दो प्रकार से होता है--(१) जिस प्रमाण में Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] [प्रज्ञापनासूत्र वे ग्रहण किये हों, उन सब पुद्गलों के पिण्ड का उसी रूप में (ज्यों-का-त्यों) निर्गमन होता है, अर्थात् वक्ता भाषावर्गणा के पुद्गलों के पिण्ड को अखण्डरूप में ही बाहर निकालता है, वह पिण्ड अमुक योजन जाने के बाद ध्वस्त हो जाता है, (उसका भाषारूप परिणमन समाप्त हो जाता है)। (2) वक्ता यदि गृहीत पुद्गलों को भेद (विभाग) करके निकालता है तो वे पिण्ड सूक्ष्म हो जाते हैं, शीघ्र ध्वस्त नहीं होते, प्रत्युत सम्पर्क में आने वाले अन्य पुद्गलों को वासित (भाषारूप में परिणत) कर देते हैं। इस कारण अनन्तगुणे बढ़ते-बढ़ते वे लोक के अन्त का स्पर्श करते हैं। * भाषा पुद्गलों का ऐसा भेदन खण्ड, प्रतर, चूणिका, अनुतटिका और उत्करिका, यों पांच प्रकार से होता है, यह दृष्टान्त तथा अल्पबहुत्व के साथ बताया है।' 1. (क) पण्णवणासुतं भा. 1 (ग) विशेषा. गा. 378 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 2, भाषापद की प्रस्तावना 84 से 88 तक (घ) प्रज्ञापना. म. व. पत्र 265 (अ) प्रावश्यक नियुक्ति गा. 7 भावापद की अलावा य से ना.. Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक्कारसमं भासापयं ग्यारहवाँ भाषापद अवधारिणी एवं चतुर्विध भाषा 830. से पूर्ण भंते ! मण्णामीति प्रोहारिणी भासा ? चितेमोति मोहारिणी भासा ? प्रह मण्णामोति मोहारिणी भासा ? अह चितेमोति प्रोहारिणी भासा ? तह मण्णामोति मोहारिणी भासा? तह चितेमोति प्रोहारिणी भासा ? हंता गोयमा ! मण्णामीति प्रोहारिणी भासा, चितेमोति ओहारिणी भासा, अह मण्णामोति पोहारिणी भासा, अह चितेमोति प्रोहारिणी प्रासा, तह मण्णामोति मोहारिणी भासा, तह चितेमोति पोहारिणी मासा। [830 प्र.] भगवन् ! मैं ऐसा मानता हूँ कि भाषा अवधारिणी (पदार्थ का अवधारणअवबोध कराने वाली) है; मैं (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करता है कि भाषा अवधारिणी है; (भगवन् !) क्या मैं ऐसा मान कि भाषा अवधारिणी है ? क्या मैं (युक्ति द्वारा) ऐसा चिन्तन करू कि भाषा अवधारिणी है ? ; (भगवन् ! पहले मैं जिस प्रकार मानता था) उसी प्रकार (अब भी) ऐसी मानू कि भाषा अवधारिणी है ? तथा उसी प्रकार मैं (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करू' कि भाषा अवधारिणी है ? [830 उ.] हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मनन-चिन्तन सत्य है।) तुम मानते हो कि भाषा अवधारिणी है, तुम (युक्ति से) चिन्तन करते (सोचते) हो कि भाषा अवधारिणी है, (यह मैं अपने केवलज्ञान से जानता हूँ।), इसके पश्चात् भी तुम मानो कि भाषा अवधारिणी है, अब तुम (निःसन्देह होकर) चिन्तन करो कि भाषा अवधारिणी है; (मैं भी केवलज्ञान के द्वारा ऐसा ही जानता हूँ, तुम्हारा जानना और सोचना यथार्थ और निर्दोष है / ) (अतएव) तुम उसी प्रकार (पूर्वमननवत्) मानो कि भाषा अवधारिणी है तथा उसी प्रकार (पूर्वचिन्तनवत्) सोचो कि भाषा अवधारिणी है। 831. पोहारिणो णं भंते ! भासा कि सच्चा मोसा सच्चामोसा असच्चामोसा? गोयमा ! सिय सच्चा, सिय मोसा, सिय सच्चामोसा, सिय असच्चामोसा। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति अोहारिणी गं भासा सिय सच्चा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असच्चामोसा? गोयमा ! आराहणी सच्चा 1 विराहणी मोसा 2 पाराविराहणी सच्चामोसा 3 जाणेव पाराहणी णेव विराहणी व पाराहणविराहणी असच्चामोसा णाम सा चउत्थी भासा 4 से एतेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-पोहारिणी णं मासा सिय सच्चा सिय मोसा सिय सच्चामोसा सिय असच्चामोसा। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 ] [प्रज्ञापतासूत्र [831 प्र.] भगवन् ! अवधारिणी भाषा क्या सत्य है, मृषा (असत्य) है, सत्यामृषा (मिश्र) है, अथवा असत्यामृषा (न सत्य, न असत्य) है ? [831 उ.] गौतम ! वह (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य होती है, कदाचित मृषा होती है, कदाचित् सत्यामृषा होती है और कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि (अवधारिणी भाषा) कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और कदाचित् असत्यामृषा (भी) होती है ? [उ.] गौतम ! (जो) आराधनी (भाषा है, वह) सत्य है, (जो) विराधनी (भाषा है, वह) मृषा है, (जो) अाराधनी-विराधनी (उभयरूपा भाषा है, वह) सत्यामृषा है, और जो न तो आराधनी (भाषा) है, न विराधनी है और न ही आराधनी-विराधनी है, वह चौथी असत्यामृषा नाम की भाषा है / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि अवधारिणी भाषा कदाचित् सत्य, कदाचित् मृषा, कदाचित् सत्यामृषा और कदाचित् असत्यामृषा होती है। विवेचन-भाषा की अवधारिणिता एवं चतुर्विधता का निर्णय प्रस्तुत दो सुत्रों (सू. 830831) में से प्रथम सूत्र में श्री गौतमस्वामी ने स्वमनन-चिन्तनानुसार भाषा की अवधारिणिता का भगवान से निर्णय कराया है तथा दूसरे सूत्र में अवधारिणी भाषा के चार प्रकारों का भी निर्णय भगवान् द्वारा कराया है। __'भाषा' और 'प्रवधारिणी' की व्याख्या-भाषा का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है--जो भाषी जाए अर्थात बोली जाए, वह भाषा है। इसकी शास्त्रीय परिभाषा है-भा (पुद्गलों) को ग्रहण करके उसे भाषा के रूप में परिणत करके (मुख आदि से) निकाला जाने वाला द्रव्यसंघात भाषा है / 'भाषा अवधारिणी है-इसका अर्थ हुया-भाषा अवबोध कराने वाली हैअवबोध की बीजभूत (कारण) है, क्योंकि अवधारिणी का अर्थ है-जिसके द्वारा पदार्थ का अवधारण-बोध या निश्चय होता है। प्रथम सूत्र का हार्द--प्रथम सूत्र (830) में श्री गौतमस्वामी ने भाषा की अवधारिणिता के सम्बन्ध में अपने मन्तव्य की सत्यता का भगवान से निर्णय कराने हेतु एक ही प्रश्न को छह वार विविध पहलुओं से दोहराया है / उसका तात्पर्य इस प्रकार है--(१) भगवन् ! मैं ऐसा मानता हूँ कि भाषा अवबोधकारिणी है, (2) मैं (युक्ति से भी) ऐसा चिन्तन करता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। इस प्रकार श्री गौतमस्वामी, भगवान् के समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट करके उसकी यथार्थता का निर्णय कराने हेतु पुनः इन दो प्रश्नों को प्रस्तुत करते हैं--(३) भगवन् ! क्या मैं ऐसा मान कि भाषा अवधारिणी है ? (4) भगवन् ! क्या मैं (युक्ति से) ऐसा चिन्तन करूं कि भाषा अवधारिणी है ? अर्थात् क्या मेरा यह मानना और सोचना निर्दोष है ? इसी मन्तव्य पर भगवान् से सत्यता की पक्की मुहर छाप लगवाने हेतु श्री गौतमस्वामी पुन: इन्हीं दो प्रश्नों को दूसरे रूप में प्रस्तुत करते 1. 'भाष्यते इति भाषा' 2. 'तद्योग्यतया परिणामितनिसज्यमानद्रव्यसंहतिः, एष पदार्थः / ' 3. अवधार्यते-अवगम्यतेऽर्थोऽनयेत्यवधारिणी-अवबोधबीजभूता इत्यर्थः / --प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 246 Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [ 49 हैं-(५-६) जैसे मैं पहले मानता और विचारता था कि भाषा अवधारिणो है, अब भी मैं उसी प्रकार मानता और विचारता हूँ कि भाषा अवधारिणी है। तात्पर्य यह है कि मेरे इस समय के मनन और चिन्तन में तथा पूर्वकालिक मनन और चिन्तन में कोई अन्तर नहीं है / भगवन् ! क्या मेरा यह मनन और चिन्तन निर्दोष एवं युक्तियुक्त है ? _भगवान का जो उत्तर है, उसमें 'मण्णामि' चितेमि' इत्यादि उत्तमपुरुषवाचक क्रियापद प्राकृतभाषा की शैली तथा पार्षप्रयोग होने के कारण मध्यमपुरुष के अर्थ में प्रयुक्त समझना चाहिए। इस दृष्टि से भगवान् के द्वारा इन्हीं पूर्वोक्त छह वाक्यों में दोहराये हुए उत्तर का अर्थ इस प्रकार होता है-'हाँ, गौतम ! (तुम्हारा मनन-चिन्तन सत्य है / ) तुम मानते हो तथा युक्तिपूर्वक सोचते हो कि भाषा अवधारिणी है, यह मैं भी अपने केवलज्ञान से जानता है। इसके पश्चात भी तुम यह मानो कि भाषा अवधारिणी है, तुम यह निःसन्देह होकर चितन करो कि भाषा अवधारिणी है। अतएव (तुमने पहले जैसा माना और सोचा था) उसी तरह मानो और सोचो कि भाषा अवधारिणी है, इसमें जरा भी शंका मत करो।' सत्या, मृषा, सत्यामषा और असत्यामृषा की व्याख्या-सत्या=सत्पुरुषों-मुनियों अथवा शिष्ट जनों के लिए जो हितकारिणी हो, अर्थात इहलोक एवं परलोक की आराधना करने में सहायक होने से मुक्ति प्राप्त कराने वाली हो, वह सत्या भाषा है क्योंकि भगवदाज्ञा के सम्यक माराधक होने से सन्त-मुनिगण ही सत्पुरुष हैं, उनके लिए यह हितकारिणी है / अथवा सन्त अर्थात्-मूलगुण और उत्तरगुण, जो कि जगत् में मुक्तिपद को प्राप्त कराने के कारण होने से परमशोभन हैं, उनके लिए जो हितकारिणो हो अथवा सत् यानी विद्यमान भगवदुपदिष्ट जीवादि पदार्थों को यथावस्थित प्ररूपणा करने में जो उपयुक्त यानी अनुकूल हो या साधिका हो वह सस्या है। मषा-सत्यभाषा से विपरीत स्वरूप वालो हो, वह भूषा है। सत्यामषा-जिसमें सत्य और असत्य दोनों मिश्रित हों, अर्थात् जिसमें कुछ अंश सत्य हो और कुछ अंश असत्य हो, वह सत्यामृषा या मिश्र भाषा है / प्रसत्यामृषा--जो भाषा इन तीनों प्रकार की भाषाओं में समाविष्ट न हो सके, अर्थात् जिसे सत्य, असत्य या उभयरूप न कहा जा सके, अथवा जिसमें इन तीनों में से किसी भी भाषा का लक्षण घटित न हो सके, वह असत्यामृषा है। इस भाषा का विषय-ग्रामन्त्रण करना (बुलाना या सम्बोधित करना) अथवा आज्ञा देना आदि है। सत्य प्रादि चारों भाषाओं को पहिचान-पाराधनी हो, वह सत्या-जिसके द्वारा मोक्षमार्ग की आराधना की जाए, वह आराधनी भाषा है। किसी भी विषय में शंका उपस्थित होने पर वस्तुतत्त्व की स्थापना की बुद्धि से जो सर्वज्ञमतानुसार बोली जाती है, जैसे कि आत्मा का सद्भाव है, वह स्वरूप से सत् है, पररूप से असत् है, द्रव्याथिक नय से नित्य है, पर्यायाथिक नय से अनित्य है, इत्यादि रूप से यथार्थ वस्तुस्वरूप का कथन करने वाली होने से भी आराधनी है। जो अाराधनी हो, उस भाषा को सत्याभाषा समझनी चाहिए। जो विराधनी हो, वह मषा-जिसके 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 247 2. 'सच्चा हिया सयामिह संतो मुणयो गुणा पयत्था वा / तविवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा // 1 / / अणहिगया जा तीसुवि सद्दो च्चिय केवलो असच्चमुसा // -प्रज्ञापना. म. वृ., प. 248 Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [ प्रज्ञापनासूत्र द्वारा मुक्तिमार्ग की विराधना हो, वह विराधनी भाषा है। विपरीत वस्तुस्थापना के प्राशय से सर्वज्ञमत के प्रतिकूल जो बोली जाती है, जैसे कि प्रात्मा नहीं है, अथवा आत्मा एकान्त नित्य है या एकान्त अनित्य है, इत्यादि / अथवा जो भाषा सच्ची होते हुए भी प ए भी परपीड़ा-जनक हो, वह भाषा विराधनी है। इस प्रकार रत्नत्रयरूप मक्तिमार्ग की विराधना करने वाली हो वह भी विराधनी है / विराधनी भाषा को मृषा समझना चाहिए। जो पाराधनो-विराधनी उभयरूप हो, वह सत्यामषा—जो भाषा आंशिक रूप से आराधनी और अांशिक रूप से विराधनी हो, वह आराधनी-विराधनी कहलाती है। जैसे-किसी ग्राम या नगर में पांच बालकों का जन्म हुआ, किन्तु किसी के पूछने पर कह देना 'इस गांव या नगर में आज दसेक बालकों का जन्म हुआ है।' 'पांच बालकों का जो जन्म हुआ' उतने अंश में यह भाषा संवादिनी होने से आराधनी है, किन्तु पूरे दस बालकों का जन्म न होने से उतने अंश में यह भाषा विसंवादिनी होने से विराधनी है / इस प्रकार स्थूल व्यवहारनय के मत से यह भाषा अाराधनी-विराधनी हई / इस प्रकार की भाषा 'सत्यामृषा' है। जो न पाराधनी हो, न विराधनी, वह असत्यामषा---जिस भाषा में आराधनी के लक्षण भी घटित न होते हो तथा जो विपरीतवस्तूस्वरूप कथन के अभाव का तथा परपीड़ा का कारण न होने से जो भाषा विराधनी भी न हो तथा जो भाषा प्रांशिक संवादी और प्रांशिक विसंवादी भी न होने से आराधन-विराधनी भी न हो, ऐसी भाषा असत्यामृषा समझनी चाहिए। ऐसी भाषा प्रायः आज्ञापनी या आमंत्रणी होती है, जैसे-मुने ! प्रतिक्रमण करो / स्थण्डिल का प्रतिलेखन करो आदि / ' विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी भाषा की प्ररूपणा 832. अह भंते ! गानो मिया पसू पक्खी पण्णवणी गं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! गानो मिया पसू पक्खी पण्णवणो णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [832 प्र.] भगवन् ! अब यह बताइए कि 'गाये,' 'मृग,' 'पशु' (अथवा) 'पक्षी' क्या यह भाषा (इस प्रकार का कथन) प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा (तो) नहीं है ? [832 उ.] हाँ गौतम ! 'गायें,' 'मृग,' 'पशु' (अथवा) 'पक्षी' यह (इस प्रकार की) भाषा प्रज्ञापनी है / यह भाषा मृषा नहीं है। 833. ग्रह भंते ! जा य इस्थिवयू (ऊ) जा य पुमवयू जा य णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! जा य इथिक्यू जा य पुमवयू जा य णपुसगवयू पण्णवणी गं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [833 प्र.] भगवन् ! इसके पश्चात् यह प्रश्न है कि यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है, अथवा जो नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [833 उ.] हाँ, गौतम ! यह जो स्त्रीवचन है और जो पुरुषवचन है, अथवा जो नपुसकवचन है, यह भाषा प्रज्ञापनी है और यह भाषा मृषा नहीं है। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 247-248 Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [51 834. प्रह भंते ! जाय इस्थिप्राणमणी जा य पुममाणमणी जा य गपुंसगमाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! जा य * इत्थियाणमणो जा य पुमाणमणो जा य णपुसगाणमणी पण्णवणी गं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [834 प्र.] भगवन् ! यह जो स्त्री-पाज्ञापनी है और जो पुरुष-प्राज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसक-प्राज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [834 उ.] हाँ, गौतम ! यह जो स्त्री-पाज्ञापनी है और जो पुरुष-प्राज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसक-प्राज्ञापनी है, यह भाषा प्रज्ञापनी है। यह भाषा मृषा नहीं है / 835. ग्रह भंते ! जा य इत्थीपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा य णपुसगपण्णवणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! जा य इत्थीपण्णवणी जा य पुमपण्णवणी जा य गपुसगपण्णवणी पण्णवणो णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [835 प्र.] भगवन् ! यह जो स्त्री-प्रज्ञापनी है और जो पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जो नपुसक-प्रज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? 835 उ.] हाँ, गौतम ! यह जो स्त्री-प्रज्ञापनी है और जो पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जो नपुंसक-प्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है। 836. अह भंते ! जा जातीति इस्थिवयू जाईइ पुमवयू जातीति ण सगवयू पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हता गोयमा ! जातोति इत्थिवयू जातीति पुमवयू जातीति णपुंसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा, न एसा भासा मोसा / 836 प्र.] भगवन् ! जो जाति में स्त्रीवचन है, जाति में पुरुषवचन है और जाति में नपुंसकवचन है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? [836 उ.] हाँ, गौतम ! जाति में स्त्रीवचन, जाति में पुरुषवचन, अथवा जाति में नपुसक वचन, यह प्रज्ञापनी भाषा है, और यह भाषा मृषा नहीं है। 837. अह भंते ! जाईति इस्थिप्राणमणी जाईति पुममाणमणी जाईति णपुसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हता गोयमा ! जातीति इत्थीग्राणमणी जातीति पुमप्राणमणी जातीति गपुसगाणमणी पण्णवणी णं एसा मासा, ण एसा भासा मोसा। [837 प्र.। भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि जाति में जो स्त्री-आज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष-आज्ञापनी है अथवा जाति में नपुंसक-प्राज्ञापनी है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है ? यह भाषा मृषा नहीं है ? Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52} [ प्रज्ञापनासूत्र [837 उ.] हाँ, गौतम ! जाति में जो स्त्री-पाज्ञापनी है, जाति में जो पुरुष-आज्ञापनी है, या जाति में जो नपुंसक-प्राज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा (असत्य) नहीं है / 838. ग्रह भंते ! जातीति इस्थिपण्णवणो जातीति पुमपण्णवणी जातीति गपुसगपणवणी पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! जातीति इत्थिपण्णवणो जातीति पुमपण्णवणी जातीति णपुसगपण्णवणी पण्णधणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा / [838 प्र.] भगवन् ! इसके अनन्तर प्रश्न है-जो जाति में स्त्री-प्रज्ञापनी है, जाति में पुरुष-प्रज्ञापनी है, अथवा जाति में जो नपुसक-प्रज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? [838 उ.] हाँ. गौतम ! जो जाति में स्त्री-प्रज्ञापनी है, जाति में पुरुष-प्रज्ञापनी है अथवा जाति में नपुसक-प्रज्ञापनी है, यह प्रज्ञापनी भाषा है और यह भाषा मृषा नहीं है / विवेचन-विविध पहलमों से प्रज्ञापनी भाषा को प्ररूपणा---प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 832 से 838 तक) में विविध पशु पक्षी नाम-प्रज्ञापना, स्त्री आदि वचन-निरूपण, स्त्री आदि आज्ञापनी, स्त्री आदि प्रज्ञापनी, जाति में स्त्री आदि वचन प्रज्ञापक, जाति में स्त्री आदि प्राज्ञापनी तथा जाति में स्त्री आदि प्रज्ञापनी, इन विविध पहलुओं से प्रज्ञापनी सत्यभाषा का प्रतिपादन किया गया है / 'प्रज्ञापनी' भाषा का अर्थ-जिससे अर्थ (पदार्थ) का प्रज्ञापन–प्ररूपण या प्रतिपादन किया जाए, उसे 'प्रज्ञापनी भाषा' कहते हैं / इसे प्ररूपणीया या अर्थप्रतिपादिनी भी कह सकते हैं। ___ सप्तसूत्रोक्त प्रज्ञापनी भाषा किस-किस प्रकार की और सत्य क्यों ? --(1) सू. 832 में निरूपित गाय आदि शब्द जातिवाचक हैं, जैसे-गाय कहने से गोजाति का बोध होता है और जाति में स्त्री, पुरुष और नपुसक तीनों लिंगों वाले आ जाते हैं। इसलिए गो आदि शब्द त्रिलिंगी होते हुए भी इस प्रकार एक लिंग में उच्चारण की जाने वाली भाषा पदार्थ का कथन करने के लिए प्रयुक्त होने से प्रज्ञापनी है तथा यह यथार्थ वस्तु का कथन करने वाली होने से सत्य है, क्योंकि शब्द चाहे किसी भी लिंग का हो, यदि वह जातिवाचक है तो देश, काल और प्रसंग के अनुसार उस जाति के अन्तर्गत वह तीनों लिंगों वाले अर्थों का बोधक होता है। यह भाषा न तो परपीड़ाजनक है, न किसी को धोखा देने आदि के उद्देश्य से बोली जाती है / इस कारण यह प्रज्ञापनी भाषा मृषा नहीं कही जा सकती। (2) इसी प्रकार (सु. 833 में प्ररूपित) शाला, माला प्रादि स्त्रीवचन (स्त्रीवाचक भाषा), घट, पट आदि पुरुषवचन (पुरुषवाचक भाषा) तथा धनं, वनं आदि नपुसकवचन (नपुसकवाचक भाषा) है, परन्तु इन शब्दों में स्त्रीत्व, पुरुषत्व या नपुंसकत्व के लक्षण घटित नहीं होते / जैसे कि कहा हैजिसके बड़े-बड़े स्तन और केश हों, उसे स्त्री समझना चाहिए, जिसके सभी अंगों में रोम हों, उसे पुरुष कहते हैं तथा जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों के लक्षण घटित न हों, उसे नपुसक जानना वाहिए। स्त्री आदि के उपर्युक्त लक्षणों के अनुसार शाला, माला आदि स्त्रीलिंगवाचक, घट-पट आदि पुरुषलिंगवाचक और धनं वनं आदि नपुंसकलिंगवाचक शब्दों में, इनमें से स्त्री आदि का कोई भी लक्षण घटित नहीं होता। ऐसी स्थिति में किसी शब्द को स्त्रीलिंग, किसी को पुरुषलिंग और किसी Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [53 ग्यारहवाँ भाषापद ] को नपुंसकलिंग कहना क्या प्रज्ञापनी भाषा है और क्या यह सत्य है ? मिथ्या नहीं ? भगवान् ने इसका उत्तर हाँ में दिया है। किसी भी शब्द का प्रयोग किया जाता है तो वह शब्द पूर्वोक्त स्त्री, पुरुष या नपुसक के लक्षणों का वाचक नहीं होता। विभिन्न लिंगों वाले शब्दों के लिंगों की व्यवस्था शब्दानुशासन या गुरु की उपदेशपरम्परा से होती है / इस प्रकार शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तु का प्रतिपादन करने के कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है / इसका प्रयोग न तो किसी दूषित आशय से किया जाता है और न ही इनसे किसी को पीड़ा उत्पन्न होती है। अतः इस प्रकार की प्रज्ञापनी भाषा सत्य है, मिथ्या नहीं / (3) सूत्र 834 के अनुसार प्रश्न का आशय यह है कि जिस भाषा से किसी स्त्री या किसी पुरुष या किसी नपुसक को आज्ञा दी जाए, ऐसी क्रमश : स्त्री-आज्ञापनी, पुरुषप्राज्ञापनी या नपुसक-प्राज्ञापनी भाषा क्या प्रज्ञापनी है और सत्य है ?क्योंकि प्रज्ञापनी भाषा ही सत्य होती है, जबकि यह तो आज्ञापनी भाषा है, सिर्फ आज्ञा देने में प्रयुक्त होती है / जिसे आज्ञा दी जाती है, वह तदनुसार क्रिया करेगा ही, यह निश्चित नहीं है। कदाचित् न भी करे / जैसे—कोई श्रावक किसी श्राविका से कहे--'प्रतिदिन सामायिक करो,' या श्रावक अपने पुत्र से कहे-'यथासमय धर्म की आराधना करो,' या श्रावक किसी नपुसक से कहे-'नौ तत्त्वों का चिन्तन किया करो,' ऐसी प्राज्ञा देने पर जिसे आज्ञा दी गई है, वह यदि उस आज्ञानुसार क्रिया न करे तो ऐसी स्थिति में आज्ञा देने वाले की भाषा क्या प्रज्ञापनी और सत्य कहलाएगी ? भगवन् का उत्तर इस प्रकार है कि जो भाषा किसी स्त्री, पुरुष, या नपुसक के लिए आज्ञात्मक है, वह आज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है / तात्पर्य यह है कि आज्ञापनी भाषा दो प्रकार की है-परलोकबाधिनी और परलोकबाधा-अनुत्पादक / इनमें से जो भाषा स्वपरानुग्रहबुद्धि से, बिना किसी शठता के, किसी पारलौकिक फल की सिद्धि के लिए अथवा किसी विशिष्ट इहलौकिक कार्यसिद्धि के लिए विनेय स्त्री, पुरुष, नपुसक जनों के प्रति बोली जाती है, वह भाषा परलोकबाधिनी नहीं होती, यही साधुवर्ग के लिए प्रज्ञापनो भाषा है और सत्य है; किन्तु इससे भिन्न प्रकार की जो भाषा होती है, वह स्व-पर-संक्लेश उत्पन्न करती है, परलोकबाधिनी है, अतएव अप्रज्ञापनी है और मषा है। (4) सू. 835 के प्रश्न का प्राशय यह है कि यह जो स्त्रीप्रज्ञापनो-स्त्री के लक्षण बतलाने वाली, पूरुषप्रज्ञापनी-पुरुष के लक्षण बतलाने वाली तथा नपुंसकप्रज्ञापनी-नपुसक के लक्षण बतलाने वाली भाषा है, क्या यह प्रज्ञापनी भाषा है और सत्य है ? मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह है कि 'खट्वा', 'घटः' और 'वनम्' आदि क्रमशः स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुसकलिंग के शब्द हैं। ये शब्द व्यवहारबल से अन्यत्र भी प्रयुक्त होते हैं। इनमें से खट्वा (खाट) में विशिष्ट स्तन और केश आदि के लक्षण घटित नहीं होते, इसी तरह 'घटः' शब्द में पुरुष के लक्षण घटित नहीं होते और न 'वनम्' में नपुंसक के लक्षण घटित होते हैं, फिर भी इन तीनों में से स्त्रीलिंगी शब्द 'खट्वा' खट्वा पदार्थ का वाचक होता है, पुल्लिगी शब्द 'घट:' घट पदार्थ का वाचक होता है, तथा नपुसकलिंगी 'वनम्' शब्द वन पदार्थ का वाचक होता है / ऐसी स्थिति में स्त्री आदि के लक्षण न होने पर भी स्त्रीलक्षण आदि कथन करने वाली भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नहीं ? यह संशय उत्पन्न होता है। भगवान् का उत्तर यह है कि जो भाषा स्त्रीप्रज्ञापनी है, पुरुषप्रज्ञापनी है या नपुसकप्रज्ञापनी है, वह भाषा प्रज्ञापनी है, मषा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि स्त्री प्रादि के लक्षण दो प्रकार के होते हैंएक शाब्दिक व्यवहार के अनुसार, दूसरे वेद के अनुसार / शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से किसी भी लिंग वाले शब्द का प्रयोग शब्दानुशासन के नियमानुसार या उस भाषा के व्यवहारानुसार करना प्रज्ञापनी भाषा है और वह सत्य है। इसी प्रकार वेद (रमणाभिलाषा) के अनुसार प्रतिपादन करना Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 ] [ प्रज्ञापनासून इष्ट हो, तब स्त्री आदि के लक्षणानुसार उस-उस लिग के शब्द का प्रयोग करना, वास्तविक अर्थ का निरूपण करना है, ऐसी भाषा प्रज्ञापनी होती है, मषा नहीं होती। (5) सूत्र 836 के प्रश्न का आशय यह है कि जो जाति (सामान्य) के अर्थ में स्त्रीवचन(स्त्रीलिंग शब्द) है, जैसे- सत्ता तथा जाति के अर्थ में जो पुरुषवचन (पुल्लिग शब्द) है, जैसे-भावः एवं जाति के अर्थ में जो नपुसकवचन है, जैसे सामान्यम्, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी और सत्य है, मृषा नहीं है ? इसका तात्पर्य यह कि जाति का अर्थ यहाँ सामान्य है। सामान्य का न तो लिंग के साथ कोई सम्बन्ध है और न ही संख्या (एकवचन, बहुवचन आदि) के साथ / अन्यतीथिकों ने तो वस्तुओं का लिंग और संख्या के साथ सम्बन्ध स्वीकार किया है। अतः यदि केवल जाति में एकवचन और नपुसकलिंग संगत हो तो उसमें त्रिलिंगता संभव नहीं है, किन्तु जातिवाचक शब्द तीनों लिंगों में प्रयुक्त होते हैं, जैसे सत्ता आदि / ऐसी स्थिति में शंका होती है कि इस प्रकार की जात्यात्मक त्रिलिंगी भाषा प्रज्ञापनी एवं सत्य है या नहीं ? भगवान् का उत्तर है-जातिवाचक जो स्त्रीवचन, पुरुषवचन और नपुसकवचन है, (जैसे-सत्ता, भावः और सामान्यम्), यह भाषा प्रज्ञापनी है, मृषा नहीं है, क्योंकि यहाँ जाति शब्द सामान्य का वाचक है। वह अन्यतीर्थीय-परिकल्पित एकान्तरूप से एक, निरवयव और निष्क्रिय नहीं है, क्योंकि ऐसा मानना प्रमाणबाधित है / वस्तुतः वस्तु का समान परिणमन ही सामान्य है और समानपरिणाम अनेकधर्मात्मक होता है / धर्म परस्पर भी और धर्मी से भी कथंचित् अभिन्न होते हैं / अतएव जाति में भी त्रिलिंगता सम्भव है। इस कारण यह भाषा प्रज्ञापनी है और मृषा नहीं है। (6) सूत्र 837 में प्ररूपित प्रश्न का आशय इस प्रकार है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा से स्त्री-पाज्ञापनी (स्त्री-प्रादेशदायिनी) होती है, जैसे कि 'यह क्षत्रियाणी ऐसा करे' तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुष-प्राज्ञापनी होती है, जैसे कि---'यह क्षत्रिय ऐसा करे', इसी प्रकार जो भाषा नसक-आज्ञापनी (नपूसक को आदेश देने वाली) है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है? तात्पर्य यह है कि जिसके द्वारा किसी स्त्री आदि को कोई प्राज्ञा दी जाए, वह प्राज्ञापनीभाषा है। किन्तु जिसे आज्ञा दी जाए, वह उस आज्ञा के अनुसार क्रिया सम्पादन करे ही, यह निश्चित नहीं है। अगर न करे तो वह आज्ञापनीभाषा अप्रज्ञापनी तथा मृषा कही जाए या नहीं ? इस शंका का निवारण करते हुए भगवान् कहते हैं हाँ, गौतम ! जाति की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष, नपुसक को प्राज्ञादायिनी प्राज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी ही है और वह मषा नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि परलोकसम्बन्धी बाधा न पहुँचाने वाली जो आज्ञापनी भाषा स्वपरानुग्रह-बुद्धि से अभीष्ट कार्य को सम्पादन करने में समर्थ विनीत स्त्री आदि विनेय जनों को आज्ञा देने के लिए बोली जाती है, जैसे-~~-'हे साध्वी ! आज शुभनक्षत्र है, अतः अमुक अंग का या श्रुतस्कन्ध का अध्ययन करो।' ऐसी प्राज्ञापनी भाषा प्रज्ञापनी है, निर्दोष है, सत्य है, किन्तु जो भाषा आज्ञापनो तो हो, किन्तु पूर्वोक्त तथ्य से विपरीत हो, अर्थात्-स्वपरपोडाजनक हो तो वह भाषा अप्रज्ञापनी है और मृषा है। (7) सूत्र 838 में प्ररूपित प्रश्न का प्राशय यह है कि जो भाषा जाति की अपेक्षा स्त्रीप्रज्ञापनी हो, अर्थात्-स्त्री के लक्षण (स्वरूप) का प्रतिपादन करने वाली हो, जैसे कि स्त्री स्वभाव से तुच्छ होती है, उसमें गौरव की बहुलता होती है, उसकी इन्द्रियां चंचल होती हैं, वह धैर्य रखने में दुर्बल होती है, तथा जो भाषा जाति की अपेक्षा से पुरुषप्रज्ञापनी यानी पुरुष के लक्षण (स्वरूप) का निरूपण करने वाली हो, यथा-पुरुष स्वाभाविक रूप से गंभीर प्राशयवाला, विपत्ति या पड़ने पर भी कायरता धारण न करने वाला होता है तथा धैर्य का परित्याग नहीं करता इत्यादि / इसी प्रकार जो भाषा जाति की अपेक्षा से नपुंसक के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाली होती है, जैसे~-नपुंसक स्वभाव से क्लीब होता है और वह मोहरूपी Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [ 55 बड़वानल को ज्वालाओं से जलता रहता है, इत्यादि / तात्पर्य यह है कि यद्यपि स्त्री, पुरुष और नपुंसक जाति के गुण नहीं होते हैं जो ऊपर बता आए हैं, तथापि कहीं किसी में अन्यथा भाव भी देखा जाता है / जैसे—कोई स्त्री भी गंभीर प्राशयवाली और उत्कृष्ट सत्वशालिनी होती है, इसके विपरीत कोई पुरुष भी प्रकृति से तुच्छ, चपलेन्द्रिय और जरा-सी विपत्ति प्रा पड़ने पर कायरता धारण करते देखे जाते हैं और कोई नपुसक भी कम मोहवाला और सत्त्ववान् होता है। अतएव यह शंका उपस्थित होती है कि पूर्वोक्त प्रकार की भाषा प्रज्ञापनी समझी जाए या मृषा समझी जाए ? इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं कि जो स्त्रीप्रज्ञापनी या नपुंसकप्रज्ञापनी भाषा है, वह प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य भाषा है, मृषा नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि जातिगत गुणों का निरूपण बाहुल्य को लेकर किया जाता है, एक-एक व्यक्ति की अपेक्षा से नहीं। यही कारण है कि जब किसी समग्र जाति के गुणों का निरूपण करना होता है तो निर्मल बुद्धि वाले प्ररूपणकर्ता 'प्रायः' शब्द का प्रयोग करते हैं। वे कहते हैं-'प्रायः ऐसा समझना चाहिए।' जहाँ 'प्रायः' शब्द का प्रयोग नहीं होता, वहाँ भी उसे प्रसंगवश समझ लेना चाहिए / अतः कदाचित् कहीं किसी व्यक्ति में जाति गुण से विपरीत पाई जाए तो भी बहुलता के कारण कोई दोष न होने से वह भाषा प्रज्ञापनी है. मृषा नहीं। अबोध बालक-बालिका तथा ऊंट आदि की अनुपयुक्त–अपरिपक्व दशा की भाषा 836. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणइ बुयमाणे अहमेसे बुयामि प्रहमेसे बुयामीति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, णऽण्णस्थ सणिणो / [839 प्र.] भगवन् ! अब प्रश्न यह है कि क्या मन्द कुमार (अबोध नवजात शिशु) अथवा मन्द कुमारिका (अबोध बालिका) बोलती हुई ऐसा जानती है कि मैं बोल रही हूँ ? [836 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है, सिवाय संज्ञी (अवधिज्ञानी. जातिस्मरण विशिष्ट पटु मन वाले) के / 840. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति प्राहारमाहारेमाणे प्रहमेसे पाहारमाहारेमि अहमेसे पाहारमाहारेमि ति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, पऽण्णत्थ सण्णिणो / [840 प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका प्रहार करती हुई जानती है कि मैं इस आहार को करती हैं ? [840 उ.] गौतम ! संज्ञी (अवधिज्ञानी आदि पूर्वोक्त) को छोड़ कर यह अर्थ समर्थ नहीं है / 841. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अम्मा-पियरो 2 ? गोयमा ! णो इणठे समझें, णऽण्णस्थ सणिणो / (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 249 से 252 तक / (ख) 'प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी, अर्थप्रतिपादनी, प्ररूपणीयेति यावत् / ' (म) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 247 से 260 तक / Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] [ प्रज्ञापनासूत्र __ [841 प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका यह जानती है कि ये मेरे माता-पिता हैं ? [841 उ.] गौतम ! संज्ञी (पूर्वोक्त अवधिज्ञानी अादि) को छोड़कर यह अर्थ समर्थ नहीं है। 842. ग्रह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे अतिराउले अयं मे अतिराउले ति? गोयमा ! णो इणठे समठे, णऽण्णस्य सणिणो / [842 प्र.] भगवन् ! मन्द कुमार अथवा मन्द कुमारिका क्या यह जानती है कि यह मेरे स्वामी (अधिराज) का घर (कुल) है ? [842 उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी (पूर्वोक्त अवधिज्ञानादि संज्ञायुक्त) के यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। 843. अह भंते ! मंदकुमारए वा मंदकुमारिया वा जाणति अयं मे भट्टिदारए अयं मे भट्टिदारए त्ति? गोयमा ! णो इणठे समठे, णऽग्णस्थ सणिणो / [843 प्र.] भगवन् ! क्या मन्द कुमार या मन्द कुमारिका यह जानती है कि यह मेरे भर्ता (स्वामी) का दारक (पुत्र) है / [843 उ.] गौतम ! संजो को छोड़कर यह अर्थ समर्थ नहीं है। 844. अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणति बुयमाणे प्रहमेसे बुयामि अहमेसे बुयामि ? गोयमा ! णो इणठे समठे, णऽण्णत्थ सणिणो। (844 प्र. भगवन् ! इसके पश्चात् प्रश्न है कि ऊंट, बैल, गधा, घोड़ा, बकरा और भेड़ (इनमें से प्रत्येक) क्या बोलता हुआ यह जानता है कि मैं यह बोल रहा हूँ ? मैं यह बोल रहा हूँ ? | [844 उ.] गौतम ! संज्ञी (विशिष्ट ज्ञानवान् या जातिस्मरणज्ञानी) को छोड़ कर यह अर्थ (अन्य किसी ऊंट आदि के लिए) शक्य नहीं है / 845. अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति आहारेमाणे प्रहमेसे प्राहारेमि अहमेसे पाहारेमि ति? गोयमा ! णो इणठे समझें, णऽण्णत्थ सणिणो / [845 प्र.] भगवन् ! (अब यह बताएँ कि) उष्ट्र से लेकर यावत् एलक (भेड़) तक (इनमें से प्रत्येक) आहार करता हुया यह जानता है कि मैं यह आहार करता हूँ, मैं यह आहार कर रहा हूँ ? [845 उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी के, यह अर्थ समर्थ नहीं है। Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [57 846. अह भंते ! उट्टे गोणे खरे घोडए अए एलए जाणति अयं मे अम्मा-पियरो 2 त्ति ? गोयमा | णो इणठे समठे, पऽण्णत्थ सणिणो। [846 प्र.] भगवन् ! ऊँट, बैल, गधा, घोड़ा, अज और एलक (भेड़) क्या यह जानता है कि ये मेरे माता-पिता हैं। [846 उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी के यह अर्थ समर्थ नहीं है / 847. ग्रह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति अयं में प्रतिराउले 2 ? गोयमा! जाव णऽण्णत्थ सणिणो / [847 प्र.] भगवन् ! ऊँट, बैल, गधा, घोड़, बकरा और भेड़ा (या भेड़) क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का घर है ? [847 उ.] गौतम ! संज्ञी को छोड़ कर, यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है / 848. अह भंते ! उट्टे जाव एलए जाणति अयं में भट्टिदारए 2 ? गोयमा ! जाव णऽणत्थ सणिणो / [848 प्र. भगवन् ! ऊँट से (लेकर) यावत् एलक (भेड़) तक (का जीव) क्या यह जानता है कि यह मेरे स्वामी का पुत्र है ? [48 उ.] गौतम ! सिवाय संज्ञी (पूर्वोक्त विशिष्ट ज्ञानवान्) के (अन्य के लिए) यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। विवेचन -अबोध बालक-बालिका तथा ऊँट प्रादि के अनुपयुक्त-अपरिपक्व दशा की भाषा का निर्णय--प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 839 से 848 तक) में से पांच सूत्र अबोध कुमार-कुमारिका से सम्बन्धित हैं और पांच सूत्र ऊंट आदि पशुओं से सम्बन्धित हैं। निष्कर्ष : पंचसूत्री का-अवधिज्ञानी, जातिस्मरणज्ञानी या विशिष्ट क्षयोपशम वाले नवजात शिशु (बच्चा या बच्ची) के सिवाय अन्य कोई भी अबोध शिशु बोलता हुआ यह नहीं जानता कि मैं यह बोल रहा हूँ; वह पाहार करता हुमा भी यह नहीं जानता कि मैं यह आहार कर रहा हूँ; वह यह जानने में भी समर्थ नहीं होता कि ये मेरे माता-पिता हैं; यह मेरे स्वामी का घर है, अथवा यह मेरे स्वामी का पुत्र है। उष्ट्र प्रादि से सम्बन्धित पंचसूत्री का निष्कर्ष-उष्ट्रादि के सम्बन्ध में भी शास्त्रकार ने पूर्वोक्त पंचसूत्री जैसी भाषा की पुनरावृत्ति की है, इसलिए इस पंचसूत्री का भी निष्कर्ष यही है कि विशिष्ट ज्ञानवान् या जातिस्मरणज्ञानी (संज्ञी) के सिवाय किसी भी ऊँट आदि को इन या ऐसी अन्य बातों का बोध नहीं होता। वृत्तिकार ने उष्ट्रादि की पंचसूत्री के सम्बन्ध में एक विशेष बात सूचित की है कि प्रस्तुत पंचसूत्री में ऊँट ग्रादि अति शैशवावस्था वाले ही समझना चाहिए, परिपक्व वय वाले नहीं; क्योंकि परिपक्व अवस्था वाले ऊँट आदि को तो इन बातों का परिज्ञान होना सम्भव है।' 1. (क) पण्णवणासुतं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 210-211 (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 252 Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 ] [प्रज्ञापनासून __ भाषा के सन्दर्भ में ही यह दशसूत्री : एक स्पष्टीकरण-इससे पूर्व सूत्रों में भाषाविषयक निरूपण किया गया था। अतः इन दस सूत्रों में भी परोक्षरूप से भाषा से सम्बन्धित कुछ विशेष बातों को प्ररूपणा की गई है। इस दससूत्री पर से फलित होता है कि भाषा दो प्रकार की होती है एक सम्यक् प्रकार से उपयुक्त (उपयोग वाले) संयत की भाषा और दूसरी अनुपयुक्त (उपयोगशून्य) असंयत जन की भाषा / जो पूर्वापरसम्बन्ध को समझ कर एवं श्रुतज्ञान के द्वारा अर्थों का विचार करके बोलता है, वह सम्यक् प्रकार से उपयुक्त कहलाता है। वह जानता है कि मैं यह बोल रहा हूँ, किन्तु जो इन्द्रियों को अपटुता (अविकास) के कारण अथवा वात आदि के विषम या विकृत हो जाने से, चैतन्य का विघात हो जाने से विक्षिप्तचित्तता, उन्माद, पागलपन या नशे की दशा में पूर्वापरसम्बन्ध नहीं जोड़ सकता; अतएव जैसे-तैसे मानसिक कल्पना करके बोलता है, वह अनुपयुक्त कहलाता है। उस स्थिति में वह यह भी नहीं जानता कि मैं क्या बोल रहा हूँ ? क्या खा रहा हूँ ? कौन मेरे माता-पिता हैं ? मेरे स्वामी का घर कौनसा है ? तथा मेरे स्वामी का पुत्र कौनसा है ? . अतः ऐसी अनुपयुक्त दशा (मन्द या विकृत चैतन्यावस्था) में वह जो कुछ भी बोलता है, वह भाषा सत्य नहीं है, ऐसा शास्त्रकार का प्राशय प्रतीत होता है। यही बात उष्टादि के सर चाहिए।' 'मन्द कुमार, मन्द कुमारिका' को भाषा की व्याख्या-बालक आदि भी बोलते देखे जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा, पूर्वोक्त चार भेदों में से कौन-सी है ; इसी शंका को लेकर श्रीगौतम स्वामी के ये प्रश्न हैं / मन्द कुमार का अर्थ-सरल ग्राशय वाला, नवजात शिशु या अबोध नन्हा बच्चा, जिसका बोध (समझ) अभी परिपक्व नहीं है, जो अभी तुतलाता हुआ बोलता है, जिसे पदार्थों का बहुत ही कम ज्ञान है। इसी प्रकार की मन्द कुमारिका भी अबोध शिशु है। इस प्रकार के अबोध शिशु के सम्बन्ध में प्रश्न है कि जब वह भाषायोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके एवं उन्हें भाषा के रूप में परिणत करके वचन रूप में उत्सर्ग करता है, तब क्या उसे मालूम रहता है कि मैं यह बोल रहा हूँ, या मैं यह खा रहा है, या ये मेरे माता-पिता हैं,अथवा यह मेरे स्वामी का घर है, या यह मेरे स्वामी का पत्र है? भगवान् कहते हैं---सिवाय संज्ञी के, ऐसा होना शक्य नहीं है / यद्यपि वह अबोध शिशु भाषा और मन की पर्याप्ति से पर्याप्त है, फिर भी उसका मन अभी तक अपटु (अविकसित) है। मन की अपटुता के कारण उसका क्षयोपशम भी मन्द होता है। श्रुतज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम प्रायः मनोरूप करण की पटुता के आश्रय से उत्पन्न होता है, यही शास्त्रसम्मत एवं लोकप्रत्यक्ष है। संज्ञी की व्याख्या-यहाँ संज्ञी शब्द का अर्थ समनस्क अभिप्रेत नहीं है, किन्तु संज्ञा से युक्त है / संज्ञा का अर्थ है- अवधिज्ञान, जातिस्मरणज्ञान या मन की विशिष्ट पटुता। जो शिशु या जो उष्ट्रादि शैशवावस्था में होते हुए भी इस प्रकार की विशिष्ट संज्ञा से युक्त (संज्ञी) होते हैं, वे तो इन बातों को जानते हैं। एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि से युक्त भाषा की प्रज्ञापनिता का निर्णय 846. ग्रह भंते ! मस्से महिसे पासे हत्यी सोहे वग्धे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे रासभे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोक्कतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वा सा एगवयू ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 252-253 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक-२५२-२५३ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद हंता गोयमा ! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावऽण्णे तहप्पगारा सवा सा एगवयू / [849 प्र.] भगवन् ! मनुष्य, महिष (भैंसा), अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया), द्वीपिक (दोपड़ा), ऋक्ष (रीछ = भालू), तरक्ष, पाराशर (गैंडा), रासभ (गधा), सियार, विडाल (बिलाव), शुनक, (कुत्ता=श्वान), कोलशुनक (शिकारी कुत्ता), कोकन्तिकी (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता (चित्रक) और चिल्ललक (वन्य हिस्र पश), ये और इसी प्रकार के जो (जितने) भी अन्य जीव हैं, क्या वे सब एकवचन हैं ? [846 उ.] हाँ, गौतम ! मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक तथा ये और अन्य जितने भी इसी प्रकार के प्राणी हैं, वे सब एकवचन हैं। 850 ग्रह भंते ! मणुस्सा जाव चिल्ललगा जे यावऽण्णे तहप्पगागा सव्वा सा बहुवयू ? हंता गोयमा ! मणुस्सा जाव चिल्ललगा सव्वा सा बहुवयू / [850 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों (बहुत-से मनुष्य) से लेकर बहुत चिल्ललक तथा ये और इसी प्रकार के जो अन्य प्राणी हैं, वे सब क्या बहुवचन हैं ? [850 उ. हाँ, गौतम ! मनुष्यों (बहुत से मनुष्य) से लेकर बहुत चिल्ललक तक तथा अन्य इसी प्रकार के प्राणी, ये सब बहुवचन हैं / 851. अह भंते ! मणुस्सी महिसी वलवा हस्थिणिया सोही बग्घी वगी दीविया अच्छी तरच्छी परस्सरी सियाली विराली सुणिया कोलसुणिया कोषकतिया ससिया चित्तिया चिल्ललिया जा यावऽण्णा तहप्पगारा सव्वा सा इस्थिवयू ? हंता गोयमा ! मणुस्सी जाव चिल्ललिया जा यावऽण्णा तहप्पगारा सव्वा सा इस्थिवयू / [851 प्र.] भगवन् ! मानुषी (स्त्री), महिषी (भैस), वडवा (घोड़ी), हस्तिनी (हथिनी), सिंही (सिंहनी), व्याघ्री, वृकी (भेड़िनी), द्वीपिनी, रीछनी, तरक्षी, पराशरा (गैंडी), रासभी (गधी), शृगाली (सियारनी), बिल्ली, कुत्ती (कुतिया), शिकारी कुत्ती, कोकन्तिका (लोमड़ी), शशकी (खरगोशनी), चित्रकी (चित्ती), चिल्ललिका, ये और अन्य इसी प्रकार के (स्त्रीजाति विशिष्ट) जो भी (जीव) हैं, क्या वे सब स्त्रीवचन हैं ? [851 उ.] हाँ, गौतम ! मानुषी से (लेकर) यावत् चिल्ललिका, ये और अन्य इसी प्रकार के जो भी (जीव) हैं, वे सब स्त्रीवचन हैं। 852. अह भंते ! मणुस्से जाव चिल्ललए जे यावऽन्ने तहापगारा सव्वा सा पुमवयू ? हता गोयमा ! मणुस्से महिसे पासे हत्थी सोहे वग्घे वगे दीविए अच्छे तरच्छे परस्सरे सियाले विराले सुणए कोलसुणए कोक्कतिए ससए चित्तए चिल्ललए जे यावऽण्णे तहप्पगारा सन्वा सा पुमक्यू / [852 प्र.] भगवन् ! मनुष्य से लेकर यावत् चिल्ललक तक तथा जो अन्य भी इसी प्रकार के प्राणी (नर जीव) हैं, क्या वे सब पुरुषवचन (पुल्लिग) हैं ? Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] [प्रज्ञापनासूत्र [852 उ.] हाँ, गौतम ! मनुष्य, महिष (भैसा), अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, दीपड़ा, रीछ, तरक्ष, पाराशर (गेंडा), सियार, विडाल, (बिलाव), कुत्ता, शिकारीकुत्ता, कोकन्तिक (लोमड़ा), शशक (खरगोश), चीता और चिल्ललक, तथा ये और इसी प्रकार के अन्य जो भी प्राणी हैं, वे सब पुरुषवचन (पुल्लिग) हैं। 853. अह भंते ! कंसं कंसोयं परिमंडलं सेलं थूभं जालं थालं तारं रूवं अच्छि पन्वं कुंड पउमं दुद्ध दहियं णवणीयं पासणं सयणं भवर्ण विमाणं छत्तं चामरं भिगारं अंगणं निरंगणं प्राभरणं रयणं जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वं तं णपुसगवयू ? हंता गोयमा ! कसं जाव रयणं जे यावऽण्णे तहप्पगारा सव्वं तं णसगवयू / [853 प्र.] भगवन् ! कांस्य (कांसा), कंसोक (कसोल), परिमण्डल, शैल, स्तूप, जाल, स्थाल, तार, रूप, अक्षि, (नेत्र), पर्व (पोर), कुण्ड, पद्म, दुग्ध (दूध), दधि (दही), नवनीत (मक्खन), प्रासन, शयन, भवन, विमान, छत्र, चामर, भृगार, अंगन (आंगन), निरंगन (निरंजन), आभरण (आभूषण) और रत्न, ये और इसी प्रकार के अन्य जितने भी (शब्द) हैं, वे सब क्या (संस्कृत-प्राकृत भाषानुसार) नपुंसकवचन (नपुंसकलिंग) हैं ? [853 उ.] हाँ, गौतम ! कांस्य से लेकर रत्न तक (तथा) इसी प्रकार के अन्य जितने भी (शब्द) हैं, वे सब नपुसकवचन हैं / 554. ग्रह भंते ! पुढवीति इत्थीवयू प्राउ त्ति पुमक्यू धण्णे त्ति णपुसगवयू पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! पुढवि त्ति इस्थिवयू, प्राउ ति पुमवयू, धण्णे त्ति गपुसगवयू, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा / [854 प्र.] भगवन् ! पृथ्वी यह (शब्द) स्त्रीवचन (स्त्रीलिंग) है, आउ (पानी) यह (शब्द) पुरुषवचन (पुल्लिग) है और धान्य, यह (शब्द) नपुसकवचन (नपुंसकलिंग) है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनो है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? [854 उ.] हाँ गौतम ! पृथ्वी, यह (शब्द) स्त्रीवचन है, अप् (पानी) यह (प्राकृत में) पुरुषवचन है और धान्य, यह (शब्द) नपुसकवचन है / यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है। 855. अह भंते ! पुढवीति इत्थीप्राणमणी प्राउ त्ति पुमाणमणी धण्णे त्ति नपुंसगाणमणी पण्णवणी णं एसा भासा? ण एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! पुढवीति इस्थिप्राणमणी, पाउ ति पुमप्राणमणी, धण्णे त्ति णसगाणमणी, पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [855 प्र.] भगवन् ! पृथ्वी, यह (भाषा) स्त्री-प्राज्ञापनी है, अप, यह (भाषा) पुरुषआज्ञापनी है और धान्य, यह (भाषा) नपुसक-प्राज्ञापनी है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद [855 उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वी, यह (जो) स्त्री-आज्ञापनी (भाषा) है, अप, यह (जा) पुरुष-पाज्ञापनी (भाषा) है और धान्य, यह (जो) नपुंसक-आज्ञापनी (भाषा) है, यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है। 856. अह भंते ! पुढवीति इस्थिपण्णवणो प्राउ त्ति पुमपण्णवणो धणे ति गपुसगपण्णवणी पाराहणी णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा ?' हंता गोयमा ! पुढवोति इस्थिपण्णवणी प्राउ ति पुमपण्णवणी घण्णे त्ति जपुसगपण्णवणी पाराहणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा / [856 प्र.] भगवन् ! पृथ्वी, यह (जो) स्त्री-प्रज्ञापनी (भाषा) है, अप्, यह (जो) पुरुषप्रज्ञापनी (भाषा) है, और धान्य, यह (जो) नपुसक-प्रज्ञापनी (भाषा) है, क्या यह भाषा आराधनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? [856 उ.] हाँ, गौतम ! पृथ्वी, यह (जो) स्त्री-प्रज्ञापनी (भाषा) है, अप, यह (जो) पुरुषप्रज्ञापनी (भाषा) है और धान्य, यह (जो) नपुंसक-प्रज्ञापनी (भाषा) है, यह भाषा आराधनी है। यह भाषा मृषा नहीं है। 857. इच्चे भंते ! इस्थिवयणं वा पुमवयणं वा गपुसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा ? | एसा भासा मोसा ? हंता गोयमा ! इस्थिवयणं वा पुमवयणं वा पसगवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा / [857 प्र.] भगवन् ! इसी प्रकार स्त्रीवचन या पुरुषवचन अथवा नपुसकवचन बोलते हुए (व्यक्ति की) क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? क्या यह भाषा मृषा नहीं है ? [857 उ.] हाँ, गौतम ! स्त्रीवचन, पुरुषवचन, अथवा नपुसकवचन बोलते हुए (व्यक्ति की) यह भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है / विवेचन–एकवचनादि तथा स्त्रीवचनादि विशिष्ट भाषा की प्रजापनिता का निर्णय-- प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 849 से 857 तक) में प्रज्ञापनी भाषा के विषय में वचन, लिंग, आज्ञापन, प्रज्ञापन आदि की अपेक्षा से निर्णयात्मक विचार प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत नौ सूत्रोक्त प्रश्नोत्तरों की व्याख्या-(१) सू. 849 में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि मनुष्य से चिल्ललक तक के तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द एकत्ववाचक होने से क्या एकवचन हैं ? अर्थात्---इस प्रकार की भाषा क्या एकत्वप्रतिपादिका भाषा है ? तात्पर्य यह है कि-वस्तु धर्ममिसमुदायात्मक होती है, और प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्म पाए जाते हैं / 'मनुष्य' कहने से धर्म: धमिसमुदायात्मक सकल (अखण्ड), परिपूर्ण वस्तु की प्रतीति होती है, ऐसा ही व्यवहार भी देखा जाता है। किन्तु एक पदार्थ के लिए एकवचन का और बहुत-से पदार्थों के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है। इस दृष्टि से यहाँ 'मनुष्य', इस प्रकार का एकवचन का प्रयोग किया गया है, जबकि 1. ग्रन्थाग्रम 4000 / Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र एकत्वविशिष्ट मनुष्य से मनुष्यगत अनेक धर्मों का बोध होता है। लोक में तो एकवचन के द्वारा व्यवहार होता है। ऐसी स्थिति में क्या मनुष्य आदि के लिए एकत्वप्रतिपादिका भाषा के रूप में एकवचनान्त प्रयोग समीचीन है ? भगवान् का उत्तर है-मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक तथा इसी प्रकार के अन्य जितने भी शब्द हैं, वह सब एकत्ववाचक भाषा है। तात्पर्य यह है कि शब्दों की प्रवृत्ति विवक्षा के अधीन है और विवक्षा वक्ता के विभिन्न प्रयोजनों के अनुसार कभी और कहीं एक प्रकार की होती है, तो कभी और कहीं उससे भिन्न प्रकार को, अत: विवक्षा अनियत होती है। उदाहरणार्थ-किसी एक ही व्यक्ति को उसका पुत्र पिता के रूप में विवक्षित करता है, तब वह व्यक्ति पिता कहलाता है तथा वहीं पुत्र उसे अपने अध्यापक के रूप में विवक्षित करता है, तब वही व्यक्ति 'उपाध्याय' कहलाने लगता है / इसी प्रकार यहाँ भी जब धर्मों को गौण करके धर्मी की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है तब धर्मी एक होने से एकवचन का ही प्रयोग होता है। उस समय समस्त धर्म, धर्मी के अन्तर्गत हो जाते हैं। इस कारण सम्पूर्ण वस्तु की प्रतीति हो जाती है। किन्तु जब धर्मी (मनुष्य) की गौणरूप में विवक्षा की जाती है और धर्मों की प्रधानरूप से विवक्षा की जाती है, तब धर्म बहुत होने के कारण धर्मी एक होने पर भी बहुवचन का प्रयोग होता है। निष्कर्ष यह है कि जब धर्मी से धर्मों को अभिन्न मान कर एकत्व की विवक्षा की जाती है तब एकवचन का प्रयोग होता है और जब धर्मी को गौण करके अनेक धर्मों की प्रधानता से विवक्षा की जाती है तब बहुवचन का प्रयोग होता है। यहाँ भी अनन्तधर्मात्मक वस्तु मनुष्य आदि भी धर्मी के एक होने से एकवचन द्वारा प्रतिपादित की जा सकती है। इसलिए यह भाषा एकत्वप्रतिपादिका है / (2) सूत्र 850 में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि मनुष्या:' से 'चिल्ललका:' तक तथा इसी प्रकार के अन्य बहुवचनान्त जो शब्द हैं, वह सब क्या बहुत्वप्रतिपादक वाणी है ? इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य आदि पूर्वोक्त शब्द जातिवाचक हैं और जाति का अर्थ है--सामान्य / सामान्य के लिए कहा जाता है कि वह एक होता है तथा नित्य, निरवयव, अक्रिय और सर्वव्यापी होता है। ऐसी स्थिति में ये जातिवाचक शब्द बहुवचनान्त कैसे हो सकते हैं ? जबकि इन शब्दों का प्रयोग बहुवचन में देखा गया है / यही इस पृच्छा का कारण है। भगवान् के उत्तर का आशय यह है कि मनुष्या:' से लेकर 'चिल्ललकाः' तक जो बहुवचनान्त शब्द हैं, वह सब बहुत्वप्रतिपादिका वाणी है। इसका कारण यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त 'मनुष्या:' आदि शब्द जातिवाचक हैं, तथापि जाति सदृश परिणामरूप होती है और सदृश परिणाम विसदृशपरिणाम का अविनाभावी होता है; अर्थात् सामान्यपरिणाम और असमानपरिणाम या सदृशता और विसदृशता साथ-साथ ही रहते हैं और दोनों में कथंचित् अभेद भी है। अतः जब असमानपरिणाम से युक्त समानपरिणाम की प्रधानता से विवक्षा की जाती है और असमानपरिणाम प्रत्येक व्यक्ति (विशेष) में भिन्न-भिन्न होता है; अतएव जब उसका कथन किया जाता है, तब बहुवचन-प्रयोग संगत ही है, जैसे-'घटाः' इत्यादि बहुवचन के समान / जब केवल एक ही समानपरिणाम की प्रधानता से विवक्षा की जाती है, और असमानपरिणाम को गौण कर दिया जाता है, तब सर्वत्र समानपरिणाम एक ही होता है, अतएव उसके प्रतिपादन करने में एकवचन का प्रयोग भी संगत है। जैसे-'सर्व घट पृथुबुध्नोदराकार (मोटा और गोल पेट के आकार का) होता है।' यहाँ 'मनुष्या:' इत्यादि शब्दप्रयोगों में असमानपरिणाम से युक्त समानपरिणाम की ही प्रधानता से विवक्षा की गई है और असमानपरिणाम अनेक होता है। इस Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] कारण यहाँ बहुवचन का प्रयोग उचित है। (3) सूत्र 851 में प्ररूपित प्रश्न का आशय यह है कि 'मानुषी से लेकर 'चिल्ललिका' तक तथा इसी प्रकार के अन्य 'या' एवं 'ई' अन्त वाले जितने भी शब्द हैं, क्या वे सब स्त्रीवचन हैं ? अर्थात्-यह सब क्या स्त्रीत्व की प्रतिपादिका भाषा है ? इस पृच्छा का तात्पर्य यह है कि यहां सर्व वस्तु त्रिलिंगी है। जैसे-यह ‘(अयं) मृत्रूपः' (मिट्टी के रूप में परिणत) है, यहाँ पुल्लिग है, '(इयं) मृत्परिणति घटाकारा परिणति है' यहाँ स्त्रीलिंग है, और '(इदं) वस्तु' है, यहाँ नपुसकलिंग है। इस प्रकार यहाँ एक ही वाच्य को तीनों लिंगों के प्रतिपादक बचनों द्वारा प्रतिपादित किया गया है। ऐसी स्थिति में केवल एक स्त्रीलिंग मात्र का प्रतिपादक शब्द तीनों लिंगों के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु का यथार्थरूप में वाचक कैसे हो सकता है ? 'नरसिंह' शब्द में केवल 'नर' शब्द या केवल 'सिंह' शब्द दोनों-नर एवं सिंह-का वाचक नहीं हो सकता, किन्तु लोकव्यवहार में स्त्रीलिंगी शब्द अपने-अपने वाच्य के वाचक देखे जाते हैं / अतः प्रश्न होता है कि क्या इस प्रकार के सभी वचन स्त्रीत्व के प्रतिपादक होते हैं ? भगवान् का उत्तर 'हाँ' में है / मानुषी से लेकर चिल्ललिका तक तथा इसी प्रकार के अन्य 'आ' 'ई' अन्त वाले शब्द स्त्रीवचन हैं, अर्थात-स्त्रीलिंग-विशिष्ट अर्थ के प्रतिपादक हैं। इसका भावार्थ इस प्रकार है-~-यद्यपि वस्तू अनेक धर्मात्मक होती है, तथापि शब्दशास्त्र का न्याय यह है कि जिस धर्म से विशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन करना इष्ट होता है, उसे मुख्य करके उसी धर्म से विशिष्ट धर्मी का प्रतिपादन किया जाता है, उसके सिवाय शेष जो भी धर्म होते हैं, उन्हें गौण करके अविवक्षित कर दिया जाता है। जैसे--किसी पुरुष में पुरुषत्व भी है, शास्त्रज्ञता भी है, दातृत्व, भोक्तृत्व, जनत्व तथा अध्यापकत्व भी है, फिर भी जब उसका पुत्र उसे आता देखता है तो कहता है-पिताजी पा रहे हैं ; उसका शिष्य कहता है—उपाध्याय पा रहे हैं। वैसे ही यहाँ भी मानुषी आदि सभी शब्द यद्यपि त्रिलिंगात्मक हैं, तथापि योनि, मदुता, अस्थिरता, चपलता आदि (स्त्रीत्व) को प्रधानता से विवक्षा करके, उससे विशिष्ट धर्मों को प्रधान करके जब (मानुषी आदि) धर्मी का प्रतिपादन किया जाता है, तब मानुषी आदि भाषा स्त्रीवाक्अर्थात्--स्त्रीत्व-प्रतिपादिका भाषा कहलाती है। (4-5) सूत्र 852 एवं 853 में प्ररूपित प्रश्नों के कारण भी पूर्ववत् समझना चाहिए कि-(४) मनुष्य से लेकर चिल्ललक तक शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द क्या पुरुषवाक् हैं-अर्थात् क्या यह सब पुल्लिगप्रतिपादक भाषा है? तथा (5) कांस्य से लेकर रत्न तक के शब्द तथा इसी प्रकार के अन्य शब्द क्या नपुसकवचन हैं, अर्थात्-क्या यह सब नपुंसकलिंग प्रतिपादक भाषा है ? इनके उत्तर का भी आशय पूर्ववत् ही समझना चाहिए। निष्कर्ष यह है कि यद्यपि मनुष्य आदि शब्द तथा कांस्यादि शब्द त्रिलिगात्मक हैं, फिर भी प्रधानरूप से प्रस्त्व धर्म अथवा नंपुसकत्व धर्म की विवक्षा के कारण इन्हें क्रमश: पुल्लिग (पुरुषवचन) तथा नपुसकलिंग (नपुसकवचन) कहा जाता है / (6) सूत्र 854 के प्रश्नोत्तर का निष्कर्ष यह है कि पृथ्वी' यह स्त्रीवाक (स्त्रीलिंग विशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है, 'अप्' शब्द पुवाक् (पुल्लिगविशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है तथा 'धान्य' शब्द नपुसकवाक् (नपुंसकलिंगविशिष्ट अर्थ की प्रतिपादिका भाषा) है, यह भाषा प्रज्ञापनी अर्थात् सत्य है, मृषा नहीं है, क्योंकि यह सत्य अर्थ का प्रतिपादन करती है / यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि 'आऊ' (अप् = जल) शब्द प्राकृत भाषा के व्याकरणानुसार पुल्लिग है, संस्कृत भाषा के अनुसार तो वह स्त्रीलिंग ही है। (7) सू. 855 में प्ररूपित प्रश्न का प्राशय है कि 'पृथ्वीं कुरु, पृथ्वीमानय' (पृथ्वी को बनाओ, पृथ्वी लामो), इस प्रकार जो स्त्री (स्त्रीलिंग की) आज्ञापनी भापा है। प्रापः आनय (पानी लामो), इस प्रकार जो पुरुष (पुल्लिग को) प्राज्ञापनी भाषा है तथा धान्यं आनय (धान्य लामो) इस प्रकार की जो नपुसक (नपुंसकलिंग की) Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [ प्रज्ञापनासून प्राज्ञापनी भाषा है, क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? मृषा नहीं है ? भगवान् ने इसका स्वीकृतिसूचक उत्तर दिया है, जिसका आशय यह है कि पूर्वोक्त तीनों स्थानों पर क्रमश: स्त्रीलिंग, पुल्लिग और नपुंसकलिंग की ही विवक्षा होने से, अन्य धर्मों को गौण करके, उन्हीं से विशिष्ट पृथ्वी, अप् एवं धान्यरूप धर्मों का यह भाषा प्रतिपादन करती है। (8) सू. 856 में प्ररूपित प्रश्न का प्राशय यह है कि 'पृथ्वी' इस प्रकार की स्त्रीप्रज्ञापनी (स्त्रीत्वस्वरूप की प्ररूपणी), 'पाप' इस प्रकार की पुरुषप्रज्ञापनी (पुस्त्वस्वरूप-प्ररूपणी) तथा 'धान्यं इस प्रकार की नपुसक-प्रज्ञापनी (नपुसकत्वरूपप्ररूपणी) भाषा क्या आराधनी (मूक्तिमार्ग की अविरोधिनी) भाषा है ? यह भाषा मषा तो नहीं है ? अर्थात-इस प्रकार कहने वाले साधक को मिथ्याभाषण का प्रसंग तो नहीं होता? भगवान् ने इसके उत्तर में कहा कि यह भाषा आराधनी (मोक्षमार्ग के आराधन के योग्य) भाषा है, यह मृषा नहीं है; क्योंकि यह भाषा शाब्दिक व्यवहार की अपेक्षा से यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने वाली है। (6) सू. 857 में प्ररूपित प्रश्न समुच्चयरूप से अतिदेशात्मक है / उसका आशय यह है कि पूर्वोक्त प्रकार से अन्य भी स्त्रीलिंगप्रतिपादक को स्त्रीवचन, पुल्लिगप्रतिपादक को पुरुषवचन तथा नपुसकलिंगप्रतिपादक को नपुंसकवचन के रूप में कहे जाने पर क्या वक्ता की वह भाषा प्रज्ञापनी (सत्य) है, मृषा नहीं है ? भगवान् इसका उत्तर भी स्वीकृतिसूचक देते हैं। जिसका आशय है कि यह प्रज्ञापनी है, शाब्दिक (शब्दानुशासन के) व्यवहार के अनुसार इसमें कोई दोष नहीं है। दोष तो तभी होता है, जब वस्तुस्वरूप कुछ और हो और कथन अन्य रूप में किया जाये / जिस वस्तु का जैसा वस्तुस्वरूप है, उसे वैसा ही कहा जाए तो उसमें क्या दोष है ?' विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वांगीण स्वरूप 858. भासा णं भंते ! किमादीया किपहवा किसंठिया किपज्जवसिया ? गोयमा ! भासा णं जोवादीया सरीरपहवा वज्जसंठिया लोगंतपज्जवसिया पण्णत्ता। [858 प्र.] भगवन् ! भाषा की आदि (मूल कारण) क्या है ? (कहाँ से है ?) (भाषा का) प्रभव (उत्पत्ति)-स्थान क्या है ? (भाषा) का आकार कैसा है ? भाषा का पर्यवसान (अन्त) कहाँ होता है ? [858 उ.] गौतम ! भाषा की प्रादि (मूल कारण) जीव है / (उसका) प्रभव (उत्पादस्थान) शरीर है / (भाषा) वज्र के आकार की है / लोक के अन्त में उसका पर्यवसान (अन्त) होता है, ऐसा कहा गया है। 856. भासा करो य पहवति ? कतिहिं च समरहिं भासती भासं? / भासा कतिप्यगारा ? कति वा भासा प्रणुमयामो? ||162 // सरीरप्पहवा भासा, दोहि य समएहि भासती भासं / भासा चउप्पगारा, दोण्णि य भासा अणुमयानो // 163 / / [८५९-प्रश्नात्मक गाथार्थ | भाषा कहाँ से उद्भूत होती है ? भाषा कितने समयों में बोली जाती है ? भाषा कितने प्रकार की है ? और कितनी भाषाएँ अनुमत हैं ? || 162 / / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 245-255 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 3, पृ. 280 से 293 तक Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [८५९-उत्तरात्मक गाथार्थ] भाषा का उद्भव (उत्पत्ति) शरीर से होता है / भाषा दो समयों में बोली जाती है / भाषा चार प्रकार की है, उनमें से दो भाषाएँ (भगवान् द्वारा बोलने के लिए) अनुमत हैं / / 193 / / विवेचन-विविध दृष्टियों से भाषा का सर्वांगीण स्वरूप-प्रस्तुत दो सूत्रों में भाषा के आदि कारण, उत्पत्तिस्थान, प्राकार, अन्त, बोलने के समय, प्रकार, अनुमतियोग्य प्रकार आदि का निरूपण किया गया है। __ भाषा का मौलिक कारण-भाषा के उपादान कारण के अतिरिक्त उसका (आदि) मुल कारण क्या है ? यह प्रथम प्रश्न है। उत्तर यह है कि अवबोधवोज भाषा का मूलकारण जीव है, क्योंकि जीव के तथाविध उच्चारणादि प्रयत्न के बिना अवबोधबीज भाषा की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। आचार्य भद्रबाहुस्वामी ने कहा है- औदारिक, वैक्रिय और आहारक, इन तीनों शरीरों में जीव से सम्बद्ध -(प्रात्म) प्रदेश होते हैं, जिनसे जीव भाषा द्रव्यों को ग्रहण करता है। तत्पश्चात ग्रहणकर्ता (वह भाषक जीव) उस भाषा को बोलता है अर्थात् गृहीत भाषाद्रव्यों का त्याग करता है। भाषा का प्रभव-उत्पत्ति कहाँ से ?--इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि भाषा शरीरप्रभवा है अर्थात् औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर से भाषा की उत्पत्ति होती है, क्योंकि इन तीनों में से किसी एक शरीर के सामर्थ्य से भाषाद्रव्य का निर्गम होता है / भाषा का संस्थान-प्राकार-भाषा वजसंस्थिता बताई गई है, जिसका तात्पर्य यह कि भाषा का आकार वज्रसदृश होता है; क्योंकि जीव के विशिष्ट प्रयत्न द्वारा निःसृष्ट (निकले हुए) भाषा के द्रव्य सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं और लोक वज्र के प्राकार का है / अतएव भाषा भी वज्राकृति कही गई है। भाषा का पर्यवसान कहाँ ?--भाषा का अन्त लोकान्त (लोक के सिरे) में होता है। अर्थात् जहाँ लोक का अन्त है वहीं भाषा का अन्त है; क्योंकि लोकान्त से आगे गतिसहायक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से भाषाद्रव्यों का गमन असम्भव है; ऐसा मैंने एवं शेष तीर्थकरों ने प्ररूपित किया है। भाषा का उद्भव किस योग से ? –यहां प्रथम गाथा में प्रश्न किया गया है कि भाषा का उदभव (उत्पत्ति) किस योग से होती है ? काययोग से, वचनयोग से या मनोयोग से ? उत्तर मेंपूर्ववत् सरीरप्पहवा (शरीरप्रभवा)' कहा गया है, किन्तु वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं--काययोगप्रभवा; क्योंकि प्रथम काययोग से भाषा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, उन्हें भाषारूप में परिणत करके फिर वचनयोग से उन्हें निकालता-उच्चारण करता है / इस कारण भाषा को 'काययोगप्रभवा' कहना उचित है / आचार्य भद्रबाहुस्वामी कहते हैं-जीव कायिकयोग से (भाषा योग्य पुद्गलों को) ग्रहण करता है तथा वाचिकयोग से (उन्हें) निकालता है / 2 1. 'तिविहंमि सरीरंमि, जोवपएसा हवंति जीवस्स / जेहि उ गेण्हइ गहणं, तो मासइ भासओ भासं // ' -प्रज्ञापना म. वृत्ति, प. 256 में उद्धत 2. 'गिण्हइ य काइएणं, निसरइ तह वाइएण जोगेणं / ' --प्रज्ञापना म. व. पत्रांक 257 में उद्धत Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 [प्रज्ञापनासूत्र भाषा का माषणकाल-जीव दो समयों में भाषा बोलता है, क्योंकि वह एक समय में भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है और दूसरे समय में उन्हें भाषारूप में परिणत करके छोड़ता (निकालता) है। भाषा के प्रकार-इससे पूर्व भाषा के चार प्रकार स्वरूपसहित बताए जा चुके हैं-सत्या, मृषा (असत्या), सत्यामृषा (मिश्र) और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा / / अनुमत भाषाएँ-भगवान द्वारा दो प्रकार की भाषा बोलने की अनुमति साधुवर्ग को दो गई है--सत्याभाषा और असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा / इसका फलितार्थ यह हुआ कि भगवान् ने मिश्र (सत्यामृषा) भाषा और मृषा (असत्य) भाषा बोलने की अनुज्ञा नहीं दी है, क्योंकि ये दोनों भाषाएँ यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन नहीं करतीं, अतएव ये मोक्ष की विरोधिनी हैं।' पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों को प्ररूपणा 860. कतिविहा णं भंते ! भासा पण्णत्ता ? गोयमा! दुविहा मासा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्तिया य अपज्जत्तिया य / [860 प्र.) भगवन् ! भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [860 उ.] गौतम ! भाषा दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार–पर्याप्तिका और अपर्याप्तिका। 861. पज्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पणत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सच्चा य मोसा य / [861 प्र.] भगवन् ! पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? 861 उ.] गौतम ! पर्याप्तिका भाषा दो प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार-सत्या और मृषा। 862. सच्चा णं भंते ! भासा पज्जत्तिया कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता / तं जहा-जणवयसच्चा 1 सम्मतसच्चा 2 ठवणासच्चा 3 णामसच्चा 4 रूबसच्चा 5 पडुच्चसच्चा 6 ववहारसच्चा 7 भावसच्चा 8 जोगसच्चा 6 ओवम्मसच्चा 10 // जणवय 1 सम्मत 2 ठवणा 3 णामे 4 रूवे 5 पडच्चसच्चे 6 य / ववहार 7 भाव 8 जोगे 9 दसमे प्रोवम्मसच्चे 10 य // 14 // [862 प्र.] भगवन् ! सत्या-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [862 उ.] गौतम ! दस प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार-(१) जनपदसत्या, 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 256, 257 Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] (2) सम्मतसत्या, (3) स्थापनासत्या, (4) नामसत्या, (5) रूपसत्या, (6) प्रतीत्यसत्या (7) व्यवहारसत्या, (8) भावसत्या, (9) योगसत्या और (10) प्रौपम्यसत्या। [संग्रहणीगाथार्थ-] (दस प्रकार के सत्य)-(१) जनपदसत्य, (2) सम्मतसत्य, (3) स्थापनासत्य, (4) नामसत्य, (5) रूपसत्य, (6) प्रतीत्यसत्य, (7) व्यवहारसत्य, (8) भावसत्य, (9) योगसत्य और (10) दसवाँ प्रौपम्यसत्य / / / 194 // 863. मोसा णं भंते ! भासा पज्जत्तिया कतिबिहा पण्णता? गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता / तं जहा–कोहणिस्सिया 1 माणणिस्सिया 2 मायाणिस्सिया 3 लोमणिस्सिया 4 पेज्जणिस्सिया 5 दोसणिस्सिया 6 हासणिस्सिया 7 भयणिस्सिया 8 अक्खाइयाणिस्सिया / उवघाणिस्सिया 10 / कोहे 1 माणे 2 माया 3 लोभे 4 पेज्जे 5 तहेव दोसे 6 य / हास 7 भए 8 अक्खाइय 6 उवधाइयणिस्सिया 10 दसमा // 16 // [863 प्र.] भगवन् ! मृषा-पर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [863 उ.] गौतम ! (वह) दस प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-(१) क्रोधनिःसृता, (2) माननिःसृता, (3) मायानिःसृता, (4) लोभनिःसृता, (5) प्रेयनिःसृता (रागनिःसृता), (6) द्वषनिःसृता, (7) हास्यनिःसृता, (8) भयनिःसृता, (9) प्राख्यायिकानि:सृता और (10) उपधातनिःसृता। [संग्रहणीगाथार्थ-] क्रोधनिःसृत, माननिःसृत, मायानिःसृत, लोभनिःसृत, प्रेय (राग)निःसृत, तथा द्वेषनिःसृत, हास्यनिःसृत, भयनिःसृत, आख्यायिकानिःसृत और दसवाँ उपघातनिःसृत असत्य / / / 195 // 864. अपज्जत्तिया णं भंते ! भासा कतिविहा पणत्ता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सच्चामोसा य असच्चामोसा य / [864 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [864 उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार–सत्या-मृषा और असत्यामृषा। 865. सच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जत्तिया कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दविहा पण्णत्ता / तं जहा--उप्पण्णमिस्सिया 1 विगयमिस्सिया 2 उप्पण्णविगयमिस्सिया 3 जीवमिस्सिया 4 अजीवमिस्सिया 5 जीवाजीवमिस्सिया 6 प्रणतमिस्सिया 7 परित्तमिस्सिया 8 प्रद्धामिस्सिया 6 प्रद्धद्धामिस्सिया 10 / [865 प्र.] भगवन् ! सत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? ___ [865 उ.] गौतम ! (वह) दस प्रकार को कही गई है। वह इस प्रकार है-(१) उत्पन्नमिश्रिता, (2) विगतमिश्रिता, (3) उत्पन्न-विगतमिश्रिता, (4) जीवमिश्रिता, (5) अजीवमिश्रिता, Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र (6) जीवाजीवमिश्रिता, (7) अनन्त-मिश्रिता, (8) परित्त (प्रत्येक)-मिश्रिता, (6) अद्धामिश्रिता और (10) अद्धाद्धामिश्रिता। 866. असच्चामोसा णं भंते ! भासा अपज्जतिया कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुवालसविहा पण्णत्ता / तं जहा-- प्रामणि 1 याऽऽणमणी 2 जाणि 3 तह पुच्छणो 4 य पण्णवणो 5 / पच्चक्वाणी भासा 6 भासा इच्छाणुलोमा 7 य / / 166 // अणभिग्गहिया भासा 8 भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धध्वा / संसयकरणी भासा 10 बोयडा 11 अव्वोयडा 12 चेव // 17 // [866 प्र.] भगवन् ! असत्यामृषा-अपर्याप्तिका भाषा कितने प्रकार की कही गई है ? [866 उ.] गौतम ! (वह) बारह प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार - गाथार्थ--] (1) आमंत्रणी, (2) प्राज्ञापनी, (3) याचनी, (4) पृच्छनी, (5) प्रज्ञापनी, (6) प्रत्याख्यानी भाषा, (7) इच्छानुलोमा भाषा, (8) अनभिगृहीता भाषा, (9) अभिगृहीता भाषा, (10) संशयकरणी भाषा, (11) व्याकृता और (12) अव्याकृता भाषा // 196-197 / / विवेचन–पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका भाषा और इनके भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 860 से 866 तक) में भाषा के मूल दो भेद-पर्याप्तक, अपर्याप्तक के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। पर्याप्तिका-अपर्याप्तिका की व्याख्या–पर्याप्तिका-वह भाषा है, जो प्रतिनियत रूप में समझी जा सके / पर्याप्तिका भाषा सत्या और मषा, ये दो ही होती हैं, क्योंकि ये दो भाषाएँ ही प्रतिनियतरूप से अवधारित की जा सकती हैं। अपर्याप्तिका भाषा वह है, जो मिश्रितप्रतिरूप अथवा मिश्रित प्रतिषेध रूप होने के कारण प्रतिनियतरूप में अवधारित न की जा सके। अर्थातठीक तरह से निश्चित न की जा सकने के कारण जिसे सत्य या असत्य दोनों में से किसी एक कोटि में रखा न जा सके ! अपर्याप्तिका भाषाएँ दो हैं सत्यामृषा और असत्यामृषा / ये दोनों ही प्रतिनियतरूप में अवधारित नहीं की जा सकती। दशविध सत्यपर्याप्तिका भाषा की व्याख्या-(१) जनपदसत्या--विभिन्न जनपदों (प्रान्तों या प्रदेशों) में जिस शब्द का जो अर्थ इष्ट है, उस इष्ट अर्थ का बोध कराने वाली होने के कारण व्यवहार का हेतु होने से जो सत्य मानी जाती है। जैसे कोंकण आदि प्रदेशों में पय को 'पिच्चम्' कहते हैं / सम्मतसत्या--जो समस्तलोक में सम्मत होने के कारण सत्यरूप में प्रसिद्ध है। जैसेशैवाल, कुमुद (चन्द्रविकासी कमल) और कमल (सूर्यविकासी कमल) ये सब पंकज हैं--कीचड़ में ही उत्पन्न होते हैं, किन्तु 'पंकज' शब्द से जनसाधारण 'कमल' अर्थ ही समझते हैं। शैवाल आदि को कोई पंकज नहीं कहता / अतएव कमल को 'पंकज' कहना सम्मतसत्य भाषा है। (३)स्थापनासत्या प्रकार के) अंकादि के विन्यास तथा मद्रा आदि के ऊपर रचना (छाप) देखकर जिस भाषा का प्रयोग किया जाता है, वह स्थापनासत्य भाषा है। जैसे '1' अंक के आगे दो बिन्दु देखकर कहना-यह सौ (100) है, तीन बिन्दु देखकर कहना-यह एक हजार (1000) है / Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद] अथवा मिट्टी, चांदी, सोना आदि पर अमुक मुद्रा (मुहरछाप) अंकित देखकर माष, कार्षापण, मुहर (गिन्नी), रुपया आदि कहना / (4) नामसत्या--केवल नाम के कारण ही जो भाषा सत्य मानी जाती है, वह नामसत्या कहलाती है। जैसे-कोई व्यक्ति अपने कुल की वृद्धि नहीं करता, फिर भी उसका नाम 'कुलवर्द्धन' कहा जाता है / (5) रूपसत्या-जो भाषा केवल अमुक रूप (वेशभूषा प्रादि) से ही सत्य है / जैसे-किसी व्यक्ति ने दम्भपूर्वक साधु का रूप (स्वांग) बना लिया हो, उसे, 'साधु' कहना रूपसत्या भाषा है। (6) प्रतीत्यसत्या-जो किसी अन्य वस्तु की अपेक्षा से सत्य हो। जैसेअनामिका अंगुली को 'कनिष्ठा' (सबसे छोटी) अंगुली की अपेक्षा से दीर्घ कहना, और मध्यमा की अपेक्षा से ह्रस्व कहना प्रतीत्यसत्या भाषा है। (7) व्यवहारसत्या-व्यवहार से-लोकविवक्षा से जो सत्य हो वह व्यवहारसत्य भाषा है। जैसे-किसी ने कहा---'पहाड़ जल रहा है' यहाँ पहाड़ के साथ घास की अभेदविवक्षा करके ऐसा कहा गया है। अतः लोकव्यवहार की अपेक्षा से ऐसा बोलने वाले साध की भाषा भी व्यवहारसत्या होती है। (8) भावसत्या--भाव से अर्थात-वर्ण आदि (की उत्कटता) को लेकर जो भाषा बोली जाती हो, वह भावसत्या भाषा है। अर्थात्-जो भाव जिस पदार्थ में अधिकता से पाया जाता है, उसी के आधार पर भाषा का प्रयोग करना भावसत्या भाषा है। जैसे-बलाका (बगुलों की पंक्ति) में पांचों वर्ण होने पर भी उसे श्वेत कहना। (6) योगसत्यायोग का अर्थ है-सम्बन्ध, संयोग ; उसके कारण जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे-छत्र के योग से किसी को छत्री कहना, भले ही शब्दप्रयोगकाल में उसके पास छत्र न हो। इसी प्रकार किसी को दण्ड के योग से दण्डी कहना। (10) प्रौपम्यसत्या-उपमा से जो भाषा सत्य मानी जाए। जैसे-गौ के समान गवय (रोम्भ) होता है। इस प्रकार की उपमा पर आश्रित भाषा औपम्यसत्या कहलाती है। दशविध पर्याप्तिका मषाभाषा की व्याख्या-(१) क्रोधनिःसता-क्रोधवश मुह से निकली हुई भाषा, (2) माननिःसृता-पहले अनुभव न किये हुए ऐश्वर्य का, अपना आत्मोत्कर्ष बताने के लिए कहना कि हमने भी एक समय ऐश्वर्य का अनुभव किया था, यह कथन मिथ्या होने से माननि:सृता है। (3) मायानिःसता-परवंचना आदि के अभिप्राय से निकली हुई वाणी। (4) लोभनिःसता-लोभवश, झूठा तौल-नाप करके पूछने पर कहना यह तौल-नाप ठीक प्रमाणोपेत है, ऐसी भाषा लोभनि:सता है। (5) प्रेय (राग)निःसृता--किसी के प्रति अत्यन्त रागवश कहना'मैं तो आपका दास हूँ', ऐसी भाषा प्रेयनिःसृता है। (6) द्वषनिःसृता-द्वषवश तीर्थकरादि का अवर्णवाद करना / (7) हास्यनिःसृता-हंसी-मजाक में झूठ बोलना / (8) भयनिःसृता-भय से निकली हुई भाषा / जैसे-चोरों आदि के डर से कोई अंटसंट या ऊटपटांग बोलता है, उसकी भाषा भयनिःसृता है। (6) प्राख्यायिकानिःसता—किसी कथा-कहानी के कहने में असम्भव वस्तु का कथन करना / (10) उपघात-निःसृता-दूसरे के हृदय को उपघात (आघात-चोट) पहुँचाने की दृष्टि से मुख से निकाली हई भाषा। जैसे—किसी पर अभ्याख्यान लगाना कि 'तु चोर है।' अथवा किसी को अंधा या काना कहना / दविध सत्यामषा भाषा की व्याख्या-(१) उत्पन्नमिश्रिता-अनुत्पन्नों (जो उत्पन्न नहीं हुए हैं) के साथ संख्यापूर्ति के लिए उत्पन्नों को मिश्रित करके बोलना / जैसे—किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक शिशुओं का जन्म होने पर भी कहना कि आज इस ग्राम या नगर में दस शिशुओं का जन्म हुआ है। (2) विगतमिश्रिता-विगत का अर्थ है-मृत / जो विगत न हो, वह अविगत है। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] [प्रज्ञापनासूत्र अविगतों (जीवितों) के साथ विगतों (मृतों) को संख्या की पूर्ति हेतु मिला कर कहना / जैसे-किसी ग्राम या नगर में कम या अधिक वृद्धों के मरने पर भी ऐसे कहना कि आज इस ग्राम या नगर में बारह बूढ़े मर गए। यह भाषा विगतमिश्रिता सत्यामृषा है। (3) उत्पन्न विगतमिश्रिता-उत्पन्नों (जन्मे हुओं) और मृतकों (मरे हुओं) की संख्या नियत होने पर भी उसमें गड़बड़ करके कहना। (4) जीवमिश्रिता--शंख आदि की ऐसी राशि हो, जिसमें बहुत-से जीवित हों और कुछ मृत हों, उस एक राशि को देख कर कहना कि कितनी बड़ी जीवराशि है, यह जीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा है, क्योंकि यह भाषा जीवित शंखों की अपेक्षा सत्य है और मृत शंखों की अपेक्षा से मृषा। (5) अजीवमिश्रिता-बहुत-से मृतकों और थोड़े-से जीवित शंखों को एक राशि को देखकर कहना कि 'कितनी बड़ी मृतकों की राशि है', इस प्रकार की भाषा अजीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा कहलाती है, क्योंकि यह भाषा भी मृतकों की अपेक्षा से सत्य और जीवितों की अपेक्षा मृषा है। (6) जीवाजोवमिश्रिता-उसी पूर्वोक्त राशि को देखकर, संख्या में विसंवाद होने पर भी नियतरूप से निश्चित कह देना कि इसमें इतने मृतक हैं, इतने जीवित हैं / यहाँ जीवों और अजीवों को विद्यमानता सत्य है, किन्तु उनकी संख्या निश्चित कहना मृषा है। अतएव यह जीवाजीवमिश्रिता सत्यामृषा भाषा है। (7) अनन्तमिश्रिता--मूली, गाजर आदि अनन्तकाय कहलाते हैं. उनके साथ कुछ प्रत्येकवनस्पतिकायिक भी मिले हुए हैं, उन्हें देख कर कहना कि 'ये सब अनन्तकायिक हैं', यह भाषा अनन्तमिश्रिता सत्यामृषा है / (8) प्रत्येकमिश्रिता-प्रत्येक वनस्पतिकाय का संघात अनन्तकायिक के साथ ढेर करके रखा हो, उसे देखकर कहना कि 'यह सब प्रत्येकवनस्पतिकायिक है'; इस प्रकार की भाषा प्रत्येक मिश्रिता सत्यामृषा है। (6) प्रद्धामिश्रिता--प्रद्धा कहते हैं--काल को। यहाँ प्रसंग प्रद्धा से दिन या रात्रि अर्थ ग्रहण करना चाहिए, जिसमें दोनों का मिश्रण करके कहा जाए / जैसे--अभी दिन विश्चमान है, फिर भी किसी से कहा--उठ, रात पड़ गई। अथवा अभी रात्रि शेष है, फिर भी कहना उठ, सूर्योदय हो गया / (10) प्रद्धाद्धामिश्रिता--अद्धाद्धा कहते हैं-दिन या रात्रि काल के एक देश (अंश) को। जिस भाषा के द्वारा उन कालांशों का मिश्रण करके बोला जाए। जैसे-~-अभी पहला पहर चल रहा है, फिर भी कोई व्यक्ति किसी को जल्दी करने की दृष्टि से कहे कि 'चल, मध्याह्न हो गया है', ऐसी भाषा प्रद्धाद्धामिश्रिता है। ___ बारह प्रकार की असत्यामषा भाषा की व्याख्या-(१) प्रामंत्रणी-सम्बोधनसूचक भाषा। जैसे-हे देवदत्त ! / (2) प्राज्ञापनी-जिसके द्वारा दूसरे को किसी प्रकार की आज्ञा दी जाए। जैसे---'तुम यह कार्य करो।' प्राज्ञापनी भाषा दूसरे को कार्य में प्रवृत्त करने वाली होती है। (3) याचनी-किसी वस्तु की याचना करने (मांगने) के लिए प्रयुक्त की जाने वाली भाषा / जैसेमुझे दीजिए। (4) पृच्छनी-किसी संदिग्ध या अनिश्चित वस्तु के विषय में किसी विशिष्ट ज्ञाता से जिज्ञासावश पूछना कि 'इस शब्द का अर्थ क्या है ?' (5) प्रज्ञापनो-विनीत शिष्यादि जनों के लिए उपदेशरूप भाषा / जैसे-जो प्राणिहिंसा से निवृत्त होते हैं, वे दूसरे जन्म में दीर्घायु होते हैं।' (6) प्रत्याख्यानी--जिस भाषा के द्वारा अमुक वस्तु का प्रत्याख्यान कराया जाए या प्रकट किया जाए। जैसे--आज तुम्हारे एक प्रहर तक आहार करने का प्रत्याख्यान है। अथवा किसी के द्वारा याचना करने पर कहना कि 'मैं यह वस्तु तुम्हें नहीं दे सकता।' (7) इच्छानुलोमा-जो भाषा इच्छा 1. 'पाणिवहाउ नियत्ता हवंति दीहाउया प्ररोगा य / एमाई पण्णत्ता पण्णवणी वीयरागेहिं / / -प्रशापना. म. वृत्ति. पृ. 259 Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद ] [71 के अनुकूल हो, अर्थात्-वक्ता के इष्ट अर्थ का समर्थन करने वाली हो। इसके अनेक प्रकार हो सकते हैं-(१) जैसे कोई किसी गुरुजन आदि से कहे-'आपकी अनुमति (इच्छा) हो तो मैं प्रतिक्रमण करना चाहता हूँ। (2) कोई व्यक्ति किसी साथी से कहे-'आपकी इच्छा हो तो यह कार्य कीजिए', (3) आप यह कार्य कोजिए, इसमें मेरी अनुमति है। (या ऐसी मेरी इच्छा है)। इस प्रकार की भाषा इच्छानुलोमा कहलाती है / (8) अनभिगृहीता-जो भाषा किसी नियत अर्थ का अवधारण न कर पाती हो, वक्ता की जिस भाषा में कार्य का कोई निश्चित रूप न हो, वह अनभिगृहीता भाषा है। जैसे किसी के सामने बहुत-से कार्य उपस्थित हैं, अतः वह अपने किसी बड़े या अनुभवी से पूछता है-'इस समय मैं कौन-सा कार्य करू ?' इस पर वह उत्तर देता है-'जो उचित समझो, करो।' ऐसी भाषा से किसी विशिष्ट कार्य का निर्णय नहीं होता, अत: इसे अनभिग्रहीता भाषा कहते हैं। ता--जो भाषा किसी नियत अर्थ का निश्चय करने वाली हो, जैसे--- ''इस समय श्रमक कार्य करो, दूसरा कोई कार्य न करो।' इस प्रकार की भाषा 'अभिगृहीता' है। (10) संशयकरणीजो भाषा अनेक अर्थों को प्रकट करने के कारण दूसरे के चित्त में संशय उत्पन्न कर देती हो / जैसेकिसी ने किसी से कहा—'सैन्धव ले पायो / ' सैन्धव शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे-घोड़ा, नमक, वस्त्र और पुरुष / 'सैन्धव' शब्द को सुनकर यह संशय उत्पन्न होता है कि यह नमक मंगवाता है, या घोड़ा आदि / यह संशयकरणी भाषा है / (11) व्याकृता—जिस भाषा का अर्थ स्पष्ट हो, जैसेयह घड़ा है। (12) अव्याकृता-जिस भाषा का अर्थ अत्यन्त ही गूढ़ हो, अथवा अव्यक्त (अस्पष्ट) अक्षरों का प्रयोग करना अव्याकृता भाषा है, क्योंकि वह भाषा ही समझ में नहीं आती। यह बारह प्रकार की अपर्याप्ता असत्यामृषा भाषा है। यह भाषा पूर्वोक्त सत्या, मृषा और मिश्र इन तीनों भाषाओं के लक्षण से विलक्षण होने के कारण न तो सत्य कहलाती है, न असत्य और न ही सत्यामृषा। यह भाषा केवल व्यवहारप्रवर्तक है, जो साधुजनों के लिए भी बोलने योग्य मानी गई है। समस्त जीवों के विषय में भाषक-प्रभाषक प्ररूपणा 867. जीवाणं भंते ! कि भासगा प्रभासगा? गोयमा ! जीवा मासगा वि प्रभासगा वि / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति जीवा भासगा वि प्रभासगा वि ? गोयमा ! जोवा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—संसारसमावण्णगा य प्रसंसारसमावण्णगा य / तत्थ णं जे ते प्रसंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं प्रभासगा। तत्थ णं जे ते संसारसमावण्णया ते णं दुविहा पण्णत्ता, तं जहा सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिवण्णगा य / तस्थ गंजे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं प्रभासगा। तत्थ पंजे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगिदिया य प्रणेगिदिया य / तत्थ णं जे ते एगिदिया ते णं प्रभासगा। तत्थ णं जे ते प्रणेगिदिया ते दुविहा पणत्ता, तं जहा–पज्जत्तगा य अपज्जत्तया य / तत्थ णं जे ते प्रपज्जत्तगा ते णं प्रभासगा। तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा। से एतेणढेणं गोयमा! एवं बुच्चति जीवा मासगा वि प्रभासगा वि / 01. (क) प्रज्ञापतासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 257 से 259 तक (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका सहित भा. 3, पृ. 303 से 320 तक Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [867 प्र.] भगवन् ! जीव भाषक हैं या प्रभाषक ? [867 उ.] गौतम ! जीब भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि जीव भाषक भी हैं और अभाषक भी हैं ? [उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-संसारसमापन्नक और असंसारसमापन्नक। उनमें से जो असंसारसमापन्नक जीव हैं, वे सिद्ध हैं और सिद्ध अभाषक होते हैं तथा उनमें जो संसारसमापन्नक (संसारी) जीव हैं, वे (भी) दो प्रकार के हैं-शैलेशीप्रतिपन्नक और अशैलेशीप्रतिपन्नक / उनमें जो शैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे अभाषक हैं / उनमें जो अशैलेशीप्रतिपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-एकेन्द्रिय (स्थावर) और अनेकेन्द्रिय (त्रस) / उनमें से जो एकेन्द्रिय हैं, वे अभाषक हैं। उनमें से जो अनेकेन्द्रिय हैं, वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं / जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं / हे गौतम ! इसी हेतु से ऐसा कहा जाता है कि जीव भाषक भी हैं और प्रभाषक भी हैं। 868. नेरइया णं भंते ! कि भासगा प्रभासगा? गोयमा ! नेर इया भासगा वि प्रभासगा वि / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति नेरइया भासगा वि अभासगा वि ? गोयमा! रइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य, तत्थ गं जे ते अपज्जत्तगा ते णं प्रभासगा, तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते णं भासगा, से एएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ णेरइया भासगा वि प्रभासगा वि / [868 प्र.] भगवन् ! नैरयिक भाषक हैं या अभाषक ? [868 उ.] गौतम ! नैरयिक भाषक भी हैं, अभाषक भी। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि नैरयिक भाषक भी हैं और प्रभाषक भी ? (उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार–पर्याप्तक और अपर्याप्तक / इनमें जो अपर्याप्तक हैं, वे अभाषक हैं और जो पर्याप्तक हैं, वे भाषक हैं। हे गौतम ! इसी हेतु से ऐसा कहा जाता है कि नै रयिक भाषक भी हैं और अभाषक भी। 866. एवं एगिदियवज्जाणं णिरंतरं माणियन्वं / [866] इसी प्रकार एकेन्द्रियों को छोड़कर (द्वीन्द्रियों से लेकर वैमानिक देवों पर्यन्त) निरन्तर (लगातार) सभी के विषय में समझ लेना चाहिए। विवेचन--समस्त जीवों के विषय में भाषक-प्रभाषक-प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 867 से 869 तक) में समुच्चय जीवों की भाषकता-अभाषकता का विश्लेषण करके नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों की भाषकता-अभाषकता का निरूपण किया गया है / एकेन्द्रिय जीव प्रभाषक क्यों ? -जिह्वेन्द्रिय से रहित होने के कारण एकेन्द्रिय जीव अभाषक ही होते हैं।' 1. (क) पावणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ) प्र. 214-215, (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 327 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] चतुर्विध भाषाजात एवं समस्त जीवों में उसकी प्ररूपणा 870. कति णं भंते ! भासज्जाता पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि मासज्जाता पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमेगं भासज्जातं 1 बितिय मोसं 2 ततियं सच्चामोसं 3 चउत्थं प्रसच्चामोसं 4 / [870 प्र] भगवन् ! भाषाजात (भाषा के प्रकार-रूप) कितने कहे गए हैं ? [870 उ.] गौतम ! चार भाषाजात कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) एक सत्य भाषाजात, (2) दूसरा मृषा भाषाजात, (3) तीसरा सत्यामृषा भाषाजात और (4) चौथा असत्यामृषा भाषाजात। 871. जीवा णं भंते ! कि सच्चं भासं भासंति ? मोसं भासं भासंति ? सच्चामोसं भासं मासंति ? असच्चामोसं भासं भासंति ? गोयमा ! जीवा सच्चं पि भासं भासंति, मोसं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भासंति, असच्चामोस पि भासं भासंति / [871 प्र.] भगवन् ! जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं, मृषाभाषा बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा बोलते हैं अथवा असत्यामृषा भाषा बोलते हैं ? / [871 उ.] गौतम ! जीव सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं सत्या-मृषा भाषा भी बोलते हैं और असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं / 872. रइया णं भंते ! कि सच्चं भासं मासंति जाव कि असच्चामोसं भासं भासंति ? गोयमा ! रइया णं सच्चं पि भासं भासंति जाव असच्चामोसं पि भासं भासंति / [872 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सत्यभाषा बोलते हैं, मृषाभाषा बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा बोलते हैं, अथवा असत्यामृषा भाषा बोलते हैं ? [872 उ.] गौतम ! नैरयिक सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं और असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। , 873. एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा। [873] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक (की भाषा के विषय में समझ लेना चाहिए।) 874. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया य णो सच्चं णो मोसं जो सच्चामोसं भासं भासंति, प्रसच्चामोसं भासं भासंति / [874] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव न तो सत्यभाषा (बोलते हैं), न मृषाभाषा (बोलते हैं) और न ही सत्यामृषा भाषा बोलते हैं, (किन्तु वे) असत्यामृषा भाषा बोलते हैं। Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 ] [प्रज्ञापनासूत्र 875. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! कि सच्चं भासं भासंति ? जाव (सु. 871) कि असच्चामोसं भासं भासंति ? गोयमा! पंचेवियतिरिक्खजोणिया णो सच्चं मासं भासंति, णो मोसं भासं भासंति, णो सच्चामोसं भासं भासंति, एग प्रसच्चामोसं भासं भासंति, णऽण्णत्य सिक्खापुव्वगं उत्तरगुणद्धि मा पडुच्च सच्चं पि भासं भासंति, मोसं पि भासं भासंति, सच्चामोसं पि भासं भासंति, असच्चामोसं पि भासं भासंति। [875 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव क्या सत्यभाषा बोलते हैं ? यावत् क्या (वे) असत्यामृषा भाषा बोलते हैं ? [875 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव, न तो सत्यभाषा बोलते हैं, न मृषा भाषा बोलते हैं और न ही सत्यामषा भाषा बोलते हैं, वे सिर्फ एक असत्यामषा भाषा बोलते हैं: सिवाय शिक्षापूर्वक अथवा उत्तरगुणलब्धि की अपेक्षा से (तैयार हुए पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के, जो कि) सत्यभाषा भी बोलते हैं, मृषाभाषा भी बोलते हैं, सत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं तथा असत्यामृषा भाषा भी बोलते हैं। 876. मणुस्सा जाव वेमाणिया एए जहा जीवा (871) तहा माणियव्वा / [876] मनुष्यों से लेकर (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क) यावत् वैमानिकों तक की भाषा के विषय में प्रोधिक जीवों की भाषाविषयकप्ररूपणा के समान (सूत्र 871 के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन–चतुर्विध भाषाजात एवं समस्त जीवों में उसकी प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 870 से 876 तक) में चार प्रकार की भाषाओं का निरूपण करके समुच्चय जीव एवं चौवीस दण्डकों के अनुसार नै रयिकों से वैमानिकों तक के जीवों में से कौन, कौन-कौनसी भाषा बोलते हैं ?, इसकी संक्षिप्त प्ररूपणा की गई है। द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों एवं तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की भाषाविषयक प्ररूपणा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में केवल असत्यामृषा के सिवाय शेष तीनों भाषाओं का जो निषेध किया गया है, उसका कारण यह है कि उनमें न तो सम्यग्ज्ञान होता है और न ही परवंचना आदि का अभिप्राय हो सकता है / इसी प्रकार तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में सिवाय कुछ अपवादों के केवल असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा के अतिरिक्त शेष तीनों भाषाओं का निषेध किया गया है, इसका कारण यह है कि वे न तो सम्यक रूप से, यथावस्थित वस्तुस्वरूप का प्रतिपादन करने के अभिप्राय से बोलते हैं और न ही दूसरों को धोखा देने या ठगने के प्राशय से बोलते हैं; किन्तु कुपित-अवस्था में या दूसरों को मारने को कामना से जब भी वे बोलते हैं, तब इसी एक ही रूप से बोलते हैं / अतएव उनकी भाषा असत्यामृषा होती है। शास्त्रकार इनके विषय में कुछ अपवाद भी बताते हैं, वह यह है कि शुक (तोता), सारिका (मैना) आदि किन्हीं विशिष्ट तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों को यदि प्रशिक्षित (Trained) किया जाय, अथवा संस्कारित किया जाय तथा विशिष्ट प्रकार का क्षयोपशम होने से किन्हीं को जातिस्मरणज्ञानादि रूप किसी उत्तरगुण को लब्धि हो जाए, अथवा विशिष्ट व्यवहारकौशलरूप लब्धि प्राप्त हो जाए तो Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद [75 वे सत्यभाषा भी बोलते है, असत्यभाषा भी बोलते हैं और सत्यामृषा (मिश्र) भाषा भी बोलते हैं / अर्थात्-वे चारों ही प्रकार की भाषा बोलते हैं।' जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्नरूप--- 877. [1] जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गेण्हति ताई किं ठियाई गेण्हति ? अठियाई गेहति ? ___ गोयमा ! ठियाई मेण्हति, णो अठियाइं गेण्हति / [877-1 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, सो स्थित (गमनक्रियारहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है या अस्थित (गमन क्रियावान्) द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-1 उ.] गौतम! (वह) स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। [2] जाई भंते ! छियाई गेण्हति ताई कि दव्वश्रो गेण्हति ? खेतम्रो गेण्हति ? कालो गेण्हति ? भावो गेण्हति ? गोयमा ! दवप्रो वि गेहति, खेत्तो वि गेण्हति, कालो वि गेहति, भावनो वि गेहति / [877-2 प्र.] भगवन् ! (जीव) जिन स्थित द्रव्यों को (भाषा के रूप में) ग्रहण करता है, उन्हें क्या (वह) द्रव्य से ग्रहण करता है, क्षेत्र से ग्रहण करता है, काल से ग्रहण करता है, अथवा भाव से ग्रहण करता है ? [877-2 उ.] गौतम ! (वह उन स्थित द्रव्यों को) द्रव्यतः भी ग्रहण करता है, क्षेत्रतः भी ग्रहण करता है, कालत: भी ग्रहण करता है और भावतः भी ग्रहण करता है। [3] जाई दव्वो गेहति ताई कि एगपएसियाई गिण्हति दुपएसियाई गेण्हति जाव अणंतपएसियाई गेहति ? गोयमा ! णो एगपएसियाई गेण्हति जाव णो असंखेज्जपएसियाई गेण्हति, अणंतपएसियाई गेहति / [877-3 प्र.] भगवन् (जीव) जिन (स्थित द्रव्यों) को द्रव्यत: ग्रहण करता है, क्या वह उन एकप्रदेशी (द्रव्यों) को ग्रहण करता है, द्विप्रदेशी को ग्रहण करता है ? यावत् अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-3 उ.] गौतम ! (जीव) न तो एकप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् न असंख्येयप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है, (किन्तु) अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ग्रहण करता है। [4] जाई खेत्तनो ताई कि एगपएसोगाढाई गेण्हति दुपएसोगाढाई गेहति जाव असंखेज्जपए. सोगाढाइं गेहति ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 260 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 ] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! णो एगपएसोगाढाई गेण्हति जाव णो संखेज्जपएसोगाढाई गेण्हति, असंखेज्जपएसोगाढाइं गेण्हति। [877-4 प्र.] जिन (स्थित द्रव्यों को जीव) क्षेत्रत: ग्रहण करता है, क्या (वह जीव) एकप्रदेशावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, द्विप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् असंख्येयप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-4 उ.] गौतम ! (वह) न तो एकप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् न संख्यातप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है, (किन्तु) असंख्यातप्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। [5] जाई कालो गेण्हति ताई कि एगसमयद्वितीयाइं गेहति दुसमयठितीयाई गेण्हति जाव असंखेज्जसमयठितीयाई गेण्हति ? गोयमा ! एगसमठितीयाई पि गेहति, दुसमयठितीयाई पि गेहति, जाव असंखेज्जसमयठितीयाई पि गेहति / [877-5 प्र.] (जीव) जिन (स्थित द्रव्यों) को कालत: ग्रहण करता है, क्या (वह) एक मय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है? यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-5 उ.] गौतम ! (वह) एक समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, दो समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् असंख्यात समय की स्थिति वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। [6] जाई भावप्रो गेण्हति ताई कि वण्णमंताई गेण्हति गंधमंताई गेहति रसमंताई गेण्हति फासमंताई गेहति ? गोयमा! अण्णमंताई पि गेण्हति जाव फासमंताई पि गेण्हति / [877-6 प्र.] (जीव) जिन (स्थित द्रव्यों) को भावतः ग्रहण करता है, क्या वह वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, गन्ध वाले द्रव्यों ग्रहण करता है, रस वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-6 उ.] गौतम ! (वह) वर्ण वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, गन्ध वाले द्रव्यों को भी यावत स्पर्श वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। [7] जाई भावप्रो वण्णमंताई गेण्हति ताई कि एगवण्णाई गेण्हति जाव पंचवण्णाई गेण्हति ? गोयमा ! गहणदव्वाई पडुच्च एगवण्णाई पि गेहति जाव पंचवण्णाई पि गेण्हति, सव्वग्महणं पडुच्च णियमा पंचवण्णाइं गेण्हति, तं जहा-कालाई नीलाइं लोहियाई हालिद्दाइं सुक्किलाई। [877-7 प्र.] भावतः जिन वर्णवान् (स्थित) द्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एक वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत पांच वर्ण वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-7 उ] गौतम ! ग्रहण (ग्राह्य) द्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक वर्ण वाले द्रव्यों को Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद] [77 भी ग्रहण करता है, यावत् पांच वर्ण वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। (किन्तु) सर्वग्रहण की अपेक्षा से (वह) नियमत: पांच वर्णों वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है। जैसे कि-काले, नीले, लाल. पीले और शुक्ल (सफेद)। [8] जाई वपणनो कालाई गेण्हति ताई कि एगगुणकालाई गेण्हति जाव अणंतगुणकालाई गेण्हति ? ___ गोयमा ! एगगुणकालाई पि गेहति जाव अणंतगुणकालाई पि गेहति / एवं जाय सुक्किलाई पि। [877-8 प्र.] भगवन् ! वर्ण से काले जिन (स्थित द्रव्यों) को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) उन एकगुण काले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? अथवा यावत् अनन्तगुण काले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-8 उ.] गौतम ! (वह) एकगुणकृष्ण (भाषाद्रव्यों) को भी ग्रहण करता है और यावत् अनन्तगुणकृष्ण (भाषाद्रव्यों) को भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार यावत् शुक्ल वर्ण तक के ग्राह्य भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में भी कहना चाहिए। [[] जाई भावनो गंधमंताई गेण्हति ताई कि एगगंधाइं गेण्हति दुगंधाई गेण्हति ? गोयमा ! गणदब्वाइं पडुच्च एगगंधाई पि गेण्हति दुगंधाई पि गेण्हति, सव्वग्गहणं पडुच्च नियमा दुगंधाइं गेण्हति / [877-9 प्र.] भावतः जिन गन्धवान् भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एक गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? या दो गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-6 उ.] गौतम ! ग्रहण द्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक गन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, तथा दो गन्ध वाले (द्रव्यों को भी ग्रहण करता है; (किन्तु) सर्व ग्रहण की अपेक्षा से नियमतः दो गन्ध वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है / [10] जाइं गंघओ सुम्भिगंधाइं गेहति ताई कि एगगुणसुम्भिगंधाई गेण्हति जाव प्रणतगुणसुन्मिगंधाई गेण्हति ? गोयमा ! एगगुणसुब्भिगंधाई पि गेण्हति जाव अणंतगुणसुम्ब्भिगंधाई पि गेण्हति / एवं दुन्मिगंघाई पि गेण्हति / [877-10 प्र.] (भगवन् ! ) गन्ध से सुगन्ध वाले जिन (भाषाद्रव्यों) को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [877-10 उ.] गौतम ! (वह) एकगुणसुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है / इसी तरह वह एकगुण दुर्गन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण दुर्गन्ध वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [11] जाई भावतो रसमंताई गेहति ताई कि एगरसाई गेण्हति ? जाव कि पंचरसाई गेण्हति ? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च एगरसाई पि गेण्हति जाव पंचरसाई पि गेहति, सव्वगहणं पडुच्च णियमा पंचरसाइं गेहति / [८७७-११प्र.] भावतः रस वाले जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह एक रस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् पांच रस वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है ? [877-11 उ.] गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से (वह) एक रस वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् पांच रस वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है; किन्तु सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः पांच रस वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है / [12] जाई रसतो तित्तरसाइं मेण्हति ताई कि एगगुणतित्तरसाई मेण्हति जाव प्रणतगुणतित्तरसाइं गेहति? गोयमा ! एगगुणतित्तरसाई पि गेहति जाव अणंतगुणतित्तरसाई पि गेण्हति / एवं जाव महुरो रसो। [877-12 प्र.] रस से तिक्त (तीखे) रस वाले जिन (भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, क्या (वह) उन एकगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, यावत् (अथवा) अनन्तगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? 877-12 उ.] गौतम ! (वह) एकगुण तिक्तरस वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्तगुण तिक्तरस वाले (द्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार यावत् मधुर रस वाले भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहना चाहिए। [13] जाइं भावतो फासमंताई गेहति ताई कि एगफासाइं गेहति, जाव अट्ठफासाई गेण्हति ? गोयमा ! गहणदव्वाइं पडुच्च जो एगफासाई गिण्हति, दुफासाई गिण्हति जाव चउफासाइं पि गेण्हति, णो पंचफासाइं गेहति, जाव णो अटफासाई पि गेहति / सम्वग्गहणं पडुच्च णियमा चउफासाइं मेण्हति / तं जहा-सीयफासाई गेण्हति, उसिणफासाइं गेहति, गिद्धफासाइं गेण्हति, लुक्खफासाइं गेहति / [877-13 प्र.] भावतः जिन स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, (तो) क्या (वह) एक स्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् पाठ स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-13 उ.] गौतम ! ग्रहणद्रव्यों की अपेक्षा से एक स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, दो स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, यावत् चार स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु पांच स्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, यावत् पाठ स्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमत: चार स्पर्श वाले (चतुःस्पर्शी) भाषाद्रव्यों को (वह) Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [ 79 ग्रहण करता है; वे चार स्पर्श वाले द्रव्य इस प्रकार हैं- शीतस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, उष्णस्पर्श वाले द्रव्यों को ग्रहण करता है, स्निग्ध (चिकने) स्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है, और रूक्षस्पर्श वाले (द्रव्यों को) ग्रहण करता है / [14] जाई फासओ सोयाई गेण्हति ताई कि एगगुणसीयाई गेण्हति जाव प्रणतगुणसोयाई गण्हति ? गोयमा! एगगुणसीयाई पि गेहति जाव प्रणतगुणसीयाई पि गेहति / एवं उसिण-णिद्धलुक्खाई जाव अणंतगुणाई पि गिण्हति / [877-14 प्र.] स्पर्श से जिन शीतस्पर्श वाले भाषाद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) एकगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है, (अथवा) यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) ग्रहण करता है ? __ [877-14 उ.] गौतम ! (वह) एकगुण शीत द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, यावत् अनन्त पर्श वाले (भाषाद्रव्यों को) भी ग्रहण करता है। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले (भाषाद्रव्यों के ग्रहण करने के विषय में), यावत् अनन्तगुण उष्णादि स्पर्श वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) [15] जाई भंते ! जाव अणंतगुणलुक्खाई गेण्हति ताई कि पुट्ठाई गेहति अपुट्ठाई गेहति ? गोयमा ! पुट्ठाइं गेहति, णो अपुट्ठाई गेहति / [877-15 प्र.] भगवन् ! जिन एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के (भाषा) द्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्पृष्ट द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-15 उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्पृष्ट द्रव्यों को नहीं ग्रहण करता। [16] जाई भंते ! पुढाई गेण्हति ताई कि ओगाढाइं गेहति प्रणोगाढाई गिण्हति ? गोयमा ! प्रोगाढाइं गेहति, णो अणोगाढाइं गेहति / / [877-16 प्र.] भगवन् ! जिन स्पृष्ट द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अनवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-16 उ.] गौतम ! वह अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अनवगाढ द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। [17] जाइं भंते ! प्रोगाढाई गेहति ताई कि प्रणंतरोगाढाई गेण्हति, परंपरोगाढाई गेहति ? गोयमा ! अणंतरोगाढाइं गेहति, णो परंपरोगाढाइं गेण्हति / Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 [प्रज्ञापनासूत्र [877-17 प्र.] भगवन् ! (जीव) जिन अवगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) उन अनन्तरावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा परम्परावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-17 उ.] गौतम ! (वह) अनन्तरावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु परम्परावगाढ द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। [18] जाई भंते ! प्रणंतरोगाढाइं गेण्हति ताई कि अणूइं गेहति ? बादराई गेहति ? गोयमा ! अणूई पि गेण्हइ बादराई पि गेण्हति / [877-18 प्र.] भगवन् (जीव) जिन अनन्तरावगाढ द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या (वह) अणुरूप द्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा बादर द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-18 उ.] गौतम ! (वह) अणुरूप द्रव्यों को भी ग्रहण करता है और बादर द्रव्यों को भी ग्रहण करता है। [16] जाई भंते ! अणूई पि गेण्हति बायराइं पि गेहति ताई कि उड्ढं गेण्हति ? अहे गेहति ? तिरियं गेण्हति ? गोयमा! उड्ढे पि गिहति, अहे वि गिण्हति, तिरियं पि गेहति / [877-16 प्र.] भगवन् जिन अणुद्रव्यों को (जीव) ग्रहण करता है, क्या उन्हें (वह) ऊर्च (दिशा में) स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अधः (नीचे) दिशा अथवा तिर्यक् दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-19 उ.] गौतम ! (वह) अणुद्रव्यों को ऊर्ध्व दिशा में, अधः (नीचे) दिशा में और तिरछी दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है / [20] जाई भंते ! उड्ढं पि गेहति अहे वि गेहति तिरियं पि गेहति ताई कि आदि गेण्हति ? मज्झे गेण्हति ? पज्जवसाणे गेहति ? गोयमा ! आई पि गेहति, मज्झे वि गेण्हति, पज्जवसाणे वि गेहति / [877-20 प्र.] भगवन् ! जिन (अणुद्रव्यों) को (जीव) ऊर्ध्व, अधः और तिर्यक् दिशा में स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, क्या वह उन्हें आदि (प्रारम्भ) में ग्रहण करता है, मध्य में ग्रहण करता है, अथवा अन्त में ग्रहण करता है ? [877-20 उ] गौतम ! वह उन (ऊर्ध्वादिगृहीत द्रव्यों) को आदि में भी ग्रहण करता है, मध्य में भी ग्रहण करता है और पर्यवसान (अन्त) में भी ग्रहण करता है। [21] जाई भंते ! प्राई पि गेहति मज्झे वि गेहति पज्जवसाणे वि गेहति ताई कि सविसए गेहति ? अविसए गेण्हति ? गोयमा ! सविसए गेण्हति, णो अविसए गेहति / [877-21 प्र.] जिन (भाषा) को जीव आदि, मध्य और अन्त में ग्रहण करता है, Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद] [81 क्या वह उन स्वविषयक (स्पृष्ट, अवगाढ एवं अनन्तरावगाढ) द्रव्यों को ग्रहण करता है अथवा अविषयक (अस्वगोचर) द्रव्यों को ग्रहण करता है ? [877-21 उ.] गौतम ! वह स्वविषयक (स्वगोचर) द्रव्यों को ग्रहण करता है, किन्तु अविषयक (अस्वगोचर) द्रव्यों को ग्रहण नहीं करता। [22] जाई भंते ! सविसए गेहति ताई कि प्राणुपुचि गेण्हति ? प्रणाणुपुटिव गेण्हति ? गोयमा ! प्राणुपुचि गेहति, णो प्रणाणुपुत्वि गेण्हति / [877.22 प्र.] भगवन् ! जिन स्वविषयक द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, क्या वह उन्हें आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अथवा अनानुपूर्वी से ग्रहण करता है ? [877-22 उ.] गौतम ! (वह उन स्वगोचर द्रव्यों को) आनुपूर्वी से ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से ग्रहण नहीं करता। [23] जाई भंते ! प्राणुपुब्धि गेहति ताई कि तिदिसि गेहति जाब छद्दिसि गेण्हति ? गोयमा ! णियमा छद्दिसि गेण्हति / / पुट्ठोगाढ अणंतर अणू य तह बायरे य उडमहे / अादि विसयाऽऽणुपुन्वि णियमा तह छदिसि चेव / / 16 / / [877-23 प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव ानुपूर्वी से ग्रहण करता है, क्या उन्हें तीन दिशाओं से ग्रहण करता है, यावत् (अथवा) छह दिशाओं से ग्रहण करता है ? [877-23 उ.] गौतम ! (वह) उन द्रव्यों को नियमतः छह दिशाओं से ग्रहण करता है। [संग्रहणीगाथार्थ-] स्पृष्ट, अवगाढ, अनन्तरावगाढ, अणु तथा बादर, ऊर्ध्व, अधः, आदि, स्वविषयक, स्वविषयक, प्रानुपूर्वी तथा नियम से छह दिशाओं से (भाषायोग्य द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है।) 878. जीवे णं भंते ! जाइं दवाई भासत्ताए गेहति ताई कि संतरं गेहति ? निरंतरं गेण्हति ? ___ गोयमा! संतरं पि गेहति निरंतरं पि गेण्हति / संतरं गिण्हमाणे जहणणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज्जसमए अंतरं कटु गेण्हति / निरंतरं गिण्हमाणे जहण्णणं दो समए, उक्कोसेणं असंखेज्जसमए अणुसमयं अविरहियं निरंतरं गेण्हति / [878 प्र. भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन्हें र (बीच-बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर या बीच-बीच में रुक कर) ग्रहण करता है या निरन्तर (लगातार) ग्रहण करता रहता है ? [878 उ.] गौतम ! वह उन द्रव्यों को सान्तर भी ग्रहण करता है और निरन्तर भी ग्रहण करता है। सान्तर ग्रहण करता हुआ (जीव) जघन्यतः एक समय का तथा उत्कृष्टत: असंख्यात समय का अन्तर करके ग्रहण करता है; और निरन्तर ग्रहण करता हुग्रा जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात समय तक प्रतिसमय, बिना विरह (विराम) के, लगातार ग्रहण करता है। Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] [प्रज्ञापनासूत्र 876. जोवे णं भंते ! जाइं दवाइं भासत्ताए गहियाई णिसिरति ताई कि संतरं णिसिरति ? णिरंतर णिसिरति ? गोयमा! संतरं णिसिरति, णो णिरंतरं णिसिरति / संतरं णिसिरमाणे एगेणं समएणं गेण्हइ एगेणं समएणं णिसिरति, 10 निनिनिनिनि नि नि .... निनांना Hएएणं गहण-णिसिरणोवाएणं जहण्णेणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं गहण-णिसिरणोवायं (णिसिरणं) करेति / [879 प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है (त्यागता है), क्या वह उन्हें सान्तर निकालता है या निरन्तर निकालता है ? [876 उ.) गौतम ! (वह उन्हें) सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं निकालता (त्यागता)। सान्तर निकालता हुमा जीव एक समय में (उन भाषायोग्य द्रव्यों को) ग्रहण करता है और एक समय में निकालता (त्यागता) है। इस ग्रहण और निःसरण के उपाय से जघन्य दो समय के और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण और निःसरण करता है। विवेचन-जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सु. 877 से 879 तक) में जीव ग्राह्य स्थित भाषाद्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किनकिन रूपों में, कैसे-कैसे ग्रहण करता है, इसकी सांगोपांग चर्चा की गई है। मुखादि से बाहर निकालने से पूर्व ग्राह्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप-यह तो पहले बताया जा चुका है कि जीव भाषा निकालने से पूर्व भाषा के रूप में परिणत करने के लिए भाषाद्रव्यों को अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन तीन सूत्रों में इन्हीं ग्राह्य भाषाद्रव्यों की चर्चा का निष्कर्ष क्रमश: इस प्रकार है (1) जीव स्थित (स्थिर, हलन-चलन से रहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थिर (गमनक्रियायुक्त) द्रव्यों को नहीं। (2) वह स्थित द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से ग्रहण करता है। (3) द्रव्य से, एकप्रदेशी (एक परमाणु) से लेकर असंख्यातप्रदेशी भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे स्वभावतः अग्राह्य होते हैं, किन्तु अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, क्योंकि अनन्त परमाणुओं से बना हुया स्कन्ध ही जीव द्वारा ग्राह्य होता है। (4) क्षेत्र से, भाषारूप में परिणमन करने के लिए ग्राह्य भाषाद्रव्य आकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात प्रदेशों में अवगाह वाले नहीं होते, किन्तु असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ होते हैं / (5) काल से, वह एक समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है, क्योंकि पुद्गलों (अनन्तप्रदेशी स्कन्ध) की अवस्थिति (हलनचलन से रहितता) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यातसमय तक रहती है। (6) भाव से, भाषा रूप में ग्राह्य द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले होते हैं / (7) भावत: वर्ण वाले जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, वे ग्रहणयोग्य पृथक्-पृथक् Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद [ 83 द्रव्यापेक्षया कोई एक, कोई दो, यावत् कोई पांच वर्षों से युक्त होते हैं, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया अर्थात् ग्रहण किए हुए समस्त द्रव्यों के समुदाय की अपेक्षा से वे नियमत: पांच वर्षों से युक्त होते हैं। (8) वर्ण की अपेक्षा से भाषारूप में परिणत करने हेतु एकगुण कृष्ण से लेकर अनन्तगुण कृष्ण भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। इसी प्रकार नील, रक्त, पीत, शुक्ल वर्णों के विषय में समझ लेना चाहिए। (9) ग्रहणयोग्यद्रव्यापेक्षया एक गन्ध वाले एवं दो गन्ध वाले द्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया दो गन्धवाले द्रव्यों को ही ग्रहण करता है। (10) एकगुण सुगन्ध वाले से लेकर यावत् अनन्तगुण सुगन्ध वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, तथैव एकगुण दुर्गन्ध से लेकर अनन्तगुण दुर्गन्ध तक के भाषापुद्गलों को ग्रहण करता है। (11) ग्रहणयोग्य द्रव्यों की अपेक्षा से एक रस वाले भाषाद्रव्यों को भी ग्रहण करता है, किन्तु सर्वग्रहणापेक्षया नियमतः पांच रसों वाले भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (12) भाषा के रूप में परिणत करने हेतु एकगुण तिक्तरस वाले से लेकर अनन्तगुण तिक्तरस वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है / इसी प्रकार कटु, कषाय, अम्ल और मधुर रसों वाले भाषाद्रव्यों के विषय में समझना चाहिए। (13) भावत: स्पर्श वाले जिन द्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे भाषाद्रव्य ग्रहणद्रव्यापेक्षया एकस्पर्शी नहीं होते, क्योंकि एक परमाणु में दो स्पर्श अवश्य होते हैं / ' अतः वे द्रव्य द्विस्पर्शी, त्रिस्पर्शी या चतु:स्पर्शी होते हैं। किन्तु पंचस्पर्शी से लेकर अष्टस्पर्शी तक नहीं होते / सर्वग्रहण की अपेक्षा से नियमतः शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष चतुःस्पर्शी भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है। (14) शीतस्पर्श वाले जिन भाषाद्रव्यों को भाषारूप में परिणत करने हेतु जीव ग्रहण करता है, वे एकगुण शीतस्पर्श वाले यावत् अनन्तगुण शीतस्पर्श वाले होते हैं। इसी प्रकार उष्ण, स्निग्ध और रूक्षस्पर्श वाले भाषा द्रव्यों के विषय में समझना चाहिए / (15) एकगुण कृष्णवर्ण से लेकर अनन्तगुण रूक्षस्पर्श तक के जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप परिणत करने के लिए ग्रहण करता है, वे द्रव्य अात्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते हैं, अस्पृष्ट नहीं तथा वह अवगाढ द्रव्यों (जिन आकाशप्रदेशों में जीव के प्रदेश हैं, उन्हीं आकाशप्रदेशों में अवस्थित भाषाद्रव्यों) को ग्रहण करता है, अनवगाढ द्रव्यों को नहीं; विशेषतः अनन्तरावगाढ (व्यवधानरहित) द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, परम्परावगाढ (व्यवहितरूप से अवस्थित) द्रव्यों को नहीं तथा अनन्तरावगाढ जिन द्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, वे अणु (थोड़े प्रदेशों वाले स्कन्ध) भी होते हैं और बादर (बहुत प्रदेशों से उपचित) भी होते हैं / फिर जितने क्षेत्र में जीव के ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्य अवस्थित हैं, उतने ही क्षेत्र में जीव उन अणुरूप द्रव्यों को ऊर्ध्वदिशा, अधोदिशा और तिर्यदिशा से भी ग्रहण करता है तथा उन्हें आदि (प्रथम समय) में भी ग्रहण करता है. मध्य (द्वितीय आदि समयों) में भी ग्रहण करता है और अन्त (ग्रहण के उत्कृष्ट अन्तमुहूर्तप्रमाणकाल रूप में अन्तिम समय) में भी ग्रहण करता है। इस प्रकार के वे भाषाद्रव्य स्वविषय 1. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः / एकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्श: कार्यलिंगश्च // Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] [प्रज्ञापनासूत्र (स्वगोचर अर्थात्-स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्तरावगाढरूप) होते हैं, अविषय (स्व के अगोचर अर्थात्----स्पृष्ट, अवगाढ और अनन्त रावगाढ से भिन्न रूप) नहीं होते तथा उन द्रव्यों को भी जीव आनुपूर्वी से (अनुक्रम से - ग्रहण की अपेक्षा सामीप्य के अनुसार) ग्रहण करता है, अनानुपूर्वी से (आसन्नता का उल्लंघन करके) नहीं एवं नियम से छह दिशाओं से आए हुए भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, क्योंकि नियमतः त्रसनाड़ी में अवस्थित भाषक त्रसजीव छहों दिशाओं के द्रव्यों को ग्रहण करता है। (16) जोव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें सान्तर (बीच में कुछ समय का व्यवधान डाल कर अथवा रुक-रुककर) भी ग्रहण करता है और निरन्तर (लगातार-बीचबीच में व्यवधान डाले बिना) भी ग्रहण करता है। अगर जीव भाषाद्रव्यों को सान्तर ग्रहण करे तो जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असंख्यात समयों का अन्तर करके ग्रहण करता है। यदि कोई लगातार बोलता रहे तो उसकी अपेक्षा से जघन्य एक समय का अन्तर समझना चाहिए। जैसेकोई वक्ता प्रथम समय में भाषा के जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उनको निकालता तथा दूसरे समय में गृहीत पुद्गलों को तीसरे समय में निकालता है। इस प्रकार प्रथम समय में सिर्फ ग्रहण होता है, बीच के समयों में ग्रहण और निसर्ग दोनों होते हैं, अन्तिम समय में सिर्फ निसर्ग होता है। भाषापुद्गलों का ग्रहण और निसर्ग, ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य एक समय में कैसे हो सकते हैं ? 1 इस शंका का समाधान यह है कि यद्यपि जैनसिद्धान्तानुसार एक समय में दो उपयोग सम्भव नहीं हैं, किन्तु एक समय में क्रियाएँ तो अनेक हो सकती हैं, उनके होने में कोई विरोध भी नहीं / एक ही समय में एक नर्तकी भ्रमणादि क्रिया करती हई, हाथों-पैरों आदि से विविध प्रकार की क्रियाएँ करती है, यह प्रत्यक्ष देखा जाता है। सभी वस्तुओं का एक ही समय में उत्पाद और व्यय देखा जाता है, इसी प्रकार भाषाद्रव्यों के ग्रहण और निसर्ग के परस्पर विरोधी प्रयत्न भी एक ही समय में हो सकते हैं। इसलिए कहा गया है कि भाषाद्रव्यों को जीव विना व्यवधान के निरन्तर ग्रहण करता रहे तो जघन्य दो समय तक और उत्कृष्ट असंख्यात समयों तक निरंतर ग्रहण करता है / कोई असंख्यात समयों तक एक ही ग्रहण न समझ ले, इस भ्रान्ति के निवारणार्थ 'अनुसमय' शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है-'एक समय के पश्चात्'। कोई व्यक्ति बीच में व्यवधान होने पर भी 'अनुसमय' समझ सकता है, इस भ्रमनिवारण के लिए 'अविरहित' शब्द प्रयुक्त किया है। इस प्रकार प्रथम समय में ग्रहण ही होता है, निसर्ग नहीं; क्योंकि विना ग्रहण के निसर्ग सम्भव नहीं। और अन्तिम में भाषा का अभिप्राय उपरत हो जाने से ग्रहण नहीं होता, केवल निसर्ग हो होता है / शेष (बीच के) दूसरे, तीसरे आदि समयों में ग्रहण-निसर्ग दोनों साथ-साथ होते हैं / किन्तु पूर्व समय में गहीत पुद्गल उसके पश्चात् के उत्तर समय में ही छोड़े जाते हैं। ऐसा नहीं होता कि जिन पुद्गलों को जिस समय में ग्रहण किया. उसी समय में निसर्ग भी हो जाए (17) भाषा के रूप में गृहीत द्रव्यों को जीव सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं, क्योंकि जिस समय में जिन भाषाद्रव्यों को जीव ग्रहण करता है, उसी समय में उन द्रव्यों को नहीं निकालता अर्थात प्रथम समय में गृहोत भाषाद्रव्यों को प्रथम समय में नहीं, किन्तु दूसरे समय में और दूसरे समय में गृहीत द्रव्यों को तीसरे समय में निकालता है, इत्यादि / निष्कर्ष यह है कि पूर्व-पूर्व में गृहीत द्रव्यों को 1. गहण निसरंगपयत्ता परोप्परविरोहिणो कहं समये ? समय दो उदोगा, न होज्ज, किरियाण को दोसो ? --भाष्यकार Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद | (85 अगले-अगले समय में निकालता है। पहले ग्रहण होने पर ही निसर्ग का होना सम्भव है, अगृहीत का नहीं। इसीलिए कहा गया है कि निसर्ग सान्तर होता है। ग्रहण की अपेक्षा से ही निसर्ग को सान्तर कहा गया है। गृहीत द्रव्य का अनन्तर अर्थात् अगले समय में नियम से निसर्ग होता है / इस दृष्टि से निरन्तर ग्रहण और निसर्ग का काल जघन्य दो समय और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक का है।' भेद-अभेद-रूप में भाषाद्रव्यों के निःसरण तथा ग्रहणनिःसरणसम्बन्धी प्ररूपणा 880. जीवे णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गहियाइं णिसिरति ताई कि भिण्णाई णिसिरति ? अभिण्णाइं णिसिरति ? गोयमा ! भिण्णाई पि णिसिरति, अभिनाई पि णिसिरति / जाई भिण्णाई णिसिरति ताई अणंतगुणपरिवड्डीए परिवड्डमाणाई परिवड्डमाणाई लोयंतं फुसंति / जाइं अभिण्णाई णिसिरति ताई असंखेज्जाप्रो ओगाहणवग्गणानो गंता भेयमावज्जंति, संखेज्जाई जोयणाई गंता विद्धसमागच्छंति / [880 प्र.] भगवन् ! जीव भाषा के रूप में गृहीत जिन द्रव्यों को निकालता है, उन द्रव्यों को भिन्न (भेदप्राप्त-भेदन किए हुए को) निकालता है, अथवा अभिन्न (भेदन नहीं किए हुए को) निकालता है ? [880 उ.] गौतम ! (कोई जीव) भिन्न द्रव्यों को निकालता है, (तो कोई) अभिन्न द्रव्यों को भी निकालता है। जिन भिन्न द्रव्यों को (जीव) निकालता है, वे द्रव्य अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धि को प्राप्त होते हुए लोकान्त को स्पर्श करते हैं तथा जिन अभिन्न द्रव्यों को निकालता है, वे द्रव्य संख्यात अवगाहनवर्गणा तक जा कर भेद को प्राप्त हो जाते हैं। फिर संख्यात योजनों तक आगे जाकर विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। 881. तेसि णं भंते ! दवाणं कतिविहे भेए पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे भेए पण्णत्ते / तं जहा-खंडाभेए 1 पतराभेए 2 चुण्णियाभेए 3 अणतडियाभेए 4 उक्करियाभेए 5 / [881 प्र.] भगवन् ! उन द्रव्यों के भेद कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [881 उ.] गौतम ! भेद पांच प्रकार के कहे गए हैं ? वे इस प्रकार-(१) खण्डभेद, (2) प्रतरभेद, (3) चूणिकाभेद, (4) अनुतटिकाभेद और (5) उत्कटिका (उत्करिका) भेद / 882. से कि तं खंडाभेए ? 2 जणं अयखंडाण वा तउखंडाण वा तंबखंडाण वा सीसगखंडाग वा रययखंडाण वा जायरूवखंडाण वा खंडएण भेदे भवति / से तं खंडाभेदे / [882 प्र.) वह (पूर्वोक्त) खण्डभेद किस प्रकार का होता है ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 262 से 266 तक (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 348 से 379 तक / Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16] [ प्रज्ञापनासूत्र [882 उ. खण्डभेद (वह है), जो (जैसे) लोहे के खंडों का, रांगे के खण्डों का, तांबे के खण्डों का, शीशे के खण्डों का, चांदी के खण्डों का अथवा सोने के खण्डों का, खण्डक (टुकड़े करने वाले औजार-हथौड़े आदि) से भेद (टुकड़े) करने पर होता है। यह हुआ उस खण्डभेद (का स्वरूप / ) 883. से कि तं पयरामेदे ? 2 जण्णं वंसाण वा वेत्ताण वा पलाण वा कदलित्थंभाण वा अभपडलाण वा पयरएणं मेए भवति / से तं पयरामेदे। [883 प्र.] वह (पूर्वोक्त) प्रतरभेद क्या है ? (883 उ. प्रतरभेद (वह है), जो बांसों का, बेंतों का, नलों का, केले के स्तम्भों का, अभ्रक के पटलों (परतों)का प्रतर से (भोजपत्रादि की तरह) भेद करने पर होता है / यह है वह प्रतरभेद / 884. से कि तं चुणियाभए ? 2 जण्णं तिलचुण्णाण वा मुग्गचण्णाण वा मासचुण्णाण वा पिपलिचुण्णाण वा मिरियचुण्णाण वा सिंगबेरचण्णाण वा चुणियाए भेदे भवति / से तं चुणियाभेदे। [884 प्र.] वह (पूर्वोक्त) चूणिकाभेद क्या है ? [884 उ.] चूणिकाभेद (वह है), जो (जैसे) तिल के चूर्णों (चूरों) का, मूग के चूर्णी (चूरे या पाटे) का, उड़द के चूर्णों (चूरों) का, पिप्पली (पीपल) के चूरों का, कालीमिर्च के चूरों का, चूणिका (इमामदस्ते या चक्की प्रादि) से भेद करने (कूटने या पीसने) पर होता है / यह हुआ उक्त चूर्णिका भेद का स्वरूप / 885. से किं तं प्रणुताडियामेदे ? 2 जण्णं अगडाण वा तलागाण वा दहाण वा गदीण वा वावीण वा पुक्खरिणोण वा दीहियाण वा गुजालियाण वा सराण वा सरपंतियाण वा सरसरपंतियाण वा अणुतडियाए भेदे भवति / से तं प्रणुतडियाभेदे। [885 प्र.] वह अनुतटिकाभेद क्या है (कैसा है) ? [885 उ.] अनुतटिकाभेद (वह है.) जो कूपों के, तालाबों के, ह्रदों के, नदियों के, बावड़ियों के, पुष्करिणियों ( गोलाकार वावड़ियों) के, दीधिकाओं ( लम्बी बावड़ियों ) के, गुंजालिकाओं (टेढ़ीमेढ़ी बावड़ियों) के, सरोवरों के, पंक्तिबद्ध सरोवरों के और नाली के द्वारा जल का संचार होने वाले पंक्तिबद्ध सरोवरों के अनुतटिकारूप में (फट जाने, दरार पड़ जाने या किनारे घिस या कट जाने से) भेद होता है / यह अनुतटिकाभेद का स्वरूप है। 886. से कि तं उक्करियाभेदे ? 2 जण्णं मूसगाण वा मगूसाण वा तिलसिंगाण वा मुग्गसिगाण वा माससिंगाण वा एरंडबीयाण वा फुडित्ता उक्करियाए भेदे भवति / से तं उक्करियाभेए / [886 प्र.] वह (पूर्वोक्त) उत्कटिकाभेद कैसा होता है ? Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद [87 [886 उ.] मूषों-मसूर के, मगूसों (मूगफलियों या चौलाई की फलियों) के, तिल की फलियों के, मूग की फलियों के, उड़द की फलियों के अथवा एरण्ड के बीजों के फटने या फाड़ने से जो भेद होता है, वह उत्कटिकाभेद है / यह उत्कटिका (उत्करिका) भेद का स्वरूप है / 887. एएसि णं भंते ! दवाणं खंडामेएणं पयरामेएणं चणियाभेएणं प्रणतडियामेदेणे उक्करियाभेदेण य मिज्जमाणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवाई दम्वाई उक्करियाभेएणं मिज्जमाणाई, अणुतडियाभेदेणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, चुणियाभेएणं भिज्जमाणाई अणंतगुणाई, पयराभेएणं भिज्जमाणाई प्रणतगुणाई, खंडामेएणं भिज्जमाणाइं प्रणतगुणाई। [887 प्र.] भगवन् ! खण्डभेद से, प्रतरभेद से, चणिकाभेद से, अनुतटिकाभेद से और उत्कटिकाभेद से भिदने (भिन्न होने वाले इन भाषाद्रव्यों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [887 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े भाषाद्रव्य उत्कटिकाभेद से भिन्न होते हैं, उनसे अनन्तगुणे अनुतटिकाभेद से भिन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा चणिकाभेद से भिन्न होने वाले अनन्तगुणे हैं, उनसे अनन्तगुणे प्रतरभेद से भिन्न होने वाले और उनसे भी अनन्तगुणे अधिक खण्डभेद से भिन्न होने वाले द्रव्य हैं। 888. [1] णेरइए णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए मेहति ताई कि ठियाई गेण्हति ? अठियाइं गण्हति ? गोयमा ! एवं चेव जहा जीवे वत्तव्वया भणिया (सु. 877) तहा रइयस्सवि जाव अप्पाबहुयं। _[888-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, उन्हें (वह) स्थित (ग्रहण करता) है अथवा अस्थित (ग्रहण करता) है ? [888-1 उ.] गौतम ! जैसे (प्रोधिक) जीव के विषय में वक्तव्यता (सू. 877 में) कही है, वैसे ही यावत् अल्पबहुत्व तक नैरयिक के विषय में भी कहना चाहिए। [2] एवं एगिदियवज्जो दंडनो जाव वेमाणिया / [888-2] इसी प्रकार एकेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिकों तक दण्डक कहना चाहिए। 886. जीवा णं भंते ! जाई दवाई भासत्ताए गेण्हंति ताई कि ठियाई गेव्हंति ? अठियाई गेव्हंति ? गोयमा ! एवं चेव पुहुत्तेण वि णेयव्वं जाव बेमाणिया। [889 प्र.] जीव जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या (वे) उन स्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं, अथवा अस्थित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं ? [889 उ.] गौतम ! (वे स्थित भाषाद्रव्यों को ग्रहण करते हैं / ) (जिस प्रकार एकत्व Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 [प्रशाफ्नासूत्र एकवचनरूप में कथन किया गया था, उसी प्रकार पृथक्त्व (बहुवचन के) रूप में (नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक समझ लेना चाहिए। 810. जीवे णं भंते ! जाई दवाई सच्चभासत्ताए गेण्हति ताई कि ठियाई गेहति ? प्रठियाई गेण्हति ? गोयमा ! जहा प्रोहियदंडगो (सु. 877) तहा एसो वि / नवरं विगलेंदिया ण पुच्छिज्जति / एवं मोसमासाए वि सच्चामोसमासाए वि। [860 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या (वह) उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ? [890 उ. गौतम ! जैसे (सू. 877 में) प्रौधिक जीवविषयक दण्डक है, वैसे यह दण्डक भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि विकलेन्द्रियों के विषय में (उनकी भाषा सत्य न होने से) पृच्छा नहीं करनी चाहिए / जैसे सत्य भाषाद्रव्यों के ग्रहण के विषय में कहा है, वैसे ही मृषाभाषा के (द्रव्यों) तथा सत्यामृषाभाषा के (द्रव्यों के ग्रहण के विषय में भी कहना चाहिए।) 861. असच्चामोसमासाए वि एवं चेव / नवरं असच्चामोसभासाए विलिदिया वि पुच्छिज्जंति इमेणं अभिलावेणं विलिदिए णं भंते ! जाई दब्वाइं प्रसच्चामोसभासत्ताए गेहति ताई कि ठियाई गेति ? अठियाइं गेहति ? गोयमा ! जहा ओहियदंडनो (सु. 877) / एवं एते एगत्तपुहत्तेणं दस दंडगा भाणियब्वा / [891] असत्यामृषाभाषा के (द्रव्यों के ग्रहण के) विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि असत्यामृषाभाषा के ग्रहण के सम्बन्ध में इस अभिलाप के द्वारा विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा करनी चाहिए [प्र.] भगवन् ! विकलेन्द्रिय जीव जिन द्रव्यों को असत्यामृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या वह उन स्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है, अथवा अस्थितद्रव्यों को ग्रहण करता है ? उ.] गौतम ! जैसे (सु. 877 में) औधिक दण्डक कहा गया है, वैसे ही (यहाँ समझ लेना चाहिए।) इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये दस दण्डक कहने चाहिए। 862. जीवे णं भंते ! जाई दवाइं सच्चभासत्ताए गण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति ? गोयमा ! सच्चभासत्ताए णिसिरति, णो मोसभासत्ताए णिसिरति, यो सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति / एवं एगिदिय-विलिदियवज्जो दंडग्रो जाव वेमाणिए / एवं पुहुत्तेण वि / [862 प्र. भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को सत्यभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उनको Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवाँ भाषापद ] [89 वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है, मृषाभाषा के रूप में निकालता है, सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? [892 उ.] गौतम ! वह (सत्यभाषा के रूप में गृहीत उन द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में निकालता है, किन्तु न तो मृषाभाषा के रूप में निकालता है, न सत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है, और न ही असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है / इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर (एकवचन का) दण्डक कहना चाहिए तथा इसी तरह पृथक्त्व (बहुवचन) का दण्डक भी कहना चाहिए। ____863. जीवे गं भंते ! जाई दवाई मोसभासताए गेण्हति ताई कि सच्चभासत्ताए णिसिरति ? मोसभासत्ताए णिसिरति ? सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति ? असच्चामोसमासताए णिसिरति ? गोयमा ! णो सच्चमासत्ताए णिसिरति, मोसमासत्ताए णिसिरति, णो सच्चामोसमासत्ताए णिसिरति, णो असच्चामोसभासत्ताए णिसिरति / [893 प्र.] भगवन् ! जीव जिन द्रव्यों को मृषाभाषा के रूप में ग्रहण करता है, क्या उन्हें वह सत्यभाषा के रूप में निकालता है ? अथवा मृषाभाषा के रूप में निकालता है ? या सत्यामृषा भाषा के रूप में निकालता है ? अथवा असत्यामृषाभाषा के रूप में निकालता है ? 893 उ.] गोतम ! (वह मृषाभाषारूप में गृहीत द्रव्यों को) सत्यभाषा के रूप में नहीं निकालता, किन्तु मृषाभाषा के रूप में ही निकालता है, तथा सत्यामृषा भाषा के रूप में नहीं निकलता और न ही असत्यामषा भाषा के रूप में निकलता है। 864. एवं सच्चामोसमासत्ताए वि / [864] इसी प्रकार सत्यामृषाभाषा के रूप में (गृहीत द्रव्यों के विषय में भी समझना चाहिए / ) 865. असच्चामोसभासत्ताए वि एवं चेव / णवरं प्रसच्चामोसमासत्ताए विलिदिया तहेव पुच्छिज्जति / जाए चेव गेहति ताए चेव णिसिरति / एवं एते एगत्त-पुत्तिया अटु दंडगा भाणियब्वा / [865] असत्यामृषाभाषा के रूप में गहीत द्रव्यों के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेषता यह है कि असत्यामषाभाषा के रूप में गहीत द्रव्यों के विषय में विकलेन्द्रियों की भी पृच्छा उसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। (सिद्धान्त यह है कि) जिस भाषा के रूप में द्रव्यों को ग्रहण करता है, उसी भाषा के रूप में ही द्रव्यों को निकालता है। इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और पृथक्त्व (बहुवचन) के ये (कुल मिला कर) आठ दण्डक कहने चाहिए। विवेचन-भाषाद्रव्यों के भेद-प्रभेदरूप में निःसरण तथा ग्रहण-निःसरण के विषय में प्ररूपणाप्रस्तुत सोलह सूत्रों (880 से 895 तक) में भाषाद्रव्यों के भिन्न तथा अभिन्न रूप में निःसरण, भेदों के अल्पबहुत्व तथा भाषाद्रव्यों के ग्रहण-निःसरण के विषय में प्ररूपणा की गई है / नरयिक प्रादि के विषय में प्रतिवेश-रयिक जिन द्रव्यों को भाषा के रूप में ग्रहण करता है, वे स्थित (स्थिर) होते हैं या अस्थित (संचरणशील) ? इस प्रश्न के पूछे जाने पर शास्त्रकार प्रति Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र देश करते हुए कहते हैं—स्थित-अस्थित द्रव्यों के ग्रहण की प्ररूपणा से लेकर अल्पबहुत्व तक की जैसी प्ररूपणा समुच्चय जीव के विषय में की है, वैसी ही प्ररूपणा नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (एकेन्द्रिय को छोड़कर) करनी चाहिए। . भिन्न-भिन्न भाषाद्रव्यों के निःसरण की व्याख्या-वक्ता दो प्रकार के होते हैं, तीव्रप्रयत्न वाले और मन्दप्रयत्न वाले। जो वक्ता रोगग्रस्तता, जराग्रस्तता या अनादरभाव के कारण मन्दप्रयत्न वाला होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य अभिन्न-स्थूलखण्डरूप एवं अव्यक्त होते हैं / जो वक्ता नीरोग, बलवान् एवं आदरभाव के कारण तीव्रप्रयत्नवाला होता है, उसके द्वारा निकाले हुए भाषाद्रव्य खण्ड-खण्ड एवं स्फुट होते हैं।' तीव्रप्रयत्नवान् वक्ता द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य खंडित होने के कारण सूक्ष्म होने से और अन्य द्रव्यों को वासित करने के कारण अनन्तगुण वृद्धि को प्राप्त होकर लोक के अंत तक पहुंचते हैं और संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। मंदप्रयत्न द्वारा छोड़े गये भाषाद्रव्य लोकान्त तक नहीं पहुंच पाते। वे असंख्यात अवगाहन वर्गणा तक जाते हैं / वहाँ जाकर भेद को प्राप्त होते हैं, फिर संख्यात योजन तक आगे जाकर विध्वस्त हो जाते हैं / एकत्व और पथक्त्व के दस दण्डक-असत्यामषाभाषा के रूप में जिन द्रव्यों को ग्रहण किया जाता है, वे स्थित होते हैं, अस्थित नहीं। इस विषय में विकलेन्द्रियसहित दस दण्डक होते हैं, वे इस प्रकार हैं-नारक, भवनपति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक / अथवा दस दण्डक अर्थात्-पालापक इस प्रकार होते हैं-सामान्य एक जीव के भाषाद्रव्य ग्रहण के सम्बन्ध में एक तथा चार पृथक-पृथक् चार भाषाओं के द्रव्य ग्रहण करने के.सम्बन्ध में, यों 5 एकवचन के और 5 ही बहवचन के दण्डक (पाठ) मिल कर दस दण्डक होते हैं। एकत्व और पृथक्त्व के पाठ दण्डक-एकेन्द्रिय को छोड़कर नैरयिकों से लेकर 4 भाषाओं के द्रव्यों के ग्रहण-निःसरण-सम्बन्धी एकवचन के चार दण्डक और बहुवचन के चार दण्डक, यों आठ दण्डक हुए। सोलह वचनों तथा चार भाषाजातों के प्राराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 866. कतिविहे णं भंते ! वयणे पण्णते? गोयमा ! सोलसविहे वयणे पण्णत्ते / तं जहा-एगवयणे 1 दुवयणे 2 बहुवयणे 3 इथिक्यणे 4 पुमक्यणे 5 गपुसगवयणे 6 अज्झत्थवयणे 7 उवणीयवयणे 8 प्रवणीयवयणे 6 उवणीयावणीयवयणे 10 प्रवणीयउवणीयवयणे 11 तोलवयणे 12 पडुप्पन्नवयणे 13 प्रणागयवयणे 14 पच्चक्खवयणे 15 परोक्खवयणे 16 // 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 267 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 380 "कोई मंदपयत्तो निसिरइ सकलाई सव्वदव्वाई। अन्नो तिब्वपयत्तो सो मुचइ भिदिउं ताई॥" प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. 380 2. (क) प्रज्ञापना, मलय. वृत्ति, पत्रांक 267 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 3, पृ. 373 से 405 तक Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद] [866 प्र.] भगवन् ! वचन कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [896 उ.] गौतम ! वचन सोलह प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं-१. एकवचन, 2. द्विवचन, 3. बहुवचन, 4. स्त्रीवचन, 5. पुरुषवचन, 6. नपुसकवचन, 7. अध्यात्मवचन, 8. उपनीतवचन, 9. अपनीतवचन, 10. उपनीतापनीतवचन, 11. अपनीतोपनीतवचन, 12. अतीतवचन, 13. प्रत्युत्पन्न (वर्तमान), वचन, 14. अनागतवचन (भविष्यद् वचन) 15. प्रत्यक्षवचन और 16. परोक्षवचन / 867. इच्चेयं भंते ! एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा क्यमाणे पण्णवणो णं एसा भासा ? ण एसा भासा मोसा? हंता गोयमा ! इच्चेयं एगवयणं वा जाव परोक्खवयणं वा वयमाणे पण्णवणी णं एसा भासा, ण एसा भासा मोसा। [897 प्र.] इस प्रकार एकवचन (से लेकर) यावत् परोक्षवचन (तक 16 प्रकार के वचन) को बोलते हुये (जीव) की क्या यह भाषा प्रज्ञापनी है ? यह भाषा मृषा तो नहीं है ? [897 उ.] हाँ, गौतम ! इस प्रकार एकवचन से लेकर यावत् परोक्षव वन तक (16 वचनों) को बोलते हुए (जीव की) भाषा प्रज्ञापनी है, यह भाषा मृषा नहीं है / 868. कति णं भंते ! भासज्जाया पण्णता? गोयमा! चत्तारि भासज्जाया पण्णता / तं जहा—सच्चमेगं भासज्जाय? बितियं मोसं भासज्जायं 2 ततियं सच्चामोसं भासज्जायं 3 चउत्थं असच्चामोसं मासज्जायं 4 / [898 प्र.] भगवन् ! भाषाजात (भाषा के प्रकार) कितने हैं ? [898 उ.] गौतम ! भाषाजात चार कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) भाषा का एक जात (प्रकार) सत्या है, (2) भाषा का दूसरा प्रकार मृषा है, (3) भाषा का तीसरा प्रकार सत्यामृषा है और (4) भाषा का चौथा प्रकार असत्यामृषा है। 866. इच्चेयाई भंते ! चत्तारि भासज्जायाई भासमाणे कि पाराहए विराहए ? गोयमा ! इच्चेयाइं चत्तारि भासज्जायाई पाउत्तं भासमाणे प्राराहए, णो विराहए / तेण परं अस्संजयाऽविरयाऽपडिहयाऽपच्चक्खायपावकम्मे सच्चं वा भासं भासंतो मोसं वा सच्चामोसं वा असच्चामोसं वा भासं मासमाणे णो पाराहए, विराहए। [899 प्र.] भगवन् ! इन चारों भाषा-प्रकारों को बोलता हुअा (जीव) आराधक होता है, अथवा विराधक ? [866 उ.] गौतम ! इन चारों प्रकार की भाषानों को उपयोगपूर्वक (पायुक्त होकर) बोलने वाला आराधक होता है, विराधक नहीं। उससे पर--(अर्थात् उपयोगपूर्वक बोलने वाले से भिन्न) जो असंयत, अविरत, पापकर्म का प्रतिघात और प्रत्याख्यान न करने वाला सत्यभाषा बोलता हुमा तथा मृषाभाषा, सत्यामृषा और असत्यामृषा भाषा बोलता हुआ (व्यक्ति) पाराधक नहीं है, विराधक है। Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [ प्रज्ञापनासून 600. एतेसि णं ते ! जीवाणं सच्चभासगाणं मोसभासगाणं सच्चामोसभासगाणं प्रसच्चामोसभासगाणं प्रभासगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सच्चभासगा, सच्चामोसभासगा प्रसंखेज्जगुणा, मोसभासगा असंखेज्जगुणा, प्रसच्चामोसभासगा असंखेज्जगुणा, प्रभासगा प्रणंतगुणा। पण्णवणाए भगवईए एक्कारसमं भासापयं समत्तं // [600 प्र.] भगवन् ! इन सत्यभाषक, मृषाभाषक, सत्यामृषाभाषक और असत्यामषाभाषक तथा अभाषक जीवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [900 उ.] गौतम ! सबसे थोडे जीव सत्यभाषक हैं, उनसे असंख्यातगुणे सत्यामृषाभाषक हैं, उनकी अपेक्षा मृषाभाषक असंख्यातगुणे हैं, उनसे असंख्यातगुणे असत्यामृषाभाषक जीव हैं और उनकी अपेक्षा प्रभाषक जीव अनन्तगुणे हैं। विवेचन-सोलह वचनों और चार भाषाजातों के प्राराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा---प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 896 से 100 तक) में सोलह प्रकार के वचनों तथा सत्यादि चार प्रकार की भाषाओं का उल्लेख करके उनकी प्रज्ञापनिता (सत्यता) और उनके भाषकों की आराधकता-विराधकता की प्ररूपणा की गई है। अन्त में उक्त चारों प्रकार की भाषाओं के भाषकों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। सोलह प्रकार के वचनों को व्याख्या--१. एकवचन-एकत्वप्रतिपादक भाषा, जैसे पुरुषः अर्थात्-एक पुरुष / 2. द्विवचन-द्वित्वप्रतिपादक भाषा, जैसे-पुरुषौ, अर्थात्-दो पुरुष। 3. बहुबचन-बहुत्वप्रतिपादक कथन, जैसे-पुरुषाः अर्थात-बहुत-से पुरुष / 4. स्त्रीवचन-स्त्रीलिंगवाचक शब्द, जैसे- इयं स्त्री-यह स्त्री / 5. पुरुषवचन-पुल्लिगवाचक शब्द, जैसे--अयं पुमान् - यह पुरुष / 6. नपुसकवचन–नपुसकत्ववाचक शब्द, जैसे-इदं कुण्डम्-यह कुण्ड / 7. अध्यात्मवचन- मन में कुछ और सोच कर ठगने की बुद्धि से कुछ और कहना चाहता हो, किन्तु अचानक मुख से वही निकल पड़े, जो सोचा हो। 8. उपनोतवचन-प्रशंसावाचक शब्द, जैसे-'यह स्त्री अत्यन्त सुशीला है।' 6. अपनीतवचन-निन्दात्मक वचन, जैसे----यह कन्या कुरूपा है। 10. उपनीतापनीतवचन-पहले प्रशंसा करके फिर निन्दात्मक शब्द कहना, जैसे--यह सुन्दरी है, किन्तु दुःशीला है। 11. अपनीतोपनीतवचन--पहले निन्दा करके, फिर प्रशंसा करने वाला शब्द कहना. जैसे-यह कन्या यद्यपि कुरूपा है, किन्तु है सुशीला। 12. अतीतवचन-भूतकालद्योतक वचन, जैसे--अकरोत् (किया)। 13. प्रत्युत्पन्नवचन-वर्तमानकालवाचक वचन, जैसे-करोति (करता है) / 14. अनागतबचन-भविष्यत्कालवाचक शब्द, जैसे--करिष्यति (करेगा)। 15. प्रत्यक्षवचन–प्रत्यक्षसूचक शब्द, जैसे-'यह घर है।' और 16. परोक्षवचन--परोक्षसूचक शब्द, जैसे-वह यहाँ रहता था। ये सोलह ही बचन यथावस्थित-वस्तुविषयक हैं, काल्पनिक नहीं, अतः जब कोई इन वचनों को सम्यकरूप से उपयोग करके बोलता है, तब उसकी भाषा 'प्रज्ञापनी' समझनी चाहिए,' मृषा नहीं। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 267 Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारहवां भाषापद ] [93 चार प्रकार की भाषा के भाषक पाराधक या विराधक ?-प्रस्तुत चारों प्रकार की भाषाओं को जो जीव सम्यक् प्रकार से उपयोग रख कर प्रवचन (संघ) पर आई हुई मलिनता की रक्षा करने में तत्पर होकर बोलता है, अर्थात्-प्रवचन (संघ) को निन्दा और मलिनता से बचाने के लिए गौरव-लाघव का पर्यालोचन करके चारों में से किसी भी प्रकार की भाषा बोलता हुआ साधुवर्ग आराधक होता है, विराधक नहीं। किन्तु जो उपयोगपूर्वक बोलने वाले से पर-भिन्न है तथा असंयत (मन-वचन-काय के संयम से रहित) है, जो सावधव्यापार (हिंसादि पापमय प्रवृत्ति) से विरत नहीं (अविरत) है, जिसने अपने भतकालिक पापों को मिच्छामि दक्कडं (मेरा दकत मिथ्या हो), देकर तथा प्रायश्चित्त ग्रादि स्वीकार करके प्रतिहत (नष्ट) नहीं किया है तथा जिसने भविष्यकालसम्बन्धी पाप न हों, इसके लिए पापकर्मों का प्रत्याख्यान नहीं किया है, ऐसा जीव चाहे सत्यभाषा बोले या मृषा, सत्यामृषा या असत्या मृषा में से कोई भी भाषा बोले, वह पाराधक नहीं, विराधक है।' चारों भाषाओं के भाषकों के अल्पबहत्व की यथार्थता-प्रस्तुत चारों भाषाओं के भाषकों के अल्पबहत्व की चर्चा करते हुए सबसे कम सत्यभाषा के भाषक बताए हैं, इसका कारण यह है कि सम्यक उपयोग (ध्यान) पूर्वक सर्वज्ञमतानुसार वस्तुतत्त्व की स्थापना (प्रतिपादन) करने की बुद्धि (दृष्टि) से जो बोलते हैं, वे ही सत्यभाषक हैं, जो पृच्छाकाल में बहुत विरले ही मिलते हैं। सत्यभाषकों से सत्यामृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि लोक में बहुत-से इस प्रकार के सच-झूठ जैसे-तैसे बोलने वाले मिलते हैं। उनसे मृषाभाषक असंख्यातगुणे इसलिए हैं कि क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर परवंचनादि बुद्धि से बोलने वाले संसार में प्रचुर संख्या में मिलते हैं, वे सभी मृषाभाषी हैं। उनसे असंख्यातगुणे अधिक असत्यामृषाभाषक हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असत्यामषाभाषक की कोटि में आते हैं। इन सब से अनन्तगुणे अभाषक इसलिए हैं कि अभाषकों की गणना में सिद्ध जीव एवं एकेन्द्रिय जीव आते हैं, वे दोनों ही अनन्त हैं / सिद्ध जीवों से भी वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणे हैं। // प्रज्ञापनासूत्र : ग्यारहवाँ भाषापद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 268 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 268-269 Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सरीरपयं बारहवाँ शरीरपद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का बारहवाँ शरीरपद है। * संसार-दशा में शरीर के साथ जीव का अतीव निकट और निरन्तर सम्पर्क रहता है। शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति मोह-ममत्व के कारण ही कर्मबन्ध होता है। अतएव शरीर के विषय में जानना आवश्यक है ! शरीर क्या है ? प्रात्मा की तरह अविनाशी है या नाशवान् ? इसके कितने प्रकार हैं ? इन पांचों प्रकारों के बद्ध-मुक्त शरीरों के कितने-कितने परिमाण में है ? नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक किस में कितने शरीर पाए जाते हैं ? प्रादि-आदि / इसी हेतु से शास्त्रकार ने इस पद की रचना की है। प्रस्तुत पद में जैनदृष्टि से पांच शरीरों की चर्चा है-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण / उपनिषदों में आत्मा के अन्नमय आदि पांच कोषों की विचारणा मिलती है। उनमें से अन्नमयकोष की औदारिक शरीर के साथ तथा सांख्य आदि दर्शनों में जो अव्यक्त, सूक्ष्म या लिगशरीर माना गया है, उसकी तुलना तैजस-कार्मणशरीर के साथ हो सकती है। * प्रस्तुत पद में सर्वप्रथम औदारिकादि पांच शरीरों का निरूपण है / वृत्तिकार ने प्रौदारिकशरीर के विभिन्न अर्थ, उसकी प्रधानता, प्रयोजन और महत्ता की दृष्टि से समझाए हैं / तीर्थकर आदि विशिष्ट पुरुषों को प्रौदारिक शरीर होता है तथा देवों को भी यह शरीर दुर्लभ है। इस कारण इसका प्राधान्य और महत्त्व है / नारकों और देवों के सिवाय समस्त जीवों को यह शरीर जन्म से मिलता है, इसलिए अधिकांश जीवराशि इसी स्थूल एवं प्रधान शरीर की धारक है / जो शरीर विविध एवं विशेष प्रकार की क्रिया कर सकता है, अर्थात्-अनेक प्रकार के रूप धारण कर सकता है, वह वैक्रियशरीर है / यह शरीर देवों और नारकों को जन्म से प्राप्त होता है, पर्याप्त वायुकायिकों के भी होता है। किन्तु मनुष्यों को ऋद्धि-लब्धि रूप से प्राप्त होता है। चतुर्दशपूर्वधारी मुनि किसी प्रकार के शंका-समाधानादि प्रयोजनवश योगबल से तीर्थकर के पास जाने के लिए जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारकशरीर है / शरीर में जो तेजस् (प्रोज, तेज या तथारूप धातु एवं पाचनादि कार्य में अग्नि) का कार्य करता है, वह तैजसशरीर है और कर्मनिर्मित जो सूक्ष्मशरीर है, वह कार्मणशरीर है। तेजस और कार्मण, ये दोनों (क) पण्णावणासुतं (मू. पा.) भाग. 1, पृ. 223 (ख) तैत्तिरीय उपनिषद् भगुवल्ली / सांख्यकारिका 39-40 वेलवलकर (ग) (मालवणिया) गणधरवाद प्रस्तावना / (घ) षट्खण्डागम पृ. 14, सू. 129, 236, पृ. 237, 321 Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शरीरपद : प्राथमिक ] [ 95 शरीर जीव से सिद्धिप्राप्त होने से पूर्व तक कभी विमुक्त नहीं होते। अनादिकाल से ये दोनों शरीर जीव के साथ जुड़े हुए हैं। पुनर्जन्म के लिए गमन करने वाले जीव के साथ भी ये दो शरीर तो अवश्य होते हैं, औदारिकादि शरीरों का निर्माण बाद में होता है।' तत्पश्चात चौबीस दण्डकों में से किसको कितने व कौन से शरीर होते हैं ? इसकी चर्चा है। फिर इन पांचों शरीरों के बद-वर्तमान में जीव के साथ बंधे हुए, तथा मुक्त-पूर्वकाल में बांध कर त्यागे हुए शरीरों तथा समुच्चय में द्रव्य, क्षेत्र, काल की अपेक्षा से उनके परिमाण की चर्चा की गई है। इसके अनन्तर नैरयिकों, भवनवासियों, एकेन्द्रियों, विकलेद्रियों, तिर्यंचपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों के परिमाण की चर्चा द्रव्य, क्षेत्र, काल की दृष्टि से की गई है / गणित विद्या की दृष्टि से यह अतीव रसप्रद है।' 1. (क) प्रज्ञापना. म. वत्ति पत्रांक 268-269, (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 2 बारहवें पद की प्रस्तावना, पृ. 88-89 2. (क) पण्णवणासुत्त भा. 1, पृ. 223 से 228 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 2, बाहरवें पद की प्रस्तावना, पृ. 89 Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारसमं सरीरपयं बारहवाँ शरीरपद पांच प्रकार के शरीरों का निरूपण 601. कति णं भंते ! सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता। तं जहा-ओरालिए 1 वेउम्बिए 2 प्राहारए 3 तेयए 4 कम्मए 5 / [901 प्र.] भगवन् ! शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [901 उ.] गौतम ! शरीर पांच प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) प्रौदारिक, (2) वैक्रिय, (3) आहारक, (4) तैजस और (5) कार्मण ! विवेचन--पांच प्रकार के शरीरों का निरूपण---प्रस्तुत सूत्र (901) में जैनसिद्धान्त प्रसिद्ध औदारिक आदि पांच प्रकार के शरीरों का निरूपण किया गया है / शरीर का अर्थ उत्पत्ति के समय से लगातार प्रतिक्षण जो शीर्ण-जर्जरित होता है, वह शरीर है। प्रौदारिक शरीर की व्याख्या-उदार से प्रौदारिक शब्द बना है / वृत्तिकार ने उदार के तीन अर्थ किये हैं--(१) जो शरीर उदार अर्थात्-प्रधान हो। औदारिक शरीर की प्रधानता तीर्थकरों और गणधरों के शरीर की अपेक्षा से समझना चाहिए. क्योंकि औदारिक शरीर के अतिरिक्त अन्य शरीर, यहाँ तक कि अनुत्तर विमानवासी देवों का शरीर भी अनन्तगुणहीन होता है। (2) उदार, अर्थात् विस्तारवान् = विशाल शरीर / औदारिक शरीर का अवस्थितस्वभाव(आजीवन स्थायीरूप) से विस्तार कुछ अधिक एक हजार योजन प्रमाण होता है, जबकि वैक्रियशरीर का इतना अवस्थितप्रमाण नहीं होता / उसका अधिक से अधिक अवस्थितप्रमाण पांच सौ धनुष का होता है और वह भी सिर्फ सातवीं नरकपृथ्वी में ही, अन्यत्र नहीं। जो उत्तरवैक्रियशरीर एक लाख योजनप्रमाण तक का होता है, वह भवपर्यन्त स्थायी न होने के कारण अवस्थित नहीं होता। (3) सैद्धान्तिक परिभाषानुसार उदार का अर्थ होता है-मांस, हड्डियाँ, स्नायु आदि से अवबद्ध शरीर / उदार ही औदारिक कहलाता है। वैक्रियशरीर को व्याख्या-(१) प्राकृत के 'वेउन्विय' का संस्कृत में 'वैकुर्विक' रूप होता है। विकुर्वणा के अर्थ में 'विकुर्व' धातु से वैकुविक शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है--विविध क्रियाओं को करने में सक्षम शरीर / (2) अथवा विविध या विशिष्ट (विलक्षण) क्रिया विक्रिया है / विक्रिया करने वाला शरीर वैक्रिय है / पाहारक, तेजस और कार्मण शरीर की व्याख्या-चतुर्दशपूर्वधारी मुनि के द्वारा कार्य होने पर योगबल से जिस शरीर का प्राहरण-निष्पादन किया जाता है, उसे पाहारकशरीर कहते हैं / Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शरीरपद] तेज का जो विकार हो, उसे तैजस शरीर और जो शरीर कर्म का समूह रूप हो, उसे कर्मज या कार्मण शरीर कहते हैं। उत्तरोत्तर सूक्ष्मशरीर-औदारिक प्रादि शरीरों का इस प्रकार का क्रम रखने का कारण उनकी उत्तरोत्तर सूक्ष्मता है।' चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में शरीर-प्ररूपणा 902. रइयाणं भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! तो सरीरया पण्णत्ता / तं जहा-वेउब्धिए तेयए कम्मए / [902 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने शरीर कहे गए हैं ? [902 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे हैं / वे इस प्रकार वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर / 903. एवं असुरकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं / _[903] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक के शरीरों की प्ररूपणा समझना चाहिए। 604. पुढविक्काइयाणं भंते ! कति सरीरया पण्णता? गोयमा ! तो सरीरया पण्णत्ता / तं जहा-पोरालिए तेयए कम्मए / [904 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने शरीर कहे गए हैं ? [904 उ.] गौतम ! उनके तीन शरीर कहे हैं। वे इस प्रकार-औदारिक, तैजस एवं कार्मण शरीर। 905. एवं वाउक्काइयवज्जं जाव चरिंदियाणं / [905] इसी प्रकार वायुकायिकों को छोड़कर यावत् चतुरिन्द्रियों तक के शरीरों के विषय में जानना चाहिए। 606. वाउक्काइयाणं भंते ! कति सरीरया पण्णत्ता? गोयमा! चत्तारि सरीरया पण्णत्ता / तं जहा--पोरालिए वेउम्विए तेयए कम्मए / [906 प्र.] भगवन् ! वायुकायिकों के कितने शरीर कहे गए हैं ? 1. (क) प्रज्ञापनासत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 268-269 (ख) “ओरालं नाम वित्थरालं विसालति जंभणिय होइ, कहं ?' साइरेमजोयणसहस्समबट्ठियप्पमाणओरालियं अन्नमेद्दहमेत नत्थित्ति विउविवयं होज्जा तं तु अणट्ठियप्पमाणं, अवट्ठियं पुण पंच धणुसयाई अहेसत्तमाए इमं पुण अवट्टियप्पमाणं साइरेगं जोयणसहस्सं"॥" (ग) “विविहा विसिद्धगा य किरिया, तीए उजं भवं तमिह / वेउब्वियं तयं पुण नारगदेवाण पगईए॥" -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 269 Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [ प्रज्ञापनासूत्र [906 उ.] गौतम ! (उनके) चार शरोर कहे हैं। वे इस प्रकार-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर / 907. एवं पंचिदियतिरिक्खजोणियाण वि। [907] इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के शरीरों के विषय में भी समझना चाहिए / 608. मणसाणं भंते ! कति सरीरया पण्णता? गोयमा! पंच सरीरया पण्णत्ता / तं जहा-पोरालिए वेउव्विए पाहारए तेयए कम्मए। [608 प्र. भगवन् ! मनुष्यों के कितने शरीर कहे गए हैं ? [908 उ.] गौतम ! मनुष्यों के पांच शरीर कहे गए हैं। वे इस प्रकार-प्रौदारिक, वैक्रिय, पाहारक, तैजस और कार्मण / 606. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णारगाणं [सु. 602] / [606] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के शरीरों की वक्तव्यता नारकों की तरह (सू. 902 के अनुसार) कहना चाहिए। विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में शरीरप्ररूपणा-नैरयिक से लेकर वैमानिक तक 24 दण्डकों में से किसमें कितने शरीर पाए जाते हैं ? इसकी प्ररूपणा प्रस्तुत आठ सूत्रों में की गई है। पांचों शरीरों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण 610. [1] केवतिया णं भंते ! पोरालियसरीरया पण्णता? __ गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्ध ल्लया य मुक्केल्लया य / तत्थ णं जे ते बद्ध ल्लगा हे गं असंखेज्जगा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-प्रोसपिणोहिं अवहोरंति कालो, खेत्तनो असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, अणताहि उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालप्रो, खेत्तनो प्रणेता लोगा, दन्वनो प्रभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो। [910-1 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर कितने कहे गए हैं ? [610-13.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध (जीव के द्वारा ग्रहण किये हुए) हैं, वे असंख्यात हैं, काल से-वे असंख्यात उत्सपिणियों-अवपिणियों (कालचक्रों) से अपहृत होते हैं / क्षेत्र से-वे असंख्यातलोक-प्रमाण हैं। उनमें जो मुक्त (जीव के द्वारा छोड़े हुए-त्यागे हुए) हैं, वे अनन्त हैं। काल से--वे अनन्त उत्सपिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्र से--अनन्तलोकप्रमाण हैं / द्रव्यत:--मुक्त औदारिक शरीर अभवसिद्धिक (अभव्य) जीवों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं / [2] केवतिया णं भंते ! वेउब्वियसरीरया पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा बद्धल्लया य मुक्केल्लया य। तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीहि अवहीरंति कालो, खेतो असंखेज्जासो Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारहवां शरीरपद सेढीनो पयरस्स असंखेज्जतिभागो। तत्थ णं जेते मुक्केल्लगा ते णं प्रणता, अणंताहिं उस्सप्पिणिप्रोसप्पिणीहि अवहोरंति कालो, जहा पोरालियस्स मुक्केल्लया तहेव वेउब्वियस्स वि भाणियन्या / [610-2 प्र.] भगवन् ! वैक्रिय शरीर कितने कहे गए हैं ? {101-2 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे हैं-बद्ध और मुक्त। उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं, कालत: वे असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रत: वे असंख्यात श्रेणी-प्रमाण तथा (वे श्रेणियां) प्रतर के असंख्यातवें भाग हैं। उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं / कालत: वे अनन्त उत्सपिणियों-अवपिणियों से अपहृत होते हैं; जैसे प्रौदारिक शरीर के मुक्तों के विषय में कहा गया है, वैसे ही वैक्रियशरीर के मुक्तों के विषय में भी कहना चाहिए / [3] केवतिया णं भंते ! पाहारगसरीरया पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / तस्य णं जे ते बद्धलगा ते गं सिय अस्थि सिय पत्थि / जति अस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं प्रणता जहा ओरालियस्स मुक्केल्लया तहा भागियव्वा। [910-3 प्र.] भगवन् ! आहारक शरीर कितने कहे गए हैं ? [910-3 उ.] गौतम ! आहारक शरीर दो प्रकार के कहे हैं / वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते। यदि हों तो जघन्य एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व होते हैं / उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं। जैसे औदारिक शरीर के मुक्त के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ कहना चाहिए। [4] केवइया णं भंते ! तेयगसरीरया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं प्रणता, अणंताहि उस्सपिणि-अोसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तमो अणंता लोगा, वो सिद्ध हितो अणंतगुणा सव्वजीवाणंतभागूणा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते णं अणंता, प्रणताहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीहि प्रवहीरंति कालो, खेत्तश्रो अणंता लोगा, दव्वश्रो सम्वजीवेहितो प्रणतगुणा, जीववग्गस्स प्रणंतभागो। [910-4 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने कहे गए हैं ? [910-4 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे हैं। वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे अनन्त हैं, कालत:--अनन्त उत्सपिणियों-अवसपिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रत:अनन्तलोकप्रमाण हैं, द्रव्यतः-सिद्धों से अनन्तगुणे तथा सर्वजीवों से अनन्तवें भाग कम हैं। उनमें से जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं, कालतः–वे अनन्त उत्सपिणियों-अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं, क्षेत्रत:-वे अनन्तलोकप्रमाण हैं। द्रव्यतः-(वे) समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं तथा जीववर्ग के अनन्तवें भाग हैं। Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] [ प्रज्ञापनासूत्र [5] एवं कम्मगसरीरा वि भाणियव्वा / [910-5] इसी प्रकार कार्मण शरीर के विषय में भी कहना चाहिए। विवेचन--पांचों बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण–प्रस्तुत सूत्र (910-1 से 5) में द्रव्य, क्षेत्र, और काल की अपेक्षा से पांचों शरीरों के बद्ध और मुक्त शरीरों का परिमाण दिया गया है। बद्ध और मुक्त की परिभाषा-प्ररूपणा करते समय जीवों द्वारा जो शरीर परिगहोत (ग्रहण किए हुए) हैं, वे बद्धशरीर कहलाते हैं, जिन शरीरों का जीवों ने पूर्वभवों में ग्रहण करके परित्याग कर दिया है, वे मुक्तशरीर कहलाते हैं / बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण-पांचों शरीरों के बद्धरूप और मुक्तरूप का द्रव्य की अपेक्षा से अभव्य आदि से, क्षेत्र की अपेक्षा से श्रेणि, प्रतर आदि से और काल की अपेक्षा से आवलिकादि द्वारा परिमाण का विचार शास्त्रकारों ने किया है / बद्ध और मुक्त औदारिक शरीरों का परिमाणबद्ध औदारिक शरीर असंख्यात हैं। यद्यपि बद्ध औदारिक शरीर के धारक जीव अनन्त हैं, तथापि यहाँ जो बद्ध औदारिक शरीरों का परिमाण असंख्यात कहा है, उसका कारण यह है-औदारिक शरीरधारी जीव दो प्रकार के होते हैं-- प्रत्येकशरीरी और अनन्तकायिक / प्रत्येकशरीरी जीवों का अलग-अलग औदारिक शरीर होता है, किन्तु जो अनन्तकायिक होते हैं, उनका औदारिक शरीर पृथक्-पृथक् नहीं होता, अनन्तानन्त जीवों का एक ही होता है / इस कारण औदारिकशरीरी जीव अनन्तानन्त होते हुए भी उनके शरीर असंख्यात ही हैं। काल को अपेक्षा से-बद्धऔदारिक शरीर प्रसंख्यात उत्सपिणियों और असंख्यात अवसपिणियों में अपहृत होते हैं, इसका तात्पर्य यह है कि यदि उत्सपिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त औदारिक शरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सपिणियाँ और अवसपिणियाँ व्यतीत हो जाएँ। क्षेत्र की अपेक्षा से-बद्धऔदारिक शरीर असंख्यातलोकप्रमाण हैं, इसका अर्थ हुआ---अगर समस्त बद्ध औदारिक शरीरों को अपनी-अपनी अवगाहना से परस्पर अपिण्डरूप में (पृथक-पृथक्) आकाशप्रदेशों में स्थापित किया जाए तो असंख्यातलोकाकाश उन पृथक्-पृथक् स्थापित शरीरों से व्याप्त हो जाएँ। मुक्त औदारिक शरीर अनन्त होते हैं, उनका परिमाण कालतः अनन्त उत्सपिणियों-अवसपिणियों के अपहरणकाल के बराबर है, अर्थात्-उत्सर्पिणी और अवपिणी कालों के एक-एक समय में एक-एक मक्त औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त मक्त औदारिकशरीरों का अपहरण करने में अनन्त उत्सपिणियों और अनन्त अवसपिणियाँ समाप्त हो जाएँ। संक्षेप में, इसे यों कह सकते हैं कि अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों में जितने समय होते हैं, उतनी ही मुक्त औदारिकशरीरों की संख्या है। क्षेत्र की अपेक्षा से--वे अनन्तलोकप्रमाण हैं। इसका तात्पर्य यह है कि एक लोक में असंख्यातप्रदेश होते हैं। ऐसे-ऐसे अनन्त लोकों के जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही मुक्त औदारिक शरीर हैं। द्रव्य की अपेक्षा से---मुक्त औदारिक शरीर अभव्य जीवों से अनन्तगुणे होते हए भी सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग मात्र ही हैं, अर्थात्-वे सिद्ध जीवराशि के बराबर नहीं हैं / इस सम्बन्ध में एक शंका है-यदि अविकल (ज्यों के त्यों) मुक्त औदारिकशरीरों की यह संख्या मानी जाए तो भी वे अनन्त नहीं हो सकते, क्योंकि नियमानुसार पुद्गलों की स्थिति अधिक-से-अधिक असंख्यातकाल तक की होने से वे मुक्त शरीर अविकल रूप से अनन्तकाल तक ठहर नहीं सकते। Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद ] [101 यदि यहाँ उन पुद्गलों को लिया जाए, जिन्हें जीव ने औदारिक शरीर के रूप में अतीतकाल में ग्रहण करके त्याग दिया है, तो सभी जीवों ने सभी पुद्गलों को औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागा है, कोई पुद्गल शेष नहीं बचा है। ऐसी स्थिति में मुक्त औदारिक शरीर अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्ध जीवों के अनन्तवें भाग हैं, यह कथन कैसे संगत हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि यहाँ मुक्त औदारिक शरीरों से न तो केवल अविकल (अखंडित) शरीरों का ही ग्रहण किया जाता है, और न औदारिक शरीर के रूप में ग्रहण करके त्यागे हुए पुद्गलों का ग्रहण किया है अत: यहाँ पूर्वोक्त दोषापत्ति नहीं है / जिस औदारिक शरीर को जीव ने ग्रहण करके त्याग दिया है और वह विनष्ट होता हुआ अनन्त भेदों वाला होता है / वे अनन्त भेदों को प्राप्त होते हुए औदारिक पुद्गल जब तक औदारिक पर्याय का परित्याग नहीं करते, तब तक वे औदारिक शरीर ही कहलाते हैं। जिन पुद्गलों ने औदारिक पर्याय का परित्याग कर दिया, वे औदारिक शरीर नहीं कहलाते / इस प्रकार एक ही शरीर के अनन्त शरीर सम्भव हो जाते हैं। इस तरह एक-एक शरीर अनन्त-प्रनन्त भेदों वाला होने से एक ही समय में प्रचुर अनन्त शरीर पाए जाते हैं। वे असंख्यातकाल तक अवस्थित रहते हैं। उस असंख्यातकाल में जीवों द्वारा त्यागे हुए अन्य असंख्यात शरीर भी होते हैं। उन सबके भी प्रत्येक के अनन्त-अनन्त भेद होते हैं। उनमें से उस काल में जो औदारिकशरीरपर्याय का परित्याग कर देते हैं, उनकी गणना भी इनमें नहीं की जाती, शेष की गणना प्रौदारिकशरीरों में होती है। अतएव मुक्त औदारिकशरीरों का जो परिमाण ऊपर बताया गया है, वह कथन संगत हो जाता है। जिस प्रकार लवणपरिणाम में परिणत लवण थोड़ा हो या ज्यादा, वह (विभिन्न लवणों का) पुद्गलसंघात लवण ही कहलाता है, इसी प्रकार औदारिक रूप से परिणत औदारिक शरीरयोग्य पुद्गलसंघात भी चाहे थोड़ा (आधा, पाव भाग या एक देश भी) हो, चाहे बहुत (पूर्ण औदारिक शरीर) हो, वह भी औदारिक शरीर ही कहलाता है। यहाँ तक कि शरीर का अनन्तवाँ भाग भी शरीर ही कहलाता है / अब प्रश्न यह है कि अनन्तानन्त लोकाकाशप्रदेश प्रमाण औदारिक शरीर एक ही लोक में कैसे अवगाढ होकर रहे (समाए) हुए हैं ? इसका समाधान यह है कि दीपक के प्रकाश के समान उनका भी एक लोक में समावेश हो जाता है। जैसे--एक दीपक का प्रकाश समग्र भवन में व्याप्त होकर रहता है और अन्य अनेक दीपकों का प्रकाश भी उस भवन में परस्पर विरोध न होने से रह सकता है, वैसे ही अनन्तानन्त मुक्त औदारिकशरीर भी एक ही लोकाकाश में समाविष्ट होकर रहते हैं। बद्ध-मुक्त क्रियशरीरों का परिमाण-बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं। कालत: असंख्यात की प्ररूपणा अगर उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के एक-एक समय में एक-एक वैक्रिय शरीर का अपहरण किया जाए तो समस्त वैक्रिय शरीरों का अपहरण करने में असंख्यात उत्सपिणियाँ और अवपिणियाँ व्यतीत हो जाएँ। संक्षेप में यों कहा जा सकता है-असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों के जितने समय होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से बद्ध वैक्रिय शरीर असंख्यातश्रेणीप्रमाण हैं और उन श्रेणियों का परिमाण प्रतर का असंख्यातवाँ भाग इसका तात्पर्य यह है कि प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ हैं और उन श्रेणियों में जितने श्राकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्ध वैक्रिय शरीर हैं / श्रेणी का परिमाण यों है-- घनीकृत लोक सब ओर से 7 रज्जु प्रमाण होता है। ऐसे लोक Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] | प्रज्ञापनासून की लम्बाई में सात रज्जु एवं मुक्तावली के समान एक आकाशप्रदेश की पंक्ति श्रेणी कहलाती है। घनीकृत लोक का सप्त रज्जुप्रमाण इस प्रकार होता है-समग्र लोक ऊपर से नीचे तक चौदह रज्जुप्रमाण है। उसका विस्तार नीचे कुछ कम सात रज्जु का है / मध्य में एक रज्जु है। ब्रह्मलोक नामक पंचम देवलोक के बिलकुल मध्य में पांच रज्जु है और ऊपर एक रज्जु विस्तार पर लोक का अन्त होता है / रज्जु का परिमाण स्वयम्भूरमणसमुद्र की पूर्वतटवर्ती वेदिका के अन्त से लेकर उसकी परवेदिका के अंत तक समझना चाहिए। इतनी लम्बाई-चौड़ाई वाले लोक की आकृति दोनों हाथ कमर पर रख कर नाचते हुए पुरुष के समान है। इस कल्पना से त्रसनाडी के दक्षिणभागवर्ती अधोलोकखण्ड को (जो कि कुछ कम तीन रज्ज विस्तत है, और सात रज्ज से कुछ अधिक ऊँचा है। लेकर सनाडी के उत्तर पार्श्व से, ऊपर का भाग नीचे और नीचे का भाग ऊपर करके इकट्ठा रख दिया जाय, फिर ऊर्ध्वलोक में त्रसनाडी के दक्षिण भागवर्ती कूर्पर (कोहनी) के आकार के जो दो खण्ड हैं, जो कि प्रत्येक कुछ कम साढ़े तीन रज्जु ऊँचे होते हैं, उन्हें कल्पना में लेकर विपरीत रूप में उत्तर पार्श्व में इकट्ठा रख दिया जाए। ऐसा करने से नीचे का लोकार्ध कुछ कम चार रज्जु विस्तृत और ऊपर का अर्ध भाग तीन रज्जु विस्तृत एवं कुछ कम सात रज्जु ऊँचा हो जाता है। तत्पश्चात् ऊपर के अर्ध भाग को कल्पना में लेकर नीचे के अर्धभाग के उत्तरपार्श्व में रख दिया जाए। ऐसा करने से कुछ अधिक सात रज्जु ऊँचा और कुछ कम सात रज्जु विस्तार वाला घन बन जाता है / सात रज्जु से ऊपर जो अधिक है, उसे ऊपर-नीचे के आयत (लम्बे) भाग को उत्तरपार्श्व में मिला दिया जाता है / इससे विस्तार में भी पूरे सात रज्जु हो जाते हैं। इस प्रकार लोक को घनीकृत किया जाता है। जहाँ कहीं घनत्व से सात रज्जुप्रमाण की पूर्ति न हो सके, वहाँ कल्पना से पूर्ति कर लेनी च चाहिए। सिद्धान्त (शास्त्र) में जहाँ कहीं भी श्रेणी अथवा प्रतर का ग्रहण हो, वहाँ सर्वत्र इसी प्रकार धनीकृत सात रज्जुप्रमाण लोक की श्रेणी अथवा प्रतर समझना चाहिए। मुक्त वैक्रिय शरीर भी मुक्त प्रौदारिक शरीरों के समान अनन्त हैं। अत: उनकी अनन्तता भी पूर्वोक्त मुक्त औदारिकों के समान समझ लेनी चाहिए / बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण-बद्ध आहारक शरीर कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते, क्योंकि आहारक शरीर का अन्तर (विरहकाल) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक का है।' यदि पाहारक शरीर होते हैं तो उनकी संख्या जघन्य एक, दो या तीन होती है, और उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) सहस्रपृथक्त्व अर्थात् दो हजार से लेकर नौ हजार तक होती है। मुक्त आहारकशरीरों का परिमाण मुक्त औदारिक शरीरों की तरह समझना चाहिए। बद्ध-मुक्त तेजसशरीरों का परिमाण.-बद्ध तेजस शरीर अनन्त हैं। क्योंकि साधारणशरीरी निगोदिया जीवों के तैजस शरीर अलग-अलग होते हैं, औदारिक की तरह एक नहीं / उसकी अनन्तता का कालतः परिमाण (पूर्ववत्) अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों के समयों के बराबर है। क्षेत्रत:-अनन्त लोकप्रमाण है। अर्थात् अनन्त लोकाकाशों में जितने प्रदेश हों, उतने ही बद्ध तेजसशरीर हैं। द्रव्य की अपेक्षा से बद्ध तेजस शरीर सिद्धों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि तैजसशरीर समस्त संसारी जीवों के होते हैं और संसारोजीव सिद्धों से अनन्तगुणे हैं / इसलिए तेजसशरीर भी 1. पाहारगाई लोए छम्मासे जा न होति वि कयाई / उककोसेणं नियमा, एक समयं जहन्नण // -प्रज्ञापना. म. बु., प. 273 में उद्ध त Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शरीरपद] [103 सिद्धों से अनन्तगुणे हैं। किन्तु सम्पूर्ण जीवराशि की दृष्टि से विचार किया जाए तो वे समस्त जीवों से अनन्तवें भाग कम हैं, क्योंकि सिद्धों के तैजसशरीर नहीं होता और सिद्ध सर्व जीवराशि से अनन्तवें भाग हैं, अतः उन्हें कम कर देने से तैजसशरीर सर्वजीवों के अनन्तवें भाग न्यून हो गए। मुक्त तेजसशरीर भी अनन्त हैं। काल और क्षेत्र की अपेक्षा उसकी अनन्तता पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए। द्रव्य की अपेक्षा से मुक्त तैजसशरीर समस्त जीवों से अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव का एक तेजसशरीर होता है। जीवों के द्वारा जब उनका परित्याग कर दिया जाता है तो वे पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं और उनका असंख्यातकालपर्यन्त उस पर्याय में अवस्थान रहता है, इतने समय में जीवों द्वारा परित्यक्त (मुक्त) अन्य तैजसशरीर प्रतिजीव असंख्यात पाए जाते हैं, और वे सभी पूर्वोक्त प्रकार से अनन्त भेदों वाले हो जाते हैं / अत: उन सबकी संख्या समस्त जीवों से अनन्तगुणी कही गई है। __ क्या समस्त मुक्त तैजसशरीरों की संख्या जीववर्गप्रमाण होती है ? इस शंका का समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--वे जीववर्ग के अनन्तभागप्रमाण होते हैं। वे समस्त मुक्ततैजसशरीर जीववर्गप्रमाण तो तब हो पाते, जबकि एक-एक जीव के तैजसशरीर सर्वजीवराशिप्रमाण होते, या उससे कुछ अधिक होते; और उनके साथ सिद्धजीवों के अनन्त भाग की पूर्ति होती / उसी राशि का उसी राशि से गुणा करने पर वर्ग होता है। जैसे 4 को 4 से गुणा करने पर (44 4 = 16) सोलह संख्या वाला वर्ग होता है। किन्तु एक-एक जीव के मुक्त तैजसशरीर सर्वजीवराशि-प्रमाण या उससे कुछ अधिक नहीं हो सकते, अपितु उससे बहुत कम ही होते हैं और वे भी असंख्यातकाल तक ही रहते हैं। उतने काल में जो अन्य मुक्त तैजसशरीर होते हैं, वे भी थोड़े ही होते हैं, क्योंकि काल थोड़ा है। इस कारण मुक्त तैजसशरीर जीववर्गप्रमाण नहीं होते, किन्तु जीववर्ग के अनन्त. भागमात्र ही होते हैं। बद्ध-मुक्त कार्मणशरीरों का परिमाण--भी तैजसशरीरों के समान ही समझना चाहिए। क्योंकि तैजस और कार्मणशरीरों की संख्या समान है।' नरयिकों के बद्ध-मुक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा 611. [1] रइयाणं भंते ! केवइया पोरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णता। तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं णस्थि / तस्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता जहा पोरालियमुक्केल्लगा (सु. 610 [1]) तहा भाणियवा। [911-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? [911-1 उ.] गौतम ! (उनके औदारिक शरीर) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार—बद्ध और मुक्त / उनमें से जो बद्ध ओदारिक शरीर हैं, वे उनके नहीं होते। जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, वे (उनके) अनन्त होते हैं, जैसे (सू. 910-1 में) (प्रोधिक) औदारिक मुक्त 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 270 से 274 तक Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [प्रज्ञापनासूत्र शरीरों के विषय में कहा है, उसी प्रकार (यहाँ-नैरयिकों के मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में) भी कहना चाहिए। [2] रइयाणं भंते ! केवड्या वेउब्वियसरीरा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बदल्लगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्ध ल्लया ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-प्रोसप्पिणीहि अवहीरंति कालो, खेत्तनो प्रसंखेज्जाओ सेढीमो पतरस्स असंखेज्जतिभागो, तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बीयवागमूलपडुप्पणं, अहव णं अंगुलबितियवग्गमूलघणप्पमाणमेत्तापो सेढीयो / तत्थ गं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा पोरालियस्स मुक्केल्लगा (सु. 611 [1]) तहा भाणियन्वा / [911-2 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गए हैं ? [911-2 उ.] गौतम ! (नैरयिकों के वैक्रियशरीर) दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध (वैक्रियशरीर) हैं, वे असंख्यात हैं। कालत:-(वे) असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में अपहत होते हैं। क्षेत्रत:-(वे) असंख्यात श्रेणी-प्रमाण हैं / (श्रेणी) प्रतर का असंख्यातवां भाग हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची (विस्तार की अपेक्षा से एक प्रदेशी श्रेणी) अंगुल के प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल से गुणित (करने पर निष्पन्न राशि जितनी) होती है अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमल के घन-प्रमाणमात्र श्रेणियों जितनी है। तथा जो (नरयिकों के) मुक्त क्रियशरीर हैं, उनके परिमाण के विषय में (नारकों के) मुक्त औदारिक शरीर के समान (611-1 के अनुसार) कहना चाहिए। [3] गैरइयाणं भंते ! केवतिया पाहारगसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगाय। एवं जहा पोरालिया बद्धलगा य मुक्केल्लगा य भणिया (सु. 611 [1]) तहेव आहारगा वि भाणियत्वा / [911-3 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के आहारक शरीर कितने कहे गए हैं ? [611-3 उ.] गौतम! वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / जैसे (नारकों के) औदारिक बद्ध और मुक्त (सू. 911-1 में) कहे गए हैं, उसी प्रकार (नैरयिकों के बद्ध और मुक्त) आहारक शरीरों के विषय में कहना चाहिए। [4] तेया-कम्मगाई जहा एतेसि चेव वेउध्वियाई / [611-4] (नारकों के) तैजस-कार्मण शरीर इन्हीं के वैक्रियशरीरों के समान कहने चाहिए। विवेचन-नरयिकों के बद्ध-मक्त पंच शरीरों की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (सू. 611-1 से 4) में नैरयिकों के बद्ध और मुक्त पंच शरीरों के परिमाण के विषय में प्ररूपणा की गई है। नैरयिकों के बद्ध-मक्त औदारिकशरीरों की प्ररूपणा-नैरयिकों के बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते, क्योंकि जन्म से ही उनमें प्रौदारिक शरीर संभव नहीं है। उनके मुक्त औदारिक शरीरों का कथन पूर्वोक्त औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए। Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [105 नारकों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीरों को प्ररूपणा-नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर उतने ही हैं, जितने नैरयिक हैं, क्योंकि प्रत्येक नारक का एक बद्ध वैक्रियशरोर होता है। नारक जोवों की संख्या असंख्यात होने से उनके बद्ध वैक्रियशरीरों की संख्या भी असंख्यात ही है। इस असंख्यातता को काल और क्षेत्र से प्ररूपणा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-कालत:- उत्सपिणो और अवसर्पिणीकालों के एक-एक समय में यदि एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सपिणियों और अवपिणियों में उन सब शरीरों का अपहरण होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो-असंख्यात उत्सर्पिणियों और अवपिणियों के जितने समय हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरोर होते हैं। क्षेत्रत:-वे असंख्यातश्रेणी-प्रमाण हैं। और प्रतर का असंख्यातवाँ भाग ही श्रेणी कहलाती है / ऐसी असंख्यात श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। अब प्रश्न यह है कि सकल (सम्पूर्ण) प्रतर में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं, प्रतर के अर्द्धभाग में भी और तृतीय (तिहाई) भाग आदि में भी असंख्यात श्रेणियाँ होती हैं, ऐसी स्थिति में यहाँ कितनी संख्या वालो श्रेणियाँ समझी जाएँ ? इसी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए भूलपाठ में कहा गया है—प्रतर का असंख्यातवाँ भाग / अर्थात्-प्रतर के असंख्यातवें भाग में जितनी श्रेणियाँ होती हैं, उतनी ही श्रेणियाँ यहाँ ग्रहण करनी चाहिए। फिर यहाँ उनका विशेष परिमाण बतलाने के लिए कहा गया है--उन श्रेणियों की विष्कम्भ सूची अर्थात् विस्तार को लेकर सूचीएकप्रादेशिकी श्रेणी उतनी होती है, जितनी अंगुल के प्रथम वर्गमूल को द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर (जो) राशि निष्पन्न होती है। आशय यह है कि एक अंगुल-प्रमाणमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की जितनी प्रदेशराशि होती है, उसके असंख्यात वर्गमूल होते हैं। यथा-प्रथमवर्गमूल का भी जो वर्गमूल होता है, वह द्वितीय वर्गमूल होता है, उस द्वितीय वर्गमूल का जो वर्गमूल होता है, वह तृतीय वर्गमूल होता है, इस प्रकार उत्तरोत्तर असंख्यात वर्गमूल होते हैं। अतः प्रस्तुत में प्रथम वर्गमूल को दूसरे वर्गमूल के साथ गुणित करने पर जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशों की सूची की बुद्धि से कल्पना कर ली जाए। तत्पश्चात् विस्तार में उसे दक्षिण-उत्तर में लम्बी स्थापित कर लो जाए। वह स्थापित की हुई सूची जितनी श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनः श्रेणियाँ यहां ग्रहण कर लेनी चाहिए। उदाहरणार्थ-यों तो एक अंगूलमात्र क्षेत्र में असंख्यात प्रदेशराशि होती है, फिर भी असत्कल्पना से उसको संख्या 256 मान लें। इस 256 संख्या का प्रथम वर्गमूल सोलह (245=10+6=16) होता है। दूसरा वर्गमूल 4 और तृतीय वर्गमूल 2 होता है। इनमें से जो द्वितीय वर्गमूल चार संख्या वाला है, उसके साथ सोलह संख्या वाले प्रथम वर्गमूल को गुणित करने पर 64 (चौसठ) संख्या आती है। बस, इतनी ही इसकी श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इसी बात को शास्त्रकार प्रकारान्तर से कहते हैं—अथवा अंगुल के द्वितीय वर्गमूल के घन-प्रमाण (घन जितनी) श्रेणियाँ समझनी चाहिए। इसका आशय यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेश होते हैं, उन प्रदेशों की राशि के साथ द्वितीय वर्गमूल का, अर्थात्---असत्कल्पना से चार का जो घन हो, उतने प्रमाण वाली श्रेणियाँ समझना चाहिए। जिस राशि का जो वर्ग हो, उसे उसी राशि से गुणा करने पर 'घन' होता है। जैसे-दो का घन पाठ है। वह इस प्रकार है-दो राशि का वर्ग चार है, उस को (चार को) दो के साथ गुणा करने पर पाठ संख्या होती है। इसलिए दो राशि का घन आठ हुआ। इसी प्रकार यहाँ पर भी चार (4) राशि का वर्ग सोलह होता है, उस को (सोलह को) चार राशि के साथ गुणा करने पर चार का घन वही चौसठ (64) आता है। इस तरह इन दोनों प्रकारों (तरीकों) में कोई वास्तविक भेद नहीं है। यहाँ वृत्तिकार एक तीसरा Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रकार भी बताते हैं-अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि को अपने प्रथम वर्गमूल के साथ गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतने ही प्रमाण वालो सुचो जितनो श्रेणियों को स्पर्श करती है, उतनी श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हों, उतने ही नारकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। नारकों के मुक्त वैक्रियशरीर की प्ररूपणा उनके मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझनी चाहिए / नारकों के बद्ध-मुक्त आहारक शरीर-जैसे नारकों के बद्ध औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसा ही उनके बद्ध आहारकशरीर के विषय में भी समझना चाहिए / नारकों के बद्ध पाहारकशरीर होते ही नहीं, क्योंकि उनमें आहारकल ब्धि सम्भव नहीं है। आहारकशरीर तो केवल आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दश पूर्वधारी मुनियों को ही होता है। नैरयिकों के मुक्त आहारक शरीरों के विषय में पूर्ववत समझना चाहिए।' भवनवासियों के बद्ध-मुक्त शरीरों का परिमाण 612. [1] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरा पण्णता? गोयमा ! जहा गैरइयाणं पोरालिया भणिया (सु. 611 [1]) तहेव एतेसि पि भाणियव्वा / [612-1 प्र.] भगवन् ! असुर कुमारों के कितने प्रौदारिकशरीर कहे गए हैं ? [112-1 उ.] गौतम ! जैसे नैरयिकों के (बद्ध-मुक्त) औदादिक शरीरों के विषय में (सू. 911-1 में) कहा गया है, उसी प्रकार इनके (असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के) विषय में भी कहना चाहिए। [2] असुरकुमाराणं भंते ! केवतिया बेउब्वियसरीरा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धल्लगा य मुषकेल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोहिं प्रवहीरंति कालमो, खेत्तनो प्रसंखेज्जानो सेढीनो पतरस्स असंखेज्जतिभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवम्गमूलस्स संखेज्जतिभागो। तत्थ गं जे ते मुक्केल्लया ते णं जहा पोरालिपस्स मुक्केल्लगा तहा भाणियन्वा (सु. 110 [1]) / [612-2 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के वैक्रियशरीर कितने कहे गये हैं ? [612-2 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से, असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों में वे अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियों (जितने) हैं। (वे श्रेणियां) प्रतर का असंख्यातवाँ भाग (प्रमाण हैं / ) उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग (प्रमाण) है। उनमें जो (असुरकुमारों के) मुक्त (वैक्रिय) शरीर हैं, उनके विषय में जैसे (सू. 610-1 में) मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में कहा गया है, उसी तरह कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना सूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 274-275 / (ख) 'अंगुलबिइयवग्गमूलं पढमवग्गमूलपडुप्पण्णं' -प्रज्ञापना म. बृत्ति, पत्रांक 275 में उद्धृत / Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद ] [ 107 [3] आहारयसरीरा जहा एतेसि णं चेव पोरालिया तहेव दुविहा भाणियब्वा। [612-3] (इनके) (बद्ध-मुक्त) पाहारक शरीरों के विषय में, इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के औदारिक शरीरों की तरह प्ररूपणा करनी चाहिए। [4] तेया-कम्मसरीरा दुविहा वि जहा एतेसि णं चेव वेउव्विया / [912-4] (इनके बद्ध-मुक्त) दोनों प्रकार के तेजस और कार्मण शरीरों (का कथन) भी इन्हीं के (बद्ध-मुक्त) वैक्रियशरीरों के समान समझ लेना चाहिए / 613. एवं जाव थणियकुमारा। [613] यावत् स्तनितकुमारों तक के बद्ध-मुक्त सभी शरीरों को प्ररूपणा भी इसी प्रकार (करनी चाहिए।) विवेचन-असुरकुमारादि के बद्धमुक्त शरीरों की प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू.९१२-६१३) में असरकमार से लेकर स्तनितकुमार तक के दसों भवनपतिदेवों के बद्ध एवं मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है / असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीर–इनके बद्ध औदारिक शरीर नहीं होते क्योंकि नारकों को तरह इनका भी भवस्वभाव इसमें बाधक कारण है / इनके मुक्त प्रौदारिक शरीर नै रयिकों की तरह समझने चाहिए। असुरकुमारों के बद्ध-मुक्त बैक्रिय शरीरों का निरूपण--इनके बद्ध वैक्रियशरीर असुरकुमार देवों को असंख्यात संख्या के बराबर असंख्यात हैं। काल से तो पूर्ववत् असंख्यात उत्सपिणियोंअवपिणियों के समयों के तुल्य हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से-असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं। असंख्यात श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही बद्धवैक्रियशरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग-प्रमाण होती हैं / यहाँ नारकों की अपेक्षा विशेषतर परिमाण बताते हुए शास्त्रकार कहते हैंउन श्रेणियों से परिमाण के लिए जो विष्कम्भसूची है, वह अंगूल-प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग है। जैसे कि असत्कल्पना से एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र की प्रदेशराशि 256 मानी गई। उसका जो प्रथम वर्गमूल है, वह 16 संख्यावाला माना गया। उसके संख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हों, असत्कल्पना से पांच या छह हों, उतने प्रदेशों वाली श्रेणी परिमाण के लिए विष्कम्भसूची समझनी चाहिए। इस दृष्टि से नैरयिकों की अपेक्षा असुरकुमारदेवों की विष्कम्भसूची असंख्यातगुणहीन है, क्योंकि नारकों की श्रेणी के परिमाण के लिए गहीत विष्कम्भसूची द्वितीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल जितने प्रदेशों वाली है / वस्तुतः द्वितीय वर्गमूल असंख्यातप्रदेशात्मक होता है / अतएव असंख्यातगुणयुक्त प्रथम वर्गमूल के प्रदेशों जितनी नारकों की सूची है, जबकि असुरकुमारादि की विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल के संख्यातभाग-प्रदेशरूप ही है। यह युक्तियुक्त भी है। क्योंकि महादण्डक में भी समस्त भवनवासियों को रत्नप्रभा पृथ्वी के नरपिका 4 मा असंख्यात गुगहान कहा गया है। इस दृष्टि से समस्त नारकों की अपेक्षा उनकी असंख्यातगुणहीनता स्वत: सिद्ध हो जाती है। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों को प्ररूपणा औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों की तरह करनी चाहिए / Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [ प्रज्ञापनासूत्र इनके बद्ध-मुक्त प्राहारक-तैजसकामण शरीर इनके प्राहारकशरीरों की प्ररूपणा नैरयिकों की तरह, बद्ध तैजस-कार्मण बद्धवैक्रियशरीरों की तरह, तथा इनके मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तेजस के समान समझनी चाहिए।' एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा 614, [1] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरगा पण्णता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धल्लया य मक्केल्लया य / तत्थ गंजे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो, खेत्तनो असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं प्रणता, अणताहि उस्सप्पिणि-श्रोसप्पिणीहि प्रवहीरंति कालो, खेत्तो अणंता लोगा, अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा, सिद्धाणं अणंतभागो। [914-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? [914-1 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से—(वे) असंख्यात उत्सपिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात लोक-प्रमाण हैं। उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं / कालतः (बे) अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः (वे) अनन्तलोक-प्रमाण हैं / (द्रव्यत: वे) अभव्यों से अनन्तगुणे हैं, सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। [2] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउब्वियसरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं णस्थि / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा एतेसिं चेव ओरालिया भणिया तहेव भाणियन्या / [914-2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के वैक्रिय शरीर कितने कहे गये हैं ? [614-2 उ.] गौतम! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे इनके नहीं होते। उनमें जो मुक्त हैं, उनके विषय में, जैसे इन्हीं के औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसे ही कहना चाहिए। [3] एवं प्राहारगसरीरा वि। _ [914-3] इनके पाहारकशरीरों की वक्तव्यता इन्हीं के वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए। [4] तेया-कम्मगा जहा एतेसि चेव पोरालिया। [614-4] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों (की प्ररूपणा) इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के समान समझनी चाहिए। - - --- ----- 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 276-277 Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहबां शरीरप] [109 615. एवं प्राउक्काइया तेउक्काइया वि। [915] इसी प्रकार अप्कायिकों और तेजस्कायिकों (के बद्ध-मुक्त सभी शरीरों) की वक्तव्यता (समझनी चाहिए / ) क्काइयाणं भंते ! केवतिया पोरालिया सरीरा पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा~~बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / दुविहा वि जहा पुढविकाइयाणं पोरालिया (सु. 614 [1]) / [916-1 प्र. भगवन् ! वायुकायिक जीवों के औदारिक शरीर कितने कहे गए हैं ? [916-1 उ. गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-बद्ध और मुक्त / इन बद्ध और मुक्त दोनों प्रकार के प्रौदारिक शरीरों को वक्तव्यता जैसे (सू. 914-1 में) पृथ्वीकायिकों के (बद्ध-मुक्त) औदारिक शरीरों की (वक्तव्यता है) तदनुसार समझना चाहिए / [2] वेउन्वियाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धलगा य मक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा, समए समए प्रवहीरमाणा अवहीरमाणा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जतिभागमेत्तेणं कालेणं अवहोरंति णो चेव णं अवहिया सिया / मुक्केल्लया जहा पुढविक्काइयाणं (सु. 614 [2]) / [616-2 प्र.] भगवन् ! वायुकायिकों के वैक्रियशरीर कितने कहे गए हैं ? [616-2 उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं / (कालतः) यदि समय-समय में एक-एक शरीर का अपहरण किया जाए तो पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण काल में उनका पूर्णत: अपहरण होता है। किन्तु कभी अपहरण किया नहीं गया है (उनके ) मुक्त शरीरों की प्ररूपणा (सू. 914-2 में उल्लिखित) पृथ्वीकायिकों (के मुक्त वैक्रिय शरीरों) को तरह समझनी चाहिए। [3] प्राहराय-तेया-कम्मा जहा पुढबिकाइयाणं (सु. 614 [3-4]) / तहा भाणियव्वा / [916-3] (इनके बद्ध-मुक्त) आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों ( की प्ररूपणा ) (सू. 614-3 / 4 में उल्लिखित) पृथ्वीकायिकों (के बद्ध-मुक्त आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों) की तरह करनी चाहिए। 917. वणप्फइकाइयाणं जहा पुढ विकाइयाणं। णवरं तेया-कम्मगा जहा प्रोहिया तेयाकम्मगा (सु. 610 [4-5]) / [617] वनस्पतिकायिकों (के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों) की प्ररूपणा पृथ्वीकायिकों (के बद्धमुक्त औदारिकादि शरीरों) की तरह समझना चाहिए / विशेष यह है कि इनके तेजस और कार्मण शरीरों का निरूपण (सू. 910-4 / 5 के अनुसार) औधिक तैजस-कार्मण-शरीरों के समान करना चाहिए। Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा- प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 914 से 917 तक) में पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीवों के बद्ध और मुक्त औदारिकादि शरीरों की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वोकायिकों प्रादि के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीर-पृथ्वी-अप-तेजस्कायिकों के बद्ध औदारिक शरोर असंख्यात हैं। काल से असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों के समयों के बराबर हैं, और क्षेत्र से असंख्यात लोकप्रमाण हैं। इस सम्बन्ध में युक्ति पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए ! इनके मुक्त प्रौदारिक शरीर औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान समझना चाहिए। पृथ्वोकायिकों आदि के वैनिय-माहारक-तेजस-कार्मणशरीरों को प्ररूपणा----इनमें वैक्रियलब्धि एवं आहारकलब्धि का अभाव होने से, इनके बद्धवैक्रिय एवं आहारकशरीर नहीं होते। मुक्त आहारक एवं वैक्रिय शरीरों का कथन मुक्त औदारिकशरीरवत् समझना चाहिए / इनके तैजस और कार्मण शरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्धमुक्त औदारिक शरीरों के समान जाननी चाहिए। वायुकायिकों के बद्धमुक्त पांचों शरीरों को प्ररूपणा-बायुकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिक पृथ्वी कायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों की तरह समझना चाहिए / वायुकाय में वैक्रिय शरीर पाया जाता है, अत: वायुकायिकों के बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात होते हैं / काल की अपेक्षा से यदि प्रतिसमय एक-एक वैक्रियशरीर का अपहरण किया जाये तो पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल में उनका पूर्णतया अपहरण हो। तात्पर्य यह कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग काल के जितने समय हैं, उतने ही वायुकायिकों के बद्ध वैक्रियशरीर होते हैं। वायुकायिक जीवों के सूक्ष्म और बादर ये दो-दो भेद हैं, फिर उनके प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद हैं। इनमें से बादर पर्याप्त वायुकायिकों के अतिरिक्त शेष तीनों में प्रत्येक असंख्यात लोकाकाशप्रमाण हैं, बादरपर्याप्तवायुकायिक प्रतर के असंख्यात-भाग-प्रमाण हैं। इनमें से तीन प्रकार के वायुकायिकों के वैक्रियलब्धि नहीं होती, सिर्फ बादर वायुकायिकों में से भी संख्यातभागमात्र में ही वैक्रियलब्धि होती है। क्योंकि पृच्छा के समय पल्योपम के असंख्येय भागमात्र हो वैक्रिय शरीरवाले पाए जाते हैं / अत: सिर्फ इनके ही वैक्रियशरीर होता है, अन्य तीनों के नहीं / वायुकायिकों के मुक्त वैक्रियशरीर के विषय में प्रौधिक मुक्त वैक्रियशरीर की तरह हो कहना चाहिए। इनके बद्ध तैजस, कार्मण शरीर के विषय में बद्ध औदारिक शरीर की तरह तथा मुक्त तैजस-कार्मणशरीर मुक्त औधिक तैजस, कार्मणशरीर की तरह समझना चाहिए। वायुकायिकों में प्राहारकलब्धि का अभाव होने से केवल अनन्त मुक्त आहारक शरीर ही होते हैं, बद्ध नहीं। वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त पांचों शरीरों को प्ररूपणा-वनस्पतिकायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिकशरीरों का कथन पृथ्वी कायिकों के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीर की तरह करना चाहिए। बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों को प्ररूपणा औधिक तेजस-कार्मण शरीरों की तरह समझनी चाहिए / उनके वैक्रिय और आहारक शरीर मुक्त ही होते हैं, बद्ध नहीं, क्योंकि उनमें वैक्रियल ब्धि तथा आहारकलब्धि नहीं होती।' 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 277 (ख) तिण्हं ताव रासीणं वेउग्वियलद्धी चेव नत्यि / बायरपज्जत्ताणं पि संखेज्जइभागमेताण लद्धी अस्थि // -प्रज्ञापना चूणि, प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 277 में उद्धत Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शरीरपद ] [111 द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रियतिर्यचों तक के बद्ध मुक्त शरीरों का परिमाण 618. [1] बेइंदियाणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य। तत्थ गं जे ते बद्ध लगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोहि अवहोरंति कालो, खेत्तमो असंखेज्जाम्रो सेढीयो पयरस्स असंखेज्जतिभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेज्जाम्रो जोयणकोडाकोडीनो असंखेज्जाइं सेढिवग्गमूलाई / बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्ध ल्लगेहि पयरं अबहीरति, असंखेज्जाहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोहि कालो, खेत्तमो अंगुलपयरस्स प्रावलियाए य असंखेज्जतिभागपलिभागेणं / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा प्रोहिया पोरालिया मुक्केल्लया (सु. 610 [1]) / [918-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? [918-1 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध औदारिक शरीर हैं, वे असंख्यात हैं। कालत:-(वे) असंख्यात उत्सपिणियों और अवपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्रत:-असंख्यात श्रेणि-प्रमाण हैं / (वे श्रेणियाँ) प्रतर के असंख्यात भाग (प्रमाण) हैं। उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, असंख्यात कोटाकोटी योजनप्रमाण है। (अथवा) असंख्यात श्रेणि वर्ग-मूल के समान होती है / द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिक शरीरों से प्रतर अपहृत किया जाता है। काल की अपेक्षा से---असंख्यात उत्पपिणी-अवसर्पिणी-कालों से (अपहार होता है)। क्षेत्र की अपेक्षा से-अंगुल-मात्र प्रतर और प्रावलिका के असंख्यात भाग-प्रतिभाग-(प्रमाण खण्ड) से (अपहार होता है)। उनमें जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, (उनके विषय में) जैसे (सू. 610-1 में) औधिक मुक्त औदारिक शरीरों के (विषय में कहा है,) वैसे (कहना चाहिए)। [2] देउब्विया माहारगा 4 बद्ध ल्लगा गस्थि, मुक्केल्लगा जहा प्रोहिया पोरालिया मुक्केल्लया (सु. 610 [1]) / [918-2 प्र. (इनके) वैक्रियशरीर और आहारकशरीर बद्ध नहीं होते। मुक्त (वैक्रिय और आहारक शरीरों का कथन) (सू. 610-1 में उल्लिखित) औधिक मुक्त औदारिकशरीरों के समान करना चाहिए। [3] तेया-कम्मगा जहा एतेसि चेव प्रोहिया पोरालिया। [618-3] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में इन्हीं के समुच्चय (औधिक) औदारिकशरीरों के समान (कहना चाहिए)। 616. एवं जाव चरिदिया। [916] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों के समस्त बद्धमुक्त शरीरों के विषय में) कहना चाहिए। 920. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव / नवरं वेउब्वियसरीरएस इमो विसेसो-पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवतिया वेउन्वियसरीरया पण्णता? Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 [ प्रज्ञापनासूत्र ____ गोयमा ! दुविहा पण्णता / तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा जहा असुरकुमाराणं (सु. 612 [2]) / णवरं तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखेज्जतिभागो / मुक्केल्लगा तहेव / [920] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के (समस्त बद्ध-मुक्त शरीरों के विषय में इसी प्रकार (कहना चाहिए।) इनके (बद्ध-मुक्त) वैक्रिय शरोरों (के विषय) में यह विशेषता है / [प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिकों के कितने वैक्रियशरीर कहे हैं ? [उ.] गौतम ! वे दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध वक्रियशरीर हैं, वे असंख्यात हैं, उनकी प्ररूपणा (सू. 612-2 में) उल्लिखित असुरकुमारों के (बद्धमुक्त वैक्रियशरीरों के) समान (करनी चाहिए / ) विशेष यह है कि (यहाँ) उन श्रेणियों को विष्कम्भसूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल का असंख्यातवाँ भाग (समझना चाहिए) / इनके मुक्त वैक्रियशरीरों के विषय में भी उसी प्रकार (औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान) समझना चाहिए। विवेचन-द्वीन्द्रियों से तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक के बद्ध-मक्त शरीरों को प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है। द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीरों को प्ररूपणा-द्वीन्द्रियों के बद्ध प्रौदारिक शरीर असंख्यात हैं। उनका काल से परिमाण इस प्रकार है यदि उत्सपिणी और अवसपिणी कालों के एक एक समय में एक-एक औदारिक शरीर का अपहरण किया जाए तो असंख्यात उत्सपिणी-अवपिणियों में इन सब का अपहरण सम्भव है। दूसरे शब्दों में कहें तो-असंख्यात उत्सपिणो एवं अवसर्पिणी कालों में जितने समय होते हैं, उतने प्रमाण में बद्ध औदारिक शरीर हैं / क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणियों के बराबर हैं, अर्थात्-असंख्यातश्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही प्रमाण में इनके बद्ध औदारिकशरीर हैं। उन श्रेणियों का परिमाणविशेष इस प्रकार है-पूर्वोक्त प्रकार से वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग-प्रमाण होती हैं। अर्थात् -प्रतर के असंख्यात भाग-प्रमाण असंख्यातश्रेणियाँ होती हैं / नारकों ओर भवनपतियों के शरीरों के प्रतरासंख्येय भाग को अपेक्षा द्वीन्द्रियों के शरीरों का प्रतरासंख्येय भाग कुछ भिन्न प्रकार का है / वह इस प्रकार हैउन श्रेणियों का परिमाण निश्चित करने के लिए जो विष्कम्भ (विस्तार-) सूची मानी है, वह कोटी योजन-प्रमाण समझनी चाहिए। अथवा-एक परिपूर्ण श्रेणी के प्रदेशों की जो राशि होती है, उसका जो प्रथम, द्वितीय, तृतीय, यावत् असंख्यातवाँ वर्गमूल है, उन सबको एकत्र संकलित कर लिया जाय / उन सबको संकलित करने पर जितनी प्रदेशराशि हो, उतने प्रदेशों वालो विष्कम्भसूची समझनी चाहिए / इसे एक उदाहरण के द्वारा समझिए-यद्यपि श्रेणी में असंख्यातप्रदेश होते हैं, किन्तु असत्कल्पना से उन्हें मूल 65536 (पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस) मान लें, तो उनका प्रथम वर्गमूल 256 आता है, दूसरा वर्गमूल 16, तीसरा वर्गमूल 4 और चौथा वर्गमूल 2 आता है / इन सब संख्याओं का योग 278 होता है / असत्कल्पना से इतने प्रदेशों की सूची समझनी चाहिए। द्वीन्द्रिय जीवों के शरीर कितनी अवगाहना के द्वारा कितने काल में सम्पूर्ण प्रतर को पूरा करते हैं ? इसका समाधान शास्त्रकार यों करते हैं-द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिकशरीर असंख्यात Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] 113 उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी-कालों में सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं / क्षेत्र और काल की अपेक्षा से परिमाण कश्रेणीरूप अंगुलमात्र प्रतर के असंख्यातभाग-प्रतिभागप्रमाण खण्ड से, यह क्षेत्रदष्टि से परिमाण है तथा काल की दृष्टि से परिमाण-आवलिका के असंख्येयभाग प्रतिभाग से अर्थात् असंख्यातवें प्रतिभाग से अपहृत होता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक द्वीन्द्रिय के द्वारा अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड आवलिका के असंख्यातवें भाग से अपहृत होता है। द्वितीय द्वीन्द्रिय के द्वारा भी उतने ही प्रमाण वाला खण्ड उतने ही काल में अपहृत होता है। इस प्रकार से अपहृत किया जाने वाला प्रतर समस्त द्वीन्द्रियों द्वारा असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में सम्पूर्ण अपहृत होता है। द्वीन्द्रियों के मुक्त औदारिक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरों के समान समझनी चाहिए। द्वीन्द्रियों के बद्ध-मुक्त क्रिय, प्राहारक, तंजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा-द्वीन्द्रियों के बद्ध वैक्रिय और आहारक शरीर नहीं होते। मुक्त वैक्रिय और आहारक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरवत् समझनी चाहिए / इनके बद्ध-मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा इन्हीं के बद्धमुक्त औदारिकशरीरों की तरह जाननी चाहिए। त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियों के बद्ध-मुक्त प्रोवारिकादिशरीर-द्वीन्द्रियों के बद्धमुक्त शरीरों के समान ही इनके बद्धमुक्त सब शरीरों की प्ररूपणा करनी चाहिए। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीरों का कथन द्वीन्द्रियों के समान ही समझना चाहिए ! बद्ध-वैक्रिय शरीर असंख्यात होते हैं / काल और क्षेत्र की अपेक्षा से परिमाण की सब प्ररूपणा असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए, किन्तु विशेषता यह है कि असुरकुमारों की वक्तव्यता में श्रेणियों की विष्कम्भसूची का प्रमाण अंगुल के प्रथम वर्गमूल का संख्यातवाँ भाग बतलाया था, जबकि यहाँ असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि एक अंगुलमात्र क्षेत्र के प्रदेशों की राशि के प्रथम वर्गमूल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रदेशरूप सूची की जो श्रेणियाँ स्पृष्ट है, उन श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश होते हैं, उतने प्रमाण में ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के बद्धवैक्रियशरीर होते हैं। इनके मुक्त वैक्रियशरीरों की प्ररूपणा प्रौधिक (समुच्चय) वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए / बद्ध आहारक शरीर इनके नहीं होते / मुक्त आहारकशरीर की प्ररूपणा पूर्ववत् समझनी चाहिए। इनके बद्ध तैजसकार्मणशरीर इन्हीं के बद्ध प्रौदारिक शरीरवत् हैं / मुक्त तैजसकार्मणशरीर समुच्चय मुक्त तैजसकार्मणशरीरवत् समझना चाहिए।' मनुष्यों के बद्धमुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण 621. [1] मणुस्साणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरा पण्णता? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-बद्धलगा य मक्केल्लगा य / तत्य णं जे ते बद्धलगा ते णं सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, जहण्णपए संखेज्जा संखेज्जाम्रो कोडाकोडोप्रो तिजमलपयस्स 1. (क) प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक 277 से 279 तक (ख) अंगुलमूलासंखेयभागप्पमियाउ होंति सेढीओ। उत्तरविउग्वियाणं तिरियाणं सम्मिपज्जाणं // -प्रज्ञापना Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 ] [ प्रज्ञापनासूत्र उरि चउजमलपयस्स हेट्ठा, महब णं छ8ो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहव णं छण्णउईछेयणगदाई रासी; उक्कोसपदे असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-पोस प्पिणोहिं प्रवहीरंति कालो, खेत्तओ रूवपक्खित्तेहि मणुस्सेहि सेढी प्रवहीरति, तीसे सेढीए काल-खेत्तेहि प्रवहारो मग्गिज्जइ--असंखेजाहि उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीहिं कालमो, खेत्तप्रो अंगुलपढमवग्गमूलं ततियवग्गमूलपडप्पण्णं / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते जहा पोरालिया प्रोहिया मुक्केल्लगा (सु. 610 [1]) / [921-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के औदारिक शरीर कितने कहे गए हैं ? [921-1 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार--बद्ध और मुक्त / उनमें से जो बद्ध हैं, वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं / जघन्य पद में संख्यात होते हैं / संख्यात कोटाकोटी तीन यमलपद के ऊपर तथा चार यमलपद से नीचे होते हैं / अथवा पंचमवर्ग से गुणित (प्रत्युत्पन्न) छठे वर्ग-प्रमाण होते हैं; अथवा छियानवे (96) छेदनकदायी राशि (जितनी संख्या है।) उत्कृष्टपद में असंख्यात हैं / कालत:-(वे) असंख्यात उत्सपिणियों-अवसपिणियों से अपहृत होते हैं / क्षेत्र से-एक रूप जिनमें प्रक्षिप्त किया गया है, ऐसे मनुष्यों से श्रेणी अपहृत होती है, उस श्रेणी की काल और क्षेत्र से अपहार को मार्गणा होती है-कालत:--असंख्यात उत्सपिणी-अवपिणीकालों से (असंख्यात मनुष्यों का) अपहार होता है / क्षेत्रत:-(वे) तीसरे वर्गमूल से गुणित अंगुल का प्रथमवर्गमूल (-प्रमाण होते हैं / ) उन में जो मुक्त औदारिक शरीर हैं, उनके विषय में (सू. 910-1 में उल्लिखित) प्रौधिक मुक्त औदारिक शरीरों के समान जानना चाहिए / [2] वेउब्धियाणं भंते ! पुच्छा? गोयमा! दुविहा पण्णता / तं जहा-बद्ध ल्लगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धलगा ते णं संखेज्जा, समए समए प्रवहीरमाणा प्रवहीरमाणा संखेज्जेणं कालेणं अवहीरंति णो चेवणं अवहिया सिया / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा मोरालिया मोहिया (सु. 610 [1]) / [621-2 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के वैक्रिय शरीर कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [921-2 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे संख्यात हैं / समय-समय में (वे) अपहृत होते-होते संख्यातकाल में अपहृत होते हैं; किन्तु अपहृत नहीं किए गए हैं। उनमें से जो मुक्त वैक्रिय शरीर हैं, उनके विषय में (सू. 610-1 में उल्लिखित) औधिक औदारिक शरीरों के समान समझना चाहिए / [3] आहारगसरीरा जहा ओहिया (सु. 610 [3]) / [921-3] (इनके बद्ध-मुक्त) आहारकशरीरों की प्ररूपणा (सू. 910-3 में उल्लिखित) औधिक आहारकशरीरों के समान समझनी चाहिए / [4] तेया-कम्मया जहा एतेसि चेव पोरालिया। [921-4] (मनुष्यों के बद्धमुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों का निरूपण इन्हीं के (बद्धमुक्त) औदारिकशरीरों के समान (समझना चाहिए।) Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शरीरपद ] [ 115 विवेचन–मनुष्यों के बद्ध-मुक्त औदारिकादि शरीरों का परिमाण-प्रस्तुत सूत्र (921-1-4) में मनुष्यों के बद्ध और मुक्त औदारिकादि पांचों शरीरों की प्ररूपणा की गई है। मनुष्यों के बद्ध-मुक्त शरीरों को प्ररूपणा-मनुष्यों के बद्ध प्रौदारिक शरीर----कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं / इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य दो प्रकार के होते हैं---गर्भज और सम्मूच्छिम / गर्भज मनुष्य (प्रयाहरूप से) सदा स्थायी रहते हैं / कोई भी काल ऐसा नहीं होता, जो गर्भज मनुष्यों से रहित हो; किन्तु सम्मूच्छिम मनुष्य कभी होते हैं, कदाचित् उनका सर्वथा अभाव हो जाता है; क्योंकि सम्मूच्छिम मनुष्यों की उत्कृष्ट प्रायु भी अन्तर्मुहूर्त की होती है। उनकी उत्पत्ति का अन्तर (विरहकाल) उत्कृष्ट चौबीस मुहर्त प्रमाण कहा गया है। प्रतएव जिस काल में सम्मच्छिम मनष्य सर्वथा विद्यमान नहीं होते. अपित केवल गर्भज मनुष्य ही होते हैं, उस समय बद्ध औदारिक शरीर संख्यात ही होते हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों की संख्या संख्यात ही है; वे महाशरीररूप में या प्रत्येकशरीररूप में होने से परिमितक्षेत्रवर्ती होते हैं। जब सम्मूच्छिम मनुष्य विद्यमान होते हैं, तब मनुष्यों की संख्या पसंख्यात होती है। सम्मूच्छिम मनुष्य उत्कृष्टत: श्रेणी के असंख्यातवें भागवर्ती प्राकाश प्रदेशों की राशि-प्रमाण होते हैं / इसी दृष्टि से मूलपाठ में कहा गया है-'जहन्नपदे संखेब्जा / ' जघन्यपद का अभिप्राय है-जहाँ सबसे थोड़े मनुष्य पाए जाते जाते हैं / प्रश्न होता है-- क्या वे (सबसे कम मनुष्य) सम्मूच्छिम होते हैं या गर्भज? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि गर्भज मनुष्य ही होते हैं, जो सदैव स्थायी होने से सम्मूच्छिमों के अभाव में सबसे थोड़े पाए जाते हैं। उत्कृष्टपद में गर्भज और सम्मूच्छिम दोनों का ही ग्रहण होता है। इस जघन्यपद से यहां संख्यात मनुष्यों का ग्रहण होता है; किन्तु संख्यात के भी संख्यातभेद होते हैं, इसलिए संख्यात कहने से कितनी संख्या है, इसका विशेष बोध नहीं होता; इसलिए शास्त्रकार विशिष्ट संख्या निर्धारित करते हैंसंख्यातकोटाकोटी हैं। इस परिमाण को और अधिक स्पष्ट करने के उद्देश्य से कहते हैं-'तीन यमलपद के ऊपर और चार यमलपद से नीचे।' इसका प्राशय इस प्रकार है oN की संख्या का प्रतिपादन करने वाले उनतीस (29) अंक आगे कहे जाएंगे। शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार आठ-आठ अंकों की एक 'यमलपद' संज्ञा है / अत: चौबीस (24) अंकों के तीन यमलपद हुए। इसके पश्चात् (24 अंकों के बाद) पांच अंक-स्थान शेष रहते हैं / किन्तु चौथे यमलपद की पूर्ति आठ अंकों से होती है, उसमें तीन अंकस्थान कम हैं / अतः चौथा यमलपद पूरा नहीं होता / इसी कारण यहाँ मनुष्यसंख्याप्रतिपादक 26 अंकों के लिए कहा गया है-'तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचे' अर्थात् 29 अंक प्रमाण / अथवा दो वर्ग मिलकर एक यमलपद होता है / चार वर्ग मिलकर दो यमलपद होते हैं, तथा छह वर्ग मिल कर तीन यमलपद होते हैं और चार वर्ग मिल कर चार यमलपद होते हैं / अत: छह वर्गों के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे कहें, चाहे तीन यमलपदों के ऊपर और चार यमलपदों से नीचे कहें, एक ही बात हुई। अब इससे भी अधिक स्पष्ट रूप से मनुष्यों की संख्या का प्रतिपादन करते हैं—पंचम वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर जो राशि निष्पन्न होती है, जघन्यपद में उस राशिप्रमाण मनुष्यों की संख्या है / एक को एक के साथ गुणाकार करने पर गुणनफल एक ही पाता है, संख्या में वृद्धि नहीं होती, अत: 'एक' की वर्ग के रूप में गणना नहीं होती। किन्तु दो का दो के साथ गुणाकार करने पर 4 संख्या पाती है, यह प्रथम वर्ग हुा / चार के साथ चार को गुणा करने पर 16 संख्या आई, Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 [ प्रज्ञापनासून यह द्वितीय वर्ग हुआ, फिर 16 को 16 के साथ गुणा करने पर 256 संख्या आई, यह तृतीय वर्ग हुआ / 256 को 256 के साथ गुणा करने पर 65536 राशि आती है, यह चौथा वर्ग हुआ। इस चौथे वर्ग की राशि का पुनः इसी राशि के साथ गुणा करने पर 4294667296 संख्या आती है / यह पांचवाँ वर्ग हुअा। पंचम वर्ग की 'चार सौ उनतीस करोड़, उनचास लाख, सड़सठ हजार दो सौ छयानवे' राशि का इसी राशि के साथ गुणाकार करने पर 18446744073709551616 राशि आई. यह छठा वर्ग हआ।' इस छठे वर्ग का पूर्वोक्त पंचमवग के सा पंचमवर्ग के साथ गुणाकार करने पर जो राशि निष्पन्न होती है, जघन्यपद में उतने ही मनुष्य हैं / यह राशि पूर्वोक्त 29 (उनतीस) अंकों में इस प्रकार से है-७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६-ये उनतीस अंक कोटाकोटी आदि के द्वारा किसी भी तरह कहे नहीं जा सकते / अनुयोगद्वारवृत्ति में (विपरीत क्रम से अंकों की गणना होती है इस न्याय के अनुसार) यह संख्या दो गाथाओं द्वारा बताई है / अथवा पूर्वाचार्यों ने अंकों के प्रथम अक्षर को लेकर विपरीत क्रम से एक गाथा में यही संख्या बताई है। अब इसी संख्या को प्रकारान्तर से समझाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं / 'महब गं छण्णउईछेयणगदायी रासो' छयानवे छेदनकदायी राशि की व्याख्या इस प्रकार है-जो आधी-आधी छेदन करते-करते छयानवे वार छेदन को प्राप्त हो, और अन्त में एक बच जाए; वह छयानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है। यह राशि उतनी ही है, जितनी पंचमवर्ग का छठे वर्ग के साथ गुणाकार करने पर होती है। वह संख्या इस प्रकार होती है--प्रथम (पूर्वोक्त) वर्ग यदि छेदा जाए तो दो छेदनक देता है--पहला छेदनक दो और दसरा छेदनक एक / दोनों को मिलाकर दो छेदनक हए / इसी प्रकार दूसरे वर्ग के चार छेदनक होते हैं। क्योंकि वह 16 संख्या वाला है / उसका प्रथम छेदनक 8, दूसरा 4, तीसरा 2 और 1. चत्तारि य कोडिसया अउणतीसं च होति कोडीयो। अउणावन्न लक्खा सत्तट्टी चेव य सहस्सा // 1 // दोय सया छण्णउया पंचमवग्गो समासग्रो होइ / एयरस कतो वग्गो छट्रो जो होइ तं बोच्छं॥ 2 // लक्खं कोडाकोडी चउरासीइ भवे सहस्साई / चत्तारि य सत्तट्ठा होंति सया कोडकोडीणं / / 3 / / चउयालं लक्खाई कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा / तिणि सया सत्तयरी कोडीणं हंति नायव्वा // 4 // पंचाणउई लक्खा एकावन्नं भवे सहस्साई / छसोलसुत्तरसया एसो छलो हवइ बग्गो // 5 // --प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 28 2. छत्तिन्नि तिनि सुन्न पंचेव य नव य तिन्नि चत्तारि / पंचेव तिष्णि नव पंच सत्त तिन्नेव तिन्लेव // 1 // चउ छहो चउ एक्को पण छक्केक्कगो य अटूब। दो दो नब सत्तेव य अंकट्ठाणा परा हुंता ।।-अनुयोग० वृत्ती छ-ति-ति-सु-पण-नव-ति-च-प-ति-ण-प-स-ति-ति-चउ-छ-दो। च-ए-प-दो-छ-ए-अ-बे-बे-ण-स पढमक्खरसंतियढाणा // 1 // ---प्र.म.व. पत्रांक, 281 Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां शरौरपद [117 चौथा 1 छेदनक होता है / तीसरा वर्ग 256 संख्या का है। अतः इसके 8 छेदनक होते हैं। इसी प्रकार चौथे वर्ग के 16 छेदनक, पांचवें वर्ग के 32 छेदनक और छठे वर्ग के 64 छेदनक होते हैं / इस प्रकार सब छेदनकों का योग करने पर कुल 66 छेदनक होते हैं, जो कि पांचवें वर्ग से छठे वर्ग को गुणित करने पर होते हैं। जिस-जिस वर्ग का जिस-जिस वर्ग के साथ गुणाकार किया जाता है, उस वर्ग में गुण्य और गुणक दोनों वर्गों के छेदनक होते हैं। जैसे—प्रथम वर्ग के साथ दूसरे वर्ग का गुणाकार करने पर छह छेदनक होते हैं / सोलह संख्या के द्वितीय वर्ग का चार संख्या वाले प्रथम वर्ग के साथ गुणाकार करने पर (16 4 4 = 64) चौसठ संख्या पाती है / उसका प्रथम छेदनक 32, दूसरा छेदनक 16, तीसरा छेदनक 8, चौथा छेदनक 4, पांचवाँ छेदनक 2, और छठा छेदनक 1 होता है / इस प्रकार 6 छेदनक होते हैं / इसी प्रकार आगे सर्वत्र समझ लेना चाहिए / इसी प्रकार पांचवें वर्ग से छठे वर्ग का गुणाकार करने पर 96 भंग होते हैं, यह सिद्ध हुआ / अथवा किसी एक अंक को स्थापित करके उसे छयानवे वार दुगुना-दुगुना करने पर यदि उतनी ही राशि आ जाए तो वह राशि छयानवे छेदनकदायी राशि कहलाती है। यह जघन्यपद में मनुष्यों को संख्या कही गई। उत्कृष्टपद में मनुष्यों की संख्या--इस प्रकार है-उत्कृष्टपद में मनुष्यों की संख्या असंख्यात है। काल को अपेक्षा से परिमाण---एक-एक समय में यदि एक-एक मनुष्य के शरीर का अपहार किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में उसका पूर्ण रूप से अपहार होता है। क्षेत्र को अपेक्षा से-एक रूप प्रक्षिप्त करने पर मनुष्यों से पूर्ण एक श्रेणी का अपहार होता है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट पद में जो मनुष्य हैं, उनमें असत्कल्पना से एक मिला देने पर एक सम्पूर्ण श्रेणी का अपहार हो जाता है। क्षेत्र और काल से उस श्रेणी के अपहार की मार्गणा इस प्रकार हैकालतः—असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों में असंख्यात मनुष्यों का अपहार होता है / क्षेत्रतः वे अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल-प्रमाण होते हैं। असत्कल्पना से अंगुलप्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों की राशि 256 होती है, जिसका प्रथम वर्गमूल सोलह होता है। उसका तृतीय वर्गमूल दो के साथ गुणा करने पर प्रदेशों की राशि (1642= 32) बत्तीस आती है। इतनी संख्या वाले खण्डों से अपहृत की गई श्रेणी पूर्णता तक पहुंच जाती है, और यही मनुष्यों को संख्या की पराकाष्ठा है। प्रश्न होता है-एक श्रेणी का उपर्युक्त प्रमाण वाले खण्डों से अपहार करने में असंख्यात उत्सपिणियाँ-अवसपिणियां कैसे लग जाती हैं ? इसका समाधान इस प्रकार है-क्षेत्र अतिसूक्ष्म होता है / कहा भी है-काल सूक्ष्म होता है. उससे भी सूक्ष्मतर क्षेत्र होता है; क्योंकि अंगुल मात्र श्रेणो में असंख्यात उत्सपिणियाँ समा जातो है।' अर्थात्-एक अंगुलप्रमाण क्षेत्र में जो प्रदेशराशि होती है, वह असंख्यात उत्सपिणियों के समयों से भी अधिक होती है। मनुष्यों के मुक्त औदारिक शरीरों की प्ररूपणा समुच्चय मुक्त औदारिक शरीरों के समान समझनी चाहिए। __ मनुष्यों के बद्ध-मुक्त वैक्रियशरीर प्रादि की प्ररूपणा--मनुष्यों के बद्ध वैक्रियशरीर संख्यात हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्यों में ही वैक्रियलब्धि सम्भव है, और वह भी किसी-किसी में, सबमें नहीं। 1. सुहुमो स होइ कालो, तत्तो सुहुमयरं हवइ खेत्तं / अंगुलसेढीमेत्ते उस्सप्पिणीग्रो असंखेज्जायो / -प्रज्ञा. म. वृ., पत्रांक 282 Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 1 [प्रज्ञापनासूत्र इनके मुक्त वैक्रिय शरीरों का कथन औधिक मुक्त वैक्रियशरीरों के समान ही समझना चाहिए / मनुष्यों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरों की प्ररूपणा औधिक बद्धमुक्त आहारकशरीरों के समान समझती चाहिए / मनुष्यों के बद तैजस और कार्मण शरीर इन्हीं के बद्ध सौदारिक शरीर के समान समझने चाहिए / मुक्त तैजस-कार्मण शरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तेजस-कार्मण शरीरों के समान करनी चाहिए / वागव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के बद्धमुक्त औदारिकादि शरीरों को प्ररूपणा--- 622. वाणमंतराणं जहा रइयाणं पोरालिया प्राहारगा य। वेउब्वियसरीरगा जहा रइयाणं, णवरं तासि णं सेढोणं विक्खंभसूई संखेज्जनोयणसयवग्गपलिभागो पयरस्स / मुक्केल्लया जहा प्रोहिया पोरालिया (सु. 610 [1]) / तेया-कम्मया जहा एएसि चेव वेउब्विया / [922] वाणव्यन्तर देवों के बद्ध-मुक्त औदारिक और आहारक शरीरों का निरूपण नैरयिकों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक एवं प्राहारक शरीरों के समान जानना चाहिए / इनके वैक्रिय शरीरों का निरूपण नैरयिकों के समान है / विशेषता यह है कि उन (असंख्यात) श्रेणियों की विष्कम्भसूची (कहनी चाहिए)। प्रतर के पूरण और अपहार में वह सूची संख्यात योजनशतवर्ग-प्रतिभाग (खण्ड) है। (इनके) मुक्त वैक्रिय शरीरों, का कथन औधिक औदारिक शरीरों की तरह (म. 910-1 के अनुसार) समझना चाहिए। (इनके बद्ध-मुक्त तैजस और कार्मण शरीरों का कथन इनके ही वैक्रियशरीरों के कथन के समान समझना चाहिए। 623. जोतिसियाणं एवं चेव / णवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई बेछप्पण्णंगुलसयवम्गपलिभागो पयरस्स। [923) ज्योतिष्क देवों (के बद्ध-मुक्त शरीरों) की प्ररूपणा भी इसी तरह (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची दो सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण प्रतिभाग (खण्ड) रूप प्रतर के पूरण और अपहार में समझना चाहिए / / 624. वेमाणियाणं एवं चेव / णवरं तासि णं सेढोणं विक्खं भसूई अंगुलबितियवग्गमूलं ततियवगामूलपडुप्पण्णं, अहव णं अंगुलततियवगमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीयो / सेसं तं चेव / ॥पण्णवणाए भगवईए बारसमं सरीरपयं समत्तं / / [924] वैमानिकों (के बद्ध-मुक्त शरीरों) को प्ररूपणा भी इसी तरह (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची, तृतीय वर्गमूल से गुणित अंगुल के द्वितीय वर्ग 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय० वृत्ति, पत्रांक 279 से 282 तक Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवाँ शरीरपद] [119 मूल-प्रमाण है अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियाँ हैं / शेष सब पूर्वोक्त कथन के समान समझना चाहिए। विवेचन-वाणव्यन्तर, ज्योतिठक पौर वैमानिक देवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों (922 से 624 तक) में क्रमश: वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के बद्धमुक्त शरीरों की प्ररूपणा की गई है। ___ व्यन्तरदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा-व्यन्तरदेवों के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में नरयिकों के बद्ध-मुक्त प्रौदारिक शरीरों की तरह समझना चाहिए / व्यन्तरों के बद्ध वैक्रिय शरीर नारकों की तरह असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से एक-एक समय में एक-एक शरीर का अपहार करने पर असंख्यात उत्सपिणी और भसंख्यात अवसपिणी कालों में वाणव्यन्तरों के समस्त बद्धवैक्रियशरीरों का अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं / अर्थात्असंख्यात श्रेणियों में जितने अाकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही वे शरीर हैं। वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यात भाग हैं / केवल उनकी सूची में कुछ विशेषता (अन्तर) है। उन असंख्यात श्रेणियों की विष्कम्भसूची (विस्तारसूची) इस प्रकार है। जैसे महादण्डक में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च नपुसकों से व्यन्तरदेव असंख्यातगुणहीन कहे हैं, वैसे ही इनकी (व्यन्तरदेवों की) विष्कम्भसूची भी तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विष्कम्भसूची से असंख्यातगुणहीन कहनी चाहिए। प्रतर के पूरण और अपहरण में वह सूची संख्यातयोजनशतवर्ग प्रतिभाग (खण्ड) प्रमाण है / तात्पर्य यह है कि-असंख्यात योजन शतवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड में यदि एक-एक व्यन्तर की स्थापना की जाए तो वे सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण करते हैं / अथवा यदि एक-एक व्यन्तर के अपहार में एक-एक संख्यात-योजनशतवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड का अपहरण होता है, तब सभी मिलकर व्यन्तर पूर्ण होते हैं। उससे पर सकल प्रतर है। __वाणव्यन्तरों के मुक्त वैक्रियशरीरों का कथन मुक्त औधिक वैक्रियशरीरवत् समझना चाहिए। बद्ध-मुक्त आहारक शरीरों का कथन नैरयिकों के बद्ध-मुक्त आहारकशरीरवत् समझना चाहिए। इनके बद्ध तैजस-कार्मण शरीरों का कथन इन्हीं के बद्ध वैक्रियशरीरवत समझना मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों के विषय में औधिक मुक्त तेजस-कार्मण शरीर के समान समझना चाहिए। ज्योतिष्कदेवों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा-इनके बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों का कथन नैरयिकवत् समझना चाहिए। बद्ध वैक्रियशरीर असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से मार्गणा करने पर एक-एक समय में एक-एक शरीर का अपहरण करने पर असंख्यात-उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकालों में उनका सम्पूर्णरूप से अपहार होता है। क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्यात श्रेणियाँ है, वे श्रेणियाँ प्रतर के असंख्यातभाग प्रमाण जाननी चाहिए। विशेष यह है कि उन श्रेणियों की विष्कम्भसूची व्यन्तरों को विष्कम्भसूची से संख्यातगुणी अधिक होती है, क्योंकि महादण्डक में व्यन्तरों से ज्योतिष्कदेव संख्यातगुगे अधिक बताए गए हैं। इसलिए प्रतिभाग के विषय में भी विशेष स्पष्ट तया कहते हैंउन श्रेणियों की विष्कम्भसूची 256 वर्ग प्रमाणखण्डरूप प्रतर के पूरण और अपहरण में जानना / प्राशय यह है कि 256 अंगुलवर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड में यदि एक-एक ज्योतिष्क की स्थापना की जाए तो वे सम्पूर्ण प्रतर को पूर्ण कर पाते हैं / अथवा यदि एक-एक ज्योतिष्क के अपहार से एक-एक दो Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [ प्रज्ञापनासूत्र सौ छप्पन अंगुल वर्गप्रमाण श्रेणिखण्ड का अपहार होता है, तब सब मिलकर ज्योतिष्कों की पूर्णता होती है। दूसरी अोर सकलप्रतर पूर्ण होता है / ज्योतिष्कों के मुक्त वैक्रियशरीर मुक्त समुच्चयवत् और आहारकशरीर नारकवत् / शेष पूर्ववत् समझना चाहिए / वैमानिकों के क्षेत्रतः वैक्रिय शरीरपरिमाण असंख्यातश्रेणीप्रमाण हैं / अर्थात्-असंख्यात श्रेणियों में जितने प्राकाशप्रदेश होते हैं, उतने ही शरीर हैं / इन श्रेणियों का परिमाण प्रतर का असंख्यातवां भाग है, किन्तु नारकादि की अपेक्षा से प्रतर के असंख्यातवें भाग के परिमाण में कुछ भिन्नता है, विष्कम्भसूची तृतीयवर्गमूल (164 16 = 256) से गुणित द्वितीय वर्गमूल (4 4 4 = 16) है / अथवा अंगुल के तृतीय वर्गमूल के घन के बराबर श्रेणियाँ हैं। शेष सब पूर्वोक्त के समान समझना चाहिए।' / प्रज्ञापनासूत्र : बारहवाँ शरीरपद समाप्त / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 282-284 तक Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं परिणामपयं तेरहवाँ परिणामपद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का तेरहवाँ 'परिणामपद' है। * 'परिणाम' शब्द के यहाँ दो अर्थ अभिप्रेत हैं-(१) किसी भी द्रव्य का सर्वथा विनाश या सर्वथा अवस्थान न होकर एक पर्याय से दूसरे पर्याय (अवस्था) में जाना परिणाम है अथवा (2) र्ती सत्पर्याय की अपेक्षा से विनाश और उत्तरवर्ती असत्पर्याय की अपेक्षा से प्रादुर्भाव होना परिणाम है / ' प्रस्तुत पद में जीव और अजीब दोनों के परिणामों का विचार किया गया है / * भारतीय दर्शनों में सांख्य प्रादि दर्शन परिणामवादी हैं, जबकि न्याय आदि दर्शन परिणामवादी नहीं हैं / धर्म और धर्मी का अभेद मानने वाले दार्शनिक परिणामवाद को स्वीकार करते हैं, और जो दार्शनिक धर्म और धर्मी का प्रात्यन्तिक भेद मानते हैं, उन्होंने परिणामवाद को नहीं माना / किसी भी वस्तु का सर्वथा विनाश नहीं हो जाता, किन्तु उसका रूपान्तर या अवस्थान्तर होता है। पूर्वरूप का नाश होता है, तो उत्तररूप का उत्पाद होता है. यही परिणामवाद का मूलाधार है। इसीलिए जैनदर्शन के मूर्धन्य ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र में बताया'तद्भावः परिणामः' (अर्थात्-उसका होना, यानी स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है)। इस दृष्टि से मनुष्यादि गति, इन्द्रिय, योग, लेश्या, कषाय, आदि विभिन्न अपेक्षाओं से जीव चाहे जिस रूप में या अवस्था (पर्याय) में उत्पन्न या विनष्ट होता हो उसमें . प्रात्मत्व अर्थात् मूल जीवद्रव्यत्व ध्र व रहता है। इसी प्रकार अजीव का अपने मूल स्वरूप में रहते हुए विभिन्न रूपान्तरों या अवस्थान्तरों में परिणमन होना अजीव-परिणाम है। प्रस्तुत पद में इसी परिणामिनित्यता का अनुसरण करते हुए सर्वप्रथम जीव के परिणामों के भेद-प्रभेद बताए हैं, तत्पश्चात् नारकादि चौबीस दण्डकों में उनका विचार किया गया है। तदनन्तर अजीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों की गणना की है। अजीवपरिणामों में यहाँ सिर्फ पुद्गल के परिणामों की गणना प्रस्तुत की गई है, धर्मास्तिकायादि अरूपी द्रव्यों के परिणामों को नहीं है। सम्भव है, अजीवपरिणामों में अगुरु-लघु परिणाम (जो कि एक ही प्रकार का बताया गया है) में धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन अरूपी द्रव्यों के परिणाम का समावेश किया हो। प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पत्रांक 284 2. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2, परिणामपद को प्रस्तावना पृ. 93 (ख) तत्त्वार्थ, अ. 5 सू 41 (ग) द्वयी चेयं नित्यता कटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च। तत्र कटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामिनित्यता गुणानाम् / --पातं. भाष्य 4, 33 3. (क) प्रज्ञापना मं. व., पत्रांक 289 / (ख) यण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 230-231 / Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरसमं परिणामपयं तेरहवाँ परिणामपद परिणाम और उसके दो प्रकार--- 625. कतिविहे गं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते / तं जहा-जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य / [925 प्र.] भगवन् ! परिणाम के कितने प्रकार के कहे गये हैं ? [625 उ.] गौतम ! परिणाम के दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं—जीव-परिणाम और अजीव-परिणाम / विवेचन परिणाम और उसके दो प्रकार-प्रस्तुत सूत्र में परिणाम के दो भेदों—जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम का निरूपण किया गया है। परिणाम' की व्याख्या-'परिणाम' शब्द यहाँ पारिभाषिक है। उसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ होता है-परिणमन होना, अर्थात्-किसी द्रव्य की एक अवस्था बदल कर दूसरी अवस्था हो जाना / परिणाम नयों के भेद से विविध और विचित्र प्रकार का होता है। नैगम आदि अनेक नय हैं, परन्तु समस्त नयों के संग्राहक मुख्य दो नय हैं-द्रव्यास्तिक नय और पर्यायास्तिक नय / अतः द्रव्यास्तिक नय के अनुसार परिणाम (परिणमन) का अर्थ होता है-त्रिकालस्थायी (सत्) पदार्थ ही उत्तरपर्याय रूप धर्मान्तर को प्राप्त होता है, ऐसी स्थिति में पूर्वपर्याय का न तो सर्वथा (एकान्तरूप से) अवस्थान और न ही एकान्त रूप से विनाश ही परिणाम है। कहा भी है-परिणाम के वास्तविक रूप के ज्ञाता, द्रव्य का एक पर्याय से दूसरे पर्याय (अर्थान्तर) में जाना ही परिणाम मानते हैं, क्योंकि द्रव्य का न तो सर्वथा अवस्थान होता है और न सर्वथा विनाश / किन्तु पर्यायाथिकनय के अनुसार पर्ववर्ती सत्पर्याय की अपेक्षा विनाश होना और उत्तरकालिक असत्पर्याय की अपेक्षा से प्रादुर्भाव होना परिणाम कहलाता है।' परिणाम के दो प्रकार : क्यों और कैसे ?-परिणाम वैसे तो अनेक प्रकार के होते हैं, किन्तु मुख्यतया दो द्रव्यों का आधार लेकर परिणाम होते हैं, इसलिए शास्त्रकार ने परिणाम के दो मुख्य प्रकार बताए हैं--जीवपरिणाम और अजीवपरिणाम / जीव के परिणाम को जीवपरिणाम और अजीव के परिणाम को अजीवपरिणाम कहते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 284 / (ख) 'परिणमनं परिणामः।' 'परिणामो ह्यन्तिरगमनं, न च सर्वथा व्यवस्थानम् / न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तदविदामिष्टः॥१॥' सत्पर्यायेण विनाश: प्रादुर्भावोऽसद्भावपर्ययत: / द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः खल पर्य यनयस्य // 2 // Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ परिणामपद] [ 123 दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेद-- 626. जोवपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दसविहे पग्णत्ते / तं जहा--गतिपरिणामे 1 इंदियपरिणामे 2 कसायपरिणामे 3 लेसापरिणामे 4 जोगपरिणामे 5 उवयोगपरिणामे 6 णाणपरिणामे 7 दंसणपरिणामे 8 चरितपरिणाम है वेदपरिणामे 10 / [926 प्र.] भगवन् ! जीवपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? / [926 उ.] गौतम ! (जीवपरिणाम) दस प्रकार का कहा है / इस प्रकार है-(१) गतिपरिणाम, (2) इन्द्रियपरिणाम, (3) कषायपरिणाम, (4) लेश्यापरिणाम, (5) योगपरिणाम, (6) उपयोगपरिणाम, (7) ज्ञानपरिणाम, (8) दर्शनपरिणाम, (9) चारित्रपरिणाम और (10) वेदपरिणाम। 627. गतिपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! चउविहे पण्णते। तं जहा-णिरयगतिपरिणामे 1 तिरियगतिपरिणाम 2 मणुयगतिपरिणामे 3 देवगतिपरिणामे 4 / [927 प्र.] भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [627 उ.] गौतम! (गतिपरिणाम) चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार(१) निरयगतिपरिणाम (2) तिर्यग्गतिपरिणाम (3) मनुष्यगतिपरिणाम और (4) देवगतिपरिणाम / 628. इंदियपरिणाम णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियपरिणामे 1 चक्खिदियपरिणामे 2 घाणिदियपरिणामे 3 जिभिदियपरिणामे 4 फासिदियपरिणामे 5 / [928 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [928 उ.] गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है-(१) श्रोत्रेन्द्रियपरिणाम, (2) चक्षुरिन्द्रियपरिणाम, (3) घ्राणेन्द्रियपरिणाम, (4) जिह्वन्द्रियपरिणाम और (5) स्पर्शेन्द्रियपरिणाम / 629. कसायपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा! चउविहे पण्णत्ते। तं जहा–कोहकसायपरिणाम 1 माणकसायपरिणामे 2 मायाकसायपरिणामे 3 लोभकसायपरिणामे 4 // [929 प्र.] भगवन् ! कषायपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [926 उ.] गौतम ! कषायपरिणाम चार प्रकार का है। वह इस प्रकार--(१) क्रोधकषायपरिणाम, (2) मानकषायपरिणाम, (3) मायाकषायपरिणाम और (4) लोभकषायपरिणाम / 630. लेस्सापरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते / तं जहा--कण्हलेस्सापरिणामे 1 गोललेस्सापरिणामे 2 काउलेस्सापरिणामे 3 तेउलेस्सापरिणामे 4 पम्हलेस्सापरिणामे 5 सुक्कलेस्सापरिणामे 6 / Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [प्रज्ञापनासूत्र [930 प्र.] भगवन् ! लेश्यापरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [930 उ.[ गौतम ! (लेश्यापरिणाम) छह प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार--(१) कृष्णलेश्यापरिणाम, (2) नीललेश्यापरिणाम, (3) कापोतलेश्यापरिणाम, (4) तेजोलेश्यापरिणाम, (5) पालेश्यापरिणाम और (6) शुक्ललेश्यापरिणाम / 631. जोगपरिणाम णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-मणजोगपरिणामे 1 वइजोगपरिणामे 2 कायजोगपरिणामे 3 [931 प्र. भगवन् ! योगपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है। [631 उ.] गौतम ! (योगपरिणाम) तीन प्रकार का है--(१) मनोयोगपरिणाम, (2) वचनयोगपरिणाम, और (3) काययोगपरिणाम / 932. उवयोगपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुबिहे पण्णत्ते / तं जहा—सागारोवप्रोगपरिणामे य प्रणागारोवप्रोगपरिणामे य / [632 प्र. भगवन् ! उपयोगपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [632 उ.] गौतम ! (उपयोगपरिणाम) दो प्रकार का कहा है--(१) साकारोपयोगपरिणाम और (2) अनाकारोपयोगपरिणाम / 633. गाणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पणत्ते / तं जहा-प्राभिणिबोहियनाणपरिणामे 1 सुयणाणपरिणामे 2 प्रोहिणाणपरिणामे 3 मणपज्जवणाणपरिणामे 4 केवलणाणपरिणामे 5 / [633 प्र.] भगवन् ! ज्ञानपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [933 उ. गौतम ! (ज्ञानपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-- (1) आभिनिबोधिकज्ञानपरिणाम, (2) श्रु तज्ञानपरिणाम, (3) अवधिज्ञानपरिणाम, (4) मन:पर्यवज्ञानपरिणाम और (5) केवलज्ञानपरिणाम / 634. अण्णाणपरिणामे भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा--मतिअण्णाणपरिणामे 1 सुयअण्णाणपरिणामे 2 विभंगणाणपरिणामे 3 / [934 प्र.] भगवन् ! अज्ञानपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [934 उ.] गौतम ! (अज्ञानपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--- (1) मति-अज्ञानपरिणाम, (2) श्रु त-अज्ञानपरिणाम और (3) विभंगज्ञानपरिणाम ! 635. दसणपरिणामे णं भंते ! कतिविहे घण्णते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते। तं जहा---सम्मइंसणपरिणामे 1 मिच्छादसणपरिणामे 2 सम्मामिच्छादसणपरिणामे 3 / Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद [125 [635 प्र.] भगवन् ! दर्शनपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? |635 उ.] गौतम ! (दर्शनपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-- (1) सम्यग्दर्शनपरिणाम, (2) मिथ्यादर्शनपरिणाम और (3) सम्यमिथ्यादर्शनपरिणाम / 636. चरित्तपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा—सामाइयचरित्तपरिणाम 1 छेदोवढावणियचरित्तपरिणामे 2 परिहारविसुद्धियचरित्तपरिणामे 3 सुहमसंपरायचरित्तपरिणामे 4 अहक्खायचरित. परिणाम। [936 प्र.] भगवन ! चारित्रपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [636 उ.] गौतम ! (चारित्रपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-- (1) सामायिकचारित्रपरिणाम, (2) छेदोपस्थापनीयचारित्रपरिणाम, (3) परिहारविशुद्धिचारित्रपरिणाम, (4) सूक्ष्मसम्परायचारित्रपरिणाम और (5) यथाख्यातचारित्रपरिणाम / 637. वेयपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-इस्थिवेयपरिणामे 1 पुरिसवेयपरिणामे 2 पसगवेयपरिणामे 3 / [937 प्र.] भगवन् ! वेदपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [937 उ.] गौतम ! (वेदपरिणाम) तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार -(1) स्त्रीवेदपरिणाम (2) पुरुषवेदपरिणाम और (3) नपुंसकवेदपरिणाम / विवेचन-दशविध जीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेद-प्रस्तुत 12 सूत्रों (सु. 626 से 937 तक) में गतिपरिणाम आदि 10 प्रकार के जीवपरिणामों का उल्लेख करके प्रत्येक के भेदों का निरूपण किया गया है। गतिपरिणाम प्रादि को व्याख्या-(१) गति-परिणाम-नरकादि गति नामकर्म के उदय से जिसकी प्राप्ति हो, उसे 'गति' कहते हैं, नरकादिगतिरूप परिणाम, अर्थात् नारकत्व आदि पर्यायपरिणति जीव का गतिपरिणाम है। (2) इन्द्रिय-परिणाम–इन्दन होने से,—अर्थात्-ज्ञानरूप परमऐश्वर्य के योग से आत्मा 'इन्द्र' कहलाता है। जो इन्द्र का लिंग-साधन हो, वह इन्द्रिय है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि (इन्द्र) आत्मा का जो मुख्य साधन (करण) हो, वह इन्द्रिय है / इन्द्रियरूप परिणाम इन्द्रियपरिणाम है / (3) कषायपरिणाम-जिसमें प्राणी परस्पर एक दूसरे का कर्षण-- हिंसा (घात) करते हैं, उसे 'कष' कहते हैं या जो कष अर्थात्-संसार को प्राप्त कराते हैं, वे कषाय हैं। जोव की कषायरूप गति को कपायपरिणाम कहते है। (4) लेश्यापरिणाम-लेश्या के स्वरूप आगे कहा जाएगा। लेश्यारूप परिणमन को लेश्यापरिणाम कहते हैं / (5) योगपरिणाम-मन, वचन एवं काय के व्यापार को योग कहते हैं / योगरूप परिणमन योगपरिणाम है / (6) उपयोगपरिणाम-चेतनाशक्ति के व्यापार रूप साकार-अनाकार-ज्ञानदर्शनात्मक परिणाम को कहते हैं। उपयोगरूप परिणाम उपयोगपरिणाम है। (7) ज्ञानपरिणाम-मतिज्ञानादिरूप परिणाम को ज्ञानपरिणाम कहते हैं। (8) दर्शनपरिणाम-सम्यग्दर्शन आदि रूप परिणाम दर्शन-परिणाम है। (8) Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] [ प्रज्ञापनासूत्र चारित्रपरिणाम-जीव का सामायिक-आदि चारित्ररूप परिणाम चारित्रपरिणाम है / (10) वेदपरिणाम--स्त्रोवेद आदि के रूप में जीव का परिणमन वेदपरिणाम दशविध जीवपरिणामों के क्रम की संगति-औदयिक अादि भाव के आश्रित सभी भाव गतिपरिणाम के विना प्रादुर्भूत नहीं होते / इसलिए सर्वप्रथम गतिपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है / गतिपरिणाम के होने पर इन्द्रियपरिणाम अवश्य होता है, इसलिए उसके पश्चात् इन्द्रियपरिणाम कहा है / इन्द्रियपरिणाम के पश्चात् इष्ट-अनिष्टविषय के सम्पर्क से राग-द्वषपरिणाम उत्पन्न होता होता है / अत: इसके बाद कषायपरिणाम कहा है। कषायपरिणाम लेश्यापरिणाम का अविनाभावी है किन्तु लेश्यापरिणाम कषायपरिणाम के विना भी होता है / इसलिए कषायपरिणाम के पश्चात् लेश्यापरिणाम का निर्देश है। लेश्यापरिणाम योगपरिणामात्मक है, इसलिए लेश्यापरिणाम के अनन्तर योगपरिणाम का निर्देश किया है। योगपरिणत संसारी जीवों का उपयोग-परिणाम होता है, इसलिए योगपरिणाम के पश्चात् उपयोगपरिणाम का क्रम है। उपयोगपरिणाम होने पर ज्ञानपरिणाम उत्पन्न होता है / इस कारण उपयोगपरिणाम के अनन्तर ज्ञानपरिणाम कहा है / ज्ञानपरिणाम के दो रूप हैं-सम्यग्ज्ञानपरिणाम और मिथ्याज्ञानपरिणाम / ये दोनों परिणाम क्रमशः सम्यक्त्व, मिथ्यात्व (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन) के विना नहीं होते, इसलिए ज्ञानपरिणाम के अनन्तर दर्शनपरिणाम कहा है। सम्यग्दर्शन-परिणाम के होने पर जीवों द्वारा जिनभगवान् के वचनश्रवण से अपूर्व-अपूर्व संवेग का आविर्भाव होने पर चारित्रावरणकर्म के क्षय-क्षयोपशम से चारित्रपरिणाम उत्पन्न होता है / इसलिए दर्शनपरिणाम के अनन्तर चारित्रपरिणाम कहा गया है / चारित्रपरिणाम के प्रभाव से महासत्त्वपुरुष वेदपरिणाम का विनाश करते हैं, इसलिए चारित्रपरिणाम के अनन्तर वेदपरिणाम का प्रतिपादन किया गया है।' नैरयिकों में दशविध-परिणामों को प्ररूपरणा--- ___638. रइया गतिपरिणामेणं गिरयगतिया, इवियपरिणामेणं पंचिदिया, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि जाव लोभकसाई वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि णीललेस्सा वि काउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि वइजोगी वि कायजोगी वि, उवयोगपरिणामेणं सामारोव उत्ता वि अणागारोवउत्ता वि, णाणपरिणामेणं ग्रामिणिबोहियणाणी वि सुथणाणी वि प्रोहिणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयप्रणाणी वि विभंगणाणी वि, दंसणपरिणामेणं सम्मद्दिट्टी वि मिच्छहिट्ठी वि सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरित्तो णो चरित्ताचरित्तो अचरित्ती, वेदपरिणामेणं णो इथिवेयगा णो पुरिसबेयगा णपुसगवेयगा। [938] नैरयिक जीव गति-परिणाम को अपेक्षा नरकगतिक (नरकगति वाले) हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय हैं: कषाय-परिणाम से क्रोधकषायी यावत लोभकपायी हैं: लेश्या-परिणाम से कृष्णलेश्यावान् भी हैं, नीललेश्यावान् भो और कापोतलेश्यावान् भी हैं; योग-परिणाम से वे मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी भी हैं, उपयोग-परिणाम से साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) वाले भी हैं और अनाकारोपयोग (दर्शनोपयोग) वाले भी हैं ; ज्ञानपरिणाम से (वे) आभिनिबोधिक (मति) ज्ञानी भी हैं, श्रुतज्ञानी भी हैं और अवधिज्ञानी भी हैं, अज्ञानपरिणाम से (वे) मति-अज्ञानी भी हैं, 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 285 Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद ] [ 127 श्रुत-अज्ञानी भी और विभंगज्ञानी भी हैं; दर्शन-परिणाम से वे सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यावृष्टि भी हैं; चारित्रपरिणाम से (वे) न तो चारित्री हैं, न चारित्राचारित्री हैं, किन्तु अचारित्री हैं ; वेद-परिणाम से नारकजीव, न स्त्रीवेदी हैं, न पुरुषवेदी, किन्तु नपुसकवेदी हैं / विवेचन-नरियकों में दशविधपरिणामों की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (638) में जोवपरिणामों के दस प्रकारों में से नारकों में कौन-कौन-सा परिणाम किस रूप में पाया जाता है, इसकी प्ररूपणा की गई है। नयिकों में तीन लेश्याएँ ही क्यों ? --नारकों में प्रारम्भ को तीन लेश्याएँ होती हैं, शेष तीन लेश्याएँ नहीं होतीं / इनमें से भी रत्नप्रभा और शर्कराप्रभापृथ्वी के नरयिकों में कापोतलेश्या, वालुकाप्रभा के नारकों में कापोत और नीललेश्या, पंकप्रभापृथ्वी के नारकों में नीललेश्या, धमप्रभापृथ्वी के नारकों में नील और कृष्णालेश्या तथा तमःप्रभा और तमस्तमःप्रभापृथ्वी के नारकों में सिर्फ कृष्णलेश्या ही होती है / इसलिए लेश्यापरिणाम को दृष्टि से समुच्चय नारकों को प्रारम्भ को तीन लेश्याओं वाला कहा है। नारकों में चारित्रपरिणाम क्यों नहीं ?–चारित्रपरिणाम की दृष्टि से नारकजीव न तो चारित्री होते हैं और न ही चारित्राचारित्री (देशचारित्री), वे अचारित्री ही रहते हैं / सम्पूर्ण चारित्र मनुष्यों में ही सम्भव है तथा देशचारित्र मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में ही हो सकता है, इसलिए नारकों में चारित्रपरिणाम बिलकुल नहीं होता। वेदपरिणाम से नारक नपुसकवेदी ही क्यों ?–नारक न तो स्त्री और न पुरुष होते हैं; इसलिए नारक सिर्फ नपुसकवेदी ही होते हैं / तत्त्वार्थसूत्र में भी कहा है- 'नारक और सम्मूच्छिम जीव नपुंसक होते हैं।' असुरकुमारदि भवनवासियों को परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा-- 636. [1] असुरकुमारा वि एवं चेव / नवरं देवगतिया, कण्हलेसा वि जाव तेउलेसा वि, वेदपरिणामेणं इस्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि, णो णपुसगवेयगा / सेसं तं चेव / [939-1] असुरकुमारों की (परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) भी इसी प्रकार जाननी चाहिए। विशेषता यह है कि (वे गतिपरिणाम से) देवगतिक होते हैं; (लेश्यापरिणाम से) कृष्ण लेश्यावान् भी होते हैं तथा नील, कापोत एवं तेजोलेश्या वाले भी होते हैं; वेदपरिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होते हैं, पुरुषवेदक भी होते हैं, किन्तु नपुसकवेदक नहीं होते। (इसके अतिरिक्त) शेष (सब) कथन उसी तरह (पूर्ववत्) समझना चाहिए / [2] एवं जाव थणियकुमारा। [939-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान) (नागकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा करनी चाहिए / ) 1. 'नारक-सम्मूच्छिंनो नपुसकानि'-तत्वार्थ. अ. 2 सू. 50 प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 ] प्रज्ञापनातून विवेचन-असुरकुमारादि भवनवासियों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (939) में असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक दस प्रकार के भवनवासी देवों के दशविध परिणामों की प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर नारकों के अतिदेशपूर्वक की गई है। भवनवासी देवों का नारकों से कुछ परिणामों में अन्तर-भवनवासी देवों के अधिकतर परिणाम तो नैरयिकों के समान ही होते हैं, कुछ परिणामों में अन्तर है, जैसे कि वे गतिपरिणाम से देवगतिवाले होते हैं / लेश्यापरिणाम की अपेक्षा से नारकों की तरह उनमें भी प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ होती हैं, किन्तु महद्धिक भवनवासी देवों के चौथी तेजोलेश्या भी होती है / वेदपरिणाम की दृष्टि से वे नारकों की तरह नपुसकवेदी नहीं होते, क्योंकि देव नपुसक नहीं होते ; ' अत: भवनवासियों में स्त्रोवेदी और पुरुषवेदी ही होते हैं।' एकेन्द्रिय से तिर्यंचपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा 940. [1] पुढविकाइया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, इंदियपरिणामेणं एगिदिया, सेसं जहा परइयाणं (सु. 638) / णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं कायजोगी, णाण. परिणामो णस्थि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयअण्णाणी वि, दसणपरिणामेणं मिच्छट्ठिी / सेसं तं चेव / [940-1] पृथ्वीकायिकजीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से एकेन्द्रिय हैं, शेष (सब परिणामों को वक्तव्यता) नैरयिकों के समान (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि लेश्यापरिणाम से (ये) तेजोलेश्या वाले भी होते हैं / योगपरिणाम से (ये सिर्फ) काययोगी होते हैं, इनमें ज्ञानपरिणाम नहीं होता। अज्ञानपरिणाम से ये मति-अज्ञानी भी होते हैं, श्रुत-अज्ञानी भी; (किन्तु विभंगज्ञानी नहीं होते / ) दर्शनपरिणाम से (ये केवल) मिथ्यादृष्टि होते हैं, (सम्यग्दृष्टि या सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते / ) शेष (सब वर्णन) उसी प्रकार (पूर्ववत् जानना चाहिए / ) [2] एवं प्राउ-वणफइकाइया वि / [940-2] इसी प्रकार (को परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिकों की (समझनी चाहिए।) [3] तेऊ वाऊ एवं चेव / णवरं लेस्सापरिणामेणं जहा रहया (सु. 638) / [940-3 तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों की भी (परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) इसी प्रकार है। विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा (सू. 938 में उल्लिखित) नैरयिकों के समान (तीन लेश्याएँ समझनी चाहिए।) 641. [1] बेइंदिया गतिपरिणामेणं तिरियगतिया, इंदियपरिणामेणं बेइंदिया, सेसं जहा णेरइयाणं (सु. 638) / णवरं जोगपरिणामणं वइयोगी वि काययोगी वि, गाणपरिणामेणं प्राभिणि 1. 'न देवा:'-तत्वार्थ. अ. 2 सु. 51 2. प्रज्ञापनामूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद ] [ 129 बोहियणाणो वि सुयणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं मतिअण्णाणी वि सुयअण्णाणी वि, णो विभंगणाणी, दसणपरिणामेणं सम्मद्दिट्ठी वि मिच्छट्टिी वि, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठी / सेसं तं चेव / [141-1] द्वीन्द्रियजीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं, इन्द्रियपरिणाम से (वे) द्वीन्द्रिय (दो इन्द्रियों वाले) होते हैं। शेष (सब परिणामों का निरूपण) (सू. 638 में उल्लिखित) नैरयिकों की तरह (समझना चाहिए। विशेषता यह है कि (वे) योगपरिणाम से वचनयोगी भी होते हैं, काययोगी भी; ज्ञानपरिणाम से आभिनिबोधिक ज्ञानी भी होते हैं और श्र तज्ञानी भी; अज्ञानपरिणाम से मतिअज्ञानी भी होते हैं और श्रत-अज्ञानी भी; (किन्तु वे) विभंगज्ञानी नहीं होते। दर्शनपरिणाम से वे सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी; (किन्तु) सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते / शेष (सब वर्णन) उसी तरह (पूर्वोक्त नैरयिकवत् समझना चाहिए / ) [2] एवं जाव चरिदिया / णवरं इंदियपरिवड्डी कायव्वा / [641-2] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियजीवों (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि (त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की वृद्धि कर लेनी चाहिए। 942. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया गतिपरिणामेणं तिरियगतीया। सेसं जहा रइयाणं (सु. 938) / णवरं लेस्सापरिणामेणं जाव सुक्कलेस्सा वि, चरित्तपरिणामेणं णो चरिती, अचरित्ती वि चरित्ताचरित्तो वि, वेदपरिणामेणं इस्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि णपुसगवेयगा वि / [942] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव गतिपरिणाम से तिर्यञ्चगतिक हैं / शेष (सू. 638 में) जैसे नैरयिकों का (परिणामसम्बन्धी कथन) है; (वैसे ही समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से (वे कृष्णलेश्या से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या वाले भी होते हैं। चारित्रपरिणाम से वे (पूर्ण) चारित्री नहीं होते, प्रचारित्री भी होते हैं और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी; वेदपरिणाम से वे स्त्रीवेदक भी होते हैं, पुरुषवेदक भी और नपुंसकवेदक भी होते हैं। एकेन्द्रिय से तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों तक के परिणामों की प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. 640 में एकेन्द्रियों के, सू. 941 में विकलेन्द्रियों (द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों) तथा सू. 942 में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़ कर नैरयिकजीवों के समान अतिदेशपूर्वक की गई है। इनसे नैरयिकों के परिणामसम्बन्धी निरूपण में अन्तर—गतिपरिणाम से नैरयिक नरकगतिक होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक तिर्यञ्चगतिक होते हैं; इन्द्रियपरिणाम से नैरयिक पंचेन्द्रिय होते हैं, जबकि पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय सिर्फ एक स्पर्शेन्द्रिय वाले, द्वीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय एवं रसनेन्द्रिय, इन दो इन्द्रियों वाले, त्रीन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, एवं घ्राणेन्द्रिय, इन तीन इन्द्रियों वाले तथा चतुरिन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणन्द्रिय एवं चक्षुरिन्द्रिय, इन चार इन्द्रियों वाले एवं तिर्यंचपंचेन्द्रिय पांच इन्द्रियों (स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु और श्रोत्र) वाले होते हैं। लेश्यापरिणाम से–नारकों में आदि की तीन लेश्याएँ होती हैं, जबकि (पृथ्वी-अप्-वनस्पतिकायिक) एकेन्द्रियों में चौथी तेजोलेश्या भी होती है। क्योंकि सौधर्म और ईशान देवलोक तक के देव भी इनमें Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [प्रज्ञायनासूत्र उत्पन्न हो सकते हैं / तेजस्कायिक-वायुकायिकों में नारकों की तरह प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ हो होती हैं / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में शुक्ललेश्या तक छहों लेश्याएँ सम्भव हैं / योगपरिणाम से नारकों में तीनों योग पाए जाते हैं, जबकि पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय सिर्फ काययोगी होते हैं, विकलेन्द्रिय वचनयोगी और काययोगी तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तीनों योगों वाले होते हैं। ज्ञानपरिणाम से नारक तीन ज्ञान वाले होते हैं, जबकि एकेन्द्रियों में ज्ञानपरिणाम नहीं होता, क्योंकि पृथ्वीकायिकादि पांचों में सास्वादन सम्यक्त्व का भी प्रागमों में निषेध है, इसलिए इनमें ज्ञान का निषेध किया गया है। विकलेन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी भी होते हैं, क्योंकि कोई-कोई द्वीन्द्रिय जीव करणापर्याप्त-अवस्था में सास्वादनसम्यक्त्वी भी पाए जाते हैं, इसलिए उन्हें ज्ञानद्वयपरिणत कहा है। पंचेन्द्रियतिर्यचों को नारकों की तरह तीन ज्ञान होते हैं। अज्ञानपरिणाम से नारक तीनों अज्ञानों से परिणत होते हैं, जबकि सम्यक्त्व के अभाव में एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रिय जीवों में मतिअज्ञान और श्रु तप्रज्ञान ये दो अज्ञान होते हैं, विभंगज्ञान नहीं; तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में तीनों अज्ञान होते हैं। दर्शनपरिणाम से नारकजीव तीनों दृष्टियों से युक्त होते हैं, जबकि एकेन्द्रिय सिर्फ मिथ्याष्टि, विकलेन्द्रिय सास्वादनसम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि तथा तिर्यचपंचेन्द्रिय तीनों दृष्टियों वाले होते हैं। वेदपरिणाम की दृष्टि से नारकों की तरह एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीव नपुसकवेदी ही होते हैं, जबकि तिर्यंचपंचेन्द्रिय तीनों वेद (स्त्री-पुरुषनपुसकवेद) वाले होते हैं। चारित्रपरिणाम से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में तो नारकों की तरह चारित्रपरिणाम सर्वथा असम्भव है, तिर्यंचपंचेन्द्रियों में देशतः चारित्रपरिणाम सम्भव है। ये परिणाम समुच्चय नारकों आदि की अपेक्षा से कहे गए हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए / यही नारकों से इनमें परिणामसम्बन्धी अन्तर है / मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा 943. मणुस्सा गतिपरिणामेणं मणुयगतिया, इंदियपरिणामेणं पंचेंदिया अणिदिया कि, कसायपरिणामेणं कोहकसाई वि जाव प्रकसाई वि, लेस्सापरिणामेणं कण्हलेस्सा वि जाव प्रलेस्सा वि, जोगपरिणामेणं मणजोगी वि जाव अजोगी वि, उपयोगपरिणामेणं जहा रइया (सु. 638), णाणपरिणामेणं आभिणिबोहियणाणी वि जाव केवलणाणी वि, अण्णाणपरिणामेणं तिण्णि वि अण्णाणा, दसणपरिणामेणं तिन्नि वि दंसणा, चरित्तपरिणामेणं चरिती वि अचरित्तो वि चरित्ताचरित्ती वि, वेदपरिणामेणं इस्थिवेयगा वि पुरिसवेयगा वि नपुंसगवेयगा वि अवेयगा वि / 943) मनुष्य, गतिपरिणाम से मनुष्यगतिक हैं; इन्द्रियपरिणाम से पंचेन्द्रिय होते हैं, अनिन्द्रिय भी; कषायपरिणाम से क्रोधकषायी, मानकषायी. मायाकषायी, लोभकषायी तथा अकषायी भी होते हैं; लेश्यापरिणाम से कृष्णलेश्या से शुक्ललेश्या वाले तक तथा अलेश्या भी होते हैं; योगपरिणाम से मनोयोगी, वचनयोगी, काययोगी तथा अयोगी भी होते हैं; उपयोगपरिणाम से (सू. 938 में उल्लिखित) नैरयिकों के (उपयोगपरिणाम के समान हैं; ज्ञानपरिणाम से (वे) आभिनिबोधिकज्ञानी से यावत् केवलज्ञानी तक भी होते हैं; अज्ञानपरिणाम से (इनमें) तीनों ही 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ), पृ. 230-231 Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवाँ परिणामपद [131 अज्ञान वाले होते हैं; दर्शनपरिमाण से (इनमें) तीनों ही दर्शन (सम्यग्दर्शन, मिथ्यादर्शन और सम्यग्मिथ्यादर्शन) होते हैं; चारित्रपरिणाम से (ये) चारित्री भी होते हैं, अचारित्री भी और चारित्राचारित्री (देशचारित्री) भी होते हैं ; वेदपरिणाम से (ये) स्त्रीवेदक, पुरुषवेदक एवं नपुसकवेदक भी तथा अवेदक भी होते हैं। विवेचन--मनुष्यों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (643) में मनुष्यों (समुच्चय मनुष्यजाति) को गति आदि दसों परिणामों की अपेक्षा से विचारणा की गई है। विशेषता-मनुष्य कई परिणामों से अन्य जीवों से विशिष्ट हैं तथा कई परिणामों से अतीत भी होते हैं, जैसे अनिन्द्रिय, अकषायो, अलेश्यो, अयोगी, केवलज्ञानो, मनःपर्यवज्ञानी, अवेदक आदि / ' वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा 944. वाणमंतरा गतिपरिणामेणं देवगइया जहा असुरकुमारा (सु. 636 [1]) / [944] वाणव्यन्तर देव गतिपरिणाम से देवगतिक हैं, शेष (समस्त परिणामसम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. 939-1 में उल्लिखित) असुरकुमारों की तरह (समझना चाहिए / ) 145. एवं जोतिसिया वि / णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा। [945] इसी प्रकार ज्योतिष्कों के समस्त परिणामों के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि लेश्यापरिणाम से (वे सिर्फ) तेजोलेश्या वाले होते हैं। ___646. वेमाणिया वि एवं चेव। णवरं लेस्सापरिणामेणं तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सा वि।से तं जीवपरिणामे। [946] वैमानिकों की परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) विशेषता यह है कि लेश्यापरिणाम से वे तेजोलेश्या वाले भी होते हैं, पद्मलेश्या वाले भी और शुक्ललेश्या वाले भी होते हैं। यह जीवप्ररूपणा हुई। विवेचन-वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों को परिणामसम्बन्धी प्ररूपणाप्रस्तुत तीन सूत्रों में से सू. 644 में वाणव्यन्तर देवों की, सू. 945 में ज्योतिष्क देवों को एवं सू. 646 में वैमानिक देवों को परिणामसम्बन्धी प्ररूपणा कुछेक बातों को छोड़कर असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई है। ज्योतिठकों और वैमानिकों के लेश्यापरिणाम में विशेषता-ज्योतिष्कों में सिर्फ तेजोलेश्या ही होती है, जबकि वैमानिकों में तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या ये तीन शुभ लेश्याएँ होती हैं; तीन अशुभ लेश्याएँ नहीं होती। 1. पण्णवणासुत्त भा. 1 (मूलपाठ), पृ. 232 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 287 (ख) 'पीतान्तलेश्या:'--तत्वार्थ. अ. 4, सू. 7 (ग) पीतपद्मशुक्ललेश्याः द्वि-त्रि-शेषेषु / --तत्त्वार्थ. अ. 4, सू. 23 Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] [प्रज्ञापनासून अजीवपरिणाम और उसके भेद-प्रभेदों को प्ररूपणा 147. अजीवपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते / तं जहा-बंधणपरिणामे 1 गतिपरिणामे 2 संठाणपरिणामे 3 भेदपरिणामे 4 वण्णपरिणामे 5 गंधपरिणामे 6 रसपरिणामे 7 फासपरिणामे 8 अगत्यलहुयपरिणामे 6 सहपरिणामे 10 / [947 प्र.] भगवन् ! अजीवपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [647 उ.] गौतम ! (अजीवपरिणाम) दस प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार--(१) बन्धनपरिणाम, (2) गतिपरिणाम (3) संस्थानपरिणाम, (4) भेदपरिणाम, (5) वर्णपरिणाम, (6) गन्धपरिणाम, (7) रसपरिणाम, (8) स्पर्शपरिणाम, (9) अगुरुलघुपरिणाम और (10) शब्दपरिणाम / 648. बंधणपरिणाम णं भंते ! कतिबिहे पण्णते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा--निबंधणपरिणाम य लुक्खबंधणपरिणामे य / समणिद्धयाए बंधोण होति, समलुक्खयाए वि ण होति / वेमाणिद्ध-लुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं / / 166 // णिद्धस्स णि ण दुयाहिएणं लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं / णिद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो जहण्णवज्जो विसमो समो वा // 20 // [948 प्र.] भगवन् ! बन्धनपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [648 उ. गौतम ! (बन्धनपरिणाम) दो प्रकार का है / वह इस प्रकार है-(१) स्निग्धबन्धनपरिणाम और (2) रूक्षबन्धनपरिणाम / [गाथार्थ----] सम (समान-गुण) स्निग्धता होने से बन्ध नहीं होता और न ही सम (समानगुण) रूक्षता होने से भी बन्ध होता है। विमात्रा (विषममात्रा) वाले स्निग्धत्व और रूक्षत्व के होने पर स्कन्धों का बन्ध होता है / / 166 / / दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ स्निग्ध का तथा दो गुण अधिक रूक्ष के साथ रूक्ष का एवं स्निग्ध का रूक्ष के साथ बन्ध होता है; किन्तु जघन्यगुण को छोड़ कर, चाहे वह सम हो अथवा विषम हो / / 200 / / 946. गतिपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? . गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-फुसमाणगतिपरिणामे य अफुसमाणगतिपरिणामे य, प्रहवा दोहगइपरिणामे य हस्सगइपरिणामे य / [946 प्र.] भगवन् ! गतिपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [949 उ.] गौतम ! (गतिपरिणाम) दो प्रकार का कहा है / वह इस प्रकार--(१) स्पृशद्गतिपरिणाम और (2) अस्पृशद्गतिपरिणाम; अथवा (1) दीर्घगतिपरिणाम और (2) ह्रस्वगतिपरिणाम। Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद] [133 650. संठाणपरिणामे गं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा.-परिमंडलसंठाणपरिणाम जाव प्राययसंठाणपरिणाम / [950 प्र.) भगवन् ! संस्थानपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [650 उ.] गौतम ! (संस्थानपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार(१) परिमण्डलसंस्थानपरिणाम, (2) वृत्तसंस्थानपरिणाम, (3) व्यस्रसंस्थानपरिणाम, (4) चतुरस्रसंस्थानपरिणाम और (5) आयतसंस्थानपरिणाम / 651. मेयपरिणामे णं भंते ! कति विहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-खंडाभेदपरिणामे जाव उक्करियाभेदपरिणामे / [951 प्र.] भगवन् ! भेदपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [951 उ.] गौतम ! (भेदपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) खण्डभेदपरिणाम, (2) प्रतरभेदपरिणाम, (3) चूणिका (चूर्ण) भेदपरिणाम, (4) अनुतटिकाभेदपरिणाम और (5) उत्कटिका (उत्करिका) भेदप्रमाण / 652. वण्णपरिणामे गं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-कालवण्णपरिणामे जाव सुविकलवण्णपरिणामे / [952 प्र.] भगवन् ! वर्णपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [952 उ.] गौतम ! (वर्णपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है (1) कृष्णवर्णपरिणाम, (2) नीलवर्णपरिणाम, (3) रक्तवर्णपरिणाम, (4) पीतवर्णपरिणाम और (5) शुक्ल (श्वेत) वर्णपरिणाम / 653. गंधपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–सुम्मिगंधपरिणाम य दुन्भिगंधपरिणाम य / [653 प्र.] भगवन् ! गन्धपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [953 उ.] गौतम ! (गन्धपरिणाम) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-सुगन्धपरिणाम और दुर्गन्धपरिणाम / 654. रसपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-तित्तरसपरिणाम जाव महुररसपरिणामे / [954 प्र.] भगवन् ! रसपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [954 उ.] गौतम ! (रसपरिणाम) पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार—(१) तिक्तरसपरिणाम, (2) कटुरसपरिणाम, (3) कषायरसपरिणाम, (4) अम्ल (खट्टा) रसपरिणाम और (5) मधुररसपरिणाम / 655. फासपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अट्टविहे पण्णत्ते / तं जहा-कक्खडफासपरिणामे य जाव लुक्खफासपरिणामे य। Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] [प्रज्ञापनासून [955 प्र.) भगवन् ! स्पर्शपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [955 उ.] गौतम ! (स्पर्शपरिणाम) आठ प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है(2) कर्कश (कठोर) स्पर्शपरिणाम. (2) मदस्पर्शपरिणाम (3) गुरुस्पर्शपरिणाम. (4) लघस्पर्शपरिणाम, (5) उष्णस्पर्शपरिणाम, (6) शीतस्पर्शपरिणाम, (7) स्निग्धस्पर्शपरिणाम और (8) रूक्षस्पर्शपरिणाम। 656. प्रगस्यलयपरिणाम णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। [956 प्र.] भगवन् ! अगुरुलघुपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [956 उ.] गौतम ! (अगुरुलघुपरिणाम) एक ही प्रकार का कहा गया है / 957. सहपरिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुम्भिसहपरिणामे य दुन्भिसहपरिणामे य / से तं अजीवपरिणाम। ॥पण्णवणाए भगवईए तेरसमं परिणामपयं समत्तं // [957 प्र.] भगवन् ! शब्दपरिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [657 उ.] गौतम ! (शब्दपरिणाम) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--सुरभि (शुभ–मनोज्ञ) शब्द परिणाम और दुरभि (अशुभ-अमनोज्ञ) शब्दपरिणाम / यह हुई अजीवपरिणाम की प्ररूपणा ! विवेचन-अजीयपरिणाम तथा उसके भेद-प्रभेदों को प्ररूपणा–प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 647 से 957 तक) में से प्रथम सूत्र (947) में अजीवपरिणाम के दस भेदों की तथा शेष दस सूत्रों में उन दस भेदों में से प्रत्येक के प्रभेदों की क्रमश: प्ररूपणा की गई है। बन्धनपरिणाम की व्याख्या-दो या अधिक पुद्गलों का परस्पर बन्ध (जुड़) जाना, श्लिष्ट हो जाना, एकत्वपरिणाम या पिण्डरूप हो जाना बन्धन या बन्ध है / इसके दो प्रकार हैं-स्निग्धबन्धनपरिणाम और रूक्षबन्धनपरिणाम / स्निग्ध पुद्गल का बन्धनरूप परिणाम स्निग्धबन्धनपरिणाम है और रूक्ष पुद्गल का बन्धनरूप परिणाम रूक्षबन्धनपरिणाम है। __ बन्धनपरिणाम के नियम-स्निग्ध का तथा रूक्ष का बन्धनपरिणाम किस प्रकार एवं किस नियम से होता है ? इसे शास्त्रकार दो गाथाओं द्वारा समझाते हैं-यदि पुद्गलों में परस्पर समस्निग्धता--समगुणस्निग्धता होगी तो उनका बन्ध (बन्धन) नहीं होगा, इसी प्रकार पुद्गलों में परस्पर समरूक्षता–समगणरूक्षता (समान अंश-गूणवाली रूक्षता) होगी तो भी उनका बन्ध नहीं होगा। तात्पर्य यह है कि समगुणस्निग्ध परमाणु आदि का समगुणस्निग्ध परमाणु आदि के साथ सम्बन्ध (बन्ध) नहीं होता; इसी प्रकार समगुणरूक्ष परमाणु आदि का समगुणरूक्ष परमाणु आदि के साथ बन्ध नहीं होता; किन्तु स्निग्धत्व और रूक्षत्व की विषममात्रा होती है, तभी स्कन्धों का बन्ध होता है। अर्थात्--स्निग्ध स्कन्ध यदि स्निग्ध के साथ और रूक्ष स्कन्ध यदि रूक्ष स्कन्ध के Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवां परिणामपद [135 साथ विषमगुण होते हैं, तब विषममात्रा होने के कारण उनका परस्पर सम्बन्ध (बन्ध) होता है / निष्कर्ष यह है कि बन्ध विषम मात्रा होने पर ही होता है। अतः विषम मात्रा का स्पष्टीकरण करने हेतु शास्त्रकार फिर कहते है–यदि स्निग्धपरमाणु आदि का, स्निग्धगुण बाले परमाण आदि के साथ बन्ध हो सकता है तो वह नियम से दो ग्रादि अधिक (द्वयाधिक) गुण वाले परमाण के साथ ही होता है। इसी प्रकार यदि रूक्षगुण वाले परमाणु आदि का रूक्षगुण वाले परमाणु आदि के साथ बन्ध होता है, तब वह भी इसी नियम से दो, तीन, चार आदि अधिक गुण वाले के साथ ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। जब स्निग्ध और रूक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध होता है, तब किस नियम से होता है ? इसके लिए शास्त्रकार कहते हैं-स्निग्धपरमाणु आदि का रूक्षपरमाणु प्रादि के साथ बन्ध जघन्य गण को छोड कर होता है। जघन्य का प्राशय है-एकगुणस्निग्ध और एकगुणरूक्ष / इनको छोड़कर, शेष दो गुण वाले (स्निग्ध आदि) का दो गुण वाले रूक्ष आदि के साथ बन्ध होता है, चाहे वे दोनों (स्निग्ध और रूक्ष) सममात्रा में हों या विषममात्रा में हों।' गतिपरिणाम को व्याख्या—गमनरूप परिणमन गतिपरिणाम है। वह दो प्रकार का हैस्पृशद्गतिपरिणाम और अस्पृशद्गतिपरिणाम / बीच में आने वाली दूसरी वस्तुओं को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, उसे स्पृशद्गति कहते हैं। उस गतिरूप परिणाम को स्पृशद्गतिपरिणाम दाहरणार्थ-जल पर प्रयत्नपूर्वक तिरछी फंकी हई ठोकरी बीच-बीच में जल का स्पर्श करती हुई गति करती है, यह उस ठीकरी का स्पशद्गतिपरिणाम है। जो वस्तु बीच में आने वाले किसी भी पदार्थ को स्पर्श न करती हुई गमन करतो है, वह उसको अस्पृशद्गति है / वह अस्पृशद्गतिरूप परिणाम अस्पृद्गतिपरिणाम है। जैसे—सिद्ध (मुक्त) जीव सिद्धशिला की अोर गमन करते हैं, तब उनको गति अस्पृशद्गति होती है / अथवा प्रकारान्तर से गतिपरिणाम के दो भेद प्रतिपादित करते हैं—दीर्घगतिपरिणाम और ह्रस्वगतिपरिणाम / प्रतिदूरवर्ती देश की प्राप्ति का कारणभूत जो परिणाम हो, वह दीर्घगतिपरिणाम है और निकटवर्ती देशान्तर की प्राप्ति का कारणभूत जो परिणाम हो, वह ह्रस्वगतिपरिणाम कहलाता है। इनकी व्याख्या पूर्वोक्तवत्--संस्थानपरिणाम, भेदपरिणाम, वर्णपरिणाम, गन्धपरिणाम, रसपरिणाम और स्पर्शपरिणाम की व्याख्या पहले पर्यायपद, भाषापद आदि में की जा चुकी है। अगुरुलधुपरिणाम–'कम्मग-मण भासाई एयाई प्रगुरुलघुयाई' अर्थात्-कार्मणवर्गणा, मनोवर्गणा एवं भाषावर्गणा, ये अगुरुलधु होते हैं, इस आगमवचन के अनुसार उपर्युक्त पदार्थों को तथा अमूर्त आकाशादि द्रव्यों को भी अगुरुलधु समझना चाहिए। प्रसंगवश यहाँ गुरुलघुपरिणाम को भी समझ लेना चाहिए। 3 'औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस द्रव्य गुरुलघु होते हैं / // प्रज्ञापनासूत्र : तेरहवां परिणामपद समाप्त / / कहते हैं 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 288-289 (ख) 'स्निग्ध-रूक्षत्वाद् बन्धः'-तत्त्वार्थसूत्र अ. 5, सू. 32 (ग) 'न जघन्यगुणानाम्' 'गुणसाम्ये सदृशानाम्' 'द्वयधिकादिगुणानां तु' -तत्त्वार्थसूत्र अ. 5, सू. 33, 34, 35. 2. इसके लिए देखिये प्रज्ञापना. का पर्यायपद और भाषापद प्रादि / 3. 'ओरालिय-वेउम्विय-आहारग-तेय गुरुलहूवश्वा' ..-प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र 289 में उद्धत / 4. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 289 Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोद्दसमं कसायपयं चौदहवां कषायपद प्राथमिक * यह प्रज्ञापना सूत्र का कषायपद नामक चौदहवाँ पद है। ___ कषाय संसार के वृद्धि करने वाले, पुनर्भव के मूल को सींचने वाले तथा शुद्धस्वभाव युक्त प्रात्मा को क्रोधादिविकारों से मलिन करने वाले हैं तथा अष्टविध कर्मों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना आदि के कारणभूत हैं। जीव के प्रात्मप्रदेशों के साथ सम्बद्ध होने से इनका विचार करना अतीव आवश्यक है। इसी कारण कषायपद की रचना हई है।' इस पद में सर्वप्रथम कषायों के क्रोधादि चार मुख्य प्रकार बताए हैं / तदनन्तर बताया गया है कि ये चारों कषाय चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में पाए जाते हैं। तत्पश्चात् एक महत्त्वपूर्ण चर्चा यह की गई है कि क्रोधादि चारों कषायों के भाजन-अभाजन को दृष्टि से उनके चार प्राधार हैं-यात्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, उभयप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित / साथ ही क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के भी चार-चार कारण बताए हैं—क्षेत्र, वास्तु, शरीर और उपधि / संसार के सभी जीवों में कषायोत्पत्ति के ये ही कारण हैं / इसके पश्चात् क्रोधादि कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि तथा आभोगनिर्वतित आदि चार-चार प्रकार बता कर उनका समस्त संसारी जीवों में अस्तित्व बताया है। * अन्त में जीव द्वारा कृत क्रोधादि कषायों के फल के रूप में आठ कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदोरणा, वेदना और निर्जरा, इन 6 को पृथक-पृथक् बताया है / जैन-पागमों में आत्मा के विविध दोषों-विकारों का वर्णन अनेक प्रकार से किया गया है। उन दोषों का संग्रह भी पृथक्-पृथक् रूप में किया गया है, उनमें से एक संग्रह-प्रकार है-राग, द्वेष और मोह / परन्तु कर्मसिद्धान्त में प्रायः उक्त चार कषाय और मोह के आधार पर ही विचारणा की गई है। इससे पूर्वपद में आत्मा के विविध परिणामों का निरूपण किया गया है, उसमें से कषाय भी प्रात्मा का एक परिणाम है / * इस पद का वर्णन सू. 658 से लेकर 971 तक कुल 14 सूत्रों में है / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 289 (ख) देखिये 'कयायपाहुड' टीकासहित 2. पण्णवणासुत्त भा. 1, पृ. 234 से 236 तक 3. (क) पण्णवणासुत्त भा. 2, कषायपद को प्रस्तावना, पृ. 97 (ख) गणधरवाद (प्रस्तावना) पृ. 100 (ग) कषायपाहुड टीकासहित Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चोद्दसमं कसायपयं चौदहवाँ कषायपद कषाय और उसके चार प्रकार__६५८. कति णं भंते ! कसाया पण्णता ? गोयमा! चत्तारि कसाया पण्णत्ता। तं जहा-कोहकसाए 1 माणकसाए 2 मायाकसाए 3 लोहकसाए / [958 प्र.] भगवन् ! कषाय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [958 उ.] गौतम ! (वे) चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) क्रोधकषाय, (2) मानकषाय, (3) मायाकषाय और (4) लोभकषाय / विवेचन--कषाय और उसके चार प्रकार---प्रस्तुत सूत्र में कषाय के क्रोधादि चार प्रकारों का उल्लेख किया गया है। कषाय की व्याख्या-कषाय शब्द के तीन व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ मिलते हैं-(१) कष अर्थात् संसार, उसका आय-लाभ जिससे हो, कह कषाय है। (2) 'कृष' धातु विलेखन अर्थ में है, उससे भी कृष को कष आदेश हो कर 'आय' प्रत्यय लगने से कषाय शब्द बनता है। जिसका अर्थ होता है-- जो कर्मरूपी क्षेत्र (खेत) को सुख-दुःखरूपी धान्य की उपज के लिए विलेखन (कर्षण) करते हैं जोतते हैं, वे कषाय हैं / (3) 'कलुष' धातु को 'कष' आदेश हो कर भी कषाय शब्द बनता है। जिसका अर्थ होता है जो स्वभावतः शुद्ध जीव को कलुषित-कर्ममलिन करते हैं, वे कषाय हैं।' कषाय से ही कर्मों का आदान-तत्त्वार्थसूत्र में बताया है-'सकषायत्बाज्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते'-कषाययुक्त होकर जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। दशवकालिक मूत्र में भी कहा है-ये चारों कषाय पुनर्भव के मूल का सिंचन करते हैं / 2 1. (क) माचारांग शीलांक. वृत्ति, (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 289 (ग) 'कषः संसारः, तस्य आयः लाभ:--कषायः / ' (घ) 'कृषन्ति बिलिखन्ति कर्मरूपं क्षेत्रं सूखःखशस्योत्पादनायेति कषायाः।' 'कलुषयन्ति शुद्धस्वमा सन्तं कर्ममलिनं कुर्वन्ति जीवमिति कषाया।' (ङ) 'सुहदुक्खबहुस्सइयं कम्मखेत कसंति ते जम्हा। कलुसंति जं च जीवं तेण कसायत्ति वुच्चंति // ' 2. (क) तत्त्वार्थसूत्र अ. 9, सू. 2 (ख) 'चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पूणमवस्स ।'-दशवकालिकसूत्र प्र. 9 Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 ] [प्रज्ञापनासूत्र चौवीस दण्डकों में कषाय की प्ररूपणा 656. जेरइयाणं भंते ! कति कसाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसाया पणत्ता / तं जहा-कोहकसाए जाव लोभकसाए / एवं जाव वेमाणियाणं / [959 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीवों में कितने कषाय होते हैं ? [959 उ.] गौतम ! उनमें चार कषाय होते हैं। वे इस प्रकार हैं-क्रोधकषाय से (लेकर) लोभकषाय तक / इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में चारों कषाय पाए जाते हैं।) विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में कषायों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (956) में नैरयिकों से वैमानिकों तक समस्त संसारी जीवों में इन चारों कषायों का सद्भाव बताया है। कषायों के प्रतिष्ठान की प्ररूपणा--- 960. [1] कतिपतिट्ठिए णं भंते ! कोहे पणते ? गोयमा ! चउपतिदुिए कोहे पण्णते। तं जहा-प्रायपतिट्ठिए 1 परपतिट्टिए 2 तदुभयपतिट्ठिए 3 अप्पतिट्टिए 4 / [660-1 प्र.] भगवन् ! क्रोध कितनों पर प्रतिष्ठित (आश्रित) है ? (अर्थात्-किस-किस आधार पर रहा हुअा है ? ) f960-1 उ.] गौतम ! क्रोध को चार (निमित्तों) पर प्रतिष्ठित (आधारित) कहा है। वह इस प्रकार-(१) आत्मप्रतिष्ठित, (2) परप्रतिष्ठित, (3) उभय-प्रतिष्ठित और (4) अप्रतिष्ठित / [2] एवं रइयादीणं जाव वेमाणियाणं दंडो। (960-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों) के विषय में दण्डक (पालापक कहना चाहिए / ) [3] एवं माणेणं दंडो, मायाए दंडो, लोभेणं वंडो / [960-3] क्रोध की तरह मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से भी (प्रत्येक का) एक-एक दण्डक (मालापक कहना चाहिए / ) विवेचन--क्रोधादि चारों कषायों के प्रतिष्ठान-प्राधार को प्ररूपणा–प्रस्तुत सुत्र (9601, 2, 3) में क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों को चार-चार स्थानों पर प्रतिष्ठितप्राधारित बताया गया है। चतुष्प्रतिष्ठित क्रोधादि-(१) प्रात्मप्रतिष्ठित क्रोधादि-अपने आप पर ही आधारित होते हैं / इसका तात्पर्य यह है कि स्वयं आचरित किसी कर्म के फलस्वरूप जब कोई जीव अपना इहलौकिक अनिष्ट (अपाय = हानि) देखता है, तब वह अपने पर क्रोध, मान, माया या लोभ करता है, वह आत्मप्रतिष्ठित क्रोधादि है। यह क्रोध आदि अपने ही प्रति किया जाता है। (2) पर प्रतिष्ठित Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां कषायपद ] [139 क्रोधादि-जब किसी अन्य व्यक्ति या जीव-अजीव को अपने अनिष्ट में निमित्त मान कर जीव क्रोध प्रादि करता है, अथवा जब दूसरा कोई व्यक्ति प्राक्रोशादि करके क्रोध आदि उत्पन्न कराता है, भड़काता है, तब उसके प्रति जो क्रोधादि उत्पन्न होता है, वह परप्रतिष्ठित क्रोधादि है। (3) उभयप्रतिष्ठित क्रोधादि-कई बार जीव अपने पर भी क्रोधादि करता है और दूसरों पर भी करता है, जैसे-अपने और दूसरे के द्वारा किये गए अपराध के कारण जब कोई व्यक्ति स्वपर-विषयक क्रोधादि करता है, तब बह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है। (4) अप्रतिष्ठित क्रोधादि--जब कोई क्रोध आदि दुराचरण, आक्रोश आदि निमित्त कारणों के विना, निराधार ही केवल क्रोध आदि (वेदनीय) मोहनीय के उदय से उत्पन्न हो जाता है, तब वह क्रोधादि अप्रतिष्ठित होता है। ऐसा क्रोधादि न तो आत्मप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि वह स्वयं के दुराचरणादि के कारण उत्पन्न नहीं होता और न वह परप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि दूसरे का प्रतिक्ल आचरण, व्यवहार या अपराध न होने से उस क्रोधादि का कारण 'पर' भी नहीं होता, न यह क्रोधादि उभयप्रतिष्ठित होता है, क्योंकि इसमें दोनों ही प्रकार के निमित्त नहीं होते / अतः यह क्रोधादि मोहनीय (वेदनीय) के उदय से बाह्य कारण के विना ही उत्पन्न होने वाला क्रोधादि है। ऐसा व्यक्ति बाद में कहता है-ओहो ! मैंने अकारण ही क्रोधादि किया; न तो कोई मेरे प्रतिकूल बोलता है, न ही मेरा कोई विनाश करता है।' कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण 661. [1] कतिहि णं भंते ! ठाणेहि कोहुप्पत्ती भवति ? गोयमा ! चहि ठाणेहि कोहुप्पत्तो भवति / तं जहा-खेत्तं पडुच्च 1 वत्थु पडुच्च 2 सरीरं पडुच्च 3 उहि पडुच्च 4 / [961-1 प्र.] भगवन् ! कितने स्थानों (कारणों) से क्रोध की उत्पत्ति होती है ? [961-1 उ.] गौतम ! चार स्थानों (कारणों) से क्रोध की उत्पत्ति होती है। वे इस प्रकार-(१) क्षेत्र (खेत या खुली जमोन) को लेकर, (2) वास्तु (मकान यादि) को लेकर, (3) शरीर के निमित्त से और (4) उपधि (उपकरणों-साधनसामग्री) के निमित्त से / [2] एवं णेरइयादीणं जाव वेमाणियाणं / 6961-2] इसी प्रकार नै रयिकों से लेकर वैमानिकों तक (क्रोधोत्पत्ति के विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए।) [3] एवं माणेण वि भायाए वि लोभेण वि / एवं एते वि चत्तारि दंडगा। [961-3] क्रोधोत्पत्ति के विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार मान, माया और लोभ की उत्पत्ति के विषय में भी उपर्युक्त चार कारण कहने चाहिए। इस प्रकार ये चार दण्डक (आलापक) होते हैं। विवेचन-क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के चार-चार कारण-प्रस्तुत सूत्र (961-1,2,3) में क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के क्षेत्र, वास्तु, शरीर ओर उपधि, ये चार-चार कारण प्रस्तुत किये गए हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 290 Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 ] [ प्रज्ञापनासून क्षत्र, वास्तु, शरीर और उपधि, क्रोधादि की उत्पत्ति के कारण क्यों ?-क्षेत्र का अर्थ खेत या जमीन होता है, परन्तु नारकों के लिए नैरयिकक्षेत्र, तिर्यञ्चों के लिए तिर्यक्षेत्र, मनुष्य के लिए मनुष्यक्षेत्र के निमित्त एवं देवों के लिए देवक्षेत्र के निमित्त से क्रोधादि कषायोत्पत्ति समझनी चाहिए। 'वत्थु' के दो अर्थ होते हैं-वास्तु और वस्तु / वास्तु का अर्थ मकान, इमारत, बंगला, कोठी, महल आदि और वस्तु का अर्थ है--सजीव, निर्जीव पदार्थ / महल, मकान आदि को लेकर भी क्रोधादि उमड़ते हैं / सजीव वस्तु में माता, पिता, स्त्री, पुत्र या मनुष्य तथा किसी अन्य प्राणी को लेकर क्रोध, संघर्ष, अभिमान आदि उत्पन्न होते हैं। निर्जीव वस्तु पलंग, सोना, चांदी, रत्न, माणक, मोती, वस्त्र, आभूषण प्रादि को लेकर क्रोधादि उत्पन्न होते हैं। दुःस्थित या विरूप या सचेतन-अचेतन शरीर को लेकर भी क्रोधादि उत्पन्न होते हैं / अव्यवस्थित एवं बिगड़े हुए उपकरणादि को लेकर अथवा चौरादि के द्वारा अपहरण किये जाने पर क्रोधादि उत्पन्न होता है। जमीन, मकान, शरीर और अन्य साधनों को जब किसी कारण से हानि या क्षति पहुँचती है तो क्रोधादि उत्पन्न होते हैं। यहाँ 'उपधि' में जमीन, मकान तथा शरीर के सिवाय शेष सभी वस्तुओं का समावेश समझ लेना चाहिए।' कषायों के भेद-प्रभेद 662. [1] कतिविहे णं भंते ! कोहे पण्णत्ते ? गोयमा! चउन्विहे कोहे पण्णत्ते / तं जहा-अणंताणुबंधी कोहे 1 अप्पच्चक्खाणे कोहे 2 पच्चक्खाणावरणे कोहे 3 संजलणे कोहे 4 / [962-1 प्र.] भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? [962-1 उ.] गौतम ! क्रोध चार प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार-(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (2) अप्रत्याख्यान क्रोध, (3) प्रत्याख्यानावरण क्रोध और (4) संज्वलन क्रोध / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [962-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (चौवीस दण्डकवर्ती जीवों) में (क्रोध के इन चारों प्रकारों की प्ररूपणा समझनी चाहिए।) [3] एवं माणेणं मायाए लोभेणं / एए वि चत्तारि दंडया / [962-3] इसी प्रकार मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से, (इन चार-चार भेदों का तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक में इनके पाए जाने का कथन करना चाहिए।) ये भी चार दण्डक होते हैं। 663. [1] कतिविहे गं भंते ! कोहे पण्णते? गोयमा ! चउम्बिहे कोहे पण्णते। तं जहा-पाभोगणिवत्तिए प्रणाभोगणिव्यत्तिए उवसंते प्रणुवसंते। [963-1 प्र.] भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 290-291 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 3, पृ. 559 Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां कषायपद]] [ 141 [963-1 उ.] गौतम ! क्रोध चार प्रकार का कहा है। वह इस प्रकार--(१) आभोगनिर्वर्तित, (2) अनाभोगनिर्वतित, (3) उपशान्त और (4) अनुपशान्त / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [963-2] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक में चार प्रकार के क्रोध का कथन करना चाहिए। [3] एवं माणेण वि मायाए विलोभेण वि चत्तारि दंडया / {963-3] क्रोध के समान ही मान के, माया के और लोभ के (अाभोगनिर्वतित आदि) चार-चार भेद होते हैं तथा (नारकों से लेकर वैमानिकों तक में) मान, माया और लोभ के भी ये ही चार-चार भेद (दण्डक) समझने चाहिए। विवेचन-क्रोध प्रादि कषायों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 962, 963) में क्रोध आदि कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार भेद करके समस्त संसारी जीवों में उनके पाए जाने का निरूपण किया गया है तथा क्रोध आदि कषायों के प्रकारान्तर से आभोगनिवर्तित आदि चार प्रभेदों और समस्त संसारी जीवों में उनके सद्भाव की प्ररूपणा की गई है। अनन्तानुबन्धी प्रादि चारों को परिभाषा-इन चारों कषायों के शब्दार्थों का विचार कर्मप्रकृतिपद में किया जाएगा। यहाँ चारों की परिभाषा दी जाती है-अनन्तानुबन्धी सम्यक्त्व गुणविघातक, अप्रत्याख्यान -देशविरतिगुण विघाती, प्रत्याख्यानावरण-सर्वविरतिगुणविघाती और संज्वलन-यथाख्यातचारित्रविघातक / प्राभोगनिवतित प्रादि चारों प्रकार के क्रोधादि की व्याख्या-पाभोगनिर्वतित (उपयोगपूर्वक उत्पन्न हुमा) क्रोध-जब दूसरे के अपराध को जान कर और क्रोध के पुष्ट कारण का अवलम्बन लेकर तथा प्रकारान्तर से इसे शिक्षा नहीं मिल सकती, इस प्रकार का उपयोग (विचार) करके कोई क्रोध करता है, तब वह क्रोध प्राभोगनिर्वतित (विचारपूर्वक उत्पन्न) कहलाता है / अनाभोगनिर्वर्तित क्रोध-(बिना उपयोग उत्पन्न हुआ)--जब यों ही साधारणरूप से मोहवश गुण-दोष की विचारणा से शून्य पराधीन बना हुआ जीव क्रोध करता है, तब वह क्रोध प्रनामोगनिर्वतित कहलाता है। उपशान्त क्रोध-जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त न हो, वह 'उपशान्त' कहलाता है। अनुपशान्त क्रोध-जो क्रोध उदयावस्था को प्राप्त हो, वह 'अनुपशान्त' कहलाता है।' कषायों से अष्ट कर्मप्रकृतियों के चयादि की प्ररूपणा--- 664. [1] जीवा गं भंते ! कतिहि ठाणेहि अट्ट कम्मपगडीनो चिणिसु ? गोयमा ! चहि ठाणेहि अट्ठ कम्मपगडीयो चिणिसु / तं जहा–कोहेणं 1 माणेणं 2 मायाए 3 लोभेणं 4 / [964-1 प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों (स्थानों) से आठ कर्मप्रकृतियों का चय किया ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 291 Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] [प्रज्ञापनासून [964-1 उ.] गौतम ! चार कारणों से जीवों ने आठ कर्मप्रकृतियों का चय किया / वे इस प्रकार हैं-१. क्रोध से, 2. मान से, 3. माया से और 4. लोभ से / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [964-2] इसी प्रकार की प्ररूपणा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के विषय में समझनी चाहिए। 665. [1] जोवा णं भंते ! कतिहि ठाणेहिं अट्ट कम्मपगडीमो चिणंति ? गोयमा ! चहिं ठाणेहिं / तं जहा–कोहेणं 1 माणेणं 2 मायाए 3 लोमेणं 4 / |965-1 प्र.] भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करते हैं ? [965-1 उ.] गौतम ! चार कारणों से जीव पाठ कर्मप्रकृतियों का चय करते हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) क्रोध से, (2) मान से, (3) माया से और (4) लोभ से / [2] एवं रइया जाव वेमाणिया। [665-2J इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक के (विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए।) 666. [1] जीवा णं भंते ! कहि ठाणेहि अट्ट कम्भपगडीयो चिणिस्संति ? गोयमा ! चहि ठाहिं अट्ठ कम्मपगडीयो चिणिस्संति / तं जहा--कोहेणं 1 माणेणं 2 मायाए 3 लोभेणं 4 / [966-1 प्र.] भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का चय करेंगे ? [966-1 उ.] गौतम ! चार कारणों से जीव पाठ कर्मप्रकृतियों का चय करेंगे। वे इस प्रकार हैं- (1) क्रोध से, (2) मान से, (3) माया से और (4) लोभ से / [2] एवं रइया जाव वेमाणिया / [966-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के (विषय में प्ररूपणा करनी चाहिए।) 667. [1] जोवा णं भंते ! कइहि ठाणेहि अटु कम्मपगडोश्रो उचिणिसु / गोयमा ! चरहिं ठाणेहि अट्ठ कम्मपगडीओ उचिणिसु / तं जहा-कोहेणं 1 माणेणं 2 मायाए 3 लोभेणं 4 / [967-1 प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय किया है ? [667-1 उ.] गौतम! जीवों ने चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय किया है। वे इस प्रकार हैं-(१) क्रोध से, (2) मान से, (3) माया से और (4) लोभ से / / [2] एवं रइया जाव वेमाणिया / [967-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक के (विषय में समझना चाहिए)। Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौदहवां कषायपद ] [ 143 668, [1] जोवा णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! चहि ठाणेहि उचिणंति-कोहेणं 1 जाव लोमेणं 4 / [968-1 प्र. भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों का उपचय करते हैं ? [968-1 उ.] गौतम ! चार कारणों से जीव पाठ कर्मप्रकृतियों का उपचय करते हैं। वे इस प्रकार हैं (1) क्रोध से, (2) मान से, (3) माया से और (4) लोभ से / [2] एवं रतिया जाव वेमाणिया। [968-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (के विषय में कहना चाहिए।) ___666. एवं उवचिणिस्संति / [969] इसी प्रकार (पूर्वोक्त चार कारणों से जीव पाठ कर्मप्रकृतियों का) उपचय करेंगे, (यह कहना चाहिये। 670. जोवा णं भंते ! कहि ठाणेहि अट्ट कम्मपगडीओ बंधिस्तु 3 ? गोयमा ! चहि ठाणेहिं / तं जहा-कोहेणं 1 जाव लोभेणं 4 / [970 प्र.] भगवन् ! जीवों ने कितने कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों को बांधा है ?, बांधते हैं, बांधेगे ? [970 उ.] गौतम ! चार कारणों से जोवों ने आठ कर्मप्रकृतियों को बांधा है, बांधते हैं और बांधेगे / वे इस प्रकार हैं--क्रोध से यावत् लोभ से / 971. एवं रइया जाव वेमाणिया बंधेसु बंधति बंधिस्संति, उदोरेंसु उदीरंति उदोरिस्संति, वेइंसु वेएंति वेइस्संति, निज्जरेंसु निजरिति णिज्जरिस्संति / एवं एते जोवाईया वेमाणियपज्जवसाणा प्रहारस दंडगा जाव वेमाणिया णिरिसु णिज्जरंति णिज्जरिस्संति / प्रायपइट्टिय खेत्तं पडुच्चऽणंताणबंधि प्राभोगे। चिण उचिण बंध उईर वेय तह निज्जरा चेव // 201 / / ॥पण्णवणाए भगवतीए चोद्दसमं कसायपयं समत्तं // [971] इसी प्रकार नैरयिकों से वैमानिकों तक के (जीवों ने) (पूर्वोक्त चार कारणों से आठ कर्मप्रकृतियों को) बांधा, बांधते हैं और बांधेगे; उदीरणा को, उदीरणा करते हैं और उदीरणा करेंगे तथा वेदन किया (भोगा), वेदन करते (भोगते) हैं और वेदन करेंगे (भोगेंगे), (इसी प्रकार) निर्जरा की, निर्जरा करते हैं और निर्जरा करेंगे। ___ इस प्रकार समुच्चय जीवों तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिकों पर्यन्त आठ कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदन एवं निर्जरा की अपेक्षा से छह तीनों (भूत, वर्तमान एवं भविष्य) काल के तीन-तीन भेद के कुल अठारह दण्डक (पालापक) यावत् वैमानिकों ने निर्जरा की, निर्जरा करते हैं तथा निर्जरा करेंगे, (यहाँ तक कहने चाहिए / ) Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [प्रज्ञापनासूत्र [संग्रहणी गाथार्थ-] (प्रस्तुत प्रकरण में) आत्मप्रतिष्ठित क्षेत्र की अपेक्षा से, अनन्तानुबन्धी (प्रादि कषाय), प्राभोग (निर्वर्तित आदि-कषाय), अष्ट कर्मप्रकृतियों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना तथा निर्जरा (का कथन किया गया है / ) विवेचन-जीवों के द्वारा अष्टविध कर्मप्रकृतियों के चयादि के कारणभूत चार कषायों का निरूपण-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 964 से 671 तक) में समुच्चय जीवों तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीवों द्वारा आठ कर्मप्रकृतियों के कालिक चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा के कारणभूत चारों कषायों की पृथक-पृथक् प्ररूपणा की गई है / निष्कर्ष-भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालों में समुच्चय जीव तथा नारकों से लेकर वैमानिकों तक चौबीस दण्डकों के जीवों द्वारा क्रोध, मान, माया और लोभ के कारण आठ कर्मप्रकृतियों का चय, उपचय, बन्ध, उदोरणा, वेदना और निर्जरा की गई है, की जाती है और की जाएगी। चय, उपचय प्रादि शब्दों को शास्त्रीय परिभाषा-चय-कषायपरिणत होकर जीव द्वारा कर्मयोग्य पुद्गलों का उपादान (ग्रहण) करना / उपचय-अपने अबाधाकाल के उपरान्त ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म-पुद्गलों के वेदन (भोगने) के लिए निषेक (कर्म-पुद्गलों की रचना) करना / निषेक रचना को कहते हैं / उसका क्रम इस प्रकार है-प्रथम स्थिति में सबसे अधिक द्रव्य, दूसरी स्थिति में विशेषहीन, तीसरी स्थिति में उसकी अपेक्षा भी विशेषहीन, इस प्रकार उत्तरोत्तर विशेषहीन-विशेषहीन कर्मपुद्गल वेदन के लिए स्थापित किए जाते हैं। बन्ध-जिन ज्ञानावरणीयादि कर्म-पुद्गलों को यथोक्तप्रकार से निषिक्त किया है, उनका विशिष्ट कषायपरिणति से निकाचन होना बन्ध कहलाता है। उदीरणा-कर्म अभी उदय में नहीं आए हैं, उन्हें उदीरणाकरण के द्वारा जो उदयावलिका में ले पाना। वेदना-अबाधाकाल समाप्त होने पर उदयप्राप्त या उदीरित करके-उदीरणा करके कर्म का उपभोग करना (भोग लेना) वेदना कहलाता है। निर्जरा-कर्मपुद्गलों का बेदन (भोग) के पश्चात्. अकर्मरूप में हो जाना अर्थात् आत्मप्रदेशों से झड़ जाना / प्रस्तुत प्रकरण में देशनिर्जरा का कथन किया गया है। सर्वनिर्जरा तो कषाय से रहित होकर योगों का सर्वथा निरोध करके मोक्षप्रासाद पर आरूढ़ होने वाले को होती है / देशनिर्जरा सभी जीव सदैव करते रहते हैं।' // प्रज्ञापनासूत्र : चौदहवाँ कषायपद समाप्त / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 292 Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरसमं इंदियपयं : पढमो उद्देसओ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद है। * इन्द्रियां आत्मा को पहचानने के लिए लिंग हैं, इन्हीं से आत्मा के अस्तित्व की प्रतीति होती है। * इस पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में सभी पहलुओं से विश्लेषण किया गया है। इसके दो उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में प्रारम्भ में निरूपणोय 24 द्वारों का कथन किया गया है / द्वितीय उद्देशक में 12 द्वारों के माध्यम से इन्द्रियों की प्ररूपणा की गई है। प्रथम उद्देशक में संस्थान से लेकर अल्पबहत्व तक 6 द्वारों की चर्चा करके उनका 24 दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया गया है / तत्पश्चात् सातवें स्पृष्टद्वार से विषय नामक नौवें द्वार तक का विवरण प्रस्तुत किया गया है / इन द्वारों में चौवीस दण्डकों की अपेक्षा से विचार नहीं किया गया है, अपितु इन्द्रियों से सम्बन्धित विचार है। इसके अनन्तर अनगार और आहार को लेकर इन्द्रियों का-विशेषत: चक्षुरिन्द्रिय की चर्चा है। तत्पश्चात् बारहवें से अठारहवें द्वार तक अादर्श से लेकर वसा तकद्वारों के माध्यम से विशेषतः चक्षरिन्द्रिय सम्बन्धी प्ररूपणा है। फिर कम्बल, स्थूणा (स्तम्भ), थिग्गल, द्वीपोदधि, लोक और अलोक तक के 6 द्वारों के माध्यम से विशेषतः स्पर्शेन्द्रिय सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। द्वितीय उद्देशक में इन्द्रियों का उपचय, निर्वर्तना, समय, लब्धि, उपयोगकाल, अल्पबहुत्व, अवग्रहण, ईहा, अवाय, व्यंजनावग्रह, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय इन 12 द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय सम्बन्धी स्वरूप एवं प्रकारों की प्ररूपणा करके साथ ही साथ उनका 24 दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया गया है।' उपचय, निर्वर्तना, लब्धि और उपयोग इन चारों का क्रमश: प्रारम्भ की दो का द्रव्येन्दिय में तथा अन्तिम दो का भावेन्द्रिय में समावेश किया गया है। * प्रादर्शद्वार आदि का आशय प्राचार्य मलयगिरि ने दृश्यविषयक माना है / दृश्य चाहे जो हो, जिस विषय का उपयोग या विकल्प आत्मा को होता है, उसे ही दृश्य माना जाए तो प्रतिबिम्ब देखते समय भान, उपयोग या विकल्प तो आदर्श प्रादि-गत प्रतिविम्ब विषयक ही है। निशोथभाष्य आदि में इसको रोचक चर्चा है / * द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय द्वार में 24 दण्डकवर्ती जोवों को प्रतोत, बद्ध (वर्तमान) और अनागत (पुरस्कृत) उभय इन्द्रियों को विस्तृत चर्चा की गई है / 00 1. 'निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्, लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम्' --तत्त्वार्थ. अ. 2, सू. 17-18 2. (क) पण्णवणासुत्तं प्रथम भाग, पृ. 237 से 260 तक . (ख) पण्णवणासुत्तं द्वितीय भाग प्रस्तावना, पृ. 97 से 100 तक (ग) निशीथभाष्य, गा. 4318 प्रादि (घ) तत्वार्थ. सिद्धसेनीया टीका, पृ. 364 Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनरसमं इंदियपयं : पढमो उद्देसओ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में प्ररूपित चौवीस द्वार९७२. संठाण 1 बाहल्लं 2 पोहत्तं 3 कतिपएस 4 प्रोगाढे 5 / प्रप्याबहु 6 पुट्ठ 7 पविट्ठ 8 विसय 6 प्रणगार 10 प्राहारे 11 // 202 / / प्रदाय 12 असी 13 य मणी 14 उडुपाणे 15 तेल्ल 16 फाणिय 17 वसा 18 य / कंबल 16 थूणा 20 थिग्गल 21 दीवोदहि 22 लोगऽलोगे 23-24 य / / 203 // [972 प्रथम उद्देशक की अर्थाधिकार गाथाओं का अर्थ-] 1. संस्थान, 2. बाहल्य (स्थूलता), 3. पृथुत्व (विस्तार), 4. कति-प्रदेश (कितने प्रदेश वाली) 5. अवगाढ़, 6. अल्पबहुत्व, 7. स्पृष्ट, 8. प्रविष्ट, 9. विषय, 10. अनगार, 11. आहार, 12. प्रादर्श (दर्पण), 13. असि (तलवार), 14. मणि, 15. उदपान (या दुग्धपानक), 16. तैल, 17. फाणित (गुड़राब), 18. बसा (चर्बी), 19. कम्बल, 20. स्थूणा (स्तूप या ठूठ), 21. थिग्गल (आकाश थिग्गल-पैबन्द), 22. द्वीप, और उदधि, 23. लोक और 24. अलोक ; इन चौवीस द्वारों के माध्यम से इन्द्रिय-सम्बन्धी प्ररूपणा की जाएगी / / 202-203 / / विवेचन-प्रथम उद्देशक में प्ररूपित चौवीस द्वार-प्रस्तुत दो गाथाओं के द्वारा प्रथम उद्देशक में प्ररूपित इन्द्रिय-सम्बन्धी चौवीस द्वारों का नामोल्लेख किया गया है। चौबीस द्वारों का स्पष्टीकरण-(१) संस्थानद्वार-इसमें इन्द्रियों के संस्थान-प्राकार की प्ररूपणा है, (2) बाहल्यद्वार--इसमें इन्द्रियों की स्थूलता (बहलता) यानी पिण्ड-रूपता का वर्णन है, (3) पृथत्व द्वार-इसमें इन्द्रियों के विस्तार का निरूपण है, (4) कति-प्रदेशद्वार-इसमें बताया गया है कि किस इन्द्रिय के कितने प्रदेश हैं, (5) प्रवगाढवार-इसमें यह वर्णन है कि कौन-सी इन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ़ है। (6) अल्पबहुत्वद्वार---इसमें अवगाहनासम्बन्धी और कर्कशता सम्बन्धी अल्पबहुत्व का प्रतिपादन है, (7) स्पृष्टद्वार-इसमें स्पृष्ट-अस्पृष्ट विषयक प्ररूपणा है, (8) प्रविष्टद्वार-इसमें प्रविष्ट-अप्रविष्ट सम्बन्धी चर्चा है, (9) विषयद्वार-इसमें विषयों के परिमाण का वर्णन है, (10) अनगारद्वार-इसमें अनगार से सम्बन्धित सूत्र हैं, (11) प्राहारद्वार-- इसमें प्राहारविषयक सूत्र हैं, (12) प्रादर्शद्वार-इसमें दर्पणविषयक निरूपण है, (13) असिद्वारइसमें असि-सम्बन्धित प्ररूपणा है, (14) मणिद्वार-मणिविषयक वक्तव्य, (15) उदपानद्वारउदकपान अथवा उडुपानविषयक प्ररूपणा (अथवा दुग्ध और पानविषयक प्ररूपणा), (16) तैलद्वार-इसमें तैलविषयक वक्तव्य है, (17) फाणितद्वार--इसमें फाणित (गुड़राब) के विषय में 1. अनेक प्रतियों में इसके बदले पाठान्तर है—दुद्धपाणे-जिसमें दुग्ध और पान ये दो द्वार पृथक-पृथक कर दिये गए हैं। किन्तु निशीथसूत्र (उ. 13) के पाठ के अनुसार 'उडुपाणे' पाठ ही प्रामाणिक प्रतीत होता है। 