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[876] "Bhagavan! What about the substances that the jiva takes in as language and then expels, does it expel them *santar* or *nirantar*?" [876] "Gautama! It expels them *santar*, not *nirantar*. While expelling *santar*, the jiva takes in the substances fit for language at one time and expels them at another time. Through this process of taking in and expelling, it takes in and expels from the most insignificant two moments to the most excellent countless moments."
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________________ 82] [प्रज्ञापनासूत्र 876. जोवे णं भंते ! जाइं दवाइं भासत्ताए गहियाई णिसिरति ताई कि संतरं णिसिरति ? णिरंतर णिसिरति ? गोयमा! संतरं णिसिरति, णो णिरंतरं णिसिरति / संतरं णिसिरमाणे एगेणं समएणं गेण्हइ एगेणं समएणं णिसिरति, 10 निनिनिनिनि नि नि .... निनांना Hएएणं गहण-णिसिरणोवाएणं जहण्णेणं दुसमइयं उक्कोसेणं असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं गहण-णिसिरणोवायं (णिसिरणं) करेति / [879 प्र.] भगवन् ! जिन द्रव्यों को जीव भाषा के रूप में ग्रहण करके निकालता है (त्यागता है), क्या वह उन्हें सान्तर निकालता है या निरन्तर निकालता है ? [876 उ.) गौतम ! (वह उन्हें) सान्तर निकालता है, निरन्तर नहीं निकालता (त्यागता)। सान्तर निकालता हुमा जीव एक समय में (उन भाषायोग्य द्रव्यों को) ग्रहण करता है और एक समय में निकालता (त्यागता) है। इस ग्रहण और निःसरण के उपाय से जघन्य दो समय के और उत्कृष्ट असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त तक ग्रहण और निःसरण करता है। विवेचन-जीव द्वारा ग्रहणयोग्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सु. 877 से 879 तक) में जीव ग्राह्य स्थित भाषाद्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किनकिन रूपों में, कैसे-कैसे ग्रहण करता है, इसकी सांगोपांग चर्चा की गई है। मुखादि से बाहर निकालने से पूर्व ग्राह्य भाषाद्रव्यों के विभिन्न रूप-यह तो पहले बताया जा चुका है कि जीव भाषा निकालने से पूर्व भाषा के रूप में परिणत करने के लिए भाषाद्रव्यों को अर्थात् भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन तीन सूत्रों में इन्हीं ग्राह्य भाषाद्रव्यों की चर्चा का निष्कर्ष क्रमश: इस प्रकार है (1) जीव स्थित (स्थिर, हलन-चलन से रहित) द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थिर (गमनक्रियायुक्त) द्रव्यों को नहीं। (2) वह स्थित द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से ग्रहण करता है। (3) द्रव्य से, एकप्रदेशी (एक परमाणु) से लेकर असंख्यातप्रदेशी भाषाद्रव्यों को ग्रहण नहीं करता, क्योंकि वे स्वभावतः अग्राह्य होते हैं, किन्तु अनन्तप्रदेशी द्रव्यों को ही ग्रहण करता है, क्योंकि अनन्त परमाणुओं से बना हुया स्कन्ध ही जीव द्वारा ग्राह्य होता है। (4) क्षेत्र से, भाषारूप में परिणमन करने के लिए ग्राह्य भाषाद्रव्य आकाश के एक प्रदेश से लेकर संख्यात प्रदेशों में अवगाह वाले नहीं होते, किन्तु असंख्यात प्रदेशों में अवगाढ होते हैं / (5) काल से, वह एक समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों से लेकर असंख्यात समय की स्थिति वाले भाषाद्रव्यों तक को ग्रहण करता है, क्योंकि पुद्गलों (अनन्तप्रदेशी स्कन्ध) की अवस्थिति (हलनचलन से रहितता) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट असंख्यातसमय तक रहती है। (6) भाव से, भाषा रूप में ग्राह्य द्रव्य वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले होते हैं / (7) भावत: वर्ण वाले जिन भाषाद्रव्यों को ग्रहण करता है, वे ग्रहणयोग्य पृथक्-पृथक् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003483
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages1524
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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