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[108] The form of the *praharak* bodies of these bound-liberated *praharak-tejaskarma* bodies should be understood like the *nairyikas*, the form of the bound *tejaskarma* bodies should be understood like the bound *vaikriya* bodies, and the form of their liberated *tejaskarma* bodies should be understood like the liberated *tejaskarma* of the *audik*s. The form of the bound-liberated bodies of the *ekendriya*s should be understood as follows:
[1] "Bhagavan! How many *oudarik* bodies are there for the *prithvikaayikas*?" "Gautama! They are said to be of two types: bound and liberated. Of those, the bound are countless. In terms of time, they are taken away by countless *utsarpini*s and *avsarpinis*. In terms of space, they are countless *lokas*. Of those, the liberated are infinite. In terms of time, they are taken away by infinite *utsarpini*s and *avsarpinis*. In terms of space, they are infinite *lokas*. In terms of substance, they are infinite times greater than the *abhavya*s, and they are an infinite part of the *siddhas*."
[2] "Bhagavan! How many *vaikriya* bodies are there for the *prithvikaayikas*?" "Gautama! They are said to be of two types: bound and liberated. Of those, the bound are not there. Of those, the liberated should be understood in the same way as the *oudarik* bodies of these."
[3] "And so it is with the *praharak* bodies."
[4] "The *tejaskarma* bodies (of these bound-liberated) should be understood like the bound-liberated *oudarik* bodies of these."
________________ 108] [ प्रज्ञापनासूत्र इनके बद्ध-मुक्त प्राहारक-तैजसकामण शरीर इनके प्राहारकशरीरों की प्ररूपणा नैरयिकों की तरह, बद्ध तैजस-कार्मण बद्धवैक्रियशरीरों की तरह, तथा इनके मुक्त तैजस-कार्मणशरीरों की प्ररूपणा औधिक मुक्त तेजस के समान समझनी चाहिए।' एकेन्द्रियों के बद्ध-मुक्त शरीरों की प्ररूपणा 614, [1] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया पोरालियसरीरगा पण्णता ? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धल्लया य मक्केल्लया य / तत्थ गंजे ते बद्धलगा ते णं असंखेज्जा, असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीहि अवहीरंति कालतो, खेत्तनो असंखेज्जा लोगा। तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं प्रणता, अणताहि उस्सप्पिणि-श्रोसप्पिणीहि प्रवहीरंति कालो, खेत्तो अणंता लोगा, अभवसिद्धिएहितो अणंतगुणा, सिद्धाणं अणंतभागो। [914-1 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं ? [914-1 उ.] गौतम ! (वे) दो प्रकार के कहे गये हैं—बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा से—(वे) असंख्यात उत्सपिणियों और अवसर्पिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से वे असंख्यात लोक-प्रमाण हैं। उनमें जो मुक्त हैं, वे अनन्त हैं / कालतः (बे) अनन्त उत्सपिणियों और अवसपिणियों से अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः (वे) अनन्तलोक-प्रमाण हैं / (द्रव्यत: वे) अभव्यों से अनन्तगुणे हैं, सिद्धों के अनन्तवें भाग हैं। [2] पुढविकाइयाणं भंते ! केवतिया वेउब्वियसरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता। तं जहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य / तत्थ णं जे ते बद्धल्लगा ते णं णस्थि / तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं जहा एतेसिं चेव ओरालिया भणिया तहेव भाणियन्या / [914-2 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिकों के वैक्रिय शरीर कितने कहे गये हैं ? [614-2 उ.] गौतम! (वे) दो प्रकार के कहे गए हैं-बद्ध और मुक्त / उनमें जो बद्ध हैं, वे इनके नहीं होते। उनमें जो मुक्त हैं, उनके विषय में, जैसे इन्हीं के औदारिकशरीरों के विषय में कहा गया है, वैसे ही कहना चाहिए। [3] एवं प्राहारगसरीरा वि। _ [914-3] इनके पाहारकशरीरों की वक्तव्यता इन्हीं के वैक्रियशरीरों के समान समझनी चाहिए। [4] तेया-कम्मगा जहा एतेसि चेव पोरालिया। [614-4] (इनके बद्ध-मुक्त) तैजस-कार्मणशरीरों (की प्ररूपणा) इन्हीं के बद्ध-मुक्त औदारिक शरीरों के समान समझनी चाहिए। - - --- ----- 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 276-277 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org