2. कोई-कोई प्राचार्य द्वीप और उदधि, यों दो द्वार मानते हैं। ...... Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक [147 प्ररूपणा है, (18) वसाद्वार-इसमें वसा (चर्बी) के विषय में वर्णन है, (16) कम्बलद्वार-इसमें कम्बलविषयक निरूपण है, (20) स्थूणाद्वार-~-इसमें स्थूणा (स्तुप या ठूठ) से सम्बन्धित निरूपण है, (२१)-थिग्गलद्वार-इसमें आकाशथिग्गल विषयक वर्णन है, (22) द्वीपोदधिद्वार---इसमें द्वीप और समुद्र विषयक प्ररूपणा है, (23) लोकद्वार-लोकविषयक वक्तव्य, और (24) अलोकद्वार-- अलोक सम्बन्धी प्ररूपणा है।' इन्द्रियों की संख्या 973. कति णं भंते ! इंदिया पण्णता? गोयमा ! पंच इंदिया पण्णत्ता। तं जहा-सोइंदिए 1 क्खिदिए 2 घाणिदिए 3 जिभिदिए 4 फासिदिए / [973 प्र. भगवन् ! इन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [973 उ.] गौतम ! पांच इन्द्रियाँ कही हैं / वे इस प्रकार--(१) श्रोत्रेन्द्रिय, (2) चक्षुरिन्द्रिय, (3) घ्राणेन्द्रिय, (4) जिह्वन्द्रिय और (5) स्पर्शेन्द्रिय / विवेचन-इन्द्रियों की संख्या-प्रस्तुत सूत्र में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों की प्ररूपणा की अन्य दार्शनिक मन्तव्य-सांख्यादि दर्शनों में श्रोत्रेन्द्रिय आदि पांच इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय कहा गया है तथा वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु (मूत्रद्वार) और उपस्थ (मलद्वार), इन पांच इन्द्रियों को कर्मेन्द्रिय कहा गया है। किन्तु पांच कर्मेन्द्रियों की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है। जैनदर्शन में द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय के रूप से प्रत्येक के दो-दो भेद तथा द्रव्येन्द्रिय के निर्वृत्ति और उपकरण एवं भावेन्द्रिय के लब्धि और उपयोग रूप दो-दो प्रकार बताये गये हैं। इनका निरूपण इसी पद के द्वितीय उद्देशक में किया जायेगा / प्रथम संस्थानद्वार-- 674. [1] सोइंदिए णं भंते ! किसंठिते पण्णत्ते ? गोयमा ! कलबुयापुप्फसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [974-1 प्र.) भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय किस प्रकार की कही गई है ? [974-1 उ.] गौतम ! (वह) कदम्बपुष्प के आकार की कही गई है। [2] चक्खिदिए णं भंते ! किसंठिए पण्णते ? गोयमा! मसूरचंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते / [974-2 प्र.] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय किस आकार की कही गई है ? {974-2 उ.] गौतम (चक्षुरिन्द्रिय) मसूर-चन्द्र के आकार की कही है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 293 2. (क) सांख्यकारिका, योगदर्शन (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 293 (ग) 'निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्', 'लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम्'-तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 17, 18 Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 [ प्रज्ञापनासून [3] धाणिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! अइमुत्तगचंदसंठाणसंठिए पण्णते। [974-3 प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का आकार किस प्रकार का है ? [974-3 उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) अतिमुक्तकपुष्प के आकार की कही है / [4] जिभिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! खुरप्पसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [974-4 प्र.] भगवन् ! जिह्वन्द्रिय किस प्रकार की है ? [974-4 उ.] गौतम ! (जिह्वन्द्रिय) खुरपे के प्राकार की है / [5] फासिदिए गं पुच्छा। गोयमा ! गाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [974-5 प्र.] भगवन् ! स्पर्शेन्द्रिय का आकार कैसा है ? [974-5 उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय नाना प्रकार के आकार की कही गई है। विवेचन--प्रथम संस्थानद्वार-पांच इन्द्रियों के प्राकार का निरूपण--प्रस्तुत सूत्र में पांचों इन्द्रियों के आकार का निरूपण किया गया है। द्रव्येन्द्रिय का निर्वृत्तिरूप भेद हो संस्थान-प्रत्येक इन्द्रिय के विशिष्ट और विभिन्न संस्थानविशेष (रचनाविशेष) को निर्वृति कहते हैं / वह निर्वति भी दो प्रकार की होती है--बाह्य और प्राभ्यन्तर / बाह्य निर्वृति पर्पटिका आदि है / वह विविध---विचित्र प्रकार की होती है / अतएव उसको किसी एक नियत रूप में नहीं कहा जा सकता। उदाहरणार्थ-मनुष्य के श्रोत्र (कान) दोनों नेत्रों के दोनों पाश्र्व (बगल) में होते हैं / उसकी भौहें ऊपर के श्रवणबन्ध की अपेक्षा से सम होती हैं, किन्तु घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीक्ष्ण होते हैं। इस जातिभेद से इन्द्रियों की बाह्य निर्वृत्ति (रचना या आकृति) नाना प्रकार की होती है, किन्तु इन्द्रियों की प्रा र-निर्वत्ति सभी जीवों की समान होती है। यहाँ संस्थानादिविषयक प्ररूपणा इसी आभ्यन्तरनिर्वृत्ति को लेकर की गई है। केवल स्पर्शेन्द्रिय-निवृत्ति के बाह्य और आभ्यन्तर भेद नहीं करने चाहिए। वृत्तिकार ने स्पर्शेन्द्रिय को बाह्य संस्थानविषयक बताकर उसकी व्याख्या इस प्रकार की है- बाह्यनिर्वृत्तिखङ्ग के समान है और तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गलसमूहरूप आभ्यन्तरनिर्वृति है। द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पृथुत्वद्वार--- 675. [1] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं बाहल्लेणं पण्णते? गोयमा ! अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते / [975-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का बाहल्य (जाडाई-मोटाई) कितना कहा गया है ? [975-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय का) बाहल्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा गया है। Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [ 149 [2] एवं जाव फासिदिए / [975-2] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय के बाहल्य के विषय में समझना चाहिए। 676. [1] सोइंदिए णं भंते ! केवतियं पोहत्तेणं पण्णत्ते। गोयमा ! अंगुलस्य असंखेज्जति भागं पोहत्तेणं पण्णत्ते। [976-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितनी पृथु = विशाल (विस्तारवाली) कही गई है ? [976-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण पृथु-विशाल कही है। [2] एवं चक्खिदिए वि धाणिदिए वि / [976-2] इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय (को पृथता-विशालता) के विषय में (समझना चाहिए)। [3] जिभिदिए णं पुच्छा। गोयमा ! अंगुलपुहत्तं पोहत्तेणं पण्णत्ते। [976-3 प्र.] भगवन् ! जिह्वन्द्रिय कितनी पृथु (विस्तृत) कही गई है ? [976-3 उ.] गौतम ! जिहन्द्रिय अंगुल-पृथक्त्व (दो अंगुल से नौ अंगुल तक) विशाल (विस्तृत) है। [4] फासिदिए गं पुच्छा। गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते पोहत्तेणं पण्णत्ते। [676-4 प्र.] भगवन् ! स्पर्शेन्द्रिय के पृथत्व (विस्तार) के विषय में पृच्छा (का समाधान क्या है ?) [976-4 उ.] गौतम ! स्पर्शेन्द्रिय शरीरप्रमाण पृथु (विशाल) कही है। विवेचन-द्वितीय-तृतीय बाहल्य-पथुत्वद्वार--प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 175-976) में दो द्वारों के माध्यम से पांचों इन्द्रियों के बाहल्य (स्थूलता) एवं पृथुत्व (विस्तार) का प्रमाण प्रतिपादित किया गया है। सभी इन्द्रियों का बाहल्य समान क्यों ?--बाहल्य की अपेक्षा से सभी इन्द्रियाँ अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं / इस विषय में एक शंका है कि 'यदि स्पर्शेन्द्रिय का बाहल्य (स्थूलता) अंगुल का असंख्यातवाँ भाग प्रमाण है तो तलवार, छुरी आदि का प्राधात लगने पर शरीर के अन्दर वेदना का अनुभव क्यों होता है ?' इसका समाधान यह है कि जैसे चक्षुरिन्द्रिय का विषय रूप है, घ्राणेन्द्रिय का विषय गन्ध है, वैसे ही स्पर्शेन्द्रिय का विषय शीत आदि स्पर्श है; किन्तु जब तलवार और छुरी आदि का आघात लगता है, तब शरीर में शीत आदि स्पर्श का वेदन नहीं होता, अपितु दुःख का वेदन होता है / दुःखरूप उस वेदन को आत्मा समग्र शरीर से अनुभव करती है, केवल स्पर्शेन्द्रिय से नहीं / जैसे-ज्वर आदि का वेदन सम्पूर्ण शरीर में होता है / शीतलपेय (ठंडे शर्बत आदि) के पीने Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15.] [प्रज्ञापनासूत्र से जो भीतर में (शरीर में) शीतस्पर्शवेदन का अनुभव होता है, उसका कारण यह है कि स्पर्शेन्द्रिय सर्वप्रदेशपर्यन्तवर्ती होती है। इसलिए त्वचा के अन्दर तथा खाली जगह के ऊपर भी स्पर्शेन्द्रिय का सद्भाव होने से शरीर के अन्दर शीतस्पर्श का अनुभव होना युक्तियुक्त है।' इन्द्रियों का पृथुत्व-जिह्वेन्द्विय के सिवाय शेष चारों इन्द्रियों का पृथुत्व (विशालता= विस्तार) अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। जिह्वन्द्रिय का पृथुत्व अंगुलपृथक्त्वप्रमाण है, किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि स्पर्शेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियों का पृथुत्व (विस्तार) प्रात्मांगुल से समझना चाहिए। केवल स्पर्शेन्द्रिय का पथत्व उत्सेधांगूल से जानना चाहिए। चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं श्रवगाढद्वार 977. [1] सोइंदिए णं भंते ! कतिपएसिए पण्णते ? गोयमा ! अणंतपएसिए पण्णत्ते। [977-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेश वाली कही गई है ? [977-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) अनन्त-प्रदेशी कही गई है / [2] एवं जाव फासिदिए / [977-2] इसी प्रकार यावत् स्पर्शेन्द्रिय (के प्रदेशों के सम्बन्ध में कहना चाहिए। 678. [1] सोइंदिए णं भंते ! कतिपएसोगाढे पण्णते? गोयमा! असंखेज्जपएसोगाढे पण्णते / [978-1 प्र. भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ कही गई है ? [978-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ कही है / [2] एवं जाव फासिदिए / [978-2] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय तक के विषय में कहना चाहिए। विवेचन--चतुर्थ-पंचम कतिप्रदेशद्वार एवं अवगाढद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 977-978) में बताया गया है कि कौन-सी इन्द्रिय कितने प्रदेशों वाली है तथा कितने प्रदेशों में अवगाढ है ? अवगाहनादि की दृष्टि से अल्पबहुत्वद्वार-- 676. एएसि णं भंते ! सोइंदिय-चविखदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाणं प्रोगाहणटुयाए पएसट्टयाए प्रोगाहणपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सम्वत्थोवे चविखदिए प्रोगाहणट्ठयाए सोइदिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे, घाणिदिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे, जिमिदिए प्रोगाहणट्टयाए असंखेज्जगुणे, फासिदिए ओगाहणट्ठ१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 294 . 2. बही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 294 Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्जियपद : प्रथम उद्देशक] [ 151 याए संखेज्जगुणे; पदेसट्टयाए–सम्वत्थोवे चक्खिदिए पदेसट्ठयाए, सोइंदिए पदेसट्टयाए संखेज्जगुणे, घाणिदिए पएसट्टयाए संखेज्जगुणे, जिभिदिए पएसट्टयाए प्रसंखेज्जगुणे, फासिदिए पएसट्ठयाए संखेज्जगुणे; योगाहणपएसट्टयाए-सव्वत्थोवे चविखदिए प्रोगाहणट्टयाए, सोइंदिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे, घाणिदिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे, जिभिदिए प्रोगाहणट्ठयाए असंखेज्जगुणे, फासिदिए प्रोगाहणट्ठयाए संखेज्जगुणे, फासिदियस्स प्रोगाहणट्टयाएहितो चविखदिए पएसट्टयाए अणंतगुणे, सोइंदिए पएसट्ठयाए संखेज्जगुणे, घाणिदिए पएसटुयाए संखेज्जगुणे, जिभिदिए पएसट्टयाए असंखेज्जगुणे, फासिदिए पएसट्टयाए संखेज्जगुणे / _ [979 प्र.] भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में से अवगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [979 उ.] गौतम ! अवगाहना की अपेक्षा से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे)जिह्वन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से असंख्यातगुणी है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की दृष्टि से संख्यातगुणी है / प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणी है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है / अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम अवगाहना की दृष्टि से 'चक्षुरिन्द्रिय है, (उससे) अवगाहना की अपेक्षा से श्रोत्रेन्द्रिय संख्यातगुणी है, (उससे) नाणेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिह्वन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से असंख्यातगुणी है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहनार्थता से चक्षुरिन्द्रिय प्रदेशार्थता से अनन्तगुणी है, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है, (उससे) जिहन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगणी है, (उससे) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है / 980. [1] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिया कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता / [980-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश और गुरु गुण कितने कहे गए हैं ? [980-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय के) अनन्त कर्कश और गुरु गुण कहे गए हैं। [2] एवं जाव फासिदियस्स / [980-2] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शनेन्द्रिय (तक के कर्कश और गुरु गुण के विषय में कहना चाहिए / ) 681. [1] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिया मउयलहुयगुणा पण्णता ? गोयमा ! अणंता मउयलहुयगणा पण्णत्ता। Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] [प्रज्ञापनासूत्र [981-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय के मदु और लघु गुण कितने कहे गए हैं ? [981-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय के) मृदु-लघु-गुण अनन्त कहे गए हैं। [2] एवं जाव फासिदियस्स। [981-2] इसी प्रकार (चक्षुरिन्द्रिय से लेकर) यावत् स्पर्शनेन्द्रिय (तक के मृदु-लघु-गुण के विषय में कहना चाहिए।) 182. एतेसि णं भंते ! सोइंदिय-क्खिदिय-धाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाणं फक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाणं कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सब्वत्थोवा चक्खिदियस्स कक्खडगरुयगुणा, सोइंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, घाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणतगुणा, जिभिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा; मउयलहुयगुणाणं-सव्वत्थोवा फासिदियस्स मउयलहुयगुणा, जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, घाणिदियस्स मउयलहुयगुणा अणतगुणा, सोइंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, चक्खिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगणा; कक्खडगरुयगुणाणं मउयलहुयगुणाण य-- सम्वत्थोवा चक्खिदियस्स कक्खडगरुयगुणा, सोइंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, घाणिदियस्स कक्खडगरुयगुणा, अणंतगुणा, जिभिदियस्स कक्खडगरुयगुणा प्रणंतगुणा, फासिदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासिदियस्स कक्खडगरुयगुणहितो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, जिम्भिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, घाणिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, सोइंदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, चक्खिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा / [982 प्र.] भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुणों और मृदु-लघु-गुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [982 उ.] गौतम ! सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण हैं, (उससे) श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जिह्वन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं (और उनसे) स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु-गुण अनन्तगुणे हैं। मृदु-लघु गुणों में से सबसे थोड़े स्पर्शनेन्द्रिय के मृदु-लवु गुण हैं, (उनसे) जिह्वन्द्रिय के मृदु-लघु गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के मृदु-लघु गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के मदु-लघु गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) चक्षुरिन्द्रिय के मृदु-लघु गुण अनन्तगुणे हैं / कर्कश-गुरु गुणों और मृदु-लघु गुणों में से सबसे कम चक्षुरिन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जिह्वन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) स्पर्शेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण अनन्तगुणे हैं / स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कशगुरु-गुणों से उसी के मदु-लघु-गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जिह्वन्द्रिय के मृदु-लघु-गुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) घ्राणेन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं, (उनसे) श्रोत्रेन्द्रिय के मृदु-लघु-गुण अनन्तगुणे हैं, (और उनसे भी) चक्षुरिन्द्रिय के मदु-लघु-गुण अनन्तगुणे हैं / विवेचन-इन्द्रियों के अवगाहना-प्रदेश, कर्कश-गुरु तथा मृदु-लघुगुण आदि की अपेक्षा से Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रेयम उद्देशक] [ 153 अल्पबहुत्व—प्रस्तुत चार सूत्रों में इन्द्रियों के अवगाहना, प्रदेश एवं अवगाहना-प्रदेश की अपेक्षा से तथा इन्द्रियों के कर्कश-गुरु एवं मृदु-लघु गुणों में अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। अवगाहना की दृष्टि से अल्पबहुत्व-अवगाहना की दृष्टि से सबसे कम प्रदेशों में अवगाढ़ चक्षुरिन्द्रिय है, उससे श्रोत्रेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह चक्षुरिन्द्रिय की अपेक्षा अत्यधिक प्रदेशों में अवगाढ़ है। उसकी अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय की अवगाहना संख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह और भी अधिक प्रदेशों में अवगाढ़ है। उससे जिह्वन्द्रिय अवगाहना की दृष्टि से असंख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि जिह्वन्द्रिय का विस्तार अंगुलपृथक्त्व-प्रमाण है, जबकि पूर्वोक्त चक्षु आदि तीन इन्द्रियाँ, प्रत्येक अंगल के असंख्यातवें भाग विस्तार वाली हैं। जिह्वन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक ही संगत होती है, असंख्यातगुणी अधिक नहीं, क्योंकि जिह्वन्द्रिय का विस्तार अंगुलपृथक्त्व-(दो अंगुल से नौ अंगुल तक) का होता है, जबकि स्पर्शनेन्द्रिय शरीर-परिमाण है। शरीर अधिक से अधिक बड़ा लक्ष योजन तक का हो सकता है। ऐसी स्थिति में वह कैसे असंख्यातगुणी अधिक हो सकती है ? अतएव जिह्वेन्द्रिय से स्पर्शनेन्द्रिय को संख्यातगुणा अधिक कहना ही युक्तिसंगत है। इसी क्रम से प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से उपर्युक्त युक्ति के अनुसार अल्पबहुत्व की प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। इन्द्रियों के कर्कश-गुरु और मृदु-लघु गुणों का अल्पबहुत्व-पांचों इन्द्रियों में कर्कशता तथा मदता एवं गुरुता तथा लघता गण विद्यमान हैं। उनका अल्पबहत्व यहाँ प्ररूपित है। चक्ष, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा और स्पर्शनेन्द्रियाँ अनुक्रम से कर्कश-गुरु-गुण में अनन्त-अनन्तगुणी अधिक हैं। इन्हीं इन्द्रियों के मृदु-लघुगुण पश्चानुक्रम से अनन्त-अनन्तगुणे अधिक बतलाए गए हैं / कर्कश-गुरुगुणों और मदु-लघुगुणों के युगपद् अल्पबहुत्व-विचार में स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी के मदु-लघुगुण अनन्तगुणे बताए हैं, उसका कारण यह है कि शरीर में कुछ ही ऊपरी प्रदेश शीत, आतप आदि के सम्पर्क से कर्कश होते हैं, तदन्तर्गत बहुत-से अन्य प्रदेश तो मृदु हो रहते हैं / अतएव स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कशगुरुगुणों की अपेक्षा से उसके मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे अधिक होते हैं।' चौवीस दण्डकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा 983. [1] गेरइयाणं भंते ! कइ इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा | पंचेंदिया पण्णता / तं जहा–सोइंदिए जाव फासिदिए / [983-1 प्र.] भगवन् ! नैरथिकों के कितनी इन्द्रियाँ कही हैं ? [983-1 उ.] गौतम ! (उनके) पांच इन्द्रियाँ कही हैं / वे इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रिय से लेकर यावत् स्पर्शनेन्द्रिय तक / [2] गैरइयाणं भंते ! सोइंदिए किसंठिए पणते ? गोयमा ! कलंबुयासंठाणसंठिए पग्णत्ते। एवं जहेब प्रोहियाणं वत्तव्बया भणिया (सु. 974 तः 982) तहेव रइयाणं पि जाव अप्पाबहुयाणि दोणि वि। णवरं रइयाणं भंते ! फासिदिए किसंठिए पण्णते? 1. प्रजापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 296 Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [प्रज्ञापनासून गोयमा ! विहे पण्णत्ते / तं जहा-भवधारणिज्जे य उत्तरवेउब्धिए य, तस्य जे से भवधारणिज्जे से गं हुंडसंठाणसंठिए पग्णत्ते, तत्य णं जे से उत्तरवेउन्धिए से वि तहेव / सेसं तं चेव / [983-2 प्र.भगवन् ! नारकों की श्रोत्रेन्द्रिय किस प्रकार की होती है ? [983-2 उ.] गौतम ! (उनकी श्रोत्रेन्द्रिय) कदम्बपुष्प के आकार की होती है / इसी प्रकार जैसे समुच्चय जीवों की पंचेन्द्रियों को वक्तव्यता कही है, वैसी ही नारकों की संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, कतिप्रदेश, अवगाढ़ और अल्पबहुत्व, इन छह द्वारों की भी वक्तव्यता कहनी चाहिए। विशेष यह है कि नैरयिकों को स्पर्शनेन्द्रिय किस प्रकार की कही गई है ? (इस प्रश्न के उत्तर में इस प्रकार कहा गया है--) गौतम ! नारकों की स्पर्शनेन्द्रिय दो प्रकार की कही गई है, यथा-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें से जो भवधारणीय (स्पर्शनेन्द्रिय) है, वह हुण्डकसंस्थान की है और उनमें जो उत्तरवैक्रिय स्पर्शनेन्द्रिय है, वह भी हुण्डकसंस्थान की है। शेष (सब प्ररूपणा पूर्ववत् समझनी चाहिए।) 984. असुरकुमाराणं भंते ! कति इंदिया पण्णता ? गोयमा ! पंचेंदिया पण्णत्ता। एवं जहा प्रोहियाणं (973 तः 682) जाव अप्पाबहुयाणि दोण्णि वि / णवरं फासें दिए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–भवधारणिज्जे य उत्तरवेउविए य / तत्थ गं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से उत्तरवेउब्धिए से णं गाणा. संठाणसंठिए पण्णते / सेसं तं चेव / एवं जाव थणियकुमाराणं। [984 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [984 उ.] गौतम ! (उनके) पांच इन्द्रियाँ कही हैं / इसी प्रकार जैसे (सू. 673 से 982 तक में) समुच्चय (ौधिक) जीवों (के इन्द्रियों के संस्थान से लेकर दोनों प्रकार के अल्पबहुत्व तक) की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार असुरकुमारों की इन्द्रियसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह है कि (इनकी) स्पर्शनेन्द्रिय दो प्रकार की कही है, यथा--भवधारणीय (स्पर्शनेन्द्रिय) समचतुरस्त्रसंस्थान वाली है और उत्तरवैक्रिय (स्पर्शनेन्द्रिय) नाना संस्थान वाली होती है। इसी प्रकार की (इन्द्रियसम्बन्धी) वक्तव्यता नागकुमार से लेकर स्तनितकुमारों तक की (समझ लेनी चाहिए।) 985. [1] पुढविकाइयाणं भंते !. कति इंदिया पण्णता? गोयमा! एगे फासिदिए पण्णते। [985-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [985-1 उ.] गौतम ! (उनके) एक स्पर्शनेन्द्रिय (ही) कही है। [2] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए फिसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! मसूरचंदसंठिए पण्णत्ते। [985-2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय किस आकार (संस्थान) की कही [985-2 उ.] गौतम ! (उनकी स्पर्शनेन्द्रिय) मसूर-चन्द्र के प्रकार की कही है। Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक [155 [3] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए केवतियं बाहल्लेणं पण्णते ? गोयमा ! अंगुलस्स प्रसंखेज्जइभागं बाहल्लेणं पण्णत्ते / [985-3 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय का बाहल्य (स्थूलता) कितना कहा गया है ? [685-3 उ.] गौतम ! (उसका) बाहल्य अंगुल से असंख्यातवें भाग (-प्रमाण) कहा है / [4] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए केवतियं पोहत्तणं पण्णते ? गोयमा ! सरोरपमाणमेत्ते पोहत्तेणं पण्णत्ते। {985-4 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय का पृथुत्व (विस्तार) कितना कहा गया है ? [985-4] गौतम ! (उनकी स्पर्शनेन्द्रिय का) विस्तार उनके शरीरप्रमाणमात्र है। [5] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए कतिपएसिए पण्णते? गोयमा ! अणंतपएसिए पण्णत्ते। [985-5 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों को स्पर्शनेन्द्रिय कितने प्रदेशों की कही हैं ? [985-5 उ.] गौतम ! अनन्तप्रदेशी कही गई है / [6] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदिए कतिपएसोगाढे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढे पण्णत्ते / [985.6 प्र.) भगवन् ! पृथ्वीकायिकों को स्पर्शनेन्द्रिय कितने प्रदेशों में अवगाढ़ कही है ? [985-6 उ.] गौतम ! असंख्यातप्रदेशों में अवगाढ़ कही है। [7] एतेसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं फासिदियस्स प्रोगाहण-पएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवे पुढविकाइयाणं फासिदिए प्रोगाहणट्टयाए. से चेव पएसटुयाए प्रणतगुणे। [985-7 प्र.] भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों को स्पर्शनेन्द्रिय, अवगाहना की अपेक्षा और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [985-7 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा सबसे कम है, प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणी (अधिक) है / [8] पुढविकाइयाणं भंते ! फासिदियस्स केवतिया कक्खडगरुयगुणा पण्णता? गोयमा ! अणंता / एवं मउयलहुयगुणा वि / [985.8 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों को स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण कितने कहे गए हैं ? Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] प्रज्ञापनासूत्र [985-8 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त कहे हैं। इसी प्रकार (उसके) मृदु-लघु गुणों के विषय में भी समझना चाहिए। [] एतेसि णं भंते ! पुढविकाइयाणं फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाणं कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पुढविकाइयाणं फार्से दियस्स कक्खडगरुयगुणा, तस्स चेव मउयलहुयगुणा प्रणंतगुणा / [985-6 प्र.] भगवन् ! इन पृथ्वीकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुणों और मृदुलघु गुणों में से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [985-9 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों के स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश और गुरु गुण सबसे कम हैं, (उनकी अपेक्षा) मृदु तथा लघु गुण अनन्तगुणे हैं / 186. एवं प्राउकाइयाण विजाव वणप्फइकाइयाणं / णवरं संठाणे इमो विसेसो दृढम्वोप्राउकाइयाणं थिबुबिदुसंठाणसंठिए पण्णते, तेउकाइयाणं सूईकलावसंठाणसंठिए पण्णत्ते, बाउक्काइयाणं पडागासंठाणसंठिए पण्णत्ते, वणफइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [986] पृथ्वीकायिकों (के स्पर्शनेन्द्रिय संस्थान के बाहल्य आदि) की (सू. 985-1 से 9 तक में उल्लिखित) वक्तव्यता के समान अप्कायिकों से लेकर (तेजस्कायिक, वायुकायिक और) यावत् वनस्पतिकायिकों तक (के स्पर्शनेन्द्रियसम्बन्धी संस्थान, बाहय आदि) की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए; किन्तु इनके संस्थान के विषय में यह विशेषता समझ लेनी चाहिए—अप्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय (जल) विन्दु के आकार की कही है, तेजस्कायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय सूचीकलाप (सूइयों के ढेर) के आकार की कही है, वायुकायिकों की स्पर्शनेन्द्रिय पताका के आकार की कही है तथा वनस्पतिकायिकों को स्पर्शनेन्द्रिय का प्राकार नाना प्रकार का कहा गया है। 18. [1] बेइंदियाणं भंते ! कति इंदिया पण्णत्ता। गोयमा ! दो इंदिया पण्णत्ता। तं जहा-जिभिदिए य फासिदिए य / दोण्हं पि इंदियाणं संठाणं बाहल्लं पोहत्तं पदेसा प्रोगाहणा य जहा प्रोहियाणं भणिया (सु. 974-678) तहा भाणियब्वा / णवरं फासेंदिए हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते ति इमो विसेसो। [987-1 प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? [987-1 उ.] गौतम ! दो इन्द्रियाँ कही गई हैं, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय / दोनों इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश और अवगाहना के विषय में जैसे (सू. 974 से 678 तक में) समुच्चय के संस्थानादि के विषय में कहा है, वैसा कहना चाहिए / विशेषता यह है कि (इनकी) स्पर्शनेन्द्रिय हुण्डकसंस्थान वाली होती है। [2] एतेसि गं भंते ! बेइंदियाणं जिभिदिय-फासेंदियाणं प्रोगाहणटुयाए पएसट्टयाए प्रोगाहणपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा 4 ? Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [ 157 गोयमा ! सव्वत्थोवे बेइंदियाणं जिभिदिए प्रोगाहणद्वयाए, फासें दिए प्रोगाहणट्टयाए संखेज्जगुणे; पएसद्वयाए-सम्वत्थोवे बेइंदियाणं जिभिदिए पएसट्टयाए, फासेंदिए पएसट्टयाए संखेज्जगुणे; प्रोगाहणपएसट्टयाए सम्वत्थोवे बेइंदियस्स जिभिदिए प्रोगाहणट्टयाए, फासिदिए प्रोगाहणद्वयाए संखेज्जगुणे, फासेंदियस्स प्रोगाहणट्टयाएहितो जिभिदिए पएसट्टयाए अणतगुणे, फासिदिए पएसट्ठयाए संखेज्जगुणे। [987-2 प्र.] भगवन् ! इन द्वीन्द्रियों की जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय में से अवगाहना की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा अवगाहना और प्रदेशों (दोनों) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? - [987-2 उ.] गौतम ! अवगाहना की अपेक्षा से द्वीन्द्रियों की जिह्वन्द्रिय सबसे कम है, (उससे) अवगाहना की दृष्टि से संख्यातगुणी (उनकी) स्पर्शनेन्द्रिय है। प्रदेशों की अपेक्षा से-सबसे कम द्वीन्द्रिय की जिह्वन्द्रिय है, (उसकी अपेक्षा) प्रदेशों की अपेक्षा से उनको स्पर्शनेन्द्रिय है / अवगाहना और प्रदेशों की अपेक्षा से-द्वीन्द्रियों की जिह्वन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से सबसे कम है, (उससे उनकी) स्पर्शनेन्द्रिय अवगाहना की अपेक्षा से संख्यातगुणी अधिक है, स्पर्शनेन्द्रिय की अवगाहनार्थता से जिह्वन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणी है / (उसकी अपेक्षा) स्पर्शनेन्द्रिय प्रदेशों की अपेक्षा से संख्यातगुणी है। [3] बेइंदियाणं भंते ! जिभिदियस्स केवइया कक्खडगरुयगुणा पण्णत्ता? गोयमा ! अणंता / एवं फासेंदियस्स वि / एवं मउयलहुयगुणा वि। [687-3 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियों की जिह्वन्द्रिय के कितने कर्कश-गुरुगुण कहे गए हैं ? [987-3 उ.] गौतम ! (इनकी जिह्वेन्द्रिय के कर्कश-गुरु गुण) अनन्त हैं / इसी प्रकार इनकी स्पर्शनेन्द्रिय के भी (कर्कश-गुरु गुण अनन्त समझने चाहिए।) इसी तरह (इनकी जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के) मृदु-लघु गुण भी (अनन्त समझने चाहिए।) [4] एतेसि णं भंते ! बेइंदियाणं जिभिदिय-फासेंदियाणं कक्खडगरुयगुणाणं मउयलयगुणाणं कक्खडगरुयगुण-मउयलहुयगुणाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सवथोवा बेइंदियाणं जिभिदियस्स कक्खडगरुय गुणा, फासेंदियस्स कक्खडगरुयगुणा अणंतगुणा, फासेंदियस्स कक्खडगस्यगुहितो तस्स चेव मउयलहुयगुणा अणंतगुणा, जिभिदियस्स मउयलहुयगुणा अणंतगुणा। [987-4 प्र.] भगवन ! इन द्वीन्द्रियों की जिह्वन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों तथा मृदु-लघुगुणों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [987-4 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े द्वीन्द्रियों के जिह्वन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण हैं, (उनसे) स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुण अनन्तगुणे हैं। स्पर्शनेन्द्रिय के कर्कश-गुरुगुणों से उसी (इन्द्रिय) के मृदुलघुगुण अनन्तगुणे हैं (और उससे भी) जिह्वन्द्रिय के मृदु-लघुगुण अनन्तगुणे हैं / Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 [ प्रज्ञापनासूत्र [5] एवं जाव चरिदिय ति / णवरं इंदियपरिवुड्डो कायन्वा / तेइंदियाणं घाणेदिए थोवे, चरिदियाणं चक्खिदिए थोवे / सेसं तं चेव / [987-5] इसी प्रकार (द्वीन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना और अल्पबहुत्व के समान) यावत् चतुरिन्द्रिय (त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय के संस्थानादि के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि (उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय की परिवृद्धि करनी चाहिए / त्रीन्द्रिय जीवों की घ्राणेन्द्रिय थोड़ी होती है, (इसी प्रकार) चतुरिन्द्रिय जीवों को चक्षुरिन्द्रिय थोड़ी होती है। शेष (सब वक्तव्यता) उसी तरह (पूर्ववत् द्वीन्द्रियों के समान) ही है। 68. पचिदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा णेरइयाणं (सु. 183) / णवरं फासिदिए छविहसंठाणसंठिए पण्णत्ते / तं जहा-समचउरंसे 1 गग्गोहपरिमंडले 2 सातो 3 खुज्जे 4 वामणे 5 188] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों की इन्द्रियों की संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता (सूत्र 983 में अंकित) नारकों की इन्द्रिय-संस्थानादि-सम्बन्धी वक्तव्यता के समान समझनी चाहिए। विशेषता यह है कि उनकी स्पर्शनेन्द्रिय छह प्रकार के संस्थानों वाली होती है / वे (छह संस्थान) इस प्रकार हैं- (1) समचतुरस्र, (2) न्यग्रोधपरिमण्डल, (3) सादि, (4) कुब्जक, (5) वामन और (6) हुण्डक ! 686. वाणमंतर-जोइसिय-माणियाणं जहा असुरकुमाराणं (सु. 984) / [989] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता) (सू. 184 में अंकित) असुरकुमारों को (इन्द्रिय-संस्थानादि सम्बन्धी वक्तव्यता के समान (कहना चाहिए)। विवेचन-चौवीस दंडकों में संस्थानादि छह द्वारों की प्ररूपणा-नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की इन्द्रियों के संस्थान, बाहल्य, पृथुत्व, प्रदेश, अवगाहना एवं अल्पबहुत्व के सम्बन्ध में सात सूत्रों (सू. 683 से 186 तक) में प्ररूपणा की गई है। नरयिकों और असुरकुमारादि भवनवासियों को स्पर्शनेन्द्रिय के विशिष्ट संस्थान-नैरयिकों के शरीर (वैक्रियशरीर) दो प्रकार के होते हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / भवधारणीय शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) उन्हें भवस्वभाव से मिलता है, जो कि अत्यन्त बीभत्स संस्थान (हुण्डक आकार) वाला होता है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर भी हण्डकसंस्थान वाला ही होता है। क्योंकि वे चाहते तो हैं शुभ-सुखद शरीर की विक्रिया करना, किन्तु उनके अतीव अशुभ तथाविध नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभतर वैक्रियशरीर बनता है। _असुरकूमारादि भवनवासियों के भी दो प्रकार के शरीर (स्पर्शनेन्द्रिय) होते हैं-भवधारणीय एवं उत्तरवैक्रिय / उनका भवधारणीय शरीर तो समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है, जो कि भव के प्रारम्भ से अन्त तक रहता है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर नाना संस्थान (आकार) वाला होता है, क्योंकि उत्तरवैक्रिय शरीर की मनचाही रचना वे स्वेच्छा से कर लेते हैं।' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 297-298 Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक] [159 सप्तम-अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार___६६०. [1] पुट्ठाई भंते ! सदाइं सुणेइ ? अपुट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ, नो अपुट्ठाई सद्दाइं सुणेइ / [960-1 प्र.] भगवन् (श्रोत्रेन्द्रिय) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है या अस्पृष्ट शब्दों को (सुनती है)? [660-1 उ.) गौतम ! (वह) स्पृष्ट शब्दों को सुनती है, अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुनती / [2] पुट्ठाई भंते ! रुवाइं पासति ? अयुट्टाई रूवाई पासइ ? गोयमा ! णो पुट्ठाई रूवाई पासइ, अट्ठाई रूवाई पासति / __[960-2 प्र.] भगवन् ! (चक्षुरिन्द्रिय) स्पृष्ट रूपों को देखती है, अथवा अस्पृष्ट रूपों को (देखती है ? [660-2 उ.] गौतम ! (वह) अस्पृष्ट रूपों को देखती है, स्पृष्ट रूपों को नहीं देखती। [3] पृढाई भंते ! गंधाइं अग्घाति ? अपुट्ठाई गंधाई अग्घाति ? गोयमा ! पुट्ठाई गंधाई अग्धाइ, जो अपुट्ठाई गंधाइं अग्धाति / [990-3 प्र.] भगवन् ! (घ्राणेन्द्रिय) स्पृष्ट गन्धों को सूघती है, अथवा अस्पृष्ट गन्धों को (सूघती है) ? [960.3 उ.] गौतम ! (वह) स्पृष्ट गन्धों को सूचती है, अस्पृष्ट गन्धों को नहीं सूघती। [4] एवं रसाणवि फासाणवि / णवरं रसाई प्रस्साएइ फासाई पडिसंवेदेति ति अभिलावो कायव्वो। [990-4 प्र. इस प्रकार (घ्राणेन्द्रिय की तरह जिह्वन्द्रिय द्वारा) रसों के और (स्पर्शनेन्द्रिय द्वारा) स्पर्शों के ग्रहण करने के विषय में भी समझना चाहिए। विशेष यह है कि (जिह्वेन्द्रिय) रसों का आस्वादन करती (चखती) है और (स्पर्शनेन्द्रिय) स्पर्शों का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करती है, ऐसा अभिलाप (शब्दप्रयोग) करना चाहिए / 661. [1] पविट्ठाई भंते ! सद्दाइं सुणेइ ? अपविट्ठाई सद्दाई सुणेइ ? गोयमा ! पविट्ठाई सद्दाई सुणेति, णो अपविट्ठाई सद्दाई सुणेति / [961-1 प्र.] भगवन् ! (श्रोत्रेन्द्रिय) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है या अप्रविष्ट शब्दों को (सुनती है)? [991-1 उ.] गौतम ! (वह) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं सुनती। [2] एवं जहा पुट्ठाणि तहा पविट्ठाणि वि / [991.2] इसी प्रकार जैसे स्पृष्ट के विषय में कहा, उसी प्रकार प्रविष्ट के विषय में भी कहना चाहिए। Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 ] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन--सप्तम-अष्टम स्पृष्ट एवं प्रविष्ट द्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 990-991) में यह प्रतिपादन किया गया है कि कौन-सो इन्द्रिय अपने स्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अस्पृष्ट विषय को ? तथा कौन-सी इन्द्रिय प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती है और कौन-सी अप्रविष्ट विषय को? स्पृष्ट और अस्पष्ट की व्याख्या-जैसे शरीर पर रेत लग जाती है, उसी तरह इन्द्रिय के साथ विषय का स्पर्श हो तो वह स्पृष्ट कहलाता है / जिस इन्द्रिय का अपने विषय के साथ स्पर्श नहीं होता, वह अस्पृष्ट विषय कहलाता है। जैसे-श्रोत्रेन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श हुआ हो, वे शब्द (विषय) स्पृष्ट कहलाते हैं, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय के साथ जिनका स्पर्श न हुआ हो, ऐसे रूप (विषय) अस्पृष्ट कहलाते हैं / ' का विशेष स्पष्टीकरण-प्रस्तूत समाधान से एक विशिष्ट अर्थ भी ध्वनित होता है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्टमात्र शब्दद्रव्यों को ही सुनती--ग्रहण कर लेती है। जैसे घ्राणेन्द्रियादि बद्ध और स्पृष्ट गन्धादि को ग्रहण करती है, वैसे श्रोत्रेन्द्रिय नहीं करती। इसका कारण यह है कि घ्राणेन्द्रियादि के विषयभूत द्रव्यों की अपेक्षा शब्द (भाषावर्गणा) के द्रव्य (पुद्गल) सूक्ष्म और बहुत होते हैं तथा शब्दद्रव्य उस-उस क्षेत्र में रहे हुए शब्द रूप में परिणमनयोग्य अन्य शब्दद्रव्यों को भी वासित कर लेते हैं / अतएव शब्दद्रव्य आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट होते ही निर्वृत्तीन्द्रिय में प्रवेश करके झटपट उपकरणेन्द्रिय (शब्द ग्रहण करने वाली शक्ति) को अभिव्यक्त करते हैं / इसके अतिरिक्त घ्राणेन्द्रिय प्रादि की अपेक्षा श्रोत्रेन्द्रिय अपने विषय को ग्रहण करने में अधिक पटु है; इसलिए श्रोत्रेन्द्रिय स्पष्ट होने मात्र से ही शब्दों को ग्रहण कर लेती है, किन्तु अस्पष्ट---आत्मप्रदेशों के साथ सर्वथा सम्बन्ध को अप्राप्त-विषयों (शब्दों) को ग्रहण नहीं करती, क्योंकि प्राप्यकारी होने से उसका स्वभाव प्राप्त-स्पृष्ट विषय को ग्रहण करने का है / यद्यपि मूलपाठ में कहा गया है कि 'घ्रागेन्द्रिय स्पृष्ट गन्धों को सूघतो है. इत्यादि ; तथापि वह बद्ध-स्पृष्ट गन्धों को सूघती है, ऐसा समझना चाहिए / आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शब्द को सुनती है, किन्तु चक्षुरिन्द्रिय अस्पृष्ट रूप को देखती है तथा गन्ध, रस और स्पर्श को क्रमश: घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय (अपने-अपने) बद्धस्पृष्ट विषय को ग्रहण करती है, ऐसा कहना चाहिए / स्पष्ट का अर्थ-प्रात्मप्रदेशों के साथ सम्पर्कप्राप्त है, जबकि बद्ध का अर्थ है-प्रात्मप्रदेशों के द्वारा प्रगाढ़ संबंध को प्राप्त / विषय, स्पृष्ट तो स्पर्शमात्र से ही हो जाते हैं किन्तु बद्ध-स्पृष्ट तभी होते हैं, जब वे प्रात्मप्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं / गृहीत होने के लिए गन्धादि द्रव्यों का बद्ध और स्पृष्ट होना इसलिए आवश्यक है कि वे बादर हैं, अल्प हैं. वे अपने समकक्ष द्रव्यों को भावित नहीं करते तथा श्रोत्रेन्द्रिय की अपेक्षा घ्राणेन्द्रिय प्रादि इन्द्रियाँ मन्दशक्ति वाली भी हैं / चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से अस्पष्ट रूपों को ग्रहण करती है। प्रविष्ट-अप्रविष्ट की व्याख्या-स्पृष्ट और प्रविष्ट में अन्तर यह है कि स्पर्श तो शरीर में रेत लगने की तरह होता है, किन्तु प्रवेश मुख में कौर (ग्रास) जाने की तरह है, इसलिए इन दोनों के 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 298 2. पुढे सुणे सद्द, रूवं पुण पासइ अपुढे तु / गंधं रसं च फासं च बद्ध-पुद वियागरे॥ --अावश्यकनियुक्ति 3. 'बद्धमप्पीकयं पएसेहि'-प्रज्ञापना. म. व. पत्रांक 298 में उद्धत Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रयम उद्देशक] [161 शब्दार्थ भिन्न होने से दोनों को पृथक्-पृथक प्रस्तुत किया है / इन्द्रियों द्वारा अपने अपने उपकरण में प्रविष्ट विषयों को ग्रहण करना प्रविष्ट कहलाता है। जैसे श्रोत्रेन्द्रिय प्रविष्ट अर्थात कूहर में प्राप्त शब्दों को सुनती है, अप्रविष्ट शब्दों को नहीं / चक्षरिन्द्रिय चक्ष में अप्रविष्ट रूप को ग्रहण करती है। घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय अपने-अपने उपकरण में बद्ध-प्रविष्ट विषय को ग्रहण करती हैं।' नौवाँ विषय(-परिमाण)द्वार 62. [1] सोइंदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते ? गोयमा! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिमागानो, उक्कोसेणं बारसहिं जोयणेहितो अच्छिण्ण पोग्गले पुछे पविट्ठाई सद्दाइं सुणेति / [992-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [692-1 उ.] गौतम ! (श्रोत्रेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यात भाग (दूर शब्दों को) एवं उत्कृष्ट बारह योजनों से (12 योजन दूर से) प्राए अविच्छिन्न (विच्छिन्न, विनष्ट या बिखरे न हुए) शब्दवर्गणा के पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट शब्दों को सुनती है / [2] चक्खिदियस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णते ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जतिभागानो, उक्कोसेणं सातिरेगानो जोयणसयसहस्सायो प्रच्छिण्णे पोग्गले अपुढे अपविट्ठाई रूबाई पासति / [992-2 प्र.] भगवन् ! चक्षुरिन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [192-2 उ.] गौतम ! (चक्षुरिन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (दूर स्थित रूपों को) एवं उत्कृष्ट एक लाख योजन से कुछ अधिक (दूर) के अविच्छिन्न (रूपवान्) पुद्गलों के अस्पृष्ट एवं अप्रविष्ट रूपों को देखती है। [3] घाणिदियस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागातो, उक्कोसेणं णवहिं जोयणेहितो प्रच्छिण्णे पोग्गले पुढे पविट्ठाई गंधाई अग्धाति / [962-3 प्र.] भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय का विषय कितना कहा गया है ? [992-3 उ.] गौतम ! (घ्राणेन्द्रिय) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग (दूर से आए गन्धों को) और उत्कृष्ट नौ योजनों से पाए अविच्छिन्न (गन्ध-) पुद्गल के स्पृष्ट होने पर (निर्वृत्तीन्द्रिय में) प्रविष्ट गन्धों को सूघ लेती है / [4] एवं जिरिंभदियस्स वि फासिदियस्स वि / [992-4] जैसे घ्राणेन्द्रिय के विषय (-परिमाण) का निरूपण किया है, वैसे ही जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के विषय-परिमाण के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 298-299 Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] [प्रज्ञापमासूत्र विवेचन-नौवां विषय (-परिमाण) द्वार–प्रस्तुत सूत्र (992) में क्रमशः बताया गया है कि कितनी दूर से पांचों इन्द्रियों में अपने-अपने विषय को ग्रहण करने की जघन्य और उत्कृष्ट क्षमता है ? इन्द्रियों की विषय-ग्रहणक्षमता--(१) श्रोत्रेन्द्रिय जघन्यतः आत्मांगुल के असंख्यातवें भाग दूर से आए हुए शब्दों को सुन सकती है और उत्कृष्ट 12 योजन दूर से आए हुए शब्दों को सुनती है, बशर्ते कि वे शब्द अच्छिन्न अर्थात्-अव्यवहित हों, उनका तांता टूटना या बिखरना नहीं चाहिए / दूसरे शब्दों या वायु आदि से उनकी शक्ति प्रतिहत न हो गई हो, साथ ही वे शब्द-पुद्गल स्पृष्ट होने चाहिए, अस्पृष्ट शब्दों को श्रोत्र ग्रहण नहीं कर सकते / इसके अतिरिक्त वे शब्द निवृत्तीन्द्रिय में प्रविष्ट भी होने चाहिए / इससे अधिक दूरी से आए हुए शब्दों का परिणमन मन्द हो जाता है, इसलिए वे श्रवण करने योग्य नहीं रह जाते / (2) चक्षुरिन्द्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग की दूरी पर स्थित रूप को तथा उत्कृष्ट एक लाख योजन दूरी पर स्थित रूप को देख सकती है / किन्तु वह रूप अच्छिन्न (दीवाल आदि के व्यवधान से रहित), अस्पृष्ट और अप्रविष्ट पुद्गलों को देख सकती है। इससे आगे के रूप को देखने की शक्ति नेत्र में नहीं है, चाहे व्यवधान न भी हो। निष्कर्ष यह है कि श्रोत्र आदि चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग दूर के शब्द, गन्ध, रस और स्पर्श को ग्रहण कर सकती हैं, जबकि चक्षुरिन्द्रिय अप्राप्यकारी होने से जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग दूर स्थित अव्यवहित रूपी द्रव्य को देखती है, इससे अधिक निकटवर्तीरूप को वह नहीं जान सकती, क्योंकि अत्यन्त सन्निकृष्ट अंजन, रज, मस आदि को भी नहीं देख पाती / शेष सभी इन्द्रियों के द्वारा विषयग्रहण की क्षमता का प्रतिपादन स्पष्ट ही है।' दसवाँ अनगार-द्वार-- 693. अणगारस्स णं भंते ! भाविप्रप्पणो मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! 2 सव्वलोग पिय णं ते प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! अणगारस्स णं भाविनप्पणो मारणंतियसमग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सवलोगं पि य गं ते प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति / [963 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल हैं, क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! क्या वे सर्वलोक को अवगाहन करके रहते हैं ? [993 उ.] हाँ, गौतम ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 299 से 302 तक (ख) वारसहिंतो सोत्तं, सेसाण नवहि जोयणे हितो। गिण्हंति पत्तमत्थं एत्तो परतो न गिण्हति / / -विशेषा. भाष्य Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [163 चरमनिर्जरा-पुद्गल हैं, वे सूक्ष्म कहे हैं; हे आयुष्मन् श्रमण ! वे समग्र लोक को अवगाहन करके रहते हैं। 964. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं कि प्राणत्तं वा णाणत्तं वा प्रोमत्तं का तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति छ उमत्थे णं मणूसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किचि प्राणत्तं वा णाणत्तं वा प्रोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति ? गोयमा ! देवे वि य णं प्रत्येगइए जे णं तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणतं वा प्रोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति, से तेणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति-छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किचि आणत्तं वा जाणत्तं वा प्रोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासति, सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! , सव्वलोग पि य णं ते प्रोगाहित्ता चिठ्ठति / [994 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन (चरम-) निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व या नानात्व, हीनत्व (अवमत्व) अथवा तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता-देखता है ? [994 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन (भावितात्मा अनगार के चरमनिर्जरा पुद्गलों) के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व अथवा लघुत्व को नहीं जानतादेखता ? [उ.] (मनुष्य तो क्या) कोई-कोई (विशिष्ट) देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघत्व को किंचित भी नहीं जानता-देखता; हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छदमस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुदगलों के अन्यत्व, नानात्व. हीनत्व, तच्छत्व गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (चरमनिर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म हैं / वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं। विवेचन-दसवां अनगार-द्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 663-664) में भावितात्मा अनगार के सूक्ष्म एवं सर्वलोकावगाढ पुद्गलों को छद्मस्थ द्वारा जानने-देखने की असमर्थता की प्ररूपणा की गई है। भावितात्मा प्रनगार—जिसके द्रव्य और भाव से कोई अगार-गृह नहीं है, वह अनगारसंयत है / जिसने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपोविशेष से अपनो आत्मा भावित--वासित को है, वह भावितात्मा कहलाता है। चरम-निर्जरा पुद्गल-उक्त भावितात्मा अनगार जब मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है, तब उसके चरम अर्थात् शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में होने वाले जो निर्जरा-पुद्गल Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [ प्रज्ञापनासूब होते हैं-अर्थात्-कर्म रूप परिणमन से मुक्त-कर्मपर्याय से रहित जो पुद्गल यानी परमाणु होते है, वे चरम-निर्जरा-पुद्गल कहलाते हैं।' इस प्रश्न के उत्थान का कारण-इसी प्रकरण में पहले कहा गया था कि श्रोत्रादि चार इन्द्रियाँ स्पृष्ट और प्रविष्ट शब्दादि द्रव्यों को ग्रहण करती हैं, ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि चरम निर्जरापुद्गल तो सर्वलोकस्पर्शी हैं, क्या उनका श्रोत्रादि से स्पर्श एवं प्रवेश नहीं होता? दूसरी बात यह है कि यहाँ यह प्रश्न छद्मस्थ मनुष्य के लिए किया गया है, क्योंकि केवली को तो इन्द्रियों से जानना-देखना नहीं रहता, वह तो समस्त प्रात्म प्रदेशों से सर्वत्र सब कुछ जानता-देखता है। छद्मस्थ मनुष्य अंगोपांगनाम कर्मविशेष से संस्कृत इन्द्रियों के द्वारा जानतादेखता है। छद्मस्थ मनुष्य चरम निर्जरा-पुद्गलों को जानने-देखने में असमर्थ क्यों ? -जो मनुष्य छद्मस्थ है, अर्थात्--विशिष्ट अवधिज्ञान एवं केवलज्ञान से विकल है, वह शैलेशी-अवस्था के अन्तिम समयसम्बन्धी कर्मपर्यायमुक्त उन निर्जरा-पुद्गलों (परमाणुओं) के अन्यत्व-अर्थात् ये निर्जरा-पुद्गल अमुक श्रमण के हैं, ये अमुक श्रमण के, इस प्रकार के भिन्नत्व को तथा एक पुद्गलगत वर्णादि के नाना भेदों (नानात्व) को तथा उनके हीनत्व, तुच्छत्व (निःसारत्व), गुरुत्व (भारीपन) एवं लघुत्व (हल्केपन) को जान-देख नहीं सकता। इसके दो मुख्य कारण बताए हैं-एक तो वे पुद्गल इतने सूक्ष्म हैं कि चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर एवं प्रतीत हैं। दूसरा कारण यह है कि वे अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुरूप पुद्गल समग्र लोक का अवगाहन करके रहे हुए हैं, वे बादर रूप नहीं हैं, इसलिए उन्हें ये इन्द्रियाँ ग्रहण नहीं कर सकतीं। इसी बात को पुष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-देवों की इन्द्रियाँ तो मनुष्यों की अपेक्षा अपने विषय को ग्रहण करने में अत्यन्त पटुतर होती हैं। ऐसा कोई कर्मपुद्गलविषयक अवधिज्ञानविकल देव भी उन भावितात्मा अनगारों के चरमनिर्जरा पुद्गलों के अन्यत्व आदि को किंचित् भी (जरा-सा भी) जान-देख नहीं सकता, तब छद्मस्थ मनुष्य की तो बात ही दूर रही / 2 ग्यारहवाँ ग्राहारद्वार 665. [1] णेरइया णं भंते ! ते णिज्जरापोग्गले कि जाणंति पासंति आहारेंति ? उदाहु ण जाणंति ण पासंति ण प्राहारैति ? गोयमा ! रइया गं ते णिज्जरापोग्गले ण जाणंति ण पासंति, प्राहारेति / [995-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक उन (चरम-) निर्जरा-पुद्गलों को जानते-देखते हुए (उनका) आहार (ग्रहण) करते हैं अथवा (उन्हें) नहीं जानते-देखते और नहीं आहार करते ? [995-1 उ.] गौतम ! नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को जानते नहीं, देखते नहीं किन्तु आहार (ग्रहण) करते हैं। [2] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 303 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 303 Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [ 165 ___ [965-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों तक के विषय में कहना चाहिए। 666. मणूसा णं भंते ! ते णिज्जरापोग्गले कि जाणंति पासंति आहारेति ? उदाहु ण जाणंति ण पासंति ण प्राहारेंति ? __ गोयमा ! प्रत्येगइया जाणंति पासंति प्राहारेंति, प्रत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति माहारेति / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति प्रत्थेगइया जाणंति पासंति प्राहारेंति ? अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति प्राहारेंति ? गोयमा ! मणूसा दुविहा पग्णत्ता। तं जहा–सण्णिभूया य असण्णिभूया य / तत्य णं जे ते प्रसणिभूया ते णं ण जाणंति ण पासंति आहारति / तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते दुविहा पण्णता, तं जहा-उवउत्ता य अणुवउत्ता य / तत्थ णं जे ते अणवउत्ता ते ण ण जाणंति ण पासंति प्राहारेंति, तस्थ गंजे ते उवउत्ता ते णं जाणेति पासेंति प्राहारेंति, से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चति-प्रत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति प्राहारेति प्रथेगइया जाणंति पासंति आहारेंति / [996 प्र.] भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों को जानते-देखते हैं और (उनका) आहरण करते हैं ? अथवा (उन्हें) नहीं जानते, नहीं देखते और नहीं आहरण करते ? [996 उ.] गौतम ! कोई-कोई मनुष्य (उनको) जानते-देखते हैं और (उनका) आहरण करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और (उनका) आहरण करते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि कोई-कोई मनुष्य (उनको) जानतेदेखते हैं और (उनका) आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और आहार करते हैं ? [उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-संज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञानी) और असंज्ञीभूत (विशिष्ट अवधिज्ञान से रहित)। उनमें से जो असंज्ञीभूत हैं, वे (उन चरम निर्जरापुद्गलों को) नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो सज्ञीभूत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं-उपयोग से युक्त और उपयोग से रहित (अनुपयुक्त)। उनमें से जो उपयोगरहित है, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग से युक्त है, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं। इस हेतु से हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते (किन्तु) आहार करते हैं और कोई-कोई मनुष्य जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं। ___997. वाणमंतर-जोइसिया जहा जेरइया (सु. 665 [1]) / FRE7] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता (सू. 995-1 में उल्लिखित) नैरयिकों को वक्तव्यता के समान (जानना चाहिए।) 168. वेमाणिया णं भंते ! ते णिज्जरापोग्गले किं जाणंति पासंति प्राहारेंति ? __ गोयमा ! जहा मणूसा (सु. 666) / णवरं वेमाणिया दुविहा' पण्णत्ता। तं जहा-माइमिच्छद्दिटिउववण्णगा य अमाइसम्मद्दिहिउवषण्णगा य / तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिहिउववनगा ते णं 1. ग्रन्थानम् 4500 Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] [प्रज्ञापनासूत्र न याति न पासंति पाहारिति / तत्थ णं जे ते अमाइसम्मबिटिउववनगा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहाअणंतरोववनगा य परंपरोववनगा य / तस्थ णं जे ते प्रणंतरोववण्णगा ते णं ण याणंति ण पासंति माहारेति / तत्थ णं जे ते परंपरोववण्णगा ते दुविहा पण्णता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य / तस्थ णं जे ते अपज्जत्तगा ते णं ण याणंति ण पासंति प्राहारेति / तत्थ णं जे ते पज्जत्तगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवउत्ता य अणुवउत्ताय / तत्य णं जे ते अणुवउत्ता ते णं ण याति // पासंति पाहारेंति, तत्थ णं जे ते उवउत्ता ते णं जाणंति पासंति प्राहारेति / से एणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति–प्रत्थेगइया ण जाणंति जाव अत्थेगइया० प्राहारेति / [998 प्र.] भगवन् ! क्या वैमानिक देव उन निर्जरापुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं, आहार अर्थात ग्रहण करते हैं ? [968 उ. गौतम ! जैसे मनुष्यों से सम्बन्धित वक्तव्यता (सू. 996 में) कही है, उसी प्रकार वैमानिकों की वक्तव्यता समझनी चाहिए। विशेष यह है कि वैमानिक दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / उनमें से जो मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे (उन्हें) नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं। उनमें से जो अमायी-सम्यग्दष्टि-उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक / उनमें से जो अनन्तरोपपन्नक (अनन्तर-उत्पन्न) हैं, वे नहीं जानते, . नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें से जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं / यथा--पर्याप्तक और अपर्याप्तक। उनमें से जो अपर्याप्तक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं। उनमें जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं-उपयोग-युक्त और उपयोग-रहित / जो उपयोग-रहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं। उनमें से जो उपयोग-युक्त हैं, वे जानते हैं, देखते है और आहार करते हैं / इस हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई-कोई नहीं जानते हैं यावत् कोई-कोई प्राहार करते हैं / विवेचन-ग्यारहवाँ प्राहारद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 665 से 998 तक) में चौवीस दण्डकों में निर्जरापुद्गलों के जानने, देखने और आहार करने से सम्बन्धित प्ररूपणा की गई है। प्रश्न और उत्तर का प्राशय-प्रस्तुत प्रश्न का आशय यह है कि पुद्गलों का स्वभाव नाना रूपों में परिणत होने का है, अतएव योग्य सामग्री मिलने पर निर्जरापुद्गल अाहार के रूप में भी परिणत हो सकते हैं। जब वे अाहाररूप में परिणत होते हैं तब नैरयिक उक्त निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए आहार (लोमाहार) करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं ? भगवान् के द्वारा प्रदत्त उत्तर का आशय भी इसी प्रकार का है-वे नहीं जानते, नहीं देखते हुए आहार करते हैं, क्योंकि वे पुद्गल (परमाणु) अत्यन्त सूक्ष्म होने से चक्षु आदि इन्द्रियपथ से अगोचर होते हैं और नैरयिक कार्मणशरीरपुद्गलों को जान सकने योग्य अवधिज्ञान से रहित होते हैं। इसी प्रकार का प्रश्न और उत्तर का आशय सर्वत्र समझना चाहिए।' 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 304 / Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [167 संज्ञोभूत-प्रसंजीभूत मनुष्य-जो संज्ञी हों, वे संज्ञीभूत और जो असंज्ञी हों वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं / यहाँ संज्ञी का अर्थ है-वे अवधिज्ञानी मनुष्य, जिनका अवधिज्ञान कार्मणपुद्गलों को जान सकता है। जो मनुष्य इस प्रकार के अवधिज्ञान से रहित हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों में जो संज्ञीभूत हैं, उनमें भी जो उपयोग लगाये हुए होते हैं, वे ही उन पुद्गलों को जानते-देखते हुए उनका प्रहार करते हैं, शेष असंज्ञीभूत तथा उपयोगशून्य संज्ञीभूत मनुष्य उन पुद्गलों को जान-देख नहीं पाते, केवल उनका आहार करते हैं। मायि-मिथ्याष्टि-उपपत्रक ओर प्रमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक-माया तृतीय कषाय है, उसके ग्रहण से उपलक्षण से अन्य सभो कषायों का ग्रहण कर लेना चाहिये। जिनमें मायाकषाय विद्यमान हो, उसे मायो अर्थात्-उत्कट राग-द्वेषयुक्त कहते हैं / मायो (सकषाय) होने के साथ-साथ जो मिथ्यादृष्टि हों वे मायी-मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं। जो (वैमानिक देव) मायि-मिथ्यादृष्टि रूप में उत्पन्न (उपपन्न हए हों, वे मायि-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक कहलाते हैं। इनसे विपरीत जो हों वे अमायिसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं। सिद्धान्तानुसार मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक नौवें ग्रेवेयक-पर्यन्त देवों में पाये जा सकते हैं / यद्यपि प्रैवेयकों में और उनसे पहले के कल्पों में सम्यग्दृष्टि देव होते हैं, किन्तु उनका अवधिज्ञान इतना उत्कट नहीं होता कि वे उन निर्जरापुद्गलों को जान-देख सकें / इसलिए वे भी मायिमिथ्यादृष्टि-उपपन्नकों के अन्तर्गत ही कहे जाते हैं। जो अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे अनुत्तरविमानवासी देव हैं / अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपन्नक-जिनको उत्पन्न हुए पहला ही समय हुआ हो, वे अनन्तरोपपन्नक देव कहलाते हैं और जिन्हें उत्पन्न हुए एक समय से अधिक हो चुका हो, उन्हें परम्परोपपन्नक कहते हैं। इन दोनों प्रकार के प्रमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक देवों में से अनन्तरोपपन्नक देव तो निर्जरापुद्गलों को जान-देख नहीं सकते, केवल परम्परोपपन्नक और उनमें भी पर्याप्तक और पर्याप्तकों में भी उपयोगयुक्त देव ही निर्जरापुद्गलों को जान-देख सकते हैं। जो अपर्याप्तक और उपयोगरहित होते हैं, वे उन्हें जान-देख नहीं सकते, केवल उनका आहार करते हैं।' 'पाहार करते हैं' का अर्थ यहाँ सर्वत्र 'पाहार करते हैं' का अर्थ-लोमाहार करते हैं ऐसा समझना चाहिए / बारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक को प्ररूपरणा __EEE. [1] अदाए णं भंते ! पेहमाणे मणूसे कि प्रदायं पेहेति ? अत्ताणं पेहेति ? पलिभार्ग पेहेति ? गोयमा ! प्रदायं पेहेति णो प्रत्ताणं पेहेति, पलिभागं पेहेति / [EE6-1 प्र.] भगवन् ! दर्पण देखता हा मनुष्य क्या दर्पण को देखता है ? अपने आपको (शरीर को) देखता है ? अथवा (अपने) प्रतिबिम्ब को देखता है ? __ [E66-1 उ.] गौतम ! (वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु (अपने शरीर का) प्रतिबिम्ब देखता है / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 304 / (ख) संखेज्ज कम्मदब्वे लोगे, योवूणगं पलियं, __ संभिन्नलोगनालि पासंति अणुत्तरा देवा। -प्रज्ञापना म. व, पत्रांक 304 में उद्धत 2. प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 304 Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं एतेणं प्रमिलावणं प्रसि मणि उडुपाणं तेल्लं फाणियं वसं / [REE-2] इसी प्रकार (दर्पण के सम्बन्ध में जो कथन किया गया है) उसी अभिलाप के अनुसार क्रमशः असि, मणि, उदपान (दुग्ध और पानी), तेल, फाणित (गुड़राब) और वसा (चर्बी) (के विषय में अभिलाप-कथन करना चाहिए।) विवेचनबारहवें आदर्शद्वार से अठारहवें वसाद्वार तक की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (666) में प्रादर्श आदि की अपेक्षा से चक्षुरिन्द्रिय-विषयक सात अभिलापों की प्ररूपणा की गई है। दर्पण प्रादि का द्रष्टा क्या देखता है ? –दर्पण, तलवार, मणि, पानी, दूध, तेल, गुड़राब और (पिघली हई) वसा को देखता हुआ मनुष्य वास्तव में क्या देखता है ? यह प्रश्न है। शास्त्रकार कहते हैं-वह दर्पण आदि को तथा अपने शरीर के प्रतिबिम्ब को देखता है, किन्तु आत्मा को अर्थात्--अपने शरीर को नहीं देखता, क्योंकि अपना शरीर तो अपने आप में स्थित रहता है, दर्पण में नहीं; फिर वह अपने शरीर को कैसे देख सकता है ? वह (द्रष्टा) जो प्रतिबिम्ब देखता है, वह छाया-पुद्गलात्मक होता है, क्योंकि सभी इन्द्रियगोचर स्थूल वस्तुएँ किरणों वाली तथा चय-अपचय धर्म वाली होती हैं। किरणें छाया-पुद्गलरूप हैं, सभी स्थूल वस्तुओं की छाया की प्रतीति प्रत्येक प्राणी को होती है। तात्पर्य यह है कि मनुष्य के जो छायापरमाणु दर्पण में उपसंक्रान्त होकर स्वदेह के वर्ण और प्राकार के रूप में परिणत होते हैं, उनकी वहाँ उपलब्धि होती है, शरीर की नहीं / वे (छायापरमाणु) प्रतिबिम्ब शब्द से व्यवहृत होते हैं।' 'प्रहाई पेहति' और 'नो अद्दाइं पेहति' इस प्रकार यहाँ पाठभेद है। विभिन्न प्राचार्यों ने अपने-अपने स्वीकृत पाठों का समर्थन भी किया है। पाठान्तर के अनुसार अर्थ होता है-दर्पण को नहीं देखता / तत्त्व केवलिगम्य है। उन्नीसवाँ वीसवाँ कम्बलद्वार-स्थूणाद्वार 1000. कंबलसाडए गं भंते ! प्रावेढियपरिवेढिए समाणे जावतियं प्रोवासंतरं फुसित्ता गं चिट्ठति विरल्लिए वि य णं समाणे तावतियं चेव प्रोवासंतरं फुसित्ता णं चिति ? हंता गोयमा ! कंबलसाडए णं प्रावेढियपरिवेढिए समाणे जावतियं तं चेव / [1000 प्र. भगवन् ! कम्बलरूप शाटक (चादर या साड़ी) आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुश्रा (लपेटा हुआ, खूब लपेटा हुआ) जितने अवकाशान्तर (अाकाशप्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर (प्राकाश-प्रदेशों) को स्पर्श करके रहता है ? / [1000 उ.] हाँ, गौतम ! कम्बलशाटक आवेष्टित-परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है, फैलाये जाने पर भी वह उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है। 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 305 (ख) असि देहमाणे मणूसे कि मसि बेहइ, अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ? इत्यादि / Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [ 169 1001. थूणा णं भंते ! उड्ढं ऊसिया समाणी जावतियं खेत्तं प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति तिरियं पि य णं प्रायया समाणी तावतियं चेव खेत्तं प्रोगाहित्ता णं चिट्ठति ? हंता गोयमा ! थूणा णं उड्ढे ऊसिया तं चेव जाव चिट्टति / [1001 प्र.] भगवन् ! स्थूणा (ठूठ, बल्ली या खम्भा) ऊपर उठी हुई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हुई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ? [1001 उ.] हाँ, गौतम ! स्थूणा ऊपर (ऊँची) उठी हुई जितने क्षेत्र को," (इत्यादि उसी पाठ को यावत् (उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके) रहती है, (कहना चाहिए।) विवेचन-उन्नीसवां-बीसौं कम्बलद्वार-स्थणाद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों में क्रमशः कम्बल और स्थूणा को लेकर प्राकाशप्रदेशस्पर्शन और क्षेत्रावगाहन की चर्चा की गई है। प्रतीन्द्रिय वस्तुग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर--प्रस्तुत दोनों द्वारों में अतीन्द्रिय वस्तुओं के ग्रहण सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं / उनका प्राशय क्रमशः इस प्रकार है-(१) कम्बल को तह पर तह करके लपेट दिये जाने पर वह जितने आकाशप्रदेशों को घेरता है, क्या उसे फैला दिये जाने पर वह उतने ही आकाशप्रदेशों को घेरता है ? भगवान् का उत्तर हाँ में है। (2) स्थूणा (थून) ऊँची खड़ी की हुई, जितने क्षेत्र को अवगाहन कर (व्याप्त करके) रहती है, क्या वह तिरछी लम्बी पड़ी हुई भी उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती (व्याप्त करती) है ? इसका उत्तर भी भगवान् ने स्वीकृतिसूचक दिया है।' इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवा थिग्गल-द्वीपोदधि-लोक-प्रलोकद्वार 1002. प्रागासथिग्गले गं भंते ! किणा फुडे ? कहि या काहि फुरे ? कि धम्मस्थिकाएणं फुडे ? किं धम्मस्थिकायस्स देसेणं फुडे ? धम्मत्थिकायस्स पदेसेहि फुडे? एवं अधम्मस्थिकाएणं प्रागासस्थिकाएणं? एएणं भेवेणं जाव कि पुढविकाइएणं फुडे जाव तसकाएणं फुडे ? प्रद्धासमएणं गोयमा ! धम्मस्थिकारणं फुडे, णो धम्मत्मिकायस्स देसेणं फुडे, धम्मत्थिकायस्स पदेसेहि फुडे / एवं अधम्मस्थिकारणं वि। णो प्रागासस्थिकाएणं फुडे, प्रागासस्थिकायस्स देसेणं फुडे, प्रागासस्थिकायस्स पदेसेहिं फुडे जाव वणफइकाइएणं फुडे / तसकाएणं सिय फुडे, सिय णो फुडे / प्रद्धासमएणं देसे फुडे, देसे णो फुडे / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 306 (ख) यही मन्तव्य नेत्रपट को लेकर अन्यत्र भी कहा गया है 'जह खलु महापमाणो नेत्तपडो कोडिओ नहगंमि। तमि वि तावइए च्चिय फुसइ पएसे (विरल्लिए वि) // ' (अर्थात् - संकुचित किया हुप्रा नेत्रपट जितने आकाशप्रदेश में रहता है, विस्तत करने (फैलाने) पर भी वह (नेत्रपट) उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता है।) --प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 306 में उद्धत Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] [प्रज्ञापनासूत्र [1002 प्र.] भगवन् ! आकाश-थिग्गल (अर्थात्-लोक) किस से स्पष्ट है ?, कितने कायों से स्पष्ट है ?, क्या (वह) धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, या धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है, अथवा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है ? इसी प्रकार (क्या वह) अधर्मास्तिकाय से (तथा अधर्मास्तिकाय के देश से. या प्रदेशों से) स्पष्ट है ? (अथवा वह) अाकाशास्तिकाय से, (या उसके देश, या प्रदेशों से) स्पृष्ट है ? इन्हीं भेदों के अनुसार (क्या वह पुद्गलास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से, तथा पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् (वनस्पतिकाय तथा) त्रसकाय से स्पष्ट है ? (अथवा क्या वह) अद्धासमय से स्पृष्ट है ? [1002 उ.] गौतम ! (वह आकाशथिग्गल = लोक धर्मास्तिकाय से स्पष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है; इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय से भी (स्पृष्ट है, अधर्मास्तिकाय के देश से स्पष्ट नहीं, अधर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है 1) आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, आकाशास्तिकाय के देश से स्पष्ट है तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है (तथा पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पृथ्वीकायादि से लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है, त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है और कथंचित् स्पृष्ट नहीं है, अद्धा-समय (कालद्रव्य) से देश से स्पृष्ट है तथा देश से स्पृष्ट नहीं है। 1003. [1] जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे किण्णा फुडे ? कतिहिं वा काएहि फुडे ? कि धम्मत्थिकाएणं जाव मागासस्थिकाएणं फुडे ? __ गोयमा ! पो धम्मस्थिकारणं फुडे धम्मस्थिकायस्स देसेणं फुडे धम्मस्थिकायस्स पएसेहि फुडे, एवं अधम्मस्थिकायस्स वि भागासस्थिकायस्स घि, पुढविकाइएणं फुडे जाव वणप्फइकाइएणं फुडे, तसकाएणं सिय फुडे सिय णो फुडे, प्रद्धासमएणं फुडे / [1003-1 प्र.] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप किससे स्पृष्ट है ? या (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है ? क्या वह धर्मास्तिकाय से (लेकर पूर्वोक्तानुसार) यावत् आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट है ? (पूर्वोक्त परिपाटी के अनुसार 'अद्धा-समय' तक के स्पर्श-सम्बन्धी सभी प्रश्न यहाँ समझने चाहिए।) [1003-1 उ.] गौतम ! (वह) धर्मास्तिकाय (समग्र) से स्पृष्ट नहीं है, किन्तु) धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से स्पृष्ट है / इसी प्रकार वह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के देश और प्रदेशों से स्पृष्ट है, पृथ्वीकाय से (लेकर) यावत् वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है (तथा) त्रसकाय से कथंचित् स्पृष्ट है, कथंचित् स्पृष्ट नहीं है; अद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पृष्ट है। [2] एवं लवणसमुद्दे धायइसंडे दीवे कालोए समुद्दे अभितरपुक्खरद्ध / बाहिरपुक्ख रद्ध एवं चेव, णवरं प्रद्धासमएणं णो फुडे / एवं जाव सयंभुरमणे समुद्दे / एसा परिवाडी इमाहि गाहाहिं अणुगंतव्वा / तं जहा जंबुद्दीवे लवणे धायइ कालोय पुक्खरे वरुणे। खीर घत खोत नंदि य अरुणवरे कुडले रुयए // 204 // आमरण-वत्य-गंधे उप्पल-तिलए य पुढवि-णिहि-रयणे / वासहर-दह-नदोश्रो विजया वक्खार-कप्पिदा // 20 // Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक [ 171 कुरु-मंदर-प्रावासा कूडा णक्खत्त-चंद-सूरा य / देवे णागे जक्खे भूए य सयंभुरमणे य // 206 // एवं जहा बाहिरपुक्खरद्ध भणितं तहा जाव सयंभुरमणे समुद्दे जाव प्रद्धासमएणं णो फुडे / [1003-2] इसी प्रकार लवणसमुद्र, धातकीखण्डद्वीप, कालोद समुद्र, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध और बाह्य पुष्करार्द्ध (द्वीप) के विषय में इसी प्रकार की (पूर्वोक्तानुसार धर्मास्तिकायादि से लेकर अद्धा-समय तक की अपेक्षा से स्पृष्ट-अस्पृष्ट की प्ररूपणा करनी चाहिए।) विशेष यह है कि बाह्य पुष्कराध से लेकर आगे के समुद्र एवं द्वीप अद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं हैं। यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र तक इसी प्रकार (की प्ररूपणा करनी चाहिए।) यह परिपाटी (द्वीप-समुद्रों का क्रम) इन गाथाओं के अनुसार जान लेनी चाहिए / यथा [गाथार्थ-] 1. जम्बूद्वीप, 2. लवणसमुद्र, 3. धातकीखण्डद्वीप, 4. पुष्करद्वीप, 5. वरुगद्वीप, 6. क्षीरवर, 7. घृतवर, 8. क्षोद (इक्षु), 9. नन्दीश्वर, 10. अरुणवर, 11. कुण्डलवर, 12. रुचक, 13. अाभरण, 14. वस्त्र, 15. गन्ध, 16. उत्पल, 17. तिलक, 18. पृथ्वी, 16. निधि, 20. रत्न, 21. वर्षधर, 22. द्रह, 23. नदियाँ, 24. विजय, 25. वक्षस्कार, 26. कल्प, 27. इन्द्र, 26. कुरु, 26. मन्दर, 30. आवास, 31. कूट, 32. नक्षत्र, 33. चन्द्र, 34. सूर्य, 35. देव, 36. नाग, 37. यक्ष, 38. भूत और 36. स्वयम्भूरमण समुद्र // 204, 205, 206 // इस प्रकार जैसे (धर्मास्तिकायादि से लेकर प्रद्धा-समय तक की अपेक्षा से) बाह्यपुष्करार्द्ध के (स्पष्टास्पष्ट के) विषय में कहा गया उसी प्रकार (वरुणद्वीप से लेकर) यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्र (तक) के विषय में 'श्रद्धा-समय से स्पृष्ट नहीं होता,' यहाँ तक (कहना चाहिए।) 1004. लोगे णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहि वा काहि ? जहा अागासथिग्गले (सु. 1002) / [1004 प्र. उ.] भगवन् ! लोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है (इत्यादि समस्त वक्तव्यता जिस प्रकार (सू. 1002 में) प्राकाश-थिग्गल के विषय में कही गई है, (उसी प्रकार कहनी चाहिए।) 1005. प्रलोए णं भंते ! किणा फुडे ? कतिहिं वा काएहि पुच्छा। गोयमा ! णो धम्मस्थिकाएणं फुडे जाव णो प्रागासस्थिकाएणं फुडे, पागासस्थिकायस्स देसेणं फुडे अागासस्थिकायस्स पदेसेहि फुडे, णो पुढविक्काइएणं फुडे जाव णो श्रद्धासमएणं फुडे, एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुलहुए प्रणंतेहिं प्रगुरुलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे। // इंदियपयस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥ / [1005 प्र.] भगवन् ! अलोक किससे स्पृष्ट है ? (वह) कितने कायों से स्पृष्ट है ? इत्यादि सर्व पृच्छा यहाँ पूर्ववत् करनी चाहिए। [1005 उ.] गौतम ! अलोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है, (अधर्मास्तिकाय से लेकर) यावत् (समग्र) आकाशास्तिकाय से स्पृष्ट नहीं है; (वह) आकाशास्तिकाय के देश से स्पृष्ट है तथा Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1721 [ प्रज्ञापनासूत्र आकाशास्तिकाय के प्रदेशों से स्पष्ट है; (किन्तु) पृथ्वीकाय से स्पष्ट नहीं है, यावत् प्रद्धा-समय (कालद्रव्य) से स्पष्ट नहीं है / अलोक एक अजीवद्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघुगुणों से संयुक्त है, सर्वाकाश के अनन्तवें भाग कम है (लोकाकाश को छोड़कर सर्वाकाश प्रमाण है।) विवेचन-इक्कीस-बाईस-तेईस-चौवीसवा थिग्गल-द्वीपोदधिलोक-प्रलोकद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1002 से 1005 तक) में आकाशरूप थिग्गल, द्वीप-सागरादि, लोक और अलोक के धर्मास्तिकायादि से लेकर ग्रद्धा-समय तक से स्पृष्ट-अस्पृष्ट होने की प्ररूपणा की गई है। आकाशथिग्गल के स्पृष्ट-प्रस्पष्ट को समीक्षा-'थिग्गल' शब्द से यहां आकाशथिग्गल समझना चाहिए / सम्पूर्ण आकाश एक विस्तृत पट के समान है। उसके बीच में लोक उस विस्तृत पट के थिग्गल (पैबन्द) की तरह प्रतीत होता है / अतः लोकाकाश को थिग्गल कहा गया है / प्रथम सामान्य प्रश्न है—इस प्रकार का आकाशथिग्गलरूप लोकाकाश किससे स्पृष्ट अर्थात् व्याप्त है ? तत्पश्चात् विशेषरूप में प्रश्न किया गया है कि धर्मास्तिकाय से लेकर त्रसकाय तक, यहाँ तक कि 'अद्धा-समय' तक से कितने कायों से स्पष्ट है ? लोक सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय से स्पष्ट है, क्योंकि धर्मास्तिकाय पूरा का पूरा लोक में ही अवगाढ है, अतएव वह धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है, क्योंकि जो जिसमें पूरी तरह व्याप्त है, उसे उसके एक देश में व्याप्त नहीं कहा जा सकता किन्तु लोक धर्मास्तिकाय के प्रदेशों से व्याप्त तो है ही; क्योंकि धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेश लोक में ही अवगाढ हैं / यही बात अधर्मास्तिकाय के विषय में समझनी चाहिए; किन्तु लोक सम्पूर्ण प्राकाशास्तिकाय से स्पष्ट नहीं है, क्योंकि लोक सम्पूर्ण आकाशास्तिकाय का एक छोटा-सा खण्डमात्र ही है, किन्तु वह आकाशास्तिकाय के देश से और प्रदेशों से स्पष्ट है, यावत् पुद्गलास्तिकाय से, जीवास्तिकाय से तथा पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय से स्पृष्ट है / सूक्ष्म पृथ्वीकायादि समग्र लोक में व्याप्त हैं / अतएव उनके द्वारा भी वह पूर्ण रूप से स्पृष्ट है, किन्तु त्रसकाय से क्वचित् स्पृष्ट होता है, क्वचित् स्पृष्ट नहीं भी होता / जब केवली, समुद्घात करते हैं, तब चौथे समय में वे अपने प्रात्मप्रदेशों से समग्र लोक को व्याप्त कर लेते हैं / केवली भगवान् सकाय के ही अन्तर्गत हैं, अतएव उस समय समस्त लोक त्रसकाय से स्पष्ट होता है। इसके अतिरिक्त अन्य समय में सम्पूर्ण लोक त्रसकाय से स्पष्ट नहीं होता / क्योंकि सजीव सिर्फ त्रसनाडी में ही पाए जाते हैं। जो सिर्फ एक राजू चौड़ी और चौदह राजू ऊँची है / श्रद्धा-समय से लोक का कोई भाग स्पष्ट होता है और कोई भाग स्पष्ट नहीं होता / प्रद्धा-काल अढ़ाई द्वीप में ही है, आगे नहीं। ___ 'पाकाशथिग्गल' और 'लोक' में अन्तर–पहले लोक को 'आकाशथिग्गल' शब्द से प्ररूपित किया था, अब इसी को सामान्यरूप से 'लोक' शब्द द्वारा प्रतिपादित किया गया है / इसलिए विशेष और सामान्य का अन्तर है / 'लोक' संबंधी निरूपण 'आकाशथिग्गल' के समान ही है / ' // पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 307-305 Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ: द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के बारह द्वार१००६. इंदियउवचय 1 णिवत्तणा य 2 समया भवे असंखेज्जा 3 / लद्धी 4 उवयोगद्धा 5 अप्याबहुए विसेसहिया // 207 / / प्रोगाहणा 7 प्रवाए 8 ईहा 6 तह वंजणोग्गहे चेव 10 / विदिया 11 भाविदिय 12 तीया बद्धा पुरेक्खडिया // 20 // [1006 अर्थाधिकार गाथाओं का अर्थ-] 1. इन्द्रियोपचय, 2. (इन्द्रिय-) निर्वर्तना, 3. निर्वर्तना के असंख्यात समय, 4. लब्धि, 5. उपयोगकाल, 6. अल्पबहुत्व में विशेषाधिक उपयोग काल, / / 207 / / 7, अवग्रह, 8. अवाय (अपाय), 6. ईहा तथा 10. व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह, 11. मतीत बद्ध पुरस्कृत (आगे होने वाली) द्रव्येन्द्रिय, 12. भावेन्द्रिय / / 208 / / (इस प्रकार दूसरे उद्देशक में बारह द्वारों के माध्यम से इन्द्रियविषयक अर्थाधिकार प्रतिपादित है।) विवेचन-द्वितीय उद्देशक के बारह द्वार–प्रस्तुत सूत्र में दो गाथाओं द्वारा इन्द्रियोपचय मादि बारह द्वारों के माध्यम में इन्द्रियविषयक प्ररूपणा की गई। बारह द्वार-(१) इन्द्रियोपचयद्वार (इन्द्रिययोग्य पुद्गलों को ग्रहण करने की शक्ति-इन्द्रिय पर्याप्ति, (2) इन्द्रियनिवर्तनाद्वार (बाह्याभ्यन्तर निर्वृत्ति का निरूपण), (3) निर्वर्तनसमयद्वार (प्राकृति निष्पन्न होने का काल), (4) लब्धिद्वार (इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम का कथन), (5) उपयोगकालद्वार, (6) अल्पबहुत्वविशेषाधिकद्वार, (7) प्रवग्रहणाद्वार (अवग्रह का कथन), (8) प्रवायद्वार, (6) ईहाद्वार, (10) व्यञ्जनावग्रहद्वार, (11) द्रव्येन्द्रियद्वार और (12) भावेन्द्रिय अतीत बद्ध पुरस्कृतद्वार (भावेन्द्रिय की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत इन्द्रियों का कथन), इन बारह द्वारों के माध्यम से इन्द्रियविषयक प्ररूपणा की जाएगी।' प्रथम इन्द्रियोपचय द्वार 1007. कतिविहे गं भंते ! इंदिनोवचए पण्णते ? गोयमा! पंचविहे इंदिनोवचए पण्णते। तं जहा-सोइंदिनोवचए चक्खिदिनोवचए धाणिदिनोवचए जिभिदिनोवचए फासिदिनोवचए / [1007 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियोपचय कितने प्रकार का कहा गया है ? [1007 उ.] गौतम ! इन्द्रियोपचय पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार (1) श्रोत्रेन्द्रियोपचय, (2) चक्षुरिन्द्रियोपचय, (3) घ्राणेन्द्रियोपचय, (4) जिह्वन्द्रियोपचय और (5) स्पर्शनेन्द्रियोपचय / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 309 Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1741 [प्रज्ञापनासूत्र 1008. [1] रइयाणं भंते ! कतिविहे इंदिनोवचए पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे इंदिनोवचए पण्णते। तं जहा-सोइंदिनोवचए जाव फासिदिनोवचए / [1008-1 प्र.) भगवन् ! नैरयिकों के इन्द्रियोपचय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1008-1 उ.] गौतम ! (उनके) इन्द्रियोपचय पांच प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रियोपचय (से लेकर) यावत् स्पर्शनेन्द्रियोपचय / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / जस्स जइ इंदिया तस्स तइविहो चेव इंदिग्रोवचयो भाणियन्वो / 1 // (1008-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिकों के इन्द्रियोपचय के विषय में कहना चाहिए। जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, उसके उतने ही प्रकार का इन्द्रियोपचय कहना चाहिए / / 1 / / विवेचन--प्रथम इन्द्रियोपचयद्वार-प्रस्तुत सूत्रद्वय (1007-1008) में पांच प्रकार के इन्द्रियोपचय का तथा चौवीस दण्डकों में पाए जाने वाले इन्द्रियोपचय का कथन किया गया है। इन्द्रियोपचय अर्थात्-इन्द्रियों के योग्य पुद्गलों का संग्रह / ' द्वितीय-तृतीय निर्वर्तना द्वार 1006. [1] कतिविहा गं भंते ! इंदियनिव्वतणा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा इंदियनिव्वत्तगा पण्णत्ता / तं जहा–सोइंदियनिव्वत्तणा जाव फासिदियनिव्वत्तणा। [1009-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-निर्वर्तना (निर्वृत्ति) कितने प्रकार की कही गई है ? [1006-1 उ.] गौतम ! इन्द्रिय-निर्वर्तना पांच प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रिय-निवर्त्तना यावत् स्पर्शनेन्द्रिय-निर्वर्तना / [2] एवं नेरइयाणं जाय वेमाणियाणं / नवरं जस्स जतिदिया अस्थि / 2 // [1009-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक निर्वर्तना-विषयक प्ररूपणा करनी चाहिए / विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ होती हैं, (उसकी उतनी ही इन्द्रिय-निर्वतना कहनी चाहिए / ) // 2 // 1010. [1] सोइंदियणिवत्तणा णं भंते ! कतिसमइया पन्नता ? गोयमा ! असंखिज्जसमइया अंतोमुहुत्तिया पन्नत्ता / एवं जाव फासिदियनिश्वत्तणा। [1010-1 प्र.] भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रियनिर्वर्तना कितने समय की कही गई है ? [1010-1 उ.] गौतम ! (वह) असंख्यात समयों के अन्तर्मुहूर्त की कही है। इसी प्रकार यावत् स्पर्शनेन्द्रिय निर्वर्तना काल तक कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 309 (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 249 Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [175 [2] एवं ने रइयाणं जाव वेमाणियाणं / 3 // [1010-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों की इन्द्रियनिर्वर्तना के काल के विषय में कहना चाहिए। विवेचन-द्वितीय-तृतीय निर्वर्तनाद्वार एवं निर्वर्तनासमयद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों में से प्रथम सूत्र में पांच प्रकार की निर्वर्तना और द्वितीय सूत्र में प्रत्येक इन्द्रिय की निर्वर्तना के समयों की प्ररूपणा की गई है। निर्वर्तना का अर्थ-बाह्याभ्यन्तररूप निर्वृत्ति-आकार की रचना / ' चतुर्थ-पंचम-षष्ठ लब्धिद्वार, उपयोगद्वार एवं उपयोगाद्धाद्वार 1011. [1] कतिविहा णं भंते ! इंदियलद्धी पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियलद्धी पण्णत्ता / तं जहा---सोइंदियलद्धी जाव फासिदियलद्धी। [1011-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? [1011-1 उ.] गौतम ! इन्द्रियलब्धि पांच प्रकार की कही है। वह इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शेन्द्रियलब्धि / |एवं णेरडयाणं जाव वेमाणियाणं। नवरं जस्स जति इंदिया अस्थि तस्स तावतिया लद्धी भाणियन्वा / 4 / / [1011-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक इन्द्रियलब्धि की प्ररूपणा करनी चाहिए / विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतनी ही इन्द्रियलब्धि कहनी चाहिए / 1012. [1] कतिविहा णं भंते ! इंदियउवयोगद्धा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचविहा इंदियउयोगद्धा पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदियउवयोगद्धा जाव फासिदियउवयोगद्धा। [1012-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियों के उपयोग का काल (अद्धा) कितने प्रकार का कहा गया है ? [1012-1 उ.] गौतम ! इन्द्रियों का उपयोगकाल पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रिय-उपयोगकाल यावत् स्पर्शेन्द्रिय-उपयोगकाल / [2] एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं / गवरं जस्स जति इंदिया अत्यि / 5 // [1012-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के इन्द्रिय-उपयोगकाल के विषय में समझना चाहिए / विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने ही इन्द्रियोपयोगकाल कहने चाहिए। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 309 / Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] / प्रज्ञापनासूत्र 1013. एतेसि गं भंते ! सोइंदिय-क्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियाणं जहण्णियाए उवभोगद्धाए उक्कोसियाए उवयोगद्धाए जहण्णुक्कोसियाए उवनोगद्धाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? गोयमा ! सव्वत्थोवा चक्खिदियस्स जहणिया उवयोगद्धा, सोइंदियस्स जहणिया उवयोगद्धा विसेसाहिया, धाणिदियस्स जहणिया उवयोगद्धा विसेसाहिया, जिभिदियस्स जहणिया उवयोगद्धा विसेसाहिया, फासें दियस्स जहणिया उधोगद्धा विसेसाहिया। उक्कोसियाए उवयोगद्धाए सव्वत्थोवा चक्खिदियस्स उक्कोसिया उवयोगद्धा, सोइंदियस्स उक्कोसिया उवप्रोगद्धा विसेसाहिया, घाणिदियस्स उक्कोसिया उवप्रोगद्धा विसेसाहिया, जिभिदियस्स उक्कोसिया उवमोगद्धा विसेसाहिया, फासेंदियस्स उक्कोसिया उबोगद्धा विसेसाहिया। जहण्णक्कोसियाए उवयोगद्धाए सव्वत्योवा चविखदियस्स जहणिया उवयोगद्धा, सोइंदियस्स जहणिया उबोगद्धा विसेसाहिया, घाणिदियस्स जहणिया उवयोगद्धा विसेसाहिया, जिभिदियस्स जहणिया उवमोगद्धा विसेसाहिया, फासेंदियस्स जहणिया उवोगद्धा विसेसाहिया, फार्सेदियस्स जहणियाहितो उवमोगद्धाहितो चविखदियस्स उक्कोसिया उबोगद्धा विसेसाहिया, सोइंदियस्स उक्कोसिया उवनोगद्धा विसेसाहिया, घाणिदियस्स उक्कोसिया उवयोगद्धा विसेसाहिया, जिभिदियस्स उक्कोसिया उवयोगद्धा विसेसाहिया, फासेंदियस्स उक्कोसिया उवयोगद्धा विसेसाहिया / 6 // [1013 प्र.] भगवन् ! इन श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिहन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय के जघन्य उपयोगाद्धा, उत्कृष्ट उपयोगाद्धा और जघन्योत्कृष्ट उपयोगाद्धा में कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [1013 उ.] गौतम ! चक्षुरिन्द्रय का जघन्य उपयोगाद्धा (उपयोगकाल) सबसे कम है, (उसकी अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) घ्राणेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उससे) जिह्वन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उस की अपेक्षा) स्पर्शेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है। उत्कृष्ट उपयोगाद्धा में चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा सबसे कम है, (उसकी अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषा. धिक है, (उससे) घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उससे) जिह्वेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक ट उपयोगाद्धा की अपेक्षा से सबसे कम चक्षरिन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा है, (उसकी अपेक्षा) श्रोत्रेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) घ्राणेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) जिह्वन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है. (उसकी अपेक्षा, स्पर्शेन्द्रिय का जघन्य उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, स्पर्शेन्द्रिय के जघन्य उपयोगरद्धा से चक्षुरिन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा)श्रोत्रेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) घ्राणेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसको अपेक्षा) जिह्वन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है, (उसकी अपेक्षा) स्पर्शेन्द्रिय का उत्कृष्ट उपयोगाद्धा विशेषाधिक है // 6 // Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 177 विवेचना-चतुर्थ-पंचम-षष्ठ लन्धिद्वार, उपयोगाद्धाद्वार एवं अल्पबहुत्वद्वार-प्रस्तुत तोन सूत्रों में क्रमश: लब्धिद्वार, उपयोगाद्धाद्वार एवं उपयोगाद्धाविशेषाधिकद्वार के माध्यम से इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम की, इन्द्रियों के उपयोगकाल की एवं इन्द्रियों के उपयोगकाल के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। इन्द्रियलब्धि प्रादि पदों के अर्थ-इन्द्रियावरणकर्म के क्षयोपशम को इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियों के उपयोग (उपयोग से युक्त व्यापृत रहने) के काल को इन्द्रिय उपयोगाद्धा एवं उपयोगाद्धा के अल्पबहुत्व या विशेषाधिक को उपयोगाद्धाविशेषाधिक कहते हैं।' सातवाँ, पाठवाँ, नौवाँ और दसवाँ क्रमशः इन्द्रिय-अवग्रहरण-अवाय-ईहा-अवग्रह द्वार 1014. [1] कति बिहा गं भंते ! इंदियनोगाहणा पण्णता? गोयमा ! पंचविहा इंदियरोगाहणा पण्णत्ता। तं जहा-सोइंदियोगाहणा जाव फासेंदियप्रोगाहणा। [1014-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-अवग्रहण, (अवग्रह) कितने प्रकार का कहा गया है ? [1014-1 उ.] गौतम ! पांच प्रकार के इन्द्रियावग्रहण कहे हैं / वे इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रियअवग्रहण यावत् स्पर्शन्द्रिय-अवग्रहण / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / णवरं जस्स जइ इंदिया अत्यि / 7 // [1014-2] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिकों तक (पूर्ववत् कहना चाहिए)। विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, (उसके उतने ही अवग्रहण समझने चाहिये / ) 7 / 1015. [1] कतिविहे णं भंते ! इंदियप्रवाए पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे इंदियप्रयाये पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियप्रवाए जाव फासेंदियअवाए। [1015-1 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-अवाय कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [1015-1 उ.] गौतम ! इन्द्रिय-अवाय पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रिय अवाय (से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय-अवाय / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / नवरं जस्स जत्तिया इंदिया अस्थि / 8 // _[1015-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक (अवाय के विषय में कहना चाहिए)। विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, उसके उतने ही अवाय कहने चाहिए।) / / 8 / / 1016. [1] कतिविहा णं भंते ! ईहा पण्णता ? गोयमा ! पंचविहा ईहा पण्णता / तं जहा–सोइंदियईहा जाव फासें दियईहा। [1016-1 प्र.] भगवन् ! ईहा कितने प्रकार की कही गई है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 309 Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178] [प्रकापनासून [1016-1 उ.] गौतम ! ईहा पांच प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रियईहा (से लेकर) यावत् स्पर्शेन्द्रिय-ईहा / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं जस्स जति इंदिया।६॥ [1016-2] इसी प्रकार (नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (ईहा के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि जिसके जितनी इन्द्रियाँ हों, (उसके उतनी ही ईहा कहनी चाहिए / ) / / 9 / / 1017. कतिविहे गं भंते ! उग्गहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रत्थोग्गहे य वंजगोग्गहे य / [1017 प्र.] भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [1017 उ.] गौतम ! अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। 1018. वंजणोग्गहे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते। तं जहा-सोइंदियवंजणोग्गहे पाणिदियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फासिदियवंजणोग्गहे। [1018 प्र. भगवन् ! व्यंजनावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [1018 उ.] गौतम ! (व्यञ्जनावग्रह) चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकारश्रोत्रेन्द्रियावग्रह, घ्राणेन्द्रियावग्रह, जिह्वेन्द्रियावग्रह और स्पर्शेन्द्रियावग्रह / 1016. अत्थोग्गहे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! छबिहे प्रत्थोग्गहे पण्णत्ते / तं जहा-सोइंदियनत्थोग्गहे चक्खिदियनत्थोग्गहे घाणिदियप्रत्थोग्गहे जिभिदियप्रत्थोग्गहे फासिदिय प्रत्थोग्गहे णोइंदियनत्थोग्गहे / [1016 प्र.] भगवन् ! अर्थावग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? [1019 उ.] गौतम ! अर्थावग्रह छह प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रियअर्थावग्रह, चक्षुरिन्द्रिय-अर्थावग्रह, घ्राणेन्द्रिय-प्रर्थावग्रह, जिह्वन्द्रिय-अर्थावग्रह, स्पर्शेन्द्रिय-अर्थावग्रह और नोइन्द्रिय (मन)-अर्थावग्रह / 1020. [1] रइयाणं भंते ! कविहे उग्गहे पण्णत्ते ! गोयमा ! दुविहे उग्गहे पणत्ते / तं जहा–प्रत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य / [1020-1 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के कितने अवग्रह कहे गए हैं ? [1020-1 उ.] गौतम ! (उनके) दो प्रकार के अवग्रह कहे हैं / यथा—अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह / [2] एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराणं / Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [179 [1020-2] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक (के अवग्रह के विषय में कहना चाहिए)। 1021. [1] पुढयिकाइयाणं भंते ! कतिविहे उग्गहे पण्णते? गोयमा ! दुविहे उग्गहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य / [1021-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अवग्रह कहे गए हैं ? [1021-1 उ.] गौतम ! (उनके) दो प्रकार के अवग्रह कहे गए हैं / वे इस प्रकार-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह / [2] पुढविकाइयाणं भंते ! वंजणोग्गहे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! एगे फासिदियवंजणोग्गहे पण्णत्ते। [1021-2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के व्यंजनावग्रह कितने प्रकार के कहे गए हैं ? {1021-2 उ.] गौतम ! (उनके केवल) एक स्पर्शेन्द्रिय व्यंजनावग्रह कहा गया है / [3] पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविहे अत्थोग्गहे पण्णते ? गोयमा ! एगे फासिदियप्रत्थोग्गहे पण्णत्ते / [1021-3 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने अर्थावग्रह कहे गए हैं ? [1021-3 उ.] गौतम ! (उनके केवल) एक स्पर्शेन्द्रिय-अर्थावग्रह कहा गया है / [4] एवं जाव वणप्फइकाइयाणं / [1021-4] (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक (के व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह के विषय में) इसी प्रकार कहना चाहिए। 1022. [1] एवं बेइंदियाण वि / णवरं बेइंदियाणं वंजणोग्गहे दुविहे पण्णत्ते, प्रत्थोग्गहे दुविहे पण्णत्ते। [1022-1] इसी प्रकार द्वीन्द्रियों के अवग्रह के विषय में समझना चाहिए / विशेष यह है कि द्वीन्द्रियों के व्यंजनावग्रह दो प्रकार के कहे गए हैं तथा (उनके) अर्थावग्रह भी दो प्रकार के कहे गए हैं। [2] एवं तेइंदिय-चरिदियाण वि / णवरं इंदियपरिवुड्डी कायव्वा / चरिदियाणं वंजणोग्गहे तिबिहे पणत्ते, प्रत्थोग्गहे चउब्धिहे पण्णत्ते / [1022-2] इसी प्रकार श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के (व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह के) विषय में भी समझना चाहिए / विशेष यह है कि (उत्तरोत्तर एक-एक) इन्द्रिय को परिवृद्धि होने से एक-एक व्यंजनावग्रह एवं अर्थावग्रह की भी वृद्धि कहनी चाहिए। चतुरिन्द्रिय जोवों के व्यञ्जनावग्रह तीन प्रकार के कहे हैं और अर्थावग्रह चार प्रकार के कहे हैं। Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [प्रशापनासूत्र 1023. सेसाणं जहा णेरइयाणं (सु. 1020 [1]) जाव वेमाणियाणं / 10 // [1023] शेष समस्त जीवों के यावत् वैमानिकों तक के प्रवग्रह के विषय में जैसे (सू. 1020-1 में) नैरयिकों के अवग्रह के विषय में कहा है, वैसे ही समझ लेना चाहिए // 10 // विवेचन-सातवां, प्राठवां, नौवाँ और दसवां इन्द्रिय-प्रवग्रहण-प्रवाय-ईहा-प्रवग्रहद्वारप्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 1014 से 1023 तक) में चार द्वारों के माध्यम से क्रमश: इन्द्रियों के अवग्रहण, अवाय, ईहा और अवग्रह के विषय में कहा गया है / इन्द्रियावग्रहण का अर्थ-इन्द्रियों द्वारा होने वाले सामान्य परिच्छेद (ज्ञान) को इन्द्रियावग्रह या इन्द्रियावग्रहण कहते हैं / इन्द्रियावाय की व्याख्या-अवग्रहज्ञान से गृहीत और ईहाज्ञान से ईहित अर्थ का निर्णयरूप जो अध्यवसाय होत य होता है, वह अवाय या 'अपाय' कहलाता है। जैसे-यह शंख का ही शब्द है, अथवा यह सारंगी का ही स्वर है, इत्यादि रूप अवधारणात्मक (निश्चयात्मक) निर्णय होना / तात्पर्य यह है कि ज्ञानोपयोग में सर्वप्रथम अवग्रहज्ञान होता है; जो अपर सामान्य को विषय करता है / तत्पश्चात् ईहाज्ञान की उत्पत्ति होती है, जिसके द्वारा ज्ञानोपयोग सामान्यधर्म से प्रागे बढ़कर विशेषधर्म को ग्रहण करने के लिए अभिमुख होता है / ईहा के पश्चात् अवायज्ञान होता है, जो वस्तु के विशेषधर्म का निश्चय करता है / अवग्रहादि ज्ञान मन से भी होते हैं और इन्द्रियों से भी, किन्तु यहाँ इन्द्रियों से होने वाले प्रवग्रहादि के सम्बन्ध में ही प्रश्न और उत्तर हैं / ईहाज्ञान की व्याख्या-सद्भूत पदार्थ की पर्यालोचनरूप चेष्टा ईहा कहलाता है। ईहाज्ञान अवग्रह के पश्चात् और अवाय से पूर्व होता है। यह (ईहाज्ञान) पदार्थ के सद्भूत धर्मविशेष को ग्रहण करने और असद्भूत अर्थविशेष को त्यागने के अभिमुख होता है। जैसे—यहाँ मधुरता आदि शंखादिशब्द के धर्म उपलब्ध हो रहे हैं, सारंग आदि के कर्कशता-निष्ठुरता आदि शब्द के धर्म नहीं, अतएव यह शब्द शंख का होना चाहिए / इस प्रकार की मतिविशेष ईहा कहलाती है / प्रावग्रह और व्यंजनावग्रह--अर्थ का अवग्रह अर्थावग्रह कहलाता है। अर्थात--शब्द द्वारा नहीं कहे जा सकने योग्य अर्थ के सामान्यधर्म को ग्रहण करना प्रावग्रह है। कहा में --रूपादि विशेष से रहित अनिर्देश्य सामान्यरूप अर्थ का ग्रहण, अर्थावग्रह है। जैसे तिनके का स्पर्श होते ही सर्वप्रथम होने वाला--'यह कुछ है', इस प्रकार का ज्ञान / दीपक के द्वारा जैसे घट व्यक्त किया जाता है, वैसे ही जिसके द्वारा अर्थ व्यक्त किया जाए, उसे व्यंजन कहते हैं। तात्पर्य यह है कि उपकरणरूप द्रव्येन्द्रिय और शब्दादिरूप में परिणत द्रव्यों के परस्पर सम्बन्ध होने पर ही श्रोत्रन्द्रिय आदि इन्द्रियाँ शब्दादिविषयों को व्यक्त करने में समर्थ होती हैं, अन्यथा नहीं। अतः इन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। यों व्यंजनावग्रह का निर्वचन तीन प्रकार से होता है-उपकरणेन्द्रिय और उसके विषय का सम्बन्ध व्यंजन कहलाता है। उपकरणेन्द्रिय भी व्यंजन कहलाती है और व्यक्त होने योग्य शब्दादि विषय भी व्यंजन कहलाते हैं / तात्पर्य यह है कि दर्शनोपयोग के पश्चात् अत्यन्त अव्यक्तरूप परिच्छेद (ज्ञान) व्यञ्जनावग्रह है। पहले कहा जा चुका है कि उपकरण द्रव्येन्द्रिय और शब्दादि के रूप में परिणत द्रव्यों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है, वह व्यञ्जनावग्रह है, इस दष्टि से चार प्राप्यकारी इन्द्रियाँ ही ऐसी हैं, Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [181 जिनका अपने विषय के साथ सम्बन्ध होता है; चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं, इसलिए इन का अपने विषय के साथ सम्बन्ध नहीं होता / इसी कारण व्यञ्जनावग्रह चार प्रकार का बताया गया है, जबकि अर्थावग्रह छह प्रकार का निर्दिष्ट है। ध्यञ्जनावग्रह और प्रर्थावग्रह में व्युत्क्रम क्यों ?-व्यञ्जनावग्रह पहले उत्पन्न होता है, और अर्थावग्रह बाद में: ऐसी स्थिति में बाद में होने वाले अर्थावग्रह का कथन पहले क्यों किया गया? इसका समाधान यह कि अर्थावग्रह अपेक्षाकृत स्पष्टस्वरूप वाला होता है तथा स्पष्टस्वरूप वाला होने से सभी उसे समझ सकते हैं। इसी हेतु से अर्थाव ग्रह का कथन पहले किया गया है। इसके अतिरिक्त अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों और मन से होता है, इस कारण भी उसका उल्लेख पहले किया गया है। व्यञ्जनावग्रह ऐसा नहीं है, वह चक्षु और मन से नहीं होता तथा अतीव अस्पष्ट स्वरूप वाला होने के कारण सबके संवेदन में नहीं आता, इसलिए उसका कथन बाद में किया गया है।' ग्यारहवाँ द्रव्येन्द्रियद्वार 1024. कतिविहा गं भंते ! इंदिया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा--दविदिया य भाविदिया य / [1024 प्र.] भगवन् ! इन्द्रियाँ कितने प्रकार की कही हैं ? [1024 उ.] गौतम ! इन्द्रियाँ दो प्रकार की कही गई हैं / वे इस प्रकार-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय / 1025. कति णं भंते ! दविदिया पण्णता? गोयमा ! अट्ट विदिया पण्णत्ता। तं जहा-दो सोया 2 दो णेत्ता 4 दो घाणा 6 जीहा 7 फासे [1025 प्र.] भगवन् ! द्रव्येन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? [1025 उ.] गौतम ! द्रव्येन्द्रिय आठ प्रकार की कही गई हैं। वे इस प्रकार-दो श्रोत्र, दो नेत्र, दो घ्राण (नाक), जिह्वा और स्पर्शन / 1026. [1] रइयाणं भंते ! कति दबिदिया पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ट, एते चेव। [1026-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [1026-1 उ.] गौतम ! (उनके) ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ हैं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांच 310-311 (ख) वंजिज्जइ जेणत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तं च / उवगरणिदिय सहाइपरिणयदव्वसंबन्धो // 1 // --विशेषा. भाष्य -प्रज्ञापना. म. वृत्ति पत्रांक 311 में उद्धृत Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] [ प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं असुरकुमाराणं जाव थणियकुमाराण वि / [1026-2] इसी प्रकार असुरकुमारों से (ले कर) यावत् स्तनितकुमारों तक (ये ही आठ द्रव्येन्द्रियाँ) समझनी चाहिए। 1027. [1] पुढविकाइयाणं भंते ! कति दग्विदिया पण्णता ? गोयमा ! एगे फासेंदिए पण्णत्ते / [1027-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [1027-1 उ.] गौतम ! (उनके केवल) एक स्पर्शनेन्द्रिय कही है। [2] एवं जाव वणप्फतिकाइयाणं / [1027-2] (अप्कायिकों से ले कर) वनस्पतिकायिकों तक के इसी प्रकार (एक स्पर्शनेन्द्रिय समझनी चाहिए / ) 1028. [1] बेइंदियाणं भंते ! कति दधिदिया पण्णता ? गोयमा ! दो दविदिया पण्णत्ता / तं जहा---फासिदिए य जिभिदिए य / [1028-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [1028-1 उ.] गौतम ! उनके दो द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं। वे इस प्रकार-स्पर्शनेन्द्रिय और जिह्वन्द्रिय / [2] तेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! चत्तारि विदिया पण्णत्ता / तं जहा-दो घाणा 2 जोहा 3 फासे 4 / [1028-2 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीवों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [1028-2 उ.] गौतम ! (उनके) चार द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं / वे इस प्रकार-दो ब्राण, जिह्वा और स्पर्शन। [3] चरिदियाणे पुच्छा। गोयमा ! छ विदिया पण्णता / तं जहा--दो णेत्ता 2 दो घाणा 4 जीहा 5 फासे 6 / [1028-3 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों के कितनी द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं ? [1028-3 उ.] गौतम ! उनके छह द्रव्येन्द्रियाँ कही गई हैं / वे इस प्रकार---दो नेत्र, दो घ्राण, जिह्वा और स्पर्शन / 1026. सेसाणं जहा णेरइयाणं (सु. 1026 [1]) जाव वेमाणियाणं / [1026] शेष सबके (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों) यावत् वैमानिकों के (सू. 1026-1 में उल्लिखित) नैरयिकों की तरह (आठ द्रव्येन्द्रियाँ कहनी चाहिए।)। विवेचन-ग्यारहवाँ द्रव्येन्द्रियद्वार-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1024 से 1026 तक) में द्रव्येन्द्रियों के पाठ प्रकार और चौवीस दण्डकों में उनको प्ररूपणा की गई है। Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [183 चौवीस दण्डकों की प्रतीत-बद्ध-पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपरणा 1030. एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स केवतिया विदिया प्रतीया? गोयमा ! प्रणंता। केवतिया बदल्लया? गोयमा ! :अट्ठ। केवतिया पुरेवखडा? गोयमा ! प्रढ वा सोलस वा सत्तरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [1030 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1030 उ.] गोतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (भगवन् ! एक-एक नैरयिक की) कितनी (द्रव्येन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] गौतम ! आठ हैं। [प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की पुरस्कृत (आगे होने वाली) द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (आगामी द्रव्येन्द्रियाँ) पाठ हैं, सोलह है, संख्यात हैं, असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं। 1031. [1] एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स केवतिया दधिदिया प्रतीता? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा अट्ट वा णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / [1031-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1031-1 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के) कितनी (द्रव्येन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] गौतम ! आठ हैं। [प्र.] (भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! आठ हैं, संख्यात हैं, असंख्यात हैं, या अनन्त हैं। [2] एवं जाव थणियकुमाराणं ताव भाणियब्वं / [1031-2] नागकुमार से ले कर स्तनितकुमार तक (की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में भी) इसी प्रकार कहना चाहिए। 1032. [1] एवं पुढविक्काइय-प्राउक्काइय-वणप्फइकाइयस्स वि। णवरं केवतिया बदल्लगा? ति पुच्छाए उत्तरं एषके फासिदिए पण्णते। Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [प्रज्ञापनासूत्र [1032-1] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक (की अतीत और पुरस्कृत इन्द्रियों के विषय में) भी इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) [प्र. उ.] विशेषतः इनको (प्रत्येक को) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ऐसी पृच्छा का उत्तर है(इनकी बद्ध द्रव्येन्द्रिय) एक (मात्र) स्पर्शनेन्द्रिय कही गई है / [2] एवं तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि / णवरं पुरेक्खडा णव वा दस वा / [1032-2] तेजस्कायिक और वायुकायिक की अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों के विषय में भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) कहना चाहिए / विशेष यह है कि इनकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ नौ या दस होती हैं। 1033. [1] एवं बेइंदियाण वि / णवरं बद्धल्लगपुच्छाए दोणि / [1033-1] द्वीन्द्रियों की (प्रत्येक की अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) भी इसी प्रकार पूर्ववत् कहना चाहिए / विशेष यह है कि (इनकी प्रत्येक की) बद्ध (द्रव्येन्द्रियों) की पृच्छा होने पर दो द्रव्येन्द्रियाँ (कहनी चाहिए।) [2] एवं तेइंदियस्स वि / णवरं बद्धलगा चत्तारि / [1033-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय की (अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ चार होती हैं / [3] एवं चउरिदियस्स वि / नवरं बद्धलगा छ / [1033-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय की (अतीत और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) भी (जानना चाहिए / ) विशेष यह है कि (इसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ छह होती हैं। 1034. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणस-वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाणगदेवस्स जहा असुरकुमारस्स (सु. 1031) / णवरं मणसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ स्थि, जस्सऽस्थि प्र? वा नव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / [1034] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में (सू. 1031 में) जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में (कहा है, उसी प्रकार समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी मनुष्य के होती हैं, किसी के नहीं होती। जिसके (पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) होती हैं, उसके आठ, नो, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं / 1035. सणंकुमार-माहिद-बंभ-लंतग-सुक्क-सहस्सार-प्राणय-पाणय-प्रारण-अच्चुय-गेवेज्जगदेवस्स य जहा नेरइयस्स (सु. 1030) / [1035] सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, आरण, अच्युत और ग्रेवेयक देव की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में (सू. 1030 में उक्त) नैरयिक के (अतीतादि के) समान जानना चाहिए। Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 185 पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] 1036. एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स केवतिया दविदिया प्रतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा ! प्रट्ट। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अटु वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा / {1036 प्र. भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1036 उ.] गौतम अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! विजयादि चारों में से प्रत्येक की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! पाठ हैं। [प्र.] भगवन् ! (इनकी प्रत्येक की) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ, सोलह, चौवीस या संख्यात होती हैं। 1037. सव्वट्ठसिद्धगदेवस्स प्रतोता अणंता, बद्ध ल्लगा अट्ट, पुरेक्खडा अट्ठ / 61037] सर्वार्थसिद्ध देव की (प्रत्येक को) अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त, बद्ध पाठ और पुरस्कृत भी पाठ होती हैं। 1038. [1] णेरइयाणं भंते ! केवतिया दविदिया प्रतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! असंखेज्जा। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! प्रणंता। [1038-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नारकों की अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1038-1 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (उनकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! असंख्यात हैं। . [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [2] एवं जाब गेवेज्जगदेवाणं / णवरं मसाणं बद्धल्लगा सिय संखेज्जा सिय प्रसंखेज्जा। [1038-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् (बहुत-से) ग्रेवेयक देवों (की अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों) के विषय में (समझ लेना चाहिए।) विशेष यह है कि मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होती हैं। Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [ प्रज्ञापनासूत्र 1036. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! प्रतीता अणंता, बद्धल्लगा असंखेज्जा, पुरेक्खडा असंखेज्जा। [1039 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी-कितनी हैं ? __[1039 उ.] गौतम ! (इनकी) अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) अनन्त हैं, बद्ध असंख्यात हैं (और) पुरस्कृत असंख्यात हैं। 1040. सम्वसिद्धगदेवाणं पुच्छा / गोयमा ! अईया अणंता, बद्धलगा संखेज्जा, पुरेक्खडा संखेज्जा। [1040 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों की (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) कितनीकितनी हैं ? [1040 उ.] गौतम ! (इनकी) अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध संख्यात हैं (और) पुरस्कृत संख्यात हैं। 1041. [1] एगमेगस्स णं भंते ! जेरइयस्स णेरइप्रत्ते केवतिया दविदिया अतीया ? गोयमा! अणंता। केवतिया बद्धल्लया ? गोयमा ! अट्ट। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ प्रत्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [1041-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की नैरयिकपन (नारक अवस्था) में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1041-1 उ.] गौतम ! अनन्त हैं / [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) पाठ हैं। [प्र.] पुरस्कृत (आगामी काल में होने वाली) द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) किसी (नारक) की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी पाठ, सोलह, चौबीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। [2] एगमेगस्स गं भंते ! जेरऽयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया दविदिया प्रतीता ? गोयम ! अणंता। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! णस्थि। Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [17 केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! कस्तइ अस्थि कासइ पत्यि, जस्मऽरिय प्रह वा सोलस वा च उवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा / एवं जाव थणियकुमारत्ते। [1041-2 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक को असुरकुमार पर्याय में अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [1041-2 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] बद्ध (द्रव्येन्द्रियां) कितनी हैं ? [उ. (वे) नहीं हैं। [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी पाठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। इसी प्रकार एक-एक नैरयिक को (नागकुमारपर्याय से लेकर) यावत् स्तनितकुमारपर्याय में (अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / ) [3] एगमेगस्स णं भंते ! रहयस्स पुढविकाइयत्ते केवतिया दविदिया अतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धल्लया ? गोयमा! णत्यि। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि, जस्सऽस्थि एकको वा दो वा तिणि वा संखेज्जा वा असंखेज्जा बा अणंता वा / एवं जाव वणप्फइकाइयत्ते / [1041-3 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक को पृथ्वीकायपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1041-3 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [प्र.] बद्ध द्रव्ये न्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं / [प्र.] (भगवन् ! इनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती / जिसकी होतो हैं, उसकी एक, दो, तीन या संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। इसी प्रकार एक-एक नारक को अप्कायपर्याय से लेकर यावत् वनस्पतिकायपन में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) [4] एगमेगस्स गं भंते ! रइयस्स बेइंदियत्ते केवतिया दविदिया अतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धलगा? Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! णस्थि / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि दो वा चत्तारि वा छ वा संखेज्जा वा प्रसंखेज्जा वा अणंता वा। एवं तेइंदियत्ते वि, वरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। एवं चरिदियत्ते वि नवरं पुरेक्खडा छ वा बारस वा प्रहारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [1041-4 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक को द्वीन्द्रियपन में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [1041-4 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (भगवन् ! वैसी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी दो, चार, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) श्रीन्द्रियपन में (अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों के विषय में समझना चाहिए।) विशेष यह है कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ चार, पाठ या बारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) चतुरिन्द्रियपन में (अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियों) के विषय में जानना चाहिए। विशेष यह है कि उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ छह, बारह, अठारह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। [5] पंचेंदियतिरिक्खजोगियत्ते जहा असुरकुमारत्ते। [1041-5] (एक-एक नैरयिक की) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में असुरकुमारपर्याय में जिस प्रकार कहा गया था, उसी प्रकार कहना चाहिए। [6] मणूसत्ते वि एवं चेव / णवरं केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। सन्वेसि मणूसवज्जाणं पुरेक्खडा मणूसत्ते कस्सइ अस्थि कस्सइ णथि त्ति एवं ग वुच्चति / [1041-6] मनुष्यपर्याय में भी इसी प्रकार अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / [प्र.] विशेष यह है कि पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं / मनुष्यों को छोड़ कर शेष सबकी (तेईस दण्डकों के जीवों की) पुरस्कृत (भावी) द्रव्येन्द्रियाँ मनुष्यपन में किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, ऐसा नहीं कहना चाहिए। [7] वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मग जाव गेवेज्जगदेवत्ते प्रतीया अणंता; बद्ध लगा स्थि; पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रिययद : द्वितीय उद्देशक] [189 [1041-7] (एक-एक नैरयिक की) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म से लेकर ग्रैवेयक देव तक के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं और पुरस्कृत इन्द्रियाँ किसी की हैं, किसी की नहीं हैं। जिसकी हैं, उसकी पाठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। [8] एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेबत्ते केवतिया दधिदिया प्रतीया? गोयमा! णस्थि / केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! पत्थि।। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि प्रढ वा सोलस वा। [1041-8 प्र.] भगवन् ! एक नैरयिक की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [1041-8 उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] भगवन् ! बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.) भगवन् ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं। [6] सव्वदृसिद्धगदेवत्ते अतीया पत्थि; बद्धलगा णत्थि; पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ त्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ। [1041-9] सर्वार्थसिद्ध देवपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियां भी नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं। 1042. एवं जहा रइयदंडओ णीग्रो तहा असुरकुमारेण वि णेयन्वो जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएणं / णवरं जस्स सट्टाणे जति बद्धल्लगा तस्स तइ भाणियव्वा / [1042] जैसे (सू. 1041-1 से 9 में) नैरयिक (की नैरयिकादि विविधरूप में पाई जाने वाली अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों) के विषय में दण्डक कहा, उसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक तक के दण्डक कहने चाहिए ! विशेष यह है कि जिसकी स्वस्थान में जितनी बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कहीं, उसकी उतनी कहनी चाहिए। 1043. [1] एगमेगस्स णं भंते ! मणसस्स रइयत्ते केवतिया दन्वेंदिया प्रतीया ? गोयमा! अणंता। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउबीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा। Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 [ प्रज्ञापनासूत्र [1043-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की नैरयिकपन में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1043-1 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [प्र.) (भगवन् ! उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (भगवन् ! उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी पाठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं / [2] एवं जाव पंचेदियतिरिक्खजोणियत्ते। णवरं एगिदिय-विलिदिएसु जस्स जत्तिया पुरेक्खडा तस्स तत्तिया भाणियन्वा / [1043-2] इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में से जिसकी जितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कही हैं, उसकी उतनी कहनी चाहिए। [3] एगमेगस्स णं भंते ! मणसस्स मणसत्ते केवतिया दविदिया प्रतीया ? गोयमा ! प्रणंता। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! प्रद्र। केवतिया पुरेक्खडा? कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणेता वा / [1043-3 प्र.] भगवन् ! मनुष्य को मनुष्यपर्याय में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1043-3 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र. बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं? [उ.] गौतम ! (वे) पाठ हैं। [प्र] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? [उ.] गौतम (वे) किसी को होती हैं, किसी को नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। [4] वाणमंतर-जोतिसिय जाव गेवेज्जगदेवत्ते जहा णेरइयत्ते। [1043-4] (एक-एक मनुष्य को) वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और (सौधर्म से लेकर) यावत् प्रैवेयक देवत्व के रूप में (अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में) नैरयिकत्व रूप में उक्त (सू. 1043-1 में उल्लिखित) अतीतादि द्रव्येन्द्रियों के समान समझना चाहिए / [5] एगमेगस्स णं भंते ! मणसस्स विजय-वेजयंत-जयंताऽपराजियदेवते केवइया दग्विदिया अतीया ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि प्रढ वा सोलस वा। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! गस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा। Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक] [ 191 [1043-5 प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [1043-5 उ.] गौतम! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं / [प्र] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं / [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी आठ या सोलह होती हैं। [6] एगमेगस्स णं भंते ! मणूसस्स सम्वसिद्धगदेवत्ते केवतिया दग्विदिया अतीता? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ / केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट / [1043-6 प्र.] भगवन् ! एक-एक मनुष्य की सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1043-6 उ.] गौतम ! (वे) किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी पाठ होती हैं ? [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं होती। [प्र.] (भगवन् ! उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी होती हैं ? उ ] गौतम! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती है। 1044. वाणमंतर-जोतिसिए जहा रइए (सु. 1041) / [1044] वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देव की तथारूप में अतीत, बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता (सू. 1041 में उल्लिखित) नैरयिक की वक्तव्यता के समान कहना चाहिए। 1045. [1] सोहम्मगदेवे वि जहा रइए (सु. 1041) / णवरं सोहम्मगदेवस्स विजय-बेजयंत-जयंत-अपराजियत्ते केवतिया दविदिया प्रतीता? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि प्रष्ट / केवतिया बद्धलगा? गोयमा! णस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ वा सोलस वा। सव्वसिद्धगदेवत्ते जहा रइयस्स। Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [ प्रज्ञापनासूत्र [1045-1] सौधर्मकल्प देव की (तथारूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) भी (सू. 1041 में अंकित) नैरयिक की (वक्तव्यता के समान कहना चाहिए।) [प्र.] विशेष यह है कि सौधर्मदेव की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्व के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती / जिसकी होती हैं, उसकी आठ होती हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्ये न्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी को होती हैं, किसी को नहीं होती। जिसकी होती हैं, पाठ या सोलह होती हैं / (सौधर्मदेव को) सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में (अतीत बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों को वक्तव्यता (सू. 1041 के अनुसार) नैरयिक (की वक्तव्यता) के समान (समझनी चाहिए।) [2] एवं जाव गेवेज्जगदेवस्स सव्वटुसिद्धगदेवत्ते ताव णेयव्वं / [1045-2] (ईशानदेव से लेकर) ग्रेवेयकदेव तक की यावत् सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में अतीतबद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार कहनी चाहिए। 1046. [1] एगमेगस्स णं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स णेरइयत्ते केवतिया दग्विदिया अतीता? गोयमा! अणंता। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा ! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [1046-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की नैरयिक के रूप में कितनी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? {1046-1 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [2] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियत्ते / [1046-2] [इन चारों की प्रत्येक की, असुरकुमारत्व से लेकर यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकत्वरूप में (अतीत-बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों को वक्तव्यता भी) इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक / [ 193 [3] मणूसत्ते प्रतीया प्रणंता, बद्धल्लगा णस्थि, पुरेक्खडा अट्ठ वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जावा [1046-3] (इन्हीं की प्रत्येक की) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ, सोलह या चौवीस होती हैं, अथवा संख्यात होती हैं / [4] वाणमंतर-जोतिसियत्ते जहा परइयत्ते (सु. 1041) / [1046-4] (इन्हीं को प्रत्येक की) वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क देवत्व के रूप में (अतीत, बद्ध, पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता सू. 1041 में उल्लिखित) नै रयिकत्वरूप की प्रतीतादि की वक्तव्यता के अनुसार (कहना चाहिए / ) [5] सोहम्मगदेवत्ते प्रतीया अणंता / बद्धलगा पत्थि / पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट वा सोलस वा चउवीसा वा संखेज्जा वा / [1046-5] (इन चारों की प्रत्येक को) सौधर्मदेवत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती। जिसको होतो हैं, उसकी आठ, सोलह, चौवीस अथवा संख्यात होती हैं / [6] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते / [1046-6] (इन्हीं चारों की प्रत्येक की) (ईशानदेवत्व से लेकर) यावत् अवेयकदेवत्व के रूप में (अतीतादि द्रव्येन्द्रियों को वक्तव्यता) इसी प्रकार (समझनी चाहिए / ) [7] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियत्ते प्रतीया कस्सइ प्रथि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! अट्ट। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अत्थि कस्सइ स्थि, जस्सऽस्थि अट्ठ।। [1046-7] (इन चारों की प्रत्येक की) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ किसी की होती हैं और किसी को नहीं होती। जिसकी होती हैं उसको पाठ होती हैं। [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं। प्रि.] कितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं और किसी की नहीं होती, जिसकी होती हैं, उसके पाठ होती हैं। मेगस्स णं भंते! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स गदेवत्ते केवतिया ददिदिया प्रतीया ? Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 ] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! स्थि। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा ! पत्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि अट्ट / [1046-8 प्र.] भगवन् ! एक-एक विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देव की सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1046-8 उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं / [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। [प्र.] पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती / जिसकी होती हैं, वे आठ होती हैं / 1047. [1] एगमेगस्स णं भंते ! सव्वसिद्धगदेवस्स गैरइयत्ते केवतिया दविदिया प्रतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [1047-1 प्र.] भगवान् ! एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की नारकपन में कितनी द्रव्येन्द्रियाँ प्रतीत हैं ? [1047-1 उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] कितनी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [2] एवं मणूसवज्जं जाव गेवेज्जगदेवत्ते / णवरं मणूसत्ते अतीया अणंता / केवतिया बद्ध ल्लगा? गोयमा ! गस्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! अट्ठ। [1047-2] इसी प्रकार (असुरकुमारत्व से लेकर) मनुष्यत्व को छोड़कर यावत् ग्रैवेयकदेवत्व रूप में (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) (अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता समझनी चाहिए।) Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 195 विशेष यह है कि (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव को) मनुष्यस्वरूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। [प्र.] बद्ध (व्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं / [प्र.] पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (बे) पाठ हैं। [3] विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते प्रतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ परिय, जस्सास्थि अट। केवतिया बद्धलगा? गोयमा ! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [1047-3] (एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव की) विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्वरूप में, अतीत (द्रव्येन्द्रियाँ) किसी को हैं और किसो को नहीं हैं / जिसको होती हैं, वे आठ होती हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] कितनी पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) हैं ? [उ.) गौतम नहीं हैं। [4] एगमेगस्स णं भंए ! सम्वसिद्धगदेवस्स सम्वसिद्धगदेवत्ते केवतिया दबिदिया अतीया ? गोयमा ! पत्थि। केवतिया बद्धल्लगा? गोयमा ! अट्ठ। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। {1047-4 प्र.] भगवन् ! एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव को सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ किकनी हैं ? [1047-4 उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उसकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) आठ हैं। [प्र.] उसको पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं। 1048. [1] रइयाणं भंते ! णेरइयत्ते केवइया दधिदिया प्रतीया ? गोयमा ! अणता। केवतिया बद्धलगा? Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! प्रसंखेज्जा। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! प्रणंता। [1048-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की नारकत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1048.1 उ.] गौतम ! (बे) अनन्त हैं। [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) असंख्यात हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [2] रइयाणं भंते ! असुरकुमारत्ते केवतिया विदिया प्रतीता ? गोयमा ! अणंता। केवतिया बदल्लगा? गोयमा ! णस्थि / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता। [1048-2 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की असुरकुमारत्वरूप में (अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1048-2 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं / [प्र. (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! अनन्त हैं। [3] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्त / [1048.3] (बहुत-से नारकों की) नागकुमारत्व से लेकर यावत् अवेयकदेवत्वरूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) जाननी चाहिए। [4] रइयाणं भंते ! विजय-जयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते केवतिया दविदिया प्रतीता? णस्थि / केवतिया बद्धलगा? त्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? असंखेज्जा / Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रिपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 197 (1048-4 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवस्व के रूप के अतीत द्रव्येन्द्रियां कितनी हैं ? [1048-4 उ.] गौतम ! नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) असंख्यात हैं। [5] एवं सवसिद्धगदेवत्ते वि / [1048-5] (नैरयिकों की) सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (जाननी चाहिए।) 1046, एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं सव्वदसिद्धगदेवत्ते भाणियव्वं / वरं वणप्फतिकाइयाणं विजय-बेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते सव्वदसिद्धगदेवत्ते य पुरेक्खडा अणंता; सन्वेसि मणूस-सम्वसिद्धगवज्जाणं सटाणे बद्धलगा असंखेज्जा, परहाणे बदल्लगा णत्थि घणस्सतिकाइयाणं सटाणे बद्ध ल्लगा अणंता। [1049] (असुरकुमारों से लेकर) यावत् (बहुत-से) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों की यावत् (नरयिकत्व से लेकर) सर्वार्थसिद्ध देवत्वरूप (तक) में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की) प्ररूपणा इसी प्रकार (पूर्ववत्) करनी चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की, विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवत्व तथा सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। मनुष्यों और सर्वार्थसिद्धदेवों को छोड़कर की स्वस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं, परस्थान में बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) नहीं हैं। वनस्पतिकायिकों की स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। 1050. [1] मणुस्साणं णेरइयत्ते प्रतीता अणंता, बद्ध ल्लगा णस्थि, पुरेक्खडा अणंता / [1050-1] मनुष्यों की नै रयिकत्व के रूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं / [2] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते। णवरं सट्ठाणे प्रतीता अणंता, बद्धलगा सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, पुरेक्खडा अणंता / [1050-2] मनुष्यों की (असुरकुमारत्व से लेकर) यावत् अवेयकदेवत्वरूप में (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा) इसी प्रकार (पूर्ववत्) (समझनी चाहिए।) विशेष यह है कि (मनुष्यों की) स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं। [3] मणूसाणं भंते ! विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते केवतिया दधिदिया अतीता ? संखेज्जा। Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [ प्रज्ञापनासूत्र केवतिया बद्धलगा? णस्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? सिय संखेज्जा सिय प्रसंखेज्जा / एवं सवसिद्धगदेवत्ते वि / [1050-3 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों की विजय, वजयन्त, जयन्त और अपराजित-देवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1050-3 उ.] (गौतम ! वे) संख्यात हैं। [प्र.) (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! वे) कदाचित् संख्यात हैं, कदाचित् असंख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धदेवत्वरूप में भी (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों को वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए / ) 1051. वाणमंतर-जोइसियाणं जहा रइयाणं (सु. 1048) / [1051] (बहुत-से) वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की अतीत बद्ध पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियों) की वक्तव्यता (नैरयिकत्व से लेकर सर्वार्थ सिद्धदेवत्व रूप तक में सू. 1048 में उक्त) नैरयिकों की (वक्तव्यता के समान जानना चाहिए / ) 1052. सोहम्मगदेवाणं एवं चेव / णवरं विजय-जयंत-जयंत-अपराजियदेवत्ते प्रतीता असंखेज्जा, बल्लगा णस्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा। सम्बटुसिद्धगदेवत्ते अतोता णस्थि, बद्धल्लगा स्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा। [1052] सौधर्म देवों को अतीतादि को वक्तव्यता इसी प्रकार है। विशेष यह है कि विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजितदेवत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं, बद्ध नहीं हैं तथा पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं / सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं।। 1053. एवं जाव गेवेज्जगदेवाणं / [1053] (बहुत-से) ईशान देवों से लेकर) यावत् ग्रेवेयकदेवों की (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता भी) इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) 1054. [1] विजय-जयंत-जयंत-अपराजियदेवाणं भंते ! रइयत्ते केवतिया दन्वेंदिया अतीता? गोयमा ! प्रणंता। केवतिया बद्धलगा? णस्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? त्थि / Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [199 [1054-1 प्र.] भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1054-1 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं / [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) नहीं हैं। [2] एवं जाव जोइसियते। णवरमेसि मणूसत्ते प्रतोया अणंता; केवतिया बद्धल्लगा? णस्थि; पुरेक्खडा असंखेज्जा / [1054-2] इसी प्रकार यावत् ज्योतिष्कदेवत्वरूप में भी (अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि इनकी मनुष्यत्वरूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं / [प्र.] (इनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र. (इनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! वे) असंख्यात हैं। [3] एवं जाव गेवेज्जगदेवत्ते / सट्टाणे प्रतीता असंखेज्जा / केवतिया बद्धल्लगा? प्रसंखेज्जा। केवतिया पुरेक्खडा ? असंखेज्जा / [1054-3] (विजयादि चारों की) सौधर्मादि देवत्व से लेकर यावत् ग्रेवेयकदेवत्व के रूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता इसी प्रकार है। इनकी स्वस्थान में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात हैं। [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] असंख्यात हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ) असंख्यात हैं / [4] सम्बटुसिद्धगदेवत्ते अतीता पत्थि, बद्धलगा णत्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा। [1054-4] (इन चारों देवों) की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ नहीं हैं, बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ भी नहीं हैं, किन्तु पुरस्कृत असंख्यात हैं। 1055. [1] सम्वसिद्धगदेवाणं भंते ! रइयत्ते केवतिया दवें दिया प्रतीता? गोयमा! अणंता। केवतिया बद्धलगा? णत्थि / Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] [प्रज्ञापनासूत्र कवतिया पुरेक्खडा? णत्थि / [1055-1 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों की नैरयिकत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1055-1 उ.] गौतम ! (वे) अनन्त हैं। [प्र.] (उनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [प्र.] (उनकी) पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम !) नहीं हैं। [2] एवं मणसवज्जं जाव गेवेज्जगदेवत्ते। {1055-2] मनुष्य को छोड़ कर यावत् प्रैवेयकदेवत्व तक के रूप में भी इसी प्रकार (इनकी अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की वक्तव्यता कहनी चाहिए।) [3] मणूसत्ते प्रतीता अणता, बद्धलगा णत्यि, पुरेक्खडा संखेज्जा / [1055-3] (इनकी) मनुष्यत्व के रूप में अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध नहीं हैं, पुरस्कृत संख्यात हैं। जय-वेजयंत-जयंतापराजियदेवत्ते केवतिया दग्विदिया प्रतीता? संखेज्जा। केवतिया बद्धल्लगा? नस्थि / केवतिया पुरेक्खडा? णस्थि / [1055-4 प्र.] विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजितदेवत्व के रूप में इनकी अतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1055-4 उ. (वे) संख्यात हैं / [प्र.) (इनकी) बद्ध (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) नहीं हैं / [प्र.] उनको पुरस्कृत (द्रव्येन्द्रियाँ) कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! ) नहीं हैं। [5] सम्वटुसिद्धगदेवाणं भंते ! सम्वदृसिद्धगदेवत्ते केवतिया व्यिदिया प्रतीता ? णस्थि / केवतिया बद्धलगा? संखेज्जा। Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 201 केवइया पुरेक्खडा? णस्थि / 11 दारं // [1055-5 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध देवों की सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में प्रतीत द्रव्येन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1055-5 उ.] गौतम ! (वे) नहीं हैं / [प्र.] बद्ध द्रव्येन्द्रियां कितनी हैं ? [उ.] (गौतम ! वे) संख्यात हैं। [प्र] (उनकी) पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियां कितनी हैं ? [उ.) (मौतम ! वे) नहीं हैं। // 11 द्वार / / विवेचन-चौवीस दण्डकों की प्रतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों को प्ररूपणा--प्रस्तुत ग्यारहवें द्वार के अन्तर्गत नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक समस्त जीवों की अतीत बद्ध और पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों की एकत्व, बहुत्व आदि विभिन्न पहलुओं से प्ररूपणा की गई है। प्रतीतादि का स्वरूप-अतीत का अर्थ है-भूतकालीन द्रव्येन्द्रियाँ, बद्ध का अर्थ है-वर्तमान में प्राप्त द्रव्येन्द्रियाँ एवं पुरस्कृत यानी आगार्मीकाल में प्राप्त होने वाली द्रव्येन्द्रियाँ / चार पहलुओं से प्रतीतादि द्रव्येन्द्रियों को प्ररूपणा-(१) एक-एक नैरयिक से लेकर एक-एक सर्वार्थसिद्धदेव तक की अतीत बद्ध पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियों को प्ररूपणा, (2) बहुत-से नैरयिकों से लेकर बहत-से सर्वार्थसिद्ध देवों तक की अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा, (3) एक-एक नैरयिक से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक की नैरयिकत्व से लेकर सर्वार्थसिद्धत्व के रूप के अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा और (4) बहत-से नैरयिकों से सर्वार्थसिद्ध देवों तक की नैरयिकत्व से सर्वार्थसिद्धदेवत्व के रूप में अतीतादि द्रव्येन्द्रियों की प्ररूपणा। एक नैरयिक को पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ-एक-एक जीवविषयक पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ आठ, सोलह. सबह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त बताई गई हैं, वे इस प्रकार से हैं-जो नारक अगले हो भव में मनुष्यपर्याय प्राप्त करके सिद्ध हो जाएगा, उसकी मनुष्यभवसम्बन्धी पाठ ही द्रव्येन्द्रियाँ होगीं / जो नारक नरक से निकल पंचेन्द्रियतिर्यचयोनि में उत्पन्न होगा और फिर मनुष्यगति प्राप्त करके सिद्धि प्राप्त करेगा, उसकी तिर्यंचभवसम्बन्धी पाठ और मनुष्यभवसम्बन्धी पाठ, य मिलकर सालह होगों। जो नारक नरक से निकलकर पंचेन्द्रियतिथंच होगा, तदनन्तर एकेन्द्रियकाय में उत्पन्न होगा और फिर मनुष्यभव पाकर सिद्ध हो जाएगा, उसकी पंचेन्द्रियतियं चभव की आठ, एकेन्द्रियभव को एक और मनुष्यभव की पाठ, यों सब मिलकर सत्तरह द्रव्येन्द्रियाँ होंगी। जो नारक संख्यातकाल तक संसार के परिभ्रमण करेगा, उसकी संख्यात, जो असंख्यात काल तक भवभ्रमण करेगा उसको असंख्यात और जो अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा, उसकी अनन्त पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ होगी। ___मनुष्य को प्रागामो (पुरस्कृत) द्रव्येन्द्रियाँ-किसी मनुष्य की होती हैं और किसी को नहीं भी होती / जो मनुष्य उसी भव से सिद्ध हो जाते हैं, उनकी नहीं होती, शेष मनुष्य की होती हैं तो वे 8, 6, संख्यात असंख्यात अथवा अनन्त होती हैं। वह यदि अनन्तरभव में पुनः मनुष्य होकर Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [ प्रज्ञापनासूत्र सिद्ध हो जाता है तो उसकी आठ द्रव्येन्द्रियाँ होती हैं। जो मनुष्य पृथ्वीकायादि में एक भव के पश्चात् मनुष्य होकर सिद्धिगामी होता है, उसकी 6 इन्द्रियाँ होती हैं / शेष भावना पूर्ववत् समझनी चाहिए। असुरकुमारों को पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ-असुरकुमार के भव से निकलने के पश्चात् मनुष्यत्व को प्राप्त कर जो सिद्ध होता है, उसकी पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ 8 होती हैं / ईशानपर्यन्त एक एक असुरकुमारादि पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है, वह अनन्तर भव में पृथ्वीकायादि किसी एकेन्द्रिय में जाकर तदनन्तर मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसके नौ पुरस्कृत इन्द्रियाँ होती हैं / संख्यातादि की भावना पूर्ववत् समझनी चाहिए। पृथ्वी अप-वनस्पतिकाय की पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियाँ-पृथ्वीकायादि मर कर अनन्तर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सिद्ध होते हैं, उनमें जो अनन्तरभव में मनुष्यत्व को प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसकी मनुष्यभव सम्बन्धी आठ इन्द्रियाँ होगीं / जो पृथ्वीकायादि अनन्तर एक पृथ्वीकायादि भव पाकर तदनन्तर मनुष्य होकर सिद्ध हो जाते हैं, उनकी 6 इन्द्रियाँ होगी। तेजस्कायिक-वायुकायिक एवं विकलेन्द्रिय को पुरस्कृत द्रव्येन्द्रियां तेजस्कायिक और वायुकायिक मरकर तदनन्तर मनुष्यभव नहीं प्राप्त करते / द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव अनन्तर आगामी भव में मनुष्यत्व तो प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते, अतएव उनकी जघन्य नौ-नौ इन्द्रियाँ कहनी चाहिए। शेष प्ररूपणा पूर्वोक्तानुसार समझनी चाहिए। सनत्कुमारादि की पुरस्कृत इन्द्रियाँ-सनत्कुमारादि देव च्यव करके पृथ्वीकायादि में उत्पन्न नहीं होते, किन्तु पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। अतएव उनका कथन नैरयिकों की तरह समझना चाहिए / विजयादि चार को पुरस्कृत इन्द्रियाँ-जो अनन्तरभव में ही मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध होगा, उसकी 8 इन्द्रियाँ होती हैं / जो एक वार मनुष्य होकर पुन: मनुष्यभव पाकर सिद्ध होगा, उसके 16 इन्द्रियाँ होती हैं। जो बीच में एक देवत्व का अनुभव करके मनुष्य होकर सिद्धिगामी हो तो उसके 24 इन्द्रियाँ होती हैं। मनुष्यभव में आठ, देवभव में 8 और पुनः मनुष्यभव में आठ, यों कूल 24 इन्द्रियाँ होगी / विजयादि चार विमानगत देव प्रभूत असंख्यातकाल या अनन्तकाल तक संसार में नहीं रहते। इस कारण उनकी आगामी द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात ही कही हैं, असंख्यात या अनन्त नहीं। सर्वार्थसिद्धदेव की पुरस्कृत इन्द्रियाँ--सर्वार्थसिद्ध विमान के देव नियमतः अगले भव में सिद्ध होते हैं, इस कारण उनकी आगामी द्रव्येन्द्रियाँ 8 ही कही हैं। अनेक मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ-कदाचित संख्यात और कदाचित् असंख्यात होती हैं / इसका कारण यह है कि किसी समय सम्मूच्छिम मनुष्यों का सर्वथा अभाव हो जाता है, उनका अन्तर चौवीस मुहूर्त का है। जब सम्मूच्छिम मनुष्य सर्वथा नहीं होते, तब मनुष्यों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ संख्यात होती हैं, क्योंकि गर्भज मनुष्य संख्यात ही होते हैं, किन्तु जब सम्मूच्छिम मनुष्य भी होते है, तब बद्ध द्रव्येन्द्रियां असंख्यात होती हैं। नारक की नारकभव अवस्था में भावी द्रव्येन्द्रियां-किसी नारक की भविष्यत्कालिक द्रव्येन्द्रियाँ होती है, किसी की नहीं। जो नारक नरक से निकलकर फिर कभी नारक पर्याय में उत्पन्न नहीं होगा, उसकी भावी द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती। जो नारक कभी पुनः नारक में उत्पन्न होगा, उसकी Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [ 203 होती हैं। अगर वह एक ही वार उत्पन्न होने वाला हो तो उसको आठ, दो वार नारकों में उत्पन्न हान वाला हा तो सोलह, तीन बार उत्पन्न होने वाला हो तो चौवीस, संख्यात बार उत्पन्न होने वाला हो तो संख्यात और असंख्यात या अनन्त वार उत्पन्न होने वाला हो तो भावी द्रव्येन्द्रियाँ भी क्रमश: असंख्यात या अनन्त होती हैं / एक नारक को पृथ्वीकायपने में प्रतीत बद्ध इन्द्रियाँ-एक नारक को अतीत द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त होती हैं। बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ बिलकुल नहीं होती, क्योंकि नरकभव में वर्तमान नारक का पृथ्वीकायिक के रूप में वर्तमान होना संभव नहीं है, इस कारण बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होती। विजयादि पांच अनुत्तरौपपातिक देवों की प्रतीतादि द्रव्येन्द्रियाँ-जो जीव एक वार विजयादि विमानों में उत्पन्न हो जाता है, उसका फिर से नारकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों में जन्म नहीं होता / अतः उनमें नारकादि संबंधी द्रव्येन्द्रियाँ सम्भव नहीं हैं। सर्वार्थसिद्ध देवों के रूप में अतीत और बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ नहीं होतीं। नारक जीव अतीतकाल में कभी सर्वार्थसिद्ध जीव हुआ नहीं है। अतः सर्वार्थसिद्धदेवत्व रूप में उसकी द्रव्येन्द्रियाँ असम्भव हैं / सर्वार्थसिद्ध विमान में एक वार उत्पन्न होने के पश्चात् मनुष्यभव पाकर जीव सिद्धि प्राप्त कर लेता है / वनस्पतिकायिकों की विजयादि के रूप में भावी द्रव्येन्द्रियाँ अनन्त हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव अनन्त होते हैं। बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ-मनुष्य और सर्वार्थसिद्ध देवों को छोड़कर सभी को स्वस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात जाननी चाहिए। परस्थान में बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ होती नहीं / क्योंकि जो जीव जिस भव में वर्तमान है, वह उसके अतिरिक्त परभव में वर्तमान नहीं हो सकता। वनस्पतिकायिकों की बद्ध द्रव्येन्द्रियाँ असंख्यात होती हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर असंख्यात ही होते हैं।' बारहवाँ भावेन्द्रियद्वार 1056. कति णं भंते ! भाविदिया पण्णता ? गोयमा ! पंच माविदिया पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदिए जाव फासिदिए। [1056 प्र.] भगवन् ! भावेन्द्रियाँ कितनी कही गई हैं ? {1056 उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं / वे इस प्रकार-श्रोत्रेन्द्रिय से (लेकर) स्पर्शेन्द्रिय तक। 1057. रइयाणं भंते ! कति भाविदिया पण्णता? गोयमा! पंच भाविदिया पण्णत्ता / तं जहा-सोइंदिए जाब फासेंदिए / एवं जस्स जति इंदिया तस्स तत्तिया माणियव्या जाव वेमाणियाणं / [1057 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितनी भावेन्द्रियाँ कही गई हैं ? {1057 उ.] गौतम ! भावेन्द्रियाँ पांच कही हैं। वे इस प्रकार हैं--श्रोत्रेन्द्रिय से स्पर्शेन्द्रिय तक / इसी प्रकार जिसकी जितनी इन्द्रियाँ हों, उतनी वैमानिकों की भावेन्द्रियों तक कह लेनी चाहिए। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 315-316 Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रज्ञापनासून 1058. एगमेगस्स णं भंते ! गैरइयस्स केवतिया भाविदिया प्रतीता ? गोयमा ! अणंता / केवतिया बल्लिगा? पंच / केवतिया पुरेक्खडा ? पंच का दस वा एक्कारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता था। [1058 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक के कितनी अतीत भावेन्द्रियाँ हैं ? [1058 उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। [प्र.] (उनकी) कितनी (भावेन्द्रियाँ) बद्ध हैं ? [उ.] (गौतम ! ) (वे) पांच हैं / [प्र.) (उनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी कही हैं ? [उ.] (गौतम !) वे पांच हैं, दस हैं, ग्यारह हैं, संख्यात हैं या असंख्यात हैं अथवा अनन्त हैं। 1056. एवं असुरकुमारस्स वि। गवरं पुरेक्खडा पंच वा छ वा संखेज्जा बा असंखेज्जा वा अर्णता वा / एवं जाव थणियकुमारस्स / [1056] इसी प्रकार असुरकुमारों की (भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ पाँच, छह, संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं / इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक की (भावेन्द्रियों के विषय में समझ लेना चाहिए / ) 1060. एवं पुढविकाइय-प्राउकाइय-वणस्सइकाइयस्स बि, बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियस्स वि / तेउक्काइय-वाउक्काइयस्स वि एवं चेव, णवरं पुरेक्खडा छ वा सत्त वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा। [1060] इसी प्रकार (एक-एक) पृथ्वीकाय, अकाय और वनपस्पतिकाय की तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय की, तेजस्कायिक एवं वायुकायिक की (अतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए।) विशेष यह है कि (इनकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ छह, सात, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। 1061. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स जाव ईसाणस्स जहा असुरकुमारस्स (सु. 1056) / गवरं मणूसस्स पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि त्ति भाणियव्वं / [1061] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक से लेकर यावत् ईशानदेव की प्रतीतादि भावेन्द्रियों के विषय में (सू. 1056 में उक्त) असुरकुमारों की भावेन्द्रियों की प्ररूपणा की तरह कहना चाहिए। विशेष यह है, मनुष्य की पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होती; इस प्रकार (सब पूर्ववत्) कहना चाहिए। 1062. सणंकुमार जाव गेवेज्जगस्स जहा पेरइयस्स (सु. 1057-58) / [1062] सनत्कुमार से लेकर ग्रैवेयकदेव तक की (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन) (सू. 1057-1058 में उक्त) नैरयिकों की वक्तव्यता के समान करना चाहिए। Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [205 1063. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियदेवस्स प्रतीया अणंता, बद्धलगा पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा / सव्वदसिद्धगदेवस्स प्रतीता अणंता, बद्धलगा पंच। केवतिया पुरेक्खडा ? पंच। [1063] विजय, वैजयन्त, जयन्त एवं अपराजित देव की अतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियां पांच, दस, पन्द्रह या संख्यात हैं / सर्वार्थसिद्धदेव की प्रतीत भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं, बद्ध पांच हैं। [प्र.] पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] वे पांच हैं। 1064. रइयाणं भंते ! केवतिया भाविदिया प्रतीया? गोयमा ! अणंता / केवतिया बद्धल्लगा? असंखेज्जा। केवतिया पुरेक्खडा? प्रणेता। एवं जहा दविदिएसु पोहत्तेणं दंडनो भणियो तहा भाविदिएसु वि पोहत्तेणं दंडप्रो भाणियव्यो, णवरं वणप्फइकाइयाणं बद्धल्लगा वि प्रणता / [1064 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नैरयिकों की प्रतीत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [1064 उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं / [प्र.] (भगवन् ! उनकी) बद्ध भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] (वे) असंख्यात हैं। [प्र.] भगवन् ! पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ कितनी हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। इस प्रकार जैसे--द्रव्येन्द्रियों में पृथक्त्व (बहुवचन से) दण्डक कहा है, इसी प्रकार भावेन्द्रियों में भी पृथक्त्व-बहुवचन से दण्डक कहना चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों की बद्ध भावेन्द्रियाँ अनन्त हैं। 1065. एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स रइयत्ते केवइया भाविदिया प्रतीता? गोयमा ! अणंता, बङ्घल्लगा पंच, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि, जस्सऽस्थि पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / एवं असुरकुमारत्ते जाव थणियकुमारत्ते, णवरं बद्ध ल्लगा पत्थि। [1065 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक की नैरयिकत्व के रूप में कितनी अतीत __ भावेन्द्रियाँ हैं ? [1065 उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206] [ प्रज्ञापनासूत्र इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ पाँच हैं और पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ किसी की होती हैं, किसी की नहीं होतीं। जिसकी होती हैं, उसको पांच, दस, पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं / इसी प्रकार (एक-एक नैरयिक की) असुरकुमारत्व से लेकर यावत् स्तनितकुमारत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि इसकी बद्ध भावेन्द्रियाँ नहीं हैं। 1066. [1] पुढविक्काइयत्ते जाव बेइंदियत्ते जहा दन्विदिया। [1066-1] (एक-एक नैरयिक को) पृथ्वीकायत्व से लेकर यावत् द्वीन्द्रियत्व के रूप में (अतीतादि भावेन्द्रियों का कथन) द्रव्येन्द्रियों की तरह (करना चाहिए / ) [2] तेइंदियत्ते तहेव, गवरं पुरेक्खडा तिष्णि वा छ वा णव वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणंता वा। [1066-2] त्रीन्द्रियत्व के रूप के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि (इसकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ तीन, छह, नौ, संख्यात, असंख्यात या अनन्त होती हैं। [3] एवं चरिदियत्ते वि नवरं पुरेक्खडा चत्तारि वा अट्ट वा बारस वा संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [1066-3] इसी प्रकार चतुरिन्द्रियत्व रूप के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि (इसकी) पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ चार, पाठ, बारह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं। 1067. एवं एते चेव गमा चतारि गेयत्वा जे चेव दविदिएसु / नवरं तइयगमे जाणियन्वा जस्स जइ इंदिया ते पुरेक्खडेसु मुणेयवा। चउत्थगमे जहेव दव्वेंदिया जाय सव्वट्ठसिद्धगदेवाणं सन्वट्ठसिद्धगदेवत्ते केवतिया भाविदिया प्रतीता? णत्थि, बद्धलगा संखेज्जा, पुरेक्खडा णस्थि / 12 // / / बोप्रो उद्देसो समत्तो॥ / पण्णवणाए भगवतीए पनरसमं इंदियपयं समत्तं / / 1067] इस प्रकार ये (द्रव्येन्द्रियों के विषय में कथित) हो चार गम यहाँ समझने चाहिए। विशेष-तृतीय गम (मनुष्य सम्बन्धी अभिलाप) में जिसकी जितनी भावेन्द्रियाँ हों, (वे) उतनी पुरस्कृत भावेन्द्रियों में समझनी चाहिए। चतुर्थ मम (देवसम्बन्धी अभिलाप) में जिस प्रकार सर्वार्थसिद्ध की सर्वार्थसिद्धत्व के रूप में कितनी भावेन्द्रियाँ अतीत हैं ? 'नहीं हैं।' बद्ध भावेन्द्रियाँ संख्यात हैं, पुरस्कृत भावेन्द्रियाँ नहीं हैं यहाँ तक कहना चाहिए। / / 12 / / विवेचन-बारहवां भावेन्द्रियद्वार--प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. 1056 से 1067 तक) में नैरयिक से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक की एकत्व-बहुत्व को अपेक्षा से तथा नै रयिकत्व से सर्वार्थसिद्धत्व तक के रूप में अतीत, बद्ध एवं पुरस्कृत इन्द्रियों का प्ररूपण किया है। नारक को नारकत्वरूप में पुरस्कृत (भावो) भावेन्द्रियां-किसी की होती हैं, किसी को Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक ] [207 नहीं। जो नारक नरक से निकलकर अन्य गति में उत्पन्न होकर पुन: नरक में उत्पन्न होने वाला है, उसकी नरकपन में भावी भावेन्द्रियाँ होती हैं, किन्तु जिस जीव का वर्तमान नारकभव अन्तिम है अर्थात्-जो नरक से निकल कर फिर कभी नरक में उत्पन्न नहीं होगा, उसको नारकत्वरूप में भावी भावेन्द्रियाँ नहीं होती। जिसकी नारकरूप में भावी भावेन्द्रियाँ होती हैं, उसकी पांच, दस, पन्द्रह, संख्यात, असंख्यात या अनन्त भी होती हैं / जो भविष्य में एक बार फिर नरक में उत्पन्न होगा, उसकी पांच; जो दो वार उत्पन्न होगा, उसकी दस; तीन बार उत्पन्न होगा उसकी पन्द्रह; संख्यात, असंख्यात या अनन्त वार उत्पन्न होने वाले को संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी (पुरस्कृत) भावेन्द्रियाँ होती हैं। इसी प्रकार सर्वत्र समझ लेना चाहिए। भावेन्द्रिय विषयक चार गम-जिस प्रकार द्रव्येन्द्रियों के विषय में नैरयिक, तिर्यग्योनिक, मनुष्य और देव सम्बन्धी ये चार गम कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी चार गम समझ लेने चाहिए।' // पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 11 पन्द्रहवाँ इन्द्रियपद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 317 Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं पओगपयं सोलहवाँ प्रयोगपद * प्राथमिक प्रज्ञापनासूत्र का यह सोलहवाँ प्रयोगपद है / मन-वचन-काया के आधार से होने वाला प्रात्मा का व्यापार प्रयोग कहलाता है / इस दृष्टि से यह पद महत्त्वपूर्ण है। अगर प्रात्मा न हो तो इन तीनों की विशिष्ट क्रिया नहीं हो सकती। जैनपरिभाषानुसार ये तीनों पुद्गलमय हैं। पुद्गलों का सामान्य व्यापार (गति) तो आत्मा के बिना भी हो सकता है, किन्तु जब पुद्गल मन-वचन-कायरूप में परिणत हो जाते हैं, तब आत्मा के सहकार से उनका विशिष्ट व्यापार होता है। पुद्गल का मन आदि रूप में परिणमन भी आत्मा के कर्म के अधीन है, इस कारण उनके व्यापार को प्रात्मव्यापार कहा जा सकता है। इसी प्रात्मव्यापार रूप प्रयोग के विषय में सभी पहलुओं से यहाँ विचार किया गया है / * प्रस्तुत पद में दो मुख्य विषयों का प्रतिपादन किया गया है--(१) प्रयोग, उसके प्रकार और चौवीस दण्डकों में प्रयोगों को प्ररूपणा तथा (2) गतिप्रपात के पांच भेद और उनके प्रभेद और स्वरूप / सत्यादि चार मन:प्रयोग, चार वचनप्रयोग और सात औदारिक. औदारिकमिश्र प्रादि शरीर. कायप्रयोग, यों प्रयोग के 15 प्रकार हैं। तदनन्तर समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में से किस में कितने प्रयोग पाए जाते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है। * तत्पश्चात् चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में से किसमें कितने बहुत्व-विशिष्ट प्रयोग सदैव पाए जाते हैं तथा एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा एकसंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुःसंयोगो कितने विकल्प पाए जाते हैं; उनकी प्ररूपणा की गई है / * पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों की चर्चा समाप्त होने के बाद गतिप्रपात (गतिप्रवाद) का निरूपण है / सू. 1086 से 1123 तक में गति की चर्चा की गई है, जो प्रयोग से ही सम्बन्धित है / गतिप्रपात नामक प्रकरण में जिन-जिन के साथ गति का सम्बन्ध है, उन सब व्यवहारों का संग्रह करके गति के पांच प्रकार बताए हैं -प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति / Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद : प्राथमिक] [209 * इसमें से प्रथम प्रयोगगति तो वही है, जिसके 15 प्रकारों की चर्चा पहले की गई है / ततगति मंजिल पर पहुँचने से पहले की सारी विस्तीर्ण गति को कहा गया है, फिर जीव और शरीर का बन्धन छूटने से होने वाली बन्धनछेदनगति, फिर नारकादि चार भवोपपातगति, क्षेत्रोपपात गति और नोभवोपपात (पुद्गलों और सिद्धों की) गति का वर्णन है। अन्त में 17 प्रकार की आकाश-अवकाश से सम्बन्धित विहायोगति का वर्णन है। इन भेदों के वर्णन पर से गति की नाना प्रकार की विशेषताएं स्पष्ट प्रतीत होती हैं।' CO (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 101 से 103, (ख) पण्णवणासुत्त (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 261 से 273 तक (ग) प्रजापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 319 से 330 तक ! Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलसमं पओगपयं सोलहवाँ प्रयोगपद प्रयोग और उसके प्रकार 1068. कइविहे गं भंते ! पोगे पण्णते? गोयमा ! पण्णरसविहे पण्णत्ते / तं जहा-सच्चमणप्पनोगे 1 मोसमणप्पनोगे 2 सच्चामोसमणप्पनोगे 3 असच्चामोसमणप्पओगे 4 एवं वइपोगे वि चउहा 8 ओरालियसरीरकायप्पनोगे पोरालियमोससरीरकायप्पनोगे 10 वेउब्वियसरीरकायप्पनोगे 11 वेउम्वियमीससरीरकायप्पनोगे 12 आहारगसरीरकायप्पनोगे 13 पाहारगमीससरीरकायप्पनोगे 14 कम्मासरीरकायप्पनोगे 15 / [1068 प्र. भगवन् ! प्रयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1068 उ.] गौतम ! (प्रयोग) पन्द्रह प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) सत्यमनःप्रयोग, (2) असत्य (मृषा) मनःप्रयोग, (3) सत्य-मृषा (मिश्र) मन:प्रयोग, (4) असत्या-मृषा मनःप्रयोग, इसी प्रकार वचनप्रयोग भी चार प्रकार का है---[(५) सत्यभाषाप्रयोग, (6) मृषाभाषाप्रयोग, (7) सत्यामृषाभाषाप्रयोग और (8) असत्यामृषाभाषाप्रयोग] (9) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग (10) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, (11) वैक्रियशरीरकाय-प्रयोग, (12) वैक्रियमिश्रशरीरकाय-प्रयोग, (13) आहारकशरीरकाय-प्रयोग, (14) आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग और (15) कर्म-(कार्मण) शरीरकाय-प्रयोग। विवेचन प्रयोग और उसके प्रकार-प्रस्तुत सूत्र में पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों का नामोल्लेख किया गया है। प्रयोग की परिभाषा-'' उपसर्गपूर्वक युज् धातु से 'प्रयोग' शब्द निष्पन्न हुआ है। जिसके कारण प्रकर्षरूप से आत्मा क्रियाओं से युक्त-व्यापृत या सम्बन्धित हो, अथवा साम्परायिक और ईर्यापथ कर्म (पाश्रव) से संयुक्त-सम्बद्ध हो, वह प्रयोग कहलाता है, अथवा प्रयोग का अर्थ हैपरिस्पन्द क्रिया-प्रर्थात्-प्रात्मा का व्यापार / पन्द्रह प्रकार के प्रयोगों के अर्थ-(१) सत्यमनःप्रयोग-सन्त का अर्थ-मुनि अथवा सत् पदार्थ / ये दोनों मुक्ति-प्राप्ति के कारण हैं / इन दोनों के विषय में यथावस्थित वस्तुस्वरूप का चिन्तन करने में जो साधु (श्रेष्ठ) हो, वह 'सत्य' मन है / अथवा जीव सत् (स्वरूप से सत्) और असत् (पररूप से असत् रूप है, देहमात्रव्यापी है, इत्यादि रूप से यथावस्थित वस्तुचिन्तन-परायण मन सत्यमन है। सत्यमन का प्रयोग अर्थात् व्यापार सत्यमनःप्रयोग है। (2) असत्यमनःप्रयोग-सत्य से विपरीत असत्य है / यथा जीव नहीं है, अथवा जीव एकान्त सत्-रूप है, इत्यादि कुविकल्प करने में तत्पर मन असत्यमन है, उसका प्रयोग-व्यापार असत्यमनःप्रयोग है। (3) सत्यमषामनःप्रयोगजो सत्य और असत्य, उभयरूप चिन्तन-तत्पर हो, वह सत्यमृषामन है। जैसे-किसी वन में बड़, Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद [ 211 पीपल, खैर, पलाश, अशोक, प्रादि अनेक जाति के वृक्ष हैं, किन्तु अशोक वृक्षों की बहुलता होने से यह सोचना कि यह प्रशोकवन है / कतिपय अशोक वृक्षों का सद्भाव होने से यह सोचना सत्य है, किन्तु उनके अतिरिक्त उस वन में अन्य बड़, पीपल आदि का भी सद्भाव होने से ऐसा सोचना असत्य है। किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से ऐसा सोचना सत्यासत्य कहलाता है, परमार्थ (निश्चयनय) की दृष्टि से तो ऐसा सोचना असत्य है; क्योंकि वस्तु जैसी है, वैसी नहीं सोची गई है। (4) प्रसत्यामधामन:प्रयोग-जो सत्य भी न हो और असत्य भी न हो, ऐसा मनोव्यापार असत्यामृषामनःप्रयोग है। विप्रतिपत्ति (शंका या विवाद) होने पर वस्तुतत्त्व की सिद्धि की इच्छा से सर्वज्ञ के मतानुसार विकल्प करता है / यथा-जीव है, वह सत्-असत् रूप है / यह चिन्तन सत्य-परिभाषित होने से प्राराधक है और सत्यमनःप्रयोग है / जो विप्रतिपत्ति होने पर वस्तुतत्त्व की प्रतिष्ठा (स्थापना) करने की इच्छा होने पर भी सर्वज्ञमत के विरुद्ध विकल्प करता है। जैसे-जीव नहीं है अथवा जीव एकान्त नित्य है, इत्यादि / यह चिन्तन विराधक होने से असत्य है। किन्तु वस्तु की सिद्धि की इच्छा के बिना भी स्वरूपमात्र का पर्यालोचनपरक चिन्तन करना असत्यामृषामनःप्रयोग है / जैसे-किसी ने चिन्तन किया-देवदत्त से घड़ा लाना है, या अमुक व्यक्ति से गाय मांगना है, इत्यादि / यह चिन्तन स्वरूपमात्र पयोलोचनपरक होने से न तो तथारूप सत्य है, त हो मिथ्या है। इसलिए व्यवहारनय की दृष्टि से इसे असत्याभूषा कहा जाता है। अगर किसी को ठगने या धोखा देने की बुद्धि से ऐसा चिन्तन किया जाता है तो वह असत्य के अन्तर्गत है, अन्यथा सरलभाव से वस्तुस्वरूपपर्यालोचन करना सत्य में समाविष्ट है। ऐसे असत्यामृषामन का प्रयोग असत्यामृषामनःप्रयोग है। (5-8) मन के चार प्रकार के इन प्रयोगों की तरह वचनप्रयोग भी चार प्रकार के हैं, अन्तर यही है कि वहाँ मन का प्रयोग है, यहां वाणी का प्रयोग है / वे चार इस प्रकार हैं-(५) सत्यवाक्प्रयोग, (6) असत्यवाक्प्रयोग, (7) सत्यामृषावाक्प्रयोग और (8) असत्यामृषाबाक्प्रयोग। (8) औदारिकशरीरकाय-प्रयोग-औदारिक आदि का लक्षण पहले बता चुके हैं। जो शरीर उदार-स्थूल हो, उसे औदारिकशरीर कहते हैं। काय कहते हैं-पुद्गलों के समूह को अथवा अस्थि आदि के उपचय को। इन दोनों लक्षणों से युक्त काय औदारिकशरीर रूप होने से औदारिकशरीरकाय कहलाता है। उसका प्रयोग प्रोदारिकशरीरकाय-प्रयोग है। यह तिर्यंचों और पर्याप्तक मनुष्यों के होता है। (10) औदारिकमिश्रशरोरकाय-प्रयोग-जो काय प्रौदारिक हो और कार्मणशरीर के साथ मिश्र हो, वह औदारिकमिश्रशरीर कहलाता है, ऐसे शरीरकाय के प्रयोग को औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग कहते हैं / औदारिकशरीर के साथ कार्मणशरीर होने पर भी इसका नाम 'कार्मणमिश्रशरीर' न रखकर 'औदारिकमिश्र' रखा है, उसके तीन कारण हैं-(१) उत्पत्ति की अपेक्षा से औदारिक की प्रधानता होने से, (2) कादाचित्क होने से तथा (3) सन्देहरहित अभीष्ट पदार्थ का बोध कराने का हेतु होने से / अतएव औदारिकशरीरधारी मनुष्य, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च या पर्याप्त बादर वायुकायिक जोव वैक्रियल ब्धि से सम्पन्न होकर वैक्रिया करता है, तब औदारिकशरोर की ही प्रारम्भिकता और प्रधानता होने के कारण वैक्रियमिश्र न कहलाकर वह औदारिकमिश्र ही कहलाता है / इसी प्रकार औदारिकशरीरधारी आहारकलब्धिसम्पन्न चतुर्दशपूर्वधर मुनि द्वारा प्राहारकशरीर बनाने पर प्रौदारिक और आहारक शरीर को मिश्रता होने पर भी प्रधानता के कारण 'यौदारिकमिश्न' ही कहा जाता है। (11) वैक्रियशरीरकायप्रयोग-वैक्रियशरीर रूप काय से होने वाला प्रयोग 'वैक्रियशरीरकायप्रयोग' कहलाता है / यह वैक्रियशरीरपर्याप्ति से पर्याप्त जीव को होता है। (12) वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग-देवों और नारकों की अपर्याप्त अवस्था में कार्मणशरीर के साथ मिश्रित Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212] [ प्रज्ञापनासूत्र वैक्रियशरीर का प्रयोग / जब कोई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य या वायुकायिक जीव वैक्रियशरीरी होकर अपना कार्य सम्पन्न करके कृतकृत्य हो चुकने के पश्चात् बैंक्रियशरीर को त्यागने और औदारिकशरीर में प्रवेश करने का इच्छुक होता है, तब वहाँ वैक्रियशरीर के सामर्थ्य से औदारिकशरीरकाययोग को ग्रहण करने में प्रवृत्त होने तथा वैक्रियशरीर की प्रधानता होने के कारण वह 'औदारिकमिश्र' नहीं, किन्तु बैंक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग कहलाता है / (13) प्राहारकशरीरकायप्रयोग-आहारकशरीर पर्याप्ति से पर्याप्त आहारकलब्धिधारी चतुर्दश पूर्वधरमुनि के अाहारकशरीर द्वारा होने वाला प्रयोग / (14) प्राहारकमिवशरीर कायप्रयोग-आहारकशरीरी संयमी मुनि जब अपना कार्य पूर्ण करके पुनः औदारिकशरीर को ग्रहण करता है, तब आहारकशरीर के बल से औदारिकशरीर में प्रवेश करने तथा आहारकशरीर की प्रधानता होने के कारण प्रौदारिकमिश्रशरीर न कहलाकर आहारकमिश्रशरीर ही कहलाता है / इस प्रकार का प्रयोग पाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग है। (15) कार्मणशरीरकायप्रयोग-विग्रहगति में तथा केवलीसमुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में होने वाला प्रयोग कार्मणशरीरकायप्रयोग कहलाता है। तेजस और कार्मण दोनों सहचर हैं, अतः एक साथ दोनों का ग्रहण किया गया है।' समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में प्रयोग की प्ररूपणा 1066. जीवाणं भंते ! कतिविहे पनोगे पण्णते ? गोयमा! पण्णरसबिहे पओगे पण्णते। तं जहा-सच्चमणप्पप्रोगे जाव कम्मासरीरकायप्पानोगे। [1069 प्र.] भगवन् ! जीवों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे हैं ? [1069 उ. गौतम ! जीवों के पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गये हैं। वे इस प्रकार-सत्यमनःप्रयोग से (लेकर) कार्मणशरीरकायप्रयोग तक। 1070. रइयाणं भंते ! कतिविहे पनोगे पण्णते ? गोयमा! एक्कारसविहे पनोगे पण्णत्ते। तं जहा-सच्चमणप्पप्रोगे 1 जाव असच्चामोसवइप्पप्रोगे 8 वेउब्धियसरीरकायप्पनोगे वेउब्वियमीससरीरकायप्पनोगे 10 कम्मासरीरकायप्पमोगे [1070 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे हैं ? [1070 उ.] गौतम ! (उनके) ग्यारह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं / वे इस प्रकार-(१.८) सत्यमनःप्रयोग से लेकर यावत् असत्यामृषावचनप्रयोग, ६-वैक्रियशरीरकायप्रयोग, १०-वैक्रियामश्रशरीरकायप्रयोग और ११-कार्मणशरीरकायप्रयोग। 1071. एवं असुरकुमाराण वि जाव थणियकुमाराणं / [1071] इसी प्रकार असुरकुमारों से (लेकर) यावत् स्तनितकुमारों (तक) के (प्रयोगों के विषय में समझना चाहिए।) 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 319 Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद ] [213 1072. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! तिविहे पोगे पणत्ते / तं जहा-ओरालियसरीरकायप्पनोगे 1 पोरालियमीससरीरकायप्पनोगे 2 कम्मासरीरकायप्पभोगे 3 / एवं जाव वणफइकाइयाणं / णवरं बाउक्काइयाणं पंचविहे पनोगे पण्णत्ते, तं जहा-पोरालियसरीरकायपोगे 1 ओरालियमोससरीरकायप्पश्रोगे 2 वेउविए दुविहे 4 कम्मासरीरकायप्पनोगे य 5 / [1072 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिकों के कितने प्रयोग कहे गए हैं ? [1072 उ.] गौतम ! उनके तीन प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- 1. प्रौदारिकशरीरकायप्रयोग, 2. औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग और 3. कार्मणशरीरकायप्रयोग। इसी प्रकार (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों (तक समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि वायूकायिकों के पांच प्रकार के प्रयोग कहे हैं। वे इस प्रकार---१. प्रौदारिकशरीरकायप्रयोग, 2. औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, 3-4. वैत्रियशरीरकायप्रयोग और वैक्रिय मिश्रशरीर कायप्रयोग तथा 5. कार्मणशरीरकायप्रयोग / 1073. बेइंदियाणे पुच्छा। गोयमा ! चउदिवहे पड़ोगे पण्णते। तं जहा---प्रसच्चामोसवइप्पानोगे 1 पोरालियसरीरकायप्पप्रोगे 2 पोरालियमीससरीरकायप्पनोगे 3 कम्मासरीरकायप्पओगे 4 / एवं जाव चरिदियाणं / [1073 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रियजीवों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? [1073 उ.] गौतम ! (उनके) चार प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। वे इस प्रकार(१) असत्यामृषावचनप्रयोग, (2) प्रौदारिकशरीरकायप्रयोग, (3) औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग और (4) कार्मणशरीरकायप्रयोग / इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय और) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों के प्रयोग के विषय में समझना चाहिए / 1074. पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! तेरसविहे पनोगे पण्णते। तं जहा-सच्चमणप्पप्रोगे 1 मोसमणप्पनोगे 2 सच्चामोसमणप्पग्रोगे 3 असच्चामोसमणप्पनोगे 4 एवं वइपोगे वि 8 पोरालियसरीरकायप्पनोगे मोरालियमोससरीरकायप्पनोगे 10 वेउब्वियसरीरकायप्पनोगे 11 देउव्वियमोससरीरकायप्पप्रोगे 12 कम्मासरीरकायप्पभोगे 13 / [1074 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? 61074 उ.) गौतम ! (उनके) तेरह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। वे इस प्रकार(१) सत्यमनःप्रयोग, (2) मृषामनःप्रयोग, (3) सत्यमृषामनःप्रयोग, (4) असत्यामृषामनःप्रयोग, इसी तरह चार प्रकार का (5 से 8 तक) वचनप्रयोग, (9) औदारिकशरीरकायप्रयोग, (10) औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोग, (11) वैक्रियशरीरकायप्रयोग, (12) वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग और (13) कार्मणशरीरकायप्रयोग। Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] [प्रज्ञापनासूत्र 1075. मणूसाणं पुच्छा। गोयमा ! पण्णरसविहे पयोगे पण्णत्ते / तं जहा-सच्चमणप्पप्रोगे 1 जाव कम्मासरीरकायप्पनोगे 15 / [1075 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं ? [1075 उ.] गौतम ! उनके पन्द्रह प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं---सत्यमनःप्रयोग से लेकर कार्मणशरीरकायप्रयोग तक। 1076. वाणमंतर जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. 1070) / [1076] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग के विषय में नैरयिकों (की सू. 1070 में अंकित वक्तव्यता) के समान (समझना चाहिए / ) विवेचन–समुच्चय जीवों और चौवीस दण्डकों में प्रयोगों को प्ररूपणा–प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 1069 से 1076 तक) में समुच्चय जीवों में कितने प्रयोग होते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है / निष्कर्ष-समुच्चय जीवों में 15 प्रयोग होते हैं, क्योंकि नाना जीवों की अपेक्षा से सदैव पन्द्रह प्रयोग पाए जाते हैं / नैरयिकों तथा व्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिकों में ग्यारह प्रयोग पाए जाते हैं, क्योंकि इनमें औदारिक, प्रौदारिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र प्रयोग नहीं होते। वायुकायिकों को छोड़कर शेष चार पृथ्वीकायादि स्थावरों में तीन प्रयोग पाये जाते हैं - औदारिक, औदारिकमिश्र और कार्मणशरीरकाय प्रयोग / वायुकायिकों में इन तीनों के उपरांत वैक्रिय और वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग भी पाए जाते हैं / द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों में प्रत्येक के 4-4 प्रयोग पाए जाते हैं-असत्यामृषाभाषाप्रयोग, औदारिक, औदारिकमिश्र, कार्मणशरीरकाय प्रयोग। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में प्राहारक और आहारकमिश्र को छोड़कर शेष 13 प्रयोग पाए जाते हैं, जबकि मनुष्यों में 15 ही प्रयोग पाए जाते हैं। समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा--- 1077. जीवा णं भंते ! कि सच्चमणप्पयोगी जाव कि कम्मासरीरकायप्पयोगी ? गोयमा! जीवा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पयोगी वि जाव वेब्वियमीससरीरकायप्पयोगी वि कम्मासरीरकायापयोगी वि, अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पओगिणो य 2 अहवेगे य आहारगमोससरीरकायप्पनोगो य 3 अहवेगे य पाहारगमोससरीरकायप्पप्रोगिणो य 4 चउभंगो, अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य प्राहारगसरीरकायप्पनोगी य पाहारगमीससरोरकायप्पश्रोगिणो य 2 प्रहवेगे य पाहारगसरोरकायप्पयोगिणो य आहारगमोसासरीरकायप्पलोगो य 3 अहवेगे य आहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य 4, एए जीवाणं अट्ट भंगा। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 320 Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद ] [215 [1077 प्र.] भगवन् ! जीव सत्यमनःप्रयोगी होते हैं अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? [1077 उ.] गौतम ! (1) जीव सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् (मृषामनःप्रयोगी, सत्यमृषामनःप्रयोगी, असत्यामृषामनःप्रयोगी आदि तथा वैक्रिय मिश्रशरीरकायप्रयोगी भी एवं कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी, (इस प्रकार तेरह पदों के वाच्य) होते हैं, (1) अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी होता है, (2) अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी होते हैं, (3) अथवा एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, (4) अथवा बहुत-से जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं। ये चार भंग हुए। तेरह पदों वाले प्रथम भंग की इनके साथ गणना की जाए तो पांच भंग हो जाते हैं / (द्विकसंयोगी चार भंग)--१. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्नशरीरकाय प्रयोगी, 2. अथवा एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से प्राहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, 3. अथवा बहुत-से पाहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, 4. अथवा बहुत-से आहारकशरीरकायप्रयोगी और बहुत-से आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी। ये समुच्चय जीवों के प्रयोग की अपेक्षा से आठ भंग हुए। (इनमें प्रथम भंग को मिलाने से नौ भंग होते हैं।) विवेचन--समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोगप्ररूपणा---प्रस्तुत सूत्र (1077) में समुच्चय जीवों में प्रयोग की अपेक्षा से पाए जाने वाले पाठ भंगों का निरूपण किया गया है / समुच्चय जीवों में तेरह पदों का एक भंग-समुच्चय जीवों में आहारक और आहारकमिश्र को छोड़ कर शेष 13 पदों का एक भंग होता है / तात्पर्य यह है कि सदैव बहुत-से जीव सत्यमनप्रयोगी भी पाए जाते हैं, असत्यमनःप्रयोगी भी, यावत् वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी पाए जाते हैं, तथैव कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी पाए जाते हैं। नारक जीव सदैव उपपात के पश्चात् उत्तरवैक्रिय आरम्भ कर देते हैं, इसलिए सदैव वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं / वनस्पति आदि के जीव सदैव विग्रह के कारण अन्तरालगति में पाये जाते हैं, इसलिए वे सदैव कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, किन्तु आहारकशरीरी कदाचित् सर्वथा नहीं पाए जाते; क्योंकि उनका अन्तर उत्कृष्टतः छह मास तक का सम्भव है।' अर्थात् छह महीनों तक एक भी आहारकशरोरी न पाया जाए, यह भी सम्भव है / जब वे पाए भी जाते हैं तो जघन्य एक, दो या तीन, तथा उत्कृष्टत: सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) तक होते हैं। इस प्रकार जब आहारकशरीरकायप्रयोगी और आहारक रकायप्रयोगी एक भी नहीं पाया जाता, तब बहत जीवों की अपेक्षा से बहवचनविशिष्ट 13 पदोंवाला एक भंग होता है, क्योंकि उक्त 13 पदों वाले जीव सदैव बहुत रूप में रहते हैं / पाठ भंगों का क्रम-प्रथम भंग-जब पूर्वोक्त तेरह पदों के साथ एक प्राहारकशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब एक भंग होता है / द्वितीयभंग-पूर्वोक्त तेरह पद वालों के साथ बहुत-से 1. पाहारगाइं लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाई / उक्कोसेण नियमा, एक समयं जहन्नेणं / / 1 / / होताई जहन्नेणं इक्क दो तिष्णि पंच व हवति / उक्कोसेणं जुग पुहत्तमेतं सहस्साणं / / 2 // Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [प्रज्ञापनासूत्र आहारकशरीरकायप्रयोगी पाए जाते हैं, तब दूसरा भंग होता है। तृतीय-चतुर्थ भंग-इसी प्रकार पूर्वोक्त 13 पदों के साथ जब एक जीव आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा बहुत जीव पाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, तब तीसरा और चौथा भंग होता हैं। यों क्रमश: ये 4 भंग हुए / पंचम से अष्टम भंग तक—चार भंग द्विकसंयोगी होते हैं, जो पहले बताए जा चुके हैं। पूर्वोक्त तेरह पदों वाले भंग को मिलाने से ये सब 9 भंग होते हैं।' नारकों और भवनपतियों को विभाग से प्रयोगप्ररूपणा 1078. रइया णं भंते ! कि सच्चमणप्पयोगी जाव कि कम्मासरीरकायप्पनोगी? गोयमा ! रइया सवे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगी वि जाव वेउम्वियमीससरोरकायप्पयोगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पोगो य 1 अहवेगे य कम्मासरीरकायप्परोगिणो य 2 / [1078 प्र.] भगवन् ! नैरयिक सत्यमनःप्रयोगी होते हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? [1078 उ.] गौतम ! नैरयिक सभी सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् वैक्रियमिश्रशरीर कायप्रयोगी भी होते हैं; १-अथवा कोई एक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, २अथवा कोई अनेक (नैरयिक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / 1076. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि / / 1079] इसी प्रकार असुरकुमारों की भी यावत् स्तनितकुमारों की प्रयोगप्ररूपणा करनी चाहिए। विवेचन–नारकों और भवनपतियों को विभाग से प्रयोगप्ररूपणा-प्रस्तुत दो सूत्रों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से नारकों और भवनपतिदेवों की प्रयोग-सम्बन्धी तीन भगों की प्ररूपणा की नारकों में सदैव पाए जाने वाले बहुत्वविशिष्ट दस पद-नारकों में सत्यमनःप्रयोगी से लेकर वैक्रियमिवशरीरकायप्रयोगो पर्यन्त सदैव बहुत्वविशिष्ट दस पद पाए जाते हैं, किन्तु कार्मणशरीरकायप्रयोगी नारक कभी-कभी एक भी नहीं पाया जाता; क्योंकि नरकगति के उपपात का विरह बारह मुहर्त का कहा गया है। यह एक भंग हुमा / द्वितीय-तृतीय भंग -जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी नारक पाए जाते हैं, तब जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट असंख्यात पाए जाते हैं / इस दृष्टि से जब एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब द्वितीय भंग होता है और जब बहुत-से कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाये जाते हैं, तब तृतीय भंग होता है / असुरकुमारादि दशविध भवनवासियों को एकत्व-बहुत्व-विशिष्ट प्रयोग-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझ लेनी चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 323-324 2. भगवतीसूत्र श. 8 उ. 1 में देवों और नारकों में अपर्याप्त दशा में ही वैक्रियमिश्रशरीरप्रयोग माना गया है। 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 324 Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद ] [217 एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यंचपंचेन्द्रियों की प्रयोग सम्बन्धी प्ररूपणा-- 1080. पुढविकाइया णं भंते ! कि ओरालियसरीरकायप्पयोगी अोरालियमीससरीरकायप्पयोगी कम्मासरीरकायप्पनोगी? / गोयमा ! पुढविकाइया णं पोरालियसरीरकायप्पयोगी वि पोरालियमीससरीरकायप्पयोगी बि कम्मासरीरकायप्पयोगी वि। एवं जाव वणप्फतिकाइयाणं / णवरं वाउक्काइया वेउव्वियसरीरकायप्पयोगी विवेउब्वियमीससरीरकायपोगी वि / [1080 प्र.] भगवन् ! पथ्वीकायिक जीव क्या औदारिकशरीरकायप्रयोगो है, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी हैं अथवा कार्मणशरीरकायप्रयोगी हैं ? / [1080 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव औदारिकशरीरकायप्रयोगी भी हैं, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी हैं और कार्मणशरीरकायप्रयोगी भी हैं। इसी प्रकार प्रकायिक जीवों से ले कर यावत् वनस्पतिकायिकों तक (प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए / ) विशेष यह है कि वायुकायिक वैक्रियशरीरकायप्रयोगी भी हैं और वैक्रिय. मिश्रशरीरकायप्रयोगी भी हैं। 1081. बेइंदिया णं भंते ! किं पोरालियसरीरकायप्पयोगी जाव कम्मासरीरकायप्पयोगी ? गोयमा ! बेइंदिया सब्बे वि ताव होज्जा प्रसच्चामोसवइप्पयोगी वि ओरालियसरीरकाय. प्पयोगी वि ओरालियमीससरीरकायप्पभोगी वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 2 / एवं जाव चरिदिया / [1081 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या औदारिकशरीरकायप्रयोगी हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी हैं ? [1081 उ.] गौतम ! सभी द्वीन्द्रिय जीव असत्यामृषावचनप्रयोगी भी होते हैं, औदारिकशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं, प्रौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगो भी होते हैं / १---अथवा कोई एक (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, २--या बहुत-से (द्वीन्द्रिय जीव) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / (त्रीन्द्रिय एवं) चतुरिन्द्रियों (की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) 1082. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा रइया (सु. 1078) / णवरं पोरालियसरीरकायप्योगी वि पोरालियमोससरीरकायप्पलोगो वि, अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य कम्मासरीरकायप्पभोगिणो य 2 / [1082] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों को प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता (सू. 1078 में उल्लिखित) नैरयिकों की प्रयोगवक्तव्यता के समान कहना चाहिए / विशेष यह है कि यह (एक पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) औदारिकशरीरकायप्रयोगी भी होता है तथा औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] {प्रज्ञापनासूत्र भी होता है। १-अथवा कोई एक (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक) कार्मणशरीरकायप्र योगी भी होता है, २-अथवा बहुत-से (पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिक जीव) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / विवेचन-एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों की विभाग से प्रयोगसम्बन्धी प्ररूपणा---प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1080 से 1082 तक) में एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंचपंचेन्द्रिय तक के जीवों की एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा से प्रयोग सम्बन्धी प्ररूपणा की गई है। निष्कर्ष पथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक एवं वनस्पतिकायिक जीव औदारिकशरीरकायप्रयोगी, औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी एवं कार्मणशरीरकायप्रयोगी सदैव बहसंख्या में पाए जाते हैं, इसलिए ये तीनों पद बहुवचनान्त हैं, यह एक भंग है; किन्तु वायुकायिकों में पूर्वोक्त तीन प्रयोगों के अतिरिक्त क्रियद्विक (वै क्रियशरीरकायप्रयोग एवं वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोग) भी पाए जाते हैं / अर्थात्---वायुकायिकों में ये पांचों पद सदैव बहुत्वरूप में पाए जाते हैं। इन पांचों का बहुत्वरूप एक भंग होता है। सभी द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव असत्यामृषावचनप्रयोगी होते हैं, क्योंकि वे न तो सत्यवचन का प्रयोग करते हैं, न असत्यवचन का प्रयोग करते हैं और न ही उभयरूप वचन का प्रयोग करते हैं / वे औदारिकशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं और औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं / यद्यपि द्वीन्द्रियादि जीवों के अन्तर्मुहूर्तमात्र उपपात का विरहकाल है, किन्तु उपपातविरहकाल का अन्तमुहर्त छोटा है और औदारिकमिश्र का अन्तर्मुहर्त प्रमाण में बहुत बड़ा होता है। अतः उनमें औदारिकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी सदैव पाये जाते हैं। इस प्रकार इन तीनों का एक भंग हुआ। उनमें कभी-कभी एक भी कार्मणशरीरकायप्रयोगी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरह अन्तर्मुहूर्त कहा गया है। जब वे पाए जाते हैं तो जघन्यतः एक या दो और उत्कृष्टतः असंख्यात पाए जाते हैं / इस प्रकार जब एक भी कार्मणशरीरकायप्रयोगी नहीं पाया जाता है, तब पूर्वोक्त तीनों पदों का प्रथम भंग होता है। जब एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी पाया जाता है, तब एकत्वविशिष्ट दूसरा भंग होता है / जब बहुत-से द्वीन्द्रियादि जीव कार्मणशरीरप्रयोगी होते हैं, तब तीसरा भंग होता है। __ पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का प्रयोग विषयक कथन नारकों के समान जानना चाहिए, किन्तु उनमें विशेषता यह है कि वे नारकों की तरह वैक्रियशरीरकायप्रयोगी तथा वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी के उपरान्त औदारिकशरीरकायप्रयोगी और औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं। इसके सिवाय 4 प्रकार के मनःप्रयोग और चार प्रकार के वचनप्रयोग, इन 8 पदों को पूर्वोक्त 4 पदों में मिलाने से कुल 12 पद हुए, जो पंचेन्द्रियतिर्यंचों में सदैव बहुत रूप में पाए जाते हैं। कार्मणशरीरकायप्रयोगी कभी-कभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में एक भी नहीं पाया जाता, क्योंकि उनके उपपात का विरहकाल अन्तर्मुहूर्त्तप्रमाण कहा गया है / यो जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी एक भी नहीं होता, तब पूर्वोक्त प्रथम भंग होता है। ___ जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी एक होता है, तब दूसरा भंग होता है और जब कार्मणशरीरकायप्रयोगी बहुत होते हैं, तब तीसरा भंग होता है।' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 324-325 Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद ] [219 मनुष्यों में विभाग से प्रयोग-प्ररूपणा 1083. मणसा णं भंते ! कि सच्चमणप्पयोगी जाच कि कम्मासरीरकायप्पयोगी ? गोयमा ! मणसा सव्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पयोगी वि जाव पोरालियसरीरकायप्पयोगी वि वेउब्बियसरीरकायप्पयोगी वि वेउव्वियमीससरीरकायप्पलोगो वि, अहवेगे य पोरालियमीसासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य पोरालियमीससरीरकायप्पयोगिणो य 2 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पमोगिणो य 4 अहवेगे य पाहारगमोससरीर. कायप्पयोगी य 5 अहवेगे य पाहारगमीसासरीरकायप्पप्रोगिणो य 6 अहवेगे य कम्मगसरीरकायपोगी य 7 अहवेगे य कम्मगसरीरकायप्पयोगिणो य 8, एते अट्ट भंगा पत्तेयं / अहवेगे य पोरालियमोससरीरकायप्पोगो य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य पोरालियमोससरीरकायप्पोगो य पाहारगसरीरकायप्पप्रोगिणो य 2 अहवेगे य मोरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य पाहारगसरीरकायप्पओगी य 3 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पश्रोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पप्रोगिणो य४ एवं एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य अोरालयमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य१ अहवेगे य अोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगिणो य 2 प्रहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पनोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायप्परोगिणो य 4 चत्तारि भंगा, अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पनोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 2 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पप्रोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पनोगिणो य 4 एते चत्तारि भंगा, अहवेगे य पाहारगशरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीससरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पअोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य 2 अहवेगेय पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पप्रोगिणो य 4 चत्तारि भंगा, अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पोगो य 1 प्रहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य कम्मासरोरकायप्पनोगिणो य 2 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्परोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पप्रोगिणो य 4 चउरो भंगा, अहवेगे य आहारगमोसगसरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पोगो य 1 अहवेगे य पाहारगमोससरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पनोगिणो य 2 अहवेगे य पाहारगमीसगसरीरकायप्पयोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पयोगी य 3 प्रवेगे य पाहारगमीससरोरकायप्पलोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पप्रोगिणो य 4 चत्तारि भंगा, एवं चउवासं भंगा। अश्वेगे य प्रोरालियमोसगसरीरकायप्पपोगो य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य आहारगमोससरीरकायप्पयोगी य 1, प्रहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पओगो य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] [प्रज्ञापनासूत्र प्राहारगमीससरीरकायप्पयोगिणो य 2, अहवेगे य पोरालियमोसगसरीरकायप्पयोगी य आहारगसरोरकायप्पयोगिणो य पाहारगमीससरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य आहारगसरीरकायप्पप्रोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायप्पप्रोगिणो य 4 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पश्रोगिणो य प्राहरगसरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य 5 अहवेगे य पोरालियभीसासरीरकायप्पयोगिणो य आहारगसरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पप्रोगिणो य 6 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य आहारगमोसासरीरकायप्पयोगी य 7 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पप्रोगिणो य पाहारगसरीरकायप्परोगिणो य पाहारमीसासरीरकायप्पयोगिणो य 8 एते अट्ट भंगा, अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य कम्मयसरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पयोगिणो य 2 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य प्राहारगस रोरकायप्पयोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य कम्मगसरीरकायप्पप्रोगिणो य 4 ग्रहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पयोगी य 5 प्रहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्परोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पप्रोगिणो य 6 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पश्रोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पप्रोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 7 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 8 एते अते अट्ट भंगा / अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य पोरालियमीसासरीरकायप्पोगो य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मगसरीरकायप्पप्रोगिणो य 2 अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पप्रोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पओगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 4 प्रहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायच्योगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 5 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 6 प्रहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्परोगिणो य आहारगमोसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 7 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पओगिणो य पाहारगमीसासरीरकायच्योगिणो य कम्मासरोरकायप्पश्रोगिणो य 8 एते अट्ठ भंगा। अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पओगी य आहारगमोसासरीरकायपोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 1 महवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पग्रोगिणो य 2 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पओगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायपोगो य 3 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पप्रोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्परोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 4 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पओगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 5 प्रहवेगे य Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोमपद] [221 पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 6 अहवेगे य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 7 प्रहवेगे य प्राहारगसरीरकायप्पयोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 8 एवं एते तियसंजोएणं चत्तारि अटुभंगा, सब्वे वि मिलिया बत्तीसं भंगा जाणियव्वा 32 / अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगसरीरकायप्पलोगो य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगीय कम्मासरीरकायप्पयोगी य 1 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायच्योगी य पाहारगसरीरकायप्पयोगी य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगी य कामासरीरकायप्पलोगिणो य 2 प्रहवेगे य पोरालियमीसासरीरकायप्योगी य आहारगसरीरकायप्पयोगी य प्राहारगमोसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 3 अहवेगेय पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य आहारगसरीरकायप्पयोगी य प्राहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 4 अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पओगी य आहारगसरीरकायप्पप्रोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 5 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगसरीरकायप्पप्रोगिणो य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगिणो य 6 अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगी य पाहारगसरीरकायस्पोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 7 अहवेगे य ओरालियमीसगसरोरकायप्पओगो य प्राहरगसरीरकायप्पप्रोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्परोगिणो य 8 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगसरीरकायपोगो य आहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायच्योगी यह अहवेगे य ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगिणो य आहारगसरीरकायप्पयोगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगी य कम्मासरीरकायप्पओगिणो य 10 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पप्रोगिणो य प्राहरगसरीरकायप्पओगी य पाहारगमीसासरीरकायप्पओगिणो य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 11 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पयोगिणो य आहारगसरीरकायप्पयोगी य आहारगमोसासरीरकायापप्रोगिणो य कम्मासरीरकायप्पमोंगिणो य 12 अहवेगे य ओरालियमोसासरीरकायप्पनोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो य पाहारगमोसासरीरकायपयोगी य कम्मासरीरकायप्पयोगी य 13 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पओंगिणो य पाहारगसरीरकायप्पप्रोगिणों य आहागमीसासरीरकायप्पभोगी य कम्मासरीरकायस्पोगिणो य 14 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्परोगिणो य आहारगसरीरकायप्परोगिणो य पाहारगमीसासरीरकायप्पप्रोगिणो य कम्मासरीरकायप्पओगो य 15 अहवेगे य पोरालियमोसासरीरकायप्पनोगिणो य पाहारगसरीरकायप्पयोगिणो न पाहारगमीसासरीरकायप्पयोगिणो य कम्मासरीरकायप्पासोगिणो य 16, एवं एते चउसंजोएणं सोलस भंगा भवंति / सम्वे वि य णं संपिडिया असोति भंगा भवंति 80 / [1083 प्र.] भगवन् ! मनुष्य क्या सत्यमनःप्रयोगी अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं ? Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [प्रज्ञापनासूत्र [1083 उ.] गौतम ! मनुष्य सत्यमनःप्रयोगी यावत् (अर्थात्-चारों प्रकार के मनःप्रयोगी, चारों प्रकार के वचनप्रयोगी) औदारिक शरीरकायप्रयोगी भी होते हैं, वैक्रिय शरीरकायप्रयोगी भी होते हैं, और वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी होते हैं / 1. अथवा कोई एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, 2. अथवा अनेक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, 3. अथवा कोई एक आहारकशरीरकायप्रयोगी होता है, 4. अथवा अनेक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं, अथवा 5. कोई एक आहारकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी होता है, 6. अथवा अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, 7. अथवा कोई एक कार्मणशरीर कायप्रयोगी होता है, 8. अथवा अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / (इस प्रकार) एक-एक के (संयोग से) ये आठ भंग होते हैं। 1. प्रथवा कोई एक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक आहारक शरीरकायप्रयोगी होता है, 2. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक प्राहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा 3. अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक आहारक शरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 4. अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकशरीर कायप्रयोगी होते हैं / इस प्रकार ये चार भंग हैं। 1. अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक अाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अथवा 2. औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी हैं, 3. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, 4. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं / ये (द्विकसंयोगी) चार भंग हैं। अथवा 1. कोई एक (मनुष्य) औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी और (एक) कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 2. एक प्रौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा 3. अनेक प्रौदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 4. अनेक :ौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होते हैं / ये चार भंग हैं / अथवा 1. एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 2. एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा 3. अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता अथवा 4. अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार) ये चार भंग हैं। अथवा 1. एक आहारकशरीरकाय-प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 2. एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं. अथवा 3. अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 4. अनेक आहारक शरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / (इस प्रकार ये) चार भंग हैं / अथवा १–आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मण शरीरकायप्रयोगी होता है; प्रथवा २–एक आहारकमिश्रशीरकाय-प्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, ३–अथवा अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद] [223 अथवा ४–अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / ये चार भंग हैं / इस प्रकार (द्विकसंयोगी कुल) चौबीस भंग हुए। अथवा १एक औदारिकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक पाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा २--एक औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक ग्राहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं, ३–अथवा एक प्रौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारक शरीरकायप्रयोगी और एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है: अथवा ४–एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी अनेक प्राहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा 5. अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक ग्राहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा ६-अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा ७–अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक प्राहारकशरीरकायप्रयोगी और एक पाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा ५-अनेक औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी होते हैं / (इस प्रकार) ये आठ भंग हैं। अथवा १–एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकाय-प्रयोगी होता है, २-अथवा एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा ३–एक औदारिक मिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मण शरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा ४---एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी,अनेक आहारक शरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा ५-अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक पाहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा ६-अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, और एक प्राहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा ७---अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है: अथवा ८-अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं। (इस प्रकार) ये आठ भंग हैं। अथवा १–एक औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा २–एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, ३-अथवा एक औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा ४-एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगो होते हैं; अथवा ५–अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा ६-अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा ७–अनेक औदारिकमिश्रशरीर कायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा ८–अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिवशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / ये 8 भंग हैं। Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] [प्रज्ञापनासूत्र __ अथवा १–एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा २–एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा ३–एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकाय प्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा ४-एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा ५---अनेक ग्राहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है; अथवा ६–अनेक आहारकशरीर कायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं; अथवा 7 --अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 8. अनेक प्राहारकशरीरकायप्रयोगो, अनेक प्राहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / इस प्रकार त्रिकसंयोग से ये चार अष्टभंग होते हैं / ये सब मिलकर कुल बत्तीस भग जान लेने चाहिए // 32 // अथवा एक औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक अाहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 2. एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा 3. एक औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारक शरीरकायप्रयोगी अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 4. एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारक शरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा 5. एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 6. एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारक शरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं अथवा 7. एक प्रौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 8. एक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं अथवा 9. अनेक प्रौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, एक आहारक शरीरकायप्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरोरकायप्रयोगी, और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, 10. अथवा अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगो, एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारक मिश्र-शरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरप्रयोगी होते हैं, 11. अथवा अनेक औदारिक मिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 12. अनेक प्रौदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी एक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारक-मिश्र-शरीरकाय-प्रयोगी, और अनेक कार्मणशरीर कायप्रयोगी होते हैं, अथवा 13. अनेक प्रौदारिक-मिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकाय प्रयोगी, एक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथवा 14. अनेक औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, एक आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं, अथवा 15. अनेक औदारिक मिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक आहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक पाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवाँ प्रयोगपद ] [225 एक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होता है, अथबा 16. अनेक औदारिकमिश्रशरीरकाय-प्रयोगी, अनेक पाहारकशरीरकायप्रयोगी, अनेक आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी और अनेक कार्मणशरीरकायप्रयोगी होते हैं / इस प्रकार चतु:संयोगी से सोलह भंग होते हैं / तथा ये सभी (असंयोगी 8, द्विकसंयोगी 24, त्रिकसंयोगी 32 और चतुःसंयोगी 16, ये सब) मिलकर अस्सी भंग होते हैं / / 80 // विवेचन-मनुष्यों में विभाग से प्रयोग-प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (1083) में प्रसंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और चतु:संयोगी 80 भंगों के द्वारा मनुष्यों में पाए जाने वाले प्रयोगों की प्ररूपणा की गई है। ___ मनुष्यों में सर्वव पाए जाने वाले ग्यारह पद-मनुष्यों में 15 प्रकार के प्रयोगों में 11 पद (प्रयोग) तो सदैव बहवचन से पाए जाते हैं। यथा-चारों प्रकार के म प्रकार के वचनप्रयोगी तथा औदारिकशरीरकायप्रयोगी और वैक्रियद्विकप्रयोगी (वैक्रियशरीरकायप्रयोगी और वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगी)। मनुष्यों में वैक्रियमित्र शरीरकायप्रयोग विद्याधरों को अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि विद्याधर तथा अन्य कतिपय मिथ्यादृष्टि आदि वैक्रियलन्धिसम्पन्न अन्यान्यभाव से सदैव विकुर्वणा करते पाए जाते हैं। मनुष्यों में औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगी और कार्मणशरीरकायप्रयोगी कभी-कभी सर्वथा नहीं भी पाए जाते, क्योंकि ये नवीन उपपात के समय पाये जाते हैं और मनुष्यों के उपपात का विरहकाल बारह मुहूर्त का कहा गया है। आहारक शरीरकायप्रयोगी और आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगी भी कभी-कभी होते हैं, यह पहले ही कहा जा चुका है। अतः औदारिकमिश्र प्रादि चारों प्रयोगों का अभाव होने से उपयुक्त बहुवचन विशिष्ट ग्यारह पदों वाला यह प्रथम भंग है। एकसंयोगी पाठ भंग--ौदारिकमिश्रप्रयोगी एकत्व-बहुत्वविशिष्ट दो भंग, इसी प्रकार पाहारकप्रयोगी दो भंग, आहारक मिश्रप्रयोगी दो भंग, कार्मणशरीरकायप्रयोगी दो भंग, इस प्रकार एक-एक का संयोग करने पर आठ भंग होते हैं। द्विकसंयोगी चौवीस भंग-औदारिकमिश्र एवं प्राहारकपद को लेकर एकवचन-बहुवचन से चार, औदारिकमिश्र तथा प्राहारकमिश्र इन दोनों पदों को लेकर चार, औदारिकमिश्र एवं कार्मा पद को लेकर चार, आहारक और आहारकमिश्र को लेकर चार, पाहारक और कार्मण को लेकर चार, तथा पाहारकमिश्र और कार्मण को लेकर चार, ये सब मिल कर द्विकसंयोगी कुल 24 भंग होते हैं। त्रिकसंयोगी बत्तीस भंग-ौदारिकमिश्र, आहारक और आहारकमिश्र इन तीन पदों के एकवचन और बहवचन को लेकर भंग, औदारिकमिश्र, ग्राहारक और कार्मण इन तीनों के भंग, औदारिक मिश्र, आहारकमिश्र और कार्मण इन तीन पदों के पाठ भंग, और आहारक, आहारकमिश्र और कार्मण इन तीनों पदों के आठ, ये सब मिलकर त्रिकसंयोगी कुल 32 भंग होते हैं। चतुःसंयोगी सोलह भंग-प्रौदारिकमिथ, आहारक, प्राहारकमिश्र और कार्मण, इन चारों पदों के एकवचन और बहुवचन को लेकर सोलह भंग होते हैं। इस प्रकार असंयोगी, द्विकसंयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुःसंयोगी मिलकर 80 भंग होते हैं।' 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय, वृत्ति, पत्रांक 325 Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [प्रज्ञापनासूत्र वाणव्यन्तरादि देवों को विभाग से प्रयोगप्ररूपरणा 1084. वाणमंतर-जोइसिय-बेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. 1079) / [1084] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के प्रयोग (सू. 1079 में उक्त) असुरकुमारों के प्रयोग के समान समझना चाहिए। विवेचन-वाणन्यन्तरादि देवों की विभाग से प्रयोगप्ररूपणा–प्रस्तुत (सूत्र 1084) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की प्ररूपणा असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक की गई है। पांच प्रकार का गतिप्रपात 1085. कतिविहे गं भंते ! गतिप्पवाए पण्णत्ते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-पप्रोगगती 1 ततगती 2 बंधणच्छेयणगती 3 उववायगती 4 विहायगती 5 / [1085 प्र.] भगवन् ! गतिप्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? [1085 उ.] गौतम ! (गतिप्रपात) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-(१) प्रयोगगति, (2) ततगति, (3) बन्धनछेदनगति, (4) उपपातगति और (5) विहायोगति / विवेचन-पांच प्रकार का गतिप्रपात-प्रस्तुत सूत्र में प्रयोगगति आदि पांच प्रकार के गतिप्रपात का प्रतिपादन किया गया है। गतिप्रपात की व्याख्या-गमन करना, गति या प्राप्ति है। वह प्राप्ति दो प्रकार की है—देशान्तरविषयक और पर्यायान्तरविषयक / दोनों में गति शब्द का प्रयोग देखा जाता है / यथा-- 'देवदत्त कहाँ गया है ? पत्तन को गया' तथा 'कहते ही वह कोप को प्राप्त हो गया।' इस प्रकार के उभयविध लौकिक प्रयोग की तरह उभयविध लोकोत्तर-प्रयोग भी होता है। जैसे—'परमाणु एक समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त (तक) को जाता है' तथा 'उन-उन अवस्थान्तरों को प्राप्त होता है। अतः यहाँ गति का अर्थ है-एक देश से दूसरे देश को प्राप्त होना, अथवा एक पर्याय को त्याग कर दूसरे पर्याय को प्राप्त होना / गति का प्रपात गतिप्रपात कहलाता है।' प्रयोगगति—विशेष व्यापार रूप प्रयोग के पन्द्रह प्रकार इसी पद में पहले कहे जा चुके हैं। प्रयोग रूप गति प्रयोगगति है / यह देशान्तरप्राप्ति रूप है, क्योंकि जीव के द्वारा प्रेरित सत्यमन आदि के पुद्गल थोड़ी या बहुत दूर देशान्तर तक गमन करते हैं। ततगति--विस्तीर्ण गति ततगति कहलाती है। जैसे-जिनदत्त ने किसी ग्राम के लिए प्रस्थान किया है, किन्तु अभी तक उस ग्राम तक पहुँचा नहीं है, बीच रास्ते में हैं और एक-एक कदम आगे बढ़ रहा है। इस प्रकार की देशान्तरप्राप्ति रूप गति ततगति है। यद्यपि कदम बढ़ाना जिनदत्त के शरीर का प्रयोग ही है, इस कारण इस गति को भी प्रयोगगति के अन्तर्गत माना जा सकता है, तथापि इसमें विस्तृतता की विशेषता होने से इसका प्रयोगगति से पृथक् कथन किया गया है। इसी प्रकार आगे भी समझ लेना चाहिए। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 327-328 Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद] [227 बन्धनछेदनति-बन्धन का छेदन होना बन्धनछेदन है और उससे होने वाली गति बन्धनछेवनगति है। यह गति जीव के द्वारा विमुक्त (छोड़े हुए) शरीर की, अथवा शरीर से च्युत (बाहर कले हए) जीव की होती है। कोश के फटने से एरण्ड के बीज की जो ऊर्ध्वगति होती है, वह एक प्रकार की विहायोगति है, बन्धनछेदनगति नहीं, ऐसा टीकाकार का अभिमत है। उपपातगति–उपपात का अर्थ है--प्रादुर्भाव / वह तीन प्रकार का है-क्षेत्रोपपात, भवोपपात और नोभवोपपात / क्षेत्र का अर्थ है-आकाश, जहाँ नारकादि प्राणी, सिद्ध और पूदगल रहते हैं। भव का अर्थ है-कर्म के संपर्क से होने वाले जीव के नारकादि पर्याय / जिसमें प्राणी कर्म के वशवर्ती होते हैं, उसे मव कहते हैं। भव से अतिरिक्त, अथोत-कर्मसम्पजनित नारकत्व प्रादि पयायो र रहित पदगल अथवा सिद्ध नोभव हैं। उक्त दोनों (तथारूप पुदगल और सिद्ध) पूर्वोक्त भव के लक्षण से रहित हैं। इस प्रकार की उपपात रूप गति उपपातगति कहलाती है। विहायोगति-विहायस् अर्थात् आकाश में गति होना बिहायोगति है / गतिप्रपात के प्रभेद-भेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण-- 1086. से किं तं पयोगगती ? पप्रोगगतो पण्णरसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणप्पप्रोगगती जाव कम्मगसरीरकायच्पओगगती। एवं जहा पओगो भणियो तहा एसा वि भाणियब्वा / [1086 प्र.] (भगवन् ! ) वह प्रयोगगति क्या है ? [1086 उ.] गौतम ! प्रयोगगति पन्द्रह प्रकार की कही है। वह इस प्रकार-सत्यमन:प्रयोगगति (से लेकर) यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगति / जिस प्रकार प्रयोग (पन्द्रह प्रकार का) कहा गया है, उसी प्रकार यह (गति) भी (पन्द्रह प्रकार की) कहनी चाहिए। 1087. जीवाणं भंते ! कतिविहा परोगगती पण्णता? गोयमा ! पण्णरसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणप्पयोगगती जाव कम्मासरोरकायप्पप्रोगगती। [1087 प्र.] भगवन् ! जीवों की प्रयोगगति कितने प्रकार की कही गई है ? [1087 उ.] गौतम ! (वह) पन्द्रह प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार-सत्यमनःप्रयोगगति से लेकर यावत् कार्मणशरीरप्रयोगगति / 1088. रइयाणं भंते ! कतिविहा पोगगती पण्णता ? गोयमा! एक्कारसविहा पण्णत्ता। तं जहा-सच्चमणप्पओगगती एवं उवउज्जिऊण जस्स जइविहा तस्स ततिविहा भाणितवा जाव वेमाणियाणं / [1088 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की प्रयोगगति कही गई है ? [1088 उ.] गौतम ! नैरयिकों की प्रयोगगति ग्यारह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार है-सत्यमनःप्रयोगगति इत्यादि / इस प्रकार उपयोग करके (असुरकुमारों से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जिसकी जितने प्रकार की गति है, उसकी उतने प्रकार की गति कहनी चाहिए। Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [प्रज्ञापनासूत्र 1086. जीवा णं भंते ! कि सच्चमणप्पप्रोगगती नाव कम्मगसरीरकायप्पमोगगती? गोयमा ! जीवा सम्वे वि ताव होज्जा सच्चमणप्पओगगती वि, एवं तं चेव पुत्ववपिणयं भाणियब्ध, भंगा तहेव जाव वेमाणियाणं / से तं पमोगगती। [1086 प्र.] भगवन् ! जीव क्या सत्यमनःप्रयोगगति वाले हैं, अथवा यावत् कार्मणशरीरकायप्रयोगगतिक हैं ? [1086 उ.} गौतम ! जीव सभी प्रकार की गति वाले होते हैं, सत्यमनःप्रयोगगति वाले भी होते हैं, इत्यादि पूर्ववत् करना चाहिए। उसी प्रकार (पूर्ववत्) (नैरयिकों से लेकर) वैमानिकों तक कहना चाहिए / यह हुई प्रयोगगति (की प्ररूपणा।) 1060. से कि तं ततगती? ततगती जेणं जं गामं वा जाव सण्णिवेसं बा संपट्टिते प्रसंपत्ते अंतरापहे वट्टति / से तं ततगती। [1060 प्र.] (भगवन् ! ) वह ततगति किस प्रकार की है ? [1090 उ.] (गौतम ! ) ततगति वह है, जिसके द्वारा जिस ग्राम यावत् सनिवेश के लिए प्रस्थान किया हुआ व्यक्ति (अभी) पहुँचा नहीं, बीच मार्ग में ही है / यह है ततगति (का स्वरूप / ) 1061. से किं तं बंधणच्छेयणगती? / बंधणच्छेयणगती जेणं जीवो वा सरीरानो सरीरं वा जीवानो / से तं बंधणच्छेयणगती। [1091 प्र. वह बन्धनछेदनगति क्या है ? [1061 उ.] बन्धनछेदनगति वह है, जिसके द्वारा जीव शरीर से (बन्धन तोड़कर बाहर निकलता है), अथवा शरीर जीव से (पृथक् होता है / ) यह हुआ बन्धनछेदन गति (का निरूपण / ) 1062. से कि तं उववायगती ? उववायगती तिविहा पण्णता / तं जहा-खेतोववायगती 1 भवोक्वायगती 2 णोभवोधयातगती। [1092 प्र.] उपपातगति कितने प्रकार की है ? [1062 उ.] उपपातगति तीन प्रकार की कही गई है। यथा--१. क्षेत्रोपपातगति, 2. भवोपपातगति और 3. नोभवोपपातगति / 1093. से कि तं खेत्तोबवायगती ? खेत्तोक्वायगती पंचविहा पण्णत्ता / तं जहा-जेर इयखेत्तोववातगती 1 तिरिक्खजोणियखेत्तोवधायगती 2 मणूसखेत्तोववातगती 3 देवखेतोववातगती 4 सिद्धखेतोववायगती 5 / [1093 प्र.] क्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1093 उ.] क्षेत्रोपपातगति पांच प्रकार की कही गई है। यथा-१. नैरयिकक्षेत्रोषपातगति, 2. तिर्यञ्चयोनिकक्षेत्रोपपातगति, 3. मनुष्यक्षेत्रोपपातगति, 4. देवक्षेत्रोपपातगति और 5. सिद्धक्षेत्रोपपातगति / Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपव] [229 1094. से किं तं गेरइयखेत्तोववातगती? रइयखेतोववायगती सत्तविहा पग्णत्ता। तं जहा–रयणप्पभापुढविणेरइयखेत्तोववातगती जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयखेत्तोववायगती / से तं गेरइयखेत्तोववायगती। [1064 प्र.] नैरयिकक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1094 उ.] (वह) सात प्रकार की कही गई है--रत्नप्रभापृथ्वीनैरयिकक्षेत्रोपपातगति (से लेकर) यावत् अधस्तनसप्तमपृथ्वीनरयिकक्षेत्रोपपातगति / यह हुई नैरयिक क्षेत्रोपपातगति (की प्ररूपणा।) 1065. से कि तं तिरिक्खजोणियखेत्तोक्वायगतो? तिरिक्खजोणियखेत्तोक्वायगती पंचविहा पण्णत्ता। तं जहा-एगिदियतिरिक्खजोगियखेत्तोबवायगती जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियखेत्तोववायगती से तं तिरिक्खजोणियखेतोववायगती। [1095 प्र.] तियंञ्चयोनिकक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1095 उ.] (वह) पांच प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार-१. एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति, 2. द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति, 3. त्रीन्द्रियतियंग्योनिकक्षेत्रोपपातगति, 4. चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति और 5. पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति / यह हुआ तिर्यग्योनिकक्षेत्रोपपातगति का निरूपण / 1066. से कि तं मणूसखेत्तोववायगई ? मणूसखेत्तोषवायगई दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–सम्मुच्छिममणूसखेत्तोक्वायगती गम्भवक्कंतियमणुस्सखेत्तोववायगई / से तं मणूसखेतोवधायगती। [1096 प्र.] वह मनुष्यक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1066 उ., (वह) दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-१. सम्मूच्छिम मनुष्यक्षेत्रोपपातगति और 2. गर्भज मनुष्यक्षेत्रोपपातगति / यह हुआ मनुष्यक्षेत्रोपपातगति का प्रतिपादन / 1097. से किं तं सेवखेतोववायगती ? देवखेत्तोववायगती चउन्विहा पण्णता। तं जहा–भवणवइ जाव वेमाणियदेवखेतोववायगती / से तं देवखेत्तोववायगती। [1097 प्र.) वह देवक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1097 उ.] (वह) चार प्रकार की कही गई है / वह इस प्रकार--१. भवनपतिदेवक्षेत्रोपपातगति, 2. वाणव्यन्तरदेवक्षेत्रोपपातगति, 3. ज्योतिष्कदेवक्षेत्रोपपातगति और 4. वैमानिकदेव क्षेत्रोपपातगति / यह हुअा देवक्षेत्रोपपातगति का निरूपण / 1098. से कि तं सिद्धखेतोववायगती ? सिद्धखेत्तोववायगती अणेगविहा पण्णता। तं जहा--जंबुद्दीवे दोवे भरहेरवयवाससपक्खि सपडिविसि सिद्धखेत्तोववायगती, जंबद्दोवे दोवे चुल्लहिमवंत-सिहरिवासहरपव्वयसपक्खि सपडिविसि Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] [प्रज्ञापनासूत्र सिद्धखेतोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे हेमवय-हेरनवयवाससपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दोवे सद्दावति-वियडावतिवट्टवेयसपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववायगती, जंबुद्दीवे दोघे महाहिमवंत-रुप्पिवासहरपव्वयसपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दीवे हरिवास-रम्मगवाससक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोक्वातगती, जंबुद्दीवे दीवे गंधावती-मालवंतपरियायवट्टवेयड्डसपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेतोववातगती, जंबुद्दीवे दोवे णिसढ-णोलवंतवासहरपब्वयसपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दोवे दो पुव्वविदेह-प्रवरविदेहसपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातगती, जंबुद्दीवे दोबे देवकुरुत्तरकुरुसक्ति सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववायगती, जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स सक्खि सपडिदिसि सिद्धखेतोक्वायगती, लवणसमुद्दे सक्खि सपडिदिसि सिद्धखेतोववायगती, धायइसंडे दीवे पुरिमद्धपच्छिमद्धमंदरपव्वयस्स सक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातमती, कालोयसमुद्दे सपक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोक्वातगती, पुक्खरवरदीवड्युरिमडमरहेरवयवाससक्खि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातगती, एवं जाव पुक्खरवरदीवडपच्छिमड्डमंदरपव्ययसपक्षि सपडिदिसि सिद्धखेत्तोववातगती। से तं सिद्धखेत्तोबवातगती। से तं खेतोववातगती 1 / [1068 प्र.] वह सिद्धक्षेत्रोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1098 उ.] सिद्धक्षेत्रोपपातगति अनेक प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भरत और ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) में सब दिशाओं में, सब विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में क्षुद्र हिमवान् और शिखरी वर्षधरपर्वत में सब दिशाओं में और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हैमवत और हैरण्यवत वर्ष में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में शब्दापाती और विकटापाती वृत्तवैताढ्यपर्वत में समस्त दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में महाहिमवन्त और रुक्मी नामक वर्षधर पर्वतों में सब दिशामों-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में हरिवर्ष और रम्यकवर्ष में सब दिशाओंविदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में गन्धावती (गन्धापाती) माल्यवन्तपर्याय वृतवैताढ्यपर्वत में समस्त दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में निषध और नीलवन्त नामक वर्षधर पर्वत में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में पूर्वविदेह और अपरविदेह में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति होती है, जम्बूद्वीप नामक द्वीप में देवकुरु और उत्तरकुरु (क्षेत्र) में सब दिशानों-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है तथा जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मन्दर पर्वत की सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है / लवणसमुद्र में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, धातकीषण्ड द्वीप में पूर्वार्द्ध और पश्चिमाद्धं मन्दर-पर्वत की सब दिशानोंविदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, कालोदसमुद्र में समस्त दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, पुष्करवरद्वीपार्द्ध के पूर्वाद्ध के भरत और ऐरवत वर्ष में सब दिशाओं और विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है, पुष्करवरद्वीपार्द्ध के पश्चिमार्द्ध मन्दरपर्वत में सब दिशाओं-विदिशाओं में सिद्धक्षेत्रोपपातगति है। यह हुआ सिद्धक्षेत्रोपपातगति का वर्णन / इस प्रकार क्षेत्रोपपातगति का निरूपण पूर्ण हुआ // 1 // Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद] [231 1066. से कि तं भवोववातगती ? भवोववातगती चउम्बिहा पण्णता / तं जहा-रइय० जाव देवभवोववातगती। से कि तं रइयभवोववातगती ? णेरडयभवोक्यातगती सत्तविहा पण्णता / तं जहा० / एवं सिद्धवज्जो मेरो भाणियो , जो चेव खेतोववातगतीए सो चेव भवोववातगतीए / से तं भवोववातगती 2 / [1099 प्र.] भवोपपातमति कितने प्रकार की है ? [1066 उ.] भवोपपातगति चार प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-नैरयिकभवोपपातगति (से लेकर) देवभवोपपाततिपर्यन्त / [प्र.] नैरयिकभवोपपातगति किस प्रकार की है ? [उ.] नैरयिक भवोपपातगति सात प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार-इत्यादि सिद्धों को छोड़ कर सब भेद (तिर्यग्योनिकभवोपपातगति के भेद, मनुष्यभवोपपातगति के भेद और देवभवोपपातगति के भेद) कहने चाहिए। जो प्ररूपणा क्षेत्रोपपातगति के विषय में की गई थी, वही भवोपपातगति के विषय में कहनी चाहिए। यह हुआ भवोपपातगति का निरूपण / 1100. से कि तं णोभवोक्वातगती ? णोभवोववातगती दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-पोग्गलणोभवोववातगती य सिद्धणोभवोववातगती य। [1100 प्र.] वह नोभवोपपातगति किस प्रकार की है ? [1100 उ.] नोभवोपपातगति दो प्रकार की कही है। वह इस प्रकार—पुद्गल-नोभवोपपातगति और सिद्ध-नोभवोपपातगति / 1101. से कि तं पोग्गलणोभवोववातगतो ? पोग्गलगोभवोयवातगतो जण्णं परमाणुपोग्गले लोगस्स पुरथिमिल्लाओ चरिमंतानो पच्छिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, पच्छिमिल्लाप्रो वा चरिमंतानो पुरथिमिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, दाहिणिल्लामो वा चरिमंतानो उत्तरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति, एवं उत्तरिल्लातो दाहिणिल्लं, उवरिल्लामो हेडिल्लं, हेट्ठिल्लाप्रो वा उरिल्लं / से तं पोग्गलणोभवोववातगती। [1101 प्र.] वह पुद्गल-नोभवोपपातगति क्या है ? [1101 उ. जो पुद्गल परमाणु लोक के पूर्वी चरमान्त अर्थात् छोर से पश्चिमी चरमान्त तक एक ही समय में चला जाता है, अथवा पश्चिमी चरमान्त से पूर्वी चरमान्त तक एक समय में गमन करता है, अथवा दक्षिणी चरमान्त से उत्तरी चरमान्त तक एक समय में गति करता है, या उत्तरी चरमान्त से दक्षिणी चरमान्त तक तथा ऊपरी चरमान्त (छोर) से नीचले चरमान्त तक एवं नीचले चरमान्त से ऊपरी चरभान्त तक एक समय में ही गति करता है; यह पुद्गल-नोभवोपपातगति कहलाती है / यह हुआ पुद्गल-नोभवोपपातगति का निरूपण / Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] [ प्रज्ञापनासून 1102. से कि तं सिद्धणोभवोववातगती? सिद्धणोभवोववातगती दुविहा पण्णता / तं महा-अणंतरसिद्धणोमवोववातगती य परंपरसिद्धणोभवोक्वातगती य / [1102 प्र.वह सिद्ध-नोभवोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1102 उ.] सिद्ध-नोभवोपपातगति दो प्रकार की कही है। वह इस प्रकार-अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति और परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति / 1103. से कि तं प्रणंतरसिद्धणोभवोषवातगतो ? अणंतरसिद्धणोभवोववातगती पन्नरसविहा पण्णत्ता। तं जहा--तित्थसिद्धप्रणतरसिद्धणोभवोववातगतो य जाव प्रणेगसिद्धणोभवोववातगतो य / [से तं अणंतरसिद्धणोभवोक्वातगती।] [1103 प्र.] वह अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति कितने प्रकार की है ? [1103 उ.] अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति पन्द्रह प्रकार की है / वह इस प्रकारतीर्थसिद्ध-अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति (से लेकर) यावत् अनेकसिद्ध-अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति। यह हुआ उस अनन्तरसिद्ध-नोभवोपपातगति का निरूपण / 1104. से कि तं परंपरसिद्धणोभवोववातगती ? परंपरसिद्धणोभवोववातगती प्रणेगविहा पण्णता। तं जहा----अपढमसमयसिद्धणोमबोववातगती एवं दुसमयसिद्धणोभवोववातगती जाव अणंतसमयसिद्धणोमवोववातगतो। से तं परंपरसिद्धणोभवोववातगती / से तं सिद्धणोभवोववातगतो / से तं गोभवोबवायगती 3 / से तं उववातगती / [1114 प्र.] परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति कितने प्रकार की है ? 61104 उ.] परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति अनेक प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-अप्रथमसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति, एवं द्विसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति यावत् (त्रिसमय से लेकर संख्यातसमय, असंख्यातसमयसिद्ध) अनन्तसमयसिद्ध-नोभवोपपातगति / यह हुआ परम्परसिद्ध-नोभवोपपातगति (का निरूपण / ) (इसके साथ ही) उक्त सिद्ध-नोभवोपपातगति (का वर्णन हुआ / तदनुसार) पूर्वोक्त नो भवोपपातगति (को प्ररूपणा समाप्त हुई / ) (इसकी समाप्ति के साथ ही) उपपातगति (का वर्णन पूर्ण हुआ / ) / 1105. से किं तं विहायगतो? विहायगती सत्तरसविहा पण्णत्ता। तं जहा-फुसमाणगती 1 अफुसमाणगती 2 उवसंपज्जमाणगती 3 अणुवसंपज्जमाणगती 4 पोग्गलगती 5 मंड्यगती 6 णावागती 7 णयगती 8 छायागती छायाणुवायगती 10 लेसागती 11 लेस्साणुवायगती 12 उद्दिस्सपविभत्तगती 13 चउपुरिसपविभत्तगती 14 वंकगती 15 पंकगती 16 बंधणविमोयणगती 17 // Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद [ 233 [1105 प्र.] विहायोगति कितने प्रकार की है ? [1105 उ.] विहायोगति सत्तरह प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--(१) स्पृशद्गति, 2. अस्पृशद्गति, 3. उपसम्पद्यमानगति, 4. अनुपसम्पद्यमानगति, 5. पुद्गलगति, 6. मण्डूकगति, 7. नौकागति, 8. नयगति, 9. छायागति, 10. छायानुपातगति, 11. लेश्यागति, 12. लेश्यानुपातगति, 13. उद्दिश्यप्रविभक्तगति, 14. चतुःपुरुषप्रविभक्तगति, 15. वक्रगति, 16. पंकगति और 17. बन्धनविमोचनगति / 1106. से कितं फुसमाणगती? कुसमाणगती जण्णं परमाणुपोग्गले दुपदेसिय जाव अणंतपदेसियाणं खंधाणं अण्णमण्णं फुसित्ता णं गती पवत्तइ / से तं फुसमाणगतो 1 / [1106 प्र.] वह स्पृशद्गति क्या है ? [1106 उ.] परमाणु पुद्गल की अथवा द्विप्रदेशी (से लेकर) यावत् (त्रिप्रदेशी, चतुःप्रदेशी, पंचप्रदेशी, षटप्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दशप्रदेशी, संख्यातप्रदेशी, अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की एक दूसरे को स्पर्श करते हुए जो गति होती है, वह स्पृशद्गति है / यह हुआ स्पृशद्गति का वर्णन // 1 // 1107. से किं तं प्रफुसमाणगती ? अफुसमाणगती जण्णं एतेसि चेव प्रफुसित्ता णं गती पवत्तइ / से तं अफुसमाणगती 2 // [1107 प्र.] अस्पृशद्गति किसे कहते हैं ? [1107 उ.] उन्हीं पूर्वोक्त परमाणु पुद्गलों से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की परस्पर स्पर्श किये विना ही जो गति होती है, वह अस्पृशद्गति है / यह हुअा अस्पृशद्गति का स्वरूप / / 2 / / 1108. से कि तं उपसंपज्जमाणगती ? उवसंपज्जमाणगती जणं रायं वा जुबरायं वा ईसरं बा तलवरं वा माइंबियं वा कोडुबियं वा इन्भं वा सिद्धि वा सेणावई वा सत्थवाहं वा उपसंपज्जित्ता णं गच्छति / से तं उवसंपज्जमाणगती 3 / [1108 प्र.] वह उपसम्पद्यमानगति क्या है ? [1108 उ.] उपसम्पद्यमानगति वह है, जिसमें व्यक्ति राजा, युवराज, ईश्वर (ऐश्वर्यशाली), तलवर (किसी नृप द्वारा नियुक्त पट्टधर शासक), माडम्बिक (मण्डलाधिपति), इभ्य (धनाढ्य), सेठ, सेनापति या सार्थवाह को आश्रय करके (उनके सहयोग या सहारे से) गमन करता हो। यह हुआ उपसम्पद्यमानगति का स्वरूप // 3 // 1106. से कि तं अणुवसंपज्जमाणगती ? अणुवसंपज्जमाणगती जणं एतेसि चेव अण्णमण्णं अणुवसंपज्जित्ता णं गच्छति / से तं प्रणुवसंपज्जमाणगती 4 / Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [प्रज्ञापनासूत्र [1109 प्र.] वह अनुपसम्पद्यमानगति क्या है ? [1109 उ.] इन्हीं पूर्वोक्त (राजा आदि) का परस्पर आश्रय न लेकर जो गति होती है, वह अनुपसम्पद्यमान गति है। यह हुआ अनुपसम्पद्यमान गति का स्वरूप / / 4 / / 1110. से कि तं पोग्गलगती? पोग्गलगती जण्णं परमाणुपोग्गलाणं जाव अणंतपएसियाणं खंधाणं गती पवत्तति / से तं पोग्गलगती। [1110 प्र.] पुद्गलगति क्या है ? [1110 उ.] परमाणु पुद्गलों की यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्धों को गति पुद्गलगति है। यह हुआ पुद्गलगति का स्वरूप / / 5 / / 1111. से किं तं मंड्यगती ? मंड्यगती जणं मंडूए उफिडिया उम्फिडिया गच्छति / से तं मंड्यगती 6 / [1111 प्र.] मण्डूकगति का क्या स्वरूप है ? [1111 उ.] मेंढ़क जो उछल-उछल कर गति करता है, वह मण्डूकगति कहलाती है / यह हुआ मण्डूकगति (का स्वरूप / ) // 6 // 1112. से कि तं णावागती? जावागती जण्णं णावा पुधवेयालीयो दाहिणवेयालि जलपहेणं गच्छति, दाहिणवेयालीग्रो वा प्रवरवेयालि जलपहेणं गच्छति / से तं णावागती 7 / [1112 प्र.] वह नौकागति क्या है ? [1112 उ.] जैसे नौका पूर्व वैताली (तट) से दक्षिण वैताली की पोर जलमार्ग से जाती है, अथवा दक्षिण वैताली से अपर वैताली की ओर जलपथ से जाती है, ऐसी गति नौकागति है / यह हुआ नौकागति का स्वरूप / / 7 / / 1113. से कि तं जयगती ? णयगती जण्णं णेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुय-सह-समभिरूढ-एवंभूयाणं णयाणं जा गती अहवा सव्वणया वि जं इच्छंति / से तं णयगती 8 / [1113 प्र.] नयगति का क्या स्वरूप है ? [1113 उ.] नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत, इन सात नयों की जो प्रवृत्ति है, अथवा सभी नय जो मानते (चाहते या विवक्षा करते) हैं, वह नयगति है / यह हुआ नयगति का स्वरूप / / 8 / / 1114. से कि तं छायागती? छायागती जण्णं यच्छायं वा गयच्छायं वा नरच्छायं वा किन्नरच्छायं वा महोरगच्छायं वा गंधधच्छायं वा उसहच्छायं वा रहच्छायं वा छत्तच्छायं वा उवसंपज्जित्ता णं गच्छति / से तं छायागती है। Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद [235 [1114 प्र.] छायागति किसे कहते हैं ? [1114 उ.] अश्व की छाया, हाथी की छाया, मनुष्य की छाया, किन्नर की छाया, महोरग की छाया, गन्धर्व की छाया, वृषभछाया, रथछाया, छत्रछाया का आश्रय करके (छाया का अनुसरण करके या छाया का आश्रय लेने के लिए) जो गमन होता है, वह छायागति है। यह है छायागति का वर्णन || 1115. से कि तं छायाणुवातगती ? छायाणवातगतो जण्णं पुरिसं छाया अणुगच्छति णो पुरिसे छायं अणुगच्छति / से तं छायाणुवातगती 10 / [1115 प्र.} छायानुपातगति किसे कहते हैं ? [1115 उ.] छाया पुरुष आदि अपने निमित्त का अनुगमन करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुगमन नहीं करता, वह छायानुपातगति है / यह हुमा छायानुपातगति (का स्वरूप / ) // 10 // 1116. से कि तं लेस्सागती? लेस्सागती जण्णं कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भज्जो परिणमति, एवं गोललेस्सा काउलेस्सं पण तारूवत्ताए जाव ताफासत्ताए परिणमति, एवं काउलेस्सा वि तेउलेस्सं, तेउलेस्सा वि पम्हलेस्सं, पम्हलेस्सा वि सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव परिणमति / से तं लेस्सागती 11 / [1116 प्र.] लेश्यागति का क्या स्वरूप है ? [1116 उ.] कृष्णलेश्या (के द्रव्य) नीललेश्या (के द्रव्य) को प्राप्त होकर उसी के वर्णरूप में, उसी के गन्धरूप में, उसी के रसरूप में तथा उसी के स्पर्शरूप में बार-बार जो परिणत होती है, इसी प्रकार नीललेश्या भी कापोतलेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णरूप में यावत् उसी के स्पर्शरूप में जो परिणत होती है, इसी प्रकार कापोतलेश्या भी तेजोलेश्या को, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को तथा पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर जो उसी के वर्णरूप में यावत् उसी के स्पर्शरूप में परिणत होती है, वह लेश्यागति है / यह है लेश्यागति का स्वरूप // 11 // 1117. से कि तं लेस्सागुवायगती? लेस्साणुवायगती जल्लेस्साई दवाइं परियाइत्ता कालं करेति तल्लेस्सेसु उववज्जति / तं जहा--कण्हलेन्सेसु वा जाव सुक्कलेस्सेसु वा / से तं लेस्साणुवायगती 12 / (1117 प्र.] लेश्यानुपातगति किसे कहते हैं ? [1117 उ.] जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके (जीव) काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाले (जीवों) में उत्पन्न होता है। जैसे--कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले द्रव्यों में। (इस प्रकार की गति) लेश्यानुपातगति है। यह हुआ लेश्यानुपातगति का निरूपण / / 12 / / Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [ प्रज्ञापनासूत्र 1118. से कि त उहिस्सपविभत्तगती ? उहिस्सपविभत्तगती जेणं पायरियं वा उवज्झायं वा थेरं वा पत्ति वा गणि वा गणहरं वा गणावच्छेइयं वा उद्दिसिय 2 गच्छति / से तं उद्दिस्सपविभत्तगती 13 / / [1118 प्र.] उद्दिश्यप्रविभक्तगति का क्या स्वरूप है ? / [1118 उ.] प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणि, गणधर अथवा गणावच्छेदक को लक्ष्य (उद्देश्य) करके जो गमन किया जाता है. वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है / यह हुआ उद्दिश्यप्रविभक्तगति का स्वरूप / / 13 / / 1116. से कि तं चउपुरिसपविभत्तगती ? चउपुरिसपविभत्तगती से जहाणामए चत्तारि पुरिसा समगं पट्टिता समगं पज्जवट्ठिया 1 समगं पट्टिया विसमं पज्जवटिया 2 विसमं पट्ठिया समगं पज्जवटिया 3 विसमं पट्टिया विसमं पज्जवडिया 4 / से तं चउपुरिसपविभत्तगती 14 / [1119 प्र.] चतुःपुरुषप्रविभक्तगति किसे कहते हैं ? [1116 उ.] जैसे-१. किन्हीं चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान हुआ और एक ही साथ पहुँचे, 2. (दूसरे) चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान हुआ, किन्तु वे एक साथ नहीं (आगे-पीछे) पहुँचे, 3. (तीसरे) चार पुरुषों का एक साथ प्रस्थान नहीं (आगे-पीछे) हुआ, किन्तु पहुँचे चारों एक साथ, तथा 4. (चौथे) चार पुरुषों का प्रस्थान एक साथ नहीं (आगे-पीछे) हुआ और एक साथ भी नहीं (आगे-पीछे) पहुँचे; इन चारों पुरुषों की चतुर्विकल्पात्मकगति चतुःपुरुषप्रविभक्तगति है। यह हुआ चतुःपुरुषप्रविभक्तगति का स्वरूप / / 14 / / 1120. से कि तं वंकगती ? वंकगतीचउम्विहा पण्णता। तं जहा-घणया 1 थंभणया२लेसणया ३५वडणया४ / से तं वंकगती 15 // [1120 प्र.] वक्रगति किस प्रकार की है ? [1120 उ.] वक्रगति चार प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार--(१) घट्टन से, (2) स्तम्भन से, (3) श्लेषण से और (4) प्रपतन से / यह है वक्रगति का निरूपण / / 15 / / 1121. से कि तं पंकगती ? पंकगती से जहाणामए केइ पुरिसे सेयंसि वा पंकसि वा उदयंसि वा कायं उहिया 2 गच्छति / से तं पंकगती 16 / [1121 प्र.] पंकगति का क्या स्वरूप है ? [1121 उ.] जैसे कोई पुरुष कादे में, कीचड़ में अथवा जल में (अपने) शरीर को दूसरे के साथ जोड़कर गमन करता है, (उसकी) यह (गति) पंकगति है / यह हुआ पंकगति (का स्वरूप) / / 16 / / Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलहवां प्रयोगपद ] [ 237 1122. से कि तं बंधणविमोयणगती?' बंधविमोयणगती जणं अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा भल्लाण वा फणसाण वा दाडिमाण वा पारेवताण वा अक्खोडाण वा चोराण वा बोराण वा तिदुयाण वा पक्काणं परियागयाणं बंधणामो विप्पमुक्काणं णिवाघाएणं अहे वीससाए गती पवत्तइ / से तं बंधणविमोयणगती 17 / [से तं विहायगती। से तं भइपबाए।] // पण्णवणाए भगवतीए सोलसमं पप्रोगपयं समत्तं / / [1122 प्र.] वह बन्धनविमोचनति क्या है ? [1122 उ.] अत्यन्त पक कर तैयार हुए, अतएव बन्धन से विमुक्त (छुटे हुए) पाम्रों, आम्रातकों, बिजौरों, बिल्वफलों (बेल के फलों), कवीठों, भद्र नामक फलों, कटहलों (पनसों), दाडिमों, पारेवत नामक फल विशेषों, अखरोटों, चोर फलों (चारों), बोरों अथवा तिन्दुकफलों की रुकावट (व्याघात) न हो तो स्वभाव से ही जो अधोगति होती है, वह बन्धनविमोचनगति है। यह हुमा बन्धनविमोचनगति का स्वरूप / / 17 / / इसके साथ ही विहायोगति की प्ररूपणा पूर्ण हुई। यह हुमा गतिप्रपात का वर्णन / विवेचन-गतिप्रपात के भेद-प्रभेद एवं उनके स्वरूप का निरूपण-प्रस्तुत 37 सूत्रों (सू. 1086 से 1122 तक) में प्रयोगगति आदि पांचों प्रकार के गतिप्रपातों के स्वरूप एवं प्रकारों की प्ररूपणा की गई है। विहायोगति की व्याख्या-आकाश में होने वाली गति को विहायोगति कहते हैं। वह 17 प्रकार की है / (1) स्पृशद्गति-परमाणु आदि अन्य वस्तुओं के साथ स्पृष्ट हो-होकर अर्थात्परस्पर सम्बन्ध को प्राप्त हो करके जो गमन करते हैं, वह स्पृशद्गति कहलाती है। (2) अस्पृशद्गति-परमाणु आदि अन्य परमाणु आदि से अस्पृष्ट रहकर यानि परस्पर सम्बन्ध का अनुभव न करके जो गमन करते हैं, वह अस्पृशद्गति है। जैसे-~~-परमाणु एक ही समय में एक लोकान्त से अपर लोकान्त तक पहुँच जाता है / (3) उपसम्पद्यमानगति-किसी दूसरे का आश्रय लेकर (यानी दूसरे के सहारे से) गमन करना / जैसे-धन्ना सार्थवाह के आश्रय से धर्मघोष आचार्य का गमन / (4) अनुपसम्पद्यमानति-बिना किसी का आश्रय लिये मार्ग में गमन करना। (५)पुद्गलगति-पुद्गल की गति। (6) मण्डकगति-मेंढक की तरह उछल-उछल कर चलना / (7) नौकागति-नौका द्वारा महानदी आदि में गमन करना / (8) नयगति-नेगमादि नयों द्वारा स्व-स्वमत की पुष्टि करना अथवा सभी नयों द्वारा परस्पर सापेक्ष होकर प्रमाण से अबाधित वस्तु को व्यवस्थापना करना। (6) छायागति-छाया का अनुसरण (अनुगमन) करके अथवा उसके सहारे से गमन करना। (10) छायानुपातगति-छाया का अपने निमित्तभूत पुरुष का अनुपात–अनुसरण करके गति करना छायानुपातगति है; क्योंकि छाया पुरुष का अनुसरण करती है, किन्तु पुरुष छाया का अनुसरण नहीं करता / (11) लेश्यागति-तिर्यचों और मनुष्यों के कृष्णादि लेश्या के द्रव्य नीलादि लेश्या के द्रव्यों को प्राप्त करके तद्रूप में परिणत होते हैं, वह लेश्यागति है। (12) लेश्यानुपातगति-लेश्या के 1. ग्रन्थाग्रम 5000 Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [प्रज्ञापनासूत्र अनुपात अर्थात्-अनुसार गमन करना लेश्यानुपातगति है। जीव लेश्याद्रव्यों का अनुसरण करता है, लेश्याद्रव्य जीव का अनुसरण नहीं करता। जैसा कि मूलपाठ में कहा गया है—जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वह उसी लेश्या में उत्पन्न होता है। (13) उदृिश्यप्रविभक्तगतिप्रविभक्त यानि प्रतिनियत आचार्यादि का उद्देश्य करके उनके पास से धर्मोपदेश सुनने या उनसे प्रश्न पूछने के लिए जो गमन किया जाता है, वह उद्दिश्यप्रविभक्तगति है / (14) चतुःपुरुषप्रविभक्तगतिचार प्रकार के पुरुषों को चार प्रकार की प्रविभक्त-प्रतिनियत गति चतुःपुरुषप्रविभक्तगति कहलाती है। (15) वक्रगति–चार प्रकार से वक्र—टेढी-मेढी गति करना / वक्रगति के चार प्रकार ये हैंघट्टनता-खंजा (लंगड़ी) चाल (गति), स्तम्भनता-गर्दन में धमनी आदि नाड़ी का स्तम्भन होना अथवा प्रात्मा के अंगप्रदेशों का स्तब्ध हो जाना स्तम्भनता है, श्लेषणता-घुटनों आदि के साथ जांघों आदि का संयोग होना श्लेषणता है, प्रपतन-ऊपर से गिरना। (16) पंकगति-पंक अर्थात् कीचड़ में गति करना / उपलक्षण से पंक शब्द से 'जल' का भी ग्रहण करना चाहिए / अतः पंक अथवा जल में अपने शरीर को किसी के साथ बांध कर उसके बल से चलना पंकगति है। (17) बन्धनविमोचनगति-ग्राम प्रादि फलों का अपने वन्त (बधन) से छट कर स्वभावत: नीचे गिरना, बन्धनविमोचनगति है।" सपक्ष सप्रतिदिक्-पक्ष का अर्थ है-पूर्व-पश्चिम-उत्तर-दक्षिण रूप पार्श्व / प्रतिदिक का अर्थ है-विदिशाएँ / इनके साथ / // प्रज्ञापनासूत्र : सोलहवां प्रयोगपद समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 328-329 Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसम लेस्सापयं सत्तरहवाँ लेश्यापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह सत्तरहवाँ 'लेश्यापद' है / * 'लेश्या' आत्मा के साथ कर्मों को श्लिष्ट करने वाली है। जीव का यह एक परिणाम-विशेष है। इसलिए आध्यात्मिक विकास में अवरोधक होने से लेश्या पर सभी पहलुओं से विचार करना आवश्यक है / इसी उद्देश्य से इस पद में छह उद्देशकों द्वारा लेश्या का सांगोपांग विचार किया गया है। लेश्या का मुख्य कारण मन-वचन-काया का योग है / योगनिमित्तक होने पर भी लेश्या योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्यरूप है / योगान्तर्गत द्रव्यों में कषायों को उत्तेजित करने का सामर्थ्य है / अतः जहाँ कषाय से अनुरंजित आत्मा का परिणाम हुआ, वहाँ लेश्या अशुभ, अशुभतर एवं अशुभतम बनती जाती है, जहाँ अध्यवसाय केवल योग के साथ होता है, वहाँ लेश्या प्रशस्त एवं शुभ होती जाती है।' / प्रस्तुत पद के छह उद्देशकों में से प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और आयुष्य की समता-विषमता के सम्बन्ध में पृथक्-पृथक् सकारण विचार किया गया है। इसके पश्चात् कृष्णादि लेश्याविशिष्ट 24 दण्डकवर्ती जीवों के विषय में पूर्वोक्त आहारादि सप्त द्वारों की दृष्टि से विचारणा की गई है। द्वितीय उद्देशक में लेश्या के 6 भेद बता कर नरकादि चार गतियों के जीवों में से छह लेश्याओं में से किसके कितनी लेश्याएँ होती हैं, इसकी चर्चा की गई है। साथ ही कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकीय जीवों के अल्प-बहत्त्व की विस्तृत प्ररूपणा की गई है। अन्त में कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में कौन किससे अल्पद्धिक या महद्धिक है ? इसका विचार किया गया है। तृतीय उद्देशक में कृष्णादिलेश्यायुक्त चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में एकत्व-बहुत्व एवं सामूहिक लेश्या की अपेक्षा से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है / इस पर से जन्मकाल और मृत्यूकाल में कौन-सा जीव किस लेश्या वाला होता है. यह स्पष्ट फलित हो जाता है / तत्पश्चात् उस-उस लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान की विषयमर्यादा तथा उस-उस लेश्या वाले जीव में कितने और कौन-से ज्ञान होते हैं ? यह प्ररूपणा की गई है। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 329-330 (ख) 'लेश्याभिरात्मनि कर्माणि संश्लिष्यन्ते / योग-परिणामो लेश्या / जम्हा अयोगिकेवली अलेस्सो।' --अावश्यक चूर्णि (ग) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा प्र. 247 Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 ] [प्रज्ञापनासूत्र * ना चतुर्थ उद्देशक में बताया गया है कि एक लेश्या का, अन्य लेश्या के रूप में परिणमन किस प्रकार होता है / छहों लेश्याओं के पृथक्-पृथक् वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की प्ररूपणा की गई है। तत्पश्चात् कृष्णादि लेश्याओं के कितने परिणाम, प्रदेश, प्रदेशावगाह, वर्गणा एवं स्थान होते हैं, इसकी प्ररूपणा की गई है। अन्त में कृष्णादि लेश्याओं के स्थान की जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम दृष्टि से द्रव्य, प्रदेश एवं द्रव्य-प्रदेश की अपेक्षा से अल्पबहुत्व की विस्तृत प्ररूपणा की / पंचम उद्देशक के प्रारम्भ में तो चतुर्थ उद्देशक के परिणामाधिकार की पुनरावृत्ति की गई है। उसके पश्चात् ऐसा निरूपण है कि उस-उस लेश्या का अन्य लेश्या के रूप में तथा उनके वर्णादि रूप में परिणमन नहीं होता। वृत्तिकार इस पूर्वापर विरोध का समाधान करते हुए कहते हैं कि चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का अन्य लेश्या के रूप में परिणत होने का जो विधान है, वह तिर्यञ्चों और मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए तथा पंचम उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या के रूप में परिणत होने का जो निषेध है, वह देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। * छठे उद्देशक में भरतादि विविध क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों और मनुष्य-स्त्रियों की लेश्या सम्बन्धी चर्चा की गई है / इसके बाद यह प्रतिपादन किया गया है कि जनक और जननी की जो लेश्या होती है, वही लेश्या जन्य की होनी चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है / जनक और जन्य की या जननी और जन्य की लेश्याएँ सम भी हो सकती हैं, विषम भी।' प्रस्तुत लेश्यापद इतना विस्तृत एवं छह उद्देशकों में विभक्त होते हुए भी उत्तराध्ययन आदि आगम-ग्रन्थों में उस-उस लेश्यावाले जीवों के अध्यवसायों को तथा उनके लक्षण, स्थिति, गति एवं परिणति की जैसी विस्तृत चर्चा है तथा भगवतीसूत्र आदि में लेश्या के द्रव्य और भाव, इन दो भेदों का जो वर्णन मिलता है, वह इसमें नहीं है / कहीं-कहीं वर्णन में पुनरावृत्ति भी 10 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 104 से 107 तक (ख) पण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 274 से 303 तक 2. (क) उत्तराध्ययन अ. 34 गा. 21 से 61 तक (ख) लेश्याकोष (संपा. मोहनलाल बांठिया.) (ग) Doctrine of the Jainas (Sehubring) (घ) भगवतीसूत्र श. 12, उद्देशक 5, सू. 452 पत्र 572 (ग) षट्खण्डागम पु. 1, पृ. 132, 386, पृ. 3 पृ. 459; पु. 4 पृ. 290 Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : पढमो उद्देसओ सतरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में वर्णित सप्त द्वार११२३. प्राहार सम सरीरा उस्सासे 1 कम्म 2 घण्ण 3 लेस्सासु 4 / समवेदण 5 समकिरिया 6 समाउया 7 चेव बोद्धव्वा // 206 // ' [1123 प्रथम-उद्देशक अधिकारगाथार्थ-] 1. समाहार, सम-शरीर और (सम) उच्छवास, 2. कर्म, 3. वर्ण, 4. लेश्या, 5. समवेदना, 6. समक्रिया तथा 7. समायुष्क, (इस प्रकार सात द्वार प्रथम उद्देशक में) जानने चाहिए // 209 / / विवेचन–प्रथम उद्देशक में लेश्या से सम्बन्धित सप्तद्वार-प्रस्तुत सूत्र में लेश्यासम्बन्धी सम-आहार, शरीर-उच्छ्वासादि सातों द्वारों का निरूपण किया गया है। पाहारादि प्रत्येक पद के साथ 'सम' शब्द प्रयोग प्रस्तुत गाथा के पूर्वार्द्ध में 'सम' शब्द का प्रयोग एक वार किया गया है, उसका सम्बन्ध प्रत्येक पद के साथ जोड़ लेना चाहिए / जैसे--समाहार, समशरीर, सम उच्छ्वास, समकर्म, समवर्ण, समलेश्या, समवेदना, समक्रिया, और समायुष्क / लेश्या की व्याख्या-जिसके द्वारा आत्मा कर्मों के साथ श्लेष को प्राप्त होता है, वह लेश्या है / लेश्या की शास्त्रीय परिभाषा है-कृष्णादि द्रव्यों के सान्निध्य से होने वाला प्रात्मा का परिणाम भी है-जैसे स्फटिक मणि के पास जिस वर्ण की वस्तु रख दो जाती है, स्फटिक उसी वर्ण वाली प्रतीत होती है, उसी प्रकार कृष्णादि द्रव्यों के संसर्ग से प्रात्मा में भी उसी तरह का परिणाम होता है / वही परिणाम लेश्या कहलाता है।' लेश्या का निमित्तकारण : योग या कषाय ?–कृष्णादि द्रव्य क्या है ? इसका उत्तर यह है कि योग के सद्भाव में लेश्या का सद्भाव होता है, योग का अभाव होने पर लेश्या का भी प्रभाव हो / इस प्रकार योग के साथ लेश्या का अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है / अतएव यह सिद्ध हया कि लेश्या योगनिमित्तक है / लेश्या योगनिमित्तक होने पर भी योग के अन्तर्गत द्रव्यरूप है, योगनिमित्तक कर्मद्रव्यरूप नहीं। अगर लेश्या को कर्मद्रव्यरूप माना जाएगा तो प्रश्न होगा-लेश्या धातिकर्मद्रव्य रूप है या अघातिकर्मद्रव्यरूप ? लेश्या घातिकर्मद्रव्यरूप तो हो नहीं सकती, क्योंकि सयोगी केवली में घातिकर्मों का अभाव होने पर भी लेश्या का सद्भाव होता है / वह अघातिकर्म ला 1. पाठान्तर-किन्हीं प्रतियों में प्रस्तुत सात द्वारों के बदले 'पाहार' के साथ शरीर और उच्छवास को सम्मिलित न मान कर पृथक-पृथक् माना है, अतएव नौ द्वार गिनाए हैं। -सं. 2. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 329 (ख) कृष्णादिद्रव्यसाचिन्यात परिणामो यात्मनः / स्फटिक स्येव तत्रायं, लेश्या शब्दः प्रवर्तते / / Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [प्रज्ञापनासूत्र द्रव्य भी नहीं कही जा सकती, क्योंकि अयोगिकेवली में अघाति कर्मों का सद्भाव होने पर भी लेश्या का अभाव होता है। अतएव पारिशेष्य न्याय से लेश्या को योगान्तर्गत द्रव्य ही मानना उचित है / वे ही योगान्तर्गत द्रव्य, जब तक कषायों की विद्यमानता है, तब तक उनके उदय को भड़काने वाले होते हैं, क्योंकि योग के अन्तर्गत द्रव्यों में कषाय के उदय को भड़काने का सामर्थ्य देखा जाता है / लेश्या कर्मों की स्थिति का कारण नहीं है, किन्तु कषाय स्थिति के कारण हैं। जो लेश्याएँ कषायोदयान्तर्गत होती हैं, वे ही अनुभागबन्ध का हेतु हैं / ' नैरयिकों में समाहारादि सात द्वारों की प्ररूपणा 1124. रइया णं भंते ! सव्वे समाहारा सव्वे समसरीरा सवे समुस्सासणिस्सासा? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति णेरइया णो सब्वे समाहारा जाव णो सब्वे समुस्सासहिस्सासा ? गोयमा! णेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा--महासरीरा य अप्पसरोरा य / तत्थ णं जे ते महासरीरा ते णं बहुतराए पोग्गले प्राहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेंति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं प्राहारेंति अभिक्खणं परिणामेंति अमिक्खणं ऊससंति अभिक्षणं जोससंति / तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अपतराए पोग्गले प्राहारेति अप्पतराए पोग्गले परिणामेंति अप्पतराए पोग्गले ऊससंति अप्पतराए पोग्गले गोससंति, प्राहच्च आहारेंति प्राहच्च परिणामेति माहच्च ऊससंति प्राहच्च णीससंति, से एतेणठेणं गोयमा ! एवं वृच्चइ रइया णो सम्वे समाहारा णो सम्वे समसरीरा णो सब्वे समुस्सासणीसासा 1 / [1124 प्र.] भगवन् ! क्या नारक सभी समान पाहार वाले हैं, सभी समान शरीर वाले हैं तथा सभी समान उच्छ्वास-नि:श्वास वाले होते हैं ? [1124 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक सभी समाहार नहीं हैं, यावत् सम उच्छ्वास-नि:श्वास वाले नहीं होते? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के हैं। वे इस प्रकार-महाशरीर वाले और अल्पशरीर वाले / उनमें से जो महाशरीर वाले नारक होते हैं, वे बहुत अधिक पदगलों का आहार करते हैं. प्रभूततर पुद्गलों को परिणत करते हैं, बहुत-से पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं / वे बार-बार प्रहार करते हैं, बार-बार (पुद्गलों को) परिणत करते हैं, बार-बार उच्छ्वसन करते हैं और बार-बार निःश्वसन करते हैं। उनमें जो छोटे (अल्प) शरीर वाले हैं. वे अल्पतर ( थोड़े ) पुद्गलों का आहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को परिणत करते हैं, अल्पतर पुद्गलों का उच्छ्वास लेते हैं और अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास छोड़ते हैं। वे कदाचित् 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 330-331 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग 4, पृ. 4-5 Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [ 243 आहार करते हैं, कदाचित् (पुद्गलों को) परिणत करते हैं तथा कदाचित् उच्छ्वसन करते हैं और कदाचित् निःश्वसन करते हैं। इस हेतु से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नारक सभी समान पाहार वाले नहीं होते, समान शरीर वाले नहीं होते और न ही समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं। ~~-प्रथम द्वार // 1 // 1125. पेरइया णं भंते सम्बे समकम्मा ? गोयमा ! गो इणठे समठे / से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति ? रइया णो सम्वे समकम्मा ? गोयमा ! णेरइया दुविहा पण्णता, तं जहा-पुन्वोयवाणगा य पच्छोषण्णगा य / तस्थ णं जे ते पुवोवषण्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा / तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं महाफम्मतरागा, एएणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति रइया णो सब्बे समकम्मा 2 / [1125 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या सभी समान कर्म वाले होते हैं ? [1125 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.) भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नारक सभी समान कर्म वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक (पहले उत्पन्न हुए) और पश्चादुपपन्नक (पीछे उत्पन्न हुए) / उनमें जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे (अपेक्षाकृत) अल्प कर्म वाले हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे महाकर्म (बहुत कर्म) वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान कर्म वाले नहीं होते। -द्वितोय द्वार / / 2 / / 1126. रइया णं भंते ! सब्बे समवण्णा? गोयमा ! णो इणठे समठे / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति जेरइया णो सम्वे समवण्णा ? गोयमा ! औरइया दुविहा पण्णता, तं जहा-पुन्वोक्वण्णगा य पच्छोववण्णगा य / तत्थ णं जे ते पुबोववष्णगा ते गं विसुद्धवण्णतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते ण अविसुद्ध षण्णतरागा, से एएणटठेणं गोयमा ! एवं पुच्चति रइया णो सो समवण्णा 3 / [1126 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सभी समान वर्ण वाले होते हैं ? [1126 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नरयिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक / उनमें से जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अधिक विशुद्ध वर्ण वाले होते हैं और उनमें जो पश्चादुपपन्नक होते हैं, वे अविशुद्ध वर्ण वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नैरयिक सभी समान वर्ण वाले नहीं होते / -तृतीय द्वार // 3 // Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 ] [प्रज्ञापनासूत्र 1127. एवं जहेव षण्णेण भणिया तहेव लेस्सासु वि विसुद्धलेस्सतरागा अविसुद्धलेस्सतरागा य भाणियन्वा 4 // [1127] जैसे वर्ण की अपेक्षा से नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहा है, वैसे ही लेश्या की अपेक्षा से भी नारकों को विशुद्ध और अविशुद्ध कहना चाहिए। -चतुर्थद्वार / / 4 / / 1128. रइया णं भंते ! सव्वे समवेदणा? गोयमा ! जो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति रइया णो सम्वे समवेयणा ? गोयमा ! रइया वुविहा पण्णत्ता, तं जहा–सणिभूया य प्रसण्णिभूया य / तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं महावेदणतरागा। तत्थ गंजे ते असण्णिभूया ते ण अप्पवेदणतरागा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वच्चति नेरइया नो सव्धे समवेयणा 5 / [1128 प्र.] भगवन् ! सभी नारक समान वेदना बाले होते हैं ? [1128 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र. भगवन् ! आप ऐसा किस कारण से कहते हैं कि सभी नारक समवेदना वाले नहीं होते? [उ.] गौतम ! नैरयिक दो प्रकार के कहे हैं / वे इस प्रकार-संज्ञीभूत (जो पूर्वभव में संज्ञी पंचेन्द्रिय थे) और असंज्ञीभूत (जो पूर्वभव में असंज्ञी थे)। उनमें जो संज्ञीभूत होते हैं, वे अपेक्षाकृत महान् वेदना वाले होते हैं और उनमें जो असंज्ञीभूत होते हैं, वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी नैरयिक समवेदना वाले नहीं होते। -पंचमद्वार ||5|| 1126. रइया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ? गोयमा ! णो इणठे समझें। से केणट्टेणं भंते ! एवं बच्चति गेरइया णो सम्वे समकिरिया ? गोयमा! रइया तिविहा पणत्ता, तं जहा-सम्मट्ठिी मिच्छट्ठिी सम्मामिच्छट्टिो / तत्थ णजे ते सम्मट्टिी तेसि णं चत्तारि किरियानो कज्जंति, तं जहा–प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छट्ठिी जे य सम्मामिच्छट्टिी तेसि नियतामो पंच किरियाप्रो कज्जति, तं जहा–प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 प्रपच्चक्वाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति णेरइया णो सम्वे समकिरिया 6 / [1129 प्र.] भगवन् ! सभी नारक क्या समान क्रिया वाले होते हैं ? [1129 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि सभी नारक समान क्रिया वाले नहीं होते? Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [ 245 [उ.] गौतम ! नारक तीन प्रकार के कहे हैं—सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि / उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, उनके चार क्रियाएँ होती हैं। वे इस प्रकार-१. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया और 4. अप्रत्याख्यानक्रिया। जो मिथ्या दृष्टि हैं तथा जो सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं, उनके नियत (निश्चित रूप से) पांच क्रियाएँ होती हैं-१. आरम्भिको, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया, 4. अप्रत्याख्यानक्रिया और 5. मिथ्यादर्शनप्रत्यया / हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि सभी नारक समान क्रिया वाले नहीं होते / -छठा द्वार // 6 // 1130. रइया णं भंते ! सम्वे समाउया ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं उच्चइ ? गोयमा! रइया चउन्धिहा पण्णता, तं जहा-प्रत्यंगइया समाउया समोवषण्णगा 1 प्रत्येगइया समाउया विसमोववण्णगा 2 अत्थेगहया विसमाउया समोववण्णगा 3 प्रत्थेगइया विसमाउया विसभोववण्णगा 4, से एएणठेणं गोयमा ! एवं सचइ रइया णो सवे समाउया णो सम्वे समोववण्णमा 7. [1130 प्र.] भगवन् ! क्या सभी नारक समान आयुष्य वाले हैं ? [1130 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि सभी नारक समान आयु वाले नहीं होते ? [उ.] गौतम ! नैरयिक चार प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-१. कई नारक समान आयु वाले और समान (एक साथ) उत्पत्ति वाले होते हैं, 2. कई समान अायु वाले, किन्तु विषम उत्पत्ति (आगे-पोछे उत्पन्न होने वाले होते हैं, 3. कई-कई विषम (असमान) आयु वाले और (एकसाथ) उत्पत्ति वाले होते हैं तथा 4. कई विषम आयु वाले और विषम ही उत्पत्ति वाले होते हैं / इस कारण से हे गौतम ! सभो नारक न तो समान आयु वाले होते हैं और न ही समान उत्पत्ति (एक साथ उत्पन्न होने वाले होते हैं / __ --सप्तम द्वार / / 7 / / विवेचन-नैरयिकों में समाहारादि सप्त द्वारों को प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों में नैरयिकों में आहार आदि पूर्वोक्त सात द्वारों से सम्बन्धित समानता-असमानता की चर्चा की गई है। महाशरीर-अल्पशरीर—जिन नारकों का शरीर अपेक्षाकृत विशाल होता है, वे महाशरीर और जिनका शरीर अपेक्षाकृत छोटा होता है, वे अल्पशरीर कहलाते हैं। नारक जीव का शरीर छोटे से छोटा (जघन्य) अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण होता है और बड़े से बड़ा (उत्कृष्ट) शरीर पांच सौ धनुष का होता है। यह प्रमाण भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से है, उत्तरवैक्रिय शरीर की अपेक्षा से जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट एक हजार धनुष-प्रमाण होता है। शंका-समाधान-नारकों की प्राहारसम्बन्धी विषमता पहले न बतलाकर पहले शरीरसम्बन्धी विषमता क्यों बतलाई गई है ? इसका कारण यह है कि शरीरों की विषमता बतला देने पर आहार, उच्छ्वास प्रादि की विषमता शीघ्र समझ में आ जाती है / इस आशय से दूसरे स्थान में प्रतिपाद्य शरीर-सम्बन्धी प्रश्न का समाधान पहले किया गया है। Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246] [ प्रज्ञापनासूत्र महाशरीरादिविशिष्ट नारकों में विसदृशता क्यों ? --जो नारक महाशरीर होते हैं, वे अपने से अल्प शरीर वाले नारकों की अपेक्षा बहुत पुद्गलों का आहार करते हैं, क्योंकि उनका शरीर बड़ा होता है / लोक में यह प्रसिद्ध है कि महान् शरीर वाले हाथी प्रादि अपने से छोटे शरीर वाले खरगोश आदि से अधिक आहार करते हैं / किन्तु यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि कोई-कोई तथाविध मनुष्य के समान बड़े शरीर वाला होकर भी अल्पाहारी होता है और कोई-कोई छोटे शरीर वाला होकर भी अतिभोजी होता है / यहाँ अल्पता और महत्ता भी सापेक्ष समझनी चाहिए। नारक जीव सातावेदनीय के अनुभाव के विपरीत असातावेदनीय का उदय होने से ज्यों-त्यों महाशरीर वाले, अत्यन्त दुःखी एवं तीव्र पाहाराभिलाषा वाले होते हैं, त्यों-त्यों वे बहुत अधिक पुद्गलों का आहार करते हैं तथा बहुत अधिक पुदगलों को परिणत करते हैं / परिणमन अाहार किये हुए पुद्गलों के अनुसार होता है / यहाँ परिणाम के विषय में प्रश्न न होने पर भी उसका प्रतिपादन कर दिया गया है, क्योंकि वह आहार का कार्य है / इसी प्रकार महाशरीर वाले होने से वे बहुत अधिक पुद्गलों को उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं / जो बड़े शरीर वाले (विशालकाय) होते हैं, वे अपनी जाति के लघुकायों की अपेक्षा बहुत उच्छ्वासनिःश्वास वाले होते हैं तथा दुःखित भी अधिक होते हैं, इसलिए ऐसे तारक दुःखित भी अधिक कहे गए हैं। अाहारादि की कालकृत विषमता-अपेक्षाकृत महाशरीर वाले अपनी अपेक्षा लघुशरीर वालों से शीघ्र और शीघ्रतर तथा पुन: पुन: प्राहार ग्रहण करते देखे जाते हैं / जब आहार बार-बार करते हैं तो उसका परिण मन भी बार-बार करते हैं तथा वे बार-बार उच्छ्वास ग्रहण करते और नि:श्वास छोड़ते हैं / प्राशय यह है कि महाकाय नारक महाशरीर वाले होने से अत्यन्त दुःखित होने के कारण निरन्तर उच्छ्वासादि क्रिया करते रहते हैं / जो नारक अपेक्षाकृत लघुकाय होते हैं, वे महाकाय नारकों को अपेक्षा अल्पतर पुद्गलों का पाहार करते हैं, अल्पतर पुद्गलों को ही परिणत करते हैं तथा अल्पतर पुद्गलों को ही उच्छ्वास के रूप में ग्रहण करते हैं और निःश्वास के रूप में छोड़ते हैं। वे कदाचित् अाहार करते हैं, सदैव नहीं। तात्पर्य यह है कि महाकाय नारकों के आहार का जितना व्यवधानकाल है, उसकी अपेक्षा लघुकाय नारकों के आहार का व्यवधानकाल (अन्तर) अधिक है। कदाचित् आहार करने के कारण वे (अल्पाहारी) उसका परिणमन भी कदाचित् करते हैं, सदा नहीं। इसी प्रकार वे कदाचित उच्छवास लेते हैं और कदाचित ही नि:श्वास छोड़ते हैं। क्योंकि लघुकाय नारक महाकाय नारकों की अपेक्षा अल्प दुःख वाले होने से निरन्तर उच्छ्वास-निःश्वास क्रिया नहीं करते, किन्तु बीच में व्यवधान डालकर करते हैं / अथवा अपर्याप्तिकाल में अल्पशरीर वाले होने से लोमाहार की अपेक्षा से वे आहार नहीं करते तथा श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति पूर्ण न होने से उच्छवास नहीं लेते; अन्य काल (पर्याप्तिकाल) में प्राहार और उच्छ्वास लेते हैं।' पूर्वोत्पन्न और पश्चादुत्पन्न नारकों में कर्म, वर्ण एवं लेश्या का अन्तर-जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके हैं, वे अल्पकर्म वाले होते हैं, क्योंकि पूर्वोत्पन्न नारकों को उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है, वे नरकायु, नरकगति और असातावेदनीय आदि कर्मों की बहुत 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 332-333 Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापन / प्रथम उद्देशक [247 निर्जरा कर चुके होते हैं, उनके ये कर्म थोड़े ही शेष रहे होते हैं / इस कारण पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्म वाले कहे गए हैं। किन्त जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, वे महाकर्म वाले होते हैं, क्योंकि उनकी नरकायु, नरकगति तथा असातावेदनीय आदि कर्म थोड़े ही निर्जीर्ण हुए हैं, बहुत-से कर्म अभी शेष हैं / इस कारण वे अपेक्षाकृत महाकर्म वाले हैं। __ यह कथन समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, अन्यथा रत्नप्रभापृथ्वी में किसी उत्कृष्ट आयु वाले नारक की आयु का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुका हो, वह सिर्फ एक पल्योपम ही शेष रह गया हो, दूसरी ओर उस समय कोई जघन्य दस हजार वर्षों की स्थिति वाला नारक पश्चात् उत्पन्न हुआ हो तो भी इस पश्चादुत्पन्न नारक की अपेक्षा उक्त पूर्वोत्पन्न नारक भी महान् कर्म वाला ही होता है। ___इसी प्रकार जिन्हें उत्पन्न हुए अपेक्षाकृत अधिक समय व्यतीत हो चुका है वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं / नारकों में अप्रशस्त (अशुभ) वर्णनामकर्म के उत्कट अनुभाग का उदय होता है, किन्तु पूर्वोत्पन्न नारकों के उस अशुभ अनुभाग का बहुत-सा भाग निर्जीर्ण हो चुकता है, स्वल्प भाग शेष रहता है। वर्णनामकर्म पुद्गलविपाकी प्रकृति है। अतएव पूर्वोत्पन्न नारक विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं, जब कि पश्चात्पन्न नारक अविशद्धतर वर्ण वाले होते हैं, क्योंकि भव के कारण होने वाले उनके अशुभ नामकर्म का अधिकांश अशुभ तीव्र अनुभाग निर्जीर्ण नहीं होता, सिर्फ थोड़े-से भाग को ही निर्जरा हो पाती है। इस कारण बाद में उत्पन्न नारक अविशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं / यह कथन भी समान स्थिति वाले नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार पूर्वोत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के बहत-से भाग को निर्जीर्ण कर चुकते हैं, इस कारण वे विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं, जबकि पश्चादुत्पन्न नारक अप्रशस्त लेश्याद्रव्यों के अल्पतम भाग की ही निर्जरा कर पाते हैं, उनके बहुत-से अप्रशस्त लेश्याद्रव्य शेष बने रहते हैं।' संजीभत और असंज्ञोभत नारकों की वेदना में अन्तर-जो जीव पहले (अतीत में) संज्ञीपंचेन्द्रिय थे और फिर नरक में उत्पन्न हुए हैं, वे संज्ञीभूत नारक कहलाते हैं और जो उनसे विपरीत हों, वे असंज्ञीभूत कहलाते हैं / जो नारक संज्ञीभूत होते हैं, वे अपेक्षाकृत महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि जो (भूतकाल में) संज्ञी थे, उन्होंने उत्कट अशुभ अध्यवसाय के कारण उत्कट अशुभ कर्मों का बन्ध किया है तथा वे महानारकों में उत्पन्न हुए हैं। इसके विपरीत जो नारक असंज्ञीभूत हैं, वे अल्पतर वेदना वाले होते हैं / असंज्ञी जीव नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति में से किसी भी गति का बन्ध कर सकते हैं / अतएव वे नरकायु का बन्ध करके नरक में उत्पन्न होते हैं, किन्तु अति तीव्र अध्यवसाय न होने से रत्नप्रभापृथ्वी के अन्तर्गत अति तीववेदना न हो ऐसे नारकावासों में ही उत्पन्न होते हैं। अथवा संज्ञी का तात्पर्य यहाँ सम्यग्दृष्टि है / संज्ञीभूत अर्थात् सम्यग्दृष्टि नारक पूर्वकृत अशुभ कर्मों के लिए मानसिक दुःख-परिताप का अनुभव करने के कारण अधिक वेदना वाले होते हैं। असंज्ञीभूत (मिथ्यादृष्टि) नारक को ऐसा परिताप नहीं होता, अतएव वह अल्पवेदना वाला होता है। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 333 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 334 Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [ प्रज्ञापनासूत्र प्रारम्मिको प्रादि क्रियाओं के लक्षण-प्रारम्भिकी-जीव-हिंसाकारी प्रवृत्ति (व्यापार) आरम्भ कहलाती है / आरम्भ से होने वाली कर्मबन्धकारणभूत क्रिया प्रारम्भिकी है। धर्मोपकरणों से भिन्न पदार्थों का ममत्ववश स्वीकार करना अथवा धर्मोपकरणों के प्रति मूच्र्छा होना परिग्रह है, उसके कारण होने वाली क्रिया पारिग्रहिकी किया है। माया, उपलक्षण से क्रोधादि के निमित्त से होने वाली क्रिया मायाप्रत्यया है / अप्रत्याख्यान क्रिया-अप्रत्याख्यानपापों से अनिवृत्ति के कारण होने वाली क्रिया / मिथ्यादर्शनप्रत्यया--मिथ्यात्व के कारण होने वाली क्रिया / शंका-समाधानयापि मिथ्यात्व. अविरति, कषाय और योग ये चार कर्मबन्ध के कारण बताए गए हैं, जबकि यहाँ प्रारम्भिकी आदि क्रियाएँ कर्मबन्ध को कारण बताई गई हैं, अत: दोनों में विरोध है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यहाँ प्रारम्भ और परिग्रह शब्द से 'योग' को ग्रहण किया गया है क्योंकि योग प्रारम्भ-परिग्रहरूप होता है, अतएव इनमें कोई विरोध नहीं है।' असुरकुमारादि भवनपतियों में समाहारादि सप्त प्ररूपणा-- 1131. असुरकुमारा णं भंते ! सच्चे समाहारा ? स च्चेव पुच्छा / गोयमा ! णो इणठे समठे, जहा जेरइया (सु. 1124) / [1131 प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार क्या समान प्राहार वाले हैं ? इत्यादि पृच्छा (पूर्ववत्)। [1131 उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है / (शेष सब निरूपण) (सू. 1124 के अनुसार) नैरयिकों (की पाहारादि-प्ररूपणा) के समान (जानना चाहिए)। 1132. असुरकुमारा णं भंते ! सव्वे समकम्मा ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुटवोववष्णगा य पच्छोववण्णगा य / तस्थ ण जे ते पुन्वोववष्णगा ते णं महाकम्मतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववष्णगा ते णं अप्पकम्मतरागा, से एएणठेणं गोयमा | एवं उच्चति असुरकुमारा णो सन्वे समकम्मा। [1132 प्र.] भगवन् ! सभी असुरकुमार समान कर्म वाले हैं ? [1132 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से कहते हैं कि सभी असुरकुमार समान कर्म वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-पूर्वोपपन्नक और पश्चादुपपन्नक / उनमें से जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे महाकर्म वाले हैं। उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे अल्पतरकर्म वाले हैं। इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी असुरकुमार समान कर्म वाले नहीं हैं। 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 335 Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहयो लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [ 249 1133. [1] एवं वण-लेस्साए पुच्छा। तत्थ णं जे ते पुण्योववण्णगा ते णं अविसुद्धवण्णतरागा। तत्थ णं जे ते पच्छोववण्णगा ते णं विसुद्धवण्णतरागा, से एएणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति असुरकुमारा सम्धे णो समवण्णा / [1133-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार क्या सभी समान वर्ण और समान लेश्या बाले हैं ? 1133-1 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त) दो प्रकार के असुरकुमारों में जो पूर्वोपपन्नक हैं, वे अविशुद्धतर वर्ण वाले हैं तथा उनमें जो पश्चादुपपन्नक हैं, वे विशुद्धतर वर्ण वाले हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी असुरकुमार समान वर्ण वाले नहीं होते। [2] एवं लेस्साए वि। [1133-2] इसी प्रकार लेश्या के विषय में (कहना चाहिए / ) 1134. वेदणाए जहा रइया (सु. 1128) / [1134] (असुरकुमारों की) वेदना के विषय में (सू. 1128 में उक्त) नरयिकों (की वेदनाविषयक प्ररूपणा) के समान (कहना चाहिए।) 1135. अवसेसं जहा णेरइयाणं (सु. 1129-30) / [1135] असुरकुमारों की क्रिया एवं आयु के विषय में शेष सब निरूपण (सू. 1129-1130 में उल्लिखित) नैरयिकों (की क्रिया एवं आयुविषयक निरूपण) के समान (समझना चाहिए / ) 1136. एवं जाव थणियकुमारा। [1136] इसी प्रकार (असुरकुमारों के आहारादि विषयक निरूपण की तरह नागकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (का निरूपण समझना चाहिए)। विवेचन--प्रसुरकुमारादि भवनपतियों को समाहारादि-प्ररूपणा-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1131 से 1136 तक) में असुरकुमारादि दस प्रकार के भवनपतिदेवों की आहारादि सप्त द्वारों द्वारा प्ररूपणा की गई है। असुरकुमारों प्रादि का महाशरीर-लघुशरीर-असुरकुमारों का अधिक से अधिक बड़ा शरीर सात हाथ का होता है। भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से यह प्रमाण है। उनके लघुशरीर का जघन्यप्रमाण अंगुल के असंख्यातवें भाग का समझना चाहिए। उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा उनका महाशरीर उत्कृष्ट एक लाख योजन और लघुशरीर जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है। इस प्रकार जो असुरकुमार भवधारणीय शरीर की अपेक्षा जितने बड़े शरीर वाले होते हैं, वे उतने ही अधिक पुद्गलों को बाहार के रूप में ग्रहण करते हैं और जितने लघुशरीर वाले हैं, वे उतने ही कम पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं / पूर्वोत्पन्न-पश्चादुत्पन्न असुरकुमारादि कर्म के विषय में नारकों से विपरीत–नारकों के विषय में कहा गया था कि पूर्वोत्पन्न नारक अल्पकर्मा और पश्चादुत्पन्न नारक महाकर्मा होते हैं, किन्तु असुरकुमार जो पूर्वोत्पन्न होते हैं, वे महाकर्मा होते हैं और जो पश्चादुत्पन्न होते हैं, वे अल्पकर्मा होते Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, कि 250] [ प्रज्ञापतासूत्र हैं / इसका कारण यह है कि असुरकुमार अपने भव का त्याग करके या तो तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होते हैं, या मनुष्ययोनि में / तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होने वाले कई एकेन्द्रियों में-पृथ्वीकाय, अप्काय या वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं और कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी उत्पन्न होते हैं / जो मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, वे कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज और समूच्छिम मनुष्यों में नहीं। वहाँ छह महीना प्रायु शेष रहने पर परभव-सम्बन्धी आयु का बन्ध करते हैं। प्रायु के बन्ध के समय एकान्त तिर्यञ्चयोग्य अथवा एकान्त मनुष्ययोग्य प्रकृतियों का उपचय करते हैं / इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार महाकर्म वाले होते हैं किन्तु जो बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अभी तक परभवसम्बन्धी प्रायुष्य नहीं बांधा है और न ही तिर्यञ्च या मनुष्य के योग्य प्रकृतियों का उपचय किया होता है, इस कारण वे अल्पतर कर्म वाले होते हैं। यह सूत्र भी पूर्ववत् समान स्थिति वाले, समान भववाले परिमित असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए।' पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्ध वर्ण-लेश्यावाले, पश्चादुत्पन्न इसके विपरीत-असुरकुमारों को भव की अपेक्षा से प्रशस्त वर्णनामकर्म के शुभ तीव्र अनुभाग का उदय होता है। पूर्वोत्पन्न असुरकुमारों का शुभ अनुभाग बहुत-सा क्षीण हो त्रुकता है, इस कारण वे अविशुद्धतर वर्ग वाले होते किन्तु जो असुरकूमार बाद में उत्पन्न हए हैं, उनके वर्णनामकर्म के शुभ अनुभाग का बहत-सा भाग क्षीण नहीं होता, विद्यमान होता है, अतएव वे विशुद्धतर वर्ण वाले होते हैं / लेश्या के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इस विषय में युक्ति यह है कि जो असुरकुमार पहले उत्पन्न हुए हैं, उन्होंने अपनी उत्पत्ति के समय से ही तीव्र अनुभाव वाले लेश्याद्रव्यों को भोग-भोग कर उनका बहुत भाग क्षीण कर दिया है। अब उनके मन्द अनुभाग वाले अल्प लेश्याद्रव्य ही शेष रहे हैं। इस कारण पूर्वोत्पन्न असुरकुमार अविशुद्धलेश्या वाले होते हैं और पश्चात् उत्पन्न होने वाले इनसे विपरीत होने के कारण विशुद्धतर लेश्या वाले होते हैं / पृथ्वीकायिकों के तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक में समाहारादि सप्त प्ररूपरणा-- 1137. पुढविक्काइया प्राहार-कम्म-बण्ण-लेस्साहि जहा णेरइया (सु. 1124-27) / [1137] जैसे (सु. 1124 से 1127 तक में) नैरयिकों के (आहार आदि के) विषय में कहा है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों के (सम-विषम) आहार, कर्म, वर्ण और लेश्या के विषय में कहना चाहिए। 1138. पुढविक्काइया णं भंते ! सवे समवेदणा ? हता गोयमा ! सम्वे समवेयणा। से केणठेणं भंते ! एवं वृच्चति ? गोयमा ! पुढविक्काइया सम्वे प्रसण्णी प्रसण्णीमूयं प्रणिययं वेवणं वेदेति, से तेणठेणं गोयमा! पुढविष्काइया सव्ये समवेदणा। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 336 2. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्रांक 336-337 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 4 पृ. 38 Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तरहवां लेश्यापर : प्रथम उद्देशक (251 [1138 प्र.] भगवन् ! क्या सभी पृथ्वीकायिक समान वेदना वाले होते हैं ? [1138 उ.] हाँ गौतम ! सभी समान वेदना वाले होते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं ? [उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी होते हैं। वे प्रसंज्ञीभूत और अनियत वेदना वेदते (अनुभव करते हैं / इस कारण, हे गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समवेदना वाले हैं / 1139. पुढविक्काइया णं भंते ! सम्वे समकिरिया ? हंता गोयमा ! पुढविक्काइया सम्वे समकिरिया / से केणठेणं? गोयमा ! पुढविक्काइया सव्वे माइमिच्छट्टिी, तेसि यतियानो पंच किरियानो कज्जंति, तं जहा–प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / [1139 प्र.] भगवन् ! सभी पृथ्वीकायिक समान क्रिया वाले होते हैं ? [1139 उ.] हाँ गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक समक्रिया वाले होते हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? [उ.] गौतम ! सभी पृथ्वीकायिक मायी-मिथ्यादृष्टि होते हैं, उनके नियत (निश्चित) रूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं / यथा-(१) प्रारम्भिकी, (2) पारिनहिको, (3) मायाप्रत्यया, (4) अप्रत्याख्यानक्रिया और (5) मिथ्यादर्शनप्रत्यया। (इसी कारण) गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी पृथ्वीकायिक समान क्रियाओं वाले होते हैं / 1140. एवं जाव चरिदिया। [1140] पृथ्वीकायिकों के समान ही अप्कायिकों, तेजस्कायिकों, वायुकायिकों, वनस्पतिकायिकों, द्वीन्द्रियों, त्रीन्द्रियों यावत् चतुरिन्द्रियों की (समान वेदना और समान क्रिया कहनी चाहिए)। 1141. पंचिदियतिरिक्खजोणिया जहा जेरइया (सु. 1124-30) / णवरं किरियाहिं सम्मद्दिट्ठी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी। तत्थ णं जे ते सम्मट्ठिी ते दुविहा पण्णता, तं जहाअसंजया य संजयासंजया य / तत्थ पं जे ते संजयासंजया तेसि णं तिणि किरियाप्रो कज्जंति, तं जहा-प्रारंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया। तत्थ णं जे ते प्रसंजया तेसि णं चत्तारि किरियाप्रो कति, तं जहा-प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छट्ठिी जे य सम्मामिच्छद्दिट्ठी तेसि णेय इयानो गंच किरियानो कज्जति, तं जहा--प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / सेसं तं चेव / [1141] पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का (पाहारादि सप्तद्वार विषयक कथन) (सू. 1124 से 1130 तक में उक्त) नरयिक जीवों के (पाहारादि विषयक कथन के अनुसार समझना चाहिए)। Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [प्रज्ञापनासूत्र विशेष यह है कि क्रियाओं में नारकों से कुछ विशेषता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तीन प्रकार के हैं, यथा-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि / उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे दो प्रकार के हैं--असंयत और संयतासंयत / जो संयतासंयत हैं, उनको तीन क्रियाएँ लगती हैं। वे इस प्रकार--- प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया / जो असंयत होते हैं, उनको चार क्रियाएँ लगती हैं / वे इस प्रकार हैं--१. आरम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया और 4. अप्रत्याख्यानक्रिया। (पूर्वोक्त) इन तीनों में से जो मिथ्यादृष्टि हैं और जो सम्यग्-मिथ्यादष्टि हैं, उनको निश्चित रूप से पांच क्रियाएँ लगती हैं / वे इस प्रकार-१. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया, 4. अप्रत्याख्यानक्रिया और 5. मिथ्यादर्शनप्रत्यया / शेष सब निरूपण उसी प्रकार (पूर्ववत् करना चाहिए।) विवेचन-पथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों तक को समाहारादि सप्तद्वार प्ररूपणाप्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 1137 से 1141 तक) में पृथ्वीकायिकों से लेकर तिर्यंचपंचेन्द्रियों तक आहारादि सप्तद्वारों की प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायिकों के अल्पशरीर-महाशरीर-यद्यपि सभी पृथ्वीकायिकों का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है, तथापि अागम में बताया है कि' एक पृथ्वीकायिक दूसरे पृथ्वीकायिक से अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, इत्यादि; तदनुसार वे अपेक्षाकृत महाशरीर और अल्पशरीर सिद्ध होते हैं। जो पृथ्वीकायिक महाशरीर होते हैं, वे महाशरीर होने के कारण लोमाहार से प्रभूत पुद्गलों का आहार करते हैं, उच्छ्वास लेते हैं तथा बार-बार आहार करते हैं और श्वासोच्छ्वास लेते हैं / जो अल्पशरीर होते हैं, वे लघुशरीरी होने से अल्प आहार और अल्प श्वासोच्छ्वास लेते हैं, आहार और उच्छ्वास भी कदाचित् लेते हैं, वह पर्याप्त-अपर्याप्त-अवस्था की अपेक्षा से समझना चाहिए। पृथ्वीकायिकादि समवेदना वाले क्यों ?-सभी पृथ्वीकायिक असंज्ञी अर्थात् मिथ्यादष्टि अथवा अमनस्क होते हैं / वे असंज्ञीभूत और अनियत वेदना का वेदन करते हैं। तात्पर्य यह है कि मत्त-मूच्छित आदि की तरह वेदना का अनुभव करते हुए भी वे नहीं समझ पाते कि यह मेरे पूर्वोपाजित अशुभ कर्मों का परिणाम है, क्योंकि वे असंज्ञी और मिथ्यादृष्टि होते हैं। मायी का अर्थ-यहां माया का अर्थ केवल मायाकषाय नहीं, किन्तु उपलक्षण से अनन्तानु. बन्धी कषायचतुष्टय है / अत: मायो का अर्थ यहाँ अनन्तानुबन्धी कषायोदयवान् होने से मिथ्यादृष्टि है।' मनुष्य में समाहारादि सप्त द्वारों को प्ररूपरणा 1142. मसाणं भंते ! सके समाहारा ? गोयमा ! णो इणठे समझें / से केण?णं? गोयमा ! मणसा दुविहा पण्णता, तं जहा--महासरीरा य अप्पसरीरा य / तत्थ णं जे ते 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 339 (ख) 'पुढविकाइए पुढविकाइयस्स ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणडिए / ' -प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 339 में उद्धत 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक 339 Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : प्रथम उद्देशक } [253 महासरीरा ते गं बहुयराए पोग्गले प्राहारेंति जाव बहुतराए पोग्गले णीससंति, प्राहच्च प्राहारेंति० प्राहच्च णीससंति / तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पोग्गले प्राहारेंति जाव अपतराए पोग्गले णीससंति, अभिक्खणं आहारति जाव अभिक्खणं नीससंति, सेएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चति मणूसा सव्वे णो समाहारा / सेसं जहा णेरइयाणं (सु. 1125-30) / णवरं किरियाहिं मणूसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-सम्मट्ठिी मिच्छद्दिट्ठी सम्मामिच्छद्दिट्ठो। तत्थ णं जे ते सम्मट्ठिी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा—संजया प्रसंजया संजयासंजया / तस्थ गंजे ते संजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहासरागसंजया य वीतरागसंजया य, तत्थ णं जे ते वोयरागसंजया ते णं अकिरिया। तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा—पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अपमत्तसंजया तेसि एगा मायावत्तिया किरिया कज्जति, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसि दो किरियानो कज्जंति, तं जहा-प्रारंभिया मायावत्तिया य / तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसि तिणि किरियाप्रो कज्जति, तं जहा-प्रारंमिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 / तस्थ णं जे ते असंजया तेसि चत्तारि किरियानो कज्जति, तं जहा–आरंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 प्रपच्चक्खाणकिरिया 4 / तत्थ णं जे ते मिच्छट्टिी जे य सम्मामिच्छद्दिष्ट्ठी तेसि यइयाप्रो पंच किरियानो कज्जंति, तं जहा-प्रारंभिया 1 परिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खारिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / सेसं जहा णेरइयाणं / [1142 प्र.] भगवन् ! मनुष्य सभी समान आहार वाले होते हैं ? [1142 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सब मनुष्य समान आहार वाले नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार महाशरीर वाले और अल्प (छोटे-) शरीर वाले / उनमें जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुत-से पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत-से पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं। उनमें जो अल्पशरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का प्राहार करते हैं, यावत् अल्पतर पूदगलों का नि:श्वास लेते हैं; बार-बार आहार लेते हैं, यावत बार-बार नि:श्वास लेते हैं / इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान आहार वाले नहीं हैं / शेष सब वर्णन (सू. 