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[284] [Prajñāpanā Sūtra] Gotama! I do not understand this. Why, Bhante? Thus it is said: In the case of a Chhadmastha, do they perceive any color with the eye, any smell with the nose, any taste with the tongue, or any touch with the skin? Gotama! The Jambudvipa is a continent, situated in the midst of all the continents and oceans, the smallest of all, circular in shape, like a sesame seed, like a chariot wheel, like a lotus seed, and like a full moon. It is one hundred thousand yojanas in length and breadth. Three hundred thousand, sixteen thousand, two hundred twenty-seven yojanas, three kosas, one hundred eighteen dhanus, thirteen and a half angulas, with a little more circumference, it is said. A god, endowed with moderate or great happiness, takes a large box of fragrant ointment, and opens it. Then, that large box of fragrant ointment, which is open,
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________________ 284] [प्रज्ञापनासूत्र गोयमा ! णो इणठे समझें। से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चति छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वि वणेणं वणं गंधणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? गोयमा ! प्रयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव-समुद्दाणं सम्वन्भंतराए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूधसंठाणसंठिए बट्टे रहचक्कवालसंठाणसंठिए बट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिते वट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एग जोयणसयसहस्सं पायाम-विक्खंभेणं, तिणि य जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोणि य सत्तावीसे जोयणसते तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसतं तेरस य अंगलाई प्रद्धंगुलं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते। देवे णं महिड्ढोए जाव महासोक्खे एगं महं सविलेवणं गंधसमुग्गयं गहाय तं प्रवदालेति, तं महं एगं सविलेवणं गंधसमुग्गयं प्रवदालेता इणामेव कटु केवलकप्पं जबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छराणिवातेहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से पूर्ण गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे तेहि घाणपोग्गलेहि फुडे ? हंता फुडे / छउमत्थे णं गोतमा! मणसे तेसि घाणपोग्गलाणं किंचि वण्णणं वण्णं गंधणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणति पासति ? भगवं ! जो इणठे समझें। से तेणठेणं गोयमा ! एवं बच्चति छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वण्णणं वणं गंधेणं गंधं रसेणं रसं फरसेणं फासं जाणति पासति, एसुहमा णं ते पोग्गला पणत्ता समणाउसो ! सबलोगं पि य णं फुसित्ता णं चिट्ठति / [2166 प्र. भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के चक्षु-इन्द्रिय (वर्ण) से किंचित वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय (गन्ध) से गन्ध को, रसनेन्द्रिय (रस) से रस को, अथवा स्पर्शेन्द्रिय से से स्पर्श को जानता-देखता है ? [2169 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य (समर्थ) नहीं है / [प्र.] भगवन् ! किस कारण ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के चक्षुइन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्ध को, रसनेन्द्रिय से रस को तथा स्पर्शन्द्रिय से स्पर्श को किंचित् भी नहीं जानता-देखता ? उ.] गौतम ! यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, वत्ताकार (गोल) है, तेल के पूए के प्रकार का है, रथ के पहिये (चक्र) के आकार-सा गोल है, कमल की कणिका के प्राकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार-सा गोल है। लम्बाई और चौड़ाई (आयाम एवं विष्कम्भ) में एक लाख योजन है। तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस प्रोजन तीन कोस. एक-सौ अट्राईस धनुष, साढे तेरह अंगल से कुछ विशेषाधिक परिधि से युक्त कहा है। एक मद्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन सहित सुगन्ध की एक बड़ी डिबिया को (हाथ में लेकर) उसे खोलता है। फिर विलेपनयुक्त सुगन्ध की खुली हुई उस बड़ी डिबिया को, इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003483
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages1524
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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