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[Twenty-first Avagahaanasthana Pada] [445 [5] and Soham Jaav Achyutadeva Sharira. 11526-5] In the same way, from Saudharma to Achyuta Kalpa (one should describe the institutions of the Bhavadharaniya and Uttara Vaikriya Sharira of the Kalpopapann Vaimanika Devas). [6] "Bhanta! What is the institution of the Panchaendriya Vaikriya Sharira of the Graiveyak Kalpaatiya Vaimanika Devas?" [1526-6 Pra.] "Gautama! The Graiveyak Devas have only one Bhavadharaniya (Vaikriya) Sharira, and it is of the Samachaturasra institution." [7] And the same for the five Anuttaroupapathika Vaimanika Devas. [1526-7]
________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद] [445 [5] एवं सोहम्म जाव अच्चुयदेवसरीरे। 11526-5] इसी प्रकार सौधर्म से लेकर यावत् अच्युत कल्प के (कल्पोपपन्न वैमानिकों के भवधारणीय और उत्तर वैक्रियशरीर के संस्थानों का कथन करना चाहिए।) [6] गेवेज्जगकप्पातीयवेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरोरे णं भंते ! किसंठिए पण्णते ? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगे भवधारणिज्जे सरोरए, से णं समच उरंससंठाणसंठिए पण्णते / [1526-6 प्र.] भगवन् ! ग्रैवेयककल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? उ.] गौतम ! ग्रेवेयक देवों के एकमात्र भवधारणीय (वैक्रिय) शरीर ही होता है और वह समचतुरस्र संस्थान वाला होता है। [7] एवं अणुत्तरोववातियाण वि। [1526-7] इसी प्रकार पांच अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देवों के भो (भवधारणोय वैक्रियशरीर ही होता है और वह समचतुरस्त्रसंस्थान वाला होता / ) विवेचन-वैक्रियशरीरों के संस्थान का निरूपण-प्रस्तुत 6 सूत्रों (सू. 1521 से 1526 तक) में समस्त प्रकार के वैक्रियशरीर-धारो जीवों को लक्ष्य में लेकर तदनुसार उनके संस्थानों का निरूपण किया गया है।' वैक्रियशरीर के प्रकार एवं तत्सम्बन्धी संस्थान-विचार-समुच्चय वैक्रियशरीर, वायुकायिक वैक्रियशरीर तथा समस्त तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रियों और मनुष्यों के वैक्रियशरीर के सिवाय समस्त नारकों और समस्त देवों के वैक्रियशरीर के संस्थान की चर्चा करते समय भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय शरीरों को लक्ष्य में लेकर उनके संस्थानों का विचार किया गया है। भवधारणीय वैक्रियशरीर वह है, जो जन्म से ही प्राप्त होता है और उत्तरवैक्रियशरीर स्वेच्छानुसार नाना प्राकृति का निर्मित किया जाता है / नैयिकों के अत्यन्त क्लिष्ट कर्मोदयवश, भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, दोनों शरीर हुण्डकसंस्थान वाले ही होते हैं। उनका भवधारणीय शरीर भवस्वभाव से हो, ऐसे पक्षो के समान बीभत्स हुण्डकसंस्थान वाला होता है, जिसके सारे पंख तथा गर्दन आदि के रोम उखाड़ दिये गए हों। यद्यपि नारकों को नाना शुभ-प्राकृति बनाने के लिए उत्तरवैक्रियशरीर मिलता है तथापि अत्यन्त अशुभतर नामकर्म के उदय से उसका भी प्राकार हुण्डकसंस्थान जैसा होता है। अतएव वे शुभ आकार बनाने का विचार करते हैं, किन्तु अत्यन्त अशुभनामकर्मोदयवश हो जाता है—अत्यन्त अशभतर / तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनष्यों को जन्म से वैक्रियशरीर नहीं मिलता, तपस्या ग्रादि जनित लब्धि के प्रभाव से मिलता है। वह नानासंस्थानों वाला होता है / दश प्रकार के भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और कल्पोपपन्नवैमानिक देवों का प्रत्येक का भवधारणीय शरीर भवस्वभाव से तथाविध शुभनामकर्मोदयवश समचतुरस्रसंस्थान वाला होता है। इच्छानुसार प्रवृत्ति करने के 1. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट-प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 2. वही, भा. 2, पृ. 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org