1125 से 1130 तक में उक्त) नरयिकों (के कर्मादि छह द्वारों के निरूपण) के अनुसार (समझ लेना चाहिए / ) किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा से (नारकों से किञ्चित्) विशेषता है। (वह इस प्रकार है-.-.) मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा--सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि / इनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि-संयत, असंयत और संयतासंयत / जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे हैं—सरागसंयत और वीतरागसंयत / इनमें से जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं / उनमें से जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत / इनमें से जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक मायाप्रत्यया क्रिया ही होती है। जो प्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें दो क्रियाएँ होती हैं, आरम्भिको और मायाप्रत्यया। उनमें से जो संयतासंयत होते हैं, उनमें तीन क्रियाएँ पाई जाती हैं / यथा-१. प्रारम्भिकी, 2. पारि Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूब अहिको और 3. मायाप्रत्यया / उनमें से जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएँ पाई जाती हैं / यथा-- 1. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया और 4. अप्रत्याख्यानक्रिया; किन्तु उनमें से जो मिथ्यादृष्टि हैं, अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि हैं, उनमें निश्चितरूप से पांचों क्रियाएँ होती हैं / यथा१. प्रारम्भिकी, 2. पारिग्रहिकी, 3. मायाप्रत्यया, 4. अप्रत्याख्यानक्रिया और 5. मिथ्यादर्शनप्रत्यया। शेष (आयुष्य का) कथन (उसी प्रकार समझ लेना चाहिए,) जैसा नारकों का (किया गया है।) विवेचन–मनुष्यों में समाहारादि सप्त द्वारों को प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्र (1142) में मनुष्य में आहारादि सप्त द्वारों की प्ररूपणा की गई है / __महाशरीर मनुष्यों में प्राहार एवं उच्छ्वास-निःश्वास-विषयक विशेषता-सामान्यतया महाशरीर मनुष्य बहुतर पुद्गलों का आहार परिणमन तथा उच्छ्वासरूप में ग्रहण और निःश्वासरूप में त्याग करते हैं; किन्तु देवकुरु आदि यौगलिक महाशरीर मनुष्य कवलाहार के रूप में कदाचित् ही पाहार करते हैं। उनका प्राहार अष्टमभक्त से होता है, अर्थात्-वे बीच में तीन-तीन दिन छोड़ कर आहार करते हैं / वे कभी-कभी ही उच्छ्वास और निःश्वास लेते है, क्योंकि वे शेष मनुष्यों की अपेक्षा अत्यन्त सुखी होते हैं, इस कारण उनका उच्छ्वास-निश्वास कादाचित्क (कभी-कभी) होता है / अल्पशरीर मनुष्यों के बार-बार प्राहार एवं उच्छ्वास का कारण-अल्पशरीर वाले मनुष्य बार-बार अल्प आहार करते रहते हैं, क्योंकि छोटे बच्चे अल्पशरीर वाले होते हैं, वे बार-बार थोड़ाथोड़ा पाहार करते देखे जाते हैं तथा अल्पशरीर वाले सम्मूच्छिम मनुष्यों में सतत पाहार सम्भव है; अल्पशरीर वालों में उच्छ्वास-निःश्वास भी बार-बार देखा जाता है, क्योंकि उनमें प्रायः दुःख की बहुलता होती है। पूर्वोत्पन्न मनुष्यों में शुद्ध वर्णादि-~~जो मनुष्य पूर्वोत्पन्न होते हैं, उनमें तारुण्य के कारण शुद्ध वर्ण आदि होते हैं। सरागसंयत एवं वीतरागसंयत का स्वरूप-जिनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं हुआ है, किन्तु जो संयमी हैं, वे सरागसंयमी कहलाते हैं, किन्तु जिनके कषायों का सर्वथा उपशम या क्षय हो चुका है, वे वीतरागसंयमी कहलाते हैं / वीतरागसंयमी में वीतरागत्व के कारण प्रारम्भादि कोई क्रिया नहीं होती। सरागसंयतों में जो अप्रमत्त संयमी होते हैं, उनमें एकमात्र मायाप्रत्यया और उसमें भी केवल संज्वलनमायाप्रत्यया क्रिया होती है, क्योंकि वे कदाचित् प्रवचन (धर्मसंघ) की बदनामी को दूर करने एवं शासन की रक्षा करने में प्रवृत्त होते हैं। उनका कषाय सर्वथा क्षीण नहीं हुआ है / किन्तु जो प्रमत्तसंयत होते हैं, वे प्रमादयोग के कारण प्रारम्भ में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए उनमें प्रारम्भिकी क्रिया सम्भव है तथा क्षीणकषाय न होने के कारण उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी समझ लेनी चाहिए / शेष सब वर्णन स्पष्ट है / वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों को आहारादि विषयक प्ररूपरणा 1143. वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं (सु. 1131-35) / 1. 'अठ्ठमभत्तस्स आहारो' इति वचनात् / 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 340-341 Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : प्रथम उद्देशक] [ 255 [1143] जैसे असुरकुमारों की (आहारादिवक्तव्यता सू. 1131 से 1135 तक में कही है,) उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों की (माहारादिवक्तव्यता कहनी चाहिए।) 1144, एवं जोइसिय-वेमाणियाण वि। णवरं ते वेदणाए दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-माइमिच्छट्टिीउबवण्णगा य अमाइसम्मट्टिीउबवण्णगा य / तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिष्टिउववण्णगा ते गं अप्पवेदणतरागा / तत्थ जे ते अमाइसम्मट्टिीउबवण्णगा ते गं महावेदणतरागा, सेएणटठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० / सेसं तहेव / 61144] इसी प्रकार ज्योतिष्क और वैमानिकों देवों के ग्राहारादि के विषय में भी कहना चाहिए / विशेष यह है कि वेदना की अपेक्षा से वे दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार---मायीमिथ्या दृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / उनमें से जो मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक हैं, वे अल्पतर वेदना वाले हैं और जो अमायो-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे महावेदना वाले हैं। इसी कारण से हे गौतम ! सब वैमानिक समान वेदना वाले नहीं हैं। शेष (आहार, वर्ण, कर्म आदि सब) पूर्ववत् (असुरकुमारों और वाणव्यन्तरों के समान समझ लेना चाहिए।) विवेचन-वाणयन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की प्राहारादिविषयक-प्ररूपणा- प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 1143-1144) में वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की आहारादिविषयक वक्तव्यता असुरकुमारों के अतिदेशपूर्वक कही गई है। वाणव्यन्तरों को समाहारादि वक्तव्यता-असुरकुमार दो प्रकार के होते हैं-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत / जो संज्ञीभूत होते हैं, वे महावेदना वाले और जो असंज्ञोभूत होते हैं वे अल्पवेदना वाले; इत्यादि कथन किया गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तरों के विषय में भी जानना चाहिए / व्याख्या. प्रज्ञप्ति में कहा है-'असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति देवगति में हो तो जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरों में होती है। अतः असुरकुमारों में असंज्ञी जीवों की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार जो युक्ति असुरकुमारों के विषय में कही है, वही यहाँ भी जान लेनी चाहिए। असुरकुमारों से ज्योतिष्क, वैमानिकों को वेदना में अन्तर-जैसे असुरकुमारों में कोई असंज्ञीभूत और कोई संज्ञोभूत कहे हैं, वैसे ही ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उनके स्थान में मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक कहना चाहिए, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय और वैमानिकनिकाय में असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते। इसमें युक्ति यह है कि असंज्ञियों की आयु की उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है, जबकि ज्योतिष्कों की जघन्यस्थिति भी पल्योपम के असंख्येयभाग की होती है, और वैमानिकों की एक पल्योपम की है / अतएव यह निश्चित है कि उनमें असंज्ञियों का उत्पन्न होना संभव नहीं है / सलेश्य चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की पाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा 1145. सलेस्सा णं भंते ! रइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा? सच्चेव पुच्छा। 1. 'असन्तीणं जहन्नेणं वणवासीसु, उक्कोसेणं वाणमंतरेसु / ' -व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक 1, उद्देशक 2 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 341 Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 ] [ प्रज्ञापनासूत्र एवं जहा मोहिमओ गमो (सु. 1124-44) भणिम्रो तहा सलेस्सगमओ वि गिरवसेसो माणियन्वो जाव वेमाणिया / [1145 प्र.] भगवन् ! सलेश्य (लेश्या वाले) सभी नारक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छवास-निःश्वास वाले हैं ? (इसी प्रकार आगे के द्वारों के विषय में भी) वही (पूर्ववत्) पृच्छा है, (इसका क्या समाधान ?) [1145 उ.] (गौतम !) इस प्रकार जैसे सामान्य (समुच्चय नारकों का---ौधिक) गम (सू. 1124 से 1144 तक में) कहा है, उसी प्रकार सभी सलेश्य (नारकों के सप्तद्वारों के विषय का) समस्त गम यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए / विवेचन--सलेश्य चौवीसवण्डफवर्ती जोवों की प्राहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र (1145) में लेश्यावाले नारकों से लेकर वैमानिकों तक समाहारादि सात द्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई है। कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपरणा 1146. कण्हलेस्सा णं भंते ! गेरइया सव्वे समाहारा समसरीरा समुस्सासणिस्सासा पुच्छा ? गोयमा ! जहा प्रोहिया (सु. 1124-30) / णवरं रइया वेदणाए माइमिच्छद्दिविउववष्णगा य प्रमाइसम्मद्दिट्टिउबवण्णगा य भाणियव्वा / सेसं तहेव जहा प्रोहियाणं। 1146 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाले सभी नैरयिक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास-निःश्वास वाले होते हैं ? / _ [1146 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1124 से 1130 तक में) सामान्य (औधिक) नारकों का (पाहारादिविषयक कथन किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले नारकों का कथन भी समझ लेना चाहिए / ) विशेषता इतनी है कि वेदना की अपेक्षा से नैरयिक मायी-मिथ्यादष्टि-उपपन्नक और अमायो-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, (ये दो प्रकार के) कहने चाहिए। शेष (कर्म, वर्ण, लेश्या, क्रिया और आयुष्य प्रादि के विषय में) समुच्चय नारकों के (विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार (यहाँ भी समझ लेना चाहिए / ) 1147. असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एते जहा-प्रोहिया (सु. 1131-43) / णवरं मणसाणं किरियाहिं विसेसो, जाव तत्थ णं जे ते सम्मट्टिी ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-संजया प्रसंजया संजयासंजया य, जहा प्रोहियाणं (सु. 1142) / [1147] (कृष्णलेश्यायुक्त) असुरकुमारों से (लेकर नागकुमार आदि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य और) यावत् वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में उसी प्रकार कहना चाहिए, जैसे (सू. 1131 से 1143 तक में) समुच्चय असुरकुमारादि के विषय में कहा गया है। मनुष्यों में (समुच्चय से) क्रियाओं की अपेक्षा कुछ विशेषता है। जिस प्रकार समुच्चय मनुष्यों का क्रियाविषयक कथन सूत्र 1142 में किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्यायुक्त मनुष्यों का कथन भी यावत्-"उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [ 257 के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--संयत, असंयत और संयतासंयत"; (इत्यादि सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए / ) 1148. जोइसिय-वेमाणिया प्राइल्लि गासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिज्जति / 1148] ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील और कापोत लेश्या) को लेकर प्रश्न नहीं करना चाहिए। 1146. एवं जहा किण्हलेस्सा विचारिया तहा णीललेस्ता विचारियब्वा / [1149] इस प्रकार जैसे कृष्णलेश्या वालों (चौवीसदण्डकवर्ती जीवों) का विचार किया गया है, उसी प्रकार नीललेश्या वालों का भी विचार कर लेना चाहिए / 1150, काउलेस्सा णेरइएहितो प्रारम्भ जाव वाणमंतरा। णवरं काउलेस्सा रइया वेदणाए जहा प्रोहिया (सु. 1128) / [1150] कापोतलेश्या वाले भी (नीललेश्या वालों के समान) नैरयिकों से प्रारम्भ करके (दश भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनष्य एवं) यावत वाणव्यन्तर तक हैं। इनका सप्तद्वारादिविषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए / विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों का वेदना के विषय में प्रतिपादन (सू. 1128 में उक्त) समुच्चय (प्रौधिक नारकों) के समान (जानना चाहिए / ) 1151. तेउलेस्साणं भंते ! असुरकुमाराणं तानो चेव पुच्छायो। गोयमा ! जहेव प्रोहिया तहेव (सु. 1131-35) / णवरं वेदणाए जहा जोतिसिया (सु. 1144) / [1151 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों के समान आहारादि सप्तद्वारविषयक प्रश्न उसी प्रकार हैं, इनका क्या समाधान है ? [1151 उ.] गौतम ! जैसे (लेश्यादिविशेषणरहित) समुच्चय असुरकुमारों का अाहारादिविषयक कथन (सू. 1131 से 1135 तक में) किया गया है, उसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों को आहारादिसम्बन्धी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए / विशेषता यह है कि वेदना के विषय में जैसे (सू. 1144 में) ज्योतिष्कों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए। 1152. पुढवि-प्राउ-वणस्सइ-पंचेंदियतिरिक्ख-मणूसा जहा प्रोहिया (1137-36, 114142) तहेव भाणियत्वा / णवरं मणूसा किरियाहि जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियन्वा, सरामा वीयरागा णस्थि / [1152] (तेजोलेश्या वाले) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का कथन उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार (सू. 1137 से 1139 तक और 1141-1142) औधिक सूत्रों में किया गया है। विशेषता यह है कि क्रियाओं की अपेक्षा से Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 ] [प्रज्ञापनासुत्र तेजोलेश्या वाले मनुष्यों के विषय में कहना चाहिए कि जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के हैं तथा सराग संयत और वीतराग संयत, (ये दो भेद तेजोलेश्या वाले मनुष्यों में) नहीं होते। 1153. वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा (सु. 1151) / [1153] तेजोलेश्या की अपेक्षा से वाणव्यन्तरों का कथन (सू. 1151 में उक्त) अपुरकुमारों के समान समझना चाहिए। 1154. एवं जोतिसिय-वेमाणिया वि / सेसं तं चेव / [1154] इसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत कहना चाहिए / शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए / 1155. एवं पम्हलेस्सा वि भाणियन्वा, णवरं जेसि अस्थि / सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसि अस्थि / सव्वं तहेव जहा प्रोहियाणं गमयो। णवरं पम्हलेस्स-सुक्कलेस्साप्रो पंचेंदियतिरिक्खजोणियमणस-वेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति / // पण्णवणाए लेस्सापए पढमो उद्देसओ समत्तो॥ [1155] इसी (तेजोलेश्या वालों की तरह पद्मलेश्या वालों के भी (आहारादि के विषय में) कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिन जीवों में पद्मलेश्या होती है, उन्हीं में उसका कथन करना चाहिए। शुक्ललेश्या वालों का आहारादिविषयक कथन भी उसी प्रकार है, किन्तु उन्हीं जीवों में कहना चाहिए, जिनमें वह होती है तथा जिस प्रकार (विशेषणरहित) औधिकों का गम (पाठ) कहा है, उसी प्रकार (पद्म-शुक्ललेश्याविशिष्ट जीवों का आहारादिविषयक) सब कथन करना चाहिए। (इतना) विशेष (ध्यान रखना) है कि पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों और वैमानिकों में ही होती है, शेष जीवों में नहीं। विवेचन-कृष्णादिलेश्या विशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा–प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 1146 से 1155 तक) में कृष्णादिलेश्याओं से युक्त नै रयिकों से लेकर वैमानिकों तक के समाहार आदि सप्तद्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई है। कृष्णलेश्याविशिष्टनरयिकों के नौ पदों के विषय में-जैसे विशेषण रहित सामान्य (प्रोधिक) नारकों का माहार, शरीर, उच्छ्वास-निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात (अथवा आयुष्य), इन नौ द्वारों की अपेक्षा से कथन पहले किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नैरयिकों के विषय में कथन करना चाहिए। किन्तु सामान्य नारकों से कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों में वेदना के विषय में कुछ विशेषता है। वह इस प्रकार है-वेदना की अपेक्षा नैरयिक दो प्रकार के हैं-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, किन्तु औधिक नारकसूत्र की तरह असंज्ञीभूत और संज्ञीभूत नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धान्तानुसार असंज्ञी जीव प्रथम पृथ्वी में कृष्णलेश्या वाले नारक नहीं होते / पंचम आदि जिस नरकपृथ्वी में कृष्णलेश्या पाई जाती है, उसमें असंज्ञो जीव उत्पन्न नहीं होते। अतएव कृष्णलेश्यावान् नारकों में संजीभूत और असंज्ञीभूत, ये भेद नहीं होते। इनमें मायी और मिथ्यादृष्टि नारक महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि वे (नारक) Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : प्रथम उद्देशक ] [259 अत्यन्त उत्कृष्ट अशुभ स्थिति का उपार्जन करते हैं / मायो मिथ्यादृष्टि नारकों को उस प्रत्युत्कृष्ट अशुभ स्थिति में महावेदना होती है, इसके विपरीत अन्य अमायी सम्यग्दृष्टि नारकों को अपेक्षाकृत अल्प वेदना होती है। इसके अतिरिक्त शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त समुच्चय नारकों के समान ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों का कथन करना चाहिए / कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों की क्रियाविषयक प्ररूपणा-इसमें समुच्चय से कुछ विशेषता है। वस्तुत: कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्य सम्यग्दृष्टि आदि के भेद से तीन प्रकार के होते हैं। इनमें से सम्यग्दृष्टि मनुष्यों के तीन प्रकार हैं ---संयमी, असंयमी और संयमासंयमी / जैसे—प्रोधिक (सामान्य) मनुष्यों के विषय में इन तीनों की क्रियाओं का कथन किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए। जैसे कि वीतरागसंयत मनुष्यों में कोई क्रिया नहीं होती। सरागसंयत मनष्यों में दो क्रियाएँ होती हैं--प्रारम्भिकी और मायाप्रत्यया। कृष्णलेश्या प्रमत्तसंयतों में होती है. अप्रमत्तसंयतों में नहीं। सभी प्रकार के प्रारम्भ प्रमादयोग में होते हैं ते हैं, अत: प्रमत्तसंयतों में प्रारम्भिकी क्रिया होती है और क्षीणकषाय न होने से उनमें मायाप्रत्यया क्रिया भी होती है। किन्तु जो संयतासंयत हैं, उनमें प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया, ये तीन तथा असंयत मनुष्य में इन तीनों के उपरांत चौथी अप्रत्याख्यानक्रिया भी पाई जाती है।' कापोतलेश्या वाले नारकों का वेदनासूत्र-कापोतलेश्याविशिष्ट नारकों का वेदनाविषयक कथन समुच्चय नारकों के समान समझना चाहिए। यथा--कापोतलेश्याविशिष्ट नारक दो प्रकार के कहे हैं—संज्ञीभूत और असंज्ञोभूत, इत्यादि प्रकार से समझना चाहिए। असंजो जोव भी प्रथम नरकपृथ्वी में उत्पन्न होता है, जहाँ कि कापोतलेश्या का सद्भाव है / 2 तेजोलेश्याविशिष्ट प्रसुरकुमारादि की वक्तव्यता--सिद्धान्तानुसार नारक, तेजस्कायिक, वायुकायिक तथा विकलेन्द्रिय जीवों में तेजोलेश्या नहीं होती, इसलिए तेजोलेश्या की अपेक्षा से सर्वप्रथम असुरकुमारों का कथन किया है / तेजोलेश्याविशिष्ट असुरकुमारों का वेदना के सिवाय शेष आहारादि षवारों के विषय में कथन औधिक अर्थात्-समुच्चय असुरकुमारों के समान समझना चाहिए / इनके बेदनासत्र के विषय में ज्योतिष्क देवों के वेदनासूत्र के समान समझना चाहिए / अर्थातइसकी अपेक्षा से असुरकुमारों के संज्ञीभूत, असंज्ञीभूत ये दो भेद न करके मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि असंज्ञी जीवों की तेजोलेश्यावालों में उत्पत्ति असंभव है। तेजोलेश्या विशिष्ट मनुष्यों का क्रियासूत्र-क्रियाओं की अपेक्षा से संयत मनुष्य दो प्रकार के कहने चाहिए-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत / इन दोनों में तेजोलेश्या सम्भव है। सरागसंयत और वीतरागसंयत ये भेद तेजोलेश्याविशिष्ट मनुष्यों में नहीं करने चाहिए, क्योंकि वीतरागसंयतों में तेजोलेश्या सम्भव नहीं है / वह सरागसंयतों में ही पाई जाती है। 1. (क) 'असन्नी खलु पढम'-प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 342 में उद्धृत (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 342 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 343 Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 ] | प्रज्ञापनासूत्र तेजोलेश्यायुक्त वाणव्यन्तरों का कथन-इनका कथन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। ऐसी स्थिति में तेजोलेश्याविशिष्ट वाणव्यन्तरों के संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत, यों दो भेद न करके मायि-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायि-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, ये दो भेद कहने चाहिए, क्योंकि तेजोलेश्यावाले वाणव्यन्तरों में' असंज्ञीजीवों का उत्पाद नहीं होता। पद्मलेश्या-शुक्ललेश्या-विशिष्ट जीवों के प्राहारादिसूत्र---इन दोनों लेश्याओं वाले जीवों के आहारादिसूत्र तेजोलेश्या के समान समझने चाहिए। विशेषतः यह है कि जिन जीवों में ये दो लेश्याएँ पाई जाती हों, उन्हीं के विषय में ये सूत्र कहने चाहिए, अन्य जीवों के विषय में नहीं। ये दोनों लेश्याएँ पंचेन्द्रियतिथंचों, मनुष्यों और वैमानिक देवों में ही पाई जाती हैं, शेष जीवों में नहीं। सत्तरहवाँ लेश्यापद : प्रथम उद्देशक समाप्त 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 343 2. वही, मलय, वृत्ति, पत्रांक 343 Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसम लेस्सापयं : बीओ उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक लेश्या के भेदों का निरूपण-- 1156. कति णं भंते ! लेस्साप्रो पण्णत्तानो ? गोयमा! छल्लेस्साओ पण्णत्ताओ। तं जहा-कण्हलेस्सा 1 गोललेस्सा 2 काउलेस्सा 3 तेउलेस्सा 4 पम्हलेस्सा 5 सुक्कलेस्सा 6 / [1156 प्र.] भगवन् ! लेश्याएं कितनी कही गई हैं ? [1156 उ.] गौतम ! लेश्याएँ छह कही गई हैं / वे इस प्रकार-(१) कृष्णलेश्या, (2) नीललेश्या, (3) कापोतलेश्या, (4) तेजोलेश्या, (5) पद्मलेश्या और (6) शुक्ललेश्या / विवेचन-- लेश्या के भेदों का निरूपण-प्रस्तुत सूत्रों में लेश्या के कृष्ण आदि छह भेदों का निरूपण किया गया है। ___ कृष्णलेश्या प्रादि के शब्दार्थ-कृष्ण द्रव्यरूप अथवा कृष्णद्रव्य-जनित लेश्या कृष्णलेश्या कहलाती है। इसी प्रकार नीललेश्या आदि का शब्दार्थ भी समझ लेना चाहिए।' चौवीस दण्डकों में लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा--- 1157. जेरइयाणं भंते ! कति लेस्साम्रो पण्णत्तायो ? गोयमा! तिष्णि / तं जहा--किण्हलेस्सा नीललेस्सा काउलेस्ला / [1157 प्र. नैरयिकों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1157 उ.] गौतम ! (उनमें) तीन लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार (1) कृष्णलेश्या, (2) नीललेश्या और (3) कापोतलेश्या / 1158. तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कति लेस्साश्रो पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेस्साओ / तं जहा- कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1158 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कितनो लेश्याएँ कही गई हैं ? [1158 उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार कृष्णलेश्या से लेकर (यावत्) शुक्ललेश्या तक। 1159. एगिदियाणं भंते ! कति लेस्साम्रो पण्णत्तानो ? गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ / तं जहा-कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 344 Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 ] [प्रज्ञापनासूत्र [1159 प्र. भगवन् ! एकेन्द्रिय जीवों में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [1156 उ.] गौतम ! (उनमें) चार लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार--कृष्णलेश्या से तेजोलेश्या तक। 1160. पुढविक्काइयाणं भंते ! कति लेस्साप्रो ? गोयमा! एवं चेव। [1160 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1160 उ.] गौतम ! इनमें भी इसी प्रकार (चार लेश्याएं समझनी चाहिए।) 1161. प्राउ-घणप्फतिकाइयाण वि एवं चेव / [1161] इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में भी चार लेश्याएँ (जाननी चाहिए।) 1162. तेउ-बाउ-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जहा परइयाणं (सु. 1157) / [1162] तेजस्कायिक, वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में (सू. 1157 में उक्त) नैरयिकों की तरह (तीन लेश्याएँ होती हैं।) 1163. [1] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! छल्लेस्साम्रो, कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा / [1163-1 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? [1163-1 उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएं होती हैं। यथा-कृष्णलेश्या से शुक्ललेश्या तक। [2] सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहा मेरइयाणं (सु. 1157) / [1163-2 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1163-2 उ.} गौतम ! नारकों के समान (प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ) समझनी चाहिए / [3] गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं युच्छा ? गोयमा ! छल्लेसामो, तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1163-3 प्र.] भगवन् ! गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में कितनी लेश्याएं होती हैं ? [1163-3 उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं-कृष्णलेश्या से शुक्ललेश्या (तक)। [4] तिरिक्खजोणिणोणं पुच्छा ? गोयमा ! छल्लेसानो एताप्रो चेव / Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्रहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ] [263 [1163-4 प्र.] भगवन् ! गर्भज तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1163-4 उ.] गौतम ! ये ही (कृष्ण आदि) छह लेश्याएँ होती हैं / 1164. [1] मणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! छल्लेसाप्रो एतानो चेव / [1164-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1164-1 उ.] गौतम ! ये ही छह लेश्याएं होती हैं। [2] सम्मुच्छिममणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जहा णेरइयाणं (सु. 1157) / [1164-2 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1164-2 उ.] गौतम ! जैसे नारकों में प्रारम्भ को तीन लेश्याएँ कही हैं, वैसे ही सम्मूच्छिम मनुष्यों में भी होती हैं। [3] गम्भवक्कंतियमणूसाणं पुच्छा ? गोयमा ! छल्लेसानो, तं जहा--कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेसा / [1164-3 प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1164-3 उ.] गौतम ! (उनमें) छह लेश्याएँ होती हैं---कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक। [4] मणुस्सीणं पुच्छा? गोयमा ! एवं चेव / [1164-4 प्र.] भगवन् ! गर्भज मानुषी (स्त्री) में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [1164-4 उ.) गौतम ! (जैसे गर्भज मनुष्यों में छह लेश्याएँ होती हैं) इसी प्रकार (गर्भज स्त्रियों में भी छह लेश्याएँ समझनी चाहिए / ) 1165. [1] देवाणं पुच्छा? गोयमा ! छ एताओ चेव / [1165-1 प्र.) भगवन् ! देवों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1165-1 उ.] गौतम ! ये ही छह लेश्याएँ होती हैं। [2] देवीणं पुच्छा ? गोयमा ! चत्तारि / तं जहा-कण्हलेस्सा जाब तेउलेस्सा। [1165-2 प्र.] भगवन् ! देवियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1165-2 उ.] गौतम ! (उनमें) चार लेश्याएँ होती हैं। वे इस प्रकार-कृष्णलश्या से लेकर तेजोलेश्या तक। Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [ प्रज्ञापनासूत्र 1166. [1] भषणवासीणं भंते ! देवाणं पुच्छा ? गोयमा! एवं चेव। [1166-1 प्र.] भगवन् ! भवनवासी देवों में कितनी लेश्याए कही गई हैं। [1166-1 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत्) इनमें चार लेश्याएँ (होती हैं / ) [2] एवं भवणवासिणीण वि। {1166-2] इसी प्रकार भवनवासी देवियों में भी चार लेश्याएँ समझनी चाहिए। 1167. [1] वाणमंतरदेवाणं पुच्छा ? गोयमा ! एवं चेव। [1167-1 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों में कितनी लेश्याएँ कही हैं ? [1167-2 उ.] गौतम ! इसी प्रकार चार लेश्याएँ (समझनी चाहिए।) [2] एवं बाणमंतरीण वि। [1167-2] वाणव्यन्तर देवियों में भी ये ही चार लेश्याएं समझनी चाहिए। 1168. [1] जोइसियाणं पुच्छा ? गोयमा ! एगा तेउलेस्सा। [1168-1 प्र.] ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में प्रश्न ? [1168-1 उ.] गौतम ! इनमें एकमात्र तेजोलेश्या होती है। [2] एवं जोइसिणीण वि। / 1168-2] इसी प्रकार ज्योतिष्क देवियों के विषय में जानना चाहिए / ) 1166. [1] वेमाणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! तिणि / तं जहा-तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। [1169-1 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देवों में कितनी लेश्याएँ हैं ? [1166-1 उ.] गौतम / (उनमें) तीन लेश्याएँ हैं-१. तेजोलेश्या, 2. पद्मलेश्या और 3. शुक्ललेश्या / [2] चेमाणिणीणं पुच्छा? गोयमा! एगा तेउलेसा। {1166-2 प्र.] वैमानिक देवियों को लेश्या सम्बन्धी पृच्छा ? [1166-2 उ.] गौतम ! उनमें एकमात्र तेजोलेश्या होती है / विवेचन-चौवीस दण्डकों में लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा--प्र त्रों में नारक से Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ] [ 265 वैमानिक देवियों पर्यन्त समस्त संसारी जीवों में से किसमें कितनी लेश्याएँ पाई जाती हैं ?, यह प्रतिपादन किया है। सम्बन्धित संग्रहणी गाथायें इस प्रकार हैं किण्हानीला काऊ तेऊलेसा य भवणवंतरिया। जोइस-सोहम्मोसाण तेऊलेसा मुणेयव्वा // 1 // कप्पे सणंकुमारे माहिदे चेव बंभलोए य। एएस पम्हलेसा, तेण परं सुक्कलेसा उ // 2 // पुढवी-पाऊ-वणस्सइ-बायर-पत्तेय लेस चत्तारि। गम्भय-तिरिय-नरेस छल्लेसा, तिन्नि सेसाणं / / 3 / / संग्रहणीगाथार्थ-भवनवासियों और व्यन्तर देवों में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या होती हैं / ज्योतिष्कों तथा सौधर्म और ईशान देवों में केवल तेजोलेश्या होती है / सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक में पद्मलेश्या और उनसे आगे के कल्पों में शुक्ललेश्या होती है / बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में प्रारम्भ की चार लेश्याएँ, गर्भज तिर्यञ्चों और मनुष्यों में छह लेश्याएँ और शेष जीवों में प्रथम की तीन लेश्याएँ होती हैं / ' सलेश्य अलेश्य जीवों का अल्पबहुत्व 1170. एतेसि णं भंते ! सलेस्साणं जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साणं प्रलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 42 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेज्जगुणा, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा, प्रलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, णोललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया। [1170 प्र.] भगवन् ! इन सलेश्य, कृष्णलेश्या से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले और अलेश्य जीवों में कोन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1170 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े जीव शुक्ललेश्या वाले हैं, (उनकी अपेक्षा) पद्मलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले संख्यातगुणे हैं, (उनसे) अलेश्य अनन्तगुणे हैं, कापोतलेश्या वाले (उनसे) अनन्तगुणे हैं, नीललेश्या वाले (उनसे) विशेषाधिक हैं, कृष्णलेश्या वाले उनसे विशेषाधिक हैं और सलेश्य (इनसे भी) विशेषाधिक हैं। विवेचन--सलेश्य-अलेश्य प्रादि जीवों का अल्पबहुत्व-प्रस्तुत सूत्र में सलेश्य, कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या वाले जीवों और अलेश्य जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है / अल्पबहुत्व की समीक्षा-शुक्ललेश्या वाले सबसे कम इसलिए कहे गए हैं कि शुक्ललेश्या - .. .1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वत्ति, पत्रांक 344 2. जहाँ भी 'अप्पा वा के प्रागे '4' का अंक है, वहाँ वह 'बहया वा तल्ला वा विसेसाहिया वा' इन शेष तीनों. पदों सहित चार पदों का सूचक है। Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 ] [प्रज्ञापनासून कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यंचों में, मनुष्यों में और लान्तक आदि कल्पों के देवों में ही पाई जाती है / उनकी अपेक्षा संख्यातगुणे अधिक पद्मलेश्या वाले जीव कहे हैं, क्योंकि वह पंचेन्द्रियतिर्यंचों में, मनुष्यों में तथा सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक नामक कल्पों में पाई जाती है / उनसे संख्यातगुणे अधिक तेजोलेश्या वाले जीव इसलिए कहे गए हैं कि तेजोलेश्या बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, प्रत्येक वनस्पतिकायिकों में तथा संख्यातगणे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में. मनष्यों में, भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान देवों में पाई जाती है। तेजोलेश्यी जीवों की अपेक्षा अलेश्य जीव अनन्तगुणे अधिक इसलिए कहे गए हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं और वे अलेश्य हैं। अलेश्यों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणित होने से कापोतलेश्या वाले जीव अलेश्यों से अनन्तगुणे अधिक हैं। क्लिष्ट और क्लिष्ट तर अध्यवसाय वाले जीव अपेक्षाकृत अधिक होते हैं, इस कारण कापोतलेश्या वालों की अपेक्षा नीललेश्या वाले और नीललेश्या वालों की अपेक्षा कृष्णलेश्या वाले जीव विशेषाधिक होते हैं। विविधलेश्याविशिष्ट चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का अल्पबहत्व 1171. एतेसि णं भंते ! रइयाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेहसाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा रइया कण्हलेसा, णोललेस्सा असंखेज्जगुणा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा / [1171 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले नारकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? / [1171 उ. गौतम ! सबसे थोड़े कृष्णलेश्या वाले नारक हैं, उनसे असंख्यातगुणे नीललेश्या वाले हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे कापोतलेश्या वाले हैं। 1172. एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोषा तिरिक्खजोणिया सुक्कलेसा, एवं जहा प्रोहिया (सु. 1170) णवरं अलेस्सवज्जा / [1172 प्र.) भगवन् ! इन कृष्णलेश्या से ले कर यावत् शुक्ललेश्या याले तियंचयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1172 उ.] गौतम ! सबसे कम तिर्यञ्च शुक्ललेश्या वाले हैं इत्यादि जैसे पहले सूत्र 1170 में प्रोधिक (समुच्चय) का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि तिर्यञ्चों में अलेश्य नहीं कहना चाहिए, (क्योंकि उनमें अलेश्य होना सम्भव नहीं है)। 1173. एतेसि गं भंते ! एगिदियाणं करहलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 345 Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ! [267 गोयमा ! सम्वत्थोवा एगिदिया तेउलेस्ता, काउलेस्सा अणंतगुणा, णोललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। {1173 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर तेजोलेश्या तक से युक्त एकेन्द्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत. तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1173 उ.] गौतम ! सबसे कम तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं, (उनसे) अनन्तगुणे अधिक कापोतलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं, (उनसे) नोललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाले विशेषाधिक हैं। 1174. एतेसि णं भंते ! पुढविक्काइयाणं कण्हलेस्साणं जाव ते उलेस्साण य कतरे कतरेहितो अध्पा वा 4? गोयमा ! जहा प्रोहिया एंगिदिया (सु. 1173) / णवरं काउलेस्सा असंखेज्जगुणा / [1174 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या से लेकर यावत् तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1174 उ.] गौतम ! जिस प्रकार समुच्चय एकेन्द्रियों का (सू. 1173 में) कथन किया है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिकों (के अल्पबहुत्व) का कथन करना चाहिए। विशेषता (उनसे) इतनी है कि कापोतलेश्या वाले पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं / 1175. एवं प्राउक्काइयाण वि। [1175] इसी प्रकार कृष्णादिलेश्या वाले अप्कायिकों में अल्पबहुत्व का निरूपण भी समझ लेना चाहिए। 1176. एतेसि णं भंते ! तेउक्काइयाणं कण्हलेस्साणं णीललेस्साणं काउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा! सव्यथोवा तेउक्काइया काउलेस्सा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। [1176 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1176 उ.] गौतम ! सबसे कम कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिक हैं, (उनको अपेक्षा) नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (तेजस्कायिक) विशेषाधिक हैं। 1177. एवं वाउक्काइयाण वि / [1177) इसी प्रकार (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) वायुकायिकों का भी प्रल्पत्र हुत्व (समझ लेना चाहिए। 1178. एतेसि गं भंते ! वणप्फइकाइयाणं कण्हलेस्साणं जाव ते उलेस्साण य? जहा एगिदियानोहियाणं (सु. 1173) / Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] [ प्रज्ञापनासूत्र [1178 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले से लेकर यावत् (और) तेजोलेश्या वाले वनस्पतिकायिकों में से (कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं) ? [1178 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1173 में) समुच्चय (ोधिक) एकेन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार वनस्पतिकायिकों का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए / 1176. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाणं जहा तेउक्काइयाणं (सु. 1176) / [1179] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का अल्पबहुत्व (सू. 1176 में उक्त) तेजस्कायिकों के समान है। 1180. [1] एतेसि गं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा! जहा प्रोहियाणं तिरिक्खजोणियाणं (सु. 1172) / गवरं काउलेस्सा प्रसंखेज्जगुणा। [1180-1 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वालों से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1180-1 उ.] गोतम ! जैसे (सू. 1172 में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) औधिक (समुच्चय) तिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च असंख्यातगुणे हैं। [2] सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा ते उक्काइयाणं / (सु. 1176) / [1180-2] (कृष्णादिलेश्यायुक्त) सम्मूच्छिम पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का अल्पबहुत्व (सू. 1176 में उक्त) तेजस्कायिकों के (अल्पबहुत्व के) समान (समझना चाहिए)। [3] गमवक्कतियपदियतिरिक्खजोणियाणं जहा प्रोहियाणं तिरिक्खजोणियाणं (सु. 1172) / णवरं काउलेस्सा संखेज्जगुणा / [1180-3] (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व समुच्चय पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के (सू. 1172 में उक्त) अल्पबहुत्व के समान जान लेना चाहिए / विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले (गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) संख्यात गुणे (कहने चाहिए)। [4] एवं तिरिक्खजोणिणीण वि / [1180-4] (जैसे गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का अल्पबहुत्व कहा है,) इसी प्रकार गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों का भी (अल्पबहुत्व कहना चाहिए)। [5] एतेसि णं भंते ! सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरहितो अप्पा वा 4 ? Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [ 266 गोयमा ! सम्वत्थोवा गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखेज्जगुणा, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा, काउलेस्सा संखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा बिसेसाहिया, काउलेस्सा सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया प्रसंखेज्जगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया। [1180-5 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वालों से लेकर यावत् शुक्ललेश्यायुक्त सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में से कोन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1180-5 उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं। (उनसे) पद्मलेश्यावाले (वे) संख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्याविशिष्ट (वे) संख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्याविशिष्ट (गर्भज तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्यायुक्त (वे) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) कापोतलेश्या वाले सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (वे) विशेषाधिक हैं (और उनसे भी) कृष्णलेश्या वाले (सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) विशेषाधिक हैं। [6] एतेसि भंते ! सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्ख जोणियाणं तिरिक्खजोणिणोण य कण्हलेस्प्ताणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? / गोयमा ! जहेव पंचमं (सु. 1180 [5]) तहा इमं पिछट्ठ माणियव्वं / [1180.6 प्र.] भगवन् ! कृष्ण लेश्या वालों से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1180.6 उ.] गौतम ! जैसे (सृ. 1180-5 में) पंचम (कृष्णादिलेश्यायुक्त तिर्यञ्चयोनिक सम्बन्धी) अल्पबहुत्व कहा है, वैसे ही यह छठा. (सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और तिर्यञ्चयोनिकों स्त्रियों का कृष्णलेश्यादिविषयक) अल्पबहुत्व कहना चाहिए। [7] एतेसि णं भंते ! गब्भवक्कंतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खजोणिणोण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, सुक्कलेस्सायो तिरिक्खजोगिणीनो संखेज्जगुणामो, पम्हलेस्सा गम्भवक्कतियपंचेंदियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, पम्हलेस्सानो तिरिक्खजोणिणोओ संखेज्जगुणाप्रो, तेउलेस्सा० संखेज्जगुणा, तेउलेस्साश्रो० संखेज्ज गुणायो, काउलेस्सा० संखेज्जगुणा, गोललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहिया, काउलेस्साओ० संखेज्जगुणाम्रो, णोललेस्साश्रो० विसेसाहियानो, कण्हलेस्साप्रो० विसेसाहियानो। [1180-7 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णालेश्या वालों से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चस्त्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] [प्रज्ञापनासूत्र [1180-7 उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, (उनसे) संख्यातगुणी शुक्ललेश्या वाली गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियां हैं, (उनकी अपेक्षा) पद्मलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे हैं, (उनकी अपेक्षा) पद्मलेश्या वाली गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले० संख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली (गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चस्त्रियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (गर्भज पंचेन्द्रियस्त्रियां) विशेषाधिक हैं। [8] एतेसि णं भंते ! सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं गम्भवतियपंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं तिरिक्खनोणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव सक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोबा गम्भवक्कतियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेस्सा, सुक्कलेस्सानो तिरिक्खजोणिणीमो संखेज्जगुणासो, पम्हलेस्सा गम्भवक्कतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, पम्हलेस्साप्रो तिरिक्खजोगिणीनो संखेज्जगुणाओ, तेउलेस्सा गम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, तेउलेस्साम्रो तिरिक्खजोणिणोप्रो संखेज्जगुणाम्रो, काउलेस्सा तिरिक्खजोणिया संखेज्जगुणा, णीललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहिया, काउलेस्सामो० संखेज्जगणामो, णीललेस्साप्रो० विसेसाहियात्रो, कण्हलेस्साप्रो० विसेताहियानो, काउलेस्सा सम्मच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया असंखेज्जगुणा, गोललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसाहिया / [1180.8 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले इन सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों, गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों तथा तिर्यञ्चयोनिकस्त्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1180-8 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले गर्भज (पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चयोनिक हैं, (उनसे) शुक्ललेश्या वालो (गर्भज पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुगे हैं, (उनसे) पदमलेश्या वाली (गर्भज पंचन्द्रिय-) तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगणो हैं, (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्या (उनसे) तेजोलेश्या वाली (गर्भज पंचेन्द्रिय-) तिर्यञ्चस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले (गर्भज पंचेन्द्रिय-) तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुगे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (तथारूप तिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (तथारूप तिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) कापोतलेश्या वाली (तथारूप तिर्यञ्चस्त्रियां) संख्यातगुणो हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (तथारूप तिर्यञ्चस्त्रियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (तथारूप तिर्यञ्चस्त्रियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक असंख्यातगुगे हैं, (उनसे) नोललेश्या वाले (सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्च विशेषाधिक हैं। [6] एतेसि णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्ख जोणियाणं तिरिक्खजोणिणोण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा बा 4 ? Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [271 गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया सुक्कलेसा, सुक्कलेस्साप्रो० संखेज्जगुणाम्रो, पम्हलेस्सा० सखेज्जगुणा, पम्हलेस्साप्रो० संखेज्जगुणाम्रो, तेउलेस्सा० संखेज्जगुणा, तेउलेस्सामो० संखेज्जगुणात्रो, काउलेस्साप्रो० संखेज्जगुणानो, गोललेस्साप्रो० विसेसाहियानो, कण्हलेस्सामो० विसेसाहियानो, काउलेस्सा० असंखेज्जगुणा, गोललेस्सा० विसेसाहिया, कण्हलेस्सा० विसेसा . . 1180-9 प्र. भगवन ! इन कृष्णलेश्या वाले से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चस्त्रियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1180-9 उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ल लेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक हैं, (उनसे) शुक्ललेश्या वाली पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाले (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च) संख्यातगुणे हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) संख्यातगुण हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) संख्यातगुणी हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) संख्यातगणी हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च स्त्रियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) असंख्यातगुणे हैं, (उनकी अपेक्षा) नीललेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च) विशेषाधिक हैं। [10] एतेसि णं भंते ! तिरिक्स्य जोणियाणं तिरिक्खजोणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? __ गोयमा ! जहेव णवमं अप्पाबहुगं तहा इमं पि, नवरं काउलेस्सा तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा। एवं एते दस अप्पाबहुगा तिरिक्खजोणियाणं / 1180-10 प्र.] भगवन ! इन तियंञ्चयोनिकों और तिर्यञ्चयोनिक स्त्रियों में से कृष्णलेश्या से लेकर यावत् शुक्ललेश्या की अपेक्षा से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1180-10 उ. गौतम ! जैसे नौवा कृष्णादिलेश्या वाले तिर्यञ्चयोनिकसम्बन्धी अल्पबहत्व कहा है, वैसे यह दसवाँ भी समझ लेना चाहिए / विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले तिर्यञ्चयोनिक अनन्तगुणे होते हैं, (ऐसा कहना चाहिए।) इस प्रकार ये (पूर्वोक्त) दस अल्पबहुत्व तिर्यञ्चों के कहे गए हैं। 1181. एवं मणूसाणं पि अप्पाबहुगा प्राणियव्वा / णवरं पच्छिनगं प्रप्पाबहुगं गस्थि / [1181] इसी प्रकार (कृष्णादिलेश्याविशिष्ट) मनुष्यों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए। परन्तु उनका अंतिम अल्पबहुत्व नहीं है। 1182. [1] एतेसि णं भंते ! देवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? ____ गोयमा! सव्वत्थोवा देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, तेउलेस्सा संखेज्जगुणा। Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 ] [ प्रज्ञापनासून [1182-1 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले से लेकर यावत् शुक्ललेश्या वाले देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1182-1 उ. गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले देव हैं, उनसे पद्मलेश्या वाले देव असंख्यातगुगे हैं, (उनसे) कपोतलेश्यी देव असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले देव विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले देव विशेषाधिक हैं और उनसे भी तेजोलेश्या वाले देव संख्यातगुणे हैं। [2] एतेसि णं भंते ! देवीणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोवानो देवीप्रो काउलेस्सागो, णीललेस्सानो बिसे साहियात्रो, कण्हलेस्साम्रो विसेसाहियात्रो, तेउलेस्सायो संखेज्जगुणाप्रो। [1182-2 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाली यावत् तेजोलेश्या वाली देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1182-2 उ.] गौतम ! सबसे थोड़ी कापोतलेश्या वाली देवियां हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं और उनसे भी तेजोलेश्या वाली (देवियां) संख्यातगुणी हैं / [3] एतेसि णं भंते ! देवाणं देवीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोवा देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, काउलेस्ता असंखेज्जगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्सानो देवोश्रो संखेज्जगुणासो, गीललेस्सायो विसेसाहियानो, कण्हलेस्साप्रो विसेसाहियारो, तेउलेस्सा देवा संखेज्जगुणा, तेउलेस्सानो देवीमो संखेज्जगुणानो। [1182-3 प्र.) भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1182-3 उ.] गौतम ! सबसे थोडे शुक्ललेश्या वाले देव हैं, (उनकी अपेक्षा) पद्मलेश्या वाले (देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले (देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (देव) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) कापोतलेश्या बाली देवियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) नीललेश्या बाली (देवियां) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (देवियां) विशेषाधिक हैं, (उनको अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले देव संख्यातगुणे हैं, (उनसे भी) तेजोलेश्या वाली देवियाँ संख्यात गुणी हैं / 1183. [1] एतेसि णं भंते ! भवणवासोणं देवाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक) [273 गोयमा ! सव्वत्योवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, णोललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया / [1183-1 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, यावत् तेजोलेश्या वाले भवनवासी देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1183-1 उ.] गौतम ! सबसे कम तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले (भवनवासी देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं / [2] एतेसि णं भंते ! भवणवासिणीणं वेवीणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! एवं चेव / [1183-2 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाली यावत् तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1183-2 उ.] गौतम ! (जैसे कृष्णलेश्या वाले से लेकर यावत् तेजोलेश्या पर्यन्त भवनवासी देवों का अल्पबहुत्व कहा है) इसी प्रकार उनकी देवियों का भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए / [3] एतेसि णं भंते ! भवणवासोणं देवाणं देवीण य कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा बा 4 ? गोयमा ! सम्बत्थोवा भवणवासी देवा तेउलेस्सा, भवणवासिणीयो तेउलेस्सायो संखेज्जगुणात्रो, काउलेस्सा भवणवासी असंखेज्जगुणा, णोललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साओ भवणवासिणीप्रो संखेज्जगुणाप्रो, णोललेस्साम्रो विसेसाहियाप्रो, कण्हलेस्साप्रो विसेसाहियानो। [1183-3 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, यावत् तेजोलेश्या वाले भवनवासी देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं। [1183-3 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्यी (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली भवनवासी देवियां संख्यातगुणी हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (भवनवासी देवियां) विशेषाधिक हैं और उनसे भी कृष्णलेश्या वाली भवनवासी देवियां विशेषाधिक हैं। 1184. एवं वाणमंतराण धि तिण्णेव अप्पाबहुया जहेव भवणवासीणं तहेव भाणियव्वा (1183 [1-3]) / Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274]] [प्रज्ञापनासूत्र [1184] जिस प्रकार (सू. 1183-1 से 3 तक में) भवनवासी देव-देवियों का अल्पबहुत्व कहा है, इसी प्रकार वाणव्यन्तरों के तीनों ही (देवों, देवियों और देव-देवियों का सम्मिलित) प्रकारों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए। 1185. एतेसि णं भंते / जोइसियाणं देवाणं देवीण य तेउलेस्साणं कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया बा ? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जोइसियदेवा तेउलेस्सा, जोइसिणिदेवीलो तेउलेस्सायो संखेज्जगुणायो। [1185 प्र.] भगवन् ! इन तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देवों-देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [1185 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देव हैं, उनकी अपेक्षा तेजोलेश्या वाली ज्योतिष्क देवियां संख्यातगुणी हैं / 1186. एतेसि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो प्रप्पा वा 4 // गोयमा ! सध्वत्थोवा वेमाणिया सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्सा असंखेज्जगुणा। [1186 प्र.] भगवन् ! इन तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1186 उ.] गौतम ! सबसे कम शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाले असंख्यात गुणे हैं (और उनसे भी) तेजोलेश्या वाले (देव) असंख्यातगुणे हैं / 1187. एतेसि णं भंते ! वेमाणियाणं देवाणं देवीण य तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्सा प्रसंखेज्जगुणा, तेउलेस्साम्रो वेमाणिणोप्रो देवीग्रो संखेज्जगुणाम्रो / [1187 प्र.] भगवन् ! इन तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? - [1187 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली वैमानिक देवियां संख्यातगुणी हैं। 1188. एतेसि णं भंते ! भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाण य देवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा! सम्वत्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेजगुणा, तेउलेस्सा Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरवा लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ] [275 असंखेज्जगुणा; तेउलेस्सा भवणवासी देवा असखेज्जगुणा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, णोललेस्सा बिसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया; तेउलेस्सा वाणमंतरा देवा असंखेज्जगुणा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा, गोललेस्सा विसेसाहिया, किण्हलेसा विसेसाहिया; तेउलेस्सा जोइसियदेवा संखेज्जगुणा / [1188 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में से कौन, किनसे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1188 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, (उनसे) पद्मलेश्या वाले (वैमानिकदेव) असंख्यातगणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले (बैमानिक देव) असंख्यातगुण हैं,(उनका अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले (भवनवासो देव) असंख्यात गुण हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यात गुणे हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे भी) तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे हैं। 1186. एतासि णं भंते ! भवणवासिणोणं वाणमंतरोण जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्योवानो देवीमो वेमाणिणीनो तेउलेस्साप्रो; भवणवासिणीनो तेउलेस्साओ असंखेज्जगुणाप्रो, काउलेस्सामो असंखेज्जगुणाओ, णोललेस्सागो विसेसाहियानो, कण्हलेस्सायो विसेसाहियानो; तेउलेस्सायो वाणमंतरीमो देवीओ असंखेज्जगुणाग्रो, काउलेस्साम्रो असंखेज्जगुणाग्रो, णोललेस्साप्रो विसेसाहियात्रो, कण्हलेस्सानो विसेसाहियानो; ते उलेस्साप्रो जोइसिणीनो देवीप्रो संखेज्जगुणाभो। . [1189 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाली से लेकर यावत् तेजोलेश्या वाली भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवियों में से कौन (देवियां), किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1189 उ.] गौतम ! सबसे थोड़ी तेजोलेश्या वाली वैमानिक देवियां हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वालो भवनवासी देवियाँ असंख्यातगुणो हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) असंख्यातगुणो हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली वाणव्यन्तर देवियाँ असंख्यातगुणी अधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) असंख्यातगुणी हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं / (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या वाली ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं / 1190. एतेसि णं भंते ! भवणवासीणं जाव वेमाणियाणं देवाण य देवीण य कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सव्वस्थोवा वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्सा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्साम्रो वेमाणिणीयो देवीमो संखेज्जगुणामो; तेउलेस्सा भवणवासी देवा Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] [ प्रज्ञापनासूत्र असंखेज्जगुणा, तेउलेस्साम्रो भवणवासिणीनो देवीलो संखेज्जगुणाप्रो, काउलेस्सा भवणवासी प्रसंखेज्जगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्सानो भवणवासिणोमो संखेज्ज. गुणाओ, णोललेसानो विसेसाहियात्रो, कण्हलेसाम्रो विसेसाहियानो; तेउलेस्सा वाणमंतरा असंखेज्जगुणा, तेउलेस्साम्रो वाणमंतरीप्रो संखेज्जगुणामो, काउलेस्सा वाणमंतरा असंखेज्जगुणा, णीललेस्सा विसेसाहिया, कण्हलेस्सा विसेसाहिया, काउलेस्साप्रो वाणमंतरीओ संखेज्जगुणाओ, णोललेस्सानो विसे साहियानो, कण्हलेस्साप्रो विसेसाहियानो; तेउलेस्सा जोइसिया संखेज्जगुणा, तेउलेस्सायो जोइसिणीयो संखेज्जगुणाप्रो। [1190 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले से लेकर शुक्ललेश्या वाले तक के भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों और देवियों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1190 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले वैमानिक देव हैं, (उनको अपेक्षा) पद्मलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले (वैमानिक देव) असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या बाली वैमानिक देवियाँ संख्यातगुणी हैं, (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, उनसे कापोतलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यातगुण हैं, (उनकी अपेक्षा) नीललेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (भवनवासी देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली भवनवासी देवियाँ संख्यातगुणी हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (भवनवासी देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली वाणव्यन्तर देवियाँ संख्यातगुणी हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाले वाणव्यन्तर देव असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाले (वाणव्यन्तर देव) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कापोतलेश्या वाली वाणव्यन्तर देवियाँ संख्यातगुणी हैं, (उनसे) नीललेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या वाली (वाणव्यन्तर देवियाँ) विशेषाधिक हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देव संख्यातगुणे हैं, (उनसे) तेजोलेश्या वाली ज्योतिष्क देवियाँ संख्यातगुणी हैं / विवेचन--विविध लेश्याविशिष्ट चौबीसदण्डकवर्ती जीवों का अल्पबहुत्व---प्रस्तुत बीस सूत्रों (सू. 1171 से 1160 तक) में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट चौवीस दण्डकों के विभिन्न लिगादियुक्त जीवों के विविध अपेक्षाओं से अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है / कृष्ण-नील-कापोतलेश्यायुक्त नारकों का अल्पबहुत्व-नारकों में केवल तीन ही लेश्याएँ पाई जाती हैं-कृष्ण, नील और कापोत / जैसा कि कहा है-प्रारम्भ की दो नरकपृथ्वियों में कापोत, तीसरी नरकपृथ्वी में मिश्र (कापोत और नील), चौथी में नील, पांचवीं में मिश्र (नील और कृष्ण), छठी में कृष्ण और सातवीं पृथ्वी में महाकृष्ण लेश्या होती है। यही कारण है कि नारकों में कृष्ण, नील और कापोत, इन तीन लेश्या वालों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है / __ सबसे कम कृष्णलेश्या वाले नारक इस कारण बताए गए हैं कि कृष्णलेश्या पांचवों पृथ्वी के कतिपय नारकों तथा छठी और सातवीं पृथ्वी के नारकों में ही पाई जाती है। कृष्णलेश्या वाले Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद / द्वितीय उद्देशक ] [277 नारकों की अपेक्षा नीललेश्या वाले नारक असंख्यातगुणे इसलिए होते हैं कि नीललेश्या कतिपय तृतीय पृथ्वी के, चौथी पृथ्वी के और कतिपय पंचम पृथ्वी के नारकों में पाई जाती है और ये पूर्वोक्त नारकों से असंख्यातगुणे अधिक हैं। नीललेश्यी नारकों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले नारक इसलिए असंख्यातगुणे अधिक हैं कि कापोतलेश्या प्रथम एवं द्वितीय पृथ्वी के तथा तृतीय पृथ्वी के कतिपय नरकावासों में पाई जाती है और वे नारक पूर्वोक्त नारकों से असंख्यातगुणे अधिक हैं / ' __तियंचों के अल्पबहुत्व में समुच्चय से विशेषता समुच्चय सलेश्य जीवों के अल्पबहुत्व की तरह तिर्यंचों के अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है, परन्तु समुच्चय से एक विशेषता यह है कि समुच्चय में अलेश्य का भी अल्पबहुत्व कहा गया है, जिसे तिर्यंचों में नहीं कहना चाहिए, क्योंकि तिर्यञ्चों में अलेश्य होना संभव नहीं है। एकेन्द्रियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा—एकेन्द्रियों में 4 लेश्याएँ ही पाई जाती हैं---कृष्ण, नील, कापोत और तेजस् / अतः यहाँ इन्हीं चारों लेश्याओं से विशिष्ट एकेन्द्रियों का ही अल्पबहुत्व प्रदर्शित किया गया है। सबसे कम एकेन्द्रिय तेजोलेश्या वाले इसलिए हैं कि तेजोलेश्या कतिपय बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवों के अपर्याप्त अवस्था में ही पाई जाती है। तेजोलेश्याविशिष्ट एकेन्द्रियों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या अनन्त सूक्ष्म एवं बादर निगोद जीवों में पाई जाती है। कापोतलेश्या वालों से नीललेश्या वाले और इनसे कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार विशेषाधिक कहे गए हैं। पृथ्वी-जल-बनस्पतिकायिकों में चार लेश्याएँ होने के कारण इनका अल्पबहुत्व समुच्चय एकेन्द्रिय के समान है और तेजस्काय, वायकाय में कृष्ण, नील, कापोत तीनही लेश्याएँ हैं। अत: तेजोलेश्या को छोड़कर शेष तीन लेश्याओं वाले तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों का अल्पबहुत्व बताया गया है। सबसे अल्प कापोतलेश्यी, उनसे विशेषाधिक क्रमशः नीललेश्यी और कृष्णलेश्यी हैं। यही अल्पबहुत्व विकलेन्द्रियों में निदिष्ट है। कृष्णादिलेश्याविशिष्ट पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का दशविध अल्पबहुत्व-यों तो समुच्चय तिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व के समान ही है, किन्तु जैसे समुच्चय तिर्यञ्च कापोतलेश्या वाले अनन्तगुणे बताए हैं, वैसे कापोतलेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनन्त नहीं हो सकते, किन्तु वे असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च मिलकर भी असंख्यात ही हैं। सामान्य पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के इस सूत्र के साथ ही निम्नोक्त विशिष्ट पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के आठ और एक समुच्चय तिर्यंचों का, यों 9 सूत्र और हैं.–यथा--(२) सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिथंच का (3) गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का, (4) गर्भज पंचेन्द्रियतिथंच स्त्रियों का, (5) गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यचों और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतियंचों का सम्मिलित, (6) सम्मूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और तियंचस्त्रियों का, (7) गर्भज पंचेन्द्रियतिर्यंचों और तिर्यञ्चस्त्रियों का, (8) सम्मूच्छिम एवं गर्भज 1. (क) 'काउय दोसु, तइयाए मीसिया, नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मिस्सा, कण्हा तत्तो परमकण्हा // (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 346 2. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 347 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 347 Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 ] [प्रज्ञापनासूत्र पंचेन्द्रियतिर्यंचों और गर्भज तिर्यञ्चस्त्रियों का, (9) पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और तिर्यंचस्त्रियों का और (10) तिर्यञ्चों और तिर्यंचस्त्रियों का सम्मिलित अल्पबहुत्व / ' एक बात विशेषत: ध्यान देने योग्य है कि सभी लेश्याओं में स्त्रियों की संख्या अधिक पाई जाती है। यों भी सभी तिर्यञ्च पुरुषों की अपेक्षा तिर्यञ्च स्त्रियों की संख्या तिगुनी और तीन अधिक होती है, ऐसा सैद्धान्तिकों का मन्तव्य है। यही कारण है कि सप्तम अल्पबहुत्व में तिर्यञ्च स्त्रियाँ संख्यातगणी अधिक बताई हैं। फिर पाठवें के बाद नोवें अल्पबद्रत्व में भी पचेन्द्रियति अधिक बताई गई हैं, तत्पश्चात् दसवें अल्पबहुत्व में भी तिर्यञ्चस्त्रियों की संख्या अधिक प्रतिपादित मनुष्यों के अल्पबहत्व में पंचेन्द्रियतियञ्चों के अल्पबहुत्व से विशेषता यों तो मनुष्यों के अल्पबहुत्व की प्रायः सभी वक्तव्यता पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व के समान ही है, किन्तु मनुष्यों में पिछला अर्थात् दसवां अल्पबहुत्व नहीं होता, क्योंकि मनुष्यों में अनन्तसंख्या सम्भव नहीं है। इस कारण 'कापोतलेश्या बाले अनन्तगुणे हैं। यह भाग मनुष्यों में सम्भव नहीं है। चारों निकायों के देवों का अल्पबहत्त्व-(१) समच्चय देवों का अल्पबहत्व-सबसे थोड़े शुक्ललेश्या वाले देव इसलिए हैं कि शुक्ललेश्या लान्तक प्रादि ऊपर के देवलोकों में ही पाई जाती है। शुक्ललेश्यो देवों से पद्मलेश्यी देव असंख्यात गुणे अधिक हैं, क्योंकि सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक कल्प में पद्मलेश्या होती है और वहाँ के देव लान्तककल्प आदि के देवों की अपेक्षा असंख्यातगुणे अधिक हैं / पद्मलेश्यी देवों से कापोतलेश्यी देव असंख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि कापोतलेश्या भवनवासी और वाणव्यन्तर देवों में पाई जाती है, जो कि उनकी अपेक्षा असंख्यातगणे हैं / उनसे नीललेश्वी देव विशेषाधिक इसलिए हैं कि बहुत-से भवनवासियों और वाणव्यन्तरों में नीललेश्या. पाई जाती है। नीललेश्यी देवों से कृष्णलेश्यी देव विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति और वाणव्यन्तर देवों में कृष्णलेश्या होती है। इन सबकी अपेक्षा से तेजोलेश्याविशिष्ट देव संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि बहुत-से भवनवासियों में, समस्त ज्योतिष्क देवों में तथा सौधर्म-ऐशान देवों में तेजोलेश्या का सद्भाव है। (2) सलेश्य समुच्चय देवियों के अल्पबहुत्व की समीक्षा-कापोतलेश्या वाली देवियाँ सबसे कम इसलिए हैं कि भवनवासी एवं व्यन्तर देवियों में हो कापोतलेश्या होती है, उनसे नीललेश्यायुक्त देवियाँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि बहुत-सी भवनवासी और वाणव्यन्तर देवियों में नीललेश्या पाई जाती है। इनकी अपेक्षा कृष्णलेश्या वाली देवियां विशेषाधिक हैं, क्योंकि अधिकांश भवनपति, वाणव्यन्तर 1. ओहिय पणिदि 1 समुच्छिया 2 य मन्भे 3 तिरिक्ख इत्थीओ 4 / समुच्छिमगन्मतिरिया 5, मुच्छतिरिक्खी य६, गर्भमि 7 // 1 // संमुच्छिमगढमइत्थी 8, पणिदितिरिगित्थोया 9 य ओहित्थी 10 / दस अप्पबहुगभेया तिरियाणं होंति नायव्वा // 2 // -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 349 में उद्धृत / 2. 'तिगुणातिरूवअहिया तिरियाणं इत्थिया मरोयम्वा / ' 3. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 347 . 4. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 349 Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहया लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक ] [279 देवियों में कृष्णलेश्या का सद्भाव होता है। इनकी अपेक्षा भी तेजोलेश्या वाली देवियाँ संख्यातगुणी अधिक हैं, क्योंकि तेजोलेश्या सभी ज्योतिष्क देवियों में तथा सौधर्म-ऐशान देवियों में पाई जाती है। एक बात विशेषतः ध्यान देने योग्य है। वह यह कि देवियाँ सौधर्म और ऐशानकल्पों तक ही उत्पन्न होती हैं, आगे नहीं / अतएव उनमें इन कल्पों के योग्य प्रारम्भ की चार लेश्याएँ ही सम्भव हैं / इसी कारण तेजोलेश्या तक ही इनका अल्पबहुत्व बतलाया है / (3) सलेश्य देवों की अपेक्षा देवियों की संख्या अधिक-सैद्धान्तिक तथ्य यह है कि देवों की अपेक्षा देवियाँ बत्तीसगुनी और बत्तीस अधिक हैं। यही कारण है कि कापोत, नील, कृष्ण और तेजोलेश्या वाले देवों की अपेक्षा देवियाँ कहीं संख्यातगुणी अधिक हैं, कहीं विशेषाधिक हैं। तेजोलेश्यी ज्योतिष्क देव-देवियों का अल्पबहत्व-ज्योतिष्क देवों के सम्बन्ध में यहाँ एक ही अल्पबहुत्वसूत्र का प्रतिपादन किया गया है, क्योंकि ज्योतिष्कनिकाय में एकमात्र तेजोलेश्या ही होती है, कोई अन्य लेश्या नहीं होती / इसी कारण ज्योतिष्क देवों और देवियों का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्वसूत्र निर्दिष्ट नहीं किया है। सलेश्य सामान्य जीवों और चौवीस दण्डकों में ऋद्धिक अल्पबहुत्व का विचार-- 1161. एतेसि णं भंते ! जोवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिड्डिया वा महिटिया वा ? / गोयमा ! कण्हलेस्सेहितो गोललेस्सा महिड्डिया, णीललेस्से हितो काउलेस्सा महिड्डिया, एवं काउलेस्सेहितो तेउलेस्सा महिड्डिया, तेउलेस्सेहितो पम्हलेस्सा महिड्डिया, पम्हलेस्से हितो सुक्कलेस्सा महिड्डिया, सव्वपिड्डिया जोवा किण्हलेस्सा, सव्वमहिड्डिया जीवा सुक्कलेस्सा। [1191 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले, यावत् शुक्ललेश्या वाले जीवों में से कौन, किनसे अल्प ऋद्धिवाले अथवा महती ऋद्धि वाले होते हैं ? [1191 उ. गौतम ! कृष्णलेश्या वालों से नीललेश्या वाले महद्धिक हैं, नीललेश्या बालों से कापोतलेश्या वाले महद्धिक हैं, कापोतलेश्या वालों से तेजोलेश्या वाले महद्धिक हैं, तेजोलेश्या वालों से पद्मलेश्या वाले महद्धिक है और पद्मलेश्या वालों से शुक्ललेश्या वाले महद्धिक है। कृष्णलेश्या वाले जीव सबसे अल्प ऋद्धि वाले हैं और शुक्ललेश्या वाले जीव सबसे महती ऋद्धि वाले हैं। 1192. एतेसि णं भंते ! रइयाणं कण्हलेस्साणं णोललेस्साणं काउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिडिया वा महिड्डिया वा ? गोयमा ! कण्हलेसेहितो णीललेस्सा महिड्डिया, जोललेस्से हितो काउलेस्सा महिडिया, सम्वपिड्डिया गेरइया कण्हलेस्सा, सम्वहिड्डिया गेरइया काउलेस्सा। [1192 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी नारकों में कौन, कितनी अल्प ऋद्धि वाले अथवा महती ऋद्धि वाले हैं ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 349-350 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृ. 131 से 139 तक Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [1192 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्यी नारकों से नीललेश्यी नारक महद्धिक है, नीललेश्यी नारकों से कापोतलेश्यी नारक महद्धिक हैं। कृष्णलेश्या वाले नारक सबसे अल्प ऋद्धि वाले हैं और कापोतलेश्या वाले नारक सबसे महती ऋद्धि वाले हैं। 1163. एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं काहलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अपिडिया वा महिड्डिया का? गोयमा ! जहा जोवा। [1193 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले तिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किनसे अल्पद्धिक अथवा महद्धिक हैं ? [1163 उ. गौतम ! जैसे समुच्चय जीवों को (कृष्णादि लेश्याओं की अपेक्षा से) अल्पद्धिकता-महद्धिकता कही है, उसी प्रकार तिर्यञ्चयोनिकों की (कृष्णादि लेश्याओं की अपेक्षा से अल्पद्धिकता और महद्धिकता) कहनी चाहिए। 1164. एतेसि गं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पिड्ढिया वा महिढिया वा ? गोयमा ! कण्हलेसेहितो, एगिदियतिरिक्खजोणिएहितो णीललेस्सा महिड्ढया, णीललेस्सेहितो काउलेस्सा महिड्डिया, काउलेस्से हितो तेउलेस्सा महिड्ढिया, सवपिढिया एगिदियतिरिक्खजोणिया कण्हलेस्सा, सन्धमाहिड्ढिया तेउलेस्सा। [1164 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले, यावत् तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में से कौन, किससे अल्पद्धिक हैं अथवा महद्धिक हैं ? (1194 उ.] गोतम ! कृष्णलेश्या वाले एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अपेक्षा नीललेश्या वाले एकेन्द्रिय महद्धिक हैं, नीललेश्या वाले (एकेन्द्रियों) से कापोतलेश्या वाले (एकेन्द्रिय) महद्धिक हैं, कापोतलेश्या वालों से तेजोलेश्या वाले (एकेन्द्रिय) महद्धिक हैं। सबसे अल्पऋद्धि वाले कृष्णलेश्याविशिष्ट एकेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक हैं और सबसे महाऋद्धि वाले तेजोलेश्या वाले एकेन्द्रिय हैं। 1165. एवं पुढविक्काइयाण वि / [1195] इसी प्रकार (सामान्य एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों की अल्पद्धिकता और महद्धिकता की तरह कृष्णादिचतुलेश्याविशिष्ट) पृथ्वीकायिकों की (अल्पद्धिकता-महद्धिकता के विषय में समझ लेना चाहिए।) 1166. एवं एतेणं अभिलावेणं जहेव लेस्साप्रो भावियाओ तहेव णेयव्वं जाव चरिदिया / [1196] इस प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक जिनमें जितनी लेश्याएँ जिस क्रम से विचारीकही गई हैं, उसी क्रम से इस (पूर्वोक्त) पालापक के अनुसार उनकी अल्पद्धिकता-महद्धिकता समझ लेनी चाहिए। Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक] [ 281 1167. पंचेदियतिरिवखजोणियाणं तिरिक्खजोणिणीणं सम्मुच्छिमाणं गम्भवक्कंतियाण य सर्वोस भाणियव्वं जाव अप्पिढिया वेमाणिया देवा तेउलेस्ला, सम्वमाहिड्ढिया वेमाणिया देवा सुक्कलेस्सा। [1197] इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, तिर्यञ्चस्त्रियों, सम्मूच्छिमों और गर्भजों-सभी की कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्यापर्यन्त यावत् वैमानिक देवों में जो तेजोलेश्या वाले हैं, वे सबसे अल्पद्धिक हैं और जो शुक्ललेश्या वाले हैं, वे सबसे महद्धिक हैं, (यहाँ तक अल्पद्धिकता-महद्धिकता का कथन करना चाहिए / ) 1168. केइ भणंति-चउवीसदंडएणं इड्ढी भाणियत्वा / // बीग्रो उद्देसनो समत्तो॥ [1198] कई आचार्यों का कहना है कि चौवोस दण्डकों को लेकर ऋद्धि का कथन करना चाहिए। विवेचन–सलेश्य सामान्यजीवों तथा चौवीस दण्डकों में अल्पद्धिकता-महद्धिकता-विचारप्रस्तुत आठ सूत्रों (1191 से 1198 तक) में कृष्णादिलेश्याविशिष्ट सामान्यजीवों और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अल्पद्धिकता और महद्धिकता का विचार प्रस्तुत किया गया है। निष्कर्ष पूर्व-पूर्व की लेश्या बाले अल्पद्धिक हैं और क्रमशः उत्तरोत्तर लेश्या वाले महद्धिक हैं। इसी प्रकार नारकों, तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों के विषय में, जिनमें जितनी लेश्याओं की प्ररूपणा की गई, उनमें उनका विचार करके अनुक्रम से अल्पद्धिकता और महद्धिकता समझ लेनी चाहिए। प्रकायिकों से चतुरिन्द्रिय जीवों तक-इनमें जो कृष्णलेश्या वाले हैं, वे सबसे कम ऋद्धि वाले हैं और तेजोलेश्या वाले सबसे महाऋद्धि वाले हैं। इसी प्रकार सर्वत्र कह लेना चाहिए।' // सत्तरहवां लेश्यापद : द्वितीय उद्देशक समाप्त / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 252 Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : तइओ उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक चौवीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्त्तन-प्ररूपणा 1166. [1] रइए णं भंते ! जेरइएसु उबवज्जति ? अणेरइए णेरइएसु उववज्जति ? गोयमा! जेरइए रइएसु उववज्जइ, गो अणेरइए जेरइएसु उववज्जति / [1199-1 प्र.] भगवन् ! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अथवा अनारक नारकों में उत्पन्न होता है ? [1199-1 उ.] गौतम! नारक नारकों में उत्पन्न होता है, अनारक नारकों में उत्पन्न नहीं होता। [2] एवं जाव वेमाणियाणं / [1199-2] इसी प्रकार (नारकों के समान ही असुरकुमार आदि भवनपतियों से लेकर) यावत् वैमानिकों की उत्पत्तिसम्बन्धी वक्तव्यता कहनी चाहिए। 1200. [1] णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो उन्वट्टइ ? प्रणेरइए णेरइएहितो उव्वदृति ? गोयमा ! अणेरइए णेरइएहितो उन्वट्टति, णो रइए णेरइएहितो उध्वट्टति / [1200-1 प्र.] भगवन् ! नारक नारकों (नरकभव) से उद्वर्तन करता (निकलता) है. अथवा अनारक नारकों से उद्वर्तन करता है ? [1200-1 उ.] गौतम ! अनारक (नारक से भिन्न) नारकों (नारकभव) से उद्वर्तन करता (निकलता) है, (किन्तु) नारक नारकों से उवृत्त नहीं होता।। [2] एवं जाव वेमाणिए / णवरं जोतिसिय-वेमाणिएसु चयणं ति अभिलामो कायव्यो। [1200-2] इसी प्रकार (नारकों के समान ही) यावत् वैमानिकों तक उद्वर्तन-सम्बन्धी कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि ज्योतिषकों और वैमानिकों के विषय में ('उद्वर्तन' के स्थान में) 'च्यवन' शब्द का प्रयोग (अभिलाप) करना चाहिए। विवेचन-चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में नरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के उत्पाद एवं उद्वर्तन के सम्बन्ध में ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से सैद्धान्तिक प्ररूपणा की गई है। प्रश्नोत्तर का प्राशय-प्रस्तुत दो सूत्रों में दो प्रश्न हैं-१. प्रथम प्रश्न उत्पत्तिविषयक है / नैरयिक नैरयिकों में उत्पन्न होता है, अनैरयिक नहीं। इसका अर्थ यह है कि नारक ही नरकभव Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : तृतीय उद्देशक ] [283 में उत्पन्न होता है, क्योंकि नारक भवोपग्राहक आयु ही भव का कारण है / अतः जब नरकायु का उदय होता है, तभी जीव को नरकभव की प्राप्ति होती है तथा जब मनुष्यायु का उदय होता है, तब मनुष्यभव प्राप्त होता है / इसलिए ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से नारकायु आदि के वेदन के प्रथम समय में ही नारक आदि संज्ञा का व्यवहार होने लगता है / 2. दूसरा प्रश्न उद्वतेन विषयक है। उसका अर्थ है-नारक से भिन्न (अनारक) नारकभव से (नारकों से) उदवर्तन करता है अर्थात निकलता है / इसका तात्पर्य यह है कि जब तक किसी जीव के नरकायु का उदय बना हुआ है, तब तक वह नारक कहलाता है और जब नरकायु का उदय नहीं रहता, तब वह अनारक (नारकभिन्न) कहलाने लगता है। अत: जब तक नरकायु का उदय है, तब तक कोई जोव नरक से नहीं निकल सकता / इसी कारण कहा गया है-नारक नरक से उद्वत्त नहीं होता, बल्कि वही जीव नरक से उद्वर्तन करता है, जो अनारक हो, (जिसके नरकायु का उदय न रह गया हो) / निष्कर्ष यह है कि अागामी भव की आयु का उदय होने पर जीव वर्तमान भव से उद्वत्त होता है और जिस भव. सम्बन्धी आयु का उदय हो, उसी नाम से उसका व्यवहार होता है। इसी प्रकार असुरकुमार आदि शेष 23 दण्डकों के उत्पाद एवं उद्वर्तन के विषय में समझ लेना चाहिए।' लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों को उत्पाद-उद्वर्तनप्ररूपणा 1201. [1] से णणं भंते ! कण्हलेस्से मेरइए कण्हलेस्सेसु रइएसु उववज्जति ? कण्हलेस्से उव्वट्टति ? जल्लेस्से उववज्जति तल्लेसे उन्धट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हलेसे गैरइए कण्हलेसेसु गैरइएसु उववज्जति, कण्हलेसे उन्वट्टति, जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उन्चट्टति / [1201-1 प्र.) भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है ? कृष्णलेश्या वाला ही (नारकों में से) उद्वृत्त होता है ? (अर्थात्-) जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है ? . [1201.1 उ. हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है, कृष्णलेश्या वाला होकर ही (वहाँ से) उद्वृत्त होता है। जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता (निकलता) है / [2] एवं णोललेसे वि काउलेसे वि / [1201-2] इसी प्रकार नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले (नारक के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में) भी (समझ लेना चाहिए।) 1202. एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा वि / णवरं तेउलेस्सा अभइया / [1202] असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक भी इसी प्रकार से उत्पाद और उद्वर्तन का कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके सम्बन्ध में तेजोलेश्या का कथन (अभिलाप) अधिक करना चाहिए / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 353 Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [प्रज्ञापनासून 1203. [1] से जूणं भंते ! कण्हलेसे पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति ? कण्हलेस्से उन्वट्टति ? जल्लेसे उववज्जति तल्लेसे उन्वट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्से पुढविक्काइए कण्हलेस्सेसु पुढधिक्काइएसु उववज्जति ; सिए कण्हलेस्से उन्वट्टति, सिय नोललेसे उब्वट्टति, सिय काउलेसे उध्वतिसिय जल्लेसे उव्वज्जइ तल्लेसे उव्वदृति / {1203-1 प्र.] भगवन् / क्या कृष्णलेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? तथा क्या कृष्णलेश्या वाला हो कर (वहाँ से) उद्वर्तन करता है ? जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, (क्या) उसी लेश्या वाला हो कर (वहां से) उद्वर्तन करता (मरता) है ? [1203-1 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला पृथ्वीकायिक कृष्णलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, (किन्तु) उद्वर्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला हो कर, कदाचित् नीललेश्या वाला हो कर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर करता है। (अर्थात्) जिस लेश्या वाला हो कर उत्पन्न होता है, कदाचित् उस लेश्या वाला हो कर उद्वर्तन करता है। और (कदाचित् अन्य लेश्यावाला होकर मरण करता है।) [2] एवं गोललेस्सा काउलेस्सा वि / [1203-2] इसी प्रकार नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या वाले (पृथ्वीकायिक के उत्पाद और उद्वर्तन के सम्बन्ध में) भी (समझ लेना चाहिए।) [3] से गूणं भंते ! तेउलेस्से पुढविक्काइए तेउलेस्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जइ ? * पुच्छा / हंता गोयमा ! तेउलेसे पुढविकाइए तेउलेसेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति; सिय कण्हलेसे उवट्टइ, सिय गीललेसे उब्वट्टइ, सिय काउलेसे उव्वदृति; तेउलेसे उववज्जति, णो चेव णं तेउलेस्से उन्वट्टति / [1203-3 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक क्या तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तेजोलेश्या वाला हो कर ही उद्वर्तन करता है ? , (इत्यादि पूर्ववत्) पृच्छा / [1203-3 उ.] हाँ, गौतम ! तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक तेजोलेश्या वाले पृथ्वी कायिकों में ही उत्पन्न होता है, (किन्तु) उद्वर्तन कदाचित् कृष्णलेश्या वाला हो कर, कदाचित् नीललेश्या वाला हो कर, कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर करता है, (वह) तेजोलेश्या से युक्त हो कर उत्पन्न होता है, (परन्तु) तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वर्त्तन नहीं करता / [4] एवं प्राउक्काइय-वणप्फइकाइया वि। [1203-4] अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की (उत्पाद-उद्वर्तनसम्बन्धी) वक्तव्यता भी इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों के समान) समझनी चाहिए। Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : तृतीय उद्देशक] [285 [5] तेऊ वाऊ एवं चेव / णवरं एतेसि तेउलेस्सा णस्थि / [1203-5] तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की (उत्पाद-उदवर्तनसम्बन्धी वक्तव्यता) इसी प्रकार है (किन्तु) विशेषता यह है कि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। 1204. बिय-तिय चरिंदिया एवं चेव तिसु लेसासु / [1204] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का (उत्पाद-उद्वर्तन सम्बन्धी कथन) भी इसी प्रकार तीनों (कृष्ण, नील एवं कापोत) लेश्याओं में जानना चाहिए। 1205. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणसा य जहा पुढविक्काइया श्रादिल्लियासु तिसु लेस्सासु भणिया (सु. 1203 [१-२])तहा छसु वि ल सासु भाणियन्वा / णवरं छप्पि ले सानो चारियव्वाप्रो / (1205] पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों का (उत्पाद-उदवर्तन सम्बन्धी) कथन भी छहों लेश्याओं में उसी प्रकार है, जिस प्रकार (सू. 1203-1-2 में) पृथ्वीकायिकों का (उत्पादउद्वर्तन-सम्बन्धी कथन) प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (के विषय) में कहा है। विशेषता यही है कि (पूर्वोक्त तीन लेश्या के बदले यहाँ) छहों लेश्याओं का कथन (अभिलाप) करना चाहिए। 1206. वाणमंतरा जहा असुरकुमारा (सु. 1202) / [1206] वाणव्यन्तर देवों की (उत्पाद-उद्वर्तन-सम्बन्धी वक्तव्यता सू. 1202 में उक्त) असुरकुमारों (की वक्तव्यता) के समान (जाननी चाहिए / ) 1207. [1] से गूणं भंते ! तेउलेस्से जोइसिए तेउल सेसु जोइसिएसु उवज्जति ? जहेव असुरकुमारा। [1207-1 प्र.) भगवन् ! क्या तेजोलेश्या वाला ज्योतिष्क देव तेजोलेश्या वाले ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न होता है ? (क्या वह तेजोलेश्यायुक्त हो कर ही च्यवन करता है ?) [1207-1 उ.] जैसा असुरकुमारों के विषय में कहा गया है, वैसा ही कथन ज्योतिष्कों के विषय में समझना चाहिए / [2] एवं वैमाणिया वि / नवरं दोण्ह वि चयंतीति अभिलावो। [1207-2] इसी प्रकार वैमानिक देवों के उत्पाद और उद्वर्तन के विषय में भी कहना चाहिए / विशेषता यह है कि दोनों प्रकार के (ज्योतिष्क और वैमानिक) देवों के लिए ('उद्वर्तन करते हैं, इसके स्थान में) 'च्यवन करते हैं ऐसा अभिलाप (करना चाहिए।) विवेचन-लेश्यायुक्त चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद-उद्वर्तन-प्ररूपणा–प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1201 से 1207 तक) में लेश्या की अपेक्षा से चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की उत्पाद और उद्वर्तन की प्ररूपणा की गई है। नारकों और देवों में उत्पाद और उद्वर्तन का नियम-जीव जिस लेश्यावाला होता है, वह उसी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है तथा उसी लेश्या वाला होकर वहाँ से उद्वर्तन करता (मरता) Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] [ प्रज्ञापनासूत्र है / उदाहरणार्थ-कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है और जब उद्वर्तन करता है, तब कृष्णलेश्या वाला होकर ही उद्वर्त्तन करता है, अन्य लेश्या से युक्त होकर नहीं। इसका कारण यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अथवा मनुष्य पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चायु अथवा मनुष्यायु का पूरी तरह से क्षय होने से अन्तमुहर्त पहले उसी लेश्या से युक्त हो जाता है, जिस लेश्या वाले नारक में उत्पन्न होने वाला होता है। तत्पश्चात् उसी अप्रतिपतित परिणाम से नरकायु का बेदन करता है / अतएव कहा है-कृष्णलेश्या वाला नारक कृष्णलेश्या वाले नारकों में ही उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न नहीं होता। तत्पश्चात् वहाँ कृष्णलेश्या वाला ही बना रहता है, उसको लेश्या बदलती नहीं है; क्योकि देवों और नारको कोलेश्या भव का क्षय होने तक बदलतो नहीं है। इसी प्रकार नीललेश्या वाला या कापोतलेश्या वाला नारक उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है, अन्य लेश्या वालों में नहीं और न अन्य लेश्या वाला नोललेश्या या कापोतलेश्या वालों में उत्पन्न होता है। नारकों की उदवर्तना के सम्बन्ध में भी यही नियम है कि नीललेश्या वालों में उत्पन्न नारक नीललेश्या युक्त होकर ही वहाँ से उद्वृत्त होता है, अन्य लेश्यायुक्त होकर नहीं।' पृथ्वीकायिक प्रादि को उद्वर्तना के सम्बन्ध में-पृथ्वीकायिक आदि तिर्यञ्चों और मनुष्यों को उद्वर्तना के विषय में यह नियम एकान्तिक नहीं है कि जिस लेश्या वालों में वह उत्पन्न हो, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करे / वह कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर और कदाचित् कापोतलेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है तथा कदाचित् वह जिस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है, उसी लेश्या वाला होकर उद्वर्तन करता है / इसका कारण यह है कि तिर्यञ्चों और मनुष्यों का लेश्या-परिणाम अन्तर्मुहूर्त्तमात्र स्थायी रहता है, उसके पश्चात् बदल जाता है। अतएव जो पृथ्वीकायिकादि जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, वह कदाचित् उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है। तेजोलेश्या से युक्त पृथ्वीकायिक उत्पन्न तो होता है लेकिन तेजोलेश्या से युक्त होकर उद्वत्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि जब भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान कल्पों के देव तेजोलेश्या से युक्त होकर अपने भव का त्याग करके पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होते हैं, तब कुछ काल तक अपर्याप्त अवस्था में उनमें तेजोलेश्या भी पाई जाती है, किन्तु उसके पश्चात् तेजोलेश्या नहीं रहती, क्योंकि पृथ्वीकायिक जीव अपने भव-स्वभाव से ही तेजोलेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं / इस अभिप्राय से कहा है कि तेजोलेश्या से युक्त होकर पृथ्वीकायिक उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्या से युक्त होकर उवृत्त नहीं होता। पृथ्वोकायिकों की तरह अप्कायिकादि की चार वक्तव्यताएँ—जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों की कृष्ण, नील, कापोत एवं तेजोलेश्या सम्बन्धी चार वक्तव्यताएँ कही हैं, उसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों की भी चार वक्तव्यताएँ कहनी चाहिए, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में उनमें भी तेजोलेश्या पाई जाती है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 353 2. 'अंतोमुत्तमि गए, सेसए पाउं (चेव) / लेसाहि परिणयाहिं जीवा बच्चंति परलोयं / / ' 3. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 354 Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक ] [ 287 तेजस्कायिकों, वायुकायिकों तथा विकलेन्द्रियों में तीन वक्तव्यताएं-तेजस्कायिकों, वायुकायिकों और विकलेन्द्रियों में तेजोलेश्या नहीं होती, क्योंकि उसका होना संभव नहीं है / ' / सामूहिक लेश्या की अपेक्षा से चौवीसदण्डकों में उत्पाद-उद्वर्तननिरूपण 1208. से पूणं भंते ! कण्हले स्से णीलले स्से काउल स्से णेरइए कण्हल स्सेसु णीले स्सेसु काउले स्सेसु र इएसु उववज्जति ? कण्हले स्से णोलले स्से काउले स्से उव्वट्टति जल्ले से उववज्जति तल्ले से उध्वट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हल स्स-णीलले स्स-काउले स्सेसु उववज्जति, जल्ल से उववज्जति तस्ले से उब्वति / |1208 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाला नैरयिक क्या क्रमश: कृष्णलेश्या वाले, नीललेश्या वाले और कापोतलेश्या बाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? क्या वह (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाला, नीललेश्या वाला तथा कापोतलेश्या वाला होकर ही (वहाँ से) उद्वर्तन करता है ? (अर्थात्-) (जो नारको जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, क्या वह उसी लेश्या से युक्त होकर मरण करता है ? [1208 उ.] हाँ, गौतम ! (वह क्रमश:) कृष्णलेश्या, नीललश्या और कापोतलेश्या वाले न होता है और जो नारक जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, वह उसी लेश्या से युक्त होकर मरण करता है। 1206. से गूणं भंते ! कण्हल स्से जाव तेउले स्से असुरकुमारे कण्हल स्सेसु जाव तेउले स्सेसु असुरकुमारेसु उववज्जति ? एवं जहेव नेरइए (सु. 1208) तहा असुरकुमारे वि जाव थणियकुमारे वि / [1206 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला, यावत् तेजोलेश्या वाला असुरकुमार (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? (और क्या वह कृष्णलेश्या वाला यावत् तेजोलेश्या वाला होकर ही असुरकुमारों से उबृत्त होता है ?) [1206 उ.] हाँ, गौतम ! जैसे (स. 1208 में) नैरयिक के उत्पाद-उद्वर्त्तन के सम्बन्ध में कहा, वैसे ही असुरकुमार के विषय में भी, यावत् स्तनितकुमार के विषय में भी कहना चाहिए। 1210. [1] से गणं भंते ! कण्हले स्से जाव तेउल स्पे पुढविकाइए कण्हल स्सेसु जाव तेउले स्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति ? एवं पुच्छा जहा असुरकुमाराणं / ____ हंता गोयमा ! कण्हल स्से जाव ते उल्ले से पुढविक्काइए कण्हले स्सेसु जाव तेउल स्सेसु पुढविक्काइएसु उववज्जति, सिय कण्हले स्से उव्वट्टति सिय णीलले से सिय काउल स्से उध्वदृति, सिय जल्ले स्से उववज्जइ तल्ले से उबट्टइ, तेउल स्से उववज्जइ, जो चेव णं तेउले स्से उव्वदृति / _ [1210-1 प्र. भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला यावत् तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक, क्या (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? (और क्या वह 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 354 Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 ] [ प्रज्ञापनासूत्र जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त होता है ? इस प्रकार जैसी पृच्छा असुरकुमारों के विषय में की गई है, वैसी ही यहाँ भी समझ लेनी चाहिए / [1210-1 उ.] हाँ गौतम ! कृष्णलेश्या वाला यावत् तेजोलेश्या वाला पृथ्वीकायिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है, (किन्तु कृष्णलेश्या में उत्पन्न होने वाला वह पृथ्वीकायिक) कदाचित् कृष्णलेश्यायुक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है तथा कदाचित् कापोतलेश्या से युक्त होकर उदवर्तन करता है, कदाचित् जिस लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या बाला हो उदवर्तन करता है। (विशेष यह है कि वह) तेजोलेश्या से युक्त होकर उत्पन्न तो होता है, किन्तु तेजोलेश्या वाला होकर उद्वृत्त नहीं होता। [2] एवं प्राउक्काइय-वणप्फइकाइया वि भागियन्वा / (1210-2] अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों के (सामूहिक रूप से उत्पाद-उद्वर्तन के) विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। [3] से णणं भंते ! कण्हले स्से गीलले स्से काउले स्से तेउक्काइए कण्हल सेसु गीलले सेसु काउलेसेसू तेउक्काइएसु उववज्जति ? कण्हलेसे गीलले से काउलेसे उन्धट्टति ? जल्लेसे उवचज्जति तल्ले से उन्बट्टति ? हंता गोयमा ! कण्हले स्से गोलले स्से काउले स्से तेउक्काइए कण्हले सेसु णोलले सेसु काउल सेसु तेउक्काइएसु उववज्जति, सिय कण्हल से उव्वट्टति सिय णोलले से सिय काउले स्से उन्वट्टति, सिय जल्ल से उववज्जति तल्ले से उब्वति / [1210-3 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाला तेजस्कायिक, (क्रमशः) कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में ही उत्पन्न होता है ? तथा क्या वह (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाला, नीललेश्या वाला तथा कापोतलेश्या वाला होकर ही उद्वत्त होता है ? (अर्थात् वह) जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, क्या उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वृत्त होता है ? [1210.3 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाला तेजस्कायिक, (क्रमशः) कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले तेजस्कायिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु कदाचित् कृष्णलेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, कदाचित् नीललेश्या से युक्त होकर, कदाचित् कापोत लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है / (अर्थात्) कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, (कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है।) [4] एवं वाउफ्काइया बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया वि भाणियध्वा / [1210-4] इसी प्रकार वायुकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के (उत्पादउद्वर्तन के) सम्बन्ध में कहना चाहिए। 1211. से गूणं भंते ! कण्हले से जाव सुक्कले से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हले सेसु जाव सुक्कल सेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जति ? पुच्छा। Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यायद : तृतीय उद्देशक (289 हता गोयमा ! कण्हलेस्से जाव सुक्कलेस्से पंचेंदियतिरिक्खजोणिए कण्हलेस्सेसु जाव सुक्कलेस्सेसु पंचेंदियतिरिक्वजोणिएसु उववज्जति, सिय कण्हलेस्से उव्वदृति जाव सिय सुक्कलेस्से उन्नति, सिय जल्ल से उववज्जति तल्लेसे उन्चट्टति / [1211 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला यावत् शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमश:) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है ? और क्या उसी कृष्णादि लेश्या से युक्त होकर (मरण) करता है ? इत्यादि पृच्छा / [1211 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या वाला यावत् शुक्ललेश्या वाला पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक (क्रमशः) कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु उद्वर्त्तन (मरण) कदाचित् कृष्णलेश्या वाला होकर करता है, कदाचित् नीललेश्या वाला होकर करता है, यावत् कदाचित् शुक्ललेश्या से युक्त होकर करता है, (अर्थात्) कदाचित् जिस लेश्या से युक्त होकर उत्पन्न होता है, उसी लेश्या से युक्त होकर उद्वर्तन करता है, (कदाचित् अन्य लेश्या से युक्त होकर भी उद्वर्तन करता है।) 1212. एवं मणसे वि। [1212] मनुष्य भी इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान छहों लेश्यामों में से किसी भा लेश्या से युक्त होकर उसी लेश्या वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा इसका उद्वर्तन भी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान) समझना चाहिए।) 1213. वाणमंतरे जहा असुरकुमारे (सु. 1209) / [1213] वाणव्यन्तर देव का (सामूहिक लेश्यायुक्त उत्पाद और उद्वर्तन सू. 1206 में उक्त) असुरकुमार की तरह समझना चाहिए। 1214. जोइसिय-वेमाणिए वि एवं चेव / नवरं जस्स जल्लेसा, दोण्ह वि चयणं ति भाणियन्वं / [1214] ज्योतिष्क और वैमानिक देव का उत्पाद-उद्वर्तनसम्बन्धी कथन भी इसी प्रकार (असुरकुमारों के समान) ही समझना चाहिए। विशेष यह है कि जिसमें जितनी लेश्याएँ हों, उतनी लेश्याओं का कथन करना चाहिए तथा दोनों (ज्योतिष्कों और वैमानिकों) के लिए उद्वर्तन के स्थान में 'च्यवन' शब्द कहना चाहिए। विवेचन-चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का लेश्या को अपेक्षा से सामूहिक उत्पाद-उद्वर्तन सम्बन्धी निरूपण-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1208 से 1214 तक) में चौवीसदण्डकवर्ती प्रत्येक दण्डकीय जीव की संभावित लेश्याओं को लेकर सामूहिक रूप से उत्पाद-उद्वर्तन की पुन: प्ररूपणा की गई है / इन सूत्रों के पुनरावर्तन का कारण-यद्यपि नारकों से वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से प्रत्येक दण्डक के जीव की एक-एक लेश्या को लेकर उत्पाद और उद्वर्त्तनसम्बन्धी प्ररूपणा पूर्वसूत्रों (1201 से 1207 तक) में की जा चुकी है, तथापि विभिन्न लेश्या वाले बहत-से नारकों के उस-उस गति में उत्पन्न होने की स्थिति में अन्यथा वस्तुस्थिति की संभावना की जा सकती है, क्योंकि एक Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29 0] [ प्रज्ञापनासूत्र एक में रहने वाले धर्म की अपेक्षा समुदाय का धर्म कहीं अन्य प्रकार का भी देखा जाता है / इसी पाशंका के निवारणार्थ जिनमें जितनी लेश्याएँ सम्भव हैं, उनकी उतनी सब लेश्याओं को एक साथ लेकर पूर्वोक्त विषय सामूहिकरूप से पुनः सूत्रबद्ध किया गया है।' कृष्णादिलेश्या वाले नैरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य 1215. [1] कण्हलेस्से गं भंते ! रइए कण्हलेस्सं रइयं पणिहाए प्रोहिणा सम्वनो समंता सममिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणति ? केवतियं खेत्तं पासई? गोयमा ! णो बहुयं खितं जाणति णो बहुयं खेत्तं पासइ, णो दूरं खेत्तं जाणति णो दूरं खेत्तं पासति, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ इत्तरियमेव खेत्तं पासति / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति कण्हलेसे णं णेरइए तं चेव जाव इत्तरियमेव खेतं पासति ? गोयमा! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जसि भूमिभागसि ठिच्चा सवप्रो समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगतं पुरिसं पणिहाए सम्वनो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे णो बहुयं खेत्तं जाव पासति जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासइ।। सेएणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चति कण्हलेसे णं णेरइए जाव इत्तरियमेव खेत्तं पासति / [1215-1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला नैरयिक कृष्णलेश्या वाले दूसरे नैरयिक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) के द्वारा सभी दिशाओं और विदिशाओं में (सब ओर) समवलोकन करता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और (अवधिदर्शन से) कितने क्षेत्र को देखता है ? [1215-1 उ.] गौतम ! (एक कृष्णलेश्यी नारक दूसरे कृष्णालेश्यावान् नरक की अपेक्षां) न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहुत क्षेत्र को देखता है, (वह) न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को जानता है और न बहुत दूरवर्ती क्षेत्र को देख पाता है, (वह) थोड़े-से अधिक क्षेत्र को जानता है और थोडे-से ही अधिक क्षेत्र को देख पाता है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या युक्त नारक न बहुत क्षेत्र को जानता है." (इत्यादि) यावत् थोड़े-से ही क्षेत्र को देख पाता है ? उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भू-भाग पर स्थित होकर चारों ओर (सभी दिशाओं और विदिशाओं में) देखे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित (किसी दूसरे) पुरुष की अपेक्षा से सभी दिशाओं-विदिशाओं में बारबार देखता हुआ न तो बहुत अधिक क्षेत्र को जानता है और न बहत अधिक क्षेत्र देख पाता है, यावत् (वह) थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जानता और देख पाता है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नारक""""यावत् थोड़े ही क्षेत्र को देख पाता है। [2] णोललेसे गं भंते ! रइए कण्हलेसं गैरइयं पणिहाय प्रोहिणा सम्वनो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 355 Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : तृतीय उद्देशक ] [291 गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणति बहुतरागं खेत्तं पासति, दूरतरागं खेत्तं जाणइ दूरतरागं खेतं पासति, वितिमिरतरागं खेतं जाणइ वितिमिरतरागं खेतं पासइ, विसुद्धतरागं खेतं जाणति विसुद्धतरागं खेत्तं पासति / से केणठेणं भंते ! एवं उच्चति गोललेस्से णं णेरइए कण्हलेस्सं गेर इयं पणिहाय जाव विसुद्धतरागं खेतं पासइ ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जानो भूमिभागानो पव्वयं दुरूहति, दुरूहित्ता सम्वनो समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे धरणितलगयं पुरिसं पणिहाय सध्वयो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे बहुतरागं खेतं जाणइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासति / ___ से एतेणठेणं गोयमा! एवं वुच्चति गोललेस्से रइए कण्हलेस्सं गेरइयं जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासति / [1215-2 प्र.] भगवन् ! नीललेश्या वाला नारक, कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा सभी दिशाओं और विदिशाओं में अवधि (ज्ञान) के द्वारा देखता हुआ कितने क्षेत्र को जानता है और कितने * क्षेत्र को (अवधिदर्शन से) देखता है ? [1215-2 उ.] गौतम ! (वह नीललेश्यी नारक कृष्णलेश्यी नारक की अपेक्षा) बहुतर क्षेत्र को जानता है और बहुतर क्षेत्र को देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता है और दूरतर क्षेत्र को देखता है, . (वह) क्षेत्र को वितिमिरतर (भ्रान्तिरहित रूप से) जानता है तथा क्षेत्र को वितिमिरतर देखता है, (वह) क्षेत्र को विशुद्धतर (अत्यन्त स्फुट रूप से) जानता है तथा क्षेत्र को विशुद्धतर (रूप से) देखता है। [प्र.] भगवन ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या वाला नारक. कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता है तथा क्षेत्र को विशुद्धतर देखता है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अतीव सम, रमणीय भूमिभाग से पर्वत पर चढ़ कर सभी दिशाओं-विदिशाओं में अवलोकन करे, तो वह पुरुष भूतल पर स्थित पुरुष को अपेक्षा, सब तरफ देखता-देखता हुआ बहुतर क्षेत्र को जानता-देखता है, यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या वाला नारक, कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा क्षेत्र को यावत् विशुद्धतर (रूप से) जानता-देखता है / [3] काउलेसे णं भंते ! गैरइए णीललेस्सं रइयं पणिहाय प्रोहिणा सम्वनो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे केवतियं खेत्तं जाणइ ? केवतियं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! बहुतरागं खेत्तं जाणइ बहुतरागं खेत्तं पासइ जाव विसुद्धतरागं खेत्तं पासइ ? से केण?णं भंते ! एवं बुच्चति काउलेसे णं णेरइए.जाव विसुद्धतराग खेत्तं पासति ? गोयमा ! से जहाणामए केइ पुरिसे बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाप्रो पव्वतं दुरूहति, दुरूहित्ता रुक्खं दुरूहति, दुरूहित्ता दो वि पादे उच्चाविय सव्वप्रो समंता समभिलोएज्जा, तए णं से पुरिसे पव्वतगयं धरणितलगयं च युरिसं पणिहाय सम्वनो समंता समभिलोएमाणे समभिलोएमाणे बहुतराग खेतं जाणति बहुतराग खेतं पासति जाव वितिमिरतरागं( विसुद्धतराग) खेत्तं पासइ / Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [ प्रज्ञापनासून सेएणठेणं गोयमा! एवं वच्चति काउलेस्से णं णेरइए णीललेस्सं रइयं पणिधाय तं चेव जाव वितिमिरतरागं( विसुद्धतरागं) खेत्तं पासति / - [1215-3 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वाला नारक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा अवधि (ज्ञान) से सभी दिशाओं-विदिशाओं में (सब ओर) देखता-देखता कितने क्षेत्र को जानता है कितने (अधिक) क्षेत्र को देखता है ? [1215-3 उ.] गौतम ! (वह कापोतलेश्यी नारक नीललेश्यी नारक की अपेक्षा) बहुतर क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है, दूरतर क्षेत्र को जानता है, दूरतर क्षेत्र को देखता है तथा यावत् क्षेत्र को विशुद्धतर (रूप से) जानता-देखता है। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि कापोतलेश्यी नारक,..."यावत् विशुद्धतर क्षेत्र को जानता-देखता है ? [उ.] गौतम ! जैसे कोई पुरुष अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से पर्वत पर चढ़ जाए, फिर पर्वत से वृक्ष पर चढ़ जाए, तदनन्तर वृक्ष पर दोनों पैरों को ऊँचा करके चारों दिशाओं-विदिशाओं में (सब पोर) जाने-देखे तो वह बहुत क्षेत्र को जानता है, बहुतर क्षेत्र को देखता है यावत् उस क्षेत्र को निर्मलतर (विशुद्धतर रूप से) जानता-देखता है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कापोतलेश्या वाला नैरयिक नीललेश्या वाले नारक की अपेक्षा........यावत् (अधिक) क्षेत्र को वितिमिरतर (निर्मलतर एवं विशुद्धतर रूप से) जानता और देखता है। विवेचन—कृष्णादिलेश्या वाले नरयिकों में अवधिज्ञान-दर्शन से जानने-देखने का तारतम्य---- प्रस्तुत सूत्र (1215-1, 2. 3) में कृष्णादिलेश्या विशिष्ट नारकों के द्वारा अवधिज्ञान-दर्शन से जाननेदेखने के तारतम्य का निरूपण किया गया है। कष्णलेश्यो दो नारकों में अवधिज्ञान से जानने-देखने में अधिक अन्तर नहीं- कृष्णलेश्यी एक नारक दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं जानता-देखता, थोड़े-से ही अधिक क्षेत्र को जानता-देखता है / इस कथन का तात्पर्य यह है कि एक कृष्णलेश्यी दूसरे कृष्णलेश्यी नारक से योग्यता में विशुद्धि वाला होने पर भी बहुत अधिक दूरवर्ती क्षेत्र को अवधिज्ञान-दर्शन से नहीं जान-देख पाता, बल्कि थोड़े ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है / यह कथन एक ही नरकपृथ्वी के नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सातवीं नरक का कृष्णलेश्यी नारक जघन्य प्राधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ जानता है, जबकि छठी नरक का कृष्णलेश्यावान् नारक जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट डेढ गाऊ जानता है; पांचवीं-छठी नरकपृथ्वी वाला कृष्णलेश्यी नारक जघन्य डेढ गाऊ और उत्कृष्ट किञ्चित् न्यून दो गाऊ जानता है / इस प्रकार विविध पृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों के जानने-देखने में अन्तर होने से दोषापत्ति होगी; इसलिए एक ही नरकपृथ्वी के कृष्णलेश्यी नारकों की अपेक्षा से यह कथन यथार्थ है / अधिक न देखने-जानने का कारण यह है कि जैसे दो व्यक्ति समतल भूमि पर खड़े होकर इधर-उधर देखें तो उनमें से एक अपने नेत्रों की निर्मलता के कारण भले अधिक देखे किन्तु कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख सकता है, बहुत अधिक दूर तक नहीं। इसी प्रकार कोई कृष्णलेश्यी नारक अपनी योग्यतानुसार दूसरे नारक की अपेक्षा अतिविशुद्ध हो तो भी वह कुछ ही अधिक क्षेत्र को जान-देख पाता है, बहुत अधिक क्षेत्र को नहीं / ' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 356 Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापर : तृतीय उद्देशक ] [ 293 नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले का उत्तरोत्तर स्फुट ज्ञान-दर्शन-(१) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूभाग से पर्वतारूढ़ होकर चारों ओर देखे तो वह भूतल पर खड़े हुए पुरुष की अपेक्षा क्षेत्र को दूर तक, अधिक स्पष्ट, विशुद्धतर जानता-देखता है, वैसे ही नीललेश्या वाला नारक भूमितलस्थानीय कृष्णलेश्या वाले नारक की अपेक्षा अपने अवधिज्ञान से क्षेत्र को अतीव दूर तक निर्मलतर, विशुद्धतर जानता-देखता है / (2) जैसे कोई व्यक्ति समतल भूमि से पर्वतारूढ होकर और फिर वहाँ वृक्ष पर चढ़ कर, दोनों पैर ऊँचे करके देखे तो वह नीचे भूतल पर स्थित और पर्वत पर स्थित पुरुषों की अपेक्षा अधिक दूरतर क्षेत्र को अतीव स्फुट एवं विशुद्धतर देखता है, वैसे ही वक्षस्थानीय कापोतलेश्या वाला, पर्वतस्थानीय नीललेश्यावान् एवं भूमितलस्थानीय कृष्णलेश्यावान् की अपेक्षा अवधिज्ञान से बहुत दूर तक के क्षेत्र को विशुद्धतर जानता-देखता है।' कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान की प्ररूपणा 1216. [1] कण्हलेस्से णं भंते ! जोवे कतिसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा णाणेसु हुज्जा, दोसु होमाणे प्राभिणिबोहिय-सुयणाणेसु होज्जा, तिसु होमाणे प्राभिणिबोहिय-सुयणाण-प्रोहिणाणेसु होज्जा, अहवा तिसु होमाणे प्राभिणिबोहिय-सुयणाण-मणपज्जवणाणेसु होज्जा, चउसु होमाणे प्राभिणिबोहियणाण-सुयणाण-प्रोहिणाणमणपज्जवणाणेसु होज्जा। . [1216-1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? __ [1216-1 उ.] गौतम ! (वह) दो, तीन अथवा चार ज्ञानों में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो प्राभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में होता है, तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञान में होता है, अथवा तीन (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक श्रुतज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में होता है और चार ज्ञानों में हो तो प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में होता है। [2] एवं जाव पम्हलेस्से। [1216-2] इसी प्रकार (नील, कापोत और तेजोलेश्या) यावत् पद्मलेश्या बाले जीव में पूर्वोक्त सूत्रानुसार ज्ञानों की प्ररूपणा समझ लेना चाहिए। 1217. सुक्कलेस्से णं भंते ! जीवे कइसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! दोसु वा तिसु वा च उसु वा एगम्मि वा होज्जा, दोसु होमाणे प्राभिणिबोहियणाण 0 एवं जहेव कण्हलेस्साणं (सु. 1226 [1]) तहेव भाणियन्वं जाव चहि, एगम्मि होमाणे एगम्मि केवलणाणे होज्जा। ॥पण्णवणाए भगवतीए लेस्सापदे ततिप्रो उद्देसमो समत्तो / [1217 प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वाला जीव कितने ज्ञानों में होता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 356 Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 ] [प्रज्ञापनासूत्र [1217 उ.] गौतम ! शुक्ललेश्यी जीव दो, तीन, चार या एक ज्ञान में होता है। यदि दो (ज्ञानों) में हो तो आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान में होता है, तीन या चार ज्ञानों में हो तो (सू. 1216-1 में) जैसा कृष्णलेश्या वालों का कथन किया था, उसी प्रकार यावत् चार ज्ञानों में होता है, यहाँ तक कहना चाहिए / यदि एक ज्ञान में हो तो एक केवलज्ञान में होता है / विवेचन-कृष्णादिलेश्यायुक्त जीवों में ज्ञान-प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों (1216-1217) में कृष्णलेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक से युक्त जीव पांच ज्ञानों में से कितने ज्ञानों वाला होता है ? इसका प्रतिपादन किया गया है। अवधिज्ञानरहित मनःपर्यायज्ञान-किसी किसी में अवधिज्ञानरहित मन:पर्यायज्ञान भी होता है, 'सिद्धप्राभूत' आदि ग्रन्थों में इसका अनेकबार प्रतिपादन किया गया है तथा प्रत्येक ज्ञान की क्षयोपशमसामग्रो विचित्र होती है। आमर्ष-प्रौषधि आदि लब्धियों से युक्त किसी अप्रमत्त चारित्री को विशिष्ट विशुद्ध अध्यवसाय में मनःपर्यायज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त हो जाती है, किन्तु अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम की सामग्री प्राप्त नहीं होती। उसे अवधिज्ञान के बिना भी मनःपर्यायज्ञान होता है। कृष्णलेश्यावान् में मनःपर्यायज्ञान कसे? यहाँ शंका हो सकती है कि मनःपर्यायज्ञान तो अतिविशुद्ध परिणाम वाले व्यक्ति को होता है और कृष्णलेश्या संक्लेशमय परिणाम रूप होती है / ऐसी स्थिति में कृष्णलेश्या वाले जीव में मनःपर्यायज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक लेश्या के अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों जितने हैं। उनमें से कोई-कोई मन्द अनुभाव वाले अध्यवसायस्थान होते हैं, जो प्रमत्तसंयत में पाए जाते हैं / यद्यपि मन:पर्यायज्ञान अप्रमत्तसंयत जीव को ही उत्पन्न होता है, परन्तु उत्पन्न होने बाद वह प्रमत्तदशा में भी रहता है। इस दृष्टि से कृष्णलेश्यावाला जीव भी मन:पर्यायज्ञानी हो सकता है।' शुक्ललेश्या वाले की विशेषता-शुक्ललेश्या वाला जीव केवलज्ञान में भी हो सकता है। केवलज्ञान शुक्ललेश्या के ही होता है अन्य किसी में नहीं / यही अन्य लेश्या वालों से शुक्ललेश्या वाले को विशेषता है। / / सत्तरहवां लेश्यापद : तृतीय उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 357 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 358 Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसम लेस्सापयं : चउत्थो उद्देसओ ___सत्तरहवां लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक चतुर्थ उद्देशक के अधिकारों की गाथा 1218. परिणाम 1 वण्ण 2 रस 3 गंध 4 सुद्ध 5 अपसस्थ 6 संकिलिठ्ठण्हा 7-8 / गति 6 परिणाम 10 पदेसावगाह 11-12 वग्गण 13 ठाणाणमप्पहुं 14-15 // 210 // [1218 चतुर्थ उद्देशक की अधिकार गाथा का अर्थ--] (1) परिणाम, (2) वर्ण, 1 (3) रस, (4) गन्ध, (5) शुद्ध (अशुद्ध), (6) (प्रशस्त-) अप्रशस्त, (7) संक्लिष्ट (-असंक्लिष्ट), (8) उष्ण (शीत), (8) गति, (10) परिणाम, (11) प्रदेश (-प्ररूपणा), (12) अवगाह, (13) वर्गणा, (14) स्थान (-प्ररूपणा) और अल्पबहुत्व, (ये पन्द्रह अधिकार चतुर्थ उद्देशक में कहे जाएँगे) / / 210 / / लेश्या के छह प्रकार 1216. कति णं भंते ! लेस्साप्रो पण्णत्तायो ? गोयमा ! छल्लेसानो पण्णत्तायो / तं जहा–कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1219 प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? [1216 उ.] गौतम ! लेश्याएँ छह हैं / वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। प्रथम परिणामाधिकार-- 1220. से गूणं भंते ! कण्हलेस्सा गोललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो-भज्जो परिणमति / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति? गोयमा ! से जहाणामए खीरे दूसिं पप्प सुद्ध वा वस्थे रागं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति / सेएणठेणं गोयमा! एवं वच्चइ कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भज्जो परिणमति। [1220 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त हो कर उसी रूप में, उसी के वर्णरूप में, उसी के गन्धरूप में, उसी के रसरूप में, उसी के स्पर्शरूप में पुनः पुनः परिणत होती है ? Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [ प्रज्ञापनासून [1220 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी रूप में यावत् पुनः पुनः परिणत होती है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त करके उसी रूप में यावत् बार-बार परिणत होती है ? [उ.] गौतम ! जैसे छाछ आदि खटाई का जावण (दूष्य) पाकर दूध, अथवा शुद्ध वस्त्र, रंग (लाल, पीला आदि का सम्पर्क) पाकर उस रूप में, उसी के वर्ण-रूप में, उसो के गन्ध-रूप में, उसी के रस-रूप में, उसी के स्पर्श-रूप में पुनः पुनः परिणत हो जाता है, इसी प्रकार हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्ण लेश्या नीललेश्या को पा कर उसी के रूप में यावत् पुनः पुन: परिणत होती है / 1221. एवं एतेणं अभिलावेणं णीललेस्सा काउलेस्सं पप्प, काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सं पप्प जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / [1221] इसी प्रकार [पूर्वोक्त) कथन (अभिलाप) के अनुसार नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर, कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उसी के रूप में और यावत् (उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) पुनः पुनः परिणत हो जाती है / 1222. से गणं भंते ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्स पप्प तारूवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पाप तारूवत्ताए तावन्नत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति / से केण?णं भंते ! एवं वृच्चति किण्हलेस्सा गोललेस्सं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? गोयमा ! से जहाणामए वेरुलियमणी सिया किण्णसुत्तए वा गोलसुत्तए वा लोहियसुत्तए वा हालिहसुत्तए वा सुकिल्लसुत्तए वा प्राइए समाणे तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / सेएणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ किण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / [1222 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में (उनमें से किसी भी लेश्या के रूप में), उन्हीं के वर्ण रूप में, उन्हीं के गन्धरूप में, उन्हीं के रसरूप में, उन्हीं के स्पर्शरूप में पुनः पुन: परिणत होती है ? [1222 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त हो कर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उनमें से किसी भी लेश्या के वर्णादिरूप में) पुनः पुन: परिणत होती है / [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या को यावत् शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप में) पुनः पुन परिणत हो जाती है ? Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहयां लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक] [297 [उ.] गौतम ! जैसे कोई वड्र्यमणि काले सूत्र में या नीले सूत्र में, लाल सूत्र में या पीले सूत्र में अथवा श्वेत (शुक्ल) सूत्र में पिरोने पर वह उसी के रूप में यावत् (उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) पुनः पुनः परिणत हो जाती है, इसी प्रकार हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या, नीललेश्या यावत शुक्ललेश्या को प्राप्त हो कर उन्हीं के रूप में यावत् उन्हीं के वर्णादिरूप में पुनः पुनः परिणत हो जाती है। 1223. से गूणं भंते ! णीललेस्सा किण्हस्लेसं जाव सुक्कलेस्सं पप्प तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? ___ हंता गोयमा! एवं चेव / [1223 प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या को पाकर उन्हीं के स्वरूप में यावत् (उन्हीं के वर्णादिरूप में) बार-बार परिणत होती है ? [1223 उ.] हाँ गौतम ! ऐसा ही है, (जैसा कि ऊपर कहा गया है / ) 1224. एवं काउलेस्सा कण्हलेस्सं णीललेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं, एवं तेउलेस्सा किण्हलेसं गोललेसं काउलेसं पम्हलेसं सुक्कलेसं, एवं पम्हलेस्सा कण्हलेसं णीललेसं काउलेसं तेउलेसं सुक्कलेस्स। [1224] इसी प्रकार कापोतलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर, इसी प्रकार तेजोलेश्या, कृष्णलेश्या, कापोतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर, इसी प्रकार पद्मलेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या को प्राप्त होकर (उनके स्वरूप में तथा उनके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में परिणत हो जाती है।) 1225. से गूणं भंते ! सुक्कलेस्सा किण्ह० णील० काउ० तेउ० पम्हलेस्सं पप्प जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा! एवं चेव / [1225 प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और पद्मलेश्या को प्राप्त होकर यावत् (उन्हीं के स्वरूप में तथा उन्हीं के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में) बार-बार परिणत होती है ? [1225 उ.] हाँ, गौतम ! ऐसा ही है, (जैसा कि ऊपर कहा गया है / ) विवेचन–प्रथम परिणामाधिकार--प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1220 से 1225) में कृष्णादि लेश्याओं की विभिन्न वर्णादिरूप में परिणत होने की प्ररूपणा की गई है। लेश्यानों के परिणाम की व्याख्या-परिणाम का अर्थ यहाँ परिवर्तन है / अर्थात्-एक लेश्या का दूसरी लेश्या के रूप में तथा उसी के वर्णादि के रूप में परिणत हो जाना लेश्यापरिणाम है। कृष्णलेश्या का नीललेश्या के रूप में परिणमन-प्रस्तुत में कृष्णलेश्या अर्थात्-कृष्णलेश्या Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 ] [ प्रज्ञापनासूत्र के द्रव्य, नीललेश्या को अर्थात-नीललेश्या के द्रव्यों को प्राप्त होकर, यानी परस्पर एक दूसरे के अवयवों के संस्पर्श को पाकर उसी के-नीललेश्या के रूप में अर्थात् नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बार-बार परिणत होती है / तात्पर्य यह है कि कृष्णलेश्या का स्वभाव नीललेश्या के स्वभाव के रूप में बदल जाता है / स्वभाव का किस प्रकार परिवर्तन होता है ? इसे विशद रूप में बताते हैंकृष्णलेश्या नीललेश्या के वर्ण के रूप में, गन्ध के रूप में, रस के रूप में और स्पर्श के रूप में परिणत-परिवर्तित हो जाती है। यह परिणमन अनेकों बार होता है। इसका प्राशय यह है कि जब कोई कृष्णलेश्या के परिणमन वाला मनुष्य या तिर्यञ्च भवान्तर में जाने वाला होता है और वह नीललेश्या के योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, तब नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से वे कृष्णलेश्या योग्य द्रव्य तथा रूप जीव-परिणामरूप सहकारी कारण को पा कर नीललेश्या के द्रव्य रूप में परिणत हो जाते हैं क्योंकि पूदगलों में विविध प्रकार से परिणत-परिवर्तित होने का स्वभाव है। तत्पश्चात् वह जीव केवल नीललेश्या के योग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के परिणमन से युक्त होकर काल करके भवान्तर में उत्पन्न होता है। यह सिद्धान्तवचन है कि १'जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता (मरता) है, उसी लेश्या वाला होकर उत्पन्न होता है', तथा वही तिर्यच अथवा मनुष्य उसी भव में विद्यमान रहता हुआ जब कृष्णलेश्या में परिणत होकर नीललेश्या के रूपस्वभाव में परिणत होता है, तब भी कृष्णलेश्या के द्रव्य तत्काल ग्रहण किये हुए नीललेश्या के द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के द्रव्यों के रूप में परिणत (परिवर्तित) हो जाते हैं। इसी तथ्य को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं--जैसे छाछ आदि किसी खट्टी वस्तु के संयोग से दूध के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में परिवर्तन हो जाता है, वह तक (छाछ) आदि के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार शुक्ल वस्त्र रक्त आदि किसी रंग का संयोग पाकर उसी रूप में पलट जाता है। इसी प्रकार कृष्णलेश्यायोग्य द्रव्यों का स्वरूप तथा उसके वर्ण-गन्धादि नीललेश्यायोग्य द्रव्यों के सम्पर्क से नीललेश्या के वर्णादिरूप में परिवर्तित हो जाते हैं। यहाँ तियंचों और मनुष्यों के लेश्या द्रव्यों का पूर्णरूप से तद्रूप में परिणमन माना गया है। देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य भवपर्यन्त स्थायी रहते हैं। पूर्व-पूर्व लेश्या का उत्तरोत्तर लेश्या के रूप में परिणमन-सूत्र 1220-1221 में यह बताया गया है कि पूर्व-पूर्व लेश्या उत्तर-उत्तर लेश्या को प्राप्त होकर उसी के वर्णादि रूप में परिणत हो जाती है। किसी भी एक लेश्या का अन्य समस्त लेश्याओं के रूप के परिणमन-सू. 1222 से 1225 तक यह बताया गया है कि कोई भी एक लेश्या क्रम से या व्युत्क्रम से किसी भी अन्य लेश्या के वर्णगन्धादिरूप में परिणत हो सकती है। किन्तु यहाँ यह ध्यान रखना है कि कोई भी एक लेश्या परस्पर विरुद्ध होने से एक ही साथ अनेक लेश्याओं में परिणत नहीं होती। एक लेश्या का अन्य सभी लेश्याओं में से किसी एक लेश्या के रूप में परिणमन कैसे हो जाता है ? इस सम्बन्ध में दृष्टान्त यह है कि जैसे एक ही वैडूर्यमणि उन-उन उपाधिद्रव्यों के सम्पर्क से उस-उस रूप में परिणत हो जाती है, इसी प्रकार एक लेश्याद्रव्य भी कृष्ण, नील आदि रूपों में परिणत हो जाते हैं। इसी अंश में दृष्टान्त की समानता समझनी चाहिए. अन्य अनिष्ट अंशों में नहीं। - प्रज्ञा. म. व., 6. 359 1. जल्लेसाई दब्वाइं परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेसे उववज्जइ। 2. प्रज्ञापनासूय मलय. वत्ति, पत्रांक 359-360 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 359-360 Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक द्वितीयवर्णाधिकार 1226. कण्हलेस्सा णं भंते ! वण्णेणं केरिसिया पण्णता? गोयमा ! से जहाणामए जीमूए इ वा अंजणे इ वा खंजणे इ वा कज्जले इ वा गवले इ वा गबलवलए इ वा जंबूफलए इ वा अद्दारिटुए इ वा परपुढे इ वा भमरे इ वा भमरावली इ वा गयकलभे इ वा किण्हकेले इ वा पागासथिग्गले इ वा किण्हासोए इ वा किण्हकणवीरए इ वा किण्हबंधुजीवए इ वा। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, किण्हलेस्सा णं एत्तो प्रणितरिया चेव अकंततरिया चेव अप्पियतरिया चेव प्रमणुष्णतरिया चेव प्रमणामतरिया चेक वष्णेणं पण्णत्ता / [1226 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वर्ण से कैसी है ? [1226 उ.] गौतम ! जैसे कोई जीमूत (वर्षारम्भकालिक मेघ) हो, अथवा (आँखों में आंजने का सौवीरादि) अंजन (काला सुरमा अथवा अंजन नामक रत्न) हो, अथवा खंजन (गाड़ी की धुरी में लगा हुआ कीट-औंधन, अथवा दीवट के लगा मैल (कालमल) हो, कज्जल (काजल) हो, गवल (भैंस का सींग) हो, अथवा गवलवृन्द (भैस के सींगां का समूह) हो, अथवा जामुन का फल हो, या गीला अरीठा (या अरीठे का फूल) हो, या परपुष्ट (कोयल) हो, भ्रमर हो, या भ्रमरों की पंक्ति हो, अथवा हाथी का बच्चा हो, या काले केश हों, अथवा आकाशथिग्गल (शरदऋतु के मेघों के बीच का अाकाशखण्ड) हो, या काला अशोक हो, काला कनेर हो, अथवा काला बन्धुजीवक (विशिष्ट वृक्ष) हो, (इनके समान कृष्णलेश्या काले वर्ण की है।) [प्र.] (भगवन् ! ) क्या कृष्णलेश्या (वास्तव में) इसी रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (शक्य) नहीं है। कृष्णलेश्या इससे भी अनिष्टतर है, अधिक अकान्त (असुन्दर), अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अधिक अमनाम (अत्यधिक अवांछनीय) वर्ण वाली कही गई है। 1227. णोललेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पण्णता? गोयमा ! से जहाणामए भिगे इ वा भिगपत्ते इ वा चासे ति वा चासपिच्छे इ वा सुए इ वा सुयपिच्छे इ वा सामा इवा वणराई इवा उच्चंतए इ वा पारेवयगीवा इ वा मोरगीवा इ वा हलधरवसणे इ वा प्रयसिकुसुमए इ बा बाणकुसुभए इ वा अंजणकेसियाकुसुमए इ वा णोलुप्पले इ वा नीलासोए इ वा णोलकणवीरए इ वा णीलबंधुजीवए इ वा। भवेतारूवा? गोयमा ! जो इठे समठे, एतो जाव अमलामयरिया चेव वणेणं पण्णत्ता ? [1227 प्र.] भगवन् ! नोललेश्या वर्ण से कैसी है ? [1227 उ.] गौतम ! जैसे कोई भृग (पक्षी) हो, भृगपत्र हो, अथवा पपीहा (चास पक्षो) हो, या वासा को पांख हो, या शुरु (तोता) हो, तोते की पांख हो, श्यामा (प्रियंगुलता) Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300] [प्रज्ञापनासूत्र हो, अथवा वनराजि हो, या दन्तराग (उच्चन्तक) हो, या कबूतर की ग्रीवा हो, अथवा मोर की ग्रीवा हो, या हलधर (बलदेव) का (नील) वस्त्र हो, या अलसी का फूल हो, अथवा वण (बाण) वृक्ष का फूल हो, या अंजनकेसि का कुसुम हो, नीलकमल हो, अथवा नील अशोक हो, नीला कनेर हो, अथवा नीला बन्धुजीवक वृक्ष हो, (इनके समान नीललेश्या नीले वर्ण की है / ) _ [प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या (वस्तुत:) इस रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ (योग्य) नहीं है। नीललेश्या इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अधिक अमनाम वर्ण से कही गई है। 1228. काउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए खयरसारे इ वा कयरसारे इ वा धमाससारे इ वा तंबे इ वा तंबकरोडए इ वा तंबच्छिवाडिया इ वा वाइंगणिकुसुमए इ वा कोइलच्छदकुसुमए इ बा जवासाकुसुमे इ वा कलकुसुमे इ वा / भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, काउलेस्सा गं एत्तो प्रणितरिया जाव अमणामरिया चेव वण्णणं पण्णत्ता। [1228 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या वर्ण से कैसी है ? [1228 उ.] गौतम ! जैसे कोई खदिर (खैर-कत्था) के वृक्ष का सार भाग (मध्यवर्ती भाग) हो, अथवा धमास वृक्ष का सार हो, ताम्बा हो, या ताम्बे का कटोरा हो, या ताम्बे की फली हो, या बैंगन का फल हो, कोकिलच्छद (तैलकण्ट्रक) वृक्ष का फूल हो, अथवा जवासा का फूल हो, अथवा कलकुसुम हो, (इनके समान वर्ण वाली कापोतलेश्या है।) - [प्र.) भगवन् ! क्या कापोतलेश्या ठीक इसी रूप की है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं है। कापोतलेश्या वर्ण से इससे भी अनिष्टतर यावत् अमनाम (अत्यन्त अवांछनीय) कही है। 1226. तेउलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पण्णता ? गोयमा ! से जहाणामए ससरुहिरे इ वा उरभरुहिरे इ वा वराहरुहिरे इ वा संबररुहिरे इ वा मणस्सरुहिरे इ वा बालिदगोवे इ वा बालदिवागरे इ वा संझन्भरागे इ वा गुजद्धरागे इ वा जाइहिगुलए इ वा पवालंकुरे इ वा लक्खारसे इ वा लोहियक्खमणी इ वा किमिरागकंबले इ वा गयतालुए इ वा चीणपिटुरासी इ वा पालियायकुसुमे इ वा जासुमणाकुसुमे इ वा किसुयपुप्फरासी इ वा रत्तुप्पले इवा रत्तासोगे इ वा रत्तकणवीरए इ वा रत्तबंधुजीवए इ वा ? भवेयारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, तेउलेस्सा गं एत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव वन्नेणं पण्णत्ता। ID इस चिन्ह के सूचित पाठ मलयगिरि वृत्ति में नहीं है / Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] [ 301 [1226 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या वर्ण से कैसी है ? [1229 उ.] गौतम ! जैसे कोई खरगोश का रक्त हो, मेष (मेंढे) का रुधिर हो, सूअर का रक्त हो, सांभर का रुधिर हो, मनुष्य का रक्त हो, या इन्द्रगोप (वीरबहूटी) नामक कीड़ा हो, अथवा बाल-इन्द्रगोप हो, या बाल-सूर्य (उगते समय का सूरज) हो, सन्ध्याकालीन लालिमा हो, गुजा (चिरमी) के प्राधे भाग की लालिमा हो, उत्तम (जातिमान्) हींगलू हो, प्रवाल (मूगे) का अंकुर हो, लाक्षारस हो, लोहिताक्षमणि हो, किरमिची रंग का कम्बल हो, हाथी का तालु (तलुगा) हो, चीन नामक रक्तद्रव्य के आटे की राशि हो, पारिजात का फूल हो, जपापुष्प हो, किंशुक (टेसू) के फूलों की राशि हो, लाल कमल हो, लाल अशोक हो, लाल कनेर हो, अथवा लालबन्धुजीवक हो, (ऐसे रक्त वर्ण की तेजोलेश्या होती है।) [प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या इसी रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। तेजोलेश्या इन से भी इष्टतर, अधिक कान्त, अधिक प्रिय, अधिक मनोज्ञ और अधिक मनाम वर्ण वाली होती है। 1230, पम्हलेस्सा णं भंते ! केरिसिया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए चंपे इ वा चंपयछल्ली इ वा चंपयभेदे इ वा हलिद्दा इ वा हलिद्दगुलिया इ वा हलिद्दामेए इ वा हरियाले इ वा हरियालगुलिया इ वा हरियालभेए इ वा चिउरे इ वा चिउररागे इ वा सुवणसिप्पी इ वा वरकणगणिहसे इ वा वरपुरिसवसणे इ वा अल्लइकुसुमे इ वा चंपयकुसुमे इ वा कणियारकुसुमे इ वा कुहंडियाकुसुमे इ वा सुवण्णहिया इ वा सुहिरणियाकुसुमे इ वा कोरेंटमल्लदामे इ वा पीयासोगे इ वा पीयकणबीरए इ वा पीयबंधुजीवए इवा। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरिया चैव वण्णणं पण्णत्ता। [1230 प्र.] भगवन् ! पद्मलेश्या वर्ण से कैसी है ? [1230 उ.] जैसे कोई चम्पा हो, चम्पक की छाल हो, चम्पक का टुकड़ा हो, हल्दी हो, हल्दी की गुटिका (गोली) हो, हरताल हो, हरताल की गुटिका (गोली) हो, हरताल का टुकड़ा हो, चिकुर नामक पीत वस्तु हो, चिकुर का रंग हो, या स्वर्ण की शुक्ति हो, उत्तम स्वर्ण-निकष (कसौटी पर खींची हुई स्वर्ण रेखा) हो, श्रेष्ठ पुरुष (वासुदेव) का पीताम्बर हो, अल्लकी का फूल हो, चम्पा का फूल हो, कनेर का फूल हो, कूष्माण्ड (कोले) की लता का पुष्प हो, स्वर्णयूथिका (जूही) का फूल हो, सुहिरण्यिका-कुसुम हो, कोरंट के फूलों की माला हो, पीत अशोक हो, पीला कनेर हो, अथवा पीला बन्धुजीवक हो, (इनके समान पद्मलेश्या पीले वर्ण की कही गई है।) [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या (वास्तव में ही) ऐसे रूप वाली होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। पद्मलेश्या वर्ण में इनसे से भी इष्टतर, यावत् अधिक मनाम (वांछनीय) होती है / Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 [प्रज्ञापनासूत्र 1231. सुक्कलेस्सा णं भंते ! केरिसया वण्णेणं पण्णता? गोयमा ! से जहाणामए अंके इ वा संखे इ वा चंदे इ वा कुदे इ वा दगे इ वा दगरए इ वा दही इ वा दहिघणे इ वा खोरे इ वा खोरपूरे इ वा सुक्कछिवाडिया इ वा पेहुणमिजिया इ वा धंतधोयरुप्पपट्टे इ वा सारइयबलाहए इ वा कुमुददले इ वा पोंडरियदले इ वा सालिपिठुरासो ति वा कुडगपुप्फरासी ति बा सिंदुवारवरमल्लदामे इ वा सेयासोए इ वा सेयकणवीरे इ वा सेयबंधुजीवए इ वा। भवेतारूया? गोयमा! णो इणठे समठे, सुक्कलेस्सा णं एत्तो इदुतरिया चेव कंतयरिया चेव पियतरिया चेव मणुण्णतरिया चेव मणामतरिया चेव वण्णेणं पण्णत्ता / [1231 प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या वर्ण से कैसी है ? [1231 उ.] गौतम ! जैसे कोई अंकरत्न हो, शंख हो, चन्द्रमा हो, कुन्द (पुष्प) हो, उदक (स्वच्छ जल) हो, जलकण हो, दही हो, जमा हुअा दही (दधिपिण्ड) हो, दूध हो, दूध का उफान हो, सूखी फली हो, मयूरपिच्छ की मिजी हो, तपा कर धोया हुआ चांदी का पट्ट हो, शरद् ऋतु का बादल हो, कुमुद का पत्र हो, पुण्डरीक कमल का पत्र हो, चावलों (शालिधान्य) के आटे का पिण्ड (राशि) हो, कुटज के पुष्पों की राशि हो, सिन्धुवार के श्रेष्ठ फूलों की माला हो, श्वेत अशोक हो, श्वेत कनेर हो, अथवा श्वेत बन्धुजीवक हो, (इनके समान शुक्ललेश्या श्वेतवर्ण की कही है।) [प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या ठीक ऐसे ही रूप वाली है ? / [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शुक्ललेश्या इनसे भी वर्ण में इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती है। 1232. एयानो णं भंते ! छल्लेस्साप्रो कतिसु वण्णेषु साहिज्जति ? गोयमा! पंचसु वष्णेसु साहिज्जंति / तं जहा---कण्हलेसा कालएणं वणेणं साहिज्जति, णीललेस्सा णोलएणं वणेणं साहिज्जति, काउलेस्सा काललोहिएणं बण्णेणं साहिज्जति, तेउलेस्सा लोहिएणं वणेणं साहिज्जइ. पम्हलेस्सा हालिद्दएणं वण्णणं साहिज्जइ, सुक्कलेस्सा सुक्किलएणं वपणेणं साहिज्जइ। [1232 प्र.] भगवन् ! ये छहों लेश्याएँ कितने वर्णों द्वारा-वर्णों वाली हैं ? [1232 उ.} गौतम ! (ये) पांच वर्षों वाली हैं। वे इस प्रकार हैं-कृष्णलेश्या काले वर्ण द्वारा कही जाती है, नीललेश्या नीले वर्ग द्वारा कही जाती है, कापोतलेश्या काले और लाल वर्ण द्वारा कही जाती है, तेजोलेश्या लाल वर्ण द्वारा कही जाती है, पद्मलेश्या पीले वर्ण द्वारा कही जाती है और शुक्ललेश्या श्वेत (शुक्ल) वर्ण द्वारा कही जाती है / विवेचन--द्वितीय : वर्णाधिकार-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1226 से 1232 तक) में पृथक्पृथक छहों लेश्याओं के वर्गों की विभिन्न वर्ण वाली वस्तुओं से उपमा देकर प्ररूपणा की गई है / Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] कृष्णलेश्या के लिए अनिष्टतर प्रादि पांच विशेषण क्यों ? --कृष्णलेश्या वर्षारम्भकालीन काले कजरारे मेघ आदि उल्लिखितःकाली वस्तुओं से भी अधिक अनिष्ट होती है, यह बताने के लिए कृष्णलेश्या के लिए अनिष्टतर:विशेषण का प्रयोग किया गया है। किन्तु कस्तूरी जैसी कोई-कोई वस्तु अनिष्ट (काली) होने पर भी कान्त (कमनीय) होती है, परन्तु कृष्णलेश्या ऐसी भी नहीं है / यह बताने हेतु कृष्णलेश्या के लिए अकान्ततर (अत्यन्त अकमनीय) विशेषण का प्रयोग किया गया है। कोई वस्तु अनिष्ट और अकान्त होने पर भी किसी को प्रिय होती है, किन्तु कृष्णलेश्या प्रिय भी नहीं होती, यह बताने हेतु कृष्णलेश्या के लिए अप्रियतर (अत्यन्त अप्रिय) विशेषण प्रयोग किया गया है / इसी कारण कृष्णलेश्या अमनोजतर (अत्यन्त अमनोज्ञ) होती है। वास्तव में उसके स्वरूप का सम्यक परिज्ञान होने पर मन उसे किंचित् भी उपादेय नहीं मानता। कड़वी औषध जैसी कोई वस्तु अमनोज्ञतर होने पर भी मध्यमस्वरूप होती है किन्तु कृष्णलेश्या सर्वथा अमनोज्ञ है; यह अभिव्यक्त करने के लिए उसके लिए 'अमनामतर' (सर्वथा अवांछनीय) विशेषण का प्रयोग किया गया है।' __ इसी प्रकार नीललेश्या और कापोतलेश्या के लिए शास्त्रकार ने इन्हीं पांच विशेषणों का प्रयोग किया है / जबकि अन्त की तीन लेश्याओं के लिए इनसे ठीक विपरीत 'इष्टतर' आदि पांच विशेषणों का प्रयोग किया गया है। 'साहिज्जंति' पद का अर्थ-कही जाती है, प्ररूपित की जाती हैं / 2 तृतीय रसाधिकार 1233. कण्हल स्सा णं भंते ! केरिसिया प्रासाएणं पण्णता? गोग्रमा! से जहाणामए णिबे इ वा बिसारे इ वा णिबछल्लो इ वा णिबफाणिए इ वा कुडए इ वा कुडगफले इ वा कुडगछल्लो इ वा कुडगफाणिए इ वा कडुगतुंबी इ वा कडुगतुम्बीफले ति वा खारतउसी इ वा खारत उसीफले इ वा देवदालो इ वा देवदालिपुष्फे इ वा मियवालुकी इवा मियवालुकोफले इ वा घोसाडिए इ वा घोसाडइफले इ वा कण्हकंदए इ वा वज्जकंदए इ वा / भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, कण्हलेस्सा गं एत्तो प्रणितरिया चेव जाव प्रमणामयरिया चेव प्रस्साएणं पण्णत्ता। [1233 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या आस्वाद (रस) से कैसी कही है.? [1233 उ.] गौतम ! जैसे कोई नीम हो, नीम का सार हो, नीम की छाल हो, नीम का क्वाथ (काढा) हो, अथवा कुटज हो, या कुटज का फल हो, अथवा कुटज की छाल हो, या कुटज का क्वाथ (काढ़ा) हो, अथवा कड़वी तुम्बी हो, या कटुक तुम्बीफल (कड़वा तुम्बा) हो, कड़वी ककड़ी (त्रपुषी) हो, या (कड़वी ककड़ी का फल हो, अथवा देवदाली (रोहिणी) हो या देवदाली (रोहिणी) का पुष्प हो, या मृगवालुको हो अथवा मृगवालुकी का फल हो, या कड़वी घोषातिकी हो, अथवा कड़वी घोषातिको का फल हो, या कृष्णकन्द हो, अथवा वज्रकन्द हो; (इन वनस्पतियों के कटु रस के समान कृष्णलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है / ) 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 362 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 363 Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 ] [प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या रस से इसी रूप की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। कृष्णलेश्या स्वाद में इन (उपर्युक्त वस्तुओं के रस) से भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अतिशय अमनाम है। 1234. गोललेस्सा पुच्छा। गोयमा ! से जहाणामए भंगी ति वा भंगीरए इ वा पाढा इ वा चविता इ वा चित्तामूलए इ वा पिप्पलीमूलए इ वा पिप्पलो इ वा पिपलिचुण्णे इ वा मिरिए इ वा मिरियचुण्णे इ वा सिंगबेरे इ वा सिंगबेरचुण्णे इ वा। भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, गोललेस्सा णं एत्तो जाव प्रमणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [1234 प्र.] भगवन् ! नीललेश्या आस्वाद में कैसी है ? [1234 उ.] गौतम ! जैसे कोई भूगी (एक प्रकार की मादक वनस्पति) हो, अथवा भगी (वनस्पति) का कण (रज) हो, या पाठा (नामक वनस्पति) हो, या चविता हो अथवा चित्रमूलक (वनस्पात) हो, या पिप्पलीमूल (पीपरामूल) हो, या पीपल हो, अथवा पीपल का चर्ण हो, (मिर्च हो, या मिर्च का चूरा हो, शृगबेर (अदरक) हो, या शृगबेर (सूखी अदरक = सोंठ) का चूर्ण हो; (इन सबके रस के समान चरपरा (तिक्त) नीललेश्या का आस्वाद (रस) कहा गया है / ) [प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या रस से इसी रूप की होती है ? उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। नीललेश्या रस (आस्वाद) में इससे भी अनिष्टतर, अधिक अकान्त, अधिक अप्रिय, अधिक अमनोज्ञ और अत्यधिक अमनाम (अवांछनीय) कही गयी है। 1235. काउलेस्साए पुच्छा। गोयमा ! से जहाणामए अंबाण वा अंबाडगाण वा माउलुगाण वा बिल्लाण वा कविट्ठाण वा भट्टाण' वा फणसाण वा दालिमाण वा पारेवयाण वा अक्खोडाण वा पोराण वा बोराण वा तेंदुयाण वा अपक्काणं अपरियागाणं वण्णेणं अणुक्वेताणं गंधेण अणुववेयाणं फासेणं अणुववेयाणं / भवेतारूवा? गोयमा ! णो इणठे समठे, जाव एत्तो अमणामरिया चेव काउलेस्सा अस्साएणं पण्णत्ता। [1235 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्या आस्वाद में कैसी है ? [1235 उ.] गौतम ! जैसे कोई प्राम्रो का, आम्राटक के फलों का, बिजौरों का, बिल्वफलों (बेल के फलों) का, कवीठों का, भट्ठों का, पनसों (कटहलों) का, दाडिमों (अनारों) का, 1. पाठान्तर—'भट्ठाण' के बदले श्रीजीवविजयकृत स्तबक में 'मच्चाण' पाठान्तर है, अर्थ किया गया है-भर्च वृक्ष के फल तथा श्री धनविमलगणिकृत स्तबक में "भवाण' पाठान्तर है, जिसका अर्थ किया गया है--प्रपक्व जैसी द्राक्षा। -सं. Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] [ 305 पारावत नामक फलों का, अखरोटों का, प्रौढ़----बड़े बेरों का, बेरों का या तिन्दुकों के फलों का, जो कि अपक्व हों, पूरे पके हुए न हों, वर्ण से रहित हों, गन्ध से रहित हों और स्पर्श से रहित हों; (इनके आस्वाद-रस के समान कापोतलेश्या का रस (स्वाद) कहा गया है / ) [प्र.] भगवन् ! क्या कापोतलेश्या रस से इसी प्रकार की होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / कापोतलेश्या स्वाद में इनसे भी अनिष्टतर यावत् अत्यधिक अमनाम कही है। 1236. तेउलेस्सा णं पुच्छा? गोयमा ! से जहाणामए अंबाण वा जाव तेंदुयाण वा पक्काणं परियावण्णाणं वण्णेणं उक्वेताणं पसत्थेणं जाव फासेणं जाव एत्तो मणामयरिया चेव तेउलेस्सा प्रस्साएणं पण्णता। [1236 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्या आस्वाद में कैसी है ? [1236 उ.] गौतम ! जैसे किन्हीं अाम्रों के यावत् (पाम्राटकों से लेकर) तिन्दुकों तक के फल जो कि परिपक्व हों, पूर्ण परिपक्व अवस्था को प्राप्त हों, परिपक्व अवस्था के प्रशस्त वर्ण से, गन्ध से और स्पर्श से युक्त हों, (इनका जैसा स्वाद होता है, वैसा ही तेजोलेश्या का है।) [प्र.] भगवन् ! क्या तेजोलेश्या इस आस्वाद की होती है ? [उ.[ गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। तेजोलेश्या तो स्वाद में इनसे भी इष्टतर यावत् अधिक मनाम होती है। 1237. पम्हलेस्साए पुच्छा ? गोयमा! से जहाणामए चंदप्पभा इ वा मणिसिलागाइ वा बरसीधू इ वा बरवारुणी ति वा पत्तासवे इ वा पुष्फासवे इ वा फलासवे इ वा चोयासवे इ वा पासवे इ वा मधू इ वा मेरए इ वा कविसाणए इ वा खज्जूरसारए इ वा मुद्दियासारए इ का सपक्कखोयरसे इ वा अपिट्टणिट्टिया इ वा जंबूफलकालिया इ वा वरपसण्णा इ वा आसला मासला पेसला ईसी प्रोटावलंबिणी ईसि वोच्छेयकडुई ईसी तंबच्छिकरणी उक्कोसमयपत्ता वण्णणं उववेया जाव फासेणं प्रासायणिज्जा वीसायणिज्जा पीणणिज्जा विहणिज्जा दीवणिज्जा दप्पणिज्जा मयणिज्जा सविदिय-गायपल्हाणिज्जा / भवेतारूवा? गोयमा! णो इणठे समठे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इद्रुतरिया चेव जाव भणामतरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [1237 प्र. भगवन् ! पद्मलेश्या का प्रास्वाद कैसा है ? [1237 उ.] गौतम ! जैसे कोई चन्द्र प्रभा नामक मदिरा, मणिशलाका मद्य, श्रेष्ठ सीधु नामक मद्य हो, उत्तम बारुणी (मदिरा) हो, (धातकी के) पत्तों से बनाया हुआ आसव हो, पुष्पों का पासव हो, फलों का आसव हो, चोय नाम के सुगन्धित द्रव्य से बना पासव हो, अथवा सामान्य आसव हो, मधु (मद्य) हो, मैरेयक या कापिशायन नामक मद्य हो, खजूर का सार हो, द्राक्षा (का) सार हो, सुपक्व इक्षुरस हो, अथवा (शास्त्रोक्त) अष्टविध पिष्टों द्वारा तैयार की हुई वस्तु हो, या Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 ] [ प्रज्ञापनासूत्र जामुन के फल की तरह काली (स्वादिष्ट वस्तु) हो, या उत्तम प्रसन्ना नाम की मदिरा हो, (जो) अत्यन्त स्वादिष्ट हो, प्रचुर रस से युक्त हो, रमणीय हो, (अतएव आस्वादयुक्त होने से) झटपट अोठों से लगा ली जाए (अर्थात् जो मुखमाधुर्यकारिणी हो तथा) जो पीने के पश्चात् (इलायची, लौंग आदि द्रव्यों के मिश्रण के कारण) कुछ तीखी-सी हो, जो आँखों को ताम्रवर्ण की बना दे तथा उत्कृष्ट मादक (मदप्रापक) हो, जो प्रशस्त वर्ण, गन्ध और स्पर्श से युक्त हो, जो आस्वादन करने योग्य हो, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य हो, जो प्रीणनीय (तृप्तिकारक) हो, बृहणीय–वृद्धिकारक हो, उद्दीपन करने वाली, दर्पजनक, मदजनक तथा सभी इन्द्रियों और शरीर (गात्र) को पालादजनक हो, इनके रस के समान पदमलेश्या का रस (आस्वाद) होता है ? [प्र.] भगवन् ! क्या पद्मलेश्या के रस का स्वरूप ऐसा ही होता है ? / [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / पद्मलेश्या तो स्वाद (रस) में इससे भी इष्टतर यावत् अत्यधिक मनाम कही है। 1238. सुक्कलेस्सा णं भंते ! केरिसिया अस्साएणं पण्णत्ता? गोयमा ! से जहाणामए गुले इ वा खंडे इ वा सक्करा इ वा मच्छंडिया इ वा पप्पडमोदए इ वा भिसकंदे इ वा पुप्फुत्तरा इ वा पउमुत्तरा इ वा प्रापंसिया इ वा सिद्धत्थिया इ वा प्रागासफालिप्रोवमा इ वा अणोवमाइ वा। भवेतारूवा? गोयमा ! जो इणठे समठे, सुक्कलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया चेव कंततरिया चेव पियतरिया चेव मणामयरिया चेव अस्साएणं पण्णत्ता। [1238 प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्या स्वाद में कैसी है ? [1238 उ.[ गौतम ! जैसे कोई गुड़ हो, खांड हो, या शक्कर हो, या मिश्री हो, (अथवा मत्स्यण्डी (खांड से बनी शक्कर) हो, पर्पटमोदक (एक प्रकार का मोदक अथवा मिश्री का पापड़ और लडड) हो, भिस(विस)कन्द हो, पुष्पोत्तर नामक मिष्ठान्न हो, पद्मोत्तरा नाम की मिठाई (सन्देश?) नामक मिठाई हो, या सिद्धाथिका नाम की मिठाई हो, आकाशस्फटिकोपमा नामक मिठाई हो, अथवा अनुपमा नामक मिष्टान्न हो; (इनके स्वाद के समान शुक्ललेश्या का स्वाद (रस) है।) [प्र.] भगवन् क्या शुक्ललेश्या स्वाद में ऐसी होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। शुक्ललेश्या आस्वाद में इनसे भी इष्टतर, अधिक कान्त (कमनीय), अधिक प्रिय एवं अत्यधिक मनोज्ञ-मनाम कही गई है। विवेचन-तृतीय रसाधिकार-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1233 से 1238 तक) में छहों लेश्याओं के रसों का पृथक-पृथक् विविध वस्तुओं के रसों की उपमा देकर निरूपण किया गया है।' 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 365-366 Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] चतुर्थ गन्धाधिकार से नवम गति अधिकार तक का निरूपण 1236. कति णं भंते ! लेस्सायो दुब्भिगंधारो पण्णत्तानो ? गोयमा ! तो लेस्सानो दुन्भिगंधानो पण्णत्ताओ। तं जहा-किण्हलेस्सा णीललेस्सा काउलेस्सा। [1236 प्र.] भगवन् ! दुर्गन्ध वाली कितनी लेश्याएँ हैं ? [1236 उ. ] गौतम ! तीन लेश्याएँ दुर्गन्धवाली हैं / वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या, नोललेश्या और कापोतलेश्या। 1240. कति णं भंते ! लेस्सायो सुब्भिगंधानो यण्णतायो ? गोयमा! तो लेस्साम्रो सुन्भिगंधानो पण्णत्तायो। तं जहा–तेउलेस्सा पम्हलेस्सा सुक्कलेस्सा। [1240 प्र.] भगवन् ! कितनी लेश्याएँ सुगन्ध वाली हैं ? [1240 उ.] गौतम ! तीन लेश्याएँ सुगन्ध वाली हैं / वे इस प्रकार-तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। 1241. एवं तमो अविसुद्धामो तओ विसुद्धामो, तो अप्पसत्थानो तो पसत्थानो, तो संकिलिट्ठामो तमो असंकिलिलामो, तो सीयलुक्खायो तो निधण्हाप्रो, तो दुग्गइगामिणीयो तो सुगइगामिणीओ। [1241] इसी प्रकार (पूर्ववत् क्रमश:) तीन (लेश्याएँ) अविशुद्ध और तीन विशुद्ध हैं, तीन अप्रशस्त हैं और तीन प्रशस्त हैं, तीन संक्लिष्ट हैं और तीन असंक्लिष्ट हैं, तीन शीत और रूक्ष (स्पर्श वाली) हैं, और तीन उष्ण और स्निग्ध (स्पर्श वाली) हैं, (तथैव) तीन दुर्गतिगामिनी (दुर्गति में ले जाने वाली) हैं और तीन सुगतिगामिनी (सुगति में ले जाने वाली) हैं। विवेचन-चौथे गन्धाधिकार से नौवें गति अधिकार तक की प्ररूपणा-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1236 से 1241 तक) में तीन-तीन दुर्गन्धयुक्त-सुगन्धयुक्त लेश्याओं का, अविशुद्ध-विशुद्ध का, अप्रशस्त-प्रशस्त का, संक्लिष्ट-प्रसंक्लिष्ट का, शीत-रूक्ष, उष्ण-स्निग्ध स्पर्शयुक्त का, दुर्गतिगामिनीसुगतिगामिनी का निरूपण किया गया है। ४-गन्धद्वार–प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ मृतमहिष आदि के कलेवरों से भी अनन्तगुणी दुर्गन्ध वाली हैं तथा अन्त की तीन लेश्याएँ पीसे जाते हुए सुगन्धित वास एवं सुगन्धित पुष्पों से भी अनन्त गुणी उत्कृष्ट सुगन्ध वाली होती हैं।' 1. तुलना-जह गोमडस्स गंधो नागमडस्स व जहा अहिमडस्स ! एतो उ अणंतगुणो लेस्साणं अपसस्थाणं // 1 // जहा सुरभिकुसुमगंधो गंधवासाण पिस्समाणाण / एतो उ अणंतगुणो पसत्थलेस्साण तिण्ह पि // 2 // --उत्तराध्ययन Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [प्रज्ञापनासूत्र 5. अविशुद्ध-विशुद्ध द्वार-प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से अविशुद्ध और अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाली होने से विशुद्ध होती हैं। 6. अप्रशस्त-प्रशस्तद्वार-आदि की तीन लेश्याएँ अप्रशस्त होती हैं, क्योंकि वे अप्रशस्त द्रव्यरूप होने के कारण अप्रशस्त अध्यवसाय की तथा अन्त की तीन लेश्याएँ प्रशस्त होती है, क्योंकि वे प्रशस्त द्रव्यरूप होने से प्रशस्त अध्यवसाय की निमित्त होती हैं। 7. संक्लिष्टाऽसंक्लिष्ट द्वार-प्रथम की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट होती हैं, क्योंकि वे संक्लेशमय पार्तध्यान-रौद्रध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती तथा अन्तिम तीन लेश्याएँ असंक्लिष्ट हैं, क्योंकि वे धर्मध्यान के योग्य अध्यवसाय को उत्पन्न करती हैं। 8. स्पर्श-प्ररूपणाधिकार-प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ शीत और रूक्ष स्पर्श वाली हैं, इनके शीत और रूक्ष स्पर्श चित्त में अस्वस्थता उत्पन्न करने के निमित्त हैं, जबकि अन्त की तीन लेश्याएँ उष्ण और स्निग्ध स्पर्श वाली हैं। इनके उष्ण और स्निग्ध स्पर्श चित्त में सन्तोष उत्पन्न करने के निमित्त होते हैं / यद्यपि लेश्याद्रव्यों के कर्कश आदि स्पर्श प्रागे कहे गए हैं, परन्तु यहाँ उन्हीं स्पों का कथन किया गया है, जो चित्त में अस्वस्थता-स्वस्थता पैदा करने में निमित्त बनते हैं / 6. दुर्गति-सुगति द्वार-प्रारम्भ की तीन लेश्याएँ संक्लिष्ट अध्यवसाय की कारण होने से दुर्गति में ले जाने वाली हैं, जबकि अन्तिम तीन प्रशस्त अध्यवसाय की कारण होने से सुगति में ले जाने वाली हैं।' दशम परिणामाधिकार 1242. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिविधं परिणाम परिणमति ? गोयमा ! तिविहं वा नबविहं वा सत्तावीसतिविहं था एक्कासीतिविहं वा बेतेयालसतविहं वा बहुं वा बहुविहं वा परिणामं परिणमति / एवं जाव सुक्कलेसा। [1242 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रकार के परिणाम में परिणत होती है ? 11242 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या तीन प्रकार के, नौ प्रकार के, सत्ताईस प्रकार के, इक्यासी प्रकार के या दो सौ तेतालीस प्रकार के अथवा बहुत-से या बहुत प्रकार के परिणाम में परिणत होती है। कृष्णलेश्या के परिणामों के कथन की तरह नीललेश्या से लेकर शुक्ललेश्या तक के परिणामों का भी कथन करना विवेचन-दसवाँ परिणामाधिकार-प्रस्तुत सूत्र में कृष्णादि छहों लेश्याओं के विभिन्न प्रकार के परिणामों से परिणत होने की प्ररूपणा की गई है। परिणामों के प्रकार (1) तीन-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट परिणाम / (2) नौ-इन तीनों में से प्रत्येक के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद करने से नौ प्रकार का परिणाम होता है। (3) सत्ताईस-इन्हीं नौ में प्रत्येक के पुन: तीन-तीन भेद करने पर 27 भेद हो जाते हैं / (4) इक्यासी-इन्हीं 27 भेदों के फिर वे ही जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट भेद करने पर इक्यासी प्रकार हो जाते 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 367 Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहयाँ लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] हैं। (5) दो सौ तेतालीस भेद-उनके पुन: तीन-तीन भेद करने पर 243 भेद होते हैं / इस प्रकार उत्तरोत्तर भेद-प्रभेद किये जाएँ तो बहुत और बहुत प्रकार के परिणमन कृष्णलेश्या के होते हैं / ऐसे ही परिणामों के प्रकार शुक्ललेश्या तक समझ लेने चाहिए।' ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक को प्ररूपणा 1243. कण्हलेस्सा णं भंते ! कतिपदेसिया पण्णता ? गोयमा ! प्रणंतपदेसिया पण्णत्ता / एवं जाव सुक्कलेस्सा / [1243 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या कितने प्रदेश वाली है ? [1243 उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) अनन्तप्रदेशों वाली है (क्योंकि कृष्णलेश्यायोग्य परमाणु अनन्तानन्त संख्या वाले हैं ) / इसी प्रकार (नीललेश्या से) यावत् शुक्ललेश्या तक (प्रदेशों का कथन करना चाहिए।) 1244. कण्हलेस्सा णं भंते ! कइपएसोगाढा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जपएसोगाढा पण्णत्ता / एवं जाव सुक्कलेस्सा / [1244 प्र. भगवन् ! कृष्ण लेश्या आकाश के कितने प्रदेशों में अवगाढ है ? [1244 उ.] गौतम ! (कृष्णलेश्या) असंख्यात अाकाश प्रदेशों में अवगाढ है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक असंख्यात प्रदेशावगाढ समझनी चाहिए। 1245. कण्हलेस्साए णं भंते ! केवतियाप्रो वगणाप्रो पण्णताओ? गोयमा ! अणंतानो वग्गणाप्रो पण्णत्ताप्रो / एवं जाव सुक्कलेस्साए / [1245 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या की कितनी वर्गणाएं कही गई हैं ? [1245 उ.] गौतम ! (उसकी) अनन्त वर्गणाएँ कही गई हैं। इसी प्रकार यावत् शुक्ललेश्या तक की (वर्गणाओं का कथन करना चाहिए / ) 1246. केवतिया णं भंते ! कण्हलेस्साठाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जा कण्हलेस्साठाणा पण्णता / एवं जाव सुक्कलेस्साए / [1246 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या के स्थान (तर-तमरूप भेद) कितने कहे गये हैं ? [1246 उ.] गौतम ! कृष्णलेश्या के असंख्यात स्थान कहे गए हैं। इसी प्रकार शुक्ललेश्या तक (के स्थानों की प्ररूपणा करनी चाहिए / ) विवेचन-ग्यारहवें प्रदेशाधिकार से चौदहवें स्थानाधिकार तक की प्ररूपणा-प्रस्तुत चार सूत्रों में प्रदेश, प्रदेशावगाढ़, वर्गणा और स्थान की प्ररूपणा की गई है। कष्णादि लेश्याएँ अनन्तप्रादेशिकी-कृष्णादि छहों लेश्याओं में से प्रत्येक के योग्य परमाणु अनन्त-अनन्त होने से उन्हें अनन्तप्रादेशिकी कहा है / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 368 Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310 ] [ प्रज्ञापनासूत्र कृष्णादि लेश्याएँ असंख्यात प्रदेशावगाढ़-यहाँ प्रदेश का अर्थ आकाश प्रदेश है. क्योंकि अवगाहन आकाश के प्रदेशों में ही होता है। यद्यपि एक-एक लेश्या की वर्गणाएँ अनन्त-अनन्त हैं, तथापि उन सबका अवगाहन असंख्यात अाकाश प्रदेशों में ही हो जाता है, क्योंकि सम्पूर्ण लोकाकाश के असंख्यात ही प्रदेश हैं। __ कृष्णादिलेश्याएँ अनन्त वर्गणायुक्त-औदारिक शरीर आदि के योग्य परमाणुओं के समूह के समान कृष्णलेश्या के योग्य परमाणुओं के समूह को कृष्णलेश्या की वर्गणा कहा गया है। ये वर्गणाएँ वर्णादि के भेद से अनन्त होती हैं।' कृष्णादिलेश्याओं के प्रसंख्यात स्थान-लेश्यास्थान कहते हैं-प्रकर्ष-अपकर्षकृत अर्थात् अविशुद्धि और विशुद्धि की तरतमता से होने वाले भेदों को। जब भावरूप कृष्णादि लेश्याओं का चिन्तन किया जाता है, तब एक-एक लेश्या के प्रकर्ष-अपकर्ष कृत स्वरूपभेदरूप स्थान, काल की अपेक्षा से ----असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयों के बराबर हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सेअसंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर स्थान अर्थात्-विकल्प हैं। कहा भी है-असंख्यात उत्सपिणियों और अवसपिणियों के जितने समय होते हैं, अथवा असंख्यात लोकों के जितने प्रदेश हों, उतने ही लेश्याओं के स्थान (विकल्प) हैं। किन्तु विशेषता यह है कि कृष्णादि तीन अशुभ भावलेश्याओं के स्थान संक्लेशरूप होते हैं और तेजोलेश्यादि तीन शुभ भावलेश्याओं के स्थान विशुद्ध होते हैं। __ इन भावलेश्याओं के कारणभूत द्रव्यसमूह भी स्थान कहलाते हैं। यहां उन्हीं को ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इस उद्देशक में कृष्णादिलेश्याद्रव्यों का ही प्ररूपण किया गया है। वे स्थान प्रत्येक लेश्या के असंख्यात होते हैं / तथाविध एक ही परिणाम के कारणभूत अनन्त द्रव्य भी एक हो प्रकार के अध्यवसाय के हेतु होने से स्थूल रूप से एक ही कहलाते हैं। उनमें से प्रत्येक के दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट / जो जघन्य लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे जघन्य और उत्कृष्ट लेश्यास्थानरूप परिणाम के कारण हों, वे उत्कृष्ट कहलाते हैं। जो जघन्य स्थानों के समीपवर्ती मध्यम स्थान हैं, उनका समावेश जघन्य में और जो उत्कृष्टस्थानों के निकटवर्ती हैं, उनका अन्तर्भाव उत्कृष्ट में हो जाता है। ये एक-एक स्थान, अपने एक ही मूल स्थान के अन्तर्गत होते हुए भी परिणाम-गुण-भेद के तारतम्य से असंख्यात हैं / आत्मा में जघन्य एक गुण अधिक, दो गुण अधिक लेश्याद्रव्यरूप उपाधि के कारण असंख्य लेश्या-परिणामविशेष होते हैं। व्यवहारदृष्टि से वे सभी अल्पगुण वाले होने से जघन्य कहलाते हैं / उनके कारणभूत द्रव्यों के स्थान भी जघन्य कहलाते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थान भी असंख्यात समझ लेने चाहिए।' पन्द्रहवाँ : अल्पबहुत्वाधिकार 1247. एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्साठाणाणं जाव सुक्कलेस्साठाणाण य जहण्णगाणं दन्वयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो प्रप्पा वा 4 ? गोयमा! सम्वत्थोवा जहण्णमा काउलेस्साठाणा दग्वटुयाए, जहण्णगा णीललेस्साठाणा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जणगा कण्हलेस्साठाणा दवढयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्स 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 368 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 369 Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] [ 311 ठाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेस्साठाणा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्सठाणा दवट्टयाए असंखेज्जगुणा। पदेसट्टयाएसम्वत्थावा जहष्णगा काउलेस्साठाणा पएसट्टयाए, जहण्णमा णोललेस्सठाणा पएसट्टयाए प्रसंखेज्जगुणा, जहण्णगा कण्हलेस्साठाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा तेउलेस्सठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा पम्हलेस्सठाणा पएसद्वयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णगा सुक्कलेस्साठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा; दध्वट्टपदेसट्टयाए-सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सट्टाणा दग्वट्ठयाए, जहण्णगा पीललेस्सटाणा दव्वयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेस्सट्ठाणा तेउलेस्सटाणा पम्हलेस्सदाणा, जहण्णगा सुक्कलेस्सट्टाणा दन्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, जहण्णएहितो सुक्कलेस्सटाणेहितो दट्टयाए जहण्णगा काउलेस्सट्टाणा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, जहण्णगा णोललेस्सटाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं जाव सुक्कलेस्सट्टाणा / [1247 प्र.] भगवन् ! इन कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य तथा प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1247 उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से, सबसे थोड़े जघन्य कापोतलेश्यास्थान हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगणे हैं. (उनसे) तेजोलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपे गुणे हैं, (उनसे) पद्मलेश्या के जधन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यात गुणे हैं, (उनसे) शुक्ललेश्या के जघन्यस्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से---सबसे थोड़े कापोतलेश्या के जघन्य स्थान हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) कृष्णलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगूणे हैं, (उनकी अपेक्षा) तेजोलेश्या के जघन्यस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) पद्मलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से--सबसे कम कापोतलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) जघन्य कृष्णलेश्यास्थान, तेजोलेश्यास्थान, पद्मलेश्यास्थान तथा इसी प्रकार शुक्ललेश्यास्थान द्रव्य की अपेक्षा श.) असंख्यातगूणे हैं / द्रव्य की अपेक्षा से शुक्ललेश्या के जघन्य स्थानों से, कापोतलेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। 1248. एतेसि णं भंते ! कण्हल स्सटाणाणं जाव सुक्कलेस्सटाणाण य उक्कोसगाणं दम्वद्वयाए पएसद्वयाए दध्वट्ठपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा उक्कोसगा काउलेस्सटाणा दग्वट्ठयाए, उक्कोसगा पीललेस्सटाणा दन्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं जहेव जहण्णगा तहेव उक्कोसगा वि, णवरं उक्कोस त्ति अभिलावो। Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 ] [प्रज्ञापनासूत्र [1248 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या के उत्कृष्ट स्थानों (से लेकर) यावत् शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थानों में से द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1248 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े कापोतलेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं / (उनसे) नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य को अपेक्षा से असंख्यागुण हैं। इसी प्रकार जघन्यस्थानों के अल्पबहुत्व की तरह उत्कृष्ट स्थानों का भी अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि 'जघन्य' शब्द के स्थान में (यहाँ) 'उत्कृष्ट' शब्द कहना चाहिए / 1246. एतेसि णं भंते ! कण्हलेस्सट्टाणाणं जाव सुक्कलेस्सटाणाण य जहण्णुक्कोसगाणं दन्वट्ठयाए पएसट्टयाए दव्वटुपएसट्टयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सट्टाणा दवट्टयाए, जहण्णया गोललेस्सटाणा दवटुयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेस्सटाणा तेउलेस्सट्ठाणा पम्हलेस्सटाणा, जहण्णगा सुक्कलेसटाणा दवट्टयाए असंखेज्जगुणा। जहण्णएहितो सुक्कलेस्सट्टाणेहितो दव्वट्ठयाए उक्कोसा काउलेस्सटाणा दम्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, उक्कोसा नीललेसटाणा दव्वट्ठयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेसटाणा तेउलेसटाणा पम्हलेसटाणा, उक्कोसा सुक्कलेस्सटाणा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा। पदेसट्टयाएसम्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सटाणा पएसट्टयाए, जहण्णगा जोललेसटाणा पएसट्टयाए प्रसंखेज्जगुणा, एवं जहेव दवट्टयाए तहेव पएसट्टयाए वि भाणियन्वं, गवरं पएसट्टयाए त्ति अभिलावविसेसो / दवट्ठपएसट्टयाए-सव्वत्थोवा जहण्णगा काउलेस्सट्टाणा दवट्ठयाए, जहण्णगा णोललेसटाणा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेसट्टाणा तेउलेसट्टाणा पम्हलेसट्टाणा, जहण्णया सुक्कलेसट्ठाणा दवट्ठयाए असखेज्जगुणा / जहण्णएहितो सुक्कलेसटाणेहितो दवट्ठयाए उक्कोसा काउलेसटाणा दवट्ठयाए प्रसंखेज्जगुणा, उक्कोसा णोललेसटाणा दन्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेसटाणा तेउलेसटाणा पम्हलेसट्टाणा, उक्कोसगा सुक्कलेसटाणा दव्वट्ठयाए प्रसंखेज्जगुणा / उक्कोसएहितो सुक्कलेसट्ठाणेहितो दवट्टयाए जहण्णगा काउलेसटाणा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, जहण्णगा णोललेसटाणा पएसठ्ठयाए प्रसंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेसटाणा तेउलेसट्टाणा पम्हलेसट्टाणा, जहण्णगा सुक्कलेसटाणा असंखेज्जगुणा, जहण्णहितो सुक्कलेसटाणेहितो पदेसट्टयाए उक्कोसा काउलेसट्ठाणा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, उकोसया गोललेसट्टाणा पवेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, एवं कण्हलेसटाणा तेउलेसटाणा पम्हलेसटाणा, उषकोसया सुक्कलेसटाणा पएसट्टयाए असंखेज्जगुणा / // पण्णवणाए भगवतीए लेस्सापदे चउत्थो उद्देसो समत्तो / / [1249 प्र. भगवन् ! इन कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या के जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों में द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों (उभय) की अपेक्षा से कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1246 उ.] गौतम ! सबसे थोड़े द्रव्य की अपेक्षा से कापोतलेश्या के जघन्य स्थान हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक ] [313 तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य को अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्यास्थानों से उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थान असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थान (उत्तरोत्तर) द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम कापोतलेश्या के जघन्य स्थान हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान, प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार जैसे द्रव्य की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का कथन किया गया है, वैसे ही प्रदेशों की अपेक्षा से भी अल्पबहुत्व कहना चाहिए। विशेषता यह कि यहाँ 'प्रदेशों की अपेक्षा से ऐसा कथन करना चाहिए / द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे थोड़े कापोतलेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से हैं, (उनसे) नीललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य को अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या के जघन्य स्थान द्रव्य की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्या स्थानों से उत्कृष्ट कापोतलेश्या स्थान असंख्यातगुणे हैं, (उनकी अपेक्षा) नीललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थान द्रव्य की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। द्रव्य की अपेक्षा से उत्कृष्ट शुक्ललेश्यास्थानों से, जघन्य कापोतलेश्यास्थान प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं, (उनसे) जधन्य नीललेश्यास्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्यां एवं शुक्ललेश्या के जघन्यस्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। प्रदेश की अपेक्षा से जघन्य शुक्ललेश्यास्थानों से, उत्कृष्ट कापोतलेश्यास्थान प्रदेशों से असंख्यातगुणे हैं, (उनसे) उत्कृष्ट नीललेश्यास्थान प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं, इसी प्रकार कृष्णलेश्या, तेजोलेण्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या के उत्कृष्ट स्थान प्रदेशों की अपेक्षा से (उत्तरोत्तर) असंख्यातगुणे हैं। विवेचन---पन्द्रहवाँ अल्पबहुत्वाधिकार-प्रस्तुत तीन सूत्रों में छहों लेश्याओं के जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों का द्रव्य का अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से और द्रव्य-प्रदेशों को अपेक्षा से अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है। निष्कर्ष-जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों में द्रव्य को अपेक्षा से, प्रदेशों को अपेक्षा से तथा द्रव्य एवं प्रदेशों को अपेक्षा से सबसे कम कापोतलेश्या के स्थान हैं, उनसे नील, कृष्ण, तेजो, पद्म एव शुक्ललेश्या के स्थान उत्तरोत्तर प्रायः असंख्यातगुणे हैं, क्वचित् प्रदेशां को अओझा शुक्ललेश्यास्थानां से कापोतलेश्या स्थान अनन्तगुणे कहे गए हैं।' // सत्तरहवां लेश्यापद : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापनामूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 370 Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : पंचमो उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक लेश्यानों के छह प्रकार 1250. कति णं भंते लेस्सानो पण्णत्तानो ? गोयमा ! छल्लेसानो पण्णत्तानो / तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1250 प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? {1250 उ.] गौतम ! लेश्याएं छह हैं -कृष्णलश्या यावत् शुक्ललश्या / लेश्याओं के परिणामभाव की प्ररूपणा 1251. से णणं भंते ! कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? एत्तो आढत्तं जहा चउत्थुद्देसए तहा भाणियन्वं जाव वेरुलियमणिदिवेंतो ति / [1251 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर उसी के स्वरूप में, उसी के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में पुन: पुन: परिणत हो जाती है ? [1251 उ.] यहाँ से प्रारम्भ करके यावत् वैडूर्यमणि के दृष्टान्त तक जैसे चतुर्थ उद्देशक में कहा है, वैसे ही कहना चहिए। 1252. से गूणं भंते ! कण्हलेस्सा णोललेस्सं पप्प णो तारूवताए णो तावण्णत्ताए णो तागंधत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा! कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए णो तावण्णत्ताए णो तागंपत्ताए णो तारसत्ताए णो ताफासत्ताए भज्जो भुज्जो परिणमति / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! प्रागारमावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा से सिया कण्हलेस्सा णं सा, णो खलु सा णीललेस्सा, तत्थ गता उस्सक्कति से तेणठेणं गोयमा! एवं बच्चति कण्हलेस्सा णीललेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? [1252 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर नीललेश्या के स्वभावरूप में तथा उसी के वर्णरूप में, गन्धरूप में, रसरूप में एवं स्पर्शरूप में बार-बार परिणत नहीं होती है ? [1252 उ.] हाँ, गौतम ! कृष्णलेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वभावरूप में, न Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : पंचम उद्देशक ] [315 उसके वर्णरूप में, न उसके गन्धरूप में, न उसके रसरूप में पोर न उसके स्पर्शरूप में वार-बार परिणत होती है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नोललेश्या को प्राप्त होकर, न तो उसके स्वरूप में यावत् (न उसके वर्ग-गध-रस-सशंरूप में) बार-बार परिणत होती है ? उ.] गौतम ! वह (कृष्णलेश्या) प्राकार भावमात्र से हो, अथवा प्रतिभाग भावमात्र (प्रतिविम्बमात्र) से (नीललेश्या) होती है। (वास्तव में) यह कृष्णलेश्या हो (रहती) है, वह नीललेश्या नहीं हो जाती। वह (कृष्णलेश्या) वहाँ रहो हुई उत्कर्ष को प्राप्त होती है, इसी हेतु से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या नीललेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में, यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस स्पर्शरूप में) बारबार परिणत होती है। 1253. से णणं भंते ! गोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति ? हंता गोयमा ! णोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ णोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणति ? गोयमा ! प्रागारभावमाताए वा से सिया पलिभागभावमाताए वा सिया गोललेस्सा णं सा, णो खलु सा काउलेस्सा, तत्थ गता उस्तक्कति वा प्रोसक्कति वा, सेएणठेगं गोयमा! एवं वुच्चइ पोललेस्सा काउलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति / [1253 प्र.] भगवन् ! क्या नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बार-बार परिणत होती है ? [1253 उ.] हाँ, गौतम ! नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बारबार परिणत होती है / प्र.] भगवन् ! किस कारण से आप ऐसा कहते हैं कि नीललेश्या, कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न उसके स्वरूप में, यावत् पुनः पुनः परिणत होती है ? [उ.] गौतम ! वह (नीललेश्या) आकारभावमात्र से हो, अथवा प्रतिविम्बमात्र से (कापोतलेश्या) होती है, (वास्तव में) वह नीललेश्या ही (रहती) है; वास्तव में वह कापोतलेश्या नहीं हो जाती / वहाँ रही हुई (वह नीललेश्या) घटती-बढ़ती रहती है / इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नीललेश्या कापोतलेश्या को प्राप्त होकर न तो तद्रप में यावत् (न ही उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) बारबार परिणत होती है। 1254. एवं काउलेस्सा तेउलेस्सं पप्प, तेउलेस्सा पम्हलेसं पप्प, पम्हलेस्सा सुक्कलेम्सं पप्प / [1254] इसी प्रकार कापोतलेश्या तेजोलेश्या को प्राप्त होकर, तेजोलेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर और पद्मलेश्या शुक्ललेश्या को प्राप्त होकर (उसो के स्वरूप में, अर्थात्-वर्ण-गन्धरस-स्पर्शरूप में परिणत नहीं होती, ऐसा पूर्वयुक्तिपूर्वक समझना चाहिए / ) Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] {प्रज्ञापनासूत्र 1255. से पूर्ण भंते ! सुक्कलेस्सा पम्हलेस्सं पप्प णो तारूवत्ताए जाव परिणमति ? हंता गोयमा ! सुक्कलेस्सा तं चेव / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति सुक्कलेस्सा जाव णो परिणमति ? गोयमा ! प्रागारभावमाताए वा जाव सुक्कलेस्सा णं सा, णो खलु सा पम्हलेस्सा, तत्थ गता भोसक्कति, सेएणठेणं गोयमा! एवं वुच्चइ जाव णो परिणमति / लेस्सापदे पंचमो उद्देसनो समत्तो।। [1255 प्र.] भगवन् ! क्या शुक्ललेश्या, पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में यावत् (उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में पुनः पुनः) परिणत नहीं होतो ? [1255 उ.] हाँ, गौतम ! शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को पा कर उसके स्वरूप में परिणत नहीं होती, इत्यादि सब वही (पूर्ववत् कहना चाहिए।) [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि शुक्ललेश्या (पद्मले श्या को प्राप्त होकर) यावत् (उसके स्वरूप में तथा उसके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में) परिणत नहीं होती : [उ.] गौतम ! आकारभावमात्र से अथवा प्रतिविम्बमात्र से यावत् (वह शुक्ललश्या पद्मलेश्या-सी प्रतीत होती है), वह (वास्तव में) शुक्ललेश्या ही है, निश्चय ही वह पद्मलेश्या नहीं होती / शुक्ललेश्या वहाँ (स्वस्वरूप में) रहती हुई अपकर्ष (हीनभाव) को प्राप्त होती है / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् (शुक्ललेश्या पद्मलेश्या को प्राप्त होकर उसके स्वरूप में) परिणत नहीं होती। विवेचन-लेश्यानों के परिणामभाव की प्ररूपणा–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 1251 से 1255 तक) में एक लेश्या का दूसरी लेश्या को प्राप्त कर उसके स्वरूप में परिणत होने का निषेध किया गया है। पूर्वापर विरोधी कथन कैसे और क्या समाधान ? यहाँ अाशंका होती है कि पूर्व सूत्रों (सू. 1220 से 1225 चतुर्थ उद्देशक, परिणामाधिकार) में कृष्णादि लेश्याओं को, नीलादि लेश्याओं के स्वरूप में तथा उनके वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शरूप में परिणत होने का विधान किया गया है, परन्तु यहाँ उनके तद्रूप-परिणमन का निषेध किया गया है। ये दोनों कथन पूर्वापर विरोधी हैं / इसका क्या समाधान ? वृत्तिकार इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि पहले परिणमन का जो विधान किया गया है, वह तिर्यचों और मनुष्यों की अपेक्षा से है और इन सूत्रों में परिणमन का निषेध किया गया है, वह देवों और नारकों की अपेक्षा से है। इस प्रकार दोनों कथन विभिन्न अपेक्षाओं से होने के कारण पूर्वापरविरोधी नहीं हैं। देव और नारक अपने पूर्वभवगत अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से लेकर अागामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक उसी लेश्या में अवस्थित होते हैं / अर्थात्उनकी जो लेश्या पूर्वभव के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में थी, वही वर्तमान देवभव या नारकभव में भी कायम रहती है और आगामी भव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त में भी रहती है। इस कारण देवों और नारकों के कृष्णलेश्यादि के द्रव्यों का परस्पर सम्पर्क होने पर भी वे एक-दूसरे को अपने स्वरूप में परिणत नहीं करते। Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : पंचम उद्देशक] [317 लेश्याओं का परस्पर सम्पर्क होने पर भी एक दूसरे के रूप में परिणत क्यों नहीं? इस प्रश्न का समाधान मूल में किया गया है कि कृष्णलेश्या आकारभाव मात्र से ही अथवा प्रतिविम्बमात्र से ही नीललेश्या होती है, वास्तव में वह नीललश्या नहीं बन जाती। आकारभाव का अर्थ है- छायामात्र या सिर्फ झलक / प्राशय यह है कि कृष्णलेश्या के द्रव्यों पर नीललेश्या के द्रव्यों की छाया पड़ती है, इस कारण वह नीललेश्या-सी प्रतीत होती है। अथवा जैसे दर्पण आदि पर प्रतिविम्ब पड़ने पर दर्पणादि उस वस्त-से प्रतीत होने लगते हैं। उसी प्रकार कृष्ण लेश्या के साथ नीलले (निकटता) होने पर कृष्णलेश्या पर नीललेश्या के द्रव्यों का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तव कृष्णलेश्याद्रव्य नीललेश्याद्रव्यों के रूप में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं, किन्तु उनमें परिणम्य-परिणामकभाव घटित नहीं होता / जैसे दर्पण अपने आप में दर्पण ही रहता है, उसमें प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तु नहीं बन जाता / इसी प्रकार कृष्णलेश्या पर नीललेश्या का प्रतिबिम्ब पड़ने पर वह नीललेश्या-सी प्रतीत होती है, किन्तु वास्तव में वह नीललेश्या में परिणत नहीं होती, वह कृष्णलेश्या ही बनी रहती है। यों प्रतिबिम्ब या छाया के अभिप्राय से मूल में कहा परिणमन उसमें नहीं होता। इसी अभिप्राय से मूल में कहा गया है-वह वस्तूतः कृष्णलेश्या ही है, नीललेश्या नहीं, क्योंकि उसने अपने स्वरूप का परित्याग नहीं किया है / जैसे दर्पण आदि जपाकुसुम आदि औपाधिक द्रव्यों के सन्निधान से उनके प्रतिबिम्बमात्र को धारण करते हुए दर्पण आदि ही बने रहते हैं तथा जपाकुसुमादि भी दर्पण नहीं बन जाते / इसी प्रकार कृष्णलेश्या नीललेश्या नहीं बन जाती, अपितु कृष्णलेश्या से नीललेश्या विशुद्ध होने के कारण कृष्णलेश्या अपने स्वरूप में स्थित रहती हुई नीललेश्या के आकारभावमात्र या प्रतिबिम्बमात्र को धारण करती हुई किञ्चित् विशुद्ध हो जाती है। इसी अभिप्राय से यहां कहा गया है'तत्य गता प्रोस्सक्कति'-उस रूप में रहती हुई कृष्णलेश्या (नीललेश्या के सन्निधान से) उत्कर्ष को प्राप्त होती है। किन्तु शुक्ललेश्या से पद्मलेश्या हीनपरिणाम वाली होने से पद्मलेश्या के सन्निधान से उसके आकारभाव या प्रतिबिम्बमात्र को धारण करके कुछ अविशुद्ध हो जाती है-अपकर्ष को प्राप्त हो जाती है।' अन्य ले श्याओं के सम्बन्ध में प्रतिदेश--यद्यपि मूलपाठ में अन्य लेश्याओं सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं दी है, तथापि मूल टीकाकार ने उनके सम्बन्ध में व्याख्या की है। इसलिए शुक्ललेश्या के साथ जिस प्रकार पद्मलेश्या की वक्तव्यता है. उसी प्रकार पद्मलेश्या के साथ तेजोलेश्या, कापोतलेश्या, नीललेश्या और कृष्णालेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता, तेजोलेश्या के साथ कापोत, नील और कृष्णलेश्याविषयक वक्तव्यता, कापोतलेश्या के साथ नोल और कृष्णलेश्या-विषयक वक्तव्यता तथा नीललेश्या को लेकर कृष्णलेश्या सम्बन्धी वक्तव्यता घटित कर लेनी चाहिए। // सत्तरहवाँ लेश्यापद : पंचम उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 371-372 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 372 Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरसमं लेस्सापयं : छट्टो उद्देसओ सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक लेश्या के छह प्रकार 1256. कति णं भंते ! लेस्सायो पष्णतामो? गोयमा ! छल्लेसानो पण्णताश्रो / तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा / [1256 प्र.] भगवन् ! लेश्याएँ कितनी हैं ? [1256 उ.] गौतम ! छह लेश्याएँ कही गई हैं-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या / मनुष्यों में लेश्याओं की प्ररूपणा 1257. [1] मणसाणं भंते ! कति लेस्सानो पण्णत्ताप्रो ? गोयमा ! छल्लेसानो पण्णत्तायो / तं जहा-कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1257-1 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1257-1 उ.] गौतमः! छह लेश्याएं होती हैं / वे इस प्रकार हैं-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या। [2] मणूसोणं पुच्छा। गोयमा ! छल्लेसानो पण्णतायो। तं जहा-काहलेस्सा जाव सुक्कलेस्ता। [1257-2 प्र.] भगवन् ! मनुष्यस्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1257-2 उ.] गौतम ! (उनमें भी) छह लेश्याएं हैं—कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या / [3] कम्मभूमयमणूसाणं भंते ! कति लेस्साम्रो पण्णत्तानो ? गोयमा ! छ / तं जहाकण्हलेस्सा जाब सुक्कलेस्सा। [1257-3 प्र.] भगवन् ! कर्मभूमिक मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ हैं ? [1257-3 उ.] गौतम ! (उनमें) छह (लेश्याएँ होती हैं / ) वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या / [4] एवं कम्मभूमयमणूसीण वि। [1257-4 ] इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों को भी लेश्याविषयक प्ररूपणा करनी चाहिए। Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवां लेश्यापद : छठा उद्देशक ] [ 319 [5] भरहेरवयमणूसाणं भंते ! कति लेस्साम्रो पण्णताओ? गोयमा ! छ / तं जहा—कण्हलेस्सा जाव सुक्कलेस्सा। [1257-5 प्र.] भगवन् ! भरतक्षेत्र और ऐरवतक्षेत्र के मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ पाई जाती हैं ? [1257-5 उ.] गौतम ! (उनमें भी) छह (लश्याएँ होती हैं) यथा--कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या / [6] एवं मणस्सीण वि। [1257-6 / इसी प्रकार (इन क्षेत्रों की) मनुष्यस्त्रियों में भी (छह लेश्याओं की प्ररूपणा करनी चाहिए।) [7] पुन्वविदेह-प्रवरविदेहकम्मभूमयमणूसाणं भंते ! कति लेस्साओ पण्णताओ? गोयमा ! छ लेसानो / तं जहा–कण्हलेस्सा जाब सुक्कलेस्सा। [1257-7 प्र. भगवन ! पूर्वविदेह और अपरविदेह के कर्मभूमिज मनुष्यों में कितनी लश्याएँ होती हैं ? [1257-7 उ. गौतम ! (इन दोनों क्षेत्रों के मनुष्यों में) छह लेश्याएँ कही गई हैंकृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या / [8] एवं मणूसीण वि। [1257-8] इसी प्रकार (इन दोनों क्षेत्रों की) मनुष्यस्त्रियों में भी (छह लेश्याएँ समझनी चाहिए।) [6] प्रकम्मभूमयमणूसाणं पुच्छा ? गोयमा ! चत्तारि लेस्सानो पण्णत्तानो / तं जहा–कण्हलेस्सा जाब तेउलेस्सा। [1257-9 प्र.] भगवन् ! अकर्मभूमिज मनुष्यों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? [1257-9. उ.] गौतम ! (उनमें) चार लेश्याएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या / [10] एवं प्रकम्मभूमयमणूसीण वि / [1257-10] इसी प्रकार अकर्मभूमिज मनुष्यस्त्रियों में भी (चार लेश्याएँ कहनी चाहिए।) [11] एवं अंतरदीवयमणूसाणं मणूसीण वि / [1257-11] इसी प्रकार अन्तरद्वीपज मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में भी ( चार लेश्याएँ समझनी चाहिए।) Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [प्रज्ञापनासूत्र [12] हेमवय-एरण्णवयनकम्मभूमयमणूसाणं मणसीण य कति लेस्सानो पणत्तायो ? गोयमा! चत्तारि / तं जहा—कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा। [1257-12 प्र.] भगवन् ! हैमवत और ऐरण्यवत अकर्मभूमिज मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1257-12 उ.] गौतम ! (इन दोनों क्षेत्रों के पुरुषों और स्त्रियों में) चार लेश्याएँ होती हैं / वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या / [13] हरिवास-रम्मयप्रकम्मभूमयमणुस्साणं मणूसोण य पुच्छा ? गोयमा ! चत्तारि / तं जहा-कण्हलेस्सा जाव तेउलेस्सा। [1257-13 प्र.] भगवन् ! हरिवर्ष और रम्यकवर्ष के अकर्मभूमिज मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में कितनी लेश्याएँ होती हैं ? [1257-13 उ.] गौतम ! (इन दोनों क्षेत्रों के अकर्मभूमिज पुरुषों और स्त्रियों में) चार लेश्याएँ होती हैं / वे इस प्रकार-कृष्णलेश्या यावत् तेजोलेश्या / [14] देवकुरूत्तरकुरुप्रकम्मभूमयमणुस्साणं एवं चेव / [1257-14] देवकुरु और उत्तरकुरु क्षेत्र के प्रकर्मभूमिज मनुष्यों में भी इसी प्रकार (चार लेश्याएँ जाननी चाहिए।) [15] एतेसि चेव मणूसोणं एवं चेव / [1257-15] इन (पूर्वोक्त दोनों क्षेत्रों) को मनुष्यस्त्रियों में भी इसी प्रकार (चार लेश्याएँ समझनी चाहिए।) [16] धायइसंडपुरिमद्धे एवं चेव, पच्छिमद्ध वि / एवं पुक्खरद्ध वि भाणियव्वं / ' (1257-16] धातकीषण्ड के पूर्वार्द्ध में तथा पश्चिमार्द्ध में भी मनुष्यों और मनुष्यस्त्रियों में इसी प्रकार (चार लेश्याएँ) कहनी चाहिए / इसी प्रकार पुष्करार्द्ध द्वीप में भी कहना चाहिए। विवेचन--विभिन्न क्षेत्रीय मनुष्यों में लेश्याओं की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (1257/16 तक) में सामान्यमनुष्यों से लेकर सभी क्षेत्रों के सभी प्रकार के कर्मभूमिज और अकर्मभूमिज मनुष्यों तथा वहाँ की स्त्रियों में लेश्याओं की प्ररूपणा को गई है। निष्कर्ष प्रत्येक क्षेत्र के कर्मभूमिज मनुष्यों और स्त्रियों में छह लेश्याएँ और अकर्मभूमिक मनुष्यों और स्त्रियों में चार लेश्याएँ पाई जाती हैं। अकर्मभूमिक नर-नारियों में पद्म और शुक्ललेश्या नहीं होती। 1. ग्रन्थाग्रम् 5500 / 2. पण्णवणासुतं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 301-302 Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवा लेश्यापद : छठा उद्देशक] [321 लेश्या को लेकर गर्भोत्पत्ति सम्बन्धी प्ररूपणा 1258. [1] कण्हलेस्से गं भंते ! मण्से कण्हलेस्सं गम्भं जणेज्जा? हंता गोयमा ! जणेज्जा। [1258-1 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला मनुष्य कृष्णलेश्यावान गर्भ को उत्पन्न करता है ? [1258-1 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है। [2] कण्हस्लेसे गंभंते मणुसे गोललेस्सं गब्भं जणेज्जा ? हंता गोयमा ! जणेज्जा। [1258-2 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला मनुष्य नीललेश्यावान् गर्भ को उत्पन्न करता है ? [1258-2 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है। [3] एवं काउलेस्सं तेउलेस्सं पम्हलेस्सं सुक्कलेस्सं छप्पिमालावगा नाणियव्वा / [1258-3] इसी प्रकार (कृष्णलेश्या वाले पुरुष से) कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेल्या वाले गर्भ की उत्पत्ति के विषय में पालापक कहने चाहिए। [4] एवं गोललेसेणं काउलेसेणं तेउलेसेण वि पम्हलेसेण वि सुक्कलेसेण वि, एवं एते छत्तीसं पालावगा। {1258-4] इसी प्रकार (कृष्णवाले पुरुष की तरह) नोललेश्या वाले, कापोतलेश्या वाले, तेजोलच्या वाले, पदमलेश्या वाले और क्ललेश्या वाले प्रत्येक मनुष्य से इस प्रकार पूर्वोक्त छहों लेश्या वाले गर्भ को उत्पत्तिसम्बन्धी प्रत्येक लेश्यावाले से छह-छह आलापक होने से ये सब छत्तीस आलापक हुए। [5] कण्हलेस्सा णं भंते ! इत्थिया कण्हलेस्सं गम्भं जणेज्जा? हंता गोयमा! जणेज्जा / एवं एते वि छत्तीसं पालावगा। {1258-5 प्र.] भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाली स्त्री कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करती है ? [1258-5 उ.] हाँ, गौतम ! उत्पन्न करती है / इस प्रकार (पूर्ववत्) ये भी छत्तीस आलापक कहने चाहिए। [6] कण्हलेस्से णं भंते ! मणूसे कण्हलेसाए इत्थियाए कण्हलेस्सं गम्भं जणेज्जा ? हंता गोयमा ! जणेज्जा / एवं एते छत्तीसं पालावगा। Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [ সরাধনাম্ব [1258-6 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला मनुष्य क्या कृष्णलेश्या वाली स्त्री से कृष्णलेश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है ? [1258-6 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है / इस प्रकार (पूर्ववत्) ये भी छत्तीस आलापक हुए। [7] कम्मभूमयकण्हलेस्से णं भंते ! मणुस्से कण्हलेस्साए इथियाए कण्हलेस्सं गम्भं जणेज्जा? हंता गोयमा ! जणेज्जा एवं एते वि छत्तीसं पालावगा / [1258-7 प्र.] भगवन् ! कर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाला मनुष्य कृष्णलश्या वाली स्त्री से कृष्णलश्या वाले गर्भ को उत्पन्न करता है ? [1258-7 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है / इस प्रकार (पूर्वोक्तानुसार) ये भी छत्तीस आलापक हुए। [4] प्रकम्मभूमय कण्हलेसे णं भंते ! मणूसे अकम्मभूमयकण्हलेस्साए इस्थियाए प्रकम्ममूमयकण्हलेस्सं गब्भं जणेज्जा ? हंता गोयमा ! जणेज्जा, णवरं चउसु लेसासु सोलस पालावगा / एवं अंतरदीवगा वि / ॥छट्टो उद्देसप्रो समत्तो॥ / / पण्णवणाए भगवईए सत्तरसमं लेस्सापयं समत्तं / / [1258.8 प्र.] भगवन् ! अकर्म भूमिक कृष्ण लेश्या वाला मनुष्य अकर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाली स्त्री से अकर्मभूमिक कृष्णलेश्या वाल गर्भ को उत्पन्न करता है ? [1258-8 उ.] हाँ, गौतम ! वह उत्पन्न करता है / विशेषता यह है कि (इनमें पाई जाने वाली) चार लश्याओं से (सम्बन्धित) कल 16 आलापक होते हैं। इसी प्रकार अन्तरद्वीपज (कृष्णलश्यादि वाले मनुप्य से) भी अन्तरद्वीपज कृष्णलेश्यादि वाली स्त्री से अन्तरद्वीपज कृष्णलेश्यादि वाले गर्भ की उत्पत्ति-सम्बन्धी सोलह आलापक होते हैं। विवेचन-लेश्या को लेकर गोत्पत्तिसम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (1258.8 तक) में कृष्णादि छहों लेश्याओं वालों में से प्रत्येक लश्यावाले पुरुष से, प्रत्येक लेश्यावाली स्त्री से प्रत्येक लेश्यावाले गर्भ की उत्पत्ति का कथन किया गया है / अपने से भिन्न लेश्यावाले गर्भ को कैसे उत्पन्न करता है ?- अपने से भिन्न लश्यावाले गर्भ को उत्पन्न करने का कारण यह है कि उत्पन्न होने वाला जीव पूर्वजन्म में लेश्या को ग्रहण करके उत्पन्न होता है। वे लेश्याद्रव्य किसी जीव के कोई और किसी के कोई अन्य होते हैं। इस कारण जनक या जननी या दोनों भले ही कृष्णलेश्या में परिणत हों, जन्य जीव की लेश्या उससे भिन्न भी हो सकती है। इसी प्रकार अन्य लश्याओं के विषय में भी समझ लेना चाहिए।' 1. प्रज्ञापनामूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 376 Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तरहवाँ लेश्यापद : छठा उद्देशक ] पालापक-इस कारण कृष्णलेश्या वाला मनुष्य अपनी लेश्या वाले गर्भ के अतिरिक्त अन्य पांचों लेश्याओं वाले गर्भ को उत्पन्न करता है। इस दृष्टि से कृष्णलेश्या से पट्लेश्यात्मक गर्भ के उत्पन्न होने से एतत्सम्बन्धी छह पालापक हुए तथा शेष नोलादि लेश्याओं के भो 6-6 पालापक होने से 36 विकल्प हो गए। इसी तरह कृष्णादि छहों लेश्या वाली स्त्रियों में से प्रत्येक लेश्या वालो स्त्रो से प्रत्येक लेश्या वाले गर्भ को उत्पत्ति सम्बन्धी 36 पालापक होते हैं / कृष्णादिलेश्या वाले पुरुष द्वारा कृष्णादिलेश्या वालो स्त्री से कृष्णादिलेश्या वाले गर्भ को उत्पत्ति सम्बन्धी भो 36 आलापक हैं / फिर अकर्मभूमिक, अन्तरदोपज कृष्णादि लेश्या वाले पुरुष द्वारा तथा अक्रमभूमिक एवं प्रतरापन कृष्णादिलेश्या वालो स्त्री से इमो प्रकार को लेश्या बाले गर्भ की उत्पत्ति सम्बन्धी क्रमशः 16-16 अालापक होते हैं।' // सत्तरहवां लेश्यापद : छठा उद्देशक समाप्त // // प्रज्ञापनासूत्र : सत्तरहवां लेश्यापद सम्पूर्ण / 1. पणवणासुतं (मूलपाठ) भा. 1, पृ. 302-303 Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं कायट्टिइपयं अठारहवाँ कायस्थितिपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह अठारहवाँ 'कायस्थितिपद' पद है / * 'काय' का अर्थ यहाँ 'पर्याय' है। सामान्य रूप अथवा विशेषरूप पर्याय (काय) में किसी जीव के लगातार—निरन्तर रहने को कायस्थिति कहते हैं। प्रस्तुत कायस्थितिपद में चिन्तन प्रस्तुत किया गया है कि चौवीसदण्डकवर्ती जीव और अजीव अपनी-अपनी पर्याय में लगातार कितने काल तक रहते हैं। चतुर्थ 'स्थितिपद' और इस 'कायस्थितिपद' में यह अन्तर है कि स्थितिपद में तो चौवीसदण्डकवर्ती जीवों की भवस्थिति, अर्थात्-एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है, जबकि इस पद में यह विचार किया गया है कि एक जीव मर कर वारंवार उसी भव में जन्म लेता रहे तो, ऐसे सब भवों की परम्परा की कालमर्यादा अथवा उन सभी भवों के आयुष्य का कुल जोड़ कितना होगा ?' प्रस्तुत पद में जीव, गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, प्राहार, भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक, अस्तिकाय और चरम, इन 22 द्वारों के माध्यम से चौवीसदण्डकवर्ती समस्त जीवों की उस-उस काय में रहने की कालावधि का विचार किया गया है / प्रथम जीवद्वार-जीव का अस्तित्व सर्वकाल में है। इससे जीव का अविनाशित्व सिद्ध होता है। द्वितीय गतिद्वार में चारों गतियों के जीवों के स्त्री-पुरुष रूप पर्याय की कालावस्थिति का विचार है / तृतीय इन्द्रियद्वार में सेन्द्रिय निरिन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों की स्व-स्वपर्याय में कालावस्थिति का विचार है / चतुर्थ कायद्वार में तैजस कार्मण काय या षट्काय वाले जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर रहने की कालावधि बताई है। पंचम योगद्वार में मनोयोगी और वचनयोगी का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक का बताया है। काययोगी की कायस्थिति उत्कृष्ट वनस्पति की बताई है। छठे वेदद्वार में सवेदक, अवेदक, स्त्री-पुरुष-नपुसकवेदी की कायस्थिति बताई है। सप्तम कषायद्वार में सकषाय, अकषाय और पण्णवणासुत्तं भा. 2 प्रस्तावना, पृ. 107 से 110 तक (ख) जैनागम साहित्य : मनन और मीमांसा, पृ. 240-248 (ग) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 374 Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद। [ 325 क्रोधादिकषाययुक्त जीवों की कायस्थिति का विचार है। सप्तम लेण्याद्वार में विविध लेश्या वाले जीवों की स्वपर्याय में रहने की कालस्थिति बताई है। अष्टम सम्यक्त्वद्वार में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि वाले जीवों की पर्याय स्थिति का विचार है। इसके पश्चात् क्रमश: ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग पाहार का काल बताया है। इसके पश्चात् भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक, एवं चरम आदि द्वारों के माध्यम से तद्विशिष्ट जीव स्व-स्वपर्याय में निरन्तर कितने काल रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया / इक्कीसवें प्रस्तिकाय द्वार में धर्मास्तिकाय आदि अजीवों की काय स्थिति का विचार किया गया है।' * जन्म-मरण की परम्परा से मुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु जीवों के लिए कायस्थिति का यह चिन्तन अतीव उपयोगी है। [00 1. पग्णवणासुत्तं (मू. पा.) भा. 1, पृ. 304 से 317 तक Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठारसमं कायटिइपयं अठारहवाँ कायस्थितिपद कायस्थिति पद के अन्तर्गत बाईस द्वार१२५६. जीव 1 गतिदिय 2-3 काए 4 जोगे 5 बेदे 6 कसाय 7 लेस्सा 8 य / सम्मत्त 6 गाण 10 सण 11 संजय 12 उवओग 13 प्राहारे 14 // 21 // भासग 15 परित्त 16 पज्जत्त 17 सुहुम 18 सण्णो 16 भवऽथि 20-21 चरिमे 22 / एतेसि तु पदाणं कायठिई होति णायवा / / 212 // [1259. अधिकारसंग्रहणीगाथाओं का अर्थ ] (1) जीव, (2) गति, (3) इन्द्रिय, (4) काय, (5) योग, (6) वेद, (7) कषाय, (8) लेश्या, (9) सम्यक्त्व, (10) ज्ञान, (11) दर्शन, (12) संयत, (13) उपयोग, (14) पाहार, (15) भाषक, (16) परीत, (17) पर्याप्त, (18) सूक्ष्म, (19) संजी, (20) भव (सिद्धिक), (21) अस्ति (काय) और (22) चरम, इन पदों को कास्थिति जाननी चाहिए / / 211-212 / / विवेचन-कायस्थितिपद के अन्तर्गत बाईस द्वार-प्रस्तुत सूत्र में जीवादि बाईस पदों को लेकर कायस्थिति का वर्णन किया जाएगा, इसका दो गाथाओं द्वारा निर्देश किया गया है / __ कायस्थिति की परिभाषा-कायपद का अर्थ है-जीव-पर्याय / यहाँ कायपद से पर्याय का ग्रहण किया गया है। पर्याय के दो प्रकार हैं--सामान्यरूप और विशेषरूप / जोब का विशेषणरहित जोवत्वरूप सामान्यपर्याय है तथा नारकत्वादिरूप बिशेषपर्याय है। इस प्रकार के पर्यायरूप काय को स्थिति-अवस्थान कायस्थिति है। तात्पर्य यह है कि इस प्रकार सामान्य रूप अथवा विशेषरूप पर्याय से किसी जीव का अविच्छिन्न रूप से (निरन्तर) होना काय स्थिति है।' प्रथम-द्वितीय : जीवद्वार-गतिद्वार 1260. जीवे णं भंते ! जोवे त्ति कालमो केचिरं होइ ? गोयमा ! सम्बद्ध / दारं 1 // {1260 प्र.] भगवन् ! जीव कितने काल नक जीव (जीवपर्याय में) रहता है ? [1260 उ.] गौतम ! (वह) सदा काल रहता है। प्रथम द्वार / / 1 / / 1261. गैरइए णं भंते ! नेरइए त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। [1261 प्र.) भगवन् ! नारक नारकत्वरूप (नारकपर्याय) में कितने काल तक रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. बृत्ति, पत्रांक 374 Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कास्थितिपद] [ 327 [1261 उ.] गौतम ! (नारक) जघन्य दस हजार वर्ष तक, उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम तक (नारकपर्याय से युक्त रहता है / ) 1262. [1] तिरिक्खजोणिए णं भंते ! लिरिक्खजोणिए त्ति कालरो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं काल, अणंताप्रो उस्सपिणि प्रोसप्पिणीओ कालतो, खेत्तमो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते गं पोग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जतिभागो। [1262-1 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक (नर) कितने काल तक तिर्यग्योनिकत्व रूप में [1262-1 उ.] गौतम ! (तिर्यञ्च नर) जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक तिर्यञ्चरूप में रहता है। कालत: अनन्त उत्सपिणी-अवपिणी काल तक, क्षेत्रतः अनन्त लोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्तनों तक (तिर्यञ्च तिर्यञ्च, ही बना रहता है / ) वे पुद्गलपरावर्तन पावलिका के असंख्यातवें भाग (जितने समझने चाहिए / ) [2] तिरिक्खजोणिणो णं भंते ! तिरिक्खजोणिणोत्ति कालमो केचिरं होइ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिणि पलिग्रोवमाई पुवकोडिपत्तप्रभहियाई। | 1262-2 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चनी कितने काल तक तिर्यञ्चनी रूप में रहती है / [1226-2 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः पृथक्त्वकोटि पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक (तिर्यञ्चनी रहती है।) 1263. [1] एवं मणूसे वि / [1263-1] मनुष्य (नर) को कायस्थिति के विषय में भी (इसी प्रकार समझना चाहिए / ) [2] मणूसी वि एवं चेव / [1263-2] इसी प्रकार मानुषी (नारी) की कायस्थिति के विषय में (समझना चाहिए / ) 1264. [1] देवे णं भंते ! देवे त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहेब जेरइए (सु. 1261) / [1264-1 प्र.] भगवन् ! देव कितने काल तक देव बना रहता है ? [1264-1 उ.] गौतम ! जैसा (सू. 1261 में) नारक के विषय में कहा, वैसा ही देव (को कायस्थिति) के विषय में (कहना चाहिए / ) [2] देवी णं भंते ! देवीति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं बस वाससहस्साई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिनोवमाई। [1264-2 प्र.] भगवन् ! देवी, देवी के पर्याय में कितने काल तक रहती है ? [1264-2 उ.] गौतम ! जघन्यत: दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्टतः पचपन पल्योपम तक (देवीरूप में कायम रहती है / ) Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] [प्रज्ञापनासूत्र 1265. सिद्ध गं भंते ! सिद्ध त्ति कालो केचिरं होइ ? गोयमा! सादोए अपज्जवसिए। [1265 प्र.] भगवन् ! सिद्ध जीव कितने काल तक सिद्धपर्याय से युक्त रहता है ? [1265 उ.] गौतम ! सिद्धजीव सादि-अनन्त होता है (अर्थात्-सिद्धपर्याय सादि है, किन्तु अन्तरहित है।) 1266. [1] गैरइय-अपज्जत्तए णं भंते ! घरइय-अपज्जत्तए ति कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [1266-1 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक नारक जीव अपर्याप्तक नारकपर्याय में कितने काल तक रहता है ? 1266-1 उ.] गौतम ! अपर्याप्तक नारक जीव अपर्याप्तक नारकपर्याय में जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / [2] एवं जाव देवी अपज्जत्तिया। [1266-2] इसी प्रकार (तिर्यञ्चयोनिक-तिर्यञ्चनी, मनुष्य-मानुषी, देव और) यावत् देवी को अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहूर्त तक ही रहती है / 1267. रइयपज्जत्तए णं भंते ! णेरइयपज्जत्तए ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई। [1267 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त नारक कितने काल तक पर्याप्त नारकपर्याय में रहता है ? [1267 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तमुहर्त कम तेतीस सागरोपम तक (पर्याप्त नारकरूप में बना रहता है।) 1268. [1] तिरिक्खजोणियपज्जत्तए गं भंते ! तिरिक्खजोणियपज्जत्तए ति कालो केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिग्णि पलिग्रोवमाई अंतोमुहत्तणाई। [1268-1 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त तिर्यञ्चयोनिक कितने काल तक पर्याप्त तिर्यञ्च रूप में रहता है ? [1268-1 उ.] गौतम! (वह) जघन्य अन्तर्मुहर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम तक (पर्याप्त तिर्यञ्चरूप में रहता है / ) [2] एवं तिरिक्ख जोणिणिपज्जत्तिया वि। [1268-2] इसी प्रकार पर्याप्त तिर्यञ्चनी (तियंञ्च स्त्री) को कायस्थिति के विषय में भी (समझना चाहिए। Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद] 1266. मणूसे मणूसी वि एवं चेव / _ [1266] (पर्याप्त) मनुष्य (नर) और मानुषो (मनुष्यस्त्रो) को कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार (समझना चाहिए / ) 1270. [1] देवपज्जत्तए जहा रइयपज्जत्तए (सु. 1267) / [1270-1] पर्याप्त देव (की कायस्थिति) के विषय में (मू. 1267 में अंकित) पर्याप्त नैरयिक (की कायस्थिति) के समान (समझना चाहिए।) [2] देविपज्जत्तिया गंभंते ! देविपज्जत्तिय त्ति कालो केचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहत्तणाई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं अंतोमुत्तूणाई / दारं 2 // [1270-2 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त देवी, पर्याप्त देवी के रूप में कितने काल तक रहती है ? [1270-2 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहुर्त कम दस हजार वर्ष तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम तक पर्याप्त देवी-पर्याय में रहती है। द्वितीय द्वार / / 2 / / विवेचन-प्रथम-द्वितीय जीवद्वार-गतिद्वार-प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. 1260 से 1270) में जीवसामान्य की तथा नारकादि चार गति वाले विशष्ट जीवों की कायस्थिति का निरूपण किया गया है। जीव में सदैव निरन्तर जीवनपर्याय क्यों और कैसे ?–जीव सदा काल जीवनपर्याय से युक्त रहता है, क्योंकि जीव वही कहलाता है, जो जोवनपर्याय से: विशिष्ट हो / जीवन का अर्थ है-प्राण धारण करना। प्राण दो प्रकार के होते हैं-द्रव्यप्राण और भावप्राण / द्रव्यप्राण दस हैं-५ इन्द्रियाँ, तीन बल, उच्छ्वास-नि:श्वास और आयु / भावप्राण-ज्ञान, दर्शन, वीर्य और सुख, ये 4 हैं / संसारी जीवों में आयु:कर्म का अनुभवरूप प्राणधारण सदैव रहता है। संसारियों की ऐसी कोई भी अवस्था नहीं है, जिसमें आयुकर्म का अनुभव न हो। सिद्ध जीव द्रव्यप्राणों से रहित होने पर भी ज्ञानादिरूप भावप्राणों के सदभाव से सदैव जीवित रहता है। इस कारण संसारी अवस्था में प्रौर मुक्तावस्था में भी सर्वत्र जीवनपर्याय है, अतएव जीव में जीवनपर्याय सर्वकालभावी है। गति की अपेक्षा जीवों की कायस्थिति-नारक की कास्थितिजघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट 33 सागरोपम तक नारक नारकपर्याय से युक्त रहता है / यही नारक को कायस्थिति है / क्योंकि नारकभव का स्वभाव ही ऐसा है कि एक बार नरक से निकला हुआ जीव अगले ही भव में फिर नरक में उत्पन्न नहीं होता। इस कारण उनकी जो भवस्थिति का परिमाण है, वही उनकी कायस्थिति का परिमाण है। तिर्यञ्च नर की कायस्थिति-इसकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक की कायस्थिति इसलिए है कि जब कोई देव, मनुष्य या नारक तिर्यंचयोनिक नर के रूप में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त-पर्यन्त रह कर फिर देव, मनुष्य या नारक भव में जन्म ले लेता है, उस अवस्था में जघन्य कायस्थिति अन्तमुहूर्त को होती है। यद्यपि तिर्यञ्च की एकभवसम्बन्धी Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33.] [ प्रज्ञापनासून स्थिति तो अधिक से अधिक तीन पल्योपम की है, उससे अधिक नहीं, तथापि जो तिर्यञ्च तिर्यञ्चभव को त्याग कर लगातार तिर्यञ्चभव में ही उत्पन्न होते रहते हैं, बीच में किसी अन्य भव में उत्पन्न नहीं होते, वे अनन्तकाल तक तिर्यञ्च ही बने रहते हैं। उस अनन्तकाल का परिमाण यहाँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से बताया गया है-काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सपिणियाँ और प्रवसपिणियाँ व्यतीत हो जाती हैं, फिर भी तिर्यञ्चयोनिक तिर्यञ्चयोनिक ही बना रहता है / उस अनन्तकाल का यह परिमाण असंख्यात पुद्गलपरावर्तन समझना चाहिए। आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझने चाहिए। तिर्यग्योनिक की यह कायस्थिति वनस्पतिकायिक की अपेक्षा से है, उससे भिन्न तिर्यञ्चों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि वनस्पतिकायिक के सिवाय अन्य तिर्यंचों की कायस्थिति इतनी नहीं होती। तिर्यंचयोनिक स्त्री की कायस्थिति-इसकी कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त तक को और उत्कृष्ट पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम तक की है, क्योंकि संज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों की कायस्थिति अधिक से अधिक आठ भवों की है / असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव मृत्यु के पश्चात् अवश्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं, तिर्यंचयोनि में नहीं; अतएव सात भव करोड़ पूर्व की आयु वाले समझना चाहिए और पाठवाँ अन्तिम भव देवकुरु आदि में / इस तरह पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम समझना चाहिए। देव देवियों को कायस्थिति-देवों और देवियों की कायस्थिति भवस्थिति के अनुसार ही समझनी चाहिए / देवियों की उत्कृष्ट काय स्थिति पचपन पल्योपम की है, यह ऐशान देवियों की अपेक्षा से कही गयी है, अन्य देवियों की अपेक्षा से नहीं / सिद्धजीव की कायस्थिति सादि-अनन्त-सिद्ध जीव सादि-अनन्त होता है। सिद्धपर्याय की आदि है, अन्त नहीं। सिद्धपर्याय अक्षय है / रागादि दोष ही जन्ममरण के कारण हैं, जो सिद्ध-जीव में नहीं होते; क्योंकि रागद्वेष के कारणभूत कर्मों का वे सर्वथा क्षय कर चुकते हैं / अपर्याप्त नारक प्रादि को कायस्थिति-नारक आदि जीव अपर्याप्त नारक रूप में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, क्योंकि अपर्याप्त अवस्था अन्तर्मुहर्त से अधिक काल तक नहीं रहती / अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् पर्याप्त अवस्था प्रारम्भ हो जाती है। पर्याप्त नारक प्रादि को कायस्थिति -नारक आदि जीवों की जो समग्र स्थिति है, उसमें से अपर्याप्त अवस्था का एक अन्तमुहूर्त कम कर देने से पर्याप्त अवस्था की भवस्थिति होती है। पर्याप्त अवस्था की जो भवस्थिति है, वही पर्याप्त नारक की कायस्थिति भी है।' तृतीय इन्द्रियद्वार 1271. सइंदिए णं भंते ! सइंदिए त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! सइंदिए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रणाईए वा अपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 // [1271 प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय (इन्द्रिय सहित) जीव सेन्द्रिय रूप में कितने काल तक रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 375 से 377 तक Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद ] [331 [1271 उ.] गौतम ! सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गये हैं--१. अनादि-अनन्त और 2. अनादि-सान्त / 1272. एगिदिए णं भंते ! एगिदिए ति कालो केवचिरं होइ ? गोयमा! जहणणेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालवणप्फइकालो। [1272 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? [1272 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल-वनस्पतिकालपर्यन्त (एकेन्द्रिय रूप में रहता है।) 1273. बेइंदिए गं भंते ! बेइंदिए त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसणं संखेज्जं कालं। [1273 प्र. भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव द्वीन्द्रियरूप में कितने काल तक रहता है ? [1273 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातकाल तक (द्वीन्द्रियरूप में रहता है।) 1274. एवं तेइंदिय-चरिदिए वि। [1274] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियरूप में अवस्थिति के विषय में (समझना चाहिए / ) 1275. पंचेंदिए णं भंते ! पं.दिए त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं / [1275 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1275 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः सहस्रसागरोपम से कुछ अधिक (काल तक पंचेन्द्रिय रूप में रहता है।) 1276. अणिदिए णं 0 पुच्छा। गोयमा! सादीए अपज्जवसिए। [1276 प्र.] भगवन् ! अनिन्द्रिय (सिद्ध) जीव कितने काल तक अनिन्द्रिय बना रहता है ? [1276 उ.] गौतम ! (अनिन्द्रिय) सादि-अनन्त (काल तक अनिन्द्रियरूप में रहता है / ) 1277. सइंदियनपज्जत्तए णं भंते ! * पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णण बि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [1277 प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय-अपर्याप्तक कितने काल तक सेन्द्रिय-अपर्याप्तरूप में रहता है ? [1277 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः भी और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक (सेन्द्रियअपर्याप्तरूप में रहता है।) Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332] [ प्रज्ञापनासून 1278. एवं जाव पंचेंदियनपज्जत्तए। [1278] इसी प्रकार (एकेन्द्रिय-अपर्याप्तक से लेकर) यावत् पंचेन्द्रिय-अपर्याप्तक तक (अपर्याप्तरूप में अवस्थिति) के विषय में (समझना चाहिए।) 1276. सइंदियपज्जत्तए णं भंते ! सइंदियपज्जत्तए ति कालओ केचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगं / [1279 प्र.] भगवन् ! सेन्द्रिय-पर्याप्तक, सेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक रहता है ? [1279 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहुर्त तक तथा उत्कृष्टतः सौ पृथक्त्व सागरोपम से कुछ अधिक काल तक (सेन्द्रिय पर्याप्त जीव सेन्द्रिय-पर्याप्त बना रहता है।) 1280. एगिदियपज्जत्तए णं भंते ! * पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई। [1280 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-पर्याप्तक कितने काल तक एकेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में बना रहता है ? [1280 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह एकेन्द्रिय-पर्याप्तक रूप में बना रहता है।) 1281. बेइंदियपज्जत्तए णं भंते ! बेइंदियपज्जत्तए ति 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वासाई। [1281 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-पर्याप्तक, द्वीन्द्रिय-पर्याप्त रूप में कितने काल तक रहता है ? [1281 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक (द्वीन्द्रिय-पर्याप्त रूप में रहता है।) 1282. तेइंदियपज्जत्तए णं भंते ! तेइंदियपज्जत्तए ति 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं रातिदियाई। [1282 प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय-पर्याप्तक, त्रीन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक बना रहता है ? [1282 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (त्रीन्द्रिय-पर्याप्तरूप में रहता है / ) 1283. चरिदियपज्जत्तए णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जा मासा / [1283 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तक, चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1283 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात मास तक (चतुरिन्द्रिय-पर्याप्तरूप में बना रहता है।) Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां फायस्थितिपद] [333 1284. पंचेंदियपज्जत्तए णं भंते ! पंचेंदियपज्जत्तए ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं / दारं 3 // [1284 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय-पर्याप्तरूप में कितने काल तक रहता है ? [1284 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट सौ पृथक्त्व सागरोपमों तक (पंचेन्द्रियपर्याप्त-पर्याय में रहता है।) तृतीयद्वार // 3 // विवेचन-तृतीय इन्द्रियद्वार-प्रस्तुत 14 सूत्रों (सू. 1271 से 1284 तक) में सेन्द्रिय, निरिन्द्रिय तथा पर्याप्तक-अपर्याप्तक जीवों की उस पर्याय में अवस्थिति के विषय में निरूपण किया गया है। सेन्द्रिय-निरिन्द्रिय-इन्द्रिययुक्त जीव को सेन्द्रिय और द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय रहित जीव (सिद्ध) को निरिन्द्रिय कहते हैं। सेन्द्रिय जीव की सेन्द्रियपर्याय में अवस्थिति-सेन्द्रिय जीव दो प्रकार के कहे गए हैं-अनादिअनन्त और अनादि-सान्त / जो सेन्द्रिय है, वह नियमत: संसारी होता है और संसार अनादि है / जो सिद्ध हो जाएगा, वह अनादि-सान्त है। क्योंकि मुक्ति-अवस्था में सेन्द्रियत्व पर्याय का अभाव हो जाएगा / जो कदापि सिद्ध नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त है। क्योंकि उसके सेन्द्रियत्वपर्याय का भी अन्त नहीं होगा। अनिन्द्रिय-पर्याप्त-अपर्याप्त विशेषण से रहित हैं / सेन्द्रिय जीव पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों प्रकार के हैं / जो अपर्याप्तक हैं, वे लब्धि और करण की अपेक्षा से समझने चाहिये। दोनों प्रकार से उनकी पर्याय जघन्यतः और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहर्त प्रमाण है तथा पर्याप्त यहाँ लब्धि की अपेक्षा से समझना चाहिए। वह विग्रहगति में भी संभव है, भले ही वह करण से अपर्याप्त हो / अतएव वह उत्कृष्टतः सौ सागरोपम पृथक्त्व अर्थात् दो सौ से नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल में सिद्ध हो जाता है / अन्यथा करणपर्याप्त का काल तो अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागरोपम प्रमाण ही है / अतः पूर्वोक्त कथन सुसंगत नहीं होगा। इसलिए यहाँ और आगे भी लब्धि की अपेक्षा से ही पर्याप्तत्व समझना चाहिए।' बनस्पतिकाल का प्रमाण-कालतः अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी काल; क्षेत्रतः अनन्तलोक, असंख्यात पुद्गलपरावर्त और वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग समझना चाहिए / अर्थात् प्रावलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं, उतने पुद्गलपरावर्त यहाँ समझना चाहिए। संख्यातकाल का तात्पर्य-द्वीन्द्रिय की अवस्थिति संख्यातकाल की बताई है, उसका अर्थ संख्यात वर्ष, यानी संख्यात हजार वर्ष का काल / पंचेन्द्रिय का काल-कुछ अधिक हजार सागरोपम तक पंचेन्द्रिय जीव लगातार पंचेन्द्रिय बना रहता है / यह काल नारक, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवगति इन चारों में भ्रमण करने से होता है / 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 377-378 2. वहीं, मलय. वृत्ति, पत्रांक 377 Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 ] [प्रज्ञापनासूत्र एकेन्द्रिय पर्याप्तजीव की लगातार अवस्थिति-एकेन्द्रिय पर्याप्त उत्कृष्ट हजार वर्ष तक एकेन्द्रिय पर्याप्त रूप से बना रहता है। इसका कारण यह है पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट भवस्थिति 22 हजार वर्ष की, अप्कायिक की 7 हजार वर्ष की, वायुकायिक की 3 हजार वर्ष की और वनस्पतिकायिक की 10 हजार वर्ष की भवस्थिति है। ये सब मिलकर संख्यात हजार वर्ष होते हैं / द्वीन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति-द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक द्वीन्द्रिय पर्याप्त बना रहता है / द्वीन्द्रिय जीव की अवस्थिति का काल उत्कृष्ट बारह वर्ष का है, मगर सभी भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो हो नहीं सकती। अतएव लगातार कतिपय पर्याप्त भवों को मिलाने पर भी संख्यात वर्ष ही हो सकते हैं, सैकड़ों या हजारों वर्ष नहीं। त्रीन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति-उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक त्रीन्द्रिय पर्याप्त इसी रूप में रहता है। त्रीन्द्रिय जीव की भवस्थिति उत्कृष्ट 46 दिन की होती है। अतएव वह लगातार कतिपय भव करे तो भी सब मिलकर वे संख्यात रात्रि-दिन ही होते हैं। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति-उत्कृष्ट संख्यात मास तक वह चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकपर्याय से युक्त रहता है, क्योंकि चतुरिन्द्रिय की उत्कृष्ट भवस्थिति 6 महीने की है। अतएव वह लगातार कतिपय भव करे तो भी संख्यात मास ही होते हैं।' चतुर्थ कायद्वार 1285. सकाइए णं भंते ! सकाइए त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा! सकाइए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा–अणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 [1285 प्र.] भगवन् ! सकायिक जीव सकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1285 उ.] गौतम ! सकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) अनादिअनन्त और (2) अनादि-सान्त / 1286. पुढविक्काइए णं 0 पुच्छा ? गोयमा! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं काल', असंखेज्जारो उस्सप्पिणिप्रोसप्पिणीनो कालो, खेत्तनो प्रसंखेज्जा लोगा। [1286 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल तक लगातार पृथ्वीकायिक पर्याययुक्त रहता है ? [1286 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक; (अर्थात्) काल की अपेक्षा से-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवणियों तक (पृथ्वीकायिक पर्याय वाला बना रहता है।) क्षेत्र से असंख्यात लोक तक / 1287. एवं प्राउ-तेउ-बाउक्काइया वि / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. बृत्ति, पत्रांक 378 Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [335 [1287] इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक भी (जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक अपने-अपने पर्यायों से युक्त रहते हैं / ) 1288. वणप्फइकाइया णं 0 पुच्छा? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंतायो उस्सपिणि प्रोसप्पिणीयो कालो, खेत्तनो अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते गं पोग्गलपरियट्टा प्रावलियाए असंखेज्जइभागे। _[1288 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव कितने काल तक लगातार वनस्पतिकायिक पर्याय में रहते हैं ? [1288 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (वे) वनस्पतिकायिक पर्याययुक्त बने रहते हैं / (वह अनन्तकाल) कालत:-~-अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी परिमित एवं क्षेत्रतः अनन्त लोक प्रमाण या असंख्यात पुद्गलपरावर्त समझना चाहिए / वे पुद्गलपरावर्त प्रावलिका के असंख्यातवें भाग-प्रमाण हैं / 1286. तसकाइए गं भंते ! तसकाइए त्ति 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं. उक्कोसेणं दो सागरोबमसहस्साई संखेज्जवासप्रभइयाइं। [1286 प्र.] भगवन् ! बसकायिक जीव त्रसकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1289 उ.गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक (त्रसकायिकरूप में लगातार बना रहता है।) 1260. अकाइए गं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! अकाइए सादीए अपज्जवसिए / [1260 प्र.] भगवन् ! अकायिक कितने काल तक प्रकायिकरूप में बना रहता है ? [1290 उ.] गौतम ! अकायिक सादि-अनन्त होता है। 1261. सकाइयअपज्जत्तए णं 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं / [1291 प्र.] भगवन् ! सकायिक अपर्याप्तक कितने काल तक सकायिक अपर्याप्तक रूप में लगातार रहता है ? [1291 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (सकायिक अपर्याप्तक रूप में लगातार रहता है।) 1292. एवं जाव तसकाइयनपज्जत्तए। [1292] इसी प्रकार (अप्कायिक अपर्याप्तक से लेकर) यावत् त्रसकायिक अपर्याप्तक तक समझना चाहिए। Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336] [प्रज्ञापनासूब 1263. सकाइयपज्जत्तए पं. पुन्छा ? गोयमा ! जहाणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं / [1293 प्र.] भगवन् ! सकायिक पर्याप्तक के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है, (उसका क्या समाधान है ?) [1263 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सौ सागरोपमपृथक्त्व तक (वह सकायिक पर्याप्तकरूप में) रहता है। 1264. पुढविक्काइयपज्जत्तए णं 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साइं। [1294 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक पर्याप्तक जीव के विषय में (भी पूर्ववत्) पृच्छा है ? [1294 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में बना रहता है / ) 1265. एवं प्राऊ वि। [1295] इसी प्रकार अप्कायिक पर्याप्तक के विषय में भी समझना चाहिए। 1296. तेउक्काइयपज्जत्तए णं 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं राइंदियाई। [1296 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तक कितने काल तक (लगातार) तेजस्कायिक पर्याप्तक बना रहता है ? [1266 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (वह) तेजस्कायिक-पर्याप्तकरूप में बना रहता है। 1267. बाउक्काइयपज्जत्तए णं० पुच्छा ? गोयमा! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई। [1267 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (इसी प्रकार को) पृच्छा है ? [1267 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह वायुकायिक पर्याप्तपर्याय में रहता है।) 1268. वणप्फइकाइयपज्जत्तए पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई। [1268 प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक पर्याप्तक के विषय में भी (पूर्ववत्) प्रश्न है ? [1298 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वनस्पतिकायिक पर्याप्तक पर्याय में बना रहता है।) Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [337 1266. तसकाइयपज्जत्तए णं 0 पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं / [1266 प्र.] भगवन् ! सकायिक-पर्याप्तक कितने काल तक सकायिकपर्याय में बना रहता है ? [1266 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम-पृथक्त्व तक (वह पर्याप्त त्रसकायिक रूप में रहता है / ) 1300. सुहमे णं भंते ! सुहमे त्ति कालो केवचिरं होति ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं असंखेज्जायो उस्सप्पिणीप्रोसप्पिणीमो कालो, खेत्तनो प्रसंखेज्जा लोगा। [1300 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म रूप में रहता है ? [1300 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहुर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक, (अर्थात् ) कालत: असंख्यात उत्सपिणी अवपिणियों तक प्रो में बना रहता है।) 1301. सुहुमपुढविक्काइए सुहुमनाउक्काइए सुहुमतेउक्काइए सुहुमवाउक्काइए सुहुमवणप्फइकाइए सुहमणिगोदे वि जहणणं अंतोमुत्तं, उक्कोसणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जायो उस्सप्पिणिप्रोसप्पिणोप्रो कालो, खेत्तनो असंखेज्जा लोगा। [1301] इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक एवं सूक्ष्म निगोद भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक-(अर्थात्-) कालत:-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणियों तक एवं क्षेत्रतः असंख्यात लोक तक (ये स्व-स्वपर्याय में बने रहते हैं / 1302. सुहमे णं भंते ! अपज्जत्तए त्ति * पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं / [1302 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म अपर्याप्तक, सूक्ष्म अपर्याप्तक रूप में कितने काल तक लगातार रहता है ? [1302 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। 1303. पुढविक्काइय-प्राउक्काइय-तेउक्काइय-वाउक्काइय-वणस्सइकाइयाण य एवं चेव / [1303] (सूक्ष्म) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक (अपर्याप्तक की कायस्थिति के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए।) 1304. पज्जत्तयाण वि एवं चेव / _[1304] (इन पूर्वोक्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि के) पर्याप्तकों (के विषय में भी) ऐसा हो (समझना चाहिए।) Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 338] [प्रज्ञापनासून 1305. बादरे गं भंते ! बादरे त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाम्रो उसप्पिणिप्रोसप्पिणीयो कालतो, खेतम्रो अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग। [1305 प्र.] भगवन् ! बादर जीव, बादर जीव के रूप में (लगातार) कितने काल तक [1305 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (अर्थात्) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक, क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण (बादर जीव के रूप में लगातार रहता है / ) 1306. बादरपुढविषकाइए णं भंते ! बाबरपुढविषकाइए त्ति पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडोनो। [1306 प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक, बादर पृथ्वीकायिक रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [1306 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम तक (बादर पृथ्वीकायिक रूप में लगातार रहता है / ) 1307. एवं बादरप्राउक्काइए वि जाव बादरवाउक्काइए वि। [1307] इसी प्रकार बादर अप्कायिक एवं बादर वायुकायिक (के विषय में भी समझना चाहिए।) 1308. बादरवणस्सइकाइए गं भंते ! बादरवणस्सइकाइए त्ति पुच्छा? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं प्रसंखेज्जं कालं जाव खेत्तनो अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं / [1308 प्र.] भगवन् ! बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1308 उ.गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक, (अर्थात-) कालत:-असंख्यात उत्सपिणी-अवसपिणियों तक, क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण (बादर वनस्पतिकायिक के रूप में रहता है / ) 1306. पत्तेयसरीरबादरवणफइकाइए णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीयो। [1309 प्र.] भगवन् ! प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक (उक्त स्वपर्याय में कितने काल तक लगातार रहता है ?) [1309 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक (वह प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिकरूप में बना रहता है।) Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कास्थितिपद ] [ 339 1310. जिगोए णं भंते ! णिगोए त्ति कालो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं प्रणतं काल, प्रणंतानो उस्सप्पिणि-श्रोसप्पिणीम्रो कालो, खेत्तनो अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा / [1310 प्र.] भगवन् ! निगोद, निगोद के रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [1310 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, कालतः अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणियों तक, क्षेत्रत: ढाई पुद्गलपरिवर्त्त तक (वह निगोदपर्याय में बना रहता है / ) 1311. बादरनिगोदे णं भंते ! बादर० पुच्छा? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीनो। [1311 प्र.] भगवन् ! बादर निगोद, बादर निगोद के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1311 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्तर कोटाकोटी सागरोपम तक बादर निगोद के रूप में बना रहता है। 1312. बादरतसकाइए णं भंते ! बादरतसकाइए त्ति कालमो केवचिरं होइ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्त, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमभइयाई / [1312 प्र.] भगवन् ! बादर त्रसकायिक बादर प्रसकायिक के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1312 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम तक (वह बादर त्रसकायिक-पर्याय वाला बना रहता है।) 1313. एतेसि चेव अपज्जत्तगा सम्वे वि जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / _ [1313] इन (पूर्वोक्त) सभी (बादर जीवों) के अपर्याप्तक जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तमुहूर्त काल तक अपने-अपने पूर्व पर्यायों में बने रहते हैं / 1314. चादरपज्जत्तए णं भंते ! बादरपज्जत्त० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेमं / [1314 प्र.] भगवन् ! बादर पर्याप्तक, बादर पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक बना रहता है ? [1314 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व तक (बादर पर्याप्तक के रूप में रहता है / ) 1315. बादरपुढविक्काइयपज्जत्तए णं भंते ! बादर० पुच्छा ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं वाससहस्साई। [1315 प्र.] भगवन् ! बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक कितने काल तक बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्तक रूप में रहता है ? Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 340 ] [ प्रज्ञापनासून [1315 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक (वह बादरा पृथ्वीकायिक पर्याप्तकरूप में रहता है / ) 1316. एवं प्राउक्काइए वि। [1316] इसी प्रकार (बादर) अप्कायिक (के विषय में) भी (समझना चाहिए / ) 1317. तेउक्काइयपज्जत्तए णं भंते ! तेउक्काइयपज्जत्तए पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई राइंदियाई। [1317 प्र. भगवन् ! तेजस्कायिक पर्याप्तक, (बादर) तेजस्कायिक पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1317 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक (वह तेजस्कायिक पर्याप्तक के रूप में रहता है।) 1318. वाउक्काइए वणफइकाइए पत्तेयसरीरबायरवणष्फइकाइए य पुच्छा ? गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाई वाससहस्साई। [1318 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक (पर्याप्तक) कितने काल तक अपने-अपने पर्याय में रहते हैं ? [1318 उ.] गौतम ! ये जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्षों तक अपनेअपने पर्याय में रहते हैं।) 1316. णिगोयपज्जत्तए बादरणिगोयपज्जत्तए य पुच्छा? गोयमा ! दोणि वि जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / {1316 प्र.] भगवन् ! निगोद पर्याप्तक और बादर निगोद पर्याप्तक कितने काल तक निगोदपर्याप्तक और बादर निगोदपर्याप्तक के रूप में रहते हैं ? [1316 उ.] गौतम ! ये दोनों जघन्य भो और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (स्व-स्वपर्याय में बने रहते हैं।) 1320. बादरतसकाइयपज्जत्तए णं भंते ! बादरतसकाइयपज्जत्तए ति कालो केचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं सागरोक्मसतहपुत्तं सातिरेगं / दारं 4 // [1320 प्र.] भगवन् ! बादर सकायिक पर्याप्तक बादर सकायिक पर्याप्तक के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1320 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व पर्यन्त बादर त्रसकायिक पर्याप्तक के रूप में बना रहता है। चतुर्थ द्वार / / 4 / / Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवा कायस्थितिपद ] [ 341 विवेचन--चतुर्थ कायद्वार-प्रस्तुत छत्तीस सूत्रों (सू. 1285 से 1320 तक) में षट्काय के विभिन्न पर्यायों की अपेक्षा से कायस्थिति (उस रूप में लगातार कालावधि) की प्ररूपणा की गई है। सकायिक की व्याख्या-जो कायसहित हो, वह सकायिक कहलाता है। यद्यपि काय के पांच भेद हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण; तथापि यहाँ तैजस और कार्मण काय ही समझना चाहिए, क्योंकि ये दोनों संसार-पर्यन्त रहते हैं, अन्यथा विग्रहगति में वर्तमान एवं शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव के तैजस और कार्मण के सिवाय अन्य शरीर नहीं होते / ऐसी स्थिति में वह जीव अकायिक हो जाएगा और मूलसूत्रोक्त संसारी और संसारपारगामी, ये दो भेद नहीं बनेंगे / मूल में सकायिक के दो भेद बताए हैं-अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित / जो संसारपारगामी नहीं होगा, वह अभव्य अनादि-अनन्त-सकायिक है, क्योंकि उसके काय का व्यवच्छेद कदापि सम्भव नहीं / जो मोक्षगामी है, वह अनादि-सान्त है, क्योंकि वह मुक्ति अवस्था में सर्वात्मना सर्वशरीरों से रहित हो जाता है। यों षट्काय की दृष्टि से भी पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक तथा सकायिक, ये छह भेद हैं।' असंख्यातकाल की व्याख्या-कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणीकाल जानना चाहिए। क्षेत्रतः असंख्यात लोक समझने चाहिए। अभिप्राय यह है कि लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश है। ऐसे-ऐसे (कल्पित) असंख्यात लोकाकाशों के समस्त प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश के क्रम से अपहरण किया जाए तो जितनी उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी उस अपहरण में व्यतीत हों, उतनी ही उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी यहाँ समझना चाहिए। सारांश यह है कि अधिक से अधिक इतने काल तक सूक्ष्म जीव निरन्तर सूक्ष्म पर्याय में बना रहता है। यह प्ररूपणा सांव्यवहारिक जीवराशि की अपेक्षा से समझनी चाहिए। अव्यवहारराशि के अन्तर्गत सूक्ष्मनिगोदिया जीव की अनादिता होने से उसमें असंख्यातकाल का कथन सुसंगत नहीं हो सकता। क्षेत्र को अपेक्षा से अंगुल के प्रसंख्यातवें भाग की व्याख्या---इसका अभिप्राय यह है कि अंगुल के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश होते हैं, उनका एक-एक समय में एक-एक के हिसाब से अपहरण करने पर जितनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी व्यतीत हों, उतनी उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी यहाँ जानना चाहिए। प्रश्न होता है-अंगुल के असंख्यातवें भाग जितने स्वल्प क्षेत्र के परमाणनो का अपहरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणी एवं अवपिणी काल किस प्रकार व्यतीत हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि क्षेत्र, काल की अपेक्षा बहुत सूक्ष्म होने से ऐसा हो सकता है / कहा भी है-काल सूक्ष्म होता है, किन्तु क्षेत्र उससे भी अधिक सूक्ष्म होता है / यह कथन बादर वनस्पतिकाय की अपेक्षा से है, क्योंकि बादर वनस्पतिकाय के अतिरिक्त अन्य किसी बादर को इतने काल को स्थिति संभव नहीं है / 3 / पंचम योगद्वार 1321. सजोगी णं भंते ! सजोगि त्ति कालमो केवचिरं होइ ? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 379 2. (क) बही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 382 (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी भा. 4, पृ. 374 3. (क) वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 382 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 4, पृ. 377 Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342] [ प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सजोगी दुविहे पण्णते। तं जहा-अणादीए वा अपज्जयसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 / [1321 प्र.] भगवन् ! सयोगी जीव कितने काल तक सयोगीपर्याय में रहता है ? [1321 उ.] गौतम ! सयोगी जीव दो प्रकार के कहे हैं। वे इस प्रकार-१. अनादि-अपर्यवसित और 2. अनादि-सपर्यवसित / 1322. मणजोगी णं भंते ! मणजोगि त्ति कालो केवचिरं होइ ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / [1322 प्र.] भगवन् ! मनोयोगो कितने काल तक मनोयोगो अवस्था में रहता है ? [1322 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी अवस्था में रहता है। 1323. एवं वयजोगी वि। [1323] इसी प्रकार वचनयोगी (का वचनयोगी रूप में रहने का काल समझना चाहिए / ) 1324. कायजोगी णं भंते ! कायजोगि ति? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो। [1324 प्र.] भगवन् ! काययोगी, काययोगी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1324 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (वह काययोगीपर्याय में रहता है।) 1325. अजोगी गं भंते ! प्रजोगीति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा! सादीए अपज्जवसिए / वारं 5 // [1325 प्र.] भगवन् ! अयोगी, अयोगीपर्याय में कितने काल तक रहता है ? [1325 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित (अनन्त) है। पंचमद्वार / / 5 / / विवेचन--पंचम योगद्वार-प्रस्तुत पाँच सूत्रों (सू. 1321 से 1325 तक) में सयोगी, मनोवचन-काययोगी और अयोगी की स्व-स्वपर्याय में रहने को कालस्थिति सम्बन्धी प्ररूपणा की गयी है। ___ योग और सयोगी-अयोगों-मन, वचन और काय का व्यापार योग कहलाता है / वह योग जिसमें विद्यमान हो, वह सयोगी कहलाता है। जैनसिद्धान्त की दृष्टि से सयोगो-अवस्था तेरहवें गुणस्थानपर्यन्त रहती है / उसके पश्चात् चौदहवें गुणस्थान में जीव अयोगी हो जाता है / सिद्ध-अवस्था भो अयोगी अवस्था है. जिसको आदि तो है, पर अन्त नहीं है, क्योंकि सिद्धावस्था प्राप्त होने के बाद योगों से सर्वथा छुटकारा हो जाता है। सयोगी जीव के दो भेद-अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त / जो जोव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करेगा, सदैव कम से कम एक योग से युक्त बना रहेगा, ऐसा अभय जोव अनादि-अनन्त Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कास्थितिपद] [ 343 सयोगी है / जो जीव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सयोगी है / वह भव्य जीव है। मनोयोगी को मनोयोगिपर्याय में कालस्थिति-मनोयोगी जीव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार मनोयोगीपर्याय से युक्त रहता है। जब कोई जीव औदारिककाययोग के द्वारा प्रथम समय में मनोयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, दूसरे समय में उन्हें मन के रूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में उपरत हो (रुक) जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब वह एक समय तक मनोयोगी रहता है / उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रहता है। जब जीव निरन्तर मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण और त्याग करता रहता है, तब वह अन्तर्मुहूतं तक ही ऐसा करता है। उसके पश्चात् अवश्य ही जीव उससे स्वभावतः उपरत हो जाता है / तत्पश्चात् वह दोवारा मनोयोग्य पुदगलों का ग्रहण एवं निसर्ग करता है, किन्तु काल की सूक्ष्मता के कारण कदाचित उसे बीच के व्यवधान का संवेदन नहीं होता / तात्पर्य यह है कि मनोयोग्य पुद्गलों के ग्रहण और त्याग का यह सिलसिला अन्तर्मुहूर्त तक लगातार चालू रहता है। उसके बाद अवश्य ही उस में व्यवधान पड़ जाता है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए यहाँ मनोयोग का अधिक से अधिक काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है।' वचनयोगी की कालस्थिति-वचनयोगी की भी कालस्थिति मनोयोगी के समान है / वह भी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त तक रहता है। जीव प्रथम समय में काययोग के द्वारा भाषायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, द्वितीय समय में उन्हीं को भाषारूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में वह उपरत हो जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार वाग्योगी को एक समय लगता है। इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है, क्योंकि अन्तर्महर्त तक वह भाषायोग्य पुद्गलों का ग्रहण-निसर्ग करता हुआ अवश्य उपरत हो जाता है / जीव का स्वभाव ही ऐसा है। काययोगी की कालस्थिति-काययोगी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक लगातार काययोगी बना रहता है। द्वीन्द्रियादि जीवों में वचनयोग भी पाया जाता है। जब वचनयोग या मनोयोग भी होता है, उस समय काययोग की प्रधानता नहीं होती। अतः वह सादिसान्त होने से जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक काययोग में रहता है। उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक काययोग रहता है / वनस्पतिकाल का परिमाण पहले बताया जा चुका है। वनस्पतिकायिक जीवों में केवल काययोग ही पाया जाता है, वचनयोग और मनोयोग नहीं होता। इस कारण अन्य योग का अभाव होने से उनमें तब तक निरन्तर काययोग ही रहता है, जब तक उन्हें त्रसपर्याय प्राप्त न हो जाए। छठा वेदद्वार 1326. सवेदए णं भंते ! सवेदए ति० ? गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 अगादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणेणं 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 382 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 382-383 Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344] [ प्रज्ञापनासूत्र अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीप्रो कालो, खेत्तो अवड्ढे पोग्गलपरियट देसूणं। [1326 प्र.] भगवन् ! सवेद जीव कितने काल तक सवेदरूप में रहता है ? . [1326 उ.] गौतम ! सवेद जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा-(१) अनादि-अनन्त, (2) अनादि-सान्त और (3) सादि-सान्त / उनमें से जो सादि-सान्त है, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः अनन्तकाल तक (निरन्तर सवेदकपर्याय से युक्त रहता है / ) (अर्थात्उत्कष्टतः) काल से अनन्त उत्सपिणी-अवसपिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गलपरावर्त तक (जीव सवेद रहता है / ) 1327. इत्थिवेदे णं भंते ! इत्यिवेदे त्ति कालतो केवचिरं होति ? गोयमा ! एगेणं प्रादेसेणं जहण्णेणं एक्के समयं उक्कोसेणं दसुत्तरं पलिप्रोवमसतं पुवकोडिपृहुत्तमभहियं 1 एगेणं प्रादेसेणं जहणणं एग समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पलिग्रोवमाई पुवकोडिपुत्तमम्मइयाइं 2 एगेणं प्रादेसणं जहण्णेणं एग समयं उक्कोसेणं चोइस पलिमोवमाइं पुष्यकोडिपुहुत्तमम्भइयाई 3 एगेणं प्रादेसेणं जहण्णेणं एग समयं उक्कोसेणं पलिग्रोवमसयं पुवकोडिपुहुत्तमभइयं 4 एगेणं आदेसेणं जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं पलिग्रोवमहत्तं पुन्यकोडिपुत्तमम्मइयं 5 / [1327 प्र.] भगवन् ! स्त्रीवेदक जीव स्त्रीवेदकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1327 उ.] गौतम ! १-एक अपेक्षा (आदेश) से (वह) जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक, २-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक, ३-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक, ४-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम तक, ५-एक अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृ कोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक स्त्रीवेदी स्त्रीवेदीपर्याय में लगातार रहता है। 1328. पुरिसवेदे णं भंते ! पुरिसवेदे ति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहुत्तं सातिरेगं / [1328 प्र.] भगवन् ! पुरुषवेदक जीव पुरुषवेदकरूप में (लगातार) कितने काल तक रहता है ? [1328 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक (वह पुरुषवेदकरूप में रहता है / ) / 1326. नपुसगवेदे गं भंते ! णसगवेदे ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समय, उक्कोसेणं वणप्फइकालो। [1329 प्र.] भगवन् ! नपुसकवेदक (लगातार) कितने काल तक नपुंसकवेदकपर्याय से युक्त बना रहता है ? Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कास्थितिपद ] [345 [1326 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त वह लगातार नपुंसकवेदकरूप में रहता है / 1330. अवेदए गं भंते ! अवेदए त्ति० पुच्छा? गोयमा ! प्रवेदए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए बा सपज्जवसिए 2 / तत्थ पंजे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं / [1330 प्र.] भगवन् ! अवेदक, अवेदकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1330 उ.] गौतम ! अवेदक दो प्रकार के कहे गए हैं। वह इस प्रकार--(१) सादिअनन्त और (2) सादि-सान्त / उनमें से जो सादि-सान्त है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (निरन्तर अवेदकरूप में रहता है।) छठा द्वार // 5 // विवेचन-छठा वेदद्वार–प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू.१३२६ से 1330 तक) में सवेदक, अवेदक और स्त्री-पुरुष नपुसकवेदी की कालस्थिति का निरूपण किया गया है। त्रिविध सवेदक-(१) अनादि-अपर्यवसित-जो जीव कभी उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी को प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अपर्यवसित (अनन्त) कहलाता है, उसके वेद के उदय का कदापि विच्छेद नहीं होगा / (2) अनादि-सपर्यवसित-जिसकी आदि न हो, पर अन्त हो। जो जीव कभी न कभी उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी को प्राप्त करेगा, किन्तु जिसने अभी तक कभी प्राप्त नहीं की है, वह अनादि-सपर्यवसित सवेदक है। ऐसे जीव के उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी प्राप्त कर लेने पर वेद का उदय हट जाता है आदि-सपर्यवसित—जो जीव उपशमश्रेणी को प्राप्त हो कर वेदातीत दशा प्राप्त कर चुकता है, किन्तु उपशमश्रेणी से गिर कर पुनः सवेद-अवस्था प्राप्त कर लेता है, वह सादि-सपर्यवसित सवेदक कहलाता है।' सादि-सपर्यवसित सवेदक को कालस्थिति-ऐसे सवेदक का कालमान जघन्य अन्तर्मुहुर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल (मूलपाठोक्त कालिकपरिमाण) तक सवेदकपर्याय से युक्त निरन्तर बना रहता है। तात्पर्य यह है कि जब कोई जीव उपशमश्रेणी पर प्रारूढ़ हो कर तीनों वेदों का उपशम करके अवेदी बन जाता है, किन्तु उपशमश्रेणी से पतित हो कर फिर सवेदक अवस्था को प्राप्त करके पुन: झटपट उपशम श्रेणी को, अथवा कार्मग्रन्थिकों के मतानुसार क्षपकश्रेणी को प्राप्त करता है और फिर तीनों वेदों का अन्तर्मुहूर्त में हो उपशम या क्षय कर देता है, तब वह जीव अन्तर्मुहूर्त तक ही सवेद-अवस्था में रहता है। उत्कृष्टतः देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त तक जीव सवेद रहता है। क्योंकि उपशमश्रेणी से पतित हो कर वह जीव इतने काल तक ही संसार में परिभ्रमण करता है। इसलिए सादि-सान्त सवेदक जीव का पूर्वोक्त उत्कृष्ट कालमान सिद्ध हो जाता है / स्त्रीवेदी की पांच अपेक्षाओं से कालस्थिति का स्पष्टीकरण-स्त्रीवेदी का जघन्य कालमान एक समय का है, वह इस प्रकार है-कोई स्त्रो उपशमश्रेणी में तीनों वेदों का उपशम करके अवेदक 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 383 2. बही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 384 Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र पर्याय प्राप्त करके, तत्पश्चात् नीचे गिर कर एक समय तक स्त्रीवेद का अनुभव करे, पुनः दूसरे समय में काल करके देवों में उत्पन्न हो जाए। वहाँ बह जीव पुरुषवेदी होता है, स्त्रीवेदी नहीं। इस प्रकार स्त्रीवेदी का जघन्यकाल एक समय मात्र सिद्ध हो जाता है / (1) प्रथम प्रादेशानुसार-उत्कृष्टत: पृथक्त्वकोटिपूर्व अधिक एक सौ दस पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-कोई जीव करोड़ पूर्व की आयुवाली स्त्रियों में या तिर्यंचनियों में पांच-छह भव करके ईशान कल्प में पचपन पल्योपम की आयु की उत्कृष्ट स्थिति बाली अपरिगहीता देवियों में देवी रूप में उत्पन्न हो और आयु का क्षय होने पर वहाँ से च्यव कर पूनः कोटिपर्व की आयु वाली स्त्रियों में अथवा तिर्यंचनियों में स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, उसके पश्चात पुनः दूसरी बार ईशानकल्प में पचपन पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली परिगृहीता देवियों में देवीरूप में उत्पन्न हो उसके पश्चात् तो उसे अवश्य ही दूसरे वेद की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक निरन्तर स्त्रीवेदी का स्त्रीवेदपर्याय से युक्त होना सिद्ध होता है। (2) द्वितीय प्रादेशानुसार-पूर्वकोटिपथक्त्व-अधिक प्रठारह पल्योपम का स्पष्टीकरणकोई जीव पूर्ववत् करोड़पूर्व की आयु वाली नारियों या तिर्यंचनियों में पांच-छह भवों का अनुभव करके पूर्वोक्त प्रकार से दो बार ईशानदेवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाली देवियों में उत्पन्न हो, वह भी परिगृहीता देवियों में उत्पन्न हो, अपरिगृहीता देवियों में नहीं। ऐसी स्थिति में स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कालस्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम की सिद्ध होती है / (3) तृतीय प्रादेशानुसार-उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक चौदह पल्योपम कालमान का -कोई जीव सौधर्मदेवलोक में सात पल्योपम की उत्कृष्ट प्राय वाली परिगहीता देवियों में दो बार उत्पन्न होता है। इस प्रकार दो बार देवीभवों के चौदह पल्योपम और नारियों या तिर्यंचनियों के भवों के कोटिपूर्वपृथक्त्व अधिक, स्त्रीवेदी का अस्तित्व होने से स्त्रीवेदी की निरन्तर कालावस्थिति कोटिपूर्वपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक सिद्ध होती है। (4) चतुर्थ प्रादेशानुसार-पूर्वकोटिपृथक्त्व-अधिक सौ पल्योपम कालमान का स्पष्टीकरणकोई जीव सौधर्म देवलोक में 50 पल्योपम को उत्कृष्ट प्राय वाली अपरिगहीता देवियों में पूर्वोक्त प्रकार से दो बार देवी रूप में उत्पन्न हो, तो स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम की सिद्ध हो जाती है। (5) पंचम आदेशानुसार-उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व कालमान का स्पष्टीकरण-नाना भवों में भ्रमण करते हुए कोई भी जीव अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक से अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक ही लगातार स्त्रीवेदी रह सकता है, इससे अधिक नहीं, क्योंकि पूर्वकोटि की आयु वाली नारियों में या तिर्यञ्चनियों में सात भवों का अनुभव करके आठवें भव में देवकुरु आदि क्षेत्रों में तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो, तत्पश्चात् काल करके सौधर्मदेवलोक में जघन्य स्थिति वाली देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो तो तदनन्तर अवश्य ही वह जीव दूसरे वेद को प्राप्त हो जाता है / इस दृष्टि से स्त्रीवेदी की उत्कृष्ट स्थिति लगातार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व सिद्ध हो जाती है।' 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति., पत्रांक 384-385 Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कम्यस्थितिपद ] [347 प्रवेदक जीव की स्थिति-अवेदक जीव दो प्रकार के हैं-सादि-अपर्यवसित और सादिसपर्यवसित / जो जीव क्षपकश्रेणी को प्राप्त करके अबेदी हो जाता है, वह सादि-अपर्यवसित अवेदी कहलाता है, क्योंकि ऐसा जीव फिर कभी सवेदी नहीं हो सकता। जो जीव उपशमश्रेणी को प्राप्त करके अवेदक होता है, वह सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि उसकी अवेद-अवस्था की प्रादि भी है और गिर कर नौवें गुणस्थान में आने पर अन्त भी हो जाता है / इनमें से जो सादि-सपर्यवसित अवेदक है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर अवेदक रहता है, क्योंकि जो जीव एक समय तक अवेदक रह कर दूसरे ही समय में मर कर देवगति में जन्म लेता है, वह पुरुषवेद का उदय होने से सवेदक हो जाता है / इस कारण यहाँ अवेदक का कालमान जघन्य एक समय कहा है / उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कहने का कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् श्रेणी से पतित होने पर उसके वेद का उदय हो जाता है / नपुंसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति-नपुसकवेदी की उत्कृष्ट कालावस्थिति वनस्पतिकाल तक अर्थात-अनन्तकाल तक की बताई है, उसका कारण यह है कि वनस्पति के जीव नसकवेदी होते हैं, और उनका काल अनन्त है।' सातवाँ कषायद्वार 1331. सकसाई णं भंते ! सकसाईति कालमो केवचिरं होइ ? / गोयमा ! सकसाई तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 जाव (सु. 1326) प्रवड्ढे पोग्गलपरियट देसूणं / [1331 प्र.] भगवन् ! सकषायी जीव कितने काल तक सकषायीरूप में रहता है ? [1331 उ.] गौतम ! सकषायी जीव तीन प्रकार के कहे हैं / वे इस प्रकार--(१) अनादिअपर्यवसित. (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जोस है, उसका कथन सू. 1326 में उक्त सादि-सपर्यवसित सवेदक के कथनानुसार यावत् क्षेत्रत: देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (करना चाहिए।) 1332. कोहकसाई णं भंते ! कोहकसाई त्ति पुच्छा? . गोयमा ! जहणेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / एवं जाव मायकसाई / [1332 प्र.] भगवन् ! क्रोधकषायी क्रोधकषायीपर्याय से युक्त कितने काल तक रहता है ? [1332 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः भी और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक (क्रोधकषायी रूप में रहता है / ) इसी प्रकार यावत् (मानकषायी और) मायाकषायी (की कालावस्थिति कहनी चाहिए। 1333. लोभकसाई णं भंते ! लोभ० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुत्तं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 385 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृष्ठ 399-400 Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [ प्रज्ञापनासूत्र [1333 प्र.] भगवन् ! लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में कितने काल तक (लगातार) रहता है ? [1333 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (लोभकषायी निरन्तर लोभकषायीपर्याय से युक्त रहता है।) 1334. अकसाई णं भंते ! अकसाई ति कालतो केवचिरं होइ? गोयमा ! प्रकसाई दुविहे पण्णत्ते। तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा सपज्जवसिए 2 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णणं एक्कं समयं, उक्कोसणं अंतोमुहत्तं / दारं 7 // {1334 प्र.] भगवन् ! अकषायी, अकषायी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1334 उ.] गौतम ! अकषायी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) सादिअपर्यवसित और (2) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अकषायीरूप में रहता है।) सप्तम द्वार / / 7 / / विवेचन—सप्तम कषायद्वार-प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 1331 से 1334 तक) में सकषायी, अकषायी तथा क्रोधादिकषायी के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थित रहने का कालमान बताया गया है। त्रिविध सकषायी की व्याख्या-जो जीव कषायसहित होता है, वह सकषायी कहलाता है / कषाय जीव का एक विकारी परिणाम है। सकषायी जीव तीन प्रकार के होते हैं--(१) अनादिअनन्त-जो जीव उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी को कदापि प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त सकषायी है, क्योंकि उसके कषाय का कभी विच्छेद नहीं हो सकता / (2) अनादि-सान्त-जो जीव कभी उपशमश्रेणी या क्षयकश्रेणी को प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सकषायो है, क्योंकि उपशम पकश्रेणी प्राप्त करने पर ग्यारहवें गणस्थान में या बारहवें गुणस्थान में उसके कषायोदय का विच्छेद हो जाता है। (3) सादि-सान्त--जो जीव उपशमश्रेणी प्राप्त करके और अकषायी होकर पुन: उपशमश्रेणी से प्रतिपतित होकर सकषायी हो जाता है, वह सादि-सान्त सकषायी कहलाता है। क्योंकि उसके कषायोदय की आदि भी है और भविष्य में पुनः कषायोदय का अन्त भी हो जाएगा। इनमें जो सादि-सान्त सकषायी है, वह जघन्य अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक निरन्तर सकषायी रहता है। इस विषय में अनन्तकाल का काल और क्षेत्र की दृष्टि से परिमाण और तद्विषयक युक्ति सवेदी की तरह समझनी चाहिए। क्रोध-मान-मायाकषायी की कालावस्थिति-क्रोध, मान और माया कषाय से युक्त जीव निरन्तर क्रोधादि कषायों के रूप में अन्तमदत तक ही रहते हैं. क्योंकि क्रोधादि किसी एक कषाय का उदय (विशिष्ट उपयोग) कम से कम और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकता है / जीव का स्वभाव ही ऐसा है कि क्रोधादि कषाय का उदय अन्तर्मुहर्त के अधिक नहीं रहता / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 386 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयवोधिनी टीका भाग 4, पृ. 404 Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद [349 लोभकषायो जीव की कालावस्थिति-जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में निरन्तर रहता है। जब कोई उपशमक जीव उपशमश्रेणी का अन्त होने पर (ग्यारहवें गुणस्थान में) उपशान्तराग होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरता है और लोभ के अंश के वेदन के प्रथम समय में ही मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में उत्पन्न होता है तथा क्रोधकषायो, मानकषायी और मायाकषायो होता है, उस समय एक समय तक लोभकषायी पाया जाता है। प्रश्न किया जा सकता है कि जो युक्ति लोभकषाय के सम्बन्ध में दी गई है, उसी युक्ति के अनुसार क्रोधादि का भी जघन्य एक समय तक रहना क्यों नहीं बतलाया गया? इसका समाधान यह है कि यद्यपि उपशमश्रेणी से गिरता हा जीव क्रोधकषाय के वेदन के प्रथम समय में, मान के वेदन के प्रथम समय में अथवा माया के वेदन के प्रथम समय में मृत्यु पाकर देवलोक में उत्पन्न होता है तथापि स्वभाववशात् जिस कषाय के उदय के साथ जीव ने काल किया है, वही कषाय आगामी भव में भी अन्तर्मुहूर्त तक रहती है / इसी से अधिकृत सूत्र के प्रामाण्य से ज्ञात होता है कि क्रोध, मान और माया कषाय अनेक समय तक रहती हैं। अकषायी की कालावस्थिति-अकषायी-विषयक सूत्र अवेदक-सूत्र की युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। क्षपकश्रेणी प्राप्त अकषायी सादि-अनन्त होता है, क्योंकि क्षपकश्रेणी से उसका प्रतिपात नहीं होता। किन्तु जो उपशमश्रेणी-प्रारूढ़ होकर अकषायी होता है, वह सादि-सान्त होता है / अतः जघन्य एक समय तक अकषायपर्याय से युक्त रहता है / एक समय अकषायी होकर दूसरे समय में वह मर कर तत्काल (उसी समय में) देवलोक में उत्पन्न होता है और कषाय के उदय से सकषायी हो जाता है / इस कारण अकषायित्व का जघन्यकाल एक समय का है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वह अकषायी रहता है, तत्पश्चात् उपशमश्रेणी से अवश्य ही पतित होकर सकषायी हो जाता है। पाठवाँ लेश्याद्वार 1335. सलेस्से णं भंते ! सेलेसे त्ति * पुच्छा ? गोयमा ! सलेसे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-अणादोए वा प्रपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 // [1335 प्र.] भगवन् ! सलेश्यजीव सलेश्य-अवस्था में कितने काल तक रहता है ? [1335 उ.] गौतम ! सलेश्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित और (2) अनादि-सपर्यवसित / 1336. कण्हलेसे णं भंते ! कण्हलेसे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तब्भइयाई / [1336 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने काल तक कृष्णलेश्या वाला रहता है ? [1336 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक (लगातार कृष्णलेश्या वाला रहता है)। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 386 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग 4, पृ. 408 Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 [प्रज्ञापनासूत्र 1337. णीललेसे गं भंते ! णीललेसे ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाई पलिग्रोवमासंखेज्जइभागन्भइयाई। {1337 प्र.] भगवन् ! नीललेश्या वाला जीव कितने काल तक नीललेश्या वाला रहता है ? [1337 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम तक (लगातार नीललेश्या वाला रहता है)। 1338. काउलेस्से 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिणि सागरोवमाई पलिग्रोवमासंखेज्जइभागभइयाई। [1338 प्र.] भगवन् ! कापोतलेश्यावान् जीव कितने काल तक कापोतलेश्या वाला रहता है ? [1338 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम तक (कापोतलेश्या वाला लगातार रहता है)। 1336. तेउलेस्सेणं० पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेणं दो सागरोवमाइं पलिग्रोवमासंखेज्जहभागभइयाई। [1339 प्र.] भगवन् ! तेजोलेश्यावान् जीव कितने काल तक तेजोलेश्या वाला रहता है ? __[1336 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम तक (तेजोलेश्यायुक्त रहता है)। 1340. पम्हलेस्से पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं दस सागरोवमाइं अंतोमुत्त भइयाई। [1340 प्र.] भगवन् ! पद्मलेश्यावान् जीव कितने काल तक पद्मलेश्या वाला रहता है ? [1340 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम तक (पद्मलेश्या से युक्त रहता है)। 1341. सुश्कलेस्से गं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहष्णेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तम्भइयाई / [1341 प्र.] भगवन् ! शुक्ललेश्यावान् जीव कितने काल तक शुक्ललेश्या वाला रहता है ? . 1341 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक (शुक्ललेश्या वाला रहता है)। Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवाँ कायस्थितिपद] [351 1342. अलेसे पं० पुच्छा? गोयमा ! सादोए अपज्जवसिए / दारं 8 / / [1342 प्र.] भगवन् ! अलेश्यी जीव कितने काल तक अलेश्यीरूप में रहता है ? [1342 उ.] गौतम ! (अलेश्य-अवस्था) सादि-अपर्यवसित है / अष्टम द्वार / / 8 / / विवेचन–अष्टम लेश्याद्वार-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 1335 से 1342 तक) में सलेश्य, अलेश्य तथा कृष्णादि षट्लेश्या वाले जीवों का स्व-स्व-पर्याय में रहने का कालमान प्ररूपित किया गया है। द्विविध सलेश्य जीवों की कालावस्थिति-जो लेश्या से युक्त हों, वे सलेश्य कहलाते हैं / वे दो प्रकार के हैं—(१) अनादि अपर्यवसित-जो कदापि संसार का अन्त नहीं कर सकते, (2) अनादिसपर्यवसित-जो संसारपारगामी हों। लेश्याओं का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल-तिर्यञ्चों और मनुष्यों के लेश्याद्रव्य अन्तर्मुहर्त तक रहते हैं, उसके बाद अवश्य ही बदल जाते हैं। किन्तु देवों और नारकों के लेश्याद्रव्य पूर्वभव सम्बन्धी अन्तिम अन्तर्मुहूर्त से प्रारम्भ होकर परभव के प्रथम अन्तर्मुहूर्त तक स्थायी रहते हैं। इसलिए लेश्याओं का जघन्यकाल (अन्तर्मुहूर्त) सर्वत्र मनुष्यों और तिर्यञ्चों की अपेक्षा से तथा उत्कृष्ट काल देवों और नारकों की अपेक्षा से जानना चाहिए।' यहाँ उत्कृष्ट लेश्याकाल विभिन्न प्रकार का है। वह इस प्रकार है कृष्णलेश्यी का उत्कष्टकाल-.-कष्णलेश्या का उत्कष्टकाल अन्तमहत अधिक तेतीस सागरोपम का कहा है, वह सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से जानना चाहिए। क्योंकि सप्तम नरकपृथ्वी के नारक कृष्णलेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की होती है तथा पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दो अन्तर्मुहूर्त हैं, वे दोनों मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त ही होते हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के भी असंख्य भेद हैं। नीललेश्यो का उत्कृष्टकाल-पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागरोपम का है। यह लमान पांचवीं नरकपृथ्वी को अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि पांचवें नरक के प्रथम पाथड़े (प्रस्तट) में नीललेश्या होती है। उक्त पाथड़े में उपर्युक्त स्थिति होती है / पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तमुहर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग में ही सम्मिलित हो जाते हैं। अतएव उनकी पृथक् विवक्षा नहीं की गई है। कापोतलेश्यो का उत्कृष्ट काल-पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागरोपम कहा गया है / वह तीसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि तीसरी नरकपृथ्वी के प्रथम पाथड़े में इतनी स्थिति है और उसमें कापोतलेश्या भी होती है। तेजोलेश्यी जीव का उत्कष्टकाल-पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागरोपम कहा गया है। यह ईशान देवलोक की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि ईशान देवलोक के देवों में तेजोलेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति भी यही है / पद्मलेश्यो जीव का उत्कृष्टकाल-अन्तर्मुहूर्त अधिक दस सागरोपम का कहा गया है / वह 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पृ. 386 Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352] [प्रज्ञापनासूत्र ब्रह्मलोक कल्प की अपेक्षा से समझना चाहिए / ब्रह्मलोक के देव पद्मलेश्या वाले होते हैं और उनकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम की है / पूर्वभव और उत्तरभव सम्बन्धी दोनों अन्तर्मुहूर्त एक ही अन्तमुहूर्त में समाविष्ट हो जाते हैं, इसी कारण यहाँ अन्तर्मुहूर्त अधिक कहा गया है। शुक्ललेश्यावान् का उत्कृष्ट काल-अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम कहा गया है। यह कथन अनुत्तरविमानवासी देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि उनमें शुक्ललेश्या होती है और उनकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। अन्तर्मुहूर्त अधिक पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए।' प्रलेश्य जीवों की कालावस्थिति–अलेश्य जीव अयोगीकेवली और सिद्ध होते हैं, वे सदाकाल लेश्यातीत रहते हैं / इसलिए अलेश्य अवस्था को सादि-अनन्त कहा गया है / नौवाँ सम्यक्त्वद्वार--- 1343. सम्म हिट्ठी णं भंते ! सम्मद्दिढि० केचिरं होइ ? गोयमा ! सम्मविट्ठी दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा सपज्जवसिए 2 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं छावद्धि सागरोवमाई सातिरेगाई। [1343 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि कितने काल तक सम्यग्दृष्टिरूप में रहता है ? [1343 उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--(१) सादिअपर्यवसित और (2) सादि-सपर्यवसित। इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक (सादि-सपर्यवसित सम्यग्दृष्टि रूप में रहता है।) 1344. मिच्छद्दिट्ठी णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! मिच्छट्ठिी तिविहे पणत्ते / तं जहा-प्रणादोए वा अपज्जवसिए 1 प्रणाईए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ गंजे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं प्रणतं कालं, अणंतानो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोप्रो कालो, खेत्तो प्रवड्ढे पोग्गलपरियट देसूगं। [1344 प्र.] भगवन् ! मिथ्या दृष्टि कितने काल तक मिथ्यादृष्टिरूप में रहता है ? [1344 उ.] गौतम ! मिथ्यादृष्टि तीन प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित, (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित / इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक; (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त 1. (क) 'पंचमियाए मिस्सा'। (ख) 'तईयाए मीसिया।' (ग) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 387 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 387 Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद 1 [ 353 उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक और क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त तक (मिथ्यादृष्टिपर्याय से युक्त रहता है / ) 1345. सम्मामिच्छद्दिट्ठी पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहणण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / दारं // [1345 प्र.] भगवन् ! सम्यमिथ्यादृष्टि कितने काल तक सम्यमिथ्यादृष्टि बना रहता है ? 1345 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक सम्यमिथ्यादृष्टिपर्याय में रहता है ! नौवाँ द्वार / / 6 / / विवेचन-नौवाँ सम्यक्त्वद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1343 से 1345 तक) में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि इन तीनों के स्व-स्वपर्याय को कालस्थिति का निरूपण किया गया है। सम्यग्दृष्टि की व्याख्या-जिसको दृष्टि सम्यक्, यथार्थ या अविपरीत हो अथवा जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व पर जिसको श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि सम्यक् हो, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं / सम्यग्दृष्टि दो प्रकार के होते हैं सादि-अनन्त-जिसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है, वह सादि-अनन्त सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि एक बार उत्पन्न होने पर क्षायिक सम्यक्त्व का विनाश नहीं होता। क्षायोपशमिक और प्रौपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि सादि-सान्त होता है, क्योंकि ये दोनों सम्यक्त्व अनन्त नहीं, सान्त हैं। प्रौपशमिक सम्यक्त्व अन्तमुहर्त तक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व छियासठ सागरोपम तक रहता है। इसी अपेक्षा से कहा गया है कि सादि-सान्त म्यग्दष्टि जघन्य अन्तमुहर्त तक सम्यग्दष्टिपर्याययुक्त रहता है, उसके पश्चात उसे मिथ्यात्व को प्राप्ति हो जाती है। यह कथन औपशमिक सम्यक्त्व की दृष्टि से है / उत्कृष्ट किंचित् अधिक 66 सागरोपम तक सम्यग्दृष्टि बना रहता है। यह कथन क्षायोपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा से है / यदि कोई जीव दो बार विजयादि विमानों में सम्यक्त्व के साथ उत्पन्न हो अथवा तीन बार अच्युतकल्प में उत्पन्न हो तो छियासठ सागरोपम व्यतीत हो जाते हैं और जो किञ्चित् अधिक काल कहा है, वह बीच के मनूष्यभवों का समझना चाहिए।' त्रिविमिथ्यादृष्टि-(१) अनादि-अनन्त--जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि है और अनन्तकाल तक बना रहेगा, वह अभव्यजीव, (2) प्रनादि-सान्त—जो अनादिकाल से मिथ्यादृष्टि तो है, किन्तु भविष्य में जिसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होगी, (3) सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि-जो सम्यक्त्व को प्राप्त करने के पश्चात् पुनःमिथ्यादृष्टि हो गया है और भविष्य में पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करेगा। इन तीनों में से जो सादि-सान्त मिथ्यादष्टि है, वह जघन्य अन्तमुहर्त तक मिथ्यादष्टि रहता है / अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि रहने के पश्चात् उसे पुन: सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है / उत्कृष्ट 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 387-388 (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, प्र. 420-421 (ग) "दो बारे विजयाइसु गयस्स तिग्निचए अहव ताई / अइरेगं नरभवियं.................................. " Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354] [प्रज्ञापनासूत्र अनन्तकाल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है और अनन्तकाल व्यतीत होने के पश्चात् उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है। अनन्तकाल-कालत: अनन्त उत्सपिणी-अवपिणियां समझनी चाहिए तथा क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध (क्षेत्र) पुद्गल परावर्तन सर्वत्र समझना चाहिए।' सम्यगमिथ्यादष्टि की कालावस्थिति-मिश्रदष्टि अन्तर्मुहर्त के पश्चात् नहीं रहती। अन्तमुहूर्त के पश्चात् मिश्रदृष्टि वाला जीव या तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है, या मिथ्यादृष्टि हो जाता है, इसलिए सम्यगमिथ्यादृष्टि का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का ही समझना चाहिए। दसवाँ ज्ञानद्वार 1346. गाणी णं भंते ! गाणीति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! गाणी दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सावीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा सपज्जबसिए 2 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाई साइरेगाई। [1346 प्र.] भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ? [1346 उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--(१) सादि-अपर्यबसित और (2) सादि-सपर्यवसित / इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक (लगातार ज्ञानीरूप में बना रहता है।) 1347. प्रामिणिबोहियणाणी णं भंते ! * पुच्छा? गोयमा ! एवं चेव / [1347 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी प्राभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1347 उ.] गौतम ! (सामान्य ज्ञानी के विषय में जैसा कहा है,) इसी प्रकार (इसके विषय में समझ लेना चाहिए।) 1348, एवं सुयणाणी वि। [1348] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी (का भी कालमान समझ लेना चाहिए / ) 1346. रोहिणाणी वि एवं चेव / णवरं जहणेणं एक्कं समयं / [1349] अवधिज्ञानी का कालमान भी इसी प्रकार है, विशेषता यह है कि वह जघन्य एक समय तक ही (अवधिज्ञानी के रूप में रहता है।) 1350. मणपज्जवणाणी गं भंते ! मणपज्जवणाणीति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूर्ण पुवकोडिं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 388 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 388-389 Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कास्थितिपद | [355 [1350 प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर) मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है ? [1350 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि (करोड़पूर्व) तक (सतत मन:पर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है / ) 1351, केवलणाणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / [1351 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी, केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1351 उ.] गौतम ! (केवलज्ञानी-पर्याय) सादि-अपर्यवसित होती है। 1352. अण्णाणी-मइअण्णाणी-सुयअण्णाणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! अण्णाणी मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी तिबिहे पण्णत्ते। तं जहा--प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंतानो उस्सपिणि ओसप्पिणीयो कालयो, खेत्तयो प्रवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं। [1352 प्र.} भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर स्व-पर्याय में रहते हैं ?) [1352 उ.] गौतम ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तोन-तीन प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार--(१) अनादि-अपर्यवसित, (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गल-परावर्त तक (निरन्तर स्व-स्वपर्याय में रहते हैं / ) 1353. विभंगणाणी शंभंते ! 0 पुच्छा? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुब्धकोडीए अब्भ• इयाई / दारं 10 // {1353 प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञानी कितने काल तक विभंगज्ञानो के रूप में रहता है ? [1353 उ ] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक (वह विभंगज्ञानी-पर्याय में लगातार बना रहता है।) दसवाँ द्वार // 10 // विवेचन-दसवाँ ज्ञानद्वार-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 1346 से 1353 तक) में सामान्य ज्ञानी, आभिनिबोधिक प्रादि ज्ञानी, अज्ञानी, मत्यादि अज्ञानी, स्व-स्वपर्याय में कितने काल तक रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है / ज्ञानी-प्रज्ञानी को परिभाषा-जिसमें सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान हो, वह ज्ञानी कहलाता है; जिसमें सम्यग्ज्ञान न हो, वह अज्ञानी कहलाता है / Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 ] [प्रज्ञापनासूत्र द्विविध ज्ञानी----(१) सादि-अपर्यवसित-जिस जीव को सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् सदैव बना रहे, वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि ज्ञानी या केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित ज्ञानी है / (2) सादि. सपर्यवसित--जिसका सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन का अभाव होने पर नष्ट होने वाला है, वह सादिसपर्यवसित ज्ञानी है। केवलज्ञान के सिवाय अन्य ज्ञानों की अपेक्षा ऐसा ज्ञानी सादि-सपर्यवसित कहलाता है, क्योंकि वे ज्ञान नियतकालभावी हैं, अनन्त नहीं हैं। इन दोनों में से सादि-सान्त ज्ञानीअवस्था जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक रहती है, उसके पश्चात् मिथ्यात्व के उदय से ज्ञानपरिणाम का विनाश हो जाता है। उत्कृष्टकाल जो 66 सागरोपम से कुछ अधिक कहा गया है, उसका स्पष्टीकरण सम्यग्दृष्टि के समान ही समझ लेना चाहिए, क्योंकि सम्यग्दृष्टि ही ज्ञानी होता है।' अवधिज्ञानी का अवस्थानकाल---अवधिज्ञानी का जघन्य अवस्थानकाल एक समय का है, अन्तर्मुहूर्त का नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी कोई तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य अथवा देव जब सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तो सम्यक्त्व की प्राप्ति होते ही उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। किन्तु देव के च्यवन के कारण और अन्य जीव की मृत्यु होने पर या अन्य कारणों से अनन्तर समय में ही जब वह अवधिज्ञान नष्ट हो जाता है, तब उसका अवस्थान एक समय तक रहता है। इसकी उत्कृष्ट अवस्थिति 66 सागरोपम की है / वह इस प्रकार से है-अप्रतिपातीअवधिज्ञान प्राप्त जीव दो बार विजय आदि विमानों में जाता है, अथवा तीन बार अच्युतदेवलोक में उत्पन्न होता है, तब उसकी स्थिति छियासठ सागरोपम की होती है। मनःपर्यवज्ञानी का अवस्थानकाल-मन:पर्यवज्ञानी मनःपर्यवज्ञानी-अवस्था में जघन्य एक समय तक रहता है। जब अप्रमत्त अवस्था में वर्तमानः किसी संयत को मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है और अप्रमत्तसंयत-अवस्था में ही उसको मृत्यु हो जाती है, तब वह मनःपर्यवज्ञानी एक समय तक ही मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है। उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक अवस्थिति का कारण यह है कि इससे अधिक संयम रहता ही नहीं है और संयम के अभाव में मनःपर्यवज्ञान भी रह नहीं सकता। त्रिविध प्रज्ञानी, मत्यज्ञानी तथा श्रुताज्ञानी-अनादि-अनन्त-जिसने कभी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया है और जो भविष्य में भी ज्ञान प्राप्त नहीं करेगा, वह अनादि-अनन्त अज्ञानी है। (2) अनादि-सान्त--जिसने कभी ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, किन्तु कभी प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त अज्ञानी है। (3) सादि-सान्त-जो जीव सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके पुन: मिथ्यात्वोदय से अज्ञानी हो गया हो, किन्तु भविष्य में पुन: ज्ञान प्राप्त करेगा, वह सादि-सान्त अज्ञानी है। सादि-सान्त अज्ञानी लगातार जघन्य अन्तमुहूर्त तक अज्ञानी-पर्याय से युक्त रहता है, तत्पश्चात् सम्यक्त्व प्राप्त करके ज्ञानी बन जाता है, उसकी अज्ञानी-पर्याय नष्ट हो जाती है। उत्कृष्ट अनन्तकाल तक वह अज्ञानी रहता है, इसका कारण पहले कहा चुका है। इतने काल (अनन्त उत्सपिणी-अवसर्पिणीकाल) के अनन्तर उस जीव को अवश्य ही सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और उसका अज्ञानपरिणाम दूर हो जाता है। विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल–वह जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक --.-..-- - - - - - 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 389 2. वही, मलय. वत्ति, पत्रांक 389 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 389-390 Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [ 357 तेतीस सागरोपम तक विभंगज्ञानी बना रहता है। जब कोई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य अथवा देव सम्यग्दृष्टि होकर अवधिज्ञानी होता है और फिर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, तब मिथ्यात्व की प्राप्ति के समय मिथ्यात्व के प्रभाव से उसका अवधिज्ञान विभंगज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार मिथ्यात्वप्राप्ति के अनन्तर समय में ही जब उस विभंगज्ञानी देव, मनुष्य या पंचेन्द्रियतिर्यंच की मृत्यु हो जाती है, तब विभंगज्ञान का अवस्थान एक समय तक ही रहता है। जब कोई मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रियतिथंच या मनुष्य करोड़ पूर्व की आयु के कतिपय वर्ष व्यतीत हो जाने पर विभंगज्ञान प्राप्त करता है और उक्त विभंगज्ञान के साथ ही सप्तम नरकभूमि में तेतीस सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में उत्पन्न होता है, उस समय विभंगज्ञानी का अवस्थानकाल देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम का होता है। तदनन्तर वह जीव या तो सम्यक्त्व को प्राप्त करके अवधिज्ञानी बन जाता है, अथवा उसका विभंगज्ञान नष्ट ही हो जाता है।' ग्यारहवाँ दर्शनद्वार 1354. चक्खुदसणी णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसहस्सं सातिरेगं / [1354 प्र.] भगवन् ! चक्षुर्दर्शनी कितने काल तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है ? {1354 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक (चक्षुर्दर्शनीपर्याय में रहता है)। 1355. अचक्खुदसणी णं भंते ! अचवखुदंसणी त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! अचक्खुदंसणी दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–अणादीए वा अपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 / [1355 प्र. भगवन् ! अचक्षुर्दर्शनी, अचक्षुर्दर्शनी रूप में कितने काल तक रहता है ? [1355 उ.] गौतम ! अचक्षुर्दर्शनी दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-१. अनादिअपर्यवसित और 2. अनादि-सपर्यवसित / 1356. प्रोहिदंसणो णं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो छावट्ठीनो सागरोवमाणं सातिरेगानो। [1356 प्र. भगवन् ! अवधिदर्शनी, अवधिदर्शनीरूप में कितने काल तक रहता है ? [1356 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम तक (अवधिदर्शनीपर्याय में रहता है)। 1357. केवलदसणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 11 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 390 Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358] [प्रज्ञापनासून [1357 प्र.] भगवन् ! केवलदर्शनी कितने काल तक केवलदर्शनीरूप में रहता है ? [1357 उ.] गौतम ! केवलदर्शनी सादि-अपर्यवसित होता है / ग्यारहवाँ द्वार / / 11 / / बारहवाँ संयतद्वार 1358. संजए णं भंते ! संजते ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं एषकं समयं, उक्कोसणं देसूर्ण पुवकोडि / [1358 प्र.] भगवन् ! संयत कितने काल तक संयतरूप में रहता है ? [1358 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व तक संयतरूप में रहता है। 1356. असंजए ज भते ! असंजए त्ति० पुच्छा ? गोयमा ! असंजए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा--प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ पंजे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुत्तं, उस्कोसेणं प्रणतं कालं, अणंतायो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीओ कालतो, खेतम्रो अवड्ढं पोग्गलपरिय देसूर्ण। [1359 प्र.] भगवन् ! असंयत कितने काल तक असंयतरूप में रहता है ? [1359 उ.] गौतम ! असंयत तीन प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--१. अनादि दि-सपर्यवसित और 3. सादि-सपर्यवसित / उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, (अर्थात्) काल की अपेक्षा से—अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से---देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त तक (वह असंयतपर्याय में रहता है)। 1360. संजयासंजए जहणेणं अंतोमुत्त, उक्कोसेणं देसूणं पुवकोडि / [1360] संयतासंयत जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक (संयतासंयतरूप में रहता है)। 1361. जोसंजए णोप्रसंजए जोसंजयासंजए णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए प्रपज्जवसिए / दारं 12 / / [1361 प्र.] भगवन् ! नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत कितने काल तक नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयतरूप में बना रहता है ? {1361 उ.] गौतम ! वह सादि-अपर्यवसित है / बारहवाँ द्वार / / 12 / / तेरहवाँ उपयोगद्वार 1362. सागारोवउत्ते णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहणण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं / अपयवसित. 2. अनादि-सपयवासत पार 3. सादि-सपथ Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद ] [359 [1362 प्र.] भगवन् ! साकारोपयोगयुक्त जीव निरन्तर कितने काल तक साकारोपयोगयुक्तरूप में बना रहता है ? [1362 उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः और उत्कृष्टतः भी अन्तर्मुहूर्त तक साकारोपयोग से युक्त बना रहता है। 1363. प्रणागारोवउत्ते वि एवं चेव / दारं 13 // [1363] अनाकारोपयोगयुक्त जीव भी इसी प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (अनाकारोपयोगयुक्तरूप में बना रहता है) / तेरहवाँ द्वार / / 13 / / विवेचन–ग्यारहवाँ, बारहवाँ और तेरहवाँ दर्शन, संयत और उपयोग द्वार-प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 1354 से 1363 तक) में चक्षुर्दर्शनी आदि चतुष्टय, संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत तथा साकारोपयोगयुक्त एवं अनाकारोपयोगयुक्त जीव का स्व-स्वपर्याय में अवस्थानकालमान प्रतिपादित किया गया है। चक्षुदर्शनी का प्रवस्थान काल-चक्षुदर्शनी जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम तक निरन्तर चक्षदर्शनी बना रहता है। जब कोई त्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रियादि में उत्पन्न होकर उस पर्याय में अन्तमुहूर्त तक स्थित रह कर पुनः श्रीन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो जाता है, तब चक्षुदर्शनी अन्तर्मुहूर्त तक चक्षुर्दर्शनीपर्याय से युक्त होता है / उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार सागरोपम जो कहा है, वह चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं नारक आदि भवों में भ्रमण करने के कारण समझना चाहिए। द्विविध प्रचक्षदर्शनी-१. अनादि-अनन्त-जो जीव कभी सिद्धि प्राप्त नहीं करेगा। 2. अनादि-सान्त-जो कदाचित् सिद्धि प्राप्त करेगा। अवधिदर्शनी का अवस्थानकालमान--जघन्य एक समय और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम है। वह इस प्रकार-बारहवाँ देवलोक 22 सागरोपम की स्थिति वाला है। उसमें कोई भी जीव यदि विभंगज्ञान लेकर जाए तथा लौटते समय अवधिज्ञान लेकर लौटे तो इस प्रकार बाईस सागरोपम काल विभंगज्ञान का और बाईस सागरोपम काल अवधिज्ञान का हमा। पूर्वोक्त प्रकार से ही यदि तीन बार विभंगज्ञान लेकर जाए तथा अवधिज्ञान लेकर आए तो 66 सागरोपम काल विभंगज्ञान का और 66 सागरोपम काल अवधिज्ञान का हुआ। बीच के मनुष्यभवों का काल कुछ अधिक जानना चाहिए / इस प्रकार कुल कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम काल होता है।' ध्यान में रहे कि विभंगज्ञानी का दर्शन भी अवधिदर्शन ही कहलाता है, विभंगदर्शन नहीं / 1. प्रज्ञापनामूत्र. मलय. वृत्ति, पत्रांक 390 2. सुत्त विभगस्स वि परूवियं प्रोहिदसणं बहुसो।। कीस पुणो पडिसिद्ध कम्मपगडीघगरण मि // 1 / / विभंगे वि दरिसण सामग्ण-विसेसविसयनो सुत्त / तं चऽविसिट्ठमणागारमेत तोऽत्रहि विभंगाणं / / 2 / / कम्मपगडीमय पुण सागारेयरबिसेसभावे वि। न विभंगनाणदंसण विसेसनमणिच्छयत्तगयो / / 3 / / (प्रज्ञा. म. व. पत्र ३९१)--विशेषणवती (जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण) Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360] [ प्रज्ञापनासूत्र त्रिविध प्रसंयत---१. अनादि-प्रपर्यवसित-जिसने कभी संयम पाया नहीं और कभी पाएगा भी नहीं, 2. अनादि-सपर्यवसित—जिसने कभी संयम पाया नहीं, भविष्य में पाएगा, 3. सादि-सपर्यबसित-जो जीव संयम प्राप्त करके उससे भ्रष्ट हो गया है, किन्तु पुनः संयम प्राप्त करेगा / सादि-सान्त असंयत जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक असंयतपर्याय से युक्त रहता है। अनन्तकाल (अपार्ध पुद्गलपरावर्त) व्यतीत होने के पश्चात् उसे संयम की प्राप्ति अवश्य ही होती है।" संयतासंयत एवं संयत का अवस्थानकाल–देशविरति की प्रतिपत्ति का उपयोग जघन्य अन्तमुहर्त का होता है / अतएव यहाँ जघन्यकाल अन्तमुहर्त प्रमाण कहा है। देशविरति में दो करण तीन योग आदि अनेक भंग होते हैं / अतः उसे अंगीकार करने में अन्तमुहर्त लग ही जाता है / सर्वविरति में सर्वसावध के त्याग के रूप में प्रतिज्ञा अंगीकार करने का उपयोग एक समय में भी हो सकता है, इसी कारण संयत का जघन्य काल एक समय कहा गया है / नोसंयत-नोप्रसंयत-नोसंयतासंयत-जो संयत भी नहीं, असंयत भी नहीं और संयतासंयत भी नहीं, ऐसा जीव सिद्ध ही होता है और सिद्धपर्याय सादि-अनन्त है। साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग युक्त का प्रवस्थानकाल–जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है / छद्मस्थ जीवों का उपयोग, चाहे वह साकारोपयोग हो अथवा अनाकारोपयोग, अन्तर्मुहूर्त का ही होता है / केवलियों का एकसामयिक उपयोग यहाँ विवक्षित नहीं है। चौदहवाँ आहारद्वार--- 1364. प्राहारए णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! पाहारए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–छ उमत्थाहारए य केवलिग्राहारए य / [1364 प्र.] भगवन् ! अाहारक जीव (लगातार) कितने काल तक श्राहारकरूप में रहता है ? [1364 उ.] गौतम ! आहारक जीव दो प्रकार के कहे हैं / यथा-छद्मस्थ-पाहारक और केवलो-आहारक / 1365. छउमस्थाहारए णं भंते ! छउमस्थाहारए त्ति कालमओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाम्रो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोप्रो कालतो, खेत्ततो अंगुलस्स संखेज्जहभागं / [1365 प्र.] भगवन् ! छद्मस्थ-पाहारक कितने काल तक छद्मस्थ-आहारक के रूप में रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 392 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 392 Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहयां कायस्थितिपद ] [361 [1365 उ.] गौतम ! जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहण जितने काल तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक (लगातार छद्मस्थ-आहारकरूप में रहता है)। (अर्थात्-) कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणियों तक तथा क्षेत्रत: अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण (समझना चाहिए)। 1366. केवलियाहारए णं भंते ! केवलिग्राहारए त्ति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं देसूणं पुवकोडि / __[1366 प्र.] भगवन् ! केवली-पाहारक कितने काल तक केवली-ग्राहारक के रूप में रहता है ? [1366 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक, उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्व तक (केवली-पाहारक निरन्तर केवली-पाहारकरूप में रहता है)। 1367. प्रणाहारए णं भंते ! प्रणाहारए ति० पुच्छा ? गोयमा ! प्रणाहारए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-छउमत्थअणाहारए य 1 केवलिप्रणाहारए य / [1367 प्र.) भगवन् ! अनाहारकजीव, अनाहारकरूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? ___ [1367 उ ] गौतम ! अनाहारक दो प्रकार के होते हैं, यथा-(१) छद्मस्थ-अनाहारक और (2) केवली-अनाहारक / 1368. छउमत्थअणाहारए णं भंते ! 0 पुच्छा? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेंणं दो समया। [1368 प्र.] भगवन् ! छद्मस्थ-अनाहारक, छद्मस्थ-अनाहारक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? [1368 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट दो समय तक (छद्मस्थअनाहारकरूप में रहता है।) 