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Chautisa Paricharnapa (The Thirty-four Attendants)
(1) There are 213 Paricharak Devas (Attendant Devas), and they have innumerable Shabdaparicharak Devas (Devas who attend through sound), who in turn have innumerable Rupaparicharak Devas (Devas who attend through form), who have innumerable Sparshparicharak Devas (Devas who attend through touch), and they have innumerable Kayaparicharak Devas (Devas who attend through body).
(2) In the sixth door called 'Paricharnana' (Attending), the various aspects of the Devas' attending have been discussed primarily from four perspectives: (1) Do the Devas attend with or without the Devis (female Deities)? And are there also Aparicharak (non-attending) Devas? (2) The five types of attending, which Devas perform which type of attending, and which Devas are Aparicharak? (3) The nature, method, and result of attending from Kayaparicharnana (attending through body) to Manah-paricharnana (attending through mind). (4) The relative prevalence of Paricharak (attending) and Aparicharak (non-attending) Devas.
(3) The key conclusions are: (1) There are no Devas who are completely devoid of attending even when residing with the Devis; some Devas attend with the Devis, some Devas attend without the Devis, and some Devas are devoid of both Devis and attending. (2) The Vaimanikas (celestial Devas) from Bhavanapatni to Ishanakalpas have Sadevika (with Devis) as well as Paricharnana (attending). However, the Vaimanikas from Sanatkumara to Achyutakalpa do not reside with Devis, yet they have Paricharnana. These Devas attend the Devis born in Dharma and Ishanakalpas through touch, form, sound, and mind. (3) The Devas from Bhavanapatni to Ishanakalpas perform Kayaparicharnana (attending through body), the Devas of Sanatkumara and Mahendrakalpa perform Sparshparicharnana (attending through touch), the Devas of Brahmaloka and Lantakakalpa perform Rupaparicharnana (attending through form), the Devas of Mahasukra and Sahasrarakalpa perform Shabdaparicharnana (attending through sound), and the Devas of Panata, Pranata, Parana, and Achyutakalpa perform Manaḥparicharnana (attending through mind). (4) The Nava Graivayas and Panca Anuuttaravimanavasins are devoid of both Devis and Paricharnana, and their Purushavedas (male sexual desires) are extremely feeble, so they do not perform Manaḥparicharnana either.
________________ चौतीसा परिचारणापत्र (213 हैं, उनसे असंख्यातगुणे शब्दपरिचारक देव हैं, उनसे रूपपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं, उनसे स्पर्शपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं और उनसे कायपरिचारक देव असंख्यातगुणे हैं। विवेचन-विविध पहलों से देव-परिचारणा पर विचार-प्रस्तुत परिचारणा' नामक छठे द्वार में मुख्यतया चार पहलुगों से देवों की परिचारणा पर विचार किया गया है-(१) देव देवियों सहित ही परिचार करते हैं या देवियों के बिना भी? तथा क्या देव अपरिचारक भी होते हैं ? (2) परिचारणा के पाँच प्रकार, कौन देव किस प्रकार की परिचारणा करते हैं और कौन देव अपरिचारक हैं ? (3) कायपरिचारणा से लेकर मनःपरिचारणा तक का स्वरूप, तरीका और परिणाम / और अन्त में (4) परिचारक-अपरिचारक देवों का अल्पबहुत्व / ' निष्कर्ष - (1) कोई भी देव ऐसा नही होता, जो देवियों के साथ रहते हुए परिचाररहित हो, अपितु कतिपय देव देवियों सहित परिचार वाले होते हैं, कई देव देवियों के बिना भी परिचारवाले होते हैं / कुछ देव ऐसे भी होते हैं, जो देवियों और परिचार, दोनों से रहित होते हैं। (2) भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशानकल्प के वैमानिक देव सदेवीक भी होते हैं और परिचारणा से युक्त भी। अर्थात् देवियाँ वहाँ जन्म लेती हैं। अतः वे देव उन देवियों के साथ रहते हैं और परिचार भी करते हैं। किन्तु सनत्कुमार से लेकर अच्युतकल्प तक के वैमानिक देव देवियों के साथ नहीं रहते, क्योंकि इन देवलोकों में देवियों का जन्म नहीं होता। फिर भी वे परिचारणासहित होते हैं। ये देव धर्म और ईशानकल्प में उत्पन्न देवियों के साथ स्पर्श, रूप, शब्द और मन से परिचार करते हैं। ___ भवनपति से लेकर ईशानकल्प तक के देव शरीर से परि चारणा करते हैं, सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प के देव स्पर्श से, ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देव रूप से, महाशुक्र और सहस्रारकल्प के देव शब्द से और पानत, प्राणत, पारण और अच्युतकल्प के देव मन से परिचारणा करते हैं। नौ ग्रैवेयक और पांच अनुत्तरविमानवासी देव देवियों और परिवारणा दोनों से रहित होते हैं / 2 उनका पुरुषवेद अतीव मन्द होता है। अतः वे मन से भी परिचारणा नहीं करते / इस पाठ से यह स्पष्ट है कि मैथुनसेवन केवल कायिक ही नहीं होता, वह स्पर्श, रूप, शब्द और मन से भी होता है। कायपरिचारक देव काय से परिचारणा मनुष्य नर-नारी की तरह करते हैं, असुरकुमारों से लेकर ईशानकल्प तक के देव सक्लिष्ट उदयवाले पुरुषवेद के वशीभूत होकर मनुष्यों के समान वैषयिक सुख में निमग्न होते हैं और उसी से उन्हें तृप्ति का अनुभव होता है अन्यथा तृप्ति-सन्तुष्टि नहीं होती। स्पर्शपरिचारक देव भोग की अभिलाषा से अपनी समीपवतिनी देवियों के स्तन, मुख, नितम्ब आदि का स्पर्श करते हैं और इसी स्पर्शमात्र से उन्हें कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित सुख एवं वेदोपशान्ति का अनुभव होता है। रूपपरिचारक देव देवियों के सौन्दर्य, कमनीय एवं काम के आधारभूत दिव्य-मादकरूप को देखने मात्र से कायपरिचारणा की अपेक्षा अनन्तगुणित वैषयिक 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 845 से 853 (ख) पण्णवणासुतं भा. 1 (मूलपाठ टिप्पण), पृ. 421 से 423 तक 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 549 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org