1369. केवलिप्रणाहारए णं भंते ! केवलिप्रणाहारए त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! केलिप्रणाहारए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–सिद्धकेलिप्रणाहारए य 1 भवत्थकेलिप्रणाहारए य 2 / [1369 प्र.] भगवन् ! केवली-अनाहारक, केवली-अनाहारक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है? [1369 उ.] गौतम ! केवली-अनाहारक दो प्रकार के हैं, 1. सिद्ध केवली-अनाहारक और 2. भवस्थकेवली-अनाहारक / Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 362] [ प्रज्ञापनासूत्र 1370. सिद्धकेलिप्रणाहारए गं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / [1370 प्र.] भगवन् ! सिद्धकेवली-अनाहारक कितने काल तक सिद्धकेवली-अनाहारक के रूप में रहता है ? [1370 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। 1371. भवत्थकेवलिश्रणाहारए णं भंते ! 0 पुच्छा? गोयमा! भवत्थकेवलिप्रणाहारए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा--सजोगिभवत्थकेवलिनणाहारए य 1 प्रजोगिभवत्थ केवलिप्रणाहारए य 2 / [1371 प्र.] भगवन् ! भवस्थकेवली-अनाहारक कितने काल तक (निरन्तर) भवस्थ. केवली-अनाहारकरूप में रहता है ? [1371 उ.] गौतम ! भवस्थकेवली-अनाहारक दो प्रकार के हैं-१. सयोगि-भवस्थकेवलीअनाहारक और 2. अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक / 1372. सजोगिभवत्थकेवलिप्रणाहारए णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! अजहण्णमणक्कोसेणं तिणि समया। [1372 प्र.] भगवन् ! सयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक कितने काल तक सयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक के रूप में रहता है ? [1372 उ.] गौतम ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट तीन समय तक (सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारकरूप में रहता है।) 1373. अजोगिमवत्थकेवलिप्रणाहारए पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / दारं 14 // [1373 प्र.] भगवन् ! अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारक कितने काल तक अयोगि-भवस्थकेवली-अनाहारकरूप में रहता है ? [1373 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट भी अन्तमुहर्त तक (अयो-गिभवस्थकेवली अनाहारकरूप में रहता है।) -चौदहवाँ द्वार / / 14 // विवेचन-चौदहवां प्राहारकद्वार-प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 1364 से 1373 तक) में विविध आहारक और अनाहारक के अवस्थानकालमान की प्ररूपणा की गई है। छमस्थ प्राहारक का कालमान-जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहणकाल तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक वह निरन्तर छद्मस्थ-आहारक-रूप में रहता है। क्षुद्रभव या क्षुल्लक भवग्रहण दो सौ छप्पन पावलिका रूप जानना चाहिए। जघन्य कालमान का स्पष्टीकरण- यद्यपि विग्रहगति चार और पांच समय की भी होती है, तथापि बहुलता से वह दो या तीन समय की होती है, बार Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कास्थितिपद] या पांच समय की नहीं, क्योंकि वह विग्रहगति यहाँ विवक्षित नहीं है। अतः जब तीन समय की विग्रहगति होती है, तब जीव, प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है। अतएव आहारकत्व की प्ररूपणा में उन दो समयों से न्यून क्षद्रभवग्रहण का कथन किया गया है। उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक आहारक रहता है, तत्पश्चात् नियम से विग्रहगति होती है और विग्रहगति में अनाहारक-पर्याय हो जाती है / इसी कारण यहाँ अनन्तकाल नहीं कहा है।' छदमस्य-अनाहारक का कालमान-जघन्य एक समय तक और उत्कष्ट दो समय तक छद्मस्थ-अनाहारक जीव छदमस्थ-अनाहारकपर्याय में रहता है। यहाँ तीन समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से उत्कृष्ट दो समय का कथन किया गया है। चार और पांच समय वाली विग्रहगति यहाँ विवक्षित नहीं है। सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक का अवस्थानकालमान-(वह) अजघन्य-अनुत्कृष्ट तीन समय तक अनाहारकपर्याय में रहता है। यह विधान केवलीसमुद्घात की अपेक्षा से है। पाठ समय के केवलीसमुद्घात में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में केवलो अनाहारकदशा में रहते हैं। इसमें जधन्य-उत्कृष्ट का विकल्प नहीं है।' पन्द्रहवाँ भाषकद्वार 1374. भासए गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [1374 प्र.) भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? [1374 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (भाषकरूप में रहता है।) 1375. प्रभासए गं० पुच्छा ? गोयमा ! अभासए तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-प्रणाईए वा अपज्जबसिए 1 प्रणाईए वा (क) उज्जुया एगबंका, दुहतो बंका गती विणिदिट्ठा / जुज्जइ ति-चउर्वकावि नाम चउपंच समयायो / / 1 / / (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 393 प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 393 (क) दण्डे प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये / मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु // 1 // संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे। सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् // 2 // औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रीदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु / / 3 / / कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् // 4 // ----प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति., पत्रांक 393 Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 364] [प्रज्ञापनासून सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो / दारं 15 // [1375 प्र.] भगवन् ! अभाषक जीव अभाषकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1375 उ.] गौतम ! अभाषक तीन प्रकार के कहे गये हैं-(१) अनादि-अपर्यवसित, (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित / उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त (अभाषकरूप में रहते हैं)। -पन्द्रहवाँ द्वार / / 15 / / विवेचन--पन्द्रहवाँ भाषकद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 1374-1375) में भाषक और प्रभाषक जीव के स्वपर्याय में अवस्थान का कालमान प्रतिपादित किया गया है / भाषक का कालमान-- यहाँ भाषक का अवस्थानकाल निरन्तर जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो बताया गया है, वह वचनयोगी की अपेक्षा से समझना चाहिए।' प्रभाषक का कालमान--सादि-सान्त भाषक (जो भाषक होकर फिर प्रभाषक हो गया है, वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक प्रभाषक पर्याय से युक्त रहता है, फिर कुछ काल रुक कर भाषक बन जाता है और फिर अभाषक हो जाता है / अथवा द्वीन्द्रिय आदि भाषक जीव एकेन्द्रियादि अभाषकों में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तमुहर्त तक जीवित रह कर फिर द्वीन्द्रियादि भाषकरूप में उत्पन्न होता है। उस समय जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है। उत्कृष्ट बनस्पतिकाल-अर्थात्-पूर्वोक्त अनन्तकाल तक लगातार प्रभाषक बना रहता है / सोलहवाँ परीतद्वार 1376. परित्ते णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-कायपरित्ते य 1 संसारपरित्ते य 2 / [1376 प्र.] भगवन् ! परीत जीव कितने काल तक निरन्तर परीतपर्याय में रहता है ? [1376 उ.] गौतम ! परीत दो प्रकार के हैं / यथा-(१) कायपरीत और (2) संसारपरीत / 1377. कायपरित्ते गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो असंखेज्जाप्रो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीनो / [1377 प्र.] भगवन् ! कायपरीत कितने काल तक कायपरीत-पर्याय में रहता है ? [1377 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक, (अर्थात्-.) असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक (कायपरीत-पर्याय में निरन्तर बना रहता है)। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 394 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 394 Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवा कायस्थिलिप 1378. संसारपरित्ते गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणतं कालं जाव अवड्ढं पोग्गलपरियट देसूर्ण / [1378 प्र.] भगवन् ! संसारपरीत जीव कितने काल तक संसारपरीत-पर्याय में रहता है ? [1378 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, यावत् देशोन अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त तक (संसारपरीत-पर्याय में रहता है)। 1376. अपरित्ते णं० पुच्छा ? गोयमा ! अपरिते दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–कायअपरित्ते य 1 संसारअपरित्ते य 2 / [1379 प्र.] भगवन् ! अपरीत जीव कितने काल तक अपरीत-पर्याय में रहता है ? [1376 उ.] गौतम ! अपरीत दो प्रकार के हैं / वह इस प्रकार-(१) काय-अपरीत और (2) संसार-अपरीत। 1380. काय अपरित्ते गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो। [1380 प्र.] भगवन् ! काय-अपरीत निरन्तर कितने काल तक काय-अपरीत-पर्याय से युक्त रहता है ? [1380 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (कायअपरीतपर्याय से युक्त रहता है)। 1381. संसारनपरित्ते पं० पुच्छा ? गोयमा ! संसारमपरित्ते दुविहे पण्णते / तं जहा-अणादीए वा अपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 / [1381 प्र.] भगवन् ! संसार-अपरीत कितने काल तक संसार-अपरीत-पर्याय में रहता है ? [1381 उ.] गौतम ! संसार-अपरीत दो प्रकार के हैं / यथा-(१) अनादि-अपर्यवसित और (2) अनादि-सपर्यवसित / 1382. णोपरित्ते-णोअपरित्ते गं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 16 // [1382 प्र.] भगवन् ! नोपरीत-नोअपरीत कितने काल तक (लगातार) नोपरीत-नोअपरीतपर्याय में रहता है ? [1382 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सोलहवाँ द्वार / / 16 // विवेचन–सोलहवा परीतद्वार-प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 1376 से 1382) में द्विविध परीत व द्विविध अपरीत और नोपरीत-नोअपरीत जीवों के स्व-स्वपर्याय में अवस्थानकाल की प्ररूपणा की गई है। Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र कायपरीत का स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थानकाल–प्रत्येकशरीरी जीव कायपरीत कहलाता है / वह जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल-अर्थात्--असंख्यातकाल तक कायपरीत बना रहता है। यदि कोई जीव निगोद से निकल कर प्रत्येक-शरीररूप में उत्पन्न होता है, उस समय वह अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर फिर निगोद में उत्पन्न हो जाता है / उस समय वह अन्तमुहूत्तं तक ही कायपरीत रहता है। अतएव यहाँ कायपरीत का जघन्य अवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्त का कहा है। उत्कृष्ट रूप से कायपरीत असंख्यातकाल तक कायपरीत-पर्याय में निरन्तर रहता है / यहाँ असंख्यातकाल पृथ्वीकाय की कालस्थिति के जितना समझना चाहिए / असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी जितना पृथ्वीकाल यहाँ असंख्यातकाल विवक्षित है। क्षेत्रत:-असंख्यात लोकप्रमाण है। संसारपरीत का लक्षण-जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके अपने भवभ्रमण को परिमित कर लिया हो, वह संसारपरीत कहलाता है। उत्कृष्टतः अनन्तकाल व्यतीत होने पर संसारपरीत जीव अवश्य ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है / ___ काय-अपरीत और संसार-अपरीत-अनन्तकायिक जीव काय-अपरीत कहलाता है तथा संसार-अपरीत वह है, जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके संसार को परिमित नहीं किया है। काय-अपरीत जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) तक निरन्तर काय-अपरीतपर्याययुक्त रहता है / जब कोई जीव प्रत्येक शरीर से उद्वर्तन करके निगोद में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तमुहर्त तक ठहर कर पुनः प्रत्येकशरीरी-पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, उस समय जघन्य काल अन्तमुहर्त होता है / उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जितना अनन्तकाल समझना चाहिए। उसके बाद अवश्य ही उद्वर्तना हो जाती है। द्विविष संसारापरीत-(१) अनादि-सान्त—जिसके संसार का अन्त कभी न कभी हो जाएगा, वह अनादि-सान्त संसारापरीत कहलाता है। तथा (2) अनादि-अनन्त-जिसके संसार का कदापि विच्छेद नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त संसार-अपरीत कहलाता है। नोपरीत-नोअपरीत-ऐसा जीव सिद्ध होता है / यह पर्याय सादि-अनन्त है / ' सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार 1383. पज्जत्तए गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं / [1383 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याप्त-अवस्था में रहता है ? [1383 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व तक (निरन्तर पर्याप्त अवस्था में रहता है)। 1384. अपज्जत्तए पं० पुच्छा ? गोधमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [1384 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त जीव, अपर्याप्त-अवस्था में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 394 Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [ 367 [1384 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (अपर्याप्त-अवस्था में रहता है)। 1385. णोपज्जत्तए-णोप्रपज्जत्तए पं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 17 // [1385 प्र.] भगवन् ! नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव कितने काल तक नोपर्याप्त-नोअपर्याप्तअवस्था में रहता है ? [1385 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सत्तरहवाँ द्वार // 17 // विवेचन--सत्तरहवा पर्याप्तद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1383 से 1385 तक) में पर्याप्त, अपर्याप्त और नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का काल प्रतिपादित किया गया है। तीनों के कालमान का विश्लेषण-(१) पर्याप्त जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक लगातार पर्याप्त-पर्याय में रहता है, क्योंकि पर्याप्तलब्धि इतने समय तक ही रह सकती है। (2) अपर्याप्त जीव जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार अपर्याप्त रहता है, इसके पश्चात् अवश्य ही पर्याप्त हो जाता है। (3) नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव सिद्ध ही होता है और सिद्धत्व पर्याय सादि-अनन्त है।' अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार 1386. सुहुमे गं भंते ! सुहुमे ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो। [1386 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म-पर्यायवाला लगातार रहता है ? [1386 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक (वह सूक्ष्म-पर्याय में रहता है)। 1387. बादरे पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव (सु. 1365) खेत्तमो अंगुलस्स प्रसंखेज्जइमार्ग। [1387 प्र.] भगवन् ! बादर जीव कितने काल तक (लगातार) बादर-पर्याय में रहता है ? [1387 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक यावत् (सू. 1365 में उक्त कालत: असंख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणीकाल तथा) क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। 1388. णोसुहमणोबादरे णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 18 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368] [प्रज्ञापनासूत्र [1388 प्र.] भगवन् ! नोसूक्ष्म-नोबादर कितने काल तक पूर्वोक्त पर्याय से युक्त रहता है ? [1388 उ.] गौतम ! यह पर्याय सादि-अपर्यवसित है। अठारहवाँ द्वार / / 18 / / विवेचन-अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1386 से 1388 तक) में सूक्ष्म, बादर, नोसूक्ष्म-नोबादर के जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थानकाल का निरूपण किया गया है। सूक्ष्म जीव का प्रवस्थानकाल--सूक्ष्म-जीव जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक सूक्ष्मपर्याययुक्त रहता है। वह असंख्यातकाल पृथ्वीकायिक जीव की कायस्थिति के काल जितना समझना चाहिए। नोसूक्ष्म-नोबादर जीव--सिद्ध हैं और सिद्धपर्याय सदाकाल रहती है।' उन्नीसवाँ संजीद्वार-- 1386. सग्णी णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगं / [1389 प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव कितने काल तक संज्ञीपर्याय में लगातार रहता है ? [1389 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्वकाल तक (निरन्तर संजीपर्याय में रहता है)। 1360. प्रसण्णी णं भंते ! * पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसणं वणप्फहकालो। [1390 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी जीव असंज्ञी पर्याय में कितने काल तक रहता है ? [1390 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (असंज्ञीपर्याय में निरन्तर रहता है)। 1361. णोसण्णीणोअसण्णी पं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए प्रपज्जवसिए / दारं 19 // [1391 प्र.] भगवन् ! नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी जीव कितने काल तक नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी रहता है ? [1391 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। उन्नीसवाँ द्वार / / 16 / / विवेचन-उन्नीसवाँ संजीद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1389 से 1391 तक) में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमान बताया गया है। संजी-पर्याय की कालावस्थिति-जघन्य अन्तर्मुहर्त अर्थात् जब कोई जीव असंज्ञीपर्याय से निकलकर संज्ञीपर्याय में उत्पन्न होता है और उस पर्याय में अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर पुनः असंज्ञी-पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, तब वह अन्तर्मुहुर्त तक ही संज्ञी-अवस्था में रहता है और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व काल तक संज्ञीजीव निरंतर संज्ञी रहता है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवा कायस्थितिपद] प्रसंज्ञीपर्याय की कालावस्थिति-जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक असंज्ञीजीव निरन्तर असंज्ञीपर्याययुक्त रहता है। जब कोई जीव संज्ञियों में से निकल कर असंज्ञीपर्याय में जन्म लेता है, वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः संज्ञीपर्याय में उत्पन्न हो जाता है। उस समय वह अन्तमुहूर्त तक ही असंज्ञीपर्याय से युक्त रहता है / नोसंज्ञी-नो प्रसंज्ञी का अवस्थानकाल–नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव केवली है और केवली का काल सादि-अपर्यवसित है।' बीसवाँ भवसिद्धिद्वार 1362. भवसिद्धिए णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! अणादीए सपज्जवसिए / [1392 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव निरन्तर कितने काल तक भवसिद्धिकपर्याययुक्त रहता है ? [1362 उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित है / 1393. प्रभवसिद्धिए णं भंते 0 पुच्छा। गोयमा ! अणादीए अपज्जवसिए। [1363 प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव लगातार कितने काल तक अभवसिद्धिकपर्याय से युक्त रहता है ? [1363 उ.] गौतम ! (वह) अनादि-अपर्यवसित है / 1394. गोभवसिद्धियणोप्रभवसिद्धिए गं० पुच्छा। गोंयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 20 // [1394 प्र] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक जीव कितने काल तक लगातार नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धि-अवस्था में रहता है ? [1394 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित होता है। बीसवाँ द्वार // 20 // विवेचन-बीमा भवसिद्धिकद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1392 से 1394 तक) में भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों के अवस्थान का कालमान प्ररूपित किया गया है। भवसिद्धिक का कालमान-भवसिद्धिक (भव्य) अनादि-सपर्यवसित (सान्त) है। भव्यत्व भाव पारिणामिक है, इसलिए वह अनादि है, किन्तु मुक्ति प्राप्त होने पर उसका सद्भाव नहीं रहता, इसलिए सपर्यवसित है। प्रभवसिद्धिक का कालमान-यह भी पारिणामिक भाव होने से अनादि है, और उसका (अभव्यत्व का) कभी अन्त नहीं होता। इसलिए अनन्त है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370] [प्रज्ञापनासूत्र नोमवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक का कालमान-ऐसा जीव सिद्ध ही होता है, इसलिए सादिअपर्यवसित होता है।' इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार 1365. धम्मत्थिकाए गं० पुच्छा। गोयमा ! सम्वद्ध। [1395 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितने काल तक लगातार धर्मास्तिकायरूप में रहता है ? [1365 उ.] गौतम ! वह सर्वकाल रहता है / 1366. एवं जाव प्रद्धासमए / दारं 21 // [1396] इसी प्रकार यावत् (अधर्मास्तिकाय, प्राकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और) अद्धासमय (कालद्रव्य) (के अवस्थानकाल के विषय में भी समझना चाहिए।) —इक्कीसवाँ द्वार / / 21 / / विवेचन-इक्कीसवाँ प्रस्तिकायद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (1395-1396) में धर्मास्तिकायादि 6 द्रव्यों के स्व-स्वरूप में अवस्थानकाल की चर्चा की गई है। धर्मास्तिकायादि षट् द्रव्यों का अवस्थानकाल-धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य अनादि-अनन्त हैं / ये सदैव अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं। बाईसवाँ चरमद्वार 1397. चरिमे पं० पुच्छा। गोयमा ! प्रणावीए सपज्जवसिए / [1397 प्र.] भगवन् ! चरमजीव कितने काल तक चरमपर्याय वाला रहता है ? [1367 उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित होता है / 1368. प्रचरिमे णं० पुच्छा। गोयमा ! प्रचरिमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा अपज्जवसिए 2 / दारं 22 // // पण्णवणाए भगवतीए अट्ठारसमं काटिइपयं समत्तं / / [1398 प्र.) भगवन् ! अचरमजीव कितने काल तक अचरमपर्याय-युक्त रहता है ? [1398 उ.] गौतम ! अचरम दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित और (2) सादि-अपर्यवसित / -बाईसवाँ द्वार / / 22 / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [ 371 विवेचन बाईसवाँ चरम-अचरम द्वार–प्रस्तुत दो सूत्रों (1397-1398) में चरमजीव के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमान प्ररूपित किया गया है / चरम-प्रचरम को परिभाषा-जिसका भव चरम अर्थात् अन्तिम होगा, वह 'चरम' कहलाता है / चरम का सरल अर्थ है-भव्यजीव / जो चरम से भिन्न हो, वह 'अचरम' कहलाता है / अभव्य जीव अचरम कहलाता है, क्योंकि उसका कदापि चरम भव नहीं होगा। वह सदाकाल जन्ममरण करता ही रहेगा / एक दृष्टि से सिद्ध जीव भी अचरम हैं, क्योंकि उनमें भी चरमत्व नहीं होता। इसी कारण अचरम के दो प्रकार बताये गए हैं-(१) अनादि-अनन्त और (2) सादि-अनन्त / इनमें से अनादि-अनन्त (सपर्यवसित) जीव अभव्य हैं और सादि-अपर्यवसित जीव सिद्ध हैं।' // प्रज्ञापनासूत्र : अठारहवाँ कायस्थितिपद समाप्त / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणवीसइमं सम्मत्तपयं उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह उन्नीसवाँ 'सम्यक्त्वपद' है। * मोक्षमार्ग और संसारमार्ग, ये दो मार्ग हैं, जीव को उन्नति और अवनति के लिए / जब जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है तो वह मोक्षमार्ग की सम्यक् आराधना करके मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जब तक वह मिथ्या दृष्टि रहता है तब तक उसकी प्रवृत्ति संसारमार्ग की ओर ही होती है / उसकी जितनी भी धार्मिक क्रिया, व्रताचरण, तपश्चर्या, नियम, त्याग-प्रत्याख्यान आदि क्रियाएँ होती हैं वे अशुद्ध होती हैं, उसका पराक्रम अशुद्ध होता है, उससे संसारवृद्धि ही होती है। कर्मक्षय करके मोक्ष उपलब्धि वह नहीं कर सकता। इसी आशय से शास्त्रकार प्रस्तुत पद में तीनों दृष्टियों की चर्चा करते हैं / ' * जिनेन्द्र-प्रज्ञप्त जीवादि समग्र तत्त्वों के विषय में जिसकी दृष्टि अविपरीत-सम्यक हो, वह सम्यग्दृष्टि, जिन-प्रज्ञप्त तत्त्वों के विषय में जिसे जरा-सी भी विप्रतिपत्ति (अन्यथाभाव या अश्रद्धा) हो, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है तथा जिसे उस विषय में सम्यक् श्रद्धा भी न हो, और विप्रतिपत्ति भी न हो, वह सम्यगमिथ्यादष्टि होता है। जैसे चावल आदि के विषय में अनजान मनुष्य को उनमें रुचि या अरुचि, दोनों में से एक भी नहीं होती, वैसे ही सम्यगमिथ्या दृष्टि को जिन-प्रज्ञप्त तत्त्वों (पदार्थों) के विषय में रुचि भी नहीं होती, अरुचि भी नहीं होती। * इस पद में जीवसामान्य, सिद्धजीब और चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यमिथ्यादृष्टि की विचारणा की गई है। * इसमें बताया गया है कि सम्यगमिथ्यादष्टि केवल पंचेन्द्रिय ही होते हैं। एकेन्द्रिय मिथ्याष्टि ही होते हैं / सिद्ध जीव एकान्त सम्यग्दृष्टि होते हैं। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव सम्यमिथ्यादष्टि नहीं होते / षट्खण्डागम में संज्ञी और असंज्ञी, ऐसे दो भेदों में पंचेन्द्रिय को विभक्त करके असंज्ञीपंचेन्द्रिय को मिथ्यादृष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक होते हैं / * षट्खण्डागम में बताया गया है कि जीव किन-किन कारणों से सम्यक्त्व प्राप्त करता है, तथा अन्तिम समय में सम्यक्त्वी की मन:स्थिति कैसी होती है? 00 (क) नादसणिस्स नाणं-उत्तरा. अ. गा- (ख) असुद्धतेसि परक्कतं, अफला होइ मध्यसो ।---सूत्र कृ. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. पत्रांक 388 (क) पण्णवणासुत्तं भा 1, पृ. 318 (ख) पण्णवणसुत्तं भा. 2, प्रस्तावना पृ. 101 (ग) षट्खण्डागम. पु. 1, पृ. 258, 261, पुस्तक 6, पृ. 418-437 Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगूणवीसइमं सम्मत्तपयं उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद समुच्चय जीवों के विषय में दृष्टि की प्ररूपणा 1366. जीवा णं भंते ! किं सम्मट्टिी मिच्छट्ठिी सम्मामिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! जीवा सम्मद्दिट्ठी वि मिच्छट्ठिी वि सम्मामिच्छट्ठिी वि / [1396 प्र. भगवन् ! जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्याटुष्टि हैं, अथवा सम्यमिथ्यादृष्टि हैं ? [1366 उ.] गौतम ! जीव सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यमिथ्यादृष्टि भी हैं। विवेचन--समुच्चय जीवों के विषय में दृष्टि को प्ररूपणा--प्रस्तुत सूत्र में ममुच्चय जोवों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि पोर सम्यमिथ्यादृष्टि, ये तीनों ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं। चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्वप्ररूपणा 1400. एवं रइया वि। [1400 ] इसी प्रकार नै रयिक जीवों में भी तीनों दृष्टियाँ होती हैं / 1401. असुरकुमारा वि एवं चेव जाव थणियकुमारा / [1401] असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक (के भवनवासी देव) भो इसो प्रकार (सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी और सम्यमिथ्यादृष्टि भी होते हैं)। 1402. पुढविक्काइयाणं पुच्छा / ___ गोयमा ! पुढविक्काइया णो सम्मविट्ठी, मिच्छट्ठिी, णो सम्मामिच्छद्दिट्ठी / एवं जाव वणकइकाइया। [1402 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं ? [1402 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, वे मिथ्यादृष्टि होते हैं, सभ्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते / इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिकों (अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पति कायिकों) के सम्यक्त्व की प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। 1403. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा! बेइंदिया सम्मद्दिट्ठी वि मिच्छद्दिट्टो वि, णो सम्मामिच्छट्ठिी। एवं जाव चउरेंदिया। Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374] [प्रज्ञापनासूत्र [1403 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं, अथवा सम्यमिथ्या दृष्टि होते हैं ? [1403 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, किन्तु सम्यमिथ्यादृष्टि नहीं होते / इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक (प्ररूपणा करना चाहिए)। 1404. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्सा वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया य सम्मट्ठिी वि मिच्छद्दिट्ठी वि सम्मामिच्छद्दिट्ठी वि। [1404] पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और मिश्र (सम्यगमिथ्या) दृष्टि भी होते हैं। 1405. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा णं सम्मद्दिट्ठी, णो मिच्छद्दिट्ठी को सम्मामिच्छद्दिट्ठी। ॥पण्णवणाए भगवतीए एगणवीसइमं सम्मत्तपयं समत्तं / / [1405 प्र.) भगवन् ! सिद्ध (मुक्त) जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं ? [1405 उ.] गौतम ! सिद्ध जीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, वे न तो मिथ्यादृष्टि होते हैं और न सम्यमिथ्यादृष्टि होते हैं। विवेचन-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों में सम्यक्त्व की प्ररूपणा-प्रस्तुत छह सूत्रों में नैरयिकों से लेकर वैमानिक देव तक तथा सिद्धजीव सम्यग्दृष्टि होते हैं, मिथ्यादृष्टि होते हैं या मिश्रदष्टि ? इसका विचार किया गया है। निष्कर्ष-समुच्चयजीव नैरयिक, भवनवासी देव, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में तीनों ही दृष्टियाँ पाई जाती हैं। विकलेन्द्रिय सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, सिद्धजीव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं / पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। ___ एक ही जीव में एक साथ तीनों दृष्टियाँ नहीं होती-जिन जीवों में तीनों दृष्टियाँ बताई हैं, वे एक जीव में एक साथ एक समय में नहीं होती, परस्पर विरोधी होने के कारण एक जीव में, एक समय में, एक ही दृष्टि हो सकती है। अभिप्राय यह है कि जैसे-कोई जीव सम्यग्दष्टि होता है, कोई मिथ्यादृष्टि और कोई सम्यगमिथ्यादृष्टि होता है, उसी प्रकार कोई नारक, देव, मनुष्य या पंचेन्द्रिय. तिर्यञ्च सम्यग्दृष्टि होता है, तो कोई मिथ्यादृष्टि होता है, तथैव कोई सम्यगमिथ्यादृष्टि होता है। एक समय में एक जीव में एक ही दृष्टि होती है, तीनों दृष्टियाँ नहीं / ' // प्रज्ञापनासूत्र : उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद समाप्त / 00 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 393 Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमं : अंतकिरियापयं वीसवाँ : अन्तक्रियापद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का वीसवाँ अन्तक्रियापद है। * इस पद में विविध पहलुगों से अन्तक्रिया और उससे होने वाली विशिष्ट उपलब्धियों के विषय में गूढ़ विचारणा की गई है। * भारत का प्रत्येक प्रास्तिक धर्म और दर्शन या मत-पंथ पुनर्जन्म एवं मोक्ष में मानता है और अगला जन्म अच्छा मिले या जन्म-मरण से सर्वथा छुटकारा मिले, इसके लिए विविध साधनाएँ. तप, संयम, त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम आदि का निर्देश करता है। प्राणी का जन्म लेना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना हो, बल्कि उससे भी अधिक उसके जीवन का अन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अन्तक्रियापद में इसी का विचार किया गया है, ताकि प्रत्येक मुमुक्षु साधक यह जान सके कि किसकी अन्तक्रिया अच्छी और बुरी होती है, और क्यों ? * अन्तक्रिया का अर्थ है-भव (जन्म) का अन्त करने वाली क्रिया / इस क्रिया से दो परिणाम आते हैं--या तो नया भव (जन्म) मिलता है, अथवा मनुष्यभव का सर्वथा अन्त करके जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त हो जाता है / अतः अन्तक्रिया शब्द यहाँ दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है'-(१) मोक्ष, (2) इस भव के शरीरादि से छुटकारा---मरण / * इस अन्तक्रिया का विचार प्रस्तुत पद में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों द्वारा किया गया है-(१) अन्तक्रियाद्वार, (2) अनन्तरद्वार, (3) एक समयद्वार, (4) उद्वत्तद्वार, (5) तीर्थंकरद्वार, (6) चक्रीद्वार, (7) बलदेवद्वार, (8) वासुदेवद्वार, (6) माण्डलिकद्वार और (10) रत्नद्वार। प्रस्तुतपद के उपसंहार में बताया गया है, कौन-सा आराधक या विराधक मर कर कौन-कौन से देवों में उत्पन्न होता है ? अन्त में अन्तक्रिया से सम्बन्धित अपंज्ञो (अकामनिर्जरा युक्त जीव) के आयुष्यबन्ध की और उसके अल्पबहुत्व की चर्चा है / * प्रथम अन्तक्रियाद्वार–में यह विचारणा की गई है कि कौन जीव अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर लेता है, कौन नहीं ? एकमात्र मनुष्य ही इस प्रकार की अन्तक्रिया का अधिकारी है / जीव के नारक आदि अनेक पर्याय होते हैं। अतः नारकपर्याय में रहा हुअा जीव मनुष्यभव में जाकर 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 397 Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376] [प्रज्ञापनासूत्र तथाविधयोग्यता प्राप्त करके अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकता है, इसलिए कहा जाता है कि कोई नारक मुक्त हो सकता है, कोई नहीं।' द्वितीय अनन्तरद्वार-में यह विचारणा की गई है कि नारकादि जीव अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं या परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं ? अर्थात्-कोई जीव नारकादि भव में से मर कर व्यवधान विना ही मनुष्यभव में आकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अथवा नारकादि भव के पश्चात् एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में प्राकर मुक्ति प्राप्त करता है ? इसका उत्तर यह है कि प्रारम्भ के चार नरकों में से आने वाला नारक अनन्तरागत और परम्परागत दोनों प्रकार से अन्तक्रिया कर सकता है। परन्तु बाद के तीन नरकों में से आने वाला नारक परम्परा से ही अन्तक्रिया कर पाता है, अर्थात्-नरक के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर तथाविध साधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भवनपति एवं पृथ्वीअप्-वनस्पतिकाय में से आने वाले जीव दोनों प्रकार से अन्तक्रिया कर सकते हैं / तेजस्कायिकवायुकायिक एवं विकलेन्द्रिय जीव परम्परागत ही अन्तक्रिया कर सकते हैं। तृतीय एकसमयद्वार-में अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले नारकादि एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट कितनी संख्या में अन्तक्रिया करते हैं ? इसकी प्ररूपणा की गई है / चतुर्थ उदवत्तद्वार-में यह बताया गया है कि नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव मर कर सीधा (विना व्यवधान के) चौवीस दण्डकों में से कहाँ उत्पन्न हो सकता है ? यद्यपि यहाँ उद्वृत्त शब्द समस्त गतियों में होने वाले मरण के लिए प्रयुक्त है, परन्तु षट्खण्डागम में उसके बदले उद्वत्त, कालगत और च्युत शब्दों का प्रयोग किया गया है। सामान्यतया जैनागमों में वैमानिक तथा ज्योतिष्क देवों के अन्यत्र जाने के लिए च्युत, मनुष्यों के लिए कालगत और नारक, भवनवासी और वाणव्यन्तर के लिए उद्धृत्त शब्द-प्रयोग दिखाई देता है। इसके साथ ही इस द्वार में मर कर उस-उस स्थान में जाने के बाद जीव क्रमश: धर्मश्रवण, बोध, श्रद्धा, मतिश्रुतज्ञान, व्रतग्रहण, अवधिज्ञान, अनगारत्व, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और अन्तक्रिया (सिद्धि), इन में से क्या-क्या प्राप्त हो सकते हैं ? इसकी चर्चा है / * पंचम तीर्थंकरद्वार में यह निर्देश किया है कि नारकादि मर कर सीधे मनुष्यभव में प्राकर तीर्थकरपद प्राप्त कर सकता है, या नहीं ? साथ ही यह भी बताया गया है कि अगर तीर्थंकरपद नहीं प्राप्त कर सकता है तो विकास क्रम में--अन्तक्रिया, विरति, विरताविरति, सम्यक्त्व, मोक्ष, धर्मश्रवण, मनःपर्यायज्ञान, इनमें से क्या प्राप्त कर सकता है ? * छठे से दसवें द्वार तक में क्रमश: चक्रवर्तीपद, बलदेवपद, वासुदेवपद, माण्डलिकपद एवं 1. प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पत्र 397 2. वही, पत्र 397 3. षट्खण्डागम पुस्तक 6, पृ. 477 Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [377 चक्रवर्ती के 14 रत्नों में से कोई भी एक रत्न, नारकी आदि सीधे कौन प्राप्त कर सकता है ? यह बताया गया है।' * अन्त में असंयम भव्यद्रव्यदेव, संयम-अविराधक, संयम-विराधक, संयमासंयम-अविराधक, संयमा संयम-विराधक, असंज्ञी (अकामनिर्जरायुक्त) तापस, कान्दपिक, चरक-परिव्राजक, किल्विषिक, तैरश्चिक, प्राजीवक, आभियोगिक, स्वलिंगी एवं दर्शनभ्रष्ट, इनमें से किसकी किन देवों में उत्पत्ति होती है, यह बताया गया है।' 1. पण्णवण्णामृतं भा. 1. पृ. 327 2. पण्णवण्णासुत्तं भा. 2, पृ. 165-166 Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसइमं : अंतकिरियापयं वीसवाँ : अन्तक्रियापद अर्थाधिकार 1406. रइय अंतकिरिया 1 अणंतरं 2 एगसमय 3 उध्वट्टा 4 / तित्थगर 5 चक्कि 6 बल 7 वासुदेव 8 मंडलिय 9 रयणा य 10 / / 213 / / दारगाहा / / द्वारगाथार्थ—अन्तक्रियासम्बन्धी 10 द्वार-(१) नैरयिकों को अन्तक्रिया, (2) अनन्तरागत जीव-अन्तक्रिया, (3) एक समय में अन्तक्रिया, (4) उद्वत्त जीवों की उत्पत्ति, (5) तीर्थकरद्वार, (6) चक्रवर्तीद्वार, (7) बलदेवद्वार, (8) वासुदेवद्वार, (6) माण्डलिकद्वार प्रौर (10) (चक्रवर्ती के सेनापति आदि) रत्नद्वार / यह द्वार-गाथा है // 213 // विवेचन---वीसवें पद में अन्तक्रिया आदि से सम्बन्धित दस द्वारों का निरूपण किया गया है। वे इस प्रकार हैं (1) अन्तक्रियाद्वार-इसमें नारक आदि चौवीस दण्डकों को अन्तक्रिया-सम्बन्धी प्ररूपणा है। (2) अनन्तरद्वार-इसमें अनन्तरागत एवं परम्परागत जीव की अन्तक्रिया से सम्बन्धित निरूपण है। (3) एकसमयद्वार-इसमें एक समय में जीवों की अन्तक्रिया से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर हैं। (4) उदवत्तद्वार---इसमें नैरयिकों से उद्वत्त होकर नैरयिक आदि में उत्पन्न होने तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों के धर्मश्रवण, केवलज्ञानादि तथा शील, व्रत, गुणवत, प्रत्याख्यान एवं पौषधोपवास आदि के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं। (5) तीर्थंकरद्वार-इसमें नैरयिकों से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों से उद्धृत्त जीवों को तीर्थकरत्व प्राप्त होने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं। (6) चनिद्वार- इसमें चौवीस दण्डकों से उद्वृत्त जीवों को चक्रवत्तित्व-प्राप्ति होने के सम्बन्ध में चर्चा है। (7) बलदेवद्वार--इसमें बलदेवत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है / (8) वासुदेवद्वार—इसमें वासुदेवत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है / (6) माण्डलिकद्वार-इसमें माण्डलिकत्वप्राप्ति सम्बन्धी चर्चा है / Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां अन्तक्रियापद] [379 (10) रत्नद्वार-इममें सेनापति रत्न ग्रादि चक्रवर्ती के रत्नों की प्राप्ति से सम्बन्धित निरूपण है।' अन्तक्रिया : दो अर्थों में प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुया है-- (1) कर्मों या भव के अन्त (क्षय) करने की क्रिया और (2) अन्त अर्थात्-अवसान (मरण) की क्रिया / वैसे तो जैनागमों में अन्तक्रिया समस्त कर्मों (या भव) के अन्त करने के अर्थ में रूढ़ है, तथापि भव का अन्त करने की क्रिया से दो परिणाम आते है-या तो मोक्ष प्राप्त होता है, या मरण होता है-- भव के शरीर से छुटकारा मिलता है। इसलिए यहाँ अन्तक्रिया शब्द इन दोनों (मोक्ष और मरण) अर्थों में प्रयुक्त हुआ है / प्रस्तुत पद में इसी अन्तक्रिया का विचार चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों के माध्यम से किया गया है / इन दस द्वारों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथम के तीन द्वारों में अन्तक्रियाअर्थात्-मोक्ष की चर्चा है और बाद के द्वारों का सम्बन्ध भी अन्तक्रिया के साथ है, किन्तु वहाँ अन्तक्रिया का अर्थ मृत्यु करें, तभी संगति बैठ सकती है। इसके अतिरिक्त इन द्वारों में अन्तक्रिया का अर्थ--मोक्ष भी घटित हो सकता है, क्योंकि उन द्वारों में उन-उन योनियों में उद्वर्तना आदि करने वाले को मोक्ष संभव है या नहीं ? ऐसा प्रश्न भी प्रस्तुत किया गया है / प्रथम : अन्तक्रियाद्वार 1407. [1] जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, प्रस्थेगइए णो करेज्जा। [1407-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! कोई जीव (अन्तक्रिया) करता है, (और) कोई जीव नहीं करता / [2] एवं रइए जाव वेमाणिए। [1407-2] इसी प्रकार नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अंश में समुच्चयजीवों की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में चर्चा की गई है, जबकि द्वितीय अंश में नैरयिक से वैमानिक तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अन्तक्रिया के विषय में चर्चा है। अन्तक्रिया-प्राप्ति-अप्राप्ति का रहस्य-जो जीव तथाविध भव्यत्व के परिपाकवश मनुष्यत्व प्रादि समग्र सामग्री प्राप्त करके उस सामग्री के वल से प्रकट होने वाले अतिप्रबल वीर्य के उल्लास से क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर, केवलज्ञान प्राप्त करके केवल घातिकर्मों का ही नहीं, अघातिकर्मों 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वत्ति पत्र 396397 2. (क) अन्तक्रियामिति---अन्तः-अवसानं, तच्च प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यम्, तस्य क्रिया--करणमन्त क्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थ / -प्रज्ञापना. मन्नय. वृत्ति, पत्र 397 (ख) पण्णवण्णासुतं (परिशिष्ट-प्रस्तावनात्मक) भा. 2, पृ. 112 Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380] [प्रज्ञापनासूत्र का भी क्षय कर देता है, वही अन्त क्रिया करता है, अर्थात् समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है / इससे विपरीत प्रकार का जीव अन्तक्रिया (मोक्ष) प्राप्त नहीं कर पाता / इसी रहस्य के अनुमार समस्त जीवों को अन्तक्रिया की प्राप्ति-अप्राप्ति समझ लेनी चाहिए।' 1408. [1] रइए णं भंते ! रइएसु अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम?। [1408-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक, नारकों (नरकगति) में रहता हुआ अन्तक्रिया करता है ? | उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। [2] गैरइए णं भंते ! असुरकुमारेसु अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम? / [1408-2 प्र.] भगवन् ! क्या नारक, असुरकुमारों में अन्तक्रिया करता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [3] एवं जाव वेमाणिएसु / णवरं मणूसेसु अंतकिरियं करेज्ज त्ति पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए णो करेज्जा। {1408-3] इसी प्रकार नारक की, यावत् वैमानिकों तक में (अन्तक्रिया की असमर्थता समझ लेनी चाहिए। [प्र.] विशेष प्रश्न (यह है कि) नारक क्या मनुष्यों में (आकर) अन्तक्रिया करता है ? [उ.] गौतम ! कोई नारक (अन्तक्रिया) करता है और कोई नहीं करता। 1409. एवं असुरकुमारे जाव वेमाणिए / एवमेते चउवीसं चउवोसदंडगा 576 भवंति / दारं 1 // [1406] इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर यावत् वैमानिक तक के विषय में भी समझ लेना चाहिए। इसी तरह चौवीस दण्डकों (में से प्रत्येक) का चौवीस दण्डकों में (अन्तक्रिया का निरूपण करना चाहिए / ) (ये सब मिला कर 244 24 = ) 576 (प्रश्नोत्तर) हो जाते हैं। -प्रथम द्वार // 1 // विवेचन–नारक की नारकादि में अन्तक्रिया को असमर्थता का कारण---नारक जीव, नारक पर्याय में रहते हुए अन्तक्रिया इसलिए नहीं कर सकते कि समस्त कर्मों का क्षय (मोक्ष) तभी होता है, जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, ये तीनों मिलकर प्रकर्ष को प्राप्त हों / नैरयिक-पर्याय में सम्यग्दर्शन का प्रकर्ष कदाचित क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव में हो भी जाए, किन्तु सम्यग्ज्ञान के प्रकर्ष की योग्यता और सम्यक् चारित्र के परिणाम नारकपर्याय में उत्पन्न हो नहीं सकते, क्योंकि नारकभव का ऐसा हो स्वभाव है। 1. प्रज्ञापना, मलय. वृत्ति, पत्र 397 Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [381 इसी प्रकार नारकजीव, असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों में, पृथ्वी कायिक ग्रादि एकेन्द्रियों में, विकलेन्द्रियों में, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में रहता हुअा अन्तक्रिया नहीं कर सकता / इसका भी कारण वही भवस्वभाव है।' ___ मनुष्यों में नारकादि के जीवों को अन्तक्रिया--मनुष्य पर्याय में पाया हया कोई नारक, जिस मनुष्यत्व प्रादि को परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हो गई हो, वह पूर्वोक्त प्रकार से क्रमशः समस्त कर्म क्षय करके अन्तक्रिया करता है और कोई नारक, जिसे परिपूर्ण सामग्री प्राप्त नहीं होती, वह अन्तक्रिया नहीं कर पाता। इसी प्रकार मनुष्यों में आया हुआ कोई-कोई असुरकुमार आदि (असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक) का जीव, जिसे परिपूर्ण सामग्री प्राप्त हो जाती है वह अन्तक्रिया कर लेता है और जिसे परिपूर्ण सामग्री नहीं मिलती, वह अन्तक्रिया नहीं कर पाता / प्रत्येक दण्डकवर्ती जीव को चौवीस दण्डकवर्ती जोवों में अन्तक्रिया-नारक आदि प्रत्येक दण्डक का जीव, नारक आदि चौवीस दण्डकों में से प्रत्येक दण्डक में रहते हुए अन्तक्रिया कर सकता है या नहीं ? इस प्रकार के कुल 244 24 - 576 प्रश्नोत्तर विकल्प हो जाते हैं।' द्वितोय : अनन्तरद्वार 1410. [1] गेरइया णं भंते ! कि अणंतरागता अंतकिरियं करेंति परंपरागया अंतकिरियं करेंति ? गोयमा ! अणंतरागया वि अंतकिरियं करेंति, परंपरागता वि अंतकिरियं करेंति / [1410-1 प्र.] भगवन् ! नारक (जीव) क्या अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं, अथवा परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं ? उ.] गौतम ! (वे) अनन्तरागत भी अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भो अन्तक्रिया करते हैं। [2] एवं रयणप्पभापुढविणेरइया वि जाव पंकप्पभापुढविणेरइया। / 1410-2 प्र.] इसी प्रकार रत्नप्रभा नरकभूमि के नारकों से लेकर पंकप्रभा नरकभूमि के नारकों तक की अन्तक्रिया के विषय में समझ लेना चाहिए। [3] धूमप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! पुच्छा। गोयमा ! णो अणंतरागया अंतकिरियं करेंति, परंपरागया अंतकिरियं करेंति / एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइया। [1410-3 प्र.] (अब) प्रश्न है—धूमप्रभापृथ्वी के नारक अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं या परम्परागत अन्तक्रिया ? 1. प्रज्ञापना : मलय. वृत्ति, पत्र 397 2. वही, पत्र 397 3. कही, पत्र 397 Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 382] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] हे गौतम ! (वे) अनन्तरागत अन्तक्रिया नहीं करते, (किन्तु) परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमपृथ्वी (तमस्तमाभूमि तक) के नैरयिकों (की अन्तक्रिया के विषय में जान लेना चाहिए)। 1411. असुरकुमारा जाव थणियकुमारा पुढवि-आउ-वणस्सइकाइया य अणंतरागया वि अंतकिरियं करेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं करेंति / [1411] असुरकुमार से (लेकर) यावत् स्तनितकुमार (तक के भवनपति देव) तथा पृथ्वी कायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक (एकेन्द्रिय जीव) अनन्तरागत अन्तक्रिया भी करते हैं और परम्परागत भी अन्तक्रिया करते हैं। 1412. तेउ-बाउ-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया णो अणंतरागया अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया अंतकिरियं पकरेंति / [1412] तेजस्कायिक, वायुकायिक (एवं) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय (और) चतुरिन्द्रिय (विकलेन्द्रिय स जीव) अनन्तरागत अन्तक्रिया नहीं करते, किन्तु परम्परागत अन्तक्रिया करते है। 1413. सेसा अणंतरागया वि अंतकिरियं पकरेंति, परंपरागया वि अंतकिरियं पकरेंति / दारं 2 // 1413] शेप (सभी जीव) अनन्तरागत अन्तक्रिया भी करते हैं और परम्परागत अन्तक्रिया भी करते हैं। -द्वितीय द्वार / / 2 / / विवेचन–अन्तक्रिया : अनन्तरागत या परम्परागत ? - अन्तक्रिया (मुक्ति) केवल मनुष्यभव में ही हो सकती है, इसलिए द्वितीय द्वार में नारक से लेकर वैमानिक तक के सभी जीवों के विषय में प्रश्न है कि वे नारक आदि के जीव जो अन्तक्रिया करते हैं, वे नारकादिभव में से मर कर व्यवधानरहित सीधे मनुष्यभव में आकर (अनन्तरागत) अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) करते हैं, या नारकादिभव के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर (परम्परागत) अन्तक्रिया करते हैं ? यह इन सभी प्रश्नों का आशय है।' जीवों की अनन्तरागत और परम्परागत अन्तक्रिया का निर्णय-समुच्चयरूप से नारक जीव दोनों प्रकार से अन्तक्रिया करते हैं। अर्थात् नरक से सीधे मनुष्यभव में पा कर भी अन्तक्रिया करते हैं और नरक से निकल कर तिर्यञ्च आदि के भव करके फिर मनुष्यभव में पा कर भी अन्तक्रिया करते हैं। किन्तु विशेषरूप से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा और पंकप्रभा, इन चारा नरकभूमियों के नारक अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और परम्परागत भी। किन्तु शेष तीन (धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तम:प्रभा) नरकभूमियों के नारक केवल परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं / इसका कारण पूर्वोक्त ही समझना चाहिए / ग्रसरकमार से लेकर स्तनितकमार तक 10 प्रकार के भवनपति देव तथा पथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक, ये तीन प्रकार के एकेन्द्रिय जीव अनन्तरागत और परम्परागत दोनों ----- --- - 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 393 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयवोधिनी. भा. 4, पृ. 492 Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [383 प्रकार से अन्तक्रिया करते है। तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव मर कर मनुष्य होते ही नहीं, इस कारण और तीन विकलेन्द्रिय जीव भवस्वभाव के कारण परम्परागत अन्तक्रिया ही करते हैं / ये जीव सीधे मनुष्यभव में आकर अन्तक्रिया नहीं कर सकते, ये अपने-अपने भव से निकल कर तिर्यञ्चादिभव करके फिर मनुष्यभव में पा कर अन्तक्रिया कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क प्रोर वैमानिकों में से जिनको योग्यता होती है, वे अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और जिनकी योग्यता नहीं होती, वे परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं / इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त युक्ति ही समझनी चाहिए।' तृतीय : एकसमयद्वार 1414. [1] अणंतरागया णं भंते ! णेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस / [1414-1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जवन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट दस (अन्तक्रिया करते हैं / ) [2] रयणप्पमापुढविणेरइया वि एवं चेव जाव वालुयप्पभापुढविणेरइया / [1414-2 (अनन्तरागत) रत्नप्रभापृथ्वी के नारक भी इसी प्रकार (अन्तक्रिया करते हैं) यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक भी (इसी प्रकार अन्तक्रिया करते हैं / ) [3] अणंतरागता णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि / [1414-3 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वो के अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार (अन्तक्रिया करते हैं।) 1415. [1] अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमएणं केवइया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस / [1815-1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने असुरकुमार एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? | 3.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन (और) उत्कृष्ट दस (अन्तक्रिया करते हैं। [2] अणंतरागयानो णं भंते ! असुरकुमारोमो एगसमएणं केवतियानो अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्का वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं पंच / 1. (क) प्रजापना. म. वृत्ति, पत्र 397 (ख) पण्णवण्णासुत्तं (परिशिष्ट) भा. 2, पृ. 112 Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384] [प्रज्ञापनासूत्र [1415-2 प्र.] भगवन् ! अनन्तरागता कितनी असुरकुमारियाँ एक समय में अन्तक्रिया करती हैं ? / [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन (और) उत्कृष्ट पांच (अन्तक्रिया करती हैं।) [3] एवं जहा असुरकुमारा सदेवीया तहा जाव थणियकुमारा। [1415-3] इसी प्रकार जैसे अनन्तरागत असुरकुमारों तथा उनकी देवियों की (संख्या एक समय में अन्तक्रिया करने की बताई है,) वैसे ही यावत् स्तनितकुमार (तथा उनकी देवियों) तक की (अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए।) 1416. [1] अणंतरागया जं भंते ! पुढविक्काइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि / [1416-1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत पृथ्वीकायिक एक समय में कितने अन्तक्रिया करते [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार (अन्तक्रिया करते हैं।) [2] एवं प्राउक्काइया वि चत्तारि / क्णप्फइकाइया छ / पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दस / तिरिक्खजोणिणीओ दस। मणूसा दस। मणसीओ वीसं। वाणमंतरा दस / वाणमंतरीओ पंच / जोइसिया दस / जोइसिणीयो वीसं / वेमाणिया अट्ठसतं / वेमाणिणीओ वीसं / दारं 3 // 1416-2] इसी प्रकार (अप्कायिक आदि जघन्य तो एक समय में एक दो या तीन और उत्कृष्टत:) अप्कायिक भी चार (अन्तक्रिया करते हैं;) वनस्पतिकायिक छह, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च दस, (पंचेन्द्रिय) तिर्यञ्च स्त्रियाँ दस, मनुष्य दस, मनुष्यनियाँ बीस, वाणव्यन्तर देव दस, वाणव्यन्तर देवियाँ पांच, ज्योतिष्क देव दस, ज्योतिष्क देवियाँ बीस, वैमानिक देव एक सौ आठ, वैमानिक देवियाँ वीस (अन्तक्रिया करती हैं।) --तृतीय द्वार // 3 // विवेचन–प्रस्तुत द्वार में केवल अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले जीवों के सम्बन्ध में प्रश्न है कि वे एक समय में कितनी संख्या में अन्तक्रिया कर सकते हैं ? अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले जीवों की संख्या-सूचक तालिका इस प्रकार हैअनन्तरागत जीव जघन्य संख्या उत्कृष्ट संख्या नारक (समुच्चय) 1, 2, 3 प्रथम, द्वितीय, तृतीय नारक चतुर्थ पृथ्वी के नारक 1, 2, 3 समस्त भवनपति देव 1, 2,3 Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [385 MONYM 20. अनन्तरागत जीव जघन्य संख्या उत्कृष्ट संख्या समस्त भवनपति देवियाँ 1,2,3 पृथ्वीकाय, अप्काय वनस्पतिकायिक पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च 1,2,3 पंचेन्द्रिय तिर्यञ्ची (स्त्री) 1, 23 मनुष्य (नर) 1, 2, 3 मनुष्य (नारी) 1, 2, 3 वाणव्यन्तर देव 1, 2, 3 वाणव्यन्तर देवियाँ ज्योतिष्क देव 1, 2,3 ज्योतिष्क देवियाँ 1, 2, 3 वैमानिक देव 108 वैमानिक देवियाँ 1, 2, 3 अनन्तरागत जीव : पूर्वभव-पर्याय की अपेक्षा से--- यद्यपि नारक आदि जीव नरक आदि से निकल कर सीधे मनुष्यभव में आ जाने के बाद नारक आदि नहीं रहते, वे सब मनुष्य हो जाते हैं, फिर भी उन्हें शास्त्रकार ने जो अनन्तरागत प्रादि कहा है, वह कथन पूर्वभव-पर्याय की अपेक्षा से समझना चाहिए / वस्तुतः अनन्तरागत नारक आदि से तात्पर्य उन जीवों से है, जो पूर्वभव में नारक आदि थे और वहाँ से निकल कर सीधे मनुष्यभव में प्राकर मनुष्य बने हैं / चतुर्थ : उद्वत्तद्वार 1417. णेरइए णं भंते ! जेरइएहितो अणंतरं उम्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम?। [1417 प्र.] भगवन्! नारक जीव, नारकों में से उद्वर्तन (निकल) कर क्या (सीधा) नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / 1418. णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इण8 समट्ठ। [1418 प्र.] भगवन् ! नारक जीव नारकों में से निकल कर क्या (मीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न हो सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1419. एवं निरंतरं जाव चरिदिएसु पुच्छा। गोयमा ! णो इण? सम?। 1. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट) भा. 2, पृ. 113 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 398 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 4, पृ. 498 Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 386] [प्रज्ञापनासत्र [1416 प्र.] इसी तरह (नरयिक नैयिकों में से निकल कर) निरन्तर (व्यवधानरहितसीधा) (नागकुमारों से ले कर) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों तक में (उत्पन्न हो सकता है ?) ऐसी पृच्छा करनी चाहिए। [उ.] गौतम! यह अर्थं समर्थ नहीं। 1420. [1] गैरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए णो उववज्जेज्जा / [1420-1 प्र.| भगवन् ! नारक जीव नारकों में से उद्वर्तन कर अन्तर (व्यवधान) रहित (सीधा) पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में उत्पन्न हो सकता है ? [उ. | गौतम ! (इनमें से) कोई उत्पन्न हो सकता है (और) कोई उत्पन्न नहीं हो सकता / [2] जे णं भंते ! रइएहितो अगंतरं उन्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोगिएसु उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा / 61420-2 प्र. भगवन् ! जो नारक नारकों में से निकल कर सीधा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है, क्या वह केवलिप्ररूपित धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई धर्मश्रवण को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता / [3] जे णं भंते ! केवलिपण्णतं धम्मं लभेज्जा सवणयाए से णं केवलं बोहि बुझेज्जा। गोयमा ! अत्थेगइए बुज्झज्जा, अत्थेगइए णो बुज्झज्जा। [1420-3 प्र.] भगवन् ! जो (पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में उत्पन्न जीव) केवलि-प्ररूपित धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है, क्या वह केवल (शुद्ध) बोधि को समझ सकता है ? उ,] गौतम ! (इनमें से) कोई (केवलबोधि) को समझ सकता है (और) कोई नहीं समझ पाता। [4] जे णं भंते ! केवलं बोहिं बुज्झज्जा से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा? गोयमा ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा। [1420-4 प्र.| भगवन् ! जो (नै रयिकों से तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय में अनन्तरागत जीव) केवलबोधि को समझ सकता है, क्या वह (उस पर) श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है (तथा) रुचि करता है ? [उ.] (हाँ) गौतम ! (वह) श्रद्धा करता है, प्रतीति करता है (तथा) रुचि करता है / [5] जे णं भंते ! सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा से णं आभिणिबोहियणाण-सुयणाणाई उपपाडेज्जा ? हता! गोयमा ! उप्पाडेज्जा। Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [387 |1420-5 प्र. भगवन् ! जो (उस पर) श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है (क्या) वह प्राभिनिबोधिकज्ञान (और) श्रुतज्ञान उपाजित (प्राप्त) कर लेता है ? [उ.| हाँ गौतम ! वह (इन ज्ञानों को) प्राप्त कर सकता है। [6] जे णं भंते ! आभिणिबोहियणाण-सूयणाणाई उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा सोलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा पच्चक्खाणं वा पोसहोववासं था पडिवज्जित्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्यंगइए णो संचाएज्जा / [1420-6 प्र. भगवन् ! जो (अनन्तरागत तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) अाभिनिवोधिकज्ञान एवं श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान अथवा पौषधोपवास अंगीकार करने में समर्थ होता है ? [उ. | गौतम ! कोई (तथाकथित तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) (शील यावत् पौषधोपवास को अंगीकार) कर सकता है और कोई नहीं कर सकता / [7] जे णं भंते ! संचाएज्जा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा पडिवज्जित्तए से णं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा / [1420-7 प्र.] भगवन् ! जो (तथाकथित तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) शील यावत् पौषधोपवास अंगीकार कर सकता है (क्या) वह अवधिज्ञान को उपाजित (प्राप्त) कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (अवधिज्ञान) प्राप्त कर सकता है (और) कोई नहीं प्राप्त कर सकता। [8] जे णं भंते प्रोहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए? गोयमा ! जो इण8 सम8। [1420-8 प्र. भगवन् ! जो (तथाकथित तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) अवधिज्ञान उपाजित कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित हो कर अगारत्व से अनगारत्व (अनगारधर्म) में प्रवजित होने में समर्थ है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1421. [1] जेरइए णं भंते ! जेरइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता मणूसेसु उबबज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। [1421-1 प्र.] भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से उद्वर्त्तन (निकल) कर क्या सीधा मनुष्यों में उत्पन्न हो जाता है? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनुष्यों में ) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता। Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388] [प्रज्ञापनासूत्र [2] जे णं भंते ! उवयज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! जहा पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु (सु. 1420 [2-7]) जाव जे णं भंते ! ओहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा मुंडे भविता अगाराप्रो अणगारियं पध्वइत्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अस्थेगइए णो संचाएज्जा। [1421-2 प्र.] भगवन् ! जो (नारकों में से अनन्तरागत जीव मनुष्यों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केलि-प्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है ? उ.] गौतम ! जैसे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में (आकर उत्पन्न जीव) के विषय में धर्मश्रवण से (लेकर) यावत् जो अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, यहाँ तक कहा है, वैसे ही यहां कहना चाहिए। (विशेष प्रश्न यह है ~) भगवन् ! जो (मनुष्य) अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित होकर अगारत्व से अनगारधर्म में प्रवजित हो सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई प्रबजित हो सकता है और कोई प्रजित नहीं हो सकता / [3] जे णं भंते ! संचाएज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए से गं मणपज्ज. वणाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, प्रत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा। [1421-3 प्र.] भगवन् ! जो (तथाकथित मनुष्य) मुण्डित होकर अगारित्व से अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ है, (क्या) वह मनःपर्यवज्ञान को उपाजित कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनःपर्यवज्ञान को) उपाजित कर सकता है (और) कोई उपाजित नहीं कर सकता। [4] जे णं भंते ! मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा से णं केवलणाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा। 1421-4 प्र.] भगवन् ! जो (तथाकथित मनुष्य) मनःपर्यवज्ञान को उपाजित कर लेता है, (क्या) वह केवल ज्ञान को उपार्जित कर सकता है ? उ. गौतम ! (उनमें से) कोई केवलज्ञान को उपाजित कर सकता है (और) कोई उपाजित नहीं कर सकता। [5] जे णं भंते ! केवलणाणं उप्पाडेज्जा से गं सिझज्जा बुझेज्जा मुच्चेज्जा सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा? गोयमा ! सिज्झेज्जा जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा / [1421-5 प्र.) भगवन् ! जो (तथाकथित मनुष्य) केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है, (क्या) वह सिद्ध हो सकता है, बुद्ध हो सकता है, मुक्त हो सकता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर सकता है ? [उ.] (हाँ) गौतम ! वह (अवश्य हो) सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [389 1422. गैरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा! गो इण? सम?। [1422 प्र.] भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से निकल कर (क्या सीधा) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिकों में उत्पन्न होता है ? {उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / विवेचन--नारकों में से नारकादि में उत्पत्ति-धर्मश्रवणादि-विषयक चर्चा–प्रस्तुत द्वार के प्रथम 6 सूत्रों (सू. 1417 से 1422 तक) में नारकों में से मर कर सीधे नारकों, भवनपतियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उत्पत्ति को चर्चा है / फिर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण, शुद्ध बोधि, श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, मति-श्रुतज्ञान, शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पौषधोपवासग्रहण, अवधि-मनःपर्यव-केवल ज्ञान एवं सिद्धि (मुक्ति), इनमें से क्या-क्या प्राप्त कर सकते हैं ? इसकी चर्चा की गई है। उद्वर्तन : विशेषार्थ में-प्रस्तुत शास्त्र में 'उद्वत' शब्द समस्त गतियों में होने वाले 'मरण' के लिए प्रयुक्त किया गया है, जबकि 'षट्खण्डागम' में मरण के लिए तीन शब्द प्रयुक्त किये गए हैंनरक, भवनवासी, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क गति में से मर कर जाने वालों के लिए 'उद्वत्त', तिर्यञ्च और मनुष्यगति में से मर कर जाने वालों के लिए 'कालगत' और वैमानिक देवों में से मर कर जाने वालों के लिए 'च्युत' शब्द / नारकों का उद्वर्तन तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में इस पाठ से स्पष्ट है कि नारकजीव नारकों में से निकल कर सीधा नारकों, भवनपतियों और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसका कारण पूर्वोक्त ही है। वह नारकों में से निकल कर सीधा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों में उत्पन्न हो सकता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण, केवलबोधि, श्रद्धा-प्रतीति-रुचि, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पोषधोपवास-ग्रहण, अवधिज्ञान तक प्राप्त कर सकते है, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई इससे आगे बढ़कर अनगारत्व, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और सिद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं / विशिष्ट शब्दों के अर्थ-केवलिपन्नत्तं धम्म-केवली द्वारा प्ररूपित-उपदिष्ट श्रुत-चारित्ररूप धर्म को / लभेन्ज सवणयाए-श्रवण प्राप्त करता है / केवलं बोहिं:दो अर्थ (१)केवल-विशद्ध बोधि--धर्मप्राप्ति (धर्मदेशना), (2) केवली द्वारा साक्षात् या परम्परा से उपदिष्ट (कैवलिक) बोधि / 1. पण्णवणासुतं (परिशिष्ट) भा. 2, पृ. 113 2. (क) बही, पृ. 113 3. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका, भा. 4, पृ. 509 (ख) षट्खण्डागम पृ. 6, पृ. 477 में से विशेषार्थ Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 390] [प्रज्ञापनासूत्र प्रश्न का आशय---केवलिप्रज्ञप्तधर्म का श्रोता क्या उपर्युक्त कैवलिक बोधि को यथोक्तरूप से जानतासमझता है ? शील आदि शब्दों के विशिष्ट अर्थ-शीलब्रह्मचर्य, व्रत-विविध द्रव्यादिविषयक नियम, गुण, भावना आदि, अथवा उत्तरगुण, विरमण–अतीत स्थूल प्राणातिपात आदि से विरति, प्रत्याख्यान--अनागतकालीन स्थल प्राणातिपात प्रादि का त्याग, पोषधोपवास--पोषध---धर्म का पोषण करने वाले अष्टमी आदि पों में उपवास पोषधोपवास / ' __ अवधिज्ञान किनको?-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता, गुणप्रत्यय होता है / शीलवत आदि विषयक गुणों के धारकों में जिनके उत्कृष्ट परिणाम होते हैं, उनको अवधिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम हो जाता है और उन्हें (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को, अवधिज्ञान प्राप्त होता है, सभी को नहीं / / मनःपर्यायज्ञान किनको?-मनःपर्यायज्ञान अनगार को ही प्राप्त प्राप्त होता है, वह भी उसी संयमी को होता है, जो समस्त प्रमादों से रहित हो, विविध ऋद्धियों से सम्पन्न हो। इसलिए तिर्यञ्चों को अनगारत्व भी प्राप्त नहीं होता, तब मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान कहाँ से प्राप्त होगा! मनुष्यों में भी उसी को मनःपर्यायज्ञान प्राप्त होता है, जो अनगार हो, अप्रमत्त तथा निर्मल चारित्री एवं ऋद्धिमान् हो।' मुंडे भविता : भावार्थ-मुण्ड दो प्रकार का होता है-द्रव्यमुण्ड और भावमुण्ड / केशादि कटाने से द्रव्यमुण्ड होता है , सर्वसंग-परित्याग से भावमुण्ड का ग्रहण किया गया है / अर्थात--भाव से मुण्डित होकर / सिझज्जा बुज्झेज्जा मुच्चेज्जा : प्रासंगिक विशेषार्थ--सिज्झज्जा-सर्व कार्य सिद्ध कर लेता है, कृतकृत्य हो जाता है, बुज्झज्जा-समस्त लोकालोक के स्वरूप को जानता-देखता है, मुच्चेज्जा-~भवोपनाही कर्मों से भी मुक्त हो जाता है / असुरकुमारादि को उत्पत्ति को प्ररूपणा--- 1423. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारहितो अणंतरं उव्यट्टित्ता रइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा! णो इण? सम? / {1423 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (सीधा) नैरपिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। 1. प्रज्ञापना. मलय. वत्ति, पत्र 399 2. वही, पत्र 399 3. वही, पत्र 400 4. मुण्डो द्विधा--द्रव्यतो भावतश्च / द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन, भावतः सर्वसंगपरित्यागेन। तत्रेह द्रव्य मुण्डत्वा संभवात् भावमुण्डः परिगृह्यते। वहीं, पत्र 400 Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [391 1424. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जिज्जा? गोयमा ! णो इण? सम? / एवं जाव थणियकुमारेसु / [1424 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल (उद्वर्तन) कर (सीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों में भी (असुरकुमार. असुरकुमारों में से उद्वर्तन करके सोधे उत्पन्न नहीं होते, यह समझ लेना चाहिए)। 1425. [1] असुरकु मारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता पुढविक्काइएसु उवबज्जेज्जा? हता! गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। [1425-1 प्र.] भगवन् ! (क्या) असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उसमें से) कोई (पृथ्वीकायिक में) उत्पन्न होता है (और) कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! नो इण? सम? / [1425-2 प्र.] भगवन् ! जो (असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [3] एवं आउ-वणप्फईसु वि। [1425-3 प्र.] इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के (उत्पन्न होने तथा धर्मश्रवण के) विषय में समझ लेना चाहिए। 1426. [1] असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबट्टित्ता तेउ-वाउ- बेइंदियतेइंदिय-चरिदिएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम8 / अवसेसेसु पंचसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियादिसु असुरकुमारे जहा रइए (सु. 1420-22) / [1426-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (क्या) सीधा (अनन्तर) तेजस्कायिक, वायुकायिक (तथा) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं है। अवशिष्ट पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक आदि (मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) इन पांचों में असुरकुमार की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता [सू. 1420-22 में उक्त नैरयिक (की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए।) Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासून [2] एवं जाव थणियकुमारे / [1426-2] इसी प्रकार स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिये / 1427. [1] पुढविकाइए णं भंते / पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता गैरइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इ8 सम? / [1427-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से उद्वर्तन कर (क्या) सीधा नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारसु वि / _[1427-2] इस प्रकार (की वक्तव्यता) असुरकुमारों यावत् स्तनितकुमारों (की उत्पत्ति के विषय में समझ लेना चाहिए / ) 1428. [1] पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता पुढविक्काइएसु उववज्जेज्जा? ___ गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। [1428-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव, पृथ्वीकायिकों में से निकल कर (क्या) सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? _ [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है (और) कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जेणं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! णो इण8 सम8। [1428-2 प्र.] भगवन् ! (उनमें से) जो (पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [3] एवं आउक्काइयादिसु पिरंतरं भाणियव्वं जाव चरिदिएसु / [1428-3] इसी प्रकार की वक्तव्यता अप्कायिक आदि (प्रकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय) से लेकर यावत् चतुरिन्द्रिय जोवों तक में निरन्तर (उत्पत्ति के विषय में) कहना चाहिए। [4] पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसेसु जहा णेरइए (सु 1420-21) / [1428.4] (पृथ्वीकायिक की पृथ्वीकायिकों में से निकल कर सोध) पंचेन्द्रियतिर्यञ्च Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसा अन्तक्रियापद] योनिकों और मनुष्यों में (उत्पत्ति के विषय में) [सू. 1420-21 में उक्त नैरयिक (की वक्तव्यता) के समान (कहना चाहिए। [5] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पडिसेहो / _[1428-5 | वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में (पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति का) निषेध (समझना चाहिए।) 1429. एवं जहा पुढविक्काइनो भणिग्रो तहेव पाउक्काइओ वि वणप्फइकाइओ वि भाणियम्वो। [1426] जैसे पृथ्वीकायिक (की चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति के विषय में) कहा गया है, उसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक के विषय में भी कहना चाहिए / 1430. [1] तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो प्रणतरं उव्वट्टित्ता रइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इण? सम?। [1430-1 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर क्या सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि। [1430-2] इसी प्रकार (तेजस्कायिक जीव की) असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों (तक) में (भी उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए / ) 1431. [1] पुढविक्काइय-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए णो उववज्जेज्जा / [1431-1] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिकों में तथा द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में कोई (तेजस्कायिक) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जे गं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणताए ? गोयमा ! नो इण? सम? / [1431-2 प्र.] भगवन् ! जो तेजस्कायिक (इनमें) उत्पन्न होता है, (क्या) बह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 1432. [1] तेउक्काइए णं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा? Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! प्रत्येगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा / [1432-1 प्र. भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से निकल कर क्या सीधा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होता है ? [उ. गौतम ! (इनमें से) कोई उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। [1432-2 प्र.] भगवन् ! जो (तेजस्कायिक, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (धर्मश्रवण) प्राप्त करता है (और) कोई प्राप्त नहीं करता। [3] जे शं भंते ! केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए से णं केवलं बोहि बुज्झज्जा ? गोयमा ! णो इण? समट्ठ। [1432-3 प्र.] भगवन् ! जो (तेजस्कायिक) केवलिप्रशस्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, (क्या) वह केवल (केवलिप्रज्ञप्त) बोधि (धर्म) को समझ पाता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1433. मणूस-वाणमंतर-जोइसिय-माणिएसु पुच्छा / गोयमा ! णो इण8 सम8। {1433 प्र.] (अब प्रश्न यह है कि तेजस्कायिक जीव, इन्हीं में से निकल कर सोधा) मनुष्य तथा वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकों में (उत्पन्न होता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1434. एवं जहेव तेउक्काइए णिरंतरं एवं वाउक्काइए वि / 61434] इसी प्रकार जैसे तेजस्कायिक जीव की अनन्तर उत्पत्ति आदि के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए / 1435. बेइंदिए णं भंते ! बेइंदिएहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता रइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! जहा पुढविक्काइए (सु. 1427-28) / णवरं मणूसेसु जाव मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा। [1435 प्र.] भगवन् ! (क्या) द्वीन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीवों में से निकल कर सोधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! जैसे पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में [सू. 1427-28 में कहा है, वैसा ही द्वीन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए। (पृथ्वीकायिकों से) विशेष (अन्तर) यह है कि Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] (पृथ्वीकायिक जीवों के समान द्वीन्द्रिय जीव मनुष्यों में उत्पन्न होकर अन्तक्रिया नहीं कर सकते; किन्तु) वे यावत् मनःपर्यायज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं / 1436. [1] एवं तेइंदिय-चरिदिया वि जाव मणपज्जयनाणं उप्पाडेज्जा। [1436-1] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीव भी यावत् मनःपर्यायज्ञान (तक) प्राप्त कर सकते हैं। [2] जे णं भंते ! मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा से णं केवलणाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! णो इण? समढ़। [1436-2 प्र.] जो (विकलेन्द्रिय मनुष्यों में उत्पन्न हो कर) मनःपर्यायज्ञान प्राप्त करता है, (क्या) वह केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1437. [1] पंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खजोणिएहितो अणंतरं उत्तिा रइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। [1437-1 प्र.] भगवन् ! (क्या) पंचेन्द्रियतियंञ्च पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में से उद्धृत्त होकर सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च जीव) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। [1437-2 प्र.] भगवन् ! जो (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च नारकों में) उत्पन्न होता है, क्या वह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है ? [उ.गौतम ! (उनमें से) कोई प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं करता / [3] जे णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए से णं केवलं बोहि बुझेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए बुझेज्जा, अत्थेगइए नो बुज्झज्जा / - [1437-3 प्र.] भगवन् ! जो केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त करता है, (क्या) वह केवलबोधि (केवलिप्रजप्त धर्म) को समझ पाता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई केवलबोधि (का अर्थ) समझता है (और) कोई नहीं समझता। [4] जे णं भंते ! केवलं बोहिं बुज्झज्जा से णं सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा रोएज्जा ? हंता गोयमा ! जाव' रोएज्जा / 1. यहाँ 'जाव' शब्द 'सद्दहेज्जा पत्तिएज्जा' का सूचक है / Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [1437-4 प्र.] भगवन् ! जो केवलबोधि (का अर्थ) समझता है, (क्या) वह (उस पर) श्रद्धा करता है ? प्रतीति करता है ? (और) रुचि करता है ? [उ.] हाँ गौतम ! (वह) श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है। [5] जे णं भंते ! सद्दहेज्जा 3' से णं आमिणिबोहियणाण-सुयणाण-प्रोहिणाणाणि उप्पाडेज्जा ? हंता गोयमा ! उप्पाडेज्जा। [1437-5 प्र.] भगवन जो श्रद्धा-प्रतीति-रुचि करता है, (क्या) वह प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान उपार्जित (प्राप्त कर सकता है ? / [उ.J हाँ, गौतम ! (वह आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधि ज्ञान) प्राप्त कर सकता है / [6] जे णं भंते ! आमिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणाई उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा सीलं वा जाव' पडिज्जित्तए? गोयमा ! णो इण? सम? / [1437-6 प्र.] भगवन् ! जो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान प्राप्त करता है, (क्या) वह शील, (आदि) से लेकर यावत् पोषधोपवास तक अंगीकार कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 1438. एवं प्रसुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु / [1438] इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च को, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में से उद्वृत्त हो कर सोधा) असुरकुमारों में यावत् स्तनितकुमारों में उत्पत्ति के विषय में (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से निरन्तर उद्वत्त होकर उत्पन्न हुए नारक की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए / ) 1439. एगिदिय-विलिदिएसु जहा पुढविक्काइए (सु. 1428[1-3]) / [1436] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों को) उत्पत्ति की वक्तव्यता (सू. 1428-[1-3] में उक्त) पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति के समान समझ लेनी चाहिए। 1440. पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु मणूसेसु य जहा गैरइए (सु. 1420-21) / [1440] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों और मनुष्यों में (सू. १४२०-२१में) जैसे नैरयिक के (उत्पाद की प्ररूपणा की गई) वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च को प्ररूपणा करनी चाहिए। 1441. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिएसु जहा णेरइएसु उववज्जेज्जत्ति पुच्छा भणिया (सु. 1437) / [1441] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उत्पन्न होने 2. 3' का अंक प्रतीति और रुचि शब्द का द्योतक है। 3. यहाँ 'जाव' शब्द (1420-6 में उक्त) 'सीलं वा, वयं वा, गुणं वा, वेरमण वा, पन्चक्खाणं वा पोसहोववासं वा' का सूचक है। Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां अन्तक्रियापद] [397 (आदि) की पृच्छा का कथन उसी प्रकार किया गया है, जैसे (सू. 1437 में) नैरयिकों में उत्पन्न होने का (कथन किया गया) है / 1442. एवं मणूसे वि। [1442] इसी प्रकार (अर्थात्-पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के समान हो) मनुष्य का (उत्पाद) भी (चौवीस दण्डकों में यथायोग्य कहना चाहिए / ) 1443. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे (सु. 1423-26) / दारं 4 / [1443] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक का उत्पाद इस प्रकार है-जैसा (चौवीस दण्डका में (सू. 1423-26 में) असुरकुमार (के उत्पाद) का (कथन) है। चतुर्थ द्वार / / विवेचन-असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक चौवीस वण्डकों में उत्पत्ति आदि सम्बन्धी चर्चा-प्रस्तुत 21 सूत्रों (1423 से 1443 तक) में असुरकुमार से लेकर अवशिष्ट नौ प्रकार के भवनपति देव, पृथ्वीकायादि पंच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों की नारक से यावत् वैमानिक तक में अनन्तर उद्वृत्त होकर उत्पन्न होने की चर्चा की गई। उद्धृत्तद्वार का सार इस प्रकार है / जीव मर कर सीधा कहाँ उत्पन्न हो मर कर नये जन्म में सकता है ? धर्मश्रवणादि की संभावना नारक पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च या मनुष्य में देशविरति के शीलादि और अवधिज्ञान एवं मोक्ष (मनुष्यभव में) दस भवनपति पृथ्वी, अप्, वनस्पति में तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय या मनुष्य में नारकों के समान पृथ्वी, अप्, वनस्पति पृथ्वी, अप, तेज और वायु में तथा विकलेन्द्रियों में मनुष्यों में तथा पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में नारकों के समान तेज, वायु पृथ्वीकायिकों से लेकर, चतुरिन्द्रियों तक में पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में धर्मश्रवण द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय पृथ्वी कायिकों से लेकर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में पृथ्वीकायिक के समान कई मनुष्यों में मनःपर्यवज्ञान पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च भवनपतियों में अवधिज्ञान एकेन्द्रिय से लेकर यावत् चतुरिन्द्रियों में पृथ्वीकायिक के समान 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 322 से 324 तक 2. पण्णवणामुत्तं (परिशिष्ट-प्रस्तावना सहित) भा. 2, पृ. 114 Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39.] [प्रज्ञापनासन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में या मनुष्यों के नारक के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों में नारक के समान मनुष्य उपर्युक्त जीवों में नारक के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक भवनपति देवों के समान उत्पत्ति नारक के समान तिर्यचपंचेन्द्रियों और मनुष्यों की उपलब्धि में अन्तर-यों तो तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के समान प्राय: मनुष्य से सम्बन्धित सारी वक्तव्यता है, किन्तु मनुष्यों की सर्वभावों की संभावना होने से उनको मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान उपलब्ध हो सकता है, अनगा रत्व भी प्राप्त हो सकता है।' सिज्झज्जा आदि पदों का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। नैरयिकों की सीधी उत्पत्ति नहीं-नैरयिकों के भवस्वभाव के कारण वे नैरयिकों में से मर कर सीधे नैरयिकों में, भवनपति, वानव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि नैर्रायकों का नैयिकभव या देवभव का आयुष्यबन्ध होना असम्भव है / 2 / / पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति प्रादि-पृथ्वीकायिक जीव नारकों और देवों में सीधे उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य सम्भव नहीं होता, इस कारण तीव्र संक्लेश एवं विशुद्ध अध्यवसाय नहीं हो सकता / मनुष्यों में उत्पन्न होने पर ये अन्तक्रिया भी कर सकते हैं / 3 भवनपति देवों की उत्पत्ति आदि-असुरकुमारादि 10 प्रकार के भवनपति देव पृथ्वी-वायुवनस्पति में उत्पन्न होते हैं। उधर ईशान (द्वितीय) देवलोक तक उनकी उत्पत्ति होती है। इन देवों में उत्पन्न होने पर वे केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण नहीं कर सकते। शेष सब बातें नैरयिकों के समान समझ लेनी चाहिए। तेजस्कायिक, वायुकायिक का मनुष्यों में उत्पत्तिनिषेध–ये दोनों सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि इनके परिणाम क्लिष्ट होने से इनके मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु का बन्ध होना असम्भव होता है। ये तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर श्रवणेन्द्रिय प्राप्त होने से केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु संक्लिष्ट परिणाम होने से कैवलिकोवोधि (धर्म) का बोध" प्राप्त नहीं कर सकते। विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति प्ररूपणा--द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिकों के समान देवों और नारकों को छोड़ कर शेष समस्त स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं। ये तथाविध भवस्वभाव के कारण अन्तक्रिया नहीं कर पाते, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने पर अनगार बन कर मनःपर्यवज्ञान तक भी प्राप्त कर सकते हैं / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 400 2. वही, पत्र 400 3. वही, पत्र 401 4. वही, पत्र 400 5. वही. पत्र 401 6. वही, पत्र 402 Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यीसवाँ अन्तक्रियापद] [399 पंचम : तोर्थकरद्वार 1444. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! रयणप्पमापुढविणेरइएहितो अणंतरं उब्वट्टिता तित्थगरतं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा ? गोयमा ! जस्स णं रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाई निधत्ताई कडाई पटवियाई णिविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमण्णागयाई उदिण्णाई णो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइए रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरतं लभेज्जा, जस्स णं रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई णो बद्धाइं जाव णो उदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं णो लभेज्जा। ___ से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेज्जा। [1444 प्र.] भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकों से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त करता है ? [उ.] गौतम ! उनमें से कोई तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई नहीं प्राप्त कर पाता। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि (रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) सीधा (मनुष्य भव में उत्पन्न होकर) कोई तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और कोई नहीं कर पाता? उ.] गौतम ! जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक ने (पहले कभी) तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट किया है, निधत्त किया है, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत (सम्मुख प्रागत) है, उदीर्ण (उदय में पाया) है किन्तु (वह) उपशान्त नहीं हुया है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से उदवृत्त होकर सीधा (मनुष्यभव में उत्पन्न होकर) तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के तीर्थकर नामगोत्र कर्म बद्ध नहीं होता यावत् उदीर्ण नहीं होता, अपितु उपशान्त होता है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई नैरयिक तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता / 1445. एवं जाव वालुयप्पभापुढविणेरइएहितो तित्थगरत्तं लभेज्जा। [1445] इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से (निकल कर कोई नारक मनुष्यभव प्राप्त करके) सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और (कोई नारक नहीं प्राप्त करता / ) 1446. पंकप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! पंकप्पमापुढविणेरइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400] [प्रज्ञापनासून गोयमा ! णो इण? सम?, अंतकिरियं पुण करेज्जा। [1446 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी का नारक पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से निकल कर क्या सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है / 1447. धूमप्पमापुढविणेरइए णं 0 पुच्छा। गोयमा ! णो इण? समट्ठ, विरतिं पुण लभेज्जा / [1447 प्र.] धूमप्रभापृथ्वी के नैरयिक के सम्बन्ध में प्रश्न है (कि क्या वह धूमप्रभापृथ्वी के नारकों में से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। किन्तु वह विरति प्राप्त कर सकता है / 1448. तमापुढविणेरइए णं 0 पुच्छा। गोयमा ! णो इण? सम?, विरयाविरइं पुण लभेज्जा / [1448 प्र.] (इसी प्रकार का) प्रश्न तमःपृथ्वी के नारक के सम्बन्ध में है / [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह (तमःपृथ्वी का नारक) विरताविरति को प्राप्त कर सकता है। 1449. अहेसत्तमाए 0 पुच्छा। गोयमा ! णो इण8 सम8, सम्मत्तं पुण लभेज्जा / [1446 प्र.] (अब) अधःसप्तमपृथ्वी के (नैरयिक के विषय में) पृच्छा है (कि क्या वह तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। 1450. असुरकुमारे 0 पुच्छा। गोयमा ! णो इणट्ठ सम8, अंतकिरियं पुण करेज्जा। [1450 प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा असुरकुमार के विषय में है (कि क्या वह असुरकुमारों में से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकता है / 1451. एवं निरंतरं जाव प्राउक्काइए। [1451 | इसी प्रकार (असुर कुमार की भाँति) लगातार अप्कायिक तक (अपने-अपने भव से उद्वर्तन कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया कर सकते हैं / ) 1452. तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता उववज्जेज्जा (त्ता) तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा ! णो इण8 सम?, केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणयाए / Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [401 1452 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जोव तेजस्कायिकों में से उद्वत्त होकर विना अन्तर के (मनुष्य भव में) उत्पन्न हो कर क्या तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह) केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। 1453. एवं वाउक्काइए वि / [1453] इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए / 1454. वणप्फइकाइए णं 0 पुच्छा। गोयमा! जो इण? सम8, अंतकिरियं पुण करेज्जा। [1454 प्र.] वनस्पतिकायिक जीव के विषय में पृच्छा है (कि क्या वह वनस्पतिकायिकों में से निकल कर तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है ? ) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है / 1455. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिए णं * पुच्छा। गोयमा ! णो इण? सम?, मणपज्जवणाणं पुण उप्पाडेज्जा। [1455 प्र.] द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के विषय में प्रश्न है (कि क्या ये अपने-अपने भवों में से उद्वृत्त हो कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु ये) मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं / 1456. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूस-वाणमंतर-जोइसिए णं 0 पुच्छा। गोयमा ! णो इण8 सम8, अंतकिरियं पुण करेज्जा। [1456 प्र.] अब पृच्छा है (कि क्या) पचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव अपने-अपने भवों से उद्वर्तन करके सीधे तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु ये अन्तक्रिया (मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं / 1457. सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चयं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा! अत्थेगइए लभेज्जा, प्रत्थेगइए णो लभेज्जा, एवं जहा रयणप्पभापुढविणेरइए (सु. 1444) / [1457 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (सौधर्मकल्पक देव तीर्थकरत्व) प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं करता, इत्यादि (अन्य सभी) बातें रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के (विषय में सू. 1444 में उक्त कथन के) समान जाननी चाहिए। Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402] [प्रज्ञापनासूत्र __ 1458. एवं जाव सब्वट्ठसिद्धगदेवे / दारं 5 // {1458] इसी प्रकार (ईशानकल्प के देव से लेकर) यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक (सभी वैमानिक देवों तक समझना चाहिए / ) पंचम द्वार / / 5 / / विवेचन-तीर्थकरपद-प्राप्ति की विचारणा---प्रस्तुत पंचम द्वार में नारक प्रादि मर कर अन्तर के विना सीधे मनुष्य में जन्म लेकर तीर्थकरपद प्राप्त कर सकते हैं या नहीं ? इसकी विचारणा की गई है / साथ ही यह भी बताया गया है कि यदि वह जीव तीर्थंकरपद नहीं प्राप्त कर मकता, तो विकासक्रम में क्या प्राप्त कर सकता है ?' सार–इस समस्त पद का निष्कर्ष यह है कि केवल नारकों और वैमानिक देवों में से मर कर सीधा मनुष्य होने वाला जीव ही तीर्थकरपद प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं / 'बद्धाई' आदि पदों के विशेषार्थ--'बद्धाई-सूइयों के ढेर को सूत के धागे से बांधने की तरह अात्मा के साथ (तीर्थकर नाम-गोत्र आदि) कर्मों का साधारण संयोग होना ‘बद्ध' है / 'पुढाई'जैसे उन सुइयों के ढेर को अग्नि से तपा कर एक बार घन से कट दिया जाता है, तब उनमें परस्पर जो सघनता उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार प्रात्मप्रदेशों और कर्मों में परस्पर सघनता उत्पन्न होना 'स्पृष्ट' होना है / 'निधत्ताई'-उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण के सिवाय शेष करण जिसमें लागत हो सकें, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना 'निधत' कहलाता है। कडाई'अर्थात्-कृत / कृत का अभिप्राय है कर्मों को निकाचित कर लेना, अर्थात्--समस्त करणों के लागू होने के योग्य न हो, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना / 'पट्टवियाई'.-..-मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति,त्रस, बादर, पयोप्त, सुभग, प्रादेय एवं यश:कीति नामकर्म के उदय के साथ व्यवस्थापित शोना प्रस्थापित है। 'निविदाई-बद्ध कर्मों का तीन अनभाव-जनक के रूप में स्थित होना निविष्ट का अर्थ है / 'अभिनिविट्ठाई' वही कर्म जब विशिष्ट, विशिष्टतर, विलक्षण अध्यवसायभाव के कारण अति तीव्र अनुभावजनक के रूप में व्यवस्थित होता है, तब अभिनिविष्ट कहलाता है। 'अभिसमन्नागयाइं'–कर्म का उदय के अभिमुख होना 'अभिसमन्वागत' कहलाता है / 'उदिण्णाई'-.--कर्मों का उदय में आना, उदयप्राप्त होना उदीर्ण कहलाता है। अर्थात्-कर्म जब अपना फल देने लगता है, तब उदयप्राप्त या उदीर्ण कहलाता है। 'नो उवसंताई'-कर्म का उपशान्त न होना / उपशान्त न होने के यहाँ दो अर्थ हैं--(१) कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव को प्राप्त न होना, (2) अथवा कर्मबन्ध (बद्ध) हो चुकने पर भी निकाचित या उदयादि अवस्था के उद्रेक से रहित न होना / ये सभी शब्द कर्मसिद्धान्त के पारिभाषिक शब्द हैं।' आशय-प्रस्तुत प्रसंग में इनसे आशय यही है कि रत्नप्रभादि तीन नरकपृथ्वी के जिस नारक ने पूर्वकाल में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया है और बांधा हुआ वह कर्म उदय में आया है, 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-ठिप्पण) भा. 1, पृ. 325-326 2. पण्णावणासुत्तं (प्रस्तावना आदि) भा. 2, पृ. 114 3. प्रज्ञापनासूत्र, मलय, वृत्ति, पत्र 402-403 Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [403 वही नारक तीर्थकरपद प्राप्त करता है। जिसने पूर्वकाल में तीर्थंकर नामकर्म का बंध ही नहीं किया, अथवा बंध करने पर भी जिसके उसका उदय नहीं हुग्रा, वह तीर्थंकरपद प्राप्त नहीं करता।' अन्तिम चार नरकश्वियों के नारकों को उपलब्धि-पंक, धूम, तमः और तमस्तमः पृथ्वी के नारक अपने-अपने भव से निकल कर तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, वे क्रमश: अन्तक्रिया, सर्वविरति, देश विरति चारित्र तथा सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। असुरकूमारादि से वनस्पतिकायिक तक—ये जीव अपने-अपने भवों से उदवर्तन करके सीधे तीर्थंकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकते हैं / वसुदेवचरित में नागकुमारों में से उद्वत्त हो कर सीधे ऐरवत क्षेत्र में इसी अवपिणो काल में चौवीसवें तीर्थकर होने का कथन है / इस विषय में क्या रहस्य है, यह केवली ही जानते है / नीचे इस द्वार की तालिका दी जाती है, जिससे जीव का विकासक्रम जाना जा सके। मनुष्य का अनन्तर पूर्वभव मनुष्यों में सम्भवित उपलब्धि रत्नप्रभा से वालुकाप्रभा तक के नारक तीर्थकरपद पंकप्रभा के नारक मोक्ष धमप्रभा के नारक सर्वविरति तमःप्रभा के नारक देशविरति तमस्तमःप्रभा के नारक सम्यक्त्व समस्त भवनपति देव मोक्ष पृथ्वीकायिक-अप्कायिक जीव मोक्ष तेजस्कायिक जीव (मनुष्यभव नहीं) तिर्यञ्चभव में धर्मश्रवण वनस्पतिकायिक जीव मोक्ष द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव मनःपर्यायज्ञान पंचेन्द्रियतिर्यञ्च / मोक्ष मनुष्य मोक्ष वाणव्यन्तर देव मोक्ष ज्योतिष्क देव मोक्ष समस्त वैमानिक देव तीर्थकरपद छठा चक्किद्वार 1459. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! अणंतरं उचट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा / 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयवोधिनी टीका भा. 4, 5. 555 2. प्रज्ञापनासुत्र मलय. वृत्ति, पत्र 403 3. पण्णवणासुतं (प्रस्तावना आदि) भा. 2, पृ. 115 Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404] [प्रज्ञापनासूत्र से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा ! जहा रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरत्ते (सु. 1444) / [1456 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक (अपने भव से) उद्वर्तन करके क्या चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (इनमें से कोई (नारक) चक्रवर्तीपद प्राप्त करता है, कोई नहीं करता। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई (रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) चक्रवत्तित्व प्राप्त करता है और कोई नहीं प्राप्त करता? उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1444 में) रत्नप्रभापृथ्वी के नारक को तीर्थकरत्व (प्राप्त होने, न होने के कारणों का कथन किया है, उसी प्रकार उसके चक्रवर्तीपद प्राप्त होने, न होने का कथन समझना चाहिए।) 1460. सक्करप्पभापुढविणेरइए अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कट्टित्तं लभेज्जा ? गोयमा ! णो इण8 सम? / [1460 प्र.] (भगवन् ! ) शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक (अपने भव से) उद्वर्तन करके सीधा चक्रवर्तीपद पा सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / 1461. एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइए। [1461] इसी प्रकार (वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक से ले कर) यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नारक तक (के विषय में समझ लेना चाहिए / ) 1462. तिरिय-मणुएहितो पुच्छा। गोयमा ! जो इण? सम? / [1462 प्र.] (तिर्यञ्चयोनिक और मनुष्यों के विषय में) पृच्छा है (कि ये) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों से (निकल कर सीधे क्या चक्रवर्तीपद प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 1463. भवणवइ-वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएहितो पुच्छा। गोयमा ! प्रत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए नो लभेज्जा / दारं 6 // [1463 प्र.] (इसी प्रकार) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के सम्बन्ध में प्रश्न है कि (क्या वे अपने-अपने भवों से च्यवन कर सीधे चक्रवर्तीपद पा सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! (इनमें से) कोई चक्रवर्ती-पद प्राप्त कर सकता है (और) कोई नहीं प्राप्त कर सकता। -छठा द्वार // 6 // विवेचन–चक्रवर्तीपद-प्राप्ति की विचारणा- प्रस्तुत सप्तम द्वार में चक्रवर्तीपद किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इस विषय में विचारणा की गई है। Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [405 निष्कर्ष-चक्रवर्तीपद के योग्य जीव प्रथम नरक के नारक और चारों प्रकार के देवों में से अनन्तर मनुष्यभव में जन्म लेने वाले हैं / शेष जीव (द्वितीय से सप्तम नरक तक तथा तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों में से उत्पन्न होने वाले) नहीं। तीर्थक रत्व-प्राप्ति की योग्यता के विषय में जो कारण प्रस्तुत किये गए थे, वे ही कारण चक्रवतित्वप्राप्ति की योग्यता के हैं।' सप्तम : बलदेवत्वद्वार 1464. एवं बलदेवत्तं पि / णवरं सक्करप्पभापुढविणेरइए वि लभेज्जा / दारं 7 // {1464| इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है / -सप्तम द्वार / / 7 / / विवेचन बलदेवत्व-प्राप्ति की विचारणा-चक्रवतिपद-प्राप्ति के समान बलदेवपद-प्राप्ति का कथन समझना चाहिए। अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक तथा चारों प्रकार के देव अपने-अपने भवों से उद्वर्त्तन करके सीधे कोई (अमुक योग्यता से सम्पन्न) बलदेवपद प्राप्त कर सकते हैं, कोई (अमुक योग्यता से रहित) नहीं। किन्तु यहाँ विशेषता यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी अनन्तर उद्वर्तन करके बलदेवपद प्राप्त कर सकता है / अष्टम : वासुदेवत्वद्वार 1465. एवं वासुदेवत्तं दोहितो पुढवोहितो वेमाणिहितो य अगुत्तरोववातियवज्जेहितो, सेसेसु णो इण? सम8 / दारं 8 // 1465] इस प्रकार दो पृथ्वियों (रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा पृथ्वी) से. तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़ कर शेष वैमानिकों से वासुदेवत्व प्राप्त हो सकता है, शेष जीवों में यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसी योग्यता नहीं होती। -अष्टम द्वार / / 8 / / विवेचन-वासुदेवपदप्राप्ति की विचारणा–प्रस्तुत द्वार में वासुदेवत्वप्राप्ति के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। वासुदेवपद केवल रत्नप्रभा एवं शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों से तथा पांच अनुत्तरविमान के देवों को छोड़ कर शेष वैमानिक देवों से अनन्तर उद्वर्तन करके मनुष्य भव में उत्पन्न होने वाले जीवों को प्राप्त हो सकता है, शेष भवों से आए हुए जीव वासुदेव नहीं हो सकते / नवम : माण्डलिकत्वद्वार 1466. मंडलियत्तं अहेसत्तमातेउ-वाउबज्जेहितो। दारं 9 // |1466] माण्डलिकपद, अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़ कर (शेष सभी भवों से अनन्तर उद्वर्तन करके मनुष्यभव में आए हुए जीव प्राप्त कर सकते हैं।) -नवम द्वार / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वत्ति, पत्र 403 (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2. पृ. 115 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृ. 567-568 3. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृ. 568 Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 406] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन--माण्डलिकपद-प्राप्ति का निषेध-केवल सप्तम नरक तथा तेजस्काय एवं वायुकाय में से निकल कर जन्म लेने वाले मनुष्य माण्डलिकपद प्राप्त नहीं कर सकते हैं।' दशम : रत्नद्वार 1467. सेणावइरयणत्तं गाहावइरयणत्तं वड्डइरयणतं पुरोहियरयणतं इत्थिरयणतं च एवं चेव, णवरं अणुत्तरोववाइयवज्जेहितो। [1467, सेनापति रत्नपद, गाथापतिरत्नपद, वर्धकिरत्नपद, पुरोहित रत्नपद और स्त्रीरत्नपद की प्राप्ति के सम्बन्ध में इसी प्रकार (अर्थात-माण्डलिकत्वप्राप्ति के कथन के समान समझना चाहिए।) विशेषता यह है कि अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़ कर (सेनापतिरत्न प्रादि हो सकते हैं।) 1468. प्रासरयणत्तं हस्थिरयणत्तं च रयणप्पभाओ णिरंतरं जाव सहस्सारो अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। 1468] अश्वरत्न एवं हस्तिरत्नपद, रत्नप्रभापृथ्वी से लेकर निरन्तर (लगातार) यावत् सहस्रार (देवलोक के देव तक से) कोई (जीव) प्राप्त कर सकता है, कोई प्राप्त नहीं कर सकता। 1469. चक्करयणत्तं छत्तरयणतं चम्मरयणत्तं दंडरयणतं असिरयणतं मणिरयणत्तं कागिणिरयणतं एतेसि णं असुरकुमारेहितो प्रारद्ध निरंतरं जाव ईसाणेहितो उववातो, सेसेहितो णो इण? सम? / दारं 10 // (1469] चक्ररत्न, छत्ररत्न, चर्मरत्न, दण्ड रत्न, असिरत्न, मणिरत्न एवं काकिणी रत्न पर्याय में उत्पत्ति, असुरकुमारों से लेकर निरन्तर (लगातार) यावत् ईशानकल्प के देवों से हो सकती है, शेष भवों से (आए हुए जीवों में) यह योग्यता नहीं है / -दशम द्वार / / 10 / / विवेचन--चक्रवर्ती के विविधरत्नपद की प्राप्ति की विचारणा प्रस्तुत रत्नद्वार में चक्रवर्ती के 14 रत्नों में से कौन-सा रत्न किन-किन को प्राप्त हो सकता है ? इस सम्बन्ध में विचारणा की रत्नद्वार का सार यह है कि चक्रवर्ती के 14 रत्नों में से सेनापतिरत्न, गाथापतिरत्न, वर्धकिरत्न, पुरोहित रत्न और स्त्रीरत्न पद के लिए माण्डलिकत्व के समान सप्तम नरक, तेजस्काय, वायुकाय और अनुत्तर विमान में से बिना व्यवधान के आने वाले अयोग्य हैं / अश्वरत्न और हस्तिरत्न पद के लिए प्रथम नरक से लेकर लगातार सहस्रारकल्प तक के देव योग्य हैं तथा चक्ररत्न, चर्मरत्न, छत्ररत्न, दण्डरत्न, असिरत्न, मणिरत्न और काकिणीरत्न के लिए असुरकुमार से लेकर ईशानकल्प से आने वाले योग्य हैं। 1. पष्णवणासुन (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 115 2. पण्णवणामुस (प्रस्तावनादि) भा. 4, पृ. 569 Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवां अन्तक्रियापद] [407 भव्य-द्रव्यदेव-उपपात-प्ररूपणा 1470. अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाणं अविराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमाजमाण असण्णोणं तावसाणं कंदप्पियाणं चरग-परिव्वायगाणं किबिसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं आभिप्रोगियाणं सलिगोणं दंसणवावण्णगाणं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहि उववाओ पण्णत्तो? गोयमा ! अस्संजयभवियदव्वदेवाणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेवेज्जगेसु, अविराहियसंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सवदसिद्ध, विराहियसंजमाणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे, अविराहियसंजमासंजमाणं जहणणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु, असण्णोणं जहणणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु, तावसाणं जहण्णेणं भवणवासोसु उक्कोसेणं जोइसिएसु, कंदप्पियाणं जहाणेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे, चरग-परिवायगाणं जहणणं भवणवासीसु उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे, किब्बिसियाणं जहण्णणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं लंतए कप्पे, तेरिच्छियाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे, प्राजीवियाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, एवं आभिओगाण वि, सलिगोणं दंसणवावण्णगाणं जहणणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेवेज्जएसु। 1470 प्र.] भगवन् ! असंयत भव्य-द्रव्यदेव (अर्थात्-जो असंयमी आगे जा कर देव होने वाले हैं) जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है, जिन्होंने संयम की विराधना की है, जिन्होंने संयमा-संयम की विधिना नहीं की है, (तथा) जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है, जो असंज्ञी हैं, तापस हैं, कान्दपिक हैं, चरक-परिव्राजक हैं, किल्विषिक हैं, तिर्यञ्च गाय आदि पाल कर पाजीविका करने वाले हैं अथवा आजीविकमतानयायी हैं. जो पाभियोगिक (विद्या. मंत्र. तंत्र आदि अभियोग करते) हैं, जो स्वलिंगी (समान वेष वाले) साधु हैं तथा जो सम्यग्दर्शन का वमन करने वाले (सम्यग्दर्शनव्या पन्न) हैं, ये जो देवलोकों में उत्पन्न हों तो (इनमें से) किसका कहाँ उपपात कहा गया है। [उ.| असंयत भव्य-द्रव्यदेवों का उपपाद जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट उपरिम ग्रेवेयक देवों में हो सकता है। जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपाद जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में हो सकता है। जिन्होंने संयम को विरा उपपात जघन्य भवनपतियों में, और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में होता है। जिन्होंने संयमासंयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में होता है। जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है, उनका उपपाद जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में होता है / असंज्ञो साधकों का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरदेवों में होता है। तापसों का उपपाद जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, कान्दर्पिकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, चरक-परिव्राजकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ब्रह्मलोककल्प में तथा किल्बिषिकों का उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408] [प्रज्ञापनासून लान्तककल्प में होता है। तैरश्चिकों का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में, आजीविकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में, और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में होता है, इसी प्रकार आभियोगिक साधकों का उपपाद भी जान लेना चाहिए। स्वलिंगी (समान वेष वाले) साधुनों का तथा दर्शन-व्यापन्न व्यक्तियों का उपपात जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट उपरिम-ग्रेवेयकदेवों में होता है। विवेचन-मर कर देवलोकों में उत्पन्न होने वालों की चर्चा–प्रस्तुत सूत्र (1470) में भविष्य में देवगति में जाने वाले विविध साधकों के विषय में चर्चा की गई है कि वे मरकर कहाँ, किस जाति के देवों में उत्पन्न हो सकते हैं ? वस्तुत: इस चर्चा विचारणा का परम्परा से अन्तक्रिया से सम्बन्ध है / विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के विशेषार्थ---असंयत भव्यद्रव्यदेव : दो अर्थ-(१) चारित्र के परिणामों से शून्य (भव्य देवत्वयोग्य अथवा मिथ्यादृष्टि अभव्य या भव्य श्रमणगुणधारक अखिल सामाचारी के अनुष्ठान से युक्त द्रव्यलिंगधारी (मलयगिरि के मत से) तथा (2) अन्य आचार्यों के मतानुसार-देवों में उत्पन्न होने योग्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव / अविराधितसंयम--प्रव्रज्याकाल से लेकर जिनके चारित्रपरिणाम अखण्डित रहे हैं, किन्तु संज्वलन कषाय के सामर्थ्य से अथवा प्रमत्तगुणस्थानकवश स्वल्प मायादि दोष की संभावना होने पर भी जिन्होंने सर्वथा प्राचार का उपधात नहीं किया है, वे अविराधितसयम हैं। विराधितसंयम-जिन्होंने संयम को सर्वात्मना खण्डित-विराधित कर दिया है, प्रायश्चित्त लेकर भी पन: खण्डित संयम को सांधा (जोडा) नहीं है, वे विराधितसंयम हैं / अविराधितसंयमासंयम-वे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को स्वीकार करने के समय से देशविरति के परिणामों को अखण्डत रखा है। विराधितसंयमासंयमवे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को सर्वथा खण्डित कर दिया और संयमासंयम के खण्डन का प्रायश्चित्त लेकर पुनर्नवीकरण नहीं किया है; वे / असंज्ञी-मनोलब्धि से रहित अकामनिर्जरा करने वाले साधक / तापस---बालतपस्वी, जो सूखे या वृक्ष से झड़े हुए पत्तों आदि का उपभोग करते हैं। कान्दपिक-व्यवहार से चारित्रपालन करने वाले, किन्तु जो कन्दर्प एवं कुत्सित चेष्टा करते हैं, हँसो-मजाक करते हैं, लोगों को अपनी वाणी और चेष्टा से हँसाते हैं। हाथ की सफाई, जादू आदि बाह्य चमत्कार बताकर लोगों को विस्मय में डाल देते हैं। चरक-परिव्राजक-कपिलमतानुयायी त्रिदण्डो, जो धाटो के साथ भिक्षाचर्या करते हैं अथवा चरक-कच्छोटक ग्रादि साधक एवं परिव्राजक / किल्विषिक-व्यवहार से चारित्रवान् किन्तु जो ज्ञान, (दर्शन, चारित्र) केवली, धर्माचार्य एवं सर्वसाधुओं का अवर्णवाद करने का पाप करते हैं, अथवा इन के साथ माया (कपट) करते हैं। दूसरे के गुणों और अपने दोषों को जो छिपाते हैं, जो पर-छिद्रान्वेषी हैं, चोर की तरह सर्वत्र शंकाशील, गूढाचारी, असत्यभाषी, क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा (तुनुकमिजाजी) एवं निह्नव हैं, वे किल्विषिक कहलाते हैं। तैरश्चिक-जो साधक गाय आदि पशुग्रों का पालन करके जीते हैं, या देशविरत हैं / आजीविक-जो अविवेकपूर्वक लाभ पूजा, सम्मान, प्रसिद्धि, आदि के लिए चारित्र का पालन करते हुए आजीविका करते हैं, अथवा प्राजीविकमत (गोशालकमत) के अनुयायी पाखण्डिविशेष / आभियोगिक-- जो साधक अपने गौरव के लिए चूर्ण योग विद्या, मंत्र, तत्र आदि से दूसरों का वशीकरण, सम्मोहन, आकर्षण आदि (अभियोग) करते हैं / वे केवल व्यवहार से चारित्रपालन करते हैं,किन्तु मन्त्रादिप्रयोग करते हैं। स्वलिंगी-दर्शनव्यापन-जो साधु रजोहरण आदि साधुवेष से स्वलिंगी Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीसवाँ : अन्तक्रियापद]] [409 हों, किन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हों, ऐसे निह्नव / ' इनमें से कोई देव हो तो किस देवलोक तक जाता है ? इसके लिए तालिका देखियेक्रम साधक का प्रकार देवलोक में कहाँ से कहाँ तक जाता है ? 1. असंयत भव्यद्रव्यदेव भवनवासी से नौ नैवेयक देवों तक 2. संयम का अविराधक सौधर्मकल्प से सर्वार्थसिद्धविमान तक 3. संयम का विराधक भवनपति देवों से लेकर सौधर्मकल्प तक 4. संयमासंयम (देशविरति) का अविराधक सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प तक 5, संयमासंयम का विराधक भवनवासी से ज्योतिष्क देवों तक 6. अकामनिर्जराशील असंज्ञी भवनवासी से वाणव्यन्तर देवों तक 7. तापस भवनवासी से ज्योतिष्क देवों तक 8. कान्दर्षिक भवनवासी से सौधर्मकल्प तक 6. चरक-परिव्राजक भवनपति देवों से ब्रह्मलोक तक 10. किल्विषिक सौधर्मकल्प से लान्तक तक 11. तैरश्चिक (अथवा देश विरत तिर्यञ्च) भवनवासी से सहस्रारकल्प तक 12. ग्राजीविक या आजीवक भवनवासी से अच्युतकल्प तक 13. प्राभियोगिक भवनवासी से अच्युतकल्प तक 14. स्वलिंगी, किन्तु दर्शनभ्रष्ट (निह्नव) भवनवासी से ग्रे वेयक देव तक' फलितार्थ—इस समग्रचर्चा के आधार में निम्नोक्त मन्तव्य फलित होता है... (1) आन्तरिक योग्यता के विना भी बाह्य पाचरण शुद्ध हो, तो जीव अवेयक देवलोक तक जाता है / (2) इससे अन्ततोगत्वा जै लग धारण करने वाले का भी महत्त्व है, यह नं. 1 और नं. 14 के साधक के लिए दिये गए निर्णय से फलित होता है। (3) आन्तरिक योग्यतापूर्वक संयम का यथार्थ पालन करे तो सर्वोच्च सर्वार्थसिद्ध देवलोक तक में जाता है। असंज्ञि-आयुष्यप्ररूपण 1471. कतिविहे गं भंते ! असण्णिआउए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे असण्णिआउए पण्णत्ते / तं जहा—णेरइयअसणिग्राउए जाव देवअसण्णिआउए। [1471 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी का प्रायुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 804 में 406 तक (ख) वृहत्कल्पमाप्य 1298-1301, 1306-1307 तथा 1308 मे 1918 गा. (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 8.1.574 577 तक 3. पण्णवणासुतं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 115-116 3. वहीं, भा. 2, प. 116 Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410] [प्रज्ञापनासूत्र उ.] गौतम ! असंज्ञि-प्रायुष्य चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--नरयिकअसंज्ञि-पायुष्य (से लेकर) यावत् देव-असंज्ञि-प्रायुप्य (तक)। 1472. असण्णी णं भंते ! जोवे कि रइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं पकरेति ? गोयमा ! णेरइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं पकरेति, णेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेति, एवं मणुयाउयं पि, देवाउयं जहा परइयाउयं / [1472 प्र.] भगवन् ! क्या असंज्ञी नैरयिक की आयु का उपार्जन करता है अथवा यावत् देवायु का उपार्जन करता है ? / [उ.] गौतम ! वह नै रयिक-ग्रायु का उपार्जन भी करता है, यावत् देवायु का भी उपार्जन करता है / नारकायु का उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम संख्यातवें भाग की प्रायु का उपार्जन (बन्ध) कर लेता है। तिर्यञ्चयोनिक-पायूष्य का उपार्जन (बन्ध) करता हुआ वह जघन्य अन्तमुहूर्त का और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है / इसी प्रकार मनुष्यायु एवं देवायु का उपार्जन (बन्ध) भी नारकायु के समान कहना चाहिए। 1473. एयस्स णं भंते ! रइयअसण्णिआउयस्स जाव देवअसण्णिआउयस्स य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवे देवअसण्णिाउए, मणुयप्रसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइयअसन्निआउए असंखिज्जगुणे / ॥पण्णवणाए भगवतीए वीसइमं अंतकिरियापयं समत्तं // |1473 प्र.] भगवन् ! इस नै रयिक-असंज्ञी-पायु यावत् देव-प्रसज्ञी-पायु में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? (उ.| हे गौतम ! सबसे अल्प देव-प्रसंज्ञो-पायु है, मनुष्य-असंज्ञी-प्रायु (उससे) असंख्यातगुणी (अधिक) है, (उससे) तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञो-आयु असंख्यातगुणो (अधिक) है, (और उससे भी) नैरयिक-प्रसंज्ञी-प्रायु असंख्यातगुणी (अधिक) है। विवेचन—असंज्ञी की आयु : प्रकार, स्थिति और अल्पबहुत्व-प्रस्तुत तीन सूत्रों (1471 से 1473) में असंज्ञी-अवस्था में नरकादि आयु का जो बन्ध होता है, उसकी तथा उसके बांधने वाले के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। असंज्ञि-पायु का विवक्षित अर्थ असंज्ञी होते हुए जीव परभव के योग्य जिस आयु का बन्ध करता है, वह असंज्ञि-आयु कहलाती है। नैरयिक के योग्य असंज्ञी की आयु नै रयिक-असंज्ञो-पायु कहलाती है / इसी प्रकार तिर्यग्योनिक-असंज्ञी-पायु, मनुष्य-असंज्ञी-प्रायु तथा देवासंज्ञी-पायु भी समझ Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद [411 लेनी चाहिए। यद्यपि यासंज्ञी-अवस्था में भोगी जाने वाली प्रायु भी असंजी-आयु कहलाती है, किन्तु यहाँ उसको विवेक्षा नहीं है।' चारों प्रकार की असंज्ञी-आयु की स्थिति-(१) जघन्य नरकायु का बन्ध 10 हजार वर्ष का कहा है, वह प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट (पाथडे) की अपेक्षा से समझना चाहि नरकायुबन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जित करता है, यह कथन रत्नप्रभापृथ्वी के चौथे प्रतर के मध्यम स्थिति वाले नारक की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में जघन्य 10 हजार वर्ष की स्थिति है, जबकि उत्कृष्ट स्थिति 60 हजार वर्ष की है। दूसरे प्रस्तट में जघन्य 10 लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति 60 लाख वर्ष की है। इसी के तृतीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति 10 लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति एक कोटि पूर्व की है / चतुर्थप्रस्तट में जघन्य एक कोटिपूर्व की है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के दशवें भाग की है। अतः यहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति मध्यम है। तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञी-पायु उत्कृष्टतः पल्यापम के असंख्यातवें भाग की कही है, वह युगलिया तिर्यञ्च की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार असंज्ञी-मनुष्यायु भी जो उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की कही है, वह भी यौगलिक नरों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असंजी-आयुष्यों का अल्पबहुत्व-भी इन चारों के ह्रस्व और दीर्घ को अपेक्षा से समझना चाहिए। // प्रज्ञापना भगवती का वीसवाँ अन्तक्रियापद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 407 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्र 403 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्र 407 Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसइमं : ओगाहरणसंठारणपयं इक्कीसवाँ : अवगाहना-संस्थान-पद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद है / * इस पद में शरीर के सम्बन्ध में विविध पहलुओं से विचारणा की गई है। पूर्वपदों से इस पद में अन्तर-बारहवें शरीरपद' में तथा सोलहवें 'प्रयोगपद' में भी शरीरसम्बन्धी चर्चा की गई है, परन्तु शरीरपद में नारकादि चौवीस दण्डकों में पांच शरीरों में से कौन-कौन-सा शरीर किसके होता है ? तथा बद्ध और मुक्त शरीरों की द्रव्य, क्षेत्र और काल की अपेक्षा से कितनी संख्या है ? इत्यादि विचारणा की गई है और सोलहवें प्रयोगपद में मन, . वचन और काय के आधार से प्रात्मा के द्वारा होने वाले व्यापार एवं गतियों का वर्णन है / प्रस्तुत अवगाहना-संस्थान-पद में शरीर के प्रकार, आकार, प्रमाण, पुदगलचयोपचय, एक साथ एक जीव में पाये जाने वाले शरीरों की संख्या, शरीरगत द्रव्य एवं प्रदेशों का अल्पबहुत्व एवं अवगाहना के अल्पबहुत्व की सात द्वारों में विस्तृत चर्चा की गई है।' शरीर आत्मा का सबसे निकटवर्ती और धर्मसाधना में सहायक है। आत्मविकास, जप, तप, ध्यान, सेवा आदि सब स्वस्थ एवं सशक्त शरीर से ही हो सकते हैं। इनमें प्राहारकशरीर इतना चमत्कारी, हलका और दिव्य, भव्य एवं स्फटिक-सा उज्ज्वल होता है कि किसी प्रकार की शंका उपस्थित होने पर चतुर्दशपूर्वधारी मुनि उक्त शरीर को तीर्थकर के पास भेजता है / वह उसके माध्यम से समाधान पा लेता है। उसके पश्चात् शीघ्र ही वह शरीर पुनः औदारिक शरीर में समा जाता है / / * प्रस्तुत पद में सात द्वार हैं--(१) विधिद्वार, (2) संस्थानद्वार, (3) प्रमाणद्वार, (4) पुद्गल चयनद्वार, (5) शरीरसंयोगद्वार, (6) द्रव्य-प्रदेशाल्प-बहुत्वद्वार और (7) शरीरावगाहनाल्पबहुत्वद्वार / प्रथम विधिद्वार में शरीर के मुख्य 5 भेद तथा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के शरीर के प्रभेदों का वर्णन है / शरीर के मुख्य 5 प्रकार हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण / उपनिषदों में ग्रात्मा के 5 कोषों की चर्चा है। उनमें से सिर्फ अन्नमयकोष के साथ औदारिक 1. पाणवणामुत्तं भा. 2, पृ. 80 तथा 101-102, 2. वही, पृ. 1 Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ : अवगाहना-संस्थान-पद] [413 शरीर की तुलना हो सकती है। सांख्य प्रादि दर्शनों में अव्यक्त, सूक्ष्म या लिंग शरीर बताया गया है, जिसकी तुलना जैनसम्मत कार्मणशरीर से हो सकती है।' सर्वप्रथम औदारिक शरीर के भेद, संस्थान और प्रमाण, इन तीन द्वारों को क्रमशः एक साथ लिया गया है / औदारिक शरीर के भेदों की गणना में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-मनुष्य नक के जितने जीव-भेद-प्रभेद हैं, उतने ही भेद औदारिक शरीर के गिनाए हैं। औदारिक गरीर का संस्थान–ग्राकृति का भी इतने ही जीवभेदों के क्रम से विचार किया गया है। पृथ्वीकाय का मसूर की दाल जैसा, अपकाय का स्थिर जलबिन्दु जैसा, तेजस्काय का सुइयों के ढेर-सा, वायुकाय का पताका जैसा और वनस्पतिकाय का नाना प्रकार का प्राकार है। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय एवं सम्मूच्छिमपंचेन्द्रिय का हुंडकसंस्थान है। सम्मूच्छिम के सिवाय के बाकी के औदारिक शरीरी जीवों के छहों प्रकार के संस्थान होते हैं। औदारिकादि शरीर के प्रमाणों अर्थात्-ऊँचाई का विचार भी एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से किया गया है। वैक्रिय शरीर का भी जीवों के भेदों के अनुसार विचार किया गया है। उनमें बादर-पर्याप्त वायू और पंचेन्द्रियतिर्यचों में संख्यात वर्षायूष्क पर्याप्त गर्भजों को उक्त शरीर होता है और पर्याप्त मनुष्यों में से कर्मभूमि के भनुष्य के ही होता है। सभी देवों एवं नारकों के वैक्रिय शरीर होता है, यह बता कर उसकी प्राकृति का वर्णन किया है। भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, इन दोनों को लक्ष्य में रखा गया है। * आहारक शरीर एक ही प्रकार है। वह कर्मभूमि के ऋद्धिसम्पन्न प्रमत्तसंयत मनुष्य को ही होता है / उसका संस्थान समचतुरस्र होता है। उत्कृष्ट ऊँचाई पूर्ण हाथ जितनी होती है / * तेजस और कार्मण शरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के होता है / इसलिए जीव के भेदों जितने ही उसके भेद होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर की अवगाहना का विचार मारणान्तिक-समुदघात को लक्ष्य में रख कर किया गया है। मृत्यु के समय जीव को मर कर जहाँ जाना होता है, वहाँ तक की अवगाहना यहाँ कही गई है। * शरीर के निर्माण के लिए पुद्गलों का चय-उपचय एवं अपचय कितनी दिशाओं से होता है इसका उल्लेख भी चौथे द्वार में किया गया है। * पाँचवे द्वार में -एक जीव में एक साथ कितने शरीर रह सकते हैं ? उसका उल्लेख है / * छठे द्वार में शरीरगत द्रव्यों और प्रदेशों के अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है। * मातवें द्वार में अवगाहना का अल्पबहुत्व जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट को अपेक्षा से प्रतिपादित है / मूलपाठ में ही उक्त सभी विषय स्पष्ट हैं। 1. (क) 'भगवती 171 मू. 592 (ख) तैत्तिरीयोपनिषद् भृगुवल्ली (वेलवलकर) (ग) मारयकारिका (वेलवलकर और गनहे) 2. पण्णवणासुन भा. 2, पृ. 117 3. बही, भा. 2, पृ. 118 4. वही, भा. 2, पृ. 119 Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगवीसइमं : ओगाहणसंठाणपयं इक्कीसवाँ : अवगाहना-संस्थान-पद अर्थाधिकार-प्ररूपरणा 1474. विहि 1 संठाण 2 पमाणं 3 पोग्गलचिणणा 4 सरीरसंजोगो 5 / दव्व-पएसप्पबहुं 6 सरीरओगाहणप्पबहुं 7 // 214 // [1474 गाथार्थ] (इस इक्कीसवें पद में 7 द्वार हैं-) (1) विधि, (2) संस्थान, (3) प्रमाण, (4) पुदगलचयन, (5) शरीरसंयोग, (6) द्रव्य-प्रदेशों का अल्पबहत्व, एवं (7) शरीरावगाहना-अल्पबहत्व / विवेचन--- शरीरसम्बन्धी सात द्वार--प्रस्तुत पदों में शरीर से सम्बन्धित सात द्वारों का वर्णन है,-जिन के नाम मूल गाथा में दिये गए हैं। सात द्वारों में विशेष निरूपण--(१) विधिद्वार-इसमें शरीर के प्रकार और उनके भेदप्रभेदों का वर्णन है, (2) संस्थानद्वार--पंचविधशरीरों के संस्थानों-ग्राकारों का निरूपण है, (3) प्रमाणद्वार--ौदारिक आदि शरीरों की लम्बाई-चौड़ाई (अवगाहना) के प्रमाण का वर्णन है, (4) पुद्गलचयनद्वार---प्रौदारिक आदि शरीर के पुद्गलों का चय-उपचय कितनी दिशानों से होता है ? इसका निरूपण है, (5) शरीरसंयोगद्वार-किस शरीर के साथ किस शरीर का संयोग अवश्यम्भावी है, किसके साथ वैकल्पिक है ? इसका वर्णन है, (6) द्रव्यप्रदेशाल्पबहुत्वद्वार-द्रव्यों और प्रदेशों की अपेक्षा से शरीरों के अल्पबहुत्व का वर्णन है और (7) शरीरावगाहनाऽल्पबहुत्वद्वार-पांचों शरीरों की अवगाहना के अल्पबहुत्व का निरूपण है।' 1-2-3. विधि-संस्थान-प्रमारणद्वार 1475. कति णं भंते ! सरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरया पण्णता / तं जहा-ओरालिए 1 वेउच्चिए 2 आहारए 3 तेयए 4 कम्मए 5 / 1475 प्र. भगवन् ! कितने शरीर कहे गए हैं ? उ.] गौतम ! पांच शरीर कहे गए हैं। वे इस प्रकार--(१) ग्रौदारिक, (2) वैक्रियक, (3) प्राहारक, (4) तैजस और (5) कार्मण / विवेचन- शरीर के मुख्य पांच प्रकार---प्रस्तुत सूत्र में शरीर के मुख्य 5 प्रकारों का निरूपण है / प्रतिक्षण शीर्ण-क्षीण होते हैं, इसलिए ये शरीर कहलाते हैं / 1. प्रजापना. प्रमेयवाधिनी टोका भा. 4, पृ. 584 Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद] [415 पांचों शरीरों के लक्षण -(1) औदारिकशरीर-जो उदार अर्थात् प्रधान हो, उसे औदारिक गरीर कहते हैं। प्रीदारिक शरीर की प्रधानता तीर्थकर, गणधर आदि के औदारिक शरीर होने की अपेक्षा में है / अथवा उदार का अर्थ विशाल यानी बृहत्परिमाण वाला है। क्योंकि प्रौदारिक शरीर एक हजार योजन से भी अधिक लम्बा हो सकता है, इसलिए अन्य शरीरों की अपेक्षा यह विशाल परिमाण वाला है / औदारिक शरीर की यह विशालता भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से समझनी चाहिए, अन्यथा उत्तर वैक्रिय शरीर तो एक लाख योजन का भी हो सकता है।' (2) वैक्रियशरीर--जिस शरीर के द्वारा विविध, विशिष्ट या विलक्षण क्रियाएँ हो, वह वक्रिय शरीर कहलाता है / जो शरीर एक होता हया, अनेक बन जाता है, अनेक होता हश्रा, एक हो जाता है, छोटे से बड़ा और बड़े से छोटा, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर हो जाता है तथा दृश्य होता हुमा अदृश्य और अदृश्य होता हुअा दृश्य बन जाता है, इत्यादि विलक्षण लक्षण वाला शरीर वैक्रिय हैं। वह दो प्रकार का होता है-औपपातिक (जन्मजात) और लोब्ध-प्रत्यय / प्रोपपातिक क्रिय शरीर उपपात-जन्म वाले देवों और नारकों का होता है और लब्धि-प्रत्यय वैक्रिय शरीर लब्धिनिमित्तक होता है, जो तिर्यञ्चों और मनुष्यों में से किसी-किसी में पाया जाता है / (3) आहारकशरीर-चतुर्दशपूर्वधारी मुनि तीर्थकरों का अतिशय देखने आदि के प्रयोजनवश विशिष्ट प्राहारकलब्धि से जिस शरीर का निर्माण करते हैं, वह आहारक शरीर कहलाता है। "श्रुतकेवलो द्वारा प्राणिदया, तीर्थंकरादि की ऋद्धि के दर्शन, सूक्ष्मपदार्थावगाहन के हेतु से तथा किसी संशय के निवारणार्थ जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जाने का कार्य होने पर अपनी विशिष्ट लब्धि से शरीर निर्मित किये जाने के कारण इसको आहारक शरीर कहा गया है।" यह शरीर वैक्रिय शरीर की अपेक्षा अत्यन्त शुभ और स्वच्छ स्फटिक शिला के सदृश शुभ पुद्गलसमूह से रचित होता है / (4) तेजसशरीर तैजसपुद्गलों से जो शरीर बनता है, वह तैजस शरीर कहलाता है / यह शरीर उष्मारूप और भुक्त आहार के परिणमन (पाचन) का कारण होता है। तेजस शरीर के निमित्त से ही विशिष्ट तपोजनित लब्धि वाले पुरुष के शरीर से तेजोलेश्या का निर्गम होता है। यह तैजस शरीर सभी संसारी जीवों को होता है, शरीर की उष्मा (उष्णता) से इसकी प्रतीति होतो है, जो आहार को पचा कर उसे रसादिरूप में परिणत करता है, अथवा तेजोलन्धि के निमित्त से होता है / इसी कारण इसे तैजस शरीर समझना चाहिए / - 1. प्रजापना, मलय. वृत्ति, पत्र 401 2. नही. पत्र 801 3. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 409 (ख) कज्जमि ममुपपणे सुयके वलिणा विसिट्ठल द्धीए / ज पन्थ आहरिज्जइ, भणितं पाहारगं तं तु॥१॥ पाणिदयरिद्धि-दसणमूहमपयत्थावगहणहेउ बा / संमयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपाय मूलमि / / 2 / / 8. (क) प्रज्ञापनः . मलय. वत्ति, पत्र४०९ (ख) "मबस्स उम्हसिद्ध रमाइ आहारपाकजणगं च / नयगलद्धिनिमित्तं च तेयग होइ नायव्यं / / " Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 416] [प्रज्ञापनासूत्र (5) कार्मणशरीर-जो शरीर कर्मज (कर्म से उत्पन्न) हो, अथवा जो कर्म का विकार हो. वह कार्मणशरीर है। आशय यह है, कि कर्म परमाणु ही आत्मप्रदेशों के साथ दूध-पानी की भांति एकमेक हो कर परस्पर मिलकर शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं, तब वे कार्मण (कर्मज) शरीर कहलाते हैं / कहा भी है-कार्मणशरीर कर्मों का विकार (कार्य) है, वह अष्टविध विचित्र कर्मों से निष्पन्न होता है। इस शरीर को समस्त शरीरों का कारण समझना चाहिए / अतः यौदारिक ग्रादि समस्त शरीरों का बीजरूप (कारणरूप) कार्मणशरीर ही है। जब तक भवप्रपञ्च रूपी अंकुर के बीजभूत कार्मणशरीर का उच्छेद नहीं हो जाता, तब तक शेष शरीरों का प्रादुर्भाव रुक नहीं सकता / यह कर्मज शरीर ही जीव को (मरने के बाद) दूसरी गति में संक्रमण कराने में कारण है / तैजससहित कर्मणशरीर के युक्त हो कर जीव जब मर कर अन्य गति में जाता है अथवा दूसरी गति से मनुष्य गति में आता है, तब उन पुद्गलों की अतिसक्षमता के कारण जीव चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता / अन्यतीथिकों ने भी कहा है-"यह भवदेह बीच में (जन्म और मर में) भी रहता है, किन्तु अतिसूक्ष्म होने के कारण शरीर से निकलता अथवा प्रवेश करता हुआ दिखाई नहीं देता।" तैजस और कार्मणशरीर के बदले अन्य धर्मों में मूक्ष्म और कारण शरीर माना गया है।' औदारिक शरीर में विधिद्वार 1476. पोरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णतें / तं जहा---एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचेंदियनोरालियसरीरे / [1476 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार- एकेन्द्रिय-ग्रौदारिक . शरीर यावत् पचेन्द्रिय-औदारिक शरीर / 1477. एगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-पुढविक्काइयगिदियओरालियसरीरे जाव वणप्फइकाइयएगिदियओरालियसरीरे। [1477 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह (एकेन्द्रिय-औदारिक शरीर) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारि कशरीर यावत् वनस्पति कायिकएकेन्द्रिय-ग्रौदारिक गरीर / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 410 (ख) “कम्मविगारो कम्मणमट्ठविह विचित्तकम्मनिष्पन्न / मगि मरीगणं कारणभूतं मुणयब / (ग) “अन्तग भवदेहोऽपि. सुक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते / / निकामन प्रविशन वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि / / " Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद] / 417 1478. [1] पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णते। तं जहा-सुहमपुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे य बादरपुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे य / [1478-1 प्र. भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। यथा-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर और बादरपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर / [2] सुहमपुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णते। तं जहा-पज्जत्तगसुहमपुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तगसुहमपुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे य / [1478-2 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा है ? [उ.] गौतम ! (वह भी) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-पर्याप्तसूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर और अपर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर / [3] बादरपुढविक्काइया वि एवं चेव / {1478-3] इसी प्रकार बादरपृथ्वीकायिक (एकेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर के भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद समझ लेने चाहिए !) 1479. एवं जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालिय त्ति / [1476] इसी प्रकार (अकायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीर (तक के भी सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्नक के भेद से दो-दो प्रकार समझ लेने चाहिए।) 1480. बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पज्जत्तबेइंदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तबेइंदियोरालियसरीरे य। [1480 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-पर्याप्तद्वीन्द्रिय-औदारिक शरीर और अपर्याप्तद्वीन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर / 1481. एवं तेइंदिय-चरिदिया वि / [1481] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (प्रौदारिक शरीर के भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो प्रकार जान लेने चाहिए।) Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 418] प्रज्ञापनासूत्र 1482. पंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे पणते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–तिरिक्खपंचेंदियओरालियसरीरे य मणुस्सपंचेंदियओरालियसरीरे य। [1482 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियऔदारिक शरीर और मनुष्य-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर / 1483. तिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-जलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियोरालियसरीरे य 1 थलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य 2 खयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियनोरालियसरीरे य 3 / 1483 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा उ.] गौतम ! (वह) तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) जलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर, (2) स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर और (3) खेचरतिर्यञ्च योनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर / 1484. [1] जलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा---सम्मुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य गम्भवक्कंतियजलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / [1484-1 प्र.] भगवन् ! जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? _ [उ.गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। यथा-सम्मूच्छिम-जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर और गर्भज (गर्भव्युत्क्रान्तिक)-जलचर-तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर। [2] सम्मुच्छिमजलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पज्जत्तगसम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तगसम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / [1484-2 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम-जलचर-तिर्यंचयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार–पर्याप्तक-सम्मूच्छिमतिर्यञ्चयोनिक-पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर और अपर्याप्तक-सम्मूच्छिम-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियऔदारिक शरीर। Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [419 [3] एवं गब्भवक्कंतिए वि / [1484-3] इसी प्रकार गर्भज (जलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर) के भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद समझ लेने चाहिए)। 1485. [1] थलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–चउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य परिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / [1485-1 प्र.) भगवन् ! स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / यथा--- चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय औदारिक शरीर और परिसर्प-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [2] चउपयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा सम्मच्छिमचउम्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य गम्भवक्कंतियचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियोरालियसरीरे य / [1485-2 प्र.] भगवन् ! चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार सम्मूच्छिम चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर और गर्भज चतुष्पद-स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [3] सम्मुच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–पज्जत्तसम्मच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियमोरालियसरीरे य अपज्जत्तसम्मच्छिमचउप्पयथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियोरालियसरीरे य / [1485-3 प्र.] भगवन् ! सम्मूच्छिम चतुष्पद-स्थल चरति-र्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / जैसे कि-पर्याप्तक सम्मूच्छिम चतुप्पदस्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर और अपर्याप्तक सम्मूच्छिम चतुष्पद स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [4] एवं गम्भवक्कतिए वि। [1485-4] इसी प्रकार गर्भज (---चतुष्पद स्थलचर तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर) के भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो प्रकार समझ लेने चाहिए / ) Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 420] [प्रज्ञापनासूत्र [5] परिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य भुयपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / 1485-5 प्र. भगवन ! परिसर्प स्थलचर-निर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ. | गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-उरःपरिसर्प स्थलचरतिर्यञ्चयोतिक-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर और भुजपरिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर / [6] उरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियोरालियसरीरे गं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते। तं जहा–सम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य गम्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य / [1485-6 प्र. भगवन् ! उर:परिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है / जैसे कि सम्मूच्छिम उर:परिसर्प स्थलचरतिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर और गर्भज उरःपरिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [7] सम्मुच्छिमे दुविहे पण्णते। तं जहा-अपज्जत्तसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य पज्जत्तसम्मच्छिमउरपरिसप्पथलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे य। [1485-71 सम्मूच्छिम (-उरःपरिसर्प स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर) दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार—अपर्याप्तक सम्मूच्छिम उर परिसर्प स्थलचर-तियंञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय औदारिकशरोर और पर्याप्तक सम्मूच्छिम उर:परिमर्प-स्थलचर-तिर्थञ्चयोनिकपंचेन्द्रिय औदारिक शरीर / [8] एवं गम्भवक्कंतिय उरपरिसप्पचउक्कओ भेदो। [1485-8] इसी प्रकार गर्भज उरःपरिसर्प (स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-ग्रौदारिक शरीर) के भी (पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो प्रकार मिला कर सम्मूच्छिम और गर्भज दोनों के कुल) चार भेद समझ लेने चाहिए। [9] एवं भुयपरिसप्पा वि सम्मुच्छिम-गम्भवक्कंतिय-पज्जत्त-अपज्जत्ता। [1485-6 | इसी प्रकार भुजपरिसर्प (स्थलचर-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरोर) के भी सम्मूच्छिम एवं गर्भज (तथा दोनों के) पर्याप्तक और अपर्याप्तक (ये चार भेद समझने चाहिए)। Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद] [421 1486. [1] खयरा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य। 11886-1] खेचर तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर भी दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] सम्मुच्छिमा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / 1886-2] सम्मूच्छिम ( खेचर ति० पं० प्रोदारिक शरोर) दो प्रकार का कहा गया है / यथा ---पर्याप्तक का और अपर्याप्तक का / [3] गम्भवक्कंतिया वि पज्जता य अपज्जत्ता य / [1486-3] गर्भज (-खेचर तिर्यञ्च योनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर) भी पर्याप्त और अपर्याप्त (के भेद मे दो प्रकार का कहा गया है)। 1487. [1] मणूसपंचेंदियआरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मुच्छिममणूसपंचेंदियओरालियसरोरे य गम्भवक्कंतियमणूसपंर्चेदियोरालियसरीरे य / (1487-1 प्र.! भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.) गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार सम्मूच्छिम मनुष्यपंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर और गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर : [2] गम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियोरालियसरीरे गं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पज्जत्तगगम्भवतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियोरालियसरीरे य / / 1487-2 प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है: 3.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। यथा-पर्याप्तक गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रियऔदारिक शरीर और अपर्याप्तक गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर।। विवेचन - औदारिक शरीर के भेद-प्रभेद-प्रस्तुत 12 सूत्रों (1476 से 1487 तक) में विधिद्वार के सन्दर्भ में प्रोदारिक शरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। औदारिक शरीरधारी जीव-नारकों ओर देवों को छोड़ कर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों के जितने भी जीव हैं और उन जीवों के जितने भो भेद-प्रभेद हैं, उतनी ही औदारिक शरीर के भेद-प्रभेदों की संख्या है।' ओदारिक शरीर के भेदों की गणना-पांच प्रकार के एकेन्द्रियों के प्रौदारिक शरीरों के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार-चार भेद होने से कुल 20 भेद हुए / तीन विकलेन्द्रियों 1. पागवण्णामुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 117 Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422] [प्रज्ञापनासूत्र : के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से 6 भेद हुए। तत्पश्चात् औदारिक शरीरी पंचेन्द्रिय के मुख्य दो भेद--तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्यपंचेन्द्रिय / तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय प्रौढारिक शरीर के मुख्य तीन भेदजलचर, स्थलचर और खेचर सम्बन्धी / फिर जलचर शरीर के दो भेद-सम्भूच्छिम एवं गर्भज / सम्मूच्छिम और गर्भज दोनों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो-दो भेद / स्थल चर शरीर के मुख्य दो भेद-चतुष्पद और परिसर्प / चतुष्पद स्थलचर शरीर के दो भेद-सम्मूच्छिम और गर्भज, फिर इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त, ये दो-दो प्रकार। परिसर्प स्थलचर शरीर के मुख्य दो भेदउर:परिसर्प और भजपरिसर्प / उर:परिसर्प और भजपरिसर्प, इन दोनों के शरीर के सम्मच्छिम और गर्भज तथा उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक प्रभेद होते हैं / खेचर शरीर के भी सम्मूच्छिम. गर्भज तथा उनके पर्याप्त, अपर्याप्त भेद / मनुष्य शरीर के मुख्य दो भेद-सम्मूच्छिम और गर्भज / फिर गर्भज मनुष्य शरीर के दो भेद-पर्याप्तक और अपर्याप्तक / इस प्रकार प्रौदारिक शरीर के कुल 50 भेदप्रभेदों की गणना कर लेनी चाहिए।' औदारिक शरीर में संस्थानद्वार 1488. ओरालियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णते ? गोयमा! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / (1488 प्र. भगवन् ! औदारिक शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है? [उ.] गौतम ! (वह) नाना संस्थान बाला कहा गया है / 1489. एगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! जाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1486 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-औदारिक शरीर कैसे संस्थान (आकार ) का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है / 1490. [1] पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पणते ? गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [1460-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक शरीर किस प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) मसूर-चन्द्र (मसूर की दाल) जैसे संस्थान वाला कहा गया है। [2] एवं सुहुमपुढविक्काइयाण वि / | 1460-2] इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों का (ौदारिक शरीर संस्थान) भी (मसूर को दाल के समान है।) [3] बायराण वि एवं चेव / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 410 Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद [423 1460-3] वादर पृथ्वीकायिकों का (प्रौदारिक शरीर-संस्थान) भी इसी के समान (समझना चाहिए। [4] पज्जत्तापज्जत्ताण वि एवं चेव / / 1460-4] पर्याप्तक और अपर्याप्तक (पृथ्वीकायिकों का औदारिक शरीर-संस्थान भी इसी प्रकार का (जानना चाहिए।) 1491. [1] आउक्काइयएंगिदियोरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! थिबुर्गाबदुसंठाणसंठिए पण्णत्ते। {1461-1 प्र.] भगवन् ! अप्कायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक शरीर का संस्थान कैसा कहा गया है [उ. | गौतम ! (अकायिकों के शरीर का संस्थान) स्तिबुकबिन्दु (स्थिर जलबिन्दु) जैसा कहा गया है। [2] एवं सुहम-बायर-पज्जत्तापज्जत्ताण वि / [1491-2J इसी प्रकार का संस्थान अप्कायिकों के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक शरीर का समझना चाहिए। 1492. [1] तेउक्काइयएगिदियओरालियसरीरे गं भंते ! लिसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! सूईकलावसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1462-1 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है। उ.] गौतम ! तेजस्कायिकों के शरीर का संस्थान सूइयों के ढेर (सूचीकलाप) के जैसा कहा गया है। [2] एवं सुहुम-बादर-पज्जत्तापज्जत्ताण वि। [1462-2] इसी प्रकार (का संस्थान तेजस्कायिकों के) सूक्ष्म, बादर पर्याप्त और अपर्याप्त (शरीरों) का (समझना चाहिए / ) 1493. [1] बाउक्काइयाणं पड़ागासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1493-1] वायुकायिक जीवों (के औदारिक शरीर) का संस्थान पताका के समान है / [2] एवं सुहुम-बायर-पज्जत्तापज्जत्ताण वि। 1463-2] इसी प्रकार का संस्थान (वायुकायिकों के) सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्तक (शरीरों का) भी समझना चाहिए / 1494. [1] वणप्फइकाइयाणं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / {1494-1] वनस्पतिकायिकों के शरीर का संस्थान नाना प्रकार का कहा गया है। Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं सुहुम-बायर-पज्जत्तापज्जत्ताण वि। [1464-2] (वनस्पतिकायों के) सूक्ष्म, बादर, पर्याप्तक और अपर्याप्त (शरीरों) का (संस्थान) भी (नाना प्रकार का है।) 1495. [1] बेइंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1465-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय औदारिक शरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है [उ.] गौतम ! (वह) हुंडक संस्थान वाला कहा गया है / [2] एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि। [1465-2] इसी प्रकार पर्याप्तक और अपर्याप्तक (द्वीन्द्रिय प्रौदारिक शरीरो का संस्थान भी हुंडक कहा गया है।) 1496. एवं तेइंदिय-चरिदियाण वि / [1496] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (के पर्याप्तक, अपर्याप्तक शरीरों) का संस्थान भी (हुण्डक समझना चाहिए / ) 1497. [1] तिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णते? गोयमा ! छविहसंठाणसंठिए पण्णत्ते / तं जहा-समचउरंससंठाणसंठिए जाव' हुंडसंठाणसंठिए वि / एवं पज्जत्ताऽपज्जत्ताण वि३। [1467-1 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है। यथा-समचतुरस्रसंस्थान से लेकर हुडक संस्थान का भी है। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर के संस्थान) के विषय में भी (समझ लेना चाहिए।) [2] सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते / एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि 3 / [1467-2 प्र. भगवन् ! सम्मूच्छिम तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) हुँडक संस्थान बाला कहा गया है / इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर) का (संस्थान) भी (हण्डक ही समझना चाहिए / ) 1. 'जाब' शब्द 'नम्गोहपरिमंडलर्सठाणसंठिए, साइसं०, वामणसं०, खुज्जसठाणसंठिए, हंडसंठाणसंठिए, शब्दों का सूचक है। Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद] [425 [3] गमवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पणते? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते। तं जहा-समचउरंसे जाव हुंडसंठाणसंठिए। एवं पज्जतापज्जत्ताण वि३ / एवमेते तिरिक्खजोणियाणं ओहियाणं णव आलावगा। [1467-3 प्र.] भगवन् ! गर्भज तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है. अर्थान् समचतुरस्रसंस्थान से लेकर यावत् हुडकसंस्थान वाला भी है। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (गर्भज तिर्यञ्चपचंन्द्रिय प्रौदारिक शरीरों के भी (ये छह संस्थान समझने चाहिए।) __इस प्रकार औधिक (सामान्य) तिर्यञ्चयोनिकों (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीरों के संस्थानों) के ये (पूर्वोक्त) नौ पालापक समझने चाहिए। 1498. [1] जलयरतिरिक्खजोणियपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पणत्ते ? गोयमा ! छव्विहसंठाणसंठिए पण्णत्ते / तं जहा-समचउरसे जाव हुंडे / [1468-1 प्र.] भगवन् ! जलचर तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर किस संस्थान वाला कहा गया है? [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है। जैसे कि---समचतुरस्र (मे लेकर) यावत् हुण्डक संस्थान वाला / [2] एवं पज्जत्तापज्जत्ताण वि / [1468-2] इसी प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्तक (जलचर तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीरों) के भी संस्थान (छहों प्रकार के समझने चाहिए / ) [3] सम्मुच्छिमजलयरा हुंडसंठाणसंठिया / एतेसि चेव पज्जत्तापज्जत्तगा वि एवं चेव / [1498-3] सम्मूच्छिम जलचरों (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) के औदारिक शरीर हुण्डकसंस्थान वाले हैं / उनके पर्याप्तक, अपर्याप्तकों के (औदारिक शरीर) भी इसी प्रकार (हुण्डकसंस्थान) के (होते हैं।) [4] गम्भवक्कंतियजलयरा छविहसंठाणसंठिया / एवं पज्जत्तापज्जत्तगा वि / [1498-4] गर्भज जलचर (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के औदारिक शरीर) छहों प्रकार के संस्थान वाले हैं। इसी प्रकार पर्याप्तक, अपर्याप्तक (गर्भज जलचर-तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों के औदारिक शरीर) भी (छहों संस्थान वाले समझने चाहिए।) 1499. [1] एवं थलयराण वि णव सुत्ताणि / [1466-1] इसी प्रकार स्थलचर (तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर-संस्थानों) के नौ सूत्र (भी पूर्वोक्त प्रकार से समझ लेने चाहिए।) Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं चप्पयथायराण वि उरपरिसप्पथलयराण वि भुयपरिसप्पथलयराण वि / [1466-2] इसी प्रकार चतुष्पद स्थलचरों, उरःपरिसर्प स्थलचरों एवं भुजपरिसर्प-स्थलचरों के औदारिक शरीर संस्थानों के (नौ-नौ सूत्र) भी (पूर्वोक्त प्रकार से समझ लेने चाहिए।) 1500. एवं खयराण वि णव सुत्ताणि / णवरं सम्वत्थ सम्मुच्छिमा हुंडसंठाणसंठिया भाणियदा, इयरे छसु वि। 1500 / इसी प्रकार खेचरों के (औदारिक शरीर संस्थानों के) भी नौ सूत्र (पूर्वोक्त प्रकार से समझने चाहिए / ) विशेषता यह है कि सम्मूच्छिम (तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के प्रौदारिक शरीर) सर्वत्र हुण्डकसंस्थान वाले कहने चाहिए। शेष सामान्य, गर्भज आदि के शरीर तो छहों संस्थानों वाले होते 1501. [1] मणूसपंचेंदियओरालियसरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहसंठाणसंठिए पण्णत्ते / तं जहा-समचउरंसे जाव हुंडे / [1501-1 प्र.| भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिक-शरीर किस संस्थान वाला कहा गया ? [उ.] गौतम ! (वह) छहों प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है। जैसे कि-समचतुरस्र से लेकर यावत् हुण्डक संस्थानवाला। [2] पज्जत्तापज्जत्ताण वि एवं चेव ! [1501-2] पर्याप्तक और अपर्याप्तक (-मनुष्यपंचेन्द्रिय-ौदारिक शरीर) भी इसी प्रकार (छहों संस्थान वाले होते हैं / ) [3] गम्भवक्कंतियाण वि एवं चेव / पज्जत्ताऽपज्जत्तगाण वि एवं चेव / [1501-3] गर्भज (-मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर) भी इसी प्रकार (छहों संस्थानों (वाले होते हैं।) पर्याप्तक-अपर्याप्तक (गर्भज मनुष्यों) के (प्रौदारिक शरीर भी छह संस्थान वाले समझने चाहिए।) [4] सम्मुच्छिमाणं पुच्छा / गोयमा ! हुंडसंठाणसंठिया पण्णत्ता। [1501-4 प्र. सम्मूच्छिम मनुष्यों, (चाहे पर्याप्तक हो, या अपर्याप्तक) के (प्रौदारिक शरीर किस संस्थान वाले होते हैं ?) उ.] गौतम ! वे (सभी सम्मूच्छिम मनुष्यों के औदारिक शरीर) हुण्डक संस्थान वाले होते विवेचन–सर्वविध औदारिक शरीरों की संस्थान सम्बन्धी प्ररूपणा--प्रस्तुत 14 सूत्रों (सू. 1488 से 1501) में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय-मनुष्य तक के विविध औदारिक शरीरों के संस्थानों Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहनसंस्मानपर] [ 427 की प्ररूपणा की गई है / संस्थानों की प्ररूपणा का क्रम औदारिक शरीर के भेदों के क्रम के अनुसार रखा गया है।' औदारिक शरीरों को संस्थान-सम्बन्धी तालिका-इस प्रकार है क्रम प्रौदारिक शरीर का प्रकार संस्थान 1. पृथ्वीकायिक सूक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त औदारिक शरीर मसूर की दाल के समान 2. अप्कायिक सूक्ष्म-बादर पर्याप्त-अपर्याप्त औदारिक शरीर स्थिर जलविन्दु के समान 3. तेजस्कायिक सूक्ष्म-बादर पर्याप्त-अपर्याप्त औदारिक शरीर सइयों के ढेर के समान 4. वायकायिक सक्षम-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त प्रौदारिक शरीर पताका के प्राकार के समान 5. बनस्पतिकायिक सुक्ष्म-बादर, पर्याप्त-अपर्याप्त औदारिक शरीर नाना प्रकार के संस्थान वाला 6. द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्तक औदारिक शरीर हुंडक संस्थान वाले 7. तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय औदारिक शरीर छही प्रकार के संस्थान वाला 8. सम्मूच्छिम ति. पं. औदारिक शरीर पर्याप्त-अपर्याप्त हंडक संस्थान वाला 6. गर्भज ति. पं. औदारिक शरीर पर्याप्त-अपर्याप्त षविध संस्थान वाला 10. जलचर ति. पं. औदारिक शरीर पर्याप्त-अपर्याप्त, गर्भज षडविध संस्थान वाला 11. सम्मूच्छिम जलचर ति. पं. औदारिक शरीर पर्याप्त-अपर्याप्त हुंडक संस्थान सम्मूच्छिम स्थलचर, खेचर ति. पं. औदारिक शरीर पर्याप्त-अपर्याप्त हुंडक संस्थान 12. स्थलचर चतुष्पद, उर:परिसर्प, भुजपरिसर्प, पर्याप्त-अपर्याप्त छहों प्रकार के संस्थान 13. खेचर ति. पं. पर्याप्त-अपर्याप्त प्रौदारिक शरीर छहों प्रकार के संस्थान 14. मनुष्य पंचेन्द्रिय, गर्भज, पर्याप्त-अपर्याप्त औदारिक शरीर छहों प्रकार के संस्थान 15. सम्मूच्छिम मनुष्य पं. प्रौदारिक शरीर, पर्याप्त-अपर्याप्त हुंडक संस्थान मसूरचंद आदि शब्दों के विशेषार्थ-मसूरचंद संठाण-मसूर एक प्रकार का धान्य होता है, जिसकी दाल बनती है / मसूर का चन्द्र अर्थात् चन्द्राकार अर्धदल (दाल) मसूरचन्द्र ; उसके समान आकार / थिबुगबिन्दु-संठाण--स्तिबुकबिन्दु-पानी के बुदबुद जैसा होता है, जो बूंद वायु आदि के द्वारा इधर-उधर बिखरे या फैले नहीं, जमा हुआ तो, वह स्तिबुकबिन्दु कहलाता है, उसके जैसा आकार / नाना संठाणसंठिया-देश, जाति और काल प्रादि के भेद से उनके आकार में भिन्नता होने से विविध प्रकार के आकार वाले।३।। संस्थान : प्रकार और स्वरूप-शरीर की आकृति या रचना-विशेष को संस्थान कहते हैं। उसके 6 प्रकार हैं--(१) समचतुरस्र, (2) न्यग्रोध-परिमण्डल, (3) सादि (स्वाति), (4) वामन, (5) कुब्जक और (6) हुण्डकसंस्थान / छहों का स्वरूप इस प्रकार है-(१) समचतुरस्त्र---जिस शरीर के चारों ओर के चारों प्रस्रकोण या विभाग सामुद्रिक शास्त्र में कथित लक्षणों के अनुसार सम 1. पण्णवणामुत्तं, (प्रस्तवना परिशिष्टादि) भा. 2, पृ. 117 2. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ,-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 331 से 333 तक 3. प्रज्ञापना. मलयवृति, पत्र '411 Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428] [प्रज्ञापनासून हों, वह समचतुरस्रसंस्थान है, (2) न्यग्रोध-परिमण्डल-न्यग्रोध का अर्थ है-वट या बड़। जैसे वटवृक्ष का ऊपरी भाग विस्तीर्ण या पूर्णप्रमाणोपेत होता है और नीचे का भाग होन या संक्षिप्त होता है, वैसे ही जिस शरीर के नाभि के ऊपर का भाग पूर्ण प्रमाणोपेत हो, किन्तु नीचे का भाग (निचले अवयव) हीन या संक्षिप्त हों, वह न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान है। (3) सादिसंस्थान-सादि शब्द में जो 'पादि' शब्द है, वह नाभि के नीचे के भाग का वाचक है / नाभि के अधस्तन भागरूप प्रादि सहित, जो संस्थान हो, वह 'सादि' कहलाता है। आशय यह है कि जो संस्थान नाभि के नीचे प्रमाणोपेत हो, किन्तु जिसमें नाभि के ऊपरी भाग होन हों, वह सादिसंस्थान है। कई प्राचार्य इसे साचीसंस्थान कहते हैं। साची कहते हैं----शाल्मली (सेमर) वृक्ष को। शाल्मली वृक्ष का स्कन्ध (नोचे का भाग) अतिपुष्ट होता है, किन्तु ऊपर का भाग तदनुरूप विशाल या पृष्ट नहीं होता, उसी तरह जिस शरीर का अधोभाग परिपुष्ट व परिपूर्ण हो, और ऊपर का भाग हीन हो, वह साचीसंस्थान है। (4) कुब्जक संस्थान--जिस शरीर के सिर, गर्दन हाथ पैर आदि अवयव आकार में प्रमाणोपेत हों, किन्तु वक्षस्थल, उदर आदि टेढ़मेढ़े-बेडौल या कुबड़े हों, वह कुब्जकसंस्थान है / (5) वामनसंस्थामजिस शरीर के छाती पेट आदि अवयव प्रमाणोपेत हों, किन्तु हाथ-पैर प्रादि अवयव होन हों, जो शरीर बौना हो, वह वामनसंस्थान है। (6) हुण्डकसंस्थान--जिस शरीर के सभी अंगोपांग वेडौल हों, प्रमाण और लक्षण से हीन हों, वह हुण्डकसंस्थान कहलाता है।' __औधिक तिर्यचयोनिकों के नौ आलापक—ये नौ पालापक इस प्रकार हैं--समुच्चय पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का एक, इनके पर्याप्तकों का एक और अपर्याप्तकों का एक, यों तीन आलापक ; सम्मूच्छिमपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक का एक, इनके पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के दो, यो कुल तीन आलापक, तथा गर्भजपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक का एक, उनके पर्याप्तक अपर्याप्तक का एक-एक, यों कुल तीन आलापक / ये सब मिलाकर 9 पालापक हुए। स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के औदारिकशरीर सम्बन्धी नौ सूत्र-समुच्चय स्थलचरों का, उनके पर्याप्तों का. अपर्याप्तों का: सम्मच्छिम स्थलचरों का, उनके पर्याप्तों का, अपर्याप्तों का; तथा गर्भज स्थलचरों का, उनके पर्याप्तकों का, एवं अपर्याप्तकों का एक-एक सूत्र होने से कुल नौ सूत्र होने हैं। औदारिक शरीर में प्रमाणद्वार 1502. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / [1502 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (प्रौदारिक शरीरावगाहना) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की (और) उत्कृष्टत: कुछ अधिक हजार योजन की है। 1. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 812 / 5. (क) वही, मलयवृत्ति, पत्र 412, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनीटीका भा. 4, पृ. 632 3. (क) वही, मलयवृत्ति पत्र 412, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनीटीका भा. 4, पृ. 633 Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनसंस्थानपद] [429 1503. एगिदियोरालियस्स वि एवं चेव जहा ओहियस्स (सु. 1502) / [1503] एकेन्द्रिय के प्रौदारिक शरीर की अवगाहना भी जैसे (सू. 1502 में) प्रौधिक (सामान्य औदारिक शरीर) की (कही है उसी प्रकार समझनी चाहिए।) 1504. [1] पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग। [1504-1 प्र. भगवन् ! पृथ्वी कायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी [उ.] गौतम ! (उसकी अवगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की है। [2] एवं अपज्जत्तयाण वि पज्जत्तयाण वि / [1504-2] इसी प्रकार अपर्याप्तक एवं पर्याप्तक (-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरों) की भी (अवगाहना इतनी ही समझनी चाहिए।) [3] एवं सुहमाण वि पज्जत्तापज्जत्ताणं / [1504-3] इसी प्रकार सूक्ष्म पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक (-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीरों) की (अवगाहना) भी समझनी चाहिए। [4] बादराणं पज्जत्तापज्जत्ताण वि एवं / एसो णवओ भेदो। [1504-4] बादर पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक (पृ. ए. औदारिक शरीरों) की (अवगाहना की वक्तव्यता) भी इसी प्रकार (समझनी चाहिए।) (इस प्रकार पृथ्वीकायिकों के शरीगवगाहनासम्बन्धी) ये नौ भेद (आलापक) हुए। 1505. जहा पुढविक्काइयाणं तहा आउक्काइयाण वि तेउकाइयाण वि वाउबकाइयाण वि। [1505] जिस प्रकार पृथ्वीकायिकों के (औदारिक शरीरावगाहना-सम्बन्धी 6 पालापक--- भेद हुए,) उसी प्रकार प्रकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भी (ग्रौदारिक शरीरावगाहना-सम्बन्धी 6 ग्रालापक कहने चाहिए / ) 1506. [1] वणस्सइकाइयओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / [1506-1 प्र. भगवन् ! वनस्पतिकायिकों के प्रौदारिक शरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! (उसकी अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430] [प्रज्ञापनासून [2] अपज्जत्तगाणं जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1506-2 (वनस्पतिकायिक) अपर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) की जघन्य और उत्कृष्ट (अवगाहना) भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की है / [3] पज्जत्तगाणं जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / [1506-3] (वनस्पतिकायिक) पर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) की (अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। [4] बादराणं जहष्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / पज्जताण वि एवं चेव / अपज्जत्ताणं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1506-4] बादर (वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर) को (अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है / (इनके) पर्याप्तकों की (औदारिक शरीरावगाहना) भी इसी प्रकार से समझनी चाहिए / ) (इनके) अपर्याप्तकों की (यौदारिक शरीरावगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगूल के असंख्यातवें भाग की (समझनी चाहिए / ) [5] सुहमाणं पज्जत्तापज्जत्ताण य तिण्ह वि जहण्णेण वि उक्कोसेण बि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। 1506-5] (वनस्पतिकायिकों के) सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इन तीनों की (औदारिक शरीरावगाहना)जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों रूप से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की है / 1507. [1] बेइंदियोरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई / [1507-1] भगवन् ! श्रीन्द्रियों के औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? (उ. गौतम ! (इनकी शरीरावगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की है। [2] एवं सब्वत्थ वि अपज्जत्तयाणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं जहण्णण वि उक्कोसेण वि / {1507-2] इसी प्रकार सर्वत्र (द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में) अपर्याप्त जीवों की औदारिक शरीरावगाहना भी जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की कहनी चाहिए। [3]. पज्जत्तयाणं जहेव ओरालियस्स ओहियस्स (सु. 1507-1) / | 1507-3) पर्याप्त द्वीन्द्रियों के प्रोदारिक शरीर की अवगाहना भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार [1507-1 सू. में] (द्वीन्द्रियों के) औधिक (औदारिकशरीर) की (कही है / ) अर्थात् जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है।) Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोसवां अवगाहनासंस्थानपद] [431 1508. एवं तेइंदियाणं तिष्णि गाउयाई / चरि दियाणं चत्तारि गाउयाई। [1508 | इसी प्रकार (औधिक और पर्याप्तक) त्रीन्द्रियों (के औदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) तीन गव्यूति (गाऊ) की है तथा (औधिक और पर्याप्तक) चतुरिन्द्रियों (के औदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) चार गव्यूति (गाउ) की है। 1509. पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं 3, एवं सम्मुच्छिमाणं 3, गम्भवक्कंतियाण वि 3 / एवं चेव णवओ भेदो भाणियन्वो। 1506 | पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के (1) प्रौधिक औदारिक शरीर की, उनके (2) पर्याप्तों के मौदारिक शरीर की तथा उनके (3) अपर्याप्नों के औदारिक शरीर) की उत्कृष्ट अ योजन की है / ) तथा सम्मूच्छिम (पंचेन्द्रिय -तिर्यञ्चों के प्रौघिक और पर्याप्तक) औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना इसी प्रकार (एक हजार योजन) की (समझनी चाहिए किन्तु सम्मूच्छिम अपर्याप्तक तिर्यञ्च पचेन्द्रिय के औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है।) गर्भज पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों तथा उनके पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना भी इसी प्रकार समझनी चाहिए, किन्तु इनके अपर्याप्तकों की पूर्ववत् अवगाहना होती है। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की औदारिक शरीरावगाहना सम्बन्धी कुल : भेद (पालापक) होते हैं। 1510. एवं जलयराण वि जोयणसहस्सं, णवओ भेदो। [1510] इसी प्रकार प्रौघिक और पर्याप्तक जलचरों के औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन की (पं. ति. की औ. शरीरावगाहना के समान) होती है / (अपर्याप्त जलचरों की औ. शरीरावगाहना जघन्य और उत्कृष्ट पूर्ववत् जाननी चाहिए / ) इसी प्रकार पूर्ववत् इसकी औदारिक शरीरावगाहना के 6 भेद (विकल्प) होते हैं। 1511. [1] थलयराण वि णवओ भेदो उक्कोसेणं छग्गाउयाई, पज्जत्ताण दि एवं चेव 3 / सम्मच्छिमाणं पज्जत्ताण य उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं / गब्भवतियाणं उक्कोसेणं छग्गाउयाई पज्जत्ताण य 2 / ओहियचउप्पयपज्जत्तय-गम्भवक्कंतियपज्जत्तयाण य उक्कोसेणं छग्गाउयाई। सम्मुच्छिमाणं पज्जत्ताण य गाउयपुहत्तं उक्कोसेणं। |1511-1] स्थलचर पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों को औदारिक शरीरावगाहना-सम्बन्धी पूर्ववत् / विकल्प होते हैं / (समुच्चय) स्थलचर पं. ति. की प्रौदारिक शरीरावगाहना उत्कृष्टत: छह मव्युति की होती है / सम्मूच्छिम स्थलचर प. तिर्यञ्चों के एवं उनके पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना गन्यूति-पृथक्त्व (दो गाऊ से नौ गाऊ तक) की होती है। उनके अपर्याप्तों की जघन्य और उत्कृष्ट शरीरावगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है / गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों के औदारिक शरीर की अवगाहना उत्कृष्ट छह गव्यूति की और (उनके) पर्याप्तकों (के प्रौदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) भी (इतनी ही होती है / ) औधिक चतुष्पदों के, इनके पर्याप्तकों के तथा गर्भजचतुष्पदों के तथा इनके पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः छह गव्यूति की होती है / (इनके अपर्याप्तकों की अवगाहना पूर्ववत् होती है / ) सम्मूच्छिम Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432] [प्रज्ञापनासूत्र चतुष्पद (स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों) के तथा (उनके) पर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) को (अवगाहना) उत्कृष्ट रूप से गव्यूतिपृथक्त्व की (होती है / ) [2] एवं उरपरिसप्पाण वि ओहिय-गजभवक्कतियपज्जत्तयाणं जोयणसहस्सं / सम्मुच्छिमाणं जोयणपुहत्तं / [1511-2] इसी प्रकार उर:परिसर्प (-स्थलचरपंचेन्द्रिय-तिर्यचों के औधिक, गर्भज तथा (उनके) पर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) एक हजार योजन की होती है / सम्मच्छिम (उर:परिसर्प स्थलचर-पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों के तथा) उनके पर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) की (उत्कृष्ट अवगाहना) योजनपृथक्त्व की (होती है।) इनके अपर्याप्तकों की पूर्ववत् होती है।) [3] भुय परिसप्पाणं ओहियगम्भवक्कंतियाण य उक्कोसेणं गाउयपुहत्तं / सम्मुच्छिमाणं धणुपुहत्तं / [1511-3 | भुजपरिसर्प स्थलचरपंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के प्रौघिक, गर्भज तथा उनके पर्याप्तकों के औदारिक शरीर को अवगाहना उत्कृष्टतः गव्यूति-पृथक्त्व की होती है। सम्मूच्छिम (-भुजपरिसर्प स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के तथा उनके पर्याप्तकों के औदारिक शरीर) की उत्कृष्ट अवगाहना धनष-पृथक्त्व की होती है। (इनके अपर्याप्तकों के औदारिक शरीर की अवगाहना पूर्ववत् समझे।) 1512. खहयराणं ओहिय-गम्भवतियाणं सम्मुच्छिमाण य तिष्ह वि उक्कोसेणं धणुपुहत्तं / इमाओ संगहणिगाहानो--- जोयणसहस्स छग्गाउयाई तत्तो य जोयणसहस्सं / ' गाउयपुहत्त भुयए धणूपुहत्तं च पक्खीसु // 21 // जोयणसहस्स गाउयपुहत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं / दोण्हं तु धणुपुहत्तं सम्मुच्छिमे होति उच्चत्त // 216 / / [1512] खेचर (-पंचेन्द्रिय-तियंञ्चों के प्रौधिकों गर्भजों एवं सम्मूच्छिमों, इन तीनों के औदारिक शरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व की होती है। [गाथार्थ ] - (गर्भज जलचरों को उत्कृष्ट अवगाहना) एक हजार योजन की, चतुष्पदस्थलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना) छह गब्यूति की, तत्पश्चात् (उर:परिसर्प (स्थलचरों की (अवगाहना) एक हजार योजन की (होती है / ) भुजपरिसप (स्थलचरों) की गव्यूतिपृथक्त्व की और खेचर पक्षियों की धनुष-पृथक्त्व की (औदारिकशरोरावगाहना होती है / / 215 / / सम्मूच्छिम (स्थलचरों) की (प्रौदारिकशरीरावगाहना उत्कृष्टतः) एक हजार योजन की, चतुष्पद स्थल चरों की अवगाहना गव्यूति-पृथक्त्व की उर :परिसों की योजनपृथक्त्व की, भुजपरिसो की तथा (यौधिक और पर्याप्तक) इन दोनों एवं सम्मूच्छिम खेचरपक्षियों की धनुषपृथक्त्व की उत्कृष्ट प्रौदारिक शरीरावगाहना (ऊँचाई) समझनी चाहिए / / 216 / / Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] 1513. [1] मणस्सोरालियसरीरस्स गं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिष्णि गाउयाइं। [१५१३-१प्र. भगवन् ! मनुष्यों के प्रौदारिक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तीन गव्यूति की होती है। [2] अपज्जत्ताणं जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1513-2] अपर्याप्तक (मनुष्यों के औदारिक शरीर) की (अवगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यात भाग की (होती है / ) [3] सम्मुच्छिमाणं जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [१५१३-३]सम्मूच्छिम (मनुष्यों के औदारिक शरीर) की जघन्यतः और उत्कृष्टत: (अवगाहना) अंगुल के असंख्यातवें भाग की (होती है।) [4] गम्भवक्कंतियाणं पज्जत्ताण य जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई। [1513-4] गर्भज मनुष्यों के तथा इनके पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की अवगाहना जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः तीन गव्यूति की होती है। विवेचन–सर्वविध औदारिक शरीरों की अवगाहना-सम्बन्धी प्ररूपणा-प्रस्तुत 12 सूत्रों (सू. 1502 से 1513 तक) में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-मनुष्यों तक के सभी प्रकार के औदारिक शरीरों की जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना की प्ररूपणा की गई है / इसे सुगमता से समझने के लिए तालिका दी जा रही हैक्रम प्रौदारिकशरीरधारी जीवों के नाम जघन्य अवगाहना उत्कृष्ट अवगाहना 1. समुच्चय औदारिक शरीर की अंगुल का कुछ अधिक एक हजार योजन असंख्यातवाँ भाग 2. एकेन्द्रिय के औदारिक शरीर की 3. पृथ्वीकायिकों, पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के औदारिक शरीर की अंगुल का असंख्यातवां भाग पृथ्वी कायिकों के सूक्ष्म, बादर के औदारिक शरीर की 4. अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिकों के औदारिक शरीर की 5. वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर की कुछ अधिक हजार योजन वनस्पति अपर्याप्तकों के प्रौदारिक शरीर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग वनस्पति पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की कुछ अधिक हजार योजन 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा-१ पृ. 333 से 335 तक Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र कुछ अधिक हजार योजन अंगुल का असंख्यातवाँ भाग बारह योजन अंगुल का असंख्यातवाँ भाग तीन गव्युति (6 कोस) चार गव्यूति (8 कोस) एक हजार योजन अपर्याप्त का अंगुल का अ. भाग एक हजार योजन, अप. की अं.अ.भा. छह गव्यूति वनस्पति वादर, पर्याप्तकों के पौ. श. की वनस्पति बादर अपर्याप्तकों के प्रो. श. को वनस्पति सूक्ष्म, पर्याप्तक, अपर्याप्तकों के यौदारिक शरीर को 6. द्वीन्द्रियों के औदारिक शरीर की द्वीन्द्रियों के पर्याप्तकों के औ. शरीर की द्वीन्द्रियों के अपर्याप्तकों के प्रो. शरीर की 7. त्रीन्द्रियों के अपर्याप्तकों के प्रो. शरीर की वीन्द्रियों के यौधिक एवं पर्याप्तकों के प्रो. शरीर की 8. चतुरिन्द्रियों के प्रौघिक एवं पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की 6. पचेन्द्रियतियंञ्चों के प्रौदारिक शरीर की 3. प्रौधिक पर्याप्त अपर्याप्त के औ. श. की 3. सम्मूच्छि पर्याप्त अपर्याप्त के प्रो.श. की 3. गर्भज पर्याप्त अपर्याप्त के औ. श. की 10. जलचर प. ति. के औदारिक शरीर की जलचर 3. औधिक पर्याप्तक अपर्याप्तक के औदारिक शरीर की। जलचर 3, सम्मूच्छिम पर्याप्तक अपर्याप्तक के औदारिक शरीर की जलचर 3. गर्भज पर्याप्तक अपर्याप्तक के औदारिक शरीर को 11. स्थलचर प. ति. के प्रोधिक के ग्रौ. श. की स्थलचर चतुष्पद प.ति. के, पर्याप्तक, गर्भज, पर्याप्तक के औदारिक शरीर की / स्थलचर चतुष्पद सम्मूच्छिम प. ति. के, पर्याप्त के प्रौदारिक शरीर की स्थलचर उरःपरिसर्प प. ति. के औधिक, गर्भज, पर्याप्तक के औदारिक शरीर की भुजपरिसर्प प. ति. के औधिक, गर्भज, सम्मूच्छिम के औदारिक शरीर की 12. खेचर प. ति. के औधिक, गर्भज, सम्मूच्छिम के औदारिक शरीर की 13. मनुष्यों के प्रोधिक, पर्याप्तक के औ. श. की मनुष्यों के अपर्याप्तकों व सम्मूच्छिमों के औदारिक शरीर की छह गव्यूति अपर्याप्तक की पूर्ववत् गव्यूति पृथक्त्व, अपर्याप्तक की पूर्ववत् छह गव्युति गव्यूति पृथक्त्व योजन पृथक्त्व धनुष्य पृथक्त्व , तीन गन्यूति अंगुल का असंख्यातवाँ भाग Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [435 मनुष्यों के गर्भजों तथा पर्याप्तकों के औदारिक शरीर की , तीन गव्यूति' समुच्चय औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना--कुछ अधिक हजार योजन की कही गई है, वह समुद्र गोतीर्थ आदि में पद्मनाल आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए / यहाँ के सिवाय अन्यत्र इतनी अवगाहना वाला प्रौदारिक शरीर सम्भव नहीं है / नौ-नौ सूत्रों का समूह-- पृथ्वोकायिकादि एकेन्द्रियों के प्रत्येक के नौ-नौ सूत्र इस प्रकार हैं(१-३) औधिक सूत्र, औधिक अपर्याप्तसूत्र, प्रौधिक पर्याप्तसूत्र; (4-6) सूक्ष्मसूत्र, सूक्ष्मअपर्याप्तक सूत्र और सूक्ष्म पर्याप्तक सूत्र; तथा (7-6) बादर सूत्र, वादर-अपर्याप्तकसूत्र और वादर पर्याप्तकसूत्र; ये तीनों के त्रिक मिला कर पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिकों के प्रकार के 8-6 सूत्र हुए। इसी तरह द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रयों के प्रत्येक के औधिक सूत्र, पर्याप्तसूत्र, और अपर्याप्त सूत्र; यों तीन-तीन सूत्र होते हैं / जलचरों से औधिक, उसका पर्याप्तक और अपर्याप्तक ये तीन सूत्र, गर्भज, उसके पर्याप्तक और पर्याप्तक ये तीन सूत्र, इस प्रकार तीनों त्रिक मिला कर जलचरों के 6 सूत्र होते हैं। इसी प्रकार स्थलचर, चतुष्पद, उरःपरिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचरपंचेन्द्रिय तियंञ्चों के प्रत्येक के औधिकत्रिक, गर्भजत्रिक एवं सम्मच्छिमत्रिक के हिसाब से 6-6 सूत्र होते हैं। मनुष्यों के औदारिक शरीर को उत्कृष्ट अवगाहना–तीन गव्यूति (6 कोस) की कही गई हैं, वह देवकुरु अादि के मनुष्यों की अपेक्षा से इतनी उत्कृष्ट अवगाहना समझनी चाहिए। वैक्रिय शरीर में विधिद्वार 1514. वेउव्वियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिदियवेउब्वियसरीरे य पंचेंदियवेउब्वियसरीरे य / [1514 प्र] भगवन् ! वैक्रिय शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार एकेन्द्रिय वैक्रियशरीर और पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीर / 1515. [1] जदि एगिदियवेउव्वियसरीरे कि वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे अवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे, णो अवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे / [1515-1 प्र.] (भगवन् ! ) यदि एकेन्द्रिय जीवों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है या अवायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! वायुकायिक एकेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अवायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर नहीं होता। _[2] जवि वाउपकाइयएगिदियवेउब्धियसरीरे किं सुहुमवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे बादरबाउक्काइयगिदियवेउब्बियसरीरे ? 1. पण्णवणाशेतं (मूलपाठ-टिप्पण) भाग-१ पृ. 333 से 335 तक 2. प्रज्ञापना., मलयवृति, पत्र 413 3. प्रज्ञापना., मलयवृत्ति, पत्र 413-814 4. वही, मलयवृत्ति, पत्र 414 Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! णो सुहुमवाउक्काइयगिदियवेउब्धियसरीरे, बायरवाउक्काइयएगिदियवेउन्वियसरोरे। [1515-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या सूक्ष्मवायुकायिक एकेन्द्रिय के होता है, अथवा बादर-वायुकायिक-एकेन्द्रिय के होता है ? {उ.] गौतम ! सूक्ष्म वायुकायिक एकेन्द्रिय के वैक्रिय शरीर नहीं होता; (किन्तु) बादरवायुकायिक एकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है / [3] जदि बादरवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे कि पज्जत्तबायरवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे अपज्जत्तबायरवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तबादरवाउक्काइयएगिदियवेउब्धियसरीरे णो अपज्जत्तबादरवाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे। [1515-3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि बादर वायुकायिक एकेन्द्रिय के वैक्रिय शरीर होता है तो क्या पर्याप्त-बादर-बायकायिक-एकेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है, अथवा अपर्याप्त-बादर-वायूकायिक-एकेन्द्रिय के होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्त-बादर-वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अपर्याप्तबादर-वायुकायिक एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता। 1516. जदि पंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि रइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे जाव कि देवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे? गोयमा ! जेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि जाव देवपंचेंदियवेउदिवयसरीरे वि / [1516-1 प्र.] (भगवन्! ) यदि पंचेन्द्रियों के बैंक्रियशरीर होता है, तो क्या नारक पंचेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है अथवा यावत् देव पंचेन्द्रिय के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.| गौतम ! नारक-पंचेन्द्रियों के भी क्रियशरीर होता है और यावत् देवपंचेन्द्रियों के भी वैक्रिय रीर होता है / 1517. [1] जदि रइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि रयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवे उब्वियसरीरे जाव कि अहेसत्तमापुढविणेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयपंचेंदियवेउन्वियसरीरे वि। [1517-1 प्र.] (भगवन् ! ) यदि नारक-पंचेन्द्रियों के वैक्रयशरीर होता है, तो क्या रत्नप्रभा-पृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नारकपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरोर होता है ? [उ.| गौतम ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है और यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है / Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [437 [2] जदि रयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि पज्जतगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे अपज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवे उम्बियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउब्धियसरीरे वि अपज्जतगरयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि। / [1517-2 प्र. (भगवन् ! ) यदि रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या पर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा अपर्याप्तक-रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकपंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता हैं और अपर्याप्तकरत्नप्रभा-पृथ्वी के नै रयिक पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है। [3] एवं जाव अहेसत्तमाए दुगतो भेदो भाणियव्यो / [1517-3] इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिक पंचेन्द्रियों से लेकर यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक-पंचेन्द्रियों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक दोनों भेदों में वैक्रियशरीर होने का कथन करना चाहिए। 1518. [1] जदि तिरिक्खजोणियपंचेंदियवे उब्धियसरीरे कि सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरोरे गम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेवियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! णो सम्मुच्छिमतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे, गम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे। [1518-1 प्र.] (भगवन् ! ) यदि तिर्यञ्चयोनिक पञ्चेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या सम्मूच्छिम-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा गर्भजतिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? __ [उ.] गौतम ! सम्मूच्छिम-तिर्यञ्चयोनिक-पञ्चेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता, (किन्तु) गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है / [2] जदि गम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउध्वियसरीरे किं संखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्धियसरोरे असंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपर्चेदियवेउब्वियसरीरे? गोयमा ! संखेज्जवासाउयगन्भवतियतिरिक्खजोणियपचेंदियवेउब्वियसरीरे, णो असंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे। [1518-2 प्र. (भगवन् ! ) यदि गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैकिपशरोर होता है अथवा असंख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैकिपशरोर होता है, (किन्तु) असंख्यात वर्ष को प्रायु वाले गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता। Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [3] जदि संखेज्जवासाउयगम्भवतियतिरिषखजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे किं पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगम्भवपकंतियतिरिवखजोणियपंचेंदियदेउस्वियसरीरे अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगभवपतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयगन्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउध्वियसरीरे, णो अपज्जत्तगसंखेज्ज वासाउयगन्भवतियतिरिवखजोणियपंचेंदियवेउस्वियसरीरे / [1518-3 प्र. (भगवन् ! ) यदि संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज-तियञ्च-योनिक पंचेन्द्रियों के वैनियशरीर होता है, तो क्या पर्याप्तक-संख्यात-वर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क गर्भज-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, किन्तु अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्च-पञ्चेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता। [4] जदि संखेज्जवासाउयगम्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि जलयरसंखेज्जवासाउयगब्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे थलयरसंखेज्जवासाउयगम्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे खयरसंखेज्जवासाउयगब्भवतियतिरिक्खजोणियपंचे दियवेउव्वियसरीर ? गोयमा! जलयरसंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउध्वियसरीरे वि, थलयरसंखेज्जवासाउयगम्भववतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि, खयरसंखेज्जवासाउयमम्भवक्कतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे वि / [1518-4 प्र. (भगवन् ! ) यदि संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या जलचर-संख्यातवर्षायक-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिकपचेन्द्रियों के वैत्रियशरीर होता है, स्थलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है अथवा खेचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? उ.] गौतम ! जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्च-पंचेन्द्रियों के भी वक्रियशरोर होता थलचर-संख्यातवर्षायूष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है तथा खेचरसंख्यात-वर्षा यष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है। [5] जदि जलयरसंखेज्जवासाउयगन्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि पज्जत्तगजलयरखेज्जवासाउयगन्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउव्वियसरीरे अपज्जत्तगजलयारसंखेज्जवासाउयगन्भवतियतिरिक्ख जोणियपंचेंदियवेउब्धियसरीरे। गोयमा ! पज्जत्तगजलयरसंखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णो अपज्जत्तगजलयरसंखेज्जवासाउयगम्भवक्कंतियतिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरे। [1518-5 प्र.] (भगवन् ! ) यदि जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-लियञ्चयोनिकपचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है तो क्या पर्याप्तक-जलचर-संख्यात वर्षायुष्क गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है अथवा अपर्याप्तक-जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [439 [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-जलचर-संख्यात-वर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के क्रिय शरोर होता है, (किन्तु) अपर्याप्तक-जलचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता। [6] जदि थलयरसंखेज्जवासाउयगम्भवतियतिरिक्खजोणियपंचेंदिय जाव सरीरे कि चउप्पय जाव सरीरे परिसप्प जाव सरीरे ? गोयमा ! चउप्पय जाव सरीरे वि परिसप्प जाव सरीरे वि / 1518.6 प्र.] (भगवन् !) यदि स्थलचर-संख्यात-वर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यञ्चयोनिकपंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है ? तो क्या पर्याप्तकस्थलचर या अपर्याप्तकस्थलचर... तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के. होता है ? अथवा चतष्पदस्थलचर..... तिर्यञ्चपचेन्द्रियों के होता है या फिर उर.. परिसर्प पर्याप्तक अथवा भुजपरिसर्प-पर्याप्तकस्थलचर....... / यावत् तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों के भी वैक्रिय शरीर होता है ? उ.। गौतम ! (पर्याप्तक) चतुष्पद-(स्थलचर"...."तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों) के भी (वैक्रिय)शरीर (होता है, यावत् परिसर्प(उरःपरिसर्प एवं भुजपरिसर्प ....."तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों) के भी (बैंक्रिय) शरीर (होता है / ) [7] एवं सन्वेसि णेयं जाव खहयराणं पज्जताणं, जो अपज्जत्ताणं / {1518/7] इसी प्रकार खेचर-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-तिर्यवयोनिक-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर जान लेना चाहिए, (विशेष यह है कि) खेचर पर्याप्तकों के (वैक्रियशरीर होता है,) अपर्याप्तकों के नहीं। 1519. [1] जदि मणूसपंचेंदिययेउब्वियसरीरे कि सम्मुच्छिममणूसपंचेंदियवेउब्धियसरीरे गब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे? गोयमा ! णो सम्मुच्छिममणूसपंचेंदियवेउब्वियसरोरे, गमवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे। [1516/1 प्र.] (भगवन् ! ) यदि मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या सम्मूच्छिममनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अथवा गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! सम्मूच्छिम-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरोर नहीं होता, (किन्तु) गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है / _[2] जदि गम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि कम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेदियवेउव्वियसरीरे अकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमभूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे अंतरदीवयगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? ___ गोयमा ! कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे, णो अकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरोरे नो अंतरदोक्यगन्भवतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे य / Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 440] [प्रज्ञापनासूत्र [1516/2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है तो क्या कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अकर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अथवा अन्तरद्वीपज-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, (किन्तु) न तो अकर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, और न ही अन्तरद्वीपज-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है / [3] जदि कम्मभूमगगब्भवतियमणसपंचेंदियवेउध्वियसरीरे कि संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगभववतियमणूसपंचेंदियवेडब्वियसरीरे असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवतियमणूसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? गोयमा ! संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे, णो असंखेज्ज. वासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे। [15.19/3 प्र. (भगवन् !) यदि कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या संख्येय-वर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, अथवा असंख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, किन्तु असंख्येय-वर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता। [4] जदि संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउम्वियसरीरे कि पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउय कम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणसपंचेंदियवेउव्वियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कतियमणूसपंचेंदियवेउब्धियसरीरे, णो अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियबेउश्वियसरीरे। [1519/4 प्र. (भगवन् ! ) यदि संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) अपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (किन्तु) अपर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्य-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर नहीं होता। 1520. [1] जदि देवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे किं भवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे जाव वेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा! भवणवासिदेवपंचेंदियवेउवियसरीरे विजाव वेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि। Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [441 [1520/1 प्र.] (भगवन) यदि देव पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) यावत् वैमानिक देव-पंचेन्द्रियों (तक) के (भी) वैक्रियशरीर होता है ? [उ.] गौतम ! भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है और यावत् वैमानिक देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है / [2] जदि भवणवासिदेवपंचेंदियवेउव्वियसरीरे किं असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे जाव थणियकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउदिवयसरीरे ? गोयमा ! असुरकुमार० जाव थणियकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि। [1520/2 प्र. (भगवन् !) यदि भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, तो क्या असुरकुमार-भवनवासीदेवपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) यावत् स्तनितकुमारभवनवासी-देवपंचेन्द्रियों (तक) के (भी) वैक्रियशरीर होता है ? उ] गौतम ! असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रिय शरीर होता है (और) यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों (तक) के भी वैक्रिय शरीर होता है / [3] जदि असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे कि पज्जत्तगअसुरकुमारभवण. वासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे अपज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे ? गोयमा ! पज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि अपज्जत्तगअसुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियबेउब्वियसरीरे वि। एवं जाव थणियकुमारे वि णं दुगओ भेदो / [1520-3 प्र.) (भगवन् ! ) यदि असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है, तो क्या पर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचन्द्रियों के वैक्रियशरीर होता है, (अथवा) अपर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों के वैक्रिय शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रियशरीर होता है और अपर्याप्तक-असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों के भी वैक्रिय शरीर होता है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार (भवनवासी-देव-पंचेन्द्रियों तक) के दोनों (पर्याप्तकअपर्याप्तक) भेदों के (वैक्रियशरीर जानना चाहिए / ) [4] एवं वाणमंतराणं अढविहाणं, जोइसियाणं पंचविहाणं / [1520-4] इसी तरह आठ प्रकार के वानव्यन्तर-देवों के (तथा) पांच प्रकार के ज्योतिष्क-देवों के (वैक्रिय शरीर होता है / ) [5] वेमाणिया दुविहा-कप्पोवगा कप्पातोता य / कप्योवगा बारसविहा, तेसि पि एवं चेव दुगतो भेदो / कप्पातीता दुविहा-गेवेज्जगा य अणुत्तरा य / गेवेज्जगा णवविहा, अणुत्तरोववाइया पंचविहा, एतेसि पज्जत्तापज्जत्ताभिलावणं दुगतो भेदो। [1520-5] वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत / कल्पोपपन्न Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442] [प्रज्ञापनासूत्र बारह प्रकार के हैं / उनके भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, यों) दो-दो भेद होते हैं। उन सभी के वैक्रिय शरीर होता है / ) कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-- वेयकवासी और अनुत्तरौ पातिक / वेयक देव नौ प्रकार के होते हैं, और अनुत्तरौपपातिक पांच प्रकार के / इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक के अभिलाप से दो-दो भेद (कहने चाहिए)। इन सबके वैक्रिय शरीर होता है / ) विवेचन-वैक्रियशरीर के भेद-प्रभेद-प्रस्तुत सात सूत्रों (1514 से 1520 तक) में वैक्रिय शरीर के विधिद्वार के सन्दर्भ में उसके एकेन्द्रियगत और पंचेन्द्रियगत सभी भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ-वक्रियशरीर के सभी भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा का फलितार्थ यह है कि एकेन्द्रियों में केवल पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर होता है। पंचेन्द्रियों में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में-संख्यातवर्षायुष्क गर्भजपर्याप्तकों के वैक्रिय शरीर होता है; जबकि मनुष्यों में-पंचेन्द्रिय गर्भज कर्मभूमिक संख्यातवर्षायुष्क, पर्याप्तक मनुष्यों के वैक्रिय शरीर होता है / देवों में सभी प्रकार के पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों भवन पतियों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के वैक्रिय शरीर होता है। नारकों में-सातों ही नरकपृथ्वियों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक सभी नारकों के वैक्रिय शरीर होता है।' निष्कर्ष यह है, वायुकायिकों में, पर्याप्तक-अपर्याप्तक-सूक्ष्म और अपर्याप्तक बादर वायुकायिकों में वैक्रियलब्धि नहीं होती। पंचेन्द्रियों में जलचर, स्थलचर चतुष्पद, उर:परिसर्प, भजपरिसर्प और खेचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों को, तथा मनुष्यों में गर्भज, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क मनुष्यों को छोड़कर शेष मनुष्यों में वैक्रियलब्धि सम्भव नहीं है / वाणमंतराणं अविहाणं-वानव्यन्तर देव 8 प्रकार के हैं-(१) यक्ष, (2) राक्षस, (3) किन्नर, (4) किम्पुरुष, (5) भूत, (6) पिशाच, (7) गन्धर्व और (8) महोरग / जोइसियाणं पंचविहाणं-ज्योतिष्क देव 5 प्रकार के हैं-(१) चन्द्र, (2) सूर्य, (3) ग्रह, (4) नक्षत्र और (5) तारा / गेवेज्जगा गवविहा-वेयक देव नौ प्रकार के हैं। यथा--(उपरितनत्रिक के, (4) मध्यमत्रिक के और (3) अधस्तनत्रिक के / अणुत्तरोववाइया पंचविहा-अनुत्तरौपपातिक देव 5 प्रकार के हैं-(१) विजय, (2) वैजयन्त, (3) जयन्त, (4) अपराजित और (5) सर्वार्थ सिद्ध विमानवासी। कप्पोवगा बारसविहा-कल्पोपपन्न वैमानिक देव बारह प्रकार के हैं। यथा ---सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, पारण और अच्युत देवलोकों के / 1. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 416 3. (क) प्रज्ञापना-प्रमेयबोधिनीटीका, भा. 4, पृ. 389-390 (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4, सू. 11, 12, 13, 20 Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [443 वैक्रियशरीर में संस्थान-द्वार 1521. वेउव्वियसरीरे णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! जाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / / [1521 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है। 1522. वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! पडागासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1522 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक-एकेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस प्रकार के संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) पताका के आकार का कहा गया है। 1523. [1] रइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! रइयपंचेंदियवेउव्वियरीरे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-भवधारणिज्जे य उत्तरवेउव्यिए य / तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से हंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से उत्तरबेउब्विए से वि हुंडसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1523-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिक-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! नैरयिक-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय शरीर दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें से जो भवधारणीय वैक्रिय शरीर है, उसका संस्थान हुंडक है, तथा जो उत्तरवैक्रियसंस्थान है, वह भी हुंडक संस्थान वाला होता है। [2] रयणप्पभापुढविणेरइयपंचेंदियवेउवियरीरे णं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! रयणप्पभापुढविणेरइयाणं दुविहे सरीरे पण्णत्ते / तं जहा-भवधारणिज्जे य उत्तरवेउविए य। तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से वि हुंडे, जे वि उत्तरवेउविवए से वि हुंडे / एवं जाव अहेसत्तमापुढविणेरइयवेउव्वियसरीरे। [1523-2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नारक-पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकपंचेन्द्रियों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय / उनमें से जो भवधारणीय वैक्रिय शरीर है, वह हुंडक संस्थान वाला है और उत्तरवैक्रिय भी हुंडक संस्थान वाला होता है। इसी प्रकार (शर्कराप्रभा पृथ्वी से लेकर) यावत् अधःसप्तम पृथ्वी के नारकों (तक के ये दोनों प्रकार के वैक्रियशरीर हुंडक संस्थान वाले होते हैं / ) रिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीरेणं भंते ! किसंठाणसंठिए पण्णत्ते? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444] [प्रज्ञापनासूत्र (1524-1 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) अनेक संस्थानों वाला कहा गया है / [2] एवं जलयर-थलयर-खहयराण वि। थलयराण चउप्पय-परिसप्पाण वि। परिसप्पाण उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पाण वि। [1524-2] इसी प्रकार (समुच्चय तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की तरह) जलचर, स्थलचर और खेचरों (के वैक्रिय शरीरों) का संस्थान भी (नाना प्रकार का कहा गया है / ) तथा स्थलचरों में चतुष्पद और परिसॉं का और परिमों में उर:परिसर्प और भुजपरिसर्पो के (वैक्रियशरीर) का (संस्थान भी नाना प्रकार का समझना चाहिए।) 1525. एवं मणसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि। [1525] इसी (तियंञ्चपंचेन्द्रियों की) तरह मनुष्य पंचेन्द्रियों का (वैक्रियशरीर) भी (नाना संस्थानों वाला कहा गया है।) 1526. [1] असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णते। तं जहा-भवधारणिज्जे य उत्तरकेउविए य / तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से उत्तरवेउन्धिए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [1526-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया है ? –भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें से जो भवधारणीय शरीर है, वह समचतुरस्र-संस्थान वाला होता है, तथा जो उत्तर वैक्रियशरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है। [2] एवं जाव थणियकुमारदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे / [1526-2] इसी प्रकार (असुरकुमार देवों की भांति) नागकुमार से लेकर यावत् स्तनितकुमार-पर्यन्त के भी वैक्रिय शरीरों का संस्थान समझ लेना चाहिए। [3] एवं वाणमंतराण वि / गवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति / [1526-3] इसी प्रकार वानव्यन्तर देवों के वैक्रिय शरीर का संस्थान भी असुरकुमारादि को भांति भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा से क्रमशः समचतुरस्र तथा नाना संस्थान वाला कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ प्रश्न (इनके भेद-प्रभेदों के विषय में न होकर) औधिक(सम्मुच्च) वानव्यन्तरदेवों (के वैक्रियशरीर के संस्थान के सम्बन्ध में होना चाहिए। [4] एवं जोइसियाण वि ओहियाणं / [1526-4] इसी प्रकार (वानव्यन्तरों की तरह) प्रौधिक (समुच्चय) ज्योतिष्क देवों के वैक्रियशरोर (भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय) के संस्थान के सम्बन्ध में समझना चाहिए / Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [445 [5] एवं सोहम्म जाव अच्चुयदेवसरीरे। 11526-5] इसी प्रकार सौधर्म से लेकर यावत् अच्युत कल्प के (कल्पोपपन्न वैमानिकों के भवधारणीय और उत्तर वैक्रियशरीर के संस्थानों का कथन करना चाहिए।) [6] गेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरोरे णं भंते ! किसंठिए पण्णते ? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरोरए, से णं समच उरंससंठाणसंठिए पण्णते / [1526-6 प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयककल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? उ.] गौतम ! ग्रेवेयक देवों के एकमात्र भवधारणीय (वैक्रिय) शरीर ही होता है और वह समचतुरस्र संस्थान वाला होता है। [7] एवं अणुत्तरोववातियाण वि। [1526-7] इसी प्रकार पांच अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देवों के भो (भवधारणोय वैक्रियशरीर ही होता है और वह समचतुरस्त्रसंस्थान वाला होता / ) विवेचन-वैक्रियशरीरों के संस्थान का निरूपण-प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 1521 से 1526 तक) में समस्त प्रकार के वैक्रियशरीर-धारो जीवों को लक्ष्य में लेकर तदनुसार उनके संस्थानों का निरूपण किया गया है।' वैक्रियशरीर के प्रकार एवं तत्सम्बन्धी संस्थान-विचार-समुच्चय वैक्रियशरीर, वायुकायिक वैक्रियशरीर तथा समस्त तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रियों और मनुष्यों के वैक्रियशरीर के सिवाय समस्त नारकों और समस्त देवों के वैक्रियशरीर के संस्थान की चर्चा करते समय भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीरों को लक्ष्य में लेकर उनके संस्थानों का विचार किया गया है। भवधारणीय वैक्रियशरीर वह है, जो जन्म से ही प्राप्त होता है और उत्तरवैक्रियशरीर स्वेच्छानुसार नाना प्राकृति का निर्मित किया जाता है / नैयिकों के अत्यन्त क्लिष्ट कर्मोदयवश, भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, दोनों शरीर हुण्डकसंस्थान वाले ही होते हैं। उनका भवधारणीय शरीर भवस्वभाव से हो, ऐसे पक्षो के समान बीभत्स हुण्डकसंस्थान वाला होता है, जिसके सारे पंख तथा गर्दन आदि के रोम उखाड़ दिये गए हों। यद्यपि नारकों को नाना शुभ-प्राकृति बनाने के लिए उत्तरवैक्रियशरीर मिलता है तथापि अत्यन्त अशुभतर नामकर्म के उदय से उसका भी प्राकार हुण्डकसंस्थान जैसा होता है। अतएव वे शुभ आकार बनाने का विचार करते हैं, किन्तु अत्यन्त अशुभनामकर्मोदयवश हो जाता है—अत्यन्त अशभतर / तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनष्यों को जन्म से वैक्रियशरीर नहीं मिलता, तपस्या ग्रादि जनित लब्धि के प्रभाव से मिलता है। वह नानासंस्थानों वाला होता है / दश प्रकार के भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पोपपन्नवैमानिक देवों का प्रत्येक का भवधारणीय शरीर भवस्वभाव से तथाविध शुभनामकर्मोदयवश समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है। इच्छानुसार प्रवृत्ति करने के 1. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट-प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 2. वही, भा. 2, पृ. 118 Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446] [प्रज्ञापनामूत्र कारण इनका उत्तरवैक्रियशरीर नाना संस्थान वाला होता है। उसका कोई एक नियत प्राकार नहीं होता। नौ प्रैवेयक के देवों तथा पांच अनुत्तर विमानवासी देवों को उत्तरवैक्रियशरीर का कोई प्रयोजन न होने से वे उत्तरवैक्रियशरीर का निर्माण ही नहीं करते, क्योंकि उनमें परिचारणा या गमनागमन आदि नहीं होते। अत: उन कल्पातीत वैमानिक देवों में केवल भवधारणीय शरीर ही पाया जाता है और उसका संस्थान समचतुरस्र ही होता है / ' वैक्रियशरीर में प्रमाणद्वार 1527. वेउब्धियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसतसहस्सं / [1527 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: कुछ अधिक (सातिरेक) एक लाख योजन की कही गई है / 1528. वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरस्सणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहण्णण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1528 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर को अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की (कही गई है।) 1529. [1] जेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / ! तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य / तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं धणुसहस्सं / [1526-1 प्र.] भगवन् ! नै रयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। यथा--भवधारणीया और उत्तरवैक्रिय। अवगाहना / उनमें से जो उनकी भवधारणीया अवगाहना है, वह जघन्यतः अंगुल के असंख्यात भाग की है, और उत्कृष्टत: पाँच-सौ धनुष की है। (तथा) उत्तरवैक्रिया अवगाहना जघन्यत: अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः एक हजार धनुष की है। [2] रयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेग्विया य / 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 416-417 (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयवोधिनीटीका भा. 4, पृ. 697, 703 Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहनासंस्थानपद] [447 तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं सत्त धणूई तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई / तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइज्जाओ रयणीओ। 1526-2 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी के नारकों की शरीरावगाहना कितनी कही [उ.] गौतम ! (वह अवगाहना) दो प्रकार की कही गई है, यथा-भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया। उनमें से भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग है, और उत्कृष्टतः सात धनुष, तीन रत्नि (मुंड हाथ) और छह अंगुल की है। उनकी उत्तरवैक्रिया अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्टत: पन्द्रह धनुष, ढाई रत्नि (मुंड हाथ) को है। [3] सक्करप्पभाए पुच्छा। गोयमा ! जाव तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पण्णरस धणूई अड्डाइज्जाप्रो रयणीओ। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्बिया सा जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं एक्कतीसं धणूई एक्का य रयणी। [1526-3 प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा शर्कराप्रभा के नारकों को शरीरावगाहना के विषय में करनी चाहिए। [उ.] गौतम ! यावत् (दो प्रकार की अवगाहना कही है, उनमें से) भवधारणोया (अवगाहना) जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्टतः पन्द्रह धनुष, ढाई रत्नि की है। (तथा) उत्तर वैक्रिया (अवगाहना) जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग है, (और) उत्कृष्टतः इकतीस धनुष एक रत्लि की है। [4] वालुयप्पभाए भवधारणिज्जा एक्कतोसं धणूई एक्का य रयणी, उतरवेउ विया बावट्टि धणूइं दोण्णि य रयणीयो। [1529-4 प्र.] बालुकाप्रभा (पृथ्वी के नारकों) को भवधारणीया (अवगाहना) इकतोस धनुष एक रत्नि की है, (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) बासठ धनुष दो हाथ, की है। [5] पंकप्पभाए भवधारणिज्जा बावट्टि धणूई दोणि य रयणोओ, उत्तरवेउब्विया पणुवीस धणुसतं। [1526-5] पंकप्रभा (-पृथ्वी के नारकों) को भवधारणोया (अवगाहना) बासठ धनुष दो हाथ की है, (और) उत्तरक्रिया (अवगाहना) एक सौ पच्चीस धनुष को है। [6] धूमप्पभाए भवधारणिज्जा पणुवीसं धणुसतं, उत्तरवेउन्विया अड्डाइज्जाई धणुसताई। [1526-6] धूमप्रभा (-पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना) एक-सौ पच्चीस धनुष की है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) अढ़ाई-सौ धनुष की है। [7] तमाए भवधारणिज्जा अड्डाइज्जाई धणुसताई, उत्तरवेउव्यिया पंच धणुसताई। [1526-7] तमः (प्रभापृथ्वी के नारकों) की भवधारणोया (अवगाहना) अढाई सौ धनुष की है, (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) पांच सौ धनुष की है। Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [प्रज्ञापनासूत्र [8] अहेसत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसताई, उत्तरवेउब्विया धणुसहस्सं / एवं उक्कोसेणं / [1526-8] अधःसप्तम (-पृथ्वी के नारकों) की भवधारणीया (अवगाहना) पांच-सौ धनुष की (और) उत्तरवैत्रिया (अवगाहना) एक हजार धनुष की है / यह (समस्त नरक पृथ्वियों के नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीर की) उत्कृष्ट (अवगाहना कही गई है। _ [9] जहण्णणं भवधारणिज्जा अगुलस्स असंखेज्जइभाग, उत्तरवेउब्विया अंगुलस्स संखेज्जइमागं / [1526-6] (इन सबकी) जघन्यत: भवधारणीया (अवगाहना) अंगुल के असंख्यातवें भाग . है (और) उत्तरवैक्रिया (अवगाहना) अंगुल के संख्यातवें भाग है / 1530. तिरिक्खजोणियपंचेंदियवेउब्वियसरीस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाणा पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयणसतपुहत्तं / [1530 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? {उ.] गौतम ! जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग है (और) उत्कृष्टतः शतयोजन-पृथक्त्व की होती है। 1531. मणसपंचेंदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसतसहस्सं / [1531 प्र.] भगवन् ! मनुष्य-पचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ. गौतम ! (वह) जघन्यत: अंगुल के संख्यातवें भाग (और) उत्कृष्टतः कुछ अधिक एक लाख योजन की है। 1532. [1] असुरकुमारभवणवासिदेवपं. दियवेउब्धियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? ___ गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहा सरोरोगाहणा पण्णत्ता। तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउब्विया य। तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सत्त रयणीओ। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउन्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं जोयणसतसहस्सं / [1532-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासी-देवपंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! असुरकुमारदेवों की दो प्रकार की शरीरावगाहना कही गई है / यथाभवधारणीया और उत्तरवैक्रिया। उनमें से भवधारणीया (शरीरावगाहना जघन्यत: अंगुल के Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद]] [449 असंख्यातवें भाग (प्रमाण) है, (और) उत्कृष्टतः सात हाथ की है / (तथा) (उनकी) उत्तरवं क्रिया अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग-(प्रमाण) है (और) उत्कृष्टतः एक लाख योजन की है / [2] एवं जाव थणियकुमाराणं / [1532-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों की शरीरावगाहना के समान) (नागकुमार देवों से लेकर) यावत् स्तनित-कुमार देवों (तक) की (भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया शरीरावगाहना जघन्यतः और उत्कृष्टतः) (समझ लेनी चाहिए।) [3] एवं ओहियाणं वाणमंतराणं / [1532-3] इसी प्रकार (पूर्ववत्) औधिक (समुच्चय) वानव्यन्तर देवों की (उभयरूपा जघन्य-उत्कृष्ट शरीरावगाहना समझ लेनी चाहिए / ) [4[ एवं जोइसियाण वि। |1532-4] इसी तरह ज्योतिष्क दवों की (उभयरूपा जघन्य-उत्कृष्ट शरीरावगाहना) भो (जान लेनी चाहिए।) [5] सोहम्मोसाणगदेवाणं एवं चेव उत्तरवेउब्धिया जाव अच्चुओ कप्पो / णवरं सणंकुमारे भवधारणिज्जा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ रयणोओ, एवं माहिदे वि, बंभलोयलंतगेसु पंच रयणीयो, महासुक्क-सहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ, आणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु तिपिण रयणीओ। [1532-5] सौधर्म और ईशानकल्प के देवों की यावत् अच्युतकल्प के देवों तक की भवधारणीया शरीरावगाहना भी इन्हीं के समान समझनी चाहिए, उत्तरवैक्रिया शरीरावगाहना भी पूर्ववत् समझनी चाहिए / विशेषता यह है कि सनत्कुमार कल्प के देवों की भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग (-प्रमाण) है और उत्कृष्ट छह हाथ की है. इतनी ही माहेन्द्र कल्प के देवों की शरीरावगाहना होती है। ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देवों की शरीरावगाहना पांच हाथ की (तथा) महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देवों की शरीरवगाहना चार हाथ की, (एव) ग्रान्त, प्राणत, पारण और अच्युतकल्प के देवों की शरीरावगाहना तीन हाथ की होती है। [6] गेवेज्जगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगा भवधारणिज्जा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, सा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं दो रयणीओ। [1532-6 प्र.] भंते ! वेयक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! | वेयक देवों की एक मात्र भवधारणीया शरीरावगाहना होती है / वह जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग (-प्रमाण) और उत्कृष्टतः दो हाथ की है। Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450] [प्रज्ञापनासूत्र [7] एवं अणुत्तरोववाइयदेवाण वि / णवरं एक्का रयणी। [1532-7] इसी प्रकार अनुत्तरौपपातिक देवों की भी (भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्यतः इतनी ही समझनी चाहिए) विशेष यह है कि (इनकी) उत्कृष्ट: (शरीरावगाहना) एक हाथ की होती है। विवेचन-वैक्रियशरीरी जीवों की शरीरावगाहना-प्रस्तुत छह सूत्रों (सू. 1521 से 1526 तक) में वैक्रिशरीर के प्रमाणद्वार के प्रसंग में वैक्रियशरीरी जीवों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रियशरीरों को लक्ष्य में रख कर उनकी जघन्य-उत्कृष्ट शरीरावगाहना की प्ररूपणा की गई है। विविध वैक्रियशरीरी जीवों की शरीरावगाहना को सुगमता से समझने के लिए तालिका दी जा रही हैक्रम वैक्रियशरीर के प्रकार भवधारणीया शरीरवगाहना ज. उ. उत्तरवैक्रिया शरीरावगा हना ज.उ. 1. प्रौधिक वैक्रिय शरीर जघन्य-अंगुल के असंख्यात भाग, उत्कृष्ट--कुछ अधिक एक लाख योजन 2. वायुकायिक ए. वै. जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातव शरीर भाग। भव. जघन्य--अंगुल के असंख्यातवं भाग, उ. संख्यातवें भाग शरीर 500 धनु. उ. 1000 योजन। 4. रत्नप्रभा के ना. के वै. भव. जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ज. अंगुल के असंख्यातवें शरीर 7 ध. 3 हाथ 6 अं. भाग, 15 धनु. २।।हाथ / प. शर्कराप्रभा के ना. के ज. जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ज. अगूल के संख्यातवें भाग वै. शरीर 15 ध. 2 / / हाथ उ. 31 धनु. 1 हाथ 3. बालकाप्रभा के ना. के ज. जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ज. अंगुल के संख्यातवं भाग वै. शरीर 31. धनु. 1 हाथ भाग उ. 62 धनु. 2 हाथ 7. पंकप्रभा के ना. के वै. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 62 धनु. __ ज. अंगुल के संख्यातवें भाग शरीर 2 हाथ उ. 125 धनुष 8. धमप्रभा के ना. के वै. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 125 धनुष ज. अंगुल के संख्यातवें भाग शरीर उ. 250 धनुष है. तमःप्रभा के ना. के वै. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 250 धनुष ज. अंगुल के संख्यातवें भाग शरीर उ. 500 धनुष 10. अधःसप्तम के ना. के ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 500 धनुष ज. अंगुल के संख्यातवें भाग वै शरीर उ. 1000 धनुष 11. तिर्यञ्च पं. के वैक्रिय जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग-प्रमाण उत्कृष्ट योजनशत-पृथक्त्व शरीर 12. मनुष्य पं. के वैक्रिय , , , , , , उ. कुछ अधिक एक लाख शरीर योजन की की Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्की सवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [451 13. समस्त भवनपति देवों ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 7 की ज. अंगुल के संख्यातवें भाग के वै. शरीर उ. 1 लाख योजन 14. समस्त वानव्यन्तरों के ज. अंगुल के संख्यातवें भाग वै. शरीर उ. 1 लाख योजन 15. समस्त ज्योतिष्कों के वै. शरीर 16. सौधर्म से अच्युतकल्प ज. अंगुल के असंख्यातवे भाग, उ. 7 हाथ की , , , , , , तक के देवों के वै. श. की सनत्कुमार देवों के वै. ज. अंगृल के असंख्यातवें भाग उ. 6 हाथ की , , , , , , श. की माहेन्द्र कल्प के देवों के. ज अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 6 हाथ की , , वै. श. की ब्रह्मलोक लान्तक दे. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 5 हाथ की। के वै. श. महाशुक्र सहस्रार दे. के ज. अंगल के असंख्यातवें भाग, उ. 4 हाथ की , , , वै. श. प्रानत- प्राणत- पारण ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 3 हाथ की , , , , अच्यूत कल्प के दे. के वै. शरीर की 17. नवग्रे वेयकों के वै. श. ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 2 हाथ की की 18. पंच अनुत्तरोपपातिक ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. 1 हाथ की दे. के वै. शरीर की नारकों को अवगाहना के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण-रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों की-जो भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य अगुल के असंख्यातवें भाग की कही है, वह उत्पत्ति के प्रथम समय में होती है,तथा जो उत्कृष्ट अवगाहना 7 धनुष, 3 हाथ 6 अंगुल की बताई है, वह पर्याप्त अवस्था की अपेक्षा से तेरहवें प्रस्तट (पाथड़े) में जाननी चाहिए। इससे पूर्व के प्रस्तटों में क्रमशः थोड़ी-थोड़ी अवगाहना उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है / वह इस प्रकार--रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में उत्कृष्ट अवगाहना तीन हाथ की, दूसरे प्रस्तट में 1 धनुष 1 हाथ, 8 // अंगुल की, तीसरे प्रस्तट में 1 धनुष 3 हाथ 17 अंगुल की, चौथे प्रस्तट में 2 धनुष 2 हाथ, 1 // अंगुल की, पांचवें प्रस्तट में 3 धनुष 10 अंगुल को, छठे प्रस्तट में 3 धनुष, 2 हाथ, 1 / / अंगुल की, सातवें प्रस्तट में 4 धनुष, 1 हाथ 3 अगुल की, आठवें प्रस्तट में 4 धनुष, 3 हाथ 1 / / अंगुल की, नौवें प्रस्तट में 5 धनुष 1 हाथ, 20 अगुल की, दसवें प्रस्तट में 6 धनुष, 4 / / अंगुल की, ग्यारहवें प्रस्तट में 6 धनुष, 2 हाथ, 13 अंगुल की, बारहवें प्रस्तट में 7 धनुष, 21 // अंगुल की, और १३वें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना होती है। 1. पण्णवण्णासेत (मूलपाठ-टिप्पणी) भा. 1 पृ. 247-341 Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452] [प्रज्ञापनासूत्र शर्कराप्रभापृथ्वी के नारकों की जो भवधारणीय उत्कृष्ट शरीरावगाहना 15 धनुष, 21 // हाथ की बताई है, वह ग्यारहवें प्रस्तट की अपेक्षा से समझनी चाहिए। क्रमश: अन्य प्रस्तटों की अवगाहना इस प्रकार है---प्रथम प्रस्तट में 7 धनुष, 3 हाथ, 6 अंगुल की ; दूसरे प्रस्तट में 8 धनुष, 2 हाथ, 6 अंगुल की; तीसरे प्रस्तट में 6 धनुष, 1 हाथ, 12 अंगुल की; चौथे में 10 धनुष, 15 अंगुल की; पांचवें प्रस्तट में 10 धनुष, 3 हाथ, 18 अंगुल की ; छठे प्रस्तट में 11 धनुष, 2 हाथ, 21 अंगुल की; सातव में 12 धनुष, 2 हाथ की; आठवें प्रस्तट में 13 धनुष, 1 हाथ, 3 अंगुल की; नौवें प्रस्तट में 14 धनुष, 6 अंगुल की; दसवें प्रस्तट में 14 धनुप, 3 हाथ और 6 अंगुल को तथा ग्यारहवें प्रस्तट में पूर्वोक्त शरीरावगाहना समझनी चाहिए। बालुकाप्रभापृथ्वी के नारकों की जो भवधारणीय उत्कृष्ट शरीरावगाहना 31 धनुष, 1 हाथ बताई है, वह नौवे प्रस्तट की अपेक्षा से समझनी चाहिए। अन्य प्रस्तटों में अवगाहना इस प्रकार है--प्रथम प्रस्तट में 15 धनुष, 2 हाथ, 12 अंगुल की, दूसरे प्रस्तट में 17 धनुष, 2 हाथ, 7 // अंगुल की; तीसरे प्रस्तट में 14 धनुष, 2 हाथ,३ अंगल को चौथे प्रस्तट में 21 धनष, 1 हाथ 22 // अंगुल की; पांचवें प्रस्तट में 23 धनुष, 1 हाथ, 18 अंगुल को; छठे प्रस्तट में 25 धनुष, 1 हाथ, 133 अंगुल की; सातवें प्रस्तट में 27 धनुष, 1 हाथ, अंगूल की; पाठवें प्रस्तट में 26 धनुष, 1 हाथ, 4 // अंगुल की; और नौवें प्रस्तट में पूर्वोक्त शरीरावगाहना समझनी चाहिए / पंकप्रभा पृथ्वो में उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना 62 धनुष 2 हाथ की बताई गई है, वह सातव प्रस्तट में जाननी चाहिए। अन्य प्रस्तटों में अवगाहना इस प्रकार है-प्रथम प्रस्तट में 31 धनुष, 1 हाथ की; दूसरे प्रस्तट में छत्तीस धनुष 1 हाथ, 20 अंगुल की ; तीसरे प्रस्तट में 41 धनुष, 2 हाथ, 16 अंगुल की; चौथे प्रस्तट में 46 धनुष, 3 हाथ, 12 अंगुल की; पांचवें प्रस्तट में 52 धनुष, 8 अंगुल की : छठे प्रस्तट में 57 धनुष, 1 हाथ, 4 अंगुल की; और सातवें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना होती है / धूमप्रभापृथ्वी में उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना 125 धनुष को बताई है, वह पंचम प्रस्तट की अपेक्षा से समझनी चाहिए। इसके प्रथम प्रस्तट में 62 धनुष 2 हाथ की, दूसरे में 78 धनुष, 1 बितस्ति (बीता), तीसरे में 63 धनुष, 3 हाथ, चौथे प्रस्तट (पाथड़े) में 106 धनुष, 1 हाथ और बिनस्ति, और पांचवें प्रस्तट में पूर्वोक्त अवगाहना समझनी चाहिए। तमःप्रभापृथ्वी के नारकों की उत्कृष्ट भवधारणीय अवगाहना 250 धनुष को है, वह तृतीय पाथड़े की अपेक्षा से है। अन्य पाथड़ों का परिमाण इस प्रकार है-प्रथम पाथड़े में 125 धनुष की, दूसरे पाथड़े में 187 / / धनुष की, और तीसरे पाथड़े की अवगाहना पूर्वोक्त परिमाण वाली है। तमस्तमापृथ्वी के नारकों की उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना 500 धनुष की कही गई है। रत्नप्रभापृथ्वी को उत्तरवैक्रिय-शरीरावगहना उत्कृष्टतः 15 धनुष 18 हाथ की होती है, यह अवगाहना 13 वें पाथड़े में पाई जाती है। अन्य पाथड़ों में पूर्वोक्त भवधरणीय शरीरावगाहना के परिमाण से दुगुनी समझनी चाहिए। शर्कराप्रभापृथ्वी की उत्तरवैक्रियशरीरावगाहना उत्कृष्ट 31 धनुष 1 हाथ की होती है, Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [453 जो 11 वें पाथड़े में पाई जाती है। अन्य पाथड़ों में अपने-अपने भवधारणोय शरीर की अवगाहना से उत्तर वैक्रियशरीर को अवगाहना दुगुनी-दुगुनी होती है। बालुकाप्रभा की उत्तर वैक्रिय शरीरावगाहना उत्कृष्ट 62 धनुष 2 हाथ की होती है, जो उसके नौव पाथडे की अपेक्षा से है। अन्य पाथडों में अपने-अपने भवधारणीय अवगाहना-प्रमाण से दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती है। पंकप्रभा को उत्कृष्ट उत्तर वैक्रियशरीरावगाहना 125 धनुष की है, जो उसके सातवें पाथड़े में पाई जाती है। अन्य पाथड़ों में अपनी-अपनी भवधारणीय शरीरावगाहना से दुगुनी-दुगुनी अवगाहना समझ लेनी चाहिए। धूमप्रभापृथ्वी की उत्कृष्ट उत्तरक्रियशरीरावगाहना 250 धनुष की है, जो उसके पांचवें पाथड़े की अपेक्षा से है। बाकी के पाथड़ों की उत्तरवैक्रियावगाहना, अपनी-अपनी भवधारणीयअवगाहना से दुगुनी-दुगुनी है / तमःप्रभापृथ्वी की उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना 500 धनुष की है, जो उसके तीसरे पाथड़े की अपेक्षा से है / प्रथम और द्वितीय प्रस्तट की उत्तरवैक्रियावगाहना अपनी-अपनी भवधारणीय शरोरावगाहना से दुगुनी-दुगुनी होती है / सातवीं पृथ्वी के नारकों की उत्कृष्ट उत्तरवैक्रियशरीरावगाहना 1000 धनुष को होती स्थिति के अनुसार वैमानिक देवों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना-सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्प में जिन देवों की स्थिति दो सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय अवगाहना पूरे सात हाथ को होती है, जिनकी स्थिति 3 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 6 हाथ तथा एक हाथ के 11. भाग की है / जिनकी स्थिति 4 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 6 हाथ और एक हाथ के 3. भाग की है, जिनकी स्थिति 5 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 6 हाथ और एक हाथ के 2 भाग की है, जिनको स्थिति 6 सागरोपम को है, उनकी अवगाहना 6 हाथ और , भाग की है / जिनकी स्थिति पूरे 7 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना पूरे 6 हाथ की है / ब्रह्मलोक और लान्तककल्प-जिन देवों की स्थिति ब्रह्मलोक कल्प में 7 सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना पूरे 6 हाथ की है, जिनकी स्थिति 8 सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय शरीरावगाहना 5 हाथ एवं 6 हाथ की होती है, जिनकी स्थिति नौ सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 5 हाथ और हाथ की होती है / जिनकी स्थिति 10 सागरोपम की हे, उनकी अवगाहना 5 हाथ और हाथ की होती है / लान्तककल्प में जिनकी स्थिति 10 सागरोपम की है, उनकी उत्कृष्ट अवगाहना 5 हाथ और हाथ की होती है, जिनकी स्थिति 11 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 5 हाथ और३ हाथ की होती है। जिनकी स्थिति 13 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 5 हाथ और हाथ की होती है। तथा जिनकी स्थिति 14 सागरोपम को है, उनकी अवगाहना पूरे 5 हाथ की होती है / 1. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 418 से 420 तक Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र महाशुक्र और सहस्रार में जिन देवों की स्थिति महाशुक्रकल्प में 14 सागरोपम की है उनकी उत्कृष्ट भवधारणीय शरीरावगाहना पूरे 5 हाथ की होती है। जिनकी स्थिति 15 सागरोपम को है, उनकी उ. भ. शरीरावगाहना 4 हाथ और 3 हाथ की होती है। जिनकी स्थिति 16 सागरोपम को है, उनको अवगाहना 4 हाथ और 2, हाथ की होती है। जिनकी स्थिति 17 सागरोपम की है, उनको अवगाहना 4 हाथ और हाथ की होती है। सहस्रारकल्प में भी 17 सागरोपम वाले देवों की उत्कृष्ट भ. अवगाहना इतनी ही होती है। जिनकी स्थिति पूरे 18 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना पूरे 4 हाथ की होती है / प्रानत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्प के देवों को अवगाहना-पानतकल्प में जिनकी स्थिति पूरे 18 सागरोपम की है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना पूरे 4 हाथ की होती है। जिनकी स्थिति 16 सागरोपम की है. उनकी अवगाहना 3 हाथ और 3 हाथ की होती है। प्रागत कल्प में जिनकी स्थिति 20 सागरोपम की है, उनकी अवगाहना 3 हाथ और 2 हाथ की होती है / आरणकल्प में जिन देवों की स्थिति 20 सागरोपम की है उनकी अवगाहना 3 हाथ और 2 भाग की होती है। जिनकी स्थिति 21 सागरोपम की है, उनकी 3 हाथ और हाथ की होती है / अच्युतकल्प में जिनकी स्थिति 21 सागरोपम की है, उनकी भी भ. शरीरावगाहना 3 हाथ हाथ की होती है / जिन देवों की अच्युतकल्प में 22 सागरोपम की स्थिति है, उनकी उत्कृष्ट शरीरावगाहना 3 हाथ की होती है। प्रथम ग्रेवैयक में जिनकी स्थिति उत्कृष्ट 23 सागरोपम की है, उनके अवगाहना 3 हाथ की होती है / जिन देवों की स्थिति 2 हाथ और 5 हाथ को है। द्वितीय ग्रंवेयक में जिनकी स्थिति 23 सागरोपम की है, उनकी उ. अवगाहना 2 हाथ और 8, हाथ की होती है। द्वितीय वेयक में जिनकी स्थिति 24 सागरोपम की है, उनको उ. अवगाहना 2 हाथ हाथ की होती है। तृतीय ग्रेवेयक में जिनकी स्थिति 24 सागरोपम की है, उनकी उत्कृष्ट शरीरावगाहना 2 हाथ और 17, हाथ की होती है। तृतीय ग्रैवेयक में 25 सागरोपम की स्थिति वाले देवों की उ. शरीरावगाहना 2 हाथ 6 हाथ की होती है। चौथे अवेयक में जिन देवों की स्थिति - 5 सागरोपम की है, उनकी भी भ. शरीरावगाहना पूर्ववत् होती है। चौथे ग्रैवेयक में 26 सागरोपम की स्थिति वाले देवों की भ. शरीरावगाहना 2 हाथ व हाथ की होती है। पांचवें अवेयक में जिन देवों की स्थिति 26 सागरोपम की है, उनकी भी उ. शरीरागाहना पूर्ववत् ही है। पांचवें ग्रैवेयक में जिन स्थिति 27 सागरोपम की है, उनकी उ. भ. शरीरावगाहना 2 हाथ और 2 हाथ की होती है। छठे वेयक में जिन देवों की स्थिति 27 सागरोपम की होती है, उ. भव. शरीरावगाहना भी पूर्ववत् होती है। छठे ग्रैवेयक में जिन देवों की स्थिति 28 सागरोपम की है, उनकी उ. भव. शरोरावगाहना 2 हाथ और 3, हाथ की होती है। सातवें वेयक में जिन देवों की स्थिति 28 सागरोपम की है, उनकी भी शरीरावगाहना पूर्ववत् होती है / सातवें अवेयक में भी जिनकी स्थिति 26 सागरोपम होती है, उनकी उ. शरीरावगाहना 2 हाथ और 2, हाथ की होती है / आठवें अवेयक में भी जिनकी स्थिति 26 सागरोपम की है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना पूर्ववत् होती है / पाठवें ग्रेवेयक में जिनकी स्थिति 30 सागरोपम की है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना 2 हाथ व हाथ की होती है / नौवें ग्रेवेयक में जिन देवों की स्थिति 30 सागरोपम की होती है, उनकी भ. उ. शरीरावगाहना भी पूर्ववत् होती है। नौवें अवेयक में जिन देवों की स्थिति 31 सागरोपम की है, उनकी भवधारणीय शरीरावगाहना पूरे 2 हाथ की होती है। Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहनासंस्थानपद] [455 विजयादि चार अनुत्तरविमानवासी जिन देवों की स्थिति 31 सागरोपम की है, उनकी भ. . उ. अवगाहना 2 हाय को होतो है। विजयादि चार अनुत्तरविमानवासी जिन देवों की मध्यम स्थिति 32 सागरोपम की होती है उनकी भ. उ. अवगाहना 1 हाथ और ', हाथ की होती है / तथा सर्वार्थसिद्ध विमान में देवों की स्थिति 33 सागरोपम की होती है, उनकी अवगाहना 1 हाथ को होती है।' 1533. [1] आहारगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते / [1533-1 प्र.] भन्ते ! आहारकशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह एक ही प्रकार का कहा गया है / [2] जदि एगागारे पण्णत्ते कि मणूसआहारयसरोरे अमणूसआहारगसरोरे ? गोयमा ! मणूसआहारगसरीरे, णो अमणूसआहारगसरीरे। [1533-2 प्र.] (भगवन् ! ) यदि पाहारक शरीर एक ही प्रकार का कहा गया है तो वह आहारकशरीर मनुष्य के होता है (अथवा) अमनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! मनुष्य के प्राहारकशरीर होता है, किन्तु (मनुष्येतर) के आहारक शरीर नहीं होता। [3] जदि मणूसआहारगसरोरे कि सम्मुच्छिममणूसाहारगसरोरे गमवक्कंतियमणूस. आहारगसरीरे ? गोयमा ! णो सम्मुच्छिममणूसाहारगसरीरे, गभवक्कंतियमणूसाहारगसरीरे / [1533-3 प्र.] (भगवन् ! ) यदि मनुष्य के प्राहारक शरीर होता है तो क्या सम्मूच्छिमनुष्य के होता है, या गर्भजमनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! सम्मूच्छिम-मनुष्य के आहारक शरीर नहीं होता, (अपितु) गर्भज मनुष्य के ग्राहारक शरीर होता है। [4] जदि गब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे कि कम्मभूमागभवातियमणूसाहारगसरीरे अकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरोरे अंतरदीवगगभवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा! कम्मभूमगगभवतियमगूसाहारगसरोरे, णो अम्मभूमग गम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे णो अंतरदोवगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे / [1533-4 प्र.] (भगवन् ! ) यदि गर्भज मनुष्य के प्राहारक शरीर होता है तो क्या कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य के प्राहारक शरीर होता है, अकर्म-भूमिक गर्भज मनुष्य के होता है, अथवा अन्तर-द्वीपज मनुष्य के होता है ? [1533.4 उ.] गौतम ! कर्म भूमिक-गर्भज-मनुष्य के आहारक शरीर होता है, किन्तु न तो अकर्म-भूमिक-गर्भज मनुष्य के होता है और न अन्तरद्वीप-गर्भज मनुष्य के होता है। . 1. प्रज्ञापना, मलय-वृत्ति, पत्र 421 से 423 तक Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 456] [प्रज्ञापनासूत्र [5] जदि कम्मभूमगमभववतियमणूसआहारगसरीरे कि संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवकंतियमणूसआहारगसरीरे असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे? गोयमा ! संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, णो असंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगभवतियमणूस आहारगसरीरे / [1533-5 प्र. (भगवन् ! ) यदि कर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के प्राहारक शरीर होता है, तो क्या संख्यातवर्षायुष्ककर्मभूमिक गर्भज मनुष्य के होता है या असंख्यात-वर्षायुष्क-कर्म भूमिक-गर्भज मनुष्य के होता है ? [उ.] गौतम ! संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिकगर्भजमनुष्य के प्राहारक शरीर होता है, किन्तु भसंख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य के नहीं होता। [6] जदि संखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणसआहारगसरीरे कि पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपाहारगसरोरे अपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे? गोयमा ! पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगभवक्कंतियमणसमाहारगसरीरे, णो अपज्जतगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे / [1533-6 प्र.] (भगवन् ! ) यदि संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के प्राहारक शरीर होता है, (तो) क्या प्रर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है, (अथवा) अपर्याप्तक-संख्यात-वर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्य के होता है। [उ.] गौतम ! पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के प्राहारक शरीर होता है, किन्तु अपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के नहीं होता। [7] जदि पज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे किं सम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगन्भवतियमणूसआहारगसरीरे मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे सम्मामिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा ! सम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणसमाहारगसरीरे, णो मिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणसआहारगसरीरे णो सम्मामिच्छद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जबासाउयकम्मभूमगगमवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे। [1533-7] (भगवन् !) यदि पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनष्यों के पाहारक शरीर होता है, तो क्या सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के प्राहारक शरीर होता है, मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है, अथवा सम्यग-मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के होता है ? [उ.] गौतम ! सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के आहारक Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां : अवगाहना-संस्थान-पद] [457 शरीर होता है, (किन्तु) न तो मिथ्यादष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-गर्भज-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के होता है और न ही सम्यग्-मिथ्यादृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्म-भूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है। [8] जदि सम्महिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगठभवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे कि संजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे असंजयसम्मद्दिट्टिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसमाहारगसरीरे संजतासंजतसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा ! संजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणसआहारगसरीरे, णो असंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसमाहारगसरीरे णो संजयासंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कैतियमणूसआहारगसरीरे। __ [1533-8 प्र.] (भगवन् ! ) यदि सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्यों के ग्राहारक शरीर होता है, तो क्या संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्यों के होता है, या असंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्यों के होता है, अथवा संयतासंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के होता है ? _ [उ.] गौतम ! संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारक शरीर होता है, (किन्तु) न (तो) असंयत-सम्यग्दष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज-मनुष्यों के होता है, (और) न ही संयतासंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिकगर्भज मनुष्यों के होता है / _ [9] जदि संजतसम्मद्दिष्टुिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे किं पमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे अपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा ! पमत्तसंजयसम्मद्दिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसाहारगसरोरे, णो अपमत्तसंजतसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे / _ [1533-6 प्र.] ( भगवन्! ) यदि संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के प्राहारक शरीर होता है तो क्या प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के होता है, अथवा अप्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्म-भूमिक-गर्भज मनुष्यों के होता है ? [उ.] गौतम! प्रमत्त-संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के ग्राहारक शरीर होता है अप्रमत्त-संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुप्यों के नहीं होता। _ [10] जदि पमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसपाहारगसरोरे किं इड्पित्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगमवक्कंतियमणूस Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458] [प्रज्ञापनासूत्र आहारगसरीरे अणिपित्तपमत्तसंजयसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे ? गोयमा! इडिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिटिपज्जत्तगसंखेज्जवासाउयकम्मभमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे, णो अणिडिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिष्टुिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभमगगम्भवक्कंतियमणूसआहारगसरीरे। [1533-10 प्र.] (भगवन्! ) यदि प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तक, संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक गर्भज मनुष्यों के आहारकशरीर होता है तो क्या ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्त-संयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकसंख्यात-वर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भजमनुष्यों के होता है, अथवा अनुद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत्त-सम्यग्दृष्टिपर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज मनुष्यों के होता है ? [उ.] गौतम! ऋद्धि-प्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग् दृष्टि-पर्याप्तक-संख्यातवर्षायुष्क-कर्मभूमिक-गर्भज-मनुष्यों के आहारकशरीर होता है (किन्तु) अद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्तकगर्भज मनुष्यों के नहीं होता / विवेचन --प्राहारकशरीर का अधिकारी प्रस्तुत सूत्र (सू. 1533) के दस भागों में एकविध आहारकशरीर किसको प्राप्त होता है, किसको नहीं ? इसकी चर्चा की गई है। निष्कर्ष-ग्राहारक शरीर एक ही प्रकार का होता है, और वह कर्मभूमि के गर्भज सम्यग्दृष्टि ऋद्धिप्राप्त, प्रमत्तसंयमी मनुष्य को होता है / ' संजत आदि शब्दों के विशेषार्थ--प्रमत्त--जो प्रमाद करते हैं, मोहनीयादि कर्मोदयवश तथा संज्वलन कषाय-निद्रादि में से किसी भी प्रमाद के योग से संयम प्रवृत्तियों (योगों) में कष्ट पाते हैं / वे प्रायः गच्छवासी (स्थविर-कल्पी) होते हैं, क्योंकि वे कहीं-कहीं उपयोगशून्य होते हैं / अपमत्त- इनसे विपरीत जो प्रमादरहित हों, वे प्रायः जिनकल्पी, परिहारविशुद्धिक, यथालन्दकल्पिक एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधु होते हैं। वे सदा उपयोगयुक्त रहते हैं / / एक स्पष्टीकरण-जैनसिद्धान्तानुसार जिनकल्पी आदि लब्धि-उपजीवी नहीं होते। क्योंकि उनका वैसा ही कल्प है / जो गच्छवासी आहारकशरीर का निर्माण करते हैं, वे उस समय लब्ध्युपजीवी एवं उत्सुकता के कारण प्रमत्त होते हैं। प्राहारकशरीर को छोड़ने में भी बे प्रमत्त होते हैं। प्रौदारिक शरीर में प्रात्मप्रदेशों का सर्वात्मना (चारों ओर से) उपसंहरण करने से व्याकुलता पाती है। आहारक शरीर में वह अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। अतः यद्यपि उसके बीच के काल में थोड़ी देर के लिए जरा-सा विशुद्धिभाव प्राजाता है। कर्मग्रन्थकार इस स्थिति को अप्रमत्तता कहते हैं किन्तु वास्तव में देखा जाए तो लब्धुपजीविता के कारण वे प्रमत्त हैं। इपित्त-ऋद्धिप्राप्त-ग्रामपौषधि इत्यादि ऋद्धियाँ-लब्धियाँ जिन्हें प्राप्त हों।" 1. पण्णवणासुत्तं, (मूलपाठ) 342-343 2. प्रज्ञापना; मलय, वत्ति, पत्र 424-425 3. वही, पत्र 424-425 4. वही, पत्र 424-425 Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद पाहारक शरीर में संस्थानद्वार 1534. आहारगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णते ? गोयमा ! समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1534 प्र.] भगवन् ! अाहारकशरीर किस संस्थान (आकार) का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) समचतुरस्रसंस्थान वाला कहा गया है / विवेचन--आहारकशरीर का आकार-पाहारकशरीर एक ही प्रकार का होता है और उसका संस्थान एक ही प्रकार का-'समचतुरस्र' कहा गया है / पाहारक शरीर में प्रमाणद्वार 1535. आहारगसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहण्णणं देसूणा रयणी, उक्कोसेणं पडिपुष्णा रयणी। [1535 प्र.भगवन् ! पाहारशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (उसको अवगाहना) जघन्य देशोन (कुछ कम) एक हाथ की, उत्कृष्ट पूर्ण एक हाथ की होती है। विवेचन-आहारकशरीर की अवगाहना-प्रस्तुत सूत्र में आहारकशरीर की ऊँचाई का प्रमाण (अवगाहना) बताया गया है / प्राहारकशरीर का प्रमाण-उसकी कम से कम अवगाहना, कुछ कम एक रत्लि प्रमाण (एक हाथ) बतायी गयी है। प्रारम्भ समय में उसकी इतनी ही अवगाहना होती है, उसका कारण तथाविध प्रयत्न है / आहारकशरीर को उत्कृष्ट अवगाहना पूर्ण रत्नि प्रमाण बताई गई है।' तेजस शरीर में विधिद्वार 1536. तेयगसरीरे गं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा--एगिदियतेयगसरीरे जाव पंचेंदियतेयगसरीरे / (1536 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) पांच प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार -एकेन्द्रिय तैजसशरीर यावत् पंचेन्द्रिय तेजसशरीर / 1537. एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पणते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-पुढविक्काइय जाव वणप्फइकाइयएगिदियतेयगसरीरे / [1537 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय तैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-पृथ्वीकायिक-तैजसशरीर यावत् वनस्पतिकायिक-तैजसशरीर / 1. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 425-426 Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रजापनासूत्र 1538. एवं जहा ओरालियसरीरस्स भेदो भणियो (सु. 1477-81) तहा तेयगस्त वि जाव चरिदियाणं। [1538 प्र.) इस प्रकार जैसे औदारिक शरीर के भेद (सूत्र 1477 से 1481 तक में) कहे हैं, उसी प्रकार तैजसशरीर के भी (भेद) यावत् चतुरिन्द्रिय (तक) के (कहने चाहिए / ) 1539. [1] पंचेंदियतेयगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-णेरइयतेयगसरीरे जाव देवतेयगसरीरे / [1536-1 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतैजसशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) चार प्रकार का कहा गया है। यथा—नैरयिकतैजसशरीर यावत् देवतैजसशरीर / [2] रइयाणं दुगतो भेदो भाणियब्बो जहा वेउब्वियसरीरे (सु. 1517-2) / [1536-2] जैसे नारकों के वैक्रियशरीर के (सू. 1517-2) में पर्याप्तक और अपर्याप्तक, ये दो भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ नारकों के तैजसशरीर के भी भेद (कहने चाहिए / ) [3] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणूसाण य जहा ओरालियसरीरे भेदो भणितो (सु. 148287) तहा भाणियव्वो। [1536-3] जैसे (सू. 1482 से 1487 तक में) पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के प्रौदारिकशरीर के भेदों का कथन किया गया है, उसी प्रकार (यहाँ भी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के तेजसशरीर के भेदों का) कथन करना चाहिए / [4] देवाणं जहा वेउब्वियसरीरे भेओ भणितो (सु. 1520) तहा भाणियव्वो जाव सव्वट्ठसिद्धदेवे ति। [1536-4, जैसे-(चारों प्रकार के) देवों के (सू. 1520 में) वैक्रियशरीर के भेद कहे गए हैं, वैसे ही (यहाँ भी) यावत् सर्वार्थसिद्ध देवों (तक) के (तैजसशरीर के भेदों) का कथन करना चाहिए। विवेचन-तेजसशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण-प्रस्तुत 4 सूत्रों (1536 से 1536 तक) में समस्त संसारी जीवों के तेजसशरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ-तैजसशरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के समस्त जीवों के अवश्यमेव होता है / इसलिए जीवों के जितने भद हैं, उतने ही तैजसशरीर के भेद हैं / यथा-एक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियगत औदारिक-शरीर तक के जितने भेद कहे गए हैं, उतने ही भेद इनके तैजसशरीर के कहने चाहिए। पंचेन्द्रिय तेजसशरीर के नारक अादि चार भेद बताए हैं। उनमें से नारकों के वैक्रियशरीर के पर्याप्तक-अपर्याप्तक ये दो भेद कहे गए हैं, वैसे ही इनके तैजसशरीर के भी दो भेद कहने चाहिए। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों के प्रौदारिकशरीर के जितने भेद कहे हैं, उतने ही उनके तैजसशरीर के भेद कहने चाहिए। चारों प्रकार के देवों के (सर्वार्थसिद्ध तक के) वैक्रियशरीर के जितने भेद कहे Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] हैं, उतने ही इनके तैजसशरीरगत भेद कहने चाहिए।' तेजसशरीर में संस्थानद्वार 1540. तेयगसरीरे णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [1540 प्र.] भगवन् ! तैजसशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) नाना संस्थान वाला कहा गया है / 1541. एगिदियतेयगसरीरे णं भंते ! किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [1541 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-तैजसशरीर किस संस्थान का होता है ? [उ. गौतम ! (वह) नाना प्रकार के संस्थान वाला होता है / 1542. पुढविक्काइयएगिदियतेयगसरीरे गं भंते ! किसंठिए पण्णते ? गोयमा ! मसूरचंदसंठाणसंठिए पण्णत्ते। [1542 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय तैजसशरीर किस संस्थान वाला कहा गया है ? [उ.} गौतम ! (वह) मसूरचन्द्र (मसूर की दाल) के आकार का कहा गया है / 1543. एवं ओरालियसंठाणाणुसारेणं भाणियन्वं (सु. 1490-96) जाव चरिदियाणं ति / [1543] इसी प्रकार (अन्य एकेन्द्रियों से लेकर) यावत् चतुरिन्द्रियों (तक) के (तेजसशरीरसंस्थान का कथन) (सू. 1460 से 1466 तक में उक्त) इनके औदारिक शरीर-संस्थानों के अनुसार करना चाहिए। 1544. [1] जेरइयाणं भंते ! तेयगसरीरे किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहा वेउब्वियसरीरे (सु. 1523) / [1544-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का तेजसशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1523 में) (इनके) वैक्रियशरीर (के संस्थान) का (कथन किया गया है; (उसी प्रकार इनके तैजसशरोर के संस्थान का कथन करना चाहिए।) [2] पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं मणसाण य जहा एतेसि चेव ओरालिय त्ति (सु. 1524. 25) / [1544-2J पंचेन्द्रियतिर्यध्वयोनिकों और मनुष्यों के (तैजसशरीर के संस्थान का कथन उसी प्रकार करना चाहिए।) जिस प्रकार (सू. 1524-1525 में) इनके औदारिकशरीरगत संस्थानों का कथन किया गया है। 1. (क) पण्णवणासुतं, (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 427 Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 462] [प्रज्ञापनासूत्र [3] देवाणं भंते ! तेयगसरीरे किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! जहा वेउब्वियस्स (सु. 1526) जाव अणुत्तरोववाइय त्ति। [1544-3 प्र.] भगवन् ! देवों के तैजसशरीर का संस्थान किस प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1526 में असुरकुमार से लेकर) यावत् अनुत्तरोगपातिक देवों (तक) के वैक्रियशरीर के (संस्थान का कथन किया गया है, उसी प्रकार इनके तैजसशरौर के संस्थान का कथन करना चाहिए। विवेचन-एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के तैजसशरीर का संस्थान- एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के तैजसशरीरों के संस्थान की चर्चा प्रस्तुत 5 सूत्रों (1540 से 1544 तक) में की गई है। तेजसशरीर का संस्थान औदारिक-वैक्रियशरीरानुसारी क्यों ?-तैजसशरीर जीव के प्रदेशों के अनुसार होता है। अतएव जिस भव में जिस जीव के प्रौदारिक अथवा वैक्रियशरीर के अनुसार आत्मप्रदेशों का जैसा प्राकार होता है, वैसा ही उन जीवों के तैजसशरीर का आकार होता है।' तेजसशरीर में प्रमाणद्वार 1545. जोवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाणा पण्णत्ता ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागो, उक्कोसेणं लोगंतानो लोगंतो। [1545 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत (समुद्घात किये हुए) जीव के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी होती है ? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ, अर्थात् -उदर प्रादि के विस्तार और बाहल्य, अर्थात्-छाती और पृष्ठ की मोटाई के अनुसार शरीरप्रमाणमात्र ही अवगाहना होती है। लम्बाई की अ की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है और उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है। 1546. एगिदियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! एवं चेव, जाव पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणप्फइकाइयस्स / [1546 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम! इसी प्रकार (समुच्चय जीव के समान मारणान्तिक समुद्घात से समवहत एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना भी) विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाण और 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 427 Page #1051 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवा अवगाहना-संस्थान-पद] लम्बाई की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अवगाहना) यावत पृथ्वी-अप्-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक तक पूर्ववत् समझनी चाहिए। 1547. [1] बेइंदियस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं तिरियलोगाओ लोगंतो। [1547-1 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्धात से समवहत द्वीन्द्रिय के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ अर्थात्-उदर आदि विस्तार, एवं बाहल्य, अर्थात्-वक्षस्थल एवं पृष्ठ (पीठ) को मोटाई की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र होती है। (तथा) लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट तिर्यक् (मध्य) लोक से (ऊर्ध्वलोकान्त या अधो-) लोकान्त तक अवगाहना समझनी चाहिए। [2] एवं जाव चरिंदियस्स / [1547-2] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक के (जीवों के तेजसशरीर की अवगाहना समझ लेना चाहिए।) 1548. रइयस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहणणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, उक्कोसेणं अहे जाव अहेसत्तमा पुढवी, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे, उड्ढं जाव पंडगवणे पुक्खरिणीओ। [1548 प्र] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्धात से समवहत नारक के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र, (तथा) आयाम (लम्बाई) की अपेक्षा से जघन्य सातिरेक (कुछ अधिक) एक हजार योजन की, (और) उत्कृष्ट नीचे की अोर यावत् अधःसप्तम नरकपृथ्वी तक, तिरछी यावत् स्वयम्भूरमण समुद्र तक और ऊपर यावत् पण्डकवन में (स्थित) पुष्करिणी तक (की अवगाहना होती है।) 1549. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहा बेइंदियसरीरस्स (सु. 1547 [1]) / [1546 प्र. भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत पञ्चेन्द्रिय-तिर्यञ्च के तेजस शरीर को अवगाहना कितनी कही गई है ? Page #1052 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम! जैसे (सू. 1547-1 में) द्वीन्द्रिय (के तैजस शरीर ) की (अवगाहना कही गई है, उसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की अवगाहना समझनी चाहिए / ) 1550. मणसस्स गं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा! समयखेत्ताओ लोगतो। [1550 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम! (मनुष्य के तेजसशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना) समयक्षेत्र (मनुष्यक्षेत्र) से लोकान्त (ऊर्ध्वलोक या अधोलोक के अन्त) तक (की होती है !) 1551. [1] असुरकुमारस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? ___ गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं अहे जाव तच्चाए पुढवीए हेष्टुिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव सयंभुरमणसमुदस्स बाहिरिल्ले वेइयंते, उड्ढे जाव इसीपउभारा पुढवी। [1551-1 प्र.] भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत असुरकुमार के तैजसशरीर को अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र (शरीर के बराबर), (तथा) अायाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की (और) उत्कृष्ट नीचे की ओर तीसरी (नरक)पृथ्वी के अधस्तन चरमान्त तक, तिरछी स्वयम्भूरमण समुद्र तक, एवं ऊपर ईषत्प्रा-ग्भारपृथ्वी तक (असुरकुमार के तैजसशरीर की अवगाहना होती है / ) [2] एवं जाव थणियकुमारतेयगसरोरस्स। [1551-2 | इसी (असुर कुमार के तैजसशरीर की अवगाहना) के समान (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार (तक) की (तैजसशरीरीय अवगाहना समझ लेनी चाहिए / ) [3] वाणमंतर-जोइसिया सोहम्मीसाणगा य एवं चेव / [1551-3] वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं सौधर्म ईशान (कल्प के देवों को तैजसशरीरीय अवगाहना भी इसी प्रकार (असुरकुमार के समान समझनी चाहिए / ) [4] सणकुमारदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइमार्ग, उक्कोसेणं अहे जाव महापातालाणं दोच्चे तिभागे, तिरियं जाव सयंभुरमणसमुद्दे, उड्डेजाव अच्चुभो कप्पो / Page #1053 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [1551-4 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत सनत्कुमार देव के तैजसशरीर को अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम! विष्कम्भ एवं बाहल्य की अपेक्षा से शरीर-प्रमाणमात्र (होती है) (और) अायाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की (नथा) उत्कृष्ट नीचे महापाताल(कलश) के द्वितीय विभाग तक की, तिरछी स्वयम्भूरमणसमुद्र तक की (और) ऊपर अच्युतकल्प तक की (इसकी तैजसशरीरावगाहना होती है / ) [5] एवं जाव सहस्सारदेवस्स / [1551-5] इसी प्रकार (सनत्कुमारदेव को तैजसशरीरीय अवगाहना के समान) (माहेन्द्रकल्प से लेकर) सहस्रारकल्प के देवों तक की (तैजसशरीरावगाहना समझ लेना चाहिए / ) [6] आणयदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरोरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग, उक्कोसेणं अहे जाव अहेलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उड्डेजाव अच्चुओ कम्पो। [1551-6 प्र.] भगवन्! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत पानत (कल्प के) देव के तैजस शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? [उ.] गौतम! (इसकी तैजसशरीरावगाहना) विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीर के प्रमाण के बराबर होती है और पायाम की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उत्कृष्ट-नीचे की ओर-अधोलौकिकग्राम तक की, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक की (और) ऊपर अच्युतकल्प तक की (होती है।) [7] एवं जाव पारणदेवस्स / [1551-7] इसी प्रकार (मानतदेव को तैजसशरीरावगाहना के समान) यावत् प्राणत और पारण तक की (तैजसशरीरावगाहना समझ लेनी चाहिए।) [8] अच्चुयदेवस्स वि एवं चेव / गवरं उड्डेजाव सगाई विमाणाई। [1551-8] अच्युतदेव की (तैजसशरीरावगाहना) भी इन्हीं के समान होती है। विशेष इतना ही है कि ऊपर (उत्कृष्ट तैजसशरीरावगाहना) अपने-अपने विमानों तक को होती है। [9] गेवेज्जगदेवस्स णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता! गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभ-बाहल्लेणं; पायामेणं जहण्णणं विज्जाहरसेढीओ, उक्कोसेणं जाव अहेलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उड्ड जान सगाई बिमाणाई। [1551-6 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिक समुद्घात से समवहत ग्रेवेयकदेव के तेजसशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा से शरीरप्रमाणमात्र होती है; (तथा) Page #1054 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र आयाम की अपेक्षा से जघन्य विद्याधरश्रेणियों तक की (और) उत्कृष्ट नीचे की ओर अधोलौकिकग्राम तक की, तिरछी मनुष्यक्षेत्र तक की, और ऊपर अपने विमानों तक की (होती है / ) [10] अणुत्तरोक्वाइयस्स वि एवं चेव / [1551-10] अनुत्तरौपपातिक देव की तैजसशरीरावगाहना भी इसी प्रकार (गवेयकदेव की तैजसशरीरावगाहना के समान समझनी चाहिए / ) विवेचन-सभी जीवों की तैजसशरीरावगाहना-प्रस्तुत 7 सूत्रों (सू. 1545 से 1551 तक) में विभिन्न सांसारिक जीवों के तैजसशरीर को अवगाहना जब वह मारणान्तिक समुद्घात किया हुआ हो, उस समय की अपेक्षा से प्रतिपादित की गई है। मारणान्तिक समुद्घात से समवहत जीव की तैजसशरीरावगाहना की तालिका इस प्रकार है विष्कम्भ-बाहत्य तेजसशरीरी जीव के नाम की अपेक्षा से आयाम की अपेक्षा से जघन्य-उत्कृष्ट ज. ज. 1. समुच्चय जीवों की तै. श. अ. शरीरप्रमाणमात्र ज, अंगुल के असंख्यातवें भाग की, उ. लोकान्त से लोकान्तक तक 2. एकेन्द्रियों की तै. श. अ. 3. विकलेन्द्रिय की तै. श. अ. " उ. तिर्यक्लोकान्त तक 4. नारकों की , , , ज. सातिरेक सहस्रयोजन की उ. अधः-सप्तमनरक तक, तिर्यक्-स्वयमभूरमण समुद्र तक और ऊपर पंडक बन की पुष्करिणी तक की 5. तिर्यचपंचेन्द्रियों की ज. अंगुल के असं. भाग, उ. तिर्यक् लोकान्त तक 6. मनुष्यों की तै. श. अ. , उ. मनुष्यक्षेत्र तक 7. भवनपति, वानव्यन्तर उ. नीचे-तीसरी ज्योतिष्क और सौधर्म ईशान नरक के अधस्तन चरमान्त तक, तिरछी स्वमम्भू रमण तक ऊपर ईषत्प्रागाभारा पृथिवी तक / 8. सनत्कुमार से सहस्रार देव तक ज. अंगुल के असं. भाग, उ. नीचे-अधोलौकिग्राम तक तिरछी--स्वयम्भूरमण तक, ऊपर-अच्यु तकल्प तक। 6. आनत-प्राणत-पारण देव की ज. अंगुल के असं. भाग, उ. नीचे-अधोलौकिकग्राम तक, तिरछी-मनुष्यक्षेत्र तक, ऊपर--अच्युतकल्प तक 10. अच्युतदेव की ऊपरस्वकीयविमान तक 11. ग्रैवेयक एवं अनुत्तर विमान ज. विद्याधरश्रेणी तक, उत्कृष्ट -नीचे अधोलौकिक देव की ग्राम तक, तिरछी-मनुष्यक्षेत्र तक, ऊपर--स्ववि मान तक' 1. पण्णवणासुतं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1 पृ. 345-346 देव Page #1055 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] [467 लोगंताप्रो लोगंतो-लोकान्त से लोकान्त तक, अर्थात्-अधोलोक के चरमान्त से ऊर्वलोक के चरमान्त तक, अथवा ऊर्वलोक के चरमान्त से अधोलोक के चरमान्त तक / यह तैजसशरीरीय उत्कृष्ट अवगाहना सूक्ष्म या बादर एकेन्द्रिय के तैजसशरीर की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय ही यथायोग्य समस्त लोक में रहते हैं। अन्य जीव नहीं / इसलिए एकेन्द्रिय के सिवाय अन्य किसी जीव की इतनी अवगाहना नहीं हो सकती। प्रस्तुत में तैजसशरीरीय अवगाहना मृत्यु के समय जीव को मरकर जिस गति या योनि में जाना होता है, वहाँ तक की लक्ष्य में रख कर बताई गई है / अतएव जब कोई एकेन्द्रिय जीव (सूक्ष्म या बादर) मृत्यु के समय अधोलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और ऊर्वलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो, अथवा वह मरणसमय में अवलोक के अन्तिम छोर में स्थित हो और अधोलोक के अन्तिम छोर में उत्पन्न होने वाला हो, और जब वह मारणान्तिक समुद्घात करता है, तब उसकी उत्कृष्ट अवगाहना लोकान्त से लोकान्त तक होती है। तिरियलोगाओ लोगतो-तिर्यक्लोक से लोकान्त तक अर्थात्-तिर्यग्लोक से अधोलोकान्त तक अथवा ऊर्ध्व-लोकान्त तक / प्राशय यह है कि जब तिर्यग्लोक में स्थित कोई द्वीन्द्रिय जीव ऊर्ध्व लोकान्त या अधोलोकान्त में एकेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न होने वाला हो, और मारणान्तिक समुद्घात करे, उस समय तैजसशरीर की पूर्वोक्त अवगाहना होती है। उड्ढं जाव पंडगवणे पुक्खरिणोप्रो.-कार-उ. अवगाहना पण्डकवन में स्थित पुष्करिणी तक की होती है। इसका आशय यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी से लेकर तिरछा स्वयम्भूरमण समुद्र-पर्यन्त और ऊपर पण्डकवन पुष्करिणी तक की अवगाहना तभी पाई जाती है जब सातवीं नरक का नारक स्वयम्भूरमण समुद्र के पर्यन्त-भाग में मत्स्यरूप में या पण्डकवन की पुष्करणियों में उत्पन्न होता है। तब उस सप्तमपृथ्वी के नारक की तैजसशरीरीय अवगाहना इतनी होती है। जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग-द्वीन्द्रिय के तेजसशरीर की अवगाहना पायाम की अपेक्षा से जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग को बताई गई है / इतनी अवगाहना द्वीन्द्रिय की तभी होती है, जब अंगुल के असंख्यातवें भाग वाला अपर्याप्त प्रौदारिक शरीरी द्वीन्द्रिय अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है / अथवा जिस शरीर में स्थित होकर मारणान्तिक समुद्घात करता है, उस शरीर से मारणान्तिक समुद्घातवश बाहर निकले हए तैजसशरीर के आयाम-विष्कम्भ एवं विस्तार की अपेक्षा से अवगाहना का विचार किया जाता है, उस शरीरसहित का नहीं, अन्यथा भवनपति आदि का जघन्यतः पायाम अंगुल का असंख्यातवें भाग का कहा गया है। उससे विरोध पाएगा क्योंकि भवनपति आदि का शरीर सात प्रादि हस्तप्रमाण है। अतः यही उचित तथ्य है कि महाकाय द्वोन्द्रिय जीव भी जब अपने निकटवर्ती प्रदेश में एकेन्द्रिय रूप में उत्पन्न होता है, तब भी अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण उसकी तैजसशरीरावगाहना होगी, ऐसा समझना चाहिए। सातिरेगं जोयणसहस्सं--नारक के तैजसशरीर को अवगाहना पायाम की दृष्टि से जघन्य सातिरेक सहस्रयोजन की कही गई है। वह इस प्रकार समझनी चाहिए-वलयामुख आदि चार पातालकलश लाख योजन के अवगाह वाले हैं। उनकी ठोकरी एक हजार योजन मोटी है। उन पातालकलशों के नीचे का विभाग वायु से परिपूर्ण है, ऊपर का त्रिभाग जल से परिपूर्ण है तथा मध्य का त्रिभाग वायु तथा जल के अनुसरण और निःस्सरण का मार्ग है। जब कोई सीमन्तक आदि Page #1056 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468] [प्रज्ञापनासूत्र नरकेन्द्रकों में विद्यमान पातालकलश का निकटवर्ती नारक अपनी आयु का क्षय होने से मर कर पातालकलश की एक हजार योजन मोटी दीवार का भेदन करके पातालकलश के भीतर दूसरे या तीसरे विभाग में मत्स्यरूप में उत्पन्न होता है, तब मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत उस नारक की जघन्य तैजसशरीरावगाहना एक हजार योजन से कुछ अधिक होती है / समयखेत्ताओ लोगंतो--मनुष्य के तैजसशरीर की अवगाहना उत्कृष्टतः समयक्षेत्र से लोकान्त तक की कही है, अर्थात्-- मनुष्य की तैजसशरीरावगाहना मनुष्य क्षेत्र से अधोलोक के चरमान्त तक या ऊर्ध्वलोक के चरमान्त तक समझनी चाहिए, क्योंकि मनुष्य का भी एकेन्द्रिय में उत्पन्न होना संभव है / तात्पर्य यह है कि मनुष्य का जन्म या संहरण समयक्षेत्र से अन्यत्र सम्भव नहीं है। अतः इससे अधिक उसकी तैजसशरीरावगाहना नहीं हो सकती। इसे समयक्षेत्र इसलिए कहते हैं कि यह ढाईद्वीपप्रमाणक्षेत्र ही ऐसा है, जहाँ सूर्य आदि के संचार के कारण समय (काल) का व्यक्त व्यवहार होने से समयप्रधान क्षेत्र है।' वानव्यन्तर से सौधर्म ईशान तक के देवों की तैजसशरीरावगाहना लम्बाई की अपेक्षा से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट नीचे तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तनचरमान्त तक की, तिरछी, स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य वेदिकान्त तक की और ऊपर ईषत्प्राग्भार पृथ्वी तक की कही गई है / इसका तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि सभी भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म-ईशानदेव एकेन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। जब वे च्यवन के समय अपने केयूर आदि आभूषणों में, कुण्डल आदि में या पद्मराग ग्रादि मणियों में लुब्ध-मूच्छित होकर उसी के अध्यवसाय में मग्न होकर अपने शरीर के उन्हीं निकटवर्ती आभूषणों में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होते हैं, तब उन देवों के तैजसशरीर की अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है। जब कोई भवनपति आदि देव प्रयोजनवश तृतीय नरकपृथ्वी के अधस्तन (नीचले) चरमान्त (अन्तिम छोर) प्रदेश में जाता है और आयु का क्षय होने से वहीं मर जाता है, तब तिरछे स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य वेदिकान्त में अथवा ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी के पर्यन्त भाग में पृथ्वीकायिक रूप में उत्पन्न होता है / उस समय उसको तेजसशरीरावगाहना नीचे -तृतीय नरकपृथ्वी के चरमान्त तक, मध्य में स्वयम्भूरमण के बाह्य वेदिकान्त तक और ऊपर ईषत्प्रारभारा पृथ्वी के पर्यन्त भाग तक की होती है। सनत्कुमारादि देवों की तैजसशरीरावगाहना-सनत्कुमार ग्रादि देव अपने भवस्वभाववश एकेन्द्रियों में या विकलेन्द्रियों में नहीं उत्पन्न होते / वे पंचेन्द्रितिर्यञ्चों अथवा मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं / अतएव मन्दर पर्वत की पुष्करिणी आदि में जलावगाहन करते समय आयु का क्षय होने पर उसी स्थान में निकटवर्ती प्रदेश में मत्स्यरूप में उत्पन्न हो जाते हैं, तब उनके तैजस शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की होती है / यदि कोई सनत्कुमारादि देव दूसरे देव के निश्राय से अच्युतकल्प में चला जाए, और वहीं उसकी अपनी प्रायु का क्षय हो जाए तो वह काल करके तिरछे--स्वयम्भूरमण समुद्र के पर्यन्तभाग में अथवा नीचे पातालकलश के दूसरे त्रिभाग में, 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 427 से 429 तक 2. वही, पत्र 429 Page #1057 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहना-संस्थान-पद] मत्स्य प्रादि के रूप में जन्म ले लेता है, तब उसकी ऊपर नीचे और तिरछे, पूर्वोक्त तेजसशरीरावगाहना होती है, ऐसा समझना चाहिए।' अच्युत देवों की ऊर्ध्व तेजसशरीरावगाहना--अच्युदेव ऊपर में अच्युत विमान तक ही रहता है / इसलिए उसकी तैजसशरीरावागाहना की प्ररूपणा करते समय ऊपर में अच्युतकल्प तक नहीं कहना चाहिए। यह देव अच्युतकल्प में रहता अवश्य है, किन्तु कदाचित् अपने विमान की ऊँचाई तक जाता है, और वहीं आयुष्यक्षय हो जाता है तो च्यव कर अच्युत विमान के पर्यन्त में उत्पन्न होता है / तब उसकी इतनी तेजसशरीरावगाहना होती है / कार्मरणशरीर में विधि-संस्थान-प्रमाणद्वार 1552. कम्मगसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्त ? ___ गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिदियकम्मगसरोरे जाव पंचेंदिय० / एवं जहेव तेयगसरीरस्स भेदो संठाणं ओगाहणा य भणिया (सु. 1536-51) तहेव णिरक्सेसं भाणियन्वं जाव अणुत्तरोववाइय त्ति / __ [१५५२प्र-] "भगवन्! कार्मणशरीर कितने प्रकार का कहा गया है ?" [उ.] "गौतम! (वह) पाँच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है-एकेन्द्रिय कार्मण शरीर (से लेकर) यावत् पंचेन्द्रिय कार्मण-शरीर / इस प्रकार जैसे तेजशरीर के भेद, संस्थान और अवगाहना का निरूपण (सू. 1536 से 1551 तक में) किया गया है, उसी प्रकार से सम्पूर्ण कथन (एकेन्द्रिय कार्मणशरीर से लेकर) यावत् अनुत्तरोपपातिक (-देवपंचेन्द्रिय कार्मणशरीर तक करना चाहिए।) विवेचन- कार्मणशरीर : तेजसशरीर का सहचर-जहाँ तैजसशरीर होगा, वहाँ कार्मणशरीर अवश्य होगा और जहाँ कार्मणशरीर होगा, वहाँ तेजसशरीर अवश्य होगा। दोनों का अविनाभावी सम्बन्ध है। तैजस-कार्मण दोनों की अवगाहना का विचार विशेषतः मारणान्तिक समुद्घात को लक्ष्य में लेकर किया गया है। कार्मणशरीर भी तैजसशरीर की तरह जीव प्रदेशों के अनुसार संस्थानवाला है / इसलिए जैसे तैजसशरीर के प्रकार संस्थान और अवगाहना के विषय में कहा गया वैसे कामण शरीर के प्रकार संस्थान एवं अवगाहना के विषय में कथन का निर्देश किया गया है। पुद्गल-चयन-द्वार 1553. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला चिज्जति ? गोयमा ! मिक्वाधाएणं छद्दिसि, वाघातं पड्डच्च सिय तिदिसि सिय चउदिसि सिय पंचदिसि / 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 430 2. वही, पत्र 430 3. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 130 (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. पृ. 118 Page #1058 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 470 [प्रज्ञापनासूत्र [1553 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर के लिए कितनी दिशाओं से (पाकर) पुद्गलों का चय होता है ? [उ. गौतम! नियाघात की अपेक्षा से छह दिशाओं से, व्याघात की अपेक्षा से कदाचित् तीन दिशाओं से कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से (पुद्गलों का चय होता है।) 1554. बेउब्धियसरीरस्स णं भंते ! कतिविसि पोग्गला चिज्जति ? गोयमा ! णियमा छहिसि / [1554 प्र.] भगवन्! वैक्रियशरीर के लिए कितनी (दिशाओं से पुद्गलों का चय होता है ? [उ.] गौतम! नियम से छह दिशाओं से (पुद्गलों का चय होता है / ) 1555. एवं आहारगसरीरस्स वि / [1555] इसी प्रकार (वैक्रियशरीर के समान) आहारकशरीर के पुद्गलों का चय भी नियम से छह दिशाओं से होता है / ) 1556. तेया-कम्मगाणं जहा पोरालियसरीरस्स (सु. 1553) / (1556] तैजस और कार्मण (शरीर के पुद्गलों का चय) [सू.१५५३ में उक्त] प्रौदारिक शरीर के (पुद्गलों के चय के) समान (समझना चाहिए / ) 1557. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! कतिदिसि पोग्गला उवचिज्जति ? गोयमा ! एवं चेक, जाव कम्मगसरीरस्स / [1557 प्र०] भगवन्! औदारिक शरीर के पुद्गलों का उपचय कितनी दिशाओं से होता है ? [उ.] गौतम! (जैसे चय के विषय में कहा था, ) इसी प्रकार (उपचय के विषय में भी औदारिकशरीर से लेकर) यावत् कार्मणशरीर (तक कहना चाहिए / ) 1558. एवं उवचिज्जति (?) अवचिज्जति / [1558] (प्रौदारिक आदि पांचों शरीरों के पुद्गलों का जिस प्रकार ) उपचय होता है, उसी प्रकार (उनका) अपचय भी होता है / विवेचन-पांचों शरीरों के पुद्गलों के चय, उपचय-अपचय-सम्बन्धी विचारणा–प्रस्तुत चतुर्थ द्वार में 6 सूत्रों (1553 से 1558 तक ) में औदारिक आदि पांचों शरीरों के पुद्गलों के चय, उपचय एवं अपचय से सम्बन्धित विचारणा की गई है / चय उपचय और अपचय की परिभाषा-चय का अर्थ है-पुद्गलों का संचित होना-समुदित या एकत्रित होना / उपचय का अर्थ है-प्रभूतरूप से चय होना, बढ़ना, वृद्धिंगत होना / अपचय का अर्थ है-पुद्गलों का ह्रास होना, घट जाना या हट जाना। Page #1059 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [471 प्रौदारिक, तेजस और कार्मण शरीरों के निर्माण, वृद्धि और ह्रास के लिए पुद्गलों का स्वयं चय, और उपचय किसी प्रकार का व्याघात (रुकावट या बाधा) न हो तो छहों दिशानों (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊर्ध्व और अधोदिशा) से आकर होता है, और बुद्गल स्वयं अपचित होते हैं / आशय यह है कि सनाडी के अन्दर या बाहर स्थित औदारिक, तेजस एवं कार्मणशरीर के धारक जीव जब एक भी दिशा अलोक, से व्याहत (रुकी हुई) नहीं होती तब नियम से छहों दिशात्रों से पुद्गलों का आगमन या निर्गमन होता है। वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर त्रसनाडी में ही सम्भव होते हैं, अन्यत्र नहीं / वहाँ किसी प्रकार का अलोक का व्याघात नहीं होता, इस कारण उनके लिए पुद्गलों का चय-उपचय नियम से छहों दिशानों से होता है।' किन्तु औदारिक, तैजस और कार्मणशरीर के पुद्गलों के प्रागमन में व्याघात हो, अर्थात् अलोक या जाने से प्रतिस्खलन या रुकावट हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से उनके पुद्गलों का चय, उपचय होता है। तात्पर्य यह है कि यदि एक दिशा में अलोक पा जाए तो पांच दिशाओं से, दो दिशाओं में अलोक आ जाए तो चार दिशाओं से और यदि तीन दिशाओं में अलोक पा जाए तो तीन दिशाओं से पुद्गलों का चय-उपचय होता है / उदाहरणार्थ-कोई औदारिक शरीरधारी सूक्ष्मजीव हो और वह लोक के सर्वोच्च (सर्वोर्व) प्रतर में प्राग्नेयकोणरूप लोकान्त में स्थित हो, जिसके ऊपर (लोकाकाश न हो, पूर्व तथा दक्षिण दिशा में भी लोक न हो, वह जीव अधोदिशा, पश्चिम और उत्तर दिशा, इन तीन दिशाओं से ही पुद्गलों का चय, उपचय करेगा क्योंकि शेष तीन दिशाएं अलोक से व्याप्त होती हैं / जब वही औदारिक शरीरी सूक्ष्म जीव पश्चिम दिशा में रहा हुआ हो, तब उसके लिए पूर्व दिशा अधिक हो जाती है, इस कारण चार दिशाओं से पुद्गलों का आगमन होगा / जब वह जीव अधोदिशा में द्वितीय आदि किसी प्रतर में रहा हा हो, और पश्चिम दिशा का अवलम्बन लेकर स्थित हो, तब वहाँ ऊर्ध्वदिशा भी अधिक लब्ध हो तो केवल दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याहत (रुकी हुई) होती है, इस कारण पांचों दिशानों से वहां पुद्गलों का आगमन (चय) होता है / / तैजस कार्मण शरीर तो समस्त संसारी जीवों के होते हैं, इसलिए औदारिक शरीर की तरह उनका भी चय-उपचय समझना चाहिए। __जिस प्रकार चय का कथन किया है, उसी प्रकार उपचय और अपचय का कथन करना चाहिए / ५-शरीरसंयोगद्वार 1559. जस्सणं भंते! ओरालियसरीरं तस्स णं वेउब्वियसरीरं? जस्स वेउब्वियसरीरं तस्स पोरालियसरीरं? __ गोयमा! जस्स ओरालियसरीरं तस्स वेउब्वियसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स वेउग्वियसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णस्थि / 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 432 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टोका भा. 4, पृ. 809 2. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 432 (ख) पण्णवणा सुत्त, (प्रस्तावनादि) भा-२, 5. 118 (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा-४, 5.805-806 Page #1060 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472] [प्रशापनासूत्र [1559 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के औदारिक शरीर होता है, क्या उसके वैक्रिय शरीर (भी) होता है ? (और) जिसके वैक्रिय शरीर होता है, क्या उसके प्रौदारिक शरीर (भी) होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं होता, (और) जिसके वैक्रिय शरीर होता है, उसके औदारिक शरीर कदाचित् होता है, (तथा) कदाचित् नहीं होता। 1560. जस्स णं भंते ! पोरालियसरीरं तस्स प्राहारगसरीरं ? जस्स प्राहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं? गोयमा! जस्स ओरालियसरीरं तस्स आहारगसरीरं सिय अस्थि सिय णत्थि, जस्स पुण पाहारगसरीरं तस्स पोरालियसरीरं णियमा अस्थि / [1560 प्र.] भगवन ! जिसके प्रौदारिक शरीर होता है, क्या उसके आहारक शरीर होता है ? तथा जिसके आहारक शरीर होता है उसके औदारिक शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके आहारक शरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं भी होता / किन्तु जिस जीव के आहारक शरीर होता है उसके नियम से औदारिक शरीर होता है। 1561. जस्स गं भंते ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं ? जस्स तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं? गोयमा ! जस्स ओरालियसरीरं तस्स तेयगसरीरं णियमा अस्थि, जस्स पुण तेयगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं सिय अस्थि सिय णस्थि / [1561 प्र.] भगवन् ! जिसके औदारिक शरीर होता है, क्या उसके तैजस शरीर होता है ? तथा जिसके तैजस शरीर होता है, क्या उसके औदारिक शरीर होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके नियम से तैजस शरीर होता है, और जिसके तैजस शरीर होता है, उसके औदारिक शरीर कदाचित् होता है, कदाचित् नहीं (भी) होता। 1562. एवं कम्मगसरीरं पि: [1562] (औदारिक शरीर के साथ तैजस शरीर के संयोग के समान, औदारिक शरीर के साथ) कार्मण शरीर का संयोग भी समझ लेना चाहिए / 1563. [1] जस्स गं भंते ! वेउब्वियसरीरं तस्स आहारगसरीरं? जस्स आहारगसरीरं तस्स ओरालियसरीरं? गोयमा ! जस्स वेउब्वियसरीरं तस्साहारगसरीरं णस्थि, जस्स वि य आहारगसरीरं तस्स वि वेउव्वियसरीरं णस्थि / _[1663-1 प्र.] भगवन् ! जिसके वैक्रिय शरीर होता है, क्या उसके आहारक शरीर होता है ? तथा जिसके प्राहारक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर भी होता है ? Page #1061 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहनासंस्थानपद] [473 [उ.] गौतम ! जिस जीव के वैक्रिय शरीर होता है, उसके आहारक शरीर नहीं होता, तथा जिसके प्राहारक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर नहीं होता। [2] तेया-कम्माई जहा ओरालिएण समं (सु. 1561-62) तहेव आहारगसरीरेण वि समं तेया-कम्माइं चारेयग्वाणि। [1563-2] जैसे (सू. 1561-1562 में) औदारिक के साथ तैजस एवं कार्मण (शरीर के संयोग) का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक शरीर के साथ भी तेजस-कार्मण शरीर (के संयोग) का कथन करना चाहिए। 1564. जस्स णं भंते ! तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं ? जस्स कम्मगसरीरं तस्स तेयग सरीरं? गोयमा ! जस्स तेयगसरीरं तस्स कम्मगसरीरं नियमा अस्थि, जस्स वि कम्मगसरीरं तस्स वि तेयगसरीरं णियमा अस्थि / [1564 प्र.] भगवन् ! जिसके तैजस शरीर होता है, क्या उसके कार्मण शरीर होता है ? (तथा) जिसके कार्मण शरीर होता है, क्या उसके तैजस शरीर भी होता है ? [उ.] गौतम ! जिसके तैजस शरीर होता है, उसके कार्मण शरीर अवश्य ही (नियम से) होता है, और जिसके कार्मण शरीर होता है, उसके तैजस शरीर अवश्य होता है / विवेचन–शरीरों के परस्पर संयोग की विचारणा-संयोगद्वार के प्रस्तुत 6 सूत्रों (1556 से 1564 तक) में एक जीव में ग्रौदारिक आदि पांच शरीरों में से कितने शरीर एक साथ संभव है ! इसका विचार किया गया है। फलितार्थ-- इन सब सूत्रों का फलितार्थ इस प्रकार है१. प्रौदारिक के साथ वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण सम्भव हैं। 2. वैक्रिय के साथ-औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर सम्भव हैं / 3. श्राहारक के साथ-प्रौदारिक, तेजस, कार्मण शरीर सम्भव हैं / 4. तेजस के साथ-ौदारिक, वैक्रिय, आहारक, कार्मणशरीर सम्भव हैं।' 5. कार्मण के साथ-प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस शरीर सम्भव हैं।' स्पष्टीकरण-(१) जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके वैक्रिय शरीर विकल्प से होता है। क्योंकि वैक्रियलब्धि सम्पन्न कोई औदारिक शरीरी जीव यदि वैक्रिय शरीर बनाता है, तो उसके वैक्रिय शरीर होता है / जो जीव वैक्रियल ब्धिसम्पन्न नहीं है, अथवा वैक्रियलब्धियुक्त होकर भी वैक्रिय शरीर नहीं बनाता, उसके वैक्रिय शरीर नहीं होता। देव और नारक वैक्रिय शरीरधारी होते हैं, उनके औदारिक शरीर नहीं होता, किन्तु जो तिर्यञ्च या मनुष्य वैक्रिय शरीर वाले होते हैं, उनके औदारिक शरीर होता है / (2) जिसके औदारिक शरीर होता है, उसके आहारक शरीर होता भी है, नहीं भी होता। जो चतुर्दश पूर्वधारी आहारकलब्धिसम्पन्न मुनि हैं, उनके ग्राहारक शरीर 1. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 Page #1062 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474] [प्रज्ञापनासूत्र जिस होता है, शेष प्रौदारिक शरीरधारी मनुष्यों को नहीं होता। इसी प्रकार जिसके पाहारक शरीर होता है, उसके औदारिक शरीर अवश्य होता है, क्योंकि औदारिक शरीर के बिना आहारकलब्धि नहीं होती। वैक्रिय शरीर के साथ प्राहारक शरीर या पाहारकशरीर के साथ वैक्रियशरीर कदापि संभव नहीं है / (3) जिसके औदारिक होता है, उसके तैजस कार्मण शरीरों का होना अवश्यम्भावी है, किन्तु जिसके तैजस-कामण शरीर होते हैं, उसके औदारिक शरीर होता भी है, नहीं भी होता, क्योंकि देवों और नारकों के तैजस-कार्मण शरीर होते हुए भी औदारिक शरीर नहीं होता। इसी प्रकार जिस जीव के वैक्रिय शरीर होता है, उसके तैजस कार्मण शरीर अवश्य होते हैं, किन्तु जिस जीव के तैजस कार्मण शरीर होते हैं उसके वैक्रिय शरीर होता भी है, नहीं भी होता, क्योंकि देव-नारकों के तैजस-कार्मण शरीर होते हैं और वैक्रिय शरीर भी प्रत्येक देव का होता है किन्तु तिर्यञ्चों और मनुष्यों के क्रिय शरीर जन्म से नहीं होता, मगर तैजस-कार्मण शरीर तो अवश्य हो शरीर जिसके होता है, उसके औदारिक होता भी है, नहीं भी होता, क्योंकि मनुष्य-तिर्यञ्च के औदारिक शरीर होता है, तैजस शरीर भी, जबकि वैक्रिय शरीरी देवों-नारकों के तेजस शरीर तो होता ही है, किन्तु औदारिक नहीं होता। इसो प्रकार जिसके प्रौदारिक शरीर होता है, उसके तैजसकार्मण शरीर अवश्यम्भावी होते हैं, क्योंकि तेजस कार्मण शरीर के बिना औदारिक शरीर असम्भव है। इसी प्रकार तैजस और कार्मण दोनों परस्पर अविनाभावी हैं। जिसके तैजस शरीर होगा, उसके कार्मण शरीर अवश्य होगा। जिसके कार्मणशरीर होगा, उसके तैजस अवश्य होगा / 44 6. द्रव्य-प्रदेश-अल्पबहुत्वद्वार 1565. एतेसि णं भंते ! ओरालिय-वेउब्विय-आहारग-तेया-कम्मगसरीराणं दन्वट्ठयाए पएसट्टयाए दवट्ठपएसट्ठयाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? पोरालियसरीरा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, तेया-कम्मगसरीरा दो वि तुल्ला दवट्टयाए अणंतगुणा; पएसट्टयाए-सव्वत्थोवा आहारगसरोरा पएसट्टयाए, वेउब्वियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरा पदेसट्ठयाए प्रसंखेज्जगुणा, तेयगसरीरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, कम्मगसरोरा पदेसट्टयाए प्रणतगुणा; दवटुपदेसट्टयाए-सम्वत्थोवा आहारगसरोरा दवट्ठयाए, वेउब्वियसरीरा दवट्ठयाए असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरा दवट्टयाए असंखेज्जगुणा, ओरालियसरीरेहितो दवट्ठयाए आहारगसरीरा पएसट्टयाए अणंतगुणा, वेउब्वियसरीरा पदेसट्टयाए असंखेज्जगुणा, पोरालियसरीरा पदेसटुयाए असंखेज्जगुणा, तेया-कम्मगसरीरा दो वि तुल्ला दवट्ठयाए अणंतगुणा, तेयगसरोरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा, कम्मगसरोरा पदेसट्टयाए अणंतगुणा। [1565 प्र. भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पांच शरीरों में से, द्रव्य की अपेक्षा से, प्रदेशों की अपेक्षा से तथा द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से, कौन, किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? 44. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 432 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका भा-४ पृ.८१२-८१३ Page #1063 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवां अवगाहनासंस्थानपद] [उ.] गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से सबसे अल्प आहारक शरीर है। (उनसे) वै क्रिय शरीर, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं / (उनसे) औदारिक शरीर द्रव्य की अपेक्षा से, असंख्यातगुणा हैं / तैजस और कार्मण शरीर दोनों तुल्य (बराबर) हैं,(किन्तु औदारिक शरीर से) द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं / प्रदेशों की अपेक्षा से सबसे कम प्रदेशों की अपेक्षा से पाहारक शरीर हैं। (उनसे) प्रदेशों की अपेक्षा से वैक्रिय शरीर असंख्यातगुणा हैं। (उनसे) प्रदेशों की अपेक्षा से औदारिक शरीर असंख्यातगुणा हैं / (उनसे) तैजस शरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं, (उनसे) कार्मण शरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं। द्रव्य एवं प्रदेशों की अपेक्षा से---द्रव्य की अपेक्षा से, सबसे अल्प हैं-आहारक शरीर / (उनसे) वैक्रिय शरीर द्रव्यों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। (उनसे) औदारिक शरीर, द्रव्य की अपेक्षा से असंख्यातगुणे हैं। प्रौदारिक शरीरों से द्रव्य की दृष्टि से आहारक शरीर, प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं : (उनसे) वैक्रिय शरीर, प्रदेशों को अपेक्षा से असंख्यातगुणा हैं। (उनसे) औदारिक शरीर, प्रदेशों की अपेक्षा से, असंख्यातगुणा हैं। तैजस और कार्मण, दोनों शरीर, द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य (बराबर-बराबर) हैं; तथा द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तगुणे हैं। (उनसे) तैजस शरीर प्रदेशों की अपेक्षा से अनन्तगुणा हैं / (उनसे) कार्मण शरीर प्रदेशों से अनन्तगुणा हैं / विवेचन-शरीरों को अल्पबहत्वविचारणा : द्रव्य, प्रदेश तथा द्रव्य और प्रदेश को दष्टि से प्रस्तुत सूत्र (1565) में पूर्वोक्त पांचों शरीरों के, अल्पबहुत्व की विचारणा को गई है / स्पष्टीकरण-द्रव्यापेक्षया अर्थात् शरीरमात्र द्रव्य की संख्या की दृष्टि से सबसे अल्प पाहारक शरीर इसलिए हैं कि आहारक शरीर उत्कृष्ट संख्यात हों तो भी सहस्र पृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) ही होते हैं / समस्त आहारक शरीरों की अपेक्षा वैक्रिय शरीर, द्रव्यदृष्टि से असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि सभी नारकों, सभी देवों, कतिपय तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, कतिपय मनुष्यों एवं बादर वायुकायिकों के वैक्रियशरीर होते हैं। समस्त वैक्रिय शरीरों की अपेक्षा औदारिक शरीर द्रव्यदृष्टि से (शरीरों की संख्या की दृष्टि से) असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि प्रौदारिक शरीर समस्त पंच स्थावरों, तीन विकलेन्द्रियों, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों के होते हैं। और फिर पृथ्वीअप्-तेज-वायु-वनस्पतिकायिकों में से प्रत्येक असंख्यात लोकाकाश-प्रमाण हैं / तैजस और कार्मग दोनों शरीर संख्या में समान हैं, फिर भी वे श्रीदारिक शरीरों की अपेक्षा संख्या में अनन्तगुणे हैं, क्योंकि औदारिक शरीरधारियों के उपरान्त वैक्रिय शरीरधारियों के भो तैजस-कार्मण शरीर होते हैं। तथा सूक्ष्म एवं बादर निगोद जोव अनान्तानन्त हैं, उनके प्रौदारिक शरीर एक होता है किन्तु तैजस-कार्मण शरीर पृथक्-पृथक होते हैं।' प्रदेशों (शरीर के प्रदेशों-परमाणुओं) की दृष्टि से विचार किया जाए तो सबसे कम आहारक शरीर हैं, क्योंकि सहस्र पृथक्त्व संख्या वाले आहारक शरीरों के प्रदेश अन्य सभी शरीरों के प्रदेशों की अपेक्षा कम ही होते हैं। यद्यपि वैक्रियवर्गणाओं की अपेक्षा आहारकवर्गणा परमाणुओं 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवत्ति, पत्र 433-434 / (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 4, पृ 822-823 Page #1064 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र की अपेक्षा से अनन्तगुणी होती है, तथापि आहारक शरीरों से वैक्रिय शरीरों के प्रदेश असंख्यातगुणा इसलिए कहे गए हैं कि एक तो पाहारक शरीर केवल एक हाथ का ही होता है, जबकि बहुत वर्गणाओं से निर्मित वैक्रिय शरीर उत्कृष्टतः एक लाख योजन से भी अधिक प्रमाण का हो सकता है / दूसरे, आहारक शरीर संख्या में भी कम, सिर्फ सहस्रपृथक्त्व होते हैं, जबकि बैंक्रियशरीर असंख्यातश्रेणिगत आकाश प्रदेशों के बराबर होते हैं। इस कारण पाहारक शरीरों की अपेक्षा वैक्रिय शरीर प्रदेशों की दृष्टि से असंख्यातगुणे कहे गए हैं। उनसे औदारिक शरीर प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणे इसलिए कहे गए हैं कि वे असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर पाए जाते हैं, इस कारण उनके प्रदेश अति प्रचुर होते हैं / उनसे तेजस शरीर प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि वे द्रव्य दृष्टि से औदारिक शरीरों से अनन्तगुणा हैं। तैजस शरीरों की अपेक्षा कार्मण शरीर प्रदेशों की दृष्टि से अनन्तगुणा हैं, क्योंकि कार्मणवर्गणाएँ तैजसवर्गणाओं की अपेक्षा परमाणुओं की दृष्टि से अनन्तगुणी होती है।' द्रव्य और प्रदेश-दोनों की दृष्टि से विचार करने पर भी द्रव्यापेक्षया सबसे कम पाहारक शरीर हैं, वैक्रिय शरीर द्रव्यापेक्षया असंख्यातगुणा अधिक हैं, उनसे भी औदारिक शरीर द्रव्यतः असंख्यातगुणे हैं, यहां भी वही पूर्वोक्त युक्ति है। द्रव्यत: औदारिक शरीरों की अपेक्षा प्रदेशत: आहारक शरीर अनन्तगुणे हैं, क्योंकि औदारिक शरीर सब मिल कर भी असंख्यात लोकाकाश प्रदेशों के बराबर है, जबकि प्रत्येक आहारक शरीरयोग्य वर्गणा में अभव्यों से अनन्तगुणा परमाणु होते हैं / उनकी अपेक्षा भी वैक्रिय शरीर प्रदेशों की अपेक्षा से असंख्यातगुणं हैं। उनसे भी औदारिक शरीर प्रदेशतः असंख्यातगुणे हैं, इस विषय में युक्ति पूर्ववत् है। उनसे भी तैजस कार्मण शरीर द्रव्यापेक्षया अनन्तगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर अनन्त संख्या से युक्त हैं। उनसे भी तैजस शरीर प्रदेशतः अनन्तगुणे अधिक हैं, क्योंकि अनन्त-परमाण्वात्मक अनन्तवर्गणाओं से प्रत्येक तैजस शरीर निष्पन्न होता है। उनसे भी कार्मण शरीर प्रदेशतः अनन्तगुणे हैं / इस विषय में युक्ति पूर्ववत् समझ लेनी चाहिए / 7. शरीराऽवगाहना-अल्पबहुत्व-द्वार 1566. एतेसि णं भंते ! ओरालिय-वेउध्विय-आहारग-तेया-कम्मगसरीराणं जहणियाए ओगाहणाए उक्कोसियाए ओगाहणाए जहष्णुक्कोसियाए ओगाहणाए कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा! सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसेसाहिया, वेउविवयसरीरस्स जहणिया प्रोगाहणा असंखेज्जगुणा, आहारगसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा; उक्कोसियाए प्रोगाहणाए-सव्वत्थोवा पाहारगसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा, ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखेज्जगुणा, वेउव्वियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा; जहष्णुक्कोसियाए ओगाहणाए-सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा, 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 434 2. वही, पत्र 434 Page #1065 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] 477 तेया-कम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला जहणिया ओगाहणा विसेसाहिया, वेउब्धियसरीरस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा, आहारगसरीरस्स जहणिया प्रोगाहणा असंखेज्जगुणा, आहारगसरीरस्स जहण्णियाहितो ओगाहणाहितो तस्स चेव उक्कोसिया ओगाहणा विसेसाहिया, ओरालियसरीरस्स उक्कोसिया ओगाहणा संखेज्जगुणा, वेउव्वियसरीरस्स णं उक्कोसिया ओगाहणा संखेज्जगुणा, तेया-कम्मगाणं दोण्ह वि तुल्ला उक्कोसिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा / // पण्णवणाए भगवतीए एगवीसइमं ओगाहणसंठाणपयं समत्तं / / [1566 प्र.] भगवन् ! प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण, इन पांच शरीरों में से, जघन्य-अवगाहना, उत्कृष्ट-अवगाहना एवं जघन्योत्कृष्ट अवगाहना की दृष्टि से, कौन किससे 'अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [उ.] गौतम ! सबसे कम औदारिक शरीर की जघन्य-अवगाहना है / तैजस और कार्मण, दोनों शरीरों को अवगाहना परस्पर तुल्य है, (किन्तु औदारिक शरीर की) जघन्य अवगाहना से विशेषाधिक है। (उससे) वैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। (उससे) आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उत्कृष्ट अवगाहना की दृष्टि से--सबसे कम आहारक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना होती है। (उससे) औदारिक शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। उसकी अपेक्षा वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना असंख्यातगुणी है। तैजस और कार्मण, दोनों की उत्कृष्ट अवगाहना परस्पर तुल्य है, (किन्तु वैक्रिय शरीर की) उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी है / जधन्योत्कृष्ट अवगाहना की दष्टि से सबसे कम औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना है / तैजस और कार्मण, दोनों शरीरों को जघन्य अवगाहना एक समान है, किन्तु औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना की अपेक्षा विशेषाधिक है / (उससे) वैक्रिय शरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है / (उससे) याहारक शरीर की जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। याहारक शरीर की जघन्य अवगाहना से उसी की उत्कृष्ट अवगाहना विशेषाधिक है। (उससे) औदारिक शरीर की उकृष्ट अवगाहना संख्यात गुणी है / (उससे) व क्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है / तैजस और कार्मण दोनों शरीरों की उत्कृष्ट अवगाहना समान है, परन्तु वह व क्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी है / विवेचन—पांचों शरीरों की अवगाहनाओं का अल्पबहुत्व—प्रस्तुत सूत्र (1566) में सप्तम द्वार के सन्दर्भ में पांचों शरीरों की जघन्य-उत्कृष्ट अवगाहनात्रों के अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। __ अवगाहनाओं के अल्पबहत्व का आशय--औदारिक शरीर की जघन्य अवगाहना सबसे कम है क्योंकि वह अंगुल के असंख्यातवें भागमात्रप्रमाण होती है / तैजस और कार्मण की जघन्यावगाहना परस्पर तुल्य होते हुए भी प्रौदारिक जघन्यावगाहना से विशेषाधिक इसलिए है कि मारणान्तिकसमुद् Page #1066 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478] [प्रज्ञापनासूत्र धात से समवहत जीव जब पूर्वशरीर से बाहर निकले हुए तैजसशरीर की अवगाहना की आयाम(ऊँचाई), बाहल्य (मोटाई) और विस्तार (चौड़ाई) से विचारणा की जाती है, ऐसी स्थिति में जिस प्रदेश में वे जीव उत्पन्न होंगे वह प्रदेश, औदारिकशरीर को अवगाहना से प्रमित अगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण, व्याप्त होता है और अतीव अल्प बीच का प्रदेश भी व्याप्त होता है / इसलिए प्रौदारिक की जघन्य अवगाहना से तैजस-कार्मण शरीर की जघन्य अवगाहना विशेषाधिक हुई। आहारक शरीर की जघन्य अवगाहना देशोन हस्तप्रमाण और उत्कृष्ट अवगाहना भी एक हाथ की है / उससे औदा. शरीर की उत्कृष्टावगाहना संख्यातगुणी है, क्योंकि वह सातिरेक सहस्रयोजन प्रमाण है। वैक्रियशरीर की उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक लक्षयोजन होने से वह इससे संख्यातगुणी अधिक है / तैजसकार्मण शरीर की उ. अवगाहना समान होने पर भी वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना से असंख्यातगुणी अधिक है, क्योंकि वह 14 रज्जूप्रमाण है / शेष स्पष्ट है / ' // प्रज्ञापना भगवती का इक्कीसवाँ अवगहनासंस्थानपद सम्पूर्ण // 48. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 434-435 Page #1067 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसइमं : किरियापयं बाईसवाँ क्रियापद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का बाईसवाँ क्रियापद है। इसमें विविध दष्टिया से क्रियाओं के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है / * क्रिया सम्बन्धी विचार भारत के प्राचीन दार्शनिकों में होता आया है। क्रियाविचारकों में ऐसे भी लोग थे, जो क्रिया से पृथक् किसी कर्मरूप प्रावरण को मानते ही नहीं थे।' उनके ज्ञान को विभंगज्ञान कहा गया है। * भारतवर्ष में प्राचीनकाल से 'कर्म' अर्थात्-वासना या संस्कार को माना जाता था, जिसके कारण पुनर्जन्म होता है / प्रात्मा के जन्म-जन्मान्तर की अथवा संसारचक्र-परिवर्तन की कल्पना के साथ कर्म की विचारणा अनिवार्य थी। किन्तु प्राचीन उपनिषदों में यह विचारणा क्वचित् ही पाई जाती है, जब कि जैन और बौद्ध साहित्य में, विशेषतः जैन-आगमों में 'कर्म' की विचारणा विस्तृत रूप से पाई जाती है / * प्रस्तुत प्रज्ञापनासूत्र का क्रियाविचार क्रिया के सम्बन्ध में अनेक पहलुओं से हुई विचारणा का संग्रह है। यहाँ क्रियाविचार का क्रम इस प्रकार है* सर्वप्रथम क्रिया के कायिको आदि पांच भेद और प्रभेद, सिर्फ हिंसा-अहिंसा के विचार को लक्ष्य में रख कर बताए गए हैं।' * उसके पश्चात् क्रिया को कर्मबन्ध का कारण परिलक्षित करके जीवों की सक्रियता-अक्रियता के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है। अक्रिय अर्थात् क्रियाओं से सर्वथा रहित को ही कर्मों से सर्वथा मुक्त सिद्ध और सर्वश्रेष्ठ माना गया है।' * उसके बाद अठारह पापस्थानों से होने वाली क्रियानों (प्रकारान्तर से कर्मो) तथा उनके विषयों का निरूपण किया गया है। इसीलिए प्राणातिपात आदि के अध्यवसाय से सात या पाठ कर्मों के बन्ध का उल्लेख किया गया है। * फिर जीव के ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध करते समय कितनी क्रियाएँ होती हैं ? इसका विचार प्रस्तुत किया गया है। यहाँ 18 पापस्थान की क्रियाओं को ध्यान में न लेकर सिर्फ पूर्वोक्त 5 1. देखिये स्थानांगसूत्र 542 2. पण्णवणासुतं (मूलपाठ टिप्पण) भा. 1, पृ. 350 3. वही, पृ. 350 Page #1068 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480] [प्रज्ञापनासूत्र क्रियाएँ ही ध्यान में रखी हैं / परन्तु वृत्तिकार ने स्पष्टीकरण किया है कि इन प्रश्नों का प्राशय यह है कि जीव जब प्राणातिपात द्वारा कर्म बाँधता हो, तब उस प्राणातिपात की समाप्ति कितनी क्रियानों से होती है। वृत्तिकार ने यह भी स्पष्ट किया है कि कायिकी आदि क्रम से तीन, चार या पांच क्रियाएँ समझनी चाहिए।' तत्पश्चात् एक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से तथा अनेक जीव, एक या अनेक जीवों की अपेक्षा से कायिको आदि क्रियाओं में से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? दूसरे जीव को अपेक्षा से कायिकी आदि क्रियाएँ कैसे लग जाती हैं. इसका स्पष्टीकरण वृत्तिकार यों करते हैं कि केवल वर्तमान जन्म में होने वाली कायिकी प्रादि क्रियाएँ यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं, किन्तु अतीत जन्म के शरीरादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रिया भी यहाँ विवक्षित है, क्योंकि जिस जीव ने भूतकालीन काया अादि की विरति नहीं स्वीकारी, अथवा शरीरादि का प्रत्याख्यान (व्युत्सर्ग या ममत्वत्याग) नहीं किया, उस शरीरादि से जो कुछ निर्माण होगा या उसके द्वारा अन्य जीव जो कुछ क्रिया करेंगे, उसके लिए वह जिम्मेवार होगा, क्योंकि उसने शरीरादि का ममत्व त्याग नहीं किया / * इसके बाद चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में पांचों क्रियाओं की प्राप्ति बताई है। इसके पश्चात 24 दण्डकों में कायिकी आदि पांचों क्रियानों के सहभाव की चर्चा की गई है। साथ ही कायिकी आदि पांचों क्रियाओं को प्रायोजिका (संसारचक्र में जोड़ने वाली) के रूप में बताकर इनके सहभाव की चर्चा की गई है। * इसके पश्चात् एक जीव में एक जीव की अपेक्षा से पांचों क्रियाओं में से स्पृष्ट-अस्पृष्ट रहने की चर्चा की गई है। * इसके अनन्तर क्रियानों के प्रकारान्तर से प्रारम्भिकी आदि 5 भेद बताकर किस जीव में कौन-सी क्रिया पाई जाती है ? इसका उल्लेख किया है। इसके पश्चात् चौवीसदण्डकों में इन्हीं क्रियानों की प्ररूपणा की गई है। फिर जीवों में इन्हीं पांच क्रियाओं के सहभाव की चर्चा की गई है / अन्त में समय, देश-प्रदेश को लेकर भी इनके सहभाव की चर्चा की गई है। * इसके पश्चात् प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक 18 पापस्थानों से कौन-सा जीव विरत हो सकता है ? तथा पाणातिपातादि से विरमण किस विषय में होता है ? इत्यादि विचारणा की गई है। 1. पण्णवणामुत्तं मूलपाठटिप्पण, पृ. 351-352 2. वही, पृ. 353-354 3. वही, पृ. 355-356 4, वही, पृ. 356-357 5. वही, पृ. 357, 358, 359 6. वही, पृ. 359 Page #1069 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपर] [481 * इसके बाद यह विचारणा एकवचन और बहुवचन के रूप में की गई है कि प्राणातिपात आदि 18 पापस्थानों से विरत जीव कितनी-कितनी कर्मप्रकृतियों का बंध कर सकता है ? इसमें बंध के अनेक भंग (विकल्प) बताए हैं / ' * तत्पश्चात यह चर्चा प्रस्तुत की गई है कि प्राणातिपात आदि पापस्थानों से विरत सामान्य जीव में या चौबीसदण्डक के किस जीव में 5 क्रियाओं में से कौन-कौन-सी क्रियाएँ होती हैं? * और अन्त में, आरम्भिकी आदि पाँचों क्रियाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है / इस अल्पबहुत्व का आधार यह है कि कौन-सी क्रिया कम अथवा अधिक प्राणियों के हैं ? मिथ्यादृष्टि के तो प्रथम मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती है जबकि अप्रत्याख्यानक्रिया अविरत सम्यग्दष्टि एवं मिथ्यादृष्टि दोनों के होती है। इसी दृष्टि से आगे की क्रियाएँ उत्तरोत्तर अधिक बताई गई हैं / इस समस्त क्रियाविवरण से इतना स्पष्ट है कि कायिकी आदि पांच, 18 पापस्थानों से निष्पन्न क्रियाएँ, तथा प्रारम्भिकी आदि पांच क्रियाएँ प्रत्येक जीव के आत्मविकास में अवरोधरूप हैं, इनका त्याग प्रात्मा को मुक्त एवं स्वतन्त्र करने के लिए आवश्यक है। भगवतीसूत्र में स्पष्ट बताया गया है, श्रमण को भी जब तक प्रमाद और योग है, तब तक क्रिया लगती है। जहाँ तक क्रिया है, वहाँ तक मुक्ति नहीं है।' * परन्तु इस समग्र क्रियाविवरण में ईर्यापथिक और साम्परायिक ये जो क्रिया के दो भेद बाद में प्रचलित हुए हैं, उन्हें स्थान नहीं मिला / यह क्रियाविचार को प्राचीनता सूचित करता है। इसके अतिरिक्त स्थानांगसूत्र में सूचित 25 क्रियाएँ अथवा सूत्रकृतांग में वर्णित 13 क्रियास्थानों का प्रज्ञापना के क्रियापद में उक्त प्राणातिपात आदि 18 पापस्थानजन्य क्रियाओं में समावेश हो जाता है / कुछ का समावेश कायिकी आदि 5 में तथा प्रारम्भिकी आदि 5 में हो जाता है / / D 1. वही, पृ. 360 2. वही, पृ. 361-362 3. देखो, भगवती 3 / 3 सू. 151, 152, 153 4. (क) स्थानांग स्थान 5, सू. 419 (ख) सूत्रकृतांग 2 / 2 Page #1070 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बावीसइमं : किरियापयं बाईसवाँ : क्रियापद क्रिया-भेद-प्रभेदप्ररूपणा 1567. कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाप्रो पण्णत्ताओ। तं जहा-काइया 1 आहिगरणिया 2 पादोसिया 3 पारियावणिया 4 पाणाइवातकिरिया 5 / [1567 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं / यथा-(१) कायिकी, (2) आधिकरणिकी, (3) प्राद्वेषिकी, (4) पारितापनिकी, और (5) प्राणातिपातक्रिया। 1568. काइया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-अणुवरयकाइया य दुप्पउत्तकाइया य / [1568 प्र.] भगवन् ! कायिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। यथा-अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्तकायिकी। 1569. आहिगरणिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! दुबिहा पण्णत्ता / तं जहा-संजोयणाहिकरणिया य निव्वत्तणाहिकरणिया य / [1566 प्र.] भगवन् ! प्राधिकरणिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-संयोजनाधिकरणिकी और निर्वर्तनाधिकरणिकी / 1570. पादोसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता / तं जहा-जेणं अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असुभं मणं पहारेति / से तं पादोसिया किरिया / [1570 प्र.] भगवन् ! प्राद्वेषिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) तीन प्रकार की कही गई है। वह इस प्रकार-जिससे स्व का, पर का अथवा स्व-पर दोनों का मन अशुभ कर दिया जाता है, वह है (त्रिविध) प्राद्वेषिकी क्रिया। 6571. पारियावणिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पणत्ता ? Page #1071 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसा क्रियापर] [483 गोयमा ! तिधिहा पण्णत्ता / तं जहा-जेणं अपणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा असायं वेदणं उदीरेति / से तं पारियावणिया किरिया / {1571 प्र.] भगवन् ! पारितापनिकी क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? [उ.] मौतम ! (वह) तीन प्रकार की कही गई है / जैसे कि-जिस प्रकार से स्व के लिए, पर के लिए या स्व-पर दोनों के लिए असाता (दुःखरूप) वेदना उत्पन्न की जाती है, वह है-(विविध) पारितापनिकी क्रिया / 1572. पाणातिवातकिरिया णं भंते ! कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता / तं नहा-जेणं अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा जीवियानो ववरोवेइ / से तं पाणाइवायकिरिया। [1572 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात-क्रिया कितने प्रकार की कही गई है ? _[उ.] गौतम! (वह) तीन प्रकार की कही गई है। यथा-(ऐसी क्रिया) जिससे स्वयं को, दुसरे को, अथवा स्व-पर दोनों को जीवन से रहित कर दिया जाता है, वह (त्रिविध) प्राणातिपातक्रिया है। विवेचन-हिंसा की वृष्टि से क्रियाओं के भेद-प्रभेद --प्रस्तुत 6 सूत्रों (1567 से 1572 तक) में क्रियाओं के मूल 5 भेद और उनके उत्तरभेदों का निरूपण हिंसा-अहिंसा की दृष्टि से किया गया है। क्रियाओं का विशेषार्थ-क्रिया : दो अर्थ-(१) करना, (2) कर्मबन्धकी कारणभूत चेष्टा / कायिकी-काया से निष्पन्न होने वाली। माधिकरणिको-जिससे प्रात्मा नरकादि दुर्गतियों में अधिकृत--स्थापित की जाए, वह अधिकरण---एक प्रकार का दूषित अनुष्ठानविशेष / अथवा तलवार चक्र प्रादि बाह्य हिंसक उपकरण / अधिकरण से निष्पन्न होने वाली क्रिया प्राधिकरणिकी / प्राषिको-प्रद्वेष -यानी मत्सर, कर्मबन्ध का कारण जीव का अकुशल परिणाम-विशेष / प्रद्वेष से होने वाली प्राद्वेषिकी / पारितापनिकी-परितापना अर्थात्-पीड़ा देना / परितापना से या परितापना में होने वाली क्रिया / प्राणातिपातिकी-इन्द्रियादि 10 प्राणों में से किसी प्राण का अतिपात-विनाशप्राणातिपात / प्राणातिपात-विषयक क्रिया। अनपरतकायिकी-देशतः या सर्वतः विरत हो वह उपरत / जो उपरत-विरत न हो, वह अनुपरत / अर्थात् काया से प्राणातिपातादि से देशतः या सर्वतः विरत-निवृत्त न होना अनुपरतकायिकी। यह क्रिया अविरत को लगती है / दुष्प्रयुक्तकायिकीकाया आदि का दुष्ट प्रयोग करना / यह क्रिया प्रमत्त संयत को लगती है, क्योंकि प्रमत्त होने पर काया का दुष्प्रयोग सम्भव है / संयोजनाधिकरणिकी-पूर्व निष्पादित हल, मूसल, शस्त्र, विष प्रादि हिंसा के कारणभूत उपकरणों का संयोग मिलाना संयोजना है। वही संसार की कारणभूत होने से संयोजनाधिकरणिकी है। यह क्रिया पूर्व निर्मित हलादि हिंसोपकरणों के संयोग मिलाने वाले को लगती है। निवर्तनाधिकरणिको-खङ्ग, भाला आदि हिंसक शस्त्रों का मूल से निर्माण करना निर्वर्तना है। यह संसार की वृद्धिरूप होने से निर्वर्तनाधिकरणिकी कहलाती है / Page #1072 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 484] [प्रजापनासूत्र प्राणातिपातक्रिया-किसी प्रकार से आत्महत्या करना, अथवा प्रद्वेषादिवश दूसरों को या दोनों को प्राण से रहित करना, यह त्रिविध प्राणातिपात क्रिया है।' ___ पारितापनिकी क्रिया : शंका समाधान-जो तप या अन्य अनुष्ठान अशक्य हो, जिस तप के करने से मन में दुर्ध्यान पैदा होता हो, इन्द्रियों की हानि हो, मनवचनकाया के योग उत्पथ पर चलें या एकदम क्षीण हो जाएँ, वह तपश्चरण या कायकष्ट पारितापनिकी क्रिया में है। परन्तु जिससे दुान न हो, जिसका परिणाम अात्महितकर हो, कर्मक्षय करने की उमंग हो, उन्नत भावना हो, वहाँ पारितापनिकी क्रिया नहीं होती। जीवों के सक्रियत्व प्रक्रियत्व की प्ररूपणा 1573. जीवा णं भंते ! कि सकिरिया अकिरिया? गोयमा! जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति जीवा सकिरिया वि अकिरिया वि? गोयमा! जीवा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-संसारसमावष्णगा य असंसारसमावण्णगाय। तस्थ णं जे ते असंसारसमावण्णगा ते णं सिद्धा, सिद्धा अकिरिया। तत्य णं जे ते संसारसमावण्णगा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सेलेसिपडिवण्णगा य असेलेसिपडिवण्णगा य / तत्थ जे जे ते सेलेसिपडिवण्णगा ते णं अकिरिया। तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवण्णगा ते णं सकिरिया / से एतेणढणं गोयमा ! एवं वुच्चति जीवा सकिरिया वि अफिरिया वि। [1573 प्र.] भगवन् ! जीव सक्रिय होते हैं अथवा अक्रिय (क्रियारहित) ? [उ.] गौतम ! जीव सक्रिय (क्रिया-युक्त) भी होते हैं और अक्रिय (क्रियारहित) भी। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जीव सक्रिय भी होते हैं और प्रक्रिय भी होते हैं ? [उ.] गौतम ! जीव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा-संसारसमापनक और प्रसंसारसमापन्नक। उनमें से जो असंसारसमापन्नक हैं, वे सिद्ध जीव हैं। सिद्ध (मुक्त) अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं / और उनमें से जो संसारममापनक हैं, वे भी दो प्रकार के हैं-शैलेशीप्रतिपन्नक और प्रशैलेशीप्रतिपन्नक। उनमें से जो शैलेशी-प्रतिपन्नक होते हैं, वे अक्रिय हैं और जो प्रशैलेशी-प्रतिपन्नक होते हैं, वे सक्रिय होते हैं। हे गौतम ! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि जीव सक्रिय भी हैं और अक्रिय भी। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 436, 2. वही, पत्र 436 . Page #1073 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माईसवाँ क्रियापद] [485 विवेचन-जीवों को सक्रियता-अक्रियता का निर्धारण-प्रस्तुत सूत्र (1573) में जीवों को सक्रिय और अक्रिय दोनों प्रकार का बताकर उनका विश्लेषणपूर्वक निर्धारण किया गया है / पारिभाषिक शब्दों के अर्थ---सक्रिय-पूर्वोक्त क्रियानों से युक्त, या क्रियानों में रत / प्रक्रिय-समस्त क्रियाओं से रहित / ___ संसारसमापन्नक-चतुर्गति भ्रमणरूप संसार को प्राप्त-युक्त। असंसारसमापत्रक-उससे विपरीत-मुक्त / सिद्धों की अक्रियता-सिद्ध देह एवं मनोवृत्ति आदि से रहित होने से पूर्वोक्त क्रिया से रहित हैं, इसलिए वे अक्रिय हैं। शैलेशी-प्रतिपन्नक-अयोगी अवस्था को प्राप्त / शैलेशोप्रतिपत्रकों के सूक्ष्म-बादर काय, वचन और मन के योगों का निरोध हो जाता है, इस कारण वे अक्रिय हैं / अशैलेशीप्रतिपन्नक-शैलेशी-अवस्था से रहित समस्त संसारी प्राणीगण, जिनके मन, वचन, काया के योगों का निरोध नहीं हुआ है / वे सक्रिय हैं।' जीवों को प्राणातिपातादिकिया तथा विषय की प्ररूपणा 1574. अस्थि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जति ? हंता गोयमा ! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जइ ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु / [1574 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से (प्राणातिपात)क्रिया लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! (प्राणातिपातक्रिया संलग्न) होती है / [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से (प्राणातिपात)क्रिया लगती है ? [उ.] गौतम ! छह जीवनिकायों (के विषय) में (लगती है।) 1575. [1] अस्थि णं भंते ! रइयाणं पाणाइवाएणं किरिया कज्जति ? गोयमा! एवं चेव। [1575-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारकों को प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से (प्राणातिपात)क्रिया लगती है ? [उ.] (हाँ) गौतम ! ऐसा (पूर्ववत्) ही है। [2] एवं जाव निरंतरं वेमाणियाणं / [1575-2] इसी प्रकार (नारकों के पालाप के समान) (नारकों से लेकर) यावत् निरन्तर वैमानिकों तक का (पालाप कहना चाहिए।) 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 437 Page #1074 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486] [प्रज्ञापनासून 1576. [1] अस्थि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जति ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं मुसावाएणं किरिया कज्जति ? गोयमा ! सम्बदम्वेसु / [1576-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को मृत्रावाद (के अध्यवसाय) से (मृषावाद-) क्रिया लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! मृषावाद-क्रिया संलग्न) होती है। [प्र.) भगवन् ! किस विषय में (मृषावाद के अध्यवसाय से मृषावाद-क्रिया लगती है ? [उ.] गौतम ! सर्वद्रव्यों के (विषय) में (मृषा० क्रिया लगती है।) [2] एवं णिरंतरं रइयाणं जाच वेमाणियाणं / [1576-2] इसी प्रकार (पूर्वोक्त कथन के समान) नै रयिकों से लेकर लगातार यावत् वैमानिकों (तक) का (कथन करना चाहिए।) 1577. [1] अस्थि णं भंते ! जीवाणं अदिण्णादाणेणं किरिया कज्जति ? हंता अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं अदिण्णादाणेणं किरिया कज्जइ ? गोयमा / गहण-धारणिज्जेसु दम्वेसु / [1577-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को अदत्तादान (के अध्यवसाय) से प्रदत्तादान(क्रिया) लगती है ? [उ.] हाँ, गौतम ! (अदत्तादान-क्रिया संलग्न ) होती है / [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों को अदत्तादान (के अध्यवसाय) से (प्रदत्तादान-) क्रिया लगती है ? [उ.] गौतम ! ग्रहण करने और धारण करने योग्य द्रव्यों (के विषय) में (यह क्रिया होती है।) [2] एवं रहयाणं णिरंतरं जाव बेमाणियाणं / [1577-2] इसी प्रकार (समुच्चय जीवों के आलापक के समान) नरयिकों से लेकर लगातार वैमानिकों तक की (अदत्तादान क्रिया का कथन करना चाहिए 1) 1578. [1] अस्थि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जइ ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं मेहुणेणं किरिया कज्जति ? गोयमा! रूबेसु वा स्वसहगतेसु वा दम्वेसु / [1578-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों को मैथुन (के अध्यवसाय) से (मैथुन-) क्रिया लगती है ? Page #1075 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [487 [उ.] हाँ, (गौतम ! ) (मैथुनक्रिया संलग्न) होती है। [प्र.] "भगवन् ! किस (विषय) में जीवों के मैथुन (के अध्यवसाय) से (मैथुन-) क्रिया लगती है।.] 'भगवन् ! कि [उ.] गौतम ! रूपों अथवा रूपसहगत (स्त्री आदि) द्रव्यों (के विषय) में (यह क्रिया लगती है / ) [2] एवं रइयाणं गिरतरं जाव वेमाणियाणं / [1578-2] इसी प्रकार (समुच्चय जीवों के मैथुन क्रियाविषयक पालापकों के समान) नै रयिकों से ले कर निरन्तर (लगातार) वैमानिकों तक की (मैथुनक्रिया के पालापक कहने चाहिए / ) 1579. [1] अस्थि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्जइ ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं परिग्गहेणं किरिया कज्जति ? गोयमा ! सव्वदन्वेसु। [1579-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के परिग्रह (के अध्यवसाय) से (परिग्रह-) क्रिया लगती) है ? [उ-] हाँ, गौतम ! (परिग्रह क्रिया लगती) है / [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों के परिग्रह (के अध्यवसाय) से (परिग्रह-) क्रिया लगती है ? [उ.] गौतम ! समस्त द्रव्यों (के विषय) में (यह क्रिया लगती है।) [2] एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं / [1579-2] इसी तरह (समुच्चय जीवों के परिग्रह-क्रियाविषयक पालापकों के समान) नैरयिकों से ले कर वैमानिकों तक (परिग्रह-क्रिया-विषयक पालापक कहने चाहिए / ) 1580. एवं कोहेणं माणेणं मायाए लोभेणं पेज्जेणं दोसेणं कलहेणं अभक्खाणेणं पेसुण्णणं परपरिवाएणं अरतिरतीए मायामोसेणं मिच्छादसणसल्लेणं सम्वेसु जीव-णेरइयभेदेसु भाणियन्त्र णिरंतरं जाव वेमाणियाणं ति / एवं अट्ठारस एते दंडगा 18 / 1580 | इसी प्रकार क्रोध से, मान से, माया से, लोभ से, राग (प्रेय) से, द्वेष से, कलह से, अभ्याख्यान से, पैशुन्य से, परपरिवाद से, अरति-रति से, मायामृषा से एवं मिथ्यादर्शनशल्य (के अध्यवसाय) से (लगने वाली क्रोधादि क्रियाओं के विषय में पूर्ववत्) समस्त (समुच्चय) जीवों तथा नारको के भेदों से (ले कर) लगातार वैमानिकों तक के (क्रोधादिक्रियाविषयक पालापक) कहने चाहिए / इस प्रकार ये (अठारह पापस्थानों के अध्यवसाय से लगने वाली क्रियाओं के) अठारह दण्डक (पालापक) हुए। विवेचन–अठारह पापस्थानों से जीवों को लगने वाली क्रियाओं को प्ररूपणा-प्रस्तुत सात Page #1076 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 488] [प्रज्ञापनासूत्र सूत्रों (1574 से 1580 तक) में प्राणातिपात से ले कर मिथ्यादर्शनशल्य तक के अध्यवसाय से समुच्चय जीवों तथा चौवीस दण्डकवी जीवों को लगने वाली इन क्रियाओं तथा इन क्रियाओं के पृथक पृथक विषयों की प्ररूपणा की गई है। प्राणातिपातक्रिया : कारण और विषय-सूत्र 1574 गत प्रश्न का आशय यह है-जीवों के, प्राणातिपात से, अर्थात् प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपात क्रिया की जाती है, अर्थात्होती है / इसका फलितार्थ यह है कि प्राणातिपात (हिसा) की परिणति (अध्यवसाय--परिणाम) के काल में ही प्राणातिपात क्रिया हो जाती है यह कथन ऋजुसूत्रनय को दृष्टि से किया गया है / प्रत्येक क्रिया अध्यवसाय के अनुसार ही होती है। क्योंकि पूण्य और पापकर्म का उपादान-अनुपादान अध्यवसाय पर ही निर्भर है। इसीलिए भगवान् ने भी इन सब प्रश्नों का उत्तर ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से दिया है कि प्राणातिपात के अध्यवसाय से प्राणातिपातक्रिया होती है। इसी प्रकार का आगमवचन है--"परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं" इसी वचन के आधार पर आवश्यकसूत्र में भी कहा गया है-आया चेव अहिंसा, प्राया हिंसत्ति निच्छओ एस' (आत्मा ही अहिंसा है आत्मा ही हिंसा है, इस प्रकार का यह निश्चय नय का कथन है।) निष्कर्ष यह है कि प्रणातिपात क्रिया प्राणातिपात के अध्यवसाय से होती है। इसी प्रकार शेष 17 पापस्थानकों के अध्यवसाय से मृषावादादि क्रियाएँ होती हैं, यह समझ लेना चाहिए / प्रस्तुत सूत्र के अन्तर्गत दूसरा प्रश्न है—वह प्राणातिपातक्रिया किस विषय में होती है ? अर्थात्--प्राणातिपात क्रिया का कारणभूत अध्यवसाय किसके विषय में होता है ? उत्तर में प्राणातिपात क्रिया के कारणभूत अध्यक्साय का विषय षट्जीवनिकाय बताया गया है / क्योंकि मारने का अध्यवसाय जीवविषयक होता है, अजीवविषयक नहीं। रस्सी आदि में सादि की बुद्धि से जो मारने का अध्यवसाय होता है, वह भी 'यह सांप है' इस बुद्धि से प्रवृत्ति होने से जीवविषयक ही है। इसीलिए कहा गया कि प्राणातिपातक्रिया षट्जीवनिकायों में होती है / इसी प्रकार मृषावाद आदि शेष 17 पापस्थानों के अध्यवसाय से होने वाली मृषावादादि क्रिया विभिन्न विषयों को ले कर होती है, यह मूल पाठ से ही समझ लेना चाहिए।' मषावाद : स्वरूप और विषय-सत् का अपलाप और असत् का प्ररूपण करना मृषावाद है। मृषावाद का अध्यवसाय लोकगत और अलोकगत समस्त-वस्तु-विषयक होना सम्भव है / इसलिए कहा गया है.---'सब्वदन्वेसु सर्वद्रव्यों के विषय में मृषावाद क्रिया का कारणभूत अध्यवसाय होता है। द्रव्य ग्रहण के उपलक्षण से 'सर्वपर्यायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। अदत्तादान आदि क्रिया के विषय--अदत्तादान उसी वस्तु का हो सकता है, जो वस्तु ग्रहण या धारण की जा सकती है। इसलिए अदत्तादानक्रिया अन्य वस्तुविषयक नहीं होती, अतः कहा गया हैगहणधारणिज्जेसु दव्वेसु।' मैथुनक्रिया का कारणभूत मैथुनाध्यवसाय भी चित्र, काष्ठ,भित्ति, मूर्ति,पुतला आदि के रूपों या रूपसहगत स्त्री आदि विषयों में होता है / परिग्रह का अर्थ है-स्वत्व या स्वामित्व भाव से मूर्छा / वह प्राणियों के अन्तर में स्थित लोभवश समस्तवस्तुविषयक हो सकती है / इसीलिए कहा गया है--सव्वदम्वेसु / ' अभ्याख्यानादि के अर्थ एवं विषय-अभ्याख्यान-असद् दोषारोपण; 1. प्रज्ञापना. मलप्रवृत्ति, पत्र 437-438 2. वही, मलयवृत्ति, पत्र 438 3. वहीं, मलयवत्ति, पत्र 438 Page #1077 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [499 यथा--प्रचौर को तू चोर है' कहना / पैशुन्य-किसी के परोक्ष में झूठे या सच्चे दोष प्रकट करना, चुगली खाना / परपरिवाद–अनेक लोगों के समक्ष दूसरे के दोषों का कथन करना / माया-मषा--- मायासहित झठ बोलना। यह महाकर्मबन्ध का हेत है। मिथ्यादर्शनशल्य-मिथ्यात्वरूप तीक्ष्ण कांटा। अठारह पापस्थानकों में 5 महाव्रतों के अविरति रूप पांच पापस्थानक हैं / शेष पापस्थानों का इन्हीं पांचों में समावेश हो जाता है।' प्रहारस एए दंडगा-ये (पूर्वोक्त पदों में उल्लिखित) दण्डक (पालापक) अठारह हैं / 'प्राणातिपातादि पापस्थान 18 होने से अठारह पापस्थानों को ले कर जोवों को क्रिया और उसके विषयों का यहाँ निर्देश किया गया है। क्रियाहेतुक कर्मप्रकृतिबन्ध को प्ररूपणा 1581. [1] जीवे णं भंते ! पाणाइदाएणं कति कम्मपगडोमो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा प्रविहबंधए वा / [1581-1 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव (प्राणातिपातक्रिया के कारणभूत) प्राणातिपात (के अध्यवसाय) से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? [उ.] गौतम ! सात अथवा पाठ कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है। [2] एवं गैरइए जाव णिरंतरं वेमाणिए / [1581-2] इसी प्रकार (सामान्य जीव के प्राणातिपात से बंधने वालो कर्मप्रकृतियों के पण के समान) एक नैरयिक से ले कर लगातार एक वैमानिक देव तक के (प्राणातिपात के अध्यवसाय से होने वाली कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन करना चाहिए।) 1582. जीवा णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा! सत्तविहबंधगा वि अट्ठविहबंधगा वि / [1882 प्र.) भगवन् ! (अनेक) जीव प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! वे सप्तविध (कर्मप्रकृतियाँ) बांधते हैं या अष्टविध (कर्मप्रकृतियाँ) वांधते हैं। 1583. [1] रइया णं भंते ! पाणाइवाएणं कति कम्मपगडीओ बंधंति ? गोयमा ! सम्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा, अहवा सत्तविहबंधगा य प्रविहबंधगे य, अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य / {1583-1 प्र. भगवन् ! (अनेक) नारक प्राणातिपात से कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! वे सब नारक सप्तविध (कर्मप्रकृतियाँ) बांधते हैं अथवा (अनेक नारक) सप्तविध (कर्मप्रकृतियों के) बन्धक होते हैं और (एक नारक) अष्टविध (कर्म-) बन्धक होता है, अथवा (अनेक नारक) सप्तविध कर्मबन्धक होते हैं और (अनेक) अष्टविध कर्मबन्धक भी ! 1. प्रजापना. मलयवृत्ति, पत्र 838 2. वही मलयवृत्ति, पत्र 838 Page #1078 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 490] [प्रज्ञापनासूत्र [2] एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमारा। [1583-2 ] इसी प्रकार (पूर्वोक्त सूत्र के कथन के अनुसार) असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमार तक (के प्राणातिपात के अध्यवसाय से होने वाले कर्म-प्रकृतिबन्ध के तीन-तीन भंग समझने चाहिये।) [3] पुढवि-आउ-तेउ-वाउ-वणफइकाइया य, एते सव्वे वि जहा ओहिया जीवा (सु. 1582) / [1583-3] पृथ्वी-अप्-तेजो-वायु-वनस्पतिकायिक जीवों के (प्राणातिपात से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध) के विषय में (सू. 1582 में उक्त) औधिक (सामान्य-अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृतिबन्ध के) समान (कहना चाहिए।) [4] अवसेसा जहा गैरइया / [1583-4] अवशिष्ट समस्त जीवों (वैमानिकों तक के, प्राणातिपात से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध के विषय में) नैरयिकों के समान (कहना चाहिए।) 1584. [1] एवं एते जोवेगिदियवज्जा तिण्णि तिणि भंगा सम्वत्थ भाणियब्व ति जाव मिच्छादसणसल्लेणं। [1584-1] इस प्रकार समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर (शेष दण्डकों के जीवों के प्रत्येक के) तीन-तीन भंग सर्वत्र कहने चाहिए / तथा (मृषावाद से लेकर) मिथ्यादर्शनशल्य तक (के अध्यवसायों) से (होने वाले कर्मबन्ध का भी कथन करना चाहिए / ) [2] एवं एगत्त-पोहत्तिया छत्तीस दंडगा होति / [1584-2] इस प्रकार एकत्व और पृथक्त्व को लेकर छत्तीस दण्डक होते हैं। विवेचन-प्राणातिपातादि से होने वाले कर्मबन्ध की प्ररूपणा–प्रस्तुत चार सूत्रों (1581 से 1584 तक) में प्राणातिपातादि क्रियाओं के कारणभूत प्राणातिपातादि के अध्यवसाय से होने वाले कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा की गई है। सप्तविध बन्ध और अष्टविध बन्ध कब और क्यों ?--एक जीव सप्तविध बन्ध करता है या अष्टविध कर्मबन्ध करता है। इसका कारण यह है कि जब प्रायुष्य कर्म-बन्ध नहीं होता तब सात कर्मप्रकृतियों का और आयुष्यकर्मबन्धकाल में आठ कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। यह एकत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। पृथक्त्व की दृष्टि से विचार करने पर सामान्य बहुत-से जीव या तो सप्तविधबन्धक पाए जाते हैं या अष्टविधबन्धक / ये दोनों जगह सदेव अधिक संख्या में मिलते हैं / नैरयिकसूत्र में सप्तविध बन्धक हैं ही; क्योंकि हिंसादि परिणामों से युक्त नारक सदैव बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। इसलिए उनके सप्तविध बन्धकत्व में कोई सन्देह नहीं है। जब एक भी आयुष्य बन्धक नहीं होता, तब सभी सप्तविधबन्धक होते हैं। जब एक प्रायुष्कबन्धक होता है, तब शेष सब सप्तविधबन्धक होते हैं / जब अष्टविधबन्धक बहुत-से मिलते हैं, तब दोनों में उभयगत बहुवचन का रूप होता है। अर्थात् अनेक सप्तविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक / इस प्रकार तीन भंगों से Page #1079 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापक [491 असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति तक का कथन करना चाहिए। पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर प्रायः हिंसा के परिणामों में परिणत होते हैं, इसलिए सदैव अनेक पाए जाते हैं तथा वे सप्तविधबन्धक या अष्टविधबन्धक होते हैं। शेष द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय, मनुष्य, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानियकों का कथन भंगत्रिक के साथ नैरयिकों की तरह करना चाहिए।' एगत्तपोहत्तिया छत्तीस दंडगा--प्राणातिपात से मिथ्यादर्शन शल्य तक 18 पापस्थानकों के एकत्व और पृथक्त्व के भेद से प्रत्येक के दो-दो दण्डक होने से 18 ही पापस्थानकों के कुल 36 दण्डक होते हैं। जीवादि के कर्मबन्ध को लेकर क्रियाप्ररूपणा 1585. [1] जोवे गं भंते ! गाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। [1585-1 प्र.] भगवन् ! (एक जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता हुआ (कायिकी आदि पांच क्रियानों में से) कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। [2] एवं परइए जाव वेमाणिए / [1585-2] इसी प्रकार एक नै रयिक से लेकर यावत् (एक) वैमानिक (तक के पालापक कहने चाहिए !) 1486. [1] जीवाणं भंते ! पाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणा कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [1586-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए, कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियानों वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं / [2] एवं रइया निरंतरं जाव वेमाणिया। [1586-2] इस प्रकार (सामान्य अनेक जीवों के आलापक के समान) नैरयिकों से (लेकर) लगातार वैमानिकों तक (के आलापक कहने चाहिए / ) 1587. [1] एवं दरिसणावरणिज्ज बेयणिज्ज मोहणिज्ज आउयं णाम गोयं अंतराइयं च अट्ठबिहकम्मपगडीयो भाणियवाओ। 1. प्रज्ञापना मलयवृत्ति पत्र 440 2. बही, पत्र 440 Page #1080 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 492] [प्रज्ञापनासून [1587-1] इस प्रकार (जानावरणीय कर्म के समान) दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, प्रायुष्य, नाम, गोत्र और अन्तरायिक, इन आठों प्रकार की कर्मप्रकृतियों को (बांधता हुआ एक जीय या एक नैरयिक से यावत् वैमानिक, अथवा बांधते हुए अनेक जीवों या अनेक नैरयिकों से यावत् वैमानिकों को लगने वाली क्रियाओं के पालापक कहने चाहिए।) [2] एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [1587-2] एकत्व और पृथक्त्व के (प्राश्रयी कुल) सोलह दण्डक होते हैं / विवेचन--अष्टविध कर्मबन्धाश्रित क्रियाप्ररूपणा-प्रस्तुत त्रिसूत्री (सू. 1585 से 1587 तक ) में जीवों के द्वारा प्राणातिपातादि के कारण ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधते हुए क्रियाओं के लगने की संख्या की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत प्रश्न का आशय-इसी पद में पहले कहा गया था कि जीव प्राणातिपात आदि पाप के अध्यवसाय से सात या आठ कर्मों को बांधता है। प्रस्तुत में यह बताया गया है कि वह ज्ञानावरणीयादि कर्म बांधता हुआ कायिकी आदि कितनी क्रियानों से प्राणातिपात को समाप्त करता है ? तथा यहाँ ज्ञानावरणीय नामक कर्मरूप कार्य से प्राणातिपात नामक कारण का निवृत्तिभेद भी बताया गया है। उस भेद से बन्धविशेष भी प्रकट किया गया है / ' कहा भी है-"तीन, चार या पांच क्रियानों से क्रमशः हिसा समाप्त (पूर्ण) की जाती है, किन्तु यदि योग और प्रद्वेष का साम्य हो तो इसका विशिष्ट बन्ध होता है / उत्तर का आशय---उसी प्राणातिपात का निवृत्तिभेद बताते हुए उत्तर में कहा गया हैकदाचित् वह तीन क्रियाओं वाला होता है, इत्यादि। जब तीन क्रियाओं वाला होता है, तब कायिकी प्राधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रियाओं से प्राणातिपात को समाप्त करता है। कायिकी से हाथ पैर आदि का प्रयोग (प्रवृत्ति या व्यापार) करता है, प्राधिकरणिकी से तलवार आदि को जुटाता है या तेज या ठीक करता है, तथा प्राद्वेषिकी से 'उसे मारू' इस प्रकार का मन में अशुभ सम्प्रधारण (विचार) करता है / जब वह चार क्रियाओं से युक्त होता है, तब कायिकी, ग्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी क्रियाओं के उपरान्त चौथी 'पारितापनिकी' क्रिया से युक्त भी हो जाता है, अर्थात्-खङ्ग आदि के प्रहार (धात) से पीडा पहुँचा कर पारितापनिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। जब वह पांच क्रियाओं से युक्त होता है, तब पूर्वोक्त चार क्रियाओं के अतिरिक्त पांचवीं प्राणातिपातिकी क्रिया से भी युक्त हो जाता है। अर्थात् उसे जीवन से रहित करके प्राणातिपातक्रिया वाला भी हो जाता है।' 'तिकिरिए' आदि पदों का आशय-जीव ज्ञानावरणीय कर्म को बांधते हुए सदेव बहुत-से होते हैं, इस कारण तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं। इस प्रकार एक जीव, एक नैरयिकादि, तथा अनेक जीव या अनेक नैरयिकादि चौवीस दण्डकवर्ती जीवों को लेकर क्रियाओं की चर्चा की गई है। 1. प्रजापना. मलयवृत्ति, पत्र 440 2. तिसृभिश्चतसृभिरय पञ्चभिश्च (क्रियाभिः) हिंसा समाध्यते क्रमशः / बन्धोऽस्य विशिष्टः स्याद, योग प्रतषसाम्यं चेत् ॥-प्रज्ञापना. मलयवत्ति, 5.440 3. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र 440 4. वही, मलयवृत्ति, पत्र 441 Page #1081 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवां क्रियापद] [493 सोलह दण्डक-ज्ञानावरणीय आदि पाठ कर्मो (कर्मप्रकृतियों) के बन्ध को लेकर प्रत्येक कर्म के आश्रयी एकत्व और पृथक्त्व के भेद से दो-दो दण्डक कहने चाहिए। इस प्रकार सब दण्डकों की संख्या 16 होती हैं।' जीवादि में एकत्व और पृथक्त्व से क्रियाप्ररूपरणा 1588. जीवे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए। [1588 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला, कदाचित् पांच क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय (क्रियारहित) होता है / 1589. [1] जीवे णं भंते ! रइयाओ कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चतुकिरिए सिय प्रकिरिए / [1589-1 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (एक) नारक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियानों वाला और कदाचित् अक्रिय होता है। [2] एवं जाव थणियकुमाराओ। [1586-2] इस प्रकार (पूर्वोक्त एक जीव की एक नारक की अपेक्षा से क्रिया सम्बन्धी आलापक के समान) (एक जीव की, एक असुरकुमार से ले कर) यावत् (एक) स्तनितकुमार को की अपेक्षा से (क्रिया सम्बन्धी पालापक कहने चाहिए / ) [3] पुढविक्काइय-आउक्काइय-तेउक्काइय-वाउक्काइय-वणफइकाइय-बेइंदिय-तेइंदिय-च उरिदिय-पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणूसातो जहा जीवातो (सु. 1588) / [1589-3] (एक जीव का) (एक) पृथ्वीकायिक, अप्कायिक तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक एवं एक मनुष्य की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी पालापक) (सू. 1588 में उक्त) एक जीव को अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी प्रालापक) के समान (कहने चाहिए।) [4] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाओ जहा पेरइयायो (सु. 1589) [1589-4] (इसी तरह एक जीव का) (एक) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक की अपेक्षा से, क्रियासम्बन्धो पालापक) (सू. 1589-1 में उक्त) (एक) नैरपिक की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक) के समान कहने चाहिए। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र 441 Page #1082 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासून 1590. जीवे णं भंते ! जोवेहितो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए / [1560 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला, कदाचित् पांच क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय होता है / 1591. जीवे णं भंते ! गैरइएहितो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए। एवं जहेव पढमो दंडओ तहा एसो वि वितिओ भाणियन्यो। [1591 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव, (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? ___ [उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् अक्रिय होता है / 1592. जीवा गं भंते ! जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया वि सिय चउकिरिया विसिय पंचकिरिया वि सिय अकिरिया वि। [1592 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले, कदाचित् पांच क्रियाओं वाले भी और कदाचित् अक्रिय होते हैं / 1593. जीवाणं भंते ! रइयाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! जहेब आइल्लदंडो तहेव भाणियब्यो जाव वेमागिय त्ति / [1563 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (एक) नै रयिक की अपेक्षा से कितनी क्रिया प्रों वाले होते है ? [उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रारम्भिक दण्डक (सू. 1589-1) में (कहा गया था,) उसी प्रकार से, (यह दण्डक भी) यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 1594. जीवा णं भंते ! जीवेहितो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया विचउकिरिया वि पंचकिरिया वि अकिरिया वि। [1594 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? उ.] गौतम ! (वे) तीन कियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियानों वाले भी, पांच क्रियाओं वाले भी और अक्रिय भी होते हैं। Page #1083 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसा क्रियापद] 1595. [1] जीवा णं भंते ! रइएहितो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि अकिरिया वि / _[1595-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) जीव, (अनेक) नारकों को अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और प्रक्रिय भी होते हैं। [2] असुरकुमारेहितो वि एवं चेव जाव वेमाणिएहितो। [णवरं] ओरालियसरीरेहितो जहा जोहितो (सु. 1594) / {1595-2 प्र.] इसी प्रकार (पूर्वोक्त पालापक के समान) अनेक जीवों के अनेक असुरकुमारों से (ले कर) यावत् (अनेक) वैमानिकों की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी पालापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (अनेक) औदारिक शरीरधारकों (पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्यों) की अपेक्षा से (जब क्रियासम्बन्धी पालापक कहने हों, तब सू. 1594 में उक्त अनेक) जीवों की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धी आलापक) के समान (कहने चाहिए / ) 1566. जेरइए णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। [1596 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक, (एक) जीव की अपेक्षा से कितनी क्रिया वाला होता 1596 प्र.] भगवन ! 100 [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है / 1567. [1] रइए णं भंते ! गैरइयाओ कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चकिरिए। [1597-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक (एक) नै रयिक की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? __ [उ.] गोतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला और कदाचित् चार क्रियाओं वाला होता है। [2] एवं जाव वेमाणियाओ। णवरं ओरालियसरीरामो जहा जीवानो (सु. 1596) / [1597-2] इसी प्रकार (पूर्वोक्त पालापक के समान) (एक असुरकुमार से लेकर) यावत् एक वैमानिक की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी प्रालापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (एक) औदारिकशरीरधारक जीव की अपेक्षा से (जन क्रियासम्बन्धी आलापक कहने हों, तब सू. 1596 में कथित एक) जीव की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी अालापक) के समान (कहने चाहिए / ) Page #1084 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 496] [प्रज्ञापनासूत्र 1598. रइए णं भंते ! जीवेहितो कइकिरिए ? गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। |1568 प्र.] भगवन् ! (एक) नारक, (अनेक) जोवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? | उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला, कदाचित् चार क्रियाओं वाला और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। 1599. [1] णेरइए णं भंते ! भेरइएहितो कइकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए। एवं जहेव पढभो दंडओ तहा एसो वि बितिम्रो भाणियन्यो। [1599-1 प्र.] भगवन् ! एक नैरयिक, अनेक नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाला होता है ? [उ.] गौतम ! (वह) कदाचित् तीन क्रियाओं वाला और कदाचित् चार क्रियाओं वाला होता है / इस प्रकार जैसे प्रथम दण्डक कहा था, उसी प्रकार यह द्वितीय दण्डक भी कहना चाहिए। [2] एवं जाव वेमाणिएहितो। णवरं रइयस्स रइएहितो देवेहितो य पंचमा किरिया णस्थि / |1599-2] इसी प्रकार (पूर्वोक्त पालापक के समान) यावत् अनेक वैमानिकों की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी प्रालापक कहने चाहिए / ) विशेष यह है कि (एक) नैरयिक के (अनेक) नरयिकों को अपेक्षा से (क्रिया सम्वन्धी आलापक में) पंचम क्रिया नहीं होती। 1600. रइया णं भंते ! जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया / [1600 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक, (एक) जीव को अपेक्षा से, कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? उ.] गौतम ! कदाचित् तीन क्रियानों वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं। 1601. एवं जाव वेमाणियाओ। णवरं रइयानो देवाओ य पंचमा किरिया पत्थि / {1601] इसी प्रकार (पूर्वोक्त पालापक के समान) (एक असुरकुमार से ले कर) यावत् एक वैमानिक की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी आलापक कहने चाहिए / ) विशेष यह है कि (एक) नैरयिक या (एक) देव की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी पालापक में) पंचम क्रिया नहीं होती। 1602. रइया णं भंते ! जीहितो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [1602 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नारक, (अनेक) जीवों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? Page #1085 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसा क्रियापद] [497 [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं, चार क्रियाओं वाले भी और पांच क्रियाओं वाले भी होते हैं ? 1603. [1] रइया णं भंते ! णेरइरहितो कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि। [1603-1 प्र.] भगवन् ! (अनेक) नैरयिक, (अनेक) नैरयिकों की अपेक्षा से कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे) तीन क्रियाओं वाले भी होते हैं और चार क्रियाओं वाले भी होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणिएहितो। गवरं ओरालियसरीरेहितो जहा जोवेहितो (सु. 1602) / |1603.2] इसी प्रकार (उपर्युक्त अालापक के समान) (अनेक असुरकुमारों से ले कर) यावत् (अनेक) वैमानिकों की अपेक्षा से क्रियासम्बन्धो पालापक कहने चाहिए। विशेष यह है कि अनेक औदारिकशरीरधारी जीवों को अपेक्षा से, (क्रियासम्बन्धी प्रालापक) (सू. 1602 में कथित अनेक) जीवों की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी पालापक) के समान (कहने चाहिए / ) 1604. [1] असुरकुमारे णं भंते ! जीवातो कतिकिरिए ? गोयमा ! जहेव रइएणं चत्तारि दंडगा (सु. 1596-99) तहेव असुरकुमारेण वि चत्तारि दंडगा भाणियन्वा / एवं उवउज्जिऊण भावेयन्वं ति-जीवे मणूसे य अकिरिए वुच्चति, सेसा अकिरिया ण वुच्चंति, सम्वे जीवा पोरालियसरीरेहितो पंचकिरिया, णेरइय-देवेहितो य पंचकिरिया ण वुच्चंति / [1604-1 प्र.] भगवन् ! (एक) असुरकुमार, एक जीव की अपेक्षा से, कितनी क्रियाओं वाला होता है ? उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1596 से 1596 तक में) (एक) नारक की अपेक्षा से (क्रियासम्बन्धी) चार दण्डक (कहे गए) थे, वैसे ही (एक) असुरकुमार को प्रोक्षा से भी (क्रियासम्बन्धी) चार दण्डक कहने चाहिए / इस प्रकार का उपयोग लगाकर विचार कर लेना चाहिए कि—एक जीव और एक मनुष्य हो अक्रिय कहा जाता है, शेष सभी जीव अक्रिय नहीं कहे जाते / सर्व जीव, औदारिक शरीरधारी अनेक जीवों की अपेक्षा से--पांच क्रिया वाले होते हैं / नारकों और देवों की अपेक्षा से पांच क्रियाओं वाले नहीं कहे जाते। [2] एवं एक्केक्कजीवपए चत्तारि चत्तारि दंडगा भाणियब्बा। एवं एयं दंडासयं / सवे वि य जीवादीया दंडगा। [1604-2] इस प्रकार एक-एक जीव के पद में चार-चार दण्डक कहने चाहिए / यों कुल मिला कर सौ दण्डक होते हैं / ये सब एक जीव आदि से सम्बन्धित दण्डक हैं / विवेचन जीवों को दूसरे जीवों की अपेक्षा से लगने वाली क्रियाओं को प्ररूपणा---प्रस्तुत 17 सूत्रों (1588 से 1604) में जीवों के, दूसरे जीवों की अपेक्षा से लगने वाली क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। Page #1086 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498] [प्रज्ञापनासूत्र प्रस्तुत सूत्रावली में पूर्वोक्त कायिकी प्रादि पांच क्रियाओं का ही विचार किया गया है। वृत्तिकार के अनुसार यहाँ केवल वर्तमान भव में होने वाली कायिकी आदि क्रियाएँ अभिप्रेत नहीं, किन्तु अतीतजन्म के काय-शरीरादि से अन्य जीवों द्वारा होने वाली क्रियाएँ भी यहाँ अभिप्रेत हैं; क्योंकि अतीत जन्म के शरीरादि का उसके स्वामी ने प्रत्याख्य i) नहीं किया। इसलिए उन शरीरादि में से जो कुछ भी निर्माण हो अथवा उससे शस्त्रादि बनाकर किसी को परितापना दी गई या किसी की हिंसा की गई हो तो अर्थात्-उक्त भूतकाल के शरीरादि से अन्यजीव जो कुछ भी क्रिया करे, उन सब के लिए उस शरीरादि का भूतपूर्व स्वामी जिम्मेदार है, क्योंकि उस जीव ने अपने स्वामित्व के शरीरादि का व्युत्सर्ग (परित्याग) नहीं किया; उसके प्रति, जो ममत्व था, उसका विसर्जन (त्याग) नहीं किया। जब तक उस भूतपूर्व शरीरादि का व्युत्सर्ग जीव नहीं करता, तब तक उससे सम्बन्धित क्रियाएँ लगती रहती हैं। हाँ, अगर पूर्वजन्म के शरीर का ममत्व विसर्जन कर देता है, तो उससे कोई क्रिया नहीं लगती, क्योंकि वह उससे सर्वथा निवृत्त हो चुका है।' व्याख्या-एक जीव की अपेक्षा से एक जीव को जो क्रियाएँ (3, 4 या 5) लगती हैं, वे वर्त. मान जन्म को ले कर लगती हैं / अतीतभव को लेकर कायिकी आदि तीन, चार या पांच क्रियाएँ एक जीव को इस प्रकार लगती हैं- कायिकी तब लगती है, जब उसके पूर्वजन्म से सम्बन्धित अविजित शरीर या शरीर के एक देश का प्रयोग किया जाता है / प्राधिकरणिकी तब लगती है, जब उसके पूर्व जन्म के शरीर से संयोजित हल, मूसल, खड्ग आदि अधिकरणों का दूसरों के घात के लिए उपयोग किया जाता है। प्राद्वेषिकी तब लगती है, जब पूर्वजन्मगत शरीरादि का ममत्व विसर्जन (प्रत्याख्यान) न किया हो, और तद्विषयक बुरे परिणाम में कोई प्रवृत्त हो रहा हो / पारितापनिकी तब होती है, जब अव्युत्सृष्ट काया से या काया के एकदेश से कोई व्यक्ति दूसरों को परिताप (संताप) दे रहा हो। और प्राणातिपातक्रिया तब होती है, जब उस अव्युत्सृष्ट काय से दूसरे का घात कर दिया जाए। अक्रिय तब होता है, जब कोई व्यक्ति पूर्वजन्म के शरीर या शरीर से सम्बद्ध साधन का तीन करण तीन योग से व्युत्सर्ग कर देता है। तब उस जन्मभावी शरीर से कछ भी क्रिया नहीं करता या की जाती। यह अक्रियता मनुष्य की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि मनुष्य ही सर्वविरत हो सकता है। देवों और नारकों के जीवन का घात असम्भव है, क्योंकि देव और नारक अनपवर्त्य (निरुपक्रम) आयुवाले होते हैं / उनकी अकाल मृत्यु कदापि नहीं होती / अतएव उनके विषय में पचम क्रिया नहीं हो सकती 2 द्वीन्द्रियादि की अपेक्षा से नारक को कायिकी आदि क्रियाएँ-जिस नारक ने पूर्व भव के शरोर का जब तक विसर्जन नहीं किया, उस नारक का श रोर तब तक पूर्वभाव प्रज्ञापना से, रिक्त घी के घड़े की तरह 'उसका' कहलाता है। उस शरीर के हड्डी आदि एक देश से भी कोई दूसरा किसी का प्राणातिपात (घात) करता है तो पूर्व जन्मगत उस शरीर का स्वामी जीव भी कायिकी आदि क्रियाओं से संलग्न हो जाता है, क्योंकि उसने उस शरीर का व्युत्सर्ग नहीं किया था। जब उसी जीव के शरीर के एकदेश को अभिघात (प्रहार) आदि में समर्थ जान कर कोई व्यक्ति (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2 पृ. 123 1. (क) प्रज्ञापनाां मलयवृत्ति, पत्र 442 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 442 Page #1087 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] प्राणातिपात के लिए उद्यत हो, उसे देख कर द्वीन्द्रियादि घात्य जीव पर क्रोधादि उत्पन्न होने से मारने के लिए यह शस्त्र शक्तिशाली है, ऐसा चिन्तन करता हुआ अत्यन्त क्रोध आदि का परिणाम करता है, पीड़ा पहुँचाता है, प्राणनाश करता है, तो प्राद्वेषिकी आदि तीनों क्रियाएँ होती हैं।' सौ दण्डक–सामान्यतया जीवपद में एक दण्डक और नैरयिक आदि के 24 दण्डक, ये दोनों मिलाकर 25 दण्डक हुए। फिर एक-एक पद के चार-चार—एक जीव, अनेक जीव, एक नारक अनेक नारक) दण्डक हुए। इस प्रकार 254 4 = 100 दण्डक हुए। चौवीस दण्डकों में क्रियाप्ररूपणा 1605. कति गं भंते! किरियाओ पण्णत्तानो ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णताओ। तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया / [1605 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं। वे इस प्रकार-कायिको यावत् प्राणातिपातक्रिया। 1606. [1] गैरइयाणं भंते ! कति किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया। [1606-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के कितनी क्रियाएँ कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके) पांच क्रियाएँ कही गई हैं / यथा-कायिकी यावत् प्राणातिपातक्रिया। [2] एवं जाव वेमाणियाणं / [1606-2] इसी प्रकार (का क्रियासम्बन्धी कथन असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकों के (सम्बन्ध में करना चाहिए / ) विवेचन-क्रिया : प्रकार और चौवीस दण्डकव्याप्ति—प्रस्तुत दो सुत्रों (1605-1606) में क्रिया के पूर्वोक्त पांच प्रकार बताकर उनको चौवोस दण्डकवर्ती जीवों में व्याप्ति की प्ररूपणा की जीवादि में क्रियायों के सहभाव की प्ररूपणा 1607. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स आहिगरणिया किरिया कज्जति ? जस्स आहिंगरणिया किरिया कज्जति तस्स काइयर किरिया कज्जति ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स प्राहिगरणी णियमा कज्जति, जस्स माहिगरणी किरिया कज्जति तस्स वि काइया किरिया णियमा कज्जति / [1607 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उसके आधिकरणिकी क्रिया होती है ? (तथा) जिस जीव के प्राधिकरणिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी क्रिया होती है ? 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 443 2. वही, पत्र 443 Page #1088 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 500] [प्रज्ञापनासूत्र [उ.] गौतम ! जिस जीव के कायिकी क्रिया हाती है, उसके नियम से प्राधिकरणिकी क्रिया होती है, और जिसके आधिकरणिकी क्रिया होती है, उसके भी नियम से कायिकी क्रिया होती है। 1608. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जति तस्स पासोसिया किरिया कज्जति ? जस्स पाओसिया किरिया कज्जति तस्स काइया किरिया फज्जति ? गोयमा ! एवं चेव। [1608 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है क्या उसके प्राद्वेषिको क्रिया होती है ? और जिसके प्राद्वेषिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्ववत् दोनों परस्पर नियम से समझना चाहिए / ) 1609. जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ, जस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ तस्स काइया किरिया कज्जति ? गोयमा ! जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया किरिया सिय कज्जति सिय णो कज्जति, जस्स पुण पारियावणिया किरिया कज्जति तस्स काइया नियमा कज्जति / [160 6 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उसके पारितापनिकी क्रिया होती है ? तथा जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उसके पारितापनिकी क्रिया कदाचित् होती है, और कदाचित् नहीं होती, किन्तु जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है, उसके कायिको क्रिया नियम से होती है। 1610. एवं पाणाइवायकिरिया वि / [1610] इसी प्रकार (पारितापनिकी और कायिकी क्रिया के परस्पर सहभाव-कथन के समान) प्राणातिपात क्रिया (और कायिकी क्रिया) का (परस्पर सहभाव-कथन भी करना चाहिए।) 1611. एवं आदिल्लाओ परोप्परं नियमा तिम्णि कज्जति / जस्स आदिल्लानो तिष्णि कज्जति तस्स उवरिल्लाओ दोणि सिय कज्जति सिय णो कज्जति / जस्स उरिल्लाओ दोणि कन्जंति तस्स आइरुलाओ तिष्णि णियमा कज्जंति / [1611] इस प्रकार प्रारम्भ की तीन क्रियाओं का परस्पर सहभाव नियम से होता है / जिसके प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ होती हैं, उसके आगे की दो क्रियाएँ (पारितापनिकी और प्राणातिपातक्रिया) कदाचित् होती हैं, कदाचित् नहीं होती; (परन्तु) जिसके आगे की दो क्रियाएँ होती हैं, उसके प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ (कायिकी, प्राधिकरशिकी और प्राद्वेषिकी) नियम से होती हैं / 1612. जस्स णं भंते ! जीवस्स पारियावणिया किरिया कज्जइ तस्स पाणाइवायकिरिया क.जति ? जरस पाणावायाकरिया कज्जति तस्स पारियावणिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! जस्स जं जीवस्स पारियावणिया किरिया कज्जति तस्स पाणाइवायकिरिया सिय Page #1089 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [501 कज्जति सिय णो कज्जति, जस्स पुण पाणाइवायकिरिया कज्जति तस्स पारियावणिया किरिया नियमा कज्जति / [1612 प्र.] भगवन् ! जिसके पारितापनिकी क्रिया होती है क्या उसके प्राणातिपात-क्रिया होती है ? (तथा) जिसके प्राणातिपात-क्रिया होती है, क्या उसके पारितापनिको क्रिया होती है ? [उ.] गौतम! जिस जीव के पारितापनिको क्रिया होती है, उसके प्राणातिपात क्रिया कदाचित होती है. कदाचित नहीं भी होती; किन्तु जिस जीव के प्राणातिपात-क्रिया होती है. उसके पारितापनिकी क्रिया नियम से होती है / 1613. [1] जस्स णं भंते ! गेरइयस्स काइया किरिया कज्जति तस्स आहिगरणिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! जहेव जीवस्स (सु. 1607.--12) तहेव णेरइयस्स वि / [1613-1 प्र.] भगवन् ! जिस नैरयिक के कायिकी क्रिया होती है क्या उसके प्राधिकरणिकी क्रिया होती है ? [. गौतम ! जिम प्रकार (सू. 1607 से 1612 तक में) जीव (सामान्य) में (कायिकी आदि क्रियाओं के परस्पर सहभाव की चर्चा की गई है) उसी प्रकार नरयिक के सम्बन्ध में भी (समझ लेनी चाहिए।) निरंतरं जाव वेमाणियस्स / [1613-2] इसी प्रकार (नारक के समान) यावत् वैमानिक तक (क्रियानों के परस्पर सहभाव का कथन करना चाहिए / ) 1614. जं समयं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जति तं समयं प्राहिगरणिया किरिया कज्जति ? जं समयं आहिगरणिया किरिया कज्जति तं समयं काइया किरिया कज्जति ? एवं जहेव पाइल्लओ दंडओ भणिओ (सु. 1607-13) तहेव भाणियन्वो जाव वेमाणियस्स / [1614 प्र] भगवन् ! जिस समय जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उस समय उसके प्राधिकरणिकी क्रिया होती है ? (तथा) जिस समय उसके प्राधिकरणिकी क्रिया होती है, क्या उस समय कायिकी क्रिया होती है ? [उ.] (गौतम ! ) जिस प्रकार (सू. 1607 से 1613 तक में) क्रियाओं के परस्पर सहभाव के सम्बन्ध में प्रारम्भिक दण्डक कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत् वैमानिक तक कहना चाहिए। 1615. जं देसं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जति तं देसं णं पाहिगरणिया किरिया कज्जति? तहेव जाव वेमाणियस्स / Page #1090 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 502] [प्रज्ञापनासूत्र [1615 प्र.] (भगवन् ! ) जिस देश में जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उस देश में प्राधिकरणिकी क्रिया होती है ? [उ.] (यहाँ भी) उसी (पूक्ति मूत्रों की) तरह यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए / ) 1616. [1] जंपएसं णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कज्जति तं पएस प्राहिगरणिया किरिया कज्जति ? एवं तहेव जाव वेमाणियस्स। [1616-1 प्र. (भगवन् ! ) जिस प्रदेश में जीव के कायिकी क्रिया होती है, क्या उस प्रदेश में प्राधिकरणिकी क्रिया होती है ? [उ.] (गौतम ! ) (यहाँ भी) उसी (पूर्वोक्त सूत्रों की तरह यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए।) [2] एवं एते जस्स 1, जं समयं 2, जं देसं 3, जं पएसं णं 4 चत्तारि दंगा होंति / [1616-2] इस प्रकार (1) जिस जीव के (2) जिम समय में (3) जिस देश में और (4) जिस प्रदेश में ये चार दण्डक होते हैं। विवेचन--क्रियाओं के परस्पर सहभाव की विचारणा–प्रस्तुत 10 सूत्रों (सु. 1607 से 1616 तक) में पूर्वोक्त पांच क्रियाओं के, जीव, समय, देश और प्रदेश की दृष्टि से, परस्पर सहभाव की विचारणा की गई है। निष्कर्ष प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ जीव में नियम से, परस्पर सहभाव के रूप में रहती हैं, किन्तु इन प्रारम्भिक तीन क्रियाओं के साथ आगे की दो क्रियाएँ कदाचित् रहती हैं, कदाचित् नहीं रहतीं / मगर जिस जीव में आगे की दो क्रियाएँ होती हैं, उसमें प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ अवश्य होती हैं / प्राणातिपात और पारितापनिकी क्रिया एक जीव में कदाचित् एक साथ होती हैं, कदाचित नहीं भी होती / सामान्य जीव की तरह चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में इन क्रियाओं के सहभाव के ये ही नियम हैं / जीव में क्रिया-सहभावसम्बन्धी ग्रालापक के समान देश और प्रदेश में क्रिया-सहभाव सम्बन्धी पालायक कहने चाहिए।' कायिकी आदि का परस्पर सहभाव : नियस से या विकल्प से ? --काय एक प्रकार का अधिकरण भी हो जाता है, इसलिए कायिको क्रिया होने पर प्राधिकरणिको अवश्यमेव होती है और प्राधिकरणिकी होने पर कायिकी भी अवश्य होती है। और वह विशिष्ट कायिकी क्रिया प्रद्वेष के विना नहीं होती, इसलिए प्राद्वेषिकी क्रिया के साथ भी कायिकी का अविनाभावसम्बन्ध है / वैसी क्रिया के समय शरीर पर प्रदेष के चिह्न (वक्रता, रूक्षता, कठोरता आदि) स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं / इसलिए कायिकी के साथ प्राद्वेषिकी प्रत्यक्षतः उपलब्ध होती है / 2 प्रारम्भ की तीन क्रियाओं का सहभाव होने पर भो परितापन और प्राणातिपात इन दोनों के सहभाव का कोई नियम नहीं होता; क्योंकि जब कोई घातक बध्य मृगादि को धनुष खींच कर वाणादि 1. पाणवणासुत्त (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 355-356 2. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 444-445 Page #1091 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माईसवाँ क्रियापद] से बींध देता है, उसके पश्चात् उसका परितापन या मरण होता है. अन्यथा नहीं। अतः इन दोनों का सहभाव नियम से नहीं होता / अर्थात्-पारितापनिकी क्रिया के होने पर भी प्राणातिपातक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। जब बाण प्रादि के प्रहार से जीव को प्राणरहित कर दिया जाता है तब प्राणातिपातक्रिया होती है. शेष समय में नहीं होती। किन्तु जिसके प्राणातिपातक्रिया होती है, उसके नियम से पारितापनिकी क्रिया होती है, क्योंकि परितापना के बिना प्राणघात असम्भव है।' जीव प्रादि में प्रायोजिता क्रिया की प्ररूपणा-- 1617. कति णं भंते ! आजोजिताओ किरियाओ पण्णत्तानो ? गोयमा ! पंच आजोजिताओ किरियाप्रो पणत्ताओ। तं जहा-काइया जाव पाणाइवायकिरिया। [1617 प्र.] भगवन् ! प्रायोजिता (जीव को संसार में आयोजित करने—जोड़ने वाली) क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! आयोजिता क्रियाएँ पांच कही गई हैं। यथा--कायिकी यावत् प्राणातिपातक्रिया। 1618. एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / {1618 | नै रयिकों से लेकर वैमानिकों तक (इन पांचों प्रायोजिता क्रियाओं का) इसी प्रकार (कथन करना चाहिए।) 1619. जस्स गं भंते ! जीवस्स काइया प्राओजिया किरिया अस्थि तस्स आहिकरणिया आओजिया किरिया अस्थि ? जस्स आहिगरणिया आओजिया किरिया अस्थि तस्स काइया आओजिया किरिया अस्थि ? एवं एतेणं अभिलावेणं ते चेव चत्तारि दंडगा भाणियन्वा जस्स 1 जं समयं 2 जे देसं 3 जं पदेसं 4 जाव वेमाणियाणं / [1616 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के कायिकी प्रायोजिता क्रिया होती है, क्या उसके आधिकरणिको प्रायोजिता क्रिया होती है ? (और) जिसके प्राधिकरणिको आयोजिता क्रिया होती है, क्या उसके कायिकी प्रायोजिता क्रिया होती है ? [उ.] इस प्रकार (सू. 1607 से 1616 में उक्त पालापकों के समान यहाँ भी) इस (तथा अन्य) अभिलाप के साथ (1) जिस जीव में, (2) जिस समय में. (3) जिस देश में और (4) जिस प्रदेश में-ये चारों दण्डक यावत वैमानिकों तक कहने चाहिए। विवेचन-आयोजिता क्रियाएँ और उनका सहभाव--प्रस्तुत त्रिसूत्री (1617 से 1616 तक) में पांच प्रायोजिता क्रियाओं का तथा जीव, समय, देश, प्रदेश में उसके परस्पर सहभाव का कथन अतिदेशपूर्वक किया गया है / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 445 Page #1092 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 504] [प्रज्ञापनासूत्र प्रायोजिता क्रिया: विशेषार्थ जो क्रियाएँ जीव को संसार में प्रायोजित करने-जोड़ने वाली हैं, अर्थात् जो संसारपरिभ्रमण की कारण भूत हैं, वे प्रायोजित क्रियाएँ कहलाती हैं / यद्यपि क्रियाएं साक्षात् कर्मबन्धन की हेतु हैं, किन्तु परम्परा से वे संसार की कारण भी है। क्योंकि ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध संसार का कारण है। इसलिए उरचार से या परम्परा से ये क्रियाएँ भी संसार की कारण कही गई हैं।' जीव में क्रियाओं के स्पृष्ट-अस्पृष्ट की चर्चा 1620. जीवे णं भंते ! जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुतं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे ? पाणाइवायकिरियाए पुट्ठ ? गोयमा ! अत्थेगइए जोवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए पुट्ठ 1, अत्थेगइए जोवे एगइयाओ जोवाओ जं समयं काइयाए आहिंगरणियाए पादोसियाए किरियाए पुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए पुढे पाणाइवायकिरियाए अपुट्ठ 2, प्रत्येगइए जोवे एगइयाओ जीवाप्रो जं समयं काइयाए आहिगरणियाए पाओसियाए किरियाए पुट्ठ तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुढे पाणाइवायकिरियाए अपुढे 3 / प्रत्येगइए जीवे एगइयाओ जीवाओ जं समयं काइयाए आहिंगरणियाए पाओसियाए किरियाए अपुढे तं समयं पारियावणियाए किरियाए अपुढे पाणाइवायकिरियाए अपु? 4 / 1620] भगवन् ! जिस समय जोब कायिकी, प्राधिकरणिकी और प्रादेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, क्या उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, अथवा प्राणातिपातिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है ? उ.] गौतम ! (2) कोई जीव, एक जीव की अपेक्षा से जिस समय कायिको, प्राधिकरशिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है और प्राणातिपात क्रिया से (भी) स्पृष्ट होता है / (2) कोई जीव, एक जीव को अपेक्षा से जिस समय कायिकी, प्राधिकरणको और प्राद्वेपिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, किन्तु प्राणातिपात क्रिया से स्पृष्ट नहीं होता। (3) कोई जोव, एक जीव को अपेक्षा से जिस समय कायिकी, प्राधिकरणि को और प्राद्वेषिकी क्रिया से स्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से अस्पृष्ट होता है और प्राणातिपात क्रिया से (भी) अस्पृष्ट होता है, तथा (4) कोई जीव, एक जोव को अपेक्षा से जिस समय कायिकी, प्राधिकारणिको ओर प्राद्वेषिकी क्रिया से अस्पृष्ट होता है, उस समय पारितापनिकी क्रिया से भी अस्पृष्ट होता है और प्राणातिपात क्रिया से भी अस्पृष्ट होता है। विवेचन--क्रियाओं से स्पृष्ट-अपृष्ट की चतुर्भगो--प्रस्तुत में पांच क्रियाओं में से एक जीव में एक ही समय कितनी स्पृष्ट और कितनी अस्पृष्ट होती हैं, इसका विचार किया गया है। 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 445 2. प्रजापना. मलयवृत्ति, पत्र 446 Page #1093 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसा क्रियापद] [505 प्रकारान्तर से क्रियानों के भेद और उनके स्वामित्व को प्ररूपरणा 1621. कइ णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्तानो / तं जहा-आरंभिया 1 पारिग्गहिया 2 मायावत्तिया 3 अपच्चक्खाणकिरिया 4 मिच्छादसणवत्तिया 5 / [1621 प्र.] भगवन् ! क्रियाएँ कितनी कही गई हैं ? [उ.] गौतम ! क्रियाएँ पांच कही गई हैं / वे इस प्रकार-(१) प्रारम्भिकी, (2) पारिग्रहिकी, (3) मायाप्रत्यया, (4) अप्रत्याख्यानक्रिया और (5) मिथ्यादर्शन-प्रत्यया / 1622. प्रारंभिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि पमत्तसंजयस्स / [1622 प्र.] भगवन् ! प्रारम्भिकी क्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी प्रमत्तसंयत के होती है / 1623. पारिग्गहिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जति ? गोयमा! अण्णयरस्सावि संजयासंजयस्स / [1623 प्र.] भगवन् ! पारिग्रहिकी क्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी संयतासंयत के होती है / 1624. मायावत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स / [1624 प्र.] भगवन् ! मायाप्रत्यया क्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी अप्रमत्तसंयत के होती है / 1625. अप्पच्चक्खाणकिरिया णं भंते ! कस्स कज्जति ? गोयमा ! अण्णयरस्सावि अपच्चक्खाणिस्स। [1625 प्र.] भगवन् ! अप्रत्याख्यानक्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी अप्रत्याख्यानी के होती है / 1626. मिच्छादसणवत्तिया णं भंते ! किरिया कस्स कज्जति? गोयमा ! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स। [1626 प्र.) भगवन् ! मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया किसके होती है ? [उ.] गौतम ! किसी मिथ्यादर्शनी के होती है / विवेचन--प्रकारान्तर से पंचविध क्रियाएँ और उनके अधिकारी-प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 1621 से 1626) में प्रकारान्तर से 5 प्रकार की क्रियाओं का नामोल्लेख तथा उनके अधिकारी का निरूपण किया गया है। Page #1094 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र आरम्भिको आदि पांच क्रियाओं को परिभाषा-सचित्त पृथ्वी, जल, अग्नि आदि का उपमर्दन करना आरम्भ कहलाता है / प्रारम्भ से पहले दो क्रम होते हैं---संरम्भ और समारम्भ का / संरम्भ कहते हैं--संकल्प को, समारम्भ कहते हैं—परिताप क्रिया को / जिसका प्रयोजन या कारण प्रारम्भ हो, वह आरम्भिको क्रिया कहलाती है। पारिग्रहिकी-धर्मोपकरण को छोड़ कर वस्तुओं को स्वीकार और उन पर मूर्छा परिग्रह है / परिग्रह से निष्पन्न पारिग्रहिकी / मायाप्रत्यया-माया-कपट-अनार्जव / माया जिसका प्रत्यय-कारण हो, वह मायाप्रत्यया / अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान कहते हैं- त्याग, नियम या हिंसादि पाश्रवों से विरति को। विरति या त्याग के परिणामों का अभाव-अप्रत्याख्यान है। अप्रत्याख्यानजनित क्रिया-अप्रत्याख्यानक्रिया है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया-मिथ्यादर्शन-विपरीत श्रद्धान जिसका कारण हो, उसे मिथ्यादर्शनप्रत्यया कहते हैं।' इन क्रियाओं में से किस क्रिया का कौन स्वामी या अधिकारी होता है, यह सू. 1622 से 1626 तक में बताया गया है / प्रारम्भिकी क्रिया प्रमत्तसंयतों में से किसी को उस समय होती है जब वह प्रमाद होने से कायदुष्प्रयोगवश पृथ्वी आदि का उपमर्दन करता है। पारिग्रहिकी क्रिया देशविरत को होती है, क्योंकि वह परिग्रह धारण करके रखता है। अप्रत्याख्यानी क्रिया सब को नहीं, उस व्यक्ति को होती है, जो कुछ भी प्रत्याख्यान नहीं करता। मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया उस को होती है, जो देव, गुरु, धर्म और शास्त्र के प्रति अश्रद्धा, अभक्ति, अविनय करता है / चौबीस दण्डकों में क्रियाओं की प्ररूपणा 1627. [1] रइयाणं भंते ! कति किरियाप्रो पण्णत्तायो ? गोयमा ! पंच किरियाप्रो पण्णत्ताओ। तं जहा-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया। [1627-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को कितनी क्रियाएँ कही गई हैं ? (उ.] गौतम ! (उनके) पांच क्रियाएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार-प्रारम्भिकी यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया। [2] एवं जाव बेमाणियाणं / [1627-2] इसी प्रकार (नरयिकों के समान) यावत् वैमानिकों तक (प्रत्येक में पांच क्रियाएँ समझनी चाहिए / ) विवेचन–समस्त संसारी जीवों में पांच क्रियाओं की प्ररूपणा-प्रस्तुत सूत्र (1627) में चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में प्रारम्भिकी आदि पांचों क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। जीवों में क्रियाओं के सहभाव को प्ररूपणा 1628. जस्स गं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जति ? जस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जइ तस्स आरंभिया किरिया कज्जति ? 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 447 2. वही, म. वत्ति, पत्र 887 Page #1095 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद) [507 गोयमा ! जस्स णं जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तस्स पारिग्गहिया किरिया सिय कज्जति सिय णो कज्जइ, जस्स पुण पारिग्गहिया किरिया कज्जइ तस्स प्रारंभिया किरिया नियमा कज्जति / [1628 प्र.] भगवन् ! जिस जीव के प्रारम्भिको क्रिया होती है क्या उसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है ? ; (तथा) जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है, क्या उसके प्रारम्भिकी क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव के ारम्भिकी क्रिया होती है, उसके पारिग्रहिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती; जिसके पारिग्रहिकी क्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी क्रिया नियम से होती है। 1629. जस्स णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ ? 0 पुच्छा। गोयमा ! जस्स णं जीवस्स प्रारंभिया किरिया कज्जइ तस्स मायावत्तिया किरिया णियमा कज्जइ, जस्स पुण मायावत्तिया किरिया कज्जइ तस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ / [1626 प्र.] भगवन् ! जिस जीव को प्रारम्भिकी क्रिया होती है, क्या उसको मायाप्रत्यया क्रिया होती है ? (तथा) जिसके मायाप्रत्यया क्रिया होती है क्या उसके प्रारम्भिकी क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव के प्रारम्भिकी क्रिया होती है, उसके नियम से मायाप्रत्यया क्रिया होती है, (और) जिसको मायाप्रत्यया क्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी क्रिया कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती। 1630. जस्स ण भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तस्स अप्पच्चक्खाणकिरिया कज्जइ? 0 पुच्छा। ___ गोयमा ! जस्स णं जीवस्स प्रारंभिया किरिया कज्जइ तस्स अप्पच्चक्खाणकिरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ, जस्स पुण अप्पच्चक्खाणकिरिया कज्जति तस्स आरंभिया किरिया णियमा कज्जति / 61630 प्र.] भगवन् ! जिस जीव को प्रारम्भिकी क्रिया होती है, क्या उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है, (तथा) जिसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है, क्या उसको प्रारम्भिको क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! जिस जीव को प्रारम्भिकी क्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती, किन्तु जिस जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी क्रिया नियम से होती है / 1631. एवं मिच्छादसणवत्तियाए वि समं / [1631] इसी प्रकार (प्रारम्भिकी क्रिया के साथ अप्रत्याख्यानी क्रिया के सहभाव के कथन के समान प्रारम्भिकी क्रिया के साथ) मिथ्यादर्शनप्रत्यया (के सहभाव का) (कथन करना चाहिए।) Page #1096 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 508] [ज्ञापनासूत्रे 1632. एवं पारिग्गहिया वि तिहि उवरिल्लाहि समं चारेयध्वा / [1632] इसी प्रकार (प्रारम्भिकी क्रिया के साथ जैसे पारिग्रहिको, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानी क्रिया के सहभाव का प्रश्नोत्तर किया गया है, उसी प्रकार) आगे की तीन क्रियाओं (मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया) के साथ सहभाव-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर समझ लेना चाहिए / 1633. जस्स मायावत्तिया किरिया कज्जति तस्स उवरिल्लाओ दो वि सिय कन्जंति सिय णो कज्जति, जस्स उवरिल्लायो दो कज्जति तस्स मायावत्तिया णियमा कज्जति / [1633 जिसके मायाप्रत्यया क्रिया होती है, उसके आगे को दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी और मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया) कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती, (किन्तु) जिसके आगे को दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया) होती है, उसके मायाप्रत्यया क्रिया नियम से होती है। 1634. जस्स अपच्चक्खाणकिरिया कज्जति तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया सिर कज्जइ सिय णो कज्जइ, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जति तस्स अपच्चक्खाणकिरिया णियमा कज्जति। [1634] जिसको अप्रत्याख्यान क्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती, (किन्तु) जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यान क्रिया नियम से होती है। 1635. [1] रइयस्स आइल्लियाओ चत्तारि परोपरं णियमा कज्जंति, जस्स एतामो चत्तारि कज्जंति तस्स मिच्छादसणवत्तिया किरिया भइज्जति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जति तस्स एयाओ चत्तारि णियमा कज्जति / [1635-1] नारक को प्रारम्भ की चार क्रियाएँ (प्रारम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यान क्रिया) नियम से होती है। जिसके ये चार क्रियाएँ होती हैं, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया भजना (विकल्प) से होती है। (किन्तु) जिसके मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है, उसके ये चारों क्रियाएँ नियम से होती हैं / [2] एवं जाव थणियकुमारस्स / [1635-2] इसी प्रकार (नैरयिकों में क्रियाओं के परस्पर सहभाव के कथन के समान) (असुरकुमार से) यावत् स्तनितकुमार तक (दसों भवनपति देवों) में (क्रियाओं के सहभाव का कथन करना चाहिए।) [3] पुढविक्काइयस्स जाव चरिदियस्स पंच वि परोप्परं णियमा फज्जंति / [1635-3] पृथ्वीकायिक से लेकर यावत् चतुरिन्द्रिय तक (के जीवों के) पांचों ही (क्रियाएँ) परस्पर नियम से होती हैं। Page #1097 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [509 [4] पंचेंदियतिरिक्खजोगियस्स आइल्लियानो तिणि वि परोपरं णियमा कन्जंति, जस्स एयाओ कज्जति तस्स उवरिल्लाओ दो भइज्जंति, जस्स उवरिल्लाओ दोष्णि कज्जति तस्स एताओ तिणि वि णियमा कज्जति; जस्स अपच्चक्खाणकिरिया तस्स मिच्छादसणवत्तिया सिय कज्जति सिय णो कज्जति, जस्स पुण मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जति तस्स अप्पच्चक्खाणकिरिया णियमा कज्जति / [1635-4] पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक को प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ परस्पर नियम से होती हैं। जिसको ये (तीनों क्रियाएँ) होती हैं, उसको आगे की दो क्रियाएँ (अप्रत्याख्यानिकी एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया) विकल्प (भजना) से होती हैं। जिसको, आगे की दोनों क्रियाएँ होती हैं, उसको ये (प्रारम्भ की) तीनों (क्रियाएँ) नियम से होती हैं। जिसको अप्रत्याख्यान क्रिया होती है, उसको मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। (किन्तु) जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है, उसको अप्रत्याख्यानक्रिया अवश्यमेव (नियम से) होती है / [5] मणूसस्स जहा जीवस्स। [1635-5] मनुष्य में (पूर्वोक्त क्रियाओं के सहभाव का कथन) (सामान्य) जीव में (क्रियानों के सहभाव के कथन की तरह (समझना चाहिए / ) [6] वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स जहा गेरइयस्स / [1635-6] वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव में (क्रियाओं के परस्पर सहभाव का कथन) नैरयिक (में क्रियाओं के सहभाव-कथन) के समान (समझना चाहिए / ) 1636. जं समयं णं भंते ! जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जति तं समयं पारिग्गहिया किरिया कज्जति ? एवं एते जस्स 1 जं समयं 2 जं देसं 3 जं पदेसं णं 4 चत्तारि दंडगा यया / जहा रइयाणं तहा सव्वदेवाणं णेयव्वं जाव वेमाणियाणं / [1636 प्र.] भगवन ! जिस समय जीव के प्रारम्भिकी क्रिया होती है, (क्या) उस समय पारिग्रहिकी क्रिया होती है ? [उ. इसी तरह (क्रियाओं के परस्पर सहभाव के समान समझना चाहिए / ) इस प्रकार--(१) जिस जीव के, (2) जिस समय में, (3) जिस देश में और (4) जिस प्रदेश में, यों चार दण्डकों के पालापक कहने चाहिए। जैसे नैरयिकों के विषय में ये चारों दण्डक कहे उसी प्रकार समस्त देवों के विषय में यावत् वैमानिकों तक कहने चाहिए / विवेचन-जीव प्रादि में आरम्भिकी आदि क्रियाओं का सहभाव-प्रस्तुत है सत्रों (सू. 1628 से 1636 तक) में समुच्चय जीव में, तथा नारकादि चौवीस दण्डकों में प्रारम्भिकी आदि 5 क्रियाओं के परस्पर सहभाव की चर्चा की गई है। क्रियाओं का सहभाव : क्यों अथवा क्यों नहीं? जिसके प्रारम्भिकी क्रिया होती है, उसके पारिग्रहिकी विकल्प से होती है, क्योंकि पारिग्रहिकी प्रमत्तसंयत के नहीं होती, शेष के होती है। Page #1098 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 510] [प्रज्ञापनासूत्र जिसके प्रारम्भिकी होती है, उसके मायाप्रत्यया नियम से होती है, किन्तु जिसके मायाप्रत्यया होती है, उसके प्रारम्भिकी कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं / जो अप्रमत्तसंयत होता है, उसके नहीं होती, शेष के होती है / तथा जिसके प्रारम्भिकी क्रिया होती है, उसके अप्रत्याख्यानी क्रिया विकल्प से होती है / प्रमत्तसंयत और देशविरत के यह क्रिया नहीं होती, किन्तु जो अविरत सम्यग्दृष्टि आदि हैं, उनके होती है / जिसके अप्रत्याख्यानक्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी क्रिया का होना अवश्यम्भावी है। जिसके प्रारम्भिकी है, उसके मिथ्यादर्शनक्रिया, विकल्प से होती है / अर्थात्मिथ्यादष्टि को होती है, शेष के नहीं होती। जिसके मिथ्यादर्शनक्रिया होती है, उसके प्रारम्भिकी अवश्य होती है, क्योंकि मिथ्यादष्टि अवश्य ही अविरत होता है। पारिग्रहिकी का आगे की तीन क्रियानों के साथ, मायाप्रत्यया का आगे की दो क्रियाओं के साथ, तथा अप्रत्याख्यानक्रिया का एक मिथ्यादर्शनप्रत्यया के साथ सहभाव होता है। पांच स्थावर और तीन विकलेन्द्रियों में पांचों क्रियाएँ होती हैं क्योंकि पृथ्वीकायिकादि में मिथ्यादर्शनप्रत्यया अवश्य होती है। अप्रत्याख्यानक्रिया अविरत सम्यग्दृष्टि के, मिथ्यादर्शनप्रत्यया मिथ्यादृष्टि के और प्रारम्भ की चारों क्रियाएँ देशविरत के होती है।' जीव प्रादि में पापस्थानों से विरति की प्ररूपणा 1637. अस्थि णं भंते जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? गोयमा ! छसु जीवणिकाएसु / [1637 प्र.] भगवन् ! क्या जीवों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] हाँ होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में प्राणातिपात-विरमण होता है ? [उ.गौतम ! (वह) षड् जीवनिकायों (के विषय) में होता है / 1638. [1] अस्थि णं भंते ! रइयाण पाणाइवायवेरमणे कज्जति ? गोयमा ! जो इण8 समहूँ। [1638-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिकों का प्राणातिपात से विरमण होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. 1637) / [1638-2] इसी प्रकार का कथन यावत् वैमानिकों तक के प्राणातिपात से विरमण के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्यों का प्राणातिपातविरमण (सामान्य) जीवों के समान (सू. 1637 के अनुसार) (कहना चाहिए।) 1669. एवं मुसावाएणं जाव मायामोसेणं जीवस्स य मणूसस्स य, सेसाणं णो इण8 समट्ठ। णवरं अदिण्णादाणे गहण-धारणिज्जेसु दम्वेसु, मेहुणे रूवेसु वा रूवसहगएसु वा दब्वेसु, सेसाणं सव्वदम्वेसु। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 448 Page #1099 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [511 [1636] इसी प्रकार मृषावाद से लेकर यावत् मायाभूषा (पापस्थान) तक से विरमण सामान्य जीवों का और मनुष्य का होता है, शेष (नैरयिक से वैमानिक देवों तक) में यह नहीं होता। विशेष यह है कि अदत्तादान (-विरमण) ग्रहण-धारण करने योग्य द्रव्यों (के विषय) में, मैथुन-विरमण रूपों में अथवा रूपसहगत (स्त्री आदि) द्रव्यों (के विषय) में होता है। शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों (के विषय) में होता है। 1640. अस्थि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कज्जति ? हंता! अस्थि / कम्हि णं भंते ! जीवाणं मिच्छादसणसल्लवेरमणे कज्जइ ? गोयमा ! सव्वदब्वेसु / [1640 प्र. भगवन् ! क्या जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [उ.] हाँ, होता है। [प्र.] भगवन् ! किस (विषय) में जीवों का मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण होता है ? [3.] गौतम ! (वह) सर्वद्रव्यों (के विषय) में होता है / 1641. एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / णवरं एगिदिय-विलिदियाणं णो इण? समट्ठ। [1641] इसी प्रकार (जीवों के मिथ्यादर्शन-शल्य से विरमण के कथन के समान) नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के मिथ्यादर्शनशल्य से विरमण का कथन करना चाहिए / विशेष यह है कि एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में यह नहीं होता।। विवेचन अठारह पापस्थानों से विरमण की चर्चा-प्रस्तुत पंचमूत्री में (1637 से 1641 तक में) क्रियाओं के सन्दर्भ में सामान्य जीवों की और चौबीस दण्डकवर्ती जीवों की प्राणातिपात प्रादि 18 पापस्थानों से विरति तथा उनके विषयों की चर्चा की कई है / निष्कर्ष मनुष्य के अतिरिक्त किसी भी जीव में प्राणातिपात आदि 17 पापस्थानों से उसके भवस्वभाव के कारण विरति नहीं हो सकती। समुच्चय जीवों में विरति बताई है, वह मनुष्य की अपेक्षा से बताई है / तथा मिथ्यादर्शनविरमण एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में नहीं हो सकता, यद्यपि किन्हीं द्वीन्द्रियादि को करण को अपर्याप्तावस्था में सास्वादन सम्यक्त्व होता है, तथापि वह मिथ्यात्व के अभिमुख द्वीन्द्रियादि का ही होता है / इसलिए मिथ्यात्व-विरमण' उनमें सम्भव नहीं है / शेष सर्वजोवों में सम्भव है।' इसके अतिरिक्त प्राणातिपातविरमण षट्जीवनिकायों के विषय में, अदत्तादान-विरमण ग्रहण-धारण-योग्य द्रव्यों के विषय में, मैथुन-विरमण रूपों या रूपसहगत द्रव्यों के विषय में होता है / शेष पापस्थानों से विरमण सर्वद्रव्यों के विषय में होता है / पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध की प्ररूपणा 1642. पाणाइवायविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधगे वा छविहबंधए वा एगविहबंधगे वा प्रबंधए वा। एवं मणूसे वि भाणियब्वे / 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 450 (ख) पण्णवणासुतं, (परिशिप्ट आदि) भा. 2, पृ. 124 2. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ-टिपण) भा. 1, पृ. 1 पृ. 359 Page #1100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 // [प्रज्ञापनासून [1642 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? [3.] गौतम ! वह सप्तविध (कर्म) बन्धक होता है, अथवा अष्टविध (कर्म) बन्धक होता है, अथवा षट्विधबन्धक, एकविधबन्धक या प्रबन्धक होता है। इसी, प्रकार मनुष्य के (द्वारा कर्मप्रकृतियों के बन्ध के) विषय में भी कथन करना चाहिए। 1643. पाणाइवायविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य 1 / अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगे य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अविहबंधगा य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगे य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगा य 4 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अबंधगे य 5 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अबंधगा य 6 / अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अटुविहबंधगे य छविहबंधगे य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छविहबंधगा य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहबंधगे य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहबंधगा य 4, अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य अबंधए य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अढविहबंधगे य अबंधगा य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य प्रबंधगे य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य अबंधगा य 4, अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छब्धिहबंधगे य प्रबंधगे य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगे य अबंधगा य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगा य अबंधए य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगा य प्रबंधगा य 4 / अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अटुविहबंधगे य छविहबंधगे य अबंधगे य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छस्विहबंधगे य अबंधगा य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अविहबंधगे य छव्विहबंधगा य अबंधगे य 3 अहया सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगे य छन्विहबंधगा य अबंधगा य 4 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहबंधगे य अबंधगे य 5 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठबिहबंधगा य छविहबंधगे य अबंधगा य 6 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अदविहबंधगा य छविहबंधगा य अबंधगे य 7 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहबंधगा य अबंधगा य 8 एते अट्ठ भंगा / सव्वे वि मिलिया सत्तावीसं भंगा भवंति / [1643 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! (1) समस्त जीव सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं। Page #1101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] (1) अथवा अनेक सप्तविध-बन्धक अनेक एकविधवन्धक होते हैं और एक अष्टविधबन्धक होता है। (2) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, अनेक एकविधबन्धक और अनेक अष्टविधबन्धक होते हैं / (3) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविध-बन्धक होते हैं और एक षड्विध-बन्धक होता है / (4) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक तथा षड्विधबन्धक और होते हैं। (5) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं और एक प्रबन्धक होता है, (6) अथवा अनेक सप्तविधवन्धक, एकविधबन्धक और प्रबन्धक होते हैं। (1) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक अनेक एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है / (2) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक, तथा एक अष्टविधबन्धक और अनेक षड्विधबन्धक होते हैं / (3) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, और अष्टविधबन्धक होते हैं और एक षड्विधबन्धक होता है / (4) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक एकविधबन्धक अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं / (1) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविध-बन्धक होते हैं। तथा एक अष्टविधबन्धक और एक प्रबन्धक होता है / (2) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं, तथा एक अष्टविधबन्धक एवं अनेक प्रबन्धक होते हैं / (3) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं और एक अबन्धक होता है / (4) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और अबन्धक होते हैं। (1) अथवा अनेक सप्तविध-बन्धक और एकविधबन्धक होते हैं, तथा एक षड् विधबन्धक एवं प्रबन्धक होता है / (2) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं, तथा एक षड्विधबन्धक एवं अनेक प्रबन्धक होते हैं / (3) अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं और एक प्रबन्धक होता है / (4) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, षड्विधबन्धक और प्रबन्धक होते हैं। (1) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं तथा एक अष्टविधबन्धक, षड्विधवन्धक और प्रबन्धक होता है / (2) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं, तथा एक अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होता है, एवं अनेक प्रबन्धक होते हैं / (3) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, और एकविधबन्धक होते हैं / तथा एक अष्टविधबन्धक, अनेक षड्विधबन्धक और एक अबन्धक होता है। (4) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक एवं एकविधबन्धक होते हैं, तथा एक अष्टविधबन्धक होता है, और अनेक षड्विधबन्धक एवं प्रबन्धक होते हैं / (5) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं, तथा एक षड्विधबन्धक और प्रबन्धक होता है। (6) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं, तथा एक पड़ावधवन्धक एवं अनेक प्रबन्धक होते हैं / (7) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक, एकविधबन्धक, अष्टविधबन्धक और षड्विधबन्धक होते हैं, तथा एक प्रबन्धक होता है। (8) अथवा अनेक सप्त विधवन्धक, एकविधवन्धक, अष्ट विधबन्धक षड्विधबन्धक और अवन्धक होते हैं / ये कुल पाठ भंग हुए। सब मिलाकर कुल 27 भंग होते हैं। 1644. एवं मणूसाण वि एते चेव सत्तावीसं भंगा भाणियन्वा / [1644] इसी प्रकार (उपर्युक्त प्रकार से) (प्राणातिपातविरत) मनुष्यों के भी (कर्मप्रकृतिबन्ध-सम्बन्धी) यही 27 भंग कहने चाहिए। Page #1102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 514] [प्रज्ञापनासूत्र 1645. एवं मुसावायविरयस्स जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स य मणूसस्स य / [1645] इसी प्रकार (प्राणातिपातविरत एक जीव और एक मनुष्य के समान) मृषावादविरत यावत् मायामृषाविरत एक जीव तथा एक मनुष्य के भी कर्म प्रकृतिबन्ध का कथन करना चाहिए। 1646. मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा अबंधए वा / [1646 प्र] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य-विरत (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, षड्विधबन्धक, एकविधबन्धक अथवा अबन्धक होता है। 1647. [1] मिच्छादसणसल्लविरए णं भंते ! णेरइए कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा, जाव पंचेदियतिरिक्खजोणिए। [1647-1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (एक) नैरथिक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [उ.] गौतम ! (वह) सप्तविधबन्धक अथवा अष्टविष्धबन्धक होता है; (यह कथन) यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक (समझना चाहिए / ) [2] मणूसे जहा जीवे (सु. 1646) / [1647-2] (एक) मनुष्य के सम्बन्ध में (कर्मप्रकृतिबन्ध का पालापक) (सू. 1646 में उक्त) (सामान्य) जीव के (आलापक के) समान (कहना चाहिए।) [3] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिए जहा पेरइए। [1647-3] वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक (के सम्बन्ध में कर्मप्रकृतिबन्ध का आलापक) (एक) नैरयिक (के कर्मप्रतिबन्ध सम्बन्धी) (सू. 1647-1 में उक्त (आलायक) के समान कहना चाहिए / ) 1648. मिच्छादसणसल्लविरया णं भंते ! जीवा कति कम्मपगडोओ बंधंति ? गोयमा ! ते चेव सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा (सु. 1643) / [1548 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! (सू. 1643 में उक्त) वे (पूर्वोक्त) ही 27 भंग (यहाँ) कहने चाहिए। 1646. [1] मिच्छादसणसल्लविरया गं भंते ! रइया कति कम्मपगडोमो बंधति ? गोयमा! सव्वे वि ताव होज्ज सत्तविहबंधगा 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अद्वविहबंधगे य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य 3 / Page #1103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [515 [1646-1 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत (अनेक) नारक कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [उ.] गौतम ! सभी (भंग इस प्रकार) होते हैं-(१) (अनेक) सप्तविध-बन्धक होते हैं, (2) अथवा (अनेक) सप्तविध-बन्धक होते हैं और (एक) अष्टविध-बन्धक होता है, (3) अथवा अनेक सप्तविधबन्धक और अष्टविधबन्धक होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणिया / णवरं मणूसाणं जहा (सु. 1648) / [1646-2] इसी प्रकार (नरयिकों के कर्मप्रकृतिबन्ध के पालापक के समान) यावत् (अनेक) वैमानिकों के (कर्मप्रकृतिबन्ध के आलापक कहने चाहिए।) विशेष यह है कि (अनेक) मनुष्यों के (कर्मप्रकृतिसम्बन्धी पालापक) (सू. 1648 में उक्त) (समुच्चय अनेक) जीवों के (कर्मप्रकृति सम्बन्धी पालापक के) समान कहना चाहिए। विवेचन-अठारह पापस्थानविरत जीवों के कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार–प्रस्तुत 8 सूत्रों (सू. 1642 से 1646 तक) में एक जीव, अनेक जीव, एक नैरयिक आदि और अनेक नैरयिक आदि की अपेक्षा से कर्मप्रकृतिबन्ध का विचार अनेक भंगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से 27 भंग-कर्मप्रकृतिबन्ध के एक वचन और बहुवचन के कुल 27 भंग होते हैं, वे इस प्रकार हैं--द्विकसंयोगी भंग-१, त्रिकसंयोगी भंग-६, चतुःसंयोगी भंग--१२, और पंचसंयोगी भंग-८ यों कुल मिला कर 27 भंग हुए। ___ मनुष्यों के भी कर्मप्रकृतिबन्ध के इसी प्रकार 27 भंग होते हैं। ये सभी सूत्र क्रियाओं से सम्बन्धित हैं, क्योंकि क्रियाओं से ही कर्मबन्ध होता है।' पापस्थानविरत जीवादि में कियाभेदनिरूपण 1650. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स कि प्रारंभिया किरिया कज्जति [जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ] ? गोयमा ! पाणाइवायविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ। [1650 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपात से विरत जीव के क्या प्रारम्भिकी क्रिया होती है ? [यावत् क्या मिथ्यादर्शन-प्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! प्राणातिपातविरत जीव के आरम्भिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित नहीं होती। 1651. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स पारिग्गहिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! णो इण? सम8 / 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 451 2. [जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जइ ?], यह पाठ यहाँ असंगत है, क्योंकि प्रागे 1654 सू. में इसके सम्बन्ध में प्रश्न किया गया है जिसका उत्तर भगवान् ने 'णो इणठे समठे' दिया है, जबकि यहाँ उत्तर है---- 'प्रा. कि. सिय कज्जइ, सिय णो कज्जइ / ' Page #1104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [1651 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातविरत जीव के क्या पारिग्रहिकी क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 1652. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स मायावत्तिया किरिया कज्जइ ? गोयमा ! सिय कज्जइ सिय णो कज्जति / [1652 प्र.] भंते ! प्राणातिपातविरत जीव के मायाप्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। 1653. पाणाइवायविरयस्स णं भंते ! जीवस्स अप्पच्चक्खाणवत्तिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! णो इण8 सम?। [1553 प्र.] भगवन् ! प्राणातिपातविरत जीव के क्या अप्रत्याख्यान-प्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1654. मिच्छादसणवत्तियाए पुच्छा। गोयमा ! नो इण? सम?। [1654] [इसी प्रकार की पृच्छा मिथ्यादर्शन-प्रत्यया के सम्बन्ध में करनी चाहिए। [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1655. एवं पाणाइवायविरयस्स मणूसस्स वि / [1655] इसी प्रकार प्राणातिपातविरत मनुष्य का भी (आलापक कहना चाहिए / ) 1656. एवं जाव मायामोसविरयस्स जीवस्स मणूसस्स य / [1656] इसी प्रकार मायामृषाविरत जीव और मनुष्य के सम्बन्ध में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। 1657. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! जीवस्स कि प्रारंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जति ? गोयमा ! मिच्छादसणसल्लविरयस्स जीवस्स आरंभिया किरिया सिय कज्जति सिय नो कज्जति / एवं जाव अप्पच्चक्खाणकिरिया / मिच्छादसणवत्तिया किरिया नो कज्जति / [1657 प्र. भगवन् ! मिथ्यादर्शन-शल्य से विरत जीव के क्या प्रारम्भिकी क्रिया होती है, यावत् मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! मिथ्यादर्शनशल्य से विरत जीव के प्रारम्भिकी क्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती। इसी प्रकार यावत् अप्रत्याख्यानक्रिया तक (कदाचित् होती है और कदाचित् नहीं होती।) (किन्तु) मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया नहीं होती। Page #1105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [517 1658. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते / णेरइयस्स कि आरंभिया किरिया कज्जति जाव मिच्छादसणवत्तिया किरिया कज्जई? गोयमा ! आरंभिया वि किरिया कज्जति जाव अपच्चक्खणकिरिया वि कज्जति, मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जइ / [1658 प्र.] भगवन् ! मिथ्यादर्शनशल्यविरत नैरयिक के क्या प्रारम्भिकी क्रिया होती है, यावत् मिथ्यादर्शन-प्रत्यया क्रिया होती है ? [उ.] गौतम ! (उसके) आरम्भिकी क्रिया भी होती है यावत् अप्रत्याख्यान-क्रिया भी होती है, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती। 1659. एवं जाव थणियकुमारस्स / [1656] इसी प्रकार (मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक के क्रिया सम्बन्धी पालापक के समान) (असुरकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक (के क्रियासम्बन्धी पालापक कहने चाहिए / ) 1660. मिच्छादसणसल्लविरयस्स णं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एवमेव पुच्छा। गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जइ जाव मायावत्तिया किरिया कज्जइ, अपच्चक्खाणकिरिया सिय कज्जइ सिय णो कज्जइ, मिच्छादसणवत्तिया किरिया णो कज्जति / [1660 प्र.] इसी प्रकार की पृच्छा मिथ्यादर्शन-शल्यविरत पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक की (क्रियासम्बन्धी है।) [उ.] गौतम ! (उसके) प्रारम्भिकी क्रिया होती है, यावत् मायाप्रत्यया क्रिया होती है / अप्रत्याख्यानक्रिया कदाचित् होती है, कदाचित् नहीं होती, (किन्तु) मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं होती। 1661. मणूसस्स जहा जीवस्स (सु. 1657) / [1361] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) मनुष्य का क्रियासम्बन्धी प्ररूपण (सू. 1657 में उक्त) (सामान्य) जीव (के क्रिया सम्बन्धी प्ररूपण) के समान (समझना चाहिए / ) . 1662. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा रइयस्स (सु. 1658) / {1662] (मिथ्यादर्शनशल्यविरत) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का (क्रियासम्बन्धी कथन) (मू. 1658 में उक्त) नैरयिक (के क्रियासम्बन्धी कथन) के समान (समझना चाहिए।) विवेचन-अष्टादशपापस्थान विरत जीवादि में क्रियासम्बन्धी प्ररूपणा--प्रस्तुत 13 सूत्रों (1650 से 1662 तक) में प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य से विरत सामान्य जीव तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीवों को लगने वाली प्रारम्भिकी आदि क्रियाओं की प्ररूपणा की गई है। स्पष्टीकरण-प्राणातिपात से लेकर मायामृषा से विरत (औधिक) जीव तथा मनुष्य के प्रारम्भिकी और मायाप्रत्यया क्रिया विकल्प से लगती है, शेष तीन पारिग्रहिकी, अप्रत्याख्यानप्रत्यया Page #1106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 518] [प्रज्ञापनासूत्र एवं मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया नहीं लगती, क्योंकि जो जीव या मनुष्य प्राणातिपात से विरत होता है, वह सर्वविरत होता है, इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक ही महाव्रत ग्रहण करता है, हिंसादि का प्रत्याख्यान करता है तथा अपरिग्रहमहाव्रत को भी ग्रहण करता है, इसलिए मिथ्यादर्शनप्रत्यया, अप्रत्याख्यानप्रत्यया और पारिग्रहिकी क्रिया उसे नहीं लगती। प्राणातिपातविरत प्रमत्तसंयत के प्रारम्भिकी क्रिया होती है, शेष सर्वविरत को नहीं होती। अप्रमत्तसंयत को मायाप्रत्यया क्रिया कदाचित् प्रवचनमालिन्य के रक्षणार्थ (उस अवसर पर) लगती है, शेष समय में नहीं / उसी मिथ्यादर्शनशल्यविरत जीव को प्रारम्भिकी क्रिया लगती है, जो प्रमत्तसंयत हो, पारिग्रहिकी क्रिया देशविरत तक होती है, आगे नहीं / मायाप्रत्यया भी अनिवृत्तबादरसम्पराय तक होती है, प्रागे नहीं होती / अप्रत्याख्यान क्रिया भी अविरतसम्यग्दृष्टि तक होती है, आगे नहीं / इसलिए मिथ्यादर्शनशल्यविरत के लिए इन क्रियाओं के सम्बन्ध में विकल्पसूचक प्ररूपणा है। मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया मिथ्यादर्शनविरत में सर्वथा असम्भव है। आगे चौवीसदण्डक को लेकर विचार किया गया है। मिथ्यादर्शनविरत नैरयिक से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त चार क्रियाएँ होती हैं, मिथ्यादर्शन प्रत्यया नहीं होती। तिर्यञ्च-पंचेन्द्रिय में प्रारम्भ की तीन क्रियाएँ नियम से होती है, अप्रत्याख्यानक्रिया विकल्प से होती है, जो देशविरत होता है, उसके नहीं होती, शेष के होती है / मिथ्यादर्शनप्रत्यया नहीं होती। मनुष्य में सामान्य जीव के समान तथा व्यन्तरादि देवों में नारक के समान क्रियाएँ समझनी चाहिए।' प्रारम्भिकी प्रादि क्रियाओं का अल्पबहुत्व 1663. एयासि णं भंते ! आरंभियाणं जाव मिच्छादसणवत्तियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वार 4? गोयमा ! सम्बत्थोवाओ मिच्छादसणवत्तियानो किरियाओ, अप्पच्चक्खाणकिरियानो विसेसाहियाओ, पारिग्गहियाओ विसेसाहियाओ, आरंभियाओ किरियानो विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ। // पण्णवणाए भगवईए बावीसइमं किरियापयं समत्तं // [1663 प्र.] भगवन् ! इन प्रारम्भिकी से लेकर मिथ्यादर्शनप्रत्यया तक की क्रियाओं में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है अथवा विशेषाधिक है ? [उ.] गौतम ! सबसे कम मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रियाएँ हैं। (उनसे) अप्रत्याख्यानक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। (इनसे)पारिग्रहिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं / (उनसे) प्रारम्भिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं, (और इन सबसे) मायाप्रत्ययाक्रियाएँ विशेषाधिक हैं। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 452 2. 'अप्पा' के ग्रागे अंकित 4 का अंक शेष "बहू बा तुल्ला वा, विसेसाहिया वा" इन तीन पदों का सूचक है। Page #1107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाईसवाँ क्रियापद] [519 विवेचन-क्रियाओं का अल्पबहुत्व : क्यों और कैसे ? —सबसे कम मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रियाएँ हैं, क्योंकि वे मिथ्यादृष्टियों के ही होती हैं। उनसे अप्रत्याख्यानक्रिया विशेषाधिक इसलिए है कि वे अविरत सम्यग्दृष्टियों एवं मिथ्यादृष्टियों के होती हैं, उनसे पारिग्रहिकी क्रियाएँ विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे देशविरतों तथा उनसे पूर्व श्रेणी के प्राणियों के भी होती हैं, प्रारम्भिकी क्रियाएँ उनसे विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रमत्तसंयतों तथा इनसे पूर्व के गुणस्थानों में होती हैं। उनसे भी मायाप्रत्यया विशेषाधिक हैं, क्योंकि अन्य सब संसारी जीवों के उपरान्त अप्रमत्तसंयतों में भी पाई जाती हैं। / / प्रज्ञापना भगवती का बाईसवाँ क्रियापद सम्पूर्ण / 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 452 Page #1108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है / मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है / जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इन का भी आगमों में अनध्यायकाल वणित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा–उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा--अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो भोरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा चउहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, तं जहा-- प्रासाढपाडिवए, इंदमहापाडिवए, कत्तअपाडिवए, सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेतए, तं जहा–पडिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे, अड्ढरत्ते / कप्पइ निग्गंथाणं वा निग्गंथीण बा, चाउकालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुन्वण्हे, अवरण्हे, पोसे, पच्चूसे / -स्थानाङ्ग सूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस आकाश से सम्बन्धित, दस प्रौदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेप्राकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर दो प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत्-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #1109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल ] [ 521 गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है। अतः प्राी से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्घात--बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोरं गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो पहर तक अस्वाध्याय काल है / 6. यूपक- शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीय, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अत: प्रकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका-कृष्ण-कातिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है / इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध पड़ती है / वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है / जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है / 10. रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं / औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11.12-13 हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से यह वस्तुएँ उठाई न जाएँ तब तक अस्वाध्याय है। वत्तिकार प्रास-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है / स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिक के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं पाठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है / 15. श्मशान- श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है / 16. चन्द्रग्रहण चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण- सूर्य ग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त प्रस्वाध्यायकाल माना गया है / Page #1110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 522 ] [अनध्यायकाल 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / अथवा जब तक दूसरा अधिकारो सत्तारूढ़ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। 16. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजारों में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात् भो एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भातर पंचेन्द्रिय जोव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पडा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण प्रौदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-प्राषाढ पूर्णिमा, पाश्विन-पूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र-पूणिमा ये चार महोत्सव हैं / इन पूर्णिमाप्रां के पश्चात् पाने वालो प्रतिपदा का महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः, सायं, मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ो पहिले तथा एक घड़ो पोछ / सूर्यास्त होने से एक घड़ो पहले तथा एक घड़ो पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ो पोछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ो प्रागे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 00 Page #1111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजो मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिदा, ब्यावर 4. श्री शा० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरडिया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजी नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरडिया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरडिया, मद्रास ___चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरडिया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर ड़िया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनांदगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचंदजी कांकरिया, टंगला 5. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी वोकड़िया, मद्रास 16 श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मूलचन्दजी चोरडिया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर टोला 1. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #1112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 524] [सदस्य-नामावली الله الله 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मुथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 22. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजी भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया. 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपूर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर 30. श्री सी. अमरचंदजी बोथरा. मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सुराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टाटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपडा. अजमेर 20. श्रीमती सुन्दर बाई गोठी w/o श्री जंबरी३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, लालजी गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, सागर 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास / 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढा, मदास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल 31. श्री प्रासूमल एन्ड कं०, जोधपुर सहयोगी सदस्य 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी सांड, जोधपुर 2. श्री छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री धेवर चन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सलेम 39. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा Page #1113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली ] [ 525 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री धीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, 46. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलारम 46. श्री भंवरलालजी नवरलमलजी सांखला, 77. श्रीकानमलजी कोठारी, दादिया मेटूपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली 50, श्री पुखराजजी छल्लाणो, करणगुल्ली 76. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई। 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी 53. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 82. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेड़तासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया, भैरूंदा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी ___ 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर जोधपुर 61 श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 60. श्री इन्द्रचन्दजी मुकन्दचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 12. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 64. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी राजनांदगांव 15. श्री कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री स्व. 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूगरमलजी कांकरिया, 66. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 67. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव Page #1114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 526] [ सदस्य-नामावली 18. श्री प्रकाशचंदजी जैन, भरतपुर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 16. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुबर धर्मपत्नी श्री चम्पालाल जी 103. श्री सम्पतराजजी चोरडिया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भोकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी. मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भवरलालजी, चोरड़िया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127 श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर . बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी प्रासूलालजी बोहरा सिटी __ एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #1115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि प्रज्ञापनासूत्र (मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-पष्टिाटियुक्त Page #1117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत उपप्रवत्तक तपोधन श्री सुदर्शन मुनि जैन आगम धर्म, दर्शन एवं आध्यात्मिक उच्चबोध के अपूर्व स्रोत तो हैं ही साथ ही भूगोल, खगोल, सभ्यता, संस्कृति, इतिहास आदि नाना ज्ञान विज्ञान के अनुपम भण्डार हैं। वर्तमान परिस्थिति में बदलते परिवेशानुसार आगमों पर प्रामाणिक, सारगर्भित, समालोचनात्मक एवं तुलनात्मक विवेचन की महती आवश्यकता थी। इस महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति की है—आगमविद्या के पारंगत मनीषी जैन तत्त्व के परम निष्णात् विद्वान् महान् साधक स्व. युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज ने / उनकी इस महान् देन के लिए समाज सदा उनका ऋणी रहेगा। यह कार्य उनके कीति स्तम्भ के रूप में उनकी स्मृति को सदैव स्थायी बनाये रखेगा। उनके इस महान् उपकार के लिए उनका हार्दिक अभिनन्दन करते हुए अतीव हर्षानुभूति हो रही है। इस पवित्र कार्य में तन, मन, धन से सहयोग देने वाले महानुभावों का सहयोग भी प्रशंसनीय है। श्री आगम प्रकाशन समिति द्वारा अल्प समय में प्रकाशित सुन्दर स्पष्ट एवं टिकाऊ आगम ग्रन्थों को देखकर मन बहुत प्रसन्न है / समिति के बहुतबहुत साधुवाद के साथ आशा है कि शेष आगम शीघ्र ही पढ़ने को मिलेंगे। परम पूजनीय, उपप्रवर्तक, तपोधन सम्राट् श्री सुदर्शन मुनिजी महाराज श्री महावीर जैन भवन अम्बाला शहर Fol Private & Personal Use Only Page #1118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ अहं जिनागम-प्रथमाला: अन्यामू२७ [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्रीजोरावरमलजी महाराज की पुण्य-स्मृति में प्रायोजित ] श्री श्यामार्यवाचकसंकलित चतुर्थ उपाङ्ग प्रज्ञापनासूत्र [ तृतीय खण्ड, पद 23-36] [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त] प्रेरणा0 उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्रीब्रजलालजी महाराज प्राद्यसंयोजक-प्रधानसम्पादक - (स्व०) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक-विवेचक--सम्पादक __श्री ज्ञानमुनिजी महाराज [स्व. जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्रीवात्मारामजी म. के सुशिष्य] सह सम्पादक 0 श्रीचन्द सुराणा 'सरस' मुख्य सम्पादक 0 पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक 0 श्री प्रागमप्रकाशन-समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #1119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क:२७ 0 निर्देशन महासती श्री उमरावकुवरजी 'अर्चना' 7 सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल 1 प्रबन्धसम्पादक श्रीचन्द सुराणा 'सरस' // सम्प्रेरक मुनि श्री विनयकुमार 'भीम' श्री महेन्द्रमुनि 'दिनकर' 10 प्रकाशन तिथि वीरनिर्वाण संवत् 2512 वि. सं. 2043 ई. सन् 1986 / प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन-समिति जैनस्थानक, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) पिन-३०५९०१ मुद्रक सतीशचन्द्र शुक्ल वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ D मूल्य : पौरखतेत मूल्य 10 -. - . . - - - - Page #1120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Sri Joravarmalji Maharaj Fourth Upanga PANNAVANA SUTTAM (Original Text, Hindi Version, Notes, Annotations and Appendices etc. Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Translator & Annotator Sri Jnan Muni Sub Editor Srichand Surana Saras' Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharili Publishers Sri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj) Page #1121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 27 Direction Sadhwi Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Sri Devendra Muni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharill O Managing Editor Srichand Surana 'Saras' O Promotor Munisri Vinayakumar 'Bhima' Sri Mahendramuni 'Dinakar Date of Publication Vir-nirvana Samvat 2512 Vikram Samvat 2043; July, 1986 Publisher Sri Agam Prakashan Samiti, Jain Sthanak, Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) (india Pin 305 901 O Printer Satish Chandra Shukla Vedic Yantralaya Kesarganj, Ajmer . 1 0 Price : R a preferation gra 50 p परिधित मुल्य 50 Page #1122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण जिन्होंने अर्द्धशताब्दी से भी अधिक काल तक आदर्श संयम को आराधना कर अपना जोवन सार्थक बनाया, जो भूत की आराधना में निरन्तर निरत रहे और अपनो अगाध तत्वजिज्ञासा की पति के लिए सौराष्ट्र से राजस्थान तक पधारे, जो सौराष्ट्र के जैन-जनमानस में अद्यापि बसे हुए हैं, जिन्होंने जिनशासन को अपने उत्तम आचार एवं धर्मदेशना द्वारा बहुमूल्य सेवा को, परमतपस्वी स्व. माणकचन्द्रजी स्वामी के कर-कमलों में, सोदर सविनय समर्पित Page #1123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय आगमप्रेमी पाठकों के कर-कमलों में प्रज्ञापनासुत्र नामक चौथे उपांग का तृतीय खण्ड प्रस्तुत किया जा रहा है। इस खण्ड में 23 से 36 पद हैं और इन्हीं के साथ इस सूत्र की समाप्ति हो रही है। भगवतीसूत्र भी पूर्ण मुद्रित हो चुका है। ये दोनों पागम विराट्काय हैं और इनके मुद्रण के साथ एक बड़ा भार कम हो गया है। यह अतीव प्रसन्नता का विषय है। प्रज्ञापना के इस अन्तिम खण्ड में विस्तृत प्रस्तावना और परिशिष्ट दिए जा रहे हैं जो समग्र ग्रन्थस्पर्शी हैं। पाठकों के लिए ये विशेष उपयोगी सिद्ध होंगे। पहले के दो खण्डों की भांति इसके सम्पादक और अनुवादक जैनभूषण विद्वद्वर श्री ज्ञानमुनिजी म. हैं और प्रस्तावनालेखक साहित्यवाचस्पति पंडितप्रवर श्रीदेवेन्द्रमुनिजी म. हैं / प्रस्तावना विस्तृत है। उसमें समग्र ग्रन्थ का निचोड़ पा गया है। इन मुनिराजों के अमूल्य सहयोग के लिए समिति अत्यन्त आभारी है। अनुयोगद्वार प्रेस में देने की तैयारी में है। आशा है वह भी यथासम्भव शीध्र पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकेगा। ग्रन्थमाला के प्रकाशन में जिन-जिन विद्वानों और अर्थसहायकों का सहयोग प्राप्त हुया है, जिनके बहुमूल्य सहयोग की बदौलत आगमप्रकाशन-कार्य अग्रसर हो रहा है, उन सबके प्रति कृतज्ञता-प्रकाशन करना स्वाभाविक है / अन्त में निवेदन है कि प्रागमप्रेमो और स्वाध्यायरसिक महानुभाव इनके अधिकाधिक प्रचार-प्रसार में सहयोग प्रदान करें, जिससे जिनशासन की महिमा की वद्धि हो और हमारा प्रयास अधिक सफल हो। रतनचंद मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष जी. सायरमल चोरडिया चांदमल विनायकिया प्रधानमंत्री श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) मंत्री Page #1125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोहाटी ब्यावर मद्रास उपाध्यक्ष ब्यावर उपाध्यक्ष जोधपुर मद्रास दुर्ग मद्रास ब्यावर पाली व्यावर ब्यावर श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर कार्यकारिणी समिति 1. श्रीमान सेठ कंवरलालजी बैताला अध्यक्ष 2. श्रीमान् सेठ रतनचन्दजी मोदी कार्यवाहक अध्यक्ष 3. श्रीमान् सेठ खींवराजजी चोरडिया उपाध्यक्ष 4. श्रीमान् धनराजजी विनायकिया 5. श्रीमान् हुक्मीचन्दजी पारख 1. श्रीमान् पारसमलजी चोरड़िया उपाध्यक्ष 7. श्रीमान् जसराजजी पारख उपाध्यक्ष 8. श्रीमान् जी. सायरमलजी चोरडिया महामंत्री 9. श्रीमान् चाँदमलजी विनायकिया मन्त्री 10. श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा मन्त्री 11. श्रीमान् अमरचन्दजी मोदी सहमंत्री 12. श्रीमान् श्रीमान् जंवरीलालजी शीशोदिया कोषाध्यक्ष 13. श्रीमान् अमरचन्दजी बोथरा . कोषाध्यक्ष 14. श्रीमान् बादलचन्दजी मेहता सदस्य 15. श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया सदस्य 16. श्रीमान् एस. बादलचन्दजी चोरड़िया सदस्य 17. श्रीमान् मोहनसिंहजी लोढा सदस्य 18. श्रीमान् मांगीलालजी सुराणा सदस्य 19. श्रीमान् भंवरलालजी श्रीश्रीमाल सदस्य 20. श्रीमान् चांदमलजी चौपड़ा सदस्य 21. श्रीमान् गुमानमलजी चोरड़िया 22. श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा सदस्य 23. श्रीमान् प्रासूलालजी बोहरा सदस्य 24. श्रीमान् सुमेरमलजी मेड़तिया सदस्य 25. श्रीमान जालमसिंहजी मेड़तवाल परामर्शदाता 26. श्रीमान् जतनराजजी मेहता परामर्शदाता मद्रास इन्दौर मद्रास मद्रास ब्यावर सिकन्दराबाद ब्यावर सदस्य मद्रास नागौर महामन्दिर जोधपुर ब्यावर मेड़तासिटी Page #1126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रज्ञापना : एक समीक्षात्मक अध्ययन भारतवर्ष अध्यात्म की उर्वरा भूमि है। यहाँ के प्रत्येक कण-कण में अध्यात्म का सुरीला संगीत है। प्रत्येक अणु-अणु में तत्त्व-दर्शन का मधुर रस है। यहाँ की पावन पुण्य धरा ने ऐसे नर-रत्नों का प्रसव किया है जो धर्म और अध्यात्म के मूर्त रूप थे। उनके हृदय को प्रत्येक धड़कन अध्यात्म की धड़कन थी। उनके प्रशस्त और निर्मल चिन्तन ने जीव और जगत को, प्रात्मा और परमात्मा को, धर्म और दर्शन को समझने का विमल और विशुद्ध दृष्टिकोण प्रदान किया। चौवीस तीर्थकरों ने इस अध्यात्मप्रधान पुण्य-भूमि पर जन्म ग्रहण किया। उन्हें वैदिकपरम्परा के अवतारों की तरह पुन:-पुनः जन्म ग्रहण कर जन-जन का उत्थान करना अभीष्ट नहीं था, और न तथागत बुद्ध की तरह बोधिसत्वों के माध्यम से पुनः-पुनः जन्म लेकर जन-जीवन में अभिनव चेतना का संचार करना ही मान्य था। अवतारवाद में उनका विश्वास नहीं था, उत्तारवाद ही उन्हें पसन्द था / जैनपरम्परा में तीर्थकरों का स्थान सर्वोपरि है। नमस्कार महामंत्र में सिद्धों से पूर्व तीर्थंकरों-अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। तीर्थंकर सूर्य की भांति तेजस्वी होते हैं। 'प्राइच्चेसु अहियं पयासयरा।' वे अपनी ज्ञान-रश्मियों से विश्व की प्रात्मा को आलोकित करते हैं। वे अपने युग के प्रबल प्रतिनिधि होते हैं। चन्द्र की तरह वे सौम्य होते हैं। मानवता के परम प्रस्थापक होते हैं। तीर्थंकर साक्षात् द्रष्टा, ज्ञाता तथा प्रात्मनिर्भर होते हैं। वे केवलज्ञान एवं केवलदर्शन उत्पन्न होने के पश्चात् उपदेश देते हैं। उनका उपदेश अनुभूत सत्य पर आधृत होता है। उनके उपदेश और व्यवस्था किसी परम्परा से आबद्ध नहीं होती। वर्तमान अवसर्पिणो काल में इस पावन धरा पर प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हुए। उनके बाद बावीस तीर्थकर हुए, फिर चौवीसवें तीर्थकर भगवान महावीर हए। सभी तीर्थंकरों की सर्वतंत्र-स्वतंत्र परम्पराएँ थीं। और सर्वतंत्र-स्वतंत्र उनका शासन था। श्रमण भगवान महावीर के समय भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के हजारों श्रमण थे। जब वे महावीर के संघ में प्रविष्ट हुए तो उन्हें भगवान पार्श्वनाथ की चातुर्याम साधना-पद्धति का परित्याग करना पड़ा और पंच महाव्रत-साधना-पद्धति को स्वीकार करना पड़ा। इससे यह स्पष्ट है कि प्रत्येक तीर्थंकर का विराट् व्यक्तित्व और कृतित्व किसी तीर्थकर विशेष की परम्परा के साथ प्राबद्ध नहीं होता, यद्यपि मौलिक प्राचारव्यवस्था एवं तत्वदर्शन सनातन है, त्रिकाल में एकरूप रहता है, क्योंकि सत्य शाश्वत है। 1. "धम्मतित्थयरे जिणे" -समवायांग-१२ 2. नन्दीसूत्र, पट्टावली–१११८-१९ 3. उत्तराध्ययन-२३।२३ Page #1127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान जैन शासन श्रमण भगवान महावीर से सम्बन्धित है। भगवान महावीर के संघ की संचालनविधि सुव्यवस्थित थी। उनके संघ में ग्यारह गणधर, नौ गण तथा सात व्यवस्थापद थे। संघ की शिक्षा, दीक्षा पादि में सातों पदाधिकारियों का अपूर्व योगदान था। प्राचार्य संघ का संचालन करते थे। उपाध्याय सूत्र की वाचना देते थे। स्थविर श्रमणों को संयम-साधना में स्थिर करते। प्रवर्तक प्राचार्य द्वारा निर्दिष्ट प्रवृत्तियों का संघ में प्रवर्तन करते / गणी लघु श्रमणों के समूह का कुशल नेतृत्व करते। गणधर श्रमणों की दिनचर्या का ध्यान रखते और गणावच्छेदक अन्तरंग व्यवस्था करते। इस तरह सभी शासन की श्रीवृद्धि में जुटे रहते थे। भगवान् महावीर के शासन में अनेक प्रतिभासम्पन्न, तेजस्वी, वर्चस्वी, मनस्वी, यशस्वी श्रमण थे। श्रमण भगवान महावीर ने भव्य जीवों के उदबोधनार्थ अर्थागम प्रदान किया। गणधरों ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से उस अर्थागम को गूंथ कर सूत्रागम का रूप दिया। प्राचार्यों ने प्राणोत्सर्ग करके भी उस श्रुत-सम्पदा का संरक्षण किया। गणधरों द्वारा रचित अंगागम-निधि का पालम्बन लेकर उपांगों की रचना हई। उपांगों में चतुर्थ उपांग का नाम "प्रज्ञापना" है / बौद्ध साहित्य में प्रज्ञा के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। वहां पर 'पञ' और 'पञ्जा' शब्द अनेक बार व्यवहृत हुए हैं। बौद्ध पाली साहित्य में 'पाती' नामक एक ग्रन्थ भी है जिसमें विविध प्रकार के पुद्गल अर्थात् पुरुष के अनेक प्रकार के भेदों का निरूपण है। उनमें पञति यानी प्रज्ञप्ति और प्रज्ञापना नाम का तात्पर्य एक सदृश है। आचार्य पतंजलि ने "ऋतंभरा प्रज्ञा" तथा "तज्जयात्प्रज्ञालोक: " प्रभृति सूत्रों में प्रज्ञा का उल्लेख किया है / भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ को चर्चा करते हुए "तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता" शब्द का प्रयोग किया है। जैन आगम साहित्य में भी अनेक स्थलों पर 'प्रज्ञा' शब्द प्रयुक्त हुआ है। उदाहरण के रूप में प्राचारांग सूत्र के दूसरे अध्ययन के पच्चीसवें, छब्बीसवें सूत्र में 'प्रज्ञान' शब्द प्राप्त है और अन्य स्थलों पर भी सूत्रकृतांग में श्रमण भगवान् महावीर की संस्तुति करते हुए प्रज्ञ, आशुप्रज्ञ, भूतिप्रज्ञ१०, तथा अन्य स्थलों पर महाप्रज्ञ'' शब्द प्रयुक्त हुए हैं। भगवान् महावीर को प्रज्ञा का अक्षय सामर कहा है / ' 2 उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीकुमार श्रमण गणधर गौतम से पूछते हैं-- हे मेधाविन् ! हम एक ही उद्देश्य को लेकर प्रवृत्त हुए हैं तो फिर इस (प्राचार) भेद का क्या कारण है। इन दो प्रकार के धर्मों में आपको विप्रत्यय नहीं होता? गौतम ने कहा-धर्म तत्त्व का निर्णय प्रज्ञा से करना चाहिए। 3 केशीकुमार श्रमण ने गणधर 4. (क) भगवतो महावीरस्स नव गणा होत्था। —ठाणं-९।३, सूत्र 680 (ख) प्रायरितेति वा, उवज्झातेति बा, पावतीति वा, थेरेति वा, गणीति वा, गणधरेति वा, गणावच्छेदेति वा ! -ठाण-३१३, सूत्र 177 5. पातंजलयोगदर्शन, समाधिपाद सूत्र 48 6. पातंजलयोगदर्शन, विभूतिपाद, सूत्र 5 7. श्रीमद् भगवद्गीता, अ. 2-57, 58, 61, 68 8. सूत्रकृतांग, प्रज्ञ. 6.4, 15 1178; 1314 / 19; 201666; 206 / 6 9. सूत्रकृतांग, आशुप्रज्ञ 67425; 1152, 111414, 22, 2 / 5 / 1, 2 / 6 / 18 10. सूत्रकृतांग 6 / 1 / 18 11. सूत्रकृतांग, महाप्रज्ञ 1111113, 38 ! 12. सूत्रकृतांग श६८ 13. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन 23, गाथा 25 Page #1128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम की प्रज्ञा को पुन: पुन: साधवाद दिया।४ प्राचार चला में यह स्पष्ट लिखा है-समाधिस्थ श्रमण की प्रज्ञा बढ़ती है। 15 प्राचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपन्नत्ति' ग्रन्थ में 16 श्रमणों की लब्धियों का वर्णन करते हुए एक लब्धि का नाम 'प्रज्ञाश्रमण' दिया है। प्रज्ञाश्रमण लब्धि जिस मुनि को प्राप्त होती है, वह मुनि सम्पूर्ण श्रुत का तलस्पर्शी अध्येता बन जाता है। प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि के पौत्पत्तिकी, पारिणामिकी, वैनयिकी और कर्मजा ये चार प्रकार बताये हैं। मंत्रराज रहस्य में प्रज्ञाश्रमण का वर्णन है।१७ कलिकालसर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रज्ञाश्रमण की व्याख्या की है। आचार्य वीरसेन ने प्रज्ञाश्रमण को वन्दन किया है और साथ ही उन्हें जिन भी कहा है। प्राचार्य अकलंक ने भी प्रज्ञाश्रमण का वर्णन किया है / 20 अब चिन्तनीय यह है कि प्रज्ञा शब्द का प्रयोग विभिन्न ग्रन्थों में विभिन्न स्थलों पर हया है। विभिन्न कोशकारों ने प्रज्ञा को ही बुद्धि कहा है। वह बुद्धि का पर्यायवाची माना गया है और एकार्थक भी ! किन्तु गहराई से चिन्तन करने पर सूर्य के प्रकाश की भाँति यह स्पष्ट होता है कि दोनों शब्दों की एकार्थता स्थूल दृष्टि से ही है। कोशकार जिन शब्दों को पर्यायवाची कहता है, वे शब्द वस्तुत: पर्यायवाची नहीं होते / समभिरूढ नय की दृष्टि से कोई भी शब्द पर्यायवाची नहीं है। प्रत्येक शब्द का अपना पृथक अर्थ वाच्य होता है। प्रज्ञा शब्द का भी अपने आप में एक विशिष्ट अर्थ है। बुद्धि शब्द स्थल और भौतिक जगत् से सम्बन्धित है / पर प्रज्ञा शब्द बुद्धि से बहुत ऊपर उठा हुआ है। बहिरंग ज्ञान के अर्थ में बुद्धि शब्द का प्रयोग हुआ है तो अन्तरंग जगत् की बुद्धि प्रज्ञा है / प्रज्ञा प्रतीन्द्रिय जगत का ज्ञान है। वह अान्तरिक चेतना का पालोक है। 'प्रज्ञा' किसी ग्रन्थ के अध्ययन से उपलब्ध नहीं होती। वह तो संयम और साधना से उपलब्ध होती है। प्रज्ञा को हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं।-(१) इन्द्रियसंबद्ध प्रज्ञा और (2) इन्द्रियातीत प्रज्ञा / प्राचार्य वीरसेन ने प्रज्ञा और ज्ञान का भेद प्रतिपादित करते हए लिखा है-गुरु के उपदेश से निरपेक्ष ज्ञान की हेतुभूत चैतन्यशक्ति प्रज्ञा है और ज्ञान उसका कार्य है। इससे यह स्पष्ट है कि चेतना का शास्त्रनिरपेक्ष विकास प्रज्ञा है / प्रज्ञा शास्त्रीय ज्ञान से उपलब्ध नहीं होती, अपितु आन्तरिक विकास से उपलब्ध होती है। प्रज्ञा इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। पातंजलयोग-दर्शन में प्रज्ञा पर विस्तार से चिन्तन करते हए उसकी मर्यादायें तथा उसके क्रमिक विकास की सीमायें बताई हैं। प्रज्ञा की सात भूमिकाएं भी बताई हैं। जितना संयम का विकास होता है, उतनी ही प्रज्ञा निर्मल होती है। संक्षेप में सारांश यह है कि विशिष्ट ज्ञान प्रज्ञा है। प्रज्ञापना में जीव और अजीव का गहराई से निरूपण होने के कारण इस पागम का नाम "प्रज्ञापना" रखा गया है। भगवती' आवश्यक मलयगिरिवृत्ति 22, आवश्यकचूणि२३ महावीरचरियं 24, त्रिषष्टिशलाका 14. उत्तराध्ययन सूत्र, अध्ययन–२३ गाथा–२८, 34, 39, 44, 49, 54, 59, 64, 69, 74, 79, 85 15. पायारचूला, 26 / 5 / 16. धवला 9 / 4; 1, 188412 17. मंत्रराजरहस्य, श्लोक 522 18. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति; सूरिमंत्रकल्पसमुच्चय भाग 2, पृष्ठ-३६५ 19. षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदना खण्ड, धवला 9, लब्धि स्वरूप का वर्णन / 20. तत्त्वार्थराजवातिक, सूत्र 36 21. भगवती 1666 / 570 22. आवश्यक मलयगिरिवत्ति, पृष्ठ-२७० 23. पावश्यकचूणि पृष्ठ-२७५ 24. महावीरचरियं 5 / 155 Page #1129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष चरित्र५, में श्रमण भगवान महावीर के द्वारा छपस्थ अवस्था में दश महास्वप्न देखने का उल्लेख है। उन स्वप्नों में तृतीय स्वप्न यह था--एक रंग-बिरंगा पुस्कोकिल उनके सामने समुपस्थित था। उस स्वप्न का फल था-वे विविध ज्ञानमय द्वादशांग श्रुत की प्रज्ञापना करेंगे। इसमें 'प्रज्ञापयति' और 'प्ररूपयति' इस क्रियाओं से यह स्पष्ट है कि भगवान् का उपदेश प्रज्ञापना-प्ररूपणा है। उस उपदेश को मूल आधार बनाकर प्रस्तुत प्रामम की रचना की गई, इसलिए इसका नाम 'प्रज्ञापना' रखा गया। प्रस्तुत प्रागम के रचयिता श्यामाचार्य ने इसका सामान्य नाम 'अध्ययन' दिया है। और विशेष नाम 'प्रज्ञापना' दिया है। उनका अभिमत है-- भगवान् महावीर ने सर्वभावों की प्रज्ञापना की है। उसी प्रकार मैं भी यहाँ सर्वभावों की प्रज्ञापना करने वाला हूँ। अतः इस आगम का विशेष नाम 'प्रज्ञापना' है 27 / उत्तराध्ययन की तरह प्रस्तुत प्रागम का पूर्ण नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन' यह हो सकता है। प्रज्ञापना सूत्र में एक ही अध्ययन है, जबकि उत्तराध्ययन में छत्तीस अध्ययन हैं। प्रज्ञापना के प्रत्येक पर के अन्त में 'पनवणाए भगवईए' यह पाठ मिलता है, इसीलिए यह स्पष्ट है कि अंग साहित्य में जो स्थान भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) का है, वही स्थान उपांगों में 'प्रज्ञापना' का है। अंगसाहित्य में जहाँ-तहाँ 'भगवान् ने यह कहा इस प्रकार के वाक्य उपलब्ध होते हैं। यहाँ पर 'पण्णत्तं' शब्द का प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत आगम में भी प्रज्ञापना शब्द का प्राधान्य है, संभवतः इसीलिए श्यामाचार्य ने इसका नाम प्रज्ञापना रखा हो। भगवतीसूत्र में प्रार्यस्कन्धक का वर्णन है। वहाँ पर स्वयं भगवान महावीर ने कहा- "एवं खल मए खन्धया ! चउन्विहे लोए पण्णत्ते" / इसी तरह प्राचारांग आदि आगमों में अनेक स्थलों पर भगवान् के उपदेश के लिए प्रज्ञापना शब्द का प्रयोग हुआ है। प्राचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार प्रज्ञापना में जो 'प्र' उपसर्ग है, वह भगवान् महावीर के उपदेश की विशेषता को सूचित करता है। भगवान महावीर के समय में श्रमण परम्परा के अन्य पाँच सम्प्रदाय विद्यमान थे / उनमें से कुछ ऐसे थे जिनके अनुयायियों की संख्या महावीर के संघ से भी अधिक थी। उन पाँच सम्प्रदायों का नेतृत्व क्रमशः पूरण काश्यप, मंखली गोशालक, अजितकेश कम्बल, पकुध कात्यायन और संजय बेलट्ठीपुत्र कर रहे थे। परिस्थितियों के वात्याचक्र से वे पाँचों सम्प्रदाय काल के गर्भ में विलीन हो गये। वर्तमान में उनका अस्तित्व इतर साहित्य में ही उपलब्ध होता है / तथागत बुद्ध की धारा विदेशों तक प्रवाहित हई और भारत में लगभग विच्छिन्न हो गई थी। यदि हम उन सभी धर्माचार्यों के दार्शनिक पहलुओं पर चिन्तन करें तो स्पष्ट होगा कि भगवान महावीर ने जीव, अजीव प्रभति तत्त्वों का जो सूक्ष्म विश्लेषण किया है, वैसा सक्ष्म विश्लेषण उस युग के अन्य कोई भी धर्माचार्य नहीं कर सके / यहाँ तक कि तथागत बुद्ध तो 'अव्याकृत' कहकर प्रात्मा, परमात्मा प्रादि प्रश्नों को टालने का ही प्रयास करते रहे। 30 25. त्रिषष्टिशलाकापूरुष चरित्र 1013 / 146 26. "अज्झयणमिणं चित्तं" ---प्रज्ञापना गा. 3. 27. "उवदंसिया भगवया पण्णवणा सव्व भावाणं / जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्मामि। -प्रज्ञापना गा. 2-3 28. भगवती सूत्र, 2 / 1190, 29. तेन खलु समयेन राजगृहे नगरे षट् पूर्णाद्याः शास्तारोऽसर्वज्ञाः सर्वज्ञमानिनः प्रतिवसतिस्म / तद्यथा-पूरण काश्सपो, मश्करीगोशालिपुत्रः, संजयी वैरट्ठीपुत्रोऽजितः केशकम्वलः, ककुदः कत्यायनो, निग्रंथो ज्ञातपुत्रः / " (दिव्यावदान, 12 // 1436144) 30. मिलिन्द प्रश्न–२।२५ से 33. पृष्ठ 41 से 52 Page #1130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना के भाषापद में 'पन्नवणी' एक भाषा का प्रकार बताया है। उसकी व्याख्या करते हुए प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है-"जिस प्रकार से वस्तु व्यवस्थित हो, उसी प्रकार उसका कथन जिस भाषा के द्वारा किया जाय, वह भाषा 'प्रज्ञापनी' है।३१ प्रज्ञापना का यह सामान्य अर्थ है / तात्पर्य यह है कि जिसमें किसी भी प्रकार के धार्मिक विधि-निषेध का नहीं अपितु सिर्फ वस्तु स्वरूप का ही निरूपण होता है, वह 'प्रज्ञापनी' भाषा है। " प्राचार्य मलयगिरि का यह अभिमत है कि प्रज्ञापना समवाय का उपांग है 33 / पर निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रज्ञापना का सम्बन्ध समवाय के साथ कब जोड़ा गया ? प्रज्ञापना के रचयिता प्राचार्य श्याम का अभिमत है कि उन्होंने प्रज्ञापना को दृष्टिवाद से लिया है 34 / पर हमारे सामने इस समय दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है, अतः स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि प्रज्ञापना में पूर्व साहित्य से कौन सी सामग्री ली है ? तथापि यह निश्चित है कि ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद के साथ इसके वस्तु निरूपण का मेल बैठता प्रज्ञापना और दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ षट्खण्डागम का विषय प्रायः समान है। प्राचार्य बीरसेन ने अपनी धवला टीका में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणी पूर्व के साथ जोड़ा है 31 / अतः हम भी प्रज्ञापना का सम्बन्ध अग्रायणी पूर्व के साथ जोड़ सकते हैं। टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि की दष्टि से समवायांग में जो वर्णन है, उसी का विस्तार प्रज्ञापना में हमा है। अतः प्रज्ञापना समवायांग का उपांग है। पर स्वयं शास्त्रकार ने इसका सम्बन्ध दृष्टिवाद से बताया है। प्रतः यही मानना उचित प्रतीत होता है कि इसका सम्बन्ध समवायांग की अपेक्षा दृष्टिवाद से अधिक है। किन्तु दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दष्टि (दर्शन) का ही वर्णन था। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव, अजीव प्रादि तत्त्वों का निरूपण है और प्रज्ञापना में भी यही निरूपण है, अत: प्रज्ञापना को समवायांग का उपांग मानने में भी किसी प्रकार की बाधा नहीं है। प्रज्ञापना में छत्तीस विषयों का निर्देश है, इसलिए इसके छत्तीस प्रकरण हैं। प्रकरण को इसमें 'पद' नाम दिया है / प्रत्येक प्रकरण के अन्त में प्रतिपाद्य विषय के साथ पद शब्द व्यवहृत हुआ है। आचार्य मलयगिरि पद की व्याख्या करते हुये लिखते हैं-"पदं प्रकरणमर्थाधिकारः इति पर्यायाः" 3deg, अतः यहाँ पद का अर्थ प्रकरण और अधिकार समझना चाहिए। 31. "प्रज्ञापनी-प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी" -प्रज्ञापना, पत्र 249 32. यथावस्थितार्थाभिधानादियं प्रज्ञापनी / / -प्रज्ञापना, पत्र 249 33. इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थाङ्गस्योपांगम् तदुक्तार्थप्रतिपादनात् / -प्रज्ञापना टीका पत्र 1 34. अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्टिवायणीसंदं / जह वणियं भगवया अहमवि तद वणइस्सामि // ॥मा० 3 // 35. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना मुनि पुण्यविजयजी, पृ०९ 36. षट्खण्डागम, पु० 1, प्रस्तावना, पृष्ठ 72 37. प्रज्ञापना टीका, पत्र 6 38. सूत्रसमूहः प्रकरणम् / -न्यायवार्तिक, पृ० 1. Page #1131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना शैली प्रज्ञापना की रचना प्रश्नोत्तर के रूप में हुई है। प्रथम सूत्र से लेकर इक्यासीवें सूत्र तक प्रश्नकर्ता कौन है और उत्तरदाता कौन है ? इस सम्बन्ध में कोई भी सूचन नहीं है। केवल प्रश्न और उत्तर हैं। इसके पश्चात् बयासीवें सूत्र में श्रमण भगवान् महावीर और गणधर गौतम का संवाद है / तेयासीवें सूत्र से लेकर बरानवे (92) सूत्र तक सामान्य प्रश्नोत्तर हैं / तेरानवे सूत्र में गणधर गौतम और महावीर के प्रश्नोत्तर, उसके पश्चात् चौरानवें सूत्र से लेकर एक सौ सैंतालीसवें सूत्र तक सामान्य प्रश्नोत्तर हैं। उसके पश्चात् एक सौ अड़तालीस से लेकर दो सौ ग्यारह तक अर्थात् सम्पूर्ण द्वितीय पद में; तृतीय पद के सूत्र दो सौ पच्चीस से दो सौ पचहत्तर तक और सूत्र तीन सौ पच्चीस, तीन सौ तीस से तीन सौ तेतीस तक बचतुर्थ पद से लेकर शेष सभी पदों के सूत्रों में गौतम गणधर और भगवान महावीर के प्रश्नोत्तर दिये हैं / केवल उनके प्रारम्भ, मध्य और अन्त में आने वाली गाथा और एक हजार छियासी में वे प्रश्नोत्तर नहीं हैं। जिस प्रकार प्रारम्भ में सम्पूर्ण ग्रन्थ की अधिकार-गाथाएँ पाई हैं, उसी प्रकार कितने ही पदों के प्रारम्भ में भी विषय निर्देशक गाथाएँ हैं / उदाहरण के रूप में-तीसरे, अठारहवें बीसवें और तेईसवें पदों के प्रारम्भ और उपसंहार में गाथाएँ हैं / इसी प्रकार दसवें पद के अन्त में, ग्रन्थ के मध्य में और जहाँ आवश्यकता हुई, वहाँ भी गाथाएँ दी गई हैं। सम्पूर्ण पागम का श्लोकप्रमाण सात हजार आठ सौ सतासी है। इसमें प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर कुल दो सौ बत्तीस गाथाएँ हैं और शेष गद्य भाग है / इस पागम में जो संग्रहणी गाथाएँ हैं, उनके रचयिता कौन है ? यह कहना कठिन है। प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में से प्रथम पद में जीव के दो भेदसंसारी और सिद्ध बताये हैं। उसके बाद इन्द्रियों के क्रम के अनुसार एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक में सभी संसारी जीवों का समावेश करके निरूपण किया है। यहाँ जीव के भेदों का नियामक तत्त्व इन्द्रियों की क्रमशः वृद्धि बतलाया है। दूसरे पद में जीवों की स्थानभेद से विचारणा की गई है। इसका क्रम भी प्रथम पद की भांति इन्द्रियप्रधान ही है। जैसे-वहाँ एकेन्द्रिय कहा वैसे ही यहाँ पृथ्वीकाय, अप्काय प्रादि कायों को लेकर भेदों का निरूपण किया गया है। तृतीय पद से लेकर शेष पदों में जीवों का विभाजन गति, इन्द्रिय, काय, योग, कषाय, लेण्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, आहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संजी, भव, अस्तिकाय, चरम, जीव, क्षेत्र, बंध, इन सभी दृष्टियों से किया गया है। उनके अल्पबहत्व का भी विचार किया गया है। अर्थात् प्रज्ञापना में तृतीय पद के पश्चात् के पदों में कुछ अपवादों 40 को छोड़कर सर्वत्र नारक से लेकर चौवीस दण्डकों में विभाजित जीवों की विचारणा की गई है। विषय-विभाग प्राचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना सूत्र में पाई हई दूसरी गाथा की व्याख्या करते हए विषय-विभाग का सम्बन्ध जीव, अजीव प्रादि सात तत्त्वों के निरूपण के साथ इस प्रकार संयोजित किया है 1-2. जीव-अजीव पद-१, 3, 5, 10 और 13 =5 पद 3 प्रास्रव- पद -16, 22 =2 पद . 39. पण्णवणासुत्तं, द्वितीय भाग (प्रकाशक-श्री महावीर जैन विद्यालय) प्रस्तावना, पुष्ठ 10-11. 40. इस अपवाद के लिए देखिए, पद-१३, 18, 21 . Page #1132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 बन्ध पद-२३ 5-7. संवर, निर्जरा और मोक्ष पद 36 =1 पद शेष पदों में क्वचित् किसी तत्त्व का निरूपण है। जैन दष्टि से सभी तत्त्वों का समन्वय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में किया गया है। अतः प्राचार्य मलयगिरि ने द्रव्य का समावेश प्रथम पद में, क्षेत्र का द्वितीय पद में, काल का चतुर्थ पद में और भाव का शेष पदों में समावेश किया है। प्रज्ञापनाका भगवती विशेषण पांचवें अंग का नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति है और उसका विशेषण 'भगवती' है। प्रज्ञापना को भी 'भगवती' 1 है. जबकि अन्य किसी भी पागम के साथ यह विशेषण नहीं लगाया गया है। यह विशेषण प्रज्ञापना की महत्ता--विशेषता का प्रतीक है। भगवती में प्रज्ञापना सूत्र के एक, दो, पाँच, छह, ग्यारह, पन्द्रह, सत्तरह, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस पदों के अनुसार विषय की पूर्ति करने की सूचना है। यहाँ पर यह ज्ञातव्य है कि प्रज्ञापना उपांग होने पर भी भगवती आदि का सूचन उसमें नहीं किया गया है। इसके विपरीत भगवती में प्रज्ञापना का सूचन है। इसका मूल कारण यह है कि प्रज्ञापना में जिन विषयों की चर्चाएँ की गई है, उन विषयों का उसमें सांगोपांग वर्णन है। महायान बौद्धों में 'प्रज्ञापारमिता' ग्रन्थ का अत्यधिक महत्त्व है। अतः अष्ट साहसिका प्रज्ञापारमिता का भी अपरनाम 'भगवती' मिलता है। 41 प्रज्ञापना के रचयिता प्रज्ञापना के मूल में कहीं पर भी उसके रचयिता के नाम का निर्देश नहीं है। उसके प्रारम्भ में मंगल के पश्चात् दो गाथाएँ हैं। उनकी व्याख्या प्राचार्य हरिभद्र और प्राचार्य मलयगिरि दोनों ने की है। किन्तु वे उन गाथाओं को प्रक्षिप्त मानते हैं। उन गाथाओं में स्पष्ट उल्लेख है ---यह श्यामाचार्य की रचना है। प्राचार्य मलयगिरि ने श्यामाचार्य के लिए 'भगवान' विशेषण का प्रयोग किया।४२ आर्य श्याम वाचक वंश के थे। वे पूर्वश्रुत में निष्णात थे। उन्होंने प्रज्ञापना की रचना में विशिष्ट कला प्रशित की, जिसके कारण अंग और उपांग में उन विषयों की चर्चा के लिए प्रज्ञापना देखने का सूचन किया है। नन्दी-स्थविरावली में सुधर्मा से लेकर क्रमशः प्राचार्यों की परम्परा का उल्लेख है। उसमें ग्यारहवाँ नाम 'वन्दिमो हारियं च सामज्ज' है। हारित गोत्रीय आर्य बलिस्सह के शिष्य प्रार्य स्वाति थे। आर्य स्वाति भी हारित गोत्रीय परिवार के थे। प्राचार्य श्याम प्रार्य स्वाति के शिष्य थे। किन्तु प्रज्ञापना की प्रारम्भिक प्रक्षिप्त गाथा में आर्य श्याम को वाचक वंश का बताया है और माथ ही तेवीसवें पट्ट पर भी बताया है। प्राचार्य मलयगिरि ने भी उनको तेवीसवीं प्राचार्य परम्परा पर माना है। किन्तु 41. शिक्षा समुच्चय, पृ. 104-112, 200 42. (क) भगवान् आर्यश्यामोऽपि इत्थमेव सूत्रं रचयति (टीका, पत्र 72) (ख) भगवान् आर्यश्याम : पठति (टीका, पत्र 47) (ग) सर्वेषामपि प्रावनिकसूरीणां मतानि भगवान् आर्यश्याम उपदिष्टवान् (टीका, पत्र 385) (घ) भगवदार्यश्यामप्रतिपत्तौ (टीका, पत्र-३८५) 43. हारियगोत्तं साई च, वंदिमो हारियं च सामज // 26 (नन्दी स्थविरावली) Page #1133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्मा से लेकर श्यामाचार्य तक उन्होंने नाम नहीं दिये हैं / पट्टावलियों के अध्ययन से यह भी परिज्ञात होता है कि कालकाचार्य नामके तीन प्राचार्य हए हैं। एक का वीर निर्वाण 376 में स्वर्गवास हुआ था।४४ द्वितीय गर्दभिल्ल को नष्ट करने वाले कालकाचार्य हुए। उनका समय वीरनिर्वाण 453 है।४५ तृतीय कालकाचार्य, जिन्होंने संवत्सरी महापर्व पंचमी के स्थान पर चतुर्थी को मनाया था, उनका समय वीरनिर्वाण 993 है।" इन तीन कालकाचायों में प्रथम कालकाचार्य 'श्यामाचार्य' के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये अपने युग के महावक प्राचार्य थे। उनका जन्म बीरनिर्वाण 280 (विक्रम पूर्व 190) है। संसार से विरक्त होकर वीरनिर्वाण 300 (विक्रम पूर्व 170) में उन्होंने श्रमण दीक्षा स्वीकार की। दीक्षा ग्रहण के समय उनकी अवस्था बीस वर्ष को थी। अपनी महान् योग्यता के आधार पर वीरनिर्वाण 335 (विक्रमपूर्व 135) में उन्हें युग प्रधानाचार्य के पद पर विभूषित किया गया था। इन तीन कालकाचार्यों में प्रथम कालकाचार्य ने, जिन्हें श्याभाचार्य भी कहते हैं, प्रज्ञापना जैसे विशालकाय सूत्र की रचना कर अपने विशद वैदुष्य का परिचय दिया था।४८ अनुयोग की दृष्टि से प्रज्ञापना द्रव्यानुयोग के अन्तर्गत है। प्रज्ञापना को समग्र श्रमण-संघ ने पागम के रूप में स्वीकार किया। यह प्राचार्य श्याम की निर्मल नीति और हार्दिक विश्वास का द्योतक है। उनका नाम श्याम था पर विशुद्धतम चारित्र की आराधना से वे मत्यन्त समुज्ज्वल पर्याय के धनी थे / पट्टावलियों में उनका तेवीसवां स्थान पट्ट-परम्परा में नहीं है। अन्तिम कालकाचार्य प्रज्ञापना के कर्त्ता नहीं हैं, क्योंकि नन्दीसूत्र, जो वीरनिर्वाण 993 के पहले रचित है, उसमें प्रज्ञापना को आगम-सूची में स्थान दिया है / अतः अब चिन्तन करना है कि प्रथम और द्वितीय कालकाचार्य में से कौन प्रज्ञापना के रचयिता हैं ? डॉ. उमाकान्त का अभिमत है कि यदि दोनों कालकाचार्यों को एक माना जाये तो ग्यारहवें पाट पर जिन श्यामाचार्य का उल्लेख है, वे और गर्दभिल्ल राजा को नष्ट करने वाले कालकाचार्य ये दोनों एक सिद्ध होते हैं। पदावली में जहाँ उन्हें भिन्न-भिन्न गिना है, वहाँ भी एक की तिथि वीर संवत 376 है और दूसरे की तिथि वीर-संवत 453 है / वैसे देखें तो इनमें 77 वर्ष का अन्तर है। इसलिए चाहे जिसने प्रज्ञापना की रचना की हो, प्रथम या द्वितीय अथवा दोनों एक ही हों तो भी विक्रम के पूर्व होने वाले कालकाचार्य (श्यामाचार्य) थे इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है / 44. (क) पाद्याः प्रज्ञापनाकृत् इन्द्रस्य अग्रे निगोद-विचारवक्ता श्यामाचार्यपरनामा / स तु वीरात् 376 वर्षेतिः / - (खरतरगच्छीय पट्टावली) (ख) धर्मसागरीय पट्टावली के अनुसार-एक कालक जो वीरनिर्वाण 376 में मृत्यु को प्राप्त हुए। 45. 'पन्नवणासुतं'–पूण्यविजयजी म., प्रस्तावना पृष्ठ 22 46. (क) पृथ्वीचन्द्र सूरि विरचित कल्पसूत्र टिप्पणक, सूत्र 291 को व्याख्या। (ख) कल्पसूत्र की विविध टीकाएँ। 47. सिरिवीरानो गएसु पणतीसहिएसु तिसय (335) वरिसेसु / पढमो कालगसूरी, जाओ सामज्जनामुत्ति / / 55 / / (रत्नसंचय प्रकरण, पत्रांक 32) 48. निज्जूढा जेण तया पन्नवणा सव्वभावपन्नवणा। तेवीसइमो पुरिसो पवरो सो जयइ सामज्जो // 188 / / Page #1134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा की दृष्टि से प्राचार्य श्याम की अधिक प्रसिद्धि निगोद-व्याख्याता के रूप में रही है। एक बार भगवान् सीमंधर से महाविदेह क्षेत्र में शकेन्द्र ने सूक्ष्मनिगोद की विशिष्ट व्याख्या सुनी। उन्होंने जिज्ञासा, प्रस्तुत की--क्या भगवन ! भरतक्षेत्र में भी निमोद सम्बन्धी इस प्रकार की व्याख्या करने वाले कोई श्रमण, प्राचार्य और उपाध्याय हैं ? भगवान सोमंधर ने प्राचार्य श्याम का नाम प्रस्तुत किया। वृद्ध ब्राह्मण के रूप में शकेन्द्र आचार्य श्याम के पास आये। प्राचार्य के ज्ञानबल का परीक्षण करने के लिए उन्होंने अपना हाथ उनके सामने किया / हस्तरेखा के आधार पर प्राचार्य श्याम ने देखा-वृद्ध ब्राह्मण की पाबु पल्योपम से भी अधिक है / उनको गम्भीर दृष्टि उन पर उठी और कहा- तुम मानव नहीं, अपितु शकेन्द्र हो। शकेन्द्र को प्राचार्य श्याम के प्रस्तुत उत्तर से संतोष प्राप्त हुप्रा / उन्होंने निगोद के सम्बन्ध में अपनी जिज्ञासा रखी। प्राचार्य श्याम ने निमोद का सूक्ष्म विवेचन और विश्लेषण कर शकेन्द्र को आश्चर्याभिभूत कर दिया। सौधर्मेन्द्र ने कहा-जैसा मैंने भगवान् सीमंधर से निगोद का विवेचन सुना, वैसा ही विवेचन अापके मुखारविन्द से सुनकर मैं अत्यन्त प्रभावित हुमा हूँ / देव की अद्भुत रूपसम्पदा को देखकर कोई शिष्य निदान न कर ले, इस दृष्टि से भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनिमण्डल के मागमन से पहले ही शक्रेन्द्र श्यामाचार्य की प्रशंसा करता हुआ जाने के लिए उद्यत हो गया। ज्ञान के साथ अहं न पाये, यह असम्भव है। महाबली, विशिष्ट साधक बाहबली और कामविजेता - प्रार्य स्थूलभद्र में भी अहंकार आ गया था, वैसे ही श्यामाचार्य भी अहंकार से ग्रसित हो गये। उन्होंने कहातुम्हारे प्रागमन के बाद मेरे शिष्य बिना किसी सांकेतिक चिह्न के किस प्रकार जान पायेंगे? आचार्यदेव के संकेत से शकेन्द्र ने उपाश्रय का द्वार पूर्वाभिमुख से पश्चिमाभिमुख कर दिया। जब प्राचार्य श्याम के शिष्य भिक्षा लेकर लौटे तो द्वार को विपरीत दिशा में देखकर विस्मित हुए। इन्द्र के प्रागमन की प्रस्तुत घटना प्रभावकचरित में कालकसूरि प्रबन्ध में प्राचार्य कालक के साथ दी है। विशेषावश्यकभाष्य, आवश्यकचूणि प्रभृति ग्रन्थों में आर्य रक्षित के साथ यह घटना दी गई है। परम्परा की दृष्टि से निगोद की व्याख्या करने वाले कालक और श्याम ये दोनों एक ही आचार्य हैं, क्योंकि कालक और श्याम ये दोनों शब्द एकार्थक हैं / परम्परा की दृष्टि से वीरनिर्वाण 335 में वे युगप्रधान प्राचार्य हुए और 376 तक जीवित रहे। यदि प्रज्ञापना उन्हीं कालकाचार्य की रचना है तो बीरनिर्वाण 335 से 376 के मध्य की रचना है। प्राधनिक अनुसंधान से यह सिद्ध है कि नियुक्ति के पश्चात् प्रज्ञापना की रचना हुई है। नन्दीसूत्र में जो प्रागम-सूची दी गई है, उसमें प्रज्ञापना का उल्लेख है। नन्दीसूत्र विक्रम संवत् 523 के पूर्व की रचना है। अत: इसके साथ प्रज्ञापना के उक्त समय का विरोध नहीं / प्रज्ञापना और षट्खण्डागम :एक तुलना प्रागमप्रभाकर पुण्यविजयजी म. एवं पं. दलसुख मालवणिया ने 'पन्नवणासुत्तं' ग्रन्थ की प्रस्तावना में प्रज्ञापनासूत्र और षट्खण्डागम की विस्तृत तुलना दी है। हम यहां उसी का संक्षेप में सारांश अपनी दृष्टि से प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रज्ञापना श्वेताम्बरपरम्परा का आगम है तो षट्खण्डागम दिगम्बरपरम्परा का प्रागम है। प्रज्ञापना के रचयिता दशपूर्वधर श्यामाचार्य हैं तो षट्खण्डागम के रचयिता आचार्य पुष्पदन्त और प्राचार्य भूतबलि हैं। दिगम्बर विद्वान् षट्खण्डामम की रचना का काल विक्रम की प्रथम शताब्दी मानते हैं। यह ग्रन्थ छह खण्डों [17] Page #1135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में विभक्त होने से 'षट्खण्डागम' के रूप में विश्रुत है / ऐतिहासिक प्रमाणों से यह सिद्ध है कि पुष्पदन्त पौर भूतबलि से पूर्व श्यामाचार्य हुए थे / अतः प्रज्ञापना षट्खण्डागम से बहुत पहले की रचना है। दोनों ही प्रागमों का मूल स्रोत दृष्टिवाद है। 46 दोनों ही पागमों का विषय जीव और कर्म का सैद्धान्तिक दृष्टि से विश्लेषण करना है। दोनों में अल्पबहुत्व का जो वर्णन है, उसमें अत्यधिक समानता है, जिसे महादण्डक कहा गया है। दोनों में गति-प्रागति प्रकरण में तीर्थंकर, बलदेव एवं वासुदेव के पदों की प्राप्ति के उल्लेख की समानता वस्तुतः प्रेक्षणीय है। दोनों में अवगाहना, अन्तर आदि अनेक विषयों का समान रूप से प्रतिपादन किया गया है। प्रज्ञापना में छत्तीस पद हैं, उनमें से 23, २७वें, ३५वें पद में क्रमशः प्रकृतिपद, कर्मपद, कर्मबंधवेदपद, कर्मवेदबंधपद, कर्मवेदवेदकपद और बेदनापद ये छह नाम हैं। षटखण्डागम के टीकाकार वीरसेन ने षट्खण्डागम के जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, बंधस्वामित्व, वेदना, वर्गणा और महाबंध ये छह नाम दिये हैं। प्रज्ञापना के उपर्युक्त पदों में जिन तथ्यों की चर्चाएं की गई हैं, उन्हीं तथ्यों की चर्चाएँ षट्खण्डागम में भी की गई हैं। दोनों ही आगमों में गति प्रादि मार्गणास्थानों की दष्टि से जीवों के अल्पबहत्व पर चिन्तन किया गया है। प्रज्ञापना में अल्पबहत्व की मार्गणाओं के छब्बीस द्वार हैं जिनमें जीव और अजीव इन दोनों पर विचार किया गया है / षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों से सम्बन्धित गति आदि मार्गणाओं को दृष्टि में रखते हुए जीवों के अल्पबहुत्व पर विचार किया गया है। प्रज्ञापना में अल्पबहुत्व को मार्गणाओं के छब्बीस द्वार हैं तो षट्खण्डागम में चौदह हैं। किन्तु दोनों के तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट है कि षटखण्डागम में वर्णित चौदह मार्गणा द्वार प्रज्ञापना में वर्णित छब्बीस द्वारों में चौदह के साथ पूर्ण रूप से मिलते हैं। जैसा कि निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है:-- 49. (क) अज्झयणमिणचित्तं सुयरयणं दिट्ठीवायणीसंदं / जह वणियं भगवया, अहमवि तह वण इस्सामि / / -प्रज्ञापनासूत्र, पृष्ठ 1, गा. 3. (ख) अमायणीयपूर्वस्थित-पंचमवस्तुगतचतुर्थमहाकर्मप्राभृतकज्ञः सूरिधरसेननामाऽभूत् // 104 // कर्मप्रकृतिप्रामृतमुपसंहार्यव षड्भिरिह खण्डः // 134 // -श्रुतावतार-इन्द्रनन्दी कृत (ग) भूतबलि-भयवदा जिणवालिदपासे दिविसदिसुत्तेण अप्पाउनोत्ति अवगयजिणवालिदेण महाकम्मपयडिपाहुडस्स वोच्छेदो होहदि त्ति समुप्पण्णबुद्धिणा पुणो दन्वपमाणाणुगममादि काऊण गंथरयणा कदा / -षट्खण्डागम, जीवट्ठाण, भाग 1, पृष्ठ 71 50. अह भंते ! सब्बजीवप्पबहं महादंडयं वण्ण इस्सामि सम्वत्थोवा गब्भवक्कतिया मणुस्सा....सजोगी विसेसाहिया 96, संसारत्था विसेसाहिया 98, सब्वजीवा विसेसाहिया 98 / -प्रज्ञापनासूत्र-३३४ तुलना करें___'एत्तो सन्दजीवेसु महादंडो कादब्वो भवदि सम्वत्थोवा मणुस्सपज्जत्ता गम्भोववस्कंतिया.... णिगोदजीवा विसेसाहिया। -षट्खण्डागम, पुस्तक 7 प्रज्ञापनासूत्र, सू. 1444 से 65. तुलना करेंषट्खण्डागम, पुस्तक 6. सू. 116-220 [18] Page #1136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पट्खण्डागम५७ 1. गति 2. इन्द्रिय 3. काय 4. योग 5. वेद 6. कषाय 10. लेश्या 12. सम्यक्त्व 7. ज्ञान 9. दर्शन 8. संयम प्रज्ञापना 1. दिशा 2. गति 3. इन्द्रिय 4. काय 5. योग 6. वेद 7. कषाय 8. लेश्या 9. सम्यक्त्व 10. ज्ञान 11. दर्शन 12. संयम 13. उपयोग 14. आहार 15. भाषक 16. परित 17. पर्याप्त 18. सूक्ष्म 19. संजी 20. भव 21. अस्तिकाय 22. चरिम 23. जीव 24. क्षेत्र 25. बंध 26. पुद्गल 14. याहारक 13. संज्ञो 11. भव्य जैसे प्रज्ञापनासूत्र की बहुवक्तव्यता नामक तृतीय पद में गति, प्रभृति मार्गणास्थानों की दृष्टि से छब्बीस द्वारों के अल्पबहत्व पर चिन्तन करने के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण के अन्त में "अह भंते सव्वजीवप्पबहुं महा 52 दिसि गति इंदिय काए जोगे वेदे कसाया लेस्सा य / सम्मत्त जाण दंसण संजम उवयोग पाहारे // भासम परित्त पज्जत्त सुहम सण्णी भवत्थिए चरिमे / जीवे य खेत्त बन्धे पोग्गल महदंडए चेव // -पन्नवणा. 3, बहुवत्तवपयं सूत्र 212. गा. 180, 151 . 53. षटखण्डागम, पुस्तक 7, पृ. 520 [19] Page #1137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दण्डयं वत्तइस्सामि" कहा है, वैसे ही षट्खण्डागम में भी चौदह गुणस्थानों में गति आदि चौदह मार्गणास्थानों द्वारा जीवों के अल्पबहुत्व पर चिन्तन करने के पश्चात् प्रस्तुत प्रकरण के अन्त में महादण्डक का उल्लेख किया है। प्रज्ञापना में जीव को केन्द्र मानकर निरूपण किया गया है तो षट्खण्डागम में कर्म को केन्द्र मानकर विश्लेषण किया गया है, किन्तु खुद्दाबंध (क्षुद्रकबंध) नामक द्वितीय खण्ड में जीव बंधन का विचार चौदह मार्गणा स्थानों के द्वारा किया गया है, जिसकी शैली प्रज्ञापना से अत्यधिक मिलती-जुलती है। प्रज्ञापना५५ की अनेक गाथाएँ षट्खण्डागम में कुछ शब्दों के हेरफेर के साथ मिलती हैं। यहां तक कि पावश्यकनियुक्ति और विशेषावश्यक की गाथानों से भी मिलती हैं। इसी प्रकार प्रज्ञापना और षट्खण्डागम इन दोनों का प्रतिपाद्य विषय एक है, दोनों का मूल स्रोत भी एक है। तथापि भिन्न-भिन्न लेखक होने से दोनों के निरूपण की शैली पृथक पृथक रही है। कहीं कहीं पर तो षटखण्डागम से भी प्रज्ञापना का निरूपण अधिक व्यवस्थित रूप से हमा है। मेरा यहाँ पर यह तात्पर्य नहीं है कि षटखण्डागम के लेखक प्राचार्य पुष्पदन्त और प्राचार्य भूतबलि ने प्रज्ञापना को नकल की है, पर यह पूर्ण सत्य-तथ्य है कि प्रज्ञापना को रचना षट्खण्डागम से पहले हुई थो / मत: उसका प्रभाव षखण्डागम के रचनाकार पर अवश्य ही पड़ा होगा। जीवाभिगम और प्रज्ञापना जीवाभिगम तृतीय उपांग है और प्रज्ञापना चतुर्थ उपांग है। ये दोनों पागम अंगबाह्य होने से स्थविरकृत हैं। जीवाभिगम स्थानांग अंग का उपांग है तो प्रज्ञापना, समवायांग का। जीवाभिगम और प्रज्ञापना इन दोनों ही आगमों में जीव और अजीव के विविध स्वरूपों का निरूपण किया गया है। इन दोनों में प्रथम अजीव का निरूपण करने के पश्चात् जीव का निरूपण किया गया है। दोनों ही प्राममों में मुख्य अन्तर यह है कि जीवाभिगम, स्थानांग का उपांग होने से उसमें एक से लेकर दश भेदों का निरूपण है / दश तक का निरूपण दोनों में प्राय: समान-सा है / प्रज्ञापना में वह क्रम मागे बढ़ता है। प्रश्न यह है कि प्रज्ञापना और जीवाभिमम इन दोनों प्रागमों 54. षट्खण्डागम, पुस्तक 7, पृ. 745 55. समयं वक्ताणं, समयं तेसि सरीर निव्वत्ती। समयं प्राणुग्गहणं, समयं ऊसास-नीसासे / / एक्कस्स उ जं गहणं, बहूण साहारणाण तं चेव / जं बहुयाणं गहण समासयो तं पि एगस्स / / साहारणमाहारो, साहारणमाणुपाण गहणं च / ‘साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं एयं / / --प्रज्ञापना, गा. 97-101. तुलना करेंसाहारणमाहारो, साहारणमाणपाणगहणं च / साहारणजीवाणं, साहारणलक्खणं भणिदं / एयस्स अणुग्गहणं बहूणसाहारणाणमेयस्स / एयस्स जं बहूर्ण समासदो तं पि होदि एयस्स // आवश्यकनियुक्ति-गा. 31 से और विशेषावश्यकभाष्य मा० 604 से तुलना करेंषट्खण्डागम-पुस्तक 13, गाथा सूत्र 4 से 9, 12, 13, 15, 16. / ... [20] Page #1138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में ऐतिहासिक दृष्टि से पहले किसका निर्माण हुआ? जीवाभिगम में अनेक स्थलों पर प्रज्ञापना के पदों का उल्लेख किया है। उदाहरण के रूप में५७ सूत्र--४, 5, 13, 15, 20, 35, 36, 38, 41, 86, 91, 100, 106, 113,117, 118, 120, 121, 122, इनके अतिरिक्त राजप्रश्नीयसूत्र का उल्लेख भी सूत्र-१०९, 110 में हुआ है और प्रौपपातिकसूत्र का उल्लेख सूत्र 111 में हुमा है | इन सूत्रों के उल्लेख से यह जिज्ञासा सहज रूप से हो सकती है कि इन प्रागमों के नाम वल्लभीवाचना के समय सुविधा की दृष्टि से उसमें रखे गये हैं या स्वयं प्रागमरचयिता स्थविर भगवान ने रखे हैं ? यदि लेखक ही ने रखे हैं तो जीवाभिगम की रचना प्रज्ञापना के बाद की होनी चाहिए। उत्तर में निवेदन है कि जीवाजीवाभिगम आगम की रचनाशैली इस प्रकार की है कि उसमें क्रमशः जीव दों का निरूपण है। उन भेदों में जीव की स्थिति, अन्तर, अल्पबहुत्व आदि का वर्णन है। सम्पूर्ण आगम दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम विभाग में अजीव और संसारी जीवों के भेदों का वर्णन है, तो दूसरे विभाग में सम्पूर्ण संसारी और सिद्ध जीवों का निरूपण है। एक भेद से लेकर दश भेदों तक का उसमें निरूपण हा है। किन्तु प्रज्ञापना में विषयभेद के साथ निरूपण करने की पद्धति भी पृथक् है और वह छत्तीस पदों में निरूपित है। केवल प्रथम पद में ही जीव और अजीव का भेद किया गया है। अन्य शेष पदों में जीवों का स्थान, अल्पबहत्त्व, स्थिति, आदि का क्रमशः वर्णन है। एक ही स्थान पर जीवों की स्थिति आदि का वर्णन प्राप्त है। पर जीवाजीवाभिगम में उन सभी विषयों की चर्चा एक साथ नहीं है। जीवाजीवाभिगम से प्रज्ञापना में वस्तुविचार का प्राधिक्य भी रहा हया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रज्ञापना की रचना से पूर्व जीवाजीवाभिगम की रचना हुई है। अब रहा प्रज्ञापना के नाम का उल्लेख जीवाजीवाभिगम में हुआ है, उसका समाधान यही है कि प्रज्ञापना में उन विषयों की चर्चा विस्तार से हुई है। इसी कारण से प्रज्ञापना का उल्लेख भगवती आदि अंग-साहित्य में भी हुआ है और यह उल्लेख प्रागमलेखन के युग का है / अागम प्रभावक पुण्यविजयजी म. का यह भी मन्तव्य है कि जैसे आचारांग, सूत्र कृतांग प्रादि प्राचीन आगमों में मंगलाचरण नहीं है वैसे ही जीवाजीवाभिगम में भी मंगलाचरण नहीं है। इसलिए उसकी रचना प्रज्ञापना से पहले की है। प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया गया है। इसलिए वह जीवाजीवाभिगम से बाद की रचना है। भंगलाचरण : एक चिन्तन मंगलाचरण प्रागमयुग में नहीं था। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही प्रागम का प्रारम्भ करते थे। आगम स्वयं मंगलस्वरूप होने के कारण उसमें मंगलवाक्य अनिवार्य नहीं माना गया। प्राचार्य वीरसेन और प्राचार्य जिनसेन ने कषायपाहुड की जयधवला टीका में लिखा है-पागम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है। क्योंकि परमागम में ध्यान को केन्द्रित करने से नियम से मंगल का फल सम्प्राप्त हो जाता है। यही कारण है कि प्राचार्य गुणधर ने अपने कषायपाहुड ग्रन्थ में मंगलाचरण नहीं किया। 57. देखिए, सूत्र संख्या के लिए जीवाभिगम, देवचंद-लालभाई द्वारा प्रकाशित ई० सन् 1919 की आवृत्ति ! 60. देखिए, पन्नवणासुतं, भाग 2., प्रका. महावीर जैन विद्यालय बम्बई, प्रस्तावना पृष्ठ 14-15 61. एत्थ पुण णियमो पत्थि, परमागमुवजोगम्मिणियमेण मंगलफलोवलंभादो। -कसायपाहुड, भाग 1, गाथा 1, पृष्ठ 9. 62. एदस्थ अत्थविसेसस्स जाणावण8 गुणहरभट्टारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं / -कसायपाहुड, भाग 1, गाथा 1, पृष्ठ 9. [21] Page #1139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशांगी में केवल भगवतीसूत्र को छोड़कर अन्य किसी भी आगम के प्रारम्भ में मंगलवाम्य नहीं है। वैसे ही उपांग में प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलगाथाएँ आई हैं। उन गाथानों में सर्वप्रथम सिद्ध को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार किया है / प्रज्ञापना की प्राचीनतम जितनी भी हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं, उन सभी प्रतियों में पंचनमस्कार महामंत्र उकित है / प्रज्ञापना के टीकाकार प्राचार्य हरिभद्र और प्राचार्य मलयगिरि ने पंचनमस्कार महामंत्र की व्याख्या नहीं की है। इस कारण प्रागमप्रभावक पुण्यविजयजी म., पं. दलसुखभाई मालवणिया आदि का अभिमत है कि प्रज्ञापना के निर्माण के समय नमस्कारमहामंत्र उसमें नहीं था। किन्तु लिपिकर्ताओं ने प्रारम्भ में उसे संस्थापित किया हो / षट्खण्डागम में भी प्राचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार पंचनमस्कार महामंत्र का निर्देश है। प्रज्ञापना में प्रथम सिद्ध को नमस्कार कर उसके पश्चात् अरिहंत को नमस्कार किया है, जबकि पंचनमस्कर महामंत्र में प्रथम अरिहंत को नमस्कार है और उसके पश्चात् सिद्ध को। उत्तराध्ययन प्रादि आगम साहित्य में यह स्पष्ट उल्लेख है कि तीर्थकर दीक्षा ग्रहण करते समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं। इस दृष्टि से जनपरम्परा में प्रथम सिद्धों को नमस्कार करने की परम्परा प्रारम्भ हुई। तीर्थकर अर्थात अरिहन्त प्रत्यक्ष उपकारी होने से पंचनमस्कार महामंत्र में उन्हें प्रथम स्थान दिया गया है। ई. पूर्व महाराज खारवेल, जो कलिंगाधिपति थे, उन्होंने जो शिलालेख उटैंकित करवाये, उनमें प्रथम अरिहन्त को नमस्कार किया गया है और उसके बाद सिद्ध को। मुर्धन्य मनीषियों का यह अभिमत है कि जब तक तीर्थ की संस्थापना नहीं हो जाती, तब तक सिद्धों को प्रथम नमस्कार किया जाता है और जब तीर्थ की स्थापना हो जाती है, तब सन्निकट के उपकारी होने से प्रथम अरिहन्त को और उसके पश्चात् सिद्धों को नमस्कार करने की प्रथा प्रारम्भ हुई होगी। प्राचीनतम ग्रन्थों में मंगलाचरण की यह पद्धति प्राप्त होती है। इसका यह अर्थ नहीं कि निश्चित रूप से ऐसा ही क्रम रहा हो। वन्दन का जहाँ तक प्रश्न है, वह साघक की भावना पर अवलम्बित है। तीर्थंकरों के अभाव में तीर्थकर-परम्परा का प्रबल प्रतिनिधित्व करने वाले प्राचार्य और उपाध्याय हैं, अतः वे भी वन्दनीय माने गये और प्राचार्य, उपाध्याय पद के अधिकारी साधु हैं, इसलिए वे भी पांचवें पद में नमस्कार के रूप में स्वीकृत हुए हों। पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र का निर्माण किसने किया? यह प्रश्न सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में समपस्थित किया गया है। उत्तर में नियुक्तिकार भद्रबाह ने यह समाधान किया है कि पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र सामायिक का ही एक अंग है। अतः सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए। 3 नमस्कारमहामंत्र उतना ही पुराना है, जितना सामायिकसूत्र / सामायिक के अर्थकर्ता तीर्थकर हैं और सूत्रकर्ता गणधर हैं / 4 इसलिए नमस्कारमहामंत्र के भी अर्थकर्ता तीर्थंकर हैं और उसके सूत्रकर्ता गणघर हैं। द्वितीय प्रश्न यह है कि पंचनमस्कार यह आवश्यक का ही एक अंश है या यह अंश दूसरे स्थान स्थापित किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से दिया है कि प्राचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में पंचनमस्कार महामंत्र को पृथक श्रुतस्कंध के रूप में नहीं गिना है। 63. कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो / . सामाइयंगमेव य ज सो सेसं अतो वोच्छं। -प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 1027. 64. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1544 (ख) प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 89,90 [22] Page #1140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथापि यह स्पष्ट है कि यह सूत्र है और प्रथम मंगल भी है, इसीलिए नमस्कारमहामंत्र केवल पावश्यकसूत्र का ही अंश नहीं, किन्तु सर्वश्रुत का आदिमंगल रूप भी है। किसी भी श्रुत का पाठ ग्रहण करते समय नमस्कार करना प्रावश्यक है। प्राचार्य भद्रबाहु ने नमस्कारमहामंत्र की उत्पत्ति, अनुत्पत्ति की गहराई से चर्चा विविध नयों की दृष्टि से की है। प्राचार्य जिनभद्र ने तो अपने विस्तृत भाष्य में दार्शनिक दृष्टि से शब्द की नित्यअनित्यता की चर्चा कर नयदष्टि से उस पर चिन्तन किया है। इस महामंत्र के रचयिता अज्ञात हैं। एक प्राचीन प्राचार्य ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है "आगे चौबीसी हई अनन्ती, होसी बार अनन्त ! नवकार तणी कोई आदि न जाने, यमाख्यो भगवन्त" !! महानिशीथ, जिसके उद्धारक प्राचार्य हरिभद्र माने जाते हैं, उसमें महामंत्र के उद्धारक आर्य वज्रस्वामी माने गये हैं और प्राचार्य हरिभद्र के बाद होने वाले धवला टीकाकार वीरसेन प्राचार्य की दृष्टि से नमस्कार के कर्ता प्राचार्य पुष्पदन्त हैं। प्राचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्वकाल वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई. पहली शताब्दी) है। हम पूर्व ही बता चुके हैं कि खारवेल के शिलालेख जो ई. पूर्व 152 हैं, उसमें "नमो अरहताणं, नमो सव्वसिद्धाणं," ये पद प्राप्त होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि नमस्कारमहामंत्र का अस्तित्व आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले था। श्वेताम्बर-परम्परा की दृष्टि से नमस्कारमहामंत्र के रचयिता तीर्थंकर और गणधर हैं। जैसा कि प्रावश्यकनियुक्ति से स्पष्ट है। प्रस्तिकाय : एक चिन्तन प्रज्ञापता के प्रथम पद में ही जीव और अजीव के भेद और प्रभेद बताकर फिर उन भेद और प्रभेदों की चर्चाएँ अगले पदों में की हैं। प्रथम पद में अजीव के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है / अजीब का निरूपण रूपी और प्ररूपी इन दो भेदों में करके रूपी में पुदगल द्रव्य का निरूपण किया है और प्ररूपी में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, प्रादि के रूप में अजीव द्रव्य का वर्णन किया गया है। किन्तु प्रस्तुत आगाम में इन भेदों का वर्णन करते समय अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जो पागम की प्राचीनता का प्रतीक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों को देश और प्रदेश इन भेदों में विभक्त किया है। किन्तु अस्तिकाय शब्द का अर्थ कहीं पर भी मूल पागम में नहीं दिया गया है। प्रद्धा-समय के साथ अस्तिकाय शब्द व्यवहृत नहीं हया है। इससे धर्मास्तिकाय आदि के साथ प्रद्धा समय का जो अन्तर है, वह स्पष्ट होता है। प्रस्तुत प्रागम में जीव के साथ अस्तिकाय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीव के प्रदेश नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना के पांचवें पद में जीव के प्रदेशों पर चिन्तन किया गया है / प्रथम पद में जिनको अजीव और जीव के मौलिक भेद कहे हैं, उन्हें ही पाँचवें पद में जीवपर्याय और अजीवपर्याय कहा है / तेरहवें पद में उन्हीं को परिणाम नाम से प्रतिपादित किया है। अजीव के अरूपी और रूपी ये दो भेद बताकर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और श्रद्धा समय इन चार को प्ररूपी अजीव के अन्तर्गत लिया गया है। धर्म, अधर्म और आकाश के स्कन्ध, देश में 65. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा 644 से 646 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3335 से 3338 तक 66. षट्खण्डागम, धवला टीका, भाग 1, पृष्ठ 41 तथा भाग 2, प्रस्तावना पृष्ठ 33 से 41 [ 23] Page #1141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक के विभाग किये गये हैं। यहां पर देश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धि के द्वारा कल्पित दो तीन प्रादि प्रदेशात्मक विभाग है और प्रदेश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश जिसका पुनः विभाग न हो सके, निविभाग विभाग प्रदेश है / धर्मास्तिकाय आदि के समग्र प्रदेश का समूह स्कंध है। 'श्रद्धा' काल को कहते हैं, अद्धारूप समय अद्धासमय है। वर्तमान काल का एक ही समय 'सत' होता है / अतीत और अना तो नष्ट हो चुके होते हैं या उत्पन्न नहीं हुए होते हैं। अतः काल में देश-प्रदेशों के संघात की कल्पना नहीं है। असंख्यातसमय आदि की समूहरूप प्राबलिका की कल्पना व्यावहारिक है। रूपी अजीव के अन्तर्गत पुद्गल को लिया गया है। उसके स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल ये चार प्रकार हैं। पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानयुक्त होता है। पांच वर्ण के बीस भेद, दो गंध के छियालीस भेद, पांच रस के सौ भेद, पाठ स्पर्श के एक सौ चौरासी भेद, पांच संस्थान के सौ भेद, इस तरह रूपी अजीव के पांच सौ तीस भेद और अरूपी अजीव के तीस भेद का निरूपण हमा है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से प्रस्तिकाय शब्द 'अस्ति' और 'काय' इन दो शब्दों के मेल से निर्मित हुआ है। अस्ति का अर्थ 'सत्ता' अथवा 'अस्तित्व' है और काय का अर्थ यहाँ पर शरीररूप अस्तिवान् के रूप में नहीं हुआ है / क्योंकि पंचास्तिकाय में पुद्गल के अतिरिक्त शेष अमूर्त हैं, अतः यहाँ काय का लाक्षणिक अर्थ है-जो अवयवी द्रव्य हैं, वे प्रस्तिकाय हैं और जो निरवयव द्रव्य है, वह अनस्तिकाय है। अपर शब्दों में यों कह सकते हैं जिसमें विभिन्न अंश या हिस्से हैं, वह अस्तिकाय है। यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि प्रखण्ड द्रव्यों में अंश या अवयव की कल्पना करना कहाँ तक तर्कसंगत हैं ? क्योंकि धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों एक एक हैं, पविभाज्य और अखण्ड हैं / अतः उनके अवयवी होने का तात्ययं क्या है ? कायत्व का अर्थ 'साबयत्व' यदि हम मानते हैं तो एक समस्या यह उपस्थित होती है कि परमाणु तो अविभाज्य, निरंश और निरवयव है तो क्या वह अस्तिकाय नहीं है ? परमाण पूदगल का ही एक विभाग है और फिर भी उसे अस्तिकाय माना है / इन सभी प्रश्नों पर जैन मनीषियों ने चिन्तन किया है। उन्होंने उन सभी प्रश्नों का समाधान भी किया है। यह सत्य है कि धर्म, अधर्म और आकाश अविभाज्य और अखण्ड द्रव्य हैं पर क्षेत्र की दृष्टि से वे लोकव्यापी हैं। इसलिए क्षेत्र की अपेक्षा से सावयवत्व की अवधारणा या विभाग की कल्पना वैचारिक स्तर पर की गई है। परमाणु स्वयं में निरंश, अविभाज्य और निरवयव है पर परमाणु स्वयं कायरूप नहीं है, पर जब वह परमाणु स्कन्ध का रूप धारण करता है तो वह कायत्व और सावयवत्व को धारण कर लेता है। इसलिए परमाणु में भी कायत्व का सद्भाव माना है। अस्तिकाय और अनस्तिकाय इस प्रकार के वर्गीकरण का एक प्राधार बहुप्रदेशत्व भी माना गया है। जो बहुप्रदेश द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय हैं और एक प्रदेश द्रव्य अनस्तिकाय हैं / यहाँ भी यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि धर्म, अधर्म और आकाश ये तीनों द्रव्य स्वद्रव्य की अपेक्षा से तो एकप्रदेशी हैं, च कि वे अखण्ड हैं। सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए स्पष्ट लिखा है--धर्म, अधर्म और आकाश में बहुप्रदेशत्व द्रव्य की अपेक्षा से नहीं है अपितु क्षेत्र की अपेक्षा से है। क्षेत्र की दृष्टि से भी धर्म और अधर्म को असंख्यप्रदेशी कहा है और प्राकाश को अनन्तप्रदेशी कहा है। इसलिए उपचार से उनमें कायत्व की अवधारणा की गई है। पुद्गल परमाणु की अपेक्षा से नहीं, किन्तु स्कन्ध की अपेक्षा से बहुप्रदेशी है और अस्तिकाय भी बहुप्रदेशत्व की दृष्टि से है। परमाणु स्वयं युद्गल का एक अंश है। यहाँ पर कायत्व का अर्थ विस्तारयुक्त होना है। विस्तार की प्रस्तुत अवधारणा क्षेत्र की अवधारणा पर अवलम्बित हैं। जो द्रव्य 67. यावन्मानं प्राकाशं अविभागि पुदगलावृष्टब्धम् / __ तं खलु प्रदेशं जानीहि सर्वाणुस्थानदानार्हम् / / --द्रव्यसंग्रह संस्कृत छाया 27. [24] Page #1142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विस्तार रहित है, वे अनस्तिकाय हैं / विस्तार से यहाँ पर यह तात्पर्य है-जो द्रव्य जितने जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है, वही उसका विस्तार है / एक जिज्ञासा यह भी हो सकती है कि कालद्रव्य लोकव्यापी है, फिर उसे प्रस्तिकाय क्यों नहीं माना गया? उत्तर यह है कि कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर स्थित है। किन्तु हरएक कालाणु अपने-आप में स्वतंत्र है। स्निग्धता और रूक्षतागुण के अभाव में उनमें बंध नहीं होता, अतः वे परस्पर निरपेक्ष रहते हैं। बंध न होने से उनके स्कन्ध नहीं बनते / स्कन्ध के अभाव में प्रदेश-प्रचयत्व की कल्पना भी नहीं हो सकती। कालद्रव्य में स्वरूप और उपचार-इन दोनों ही प्रकार से प्रदेशप्रचय की कल्पना नहीं हो सकती। आकाशद्रव्य सभी द्रव्यों को अवगाहन देता है। यदि आकाशद्रव्य विस्तृत नहीं होगा तो वह अन्य द्रव्यों को स्थान नहीं दे सकेगा / उसके अभाव में अन्य द्रव्य रह नहीं सकेंगे। धर्मद्रव्य गति का माध्यम है। वह उतने ही क्षेत्र में विस्तृत और व्याप्त है, जिसमें गति सम्भव है। यदि गति का माध्यम स्वयं विस्तृत नहीं है तो उसमें गति किस प्रकार सम्भव हो सकती है ? उदाहरण में रूप में जितने क्षेत्र में जल होगा, उतने ही क्षेत्र में मछली की गति सम्भव है। वैसे ही धर्मद्रव्य का प्रसार जिस क्षेत्र में होगा, उस क्षेत्र में पुदगल और जीव की गति सम्भव होगी, इसलिए धर्मद्रव्य को लोक तक विस्तृत माना है। यही स्थिति अधर्मद्रव्य की भी है। अधर्म द्रव्य के कारण ही परमाण स्कन्ध के रूप में बनते हैं। स्कन्ध के रूप में परमाणों को संगठित रखने का कार्य अधर्मद्रव्य का है। आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उन असंख्यात प्रदेशों को शरीर तक सीमित रखने का कार्य अधर्मद्रव्य का है। विश्व की जो व्यवस्था पद्धति है, उसको सुव्यवस्थित रखने में अधर्म द्रव्य का महत्त्वपूर्ण हाथ है, इसलिए अधर्मद्रव्य को भी लोकव्यापी माना है। अधर्मद्रव्य के अभाव में संसार के मूल घटक परमाणु छितरबितर हो जायेंगे। उनकी किसी भी प्रकार की रचना सम्भव नहीं होगी। जहाँ-जहाँ पर गति का माध्यम है, वहाँ-वहाँ पर स्थिति का माध्यम भी आवश्यक है, जो गति का नियंत्रण करता है। विश्व की गति को और विश्व को संतुलित बनाये रखने के लिए प्रधर्मद्रव्य को लोकव्यापी माना है। इसलिए उसे अस्तिकाय में स्थान दिया है। पुद्गलद्रव्य में भी विस्तार है। वह परमाणु से स्कन्ध के रूप में परिवर्तित होता है। परमाणु में स्निग्धता और रूक्षता गुण रहे हुए हैं, जिनके कारण वह स्कन्धरचना करने में सक्षम है। इसीलिए उपचार से उसमें कायत्व रहा हुआ है। पुद्गलद्रव्य के कारण ही विश्व में भूर्तता है / यदि पुद्गलद्रव्य न हो तो मूर्त विश्व की सम्भावना ही नष्ट हो जाये / जीवद्रव्य भी विस्तार युक्त है / शरीर के विस्तार की तरह आत्मा का भी विस्तार होता है। केवलिसमुद्घात के समय आत्मा के असंख्यात प्रदेश सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं। इसीलिए उसे अस्तिकाय में स्थान दिया है / हम यह पूर्व में बता चुके हैं कि काल के अणु स्निग्धता और रूक्षतागुण के अभाव में स्कन्ध या संघात रूप नहीं बनते / हम अनादि भूत से लेकर अनन्त भविष्य तक का अनुभव तो करते हैं, किन्तु उनमें कायत्व का आरोपण नहीं किया जा सकता। काल का लक्षण वर्तना केवल वर्तमान में ही है। वर्तमान केवल एक समय का है, जो बहुत ही सूक्ष्म है। इसलिए काल में प्रदेशप्रचय नहीं मान सकते और प्रदेशप्रचय के अभाव में वह अस्तिकाय नहीं है। यहां पर यह भी स्मरण रखना होगा कि सभी द्रव्यों का विस्तारक्षेत्र समान नहीं है। आकाशद्रव्य लोक और अलोक दोनों में है। धर्म और अधर्म द्रव्य केवल लोक तक सीमित हैं। पुद्गल और जीव का विस्तारक्षेत्र एक सदृश नहीं है। पुद्गलपिण्ड का जितना आकार होगा, उतना ही उसका विस्तार होगा। जीव भी जितना शरीर विस्तृत होगा, उतना ही वह आकार को ग्रहण करेगा। उदाहरण के रूप में एक चींटी में भी [25] Page #1143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्मा के असंख्यात प्रदेश हैं तो एक हाथी में भी। उससे स्पष्ट है कि सभी अस्तिकायों का विस्तारक्षेत्र समान नहीं है। __ भगवतीसूत्र में 8 प्रदेशदृष्टि से अल्पबहुत्व को लेकर सुन्दर वर्णन है। वहाँ पर यह प्रतिपादित किया गया है कि अन्य द्रव्यों की अपेक्षा धर्म और अधर्म द्रव्य सबसे न्यून हैं। वे असंख्यप्रदेशी हैं और लोकाकाश तक सीमित है / धर्म और अधर्मद्रव्य की अपेक्षा जीवद्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, कारण यह है कि धर्म और अधर्म द्रव्य एक एक ही हैं, परन्तु जीवद्रव्य अनन्त हैं और हर एक जीवद्रव्य के असंख्यात प्रदेश हैं। जीवद्रव्य के प्रदेशों की अपेक्षा से पुद्गलद्रव्य के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव के एक एक प्रात्मप्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मों की वर्गणायें हैं, जो पुदगल हैं। पुद्गल की अपेक्षा भी काल के प्रदेश अनन्तगुणा अधिक हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव और पुद्गल की वर्तमान, भूत और भविष्य की अपेक्षा अनन्त पर्यायें हैं। कालद्रव्य की अपेक्षा भी आकाशद्रव्य के प्रदेशों की संख्या सबसे अधिक है। अन्य सभी द्रव्य लोक तक ही सीमित हैं, जबकि आकाशद्रव्य लोक और अलोक दोनों में स्थित है। एक प्रश्न यह उबुद्ध हो सकता है कि लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है। उस असंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में अनन्तानन्त पुद्गल परमाणु किस प्रकार समा सकते हैं ? एक आकाशप्रदेश में एक पुद्गलपरमाणु ही रह सकता है तो प्रसंख्यातप्रदेशी लोकाकाश में असंख्य पुदगलपरमाण ही रह सकते हैं। / आकाश प्रदेश में अनन्त परमाणु रहें, उसमें किसी भी प्रकार की बाधा नहीं है। क्योंकि परमाण और परमाणस्कन्ध में विशिष्ट अवगाहन शक्ति रही हुई है / यहाँ पर अवगाहन शक्ति का अर्थ है-दूसरों को अपने में समाहित करने की क्षमता / जैसे--प्राकाश द्रब्य अपने अवगाहन गुण के कारण अन्य द्रव्यों को स्थान देता है, वैसे ही परमाणु और स्कन्ध भी अपनी अवगाहनशक्ति के कारण अन्य परमाणुनों और स्कन्धों को अपने में स्थान देते हैं। उदाहरण के रूप में एक प्रावास में विद्युत का एक बल्ब अपना आलोक प्रसारित कर रहा है, उस आवास में अन्य हजार बल्ब लगा दिये जायें तो उनका भी प्रकाश उस आवास में समाहित हो जायेगा / इसी प्रकार शब्दध्वनि को भी ले सकते हैं। जैन दृष्टि से एक प्राकाशप्रदेश में अनन्तानन्त ध्वनियां रही हुई हैं। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रकाश और ध्वनि पौद्गलिक होने पर भी मृत्तं हैं। जब मूर्त में भी एक ही प्राकाशप्रदेश में अनन्त परमाणु के स्कन्ध रह सकते हैं तो अमूर्त के लिए तो प्रश्न ही नहीं। चाहे पुद्गलपिण्ड कितना भी घनीभूत क्यों न हो, उसमें दूसरे अन्य अनन्त परमाणु और पुद्गलपिण्डों को अपने में अवगाहन देने की शक्ति रही हुई है। बहुत कुछ यह सम्भव है कि परमाणु के उत्कृष्ट प्रकार की दृष्टि से यह बताया गया हो कि एक अाकाशप्रदेश एक परमाणु के आकार का है / गति की दृष्टि से जघन्य गति एक परमाणु के काल की है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो एक परमाणु जितने काल में एक आकाश प्रदेश से दूसरे प्रकाश प्रदेश में पहुँचता है, वह एक समय है, जो काल का सबसे छोटा विभाग है। उत्कृष्ट गति की दृष्टि से एक परमाणु एक समय में चौदह राजू लोक की यात्रा कर लेता है। ___ आधुनिक युग में विज्ञान ने अत्यधिक प्रगति की है / उसकी अपूर्व प्रगति विज्ञों को चमत्कृत कर रही है / विज्ञान ने भी दिक् (स्पेस्), काल (Time) और पुद्गल (Matter) इन तीन तत्वों को विश्व का मूल आधार माना है। इन तीन तत्त्वों के बिना विश्व की संरचना सम्भव नहीं। आइन्सटीन ने सापेक्षवाद के द्वारा 68. भगवतीसूत्र-१३१५८, [ 26] Page #1144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि दिक् और काल ये गतिसापेक्ष हैं / गतिसहायक द्रव्य, जिसे धर्मद्रव्य कहा गया है, विज्ञान ने उसे 'ईथर' कहा है। आधुनिक अनुसंधान के पश्चात् ईथर का स्वरूप भी बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है। अब ईथर भौतिक नहीं, अभौतिक तत्त्व बन गया है, जो धर्म द्रव्य की अवधारणा के अत्यधिक सन्निकट है। पुद्गल तो विश्व का मूल आधार है ही, भले ही वैज्ञानिक उसे स्वतंत्र द्रव्य न मानते हों किन्तु वैज्ञानिक धीरे धीरे नित्य नतन अन्वेषणा कर रहे हैं / सम्भव है, निकट भविष्य में पूदगल और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य करें। सिद्ध : एक चिन्तन प्रज्ञापना के प्रथम पद में अजीवप्रज्ञापना के पश्चात् जीवप्रज्ञापना के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। जीव के संसारी और सिद्ध ये दो मुख्य भेद किये हैं। जो जीते हैं, प्राणों को धारण करते हैं वे जीव हैं। प्राण के द्रव्यप्राण और भावप्राण ये दो प्रकार हैं। पांच इन्द्रियाँ, तीन मनोबल, वचनबल और कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य, ये दस द्रव्यप्राण हैं / ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चार भावप्राण हैं। संसारी जीव द्रव्य और भाव प्राण दोनों से युक्त होता है और सिद्ध जीव केवल भावप्राणों से युक्त होते हैं। नरक, तिर्यच, मनुष्य और देव इन चार गतियों में परिभ्रमण करने वाले संसारसमापन्न हैं। वे संसारवर्ती जीव हैं / जो संसारपरिभ्रमण से रहित हैं, वे असंसारसमापन्न-सिद्ध जीव हैं। वे जन्म-मरण रूप समस्त दुःखों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। सिद्धों के पन्द्रह भेद यहाँ पर प्रतिपादित किये गये हैं। ये पन्द्रह भेद समय, लिंग, वेश और परिस्थिति आदि को दष्टि से किये गये हैं। तीर्थ की संस्थापना के पश्चात् जो जीव सिद्ध होते हैं, वे "तीर्थ सिद्ध' हैं / तीर्थ को संस्थापना के पूर्व या तीर्थ का विच्छेद होने के पश्चात जो जीव सिद्ध होते हैं, वे 'अतीर्थसिद्ध हैं। जैसे भगवान ऋषभदेव के तीर्थ की स्थापना के पूर्व ही माता मरुदेवी सिद्ध हई। मरुदेवी माता का सिद्धि गमन तीर्थ की स्थापना के पूर्व हुआ था। दो तीर्थकरों के अन्ततराल काल में यदि शासन का विच्छेद हो जाय और ऐसे समय में कोई जीव जातिस्मरण प्रादि विशिष्ट ज्ञान से सिद्ध होते हैं तो वे 'तीर्थव्यवच्छेद' सिद्ध कहलाते हैं। ये दोनों प्रकार के सिद्ध अतीर्थसिद्ध की परिगणना में आते हैं। जो तीर्थकर होकर सिद्ध होते हैं, वे 'तीर्थंकरसिद्ध' कहलाते हैं / सामान्य केवली 'प्रतीर्थकरसिद्ध' कहलाते हैं / संसार की निस्सारता को समझ कर बिना उपदेश के जो स्वयं ही संबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं वे 'स्वयंबुद्धसिद्ध' हैं। नन्दीणि में "तीर्थकर" और "तीर्थकरभिन्न" ये दो प्रकार के स्वयं बुद्ध बताये हैं। यहाँ पर स्वयंबुद्ध से तीर्थंकर भिन्न स्वयंबुद्ध ग्रहण किये गए हैं / 70 जो वृषभ, वृक्ष, बादल प्रभृति किसी भी बाह्य निमित्तकारण से प्रबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं वे "प्रत्येकबुद्धसिद्ध" है। प्रत्येकबुद्ध समूहबद्ध गच्छ में नहीं रहते / वे नियमत: एकाकी ही विचरण करते हैं। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि स्वयबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों को परोपदेश की आवश्यकता नहीं होती, तथापि दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि स्वयंबुद्ध में जातिस्मरण आदि ज्ञान होता है जबकि प्रत्येकबुद्ध केवल बाह्य निमित्त से प्रबुद्ध होता है / जो बोध प्राप्त प्राचार्य के द्वारा बोधित होकर सिद्ध होते हैं, वे 'बुद्धबोधितसिद्ध' हैं। स्त्रीलिंग में सिद्ध होने वाली भव्यात्माएँ 'स्त्रीलिंगसिद्ध' कहलाती है। 69. प्रज्ञापनासूत्र, मलयगिरि वृति 70. ते दुविहा सयंबुद्धा-तित्थयरा तित्थयरवइरिता य, इह वइरित्तेहिं अहिगारो। -नन्दी अध्ययनचूणि [27] Page #1145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर साहित्य में स्त्री का निर्वाण माना है, जबकि दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में स्त्री के निर्वाण का निषेध किया है / दिगम्बरपरम्परा मान्य षट्खण्डागम में मनुष्य-स्त्रियों के गुणस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है कि "मनुष्यस्त्रियाँ समयगमिथ्याष्टि, असंयतसम्यगदष्टि संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम ती हैं / इसमें 'संजत' शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य स्त्री को 'संयत' गुणस्थान हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का वातावरण समुत्पन्न हुआ, तब ग्रन्थ के सम्पादक डॉ० हीरालालजी जैन आदि ने पुनः उसका स्पष्टीकरण षट्खण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना में किया, किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री [कर्नाटक में षटखण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी 'संजद' शब्द मिला है। वट्टकेरस्वामिविचित मूलाचार में प्रायिकानों के प्राचार का विश्लेषण करते हुए कहा है -जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार प्रोचरण करते हैं, वे जगत में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं / इसमें भी प्रार्थिकामों के मोक्ष में जाने का उल्लेख है, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि वे उसी भव में मोक्ष प्राप्त करती हैं अथवा तत्पश्चात् के भव में। बाद के दिगम्बर आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में और प्राचीन ग्रन्थों की टीकानों में स्पष्ट रूप से स्त्रीनिर्वाण का निषेध किया है। जो पुरुष शरीर से सिद्ध होते हैं, वे 'पुरुषलिंग सिद्ध' हैं / नपुसक शरीर से सिद्ध होते हैं, वे 'नपुसकलिंग सिद्ध' हैं / जो तीर्थंकर प्रतिपादित श्रमण पर्याय में सिद्ध होते हैं, वे 'स्वलिगसिद्ध' हैं। परिवाजक आदि के वेष से सिद्ध होने वाले 'अन्यलिगसिद्ध है। जो महस्थ के वेष में सिद्ध होते हैं, वे 'गहिलिमसिद्ध हैं। एक समय में अकेले ही सिद्ध होने वाले 'एकसिद्ध हैं। एक ही समय में एक से अधिक सिद्व होने वाले 'अनेकसिद्ध हैं। सिद्ध के इन पन्द्रह भेदों के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी सिद्धों के भेद प्रस्तुत किए हैं। सिद्धों के जो पन्द्रह प्रकार प्रतिपादित किये हैं, वे सभी तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध इन दो प्रकारों में समाविष्ट हो जाते हैं। विस्तार से निरूपण करने का मूल आशय सिद्ध बनने के पूर्व उस जीव की क्या स्थिति थी, यह बतलाना है। प्रज्ञापना के टीकाकार ने भी इसे स्वीकार किया है। जिस प्रकार जैन आगम साहित्य में सिद्धों के प्रकार बताये हैं, वैसे ही बौद्ध आगम में स्थविरवाद की दृष्टि से बोधि के तीन प्रकार बताये हैं --सावकबोधि [श्रावकबोधि], पच्चे कबोधि [प्रत्येकबोधि], सम्मासंबोधि [सम्यक संबोधि]। श्रावकबोधि उपासक को अन्य के उपदेश से जो बोधि प्राप्त होती है उसे श्रावकबोधि कहा है। श्रावकसम्बुद्ध भी अन्य को उपदेश देने का अधिकारी है।०४ जैन दृष्टि से प्रत्येकबोधि को अन्य के उपदेश की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही पच्चेकबोधि को भी दूसरे के उपदेश की जरूरत नहीं होती। उसका जीवन दूसरों के लिए आदर्श होता है। 71. सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजादासंजद (अत्र संजद इति पाठशेष: प्रतिभाति)-टाणे णियमा पज्जतियो। -षट्खण्डागम भाग 1 सूत्र 93 पृ. 332, प्रका० सेठ लक्ष्मीचन्द शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय, अमरावती (बरार) सन् 1939 72. ते जगपुजं कित्ति सुहं च लभू ण सिज्मति मूलाचार 4/196 पृ. 168 74. विनयपिटक; महावग्ग 1121 [28] Page #1146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मासंबोधि स्वयं के प्रबल प्रयास से बोधि प्राप्त करता है और अन्य व्यक्तियों को भी वह बोधि प्रदान . कर सकता है / उसकी तुलना तीर्थकर से की जा सकती है / 75 प्रार्य और अनार्य : एक विश्लेषण सिद्धों के भेद-प्रभेदों की चर्चा करने के पश्चात संसारी जीवों के विविध भेद बतलाये हैं। इन भेद-प्रभेदों का मूल आधार इन्द्रियाँ हैं। जीवों की सूक्ष्मता, पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक दृष्टि से भी जीवों के भेद-प्रभेद प्रतिपादित हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक जितने भी जीव हैं, वे समूच्छिम हैं। तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य ये गर्भज और समूच्छिम दोनों प्रकार के होते हैं। नारक और देव का जन्म उपपात है। समूच्छिम और नरक के जीव एकान्त रूप से नपुंसक होते हैं। देवों में स्त्री और पुरुष दोनों होते हैं, नपुसक नहीं होते / गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च में तीनों लिंग होते हैं। इस तरह लिंगभेद की दृष्टि से जीवों के भेद किए गए हैं। नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति, ये भेद गति की दृष्टि से पंचेन्द्रिय के किये गये हैं। जीव के प्रसंसारसमापन और संसारसमापन्न ये दो विभाग किए गए हैं। प्रसंसारसमापन्न जीव सिद्ध हैं। उनके विविध भेद बताने के पश्चात संसारी जीवों के इन्द्रियों की रष्टि से पांच भेद किए गए हैं, फिर एकेन्द्रिय में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय आदि के विविध भेद-प्रभेदों की प्रज्ञापना की गई है। एकेन्द्रिय के पश्चात् द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय का वर्णन है। पंचेन्द्रिय में भी नारक एवं तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों का वर्णन करने के पश्चात् मनुष्य का वर्णन किया है। मनुष्य के संमूच्छिम और गर्भज, ये दो भेद किए मनुष्य प्रौपचारिक मनुष्य हैं; वे गर्भज मनुष्य के मल, मूत्र, कफ आदि अशुचि में ही उत्पन्न होते हैं, इसीलिए उन्हें मनुष्य कहा गया है / गर्भज मनुष्य के कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज, अन्तर्वीपज, ये तीन प्रकार हैं। पांच भरत, पांच ऐरावत और पांच महाविदेह-ये पन्द्रह कर्मभूमियाँ हैं / यहाँ के मानव कर्म करके अपना जीवनयापन करते हैं, एतदर्थ इन भूमियों में उत्पन्न मानव कर्मभूमिज कहलाते हैं। कर्मभूमिज मनुष्य के भी पार्य और म्लेच्छ ये दो प्रकार हैं। आर्य मनुष्य के भी ऋद्धिप्राप्त व अनुद्धिप्राप्त ये दो प्रकार हैं। प्रज्ञापना में ऋद्धिप्राप्त पार्य के अरिहन्त, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, चारण और विद्याधर यह छः प्रकार बताये है। तत्त्वार्थवार्तिक में ऋद्धिप्राप्त पार्य के बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषध, रस और क्षेत्र, ये पाठ प्रकार बतलाये हैं। प्रज्ञापना में अनृद्धिप्राप्त आर्य के क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, कर्मार्थ, शिल्पार्य, भाषार्य, ज्ञानार्य, दर्शनार्य और चारित्रार्य, ये नो प्रकार बतलाये हैं। 75. (क) उपासकजनालंकार की प्रस्तावना, पृष्ठ 16 (ख) उपासकजनालंकार लोकोत्तरसम्पत्ति निद्देस, पृष्ठ 340 (ग) पण्णवणासुत्तं द्वितीय भाग, प्रस्तावना पृष्ठ 36 -पुण्यविजयजी 76. प्रज्ञापना 1 सूत्र 100 77. तत्त्वार्थवार्तिक 3 / 36, पृष्ठ 201 78. प्रशापना 11101 [29] Page #1147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवातिक में अनृद्धिप्राप्त पार्यों के क्षेत्रायं, जात्यार्य, कर्मायं, चारित्रायं और दर्शनार्य; ये पांच प्रकार प्ररूपित किए हैं। तत्त्वार्थभाष्य में अनृद्धिप्राप्त पार्यों के क्षेत्रार्य, जात्यार्य, कुलार्य, शिल्पार्य, कर्मार्य एवं भाषार्य, ये छः प्रकार उल्लिखित हैं।८० प्रज्ञापना की दृष्टि से साढ़े पच्चीस देशों में रहने वाले मनुष्य क्षेत्रार्य हैं। इन देशों में तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, उत्पन्न हुए, इसलिए इन्हें आर्य जनपद कहा है। प्रवचनसारोद्धार में भी आर्य की यही परिभाषा दी गई है। जिनदासगणी महत्तर ने लिखा है कि जिन प्रदेशों में यौगलिक रहते थे, जहाँ पर हाकार आदि नीतियों का प्रवर्तन हा था; वे प्रदेश आर्य हैं और शेष अनार्य / इस दृष्टि से आर्य जनपदों की सीमा बढ़ जाती है / तत्त्वार्थभाष्य में लिखा है कि चक्रवर्ती की विजयों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य भी प्रार्य होते हैं। तत्त्वार्थवातिक में काशी, कौशल प्रभृति जनपदों में उत्पन्न मनुष्यों को क्षेत्रार्य कहा है। इसका अर्थ यह है कि बंगाल, बिहार, उत्तरप्रदेश, उड़ीसा, मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान और पंजाब तथा पश्चिमी पंजाब एवं सिन्ध, ये कोई पूर्ण तथा कोई अपूर्ण प्रान्त पार्यक्षेत्र में थे और शेष प्रान्त उस सीमा में नहीं थे। दक्षिणापथ आर्यक्षेत्र की सीमा में नहीं था। उत्तर भारत में प्रार्यों का वर्चस्व था, संभवतः इसी दृष्टि से सीमानिर्धारण किया गया हो / प्रज्ञापना में साढ़े पच्चीस देशों की जो सूची दी गई है उस में अवन्ती का उल्लेख नहीं है जबकि अवन्ती श्रमण भगवान महावीर के समय एक प्रसिद्ध राज्य था। वहाँ का चन्द्रप्रद्योत राजा था। भगवान महावीर सिन्धुसौवीर जब पधारे थे तो अवन्ती से ही पधारे थे। सिन्धुसौवीर से अवन्ती अस्सी योजन दूर था। दक्षिण में जैनधर्म का प्रचार था फिर भी उन क्षेत्रों को प्रार्यक्षेत्रों की परिगणना में नहीं लिया गया है / यह विज्ञों के लिए चिन्तनीय प्रश्न है। यह भी बहुत कुछ संभव है, जिन देशों को आर्य नहीं माना गया है संभव है वहाँ पर आर्यपूर्व जातियों का वर्चस्व रहा होगा। प्रज्ञापना में जाति-प्रार्य मनुष्यों के अम्बष्ठ, कलिन्द, विदेह, हरित, वेदक और चुचुण ये छः प्रकार बताये गये हैं। कुलार्य मानव के भी उग्र, भोग, राजन्य, इक्ष्वाकु, ज्ञात और कौरव यह छ: प्रकार बतलाये गये हैं / तत्त्वार्थवातिक में जाति-आर्य और कुल-आर्य इन दोनों को भिन्न नहीं माना है / इक्ष्वाकु, ज्ञात और भोज प्रति कुलों में समुत्पन्न मानव जात्यार्य होते हैं। 80 तत्त्वार्थभाष्य में इक्ष्वाकू, विदेह, हरि, अम्बष्ठ, ज्ञात, कुरु, 79. तत्त्वार्थवार्तिक 3136, पृष्ठ 200 80. तत्त्वार्थभाष्य 315 11. इत्थुप्पत्ति जिणाणं, चक्कीणं राम कण्हाणं। --प्रज्ञापना 11117 82. यत्र तीर्थकरादीनामुत्पत्तिस्तदार्य, शेषमनार्यम् / -प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ 446 83. जेसु केसुवि पएसेसु मिहुणगादि पइट्ठिएसु हक्काराइया नीई परूढा ते आरिया, सेसा प्रणारिया। -यावश्यकर्णि 84. भरतेषु अर्धषड्विंशतिजनपदेषु जाता: शेषेषु च चक्रवतिविजयेषु। -तत्त्वार्थभाष्य 3 / 15 85. क्षेत्रार्याः काशिकोशलादिषु जाताः। -तत्त्वार्थवार्तिक 3136, पृष्ठ 200 56. गच्छाचार, पृष्ठ 122 87. इक्ष्वाकुज्ञातभोजादिषु कुलेषु जाता जात्यार्यः / -तत्त्वार्थवार्तिक 3136 पृष्ठ 200 [30] Page #1148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुम्बु, नाल, उग्र, भोग, राजन्य आदि को जात्यार्य और कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव तथा तीसरे, पांचवें और सातवें कुलकर से लेकर शेष कुलकरों से उत्पन्न विशुद्ध वंश वाले कुल-प्रार्य हैं। प्रज्ञापना में दूष्यक-वस्त्र के व्यापारी, सूत के व्यापारी, कपास या रुई के व्यापारी, नाई, कुम्हार आदि प्रार्यकर्म करने वाले मानवों को कार्य माना है / शिल्पार्य मानव के तुण्णाग (रफ करने वाले), तन्तुवाय (जुलाहे), पुस्तकार, लेप्यकार, चित्रकार आदि अनेक प्रकार हैं। तत्त्वार्थवातिक में कार्य और शिल्पार्य को एक ही माना है। उन्होंने कार्य के सावध कार्य, अल्प सावध कार्य, असावध कार्य यह तीन भेद किए हैं। असि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिककर्म करने वाले सावद्य कार्य हैं। श्रावकश्राविकाएँ अल्प सावद्य कार्य हैं; संयमी श्रमण असावद्य कार्य हैं।॥ तत्त्वार्थभाष्य में यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, प्रयोग, कृषि, लिपि, वाणिज्य और योनि संपोषण से आजीविका करने वाले बुनकर, कुम्हार, नाई, दर्जी और अन्य अनेक प्रकार के कारीगरों को शिल्पार्य माना है। अर्द्धमागधी भाषा बोलने वाले तथा ब्राह्मी लिपि में लिखने वाले को प्रज्ञापना में भाषार्य कहा है। तत्त्वार्थवार्तिक में भाषार्य का वर्णन नहीं आया है। तत्त्वार्थभाष्य में सभ्य मानवों की भाषा के नियत वर्णों, लोकरूढ, स्पष्ट शब्दों तथा पांच प्रकार के पार्यों के संव्यवहार का सम्यक प्रकार से उच्चारण करने वाले को भाषार्य माना है। भगवान महावीर स्वयं अर्धमागधी भाषा बोलते थे।'अर्धमागधी को देववाणी माना है। सम्यक ज्ञानी को ज्ञानार्य, सम्यक दृष्टि को दर्शनार्य और सम्यक चारित्री को चारित्रार्य माना गया है। ज्ञानार्य, दर्शनार्य, चारित्रार्य इन तीनों का सम्बन्ध धार्मिक जगत् से है। जिन मानवों को यह रत्नत्रय प्राप्त है, फिर वे भले ही किसी भी जाति के या कुल के क्यों न हों, आर्य हैं। रत्नत्रय के अभाव में वे अनार्य हैं। पार्यों का जो विभाग किया गया है वह भौगोलिक दृष्टि से, आजीविका की दृष्टि से, जाति और भाषा की दृष्टि से किया गया है। साढ़े पज्चीस देशों को जो पार्य माना गया है, हमारी दृष्टि से उसका कारण यही हो सकता है कि वहां पर जैनधर्म और जैन संस्कृति का अत्यधिक प्रचार रहा है। इसी दृष्टि से उन्हें आर्य जनपद कहा गया हो। वैदिक परम्परा के विज्ञों ने अंग-बंग आदि जनपदों के विषय में लिखा है "अंग-बंग-कलिङ्गेषु सौराष्ट्रमगधेषु च। तीर्थयात्रां विना गच्छन् पुनः संस्कारमहति // " अर्थात्-अंग (मुगेर-भागलपुर), बंग (बंगाल), कलिंग (उडीसा), सौराष्ट्र (काठिवावाड़) और मगध पटना गया आदि) में तीर्थयात्रा के सिवाय जाने से फिर से उपनयनादि संस्कार करके शुद्ध होना पड़ता है। 58. जोत्यार्याः इक्ष्वाकवो विदेहा हर्यम्बष्ठा ज्ञाताः कुरवो बुम्बुनाला उग्रभोगा राजन्या इत्येवमादयः / कुलार्या: कुलकराश्चक्रवतिनो बलदेवा वासुदेवाः / ये चान्ये प्रातृतीयादापंचमादासप्तमाद् वा कुलकरेभ्यो वा विशुद्धान्वयप्रकृतयः / -तत्त्वार्थभाष्य 315 89. तत्त्वार्थवार्तिक 3 / 36, पृष्ठ 201 90. तत्त्वार्थभाष्य, 3 / 15 91. वही, 3315 92. अद्धमागहाए भासाए भासइ अरिहा धम्म। -प्रौपपातिक सूत्र 56 93. देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति। -भगवती 5441191 [31] Page #1149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितने ही चिन्तकों का यह भी मानना है कि प्रज्ञापना और जीवाजीवाभिगम में क्षेत्र प्रादि की दृष्टि से जो आर्य और अनार्य का भेद प्रतियादित है वह विभाजन आर्य और अनार्य जातियों के घुल-मिल जाने के पश्चात् का है। इसमें वर्ण और शरीरसंस्थान के आधार पर यह विभाग नहीं हुआ है / 4 सूत्रकृतांग में वर्ण और शरीर के संस्थान की दृष्टि से विभाग किया है। वहाँ पर कहा गया है-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इन चारों दिशाओं में मनुष्य होते हैं। उनमें कितने ही प्रार्य होते हैं, तो कितने ही अनार्य होते हैं। कितने ही उच्च गोत्र वाले होते हैं तो कितने ही नीच गोत्र वाले ; कितने ही लम्बे होते हैं तो कितने ही नाटे होते हैं; कितने ही श्रेष्ठ वर्ण वाले होते हैं तो कितने ही अपकृष्ट वर्ण वाले अर्थात् काले होते हैं कितने ही सुरूप होते हैं, कितने ही कुरूप होते हैं / 5 ऋग्वेद में भी आर्य और प्रार्यतर ये दो विभाग मिलते हैं। अनार्य जातियों में भी अनेक संपन्न जातियां थीं; उनकी अपनी भाषा थी, अपनी सभ्यता थी, अपनी संस्कृति थी, अपनी संपदा और अपनी धार्मिक मान्यताएँ थीं।६ प्रज्ञापना में कर्मभूमिज मनुष्यों के ही प्रार्य और म्लेच्छ ये दो भेद किए हैं।६७ तत्त्वार्थभाष्य और तत्वार्थवार्तिक / में अन्तीपज मनुष्यों के भी दो भेद किए हैं। म्लेच्छों की भी अनेक परिभाषाएँ बतायी गई हैं / प्रवचनसारोद्धार की दृष्टि से जो हेयधर्मों से दूर हैं और उपादेय धर्मों के निकट हैं वे आर्य हैं।०० जो हेयधर्म को ग्रहण किए हुए हैं वे अनार्य हैं। प्राचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापनावृत्ति में लिखा है कि जिनका व्यवहार शिष्टसम्मत नहीं है वे म्लेच्छ हैं। 101 प्रवचनसारोद्धार में लिखा है-जो पापी हैं, प्रचंड कर्म करने वाले हैं, पाप के प्रति जिनके अन्तर्मानस में घृणा नहीं है, अकृत्य कार्यों के प्रति जिनके मन में पश्चात्ताप नहीं हैं, 'धर्म' यह शब्द जिनको स्वप्न में भी स्मरण नहीं आता वे अनार्य हैं / 102 प्रश्नव्याकरण में कहा गया है-विविध प्रकार के हिंसाकर्म म्लेच्छ मानव करते हैं।1०३ आर्य और म्लेच्छों की जो ये परिभाषाएँ हैं ये जातिपरक और क्षेत्रपरक न होकर गुण की दृष्टि से हैं। कौटिल्यअर्थशास्त्र में आर्य शब्द स्वतन्त्र नागरिक और दास परतंत्र नागरिक के अर्थ में व्यवहृत हुआ।1०४ प्रज्ञापना में कर्मभूमिज मनुष्य का एक विभाग अनार्य यानी म्लेच्छ कहा गया है। अनार्य देशों में समुत्पन्न लोग अनार्य कहलाते हैं। प्रज्ञापना में अनार्य देशों के नाम इस प्रकार हैं 94. अतीत का अनावरण, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ 155 95. सूत्रकृतांग 201 96. ऋग्वेद 7 / 6 / 3% 11176 / 3-4; 17011 97. प्रज्ञापत्ता 1, सूत्र 98 98. तत्त्वार्थभाष्य, 3.15 99. तत्वार्थवार्तिक, 3136 100. प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ 415 101, प्रज्ञापना 1, वृत्ति 102. पावा य चंडकम्मा, अणारिया निरिघणा निरगुतावी / धम्मोत्ति अक्खराई, सुमिणे बिन नज्जए जाणं / / -प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1596 103. प्रश्नव्याकरण, पाश्रव द्वार 1 104. मूल्येन चार्यत्वं गच्छेत् / कौटिल्य अर्थशास्त्र 3113 / 22 [32] Page #1150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. शक (पश्चिम भारत का देश) 27. प्रज्मल 2. यवन-यूनान 28. रोम . 3. चिलात (किरात) 29. पास 4. शबर 30. पउस 5. बर्बर 31. मलय 6. काय 32. बन्धुय (बन्धुक) 7. मुरुण्ड 33. सूयलि 8. ओड 34. कोंकणग 9. भटक (भद्रक) (दिल्ली और मथुरा के 35. मेय बीच यमुना के पश्चिम में स्थित प्रदेश) 36. पल्हव 10. पिण्णग (निम्नग) 37. मालव 11. पक्कणिय (मध्य एशिया का एक प्रदेश 38. मग्गर प्रकण्व या फरगना) 39. आभाषिक 12. कुलक्ष 40. अणक्क (प्रनक) 13. गोंड 41. चीण (चीन) 14, सिंहल (लंका) 42. ल्हसिय (ल्हासा) 15. पारस (ईरान) 43. खस 16. गोध 44. खासिय 17. क्रोंच 45. णद्वर (नेहर) 18. अम्बष्ठ (चिनाब नदी के निचले भाग में 46. मोंढ़ स्थित एक गणराज्य) 47. डोंबिलग 19. दमिल (द्रविड़) 48, लोस 20. चिल्लल 49. कक्केय . 21. पुलिन्द 50. पोस 22. हारोस 51. अक्खाग 23. दोब 52. हूण 24. वोक्कण (अफगानिस्तान का उत्तरी-पूर्वी 53 रोभक छोटा प्रदेश-वखान) 54, मरु 25. गन्धहारग (कन्धार) 55. मरुक 26. पहलिय प्रश्नव्याकरण'०४ अधर्मद्वार में भी कुछ परिवर्तन के साथ अनार्यों के नाम प्राप्त होते हैं। वहाँ यवन के बाद चिलाय नहीं है, भटक के पश्चात् णिण्णग नहीं है पर तित्तीय है। तुलनात्मक दृष्टि से संक्षेप में अन्तर इस प्रकार है 105. प्रश्नव्याकरण, अधर्मद्वार, सूत्र 4 Page #1151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . . . . . प्रज्ञापन .. 23 दोब 24 वोक्कण 25 पहलिय 27 अज्झल 29 पास 30 पउस 32 बन्धुय 33 सूयलि 36 पल्हव प्रश्नभ्याकरण . 21 डोंब 22 पोक्कण 24 बहलीय 25 जल्ल 27 मास 28 बउस 30 चंचुय 31 चुलिया 34 पण्हव प्रज्ञापना प्रामव्याकरण 3 चिलाय 8 प्रोड 7 उद 9 तित्तिय 10 निण्णग 13 गोंड 12 गौड 16 गोध 16 अन्ध प्रान्ध्र 18 प्रम्बड 20 चिल्लल 18 बिल्लल 22 हारोस 20 भरोस बहुत से नामों में भिन्नता है, ये भिन्न शब्द निम्न हैं प्रज्ञापना 38 मगर 45 णद्दर 46 मोंढ़ 48 लोस 49 पोस 51 कक्केय 52 अक्खाग 54 भरु प्रश्नव्याकरण 43 णेहर 44 मरहठ 45 मुठिय 46 प्रारभ 49 केकभ 48 कुट्टण 52 रुस प्रवचनसारोद्धार'०१ में अनार्यों के देशों के नाम इस प्रकार हैं१. शक 21. पुलिन्द 31. किरात 2. यवन 12. रोमक 22. क्रोंच 32. हयमुख 3. शबर 13. पारस 23. भ्रमररुच 33. खरमुख 4. बर्बर 14. खस 24. कोर्पक 34. गजमुख 5. काय 15. खासिक 25. चीन 35. तुरंगमुख 6. मुरुण्ड 16. दुम्बिलक 26. चंचक 36. मिण्ढकमुख 7. अड्ड 17. लकुश 27. मालव 37. हयकर्ण 8. गोपा (गोड) 18. बोक्कस 28. द्रविड 38. गजकर्ण 9. पक्कणग 19. भिल्ल 29. कुलार्घ 10. अरबाग 20. आन्ध्र (मन्ध्र) 30. केकय महाभारत के उपायन-पर्व में भी कुछ नाम इसी तरह से प्राप्त होते हैं, जो निम्नानुसार हैं--- 106. प्रवचनसारोद्धार, गाथा 1583-1585 Page #1152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. म्लेच्छ 2. यवन 3. बर्बर 4. आन्ध्र 5. शक 6. पुलिन्द 7. पौरुणिक 8. कम्बोज 9. पामीर 10. पल्हव 11. दरद 12. कंक 13. खस 14, केकय 15. विगत 16. शिबि 17. भद्र 18. हंस कायन 19. अम्बष्ठ 20. ताय 21. प्रहव 22. वसाति 23. मौलिय 24, क्षुद्रमालक्क 25. शौण्डिक 26. पुण्ड्र 27. शाणवत्य 28, कायव्य 29. दार्च 30. शूर 31. वैयमक 32. उदुम्बर 33. वाल्हीक 34. कुदमान 35. पौरक आदि। इस प्रकार मानव जाति एक होकर भी उसके विभिन्न भेद हो गए हैं। मानव और पशु में जिस प्रकार जातिगत भेद है, वैसे ही मनुष्यजाति में जातिगत भेद नहीं है। मानव सर्वाधिक शक्तिसंपन्न और बौद्धिक प्राणी है / वह संख्या की दृष्टि से अनेक है पर जाति की दृष्टि से एक है। उपर्युक्त चर्चा में जो भेद प्रतिपादित किये गये हैं, वे भौगोलिक और गुणों की दृष्टि से हैं। मोवों का निवासस्थान संसारी और सिद्ध के भेद और प्रभेद की चर्चा करने के पश्चात उन जीवों के निवासस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। इस चिन्तन का मूल कारण यह है कि प्रात्मा के परिमाण के सम्बन्ध में उपनिषदों में अनेक कल्पनाएँ हैं / इन सभी कल्पनात्रों के अन्त में ऋषियों की विचारधारा प्रात्मा को व्यापक मानने की ओर विशेष रही है। प्रायः सभी वैदिक दर्शनों ने प्रात्मा को व्यापक माना है / हाँ, आचार्य शंकर और प्राचार्य रामानुज प्रादि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार इसमें अपवाद हैं / उन्होंने ब्रह्मात्मा को व्यापक और जीवात्मा को प्रणुपरिमाण माना है। बृहदारण्यक उपनिषद् में प्रात्मा को चावल या जौ के दाने के परिमाण माना है।०८ कठोपनिषद् में आत्मा को 'अंगुष्ठपरिमाण' का लिखा है 06 तो छान्दोग्योपनिषद् में प्रात्मा को 'बालिश्त' परिमाण का कहा है।.० मैत्रीउपनिषद् में प्रात्मा को अणु की तरह सूक्ष्म माना है। कठोपनिषद्', छान्दोग्योपनिषद् 13 और श्वेताश्वेतर-उपनिषद्'४ में प्रात्मा को अणु से अणु और महान् से महान् भी कहा है। सांख्यदर्शन में प्रात्मा को कूटस्थ नित्य माना है अर्थात् प्रात्मा में किसी भी प्रकार का परिणाम या विकार नहीं होता है / संसार और मोक्ष प्रात्मा का नहीं प्रकृति का है / 14 सुख-दुःख-ज्ञान, ये आत्मा के नहीं 107. (क) मुण्डक-उपनिषद् 116 (ख) वैशेषिकसूत्र 7122 (ग) न्यायमंजरी, पृष्ठ 468 (विजय) (घ) प्रकरणपंजिका, पृष्ठ 158 108. बृहदारण्यक-उपनिषद्, 516.1 109. कठोपनिषद् 2 / 2 / 12 110. छान्दोग्योपनिषद् 5 / 18 / 1 111. मंत्री-उपनिषद् 6138 112. कठोपनिषद् 1 / 2 / 20 113. छान्दोग्योपनिषद् 3 / 14 / 3 114. श्वेताश्वेतर-उपनिषद् 3 / 20 115. सांख्यकारिका 62 . [ 35 ] Page #1153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु प्रकृति के धर्म हैं। इस तरह वह आत्मा को सर्वथा अपरिणामी मानता है। कर्तृत्व न होने पर भी भोग आत्मा में ही माना है।'१७ इस भोग के आधार पर आत्मा में परिणाम की संभावना है, इसलिए कितने ही सांख्य भोग को आत्मा का धर्म नहीं मानते।'' उन्होंने प्रात्मा को कटस्थ होने के मन्तव्य की रक्षा की है। कठोपनिषद् आदि में भी प्रात्मा को कटस्थ माना है।'१६ जैनदर्शन में प्रात्मा को सर्वव्यापक महीं माना है, वह शरीर-प्रमाण-व्यापी है। उसमें संकोच और विकास दोनों गुण हैं। प्रात्मा को कूटस्थ नित्य भी नहीं माना है किन्तु परिणामी नित्य माना गया है / इस विराट विश्व में वह विविध पर्यायों के रूप में जन्म ग्रहण करता है और नियत स्थान पर ही वह आत्मा शरीर धारण करता है। कौन सा जीव किस स्थान में है, इस प्रश्न पर चिन्तन करना आवश्यक हो गया तो प्रज्ञापना के द्वितीय पद में स्थान के सम्बन्ध में चिंतन किया है। स्थान भी दो प्रकार का है-एक स्थायी, दूसरा प्रासंगिक / जन्म ग्रहण करने के पश्चात् मृत्युपर्यन्त जीव जिस स्थान पर रहता है, वह स्थायी स्थान है, स्थायी स्थान को पागमकार ने स्व-स्थान कहा है। प्रासंगिक निवास स्थान उपपात और समुदघात के रूप में दो प्रकार का है। जैनदृष्टि से जीव की आयु पूर्ण होने पर वह नये स्थान पर जन्म ग्रहण करता है। एक जीव देवायु को पूर्ण कर मानव बनने वाला है। वह जीव देवस्थान से चलकर मानवलोक में आता है। बीच की जो उसकी यात्रा है, वह यात्रा स्वस्थान नहीं है। वह तो प्रासंगिक यात्रा है, उस यात्रा को उपपातस्थान कहा गया है। दूसरा प्रासंगिक स्थान समुद्घात है / वेदना, मृत्यु, विक्रिया प्रभति विशिष्ट प्रसंगों पर जीव के प्रदेशों का जो विस्तार होता है वह समुद्घात है। समुद्धात के समय आत्मप्रदेश शरीरस्थान में रहते हुए भी किसी न किसी स्थान में बाहर भी समुद्घात-काल पर्यन्त रहते हैं। इसलिए समूद्घात की दृष्टि से जीव के प्रासंगिक निवास स्थान पर विचार किया गया है / इस तरह द्वितीय पद में स्वस्थान, उपपातस्थान और समुद्घातस्थान-तीनों प्रकार के स्थानों के सम्बन्ध में चितन किया है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रथम पद में निर्दिष्ट जीवभेदों में से एकेन्द्रिय जैसे कई सामान्य भेदों के स्थानों पर चिंतन नहीं है, केवल मुख्य मुख्य भेद-प्रभेदों के स्थानों पर ही विचार किया है। संसारी जीवों के लिए उपपात, समुद्घात और स्वस्थान की दृष्टि से चिंतन किया गया है, पर सिद्धों के लिए स्वस्थान का ही चिंतन किया गया है। सिद्धों का उपपात नहीं होता / अन्य संसारी जीव के नाम, गोत्र, प्रायु आदि कर्मों का उदय होता है जिससे वे एक गति से दूसरी गति में जाते हैं। सिद्ध कर्मों से मुक्त होते हैं। कर्मों के भाव के कारण वे सिद्ध रूप में जन्म नहीं लेते। जैनदृष्टि से जो जीव लोकान्त तक जाते हैं वे प्राकाशप्रदेशों को स्पर्श नहीं करते,.१० इसलिए सिद्धों का उपपातस्थान नहीं है। कर्मयुक्त जीव ही समुद्घात करते हैं, सिद्ध नहीं / इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में सिद्धों के स्वस्थान पर ही चिन्तन किया गया है। एकेन्द्रिय जाति के जीव समग्रलोक में व्याप्त हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और सामान्य पंचेन्द्रिय जीव लोक के असंख्यातवें भाग में हैं। नारक एवं तियंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देव के लिए पृथक-पृथक स्थानों का निर्देश 116. सांख्यकारिका 11 117. सांख्यकारिका 17 118. सांख्यतत्त्वकौमुदी 17 119. कठोपनिषद् 12 // 1819 120. प्रज्ञापनामलयगिरिवृत्ति, पत्रांक 108 [36] Page #1154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया गया है और सिद्ध लोक के अग्रभाग में अवस्थित हैं। यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि जब छमस्थ मनुष्य समुद्घात करता है तो वह लोक के असंख्यातवें भाग को स्पर्श करता है और जब केवली समुद्घात करते हैं तो वह सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करते हैं। जब मनुष्य के प्रात्मप्रदेश सम्पूर्ण लोक में विस्तृत हो जाते हैं, उम समय उसकी प्रात्मा लोकव्याप्त हो जाती है।" प्रश्न है कि अजीव के स्थान के सम्बन्ध में विचार क्यों नहीं किया गया? ऐसा ज्ञात होता है-जैसे जीवों के प्रभेदों में अमुक निश्चित स्थान की कल्पना कर सकते हैं, वैसे पुदगल के सम्बन्ध में नहीं / परमाणु व स्कन्ध समग्न लोकाकाश में हैं किन्तु उनका स्थान निश्चित नहीं है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय ये दोनों समग्र लोकव्यापी हैं, अतः उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है। संख्या की दृष्टि से चिन्तन तीसरे पद में जीव और अजीव तत्त्वों का संख्या की दृष्टि से विचार किया गया है। भगवान महावीर के समय और तत्पश्चात् भी तत्त्वों का संख्या-विचार महत्त्वपूर्ण विषय रहा है। एक ओर उपनिषदों के मत से सम्पूर्ण विश्व एक ही तत्त्व का परिणाम है तो दूसरी ओर सांख्य के मत से जीव अनेक हैं किन्तु अजीव एक है। बौद्धों की मान्यता अनेक चित्त और अनेक रूप की है। इस दृष्टि से जैनमत का स्पष्टीकरण आवश्यक था। वह यहाँ पर किया गया है। अन्य दर्शनों में सिर्फ संख्या का निरूपण है, जबकि प्रस्तुत पद में संख्या का विचार अनेक दृष्टियों से किया गया है। मुख्य रूप से तारतम्य का निरूपण अर्थात् कौन किससे कम या अधिक है, इसकी विचारणा इस पद में की गई है। प्रथम, दिशा की अपेक्षा से किस दिशा में जीव अधिक और किस दिशा में कम, इसी तरह जीवों के भेद-प्रभेद की न्यूनाधिकता का भी दिशा की अपेक्षा से विचार किया गया है। इसी प्रकार गति, इन्द्रिय, काय, योग आदि से जीवों के जो जो प्रकार होते हैं, उनमें संख्या का विचार करके अन्त में समग्र जीवों के जो विविध प्रकार होते हैं, उन समग्र जीवों की न्यूनाधिक संख्या का निर्देश किया गया है। इसमें केवल जीवों का ही नहीं किन्तु धर्मास्तिकाय आदि षटद्रव्यों की भी परस्पर संख्या का तारतम्य निरूपण किया गया है। वह तारतम्य द्रव्यदृष्टि और प्रदेशदृष्टि से बताया गया है। प्रारम्भ में दिशा को मुख्य करके संख्या-विचार है और बाद में ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक लोक की दृष्टि से समन जीवों के भेदों का संख्यागत विचार है। जीवों की तरह पुदगलों की संख्या का अल्पबहुत्व भी उन उन दिशाओं में व उन उन लोकों में बताया है। इसके सिवाय द्रव्य, प्रदेश और द्रव्यप्रदेश दोनों दृष्टियों से भी परमाणु और संख्या का विचार है। उसके बाद पुदगलों की अवगाहना, कालस्थिति और उनकी पर्यायों की दृष्टि से भी संख्या का निरूपण किया गया है। इस पद में जीवों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण करके अल्पबहत्व का विचार किया है। इसकी संख्या की सूची पर से यह फलित होता है कि उस काल में भी प्राचार्यों ने जीवों की संख्या का तारतम्य (अल्पबहत्व) बताने का इस प्रकार जो प्रयत्न किया है, वह प्रशस्त है। इसमें बताया गया है कि पुरुषों से स्त्रियों की संख्या-- चाहे मनुष्य हो, देव हो या तियंञ्च हो-अधिक मानी गई है। अधोलोक में नारकों में प्रथम से सातवीं नरक में जीवों का क्रम घटता गया है अर्थात् सबसे नीचे के सातवें नरक में सबसे कम नारक जीव हैं। इससे विपरीत क्रम 121. द्रव्यसंग्रह टीका, ब्रह्मदेवकृत, 10 [37] Page #1155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊर्ध्वलोक के वेवों में है, नीचे के देवलोकों में सबसे अधिक जीव हैं, अर्थात् सौधर्म में सबसे अधिक और अनुत्तरं विमानों में सबसे कम हैं / परन्तु मनुष्यलोक (तिर्यक्लोक) के नीचे भवनवासी देव हैं। उनकी संख्या सौधर्म से अधिक है और उनसे ऊपर होने पर भी व्यन्तर देवों की संख्या अधिक और उनसे भी अधिक ज्योतिष्क हैं, जो व्यन्तरों से भी ऊपर हैं। , सबसे कम संख्या मनुष्यों की है। इसलिए यह भव दुर्लभ माना जाय यह स्वाभाविक है / इन्द्रियाँ जितनी कम उतनी जीवों की संख्या अधिक / अथवा ऐसा कह सकते हैं कि विकसित जीवों की अपेक्षा अविकसित जीवों की संख्या अधिक है। अनादिकाल से आज तक जिन्होंने पूर्णता प्राप्त कर ली है, ऐसे सिद्ध जीवों की संख्या भी एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से कम ही है। संसारी जीवों की संख्या सिद्धों से अधिक ही रहती है। इसलिए यह लोक संसारी जीवों से कभी शून्य नहीं होगा, क्योंकि प्रस्तुत पद में जो संख्याएं दी हैं उनमें कभी परिवर्तन नहीं होगा, ये ध्र वसंख्याएँ हैं। सातवें नरक में अन्य नरकों की अपेक्षा सबसे कम नारक जीव हैं तो सबसे ऊपर देवलोक-अनुत्तर में भी अन्य देवलोकों की अपेक्षा सबसे कम जीव हैं। इससे यह प्रतीत होता है कि जैसे अन्यन्त पुण्यशाली होना दुष्कर है, वैसे ही अन्यन्त पापी होना भी दुष्कर है जीवों का जो ऋमिक विकास माना गया है उसके अनुसार तो निकृष्ट कोटि के जीव एकेन्द्रिय हैं। एकेन्द्रिय में से ही आगे बढ़कर जीव क्रमशः विकास को प्राप्त होते हैं। एकेन्द्रियों और सिद्धों की संख्या अनन्त की गणना में पहुँचती है। प्रभव्य भी अनन्त हैं और सिद्धों की अपेक्षा समग्र रूप से संसारी जीवों की संख्या भी अधिक है और यह बिल्कुल संगत है क्योंकि भविष्य मेंअनागत काल में संसारी जीवों में से ही सिद्ध होने वाले हैं। इसलिए वे कम हों तो संसार खाली हो जायेगा, ऐसा मानना पड़ेगा। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक ऋम से जीवों की संख्या घटती जाती है। यह क्रम अपर्याप्त जीवों में तो बराबर बना रहता है किन्तु पर्याप्त अवस्था में व्युत्क्रम मालूम पड़ता है। ऐसा क्यों हुआ है, यह विज्ञों के लिए विचारणीय और संशोधन का विषय है। स्थितिचिन्तन चौथे पद में जीवों की स्थिति अर्थात प्रायू का विचार हया है। जीवों की नारकादि रूप में स्थितिअवस्थिति कितने समय तक रहती है, उसकी विचारणा इसमें होने से इस पद का नाम 'स्थिति' पद दिया है / जीव द्रव्य तो नित्य है परन्तु वह जो अनेक प्रकार के रूप-पर्याय-नानाविध जन्म धारण करता है, वे अनित्य हैं। इसलिए पर्यायें कभी तो नष्ट होती ही हैं / अतएव उनकी स्थिति का विचार करना आवश्यक है। वह प्रस्तुत पद में किया गया है। जघन्य आयु कितनी और उत्कृष्ट आयु कितनी-इस तरह दो प्रकार से उसका विचार केवल संसारी जीवों और उनके भेदों को लेकर किया है। सिद्ध तो 'सादीया अपज्जवसिता' सादि-अनन्त होने से उनकी आयु का विचार नहीं किया गया है / अजीव द्रव्य की पर्यायों की स्थिति का विचार भी इसमें नहीं है / क्योंकि उनको पर्याय जीव की आयु की तरह मर्यादित काल में रखी नहीं जा सकती है, इसलिए उसे छोड़ दिया गया हो यह स्वाभाविक है। प्रस्तुत पद में प्रथम जीवों के सामान्य भेदों को लेकर उनकी आयु का निर्देश है। बाद में उसके अपर्याप्त और पर्याप्त भेदों का निर्देश है / उदाहरणार्थ--पहले तो सामान्य नारक की आयु और उसके पश्चात् नारक के [38] Page #1156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपर्याप्त और उसके बाद पर्याप्त की प्राय का वर्णन है। इसी क्रम से प्रत्येक नारक आदि को लेकर सर्व प्रकार के आयुष्य का विचार किया गया है। __स्थिति की जो सूची है, उसके अवलोकन से ज्ञात होता है कि पुरुष से स्त्री की आयु कम है / नारकों और देवों का प्रायुष्य मनुष्यों और तिर्यंचों से अधिक है। एकेन्द्रिय जीवों में अग्निकाय का प्रायुष्य सबसे न्यून है। यह प्रत्यक्ष में भी अनभव में प्राता है. क्योंकि अग्नि अन्य जीवों की अपेक्षा शीघ्र बुझ ज पृथ्वीकाय का आयुष्य सबसे अधिक है। द्वीन्द्रिय से त्रीन्द्रिय जीवों का आयुष्य कम मानने का क्या कारण है, यह विचारणीय है। फिर चतुरिन्द्रिय का आयुष्य अधिक है, परन्तु द्वीन्द्रिय से कम है, यह भी एक रहस्य है और शोध का विषय है। प्रस्तुत पद में अजीव की स्थिति का विचार नहीं है / उसका कारण यह प्रतीत होता है कि धर्म, अधर्म और आकाश तो नित्य हैं और पुदगलों की स्थिति भी एक समय से लेकर असंख्यात समय की है, जिसका वर्णन पांचवें पद में है। इसलिए अलग से इसका निर्देश आवश्यक नहीं था। फिर, प्रस्तुत पद में तो आयुकर्मकृत स्थिति का विचार है और वह अजीव में अप्रस्तुत है।' 22 पर्याय : एक चिन्तन पांचवें पद का नाम विशेषपद है। विशेष शब्द के दो अर्थ हैं (1) प्रकार और (2) पर्याय / प्रथम पद में जीव और अजीव इन दो द्रव्यों के प्रकार-भेद-प्रभेदों का वर्णन किया है, तो इनमें इन द्रव्यों की अनन्त पर्यायों का वर्णन है। वहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि प्रत्येक द्रव्य की अनन्त पर्यायें हैं तो समग्र की भी अनन्त पर्याय ही होंगी और द्रव्य की पर्याय परिणाम होते हैं तो वह द्रव्य कूटस्थनित्य नहीं हो सकता, किन्तु उसे परिणामोनित्य मानना पड़ेगा। इस सूचन से यह भी फलित होता है कि वस्तु का स्वरूप द्रव्य और पर्याय-रूप है। इस पद का 'विसेस' नाम दिया है, परन्तु इस शब्द का उपयोग सूत्र में नहीं किया गया है / समग्र पद में पर्याय शब्द का ही प्रयोग हुन्मा है। जैनशास्त्रों में इस पर्याय शब्द का विशेष महत्त्व है, इसलिए पर्याय या विशेष में कोई भेद नहीं है। यहाँ पर्याय शब्द प्रकार या भेद और अवस्था या परिणाम, इन अर्थों में प्रयुक्त हा है। जैन आगमों में पर्याय शब्द प्रचलित था परन्तु वैशेषिक दर्शन में 'विशेष' शब्द का प्रयोग होने से उस शब्द का प्रयोग पर्याय अर्थ में और वस्तु के द्रव्य के भेद अर्थ में भी हो सकता है-यह बताने के लिए प्राचार्य ने इस प्रकरण का "विसेस' नाम दिया हो ऐसा ज्ञात होता है। प्रस्तुत पद में जीव और अजीव द्रव्यों में भेदों और पर्यायों का निरूपण है। भेदों का निरूपण तो प्रथम पद में था परन्तु प्रत्येक भेद में अनन्त पर्यायें हैं, इस तथ्य का सूचन करना इस पांचवें पद की विशेषता है। इसमें 24 दंडक और 25 वें सिद्ध इस प्रकार उनकी संख्या और पर्यायों का विचार किया गया है। जीव द्रव्य के नारकादि भेदों की पर्यायों का विचार अनेक प्रकार-अनेक दृष्टियों से किया गया है। इसमें जैनसम्मत अनेकान्तदृष्टि का प्रयोग हुआ है। जीव के नारकादि के जिन भेदों को पर्यायों का निरूपण है उसमें द्रव्यार्थता, प्रदेशार्थता, अवगाहनार्थता, स्थिति, कृष्णादि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, ज्ञान और दर्शन इन दश दृष्टियों से विचारणा की गई है। विचारणा का क्रम इस प्रकार है--प्रश्न किया गया कि नारक जीवों की कितनी पर्याय हैं ? उत्तर में कहा कि नारक जीवों की अनन्त पर्यायें हैं। इसमें संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद 122. पन्नवणासूत्र-प्रस्तावना पुण्यविजयजी महाराज, पृ. 60 Page #1157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिन्न भिन्न दृष्टियों की अपेक्षा से हैं / द्रव्यदृष्टि से नारक संख्यात हैं, प्रदेशदृष्टि से असंख्यात प्रदेश होने से असंख्यात हैं और वर्ण, गंधादि व ज्ञान, दर्शन आदि दृष्टियों से उनकी पर्याय अनन्त हैं। इस प्रकार सभी दंडकों और सिद्धों की पर्यायों का स्पष्ट निरूपण इस पद में किया है। प्राचार्य मलयगिरि ने प्रस्तुत दश दृष्टियों को संक्षेप में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों में विभक्त किया है। द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता को द्रव्य में, अवगाहना को क्षेत्र में, स्थिति को काल में और वर्णादि व ज्ञानादि को भाव में समाविष्ट किया है। 23 द्रव्य की दृष्टि से वनस्पति के अतिरिक्त शेष 23 दंडक के जीव असंख्य हैं और वनस्पति के अनन्त / पर्याय को दृष्टि से सभी 24 दंडक के जीव अनन्त हैं / सिद्ध द्रव्य की दृष्टि से अनन्त हैं / प्रथम पद में अजीव के जो भेद किए हैं वे प्रस्तुत पद में भी हैं। अन्तर यह है कि वहाँ प्रज्ञापना के नाम से हैं और यहां पर्याय के नाम से / पुद्गल के यहाँ पर परमाणु और स्कन्ध.ये दो भेद किये हैं। स्कन्धदेश और स्कन्धप्रदेश को स्कन्ध के अन्तर्गत ही ले लिया है। रूपी अजीव की पर्याय अनन्त हैं। उनका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की दृष्टि से इसमें विचार किया है। परमाण, द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध और संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों की पर्याय अनन्त हैं / स्थिति की अपेक्षा परमाणु और स्कन्ध दोनों एक दो समय की स्थिति से लेकर असंख्यातकाल तक की स्थिति वाले होते हैं / स्वतंत्र परमाणु अनंतकाल की स्थिति वाला नहीं होता परन्तु स्कन्ध अनन्तकाल की स्थिति वाला हो सकता है। एक परम से स्थिति की दृष्टि से हीन, तुल्य या अधिक होता है। प्रवगाहना की दृष्टि से द्विप्रदेशी से लेकर यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश से लेकर असंख्यातप्रदेश तक का क्षेत्र रोक सकते हैं परन्तु अनन्तप्रदेश नहीं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य लोकाकाश में ही है और लोकाकाश के प्रदेश असंख्यात ही हैं। अलोकाकाश अनन्त है पर वहाँ पूदगल या अन्य किसी द्रव्य की अवस्थिति नहीं है। परमाणवादी न्याय-वंशेषिक परमाण को नित्य मानते हैं और उसके परिणाम-पर्याय नहीं मानते / जबकि जैन परमाणु को भी परिणामीनित्य मानते हैं / परमाणु स्वतंत्र होने पर भी उसमें परिणाम होते हैं, यह प्रस्तुत पद से स्पष्ट होता है / परमाणु स्कन्ध रूप में और स्कन्ध परमाणु रूप में परिणत होते हैं, ऐसी प्रक्रिया जैनाभिमत है। गति और आगति चिन्तन छठा व्युत्क्रांतिपद है। इसमें जीवों की गति और प्रागति पर विचार किया गया है / सामान्यतः चारों गतियों में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट बारह मुहूर्त उपपात-विरहकाल और उद्वर्तना-विरहकाल है। उन गतियों के प्रभेदों पर चिन्तन करते हैं तो उपपात-विरहकाल और उद्वर्तना-विरहकाल प्रथम नरक में जघन्य एक समय और उत्कृष्ट चौवीस मुहूर्त का है। सिद्धगति में उपपात है, उद्वर्तना नहीं है। इसी प्रकार अन्य गतियों में भी जानना चाहिए। 124 पांच स्थावरों में निरन्तर उपपात और उद्वर्तना है। इसमें सान्तर विकल्प नहीं है। इसके पश्चात एक समय में नरक से लेकर सिद्ध तक कितने जीवों का उपपात और उद्वर्तन है, इस पर चिन्तन किया गया है। साथ ही नारकादि के भेद-प्रभेदों में जीव किस किस भव से पाकर पैदा होता है और मरकर कहाँ-कहाँ जाता है, उसके पश्चात् पर-भव का आयुष्य जीव कब बाँधता है, इसकी चर्चा है / जीव ने जिस प्रकार 123. प्रज्ञापना टीका, पत्र 181 अ. 124. प्रज्ञापना टीका पत्र 205 [40] Page #1158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रायुष्य बांधा है उसी प्रकार का नवीन भव धारण करता है। प्राय के सोपक्रम और निरुपक्रम ये दो भेद हैं। इनमें देवों और नारकों में तो निरुपक्रम प्रायु है, क्योंकि उनको आकस्मिक मृत्यु नहीं होती और प्रायु के छह माह शेष रहने पर वे नवीन मागमी भव का आयुष्य बांधते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में दोनों प्रकार की प्रायु है। निरुपक्रम हो तो आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर पर-भव का आयुष्य बांधते हैं और सोपक्रम हो तो विभाग में अथवा विभाग का भी विभाग करते करते एक प्रावली मात्र आयु शेष रहने पर पर-भव का आयुष्य बांधते हैं / पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य में असंख्यात वर्ष की आयु वाला हो तो नियम से आयु के छह माह शेष रहने पर और संख्यात वर्ष की आयु वाले यदि निरुपक्रम प्रायु वाले हों तो आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर आयुष्य बांधते हैं / जो सोपक्रम आयु वाले हों तो एकेन्द्रिय के समान जानना चाहिये / प्रायुष्यबंध के छह प्रकार हैं-जातिनाम निधत्त-पायुनाम, गतिनाम, स्थितिनाम, अवगाहनानाम, प्रदेशनाम और अनुभावनानाम निधत्त / प्रायु इन सभी में आयुकर्म का प्राधान्य है और उसके उदय होने से तत्सम्बन्धी उन उन जाति प्रादि कर्म का उदय होता है। सातवें पद में सिद्ध के अतिरिक्त जितने भी संसारी जीव हैं उनके श्वासोच्छ्वास के काल की चर्चा है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जितना दुःख अधिक उतने श्वासोच्छ्वास अधिक होते हैं और अत्यन्त दुःखी की तो निरन्तर श्वासोच्छवास की प्रक्रिया चाल रहती है।'५५ ज्यों-ज्यों अधिक सुख होता है त्यों-त्यों श्वासोच्छवास लम्बे समय के बाद लिये जाते हैं, यह अनुभव की बात है।'३ श्वासोच्छ्वास की क्रिया भी दुःख है। देवों में जिनकी जितनी अधिक स्थिति है उतने ही पक्ष के पश्चात उनकी श्वासोच्छवास की क्रिया होती है, का विस्तार से निरूपण है। 27 पाठवें संज्ञापद में जीवों की संज्ञा के सम्बन्ध में चिंतन किया है। संज्ञा दश प्रकार की है--पाहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और ओघ / इन संज्ञाओं का 24 दण्डकों की अपेक्षा से विचार किया है और संज्ञा-सम्पन्न जीवों के अल्पबहुत्व का भी विचार किया है / नरक में भयसंज्ञा का, तिर्थच में प्राहारसंज्ञा का, मनुष्य में मैथुनसंज्ञा का और देवों में परिग्रहसंज्ञा का बाहुल्य है। . नवे पद का नाम योनिपद है। एक भव में से प्रायु पूर्ण होने पर जीव अपने साथ कार्मण और तेजस शरीर लेकर गमन करता है / जन्म लेने के स्थान में नये जन्म के योग्य औदारिक आदि शरीर के योग्य पुदगलों . को ग्रहण करता है। उस स्थान को योनि अथवा उद्गमस्थान कहते हैं / प्रस्तुत पद में योनि का अनेक दृष्टियों से विचार किया गया है। शीत, उष्ण, शीतोष्ण, सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत, विवृत और संवृतविवृत, इस प्रकार जीवों के 9 प्रकार की योनि-स्थान अर्थात् उत्पत्तिस्थान हैं / इन सभी का विस्तार से निरूपण है। दसवें पद में द्रव्यों के चरम और अचरम का विवेचन है / जगत् की रचना में कोई चरम के अन्त में होता है तो कोई अचरम के अन्त में नहीं किन्तु मध्य में होता है / प्रस्तुत पद में बिभिन्न द्रव्यों के लोक-प्रलोक माश्रित चरम और अचरम के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। चरम-अचरम की कल्पना किसी अन्य की अपेक्षा से ही संभव है / प्रस्तुत पद में छः प्रकार के प्रश्न पूछे गये हैं-१. चरम है, 2. अचरम है, 3. चरम हैं (बहुवचन), 125. अतिदुःखिता हि नरयिकाः दुःखितानां च निरन्तरं उच्छ्वासनिःश्वासो, तथा लोके दर्शनात् / -प्रज्ञापना टीका, पत्र 220 126. सुखितानां च यथोत्तरं महानुच्छवास-निःश्वासक्रियाविरहकालः। --प्रज्ञापना टीका पत्र 221 127. यथा-यथाऽऽयुषः सागरोपमवृद्धिस्तथा-तथोच्छवास-नि:श्वासक्रियाविरहप्रमाणस्यापि पक्षवृद्धिः / [41] Page #1159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. अचरम हैं, 5. दरमान्त प्रदेश हैं, 6. अचरमान्त प्रदेश हैं। इन छह विकल्पों को लेकर 24 दण्डकों के जीवनों का प्रत्यादि दृष्टि से विचार किया गया है। उदाहरणार्थ, गति की अपेक्षा से चरम उसे कहते हैं कि जो अब अन्य किसी गति में न जाकर मनुष्य गति में से सीधा मोक्ष में जाने वाला है। किन्तु मनुष्य गति में से सभी मोक्ष में जाने वाले नहीं हैं, इसलिए जिनके भव शेष हैं वे सभी जीव गति की अपेक्षा से अचरम हैं। इसी प्रकार स्थिति प्रादि से भी चरम-अचरम का विचार किया गया है। भाषा : एक चिन्तन ग्यारहवें पद में भाषा के सम्बन्ध में चिंतन करते हुए बताया है कि भाषा किस प्रकार उत्पन्न होती है, कहाँ रहती है, उसकी प्राकृति क्या है ? साथ ही उसके स्वरूप-भेद-प्रभेद, बोलने वाला व्यक्ति प्रभात विविध महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर प्रकाश डाला गया है। जो बोली जाय वह भाषा है।१२५दूसरे शब्दों में जो दूसरों के अवबोध-समझने में कारण हो वह भाषा है / / 26 मानव जाति के सांस्कृतिक विकास में भाषा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। भाषा विचारों के आदान-प्रदान का प्रसाधारण माध्यम है। भाषा शब्दों से बनती है और शब्द वर्णात्मक हैं। इसलिए भाषा के मौलिक विचार के लिए वर्णविचार आवश्यक है, क्योंकि भाषा वर्ण और शब्द से अभिन्न है। भारतीय दार्शनिकों ने शब्द के सम्बन्ध में गंभीर चितन किया है. --शब्द क्या है ? उसका मूल उपादान क्या है? वह किस प्रकार उत्पन्न होता है ? अभिव्यक्त होता? और किस प्रकार श्रोताओं के कर्ण-कुहरों में पहुँचता है ? . कणाद प्रादि कितने ही दार्शनिक शब्द को द्रव्य न मानकर प्राकाश का गुण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि शब्द पोद्गलिक नहीं है चूंकि उसके आधार में स्पर्श का प्रभाव है। शब्द आकाश का गुण है इसलिए शब्द का काश ही माना जा सकता है। प्राकाश स्पर्श से रहित है इसलिए उसका गुण शब्द भी स्पर्शरहित है और जो स्पर्शरहित है वह पुद्गल नहीं है। दूसरी बात पुद्गल रूपी होता है / रूपी होने से वह स्थूल है, स्थूल वस्तु न तो किसी सघन वस्तु में प्रविष्ट हो सकती है और न निकल ही सकती है। शब्द यदि पुद्गल होता तो वह स्थूल भी होता पर शब्द दीवाल को भेद कर बाहर निकलता है। इसलिए वह रूपी नहीं है और रूपी नहीं होने से वह पुद्गल भी नहीं है / तीसरा कारण यह है पौद्गलिक पदार्थ उत्पन्न होने के पूर्व भी दिखाई देता है और नष्ट होने के पश्चात् भी / उदाहरण के रूप में घड़ा बनने के पूर्व मिट्टी दिखाई देती है और घड़ा नष्ट होने पर उसके टुकड़े भी दिखाई देते हैं / इस प्रकार प्रत्येक पौदगलिक पदार्थ के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती रूप दगगोचर होते हैं। पर शब्द का न तो कोई पूर्वकालीन रूप दिखाई देता है और न उत्तरकालीन ही। ऐसी स्थिति में शब्द को पुदगल नहीं मानना चाहिए। चौथी बात यह है कि पौद गलिक पदार्थ दूसरे पौगलिक पदार्थों को प्रेरित करते हैं। यदि शब्द पुद्गल होता तो यह भी अन्य पुदगलों को प्रेरित करता / पर वह अन्य पुदगलों को उत्प्रेरित नहीं करता है, इसलिए शब्द को पोद्गलिक नहीं मान सकते। पांचवाँ कारण-शब्द आकाश का गुण है, आकाश स्वयं पुद्गल नहीं है, इसलिए उसका गुण-शब्द पुद्गल नहीं हो सकता। मीमांसक' दर्शन की प्रस्तुत युक्तियों के सम्बन्ध में हम जैनदृष्टि से चिंतन करेंगे। मीमांसक दर्शन में शब्द के आधार को स्पर्शरहित माना है किन्तु वस्तुत: शब्द का प्राधार स्पर्शरहित नहीं किन्तु स्पर्शवान् है। शब्द का आधार भाषावर्गणा है और भषावर्गणा में स्पर्श अवश्य होता है / अतः शब्द का आधार स्पर्श वाला होने से शब्द भी स्पर्श वाला है और स्पर्श वाला होने से पुदगल है। यहां पर यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि शब्द में यदि 128. भाष्यते इति भाषा। -प्रज्ञापना टीका 246. 129. भाषा अवबोधबीजभूता। -प्रज्ञापना टीका 256. [42] Page #1160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पर्श होता तो हमें स्पर्श की प्रतीति होनी चाहिए, हम शब्द सुनते हैं किन्तु शब्द स्पर्श नहीं होता, ऐसी स्थिति में शब्द को स्पर्शवान कैसे माना जाय ? उत्तर में निवेदन है कि जिस वस्तु का हमें अनुभव हो उसका प्रभाव हो, ऐसा नियम नहीं बनाया जा सकता। ऐसी अनेक वस्तुएं हैं जिनका हमें अनुभव नहीं होता तथापि अनुमानादि प्रमाणों से उनका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। उदाहरणार्थ परमाणु प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता तथापि उसका अस्तित्व है। द्वितीय जिज्ञासा यह हो सकती है कि शब्द में स्पर्श है तो उसकी प्रतीति क्यों नहीं होती? इसका समाधान यह है शब्द में स्पर्श तो है पर वह अव्यक्त है। जैसे सुगन्धित पदार्थ से गन्ध की अनुभूति तो होती है पर उसमें स्पर्श का अनुभव नहीं होता चूंकि वह अव्यक्त है। इसी तरह शब्द का स्पर्श भी अव्यक्त है / पुनः जिज्ञासा हो सकती है कि शब्द में स्पर्श होने का निश्चय कैसे करें? समाधान में कहा जा सकता है जब अनुकल पवन चलता हो तब दूर तक भी ध्वनि सुनाई देती है। प्रतिकुल पवन के चलने पर सन्निकट में भी रहे हुए शब्द स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं देते। इससे स्पष्ट है कि अनुकल पवन शब्द के संचार में सहायक होता है तो प्रतिकूल पवन प्रतिरोध करता है / यदि शब्द स्पर्शहीन होता तो उस पर पवन का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता / इसलिए शब्द रूपी है, स्पर्श वाला है और स्पर्श वाला होने से वह पौदगलिक है / दूसरा तर्क था कि शब्द दीवाल को उल्लंघ कर बाहर आ जाता है इसलिए पुद्गल नहीं है। उत्तर यह है कि द्वार और खिड़कियों में लघु छिद्र होते हैं जिसके कारण उन छिद्रों में से शब्द बाहर आता है। यदि बिल्कुल ही छिद्र न हों तो शब्द बाहर नहीं पाता / द्वार खुला है तो स्पष्ट सुनाई देता है और द्वार बन्द होने पर अस्पष्ट / इसलिए शब्द गन्ध की तरह ही स्थूल है और स्थूल होने के कारण वह पौद्गलिक है। तीसरी युक्ति उत्पत्ति होने के पहले और नष्ट होने के बाद पुद्गल दिखाई न देने के तर्क का उत्तर यह हैजैसे विद्यत् उत्पन्न होने के पहले दिखलाई नहीं देती और नष्ट होने के बाद भी उसका उत्तरकालीन रूप दिखलाई नहीं देता फिर भी विद्युत पौलिक ही है तो शब्द को पौद्गलिक मानने में क्या बाधा है ! चतुर्थ युक्ति यह दी गई है कि शब्द यदि पुद्गल होता तो वह अवश्य ही अन्य पुद्गलों को प्रेरित करता। इसके उत्तर में हम यह कहना चाहेंगे कि सूक्ष्म रज, धूम, आदि ऐसे अनेक पदार्थ हैं जो पौद्गलिक होने पर भी दूसरों को प्रेरणा नहीं करते / इससे उनके पुदगल होने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती, वैसी ही स्थिति शब्द की भी है। पांचवीं युक्ति थी---शब्द आकाश का गुण है परन्तु शब्द वास्तव में प्राकाश का गुण नहीं है किन्तु पुद्गल द्रव्य की पर्याय है। यदि शब्द आकाश का गुण होता तो वह प्रत्यक्ष नहीं हो सकता था / चूंकि आकाश प्रत्यक्ष नहीं है तो उसका गुण कैसे प्रत्यक्ष हो सकता है ? शब्द श्रोत्र इन्द्रिय के द्वारा प्रत्यक्ष होता है, इसलिए वह आकाश का गुण नहीं है। जो पदार्थ इन्द्रिय का विषय होता है वह पौद्गलिक होता है, जैसे घट, पट, आदि पदार्थ। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि शब्द पुद्गल है। इस पुद्गलरूप शब्द में एक स्वाभाविक शक्ति है जिसके कारण पदार्थों का बोध होता है / प्रत्येक शब्द में संसार के सभी पदार्थों का बोध कराने की शक्ति रही हई / घट शब्द घड़े का बोधक है किन्तु वह पट आदि का भी बोधक हो सकता है / पर मानव ने विभिन्न संकेतों की कल्पना करके उसकी विराट् वाचकशक्ति केन्द्रित कर दी है। अतः जिस देश और जिस काल में जिस पदार्थ के लिए जो शब्द नियत है वह उसी का बोध कराता है। उदाहरण के रूप में 'गौ' शब्द को लें, 'गौ' का अर्थ यदि संसार के सभी पदार्थों को मान लिया जाय तो व्यक्ति उससे कोई भी पदार्थ समझ लेगा। इस गड़बड़ी से बचने के लिए शब्द की व्यापक [43 ] Page #1161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ याचकशक्ति को किसी एक पदार्थ तक सीमित करना आवश्यक है, जिससे वह एक पदार्थ का बोध दे सके / नियत अर्थ का ही परिज्ञान करा सके / भाषा शब्दवर्गणा के पुदगलों से निर्मित होती है। शब्दवर्गणा के परमाणु समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं। जब वक्ता बोलना चाहता है तो उन पुद्गलों को ग्रहण करता है, बे पुद्गल शब्दरूप में परिणत हो जाते हैं और बोलते हुए एक समय में लोकान्त तक पहुँच जाते हैं। उनकी गति का वेग तीव्रतर होता है। प्राकाश द्रव्य के प्रदेशों की श्रेणियाँ हैं। वे श्रेणियाँ पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर, नीचे इस प्रकार छहों दिशाओं में विद्यमान हैं / जब वक्ता भाषा का प्रयोग करता है तो शब्द उन श्रेणियों से प्रसस्ति होता है। चार समय जितने सूक्ष्म काल में शब्द सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जाता है। यदि श्रोता भाषा की समश्रेणी में अवस्थित होता है तो वक्ता द्वारा जो भाषा बोली जाती है या भेरी आदि वाद्य का जो शब्द होता है उसे वह मिश्र रूप में सुनता है। यदि श्रोता विश्रेणी में स्थित है तो वासित शब्द सुनता है। __ श्रोता वक्ता द्वारा बोले हुए शब्द ही नहीं सुनता परन्तु बोले हुए शब्दद्रव्य तथा उन शब्दद्रव्यों से वासित हुए बीच के शब्दद्रव्य मिककर मिश्रशब्द होते हैं। उन्हीं मिश्रशब्दद्रव्यों को समश्रेणी स्थित श्रोता श्रवण करता है। विश्रेणी स्थित श्रोता मिश्रशब्द को भी श्रवण नहीं करता। वह केवल उच्चारित मूल शब्दों द्वारा वासित शब्दों को ही श्रवण करता है। बासित शब्द का अर्थ है वक्ता द्वारा शब्द रूप से त्यागे हुए द्रव्यों से अथवा भेरी प्रादि की ध्वनि से, मध्य में स्थित शब्दवर्गणा के पुदगल शब्द रूप में परिणत हो जाते हैं। शब्द श्रेणी के अनुसार ही फैलता है, वह विश्रेणी में नहीं जाता। शब्दद्रव्य इतना सूक्ष्म है कि दीवाल प्रभृति का प्रतिघात भी उसे विश्रेणी में नहीं ले जा सकता। यहाँ सहज ही यह जिज्ञासा हो सकती है कि शब्द एक समय में श्रेणी के अनुसार लोकान्त तक पहुँच जाता है। द्वितीय समय में विदिशा में भी जाता है और चार समय में समस्त लोक में फैल जाता है। ऐसी स्थिति में जब श्रोता विदिशा में होता है तो मिश्रशब्द श्रवण क्यों नहीं करता ? उत्तर यह है कि लोकान्त में भाषा को पचने में केवल एक समय लगता है और दूसरे समय में भाषा, भाषा नहीं रहती। क्योंकि कहा गया है, जिस समय में वह भाषा बोली जाती हो उसी समय में वह भाषा कहलाती है, दूसरे समय में भाषा अभाषा हो जाती है। 30 / इसलिए बिदिशा में जो शब्द सुनाई पड़ता है वह दो, तीन, चार आदि समयवर्ती हो जाता है जिससे वह श्राव्य शक्ति से शुन्य हो जाता है। वह मुल शब्द अन्य शब्दवर्गणा के पुद्गलों को भाषारूप में परिणत कर देता है। इसलिए वह वासित शब्द है और बासित शब्द विदिशा में सुनाई नहीं देते। उदाहरण के रूप में तालाब में जहाँ पर पत्थर गिरता है उसके चारों ओर एक लहर व्याप्त हो जाती है। वह लहर अन्य लहरों को उत्पन्न करती हुई जलाशय के अन्त तक पहुंच जाती है। उसी तरह जब वक्ता द्वारा प्रयुक्त भाषाद्रव्य आगे बढ़ता हुआ आकाश में अवस्थित अन्यान्य भाषा योग्य द्रव्यों को भाषा रूप में परिणत करता हुआ लोक के अन्त तक जाता है। लोक के अन्त तक पहुँच कर उसमें जो श्रव्यशक्ति है वह समाप्त तो जाती है। उससे अन्यान्य भाषावर्गणा के पुद्गलों में शब्दरूप परिणति समुत्पन्न होती है और वे शब्द मूल और बीच के शब्दों द्वारा सम्प्रेरित होकर गतिमान होते हैं। इस तरह चार समय में सम्पूर्ण लोकाकाश उन शब्दों से व्याप्त हो जाता है। काययोग के द्वारा जीव भाषावर्गणा के द्रव्यों को ग्रहण करता है और वचनयोग के द्वारा उसका परित्याग करता है।'' ग्रहण करने का और त्याग करने का क्रम चलता रहता है। कभी कभी जीव प्रतिपल प्रतिक्षण 130. भाष्यमाणव भाषा, भाषासमयानन्तरं भाषाऽभाषा / 131. (क) प्रावश्यकनियुक्ति, गाथा 7 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 353 [ 44 ] Page #1162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है और साथ ही कभी-कभी प्रतिपल प्रतिक्षण भाषाद्रव्य का त्याग करता है / प्रथम समय में ग्रहण किए हए भाषा द्रव्यों को द्वितीय समय में त्याग करता है और द्वितीय समय में ग्रहण किए हए द्रव्यों को तृतीय समय में त्याग करता है / औदारिक, वैक्रियक और पाहारक शरीर वाला जीव ही भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है। कितने ही चिन्तकों का यह अभिमत है कि ब्रह्म शब्दात्मक है। समस्त विराट् विश्व शब्दात्मक है, शब्द के अतिरिक्त घट-पट आदि बाह्य पदार्थों एवं ज्ञान प्रभृति प्रान्तरिक पदार्थों की सत्ता का अभाव है। शब्द ही विभिन्न वस्तुओं के रूप में प्रतिभासित होता है। पर यह चिंतन प्रमाण से बाधित है। हम पूर्व पृष्ठों में शब्द की पौद्गलिकता का समर्थन कर चुके हैं / आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के माध्यम से भी यह सत्य-तथ्य उजागर हो चुका है / यन्त्र स्वयं पुद्गल रूप है, इसीलिए वह पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है। पौद्गलिक वस्तु ही पौद्गलिक वस्तु को पकड़ सकती है। भाषा के पुद्गल जब भाषा के रूप में बाहर निकलते हैं तब सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। लोक का प्राकार वज्राकार है इसलिए भाषा का आकार भी वज्राकार बतलाया गया है। लोक के आगे भाषा के पुद्गल नहीं जाते, क्योंकि गमन क्रिया में सहायभूय धर्मास्तिकाय लोक में ही है। पुद्गल परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध रूप होते हैं। जो स्कन्ध अनन्तप्रदेशी हैं उन्हीं का ग्रहण भाषा के लिए उपयोगी होता है। क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात प्रदेशों में स्थित स्कन्ध, काल की दृष्टि से एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति बाले होते हैं / रूप-रस-गंध और स्पर्श की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समान नहीं होते परन्तु सभी रूपादि परिणाम वाले तो होते ही हैं। स्पर्श की दृष्टि से चार स्पर्श वाले पुद्गलों का ही ग्रहण किया जाता है। प्रात्मा आकाश के जितने प्रदेशों का अवगाहन कर रहता है, उतने ही प्रदेशों में रहे हुए भाषा के पुद्गलों को वह ग्रहण करता है। प्रस्तुत पद में भाषा के भेदों का अनेक दृष्टियों से वर्णन किया गया है। भाषा के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद हैं। पर्याप्त के सत्यभाषा और मृषाभाषा दो भेद हैं तथा सत्यभाषा के जनपदसत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य, प्रौपम्यसत्य, ये दस भेद हैं। असत्य भाषा बोलने के अनेक कारण हैं। असत्यभाषा के दस भेद हैं-क्रोधनिःसृत, माननिःसृत, मायानिःसृत, लोभनिःसृत, प्रेमनिःसृत, द्वेषनिःसृत, हास्यनिःसृत, भयनिःसृत, प्राख्यानिकानिःसृत, उपघातनिःसृत / अपर्याप्तक भाषा के सत्यामपा और असत्यामुषा ये दो प्रकार हैं। उनमें सत्यामषा के दस और असत्यामृषा के बारह भेद बताये गये हैं। सत्यामृषा भाषा वह है जो प्रर्द्ध सत्य हो और असत्यामृषा वह है जिसमें सत्य और मिथ्या का व्यवहार नहीं होता। अन्य दृष्टि से लिंग, संख्या, काल, वचन आदि की दृष्टि से भाषा के सोलह प्रकार बताये हैं। शरीर : एक चिन्तन बारहवें पद में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। शरीर के औदारिक, वैक्रिय, प्राहारक, तेजस और कार्माण ये पांच भेद हैं। 3. उपनिषदों में आत्मा के पांच कोषों की चर्चा है। वे हैं-- 132. भगवतीसूत्र 1711 सूत्र 592 [45 ] Page #1163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. अन्नमयकोष (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है) 2. प्राणमयकोष (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व) 3. मनोमयकोष (मन की संकल्प-विकल्पास्मक क्रिया) 4. विज्ञानमयकोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया) 5. प्रानन्दमयकोष (शानन्द की स्थिति) 1933 इन पांच कोषों में केवल अन्नमयकोष के साथ प्रौदारिक शरीर की तुलना की जा सकती है। 34 औदारिक आदि शरीर स्थूल हैं तो कार्मणशरीर सूक्ष्म शरीर है। कार्मणशरीर के कारण ही स्थल शरीर की उत्पत्ति होती है। नैयायिकों ने कार्मणशरीर को अव्यक्त शरीर भी कहा है। 35 सांख्य प्रभृति दर्शनों में अध्यक्त सूक्ष्म और लिंग शरीर जिन्हें माना गया है उनकी तुलना कार्मणशरीर के साथ की जा स चौबीस दंडकों में कितने कितने शरीर हैं, इस पर चिंतन कर यह बताया गया कि औदारिक से बैंक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं / संक्षेप में औदारिक' शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रसादि धातुमय शरीर है। यह शरीर मनुष्य और तिर्यञ्चों में ही होता है / वैक्रिय शरीर वह है जो विविध रूप करने में समर्थ हो, यह शरीर नैरयिकों तथा देवों का होता है। बक्रियलब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकाय में भी होता है / याहारक शरीर वह है जो माहारक नामक लब्धिविशेष से निष्पन्न हो / तेजस शरीर वह है जिससे तेजोलब्धि प्राप्त हो, जिससे उपघात या अनुग्रह किया जा सके, जिससे दीप्ति और पाचन हो। कार्मण शरीर वह है जो कर्मसमूह से निष्पन्न है, दूसरे शब्दों में कर्मविकार को कार्मण शरीर कह सकते हैं। तेजस और कार्मण शरीर सभी सांसारिक जीवों में होता है। भावपरिणमन : एक चिन्तन तेरहवें परिणाम पद में परिणाम के संबंध में चितन है। भारतीय दर्शनों में सांख्य प्रादि कुछ दर्शन परिणामवादी हैं तो न्याय प्रादि कुछ दर्शन परिणामवाद को स्वीकार नहीं करते। जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी का अभेद स्वीकार किया है वे परिणामवादी हैं और जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद माना है, वे अपरिणाभवादी हैं / नित्यता के सम्बन्ध में भारतीय दर्शनों में तीन प्रकार के विचार हैं-सांख्य, जैन और वेदान्तियों में रामानुज / इन तीनों ने परिणामी-नित्यता स्वीकार की है। पर यहाँ स्मरण रखना होगा कि सांख्यदर्शन ने प्रकृति में परिणामीनित्यता मानी है, किन्तु पुरुष में कूटस्थनित्यता स्वीकार की है। नैयायिकों ने सभी प्रकार की नित्य वस्तयों में कटस्थनित्यता मानी है। धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद स्वीकार करने के कारण परिणामीनित्यता 133. (क) पंचदशी 3. 111 (ख) हिन्दुधर्मकोश-डॉ. राजबलि पाण्डेय 134. तैत्तिरीय-उपनिषद्, भृगुवल्ली, बेलवलकर और रानाडे, -History of Indian Philosophy, 250. 135. वें शरीरस्य प्रकृती व्यक्ता च अव्यक्ता च / तत्र अव्यक्तायाः कर्मसमाख्यातायाः प्रकृतेरुपभोगात प्रक्षयः / प्रक्षीणे च कर्मणि विद्यमानानि भूतानि न शरीरमुत्पादयन्ति इति उपपन्नोऽपवर्गः। न्यायवार्तिक 312168 136. सांख्यकारिका ३९-४०,बेलवलकर और रानाडे -History of Indian Philosophy. 358, 430 & 370 137. द्वयी चेयं नित्यता कटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च। तत्र कटस्थनित्यता पुरुषस्य / परिणामिनित्यता गुणानाम् / -पातञ्जलभाष्य 4, 33 [ 46 ] Page #1164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के सिद्धान्त को उन्होंने मान्य नहीं किया। बौद्धों ने क्षणिकवाद स्वीकार किया है। क्षणिकवाद स्वीकार करने पर भी उन्होंने पुनर्जन्म को स्वीकार किया है / उन्होंने सन्तति-नित्यता के रूप में नित्यता का तृतीय प्रकार स्वीकार किया है। . प्रज्ञापना के प्रस्तुत पद में जैनदृष्टि से जीव और अजीव दोनों के परिणाम प्रतिपादित किए हैं। जिससे स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन मान्य पुरुषकटस्थवाद जैनों को अमान्य है। पहले जीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों को प्रतिपादित कर नरक आदि चतुर्विशति दण्डकों में परिणामों का विचार किया गया है। उसके पश्चात् अजीव के परिणामों की परिगणना की गई है। यहाँ पर यह विशेष रूप से ध्यान देने की बात है कि अजीव में केवल पुद्गल के परिणामों की ही चर्चा की गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव द्रव्यों के परिणामों की चर्चा नहीं है। आगमप्रभावक पुण्यविजयजी महाराज व पंडित दलसुख मालवशिया आदि ने प्रज्ञापना की प्रस्तावना में इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा की है, वह चर्चा ज्ञानवर्द्धक है, अतः हम यहाँ पर उस चर्चा की पुनरावृत्ति न कर विशेष जिज्ञासमों को उसके पढ़ने का सूचन करते हैं। यहाँ पर परिणाम का अर्थ पर्याय अथवा भावों का परिणमन है। कषाय : एक चिन्तन चौदहवें पद का नाम कषाय पद है। कषाय जनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जो जाव के शुद्धोपयोग में मलीनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है।३८ कप का अर्थ है कुरेदना, खोदना और कृषि करना। जिससे कर्मों की कृषि लहलहाती हो वह कषाय है। कषाय के पकते ही सुख और दुःख रूपी फल निकल पाते हैं। कषाय शब्द कषले रस का भी द्योतक है। जिस प्रकार कषाय रसप्रधान वस्तु के सेवन से अन्नरुचि न्यून होती है वैसे ही कषायप्रधान जीवों में मोक्षाभिलाषा क्रमशः कम हो जाती है। कषाय वह है जिससे समता, शान्ति और सन्तुलन नष्ट हो जाता है। 36 कषाय एक प्रकार से प्रकम्पन है, उत्ताप है और पावर्त्त है, जो चंतन्योपयोग में विक्षोम उत्पन्न करता रहता है। क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों को एक शब्द में कहा जाय तो वह कषाय है। कषाय मन की मादकता है। कषाय को तुलना आवर्त से की गई है पर क्रोध के प्रावर्त से मान का पावर्त भिन्न है और मान के प्रावर्त से माया का आवर्त भिन्न है। क्रोध का आवर्त खरावर्त है / खरावर्त सागर में होने वाले तीक्ष्ण यावर्त के सदृश है। मान का आवर्त उन्नतावर्त है। इस प्रावर्त से उत्प्रेरित मनोदशा पहाड़ की चोटी को अपने बहाव में उड़ा ले जाने वाली तेज पवन के सदृश है। अभिमानी दूसरों को मिटाकर अपने-आपके अस्तित्व का अनुभव करता है। माया गूढावर्त के सदृश है। मायावी का मन घुमावदार होता है। इसके विचार गूढ होते हैं, वह विचारों को छुपाए रखता है। लोभ अभिषावावर्त है, लोभी का मानस किसी एक केन्द्र को मानकर उसके चारों ओर घूमता है, जैसे चील आदि पक्षो मांस के चारों ओर घूमते हैं, जब तक वह पदार्थ उसे प्राप्त नहीं होता तब तक उसके मन में शान्ति नहीं होती। इस प्रकार कषाय चक्राकार है जो चेतना को घुमाती रहती है। प्रस्तुत पद में क्रोध-मान-माया-लोभ ये चारों कषाय चौबीस दण्डकों में बताये गये हैं। क्षेत्र, वस्तु, र और उपधि को लेकर सम्पूर्ण सांसारिक जीवों में कषाय उत्पन्न होता है। कितनी बार जीव को कषाय का निमित्त मिलता है और कितनी बार बिना निमित्त के भी कषाय उत्पन्न हो जाता है। 138. प्रज्ञापना पद 14 टीका 139. अनरुचिस्तम्भनकृत् कषायः / -स्थानांग टीका [ 47 ] Page #1165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारों ही कषायों के तरतमता की दृष्टि से अनन्त स्तर होते हैं, तथापि प्रात्मविकास के घात की दृष्टि से उनमें से प्रत्येक के चार-चार स्तर हैं--अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन / अनन्तानुबंधी कषाय के उदयकाल में सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होता। अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में व्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदयकाल में महाव्रत की योग्यता प्राप्त नहीं होती और संज्वलन कषाय के उदयकाल में वीतरागता उत्पन्न नहीं होती। ये चारों प्रकार के कषाय उत्तरोत्तर, मंदमंदतर होते हैं, साथ ही प्राभोगनिर्वर्तित और अनाभोगनिर्वतित, उपशान्त और अनुपशान्त, इस प्रकार के भेद भी किए गए हैं। प्राभोगनिवर्तित कषाय कारण उपस्थित होने पर होता है तथा जो बिना कारण होता है वह अनाभोगनिर्वतित कहलाता है। कर्मबंधन का कारण मुख्य रूप से कषाय है। तीनों कालों में पाठों कर्मप्रकृतियों के चयन के स्थान और प्रकार, 24 दंडक के जीवों में कषाय को ही माना गया है। साथ ही उपचय, बंध, उदीरणा, वेदना और निर्जरा में चारों कषाय ही मुख्य रूप से कारण बताये गये हैं। इन्द्रिय : एक चिन्तन पन्द्रहवें पद में इन्द्रियों के सम्बन्ध में दो उद्देशकों में चिंतन किया गया है। प्राणी और अप्राणी में भेदरेखा खींचने वाला चिह्न इन्द्रिय है। प्राचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थ सिद्धि में इन्द्रिय शब्द की परिभाषा करते हुए लिखा है-परम् ऐश्वर्य को प्राप्त करने वाले प्रात्मा को इन्द्र कहते हैं और उस इन्द्र के लिंग या चिह्न को इन्द्रिय कहते हैं / अथवा जो जीव को अर्थ की उपलब्धि में निमित्त होता है वह इन्द्रिय है अथवा जो इन्द्रियातीत प्रात्मा के सद्भाव की सिद्धि का हेतु है वह इन्द्रिय है। अथवा इन्द्र अर्थात नामकर्म के द्वारा निर्मित स्पर्शन आदि को इन्द्रिय कहा है।१४० तत्त्वार्थभाष्य,'' तत्त्वार्थवार्तिक,'४२ आवश्यकनियुक्ति१४३ आदि अनेक ग्रन्थों में इससे मिलती-जुलती परिभाषाएँ हैं / तात्पर्य यह है कि प्रात्मा की स्वाभाविक शक्ति पर कर्म का प्रावरण होने के कारण सीधा प्रात्मा से ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है और वह माध्यम इन्द्रिय है / अतएव जिसकी सहायता से ज्ञान लाभ हो सके वह इन्द्रिय है। इन्द्रियां पांच हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चश्रु और श्रोत्र। इनके विषय भी पांच हैं-स्पर्श, रस, गंध, रूप और शब्द / इसीलिए इन्द्रिय को प्रतिनियतअर्थग्राही कहा जाता है।४४ प्रत्येक इन्द्रिय, द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय रूप से दो-दो प्रकार की है।' 45 पुद्गल की आकृतिविशेष द्रव्येन्द्रिय है और पास्मा का परिणाम भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय के निवृत्ति और उपकरण ये दो भेद हैं।' 140. इन्दतीती इन्द्र आत्मा, तस्य ज्ञस्वभावस्य तदावरणक्षयोपशमे सति स्वयमर्थान् गृहीतुमसमर्थस्य तदर्थोपलब्धि निमित्त लिङ्ग तदिन्द्रस्य लिङ्गमिन्द्रियमित्युच्यते / अथवा लीनमर्थं गमयतीति लिङ्गम् / प्रात्मनः सूक्ष्मस्या स्तित्वाधिगमे लिङ्गमिन्द्रियम् / अथवा इन्द्र इति नामकर्मोच्यते, तेन सृष्टमिन्द्रियमिति ।--सर्वार्थसिद्धि 1-14 141. तत्त्वार्थभाष्य 2-15 142. तत्त्वार्थवार्तिक 2 / 151-2 143. आवश्यकनियुक्ति, हरिभद्रीया वृत्ति 918, पृष्ठ 398 144. प्रमाणमीमांसा 112 / 21-23 145. सर्वार्थसिद्धि 2/16/179 146. निवृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् / -तत्त्वार्थसूत्र 2/17 [48 ] Page #1166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रियों की विशेष प्राकृतियाँ नि त्ति-द्रव्येन्द्रिय हैं। निर्वत्ति-द्रव्येन्द्रिय की बाह्य और प्राभ्यन्तरिक पौद्गलिक शक्ति है, जिसके अभाव में प्राकृति के होने पर भी ज्ञान होना संभव नहीं है; वह उपकरण द्रव्येन्द्रिय है / भावेन्द्रिय भी लब्धि और उपयोग रूप से दो प्रकार की है।४७ ज्ञानावरणकर्म आदि के क्षयोपशम से प्राप्त होने वाली जो पात्मिक शक्तिविशेष है, वह लब्धि है। लब्धि प्राप्त होने पर प्रात्मा एक विशेष प्रकार का व्यापार करती है, वह व्यापार उपयोग है। प्रथम उद्देशक में चौबीस द्वार हैं और दूसरे में बारह द्वार हैं। इन्द्रियों की चर्चा चौबीस दण्डकों में की गई है। जीवों में इन्द्रियों के द्वारा अवग्रहण-परिच्छेद अवाय ईहा और अवग्रह -अर्थ और व्यंजन दोनों प्रकार से चौबीस दण्डकों में निरूपण किया गाया है। चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है / अर्थावग्रह छः प्रकार का है। वह पांच इन्द्रिय और छठे नोइन्द्रिय मन से भी होता है / इस प्रकार इन्द्रियों के द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय दो भेद किए हैं। द्रव्येन्द्रिय पुद्गलजन्य होने से जड़ रूप है और भावेन्द्रिय ज्ञान रूप है / इसलिए वह चेतना शक्ति का पर्याय है। द्रव्येन्द्रिय अंगोपांग और निर्माण नामकर्म के उदय से प्राप्त है। इन्द्रियों के आकार का नाम निर्वत्ति है। वह निर्वत्ति भी बाह्य और प्राभ्यन्तर रूप से दो प्रकार की है / इन्द्रिय के बाह्य आकार को बाह्यनिर्वृत्ति कहते हैं और आभ्यन्तर प्राकृति को प्राभ्यन्तरनित्ति कहते हैं / बाह्य भाग तलवार के सदृश है और प्राभ्यन्तर भाग तलवार की तेज धार के सदृश है जो बहुत ही स्वच्छ परमाणुओं से निर्मित है / प्रज्ञापना की टीका में प्राभ्यन्तर निवृत्ति का स्वरूप पुद्गलमय बताया है '48 तो आचारांग-वृत्ति में उसका स्वरूप चेतनामय बताया है / 146 यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि त्वचा की प्राकृति विभिन्न प्रकार की होती है किन्तु उसके बाह्य और प्राभ्यन्तर आकार में पृथकता नहीं है। प्राणी की त्वचा का जिस प्रकार बाह्य आकार होता है वैसा ही प्राभ्यन्तर आकार भी होता है, पर अन्य चार इन्द्रियों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं है। उन इन्द्रियों का बाह्य आकार अलग है और प्राभ्यन्तर आकार अलग है / उदाहरण के रूप में देखिए-कान का आभ्यन्तर आकार कदम्बपुष्प के सदृश होता है। आंख की प्राभ्यन्तर आकृति मसूर के दाने के सदृश होती है और नाक की आभ्यन्तर आकृति प्रतिमुक्तक के फूल के सदृश होती है तथा जीभ की आकृति छुरे के समान होती है / पर बाह्याकार सभी में पृथक्पृथक् दृग्गोचर होते हैं / जैसे मनुष्य, हाथी, घोड़े, पक्षी आदि के कान, आंख, नाक, जीभ आदि को देख सकते हैं। आभ्यन्तरनित्ति की विषयग्रहणशक्ति उपकरणेन्द्रिय है। तत्त्वार्थसूत्र, 50 विशेषावश्यकभाष्य,'५१ लोकप्रकाश ५२प्रभूति ग्रन्थों में इन्द्रियों पर विशेष रूप से विचार किया गया है / प्रज्ञापना में इन्द्रियोपचय, इन्द्रियनिर्वर्तन, इन्द्रियलब्धि, इन्द्रियोपयोग आदि द्वारों से द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय की चौबीस दण्डकों में विचारणा को गई है। 147. लब्ध्युपयोगौ भावेन्द्रियम् / --तस्वार्थसूत्र 2/18 148 प्रज्ञापनासूत्र, इन्द्रियपद, टीका पृष्ठ 294/1 149. प्राचारांगवृत्ति, पृष्ठ 104 150. तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 2, सूत्र 17/18 तथा विभिन्न वृत्तियाँ 151. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 2993-3003 152. लोकप्रकाश, सर्ग 3, श्लोक 464 से आगे Page #1167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोग : एक चिन्तन सोलहवाँ प्रयोगपद है। मन, वचन, काया के द्वारा प्रात्मा के व्यापार को योग कहा गया है तथा उसी योग का वर्णन प्रस्तुत पद में प्रयोग शब्द से किया गया है, यह आत्मव्यापार इसलिए कहा जाता है कि आत्मा के प्रभाव में तीनों की क्रिया नहीं हो सकती। प्राचार्य अकलंकदेव ने तीनों योगों के बाह्य और ग्राभ्यन्तर कारण बताकर उसकी व्याख्या की है। संक्षेप में वह इस प्रकार है-बाह्य और ग्राभ्यन्तर कारणों से मनन के अभिमुख आत्मा का जो प्रदेशपरिस्पन्दन है वह मनोयोग कहलाता है। मनोवर्गणा का पालम्बन बाह्य कारण है। वीर्यान्तरायकर्म का क्षय, क्षयोपशम तथा नोइन्द्रियावरणकर्म का क्षय-क्षयोपशम इसका प्राभ्यन्तर कारण है। बाह्य और पाभ्यन्तर कारण-जन्य भाषाभिमुख प्रात्मा का प्रदेशपरिस्पन्द बचनयोग है। वचनवर्गणा का पालम्बन बाह्य कारण है और वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम तथा मतिज्ञानावरण और अक्षरश्रुतज्ञानावरण प्रादि कर्म का क्षयोपशम प्राभ्यन्तर कारण है। बाह्य और प्राभ्यन्तर कारण से उत्पन्न गमन आदि विषयक आत्मा का प्रदेशपरिस्पन्दन काययोग है। किसी भी प्रकार का शरीरवर्गणा का पालम्बन इसका बाह्य कारण है। वीर्यान्तरायकर्म का क्षय-क्षयोपशम इसका प्राभ्यन्तर कारण है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वीर्यान्तरायकर्म का क्षय, जो प्राभ्यन्तर कारण है वह दोनों ही गुणस्थानों में समान है किन्तु वर्गणा का पालम्बनरूप बाह्य कारण समान नहीं होने से तेरहवें गुणस्थान में योगविधि होती है किन्तु चौदहवें में नहीं / '53 यहाँ एक प्रश्न यह भी उद्बुद्ध होता है कि मनोयोग और वचनयोग में किसी न किसी प्रकार का काययोग का आलम्बन होता ही है। इसलिए केवल एक काययोग को मानना पर्याप्त है। उत्तर में निवेदन है-मनोयोग और वचनयोग में काययोग की प्रधानता है। जब काययोग मनन करने में सहायक बनाता है, तब मनोयोग है और जब काययोग भाषा बोलने में सहयोगी बनाता है, तब वह वचनयोग कहलाता है। व्यवहार की दृष्टि से काययोग के ही ये तीन प्रकार हैं। जो पुदगल मन बनने के योग्य हैं, जिन्हें मनोवर्गणा के पुद्गल कहा गया है, जब वे मन के रूप में परिणत हो जाते हैं तब उन्हें द्रव्य-मन कहते हैं। श्वेताम्बरपरम्परा के अनुसार द्रव्यमन का शरीर में कोई स्थानविशेष नहीं है, वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है / दिगम्बरपरम्परा की दृष्टि से द्रव्यमन का स्थान हृदय है और उसका प्राकार कमल के सदश है / भाषावर्गणा के पुद्गल जब वचन रूप में परिणत होते हैं तो वे वचन कहलाते हैं। औदारिक और बैंक्रिय आदि शरीर वर्गणाओं के पुद्गलों से जो योग प्रवर्तमान होता है' 54 / इस प्रकार प्रालम्बनभेद से योग के तीन प्रकार हैं। जैनदृष्टि से मन, वचन और काया ये तीनों पुदगलमय हैं और पुदगल की जो स्वाभाविक गति है वह आत्मा के बिना भी उसमें हो सकती है पर जब पुद्गल मन, वचन और काया के रूप में परिणत हों तब आत्मा के सहयोग से जो विशिष्ट प्रकार का व्यापार होता है वह अपरिणत में असंभव है। पुद्गल का मन प्रादि रूप में परिणमन होना भी प्रात्मा के कर्माधीन ही है। इसलिए उसके व्यापार को प्रात्मव्यापार कहा है। मन, वचन और काया के प्रयोग के पन्द्रह प्रकार बताये हैं जो निम्नलिखित हैं 153. तत्त्वार्थसूत्र राजबार्तिक 6/1/10. 154. दर्शन और चिंतन (हिन्दी) पृष्ठ 309-311- पंडित सुखलालजी Page #1168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. सत्यमनःप्रयोग 2. असत्यामनःप्रयोग 3. सत्यमृषामनःप्रयोग 4. असत्यांमृषामनःप्रयोग 5. सत्यवचनप्रयोग 7. सत्यमषावचनप्रयोग. असत्यामषावचनप्रयोग 9. प्रौदारिककायप्रयोग 10. प्रौदारिकमिश्रकायप्रयोग 11. वैक्रियकायप्रयोग 12. वैक्रियमिश्रकायप्रयोग 13. पाहारककायप्रयोग 14. प्राहारकमिश्रकायप्रयोग 15. कार्मणकायप्रयोग / प्रजापना की टीका में प्राचार्य मलयगिरि ने इन पन्द्रह प्रयोग के भेदों में तैजसकाययोग का निर्देशन होने से कार्मण के साथ तेजस को मिलाकर तैजसकार्मणशरीरप्रयोग की चर्चा की है। '55 इन पन्द्रह प्रयोगों की जीव में और विशेष रूप से चौवीस दण्डकों में योजना बताई है। प्रयोग के विवेचन के पश्चात् इस पद में गतिप्रपात का भी निरूपण है। उसके पांच प्रकार बताये हैं--प्रयोगगति, ततगति, बन्धनछेदनगति, उपपातगति और विहायोगति / इनके भी अवान्तर अनेक भेद-प्रभेद हैं। लेश्या : एक विश्लेषण सत्रहवाँ लेश्यापद है। लेश्या एक प्रकार का पौद्गलिक पर्यावरण है। जीव से पुद्गल और पुद्गल से जीव प्रभावित होते हैं। जीव को प्रभायित करने वाले पुदगलों के अनेक समूह हैं। उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है। उत्तराध्ययन बृहदवृत्ति में लेश्या का अर्थ आणविक प्राभा, कान्ति, प्रभा या छाया किया है।'५६ दिगम्बरपरम्परा के प्राचार्य शिवार्य ने लेश्या उसे कहा है जो जीव का परिणाम छायापुद्गलों से प्रभावित होता हो।'५७ प्राचीन जैन वाङमय में शरीर के वर्ण, प्राणविक आभा और उससे प्रभावित होने वाले विचार इन तीनों प्रथों में लेश्या शब्द व्यबहत हमा है। शरीर के वर्ण और प्राणविक आभा द्रव्यलेश्या है तो विचार भावलेश्या हैं। 58 विभिन्न ग्रन्थों में लेश्या की विभिन्न परिभाषाएं प्राप्त होती हैं। प्राचीन पंचसंग्रह, 10 धवला,' गोम्मटसार आदि में लिखा है कि जीव जिसके द्वारा अपने को पुण्य-पाप से लिप्त करता है वह लेश्या है। तत्त्वार्थवार्तिक, 113 पंचास्तिकाय 54 आदि ग्रन्थों के अनुसार कषाय के उदय से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति लेश्या है। स्थानांग-अभयदेववृत्ति, '65 ध्यानशतक, 6 प्रभृति ग्रन्थों में लिखा है-जिसके द्वारा प्राणी कर्म 155. प्रज्ञापनाटीका पत्र 319 --प्राचार्य मलयगिरि 156. लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानीति लेश्या--प्रतीव वाराक्षेपिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया।। -बृहद्वृत्ति, पत्र 650 157. जह बाहिरलेस्सायो, किण्हादीओ हवंति पुरिसस्स / अन्भन्तरलेस्सायो, तह किण्हादीय पुरिसस्स / / -मूलाराधना, 711907 158. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, माथा 494 (ख) उत्तराध्ययननियूक्ति, गाथा 539 159. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 540 160. प्राचीन पंचसंग्रह 1-142 161. धवला, पु. 1, पृ. 150 162. गोम्मटसार, जीवकाण्ड 489 163. तत्त्वार्थवार्तिक 2, 6, 8 164, पंचास्तिकाय जयसेनाचार्य वृत्ति 140 165. लिश्यते प्राणी कर्मणा यया सा लेश्या / -स्थानांग अभयदेववृत्ति 51, पृष्ठ 31. 166. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते // -~-ध्यानशतक हरिभद्रीयावृत्ति 14 [ 51] ' Page #1169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से संश्लिष्ट होता है उसका नाम लेश्या है / कृष्ण प्रादि द्रव्य की सहायता से जो जीव का परिणाम होता है वह लेश्या है। योग परिणाम लेश्या है / उपयुक्त परिभाषानों के अनुसार लेश्या से जीव पार कम क पुद्ग 1 के अनुसार लेश्या से जीव और कर्म के पुद्गलों का सम्बन्ध होता है, कर्म की स्थिति निष्पन्न होती है और कर्म का उदय होता है। प्रात्मा की शुद्धि और अशुद्धि के साथ लेश्या का सम्बन्ध है। पौद्गलिक लेश्या का मन की विचारधारा पर प्रभाव पड़ता है और मन की विचारधारा का लेश्या पर प्रभाव पड़ता है / जिस प्रकार की लेश्या होगी वैसी ही मानसिक परिणति होगी। कितने ही मूर्धन्य मनीषियों का यह मन्तव्य है कि कषाय की मंदता से अध्यवसाय में विशुद्धि होती है और मध्यवसाय की विशुद्धि से लेश्या की शुद्धि होती है। जिस परिभाषा के अनुसार योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से तेरहवें गुणस्थान तक भावलेश्या का सद्भाव है और जिस परिभाषा के अनुसार कषायोदय-अनुरंजित योगप्रवृत्ति लेश्या है, उस दृष्टि से दसवें गुणस्थान पर्यन्त ही लेश्या है। ये दोनों परिभाषाएँ अपेक्षाकृत होने से एक दूसरे के विरुद्ध नहीं हैं। जहाँ योगप्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ पर प्रकृति और प्रदेशबन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या के रूप में विवक्षित हैं और जहाँकषायोदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्ति को लेश्या कहा है, वहाँ स्थिति, अनुभाग प्रादि चारों बन्ध के निमित्तभूत परिणाम लेश्या के रूप में विवक्षित हैं। प्रस्तुत पद में छ: उद्देशक हैं / प्रथम उद्देशक में नारक आदि चौबीस दण्डकों के सम्बन्ध में आहार, शरीर, श्वासोच्छ्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया, प्रायु आदि का वर्णन है। जिन नारक जीवों के शरीर की अवगाहना बड़ी है उनमें प्राहार प्रादि भी अधिक है। नारकों में उत्तरोत्तर अवगाहना बढ़ती है। प्रथम नरक की अपेक्षा द्वितीय में और द्वितीय से तृतीय में। पर देवों में इससे उल्टा क्रम है। वहाँ पर उत्तरोत्तर अवगाहना कम होती है और आहार की मात्रा भी। आहार की मात्रा अधिक होना दुःख का ही कारण है। दुःखी व्यक्ति अधिव खाता है, सुखी कम / सलेश्य जीवों की अपेक्षा नारक आदि चौबीस दण्डकों में सम-विषम पाहार मादि की चर्चा है। द्वितीय उद्देशक में लेश्या के कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल, ये छः भेद बताकर नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी-कितनी लेश्याएँ होती हैं इसका विस्तार से निरूपण है / अपेक्षा रष्टि से लेश्या के अल्पबहत्व का भी चिन्तन इसमें किया गया है। साथ ही 24 दण्डक के जीवों को लेकर लेश्या की अपेक्षा से ऋद्धि के अल्प और बहुत्वं के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। तृतीय उद्देशक में जन्म और मृत्यु काल की लेश्या सम्बन्धी चर्चा है। अमुक-अमुक लेश्या वाले जीवों के अवधिज्ञान को विषय-मर्यादा पर भी प्रकाश डाला गया है। चतुर्थ उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में परिणमन होने पर उसके वर्ण, रस, गंध, स्पर्श किस प्रकार परिवर्तित होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा है। लेश्यानों के विविध परिणाम, उनके प्रदेश, अवगाहना, क्षेत्र, और स्थान की -~-मूलाराधना 131911 167. उत्तराध्ययन बृहद्वत्ति पत्र 650 168. (क) लेस्सासोधी अज्झवसाणविसोधीए होइ जनस्स / अज्झवसाणविसोधी, मंदलेसायस्स णादव्वा / / (ख) अन्तर्विशुद्धितो जन्तोः शुद्धिः सम्पद्यते बहिः / बाह्यो हि शुध्यते दोषः सर्वमन्तरदोषतः // 169. जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयाणुरंजिया होइ / तत्तो दोण्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुद्दिळं // 489 // --मूलाराधना (अमितगति), 7 / 1967 -गो. जीवकाण्ड [ 52 ] Page #1170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपेक्षा से अल्पबहुत्व द्रव्य और प्रदेश को लेकर किया गया है। पांचवें उद्देशक में एक लेश्या का दूसरी लेश्या में देव-नारक की अपेक्षा से परिणमन नहीं होता, यह बताया है / छठे उद्देशक में विविध क्षेत्रों में रहे हुए मनुष्य पौर मनुष्यनी की अपेक्षा से चिन्तन किया गया है। यह स्मरण रखना होगा कि जो लेश्या माता-पिता में होती है वही लेश्या पुत्र और पुत्री में भी हो, यह नियम नहीं है। जीव को लेश्या की प्राप्ति के पश्चात अन्तम हर्त व्यतीत हो जाने पर तथा अन्तर्महर्त शेष रह जाने पर जीव परलोक में जन्म ग्रहण करता है, क्योंकि मृत्युकाल में आगामी भव की और उत्पत्तिकाल में उसी लेण्या का अन्तर्महर्त काल तक होना आवश्यक है। जीव जिस लेश्या में मरता है, अगले भव में उसी लेश्या में जन्म लेता है / 70 उत्तराध्ययन में किस किस लेश्या वाले जीव के किस किस प्रकार के अध्यवसाय होते हैं तथा भगवती में लेश्यामों के द्रव्य और भाव ये भेद किए गए हैं / पर प्रज्ञापना का लेश्यापद बहुत ही विस्तृत होने पर भी उसमें उसकी परिभाषा एवं द्रव्य और भाव प्रादि बातों की कमी है। इस कमी के सम्बन्ध में पागमप्रभावक. पुण्यविजयजी महाराज का यह मानना है कि यह इस पागम की प्राचीनता का प्रतीक है। कायस्थिति : एक विवेचन अठारहवें पद का नाम कायस्थिति है। इसमें जीव और अजीव दोनों अपनी अपनी पर्याय में कितने काल तक रहते हैं, इस पर चिन्तन किया गया है। चतुर्थ स्थितिपद और इस पद में अन्तर यह है कि स्थितिपद में तो 24 दण्डकों में जीवों की भवस्थिति अर्थात् एक भव की अपेक्षा से आयुष्य का विचार है जबकि इस पद में एक जीव मरकर सतत उसी पर्याय में जन्म लेता रहे तो ऐसे सब भवों की परम्परा की काल-मर्यादा अथवा उन सभी भवों में प्रायुष्य का कुल जाड़ कितना होगा? स्थितिपद में तो केवल एक भव की आयु का ही विचार है जब कि प्रस्तुत पद में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य, जो काय के रूप में जाने जाते हैं, उनका उस रूप में रहने के काल का अर्थात् स्थिति का भी विचार किया गया है। इसमें जीव, मति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग, प्राहार, भाषक, परित्त, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भव (सिद्धि), अस्ति (काय), चरिम की अपेक्षा से कायस्थिति का वर्णन है। वनस्पति की कायस्थिति 'असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा' बताई है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी वनस्पति का जीव अनादि काल से वनस्पतिरूप में नहीं रह सकता / उस जीव ने वनस्पति के अतिरिक्त अन्य भव किये होने चाहिये। इससे यह स्पष्ट है प्रज्ञापना के रचयिता प्राचार्य श्याम के समय तक व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि को कल्पना पैदा नहीं हुई थी / व्यवहारराशि-अव्यवहारराशि की कल्पना दार्शनिक युग की देन है। यही कारण है कि प्रज्ञापना की टीका में व्यवहारराशि और अव्यवहारराशि, ये दो भेद वनस्पति के किए गये हैं और निगोद के जीवों के स्वरूप का वर्णन है। माता मरुदेवी का जीव अनादि काल से वनस्पति में था; इसका उल्लेख टीका में किया गया है।" इस पद में अनेक ज्ञातव्य विषयों पर चर्चा की गई है। टीकाकार मलयगिरि ने मूल सूत्र में प्राई हुई अनेक बातों का स्पष्टीकरण टीका में किया है। 170. जल्लेसाई दम्बाई आयइत्ता काल करेइ, तल्लेसेसु उववज्जइ / 171. प्रज्ञापना टीका पत्र 379 / 385 [ 53 ] Page #1171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्नीसवाँ सम्यक्त्वपद हैं। इसमें जीवों के चौवीस दण्डकों में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि के सम्बन्ध में विचार करते हुए बताया है कि सम्यग-मिथ्यारष्टि केवल पंचेन्द्रिय होता है और एकेन्द्रिय मिथ्याष्टि ही होता है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सम्यग मिथ्यादृष्टि नहीं होते। षटखण्डागम में असंज्ञी पंचेन्द्रिय को मिथ्यारष्टि ही कहा है। सम्यग्दृष्टि और मिथ्यारष्टि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक होते हैं। सम्यक्त्व से तात्पर्य है—व्यवहार से जीवादि का श्रद्धान और निश्चय से प्रात्मा का श्रद्धान है।०२जीव-अजीव आदि नौ पदार्थ हैं। इस प्रकार उन परमार्थभूत पदार्थों के सदभाव का उपदेश से अथवा निसर्ग से होने वाले श्रद्धान को सम्यक्त्व जानना चाहिये / ' 73 अन्तक्रिया : एक चिन्तन बीसवें पद का नाम अन्तक्रिया है / मृत्यु होने पर जीव का स्थूल शरीर यहीं पर रह जाता है पर तैजस और कार्मण, जो सूक्ष्म शरीर हैं, उसके साथ रहते हैं। कार्मणशरीर के द्वारा हो फिर स्थूल शरीर निष्पन्न होता है / अत: स्थूल शरीर के एक बार छूट जाने के बाद भी सूक्ष्म शरीर रहने के कारण जन्म-मरण की परम्परा का अन्त नहीं होता। जब सूक्ष्म शरीर नष्ट हो जाते हैं तो भवपरम्परा का भी अन्त हो जाता है। अन्तक्रिया का अर्थ है जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करना / भव का अन्त करने वाली क्रिया अन्तक्रिया है। यह क्रिया दो अर्थों में व्यवहृत हुई है-नवीन भव अथवा मोक्ष, दूसरे शब्दों में यहाँ पर मोक्ष और मरण इन दोनों अर्थों में अन्तक्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है / स्थानांग में भरत, गजसुकुमाल, सनत्कुमार और माता मरुदेवी की जो अन्तक्रिया बताई गई है, वह जन्म-मरण का अन्त कर मोक्ष प्राप्त करने की क्रिया है। वे प्रात्मा एवं शरीर प्रादि से उत्पन्न क्रियाओं का अन्त कर अक्रिय बन गए।'७४ प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया का विचार जीवों के नरक आदि चौवीस दण्डकों में किया गया है। यह भी बताया है कि सिर्फ मानव ही अन्तक्रिया यानी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। इसका वर्णन दस द्वारों के द्वारा किया गया है। इक्कीसवा 'अवगाहनासंस्थानपद है। इस पद में जीवों के शरीर के भेद, संस्थान-प्राकृति, प्रमाणशरीर का माप, शरीरनिर्माण के लिए पुद्गलों का चयन, जीव में एक साथ कौनसे शरीर होते हैं? शरीरों के द्रव्यों और प्रदेशों का अल्प-बहुत्व और अवगाहना का अल्प-बहुत्व इन सात द्वारों से शरीर के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। गति आदि अनेक द्वारों से पूर्व में जीवों की विचारणा हई है पर उनमें शरीरद्वार नहीं है / यहाँ पर प्रथम विधिद्वार में शरीर के पांच भेदों-प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण का वर्णन करने के पश्चात प्रौदारिक आदि शरीरों के भेदों की चर्चा है। प्रौदारिकशरीरधारी एकेन्द्रिय प्रादि में कौनसा संस्थान है, उनकी अवगाहना कितनी है ? एक जीव में एक साथ कितने-कितने शरीर सम्भव हैं ? शरीर के द्रव्य-प्रदेशों का अल्पबहुत्व, शरीर की अवगाहना का अल्पबहुत्व आदि के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। 172. जीवादीसद्दहणं सम्मत्तं जिणवरेहिं पण्णत्तं / ववहारा णिच्छयदो अप्पाणं हवइ सम्मत्तं // -दर्शनप्राभृत, 20 173. जीवाऽजीवा य बंधो य, पुन्न-पावाऽऽसवो तहा। संवरो गिज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव / / तहियाणं तु भावाणं सब्भावे उवएसणं / भावेण सद्दहंतस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं // --उत्तराध्ययन 2014-15 174. स्थानांग, स्थान 411 [54] Page #1172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया : एक चिन्तन . बाईसा क्रियापद है / प्राचीन युग में सुकृत-दुष्कृत, पुण्य-पाप, कुशल-अकुशल कर्म के लिए क्रिया शब्द व्यवहृत होता था और क्रिया करने वालों के लिए क्रियावादी शब्द का प्रयोग किया जाता था। आगम व पाली-पिटकों में प्रस्तुत अर्थ में क्रिया का प्रयोग अनेक स्थलों पर हुआ है। प्रस्तुत पद में क्रिया-कर्म की विचारणा की गई है। कर्म अर्थात् वासना या संस्कार, जिनके कारण पुनर्जन्म होता है। जब हम आत्मा के जन्म-जन्मान्तर की कल्पना करते हैं तब उसके कारण-रूप कर्म की विचारणा अनिवार्य हो जाती है। महावीर और बुद्ध के समय क्रियावाद शब्द कर्म को मानने वालों के लिए प्रचलित था। इसलिए क्रियावाद और कर्मवाद दोनों शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हो गए थे। उसके बाद कालक्रम से क्रियावाद शब्द के स्थान पर कर्मवाद ही प्रचलित हो गया। इसका एक कारण यह भी है कर्म-विचार की सूक्ष्मता ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों-त्यों वह क्रिया-विचार से दूर भी होता गया। यह क्रियाविचार कर्मविचार की पूर्वभूमिका के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित है। प्रज्ञापना में क्रियापद, सूत्रकृताङ्ग में क्रियास्थान' और भगवती' में अनेक प्रसंगों पर क्रिया और क्रियावाद की चर्चा की गई है। इससे ज्ञात होता है उस समय क्रिया की चर्चा का कितना महत्त्व था। प्रस्तुत पद में विभिन्न दृष्टियों से क्रिया पर चिन्तन है। क्रिया का सामान्य अर्थ प्रवृत्ति है, पर यहाँ विशेष प्रवृत्ति के अर्थ में क्रिया शब्द व्यवहृत हुआ है। क्योंकि विश्व में ऐसी कोई बस्तु नहीं जिसमें क्रियाकारित्व न हो। वस्तु वही है जिसमें अर्थ-क्रिया की क्षमता हो, जिसमें अर्थ-क्रिया की क्षमता नहीं वह अवस्तु है। इसलिए हर एक वस्तु में प्रवृत्ति तो है ही पर यहाँ विशेष प्रवृत्ति को लेकर ही क्रिया शब्द का प्रयोग हुआ है। क्रिया के कायिकी, प्राधिकरणिकी, प्राद्वेषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपातकी, ये पांच प्रकार बताए हैं। क्रिया के जो ये पांच विभाग किए गए हैं वे हिंसा और अहिंसा को लक्ष्य में रखकर किए गए हैं। इन पांचों क्रियाओं में अठारह पापस्थान-प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान आदि समाविष्ट हो जाते हैं। तीसरे रूप में क्रिया के पांच प्रकार इस प्रकार बताए हैं-प्रारंभिया, पारिग्गहिया, मायावत्तिया, अपच्चक्खानक्रिया तथा भिच्छादसणवत्तिया / ये पांच क्रियाएं भी अठारह पापस्थानों में समाविष्ट हो जाती हैं। यहां पर किसके द्वारा कौनसी क्रिया होती है, यह भी बताया है। उदाहरण के रूप में-प्राणातिपात से होने वाली क्रिया षट्जीवनिकाय के सम्बन्ध में होती है। नरक प्रादि चौबीस दण्डकों के जीव छह प्रकार का प्राणातिपात करते हैं। मृषावाद सभी द्रव्यों के सम्बन्ध में किया जाता है / जो द्रव्य ग्रहण किया जाता है उसके सम्बन्ध में अदत्तादान होता है / रूप और रूप वाले द्रव्यों के सम्बन्ध में मैथुन होता है। परिग्रह सर्व द्रव्यों के विषय में होता है। प्राणातिपात प्रादि क्रियाओं के द्वारा कर्म की कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, इस संबन्ध में भी चर्चा-विचारणा की गई है। स्थानांग'७६ में विस्तार के साथ क्रियाओं के भेद-प्रभेदों की चर्चाएं हैं। वहाँ जीवक्रिया, अजीवक्रिया और फिर उनके भेद, उपभेद-कुल बहत्तर कहे गए हैं। सूत्रकृताङ्ग'६० में तेरह क्रियास्थान बताए हैं तो 176. दीघनिकाय सामञ्जफलसुत्त 177. सूत्रकृताङ्ग 1 / 12 / 1 178. भगवती 30.1 179. स्थानाङ्ग, पहला स्थान, सूत्र 4 : द्वितीय स्थान, सूत्र 2-37 180, सूत्रकृताङ्ग 2 / 2 / 2 [5 ] Page #1173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्र में पच्चीस क्रियाओं का निर्देश है। भगवती में भी अनेक स्थलों में क्रियामों का वर्णन मिलता है। उन सभी के साथ प्रज्ञापना के प्रस्तुत क्रियापद की तुलना सहज रूप से की जा सकती है, पर विस्तारभय से हम यहाँ तुलना नहीं दे रहे हैं / कर्मसिद्धान्त : एक चिन्तन तेईस से लेकर सत्ताईसवें पद तक के कर्मप्रकृति, कर्मबन्ध, कर्मबन्ध-वेद, कर्मवेद-बन्ध, कर्मवेदवेदक, इन पांच पदों में कर्म सम्बन्धी विचारणा की गई है। कर्मसिद्धान्त भारतीय चिन्तकों के चिन्तन का नवनीत है। वस्तुतः आस्तिक दर्शनों का भव्य-भवन कर्मसिद्धान्त पर ही प्राधत है। भले ही कर्म के स्वरूप-निर्णय के सम्बन्ध में मतैक्य न हो, पर सभी चिन्तकों ने आध्यात्मिक उत्कर्ष के लिए कर्म-मुक्ति आवश्यक मानी है। यही कारण है कि सभी दर्शनिकों ने कर्म के सम्बन्ध में चितन किया है। परन्तु जनदर्शन का कर्म संबंधी चिन्तन बहुत ही सूक्ष्मता को लिए हुए है। इस विराट् विश्व में विविध प्रकार के प्राणियों में जो विषमताएँ दृग्गोचर होती हैं, उनका मूल कर्म है। जैनदर्शन ने कर्म को केवल संस्कारमात्र ही नहीं माना अपितु वह एक वस्तुभूत पदार्थ है जो राग-द्वेष की क्रिया से आकृष्ट होकर जीव के साथ बँध जाता है। वे पदार्थ जीवप्रदेश के क्षेत्र में स्थित, सूक्ष्म, कर्मप्रायोग्य अनन्तानन्त परमाणों से बने होते हैं। प्रात्मा अपने सभी प्रदेशों-सर्वांग से कर्मों को आकृष्ट करता है। वे कर्मस्कन्ध ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय प्रभूति विभिन्न प्रकृतियों या रूपों में परिणत होते हैं। प्रत्येक प्रात्मप्रदेश पर अनन्तानन्त कर्मपुद्गलस्कन्ध चिपके रहते हैं / राग-द्वेषमय प्रात्म-परिणति भावकर्म है और उससे आकृष्ट-संश्लिष्ट होने वाले पुद्गल द्रव्यकर्म हैं / कार्मणवर्गणा, जो पुद्गलद्रव्य का एक प्रकार है, सम्पूर्ण संसार में व्याप्त है। वह कार्मणवर्गणा ही जीव के भावों का निमित्त पाकर कर्म रूप में परिणत होती है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि आत्मा अमूर्त और कर्मद्रव्य मूर्त है तो अमूर्त के साथ मूर्त्त का बन्ध कैसे संभव है ? समाधान इस प्रकार है-जैनदर्शन ने जीव और कर्म को प्रवाह की दृष्टि से अनादि माना है। उसका यह मंतव्य नहीं है कि जीव पहले पूर्ण शुद्ध था, उसके पश्चात् कर्मों से आबद्ध हया। जो जीव संसार में अवस्थित है, जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है, उसके प्रतिपल-प्रतिक्षण राग-द्वेषरूप परिणाम होते हैं। उन परिणामों के फलस्वरूप निरन्तर-सतत कर्म बँधते रहते हैं। उन कर्मों के बन्ध से उसे विविध गतियों में जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेने पर शरीर होता है, शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं और इन्द्रियों से वह प्रात्मा विषय ग्रहण करता है। विषयों को ग्रहण करने से राग-द्वेष के भाव उबुद्ध होते हैं / इस प्रकार भावों से कर्म और कर्मों से भाव समुत्पन्न होते रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि जो जीव मूर्त कर्मों से बंधा हुआ है अर्थात् स्वरूपतः अमूर्त होने पर भी कर्मबद्ध होने से मूर्त बना हुआ है, उसी के नूतन कर्म बँधते हैं / इस तरह मूर्त का मूर्त के साथ संयोग होता है और मूर्त का मूर्त के साथ बन्ध भी होता है / प्रात्मा में अवस्थित पुराने कर्मों के कारण ही नूतन कर्म बँधते हैं। प्रात्मा के साथ कर्मबन्ध की प्रक्रिया चार प्रकार की है--प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, और प्रदेशबन्ध / जब आत्मा कर्मपुद्गलों को ग्रहण करता है, उस समय वे पुद्गल एकरूपी होते हैं। परन्तु बन्धकाल में वे विभिन्न प्रकृतियों-स्वभाव वाले हो जाते हैं। यह प्रकृतिबन्ध कहलाता है। बद्ध कर्मों में समय की मर्यादा 181. अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः। तत्त्वार्थसूत्र 616 192. भगवती शतक 1, उद्देशक 2; शतक 8, उद्देशक 4; शतक 3, उद्देशक 3 [ 56 ] Page #1174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का होना स्थितिबन्ध है। आत्मपरिणामों की तीव्रता और मंदता के कारण कर्मफल में तीव्रता या मंदता होना अनुभागबन्ध है और कर्मपुत्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होना प्रदेशबन्ध है। योग के कारण प्रकृति और प्रदेशबन्ध होता है और कषाय के कारण स्थिति और अनुभागबन्ध होता है। प्रस्तुत पदों में विभिन्न प्रकृतियों के आधार पर कर्म के मूल पाठ भेद कहे गए हैं। कर्म की आठों मूल प्रकृतियां नैरयिक प्रादि सभी जीवों में होती है / ज्ञानावरण आदि कर्मों के बन्ध का मूल कारण राग और द्वेष है। राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। कर्मों के बेदन-- अनुभव के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है-वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र कर्म तो चौबीसों दण्डकों के जीव बेदते ही हैं परन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों को कोई जीव वेदते भी हैं और नहीं भी वेदते। यहाँ पर बेदना के लिए 'अनुभाव' शब्द का प्रयोग किया गया है। माहार : एक चिन्तन प्रहाईसवें पद का नाम आहारपद है। इसमें जीवों को प्राहार संबंधी विचारणा दो उद्देशकों द्वारा की गई है। प्रथम उद्देशक में ग्यारह द्वारों से और दूसरे उद्देशक में तेरह द्वारों से आहार के सम्बन्ध में विचार किया गया है। चौबीस दण्डकों में जीवों का प्राहार सचित्त होता है, अचित्त होता है या मिश्र होता है ? इस तर देते हए कहा है कि क्रियशरीरधारी जीवों का आहार अचित्त ही होता है परन्तु औदारिकशरीरधारी जीव तीनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं। नारकादि चौबीस दण्डकों में सात द्वारों से अर्थात् नारक आदि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ? कितने समय के पश्चात वे माहारार्थी होते हैं ? आहार में वे क्या लेते हैं ? सभी दिशाओं में से आहार ग्रहण कर क्या सम्पूर्ण आहार को परिणत करते हैं ? जो आहार के पुद्गल वे लेते हैं, वे सर्वभाव से लेते हैं या अमुक भाग का ही आहार लेते हैं ? क्या ग्रहण किए हुए सभी पुद्गलों का पाहार करते हैं ? आहार में लिए हुए पुद्गलों का क्या होता है ? इन सात द्वारों से आहार सम्बन्धी विचारणा की गई है। जीव जो माहारार्थी आहार लेते हैं वह आभोगनिर्वतित-स्वयं की इच्छा होने पर आहार लेना और अनाभोगनिर्वतित-विना इच्छा के आहार लेना, इस तरह दो प्रकार का है। इच्छा होने पर आहार लेने में जीवों की भिन्न-भिन्न कालस्थिति है परन्तु विना इच्छा लिया जाने वाला आहार निरंतर लिया जाता है / वर्ण-रस आदि से सम्पन्न अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वाला और असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र में अवगाढ और प्रात्मप्रदेशों से स्पष्ट ऐसे पुदगल ही प्राहार के लिए उपयोगी होते हैं। प्रस्तुत पद के दूसरे उद्देशक में प्राहार, भव्य, संजी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, और पर्याप्ति इन तेरह द्वारों के माध्यम से जीवों के आहारक और अनाहारक विकल्पों की चर्चा की गई है। प्रथम उद्देशक में जो आहार के भेदों की चर्चा है, उसकी यहाँ पर कोई चर्चा नहीं है। आहारक और अनाहारक इन दो पदों के आधार से छह भंगों की रचना की है और किन-किन जीवों में कितने भंग (विकल्प) प्राप्त होते हैं, इस सम्बन्ध में चिंतन किया गया है। प्राचार्य मलयगिरि ने तीसरे संज्ञी द्वार में यह प्रश्न उत्पन्न किया है कि संज्ञी का अर्थ समनस्क है। जब जीव विग्रहगति करता है उस समय जीव अनाहारक होता है। विग्रहगति में मन नहीं होता। फिर उन्हें संजी कैसे कहा ? प्राचार्य ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है-जब जीव विग्रहगति करता है तब वह संशी जीव सम्बन्धी आयुकर्म का बेदन करता है, इस कारण उसे संज्ञी कहा है, भले ही उस समय उसके [57 ] Page #1175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन न हो। दूसरा प्रश्न यह है--नारक, भवनपति और वाणव्यन्तर को असंज्ञी क्यों कहा? इसका उत्तर यह है कि इन तीनों में असंज्ञो जीव उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से उन्हें असंज्ञी कहा है / उपयोग और पश्यत्ता उनतीसवे, तीसवें और तेतीसवें, इन तीन पदों में क्रमश: उपयोग, पश्यत्ता और अवधि की चर्चा है। प्रज्ञापनासूत्र में जीवों के बोध-व्यापार अथवा ज्ञान-व्यापार के सम्बन्ध में इन पदों में चर्चा-विचारणा की गई है, अतएब हमने यहाँ पर तीनों को एक साथ लिया है। जैन दृष्टि से आत्मा विज्ञाता है,१८३ उसमें न रूप है, न रस है, न गन्ध है। वह अरूपी है, लोकप्रमाण असंख्यप्रदेशी है, नित्य है, उपयोग उसका विशिष्ट गुण है।१८४संख्या की दृष्टि से वह अनन्त है। उपयोगयह प्रात्मा का लक्षण भी है और गुण भी, 85 उपयोग में अवधि का समावेश होने पर भी इसके लिए अलग पद देने का कारण यह है कि उस काल में अवधि का विशेष विचार हुआ था। प्रस्तुत पद में उपयोग के और पश्यत्ता के दो दो भेद किये हैं---साकारोपयोग (ज्ञान) और अनाकारोपयोग (दर्शन), साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता / प्राचार्य अभयदेव ने पश्यत्ता को उपयोग-विशेष ही कहा है। अधिक स्पष्टीकरण करते हुए यह भी बताया है कि जिस बोध में केवल कालिक अवबोध होता हो वह पश्यत्ता है परन्तु जिस बोध में वर्तमानकालिक बोध होता है वह उपयोग है। यही कारण है कि मतिज्ञान और मति-अज्ञान को साकारपश्यत्ता के भेदों में नहीं लिया है। क्योंकि मतिज्ञान और मति-अज्ञान का विषय वर्तमान काल में जो पदार्थ है वह बनता है। अनाकारपश्यत्ता में अचक्षुदर्शन क्यों नहीं लिया गया है ? इस प्रश्न का समाधान प्राचार्य ने इस प्रकार किया है कि पश्यत्ता प्रकृष्ट ईक्षण है और प्रेक्षण तो केवल चक्षुदर्शन में ही संभव है, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले दर्शन में नहीं। अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु का उपयोग स्वल्पकालीन होता है और जहाँ पर स्वल्पकालीन उपयोग होता है वहां बोधक्रिया में अत्यन्त शीघ्रता होती है / यही इस प्रकृष्टता का कारण है।'८६ प्राचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि पश्यत्ता शब्द रूढि के कारण उपयोग शब्द की तरह साकार और अनाकार बोध का प्रतिपादन करने वाला है, तथापि यह समझना आवश्यक है कि जहाँ पर लम्बे समय तक उपयोग होता है वहीं पर तीनों काल का बोध सम्भव है। मतिज्ञान में दीर्घकाल का उपयोग नहीं है। इसलिए उसमें कालिक बोध नहीं होता, जिससे उसे पश्यत्ता में स्थान नहीं दिया गया है। 187 यही है उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर / उपयोग और पश्यत्ता इन दोनों की प्ररूपणा जीवों के चौबीस दण्डकों में निर्दिष्ट की गई है / वस्तुतः इनमें विशेष कोई अन्तर नहीं है। पश्यत्तापद में केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन का उपयोग युगपत् है या क्रमश: इस सम्बन्ध में भी चर्चा में करते हुए तर्क दिया है कि ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार / इसलिए एक ही समय में दोनों उपयोग कैसे हो सकते हैं ? साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प / जो 183. आचारांग 5 / 5 सूत्र 165 184. आचारांग 516 सूत्र 170-171 185. गुणनो उवयोगगुणे। -भगवती 2 / 10 / 118 186, भगवती सूत्र, अभयदेववृत्ति पृष्ठ 714 187. प्रज्ञापना, मलयगिरि वृत्ति पृष्ठ 730 Page #1176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प है और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करतो है वह निर्विकल्प है।'८८ ज्ञान दर्शन : एक चिन्तन ज्ञान और दर्शन की मान्यता जन-साहित्य में अत्यधिक प्राचीन है। ज्ञान को प्रावत करने वाले कर्म का नाम ज्ञानाबरण है और दर्शन को आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण है। इन कर्मों के क्षय अथवा क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं। प्रागम-साहित्य में यत्र-तत्र ज्ञान के लिए 'जाणइ' और दर्शन के लिए 'पासइ' शब्द व्यवहृत हुआ है। दिगम्बर आचार्यों का यह अभिमत रहा है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है / आचार्य वीरसेन षटखण्डागम की धवलाटीका में लिखते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान है और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है / 18 दर्शन और ज्ञान में यही अन्तर है कि दर्शन सामान्यविशेषात्मक आत्मा का उपयोग है-स्वरूप-दर्शन है, जबकि ज्ञान प्रात्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है। जिनका यह मन्तव्य है कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है, वे प्रस्तुत मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान के विषय से अनभिज्ञ हैं / सामान्य और विशेष ये दोनों पदार्थ के धर्म हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। केवल सामान्य और केवल विशेष का ग्रहण करने वाला ज्ञान अप्रमाण है / इसी तरह विशेष व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन मिथ्या है।९० प्रस्तुत मत का प्रतिपादन करते हुए द्रव्यसंग्रह की वत्ति में ब्रह्मदेव ने लिखा है-ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से चिन्तन करना चाहिये-तर्क दृष्टि से और सिद्धान्तष्टि से / दर्शन को सामान्यग्राही मानना तर्क दृष्टि से उचित है किन्तु सिद्धान्तदृष्टि से प्रात्मा का न है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान 16 व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में भिन्नता है पर नैश्चयिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में किसी भी प्रकार की भिन्नता नहीं है।०२ सामान्य और विशेष के आधार से ज्ञान और दर्शन का जो भेद किया गया है उसका निराकरण अन्य प्रकार से भी किया गया है। यह अन्य दार्शनिकों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग किया गया है किन्तु जो जैन तत्त्वज्ञान के ज्ञाता हैं उनके लिए प्रागमिक व्याख्यान ही ग्राह्य है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार प्रात्मा और इतर का भेद ही वस्तुतः सारपूर्ण है।०३ उल्लिखित विचारधारा को मानने वाले प्राचार्यों की संख्या अधिक नहीं है, अधिकांशत: दार्शनिक प्राचार्यों ने साकार और अनाकार के भेद को स्वीकार किया है। दर्शन को सामान्यग्राही मानने का तात्पर्य इतना ही है कि उस उपयोग में सामान्य धर्म प्रतिविम्बित होता है और ज्ञानोपयोग में विशेष धर्म झलकता है। वस्तु में दोनों धर्म हैं पर उपयोग किसी एक धर्म को मुख्य रूप से ग्रहण कर पाता है। उपयोग में सामान्य और विशेष का भेद होता है किन्तु वस्तु में नहीं। 188. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य 119 189. षट्खण्डागम, धवला टीका 11114 190. षट्खण्डागम, धवला वृत्ति 1:114 191. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा 44 192. द्रव्यसंग्रहवत्ति गाथा 44 193. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा 44 [59] Page #1177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल की दृष्टि से दर्शन और ज्ञान का क्या सम्बन्ध है? इस प्रश्न पर भी चिन्तन करना प्रावश्यक है। छद्मस्थों के लिए सभी प्राचार्यों का एक मत है कि छद्मस्थों को दर्शन और ज्ञान क्रमशः होता है, युगपद् नहीं / केवली में दर्शन और ज्ञान का उपयोग किस प्रकार होता है, इस सम्बन्ध में प्राचार्यों के तीन मत हैं। प्रथम मत के अनुसार ज्ञान और दर्शन क्रमशः होते हैं। द्वितीय मान्यता के अनुसार दर्शन और ज्ञान युगपद होते हैं। तृतीय मान्यतानुसार ज्ञान और दर्शन में प्रभेद है अर्थात दोनों एक हैं। आवश्यकनियुक्ति,६४ विशेषावश्यकभाष्य'६५ आदि में भी कहा गया है कि केवली के भी दो उपयोग एक साथ नहीं हो सकते / श्वेताम्बर परम्परा के आगम इस सम्बन्ध में एक मत हैं, वे केवली के दर्शन और ज्ञान को युगपत् नहीं मानते।" दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवलदर्शन और केवलज्ञान युगपत् होते हैं। प्राचार्य उमास्वाति का भी यही अभिमत रहा है। मति-श्रुत आदि का उपयोग क्रम से होता है, युगपत नहीं। केवली में दर्शन और ज्ञानात्मक उपयोग प्रत्येक क्षण में युगपत् होता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट लिखा है कि जैसे सूर्य में प्रकाश और प्रातप एक साथ रहता है उसी प्रकार केवली में दर्शन और ज्ञान एक साथ रहते हैं। तीसरी परम्परा चतुर्थ शताब्दी के महान दार्शनिक प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर की है। उन्होंने सन्मतितर्कप्रकरण ग्रन्थ में लिखा है-मन:पर्याय तक तो ज्ञान और दर्शन का भेद सिद्ध कर सकते हैं किन्तु केवलज्ञानकेबलदर्शन में भेद सिद्ध करना संभव नहीं। 100 दर्शनावरण और ज्ञानावरण का क्षय युगपत होता है। उस क्षय से होने वाले उपयोग में 'यह प्रथम होता है, यह बाद में होता है' इस प्रकार का भेद किस प्रकार से किया जा सकता है?२०' कैवल्य की प्राप्ति जिस समय होती है उस समय सर्वप्रथम मोहनीयकर्म का क्षय होता है। उसके पश्चात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण तथा अन्तराय का युगपत् क्षय होता है। जब दर्शनावरण और ज्ञानावरण दोनों के क्षय में काल का भेद नहीं है, तब यह किस आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथम केवलदर्शन होता है, बाद में केवलज्ञान / इस समस्या के समाधान के लिए कोई यह मानें कि दोनों का युगपत् सदभाव है तो यह भी उचित नहीं, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते। इस समस्या का सबसे सरल और तर्कसंगत समाधान यह है कि केवली अवस्था में दर्शन और ज्ञान में भेद नहीं होता। दर्शन और ज्ञान को पृथक्-पृथक् मानने से एक समस्या और उत्पन्न होती है कि यदि केवली एक ही क्षण में सभी कुछ जान लेता है तो उसे सदा के लिए सब कुछ जानते रहना चाहिए। यदि उसका ज्ञान सदा पूर्ण नहीं है तो वह सर्वज्ञ कैसा? 202 194. पावश्यक नियुक्ति गाथा 977-979 195. विशेषावश्यकभाष्य गाथा 3088-3135 196. भगवती सूत्र 18/8 तथा भगवती, शतक 14, उद्देशक 10 197. गोम्मटसार, जीवकाण्ड 730 और द्रव्यसंग्रह 44 198, तत्त्वार्थसूत्र भाष्य 1/31 199. नियमसार, गाथा 159 200. सन्मति. प्रकरण 2/3 201. सन्मति. प्रकरण 2/9 202. सन्मति. प्रकरण 2/10 [60 ] Page #1178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि उसका ज्ञान सदा पूर्ण है तो क्रम और अक्रम का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। वह सदा एकरूप है। वहाँ पर दर्शन और ज्ञान में किसी भी प्रकार का कोई अन्तर नहीं है। ज्ञान सविकल्प है और दर्शन निर्विकल्प है, इस प्रकार का भेद आवरण रूप कर्म के क्षय के पश्चात् नहीं रहता / 203 जहाँ पर उपयोग की अपूर्णता है वहीं पर सविकल्पक और निर्विकल्पक का भेद होता है। पूर्ण उपयोग होने पर किसी प्रकार का भेद नहीं होता। एक समस्या और है, और वह यह है कि ज्ञान हमेशा दर्शनपूर्वक होता है किन्तु दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता।०४ केवली को एक बार जब सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब फिर दर्शन नहीं हो सकता, क्योंकि दर्शन ज्ञानपूर्वक नहीं होता। एतदर्थ ज्ञान और दर्शन का क्रमभाव नहीं घट सकता। दिगम्बरपरम्परा में केवल यूगपत पक्ष ही मान्य रहा है। श्वेताम्बरपरम्परा में इसकी क्रम, युगपत और अभेद ये तीन धाराएँ बनीं। इन तीनों धाराओं का विक्रम की सत्रहवीं शताब्दी के महान ताकिक यशोविजयजी ने नई दृष्टि से समन्वय किया है। 205 ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से ऋमिक पक्ष संगत है। यह दृष्टि वर्तमान समय को ग्रहण करती है। प्रथम समय का ज्ञान कारण है और द्वितीय समय का दर्शन उसका कार्य है। ज्ञान और दर्शन में कारण और कार्य का क्रम है। व्यवहारनय भेदस्पर्शी है। उसकी दृष्टि से युगपत् पक्ष भी संगत हैं। संग्रहनय अभेदस्पर्शी है, उसकी दृष्टि से अभेद पक्ष भी संगत है। तर्क दृष्टि से देखने पर इन तीन धाराओं में अभेद पक्ष अधिक युक्तिसंगत लगता है। दूसरा दृष्टिकोण प्रागमिक है। उसका प्रतिपादन स्वभावस्पर्शी है। प्रथम समय में वस्तुगत भिन्नतामों को जानना और दूसरे समय में भिन्नतागत अभिन्नता को जानना स्वभावसिद्ध है। ज्ञान का स्वभाव ही इस प्रकार का है कि भेद में अभेद और अभेद में भेद समाया हुआ है, तथापि भेदप्रधान ज्ञान और अभेदप्रधान दर्शन का समय एक नहीं होता / 20 प्रज्ञापना में उपयोग और पश्यत्ता के सम्बन्ध में अन्य चर्चा नहीं है। अवधिपद में अवधिज्ञान के सम्बन्ध में भेद, विषय, संस्थान, प्राभ्यन्तर और बाह्य अवधि, देशावधि, अवधि की क्षय-वृद्धि, प्रतिपाति और अप्रतिपातिइन सात विषयों की विस्तृत चर्चा है। अवधिज्ञान के दो भेद हैं--एक तो जन्म से प्राप्त होता है, दूसरा कर्म के क्षयोपशम से। देवों नारकों में जन्म से ही अवधिज्ञान होता है किन्तु मनुष्यों और तियंच पंचेन्द्रियों का अवधिज्ञान क्षयोपशमिक है। यद्यपि दोनों प्रकार के ज्ञान क्षयोपशमजन्य ही हैं तथापि देव-नारकों को वह क्षयोपशम भव के निमित्त से होता है और मनुष्यों एवं तिर्यचों को तपोनुष्ठान आदि बाह्य निमित्तों से होता है। अवधिज्ञान किसमें कितना होता है इसकी भी विस्तृत चर्चा है। परमावधिज्ञान केवल मनुष्य में ही होता है। प्रज्ञापना के मूल पाठ में प्रवधिज्ञान का निरूपण तो है पर परिभाषा नहीं दी है। अवधिज्ञान का तात्पर्य यह है----इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही प्रात्मा से जो रूपी पदार्थ का सीमित ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है। 203. सन्मति. प्रकरण, 2/11 204. सन्मति. प्रकरण, 2/22 205. ज्ञानबिन्दु, पृष्ठ 154-164 206. (क) विशेष विवरण के लिए देखिए धर्मसंग्रहणी गाथा 1336-1359 (ख) तत्त्वार्थसूत्र, सिद्धसेन गणी टीका, अध्याय 1, सू 31, पृ. 77/1 (ग) नन्दीसूत्र, मलयगिरि वृत्ति पृ. 134-138 Page #1179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संज्ञा : एक चिन्तन इकतीसवें संजीपद में सिद्धों सहित सम्पूर्ण जीवों को संशी, असंज्ञी और नोसंजी-नोअसंज्ञी इन तीन भेदों में विभक्त करके विचार किया गया है। सिद्ध न तो संज्ञी हैं और न असंज्ञी, इसलिए उनको नोसंज्ञीनोप्रसंज्ञो कहा है। मनुष्य में भी जो केवली हैं ये भी सिद्ध समान हैं और इसी संज्ञा वाले हैं। क्योंकि मन होने पर भी वे उसके व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते / जीव संझी और असंज्ञी दोनों प्रकार के हैं। एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव असंज्ञी ही होते हैं। नारक, भवनपति, वाणव्यंतर और पंचेन्द्रिय तिथंच संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के हैं / ज्योतिष्क और वैमानिक सिर्फ संज्ञी हैं। यहाँ पर संज्ञा का क्या अर्थ लेना चाहिए? यह स्पष्ट नहीं है, क्योंकि मनुष्यों, नारकों, भवनपतियों और वाणव्यंतर देवों को असंज्ञी कहा है। इसलिए जिसके मन होता है वह संज्ञी है, यह अर्थ यहाँ पर घटित नहीं होता। अतएव प्राचार्य मलयगिरि ने संज्ञा शब्द के दो अर्थ किए हैं, तथापि पूरा समाधान नहीं हो पाता / नारक, भवनपति, बाणव्यंतर आदि को संज्ञी और असंज्ञो कहा है, वे जीव पूर्व भव में संजी और असंज्ञी थेइस धष्टि से उनको संज्ञी और असंज्ञी कहा है। 207 आगमप्रभाबक पुण्यविजय जी महाराज 208 का अभिमत है कि यहाँ पर संज्ञी-प्रसंज्ञो शब्द जो पाया है वह किस अर्थ का सही द्योतक है ? अन्वेषणीय है। संज्ञा शब्द का प्रयोग पागमसाहित्य में विभिन्न अर्थों को लेकर हमा है। प्राचारांग में संज्ञा शब्द पूर्वभव के जातिस्मरण ज्ञान के अर्थ में व्यवहुत हुआ है। दशाश्रुतस्कन्ध१० में दत्तचित्त समाधि का उल्लेख है, वहाँ भी जातिस्मृति के अर्थ में ही 'सण्णिनाणं' शब्द का उपयोग हुआ है। स्थानांग" में प्रथम स्थान में एक संज्ञा का उल्लेख है तो चतुर्थ स्थान में आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा, इन चार संज्ञानों का उल्लेख है 12 तो दसवें स्थान'१३ में दस संज्ञाओं का वर्णन है, उपर्युक्त चार संज्ञानों के अतिरिक्त क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक और प्रोध इन संज्ञाओं का उल्लेख है। इस प्रकार संज्ञा के दो अर्थ हैं--प्रत्यभिज्ञान और अनुभूति / इन्ही में मतिज्ञान का एक नाम संज्ञा निदिष्ट है।४ तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध, इन्हें एकार्थक माना है / 2.5 मलयगिरि२१६ और अभयदेव' 17 दोनों ने संज्ञा का अर्थ व्यंजनावग्रह के पश्चात होने वाली एक 207. प्रज्ञापनासूत्र भाग 2, पुण्यविजय जी म. की प्रस्तावना पृष्ठ 142 208. प्रज्ञापना, प्रस्तावना, पृष्ठ 142 209. आचारांग 1-1 210. दशाश्रुतस्कन्ध, 5 वी दशा 211. स्थानांग, प्रथम स्थान, सूत्र 30 212. स्थानांग, चतुर्थ स्थान, सूत्र 356 213. स्थानांग, दसवां स्थान, सूत्र 105 214. ईहापोहवीमंसा, मग्गणा य गवेषणा। सण्णा सई मई पग्णा, सव्वं आभिणिवोहियं / / -नंदीसूत्र 54, गा..६ 215. मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम् / –तत्त्वार्थसूत्र 1/13 216. संज्ञानं संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थ / -नंदीवृत्ति, पत्र 187 217. संज्ञानं संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेषः / -स्थानांगवृत्ति, पत्र 19 [62] Page #1180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकार की मति किया है। प्राचार्य अभयदेव ने दूसरा अर्थ संज्ञा का अनुभूति भी किया है।1८संज्ञा के जो दस प्रकार स्थानांग में बताए हैं उनमें अनुभूति ही घटित होता है / 21 प्राचार्य उमास्वाति ने संज्ञी-असंज्ञी का समाधान करते हुए लिखा है कि संज्ञी वह है जो मन वाला है२३० और भाष्य में उसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि संज्ञी शब्द से वे ही जीव अभिप्रेत हैं जिनमें संप्रधारण संज्ञा होती है 22 / क्योंकि संप्रधारण संज्ञा वाले को ही मन होता है। प्राहार आदि संज्ञा के कारण जो संज्ञी कहलाते हैं, वे जीव यहाँ अभिप्रेत नहीं हैं। बत्तीसवें पद का नाम संयत है। इसमें संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत इस प्रकार संयम के चार भेदों को लेकर समस्त जीवों का विचार किया गया है / नारक, एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये असंयत होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयत और संयतासंयत होते हैं। मनुष्य में प्रथम के तीन प्रकार होते हैं और सिद्धों में संयत का चौथा प्रकार नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत है / संयम के आधार से जीवों के विचार करने की पद्धति महत्त्वपूर्ण है। प्रविचारणा : एक चिन्तन चौंतीसवें पद का नाम प्रविचारणा है / प्रस्तूत पद में 'पवियारण' (प्रविचारण) शब्द का जो प्रयोग हया है उसका मूल 'प्रविचार' शब्द में है। 232 पद के प्रारम्भ में जहाँ द्वारों का निरूपण है वहाँ 'परियारणा' और मूल में परियारणया' ऐसा पाठ है। क्रीडा, रति, इन्द्रियों के कामभोग और मैथुन के लिए संस्कृत में प्रविचार अथवा प्रविचारणा और प्राकृत में परियारणा अथवा पवियारणा शब्द का प्रयोग हुआ है। परिचारणा कब, किसको और किस प्रकार की सम्भव है, इस विषय की चर्चा प्रस्तुत पद में 24 दण्डकों के आधार से की गई है। नारकों के सम्बन्ध में कहा है कि वे उपपात क्षेत्र में आकर तुरन्त ही आहार के पुद्गल ग्रहण करना प्रारम्भ कर देते हैं। इससे उनके शरीर की निष्पत्ति होती है और पुद्गल अंगोपांग, इन्द्रियादि रूप से परिणत होने के पश्चात् वे परिचारण प्रारम्भ करते हैं अर्थात् शब्दादि सभी विषयों का उपभोग करना शुरु करते हैं। परिचारण के बाद विकुवंणा-अनेक प्रकार के रूप धारण करने की प्रक्रिया करते हैं। देवों में इस क्रम में यह अन्तर है कि उनकी विकूर्वणा करने के बाद परिचारणा होती है। एकेन्द्रिय जीवों में परिचारणा नारक की तरह है किन्तु उसमें विकुर्वणा नहीं है, सिर्फ वायुकाय में विकुर्वणा है। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में एकेन्द्रिय की तरह, पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्य में नारक की तरह परिचारणा है। प्रस्तुत पद में जीवों के प्राहारग्रहण के दो भेद-आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित- बताकर भी चर्चा की गई। एकेन्द्रिय के अतिरिक्त सभी जीव आभोगनिवर्तित और अनाभोगनिर्वतित आहार लेते हैं परन्तु एकेन्द्रिय में सिर्फ अनाभोगनिर्बतित पाहार ही होता है। जीव अपनी इच्छा से उपयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं। वह प्राभोगनिर्वतित है और इच्छा न होते हुए भी जो लोमाहार प्रादि के द्वारा सतत आहार का ग्रहण होता रहता है वह अनाभोगनिर्वतित है। 218. आहारभयाद्युपाधिका वा चेतना संज्ञा। --स्थानांग वृत्ति, पत्र 47 219. स्थानांग 10/105 220. संज्ञिनः समनस्काः / -तत्त्वार्थसूत्र 2/25 221. ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्रधारणसंज्ञा / -तत्त्वार्थभाष्य 2/25 222. (क) कायप्रविचारो नाम मैथुनविषयोपसेवनम् -तत्त्वार्थभाष्य 4-8 (ख) प्रवीचारो मैथुनोपसेवनम् / -सर्वार्थ सिद्धि 4-7 163 ] Page #1181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना की टीका में लिखा है कि एकेन्द्रिय में भी अपट मन है क्योंकि मनोलब्धि सभी जीवों में है। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक अपटु मन है तो फिर एकेन्द्रिय में ही प्रनाभोगनिर्वर्तित पाहार कहा है और शेष में क्यों नहीं ? इस प्रश्न का सम्यक् समाधान नहीं है। प्रागमप्रभाक्क पुण्यविजय जी महाराज का ऐसा मन्तव्य है कि संभवतः रसेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होता है इसलिए उसे खाने की इच्छा होती है / अतएव उसमें प्राभोगनिर्वतित पाहार माना गया हो और जिसमें रसेन्द्रिय का अभाब है उसमें अनाभोगनिर्वतित माना हो। इस प्रकरण में आहार ग्रहण करने वाला व्यक्ति आहार के पुद्गलों को जानता है, देखता है और जानता भी नहीं, देखता भी नहीं, प्रादि विकल्प कर उस पर चिन्तन किया है। अध्यवसाय के सम्बन्ध में भी प्रासंगिक चर्चा की गई है। मुख्य रूप से अध्यवसाय दो प्रकार के होते हैं-एक प्रशस्त दूसरा अप्रशस्त / तरतमता की दृष्टि से उन अध्यवसायों के असंख्यात भेद होते हैं / चौबीसों दण्डकों के जीवों के अध्यवसायों की चर्चा की गई है। देवों की परिचारणा के सम्बन्ध में चार विकल्प बताए गए हैं१. देव सदेवी सपरिचार 2. देव सदेवी अपरिचार 3. देव अदेवी सपरिचार 4, देव अदेवी अपरिचार भवनपति, बाणव्यंतर, ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान, इनमें देवियां हैं। इसलिए प्रथम विकल्प है। यहां पर देव और देवियों में कायिक परिचारणा है। सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक केवल देव ही होते हैं, देवियां नहीं होती / तथापि उनमें देवियों के अभाव में भी परिचारणा है। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानों में देव हैं, देवियां नहीं हैं और परिचारणा भी नहीं है। द्वितीय विकल्प देव हैं, देवियां हैं और अपरिचारक हैं यह विकल्प कहीं संभव नही है। देवी नहीं है तथापि परिचारणा किस प्रकार संभव है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा है (1) सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प में स्पर्शपरिचारणा है (2) ब्रह्मलोक-लान्तक कल्प में रूपपरिचारणा है (3) महाशुक्र-सहस्रार में शब्दपरिचारणा है। (4) प्रानत-प्राणत-पारण-अच्युत कल्प में मनःपरिचारणा है। कायपरिचारणा में मनुष्य की तरह देव देवी के साथ मैथुन सेवन करता है। देवों में शुक्र के पुद्गल यहाँ बताये हैं और वे शुक्रपुद्गल देवियों में जाकर पांच इन्द्रियों के रूप में परिणत होते हैं। उस शुक्र से गर्भाधान नहीं होता' 23 क्योंकि देवों में वैक्रिय शरीर है / यह शुक्र वैक्रियवर्गणाओं से निर्मित होता है। जहां पर स्पर्श प्रादि परिचारणा बताई गई है उन देवलोकों में देवियां नहीं होतीं, पर जब उन देवों की इच्छा होती है तब सहस्रार देबलोक तक देवियां विकुर्वणा करके वहाँ उपस्थित होती हैं और देव अनुक्रम से उनके स्पर्श, रूप, शब्द से संतुष्ट होते हैं / 224 टीकाकार ने यहाँ स्पष्टीकरण किया है--उन देवों में भी शुक्रविसर्जन होता है अर्थात् देव और देवियों में सम्पर्क नहीं होता तथापि शुक्र-संक्रमण होता है और उसके परिणमन से उनके रूप-लावण्य में वृद्धि होती है। 223. केवलं ते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -प्रज्ञापनावृत्ति पत्र 550 224. पुद्गलसंक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः। --प्रज्ञापनावृत्ति पत्र 551 [ 64 ] Page #1182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानत-प्राणत-पारण-अच्युत कल्प में जब देवों की इच्छा मन:परिचारणा की होती है तब देवी अपने स्थान पर रहकर ही दिव्य रूप और शृंगार सजाती है और वे देव स्वस्थान पर रहकर ही संतुष्ट होते हैं और देवी भी अपने स्थान पर रहकर ही रूप-लावण्यवती बन जाती है। यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि कायपरिचारणा की अपेक्षा स्पर्शपरिचारणा में अधिक सुख है, उससे रूपपरिचारणा में अधिक सुख है, उससे शब्दपरिचारणा में अधिक सुख है, उससे मनःपरिचारणा में अधिक सुख है और अपरिचारणा वाले देवों में उससे भी अधिक सुख है / इससे स्पष्ट है कि परिधारणा में सुख का प्रभाव है पर प्राणी चारित्रमोहनीय की प्रबलता के कारण उसमें सुख की अनुभूति करता है। 25 वेदना : एक चिन्तन पैतीसवाँ पद वेदनापद है। चौबीस दण्डकों में जीवों को अनेक प्रकार की वेदना का जो अनुभव होता है, उसकी विचारणा इस पद में की गई है। वेदना के अनेक प्रकार बताये गये हैं, जैसे कि (1) शीत, उष्ण, शीतोष्ण (2) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव (3) शारीरिक, मानसिक और उभय (4) साता, असाता, सातासाता (5) दुःखा, सुखा, अदु:खा-असुखा (6) आभ्युपगमिकी, औपक्रमिकी (7) निदा अनिदा प्रादि / संशो की वेदना निदा है और असंज्ञी की बेदना को अनिदा कहा है। ___ शीतोष्ण वेदना के सम्बन्ध में प्राचार्य मलयगिरि ने यह प्रश्न उपस्थित किया है कि उपयोग क्रमिक है तो फिर शीत और उष्ण इन दोनों का युगपत् अनुभव किस प्रकार हो सकता है ? प्रश्न का समाधान करते हुए लिखा है-उपयोग क्रमिक है परन्तु शीघ्र संचारण के कारण अनुभव करते समय क्रम का अनुभव नहीं होता, इसी कारण अागम में शीतोष्ण वेदना का युगपत् अनुभव कहा है। यही बात शारीरिक-मानसिक सातासाता के सम्बन्ध में है। 227 ... प्राचार्य मलयगिरि ने अदुःखा-प्रसुखा वेदना का अर्थ सुख-दुःखात्मिका किया है अर्थात् जिसे सुख संज्ञा न दी जा सके, क्योंकि उसमें दुःख का भी अनुभव है। दुःख संज्ञा नहीं दी जा सकती क्योंकि उसमें सुख का भी अनुभव है। साता-प्रसाता तथा सुख और दुःख में क्या भेद है ? इस प्रश्न का उत्तर भी प्राचार्य मलयगिरि ने यह दिया है कि वेदनीयकर्म के पुद्गलों का क्रम-प्राप्त उदय होने जो वेदना होती है वह साता-असाता है पर जब कोई दूसरा व्यक्ति कोई उदीरणा करता है उस समय जो साता-असाता का अनुभव होता है वह सुखदुःख कहलाता है। वेदना के प्राभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी ये दो प्रकार हैं / अभ्युपगम का अर्थ अंगीकार है। हम कितनी ही बातों को स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं / तपस्या किसी कर्म के उदय से नहीं होती, वह अभ्युपगम के कारण की जाती है / तप में जो वेदना होती है वह आभ्युपगमिकी वेदना है। उपक्रम का अर्थ कर्म की उदीरणा 225. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 252 226. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 555 227. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 556 228. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 556 229. प्रज्ञापनाटीका, पत्र 556 [ 65 ] Page #1183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का हेतु है / शरीर में जब रोग होता है तो उससे कर्म की उदीरणा होती है इसलिए वह कर्म की उदीरणा का उपक्रम है / उपक्रम के निमित्त से होने वाली वेदना प्रौपक्रमिकी वेदना है / 230 समुद्धात : एक चिन्तन छत्तीसवें पद का नाम समुदघालपद है। शरीर से बाहर प्रात्मप्रदेशों के प्रक्षेप को समुद्घात कहते हैं।२३' दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि सम्भूत होकर प्रात्मप्रदेशों के शरीर से बाहर जाने का नाम समुद्धात है / 232 समुद्घात के सात प्रकार बताये हैं, जो इस प्रकार हैं - 9. वेदनासमुद्घात, असातावेदनीय कर्म के प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 2. कषायसमुद्घात, कषायमोहकर्म के आश्रित होने वाला समुद्धात / 3. मारणान्तिकसमुद्घात, आयुष्य के अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर उसके प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 4. वैक्रियसमुद्घात, क्रियनामकर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात / 5. तेजससमुद्घात, तैजसनामकर्म के प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 6. माहारकसमुद्घात, आहारकनामकर्म के प्राश्रित होने वाला समुद्घात / 7. केवलिसमुद्धात, बेदनीय, नाम गोत्र और प्रायुष्य कर्म के आश्रित होने वाला समुद्घात / __ इन सास समुद्घातों में से किस जीव में कितने समुद्घात पाए जा सकते हैं, इस पर विचार करते हुए लिखा है-नरक में प्रथम चार समुद्धात हैं। देवों में और तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों में प्रथम पाँच समुद्घात हैं। वायु के अतिरिक्त शेष एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय में प्रथम तीन समुद्घात हैं। वायुकाय में प्रथम चार समुद्घात हैं। मनुष्य में सातों हो समुद्घात हो सकते हैं। जीवों की दृष्टि से समुद्घात की अपेक्षा से अल्पबहूत्व पर चिंतन करते हुए बताया है कि जघन्य संख्या पाहारकसमुद्घात करने वाले की है और सबसे अधिक संख्या वेदनासमुद्घात करने वाले की है। उनसे अधिक जीव ऐसे हैं जो समुदधात नहीं करते / इसी तरह दण्डकों के सम्बन्ध में भी अल्पबहुत्व की दृष्टि से चिंतन किया है। कषायसमुद्घात के चार प्रकार किए गये हैं और दण्डकों के प्राधार पर विचार किया गया है। पूर्व के छहों समुद्घात छानस्थिक हैं। इन समुद्घातों में प्रवगाहना और स्पर्श कितने होते हैं तथा कितने काल तक ये रहते हैं ? समुद्घात के समय जीव को कितनी क्रियाएँ होती हैं ? इन सभी प्रश्नों पर विचार किया है। केवलिसमुद्घात के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा है। केवलिसमुदघात करने के पूर्व एक विशेष क्रिया होती है जो शुभ योग रूप होती है। उसकी स्थिति मन्तमुहूर्त प्रमाण है / उसका कार्य है उदयावलिका में कर्मदलिकों का निक्षेप करना। यह क्रिया प्रावर्जीकरण कहलाती है। मोक्ष की ओर प्रात्मा प्राजित यानी झकी हुई होने से इसे प्रावजितकरण भी कहते हैं। केवलज्ञानियों के द्वारा अवश्य किए जाने के कारण इसे प्रावश्यककरण भी कहते हैं। विशेषावश्यकभाष्य, पंचसंग्रह प्रादि में ये तीनों नाम प्राप्त होते हैं / 23 दिगम्बर परम्परा के साहित्य में केवल पावजितकरण नाम ही मिलता है / 234 230. अभ्युपगमेन -- अङ्गीकारेण निर्वृत्ता तत्र वा भवा प्राभ्युपग मिकी तया-- शिरोलोचतपश्चरणादिकया वेदनया-पीडया उपक्रमेण-कर्मोदीरणकारणेन निवत्ता तत्र वा भवा प्रौपक्रमिकी तयाज्वरातीसारादिजन्यया / -स्थानांग वत्ति पत्र 84 231. समुदधननं समुद्घात: शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपः। - स्थानांग अभयदेव वत्ति 380 232. हन्तर्गमिक्रियात्वात् सम्भूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्हननं समुद्घातः / - तत्त्वार्थवात्तिक 1, 20, 12 233. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3050-51 (ख) पंचसंग्रह, द्वार 1, गाथा 16 की टीका 234. लब्धिसार, गा. 617 . Page #1184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जब वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति और दलिक प्रायुकर्म की स्थिति और दलिकों से अधिक हों तब उन सभी को बराबर करने के लिये केवलिसमुद्घात होता है / अन्तर्मुहूर्त प्रमाण प्रायु अवशेष रहने पर यह समुद्घात होता है। केवलिस मुद्घात का कालप्रमाण पाठ समय का है। प्रथम समय में मात्मा के प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाला जाता है। उस समय उनका प्राकार दण्ड सहश होता है। प्रात्मप्रदेशों का यह दण्डरूप ऊँचाई में लोक के ऊपर से नीचे तक प्रर्थात चौदह रज्जू लम्बा होता है। उसकी मोटाई केवल स्वयं के शरीर बराबर होती हैं। दूसरे समय में उस दण्ड को पूर्व, पश्चिम या उत्तर, दक्षिण में विस्तीर्ण कर उसका प्राकार कपाट के सदश बनाया जाता है। तृतीय समय में कपाट के आकार के प्रात्मप्रदेशों को मंथाकार बनाया जाता है अर्थात् पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों तरफ फैलाने से उसका आकार मथनी का सा बन जाता है। चतुर्थसमय में विदिशाओं के खाली भागों को प्रात्मप्रदेशों से पूर्ण करके उन्हें सम्पूर्ण लोक में व्याप्त किया जाता है। पांचवें समय में प्रात्मा के लोकव्यापी प्रात्मप्रदेशों को संहरण के द्वारा फिर मथाकार बनाया जाता है / छठे समय में मथाकार से कपाटाकार बना लिया जाता है। सातवें समय में आत्मप्रदेश फिर दण्ड रूप में परिणत होते हैं और पाठवें समय में पुन: वे अपनी असली स्थिति में आ जाते हैं। वैदिक परम्परा 235 के ग्रन्थों में प्रात्मा की व्यापकता के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। उसकी तुलना हम केवलिसमुद्घात के चतुर्थ समय में जब प्रात्मा लोकव्यापी बन जाता है, उससे कर सकते हैं। व्याख्यासाहित्य इस प्रकार प्रज्ञापना के छत्तीस पदों में विपुल द्रव्यानुयोग सम्बन्धी सामग्री का अपूर्व संकलन है / इस प्रकार का संकलन अन्यत्र दुर्लभ है / प्रज्ञापना का विषय गम्भीरता को लिए हए है। प्रागमों के गम्भीर रहस्यों को उद्घाटित करने के लिए मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा व्याख्या साहित्य का निर्माण किया गया। प्रज्ञापना पर निरुक्ति और भाष्य नहीं लिखे गए / प्राचार्य हरिभद्र ने प्रज्ञापना की प्रदेश-व्याख्या में प्रज्ञापना की अवणि का उल्लेख किया है। 36 इससे यह स्पष्ट है प्राचार्य हरिभद्र के पूर्व इस पर कोई न कोई अवचुणि अवश्य रही होगी, क्योंकि व्याख्या में यत्र-तत्र 'एतदुक्त भवति', 'किमक्तं भवति' 'अयमत्र भावार्थ:,' 'इदमत्र हृदयम्,' 'एतेसि भावणा' शब्द प्रयुक्त हुए हैं / प्राचार्य मलयगिरि 3' ने भी अपनी वृत्ति में चूणि का उल्लेख किया है। यहाँ यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि प्रवचूणि या चूणि जो प्रज्ञापना पर रचित थी उसका रचयिता कौन था? मुनिश्री पुण्यविजय जी महाराज का अभिमत है कि चणि के रचयिता प्राचार्य हरिभद्र के गुरु ही होने चाहिए, क्योंकि व्याख्या में ये शब्द प्रयुक्त हए हैं -'एवं तावत पूज्यपादा पाचक्षते,' 'गुरवस्तु', 'इह तु पूज्या:', 'अत्र गुरवो व्याचक्षते' / पुण्यविजय जी महाराज का यह भी मन्तव्य है कि प्रज्ञापना पर प्राचार्य हरिभद्र के गुरु जिनभट्ट के अतिरिक्त अन्य प्राचार्यों की गयख्याएँ भी होनी चाहिये। 35 पर वे प्राज उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए इनका क्या रूप था? यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता / 235. (क) विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतो मुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतःपात् / श्वेताश्वतरोपनिषद् 3-3, 111-5 (ख) सर्वत: पाणिपादं तत्, सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् / ___ सर्वतः श्रुतिमल्लोके, सर्वमावृत्य तिष्ठति / / -भगवद् गीता, 13, 13 236. अलमतिप्रसङ्गन अवणिकामात्रमेतदिति / -प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, पृ. 28, 113 237. प्रज्ञापना मलयगिरि वृत्ति, पत्र 269-271 238. प्रज्ञापना प्रस्तावना, पृ. 152 [ 67 ] Page #1185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना पर वर्तमान में जो टीकाएं उपलब्ध हैं उनमें सर्वप्रथम प्राचार्य हरिभद्र की प्रदेशव्याख्या है / हरिभद्र जैन भागमों के प्राचीन टीकाकार हैं। उन्होंने प्रावश्यक, दशवकालिक, जीवाभिगम, नन्दी, अनुयोगद्वार, पिण्डनियुक्ति प्रति पर महत्त्वपूर्ण टीकाएं लिखी हैं / प्रज्ञापना की टीका में सर्वप्रथम जैनप्रवचन की महिमा गाई है। उसके पश्चात् मंगल का विश्लेषण किया है और साथ में यह भी सूचित किया है कि मंगल की विशेष व्याख्या मावश्यक टीका में की गई है। भव्य-प्रभव्य का विवेचन करते हुए प्राचार्य ने वादिमुख्य कृत अभव्यस्वभाव के सूचक श्लोक को भी उद्धत किया है।४० प्रज्ञापना पर दूसरी वृत्ति नवांगी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव की है। पर यह वृत्ति सम्पूर्ण प्रज्ञापना पर नहीं है केवल प्रज्ञापना के तीसरे पद-जीवों के अल्पबहत्व–पर है। प्राचार्य ने 133 गाथाओं के द्वारा इस पद पर प्रकाश डाला है। स्वयं प्राचार्य ने उसे 'संग्रह' की अभिधा प्रदान की है। यह व्याख्या धर्मरत्नसंग्रहणी और प्रज्ञापनोद्वार नाम से भी विश्रुत है। इस संग्रहणी पर कुलमण्डनगणी ने संवत् 1441 में एक अवणि का निर्माण किया है / प्रान्मानन्द जैन सभा भावनगर से प्रज्ञापना तृतीय पद संग्रहणी पर एक अवणि प्रकाशित हुई है। पर उस अवणि के रचयिता का नाम ज्ञात नहीं है / यह अवणि कुलमण्डनगणी विरचित अवणि से कुछ विस्तृत है। पुण्यविजय जी महाराज का यह अभिमत है कि कुलमण्डनकृत अवणि को ही अधिक स्पष्ट करने के लिये किसी विज्ञ ने इसकी रचना की है। प्रज्ञापना पर विस्तृत व्याख्या मलयगिरि की है। प्राचार्य मलयगिरि सुप्रसिद्ध टीकाकार रहे हैं। उनकी टीकानों में विषय की विशदता. भाषा की प्रांजलता. शैली की प्रौढता एक साथ देखी जाता है कि उन्होंने छब्बीस ग्रन्थों पर वत्तियाँ लिखी हैं, उनमें से बीस ग्रन्थ उपलब्ध हैं, छह ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। मलयगिरि ने स्वतन्त्र ग्रन्थ न लिखकर टीकाएँ ही लिखी हैं पर उनकी टीकानों में प्रकाण्ड पाण्डित्य मुखरित हुमा है / वे सर्वप्रथम मूल सूत्र के शब्दार्थ की व्याख्या करते हैं, अर्थ का स्पष्ट निर्देश करते हैं, उसके पश्चात् विस्तृत विवेचन करते हैं। विषय से सम्बन्धित प्रासंगिक विषयों को भी वे छते चले जाते हैं। विषय को प्रामाणिक बनाने के लिए प्राचीन ग्रन्थों के उद्धरण भी देते हैं। प्रज्ञापनावृत्ति उनकी महत्त्वपूर्ण वृत्ति है। यह वृत्ति प्राचार्य हरिभद्र की प्रदेशव्याख्या से चार गुणी अधिक विस्तृत है। प्रज्ञापना के गुरु गम्भीर रहस्यों को समझने के लिए यह वृत्ति अत्यन्त उपयोगी है / वृत्ति के प्रारम्भ में प्राचार्य ने मंगलसूचक चार श्लोक दिए हैं। प्रथम श्लोक में भगवान महावीर की स्तुति है। द्वितीय में जिनप्रवचन को नमस्कार किया गया है तो तृतीय श्लोक में गुरु को नमन किया गया है और चतुर्थ श्लोक में प्रज्ञापना पर वत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है / 4' 239. शगादिवध्यपट: सुरलोकसेतुरानन्दद्वन्दुभिरसस्कृतिवंचितानाम् / / संसारचारकपलायनफालघंटा, जैन वचस्तदिह को न भजेत विद्वान् // 1 // -प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या 240. सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् / तन्नाद्भतं खगकुलेष्विह तामसेषु, सूर्याशवो मधुकरीचरणावदाताः // 1 // -प्रज्ञापना प्रदेशव्याख्या 241. जयति नमदमरमुकूटप्रतिबिम्बच्छदमविहितबहुरूपः / उद्धर्तुमिव समस्तं विश्वं भवपडतो वीरः // 1 // जिनवचनामृतजलधि वन्दे यबिन्दुमात्रमादाय / अभवन्तनं सत्त्वा जन्म-जरा-व्याधिपारिहीनाः / / 2 / / प्रणमत गुरुपदपङ्कजमधरीकृतकामधेनुकल्पलतम् / यदुपास्तिबशानिरुपममश्नुवते ब्रह्म तनुभाजः // 3 // जडमतिरपि गुरुचरणोपास्तिसमुद्भूतविपुलमतिविभवः / समयानुसारतोऽहं विदधे प्रज्ञापनाविवतिम // 4 // -प्रज्ञापना टीक [6 ] Page #1186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना का शब्दार्थ करते हुए लिखा है कि 'प्रकर्षेण ज्ञाप्यन्ते अनयेति प्रज्ञापना' अर्थात् जिसके द्वारा जीव-अजीव आदि पदार्थों का ज्ञान किया जाय वह प्रज्ञापना है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्ति में प्रज्ञापना को उपांग के रूप में उल्लिखित किया है पर प्राचार्य मलयगिरि ने उनसे आगे बढ़कर समवायाङ्ग का उपांग प्रज्ञापना को बताया है। उनका यह स्पष्ट अभिमत है कि समवायाङ्ग में निरूपित अर्थ का प्रतिपादन प्रज्ञापना में हुअा है, उन्होंने यह भी लिखा है कि कहा जा सकता है कि समवायाङ्ग निरूपित अर्थ का प्रज्ञापना में प्रतिपादन करना उचित नहीं, पर यह कथन उपयुक्त नहीं है, क्योंकि प्रज्ञापना में समवायाङ्ग प्रतिपादित अर्थ का ही विस्तार है और यह विस्तार मंदमति शिष्य के विशेष उपकार के लिए किया गया है। इसलिए इसकी रचना पूर्ण सार्थक है / विज्ञों का यह मानना है कि अमुक अंग का अमुक उपांग है, इस प्रकार की व्यवस्था प्राचार्य हरिभद्र के पश्चात् और प्राचार्य मलयगिरि के पूर्व हुई है / हम यह पूर्व ही लिख चुके हैं कि मलयगिरि की वृत्ति का मूलाधार आचार्य हरिभद्र को प्रदेशव्याख्या रही है तथापि प्राचार्य मलयगिरि ने अन्य अनेक ग्रन्थों का उपयोग किया है। 242 उदाहरण के रूप में प्राचार्य हरिभद्र ने स्त्री तीर्थंकर बन सकती है या नहीं? इसके लिए सिद्धप्राभूत का संकेत किया है जबकि प्राचा मलयगिरि ने स्त्रीमुक्त होती है या नहीं? उस सम्बन्ध में पूर्व यक्ष और उत्तरपक्ष की रचना कर विस विश्लेषण किया है। 243 इसी प्रकार सिद्ध के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न दार्शनिकों के मन्तव्य की चर्चा करके अन्त में जैनदर्शन की दृष्टि से सिद्ध के स्वरूप की संस्थापना की है / 144 सामान्य रूप से प्राचार्य मलयगिरि ने व्याख्या के सम्बन्ध में विभिन्न चिन्तकों के मतभेद का सूचन किया है पर कुछ स्थलों पर उन्होंने अपना स्वतन्त्र मत भी प्रकट किया है और जहाँ उन्हें लगा कि यह उलझन भरा है वहाँ उन्होंने अपना मत न देकर केवलिगम्य कहकर सन्तोष किया है। यह कथन उनकी भवभीरुता का द्योतक है। आज जिन विषयों में कुछ भी नहीं जानते उस विषय में भी जो लोग अधिकार के साथ अपना मत दे देते हैं, उन्हें उस महान प्राचार्य से प्रेरणा लेनी चाहिये। प्राचार्य मलयगिरि ने कितने ही विषयों की चर्चा तर्क और श्रद्धा दोनों ही दृष्टि से की है। जैसेप्रज्ञापना की रचना श्यामाचार्य ने की तथापि इसमें श्रमण भगवान महावीर और गणधर गौतम का संवाद कैसे ? भगवान् महावीर और गौतम का संवाद होने पर भी इसमें अनेक मतभेदों का उल्लेख कैसे ? सिद्ध के पन्द्रह भेदों की व्याख्या के साथ उनकी समीक्षा भी की है। स्त्रियाँ मोक्ष पा सकती हैं, वे षडावश्यक, कालिक और उत्कालिक सूत्रों का अध्ययन कर सकती हैं, निगोद की चर्चा, म्लेच्छ की व्याख्या, असंख्यात आकाश प्रदेशों में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध का समावेश किस प्रकार होता है ? भाषा के पुद्गलों के ग्रहण और निसर्ग की चर्चा, अनन्त जीव होने पर भी शरीर असंख्यात कैसे? आदि विविध विषयों पर कलम चलाकर प्राचार्य ने अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा का ज्वलन्त परिचय दिया है। अनेक विषयों की संगति बिठाने हेतु प्राचार्य ने नयष्टि का अवलम्ब लेकर व्याख्या की है और अनेक स्थलों पर पूर्वाचार्यों का और पूर्व संप्रदायों की मान्यताओं का उल्लेख किया है। प्रस्तुत वृत्ति का ग्रन्थमान 16000 श्लोक प्रमाण है / 242. (क) पाणिनिः स्वप्राकृतव्याकरणे-पत्र 5, पत्रा 365 (ख) उत्तराध्य. नियुक्ति माथा-पत्र 12 / जीवा भिगमणि प. 308 आदि। 243. पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना भाग 2, पृ. 154-157 244. देखिए-पण्णवणासुत्तं-प्रस्तावना 2,157 Page #1187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासयं मलयगिरि की व्याख्या के पश्चात अन्य छ प्राचार्यों ने भी व्याख्याएँ लिखी हैं. पर वे व्याख्या मम पर नहीं है और न इतनी विस्तृत ही हैं। मुनि चन्द्रसूरि ने प्रज्ञापना के वनस्पति के विषय को लेकर वनस्पतिसप्ततिका ग्रन्थ लिखा है जिसमें 71 गाथाएं हैं / इस पर एक अज्ञात लेखक की एक प्रवरि भी है / यह अप्रकाशित है और इसकी प्रति लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर ग्रन्थगाार में है। प्रज्ञापनाबीजक -- यह हर्षकुलगणी की रचना है, ऐमा विज्ञों का मत है। क्योंकि ग्रन्थ के प्रारम्भ में और अन्त में कहीं पर भी कोई सूचना नहीं है। इसमें प्रज्ञापना के छत्तीस पदों की विषयसूची संस्कृत भाषा में दी गई है। यह प्रति भी अप्रकाशित है पोर लालभाई दलपतभाई विद्यामन्दिर प्रन्यागार के संग्रह में है पद्मसुन्दर कृत प्रवचूरि-यह भी एक अप्रकाशित रचना है, जिसका संकेत प्राचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है। इसकी प्रति भी उपर्युक्त ग्रन्थागार में उपलब्ध है। धनविमलकृत बालावबोध भी अप्रकाशित रचना है। सर्वप्रथम भाषानुवाद इसमें हना है जिसे टवा कहते हैं। इस टबे की रचना संवत् 1767 से पहले की है। श्री जीवविजय कृत दूसरा टबा यानी बालावबोध भी प्राप्त होता है। यह दबा 1764 संवत् में रचित है। परमानन्द कृत स्तवक अर्थात बालावबोध प्राप्त है, जो संवत 1876 की रचना है। यह टबा रायधनपतसिंह बहादुर की प्रज्ञापना की प्रवृत्ति में प्रकाशित है। श्री नानकचंदकृत संस्कृतछाया भी प्राप्त है, जो रायधनपतसिंह बहादुर ने प्रकाशित की है (प्रज्ञापना के साथ)। पण्डित भगवानदास हरकचन्द ने प्रज्ञापनासूत्र का अनुवाद भी तैयार किया था, जो विक्रम संवत 1991 में प्रकाशित हुया / प्राचार्य अमोलकऋषि जी महाराज ने भी हिन्दी अनुवाद सहित प्रज्ञापना का एक संस्करण प्रकाशित किया था। इस प्रकार समय-समय पर प्रज्ञापना पर विविध व्याख्या साहित्य लिखा गया है। सर्वप्रथम सन् 1884 में मलयगिरिविहित विवरण, रामचन्द्र कृत संस्कृतछाया व परमानन्दर्षिकृत स्तवक के साथ प्रज्ञापना का धनपतसिंह ने बनारस से संस्करण प्रकाशित किया। उसके पश्चात् सन् 1918-1919 में प्रागमोदय समिति बम्बई ने मलयगिरि टोका के साथ प्रज्ञापना का संस्करण प्रकाशित किया। विक्रम संवत 1991 में भगवानदास हर्षचन्द्र जैन सोसायटी अहमदाबाद से मलयगिरि टीका के अनुवाद के साथ प्रज्ञापना का संस्करण निकला / सन् 1947-1949 में ऋषभदेवजी केसरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम, जैन पुस्तक प्रचार संस्था, सूरत से हरिभद्रविहित प्रदेशव्याख्या सहित प्रज्ञापना का संस्करण निकला। स महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से पण्णवणासुत्तं मूल पाठ और विस्तृत प्रस्तावना के साथ, पुण्यविजयजी महाराज द्वारा सम्पादित एक शानदार प्रकाशन प्रकाशित हुआ है। विक्रम सम्वत् 1975 में श्री अमोलकऋषिजी महाराज कृत हिन्दी अनुवाद सहित हैदराबाद से एक प्रकाशन निकला है / वि. सम्वत् 2011 में सूत्रागमसमिति गुडगांव छावनी से श्री पुप्फभिक्खु द्वारा सम्पादित प्रज्ञापना का मूल पाठ प्रकाशित हुआ है। इस तरह समय समय पर अाज तक प्रज्ञापना के विविध संस्करण निकले हैं। प्रस्तुत संस्करण प्रज्ञापना के अनेक संस्करण प्रकाशित होने पर भी एक ऐसे संस्करण की प्रावश्यकता थी जिसमें शुद्ध मूल पाठ हो, अर्थ हो और मुख्य स्थलों पर विवेचन भी हो, जिससे विषय सहज रूप से समझा जा सके। इसी दृष्टि से प्रस्तुत मागम का प्रकाशन हो रहा है। श्रमणसंघ के युवाचार्य महामहिम मधकर मुनिजी महाराज ने आगमों के अभिनव संस्करण निकालने की योजना बनाई / यह योजना युवाचार्यश्री की दूरदर्शिता, दढ़संकल्प, शक्ति और प्रागमसाहित्य के प्रति अगाध भक्ति का पावन प्रतीक है। युवाचार्यश्री के प्रबल पुरुषार्थ के फलस्वरूप ही स्वल्पकाल में अनेक प्रामम [70 ] Page #1188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशित हो चुके हैं और अनेक प्रागम शीघ्र प्रकाशित होने वाले हैं। अनेक मनीषियों के सहयोग के कारण यह गुरुतर कार्य सहज और सुगम हो गया है / प्रस्तुत प्रज्ञापना के संस्करण की अपनी विशेषता है। इसमें शुद्ध मूलपाठ, भावार्थ और विवेचन है। विवेचन न बहुत अधिक लम्बा है और न बहुत संक्षिप्त ही / विषय को स्पष्ट करने के लिए प्राचीन टीकाओं का भी उपयोग किया है / विषय बहुत ही गम्भीर होने पर भी विवेचनकार ने उसे सहज, सरल और सरस बनाने के लिए भरसक प्रयास किया है / यह कहा जाय कि विवेचन में गागर में सागर भर दिया गया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रज्ञापना जैन-तत्त्व-ज्ञान का बृहत् कोष है। इसमें जैनसिद्धान्त के अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का संकलन है। उपांगों में यह सबसे अधिक विशाल है। अंगों में जो स्थान व्याख्याप्रज्ञप्ति का है वही स्थान उपांगों में प्रज्ञापना का है। इसका सम्पादनकार्य सरल नहीं अपितु कठिन और कठिनतर है पर परम आह्लाद है कि वाग देवता के वरद पुत्र श्री ज्ञानमुनिजी ने इस महान कार्य को सम्पन्न किया है / मुनिश्री का प्रकाण्ड पाण्डित्य यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। उन्होंने गम्भोर पोर सूक्ष्म विषय को अपने चिन्तन की सूक्ष्मता और तीक्ष्णता से स्पर्श किया है। जिससे विषय बिद्वानों के लिए ही नहीं, सामान्य जिज्ञासुमों के लिए भी हस्तामलकवत हो गया है। उन्होंने प्रज्ञापना का सम्पादन और विवेचन कर भारती के भंडार में एक अनमोल भेंट समर्पित की है। तदर्थ वे साधुवाद के पात्र हैं। साथ ही इसमें पण्डित शोभाचंद्रजी भारिल्ल का श्रम भी मुखरित हो रहा है / प्रज्ञापना की प्रस्तावना में बहुत ही विस्तार के साथ लिखना चाहता था, क्योंकि प्रज्ञापना में ऐसे अनेक मौलिक विषय हैं जिन पर तुलनात्मक दष्टि से चिंतन करना आवश्यक था, पर अस्वस्थ हो जाने के कारण चाहते हुए भी नहीं लिख सका। बहुत समय पहले प्रस्तावना प्रारम्भ की और सोचा-प्रथम भाग में जा सकेगी किन्तु स्वास्थ्य के साथ न देने से वह विचार स्थगित रहा / परमश्रद्धय सद्गुरुवर्य उपाध्याय श्री पुष्करमुनि महाराज का मार्गदर्शन भी मेरे लिए अतीव उपयोगी रहा है। मुझे प्राशा ही नहीं अपितु दृढ विश्वास है कि प्रज्ञापना का यह शानदार संस्करण प्रबुद्ध पाठकों के लिए प्रत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगा। वे इसका स्वाध्याय कर अपने ज्ञान में अभिवद्धि करेंगे / अन्य प्रागमों की तरह यह मागम भी जन-जन के मन को मुग्ध करेगा। --वेवेन्द्रमुनि शास्त्री जैन स्थानक मदनगंज-किशनगढ़ विजयदशमी 16 अक्तूबर 1983 [ 71 ] Page #1189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद प्राथमिक प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य विषयों की संग्रहणी गाथा प्रथमः कतिप्रकृतिद्वार द्वितीय: कह बंधतिद्वार तृतीयः कतिस्थानबंधद्वार चतुर्थः कतिप्रकृति वेदनद्वार पंचमः कतिविध अनुभवद्वार द्वितीय उद्देशक मूल और उत्तर प्रकृतियों के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा द्वीन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा श्रीन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा चतुरिन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों को बंधस्थिति की प्ररूपणा प्रसंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा संजी पंचेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपणा कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धकों की प्ररूपणा कों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्धकों की प्ररूपणा Kurururur HGAMG , चौवीसवां कर्मबन्धपद ज्ञानावरणीय कर्मबंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा दर्शनावरणीय कर्मबंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा वेदनीय कर्म बंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा मोहनीय आदि कर्मबंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बंध की प्ररूपणा 1116 MY पच्चीसवां कर्मबन्ध-वेदपद ज्ञानावरणीयादि कर्मबंध के समय कर्मप्रकृतिवेद का निरूपण [73 ] Page #1191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छब्बीसवां कर्मवेद-बंधपद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण वेदनीय कर्म के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा आयुष्यादि कर्मवेदन के समय कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा सत्ताईसवां कर्मवेद-वेदपद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के वेदन के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन का निरूपण अट्ठाईसवां प्राहारपद प्राथमिक 0 0 0 0 0 122 प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में उल्लिखित ग्यारह द्वार चौवीस दण्डकों में प्रथम सचित्ताहार द्वार नैरथिकों में आहारार्थी आदि द्वितीय से अष्टम द्वार पर्यन्त भवनपतियों के सम्बन्ध में आहारार्थी आदि सात द्वार एकेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार विकलेन्द्रियों में प्राहारार्थी प्रादि सात द्वार 112 पंचेन्द्रिय तिर्यचों, मनुष्यों, ज्योतिषकों एवं वाणध्यन्तरों में प्राहारार्थी आदि सात द्वार 115 वैमानिक देवों में प्राहारादि सात द्वारों को प्ररूपणा 116 एकेन्द्रियशरीरादिद्वार लोमाहारद्वार 123 मनोभक्षीद्वार 124 द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के द्वारों की संग्रहणी गाथा 126 प्रथम-प्राहारद्वार द्वितीय-भव्यद्वार तृतीय-संजीद्वार चतुर्थ-लेश्याद्वार 132 पंचम-दृष्टिद्वार 134 छठा-संयतद्वार सातवां-कषायद्वार 138 पाठवां-ज्ञानद्वार 139 126 128 136 [74 ] Page #1192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 142 नोवा-योगद्वार दसवां-उपयोगद्वार ग्यारहवां-वेदद्वार बारहवां-शरीरद्वार तेरहवा-पर्याप्तिद्वार 143 144 145 उनतीसवां उपयोग पद 148 प्राथमिक जीव आदि में उपयोग के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा जीव आदि में साकारोपयुक्तता-प्रनाकारोपयुक्तता-निरूपण 152 155 तीसवां पश्यत्तापद जीव एवं चौवीस दण्डकों में पश्यत्ता के भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा जीव एवं चौवीस दण्डकों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता केवली में एक समय में दोनों उपयोगों का निषेध सीw. इकतीसवां संक्षिपद 171 प्राथमिक जीव एवं चौवीस दण्डकों में संज्ञी आदि की प्ररूपणा 174 बत्तीसवां संयतपद प्राथमिक जीवों एवं चौबीस दण्डकों में संयत प्रादि की प्ररूपणा . 177 178 तेतीसवां अवधिपद 181 183 183 प्राथमिक तेतीसवें पद के प्राधिकारों की प्ररूपणा अवधि भेदद्वार अवधिविषयद्वार अवधिज्ञान का संस्थान प्राभ्यन्तर-बाह्य अवधिद्वार देशावधि-सर्वावधिद्वार अवधिक्षय-वृद्धि प्रादि द्वार 194 [75] Page #1193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां परिचारणापद 197 201 प्राथमिक चौतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण अनन्तराहारद्वार माहाराभोगताद्वार पुगल ज्ञानद्वार अध्यवसायद्वार सम्यक्त्वाभिगमद्वार परिचारणाद्वार अल्पबहुत्वद्वार 207 0 0 WN WWW 0 0 218 पैतीसवां वेदनापद प्राथमिक पतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण शीतादि वेदनाद्वार द्रव्यादि वेदनाद्वार शारीरादि वेदनाद्वार सातादि वेदनाद्वार दुःखादि वेदनाद्वार आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदना निदा-अनिदा वेदना 221 222 223 227 छत्तीसवां समुद्घातपद प्राथमिक समुद्घात के भेदों की प्ररूपणा 229 समुद्घात के काल की प्ररूपणा 231 चौवीस दण्डकों में समुद्घात-संख्या चौवीस दण्डकों में एकत्व रूप से अतीतादि-समुद्घातप्ररूपणा चौबीस दण्डकों में बहुत्व की अपेक्षा अतीत-अनागत समुद्घात चौबीस दण्डकों की चौवीस दण्डक-पर्यायों में एकत्व की अपेक्षा अतीतादि समुद्घात चौवीस दण्डकों की चौवीस दण्डक-पर्यायों में बहुत्व की अपेक्षा से अतीतादि समुदघात विविध समुद्रात-समवहत-असमवहत जीवादि का अल्पबहुत्व 258 चौवीस दण्डकों में छाद्मस्थिक समुद्घातप्ररूपणा 270 वेदना एवं कषाय समुदघात से समबहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा 272 or m9. 253 [76] Page #1194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 275 281 मारणान्तिक समुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा तैजस समुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा आहारक समुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा केवलिसमुद्घात-समवहत अनगार के निर्जीर्ण अन्तिम पूदगलों की लोकव्यापिता केवलि-समुद्घात का प्रयोजन केवलि-समुदधात के पश्चात योगनिरोध आदि की प्रक्रिया सिद्धों के स्वरूप का निरूपण 294 [77 ] Page #1195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिरिसामज्जवायग-विरइयं चउत्थं उवंग पण्णवणासुत्तं [तइयखंडो] श्रीमत्-श्यामार्यवाचक-विरचित चतुर्थ उपाङ्ग प्रज्ञापनासूत्र [ तृतीय खण्ड] Page #1197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #1198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * * तेवीसइमओ सत्तावीसइमपज्जंताई पयाई तेईसवें पद से सत्ताईसवें पद पर्यन्त प्राथमिक ये प्रज्ञापनासूत्र के तेईसवें से सत्ताईसवें पद तक पांच पद हैं / इनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं(२३) कर्मप्रकृतिपद, (24) कर्मबन्धपद, (25) कर्मबन्ध-वेदपद, (26) कर्मवेद-बन्धपद और (27) कर्मवेद-वेदकपद / ये पांचों पद कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादक हैं और एक-दूसरे से परस्पर संलग्न हैं। जैनदर्शन तार्किक और वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर आधारित है। जैनदर्शन में प्रत्येक प्रात्मा को निश्चयदष्टि से परमात्मतुल्य माना गया है, फिर वह आत्मा पृथ्वी, जल या वनस्पतिगत हो या कीट-पतंग-पशु-पक्षी-मानवादि रूप हो, तात्त्विक दृष्टि से समान है। प्रश्न हो सकता है, जब तत्त्वतः सभी जीव (आत्मा) समान हैं, तब उनमें परस्पर वैषम्य क्यों ? एक धनी, एक निर्धन, एक छोटा, एक विशालकाय, एक बुद्धिमान् दूसरा मंदबुद्धि, एक सुखी, एक दुःखी, इत्यादि विषमताएँ क्यों हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में कर्मसिद्धान्त का जन्म हुआ। कर्माधीन होकर ही जीव विभिन्न प्रकार के शरीर, इन्द्रिय, गति, जाति, अंगोपांग आदि की न्यूनाधिकता वाले हैं / आत्मगुणों के विकास की न्यूनाधिकता का कारण भी कर्म ही है / कर्मसिद्धान्त से तीन प्रयोजन मुख्य रूप से फलित होते हैं (1) वैदिकधर्म की ईश्वर-सम्बन्धी मान्यता के भ्रान्त अंश को दूर करना / (2) बौद्धधर्म के एकान्त क्षणिकवाद को युक्तिविहीन बताना। (3) प्रात्मा को जडतत्त्व से भिन्न स्वतंत्र चेतन के रूप में प्रतिष्ठापित करना / भगवान महावीरकालीन भारतवर्ष में जैन, बौद्ध और वैदिक, ये तीन धर्म की मुख्य धाराएँ थीं। वेदानुगामी कतिपय दर्शनों में ईश्वर को सर्वशक्तिमान् सर्वज्ञ मानते हुए भी उसे जगत् का कर्ता-हर्ता-धर्ता माना जाता था। कर्म जड होने से ईश्वर की प्रेरणा के बिना अपना फल भुगवा नहीं सकते, अतः जीव को अच्छे-बुरे कर्मों का फल भुगवाने वाला ईश्वर ही है। जीव चाहे जितनी उच्चकोटि का हो, वह ईश्वर हो नहीं सकता। जीव जीव हो रहेगा, ईश्वर नहीं होगा। जीव का विकास ईश्वर की इच्छा या अनुग्रह के बिना नहीं हो सकता। इस प्रकार कई दर्शन तो जीव को ईश्वर के हाथ की कठपुतली मानने लगे थे। इस प्रकार के भ्रान्तिपूर्ण विश्वास में चार बड़ी भूलें थीं--(१) कृतकृत्य ईश्वर का निष्प्रयोजन सृष्टि के प्रपंच में पड़ना और रागद्वेषयुक्त बनना। (2) प्रात्मा की स्वतंत्रता और शक्ति का दब जाना। (3) कर्म की शक्ति की अनभिज्ञता और (4) जप, तप संयम Page #1199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्रे व्रतादि की साधना की व्यर्थता। इन भूलों का परिमार्जन करने और संसार को वस्तुस्थिति से अवगत कराने हेतु भगवान् महावीर ने वाणी से ही नहीं अपने कर्म-क्षय के कार्यों से कर्मसिद्धान्त की यथार्थता का प्रतिपादन किया। तथागत बुद्ध कर्म और उसके विपाक को मानते थे, किन्तु उनके क्षणिकवाद के सिद्धान्त से कर्मविपाक की उपपत्ति कथमपि नहीं हो सकती। स्वकृत कर्म का स्वयं फलभोग तथा परकृत कर्म के फलभोग का स्व में प्रभाव तभी घटित हो सकता है, जबकि प्रात्मा को न तो एकान्तनित्य माना जाए और न ही एकान्त क्षणिक / कुछ नास्तिक दर्शनवादी पुनर्जन्म, परलोक को मानते ही नहीं थे। उनके मतानुसार शुभ तथा अंशभ कर्म का शुभ एवं प्रशभ फल घटित ही नहीं होता। तब फिर अध्यात्मसाधना का अर्थ क्या है ? इस प्रश्न के यथार्थरूप से समाधान के लिए भगवान् महावीर ने कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन किया। क्योंकि कर्म न हों तो जन्म-जन्मान्तर तथा इहलोक-परलोक का सम्बन्ध घट ही नहीं सकता। जो लोग यह कहते हैं, जीव अज्ञानी है, वह स्वकृत कर्म के दुःखद फल को स्वयं भोगने में असमर्थ नि बाला इंश्वर है, ऐसा मानना चाहिए / वे कर्म की विशिष्ट शक्ति से अनभिज्ञ हैं / यदि कर्मफलप्राप्ति में दूसरे को सहायक माना जाएगा तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जाएँगे तथा जीव के स्वकृत पुरुषार्थ की हानि भी होगी और उसमें सत्कार्यों में प्रवृत्ति, असत्कार्यों से निवृत्ति के लिए उत्साह नहीं जागेगा। यही कारण है कि भगवान महावीर ने प्रस्तुत 23 वें कर्मप्रकृतिपद में ईश्वर या किसी भी शक्ति को सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति या विनाशकर्ता और कर्मफलप्रदाता के रूप में न मान कर स्वयं जीव को ही कर्मबन्ध करने, कर्मफल का वेदन करने तथा स्वकृतकर्मों तथा कर्मक्षय का फल भोगने का अधिकारी बताया है / जीव अनादिकाल से स्वकृतकर्मों के वश होकर विविध गतियों, योनियों आदि में भ्रमण कर रहा है। जीव अपने ही शुभाशुभ कर्मों के साथ परभव में जाता है, स्वतः सुखदुःखादि पाता है। ___ कुछ दार्शनिक कर्मसिद्धान्त पर एक आक्षेप यह करते हैं कि प्रस्तुत 23 वें पद के अनुसार समस्त जीवों के साथ कर्म सदा से लगे हुए हैं और कर्म एवं प्रात्मा का अनादि सम्बन्ध है, तो फिर कर्म का सर्वथा नाश कदापि नहीं हो सकेगा। लेकिन कर्मसिद्धान्त के बारे में ऐसा एकान्त सार्वकालिक नियम नहीं है / इसी कारण आगे चलकर 23 3 पद के दूसरे उद्देशक में स्पष्ट बताया गया है कि जितने भी कर्म हैं, सबकी एक कालमर्यादा है। वह काल परिपूर्ण होने पर उस कर्म का क्षय हो जाता है। स्वर्ण और मिट्टी का दूध और घी का प्रवाहरूप से अनादि-सम्बन्ध होते हुए भी प्रयत्न-विशेष से वे पृथक्-पृथक् होते देखे जाते हैं / उसी प्रकार प्रात्मा और कर्म का प्रवाहरूप से अनादि-सम्बन्ध होने पर भी, व्यक्तिशः अनादि-सम्बन्ध नहीं है। प्रात्मा और कर्म के अनादि-सम्बन्ध का भी अन्त होता है / पूर्वबद्ध कर्मस्थिति पूर्ण होने पर वह आत्मा से पृथक् हो जाता है / नवीन कर्मों का बन्ध होता रहता है / इस प्रकार प्रवाहरूप से कर्म के अनादि होने पर भी तप, संयम, व्रत प्रादि के द्वारा कर्मों का प्रवाह एक दिन नष्ट हो जाता है और आत्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। Page #1200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यमिक] पूर्वकथन से स्पष्ट हो जाता है कि आत्मा का अस्तित्व अनादिकालीन है और कर्मबन्ध होता रहता है। ऐसी स्थिति में सहज ही एक प्रश्न उठता है कि प्रात्मा पहले है या कर्म ? यदि आत्मा पहले है तो कर्म का बन्ध उसके साथ जबसे हुआ तबसे उसे 'सादि' मानना पड़ेगा / जैनदर्शन का समाधान है कि कर्म व्यक्ति की अपेक्षा से सादि है और प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है / परन्तु कर्म का प्रवाह कब तक चलेगा? सर्वज्ञ के सिवाय कोई नहीं जानता और न ही बता सकता है, क्योंकि भूतकाल के समान भविष्यकाल भी अनन्त है / कुछ व्यक्ति शंका कर सकते हैं कि सभी जीव आत्मामय हैं और आत्मा का लक्षण ज्ञान है, तब फिर सभी जीवों को एक समान ज्ञान क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यही है कि प्रात्मा वस्तत:ज्ञानमय है, किन्त उस पर कर्मा का प्रावरण पड़ाहना है और उस प्रावरण के कारण ही आत्मारूपी सूर्य का ज्ञानगुणरूप प्रकाश कर्मरूपी मेघों से ढंका हुआ है। बादल हटते ही जैसे सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जाता है, वैसे ही कर्मों का आवरण दूर होते ही आत्मा के ज्ञानादि गुण अधिकाधिक प्रकट होने लगते हैं। इस पर से एक प्रश्न फिर समुद्भूत होता है कि कर्म बलवान् है या आत्मा ? बाह्यदृष्टि से कर्म शक्तिशाली प्रतीत होते हैं, क्योंकि कर्म के वशवर्ती होकर प्रात्मा नाना योनियों में जन्ममरण के चक्कर काटती रहती है, परन्तु अन्तर्दृष्टि से देखा जाए तो आत्मा की शक्ति असीम (अनन्त) है। वह जैसे अपनी परिणति से कर्मों का प्रास्रव एवं बन्ध करती है, वैसे ही कर्मों को क्षय करने की क्षमता भी रखती है / कर्म चाहे जितने शक्तिशाली क्यों न प्रतीत हो, लेकिन आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। कठोरतम पाषाणों की चदानों को मुलायम पानी टुकड़े-टुकड़े कर देता है / वैसे ही प्रात्मा की अनन्त शक्ति कर्मों को चूर-चूर कर देती है / इसके लिए कर्म और आत्मा की पृथक्-पृथक् शक्तियों को पहिचानने के लिए दोनों के लक्षणों को जान लेना आवश्यक है / आत्मा अपने-आप में शुद्ध (निश्चय) रूप में ज्ञान, दर्शन, आनन्द एवं शक्तिमय (वीर्यमय) है। कर्मों के प्रावरण के कारण उसके ये गुण दबे हुए हैं। कर्मों का आवरण सर्वथा हटते ही चेतना पूर्णरूप से प्रकट हो जाती है, आत्मा परमात्मा बन जाती है। कर्म का लक्षण है-मिथ्यात्व आदि पांच कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है। मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, इन पांचों में से किसी के भी निमित्त से आत्मा में एक प्रकार का अचेतन द्रव्य आता है, जिसे अन्य दर्शनों में अदृश्य, अविद्या, माया, प्रकृति, संस्कार आदि विविध नामों से पुकारा जाता है, अतः वह कर्म ही है, जो रागद्वेष का निमित्त पाकर प्रात्मा के साथ बंध जाता है और समय पाकर वह (कर्म) सुख-दुःखरूप फल देने लगता है। * कर्म के मुख्यतया दो भेद हैं -भावकर्म और द्रव्यकर्म / जीव के साथ रागद्वेषरूप भावों का निमित्त पाकर अचेतन कर्मद्रव्य आत्मा की ओर आकृष्ट होता है, उन भावों का नाम भावकर्म है तथा वह अचेतन कर्मद्रव्य जब आत्मा के साथ क्षीर-नीरवत् एक होकर सम्बद्ध हो जाता है, तब वह द्रव्यकर्म कहलाता है / यद्यपि जैनदर्शन में भावकर्मबन्ध के मुख्यतया मिथ्यात्वादी पांच कारण एवं संक्षेप में कषाय और Page #1201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र योग के दो कारण बतलाए हैं, तथापि तेईसवें पद के प्रथम उद्देशक में राग और द्वष को ही भावकर्मबन्ध का कारण बतलाया है। चार कषायों को इन्हीं दो के अन्तर्गत कर दिया गया है / कोई भी मानसिक या वैचारिक प्रवृत्ति हो, या तो वह राग (प्रासक्तिरूप) या वह द्वेष (घृणा या क्रोधादि) रूप होगी। अतः रागमूलक या द्वेषमूलक प्रवृत्ति को ही भावकर्मबन्ध का कारण माना गया है। प्राणी जान सके या नहीं, पर उसकी राग-द्वेषात्मक वासना के कारण अव्यक्तरूप से भावकर्म द्रव्यकर्मरूप में श्लिष्ट होते रहते हैं। कर्म की बंधकता (कर्मलेप पैदा करने की शक्ति) भी रागद्वेष के सम्बन्ध से ही है। * रागद्वेषजनित मानसिक प्रवृत्ति के अनुसार क्रोधादिकषायवश शारीरिक, वाचिक क्रिया होती है, वही द्रव्यकर्मोपार्जन का कारण बनती है। जो क्रिया कषायजनित होती है, उससे होने वाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है, किन्तु कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल और अल्पस्थितिक होता है / वह थोड़े-से प्रयत्न एवं समय में नष्ट किया जा सकता है। वस्तुतः जब प्राणी मन-वचन-काया से प्रवृत्ति करता है, तब चारों ओर से तद्योग्य कर्मपुद्गलपरमाणुओं का ग्रहण होता है / इन्हीं गृहीत पुद्गल-परमाणु-समूह का कर्मरूप से प्रात्मा के साथ बद्ध होना द्रव्यकर्म कहलाता है। वस्तुतः जिसने जैसा कर्म किया है, उसके अनुसार वैसी-वैसी उसकी मति और परिणति होती * रहती है / पूर्वबद्ध कर्म उदय में आता है तो आत्मा की परिणति को प्रभावित करता है और उसी के अनुसार नवीन कर्मबन्ध होता रहता है। यह चक्र अनादिकाल से (प्रवाहरूप से) चला पा रहा है। प्रात्मा निश्चयदृष्टि से ज्ञान-दर्शनमय शुद्ध होने पर भी अपनी कषायात्मक वैकारिक प्रवृत्ति या क्रिया द्वारा ऐसे संस्कारों (भावकर्मों) का आकर्षण करती रहती है और कर्मपुद्गलों को भी तदनुसार ग्रहण करती रहती है। इस ग्रहण करने की प्रक्रिया में मन-वचन-काय का परिस्पन्दन सहयोगी बनता है। कषाय या रागद्वेष की तीव्रता-मन्दता के अनुसार ही जीव को उन-उन कर्मों का बन्ध होता है तथा बन्धे हए कर्मों के अनुसार ही तत्काल या कालान्तर में सुख-दुःखरूप शुभाशुभ फल प्राप्त होता रहता है। किन्तु जब यह प्रात्मा अपनी विशिष्ट ज्ञानादि शक्ति से समस्त कर्मों से रहित होकर पूर्णरूप से-कर्ममुक्त हो जाती है तब पुनः कर्म आत्मा के साथ सम्बद्ध नहीं होते और न अपना फल देते हैं। कर्मसिद्धान्तानुसार एक बात स्पष्ट है कि प्रात्मा ही अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार वैसे स्वभाव और परिस्थिति का निर्माण करती है, जिसका प्रभाव बाह्य सामग्री पर पड़ता है और तदनुसार परिणमन होता है, तदनुसार ही कर्मफल स्वतः प्राप्त होता है। कर्म के परिपाक का जब समय प्राता है, तब उसके उदयकाल में जैसी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की सामग्री होती है, वैसा ही उसका तीव्र, मन्द, मध्यम फल प्राप्त होता है। इस फलप्राप्ति का प्रदाता कोई अन्य नहीं है / कर्मफल प्रदाता दूसरे को माना जाए तो स्वयंकृत कर्म निरर्थक हो जाएँगे, तथा जीव के स्वपुरुषार्थ की भी हानि होगी। फिर तो सत्कार्यों में प्रवृत्ति और असत्कार्यों से निवत्ति के लिए न तो उत्साह जाग्रत होगा, न पुरुषार्थ ही। Page #1202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक] इस दृष्टि से 23 वें से 27 वें पद तक कर्मसिद्धान्त के सम्बन्ध में उद्भूत होने वाले विविध प्रश्नों का समाधान किया गया है। कर्मबन्ध के चार प्रकारों की दृष्टि से यहाँ यथार्थ एवं स्पष्ट समाधान किया गया है। द्रव्यकर्मों के बन्ध को प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, प्रदेशबन्ध और अनुभावबन्ध, इन चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है। बद्ध कर्मपरमाणुओं का आत्मा के ज्ञानादि गुणों के आवरण के रूप में परिणत होना, उन कर्मपुद्गलों में विभिन्न प्रकार के स्वभाव उत्पन्न होना, प्रकृतिबन्ध है। कर्मविपाक (कर्मफल) के काल की अवधि (जधन्य-उत्कृष्ट कालमर्यादा) उत्पन्न होना स्थितिबन्ध है। गृहीत पुद्गलपरमाणुओं के समूह का कर्मरूप में प्रात्मप्रदेशों के साथ न्यूनाधिक रूप में बद्ध होना-प्रदेशबन्ध है। इसमें भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले कर्मपरमाणुओं (कर्मप्रदेशों) की संख्या का निर्धारण होता है और कर्मरूप में गृहीत पुद्गलपरमाणुओं के फल देने की शक्ति की तीव्रता-मन्दता आदि अनुभाग (रस) बन्ध है। कर्म के सम्बन्ध में समुद्भूत होने वाले कुछ प्रश्नों का प्रादुर्भाव होना स्वाभाविक है, जिनका समाधान इन पदों में दिया गया है। मूलकर्म कितने हैं ? उनके उत्तरभेद कितने हैं ? अात्मा का कर्मों के साथ बन्ध कैसे और किन-किन कारणों से होता है ? कर्मों में फल देने की शक्ति कैसे पैदा हो जाती है? कौन-सा कर्म कम से कम और अधिक से अधिक कितने समय तक प्रात्मा के साथ लगा रहता है ? आत्मा के साथ लगा हुआ कर्म कितने समय तक फल देने में असमर्थ रहता है ? विपाक का नियत समय भी बदला जा सकता है या नहीं ? यदि हाँ, तो कैसे, किन आत्मपरिणामों से ? एक कर्म के बन्ध के समय, दूसरे किन कर्मों का बन्ध या वेदन हो सकता है ? किस कर्म के वेदन के समय अन्य किन-किन कर्मों का वेदन होता है ? इस प्रकार बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता आदि अवस्थाओं की अपेक्षा से उत्पन्न होने वाले नाना प्रश्नों का सयुक्तिक विशद वर्णन किया गया है। * सर्वप्रथम तेईसवें 'कर्म-प्रकृति-पद' के प्रथम उद्देशक में पांच द्वारों के माध्यम से कर्म-सिद्धान्त की चर्चा की गई है। प्रथम द्वार में मूल कर्म-प्रकृति की संख्या और चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में उनके सदभाव की प्ररूपणा है। दूसरे द्वार में बताया गया है कि समच्चय जीव तथा दण्डकवर्ती जीव किस प्रकार आठ कर्मों को बाँधते हैं ? तीसरे द्वार में बताया गया है कि ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों को एक या अनेक समुच्चय जीव तथा चौवीस दण्डकवर्ती जीव, राग और द्वेष (जिनके अन्तर्गत क्रोधादि चार कषायों का समावेश हो जाता है), इन दो कारणों से बांधते हैं। चौथे द्वार में यह बताया गया है कि समुच्चय जीव या चौवीस दण्डकवर्ती जीव एकत्व एवं बहुत्व की अपेक्षा से, ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों में किन-किन कर्मों का वेदन करता है ? इसके पश्चात् पंचम कतिविध-अनुभाव द्वार में विस्तृत रूप से बताया गया है कि जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट, बद्ध-स्पृष्ट, संचित, चित, उपचित, आपाक-प्राप्त, विपाक-प्राप्त, फलप्राप्त, उदय-प्राप्त, कृत, निष्पादित, परिणामित, स्वत: या परतः उदीरित, उभयत: उदीरणा किये जाते हुए गति, स्थिति और भव की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि किस-किस कर्म के कितनेकितने विपाक या फल हैं ? तेईसवें पद के द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम प्रष्ट कर्मों की मूल और उत्तर-प्रकृतियों के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है / तदनन्तर ज्ञानावरणीयादि आठों कर्मों की (भेद-प्रभेदसहित) Page #1203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र स्थिति का निरूपण किया गया है। इसके पश्चात् यह निरूपण किया गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर संज्ञी-असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों में से किस कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? तथा ज्ञानावरणीय आदि पाठों कर्मों की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति को बांधने वाले कौन-कौन जीव हैं ? * चौवीसवें 'कर्मबन्ध-पद' में बताया गया है कि चौवीस दण्डकवर्ती जीव ज्ञानावरणीय आदि किसी एक कर्म को बांधता हुअा, अन्य किन-किन कर्मों को बाँधता है, अर्थात् कितने अन्य कर्मों को बांधता है ? * पच्चीसवें कर्मबन्ध-वेदपद में बताया गया है कि जीव आठ कर्मों में से किसी एक कर्म को बांधता हुआ, अन्य किन-किन कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? छब्बीसवें कर्मवेद-बन्धपद में कहा गया है कि जीव पाठ कर्मों में से किसी एक कर्म को वेदता हुआ, अन्य कितने कर्मों का बन्ध करता है ? * सत्ताईसवें 'कर्मवेद-वेदकपद' में कहा गया है कि जीव किसी एक कर्म के वेदन के साथ किन अन्य कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? * प्रस्तुत पांचों पदों के निरूपण द्वारा शास्त्रकार ने स्पष्ट ध्वनित कर दिया है कि जीव कर्म करने और फल भोगने में, नये कर्म बांधने तथा समभावपूर्वक कर्मफल भोगने में स्वतन्त्र है तथा कर्मसिद्धान्त के प्रतिपादन का उद्देश्य देवगति या अमुक प्रकार के शरीरादि की उपलब्धि करना नहीं है। अपित कर्मों से सदा-सर्वदा के लिए मुक्ति पाना, जन्म-मरण से छटकारा पाना ही उसका लक्ष्य है। इसी में प्रात्मा के पुरुषार्थ की पूर्णता है तथा यही प्रात्मा के शुद्ध, सिद्ध-बुद्धमुक्तस्वरूप की उपलब्धि है। इस चतुर्थ पुरुषार्थ-मोक्ष के लिए पुण्यरूप या पापरूप दोनों प्रकार के कर्म त्याज्य हैं / सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र एवं सम्यक्तप ही मोक्ष-पुरुषार्थ के परम साधन हैं जो कर्मक्षय के लिए नितान्त आवश्यक हैं / प्रात्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा क्रमशः कर्मनिर्जरा करता हुअा अात्मा की विशुद्धतापूर्वक सर्वथा कर्मक्षय कर सकता है। यही तथ्य शास्त्रकार के द्वारा ध्वनित किया गया है। 00 Page #1204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेवीसइमं कम्मपगडिपयं तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद पढमो उद्देसओ : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य विषयों को संग्रहरणीगाथा 1664. कति पगडी 1 कह बंधति 2 कतिहि व ठाणेहि बंधए जीवो 3 / कति वेदेइ य पयडी 4 अणुभावो कतिविहो कस्स 5 // 217 / / {1664 गाथार्थ-1 (1) (कर्म-)प्रकृतियाँ कितनी हैं ?, (2) किस प्रकार बंधती हैं ?, (3) जीव कितने स्थानों से (कर्म) बांधता है ?, (4) कितनी (कर्म-)प्रकृतियों का वेदन करता है ?, (5) किस (कर्म) का अनुभाव (अनुभाग) कितने प्रकार का होता है ? // 217 / / विवेचन --विविध पहलुओं से कर्मबन्धादि परिणाम-निरूपक पांच द्वार-(१) प्रथमद्वारकर्मप्रकृतियों की संख्या का निरूपण करने वाला, (2) द्वितीयद्वार-कर्मबन्ध के प्रकार का निरूपक, (3) तृतीयद्वार - कर्म बांधने के स्थानों का निरूपक, (4) चतुर्थद्वार-वेदन की जानेवाली कर्मप्रकृतियों की गणना और (5) पंचमद्वार-विविध कर्मों के विभिन्न अनुभावों का निरूपण करने वाला।' प्रथम : कति-प्रकृतिद्वार 1665. कति णं भंते ! कम्मपगडीनो पण्णत्ताओ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीप्रो पण्णत्तानो। तं जहा - णाणावरणिज्जं 1 दरिसणावरणिज्जं 2 वेदणिज्ज 3 मोहणिज्ज 4 आउयं 5 णाम 6 गोयं 7 अंतराइयं / [1665 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? [1665 उ.] गौतम! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही हैं। वे इस प्रकार हैं--१. ज्ञानावरणीय, 2. दर्शनावरणीय, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. प्रायु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय / 1666. रइयाणं भंते ! कति कम्मपगडीमो पण्णत्तानो ? गोयमा ! एवं चेव / एवं जाव वेमाणियाणं / [1666 प्र.] भगवन् ! नरयिकों के कितनी कर्मप्रकृतियाँ कही हैं ? [1666 उ.] गौतम ! इसी प्रकार पूर्ववत् पाठ कर्मप्रकृतियाँ कही हैं। (नारकों के ही समान) यावत् वैमानिक तक (आठ कर्मप्रकृतियाँ समझनी चाहिए / ) 1. प्रज्ञापना.प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5,5. 157-158 Page #1205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन--(१)कति-प्रकृतिद्वार-आठ कर्मप्रकृतियाँ और चौबीस दण्डकों में उनका सद्भावमूल कर्मप्रकृतियाँ पाठ प्रसिद्ध है / नारक से लेकर वैमानिक तक समस्त संसारी जीवों के भी आठ ही कर्मप्रकृतियाँ लगी हुई हैं। आठ कर्मप्रकृतियों का स्वरूप-(१) ज्ञानावरणीय-जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे / सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के विशेष अंश का ग्रहण करना ज्ञान है / उसे जो आवृत करे, वह ज्ञानावरणीय है। (2) दर्शनावरणीय--पदार्थ के विशेषधर्म को ग्रहण न करके सामान्य धर्म को ग्रहण करना 'दर्शन' है। जो आत्मा के दर्शनगुण को आच्छादित करे, वह दर्शनावरणीय है। (3) वेदनीय- जिस कर्म के कारण प्रात्मा सुख-दुःख का अनुभव करे। (4) मोहनीय----जो कर्म प्रात्मा को मूढ- सत्-असत् के विवेक से शून्य बनाता है। प्रायुकम-जो कर्म जीव को किसी न किसी भव में स्थित रखता है। नामकर्म-जो कर्म जीव के गतिपरिणाम आदि उत्पन्न करता है। गोत्रकर्म--जिस कर्म के कारण जीव उच्च अथवा नीच कहलाता है अथवा जिम कर्म के उदय से जीव प्रतिष्ठित कुल अथवा नीच-अप्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है / अन्तरायकर्म-जो कर्म जीव के और दानादि के बीच में व्यवधान अथवा विघ्न डालता है अथवा जो कर्म दानादि करने के लिए उद्यत जीव के लिये विघ्न उपस्थित करता है।' द्वितीय : कह बंधति (किस प्रकार बंध करता है) द्वार 1667. कहाणं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडोश्रो बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावरणिज्जं कम्मं णियच्छति, दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दसणमोहणिज्ज कम्मं णियच्छति, सणमोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा ! एवं खलु जोवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ। [1667 प्र.] भगवन् ! जीव आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? . [1667 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनावरणीय कर्म को निश्चय ही प्राप्त करता है, दर्शनावरणीय कर्म के उदय से (जीव) दर्शनमोहनीय कर्म को प्राप्त करता है / दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से मिथ्यात्व को निश्चय ही प्राप्त करता है और हे गौतम ! इस प्रकार मिथ्यात्व के उदय होने पर जीव निश्चय ही आठ कर्मप्रकृतियों को बांधता है। 1668. कहाणं भंते ! रइए अट्ट कम्मपगडोश्रो बंधति ? गोयमा! एवं चेव / एवं जाव वेमाणिए। [1668 प्र.] भगवन् ! नारक आठ कर्मप्रकृतियों को किस प्रकार बांधता है ? [1668 उ.] गौतम ! इसी प्रकार (पूर्वोक्त कथनवत्) जानना चाहिए। इसी प्रकार (असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकपर्यन्त (समझना चाहिए / ) 1666. कहण्णं भंते ! जीवा अट्ट कम्मपगडीमो बंधंति ? गोयमा ! एवं चेव / एवं जाब वेमाणिया / 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग 5, पृ. 161 Page #1206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद [11 [1666 प्र.] भगवन् ! बहुत-से जीव पाठ कर्मप्रकृतियाँ किस प्रकार बांधते हैं ? [1666 उ. गौतम ! पूर्ववत् जानना / इसी प्रकार यावत् बहुत-से वैमानिकों तक (समझना चाहिए।) विवेचन-समुच्चय जीव और चौबीस दण्डक में एकत्व-बहुत्व को विवक्षा से अष्टकर्मबन्ध के कारण—प्रस्तुत द्वितीय द्वार में जोव अष्टकर्मबन्ध किस प्रकार करता है ? इसका स्पष्टीकरण करते हए बताया गया है कि ज्ञानावरण का उत्कृष्ट उदय होने पर दर्शनावरणीय कर्म का आगमन होत है अर्थात् जीव दर्शनावरणीयकर्म को उदय से वेदता है / दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोह का और दर्शनमोह के उदय से मिथ्यात्व का और मिथ्यात्व के उदीर्ण होने पर आठों कर्मों का आगमन होता है, अर्थात् जीव मिथ्यात्व के उदय से पाठ कर्मप्रकृतियों का बंध करता है / सभी जीवों में पाठ कर्मों के बन्ध (या आगमन) या यही क्रम है। इन चारों सूत्रों का तात्पर्य यह है कि कर्म से कर्म प्राताबंधता है / ' स्पष्टीकरण-आचार्य मलयगिरि ने इस सूत्र में प्रयुक्त 'खलु' शब्द का 'प्रायः' अर्थ करके इस सूत्रचतुष्टय को 'प्रायिक' माना है / इसका आशय यह है कि कोई-कोई सम्यग्दृष्टि भी आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है / केवल सूक्ष्म-सम्परायगुणस्थानवर्ती संयत आदि पाठ कर्मों का बन्ध नहीं करते।' ज्ञातव्य-यहाँ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध के कारणों में केवल मिथ्यात्व को ही मूल कारण बताया गया है, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को नहीं, किन्तु पारम्परिक कारणों में अविरति, प्रमाद और कषाय का भी समावेश हो जाता है। क्योंकि जीव ज्ञानावरणादि कर्म बांधता है, उसके (सू. 1670 में) मुख्यतया दो कारण बताए गए हैं-राग और द्वष / राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश हो जाता है। तृतीयद्वार : कति-स्थान-बन्धद्वार 1670. जोवे णं भंते ! गाणावरणिज्ज कम्म कतिहि ठाणेहि बंधति ? गोयमा ! दोहि ठाणेहिं / तं जहा–रागेण य दोसेण य / रागे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-माया य लोभे य / दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा–कोहे य माणे य। इच्चेतेहिं चउहि ठाणेहि वोरिप्रोवग्गहिएहिं एवं खलु जोवे गाणावरणिज्ज कम्मं बंधति / [1670 प्र.] भगवन् ! जीव कितने स्थानों-कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है ? 1. (क) पण्णवणासुत्तं भाग 2, (२३वें पद का विचार) पृ. 131 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 5, पृ. 166 2. (क) मलयगिरि वत्ति, (प्रज्ञापना) पत्र 454 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 164 3. (क) पण्णवणासुतं (मूलपाठ टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 362, सू. 1670, पृ. 364 तथा पग्णवणासुत्तं भा. 2 पृ. 131 (ख) 'मिथ्यात्व-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगा बन्धहेतवः। -तत्वार्थसूत्र (ग) रामो य बोसो विय कम्मबीयं। -उत्तराध्ययन Page #1207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] [प्रज्ञापनासूत्र [1670 उ.] गौतम ! वह दो कारणों (स्थानों) से (ज्ञानावरणीय-कर्मबन्ध करता है), यथा-राग से और द्वेष से / राग दो प्रकार का कहा है, यथा-माया और लोभ / द्वष भी दो प्रकार का कहा है, यथा-क्रोध और मान / इस प्रकार वीर्य से उपाजित चार स्थानों (कारणों) से जीव ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है। 1671. एवं रइए जाव वेमाणिए / [1671] नैरयिक (से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (कहना चाहिए / ) 1672. जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्म कतिहि ठाणेहि बंधति ? गोयमा ! दोहि ठाणेहि, एवं चेव / [1672 प्र.] भगवन् ! बहुत जीव कितने कारणों से ज्ञानावरणीयकर्म बांधते हैं ? [1672 उ.] गौतम ! पूर्वोक्त दो कारणों से (बांधते हैं / ) तथा उन दो के भी पूर्ववत् चार प्रकार समझने चाहिए। 1673. एवं रइया जाव वेमाणिया / [1673] इसी प्रकार बहुत से नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिए / 1674. [1] एवं दसणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1674-1] दर्शनावरणीय (से लेकर) यावत् अन्तरायकर्म तक कर्मबन्ध के ये ही कारण समझने चाहिए। [2] एवं एते एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [1674-2] इस प्रकार एकत्व (एकवचन) और बहुत्व (बहुवचन) की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं। विवेचन-कितने कारणों से कर्मबन्ध होता है ? द्वितीय द्वार में कर्मप्रकृतियों के बन्ध का क्रम तथा उनके बहिरंग कारण बताये गए हैं, जबकि इस तृतीय द्वार में कर्मबन्ध के अन्तरंग कारणों पर विचार किया गया है।' राग-द्वेष एवं कषाय का स्वरूप-जो प्रीतिरूप हो, उसे राग और जो अप्रीतिरूप हो, उसे द्वेष कहते हैं / राग दो प्रकार का है---माया और लोभ / चूकि ये दोनों प्रीतिरूप हैं, इसलिए राग में समाविष्ट हैं, जबकि क्रोध और मान ये दोनों अप्रीतिरूप हैं, इसलिये इनका समावेश द्वेष में हो जाता है। क्रोध तो अप्रीतिरूप है ही, मान भी दूसरों के गुणों के प्रति असहिष्णुतारूप होने से अप्रीतिरूप है।' निष्कर्ष--(मूलपाठ के अनुसार) जीव अपने वीर्य से उपाजित पूर्वोक्त (दो और) चार कारणों से ज्ञानावरणीय तथा शेष सात कर्मों का बंध करता है / करते हैं / 1. पण्णवणासुत्त भाग 2 (२३वे पद पर विचार) पृ. 125 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, पृ. 169 3. वही पृ. 169 Page #1208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद]] [13 चतुर्थद्वार : कति-प्रकृतिवेदन-द्वार 1675. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा ! अत्थेगइए वेदेति, अत्थेगइए णो वेदेति / [1675 प्र.] भगवन ! क्या जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता है ? [1675 उ.] गौतम ! कोई जीव (ज्ञानावरणीयकर्म का) वेदन करता है और कोई नहीं करता। 1676. [1] रइए णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेति ? गोयमा! णियमा वेदेति / [1676-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता (भोगता) है ? [1676-1 उ.] गौतम ! वह नियम से वेदन करता है / [2] एवं जाव वेमाणिए / गवरं मणूसे जहा जीवे (सु. 1675) / [1676-2] (असुरकुमार से लेकर) यावत् वैमानिकपर्यन्त इसो प्रकार जानना चाहिए, किन्तु मनुष्य के विषय में (सू. 1675 में उक्त) जोव में समान वक्तव्यता समझनी चाहिए। 1677. [1] जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं वेदेति ? गोयमा ! एवं चेव। [1677-1 प्र.] भगवन् ! क्या बहुत जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन (अनुभव करते हैं ? [1677-1 उ.] गौतम ! पूर्ववत् सभी कथन जानना / [2] एवं जाव वेमाणिया। [1677-2] इसी प्रकार (बहुत से नैरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। 1678. [1] एवं जहा णाणावरणिज्जं तहा दंसणावरणिज्जं मोहणिज्जं अंतराइयं च / [1678-1] जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के सम्बन्ध में कथन किया गया है, उसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायकर्म के वेदन के विषय में समझना चाहिए। [2] वेदणिज्जाऽऽउय-णाम-गोयाइं एवं चेव / णवरं मणसे वि णियमा वेदेति / [1678-2] वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रकर्म के (जीव द्वारा वेदन के विषय में भी इसी प्रकार जानना चाहिए, किन्तु मनुष्य (इन चारों कर्मों का) वेदन नियम से करता है / [3] एवं एते एगत्त-पोहत्तिया सोलस दंडगा। [1678-3] इस प्रकार एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ये सोलह दण्डक होते हैं / विवेचन–समुच्चयजीव द्वारा किन कर्मों का वेदन होता है, किनका नहीं?--जिस जीव के घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वह ज्ञानावरणीयादि चार घातिकर्मों का वेदन करता है, किन्तु जिसने घातिकर्मों का क्षय कर डाला है, वह इन चारों कर्मों का वेदन नहीं करता है। मनुष्य को Page #1209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] {प्रज्ञापनासूत्र छोड़कर नैरयिक से लेकर वैमानिक तक कोई भी जीव घातिकर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं होते, इसलिए वे ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का वेदन करते हैं, मनुष्यों में जिनके चार घातिकर्मों का क्षय हो चुका है, वे ज्ञानावरणीयादि चार कर्मों का वेदन नहीं करते, परन्तु जिनके चार घातिकर्मों का क्षय नहीं हुआ है, वे उनका वेदन करते हैं। किन्तु वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र, इन चार अघाति कर्मों का शेष जीवों की तरह मनुष्य भी वेदन करता है, क्योंकि ये चार अधातिकर्म मनुष्य में चौदहवें गुणस्थान के अन्त तक बने रहते हैं / समुच्चय जीवों के कथन की अपेक्षा से संसारीजीव इन चार अघातिकर्मों का वेदन करते हैं, किन्तु मुक्त जीव वेदन नहीं करते / ' पंचमद्वार : कतिविध-अनुभावद्वार 1676. गाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स पुटुस्स बद्ध-फास-पुटुस्स संचितस्स चियस्स उचितस्स आवागपत्तस्स विवागपत्तस्स फलपत्तस्स उदयपत्तस्स जीवेणं कडस्स जीवेणं णिव्वत्तियस्स जीवेणं परिणामियस्स सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स गति पप्प ठिति पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णते? गोयमा! णाणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणभावे पण्णते। तं जहा–सोयावरणे 1 सोयविण्णाणावरणे २णेत्तावरणे 3 त्तविण्णाणावरणे 4 घाणावरणे 5 घाणविण्णाणावरणे 6 रसावरणे 7 रसविण्णाणावरणे 8 फासावरणे 9 फासविण्णाणावरणे 10 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं जाणियव्वं ण जाणइ, जाणिउकामे वि ण याणइ, जाणित्ता वि ण याणति, उच्छण्णणाणी यावि भवति गाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं। एस णं गोयमा! गाणावरणिज्जे कम्मे / एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प दसविहे अणुभावे पण्णत्ते 1 // 1676 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध (बांधे गये), स्पृष्ट, बद्ध और स्पृष्ट किये हुए, संचित, चित और उपचित किये हुए, किञ्चित् पाक को प्राप्त, विपाक को प्राप्त, फल को प्राप्त तथा उदय-प्राप्त, जीव के द्वारा कृत, जीव के द्वारा निष्पादित, जीव के द्वारा परिणामित, स्वयं के द्वारा उदीर्ण (उदय को प्राप्त), दूसरे के द्वारा उदीरित (उदीरणा-प्राप्त) या दोनों के द्वारा उदीरणा-प्राप्त, ज्ञानावरणीयकर्म का, गति को प्राप्त करके, स्थिति को प्राप्त करके, भव को, पुद्गल को तथा पुद्गलपरिणाम को प्राप्त करके कितने प्रकार का अनुभाव (फल) कहा गया है ? [1676 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का अनुभाव कहा गया है यथा-(१) श्रोत्रावरण, (2) श्रोत्रविज्ञानावरण, (3) नेत्रावरण, (4) नेत्रविज्ञानावरण, (5) घ्राणावरण, (6) घ्राणविज्ञानावरण, (7) रसावरण, (8) रसविज्ञानावरण, (9) स्पर्शावरण और (10) स्पर्शविज्ञानावरण / 1. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 175-76 (ख) पण्णवणासुतं भा.२, पृ.१३१ Page #1210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद] [15 ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जो पुद्गल को अथवा पुद्गलों को या पुद्गल-परिणाम को अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, उनके उदय से जानने योग्य को नहीं जानता, जानने का इच्छुक होकर भी नहीं जानता, जानकर भी नहीं जानता अथवा तिरोहित ज्ञान वाला होता है / गौतम ! यह है ज्ञानावरणीयकर्म / हे गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त करके ज्ञानावरणीयकर्म का दस प्रकार का यह अनुभाव कहा गया है / / 1 / / 1680. दरिसणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णते ? गोयमा ! दरिसणावरणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविहे अणुभावे पण्णते। तं जहा--णिद्दा 1 णिहाणिद्दा 2 पयला 3 पयलाफ्यला 4 थीणगिद्धी 5 चक्खुदंसणावरणे 6 अचक्खुदसणावरणे 7 प्रोहिदसणावरणे 8 केवलदसणावरणे / / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं पासियवं ण पासति, पासिउकामे वि ण पासति, पासित्ता वि ण पासति, उच्छन्नदसणी यावि भवति दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं / एस णं गोयमा ! दरिसणावरणिज्जे कम्मे / एस णं गोयमा ! दरिसणावरणिज्जस्स कम्मस्स जोवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणामं पप्प णवविहे अणुभावे पण्णत्ते 2 / [1680 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त करके दर्शनावरणीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? [1680 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को प्राप्त दर्शनावरणीयकर्म का नौ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / यथा--१. निद्रा, 2. निद्रा-निद्रा, 3. प्रचला, 4. प्रचलाप्रचला तथा 5. स्त्यानद्धि एवं 6. चक्षुदर्शनावरण, 7. अचक्षुदर्शनावरण, 8. अवधिदर्शनावरण और 6. केवलदर्शनावरण / दर्शनावरण के उदय से जो पुद्गल या पुद्गलों को अथवा पुद्गल-परिणाम को या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम को वेदता है, अथवा उनके उदय से देखने योग्य को नहीं देखता, देखना चाहते हुए भी नहीं देखता, देखकर भी नहीं देखता अथवा तिरोहित दर्शन वाला भी हो जाता है। गौतम ! यह है दर्शनावरणीयकर्म / हे गौतम ! जीव के द्वारा वद्ध यावत् पुद्गलपरिणाम को पाकर दर्शनावरणीयकर्म का नौ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / / 2 // 1681. [1] सातावेदणिज्जस्स गं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पोग्गलपरिणाम पप्प कतिविहे अणुभावे पण्णते? गोयमा ! सायावेदणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव अविहे अणुभावे पण्णते / तं जहा-मणुण्णा सदा 1 मणुष्णा रूवा 2 मणुण्णा गंधा 3 मणुण्णा रसा 4 मणण्णा फासा 5 मणोसुहता 6 वहसुहया 7 कायसुहया 8 / जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा बीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं सातावेदणिज्जं कम्मं वेदेति / एस णं गोयमा! सातावेदणिज्जे कम्मे / एस णं गोयमा ! सातावेयणिज्जस्स जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते। Page #1211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रजापनासूत्र [1681-1 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् पुद्गल-परिणाम को पाकर सातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? [1681-1 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध सातावेदनीयकर्म का यावत् आठ प्रकार का अनु. भाव कहा गया है / यथा-१. मनोज्ञशब्द, 2. मनोज्ञरूप, 3. मनोज्ञगन्ध, 4. मनोज्ञरस, 5. मनोज्ञस्पर्श, 6. मन का सौख्य, 7. वचन का सौख्य और 8. काया का सौख्य / जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का अथवा युद्गल-परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा उनके वेदनीयकर्म को वेदा जाता है। गौतम ! यह है सातावेदनीयकर्म और हे गौतम ! यह (जीव के द्वारा बद्ध) सातावेदनीयकर्म का यावत् पाठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / [2] असातावेयणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० तहेव पुच्छा उत्तरं च / नवरं अमणुण्णा सदा जाव कायदुहया / एस णं गोयमा ! असायावेदणिज्जस्स जाव अट्टविहे अणुभावे पण्णत्ते 3 / [1681-2 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् असातावेदनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि प्रश्न पूर्ववत् / [1681-2 उ.] इसका उत्तर भी पूर्ववत् (सातावेदनीयकर्मसम्बन्धी कथन के समान)जानना किन्तु (अष्टविध अनुभाव के नामोल्लेख में) 'मनोज्ञ' के बदले सर्वत्र 'अमनोज्ञ' (तथा सुख के स्थान पर सर्वत्र दुःख) यावत् काया का दुःख जानना / हे गौतम ! इस प्रकार असातावेदनीयकर्म का यह अष्टविध अनुभाव कहा गया है / / 3 / / 1682. मोहणिज्जस्स गं भंते ! कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव कतिविहे अणुभावे पण्णते ? गोयमा ! मोहणिज्जस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मत्तवेयणिज्जे 1 मिच्छत्तवेयणिज्जे 2 सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जे 3 कसायवेयणिज्जे 4 णोकसायवेयणिज्जे 5 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं मोहणिज्जं कम्मं वेदेति / एस णं गोयमा ! मोहणिज्जे कम्मे। एस णं गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते 4 / [1182 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् मोहनीयकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? [1682 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् मोहनीयकर्म का पाँच प्रकार का अनुभाव कहा गया है। यथा-१. सम्यक्त्व-वेदनीय, 2. मिथ्यात्व-वेदनीय, 3. सम्यग-मिथ्यात्व-वेदनीय, 4. कषाय-वेदनीय और 5. नो-कषाय-वेदनीय / जिस पुद्गल का अथवा पुद्गलों का या पुद्गल परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का अथवा उनके उदय से मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है। गौतम ! यह है-मोहनीयकर्म और हे गौतम ! यह मोहनीयकर्म का यावत् पंचविध अनुभाव कहा गया है / / 4 // 1683. प्राउअस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० तहेव पुच्छा। गोयमा ! आउअस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चउन्विहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहा-- Page #1212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद] [17 रइयाउए 1 तिरियाउए 2 मणुयाउए 3 देवाउए 4 / जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं आउयं कम्मं वेदेति / एस गं गोयमा ! पाउए कम्मे / एस णं गोयमा ! पाउअस्स कम्मस्स जाव चउम्बिहे अणुभावे पण्णते 5 / [1683 प्र. भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् आयुष्यकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1683 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् आयुष्यकर्म का चार प्रकार का अनुभाव कहा गया है / यथा-१. नारकायु, 2. तिर्यंचायु, 3. मनुष्यायु और 4. देवायु / जिस पुद्गल अथवा पुद्गलों का, पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का या उनके उदय से आयुष्यकर्म का वेदन किया जाता है, गौतम ! यह है—आयुष्यकर्म और यह आयुष्यकर्म का यावत् चार प्रकार का अनुभाव कहा गया है / / 5 / / 1684. [1] सुभणामस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० पुच्छा। गोयमा ! सुभणामस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव चोद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं जहा–इट्ठा सद्दा 1 इट्ठा रूवा 2 इट्ठा गंधा 3 इट्टा रसा 4 इट्ठा फासा 5 इट्टा गती 6 इटा ठिती 7 इठे लावण्णे 8 इट्ठा जसोकित्ती 6 इठे उढाण-कम्म-बल-विरिय-पुरिसक्कार-परक्कमे 10 इट्ठस्सरता 11 कंतस्सरता 12 पियस्सरया 13 मणुष्णस्सरया 14 / जं वेएइ पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं सुभणामं कम्मं वेदेति / एस णं गोयमा ! सुभनामे कम्मे / एस णं गोयमा ! सुभणामस्स कम्मस्स जाव चोद्दसविहे अणुभावे पण्णत्ते। [1684-1 प्र.) भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि प्रश्न / [1684-1 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् शुभ नामकर्म का चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है / यथा--(१) इष्ट शब्द, (2) इष्ट रूप, (3) इष्ट गन्ध, (4) इष्ट रस, (5) इष्ट स्पर्श, (6) इष्ट गति, (7) इष्ट स्थिति, (8) इष्ट लावण्य, (8) इष्ट यशोकीति, (10) इष्ट उत्थानकर्म-बल-वीर्य-पुरुषकार-पराक्रम, (11) इष्ट-स्वरता, (12) कान्त-स्वरता, (13) प्रिय-स्वरता और (14) मनोज्ञ-स्वरता / जो पुद्गल अथवा पुद्गलों का या पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से शुभनामकर्म को वेदा जाता है, गौतम ! यह है शुभनामकर्म तथा गौतम ! यह शुभनामकर्म का यावत् चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है / [2] दुहणामस्स णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! एवं चेव / गवरं प्रणिट्ठा सदा 1 जाव होणस्सरया 11 दीणस्सरया 12 प्रणिटुस्सरया 13 प्रकंतस्सरया 14 / जं वेदेति सेसं तं चेव जाव चोइसविहे अणुभावे पण्णत्ते 6 / [1684-2 प्र.] भगवन् ! अशुभनामकर्म का जीव के द्वारा बद्ध यावत् कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पृच्छा। Page #1213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] (प्रज्ञापनासूत्र [1684-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् अशुभनामकर्म का अनुभाव भी चौदह प्रकार का कहा गया है, (किन्तु वह है इससे विपरीत), यथा--अनिष्ट शब्द आदि यावत् (11) हीन-स्वरता, (12) दीन-स्वरता, (13) अनिष्ट-स्वरता और (14) अकान्त-स्वरता। जो पुद्गल आदि का वेदन किया जाता है यावत् अथवा उनके उदय से दुःखनामकर्म को बेदा जाता है। शेष सब पूर्ववत्, यावत् चौदह प्रकार का अनुभाव कहा गया है / / 6 / / 1685. [1] उच्चागोयस्स णं भंते ! कम्मस्स जीवेणं० पुच्छा। गोयमा ! उच्चागोयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव प्रदविहे अणुभावे पण्णत्ते / तं महा-जातिविसिट्ठया 1 कुलविसिट्ठया 2 बलविसिट्ठया 3 रूवविसिट्ठया 4 तविसिट्ठया 5 सुयविसिट्ठया 6 लाभविसिट्ठया 7 इस्सरियविसिट्टया 8 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम, तेसि वा उदएणं जाव अढविहे अणुभावे पण्णत्ते / [1685-1 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1685.1 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् उच्चगोत्रकर्म का आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है। यथा-(१) जाति-विशिष्टता, (2) कुल-विशिष्टता, (3) बल-विशिष्टता, (4) रूप-विशिष्टता, (5) तप-विशिष्टता, (6) श्रुत-विशिष्टता, (7) लाभ-विशिष्टता और (8) ऐश्वर्य-विशिष्टता। जो पुद्गल अथवा पुदगलों का, पुद्गल-परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से उच्चगोत्रकर्म को वेदा जाता है, यावत् यही उच्चगोत्रकर्म है, जिसका (उपर्युक्त) आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / [2] णीयागोयस्स गं भंते ! * पुच्छा। गोयमा! एवं चेव / णवरं जातिविहीणया जाव 1 इस्सरियविहीणया 8 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा पोग्गलपरिणामं वा वीससा वा पोग्गलाणं परिणामं, तेसि वा उदएणं जाव अट्टविहे मणुभावे पण्णत्ते 7 // [1685.2 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् नीचगोत्रकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव ? इत्यादि पृच्छा। [1685-2 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (नीचगोत्र का अनुभाव भी उतने ही प्रकार का है, परन्तु वह विपरीत है) यथा--जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता / पुद्गल का, पुद्गलों का, अथवा पुद्गल-परिणाम का या स्वभाव से पुद्गलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उन्हीं के उदय से नीचगोत्रकर्म का वेदन किया जाता है / गौतम यह है-नीचगोत्रकर्म और यह यावत् उसका आठ प्रकार का अनुभाव कहा गया है / / 7 / / 1686. अंतराइयस्स गं भंते ! कम्मस्स जीवेणं पुच्छा। Page #1214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद [19 - गोयमा ! अंतराइयस्स णं कम्मस्स जीवेणं बद्धस्स जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते। तं जहादाणंतराए 1 लाभंतराए 2 भोगतराए 3 उवभोगंतराए 4 वोरियंतराए 5 / जं वेदेति पोग्गलं वा पोग्गले वा जाव वीससा वा पोग्गलाणं परिणाम वा, तेसि वा उदएणं अंतराइयं कम्मं वेदेति / एस णं गोयमा ! अंतराइए कम्मे / एस गं गोयमा ! जाव पंचविहे अणुभावे पण्णत्ते 8 / [1686 प्र.] भगवन् ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का कितने प्रकार का अनुभाव कहा गया है ? इत्यादि पूर्ववत् पृच्छा। [1686 उ.] गौतम ! जीव के द्वारा बद्ध यावत् अन्तरायकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है, यथा-(१) दानान्तराय, (2) लाभान्तराय, (3) भोगान्त राय, (4) उपभोगान्तराय और (5) वीर्यान्तराय / पदगल का या पदगलों का अथवा पदगल-परिणाम का या स्वभाव से पूदगलों के परिणाम का जो वेदन किया जाता है अथवा उनके उदय से जो अन्तरायकर्म को वेदा जाता है। यही है गौतम ! वह अन्तरायकर्म, जिसका हे गौतम ! पांच प्रकार का अनुभाव कहा गया है।1८॥ विवेचनबद्ध, पुट्ट आदि पदों के विशेषार्थ-बद्ध-राग-द्वेष-परिणामों के वशीभूत होकर बांधा गया, अर्थात्-कर्मरूप में परिणत किया गया। पुट्ठ-स्पृष्ट- अर्थात् प्रात्म-प्रदेशों के साथ सन्बन्ध को प्राप्त / बद्धफासपृट्र-बद्ध-स्पश-स्पष्ट-- पूनः प्रगाढरूप में बद्ध तथा अत्यन्त स्पर्श से स्पृष्ट, अर्थात् आवेष्टन, परिवेष्टनरूप से अत्यन्त गाढतर बद्ध / संचित--जो संचित है, अर्थात्अबाधाकाल के पश्चात् वेदन के योग्य रूप में निषिक्त किया गया है / चित--जो चय को प्राप्त हुआ है, अर्थात् उत्तरोत्तर स्थितियों में प्रदेश-हानि और रसद्धि करके स्थापित किया गया है। उपचित-उपचित, अर्थात जो समानजातीय अन्य प्रकृतियों के दलिकों में संक्रमण करके उपचय को प्राप्त है / विवागपत्त-जो विपाक को प्राप्त हुआ है, अर्थात् विशेष फल देने को अभिमूख हा है। पावागपत्त-आपाकप्राप्त, अर्थात् जो थोड़ा-सा फल देने को अभिमुख हुआ है / फलपत्तफलप्राप्त, अर्थात् अतएव जो फल देने को अभिमुख हुआ है। उदयपत्त-उदय-प्राप्त, जो सामग्रीवशात् उदय को प्राप्त है / जोवेणं कडस्स-जीव के-कर्मबन्धन बद्ध जीव के द्वारा कृत / प्राशय यह है कि जीव उपयोग-स्वभाव वाला होने से रागादि परिणाम से युक्त होता है, अन्य नहीं। रागादि परिणाम से युक्त होकर वह कर्मोपार्जन करता है तथा रागादि परिणाम भी कर्मबन्धन से बद्ध जीव के ही होता है, कर्मबन्धनमुक्त सिद्धजीव के नहीं। अत: जीव के द्वारा कृत का भावार्थ है-कर्मबन्धन से बद्ध जीव के द्वारा उपाजित / कहा भी है 'जोवस्तु कर्मबन्धन-बद्धो, वीरस्य भगवतः कर्ता। सन्तत्याऽनाद्य च तदिष्टं कर्मात्मनः कर्तुः॥ अर्थात-भगवान महावीर के मत में कर्मबन्धन से बद्ध जीव ही कर्मों का कर्ता माना गया है। प्रवाह की अपेक्षा से कर्मबन्धन अनादिकालिक है / अतएव अनादिकालिक कर्मबन्धनबद्ध जीव (आत्मा) ही कर्मों का कर्ता अभीष्ट है। जीवेणं णिव्यत्तियस्स-जीव के द्वारा निष्पादित. ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म जीव Page #1215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] [प्रज्ञापनासून के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि के रूप में व्यवस्थापित किया गया है। प्राशय यह है कि कर्मबन्ध के समय जीव सर्वप्रथम कर्मवर्गणा के साधारण (अविशिष्ट) पुद्गलों को ही ग्रहण करता है अर्थात् उस समय ज्ञानावरणीय आदि भेद नहीं होता। तत्पश्चात् अनाभोगिक वीर्य के द्वारा उसी कर्मबन्ध के समय ज्ञानावरणीय आदि विशेषरूप में परिणत-व्यवस्थापित करता है, जैसे-पाहार को रसादिरूप धातुओं के रूप में परिणत किया जाता है, इसी प्रकार साधारण कर्मवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके ज्ञानावरणीय आदि विशिष्ट रूपों में परिणत करना निवर्तन' कहलाता है। जीवेणं परिणामियस्स-जीव के द्वारा परिणामित, अर्थात् ज्ञान-प्रद्वेष, ज्ञान-निह्नव आदि विशिष्ट कारणों से उत्तरोत्तर परिणाम को प्राप्त किया गया। सयं वा उदिण्णस्स आदि कर्म स्वतः ही उदय को प्राप्त हुआ है, अर्थात्-परनिरपेक्ष होकर स्वयं ही विपाक को प्राप्त हुआ है / परेण का उदोरियस्स--अथवा दूसरे के द्वारा उदीरित किया गया है, अर्थात्-उदय को प्राप्त कराया गया है / तदुभएण वा उदीरिज्जमाणस्स-अथवा जो (ज्ञानावरणीयादि) कर्म स्व और पर के द्वारा उदय को प्राप्त किया जा रहा है। स्वनिमित्त से उदय को प्राप्त—गति पप्प-गति को प्राप्त करके, अर्थात्-कोई कर्म किसी गति को प्राप्त करके तीव्र अनुभाव वाला हो जाता है, जैसे-असातावेदनीय कर्म नरकगति को प्राप्त करके तीव अनुभाव वाला हो जाता है / नैरयिकों के लिए असातावेदनीय कर्म जितना तीव्र होता है, उतना तिर्यञ्चों आदि के लिए नहीं होता। ठिति पप्प-स्थिति को प्राप्त अर्थातसर्वोत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त अशुभकर्म मिथ्यात्व के समान तीव्र अनुभाव वाला होता है / भवं पप्पभव को प्राप्त करके / प्राशय यह है कि कोई-कोई कर्म किसी भवविशेष को पाकर अपना विपाक विशेषरूप से प्रकट करता है / जैसे--मनुष्यभव या तिर्यञ्चभव को पाकर निद्रारूप दर्शनावरणीयकर्म अपना विशिष्ट अनुभाव प्रकट करता है / तात्पर्य यह है ज्ञानावरणीय प्रादि कर्म उस-उस गति, स्थिति या भव को प्राप्त करके स्वयं उदय को प्राप्त (फलाभिमुख) होता है। परनिमित्त से उदय को प्राप्त---पोग्गलं पप्प-पुद्गल को प्राप्त करके / अर्थात् काष्ठ, ढेला या तलवार आदि पुद्गलों को प्राप्त करके अथवा किसी के द्वारा फेंके हुए काष्ठ, ढेला, पत्थर, खड आदि के योग से भी असातावेदनीय आदि कर्म का या क्रोधादिरूप कषायमोहनीयकर्म ग्रादि का उदय हो जाता है। पोग्गलपरिणामं पप्प-पुद्गल परिणाम को प्राप्त करके, अर्थात् पुद्गलपरिणाम के योग से भी कोई कर्म उदय में पा जाता है, जैसे--मदिरापान के परिणामस्वरूप ज्ञानावरणीयकर्म का अथवा भक्षित आहार के न पचने से असातावेदनीयकर्म का उदय हो जाता है। प्रश्न का निष्कर्ष-सू. 1676 के प्रश्न का निष्कर्ष यह है कि जो ज्ञानावरणीयकर्म बद्ध, स्पष्ट आदि विभिन्न प्रकार के निमित्तों का योग पाकर उदय में आया है, उसका अनुभाव (विपाकफल) कितने प्रकार का है ? 2 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग. 5, पृ. 181 से 184 तक 2. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 365 Page #1216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद [21 ज्ञानावरणीय कर्म का दस प्रकार का अनुभाव : क्या, क्यों और कैसे ?--मूलपाठ में ज्ञानावरणीयकर्म का श्रोत्रावरण आदि दस प्रकार का अनुभाव बताया है / श्रोत्रावरण का अर्थ हैश्रोत्रेन्द्रिय-विषयक क्षयोपशम (लब्धि) का आवरण, श्रोत्रविज्ञानावरण का अर्थ है-श्रोत्रेन्द्रिय के उपयोग का प्रावरण / इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के लब्धि (क्षयोपशम) और उपयोग का प्रावरण समझ लेना चाहिए। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों को प्राय: श्रोत्र, नेत्र, घ्राण और रसना-विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। द्वीन्द्रिय जीवों को श्रोत्र, नेत्र और घ्राण-सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। त्रीन्द्रिय जीवों को श्रोत्र और नेत्र-विषयक लब्धि और उपयोग का प्रावरण होता है / चतुरिन्द्रिय जीवों को श्रोत्र-विषयक लब्धि और उपयोग का आवरण होता है। जिनका शरीर कुष्ठ आदि रोग से उपहत हो गया हो, उन्हें स्पर्शेन्द्रिय-सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का प्रावरण होता है। जो जन्म से अन्धे, बहरे, गंगे आदि हैं या बाद में हो गए हैं, नेत्र, श्रोत्र आदि इन्द्रियों सम्बन्धी लब्धि और उपयोग का प्रावरण समझ लेना चाहिए। इन्द्रियों की लब्धि और उपयोग का प्रावरण स्वयं ही उदय को प्राप्त या दूसरे के द्वारा उदीरित ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से होता है। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-जं वेवेइ पोग्गलं वा इत्यादि, अर्थात्-दूसरे के द्वारा फेंके गए या प्रहार करने में समर्थ काष्ठ, खड्ग प्रादि पुद्गल अथवा बहुत-से पुद्गलों से, जो कि ज्ञान का उपघात करने में समर्थ होते हैं, ज्ञान का या ज्ञान-परिणति का उपघात-आघात होता है अथवा जिस भक्षित आहार या सेवित पेय का परिणाम प्रतिद्ःखजनक होता है, उससे भी ज्ञान-परिणति का उपघात होता है अथवा स्वभाव से शीत, उष उष्ण, धुप मादिरूप पुदगल-परिणाम का जब वेदन किया जाता है, तब उससे इन्द्रियों का उपघात (क्षति होने से ज्ञानपरिणति का भी उपघात होता है, जिसके कारण जीव इन्द्रिय-गोचर ज्ञातव्य वस्तु को नहीं जान पाता / यहाँ तक ज्ञानावरणकर्म का सापेक्ष उदय बताया गया है। इसके पश्चात् शास्त्रकार निरपेक्ष उदय भी बताते हैं-ज्ञानावरणीय कर्मपुद्गलों के उदय से जीव अपने जानने योग्य (ज्ञातव्य) का ज्ञान नहीं कर पाता, जानने की इच्छा होने पर भी जानने में समर्थ नहीं होता अथवा पहले जान कर भी पश्चात ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से नहीं जान पाता अथवा ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से जीव का ज्ञान तिरोहित (लुप्त) हो जाता है। यही ज्ञानावरणीयकर्म का स्वरूप है।' दर्शनावरणीयकर्म का नवविध अनुभाव : कारण, प्रकार और उदय-दर्शनावरणीयकर्म के अनुभाव के कारण वे ही बद्ध, स्पृष्ट आदि हैं, जो ज्ञानावरणीयकर्म के अनुभाव के लिए बताये हैं। वे अनुभाव नौ प्रकार के हैं, जिनमें निद्रादि का स्वरूप दो गाथाओं में इस प्रकार बताया गया है सुह-पडिबोहा णिहा, णिहाणिद्दा य दुक्खपडिबोहा। पयला होइ ठियस्स उ, पयल-पयला य चकमतो॥१॥ थीणगिद्धी पुण अइसंकिलिट्ठ-कम्माणवेयणे होई। महणिद्दा दिण-चिंतिय-वावार-पसाहणी पायं // 2 // 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भाग 5, पृ.१८५-१८६ Page #1217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] [प्रज्ञापनासूत्र अर्थात--जिस निद्रा से सरलतापूर्वक जागा जा सके, वह 'निद्रा' है। जो निद्रा बड़ी कठिनाई से भंग हो, ऐसी गाढ़ी नींद को 'निद्रानिद्रा' कहते हैं / बैठे-बैठे आने वाली निद्रा 'प्रचला' कहलाती है तथा चलते-फिरते आने वाली निद्रा 'प्रचला-प्रचला' है। अत्यन्त संक्लिष्ट कर्मपरमाणुओं का वेदन होने पर आने वाली निद्रा स्त्यानद्धि या स्त्यानगृद्धि कहलाती है। इस महानिद्रा में जीव अपनी शक्ति से अनेकगुणी अधिक शक्ति पाकर प्रायः दिन में सोचे हुए असाधारण कार्य कर डालता है। चक्षुदर्शनावरण आदि का स्वरूप--चक्षुदर्शनावरण-नेत्र के द्वारा होनेवाले दर्शन–सामान्य उपयोग का प्रावृत हो जाता / प्रचक्षुदर्शनावरण-नेत्र के अतिरिक्त अन्य इन्द्रियों से होने वाले सामान्य उपयोग का आवृत होना / अवधिदर्शनावरण-अवधिदर्शन का प्रावृत हो जाना / केवलदर्शनावरण-केवलदर्शन को उत्पन्न न होने देना। दर्शनावरणीयकर्मोदय का प्रभाव-ज्ञानावरणीयकर्म की तरह दर्शनावरणीयकर्म में भी स्वयं उदय को प्राप्त अथवा दसरे के द्वारा उदीरित दर्शनावरणीयकर्म के उदय से इन्द्रियों के लब्धि और उपयोग का आवरण हो जाता है। पूर्ववत् दर्शन-परिणाम का उपघात होता है, जिसके कारण जीव द्रष्टव्य-देखने योग्य इन्द्रियगोचर वस्तु को भी नहीं देख पाता, इत्यादि दर्शनावरणीयकर्म के उदय से पूर्ववत् दर्शनगुण की विविध प्रकार से क्षति हो जाती है।' सातावेदनीय और असातावेदनीयकर्म का अष्टविध अनुभाव : कारण, प्रकार और उदयसातावेदनीय और असातावेदनीय दोनों प्रकार के वेदनीयकर्मों के पाठ-आठ प्रकार के अनुभाव बताए गए हैं / इन अनुभावों के कारण तो वे ही ज्ञानावरणीयकर्म-सम्बन्धी अनुभाव के समान हैं। सातावेदनीय के अष्टविध अनुभावों का स्वरूप-(१) मनोज्ञ वेण, वीणा आदि के शब्दों की प्राप्ति, (2) मनोज्ञ रूपों की प्राप्ति, (3) मनोज्ञ इत्र, चन्दन, फल आदि सुगन्धों की प्राप्ति, (4) मनोज्ञ सुस्वादु रसों की प्राप्ति, (5) मनोज्ञ स्पर्शों की प्राप्ति, (6) मन में सुख का अनुभव, (7) वचन में सुखीपन, जिसका वचन सुनने मात्र से कर्ण और मन में आह्लाद उत्पन्न करने वाला हो और (8) काया का सुखीपन / सातावेदनीयकर्म के उदय से आठ प्रकार के अनुभाव होते हैं। परनिमित्तक सातावेदनीयकर्मोदय–जिन माला, चन्दन आदि एक या अनेक पुद्गलों का प्रासेवन किया (वेदा) जाता है अथवा देश, काल, वय एवं अवस्था के अनुरूप आहारपरिणतिरूप पुद्गल-परिणाम वेदा जाता है अथवा स्वभाव से पुद्गलों के शीत, उष्ण, पातप आदि की वेदना के प्रतीकार के लिए यथावसर अभीष्ट पुद्गल-परिणाम का सेवन किया (वेदा) जाता है, जिससे मन को समाधि---प्रसन्नता प्राप्त होती है। यह परिनिमित्तक सातावेदनीयकर्मों के उदय से सातावेदनीयकर्म का अनुभाव है। सातावेदनीयकर्म के फलस्वरूप साता-सुख का संवेदन (अनुभव) होता है। सातावेदनीयकर्म के स्वतः उदय होने पर कभी-कभी मनोज्ञ शब्दादि (परनिमित्त) के बिना भी सुखसाता का संवेदन होता है / जैसे-तीर्थकर भगवान् का जन्म होने पर नारक जीव भी किंचित् काल पर्यन्त सुख का वेदन (अनुभव) करते हैं / 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 189 से 191 Page #1218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद] असातावेदनीयकर्म का अष्टविध अनुभाव-सातावेदनीय के अनुभाव (विपाक) के समान है पर यह अनुभाव सातावेदनीय से विपरीत है / विष, शस्त्र, कण्टक आदि पुद्गल या पुद्गलों का जब वेदन किया जाता है अथवा अपथ्य या नीरस आहारादि पुद्गल-परिणाम का अथवा स्वभाव से यथाकाल होने वाले शीत, उष्ण, आतप आदिरूप पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, तब मन को असमाधि होती है, शरीर को भी दुःखानुभव होता है तथा तदनुरूप वाणी से भी असाता के उद्गार निकलते हैं। ऐसा अनुभाव असातावेदनीय का है। असातावेदनीयकर्म के उदय से असातारूप (दुःखरूप) फल प्राप्त होता है / यह परत: असातावेदनीयोदय का प्रतिपादन है। किन्तु विना ही किसी परनिमित्त के असातावेदनीयकर्म-पुद्गलों के उदय से जो दुःखानुभव (दु:खवेदन) होता है, वह स्वतः असातावेदनीयोदय है / ' __ मोहमीयकर्म का पंचविध अनुभाव : क्या, क्यों और कैसे ? ---पूर्वोक्त प्रकार से जीव के द्वारा बद्ध आदि विशिष्ट मोहनीयकर्म का पांच प्रकार का अनुभाव है-(१) सम्यक्त्ववेदनीय, (2) मिथ्यात्ववेदनीय, (3) सम्यग्-मिथ्यात्ववेदनीय, (4) कषायवेदनीय और (5) नोकषायवेदनीय। इनका स्वरूप क्रमशः इस प्रकार है सम्यक्त्ववेदनीय-जो मोहनीयकर्म सम्यक्त्व-प्रकृति के रूप में वेदन करने योग्य होता है, उसे सम्यक्त्ववेदनीय कहते हैं, अर्थात्-जिसका वेदन होने पर प्रशम आदि परिणाम उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्ववेदनीय है। मिथ्यात्ववेदनीय-जो मोहनीयकर्म मिथ्यात्व के रूप में वेदन करने योग्य है, उसे मिथ्यात्ववेदनीय कहते हैं। अर्थात्--जिसका वेदन होने पर दृष्टि मिथ्या हो जाती है, अर्थात् अदेव आदि में देव आदि की बुद्धि उत्पन्न होती है, वह मिथ्यात्ववेदनीय है। सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय–जिसका वेदन होने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिला-जुला परिणाम उत्पन्न होता है, वह सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय है। कषायवेदनीय-जिसका वेदन क्रोधादि परिणामों का कारण होता है, वह कषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय-जिसका वेदन हास्य आदि का कारण हो, वह नोकषायवेदनीय है। परतः मोहनीय-कर्मोदय का प्रतिपावन-जिस पुद्गल-विषय अथवा जिन बहुत से पुद्गल विषयों का वेदन किया जाता है। अथवा जिस पुद्गल-परिणाम को, जो कर्म पुद्गल-विशेष को ग्रहण करने में समर्थ हो एवं देश-काल के अनुरूप आहार परिणामरूप हो, वेदन किया जाता है। जैसे कि ब्राह्मी आदि के आहार-परिणमन से ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम देखा जाता है / इससे स्पष्ट है कि आहार के परिणमन-विशेष से भी कभी-कभी कर्मपुद्गलों में विशेषता आ जाती है / कहा भी है उदय-क्खय-खोवसमोवसमा वि य जंच कम्मणो भणिया। दव्वं खेत्तं कालं भावं च भवं च संयप्प // 1 // अर्थात्-कर्मों के जो उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशम कहे गए हैं, वे भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव का निमित्त पाकर होते हैं अथवा स्वभाव से ही जिस पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, जैसे-आकाश में बादलों आदि के विकार को देख कर मनुष्यों को ऐसा वेदन 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 204-205 Page #1219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] [प्रज्ञापनासूत्र (विवेक) उत्पन्न होता है कि मनुष्यों की प्रायु शरद् ऋतु के मेघों के समान है, सम्पत्ति पुष्पित वृक्ष के सार के समान है और विषयोपभोग स्वप्न में दृष्ट वस्तुओं के उपभोग के समान है। वस्तुतः इस जगत् में जो भी रमणीय प्रतीत होता है, वह केवल कल्पनामात्र ही है अथवा प्रशम आदि के कारणभूत जिस किसी बाह्य पदार्थ के प्रभाव से सम्यक्त्वमोहनीय आदि मोहनीयकर्म का वेदन किया जाता है, यह परत: मोहनीयकर्मोदय का प्रतिपादन है। स्वतः मोहनीयकर्मोदय-प्रतिपादन जो सम्यक्त्ववेदनीय आदि कर्मपुद्गलों के उदय से मोहनीयकर्म का वेदन (प्रशमादिरूपफल का वेदन) किया जाता है, वह स्वतः मोहनीय कर्मोदय है।' __ प्रायुकर्म का अनुभाव : प्रकार, स्वरूप, कारण-आयुकर्म का अनुभाव चार प्रकार से होता है-नैरयिकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु / परतः आयुकर्म का उदय-प्रायु का अपवर्तन (हास) करने में समर्थ जिस या जिन शस्त्र आदि पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है अथवा विष एवं अन्न आदि परिणामरूप पुद्गलपरिणाम का वेदन किया जाता है अथवा स्वभाव से आयु का अपवर्तन करने वाले शीत-उष्णादिरूप पुद्गल परिणाम का वेदन किया जाता है, उससे भुज्यमान अायु का अपवर्तन होता है / यह है-- आयुकर्म के परतः उदय का निरूपण / / स्वतः प्रायुकर्म का उदय-नारकायुकर्म आदि के पुद्गलों के उदय से जो नारकायु आदि कम का वेदन किया जाता है, वह स्वत: आयुकर्म का उदय है।' नामकर्म के अनुभावों का निरूपण-नामकर्म के मुख्यतया दो भेद हैं-शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म / शुभनामकर्म का इष्ट शब्द आदि 14 प्रकार का अनुभाव (विपाक) कहा है / उनका स्वरूप इस प्रकार है-इष्ट का अर्थ है-अभिलषित (मनचाहा) / नामकर्म का प्रकरण होने से यहाँ अपने ही शब्द आदि समझने चाहिए। अपना ही अभीष्ट शब्द (वचन) इष्ट शब्द है। इसी तरह इष्ट रूप, गन्ध, रस और स्पर्श समझना चाहिए। इष्ट गति के दो अर्थ हैं-(१) देवगति या मनुष्यगति अथवा (2) हाथी आदि जैसी उत्तम चाल / इष्ट स्थिति का अर्थ है-इष्ट और सहज सिंहासन आदि पर आरोहण / इष्ट लावण्य अर्थात्-अभीष्ट कान्ति-विशेष अथवा शारीरिक सौन्दर्य / इष्ट यशः कोति-विशिष्ट पराक्रम प्रदर्शित करने से होने वाली ख्याति को यश कहते हैं और दान, पुण्य आदि से होने वाली ख्याति को कीति कहते हैं। उत्थानादि छह का विशेषार्थ-शरीर-सम्बन्धी चेष्टा को उत्थान, भ्रमण आदि को कर्म, शारीरिक शक्ति को बल, आत्मा से उत्पन्न होने वाले सामर्थ्य को वीर्य, आत्मजन्य स्वाभिमान-विशेष को पुरुषकार और अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर लेने वाले पुरुषार्थ को पराक्रम कहते हैं / इष्ट स्वर-वीणा आदि के समान वल्लभ स्वर / कान्तस्वर-कोकिला के स्वर के समान कमनीय स्वर / इष्ट सिद्धि प्रादि सम्बन्धी स्वर के समान जो स्वर बार-बार अभिलषणीय हो, वह प्रियस्वर; तथा मनोवांछित लाभ आदि के तुल्य जो स्वर स्वाश्रय में प्रीति उत्पन्न कराए, वह मनोज्ञ स्वर कहलाता है। शुभनामकर्म के परतः एवं स्वतः उदय का निरूपण-वीणा, वेणु, वर्ण, गन्ध, ताम्बूल, पट्टाम्बर, पालखी, सिंहासन आदि शुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, इन वस्तुओं 1. प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5 पृ. 208 से 210 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 211 Page #1220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [25 तेईसवां कर्मपद] (पुद्गलों) के निमित्त से शब्द आदि की अभीष्टता सूचित की गई है। अथवा जिस ब्राह्मो औषधि प्रादि पाहार के परिणमनरूप पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है। अथवा स्वभाव से शुभ मेघ प्रादि की छटा या घटाटोप को देखकर शुभ पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है / जैसेवर्षाकालीन मेघों की घटा देखकर युवतियाँ इष्ट स्वर में गान करने में प्रवृत्त होती हैं। उसके प्रभाव से शुभनामकर्म का वेदन किया जाता है। अर्थात् शुभनामकर्म के फलस्वरूप इष्ट-स्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परनिमित्तक शुभनामकर्म का उदय है। जब शुभनामकर्म के पुद्गलों के उदय से इष्ट शब्दादि शुभनामकर्म का वेदन होता है, तब स्वतः नामकर्म का उदय समझना चाहिए। अशुभनामकर्म का अनुभाव-जीव के द्वारा बद्ध, स्पृष्ट आदि विशेषणों से विशिष्ट दुःख (अशुभ) नामकर्म का अनुभाव भी पूर्ववत् 14 प्रकार का है, किन्तु वह शुभ से विपरीत है / जैसेअनिष्ट शब्द इत्यादि / गधा, ऊंट, कुत्ता आदि के शब्दादि अशुभ पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, क्योंकि उनके सम्बन्ध से अनिष्ट शब्दादि उत्पन्न होते हैं। यह सब पूर्वोक्त शुभनामकर्म से विपरीतरूप में समझ लेना चाहिए। अथवा विष आदि आहार-परिणामरूप जिस पुद्गल-परिणाम का या स्वभावत: वज्रपात (बिजली गिरना) पादिरूप जिस पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है तथा उसके प्रभाव से अशुभनामकर्म के फलस्वरूप अनिष्टस्वरता आदि का अनुभव होता है। यह परतः अशुभनामकर्मोदय का अनुभाव है। जहाँ नामकर्म के अशुभकर्मपुद्गलों से अनिष्ट शब्दादि का वेदन होता हो, वहां स्वत: अशुभनामकर्मोदय समझना चाहिए।' . गोत्रकर्म का अनुभाव : भेद, प्रकार, कारण-गोत्रकर्म के भी मुख्यतया दो भेद हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र / उच्च जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य की विशिष्टता का अनुभव (वेदन) उच्चगोत्रानुभाव है तथा नीच जाति आदि की विशिष्टता का अनुभव नीचगोत्रानुभाव है। उच्चगोत्रानुभाव : कैसे और किन कारणों से ?-उस-उस द्रव्य के संयोग से या राजा आदि विशिष्ट पुरुष के संयोग से नीच जाति में जन्मा हुया पुरुष भी जातिसम्पन्न और कुलसम्पत्र के समान लोकप्रिय हो जाता है। यह जाति और कुल की विशिष्टता हुई / बलविशेषता भी मल्ल आदि किसी विशिष्ट पुरुष के संयोग से होती है। जैसे- लकड़ी घुमाने से मल्लों में शारीरिक बल पैदा होता है, यह बल की विशेषता है। विशेष प्रकार के वस्त्रों और अलंकारों से रूप की विशेषता उत्पन्न होती है। पर्वत की चोटी पर खडे होकर अातापना आदि लेने वाले में तप की विशेषता उत्पन्न हो रमणीय भूभाग में स्वाध्याय करने वाले में श्रत की विशेषता उत्पन्न होती है। बहुमूल्य उत्तम रत्न आदि के संयोग से लाभ की विशेषता उत्पन्न होती है / धन, स्वर्ण आदि के सम्बन्ध से ऐश्वर्य की विशेषता उत्पन्न होती है। इस प्रकार बाह्य द्रव्यरूप शुभ पुद्गल या पुद्गलों का जो वेदन किया जाता है, या दिव्य फल आदि के आहार-परिणामरूप जिस पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, अथवा स्वभाव से जिन पुद्गलों का परिणाम, अकस्मात् जल धारा के आगमन आदि के रूप में वेदा जाता है, यही है उच्चगोत्र कर्मफल का वेदन | ये परतः उच्चगोत्रनामकर्मोदय के कारण हैं। स्वतः उच्चगोत्रकर्मोदय में तो उच्चगोत्र-नामकर्म के पुद्गलों का उदय ही कारण है। 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टोका, भा. 5, पृ. 213 से 217 तक Page #1221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] [प्रज्ञापनासूत्र नीचगोत्रानुभाव : प्रकार और कारण-पूर्ववत् नीचगोत्रानुभाव भी 8 प्रकार का है, और उच्चगोत्र के फल से नीचगोत्र का फल एकदम विपरीत है / यथा-जाति-विहीनता आदि / जाति-कुल-विहीनता–अधम कर्म या अधम पुरुष के संसर्गरूप-पुद्गल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, जैसे कि अधर्मकर्मवशात् उत्तम कुल और जाति वाला व्यक्ति अधम आजीविका या चाण्डालकन्या का सेवन करता है, तब वह चाण्डाल के समान ही लोक-निन्दनीय होता है, यह जातिकुल-विहीनता है / सुखशय्या आदि का योग न होने से बलहीनता होती है। दूषित अन्न, खराब वस्त्र आदि के योग से रूपहीनता होती है। दुष्ट जनों के सम्पर्क से तपोहीनता उत्पन्न होती है। साध्वाभास आदि के सम्पर्क से श्रतविहीनता होती है। देशकाल आदि के प्रतिकुल कूक्रय (गलत खरीद) आदि से लाभविहीनता होती है। खराब घर एवं कुलटा स्त्री आदि के सम्पर्क से ऐश्वर्यहीनता होती है। अथवा बैंगन आदि आहारपरिणमनरूप पुद्गल-परिणाम का वेदन किया जाता है, क्योंकि बैंगन खाने से खुजली होती है, और उससे रूपविहीनता उत्पन्न होती है। अथवा स्वभाव से अशुभपुद्गलपरिणाम का जो वेदन किया जाता है, जैसे जलधारा के प्रागमन-सम्बन्धी विसंवाद, उसके प्रभ से भी नीचगोत्रकर्म के फलस्वरूप जातिविहीनता आदि का वेदन होता है। यह परत: नीचगोत्रकर्मोदय का निरूपण हुआ। स्वतः नीचगोत्रोदय में नीचगोत्रकर्म के पुद्गलों का उदय कारणरूप होता है। उससे जातिविहीनता आदि का अनुभव किया जाता है।' अन्तरायकर्म का पंचविध अनुभाव : स्वरूप और कारण-दान देने में विघ्न या जाना दानान्तराय है, लाभ में बाधाएँ पाना लाभान्तराय है, इसी प्रकार भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न होना भोगान्तराय आदि है। विशिष्ट प्रकार के रत्नादि पुदगल या पुद्गलों का वेदन किया जाता है, यावत् विशिष्ट रत्नादि पुद्गलों के सम्बन्ध से उस विषय में ही दानान्तरायकर्म का उदय होता है। सेंध आदि लगाने के उपकरण आदि के सम्बन्ध से लाभान्तराय कर्मोदय होता है। विशेष प्रकार के प्राहार के या अभोज्य अर्थ के सम्बन्ध से लोभ के कारण भोगान्तरायकर्म का उदय होता है। इसी प्रकार उपभोगान्तराय कर्म का उदय भी समझ लेना चाहिए। लकड़ी, शस्त्र आदि की चोट से वीर्यान्तराय का उदय होता है / अथवा जिस पुद्गलपरिणाम का-विशिष्ट प्राहार-औषध का वेदन किया जाता है, उससे भी, यानि विशिष्ट प्रकार के आहार और औषध आदि के परिणाम से वीर्यान्तरायकर्म का उदय होता है / अथवा स्वभाव से विचित्र शीत आदिरूप पुद्गलों के परिणाम के वेदन से भी दानान्तरायादि कर्मों का उदय होता है। जैसे-कोई व्यक्ति वस्त्र आदि का दान देना चाहता है, मगर गर्मी, सर्दी आदि का आवागमन देखकर दान नहीं कर पाता,---प्रदाता बन जाता है / यह हुआ परत: दानान्तरायदिकर्मोदय का प्रतिपादन / स्वतः दानान्तरायादिकर्मोदय में तो अन्तरायकर्म के पुद्गलों के उदय से दानान्तरायादि अन्तरायकर्म के फल का वेदन (अनुभव) होता है। // तेईसवाँ कर्म-प्रकृतिपद : प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 218 से 222 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 223 से 224 Page #1222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ : द्वितीय उद्देशक मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के भेद-प्रभेद की प्ररूपणा 1687. कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीयो पण्णत्तानो / तं जहा--णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1687 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? [1687 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ आठ कही गई हैं / यथा ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / 1688. गाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे पण्णते। तं जहा-पाभिणिबोहियणाणावरणिज्जे जाव केवलणाणावरणिज्जे। [1688 प्र. भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1688 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा- आभिनिबोधिकज्ञानावरणीय यावत् केवलज्ञानावरणीय / 1686. [1] दरिसणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–णिद्दापंचए य दंसणचउकए थे / [1681-1 प्र.] भगवन ! दर्शनावरणीयकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [1686-1 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा है / यथा-निद्रा-पंचक और दर्शनचतुष्क / [2] णिहापंचए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-णिद्दा जाव थीणगिद्धी / [1686-2 प्र.] भगवन् ! निद्रा-पंचक कितने प्रकार का कहा गया है ? [1686-2 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-निद्रा यावत् स्त्यानगृद्धि (स्त्यानद्धि)। [3] दंसणचउक्कए णं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुदंसणावरणिज्जे जाव केवलदसणावरणिज्जे। [1686-3 प्र.] भगवन् ! दर्शनचतुष्क कितने प्रकार का कहा गया है ? [1686-3 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है। यथा-चक्षुदर्शनावरण यावत् केवलदर्शनावरण / 1660. [1] वेणिज्जे गं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-साताबेदणिज्जे य प्रसातावेयणिज्जे य। Page #1223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] [प्रजापनासून [1660-1 प्र.] भगवन् ! वेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1660-1 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सातावेदनीय और असातावेदनीय / [2] सातावेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे पुच्छा। गोयमा ! प्रविहे पण्णत्ते / तं जहा -मणुण्णा सदा जाव कायसुहया (सु. 1681 [1]) / [1660-2 प्र.] भगवन् ! सातावेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1660-2 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। यथा-(सू. 1681-1 के अनुसार) मनोज्ञ शब्द यावत् कायसुखता। [3] असायावेदणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! अट्ठविहे पण्णते। तं जहा-प्रमणुण्णा सहा जाव कायदुहया। [1690-3 प्र.] भगवन् ! असातावेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1690-3 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। 1661. [1] मोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-दसणमोहणिज्जे य चरित्तमोहणिज्जे य / [1661-1 प्र.] भगवन् ! मोहनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है। [1661-1 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / [2] दंसणमोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मत्तवेयणिज्जे 1 मिच्छत्तवेयणिज्जे 2 सम्मामिच्छतवेयणिज्जे 3 य / [1661-2 प्र.] भगवन् ! दर्शन-मोहनीयकर्म कितने प्रकार का कहा है ? {1661-2 उ.] गौतम ! दर्शन-मोहनीयकर्म तीन प्रकार का कहा गया है। यथा(१) सम्यक्त्ववेदनीय, (2) मिथ्यात्ववेदनीय और (3) सम्यग्-मिथ्यात्ववेदनीय / [3] चरितमोहणिज्जे गं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-कसायवेयणिज्जे य गोकसायवेयणिज्जे य / [1661-3 प्र.] भगवन् ! चारित्रमोहनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1661-3 उ.) गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-कषायवेदनीय और नोकषायवेदनीय / [4] कसायवेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा! सोलसविहे पण्णते। तं जहा-प्रणताणुबंधी कोहे 1 अणंताणुबंधी माणे 2 अणंताणुबंधी माया 3 प्रणताणबंधी लोभे 4 अपच्चक्खाणे कोहे 5 एवं माणे 6 माया 7 लोभे 8 Page #1224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद] [29 पच्चक्खाणावरणे कोहे 9 एवं माणे 10 माया 11 लोभे 12 संजलणे कोहे 13 एवं माणे 14 माया 15 लोभे 16 / [1691-4 प्र.] भगवन् ! कषायवेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1661-4 उ.] गौतम ! वह सोलह प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, (2) अनन्तानुबन्धी मान, (3) अनन्तानुबन्धी माया, (4) अनन्तानुबन्धी लोभ, (5-67-8) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ (-10-11-12) प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया तथा लोभ, इसी प्रकार (13-14-15-16) संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं लोभ / [5] णोकसायवेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! णवविहे पण्णत्ते। तं जहा-इत्थिवेए 1 धुरिसए 2 णसगवेदे 3 हासे 4 रती 5 अरती 6 भये 7 सोगे 8 दुगुछा / [1661-5 प्र.] भगवन् ! नोकषाय-वेदनीयकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1661-5 उ.] गौतम ! वह नौ प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) स्त्रीवेद, (2) पुरुषवेद, (3) नपुंसकवेद, (4) हास्य, (5) रति, (6) अरति, (7) भय, (8) शोक और (8) जुगुप्सा। 1662. पाउए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउठिवहे पण्णत्ते / तं जहा–णेरइयाउए जाव देवाउए / [1692 प्र.] भगवन् ! प्रायुकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [1662 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है / यथा-नारकायु यावत् देवायु / 1663. णामे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! बायालीसइविहे पण्णत्ते / तं जहा--गतिणामे 1 जाइणामे 2 सरीरणामे 3 सरीरंगोवंगणामे 4 सरीरबंधणणामे 5 सरीरसंघायणामे 6 संघयणणामे 7 संठाणणामे 8 वण्णणामे है गंधणामे 10 रसणामे 11 फासणामे 12 अगुरुलहुयणामे 13 उवधायणामे 14 पराघायणामे 15 आणुपुवीणामे 16 उस्सासणामे 17 प्रायवणामे 18 उज्जोयणामे 19 विहायगतिणामे 20 तसणामे 21 थावरणामे 22 सुहुमणामे 23 बादरणामे 24 पज्जत्तणामे 25 अपज्जत्तणामे 26 साहारणसरीरणामे 27 पत्तेयसरीरणामे 28 थिरणामे 26 अथिरणामे 30 सुभणामे 31 असुभणामे 32 सुभगणामे 33 दूभगणामे 34 सूसरणामे 35 दूसरणामे 36 प्रादेज्जणामे 37 अणादेज्जणामे 38 जसोकित्तिणामे 36 अजसोकित्तिणामे 40 णिम्माणणामे 41 तित्थगरणामे 42 / [1693 प्र.] भगवन् ! नामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1693 उ.] गौतम ! वह बयालीस प्रकार का कहा है / यथा-(१) गतिनाम, (2) जातिनाम, (3) शरीरनाम, (4) शरीरांगोपांगनाम. (5) शरीर-बन्धननाम, (6) (7) संहनननाम, (8) संस्थाननाम, (8) वर्णनाम, (10) गन्धनाम, (11) रसनाम, (12) स्पर्शनाम, (13) अगुरुलघुनाम, (14) उपघातनाम, (15) पराघातनाम, (16) आनुपूर्वीनाम, (17) उच्छ्वासनाम, (18) प्रातप-नाम, (16) उद्योत-नाम, (20) विहायोगति-नाम, (21) त्रस-नाम र-संघातनाम. Page #1225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 [प्रज्ञापनासूत्रे (22) स्थावर-नाम, (23) सूक्ष्म-नाम, (24) बादर-नाम, (25) पर्याप्त-नाम, (26) अपर्याप्त-नाम, (27) साधारण-शरीरनाम, (28) प्रत्येक-शरीरनाम, (26) स्थिर-नाम, (30) अस्थिर-नाम, (31) शुभनाम, (32) अशुभनाम, (33) सुभग-नाम, (34) दुर्भग-नाम, (35) सुस्वर-नाम, (36) दुःस्वर-नाम, (37) प्रादेय-नाम, (38) अनादेय-नाम, (36) यश कीति-नाम, (40) अयशःकीतिनाम, (41) निर्माण-नाम और (42) तीर्थकर-नाम / 1694. [1] गतिणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते। तं जहा-णिरयगतिणामे 1 तिरियगतिणामे 2 मणुयगतिणामे 3 देवगतिणामे 4 / [1664-1 प्र.] भगवन् ! गतिनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-1 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) नरकगतिनाम, (2) तिर्यञ्चगतिनाम, (3) मनुष्यगतिनाम और (4) देवगतिनाम / [2] जाइणामे णं भंते ! कम्मे पुच्छा। गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-एगिदियजाइणामे जाव पंचेंदियजाइणामे / [1694-2 प्र.] भगवन् ! जातिनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-2 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-एकेन्द्रियजातिनाम, यावत् पंचेन्द्रियजातिनाम / [3] सरीरणामे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णते। तं जहा-पोरालियसरीरणामे जाव कम्मगसरोरणामे / [1694-3 प्र.] भगवन् ! शरीरनामकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [1664-3 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-औदारिकशरीरनाम यावत् कार्मणशरीरनाम। [4] सरीरंगोवंगणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-ओरालियसरीरंगोवंगणामे 1 वेउब्वियसरीरंगोवंगणामे 2 माहारगसरीरंगोवंगणामे 3 / [1664-4 प्र.] भगवन् ! शरीरांगोपांगनाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-4 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) औदारिकशरीरांगोपांग, (2) वैक्रियशरीरांगोपांग और (3) आहारकशरीरांगोपांग नामकर्म / [5] सरीरबंधणणामे गं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-पोरालियसरीरबंधणणामे जाव कम्मगसरीरबंधणणामे। [1694-5 प्र.] भगवन् ! शरीरबन्धननाम कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-5 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-औदारिकशरीरबन्धननाम, यावत् कार्मणशरीरबन्धननाम / Page #1226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद] [6] सरीरसंघायणामे गं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-पोरालियसरीरसंघातणामे जाव फम्मगसरोरसंघायणामे। [1664-6 प्र.] भगवन् ! शरीरसंघातनामकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [1664-6 प्र.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-औदारिकशरीरसंघात नामकर्म यावत् कार्मणशरीरसंघातनामकर्म / [7] संघयणणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! छबिहे पण्णत्ते / तं जहा-वइरोसभणारायसंघयणणामे 1 उसभणारायसंघयणणामे २णारायघसंयणणामे 3 प्रद्धणारायसंघयणणामे 4 कोलियासंघयणणामे 5 छेवट्टसंघयणणामे 6 / [1664-7 प्र.] भगवन् ! संहनननामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है। [1664-7 उ.] गौतम ! वह छह प्रकार का कहा है / यथा-(१) वज्रऋषभनाराचसंहनननाम, (2) ऋषभनाराचसंहनननाम, (3) नाराचसंहनननाम, (4) अर्द्धनाराचसंहनननाम, (5) कीलिकासंहनननाम और (6) सेवार्तसंहनननामक / [8] संठाणणामे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते / तं जहा--समचउरंससंठाणणामे 1 णग्गोहपरिमंडलसंठाणणामे 2 सातिसंठाणणामे 3 वामणसंठाणणामे 4 खुज्जसंठाणणामे 5 हुंडसंठाणणामे 6 / [1664-8 प्र.] भगवन् ! संस्थाननामकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [1664-8 उ.] गौतम ! वह छह प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) समचतुरस्रसंस्थाननाम, (2) न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननाम, (3) सादिसंस्थाननाम, (4) वामनसंस्थाननाम, (5) कुब्जसंस्थाननाम और (6) हण्डकसंस्थाननामकर्म। [6] वण्णणामे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-कालवण्णणामे जाव सुक्किलवण्णणामे / [1664-6 प्र.] भगवन् ! वर्णनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-6 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-कालवर्णनाम यावत् शुक्लवर्णनाम। [10] गंधणामे णं भंते ! कम्मे पुच्छा। गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सुरभिगंधणामे 1 दुरभिगंधणामे 2 / [1664-10 प्र. भगवन् ! गन्धनामकर्म कितने प्रकार का कहा है ? [1664-10 उ] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सुरभिगन्धनाम और दुरभिगन्धनामकर्म। [11] रसणामे पं० पुच्छा / / गोयमा ! पंचविहे पण्णते / तं जहा-तित्तरसणामे जाव महररसणामे / Page #1227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र [1664-11 प्र.] भगवन् ! रसनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1694-11 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-तिक्तरसनाम यावत् मधुररसनामकर्म। [12] फासणामे पं० पुच्छा। गोयमा ! अट्टविहे पण्णत्ते / तं जहा–कक्खडफासणामे जाव लुक्खफासणामे / [1694-12 प्र.] भगवन् ! स्पर्शनामकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1664-12 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है। यथा-कर्कशस्पर्शनाम यावत् रूक्षस्पर्शनामकर्म। [13] अगुरुलहुअणामे एगागारे पण्णत्ते / {1694-13] अगुरुलघुनामकर्म एक प्रकार का कहा गया है / [14] उबघायणामे एगागारे पण्णत्ते / [1664-14] उपघातनामकर्म एक प्रकार का कहा है। [15] पराघायणामे एगागारे पण्णत्ते / [1664-15] पराघातनामकर्म एक प्रकार का कहा है / [16] आणुपुग्विणामे चउबिहे पण्णत्ते। तं जहा–णेरइयाणपुग्विणाम जाव देवाणुपुग्विणाम। . [1664-16] प्रानुपूर्वीनामकर्म चार प्रकार का कहा गया है। यथा-नैरयिकानुपूर्वीनाम यावत् देवानुपूर्वीनामकर्म / [17] उस्सासणामे एगागारे पण्णत्ते। [1664-17] उच्छ्वासनामकर्म एक प्रकार का कहा गया है। [18] सेसाणि सव्वाणि एगागाराई पण्णत्ताई जाव तित्थगरणामे / णवरं विहायगतिणामे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पसत्थविहायगतिणामे य अपसत्थविहायगतिणामे य / [1664-18] शेष सब यावत् तीर्थकरनामकर्म तक एक-एक प्रकार के कहे हैं। विशेष यह है कि विहायोगतिनामकर्म दो प्रकार का कहा है / यथा—प्रशस्तविहायोगतिनाम और अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म। 1665. [1] गोए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा- उच्चागोए य णीयागोए य / [1695-1 प्र.] भगवन् ! गोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1665-1 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-उच्चगोत्र और नीचगोत्र / [2] उच्चागोए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! अढविहे पण्णत्ते / तं जहा-जाइविसिट्टया जाव इस्सरियविसिट्ठया। Page #1228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद] [1665-2 प्र.] भगवन् ! उच्चगोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1665-2 उ.] गौतम ! वह आठ प्रकार का कहा गया है / यथा—जातिविशिष्टता यावत् ऐश्वर्यविशिष्टता। [3] एवं णीयागोए वि / णवरं जातिविहीणया जाव इस्सरियविहीणया। [1665-3] इसी प्रकार नीचगोत्र भी पाठ प्रकार का है। (किन्तु यह उच्चगोत्र से सर्वथा विपरीत है / ) यथा--जातिविहीनता यावत् ऐश्वर्यविहीनता। 1666. अंतराइए णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / जहा-दाणंतराइए जाव वीरियंतराइए। [1696 प्र.] भगवन् ! अन्तरायकर्म कितने प्रकार का कहा गया है ? [1666 उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-दानान्तराय यावत् वीर्यान्तरायकर्म / विवेचन- उत्तरकर्मप्रकृतियाँ-प्रथम उद्देशक में ज्ञानावरणीय प्रादि 8 मूल कर्मप्रकृतियों के अनुभाव का वर्णन करने के पश्चात् द्वितीय उद्देशक में सर्वप्रथम (सू. 1676 से 1666 तक में) मूल कर्मप्रकृतियों के अनुसार उत्तरकर्मप्रकृतियों के भेदों का निरूपण किया गया है।' उत्तरकर्मप्रकृतियों का स्वरूप - (1) ज्ञानावरणीयकर्म के पांच उत्तरभेद हैं / प्राभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणजो कर्म ग्राभिनिबोधिक ज्ञान अर्थात् मतिज्ञान को प्रावृत करता है, उसे प्राभिनिबोधिक ज्ञानावरण कहते हैं / इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरण आदि के विषय में समझ लेना चाहिए। (2) दर्शनावरणीयकर्म-पदार्थ के सामान्य धर्म को सत्ता के प्रतिभास को दर्शन कहते हैं / दर्शन को आवरण करने वाले कर्म को दर्शनावरण कहते हैं / दर्शनावरण के दो भेद-निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क हैं। निद्रापंचक के पांच भेदों का स्वरूप प्रथम उद्देशक में कहा जा चुका है। दर्शनचतुष्क चार प्रकार का है-चक्षुदर्शनावरण-चक्षु के द्वारा वस्तु के सामान्यधर्म के ग्रहण को रोकने वाला कर्म चक्षुदर्शनावरण है। अचक्षुदर्शनावरण-चक्षुरिन्द्रिय के सिवाय शेष स्पर्शन प्रादि इन्द्रियों और मन से होने वाले सामान्यधर्म के प्रतिभास को रोकने वाले कर्म को अचक्षदर्श कहते हैं / अवधिदर्शनावरण-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना ही रूपी द्रव्य के सामान्यधर्म के होने वाले बोध को रोकने वाले कर्म को अवधिदर्शनावरण कहते हैं। केवलदर्शनावरण--सम्पूर्ण द्रव्यों के होने वाले सामान्यधर्म के अवबोध को प्रावृत करने वाले को केवलदर्शनावरण कहते हैं / यहाँ यह ज्ञातव्य है कि निद्रापंचक प्राप्त दर्शनशक्ति का उपधातक है, जबकि दर्शनचतुष्क मूल से ही दर्शनलब्धि का घातक होता है।' 1. पण्णवणासुत्त भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), प्र. 367 से 379 तक 2. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 368 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 241-242 (ग) कर्मग्रन्थ भा. 1 (मरुधरकेसरीव्याख्या) प्र. 59 से 61 तक नावरण Page #1229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] [प्रज्ञापनासूत्र (3) वेदनीयकर्म-जो कर्म इन्द्रियों के विषयों का अनुभवन-वेदन कराए, उसे वेदनीयकर्म कहते हैं / वेदनीयकर्म से आत्मा को जो सुख-दुःख का वेदन होता है, वह इन्द्रियजन्य सुख-दुःख अनुभव है। आत्मा को जो स्वाभाविक सुखानुभूति होती है वह कर्मोदय से नहीं होती। इसका स्वभाव तलवार की शहद-लगी धार को चाटने के समान है। इसके मुख्य दो प्रकार है--(१) सातावेदनीय—जिस कर्म के उदय से आत्मा को इन्द्रिविषय-सम्बन्धी सुख का अनुभव हो, उसे सातावेदनीयकर्म कहते हैं / (2) असातावेदनीय---जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकल विषयों की प्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रियविषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव हो, उसे असातावेदनीय कहते हैं / सातावेदनीय के मनोज्ञ शब्द आदि पाठ भेद हैं और इसके विपरीत असातावेदनीय के भी अमनोज्ञ शब्द आदि पाठ भेद हैं / इनका अर्थ पहले लिखा जा चुका है।' (4) मोहनीयकर्म—जिस प्रकार मद्य के नशे में चूर/मनुष्य अपने हिताहित का भान भूल जाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से जीव में अपने वास्तविक स्वरूप एवं हिताहित को पहचानने और परखने की बुद्धि लुप्त हो जाती है, कदाचित् हिताहित को परखने की बुद्धि भी आ जाए तो भी तदनुसार आचरण करने का सामर्थ्य प्राप्त नहीं हो पाता, उसे मोहनीयकर्म कहते हैं / इसके मुख्यत: दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / दर्शनमोहनीय—जो पदार्थ जैसा है, उसे यथार्थरूप में वैसा ही समझना, तत्त्वार्थ पर श्रद्धान करना दर्शन कहलाता है, आत्मा के इस निजी दर्शनगुण का घात (प्रावृत) करने वाले कर्म को दर्शनमोहनीय कहते हैं। चारित्रमोहनीय-आत्मा के स्वभाव की प्राप्ति अथवा उसमें रमणता करना चारित्र है अथवा सावधयोग से निवृत्ति तथा निरवद्ययोग में प्रवत्तिरूप प्रात्मा का परिणाम चारित्र है। प्रात्मा के इस चारित्रगुण को घात करने होने देने वाले कर्म को चारित्रमोहनीय कहते हैं। ___ दर्शनमोहनीयकर्म के तीन भेद हैं—सम्यक्त्ववेदनीय, मिथ्यात्ववेदनीय और सम्यग्मिथ्यात्ववेदनीय / इन्हें क्रमशः शुद्ध, अशुद्ध और अर्द्ध शुद्ध कहा गया है / जो कर्म शुद्ध होने से तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व में बाधक तो न हो, किन्तु आत्मस्वभावरूप औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होने देता, जिससे सक्षम पदार्थों का स्वरूप विचारने में शंका उत्पन्न हो, सम्यक्त्व में मलिनता चल, मल, अगाढदोष उत्पन्न हो जाते हों, वह सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) है / जिसके उदय से जीव को तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप की रुचि ही न हो, अर्थात्--तत्त्वार्थ के अश्रद्धान के रूप में वेदा जाए उसे मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं। जिस कर्म के उदय से जीव को तत्त्व (यथार्थ) के प्रति या जिन. प्रणीत तत्त्व में रुचि या अरुचि अथवा श्रद्धा या अश्रद्धा न होकर मिथ स्थिति रहे, उसे सम्यक्त्वमिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) या मिश्रमोहनीय कहते हैं। (5) चारित्रमोहनीयकर्म : भेव और स्वरूप-चारित्रमोहनीयकर्म के मुख्य दो भेद हैं--कषायवेदनीय (मोहनीय) और नोकषायवेदनीय (मोहनीय)। कषायवेदनीय-जो कर्म क्रोध, मान, माया और लोभ के रूप में बेदा जाता हो, उसे कषायवेदनीय कहते हैं। कषाय का लक्षण विशेषावश्यक भाष्य में इस प्रकार कहा गया है- जो प्रात्मा के गुणों को कषे-नष्ट करे अथवा कष यानी जन्ममरणरूप संसार, उसकी प्राय अर्थात् प्राप्ति जिससे हो, उसे कषाय कहते हैं। कषाय के क्रोध, मान, 1. (क) कर्म ग्रन्थ भाग 1, (मरुधरकेसरी व्याख्या), पृ. 65-66 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टोका), भा. 5, पृ. 242 Page #1230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद [35 माया और लोभ, ये चार भेद है / क्रोध---समभाव को भूल कर आक्रोश से भर जाना, दूसरे पर रोष करना / मान -गर्व, अभिमान या झूठा प्रात्मप्रदर्शन / माया-कपटभाव अर्थात् विचार और एकरूपता का अभाव / लोभ-ममता के परिणाम / इसी कषायचतष्टय के तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र और मन्द स्थिति के कारण चार-चार प्रकार हो सकते हैं। वे क्रमशः अनन्तानुबन्धी (तीव्रतमस्थिति), अप्रत्याख्यानावरण (तीव्रतरस्थिति), प्रत्याख्यानावरण (तीव्रस्थिति) तथा संज्वलन (मंदस्थिति) हैं / इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं अनन्तानुबन्धी-जो जीव के सम्यक्त्व प्रादि गुणों का घात करके अनन्तकाल तक संसार में परिभ्रमण कराए, उसे अनन्तानुबन्धी कषाय कहते हैं / अप्रत्याख्यानावरण -जो कषाय प्रात्मा के देशविरति चारित्र (श्रावकपन) का घात करे अर्थात् जिसके उदय से देशविरति-आंशिकत्यागरूप प्रत्याख्यान न हो सके, उसे अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं / प्रत्याख्यानावरण - जिस कषाय के प्रभाव से प्रात्मा को सर्वविरति चारित्र प्राप्त करने में बाधा हो, अर्थात् श्रमणधर्म की प्राप्ति न हो, उसे प्रत्याख्यानावरण कहते हैं / संज्वलन—जिस कषाय के उदय से प्रात्मा को यथाख्यातचारित्र की प्राप्ति न हो, अर्थात् जो कषाय परीषह और उपसर्गों के द्वारा श्रमणधर्म के पालन करने को प्रभावित करे वह संज्वलन कषाय है। इन चारों के साथ क्रोधादि चार कषायों को जोड़ने से कषायमोहनीय के 16 भेद हो जाते हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत के फटने से हुई दरार के समान जो क्रोध उपाय करने पर भी शान्त न हो / अप्रत्याख्यानावरण क्रोध--सूखी मिट्टी में आई हुई दरार जैसे पानी के संयोग से फिर भर जाती है. वैसे ही जो क्रोध कुछ परिश्रम और उपाय से शान्त हो जाता हो / प्रत्याख्यानावरण क्रोध-धूल (रेत) पर खींची हुई रेखा जैसे हवा चलने पर कुछ समय में भर जाती है, वैसे ही जो क्रोध कुछ उपाय से शान्त हो जाता है / संज्वलन क्रोध-पानी पर खींची हुई लकीर के समान जो क्रोध तत्काल शान्त हो जाता है। अनन्तानुबन्धी मान—जैसे कठिन परिश्रम से भी पत्थर के खंभे को नमाना असंभव है, वैसे ही जो मान कदापि दूर नहीं होता। अप्रत्यास्थानावरण मान–हड्डी को नमाने के लिए कठोर श्रम के सिवाय उपाय भी करना पड़ता है, वैसे ही जो मान अतिपरिश्रम और उपाय से दूर होता है। प्रत्याख्यानावरण मान-सूखा काष्ठ तेल आदि की मालिश से नरम हो जाता है, वैसे ही जो मान कुछ परिश्रम और उपाय से दूर होता हो। संज्वलनमान-बिना परिश्रम के नमाये जाने वाले बेंत के समान जो मान क्षणभर में अपने प्राग्रह को छोड़ कर नम जाता है / अनन्तानुबन्धी माया-बाँस की जड़ में रहने वाली वक्रता-टेढापन का सीधा होना असम्भव होता है, इसी प्रकार जो माया छूटनी असंभव होती है। अप्रत्याख्यानावरण माया-मेंढे के सींग की Page #1231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र वक्रता कठोर परिश्रम व अनेक उपायों से दूर होती है, वैसे ही जो माया-परिणाम अत्यन्त परिश्रम व उपाय से दूर हो / प्रत्याख्यानावरण माया-चलते हुए बैल की मूत्ररेखा की वक्रता के समान जो माया कुटिल परिणाम वाली होने पर कुछ कठिनाई से दूर होती है। संज्वलनमाया-बांस के छिलके का टेढ़ापन जैसे बिना श्रम के सीधा हो जाता है, वैसे ही जो मायाभाव आसानी से दूर हो जाता है / अनन्तानुबन्धी लोभ-जैसे किरमिची रंग किसी भी उपाय से नहीं छ्टता, वैसे ही जिस लोभ के परिणाम उपाय करने पर भी न छूटते हों। अप्रत्याख्यानावरणलोभ-गाड़ी के पहिये की कीचड़ के समान अतिकठिनता से छूटने वाला लोभ का परिणाम / प्रत्याख्यानावरण लोभ–काजल के रंग के समान इस लोभ के परिणाम कुछ प्रयत्न से छूटते हैं। संज्वलनलोभ–सहज ही छूटने वाले हल्दी के रंग के समान इस लोभ के परिणाम नोकषायवेदनीय-जो कषाय तो न हो, किन्तु कषाय के उदय के साथ जिसका उदय होता है, अथवा कषायों को उत्तेजित करने में सहायक हो। जो स्त्रीवेद आदि नोकषाय के रूप में वेदा जाता है, वह नोकषायवेदनीय है। नोकषायवेदनीय के भेद हैं स्त्रीवेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो / पुरुषवेद-जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो। नपुंसकवेद—जिस कर्म के उदय से स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की इच्छा हो। इन तीनों वेदों की कामवासना क्रमशः करीषाग्नि (उपले की प्राग), तृणाग्नि और नगरदाह के समान होती है। हास्य-जिस कर्म के उदय से कारणवश या बिना कारण के हंसी आती है या दूसरों को हंसाया जाता हो / रति-अरति-जिस कर्म के उदय से सकारण या अकारण पदार्थों के प्रति राग-प्रीति या द्वष-अप्रीति उत्पन्न हो / शोक--जिस कर्म के उदय मे सकारण या अकारण शोक हो। भय-जिस कर्म के उदय से कारणवशात् या बिना कारण सात भयों में से किसी प्रकार का भय उत्पन्न हो। जुगुप्सा–जिस कर्म के उदय से बीभत्सघृणाजनक पदार्थों को देख कर घृणा पैदा होती है।' प्रायुकर्म : स्वरूप, प्रकार और विशेषार्थ-जिस कर्म के उदय से जीव देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नारक के रूप में जीता है और जिसका क्षय होये पर उन रूपों का त्याग कर मर जाता है, उसे आयुकर्म कहते हैं। आयुकर्म के चार भेद हैं, जो मूलपाठ में अंकित हैं। प्रायुकर्म का स्वभाव कारागार के समान है। जैसे अपराधी को छूटने की इच्छा होने पर भी अवधि पूरी हुए बिना कारागार से छुटकारा नहीं मिलता, इसी प्रकार आयुकर्म के कारण जीव को निश्चित अवधि तक 1. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 243 से 251 तक (ख) कर्म ग्रन्थ भाग-१ (मरुधरकेसरीव्याख्या) पृ. 55-70, 81 से 93 तक (i) कम्म कसो भवो वा कसमातोसिं कसायातो। कसमाययंति व जतो गमयंति कसं कसायत्ति / -विशेषावश्यक भाग-१२२७ (ii) अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शनोपघाती। तस्योदयाद्धि सम्यग्दर्शनं नोत्पद्यते / पूर्वोत्पन्नमपि च प्रतिपतति / संज्वलनकषायोदयाद्यथाख्यातचारित्रलाभो न भवति ।-तत्त्वार्थ सुत्र भाष्य, अ. 8 सू.१० (iii) कषाय-सहवर्तित्वात् कषाय-प्रेरणादपि / हास्यादिनवकस्योक्ता नो-कषाय-कषायता // 1 // -कर्मग्रन्थ, भा. 1, पृ. 84 Page #1232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] [37 नरकादि गतियों में रहना पड़ता है। बांधी हुई आयु भोग लेने पर ही उस शरीर से छुटकारा मिलता है / आयुकर्म का कार्य जीव को सुख-दुःख देना नहीं है, अपितु नियत अवधि तक किसी एक शरीर में बनाये रखने का है / ' इसका स्वभाव हडि (खोडा-बेड़ी) के समान है। नामकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण-जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति प्राप्त करके अच्छी-बुरी विविध पर्यायें प्राप्त करता है अथवा जिस कर्म से आत्मा गति अादि नाना पर्यायों का अनुभव करे या शरीर आदि बने, उसे नामकर्म कहते हैं / नामकर्म के अपेक्षाभेद से 103, 63 अथवा 42 या किसी अपेक्षा से 67 भेद हैं। प्रस्तुत सूत्रों में नामकर्म के 42 भेद कहे गए हैं, जिनका मूलपाठ में उल्लेख है / इनका लक्षण इस प्रकार है (1) गति-नामकर्म-जिसके उदय से प्रात्मा मनुष्यादि गतियों में जाए अथवा नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य या देव की पर्याय प्राप्त करे। नारकत्व आदि पर्यायरूप परिणाम को गति कहते हैं। गति के 4 भेद हैं, नरकगति आदि / इन गतियों को उत्पन्न करने वाला नामकर्म गतिनामकर्म है। (2) जाति-नामकर्म एकेन्द्रियादि जीवों की एकेन्द्रियादि के रूप में जो समान परिणति (एकाकार अवस्था) उत्पन्न होती है, उसे जाति कहते हैं / स्पर्शन, रसन आदि पांच इन्द्रियों में से जीव एक, दो, तीन, चार या पांच इन्द्रियाँ प्राप्त करता है और एकेन्द्रियादि कहलाता है, इस प्रकार की जाति का जो कारणभूत कर्म है, उसे जातिनामकर्म कहते हैं / (३)शरीर-नामकर्म---जो शीर्ण (क्षण-क्षण में क्षीण) होता रहता है, वह शरीर कहलाता है / शरीरों का जनक कर्म शरीरनामकर्म है / अर्थात् जिस कर्म के उदय से प्रौदारिक, वैक्रिय आदि शरीरों की प्राप्ति हो, अर्थात् ये शरीर बनें / शरीरों के भेद से शरीरनामकर्म के 5 भेद हैं / (4) शरीर-अंगोपांग-नामकर्म-मस्तिष्क आदि शरीर के 8 अंग होते हैं। कहा भी है-- 'सीसमुरोयर-पिट्ठी-दो बाहू अरुया य अट्ठगा।' अर्थात् सिर, उर, उदर, पीठ, दो भुजाएँ और दो जांघ, ये शरीर के आठ अंग हैं / इन अंगों के अंगुली आदि अवयव उपांग कहलाते हैं और उनके भी अंगजैसे अंगुलियों के पर्व प्रादि अंगोपांग हैं। जिस कर्म के उदय से अंग, उपांग आदि के रूप में पुद्गलों परिणमन होता हो, अर्थात जो कर्म अंगोपांगों का कारण हो, वह अंगोपांग नामकर्म है। यह कर्म तीन ही प्रकार का है, क्योंकि तैजस और कार्मणशरीर में अंगोपांग नहीं होते। (5) शरीरबंधन नामकर्म-जिसके द्वारा शरीर बंधे, अर्थात् जो कर्म पूर्वगृहीत औदारिकादि शरीर और वर्तमान में ग्रहण किये जाने वाले औदारिकादि पुद्गलों का परस्पर में, अर्थात् तेजस आदि पुद्गलों के साथ सम्बन्ध उत्पन्न करे, वह शरीरबन्धन-नामकर्म है। (6) शरीर-संहनन-नामकर्म-हड्डियों की विशिष्ट रचना संहनन कहलाती है। संहनन औदारिक शरीर में ही हो सकता है, अन्य शरीरों में नहीं, क्योंकि अन्य शरीर हड्डियों वाले नहीं होते। अतः जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधियाँ सुदृढ होती हैं, उसे संहनन नामकर्म कहते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 251 (ख) कर्मग्रन्थ, भा. 1 (मरुधरकेसरीव्याख्या), प्र. 94 Page #1233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] [प्रज्ञापनासूत्र (7) संघात-नामकर्म-जो औदारिक शरीर आदि के पुद्गलों को एकत्रित करता है अथवा जो शरीरयोग्य पुद्गलों को व्यवस्थित रूप से स्थापित करता है, उसे संघातनामकर्म कहते हैं / इसके 5 भेद हैं। (4) संस्थान-नामकर्म-संस्थान का अर्थ है--प्राकार / जिस कर्म के उदय से गहीत, संघातित और वद्ध औदारिक अादि पुद्गलों के शुभ या अशुभ आकार बनते हैं, वह संस्थान नामकर्म है। इसके 6 भेद हैं। (E) वर्णनामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर के काले, गोरे, भूरे आदि रंग होते हैं, अथवा जो कर्म वर्णो का जनक हो, वह वर्णनामकर्म है। इसके भी 5 भेद हैं / (10) गन्धनामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में अच्छी या बुरी गंध हो अर्थात् शुभाशुभ गंध का कारणभूत कर्म गन्धनामकर्म है। (11) रसनामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में तिक्त, मधुर आदि शुभ-अशुभ रसों की उत्पत्ति हो, अर्थात् यह रसोत्पादन में निमित्त कर्म है। (12) स्पर्शनामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर का स्पर्श कर्कश, मृदु, स्निग्ध, रूक्ष आदि हो, अर्थात् स्पर्श का जनक कर्म स्पर्शनामकर्म है। (13) प्रगुरुलघु-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीर न तो पाषाण के समान गुरु (भारी) हों और न ही रूई के समान लघु (हलके) हों, वह अगुरुलधु नामकर्म है / (14) उपघात-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अपना शरीर अपने ही अवयवों से उपहतबाधित होता है, वह उपवात-नामकर्म कहलाता है। जैसे–चोरदन्त, प्रतिजिह्वा (पडजीभ) आदि / अथवा स्वयं तैयार किये हुए उबन्धन (फांसी), भृगुपात आदि से अपने ही शरीर को पोडित करने वाला कर्म उपघात-नामकर्म है। (15) पराघात-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से दूसरा प्रतिभाशाली, ओजस्वी, तेजस्वी जन भी पराजित या हतप्रभ हो जाता है, दब जाता है, उसे पराघात-नामकर्म कहते हैं / (16) आनुपूर्वी-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव दो, तीन या चार समय-प्रमाण विग्रहगति से कोहनी, हल या गोमूत्रिका के आकार से भवान्तर में अपने नियत उत्पत्तिस्थान पर पहुंच जाता है, उसे आनुपूर्वी-नामकर्म कहते हैं / (१७)उच्छवास-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को उच्छ्वास-नि:श्वासलब्धि की प्राप्ति होती है, वह उच्छ्वास-नामकर्म है / (18) आतप-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर स्वरूप से उष्ण न होकर भी उष्णरूप प्रतीत होता हो, अथवा उष्णता उत्पन्न करता हो, वह पातप-नामकर्म कहलाता है। (16) उद्योत-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर उष्णतारहित प्रकाश से युक्त होते हैं, वह उद्योतनामकर्म हैं / जैसे-रत्न, ओषधि, चन्द्र, नक्षत्र, तारा विमान, यति आदि / (20) विहायोगति-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल (गति) हाथी, बैल आदि Page #1234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] की चाल के समान शुभ हो अथवा ऊँट, गधे आदि की चाल के समान अशुभ हो, उसे विहायोगतिनामकर्म कहते हैं। (21) त्रस-नामकर्म-जो जीव त्रास पाते हैं, गर्मी आदि से संतप्त होकर छायादि का सेवन करने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं, ऐसे द्वीन्द्रियादि जीव 'स' कहलाते हैं / जिस कर्म के उदय से त्रस-पर्याय की प्राप्ति हो वह वस-नामकर्म है। (22) स्थावर-नामकर्म- जो जीव सर्दी, गर्मी आदि से पीड़ित होने पर भी उस स्थान को त्यागने में समर्थ न हो, वह स्थावर कहलाता है। जैसे पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय जीव / जिस कर्म के उदय से स्थावर-पर्याय प्राप्त हो, उसे स्थावर-नामकर्म कहते हैं। (23) सूक्ष्म-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से बहुत-से प्राणियों के शरीर समुदित होने पर भी छद्मस्थ को दृष्टिगोचर न हों, वह सूक्ष्म-नामकर्म है / इस कर्म के उदय से जीव अत्यन्त सूक्ष्म होता है। (24) बादर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव को बादर (स्थूल) काय की प्राप्ति हो, अथवा जो कर्म बादरता-परिणाम को उत्पन्न करता है, वह बादर-नामकर्म है। (25) पर्याप्त नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य आहारादि पर्याप्तियों को पूर्ण करने में समर्थ होता है, अर्थात् आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें आहारादि के रूप में परिणत करने की कारणभूत आत्मा की शक्ति से सम्पन्न हो, वह पर्याप्त-नामकर्म है। (26) अपर्याप्त-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण न कर सके, वह अपर्याप्त नामकर्म है। (27) साधारणशरीर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक ही शरीर हो, जैसे-निगोद के जीव / (28) प्रत्येकशरीर-नामकर्म--जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव का शरीर पृथक्-पृथक् हो / (26) स्थिर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर, अस्थि, दांत आदि शरीर के अवयव स्थिर हों, उसे स्थिर-नामकर्म कहते हैं / (30) अस्थिर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीभ आदि शरीर के अवयव अस्थिर (चपल) हों। (31) शुभ-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाभि से ऊपर के अवयव शुभ हों। (32) अशुभ-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से नाभि से नीचे के चरण आदि शरीरावयव अशुभ हों, वह अशुभ-नामकर्म है / पैर से स्पर्श होने पर अप्रसन्नता होती है, यही अशुभत्व का लक्षण है। (33) सुभग-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से किसी का उपकार न करने पर और किसी प्रकार का सम्बन्ध न होने पर भी व्यक्ति सभी को प्रिय लगता हो, वह सुभग-नामकर्म है। (34) दुर्भग-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से उपकारक होने पर भी जीव लोक में अप्रिय हो, वह दुर्भग-नामकर्म है। Page #1235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4.] [प्रज्ञापनासूत्र (35) सुस्वर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर मधुर और सुरीला हो, श्रोताओं के लिए प्रमोद का कारण हो, वह सुस्वर-नामकर्म है। जैसे--कोयल का स्वर / (36) दुःस्वर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव का स्वर कर्कश और फटा हुआ हो, उसका स्वर श्रोताओं की अप्रीति का कारण हो / जैसे—कौए का स्वर / (37) आदेय-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से जीव जो कुछ भी कहे या करे, उसे लोग प्रमाणभूत माने, स्वीकार कर लें, उसके वचन का आदर करें, वह प्रादेय-नामकर्म है / (38) अनादेय-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से समीचीन भाषण करने पर भी उसके वचन ग्राह्य या मान्य न हों, लोग उसके वचन का अनादर करें, वह अनादेय-नामकर्म है। (36) यशःकोति-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से लोक में यश और कीर्ति फैले / शौर्य, पराक्रम, त्याग, तप आदि के द्वारा उपाजित ख्याति के कारण प्रशंसा होना, यशःकीर्ति है। अथवा सर्व दिशाओं में प्रशंसा फैले उसे कीति और एक दिशा में फैले उसे यश कहते हैं। (40) अयशःकोति-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से सर्वत्र अपकीति हो, बुराई या बदनामी हो, मध्यस्थजनों के भी अनादर का पात्र हो। (41) निर्माण-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीर में अपनी-अपनी जाति के अनुसार अंगोपांगों का यथास्थान निर्माण हो, उसे निर्माण-नामकर्म कहते हैं। (42) तीर्थकर नामकर्म-जिस कर्म के उदय से चौंतीस अतिशय और पैंतीस वाणी के गुण प्रकट हों, वह तीर्थंकर-नामकर्म कहलाता है। नामकर्म के भेदों के प्रभेद-गतिनामकर्म के 4, जातिनामकर्म के 5, शरीरनामकर्म के 5, शरीरांगोपांगनामकर्म के 3, शरीरबन्धननामकर्म के 5, शरीरसंघातनामकर्म में 5, संहनननामकर्म के 6, संस्थाननामकर्म के 6, वर्णनामकर्म के 5, गन्धनामकर्म के 2, रसनामकर्म के 5, स्पर्शनामकर्म के 8, अगूरुलघनामकर्म का एक, उपघात और पराघात नामकर्म का एक-एक, प्रानपूर्वीनामकर्म के चार तथा आतपनाम, उद्योतनाम, बसनाम, स्थावरनाम, सूक्ष्मनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, अपर्याप्तनाम, साधारणशरीरनाम,प्रत्येकशरीरनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम, अशुभनाम, सुभगनाम, दुर्भगनाम, सुस्वरनाम, दुःस्वरनाम, प्रादेयनाम, अनादेयनाम, यश कीर्तिनाम, अयश:कीर्तिनाम, निर्माणनाम, और तीर्थकरनामकर्म के एक-एक भेद हैं विहायोगतिनामकर्म के दो भेद हैं।' गोत्रकर्म : स्वरूप और प्रकार-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च अथवा नीच कूल में जन्म लेता है, उसे गोत्रकर्म कहते हैं। इसके दो भेद हैं। जिस कर्म के उदय से लोक में सम्मानित, प्रतिष्ठित जाति-कुल प्रादि की प्राप्ति होती है तथा उत्तम बल, तप,रूप, ऐश्वर्य, सामर्थ्य, श्रुत, सम्मान, उत्थान, ग्रासनप्रदान, अंजलिकरण आदि की प्राप्ति होती है, वह उच्चगोत्रकर्म है। जिस कर्म के उदय से लोक में निन्दित कुल, जाति की प्राप्ति हो, उसे नीचगोत्रकर्म कहते हैं। सुघट और मद्यघट 1. (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टोका), भा. 1, पृ. 98 से 103 तक (ख) वही,भा. 5, पृ. 252 से 275 तक Page #1236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवा कर्मपद] बनाने वाले कुम्भकार के समान गोत्रकर्म का स्वभाव है। उच्चगोत्र और नीचगोत्र के क्रमशः पाठपाठ भेद हैं।' अन्तरायकर्म : स्वरूप, प्रकार और लक्षण-जिस कर्म के उदय से जीव को दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीयं (पराक्रम) में अन्तराय (विघ्न-बाधा) उत्पन्न हो, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं / इसके 5 भेद हैं / इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं--- दानान्तराय-दान की सामग्री पास में हो, गुणवान् पात्र दान लेने के लिए सामने हो, दान का फल भी ज्ञात हो, दान की इच्छा भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव दान न दे पाये उसे 'दानान्तरायकर्म' कहते हैं / लाभान्तराय-दाता उदार हो, देय वस्तु भी विद्यमान हो, लेने वाला भी कुशल एवं गुणवान् पात्र हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से उसे इष्ट वस्तु की प्राप्ति न हो, उसे 'लाभान्तरायकर्म कहते हैं। भोगान्तराय-जो पदार्थ एक बार भोगे जाएँ उन्हें 'भोग' कहते हैं जैसे-भोजन आदि / भोग के विविध साधन होते हुए भी जीव जिस कर्म के उदय से भोग्य वस्तुओं का भोग (सेवन) नहीं कर पाता, उसे 'भोगान्तरायकर्म' कहते हैं / उपभोगान्तराय-जो पदार्थ बार-बार भोगे जाएँ, उन्हें उपभोग कहते हैं। जैसे-मकान, वस्त्र, आभूषण आदि / उपभोग की सामग्री होते हुए भी जिस के उदय से जीव उस उपभोग-सामग्री का उपभोग न कर सके, उसे 'उपभोगान्तरायकर्म कहते हैं। वीर्यान्तराय–वीर्य का अर्थ है पराक्रम, सामर्थ्य, पुरुषार्थ / नीरोग, शक्तिशाली कार्यक्षम एवं युवावस्था होने पर भी जिस कर्म के उदय से जीव अल्पप्राण, मन्दोत्साह, आलस्य, दौर्बल्य के कारण कार्यविशेष में पराक्रम न कर सके, शक्ति-सामर्थ्य का उपयोग न कर सके, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं। इस प्रकार पाठों कर्मों के भेद-प्रभेदों का वर्णन सू. 1687 से 1666 तक है / 2 कर्मप्रकृतियों की स्थिति की प्ररूपरणा 1667. णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मरस केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, प्रबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। [1697 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1697 उ.] गौतम ! (उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडा 1. (क) वही, भा. 5, पृ. 275-76 (ख) कर्मग्रन्थ, भा. 1, ( मरु. व्या.) पृ. 151 2. (क) वही, भा. 5, पृ.१५१, (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनीटीका), भा. 5, पृ. 277-78 Page #1237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42) [प्रज्ञापनासूत्र कोडी सागरोपम की है / उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। सम्पूर्ण कर्मस्थिति (काल) में से अबाधाकाल को कम करने पर (शेष काल) कर्मनिषेक का काल है। 1698. [1] निद्दापंचयस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स तिग्णि सत्तभागा पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिग्णि य वाससहस्साई अबाहा, प्रबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेगो। [1698.1 प्र.] भगवन् ! निद्रापंचक (दर्शनावरणीय) कर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1668-1 उ.] गौतम ! (उसकी स्थिति) जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम, सागरोपम के 3 भाग की है और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है। उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है तथा (सम्पूर्ण) कर्मस्थिति (काल) में से अबाधाकाल को कम करने पर (शेष) कर्मनिषेककाल है। [2] सणचउक्कस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; तिण्णि य वाससहस्साइं प्रबाहा। [1698-2 प्र.] भगवन् ! दर्शनचतुष्क (दर्शनावरणीय) कर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1698-2 उ.] गौतम ! (उसकी स्थिति) जघन्य अन्तर्म हर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है / उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है / (निषेककाल पूर्ववत् है / ) 1666. [1] सातावेयणिज्जस्स इरियावहियबंधगं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं दो समया, संपराइयबंधगं पडुच्च जहण्णेणं बारस मुहुत्ता, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीमो; पण्णरस य वाससताई अबाहा०। [1666-1.] सातावेदनीयकर्म की स्थिति ईर्यापथिक बन्धक की अपेक्षा जघन्य-उत्कृष्टभेदरहित दो समय की है तथा साम्परायिक बन्धक की अपेक्षा जघन्य बारह मुहर्त की और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है / (निषेककाल पूर्ववत् है।) [2] असायावेयणिज्जस्स जहणणं सागरोवमस्स तिणि सत्तभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीयो; तिग्णि य वाससहस्साई अबाहा०। [1666-2.] असातावेदनीयकर्म की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के सात भागों में से तीन भाग को (अर्थात भाग की) है और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम की है / इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है / (निषेककाल पूर्ववत् है) Page #1238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] 1700. [1] सम्मत्तवेयणिज्जस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावढि सागरोवमाई साइरेगाई। [1700-1 प्र.] भगवन् ! सम्यक्त्व-वेदनीय की स्थिति कितने काल की है ? [1700-1 उ.] गौतम ! उसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम की है। [2] मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहणेणं सागरोवम पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं अणगं, उक्कोसेणं सरि कोडाकोडीनो; सत्त य वाससहस्साई अबाहा, अबाहूणिया० / [1700-2] मिथ्यात्व-वेदनीय की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम एक सागरोपम की है और उत्कृष्ट सत्तर कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है तथा कर्म स्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर (शेष) कर्मनिषेककाल है / [3] सम्मामिच्छत्तवेदणिज्जस्स जहण्णणं अंतोमुहुतं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं / [1700-3] सम्यग्-मिथ्यात्ववेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तर्मुहूर्त की है। [4] कसायबारसगस्स जहणणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; चत्तालोसं वाससताई अवाहा, जाव णिसेगो। [1700-4] कषाय-द्वादशक (आदि के बारह कषायों) की जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से चार भाग की (अर्थात 4 भाग की) है और उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चालीस सौ (चार हजार) वर्ष का है तथा कर्म स्थिति में से अबाधाकाल बाद करने पर जो शेष बचे वह निषेककाल है / [5] कोहसंजलणाए पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं दो मासा, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीनो; चत्तालीसं वाससताई जाव णिसेगो। [1700-5 प्र.] संज्वलन-क्रोध-सम्बन्धी प्रश्न ? [1700-5 उ.] गौतम ! (संज्वलन-क्रोध की स्थिति) जघन्य दो मास की है और उत्कृष्ट चालीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चालीस सौ वर्ष (चार हजार वर्ष) का है, यावत् निषेक अर्थात् –कर्मस्थिति (काल) में अबाधाकाल कम करने पर (शेष) कर्मनिषेककाल समझना। [6] माणसंजलणाए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं मासं, उक्कोसेणं जहा कोहस्स। [1700-6 प्र.] मान-संज्वलन की स्थिति के विषय में प्रश्न ? Page #1239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनासूत्र ___ [1700-6 उ.] गोतम ! उसकी स्थिति जघन्य एक मास की है और उत्कृष्ट क्रोध की स्थिति के समान है। [7] मायासंजलणाए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं अद्धमासं, उक्कोसेणं जहा कोहस्स / [1700-7 प्र.] माया-संज्वलन की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न ? {1700-7 उ.] गौतम ! उसकी स्थिति जघन्य अर्धमास की है और उत्कृष्ट स्थिति क्रोध के बराबर है। [-] लोभसंजलणाए पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं जहा कोहस्स। [1700.8 प्र.] लोभ-संज्वलन की स्थिति के विषय में प्रश्न ? [1700-8 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति क्रोध के समान, इत्यादि पूर्ववत् / [6] इत्थिवेदस्स पं० पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससताइं अबाहा० / [1700-6 प्र.] स्त्रीवेद की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1700-6 उ.] गौतम ! उसकी जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम के सात भागों में से डेढ भाग ( भाग) की है, और उत्कृष्ट पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [10] पुरिसवेयस्स णं० पुच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं वस सागरोवमकोडाकोडीमो; दस य वाससयाई अबाहा, जाव निसेगो। [1700-10 प्र.[ पुरुषवेद की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1700-10 उ.] इसकी जघन्य स्थिति पाठ संवत्सर (वर्ष) की है और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार वर्ष) का है। निषेककाल पूर्ववत जानना। [11] नपुसगवेदस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स दुणि सत्तभागा पलिओवमस्स प्रसंखिज्जहभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीनो; वीसति वाससताई अबाहा०।। [1700-11 प्र.] नपुंसकवेद की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1700-11 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम, सागरो Page #1240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद] [45 पम के 3 भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [12] हास-रतीणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स एक्कं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससताई अबाहा। [1700-12 प्र.] हास्य और रति की स्थिति के विषय में पृच्छा। [1700-12 उ.] गौतम ! इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है तथा इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है। [13] अरइ-भय-सोग-दुगुछाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडोओ; वीसति वाससताई प्रवाहा। [1700-13 प्र.] भगवन् ! अरति, भय, शोक और जुगुप्सा (मोहनीयकर्म) की स्थिति कितने काल की है ? [1700-13 उ.] गौतम ! इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 3 भाग की है, और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इनका अबाधाकाल बीस सौ . (दो हजार) वर्ष का है। 1701. [1] णेरड्याउयस्स पं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुत्तमम्भहियाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई पुख्वकोडोतिभागमभइयाई। [1701-1 प्र.] भगवन् ! नरयिकायु की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [1701-1 उ.] गौतम ! नैरयिकायु की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहर्त-अधिक दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट करोड पूर्व के तृतीय भाग अधिक तेतीस सागरोपम की है। [2] तिरिक्खजोणियाउअस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिग्रोवमाइं पुवकोडितिभागमभहियाई / [1701-2 प्र.] इसी प्रकार तिर्यञ्चायु की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न ? [1701-2 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति है पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक तीन पल्योपम की। [3] एवं मणूसाउअस्स वि / [1701-3] इसी प्रकार मनुष्यायु की स्थिति के विषय में जानना चाहिए / [4] देवाउअस्स जहा णेरइयाउअस्स ठिति त्ति। [1701-4] देवायु की स्थिति नैरयिकायु की स्थिति के समान जाननी चाहिए / Page #1241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापनासूत्र 1702. [1] णिरयगतिणामए णं भंते ! कम्मस्स० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जतिभागेणं ऊणगर, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससताई अबाहा० / [1702-1 3] भगवन् ! नरकगति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-1 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [2] तिरियगतिणामए जहा णपुसगवेदस्स (सु. 1700 [11]) / [1702-2] तिर्यञ्चगति-नामकर्म की स्थिति (सू. 1700-11 में उल्लिखित) नपुंसकवेद की स्थिति के समान है। [3] मणुयगतिणामए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स दिवड्ढे सत्तभागं पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीओ; पण्णरस य वाससताई पाबाहा० / [1702-3 प्र.] भगवन् ! मनुष्यगति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-3 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के "भाग की है और उत्कृष्ट पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [4] देवगतिणामए णं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमसहस्सस्स एक्कं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊगगं, उक्कोसेणं जहा पुरिसवेयस्स [सु. 1700. [10]) / [1702-4 प्र.] भगवन् ! देवगति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-4 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति (1700-10 में उल्लिखित) पुरुषवेद की स्थिति के तुल्य है। [5] एगिदियजाइणामए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीयो; वीस य वाससताई अबाहा० / [1702-5 प्र.] एकेन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न / [1702-5 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है / [कर्म-स्थिति में से अबाधाकाल कम इसका निषेककाल है।] Page #1242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवां कर्मपद]] [47 [6] बेइंदियजातिणामए पं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा / [1702-6 प्र.] द्वीन्द्रिय-जाति-नामकर्म को स्थिति के विषय में प्रश्न / [1702-6 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के इवें भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [कर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर शेष कर्म-निषेक-काल है।] [7] तेइंदियजाइणामए णं जहणेणं एवं चेव, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीमो अट्ठारस य वाससताई अवाहा / [1702-7 प्र.] त्रीन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी पृच्छा। [1702-7 उ.] इसको जघन्य स्थिति पूर्ववत् है / उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [8] चरिदियजाइणामए णं० पुच्छा। जहण्णणं सागरोवमस्स नव पणतीसतिभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडोप्रो; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा० / [1702-8 प्र.] चतुरिन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति के सम्बन्ध में प्रश्न ? [1702-8 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यतावें भाग कम सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [6] पंचेंदियजाइणामए णं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलिनोवमस्स असंखेज्जभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा० / [1702-6 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय-जाति-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [1702-6 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 3 भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बोस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है / [10] ओरालियसरीरणामए वि एवं चेव / [1702-10] औदारिक-शरीर-नामकर्म को स्थिति भी इसी प्रकार समझनी चाहिए / [11] वेउब्वियसरीरणामए णं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा! जहणणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वोसं सागरोवमकोडाकोडीमो; वीस य वाससताई अबाहा। Page #1243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48] [प्रज्ञापनासूत्र [1702-11 प्र.] भगवन् ! वैक्रिय-शरीर-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-11 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है / इसका अबाधाकाल बीस सौ वर्ष का है। [12] पाहारगसरीरणामए जहणेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीनो, उक्कोसेण वि अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ। [1702-12] आहारक-शरीर-नामकर्म की जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोडी की है और उत्कृष्ट स्थिति भी अन्तःसागरोपम कोडाकोडी की है। [13] तेया-कम्मसरीरणामए जहण्णणं [सागरोवमस्स] दोण्णि सत्तभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमकोडाकोडीअो; बोस य वाससताइं प्रबाहा० / [1702-13] तैजस और कार्मण-शरीर-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है / इनका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है / [14] ओरालिय-वेउब्विय-पाहारगसरीरंगोवंगणामए तिण्णि वि एवं चेव / [1702-14] औदारिकशरीरांगोपांग, वैक्रियशरीरांगोपांग और आहारकशरीरांगोपांग, इन तीनों नामकर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार (पूर्ववत्) है। [15] सरीरबंधणणामए वि पंचण्ह वि एवं चेव / [1702-15] पांचों शरीरबन्धन-नामकर्मों की स्थिति भी इसी प्रकार है। [16] सरीरसंघायणामए पंचण्ह वि जहा सरीरणामए (सु. 1702 [10-13]) कम्मस्स ठिति त्ति। [1702-16] पांचों शरीरसंघात-नामकर्मों की स्थिति (सू. 1702-10-13 में उल्लिखित) शरीर-नामकर्म की स्थिति के समान है। [17] वइरोसभणारायसंघयणणामए जहा रतिणामए (सु. 1700 [12]) / __ [1702-17] वज्रऋषभनाराचसंहनन-नामकर्म की स्थिति (सू. 1700-12 में उल्लिखित) रति-नामकर्म की स्थिति के समान है। [18] उसभणारायसंघयणणामए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स छ पणतीसतिभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं बारस सागरोवमकोडाकोडीनो; बारस य वाससयाई प्रवाहा। - [1702-18 प्र.] भगवन् ! ऋषभनाराचसंहनन-नामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #1244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] [49 [1702-18 उ.] गौतम ! इस की स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भू भाग की है और उत्कृष्ट बारह कोडाकोडी सागरोपम की है तथा इसका अबाधाकाल बारह सौ वर्ष का है। [16] णारायसंघयणणामए जहण्णेणं सागरोवमस्स सत्त पणतीसतिभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं चोद्दस सागरोवमकोडाकोडीयो; चोइस य वाससताई अबाहा० / [1702-16] नाराचसंहनन-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के अ भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति चौदह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल चौदह सौ वर्ष का है। [20] श्रद्धणारायसंघयणणामस्स जहण्णणं सागरोवमस्स अट्ट पणतीसतिभागा पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं सोलस सागरोवमकोडाकोडीयो; सोलस य वाससताइं प्रवाहा० / [1702-20] अर्द्धनाराचसंहनन-नामकर्म की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भू भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति सोलह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अवाधाकाल सोलह सौ वर्ष का है / [21] खीलियासंघयणे गं० पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीओ; अट्ठारस य वाससयाई प्रबाहा० / [1702-21 प्र.] कीलिकासंहनन नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न / [1702-21 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ई भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अठारह सौ वर्ष का है। [22] सेवट्टसंघयणणामस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं बीसं सागरोवमकोडाकोडीनो; वीस य वाससयाई अबाहा० / [1702-22 प्र.] सेवार्तसंहनन-नामकर्म की स्थिति के विषय में पृच्छा ? [1702-22 उ.] गौतम ! जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [23] एवं जहा संघयणणामए छ भणिया एवं संठाणा वि छ भाणियम्वा / 1702-23] जिस प्रकार छह संहनननामकमों की स्थिति कही, उसी प्रकार छह संस्थाननामकर्मों की भी स्थिति कहनी चाहिए। Page #1245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50] [प्रज्ञापनासूत्र [24] सुक्किलवण्णनामए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स एगं सत्तभागं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीनो; दस य वाससयाई अबाहा० / [1702-24 प्र.] शुक्लवर्णनामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1702-24 उ.] गौतम! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है। [25] हालिद्दवण्णणामए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स पंच अट्ठावीसतिभागा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं अद्धतेरस सागरोवमकोडाकोडोप्रोअद्धतेरस य वाससयाई अबाहा० / [1702-25 प्र.] पीत (हारिद्र) वर्णनामकर्म की स्थिति के सम्बन्ध में पृच्छा ? [1702-25 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 28 भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति साढ़े बारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल साढ़े बारह सौ वर्ष का है / [26] लोहियवण्णणामए पं० पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स छ अट्ठावीसतिभागा पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीनो; पण्णरस य वाससयाई अबाहा० / [1702-26 प्र.] भगवन् ! रक्त (लोहित) वर्णनामकर्म को स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-26 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 6 भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [27] गोलवण्णणामए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स सत्त अट्ठावीसतिभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीमो; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा० / [1702-27 प्र.] नीलवर्णनामकर्म की स्थिति-विषयक प्रश्न ? 1702-27 उ. गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 6 भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति साढ़े सत्तरह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल साढ़े सत्तरह सौ वर्ष का है। [28] कालवष्णणामए जहा सेवट्टसंघयणस्स (सु. 1702 [22]) / [1702-28] कृष्णवर्णनामकर्म की स्थिति (सू. 1702-22 में उल्लिखित) सेवा िसंहनननामकर्म की स्थिति के समान है। Page #1246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद (51 [26] सुन्भिगंधणामए पुच्छा / गोयमा ! जहा सुक्किलवणणामस्स (सु. 1702 [24]) / [1702-26 प्र. सुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1702-26 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति (सू. 1702-24 में उल्लिखित) शुक्लवर्णनामकर्म की स्थिति के समान है / [30] दुन्भिगंधणामए जहा सेवट्टसंघयणस्स / [1702-30] दुरभिगन्ध-नामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन-नामकर्म (की स्थिति) के समान (जानना / ) [31] रसाणं महुरादीणं जहा वण्णाणं भणियं (सु. 1702 [24-28]) तहेव परिवाडीए भाणियव्यं / [1702-31] मधुर प्रादि रसों की स्थिति का कथन (सू. 1702-24-28 में उल्लिखित) वर्णों को स्थिति के समान उसी क्रम (परिपाटी) से कहना चाहिए। [32] फासा जे अपसत्था तेसि जहा सेवट्टस्स, जे पसत्था तेसि जहा सुक्किलवण्णणामस्स (सु. 1702 [24]) / [1702-32] जो अप्रशस्त स्पर्श हैं, उनकी स्थिति से वार्तसंहनन की स्थिति के समान तथा प्रशस्त स्पर्श हैं, उनकी स्थिति (सू. 1702-24) में उल्लिखित शुक्लवर्णनामकर्म की स्थिति के समान कहनी चाहिए। [33] अगुरुलहुणामए जहा सेवट्टस्स / [1702-33] अगुरुलघुनामकर्म की स्थिति सेवार्तसंहनन की स्थिति के समान जानना / [34] एवं उवघायणामए वि। [1702-34] इसी प्रकार उपघातनामकर्म की स्थिति के विषय में भी कहना चाहिए। [35] पराघायणामए वि एवं चेव / [1702-35] पराघातनामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार है / [36] हिरयाणपुग्विणामए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं वीसं सागरोतमकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाइं प्रवाहा० / [1702-36 प्र.] नरकानुपूर्वी-नामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी पृच्छा? [1702-36 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम को है। बीस सौ (दो हजार) वर्ष का इसका अबाधाकाल है। . Page #1247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 // {সনানুগ [37] तिरियाणुपुखीए पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमस्स दो सत्तभागा पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणं बीस सागरोवमकोडाकोडीनो; वीस य वाससयाई अबाहा। [1702-37 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चानुपूर्वी की स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-37 उ] गौतम ! इसको जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 3 भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [38] मणुयाणुपुग्विणामए णं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स दिवढं सत्तमागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पण्णरस सागरोवमकोडाकोडीमो; पण्णरस य वाससयाई अबाहा। [1702-38 प्र.] मनुष्यानुपूर्वीनामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न ? [1702-38 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के " भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का है। [36] देवाणुपुचिणामए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमसहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाइं अबाहा० / [1702-36 प्र.] भगवन् ! देवानुपूर्वीनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1702-36 उ.] इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग की है और उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है / [40] उस्सासणामए पुच्छा। गोयमा ! जहा तिरियाणुपुवीए / [1702-40 प्र.] भगवन् ! उच्छ्वासनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [1702-40 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति तिर्यञ्चानुपूर्वी (सू. 1702-37 में उक्त) के समान है। [41] आयवणामए वि एवं चेव, उज्जोवणामए वि। [1702-41] आतप-नामकर्म की स्थिति भी इसी प्रकार जाननी चाहिए, तथैव उद्योतनामकर्म की भी। [42] पसथविहायगतिणामए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एगं सागरोवमस्स सत्तभाग, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीयो दस य वाससयाई अबाहा० / Page #1248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] [1702-42 प्र.] प्रशस्तविहायोगति-नामकर्म की स्थिति के विषय में प्रश्न ? [1702-42 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की और उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है / दस सौ (एक हजार) वर्ष का इसका अबाधाकाल है / [43] अपसत्थविहायगतिणामस्स पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमस्स दोणि सत्तभागा पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उकोसेणं वीसं सागरोक्मकोडाकोडीओ; वीस य वाससयाई अबाहा० / [1702-43 प्र.] अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म की स्थिति-विषयक प्रश्न ? [1702-43 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 3 भाग की है तथा उत्कृष्ट स्थिति वीस कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का है। [44] तसणामए थावरणामए य एवं चेव / [1702-44] त्रसनामकर्म और स्थावरनामकर्म को स्थिति भी इसी प्रकार जाननी चाहिए। [45] सुहुमणामए पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागा पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमकोडाकोडीनो; अट्ठारस य वाससयाई अबाहा / [1702-45 प्र.] सूक्ष्मनामकर्म की स्थिति-सम्बन्धी प्रश्न ? [1702-45 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के ईपू भाग की और उत्कृष्ट स्थिति अठारह कोडाकोडी सागरोपम की है। इसका अबाधाकाल अट्ठारह सौ वर्ष का है। [46] बादरणामए जहा अपसत्यविहायगतिणामस्स (सु. 1702 [43]) / [1702-46] बादरनामकर्म की स्थिति (सू. 1702-43 में उल्लिखित) अप्रशस्तविहायोगति की स्थिति के समान जानना चाहिए। [47] एवं पज्जत्तगणामए वि / अपज्जत्तगणामए जहा सुहुमणामस्स (सु. 1702[45]) / [1702-47] इसी प्रकार पर्याप्तनामकर्म की स्थिति के विषय में जानना चाहिए। अपर्याप्तनामकर्म की स्थिति (सू. 1702-45 में उक्त) सूक्ष्मनामकर्म की स्थिति के समान है। [48] पत्तेयसरीरणामए वि दो सत्तभागा। साहारणसरीरणामए जहा सुहुमस्स / __ [1702-48] प्रत्येकशरीरनामकर्म की स्थिति भी भाग की है / साधारणशरीरनामकर्म की स्थिति सूक्ष्मशरीरनामकर्म की स्थिति के समान है। Page #1249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिज्ञापनासूत्र [46] थिरणामए एगं सत्तभागं / अथिरणामए दो। [1702-46] स्थिरनामकर्म की स्थिति : भाग की है तथा अस्थिरनामकर्म की स्थिति भाग की है। [50] सुभणामए एगो / असुभणामए दो। _ [1702-50] शुभनामकर्म की स्थिति भाग की और अशुभनामकर्म की स्थिति - भाग की समझनी चाहिए। [51] सुभगणामए एगो / दूभगणामए दो। [1702-51] सुभगनामकर्म की स्थिति : भाग की और दुर्भगनामकर्म की स्थिति में भाग की है। [52] सूसरणामए एगो। दूसरणामए दो। [1702-52) सुस्वरनामकर्म की स्थिति भाग की और दुःस्वरनामकर्म की स्थिति / भाग की होती है। [53] पाएज्जणामए एगो / अणाएज्जणामए दो। [1702-53] प्रादेयनामकर्म की स्थिति : भाग की और अनादेयनामकर्म की 3 भाग की होती है। [54] जसोकित्तिणामए जहणणं अट्ठ मुहुत्ता, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडोलो दस य वाससताई अबाहा० / [1702-54] यश:कीर्तिनामकर्म की स्थिति जघन्य आठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है / उसका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का होता है / [55] अजसोकित्तिणामए पुच्छा। गोयमा ! जहा अपसत्थविहायगतिणामस्स (सु. 1702 [43]) / [1702-55 प्र.] भगवन् ! अयशःकीतिनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [1702-55 उ.] गौतम ! (सू. 1702-43 में उल्लिखित) अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म की स्थिति के समान इसकी (जघन्य और उत्कृष्ट) स्थिति जाननी चाहिए। [56] एवं णिम्माणणामए वि / [1702-56] इसी प्रकार निर्माणनामकर्म की स्थिति के विषय में भी (जानना चाहिए / ) [57] तित्थगरणामए गं० पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अंतोसागरोवमकोडाकोडोमो, उक्कोसेण वि अंतोसागरोवम. कोडाकोडीयो। [1702-57 प्र.] भगवन् ! तीर्थकरनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? Page #1250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] [55 [1702-57 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोडाकोडी सागरोपम की कही गई है। [58] एवं जत्थ एगो सत्तभागो तत्थ उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडी दस या वाससयाई अबाहा। जत्थ दो सत्तभागातत्थ उक्कोसेणं वीसंसागरोवमकोडाकोडीयो वीस य वाससयाइं प्रबाहा० / [1702-58] जहाँ (जघन्य स्थिति सागरोपम के) : भाग की हो, वहाँ उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की और अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का (समझना चाहिए) एवं जहाँ (जघन्य स्थिति सागरोपम के) भाग की हो, वहाँ उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की और अबाधाकाल बीस सौ (दो हजार) वर्ष का (समझना चाहिए)। 1703. [1] उच्चागोयस्स पुच्छा। गोयमा ! जहणणं अट्ट मुहत्ता, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीओ; दस य वाससयाई अबाहा०। [1703-1 प्र.] भगवन् ! उच्चगोत्रनामकर्म की स्थिति कितने काल की कही है ? [1703-1 उ.] गौतम ! इसकी स्थिति जघन्य पाठ मुहूर्त की और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की है तथा इसका अबाधाकाल दस सौ वर्ष का है / [2] गोयागोयस्स पुच्छा। गोयमा ! जहा अपसस्थविहायगतिणामस्स / [1703.2 प्र.] भगवन् ! नीचगोत्रकर्म की स्थिति सम्बन्धी प्रश्न ? [1703-2 उ.] गौतम ! अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म की स्थिति के समान इसकी स्थिति है। 1704. अंतराइयस्स णं० पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडोप्रो; तिण्णि य वाससहस्साई अबाहा, प्रबाहूणिया कम्मठितो कम्मणिसेगे। [1704 प्र. भगवन् ! अन्तरायकर्म की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [1704 उ.] गौतम ! इसकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम की है तथा इसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है एवं अबाधाकाल कम करने पर शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल है। विवेचन–प्रस्तुत प्रकरण के (सू. 1697 से 1704 तक) में ज्ञानावरणीय से लेकर अन्तरायकर्म तक (मूलउत्तरकर्म प्रकृतियों सहित) की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया गया है / साथ ही अपृष्ट प्रश्न के व्याख्यान के रूप में इन सब कर्मों के अबाधाकाल तथा निषेककाल के विषय में भी कहा गया है। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 371 से 377 तक Page #1251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र स्थिति--ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ कर्मों और उनके भेद-प्रभेद सहित सभी कर्मों के अधिकतम और न्यूनतम समय तक आत्मा के साथ रहने के काल को स्थिति कहते हैं। इसे ही कर्मसाहित्य में स्थितिबन्ध कहा जाता है / कर्म को उत्कृष्ट स्थिति को कर्मरूपतावस्थानरूप स्थिति कहते हैं / अबाधाकाल-कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं कर देते, वे कुछ समय तक ऐसे ही पड़े रहते हैं। अतः कर्म बंधने के बाद अमुक समय तक किसी प्रकार के फल न देने की (फलहीन) अवस्था को अबाधाकाल कहते हैं। निषेककाल-बन्धसमय से लेकर अबाधाकाल पूर्ण होने तक जीव को वह बद्ध कर्म कोई बाधा नहीं पहुँचाता, क्योंकि इस काल में उसके कर्मदलिकों का निषेक नहीं होता, अतः कर्म की उत्कृष्ट स्थिति में से अबाधाकाल को कम करने पर जितने काल की उत्कृष्ट स्थिति रहती है, वह उसके कर्मनिषेक का (कर्मदलिक-निषेकरूप) काल अर्थात्-अनुभवयोग्यस्थिति का काल कहते हैं / पृष्ठ 57 से 61 पर दिये रेखाचित्र में प्रत्येक कर्म की जघन्य-उत्कृष्टस्थिति एवं अबाधाकाल व निषेककाल का अंकन है। एकेन्द्रिय जीवों में ज्ञानावरणीयादि कर्मों की बंधस्थिति की प्ररूपरणा 1705. एगिदिया णं भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स तिणि सत्तभागे पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / 61705 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1705 उ.] गौतम! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 3 भाग का बन्ध करते हैं और उत्कृष्टतः पूरे सागरोपम के भाग का बन्ध करते हैं / 1706. एवं णिहापंचकस्स वि दंसणचउक्कस्स वि। [1706] इसी प्रकार निद्रापंचक और दर्शनचतुष्क का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध भी ज्ञानावरणीयपंचक के समान जानना चाहिए। 1707. [1] एगिदिया णं भंते ! जीवा सातावेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणणं सागरोवमस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1707-1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सातावेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1707-1 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट पूरे सागरोपम के " भाग का बन्ध करते हैं / 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टोका) भा. 5, पृ. 336-337 (ख) कर्मग्रन्थ भाग 1, पृष्ठ 64-65 Page #1252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम कर्मप्रकृति का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति अबाधाकाल निषेककाल 1 ज्ञानावरणीय (पंचविध) अन्तर्महूर्त 30 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 3 हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 3 हजार वर्ष कम तेईसवां कर्मपद] दो समय 15 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 1500 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1500 वष कम उत्कृष्ट स्थिति में तीन हजार वर्ष कम 30 3000 वर्ष 2 दर्शनावरणीय निद्रापंचक पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग 3 . ., II दर्शनचतुष्क अन्तर्मुहूर्त 4 सातावेदनीयकर्म 1 ईर्यापथिकापेक्षा से दो समय II साम्परायिक बन्धक की बारह मुहूर्त अपेक्षा से 3 असातावेदनीय कर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाम कम सागरोपम का भाग 6 सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) अन्तर्मुहूर्त 7 मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सागरोपम 5 सम्यगमिथ्यात्ववेदनीय अन्तर्मुहर्त (मोहनीय) 9 कषाय द्वादशक (प्रारम्भ के पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 12 कषाय) अनन्ता. अप्रत्या. सागरोपम का भाग प्रत्या . 10 संज्वलनक्रोध (मोहनीय) दो मास कुछ अधिक 66 सागरोपम - 70 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 7000 वर्ष अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट स्थिति में से 7 हजार वर्ष कम 40 कोड़ाकोडी सागरोपम 4000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 4 हजार वर्ष कम 4000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में से 4 हजार वर्ष कम 11 संज्वलनमान 12 संज्वलनमाया 13 संज्वलनलोभ 14 स्त्रीवेद (मोहनीय) एक मास अर्द्ध मास अन्तर्मुहुर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 8 वर्ष की 15 कोडाकोड़ी सागरोपम 1500 वर्ष 10 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष 15 पुरुषवेद , 16 नपुंसकवेद , उत्कृष्ट स्थिति में 1500 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1000 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में दो हजार वर्ष कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष Page #1253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 ऋम कर्मप्रकृति का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति अबाधाकाल निषेककाल ] 17-18 हास्य और रति (मोहनीय) 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग अन्तमहतं अधिक 10 हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में से 1000 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम 19-22 अरति, भय, शोक, जुगुप्सा 20 कोड़ाकोडी सागरोपम 2000 वर्ष 23 नारकाय करोड़ पूर्व के तृतीय भाग अधिक 33 सागरोपम करोड़ पूर्व का तीसरा भाग अधिक 3 पल्योपम 24 तिर्यञ्चायु अन्तर्मुहूर्त 25 मनुष्यायु 26 देवायु अन्तर्महत अधिक 10 हजार वर्ष करोड़ पूर्व के तृतीय भाग अधिक 33 सागरोपम की 20 कोडाकोडी सागरोपम 2000 वर्ष 27 नरकगतिनामकर्म उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम 28 तिर्यञ्चगतिनामकर्म 29 मनुष्यगतिनामकर्म 15 कोड़ाकोडी सागरोपम 1500 वर्ष 30 देवगतिनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का " भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम काभाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 15000 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1 हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1800 वर्ष कम 31 एकेन्द्रियजातिनामकर्म 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष 32 द्वीन्द्रियजातिनामकर्म 18 कोडाकोड़ी सागरोपम 1800 इर्ष " 33 त्रीन्द्रियजाति नामकर्म 34 चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म 35 पंचेन्द्रियजातिनामकर्म " " पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम 36 औदारिक शरीरनामकर्म 37 वैक्रिय शरीरनामकर्म // पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का भाग अन्तःकोडाकोड़ी सागरोपम पत्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 38 आहारकशरीरनामकर्म 39.40 तेजसशरीरनामकर्म कार्मणशरीरनामकर्म अन्त:कोडाकोड़ी सागरोपम 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष [प्रज्ञापनासूत्र उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम Page #1254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम कर्मप्रकृति का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति अबाधाकाल निषेककाल 41 औदारिकशरीरांगोपांग 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पूर्ववत् " उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम तेईसवाँ कर्मपद 42 वक्रिय शरीरांगोपांग 43 आहारकशरीरांगोपांगनामकर्म 44-48 पंचशरीरबन्धननामकर्म 49-53 पंचशरीरसंघातनामकर्म शरीरनामकर्म के समान शरीरनामकर्मवत् पूर्ववत् पूर्ववत् 54 वज्रऋषभनाराचसंहनन नाम 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष 55 ऋषभनाराचसंहनन 12 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 1200 वर्ष 56 नाराचसंहनननामकर्म 14 कोडाकोड़ी सागरोपम 1400 वर्ष 57 अर्द्धनाराचसंहनन 16 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 1600 वर्ष 58 कीलिकासंहनन 18 कोडाकोड़ी सागरोपम 1800 वर्ष 59 सेवात संहनन 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष 60-65 छह प्रकार के संस्थाननामकर्म 66 शुक्लवर्णभामकर्म पल्योपम के असख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग छह संहनननामकर्म के समान पल्योपम के अस ख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असख्यालवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग पल्योपम के असख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग , षट्सहननवत 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1 हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1200 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1400 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1600 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1800 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में दो हजार वर्ष कम षट्संहनन के समान उत्कृष्ट स्थिति में 1 हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1250 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1500 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1750 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 1 हजार वर्ष कम 67 पीतवर्णनामकर्म 12 / / कोडाकोड़ी सागरोपम 1250 वर्ष 68 रक्तवर्णनामकर्म 15 कोडाकोड़ी सागरोपम 1500 वर्ष 69 नीलवर्णनामकर्म 17 / / कोडाकोड़ी सागरोपम 1750 वर्ष 70 कृष्णवर्णनामकर्म 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष 71 सुरभिगन्धनामकर्म 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष {59 Page #1255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " " क्रम कर्मप्रकृति का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति अबाधाकाल निषेककाल 72 दुरभिगन्धनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में सागरोपम का भाग 2 हजार वर्ष कम 73-77 मधुर आदि पांच रस नामकर्म शुक्लवर्ण आदि पांच वर्षों की स्थिति शुक्लादि पंचवर्णवत् पंचवर्णवत् पंचवर्णवत् के समान 75-81 अप्रशस्त स्पर्श चार (कर्कश, सेवार्तसंहनन के समान सेवार्तसंहननवत् से वार्तसंहननवत सेवार्तसंहननवत् गुरु, रूक्ष, शीत) 82-85 प्रशस्त स्पर्श चार (मद्र, लघ, शूक्लवर्णनामकर्म की स्थिति के समान शुक्लवर्णवत् शुक्लवर्णवत् शुक्लवर्ण वत् स्निग्ध, उष्ण) 56 अगुरुलघुनामकर्म सेवार्तसंहनन के समान सेवार्तवत् सेवार्तवत् सेवार्तवत् 87 उपघातनामकर्म 88 पराघात नामकर्म 89 नरकानुपूर्वीनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में दो सहस्र सागरोपम का भाग हजार वर्ष कम 90 तिर्य चानुपूर्वीनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 91 मनुष्यानुपूर्वीनामकर्म पत्योपम के अस ख्यातवें भाग कम 15 कोडाकोड़ी सागरोपम 1500 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1500 सागरोपम का" भाग वर्ष कम 92 देवानुपूर्वीनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1000 सहस्र सागरोपम का भाग वर्ष कम 93 उच्छवासनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 2 सागरोपम का भाग हजार वर्ष कम 94 प्रातपनामकर्म 95 उद्योतनामकर्म 96 प्रशस्त विहायोगतिनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1 सागरोपम का भाग हजार वर्ष कम 97 अप्रशस्तविहायोगतिनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 2 सागरोपम का भाग हजार वर्ष कम 98 असनामकर्म 99 स्थावरनामकम 100 सूक्ष्मनामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 18 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 1800 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1800 सागरोपम का भाग वर्ष कम 101 बादरनामकर्म अप्रशस्तविहायोगति की स्थिति के समान 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 2000 वर्ष कम " " [प्रज्ञापनासूत्र Page #1256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम कर्मप्रकृति का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति अबाधाकाल निषेककाल तेईसा कर्मपद] 102 पर्याप्तनामकर्म 103 अपर्याप्तनाभकर्म बादर के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग बादरक्त बादरवत् 18 कोडाकोड़ी सागरोपम 1800 वर्ष बादरवत उत्कृष्ट स्थिति में 1800 वर्ष कम 104 साधारणशरीरनामकर्म 105 प्रत्येकशरीरनामकर्म 20 कोडाकोड़ी सागरोपम 2000 वर्ष पल्योपम के प्रसंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम 106 अस्थिरनामकर्म 107 स्थिरतामकर्म पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग 10 कोड़ाकोड़ी साग 1000 वर्ष उत्कृष्ट स्थिति में 1 हजार वर्ष कम 108 शुभनामकर्म 109 सुभगनामकर्म 110 सुस्वरनामकर्म 111 प्रादेयनामकर्म 112 यशःकीर्तिनामकर्म 113 अशुभनामकर्म पाठ मुहूर्त पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाम 10 कोडाकोड़ी सागरोपम 1000 बर्ष 20 कोडाकोड़ो सागरोपम 2000 वर्व उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम 114 दुर्भगनामकर्म 115 दुःस्वरनामकर्म 216 अनादेयनामकर्म 117 अयशःकीर्तिनाम 118 निर्माणनामकर्म 119 तीर्थकरनामकर्म 120 उच्चगोत्रनामकर्म " " अन्त कोडाकोड़ी सागरोपम पाठ मुहूर्त अन्तःकोडाकोडी सागरोपम 10 कोडाकोडी सागरोपम 1000 वर्ष 121 नीचगोत्रनामकर्म 20 कोडाकोड़ी सापरोगम 2000 वर्ष पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग अन्तर्मुहर्त उत्कृष्ट स्थिति में 1000 वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 2 हजार वर्ष कम उत्कृष्ट स्थिति में 3 हजार वर्ष कम' 122 अन्तरायनामकर्म 30 कोड़ाकोड़ी सागरोपम 3000 वर्ष 1. (क) विशेष स्पष्टीकरण के लिए कर्मग्रन्थ भा. 5 तथा ठिइबंधो प्रादि देखें। (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 371 से 377 तक [1 Page #1257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र 1707. [2] असायावेयणिज्जस्स जहा णाणावरणिज्जस्स (सु. 1705) / [1707-2] असातावेदनीय का (जघन्य और उत्कृष्ट) बन्ध ज्ञानावरणीय के समान जानना चाहिए। 1708. [1] एगिदिया णं भंते ! जीवा सम्मत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधंति ? गोयमा! पत्थि किचि बंधति / (1708-1 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सम्यक्त्ववेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1708-1 उ.] गौतम ! वे किसी भी काल का बंध नहीं करते-बन्ध करते ही नहीं हैं / [2] एगिदिया णं भंते ! जोवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधंति ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1708-2 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीयकर्म कितने काल का बांधते हैं ? [1708-2 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम काल का बांधते हैं और उत्कृष्ट एक परिपूर्ण सागरोपम का बांधते हैं / [3] एगिदिया णं भंते ! सम्मामिच्छत्तवेयणिज्जस्स किं बंधंति ? गोयमा ! णस्थि किचि बंधति / [1708-3 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव सम्यमिथ्यात्ववेदनीय कितने काल तक का बांधते हैं? [1708-3 उ.] गौतम ! वे किसी काल का नहीं बांधते। [4] एगिदिया णं भंते ! कसायबारसगस्स कि बंधति ? गोयमा! जहण्णेणं सागरोवमस्स चत्तारि सत्तभागे पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1708-4 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव कषायद्वादशक का कितने काल का बन्ध करते हैं। [1708-4 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं / [5] एवं कोहसंजलणाए वि जाव लोभसंजलणाए वि / [1708-5] इसी प्रकार यावत् संज्वलन क्रोध से लेकर यावत् संज्वलन लोभ तक बांधते हैं। [6] इथिवेयस्स जहा सायावेयणिज्जस्स (सु. 1707 [1]) / [1708-6] स्त्रीवेद का बन्धकाल सातावेदनीय (सू. 1707-1 में उक्त) के बन्धकाल के समान जानना। [7] एगिदिया पुरिसवेवस्स कम्मस्स जहण्णणं सागरोवमस्स एक्कं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधंति / Page #1258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] [1708-7] एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पुरुषवेदकर्म का पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का : भाग बांधते हैं और उत्कृष्टतः वही भाग पूरा बांधते हैं / [8] एगिदिया णपुसगवेदस्स कम्मस्स जहणणं सागरोवमस्स दो सत्तभागे पलियोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1708-8] एकेन्द्रिय जीव नपुंसकवेदकर्म का जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही भाग परिपूर्ण बाँधते हैं / [6] हास-रतीए जहा पुरिसवेयस्स (सु. 1708 [7]) / [1708-6] हास्य और रति का बन्धकाल पुरुषवेद (सू. 1708-7 में उक्त) के समान जानना। [10] अरति-भय-सोग-दुगुछाए जहा गपुसगवेयस्स (सु. 1708 [8]) / [1708-10] अरति, भय, शोक और जुगुप्सा का बन्धकाल नपुसकवेद के समान जानना चाहिए। 1706. रइयाउन- देवाउप्र-णिरयगतिणाम- देवगतिणाम- वेउब्वियसरीरणाम- आहारग सरीरणाम-णेरइयाणुपुविवणाम-देवाणुपुषिणाम-तित्थगरणाम एयाणि पयाणि ण बंधति।। [1706] नरकायु, देवायु, नरकगतिनामकर्म, देवगतिनामकर्म, वैक्रियशरीरनामकर्म, पाहारकशरीरनामकर्म, नरकानुपूर्वी नामकर्म, देवानुपूर्वीनामकर्म, तीर्थकरनामकर्म, इन नौ पदों को एकेन्द्रिय जीव नहीं वांधते / 17010. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहणेणं अंतोमुहत्तं, उपकोसेणं पुन्यकोडी सहि वाससहस्सेहि वाससहस्सतिभागेण य अहियं बंधति / एवं मणुस्साउअस्स वि। [1710] एकेन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का, उत्कृष्ट सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अधिक करोड पूर्व का बन्ध करते हैं। मनुष्यायु का बन्ध भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 1711. [1] तिरियगतिणामए जहा गपुसगवेदस्स (सु. 1708 [8]) / मणुयगतिणामए जहा सातावेदणिज्जस्स [सु. 1707 [1]) / [1711-1] तिर्यञ्चगतिनामकर्म का बन्धकाल (सू. 1708-8 में उक्त) नपुंसकवेद के समान है तथा मनुष्यगतिनामकर्म का बन्धकाल (सू. 1707-1 में उन) सातावेदनीय के समान है / / [2] एगिदियजाइणामए पंचेंदियजातिणामए य जहा णपुसगवेदस्स / बेइंदिय-तेइंदियजातिणामए जहण्णणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति / चरिदियनामए वि जहणेणं सागरोवमस्स णव पणतीसतिभागे पलिप्रोवमस्स प्रसंखिज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / Page #1259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] [प्रज्ञापनासूत्र [1711-2] एकेन्द्रियजाति-नामकर्म और पंचेन्द्रियजाति-नामकर्म का बन्धकाल नपुंसकवेद के समान जानना चाहिए तथा द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति-नामकर्म का बंध जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग बांधते हैं और उत्कृष्ट वही पुस भाग पूरे बांधते हैं। 1712. एवं जत्थ जहण्णगं दो सत्तभागा तिणि वा चत्तारि वा सत्तभागा अट्ठावीसतिभागा० भवंति तत्थ णं जहणणं ते चेव पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा भाणियन्वा, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / जत्थ णं जहणणं एगो वा दिवड्ढो वा सत्तभागो तत्थ जहण्णणं तं चेव भाणियन्वं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1712] जहाँ जघन्यत: भाग, 3 भाग या भाग अथवा 18, 36 एवं 26 भाग कहे हैं, वहाँ वे ही भाग जघन्य रूप से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम कहने चाहिए और उत्कृष्ट रूप में वे ही भाग परिपूर्ण समझने चाहिए। इसी प्रकार जहाँ जघन्य रूप से' या " भाग है, वहाँ जघन्य रूप से वही भाग कहना चाहिए और उत्कृष्ट रूप से वही भाग परिपूर्ण कहना चाहिए। 1713. जसोकित्ति-उच्चागोयाणं जहण्णेणं सागरोवमस्स एगं सतभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1713] यश:कोतिनाम और उच्चगोत्रकर्म का एकेन्द्रिय जीव जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग का एवं उत्कृष्टतः सागरोपम के पूर्ण भाग का बन्ध करते हैं। 1714. अंतराइयस्स णं भंते !0 पुच्छा। गोयमा ! नहा गाणावरणिज्जस्स जाव उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1714 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव अन्तरायकर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [1714 उ.] गौतम ! इनका अन्तरायकर्म का जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल ज्ञानावरणीय कर्म के समान जानना चाहिए। विवेचन-इससे पूर्व सभी कर्म-प्रकृतियों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, अबाधाकाल एवं निषेककाल का प्रतिपादन किया गया था। इस प्रकरण में एकेन्द्रिय जीव बन्धकों के कर्मों की स्थिति की प्ररूपणा की गई है। अर्थात एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्म का जो बन्ध होता है, उसकी स्थिति कितने काल तक की होती है ? ' निम्नोक्त रेखाचित्र से एकेन्द्रिय जीवों के ज्ञानावरणीयादि कर्मों की जघन्य, उत्कृष्ट स्थिति का आसानी से ज्ञान हो जाएगा 1. प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टोकासहित) Page #1260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [65 तेईसवाँ कर्मपद] एकेन्द्रिय जीवों की बन्धस्थिति का रेखाचित्र क्रम कर्मप्रकृति का नाम जघन्य बन्धस्थिति 1. ज्ञानावरणीयकर्म (पंचक) पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का भाग निद्रापंचक, दर्शनावरणचतुष्क 2. तिर्यञ्चायु नामकर्म अन्तर्मुहर्त की उत्कृष्ट बन्धस्थिति पूरे सागरोपम का भाग सात हजार तथा एक हजार वर्ष का तृतीय भाग अधिक करोड़ पूर्व की पूरे सागरोपम का भाग 3. सातावेदनीय, स्त्रीवेद, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी 4. सम्यक्त्ववेदनीय और मिश्र वेदनीय (मोहनीय) कर्म 5. मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम का " भाग बन्ध नहीं बन्ध नहीं पूरे सागरोपम की 6. कषायषोडशक (मोलह कषाय) पूरे सागरोपम के भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की पूरे सागरोपम के भाग को 7. पुरुषवेद, हास्य, रति, प्रशस्त विहा योगति, स्थिरादिषट्क समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, शुक्लवर्ण, सुरभिगन्ध, मधुर रस और उच्चगोत्र, यश कीर्ति 8. द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-जातिनाम चतुरि न्द्रिय-जातिनाम 9. नरकायु, देवायु, नरकगतिनाम, देवगतिनाम, वैक्रियशरीर, (वैक्रिय चतुष्टय), आहारक शरीर (आ. चतुष्टय) नरकानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, तीर्थकरनामकर्म 10. द्वितीय संस्थान, द्वितीय संहनन पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की पूरे सागरोपम के 5 भाग की इन नौ पदों का बन्ध नहीं बन्ध नहीं पूरे सागरोपम के 3 भाग 11, तीसरा संस्थान, तीसरा संहनन पूरे सागरोपम के 3 भाम 12. रक्तवर्ण, कषायरस पूरे सागरोपम के SE भाग 13. पोलावर्ण, अम्ल रस पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के कुन भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के इन भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 5 भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के 1 भाग की पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सागरोपम के भाग को पूरे सागरोपम के 58 भाग 14. नीलवर्ण, कटुकरस पूरे सागरोपम के भाग 15 पूरे सागरोपम के भाग की नपुंसक वेद, भय, शोक जुगुप्सा,अरति, तिर्यञ्चद्विक, प्रौदारिकद्विक, अन्तिम संस्थान, अन्तिम संहनन, कृष्णवर्ण, तिक्तरस, अगुरुलधु, उपधात, पराघात, उच्छवास, श्रम, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिरादिषट्क, स्थावर, पातप, उद्योत, अप्रशस्त निहायोगति निर्माण, एकेन्द्रिय पंचेन्द्रिय जाति तेजस, काभण शरीरनाम " - - 1. (क) पण्णवणासुतं भा. 1 (ख) प्रज्ञापनाशूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टोकासहित) Page #1261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र द्वीन्द्रियजीवों में कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपणा 1715. बेइंदिया णं भंते ! जीवा जाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसाए तिणि सत्तभागा पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / [1715 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1715 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पच्चीस सागरोपम के में भाग (काल) का बन्ध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं / 1716. एवं णिद्दापंचगस्स वि। [1716] इसी प्रकार निद्रापंचक (निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि) की स्थिति के विषय में जानना चाहिए / 1717. एवं जहा एगिदियाणं भणियं तहा बेइंदियाण वि भाणियन्वं / णवरं सागरोवमपणुवीसाए सह भाणियन्वा पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणा, सेसं तं वेव, जत्थ एगिदिया ण बंधति तत्थ एते वि ण बंधति / [1717] इसी प्रकार जैसे एकेन्द्रिय जीवों को बन्धस्थिति का कथन किया है, वैसे ही द्वीन्द्रिय जीवों की बंधस्थिति का कथन करना चाहिए। जहाँ (जिन प्रकृतियों को) एकेन्द्रिय नहीं बांधते, वहाँ (उन प्रकृतियों को) ये भी नहीं बांधते / 1718. बेइंदिया णं भंते ! जीवा मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमपणुवीसं पलिओवमस्स असंखिज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति। [1718 प्र.भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1718 उ.] गौतम ! वे जधन्यत: पल्योपम के असंख्यातवे भाग कम पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्टतः वही परिपूर्ण बांधते हैं। 1716. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेण अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुथ्वकोडि चहि वासेहि अहियं बंधंति / एवं मणुयाउअस्स वि / [1616] द्वीन्द्रिय जीव तिर्यञ्चायु को जघन्यत: अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्टतः चार वर्ष अधिक पूर्वकोटिवर्ष का बांधते हैं / इसी प्रकार मनुष्यायु का कथन भी कर देना चाहिए / 1720. सेसं जहा एगिदियाणं जाव अंतराइयस्स / [1720] शेष यावत् अन्तरायकर्म तक एकेन्द्रियों के कथन के समान जानना चाहिए। विवेचन- द्वीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयादि पाठ कर्मों का बन्ध कितने काल का करते Page #1262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद [67 हैं ? इस प्रश्न का समाधान यहाँ किया गया है। नीचे लिखे रेखाचित्र से आसानी से समझ में आ जाएगा--- कर्मप्रकृति का नाम जघन्य बन्धस्थिति उत्कृष्टबन्धस्थिति ज्ञानावरणीय, निद्रापंचक पल्योपम का असंख्यवाँ भाग 25 सागरोपम के भाग की कम 25 सागरोपम के भाग की शेषकर्म एकेन्द्रिय के समान बन्ध प्रबन्ध जानना मिथ्यात्वमोहनीय पल्योपम के असंख्यातवें भाग पूर्ण पच्चीस सागरोपम की कम 25 सागरोपम की तिर्यञ्चायु-मनुष्यायु अन्तर्मुहूर्त 4 पूर्व अधिक पूर्वकोटि वर्ष की नाम-गोत्र अन्तरायादि एकेन्द्रिय के समान एकेन्द्रियवत्' एकेन्द्रियों की अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीवों के बंधकाल की विशेषता-एक विशेषता यह है कि द्वीन्द्रिय जीवों का बन्धकाल एकेन्द्रिय जीवों से पच्चीस गुणा अधिक होता है / जैसे-एकेन्द्रिय के ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य बन्धकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक सागरोपम के भाग का है, जबकि द्वीन्द्रिय का जघन्य वन्धकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम 25 सागरोपम के भाग का है / इस प्रकार पच्चीस गुणा अधिक करके पूर्ववत् समझ लेना चाहिए / जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध एकेन्द्रिय जीव नहीं करते, द्वीन्द्रिय जीव भी उनका वन्ध नहीं करते। इस प्रकार जिस कर्म की जो-जो उत्कृष्ट स्थिति पहले कही गई है, उस स्थिति का मोहनीयकर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडाकोडी के साथ भाग करने पर जो संख्या लब्ध होती है, उसे पच्चीस से गुणा करने पर जो राशि पाए उसमें से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम करने पर द्वीन्द्रिय जीवों की जघन्य स्थिति का परिमाण आ जाता है। यदि उसमें से पल्योपम का असंख्यातवाँ म न करें तो उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण या जाता है। उदाहरणार्थ-ज्ञानावरणीय पंचक आदि के सागरोपम के भाग का पच्चीस से गुणा किया जाय तो पच्चीस सागरोपम के , भाग हुए। अर्थात्-उनका उत्कृष्ट बन्धकाल पूरे पच्चीस सागरोपम के भाग हुए / यदि पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम कर दिया जाए तो उनका जघन्य स्थिति बन्धकाल हुआ। त्रीन्द्रियजीवों में कर्मप्रकृतियों की स्थिति-बन्धप्ररूपणा 1721. तेइंदिया णं भंते ! जीवा पाणावरणिज्जस्स कि बंधंति ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमपण्णासाए तिणि सत्तभागा पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणया, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधंति / एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमपण्णासाए सह भाणियव्वा / 1. पण्णवणासुत्तं भाग 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 379 2. प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. 419-420 Page #1263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासून [1721 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [1721 उ.] गौतम ! वे जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम के 3 भाग का बंध करते हैं और उत्कृष्ट वही परिपूर्ण बांधते हैं / इस प्रकार जिसके जितने भाग हैं, वे उनके पचास सागरोपम के साथ कहने चाहिए। 1722. तेइंदिया णं० मिच्छत्तवेयणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णणं सागरोवमपण्णासं पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उपकोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति। [1722 प्र.] भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीव मिथ्यात्व-वेदनीय कर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं। . [1722 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पचास सागरोपम का और उत्कृष्ट पूरे पचास सागरोपम का बन्ध करते हैं। 1723. तिरिक्खजोणियाउअस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि सोलसहि राइंदिरहि राइंदियतिभागेण य अहियं बंधति / एवं मणुस्साउयस्स वि। [1723] तिर्यञ्चायु का जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट सोलह रात्रि-दिवस तथा रात्रिदिवस के तीसरे भाग अधिक करोड़ पूर्व का बन्धकाल है। इसी प्रकार मनुष्यायु का भी बन्धकाल है। 1724. सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। [1724] शेष यावत् अन्तराय तक का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए। विवेचन- त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता-त्रीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की प्ररूपणा भी इसी प्रकार की है, किन्तु उनका बन्धस्थितिकाल एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा 50 गुणा अधिक होता है।' चतुरिन्द्रिय जोवों की कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपरणा 1725. चरिदिया णं भंते ! जोवा णाणावरणिज्जस्स कि बंधति ? गोयमा! जहण्णणं सागरोवमसयस्स तिणि सत्तभागे पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / एवं जस्स जइ भागा ते तस्स सागरोवमसतेण सह भाणियस्वा। [1725 प्र. भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बंध करते हैं ? [1725 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सौ सागरोपम के भागका ओर उत्कृष्ट पूरे सो सागरोपम के ॐ भाग का बन्ध करते हैं। 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 380 (ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. 420 Page #1264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवा कर्मपद 1726. तिरिक्खजोणियाउअस्स कम्मस्स जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडि दोहि मासेहि अहियं / एवं मणुस्साउअस्स वि / [1726] तिर्यञ्चायुकर्म का (बन्धकाल) जघन्य अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट दो मास अधिक करोड़-पूर्व का है। इसी प्रकार मनुष्यायु का बन्धकाल भी जानना चाहिए। 1727. सेसं जहा बेइंदियाणं / गवरं मिच्छत्तवेयणिज्जस्स जहण्णणं सागरोवमसतं पलिनोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / सेसं जहा बेइंदियाणं जाव अंतराइयस्स। [1727] शेष यावत् अन्तराय तक द्वीन्द्रियजीवों के बन्धकाल के समान जानना चाहिए / विशेषता यह कि मिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) का जघन्य पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम सौ सागरोपम और उत्कृष्ट परिपूर्ण सौ सागरोपम का बन्ध करते हैं। शेष कथन अन्तराय कर्म तक द्वीन्द्रियों के समान है। विवेचन-चतुरिन्द्रिय जीवों के बन्धकाल की विशेषता-उनका बन्धकाल एकेन्द्रियों की अपेक्षा सौ गुणा अधिक होता है।' असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीवों को कर्मप्रकृतियों की स्थितिबन्ध-प्ररूपरणा 1728. असण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहणेणं सागरोवमसहस्सस्स तिण्णि सत्तभागे पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे बंधति / एवं सो चेव गमो जहा बेइंदियाणं / णवरं सागरोवमसहस्सेण समं भाणियब्वा जस्स जति भाग ति। [1728 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी-पंचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीय कर्म कितने काल का बांधते [1728 उ.] गौतम ! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्रसागरोपम के भाग काल का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के भाग (काल) का बन्ध करते हैं। इस प्रकार द्वीन्द्रियों के (बन्धकाल के) विषय में जो गम (आलापक) कहा है, वही यहाँ जानना चाहिए / विशेष यह है कि यहाँ असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के प्रकरण में जिस कर्म का जितना भाग हो, उसका उतना ही भाग सहस्रसागरोपम से गुणित कहना चाहिए / 1726. मिच्छत्तवेदणिज्जस्स जहण्णेणं सागरोवमसहस्सं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्फोसेणं तं चेव पडिपुण्णं / [1729] वे मिथ्यात्ववेदनीयकर्म का जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम का और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का (बन्ध करते हैं)। 1, (क) पण्णावणासुत्तं, भाग 1, पृ. 380 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 421 Page #1265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।प्रज्ञापनासूत्र 1730. [1] गेरइयाउअस्स जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुत्तम्भइयाई, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पुव्वकोडितिभागभइयं बंधंति / [1730-1] वे नरकायुष्यकर्म का (बन्ध) जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का बन्ध करते हैं / [2] एवं तिरिक्खजोणियाउअस्स वि / णवरं जहण्णणं अंतोमुहूत्तं / [1730-2] इसी प्रकार तिर्यञ्चायु का भी उत्कृष्ट बन्ध पूर्वकोटि का त्रिभाग अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग का, किन्तु जघन्य अन्तर्मुहूर्त का करते हैं। [3] एवं मणुस्साउअस्स वि / [1730-3] इसी प्रकार मनुष्यायु के (बन्ध के) विषय में समझना चाहिए / [4] देवाउप्रस्स जहा रइयाउअस्स / [1730-4] देवायु का बन्ध नरकायु के समान समझना चाहिए। 1731. [1] असण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णिरयगतिणामए कम्मस्स कि बंधति ? गोयमा ! जहण्णेणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिअोवमस्स असंखेज्जहभागेणं ऊणाए, उक्कोसेणं ते चेव पडिपुण्णे / [1731-1 प्र.] भगवन् ! असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव नरकगतिनामकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1631-1 उ.] गौतम ! वे पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम (काल) का भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम का भाग बांधते हैं। [2] एवं तिरियगतीए वि। [1731-2] इसी प्रकार तिर्यञ्चगतिनामकर्म के बंध के विषय में समझना चाहिए। [3] मणुयगतिणामए वि एवं चेव। णवरं जहणणं सागरोवमसहस्सस्स दिवड्ढं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं बंधति / [1731-3] मनुष्यगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेष यह है कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र-सागरोपम के " भाग और उत्कृष्ट परिपूर्ण सहस्र सागरोपम के " भाग का करते हैं / [4] एवं देवगतिणामए वि / णवरं जहण्णणं सागरोवमसहस्सस्स एगं सत्तभागं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणयं, उक्कोसेणं तं चेव पडिपुण्णं / [1731-4] इसी प्रकार देवगतिनामकर्म के बन्ध के विषय में समझना। किन्तु विशेषता यह है कि इसका जघन्य बन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट पूरे उसी (सहस्र सागरोपम) के ' भाग का करते हैं / Page #1266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [71 तेईसवाँ कर्मपद] [5] वेउब्वियसरीरणामए पुच्छा। गोयमा ! जहणणं सागरोवमसहस्सस्स दो सत्तभागे पलिग्रोवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणए, उक्कोसेणं दो पडिपुण्णे बंधंति / [1731-5 प्र.] भगवन् ! (असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव) वैक्रियशरीरनामकर्म का बन्ध कितने काल का करते हैं ? [1731-5 उ.] गौतम ! वे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम सहस्र सागरोपम के भाग का और उत्कृष्ट पूरे सहस्र सागरोपम के का करते हैं / 1732. सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-आहारगसरीरणामए तित्थगरणामए य ण किचि बंधति / [1732] (असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव) सम्यक्त्वमोहनीय, सम्यमिथ्यात्वमोहनीय, आहारकशरीरनामकर्म और तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करते ही नहीं हैं। 1733. अवसिठं जहा बेइंदियाणं / णवरं जस्स जत्तिया भागा तस्स ते सागरोवमसहस्सेणं सह भाणियव्वा / सव्वेसि प्राणुपुन्वीए जाव अंतराइयस्स / [1733] शेष कर्मप्रकृतियों का बन्धकाल द्वीन्द्रिय जीवों के कथन के समान जानना / विशेष यह है कि जिसके जितने भाग हैं, वे सहस्र सागरोपम के साथ कहने चाहिए। इसी प्रकार अनुक्रम से यावत् अन्त रायकर्म तक सभी कर्मप्रकृतियों का यथायोग्य (बन्धकाल) कहना चाहिए। विवेचन-द्वीन्द्रियों के समान पालापक, किन्तु विशेष अन्तर भी-द्वीन्द्रिय जीवों के बन्धकाल से असंज्ञीपंचेन्द्रियों के प्रकरण में विशेषता यही है कि यहाँ जघन्य और उत्कृष्ट बन्धकाल को सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए। जिस कर्म का जितना भाग है, उसका उतना ही भाग यहाँ सहस्र सागरोपम से गुणित कहना चाहिए।' संजीपंचेन्द्रिय जीवों में कर्म-प्रकृतियों के स्थिति-बन्ध का निरूपरण 1734. सण्णी णं भंते ! जीवा पंचेंदिया णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं बंधंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडोलो, तिणि य वाससहस्साई अबाहा। [1734 प्र.] भगवन् ! संज्ञीपचेन्द्रिय जीव ज्ञानावरणीयकर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1734 उ.] गौतम ! वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम (काल का) बन्ध करते हैं। इनका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है। (उत्कृष्टकर्मस्थिति में से अबाधाकाल कम करने पर इनका कर्मनिषककाल है 1) 1735. [1] सण्णी णं भंते ! पंचेंदिया णिहापंचगस्स कि बंधंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोसागरोवमकोडाकोडीनो; उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाकोडीमो, तिणि य वाससहस्साइं अबाहा। 1. प्रज्ञापनासूत्र भा. 5, पृ. 426 Page #1267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] प्रिज्ञापनासूत्र [1735-1 प्र.] भगवन् ! संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव निद्रापंचककर्म का कितने काल का बन्ध करते हैं ? [1735-1 उ.] गौतम ! वे जघन्य अन्तःकोडाकोडी सागरोपम का और उत्कृष्ट तीस कोडाकोडी सागरोपम का बन्ध करते हैं। इनका तीन हजार वर्ष का अबाधाकाल है०, इत्यादि पूर्ववत् / [2] दसणचउक्कस्स जहा णाणावरणिज्जस्स / [1735-2] दर्शनचतुष्क का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के वन्धकाल के समान है। 1736. [1] सातावेदणिज्जस्स जहा प्रोहिया ठिती भणिया तहेव भाणियबा इरियावहियबंधयं पडुच्च संपराइयबंधयं च / [1736-1] सातावेदनीयकर्म का बन्धकाल उसकी जी औधिक (सामान्य) स्थिति कही है, उतना ही कहना चाहिए। ऐर्यापथिकबन्ध और साम्परायिकबन्ध की अपेक्षा से (सातावेदनीय का बन्धकाल पृथक्-पृथक्) कहना चाहिए / [2] असातावेयणिज्जस्स जहा णिहापंचगस्स / [1736-2] असातावेदनीय का बन्धकाल निद्रापंचक के समान (कहना चाहिए)। 1737. [1] सम्मत्तवेदणिज्जस्स सम्मामिच्छत्तवेदणिज्जस्स या प्रोहिया ठितो भणिया तंबंधति। [1737-1] वे सम्यक्त्ववेदनीय (मोहनीय) और सम्यगमिथ्यात्ववेदनीय (मोहनीय) की जो औधिक स्थिति कही है, उतने ही काल का बांधते हैं। [2] मिच्छत्तवेदणिज्जस्स जहणेण्णं अंतोसागरोवमकोडाकोडीमो, उक्कोसेणं सतर सागरोवमकोडाकोडीअो; सत्त य वाससहस्साई प्रबाहा० / [1737-2] वे मिथ्यात्ववेदनीय का जघन्य अन्त कोडाकोडी सागरोपम का और उत्कृष्ट 70 कोडाकोडी सागरोपम का बन्ध करते हैं। उनका अबाधाकाल सात हजार वर्ष का है, इत्यादि पूर्ववत् / [3] कसायबारसगस्स जहण्णेणं एवं चेव, उक्कोसेणं चत्तालीसं सागरोवमकोडाकोडीयो; चत्तालीस य वासंसहस्साई अबाहा० / [1037-3] कषायद्वादशक (बारह कषायों) का बन्धकाल जधन्यत: इसी प्रकार (अन्तः कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण) है और उत्कृष्टतः चालीस कोडाकोडी सागरोपम का है। इनका अबाधाकाल चालीस हजार वर्ष का है, इत्यादि पूर्ववत् / [4] कोह-माण-माया-लोभसंजलणाए य दो मासा मासो अद्धमासो अंतोमुहत्तो एयं जहण्णगं उक्कोसगं पुण जहा कसायबारसगस्स। [1737-4] संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ का जघन्य बन्ध क्रमशः दो मास, एक मास, अर्द्ध मास और अन्तर्मुहूर्त का होता है तथा उत्कृष्ट बन्ध कषाय-द्वादशक के समान होता है। Page #1268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद] . 1738. चउण्ह वि पाउप्राणं जा ओहिया ठिती भणिया तं बंधति / [1738] चार प्रकार के आयुष्य (नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्याय और देवायु) कर्म की जो सामान्य (प्रोधिक) स्थिति कही गई है, उसी स्थिति का वे (संज्ञीपंचेन्द्रिय) बन्ध करते हैं / 1736. [1] पाहारगसरीरस्स तित्थगरणामए य जहणणं अंतोसागरोवमकोडाकोडोप्रो, उक्कोसेण वि अंतोसागरोवमकोडाकोडीओ बंधंति / [1739-1] वे अाहारकशरीर और तीर्थकरनामकर्म का बन्ध जघन्यत: अन्तःकोटकोटि सागरोपम का करते हैं और उत्कृष्टतः भी उतने ही काल का बन्ध करते हैं / [2] पुरिसवेदस्स जहण्णेणं अट्ठ संवच्छराई, उक्कोसेणं दस सागरोवमकोडाकोडीमो; दस य वाससयाई अबाहा। [1736-2] पुरुषवेदकर्म का बन्ध वे जघन्य आठ वर्ष का और उत्कृष्ट दशकोटाकोटि सागरोपम का करते हैं। उनका अबाधाकाल दस सौ (एक हजार) वर्ष का है, इत्यादि पर्ववत। [3] जसोकित्तिणामए उच्चागोयस्स य एवं चैव / णवरं जहणेणं अट्ठ मुहत्ता / [1736-3] यशःकोतिनामकर्म और उच्चगोत्र का बन्ध भी इसी प्रकार (पुरुषवेदवत्) जानना चाहिए / विशेष यह है कि संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों का जघन्य स्थितिबन्ध (काल) आठ मुहूर्त का है। 1740. अंतराइयस्स जहा णाणावरणिज्जस्स / [1740] अन्तरायकर्म का बन्धकाल ज्ञानावरणीयकर्म के (बन्धकाल के) समान है। 1741. सेसएसु सम्वेसु ठाणेसु संघयणेसु संठाणेसु वण्णेसु गंधेसु य जहण्णेणं अंतीसागरोवमकोडाकोडोमो, उक्कोसेणं जा जस्स प्रोहिया ठिती भणिया तं बंधति, गवरं इम णाणा तं-अबाहा अबाहूणिया ण वुच्चति / एवं प्राणुपुवीए सध्वेसि जाव अंतराइयस्स ताव भाणियन्वं / [1741] शेष सभी स्थानों में तथा संहनन, संस्थान, वर्ण, गन्ध-नामकर्मों में बन्ध का जघन्य काल अन्तःकोटाकोटि सागरोपम का है और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का काल, जो इनकी सामान्य स्थिति कही है, वही कहना चाहिए / विशेष अन्तर यह है कि इनका 'अबाधाकाल' और अबाधाकालन्यून (कर्मनिषेककाल) नहीं कहा जाता। इसी प्रकार अनुक्रम से सभी कर्मों का यावत् अन्तरायकर्म तक का स्थितिबन्धकाल कहना चाहिए। विवेचन -कुछ स्पष्टीकरण-संज्ञीपंचेन्द्रिय बन्धक की अपेक्षा से ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जो जघन्य स्थितिबन्धकाल कहा गया है, वह क्षपक जीव को उस समय होता है, जब उन कर्मप्रकृतियों के बन्ध का चरम समय हो / निद्रापंचक, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, कषाय-द्वादश आदि का बन्ध क्षपण से पहले होता है, अतएव उनका जघन्य और उत्कृष्ट बन्ध भी अन्तःकोटाकोटि Page #1269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] [प्रज्ञापनासूत्र सागरोपम का होता है, जो अत्यन्त संक्लेशयुक्त मिथ्यादृष्टि के समझना चाहिए। चारों प्रकार के आयुष्यकर्म का उत्कृष्ट बन्ध उन-उनके बन्धकों में जो अतिविशुद्ध होते हैं, उनको होता है / ' कर्मों के जघन्य स्थितिबन्धक की प्ररूपणा 1742. गाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा ! अण्णयरे सुहमसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस णं गोयमा ! णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तन्वइरित्ते प्रजहण्णे / एवं एतेणं अभिलावेणं मोहाऽऽउअवज्जाणं सेसकम्माणं भाणियव्यं। [1742 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक (बांधने वाला) कौन है ? [1742 उ.] गौतम ! वह अन्यतर (कोई एक) सूक्ष्मसम्पराय, उपशामक (उपशम श्रेणी वाला) या क्षपक (क्षपक श्रेणी वाला) होता है / हे गौतम ! यही ज्ञानावरणीयकर्म का जघन्य स्थितिबन्धक होता है, उससे अतिरिक्ति अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। इस प्रकार इस अभिलाप से मोहनीय और प्रायुकर्म को छोड़ कर शेष कर्मों के विषय में कहना चाहिए। 1743. मोहणिज्जस्स णं भंते ! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा ! अण्णयरे बायरसंपराए उवसामए वा खवए वा, एस गं गोयमा ! मोहणिज्जस्स कम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तम्वतिरित्ते अजहण्णे। [1743 प्र] भगवन् ! मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक कौन है ? 1743 उ.] गौतम ! वह अन्यतर बादरसम्पराय, उपशामक अथवा क्षपक होता है। हे गौतम ! यह मोहनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। 1744. पाउयस्स णं भंते ! कम्मस्स जहण्णठितिबंधए के ? गोयमा ! जे णं जीवे असंखेपद्धप्पविट्ठे सव्वणिरुद्ध से आउए, सेसे सव्वमहंतीए प्राउप्रबंधखाए, तोसे णं आउप्रबंधद्धाए चरिमकालसमयंसि सव्वजहणियं ठिई पज्जत्तापज्जत्तियं णिवत्तेति / एस णं गोयमा ! आउयकम्मस्स जहण्णठितिबंधए, तब्वइरित्ते अजहण्णे / [1744 प्र.] भगवन् ! आयुष्यकर्म का जघन्यस्थिति-बन्धक कौन है ? [1744 उ.] गौतम ! जो जीव असंक्षेप्य-प्रद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी आयु सर्वनिरुद्ध (सबसे कम होती है। शेष सबसे बडे उस प्रायव्य-बन्धकाल के अन्तिम काल के सा जघन्य स्थिति को तथा पर्याप्ति-अपर्याप्ति को बांधता है। हे गौतम ! यही प्रायुष्यकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक होता है, उससे भिन्न अजघन्य स्थिति का बन्धक होता है। विवेचन-निष्कर्ष- मोहनीय और आयुकर्म को छोड़कर शेष पांच कर्मों की जघन्य स्थिति का बन्धक जीव सूक्ष्मसम्पराय अवस्था से युक्त उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक (अन्यतर) 1. प्रज्ञापनासूत्र भाग 5, (प्रमेयबोधिनी टीका) पृ. 433-434 Page #1270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कर्मपद होता है / तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणीयादि कर्मों का बन्ध सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में उपशमक और क्षपक दोनों का जघन्य अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है। अतएव दोनों का स्थितिबन्ध का काल समान होने से कहा गया है-उपशमक अथवा क्षपक दोनों में से कोई एक / यद्यपि उपशमक और क्षपक दोनों का स्थितिबन्धकाल अन्तर्मुहर्त्तप्रमाण है, तथापि दोनों के अन्तर्मुहूर्त के प्रमाण में अन्तर होता है / क्षपक को अपेक्षा उपशमक का बन्धकाल दुगुना समझना चाहिए। उदाहरणार्थ-दसवें गुणस्थान वाले क्षपक को जितने काल का ज्ञानावरणीय कर्म का स्थितिबन्ध होता है, उसकी अपेक्षा श्रेणी चढ़ते हुए उपशमक को दुगुने काल का स्थितिबन्ध होता है और फिर वह श्रेणी से गिरते हुए दसवें गुणस्थान में आता है, तो श्रेणी चढ़ते जीव की अपेक्षा भी दुगुना स्थितिबन्ध काल होता है / फिर भी उसका काल होता है- अन्तर्मुहूर्त हो / इस प्रकार वेदनीयकर्म के साम्परायिकबन्ध की प्ररूपणा करते समय क्षपक का जघन्य स्थितिबन्ध 12 मुहूर्त का और उपशमक का 24 मुहूर्त का कहा है / नाम और गोत्रकर्म का क्षपक जीव आठ मुहूर्त का स्थितिबन्ध करता है, जबकि उपशमक 16 मुहर्त करता है। किन्तु उपशमक एवं क्षपक जीव का जघन्यबन्ध शेष सब बन्धों की अपेक्षा सर्वजघन्यबन्ध समझना चाहिए। इसीलिए कहा गया है-उपशमक एवं क्षपक जीव, जो सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में हो वही ज्ञानावरणीयादि कर्मों का जघन्य स्थितिबन्धक है।' मोदनीयकर्म की जघन्य स्थिति का बन्धक-बादरसम्पराय से यक्त उपशमक या क्षपक जीव मोहनीय कर्म की स्थिति का बन्धक होता है। प्रायुकर्म को जघन्य स्थिति का बन्धक कौन और क्यों ?-जो जीव असंक्षेप्य-अद्धाप्रविष्ट होता है, उसकी अायु सर्वनिरुद्ध होती है। उसका आयुष्य पाठ प्राकर्ष प्रमाण सबसे बड़ा काल होता है, प्राय के बन्ध होते ही वह आयुष्य समाप्त हो जाता है। अतः असंक्षेप्याद्धाप्रविष्ट जीव आयुष्यबन्ध काल के चरम समय में अर्थात् एक आकर्षप्रमाण अष्टम भाग में सर्वजघन्य स्थिति को बांधता है। वह स्थिति शरीर-पर्याप्ति और इन्द्रिय-पर्याप्ति को सम्पन्न करने में समर्थ और उच्छ्वासपर्याप्ति को निष्पन्न करने में असमर्थ होती है / यहाँ असंक्षेप्याद्धा, सर्वनिरुद्ध और चरमकाल आदि कुछ पारिभाषिक शब्द हैं, उनके लक्षण इस प्रकार हैं-असंक्षेप्याद्धा-जिसका त्रिभाग आदि प्रकार से संक्षेप न हो सके ऐसा अद्धा-काल असंक्षेप्याद्धा कहलाता है / ऐसे जीव का आयुष्य सर्वनिरुद्ध होता है / अर्थात् उपक्रम के कारणों द्वारा आयुष्य अतिसंक्षिप्त किया हुआ होता है। ऐसा आयुष्य आयुष्यबन्ध के समय तक ही सीमित होता है, आगे नहीं। चरमकाल समय-इस शब्द से सूक्ष्म अंश का ग्रहण नहीं करना चाहिए, किन्तु पूर्वोक्तकाल ही समझना चाहिए, क्योंकि उससे कम काल में आयु का बन्ध होना सम्भव नहीं। कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के बन्धकों को प्ररूपणा 1745. उक्कोसकालठितीयं णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं कि गैरइप्रो बंधति तिरिक्ख जोणिसोबंधति तिरिक्खजोणिणी बंधति मणुस्सो बंधति मणुस्सी बंधति देवो बंधति देवी बंधति ? गोयमा ! गेरइयो वि बंधति जाव देवी वि बंधति / 1. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 437 2. वही, भा. 5, पृ. 440 3. वही, भा. 5, पृ. 440-441 Page #1271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासून [१७४५-प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्ञानावरणीयकर्म को क्या नारक बांधता है, तिर्यञ्च बांधता है, तिर्यञ्चिनी बांधती है, मनुष्य बांधता है, मनुष्य स्त्री बांधती है अथवा देव बांधता है या देवी बांधती है। [1745 उ.] गौतम ! उसे नारक भी बांधता है यावत् देवी भी बांधती है। 1746. केरिसए मं भंते ! मेरइए उक्कोसकालठितीयं णाणावरणिज्ज कम्मं बंधति ? गोयमा ! सण्णी चिदिए सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्ते सागारे जागरे सुतोवउत्ते मिच्छादिट्ठी कण्हलेसे उक्कोससंकिलिट्रपरिणामे ईसिमज्झिमपरिणामे वा, एरिसए णं गोयमा ! रइए उषकोसकालठितीयं णाणावरणिज्जं कम्मं बंधति / [1746 प्र.] भगवन् ! किस प्रकार का नारक उत्कृष्ट स्थिति वाला ज्ञानावरणीयकर्म बांधता है ? [1746 उ.] गौतम ! जो संज्ञीपंचेन्द्रिय, समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला, जाग्रत, श्रुत में उपयोगवान्, मिथ्यादृष्टि, कृष्णलेश्यावान्, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला अथवा किञ्चित् मध्यम परिणाम वाला हो, ऐसा नारक, हे गौतम ! उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है। 1747. [1] केरिसए गं भंते ! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीयं णाणावरणिज्जं कम्म बंधति ? गोयमा ! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सण्णी पंचेंदिए सव्वाहि पज्जत्तीहिं पज्जत्तए, सेसं तं चेव जहा रइयस्स / [1747-1 प्र.] भगवन् ! किस प्रकार तिर्यञ्च उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता है ? [1747-1 उ.] गौतम ! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिज के सदृश हो, संज्ञीपंचेन्द्रिय, सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला, जाग्रत, श्रुत में उपयोगवान् मिथ्यादृष्टि, कृष्णलेश्यावान् एवं उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो तथा किञ्चित् मध्यम परिणाम वाला हो, हे गौतम ! इसी प्रकार का तिर्यञ्च उत्कृष्ट स्थिति वाले ज्ञानावरणीय कर्म को बांधता है / [2] एवं तिरिक्खजोणिणी वि, मणूसे वि मणूसी वि / देव-देवी जहा णेरइए (सु. 1746) / [1747-2] इसी प्रकार की (पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त) तिर्यञ्चिनी भी मनुष्य और मनुष्यस्त्री भी उत्कृष्ट स्थिति बाले ज्ञानावरणीय कर्म को बांधती है / (पूर्वोक्त विशेषण युक्त) (सू. 1746 में उक्त) नारक के सदृश देव और देवी (उत्कृष्ट ज्ञानावरणीयकर्म बांधते हैं।) 1748. एवं प्राउअवज्जाणं सत्तण्हं कम्माणं / [1748] अायुष्य को छोड़कर शेष (उत्कृष्ट स्थिति वाले) सात कर्मों के बन्ध के विषय में पूर्ववत् जानना चाहिए। Page #1272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेईसवाँ कम पद [77 1749. उक्कोसकालठितीयं णं भंते ! आउअं कम्मं कि रइओ बंधइ जाव देवी बंधइ ? गोयमा ! णो णेरइयो बंधइ, तिरिक्खजोणिओ बंधति, णो तिरिक्खजोणिणी बंधति, मणुस्सो वि बंधति, मणुस्सी वि बंधति, णो देवो बंधति, णो देवी बंधइ / [1749 प्र.] भगवन् ! उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को क्या नैरयिक बांधता है, यावत् देवी बांधती है ? [1749 उ.] गौतम ! उसे नारक नहीं बांधता, तिर्यञ्च बांधता है, किन्तु तिर्यञ्चिनी, देव या देवी नहीं बांधती, मनुष्य बांधता है तथा मनुष्य स्त्री भी बांधती है। 1750. केरिसए णं भंते ! तिरिक्खिजोणिए उक्कोसकालठितीयं आउयं कम्मं बंधति ? गोयमा ! कम्मभूमए वा कम्मभूमगपलिभागी वा सग्णी पंचेंहिए सव्वाहि पज्जत्तीहिं पज्जत्तए सागारे जागरे सुतोवउत्ते मिच्छट्ठिी परमकिण्हलेस्से उक्कोससंकिलिट्ठपरिणामे, एरिसए गं गोयमा ! तिरिक्खजोणिए उक्कोसकालठितीयं पाउअं कम्मं बंधति / [1750 प्र.] भगवन् ! किस प्रकार का तिर्यञ्च उत्कृष्टकाल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है ? [1750 उ.] गौतम ! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिज के समान हो, संजीपंचेन्द्रिय, सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्त, साकारोपयोग वाला हो, जाग्रत हो, श्रुत में उपयोगवान्, मिथ्यादृष्टि परमकृष्णलेश्यावान् एवं उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो, ऐसा तिर्यञ्च उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है। 1751. केरिसए णं भंते ! मणूसे उक्कोसकालठितीयं प्राउयं कम्मं बंधति ? गोयमा ! कम्मभूमगे वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुतोवउत्ते सम्मट्टिी वा मिच्छट्ठिी वा कण्हलेसे वा सुक्कलेसे वा णाणी वा अण्णाणी वा उक्कोससंकिलिपरिणामे वा तप्पाउग्गविसुज्झमाणपरिणामे वा, एरिसए णं गोयमा! मणूसे उक्कोसकालठिईयं प्राउअं कम्मं बंधति। 1751 प्र.] भगवन् ! किस प्रकार का मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है ? [1751 उ.] गौतम ! जो कर्मभूमिज हो अथवा कर्मभूमिज के सदृश हो यावत् श्रुत में उपयोग वाला हो, सम्यग्दृष्टि हो अथवा मिथ्यादृष्टि हो, कृष्णलेश्यी हो या शुक्ललेश्यी हो, ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणाम वाला हो, अथवा तत्प्रायोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाला हो, हे गौतम ! इस प्रकार का मनुष्य उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधता है। 1752. केरिसिया णं भंते ! मणूसी उक्कोसकालठितीयं प्राज्यं कम्मं बंधइ ? ___ गोयमा ! कम्मभूमिगा वा कम्मभूमगपलिभागी वा जाव सुतोवउत्ता सम्मद्दिट्ठि सुक्कलेस्सा तप्पाउग्गविसुज्ञमाणपरिणामाएरिसिया णं गोयमा! मणुस्सी उक्कोसकालाठितीयं प्राज्यं कम्मं बंधति / Page #1273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78] (प्रज्ञापनासूत्र [1752 प्र.] भगवन् ! किस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले आयुष्यकर्म को बांधती है ? [1752 उ.] गौतम ! जो कर्मभूमि में उत्पन्न हो अथवा कर्मभूमिजा के समान हो यावत् श्रुत में उपयोग वाली हो, सम्यग्दृष्टि हो, शुक्ललेश्यावाली हो, तत्प्रायोग्य विशुद्ध होते हुए परिणाम वाली हो, हे गौतम ! इस प्रकार की मनुष्य-स्त्री उत्कृष्ट काल की स्थिति वाले आयुष्यकर्म को बांधती है। 1753. अंतराइयं जहा णाणावरणिज्ज (1745-47) / [बीओ उद्देसओ समत्तो // पण्णवणाए भगवतीए तेवीसइमं कम्मे त्ति पदं समत्तं // [1753] उत्कृष्ट स्थिति वाले अन्तरायकर्म के बंध के विषय में (सू. 1745-47 में उक्त) ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए। विवेचन--निष्कर्ष-आयकर्म को छोड़कर शेष सातों उत्कृष्ट स्थिति वाले कर्मों को पूर्वोक्त विशेषता वाले नारक, तिर्यञ्च, तिर्यञ्चिनी, मनुष्य, मानुषी, देव या देवी बांधती है / उत्कृष्ट स्थिति वाले आयुष्यकर्म को तिर्यञ्च, मनुष्य और मानुषी बंधती है, किन्तु नारक, तिर्यञ्चिनी, देव और देवी नहीं बांधती, क्योंकि इन चारों के उत्कृष्ट प्रायुकर्म का बन्ध नहीं होता / ' कठिन शब्दार्थ-कम्मभूमिगलिभागी- जो कर्मभूमि में जन्मे हुए के समान हों / अर्थात् कर्मभमिजा गभिणी तिर्यञ्चिनी का अपहरण करके किसी ने यौगलिक क्षेत्र में रख दिया हो और उससे जो जन्मा हो ऐसा तिर्यञ्च / सागारे-साकारोपयोग वाला / सुतोवउत्ते–श्रुत (शास्त्र) में उपयोग वाला / सुक्कलेस्से—शुक्ललेश्यी / तप्पाउग्गविसुज्झमाण-परिणामे-उसके योग्य विशुद्ध परिणाम वाला हो। // दूसरा उद्देशक समाप्त। // प्रज्ञापना भगवती का तेईसवाँ कर्मप्रकृतिपद सम्पूर्ण / / 1. (क) पण्णवणासुतं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण) पृ. 383-384 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधनीटीका) भा. 5, पृ. 451 से 456 तक Page #1274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउवीसइमं कम्मबंध-पयं चौवीसवाँ कर्मबन्ध-पद ज्ञानावरणीयकर्म के बंध के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा 1754. [1] कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ट कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ। तं जहा--णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [१७५४-१-प्र.] भगवन् ! कर्म-प्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [१७५४-१-उ.] गौतम ! कर्म-प्रकृतियाँ पाठ कही गई हैं। यथा--ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [1754-2] इसी प्रकार नरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक ( के आठ कर्मप्रकृतियाँ हैं।) 1755. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडोश्रो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छविहबंधए वा। [१७५५-प्र०] भगवन् ! (एक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? [१७५५-उ.] गौतम ! वह सात, आठ या छह कर्म-प्रकृतियों का बन्धक होता है / 1756. [1] रइए णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीनो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविहबंधए वा / [१७५६-१-प्र.] भगवन् ! (एक) नरयिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधता हुआ कितनी कर्म-प्रकृतियाँ बांधता है ? [१७५६-१-उ.] गौतम ! वह सात या आठ कर्म-प्रकृतियाँ बांधता है / [2] एवं जाव वेमाणिए / णवरं मणूसे जहा जोवे (सु. 1755) / [1756-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कथन करना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्य-सम्बन्धी कथन (सू. 1755 उल्लिखित) समुच्चय-जीव के समान जानना चाहिए / 1757. जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीयो बंधति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य 1 अहवा सत्तविहबंधगा . य अट्टविहबंधगा य छव्विहबंधगे य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य छविहबंधगा य 3 / Page #1275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] [प्रज्ञापनासूत्र [१७५७-प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं ? | १७५७-उ.] गौतम ! १-सभी जीव सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं; २-अथवा बहुत से जीव सात या आठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक और कोई एक जीव छह का बन्धक होता है; ३--अथवा बहुत से जीव सात, पाठ या छह कर्म प्रकृतियों के बन्धक होते हैं / 1758. [1] रइया णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीयो बंधति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगे य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य, 3 तिण्णि भंगा। [१७५८-१-प्र.] भगवन् ! (बहुत से) नैरयिक ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्म-प्रकृतियाँ बांधते हैं ? [1758-1 उ.] गौतम ! 1 सभी नैरयिक सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं अथवा बहुत से नैरयिक सात कर्म-प्रकृतियों के बन्धक और एक नैरयिक पाठ कर्म-प्रकृतियों का बन्धक होता है, ३-अथवा बहुत से नै रयिक सात या पाठ कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। ये तीन भंग होते हैं। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [1758-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिए / 1756. [1] पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! सत्तविहबंधगा वि अविहबंधगा वि / [1756-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं ? [1756-1 उ.] गौतम! वे सात कर्मप्रकृतियों के भी बन्धक होते हैं, आठ कर्मप्रकृतियों के भी। [2] एवं जाव वणस्सतिकाइया। [1756-2] इसी प्रकार यावत् (बहुत) वनस्पतिकायिक जीवों के सम्बन्ध में कहना चाहिए। 1760. वियलाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य तियभंगो-सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधए य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य 3 / / 1760] विकलेन्द्रियों और तिर्यञ्च-पञ्चेन्द्रियजीवों के तीन भंग होते हैं-१. सभी सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, 2. अथवा बहुत-से सात कर्मप्रकृतियों के और कोई एक पाठ कर्मप्रकृतियों का बन्धक होता है, 3. अथवा बहुत-से सात के तथा बहुत-से आठ कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं। 1761. मणूसा णं भंते ! णाणावरणिज्जस्स पुच्छा। गोयमा ! सवे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधए य 4 अहवा सत्त Page #1276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवाँ कर्मबन्धपद [81 विहबंधगा य छव्यिहबंधगा य 5 प्रहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधए य छविहबंधए 6 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगे य छम्विहबंधगा य 7 अहवा सत्तविहबंधगा य अटुविहबंधगा य छविहबंधए य 8 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य छचिहबंधगा य , एवं एते णव भंगा। सेसा वाणमंतराइया जाव वेमाणिया जहा रइया सत्तविहादिबंधगा भणिया (सु. 1758 [1]) तहा भाणियन्वा। [1761 प्र. भगवन् ! (बहुत-से) मनुष्य ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधते हैं ? [1761 उ.] गौतम ! 1. सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, 2. अथवा बहुतसे मनुष्य सात के बन्धक और कोई एक मनुष्य पाठ का बन्धक होता है, 3. अथवा बहुत-से सात के तथा पाठ के बन्धक होते हैं, 4, अथवा बहत-से मनुष्य सात के और कोई एक मनुष्य छह का बन्धक होता है, 5. बहुत-से मनुष्य सात के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं, 6. अथवा बहुत-से सात के बन्धक होते हैं तथा एक पाठ का एवं कोई एक छह का बन्धक होता है, 7. अथवा बहुत-से सात के बन्धक कोई एक पाठ का बन्धक और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं, 8. अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के और एक छह का बन्धक होता है, 6. अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं / इस प्रकार ये कुल नौ भंग होते हैं। शेष वाणव्यन्तरादि (से लेकर) यावत् वैमानिक-पर्यन्त जैसे (सू. 1758-1 में) नै रयिक सात आदि कर्म-प्रकृतियों के बन्धक कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिए। दर्शनावरणीयकर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण 1762. एवं जहा णाणावरणं बंधमाणा जाहिं भणिया सणावरणं पि बंधमाणा ताहि जीवादीया एगत्त-पोहत्तेहि भाणियम्वा / [1762] जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म को बांधते हुए जिन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन किया, उसी प्रकार दर्शनावरणीयकर्म को बांधते हुए जीव आदि के विषय में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से उन कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का कथन करना चाहिए। विवेचन ---ज्ञान-दर्शनावरणीय कर्म-बन्ध के साथ अन्य कर्म-प्रकृतियों के बन्ध का निरूपण (1) समुच्चयजीव--सात, आठ या छह कर्मप्रकृतियों के बन्धक कैसे ? --~-जीव जब ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध करता है, तब यदि प्रायुष्यकर्म का बन्ध न करे तो सात प्रकृतियाँ, यदि आयुष्य-बन्ध करे तो पाठ कर्मप्रकृतियां बांधता है और जब मोहनीय और आयु दोनों का बन्ध नहीं करता, तब छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है। ऐसे जीव सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानवर्ती हैं, जो मोहनीय और आयु को छोड़कर शेष छह कर्म-प्रकृतियों के बन्धक होते हैं। केवल एक सातावेदनीय कर्मप्रकृति बांधने वाला ग्यारहवें (उपशान्त-मोहनीय), बारहवें (क्षीण-मोहनीय) और तेरहवें (सयोगी-केवली) गुणस्थानवर्ती जीव होता है / उस समय वे दो समय की स्थितिवाला सातावेदनीयकर्म बांधते हैं / उनके साम्परायिक बन्ध नहीं होता, क्योंकि उपशान्तकषाय प्रादि जीवों के ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का विच्छेद सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान के चरम समय में ही हो जाता है। (2) नारकादि जीव Page #1277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 [प्रज्ञापनासूत्र नारक जीव ज्ञानावरणीय का बन्ध करता हुआ जब आयुकर्म का बन्ध नहीं करता तब सात का बंध करता है और जब प्रायुष्यकर्म का बंध करता है, तब आठ कर्मप्रकृतियों का बंधक होता है / नारक जीव में छह कर्मप्रकृतियों के बंध का विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि वह सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। अतः मनुष्य को छोड़कर शेष सभी प्रकार के जीवों (दण्डकों) में पूर्वोक्त दो विकल्प (सात या पाठ के बंध के) ही समझने चाहिए, क्योंकि उन्हें सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान प्राप्त न होने से उनमें तीसरा (छह प्रकृतियों के बंध का) विकल्प सम्भव नहीं है / मनुष्य का कथन सामान्य जीव के समान है / अर्थात् मनुष्य में तीनों भंग पाये जाते हैं। (3) बहुत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव के ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय कर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मबन्धन-सभी जीव आयुकर्म बंध के अभाव में सात के और उसके बंध के सद्भाव में पाठ कर्मप्रकृतियों के बंधक होते हैं। बहुत्व-विवक्षा में सात या आठ के बंधक तो सदैव बहुसंख्या में पाये जाते हैं, किन्तु छह के बंधक किसी काल-विशेष में ही पाये जाते हैं और किसी काल में नहीं पाये जाते, क्योंकि उसका अन्तरकाल छह महीने तक का कहा गया है। जब एक षड्विधबंधक नहीं पाया जाता, तब प्रथम भंग होता है, जब एक पाया जाता है तो द्वितीय और जब बहुत षड् बंधक जीव पाये जाते हैं, तब तृतीय विकल्प होता है। बेदनीय कर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण 1763. [1] वेयणिज्जं बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? / गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छन्विबंधए वा एगविहबंधए वा। [1763-1 प्र.] भगवन् ! वेदनीयकर्म को बाँधता हुअा एक जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधता है ? [1763-1 उ.] गौतम ! सात का, आठ का, छह का अथवा एक प्रकृति का बन्धक होता है / [2] एवं मणसे वि। [1763-2] मनुष्य के सम्बन्ध में भी ऐसा ही कहना चाहिए। [3] सेसा गारगादीया सत्तविहबंधगा य प्रविहबंधगा य जाव वेमाणिए / [1763-3] शेष नारक आदि सप्तविध और अढविध बन्धक होते हैं, वैमानिक तक इसी प्रकार कहना चाहिए। 1764. जीवा गं भंते ! वेयणिज्ज कम्म० पुच्छा। गोयमा ! सम्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगे य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगा य 2 / [1764 प्र.] भगवन् ! बहुत जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियाँ बांधते हैं ? [1764 उ.] गोतम ! सभी जीव सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एक प्रकृतिबन्धक और एक जीव छह प्रकृतिबन्धक होता है 1, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, अष्टविधबन्धक, एकविधबन्धक या छह विधबन्धक होते हैं 2 / Page #1278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौवीसवां कर्मबन्धपद] 1765. [1] अवसेसा णारगादीया जाव वेमाणिया जानो णाणावरणं बंधमाणा बंधति ताहि भाणियव्वा। [1765-1] शेष नारकादि से वैमानिक पर्यन्त ज्ञानावरणीय को बांधते हुए जितनी प्रकृतियों को बांधते हैं, उतनी का बन्ध यहाँ भी कहना चाहिए / [2] णवरं मनसा णं भंते ! वेदणिज्जं कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सम्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य प्रविहबंधए 2 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगे य 4 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगा य 5 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छन्विहबंधए य 6 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधए य छविहबंधगा य 7 प्रहवा सत्तविहबंधया य एगविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छव्विहबंधए य 8 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छन्विहबंधगा य 6, एवं णव भंगा। __ [1765-2] विशेष यह है कि भगवन् ! मनुष्य वेदनीयकर्म को बाँधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों को बाँधते हैं। गौतम ! सभी मनुष्य सप्तविधबन्धक और एकविधबन्धक होते हैं 1, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और एक अष्टविधबन्धक होता है 2, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक और बहत अष्टविधबन्धक होते हैं 3, अथवा बहत सप्तविधबन्धक, बहत एकविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है 4, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत षड्विधबन्धक 5, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक, होता है 6, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, एक अष्टविधबन्धक और बहुत षड्विध बन्धक होते हैं 7, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक, बहुत अष्टविधबन्धक और एक षड्विधबन्धक होता है 8, अथवा बहुत सप्तविधबन्धक, बहुत एकविधबन्धक ,बहुत अष्टविधबन्धक और बहुत षड्विधबन्धक होते हैं 6 / इस प्रकार नौ भंग होते हैं / मोहनीय आदि कर्मों के बन्ध के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण 1766. मोहणिज्ज बंधमाणे जीवे कति कम्मपगडीओ बंधा ? गोयमा ! जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। जीवेगिदिया सत्तविहबंधगा वि अढविहबंधगा वि / [1766 प्र.] भगवन् ! मोहनीय कर्म बाँधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? [1766 उ.] गौतम ! सामान्य जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर तीन भंग कहना चाहिए। जीव और एकेन्द्रिय सप्तविधबन्धक भी और अष्टविधबन्धक भी होते हैं। 1767. [1] जीवे णं भंते ! पाउअंकम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीयो बंध? गोयमा! णियमा अट्ठ / एवं रइए जाव वेमाणिए। Page #1279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रतापनासूत्र [1767.1 प्र.] भगवन् ! आयुकर्म को बांधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियों को बांधता है ? [1767-1 उ.] गौतम ! नियम से पाठ प्रकृतियां बांधता है। नैरयिकों से लेकर वैमानिक पर्यन्त सभी दण्डकों में इसी प्रकार कहना चाहिए / [2] एवं पुहत्तेण वि। [2] इसी प्रकार बहुतों के विषय में भी कहना चाहिए / 1768. [1] णाम-गोय-अंतरायं बंधमाणे जोवे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! जानो णाणावरणिज्जं बंधमाणे बंधइ ताहि भाणियन्वो / [1768-1 प्र.] भगवन् ! नाम, गोत्र और अन्तरायकर्म को बांधता जीव कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधता है ? [1768-1 उ.] गौतम ! ज्ञानावरणीय को बाँधने वाला जिन कर्मप्रकृतियों को बांधता है, वे ही यहां कहनी चाहिए। [2] एवं रइए वि जाव वेमाणिए। [1768-2] इसी प्रकार नारकों से लेकर वैमानिक तक कहना चाहिए / [3] एवं पुहत्तेण वि भाणियन्वं / [1768-3] इसी प्रकार बहुवचन में भी समझ लेना चाहिए / // पण्णवणाए भगवतीए चउवीसइमं कम्मबंधपदं समत्तं / / विवेचन–वेदनीय कर्मबन्ध के समय अन्य प्रकृतियों का बन्ध–वेदनीय बन्ध के साथ कोई जीव सात का कोई पाठ का और कोई छह का बंधक होता है, उपशान्त मोह आदि वाला कोई एक ही प्रकृति का बंधक होता है। मनुष्य के सम्बन्ध में भी यही कथन समझना चाहिए / नारकादि कोई सात और कोई पाठ के बन्धक होते हैं।। बहुत जीव (समुच्चय)पद में सभी सात के या बहुत अाठ के, बहुत-से एक के, कोई एक छह का बंधक होता है। अथवा बहत सात के, बहत आठ के. बहत एक के और बहत छह के बन्धक होते हैं / शेष नारकों से वैमानिकों तक में ज्ञानावरणीयकर्मबंध के कथन के समान है / मनुष्यों के सम्बन्ध में भंग मूल पाठ में उल्लिखित हैं। मोहनीय का बन्धक समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय मोहनीय कर्मबन्ध के समय 7 या 8 के बंधक होते हैं। मोहनीयकर्म का बन्धक छह प्रकृतियों का बंधक नहीं हो सकता, क्योंकि 6 प्रकृतियों का बंध सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में होता है, मोहनीय का बंधक नौवें गुणस्थान तक ही होता है। Page #1280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौबीसवां कर्मबन्धपद] .. आयुकर्मबन्ध के साथ अन्य कर्मों का बन्ध-पायुकर्मबंधक जीव नियम से 8 प्रकृतियों का बंध करता है / 24 दण्डकवर्ती जीवों का भी इसी प्रकार कथन जानना / नाम, गोत्र व अन्तराय कर्म के साथ अन्य कर्मों का बन्ध-ज्ञानावरणीयकर्म के साथ जिन प्रकृतियों का बंध बताया है, उन्हीं प्रकृतियों का बंध इन तीन कर्मों के बंध के साथ होता है।' // प्रज्ञापना भगवती का चौवीसवां कर्मबन्धपद समाप्त / / 1. (क) पण्णवणासुत्तं (मू. पा. टि.) भाग 1, पृ. 385 से 387 तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 467 से 484 तक (ग) मलयगिरिवृत्ति, पद 24 पर Page #1281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचवीसइमं कम्मबंधवेयपयं पच्चीसवाँ कर्मबन्धवेदपद जीवादि द्वारा ज्ञानावरणीयादि कर्मबन्ध के समय कर्म-प्रकृतिवेद का निरूपण 1766. [1] कति णं भंते ! कम्मपगडीयो पण्णत्तायो? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्तानो / तं जहा–णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1766-1 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [1769-1 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियाँ पाठ कही गई हैं। यथा—ज्ञानावरणीय यावत् अन्तरायकर्म / [2] एवं रइयाणं जाव वेमाणियाणं / [1766-2] इसी प्रकार नैरयिकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (के ये ही आठ कर्मप्रकृतियाँ कही गई हैं / ) 1770. [1] जीवे णं भंते ! गाणावरणिज्ज कम्मं बंधमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा! णियमा अट्ठ कम्मपगडीयो वेदेति / [1770-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध करता हुआ जीव, कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1770-1 उ.] गौतम ! वह नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है / [2] एवं रइए जाव वेमाणिए / [1770-2] इसी प्रकार (एक) नैरयिक (से लेकर) यावत् (एक) वैमानिक पर्यन्त (जीवों में इन्हीं पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन जानना चाहिए / ) 1771. एवं पुहत्तेण वि। [1771] इसी प्रकार बहुत (नारकों से लेकर यावत् बहुत वैमानिकों तक) के विषय में (कहना चाहिए / ) 1772. एवं वेयणिज्जवज्जं जाव अंतराइयं / [1772] वेदनीयकर्म को छोड़कर शेष सभी (छह) कर्मों के सम्बन्ध में इसी प्रकार(ज्ञानावरणीयकर्म के समान जानना चाहिए।) 1773. [1] जीवे णं भंते ! वेयणिज्जं कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपगडीयो वेएइ ? गोयमा ! सत्तविहवेयए वा अविहवेयए वा चउविहवेयए वा। Page #1282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्चीसवाँ कर्मबन्धवेदपक] [1773-1 प्र.] भगवन् ! वेदनीयकर्म को बांधता हा जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1773-1 उ.] गौतम ! वह सात (कर्मप्रकृतियों) का, पाठ का अथवा चार (कर्मप्रकृतियों) वेदन करता है। [2] एवं मणूसे वि। सेसा णेरइयाई एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णियमा अट्ठ कम्मपगडीयो वेदेति, जाव वेमाणिया। [1773-2] इसी प्रकार मनुष्य के (द्वारा कर्मप्रकृतियों के वेदन के) सम्बन्ध में (कहना चाहिए।) शेष नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिक पर्यन्त जीव एकत्व की विवक्षा से भी और बहुत्व की विवक्षा से भी नियम से पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं / 1774. [1] जीवा णं भंते ! वेदणिज्ज कम्मं बंधमाणा कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा अविहवेदगा य चउम्विहवेदगा य 1 अहवा अटुविहवेदमा य चउविहवेदगा य सत्तविहवेदगे य 2 अहवा अढविहवेदगा य धउम्विहवेदगा य सत्तविहवेदगा य 3 / [1774-1 प्र.] भगवन् ! बहुत जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? {1774-1 उ.] गौतम! 1. सभी जीव वेदनीयकर्म को बांधते हुए आठ या चार कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, 2. अथवा बहुत जीव आठ या चार कर्मप्रकृतियों के और कोई एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, 3. अथवा बहुत जीव पाठ, चार या सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं। [2] एवं मणूसा वि भाणियव्वा। ॥पण्णवणाए भगवतीए पंचवीसइमं कम्मबंधवेदपयं समत्तं // [1774-2] इसी प्रकार बहुत-से मनुष्यों द्वारा वेदनीयकर्मबन्ध के समय वेदन सम्बन्धी कथन करना चाहिए। विवेचन-कर्मबन्ध के समय कर्मवेदन की चर्चा के पाँच निष्कर्ष-१. समुच्चय जीव के सम्बन्ध में उल्लिखित वक्तव्यतानुसार नैरयिक, असुरकुमारादि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक भी एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से ज्ञानावरणीयकर्म का बन्ध करते हुए नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं / 2. इसी प्रकार वेदनीय को छोड़कर शेष सभी कर्मों (दर्शनावरणीय, नाम, गोत्र, आयुष्य, मोहनीय और अन्तराय) के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। 3. समुच्चय जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से वेदनीयकर्म का बन्ध करते हुए सात, पाठ अथवा चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं / इसका कारण यह है कि उपशान्तमोह और क्षीणमोह जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं, क्योंकि उनके मोहनीयकर्म का वेदन नहीं होता / मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसम्पराय (दसवें गुणस्थान) पर्यन्त जीव आठों कर्मप्रकृतियों का वेदन Page #1283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम] [प्रजापनासूत्र करते हैं और सयोगी केवली चार अघाति कर्मप्रकृतियों का ही वेदन करते हैं, क्योंकि उनके चार घातिकर्मों का उदय नहीं होता। 4. समुच्चय जीव के समान एकत्व और बहुत्व की विवेक्षा से मनुष्य के विषय में भी ऐसा गहिए / अर्थात-एक या बहत मनष्य वेदनीयकर्म का बन्ध करते हए सात, पाठ या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं / 5. मनुष्य के सिवाय शेष सभी नारक मादि जीव एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से वेदनीय. कर्म का बन्ध करते हुए नियम से आठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं।' ॥प्रज्ञापना भगवती का पच्चीसवाँ कर्मबन्धवेदपद सम्पूर्ण / 1. (क) पण्णवणासुत्तं भाग 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 388 (ख) प्रज्ञापनासूत्र भा. 5 (प्रमेयबोधिनी टीका), पृ. 489-490 Page #1284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छव्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं छव्वीसवा कर्मवेदबन्धपद ज्ञानावरणीयादि कर्मों के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निरूपण 1775. [1] कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्तायो ? गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्तानो / तं जहा–णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1775-1 प्र. भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही हैं ? [1775-1 उ.] गौतम कर्मप्रकृतियाँ आठ कही हैं / यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय / [2] एवं गैरइयाणं जाव वेमाणियाणं / [1775-2] इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर यावत् वैमानिकों तक पाठ कर्मप्रकृतियाँ होती हैं 1776. जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छव्विहबंधए वा एगविहबंधए वा। [1776 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुअा कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? / [1776 उ.] गौतम ! वह सात, आठ, छह या एक कर्मप्रकृति का बंध करता है। 1777. [1] रइए णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीयो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अढविहबंधए वा। [1777-1 प्र.] भगवन् ! (एक) नैरयिक जीव ज्ञानावरणीयकर्म को वेदता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? [1777-1 उ.] गौतम ! वह सात या आठ कर्मप्रकृतियों का बंध करता है। [2] एवं जाव वेमाणिए / णवरं मणूसे जहा जोवे (सु. 1776) / / [1777-2] इसी प्रकार (असुरकुमारादि भवनपति से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। परन्तु मनुष्य का कथन (सू. 1776 में उल्लिखित) सामान्य जीव के कथन के समान है। 1778. जीवा णं भंते ! णाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणा कति कम्मपगडीयो बंधंति ? गोयमा! सन्चे विताव होज्जा सत्तविहबंधगा य प्रदबिहबंधगा य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य छविहबंधए य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य छविहबंधगा य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य एगविहबंधगे य 4 अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य Page #1285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90]] [प्रज्ञापनासूत्र एगविहबंधगा य 5 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहबंधए य एगविहबंधए य 6 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य छविहबंधए य एगविहबंधगा य 7 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य छविहबंधगा य एगविहबंधए य 8 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य छविहबंधगा य एगविहबंधगा य 6, एवं एते नब भंगा। [1778 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियाँ बाँधते हैं ? [1778 उ.] गौतम ! 1. सभी जीव सात या पाठ कर्मप्रकृतियों के बंधक होते हैं, 2. अथवा बहुत जीव सात या पाठ के बंधक होते हैं और एक छह का बंधक होता है, 3. अथवा बहुत जीव सात, पाठ और छह के बंधक होते हैं, 4. अथवा बहत जीव सात के और पाठ के तथा कोई एक प्रकृति का बंधक होता है, 5. अथवा बहुत जीव सात, पाठ और एक के बंधक होते हैं, 6. या बहुत जीव सात के तथा पाठ के, एक जीव छह का और एक जीव एक का बंधक होता है, 7. अथवा बहुत से जीव सात के या पाठ के, एक जीव छह का और बहुत जीव एक के बंधक होते हैं, 8. अथवा बहुत जीव सात के, आठ के, छह के तथा एक के बंधक होते हैं / इस प्रकार ये कुल नौ भंग हुए / 1776. अवसेसाणं एगिदिय-मणूसवज्जाणं लियभंगो जाव वेमाणियाणं / [1779] एकेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को छोड़कर शेष जीवों यावत् वैमानिकों तक के तीन भंग कहने चाहिए। 1780. एगिदिया णं सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य / [1780] (बहुत-से) एकेन्द्रिय जीव सात के और आठ के बन्धक होते हैं। 1781. मणसाणं पुच्छा। गोयमा ! सत्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगे य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्ठविहबंधगा य 3 अहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधए य, एवं छविहबंधएण वि समं दो भंगा 5 एगविहबंधएण वि समं दो भंगा 7 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधए य छबिहबंधए य चउभंगो 11 अहवा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधए य एगविहबंधए य चउभंगो 15 प्रहवा सत्तविहबंधगा य छविहबंधगे य एगविहबंधए य चउभंगो 19 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधए य छम्विहबंधए य एगविहबंधए य भंगा अट्ठ 27, एवं एते सत्तावीसं भंगा। [1781 प्र.] पूर्ववत् मनुष्यों के सम्बन्ध में प्रश्न है। [1781 उ.] गौतम ! (1) सभी मनुष्य सात कर्मप्रकृतियों के बन्धक होते हैं, (2) अथवा बहुत-से सात और एक आठ कर्मप्रकृति बांधता है, (3) अथवा बहुत-से मनुष्य सात के और एक छह का बन्धक है, (4-5) इसी प्रकार छह के बन्धक के साथ भी दो भंग होते हैं, (6-7) तथा एक के बन्धक के साथ भी दो भंग होते हैं, (8-11) अथवा बहुत-से सात के बन्धक, एक पाठ का और एक छह का बन्धक, यों चार भंग हुए, (12-15) अथवा बहुत-से सात के बन्धक, एक पाठ का और एक मनुष्य एक प्रकृति का बन्धक, यों चार भंग हुए, (16-19) अथवा बहुत-से सात के बन्धक तथा Page #1286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छयीसवाँ कर्मवेवबन्धपद] [91 एक छह का और एक, एक का बन्धक, इसके भी चार भंग हुए, (20-27) अथवा बहुत-से सात के बंधक, एक पाठ का, एक छह का और एक, एक कर्मप्रकृति का बन्धक होता है, यों इसके पाठ भंग होते हैं / कुल मिलाकर ये सत्ताईस भंग होते हैं। 1782. एवं जहा णाणावरणिज्ज तहा दरिसणावरणिज्ज पि अंतराइयं पि। [1782] जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकर्म के बन्धक का कथन किया, उसी प्रकार दर्शनावरणीय एवं अन्तरायकर्म के बन्धक का कथन करना चाहिए / विवेचन-प्रस्तुत पद में कर्मसिद्धांत के इस पहल पर विचार किया गया है कि कौन जीव किस-किस कर्म का वेदन करता हुआ किस-किस कर्म का बन्ध करता है ? अर्थात् किस कर्म का उदय होने पर किस कर्म का बन्ध होता है, इस प्रकार कर्मोदय और कर्मबन्ध के सम्बन्ध का निरूपण किया गया है। ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन और बन्ध- (1) कोई जीव प्रायु को छोड़कर 7 कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, (2) कोई आठों का बन्ध करता है, (3) कोई आयु और मोह को छोड़कर छह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, (4) उपशान्तमोह और क्षीणमोह केवल एक वेदनीयकर्म का बन्ध करता है, (5) सयोगीकेवली ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन ही नहीं करते। नैरयिक से लेकर वैमानिक तक पूर्वोक्त युक्ति से ज्ञानावरण का वेदन करते हुए 7 या 8 कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं / मनुष्य सम्बन्धी कथन--मनुष्य सामान्य जीववत् ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ सात, पाठ, छह या एक प्रकृति का बन्ध करता है। बहुत्व की विवक्षा से--बहुत समुच्चय जीवों के विषय में नौ भंग (1) सभी ज्ञानावरणीयकर्मवेदक जीव 7 या 8 कर्मों के बन्धक होते हैं। (2) अथवा बहुत-से सात के बन्धक, वहुत-से पाठ के बन्धक और कोई एक जीव छह का बन्धक होता है / (सूक्ष्मसम्पराय की अपेक्षा से)। (3) बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के और बहुत-से छह के बन्धक होते हैं / (4) अथवा बहुत-से सात के कौर बहुत-से पाठ के बन्धक होते हैं और कोई एक जीव (उपशान्तमोह या क्षीणमोह) एक का बन्धक होता है / (5) अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से आठ के और बहुत से एक के बन्धक होते हैं / (6) अथवा बहुत-से सात के और बहुत-से आठ के बन्धक होते हैं तथा एक जीव छह का और एक जीव एक का बन्धक होता है / (7) अथवा बहुत-से जीव सात के और बहुत-से जीव पाठ के बन्धक होते हैं तथा एक छह का बन्धक होता है एवं बहुत-से (उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान वाले) एक के बन्धक होते हैं / (8) अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के एवं बहुत-से छह के बन्धक होते हैं और कोई एक जीव एक का बन्धक होता है / Page #1287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92] [प्रज्ञापनासूत्र (9) अथवा बहुत-से सात के, बहुत-से पाठ के, बहुत-से छह के और बहुत-से एक के बन्धक होते हैं। इस प्रकार समुच्चय जीवों के विषय में ये (उपर्युक्त) 9 भंग होते हैं / छह और एक प्रकृति के बन्ध का तथा इन दोनों के अभाव में सात अथवा पाठ प्रकृतियों के बन्ध का कारण पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए। एकेन्द्रियों और मनुष्यों के सिवाय शेष नैरयिक आदि दण्डकों के तीन अंग होते हैं / एकेन्द्रियों में कोई विकल्प (भंग) नहीं होता, अर्थात्-वे सदैव बहुत संख्या में होते हैं, इसलिए बहुत सात के और बहुत पाठ के बंधक ही होते हैं। मनुष्यों में 27 भंगों का चार्ट इस प्रकार है-(ब. से बहुत और ए. से एक समझना चाहिए।) क्रमः 1 / 2 / 3 / 4 5 6 7 =असंयोगी=१ भंग | सभी | ब. एक / ब. ब. . ब. एक | ब. ब. [ ब. एक | व. ब. | = द्विकसंयोगी 6 भंग कुल 7 भंग . / ब. एक एक | ब. ब. ब. | ब. ब. एक | ब. एक ब. | . -पाठ और छह बन्धक के त्रिकसंयोगी भंग 4 . .. .. ब. एक एक ........... . . ब. ब. ब. | ब. ब. एक | ब. एक ब. . = पाठ और एक के बंधक के त्रिकसंयोगी भंग 4 17 ब. एक. एक | ब. ब. ब. 18 19 ब. ब. एक | ब. एक ब. | | = सात और एक के बंधक के त्रिकसंयोगी भंग 4 / 20 21 ब. ए. ए. ए. | ब. ब. ब. ब. 22 ब. ब. ए. ए. ----- -- ----- ब. ब. ब. ए. / 24 ब. ब. ए. ब. 25 ब. ए. ब. ब. 26 ब. ए. ए. ब. 27 | =8,6,1 बंधक चतुष्कसंयोगी भंग 8' ब. ए. ब. ए. वेदनीयकर्म के वेदन के समय अन्य कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपणा 1783. [1] जीवे णं भंते ! वेयणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडोलो बंधति ? गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा छविहबंधए वा एगविहबंधए वा प्रबंधए वा। [1783-1 प्र.] भगवन् ! (एक) जीव वेदनीयकर्म का वेदन करता हुआ कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है ? 1. (क) पण्णवणासुत्त भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 389 (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, (अभिधान राजेन्द्रकोष भा. 3) पद 26, पृ. 294-295 (ग) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 501 से 511 तक Page #1288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्बीसवा कर्मवेदबन्ध-पद [1783-1 उ.] गौतम ! वह सात, आठ, छह या एक का बन्धक होता है अथवा प्रबंधक होता है। [2] एवं मणूसे वि। अवसेसा णारगादीया सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य / एवं जाव वेमाणिए। 1783-2] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी समझ लेना चाहिए। शेष नारक आदि यावत् वैमानिक पर्यन्त सात के बंधक हैं या आठ के बन्धक हैं / 1784. [1] जीवा णं भंते ! वेदणिज्ज कम्मं वेदेमाणा कति कम्मपगडीयो बंधति ? गोयमा ! सब्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य अट्टविहबंधगा य एगविहबंधगा य 1 अहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधगे य 2 अहवा सत्तविहबंधगा य अविहबंधगा य एगविहबंधगा य छन्विहबंधगा य 3 प्रबंधगेण वि समं दो भंगा भाणियव्वा 5 प्रहवा सत्तविहबंधगा य अढविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधए य अबंधए य चउभंगो 6, एवं एते गव भंगा। [1784-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव वेदनीयकर्म का बेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियां बांधते हैं ? [1784-1 उ.] गौतम ! 1. सभी जीव सात के, पाठ के और एक के बन्धक होते हैं, 2. अथवा बहुत-से जीव सात, आठ या एक के बन्धक होते हैं और एक छह का बन्धक होता है। 3. अथवा बहुत से जीव सात, आठ, एक तथा छह के बन्धक होते हैं, 4-5. प्रबन्धक के साथ भी दो भंग कहने चाहिए, 6-9. अथवा बहुत जीव सात के, पाठ के, एक के बंधक होते हैं तथा कोई एक छह का बन्धक होता है तथा कोई एक प्रबन्धक भी होता है, यों चार भंग होते हैं। कुल मिलाकर ये नौ भंग हुए। [2] एगिदियाणं अभंगयं / 1784-2] एकेन्द्रिय जीवों को इस विषय में अभंगक जानना चाहिए। [3] णारगादीणं तियभंगो, जाव वेमाणियाणं / णवरं मणूसाणं पुच्छा। गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगाय 1 अहवा सत्तविहबंधगा य एगविहबंधगा य छविहबंधए य अट्टविहबंधए य प्रबंधए य, एवं एते सत्तावीसं भंगा भाणियव्वा जहा किरियासु पाणाइवायविरतस्स (सु. 1643) / [1784-3] नारक आदि यावत् वैमानिकों तक के तीन-तीन भंग कहने चाहिए। [प्र] मनुष्यों के विषय में वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध की पृच्छा ? [उ.] गौतम ! १-बहुत-से सात के अथवा एक के बन्धक होते हैं। २–अथवा बहुत-से मनुष्य सात के और एक के बन्धक तथा कोई एक छह का, एक पाठ का बन्धक है या फिर प्रबन्धक होता है / इस प्रकार ये कुल मिलाकर सत्ताईस भंग (सू. 1643 में उल्लिखित हैं) जैसे—प्राणातिपातविरत की क्रियाओं के विषय में कहे हैं, उसी प्रकार कहने चाहिए। Page #1289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिज्ञापनासूत्र विवेचन-वेदनीयकर्म के वेदन के क्षणों में अन्य कर्मों का बन्ध-(१) एक जीव और मनुष्य-सात, आठ, छह या एक प्रकृति का बन्धक होता है अथवा प्रबन्धक होता है / तात्पर्य यह है कि सयोगीकेवली, उपशान्तमोह और क्षीणमोहगुणस्थानवर्ती जीव वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए केवल एक वेदनीय प्रकृति का बन्ध करते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली में भी वेदनीय कर्म का उदय और बंध पाया जाता है। अयोगीकेवली प्रबन्धक होते हैं। उनमें वेदनीयकर्म का वेदन होता है, किन्तु योगों का भी प्रभाव हो जाने से उसका या अन्य किसी भी कर्म का बन्ध नहीं होता। (2) मनुष्य के सिवाय नारक से वैमानिक तक-वेदनीयकर्म का वेदन करते हुए 7 या 8 कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं / (3) बहत से जीव-तीन भंग- सभी ! ब. ब. ब. ए. ब. ब. ब. ब. = तीन भंग 781 7 8 16 7 8 16 प्रबंधक के साथ एकत्व-बहुत्व की अपेक्षा-दो भंग (एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा) अथवा ब. ब. ब. ए. ए. 7 8 1 6 अबं.-४ भंग =कुल 6 भंग समुच्चय जीवों के एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा। (4) एकेन्द्रिय जीव-कोई विकल्प नहीं / बहु. और बहु. के बंधक होते हैं। (5) मनुष्य को छोड़कर नारक से वैमानिक तक पूर्ववत् तीन भंग / (6) मनुष्य-(एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा)=२७ भंग (ज्ञानावरणीयकर्म-बन्धवत्)' आयुष्य नाम और गोत्र कर्म के सम्बन्ध में वेदनीय कर्मवत् / आयुष्यादि कर्मवेदन के समय कर्मप्रकृतियों के बन्ध की प्ररूपरणा 1785. एवं जहा वेदणिज्जं तहा पाउयं णामं गोयं च भाणियग्वं / [1785] जिस प्रकार वेदनीयकर्म के वेदन के साथ कर्मप्रकृतियों के बन्ध का कथन किया गया है, उसी प्रकार प्रायुष्य, नाम और गोत्रकर्म के विषय में भी कहना चाहिए / 1786. मोहणिज्ज वेदेमाणे जहा बंधे णाणावरणिज्जं तहा भाणियध्वं (सु. 1755-61) / ॥पण्णवणाए भगवईए छन्वीसइमं कम्मवेयबंधपयं समत्तं // [1786] जिस प्रकार (सू. 1755-61 में) ज्ञानावरणीय कर्मप्रकृति के बन्ध का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ मोहनीयकर्म के देदन के साथ बन्ध का कथन करना चाहिए। विवेचन-मोहनीयकर्मवेदन के साथ कर्मबन्ध-ज्ञानावरणीय के समान अर्थात्- मोहनीय 1. (क) प्रशापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. यू. 5,513 से 517 तक (ख) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति. (अभिधान राजेन्द्रकोष भा. 3) पद 26, पृ' 296 (ग) पण्णवणासुत्त भा. 1 (मू. पा. टि.) पृ. 390 Page #1290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठवीसवाँ कर्मवेवबन्धपद] [95 कर्म का वेदन करता हा जीव 7, 8 या 6 का बन्धक होता है, क्योंकि सूक्ष्मसम्पराय अवस्था में भी मोहनीयकर्म का वेदन होता है, मगर बन्ध नहीं होता / इसी प्रकार का कथन मनुष्य पद में भी करना चाहिए / नारक आदि पदों में सूक्ष्मसम्परायावस्था प्राप्त न होने से वे 7 या 8 के ही बन्धक होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से-जीव पद में पूर्ववत् तीन भंग | ब. ब. ब. ए. | ब. ब. नारकों और भवनपति देवों में- ब. ब. | ए = तीन भंग पृथ्वीकायादि स्थावरों में प्रथम भंग-ब. ब. विकलेन्द्रिय से वैमानिक तक में-नारकों के समान तीन भंग / मनुष्यों में नौ भंग ज्ञानावरणीय कर्म के साथ बन्धक के समान / ' // प्रज्ञापना भगवती का छन्वीसवाँ पद समाप्त / 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 390 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 517 से 519 तक (ग) प्रज्ञापना. (मलय. टीका) पद 26 (अभि. राज. कोष भा. 3, पृ. 296) Page #1291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तावीसइमं कम्मवेयवेयगपयं सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकपद ज्ञानावरणीयादिकर्मों के वेदन के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन का निरूपण 1787. [1] कति णं भंते ! कम्मपगडीलो पण्णत्तानो ? गोयमा ! अट्ठ / तं जहा–णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं / [1787-1 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियाँ कितनी कही गई हैं ? [1787-1 उ.] गौतम ! वे पाठ कही गई हैं / यथा ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय। [2] एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं / [1787-2] इसी प्रकार नारकों (से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (के आठ कर्मप्रकृतियाँ Alc 1788. [1] जीवे गं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! सत्तविहवेदए वा अट्ठविहवेदए वा। [1788-1 प्र.] भगवन् ! ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? / [1788-1 उ.] गौतम ! वह सात या आठ (कर्मप्रकृतियों) का वेदक होता है / [2] एवं मणसे वि / अवसेसा एगतेण वि पुहत्तेण वि नियमा अढविहकम्मपगडीनो वेदेति जाव वेमाणिया। [1788-2] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिए। (मनुष्य के अतिरिक्त) शेष सभी जीव (नारक से लेकर) यावत् वैमानिक पर्यन्त एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से नियमत: पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। 1786. जीवाणं भंते ! जाणावरणिज्ज कम्मं वेदेमाणा कति कम्मपगडीमो वेदेति ? गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्जा अट्ठविहवेदगा 1 अहवा अट्टविहवेदगा य सत्तविहवेदगे य 2 अहवा अट्टविहवेदगा य सत्तविहवेदगा य 3 / एवं मणूसा वि / [1789 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करते हुए कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं ? [1786 उ.] गौतम ! 1. सभी जीव आठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, 2. अथवा कई जीव पाठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, और कोई एक जीव सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, Page #1292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकपद] 3. अथवा कई जीव आठ और कई सात कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं / इसी प्रकार मनुष्यपद में भी ये तीन भंग होते हैं / 1760. दरिसणावरणिज्जं अंतराइयं च एवं चेव भाणियव्वं / [1760] दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म के साथ अन्य कर्मप्रकृतियों के वेदन के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। 1761. वेदणिज्ज-प्राउअ-णाम-गोयाई वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! जहा बंधगवेयगस्स वेदणिज्जं (सु. 1773-74) तहा भाणियन्वं / [1791 प्र.] भगवन ! वेदनीय, प्रायू, नाम और गोत्रकर्म का वेदन करता हया (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1761 उ.] गौतम ! जैसे (सू. 1773-74 में) बन्धक-वेदक के वेदनीय का कथन किया गया है, उसी प्रकार वेद-वेदक के वेदनीय का कथन करना चाहिए। 1762. [1] जोवे णं भंते ! मोहणिज्ज कम्मं वेदेमाणे कति कम्मपगडीओ वेदेति ? गोयमा ! णियमा अट्ट कम्मपगडीओ वेदेति / [1792-1 प्र.] भगवन् ! मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ (एक) जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? [1762-1 उ.] गौतम ! वह नियम से पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है / [2] एवं रइए जाव वेमाणिए। [1762-2] इसी प्रकार नारक से लेकर वैमानिक पर्यन्त (अष्टविध कर्मप्रकृतियों का) वेदन होता है। [3] एवं पुहत्तेण वि। // पण्णवणाए भगवतीए सत्तावीसतिमं कम्मवेदवेदयपयं समत्तं // [1792-3] इसी प्रकार बहुत्व की विवक्षा से भी सभी जीवों और नारक से वैमानिक पर्यन्त समझना चाहिए। विवेचन-वेद-वेदक चर्चा का निष्कर्ष-इस पद का प्रतिपाद्य यह है कि जीव ज्ञानावरणीय आदि किसी एक कर्म का वेदन करता हुआ, अन्य कितनी कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है ? / (I) ज्ञानावरणीयकर्म का वेदन करता हुमा कोई जीव या कोई मनुष्य यानी उपशन्तमोह या क्षीणमोह मनुष्य मोहनीयकर्म का वेदक न होने से सात कर्मप्रकृतियों का वेदक होता है, इसके अतिरिक्त सूक्ष्मसम्पराय तक सभी जीव या मनुष्य पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं। (II) बहुत जीवों की अपेक्षा से तीन भंग होते हैं—(१) सभी जीव प्राठ कर्मप्रकृतियों के वेदक होते हैं, (2) अथवा कई आठ के वेदक होते हैं और कोई एक सात का वेदक होता है, (3) अथवा कई पाठ के और कई सात के वेदक होते हैं। Page #1293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] [प्रज्ञापनासूत्र (III) दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म-सम्बन्धी वक्तव्यता भी ज्ञानावरणीय के समान कहनी चाहिए। (iv) वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र, इन कर्मों का वेदन करता हुआ जीव बन्ध-वेदकवत् पाठ, सात या चार कर्मप्रकृतियों का वेदन करता है। (v) मोहनीयकर्म का वेदन करता हुआ समुच्चयी जीव व नैरयिक से वैमानिक तक के जीव एकत्व या बहुत्व की अपेक्षा से नियमतः पाठ कर्मप्रकृतियों का वेदन करते हैं।' // प्रज्ञापना भगवती का सत्ताईसवाँ कर्मवेदवेदकपद सम्पूर्ण // 1. (क) पण्णवणासुर्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 391 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 523 से 527 तक (ग) प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पद 27 अभिधान राजेन्द्र कोष भा. 3, पृ. 294-295 Page #1294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के आहारपद में सांसारिक जीवों और सिद्धों के आहार-अनाहार की दो उद्देशकों के ग्यारह और तेरह द्वारों के माध्यम से विस्तृत चर्चा की गई है / आत्मा मूल स्वभावतः निराहारी है, क्योंकि शुद्ध-प्रात्मा (सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परमात्मा) के शरीर, कर्म, मोह आदि नहीं होते / निरंजन-निराकार होने से उसे पाहार की कदापि इच्छा नहीं होती / जैसा सिद्धों का स्वरूप है, वैसा ही निश्चयनय दृष्टि से आत्मा का स्वरूप है / अतः विविध दार्शनिकों, साधकों और विचारकों के मन में प्रश्न का उद्भव हुआ कि जब आत्मा अनाहारी है तो भूख क्यों लगती है ? मनुष्य पशु-पक्षी आदि क्षुधानिवृत्ति के लिए पाहार क्यों करते हैं ? यदि शरीर और क्षुधावेदनीय आदि कर्मों के कारण प्राणियों को आहार करना पड़ता है, तब ये प्रश्न उठते हैं कि सिद्ध तो अनाहारक होते हैं, किन्तु नारक से लेकर वैमानिक तक चौबीस दण्डकवर्ती जीव सचित्त, अचित्त या मिश्र, किस प्रकार का प्राहार करते हैं ? उन्हें पाहार की इच्छा होती है या नहीं ? इच्छा होती है तो कितने काल के पश्चात् होती है ? कौनसा जीव किस वस्तु का आहार करता है ? क्या वे सर्व प्रात्मप्रदेशों से आहार लेते हैं या एकदेश से ? क्या वे जीवन में बार-बार पाहार करते हैं या एक बार? वे कितने भाग का प्रहार करते हैं, कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? क्या वे ग्रहण किये हुए सभी पुद्गलों का आहार करते हैं ? गृहीत आहार्यपुद्गलों को वे किस रूप में परिणत करते हैं ? क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीर का आहार करते हैं ? तथा उनमें से कौन लोमाहारी है, कौन प्रक्षेपाहारी (कवलाहारी) है तथा कौन प्रोज-ग्राहारी है. कौन मनोभक्षी है ? ये और इनसे सम्बन्धित अाहार-सम्बन्धी चर्चाएँ इस पद के दो उद्देशकों में से प्रथम उद्देशक में की गई है। * इसके अतिरिक्त आहार-सम्बन्धी कई प्रश्न अवशिष्ट रह जाते हैं कि एक या अनेक जीव या चौबीस दण्डकवर्ती सभी जीव आहारक ही होते हैं या कोई जीव अनाहारक भी होता है। होते हैं ? यदि कोई जीव किसी अवस्था में अनाहारक होता है तो किस कारण से होता है ? ' इन दो प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में भव्यता, संज्ञा, लेश्या, दृष्टि, संयम, कषाय, ज्ञान-प्रज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर, पर्याप्ति, इन 13 द्वारों के माध्यम से प्राहारक-अनाहारक की सांगोपांग चर्चा द्वितीय उद्देशक में की गई है। * प्रथम उद्देशक के उत्तरों को देखते हुए बहुत-से रहस्यमय एवं गूढ तथ्य साधक के समक्ष समाधान के रूप में मुखरित होते हैं। जैसे कि वैक्रिय शरीरधारी का आहार अचित्त ही 1. पण्णवणासुत्तं भा. 1, पृ. 392 Page #1295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 (प्रज्ञापनासूत्र होता है और औदारिक शरीरधारी का श्राहार सचित्त, अचित्त और मिश्र तीनों प्रकार का होता है। जो आहार ग्रहण किया जाता है, वह दो प्रकार का है-आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित / अपनी इच्छा हो और आहार लिया जाए, वह आभोगनिर्वतित तथा बिना ही इच्छा के आहार हो जाए, वह अनाभोगनिर्वतित आहार है। इच्छापूर्वक आहार लेने में विभिन्न जीवों की पृथक्-पृथक् काल-मर्यादाएँ हैं। परन्तु इच्छा के बिना लिया जाने वाला आहार तो निरन्तर लिया जाता है / फिर यह भी स्पष्ट किया गया है कि कौन जीव किस प्रकार का आहार लेता है ? वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श गुणों से युक्त आहार लिया जाता है, उसमें भी बहुत विविधता है / नारकों द्वारा लिया जाने वाला पाहार अशुभवर्णादि वाला है और देवों द्वारा लिया जाने वाला आहार शुभवर्णादि वाला है। कोई 6 दिशा से तथा कोई तीन, चार, पांच दिशाओं से आहार लेता है / आहाररूप में ग्रहण किए गये पुद्गल पांच इन्द्रियों के रूप में तथा अंगोपांगों के रूप में परिणत होते हैं / शरीर भी आहारानुरूप होता है / आहार के लिए लिये जाने वाले पुद्गलों का असंख्यातवाँ भाग आहाररूप में परिणत होता है तथा उनके अनन्तवें भाग का प्रास्वादन होता है। * अन्तिम प्रकरण में यह भी बताया गया है कि चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में से कौन लोमाहार और कौन प्रक्षेपाहार (कवलाहार) करता है ? तथा किसके प्रोज-आहार होता है, किसके मनोभक्षण आहार होता है ? कौन जीव किस जीव के शरीर का आहार करता है ? इस तथ्य को यहाँ स्थूल रूप से प्ररूपित किया गया है / सूत्रकृतांगसूत्र श्रुत. 2, अ. 3 आहारपरिज्ञा-अध्ययन में तथा भगवतोसूत्र में इस तथ्य की विशेष विश्लेषणपूर्वक चर्चा की गई है कि पृथ्वीकायिकादि विभिन्न जीव वनस्पतिकाय अादि के अचित्त शरीर को विध्वस्त करके आहार करते हैं, गर्भस्थ मनुष्य आदि जीव अपने माता की रज और पिता के शुक्र आदि का आहार करते हैं। स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में तिर्यञ्चों, मनुष्यों और देवों का चार-चार प्रकार का आहार बताया है / जैसे-तिर्यञ्चों का चार प्रकार का आहार-(१) कंकोपम, (2) बिलोपम, (3) पाण (मातंग) मांसोपम और (4) पुत्रमांसोपम / मनुष्यों का चार प्रकार का आहार-अशन, पान, खादिम और स्वादिम / देवों का चार प्रकार का आहार है--वर्णवान, रसवान, गन्धवान् और स्पर्शवान् / आहार की अभिलाषा में देवों की आहाराभिलाषा, जिसमें वैमानिक देवों की आहाराभिलाषा बहुत लम्बे काल की, उत्कृष्ट 33 हजार वर्ष तक की बताई गई है। इसलिए ज्ञात होता है कि चिरकाल के बाद होने वाली आहारेच्छा किसी न किसी पूर्वजन्म कृत संयम-साधना या पुण्यकार्य का सुफल है। 1. पण्णवणासुतं (मू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 393 से 405 2. स्थानांगसूत्र, स्था. 4 3. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 397-98 Page #1296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद : प्राथमिक] [101 * मनुष्य चाहे तो तपश्चर्या के द्वारा दीर्घकाल तक निराहार रह सकता है और अनाहारकता ही रत्नत्रयसाधना का अन्तिम लक्ष्य है / इसी के लिए संयतासंयत तथा संयत होकर अन्त में नोसंयत-नोअसंयत-नो-संयतासंयत बनना है। यह इसके संयतद्वार में स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है।' * कुल मिलाकर आहार-सम्बन्धी चर्चा साधकों और श्रावकों के लिए ज्ञानवर्द्धक, रसप्रद, आहार विज्ञान-सम्मत एवं आत्मसाधनाप्रेरक है। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भाम 1, पृ. 403 Page #1297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में उल्लिखित ग्यारह द्वार 1763. सच्चित्ता 1 ऽऽहारट्ठी 2 केवति 3 किंवा वि 4 सव्वानो चेव 5 / कतिभागं 6 सम्वे खलु 7 परिणामे चैव 8 बोद्धव्वे // 217 // एगिदिसरीरादी 6 लोमाहारे 10 तहेव मणभक्खी 11 // एतेसि तु पयाणं विभावणा होइ कायव्वा // 218 // [1793 गाथार्थ-] [प्रथम उद्देशक में] इन (निम्नोक्त) ग्यारह पदों पर विस्तृत रूप से विचारणा करनी है-(१) सचित्ताहार, (2) आहारार्थी, (3) कितने काल से (आहारार्थ) ?, (4) क्या आहार (करते हैं ?), (5) सब प्रदेशों से (सर्वतः), (6) कितना भाग ?, (7) (क्या) सभी आहार (करते हैं ?) और (8) (सदैव) परिणत (करते हैं ?) (8) एकेन्द्रियशरीरादि, (10) लोभाहार एवं (11) मनोभक्षी (ये ग्यारह द्वार जानने चाहिए) / / / / 217-218 / / विवेचन--प्रथम उद्देशक में प्राहार-सम्बन्धी ग्यारह द्वार--प्रस्तुत दो संग्रहणी-गाथाओं द्वारा प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य ग्यारह द्वारों (पदों) का उल्लेख किया गया है / प्रथमद्वार---इसमें नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के विषय में प्रश्नोत्तर हैं कि वे सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ?, द्वितीयद्वार से अष्टमद्वार तक-क्रमशः (2) नारकादि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ?, (3) कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ?, (4) किस वस्तु का आहार करते हैं ?, (5) क्या वे सर्वत: (सब प्रदेशों से) आहार करते हैं ?, सर्वतः उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं, क्या वे बार-बार आहार करते हैं ? बार-बार उसे परिणत करते हैं ? इत्यादि, (6) कितने भाग का आहार या आस्वादन करते हैं ?, (7) क्या सभी गृहीत पुद्गलों का आहार करते हैं ?, (8) गृहीत आहार्य पुद्गलों को किस-किस रूप में बार-बार परिणत करते हैं ? (E) क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीरों का आहार करते हैं ?, (10) नारकादि जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी (कवलाहारी)? तथा (11) वे ओजाहारी होते हैं या मनोभक्षी ? प्रथम उद्देशक में इन ग्यारह द्वारों का प्रतिपादन किया गया है।' 1. (क) प्रज्ञापना. (मलय. वृत्ति) अभि. रा. को. भा. 2, पृ. 500 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 541, 563, 613 Page #1298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] चौबीस दण्डकों में प्रथम सचित्ताहारद्वार 1794. [1] णेरइया णं भंते ! कि सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा ? गोयमा ! णो सचित्ताहारा, प्रचित्ताहारा, णो मोसाहारा। [1764-1 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी होते हैं ? [1794-1 उ.] गौतम ! नैरयिक सचित्ताहारी नहीं होते और न मिश्राहारी (सचित्तअचित्ताहारी) होते हैं, किन्तु अचित्ताहारी होते हैं / [2] एवं असुरकुमारा जाव वेमाणिया। [1764-2] इसी प्रकार असुरकुमारों से (लेकर) यावत् वैमानिकों पर्यन्त (जानना चाहिए।) [3] ओरालियसरीरी जाव मणसा सचित्ताहारा वि अचित्ताहारा वि मीसाहारा वि। [1764-3] औदारिकशरीरी यावत् मनुष्य सचित्ताहारी भी हैं, अचित्ताहारी भी हैं और मिश्राहारी भी हैं। विवेचन-सचित्ताहारी, प्रचित्ताहारी या मिश्राहारी? --- समस्त सांसारिक जीव भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त हैं -(1) वैक्रियशरीरी और (2) औदारिकशरीरी / वैक्रिय शरीरधारी जो नारक. देव आदि जीव हैं. वे वैक्रियशरीर-परिपोषण-योग्य पुदगलों का आहार करते हैं और वे पुद्गल अचित्त ही होते हैं, सचित्त (जीवपरिगृहीत) और मिश्र नहीं। इसलिए प्रस्तुत में नैरयिक, असुरकुमारादि भवनपतिदेव, वाणब्यन्तरदेव, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों (जो कि वैक्रियशरीरी हैं) को एकान्ततः अचित्ताहारी बताया है तथा इनके अतिरिक्त एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त तिर्यञ्च और मनुष्य जो प्रौदारिक शरीरधारी हैं, वे औदारिकशरीर के परिपोषणयोग्य पुद्गलों का आहार करते हैं, जो तीनों ही प्रकार के होते हैं। इसलिए इन्हें सचित्ताहारी, अचित्ताहारी और मिश्राहारी बताया गया है।' नैरयिकों में आहारार्थी प्रादि द्वितीय से अष्टमद्वार पर्यन्त 1765. रइया णं भंते ! आहारट्ठी ? हंता गोयमा ! आहारट्ठी। [1765 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक आहारार्थी (आहाराभिलाषी) होते हैं ? [1795 उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं / 1796. रइयाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जति ? गोयमा! णेरइयाणं आहारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--आभोगणित्तिए य अणाभोगणिव्वत्तिए य / तत्थ णं जे से अणाभोगणिबत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारट्ठे समुप्पज्जति / तत्थ णं जे से प्राभोगणिव्वत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पाहारट्ठे समुप्पज्जति / 1. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति. पत्र अभि. रा. कोष, भा. 2, पृ. 500 Page #1299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] [प्रज्ञापनासूत्र [1766 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को कितने काल के पश्चात् आहार की इच्छा (आहारार्थ) समुत्पन्न होती है ? [1796 उ.] गौतम ! नैरयिकों का आहार दो प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) आभोगनिर्वतित, (उपयोगपूर्वक किया गया) और (2) अनाभोगनिर्वतित / उनमें जो अनाभोगनिवर्तित (बिना उपयोग के किया हुअा) है, उस पाहार की अभिलाषा प्रति समय निरन्तर उत्पन्न होती रहती है, किन्तु जो आभोगनिर्वत्तित (उपयोगपूर्वक किया हुआ) आहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यात-समय के अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है। 1797. रइया णं भंते ! किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! दध्वनो अणंतपदेसियाई, खेत्तनो असंखेज्जपदेसोगाढाई, कालतो अण्णतरठितियाई, भावनो वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई। [1767 प्र.] भगवन् ! नैरयिक कौन-सा आहार ग्रहण करते हैं ? [1797 उ.] गौतम ! बे द्रव्यतः-अनन्तप्रदेशी (पुद्गलों का) आहार ग्रहण करते हैं, क्षेत्रत:असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ (रहे हुए), कालत:--किसी भी (अन्यतर) कालस्थिति वाले और भावतः-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्श वान् पुद्गलों का आहार करते हैं। 1768. [1] जाई भावप्रो वण्णमंताई पाहारैति ताई कि एगवण्णाई आहारति जाव कि पंचवण्णाई आहारेंति ? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि प्राहारेंति जाव पंचवन्नाई पि आहारेंति, विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाई पिाहारेति जाव सुक्किलाई पि प्राहारेति / [1768-1 प्र.] भगवन् ! भाव से (नैरयिक) वर्ण वाले जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् क्या वे पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? [1798-1 उ.] गौतम ! वे स्थानमार्गणा (सामान्य) की अपेक्षा से एक वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् पांच वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं तथा विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा से काले वर्ण वाले पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। [2] जाई वणो कालवण्णाई प्राहारेति ताई कि एगगुणकालाई प्राहारेंति जाव दसगुणकालाई प्राहारेंति संखेज्जगुणकालाई प्रसंखेज्जगुणकालाई अणंतगुणकालाई प्राहारेति ? ___ गोयमा ! एगगुणकालाई पि आहारति जाव अणतगुणकालाई पि आहारेति / एवं जाव सुक्किलाई पि। [1798-2 प्र.] भगवन् ! वे वर्ण से जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एक गुण काले पुद्गलों का पाहार करते हैं यावत् दस गुण काले, संख्यातगुण काले, असंख्यातगुण काले या अनन्तगुण काले वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? Page #1300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [105 [1798-2 उ.] गौतम ! वे एक गुण काले पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं / इसी प्रकार (रक्तवर्ण से लेकर) यावत् शुक्लवर्ण के विषय में पूर्वोक्त प्रश्न और समाधान जानना चाहिए। 1766. एवं गंधयो वि रसतो वि। [1766] इसी प्रकार गन्ध और रस की अपेक्षा से भी पूर्ववत् पालापक कहने चाहिए। 1800. [1] जाई भावनो फासमंताई ताई णो एगफासाइं आहारेंति, णो दुफासाई प्राहारेति, णो तिफासाई आहारेंति, चउफासाई अाहारेति जाव अट्ठफासाई पि आहारति, विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाई पि आहारेंति जाव लुक्खाइं पि। [1800-1] जो जीव भाव से स्पर्शवाले पुद्गलों का अाहार करते हैं, वे न तो एक स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, न दो और तीन, स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते, अपितु चतु:स्पर्शी यावत् अष्टस्पर्शी पुद्गलों का आहार करते हैं। विधान (भेद) मार्गणा की अपेक्षा से वे कर्कश यावत् रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं / [2] जाई फासओ कक्खडाई पाहारेति ताई कि एगगुणकक्खडाई अाहारेंति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि आहारति। गोयमा! एगगुणकक्खडाई पि आहारति जाव अणंतगुणकक्खडाई पि प्राहारेति ? एवं अट्ठ वि फासा भाणियत्वा जाव अणंतगुणलुक्खाई पि प्राहारेति / [1800-2 प्र.] भगवन् ! वे जिन कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे एकगुण कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अनन्त गुण कर्कश पुद्गलों का प्रहार करते हैं ? [1800-2 उ.] गौतम ! वे एकगुण कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण कर्कश पुद्गलों का भी प्राहार करते हैं। इसी प्रकार क्रमश: पाठों ही स्पशों के विषय में यावत् 'अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का भी आहार करते हैं'; यहाँ तक (कहना चाहिए)। __[3] जाइं भंते ! अणंतगुणलुक्खाई आहारेति ताई कि पुट्ठाई आहारैति अपुट्ठाई आहारेंति ? ___ गोयमा ! पुट्ठाइं पाहारेंति, णो अपुट्ठाई प्राहारेंति, जहा भासुद्देसए (सु. 877 [15-23]) जाव णियमा छद्दिसि पाहारेति / [1800-3 प्र.] भगवन् ! वे जिन अनन्तगुण रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं, क्या वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं या अस्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं ? [1800-3 उ.] गौतम ! वे स्पृष्ट पुद्गलों का आहार करते हैं, अस्पृष्ट पुद्गलों का नहीं / (सू. 877-15-23 में उक्त) भाषा-उद्देशक में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार वे यावत् नियम से छहों दिशाओं में से आहार करते हैं। 1801. प्रोसण्णकारणं पडुच्च वण्णओ काल-नीलाई गंधयो दुब्भिगंधाई रसतो तित्तरसकडुयाई फासओ कक्खड-गरुय-सोय-लुक्खाई तेसि पोराणे वण्णगुणे गंधगुणे फासगुणे विप्परिणामइत्ता परिपोलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धंसइत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाएत्ता प्रायसरीरखेत्तोगाढे पोग्गले सन्चप्पणयाए प्राहारमाहारेति / Page #1301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] [प्रज्ञापनासूत्र [1801] बहुल कारण की अपेक्षा से जो वर्ण से काले-नीले, गन्ध से दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त (तीखे) और कटुक (कडुए) रस वाले और स्पर्श से कर्कश, गुरु (भारी), शीत (ठंडे) और रूक्ष स्पर्श हैं, उनके पुराने (पहले के) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण का विपरिणमन (परिवर्तन) कर, परिपीडन परिशाटन और परिविध्वस्त करके अन्य (दूसरे) अपूर्व (नये) वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुण को उत्पन्न करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाहन किये हुए पुद्गलों का पूर्णरूपेण (सर्वात्मना) आहार करते हैं / 1802. रइया णं भंते ! सव्वतो पाहारेति, सव्वतो परिणामेंति, सव्वनो ऊससंति, सव्यत्रो णीस संति, अभिक्खणं पाहारेंति, अभिक्खणं परिणामेंति, अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं णीससंति, आहच्च आहारेंति, आहच्च परिणामेंति पाहच्च ऊससंति आहच्च णीससंति ? हंता गोयमा ! गैरइया सव्वतो पाहारेंति एवं तं चेव जाव पाहच्च गोससंति / [1802 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक सर्वतः (समग्रता से) आहार करते हैं ? पूर्णरूप से परिणत करते हैं ? सर्वतः उच्छ्वास तथा सर्वतः निःश्वास लेते हैं ? बार-बार पाहार करते हैं ? बार-बार परिणत करते हैं ? बार-बार उच्छ्वास एवं निःश्वास लेते हैं ? अथवा कभी-कभी आहार करते हैं ? कभी-कभी परिणत करते हैं ? और कभी-कभी उच्छ्वास एवं नि:श्वास लेते हैं ? [1802 उ.] हाँ, गौतम ! नैरयिक सर्वतः आहार करते हैं, इसी प्रकार वही पूर्वोक्तवत् यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं / 1803. णेरइया णं भंते ! जे पोग्गले प्राहारत्ताए गेण्हंति ते गं तेसि पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं प्राहारेंति कतिभागं प्रासाएंति ? गोयमा ! असंखेज्जतिभागं प्राहारेंति अणंतभागं अस्साएंति / [1803 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों का आगामी काल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? [1803 उ.] गौतम ! वे असंख्यातवें भाग का अाहार करते हैं और अनन्तवें भाग का प्रास्वादन करते हैं ? 1804. जेरइया जं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेहंति ते कि सव्वे आहारेंति णो सब्वे पाहारेति ? गोयमा ! ते सव्वे प्रपरिसेसिए प्राहारेति / [1804 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सबका आहार कर लेते हैं अथवा सबका आहार नहीं करते ? [1804 उ.] गौतम ! शेष बचाये बिना उन सबका पाहार कर लेते हैं। 1805. रइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हति ते णं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भज्जो 2 परिणमंति? Page #1302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद [107 गोयमा! सोइंदियत्ताए जाव कासिदियत्ताए अणिद्वत्ताए अकंतत्ताए अप्पियत्ताए असुभत्ताए अमणुण्णत्ताए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए अहत्ताए णो उद्धृत्ताए दुक्खत्ताए णो सुहत्ताए एएसि (ते तेसि) भुज्जो भुजो परिणमंति। [1805 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जिन पुद्गलों को पाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे उन पुद्गलों को बार-बार किस रूप में परिणत करते हैं ? [1805 उ.] गौतम ! वे उन पदगलों को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में, अनिष्टरूप से, अकान्तरूप से, अप्रियरूप से, अशुभरूप से, अमनोज्ञरूप से, मनामरूप से, अनिश्चितता से (अथवा अनिच्छित रूप से), अनभिलषितरूप से, भारीरूप से, हल्केरूप से नहीं, दुःखरूप से, सुखरूप से नहीं, उन सबका बारबार परिणमन करते हैं / विवेचन आभोगनिवतित और अनाभोगनिर्वतित का स्वरूप-नारकों का आहार दो प्रकार का है—आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित / प्राभोगनिर्वतित का अर्थ है-इच्छापूर्वकउपयोगपूर्वक होने वाला पाहार तथा अनाभोगनिर्वतित का अर्थ है--बिना इच्छा के बिना उपयोग के होने वाला आहार। अनाभोगनिर्वतित पाहार, भव पर्यन्त प्रतिसमय निरन्तर होता रहता है। यह पाहार प्रोजसाहार आदि के रूप में होता है। प्राभोगनिर्वतित पाहार की इच्छा असंख्यात समय प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में उत्पन्न होती है। मैं आहार करू, इस प्रकार की अभिलाषा एक अन्तमुहूर्त के अंदर पैदा हो जाती है / यही कारण है कि नारकों की आहारेच्छा अन्तर्महूर्त की कही गई हैं। यह तीसरा द्वार है।' नैरयिक किस वस्तु का पाहार करते हैं ? -द्रव्य से वे अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का पाहार करते हैं, क्योंकि संख्यातप्रदेशी या असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते, उनका ग्रहण होना सम्भव नहीं है। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यातप्रदेशावगाढ स्कन्धों का आहार करते हैं। काल को अपेक्षा से वे जघन्य, मध्यम या उत्कृष्ट किसी भी स्थिति वाले स्कन्धों को ग्रहण करते हैं। भाव से वे वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले द्रव्यों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एक गन्ध, एक रस और दो स्पर्श अवश्य पाए जाते हैं। इसके पश्चात् एकादि वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श से अनेक वर्णादियुक्त आहार ग्रहण करने के विकल्प बताये गए हैं। तदनन्तर यह भी बताया गया है कि वे (नारक) आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट द्रव्यों (सम्बद्ध पुद्गलों) का तथा नियमत: छह दिशानों से पाहार करते हैं / 2 विविध पहलुओं से नारकों के प्राहार के विषय में प्ररूपणा-नारक वर्ण की अपेक्षा प्रायः काले-नीले वर्ण वाले, रस की अपेक्षा तिक्त और कटक रस वाले, गन्ध की अपेक्षा दुर्गन्ध वाले तथा स्पर्श से कर्कश, गुरु, शीत और रूक्ष स्पर्श वाले अशुभ द्रव्यों का पाहार करते हैं। यहाँ बहुलतासूचक शब्द'प्रोसन्न' का प्रयोग किया गया है। जिसका आशय यह है कि अशुभ अनुभाव वाले मिथ्यावृष्टि नारक ही प्रायः उक्त कृष्णवर्ण ग्रादि वाले द्रव्यों का आहार करते हैं। किन्तु जो नारक आगामी भव में तीर्थकर आदि होने वाले हैं, वे ऐसे द्रव्यों का पाहार नहीं करते। 1, 2. प्रज्ञापना (हरिभद्रीय टीका) भा. 5, पृ. 549 से 552 Page #1303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] [प्रज्ञापनासूत्र नारक आहार किस प्रकार से करते हैं ? --आहार किये जाने वाले पुद्गलों के पुराने वर्णगन्ध-रस-स्पर्शगुण का परिणमन, परिपीडन, परिशाटन एवं विध्वंस करके, अर्थात्-उन्हें पूरी तरह से बदल कर, उनमें नये वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शगुण को उत्पन्न करके, अपने शरीर-क्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों का समस्त प्रात्मप्रदेशों से पाहार करते हैं।' सर्वतः पाहारादि का अर्थ-सर्वत : पाहार अर्थात् समस्त प्रात्मप्रदेशों से आहार करते हैं, सर्व-प्रात्मप्रदेशों से आहार परिणमाते हैं, सर्वतः उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं, सदा पाहार करते हैं, सदा परिणत करते हैं, सदा उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। कदाचित् आहार और परिणमन करते हैं तथा . उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं। आहार और प्रास्वादन कितने-कितने भाग का? नारक आहार के रूप में जितने पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं, शेष पुद्गलों का अाहार नहीं हो पाता / वे जितने पुद्गलों का आहार करते हैं, उनके अनन्तवें भाग का आस्वादन करते हैं। शेष का प्रास्वादन न होने पर भी शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं / 2 (छठा द्वार) सभी आहाररूप में गृहीत पद्गलों का या उनके एक भाग का पाहारी-जिन त्यक्त-शेष एवं शरीर-परिणाम के योग्य पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सभी पुद्गलों का आहार करते हैं, सबके एक भाग का नहीं, क्योंकि वे पाहायपुद्गल त्यक्तशेष और आहारपरिणाम के योग्य ही ग्रहण किये हुए होते हैं। आहाररूप में गृहीत पुद्गल किस रूप में पुनः परिणत ?-आहार के रूप में नारकों द्वारा ग्रहण किये हुए वे पुद्गल श्रोत्रन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय आदि पांचों इन्द्रियों के रूप में पुनः पुन : परिणत होते हैं। किन्तु इन्द्रियरूप में परिणत होने वाले वे पुद्गल शुभ नहीं, अशुभरूप ही होते हैं, अर्थात् वे पदगल अनिष्टरूप में परिणत होते हैं। जैसे मक्खियों को कपूर, चन्दन आदि शुभ होने पर भी अनिष्ट प्रतीत होते हैं, वैसे ही शुभ होने पर भी किन्हीं जीवों को वे पुद्गल अनिष्ट प्रतीत होते हैं / बल्कि अकान्त (अकमनीय-देखते समय सुन्दर न लगे), अप्रिय (देखते समय भी अन्तःकरण को प्रिय न लगें), (अशुभ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श वाले), अमनोज्ञ (विपाक समय क्लेशजनक होने के कारण जो मन में आह्लाद उत्पन्न नहीं करते / / अमनाम जो भोज्यरूप में प्राणियों को ग्राह्य न हों, अनीप्सित-जो प्रास्वादन करने में मित नहीं होते. अभिध्यत--जिनके विषय में अभिलाषा भी उत्पन्न न हो. इस रूप में परिणत होते हैं तथा वे पुद्गल भारी रूप में परिणत होते हैं, लघुरूप में नहीं।, (अष्टमद्वार) भवनपतियों के सम्बन्ध में आहारार्थी आदि सात द्वार (2-8) 1806, [1] असुरकुमारा णं भंते ! आहारट्ठी ? हंता ! प्राहारट्ठी / एवं जहा रइयाणं तहा असुरकुमाराण वि भाणियव्वं जाव ते तेसि भज्जो भुज्जो परिणमंति / तत्थ णं जे से प्राभोगणिवत्तिए से णं जहणणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं 1 से 3. प्रज्ञापना (हरिभद्रीय टीका.) भा. 5, प.५४९ से 552 4. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5,5. 555 से 559 तक Page #1304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [109 सातिरेगस्स वाससहस्सस्स प्राहारठे समुप्पज्जति / प्रोसण्णकारणं पडुच्च वण्णो हालिद्द-सुक्किलाइ गंधयो सुम्भिगंधाइं रसओ अंबिल-महराई फासपो मउय-लहुअ-णिझुण्हाई तेसि पोराणे वण्णगुणे जाव फासिदियत्ताए जाव मणामत्ताए इच्छियत्ताए अभिझियत्ताए उद्धृत्ताए णो अहत्ताए सुहत्ताए जो दुहत्ताए ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति / सेसं जहा णेरइयाणं / [1806-1 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार आहारार्थी होते हैं ? [1806-1 उ.] हाँ, गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं / जैसे नारकों की वक्तव्यता कही, वैसे ही असुरकुमारों के विषय में यावत् ... 'उनके पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है' यहाँ तक कहना चाहिए / उनमें जो आभोगनिर्वतित आहार है उस आहार की अभिलाषा जघन्य चतुर्थ-भक्त पश्चात् एवं उत्कृष्ट कुछ अधिक सहस्रवर्ष में उत्पन्न होती है। बाहल्यरूप कारण की अपेक्षा से वे वर्ण से-पीत और श्वेत, गन्ध से-सुरभिगन्ध वाले, रस से-ग्राम्ल और मधुर तथा स्पर्श से-मृदु, लघु, स्निग्ध और उष्ण (पुद्गलों का आहार करते हैं।) (आहार किये जाने वाले) उन (पुद्गलों) के पुराने वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को विनष्ट करके, अर्थात पूर्णतया परिवर्तित करके, अपूर्व यावत् --वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श-गुण को उत्पन्न करके (अपने शरीर-क्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का सर्व-प्रात्मप्रदेशों से पाहार करते हैं / आहाररूप में गहीत वे पुदगल श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ,) मनोज्ञ, मनाम रूप में परिणत / भारीरूप में नहीं. सखरूप में परिणत होते हैं, दूःखरूप में नहीं / (इस प्रकार असूरकूमारों द्वारा गहीत) वे पाहार्य पूदगल उनके लिए पुनः पुनः परिणत होते हैं। शेष कथन नारकों के कथन के समान जानना चाहिए। [2] एवं जाव थणियकुमाराणं / णवरं आभोगणिव्वत्तिए उक्कोसेणं दिवसपुहत्तस्त पाहारठे समुप्पज्जति। [1806-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक का कथन असुरकुमारों के समान जानना चाहिए / विशेष यह है कि इनका पाभोगनिर्वतित आहार उत्कृष्ट दिवस-पृथक्त्व से होता है / विवेचन-असुरकुमारों आदि को आहाराभिलाषा-असुरकुमारों को बीच-बीच में एक-एक दिन छोड़ कर आहार की अभिलाषा होती है, यह कथन दस हजार वर्ष की आयु वाले असुरकुमारों की अपेक्षा से समझना चाहिए। उत्कृष्ट अभिलाषा कुछ अधिक सातिरेक सागरोपम की स्थिति वाले बलीन्द्र की अपेक्षा से है। शेष भवनपतियों का आभोगनिर्वतित आहार उत्कृष्ट दिवस-पृथक्त्व से होता है। यह कथन पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु तथा उससे अधिक आयु वालों की अपेक्षा से समझना चाहिए / असुरकुमार प्रसनाडी में ही होते हैं / अतएव वे छहों दिशाओं से पुद्गलों का आहार कर सकते हैं। आहार-सम्बन्धी शेष कथन मूलपाठ में स्पष्ट है।' 1. प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 555 से 559 तक Page #1305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 [प्रज्ञापनासूत्र एकेन्द्रियों में आहारार्थो आदि सात द्वार (2-8) 1807. पुढविकाइया णं भंते ! आहारट्ठी ? हता! पाहारट्ठी। [1807 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक जीव आहारार्थी होते हैं ? [1807 उ.] हाँ गौतम ! वे आहारार्थी होते हैं। 1808. पुढविक्काइयाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुष्पज्जति ? गोयमा ! अणुसमयं प्रविरहिए आहारट्टे समुष्पज्जति / / [1808 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों को कितने काल में प्राहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1808 उ.] गौतम ! उन्हें प्रतिसमय बिना विरह के आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। 1806. पुढविक्काइया णं भंते ! किमाहारमाहारेंति ? एवं जहा रइयाणं (सु. 1797-1800) जाव ताई भंते ! कति दिसि पाहारति ? गोयमा ! णिवाघाएणं छदिसि, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसि सिय चदिसि सिय पंचदिसि, णवरं पोसण्णकारणं ण भवति, वण्णतो काल-णील-लोहिय-हालिद्द-सुक्किलाई, गंधनो सुन्भिगंधदुभिगंधाई, रसनो तित्त-कडुय-कसाय-अंबिल-महुराई, फासतो कक्खड-मउय-गरुन-लहुय-सीय-उसिणणिड-लुक्खाई, तेसि पोराणे वणगुणे सेसं जहा णेरइयाणं (सु. 1801-2) जाव पाहच्च णीससंति / [1806 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव किस वस्तु का अाहार करते हैं ? [1806 उ.] गौतम ! इस विषय का कथन (सू 1797-1800 में उक्त) नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए; यावत्-[प्र] पृथ्वीकायिक जीव कितनी दिशाओं से आहार करते हैं ? [उ.] गौतम ! यदि व्याघात (रुकावट) न हो तो वे (नियम से) छहों दिशाओं में स्थित और छहों दिशाप्रों) से (आगत द्रव्यों का) आहार करते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन दिशाओं से, कदाचित् चार दिशाओं से और कदाचित् पांच दिशाओं से प्रागत द्रव्यों का आहार करते हैं / विशेष यह है कि (पृथ्वीकायिकों के सम्बन्ध में) बाहुल्य कारण नहीं कहा जाता / (पृथ्वीकायिक जीव) वर्ण से-कृष्ण, नील, रक्त, पीत मौर श्वेत, गन्ध से-सुगन्ध और दुर्गन्ध वाले, रस से-तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और मधुर रस वाले और स्पर्श से-कर्कश, मृदु, गुरु (भारी), लघु (हल्का), शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले (द्रव्यों का प्राहार करते हैं) तथा उन (आहार किये जाने वाले पुद्गलद्रव्यों) के पुराने वर्ण आदि गुण नष्ट हो जाते हैं, इत्यादि शेष सब कथन (सू. 1801-2 में उक्त) नारकों के कथन के समान यावत् कदाचित् उच्छ्वास और नि:श्वास लेते हैं; (यहाँ तक जानना चाहिए / ) 1810. पुढविक्काइया णं भंते ! जे पोग्गले अाहारत्ताए गेण्हंति तेसि गंभंते ! पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं प्राहारेंति कतिभागं आसाएंति ? गोयमा ! असंखेज्जतिभागं प्राहारेंति अणंतभागं प्रासाएंति / Page #1306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद [111 [1810 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को पाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों में से भविष्यकाल में कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का आस्वादन करते हैं ? . [1810 उ.] गौतम ! ( आहार के रूप में गृहीत पुद्गलों के) असंख्यातवें भाग का आहार करते हैं और अनन्तवें भाग का पास्वादन करते हैं / 1811. पुढविक्काइया णं भंते ! जे पुग्गले आहारत्ताए गिण्हंति ते कि सम्वे पाहारेंति को सम्वे पाहारेति ? जहेव णेरइया (सु. 1804) तहेव। [1811 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या उन सभी का आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? (अर्थात् सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) [1811 उ.] गौतम ! जिस प्रकार (सू. 1804 में) नैरयिकों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में कहना चाहिए। 1812. पुढविक्काइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते गं तेसि पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ? गोयमा ! फासेंदियवेमायत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [1812 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल (पृथ्वीकायिकों में) किस रूप में पुन:-पुनः परिणत होते हैं ? [1812 उ.] गौतम ! (वे पुद्गल) स्पर्शेन्द्रिय की विषम मात्रा के रूप में (अर्थात् इष्ट एवं अनिष्ट रूप में) बार-बार परिणत होते हैं / 1813. एवं जाव वणप्फइकाइयाणं / [1813] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिकों) की वक्तव्यता के समान (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों की (वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए।) विवेचन—पृथ्वीकायिक प्रादि एकेन्द्रियों को प्राहार-सम्बन्धी विशेषता-पृथ्वीकायिक प्रतिसमय अविरतरूप से प्रहार करते हैं / वे निर्याघात की अपेक्षा छहों दिशाओं का और व्याघात की अपेक्षा कदाचित् तीन, चार या पांच दिशाओं का आहार लेते हैं। इनमें एकान्त शुभानुभाव या अशुभानुभावरूप बाहुल्य नहीं पाया जाता / पृथ्वीकायिकों के द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल उनमें स्पर्शेन्द्रिय की विषममात्रा के रूप में परिणत होते हैं। इसका प्राशय यह है कि नारकों के समान एकान्त अशुभरूप में तथा देवों के समान एकान्त शुभरूप में उनका परिणमन नहीं होता, किन्तु बार-बार कभी इष्ट और कभी अनिष्ट रूप में उनका परिणमन होता है। यही नारकों से पृथ्वीकायिकों की विशेषता है। Page #1307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] [प्रज्ञापनासूत्र शेष सब कथन नारकों के समान समझ लेना चाहिए / पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पाहार-सम्बन्धी वक्तव्यता एक-सी है।' विकलेन्द्रियों में आहारार्थी आदि सात द्वार (2-8) 1814. बेइंदिया णं भंते ! आहारट्ठी? हंता गोयमा ! पाहारट्ठी। [1814 प्र.] भगवन् ! क्या द्वीन्द्रिय जीव आहारार्थी होते हैं ? [1814 उ.] हाँ, गौतम ! वे अाहारार्थी होते हैं / 1815. बेइंदियाणं भंते ! केवतिकालस्स आहारटु समुप्पज्जति ? जहा रइयाणं (सु. 1766) / गवरं तस्थ णं जे से माभोगणिवत्तिए से णं असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए पाहार? समुपज्जति / सेसं जहा पुढविक्काइयाणं (सु. 1806) जाव आहच्च णीससंति, णवरं णियमा छद्दिसि। __ [1815 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1815 उ.] गौतम ! इनका कथन (सू. 1796 में उक्त) नारकों के समान समझना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वतित पाहार है, उस आहार की अभिलाषा असंख्यातसमय के अन्तर्महर्त में विमात्रा से उत्पन्न होती है। शेष सब कथन पृथ्वीकायिकों के समान र "कदाचित् निःश्वास लेते हैं" यहाँ तक कहना चाहिए / विशेष यह है कि वे नियम से छह दिशामों से (आहार लेते हैं / ) 1816. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं तेसि पोग्गलाणं सेयालंसि कतिभागं आहारति कतिभागं अस्साएंति ? एवं जहा णेरइयाणं (सु. 1803) / [1816 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को प्राहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे भविष्य में उन पुद्गलों के कितने भाग का आहार करते हैं और कितने भाग का पास्वादन करते हैं ? [1816 उ.] गौतम ! इस विषय में (सू. 1803 में उक्त) नैरयिकों के समान कहना चाहिए। 1817. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले प्राहारत्ताए गेण्हंति ते कि सम्वे प्राहारेंति, णो सव्वे आहारेंति ? गोयमा ! बेइंदियाणं दुविहे प्राहारे पण्णत्ते, तं जहा लोमाहारे य पक्खेवाहारे य / जे पोग्गले लोमाहारत्ताए गेण्हंति ते सव्ये अपरिसेसे प्राहारेंति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गेहंति तेसि प्रसंखे१. (क) पण्णवणासुत्तं, भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 394-395 (ख) प्रज्ञानासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 563-566 Page #1308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [113 ज्जइभागमाहारेंति गाई च णं भागसहस्साई अफासाइज्जमाणाणं प्रणासाइज्जमाणाणं विद्धंसमागच्छति। [1817 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन सबका आहार करते हैं अथवा उन सबका आहार नहीं करते ? (अर्थात् उन सबके एक भाग का आहार करते हैं ?) [1817 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों का आहार दो प्रकार का कहा है / यथा—लोमाहार और प्रक्षेपाहार। वे जिन पुद्गलों को लोमाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उन सबका समग्ररूप से आहार करते हैं और जिन पद्गलों को प्रक्षेपाहाररूप में ग्रहण करते हैं, उनमें से असंख्यातवें भाग का ही पाहार करते हैं। उनके बहुत-से (अनेक) सहस्र भाग यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, न ही उनका बाहर-भीतर स्पर्श हो पाता है और न ही प्रास्वादन हो पाता है / 1818. एतेसि णं भंते ! पोग्गलाणं प्रणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहितो 4 ?' गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला अणासाइज्जमाणा, अफासाइज्जमाणा अणंतगुणा / [1818 प्र. भगवन् ! इन पूर्वोक्त प्रक्षेपाहारपुद्गलों में से प्रास्वादन न किये जाने वाले तथा स्पृष्ट न होने वाले पुद्गलों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? [1818 उ.] गौतम ! सबसे कम आस्वादन न किये जाने वाले पुद्गल हैं, उनसे अनन्तगुणे (पुद्गल) स्पृष्ट न होने वाले हैं / 1819. बेइंदिया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए० पुच्छा। गोयमा ! जिभिदिय-फासिदियवेमायत्ताए ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति। [1819 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल किस-किस रूप में पुन: पुनः परिणत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1819 उ.] गौतम ! वे पुद्गल जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनःपुनः परिणत होते हैं। 1820. एवं जाव चरिदिया। णवरं गाइं च णं भागसहस्साई अणग्घाइज्जमाणाई अफासाइज्जमाणाई अणस्साइज्जमाणाई विद्धंसमागच्छति / [1820] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय तक के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके (त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) द्वारा प्रक्षेपाहाररूप में गृहीत पुद्गलों के अनेक सहस्र भाग अनाघ्रायमाण (नहीं सूघे हुए), अस्पृश्यमान (बिना छूए हुए) तथा अनास्वाद्यमान (स्वाद लिये बिना) ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं। 1821. एतेसि णं भंते ! पोग्गलाणं अणाघाइज्जमाणाणं अणासाइज्जमाणाणं अफासाइज्जमाणाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? 1. 4 सूचक चिह्न-'प्रपा वा वहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?' इस पाठ का सूचक है / --सं. Page #1309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! सम्वत्थोवा पोग्गला अणाघाइज्जमाणा, अणस्साइज्जमाणा अणंतगुणा, अफासाइन्जमाणा अणंतगुणा। - [1821 प्र.] भगवन् ! इन अनाघ्रायमाण, अस्पृश्यमान और अनास्वाद्यमान पुद्गलों में से कौन किससे अल्प, बहत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [1821 उ.] गौतम ! अनाघ्रायमाण पुद्गल सबसे कम हैं, उससे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान हैं और अस्पृश्यमान पुद्गल उससे अनन्तगुणे हैं / 1822. तेइंदिया णं भंते ! ज़े पोग्गला० पुच्छा। गोयमा ! घाणिदिय-जिम्भिदिय-फासिदियवेमायत्ताए ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति / [1822 प्र.] भगवन् ! श्रीन्द्रिय जीव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनः-पुनः परिणत होते हैं ? [1822 उ.] गौतम ! वे पुद्गल घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से (अर्थात्-इष्ट–अनिष्टरूप से) पुनः-पुनः परिणत होते हैं। 1823. चाउरिदियाणं चक्खिदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासिदियवेमायत्ताए ते तेसि भुज्जो भुज्जो परिणमंति, सेसं जहा तेइंदियाणं / / [1823] (चतुरिन्द्रिय द्वारा आहार के रूप में गृहीत पुद्गल) चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय एवं स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा से पुनः पुनः परिणत होते हैं। चतुरिन्द्रियों का शेष कथन त्रीन्द्रियों के कथन के समान समझना चाहिए। विवेचन --विकलेन्द्रियों के प्राहार के विषय में स्पष्टीकरण-लोमाहार-लोमों या रोमों (रोओं) द्वारा किया जाने वाला आहार लोमाहार कहलाता है। प्रक्षेपाहार अर्थात् कवलाहार, मुख में डाल (प्रक्षिप्त) कर या कौर (ग्रास) के रूप में मुख द्वारा किया जाने वाला आहार प्रक्षेपाहार है / वर्षा आदि के मौसम में प्रोघरूप से पुद्गलों का शरीर में प्रवेश हो जाता है, जिसका अनुमान मूत्र आदि से किया जाता है, वह लोमाहार है। द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रिय जीव लोमाहार के रूप में जिन पद्गलों को ग्रहण करते हैं, उन सबका पूर्ण रूप से प्राहार करते हैं, क्योंकि उनका स्वभाव ही वैसा होता है। तथा जिन पुद्गलों को वे प्रक्षेपाहार के रूप में ग्रहण करते हैं, उनके असंख्यातवें भाग का ही आहार कर पाते हैं। उनमें से बहुत-से सहस्रभाग उनके द्वारा बिना स्पर्श किये या बिना प्रास्वादन किये यों ही विध्वंस को प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि उनमें से कोई पुद्गल अतिस्थूल होने के कारण और कोई अतिसूक्ष्म होने के कारण प्राहृत नहीं हो पाते।' आहार्य पुद्गलों का अल्प-बहुत्व-प्रक्षेपाहार रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों में सबसे कम पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं, आशय यह है कि एक-एक स्पर्शयोग्य भाग में अनन्तवाँ भाग आस्वाद के योग्य होता है और उसका भी अनन्तवाँ भाग आघ्राण-(सूधने के) योग्य होता है। अतः - -.-. ...- - --.-- -- . .. 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 584 Page #1310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवा आहारपद [115 सबसे कम अनाघ्रायमाण पुद्गल होते हैं। उनसे अनन्तगुणे पुद्गल अनास्वाद्यमान होते हैं और उनसे भी अनन्तगुणे पुद्गल अस्पृश्यमान होते हैं।' पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों, मनुष्यों, ज्योतिष्कों एवं वारपव्यन्तरों में आहारार्थी अादि सात द्वार 1824. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा तेइंदिया। णवरं तत्थ णं जे से प्राभोगणिन्वत्तिए से जहण्णेणं अंतोमुत्तस्स, उक्कोसेणं छट्ठभत्तस्स आहार? समुष्पज्जति / [1824] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों का कथन त्रीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। विशेष यह है कि उनमें जो आभोगनिर्वतित पाहार है, उस पाहार की अभिलाषा उन्हें जघन्य अन्तर्मुहूर्त से और उत्कृष्ट षष्ठभक्त से (अर्थात् दो दिन छोड़ कर) उत्पन्न होती है। 1825. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते / जे पोग्गले प्राहारत्ताए० पुच्छा। गोयमा ! सोइंदिय-चक्विंदिय-घाणिदिय-जिभिदिय-फासेंदियवेमायत्ताए भुज्जो 2 परिणमंति। [1825 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जिन पुद्गलों को प्राहार के रूप में ग्रहण करते हैं, वे पुद्गल उनमें किस रूप में पुनः पुनः प्राप्त होते हैं ? [1825 उ.] गौतम ! आहाररूप में गृहीत वे पुद्गल श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय की विमात्रा के रूप में पुनः पुनः परिणत होते हैं। 1826. मणूसा एवं चेव / णवरं प्राभोगणिव्वत्तिए जहणेणं अंतोमुहत्तस्स, उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स प्राहारट्टे समुप्पज्जति / [1826] मनुष्यों की आहार-सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार है / विशेष यह है कि उनकी आभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में होती है और उत्कृष्ट अष्टमभक्त (काल व्यतीत) होने पर उत्पन्न होती है / 1827. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. 1806 [2] ) / [1827] वाणव्यन्तर देवों का आहार-सम्बन्धी कथन नागकुमारों के समान जानना चाहिए / 1828. एवं जोइसिया वि / णवरं प्राभोगणिवत्तिए जहणणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेण वि दिवसपुहत्तस्स आहारट्ठे समुप्पज्जति / [1828] इसी प्रकार ज्योतिष्कदेवों का भी कथन है। किन्तु उन्हें प्राभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट भी दिवस-पृथक्त्व में उत्पन्न होती है। विवेचन-तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अादि की प्राहारसम्बन्धी विशेषता उनको प्राभोगनिर्वत्तित आहार की इच्छा जघन्य अन्तर्मुहूर्त में और उत्कृष्ट षष्ठभक्त में (दो दिन के बाद) होती है। यह कथन देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की अपेक्षा से समझना चाहिए ! मनुष्यों को 1. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 504 Page #1311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] प्रज्ञापनासूत्र आभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य अन्तर्महूर्त से और उत्कृष्ट अष्टमभक्त से (तीन दिन के बाद) होती है / यह कथन भी देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्रों के मनुष्यों की अपेक्षा से समझना चाहिए / इन दोनों द्वारा गहीत आहार्य पदगल भी पंचेन्द्रियों की विमात्रा के रूप में पनः पन: वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों का अन्य सब कथन तो नागकुमार के समान है, लेकिन आभोगनिर्वर्तित अाहाराभिलाषा जघन्य और उत्कृष्ट दिवसपृथक्त्व (दो दिन से लेकर नौ दिनों) से होती है। इन दोनों प्रकार के देवों की आयु पत्योपम के आठवें भाग को होने से स्वभाव से ही दिवसपृथक्त्व व्यतीत होने पर इन्हें आहार की अभिलाषा होती है।' वैमानिक देवों में आहारादि सात द्वारों की प्ररूपरणा (2-8) 1826. एवं वेमारिणया वि। गवरं आभोगणिव्वत्तिए जहण्णणं दिवस-पुहत्तस्स, उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं पाहारट्टे समुप्पज्जति / सेसं जहा असुरकुमाराणं (सु. 1806 [1]) जाव ते तेसि भुज्जो 2 परिणमंति / [1826] इसी प्रकार वैमानिक देवों की भी आहारसम्बन्धी वक्तव्यता जाननी चाहिए / विशेषता यह है कि इनको प्राभोगनिर्वतित आहार की अभिलाषा जघन्य दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट तेतीस हजार वर्षों में उत्पन्न होती है। शेष वक्तव्यता (सू. 1806-1 में उक्त) असुरकुमारों के समान यावत् 'उनके उन पुद्गलों का बार-बार परिणमन होता है', यहाँ तक कहनी चाहिए। 1830. सोहम्मे आभोगणिन्वत्तिए जहण्णेणं दिवसपुहत्तस्स, उक्कोसेणं दोण्हं वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जा / [1830] सौधर्मकल्प में प्राभोगनिर्वतित पाहार की इच्छा जघन्य दिवस-पृथक्त्व से और उत्कृष्ट दो हजार वर्ष से समुत्पन्न होती है। 1831. ईसाणाणं पुच्छा। गोयमा! जहण्णणं दिवसपुहत्तस्स सातिरेगस्स, उक्कोसेणं सातिरेगाणं दोण्हं वाससहस्साणं / [1831 प्र.[ ईशानकल्पसम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न ? [1831 उ.] गौतम ! जघन्य कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व में और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो हजार वर्ष में (उनको पाहाराभिलाषा उत्पन्न होती है / ) 1832. सणंकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं दोण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं / [1832 प्र.] सनत्कुमारसम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न ? [1832 उ.] गौतम ! जघन्य दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1 प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा.५, . 589 से 591 तक For Private & Personal use only Page #1312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [117 1833. माहिदे युच्छा। गोयमा ! जहण्णणं दोण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं, उक्कोसेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं सातिरेगाणं / [1833 प्र] माहेन्द्रकल्प के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1833 उ.] गौतम ! जघन्य कुछ अधिक दो हजार वर्ष में और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1834. बंभलोए णं पुच्छा / गोयमा ! जहणेणं सत्तण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं दसण्हं वाससहस्साणं / [1834 प्र.] गौतम ! ब्रह्मलोकसम्बन्धी प्रश्न ? [1834 उ.] गौतम ! (वहाँ) जघन्य सात हजार वर्ष में और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है / 1835. लंतए णं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं दसहं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं चोद्दसण्हं वाससहस्साणं आहारट्ठे समुप्पज्जा। [1835 प्र.] लान्तककल्पसम्बन्धी पूर्ववत् पृच्छा ? [1835 उ.] गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट चौदह हजार वर्ष में उन्हें आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1836. महासुक्के णं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं चोइसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं सत्तरसण्हं वाससहस्साणं। [1836 प्र.] महाशुक्रकल्प के सम्बन्ध में प्रश्न ? [1836 उ.] गौतम ! वहाँ जघन्य चौदह हजार वर्ष में और उत्कृष्ट सत्तरह हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1837. सहस्सारे णं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णणं सत्तरसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं अट्ठारसण्हं वाससहस्साणं / [1837 प्र.] सहस्रारकल्प के विषय में पृच्छा ? [1837 उ.] गौतम ! जघन्य सत्तरह हजार वर्ष में और उत्कृष्ट अठारह हजार वर्ष में उनको पाहारेच्छा उत्पन्न होती है / 1838. प्राणए गं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठारसण्हं वाससहस्साणं, उक्कोसेणं एगूणवीसाए वाससहस्साणं / [1838 प्र.] आनतकल्प के विषय में आहारसम्बन्धी प्रश्न ? [1838 उ.] गौतम ! जघन्य अठारह हजार वर्ष में और उत्कृष्ट उन्नीस हजार वर्ष में प्राहारेच्छा पैदा होती है। Page #1313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] [प्रज्ञापनासूत्र 1836. पाणए णं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एगूणवीसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं वीसाए वाससहस्साणं / [1836 प्र.] प्राणतकल्प के देवों की आहारविषयक पच्छा ? [1839 उ.] गौतम ! वहाँ जघन्य उन्नीस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट बीस हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1840. प्रारणे णं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं वोसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं एक्कवीसाए वाससहस्साणं / [1840 प्र.] आरणकल्प में आहारेच्छा सम्बन्धी पूर्ववत् प्रश्न ? [1840 उ.] गौतम ! जघन्य बीस हजार वर्ष में और उत्कृष्ट इक्कीस हजार वर्ष में आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1841. अच्चुए णं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं एक्कवीसाए वाससहस्साणं, उपकोसेणं बावीसाए वाससहस्साणं / [1841 प्र.] भगवन् ! अच्युतकल्प के देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1841 उ.] गौतम ! जघन्य 21 हजार वर्ष और उत्कृष्ट 22 हजार वर्ष में उनको पाहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1842. हेटिमहेडिमगेवेज्जगाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं बावीसाए वाससहस्साणं, उक्कोसेणं तेवीसाए वाससहस्साणं / एवं सव्वत्थ सहस्साणि भाणियवाणि जाव सव्वळें / [1842 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-अधस्तन (सबसे निचले) वेयकों में प्राहारसम्बन्धी पृच्छा ? [1842 उ.] गौतम ! जघन्य 22 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 23 हजार वर्ष में देवों को पाहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। इस प्रकार सर्वार्थसिद्ध विमान तक (एक-एक) हजार वर्ष अधिक कहना चाहिए। 1843. हेटिममज्झिमाणं पुच्छा। गोयमा! जहणेणं तेवीसाए, उक्कोसेणं चउवीसाए / [1843 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-मध्यम वेयकों के विषय में पृच्छा ? [1843 उ.] गौतम ! जघन्य 23 हजार वर्ष और उत्कृष्ट 24 हजार वर्ष में उन्हें माहारेच्छा उत्पन्न होती है / 1844. हेट्ठिमउवरिमाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं चउवीसाए, उक्कोसेणं पणुवीसाए / [1844 प्र.] भगवन् ! अधस्तन-उपरिम ग्रे वेयकों के विषय में आहाराभिलाषा-पृच्छा ? Page #1314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [119 [1844. उ.] गौतम ! जघन्य चौवीस हजार वर्ष और उत्कृष्ट 25 हजार वर्ष में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1845. मज्झिमहेट्ठिमाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णणं पणुवीसाए, उक्कोसेणं छब्बीसाए। [1845 प्र.] भगवन् ! मध्यम-अधस्तन ग्रे वेयकों के विषय में प्रश्न ? [1845 उ.] गौतम ! जघन्य 25 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 26 हजार वर्ष में प्राहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। 1846. मज्झिममज्झिमाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं छव्वीसाए, उक्कोसेणं सत्तावीसाए। [1846 प्र.] भगवन् ! मध्यम-मध्यम ग्रैवेयकों की आहाराभिलाषा कितने काल में उत्पन्न होती है ? [1846 उ.] गौतम ! जघन्य 26 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 27 हजार वर्ष में आहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1847. मज्झिमउवरिमाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं सत्तावीसाए उक्कोसेण अट्ठावीसाए / [1847 प्र.] भगवन् ! मध्यम-उपरिम नैवेयक में प्राहारेच्छा सम्बन्धी पृच्छा ? [1847 उ.] गौतम ! जघन्य 27 हजार वर्ष और उत्कृष्ट 28 हजार वर्ष में उन्हें आहाराभिलाषा उत्पन्न होती है। 1848. उरिमहेट्ठिमाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णेणं अट्ठावीसाए, उक्कोसेणं एगूणतीसाए / [1848 प्र.] भगवन् ! उपरिम-अधस्तन ग्रैवेयकों में प्राहारेच्छा-सम्बन्धी पृच्छा ? [1848 उ.] गौतम ! जघन्य 28 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 29 हजार वर्ष में उन्हें आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है / 1846. उरिममज्झिमाणं पुच्छा / गोयमा ! जहण्णेणं एक्कूणतीसाए, उक्कोसेणं तीसाए। [1846 प्र.] भगवन् ! उपरिम-मध्यम ग्रेवेयकों में प्राहारेच्छा कितने काल में उत्पन्न होती है ? [1846 उ.] गौतम ! जघन्य 29 हजार वर्षों में और उत्कृष्ट 30 हजार वर्षों में उन्हें आहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1850. उवरिमउवरिमगेवेउजगाणं पुच्छा। मोयमा ! जहण्णेणं तीसाए, उक्कोसेणं एक्कतीसाए / Page #1315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] [प्रज्ञापनासूत्र _ [1850 प्र.] भगवन् ! उपरिम-उपरिम अवेयकों में कितने काल में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है ? [1850 उ.] गौतम ! जघन्य 30 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 31 हजार वर्ष में उन्हें आहार करने की इच्छा उत्पन्न होती है ! 1851. विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजियाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणणं एक्कतीसाए, उक्कोसेणं तेत्तीसाए। [1851 प्र. भगवन ! विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित देवों को कितने काल में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1851 उ.] गौतम ! उन्हें जघन्य 31 हजार वर्ष में और उत्कृष्ट 33 हजार वर्ष में प्राहारेच्छा उत्पन्न होती है। 1852. सव्वट्ठगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं प्राहारट्टे समुप्पज्जति / [1852 प्र.] भगवन् ! सर्वार्थक (सर्वार्थसिद्ध) देवों को कितने काल में प्राहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है ? [1852 उ ] गौतम ! उन्हें अजघन्य-अनुत्कृष्ट (जघन्य उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस हजार वर्ष में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है / विवेचन-वैमानिक देवों की आहार सम्बन्धी वक्तव्यता-वैमानिक देवों की वक्तव्यता ज्योतिष्क देवों के समान समझनी चाहिए, किन्तु इसमें विशेषता यह है कि वैमानिक देवों को प्राभोग की इच्छा जघन्य दिवस-पथक्त्व में होती है, और उत्कृष्ट 33 हजार वर्षों में। 33 हजार वर्षों में आहार की इच्छा का जो विधान किया गया है, वह अनुत्तरोपपातिक देवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। शेष कथन जैसा असुरकुमारों के विषय में किया गया है, वैसा ही वैमानिकों के विषय में जान लेना चाहिए। शुभानुभावरूप बाहुल्य कारण की अपेक्षा से वर्ण से—पीत और श्वेत, गन्ध से सुरभिगन्ध वाले, रस से—अम्ल और मधुर, स्पर्श से--मृदु, लघु स्निग्ध और रूक्ष पुदगलों के पुरातन वर्ण-गन्धरस-स्पर्श-गुणों को रूपान्तरित करके अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ़ पुद्गलों का समस्त प्रात्मप्रदेशों से वैमानिक आहार करते हैं, उन आहार किये हुए पुद्गलों को वे श्रोत्रेन्द्रियादि पांच इन्द्रियों के रूप में, इष्ट, कान्त, प्रिय, शुभ, मनोज्ञ, मनाम, इष्ट और विशेष अभीष्ट रूप में, हल्के रूप में, भारी रूप में नहीं, सुखदरूप में, दुःखदरूप में नहीं, परिणत करते हैं।' विशेष स्पष्टीकरण-जिन वैमानिक देवों की जितने सागरोपम की स्थिति है, उन्हें उतने ही हजार वर्ष में आहार की अभिलाषा उत्पन्न होती है। इस नियम के अनुसार सौधर्म, इशान आदि देवलोकों में प्राहारेच्छा की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का परिमाण समझ लेना चाहिए / इसे स्पष्ट१. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 512-513 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 506 Page #1316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M or m 9 अट्ठाईसवाँ आहारपद [121 रूप से समझने के लिए नीचे एक तालिका दी जा रही है, जिससे आसानी से वैमानिक देवों की आहारेच्छा के काल को समझा जा सके। कम वैमानिकदेव का नाम जघन्य आहारेच्छाकाल उत्कृष्ट प्राहारेच्छा काल सौधर्मकल्प के देव दिवस-पृथक्त्व दो हजार वर्ष ईशानकल्प के देव कुछ अधिक दिवस-पृथक्त्व कुछ अधिक दो हजार वर्ष सनत्कुमारकल्प के देव दो हजार वर्ष सात हजार वर्ष माहेन्द्रकल्प के देव कुछ अधिक दो हजार वर्ष कुछ अधिक 7 हजार वर्ष ब्रह्मलोक के देव सात हजार वर्ष दस हजार वर्ष लान्तककल्प के देव दस हजार वर्ष चौदह हजार वर्ष महाशुक्रकल्प के देव चौदह हजार वर्ष सत्तरह हजार वर्ष सहस्रारकल्प के देव सत्तरह हजार वर्ष अठारह हजार वर्ष मानतकल्प के देव अठारह हजार वर्ष उन्नीस हजार वर्ष प्राणतकल्प के देव उन्नीस हजार वर्ष बीस हजार वर्ष प्रारणकल्प के देव बीस हजार वर्ष इक्कीस हजार वर्ष अच्युतकल्प के देव इक्कीस हजार वर्ष बाईस हजार वर्ष अधस्तन-अधस्तन बाईस हजार वर्ष तेईस हजार वर्ष ग्रैवेयक देव अधस्तन-मध्यम तेईस हजार वर्ष चौवीस हजार वर्ष ग्रैवेयक देव अधस्तन-उपरितन चौवीस हजार वर्ष पच्चीस हजार वर्ष मध्यम-अधस्तन पच्चीस हजार वर्ष छव्वीस हजार वर्ष मध्यम-मध्यम छन्वीस हजार वर्ष सत्ताईस हजार वर्ष मध्यम-उपरिम " सत्ताईस हजार वर्ष अठाईस हजार वर्ष उपरिम-अधस्तन अठाईस हजार वर्ष उनतीस हजार वर्ष उपरिम-मध्यम' " उनतीस हजार वर्ष तीस हजार वर्ष उपरिम-उपरिम' " तीस हजार वर्ष इकत्तीस हजार वर्ष विजय-वैजयन्त-जयन्त इकत्तीस हजार वर्ष तेतीस हजार वर्ष अपराजित देव 23 सर्वार्थसिद्ध देव ___ अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस हजार वर्ष 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अ. रा. कोष 506 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा.५प.५९२-६०२ Page #1317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122] [प्रज्ञापनासूत्र नौवाँ : एकेन्द्रियशरीरादिद्वार 1853. रइया णं भंते ! कि एगिदियसरीराइं प्राहारेति जाव पंचेंदियसरीराइं प्राहारैति ? गोयमा ! पुस्वभावपण्णवणं पडुच्च एगिदियसरीराइं पि प्राहारैति जाव पंचेंदियसरीराई पि, पडप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा पंचेंदियसरीराइं आहारति / [1853 प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक एकेन्द्रियशरीरों का यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं ? [1853 उ.] गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे एकेन्द्रियशरीरों का भी प्राहार करते हैं, यावत् पंचेन्द्रियशरीरों का भी तथा वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे पंचेन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं / 1854. एवं जाव थणियकुमारा। [1854] (असुरकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक इसी प्रकार (समझना चाहिए।) 1855. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुटवभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पड़प्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा एगिदियसरीराइं प्राहारेति। [1855 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1855 उ.] गौतम ! पूर्वभावप्रज्ञापना को अपेक्षा से नारकों के समान वे एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक का आहार करते हैं। वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से नियम से वे एकेन्द्रियशरीरों का पाहार करते हैं। 1856. बेइंदिया पुस्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं चेव, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा बेइंदियसरीराइं प्राहारेति / [1856] द्वीन्द्रियजीवों के सम्बन्ध में पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से इसी प्रकार (पूर्ववत् कहना चाहिए।) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से वे नियम से द्वीन्द्रियशरीरों का आहार करते हैं। 1857. एवं जाव चरिंदिया ताव पुग्वभावपण्णवणं पडुच्च एवं, पडुप्पण्णभावपण्णवणं पडुच्च णियमा जस्स जति इंदियाई तइंदियसरीराइं ते पाहारेति। [1857) इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से पूर्ववत (कथन जानना चाहिए / ) वर्तमानभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से जिसके जितनी इन्द्रियां हैं, उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीर का पाहार करते हैं / 1858. सेसा जहा रया जाव बेमाणिया। [1858] शेष जीवों यावत् वैमानिकों तक का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए / Page #1318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहाईसवाँ आहारपद [123 कौन-सा जीव किनके शरीरों का प्राहार करता है?-प्रस्तुत प्रकरण में नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव जिन-जिन जीवों के शरीर का आहार करते हैं, उसकी प्ररूपणा की गई है, दो अपेक्षाओं से-पूर्वभावप्रज्ञापना (अर्थात् अतीतकालीन पर्यायों को प्ररूपणा) की अपेक्षा से और प्रत्युत्पन्न-वर्तमानकालिक भाव की प्ररूपणा की अपेक्षा से / ' प्रश्न के समाधान का आशय-प्रश्न तो मूलपाठ से स्पष्ट है, किन्तु उसके समाधान में जो कहा गया कि नारकादि जीव पूर्वभावप्रज्ञापना की अपेक्षा से--एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के शरीरों का ग्राहार करते हैं और वर्तमानभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा नैर यिकादि पंचेन्द्रिय नियम से पंचेन्द्रियशरीरों का, चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रियशरीरों का, त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रियशरीरों का, द्वीन्द्रिय द्वीन्द्रियशरीरों का और पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय एकेन्द्रियशरीरों का ही आहार करते हैं। अर्थात्-जो प्राणी जितनी इन्द्रियों वाला है, वह उतनी ही इन्द्रियों वाले शरीरों का आहार करते हैं / इस समाधान का आशय वृत्तिकार लिखते हैं कि पाहार्यमाण पुद्गलों के अतीतभाव (पर्याय) की दष्टि से विचार किया जाए तो निष्कर्ष यह निकलता है कि उनमें से कभी कोई एकेन्द्रिय-शरीर के रूप में परिणत थे, कोई द्वीन्द्रिय-शरीर के रूप में परिणत थे, कोई त्रीन्द्रियशरीर या चतुरिन्द्रिय-शरीर के रूप में और कोई पंचेन्द्रिय-शरीर के रूप में परिणत थे। उस पूर्वभाव का यदि वर्तमान में प्रारोप करके विवक्षा की जाए तो नारकजीव एकेन्द्रिय-शरीरों का तथा द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पचेन्द्रिय-शरीरों का भी प्राहार करते हैं। किन्तु जब ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से वर्तमान-भव की विवक्षा की जाती है, तब ऋजुसूत्रनय क्रियमाण को कृत, पाहार्यमाण को आहृत और परिणम्यमान पुदगलों को परिणत स्वीकार करता है; जो स्वशरीर के रूप में परिणत हो रहे हैं / इस प्रकार ऋजुसूत्रनय के मत से स्वशरीर का ही आहार किया जाता है। नारकों, देवों, मनुष्यों और पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चों का स्वशरीर पंचेन्द्रिय है। शेष जीवों (एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय) के विषय में भी इसी प्रकार स्थिति के अनुसार कहना चाहिए / दसवाँ : लोमाहारद्वार 1856. रइया णं भंते ! कि लोमाहारा पक्खेवाहारा ? गोयमा ! लोमाहारा, णो पक्खेवाहारा / [1856 प्र.] भगवन् ! नारक जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी हैं ? 1856 उ.] गौतम ! वे लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं हैं। 1860. एवं एगिदिया सब्वे देवा य भाणियम्वा जाय वेमाणिया। [1860] इसी प्रकार एकेन्द्रिय जीवों, सभी देवों, यावत् वैमानिकों तक के विषय में कहना चाहिए। 1. (क) पण्णवणासुत्त भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 399 (ख) प्रजापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 605-606 2. वही भा. 5, पृ. 606 से 609 तक Page #1319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124] [प्रशापनासून 1861. बेइंदिया जाव मणसा लोमाहारा वि पक्खेवाहारा वि।। [1861] द्वीन्द्रियों से लेकर यावत् मनुष्यों तक लोमाहारी भी हैं, प्रक्षेपाहारी भी हैं। विवेचन–चौबीस दण्डकों में लोमाहारी-प्रक्षेपाहारी-प्ररूपणा--लोमाहारी का अर्थ हैरोमों (रोओं) द्वारा प्रहार ग्रहण करने वाले तथा प्रक्षेपाहारी का अर्थ है--कवलाहारी-ग्रास (कौर) हाथ में लेकर मुख में डालने वाले जीव / चौबीस दण्डकों में नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक और एकेन्द्रिय जीव लोमाहारी हैं, प्रक्षेपाहारी नहीं; क्योंकि नारक और चारों प्रकार के देव वैक्रियशरीरधारी होते हैं, इसलिए तथाविध स्वभाव से ही वे लोमाहारी होते हैं। उनमें कवलाहार का अभाव है / पृथ्वीकायिकादि पांच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवों के मुख नहीं होता, अतएव उनमें प्रक्षेपाहार का अभाव है। किन्तु द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं मनुष्य लोमाहारी भी होते हैं और कत्रलाहारी (प्रक्षेपाहारी) भी। नारकों का लोमाहार भी पर्याप्त नारकों का ही जानना चाहिए, अपर्याप्तकों का नहीं।' ग्यारहवाँ : मनोभक्षीद्वार 1862. णेरइया णं भंते ! किं प्रोयाहारा मणभक्खी ? गोयमर ! प्रोयाहारा, णो मणभक्खी। [1862 प्र. भगवन् ! नैरयिक जीव प्रोज-याहारी होते हैं, अथवा मनोभक्षी ? [1862 उ.] गौतम ! वे प्रोज-अाहारी होते हैं, मनोभक्षी नहीं। 1863. एवं सम्वे ओरालियसरीरा वि / [1863] इसी प्रकार सभी औदारिकशरीरधारी जीव भी प्रोज-आहार वाले होते हैं। 1864. देवा सब्वे जाव वेमाणिया ओयाहारा वि मणभक्खी वि। तत्थ णं जे ते मणभक्खी देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ 'इच्छामो णं मणभक्खं करित्तए' तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकते समाणे खिप्पामेव जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव मणामा ते तेसि मणभक्खत्ताए परिणमंति, से जहाणामए सीता पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अइवइत्ताणं चिट्ठति उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अतिवइत्ताणं चिट्ठति / एवामेव तेहि देवेहि मणभक्खणे कते समाणे गोयमा ! से इच्छामणे खिप्पामेव अवेति / ॥पण्णवणाए भगवतीए पाहारपदे पढमो उद्देसनो समत्तो॥ [1864] असुरकुमारों से यावत् वैमानिकों तक सभी (प्रकार के) देव प्रोज-पाहारी भी होते हैं और मनोभक्षी भी। देवों में जो मनोभक्षी देव होते हैं, उनको इच्छामन (अर्थात्--मन में पाहार करने की इच्छा) उत्पन्न होती है / जैसे कि वे चाहते हैं कि हम मनो--(मन में चिन्तित वस्तु का) भक्षण करें ! तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार की इच्छा किये जाने पर शीघ्र ही जो पुद्गल इष्ट, कान्त (कमनीय), यावत् मनोज्ञ, मनाम होते हैं, वे उनके मनोभक्ष्यरूप में 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा.५, पृ.६०९-६१० Page #1320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] (125 परिणत हो जाते हैं / (यथा-मन से अमुक वस्तु के भक्षण की इच्छा के) तदनन्तर जिस किसी नाम वाले शीत (ठंडे) पुद्गल, शीतस्वभाव को प्राप्त होकर रहते हैं अथवा उष्ण पुद्गल, उष्णस्वभाव को पाकर रहते हैं। हे गौतम ! इसी प्रकार उन देवों द्वारा मनोभक्षण किये जाने पर, उनका इच्छाप्रधान मन शीघ्र ही सन्तुष्ट-तृप्त हो जाता है। विवेचन-प्रोज-माहारी का अर्थ-उत्पत्तिप्रदेश में आहार के योग्य पुद्गलों का जो समूह होता है, वह 'प्रोज' कहलाता है। मन में उत्पन्न इच्छा से पाहार करने वाले मनोभक्षी कहलाते हैं।' निष्कर्ष-जितने भी औदारिकशरोरी जीव हैं, वे सब तथा नारक प्रोज-अाहारी होते हैं तथा वैक्रियशरीरी जीवों में चारों जाति के देव मनोभक्षी भी होते, तथा प्रोज-आहारी भी होते हैं। मनोभक्षी देवों का स्वरूप इस प्रकार का है कि वे विशेष प्रकार की शक्ति से, मन में शरीर को पुष्टिकर, सुखद, अनुकूल एवं रुचिकर जिन आहार्य-पुद्गलों के आहार की इच्छा करते हैं तदनुरूप पाहार प्राप्त हो जाता है और उसकी प्राप्ति के पश्चात वे परम-संतोष एवं तप्ति का अनुभव करते हैं / नारकों को ऐसा आहार प्राप्त नहीं होता, क्योंकि प्रतिकूल अशुभकर्मों का उदय होने से उनमें वैसी शक्ति नहीं होती। सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथानों का अर्थ-प्रोजाहार शरीर के द्वारा होता है, रोमाहार त्वचा (चमड़ी) द्वारा होता है और प्रक्षेपाहार कवल (कौर) करके किया जाने वाला होता है / / 1 / / सभी अपर्याप्त जीव प्रोज-आहार करते हैं, पर्याप्त जीवों के तो रोमाहार और प्रक्षेपाहार (कवलाहार) की भजना होती है / / 2 / / एकेन्द्रिय जीवों, नारकों और देवों के प्रक्षेपाहार (कवलाहार) नहीं होता, शेष सब संसारी जीवों के कवलाहार होता है / / 3 // एकेन्द्रिय और नारकजीव तथा असुरकुमार आदि का गण रोमाहारी होता है, शेष जीवों का अाहार रोमाहार एवं प्रक्षेपाहार होता है / / 4 // सभी प्रकार के देव प्रोज-पाहारी और मनोभक्षी होते हैं। शेष जीव रोमाहारी और प्रक्षेपाहारी होते // अट्ठाईसवाँ प्राहारपद : प्रथम उद्देशक सम्पूर्ण // 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 612 2. वही, भा. 5, पृ. 613 सरीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोम-पाहारो। पक्खेवाहारो कावलियो होइ नायब्वो // 171 / / प्रोयाहारा जीवा सव्वे अपज्जत्तगा मुणेयम्वा / पज्जत्तगा य लोमे पक्खेवे होति भइयब्वा / / 172 / / एगिदियदेवागं नेरइयाण च नत्थि पक्खेवो। सेसाणं जीवाणं संसारत्थाण पक्खेवो / / 173 / / लोमाहारा एगिदिया उ नेरइय सुरगणा चेव / सेसाणं आहारो लोमे पक्खेवो चेव / / 4 / / प्रोयाहारा मणभक्खिणो य सम्वे वि सुरगणा होति / सेसा हवंति जीवा लोमे पक्खेवओ चेव // 5 // -सूत्रकृतांग सु. 2, अ. 3 नियुक्ति Page #1321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीओ उद्देसओ द्वितीय उद्देशक द्वितीय उद्देशक के तेरह द्वारों को संग्रहणी गाथा 1865. पाहार 1 भविय 2 सण्णी 3 लेस्सा 4 दिट्ठी य 5 संजय 6 कसाए 7 // णाणे 8 जोगुवनोगे 9-10 वेदे य 11 सरीर 12 पज्जत्ती 13 // 216 / / [1865 संग्रहणी-गाथार्थ] द्वितीय उद्देशक में निम्नोक्त तेरह द्वार हैं-(१) आहारद्वार, (2) भव्यद्वार, (3) संजीद्वार, (4) लेश्याद्वार, (1) दृष्टिद्वार, (6) संयतद्वार, (7) कषायद्वार, (8) ज्ञानद्वार, (6-10) योगद्वार, उपयोगद्वार, (11) वेदद्वार, (12) शरीरद्वार और (14) पर्याप्तिद्वार / विवेचन-द्वितीय उद्देशक में इन तेरह द्वारों के आधार पर आहार का प्ररूपण किया जाएगा। यहाँ ‘भव्य' आदि शब्दों के ग्रहण से उनके विरोधी 'अभव्य' आदि का भी ग्रहण हो जाता है। प्रथम : आहारद्वार 1866. [1] जीवे णं भंते ! कि पाहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय प्राहारए सिय प्रणाहारए। [1866 प्र.] भगवन् ! जीव आहारक है या अनाहारक ? [1866 उ.] गौतम ! वह कथंचित् आहारक है, कथंचित् अनाहारक है / [2] एवं नेरइए जाव असुरकुमारे जाव वेमाणिए / [1866-2] नैरयिक (से लेकर) यावत् असुरकुमार, यावत् वैमानिक तक इसी प्रकार जानना चाहिए। 1867. सिद्धे णं भंते ! कि पाहारए प्रणाहारए? गोयमा ! णो प्राहारए, प्रणाहारए। [1867 प्र.] भगवन् ! एक सिद्ध (जीव) आहारक होता है या अनाहारक ? [1867 उ.] गौतम ! एक सिद्ध (जीव) आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। 1868. जीवाणं भंते ! कि आहारया अणाहारया ? गोयमा ! आहारगा वि अणाहारगा वि। [1868 प्र.] भगवन् ! (बहुत) जीव आहारक होते हैं, या अनाहारक ? [1868 उ.] गौतम ! वे पाहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। . Page #1322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद [127 1869. [1] रइयाणं पुच्छा। गोयमा! सव्वे वि ताव होज्जा आहारगा 1 अहवा आहारगा य अणाहारगे य 2 अहवा पाहारगा य प्रणाहारगा य 3 / [1869-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1866-1 उ.] गौतम ! (1) वे सभी आहारक होते हैं, (2) अथवा बहुत आहारक और कोई एक अनाहारक होता है, (3) या बहुत पाहारक और बहुत अनाहारक होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणिया / णवरं एगिदिया जहा जीवा / [1870] इसी तरह यावत् वैमानिक-पर्यन्त जानना / विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का कथन बहुत जीवों के समान समझना चाहिए / 1870. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! णो पाहारगा, अणाहारगा। दारं 1 / [1870 प्र.] (बहुत) सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1870 उ.] गौतम ! सिद्ध आहारक नहीं होते, वे अनाहारक ही होते हैं / [प्रथम द्वार] विवेचन-जीव स्यात् प्राहारक स्यात अनाहारक : कैसे ? विग्रहगति, केवलि-समुद्घात, शैलेशी अवस्था और सिद्धावस्था की अपेक्षा समुच्चय जीव को अनाहारक और इनके अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं को अपेक्षा आहारक समझना चाहिए। कहा भी है 'बिग्गहगइमावन्ना केवलिणो समोहया अजोगी य / सिद्धा य प्रणाहारा सेसा पाहारगा जीवा // ' समुच्चय जीव की तरह नैरयिक भी कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होता है / असुरकुमार से लेकर वैमानिक देव तक सभी जीव कथंचित् आहारक और कथंचित् अनाहारक होते हैं।' बहुववन की अपेक्षा-कोई जीव आहारक होते हैं, कोई अनाहारक भी होते हैं / सभी नारक ग्राहारक होते हैं, अथवा बहुत नारक आहारक होते हैं, कोई एक अनाहारक होता है, अथवा बहुत-से पाहारक और बहुत-से अनाहारक होते हैं / यही कथन वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों का कथन समुच्चय जीवों के समान समझना। अर्थात् वे बहुत-से अनाहारक और बहुत-से आहारक होते हैं। सिद्ध एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा सदैव अनाहारक होते हैं।' विग्रहगति की अपेक्षा से जीव अनाहारक-विग्रहगति से भिन्न समय में सभी जीव आहारक होते हैं और विग्रहगति कहीं, कभी, किसी जीव की होती है। यद्यपि विग्रहगति सर्वकाल में पाई 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा' को. भा. 2, पृ. 510 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 628 से 630 तक 2. बही, भा. 5, पृ. 628 Page #1323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] [प्रज्ञापनासूत्र जाती है, किन्तु वह होती है प्रतिनियत जीवों की ही। इस कारण प्राहारकों को बहुत कहा है। सिद्ध सदैव अनाहारक होते हैं, वे सदैव विद्यमान रहते हैं तथा अभव्यजीवों से अनन्तगुणे भी हैं तथा सदैव एक-एक निगोद का प्रतिसमय असंख्यातवाँ भाग विग्रहगतिप्राप्त रहता है / इस अपेक्षा से अनाहारकों की संख्या भी बहुत कही है।' बहुत-से नारकों के तीन भंग : क्यों और कैसे ?--(1) पहला भंग है—नारक कभी-कभी सभी आहारक होते हैं, एक भी नारक अनाहारक नहीं होता। यद्यपि नारकों के उपपात का विरह भी होता है, जो केवल बारह मुहूर्त का होता है; उस काल में पूर्वोत्पन्न एवं विग्रहगति को प्राप्त नारक आहारक हो जाते हैं, तथा कोई नया नारक उत्पन्न नहीं होता। अतएव कोई भी नारक उस समय अनाहारक नहीं होता। (2) दूसरा भंग है-बहुत-से नारक आहारक और कोई एक नारक अनाहारक होता है। इसका कारण यह है कि नरक में कदाचित् एक जीव उत्पन्न होता है, कदाचित् दो, तीन, चार यावत् संख्यात या असंख्यात उत्पन्न होते हैं / अतएव जब एक जीव उत्पद्यमान होता है और वह विग्रहगति-प्राप्त होता है, और दूसरे सभी पूर्वोत्पन्न नारक आहारक हो चुकते हैं, उस समय यह दूसरा भंग समझना चाहिए। तीसरा भंग है-बहुत-से नारक आहारक और बहुत र बहत-से अनाहारक। यह भंग उस समय घटित होता है, जब बहत नारक उत्पन्न हो रहे हों और वे विग्रहगति को प्राप्त हों। इन तीन के सिवाय कोई भी भंग नारकों में सम्भव नहीं है। एकेन्द्रिय जीवों में केवल एक भंग : क्यों और कैसे—पृथ्वीकायिकों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक में केवल एक ही भंग पाया जाता है / इसका कारण यह है कि पृथ्वीकायिक से लेकर वायुकायिक तक चार स्थावर जीवों में प्रतिसमय असंख्यात जीव उत्पन्न होते हैं इसलिए बहुत-से आहारक होते हैं तथा वनस्पतिकायिक में प्रतिसमय अनन्तजीव विग्रहगति से उत्पन्न होते हैं / इस कारण उनमें सदैव अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं / इसलिए समस्त एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग पाया जाता है-बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक / ' द्वितीय : भव्यद्वार 1871. [1] भवसिद्धिए णं भंते ! जीवे कि प्राहारए अणाहारए ? गोयमा! सिय पाहारए सिय अणाहारए। [1871-1 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1871-1 उ.] गौतम! वह कदाचित् आहारक होता है, कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं जाव वेमाणिए। [1871-2] इसी प्रकार की वक्तव्यता यावत् वैमानिक तक जाननी चाहिए। 1. प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 629 2. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 510 3. अभि. रा. कोष, भा. 2, पृ. 510 Page #1324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवा आहारपद [129 1872. भवसिद्धिया णं भंते ! जोवा कि पाहारगा प्रणाहारगा? गोयमा ! जीगिदियवज्जो तियभंगो। [1872 प्र.] भगवन् ! (बहुत) भवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1872 उ.] गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर (इस विषय में) तीन भंग कहने चाहिए। 1873. प्रभवसिद्धिए वि एवं चेर। [1873] अभवसिद्धिक के विषय में भी इसी प्रकार (भवसिद्धिक के समान) कहना चाहिए / 1874. [1] गोभवसिद्धिए-णोप्रभवसिद्धिए गं भंते ! जीवे किं पाहारए प्रणाहारए ? गोयमा! णो प्राहारए, अणाहारए। [1874-1 प्र.] भगवन् ! नो-भवसिद्धिक-नो-प्रभवसिद्धिक जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1874-1 उ.] गौतम ! वह आहारक नहीं होता, अनाहारक होता है। [2] एवं सिद्धे वि। [1874-2] इसी प्रकार सिद्ध जीव के विषय में कहना चाहिए। 1875. [1] णोभवसिद्धिया-णोप्रभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं पाहारगा प्रणाहारगा? गोयमा ! णो प्राहारगा, अणाहारगा। [1875-1 प्र] भगवन् ! (बहुत-से) नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1875-1 उ.] गौतम ! वे अाहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं / [2] एवं सिद्धा वि / दारं 2 // [1875-2] इसी प्रकार बहुत-से सिद्धों के विषय में समझ लेना शाहिए ! [द्वितीय द्वार] विवेचन--भवसिद्धिक कब प्राहारक, कब अनाहारक ?-भवसिद्धिक अर्थात्-भव्यजीव विग्रहगति आदि अवस्था में अनाहारक होता है और शेष समय में प्राहारक / भवसिद्धिक समुच्चय जीव की तरह भवसिद्धिक भवनपति आदि चारों जाति के देव, मनुष्य, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, एकेन्द्रिय प्रादि सभी जीव (सिद्ध को छोड़कर) पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होते हैं।' बहुत्वविशिष्ट भवसिद्धिक जीव के तीन भंग : क्यों और कैसे ?–ग्राहारकद्वार के समान समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ शेष नारक ग्रादि बहुत्वविशिष्ट सभी जीवों में उक्त के समान तीन भंग होते हैं। 1. अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 510 Page #1325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] [प्रज्ञापनासूत्र प्रभवसिद्धिक और भवसिद्धिक : लक्षण एवं प्राहारकता-अनाहारकता-अभवसिद्धिक वह हैं, जो मोक्षगमन के योग्य न हों / भवसिद्धिक वे जीव हैं, जो संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त भवों के पश्चात कभी न कभी सिद्धि प्राप्त करेंगे। भवसिद्धिक की भाँति प्रभवसिद्धिक के विषय में भी आहारकत्व-अनाहारकत्व का प्ररूपण किया गया है।' नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक और सिद्ध -नो-भवसिद्धिक-नो-अभवसिद्धिक सिद्धजीव ही हो सकता है। क्योंकि सिद्ध मुक्तिपद को प्राप्त कर चुकते हैं, इसीलिए उन्हें भव्य नहीं कहा जा सकता तथा मोक्ष को प्राप्त हो जाने के कारण उन्हें मोक्षगमन के अयोग्य-अभवसिद्धिक (अभव्य) भी नहीं कहा जा सकता / एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से ये अनाहारक ही होते हैं / तृतीय : संज्ञीद्वार . 1876. [1] सण्णी णं भंते ! जीवे किं आहारगे अणाहारगे ? गोयमा ! सिय आहारगे सिय अणाहारगे। [1876-1 प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव आहारक है या अनाहारक ? [1876-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [2] एवं जाव वेमाणिए / णवरं एगिदिय-विलिदिया ण पुच्छिज्जंति / [1876-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। किन्तु एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / 1877. सपणी णं भंते ! जीवा किं पाहारया अणाहारगा? गोयमा ! जीवाईपो तियभंगो जाव वेमाणिया। . [1877 प्र.] भगवन् ! बहुत-से संज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1877 उ.] गौतम ! जीवादि से लेकर यावत् वैमानिक तक (प्रत्येक में) तीन भंग होते हैं। 1878. [1] असण्णी णं भंते ! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय माहारए सिय प्रणाहारए। [1878-1 प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव ग्राहारक होता है या अनाहारक ? [1878-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् पाहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। [2] एवं मेरइए जाव वाणमंतरे। [1878-2] इसी प्रकार नारक से लेकर वाणव्यन्तर पर्यन्त कहना चाहिए / [3] जोइसिय-वेमाणिया ण पुच्छिज्जति / [1878-3] ज्योतिष्क और वैमानिक के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए / 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पृ. 510 2. वही, अ. रा. कोष भा. 2, पृ. 510-511 Page #1326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां आहारपद [131 1876. असण्णो णं भंते ! जीवा किं पाहारगा प्रणाहारगा? गोयमा ! प्राहारगा वि प्रणाहारगा वि, एगो भंगो। [1879 प्र.] भगवन् ! (बहुत) असंज्ञी जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1876 उ.] गौतम ! वे अाहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं। इनमें केवल एक ही भंग होता है। 1880. [1] असण्णी णं भंते ! रइया कि पाहारगा अणाहारगा ? गोयमा ! पाहारगा वा 1 अणाहारगा वा 2 अहवा आहारए य अणाहारए य 3 अहवा श्राहारए य प्रणाहारगा य 4 अहवा पाहारगा य प्रणाहारगे य 5 अहवा आहारगा य अणाहारगा य 6, एवं एते छन्भंगा। [1880-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) असंज्ञी नैरयिक आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1880-1 उ.] गौतम वे--(१) सभी आहारक होते हैं, (2) सभी अनाहारक होते हैं / (3) अथवा एक आहारक और एक अनाहारक, (4) अथवा एक आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं, (5) अथवा बहुत-से ग्राहारक और एक अनाहारक होता है तथा (6) अथवा बहुत-से आहारक और बहुत-से अनाहारक होते हैं / [2] एवं जाव थणियकुमारा। [1880-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त जानना चाहिए। [3] एगिदिएसु अभंगयं / [1880-3] एकेन्द्रिय जीवों में भंग नहीं होता। [4] बेइंदिय जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु तियभंगो। [1880-4] द्वीन्द्रिय से लेकर यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तक के जीवों में पूर्वोक्त कथन के समान तीन भंग कहने चाहिए। [5] मणूस-वाणमंतरेसु छन्भंगा। [1880-5] मनुष्यों और वाणव्यन्तर देवों में (पूर्ववत्) छह भंग कहने चाहिए / 1881. [1] पोसण्णी-णोअसणी णं भंते ! जो कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय प्राहारए सिय प्रणाहारए। [1881-1 प्र.] भगवन् ! नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1881-1 उ ] गौतम ! वह कदाचित आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं मणूसे वि। [1881-2] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए / Page #1327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] प्रिजापनासूत्र [3] सिद्धे अणाहारए। [1881-3] सिद्ध जीव अनाहारक होता है / 1882. [1] पुहत्तेणं गोसण्णी-णोअसण्णी जीवा पाहारगा वि अणाहारगा वि। [1882-1] बहुत्व की अपेक्षा से नोसंजी-नोप्रसंज्ञी जीव आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी। [2] मणूसेसु तियभंगो। [1882-2] (बहुत्व की अपेक्षा से नोसंज्ञी-नोग्रसंज्ञी) मनुष्यों में तीन भंग (पाये जाते हैं।) [3] सिद्धा अणाहारगा। दारं 3 // [1882-3] (बहुत-से) सिद्ध अनाहारक होते हैं। [तृतीय द्वार] विवेचन-संज्ञी-असंज्ञी : स्वरूप-जो मन से युक्त हों, वे संज्ञी कहलाते हैं / असंज्ञी अमनस्क होता है / प्रश्न होता है-संज्ञी जीव के भी विग्रहगति में मन नहीं होता, ऐसी स्थिति में अनाहारक कैसे ? इसका समाधान यह है कि विग्रहगति को प्राप्त होने पर भी जो जीव संज्ञी के आयुष्य का वेदन कर रहा है, वह उस समय मन के अभाव में भी संज्ञी ही कहलाता है, जैसे नारक के प्रायुष्य का वेदन करने के पश्चात् विग्रहगतिप्राप्त नरकगामी जीव नारक ही कहलाता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय मनोहीन होने के कारण संज्ञी नहीं होते, इसलिए यहाँ संज्ञीप्रकरण में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय के विषय में प्रश्न नहीं करना चाहिए। ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञो की पच्छा नहीं-ज्योतिष्क और वैमानिकों में असंज्ञीपन का व्यवहार नहीं होता, इसलिए इन दोनों में असंज्ञी का पालापक नहीं कहना चाहिए। नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी जीव में आहारकता-अनाहारकता-ऐसा जीव एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है, क्योंकि केवलीसमुद्घातावस्था के अभाव में आहारक होता है, शेष अवस्था में अनाहारक होता है / बहुत्व को विवक्षा से इनमें दो भंग पाए जाते हैं। यथा-(१) आहारक भी नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव बहुत होते हैं, क्योंकि समुद्घात-अवस्था से रहित केवली बहुत पाये जाते हैं / सिद्ध अनाहारक होते हैं, इसलिए अनाहारक भी बहुत पाये जाते हैं / नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं--(१) जब कोई भी केवलीसमुद्घातावस्था में नहीं होता, तब सभी प्राहारक होते हैं, यह प्रथम भंग, (2) जब बहुत-से मनुष्य समुद्घातावस्था में हों और एक केवलीसमुद्घातगत हो, तब दूसरा भंग, (3) जब बहुत-से केवलीसमुद्घातावस्था को प्राप्त हों, तब तीसरा भंग होता है / / चतुर्थ : लेश्याद्वार 1883. [1] सलेसे णं भंते ! जीवे कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय पाहारए सिय अणाहारए। 1. (क) अभि. रा. कोष. भा. 2, पृ. 511 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 5, पृ. 642 Page #1328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवा आहारपद] [1883-1 प्र.] भगवन् ! सलेश्य जोव आहारक होता है या अनाहारक ? - [1883-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् अाहारक होता है और कदाचित अनाहारक होता है। [2] एवं जाव वेमाणिए। [1883-2] इसी प्रकार वैमानिक तक जानना चाहिए। 1884. सलेसा णं भंते ! जीवा कि आहारगा प्रणाहारगा? गोयमा ! जीगिदियवज्जो तियभंगो। [1884 प्र.] भगवन् ! (बहुत) सलेश्य जीव आहारक होते हैं या अनाहारक ? [1884 उ.] गौतम ! समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़कर इनके तीन भंग होते हैं / 1885. [1] एवं कण्हलेसाए वि णोललेसाए वि काउलेसाए वि जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1885-1] इसी प्रकार कृष्णलेश्यी, नीललेश्यी और कापोतलेश्यी के विषय में भी समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर (पूर्वोक्त प्रकार से नारक आदि प्रत्येक में) तीन भंग कहने चाहिए / [2] तेउलेस्साए पुढवि-प्राउ-बणप्फइकाइयाणं छब्भंगा। [1885.2] तेजोलेश्या की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक. अकायिक और वनस्पतिकायिकों में छह भंग (कहने चाहिए।) [3] सेसाणं जीवादीओ तियभंगो जेसि अस्थि तेउलेस्सा। [1885-3] शेष जीव आदि (अर्थात् जीव से लेकर वैमानिक पर्यन्त) में, जिनमें तेजोलेश्या पाई जाती है, उनमें तीन भंग (कहने चाहिए / ) [4] पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए य जीवादीयो तियभंगो। _ [1885-4] पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या वाले (जिनमें पाई जाती है, उन) जीव आदि में तीन भंग पाए जाते हैं। 1886. अलेस्सा जीवा मणूसा सिद्धा य एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो प्राहारगा, अणाहारगा। दारं 4 // [1886] अलेश्य (लेश्यारहित) समुच्चय जीव, मनुष्य, (अयोगी केवली) और सिद्ध एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक ही होते हैं। [चतुर्थ द्वार] विवेचन–सलेश्य जीवों में प्राहारकता-अनाहारकता की प्ररूपणा-एकत्व की अपेक्षासलेश्य जीव तथा चौबीसदण्डकवर्ती जीव विग्रहगति, केवलीसमुद्घात और शैलेशी अवस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य अवस्थाओं में आहारक समझने चाहिए। बहुत्व की अपेक्षा-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष नारक आदि प्रत्येक में पूर्वोक्त युक्ति से तीन भंग होते हैं / जीवों और एकेन्द्रियों में सिर्फ एक भंग-(बहुत आहारक और बहुत अनाहारक) पाया जाता है, क्योंकि दोनों सदैव बहुत संख्या में पाए जाते हैं / कृष्ण-नील Page #1329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 प्रिज्ञापनासूत्र कापोतलेश्यी नारक आदि में भी समुच्चय सलेश्य जीवों के समान प्रत्येक में तीन भंग (समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर) कहने चाहिए।' तेजोलेश्यी जीवों में आहारकता-अनाहारकता-एकत्व की अपेक्षा से तेजोलेश्यावान् पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग (पूर्ववत्) समझना चाहिए। बहत्व की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक तेजोलेश्यावान में छह भंग पाये जाते हैं-(१) सब आहारक, (2) सब अनाहारक, (3) एक आहारक एक अनाहारक, (4) एक आहारक बहुत अनाहारक, (5) वहुत आहारक एक अनाहारक और (6) बहुत अाहारक बहुत अनाहारक / इसके अतिरिक्त समुच्चय जीवों से लेकर वैमानिक पर्यन्त जिन-जिन जीवों में तेजोलेश्या पाई जाती है, उन्हीं में प्रत्येक में पूर्ववत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए, शेष में नहीं। अर्थात्-नारकों में, तेजस्कायिकों में, वायुकायिकों में, द्वीन्द्रियों-त्रीन्द्रियों और चतुरिन्द्रियों में तेजोलेश्या-सम्बन्धी वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें तेजोलेश्या नहीं होती। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिकों में तेजोलेश्या इस प्रकार है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्मादि देवलोकों के वैमानिक देव तेजोलेश्या वाले होते हैं, वे च्यवन कर पृथ्वीकायिकादि तीनों में उत्पन्न हो सकते हैं, इस दृष्टि से पृथ्वीकायिकादिश्रय में तेजोलेश्या सम्भव है / __ पद्म-शुक्ललेश्यायुक्त जीवों की अपेक्षा आहारक-अनाहारक-विचारणा-पंचेन्द्रियतिर्यंचों, मनुष्यों, वैमानिकदेवों और समुच्चय जीवों में ही पद्म-शुक्ल लेश्याद्वय पाई जाती है, अतएवं इनमें एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् एक ही भंग होता है तथा बहुत्व की अपेक्षा पूर्ववत् तीन भंग होते हैं / लेश्यारहित जीवों में अनाहारकता-समुच्चय जीव, मनुष्य, अयोगिकेवली और सिद्ध लेश्यारहित होते हैं, अतएव ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं, पाहारक नहीं / 3 पंचम : दृष्टिद्वार 1887. [1] सम्म हिट्ठी णं भंते ! जीवे कि पाहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय प्राहारए सिय प्रणाहारए। [1887-1 प्र.] भगवन् ! सम्यग्दृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1887-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित कनाहारक होता है। [2] बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया छम्भंगा। [1887-2] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय (सम्यग्दृष्टियों) में पूर्वोक्त छह भंग होते हैं। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 512 2. (क) प्रज्ञापनाचणि-'जेणं तेसु भवणवइ-बाणमंतर-सोहम्मीसाणया देवा उववज्जति तेणं तेउलेस्सा लन्मइ। (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 512 3. बही. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 512 Page #1330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [135 [3] सिद्धा अणाहारगा। [1887-3] सिद्ध अनाहारक होते हैं / [4[ अवसेसाणं तियभंगो। [1887-4] शेष सभो (सम्यग्दृष्टि जोवों) में (एकत्व को अपेक्षा से) तोन भंग (पूर्ववत्) होते हैं। 1888. मिच्छट्ठिीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1888] मिथ्यादृष्टियों में समुच्चय जीव और एकेन्द्रियों को छोड़ कर (प्रत्येक में) तीनतीन भंग पाये जाते हैं। 1886. [1] सम्मामिच्छट्ठिी णं भंते ! कि आहारए अणाहारए ? गोयमा ! आहारए, णो अणाहारए / [1886-1 प्र.] भगवन् ! सम्यमिथ्यादृष्टि जीव आहारक होता है या अनाहारक ? {1886-1 उ.] गौतम ! वह अाहारक होता है, अनाहारक नहीं। [2] एवं एगिदिय-विलिदियवज्ज जाव वेमाणिए / [1886-2] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़ कर यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार (का कथन करना चाहिए।) [3] एवं पुहत्तेण वि / दारं 5 // [1889-3] बहुत्व की अपेक्षा से भी इसी प्रकार की वक्तव्यता समझनी चाहिए। [पंचमद्वार] विवेचन-दृष्टि की अपेक्षा से आहारक-अनाहारक-प्ररूपणा--प्रस्तुत में सम्यग्दृष्टि पद का अर्थ-औपशमिक, सास्वादन, क्षायोपशमिक और वेदक तथा क्षायिक सम्यक्त्व वाले समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ सामान्यपद से सम्यग्दृष्टि शब्द प्रयुक्त किया गया है / औपमिक सम्यग्दृष्टि आदि प्रसिद्ध हैं / वेदक सम्यग्दृष्टि वह है, जो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के चरम समय में हो और जिसे अगले ही समय में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होने वाली हो। सम्यग्दृष्टि जीवादि पदों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से क्रमश : एक-एक भंग कहना चाहिए / यथा जीव आदि पदों में एकत्वापेक्षया---कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक, यह एक भंग और बहुत्व की अपेक्षा-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह एक भंग होता है / इनमें पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों की वक्तव्यता नहीं कहनी चाहिए, क्योंकि इनमें सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि दोनों का प्रभाव होता है। विकलेन्द्रिय सम्यग्दष्टियों में पूर्वोक्तवत् छह भंग कहने चाहिए। द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रियों में अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन-सम्यक्त्व की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टित्व समझना चाहिए। सिद्ध क्षायिक सम्यक्त्वी होते हैं और सदैव अनाहारक होते हैं। शेष अर्थात् नैरयिकों, भवनपतियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में जो सम्यग्दृष्टि हैं, पूर्वोक्त युक्ति से उनमें तीन भंग पाये जाते हैं / Page #1331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] [प्रज्ञापनासूत्र मिथ्यादष्टियों में एकत्व की विवक्षा से सर्वत्र कदाचित् एक आहारक एक अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव और पृथ्वी कायिकादि एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टियों में से प्रत्येक के बहुत प्राहारक बहुत अनाहारक, यह एक ही भंग पाया जाता है। इनके अतिरिक्त सभी स्थानों में पूर्ववत् तीन-तीन भंग कहने चाहिए। यहाँ सिद्ध-सम्बन्धी प्रालापक नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्ध मिथ्यादृष्टि होते ही नहीं हैं।' ___ सम्यमिथ्यादष्टि में प्राहारकता या अनाहारकता-सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोड़कर आहारक होते हैं, क्योंकि संसारी जीव विग्रहगति में अनाहारक होते हैं। मगर सम्यगमिथ्यादृष्टि विग्रहगति में होती नहीं है, क्योंकि सम्यगमिथ्यादृष्टि की अवस्था में मृत्यु नहीं होती। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन यहाँ इसलिए नहीं करना चाहिए कि वे सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते / छठा : संयतद्वार 1810. [1] संजए णं भंते ! जीवे कि पाहारए अणाहारए ? गोयमा ! सिय पाहारए सिय प्रणाहारए / [1860-1 प्र.] भगवन् ! संयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1860-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं मणूसे वि। [1890-2] इसी प्रकार मनुष्य संयत का भी कथन करना चाहिए। [3] पुहत्तेण तियभंगो। [1890-3] बहुत्व की अपेक्षा से (समुच्चय जीवों और मनुष्यों में) तीन-तीन भंग (पाये जाते हैं।) 1861. [1] अस्संजए पुच्छा। गोयमा ! सिय पाहारए सिय अणाहारए। [1861-1 प्र.] भगवन् ! असंयत जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1861-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक भी होता है। [2] पुहत्तेणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो / [1891-2] बहुत्व की अपेक्षा जीव और एकेन्द्रिय छोड़ कर इनमें तीन भंग होते हैं / 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 513 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी भा. 5, 1657-58 2. वही, भा. 5, पृ. 657-58 Page #1332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां आहारपद] [137 1862. संजयासंजए जोवे पंचेंदियतिरिक्खजोणिए मणूसे य एते एगत्तेण वि पुहत्तेण वि पाहारगा, जो अणाहारगा। [1862] संयतासंयतजीव, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से पाहारक होते हैं, अनाहारक नहीं / 1863. गोसंजए-णोप्रसंजए-णोसंजयासंजए जोवे सिद्धे य एते एगत्तेण वि पुहत्तेण वि णो पाहारगा, अणाहारगा। दारं 6 // [1863] नोसंयत नो-असंयत-नोसंयतासंयत जीव और सिद्ध, ये एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक नहीं होते, किन्तु अनाहारक होते हैं / [छठा द्वार] विवेचन-संयत-संयतासंयत, असंयत और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत की परिभाषाजो संयम (पंचमहाव्रतादि) को अंगीकार करे अर्थात् विरत हो उसे संयत कहते हैं। जो अणुवती श्रावकत्व अंगीकार करे अर्थात् देशविरत हो, उसे संयतासंयत कहते हैं। जो अविरत हो, न तो साधुत्व को अंगीकार करे और न ही श्रावकत्व को, वह असंयत है और जो न तो संयत है, न संयतासंयत है और न असंयत है, वह नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत कहलाता है। संयत समुच्चय जीव और मनुष्य ही हो सकता है, संयतासंयत समच्चय जीव. मनष्य एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हो नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत अयोगिकेवलो तथा सिद्ध होते हैं। संयत जीव और मनुष्य एकत्वापेक्षया केवलिसमुद्घात और अयोगित्वावस्था की अपेक्षा अनाहारक और अन्य समय में प्राहारक होता है। बहुत्य की अपेक्षा से तीन भंग-(१) सभी संयत आहारक होते हैं; यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी केवलीसमुदघातावस्था में या अयोगी-अवस्था में न हो। (2) बहुत संयत आहा और कोई एक अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब एक केवलीसमुद्घाताव घातावस्था में या शलशा अवस्था में होता है। (3) बहत संयत अाहारक और बहत अनाहारक, यह भंग भी तब घटित होता है जब बहुत-से संयत केवलीसमुद्घातावस्था में हों या शैलेशी-अवस्था में हो / असंयत में एकत्वापेक्षा से-एक आहारक, एक अनाहारक यह एक ही विकल्प होता है / बहुत्व की अपेक्षा से—समुच्चय जीवों और असंयत पृथ्वीकायिकादि प्रत्येक में बहुत प्राहारक और बहुत अनाहारक यही एक भंग होता है। असंयत नारक से वैमानिक तक (समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर) प्रत्येक में पूर्ववत् तीन-तीन भंग होते हैं। संयतासंयत-देश विरतजीव, मनुष्य और पंचेन्द्रियतिर्यञ्च ये तीनों एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं; क्योंकि मनुष्य और तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के सिवाय किसी जीव में देशविरति-परिणाम उत्पन्न नहीं होता और संयतासंयत सदैव आहारक ही होते हैं, क्योंकि अन्तरालगति और केवलिसमुद्घात प्रादि अवस्थाओं में देशविरति-परिणाम होता नहीं है / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत जीव व सिद्ध–एकत्व-बहुत्व-अपेक्षा से अनाहारक ही होते हैं. आहारक नहीं, क्योंकि शैलेशी प्राप्त त्रियोगरहित और सिद्ध अशरीरी होने के कारण पाहारक होते ही नहीं।' 1. अभि. रा. को., भा. 2, पृ. 513 Page #1333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र सप्तम : कषायद्वार 1864. [1] सकसाई णं भंते ! जीवे किं प्राहारए प्रणाहारए ? गोयमा ! सिय माहारए सिय प्रणाहारए। [1894-1 प्र.] भगवन् ! सकषाय जीव आहारक होता है या अनाहारक ? [1894-1 उ.] गौतम ! वह कदाचित् अाहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / [2] एवं जाव बेमाणिए। [1894-2] इसी प्रकार (नारक से लेकर) वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिए। 1565. [1] पुहत्तेणं जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1865-1] बहुत्व की अपेक्षा से-जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर (सकषाय नारक आदि में) तीन भंग (पाए जाते हैं / ) [2] कोहकसाईसु जीवादिएसु एवं चेव / णवरं देवेसु छन्भंगा। [1865-2] क्रोधकषायी जीव आदि में भी इसी प्रकार तीन भंग कहने चाहिए / विशेष यह है कि देवों में छह भंग कहने चाहिए। [3] माणफसाईसु मायाकसाईसु य देव-णेरइएसु छन्भंगा। अवसेसाणं जीगिदियवज्जो तियभंगो। [1865-3] मानकषायी और मायाकषायी देवों और नारकों में छह भंग पाये जाते हैं / [4] लोभकसाईसु णेरइएसु छम्भंगा। अवसेसेसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। _ [1895-4] लोभकषायी नै रयिकों में छह भंग होते हैं। जीव और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष जीवों में तीन भंग पाये जाते 1866. अकसाई जहा गोसण्णी-णोअसण्णी (सु. 1881-82) / दारं 7 // [1866] प्रकषायी को वक्तव्यता नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी के समान जाननी चाहिए। [सप्तम द्वार विवेचन-सकषाय जीव और चौबीस दण्डकों में माहारक-अनाहारक की प्ररूपणा—एकत्व की विवक्षा से समुच्चय जीव पौर चौबोस दण्डकवर्ती जीव पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / बहुत्व की विवक्षा से समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर सकषाय नारकादि में पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार तीन भंग पाये जाते हैं / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग--'बहुत आहारक, बहुत अनाहारक' होता है।' 1. (क) अभि. रा. कोष. भा. 2, पृ. 513 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयवोधिनी टीका भा. 5, पृ. 663 Page #1334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवां आहारपद [139 क्रोधकषायो को प्ररूपणा-चौबीस दण्डकों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से एक भंगकदाचित् अाहारक-कदाचित् अनाहारक होता है / क्रोधकषायी समुच्चय जीवों तथा एकेन्द्रियों में केवल एक ही भंग-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होता है। शेष जीवों में देवों को छोड़ कर पूर्वोक्त रीति से तीन भंग होते हैं। विशेष-देवों में छह भंग-(१) सभी क्रोधकषायी देव पाहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है जब कोई भी क्रोधकषायी देव विग्रहगतिसमापन्न नहीं होता, (2) कदाचित सभी क्रोधकषायी देव अनाहारक होते हैं। यह भंग तब घटित होता है, जब कोई भी क्रोधकषायी देव पाहारक नहीं होता। यहाँ मान आदि के उदय से रहित क्रोध का उदय विवक्षित है, इस कारण क्रोधकषायी आहारक देव का प्रभाव सम्भव है, (3) कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक (4) देवों में क्रोध की बहुलता नहीं होती, स्वभाव से ही लोभ की अधिकता होती है, अतः क्रोधकषायी देव कदाचित् एक भी पाया जाता है, (5) कदाचित् बहुत पाहारक और एक अनाहारक और (6) कदाचित् बहुत आहारक और बहुत अनाहारक / ___ मानकषायी और मायाकषायी जीवादि में एकत्व की अपेक्षा से पूर्ववत् एक-एक भंग। बहुत्व को अपेक्षा से-मान-मायाकषायी देवों और नारकों में प्रत्येक में 6 भंग पूर्ववत् समझना चाहिए / देवों और नारकों में मान और माया कषाय की विरलता पाई जाती है, देवों में लोभ की और नारकों में क्रोध की बहुलता होती है। इस कारण 6 हो भंग सम्भव हैं / मान-मायाकषायी शेष जीवों में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर तीन भंग पूर्ववत् होते हैं / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग-बहुत आहारक-बहुत अनाहारक'-होता है। लोभकषायो जीवादि में लोभकषायी नारकों में पूर्ववत् 6 भंग होते हैं, क्योंकि नारकों में लोभ की तीव्रता नहीं होती / नारकों के सिवाय एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर शेष जीवों में 3 भंग पूर्ववत् पाये जाते हैं। समुच्चय जीवों ओर एकेन्द्रियों में प्रत्येक में एक ही भंग-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक-पाया जाता है।' अकषायी जीवों में-अकषायी मनुष्य और सिद्ध ही होते हैं। मनुष्यों में उपशान्तकषाय आदि ही अकषायी होते हैं / उनके अतिरिक्त सकषायी होते हैं / अतएव उन सकषायी समुच्चय जीवों, मनुष्यों और सिद्धों में से समुच्चय जीव में और मनुष्य में केवल एक भंग- कदाचित् एक आहारक और एक अनाहारक --पाया जाता है। सिद्ध में-एक भंग--'अनाहारक' ही पाया जाता है। बहुत्व की विवक्षा से—समुच्चय जीवों में बहुत आहारक और बहुत अनाहारक-एक भंग ही होता है / क्योंकि आहारक केवली और अनाहारक सिद्ध बहुत संख्या में उपलब्ध होते हैं। मनुष्यों में पूर्ववत् तीन भंग समझने चाहिए। सिद्धों में केवल एक ही भंग-'अनाहारक' पाया जाता है।' अष्टम : ज्ञानद्वार 1867. पाणी जहा सम्मद्दिट्ठी (सु. 1887) / [1867] ज्ञानी की वक्तव्यता सम्यग्दृष्टि के समान समझनी चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 664 से 667 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 2, पृ. 513-514 (क) वही, मलयत्ति अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 514 (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा. 5, पृ. 667-668 For Private & Personal use only Page #1335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] [प्रज्ञापनासूत्र 1868. [1] आभिणिबोहियणाणि-सुतणाणिसु बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु छन्भंगा। अवसेसेसु जीवादीयो तियभंगो जेसि अस्थि / / [1768-1] आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में (पूर्ववत्) छह भंग समझने चाहिए। शेष जीव आदि (समुच्चय जीव और नारक आदि) में जिनमें ज्ञान होता है, उनमें तीन भंग (पाये जाते हैं।) [2] प्रोहिणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया आहारगा, यो प्रणाहारगा। अवसेसेसु जीवादीयो तियभंगो जेसि अस्थि ओहिणाणं / [1898-2] अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च आहारक होते हैं अनाहारक नहीं / शेष जीव प्रादि में, जिनमें अवधिज्ञान पाया जाता है, उनमें तीन भंग होते हैं। [3] मणपज्जवणाणी जीवा मणूसा य एगत्तेण वि पुहत्तेण विपाहारगा, जो अणाहारगा। [1868-3] मनःपर्यवज्ञानी समुच्चय जीव और मनुष्य एकत्व और बहुत्व को अपेक्षा से आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। [4] केवलगाणो जहा पोसण्णी-णोअसण्णी (सु. 1881-82) / [1868-4] केवलज्ञानी का कथन (सू. 1881-82 में उक्त) नो-संज्ञी-नो-प्रसंज्ञी के कथन के समान जानना चाहिए। 1866. [1] अण्णाणी मइअण्णाणी सुयअण्णाणी जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1896-1] अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में समुच्चय जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते हैं। [2] विभंगणाणी पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य प्राहारगा, णो प्रणाहारगा। अवसेसेसु जीवादीयो तियभंगो / दारं 8 // 1866-2] विभंगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। अवशिष्ट जीव आदि में तीन भंग पाये जाते हैं / [अष्टम द्वार) विवेचन -- ज्ञानी जीवों में श्राहारक-अनाहारक-प्ररूपणा समुच्चय ज्ञानी (सम्यग्ज्ञानी) में सम्यग्दृष्टि के समान प्ररूपणा जाननी चाहिए, क्योंकि एकेन्द्रिय सदैव मिथ्यादृष्टि होने के कारण अज्ञानो ही होते हैं, इसलिए एकेन्द्रियों को छोड़कर एकत्व की अपेक्षा से समुच्चय जीव तथा तक शेष 16 दण्डकों में ज्ञानी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / बहुत्व की विवक्षा से समुच्चयज्ञानी जीव आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी। नारकों से लेकर स्तनितकुमारों तक ज्ञानी जीवों में पूर्वोक्त रीति से तीन भंग होते हैं / पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में भी तीन भंग ही पाए जाते हैं / तीन विकलेन्द्रिय ज्ञानियों में छह भंग प्रसिद्ध हैं। सिद्ध ज्ञानी अनाहारक ही होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी में एकत्व की अपेक्षा से पूर्ववत् समझना। बहुत्व की अपेक्षा से–तीन विकलेन्द्रियों में छह भंग होते हैं। उनके अतिरिक्त एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य जीवादि पदों में, जिनमें प्राभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान हो, उनमें प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने Page #1336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] (141 चाहिए / एकेन्द्रिय जीवों में आभिनियोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान का अभाव होता है। इसलिए उनकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। अवधिज्ञानी में --अवधिज्ञान पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारक को होता है, अन्य जीवों को नहीं। अतः एकेन्द्रियों एवं तीन विकलेन्द्रियों को छोड़कर पचेन्द्रियतियञ्च अवधिज्ञानी सदैव पाहारक ही होते हैं / यद्यपि विग्रहगति में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनाहारक होते हैं, किन्तु उस समय उनमें अवधिज्ञान नहीं होता। चूंकि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों को गुणप्रत्यय अवधिज्ञान होता है-हो सकता है, मगर विग्रहगति के समय गुणों का अभाव होता है, इस कारण अवधिज्ञान का भी उस समय प्रभाव होता है। इसी कारण अवधिज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अनाहारक नहीं हो सकता / एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोड़कर पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अतिरिक्त अन्य स्थानों में समुच्चय जीव से लेकर नारकों, मनुष्यों एवं समस्त जाति के देवों में प्रत्येक में तीन-तीन भंग कहने चाहिए, परन्तु कहना उन्हीं में चाहिए जिनमें अवधिज्ञान का अस्तित्व हो / एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् प्ररूपणा समझनी चाहिए। मनःपर्यवज्ञानी में-मनःपर्यवज्ञान मनुष्यों में ही होता है। अतः उसके विषय में दो पद ही कहते हैं—मनःपर्यवज्ञानी जीव और मनुष्य / एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से ये दोनों मनःपर्यवज्ञानी आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति आदि अवस्थाओं में मनःपर्यवज्ञान होता ही नहीं है। केवलज्ञानी में केवलज्ञानी की प्ररूपणा में तीन पद होते हैं-समुच्चय जीवपद, मनुष्यपद और सिद्धपद / इन तीन के सिवाय और किसी जीव में केवलज्ञान का सद्भाव नहीं होता / प्रस्तुत में केवलज्ञानी को आहारक-अनाहारक-विषयक प्ररूपणा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञीवत् बताई गई है / अर्थात् समुच्चय जीवपद और मनुष्यपद में एकत्व की अपेक्षा से एक भंग-कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है / सिद्धपद में अनाहारक ही कहना चाहिए / बहुत्व की विवक्षा से-समुच्चय जीवों में अहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं। मनुष्यों में पूर्वोक्त भंग कहना चाहिए। सिद्धों में अनाहारक हो होते हैं। अज्ञानी की अपेक्षा से-प्रज्ञानियों में, मत्यज्ञानियों और श्रुताज्ञानियों में बहुत्व की विवक्षा से, जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य पदों में प्रत्येक में तीन भंग कहने चाहिए / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में प्राहारक भी होते हैं, अनाहारक भी। विभंगज्ञानी में एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् ही समझना चाहिए। बहुत्व की विवक्षा से-विभंगज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एवं मनुष्य आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते, क्योंकि विग्रहगति में विभंगज्ञानयुक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्यों में उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों से भिन्न स्थानों में एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों को छोड़कर जीव से लेकर प्रत्येक स्थान में तीन भंग कहना चाहिए।' नौवाँ : योगद्वार 1600. [1] सजोगीसु जीवेगिदियवज्जो तियमंगो। 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, अ. रा. को. भाग 2, पृ. 514 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 675 से 677 तक Page #1337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 642) [সাবনুগ [1600-1] सयोगियों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग (पाये जाते हैं / ) [2] मणजोगी वइजोगी य जहा सम्मामिच्छविट्ठी (सु. 1889) / गवरं वइजोगो विलिदियाण वि। [1600-2] मनोयोगी और वचनयोगी के विषय में (सू. 1886 में उक्त) सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान वक्तव्यता कहनी चाहिए / विशेष यह कि वचनयोग विकलेन्द्रियों में भी कहना चाहिए / [3] कायजोगीसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1600-3] काययोगी जीवों में जीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग (पाये जाते हैं / ) [4] अजोगी जीव-मणूस-सिद्धा अणाहारगा। दारं // |1600-4] अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं, और वे अनाहारक हैं / [नौवां द्वार विवेचन-योगद्वार की अपेक्षा प्ररूपणा-समुच्चयजीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर अन्य सयोगी जीवों में पूर्वोक्त तीन भंग पाये जाते हैं / समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों में एक भंग ही पाया जाता है—बहुत पाहारक-बहुत अनाहारक, क्योंकि ये दोनों सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं। मनोयोगी और वचनयोगी के सम्बन्ध में कथन सम्यगमिथ्यादृष्टि के समान जानना चाहिए, अर्थात् वे एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं। यद्यपि विकलेन्द्रिय सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, किन्तु उनमें वचनयोग होता है, इसलिए यहां उनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिए। समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर शेष नारक आदि काययोगियों में पूर्ववत् तीन भंग कहना चाहिए। अयोगी समुच्चय जीव, मनुष्य और सिद्ध होते हैं, ये तीनों अयोगी एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होते हैं।' दसवाँ : उपयोगद्वार 1901. [1] सागाराणागारोवउत्तेसु जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1901-1] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़कर अन्य साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जोवों में तीन भंग कहने चाहिए। [2] सिद्धा प्रणाहारगा। दारं 10 // [1601-2] सिद्ध जीव (सदैव) अनाहारक ही होते हैं / [दसवाँ द्वार] विवेचन-उपयोगद्वार की अपेक्षा से प्ररूपणा-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष साकार एवं अनाकार उपयोग से उपयुक्त जीवों में तीन भंग पाए जाते हैं। सिद्ध जीव चाहे साकारोपयोग वाला हो, चाहे अनाकारोपयोग से उपयुक्त हो, अनाहारक ही होते हैं। __ एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र 'कदाचित् आहारक तथा कदाचित् अनाहारक' , ऐसा कथन करना चाहिए।' 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 5, पृ. 579-180 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भाग 5, पृ. 680 Page #1338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसा आहारपद] [143 ग्यारहवाँ : वेदद्वार 1602. [1] सवेवे जोवेगिदियवज्जोतियभंगो। [1902-1] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर अन्य सब सवेदी जीवों के (बहुत्व की अपेक्षा से) तीन भंग होते हैं / [2] इथिवेद-पुरिसवेदेसु जीवादीओ तियभंगो। [1902-2] स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में तीन भंग होते हैं / [3] गपुसगवेदए जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1902-3] नपुसंकवेदी में समुच्चयजीव और एकेन्द्रिय को छोड़ कर तीन भंग होते हैं / [4] अवेदए जहा केवलणाणी (सु. 1868 [4]) / दारं 11 / {1602-4] अवेदी जीवों का कथन (सू. 1898-4 में उल्लिखित) केवलज्ञानी के कथन के समान जानना चाहिए / [ग्यारहवाँ द्वार] विवेचन-वेदद्वार के माध्यम से प्राहारक-अनाहारक प्ररूपणा-सवेदी जीवों में एकेन्द्रियों और समुच्चय जीवों को छोड़कर बहुत्वापेक्षया तीन भंग होते हैं, जीवों और एकेन्द्रियों में आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी / एकत्व की विवक्षा से सवेदी कदाचित् आहारक होता है, कदाचित अनाहारक / बहुत्वापेक्षया-स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीव आदि में एकेन्द्रियों एवं समुच्चय जीवों को छोड़ कर बहुत्व को विवक्षा से प्रत्येक के तीन भंग होते हैं। अवेदो का कथन केवलज्ञानी के समान है। एकत्व-विवक्षया--स्त्रीवेद और पुरुषवेद के विषय में प्राहारक भी होता है और अनाहारक भी / यह एक ही भंग होता है। यहाँ नैरयिकों, एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वे स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी नहीं होते, अपितु नपुंसकवेदी होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा से जीवादि में से प्रत्येक में तीन भंग होते हैं। नपुंसकवेद में-एकत्व की विवक्षा से पूर्ववत् भंग कहना चाहिए, किन्तु यहाँ भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव का कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये नपुंसक नहीं होते। बहुत्व की अपेक्षा से जीवों और एकेन्द्रियों के सिवाय शेष में तीन भंग होते हैं। जीवों और एकेन्द्रियों में एक ही भंग होता है-पाहारक भी होते हैं, अनाहारक भी / अवेदी के सम्बन्ध में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से केवलज्ञानी के समान कहना चाहिए / एक जीव और एक मनुष्य की अपेक्षा से अवेदी कदाचित् आहारक होता है कदाचित् अनाहारक, यह एक भंग होता है। बहुत्व की अपेक्षा से-अवेदी में बहुत अाहारक और बहुत अनाहारक, यही एक भंग पाया जाता है। अवेदी मनुष्यों में तीन भंग होते हैं / अवेदी सिद्धों में बहुत अनाहारक' यह एक भंग ही पाया जाता है / ' --- --- ..........- . . . 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भाग. 2, पृ.५१५ Page #1339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] [प्रजापनासूत्र बारहवाँ : शरीरद्वार 1903. [1] ससरीरी जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। में (बहुत्वापेक्षया) तीन भंग पाये जाते हैं / [2] पोरालियसरीरीसु जीव-मणूसेसु तियभंगो / [1903-2] औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग पाये जाते हैं / [3] अवसेसा पाहारगा, णो अणाहारगा, जेसि अस्थि ओरालियसरीरं। [1903-3] शेष जीवों और (मनुष्यों से भिन्न) औदारिकशरीरी ग्राहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु जिनके प्रौदारिकशरीर होता है, उन्हीं का कथन करना चाहिए। [4] वेउब्वियसरीरी आहारगसरीरी य पाहारगा, णो अणाहारगा, जेसि अस्थि / [1903-4] वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। किन्तु यह कथन जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है, उन्हीं के लिए है। [5] तेय-कम्मगसरीरी जोवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1903-5] समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तैजसशरीर और कार्मणशरीर वाले जीवों में तीन भंग पाये जाते हैं। [6] असरीरी जीवा सिद्धा य णो श्राहारगा, अणाहारगा। दारं 12 // [1903-6] अशरीरी जीव और सिद्ध पाहारक नहीं होते, अनाहारक होते हैं। [बारहवाँ द्वार ] विवेचन-शरीरद्वार के आधार से प्ररूपणा-समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर शेष सशरीरी जीवों में बहुत्व की विवक्षा से तीन भंग और एकत्व की अपेक्षा से सर्वत्र एक ही भंग पाया जाता है—कदाचित् एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक / समुच्चय सशरीरी जीवों और एकेन्द्रियों में बहुत अाहारक बहुत अनाहारक, यह एक भंग पाया जाता है। औदारिकशरीरी जीवों और मनुष्यों में तीन भंग तथा इनसे भिन्न औदारिकशरीरी भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के औदारिकशरीर नहीं होता, अतः उनके लिए यह कथन नहीं है। बहत्व की अपेक्षा से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में बहुत आहारक ही कहना चाहिए, अनाहारक नहीं, क्योंकि विग्रहगति होने पर भी उनमें औदारिकशरीर का सद्भाव होता है। वैक्रियशरीरी और पाहारकशरीरी आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं। परन्तु यह कथन उन्हीं के लिए है, जिनके वैक्रियशरीर और आहारकशरीर होता है / नारकों और वायुकायिकों, Page #1340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [145 पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों तथा चारों जाति के देवों के ही वैक्रियशरीर होता है। आहारकशरीर केवल मनुष्यों के ही होता है। तेजसशरीरी एवं कार्मणशरीरी जीवों में एकत्वापेक्षया सर्वत्र कदाचित् 'एक आहारक और कदाचित् एक अनाहारक' यह एक भंग होता है / बहुत्वापेक्षया--समुच्चय जीवों और एकेन्द्रिय को छोड़ कर अन्य स्थानों में तीन-तीन भंग जानने चाहिए। समुच्चय जीवों और पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों में से प्रत्येक में एक ही भंग पाया जाता है-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक / ___ अशरीरी जीव और सिद्ध पाहारक नहीं होते, अपितु अनाहारक ही होते हैं / अतएव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अशरीरी सिद्ध ग्रनाहारक ही होते हैं।' तेरहवाँ : पर्याप्तिद्वार 1904. [1] पाहारपज्जत्तीपज्जत्तए सरीरपज्जत्तीपज्जत्तए इंदियपज्जत्तीपज्जत्तए प्राणापाणुपज्जत्तीपज्जत्तए भासा-मणपज्जत्तीपज्जत्तए एयासु पंचसु वि पज्जत्तीसु जीवेसु मणूसेसु य तियभंगो। [1904.1] अाहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति तथा भाषा-मनःपर्याप्ति इन पांच (छह) पर्याप्तियों से पर्याप्त जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग होते हैं। [2] अवसेसा पाहारगा, णो प्रणाहारगा। [1904-2] शेष (समुच्चय जीवों और मनुष्यों के सिवाय पूर्वोक्त पर्याप्तियों से पर्याप्त) जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं / [3] भासा-मणपज्जत्ती पंचेंदियाणं, अवसेसाणं णस्थि / [1904-3] विशेषता यह है कि भाषा-मन:पर्याप्ति पंचेन्द्रिय जीवों में ही पाई जाती है, अन्य जीवों में नहीं। 1905. [1] पाहारपज्जत्तीअपज्जत्तए णो आहारए, अणाहारए, एगत्तेण वि पुहत्तण वि / [1605-1] आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा आहारक नहीं होते, वे अनाहारक होते हैं। [2] सरोरपज्जत्तोप्रपज्जत्तए सिय आहारए सिय प्रणाहारए। [1605-2] शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव एकत्व की अपेक्षा कदाचित् आहारक, कदाचित् अनाहारक होता है। [3] उवरिल्लियासु चउसु अपज्जत्तोसु रइय-देव-मणूसेसु छन्भंगा, अवसेसाणं जीवेगिदियवज्जो तियभंगो। [1905-3] आगे की (अन्तिम) चार अपर्याप्तियों वाले (शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5. पृ. 683-684 (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. ग. कोप, भा. 2,1. 515 Page #1341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति एवं भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्तक) नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं। शेष में समुच्चय जीवों और एकेन्द्रियों को छोड़ कर तीन भंग पाये जाते है। 1906. भासा-मणपज्जत्तीए (ज्जत्तएसु) जीवेसु पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु य तियभंगो, रइय-देव-मणुएसु छन्भंगा। [1906] भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में (बहुत्व की विवक्षा से) तीन भंग पाये जाते हैं। (पूर्वोक्त पर्याप्ति से अपर्याप्त) नैरयिकों, देवों और मनुष्यों में छह भंग पाये जाते हैं। 1907. सव्वपदेसु एगत्त-पुहत्तेणं जीवादीया दंडगा पुच्छाए भाणियव्वा / जस्स जं अस्थि तस्स तं पुच्छिज्जति, जं णस्थि तं ण पुच्छिज्जति जाव भासा-मणपज्जत्तीए अपज्जत्तएसु रइय-देवमणुएसु य छन्भंगा / सेसेसु तियभंगो। दारं 13 // // बोनो उद्देसनो समत्तो॥ ॥पण्णवणाए भगवतीए अट्ठावीसइमं प्राहारपयं समत्तं // [1907] सभी (13) पदों में एकत्व और बहुत्व की विवक्षा से जीवादि दण्डकों में (समुच्चय जीव तथा चौबीस दण्डक) के अनुसार पृच्छा करनी चाहिए। जिस दण्डक में जो पद संभव हो, उसी की पृच्छा करनी चाहिए / जो पद जिसमें सम्भव न हो उसकी पृच्छा नहीं करनी चाहिए। (भव्यपद से लेकर) यावत् भाषा-मन:पर्याप्ति से अपर्याप्त नारकों, देवों और मनुष्यों में छह भंगों की वक्तव्यता पर्यन्त तथा नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न समुच्चय जीवों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में तीन भंगों को वक्तव्यतापर्यन्त समभ.ना चाहिए। [ तेरहवाँ द्वार ] विवेचन–पर्याप्तिदार के आधार पर प्राहारक-अनाहारकप्ररूपणा-यद्यपि अन्य शास्त्रों में पर्याप्तियाँ छह मानी गई हैं, परन्तु यहाँ भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति गेनों का एक में समावेश करके पांच ही पर्याप्तियाँ मानी गई हैं। ___ आहारादि पांत्र पर्याप्तियों से पर्याप्त समुच्चय जीवों और मनुष्यों में तीन-तीन भंग पाये जाते हैं, इन दो के सिवाय दूसरे जो पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हैं, वे अाहारक होते हैं, अनाहारक नहीं। एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में भाषा-मन:पर्याप्ति नहीं पाई जाती। __आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अनाहारक होता है, आहारक नहीं, क्योंकि आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव विग्रहगति में ही पाया जाता है। उपपातक्षेत्र में आने पर प्रथम समय में हो वह आहारपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाता है। अतएव प्रथम समय में वह आहारक नहीं कहलाता / बहुत्व की विवक्षा में बहुत अनाहारक होते हैं। शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव कदाचित् प्राहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। जो विग्रगति-समापन्न होता है, वह अनाहारक और उपपातक्षेत्र में आ पहुँचता है, वह पाहारक होता है। Page #1342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठाईसवाँ आहारपद] [147 .. इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास-भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त--एकत्व की विवक्षा से कदाचित् आहारक कदाचित् अनाहारक होते हैं। बहुत्व की विवक्षा से अन्तिम तीन या (चार) पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में 6 भंग होते हैं-(१) कदाचित् सभी अनाहारक, (2) कदाचित् सभी पाहारक, (3) कदाचित् एक प्राहारक और एक अनाहारक, (4) कदाचित् एक आहारक, बहुत अनाहारक, (5) कदाचित् बहुत अाहारक और एक अनाहारक एवं (6) कदाचित् बहुत अाहारक और बहुत अनाहारक / नारकों, देवों और मनुष्यों से भिन्न में (एकेन्द्रियों एवं समुच्चय जीवों को छोड़ कर) तीन भंग पूर्ववत् पाये जाते हैं। शरीर-इन्द्रिय--श्वासोच्छ्वास-पर्याप्तियों से अपर्याप्त के विषय में एकत्व की विवक्षा-से एक भंग-बहुत आहारक और बहुत अनाहारक होते हैं। बहुत्व की अपेक्षा तीन भंग सम्भव हैं-(१) समुच्चय जीव और समूच्छिम पंचेन्द्रियतिर्यञ्च सदैव बहुत संख्या में पाये जाते हैं, जब एक भी विग्रहगतिममापन्न नहीं होता है, तब सभी आहारक होते हैं, यह प्रथम भंग, (2) जब एक ग्रहगतिसमापन्न होता है, तब बहत आहारक एक अन्ताहारक यह द्वितीय भंग, (3) जब बहुत जीव विग्रहगतिममापन्न होते हैं, तब बहुत आहारक और बहुत अनाहारक, यह तृतीय भंग है / नारकों, देवों और मनुष्यों में भाषा-मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त के विषय में बहुत्व की विवक्षा से 6 भंग होते हैं।' वक्तव्यता का अतिदेश- अन्तिम सूत्र में एकत्व और बहुत्व की विवेक्षा से विभिन्न जीवों के आहारक-अनाहारक सम्बन्धी भंगों का अतिदेश किया गया है। // प्रज्ञापना का अट्ठाईसवाँ पद : द्वितीय उद्देशक समाप्त / // प्रज्ञापना भगवती का अट्ठाईसवाँ आहारपद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 685 से 688 तक Page #1343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणतीसइमं उवओगपयं तीसइमं पासणयापयं च उनतीसवाँ उपयोगपद और तीसवाँ पश्यत्तापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के उनतीसवें और तीसवें, उपयोगपद और पश्यत्ता पदों में जीवों के बोधव्यापार एवं ज्ञानव्यापार की चर्चा है। जीव का या प्रात्मा का मुख्य लक्षण उपयोग है, पश्यत्ता उसी का मुख्य अंग है / परन्तु प्रात्मा के साथ शरीर बंधा होता है। शरीर के निमित्त से अंगोपांग, इन्द्रियाँ, मन आदि अवयव मिलते हैं। प्रत्येक प्राणी को, फिर चाहे वह एकेन्द्रिय हो अथवा विकलेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय, देव हो, नारक हो, मनुष्य हो या तिर्यञ्च, सभी को अपने-अपने कर्मों के अनुसार शरीरादि अंगोपांग या इन्द्रियाँ आदि मिलते हैं। मूल में सभी प्राणियों की आत्मा ज्ञानमय एवं दर्शनमय है, जैसा कि प्राचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है 'जे आया, से विनाया, जे विन्नाया से पाया / जेण विजाणइ से आया।' अर्थात्- 'जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह प्रात्मा है / जिससे (पदार्थों को) जाना जाता है, वह आत्मा है।' प्रश्न होता है कि जब सब प्राणियों की प्रात्मा ज्ञानदर्शनमय (उपयोगमय) है तथा अरूपी है, नित्य है, जैसा कि भगवतीसूत्र में कहा है'प्रवणे अगंधे अरसे अफासे अस्वी जीवे सासए अवट्टिए लोगदब्वे / से समासो पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दध्वओ जाव गुणो। दव्वनो णं जीवस्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं, खेत्तप्रो लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ-न कयाइ न आसि, न कयावि नस्थि, जाव निच्चे, भावप्रो पुण अवण्णे अगंधे अरसे अफासे, गुणनो उवप्रोगगुणे।' यहाँ आत्मा का स्वरूप पांच प्रकार से बताया गया है। द्रव्य से अनंत जीव (आत्मा) द्रव्य हैं, क्षेत्र से लोकप्रमाण है, काल से नित्य है, भाव से वर्णादि से रहित है और गुण से उपयोगगुण वाला है। अतः समानरूप से सभी प्रात्माओं का गुण-उपयोग होते हुए भी किसी को कम उपयोग होता है. किसी को अधिक, किसी का ज्ञान त्रिकाल-त्रिलोकव्यापी है और किसी को वर्तमानकालिक तथा एक अंगुल क्षेत्र का भी ज्ञान या दर्शन नहीं होता। ऐसा क्यों ? 1. उपयोगो लक्षणम् -तत्वार्थसूत्र अ.२ 2. प्राचारांग. श्रु. 1, अ. 5, उ.५, सू. 165 3. भगवती. श. 2, उ. 10, सू. 5 (प्रा. प्र. समिति) Page #1344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक [149 इसका समाधन है-ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मो की विचित्रता / जिसके ज्ञान-दर्शन का प्रावरण जितना अधिक क्षीण होगा, उसका उपयोग उतना ही अधिक होगा, जिसका ज्ञान-दर्शनावरण जितना तीव्र होगा, उसका उपभोग उतना ही मन्द होगा। * यही कारण है कि यहाँ विविध जीवों के विविध प्रकार के उपयोगों की तरतमता आदि का निरूपण किया गया है। * उपयोग का अर्थ होता है --वस्तु का परिच्छेद-परिज्ञान करने के लिए जीव जिसके द्वारा व्याप्त होता है, अथवा जीव का बोधरूप तत्त्वभूत व्यापार / ' * तीसवाँ पद पश्यत्ता-पासणया है / उपयोग और पश्यत्ता दोनों जीब के बोधरूप व्यापार हैं, मूल में इन दोनों की कोई व्याख्या नहीं मिलती। प्राचीन पद्धति के अनुसार भेद ही इनकी व्याख्या है / प्राचार्य अभयदेवसूरि ने पश्यत्ता को उपयोगविशेष ही बताया है। किन्तु आगे चल कर स्पष्टीकरण किया है कि जिस बोध में कालिक अवबोध हो, वह पश्यत्ता है और जिस बोध में वर्तमानकालिक बोध हो, वह उपयोग है। यही इन दोनों में अन्तर है। जिस प्रकार उपयोग के मुख्य दो भेद—साकारोपयोग और अनाकारोपयोग किये हैं, उसी प्रकार पश्यत्ता के भी साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता, ये दो भेद हैं। किन्तु दोनों के उपर्यक्त लक्षणों के अनुसार मति-ज्ञान और मति-अज्ञान को साकारपश्यत्ता के भेदों में परिगणित नहीं किया, क्योंकि मतिज्ञान और मत्यज्ञान का विषय वर्तमानकालिक अविनष्ट पदार्थ ही बनता है। इसके अतिरिक्त अनाकारपश्यत्ता में प्रचक्षदर्शन का समावेश नहीं किया गया है, इसका समाधान आचार्य अभयदेवसरि ने यों किया है कि पश्यत्ता प्रकृष्ट ईक्षण है और प्रेक्षण तो केवल चक्षुदर्शन द्वारा ही सम्भव है, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले दर्शन में नहीं / अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु का उपयोग अल्पकालिक होता है और जहाँ अल्पकालिक उपयोग होता है, वहाँ बोधक्रिया में शीघ्रता अधिक होती है, यही पश्यत्ता की प्रकृष्टता में कारण है। आचार्य मलयगिरि ने प्राचार्य अभयदेवसूरि का अनुसरण किया है। उन्होंने स्पष्टीकरण किया है कि पश्यत्ता शब्द रूढ़ि के कारण साकार और अनाकार बोध का प्रतिपादक है। विशेष में यह समझना चाहिए कि जहाँ दीर्घकालिक उपयोग हो, वहीं कालिक बोध सम्भव है / मतिज्ञान में दीर्घकाल का उपयोग नहीं है, इस कारण उससे त्रैकालिक बोध नहीं होता / अतः उसे 'पश्यत्ता' में स्थान नहीं दिया गया / * उनतीसवें पद में सर्वप्रथम साकारोपयोग और अनाकारोपयोग, यों भेद बताये गये हैं / तत्पश्चात् इन दोनों के क्रमशः पाठ और चार भेद किये गये हैं। * साकारोपयोग और अनाकारोपयोग तथा साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता इन दोनों का अन्तर निम्नोक्त तालिका से स्पष्ट समझ में आ जाएगा१. उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेति उपयोगः / बोधरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो व्यापारः / --प्रज्ञापना. मलयवृत्ति प्र. रा. को. भा. 2, पृ. 860 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 714 Page #1345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15.) प्रज्ञापनासूत्र उपयोग (सू. 1908-10) पश्यत्ता (1936-38) 1 साकारोपयोग 1 साकार-पश्यत्ता (1) आभिनिबोधिक ज्ञान-साकारोपयोग / xx (2) श्रुतज्ञान-साकारोपयोग (1) श्रुतज्ञान-साकारपश्यत्ता (3) अवधिज्ञान-साकारोपयोग प्रवधिज्ञान-साकारपश्यत्ता (4) मन:पर्यवज्ञान-साकारोपयोग मनःपर्यवज्ञान-साकारपश्यत्ता (5) केवलज्ञान-साकारोपयोग (4) केवलज्ञान साकारपश्यत्ता मत्यज्ञानावरण-साकारोपयोग (7) श्रुताज्ञानावरण-साकारोपयोग (5) श्रुताज्ञान-साकारपश्यत्ता (8) विभंगज्ञानावरण-साकारोपयोग (6) विभंगज्ञान-साकारपश्यत्ता 2. अनाकारोपयोग 2. अनाकारपश्यत्ता (1) चक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग (1) चक्षुदर्शन-अनाकारपश्यत्ता (2) प्रचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग (3) अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग (2) अवधिदर्शन-अनाकारपश्यत्ता (4) केवलदर्शन अनाकारोपयोग (3) केवलदर्शन-अनाकारपश्यत्ता' * साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का लक्षण प्राचार्य मलयगिरि ने इस प्रकार किया है सचेतन या अचेतन वस्तु में उपयोग लगाता हुआ आत्मा जब वस्तु का पर्यायसहित बोध करता है, तब वह उपयोग साकार कहलाता है, तथा वस्तु का सामान्य रूप से ज्ञान होना प्रनाकारोपयोग है। * साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता में भी साकार और अनाकार शब्दों का अर्थ तो उपर्युक्त ही है, किन्तु पश्यत्ता में वस्तु का त्रैकालिक बोध होता है, जबकि उपयोग में वर्तमानकालिक ही बोध होता है। * इसके पश्चात् उनतीसवें पद में नारक से वैमानिकपर्यन्त चौबीस दण्डकों में से किस-किस जीव ___में कितने उपयोग पाये जाते हैं ? इसका प्ररूपण किया गया है। * तीसवें पश्यत्ता पद में इसके भेद-प्रभेदों का प्रतिपादन करके नारक से लेकर वैमानिक पर्यन्त जीवों में से किसमें कितने प्रकार की पश्यत्ता है ? इसका प्ररूपण किया गया है। * उनतीसवें पद में पूर्वोक्त प्ररूपण के अनन्तर चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के विषय में प्रश्नोत्तरी प्रस्तुत को गई है कि कौनसा जोव साकोरोपयुक्त है या अनाकारोपयुक्त ? इसी प्रकार तीसवें पद में प्रश्नोत्तरी है कि जीव साकार पश्यत्तावान् है या अनाकार पश्यत्तावान् ? 3 1. पण्णवणासुत्तं भा. 2 (परिशिष्ट-प्रस्तावनात्मक), पृ. 138 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 2, पृ. 860 -3. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 408-9 Page #1346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक [151 * तीसवें पद में पूर्वोक्त वक्तव्यता के पश्चात् केवलज्ञानी द्वारा रत्नप्रभा आदि का ज्ञान और दर्शन (अर्थात्-साकारोपयोग तथा निराकारोपयोग) दोनों समकाल में होते हैं या क्रमशः होते हैं ? इस प्रकार के दो प्रश्नों का समाधान किया गया है तथा ज्ञान और दर्शन का क्रमशः होना स्वीकार किया है / जिस समय अनाकारोपयोग (दर्शन) होता है, उस समय साकारोपयोग (ज्ञान) नहीं होता तथा जिस समय साकारोपयोग होता है, उस समय अनाकारोपयोग नहीं होता, इसी सिद्धान्त की पुष्टि की गई है।' 1. (क) पण्णवणासुत्तं, भा. 1 (मू. पा. टि.), पृ. 412 (ख) वही, भा. 2 (परिशिष्ट), पृ. 138 Page #1347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगणतीसइमं : उवओगपयं उनतीसवाँ उपयोगपद जीव आदि में उपयोग के भेद-प्रभेदों को प्ररूपणा 1908. कतिविहे गं भंते ! उवनोगे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे उवयोगे पन्नत्ते / तं जहा-सागारोवओगे य अणागारोवनोगे य / [1608 प्र.] भगवन् ! उपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1608 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। 1906. सागारोवनोगे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! अविहे पण्णते। तं जहा -आभिणिबोहियणाणसागारोवनोगे 1 सुयणाणसागारोवओगे 2 अोहिणाणसागारोवनोगे 3 मणपज्जवणाणसागारोवओगे 4 केवलणाणसागारोवनोगे 5 मतिअण्णाणसागारोवओगे 6 सुयअण्णाणसागारोवओगे 7 विभंगणाणसागारोवनोगे। [1606 प्र.] भगवन् ! साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1606 उ.] गौतम ! बह आठ प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) आभिनिबोधिक-ज्ञानसाकारोपयोग, (2) श्रुतज्ञान-साकारोपयोग, (3) अवधिज्ञान-साकारोपयोग, (4) मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयोग, (5) केवलज्ञान-साकारोपयोग, (6) मति-अज्ञान-साकारोपयोग, (7) श्रुत-अज्ञानसाकारोपयोग और (8) विभंगज्ञान-साकारोपयोग। 1910. अणागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा! चउविहे पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुदंसणणागारोवनोगे 1 प्रचक्खुदंसणणागारोवनोगे 2 प्रोहिदंसणणागारोवओगे 3 केवलदसणसणागारोवोगे 4 / [1610 प्र.] भगवन् ! अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1910 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है। यथा-चक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग, (2) अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग, (3) अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग, (4) केवलदर्शन-अनाकारोपयोग। 1911. एवं जीवाणं पि। [1911] इसी प्रकार समुच्चय जीवों का भी (साकारोपयोग और अनाकारोपयोग क्रमशः पाठ और चार प्रकार का है 1) 1912. रइयाणं भंते ! कतिविहे उवप्रोगे पण्णत्ते ? गोयमा! दुविहे उवओगे पण्णत्ते / तं जहासागारोवनोगे य प्रणागारोवनोगे य। Page #1348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां उपयोगपद] 153 [1912 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का उपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1612 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथासाकारोपयोग और अनाकारोपयोग। 1913. णेरइयाणं भंते ! सागारोवनोगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! छविहे पण्णत्ते। तं जहा–मतिणाणसागारोवनोगे 1 सुयणाणसागारोवओगे 2 प्रोहिणाणसागारोवनोगे 3 मतिअण्णाणसागारोवोगे 4 सुयअण्णाणसागारोवनोगे 5 विभंगणाणसागारोवोगे 6 / [1613 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1613 उ.] गौतम ! वह छह प्रकार का कहा गया है। यथा-(१) मतिज्ञान-साकारोपयोग, (2) श्रुतज्ञान-साकारोपयोग, (3) अवधिज्ञान-साकारोपयोग, (4) मति-अज्ञान-साकारोपयोग, (5) श्रुत-अज्ञान-साकारोपयोग और (6) विभंगज्ञान-साकारोपयोग। 1914. रइयाणं भंते ! अणागारोवनोगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! तिविहे पण्णते। तं जहा--चक्खुदसणणागारोवप्रोगे 1 अचक्खुदंसणप्रणागारोवनोगे 2 प्रोहिदसणप्रणागारोवनोगे 3 य / [1914 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? {1914 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार का कहा गया है। यथा--(१) चक्षुदर्शनअनाकारोपयोग, (2) अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग और (3) अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग / 1915. एवं जाव थणियकुमाराणं / [1915] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग का कथन करना चाहिए / ) 1916. पुढविक्काइयाणं पुच्छा / गोयमा ! दुविहे उवमोगे पण्णत्ते / तं जहासागारोवप्रोगे य प्रणागारोक्नोगे य / [16.16 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के उपयोग-सम्बन्धी प्रश्न ? [1916 उ.] गौतम ! उनका उपयोग दो प्रकार का कहा गया है। यथा-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग। 1917. पुढविक्काइयाणं भंते ! सागारोवनोगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णते। तं जहा–मतिमण्णाणे सुतप्रणाणे। [1917 प्र.] भगवन् ! पृथ्वी कायिक जीवों का साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1917 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा--मति-अज्ञान और श्रुत अज्ञान / Page #1349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] [प्रज्ञापनासूत्र 1918. पुढविक्काइयाणं भंते ! अणागारोवनोगे कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! एगे अचक्खुदंसणाणागारोवनोगे पण्णत्ते। [1618 प्र.] भगवन् ! पृथ्वोकायिक जीवों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है। [1918 उ.] गौतम ! उनका एकमात्र अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग कहा गया है। 1916. एवं जाव वणफइकाइयाणं / [1616] इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक (के विषय में जानना चाहिए।) 1920. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहे उवमोगे पण्णत्ते / तं जहा--सागारे प्रणागारे य / [1620 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों के उपयोग के विषय में पृच्छा ? [1920 उ.] गौतम ! उनका उपयोग दो प्रकार का कहा है। यथा-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग / 1921. बेइंदियाणं भंते ! सागारोवनोगे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउम्विहे पण्णत्ते / तं जहा-प्राभिणिबोहियणाणसागारोवनोगे 1 सुयणाणसागारोवनोगे 2 मतिअण्णाणसागारोवोगे 3 सुतअण्णाणसागारोवनोगे 4 / [1621 प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों का साकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1921 उ.] गौतम ! उनका उपयोग चार प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) प्राभिनिबोधिकज्ञान-साकारोपयोग, (2) श्रुतज्ञान-साकारोपयोग, (3) मति-अज्ञान-साकारोपयोग और (4) श्रुत-अज्ञान-साकारोपयोग / 1922. बेइंदियाणं भंते ! अणागारोवोगे कतिविहे पण्णते? गोयमा ! एगे अचक्खुदंसणसणागारोवनोगे / [1622 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों का अनाकारोपयोग कितने प्रकार का कहा गया है ? [1622 उ.] गौतम ! उनका एक ही अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग है। 1923. एवं तेइंदियाण वि। [1623] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों (के साकारोपयोग और अनाकारोपयोग) का (कथन करना चाहिए।) 1924. चरिंदियाण वि एवं चेव / णवरं प्रणागारोवनोगे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-चक्खुबसणप्रणागारोवनोगे य अचक्खुदंसणणागारोवोगे य / [1924] चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। किन्तु उनका अनाकारोपयोग दो प्रकार का कहा है / यथा-चक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग और अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग। Page #1350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां उपयोगपव] [155 1925. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. 1912-14) / [1625] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों (के साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग) का कथन (सू. 1612-14 में उक्त) नैरयिकों के समान जानना चाहिए। 1926. मणुस्साणं जहा ओहिए उवयोगे भणियं (सु. 1608-10) तहेव भाणियव्वं / [1626] मनुष्यों का उपयोग (सू. 1608-10 में उक्त) समुच्चय (प्रोधिक) उपयोग के समान कहना चाहिए। 1927. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा रइयाणं (सु. 1612-14) / (1927] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के साकारोपयोग-अनाकारोपयोग-सम्बन्धी कथन (सू. 1612-14 में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) विवेचन-उपयोग : स्वरूप और प्रकार-जीव के द्वारा वस्तु के परिच्छेदज्ञान के लिए जिसका उपयोजन ---व्यापार किया जाता है, उसे उपयोग कहते हैं। वस्तुत: उपयोग जोव का बोधरूप धर्म या व्यापार है। इसके दो भेद हैं-साकारोपयोग और अनाकारोपयोग / नियत पदार्थ को अथवा पदार्थ के विशेष धर्म को ग्रहण करना आकार है। जो आकार-सहित हो, वह साकार है / अर्थात्-विशेषग्राही ज्ञान को साकारोपयोग कहते हैं। प्राशय यह है कि आत्मा जब सचेतन या अचेतन वस्तु में उपयोग लगाता हुआ पर्यायसहित वस्तु को ग्रहण करता है, तब उसका उपयोग साकारोपयोग कहलाता है। काल की दष्टि से छद्मस्थों का उपयोग अन्तर्महत तक रहता है और केवलियों का एक समय तक ही रहता है। जिस उपयोग में पूर्वोक्तरूप आकार विद्यमान न हो, वह अनाकारोपयोग कहलाता है। वस्तु का सामान्यरूप से परिच्छेद करना-सत्तामात्र को हो जानना अनाकारोपयोग है / अनाकारोपयोग भी छद्मस्थों का अन्तर्मुहूर्त्त-कालिक है। परन्तु अनाकारोपयोग के काल से साकारोपयोग का काल संख्यातगुणा अधिक जानना चाहिए. क्योंकि विशेष का ग्राहक होने से उसमें अधिक समय लगता है। केवलियों के अनाकारोपयोग का काल तो एक ही समय का होता है। पृष्ठ 156 पर दी तालिका से जीवों में साकारोपयोग-अनाकारोपयोग की जानकारी सुगमता से हो जाएगी। जीव आदि में साकारोपयुक्तता-अनाकारोपयुक्तता-निरूपरण 1928. जीवा णं भंते ! कि सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि / से केणढेणं भंते ! एवं उच्चति जीवा सागारोवउत्ता वि अमागारोवउत्ता वि? गोयमा ! जे णं जीवा आभिणिबोहियणाण-सुतणाण-प्रोहिणाण-मण-केवल-मतिअण्णाणसुतअण्णाण-विभंगणाणोवउत्ता ते णं जीवा सागारोवउत्ता, जे णं जीवा चक्खुदंसण-अचक्खुदंसणप्रोहिदसण-केवलदसणोवउत्ता ते णं जीवा प्रणागारोवउत्ता, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चति जीवा 'सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. को. भा. 2, 860-62 Page #1351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156] जीवों के नाम साकारोपयोग कितने ? अनाकारोपयोग कितने ? कारण समुच्चय जीव मनुष्य आठ ही प्रकार का साकागेपयोग चारों ही प्रकार का अनाकारोपयोग क्योंकि इनमें सम्यग्दष्टि और मिथ्याष्टि दोनों प्रकार के जीव पाये जाते हैं, इस कारण आठों साकारो व चारों अनाकारोपयोग नैरयिक दस प्रकार के भवनपति पंचेन्द्रियतिर्यञ्च वाणव्यन्त र देव ज्योतिष्क देव वैमानिक देव इन सब में 6 प्रकार के-- इन सब में तीन प्रकार केमतिज्ञान. श्रुतज्ञान. अवधिज्ञान.. चक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग मत्यज्ञान; श्रुताज्ञान; विभंगज्ञान. __ अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग अवधिदर्शन-अनाकारोपयोग नारक, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय, भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्याष्टि भी। सम्यग्दष्टि में तीन ज्ञान, मिथ्याष्टि में तीन अज्ञान पाये जाते हैं तथा दोनों में तीन प्रकार के अनाकारोपयोग पाये जाते हैं। दो प्रकार का-मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान-साकारोपयोग पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावर एकेन्द्रिय जीव द्वीन्द्रिय जीव श्रीन्द्रिय जीव चतुरिन्द्रिय जीव चार प्रकार का--मतिज्ञान. श्रुतज्ञान तथा मत्यज्ञान श्रुत-ग्रज्ञान-साकारोपयोग एक प्रकार का सम्यग्दर्शन रहित होने से दो प्रकार के अचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग अज्ञान तथा चक्षुरिन्द्रियरहित होने से एक प्रचक्षुदर्शन-अनाकारोपयोग होता है। एक ही प्रकार का-प्रचक्षुदर्शन तीनों विकलेन्द्रिय जीवों को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सास्वादनभाव को प्राप्त होते हुए दो प्रकार का चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन अपर्याप्तावस्था में होते हैं, इसलिए दो ' ज्ञान भी होते हैं। चतुरिन्द्रिय जीव के चक्षुरिन्द्रिय होने से चक्षुदर्शन भी पाया जाता है।' [प्रज्ञापनासून 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति अभि. भा. 2, पृ. 866-67 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनीटीका) भा. 5, पृ. 707 से 713 Page #1352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसको उपयोगपव] [157 [1928 प्र.] भगवन् ! जीव साकारोपयुक्त होते हैं या अनाकारोपयुक्त ? {1628 उ.] गौतम ! जीव साकारोपयोग से उपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयोग से उपयुक्त भी। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं ? उ.] गौतम ! जो जीव प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान एवं विभंगज्ञान उपयोग वाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त कहे जाते हैं और जो जीव चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त कहे जाते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी। 1926. रइया णं भंते ! कि सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! रइया सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि / से केपट्टेणं भंते ! एवं बच्चति ? गोयमा ! जे गं गैरइया आभिणिबोहियणाण-सुत-प्रोहिणाण-मतिअण्णाण-सुतअण्णाणविभंगणाणोवउत्ता ते णं णेरइया सागारोवउत्ता, जे णं रइया चक्खुदंसण-अचवखुदंसणप्रोहिदसणोवउत्ता ते णं गैरइया अणागारोवउत्ता, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चति जाव सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। [1926 प्र.] भगवन् ! नेरयिक साकारोपयुक्त होते हैं या अनाकारोपयुक्त ? [1626 उ.] गौतम ! नैरयिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नैरयिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं ? [उ.] गौतम ! जो नै रयिक आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान तथा मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान के उपयोग से युक्त होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो नैरयिक चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं / इस कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि नै रयिक साकारोयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। 1930. एवं जाव थणियकुमारा। [1630] इसी प्रकार का कथन यावत् स्तनितकुमार तक के विषय में करना चाहिए। 1631. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! तहेव जाव जे णं पुढविकाइया मतिअण्णाण-सुतअण्णाणोवउत्ता ते णं पुढविकाइया सागारोवउत्ता, जे णं पुढविकाइया अचक्खुदंसणोवउत्ता ते णं पुढविक्काइया अणागारोवउत्ता, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति जाव वणप्फइकाइया। Page #1353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] [1631 प्र.] पृथ्वीकायिकों के विषय में इसी प्रकार की पृच्छा ? [1631 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (नारकादि के समान) जो पृथ्वीकायिक जीव मत्यज्ञान और उपयोग वाले हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं तथा जो पृथ्वीकायिक जीव अचक्षदर्शन के उपयोग वाले होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त कारणों से अप्कायिक, वायुकायिक, तेजस्कायिक और वनस्पतिकायिक साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। 1932. [1] बेइंदियाणं अट्ठसहिया तहेब पुच्छा। गोयमा ! जाव जे णं बेइंदिया प्राभिणिबोहियणाण-सुतणाण-मतिअण्णाण-सुयअण्णाणोवउत्ता ते णं बेइंदिया सागारोवउत्ता, जे णं बेइंदिया अचक्खुदसणोवउत्ता ते णं बेइंदिया अणागारोवउत्ता, सेतेणठेणं गोयमा! एवं बच्चति / [1932 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की (उपयोगयुक्तता के विषय में पूर्ववत्) कारणसहित पृच्छा ? [1632 उ.] गौतम ! यावत् जो द्वीन्द्रिय आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, मत्यज्ञान और श्रुत-अज्ञान के उपयोग वाले होते हैं, वे साकारोपयुक्त होते हैं और जो द्वीन्द्रिय अचक्षुदर्शन के उपयोग से युक्त होते हैं, वे अनाकारोपयुक्त होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय जीव साकारोपयुक्त भी होते हैं और अनाकारोपयुक्त भी होते हैं। [2] एवं जाव चरिदिया। गवरं चक्खुदंसणं अभइयं चउरिदियाणं / [1932-2] इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय एवं) यावत् चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए; विशेष यह है कि चतुरिन्द्रिय जीवों में चक्षुदर्शन अधिक कहना चाहिए। 1933. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया जहा णेरइया (सु. 1929) / [1933] पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकों का (कथन सू. 1929 में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए।) 1934. मणूसा जहा जीवा (सु. 1928) / [1634] मनुष्यों के विषय में वक्तव्यता (सू. 1928 में उक्त) समुच्चय जीवों के समान (जानना चाहिए।) 1935. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमागिया जहा गैरइया (सु. 1926) / // पण्णवणाए भगवतीए एगणतीसइमं उवमोगपयं समत्तं // Page #1354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनतीसवां उपयोगपद [159 [1935] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में नैरयिकों के समान (कथन करना चाहिए !) विवेचन-प्रस्तुत (सू. 1918 से 1635 तक) आठ सूत्रों में समुच्चय जीवों और चौबीसदण्डकवर्ती जीवों में साकारोपयोगयुक्तता एवं अनाकारोपयोगयुक्तता का कारणपूर्वक कथन किया गया है / कथन स्पष्ट है। // प्रज्ञापना भगवती का उनतीसवाँ उपयोगपद समाप्त // 10 Page #1355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसइमं पासणयापयं तीसवाँ पश्यत्तापद जीव एवं चौवीस दण्डकों में पश्यत्ता के भेद-प्रभेदों को प्ररूपरणा 1936. कतिविहा णं भंते ! पासणया' पण्णता? गोयमा ! दुविहा पासणया पण्णत्ता / तं जहा-सागारपासणया अणागारपासणया य / [1636 प्र.] भगवन् ! पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1636 उ.] गौतम ! पश्यत्ता दो प्रकार की कही गई है / यथा-साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता। 1637. सागारपासणया णं भंते ! कइविहा पण्णता? गोयमा! छग्विहा पण्णत्ता / तं जहा--सुयशाणसागारपासणया 1 प्रोहिणाणसागारपासणया 2 मणपज्जवणाणसागारपासणया 3 केवलणाणसागारपासणया 4 सुयअन्नाणसागारपासणया 5 विभंगनाणसागारपासणया 6 / [1637 प्र. भगवन् ! साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1937 उ.] गौतम ! वह छह प्रकार की कही गई है। यथा-(१) श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता, (2) अवधिज्ञानसाकारपश्यत्ता, (3) मनःपर्यवज्ञानसाकारपश्यत्ता, (4) केवलज्ञानसाकारपश्यत्ता, (5) श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता और (6) विभंगज्ञानसाकारपश्यत्ता। 1938. प्रणागारपासणया भंते ! कतिविहा पण्णता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता। तं जहा- चक्खुदंसणसणागारपासणया 1 प्रोहिदसणणागारपासणया 2 केवलदसणप्रणागारपासणया 3 / [1638 प्र.] भगवन् ! अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1938 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार की कही गई है। यथा-(१) चक्षुदर्शनअनाकारपश्यत्ता, (2) अवधिदर्शनअनाकारपश्यत्ता और (3) केवलदर्शनअनाकारपश्यत्ता / 1936. एवं जीवाणं पि। [1636] इसी प्रकार (छह प्रकार की साकारपश्यत्ता और तीन प्रकार की अनाकारपश्यत्ता) समुच्चय जीवों में (कहनी चाहिए।) 1. 'पासणया' शब्द का संस्कृतरूपान्तर 'पश्यनका—पश्यना' भी होता है, वह सहसा यह भ्रम खड़ा कर देता है, कि कहीं यह वर्तमान में प्रचारित बौद्धधर्म-संदिष्ट 'विपश्यना' तो नहीं है ? परन्तु प्रागे के वर्णन को देखते हुए यह भ्रम मिट जाता है। ----स. Page #1356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां पश्यत्तापद [161 1940. रइयाणं भंते ! कतिविहा पासणया पण्णता? गोयमा! विहा पणत्ता। तं जहा-सागारपासणया प्रणागारपासणयाय। [1940 प्र.) भगवन् ! नैरयिक जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1940 उ.] गौतम ! दो प्रकार की कही गई है / यथा- साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता ! 1641. रइयाणं भंते ! सागारपासणया कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! चउम्विहा पण्णता। तं जहा--सुतणाणसागारपासणया 1 प्रोहिणाणसागारपासणया 2 सयअण्णाणसागारपासणया 3 विभंगणाणसागारपासणया 4 / [1941 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों को साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1941 उ] गौतम ! उनकी पश्यत्ता चार प्रकार की कही गई है। यथा-(१) श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता, (2) अवधिज्ञानसाकारपश्यत्ता, (3) श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता और (4) विभंगज्ञानसाकारपश्यत्ता। 1642. रइयाणं भंते ! प्रणागारपासणया कतिविहा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा–चक्खुदंसणप्रणागारपासणया य प्रोहिदंसणणागारपासणया य। [1642 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों की अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1642 उ.] गौतम ! वह दो प्रकार की कही गई है / यथा-चक्षुदर्शन-अनाकारपश्यत्ता और अवधिदर्शन-अनाकारपश्यत्ता / 1943 एवं जाव थणियकुमारा। [1643] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक (की पश्यत्ता जाननी चाहिए / ) 1944. पुढविक्काइयाणं भंते ! कतिविहा पासणया पण्णता ? गोयमा ! एगा सागारपासणया। [1944 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1644 उ.] गौतम ! उनमें एक साकारपश्यत्ता कही है / 1945. पुढ विक्काइयाणं भंते ! सागारपासणता कतिविहा पण्णता? गोयमा ! एगा सयअण्णाणसागारपासणया पण्णता? [1945 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों को साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1645 उ.] गौतम ! उनमें एकमात्र श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता कही गई है। 1646. एवं जाव वणप्फइकाइयाणं / [1646] इसी प्रकार (अप्कायिकों से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिकों तक (की पश्यत्ता जाननी चाहिए। Page #1357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र 1947. बेइंदियाणं भंते ! कतिविहा पासणया पण्णत्ता ? गोयमा ! एगा सागारपासणता पण्णत्ता। [1947 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की कितने प्रकार की पश्यत्ता कही गई है ? [1947 उ.] गौतम ! उनमें एकमात्र साकारपश्यत्ता कही गई है। 1948. बेइंदियाणं भंते ! सागारपासणया कतिविहा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा--सुतणाणसागारपासणता य सुयअण्णाणसागारपासणता य। [1948 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीवों की साकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही है ? [1648 उ.] गौतम ! दो प्रकार की कही गई है। यथा-श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता और श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता / 1946. एवं तेहंदियाण वि / [1646] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों को (वक्तव्यता) भी (जाननी चाहिए।) 1950. चारिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-सागारपासणता य अणागारपासणता य। सागारपासणता जहा बेइंदियाणं (सु. 1647-48) / [1650 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की पश्यत्ता कितने प्रकार की कही गई है ? [1950 उ.] गौतम ! उनको पश्यत्ता दो प्रकार की कही गई है / यथा--साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता। इनको साकारपश्यत्ता द्वीन्द्रियों को (सू. 1947-48 में कहे अनुसार) साकारपश्यत्ता के समान जाननी चाहिए। 1951. चरिदियाणं भंते ! प्रणागारपासणता कतिविहा पण्णता? गोयमा ! एगा चक्खुदंसणअणागारपासणया पण्णता। [1651 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की अनाकारपश्यत्ता कितने प्रकार की कही [1951 उ.] गौतम ! उनकी एकमात्र चक्षुदर्शन-अनाकारपश्यत्ता कही है / 1952. मणूसाणं जहा जीवाणं (सु. 1636) / _[1952] मनुष्यों की साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता) का कथन (सू. 1939 में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है / 1953. सेसा जहा रइया (सु. 1940-42) जाव वेमाणिया। [1653] वैमानिक पर्यन्त शेष समस्त दण्डकों की पश्यत्ता-सम्बन्धी वक्तव्यता (सू. 194042 में उक्त] नैरयिकों के समान कहनी चाहिए / Page #1358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवाँ पश्यत्तापद] (163 विवेचन-उपयोग और पश्यत्ता में अन्तर-मूलपाठ में दोनों में कोई अन्तर नहीं बताया गया / व्याकरण की दृष्टि से पश्यत्ता का अर्थ है--देखने का भाव / उपयोग शब्द के समान पश्यत्ता के भी दो भेद किये गए हैं। प्राचार्य अभयदेव ने थोड़ा-सा स्पष्टीकरण किया है कि यों तो पश्यत्ता एक उपयोग-विशेष ही है, किन्तु उपयोग और पश्यत्ता में थोड़ा-सा अन्तर है। जिस बोध में केवल त्रैकालिक (दीर्घकालिक) अवबोध हो, वह 'पश्यत्ता' है तथा जिस बोध में केवल वर्तमानकालिक बोध वह उपयोग है। यही कारण है कि साकारपश्यत्ता के भेदों में मतिज्ञान और मत्यज्ञान, इन दोनों को नहीं लिया गया है, क्योंकि इन दोनों का विषय वर्तमानकालिक अविनष्ट पदार्थ ही होता है तथा अनाकारपश्यत्ता में प्रचक्षुदर्शन का समावेश इसलिए नहीं किया गया है कि पश्यत्ता एक प्रकार का प्रकृष्ट ईक्षण है, जो चक्षुरिन्द्रिय से ही सम्भव है तथा दूसरी इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग अल्पकालिक और द्रुततर होता है, यही पश्यत्ता की प्रेक्षण-प्रकृष्टता में कारण है। अतः अनाका रपश्यत्ता का लक्षण है-जिसमें विशिष्ट परिस्फुटरूप देखा जाए। यह लक्षण चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन में ही घटित हो सकता है। वस्तुतः प्राचीनकालिक व्याख्याकारों के अनुसार पश्यत्ता और उपयोग के भेदों में अन्तर ही इनकी व्याख्या को ध्वनित कर देते हैं।' साकारपश्यत्ता का प्रमाण-प्राभिनिबोधिकज्ञान उसे कहते हैं, जो अवग्रहादिरूप हो, इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से उत्पन्न हो तथा वर्तमानकालिक वस्तु का ग्राहक हो / इस दृष्टि से मतिज्ञान और मत्यज्ञान दोनों में साकारपश्यत्ता नहीं है, जबकि श्रुतज्ञानादि छहों अतीत और अनागत विषय के ग्राहक होने से साकारपश्यत्ता शब्द के वाच्य होते हैं / श्रुतज्ञान त्रिकालविषयक होता है। अवधिज्ञान भी असंख्यात अतीत और अनागतकालिक उत्सपिणियों-प्रवपिणियों को जानने के कारण त्रिकाल-विषयक है। मनःपर्यवज्ञान भी पल्योपम के असंख्यात भागप्रमाण अतीत-अनागतकाल का परिच्छेदक होने से त्रिकालविषयक है। केवलज्ञान की त्रिकालविषयता तो प्रसिद्ध ही है। श्रुताज्ञान और विभंगज्ञान भी त्रिकाल विषयक होते हैं, क्योंकि ये दोनों यथायोग्य अतीत और अनागत भावों के परिच्छेदक होते हैं / अतएव पूर्वोक्त छहों ही साकारपश्यत्ता वाले हो सकते हैं।' जीव और चौवीस दण्डकों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता का निरूपरण 1954. जीवा णं भंते ! कि सागारपस्सी अणागारपस्सी ? गोयमा! जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि। से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चति जीवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि? गोयमा ! जे गं जोवा सुयणाणी अोहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी सुयअण्णाणी विभंगणाणी ते णं जीवा सागारपस्सी, जे णं जीवा चक्खुदसणी मोहिवंसणी केवलदसणी ते णं जीवा अणागारपस्सो, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति जोवा सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि / 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 530 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 729 से 731 (ग) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 714 2. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग 5, पृ. 731-732 Page #1359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] [प्रज्ञापनासूत्र [1954 प्र.] भगवन् ! जीव साकारपश्यत्ता वाले होते हैं या अनाकारपश्यत्ता वाले ? [1954 उ.] गौतम ! जीव साकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं! [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि जीव साकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं ? उ.] गौतम ! जो जीव श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले होते हैं और जो जीव चक्षदर्शनी, अ शनी, अवधिदर्शनी और केवलदर्शनी होते हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले होते हैं। इस कारण से हे गौतम ! यों कहा जा कि जीव साकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी होते हैं / 1955. रइया णं भंते ! कि सागारपस्सी प्रणागारपस्सी ? गोयमा! एवं चेव / णवरं सागारपासणताए मणपज्जवणाणी केवलणाणी ण वच्चंति, अणागारपासणताए केवलदंसणं णस्थि / [1955 प्र. भगवन् ! नैरयिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं या अनगारपश्यत्ता वाले हैं ? [1955 उ.] गौतम ! पूर्ववत् (दोनों प्रकार के हैं / ) परन्तु इनमें साकारपश्यता के रूप में (नैरयिकों में) मनःपर्यायज्ञानी और केवलज्ञानी नहीं कहना चाहिए तथा अनाकारपश्यत्ता में केवलदर्शन नहीं है। 1956. एवं जाव थणियकुमारा। [1956] इसी प्रकार (की वक्तव्यता) यावत् स्तनितकुमारों तक (कहनी चाहिए ) / 1957 [1] पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! पुढविक्काइया सागारपस्सी, णो अणागारपस्सी / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति ? गोयमा ! पुढविक्काइयाणं एगा सुयअण्णाणसागारपासणया पण्णत्ता, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चतिः। [1957-1 प्र.] पृथ्वीकायिक जीवों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1957-1 उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'पृथ्वीकायिक जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं ? [उ.] गौतम ! पृथ्वीकायिकों में एकमात्र श्रुत-अज्ञान (होने से) साकारपश्यत्ता कही है। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं / Page #1360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसों पश्यत्तापद] - [2] एवं जाव वणस्सतिकाइया / [1957-2] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत वनस्पतिकायिकों तक के (सम्बन्ध में कहना चाहिए / ) 1958. बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा ! सागारपस्सी, णो अणागारपस्सी। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ? गोयमा! बेइंदियाणं दुविहा सागारपासणया पण्णत्ता। तं जहा--सुयणाणसागारपासणया य सुयप्रणाणसागारपासणया य, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति / [1658 उ.] गौतम ! वे साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि द्वीन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं? [उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों की दो प्रकार की पश्यत्ता कही है / यथा-श्रुतज्ञानसाकारपश्यत्ता और श्रुत-अज्ञानसाकारपश्यत्ता / इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि द्वीन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं / 1656. एवं तेइंदियाण वि / [1656] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीवों के विषय में समझना चाहिए। 1960. चरिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! चरिदिया सागारपस्सी वि अणागारपस्सी वि / से केणठेणं०? गोयमा ! जे णं चरिदिया सुयणाणी सुतमण्णाणो ते णं चरिदिया सागारपस्सी, जे गं चरिदिया चक्खुवंसणी ते णं चरिदिया अणागारपस्सी, से तेणट्ठणं गोयमा ! एवं वुच्चति / [1960 प्र.] भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं या अनाकारपश्यत्ता वाले हैं ? 1960 उ.] गौतम ! चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं। [प्र. भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि चतुरिन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं ? Page #1361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ মিথলা हैं और जो चतुरिन्द्रिय चक्षुदर्शनी हैं, वे अनाकारपश्यता वाले हैं। इस हेतु से हे गौतम ! यों कहा जाता है कि चतुरिन्द्रिय साकारपश्यत्ता वाले भी हैं और अनाकारपश्यत्ता वाले भी हैं। 1961. मणूसा जहा जीवा (सु. 1654) / [1661] मनुष्यों से सम्बन्धित कथन (सू. 1954 में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है। 1962. अवसेसा जहा णेरइया (सु. 1655) जाव वेमाणिया। [1962] अवशिष्ट सभी (वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा) यावत् वैमानिक तक के विषय में (सू. 1655 में उक्त) नैरयिकों के समान (जानना चाहिए / ) विवेचन-किन-किन जीवों में साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता होती है और क्यों? --- (1) समच्चय जीवों में जो जीव श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी या केवलज्ञानी हैं अथवा श्रताज्ञानी या विभंगज्ञानी हैं, वे साकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका ज्ञान साकारपश्यत्ता से युक्त है। जो जीव चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी तथा केवलदर्शनी हैं, वे अनाकारपश्यत्ता वाले हैं, क्योंकि उनका बोध अनाकारपश्यत्ता है। मनुष्यों में भी समुच्चय जीवों के समान साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता दोनों हैं। नारक भी साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता वाले हैं, किन्तु नारक मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान रूप साकारपश्यत्ता से युक्त नहीं होते, तथैव केवलदर्शन रूप अनाकारपश्यत्ता वाले भी वे नहीं होते / इसका कारण यह है नारक चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते, अतएव उनमें ये तीनों सम्भव नहीं होते / पृथ्वी कायिक आदि पांचों एकेन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीव साकारपश्यत्ता वाले होते हैं, अनाकारपश्यत्ता वाले नहीं, क्योंकि एकेन्द्रिय जीवों में श्रुताज्ञान रूप साकारपश्यत्ता होती है, अनाकारपश्यत्ता नहीं होती, क्योंकि उनमें विशिष्ट परिस्फुट बोध रूप पश्यत्ता नहीं होती / चतुरिन्द्रियों में दोनों ही पश्यत्ताएँ होती हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होने से चक्षुदर्शनरूप अनाकारपश्यत्ता भी होती है। चतुरिन्द्रिय जीव श्रुतज्ञानी एवं श्रुताज्ञानी होने से वे साकारपश्यत्तायुक्त होते ही हैं / भवनपति वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक जीव नारकों की तरह साकारपश्यत्ता और अनाकारपश्यत्ता से युक्त होते हैं।' केवली में एक समय में दोनों उपयोगों के निषेध को प्ररूपणा 1963. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि प्रागारेहि हेतूहिं उधमाहिं दिलैंतेहि वहिं संठाणेहि पमाणेहिं पडोयारेहि जं समयं जाणति तं समयं पासति जं समयं पासति तं समयं जाणति? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केण→णं भंते ! एवं बुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि प्रागारेहि जाव जं समयं जाणति णो तं समयं पासति जं समयं पासति णो तं समयं जाणति ? गोयमा ! सागारे से णाणे भवति अणागारे से दसणे भवति, से तेगट्टेणं जाव णो तं समयं 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 739 से 744 तक (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), पृ. 411-412 Page #1362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवाँ पश्यत्तापद] [167 जाणति / एवं जाव असत्तमं / एवं सोहम्मं कप्पं जाव अच्चुयं गेवेज्जगविमाणे अणुत्तरविमाणे ईसीपभारं पुढवि परमाणुपोग्गलं दुपएसियं खंध अणंतपदेसियं खंधं / [1963 प्र.] भगवन ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से, हेतुओं से, उपमाओं से, दृष्टान्तों से, वर्णों से, संस्थानों से, प्रमाणों से और प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय देखते हैं तथा जिस समय देखते हैं, उस समय जानते हैं ? [1963 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को आकारों से यावत् प्रत्यवतारों से जिस समय जानते हैं, उस समय नहीं देखते और जिस समय देखते हैं, उस समय नहीं जानते ? [उ.] गौतम ! जो साकार होता है, वह ज्ञान होता है और जो अनाकार होता है, वह दर्शन होता है, (इसलिए जिस समय साकारज्ञान होगा, उस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) नहीं रहेगा, इसी प्रकार जिस समय अनाकारज्ञान (दर्शन) होगा, उस समय साकारज्ञान नहीं होगा। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि केवलज्ञानी जिस समय जानता है, उस समय देखता नहीं यावत् जानता नहीं / इसी प्रकार शर्कराप्रभापृथ्वी से यावत् अधःसप्तमन र कपृथ्वी तक के विषय में जानना चाहिए और इसी प्रकार (का कथन) सौधर्मकल्प (से लेकर) यावत् अच्युतकल्प, अवेयकविमान, अनुत्तरविमान, ईषत्प्राग्भारापृथ्वी, परमाणुपुद्गल, द्विप्रदेशिक स्कन्ध यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक (के जानने और देखने के विषय में समझना चाहिए। अर्थात् इन्हें जिस समय केवली जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं।) 1964. केवली णं भंते ! इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहि अहेतूहि अणुवमाहि अदिट्ठतेहि प्रवणेहि प्रसंठाणेहि अपमाहि अपडोयारेहिं पासति, ण जाणति ? हंता गोयमा ! केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहि जाव पासति, ण जाणइ / से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि प्रणागारेहि जाव पासति, ण जाणइ ? गोयमा ! अणागारे से दसणे भवति सागारे से णाणे भवति, से तेणढेणं गोयमा ! एवं वच्चति केवली णं इमं रयणप्पभं पुढवि अणागारेहि जाव पासति, ण जाणति / एवं जाव ईसीपम्भारं पुढवि परमाणुपोग्गलं अणंतपदेसियं खंधं पासइ, ण जाणइ / ॥पण्णवणाए भगवतीए तीसइमं पासणयापयं समत्तं // [1964 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से, अहेतुनों से, अनुपमाओं से, अदृष्टान्तों से, अवर्णों से, असंस्थानों से, अप्रमाणों से और अप्रत्यवतारों से देखते हैं, जानते नहीं हैं ? [1664 उ.] हाँ, गौतम ! केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं। Page #1363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 [प्रज्ञापनासूत्र [प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से यावत् देखते हैं, जानते नहीं हैं ? [उ.] गौतम ! जो अनाकार होता है, वह दर्शन (देखना) होता है और साकार होता है, वह ज्ञान (जानना) होता है / इस अभिप्राय से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि केवली इस रत्नप्रभापृथ्वी को अनाकारों से""यावत् देखते हैं, जानते नहीं। इसी प्रकार (अनाकारों से यावत अप्रत्यवतारों से शेष छहों नरकवियों, वैमानिक देवों के विमानों) यावत् ईषत्प्रारभारापृथ्वी, परमाणुपुदगल तथा अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक को केवली देखते हैं, किन्तु जानते नहीं, (यह कहना चाहिए / ) विवेचन- केवली के द्वारा ज्ञान और दर्शन के समकाल में न होने की चर्चा--(१) इस प्रश्न के उठने का कारण-छद्मस्थ जीव तो कर्मयुक्त होते हैं, अत: उनका साकारोपयोग और अनाकारोपयोग क्रम से ही प्रादुर्भूत हो सकता है, क्योंकि कर्मों से प्रावृत जीवों के एक उपयोग के समय, दूसरा उपयोग कर्म से आवृत हो जाता है। इस कारण दो उपयोगों का एक साथ होना विरुद्ध है। अत: जिस समय छद्मस्थ जानता है, उसी समय देखता नहीं है, किन्तु उसके बाद ही देख सकता है / मगर केवली के चार घातिक कर्मों का क्षय हो चुका है। अतः ज्ञानावरणीय कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनको ज्ञान और दर्शन दोनों एक साथ होने में कोई विरोध या बाधा नहीं है। ऐसी आशंका से गौतमस्वामी द्वारा यह प्रश्न उठाया गया कि क्या केवली रत्नप्रभा ग्रादि को जिस समय जानते हैं, उसी समय देखते हैं अथवा जीव-स्वभाव के कारण क्रम से जानते-देखते हैं ?' प्रागारेहि प्रादि पदों का स्पष्टीकरण-(१) प्रागारहि केवली भगवान इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अर्थात आकार-प्रकारों से यथा यह रत्नप्रभापृथ्वी खरकाण्ड, पंककाण्ड और अकाण्ड के भेद से तीन प्रकार की है। खरकाण्ड के भी सोलह भेद हैं। उनमें से एक सहस्रयोजन प्रमाण रत्नकाण्ड है, तदनन्तर एक सहस्रयोजन-परिमित वनकाण्ड है, फिर उसके नीचे सहस्रयोजन का वैडूर्यकाण्ड है, इत्यादि रूप के प्राकार-प्रकारों से समझना। (2) हेहिं-हेतुओं से अर्थात् उपपत्तियों से-युक्तियों से / यथा इस पृथ्वी का नाम रत्नप्रभा क्यों है ? युक्ति प्रादि द्वारा इसका समाधान यह है कि रत्नमयकाण्ड होने से या रत्न की ही प्रभा या स्वरूप होने से अथवा रत्नमयकाण्ड होने से उसमें रत्नों की प्रभाकान्ति है, अत: इस पृथ्वी का रत्नप्रभा नाम सार्थक है। (3) उवमाहि-उपमाओं से अर्थात् सदृशताओं से। जैसे कि-वर्ण से पद्मराग के सदृश रत्नप्रभा में रत्नप्रभ आदि काण्ड हैं, इत्यादि / (4) दिळेंतेहि - दृष्टान्तों-उदाहरणों से या वादी-प्रतिवादी की बुद्धि समता-प्रतिपादक वाक्यों से / जैसे-घट, पट आदि से भिन्न होता है, वैसे ही यह रत्नप्रभापृथ्वी शर्कराप्रभा आदि अन्य नरकपथ्वियों से भिन्न है, क्योंकि इसके धर्म उनसे भिन्न हैं। इसलिए रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि से भिन्न वस्तु है, इत्यादि / (5) वण्णेहि-वर्ण-गन्धादि के भेद से / शुक्ल आदि वर्गों के उत्कर्ष-अपकर्षरूप संख्यातगुण, असंख्यातगुण और अनन्तगुण के विभाग से तथा गन्ध, रस और स्पर्श के विभाग से / (6) संठाणेहि-संस्थानों-आकारों से अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी में बने भवनों और नरकावासों की रचना के आकारों से। जैसे-वे भवन बाहर से गोल और अन्दर से 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनीटीका) भा. 5, पृ. 747-748 Page #1364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसवां पश्यत्तापद] [169 चौकोर हैं, नीचे पुष्कर को कणिका को प्राकृति के हैं / इसी प्रकार नरक अन्दर से गोल और बाहर से चौकोर हैं और नीचे क्षरप्र (खरपा) के आकार के हैं, इत्यादि / (7) पमाणेहि-प्रमाणों से अर्थात् उसकी लम्बाई, मोटाई, चौड़ाई प्रादिरूप परिमाणों से। जैसे-वह एक लाख अस्सी हजार योजन मोटाई वाली तथा रज्जु-प्रमाण लम्बाई-चौड़ाई वाली है, इत्यादि / (8) पडोयारेहि-प्रत्यवतारों से अर्थात् पूर्ण रूप से चारों ओर से व्याप्त करने वाले पदार्थों (प्रत्यवतारों) से / जैसे-घनोदधि आदि वलय सभी दिशाओं-विदिशानों में व्याप्त करके रहे हुए हैं, अतः वे प्रत्यवतार कहलाते हैं। इस प्रकार के प्रत्यवतारों से जानना।' प्रथम प्रश्न का तात्पर्य-क्या केवली भगवान् पूर्वोक्त आकारादि से रत्नप्रभादि को जिस समय केवलज्ञान से जानते हैं, उसी समय केवलदर्शन से देखते भी हैं तथा जिस समय वे केवलदर्शन से देखते हैं, क्या उसी समय केवलज्ञान से जानते भी हैं ? उत्तर का स्पष्टीकरण उपयुक्त प्रश्न का उत्तर 'ना' में है / क्योंकि केवली भगवान् का ज्ञान साकार अर्थात् विशेष का ग्राहक होता है, जबकि उनका दर्शन अनाकार अर्थात् सामान्य का ग्राहक होता है। अतएव केवली भगवान् जब ज्ञान के द्वारा विशेष का परिच्छेद करते हैं, तब जानते हैं, ऐसा कहा जाता है और जब दर्शन के द्वारा अनाकार यानी सामान्य को ग्रहण करते हैं, तब देखते हैं, ऐसा कहा जाता है / सविशेष पुनर्ज्ञानम् इस लक्षण के अनुसार वस्तु का विशेषयुक्त बोध या विशेषग्राहक बोध ही ज्ञान होता है। अतः केवली का ज्ञान साकार यानी विशेष का ही ग्राहक होता है, अन्यथा उसे ज्ञान ही नहीं कहा जा सकता और दर्शन अनाकार यानी सामान्य का हो ग्राहक होता है, क्योंकि दर्शन का लक्षण ही है—'पदार्थों को विशेषरहित ग्रहण करना।' अत: सिद्धान्त यह है कि जब ज्ञान होता है, तब ज्ञान ही होता है और जब दर्शन होता है, तब दर्शन ही होता है। ज्ञान और दर्शन छाया और आतप (धूप) के समान साकाररूप एवं अनाकाररूप होने से परस्पर विरोधी हैं। ये दोनों एक साथ उपयुक्त नहीं रह सकते। अतएव केवली जिस समय जानते हैं, उस समय देखते नहीं और जिस समय देखते हैं, उस समय जानते नहीं। जीव के कतिपय प्रदेशों में ज्ञान हो और कतिपय प्रदेशों में दर्शन हो, इस प्रकार एक ही साथ खण्डश: ज्ञान और दर्शन सम्भव नहीं है। सातों नरकपृथ्वियों, अनुत्तरविमान तक के विमानों, ईषत्प्रारभारापृथ्वी, परमाणु, द्विप्रदेशी से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध के विषय में यही सिद्धान्त पूर्वोक्त युक्तिपूर्वक समझ लेना चाहिए। द्वितीय प्रश्न का तात्पर्य केवली जिस समय इस रत्नप्रभापृथ्वी आदि को अनाकारों (आकार-प्रकाररहित रूप) इत्यादि से क्या केवल देखते ही हैं, जानते नहीं हैं ? उत्तर का स्पष्टीकरण-भगवान् इसे 'हाँ' रूप में स्वीकार करते हैं, क्योंकि अनाकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करना दर्शन का कार्य है, ज्ञान का नहीं। ज्ञान का कार्य साकार आदि रूप में ग्रहण करना है / स्पष्ट शब्दों में कहें तो केवल अनाकार आदि रूप में जब रत्नप्रभादि को सामान्य 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 748 से 751 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 751 से 753 तक Page #1365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17.] [प्रज्ञापनासूत्र रूप से ग्रहण करते हैं, तब दर्शन ही होता है, ज्ञान नहीं। ज्ञान तभी होगा, जब वे साकार आदि रूप में वस्तु को ग्रहण करें।' __ 'अणागारेहि' प्रादि पदों का विशेषार्थ-(१) प्रणागारेहि-अनाकारों से पूर्वोक्त प्राकारप्रकारों से रहित-रूप से / (2) अहेतूहि-हेतु-युक्ति प्रादि से रहित रूप से / (3) अणुवमाहि-अनुपमाओं से-सदृशतारहितरूप से / (4) अदिळेंतेहि-अदृष्टान्तों से-दृष्टान्त, उदाहरण प्रादि के अभाव से। (5) श्रवणेहि-अवर्णों से अर्थात शूक्लादि वर्गों एवं गन्ध, रस और स्पर्श से रहित रूप से। (6) असंठाणेहि असंस्थानों से अर्थात् रचनाविशेष-रहित रूप में / (7) अपमाणेहिअप्रमाणों-पूर्वोक्त रूप से लम्बाई-चौड़ाई-मोटाई आदि परिमाण-विशेष से रहित रूप से। (8) अपडोयारेहि अप्रत्यवतारों से अर्थात् घनोदधि आदि वलयों से व्याप्त होने की स्थिति से रहित रूप में, केवल देखते ही हैं। निष्कर्ष यह है कि केवली जब केवलदर्शन से रत्नप्रभादि किसी भी वस्तु को देखते हैं तब जानते नहीं केवल देखते ही हैं और जब जानते हैं तब देखते नहीं। इसलिए शास्त्रकार कहते हैंकेवली""जाव अपडोयारेहिं पासति, ण जाणति / // प्रज्ञापना भगवती का तीसवाँ पश्यत्तापद समाप्त // 0 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 754 से 756 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 754-755 Page #1366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं सण्णिपयं इकतीसवाँ संज्ञिपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के इस इकतीसवें 'संज्ञिपद' में सिद्धसहित समस्त जीवों का संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंजी-नोअसंज्ञी, इन तीन भेदों के आधार पर विचार किया गया है। * इस पद में बताया गया है कि सिद्ध संज्ञी भी नहीं हैं, असंज्ञी भी नहीं हैं, उनकी संज्ञा नोसंज्ञी नोअसंज्ञी है, क्योंकि वे मन होते हुए भी उसके व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते। मनुष्यों में भी जो केवली हो गए हों, वे सिद्ध के समान ही नोअसंज्ञी-नोसंज्ञी माने गए हैं, क्योंकि वे भी मन के व्यापार से ज्ञान प्राप्त नहीं करते / अन्य गर्भज और सम्मूच्छिम मनुष्य क्रमशः संज्ञी और असंज्ञी होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीव असंज्ञी हैं। नारक, भवनपति, वाणव्यन्तर और पंचेन्द्रियतिर्यंच संज्ञी और असंज्ञी दोनों ही प्रकार के हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक दोनों संज्ञी हैं। * इस पद के उपसंहार में एक गाथा दी गई है, जिसमें मनुष्य को संज्ञी या असंज्ञी दो ही प्रकार का कहा है, परन्तु सूत्र 1670 में मनुष्य में तीनों प्रकार बताए हैं। इससे मालूम होता है कि गाथा का कथन छद्मस्थ मनुष्य की अपेक्षा से होना चाहिए।' * परन्तु संज्ञा का अर्थ यहाँ मूल में स्पष्ट नहीं है। मनुष्य, नारक, भवनपति एवं व्यन्तरदेव को असंज्ञी कहा गया है, इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है, कि जिसके मन हो, उसे संज्ञी कहते हैं, यह अर्थ प्रस्तुत प्रकरण में घटित नहीं होता। यही कारण है कि वृत्तिकार को यहाँ संज्ञा शब्द के दो अर्थ करने पड़े / फिर भी पूरा समाधान नहीं होने से टीकाकार को यह स्पष्टीकरण करना पड़ा कि नारक आदि संज्ञी और असंज्ञी इसलिए हैं कि वे पूर्वभव में संज्ञी या असंज्ञी थे। अतः संज्ञा शब्द यहाँ किस अर्थ में अभिप्रेत है, यह अनुसंधान का विषय है।' 1. पण्णवणासुत्तं भाग 2 (परिशिष्ट, प्रस्तावना), पृ. 142 2. 'संज्ञिनः समनस्काः / ' -तत्वार्थ. 2025 3. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 534 Page #1367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] [प्रज्ञापनासूत्र __ पाचारांगसूत्र के प्रारम्भ में पूर्वभव के ज्ञान के प्रसंग में', अर्थात् विशेष प्रकार के मतिज्ञान के अर्थ में संज्ञा शब्द प्रयुक्त किया गया है / इसी प्रकार दशाश्रुतस्कन्ध में जहाँ दस चित्तसमाधि-स्थानों का वर्णन है, वहाँ अपने पूर्व जन्म के स्मरण करने के अर्थ में संज्ञा शब्द का प्रयोग किया गया है।" इससे प्रतीत होता है कि संज्ञा शब्द पहले मतिज्ञान-विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ होगा, कालक्रम से यह पूर्व-अनुभव के स्मरण या जातिस्मरण ज्ञान के अर्थ में व्यवहृत होने लगा होगा / जो भी हो, संज्ञा शब्द है तो मतिज्ञान-विशेष ही, फिर वह संज्ञा-संकेत-शब्द रूप में हो या चिह्नरूप में हो। उससे ज्ञान होने में स्मरण आवश्यक है। स्थानांगसूत्र में भी ‘एगा सन्ना' ऐसा पाठ मिलता है। इसलिए प्राचीनकाल में संज्ञा नाम का कोई विशिष्ट ज्ञान तो प्रसिद्ध था ही। आवश्यक नियुक्ति में भी संज्ञा को अभिनिबोध (मतिज्ञान) कहा है। 'षटखण्डागम' मूल के मार्गणाद्वार में संज्ञीद्वार है। परन्तु वहाँ संज्ञा का वास्तविक अर्थ क्या है?, यह नहीं बताया गया है। वहाँ संज्ञी-प्रसंज्ञी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ गुणस्थान तक के जीव संज्ञी हैं तथा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव असज्ञी हैं। फिर यह भी कहा है कि संज्ञी क्षायोपशमिक लब्धि से, असंज्ञी औदयिक भाव से और न-संज्ञी, न-असंज्ञी क्षायिकलब्धि से होता है / इसके स्पष्टीकरण में 'धवला' में संज्ञी शब्द की दो प्रकार की व्याख्या की गई है, वह विचारणीय है-सम्यग् जानातीति संज्ञ = मनः, तदस्यास्तीति संज्ञी / नैकेन्द्रियादिना अतिप्रसंगः, तस्य मनसो भावात् / अथवा शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राही संज्ञी / उक्तं च _ 'सिक्खा-किरियुवदेसालावग्गाही मणोवलंबेण' / जो जीवो सो सण्णी, तस्विवरीदो असण्णी दु॥ इस दूसरी व्याख्या में भी मन का पालम्बन तो स्वीकृत है ही। तात्पर्य में इससे कोई अन्तर नहीं पड़ा। * तत्त्वार्थसूत्र में 'संज्ञिनः समनस्का:' (संज्ञी जीव मन वाले होते हैं), ऐसा कह कर भाष्य में इसका स्पष्टीकरण किया है कि यहाँ संज्ञी शब्द से वे ही जीव विवक्षित हैं, जिनमें संप्रधारण संज्ञा हो / सम्प्रधारण संज्ञा का लक्षण किया है--ईहापोहयुक्ता गुणदोषविचारणात्मिका सम्प्र 1. (क) 'मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ता....इत्यनर्थान्तरम् / ' -तत्त्वार्थ. (ख) विशेषावश्यक गा. 12, पत्र 394 (ग) इहमेगेसि जो सण्णा भवइ, तं.पूरस्थिमायो वा दिसानो आगो प्रहमंसि इत्यादि। -प्राचारांम श्रु. 1 सू. 1 2. 'सणिणाणं वा से असमुपनन्नपुब्वे समुपज्जेज्जा, अप्पणो पोराणियं जाई सुमरित्तए -दशाश्रुतस्कन्ध दशा 5 3. (क) पण्णवणासुत्तं भाग 2 (परिशिष्ट प्रस्तावनात्मक), 5. 142 (ख) स्थानांगसूत्र स्था. 1, सू. 29-32, (ग) प्रानश्यकनियुक्ति मा. 12, विशेषावश्यक गा. 394 4. (क) षट्खण्डागम, मूल पु. 1, पृ. 408 (ख) वही, पुस्तक 7, पृ. 111-112, (ग) धवला, पु. 1, पृ. 152 / Page #1368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायमिक] [173 धारणसंज्ञा-अर्थात्-ईहा और अपोह से युक्त गुण-दोष का विचार करने वाली संप्रधारणसंज्ञा है। इसका फलितार्थ यह हुआ कि समनस्क (मन वाले) संज्ञी जीव वे ही होते हैं, जो सम्प्रधारणसंज्ञा के कारण सज्ञी कहलाते हों।' * संज्ञा के इस लक्षण पर से एक वात स्पष्ट हो जाती है कि स्थानांगसूत्र के चतुर्थ स्थान में प्रतिपादित आहारादि संज्ञा तथा आहार-भय-परिग्रह-मैथुन-क्रोध-मान-माया-लोभ-शोक-सुख दुःख-मोह-विचिकित्सासंज्ञा के कारण कहलाने वाले 'सज्ञी' यहाँ विवक्षित नहीं हैं। * कुल मिलाकर 'संजीपद' से प्रात्मा के द्वारा होने वाले मतिज्ञान विशिष्ट तथा गुणदोषविचारणात्मक संज्ञा प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है। O0 1. तत्त्वार्थ. भाष्य 2025 2. स्थानांग, स्था.४, स्था. 10 Page #1369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एगतीसइमं सण्णिपयं इकतीसवाँ संक्षिपद जोव एवं चौवीस दण्डकों में संज्ञो प्रादि की प्ररूपणा 1965. जीवा णं भंते ! कि सण्णी असण्णी गोसण्णी-णोअसण्णी ? गोयमा! जीवा सण्णी वि असण्णी विणोसण्णी-णोअसण्णी वि। [1965 प्र.] भगवन् ! जीव संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं, अथवा नोसंजी-नोप्रसंज्ञी हैं ? [1965 उ.] गौतम ! जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञो भी हैं और नोसंजी-नोप्रसंज्ञी भी हैं / 1966. रइया णं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! रइया सण्णी वि असण्णो वि, णो णोसण्णी-णोअसण्णी / [2666 प्र.] भगवन् ! नैरयिक संज्ञी हैं, असंज्ञी हैं अथवा नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञो हैं ? [1666 उ.] गौतम ! नैरयिक संज्ञी भी हैं, असंज्ञो भी हैं, किन्तु नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं हैं / 1967. एवं असुरकुमारा जाव थणियकुमारा। [1967] इसी प्रकार असुरकुमारों (से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक (कहना चाहिए / ) 1668. पुढधिक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा! णो सपणी, असण्णो, णो पोसण्णी-णोअसण्णो / [1668 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव संज्ञी हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1968 उ.] गौतम ! पृथ्वोकायिक जीव न तो संज्ञी हैं और न नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं, किन्तु असंज्ञी हैं / (इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय जोवों के विषय में समझना चाहिए / ) 1969. एवं बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिया वि / [1966] इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय भी संज्ञी या नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी नहीं होते, किन्तु असंजी होते हैं। 1970. मणूसा जहा जीवा (सु. 1665) / [1970] मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान जानना चाहिए। 1971. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया वाणमंतरा य जहा परइया (सु. 1666) / [1971] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और वाणव्यन्तर का कथन (सू. 1966 में उक्त) नारकों के समान है। Page #1370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इकतीसवाँ संक्षिपद] [175 1972. जोइसिय-वेमाणिया सण्णी, णो असण्णी णो णोसण्णी-णोअसण्णी। [1972] ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी होते हैं, किन्तु असंज्ञी नहीं होते, न ही नोसंज्ञीनोप्रसंज्ञी होते हैं। 1973. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! णो सण्णी णो असण्णी, गोसणि-णोअसण्णी। रइय-तिरिय-मणुया य वणय रसुरा य सण्णऽसण्णी य / विलिदिया असणी, जोतिस-वेमाणिया सण्णी / / 220 // / पण्णवणाए भगवतीए एगतीसइमं सणिपयं समत्तं // [1973 प्र.] भगवन् ! क्या सिद्ध संज्ञी होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1973 उ.] गौतम ! वे न तो संज्ञी हैं, न असंजी हैं, किन्तु नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। संग्रहणीगाथार्थ—'नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, वाणव्यन्तर और असुरकुमारादि भवनपति संज्ञी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं / विकलेन्द्रिय (एवं एकेन्द्रिय) असंज्ञी होते हैं तथा ज्योतिष्क और वैमानिक देव संज्ञी ही होते हैं / / 220 / विवेचन--संज्ञी, असंज्ञो और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी का स्वरूप प्रस्तुत प्रकरण में संज्ञा का अर्थ है---अतीत, अनागत और वर्तमान भावों के स्वभाव का पर्यालोचन-विचारणा / इस प्रकार की संज्ञा वाले जीव संज्ञी कहलाते हैं। अर्थात् जिनमें विशिष्ट स्मरणादि रूप मनोविज्ञान पाया जाए। इस प्रकार के मनोविज्ञान (मस्तिष्क ज्ञान) से विकल जीव असंज्ञी कहलाते हैं। अथवा भूत, भविष्य और वर्तमान पदार्थ का जिससे सम्यक् ज्ञान हो, उसे संज्ञा अर्थात्-विशिष्ट मनोवृत्ति कहते हैं। इस प्रकार की संज्ञा जिनमें हो, वे संज्ञी कहलाते हैं। अर्थात-समनस्क जीव संशी तथा जिनके मनोव्यापार न हो, ऐसे अमनस्क जीव असंज्ञी कहलाते हैं। जो संज्ञी और असंज्ञी, दोनों कोटियों से अतीत हों, ऐसे केवली या सिद्ध नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं।' कौन संजी, कौन प्रसंज्ञी तथा कौन संजी-असंज्ञी और क्यों ? एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और सम्मूच्छिम पंचेन्द्रिय जीव असंज्ञी होते हैं, क्योंकि एकेन्द्रियों में मानसिक व्यापार का अभाव होता है और द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों एवं सम्मच्छिम पंचेन्द्रियों में विशिष्ट मनोवृत्ति का प्रभाव होता है। केवली मनोद्रव्य से सम्बन्ध होने पर भी अतीत, अनागत और वर्तमानकालिक पदार्थों या भावों के स्वभाव की पर्यालोचनारूप संज्ञा से रहित हैं तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण केवलज्ञान-केवलदर्शन से साक्षात् समस्त पदार्थों को जानते देखते हैं। इस कारण केवली न तो संज्ञी हैं, और न असंज्ञी हैं, सिद्ध भी संज्ञी नहीं हैं, क्योंकि उनके द्रव्यमन नहीं होता तथा सर्वज्ञ होने के कारण असंज्ञी भी नहीं हैं / अतएव केवली और सिद्ध नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी कहलाते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 713 (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, प्र. रा. कोष भा. 7, पृ. 305 Page #1371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] [प्रजापनासूत्र समुच्चय जीव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी होते हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी होते हैं / नैरयिक तथा दस प्रकार के भवनपति देव संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी। जो नैरयिक या भवनपति संज्ञी के भव से नरक में या भवनपति देव में उत्पन्न होते हैं, वे नारक या भवनपति देव संज्ञी कहलाते हैं। जो असंज्ञी के भव से नरक में या भवनपति देवों में उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं / किन्तु नारक या भवनपति देव नोसंज्ञी नोप्रसंज्ञी नहीं हो सकते, क्योंकि वे केवली नहीं हो सकते / केवली न हो सकने का कारण यह है कि वे चारित्र को अंगीकार नहीं कर सकते / मनुष्यों की वक्तव्यता समुच्चय जीवों के समान समझनी चाहिए / अर्थात् मनुष्य भी समुच्चय जीवों के समान संज्ञी, असंज्ञी तथा नोसंज्ञीनोअसंज्ञी भी होते हैं। गर्भज मनुष्य संज्ञी होते हैं, सम्मूच्छिम मनुष्य असंज्ञी होते हैं तथा केवली नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी होते हैं / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और वाणव्यन्तर नारकों के समान संज्ञी भी होते हैं, असंज्ञी भी। जो पंचेन्द्रियतिर्यञ्च समूच्छिम होते हैं, वे असंज्ञी और जो गर्भज होते हैं, वे संज्ञी होते हैं। जो वाणव्यन्तर असंज्ञियों से उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी और संजियों से उत्पन्न होते हैं, वे संज्ञी होते हैं। दोनों ही नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी नहीं होते, क्योकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते / ज्योतिष्क और वैमानिक संज्ञी ही होते हैं. असंज्ञी नहीं, क्योंकि संज्ञी से ही उत्पन्न होते हैं। ये नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी तो हो ही नहीं सकते, क्योंकि वे चारित्र अंगीकार नहीं कर सकते। सिद्ध भगवान् पूर्वोक्त युक्ति से नोसंज्ञी-नोअसंही होते हैं।' // प्रज्ञापना भगवतो का इकतीसवाँ संज्ञिपद समाप्त / / 00 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 7, पृ.३०५ Page #1372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं संजयपयं बत्तीसवाँ संयतपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह बत्तीसवाँ पद है, इसका नाम संयतपद है। * सयतपद मानवजीवन का सर्वोत्कृष्ट पद है। संयतपद प्राप्त करने के बाद ही मोक्ष की सीढ़ियाँ उत्तरोत्तर शीघ्रता से पार की जा सकती हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय की सर्वोत्तम आराधना इसी पद पर आरूढ होने के बाद हो सकती है। इसीलिए प्रज्ञापना के बत्तीसवें पद में इसे स्थान दिया गया है। * प्रस्तुत पद में समुच्चय जीव तथा नैरयिक से लेकर वैमानिक तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के संयत, असंयत, संयतासंयत और नोसंयत-नोअसंयत होने के विषय में प्ररूपणा की गई है। संयत से सम्बन्धित चार भेदों का विचार समस्त जीवों के विषय में किया गया है। संयत का अर्थ है, जो महाव्रती, संयमी हो, सर्वविरत हो / असंयत का अर्थ है-जो सर्वथा अविरत, असंयमी, अप्रत्याख्यानी हो। संयतासंयत का अर्थ है-जो देशविरत हो, श्रावकवती हो, विरताविरत हो तथा नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत का अर्थ-जो न तो संयत हो और न असंयत हो, न ही संयतासंयत हो, क्योंकि संयत भी साधक है, अभी सिद्धगतिप्राप्त नहीं है और संयतासंयत तो और भी नीची श्रेणी पर है। इसलिए नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत में सिद्ध भगवान् को लिया गया है। * इस पद का निष्कर्ष यह है कि नारक, एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय, भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये सभी असंयत होते हैं, ये न तो संयत हो सकते हैं, न संयतासंयत / पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संयत नहीं हो सकता, वह संयतासंयत हो सकता है, अथवा प्रायः असंयत होता है। मनुष्य में संयत, असंयत और संयतासंयत तीनों प्रकार सम्भव हैं। नोसंयत नोग्रसयत-नोसंयतासंयत सिद्ध भगवान् ही हो सकते हैं।' * प्राचार्य मलयगिरि ने संयतपद का महत्त्व बताते हुए कहा है कि देवों, नारकों और तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों को सर्वविरतिरूप चारित्र या केवलज्ञान का परिणाम ही नहीं होता। वे श्रवण-मनन भी नहीं कर सकते और न जीवन में चारित्र धारण कर सकते हैं, इसके कारण वे पश्चात्ताप करते हैं, विषाद पाते हैं। अतः मनुष्यों को संयतपद की आराधना के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए / षट्खण्डागम के संयमद्वार में सामायिकशुद्धिसंयत, छेदोपस्थापनशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसम्परायशुद्धिसंयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, संयतासंयत और असंयत ऐसे भेद करके 14 गुणस्थानों के माध्यम से विचारणा की गई है। 10 1. पण्णवणासुत्तं भा. 2. (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 144 2. पटवण्डागम पु. 1, पृ. 368 Page #1373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसइमं संजयपयं बत्तीसवाँ संयतपद जीवों एवं चौवीस दण्डकों में संयत आदि की प्ररूपणा 1974. जीवाणं भंते ! कि संजया असंजया संजतासंजता गोसंजत-णोप्रसंजतणोसंजयासंजया? गोयमा! जीवा णं संजया वि असंजया वि संजयासंजया वि गोसंजयणोप्रसंजयणोसंजतासंजया वि। [1674 प्र. भगवन् ! (समुच्चय) जीव क्या संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं, अथवा नोसंयत-नोग्रसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ? [1974 उ.] गौतम ! जीव संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं और नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत भी होते हैं। 1975. णेरइया णं भंते ! कि संजया असंजया संजयासंजया णोसंजतणोप्रसंजतणोसंजयासंजया ? गोयमा ! रइया णो संजया, असंजया, णो संजयासंजया णो गोसंजयणोअसंजयणोसंजतासंजया। / [1675 प्र.] भगवन् ! नैरयिक संयत होते हैं, असंयत होते हैं, संयतासंयत होते हैं या नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं ? 1975 उ.] गौतम ! नैरयिक संयत नहीं होते, न संयतासंयत होते हैं और न नोसंयतनोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं; किन्तु असंयत होते हैं। 1976. एवं जाव चरिदिया। [1976] इसी प्रकार (असुर कुमारादि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय तथा त्रीन्द्रिय) यावत् चतुरिन्द्रियों तक जानना चाहिए। 1977. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णो संजया, असंजया वि संजतासंजता वि, णो णोसंजयणोअसंजयणोसंजयासंजया। [1977 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्य ग्योनिक क्या संयत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [1977 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्च न तो संयत होते हैं और न ही नोसंयत-नोअसंयतनोसंयतासंयत होते हैं, किन्तु वे असंयत या संयतासंयत होते हैं। Page #1374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवाँ संयतपद [179 1979. मणसा णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! मणसा संजया वि असंजया वि संजतासंजया वि, णो णोसंजतणोअसंजय-जो-संजतासंजता। [1678 प्र.] भगवन् ! मनुष्य संयत होते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [1978 उ.] गौतम ! मनुष्य संयत भी होते हैं, असंयत भी होते हैं, संयतासंयत भी होते हैं, किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत नहीं होते हैं / 1676. वाणमंतर-जोति सिय-वेमाणिया जहा गेरइया (सु. 1975) / [1976] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों का कथन नैरयिकों के समान समझना चाहिए। 1980. सिद्धाणं पुच्छा। गोयमा ! सिद्धा नो संजया नो असंजया नो संजयासंजया, णोसंजयणोप्रसंजयणोसंजयासंजया। संजय अस्संजय मीसगा य जीवा तहेव मणुया य / संजतरहिया तिरिया, सेसा अस्संजता होंति // 221 // ॥पण्णवणाए भगवतीए बत्तीसइमं संजयपयं समत्तं / / [1980 प्र.] सिद्धों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [1980 उ.] गौतम ! सिद्ध न तो संयत होते हैं, न असंयत और न ही संयतासंयत होते हैं, किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत होते हैं। [संग्रहणी-गाथार्थ- जीव और मनुष्य संयत, असंयत और संयतासंयत (मिश्र) होते हैं। तिर्यञ्च संयत नहीं होते, (किन्तु असंयत और संयतासंयत होते हैं)। शेष एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और देव (चारों जाति के) तथा नारक असंयत होते हैं / / 22 / / _ विवेचन संयत एवं असंयत पद का लक्षण-जो सर्वसावद्ययोगों से सम्यक् प्रकार से विरत हो चुके हैं और चारित्रपरिणामों की वृद्धि के कारणभूत निरवद्य योगों में प्रवृत्त हुए हैं, वे संयत कहलाते हैं / अर्थात्--हिंसा आदि पापस्थानों से जो सर्वथा निवृत्त हो चुके हैं, वे संयत हैं / उनसे विपरीत असंयत हैं। संयतासंयत-जो हिंसादि से देश (यांशिकरूप) से विरत हैं / नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत-जो इन तीनों से भिन्न हैं / जीव में चारों का समावेश : कैसे ?--जीव संयत भी होते हैं, क्योंकि श्रमण संयत हैं। जीव असंयत भी होते हैं, क्योंकि नारकादि असंयत हैं / जीव संयतासंयत भी होते हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य स्थूल प्राणातिपात ग्रादि का त्याग करके देशसंयम के अाराधक होते हैं तथा जीव नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत भी होते हैं, क्योंकि सिद्धों में इन तीनों का निषेध पाया जाता है। सिद्ध भगवान् शरीर और मन से रहित होते हैं / अतएव उनमें निरवद्ययोग में प्रवृत्ति और सावधयोग Page #1375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] [प्रज्ञापनासूत्र से निवृत्ति रूप संयतत्व घटित नहीं होता। सावधयोग में प्रवृत्ति न होने से असंयतत्व भी नहीं पाया जाता तथा दोनों का सम्मिलितरूप संयतासंयतत्व भी इसी कारण सिद्धों में नहीं पाया जाता / कौन संयत है, कौन असंयत है, कौन संयतासंयत है तथा कौन नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत है ?, इसकी प्ररूपणा मूलपाठ में कर ही दी गई है, अन्तिम संग्रहणी गाथा में निष्कर्ष दे दिया है / अतः स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है।' // प्रज्ञापना भगवती का बत्तीसवाँ संयतपद सम्पूर्ण // 00 1. (क) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 414 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 768 से 771 तक Page #1376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं ओहिपयं तेतीसवाँ अवधिपद * यह प्रज्ञापनासूत्र का तेतीसवाँ अवधिपद है। इसमें अवधिज्ञानसम्बन्धी विस्तृत चर्चा है। विभिन्न पहलुओं से अवधिज्ञान की प्ररूपणा की गई है। * भारतीय दार्शनिकों और कहीं-कहीं पश्चात्य दार्शनिकों ने अतीन्द्रियज्ञान की चर्चा अपने-अपने धर्मग्रन्थों तथा स्वतन्त्ररचित साहित्य में की है। साधारण जनता किसी ज्योतिषी, मन्त्रविद्यासिद्ध व्यक्ति अथवा किसी देवी-देवोपासक के द्वारा भूत, भविष्य एवं वर्तमान की चर्चा सुन कर आश्चर्यान्वित हो जाती है। उसी को चमत्कार मान कर गतानुगतिक रूप से उलटे-सीधे मार्ग को पकड़ कर चल पड़ती है। कभी-कभी लोग ऐसे चमत्कार के चक्कर में पड़ कर धन और धर्म को खो बैठते हैं। क्षणिक चमत्कार की चकाचौंध में पड़ कर कई व्यक्ति अपने शील का भी त्याग कर देते हैं और नैतिक पतन के चौराहे पर आकर खड़े हो जाते हैं / अत: ऐसा चमत्कार क्या है ? वह अवधिज्ञान है या और कोई ज्ञान है ? इस शंका के समाधानार्थ जैन तीर्थकरों ने अवधिज्ञान का यथार्थ स्वरूप बताया है। वह कितने प्रकार का है ? कैसे उत्पन्न होता है ? क्या वह चला भी जाता है, न्यूनाधिक भी हो जाता है अथवा स्थायी रहता है ? ऐसा ज्ञान किनकिन को होता है ? जन्म से ही होता है या विशिष्ट क्षयोपशम से ? इन सब पहलुओं पर साधकों को यथार्थ मार्गदर्शन देने तथा साधक कहीं इसके पीछे अपनी साधना न खो बैठे, आम जनता को चमत्कार के चक्कर में डालने के लिए रत्नत्रय की साधना को छोड़ कर अन्य मार्गों का अवलम्बन न ले बैठें तथा जनता की चमत्कार की भ्रान्ति दूर करने के लिए अवधिज्ञान की विभिन्न पहलुओं से व्याख्या की है। प्रस्तुत पद में अवधिज्ञान के विषय में 7 द्वारों के माध्यम से विश्लेषण किया गया है / जैसे कि--(१) प्रथम भेदद्वार, जिसमें अवधिज्ञान के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। (2) द्वितीय-विषयद्वार अवधिज्ञान से प्रकाशित क्षेत्र का विषय, (3) तीसरा-संस्थानद्वार-उस क्षेत्र के आकार का वर्णन है, (4) चतुर्थ-अवधिज्ञान के बाह्य आभ्यन्तर प्रकार, (5) पंचम देशावधिद्वार, जिसमें सर्वोत्कृष्ट अवधि के साथ सर्व जघन्य और मध्यम अवधि का निरूपण है, (6) छठाद्वार-जिसमें अवधिज्ञान के क्षय और वृद्धि का निरूपण है। अर्थात् हीयमान और वर्धमान अवधिज्ञान की चर्चा है। (7) सप्तमद्वार–प्रतिपाती और अप्रतिपाती—जिसमें स्थायी और प्रतिपाती अवधिज्ञान का निरूपण है। आम जनता आज जिस प्रकार के साधारण भूत-भविष्य-वर्तमानकालिक ज्ञान को चमत्कार मान कर प्रभावित हो जाती है, वह मतिज्ञान का ही विशेष प्रकार है। वह इन्द्रियातीत ज्ञान नहीं है। पूर्वजन्म की बीती बातों को याद करने वाले जातिस्मरण ज्ञान को भी कई लोग अवधिज्ञान की कोटि में मान बैठते हैं, किन्तु वह मतिज्ञान का ही विशेष भेद है / ज्योतिष या मंत्र Page #1377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182j [प्रज्ञापनासूत्र तंत्रादि से अथवा देवोपासना से होने वाला विशिष्ट ज्ञान भी अवधिज्ञान नहीं है, वह मतिज्ञान का ही विशिष्ट प्रकार है। अवधिज्ञान का स्वरूप कर्मग्रन्थ आदि में बताया गया है कि इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना प्रात्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान है / वह भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय (क्षायोपशमिक) के भेद से दो प्रकार का है। देवों और नारकों को यह जन्म से होता है और मनुष्यों एवं पचेन्द्रियतिर्यंचों को कर्मों के क्षयोपशम से प्राप्त होता है / अवधिज्ञान के क्षेत्रगत विषय की चर्चा का सार यह है-नारक क्षेत्र की दृष्टि से कम से कम प्राधा गाऊ और अधिक से अधिक चार गाऊ तक जानता-देखता है / फिर एक-एक करके सातों ही नरकों के नारकों के अवधि क्षेत्र का निरूपण है, नीचे की नरक भूमियों में उत्तरोत्तर अवधिज्ञानक्षेत्र कम होता जाता है। भवनपति निकाय में असुरकुमार का अवधिक्षेत्र कम से कम 25 योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्र है। बाकी के नागकुमारादि का अवधिक्षेत्र उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्र है / पंचेन्द्रियतिर्यच का अवधिक्षेत्र जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समूद्र है। मनुष्य का उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र अलोक में भी लोकपरिमित असंख्यात लोक जितना है। वाणव्यन्तर का अवधिक्षेत्र नागकुमारवत् है। ज्योतिष्कदेवों का जघन्य असंख्यात द्वीपसमुद्र है। वैमानिक देवों के अवधिक्षेत्र की विचारणा में विमान से नीचे का, ऊपर का और तिरछे भाग का अवधिक्षेत्र बताया है। विमान पर उन-उन वैमानिक देवों अवधिक्षेत्र विस्तृत है। अनुत्तरौपपातिक देवों का अवधिक्षेत्र समग्र लोकनाडी-प्रमाण है। अवधिज्ञान का क्षेत्र की अपेक्षा से तप (डोंगी). पल्लक, भालर. पटह आदि के समान विविध प्रकार का प्राकार बताया है। आचार्य मलयगिरि ने उसका निष्कर्ष यह निकाला है कि भवनपति और व्यन्तर को ऊपर के भाग में, वैमानिकों को नीचे के भाग में तथा ज्योतिष्क और नारकों को तिर्यदिशा में अधिक विस्तृत होता है / मनुष्य और तिर्यञ्चों के अवधिज्ञान का प्राकार विचित्र होता है। __ बाह्य और प्राभ्यन्तर अवधि की चर्चा में बताया गया है कि नारक और देव अवधिक्षेत्र के अन्दर हैं, अर्थात्-उनका अवधिज्ञान अपने चारों ओर फैला हुआ है, तिर्यञ्च में वैसा नहीं है। मनुष्य अवधि-क्षेत्र में भी है और बाह्य भी है। इसका तात्पर्य यह है कि अवधिज्ञान का प्रसार स्वयं जहाँ है, वहीं से हो, तो वह अवधि के अन्दर (अन्तः) माना जाता है, परन्तु अपने से विच्छिन्न प्रदेश में अवधि का प्रसार हो तो वह अवधि से बाह्य माना जाता है / सिर्फ मनुष्य को ही सर्वावधि सम्भव है, शेष सभी जीवों को देशावधि ही होता है। आगे के द्वारों में नारकादि जीवों में प्रानुगामिक-अनानुगामिक, हीयमान-वर्धमान, प्रतिपाती अप्रतिपाती तथा अवस्थित और अनवस्थित आदि अवधिभेदों की प्ररूपणा की गई है। * कुल मिलाकर अवधिज्ञान की सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत पद में की गई है। भगवतीसूत्र एवं कर्म ग्रन्थ में भी इतनी विस्तृत विचारणा नहीं की गई है।' 07 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा 1 (मूलपाठ-टिप्पण) प्र. 415 से 418 तक (ख) पण्णवणासुतं भा. 2 (परिशिष्ट-प्रस्तावनादि) पृ. 140-141 Page #1378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तीसइमं ओहिपयं तेतीसवाँ अवधिपद तेतीसवें पद के अर्थाधिकारों की प्ररूपरणा 1981. भेद 1 विसय 2 संठाणे 3 अम्भितर-बाहिरे 4 य देसोही 5 / अोहिस्स य खय-बुड्ढी 6 पडिवाई चेवऽपडिवाई 7 // 222 // [1981 संग्रहणी-गाथार्थ- तेतीसवें पद में इन सात विषयों का अधिकार है--(१) भेद, (2) विषय, (3) संस्थान, (4) ग्राभ्यन्तर-बाह्य, (5) देशावधि, (6) अवधि का क्षय और वृद्धि, (7) प्रतिपाती और अप्रतिपाती / विवेचन-सात द्वार - तेतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय के सात द्वार इस प्रकार हैं / (1) प्रथम द्वार-अवधिज्ञान के भेद-प्रभेद, (2) द्वितीय द्वार अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का विषय, (3) तृतीय द्वार-अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का संस्थान-आकार, (4) चतुर्थ द्वार-अवधिज्ञान के दो प्रकार-आभ्यन्तर और बाह्य, (5) पंचम द्वार-देश-अवधि--सर्वोत्कृष्ट अवधि में से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि, (6) छठा द्वार-अवधिज्ञान के क्षय और वृद्धि का कथन, अर्थात् हीयमान और वर्द्धमान अवधिज्ञान तथा (7) सप्तम द्वार-प्रतिपाती (उत्पन्न होकर कुछ ही काल तक टिकने वाला) अवधिज्ञान एवं अप्रतिपाती-मृत्यु से या केवलज्ञान से पूर्व तक नष्ट न होने वाला अवधिज्ञान / ' प्रथम : अवधि-भेद द्वार 1982. कतिविहा गं भंते ! श्रोही पण्णता? गोयमा! दुविहा ओही पण्णत्ता। तं जहा–भवपच्चइया य खग्रोवस मिया य / दोण्हं भवपच्चइया, तं जहा-देवाण य रइयाण य / दोण्हं खग्रोवसमिया, तं जहा-मणूसाणं पंचेंदियतिरिक्खजोणियाण य। [1982 प्र.] भगवन् ! अवधि (ज्ञान) कितने प्रकार का कहा गया है ? [1982 उ.] गौतम ! अवधि (ज्ञान) दो प्रकार का कहा गया है / यथा--भव-प्रत्ययिक और क्षायोपशमिक / दो को भव-प्रत्ययिक अवधि (ज्ञान) होता है, यथा-देवों को और नारकों को। दो को क्षायोपशमिक होता है / यथा-मनुष्यों को और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को। विवेचन-अवधिज्ञान : स्वरूप और प्रकार-इन्द्रियों और मन की सहायता के बिना आत्मा को अवधि-मर्यादा में होने वाला रूपी पदार्थों का ज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है। जहाँ प्राणी कर्मों के वशीभूत होते हैं अर्थात् जन्म लेते हैं, वह है भव अर्थात् नारक आदि सम्बन्धी जन्म / भव जिसका कारण हो, वह भवप्रत्ययिक है / अवधिज्ञानावरणीय कर्म के उदयावलिका में प्रविष्ट अंश 1. (क) प्रज्ञापना० प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, पृ. 775-778 Page #1379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] [प्रज्ञापनासूत्र का वेदन होकर पृथक हो जाना क्षय है और जो उदयावस्था को प्राप्त नहीं है, उसके विपाकोदय को दूर कर देना-स्थगित कर देना, उपशम कहलाता है। जिस अवधिज्ञान में क्षयोपशम ही मुख्य कारण हो, वह क्षयोपशम-प्रत्यय या क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है।' किसे कौन-सा अवधिज्ञान और क्यों ?-भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान चारों जाति के देवों को तथा रत्नप्रभा आदि सातों नरकभूमियों के नारकों को होता है। प्रश्न होता है कि अवधिज्ञान क्षायोपशमिक भाव में है और नारकादि भव प्रौदयिक भाव में हैं, ऐसी स्थिति में देवों और नारकों को अवधिज्ञान कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि वस्तुत: भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान भी क्षायोपशमिक ही है, किन्तु वह क्षयोपशम देव और नारक-भव का निमित्त मिलने पर अवश्यम्भावी होता है। जैसे—पक्षीभव में प्राकाशगमन की लब्धि अवश्य प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार देवभव और नारकभव का निमित्त मिलते ही देवों और नारकों को अवधिज्ञान की उपलब्धि अवश्यमेव हो जाती है। दो प्रकार के प्राणियों का अवधिज्ञान क्षायोपशमिक अर्थात्-क्षयोपशम-निमित्तक है, वह हैमनुष्यों और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को। इन दोनों को अवधिज्ञान अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि मनुष्यभव और तिर्यञ्चभव के निमित्त से इन दोनों को अवधिज्ञान नहीं होता, बल्कि मनुष्यों या तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में भी जिनके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम हो जाए, उन्हें ही अवधिज्ञान प्राप्त होता है, अन्यथा नहीं। इसे कर्मग्रन्थ की भाषा में गुणप्रत्यय भी कहते हैं / यद्यपि पूर्वोक्त दोनों प्रकार के अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ही हैं, तथापि पूर्वोक्त निमित्तभिन्नता के कारण दोनों में अन्तर है। द्वितीय : अवधि-विषय द्वार 1983. रइया णं भंते ! केवतियं खेतं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहणणं प्रद्धगाउयं, उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं श्रोहिणा जाणंति पासंति / [1983 प्र.] भगवन् ! नैरयिक अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [1983 उ.] गौतम ! वे जघन्यत: प्राधा गाऊ ( गव्यूति) और उष्कृष्टत: चार गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1984. रयणप्पभापुढविणेरइया णं भंते ! केवतियं खेत्तं प्रोहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णणं अट्ठाई गाउआई, उक्कोसेणं चत्तारि गाउपाइं ओहिणा जाणंति पासंति / [1984 प्र.] भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [1984 उ.] गौतम ! वे जघन्य साढ़े तीन गाऊ और उत्कृष्ट चार गाऊ (क्षेत्र) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ 780 (ख) पण्णवणामुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना)प. 140-141 2. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 780 से 784 तक Page #1380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवाँ अवधिपद] [185 1985. सक्करप्पभापुढविणेरइया जहण्णणं तिण्णि गाउपाइं, उक्कोसेणं अधुढाई गाउआई ओहिणा जाणंति पासंति / [1985 प्र.] भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के नारक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [1985 उ.] गोतम ! जघन्य तोन गाऊ और उत्कृष्ट साढ़े तीन गाऊ (क्षेत्र को) अवधि(ज्ञान) से जानते देखते हैं। 1986. वालुयप्पभापुढविणेरइया जहण्णेणं अड्डाइज्जाइं गाउयाई, उक्कोसेणं तिण्णि गाउाई प्रोहिणा जाणंति पासंति / _ [1986 प्र.] भगवन् ! बालुकाप्रभापृथ्वो के नारक अवधि(-ज्ञान)द्वारा कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [1986 उ.] गौतम ! वे जघन्य ढाई गाऊ और उत्कृष्ट तीन गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1987. पंकप्पभायुढविणेरइया जहणेणं दोण्णि गाउयाई, उक्कोसेणं अड्डाइज्जाई गाउप्राई प्रोहिणा जाणंति पासंति। [1987 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नारक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? (1987 उ.] गौतम ! वे जघन्य दो गाऊ और उत्कृष्ट ढाई गाऊ (प्रमाण क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1988. धूमप्पभापुढविणेरइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जहण्णणं दिवढ्डं गाउअं, उक्कोसेणं दो गाउआई प्रोहिणा जाणंति पासंति / [1688 प्र.] भगवन् ! धूमप्रभापृथ्वी के नारक अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [1988 उ.] गौतम ! वे जघन्य डेढ़ गाऊ और उत्कृष्ट दो गाऊ (क्षेत्र को) अवधि(ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1986. तमापुढवि० ? गोयमा ! जहणेणं गाउयं, उक्कोसेणं दिवड्ढे गाउयं प्रोहिणा जाणंति पासंति / [1986 प्र.] भगवन् ! तमःप्रभापृथ्वी के नारक अवधि(ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [1986 उ.] गौतम ! वे जघन्य एक गाऊ और उत्कृष्ट डेढ़ गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1660. अहेसत्तमाए पुच्छा। गोयमा ! जहणेणं श्रद्धगाउयं, उक्कोसेणं गाउयं ओहिणा जाणंति पासंति / Page #1381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] [प्रज्ञापनासूत्र [1960 प्र.] भगवन् ! अधःसप्तम (तमस्तम:प्रभा) पृथ्वी के नैरयिक कितने क्षेत्र को अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं ? [1990 उ.] गौतम ! वे जघन्य प्राधा गाऊ और उत्कृष्ट एक गाऊ (क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। . 1661. असुरकुमारा णं भंते ! ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णणं पणुवीसं जोयणाई, उक्कोसेणं असंखेज्जे दीव-समुद्दे प्रोहिणा जाणंति पासंति। [1961 प्र.] भगवन् ! असुर कुमारदेव अवधि(ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [1991 उ.] गौतम ! वे जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यन्त क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। 1962. णागकुमारा णं जहण्णेणं पणुवीसं जोयणाई, उक्कोसेणं संखेज्जे दीव-समुद्दे प्रोहिणा जाणंति पासंति। / [1662 प्र.] भगवन् ! नागकुमारदेव अवधि(ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [1662 उ.] गौतम ! वे जघन्य पच्चीस योजन और उत्कृष्ट संख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यन्त क्षेत्र) को अवधि (ज्ञान) से जानते देखते हैं / 1663. एवं जाव थणियकुमारा। [1993] इसी प्रकार (सुपर्णकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त (अवधिज्ञान से जानने-देखने की जघन्य उत्कृष्ट सीमा का कथन करना चाहिए।) 1964. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! केवतियं खेतं ओहिणा जाति पासंति ? गोयमा! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जे दोव-समुद्दे। [1964 प्र.] भगवन् ! पचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक जीव अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानते-देखते हैं ? [1994 उ.] गौतम ! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट असंख्यात द्वीप-समुद्रों (तक) को अवधि(ज्ञान) से जानते-देखते हैं / 1995. मणसा णं भंते ! ओहिणा केवतियं खेत्तं जाणंति पासंति ? ___ गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, उक्कोसेणं असंखेज्जाई अलोए लोयपमाणमेत्ताई खंडाई प्रोहिणा जाणंति पासंति / [1665 प्र.] भगवन् ! मनुष्य अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानता-देखता है ? [1995 उ.] गौतम ! जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र को और उत्कृष्ट अलोक में लोक प्रमाण असंख्यात खण्डों को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानता-देखता है। Page #1382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवाँ अवधिपद] [187 1966. वाणमंतरा जहा णागकुमारा (सु. 1662) / [1996] वाणव्यन्तर देवों की जानने-देखने को क्षेत्र-सीमा (सू. 1962 में उक्त) नागकुमारदेवों के समान जाननी चाहिए। 1967. जोइसिया णं भंते ! केवतियं खेत्तं प्रोहिणा जाणंति पासंति / गोयमा ! जहण्णेणं संखेज्जे दीव-समुद्दे, उक्कोसेण वि संखिज्जे दीव-समुद्दे / [1997 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्कदेव कितने क्षेत्र को अवधि(ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं ? [1997 उ.] गौतम ! वे जघन्य संख्यात द्वीप-समुद्रों (तक) को तथा उत्कृष्ट भी संख्यात द्वीप-समुद्रों (पर्यन्त-क्षेत्र) को (अवधिज्ञान से जानते-देखते हैं।) 1968. सोहम्मगदेवा णं भंते ! केवतियं खेत्तं ओहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं अहे जाव इसोसे रयणप्पभाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव असंखेज्जे दोव-समुद्दे, उड्ढं जाव सगाई विमाणाई ओहिणा जाणंति पासंति। [1998 प्र.] भगवन् ! सौधर्मदेव कितने क्षेत्र को अवधि (ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं ? [1998 उ.] गौतम ! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भागक्षेत्र को और उत्कृष्टतः नीचे यावत् इस रत्नप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप-समुद्रों (तक) और ऊपर अपने-अपने विमानों तक (के क्षेत्र) को अवधि(ज्ञान) द्वारा जानते-देखते हैं / 1966. एवं ईसाणगदेवा वि। [1666] इसी प्रकार ईशानकदेवों के विषय में भी (कहना चाहिए / ) 2000. सणंकुमारदेवा वि एवं चेव / णवरं अहे जाव दोच्चाए सक्करप्पभाए पुढवीए हेट्ठिल्ले चरिमंते। [2000] सनत्कुमार देवों की भी (अवधिज्ञानविषयक क्षेत्रमर्यादा) इसी प्रकार (पूर्ववत्) (समझना चाहिए।) किन्तु विशेष यह है कि ये नीचे यावत् दूसरी शर्कराप्रभा (नरक-)पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं। 2001. एवं माहिंदगदेवा वि। [2001] माहेन्द्रदेवों के विषय में भी इसी प्रकार (क्षेत्रमर्यादा समझनी चाहिए / ) 2002. बंभलोग-लंतगदेवा तच्चाए पुढवीए हेडिल्ले चरिमंते। [2002] ब्रह्मलोक और लान्तकदेव (नीचे) तीसरी (बालुका-)पृथ्वी के निचले चरमान्त तक जानते-देखते हैं / शेष सब पूर्ववत् / 2003. महासुक्क-सहस्सारगदेवा चउत्थीए पंकप्पभाए पुढवीए हेटिल्ले चरिमंते / [2003] महाशुक्र और सहस्रारदेव (नीचे) चौथी पंकप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त (तक जानते-देखते हैं / ) Page #1383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] [प्रज्ञापनासूत्र __2004. प्राणय-पाणय-आरण-अच्चुयदेवा अहे जाव पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए हेछिल्ले चरिमंते। [2004] आनत, प्राणत, पारण और अच्युतदेव नीचे--यावत् पांचवीं धूमप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त (पर्यन्त जानते-देखते हैं।) 2005. हेट्ठिम-मज्झिमगेवेज्जगदेवा अहे छट्टाए तमाए पुढवीए हेढिल्ले चरिमंते / [2005] निचले और मध्यम अवेयकदेव यावत् नीचे छठी तमःप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त (पर्यन्त क्षेत्र को जानते-देखते हैं।) 2006. उवरिमगेबेज्जगदेवा णं भंते ! केवतियं खेत्तं प्रोहिणा जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं अहेसत्तमाए पुढबीए हेदिल्ले चरिमंते, तिरियं जाव प्रसंखेज्जे दीव-समुद्दे, उड्ढं जाव सगाई विमाणाई प्रोहिणा जाणंति पासंति / [2006 प्र.] भगवन् ! उपरिम ग्रैवेयकदेव अवधि (ज्ञान) से कितने क्षेत्र को जानतेदेखते हैं ? [2006 उ.] गौतम ! वे जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट नीचे अधःसप्तमपृथ्वी के निचले चरमान्त (पर्यन्त), तिरछे यावत् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को तथा ऊपर यावत् अपने विमानों तक (के क्षेत्र को) अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं / 2007. अणुत्तरोबवाइयवेवा णं भंते ! केवतियं खेत्तं प्रोहिणा जाणंति यासंति ? गोयमा ! संभिन्न लोगणालि प्रोहिणा जाणंति पासंति / [2007 प्र.] भगवन् ! अनुत्तरौपपातिकदेव अवधि (ज्ञान) द्वारा कितने क्षेत्र को जानते देखते हैं ? [2007 उ.] गौतम ! वे सम्पूर्ण (सम्भिन्न) (चौदह रज्जू-प्रमाण) लोकनाडी को अवधि (ज्ञान) से जानते-देखते हैं। विवेचन-विभिन्न जीवों की अवधिज्ञान से जानने-देखने की क्षेत्रमर्यादा-अवधिज्ञान के योग्य समस्त नारकों, देवों, मनुष्यों तथा पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों की अवधिज्ञान द्वारा जानने-देखने की क्षेत्रमर्यादा सू. 1983 से 2007 तक में बताई गई है। ___इसे सुगमता से समझने के लिए निम्नलिखित तालिका देखिए क्रम अवधिज्ञानयोग्य जीवों के नाम जानने-देखने की जघन्य क्षेत्रसीमा उत्कृष्ट क्षेत्रसीमा 1 समुच्चय नारक प्राधा गाऊ चार गाऊ 2 रत्नप्रभापृथ्वीनारक साढ़े तीन गाऊ चार माऊ 3 शर्कराप्रभापृथ्वीनारक तीन गाऊ साढ़े तीन गाऊ 4 बालुकाप्रभापृथ्वीनारक ढाई गाऊ तीन गाऊ 5 पंकप्रभापृथ्वीनारक दो गाऊ ढाई गाऊ 6 धूमप्रभापृथ्वीनारक डेढ़ गाऊ दो गाऊ Page #1384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवाँ अवधिपद [189 क्रम अवधिज्ञानयोग्य जीवों के नाम जानने-देखने की जघन्य क्षेत्रसीमा उत्कृष्ट क्षेत्रसीमा 7 तमःप्रभापृथ्वीनारक एक गाऊ डेढ़ माऊ 8 तमस्तमःप्रभापृथ्वीनारक आधा गाऊ एक गाऊ 9 असुरकुमारदेव पच्चीस योजन असंख्यात द्वीप-समुद्र 10 नागकुमारदेव संख्यात द्वीप-समुद्र 11 सुपर्ण कुमार से स्तनितकुमार तक के देव 12 तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय अंगुल के असंख्यातवें भाग असंख्यात द्वीपसमुद्र 13 मनुष्य अलोक में लोक प्रमाण असंख्यात खण्ड (परमावधि की अपेक्षा से) 14 वाणव्यन्तर पच्चीस योजन संख्यात द्वीपसमुद्र 15 ज्योतिष्कदेव संख्यात द्वीपसमुद्र 16 सौधर्मदेव अगुल के असंख्यातवें भाग नीचे रत्नप्रभापथ्वी के निचले चरमान्त (उपपात के समय पूर्व भव सम्बन्धी तक, तिरछे असंख्यात द्वीप-समुद्र तक, सर्व जघन्य अवधि की अपेक्षा से) ऊपर अपने विमानों तक 17 ईशानदेव सौधर्मवत् 18 सनत्कुमारदेव नीचे शर्कराप्रभा के निचले चरमान्त तक, शेष सब सौधर्मवत् / 19 माहेन्द्रदेव सनत्कुमारवत् 20 ब्रह्मलोक और लान्तकदेव नीचे तीसरी पथ्वी के निचले चरमान्त तक, शेष सब सौधर्मवत् 21 महाशुक्र, सहस्रारदेव नीचे चौथी पंकप्रभा के निचले चरमारत तक, शेष सौधर्म वत् 22 ग्रानत, प्राणत, आरण, अच्युत नीचे पंचमी धूमप्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, शेष पूर्ववत् 23 अधस्तन, मध्यम वेयकदेव नीचे छठी तम प्रभापृथ्वी के निचले चरमान्त तक, शेष सौधर्मवत् / 24 उपरिम घेवेयकदेव नीचे सातवी नरक के निचले चरमान्त 25 अनुत्तरौपपातिकदेव सम्पूर्ण लोकताडी तक, तिरछे और ऊपर सौधर्मवत् जानते देखते हैं।' 1. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 415 से 417 तक (ख) प्रज्ञापनासून (प्रमेयबोधिनी टीका) मा. 5, प.७९० से 501 तक Page #1385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] [प्रज्ञापनासूत्र तृतीय : अवधिज्ञान का संस्थानद्वार 2008. रइयाणं भंते ! प्रोही किसंठिए पण्णते ? गोयमा ! तप्पागारसंठिएपण्णत्ते। [2008 प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधि (ज्ञान) किस प्रकार (संस्थान) वाला बताया गया है ? [2008 उ.] गौतम ! वह तप्र के आकार का कहा गया है / 2006. [1] असुरकुमाराणं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! पल्लगसंठिए / {2006-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों का अवधि(ज्ञान) किस आकार का बताया गया है ? [2006-1 उ.] गौतम ! वह पल्लक के आकार का बताया गया है / [2] एवं जाव थणियकुमाराणं / [2006-2] इसी प्रकार (नागकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक के अवधि-संस्थान के विषय में जानना चाहिए। 2010. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा / गोयमा ! णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते / [2010 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अवधि(ज्ञान) किस प्रकार का कहा गया है ? [2010 उ.] गौतम ! वह नाना आकारों वाला कहा गया है / 2011. एवं मणसाण वि। [2011] इसी प्रकार मनुष्यों के अवधि-संस्थान के विषय में जानना चाहिए / 2112. वाणमंतराणं पृच्छा। गोयमा ! पडहसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [2012 प्र.] भगवन् ! वाणव्यन्तर देवों का अवधिज्ञान किस प्रकार का कहा गया है ? [2012 उ.] गौतम ! वह पटह के आकार का कहा गया है / 2013. जोतिसियाणं पुच्छा। गोयमा ! झल्लरिसंठाणसंठिए पण्णत्ते / [2013 प्र. ज्योतिष्कदेवों के अवधिसंस्थान के विषय में पूर्ववत् प्रश्न ? [2013 उ.] गौतम ! वह झालर के आकार का कहा है। 2014. [1] सोहम्मगदेवाणं पुच्छा / गोयमा ! उड्ढमुइंगागारसंठिए पण्णत्ते। [2014-1 प्र.] भगवन् ! सौधर्मदेवों के अवधि-संस्थान के विषय में पूर्ववत् पृच्छा ? [2014-1 उ.] गौतम ! वह ऊर्ध्व मृदंग के आकार का कहा है। Page #1386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसर्वा अवधिपद [2] एवं जाव अच्चुयदेवाणं पुच्छा। [2014-2] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेवों तक के अवधिज्ञान के आकार के विषय में समझना चाहिए। 2015. गेवेज्जगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! पुष्फचंगेरिसंठिए पण्णत्ते। [2015 प्र.] भगवन् ! ग्रेवेयकदेवों के अवधिज्ञान का प्राकार कैसा है ? [2015 उ.] गौतम ! वह फूलों की चंगेरी (छबड़ी या टोकरी) के प्राकार का है। 2016. अणुत्तरोववाइयाणं पुच्छा। गोयमा ! जवणालियासंठिए ओही पण्णत्ते / [2016 प्र.] भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देवों के अवधिज्ञान का आकार कैसा है ? [2016 उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान यवनालिका के आकार का कहा गया है / विवेचन--जीवों के अवधिज्ञान के विविध आकार–नारकों का तप्राकार, भवनपतिदेवों का पल्लकाकार, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का नाना आकार का, व्यन्तरदेवों का पटहाकार, ज्योतिष्कदेवो का झालर के आकार का, सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प के देवों का ऊर्ध्व मृदंगाकार, ग्रैवेयक देवों का पुष्पचंगेरी के आकार का और अनुत्तरौपपातिक देवों का यवनालिका के आकार का अवधिज्ञान है / वस्तुत: अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र का प्राकार उपचार से अवधि का आकार कहा जाता है। कठिन शब्दों का अर्थ-तप्र-नदी के वेग में बहता हुआ, दूर से लाया हुआ लम्बा और तिकोना काष्ठविशेष अथवा लम्बी और तिकोनी नौका। पल्लक-लाढ़देश में प्रसिद्ध धान भरने का एक पात्रविशेष, जो ऊपर और नीचे की ओर लम्बा, ऊपर कुछ सिकुड़ा हुआ, कोठी के आकार का होता है / पटह-ढोल (एक प्रकार का बाजा), झल्लरी–झालर, एक प्रकार का बाजा, जो गोलाकार होता है, इसे ढपली भी कहते हैं। ऊर्ध्व-मदंग-ऊपर को उठा हा मृदंग जो नीचे विस्तीर्ण और ऊपर संक्षिप्त होता है। पुष्पचंगेरी-फूलों की चंगेरी, सूत से गूंथे हुए फूलों की शिखायुक्त चंगेरी / चंगेरी टोकरी या छबड़ी को भी कहते हैं / यवनालिका-कन्या की चोली / अवधिज्ञान के प्राकार का फलितार्थ यह है कि भवनपतियों और वाणव्यन्तरदेवों का अवधिज्ञान ऊपर की ओर अधिक होता है और वैमानिकों का नीचे की ओर अधिक होता है। ज्योतिष्कों और नारकों का तिरछा तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों का विविध प्रकार का होता है / पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों का प्रवधिज्ञान--जैसे स्वयम्भूरमणसमुद्र में मत्स्य नाना आकार के होते हैं, वैसे ही तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में नाना आकार का होता है / वलयाकार भी होता है।' 1. (क) पण्णवणासुतं भाग 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), प्र. 417-418 (ख) प्रज्ञापनासूत्र (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 806 से 810 तक Page #1387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] [प्रज्ञापनासूत्र चतुर्थ : अवधि-प्राभ्यन्तर-बाह्यद्वार 2017. रइया णं भंते ! ओहिस्स कि अंतो बाहिं ? गोयमा ! 'अंतो, नो बाहिं। [2017 प्र.] भगवन् ! क्या नारक अवधि (ज्ञान) के अन्दर होते हैं अथवा बाहर होते हैं ? [2017 उ.] गौतम ! वे (अवधि के) अन्दर (मध्य में रहने वाले) होते हैं, बाहर नहीं। 2018. एवं जाव थणियकुमारा। [2018 प्र.] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए। 2016. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! णो अंतो, बाहिं। [2016 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अवधि के अन्दर होते हैं अथवा बाहर ? [2016 उ.] गौतम ! वे अन्दर नहीं होते, बाहर होते हैं। 2020. मणसाणं पुच्छा। गोयमा ! अंतो वि बाहिं पि। [2020 प्र.] भगवन् ! मनुष्य अवधिज्ञान के अन्दर होते हैं या बाहर ? [2020 उ.] गौतम ! वे अन्दर भी होते हैं और बाहर भी होते हैं। 2021. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा रइयाणं (सु. 2017) / [2021] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकदेवों का कथन (सू. 2017 में उक्त) नरयिकों के समान है। विवेचन--आभ्यन्तरावधि और बाह्यावधि : स्वरूप और व्याख्या-जो अवधिज्ञान सभी किसानों में अपने प्रकाश्य क्षेत्र को प्रकाशित करता है तथा अवधिज्ञानी जिस अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र के भीतर ही रहता है, वह प्राभ्यन्तरावधि कहलाता है। इससे जो विपरीत हो, वह बाह्यअवधि कहलाता है। बाह्यअवधि अन्तगत और मध्यगत के भेद से दो प्रकार है / जो अन्तगत हो अर्थात्प्रात्मप्रदेशों के पर्यन्त भाग में स्थित (गत) हो वह अन्तगत अवधि कहलाता है / कोई अवधिज्ञान जब उत्पन्न होता है, तब वह स्पर्द्धक के रूप में उत्पन्न होता है। स्पर्द्धक उसे कहते हैं, जो गवाक्ष जाल आदि से बाहर निकलने वाली दीपक-प्रभा के समान नियत विच्छेद विशेषरूप है / वे स्पर्द्धक एक जीव के संख्यात और असंख्यात तथा नाना प्रकार के होते हैं। उनमें से पर्यन्तवर्ती आत्मप्रदेशों में सामने, पीछे, अधोभाग या ऊपरी भाग में उत्पन्न होता हुअा अवधिज्ञान प्रात्मा के पर्यन्त में स्थित हो जाता है, इस कारण वह अन्तगत कहलाता है / अथवा औदारिक शरीर के अन्त में जो गतस्थित हो. वह अन्तगत कहलाता है, क्योंकि वह औदारिक शरीर को अपेक्षा से कदाचित् एक दिशा में जानता है। अथवा समस्त प्रात्मप्रदेशों में क्षयोपशम होने पर भी जो अवधिज्ञान औदारिक शरीर के अन्त में यानी किसी एक दिशा से जाना जाता है, वह अन्तगत अवधिज्ञान कहलाता है / अन्तगत अवधि तीन प्रकार का होता है-(१) पुरतः, (2) पृष्ठतः, (3) पार्वतः / मध्यगत अवधि उसे कहते हैं, जो प्रात्मप्रदेशों Page #1388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवाँ अवधिपद] [193 के मध्य में गत-स्थित हो / अर्थात् जिसकी स्थिति आत्मप्रदेशों के मध्य में हो / अथवा समस्त प्रात्मप्रदेशों में जानने का क्षयोपशम होने पर भी जिसके द्वारा औदारिक शरीर के मध्यभाग से जाना जाए वह भी मध्यगत कहलाता है / सारांश यह है कि जब अवधिज्ञान के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अवधिज्ञानी के साथ सम्बद्ध होता है, तब वह प्राभ्यन्तर-अवधि कहलाता है तथा जब अवधिज्ञान द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अवधिज्ञानी से सम्बद्ध नहीं रहता, तब वह बाह्यावधि कहलाता है।' नारक और समस्त जाति के देव भवस्वभाव के कारण अवधिज्ञान के अन्तः- मध्य में ही रहने वाले होते हैं, बहिर्वर्ती नहीं होते / उनका अवधिज्ञान सभी ओर के क्षेत्र को प्रकाशित करता है, इसलिए वे अवधि के मध्य में ही होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तथाविध भवस्वभाव के कारण अवधि के अन्दर नहीं होते, बाहर होते हैं। उनका अवधिस्पर्द्धकरूप होता है जो बीच-बीच में छोड़कर प्रकाश करता है, मनुष्य अवधि के मध्यवर्ती भी होते हैं, बहिर्वर्ती भी। पंचम देशावधि-सर्वावधिद्वार 2022. णेरइया णं भंते ! कि देसोही सवोही ? गोयमा ! देसोही, णो सम्वोही। [2022 प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधिज्ञान देशावधि होता है अथवा सर्वावधि ? [2022 उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं? 2023. एवं जाव थणियकुमाराणं। [2023] इसी प्रकार (का कथन) यावत् स्तनितकुमारों तक के विषय में (समझना चाहिए / ) 2024. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! देसोही, णो सब्वोही। [2024 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतियंञ्चों का अवधि देशावधि होता है या सर्वावधि ? [2024 उ.] गौतम ! वह देशावधि होता है, सर्वावधि नहीं / 2025. मणूसाणं पुच्छा। गोयमा! देसोही वि सम्वोही वि / [2025 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों का अवधिज्ञान देशावधि होता है या सर्वावधि ? [2025 उ.] गौतम ! उनका अवधिज्ञान देशावधि भी होता है, सर्वावधि भी होता है / 2026. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियाणं जहा णेरइयाणं (सु. 2022) / [2026] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों का (अवधि भी) (सू. 2022 में उक्त) नारकों के समान (देशावधि होता है।) विवेचन-देशावधि और सर्वावधि : स्वरूप एवं विश्लेषण-अवधिज्ञान तीन प्रकार का होता है सर्वजघन्य, मध्यम और सर्वोत्कृष्ट / इनमें से सर्वजघन्य और मध्यम अवधि को देशावधि कहते हैं 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 773 से 775 तक 2. वही, भा. 5, पृ. 810 से 812 तक Page #1389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] [प्रज्ञापनासूत्र और सर्वोत्कृष्ट अवधि को परमावधि या सर्वावधि कहते हैं / सर्वजघन्य अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा तैजसवर्गणा और भाषावर्गणा के अपान्तरालवर्ती द्रव्यों को, क्षेत्र की अपेक्षा अंगुल के असंख्यातवें भाग को, काल की अपेक्षा प्रावलिका के असंख्यातवें भाग अतीत और अनागत काल को जानता है / यद्यपि अवधिज्ञान रूपी पदार्थों को जानता है, इसलिए क्षेत्र और काल अमूर्त होने के कारण उनको साक्षात् ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि वे अरूपी हैं, तथापि उपचार से क्षेत्र और काल में जो रूपी द्रव्य होते हैं, उन्हें जानता है तथा भाव से अनन्त पर्यायों को जानता है / द्रव्य अनन्त होते हैं, अतः कम से कम प्रत्येक द्रव्य के रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूप चार पर्यायों को जानता है। यह हुआ सर्वजघन्य अवधिज्ञान / इससे आगे पुनः प्रदेशों की वृद्धि से, काल की वृद्धि से, पर्यायों की वृद्धि से बढ़ता हुआ अवधिज्ञान मध्यम कहलाता है। जब तक सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान न हो जाए, तब तक मध्यम का ही रूप समझना चाहिए / सर्वोत्कृष्ट अवधिज्ञान द्रव्य की अपेक्षा समस्त रूपी द्रव्यों को जानता है, क्षेत्र की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक को और अलोक में लोकप्रमाण असंख्यात खण्डों को जानता है, काल की अपेक्षा असंख्यात अतीत और अनागत उत्सपिणियों अवसपिणियों को जानता है तथा भाव की अपेक्षा अनन्त पर्यायों को जानता है, क्योंकि वह प्रत्येक द्रव्य की संख्यात-असंख्यात पर्यायों को जानता है।' छठा-सातवाँ अवधि-क्षय-वृद्धि आदि द्वार 2027. गेरइयाणं भंते ! श्रोही किं प्राणुगामिए प्रणाणुगामिए वड्ढमाणए हायमाणए पडिवाई अपडिवाई प्रवट्ठिए अणवट्टिए ? गोयमा ! पाणुगामिए, नो प्रणाणुगामिए नो वड्ढमाणए णो हायमाणए णो पडिवाई, अपडिवादी प्रवटिए, णो अणव ट्ठिए। [2027 प्र.] भगवन् ! नारकों का अवधि (ज्ञान) क्या प्रानुगामिक होता है, अनानुगागिक होता है, वर्द्धमान होता है. हीयमान होता है, प्रतिपाती होता है, अप्रतिपाती होता है, अवस्थित होता है, अथवा अनवस्थित होता है ? . [2027 उ.] गौतम ! वह अनुगामिक है, किन्तु अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाती और अनवस्थित नहीं होता, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है। 2028. एवं जाव थणियकुमाराणं / [2028] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् स्तनितकुमारों तक के विषय में जानना चाहिए। 2026. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! आणुगामिए वि जाव अणट्ठिए वि / __ [2028 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों का अवधि(ज्ञान) आनुगामिक होता है ?, इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [2026 उ.] गौतम ! वह प्रानुगामिक भी होता है, यावत् अनवस्थित भी होता है। 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 776 से 777 तक Page #1390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेतीसवाँ अवधिपद] [195 2030. एवं मसाण वि। [2030] इसी प्रकार मनुष्यों के अवधिज्ञान के विषय में समझ लेना चाहिए। 2031. वाणमंतर-जोतिसिय-धेमाणियाणं जहा रइयाणं (सु. 2027) / // पण्णवणाए भगवतीए तेत्तीसइमं प्रोहिपयं समत्तं // [2031] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की वक्तव्यता (सू. 2027 में उक्त) नारकों के समान जाननी चाहिए / विवेचन-प्रानुगामिक प्रादि पदों के लक्षण-(१) प्रानुगामिक (अनुगामी) जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़ कर दूसरे स्थान पर चले जाने पर भो अवधिज्ञानी के साथ विद्यमान रहता है, उसे पानगामिक कहते हैं. अर्थात जिस स्थान पर जिस जीव में यह अवधिज्ञान प्रकट होता है, वह जीव उस स्थान के चारों ओर संख्यात-असंख्यात योजन तक देखता है, इसी प्रकार उस जीव के दूसरे स्थान पर चले जाने पर भी वह उतने क्षेत्र को जानता-देखता है, वह प्रानुगामिक कहलाता है। (2) अनानुगामिक (अननुगामी)-जो साथ न चले, किन्तु जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न हुआ, उसी स्थान में स्थित होकर पदार्थों को जाने, उत्पत्तिस्थान को छोड़ देने पर न जाने, उसे अनानुगामिक कहते हैं। तात्पर्य यह है कि अपने ही स्थान पर अवस्थित रहने वाला अवधिज्ञान अनानुगामी कहलाता है। (3) वर्धमान---जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अल्पविषय वाला हो और परिणामविशुद्धि के साथ प्रशस्त प्रशस्ततर अध्यवसाय के कारण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लिए बढ़े अर्थात अधिकाधिक विषय वाला हो जाता है, वह 'वर्धमान' कहलाता है। (4) होयमान-~जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषय वाला होने पर भी परिणामों की अशुद्धि के कारण क्रमशः अल्प, अल्पतर और अल्पतम विषय वाला हो जाए, उसे होयमान कहते हैं / (5) प्रतिपाती इसका अर्थ पतन होना, गिरना या समाप्त हो जाना है / जगमगाते दीपक के वायु के झोके से एकाएक बुझ जाने के समान जो अवधिज्ञान सहसा लुप्त हो जाता है उसे प्रतिपाती कहते हैं / यह अवधिज्ञान जीवन के किसी भी क्षण में उत्पन्न और लुप्त भी हो सकता है / (6) अप्रतिपाती-जिस अवधिज्ञान का स्वभाव पतनशील नहीं है, उसे अप्रतिपाती कहते हैं / केवलज्ञान होने पर भी अप्रतिपाती अवधिज्ञान नहीं जाता, क्योंकि वहाँ अवधिज्ञानावरण का उदय नहीं होता, जिससे जाए; अपितु वह केवलज्ञान में समाविष्ट हो जाता है / केवलज्ञान के समक्ष उसकी सत्ता अकिचित्कर है। जैसे कि सूर्य के समक्ष दीपक का प्रकाश। यह अप्रतिपाती अवधिज्ञान बारहवे गुणस्थानवी जीवों के अन्तिम समय में होता है और उसके बाद तेरहवाँ गुणस्थान प्राप्त होने के प्रथम समय के साथ केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस अप्रतिपाती अवधिज्ञान को परमावधिज्ञान भी कहते हैं / हीयमान और प्रतिपाती में अन्तर यह है कि हीयमान का तो पूर्वापेक्षया धीरे-धीरे ह्रास हो जाता है, जबकि प्रतिपाती दीपक की तरह एक ही क्षण में नष्ट हो जाता है / (7) अवस्थितजो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी प्रात्मा में अवस्थित रहता है या केवलज्ञान की उत्पत्तिपर्यन्त ठहरता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान कहलाता है। (8) अनवस्थित जल की तरंग के समान जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी प्राविर्भूत हो जाता है और कभी तिरोहित हो जाता Page #1391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196] [प्रज्ञापनासूत्र है, उसे अनवस्थित कहते हैं। ये दोनों भेद प्रायः प्रतिपाती और अप्रतिपाती के समान लक्षण वाले हैं, किन्तु नाममात्र का भेद होने से दोनों को अपेक्षाकृत पृथक्-पृथक् बताया है।' निष्कर्ष नारकों तथा चारों जाति के देवों का अवधिज्ञान आनुगामिक, अप्रतिपाती और अवस्थित होता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों का अवधि पूर्वोक्त पाठ ही प्रकार का होता है। // प्रज्ञापना भगवती का तेतीसवाँ अवधिपद समाप्त / 00 1. कर्म ग्रन्थ भाग 1 (मरुधरकेसरी व्याख्या) भा. 1, पृ. 48 से 51 तक 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 415 Page #1392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउतीसइमं परियारणापयं चौतीसवाँ परिचारणापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह चौतीसवाँ परिचारणापद है। इसके बदले किसी-किसी प्रति में प्रविचारणा शब्द मिलता है, जो तत्त्वार्थसूत्र' के 'प्रवीचार' शब्द का मूल है / इसलिए परिचारणा अथवा प्रवीचार दोनों शब्द एकार्थक हैं। * कठोपनिषद् में भी परिचार' शब्द का प्रयोग मिलता है। * प्रवीचार या परिचारणा दोनों शब्दों का अर्थ मैथुनसेवन, इन्द्रियों का कामभोग, कामक्रीड़ा, रति, विषयभोग आदि किया गया है / __ भारतीय साधकों ने विशेषत: जैनतीर्थकरों ने देवों को मनुष्य जितना महत्त्व नहीं दिया है। देव मनुष्यों से भोगविलास में, वैषयिक सुखों में आगे बढ़े हुए अवश्य हैं तथा मनमाना रूप बनाने में दक्ष हैं, किन्तु मनुष्यजन्म को सबसे बढ़कर माना है, क्योंकि विषयों एवं कषायों से मुक्ति मनुष्यजन्म में ही, मनुष्ययोनि में ही सम्भव है / 'माणुसं खु दुल्लह' कह कर भगवान महावीर ने इसकी दुर्लभता का प्रतिपादन यत्र-तत्र किया है। यही कारण है कि मनुष्यजीवन की महत्ता बताने के लिए देवजीवन में विषयभोगों की उत्कृष्टता तथा नौ ग्रेवेयकों एवं पांच अनुत्तरविमानों के देवों के अतिरिक्त अन्य देवों में विषयभोगों की तीव्रता का स्पष्टत: प्रतिपादन किया गया है। देवजीवन में उच्चकोटि के देवों को छोड़कर अन्य देव इन्द्रिय-विषयभोगों का त्याग कर ही नहीं सकते / उच्चकोटि के वैमानिक देव भले ही परिचाररहित और देवीरहित हों, किन्तु वे ब्रह्मचारी नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें चारित्र के परिणाम नहीं होते। जबकि मनुष्यजीवन में महावती-सर्वविरतिसाधक बनकर मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी अथवा अणुव्रती बन कर मर्यादित ब्रह्मचारी हो सकता है। इस पद में देवों की परिचारणा का विविध पहलुओं से प्रतिपादन है / यद्यपि प्रारम्भ में आहारसम्बन्धी वक्तव्यता होने से सहसा यह प्रतीत होता है कि आहारसम्बन्धी यह वक्तव्यता आहारपद में देनी चाहिए थी, परन्तु गहराई से समीक्षण करने पर यह प्रतीत होता है कि आहारसम्बन्धी वक्तव्यता यहाँ सकारण है / इसका कारण यह है कि परिचारणा या मैथुनसेवन का मूल आधार शरीर है, शरीर से सम्बन्धित स्पर्श, रूप, शब्द, मन, अंगोपांग, इन्द्रियाँ, शारीरिक लावण्य, सौष्ठव, चापल्य या वर्ण आदि हैं / इसीलिए शास्त्रकार ने सर्वप्रथम 1. 'कायप्रवीवारा प्रा ऐशानात्, शेषा, स्पर्शरूपशब्दमनःप्रवीचारा द्वयोद्वंयोः / - तत्त्वार्थ सूत्र 418, 9 प्रवीचारो-मैथनोपसेवनम / -सर्वार्थ सिद्धि 417 Page #1393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] [प्रज्ञापनासूत्र शरीरनिर्माण की प्रक्रिया से इस पद को प्रारम्भ किया है। चौवीस दण्डकवर्ती जीव उत्पत्ति के प्रथम समय में प्राहार' लेने लगता है / तदनन्तर उसके शरीर की निष्पत्ति होती है / चारों ओर से युदगलों का ग्रहण होकर शरीर, इन्द्रियादि के रूप में परिणमन होता है। इन्द्रियाँ जब याहार से पुष्ट होती हैं तो उद्दीप्त होने पर जीव परिचारणा करता है, फिर विक्रिया करता है। देवो में पहले विक्रिया है फिर परिचारणा है / एकेन्द्रियों तथा विकलेन्द्रियों में परिचारणा है, विक्रिया नहीं होती है। परिचारणा में शब्दादि सभी विषयों का उपभोग होने लगता है / * आहार की चर्चा के पश्चात् आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित पाहार का उल्लेख किया है / प्रस्तुत में प्राभोगनिर्वतित का अर्थ वृत्तिकार ने किया है'मनःप्रणिधानपूर्वकमाहारं गृण्हन्ति' अर्थात् मनोयोगपूर्वक जो आहार ग्रहण किया जाए। अनाभोगनिवर्तित आहार का अर्थ है. इसके विपरीत जो आहार मनोयोगपूर्वक न किया गया हो / जैसे एकेन्द्रियों के मनोद्रव्यलब्धि पटु नहीं है, इसलिए उनके पटुतर आभोग (मनोयोग) नहीं होता। परन्तु यहाँ रसनेन्द्रिय वाले प्राणी के मुख होने से उसे खाने की इच्छा होती है इसलिए एकेन्द्रिय में अनाभोगनिर्वतित पाहार माना गया है। एकेन्द्रिय के सिवाय सभी जीव आभोगनिर्वतित और अनाभोगनिर्वतित दोनों प्रकार का आहार लेते हैं। * इसके पश्चात् ग्रहण किये हुए आहार्यपुद्गलों को कौन जीव जानता-देखता है, कौन नहीं ? इसकी चर्चा है। 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः' इस सूक्ति के अनुसार आहार का अध्यवसाय के साथ सम्बन्ध होने से यहाँ पाहार के बाद अध्यवसायस्थानों की चर्चा की गई है। चौवीस दण्डकों में प्रशस्त और अप्रशस्त अध्यवसायस्थान असंख्यात प्रकार के होते हैं। परिचारणा के साथ स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध का निकट सम्बन्ध है। यही कारण है कि षटखण्डागम में कर्म के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के अध्यवसायस्थानों को विस्तृत चचा है / * इसके पश्चात् चौवीस दण्डकों में सम्यक्त्वाभिगामी, मिथ्यात्वाभिगामी और सम्यग-मिथ्यात्वा भिगामी की चर्चा है / परिचारणा के सन्दर्भ में यह प्रतिपादन किया गया है, इससे प्रतीत होता है कि सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी का परिचारणा के परिणामों पर पृथक्-पृथक् असर पड़ता है / सम्यक्त्वी द्वारा की गई परिचारणा और मिथ्यात्वी द्वारा की गई परिचारणा के भावों में रात दिन का अन्तर होगा, तदनुसार कर्मबन्ध में भी अन्तर पड़ेगा। * यहाँ तक परिचारणा को पृष्ठभूमि के रूप में पांच द्वार शास्त्रकर ने प्रतिपादित किये हैं 1. पाणावणासुत्तं (प्रस्तावना) भा. 2, पृ. 145 2. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 145 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 545 (ग) पण्णवणासुत्त भा. 2 (मू. पा. टि.) पृ. 146 3. (क) पग्णवणासुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना) पृ. 146-147 (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मू. पा. टि.) पृ. 146 Page #1394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक] [199 (1) अनन्तराहारद्वार, (2) आहाराभोगद्वार, (3) पुद्गलज्ञानद्वार, (4) अध्यवसानद्वार और (5) सम्यक्त्वाभिगमद्वार / इसके पश्चात् छठा परिचार णाद्वार प्रारम्भ होता है / परिचारणा को शास्त्रकार ने चार पहलुओं से प्रतिपादित किया है-(१) देवों के सम्बन्ध में परिचारणा की दृष्टि से निम्नलिखित तीन विकल्प सम्भव हैं, चौथा विकल्प सम्भव नहीं है / (1) सदेवीक सपरिचार देव (II) अदेवीक सपरिचार देव, (III) अदेवीक अपरिचार देव / कोई भी देव सदेवीक हो, साथ ही अपरिचार भी हो, ऐसा सम्भव नहीं। अतः उपर्युक्त तीन सम्भवित विकल्पों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है(१) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान वैमानिक में देवियाँ होती हैं। इसलिए इनमें कायिकपरिचारण (देव-देवियों का मैथुनसेवन) होती है। (2) सनत्कुमारकल्प से अच्युतकल्प के वैमानिक देवों में अकेले देव ही होते हैं, देवियाँ नहीं होतीं, इसके लिए द्वितीय विकल्प है-उन विमानों में देवियां नहीं होती, फिर भी परिचारणा होती है। (3) किन्तु नौ ग्रैवेयक और अनुत्तरविमानों में देवी भी नहीं होती और वहाँ के देवों द्वारा परिचारणा भी नहीं होती। यह तीसरा विकल्प है। * जिस देवलोक में देवी नहीं होती, वहाँ परिचारणा कैसे होती है ? इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं--(१) सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में स्पर्श-परिचारणा, (2) ब्रह्मलोक और लान्तककल्प में रूप-परिचारणा, (3) महाशुक्र और सहस्रारकल्प में शब्द-परिचारणा, (4) पानत-प्राणत तथा प्रारण-अच्युतकल्प में मनःपरिचारणा होती है। * कायपरिचारणा तब होती है, जब देवों में स्वतः इच्छा--मन की उत्पत्ति अर्थात काय परिचारणा की इच्छा होती है। और तब देवियाँ-अप्सराएँ मनोरम मनोज्ञ रूप तथा उत्तर वैक्रिय शरीर धारण करके उपस्थित होती हैं / * देवों की कायिक-परिचारणा मनुष्य के कायिक मैथुनसेवन के समान देवियों के साथ होती है। शास्त्रकार ने आगे यह भी बताया है कि देवों में शुक्र-पुद्गल होते हैं, वे उन देवियों में संक्रमण करके पंचेन्द्रियरूप में परिणत होते हैं तथा अप्सरा के रूप-लावण्यवर्द्धक भी होते हैं / यहाँ एक विशेष वस्तु ध्यान देने योग्य है कि देव के उस शुक्र से अप्सरा में गर्भाधान नहीं होता, क्योंकि देवों के वैक्रियशरीर होता है / उनकी उत्पत्ति गर्भ से नहीं, किन्तु औपपातिक है।' * जहाँ स्पर्श, रूप एवं शब्द से परिचारणा होती है, उन देवलोकों में देवियाँ नहीं होती। किन्तु देवों को जब स्पादि-परिचारणा की इच्छा होती है, तब अप्सराएँ (देवियाँ) विक्रिया करके स्वयं उपस्थित होती हैं / वे देवियाँ सहस्रारकल्प तक जाती हैं, यह खासतौर से ध्यान देने योग्य है। फिर वे देव क्रमशः (यथायोग्य) स्पर्शादि से ही सन्तुष्टि-तृप्ति अनुभव करते हैं / यही उनकी परिचारणा है : स्पर्शादि से परिचारणा करने वाले देवों के भी शुक्र-विसर्जन होता है। 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवति, पत्र 549 (ख) वही, केवल मेते वैक्रियशरीरान्तर्गता इति न गर्भाधानहेतवः। -पत्र 550-551 Page #1395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200] [प्रज्ञापनासूत्र वृत्तिकार ने इस विषय में स्पष्टीकरण किया है कि देव-देवी का कायिक सम्पर्क न होने पर भी दिव्य-प्रभाव के कारण देवी में शुक्र-संक्रमण होता है और उसका परिणमन भो उन देवियों के रूप-लावण्य में वृद्धि करने में होता है / प्रानत, प्राणत, पारण और अच्युतकल्प में केवल मन-(मन से) परिचारणा होती है / अतः उन-उन देवों की परिचारणा की इच्छा होने पर देवियाँ वहाँ उपस्थित नहीं होती, किन्तु वे अपने स्थान में रह कर ही मनोरम शृगार करती हैं, मनोहर रूप बनाती हैं और वे देव अपने स्थान पर रहते हुए ही मनःसन्तुष्टि प्राप्त कर लेते हैं, साथ हो अपने स्थान में रही हुई वे देवियाँ भी दिव्य-प्रभाव से अधिकाधिक रूप-लावण्यवती बन जाती हैं।' * प्रस्तुत पद के अन्तिम सप्तम द्वार में पूर्वोक्त सभी परिचारणामों की दृष्टि से देवों के अल्प बहुत्व की विचारणा की गई है। उसमें उत्तरोत्तर वृद्धिंगत कम इस प्रकार है,—(१) सबसे कम अपरिचारक देव हैं, (2) उनसे संख्यातगुणे अधिक मन से परिचारणा करने वाले देव हैं, (3) उनसे असंख्यातगुणा शब्द-परिचारक देव हैं, (4) उनकी अपेक्षा रूप-परिचारक देव असंख्यातगुणा हैं, (5) उनसे असंख्यातगुणा स्पर्श-परिचारक देव हैं और (6) इन सबसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। इसमें उत्तरोत्तरवृद्धि का विपरीतक्रम परिचारणा में उत्तरोत्तर सुखवृद्धि की दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। उदाहरणार्थ सबसे कम सुख कायपरिचारणा में है और फिर उत्तरोत्तर सुखवृद्धि स्पर्श-रूप-शब्द और मन से परिचारणा में है। सबसे अधिक सुख अपरिचारणा वाले देवों में है। वृत्तिकार ने यह रहस्योद्घाटन किया है। 1. (क) 'पुद्गल-संक्रमो दिव्यप्रभावादवसेयः / ' -प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 551 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयवोधिनी टीका), भा. 5 (ग) पण्णवणासुत्तं भा. 2 (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 1488 2. (क) पग्णवणासुतं, भा. 2 (प्रस्तावना-परिशिष्ट) पृ. 14 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 871 Page #1396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउतीसइमं परियारणापयं चौतोसवाँ परिचारणापद चौतीसवें पद का अर्थाधिकार-प्ररूपण 2032. अणंतरागयत्राहारे 1 श्राहाराभोगणाइ य 2 / पोग्गला नेव जाणंति 3 अज्झवसाणा य ाहिया 4 // 223 // सम्मत्तस्स अभिगमे 5 तत्तो परियारणा य बोद्धब्बा 6 / काए फासे रूवे सद्दे य मणे य अप्पवहुं 7 // 224 // [2032 अर्थाधिकारप्ररूपक-गाथार्थ] (1) अनन्तरागत अाहार, (2) आहाराभोगता ग्रादि, (3) पुद्गलों को नहीं जानते, (4) अध्यवसान, (5) सम्यक्त्व का अभिगम, (6) काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन से सम्बन्धित परिचारणा और (7) अन्त में काय आदि से परिचारणा करने वालों का अल्पबहुत्व, (इस प्रकार चौतीसवें पद का अर्थाधिकार) समझना चाहिए / / 223-224 / / / विवेचन-चौतीसवें पद में प्रतिपाद्य विषय-प्रस्तुत पद में दो संग्रहणीगाथाओं द्वारा निम्नोक्त विषयों की प्ररूपणा की गई है-(१) सर्वप्रथम नारक आदि अनन्तरागत-पाहारक हैं, इस विषय की प्ररूपणा है, (2) तत्पश्चात् उनका आहार आभोगजनित होता है या अनाभोगजनित ?, इत्यादि कथन है / (3) नारकादि जीव आहाररूप में गृहीत पुद्गलों को जानते-देखते हैं या नहीं ? इस विषय में प्रतिपादन है / (4) फिर नारकादि के अध्यवसाय के विषय में कथन है। (5) तत्पश्चात् नारकादि के सम्यक्त्वप्राप्ति का कथन है / (6) शब्दादि-विषयोपभोग की वक्तव्यता, तथा काय, स्पर्श, रूप, शब्द और मन सम्बन्धी परिचारणा का निरूपण है। (7) अन्त में, काय प्रादि से परिचारणा करने वालों के अल्प-बहुत्व की वक्तव्यता है।' प्रथम अनन्तराहारद्वार 2033. गेरइया गं भंते ! अणंतराहारा तो निव्वत्तणया ततो परियाइयणया ततो परिणामणया ततो परियारणया ततो पच्छा विउवणया ? हंता गोयमा ! मेरइया णं अणंतराहारा तो निव्वत्तणया ततो परियादियणता तम्रो परिणामणया तो परियारणया तो पच्छा विउवणया। [2033 प्र.] भगवन् ! क्या नारक अनन्त राहारक होते हैं ?, उसके पश्चात् (उनके शरीर की) निष्पत्ति होती है ? फिर पर्यादानता, तदनन्तर परिणामना होती है ? तत्पश्चात् परिचारणा करते हैं ? और तब विकुर्वणा करते हैं ? 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टाका), भा. 5, पृ. 817 Page #1397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] [प्रज्ञापनासूत्र [2033 उ.] हाँ, गौतम ! नैरयिक अनन्तराहारक होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है, तत्पश्चात् पर्यादानता और परिणामना होती है, तत्पश्चात् वे परिचारणा करते हैं और तब वे विकुर्वणा करते हैं। 2034. [1] असुरकुमारा णं भंते ! अणंतराहारा तो णिवत्तणया तओ परियाइयणया तो परिणामणया तो विउठवणया तो पच्छा परियारणया ? गोयमा ! असुरकुमारा अणंतराहारा तओ णिव्वत्तणया जाव तो पच्छा परियारणया। [2034-1 प्र.] भगवन् ! क्या असुरकुमार भी अनन्तराहारक होते हैं ? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है ? फिर वे क्रमशः पर्यादान, परिणामना करते हैं ? और तत्पश्चात् विकुर्वणा और फिर परिचारणा करते हैं ? / [2034-1 उ.] हाँ, गौतम ! असुरकुमार अनन्तराहारी होते हैं, फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है यावत् फिर वे परिचारणा करते हैं। [2] एवं जाव थणियकुमारा। [2034-2] इसी प्रकार की वक्तव्यता यावत् स्तनितकुमारपर्यन्त कहनी चाहिए / 2035. पुढविक्काइया गं भंते ! अणंतराहारा तमो णिवत्तणया तो परियाइयणया तो परिणामणया य तनो परियारणया ततो विउव्यणया ? हंता गोयमा ! तं चेव जाव परियारणया, णो चेव णं विउव्वणया। [2035 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीकायिक अनन्तराहारक होते हैं ? फिर उनके शरीर की निष्पत्ति होती है। तत्पश्चात् पर्यादानता, परिणामना, फिर परिचारणा और तब क्या विकुर्वणा होती है ? [2035 उ.] हाँ गौतम ! पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता यावत् परिचारणापर्यन्त पूर्ववत् कहनी चाहिए किन्तु वे विकुर्वणा नहीं करते / 2036. एवं आव चरिदिया। णवरं बाउक्काइया पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य जहा जेरइया (सु. 2033) / [2036] इसी प्रकार कथन यावत् चतुरिन्द्रियपर्यन्त करना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीव, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्यों के विषय में (सू. 2033 में उक्त) नै रयिकों के कथन के समान जानना चाहिए / 2037. बाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु. 2034) / [2037] वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिकों की वक्तव्यता असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान जाननी चाहिए। Page #1398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां परिचारणापदां [203 विवेचन–अनन्तराहार से विकुर्वणा तक के क्रम की चर्चा-नारक आदि चौबीसदण्डकवर्ती जोवों के विषय में प्रथम द्वार में अनन्तराहार, निष्पत्ति, पर्यादानता, परिणामना, परिचारणा और विकुर्वणा के क्रम की चर्चा की गई है / ' अनन्तराहारक प्रादि का विशेष अर्थ-अनन्तराहारक-उत्त्पत्ति क्षेत्र में आने के समय ही आहार करने वाले / निर्वर्तना-शरीर की निष्पत्ति, पर्यादानता-आहार्य पुद्गलों को ग्रहण करना / परिणामना-गृहीत पुद्गलों को शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणत करना / परिचारणायथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग करना / विकुर्वणा-वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करना। प्रश्न का आशय यह है कि नारक प्रादि अनन्तराहारक होते हैं ? अर्थात-क्या उत्पत्तिक्षेत्र में पहुँचते ही समय के व्यवधान के बिना ही वे पाहार करते हैं ? तत्पश्चात् क्या उनके शरीर की निर्वर्तना-निष्पत्ति (रचना) होती है ? शरीरनिष्पत्ति के पश्चात् क्या अंग-प्रत्यंगों द्वारा लोमाहार आदि से पुद्गलों का पर्यादान-ग्रहण होता है ? फिर उन गृहीत पुद्गलों का शरीर, इन्द्रिय आदि के रूप में परिणमन होता है ? परिणमन के बाद इन्द्रियाँ पुष्ट होने पर क्या वे परिचारणा करते हैं ? अर्थात्-यथायोग्य शब्दादि विषयों का उपभोग होता है ? और फिर क्या वे अपनी वैक्रियलब्धि के सामर्थ्य से विक्रिया करते हैं ? 2 उत्तर का सारांश-भगवान द्वारा इस क्रमबद्ध प्रक्रिया का 'हाँ' में उत्तर दिया गया है। किन्तु वायुकायिक को छोड़कर शेष एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में विकुर्वणा नहीं होती, क्योंकि ये वैशियलब्धि नहीं प्राप्त कर सकते / दूसरी विशेष बात यह है कि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों, इन चारों प्रकार के देवों में विकुर्वणा पहले होती है, परिचारणा बाद में, जबकि नारकों आदि शेष जीवों में परिचारणा के पश्चात् विकुर्वणा का क्रम है। देवगणों का स्वभाव ही ऐसा है कि विशिष्ट शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा होने पर पहले वे अभीष्ट वैक्रिय रूप बनाते हैं, तत्पश्चात् शब्दादि का उपभोग करते हैं, किन्तु नैरयिक आदि जीव शब्दादि-उपभोग प्राप्त होने पर हर्षातिरेक से विशिष्टतम शब्दादि के उपभोग की अभिलाषा के कारण विक्रिया करते हैं। इस कारण देवों की वक्तव्यता में पहले विक्रिया और बाद में परिचारणा का कथन किया गया है। द्वितीय आहाराभोगताद्वार 2038. रइयाणं भंते ! श्राहारे कि प्राभोगणिव्वत्तिए प्रणाभोगणिवत्तिए ? गोयमा ! आभोगणिव्वत्तिए वि प्रणाभोगणिध्वत्तिए वि। [2038 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों का आहार आभोग-निर्वर्तित होता है या अनाभोगनिर्वतित ? 1. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 419 2. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5 पृ. 821 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 544 3. वही, मलयवृत्ति, पत्र 544 Page #1399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] [प्रज्ञापनासून [2038 उ.] गौतम ! उनका आहार आभोग-निवर्तित भी होता है और अनाभोग-निर्वर्तित भी होता है। 2036. एवं असुरकुमाराणं जाव वेमाणियाणं / णवरं एगिदियाणं णो प्राभोगणिव्वत्तिए, अणाभोगणिव्वत्तिए। _ [2036] इसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए / ) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय जीवों का आहार आभोगनिर्वतित नहीं होता, किन्तु अनाभोगनिवर्तित होता है। विवेचन -प्राभोगनिवर्तित और प्रनामोगनिवर्तित का स्वरूप-यद्यपि आहारपद (28 वाँ पद) में इन दोनो प्रकार के प्राहारों की चर्चा की गई है और आहार-सम्बन्धी यह चर्चा भी उसी पद में होनी चाहिए थी, परन्तु परिचारणा के पूर्व की प्रक्रिया बताने हेतु प्राभोग-अनाभोगनितितता की चर्चा की गई गई है। वत्तिकार प्राचार्य मलयगिरि ने मन:प्रणिधानपर्वक ग्रहण किये जाने वाले आहार को प्राभोगनिर्वतित कहा है। इसलिए नारक आदि जब मनोयोगपूर्वक आहार ग्रहण करते हैं, तब वह आभोगनिर्वतित होता है, और जब वे मनोयोग के बिना ही आहार ग्रहण करते हैं, तब अनाभोगनिवर्तित आहार यानी लोमाहार करते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में अत्यन्त अल्प और अपटु मनोद्रव्यलब्धि होती है, इसलिए पटुतम मनोयोग न होने के कारण उनके आभोगनिर्वर्तित आहार नहीं होता।' तृतीय पुद्गलज्ञानद्वार 2040. रइया णं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए मेहंति ते कि जाणंति पासंति आहारेति ? उयाहु ण जाणंति ण पासंति प्राहारेंति ? गोयमा ! ण जाणंति ण पासंति, प्राहारेति / [2040 प्र.] भगवन् ! नै रयिक जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उन्हें जानते हैं, देखते हैं और उनका आहार करते हैं, अथवा नहीं जानते, नहीं देखते हैं किन्तु पाहार करते हैं ? [2040 उ.] गौतम ! वे न तो जानते हैं और न देखते हैं, किन्तु उनका आहार करते हैं / 2041. एवं जाव तेइंदिया। [2041] इसी प्रकार (असुरकुमारादि से लेकर) यावत्-त्रीन्द्रिय तक (कहना चाहिए।) 2042. चरिदियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रत्येगइया ण जाणंति पासंति प्राहारेंति, अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति माहारेति। [2042 प्र.] चतुरिन्द्रियजीव क्या अाहार के रूप में ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलों को जानते-देखते हैं, और आहार करते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5 पृ.८३१-८३२ Page #1400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां परिधारणापद] (205 [2042 उ.] गौतम ! कई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुदगलों को नहीं जानते, किन्तु देखते हैं और कई चतुरिन्द्रिय न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु पाहार करते हैं। 2043. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! प्रत्येगइया जाणंति पासंति आहारति 1 अत्थेगइया जाणंति न पासंति आहारेंति 2 अत्थेगइया ण जाणंति पासंति प्राहारेंति 3 अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारति 4 / [2043 प्र.] पंचेन्द्रियतिर्यंचों के विषय में पूर्ववत् प्रश्न / (2043 उ.] गौतम ! कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यञ्च (पाहार्यमाण पुद्गलों को) जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं 1, कतिपय जानते हैं, देखते नहीं और आहार वरते हैं, 2, कतिपय जानते नहीं देखते हैं और पाहार करते हैं 3, कई पंचेन्द्रियतिर्यञ्च न तो जानते हैं और न ही देखते हैं, किन्तु प्रहार करते हैं 4 / 2044. एवं मणूसाण वि। [2044] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में (जानना चाहिए।) 2045. वाणमंतर-जोतिसिया जहा रइया (सु. 2040) / [2045] वाणव्यन्तरों और ज्योतिष्कों का कथन नै रयिकों के समान (समझना चाहिए / ) 2046. वेमाणियाणं पुच्छा। मोयमा ! प्रत्थेगइया जाणंति पासंति प्राहारेंति 1 अत्थेगइया ण जाणंति ण पासंति आहारेंति 2 / __ से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइया जाणंति पासंति प्राहारेंति प्रत्येगइया ण जाणंति ण पासंति प्राहारेति ? गोयमा ! वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--माइमिच्छद्दिट्टिउववण्णगा य अमाइसम्मदिविउववण्णगा य, एवं जहा इंदियउद्देसए पढमे भणियं (सु. 668) तहा भाणियन्वं जाव से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चतिः। [2046 प्र.] भगवन् ! वैमानिक देव जिन पुद्गलों को आहार के रूप में ग्रहण करते हैं, क्या वे उनको जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं ? अथवा वे न जानते हैं, न देखते हैं और पाहार करते हैं ? [2046 उ.] गौतम ! (1) कई वैमानिक जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं और (2) कई न तो जानते हैं, न देखते हैं, किन्तु प्रहार करते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि (1) कई वैमानिक (आहार्यमाण पुद्गलों को) जानते-देखते हैं और पाहार करते हैं और (2) कई वैमानिक उन्हें न तो जानते हैं, न देखते हैं किन्तु आहार करते हैं ? [उ.] गौतम ! वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गए हैं। यथा---मायी मिध्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायीसम्यग्दृष्टि-उपपन्नक / इस प्रकार जैसे (सू. 668 में उक्त) प्रथम इन्द्रिय-उद्देशक में कहा है, वैसे ही यहाँ सब यावत् ---'इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा गया है', यहाँ तक कहना चाहिए। Page #1401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र विवेचन-चौवीसदण्डकवर्ती जीवों द्वारा प्रहार्यमाण पुद्गलों के जानने-देखने पर- यहाँ विचार किया गया है / नीचे एक तालिका दी जा रही है, जिससे आसानी से जाना जा सके१. नैरयिक जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं नहीं जानते, न देखते, आहार करते हैं भवनपति वाणव्यन्तर ज्योतिष्क एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय 2. चतुरिन्द्रिय जीव (1) कई जानते, देखते, आहार करते हैं। (2) कई जानते हैं, देखते नहीं, आहार करते हैं। 3. पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य (1) कई जानते, देखते व आहार (3) कई जानते नहीं, देखते हैं करते हैं। और आहार करते हैं। (2) कई जानते हैं, देखते नहीं, (4) न देखते, न जानते, और आहार करते हैं। आहार करते हैं। 4. वैमानिक देव (1) कई जानते, देखते और आहार (2) कई नहीं जानते, नहीं करते हैं। देखते, आहार करते हैं।' स्पष्टीकरण नैरयिक और भवनपतिदेव एवं एकेन्द्रिय आदि जीव जिन पुद्गलों का आहार करते हैं, उन्हें नहीं जानते, क्योंकि उनका लोमाहार होने से अत्यन्त सूक्ष्मता के कारण उनके ज्ञान का विषय नहीं होता। वे देखते भी नहीं। क्योंकि वह दर्शन का विषय नहीं होता। अज्ञानी होने के कारण द्वीन्द्रिय सम्यग्ज्ञान से रहित होते हैं, अतएव उन पुद्गलों को भी वे नहीं जानते-देखते / उनका मति-अज्ञान भी इतना अस्पष्ट होता है कि स्वयं जो प्रक्षेपाहार वे ग्रहण करते हैं, उसे भी नहीं जानते / चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से वे उन पुद्गलों को देख भी नहीं सकते। चतुरिन्द्रिय के दो भंग-कोई चतुरिन्द्रिय आहार्यमाण पुद्गलों को जानते नहीं, किन्तु देखते हैं, क्योंकि उनके चक्षुरिन्द्रिय होती है और आहार करते हैं / किन्हीं चतुरिन्द्रिय के आँख होते हुए भी अन्धकार के कारण उनके चक्षु काम नहीं करते, अतः वे देख नहीं पाते, किन्तु आहार करते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों के विषय में आहार्य पुद्गलों को जानने-देखने के सम्बन्ध में चार भंग पाए जाते हैं। 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. 1, पृ. 420 2. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 545 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका सहित) भा. 5, प. 833-834 3. (क) वही, भा. 5, पृ. 835 से 839 (ख) प्रज्ञापना. मलयगिरिवृत्ति, पत्र 545 Page #1402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवां परिचारणापद] [207 प्रक्षेपाहार की दृष्टि से चार भंग-(१) कोई जानते हैं, देखते हैं और पाहार करते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य प्रक्षेपाहारी होते हैं, इसलिए इनमें जो सम्यग्ज्ञानी होते हैं, वे वस्तुस्वरूप के ज्ञाता होने के कारण प्रक्षेपाहार को जानते हैं तथा चक्षुरिन्द्रिय होने से देखते भी हैं और आहार करते हैं। यह प्रथम भंग हुआ। (2) कोई जानते हैं, देखते नहीं और आहार करते हैं। सम्यग्ज्ञानी होने से कोई-कोई जानते तो हैं, किन्तु अन्धकार आदि के कारण नेत्र के काम न करने से देख नहीं पाते। यह द्वितीय भंग हुअा। (3) कोई जानते नहीं हैं, किन्तु देखते हैं और पाहार करते हैं। कोई-कोई मिथ्याज्ञानी होने से जानते नहीं हैं, क्योंकि उनमें सम्यग्ज्ञान नहीं होता, किन्तु वे चक्षुरिन्द्रिय के उपयोग से देखते हैं / यह तृतीय भंग हुआ। (4) कोई जानते भी नहीं, देखते भी नहीं, किन्तु पाहार करते हैं। कोई मिथ्याज्ञानी होने से जानते नहीं तथा अन्धकार के कारण नेत्रों का व्याघात हो जाने के कारण देखते भी नहीं पर अाहार करते हैं / यह चतुर्थ भंग हुआ। लोमाहार की अपेक्षा से चार भंग-(१) कोई कोई तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य विशिष्ट अवधिज्ञान के कारण लोमाहार को भी जानते हैं और विशिष्ट क्षयोपशम होने से इन्द्रियपटुता अति विशुद्ध होने के कारण देखते भी हैं और पाहार करते हैं। (2) कोई कोई जानते तो हैं, किन्तु इन्द्रियपाटव का अभाव होने से देखते नहीं है।।३) कोई जानते नहीं, किन्तु इन्द्रियपाटवयुक्त होने के कारण देखते हैं। (4) कोई मिथ्याज्ञानी होने से अवधिज्ञान के अभाव में जानते नहीं और इन्द्रियपाटव का अभाव होने से देखते भी नहीं पर पाहार करते हैं / वैमानिकों में दो भंग - (1) कोई जानते नहीं, देखते भी नहीं, किन्तु आहार करते हैं। जो मायो-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे नौ ग्रेवेयक देवों तक पाये जाते हैं, वे अवधिज्ञान से मनोमय आहार के योग्य पुद्गलों को जानते नहीं हैं, क्योंकि उनका विभंगज्ञान उन पुगलों को जानने में समर्थ नहीं होता और इन्द्रियपटुता के अभाव के कारण चक्षुरिन्द्रिय से वे देख भी नहीं पाते। (2) जो वैमानिक देव अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक होते हैं, वे भी दो प्रकार के होते हैं-अनन्तरोप क और परम्परोपपन्नक / इन्हें क्रमश: प्रथमसमयोत्पन्न और अप्रथमसमयोत्पन्न भी कह सकते हैं। अनन्तरोपपत्रक नहीं जानते और नहीं देखते हैं, क्योंकि प्रथम समय में उत्पन्न होने के कारण उनके अवधिज्ञान का तथा चक्षुरिन्द्रिय का उपयोग नहीं होता / परम्परोपपन्नकों में भी जो अपर्याप्त होते हैं, वे नहीं जानते और न ही देखते हैं, क्योंकि पर्याप्तियों की अपूर्णता के कारण उनके अवधिज्ञानानादि का उपयोग नहीं लग सकता / पर्याप्तकों में भी जो अनुपयोगवान् होते हैं, वे नहीं जानते, न ही देखते हैं। जो उपयोग लगाते हैं, वे ही वैमानिक आहार के योग्य पुद्गलों को जानते-देखते हैं और आहार करते हैं। पांच अनुत्तरविमानवासी देव अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक ही होते हैं और उनके क्रोधादि कषाय बहुत ही मन्दतर होते हैं, या वे उपशान्तकषायी होते हैं, इसलिए अमायी भी होते हैं।' चतुर्थ अध्यवसायद्वार 2047. रइयाणं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पण्णता? गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पण्णत्ता। 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 446 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 841 Page #1403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205] प्रज्ञापनासून ते णं भंते ! कि पसस्था अप्पसस्था? गोयमा ! पसत्था वि अप्पसत्था वि। [2047 प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने अध्यवसान (अध्यवसाय) कहे गए हैं ? [2047 उ.] गौतम ! उनके असंख्येय अध्यवसान कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! (नारकों के) वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्त ? [उ.] गौतम ! वे प्रशस्त भी होते हैं, अप्रशस्त भी होते हैं / 2048. एवं जाव वेमाणियाणं / [2048] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक का कथन जानना चाहिए / विवेचन–अध्यवसायद्वार के सम्बन्ध में यत्किचित्-चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के अध्यवसाय असंख्यात बताए हैं। वे अध्यवसाय प्रशस्त, अप्रशस्त दोनों प्रकार के असंख्यात होते रहते हैं। प्रत्येक समय में पृथक-पृथक संख्यातीत अध्यवसाय लगातार होते हैं।' पंचम सम्यक्त्वाभिगमद्वार 2046. रइया णं भंते ! कि सम्मत्ताभिगमी मिच्छत्ताभिगमी सम्मामिच्छत्ताभिगमी ? गोयमा ! सम्मत्ताभिगमी वि मिच्छत्ताभिगमी वि सम्मामिच्छत्ताभिगमी वि। [2046] भगवन् ! नारक सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं, अथवा मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, या सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते है ? 2046 उ.] गौतम ! वे सम्यक्त्वाभिगमी भी हैं, मिथ्यात्वाभिगमी भी हैं और सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी भी होते हैं। 2050. एवं जाव वेमाणिया। गवरं एगिदिय-विलिदिया णो सम्मत्ताभिगमी, मिच्छत्ताभिगमी, णो सम्मामिच्छत्ताभिगमी। [2050] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त. जानना चाहिए। विशेष यह है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं, वे न तो सम्यक्त्वाभिगमी होते हैं और न ही सम्यग्मिथ्यात्वाभिगमी होते हैं। विवेचन-पंचमद्वार का प्राशय-प्रस्तुत द्वार में नारक अादि चौवीस दण्डकों के विषय में सम्यक्त्वाभिगमी (अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति वाले), मिथ्यात्वाभिगमी (अर्थात् मिथ्यादृष्टि की प्राप्ति वाले) अथवा सम्यगमिथ्यात्वाभिगमी (अर्थात् मिश्रदृष्टि वाले) हैं, ये प्रश्न हैं। एकेन्द्रिय मिथ्याभिगामी ही क्यों ?–एकेन्द्रिय जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते, इसलिए वे केवल मिथ्यादृष्टि ही होते हैं। किसी-किसी विकलेन्द्रिय में सास्वादन सम्यक्त्व पाया जाता है, तथापि अल्पकालिक होने से यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की गई है, क्योंकि वे मिथ्यात्व की ओर ही अभिमुख होते हैं। 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 446 (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयोधिनी टीका), भा. 5, .841 2. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5 पृ. 842 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति पत्र 546 Page #1404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसवाँ परिचारणापद] [209 छठा परिचाररणाद्वार 2051. देवा णं भंते ! कि सदेवीया सपरियारा सदेवीया अपरियारा प्रदेवीया सपरियारा प्रदेवीया अपरियारा? __ गोयमा ! प्रत्येगइया देवा सदेवीया सपरियारा 1 अत्थेगइया देवा अदेवीया सपरियारा 2 प्रत्थेगइया देवा प्रदेवीया अपरियारा 3 णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा तं चेव जाव णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा? गोयमा ! भवणवति-वाणमंतर-जोतिस-सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु देवा सदेवीया सपरियारा, सणंकुमार-माहिद-बंभलोग-लंतग-महासुक्क-सहस्सार-आणय-पाणय-भारण-अच्चुएसु कप्पेसु देवा प्रदेवीया सपरियारा, गेवेज्जऽणुत्तरोववाइयदेवा अदेवीया अपरियारा, णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चति अत्थेगइया देवा सदेवीया सपरियारा तं चेव जाव णो चेव णं देवा सदेवीया अपरियारा। [2051 प्र.] भगवन् ! (1) क्या देव देवियों सहित और सपरिचार (परिचारयुक्त) होते हैं ?, (2) अथवा वे देवियोंसहित एवं अपरिचार (परिचाररहित) होते हैं ? , (3) अथवा वे देवीरहित एवं परिचारयुक्त होते हैं ? या (4) देवीरहित एवं परिचाररहित होते हैं ? [2051 उ.] गौतम ! (1) कई देव देवियोंसहित सपरिचार होते हैं, (2) कई देव देवियों के बिना सपरिचार होते हैं और (3) कई देव देवीरहित और परिचाररहित होते हैं, किन्तु कोई भी देव देवियों सहित अपरिचार (परिचाररहित) नहीं होते हैं / [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि कई देव देवीसहित सपरिचार होते हैं, इत्यादि यावत् देवियों सहित परन्तु अपरिचार नहीं होते / [उ.] गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशानकल्प के देव देवियों सहित और परिचारसहित होते हैं। सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पों में देव, देवीरहित किन्तु परिचारसहित होते हैं। नौ ग्रे वेयक और पंच अनुत्तरोषपातिक देव देवीरहित और परिचाररहित होते हैं। किन्तु ऐसा कदापि नहीं होता कि देव देवीसहित हों, साथ ही परिचार-रहित हों। 2052. [1] कतिविहा णं भंते ! परियारणा पण्णता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णता / तं जहाकायपरियारणा 1 फासपरियारणा 2 रूवपरियारणा 3 सहपरियारणा 4 मणपरियारणा 5 / से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति पंचविहा परियारणा पण्णत्ता तं जहा-कायपरियारणा जाव मणपरियारणा? Page #1405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] [प्रज्ञापनासूत्र - गोयमा ! भवणवति-वाणमंतर-जोइससोहम्मोसाणेसु कप्पेसु देवा कायपरियारगा, सणंकुमारमाहिदेसु कप्पेसु देवा फासपरियारगा, बंभलोय-लंतगेसु कप्पेसु देवा रूवपरियारगा, महासुक्क-सहस्सारेसु देवा सद्दपरियारगा, प्राणय-पाणय-पारण-अच्चुएसु कप्पेसु देवा मणपरियारगा, गेवेज्जपणुत्तरोववाइया देवा अपरियारगा, से तेणठेणं गोयमा ! तं चेव जाव मणपरियारगा। [2052-1 प्र.] भगवन् ! परिचारणा कितने प्रकार की कही गई है ? [2052-1 उ.] गौतम ! परिचारणा पांच प्रकार की कही गई है। यथा--(१) कायपरिचारणा, (2) स्पर्शपरिचारणा, (3) रूपपरिचारणा, (4) शब्दपरिचारणा और (5) मनःपरिचारणा। प्र.) भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा गया कि परिचारणा पांच प्रकार की है, यथाकायपरिचारणा यावत मन:परिचारणा [उ.] गौतम ! भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के देव कायपरिचारक होते हैं। सनतकुमार और माहेन्द्रकल्प में देव स्पर्शपरिचारक होते हैं। ब्रह्मलोक और ककल्प में देव रूपपरिचारक होते हैं।' महाशुक्र और सहस्रारकल्प में देव शब्द-परिचारक होते हैं। ग्रानत. प्राणत. प्रारण और अच्यूतकल्पों में देव मनःपरिचारक होते हैं। नौ ग्रेवेयकों के और पांच अनुत्तरौपपातिक देव अपरिचारक होते हैं / हे गौतम ! इसी कारण से कहा गया है कि यावत् अानत आदि कल्पों के देव मन:परिचारक होते हैं / [2] तत्थ णं जे ते कायपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ–इच्छामो णं प्रच्छराहि सद्धि कायपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहिं देवेहिं एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताम्रो अच्छरायो अोरालाई सिंगाराई मणुण्णाई मणोहराई मणोरमाई उत्तरवेउब्वियाई रुवाइं विउव्वंति, विउग्वित्ता तेसि देवाणं अंतियं पादुब्भवंति, तए णं ते देवा ताहि प्रच्छराहि सद्धि कायपरियारणं करेंति, से जहाणामए सीया पोग्गला सीयं पप्प सीयं चेव अतिवतित्ता णं चिट्ठंति, उसिणा वा पोग्गला उसिणं पप्प उसिणं चेव अइवइत्ता णं चिट्ठति एवामेव तेहि देवेहि ताहिं अच्छराहि सद्धि कायपरियारणे कते समाणे से इच्छामणे खिप्पमेवावेति / अस्थि णं भंते ! तेसि देवाणं सुक्कपोग्गला ? हंता अस्थि। ते णं भंते ! तासि अच्छराणं कोसत्ताए भज्जो 2 परिणमंति ? गोयमा ! सोइंदियत्ताए चक्खिदियत्ताए घाणिवियत्ताए रसिदियत्ताए फासिदियत्ताए इट्टत्ताए कंतत्ताए मणुण्णताए मणामत्ताए सुभगत्ताए सोहग्ग-रूव-जोव्वण-गुणलायण्णत्ताए ते तासि भुज्जो भुज्जो परिणमंति। 1. 'काय-प्रवीचारा आ ऐशानात् / ' 'शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-ममःप्रवीचारा द्वयो योः।' -तत्त्वार्थ, अ.४, मृ. 8-9 Page #1406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौतीसवां परिचारणापद (211 - [2052-2] उनमें से कायपरिचारक (शरीर से विषयभोग सेवन करने वाले) जो देव हैं, उनके मन में (ऐसी) इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के शरीर से परिचार (मैथुन) करना चाहते हैं / उन देवों द्वारा इस प्रकार मन से सोचने पर वे अप्सराएँ उदार आभूषणादियुक्त (शृगारयुक्त), मनोज्ञ, मनोहर एवं मनोरम उत्तरवैक्रिय रूप विक्रिया से बनाती हैं। इस प्रकार विक्रिया करके वे उन देवों के पास पाती हैं। तब वे देव उन अप्सरानों के साथ कायपरिचारणा (शरीर से मैथुनसेवन करते हैं। जैसे शीत पुदगल शीतयोनि वाले प्राणी को प्राप्त होकर अत्यन्त शीत-अवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, अथवा उष्ण पूदगल जैसे उष्णयोनि वाले प्राणी को पाकर अत्यन्त उष्णअवस्था को प्राप्त करके रहते हैं, उसी प्रकार उन देवों द्वारा अप्सरायों के साथ काया से परिचारणा करने पर उनका इच्छामन (इच्छाप्रधान मन) शीघ्र ही हट जाता-तृप्त हो जाता है / [प्र.) भगवन् ! क्या उन देवों के शुक्र-पुद्गल होते हैं ? [उ.] हाँ (गौतम ! ) होते हैं। [प्र.] भगवन् ! उन अप्सरागों के लिए वे किस रूप में बार-बार परिणत होते हैं ? [उ.] गौतम ! श्रोत्रन्द्रियरूप से, चक्षुरिन्द्रियरूप से, घ्राणेन्द्रियरूप से, रसेन्द्रिय रूप से, स्पर्शन्द्रियरूप से, इष्ट रूप से, कमनीयरूप से, मनोज्ञरूप से. अतिशय मनोज्ञ (मनाम) रूप से, सुभगरूप से, सौभाग्य-रूप-यौवन-गुण-लावण्यरूप से वे उनके लिए बार-बार परिणत होते हैं। [3] तत्थ णं जे ते फासपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ, एवं जहेव कायपरियारगा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं / [2052-3] उनमें जो स्पर्शपरिचारकदेव हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होतो है, जिस प्रकार काया से परिचारणा करने वाले देवों की वक्तव्यता कही गई है, उसी प्रकार (यहाँ भी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए। [4] तत्थ णं जे ते स्वपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जइ-इच्छामो णं अच्छराहिं सद्धि रूवपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहि देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउव्वियाई रूवाई विउन्वंति, विउव्वित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेणामेव उवागच्छित्ता तेसि देवाणं अदूरसामंते ठिच्चा ताई अोरालाई जाव मणोरमाइं उत्तरवेउब्बियाई रूवाई उवदंसेमाणीओ उवदंसेमाणीनो चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धि रूवपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव जाव भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [2052-4] उनमें जो रूपपरिचारक देव हैं, उनके मन में इच्छा समुत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करना चाहते हैं / उन देवों द्वारा मन से ऐसा विचार किये जाने पर (वे देवियाँ) उसी प्रकार (पूर्ववत) यावत उत्तरवैक्रिय रूप की विक्रिया करती हैं / बिक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ जा पहुँचती हैं और फिर उन देवों के न बहुत दूर और न बहुत पास स्थित होकर उन उदार यावत् मनोरम उत्तरवैक्रिय-कृत रूपों को दिखलाती-दिखलाती खड़ी रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ रूपपरिचारणा करते हैं। शेष सारा कथन उसी प्रकार (पूर्व व ) यावत् वे बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए।) Page #1407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2121 [प्रज्ञापनासून [5] तत्थ णं जे ते सहपरियारगा देवा तेसि णं इच्छामणे समुप्पज्जति-इच्छामो गं अच्छराहि सद्धि सहपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहि देवेहिं एवं मणसीकए समाणे तहेव जाव उत्तरवेउब्वियाई रूवाई विउति, विउम्बित्ता जेणामेव ते देवा तेणामेव उवागच्छंति, तेषामेव उवागच्छित्ता तेसिं देवाणं अदूरसामते ठिच्चा अणुत्तराई उच्चावयाई सद्दाई समुदीरेमाणीप्रो समुदीरेमाणोओ चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहि अच्छराहि सद्धि सहपरियारणं करेंति, सेसं तं चेव नाव भुज्जो भुज्जो परिणमंति / [2052-5] उनमें जो शब्दपरिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है कि हम अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करना चाहते हैं / उन देवों के द्वारा इस प्रकार मन में विचार करने पर उसी प्रकार (पूर्ववत्) यावत् उत्तरवैक्रिय रूपों की विक्रिया करके जहाँ वे देव होते हैं, वहाँ देवियां जा पहुँचती हैं। फिर वे उन देवों के न अति दुर और त अति निकट रुककर सर्वोत्कृष्ट उच्च-नीच शब्दों का बार-बार उच्चारण करती रहती हैं। इस प्रकार वे देव उन अप्सराओं के साथ शब्दपरिचारणा करते हैं / शेष कथन उसी प्रकार (पूर्ववत् ) यावत् बार-बार परिणत होते हैं। [6] तत्थ णं जे ते मणपरियारगा देवा तेसि इच्छामणे समुपज्जइ-इच्छामो णं अच्छराहि सद्धि मणपरियारणं करेत्तए, तए णं तेहि देवेहि एवं मणसीकए समाणे खिप्पामेव ताओ अच्छराम्रो तस्थगतानो चेव समाणीयो अणुत्तराई उच्चावयाई मणाई संपहारेमाणीप्रो संपहारेमाणोनो चिट्ठति, तए णं ते देवा ताहिं अच्छराहि सद्धि मणपरियारणं करेंति, सेसं हिरवसेसं तं चेव जाव भुज्जो 2 परिणमंति। [2052-6] उनमें जो मन:परिचारक देव होते हैं, उनके मन में इच्छा उत्पन्न होती है- हम अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करना चाहते हैं / तत्पश्चात् उन देवों के द्वारा मन में इस प्रकार अभिलाषा करने पर वे अप्सराएँ शोघ्र ही, वहीं (अपने स्थान पर) रही हुई उत्कृष्ट उच्च-नीच मन को धारण करती हुई रहती हैं। तत्पश्चात् वे देव उन अप्सराओं के साथ मन से परिचारणा करते हैं / शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् बार-बार परिणत होते हैं, (यहाँ तक कहना चाहिए / ) सप्तम अल्पबहुत्वद्वार 2053. एतेसि णं भंते ! देवाणं कायपरियारगाणं जाव मणपरियारगाणं अपरियारगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा देवा अपरियारगा, मणपरियारगा संखेज्जगुणा, सहपरियारगा असंखेज्जगुणा, रूबपरियारगा असंखेज्जगुणा, फासपरियारगा असंखेज्जगुणा, कायपरियारगा असंखेज्जगुणा। / पण्णवणाए भगवतीए चउतीसइमं पवियारणापयं समसं // [2053 प्र.] भगवन् ! इन कायपरिचारक यावत् मनःपरिचारक और अपरिचारक देवों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? 2[053 उ.] गौतम ! सबसे कम अपरिचारक देव हैं, उनसे संख्यातगुणे मनःपरिचारक देव Page #1408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौतीसा परिचारणापत्र (213 हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारक देव हैं, उनसे रूपपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। विवेचन-विविध पहलों से देव-परिचारणा पर विचार-प्रस्तुत परिचारणा' नामक छठे द्वार में मुख्यतया चार पहलुगों से देवों की परिचारणा पर विचार किया गया है-(१) देव देवियों सहित ही परिचार करते हैं या देवियों के बिना भी? तथा क्या देव अपरिचारक भी होते हैं ? (2) परिचारणा के पाँच प्रकार, कौन देव किस प्रकार की परिचारणा करते हैं और कौन देव अपरिचारक हैं ? (3) कायपरिचारणा से लेकर मनःपरिचारणा तक का स्वरूप, तरीका और परिणाम / और अन्त में (4) परिचारक-अपरिचारक देवों का अल्पबहुत्व / ' निष्कर्ष - (1) कोई भी देव ऐसा नही होता, जो देवियों के साथ रहते हुए परिचाररहित हो, अपितु कतिपय देव देवियों सहित परिचार वाले होते हैं, कई देव देवियों के बिना भी परिचारवाले होते हैं / कुछ देव ऐसे भी होते हैं, जो देवियों और परिचार, दोनों से रहित होते हैं। (2) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के वैमानिक देव सदेवीक भी होते हैं और परिचारणा से युक्त भी। अर्थात् देवियाँ वहाँ जन्म लेती हैं। अतः वे देव उन देवियों के साथ रहते हैं और परिचार भी करते हैं। किन्तु सनत्कुमार से लेकर अच्युतकल्प तक के वैमानिक देव देवियों के साथ नहीं रहते, क्योंकि इन देवलोकों में देवियों का जन्म नहीं होता। फिर भी वे परिचारणासहित होते हैं। ये देव धर्म और ईशानकल्प में उत्पन्न देवियों के साथ स्पर्श, रूप, शब्द और मन से परिचार करते हैं। ___ भवनपति से लेकर ईशानकल्प तक के देव शरीर से परि चारणा करते हैं, सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के देव स्पर्श से, ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देव रूप से, महाशुक्र और सहस्रारकल्प के देव शब्द से और पानत, प्राणत, पारण और अच्युतकल्प के देव मन से परिचारणा करते हैं। नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरविमानवासी देव देवियों और परिवारणा दोनों से रहित होते हैं / 2 उनका पुरुषवेद अतीव मन्द होता है। अतः वे मन से भी परिचारणा नहीं करते / इस पाठ से यह स्पष्ट है कि मैथुनसेवन केवल कायिक ही नहीं होता, वह स्पर्श, रूप, शब्द और मन से भी होता है। कायपरिचारक देव काय से परिचारणा मनुष्य नर-नारी की तरह करते हैं, असुरकुमारों से लेकर ईशानकल्प तक के देव सक्लिष्ट उदयवाले पुरुषवेद के वशीभूत होकर मनुष्यों के समान वैषयिक सुख में निमग्न होते हैं और उसी से उन्हें तृप्ति का अनुभव होता है अन्यथा तृप्ति-सन्तुष्टि नहीं होती। स्पर्शपरिचारक देव भोग की अभिलाषा से अपनी समीपवतिनी देवियों के स्तन, मुख, नितम्ब आदि का स्पर्श करते हैं और इसी स्पर्शमात्र से उन्हें कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुख एवं वेदोपशान्ति का अनुभव होता है। रूपपरिचारक देव देवियों के सौन्दर्य, कमनीय एवं काम के आधारभूत दिव्य-मादकरूप को देखने मात्र से कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित वैषयिक 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 845 से 853 (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मूलपाठ टिप्पण), पृ. 421 से 423 तक 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 549 Page #1409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214) प्रज्ञापनासूत्र सुखानुभव करते हैं / इतने से ही उनका वेद (काम) उपशान्त हो जाता है। शब्दपरिचारक देवों का विषयभोग शब्द से ही होता है। वे अपनी प्रिय देवांगनाओं के गीत, हास्य, भावभंगीयुक्त मधुर स्वर, आलाप एवं नूपुरों आदि की ध्वनि के श्रवण मात्र से कायिकपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुखानुभव करते हैं, उसी से उनका वेद उपशान्त हो जाता है / मनःपरिचारक देवों का विषयभोग मन से ही हो जाता है / वे कामविकार उत्पन्न होने पर मन से अपनी मनोनीत देवांगनाओं की अभिलाषा करते हैं और उसी से उनकी तृप्ति हो जाती है / कायिकविषयभोग की अपेक्षा उन्हें मानसिकविषयभोग से अनन्तगुणा सुख प्राप्त होता है, वेद भी उपशान्त हो जाता है। अप्रवीचारक नौ ग्रेवेयकों तथा पांच अनुत्तरविमानों के देव अपरिचारक होते हैं। उनका मोहोदय या वेदोदय अत्यन्त मन्द होता है। अतः वे अपने प्रशमसुख में निमग्न रहते हैं / परन्तु चारित्र-परिणाम का अभाव होने से वे ब्रह्मचारी नहीं कहे जा सकते। __दो प्रश्न : (1) किस प्रकार की तृप्ति ?-देवों को अपने-अपने तथाकथित विषयभोग से उसी प्रकार को तृप्ति एवं भोगाभिलाषा निवृत्ति हो जाती है, जिस प्रकार शीतपुद्गल अपने सम्पर्क से शान्तस्वभाव वाले प्राणी के लिए अत्यन्त सुखदायक होते हैं अथवा उष्णपुद्गल उष्णस्वभाव वाले प्राणी को अत्यन्त सुखशान्ति के कारण होते हैं। इसी प्रकार की तृप्ति, सुखानुभूति अथवा विषयाभिलाषानिवृत्ति हो जाती है। आशय यह है कि उन-उन देवों को देवियों के शरीर, स्पर्श, रूप, शब्द और मनोनीत कल्पना का सम्पर्क पाकर आनन्ददायक होते हैं। (2) कायिक मैथुनसेवन से मनुष्यों की तरह शुक्रपुद्गलों का क्षरण होता है, परन्तु वह वैक्रियशरीरवर्ती होने से गर्भाधान का कारण नहीं होता, किन्तु देवियों के शरीर में उन शुक्रपुद्गलों के संक्रमण से सुख उत्पन्न होता है तथा वे शुक्रपुद्गल देवियों के लिए पांचों इन्द्रियों के रूप में तथा इष्ट, कान्त, मनोज्ञ, मनोहर रूप में तथा सौभाग्य, रूप, यौवन, लावण्य के रूप में बारबार. परिणत होते हैं।' कठिन शब्दार्थ-इच्छामणे- दो अर्थ—(१) इच्छाप्रधान मन, (2) मन में इच्छा या अभिलाषा / मणसीकए समाणे--मन करने पर। उच्चावयाई: दो अर्थ--(१) उच्च तथा नीच--- ऊबड़-खाबड़,(२) न्यूनाधिक-विविध / उवदंसेमाणीप्रो-दिखलाती हुई / समुदीरेमाणोनो-उच्चारण करती हुई / सिंगाराइं-शृगारयुक्त / तत्थगतानो चेव समाणीयो---अपने-अपने विमानों में रही हुई। अणुत्तराई उच्चावयाई मणाई संपहारेमाणीओ चिट्ठति--उत्कट सन्तोष उत्पन्न करनेवाले एवं विषय में आसक्त, अश्लील कामोद्दीपक मन करती हुई / ' // प्रज्ञापना भगवती का चौतीसवाँ पद सम्पूर्ण / 1. प्रज्ञापन. (प्रमेबोधिनी टीका) भाग 5, 5.852-854 2. बही भा. 5, पृ. 854 से 868 तक Page #1410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतीस इमं वेयणापयं पैतीसवाँ वेदनापद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र के वेदनापद में संसारी जीवों को अनुभूत होने वाली सात प्रकार की वेदनाओं की चौवीस दण्डक के माध्यम से प्ररूपणा की गई है। * इस संसार में जब तक जीव छद्मस्थ है, तब तक विविध प्रकार की अनुभूतियाँ होती रहती हैं। इन अनुभूतियों का मुख्य केन्द्र मन है। मन पर विविध प्रकार की वेदनाएँ अंकित होती रहती हैं / वह जिस रूप में जिस वेदना को ग्रहण करता है, उसी रूप में उसकी प्रतिध्वनि अनुभूति के रूप में व्यक्त होती है। यही कारण है कि शास्त्रकार ने इस पद में विविध निमित्तों से मन पर अंकित होने वाली विविध वेदनाओं का दिग्दर्शन कराया है। * वेदना के विभिन्न अर्थ मिलते हैं। यथा-ज्ञान, सुख-दुःखादि का अनुभव, पीड़ा, दुःख, संताप, रोगादिजनित वेदना, कर्मफल-भोग, साता-असातारूप अनुभव, उदयाबलिकाप्रविष्ट कर्म का अनुभव प्रादि / ' * इन सभी अर्थों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत पद में वेदना-सम्बन्धी सात द्वार प्रस्तुत किये गए हैं, जिनमें विविध वेदनाओं का निरूपण है / * वे सात द्वार इस प्रकार हैं--(१) प्रथम शीतवेदनाद्वार है, जिसमें शीत, उष्ण और शीतोष्ण वेदना का निरूपण है, (2) द्वितीय द्रव्यद्वार है, जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से होने वाली वेदना का निरूपण है, (3) तृतीय शरीरवेदनाद्वार है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और शारीरिक-मानसिक वेदना का वर्णन है, (4) चतुर्थ सातावेदनाद्वार है, जिसमें साता, असाता और साता-असाता वेदना का निरूपण है, (5) पंचम दुःखवेदनाद्वार है, इसमें दुःखरूप, सुखरूप तथा दुःख-सुखरूप वेदना का प्रतिपादन है, (6) छठा आभ्यूपगमिकी और पापक्रमिकीवेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों प्रकार की वेदनाओं का निरूपण है तथा (7) सातवाँ निदा-अनिदावेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों प्रकार की वेदनाओं की प्ररूपणा है / * इसके पश्चात् यह बताया गया है कि कौनसी वेदना किस-किस जीव को होती है और किसको नहीं ? यथा—एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा असंजीपचेन्द्रिय जीव मानसवेदना से रहित होते हैं। शेष सभी द्वारों में वेदना का अनुभव सभी संसारी जीवों को होता है / 1. (क) पाइअसद्दमण्णवो. पृ. 776 (ख) अभि, रा. कोष, भा. 6, पृ. 1438 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मू. पा. टिप्पण), पृ. 424 Page #1411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] [प्रज्ञापनासूत्र * इन सात द्वारों में से छठे और सातवें द्वार को वेदनाएँ जानने योग्य हैं। जो वेदनाएँ सुखपूर्वक स्वेच्छा से स्वीकार की जाती हैं, यथा-केशलोचादि, वे प्राभ्युपगमिकी होती हैं, किन्तु जो वेदनाएँ कर्मों की उदीरणा द्वारा वेदनीयकर्म का उदय होने से होती हैं, वे औपक्रमिकी हैं / ये दोनों वेदनाएँ कर्मों से सम्बन्धित हैं / सातवें द्वार में निदा और अनिदा दो प्रकार की वेदना का निरूपण है। जिसमें चित्त पूर्ण रूप से लग जाए या जिसका ध्यान भलीभांति रखा जाए, उसे निदा और इससे विपरीत जिसकी पोर चित्त बिलकुल न हो, उसे अनिदा वेदना कहते हैं / अथवा चित्तवती-सम्यविवेकवती वेदना निदा है, इसके विपरीत वेदना अनिदा है / वस्तुतः इन दोनों वेदनाओं का सम्बन्ध आगे चलकर क्रमशः संज्ञी और असंज्ञी से जोड़ा गया है / निदावेदना का फलितार्थ वृत्तिकार ने यह बताया है कि पूर्वभव-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्म, वैरविरोध या विषयों का स्मरण करने में असंज्ञी जीव का चित्त कुशल नहीं होता। जबकि संज्ञीभूत जीव का चित्त कुशल होता है / इसलिए असंज्ञी जीवों के अनिदा और संज्ञी जीवों के निदावेदना अनुभव के आधार पर होती है। इसी तरह एक रहस्य यह भी बताया गया है कि जो जीव मायीमिथ्यादृष्टि हैं, वे अनिदा और अमायीसम्यग्दृष्टि निदा वेदना भोगते हैं। कुछ स्पष्टीकरण-(१) शीतोष्ण वेदना का उपयोग (अनुभव) क्रमिक होता है अथवा युगपत् ? इसका समाधान वृत्तिकार ने किया है कि वस्तुत: उपयोग ऋमिक ही हैं, परन्तु शीघ्र संचार के कारण अनुभव करने में क्रम प्रतीत नहीं होता है। (2) इसी प्रकार शीतोष्ण प्रादि वेदना समझनी चाहिए / इसी प्रकार अदुःखा-असुखा वेदना को सुखसंज्ञा अथवा दुःखसंज्ञा नहीं दी जा सकती। इसी तरह शारीरिक-मानसिक संज्ञा, साता-असाता, सुख-दुःख, इत्यादि के विषय में समझ लेना चाहिए। (3) साता-असाता और सुख-दुःख इन दोनों में क्या अन्तर है ? इसका उत्तर वृत्तिकार ने यह दिया है कि वेदनीयकर्म के पुद्गलों का क्रमप्राप्त उदय होने से जो वेदना हो, वह साता-असाता है। परन्तु जब दूसरा कोई उदीरणा करे तथा उससे साता-असाता का अनुभव हो, उसे सुख-दुःख कहते हैं।' * षट्खण्डागम में 'बज्झमाणिया वेयणा, उदिण्णा वेयणा, उवसंता वेयणा', इन तीनों का उल्लेख है। 00 1. (क) पण्णवणासुत्त, भा. 2 (प्रस्तावना), पृ. 150 (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्र 557 Page #1412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचतीसइमं वेयणापयं पैंतीसवाँ वेदनापद पैतीसवे पद का अर्थाधिकार प्ररूपरण 2054. सीता 1 य दम्व 2 सारीर 3 सात 4 तह वेदणा हवति दुक्खा 5 / प्रभवगमोवक्कमिया 6 णिदा य अणिवा य 7 णायव्वा / / 225 / / सातमसातं सवे सुहं च दुक्खं अदुक्खमसुहं च। माणसरहियं विलिदिया उ सेसा दुविहमेव // 226 // [2054 संग्रहणी-गाथार्थ] (पैतीसवें वेदनापद के) सात द्वार (इस प्रकार) समझने चाहिए(१) शीत, (2) द्रव्य, (3) शरीर, (4) साता, (5) दुःखरूप वेदना, (6) आभ्युपगमिकी और प्रोपक्रमिको वेदना तथा (7) निदा और अनिदा वेदना / / 225 // साता और असाता वेदना सभी जीव (वेदते हैं / ) इसी प्रकार सुख, दुःख और अदु:ख-असुख वेदना भी (सभी जीव वेदते हैं / ) विकलेन्द्रिय मानस वेदना से रहित हैं। शेष सभी जीव दोनों प्रकार की वेदना वेदते हैं / / 226 / / विवेचन-सात द्वारों का स्पष्टीकरण-(१) सर्वप्रथम शीतवेदनाद्वार है, च शब्द से उष्णवेदना और शीतोष्णवेदना भी कही जाएगी, (2) द्वितीय द्रव्यद्वार है, जिसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से वेदना का निरूपण है। (3) तृतीय शरीरवेदनाद्वार है, जिसमें शारीरिक, मानसिक और शारीरमानसिक वेदना का वर्णन है, (4) चतुर्थ सातावेदनाद्वार है, जिसमें साता, असाता और सातासाता उभयरूप वेदना का निरूपण है, (5) पंचम दुःखवेदनाद्वार है, जिसमें दुःखरूप, सुखरूप और अदुःखप्रसुखरूप वेदना का प्रतिपादन है, (6) छठा आभ्युपगमिकी और औपक्रमिकीवेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों वेदनामों का वर्णन है और (7) सप्तम निदा-अनिदावेदनाद्वार है, जिसमें इन दोनों प्रकार की वेदनाओं के सम्बन्ध में प्ररूपणा है।' कौन-सा जीव किस-किस वेदना से युक्त ?-द्वितीय गाथा में बताया है कि सभी जीव साताअसाता एवं सातासाता वेदना से युक्त हैं। इसी प्रकार सभी जीव सुखरूप, दुःखरूप या अदुःख-असुखरूप वेदना वेदते हैं। विकलेन्द्रिय तथा असंज्ञीपंचेन्द्रिय जीव मानसवेदना से रहित (मनोहीन) वेदना वेदते हैं। शेष जीव दोनों प्रकार की अर्थात्-शारीरिक और मानसिक वेदना वेदते (भोगते) हैं।' 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5. पृ. 874-875 (ख) पणवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पण), पृ. 424 2. (क) वही, पृ. 224 (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टोका), भाग 5, 5.873-74 Page #1413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] [प्रज्ञायनासूत्र प्रथम : शीतादि-वेदनाद्वार 2055. कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेदणा पण्णत्ता / तं जहा-सीता 1 उसिणा 2 सीतोसिणा 3 / [2055 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2055 उ.] गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही है। यथा-(१) शीतवेदना, (2) उष्णवेदना और (3) शीतोष्णवेदना। 2056. णेरइया गं भंते ! कि सीतं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेति, सीतोसिणं वेदणं वेदेति? गोयमा ! सोयं पि वेदणं वेदेति उसिणं पि वेदणं वेदेति, णो सीतोसिणं वेदणं वेदेति / [2056 प्र.] भगवन् ! नरयिक शीतवेदना वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं या शीतोष्णवेदना वेदते हैं ? [2056 उ.] गौतम ! (नरयिक) शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्णवेदना भी वेदते हैं, शीतोष्णवेदना नहीं वेदते / 2057. [1] केई एक्केकोए पुढवीए वेदणाम्रो भणंति[२०५७-१] कोई-कोई प्रत्येक (नरक-)पृथ्वी में वेदनाओं के विषय में कहते हैं[२] रयणप्पभापुढविणेरइया गं भंते ! 0 पुच्छा। गोयमा ! णो सीयं वेदणं वेदेति, उसिणं वेदणं वेदेति, णो सीतोसिणं वेदणं वेदेति / एवं जाव वालुयप्पभापुढविणेरइया। [2057-2 प्र. भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [2057-2 उ.] गौतम ! वे शीतवेदना नहीं वेदते और न शीतोष्णवेदना वेदते हैं, किन्तु उष्णवेदना वेदते हैं / इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभा (तृतीय नरकपृथ्वी) के नैरयिकों तक कहना चाहिए। [3] पंकप्पभापुढविणेरइयाणं पुच्छा। गोयमा! सीयं पि वेदणं वेति, उसिणं पि वेदणं वेदेति, णो सीसोसिणं वेदणं वेदेति / ते बहुयतरागा जे उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवतरागाजे सीयं वेदणं वेदेति / [2057-3 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक शीतवेदना वेदते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / [2057-3 उ.] गौतम ! वे शीतवेदना भी वेदते हैं और उष्ण वेदना भी वेदते हैं, किन्तु शीतोष्णवेदना नहीं वेदते / वे नारक बहुत हैं, जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे नारक थोड़े-से हैं, जो शीतवेदना वेदते हैं। Page #1414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवाँ वेदनापद [219 [4] धूमप्पभाए एवं चेव दुविहा / नवरं ते बहुयतरागा जे सीयं वेदणं वेदेति, ते थोवतरागा जे उसिणं बेयणं वेदेति / [2057-4] धूमप्रभा पृथ्वी के (नै रयिकों) में भी दोनों प्रकार की वेदना कहनी चाहिए। विशेष यह है कि इनमें वे नारक बहुत हैं, जो शीतवेदना वेदते हैं तथा वे नारक अल्प हैं, जो उष्णवेदना वेदते हैं। [5] तमाए तमतमाए य सीयं वेदणं वेदेति, णो उसिणं वेदणं वेदेति, णो सोमोसिणं घेदणं वेदेति। [2057-5] तमा और तमस्तमा पृथ्वी के नारक शीतवेदना वेदते हैं, किन्तु उष्णवेदना तथा शीतोष्णवेदना नहीं वेदते / 2058. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा! सीयं पि वेदणं वेदेति, उसिणं पि वेदणं बेदेंति, सोतोसिणं पि वेदणं वेदेति / {2058 प्र. भगवन् ! असुरकुमारों के विषय में (पूर्ववत्) प्रश्न ? [2058 उ.] गौतम ! वे शीतवेदना वेदते हैं, उष्णवेदना भी वेदते हैं और शीतोष्णवेदना भी वेदते हैं। 2056. एवं जाव बेमाणिया। [2059] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक (कहना चाहिए)। विवेचन-शीतादि त्रिविध वेदना और उनका अनुभव-वेदना एक प्रकार की अनुभूति है, वह तीन प्रकार की हैं-शीत, उष्ण और शीतोष्ण / शीतल पुद्गलों के सम्पर्क से होने वाली वेदना शीतवेदना, उष्ण पुद्गलों के संयोग से होने वाली वेदना उष्णवेदना और शीतोष्ण पुद्गलों के संयोग से उत्पन्न होने वाली बेदना शीतोष्णवेदना कहलाती है।' सामान्यतया नारक शीत या उष्ण वेदना का अनुभव करते हैं. किन्तु शीतोष्णवेदना का अनुभव नहीं करते। प्रारम्भ की तीन नरकपृथ्वियों के नारक उष्णवेदना वेदते हैं, क्योंकि उनके आधारभूत नारकावास खैर के अंगारों के समान अत्यन्त लाल, अतिसंतप्त एवं अत्यन्त उष्ण पुद्गलों के बने हुए हैं। चौथी पंकप्रभापृथ्वी में कोई नारक उष्णवेदना और कोई शीतवेदना का अनुभव करते हैं, क्योंकि वहाँ के कोई नारकवास शीत और कोई उष्ण होते हैं। इसलिए वहाँ उष्णवेदना अनुभव करने वाले नारक अत्यधिक हैं, क्योंकि उष्णवेदना धक नारकावासों में होती है, जबकि शीतवेदना वाले नारक अत्यल्प हैं, क्योंकि थोडे-से नारकावासों में ही शीतवेदना होती है / धूमप्रभापृथ्वी में कोई नारक शीतवेदना और कोई उष्णवेदना का अनुभव करते हैं, किन्तु वहाँ शीतवेदना वाले नारक अत्यधिक हैं और उष्णवेदना वाले नारक स्वल्प हैं, क्योंकि वहाँ अत्यधिक नारकावासों में शीतवेदना ही होती है, उष्णवेदना वाले नारकावास बहुत ही कम हैं / छठी और सातवीं नरकपृथ्वियों में नारक शोतवेदना का ही अनुभव करते हैं, क्योंकि वहां के सभी नारक उष्ण स्वभाव वाले हैं और नारकावास हैं अत्यधिक शीतल / 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 885-886 (ख) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, अ. रा. कोष, भाग 6, पृ. 1438-39 Page #1415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220) [प्रज्ञापनासूत्र असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक शीत आदि तीनों ही प्रकार की वेदना वेदते हैं / तात्पर्य यह है कि असुरकुमार आदि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक देव शीतल जल से पूर्ण महाह्रद प्रादि में जब जल क्रीडा प्रादि करते हैं, तब शीतवेदना वेदते हैं। जब कोई मद्धिक देव क्रोध के वशीभूत होकर अत्यन्त विकराल भ्र कुटि चढ़ा लेता है या मानो प्रज्वलित करता हआ देख कर मन ही मन संतप्त होता है, तब उष्णवेदना वेदना है। जैसे ईशानेन्द्र ने बलिचंचा राजधानी के निवासी असुरकुमारों को संतप्त कर दिया था अथवा उष्ण पुद्गलों के सम्पर्क से भी वे उष्णवेदना वेदते हैं / जब शरीर के विभिन्न अवयवों में एक साय शोत और उष्ण पुद्गलों का सम्पर्क होता है, तब वे शीतोष्ण वेदना वेदते हैं। पृथ्वीकायिकों से लेकर मनुष्य पर्यन्त बर्फ आदि पड़ने पर शीतवेदना वेदते हैं, अग्नि आदि का सम्पर्क होने पर उष्णवेदना वेदते हैं तथा विभिन्न अवयवों में दोनों प्रकार के पुद्गलों का संयोग होने पर शीतोष्णवेदना वेदते हैं।' द्वितीय द्रव्यादि-वेदनाद्वार 2060. कतिविहा गं भंते ! वेदणा पण्णता ? गोयमा ! चउबिहा वेदणा पण्णत्ता / तं जहा-दव्वश्रो खेत्तनो कालो भावतो। [2060 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2060 उ.] गौतम ! वेदना चार प्रकार की कही गई है / यथा - (1) द्रव्यतः, (2) क्षेत्रतः, (3) कालतः और (4) भावतः (वेदना)। 2061. रइया णं भंते ! कि दम्वनो वेदणं वेदेति जाव कि भावओ वेदणं वेदेति ? गोयमा! दम्वनो वि वेदणं वेदेति जाव भावो वि वेदणं वेदेति / [2061 प्र.] भगवन् ! नैरयिक क्या द्रव्यतः वेदना वेदते हैं यावत् भावतः वेदना वेदते हैं ? [2061 उ.] गौतम ! वे द्रव्य से भी वेदना वेदते हैं, क्षेत्र से भी बेदते हैं यावत् भाव से भी वेदते हैं। 2062. एवं जाव वेमाणिया। [2062] इसी प्रकार का कथन यावत् वैमानिक पर्यन्त करना चाहिए। विवेचन-चतुर्विध वेदना का तात्पर्य--वेदना की उत्पत्ति द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप सामग्री के निमित्त से होती है, इसलिए द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से चार प्रकार से वेदना कही है। किसी पुद्गल प्रादि द्रव्य के संयोग से उत्पन्न होने वाली वेदना द्रव्यवेदना कहलाती है / नारक प्रादि उपपातक्षेत्र आदि से होने वाली वेदना क्षत्रवेदना कही जाती है। ऋतु, दिन-रात प्रादि काल के संयोग से होने वाली वेदना कालवेदना कहलाती है और वेदनीयकर्म के उदयरूप प्रधान कारण से उत्पन्न होने वाली वेदना भाववंदना कहलाती है। चौबीस ही दण्डकों के जीव पूर्वोक्त चारों प्रकार से वेदना का अनुभव करते हैं / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 856-887 2. (क) प्रज्ञापना, (प्रमेय बोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 888 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रो. कोष. भाग 6, पृ. 1439 Page #1416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतीसवाँ वेदनापद |221 तृतीय शारीरादि-वेदनाद्वार 2063. कतिविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा वेदणा पण्णता / तं जहा-सारीरा 1 माणसा 2 सारीरमाणसा३। [2063 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2063 उ.] गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है / यथा--१. शारीरिक, 2. मानसिक और 3. शारीरिक-मानसिक / 2064. गैरइया णं भंते ! कि सारीरं वेदणं वेदेति माणसं वेदणं वेदेति सारीरमाणसं वेदणं बेति? गोयमा ! सारीरं पि वेयणं बेति, माणसं पि वेदणं वेदेति, सारीरमाणसं पि घेदणं वेदेति / [2064 प्र.] भगवन् ! नैरयिक शारीरिक वेदना वेदते हैं, मानसिक वेदना वेदते हैं अथवा शारीरिक-मानसिक वेदना वेदते हैं ? . __[2064 उ.] गौतम ! वे शारीरिक वेदना भी वेदते हैं, मानसिक वेदना भी वेदते हैं और शारीरिक-मानसिक वेदना भी वेदते हैं / 2065. एवं जाय वेमाणिया। णवर एगिदिय-विलिदिया सारीरं वेदणं वेदेति, णो माणसं वेदणं वेदेति णो सारीरमाणसं वेयणं वेदेति / [2065] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय केवल शारीरिक वेदना ही वेदते है, किन्तु मानसिक वेदना या शारीरिक-मानसिक वेदना नहीं वेदते / विवेचन -प्रकारान्तर से त्रिविध वेदना का स्वरूप-शरीर में होने वाली वेदना शारीरिक वेदना, मन में होने वाली वेदना मानसिक तथा शरीर और मन दोनों में होने वाली वेदना शारीरिकमानसिक वेदना कहलाती है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय को छोड़कर शेष समस्त दण्डकवर्ती जीवों में तीनों ही प्रकार की वेदना पाई जाती है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में मानसिक और शारीरमानसवेदना नहीं होती।' चतुर्थ सातादि-वेदनाद्वार 2066. कतिविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा वेयणा पण्णत्ता। तं जहा-साता 1 असाया 2 सायासाया 3 / [2066 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2066 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार की बताई गई है / यथा-(१) साता, (2) असाता और (3) साताअसाता। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 889 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 6, पृ. 1440 Page #1417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222] [प्रज्ञापनासूत्र 2067. रइया णं भंते ! कि सायं वेदणं वेति असायं वेदणं वेदेति सातासायं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! तिविहं पि वेयणं वेदेति / [2067 प्र. भगवन् ! नैरयिक सातावेदना वेदते हैं, असातावेदना वेदते हैं, अथवा साता-असातावेदना वेदते हैं ? [2067 उ.] गौतम ! तीनों प्रकार की वेदना वेदते हैं / 2068. एवं सम्वजीवा जाव वेमाणिया / [2068] इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी जीवों की वेदना के विषय में (जानना चाहिए।) विवेचन--सातादि त्रिविध वेदना-सुखरूप वेदना को सातावेदना, दुःखरूप वेदना को असातावेदना और सुख-दुःखरूप वेदना को उभयरूप वेदना कहते हैं / नारक से लेकर वैमानिकदेव पर्यन्त तीनों प्रकार को वेदना वेदते हैं। नारकजीव तीर्थंकर के जन्मदिवस आदि के अवसर पर साता और अन्य समयों में असाता वेदते हैं / पूर्वसांगतिक देवों या असुरों के मधुर-मधुर आलापरूपी अमृत की वर्षा होने पर मन में सातावेदना और क्षेत्र के प्रभाव से, असुर के कठोर व्यवहार से असातावेदना होती है। इन दोनों की अपेक्षा से साता-असातारूप वेदना होती है। सभी जीवों को त्रिविध वेदना होती है। पृथ्वीकायिक आदि को जब कोई उपद्रव नहीं होता, तब वे सातावेदना का अनुभव करते हैं। उपद्रव होने पर असाता का तथा जब एकदेश से उपद्रव होता है, तब साता-असाता-उभयरूप वेदना का अनुभव होता है। देवों को सुखानुभव के समय सातावेदना, च्यवनादि के समय असातावेदना तथा दूसरे देव के वैभव को देखकर मात्सर्य होने से असातावेदना, साथ ही अपनी प्रिय देवी के साथ मधुरालापादि करते समय सातावेदना; यों दोनों प्रकार की वेदना होती है।' पंचम दुःखादि-वेदनाद्वार 2066. कतिविहा णं भंते ! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता / तं जहा-दुक्खा सुहा अदुक्खसुहा। [2066 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2066 उ.] गौतम ! वह तीन प्रकार की कही गई है / यथा-(१) सुखा, (2) दुःखा और (3) अदुःख-सुखा। 2070. रइया णं भंते ! कि दुक्खं वेदणं वेदेति० पुच्छा। गोयमा ! दुक्खं पि वैदणं वेदेति, सुहं पि वेदणं वेदेति, अदुक्खसुहं पि वेदणं वेदेति / [2070 प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव दुःखवेदना वेदते हैं, सुखवेदना वेदते हैं अथवा अदुःख. असुखावेदना वेदते हैं ? 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग. 5, पृ. 893-894 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 556 Page #1418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पैतीसवाँ वेदनापद] [ 223 [2070 उ.] गौतम ! वे दुःखवेदना भी वेदते हैं, सुखवेदना भी वेदते हैं और अदुःख-असुखावेदना भी वेदते हैं। 2071. एवं जाव वेमाणिया। [2071] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विवेचन--दुःखादि त्रिविध वेदना का स्वरूप-जिसमें दुःख का वेदन हो वह दुःखा, जिसमें सुख का वेदन हो वह सुखा और जिसमें सुख भी विद्यमान हो और जिसे दुःखरूप भी न कहा जा सके, ऐसी वेदना अदुःख-असुखरूपा कहलाती है। साता, असाता और सुख, दुःख में अन्तर–स्वयं उदय में आए हुए वेदनीयकर्म के कारण जो अनुकूल और प्रतिकूल बेदन होता है, उसे क्रमशः साता और असाता कहते हैं तथा दूसरे के द्वारा उदीरित (उत्पादित) साता और असाता को सुख और दुःख कहते हैं, यही इन दोनों में अन्तर है। सभी जीव इन तीनों प्रकार की वेदना को वेदते हैं।' छठा प्राभ्युपगमिकी और औपक्रमिकी वेदनाद्वार 2072. कतिविहा णं भंते ! वेदणा पण्णता ? गोयमा ! दुविहा वेदणा पण्णत्ता / तं जहा-अब्भोवगमिया य ओवक्कमिया य। [2072 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2072 उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है। यथा—ाभ्युपगमिकी और औपऋमिकी। 2073. रइया णं भंते ! कि अम्भोवगमियं वेदणं वेदेति ओवक्कमियं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! णो प्रभोवगमियं वेदणं वेदेति, प्रोवस्कमियं वेदणं वेति / [2073 प्र.] भगवन् ! नैरयिक प्राभ्युपगमिको वेदना वेदते हैं या औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं ? [2073 उ.] गौतम ! वे प्राभ्युपगमिकी वेदना नहीं वेदते, औपक्रमिकी वेदना वेदते हैं। 2074. एवं जाव चरिदिया। [2074] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियों तक कहना चाहिए / 2075. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा य दुविहं पि वेदणं वेदेति / [2075] पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य दोनों प्रकार की वेदना का अनुभव करते हैं। 2076. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा रइया (सु. 2073) / [2076] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में (सू. 2073 में उक्त) नैरियकों के समान कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टोका), भा. 5, पृ. 893-894 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 557 Page #1419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] पैितीसवाँ वेदनापद विवेचन-दो प्रकार की विशिष्ट वेदना : स्वरूप और अधिकारी--स्वेच्छापूर्वक अंगीकार की जाने वाली वेदना आभ्युपगमिकी कहलाती है। जैसे-साधुगण केशलोच, तप, आतापना आदि से होने वाली शारीरिक पीड़ा स्वेच्छा से स्वीकार करते हैं। जो वेदना स्वयमेव उदय को प्राप्त अथवा उदीरित वेदनीयकर्म से उत्पन्न होती है, वह औपक्रमिकी कहलाती है, जैसे नारक आदि की वेदना / नारकों से लेकर चतुरिन्द्रिय जीवों तक की वेदना प्रौपक्रमिकी होती है. इसी तरह वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक को वेदना भी औपक्रमिको होती है। पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों की वेदना दोनों ही प्रकार की होती है / ' सप्तम निदा-अनिदा-वेदना-द्वार 2077. कति विहा णं भंते ! वेदणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा वेयणा पग्णत्ता / तं जहा-णिदा य अणिदा य / [2077 प्र.] भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ? [2077 उ.] गौतम ! वेदना दो प्रकार की कही गई है। यथा--निदा और अनिदा। 2078. रइया णं भंते ! कि णिदायं वेदणं वेदेति प्रणिदायं वेदणं वेदेति ? गोयमा ! णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदाय पि वेदणं वेदेति / से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति रइया णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति ? गोयमा ! जेरइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सण्णिभूया य असणिभूयाय / तत्थ णं जे ते सण्णिभूया ते णं निदायं वेदणं वेदेति, तत्थ णं जे ते असण्णिभूया ते णं अणिदायं वेदणं वेदेति, से तेणठेणं गोयम तेणटठेणं गोयमा! एवं वच्चति रद्धया निदायं पिवेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति / [2078 प्र.] भगवन् ! नारक निदावेदना वेदते हैं, या अनिदावेदना ? [2078 उ ] गौतम ! नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं ? [उ.] गौतम ! नारक दो प्रकार के कहे गए हैं / यथा-संज्ञीभूत और असंज्ञी भूत / उनमें जो संज्ञीभूत नारक होते हैं, वे निदावेदना को वेदते हैं और जो असंज्ञीभूत नारक होते हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं / हे गौतम ! इसी कारण ऐसा कहा जाता है कि नारक निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदा. वेदना भी। 2076. एवं जाव थणियकुमारा। [2079] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टोका). भाग 5, पृ. 901-902 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 557 Page #1420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंतीसवां वेवनापद] [225 2080. पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! णो निदायं वेदणं वेदेति, प्रणिदायं वेदणं वेदेति / से केणोणं भंते ! एवं वुच्चति पुढविक्काइया णो हिदायं वेदणं वेदेति अणिदायं वेयणं बेति? गोयमा ! पुढविक्काइया सवे असण्णो असण्णिभूतं अणिदायं वेदणं वेदेति, से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चति पुढविक्काइया णो णिदायं वेयणं वेदेति, अणिदायं वेदणं वेदेति / [2080 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना वेदते हैं ? [2080 उ.] गौतम ! वे निदावेदना नहीं वेदते, किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं / [प्र.} भगवन् ! किस कारण से यह कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना नहीं वेदते, किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं ? [उ ] गौतम ! सभी पृथ्वी कायिक असंज्ञी और असंज्ञीभूत होते हैं, इसलिए अनिदावेदना वेदते हैं, (निदा नहीं); इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीव निदावेदना नहीं वेदते, किन्तु अनिदावेदना वेदते हैं / 2081. एवं जाव चरिदिया। [2081] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्यन्त (कहना चाहिए / ) 2012. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया मणूसा वाणमंतरा जहा रइया (सु. 2078) / [2082] पचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य और वाणव्यन्तर देवों का कथन (सू. 2078 में उक्त) नैरयिकों के कथन के समान जानना चाहिए। 2083. जोइसियाणं पुच्छा। गोयमा ! णिदायं पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति / से केणठेणं भंते ! एवं बच्चति जोइसिया णिदाय पि वेदणं वेदेति अणिदायं पि वेदणं वेदेति ? गोयमा! जोतिसिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–माइमिच्छद्दिटिउववण्णगा य अमाइसम्महिट्टिउववण्णगा य, तत्थ णं जे ते माइमिच्छद्दिट्टिउववण्णगा ते णं अणिदायं वेदणं वेदेति, तत्थ णं जे ते अमाइसम्मद्दिट्ठिउववण्णगा ते णं णिदायं वेदणं वेदेति, से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चति जोतिसिया दुविहं पि वेदणं वेदेति / [2083 प्र.] भगवन् ! ज्योतिष्क देव निदावेदना वेदते हैं या अनिदावेदना वेदते हैं ? [2083 उ.] गौतम ! वे निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं ! [प्र.] भगवन ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि ज्योतिष्क देव निदावेदना भी वेदते हैं और अनिदावेदना भी वेदते हैं ? Page #1421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226] [प्रज्ञापनासूत्र [3] गौतम ! ज्योतिष्क देव दो प्रकार के कहे हैं। यथा--मायिमिथ्याष्टिउपपन्नक और अमायिसम्यग्दृष्टि उपपन्नक / उनमें से जो मायिमिथ्यादृष्टिउपपन्नक हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमाथिसम्यग्दष्टि उपपन्नक हैं, वे निदावेदना वेदते हैं। इस कारण से हे गौतम ! यह कहा जाता है कि ज्योतिष्क देव दो प्रकार हैं, की वेदना वेदते इत्यादि / 2084. एवं वेमाणिया वि। . ॥पण्णवणाए भगवतीए पंचतीसइमं वेयणापयं समत्तं // [2084] वैमानिक देवों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विवेचन-निदा और अनिदा : स्वरूप और अधिकारी-जिसमें पूर्ण रूप से चित्त लगा हो, जिसका भलीभांति ध्यान हो, उसे निदा कहते हैं, जो इससे बिलकुल भिन्न हो, अर्थात -जिसकी ओर चित्त बिलकुल न हो, वह अनिदावेदना कहलाती है। जो संज्ञीजीव मर कर नारक हुए हों, वे संज्ञीभूत नारक और जो असंज्ञी जीव मरकर नारक हुए हों, वे असंझी नारक कहलाते हैं। इनमें से संज्ञीभूत नारक निदावेदना और असंज्ञीभूत नारक अनिदावेदना वेदते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य और वाणव्यन्तर देवों का कथन है / ज्योतिष्क देवों में जो मायिमिथ्यादष्टि हैं, वे अनिदावेदना वेदते हैं और जो अमायिसम्यग्दप्टि हैं, वे निदावेदना वेदते हैं / पृथ्वीकायिक से लेकर चतुरिन्द्रियपर्यन्त सभी अनिदावेदना वेदते हैं, निदावेदना नहीं, क्योंकि असंज्ञी होने से इनके मन नहीं होता, इस कारण से ये अनिदावेदना ही वेदते हैं / असंज्ञी जीवों को जन्मान्तर में किये हुए शुभाशुभ कर्मों का अथवा वैर आदि का स्मरण नहीं होता। तथ्य यह है कि केवल तीव्र अध्यवसाय से किये गए कर्मों का ही स्मरण होता है, किन्तु पहले के असंज्ञीभव में पृथ्वीकायिकादि का अध्यवसाय तीव्र नहीं था, क्योंकि वे द्रव्यमन से रहित थे। इस कारण असंज्ञी नारक पूर्वभवसम्बन्धी विषयों का स्मरण करने में कुशल चित्त नहीं होता, जबकि संज्ञी नारक पूर्वभवसम्बन्धी कर्म या वैर-विरोध का स्मरण करते हैं। इस कारण वे निदावेदना वेदते हैं। सभी पृथ्वीकायिक आदि जीव असंज्ञी होने से विवेकहीन अनिदावेदना वेदते हैं।' // प्रज्ञापना भगवती का पैतीसवाँ वेदनापद समाप्त / / LID 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भाग 5, पृ. 903 से 905 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 557 Page #1422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं समुग्घायपयं छत्तीसवां समुद्घातपद प्राथमिक * प्रज्ञापनासूत्र का यह छत्तीसवाँ समुद्घातपद है / * इसमें समुद्घात, उसके प्रकार तथा चौबीस दण्डकों में से किसमें कौन-सा समुद्घात होता है, इसकी विचारणा की गई है। 'समुद्घात' जैनधर्मशास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है / इसका अर्थ शब्दशास्त्रानुसार होता हैएकीभावपूर्वक प्रबलता से वेदनादि पर घात–चोट करना / इसकी व्याख्या वृत्तिकार ने इस प्रकार की है--वेदना आदि के अनुभवरूप परिणामों के साथ आत्मा का उत्कृष्ट एकीभाव / इसका फलितार्थ यह है कि तदितरपरिणामों से विरत होकर वेदनीयादि उन-उन कर्मों के बहुत-से प्रदेशों को उदीरणा के द्वारा शीघ्र उदय में लाकर, भोग कर उसकी निर्जरा करना यानी प्रात्मप्रदेशों से उनको पृथक करना, झाड़ डालना। / वस्तुत: देखा जाए तो समुद्घात का कर्मों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। आत्मा पर लगे हुए ऐसे कर्म, जो चिरकाल बाद भोगे जाकर क्षीण होने वाले हों, उन्हें उदीरणा करके उदयावलिका में लाकर वेदनादि के साथ एकीभूत होकर निर्जीर्ण कर देना-प्रबलता से उन कर्मों पर चोट करना समुद्घात है। जैनदर्शन प्रात्मा पर लगे हुए कर्मों को क्षय किये बिना आत्मा का विकास नहीं मानता / प्रात्मा की शुद्धि एवं विकासशीलता समुद्घात के द्वारा कर्मनिर्जरा करने से शीघ्र हो सकती है। इसलिए समुद्घात एक ऐसा आध्यात्मिक शस्त्र है, जिसके द्वारा साधक जाग्रत रह कर कर्मफल का समभावपूर्वक वेदन कर सकता है, कर्मों को शीघ्र ही क्षय कर सकता है। इसी कारण समुद्घात सात प्रकार का बताया गया है-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्धात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तैजससमुद्घात, (6) आहारकसमुद्धात और (7) केवलिसमुद्घात / वृत्तिकार ने बताया है कि कौन-सा समुद्घात किस कर्म के आश्रित है ? यथा-वेदनासमुद्घात असातावेदनीय-कमोत्रित है, कषायसमुद्घात चारित्रमोहनीय-कर्माश्रित है, मारणान्तिकसमुद्घात आयुष्य-कर्माश्रित है, वैक्रियसमुद्घात वैक्रियशरीरनाम-कर्माश्रित है, तैजस समुद्घात तैजसशरीरनाम-कर्माश्रित है, पाहारकसमुद्घात आहारकशरीरनाम-कर्माश्रित है और केवलिसमुद्घात शुभ-अशुभनामकर्म, साता-असातावेदनीय तथा उच्च-नीचगोत्र-कर्माश्रित है / 2 1. प्रज्ञापना. मलयवत्ति, पत्र 559 2. (क) पण्णवणासुत्त भा. 1, पृ. 428 (ख) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्र 559 Page #1423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228] [प्रज्ञापनासूत्र * इसके पश्चात् इन सातों समुद्धातों में से कौन-से समुद्घात की प्रक्रिया क्या है और उसके परिणामस्वरूप उस समुद्घात से सम्बन्धित कर्म की निर्जरा आदि कैसे होती है ? इसका संक्षेप में निरूपण है। तदनन्तर वेदनासमुद्घात आदि सातों में से कौन-सा समुद्धात कितने समय का है, इसकी चर्चा है। इनमें केलिसमुद्घात 8 समय का है, शेष समुद्घात असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त. काल के हैं। इसके पश्चात् यह स्पष्टीकरण किया गया है कि सात समुद्घातों में से किस जीव में कितने समुद्घात पाये जाते हैं ? तदनन्तर यह चर्चा विस्तार से की गई है कि एक-एक जीव में, उन-उन दण्डकों के विभिन्न जीवों में अतीतकाल में कितनी संख्या में कौन-कौन से समुद्घात होते हैं तथा भविष्य में कितनी संख्या में सम्भवित हैं ? / उसके बाद यह बताया गया है कि एक-एक दण्डक के जीव को तथा उन-उन दण्डकों के जीवों को (स्वस्थान में) उस-उस रूप में और अन्य दण्डक के जीवरूप (परस्थान) में अतीत-अनागत काल में कितने समुद्घात संभव हैं ? * इसके पश्चात् समुद्धात की अपेक्षा से जीवों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। * तत्पश्चात कषायसमुद्धात चार प्रकार के बता कर उनकी अपेक्षा से भूत-भविष्यकाल के समुद्घातों की विचारणा की गई है। इसमें भी स्वस्थान-परस्थान की अपेक्षा से अतीत अनागत कषायसमुद्घातों की एवं अल्पबहुत्व की विचारणा की गई है। * इसके पश्चात् वेदना आदि समुद्घातों का अवगाहन और स्पर्श की दृष्टि से विचार किया गया है। इसमें यह बतलाया गया है कि उस-उस जोव को अवगाहना (क्षेत्र) तथा (काल) स्पर्शना कितनी कितने काल की होती है तथा किस समुद्घात के समय उस जीव को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? ' अन्त में केवलिसमुद्घात सम्बन्धी चर्चा विभिन्न पहलुयों से की गई है / सयोगी केवली जब तक मन-वचन-काय-योग का निरोध करके अयोगिदशा प्राप्त नहीं करता तब तक सिद्ध नहीं होता। साथ ही सिद्धत्व-प्राप्ति की प्रक्रिया का सूक्ष्मता से प्रतिपादन किया गया है। अन्त में सिद्धों के स्वरूप का निरूपण किया गया है।' 00 1 (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 590 (ख) पण्णवणासुत्तं, भा. 2, पृ. 151-152 2. पण्णवणासुत्त, भा. 1, पृ.४४६ Page #1424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसइमं समुग्घायपयं छत्तीसवाँ समुद्घातपद समुद्घात-भेद-प्ररूपणा 2085. वेयण 1 कसाय 2 मरणे 3 वेउविय 4 तेयए य 5 आहारे 6 / केवलिए चेव भवे 7 जीव-मणुस्साण सत्तेव / / 227 // [2085 संग्रहणी गाथार्थ ] जीवों और मनुष्यों के ये सात ही समुद्घात होते हैं—(१) वेदना, (2) कषाय, (3) मरण (मारणान्तिक), (4) वैक्रिय, (5) तेजस, (6) आहार (आहारक) और (7) कैवलिक / 2056. कति णं भंते ! समुग्घाया पण्णता? गोयमा ! सत्त समुग्घाया पणत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्धाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 वेउब्वियसमुग्घाए 4 तेयासमुग्घाए 5 प्राहारगसमुग्घाए 6 केवलिसमुग्घाए 7 / [2086 प्र.] भगवन् ! समुद्घात कितने प्रकार के कहे गए हैं ? [2086 उ.] गौतम ! समुदघात सात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तैजससमुद्घात, (6) आहारकसमुद्घात और (7) केवलिसमुद्घात / विवेचन-समुद्घात : स्वरूप और प्रकार-समुद्घात में सम+ उद्+घात, ये तीन शब्द हैं। इनका व्याकरणानुसार अर्थ होता है-सम्—एकोभावपूर्वक, उत्-प्रबलता से, घात-घात करना। तात्पर्य यह हुआ कि एकाग्रतापूर्वक प्रबलता के साथ घात करना / भावार्थ यह है कि वेदना आदि के साथ उत्कृष्ट रूप से एकीभूत हो जाना / फलितार्थ यह हुआ कि वेदना प्रादि समुद्घात के समय प्रात्मा वेदनादिज्ञानरूप में परिणत हो जाता है, उसे अन्य कोई भान नहीं रहता। जब जीव वेदनादि समुद्घातों में परिणत होता है, तब कालान्तर में अनुभव करने योग्य वेदनीयादि कर्मों के प्रदेशों को उदीरणाकरण के द्वारा खींचकर, उदयावलिका में डालकर, उनका अनुभव करके निर्जीर्ण कर डालता है, अर्थात्-आत्मप्रदेशों से पृथक कर देता है। यही घात की प्रबलता है। पूर्वकृत कर्मों का झड़ जाना, अात्मा से पृथक् हो जाना ही निर्जरा है। समुद्घात सात प्रकार के हैं-(१) वेदना, (2) कषाय, (3) मारणांतिक, (4) वैक्रिय, (5) तेजस, (6) आहारक और (7) केवली। कौन समुद्धात किस कर्म के आश्रित है ? –इनमें से वेदनासमुद्घात असातावेदनीय-कर्माश्रय है, कषायसमुद्घात चारित्रमोहनीय-कर्माश्रय है, मारणान्तिकसमुद्घात अन्तर्मुहूर्त शेष आयुष्यकर्माश्रय है, वैक्रियसमुदघात वैक्रियशरीरनाम-कर्माश्रय है, तैजससमुद्घात तैजसशरीरनाम-कर्माश्रय है, Page #1425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N 230] [प्रज्ञापनासूत्र आहारकसमुद्घात आहारकशरीरनाम-कर्माश्रय है और केवलिसमुद्घात साता-असातावेदनीय, शुभअशुभनामकर्म और उच्चनीचगोत्र-कर्माश्रय है / 1. वेदनासमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-वेदनासमुद्घात करने वाला जीव असातावेदनीय कर्म के पुद्गलों की परिशाटना (निर्जरा) करता है। प्राशय यह है कि वेदना से पीड़ित जीव अनन्तानन्त कर्मपुद्गलों से व्याप्त अपने प्रात्मप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालता है और मुख एवं उदर आदि छिद्रों को तथा कान, स्कन्ध आदि के अपान्तरालों (बीच के रिक्त स्थानों) क करके, लम्बाई और विस्तार में शरीरमात्र क्षेत्र को व्याप्त करके अन्तर्मुहूर्त तक रहता है / उस अन्तमुहर्त में वह बहुत-से असातावेदनीयकर्म के पुद्गलों को निर्जीर्ण कर डालता है। 2. कषायसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम कषायसमुद्घात करने वाला जीव कषायचारित्रमोहनीयकर्म के पुदगलों का परिशाटन करता है---कषाय के उदय से युक्त जीव अपने प्रदेशों को बाहर निकालता है / उन प्रदेशों से मुख, उदर आदि छिद्रों को तथा कान, स्कन्ध आदि अन्तरालों को पूरित करता है / लम्बाई तथा विस्तार से शरीरमात्र क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है। ऐसा करके वह बहुत-से कषायकर्मपुद्गलों का परिशाटन करता है-झाड़ देता है। 3. मारणान्तिकसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम मारणान्तिकसमुद्घात करने वाला जीव आयुकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है। इस समुद्घात में यह विशेषता है कि मारणान्तिकसमुद्घात करने वाला जीव अपने प्रदेशों को बाहर निकाल कर मुख तथा उदर आदि के छिद्रों को न्ध अादि अन्तरालों को पूरित करके विस्तार और मोटाई में अपने शरीरप्रमाण होकर किन्तु लम्बाई में अपने शरीर के अतिरिक्त जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग तक और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक एक दिशा के क्षेत्र को व्याप्त करके रहता है। 4. वैक्रियसमुद्घात को प्रक्रिया और परिणाम - वैक्रियसमुद्घात करने वाला जीव अपने प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर शरीर के विस्तार और मोटाई के बराबर तथा लम्बाई में संख्यातयोजनप्रमाण दण्ड निकालता है। फिर यथासम्भव वैक्रियशरीरनामकर्म के स्थूल पुद्गलों का परिशाटन करता है। 5. तेजससमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम-तैजससमुद्घात करने वाला जीव तेजोलेश्या के निकालने के समय तैजसशरीरनामकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है। 6. आहारकसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम प्राहारकसमुद्घात करने वाला पाहारकशरीरनामकर्म के पुद्गलों का परिशाटन करता है / / 7. केवलिसमुद्घात की प्रक्रिया और परिणाम- केवलिसमुद्घात करने वाला जीव साताअसातावेदनीय आदि कर्मों के पुद्गलों का परिशाटन करता है / केवली ही केवलिसमुद्घात करता है। इसमें आठ समय लगते हैं / केवलिसमुद्घात करने वाला केवली प्रथम समय में मोटाई में अपने शरीर प्रमाण आत्मप्रदेशों का दण्ड ऊपर और नीचे लोकान्त तक रचता है। दूसरे समय में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में कपाट की रचना करता है। तीसरे समय में मन्थान (मथानी) की रचना करता है। चौथे समय में अवकाशान्तरों को पूरित करता (भरता) है। पांचवें समय में उन अवका Page #1426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद) [231 शान्तरों को सिकोड़ता है, छठे समय में मन्थान को सिकोड़ता है, सातवें समय में कपाट को संकुचित करता है और पाठवें समय में दण्ड का संकोच करके अात्मस्थ हो जाता है।' समुद्घात-काल-प्ररूपणा 2087. [1] वेदणासमुग्धाए गं भंते ! कतिसमइए पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते। [2087-1 प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात कितने समय का कहा गया है ? [2087-1 उ.] गौतम ! वह असंख्यात समयों वाले अन्तर्मुहूर्त का कहा है। [2] एवं जाव पाहारगसमुग्घाए। [2087-2] इसी प्रकार यावत् आहारकसमुद्घात पर्यन्त कथन करना चाहिए। 2088. केवलिसमुग्घाए णं भंते ! कतिसमइए पण्णते ? गोयमा ! अटुसमइए पण्णत्ते। (2088 प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात कितने समय का कहा है ? [2088 उ.] गौतम ! वह पाठ समय का कहा है / विवेचन--निष्कर्ष वेदनासमुद्धात से लेकर आहारकसमुद्घात तक समुद्घातकाल अन्तमुहर्त का है, किन्तु वह अन्तर्मुहूर्त असंख्यात समयों का समझना चाहिए। केवलिसमुद्घात का काल आठ समय का है। चौवीस दण्डकों में समुद्घात-संख्या-प्ररूपणा 2086. रइयाणं भंते ! कति समुग्धाया पण्णता? गोयमा ! चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता। तं जहा- वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणंतियसमुग्धाए 3 वेउब्वियसमुग्घाए 4 / [2086 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने समुद्घात कहे हैं ? / [2086 उ.] गौतम ! उनके चार समुद्घात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (२)कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात एवं (4) वैक्रियसमुद्घात / 2060. [1] असुरकुमाराणं भंते ! कति समुग्धाया पण्णता? गोयमा ! पंच समुग्धाया पण्णत्ता। तं जहा- वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 वेउव्वियसमुग्धाए 4 तेयासमुग्घाए 5 / [2060 प्र.] भगवन् ! असुरकुमारों के कितने समुद्घात कहे हैं ? 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टोका) भा. 5, पृ. 913-914 2. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 919-920 Page #1427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 प्रज्ञापनासून [2090-1 उ.] गौतम ! उनके पांच समुद्धात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्धात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात और (5) तैजससमुद्घात / [2] एवं जाव थणियकुमाराणं / [2090-2] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त कहना चाहिए / 2061. [1] पुढविक्काइयाणं भंते ! कति समुग्घाया पण्णता? गोयमा ! तिण्णि समुग्घाया पण्णता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 / [2061-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने समुद्घात कहे हैं ? [2061-1 उ.] गौतम ! उनके तीन समुद्घात कहे हैं। यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात और (3) मारणान्तिकसमुद्घात / [2] एवं जाव चरिदियाणं / णवरं वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्घाया पण्णत्ता, तं जहा–वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्धाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 वेउब्वियसमुग्घाए 4 / [2061-2] इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जानना चाहिए। विशेष यह है कि वायुकायिक जीवों के चार समुद्घात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिक समुद्घात और (4) वैक्रियसमुद्घात / 2062. पंचेदियतिरिक्खजोणियाणं जाव वेमाणियाणं भंते ! कति समुग्घाया पण्णता ? गोयमा ! पंच समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्धाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 वेउब्वियसमुग्धाए 4 तेयासमुग्घाए 5 / गवरं मणूसाणं सत्तविहे समुग्घाए पण्णत्ते, तं जहा वेदगासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणंतियसमुग्धाए 3 वेउब्वियसमुग्घाए 4 तेयासमुग्धाए 5 प्राहारणसमुग्धाए 6 केवलिसमुग्धाए 7 / / [2092 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से लेकर यावत् वैमानिक पर्यन्त कितने समुद्घात __[2062 उ.] गौतम ! उनके पांच समुद्घात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात,(२)कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्धात, (4) वैक्रियसमुद्घात और (5) तैजससमुद्घात / विशेष यह है कि मनुष्यों के सात समुद्घात कहे हैं। यथा--(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तैजसस मुद्घात, (6) आहारकसमुद्धात और (7) केवलिसमुद्घात। विवेचन समुद्धात : किसमें कितने और क्यों ? --नारकों में आदि के 4 समुद्घात होते हैं, क्योंकि नारकों में तेजोलब्धि, आहारकलब्धि और केवलित्व का अभाव होने से तैजस, आहारक और केवलिसमुद्धात नहीं होते। असुरकुमारादि दस भवनपति देवों में प्रारम्भ के चार और पांचवां तैजससमुद्धात भी हो सकता है। पृथ्वीकायिकादि पांच स्थावरों में प्रारम्भ के तीन समुद्धात होते हैं, किन्तु वायुकायिक जीवों में पहले के तीन और एक वैक्रियसमुद्घात, यों चार समुद्घात होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों से लेकर वैमानिकों तक प्रारम्भ के पांच समुद्घात पाये जाते हैं / किन्तु मनुष्यों में सातों Page #1428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [233 ही समुद्घात पाये जाते हैं। तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों से लेकर वैमानिकों तक पांच समुद्घात इसलिए पाये जाते हैं कि तिर्यञ्च पचेन्द्रियों आदि में आहारकलब्धि और केवलित्व नहीं होते / अतः अन्तिम दो समुद्घात उनमें नहीं पाये जाते / ' चौवीस दण्डकों में एकत्वरूप से अतीतादि-समुद्घात-प्ररूपणा 2063. [1] एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स केवतिया वेदणासमुग्घाया अतीता? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि, जस्सऽस्थि जहष्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा / [2063-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के कितने वेदनासमुद्घात अतीत-व्यतीत हुए हैं ? [2093-1 उ.] हे गौतम ! वे अनन्त हुए हैं / [प्र. भगवन् ! वे भविष्य में (आगे) कितने होने वाले हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं / [2] एवं असुरकुमारस्स बि, णिरंतरं जाव वेमाणियस्स / [2063-2] इसी प्रकार असुरकुमार के विषय में भी जानना चाहिए / यहाँ से लगातार वैमानिक पर्यन्त इसी प्रकार कहना चाहिए। 2064. [1] एवं जाव तेयगसमुग्घाए / [2064-1] इसी प्रकार यावत् तैजससमुद्घात तक (जानना चाहिए।) [2] एवं एते पंच चउवीसा दंडगा। [2094-2] इसी प्रकार ये पांचों समुद्घात (वेदना, कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तेजस) भी चौवीस दण्डकों के क्रम से समझ लेने चाहिए। 2065. [1] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया पाहारगसमुग्धाया प्रतीता? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि / जस्सऽस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा, उक्कोसेणं तिष्णि। केवतिया पुरेक्खडा? कस्सइ अस्थि कस्सइ थि। जस्सऽस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं चत्तारि / [2065-1 प्र] भगवन् ! एक-एक नारक के अतीत आहारकसमुद्घात कितने हैं ? 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 7, पृ. 436 Page #1429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] [प्रज्ञापनासूत्र [2095-1 उ.] गौतम ! वे किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके (प्रतीत आहारकसमुद्घात) होते हैं, उसके भी जघन्य एक या दो होते हैं और उत्कृष्ट तीन होते हैं / [प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के भावी समद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार समुद्घात होते हैं। [2] एवं णिरंतरं जाव वेमाणियस्स। नवरं मणूसस्स प्रतीता वि पुरेक्खडा वि जहा रइयस्स पुरेक्खडा। [2995-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् लगातार वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष यह है कि मनुष्य के अतीत और अनागत नारक के (अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात के) समान हैं। 2066. [1] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स केवतिया केवलिसमुग्धाया प्रतीया? गोयमा ! गस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि / जस्सऽस्थि एक्को। [2066-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के अतीत केवलिसमुद्घात कितने हुए हैं ? [2066-1 उ.] गौतम ! (एक भी नारक के एक भी अतीत केवलिसमुद्घात) नहीं हैं / [प्र.] भगवन् ! (एक-एक नारक के) भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी (नारक) के (भावी केवलिसमुद्घात) होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है / [2] एवं जाय वेमाणियस्स। णवरं मणूसस्स अतोता कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि एक्को / एवं पुरेक्खडा वि / _ [2096-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त (अतीत और अनागत केवलिसमुद्घात. विषयक कथन करना चाहिए।) विशेष यह है कि किसी मनुष्य के अतीत केवलिसमुद्घात होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके एक ही होता है। इसी प्रकार (अतीत केवलिसमुद्घात के समान मनुष्य के) भावी (केवलिसमुद्धात) का भी (कथन जान लेना चाहिए)। विवेचन—एक-एक जीव के प्रतीत-अनागत समुद्घात कितने ?–प्रस्तुत प्रकरण में एक-एक जीव के कितने वेदनादि समुद्धात अतीत हो चुके हैं और कितने भविष्य में होने वाले हैं ?, इसका चौवीस दण्डकों के क्रम से निरूपण किया गया है। (1) वेदनासमुद्घात-एक-एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात प्रतीत हुए हैं, क्योंकि नारकादि स्थान अनन्त हैं। एक-एक नारक-स्थान को अनन्तबार प्राप्त किया है और एक बार नारक-स्थान की प्राप्ति के समय एक नारक के अनेक बार वेदनासमुद्घात हुए हैं। यह कथन बाहुल्य की अपेक्षा से समझना चाहिए। बहुत-से जीवों को अव्यवहार-राशि से निकले अनन्तकाल Page #1430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [235 व्यतीत हो चुका है / उनको अपेक्षा से एक-एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत कहे गए हैं। जिन जोवों को व्यवहारराशि से निकले अल्पसमय व्यतीत हुआ है, उनकी अपेक्षा से यथासम्भव संख्यात या असंख्यात वेदनासमुद्घात व्यतीत हुए समझने चाहिए। एक-एक नारक के भावी समुद्घात के विषय में कहा गया है कि किसी नारक के भावीसमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते / तात्पर्य यह है कि जो जीव पृच्छा के समय के पश्चात् वेदनासमुद्घात के बिना हो नरक से निकल कर अनन्तर मनुष्यभव प्राप्त करके वेदनासमुद्घात किये बिना हो सिद्धि प्राप्त करेगा, उसकी अपेक्षा से एक भी वेदनासमुदघात नहीं है। जो इस पच्छा समय के पश्चात् आयु शेष होने के कारण कुछ काल तक नरक में स्थित रह कर फिर मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध होगा, उसके एक, दो या तीन वेदनासमुद्घात सम्भव हैं। संख्यातकाल तक संसार में रहने वाले नारक के संख्यात तथा असंख्यातकाल तक संसार में रहने वाले के असंख्यात और अनन्तकाल तक संसार में रहने वाले के अनन्त भावी समुद्घात होते हैं। नारकों के समान ही असुरकुमारादि भवनपतियों, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों के भी अनन्त वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं तथा भावीवेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, वे जघन्य एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं।' [1-3-4-5] वेदनासमुद्घात की तरह कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय एवं तेजस-समुद्घातविषयक कथन चौवीस दण्डकों के क्रम से समझ लेना चाहिए। (6) आहारकसमुद्घात-एक-एक नारक के अतीत आहारक-समुद्घात के प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि प्राहारकसमुद्घात किसी-किसी का होता है, किसी का नहीं होता। जिस नारक के अतीत पाहारकसमुद्घात होता है, उसके भी जघन्य एक या दो होते हैं और उत्कृष्ट तीन होते हैं / जिस नारक ने पहले मनुष्यभव प्राप्त कर के अनुकूल सामग्री के अभाव में चौदह पूर्वो का अध्ययन नहीं किया अथवा चौदह पूर्वो का अध्ययन होने पर भी आहारकलब्धि के अभाव में या वैसा कोई विशिष्ट प्रयोजन न होने से प्राहारशरीर का निर्माण नहीं किया, उसके अतीत आहारकसमुद्घात नहीं होते / उससे भिन्न प्रकार के नारक के जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट तीन आहारकसमुद्घात होते हैं / चार नहीं हो सकते, क्योंकि चार बार आहारकशरीर का निर्माण करने वाला जीव नरक में नहीं जा सकता। भावी आहारकसमुद्घात भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिनके होते हैं, उनके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट चार होते हैं। जो नारक मनुष्यभव को प्राप्त करके अनुकूल सामग्री न मिलने से चौदह पूर्वो का अध्ययन नहीं करेगा या अध्ययन करके भी आहारकसमुद्घात नहीं करेगा और सिद्ध हो जाएगा, उसके भावी आहारकसमुद्धात नहीं होते। इससे 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टोका) भा. 5, पृ. 927 से 929 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभिधान रा. कोष भा. 7, पृ. 437 2. (क) वही, अ. रा. कोष भा.७, पृ. 437 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 930 Page #1431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] [प्रज्ञापनासूत्र भिन्न नारक के जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार भावी आहारकसमुद्घात होते हैं। इससे अधिक भावी आहारकसमुद्घात नहीं हो सकते, क्योंकि तदनन्तर वह जीव नियम से किसी दूसरी गति में नहीं जाता और आहारक-समुद्धात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है। इसी प्रकार असुरकुमारादि भवनपतियों से लेकर वैमानिकों तक के अतीत और अनागत पाहारकसमुद्घात के विषय में समझ लेना चाहिए / परन्तु मनुष्य के अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात नारक के अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात के समान हैं। नारक के अतीत और अनागत जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार हैं, इसी प्रकार मनुष्य के हैं।' (7) केवलिसमुद्घात-एक-एक नारक के अतीतकेवलिसमुद्घात एक भी नहीं है, क्योंकि केवलिसमुद्धात के पश्चात् नियम से अन्तर्मुहूर्त में ही जीव को मोक्ष प्राप्ति हो जाती है / फिर उसका नरक में जाना और नारक होना सम्भव नहीं है / अतएव किसी भी नारक के अतीतकेवलिसमुद्घात सम्भव नहीं है। अब रहा नारक के भावीकेवलिसमुद्घात का प्रश्न यह किसी के होता है, किसी के नहीं होता / जिस नारक के होता है, उसके एक हो केवलिसमुद्घात होता है। एक से अधिक नहीं हो सकता, क्योंकि एक केवलिसमुद्घात के द्वारा ही चारों अघातिक कर्मों की स्थिति समान करके केवली अन्तर्मुहूर्त में ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। फिर दूसरी बार किसी को भी केवलिसमुद्घात की आवश्यकता नहीं होती। जो नारक भवभ्रमण करके मुक्तिपद प्राप्त करने का अवसर पायेगा, उस समय उसके अघातीकर्मों की स्थिति विषम होगी तो उसे सम करने के लिए वह केवलिसमुद्घात करेगा। यह उसका भावीकेवलिसमुद्घात होगा / जो नारक केवलिसमुद्घात के बिना ही मुक्ति प्राप्त करेगा अथवा जो (अभव्य) कभी मुक्ति प्राप्त कर ही नहीं सकेगा, उसकी अपेक्षा से भावीकेवलिसमुद्घात नहीं होता। मनुष्य के अतिरिक्त भवनपति, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव के भी अतीत केवलिसमुद्घात नहीं होता / भावी केवलिसमदघात किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, एक ही होता है। युक्ति पूर्ववत् समझना / किसी मनुष्य के अतीत केवलिसमुद्घात होता है, किसी के नहीं। केवलिसमुद्घात जिसके होता है, एक ही होता है। जो मनुष्य के वलिस मुद्घात कर चुका है और अभी तक मक्त नहीं हुआ है--अन्तर्मुहूर्त में मुक्त होने वाला है, उसकी अपेक्षा से अतीत केवलिसमुद्घात है; किन्तु जिस मनुष्य ने केवलिसमुद्घात नहीं किया है, उसकी अपेक्षा से नहीं है। अतीतकेवलिसमद्घात के समान मनुष्य के भावीकेवलिसमुद्घात का कथन भी जान लेना चाहिए। अतीत की तरह भावी केवलिसमुद्घात भी किसी का होता है, किसी का नहीं। जिसका होता है, उसका एक ही होता है, अधिक नहीं / 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 930 से 932 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अ. रा. कोष भा. 7, पृ. 438 2. (क) वही, अ. रा. कोष भा. 7, पृ. 438 (ख) प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 933 से 935 तक Page #1432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसयां समुद्घातपद] [237 चौवीस दण्डकों में बहुत्व की अपेक्षा से अतीत-अनागत-समुद्घात-प्ररूपणा 2067. [1] रइयाणं भंते ! केवतिया वेदणासमुग्घाया प्रतीता ? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोतमा ! अणंता। [2097-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2097-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं / [प्र.] भगवन् ! (उनके) भावी वेदनासमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी अनन्त होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / [2067-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों (के वेदनासमुद्धात) तक (के विषय में जानना चाहिए)। 2068. [1] एवं जाव तेयगसमुग्घाए / [2068-1] इसी प्रकार ( वेदनासमुद्घात के समान ) यावत् तैजससमुद्धात पर्यन्त समझना चाहिए। [2] एवं एते वि पंच चउवीसा दंडगा। [2018-2] इस प्रकार इन (वेदना से लेकर तैजस तक) पांचों समुद्घातों का (कथन) . चौवीसों दण्डकों में (बहुवचन के रूप में समझ लेना चाहिए / ) 2066. [1] रइयाणं भंते ! केवतिया पाहारगसमुग्घाया प्रतीया? गोयमा! असंखेज्जा। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! असंखेज्जा। [2066-1 प्र.] भगवान् ! नारकों के कितने पाहारकसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2066-1 उ.] गौतम ! वे असंख्यात हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! उनके आगामी आहारकसमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी असंख्यात होते हैं। [2] एवं जाव वेमाणियाणं / गवरं वणप्फइकाइयाणं मणूसाण य इमं णाणत्तं / वणप्फइकाइयाणं भंते ! केवतिया आहारगसमुग्धाया प्रतीता ? गोयमा! अणंता। मणसाणं भंते ! केवतिया पाहारगसमुग्घाया अतीता? गोयमा ! सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा / एवं पुरेक्खडा वि / Page #1433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] [प्रज्ञापनासूत्र [2066-2] इसी प्रकार (नारकों के समान) यावत् वैमानिकों तक का कथन समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि वनस्पनिकायिकों और मनुष्यों को वक्तव्यता में इनसे भिन्नता है / यथा-- [प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीवों के कितने आहारकसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त (पाहारकसमुद्रघात प्रतीत हुए हैं)। [प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने प्राहारकसमुदघात प्रतीत हुए हैं ? [उ.] गौतम ! (उनके पाहारकसमुद्घात) कथंचित् संख्यात और कथंचित् असंख्यात (हुए हैं / ) इसी प्रकार उनके भावी आहारकसमुद्घात भी समझ लेने चाहिए। 2100. [1] रइयाणं भंते ! केवतिया केवलिसमुग्घाया प्रतीया ? गोयमा ! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! असंखेज्जा। [2100-1 प्र.] भगवन् ! नैरयिकों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2100-1 उ.] गौतम ! एक भी नहीं है। [प्र.] भगवन ! नारकों के कितने केवलिसमुद्घात आगामी हैं। [उ.] गौतम ! वे असंख्यात हैं / [2] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं वणष्फइकाइय-मणूसेसु इमं णाणत्तं / वणप्फइकाइयाणं भंते ! केवतिया केवलिसमुग्घाया अतीता? गोयमा! णत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता। मणसाणं भंते ! केवतिया केवलिसमुग्घाया प्रतीया ? गोयमा ! सिय अस्थि सिय णत्थि। जदि अस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिणि का, उक्कोसेणं सतपुहत्तं। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा। [2100-2 प्र.] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक समझना चाहिए। विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों में ( केवलिसमुद्घात के विषय में पूर्वकथन से) भिन्नता है। यथा [प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिकों के कितने केवलिसमुद्धात अतीत हैं ? [उ.] गौतम ! (इनके केवलिससुद्घात अतीत) नहीं हैं। Page #1434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [239 [प्र.] भगवन् ! इनके कितने भावी केवलिसमुद्धात हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनन्त हैं। [प्र.] भगवन् ! मनुष्यों के कितने केवलिसमुद्घात अतीत हैं ? [उ.] गौतम ! कथञ्चित् हैं और कथञ्चित नहीं हैं। यदि हैं तो जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शतपृथक्त्व हैं। [प्र.] भगवन् ! उनके भावी केवलिसमुद्घात कितने कहे हैं ? [उ.] गौतम ! कथञ्चित् संख्यात हैं और कथञ्चित् असंख्यात हैं / विवेचन-नारकादि में बहुत्व की अपेक्षा से बेदनासमुद्घात आदि का निरूपण--- नारकों के वेदनासमुद्घात अनन्त अतीत हुए हैं, क्योंकि बहुत-से नारकों को व्यवहारराशि से निकले अनन्तकाल हो चुका है। इनके भावी समुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि बहुत से नारक अनन्तकाल तक संसार में स्थित रहेंगे। असुरकुमारादि भवनपतियों, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के भी वेदनासमुद्घात अतीत और अनागत (भावी) में अनन्त होते हैं। वेदनासमुद्घात की भांति कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तैजस समुद्धात की वक्तव्यता भी समझ लेनी चाहिए।' इन सबका निरूपण चौबीस दण्डकों में बहुवचन के रूप में करना चाहिए। श्राहारकसमुद्घात--नारकों के अतीतमाहारकसमुद्घात असंख्यात हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि सभी नारक असंख्यात हैं, तथापि उनमें भी कुछ असंख्यात नारक ऐसे होते हैं, जो पहले पाहारकसमदघात कर चके हैं, उनकी अपेक्षा से नारकों के अतीत आहारकसमदघात असंख्यात कहे हैं। इसी प्रकार नारकों के भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति से असंख्यात समझ लेने चाहिए। वनस्पतिकायिकों और मनुष्यों को छोड़कर शेष दण्डकों में वैमानिक पर्यन्त अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात पूर्ववत् असंख्यात हैं / वनस्पतिकायिकों के प्रतीत पाहारकसमुद्घात-बहुवचन की अपेक्षा से अनन्त हैं, क्योंकि ऐसे वनस्पतिकायिक जीव अनन्त हैं, जिन्होंने चौदह पूर्वो का ज्ञान भूतकाल में किया था, किन्तु प्रमाद के वशीभूत होकर संसार की वृद्धि करके वनस्पतिकायिकों में विद्यमान हैं। वनस्पतिकायिकों के भावी आहारकसमुद्धात भी अनन्त हैं, क्योंकि पृच्छा के समय जो जीव वनस्पतिकाय में हैं, उनमें से अनन्त जीव वनस्पतिकायिकों में से निकल कर मनुष्यभव पाकर चौदह पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करके आहारकसमुद्घात करके सिद्धिगमन करेंगे। मनुष्यों के अतीत-अनागत श्राहारकसमुद्घात-बहुवचन की अपेक्षा से कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात हैं। तात्पर्य यह है कि संमूच्छिम और गर्भज मनुष्य मिलाकर उत्कृष्ट संख्या में अंगुलमात्र क्षेत्र में जितने प्रदेशों की राशि है, उसके प्रथम वर्गमूल का तृतीय वर्गमूल से गुणाकार 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 7, पृ. 438 Page #1435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] [प्रज्ञापनासूत्र करने पर जो परिमाण आता है, उतने प्रदेशोंवाले खण्ड-धनीकृत लोक की एक प्रदेश वाली श्रेणी में जितने मनुष्य होते हैं, उनमें से एक कम करने पर जितने मनुष्य हों, उतने ही हैं। ये मनुष्य नारक आदि अन्य जीवराशियों की अपेक्षा कम हैं। उनमें भी ऐसे मनुष्य कम हैं, जिन्होंने पूर्वभवों में आहारकशरीर बनाया हो, इस कारण वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात समझने चाहिए।' केवलिसमुद्घात–नारकों के अतीत केवलिसमुद्घात एक भी नहीं होता, क्योंकि जिन जीवों ने केवलिसमुद्घात किया है, उनका नारक में जाना और नारक होना सम्भव नहीं है / नारकों के भावी केवलिसमुद्घात असंख्यात हैं, क्योंकि पृच्छा के समय सदैव भविष्य में केवलिसमुद्घात करने वाले नारक असंख्यात ही होते हैं / केवलज्ञान से ऐसा ही जाना जाता है / नारकों के समान ही वनस्पतिकायिकों एवं मनुष्यों को छोड़कर असुरकुमारादि भवनपतियों से लेकर वैमानिकों तक भी इसी प्रकार समझना चाहिए। इनके भी अतीत केवलिसमुद्घात नहीं होते और भावी केवलिसमुद्धात असंख्यात होते हैं / वनस्पतिकायिकों के अतीत केवलिसमुद्धात पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार नहीं होते / इनके भावीकेवलिसमुद्धात अनन्त होते हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिकों में अनन्त जीव ऐसे होते हैं, जो भविष्यत्काल में केवली होकर केवलिसमुद्घात करेंगे। मनुष्यों के अतीत केवलिसमुद्घात कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते / पच्छा के समय अगर केवलिसमुद्घात से निवृत्त कोई मनुष्य (केवली) विद्यमान हों तो अतीत केवलिसमुदघात होते हैं, अन्य समय में नहीं होते / यदि अतीत केवलिसमुद्घात हों तो वे जघन्यतः एक, दो या तीन होते . हैं और उत्कृष्टतः शतपृथक्त्व अर्थात् दो सौ से लेकर नौ सौ तक होते हैं। मनुष्यों के भावी केवलिसमुद्घात कदाचित संख्यात् और कदाचित् असंख्यात होते हैं। समूच्छिम और गर्भज मनुष्यों में पृच्छा के समय बहुत से अभव्य भी होते हैं, जिनके भावी केवलिसमुद्घात सम्भव नहीं, इस अपेक्षा से भावी केवलिसमुद्घात संख्यात होते हैं। कदाचित् वे असंख्यात भी होते हैं, क्योंकि उस समय भविष्य में केवलिसमुद्घात करने वाले मनुष्य बहुत होते हैं / 2 चौवीस दण्डकों की चौवीस दण्डक पर्यायों में एकत्व को अपेक्षा से अतीतादि समुद्घातप्ररूपणा 2101. [1] एगमेगस्स गं भंते ! रइयस्स रइयत्ते केवतिया वेदणासमुग्घाया अतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा प्रणता वा। 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, प्र. रा. कोष, भा. 7, पृ. 439 2. वही, मलयवृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 7, पृ. 439 Page #1436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [241 [2101-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरयिक के नारकत्व में (अर्थात्-नारक-पर्याय में रहते हुए) कितने वेदनासमुद्धात अतीत हुए हैं। [2101-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! (एक-एक नारक के नारकल्ब में) कितने भावी (वेदनासमुद्घात) होते हैं ? [उ.J गौतम ! वे किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं। [2] एवं असुरकुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते / [2101-2] इसी प्रकार एक-एक नारक के असुरकुमारत्व यावत् वैमानिकत्व में रहते हुए पूर्ववत् अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात समझने चाहिए। 2102. एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स गैरइयत्ते केवतिया वेयणासमुग्घाया अतोता? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि तस्स सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता। [2102 प्र. भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के नारकत्व में (रहते हुए) कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2102 उ.] गौतम ! वे अनन्त हो चुके हैं। [प्र.] भगवन् ! भावी वेदनासमुदघात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं / 2103. [1] एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते केवतिया वेदणासमुग्धाया अतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि जहण्णणं एकको वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखिज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा। [2103-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक असुरकुमार के असुरकुमारपर्याय में कितने वेदनासमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2103-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं / (प्र] भगवन् ! उनके भावी वेदनासमुद्घात कितने होते हैं ? उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं,उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं / Page #1437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] [प्रज्ञापनासूत्र ते विजाब वेमाणियत्ते। [2103-2] इसी प्रकार नागकुमारपर्याय यावत् वैमानिकपर्याय में रहते हुए अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात समझने चाहिए। 2104. [1] एवं जहा वेदणासमुग्धाएणं असुरकुमारे रइयादि-वेमाणियपज्जवसाणेसु भणिए तहा णागकुमारादीया अवसेसेसु सट्ठाण-परट्ठाणेसु भाणियन्वा जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते / [2104-1] जिस प्रकार असुरकुमार के नारकपर्याय से लेकर वैमानिकपर्याय पर्यन्त वेदनासमुद्घात कहे हैं, उसी प्रकार नागकुमार आदि से लेकर शेष सब स्वस्थानों और परस्थानों में वेदनासमुद्घात यावत् वैमानिक के वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहने चाहिए। [2] एवमेते चउन्धोसं चउठवीसा दंडगा भवंति / [2104-2] इसी प्रकार चौवीस दण्डकों में से प्रत्येक के चौवीस दण्डक होते हैं। 2105. एगमेगस्स णं भंते ! रइयस्स णेरइयत्ते केवतिया कसायसमुग्घाया प्रतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽत्थि एगुत्तरियाए जाव अणंता। [2105 प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के नारकपर्याय (नारकत्व) में कितने कषायसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2105 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! भावी कषायसमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके एक से लेकर यावत् अनन्त तक हैं। 2106. एगमेगस्स गं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया कसायसमुग्घाया अतीया ? गोयमा! प्रणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सह अस्थि कस्सइ पत्थि। जस्सऽस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता। [2106 प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के असुरकुमारपर्याय में कितने कषायसमुद्धात अतीत होते हैं ? [2106 उ.] गौतम ! अनन्त होते हैं। [प्र.] भगवन् ! (उसके) भावी (कषायसमुद्घात) कितने होते हैं ? Page #1438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [243 छत्तीसवां समुद्धातपद] [उ.] गौतम ! वे किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित अनन्त होते हैं / __ 2107. एवं जाव रइयस्स थणियकुमारते। पुढविकाइयत्ते एगुत्तरियाए यन्वं, एवं जाव मणूसत्ते। वाणमंतरत्ते जहा असुरकुमारत्ते (सु. 2106) / जोतिसियत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि सिय असंखेज्जा सिय अणंता / एवं माणियत्ते वि सिय असंखेज्जा सिय अणंता। [2107] इसी प्रकार नारक का यावत स्तनितकुमारपर्याय में (अतीत-अनागत कषायसमुद्घात समझना चाहिए।) नारक का पृथ्वीकायिकपर्याय में एक से लेकर जानना चाहिए / इसी प्रकार यावत मनुष्यपर्याय में समझना चाहिए। वाणव्यन्तरपर्याय में नारक के असुरकुमारत्व (सु. 2106 में उक्त) के समान जानना / ज्योतिष्कदेवपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं तथा भावी कषायसमुद्घात किसी का होता है, किसी का नहीं होता। जिसका होता है, उसका कदाचित असंख्यात और कदाचित अनन्त होता है। इसी प्रकार वैमानिकपर्याय में भी कदाचित असंख्यात और कदाचित अनन्त (भावी कषायसमुद्धात) होते हैं / 2108. असुरकुमारस्स रइयत्ते अतीता अणंता। पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि / जस्सऽस्थि सिय संखेज्जा सिय प्रसंखेज्जा सिय अणंता। [2108] असुरकुमार के नैरयिकपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते हैं। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके कदाचित संख्यात, कदाचित असंख्यात और कदाचित अनन्त होते हैं। 2106. असुरकुमारस्स असुरकुमारत्ते अतीया अणंता / पुरेक्खडा एगुत्तरिया। [2106] असुरकुमार के असुरकुमारपर्याय में अतीत (कषायसमुद्घात) अनन्त हैं और भावी (कषायसमुद्धात) एक से लेकर कहने चाहिए। 2110. एवं नागकुमारत्ते निरंतरं जाव वेमाणियत्ते जहा रइयस्स भणियं (सु. 2107) तहेव भाणियव्वं / [2110] इसी प्रकार नागकुमारत्व से लेकर लगातार यावत वैमानिकत्व तक जैसे (2107 सूत्र में) नैरयिक के लिए कहा है, वैसे ही कहना चाहिए। 2111. एवं जाव थणियकुमारस्स वि [जाव] वेमाणियत्ते / णवरं सवेसि सटाणे एगुत्तरिए परटाणे जहेव असुरकुमारस्स (सु. 2108-10) / [2111] इसी प्रकार यावत स्तनितकुमार तक भी यावत् वैमानिकत्व में पूर्ववत् कथन समझना चाहिए। विशेष यह है कि इन सबके स्वस्थान में भावी कषायसमुद्धात एक से लगा कर (उत्तरोत्तर अनन्त तक) हैं और परस्थान में (सू. 2108-10 के अनुसार) असुरकुमार के (भावी कषायसमुद्घात के) समान हैं / Page #1439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] [प्रजापनासूत्र 2112. पुढविक्काइयस्स गैरइयत्ते जाव थणियकुमारत्ते अतीता अणंता / पुरेवखडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि / जस्सऽस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता। __ [2112] पृथ्वीकायिक जीव के नारकपर्याय में यावत् स्तनितकुमारपर्याय में अनन्त (कषायसमुद्धात) प्रतीत हुए हैं तथा उसके भावी कषायसमुद्धात भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित संख्यात, कदाचित असंख्यात और कदाचित अनन्त 2113. पुढविक्काइयस्स पुढविक्काइयत्ते जाव मणूसत्ते अतीता अणंता / पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि / जस्सऽस्थि एगुत्तरिया। वाणमंतरत्ते जहा रइयत्ते (सु. 2112) / जोतिसियवेमाणियत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि सिय असंखेज्जा सिय प्रणता। [2113] पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिक अवस्था में यावत् मनुष्य-अवस्था में (कषायसमुद्घात) अतीत अनन्त हैं / इसके भावी (कषायसमुद्घात) किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके एक से लगा कर अनन्त होते हैं। वाणव्यन्तर-अवस्था में (सू. 2112 में उक्त) नारक-अवस्था के समान जानना चाहिए / ज्योतिष्क और वैमानिक-अवस्था में (कषायसमुद्घात के) अनन्त अतीत हुए हैं / (उसके) भावी (कषायसमुद्घात) किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं / 2114. एवं जाव मणूसे वि णेयव्वं / [2114] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिक के समान) मनुष्यत्व तक में भी जान लेना चाहिए। 2115. [1] वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारे (सु. 2108-10) / णवरं सट्टाणे एगुत्तरियाए भाणियन्वा जाव बेमाणियस्स वेमाणियत्ते। [2115-1] वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की वक्तव्यता (सु. 2108-10 में उक्त) असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए। विशेष बात यह है कि स्वस्थान में (सर्वत्र) एक से लेकर समझना तथा यावत् वैमानिक के वैमानिकत्व पर्यन्त कहना चाहिए। [2] एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा। [2115-2] इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौवीसों दण्डक चौबीसों दण्डकों में कहने चाहिए। 2116. [1] मारणंतियसमुग्धाओ सट्टाणे वि परहाणे वि एगुत्तरियाए नेयव्वो जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते। [2116-1] मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में भी और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से (अर्थात्- एक से लगाकर) समझ लेना चाहिए; यावत् वैमानिक का वैमानिकपर्याय में (यहाँ तक अन्तिम दण्डक कहना चाहिए / ) [2] एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा / इसी प्रकार ये चौवीस दण्डक चौवीसों दण्डकों में कह देना चाहिए। Page #1440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [245 छत्तीसवाँ समुद्घातपद] . 2117. [1] वेउब्वियसमुग्धानो जहा कसायसमुग्धामो (सु. 2105-15) तहा गिरवसेसो माणियन्वो / णवरं जस्स पत्थि तस्स ण वुच्चति / [2117-1] वैक्रियसमुद्घात की समग्र वक्तव्यता कषायसमुद्घात (सू. 2105 से 2115 तक में उक्त) के समान कहनी चाहिए। विशेष यह है कि जिसके (वैक्रियसमुद्घात) नहीं होता, उसके विषय में कथन नहीं करना चाहिए / [2] एत्थ वि चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियन्वा / [2117-2] यहाँ भी चौवीस दण्डक चौवीस दण्डकों में कहने चाहिए। 2118. [1] तेयगसमुग्धाओ जहा मारणतियसमुग्घानो (सु. 2116) / णवरं जस्स अस्थि / [2118-1] तैजस समुद्घात का कथन (सू. 2116 में उक्त) मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना चाहिए / विशेष यह है कि जिसके वह होता है, (उसी के कहना चाहिए / ) [2] एवं एते वि चउवीसं चउवोसा दंडगा भाणियब्वा / [2118-2] इस प्रकार ये भी चौवीसों दण्डक चौवीस दण्डकों में घटित करना चाहिए। 2119. [1] एगमेगस्स गं भंते ! रइयस्स थेरइयत्ते केवतिया पाहारगसमुग्धाया प्रतीया? गोयमा! णस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! णस्थि। [2116-1 प्र. भगवन् ! एक-एक नारक के नारक अवस्था में कितने प्राहारकसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2116-1] गौतम ! (नारक के नारकपर्याय में अतीत आहारकसमुद्धात) नहीं होते। [प्र.] भगवन् उसके भावी आहारकसमुद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! (भावी आहारकसमुद्घात भी) नहीं होते। [2] एवं जाव वेमाणियत्ते / णवरं मणूसत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ णत्थि / जस्सऽस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा, उक्कोसेणं तिणि / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि / जस्सऽस्थि जहणणं एक्को वा दो वा तिम्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि। [2116-2] इसी प्रकार (नारक के) यावत् वैमानिक-अवस्था में (अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात का कथन समझना चाहिए / ) विशेष यह है कि (नारक के) मनुष्यपर्याय में Page #1441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246] [प्रज्ञापनासूत्र अतीत (आहारकसमुद्घात) किसी के होता है, किसी के नहीं होता। जिसके होता है, उसके जघन्य एक अथवा दो और उत्कृष्ट तीन होते हैं। [प्र. भगवन् ! (नारक के मनुष्यपर्याय में) भावो (पाहारकसमुद्धात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। [3] एवं सव्वजीवाणं मणूसेसु भाणियव्वं / [2116-3] इसी प्रकार समस्त जीवों और मनुष्यों के (अतीत और भावी आहारकसमद्घात के विषय में जानना चाहिए / ) [4] मणूसस्स मणूसत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि / जस्सऽस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि / एवं पुरेक्खडा वि। 2116-4] मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत पाहारकसमद्घात किसी के हुए हैं, किसी के नहीं हुए। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। इसी प्रकार भावी (पाहारकसमुद्घात) जानने चाहिए। [5] एवमेते वि चउवीसं चउबीसा दंडगा जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते। [2116-5] इस प्रकार ये चौवीस दण्डक चौवीसों दण्डकों में यावत् वैमानिकपर्याय में (आहारकसमुद्घात तक) कहना चाहिए / 2120. [1] एगमेगस्स णं भंते ! णेरइयस्स रइयत्ते केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीया ? गोयमा! पत्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा! पत्थि। 42120-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नरयिक के नारकत्वपर्याय में कितने केवलिसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2120-1 उ.] गौतम ! नहीं हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! इसके भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी नहीं होते। [2] एवं जाव वेमाणियत्ते / णवरं मणूसत्ते अतीया त्थि, पुरेवखडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽत्थि एक्को। 2120-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय तक में (केवलिसमुद्घात कहना चाहिए।) विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होता / भावी (केवलिसमुद्घात)किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होता है, उसके एक होता है। [3] मणसस्स मणूसत्ते अतीया कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि, जस्सऽस्थि इक्को। एवं पुरेक्खडा वि। Page #1442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [247 [2120-3] मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत केवलिसमुद्घात किसी के होता है, किसी के नहीं होता / जिसके होता है, उसके एक होता है। इसी प्रकार भावी (केवलिसमुद्घात के विषय में भी कहना चाहिए।) [4] एक्मेते चउवीसं चउवीसा दंडगा। [2120-4] इस प्रकार ये चौवीसों दण्डक चौबीसों दण्डकों में (जानना चाहिए।) विवेचन—एक-एक जीव के नारकत्वादि पर्याय में अतीत-अनागत-समुद्घात-प्ररूपणा–पहले यह प्रश्न किया गया था कि नारक के अतीत समुद्घात कितने हैं ?, यहाँ यह प्रश्न किया जा रहा है कि नारक ने नारक-अवस्था में रहते हुए कितने वेदनासमुद्घात किए ? अर्थात्--पहले नारकजीव के द्वारा चौवीस दण्डकों में से किसी भी दण्डक में किये हुए वेदनासमुद्घातों की गणना विवक्षित थी, जबकि यहाँ पर केवल नारकपर्याय में किये हुए वेदनासमुद्घातों की गणना विवक्षित है / वर्तमान में जो नारकजीव है, उसने नारकेतरपर्यायों में जो बेदनासमुद्घात किये, वे यहाँ विवक्षित नहीं। इसी प्रकार परस्थानों में भी एक-एक पर्याय ही विवक्षित है। यथा-नारक ने असुरकुमार-अवस्था में जो वेदनासमुद्घात किये, उन्हीं की गणना की जाएगी, अन्य अवस्थाओं में किये हुए वेदनासमुद्धात विवक्षित नहीं होंगे। इस प्रकरण में सर्वत्र यह विशेषता ध्यान में रखनी चाहिए। (1) वेदनासमुद्घात–नारकपर्याय में रहे हुए एक नारक के अनन्त वेदनासमुद्घात हुए हैं, क्योंकि उसने अनन्त वार नारकपर्याय प्राप्त की है और एक-एक नारकभव में भी कम से कम संख्यात वेदनासमुद्घात होते हैं। साथ ही किसी एक नारक के मोक्षपर्यन्त समग्र अनागतकाल की अपेक्षा से भावी वेदनासमदघात होते हैं, किसी के नहीं होते। जिस नारक की मृत्यू निकट है वह कदाचित् वेदनासमुद्घात किये बिना ही, मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा नरक से उद्वर्तन करके मनुष्यभव पाकर मुक्त हो जाता है, उस नारक को नारकपर्यायसम्बन्धी भावी वेदनासमुद्धात नहीं होता / जिस नारक के नारकपर्यायसम्बन्धी भावी समुदघात हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं। जैसे नारकों के नरकपर्यायसम्बन्धी वेदनासमुद्घातों का निरूपण किया गया, उसी प्रकार नारक के असुरकुमारपर्याय में यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त भवनपतिदेवपर्याय में, पृथ्वीकायिक आदि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, पंचेन्द्रियपर्याय में, मनुष्यपर्याय में, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकपर्याय में भी सम्पूर्ण अतीतकाल की अपेक्षा अनन्त वेदनासमरात प्रतीत होते हैं। भावी वेदनासमदरात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं / इनमें से जिनकी शेष आयु क्षीण हो गई है और जो उसी भव में मोक्ष जाने वाले हैं, उनकी अपेक्षा से एक, दो या तीन भावी वेदनासमुद्घात कहे गए हैं। जो जीव पुनः नरक में उत्पन्न होने वाला होता है, उसके जधन्यरूप से भी संख्यात भावी वेदनासमुद्घात होते हैं / ये संख्यात समुद्घात भी उसी नारक के समझने चाहिए, जो एक ही वार और वह भी जघन्य स्थिति वाले नरक में उत्पन्न होने वाला हो / जो अनेक बार और दीर्घस्थितिकरूप में उत्पन्न होने वाला हो, उसके भावी वेदनासमुद्घात असंख्यात होते हैं, जो अनन्तबार उत्पन्न होने वाला हो उसके अनन्त होते हैं / Page #1443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] [प्रज्ञापनासूत्र एक-एक असुरकुमार के नैरयिक-अवस्था में अनन्त वेदनासमुद्धात अतीत हुए हैं, क्योंकि उसने अतीतकाल में अनन्त बार नारक-अवस्था प्राप्त की है और एक-एक नारकभव में संख्यात वेदनासमुद्घात होते हैं। एक-एक असुरकुमार के नारक-अवस्था में भावी वेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वेदनासमुद्घात होते हैं। जो असुरकुमार के भव से निकल कर नरकभव में कभी जन्म नहीं लेगा, किन्तु अनन्तर भव में या फिर परम्परा से मनुष्यभव प्राप्त करके सिद्ध हो जाएगा, उसके नारक पर्यायभावी अागामी वेदनासमुद्घात नहीं होते, क्योंकि उसे नारकपर्याय ही प्राप्त होने वाला नहीं है। जो असुरकुमार उस भव के पश्चात् परम्परा से नरक में जाएगा, उसके भावो वेदनासमुद्घात होते हैं तथा उनमें से जो एक बार जघन्य स्थिति वाले नरक में उत्पन्न होगा, उस असुरकुमार के जघन्य भी संख्यात वेदनासमुद्घात होते हैं। क्योंकि नरक में वेदना की बहुलता होती है। कई बार जघन्यस्थिति वाले नरक में जाने पर असंख्यात वेदनासमुद्धात होंगे और अनन्त बार नरक में जाए तो अनन्त वेदनासमुद्घात होंगे। ___ एक-एक असुरकुमार के असुरकुमारावस्था में अतीतकाल में (यानी जब वह असुरकुमारपर्याय में था, तब) अनन्त वेदनासमुद्धात अतीत हुए हैं तथा इसी अवस्था में भावी वेदनासमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी वेदनासमुद्धात होते हैं। इनमें से जो असुरकुमार संख्यातवार, असंख्यातवार या अनन्तवार पुनः-पुनः असुरकुमाररूप में उत्पन्न होगा, उसके भावी वेदनासमुद्घात क्रमशः संख्यात, असंख्यात या अनन्त होंगे। जैसे असुरकुमार के असुरकुमारावस्था में वेदनासमुद्घात कहे हैं, उसी प्रकार असुरकुमार के नागकुमारावस्था में भी यावत् वैमानिक अवस्था में भी अनन्त वेदनासमुद्घात प्रतीत हुए हैं। भावी समुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं / युक्ति पूर्ववत् समझनी चाहिए। जिस प्रकार असुरकुमार के नारक-अवस्था से लेकर वैमानिक-अवस्था तक में वेदनासमुद्घात का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि के बेदनासमुद्घात का प्ररूपण भी समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि असुरकुमार के असुरकुमाररूप स्वस्थान में कितने अतीत-अनागत वेदनासमुद्घात हैं ? तथा नारक आदि परस्थानों में कितने वेदनासमुद्घात अतीत अनागत हैं ? इस विषय में जैसे ऊपर बतलाया गया है, उसी प्रकार नागकुमार आदि से लेकर वैमानिकों तक भी स्वस्थानों और परस्थानों में वेदनासमुद्घात समझ लेने चाहिए। ___ इस प्रकार चौवीस दण्डकों में से प्रत्येक दण्डक का 24 दण्डकों को लेकर कथन करने पर 1056 आलापक होते हैं, क्योंकि 24 को 24 से गुणा करने पर 1056 संख्या होती है।' कषायसमुद्घात-एक-एक नारक के नारकावस्था में अनन्त कषाय समुद्घात सम्पूर्ण अतीतकाल की अपेक्षा से व्यतीत हुए हैं तथा भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं / 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 440 Page #1444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [249 जिसके होता है, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं / प्रश्न के समय में जो नारक अपने भव के अन्तिम काल में वर्तमान है, वह अपनी नरकायु का क्षय करके कषायसमुद्घात किये बिना ही नरकभव से निकलकर अनन्तर मनुष्यभव या परम्परा से मनुष्यभव पाकर मोक्ष प्राप्त करेगा, अ , अर्थात पूनः कदापि नरकभव में नहीं आएगा, उस नारक के नारकपर्यायसम्बन्धी भावी कषायसमुद्घात नहीं है। जो नारक ऐसा नहीं है. अर्थात् जिसे नरकभव में दीर्घकाल तक रहना है, अथवा जो पुन: कभी नरकभव को प्राप्त करेगा, उसके भावी कषायसमुद्घात होते हैं / उनमें भी जिनकी लम्बी नरकायु व्यतीत हो चुको है, केवल थोड़ी-सी शेष है, उनके एक, दो या तीन कवायसमुद्धात होते हैं, किन्तु जिनकी प्रायु संख्यातवर्ष की या असंख्यातवर्ष की शेष है, या जो पुनः नरकभव में उत्पन्न होने वाले हैं. उनके क्रमश: संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी कषायसमुद्घात समझने चाहिए। एक-एक नारक के असुरकुमारपर्याय में अनन्त कषायसमुद्घात अतीत हुए हैं। जो नारक भविष्य में असुरकुमार में उत्पन्न होगा, उस नारक के असुरकुमारपर्यायसम्बन्धी भावी कषायसमुद्घात हैं और जो नहीं उत्पन्न होगा, उसके नहीं है। जिसके हैं, उसके कदाचित् संख्यात, असंख्यात या अनन्त भावी कषायसमुद्घात होते हैं। जो नारक भविष्य में जघन्य स्थिति वाला असुरकुमार होगा, उसकी अपेक्षा से संख्यात कषायसमुद्घात जानने चाहिए, क्योंकि जघन्य स्थिति में संख्यात समुद्घात ही होते हैं, इसका कारण यह है कि उसमें लोभादिकषाय का बाहुल्य पाया जाता है। असंख्यात कषायसमुद्घात उस असुर कुमार की अपेक्षा से कहे हैं, जो एक बार दीर्घकालिकरूप में अथवा कई बार जघन्य स्थिति के रूप में उत्पन्न होगा। जो नारक भविष्य में अनन्तबार असुरकुमारपर्याय में उत्पन्न होगा, उसकी अपेक्षा से अनन्त कषायसमदघात समझना चाहिए। जैसे नारक के असुर कुमारपने में भावी कषायसमुद्घात कहे हैं, वैसे ही नागकुमार से स्तनितकुमारपर्याय तक में अनन्त अतीत कषायसमुद्धात कहने चाहिए। भावी जिसके हो, उसके जघन्य संख्यात, उत्कृष्ट असंख्यात या अनन्त समझने चाहिए। नारक के पृथ्वीकायिकपर्याय में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं तथा भावी कषायसमुद्घात किसी के हैं, किसी के नहीं है / पूर्ववत् एक से लगाकर हैं। अर्थात् जघन्य एक, दो या तीन हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त हैं / जो नारक नरक से निकल कर पृथ्वीकायिक होगा, उसके इस प्रकार से भावी कषाय समुद्घात होंगे। यथा -जो पचेन्द्रियतिर्यञ्चभव से, मनुष्यभव से अथवा देवभव से कषायसमुद्घात को प्राप्त होकर एक ही बार पृथ्वीकायिक भव में गमन करेगा, उसका एक, दो बार गमन करने वाले के दो, तीन बार गमन करने वाले के तीन, संख्यात बार जाने वाले के संख्यात, असंख्यात बार गमन करने वाले के असंख्यात और अनन्त बार गमन करने वाले के अनन्त भावी कपायसमुद्घात समझने चाहिए / जो नारक नरकभव से निकल कर पुनः कभी पृथ्वीकायिक का भव ग्रहण नहीं करेगा, उसके भावी कषायसमुद्घात नहीं होते। जैसे नारक के पृथ्वीकायिकरूप में कषायसमुद्घात कहे, उसी प्रकार नारक के अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य के रूप में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त होते हैं। भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / Page #1445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 [प्रज्ञापनासूत्र युक्ति पूर्ववत् है। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात या अनन्त होते हैं। नारक के असुरकुमारपर्याय में जैसे अतीत-अनागत कषायसमुद्घातों का प्रतिपादन किया है, वैसे ही यहाँ (वाणव्यन्तर अवस्था में) कहना चाहिए। नारक के ज्योतिष्क और वैमानिक पर्याय में अतीत कषायसमद्घात अनन्त हैं और भावो कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं। यहाँ तक नारक जीव के चौबीस दण्डकों के रूप में अतीत और अनागत काल की अपेक्षा से कषायसमदघात का निरूपण किया गया। असुरकूमार के नारकपने में सकल अतीतकाल की अपेक्षा अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं,भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिस असुरकुमार को नारकरूप में भावी कषायसमुद्घात हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचितप्रसंख्यात और कदाचित् अनन्त हैं / असुरकुमार के असुरकुमाररूप में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं / वर्तमान में जो जीव असुरकुमारपर्याय में है, वह भूतकाल में असुरकुमारपर्याय में अनन्तबार कषायसमुद्घात कर चुका है / भावी कषायसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त कहने चाहिए। इसी प्रकार नागकुमारपर्याय में यावत् लगातार वैमानिकपर्याय में जैसे नारक के कषायसमुद्घात कहे हैं, वैसे ही असुरकुमार के भी कहने चाहिए / असुरकुमार के अतीत और भावो कषायसमुद्धात के समान नागकुमार से लेकर स्तनितकमार तक के भी नारकपने से लेकर वैमानिकपने तक चौवीस दण्डकों में अतीत और समंदघात जानने चाहिए। विशेष यह है कि इन सबके स्वस्थानों में भावी कषायसमदघात जघन्य एक, दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त कहने चाहिए। उदाहरणार्थ-असुरकुमारों का असुरकुमारपर्याय और नागकुमारों का नागकुमारपर्याय स्वस्थान है / शेष तेईस दण्डक परस्थान हैं। पृथ्वीकायिक के असुरकुमारपर्याय में यावत् स्तनितकुमारपर्याय में सकल अतीतकाल की अपेक्षा से अतीत कषायसमदघात अनन्त हैं। भावी कषायसमदघात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं। पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिकपर्याय में यावत् अप्कायिकत्व, तेजस्कायिकत्व, वायुकायिकत्व, वनस्पतिकायिकत्व से मनुष्यपर्याय तक में अतीत कषायसमुद्धात अनन्त हैं। भावी कषायसमुद्धात किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त हैं। पृथ्वीकायिक के वाणव्यन्तरपन में अतीत और अनागत कषायसमुद्घात उतने ही समझने चाहिए, जितने नारकपन में कहे हैं। ज्योतिष्क और वैमानिक पर्याय में प्रतीत कषायसमुद्धात अनन्त होते है तथा भावी किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिस पृथ्वीकायिक के होते हैं, उसके जघन्य असंख्यात और उत्कृष्ट अनन्त होते हैं / पृथ्वीकायिक की तरह यावत् अप्कायिक के नारकपन में, भवनपतिपन में, एकेन्द्रियपन में, विकलेन्द्रियपन में, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपन में और मनुष्यपन में भी जान लेना चाहिए। वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की कषायसमघातसम्बन्धी वक्तव्यता असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए। विशेषता यही है कि स्वस्थान में सर्वत्र एक से लेकर कहना चाहिए। Page #1446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [251 अर्थात् किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं / इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से लेकर वैमानिकपर्यन्त के नारकपन से लेकर यावत वैमानिकपन तक में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं और भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त है / इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौवीसों दण्डक चौवीसों दण्डकों में घटाये जाते हैं / अतः सब मिलकर 1056 दण्डक होते हैं।' मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से समझने चाहिए। चौवीस दण्डकों के वाच्य नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के नारकपन आदि स्वस्थानों में और असुरकुमारपन आदि परस्थानों में अतीत मारणान्तिकसमुद्घात अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि नारक के स्वस्थान नारकपर्याय और परस्थान असुरकुमारादि पर्याय में अर्थात् वैमानिक तक के सभी स्थानों में अतीत मारणान्तिक समुद्घात अनन्त होते हैं। भावी मारणान्तिकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं / जैसे नारक के नारकत्व आदि चौवीस स्व-परस्थानों में अतीत और अनागत मारणान्तिक समुद्धात का कथन किया है, उसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से स्व-परस्थानों में, अतीत-अनागत-कालिक मारणान्तिकसमुद्घात का प्ररूपण कर लेना चाहिए / इस प्रकार कुल मिलाकर ये 1056 पालापक होते हैं / वैक्रियसमुद्घात का कथन पूर्ण रूप से कषायसमुद्घात के समान ही समझना चाहिए। इसमें विशेष बात यह है कि जिस जीव में वैक्रियलब्धि न होने से वैक्रियसमुद्घात नहीं होता उसको वैक्रियसमुद्धात नहीं कहना चाहिए / जिन जीवों में वह सम्भव है, उन्हीं में कहना चाहिए। इस प्रकार वायुकायिकों के सिवाय पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रियसमुद्घात नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें वैक्रियलब्धि नहीं होती। अतएव इनके अतिरिक्त नारकों, भवनपतियों, वायुकायिकों, पंचेन्द्रियतिर्यचों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में वैक्रियसमुद्घात कहना चाहिए। इसी दृष्टि से यहां कहा गया है-एस्थ वि चउबीसं चउवोसा दंडगा भाणियव्वा / वैक्रिय समुद्धात में भी चौवीसों दण्डकों की चौवीसों दण्डकों में प्ररूपणा करनी चाहिए / इस प्रकार कुल मिला कर 1056 पालापक होते हैं। - -- - -- 1. (क) अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 441 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5 2. (क) वही, भा. 5 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा, कोष, भा. 7. पृ. 442 3. (क) वही, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 443 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. Page #1447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] [प्रज्ञापनासूत्र तेजससमुद्घात की प्ररूपणा मारणान्तिकसमुद्घात के सदृश जानना चाहिए / किन्तु इसमें भी विशेषता यह है कि जिस जीव में तैजससमुद्घात हो, उसी का कथन करना चाहिए। जिसमें तैजससमुद्घात सम्भव ही न हो, उसका कथन नहीं करना चाहिए / नारकों, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों एवं विकलेन्द्रियों में तैजससमुद्धात का सम्भव ही नहीं है, अतएव उनमें कथन नहीं करना चाहिए / पूर्वोक्त प्रकार से किसी दण्डक में विधि रूप से किसी में निषेधरूप से पालापक कहने से कुल 1056 आलापक होते हैं। ये पालापक चौवीस दण्डकों के क्रम से चौवीसों दण्डकों के कथन के हैं। पाहारकसमुद्घात-नारक के नारकपर्याय में प्राहारकसमुद्घात का सम्भव न होने से अतीत आहारकसमुद्घात नहीं होता। इसी प्रकार भावी आहारकसमुद्घात भी नहीं होता, क्योंकि नारकपर्याय में जीव को आहारकलब्धि नहीं हो सकती और उसके अभाव में आहारकसमुद्घात भी नहीं हो सकता। इसी प्रकार असुरकुमारादि भवनपतिपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में तथा वाणव्यन्तर ज्योतिष्क वैमानिक पर्याय में भी भावी आहारकसमुद्धात नहीं होते, क्योंकि इन सब पर्यायों में प्राहारकसमुद्धात का निषेध है। विशेष यह है कि जब कोई नारक पूर्वकाल में मनुष्यपर्याय में रहा, उस पर्याय की अपेक्षा किसी के आहारकस मुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक या दो और उत्कृष्ट तीन होते हैं। किसी नारक के मनुष्यपर्याय में भावी श्राहारकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार होते हैं। जिस प्रकार नारक के मनुष्यपर्याय में आहार कस मुद्धात कहे हैं, उसी प्रकार असुरकुमार आदि सभी जीवों के अतीत एवं भावी मनुष्यपर्याय में भी कहना / किन्तु मनुष्यपर्याय में किसी मनुष्य के अतीत आहारकसमुद्घात होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन आहारकसमुद्घात होते हैं। अतीत आहारसमुद्घात को तरह भावी आहारकस मुद्धात भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार पाहारकसमुद्घात होते हैं / इस प्रकार इन 24 दण्डकों में से प्रत्येक को चौबीस दण्डकों में क्रमशः घटित करके कहना। ये सब मिलकर 1056 अालापक होते हैं / यह ध्यान रहे कि मनुष्य के सिवाय किसी में भी आहारकसमुद्धात नहीं होता।' केवलिसमुद्घात-नारक के नारकपर्याय में अतीत अथवा अनागत केवलिसमुद्घात नहीं होता, क्योंकि नारक केव लिसमुद्घात कर ही नहीं सकता। इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय में वैमानिक के अतीत और अनागत केबलिसमुद्घात का अभाव है, क्योकि इनमें केवलिसमुद्घात का होना कदापि सम्भव नहीं है। हाँ, नारक आदि के मनुष्यपर्याय में केवलिसमुद्घात होता है, किन्तु उसमें भी अतीत केवलिसमधात नहीं होता। भावी केवलिसमधात किसी नारक के मनुष्यपर्याय में होता है, किसी के नहीं। जिसके होता है, उसके एक ही होता है। मनुष्य के मनुष्यपर्याय में अतीत और भावी के वलिसमुद्धात किसी के होता है, किसी के नहीं। जिसके होता है, एक ही होता है। इस प्रकार मनुष्यपर्याय के सिवाय सभी स्व-पर-स्थानों में केवलिसमुद्धात का अभाव कहना चाहिए / इस 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 443 Page #1448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] प्रकार केवलिसमुद्घात सम्बन्धी चौवीस दण्डकों में से प्रत्येक में चौवोस दण्डक घटित किए गए हैं / ये सब विधिनिषेध के कुल आलापक 1056 हैं / ' चौवीस दण्डकों को चौवीस दण्डक-पर्यायों में बहुत्व की अपेक्षा से अतीतादि समुद्घात-प्ररूपणा 2121. [1] रइयाणं भंते ! रइयत्ते केवतिया वेदणासमुग्घाया प्रतीया? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता / एवं जाव वेमाणियत्ते। [2121-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत-से) नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने वेदनासमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2121-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं / [प्र] भगवन् ! (नारकों के) भावी (वेदनासमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! अनन्त होते हैं। इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय तक में (भी अतीत और अनागत अनन्त होते हैं / ) [2] एवं सव्वजीवाणं भाणियध्वं जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। [2121-2] इसी प्रकार सर्व जीवों के (अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात) यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय तक में (कहने चाहिए / ) 2122. एवं जाव तेयगसमुग्घायो / णवरं उवउज्जिऊण यन्वं जस्सऽस्थि वेउब्विय-तेयगा। [2122] इसी प्रकार यावत् तेजससमुद्घात पर्यन्त कहना चाहिए। विशेष उपयोग लगा कर समझ लेना चाहिए कि जिसके वैक्रिय और तैजससमुद्घात सम्भव हों, (उसी के कहना चाहिए।) 2123. [1] णेरइयाणं भंते ! गेरइयत्ते केवतिया आहारगसमुग्धाता अतीया ? गोयमा ! णस्थि / केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! नस्थि / [2123-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने आहारकसमुद्घात अतीत हुए हैं ? | [2123-1 उ.] गौतम ! एक भी नहीं हुआ है / [प्र.] भगवन् ! (नारकों के) भावी (आहारकसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ ] गौतम ! नहीं होते। [2] एवं जाव वेमाणियत्ते / णवरं मणूसत्ते प्रतीया असंखेज्जा, पुरेक्खडा असंखेज्जा। [2123-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय में (अतीत अनागत प्राहारकसमुद्घात का कथन करना चाहिए / ) विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में असंख्यात अतीत और असंख्यात भावी (आहारकसमुद्घात होते हैं / ) 1. अ. रा. कोष. भाग 7, पृ. 443 Page #1449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254] [प्रज्ञापनासूत्र [3] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं वणस्सइकाइयाणं मणसत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा अणंता। मणूसाणं मणूसत्ते अतीया सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, एवं पुरेक्खडा वि / सेसा सब्बे जहा गेरइया। |2123-3] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए।) विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अनन्त अतीत और अनन्त भावो (पाहारकसमुद्घात) होते हैं। मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात अतीत (प्रा. समु.) होते हैं / इसी प्रकार भावी (ग्रा. समुद्घात भी समझने चाहिए।) शेष सब नारकों के (कथन के) समान (समझना चाहिए।) [4] एवं एते चउध्वीसं चउव्वीसा दंडगा। [2123-4] इस प्रकार इन चौबीसों के चौबीस दण्डक होते हैं। 2124. [1] जेरइयाणं भंते ! णेरइयत्ते केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! णस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [2124-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने केवलिसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2124-1 उ.] गौतम ! नहीं हुए। (प्र. भगवन् ! कितने भावी (केवलिसमुद्घात) होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी नहीं होते। [2] एवं जाव वेमाणियत्ते / णवरं मसत्ते अतीता णत्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा / [2124-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहना चाहिए / विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होते, किन्तु भावी असंख्यात होते हैं। [3] एवं जाव वेमाणिया। गवरं वणप्फइकाइयाणं मणूसत्ते अतीया णस्थि, पुरेक्खडा अणंता। मणसाणं मणसत्ते अतीया सिय अस्थि सिय णस्थि / जदि अस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सतयुहत्तं / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा। [2124-3 / इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (समझना चाहिए।) विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होते। भावी अनन्त होते हैं / मनुष्यों के भनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्धात) कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते / जिसके होता है, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते हैं / Page #1450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [255 . [प्र.] भगवन् ! (मनुष्यों के) भावी (केवलिसमुद्घात) कितने होते हैं ? उ.] गौतम ! वे कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात होते हैं। _ [4] एवं एते चउन्बोसं चउव्वीसा दंडगा सम्वे पुच्छाए भाणियव्वा जाध वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। [2124-4] इस प्रकार इन चौवीस दण्डकों में चौवीस दण्डक घटित करके पृच्छा के अनुसार यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय में, यहाँ तक कहने चाहिए / विवेचन--बहुत्व की अपेक्षा से अतोत-अनागत वेदनादिसमुद्घात निरूपण--इससे पूर्व एकएक नैरयिक प्रादि के नैरथिकादिपर्याय में अतीत-अनागत वेदनादि समुद्घातों का निरूपण किया गया था। अब बहुत्व की अपेक्षा से नारकादि के उस-उस पर्याय में रहते हुए अतीत-अनागत वेदनादि समुद्घातों का निरूपण किया गया है। (1) वेदनादि पांच समदघात-नारकों के नारकपर्याय में रहते हए अतीत वेदनासमृदयात अनन्त हुए हैं, क्योंकि अनेक नारकों को अव्यवहारराशि से निकले अनन्तकाल व्यतीत हो चुका है। इसी प्रकार उनके भावी वेदनासमुद्घात भी अनन्त हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में जो नारक हैं, उनमें से बहुत-से नारक अनन्तबार पुनः नरक में उत्पन्न होंगे। नारकों के नारकपर्याय में वेदनासमुद्घात कहे हैं, वैसे ही असुरकुमारादि भवनपतिपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याय में, मनुष्यपर्याय में, वाणव्यन्तरपर्याय में, ज्योतिष्कपर्याय में और वैमानिकपर्याय में, अर्थात् इन सभी पर्यायों में रहते हुए नारकों के अतीत और अनागत वेदनासमुद्घात अनन्त हैं। नारकों के समान नारकपर्याय से वैमानिकपर्याय तक में रहे हुए असुरकुमारादि भवनपतियों से लेकर वैमानिकों तक के अतीत-अनागत वेदनासमुद्घात का कथन करना चाहिए। अर्थात् नारकों के समान ही वैमानिकों तक सभी जीवों के स्वस्थान और पर स्थान में (चौवीस दण्डकों में) अतीत और अनागत वेदनासमुद्धात कहने चाहिए / इस प्रकार बहुवचन सम्बन्धी वेदनासमुद्घात के आलापक भी कुल मिलाकर 1056 होते हैं। वेदनासमुद्घात के समान अतीत और अनागत कषाय, मारणान्तिक, वैक्रिय और तेजससमुद्घात भी नारकों से लेकर वैमानिकों तक तथा नारकपर्याय से लेकर वैमानिकपर्याय तक चौवीस दण्डकों में कहना चाहिए। इस प्रकार कषायसमुद्धात आदि के भी प्रत्येक के 1056 पालापक होते हैं। विशेष सूचना-उपयोग लगाकर अर्थात् ध्यान रखकर जो समुद्घात जिसमें (जहाँ) सम्भव है, उसमें (वहाँ) वे ही प्रतीत अनागत समुद्घात कहने चाहिए / इसका अर्थ यह हुआ कि जहाँ जिसमें जो समुद्घात सम्भव न हों, वहाँ उसमें वे समुद्वात नहीं कहने चाहिए / इसी का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-उवउज्जिऊण यन्वं, जस्सऽस्थि वेउन्विय-तेयगा- अर्थात् जिन नारकादि में वैक्रिय और तैजस समुद्घात सम्भव हैं, उन्हीं में उनका कथन करना चाहिए। उनके अतिरिक्त पृथ्वीकायिकादि में नहीं कहना चाहिए, क्योंकि उनमें वे सम्भव नहीं हैं / अतीत और अनागत Page #1451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र कषायसमुद्घात एवं मारणान्तिकसमुद्घात का कथन वेदनासमुद्घात की तरह सर्वत्र समानरूप से कहना चाहिए।' आहारकसमुद्घात--नारकों के नारक-अवस्था में अतीत और अनागत आहारकसमुद्धात नहीं होते। इसका कारण यह है कि आहारकसमुद्घात आहारकशरीर से ही होता है और आहारकशरीर आहारकलब्धि को विद्यमानता में ही होता है। आहारकलब्धि चतुर्दशपूर्वधर मुनियों को ही प्राप्त होती है, चौदह पूर्वो का ज्ञान मनुष्यपर्याय में ही हो सकता है, अन्य पर्याय में नहीं / इस कारण मनुष्येतर पर्यायों में सर्वत्र प्रतीत अनागत आहारकसमुद्घात का अभाव है। जैसे नारकों के नारक पर्याय में आहारकसमुद्घात सम्भव नहीं है. उसी प्रकार नारकों के असुरकुमारादि भवनपतिपर्याय में, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रियपर्याय में, विकलेन्द्रियपर्याय में, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियपर्याय में, वाणव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकपर्याय में भी नारकों के अतीत और भावी आहारकसमुद्घात भी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार नहीं हैं। विशेष-(नारकों के) मनुष्यपर्याय में अतीत और अनागत आहारकसमुद्धात असंख्यात हैं, क्योंकि पृच्छा के समय जो नारक विद्यमान हैं, उनमें से असंख्यात नारक ऐसे हैं, जिन्होंने पूर्वकाल में कभी न कभी मनुष्यपर्याय प्राप्त की थी, जो चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे और जिन्होंने एक बार या दो-तीन बार ग्राहारकसमदघात भी किया था। इस कारण नारकों के मनुष्यावस्था में असंख्यात अतीत आहारकसमुद्घात कहे गए हैं। इसी प्रकार पृच्छा के समय विद्यमान नारकों में से असंख्यात ऐसे हैं, जो नरक से निकल कर अनन्तरभव में या परम्परा से मनुष्यभव प्राप्त करके चौदह पूर्वो के धारक होंगे और अाहारकलब्धि प्राप्त करके आहारकसमुद्घात करेंगे। इसी कारण नारकों के मनुष्यपर्याय में भावी समुद्घात असंख्यात कहे गए हैं / नारकों के समान असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक चौबीसों दण्डकों के क्रम से स्व-परस्थानों में आहारकसमुद्घातों का (मनुष्यपर्याय को छोड़कर) निषेध करना चाहिए। विशेषता यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अतीत और अनागत आहारकसमुद्घात अनन्त कहना चाहिए, क्योंकि अनन्त जीव ऐसे हैं, जिन्होंने मनुष्यभव में चौदह पूर्वो का अध्ययन किया था और यथासम्भव एक, दो या तीन बार अाहारकसमुद्घात भी किया था, किन्तु अब वे वनस्पतिकायिक अवस्था में हैं / अनन्त जीव ऐसे भी हैं, जो वनस्पतिकाय से निकल कर मनुष्यभव धारण करके भविष्य में आहारकसमुद्घात करेंगे। मनुष्यों के मनुष्यावस्था में पृच्छा-समय से पूर्व अतीत समुद्घात कदाचित् संख्यात हैं और कदाचित् असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में रहते हुए भावी आहारकसमुद्घात कदाचित् संख्यात और कदाचित असंख्यात होते हैं, क्योंकि वे पृच्छा के समय उत्कृष्ट रूप से भी सबसे कम श्रेणी के असंख्यातवें भाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि के बराबर हैं। इस कारण प्रश्न के समय कदाचित् असंख्यात समझना चाहिए तथा प्रत्येक ने यथासम्भव एक, दो या तीन बार अाहारकसमुद्घात किया है, या करेंगे, इस दृष्टि से कदाचित संख्यात भी हैं। मनुष्यों के अतिरिक्त शेष सब असुरकुमारों ग्रादि का कथन नारकों के समान समझना चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 992-993 (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष भा. 7, पृ. 444 Page #1452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपव] [257 इस प्रकार यहाँ चौवीसों दण्डकों में से प्रत्येक को चौवीस ही दण्डकों पर घटित करना चाहिए / सब मिल कर 1056 पालापक होते हैं।' केवलिसमुद्घात-नारकों के नारकपर्याय में अतीत और भावी केवलिसमुद्वात नहीं होता, क्योंकि केवलिसमुद्घात केवल मनुष्यावस्था में ही हो सकता है। मनुष्य के अतिरिक्त अन्य अवस्था में वह सम्भव ही नहीं है। जो जीव केवलिसमुद्घात कर चुका हो, वह संसार-परिभ्रमण नहीं करता, क्योंकि केवलिसमुद्घात के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में ही नियम से मोक्ष प्राप्त हो जाता है / अतएव नारकों के मनुष्य से भिन्न अवस्था में अतीत और अनागत केवलिसमुद्घात ही नहीं है। इसी प्रकार असुरकुमारादि से लेकर (मनुष्यपर्याय के सिवाय) वैमानिक अवस्था में भी अतीत केवलिसमुद्धात नहीं हो सकता / अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य केवलिस मुद्घात कर चुके हों, उनका नरक में नहा होता / अतः मनुष्यावस्था में भी अतीत केवलिसमदघात सम्भव नहीं है / पच्छा के समय में जो नारक विद्यमान हों, उनमें से असंख्यात ऐसे हैं, जो मोक्षगमन के योग्य हैं। इस दृष्टि से भावी केवलिसमुद्घात असंख्यात कहे गए हैं। इसी प्रकार असुर कुमार आदि भवनपतियों के पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रियों (वनस्पतियों के सिवाय), तीन विकलेन्द्रियों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों ओर वैमानिकों के भी मनुष्येतरपर्याय में अतीत अथवा अनागत केवलिसमुद्घात के अनसार नहीं हो सकते / वनस्पतिकायिकों के मनष्यावस्था में अतीत केवलिसमदघात तो नहीं होते, क्योंकि केवलिसमुदघात के पश्चात उसी भव में मुक्ति प्राप्त हो जाती है, फिर वनस्पतिकायिकों में जन्म लेना संभव नहीं है, किन्तु भावी केवलिसमुद्घात अनन्त हैं। इसका कारण यह है कि पृच्छा के समय जो वनस्पतिकायिक जीव हैं, उनमें अनन्त जीव ऐसे भी हैं, जो वनस्पतिकाय से निकल कर अनन्तरभव में या परम्परा से केवलिसमधात करके सिद्धि प्राप्त करगे। मनुष्यों के मनुष्यावस्था में अतीत केवलिसमुद्धात कदाचित होता है, कदाचित नहीं होता। जब कई मनुष्य केवलिसमुद्घात कर चुके हों और मुक्त हो चुके हों और अन्य किसी केवली ने केवलिसमुदघात न किया हो, तब केवलिसमुद्घात का अभाव समझना चाहिए। जब मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में केवलिसमुद्घात होते हैं और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व (दो सौ से नौ से तक) होते हैं / मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में रहते हुए भावी केवलिस मुद्घात कदाचित संख्यात और कदाचित असंख्यात होते हैं। पृच्छा के समय में कदाचित संख्यात मनुष्य ऐसे हो सकते हैं, जो भविष्य में मनुष्यावस्था में केवलिसमुद्घात करेंगे, कदाचित असंख्यात भी हो सकते हैं / इस प्रकार के चौवीस-चौवीस दण्डक हैं, जिनमें अतीत और अनागत केवलिस मुद्धातों का प्रतिपादन किया गया है। ये सब मिलकर 1056 आलापक होते हैं। ये पालापक नैरयिकपर्याय से लेकर वैमानिकपर्याय तक स्व-परस्थानों में कहने चाहिए। 1. (क) प्रज्ञापना. मलय वृत्ति, अभि. रा. कोष भा. 7, प. 444 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5. पृ. 995 2. (क) बही, भा. 5.1 999 से 1001 (ख) प्रज्ञापना. मलय वत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 444 Page #1453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258] [प्रज्ञापनासूत्र विविध-समुद्घात-समवहत-असमवहत जीवादि के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 2125. एतेसि णं भंते ! जीवाणं वेयणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्धाएणं वेउव्वियसमुग्घाएणं तेयगसमुग्घाएणं पाहारगसमुग्धाएणं केवलिसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुमा वा तुल्ला वा बिसेसाहिया वा? ___ गोयमा ! सम्वत्थोवा जीवा प्राहारगसमुग्धाएणं समोहया, केवलिसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, तेयगसमुग्धाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, देउब्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया अणंतगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया असंखेज्जगुणा। [2125 प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से, तैजससमुद्घात से, आहारकस मुद्घात से और केवलिसमुद्धात से समवहत एवं असमबहत (अर्थात जो किसो भी समुद्घात से युक्त नहीं है-सर्वसमुद्घात से रहित) जीवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [2125 उ.] गौतम ! सबसे कम पाहारकसमुद्घात से समवहत जीव हैं, (उनसे) केवलिसमुद्धात से समवहत जीव संख्यातगुणा हैं, (उनसे) तैजससमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीव अनन्तगणा हैं, (उनसे) कषायसमदघात से समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) वेदनासमदघात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं और (इन सबसे) असमवहत जीव असंख्यातगुणा हैं। 2126. एतेसि णं भंते ! रइयाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया या तुल्ला वा विसेसाहिया वा? __ गोयमा ! सव्वत्थोवा गैरइया मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया, वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा। [2126 प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से एवं वैक्रियस मुद्घात से समवहत और असमवहत नैरयिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं? 2126 उ.] गौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नैरयिक हैं, (उनसे) वैक्रियसमुद्घात से समवहत नैरयिक असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) कपायसमुद्घात से समवहत नैरयिक संख्यातगुणा हैं, (उनसे) वेदनासमुद्घात से समवहत नारक संख्यातगुणा हैं और (इन सबसे) असमवहत नारक संख्यातगुणा हैं। 2127. [1] एतेसि णं भंते ! असुरकुमाराणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउब्वियसमुग्धाएणं तेयगसमुग्धाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? Page #1454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [259 गोयमा ! सम्वत्थोवा असुरकुमारा तेयगसमुग्घाएणं समोहया, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेयणासमुग्धाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, कसायसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, वेउन्धियसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया असंखेज्जगुणा / [2127-1 प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्घात से तथा तेजससमुद्घात से समवहत एवं असमवहत असुरकुमारों में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [2127-1 उ.] गौतम ! सबसे कम तेजससमुद्घात से समवहत असुरकुमार हैं, (उनसे) मारणान्तिकसमुद्धात से समवहत असुरकुमार असंख्यातगुणा हैं, (उनसे) वेदनासमुद्घात से समवहत असुरकुमार असंख्यातगुणा हैं. (उनसे) कषायसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं, (उनसे) वैक्रियसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं और (इन सबसे) असंख्यातगुणा अधिक हैंअसमवहत असुरकुमार / [2] एवं जाव थणियकुमारा। [2127-2] इसी प्रकार (का कथन नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक जानना चाहिए। 2128. [1] एतेसि णं भंते ! पुढविक्काइयाणं वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कयरे० ? गोयमा ! सम्वत्थोवा पुढविक्काइया मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया, कसायसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया असंखेज्जगुणा / [2128-1 प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से एवं मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत तथा असमवहत पृथ्वीकायिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? / [2128-1 उ.] गौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक हैं, उनसे कषायसमुद्धात से समवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और इन सबसे असमवहत पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं / [2] एवं जाव वणप्फइकाइया। णवरं सव्वत्थोवा वाउक्काइया वेउम्बियसमुग्घाएणं समोहया, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेन्जगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेदणासमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया असंखेज्जगुणा। [2128-2] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक तक(पृथ्वीकायिकवत् समझना चाहिए।) विशेष यह है कि वायुकायिक जीवों में सबसे कम वैक्रियसमुद्घात से समवहत वायुकायिक हैं, उनसे मारणान्तिक समुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं, उनसे कषाय Page #1455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260J মানন समुद्धात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा हैं और उनसे वेदनासमुद्धात से समवहत वायुकायिक विशेषाधिक हैं तथा (इन सबसे) असंख्यातगुणा अधिक है असमवहत वायुकायिक जीव / 2126. [1] बेइंदियाणं भंते ! वेयणासमुग्घाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? / गोयमा ! सव्यत्योवा बेइंदिया मारणंतियसमुग्धाएणं समोहया, वेदणासमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, कसायसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा। [2126-1 प्र.] भगवन् ! इन वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से तथा मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत द्वीन्द्रिय जीवों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [2126-1 उ.] गौतम ! सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय जीव हैं। उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय असंख्यातगुणा हैं, उनसे कषायसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय संख्यात गुणा और इन सबसे असमवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणा अधिक हैं। [2] एवं जाव चरिदिया। [2126-2] इसी प्रकार (त्रीन्द्रिय और) यावत् चतुरिन्द्रिय तक (का अल्पबहुत्व जानना चाहिए।) 2130. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं कसायसमुग्धाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउब्वियसमुग्घाएणं तेयासमुग्धाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्या वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोवा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया तेयासमुग्घाएणं समोहया, वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेदणासमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, कसायसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा। [2130 प्र. भगवन् ! वेदनासमुद्धात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्धात से तथा तेजससमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? [2130 उ.) गौतम ! सबसे कम तैजससमुद्धात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हैं, उनसे वैक्रियसमुद्धात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यच असंख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमदघात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं तथा उनसे कषायसमुद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणा हैं और इन सबसे संख्यातगुणा अधिक है---असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च / / 2131. मणुस्साणं भंते ! वेदणासमुग्धाएणं कसायसमुग्घाएणं मारणंतियसमुग्घाएणं वेउब्वियसमुग्घाएणं तेयगसमुग्घाएणं आहारगसमुग्धाएणं केवलिसमुग्धाएणं समोहयाणं प्रसमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? Page #1456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्यातपद] (261 गोयमा ! सव्वत्थोवा मणूसा पाहारगसमुग्घाएणं समोहया, केवलिसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, तेयगसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, वेउम्वियसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, मारणंतियसमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, वेयणासमुग्घाएणं समोहया असंखेज्जगुणा, कसायसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया असंखेज्जगुणा। [2131 प्र. भगवन् ! वेदनासमुद्घात से, कषायसमुद्घात से, मारणान्तिकसमुद्घात से, वैक्रियसमुद्धात से, तैजससमुद्घात से, पाहारकसमुद्घात से तथा केवलिसमुद्घात से समवहत एवं असमवहत मनुष्यों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? / [2131 उ.] गौतम ! सबसे कम आहारकसमुद्घात से समवहत मनुष्य हैं। उनसे केवलिसमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं, उनसे तैजससमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं, उनसे वैक्रियसमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं, उनसे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं, उनसे वेदनासमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं तथा उनसे कषायसमुद्घात से समवहत मनुष्य संख्यातगुणा हैं और इन सबसे असमवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं / 2132. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [2132] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के (समुद्धात विषयक अल्पबहुत्व की वक्तव्यता) असुरकुमारों के समान (समझनी चाहिए / ) विवेचन-समवहत जीवों की न्यूनाधिकता का कारण-ग्राहारकसमद्घात किये हुए जीव सबसे कम इसलिए हैं कि लोक में आहारकशरीरधारकों का विरहकाल छह मास का बताया गया है / अतएव वे किसी समय नहीं भी होते हैं / जब होते हैं, तब भी जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट सहस्रपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार तक) ही होते हैं। फिर ग्राहारकसमुद्घात पाहारक शरीर के प्रारम्भकाल में ही होता है, अन्य समय में नहीं, इस कारण पाहारकसमुद्घात से समवहत जीव भी थोड़े ही कहे गए हैं। आहारकस मुद्घातवालों की अपेक्षा केवलि समुद्घात से समवहत जीव संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि वे एक साथ शतपृथक्त्व की संख्या में उपलब्ध होते हैं। उनकी अपेक्षा तैजससमुद्घातयुक्त जीव असंख्यातगुणा होते हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों और चारों जाति के देवों में तैजससमुद्घात पाया जाता है। उनकी अपेक्षा वैक्रियसमुद्धात समवहत जीव असंख्यातगुणा होते हैं, क्योंकि वैक्रियसमुद्घात नारकों, वायुकायिकों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों और देवों में भी पाया जाता है। वैक्रियलब्धि से युक्त वायुकायिकजीव देवों से भी असंख्यातगुणा हैं और बादरपर्याप्त वायूकायिक स्थलचर पंचेन्द्रियों की अपेक्षा भी असंख्यातगुणा हैं, स्थलचरपंचेन्द्रिय देवों से भी असंख्यात गुणा हैं / इस कारण तेजससमुद्घात समवहत जीवों की अपेक्षा वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीव असंख्यातगुणे अधिक समझने चाहिए। Page #1457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] [प्रज्ञापनासूत्र वैक्रियसमधात से समवहत जीवों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात वाले जीव अनन्तगुणा हैं, क्योंकि निगोद के अनन्तजीवों का असंख्यातवा भाग सदा विग्रहगति की अवस्था में रहता है और वे प्रायः मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होते हैं / ___ इनसे कषायसमुद्घात समवहत जीव असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि विग्रहगति को प्राप्त अनन्त निगोदजीवों की अपेक्षा भी असंख्यात गुणा अधिक निगोदिया जीव सदैव कषायसमद्घात से युक्त उपलब्ध होते हैं। इनसे वेदनासमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि कषायसमुद्घातसमवहत उन अनन्त निगोदजीवों से वेदनासमुद्घात समवहत जीव कुछ अधिक ही होते हैं / वेदनासमुद्घात समवहत जीवों की अपेक्षा असमवहत (अर्थात् जो किसी भी समुद्घात से युक्त नहीं हों, ऐसे समुद्घात रहित) जीव असंख्यातगुणा होते हैं, क्योंकि वेदना, कषाय और मारणान्तिक समुद्घात से समवहत जीवों को अपेक्षा समुद्घातरहित अकेले निगोदजीव ही असंख्यातगुणा अधिक पाए जाते हैं।' नारकों में समुद्घातजनित अल्पबहुत्व--सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत नारक हैं, क्योंकि मारणान्तिकसमदघात मरण के समय ही होता है और मरने वाले नारकों की संख्या, जीवित नारकों की अपेक्षा अल्प ही होती है। मरने वालों में भी मारणान्तिकसमुद्धात वाले नारक अत्यल्प ही होते हैं, सब नहीं होते / अतः मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीव सबसे कम होते हैं / उनसे वैक्रियसमुद्घात से समवहत नारक असंख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि रत्नप्रभा आदि सातों नरकवियों में से प्रत्येक में बहुत-से नारक परस्पर वेदना उत्पन्न करने के लिए निरन्तर उत्तरवैक्रिय करते रहते हैं। वैक्रियसमुदघात समवहत नारकों की अपेक्षा कषायसमुदघात वाले नारक असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि वे परस्पर क्रोधादि से सदैव ग्रस्त रहते हैं। कषायसमुद्धात से समवहत नारकों को अपेक्षा वेदनासमुद्घात से समवहत मारक संख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि यथासम्भव क्षेत्रजन्य वेदना, परमाधामिकों द्वारा उत्पन्न की हुई और परस्पर उत्पन्न की हुई वेदना के कारण प्राय : बहुत-से नारक सदा वेदनासमुद्घात से समवहत रहते हैं। इनकी अपेक्षा भी असमवहत नारक संख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि बहुत-से नारक वेदनासमुद्घात के बिना भी वेदना का वेदन करते रहते हैं / इस अपेक्षा से असमवहत नारक सर्वाधिक हैं / असुरकुमारादि भवनपतियों में समुद्घात की अपेक्षा अल्पबहुत्व-सबसे कम तैजससमुद्घात वाले हैं, क्योंकि अत्यन्त तीव्र क्रोध उत्पन्न होने पर ही कदाचित् कोई असुरकुमार तैजससमुद्घात करते हैं। उनकी अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात वाले असुरकुमारादि असंख्यातगुणा अधिक हैं, क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात मरणकाल में होता है / उनको अपेक्षा वेदनासमुद्घातसमवहत असुरकुमारादि असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि पारस्परिक संग्राम आदि किसी न किसी कारण से बहुत-से असुरकुमार वेदनासमधात करते हैं। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्धात और वैक्रियसमुद्घात से समवहत असुर 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1014 से 1016 तक (ख) प्रज्ञापना मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 446 2. (क) वही, मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 446 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1017 से 1019 तक Page #1458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [263 कुमारादि क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनसे भी असमवहत असुरकुमारादि असंख्यातगुणा हैं / असुरकुमारों के समान ही नागकुमार आदि स्तनितकुमार पर्यन्त भवनपति देवों का कथन समझना चाहिए।' पृथ्वीकायिकादि चार एकेन्द्रियों का समुद्घात की अपेक्षा अल्पबहुत्व—सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत पृथ्वीकायादि (वायुकाय को छोड़कर) चार हैं, क्योंकि यह समुद्घात मरण के समय ही होता है और वह भी किसी को होता है किसी को नहीं। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक पूर्वोक्त युक्तिवश पूर्ववत् ही समझ लेना चाहिए / उनकी अपेक्षा वेदनासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और उनकी अपेक्षा असमवहत पृथ्वीकायिकादि असंख्यातगुणा अधिक हैं। वायुकायिकों में समवघात की अपेक्षा अल्पबहत्व- सबसे कम वैक्रियसमदघात से समवहत वायुकायिक हैं। क्योंकि वैक्रियलब्धि वाले वायुकायिक अत्यल्प ही होते हैं / उनसे मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत वायुकायिक असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि मारणान्तिकसमुद्घात पर्याप्त, अपर्याप्त, बादर एवं सूक्ष्म सभी वायुकायिकों में हो सकता है। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात से समवहत वायुकायिक असंख्यातगुणा होते हैं, उनसे वेदनासमुद्घात-समवहत वायुकायिक विशेषाधिक होते हैं, इन सबसे असमवहत वायुकायिक असंख्यात गुणा अधिक होते हैं, क्योंकि सकलसमुद्धातों वाले वायुकायिकों की अपेक्षा स्वभावस्थ वायुकायिक स्वभावतः असंख्यातगुणा पाये जाते हैं। . द्वीन्द्रियादि विकलेन्द्रियों में सामुद्घातिक अल्पबहुत्व- सबसे कम मारणान्तिकसमुद्घातसमवहत द्वीन्द्रिय हैं, क्योंकि पृच्छासमय में प्रतिनियत द्वीन्द्रिय ही मारणान्तिकसमद्घात-समवहत पाए जाते हैं। उनसे वेदनासमुद्घात-समवहत द्वीन्द्रिय असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सर्दी-गर्मी आदि के सम्पर्क से अत्यधिक द्वीन्द्रियों में वेदनासमुद्घात होता है। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात से समवहत द्वीन्द्रिय संख्यातगुणे हैं, क्योंकि अत्यधिक द्वीन्द्रिय में लोभादिकषाय के कारण कषायसमुद्घात होता है। इन सबसे भी असमवहत द्वीन्द्रिय पूर्वोक्तयुक्ति से संख्यातगुणा हैं / द्वीन्द्रिय के समान त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय समवहत-असमवहत का अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में सामघातिक अल्पबहत्व—सबसे कम तैजससमद्घात से समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च हैं, क्योंकि तेजोलब्धि बहुत थोड़ों में होती है। उनकी अपेक्षा वैक्रियसमुद्घात. समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि वैक्रियलब्धि अपेक्षाकृत बहुतों में होती है। उनसे मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वैक्रियलब्धि से रहित सम्मूच्छिम जलचर, स्थलचर और खेचर, प्रत्येक में पूर्वोक्त वैक्रियसमुद्घातिकों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ. रा कोष. भा. 7, पृ. 446 2. (क) वही, मलयवृत्ति प्र. रा. कोष, भा. 7, पृ. 446 (ख) प्रज्ञापना, (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 1921 से 1923 तक 3. (क) वही, भा. 5, पृ. 1923-1924 / / . (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 447 Page #1459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] [प्रज्ञापनासूत्र समवहत असंख्यात गुणे होते हैं / किन्हीं-किन्हीं वैक्रियलब्धि से रहित या सहित गभंज ति. प. में भी मारणान्तिकसमुद्घात पाया जाता है। उनकी अपेक्षा भी वेदनासमुद्घात से समवहत ति. प. असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि मरते हुए जीवों की अपेक्षा न मरते हुए ति. प. असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा भी कषाय समुद्धात-समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणा हैं और इन सबकी अपेक्षा असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पूर्वोक्तयुक्ति से संख्यातगुणे हैं।' मनुष्यों में वेदनादि-समुद्घात सम्बन्धी अल्पबहुत्व- सबसे कम आहारकसमुद्घात-समवहत मानव हैं, क्योंकि पाहारकशरीर का प्रारम्भ करने वाले मनुष्य अत्यल्प ही होते हैं / केवलिसमुद्धातसमवहत मनुष्य उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि वे शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ तक) की संख्या में पाये जाते हैं / उनको अपेक्षा तैजससमुद्घात-समवहत, वैक्रियसमुद्घात-समवहत एवं मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत मनुष्य उत्तरोत्तर क्रमश: संख्यातगुणा, संख्यातगुणा और असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त दोनों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत मनुष्य इसलिए अधिक हैं कि वह सम्मूच्छिम-मनुष्यों में भी पाया जाता है। उनसे वेदनासमुद्घात-समवहत मनुष्य असंख्यातगुण हैं, क्योंकि म्रियमाण मनुष्यों की अपेक्षा अम्रियमाण संख्यातगुणा अधिक होते हैं और वेदनासमुद्घात अम्रियमाण मनुष्यों में भी होता है। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात-समवहत मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं और इन सबसे असमवहत-(समुद्घातों से रहित) मनुष्य असंख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि अल्पकषायवाले सम्मूच्छिम मनुष्य, उत्कट कषायवालों से सदा असंख्यात गुणे होते हैं / वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में सामुद्घातिक अल्पबहुत्व की वक्तव्यता असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए। 2133. कति णं भंते ! कसायसमुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्धाया पण्णत्ता। तं जहा-- कोहसमुग्धाए 1 माणासमुग्धाए, 2 मायासमुग्घाए 3 लोभसमुग्घाए 4 / / [2133 प्र.] भगवन् ! कषायसमुद्घात कितने कहे हैं ? [2133 उ ] गौतम ! कषायसमुद्घात चार कहे हैं। यथा-(१) क्रोधसमुद्घात, (2) मानसमुद्घात, (3) मायासमुद्घात और (4) लोभसमुद्घात / 2134. [1] रइयाणं भंते ! कति कसायसमुग्धाया पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्घाया पण्णत्ता। [2134-1 प्र.) भगवन् ! नारकों के कितने कषायसमुद्घात कहे हैं ? [2134-1 उ.] गौतम ! उनमें चारों कषायसमुद्घात कहे हैं। 1. (क) अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 447 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 1925 से 1927 तक 2. (क) वही, भा. 5, पृ. 1927-1928 (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 447 Page #1460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [265 [2] एवं जाव वेमाणियाणं / [2134-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक (प्रत्येक दण्डक में चार-चार कषायसमुद्धात कहे गये हैं / ) 2135. [1] एगमेगस्स णं भंते ! हेरइयस्स केवइया कोहसमुग्धाया अतीता? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा ! कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि। जस्सऽस्थि जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता था। [2135-1 प्र.] भगवन् ! एक-एक नारक के कितने क्रोधसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? {2135-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [प्र.] भगवन् ! (उसके) भावी (क्रोधसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! (भावी क्रोधसमुद्घात) किसी के होते हैं और किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं / [2] एवं जाव वेमाणियस्स / [2135-2] इसी प्रकार (एक-एक असुरकुमार से लेकर) यावत् (एक-एक) वैमानिक तक (समझना चाहिए।) 2136. एवं जाव लोभसमुग्घाए / एते चत्तारि दंडगा। [2136] इसी प्रकार (क्रोधसमुद्धात के समान) यावत् लोभसमुद्घात तक (नारक से लेकर वैमानिक तक प्रत्येक के अतीत और अनागत का कथन करना चाहिए / ) इस प्रकार ये चार दण्डक हुए। 2137. [1] रइयाणं भंते ! केवतिया कोहसमुग्घाया प्रतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! अणंता। [2137-1 प्र.] भगवन् ! (बहुत) नैरयिकों के कितने क्रोधसमुद्घात अतीत हुए हैं ? [2137-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। [प्र. भगवन् ! उनके भावी क्रोधसमद्घात कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी अनन्त होते हैं। [2] एवं जाव वेमाणियाणं / [2137-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए / Page #1461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] [प्रज्ञापनासूत्र 2138. एवं जाव लोभसमुग्घाए / एए वि चत्तारि दंडगा। [2138] इसी प्रकार (क्रोधसमुद्घात के समान) यावत् लोभसमुद्धात तक समझना चाहिए। इस प्रकार ये चार दंडक हए। 2136. एगमेगस्स णं भंते ! गैरइयस्स गेरइयत्ते केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया? गोयमा ! अणंता, एवं जहा वेदणासमुग्धाओ भणियो (सु. 2101-4) तहा कोहसमुग्धानो वि भाणियन्वो गिरवसेसं जाव वेमाणियते। माणसमुग्धारो मायासमुग्घातो य णिरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्धामो (सु. 2116) / लोभसमुग्घामो जहा कसायसमुग्धाओ (सु. 2105-15) / णवरं सव्वजोवा असुरादी णेरइएसु लोभकसाएणं एगुत्तरिया णेयव्वा / [2136 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरपिक के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत [2136 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। जिस प्रकार (सू. 2101-4 में) वेदनासमुद्घात का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ क्रोधसमुद्घात का भी समग्र रूप से यावत् वैमानिकपर्याय तक कथन करना चाहिए। इसी प्रकार मानसमुद्धात एवं मायासमुद्गात के विषय में समग्र कथन (सू. 2116 में उक्त) मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना चाहिए / लोभसमुद्घात का कथन (सू. 2105-15 में उक्त) कषायसमुद्घात के समान करना चाहिए। विशेष यह है कि असुरकुमार आदि सभी जीवों का नारकपर्याय में लोभकषायसमुद्घात की प्ररूपणा एक से लेकर करनी चाहिए / 2140. [1] णेरइयाणं भंते ! णे रइयत्ते केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा! अणंता। [2140-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत [2140-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं / [प्र.] भगवन् ! भावी (क्रोधसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनन्त होते हैं / [2] एवं जाव धेमाणियत्ते। [2140-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय तक कहना चाहिए। 2141. एवं सट्ठाण-परट्ठाणेसु सम्वत्थ वि भाणियन्वा सव्वजीवाणं चत्तारि समुग्धाया जाव लोभसमुग्घातो जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। [2141] इसी प्रकार स्वस्थान-परस्थानों में सर्वत्र (क्रोधसमुद्घात से लेकर) यावत् लोभसमुद्घात तक यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय में रहते हुए सभी जीवों के चारों समुद्घात कहने चाहिए। Page #1462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवा समुद्घातपद) [267 - 2142. एतेसि गं भंते ! जीवाणं कोहसमुग्घाएणं माणसमुग्घाएणं मायासमुग्धाएणं लोभसमुग्धारण य समोहयाणं अकसायसमुग्घाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा अकसायसमुग्घाएणं समोहया, माणसमुग्धाएणं समोहया अणंतगुणा, कोहसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, मायासमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, लोभसमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया संखेज्जगुणा / [2142 प्र.] भगवन् ! क्रोधसमुद्घात से, मानसमुद्घात से, मायासमुद्धात और लोभसमुद्घात से तथा प्रकवायसमुद्घात (अर्थात्-कषायसमुद्घात से भिन्न छह समुद्घातों में से किसी भी समुद्घात) से समवहत और असमवहत जीवों से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य, अथवा विशेषाधिक हैं ? [2142 उ ] गौतम ! सबसे कम अकषायसमुद्घात से समवहत जीव हैं, ( उनसे) मानकषाय से समवहत जीव अनन्तगुण हैं, (उनसे) क्रोधसमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं, (उनसे) मायासमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं, (उनसे) लोभसमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं और (इन सबसे) असमवहत जीव संख्यातगुणा हैं। 2143. एतेसि णं भंते ! रइयाणं कोहसमुग्धाएणं माणसमुग्धाएणं मायासमुग्धारणं लोभसमुग्धाएणं समोहयाणं असमोहयाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा रइया लोभसमुग्घाएणं समोहया, मायासमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, माणसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, कोहसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा। [2143 प्र.] भगवन् ! इन क्रोधसमुद्घात से, मानसमुद्घात से, मायासमुद्धात से और लोभसमुद्घात से समवहत और असमवहत नारकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ? [2143 उ.] गौतम ! सबसे कम लोभसमुद्घात से समवहत नारक हैं, उनसे संख्यातगुणा मायासमुद्घात से समवहत नारक हैं, उनसे संख्यातगुणा मानसमुद्घात से समवहत नारक है, उनसे संख्यातगुणा क्रोधसमुद्घात से समवहत नारक हैं और इन सबसे संख्यातगुणा असमवहत नारक हैं / 2144. [1] असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! सम्वत्थोवा असुरकुमारा कोहसमुग्घाएणं समोहया, माणसमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, मायासमुग्घाएणं समोहया संखेज्जगुणा, लोभसमुग्धाएणं समोहया संखेज्जगुणा, असमोहया संखेज्जगुणा। [2144-1 प्र.] भगवन् ! क्रोधादिसमवहत और असमवहत असुरकुमारों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? Page #1463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासून 2144-1 उ.] गौतम! सबसे थोड़े क्रोधसमुद्घात से समवहत असुरकुमार हैं, उनसे मानसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं, उनसे मायासमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं और उनसे लोभसमुद्घात से समवहत असुरकुमार संख्यातगुणा हैं तथा इन सबसे असमवहत असुरकुमार संख्यातगुणा है। [2] एवं सचदेवा जाव वेमाणिया। [2144-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक सर्वदेवों के क्रोधादिसमुद्घात के अल्पबहुत्व का कथन करना चाहिए। 2145. [1] पुढविक्काइयाणं पुच्छा। गोयमा ! सव्वत्थोवा पुढविक्काइया माणसमुग्धाएणं समोहया, कोहसमुग्घाएणं समोहया विसेसाहिया, मायासमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया, लोभसमुग्धाएणं समोहया विसेसाहिया, असमोहया संखेज्जगुणा। [2145-1 प्र] भगवन् ! क्रोधादिसमुद्घात से समवहत और असमवहत पृथ्वीकायिकों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [2145-1 उ.] गौतम ! सबसे कम मानसमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक हैं, उनसे क्रोधसमुद्घात से समबहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं, उनसे मायासमुद्घात से समवहत पृथ्वीकायिक विशेषाधिक हैं और उनसे लोभसमुद्घात से समवहत पृथ्वी कायिक विशेषाधिक हैं तथा इन सबसे असमवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणा हैं / [2] एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिया। [2145-2] इसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्च तक के अल्पबहुत्व के विषय में समझना चाहिए। 2146. मणुस्सा जहा जीवा (सु. 2142) / णवरं माणसमग्धाएणं समोहया असंखेज्जगुणा। [2146] मनुष्यों की (अल्पबहुत्व-सम्बन्धी वक्तव्यता सू. 2142 में उक्त) समुच्चय जीवों के समान है / विशेष यह है कि मानसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं / विवेचन-निष्कर्ष-सर्वप्रथम कषायसमुद्घात के चार प्रकार तथा नैरयिक से लेकर वैमानिक पर्यन्त चौवीस दण्डकों में चारों प्रकार के कषायों के अस्तित्व की प्ररूपणा की गई है। तदनन्तर चौवीस दण्डकों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा क्रोधादि चारों समुद्घातों के अतीत-अनागत की प्ररूपणा की गई है। नारक से लेकर वैमानिक तक प्रत्येक में अनन्त अतीत क्रोधादि समुद्घात है तथा प्रत्येक में भावी क्रोधादि समुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जो नारक आदि नारकादि भव के अन्तिम समय में वर्तमान है और जो स्वभाव से ही मन्दकषायी है, वह कषायसमुद्घात किये बिना ही मृत्यु को प्राप्त होकर नरक से निकल कर मनुष्यभव में उत्पन्न होने वाला है और कषायसमुद्घात किये बिना ही सिद्ध हो जाएगा, उसके भावी कषायसमुद्घात नहीं होता। उससे भिन्न Page #1464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुधातपद] [269 प्रकार का जो नारक है, उसके भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं। संख्यातकाल तक संसार में रहने वाले के संख्यात, असंख्यातकाल तक रहने वाले के असंख्यात और अनन्तकाल तक संसार में रहने वाले के अनन्त भावी कषायसमदघात होते हैं। बहत्व की अपेक्षा से नरायको से लेकर वैमानिको तक के अतीत और अनागत क्रोधा मदघात अनन्त हैं। अनागत अनन्त इसलिए है कि पुच्छा के समय बहत-से नारकादि ऐसे होते हैं, जो अनन्तकाल तक संसार में रहेंगे। इस प्रकार एकवचन और बहुवचन से सम्बन्धित चौवीस दण्डकों के प्रत्येक के चार-चार आलापक होते हैं। यों कुल मिला कर 244 4 =66 आलापक होते हैं। इसके पश्चात् चौवीस दण्डकों संबंधी नैरयिक आदि स्वपरपर्यायों में एकत्व और बहुत्व की अपेक्षा से अतीत अनागत क्रोधादि कषायसमुद्घात की प्ररूपणा की गई है / / विशेष--अत्यन्त तीव्र पीड़ा में निरन्तर उद्विग्न रहने वाले नारकों में प्रायः लोभसमुद्घात होता नहीं है / होते हैं तो भी वे अल्प होते हैं। इसके पश्चात् क्रोध, मान, माया और लोभसमुद्घात से समवहत और असमवहत समुच्चय जीव एवं चौवीस दण्डकवर्ती जीवों के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। अल्पबहुत्व की चर्चा और स्पष्टीकरण-(१) समुच्चयजीव--सबसे कम अकषायसमुद्घात से समवहत जीव हैं। अकषायसमुद्घात का अर्थ है-कषायसमुद्घात से भिन्न या रहित छह समुद्घातों में से किसी भी एक समुद्घात से समवहत / अकषायसमुद्घात से समवहत जीव कदाचित् कोई-कोई ही पाए जाते हैं / वे यदि उत्कृष्ट संख्या में हों तो भी कषायसमुद्घात से समवहत जीवों के अनन्तवें भाग ही होते हैं। उनकी अपेक्षा मानसमुद्घात से समवहत जीव अनन्तगुणा अधिक हैं। क्योंकि अनन्त वनस्पतिकायिक जीव पूर्वभव के संस्कारों के कारण मानसमुद्घात में वर्तमान रहते हैं। उनकी अपेक्षा क्रोधसमुद्घात से समवहत जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि मानी जीवों की अपेक्षा क्रोधी जीव विशेषाधिक होते हैं / उनसे मायासमुद्घात-समवहत जीव विशेषाधिक होते हैं / उनसे भी लोभसमुद्घात-समवहत जीव विशेषाधिक होते हैं, क्योंकि मायी जीवों की अपेक्षा लोभी जीव बहुत अधिक होते हैं। उनसे भी असमवहत जीव संख्यातगुणा हैं। क्योंकि चारों गतियों में समद्घातयुक्त जीवों की अपेक्षा समुद्घातरहित जीव संख्यातगुणा अधिक पाये जाते हैं। सिद्ध जीव एकेन्द्रियों के अनन्तवें भाग हैं, किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नहीं की गई है / (2) नारकों में कषायसमुद्घातों का अल्पबहुत्व-नारकों में लोभसमुद्घात सबसे कम है, क्योंकि नारकों को प्रिय वस्तुओं का संयोग नहीं मिलता। अतः उनमें लोभसमुद्घात होता भी है तो भी अन्य क्रोधादि समुद्घातों से बहुत ही कम होता है। उनकी अपेक्षा मायासमुद्घात, मानसमुद्घात, क्रोधसमुद्घात क्रमशः उत्तरोत्तर संख्यातगुणा अधिक हैं / असमवहत नारक इन सबसे संख्यातगुणा हैं / (3) असुरकुमारादि में कषायसमुद्घातों का अल्पबहुत्व-देवों में स्वभावतः लोभ की प्रचुरता होती है। उससे मानकषाय, क्रोधकषाय एवं मायाकषाय की उत्तरोत्तर अल्पता होती है / इसलिए असुरकुमारादि भवनपति देवों में सबसे कम क्रोध समुद्घाती, उससे उत्तरोत्तर मान, माया और लोभ से समवहत अधिक बताए हैं और सबसे अधिक संख्यातगुणे अधिक असमवहत असुरकुमार हैं। Page #1465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] [प्रज्ञापनासूत्र पृथ्वीकायिकों में अल्पबहुत्व-मान, क्रोध, माया और लोभ समुद्घात उत्तरोत्तर अधिक हैं / असमवहत पृथ्वीकायिक संख्यातगुणे अधिक हैं / पृथ्वीकायिकों के समान अन्य एकलेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रियतिर्यञ्च की भी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। मनुष्यों में कषायसमुद्घात समवहत संबंधी अल्पबहुत्व-समुच्चयजीवों के समान समझना चाहिए / परन्तु एक बात विशेष है, वह यह कि अकषायसमुद्घात से समवहत मनुष्यों की अपेक्षा मानसमुद्घात से समवहत मनुष्य असंख्यातगुणा हैं / क्योंकि मनुष्यों में मान की प्रचुरता पाई जाती चौवीस दण्डकों में छाद्मस्थिकसमुद्घात प्ररूपणा 2147. कति णं भंते ! छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णता? गोयमा ! छाउमत्थिया छ समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमग्घाए 2 मारणंतियसमुग्धाए 3 वेउब्बियसमुग्घाए 4 तेयगसमुग्घाए 5 पाहारगसमुग्धाए 6 / [2147 प्र] भगवन् ! छाद्मस्थिकसमुद्घात कितने कहे गए हैं ? [2147 उ.] गौतम ! छादमस्थिकसमद्घात छह कहे गए हैं / वे इस प्रकार हैं-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तैजससमुद्धात और (6) आहारकसमुद्घात / 2148. गैरइयाणं भंते ! कति छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णता ? गोयमा ! चत्तारि छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता। तं जहा–वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्धाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 वेउव्वियसमुग्घाए 4 / [2148 प्र. भगवन् ! नारकों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं ? [2184 उ.] गौतम ! नारकों में चार छाद्मस्थिकसमुद्धात कहे गए हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात और (4) वैक्रियसमुद्धात / 2146. असुरकुमाराणं पुच्छा। गोयमा ! पंच छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्धाए 2 मारणंतियसमुग्धाए 3 वेउब्वियसमुग्घाए 4 तेयगसमुग्घाए 5 / [2146 प्र.] असुरकुमारों में छाद्मस्थिकसमुद्धातों की पूर्ववत् पृच्छा ? [2146 उ.] गौतम ! असुरकुमारों में पांच छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात और (5) तैजससमुद्धात / 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1054 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष भा. 7 प. 452 Page #1466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसर्वा समुद्घातपद] [271 2150. एगिदिय-विलिदियाणं पुच्छा। गोयमा! तिण्णि छाउमत्थिया समुग्घाया पण्णत्ता / तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्धाए 2 मारणंतियसमुग्धाए 3 / णवरं वाउक्काइयाणं चत्तारि समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहावेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 देउब्वियसमुग्घाए 4 / [2150 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं ? [2150 उ.] गौतम ! इनमें तीन समुद्घात कहे हैं / यथा--(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात / किन्तु वायुकायिक जीवों में चार छाद्मस्थिकसम द्घात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात और (4) वैक्रियसमुद्धात / 2151. पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा ! पंच समुग्घाया पणत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणतियसमुग्घाए 3 वेउध्वियसमुग्घाए 4 तेयगसमुग्घाए 5 / [2151 प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात होते हैं ? [2151 उ.] गौतम ! इनमें पांच छानस्थिकसमुद्घात कहे हैं / यथा-(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात और (5) तैजससमुद्घात / 2152. मसाणं भंते ! कति छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता? गोयमा ! छ छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता। तं जहा-वेदणासमुग्घाए 1 कसायसमुग्घाए 2 मारणंतियसमुग्घाए 3 वेउब्धियसमुग्घाए 4 तेयगसमुग्धाए 5 आहारगसमुग्घाए 6 / [2.152 प्र.] भगवन् ! मनुष्यों में कितने छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे हैं ? [2152 उ.] गौतम ! इनमें छह छाद्मस्थिकसमुद्घात कहे गए हैं / यथा---(१) वेदनासमुद्घात, (2) कषायसमुद्घात, (3) मारणान्तिकसमुद्घात, (4) वैक्रियसमुद्घात, (5) तैजससमुद्धात और (6) आहारकसमुद्घात / विवेचन-चौवीस दण्डकों में छादमस्थिकसमुद्घात-छद्मस्थ को होने वाले या छद्मस्थ (जिसे केवलज्ञान न हुआ हो) से सम्बन्धित समुद्घात छाद्मस्थिकसमुद्घात कहलाते हैं / केवलीसमुद्घात को छोड़कर शेष छहों छाद्मस्थिकसमुद्घात हैं / नारकों में तेजोलब्धि और आहारकलब्धि न होने से तैजस और आहारकसमुद्धात के सिवाय शेष 4 छाद्मस्थिकसमुद्घात पाये जाते हैं। असुरकुमारादि भवनपतियों तथा शेष तीन प्रकार के देवों में पांच-पांच छाद्मस्थिकसमुद्घात पाये जाते हैं, क्योंकि देव चौदह पूर्वो के ज्ञान तथा आहारकलब्धि से रहित होते हैं, प्रतएव उनमें आहारकसमुद्घात नहीं पाया जाता / पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में भी ये ही पांच समुद्घात पाये जाते हैं। वायु. कायिकों के सिवाय शेष 4 एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रिय, तैजस और आहारक को छोड़कर Page #1467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] [प्रज्ञापनासूत्र शेष 3 समुदधात पाये जाते हैं / वायुकायिकों में वैक्रियसमुद्घात अधिक होता है। मनुष्यों में 6 ही छानस्थिकसमुद्घात पाए जाते हैं।' वेदना एवं कषाय-समुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया को प्ररूपरणा 2153. [1] जोवे णं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहए समोह णित्ता जे पोग्गले पिच्छभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुण्णे ? केवतिए खेत्ते फुडे ? __ गोयमा ! सरोरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं णियमा छद्दिसि एवइए खेत्ते प्रफुण्णे एषइए खेत्ते फुडे / [2153-1 प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [2153-1 उ.] गौतम ! विस्तार (विष्कम्भ) और स्थूलता (बाहल्य) की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं में व्याप्त (परिपूर्ण) करता है / इतना क्षेत्र प्रापूर्ण (परिपूर्ण) और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है / [2] से णं भंते ! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे केवइकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण वा एवइकालस्स अफुण्णे एवइकालस्स फुडे। [2153-2 प्र. भगवन् ! वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और कितने काल में स्पृष्ट हुआ ? [2153-2 उ.] गौतम ! एक समय, दो समय अथवा तीन समय के विग्रह में (जितना काल होता है) इतने काल में प्रापूर्ण हया और इतने ही काल में स्पृष्ट होता है / [3] ते णं भंते ! पोग्गला केवइकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तस्स / / [2153-3 प्र.] भगवन् ! (जीव) उन पुद्गलों को कितने काल में (आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है ? [2153-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को बाहर निकालता है।) [4] ते णं भंते ! पोग्गला णिच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताई अभिहणंति वत्तेति लेसेंति संघाएंति संघटृति परियाति किलावेंति उद्दवेति तेहितो णं भंते ! से जोवे कति किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1057 से 1061 (ख) प्रज्ञाना, मलयत्ति, अभि. रा. कोष भा. 3, पृ. 1354 Page #1468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [273 - [2153.4 प्र.] भगवन् ! वे बाहर निकले हुए पुद्गल वहाँ (स्थित) जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, प्रावतपतित करते (चक्कर खिलाते) हैं, थोड़ा-सा छते हैं, संघात (एक जगह इकट्ठा) करते हैं, संघट्टित करते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, मूच्छित करते हैं और घात करते हैं, हे भगवन् ! इनसे वह जीव कितनी क्रिया वाला होता है ? [2153-4 उ.] गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है / / [5] ते णं भंते ! जीवा तायो जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया। [2153-5 प्र.] भगवन् ! वे जीव उस जीव (के निमित्त) से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [2153-5 उ.] गौतम ! वे कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। [6] से गं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसि जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [2153-6 प्र. भगवन् ! वह जीव और वे जीव, अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [2153-6 उ.] गौतम ! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पांच क्रिया वा 2154. [1] गैरइए णं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहए ? एवं जहेव जोवे (सु. 2153) / णवरं रइयाभिलावो / [2154-1 प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ नारक समबहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र (छहों) प्रश्न ? [2154-1 उ.] गौतम ! जैसा (सू. 2153/1-2-3-4-5-6 में) समुच्चय जीव के विषय में कहा था, वैसा ही यहां कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ 'जीव' के स्थान में 'नारक' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। [2] एवं जिरवसेसं जाव वेमाणिए / [2154-2] समुच्चय जीव सम्बन्धी वक्तव्यता के समान ही यावत् वैमानिक पर्यन्त (चौवीस दण्डको सम्बन्धी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए / 2155. एवं कसायसमुग्घातो वि भाणियव्वो / [2155] इसी प्रकार (वेदनासमुद्घात के समान) कषायसमुद्घात का भी (समग्र) कथन करना चाहिए। Page #1469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] [प्रशापनासूत्र में न विवेचन-वेदना एवं कषाय समुद्घात से सम्बन्धित क्षेत्र-काल-क्रियादि की प्ररूपणा–प्रस्तुत प्रकरण में वेदनासमुद्घात से सम्बन्धित 6 बातों की चर्चा की गई है—(१) शरीर से बाहर निकाले जाने वाले पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण और स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? (2) वह क्षेत्र कितने काल लों को कितने काल में जीव प्रात्मप्रदेशों से निकालता है ? (4) बाहर निकाले हुए वे पुद्गल उस क्षेत्र में रहे हुए प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघातादि करते हैं, इससे वेदनासमुद्घातकर्ता जीव को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? (5) वे जीव उस जीव के निमित्त से कितनी क्रिया वाले होते हैं तथा (6) वह जीव और वे जीव अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? ' कठिन शब्दों का भावार्थ---णिच्छभति-(शरीर से बाहर निकालता है। अफुणेआपूर्ण परिपूर्ण हुमा / फुडे---स्पृष्ट हुा / विक्खंभ-बाहल्लेणं-विस्तार और स्थूलता (मोटाई) की अपेक्षा से / अभिहणंति-अभिहनन करते हैं-सामने से आते हुए का घात करते हैं, चोट पहुँचाते हैं। वत्तेति-आवर्त-पतित करते हैं-चक्कर खिलाते हैं। लेसेंति-किंचित् स्पर्श करते हैं, संघाएंतिपरस्पर संघात (समूहरूप से इकट्ठ) कर देते हैं / संघटॅति-परस्पर मर्दन कर देते हैं / परियातिपरितप्त करते हैं / किलाति-थका देते हैं, या मूच्छित कर देते हैं / उद्दति-भयभीत कर देते या निष्प्राण कर देते हैं। छह प्रश्नों का समाधान-(१) वेदनासमुद्घात से समवहत हआ जीव जिन वेदनायोग्य पुद्गलों को अपने शरीर से बाहर निकालता है, वे पुद्गल विस्तार और स्थूलता की अपेक्षा शरीरप्रमाण होते हैं, वे नियम से छहों दिशाओं को व्याप्त करते हैं। अर्थात्-शरीर का जितना विस्तार और जितनी मोटाई होती है, उतना ही क्षेत्र उन पुद्गलों से परिपूर्ण और स्पृष्ट होता है। (2) अपने शरीर प्रमाणमात्र विस्तार और मोटाई वाला क्षेत्र सतत एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से, जितना क्षेत्र व्याप्त किया जाता है उतनी दूर तक वेदना-उत्पादक पुद्गलों से आपूर्ण और स्पृष्ट होता है / प्राशय यह है कि अधिक से अधिक तीन समय के विग्रह द्वारा जितना क्षेत्र व्याप्त किया जाता है, उतना क्षेत्र प्रात्मप्रदेशों से बाहर निकाले हुए वेदना उत्पन्न करने योग्य पुदगलों द्वारा परिपूर्ण होता है। इतने ही काल में पूर्वोक्त क्षेत्र प्रापूर्ण और स्पष्ट होता है / (3) जीव उन वेदनाजनक पुद्गलों को जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त से कुछ अधिक काल में बाहर निकालता है / अभिप्राय यह है कि जैसे तीव्रतर दाहज्वर से पीड़ित व्यक्ति सूक्ष्म पुद्गलों को शरीर से बाहर निकालता है, उसी प्रकार वेदनासमुद्घात-समवहत जीव भी जघन्य और उत्कृष्ट रूप से अन्तर्मुहूर्त काल में वेदना से पीड़ित होकर वेदना उत्पन्न करने योग्य शरीरवर्ती पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है। (4) बाहर निकाले हुए वे पुद्गल प्राण अर्थात् द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव, जैसे जलौक, चींटी, मक्खी आदि जीव, भूत अर्थात्-वनस्पतिकायिक जीव, जीव–अर्थात्-पंचेन्द्रिय प्राणी, जैसे-छिपकली, सर्प आदि तथा सत्व अर्थात्-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक प्राणी को ग्राहत प्रादि करने के कारण वेदना१. (क) पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) पृ. 439-440 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1068 से 1074 तक 2. वही, भाग. 5, पृ. 1071 Page #1470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवां समुद्घातपद] [275 समुद्घातकर्ता जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाएँ लगती हैं / आशय यह है कि जब वह किसी जीव को परिताप नहीं पहुँचाता, न ही जान से मारता है, तब तीन क्रिया वाला होता है / जब किन्हीं जीवों का परितापन करता है, या मारता है, तब भी जिन्हें आबाधा नहीं पहुँचाता, उनकी अपेक्षा से तीन क्रिया बाला होता है / जब किसी को परिताप पहुँचाता है, तब चार क्रियाओं वाला होता है और जब किन्हीं जीवों का घात करता है, तो उनकी अपेक्षा से पांच क्रियाओं वाला होता है / (5) वेदनासमुद्घात करने वाले जीव के पुद्गलों से स्पृष्ट जीव वेदनासमुद्घातकर्ता जीव की अपेक्षा से कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं / जब वे समुद्घातकर्ता जीव को कोई बाधा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते, तब तीन क्रियाओं वाले होते हैं / जब स्पष्ट होकर वे उस वेदना-समवहत जीव को परिताप पहुँचाते हैं, तब चार क्रियाओं वाले होते हैं। शरीर से स्पृष्ट होने वाले बिच्छू आदि परितापजनक होते हैं, यह प्रत्यक्षसिद्ध है। किन्तु वे स्पष्ट होने वाले जीव जब उसे प्राणों से रहित कर देते हैं, तब पांच क्रियाओं वाले होते हैं / शरीर से स्पृष्ट होने वाले सर्प आदि अपने दश द्वारा प्राणघातक होते हैं, यह भी प्रत्यक्षसिद्ध है / वे पांच क्रियाएँ ये हैं-(१) कायिकी, (2) प्राधिकरणिकी, (3) प्राषिकी, (4) पारितापनिकी और (5) प्राणातिपातिकी। (6) वेदनासमुद्धात करने वाले जीव के द्वारा मारे जाने वाले जीवों के द्वारा जो अन्य जीव मारे जाते हैं और अन्य जीवों द्वारा मारे जाने वाले वेदनासमुद्घात प्राप्त जीव के द्वारा मारे जाते हैं, उन जीवों की अपेक्षा से संक्षेप मेंवेदनासमुद्घात को प्राप्त वह जीव और वेदनासमुद्घात को प्राप्त जीव सम्बन्धी पुद्गलों से स्पृष्ट वे जीव, अन्य जीवों के परम्परागत प्राघात से, पूर्वोक्तयुक्ति के अनुसार कदाचित् तीन, कदाचित् चार एवं कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं।' वेदनासमुद्घातसम्बन्धी इन्हीं छह तथ्यों का समग्र कथन नैरयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त चौवीस दण्डकों में करना चाहिए। कषायसमुद्घातसम्बन्धी कथन भी वेदनासमुद्घात के पूर्वोक्त कथन के समान जानना चाहिए। मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा 2156. [1] जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छु भति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फडे ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसि एवइए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे / [2156-1 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग. 5, पृ. 1068 से 1076 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष. भा. 7, पृ. 453 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मू. पा. टि.) प. 44. Page #1471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासून होकर जिन पुदगलों को प्रात्मप्रदेशों से पृथक् करता (बाहर निकालता) है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (निरन्तर व्याप्त) होता है ? / [2156-1 उ] गौतम ! विस्तार और बाहल्य (मोटाई) की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई (मायाम) में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में (पापूर्ण और व्याप्त (स्पृष्ट) होता है / ) इतना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है तथा इतना क्षेत्र (व्याप्त) होता है / [2] से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुणे एवतिकालस्स फुडे / सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया। [2156-2 प्र.] भगवन् ! वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा कितने काल में स्पृष्ट होता है ? [2156-2 उ.] गौतम ! वह (उत्कृष्ट असंख्यातयोजन लम्बा क्षेत्र) एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय के विग्रह से इतने काल में (उन पुद्गलों से) अापूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् शेष वही (पूर्वोक्त पांच तथ्यों से युक्त कथन) यावत् (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और) कदाचित् पांच क्रियाएँ लगती हैं; (यहाँ तक कहना चाहिए।) 2157. एवं गैरइए वि। णवरं पायामेणं जहण्णणं सातिरेगं जोयणसहस्सं उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयगाइं एगदिसि एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे; विग्गहेणं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा, णवरं चउसमइएण ण भण्णति / सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि / [2157] समुच्चय जीव के समान नैरयिक की भी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए / विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में उक्त पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से (उस क्षेत्र का प्रापूर्ण और व्याप्त होना) कहना चाहिए, चार समय के विग्रह से नहीं कहना चाहिए। तत्पश्चात् शेष वही सब पूर्वोक्त पांच तथ्यों वाला कथन यावत् (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाएँ होती हैं यहाँ तक कहना चाहिए / 2158. [1] असुरकुमारस्स जहा जीवपए (सु. 2156) / गवरं विग्गहो तिसमइओ जहा रइयस्स (सु. 2157) / सेसं तं चेव / _ [2158-1] असुरकुमार की वक्तव्यता भी ( सू. 2156 में समुच्चय ) जीवपद के मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए / विशेष यह है कि असुरकुमार का विग्रह (सू. 2157 में उक्त) नारक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् / Page #1472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [277 [2] जहा असुरकुमारे एवं जाव वेमाणिए / णवरं एगिदिए जहा जीवे गिरवसेसं / [2158-2] जिस प्रकार असुरकुमार के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ (आगे की सब वक्तव्यता) यावत् वैमानिक देव तक (कहनी चाहिए / ) विशेष यह है कि एकेन्द्रिय का (मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी) समग्र कथन समुच्चय जीव के समान (कहना चाहिए / ) विवेचन-निष्कर्ष मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर जीव तैजसशरीर आदि के अन्तर्गत जो पुद्गल अपने प्रात्मप्रदेशों से पृथक् करता है (शरीर से निकालता है), उन पुद्गलों से शरीर का जितना विष्कम्भ (विस्तार) और बाहल्य (मोटाई) होता है उतना क्षेत्र तथा लम्बाई में जघन्य अपने शरीर से अंगुल का असंख्यातवा भाग और उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में परिपूर्ण और व्याप्त होता है / यहाँ यह समझ लेना चाहिए कि उक्त क्षेत्र एक ही दिशा में प्रापूर्ण और व्याप्त होता है, विदिशा में नहीं, क्योंकि जीव के प्रदेश स्वभावतः दिशा में ही गमन करते हैं / जघन्य और उत्कृष्ट आत्मप्रदेशों द्वारा भी इतने ही क्षेत्र का परिपूरित होना सम्भव है। उत्कृष्टत: लम्बाई में असंख्यात योजन जितना क्षेत्र विग्रहगति की अपेक्षा उत्कृष्ट चार समयों में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है / * इसके पश्चात् मारणान्तिकसमुद्घात से सम्बन्धित शेष सभी तथ्यों का कथन वेदनासमुदघातगत कथन के समान करन नारक से लेकर वैमानिक तक सभी कथन यावत् 'पांच क्रियाएँ लगती हैं'. यहाँ तक कहना चाहिए। इसमें विशेष अन्तर यह है लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और व्याप्त होता है तथा चार समयों में नहीं, किन्तु अधिक से अधिक तीन समयों में विग्रहगति की अपेक्षा वह क्षेत्र आपूर्ण और स्पृष्ट होता है / असुरकुमार से लेकर वैमानिक तक समुच्चय जीवों के समान वक्तव्यता है, किन्तु विग्रहगति की अपेक्षा अधिक से अधिक तीन समयों में यह क्षेत्र प्रापूर्ण और व्याप्त हो जाता है, यह कहना चाहिए। नारकादि का विग्रह अधिक से अधिक तीन समय का ही होता है / जैसे कोई नारक वायव्यदिशा में और भरतक्षेत्र में वर्तमान हो तथा पूर्व दिशा में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अथवा मनुष्य के रूप में उत्पन्न होने वाला हो तो वह प्रथम समय में ऊपर जाता है, दूसरे समय में वायव्यदिशा से पश्चिम दिशा में जाता है और फिर पश्चिमदिशा से पूर्व दिशा में जाता है / इस तरह तीन समय का ही विग्रह होता है, जिसे वैमानिक तक समझ लेना चाहिए।' असुरकुमारों से लेकर ईशानदेवलोक तक के देव पृथ्वीकायिक, अप्कायिक या वनस्पतिकायिक के रूप में भी उत्पन्न होते हैं। जब कोई संक्लिष्ट अध्यवसाय वाला असुरकुमार अपने ही कुण्डलादि के एकदेश में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने वाला हो और वह मारणान्तिकसमुद्घात करे तो 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1078 से 1079 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि, रा. कोष, भा. 7, पृ. 454 2. (क) वही, भा. 7, पृ 455 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1081-82 Page #1473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278] [प्रज्ञापनासूत्र लम्बाई की अपेक्षा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र को ही व्याप्त करता है। एकेन्द्रिय की सारी वक्तव्यता समुच्चय जीव के समान समझनी चाहिए।' वैक्रियसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा / ___2156. [1] जीवे गं भंते ! वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभति तेहि गं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फुडे ? / गोयमा ! सरीरप्पमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, पायाभेणं जहण्णेणं अंगुलस्स प्रसंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाई एगदिसि विदिसि वा एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुड़े। [2156-1 प्र.] भगवन् ! वैक्रियसमुद्घात से समवहत हुआ जीव, समवहत होकर (वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हए) जिन पदगलों को बाहर निकालता है (यात्म करता है), उन युद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है, कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [2159-1 उ.] गौतम ! जितना शरीर का विस्तार और बाहल्य (स्थूलत्व) है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल के असंख्यातवाँ भाग तथा उत्कृष्ट संख्यात योजन जितना क्षेत्र एक दिशा या विदिशा में प्रापूर्ण होता है और उतना ही क्षेत्र व्याप्त होता है। [2] से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विगहेण एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स फुडे / सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि। [2156-2 प्र.] भगवन् ! वह (पूर्वोक्त) क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण होता है और कितने काल में स्पृष्ट होता है ? [2156-2 उ.] गौतम ! एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से, अर्थात् इतने काल से (वह क्षेत्र) आपूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है / शेष सब कथन पूर्ववत् यावत् 'पांच क्रियाएँ लगती हैं', यहाँ तक कहना चाहिए। 2160. एवं रइए वि। णवरं पायामेणं जहणणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाई एगदिसि एवतिए खेत्ते / केवतिकालस्स० तं चेव जहा जीवपए (सु. 2156) / [2160] इसी प्रकार नै रयिकों की (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी वक्तव्यता) भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग तथा उत्कृष्ट संख्यातयोजन जितना क्षेत्र एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट होता है। यह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है , इसके उत्तर में (सू. 2156 में उक्त समुच्चय) जीवपद के समान कथन किया गया है / 2161. एवं जहा रइयस्स (सु. 2160) तहा असुरकुमारस्स / णवरं एगदिसि विदिसि वा / एवं जाव थणियकुमारस्स। [2161] जैसे नारक का वैक्रियसमुद्घातसम्बन्धी कथन किया गया है, वैसे ही असुरकुमार 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1083-84 Page #1474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [279 का समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक दिशा या विदिशा में (उतना क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / ) इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त ऐसा ही कथन समझना चाहिए / 2162. बाउक्काइयस्स जहा जीवपदे (सु. 2156) / णवरं एगदिसि / [2162] वायुकायिक का (वक्रिपसमुद्घात सम्बन्धी) कथन समुच्चय जीवपद के समान (सू 2159 के अनुसार) समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक ही दिशा में (उक्त क्षेत्र प्रापूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / ) 2163. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स गिरवसेसं जहा रइयस्स (सु. 2160) / [2163] जिस प्रकार (सू. 2160 में) नैरयिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी कथन) किया गया है, वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का समग्र कथन करना चाहिए। 2164. मणूस-याणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स णिरवसेसं जहा असुरकुमारस्स (सु.२१६१)। [2164] मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी) सम्पूर्ण कथन (सू. 2161 में उक्त) असुरकुमार के समान कहना चाहिए। विवेचन-वैक्रियसमुद्घात को क्षेत्रस्पर्शना, कालपरिणाम और क्रिया प्ररूपणा-(१) वैक्रियसमुद्धात से समवहत जीव वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हुए पुद्गलों को बाहर निकालता है (अपने से पृथक् करता है), तब उन पुद्गलों से, शरीर का जितना विस्तार तथा स्थूलत्व है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में अथवा विदिशा में प्रापूर्ण एवं व्याप्त (स्पृष्ट) होता है / / यहाँ लम्बाई में जो उत्कृष्ट संख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र का व्याप्त होना कहा गया है, वह वायुकायिकों को छोड़ कर नारक आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि नारक आदि जब वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब तथाविध प्रयत्न-विशेष से संख्यात योजन-प्रमाण प्रात्मप्रदेशों के दण्ड की रचना करते हैं, असंख्यात योजन-प्रमाण दण्ड की रचना नहीं करते / किन्तु वायुकायिक जीव वैक्रियसमुद्घात के समय जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग का ही दण्ड रचते हैं / इतने प्रमाणवाले दण्ड की रचना करते हुए नारक आदि उतने प्रदेश में तैजसशरीर आदि के पुद्गलों को प्रात्मप्रदेशों से बाहर निकालते हैं, ऐसी स्थिति में उन पुद्गलों से प्रापूर्ण और व्याप्त वह क्षेत्र लम्बाई में उत्कृष्ट रूप से संख्यात योजन ही होता है। क्षेत्र का यह प्रमाण केवल वैक्रियसमुद्घात से उत्पन्न प्रयत्न की अपेक्षा से कहा गया है।' जब वैक्रियसमुद्घात प्राप्त कोई जीव मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त होता है और फिर तीव्रतर प्रयत्ल के बल से उत्कृष्ट देश में तीन समय के विग्रह से उत्पत्तिस्थान में आता है, उस समय असंख्यात योजन लम्बा क्षेत्र समझना चाहिए / यह असंख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र को आपूर्ण करना मारणान्तिकसमुद्घात-जन्य होने से यहाँ विवक्षित नहीं है। इसी कारण वैक्रियसमुद्घात-जन्य क्षेत्र 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7 पृ. 456 Page #1475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] [प्रज्ञापनासूत्र को संख्यात योजन ही कहा गया है / इसी प्रकार नारक, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं वायुकायिक की अपेक्षा से पूर्वोक्त प्रमाणयुक्त लम्बे क्षेत्र का आपूर्ण होना नियमतः एक दिशा में ही समझना चाहिए / नारक जीव पराधीन और अल्पऋद्धिमान होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च भी अल्पऋद्धिमान होते हैं और वायुकायिक जीव विशिष्ट चेतना से विकल होते हैं। ऐसी स्थिति में जब वे वैक्रियसमुद्घात का प्रारम्भ करते हैं, तब स्वभावत: ही आत्मप्रदेशों का दण्ड निकलता है और प्रात्मप्रदेशों से पृथक होकर स्वभावतः पुद्गलों का गमन श्रेणी के अनुसार होता है, विश्रेणी में गमन नहीं होता। इस कारण नारकों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और वायुकायिकों का पूर्वोक्त अायाम क्षेत्र एक दिशा में ही समझना चाहिए, विदिशा में नहीं, किन्तु भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा मनुष्य स्वेच्छापूर्वक विहार करने वाले हैं स्वच्छन्द हैं और विशिष्टलब्धि से सम्पन्न भी होते हैं, अतः वे विशिष्ट प्रयत्न द्वारा विदिशा में भी आत्मप्रदेशों का दण्ड निकालते हैं। इसी दृष्टि से कहा गया है.---'णवरं एगदिसि विदिसि वा' अर्थात् ----असुरकुमारादि भवनपति आदि चारों निकायों के देव और मनुष्य एक दिशा में भी पूर्वोक्त क्षेत्र को प्रापूर्ण और व्याप्त करते हैं।' (2) पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र, विग्रहगति से उत्पत्तिदेश पर्यन्त एक समय, दो समय अथवा तीन समय में विग्रहगति से आपूर्ण एवं व्याप्त होता है। इस प्रकार विग्रहगति की अपेक्षा से मरणसमय से लेकर उत्पत्तिदेश पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र का प्रापूरण अधिक से अधिक तीन समय में हो जाता है, उसके चौथा समय नहीं लगता / वैक्रियसमुद्घातगत वायुकायिक भी प्रायः त्रसनाडी में उत्पन्न होता है और त्रसनाडी की विग्रहगति अधिक से अधिक तीन समय की ही होती है / इसलिए यहाँ कहा गया है, कि इतने (एक, दो या तीन) समय में पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र प्रापूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / (3-4-5-6) इसके पश्चात् क्रियासम्बन्धी चार तथ्यों का प्ररूपण वेदनासमुद्घात सम्बन्धी कथन के समान ही समझना चाहिए / तेजससमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा 2165. जीवे णं भंते ! तेयगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेते अफुण्णे० ? एवं जहेव वेउब्वियसमुग्धाए (सु. 2156-64) तहेव / णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, सेसं तं चेव / एवं जाव वेमाणियस्स, णवरं पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एगदिसि एवतिए खेत्ते अफुणे / [2165 प्र.] भगवन् ! तैजससमुद्घात से समवहत जीव समवहत हो कर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण और कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? [2165 उ. गौतम ! जैसे (सू. 2156-64 में) वैक्रियसमुद्घात के विषय में कहा है, उसी प्रकार तैजसस मुद्घात के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि तैजससमुद्घात निर्गत 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अ. रा. कोष. भा. 7, पृ. 452 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1093-1094 2. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 441 Page #1476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] {281 पुद्गलों से लम्बाई में जवन्यतः अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र प्रापूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / (तैजससमुद्घातसम्बन्धी) शेष वक्तव्यता वैक्रियसमुद्घात की वक्तव्यता के समान है। इस प्रकार यावत वैमानिक पर्यन्त वक्तव्यता समझनी चाहिए / विशेष यह है कि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एक ही दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र को प्रापूर्ण एवं व्याप्त करते हैं। विवेचन-तेजससमुद्घात-तैजससमुद्घात चारों प्रकार के देवनिकायों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों में ही होता है। इनके अतिरिक्त नारक तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय में नहीं होता। देवनिकाय आदि तीनों अतीव प्रयत्नशील होते हैं / अतः जब वे तैजससमुद्घात प्रारम्भ करते हैं, तब जघन्यतः लम्बाई में अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र प्रापूर्ण एवं व्याप्त होता है, संख्यातवाँ भाग नहीं / पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को छोड़ कर दिशा या विदिशा में आपूर्ण होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च द्वारा केवल एक दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पष्ट होता है / शेष सब कथन वैक्रियसमुद्घात के कथन के समान समझना चाहिए।' आहारकसमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया को प्ररूपणा 2166. [1] जीवे णं भंते ! पाहारगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुष्णे केवतिए खेत्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, पायामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाई एगदिसि एवइए खेत्ते / ' एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स [2166-1 प्र.] भगवन ! पाहारकसमुदघात से समवहत जीव समवहत होकर जिन (पाहारकयोग्य) पुद्गलों को (अपने शरीर से) बाहर निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? [2166-1 उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाण मात्र (क्षेत्र) तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में (उन पुद्गलों से) आपूर्ण और स्पृष्ट होता है / [2] ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तस्स / [2166-2 प्र.) भगवन् ! (आहारकसमुद्घाती जीव) उन पुद्गलों को कितने समय में बाहर निकालता है ? 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5. पृ. 1100-110 1 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति. अभि. रा. कोष भा. 7, पृ. 456 2. पूरक पाठ-'अफुणे एवइए खेत्ते फूडे / [प्र. से णं भने ! केवइकालस्स अफुणे केवइकालस्म फुडे ? [उ.] गोयमा ! ......... Page #1477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] [प्रज्ञापनासूत्र [2166-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को) बाहर निकालता है। [3] ते णं भंते ! पोग्गला णिच्छुढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणंति जाव उद्दर्वेति तो गं भंते ! जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चकिरिए सिय पंचकिरिए। ते णं भंते ! जीवा तातो जीवानो कतिकिरिया ? गोयमा ! एवं चेव / [2166-3 प्र.] भगवन् ! बाहर निकाले हुए वे पुद्गल वहाँ जिन प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, यावत् उन्हें प्राणरहित कर देते हैं, भगवन् ! उनसे (समुद्घातकर्ता) जीव को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [2166-3 उ.] (ऐसी स्थिति में) वह कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। [प्र.] भगवन् ! वे पाहारकसमुद्धात द्वारा बाहर निकाले हुए पुद्गलों से स्पृष्ट हुए जीव आहारकसमुद्घात करने वाले जीव के निमित्त से कितनी क्रियानों वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! इसी प्रकार समझना चाहिए / [4] से णं भंते ! जोवे ते य जीवा अणेसि जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि / [2166-4 प्र.] (आहारकसमुद्घातकर्ता) वह जीव तथा (आहारकसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट) वे जीव, अन्य जीवों का परम्परा से घात करने के कारण कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [2166-4 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) वे तीन क्रिया वाले, चार क्रिया वाले अथवा पांच क्रिया वाले भी होते हैं / / 2167. एवं मणसे वि। [2167] इसी प्रकार मनुष्य के आहारकसमुद्धात की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। विवेचन-आहारकसमुवघात सम्बन्धी वक्तव्यता–शरीर के विस्तार और स्थौल्य जितना क्षेत्र विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा प्रापूर्ण और स्पृष्ट होता है / लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र उन पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण स्पष्ट होता है / वे पद्गल विदिशा में क्षेत्र को आपूर्ण या व्याप्त नहीं करते / विग्रह की अपेक्षा से पूर्वोक्त क्षेत्र एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। अाहारकसमुद्घात मनुष्यों में ही हो सकता है। मनुष्यों में भी उन्हीं को होता है, जो चौदह पूर्वो का अध्ययन कर चुके हों / चौदह पूर्वो के अध्येताओं में भी उन्हीं मुनियों को होता है, जो Page #1478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसर्वा समुदघातपद] [283 आहारकलब्धि के धारक हों / अतएव चौदह पूर्वो के पाठक और आहारकलब्धि के धारक मुनिवर जब पाहारकसमुद्घात करते हैं, तब जघन्य और उत्कृष्ट रूप से पूर्वोक्त क्षेत्र को प्रात्मप्रदेशों से पृथक् किये पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण और स्पृष्ट करते हैं, विदिशा में नहीं / विदिशा में जो प्रापूर्ण स्पृष्ट होता है, उसके लिए दूसरे प्रयत्न की अावश्यकता होती है, किन्तु आहारकलब्धि के धारक तथा आहारकसमुद्घात करने वाले मुनि इतने गंभीर होते हैं कि उन्हें वैसा कोई प्रयोजन नहीं होता / अतः वे दूसरा प्रयत्न नहीं करते / इसी प्रकार आहारकसमुद्घातगत कोई जीव मृत्यु को प्राप्त होता है और विग्रहगति से उत्पन्न होता है, और वह विग्रह अधिक से अधिक तीन समय का होता है। अन्य सब आहारकसमुद्घातविषयक कथन वेदनासमुद्घात के समान जानना चाहिए।' दण्डककम से आहारकसमुद्घात की वक्तव्यता क्यों? यद्यपि आहारकसमुद्घात मनुष्यों को ही होता है, अतएव समुच्चय जीवपद में जो आहारकसमुद्घात की प्ररूपणा की गई है, उसमें मनुष्य का अन्तर्भाव हो ही जाता है, तथापि दण्डकक्रम से विशेषरूप से प्राप्त मनुष्य के प्राहारकसमुद्घात का भी उल्लेख किया गया है / इस कारण यहाँ पुनरुक्तिदोष की कल्पना नहीं करनी चाहिए।' केवलिसमुद्घात-समवहत अनगार के निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों को लोकव्यापिता 2168. अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलिसमग्याएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वलोग पि य णं ते फुसित्ता णं चिट्ठति ? __ हंता गोयमा! अणगारस्स भावियप्पणो केवलिसमग्घाएणं समोहयस्स जे चरिमा णिज्जरापोग्गला सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो! सव्वलोग पि य णं ते फुसित्ता गं चिट्ठति। [2168 प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम (अन्तिम) निर्जरा-पुद्गल हैं, हे आयुष्मन् श्रमणप्रवर ! क्या वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं ? क्या वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं ? [2168 उ.] हाँ, गौतम ! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल होते हैं, हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं। 2169. छउमत्थे णं भंते ! मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं किंचि वण्णणं वग्णं गंधणं गंध रसेणं रसं फासेण वा फासं जाणति पासति ? 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि, रा. को. भा. 7, पृ. 456 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1102-1103 2. (क) वही, भा. 5, पृ. 1107 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति., अभि. रा. को. भा. 7, पृ. 456 Page #1479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! णो इणठे समझें। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वि वणेणं वणं गंधणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? गोयमा ! प्रयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सम्वन्भंतराए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूधसंठाणसंठिए बट्टे रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एग जोयणसयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं, तिणि य जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसते तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगलाई प्रद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। देवे णं महिड्ढोए जाव महासोक्खे एगं महं सविलेवणं गंधसमुग्गयं गहाय तं प्रवदालेति, तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गयं प्रवदालेता इणामेव कटु केवलकप्पं जबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से पूर्ण गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहि घाणपोग्गलेहि फुडे ? हंता फुडे / छउमत्थे णं गोतमा! मणसे तेसि घाणपोग्गलाणं किंचि वण्णणं वण्णं गंधणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? भगवं ! जो इणठे समझें। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बच्चति छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णणं वणं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फरसेणं फासं जाणति पासति, एसुहमा णं ते पोग्गला पणत्ता समणाउसो ! सबलोगं पि य णं फुसित्ता णं चिट्ठति / [2166 प्र. भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के चक्षु-इन्द्रिय (वर्ण) से किंचित वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय (गन्ध) से गन्ध को, रसनेन्द्रिय (रस) से रस को, अथवा स्पर्शेन्द्रिय से से स्पर्श को जानता-देखता है ? [2169 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य (समर्थ) नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के चक्षुइन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को, रसनेन्द्रिय से रस को तथा स्पर्शन्द्रिय से स्पर्श को किंचित् भी नहीं जानता-देखता ? उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, वत्ताकार (गोल) है, तेल के पूए के प्रकार का है, रथ के पहिये (चक्र) के आकार-सा गोल है, कमल की कणिका के प्राकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार-सा गोल है। लम्बाई और चौड़ाई (आयाम एवं विष्कम्भ) में एक लाख योजन है। तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस प्रोजन तीन कोस. एक-सौ अट्राईस धनुष, साढे तेरह अंगल से कुछ विशेषाधिक परिधि से युक्त कहा है। एक मद्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन सहित सुगन्ध की एक बड़ी डिबिया को (हाथ में लेकर) उसे खोलता है। फिर विलेपनयुक्त सुगन्ध की खुली हुई उस बड़ी डिबिया को, इस प्रकार Page #1480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसर्वा समुद्घातपद [285 हाथ में ले करके सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप को तीन चुटकियों में इक्कीस बार घूम कर वापस शीघ्र आजाय, तो हे गौतम ! (यह बतानो कि) क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो जाता है ? [प्र.] हाँ, भंते ! स्पृष्ट (व्याप्त) हो जाता है। [उ.] हे गौतम ! क्या छद्मस्थ मनुष्य (समग्र जम्बूद्वीप में व्याप्त) उन घ्राण-पुद्गलों के वर्ग को चक्ष से. गन्ध को नासिका से. रस को रसेन्द्रिय से और स्पर्श को स्पर्शन्द्रिय से किचित जानदेख पाता है ? उ.] भगवन् ! यह अर्थ समर्थ (शक्य ) नहीं है / (भगवान्-) इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि छदमस्थ मनष्य उन निर्जरा-पदगलों के वर्ग को नेत्र से, गन्ध को नाक से. रस को जिह्वा से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित भी नहीं जान-देख पाता। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (निर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। विवेचन-केवलिसमुदघात-समवहत भावितात्मा अनगार के चरम-निर्जरा-पुद्गल-प्रस्तुत केवलिसमुद्घात प्रकरण में दो बातों को स्पष्ट किया गया है-(१) यह बात यथार्थ है कि केवलिसमुद्धात से समवहत भावितात्मा अनगार के चरम (चतुर्थ) समवर्ती निर्जरा-पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा वे समग्र लोक को व्याप्त करके रहते हैं। (2) छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को किचित भी नहीं जान-देख सकते, क्योंकि एक तो वे पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, दूसरे वे पुद्गल समग्र लोक में व्याप्त हैं, कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वे न हों और समग्र लोक तो बहुत ही बड़ा है / लोक का एक भाग जम्बूद्वीप है, जो समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, और सबसे छोटा है, क्योंकि जम्बूद्वीप से लेकर सभी द्वीप-समुद्रों का विस्तार दुगुना-दुगुना है। अर्थात् जम्बूद्वीप से आगे के लवणसमुद्र और धातकीखण्ड आदि द्वीप, अपने से पहले वाले द्वीप समुद्रों से लम्बाईचौड़ाई में दुगुने और परिधि में भी बहुत बड़े हैं / तेल में पकाये हुए पूए के समान या रथ के चक्र के समान अथवा कमलकणिका के समान आकार का या पूर्ण चन्द्रमा के समान गोल जम्बूद्वीप भी लम्बाई-चौड़ाई में एक लाख योजन का है / तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा 133 अंगुल से कुछ अधिक की उसकी परिधि है। कोई महद्धिक एवं यावत् महासुखी, महाबली देव विलेपन द्रव्यों से आच्छादित एवं गन्धद्रव्यों से परिपूर्ण एक डिबिया को लेकर उसे खोले और फिर उसे लेकर सारे जम्बूद्वीप के, तीन चुटकियाँ बजाने जितने समय में इक्कीस बार चक्कर लगा कर पा जाए, इतने समय में ही सारा जम्बूद्वीप उन गंधद्रव्यों (पुद्गलों) से व्याप्त हो जाता है। सारे लोक में व्याप्त को तो दूर रहा, लोक के एक प्रदेशजम्बूद्वीप में व्याप्त गन्धपुद्गलों को भी जैसे छद्मस्थ मनुष्य पांचों इन्द्रियों से जान-देख नहीं सकता; इसी प्रकार छद्मस्थ मनुष्य केवलिसमुद्घात-समवहत केवली भगवान् द्वारा निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों को नहीं जान-देख सकता, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा सर्वत्र फैले हुए हैं।' कठिन शब्दों का भावार्थ-चरमा णिज्जरापोग्गला--केवलिसमुद्घात के चौथे समय के निर्जीर्ण पुद्गल / वण्णेणं- वर्णग्राहक नेत्रेन्द्रिय से। घाणेणं-गन्धग्राहक नासिका-घ्राणेन्द्रिय से 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 1113 से 1116 Page #1481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286] [प्रज्ञापनासूत्र रसेणं-रसग्राहक रसनेन्द्रिय से। फासेणं-स्पर्शग्राहक स्पर्शेन्द्रिय से। सम्वन्भंतराए-सब के बीच में / सव्वखुड्डाए-सबसे छोटे / तेलापूयसंठाणसंठिए-तेल के मालपूए के समान आकार का। रहचक्कवालसंठाणसंठिए-रथ के चक्र के समान गोलाकार / परिक्खेवेणं-परिधि से युक्त / केवलकप्पं सम्पूर्ण / प्रच्छरा-णिवातेहि--चुटकियाँ बजा कर / अणुपरियट्टित्ता-चक्कर लगाकर या घूमकर / फुडे-स्पृष्ट है-व्याप्त है।' प्राशय-इस प्रकरण को इस प्रकार से प्रारम्भ करने का प्राशय यह है कि केवलिसमुद्घात से समवहत मुनि के केवलिसमुद्घात के समय शरीर से बाहर निकाले हुए चरमनिर्जरा-पुद्गलों के द्वारा समग्र लोक व्याप्त है / जिसे केवलि ही जान-देख सकता है, छद्मस्थ मनुष्य नहीं। छद्मस्थ मनुष्य सामान्य या विशेष किसी भी रूप में उन्हें जान-देख नहीं सकता। केवलिसमुद्घात का प्रयोजन 2170. [1] कम्हा णं भंते ! केवलो समुग्घायं गच्छति ? गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिज्जिण्णा भवंति / तं जहावेयणिज्जे 1 आउए 2 णामे 3 गोए 4 / सम्बबहुम्पएसे से वेदणिज्जे कम्मे भवति, सम्वत्थोवे से पाउए कम्मे भवति / विसमं सम करेति बंधणेहि ठितीहि य / विसमसमीकरणयाए बंधणेहि ठितीहि य / / 228 // एवं खलु केवली समोहण्णति, एवं खलु समग्घायं गच्छति / [2170-1 प्र. भगवन् ! किस प्रयोजन से केवली समुद्घात करते हैं ? [2170-1 उ.] गौतम ! केवली के चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए हैं, वेदन नहीं किये (भोगे नहीं गए) हैं, निर्जरा को प्राप्त नहीं हुए हैं। वे (चार कर्म) इस प्रकार हैं--(१) वेदनीय, (2) आयु, (3) नाम और (4) गोत्र / उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशों वाला होता है। उनका सबसे कम (प्रदेशों वाला) आयुकर्म होता है। गाथार्थ-] वे बन्धनों और स्थितियों से विषम (कर्म) को सम करते हैं / (वस्तुतः) बन्धनों और स्थितियों से विषम कर्मों का समीकरण करने के लिए। केवली इसीलिए केवलिसमुद्घात करते हैं तथा इसी प्रकार केवलिसमुद्घात को प्राप्त होते हैं / [2] सव्वे वि णं भंते ! केवली समोहण्णंति ? सव्वे वि गं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, जस्साऽऽउएण तुल्लाई बंधणेहि ठितीहि य / भवोवग्गहकम्माइं समुग्घायं से ण गच्छति // 226 // 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1114 से 1116 तक 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1. पृ. 443 Page #1482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपय [287 अगंतूणं समुग्घायं अणंता केवली जिणा। जर-मरणविप्पमुक्का सिद्धि वरगति गता // 230 // [2170-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं ? तथा क्या सब केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं ? [2170-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [गाथार्थ-] जिसके भवोपनाही कर्म बन्धन एवं स्थिति से आयुष्यकर्म के तुल्य होते हैं, वह केवली केवलिसमुद्घात नहीं करता। समुद्घात किये विना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं / विवेचन केवली द्वारा केवलिसमुद्घात क्यों और क्यों नहीं ? -प्रश्न का प्राशय यह है कि केवली तो कृतकृत्य तथा अनन्तज्ञानादि से परिपूर्ण होते हैं, उनका प्रयोजन शेष नहीं रहता, फिर उन्हें केवलिसमुद्धात करने की क्या आवश्यकता ? ___ इसका समाधान स्वयं शास्त्रकार करते हैं कि केवली अभी पूर्ण रूप से कृतकृत्य, पाठों कर्मों से रहित, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हुए, उनके भी चार अघातीकर्म शेष हैं, जो कि भवोपनाही कर्म होते हैं / अतएव केवली के चार प्रकार के कर्म क्षीण नहीं हुए, क्योंकि उनका पूर्णतः वेदन नहीं हुा / कहा भी है--'नाभुक्तं क्षीयते कर्म / ' कर्मों का क्षय तो नियम से तभी होता है, जब उनका प्रदेशों से या विपाक से बेदन कर लिया जाए, भोग लिया जाए। कहा भी है-"सव्वं च पए कम्ममणभावो भइयं" अर्थात सभी कर्म प्रदेशों से भोगे जाते हैं, विपाक से भोगने की भजना है। केवली के 4 कर्म, जिन्हें भोगना बाकी है, ये हैं-वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र / च कि इन चारों कर्मों का वेदन नहीं हुआ, इसलिए उनकी निर्जरा नहीं हुई / अर्थात् वे प्रात्मप्रदेशों से पृथक् नहीं हुए। इन चारों में वेदनीय कर्म सर्वाधिक प्रदेशों वाला होता है। नाम और गोत्र भी अधिक प्रदेशों वाला है, परन्तु आयुष्यकर्म के बराबर नहीं। आयुष्यकर्म सबसे कम प्रदेशों वाला होता है। केवली के आयुष्यकर्म के बराबर शेष तीन कर्म न हों तो वे उन विषम स्थिति एवं बन्ध वाले कर्मों को आयुकर्म के बराबर करके सम करते हैं / ऐसे सम करने वाले केवली केवलिसमुद्घात करते हैं / वे विषम कर्मों को, जो कि बन्ध से और स्थिति से सम नहीं हैं, उन्हें सम करते हैं, ताकि चारों कर्मों का एक साथ क्षय हो सके / योग (मन, वचन, काया का व्यापार) के निमित्त से जो कर्म बंधते हैं, अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होते हैं, उन्हें बन्धन कहते हैं और कर्मों के वेदन के काल को स्थिति कहते हैं / बन्धन और स्थिति, इन दोनों से केवली वेदनोयादि कर्मों को आयुष्यकर्म के बराबर करते हैं / कर्म द्रव्यबन्धन कहलाते हैं, जबकि वेदनकाल को स्थिति कहते हैं / यही केवलिसमुद्घात का प्रयोजन है। जिन केवलियों का प्रायुष्यकर्म बन्धन और स्थिति से भवोपग्राही अन्य कर्मों के तुल्य होता है, वे केवलिसमुद्घात नहीं करते, वे केवलिसमुद्घात किये बिना ही सर्व कर्म मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध एवं सर्वजरा-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं / ऐसे अनन्त सिद्ध हुए हैं / समुद्धात वे ही केवली करते हैं, जिनकी आयु कम होती है और वेदनीयादि तीन कर्मों की स्थिति एवं प्रदेश अधिक होते हैं तब उन सबको समान करने हेतु समुद्घात किया जाता है। Page #1483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] [प्रज्ञापनासूत्र समुद्घात करने से उक्त चारों कर्मों के प्रदेश और स्थितिकाल में समानता पा जाती है / यदि वे समुद्घात न करें तो आयुकर्म पहले ही समाप्त हो जाए और उक्त तीन कर्म शेष रह जाएँ / ऐसी स्थिति में या तो तीन कर्मों के साथ वे मोक्षगति में जाएँ या नवीन आयुकर्म का बन्ध करें, किन्तु ये दोनों ही बातें असम्भव हैं / मुक्तदशा में कर्म शेष नहीं रह सकते और न ही मुक्त जीव नये आयुकर्म का बन्ध कर सकते हैं। इसी कारण केवलिसमुद्घात के द्वारा वेदनीयादि तीन कर्मों के प्रदेशों की विशिष्ट निर्जरा करके तथा उनकी लम्बी स्थिति का घात करके उन्हें आयुष्यकर्म के बराबर कर लेते हैं, जिससे चारों का क्षय एक साथ हो सके / गौतम स्वामी विशेष परिज्ञान के लिए पुनः प्रश्न करते हैं-भगवन् ! क्या सभी केवली समुद्घात में प्रवृत्त होते हैं ? समाधान-न सभी केवली समुद्घात के लिए प्रवृत्त होते हैं और न ही सभी समुद्घात करते हैं / कारण ऊपर बताया जा चुका है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर प्रात्मा का अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होना सिद्धि है। जिसके चारों कर्म स्वभावतः समान होते हैं, वह एक साथ उनका क्षय करके समुद्घात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।' केवलिसमुद्घात के पश्चात् योगनिरोध आदि को प्रक्रिया . 2171. कतिसमइए णं भंते ! प्राउज्जीकरणे पण्णते? गोयमा! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पाउज्जीकरणे पण्णत्ते / [2171 प्र.] भगवन् ! आवर्जीकरण कितने समय का कहा गया है ? [2171 उ.] गौतम ! आवर्जीकरण असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। 2172. कतिसमइए णं भंते ! केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते ? गोयमा ! असमइए पण्णत्ते / तं जहा-पढमे समए दंडं करेति, बिइए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समये लोयं पडिसाहरति, छठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति, दंडं पडिसाहरिता ततो पच्छा सरीरत्थे भवति / / [2172 प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात कितने समय का कहा गया है ? [2172 उ.] गौतम ! वह आठ समय का कहा गया है। वह इस प्रकार है-प्रथम समय में दण्ड (की रचना) करता है, द्वितीय समय में कपाट करता है, तृतीय समय में मन्थान करता है, चौथे समय में लोक को व्याप्त करता है, पंचम समय में लोक-पूरण को सिकोड़ता है, छठे समय में मन्थान को सिकोड़ता है, सातवें समय में कपाट को सिकोड़ता है और पाठवें समय में दण्ड को सिकोड़ता है और दण्ड का संकोच करते ही (पूर्ववत्) शरीरस्थ हो जाता है / 2173. [1] से णं भंते ! तहासमुग्घायगते कि मणजोगं जुजति वइजोगं जुजति कायजोगं जुजति ? 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1125 से 1128 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 7, पृ. 823 Page #1484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसा समुद्घातपद] [289 गोयमा! णो मणजोगं जुजइ णो वइजोगं जुजइ, कायजोगं जुजति / [2173-1 प्र.] भगवन् ! तथारूप से समुद्घात प्राप्त केवली क्या मनोयोग का प्रयोग करता है, वचनयोग का प्रयोग करता है, अथवा काययोग का प्रयोग करता है ? [2173-1 उ.] गौतम ! वह मनोयोग का प्रयोग नहीं करता, वचनयोग का प्रयोग नहीं करता, किन्तु काययोग का प्रयोग करता है। [2] कायजोगण्णं भंते ! जंजमाणे कि ओरालियसरीरकायजोगं जुजति पोरालियमीसासरीरकायजोगं जुजति ? किं वेउब्वियसरीरकायजोगं जुजति वेउन्वियमीसासरीरकायजोगं जुजति ? पाहारगसरीरकायजोगं जुजइ प्राहारगमोसासरीरकायजोगं जुजति ? किं कम्मगसरीरकायजोगं जुजइ ? गोयमा ! पोरालियसरीरकायजोगं पि जुजति पोरालियमीसासरीरकायजोगं पि जुजति, णो वेउव्वियसरीरकायजोगं जुजति णो वेउविवयमीसासरीरकायजोगं जुजति, णो आहारगसरीरकायजोगं जुजति णो पाहारगमीससरीरकायजोगं जुजति, कम्मगसरीरकायजोगं पि जुजति; पढमट्टमेसु समएसुओरालियसरीरकायजोगं जुजति, बितिय-छट्ठ-सत्तमेसु समएसु पोरालियमोसगसरीरकायजोगं जुजति, ततिय-चउत्थ-पंचमेसु समएसु कम्मगसरीरकायजोगं जुजति / [2173-2 प्र.] भगवन् ! काययोग का प्रयोग करता हुमा केवली क्या औदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, वैक्रियशरीर काययोग का प्रयोग करता है, वैक्रियमिश्रशरोर काययोग का प्रयोग करता है, प्राहारकशरीर काययोग का प्रयोग करता है, पाहारकमित्रशरीर काययोग का प्रयोग करता है अथवा कार्मणशरीर का प्रयोग करता है ? [2173-2 उ.] गौतम ! (काययोग का प्रयोग करता हया केवली) औदारिकशरीरकाययोग का भी प्रयोग करता है, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का भी प्रयोग करता है, किन्तु न तो वैक्रियशरीर काययोग का प्रयोग करता है, न वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, न पाहारकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है और न ही आहारकमिश्रशरीरकाय योग का प्रयोग करता है, वह कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। प्रथम और अष्टम समय में प्रौदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, दूसरे, छठे और सातवें समय में प्रौदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। 2174. [1] से णं भंते ! तहासमुग्यायगते सिझति बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, से गं तो पडिनियत्तति, ततो पडिनियतित्ता ततो पच्छा मणजोगं पि जुजति बइजोगं पि जुजति कायजोगं पि जुजति / [2174-1 प्र.] भगवन् ! तथारूप समुद्घात को प्राप्त केवली क्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं, क्या वह सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं ? Page #1485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29.] [प्रज्ञापनासूत्र [2174-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। पहले वे उससे (केवलिसमुद्घात से) प्रतिनिवृत्त होते हैं। तत्पश्चात् वे मनोयोग का उपयोग करते हैं, वचनयोग और काययोग का भी उपयोग करते हैं। . [2] मणजोगण्णं जुजमाणे कि सच्चमणजोगं जुजति मोसमणजोगं जुजति सच्चामोसमणजोगं जुजति असच्चामोसमणजोगं जुजति ? गोयमा ! सच्चमणजोगं जुजति, णो मोसमणजोगं जुजति णो सच्चामोसमणजोगं जुजति, असच्चामोसमणजोगं पि जुजइ। [2174-2 प्र. भगवन् ! मनोयोग का उपयोग करता हुअा केवलिसमुद्घात करने वाला केवली क्या सत्यमनोयोग का उपयोग करता है, मृषामनोयोग का उपयोग करता है, सत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है, अथवा असत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है ? [2174-2 उ.] गौतम ! वह सत्यमनोयोग का उपयोग करता है और असत्यामृषामनोयोग का भी उपयोग करता है, किन्तु न तो मृषामनोयोग का उपयोग करता है और न सत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है। [3] वयजोगं जुजमाणे कि सच्चवइजोगं जुजति मोसवइजोगं जुजति सच्चामोसवइजोगं जुजति असच्चामोसवइजोगं जुजति ? ___ गोयमा ! सच्चवइजोगं जुजति, णो मोसवइजोगं जुजइ णो सच्चामोसवइजोगं जुजति असच्चामोसवइजोगं पि जुजइ / [2174-3 प्र.] भगवन् ! वचनयोग का उपयोग करता हुआ केवली क्या सत्यवचनयोग का उपयोग करता है, मृषावचनयोग का उपयोग करता है, सत्यमृषावचनयोग का उपयोग करता है, अथवा असत्यामृषावचनयोग का उपयोग करता है ? 2174-3 उ. गौतम ! वह सत्यवचनयोग का उपयोग करता है और असत्यामृषावचन / उपयोग करता है, किन्तु न तो मृषावचनयोग का उपयोग करता है और न ही सत्यमषावचनयोग का उपयोग करता है। [4] कायजोगं जुजमाणे पागच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयटेज या उल्लंघज्ज वा पलंधेज वा पाठिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणेज्जा। [2174-4] काययोग का उपयोग करता हुआ (केवलिसमुद्घातकर्ता केवली) अाता है, जाता है, ठहरता है, बैठता है, करवट बदलता है (या लेटता है), लांघता है, अथवा विशेष रूप से लांघता (छलांग मारता) है, या वापस लौटाये जाने वाले पीठ (चौकी), पट्टा, शय्या (वसति-स्थान), तथा संस्तारक (ग्रादि सामान) वापस लौटाता है / 2175. से गं भंते ! तहा सजोगी सिज्झति जाव अंतं करेति ? गोयमा ! णो इणठे समझें। से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचेंदियस्स पज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहोणं पढम मणजोगं णिरु भइ, तो अणंतरं च णं बेइंदियस्स Page #1486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपव] 0000 0000 पज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेढा असंखेज्जगुणपरिहोणं दोच्चं वइजोगं णिरु भति, तो अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेढा असंखेज्जगुणपरिहोणं तच्चं कायजोगं णिरु भति / से णं एतेणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरु भइ, मणजोगं णिरु भित्ता वइजोगं णि भति, वइजोगं णिरु भित्ता कायजोगं णिरु भति, कायजोगं णिरु भित्ता जोगणिरोहं करेति, जोगणिरोहं करेत्ता अजोगय पाउणति, अजोगतं पाउणित्ता ईसोहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ, पुव्वरइतगुणसेढीयं च णं कम्मं 0 . तोसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे खवयति, खवइत्ता वेदणिज्जाऽऽउय-णामगोते इच्चेते चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेति, जुगवं खवेत्ता पोरालियतया-कम्मगाई सम्वाहि विष्पजहणाहि विष्पजहति, विष्पजहित्ता उजुसेढोपडिवण्णे अफुसमाणगतीए एगसमएणं अविगहेणं उड्ढे गंता सागारोवउत्ते सिज्झति बुज्झति० / ' [2175 प्र.] भगवन् ! वह तथारूप सयोगी (केवलिसमुद्घातप्रवृत्त केवली) सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? [2175 उ.] गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ नहीं होते। वह सर्वप्रथम संजीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (मनोयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन मनोयोग का पहले निरोध करते हैं, तदनन्तर द्वीन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (वचनयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् अपर्याप्तक सूक्ष्मपनकजीव, जो जघन्ययोग वाला हो, उसके (काययोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं / (इस प्रकार) वह (केवली) इस उपाय से सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं, मनोयोग को रोक कर बचनयोग का निरोध करते हैं, वचनयोगनिरोध के पश्चात् काययोग का भी निरोध कर देते हैं / काययोगनिरोध करके वे (सर्वथा) योगनिरोध कर देते हैं। योगनिरोध करके वे अयोगत्व प्राप्त कर लेते हैं। अयोगत्वप्राप्ति के अनन्तर ही धीरे-से पांच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋल) के उच्चारण जितने काल में असंख्यातसामयिक अन्तर्मुहूर्त तक होने वाले शैलेशीकरण को अंगीकार करते हैं। पूर्वरचित गुणश्रेणियों वाले कर्म को उस शैलेशीकाल में असंख्यात कर्मस्कन्धों का क्षय कर डालते हैं। क्षय करके वेदनीय, प्रायुष्य, नाम और गोत्र, इन चार (प्रकार के अघाती) कर्मों का एक साथ क्षय कर देते हैं। इन चार कर्मों को युगपत् क्षय करते ही औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर का पूर्णतया सदा के लिए त्याग कर देते हैं। इन शरीरत्रय का पूर्णतः त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पृशत् गति से एक समय में अविग्रह (बिना मोड़ की गति) से ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) से उपयुक्त होकर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं / विवेचन-केवलिसमद्घात से पूर्व और पश्चात् केबली को प्रवृत्ति-इस प्रकरण में सर्वप्रथम आवर्जीकरण, तत्पश्चात् पाठ समय का केवलिसमुद्घात, तदनन्तर समुद्घातगत केवली के द्वारा 1. अधिक पाठ-'तत्य सिद्धो भवति' अर्थात्-वह वहाँ (सिद्धशिला में पहुंच कर) सिद्ध (मुक्त) हो जाता है / Page #1487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] [प्रज्ञापनासूब योगत्रय में से काययोगप्रवृत्ति का उल्लेख और उसका क्रम भी बताया गया है / आवर्जीकरण के चार अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं--(१) आत्मा को मोक्ष के अभिमुख करना, (2) मन, वचन, काया के शुभ प्रयोग द्वारा मोक्ष को प्राजित-अभिमुख करना और (3) प्रावजित अर्थात्-भव्यत्व के कारण मोक्षगमन के प्रति शुभ योगों को व्यापृत-प्रवृत्त करना आवजितकरण है तथा (4) प्रा--मर्यादा में केवली की दृष्टि से शुभयोगों का प्रयोग करना / केवलिसमुद्घात करने से पूर्व प्रावर्जीकरण किया जाता है, जिसमें असंख्यात समय का अन्तर्महत लगता है। आवर्जीकरण के पश्चात् बिना व्यवधान के केलिसमुद्घात प्रारम्भ कर दिया जाता है, जो पाठ समय का होता है / मूलपाठ में उसका क्रम दिया गया है। इस प्रक्रिया में प्रारम्भ के चार समयों में आत्मप्रदेशों को फैलाया जाता है, जब कि पिछले चार समयों में उन्हें सिकोड़ा जाता है। कहा भी है- केवली प्रथम समय में ऊपर और नीचे लोकान्त तक तथा विस्तार में अपने देहप्रमाण दण्ड करते हैं, दूसरे में कपाट, तीसरे में मन्थान और चौथे समय में लोकपुरण करते हैं फिर प्रतिलोम रूप से संहरण अर्थात विपरीत क्रम से संकोच करके स्वदेहस्थ हो जाते हैं।' (2) समुद्घातकर्ता केवली के द्वारा योगनिरोध प्रादि को प्रक्रिया से सिद्ध होने का क्रम-(१) सिद्ध होने से पूर्व तक की केवली की चर्या-दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्घात को प्राप्त केवली समुद्घात-अवस्था में सिद्ध (निष्ठितार्थ), बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त (कर्मसंताप से रहित हो जाने के कारण शीतीभूत) और सर्वदुःख रहित नहीं होते / क्योंकि उस समय तक उनके योगों का निरोध नहीं होता और सयोगी को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। सिद्धि प्राप्त होने से पूर्व तक वे क्या करते हैं ? इस विषय में कहते हैं-समुद्घातगत केवली केवलिसमुद्घात से निवृत्त होते हैं, फिर मनोयोग, वचनयोग और काययोग का प्रयोग करते हैं / 2 (3) केवलिसमधातगत केवली द्वारा काययोग का प्रयोग-समुदघातगत केवली औदारिकशरीरकाययोग, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग तथा कार्मणशरीरकाय योग का प्रयोग क्रमशः प्रथम और अष्टम, द्वितीय, षष्ठ और सप्तम, तथा तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में करते हैं। शेष वैक्रियवैक्रियमिश्र, आहारक-पाहारक मिश्र काययोग का प्रयोग वे नहीं करते। (4) केवलिसमुद्घात से निवृत्त होने के पश्चात् तीनों योगों का प्रयोग-निवृत्त होने के पश्चात् मनोयोग और उसमें भी सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग का ही प्रयोग करते हैं, मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोग का नहीं / तात्पर्य यह है कि जब केवली भगवान् वचनागोचर महिमा से युक्त केवलिसमुद्घात के द्वारा विषमस्थिति वाले नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म को आयुकर्म के बराबर स्थिति वाला बना कर केवलिसमुद्घात से निवृत्त हो जाते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें परमपद को प्राप्ति हो जाती है। परन्तु उस अवधि में अनुत्तरौषपातिक देवों द्वारा मन से पूछे हए प्रश्न का समाधान करने हेतु मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मनोयोग का प्रयोग करते हैं / वह मनोयोग सत्यमनोयोग या असत्यामृषामनोयोग होता है। समुद्घात से निवृत्त केवली सत्यवचन 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5 2. वही, भा. 5, पृ. 1130 3. वही, भा. 5, 1131-32 Page #1488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बत्तीसवां समुद्यातपद] [293 योग या असत्यामृषावचनयोग का प्रयोग करते हैं, किन्तु मृषावचनयोग या सत्यमृषावचनयोग का नहीं / इसी प्रकार समुद्घातनिवृत्त केवली गमनागमनादि क्रियाएँ यतनापूर्वक करते हैं। यहाँ उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया का अर्थ क्रमश: इस प्रकार है-स्वाभाविक चाल से जो डग भरी जाती है, उससे कुछ लम्बी डग भरना उल्लंघन है और अतिविकट चरणन्यास प्रलंघन है। किसी जगह उड़ते-फिरते जीव-जन्तु हों और भूमि उनसे व्याप्त हो, तब उनकी रक्षा के लिए केवली को उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया करनी पड़ती है।' (5) समग्र योगनिरोध के बिना केवली को भी सिद्धि नहीं-दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्धात को प्राप्त केवली समुद्घात से निवृत्त होने पर भी जब तक सयोगी-अवस्था है, तब तक वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकते / शास्त्रकार के अनुसार अन्तर्मुहूर्त काल में वे अयोग-अवस्था को प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं, किन्तु अन्तर्मुहुर्त्तकाल तक तो केवली यथायोग्य तीनों योगों के प्रयोग से मुक्त होते हैं / सयोगी अवस्था में केवली सिद्ध-मुक्त नहीं हो सकते, इसके दो कारण हैं(१) योगत्रय कर्मबन्ध के कारण हैं तथा (2) सयोगी परमनिर्जरा के कारणभूत शुक्लध्यान का प्रारम्भ नहीं कर सकते / / (6) केवली द्वारा योगनिरोध का क्रम-योगनिरोध के क्रम में केवली भगवान् सर्वप्रथम मनोयोगनिरोध करते हैं / पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका मनोयोग-व्यापार होता है, उससे भी असंख्यातगुणहीन मनोयोग का प्रति समय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में मनोयोग का पूर्णतया निरोध कर देते हैं / मनोयोग का निरोध करने के तुरंत बाद ही वे पर्याप्तक एवं जघन्ययोग वाले द्वीन्द्रिय के वचनयोग से कम असंख्यातगुणहीन वचनयोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णतया द्वितीय वचनयोग का निरोध करते हैं। जब वचनयोग का भी निरोध हो जाता है, तब अपर्याप्तक सूक्ष्म पनकजीव, जो प्रथम समय में उत्पन्न हो तथा जघन्य योग वाला एवं सबकी अपेक्षा अल्पवीर्य वाला हो, उसके काययोग से भी कम असंख्यातगुणहीन काययोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णरूप से तृतीय काययोग का भी निरोध कर देते हैं। इस प्रकार काययोग का भी निरोध करके केवली भगवान् समुच्छिन्न, सूक्ष्मक्रिय, अविनश्वर तथा अप्रतिपाती ध्यान में प्रारूढ होते हैं / इस परमशुक्लध्यान के द्वारा वे वदन और उदर आदि के छिद्रों को पूरित करके अपने देह के तृतीय भाग-न्यून प्रात्मप्रदेशों को संकुचित कर लेते हैं / काययोग की इस निरोधप्रक्रिया से स्वशरीर के तृतीय भाग का भी त्याग कर देते हैं।' सर्वथा योगनिरोध करने के पश्चात–वे अयोगिदशा प्राप्त कर लेते हैं। उसके प्राप्त होते ही शैलेशीकरण करते हैं / न अतिशीघ्र और न अतिमन्द, अर्थात् मध्यमरूप से पांच ह्रस्व (अ, इ, उ, 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1133-1135 2. वही, भा. 5, पृ. 1138 से 1140 3. वही, भा. 5, पृ. 1141 Page #1489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294] [प्रज्ञापनासूत्र ऋ, ल) अक्षरों का उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतने काल तक शैलेशीकरण-अवस्था में रहते हैं। शील का अर्थ है-सर्वरूप चारित्र, उसका ईश-स्वामी शीलेश और शीलेश की अवस्था 'शैलेशी' है / उस समय केवली सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। उस समय केवली केवल शैलेशीकरण को ही प्राप्त नहीं करते, अपितु शैलेशीकरणकाल में पूर्वरचित गुणश्रेणी के अनुसार असंख्यातगुण-श्रेणियों द्वारा असंख्यात वेदनीयादि कर्मस्कन्धों का विपाक और प्रदेशरूप से क्षय भी करते हैं तथा अन्तिम समय में वेदनीयादि चार अघातिकर्मों का एक साथ सर्वथा क्षय होते ही औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरों का पूर्णतया त्याग कर देते हैं। फिर ऋजुश्रेणी को प्राप्त हो कर, एक ही समय में बिना विग्रह (मोड़) के लोकान्त में जाकर ज्ञानोपयोग से उपयुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं। जितनी भी लब्धियाँ हैं, वे सब साकारोपयोग से उपयुक्त को ही प्राप्त होती हैं, अनाकारोपयोगयुक्तसमय में नहीं।' सिद्धों के स्वरूप का निरूपरण 2176. ते णं तत्थ सिद्धा भवंति, असरीरा जीवघणा सण-णाणोवउत्ता णिट्रियट्ठा जीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठति / सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्रियट्ठा जीरया गिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासतमणागयद्धं कालं चिट्ठति ? गोयमा ! से जहाणामए बोयाणं अग्गिदडाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती न हवइ एवमेव सिद्धाण वि कम्मबीएसु दड्ढेसु पुणरवि जम्मुप्पत्ती न हवति, से तेण→ण गोयमा ! एवं वुच्चति तेणं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा णोरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिटठंति त्ति। णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाति-जरा-मरण-बंधणविमुक्का। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 231 // // पण्णवणाए भगवतीए छत्तीसइमं समुग्धायपदं समत्तं // // पण्णवणा समत्ता॥ [2176] वे सिद्ध वहाँ अशरीरी (शरीररहित) सघनात्मप्रदेशों वाले, दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त, कृतार्थ (निष्ठितार्थ), नीरज (कर्मरज से रहित), निष्कम्प, अज्ञानतिमिर से रहित और पूर्ण शुद्ध होते हैं तथा शाश्वत भविष्यकाल में रहते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि वे सिद्ध वहाँ अशरीरी सधनात्मप्रदेशयुक्त, कृतार्थ, दर्शनज्ञानोपयुक्त, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध होते हैं, तथा शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं ? 1. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1147-1155 Page #1490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [295 [उ.] गौतम ! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने पर पूनः जन्म से उत्पत्ति नहीं होती। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध अशरीरी आदि होते हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् / {गाथार्थ- सिद्ध भगवान सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं। सुख को प्राप्त अत्यन्त सुखी वे सिद्ध शाश्वत और बाधारहित होकर रहते हैं // 231 / / विवेचन-सिद्धों का स्वरूप-सिद्ध वहाँ लोक के अग्रभाग में स्थित रहते हैं। वे अशरीर, अर्थात्-औदारिक प्रादि शरीरों से रहित होते हैं, क्योंकि सिद्धत्व के प्रथम समय में ही वे औदारिक आदि शरीरों का त्याग कर देते हैं। वे जीवधन होते हैं, अर्थात्--उनके आत्मप्रदेश सघन हो जाते हैं। बीच में कोई छिद्र नहीं रहता, क्योंकि सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती ध्यान के समय में ही उक्त ध्यान के प्रभाव से मुख, उदर आदि छिद्रों (विवरों) को पूरित कर देते हैं / वे दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में उपयुक्त होते हैं, क्योंकि उपयोग जीव का स्वभाव है। सिद्ध कृतार्थ (कृतकृत्य) होते हैं, नीरज (वध्यमान कर्मरज से रहित) एवं निष्कम्प होते हैं, क्योंकि कम्पनक्रिया का वहाँ कोई कारण नहीं रहता। वे वितिमिर अर्थात्-कर्मरूपी या अज्ञानरूपी तिमिर से रहित होते हैं। विशुद्ध अर्थात्विजातीय द्रव्यों के संयोग से रहित–पूर्ण शुद्ध होते हैं और सदा-सर्वथा सिद्धशिला पर विराजमान रहते हैं।' सिद्धों के इन विशेषणों के कारण पर विश्लेषण-सिद्धों को अशरीर, नीरज, कृतार्थ, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध आदि कहा गया है उसका कारण यह है कि अग्नि में जले हुए बीजों से जैसे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि अग्नि उनके अंकुरोत्पत्ति के सामर्थ्य को नष्ट कर देती है / इसी प्रकार सिद्धों के कर्मरूपी बीज जब केवलज्ञानरूपी अग्नि के द्वारा भस्म हो चुकते हैं, तब उनकी फिर से उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि जन्म का कारण कर्म है और सिद्धों के कर्मों का समूल नाश हो जाता है। कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, कर्मबीज के कारण राग के रागद्वेष आदि समस्त विकारों का सर्वथा अभाव हो जाने से पुनः कर्म का बन्ध भी सम्भव नहीं है। रागादि ही आयु आदि कर्मों के कारण हैं, उनका तो पहले ही क्षय किया जा चुका है। क्षीणरागादि की पुनः उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि निमित्तकारण का अभाव है। रागादि की उत्पत्ति में उपादान कारण स्वयं प्रात्मा है। उसके विद्यमान होने पर भी सहकारी कारण वेदनीयकर्म आदि विद्यमान न होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाला कार्य किसी एक कारण से नहीं हो सकता। सिद्धों में रागादि बेदनीयकर्मों का प्रभाव होता है, क्योंकि वे उन्हें शुक्लध्यानरूपी अग्नि से पहले हो भस्म कर चुकते हैं और उनके कारण संक्लेश भी सिद्धों में संभव नहीं है। रागादि वेदनीयकों का अभाव होने से पुन: रागादि की उत्पत्ति की संभावना नहीं है। कर्मबन्ध में पुनर्जन्म न होने के कारण सिद्ध सदैव सिद्धदशा में रहते हैं, क्योंकि रागादि का अभाव हो जाने से आयु आदि कर्मों को पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इस कारण सिद्धों का पुनर्जन्म नहीं होता। 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, 1155-1156 2. वही, भाग 5, पृ. 1157 Page #1491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] [प्रज्ञापनासून अन्तिम मंगलाचरण-शिष्टाचारपरम्परानुसार ग्रन्थ के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में मंगला. चरण करना चाहिए। अतएव यहाँ ग्रन्थ की समाप्ति पर परम मंगलमय सिद्ध भगवान् का स्वरूप बताया गया है, तथा शिष्य-प्रशिष्यादि की शिक्षा के लिए भी कहा गया है 'णिच्छिण्ण-सव्वदुक्खा....."सुही सुहं पत्ता।" // प्रज्ञापना भगवती का छत्तीसवां समुद्घातपद समाप्त / / // प्रज्ञापनासूत्र समाप्त / 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा.५,१.११५९-६० Page #1492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापना-परिशिष्ट परिशिष्ट 1 गाचानुक्रम 1865 1123 211 1006 187 54 गाथांश अगंतूण समुग्घायं अच्छि पव्वं बलिमोडो अज्जोरुह वोडाणे अज्झयणमिणं चित्तं अडहुत्तरं च तीसं अणभिग्गहियकुदिट्ठी अणभिग्गहिया भासा अणंतराय श्राहारे अत्थिय तिदु कविट्ठ अदाय असी य मणी अद्धतिवण्ण सहस्सा अप्फोया अइमुतय अयसी कुसुंभ कोद्दव अलोए पडिहया सिद्धा अवए पणए सेवाले असरीरा जीवघणा असुरा नाग सुवण्णा असुरेसु हाँति रत्ता अस्सण्णी खलु पढम अंधिय णेत्तिय मच्छिय अंबट्ठा य कलिंदा प्राणय-पाणयकप्पे आभरण-वत्थ-गंधे आमंतणि याऽऽणमणी आयपइट्ठिय खेत्तं आसीतं बत्तीसं सूत्राङ्क गाथा 2170 [2] आहार भविय सण्णी पाहार सम सरीरा पाहारे उवप्रोगे 1 इक्खू य इक्खुवाडी 174 इय सव्वकालतित्ता 110 इय सिद्धाणं सोक्खं 866 इंदियउवचय णिव्वत्तणा य 2032 उत्तत्तकणगवण्णा 41 एएहिं सरीरेहि 972 एक्कस्स उ जं गहणं 174 एक्कारसुत्तरं हेट्ठिमेसु एगपएऽणेगाई एगस्स दोण्ह तिण्ह व 211 एगा य होइ रयणी 54 [1] एगिदियसरीरादी 211 एते व उ भावे 177 एरंडे कुरुविंदे 187 ओगाहणसंठाणे 647 अोगाहणा अवाए 58 (1) ओगाहणाए सिद्धा 03 कण्हे कंदै वज्जे 206 (2) कति पगडी कह बंधति 1003 कहिं पडिहता सिद्धा 866 कंगूया कदुइया 971 कंदा ये कंदमूला य 174 कंबू य कण्हकडबू 209 110 54 1793 110 47 1006 211 1664 211 45 55 Page #1493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 43 40 298] [प्रज्ञापनासूत्र काला असुरकुमारा 187 जस्स बीयस्स भग्गस्स हीरो 54 [4] काले य महाकाले 192 जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी 54 [6] किण्णर किंपुरिसे खलु 192 जस्स मूलस्स कट्ठामो छल्ली बहलतरी 54 [5] किमिरासि भद्दमुत्था 54 जस्स मुलस्स भग्गरस समो 54 [3] कुत्थु भरि पिप्पलिया 42 जस्स मुलस्स भग्गस्स हीरो 54 [4] कुरु-मंदर-ग्रावासा 1003 जस्स सालस्स भग्गस्स समो 54 [3] केवलणाणुवउत्ता 211 जस्स सालस्म भम्गस्स हीरो 54 [4] कोहे माणे माया जस्साउएण तुल्लाई 2170 [2] गति ठिति भवे य भासा 829 [2] जह अयगोलो धंतो 54 [10] गढसिरायं पत्तं जह णाम कोइ मेच्छो गोमेज्जए य रुयए जह वा तिलपप्पडिया चउरासीइ असीइ 206 [2] जह सगलसरिसवाण 53 चउसट्ठी सट्ठी खलु 187 जह सव्वकालगुणितं 211 चक्कागं भज्जमाणस्स 54 जंबुद्दीवे लवणे 1003 चत्तारि य रयणीयो 211 जं संठाणं तु इहं 211 चमरे धरणे तह वेणुदेव 187 जाई मोग्गर तह जूहिया चंदण गेरुय हंसे 24 जाउलग माल परिली चंपगजाती णवणीइया 41 जीव गतिदिय काए 1259 चोत्तीसा चोयाला 187 जीसे तयाए भग्गाए समो 54 [3] चोवढेि असुराणं 187 जीसे तयाए भग्गाए हीरो 54 [4 छट्टिं च इत्थियाओ 674 जीसे सालाए कट्ठामो छल्ली तणुयतरी 54 [6] जणवय-सम्मत-ठवणा 862 जीसे सालाए कट्ठामो छल्ली बहलतरी 54 [5] जत्थ य एगो सिद्धो जे केइ नालियाबद्धा जस्स कंदरस कटानो छल्ली प्रणयतरी जो अस्थिकायधम्म 110 जस्स कंदस्स कट्रानो छल्ली बहलतरी 54]5J जो जिणदिट भावे जस्स कंदस्स भग्गस्स समो 54 [3] जोणिब्भूए बीए 54 [9] जस्स कंदस्स भग्गस्स हीरो 54 [4] जोयणसहस्स गाउयपुहत्त 1512 जस्स खंधस्स कट्ठामो छल्ली तणुयतरी 54 [6] जोयणसहस्स छग्गाउयाई 1512 जस्स खंधस्स कट्ठामो छल्ली बहलतरी 54 [5] जो सुत्तमहिज्जतो जस्स खंधस्स भग्गस्स समो 54 [3] जो हेउमयाणतो जस्स पत्तस्स भग्गस्स समो हीरो 54 [4] णग्गोह णंदिरुक्खे जस्स पवालस्स भग्गस्स समो 54 [3] णाणाविह संठाणा जस्स पवालस्स भग्गस्स हीरो 54 [4] णिच्छिण्णसम्बदुक्खा जस्स पुप्फस्स भग्गस्स समो 54 [3] णिच्छिन्नसव्वदुक्खा 211 जस्स पुप्फस्स भग्गस्स हीरो 54 [4] णिद्धस्स णिद्धण दुयाहिएणं 948 जस्स बीयस्स भग्गस्स समो 54 [3] णिबंब जंबु कौसंब 211 7 0 mAh 41 40 Page #1494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १-गाथानुक्रम [299 54 [ . E 206 [2] 187 102 559 790 790 212 1259 859 णीलाणुरागवसणा णेरइणय अंतकिरिया णेरइय-तिरिय-मगुया तणमूल कंदमूले तत्थ वि य ते अवेदा तय-छल्लि-पवालेसु य ताल तमाले तक्कलि तिणि सया तेत्तीसा तिलए लउए छत्तोह तीसा चत्तालीसा तीसा य पण्णवीसा तुलसी कण्ह उराले दमपिप्पली य दव्वी दवाण सव्वभावा दसण-नाण-चरित्ते दिसि गति इंदिय काए दीव-दिसा-उदहीणं दीहं वा हस्सं वा न वि अत्थि माणुसाणं निस्सग्गुवएसई निस्संकिय-निक्खंकिय पउमलता नागलता पउमुप्पलनलिणाणं पउमुप्पल संघाडे पउमुप्पलिणीकंदे पढमो ततियो नवमो पढमो ततिम्रो सत्तम पण्णवणा ठाणाई पत्तउर सीयउरए पत्तेया पज्जत्ता परमत्थसंथवो वा परिणाम-वण्ण-रस-गंध पलंडू ल्हसणकद य पाढा मियवालुकी पुरोगाढ अणंतर पुरुवी य सक्करा वालुया 187 पुत्तंजीवयरि? 1406 पूफा जलया थलया 1973 पुस्सफलं कालिंग 54 [2] पूईकरंज सेण्हा 211 पुसफली कालिंगी 55 [3] फुसइ अणते सिद्ध 48 बत्तीस अट्ठवीसा 211 बलि-भूयाणंदे वेणुदाली 41 बारवती य सुरट्ठा 187 बारस चउवीसाई 174 बि चउत्थ पंच छट्ट 49 वि चउत्थ पंच छद्र 49 बि चउत्थ पंच छट्र भासग परित्त पज्जत्त भासग परित्त पज्जत्त भासा कयो य पहवति 187 भासा सरीर परिणाम 211 भुयरुक्ख हिंगुरुक्खे 211 भूप्रत्थेगाधिगया 110 भेद-विसय-संठाणे 110 महुरा य सूरसेणा 44 मासपण्णी मुग्गपण्णी 54 [8] मुद्दिय अप्पा भल्ली 55 [3] रायगिह मगह चंपा 548] रुक्खा गुच्छा गुम्मा 790 म कंडरिया जारू 790 लोगागासपएसे णिगोयजीवं 2 लोगागासपएसे परित्तजीवं 42 वइराड वच्छ वरणा ववगयजर-मरणभए 110 वंसे वेल कणए 1218 वाइंगण सल्लइ वोंडई विसमं समं करेति 54 [1] विहि-संठाण-पमाणं 877 [33] विट समंसकडाहं 24 वेणु णल इक्खुवाडिय 1981 102 54 [1] 102 54 [1] 54 | 11]] 54 [11] 102 42 2170 1474 54 [] 54 [8] Page #1495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3..] 2054 वेयण-कसाय-मरणे वेंट वाहिरपत्ता सचित्ताऽऽहारट्ठी सण वाण कास महंग सण्णिहिया सामाणा सत्तट्ट जातिकुलकोडिलक्ख सप्फाए सज्जाए समणिद्धयाए बंधो समयं वक्ताण सम्मत्तस्स अभिगमे सरीरप्पा भासा सन्बो वि किसलयो खलु ससविन्दु गोत्तफुसिया संजय अस्संजय मीसगा संठाणं बाहल्लं 2055 साएथ कोसला गयपुरं 54 [8] सातमसातं सव्वे 1793 साली वीही गोधम 42 साहारणमाहारो 194 सिद्ध त्ति य बुद्ध ति य 91 [4] सिद्धस्स सुहो रासी 54 [8] सिंघाडगस्स गुच्छो 948 सीता य दव्वसारीर 54 [10] सुयरयणनिहाणं जिणवरेण 2032 सुरगणसुहं समत्तं 859 सेढिय भत्तिय होत्तिय 54 [9] सेयविया वि य णगरी 45 सो होइ अहिगमरुई 1980 हरियाले हिंगुलए 972 हासे हासरई वि य 54 [10] 211 211 54 [2] 2054 211 102 110 24 194 10 . Page #1496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 विशिष्टशब्दसूची सूत्राङ्क 438 925 865 252 753 98 सूत्राङ्कः शब्द 192 अजीवपज्जव 95 अजीवपण्णवणा 645 अजीवपरिणाम 1334 अजीव मिस्सिया 1290 अजोगी 1588 अजोणिय अज्जल 107 अज्झत्थवयण 1694 अज्झवसाण 1005 अट्ट 199 अपिट्ठणिट्ठिया 140 अट्टफास 187 अट्टविहबंधए 187 अट्ठविहवेदए 445 अट्टिकच्छभ 112 अडा 775 अडिला 781 अणगार 763 अणभिग्गहियकुदिट्ठी 754 अणभिगाहिया 197 अणवण्णिय 426 अणंतगुणकक्खड 206 अणंतगुणकालए 1551 अणंतगुणतित्तरस 188 अणंतगुणलुक्ख अपंतगुणसीय 1702 अणंतगुणसुब्भिगंध 545 अणंतजीव 1005 प्रणंतपएसिए अइकाय अकण्ण अकम्मभूमए अकसाई अकाइए अकिरिए अक्ख अक्खरपुट्टिया अगुरुलहुप्रणाम अगुरुलहुए अग्गमहिसी अम्गिकुमार अग्गिमाणव अमिासीह अचक्खुदंसण अचरिमसमय अचरिमंतपएस अचरिम अचित्तजोणिय अचित्ता अच्चिमालि अच्चुए अच्चुतवडेंसए अच्चुय देव अच्छर अच्छिरोड मजसोकित्तिणाम अजहण्णमणुक्कोसगुणकक्खड मजोबदव्वदेस 896 2032 994 1237 877 1581 1788 64 r9 our . 972 110 866 188 1800 523 877 524 877 877 54 Page #1497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र 273 1017 1702 1639 2054 2052 2051 865 1744 107 565 302] अणंतमिस्सिया (भाषाभेद) अणंतरागय आहार अणंतरोगाढ अणंतरोववन्नग अणंतसमयसिद्ध अणाएज्जणाम अणागारपस्सी अणागारोव उत्त अशाणुगामिए अणाणुपुवी अणादेज्जणाम अणाभोगणिव्वत्तिय अणाहारए अणिज्जिण्णा अणित्थंथ अणिदा (वेदनाभेद) अणियाण अणुतडियाभेय अणुत्तरविमाण अणुत्तरोववाइय अणुभावणामणिहत्ताउय अणभाव अणुवउत्त अणुवरयकाइया अणुवसंत अणुवसंपज्जमाणगती अणुवाय अणु अणेगसिद्ध अणेरइय अणोगाढ अणोवमा (मिष्ट खाद्यविशेष) अण्णतरद्वितिय अण्णलिंगसिद्ध अण्णाणी अतित्थगरसिद्ध 865 प्रतित्थसिद्ध 2032 अतिराउल 877 अधिकाय 998 अस्थिकायधम्म 17 अत्थोग्गह 1702 अथिरणाम 1954 अदिण्णादाण 262 अदुक्खमसुह (वेदनाभेद) 2027 अदूरसामंत 877 प्रदेवीय 1693 अद्दारिद्व 963 अद्धणारायसंघयणणाम 1367 अद्धद्धामिस्सिय (भाषाभेद) 2170 अद्धपविट्ठ अद्धमागह 2054 अद्धामिस्सिय (भाषाभेद) 177 अद्धासमय 891 अधम्मत्थिकाय 209 अधेसत्तमपुढवी 1544 अधोलोय अपइट्टाण 1679 अपच्चक्खाणकिरिया अपज्जत्त 1568 अपज्जत्तगणाम 963 अपज्जत्तय 1105 अपज्जवसिय 1105 अपडिवाई 877 अपढमसमयसिद्ध 16 अपदेसट्टयाए 1199 अपरित्त 877 अपरियार 1238 अपसत्थविहायगतिणाम 1797 अप्पबहु 16 अप्पाबहुदंडग 82 अफुसमाणगति 16 प्रबंधय (क) 342 284 174 1129 353 1702 428 1265 2027 17 330 265 2051 1702 2032 692 1105 1642 Page #1498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [303 1614 853 559 परिशिष्ट २-शम्दानुक्रम] अबाहा प्रभक्खाण अब्भवाल्या अब्भोवगमिया प्रभवसिद्धय अभिगम अमाइसम्मद्दिछिउव्वण्णग अमूढदिट्ठी अयोमुह (अन्तर्वीप-मनुष्य) अरवाग (म्लेच्छ जातिविशेष) अरुणवर प्रवणीय-उवणीयवयण प्रवणीयवयण अवरविदेह अवाय 1002 1938 834 1694 1003 98 1909 अविगह 1697 अंधिय 1580 अंबट्ठ 24 आइल्लन 2072 आउ 1393 आगरिस 2032 प्रागासस्थिकाय प्रागासथिम्गल 110 अागासफलिप्रोवम आण 98 प्राणमणी प्राणय 896 ग्राणुपुग्विणाम प्राभरण प्राभासिय 1006 आभिणिबोहियणाणसागारोवोग 2175 प्राभोगणिव्वत्तिय 334 अायतसंठाण 1330 पायरिय प्रायवणाम प्रारंभिया 1744 पाराहन 1533 आरिय 1690 पालावग 867 आवकहियसामाइय आवत्त प्रावलिय प्रासकण्ण 178 पासमुह प्रासालिय 1551 पासीविस 107 पाहच्च पाहारग्र 920 पाहारगसमुग्धा 918 पाहारसरीरकायजोग 976 आहारग 335 अाहारसण्णा 1118 1702 1129 899 1258 134 अविरत अवेदन अव्वोयडा असच्चामोसभासग असंखेप्पद्धप्पविट्ठ असंजयसम्मद्दिट्ठि असातावेयणिज्ज असेलेसिपडिवण्णग अस्साताबेदग अहक्खाय अहमिद अहरो? अहिगमरुई अहेलोइयगाम अंकलिवि अंगारग अंगुलपढमवग्गमूल अंगुलपयर अंगुलपुत्त अंतोमुहत्त 325 918 5 77 1124 901 1077 2173 263 725 Page #1499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 863 435 622 434 146 पाहिकरणिया इच्छाणुलोमा इड्ढी इत्तिरिय इत्थिवेय इरियावहियबंधग इसिपाल इसिबाइय इसी इंद इंदिय 125 111 194 2055 1702 م 198 ا ईसाण ईसाणकप्प ईसिपब्मारा उक्कड (त्रीन्द्रिय जीव) उक्कलिय उक्कामुह و ل م उवधायणिस्सिय उवरिमउवरिमगेवेज्जग उरिमगेवेज्जग 1215 उवरिममज्झिमगेवेज्जग उवरिमहेट्ठिमगेवेज्जग 1699 उवसंतकसाय 194 उवसंतकसायवीयरागदसणारिय 188 उव्वट्टण उसभणारायसंघयणणाम उसभक उसिणा 177 उस्स प्पिणी 622 उस्सासणाम उस्सासविस (सर्प विशेष) 211 एगोवत्त (द्वीन्द्रिय जीव) 57 एगखुर 57 एगजीव 95 एगट्ठिय 104 एगिदिय 1695 एगिदियजाइणाम 148 एरण्णवय 983 एरवय 151 ओघसण्णा 140 ओभंजलिया 1105 ओरालिय पोरालियमीसासरीरकायजोग प्रोहिदसण 57 कक्खड 865 कच्छभ 865 कट्टपाउयार 57 कणग 381 कणिक्कामच्छ 57 कण्णत्तिया 932 कण्णपाउरण 1006 कप्प 1702 कप्पातीय उग्गह 1272 1694 1257 725 1544 2173 1928 उच्चागो उड्ढलोप उत्तरघेउन्विन उदधिवलय उदहिकुमार उद्दिस्सपविभत्तगति उद्देहिय उद्धकवाड उप्पडा उप्पण्णमिस्सिया उप्पण्णविगयमिस्सिया उप्पाय उरपरिसप्प उरुल चग उवयोग उवयोगद्धा उवधायणाम mour xciKw 1003 Page #1500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [305 773 98 188 1003 1245 452 2086 918 105 परिशिष्ट २-शग्दानुक्रम कप्पासद्विसमिजिय कप्पासिय कप्पोवग कम्म कम्मखंघ कम्मगसरीर कम्मभूमय कम्मारिय कम्मासरीरकायप्पयोगगति कलुय कसाय कसायवेयणिज्ज कसायसमुग्धाय कसाहीय (सर्पविशेष) कंका कंहलगा कंदिल काउलेसा कामंजुगा काय (म्लेच्छ जातिविशेष) कायजोग काल (समय) काल (महानरक) काल (वाणव्यन्तरेन्द्र) कालोय किण्णर 9000 doUru" 887 57 कुम्मुग्णया 105 कुलक्ख 661 कुहंड (वाणव्यन्तरदेव जाति) कड 1667 केक्कय 2175 केवलकप्प 1552 केवलणाण 1747 केवलिसमुग्घाय 101 कोडाकोडी 1087 कोडिगारा कोत्थलवाहग कोलालिय 1682 कोलाहा 2086 कोलाहा कोंकणग खग्ग खरबादरपुढविकाइय खस 1585 खंडाभे 88 खारा खासिय 2173 खीर (वर) 211 खुज्जसंठाणणाम 174 गग्गर 190 गतिणाम 1003 मा गब्भवक्कंतिय 192 गयकण्ण 58 गह 98 गंडीपद 2 गंधव 57 गंधावति (पर्वत) 141 गामणिद्धमण 58 गिहिलिंगसिद्ध 58 गीतजस 56 गीतरति (वाणव्यंतर देवेन्द्र) 83 गुणसेढी 83 गूढदंत 98 1003 1693 1484 किण्हपत्त 142 70 188 1098 किराय किरिया किंगिरिड किंपुरिस कुक्कुड कुक्कुह कुच्छिकिमिया कुच्छिपुहत्तिय कुच्छि 16 162 2175 m Page #1501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रज्ञापनासूत्र 106 306] गेवेज्ज गोकण्ण (पशुविशेष) गोकण्ण (अन्तर्वीपज मनुष्य) गोजलोया गोणस (सर्पभेद) गोमयकीडग गोमुह गोमेज्जन गोम्ही 196 चित्तार 72 चिलाय चिल्लल चिल्ललय चुल्लहिमवंत चुंचण x0 // 849 1098 चुंचय 98 1237 57 गोय 115 1824 440 106 135 1694 862 921 गोंरक्खर गोलोम गोंड गोधोडंब घमोदन घणदंत घणवाय घणोदधिवलय घुल्ला घोस चउजमलपय चउट्टाणवडिय चउत्थभत्त चउप्पाइया (भुजपरिसर्पविशेष) चउरंससंठाणपरिणत चमर चरिमंतपएण चंद चंदणा चंदप्पभा चंपा चिवखल्ल चित्तपक्ख चित्तलग चित्तलिण 24 चोयासव छउमत्थ छट्ठभत्त 1587 छद्राणवडिय छत्तार छविय छायाणुवातगति छेदोवट्ठावणिय 28 छेवट्ठसंघयणणाम जणवयसच्च जमलपय 151 जरुल जलकंत 187 जलकंत (उदधिकुमारेन्द्र) 921 जलचारिय (चतुरिन्द्रिय जीव) 441 जलोउय 1806 85 जलोया (चर्मपक्षिविशेष) जवण 72 जवणालिया 779 जसोकित्तिणाम 1003 जहण्णगुणकक्खड जहण्णगुणकाल 1237 जहण्णगुणसीत जाइणाम जाइनामनिहत्ताउय जायणी 74 जाहा जिझगार xxx GGK जलोय 107 1702 545 457 547 1694 102 688 . 16.x 0 KG 866 85 106 Page #1502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २-शम्नानुक्रम [307 2054 270 1680 1680 1574 णिदा णिद्दा 865 णिद्दाणिद्दा 87 णिम्माणणाम 195 णिरयगतिणाम 1865 णिरयाणुपुग्विणाम शिसढ णिहत्ताउ 862 णिहि णीणिय 510 णीयागोय 1693 1709 1702 1098 @ 1003 * U MUur rr 60 MU01. 1695 णेडर * 1679 T जीवणिकाय जीवत्थिकाय जीवमिस्सिय जीवंजीव जोइसिय जोग जोगसच्च झिगिरा ठवणासच्च ठितलेस्सा ठितीचरिम ठितीणामणिहत्ताउय डोंब डोंबिलग णक्खत्त णगरणिद्धमण णम्मोहपरिमंडलसंठाणणाम णपुसगाणमणी णपुसगपण्णवणी णय गरदावणिया (?) गंगोली णंदावत्त णंदियावत्त णाग (नागकुमारदेव) णाग (द्वीप समुद्रनाम) णागफड णाण (ज्ञान) 1 A U 455 1019 1682 1685 148 m 1113 णेत्तावरण ऐत्तिय रइय गोइंदियनत्थोग्गह णोकसायवेयणिज्ज 1694 गोपज्जत्तयणोअपज्जत्तय एक तउसमिजिय तविदिय 105 तणुतणु तणुयतरी तणुवाय तप्पागारसंठिय 177 तमतमप्पभा 1003 तमप्पभा 177 तयाविस 110 तसकाइय 104 तसणाम 110 तंतुवाय 1702 तंदुलमच्छ 54 तामलित्ति 157 तिजमलपय 31 तित्थगर 107 तित्थगरणाम तीxc 2008 774 774 णात 1289 1693 106 णाम णारायसंघयणणाम णिोयजीव णिक्खुड णिग्धाय णिण्हइया 102 921 1406 1702 Page #1503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308] [प्रज्ञापनासूत्र 1684 1702 1098 तित्थसिद्ध तित्थगरसिद्ध तिरियगति तिरियगतिणाम तिरियलोय तुण्णाग तुरुक्क 105 1228 110 181 194 तेइंदिय तेइंदियजाइणाम तेदुरणमज्जिय तेयासमुग्धाय तोट्ठ थणिय थणियकुमार थलयर थावरणाम थिग्गल थिग्णाम थिरीकरण थीणगिद्धी 1003 774 195 404 16 दुहणाम 16 दूभगणाम 561 देवकुरु 1702 देवाणुपुग्विणाम 276 दोणमुह निवेस 106 दोसापुरिया 177 दोस्सिया 582 धण 1702 धमाससार 57 धम्मत्थिकाय धम्मरुइ धरण 177 धाय 1209 धायइसंड 1524 धूमप्पभा नक्खत्तदेवय 972 नक्खत्तविमाण नदी नपुंसगवेद 1680 नागकुमार निक्कंखिय निरयावलिया निरयावास 1587 निरुवक्कमाज्य निव्वत्त 106 निव्वत्तणा 107 निन्वितिगिच्छा निस्सग्गरुइ नीलपत्ता नीलमत्तिया नीललेस्सा 80 पउम (द्वीपसमुद्रनाम) 140 पउमुत्तरा (शर्कराविशेष) 177 पउस 140 पोगगति 17 पच्चक्ख 1118 1329 140 110 148 172 679 211 1009 दज्युप्फ दमिल दरिसणावरणिज्ज दब्वीकर दंतार दामिली दिट्टिवाय दिद्विविस दिली दिवसपुहटा दिव्वाग दिसाकुमार 110 905 Xur 0 0m 1180 1238 दीव दीवकुमार दुसमयसिद्ध 2085 54 Page #1504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 2 शम्दानुक्रम] 12 2052 2052 1470 98 177 1229 47 192 774 1985 102 1702 1548 23 1608 पच्चक्खवयण पच्चक्खाण पज्जत्त पज्जत्तगणाम पज्जत्ति पज्जव पट्टगार पडाग (मत्स्यविशेष) पडाग (सर्पविशेष) पडिरूव पडीणवाय पडुच्चसच्च पणगजीव पणगमत्तिया पण्णवणी पत्तविटिया पत्ताहार पत्तयजीव पत्तेयबुद्धसिद्ध पत्तेयसरीरणाम पदेसणामणिहत्ताउय पप्पडमोदन पप्पडिया पभंजण पम्हलेस्सा पयगदेव पयत पयलाउय पयलापयला परपति ट्ठिय परपुट्ठ परभवियाउय परमकण्हा परमत्थसंथन परस्सर पराधायणाम 896 परित्तजीव 1420 परिमंडलसंठाणपरिणय 353 परियारग 1702 परियारणा 1865 परिव्वायग 438 पल्हव 106 पवण पवालकुर पव्वय पसत्थविहायगतिणाम पंकप्पमा 862 पंचकिरिए 2175 पंचाला पंचिदिय पंचेंदियजाइणाम पंडगवण 57 पंडुमत्तिया 40 पामो (दो) सिया 16 पायहंस 1702 पारस 684 पारिग्गहिया 1238 पारिष्पवा पारियावणिया 187 पास (म्लेच्छजातिविशेष) पासणता 188 पाहुया पिपीलिया पियंगाला पियाल 1680 पिसुय पीबंधुजीवन पुक्खर (द्वीप-समुद्र) 167 पुक्खरसारिया 110 पुच्छणी 74 पुढवि (द्वीप-समुद्र) 1702 पुण्ण 1621 1567 ~ 1945 ~ ~ MUSurrx 57 1230 1003 886 Page #1505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] [प्रज्ञापनासूत्र 24 57 पुण्णभद्द पुत्तंजीवय पुष्फर्विटिया पुप्फुत्तरा पुमग्राणमणी पुमपण्णवणी पुमवयण पुमक्यू पुरिसलिंगसिद्ध पुरिसवेय 1693 1319 1312 243 244 22 102 1229 1003 पुलय 74 448 211 192 बादरकाय 40 बादरणाम बादरणिगोय 1238 वादरतसकाइय 834 बादरतेउकाइय 835 बादरनिगोद 857 वादरपुढविकाइय 833 बारवती 16 बालिंदगोव 1691 बाहिरपुक्खरद्ध 24 बिडाल 65 बुद्धबोहिय 56 बुद्धबोहियसिद्ध 98 बेइंदिय 1098 बोंदि 1112 भडग 1231 भत्ति 1326 भयणि स्सिया 106 भयसण्णा 107 भरिली 1420 भवचरिम 57 भवणवइ 1693 भवधारणिज्ज 973 भवपच्चइय 1105 भवसिद्ध 98 भवियदश्वदेव भवोवग्गहकम्म 88 भवोक्वातगति 187 भंडवेयालिय 195 भंडार 39 भारंडपक्खी 1085 भाव 1105 भावचरिम 1226 भावसच्चा (भाषाप्रभेद) 201 भाविदिय पुलग पूलाकिमि पुलिंद पुग्वविदेह पुत्ववेयाली पेहुण पोग्गलपरियट्ट पोत्थार पोलिदी पोसहोववास फलविटिय फासणाम फासिदिय फुसमाण गति बउस बब्बर बलागा बलि बहस्सति बहुबीयग बंधणच्छेयणगति बंधणविमोयणगति बंधुजीवन बंभलोन 725 812 1097 1529 1982 1392 1470 2170 1099 105 106 87 110 829 862 1064 . Page #1506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २-शब्दानुक्रम] [311 भासाचरिम भासारिय भिसकंद भिसमुणाल भीम भयग्र 192 189 174 187 192 174 1532 194 1098 102 849 194 77 भूयवाइय भूयाणंद भोगवईया (लिपिभेद) भोग (कुलार्य) भोगविस मइअण्णाणी मउलि (सर्पभेद) मगमिगकीड मरगण मघव मज्झिमउवरिमगेवेज्जग मज्झिमगेवेज्जग मज्झिममज्झिमगेवेज्जग मज्झिमहेट्रिमगेवेज्जग मणजोग मणपज्जत्ति मणपज्जवणाण मणपज्जवणाणारिय मणपरियारग मणभक्खण मणसखेत्त मत्तियावइ मदणसलागा मलय मसारगल्ल महदंडय महब्बला महाकदिय 814 महाकाय 101 महाकाल (व्यन्तरेन्द्र) 1238 महाकाल (नरक) 51 महाघोस 193 महापुरिस 1512 महापोंडरीय 1003 महाभीम 188 महारोरुम 181 महाविदेह 107 महावीर 104 महासुक्क 79 महासेत 488 महाहिमवंत 78 महिल 58 महिस 1798 महेसर 197 महोरग 432 मंकुणहत्थी 622 मंगूस 146 मंडलियावाय 146 मंढ 2173 मंदर 1904 मंदरपव्यय 452 मंसकच्छभ 108 माइमिच्छद्दिट्टिउववण्णग 2052 माईवाह 1864 माउलिंगी 1551 माणसमुग्धाय 102 माणिभद्द 88 मायासमुग्धात 98 मारणंतियसमुग्घाय 24 मालव मालवंतपरियाय 177 मालिण .94 मालुय 1003 1098 998 42 2033 192 2139 2056 1098 Page #1507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] [प्रज्ञापनासूत्र M मासपुरी (नगरी) माहिंद माहेसरी (लिपिविशेष) मिच्छत्त मिच्छत्तवेयणिज्ज मिच्छद्दिट्टि मिच्छादसणवत्तिया मिच्छादसणसल्ल मिलक्खू मुत्तालय मुद्धया मुरुड मुसं(सु)ढि मंजपाउयारा मूयलि मूस 102 रोम 196 रोसग 107 रोहिणीय 1667 रोहियमच्छ 1652 लउस 998 लट्टदंत 1129 लद्धि 1580 लवणसमुद्द 97 लंत 211 लंतगदेव 65 लाढ 98 लाभतराय 177 लालाविस लावग 202 102 r Y Y 0 0 0 0 0 195 Y Y / लेप्यार rocnm 1105 मेय मेरम मेलिमिद मेसरा 1105 149 2007 157 2133 1229 मेहमुह मेहणसण्णा मेंढमुह लेसा लेसागति लेसापरिणाम 1237 लेस्साणुवायगति 79 लोग्र लोगणाली 95 लोगनिखुड 725 लोभसमुग्धाय लोहियक्खमणि 188 लोहियपत्त लोहियमत्तिया 2174 लोहियवण्णणाम 1068 लहसिय 2174 वइउल वइजोग वइजोगपरिणाम 1229 वइराड 96 वइरोयणराय 1003 वइरोसभणारायसंघयणणाम 206 वइसुहया मोग्गर मोत्तिय मोसमणजोग मोसमणप्पयोग मोसवइजोग मोहणिज्ज रतणवडेंसय रत्तबंधुजीवन रम्मगवास रयण रयणवडेंसय 1702 1682 2173 931 102 180 1702 Page #1508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २-~-शम्पानुक्रम] वक्खार 774 1289 148 वग 56 52 177 891 58 622 1003 140 वग्ग वग्गणा वग्धमुह वज्जकंदम वज्झार वट्टग वडगर वणप्फइकाइय वणप्फइकाल वणयर वत्थ वयजोग वरण वराड वरुण वरेल्लग ववहारसच्च वसभवाहण वसिट्ठ वंकगति वंजणोग्गह वंजुलगा वसीपत्ता (योनिभेद) वसीमुह वाइंगण वाउकाइय वाउकुमार वाउक्कलिया वाउब्भाम वाणमन्तर वाणारसी वामणसंठाणणाम वारुणोदन 1003 वालुयप्पभा 849 वास 921 वासहरपव्वय 1245 वास (द्वीन्द्रिय जीव) 95 वासुदेव 1233 विउप्फेस विगयमिस्सिया (भाषाभेद) 88 विलिदिय 63 विचित्तपक्ख 447 विजय 1272 विजयवेजयंतीपडाग 1973 विजया 1003 विज्जाहरसेढि 2174 विज्जुकुमार 106 विज्जुदंत 56 विडिम 1003 विलतपक्खी 88 वित्थाररुइ 862 विदेह 198 विभंगणाण 187 वियडजोणिय 1105 वियडावति 1006 विलंब 88 विसाल 773 विहाणमग्गणा 56 विहायगतिणाम 42 वेउब्विय 238 वेउब्वियसमुग्धाय 140 वेजयंत 34 वेढला 34 वेणइया (लिपिविशेष) 650 वेणुदालि 102 वेदग 1694 वेदणासमुग्धाय 28 वेमाणिय 90 110 103 772 1098 187 194 1798 901 2066 426 65 107 187 2126 Page #1509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 87 212 1737 862 1732 95 समुद्दवायस सम्मत्त 866 सम्मत्तवेदणिज्ज 774 सम्मतसच्च 95 सम्मामिच्छत्त 197 सम्मामिच्छद्दिट्ठि 98 सम्मुच्छिममणुस्स 2174 सयपुष्फिंदीवर 2174 सयंबुद्ध सयंभुरमणसमुद्द 49 115 118 85 314] वेसाणिय वोक्काण वोयड (भाषाभेद) सक्करप्पभा सक्कुलिकण्ण सक्क सग सच्चमणजोग सच्चवइजोग सजोगिकेवली सणंकुमार सणिच्छर सण्णा सण्णी सण्णिभूय सण्णिहिय सण्हबादर-पुढविकाइय सोहमच्छ सतवच्छ सतवाइय सत्त सत्तविहबंधन सत्तविहवेदन सत्ति सत्यवाह सहपरियारग सन्निहिय सप्पुरिस सबर समचउरंससंठाणणाम समय समयखेत्त समंस 1502 in र rs सरीरणाम सरीरपज्जत्ति-अपज्जत्तय सरीरसंघातणाम सरीरंगोवंगणाम सरीरोगाहणा सलिंगसिद्ध सल्ला सव्वट्ठगसिद्धदेव सव्वणिरुद्ध सव्वद्धा सहसम्मुइया सहस्सक्ख सहस्सपत्त 85 x w a 1744 1260 ___ 57 211 1581 1788 188 1108 110 197 2052 106 773 1694 1702 193 संखार संखावत्ता (योनिभेद) संखेज्जजीविय संगयणणाम 17 संठाण 1550 संथारग 54 संपराइयबंधग 86 संभिन्न संवर 56 संवुक्क 2174 1699 2007 72 समुग्गपक्खी समुग्धाय समुद्दलिक्खा Page #1510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [315 1216 102 1694 192 194 140 2069 1301 239 239 251 परिशिष्ट 2 शम्दानुक्रम संवडजोणिय संसयकरिणी संसारअपरित्त संसारपरित्त साइयार सात सातावेदणिज्ज सामाइय सामाण सारंग सारा साहारण सिद्ध सिद्धत्थिय सिप्पारिय सिप्पिसंपुड सिरिकंदलग सिगिरिड सिंधुसोवीर सिंहल सीता (योनिभेद) सीमागार सीहकण्ण सीहमुह सुक्क सुक्कलेस्सा सुक्किलपत्त सुक्किलवण्णणाम सुत(य)अण्णाण सुतणाण सागारपासणता सुत्तवेयालिय 650 1301 159 56 773 सुयणाण 886 सुयविट 1379 सुर? 1376 सुरभिगंधणाम 135 सुरूव 2054 सुवच्छ 1690 सुवण्णकुमार सुहा (वेदनाभेद) 194 सुहुमनाउक्काइय 58 सूहमणाम 85 सुहमणिोय 54 सहमतेउकाइय 15 सुहमपज्जत्तय 1238 सुहमपुढविकाइय 101 सुहुमवणप्फइकाइय 56 सुहमवाउकाइय 71 संसुमार 58 सूईमुह 102 सूरसेण सूरा 738 सूलपाणि 68 सेडि (रोमपक्षीविशेष) 95 सेत 95 सेयकणवीर 210 सेयबंधुजीवय 1156 सेयविया (नगरी) सेयासोन 1702 सेलेसि 448 सेल्लगार 1948 सेवसंघयण 105 102 सोइंदिय 95 सोइंदियवंजणोग्गह 1702 सोत्तिय 51 सोमंगलग 1702 सोरिय 102 142 168 1231 1231 102 1231 2175 1702 सेह 88 973 सुत्तीमई 1018 सद्धदंत सुब्भिगंधणाम सुभम सुभगणाम Page #1511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] प्रज्ञापनासूत्र 194 सोवक्कमाउय सोवच्छिय सोहम्मकप्प हत्थिमुह हस्थिसोंड हयकण्ण हरिय हरिवास हरिस्सह हरिद्दपत्त हलिमच्छ 679 हारोस 57 हालाहला 589 हासरई 65 हिरण्णवय 57 हिल्लिय 95 हुंडसंठाणणाम 57 1694 98 1098 हेट्ठिमउवरिमगेवेज्जग 187 हेट्ठिममज्झिमगेवेज्जग 58 हेट्टिमहेट्ठिमगेवेज्जग 63 हेमवय 429 428 1942 1098 00 Page #1512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट--३ वनस्पति-नामानुक्रम शब्द ধ अइमुत्तय अइमुत्तयलता अक्क अक्कबोंदी अगघाडय अज्जए अज्जुण (बहु-बीजविशेष) अज्जुण (तृणविशेष) अट्टई अप्पा अप्फोया अलिसंद प्रव अस (स्स)कण्णी असाढ अंकोल्ल अंजणई अंतरकंद 187 शब्द सूत्राङ्क 45 एलवालुंकी 44 कक्कोडइ कक्खड कच्छ कच्छा कच्छुरी कच्छुल कणय कणग कण्णिया कण्ह कण्हकडवू कण्हकंद कदुइया करंज करीर कलंबुया कल्लाण कसेख्य कंकावंस 4410). re 1233 Koxxx पाए X 0orror.ro कंगू आलूगा इक्कड इक्खुवाडिय उदय उराल उब्वेहलिया उंवेभरिया एरंड एरावण 54 कंगूया 54 कंडावेलू 46 कंडुक्क 49 कंडुरिया 54 कंद 40 कंदली 47 कंदुक्क 42 कंबू 194 54 Page #1513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31] प्रज्ञापनासूत्र काउंबरी काअोली कागणी कायमाई कारियल्लई किट्टि किट्ठीया किण्हन किण्हे किमिरासि कुच्चकारिया 41 जासुमण जासुवण जियंत 42 जि(ज)यंति 45 जूहिया णल 54 णवणीइया 55 णहिया / णही जंगलइ णागरुक्ख गागलया णालीया णिरुहा कुज्जय कुडअ कुत्थुभरि णिहु कुर कुवधा (या) 1233 कुहण 45 जिंब 54 णीलकणवीरम 50 गोमालिया 40 तउस 54 तक्कलि तलऊडा 1227 43 ताल कोदूसा कोसंब खल्लड खीरकाओली गयमारिणी गंज गिरिकण्णा गोत्तफुसिया घोसाडइ चविता चंडी 41 1122 चुच्चु 42 तिमिर तिला 45 तिड्य 1233 तिंदु 1234 तिदूय 54 तुलसी 42 तुस 49 तेयलि 1122 तेंदूस ___ दव्वहलिया दव्वी 50 दहफुल्लई 42 दहिवन्न 48 दंती चोरग चोराण छिण्णरहा छीरविराली जवजवा जावइ जावति Page #1514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३--वनस्पति नामानुक्रम] दासि देवदारु देवदाली (वनस्पतिविशेष) देवदाली (वृक्ष विशेष) धव नालिएरी 178 1235 54 निष्फाव नीली पउम (कंद) पउमलता पउम 3 पउमा 42 पउल पत्तउर परिली पलंडू (कन्द) पलुगा पाढा पारग पालक्का पावल्लि पिलुक्खरुक्ख पीईय पीयासोग पीलु पुस्सफल 42 बिबफल 45 भट्ठ 1233 भद्दभुत्था 41 भमास (माष) 41 भल्ली 48 भंगी 50 भंडी (डा) 42 भाणी 54 भुयरुक्ख 44 भूयणय 853 मगदंतिय मज्जार 54 मणोज्ज मद्दग 42 मरुयग 54 मल्लिया 54 मसमा महित्थ 49 महुरतण 49 महररसा 45 महसिंगी 41 मंडुक्की 43 माढरी 1230 माल मालुय मासपण्णी 48 मासावल्ली 51 मियवलंकी 47 मिहु मुग्गपण्णी 49 मुसुंढी 40 मूलन मोगली मोग्गर 42 मोयइ 49 रत्तकणवीर << xxxxAKKAKKKA 54 मा पूयफली पोक्खलत्थिभ(भ)य पोडइला फणस फणिज्जय बउल बदर बाउच्चा बिल्ली (गुच्छवनस्पति) बिल्ली (हरिद्वनस्पति) 1233 1229 Page #1515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320] [प्रज्ञापनासूत्र 177 सारकल्लाण 41 सार 48 सिउंढि सित्ता 41 सिप्पिय 54 सिलिंधषुप्फ 54 सिंगबेर 45 सीयउरय सीवणि सीहकण्णी XXGXxx downGWK सुगंधिय 5 रत्तचंदण लउय लवंगरुक्ख लूणय लोद्ध लोयाणी लोहिणी वच्छाणी वत्थुल बलई वागली वाण वालंक वासंती वासंतीलया विम विहंगु वोडाण सण सतीण सत्तिवण्ण सप्पसुयंधा सप्फास समास इक्खु सयरी सरल सल्लइ सुभगा सुमणसा सुयवेय संकलितण YO सुंठ संठि सूरणकंद सूरवल्ली सेडिय सेरियय सेल सोत्थियसा G000 000 ANGM6 ससबिंदु संघट्ट साम सामलता हरडय 45 हरतणुया 45 हरितग 42 हिंगुरुक्ख 44 होत्तिय Page #1516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व० प्राचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म० द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए / अनध्यायकाल में स्वाध्याय वजित है / मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं / इसी प्रकार अन्य पार्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वणित किया गया है, जैसे कि दसविध अंतलिखिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा--उक्कावाते, दिसिदाघे, गज्जिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते / दसविहे ओरालिते प्रसज्झातिते, तं जहा-अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुतिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो पोरालिए सरीरगे। --स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 10 नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चहि महापाडिवएहि सज्झायं करित्तए, त जहा--- आसाढपाडिवए. इंदमहपाडिवए, कत्तिप्रपाडिवए सुगिम्हपाडिवए / नो कप्पइ निम्गंथाण वा निम्गंथीण वा. चाहिं संभाहिं सज्झायं करेत्तए, तंजहा–पढिमाते. पच्छिमाते. मज्झण्हे. अडढरत्ते / क निग्गंथाणं वा निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा--पुधण्हे अवरण्हे, परोसे, पच्चूसे / --स्थानाङ्गसूत्र, स्थान 4, उद्देश 2 उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार, दस प्राकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा को पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसे----- आकाश सम्बन्धी दस अनध्याय 1. उल्कापात-तारापतन--यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्रस्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 2. दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 3. गजित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / 4. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे / किन्तु गर्जन और विद्युत् का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह Page #1517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] [अनध्यायकाल गर्जन और विद्युत् प्रायः ऋतु-स्वभाव से ही होता है / अतः प्रार्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। 5. निर्घात--बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जना होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। 6. यूपक-शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया को सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है / इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / 7. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है, वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः अाकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 8. धूमिका-कृष्ण-कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 9. मिहिकाश्वेत-शीतकाल में श्वेत वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुध मिहिका कहलाती है / जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। 10. रज-उद्घात-वायु के कारण आकाश में चारों पोर धूलि छा जाती है / जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण अाकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं / औदारिक शरीर सम्बन्धी दस अनध्याय 11-12-13. हड्डी, मांस और रुधिर-पंचेन्द्रिय तियं च की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से ये वस्तुएँ उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार ग्रास-पास के 60 हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है / विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक / बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। 14. अशुचि-मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। 15. श्मशान-श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। 16. चन्द्रग्रहण चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य पाठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। 17. सूर्यग्रहण-सूर्य ग्रहण होने पर भी क्रमशः पाठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल माना गया है। Page #1518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल] [323 18. पतन-किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ़ न हो, तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए। राजव्यग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक और उसके पश्चात भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। 20. औदारिक शरीर-उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा 100 हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अस्वाध्याय के उपरोक्त 10 कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। 21-28. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा-आषाढ-पूर्णिमा, आश्विन-पूर्णिमा, कालिक. पूर्णिमा और चैत्र-पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमानों के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। 29-32. प्रातः. सायं. मध्याह्न और अर्धरात्रि-प्रातः सर्य उगने से एक घडी पहिले तथा एक घड़ी पीछे / सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहले तथा एक घड़ी पीछे / मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पोछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ो आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #1519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री प्रागम प्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों को शुभ नामावली महास्तम्भ संरक्षक 1. श्री सेठ मोहनमलजी चोरडिया, मद्रास 1. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली 2. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, 2. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली सिकन्दराबाद 3. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी महता, मेड़ता सिटी 3. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर 4. श्री श० जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, 4. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर बागलकोट 5. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग 5. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर 6. श्री एस. किशनचन्दजी चोरडिया, मद्रास 6. श्री मोहनलालजो नेमीचंदजी ललवाणी, 7. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी चांगाटोला 8. श्री सेठ खींवराजजी चोरडिया, मद्रास 7. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास 9. श्री गुमानमलजी चोरडिया, मद्रास 8. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगा१०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास टोला 11. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास 6. श्रीमती सिरेकुंवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगन१२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास चंदजी झामड़, मदुरान्तकम् 13. श्री जे. अन्नराजजी चोरडिया, मद्रास 10. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा 14. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास (K.G.F.) जाड़न 15. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोर- 11. श्री थानचंदजी मेहता, जोधपुर ड़िया, मद्रास 12. श्री भैरुदानजी लाभचंदजी सुराणा, नागौर 16. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरडिया, मद्रास 13. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर 17. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरडिया, मद्रास 14. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, स्तम्भ सदस्य ब्यावर 1. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर 15. श्री इन्द्रचंदजी बैद, राजनादगांव 2. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर 16. श्री रावतमलजी भीकमचंदजी पगारिया, 3. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास बालाघाट 4. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी 17. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला 5. श्री प्रार. प्रसन्नचन्दजी चोरडिया मद्रास 18. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर 6. श्री दीपचन्दजी बोकड़िया, मद्रास 16 श्री हरकचंदजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर 7. श्री मलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी 20. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचंदजी लोढ़ा, चांगा८. श्री बर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर है. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग 21. श्री सिद्धक रणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला टोला Page #1520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [325 22. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास 8. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली 23. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, 6. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास अहमदाबाद 10. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली 24. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली 11. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर 25. श्री रतनचंदजी उत्तमचंदजी मोदी, ब्यावर 12. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल 26. श्री धर्मीचंदजो भागचंदजी बोहरा, झूठा 13. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, 27. श्री छोगमलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा कुशालपुरा 28. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी 14. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर 26. श्री मूलचंदजी सुजानमलजी संचेती, जोधपर 15. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपूर 30. श्री सी. अमरचंदजी बोथरा, मद्रास 16. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर 31. श्री भंवरीलालजी मूलचंदजी सूराणा, मद्रास 17. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर 32. श्री बादलचंदजी जगराजजी मेहता, इन्दौर 18. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर 33. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन 16. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर 34. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपडा, अजमेर 20. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी W/o श्री ताराचन्दजी 35. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, गोठी, जोधपुर बैंगलोर 21. श्री रायचंदजी मोहनलालजी, जोधपुर 36. श्री भंवरीमलजी चोरडिया, मद्रास 22. श्री घेवरचंदजी रूपराजजी, जोधपुर 37. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास 23. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास 38. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा 24. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर 36. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी 25. श्री माणकचन्दजी किशनलालजी, मेड़तासिटी 40. श्री जबरचंदजी गेलड़ा, मद्रास 26. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर 41. श्री जड़ावमलजी सुगनचंदजी, मद्रास 27. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर 42. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास 28. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर 43. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास 26. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर 44. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास 30. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर 30. श्री ताराचदजा 45. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता. कोप्पल 31. श्री पासूभल एण्ड कं०, जोधपुर 32. श्री पुखराजजी लोढ़ा, जोधपुर सहयोगी सदस्य 33. श्रीमती सुगनीबाई W/o श्री मिश्रीलालजी 1. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़ता सिटी सांड, जोधपुर 2. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर 34. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर 3. श्री पूनमचंदजी नाहटा, जोधपुर 35. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर 4. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, 36. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर विल्लीपुरम् 37. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, 5. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर जोधपुर 6. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर 38. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया जोधपुर 7. श्री बी. गजराजजी बोकड़िया, सेलम 39. श्री मांगीलालजी चोरडिया, कुचेरा Page #1521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सदस्य-नामावली 40. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई 66. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा,भिलाई 41. श्री प्रोकचंदजी हेमराज जी सोनी, दुर्ग 70. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, 42. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास दल्ली-राजहरा 43. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग 71. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर 44. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) 72. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा जोधपुर 73. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कलकत्ता 45. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना 74. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, . श्री प्रेमराजजी मोठालालजी कामदार, कलकत्ता बैंगलोर 75. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर 47. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर 76. श्री जंवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, 48. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर बोलाराम 46. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला. 77. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया मेट्टपालियम 78. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सूराणा, पाली 50. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली 76. श्री मारणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला 51. श्री आसकरणजी जसराज जी पारख, दुर्ग 80. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढ़ा, ब्यावर 52. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई 81. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, 2. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन मेडतासिटी 83. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, 54. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर कुचेरा 55. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर 84. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया,भैरू दा 56. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर 85. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा 57. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर 86. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी 58. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता कोठारी, गोठन सिटी 87. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर 56. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर 88. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, 60. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, में जोधपुर 61. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां 86. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर 62. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर 10. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर 63. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई 61. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर 64. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा 62. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर 65. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर 63. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर 66. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा, 64. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलौर राजनादगाँव 65. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी श्री 67. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई स्व. पारसमलजी ललवाणी, गोठन 68. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, 16. श्री अखेचंदजी लूणकरणजी भण्डारी, कलकत्ता भिलाई 17. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनादगांव Page #1522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-नामावली] [327 68. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर 116. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी 66. श्री कुशालचंदजी रिखबचंदजी सुराणा, लोढ़ा, बम्बई बोलारम 117. श्री मांगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर 100. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, 118. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कुचेरा 116. श्री भीकमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, 101. श्री गूदडमलजी चम्पालालजी, गोठन (कुडालोर) मद्रास 102. श्री तेजराज जी कोठारी, मांगलियावास 120. श्रीमती अनोपकुवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी 103. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास संघवी, कुचेरा 104. श्री अमरचंदजी छाजेड, पादु बड़ी 121. श्री सोहनलालजो सोजतिया, थांवला 105. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास 122. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता 106. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास 123. श्री भीकमचंदजी गणेशमलजी चौधरी, 107. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मलादेवी, मद्रास धूलिया 108. श्री दुले राजजी भंवरलालजी कोठारी, 124. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, कुशालपुरा सिकन्दराबाद 106. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह 125. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, 110. श्री जीवराजजी भंवरलालजी, चोरडिया सिकन्दराबाद भैरूदा 126. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, 111. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, बगड़ीनगर हरसोलाव 127. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, 112. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर बिलाड़ा 113. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर 128. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास 114. श्री भूरमलजी दुल्लीचंदजी बोड़िया, मेड़ता 126. श्री मोतीलालजी प्रासूलालजी बोहरा सिटी एण्ड कं., बैंगलोर 115. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पालो 130. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ 00 Page #1523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिमत 'व्याख्या-प्रज्ञप्ति' जैनों का भगवतीसूत्र है। यह अद्धमागधी प्राकृत में निबद्ध आगमों में पांचवां तथा विशालकाय विशिष्ट रचना है / जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्त स्याद्वाद का बीज सर्वप्रथम इसी में मिलता है। इसके अलावा यह जैन इतिहास, संस्कृति एवं विविध विद्यायों, कलाओं तथा अन्यान्य विषयों का अद्भुत विश्वकोश है। मुद्रण एवं छपाई के आकर्षक होने के साथ ही साथ सुवाच्य अनुवाद, अत्युत्तम विषय प्रतिपादन शैली एवं अत्यन्त उपयोगी पाद-टिप्पणों का मनोरम त्रिवेणी संगम भजनीय है। वाणीभूषण मुनिश्री अमरजी महाराज बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। उनकी सम्पादनक्षमता एवं उच्चकोटि को विद्वत्ता सराहनीय है। निस्संदेह उनका यह सफल प्रयास प्राध्यात्मिक विकास एवं सांस्कृतिक चेतना के क्षेत्र में शोधमुमुक्षुओं को अधिक लाभान्वित करेगा। इस सुश्रुत सेवा के आदि प्रेरणा स्रोत एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य, बहुश्रुत मुनिश्री मधुकरजी महाराज तथा प्रकाशन संस्था को शतशः साधुवाद / —डॉ. धर्मचन्द जैन, एम. ए. (संस्कृत, पाली), पी. एच. डी. आचार्य (संस्कृत, जैनदर्शन) कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र Jain Education international For Private & Personal use only Page #1524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमप्रकाशन समिति द्वारा अद्यावधि प्रकाशित आगम पृष्ठ 640 25) 50) प्रन्यांकनाम अनुवादक-सम्पादक 1. आचारांगसूत्र [प्र. भाग] 426 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 2. प्राचारांगसूत्र [द्वि. भाग] श्रीचन्द सुराना 'सरस' 3. उपासकदशांगसूत्र 250 डॉ. छगनलाल शास्त्री 4. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र पं० शोभाचन्द्र भारिल्ल 5. अन्तकृद्दशांगसूत्र 248 साध्वी दिव्यप्रभा 6. अनुत्तरोपपातिकसूत्र 120 साध्वी मुक्तिप्रभा 7. स्थानांगसूत्र 824 पं० हीरालाल शास्त्री 8. समवायांगसूत्र पं० हीरालाल शास्त्री 9. सूत्रकृतांगसूत्र [प्र. भाग] 562 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 10. सूत्रकृतांगसूत्र [द्वि. भाग] 280 श्रीचन्द सुराना 'सरस' 11 विपाकसूत्र 208 अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 12. नन्दीसूत्र 252 अनु. साध्वी उमरावकुवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. 13. प्रोपपातिकसूत्र 242 डॉ. छगनलाल शास्त्री 14. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [प्र. भाग] 568 अमरमुनि 15. राजप्रश्नीयसूत्र 284 वाणीभूषण रतनमुनि 16. प्रज्ञापनासूत्र [प्र. भाग] 568 जैनभूषण ज्ञानमुनि 17. प्रश्नव्याकरणसूत्र 356 अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल 18. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [द्वि. भाग] 666 अमरमुनि 19. उत्तराध्ययनसूत्र 842 राजेन्द्रमुनि शास्त्री 20. प्रज्ञापनासूत्र [द्वि. भाग] 542 जैनभूषण ज्ञानमुनि 21. निरयावलिकासूत्र देवकुमार जैन 22. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र[तृ. भाग] 836 / / अमरमुनि 23. दशवकालिकसूत्र 532 महासती पुष्पवती 24. आवश्यकसूत्र 188 महासती सुप्रभा एम. ए., शास्त्री 25. व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चतुर्थ भाग] 908 अमरमुनि 26. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र 476 डॉ. छगनलाल शास्त्री 27. प्रज्ञापनासूत्र [तृ. भाग] 368 जैनभूषण ज्ञानमुनि शीघ्र छपकर तैयार होने वाले सूत्रअनुयोगद्वारसूत्र आदि 25)