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Jain Terms Preserved:
The Blessed Lord said: "O Gautama! Among the Jivas (living beings) who are Saccabhāsaga (truth-speakers), Mosabhāsaga (false-speakers), Saccāmosabhāsaga (truth-and-false-speakers), Prasaccāmosabhāsaga (predominantly truth-and-false-speakers), and Prabhāsaga (non-speakers), which ones are less, more, equal, and specially more in number?"
Gautama replied: "O Blessed Lord! The Saccabhāsaga Jivas are the least in number. The Saccāmosabhāsaga Jivas are innumerable times more than them. The Mosabhāsaga Jivas are innumerable times more than the Saccāmosabhāsaga Jivas. The Prasaccāmosabhāsaga Jivas are innumerable times more than the Mosabhāsaga Jivas. And the Prabhāsaga Jivas are infinitely more than the Prasaccāmosabhāsaga Jivas."
This exposition on the gradation of the five types of Jivas in terms of their Prājñapanātva (truthfulness) and Āradhakātva-Virādhakātva (worthiness of reverence or otherwise) is presented in the five sutras (896 to 900).
________________ 92] [ प्रज्ञापनासून 600. एतेसि णं ते ! जीवाणं सच्चभासगाणं मोसभासगाणं सच्चामोसभासगाणं प्रसच्चामोसभासगाणं प्रभासगाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सच्चभासगा, सच्चामोसभासगा प्रसंखेज्जगुणा, मोसभासगा असंखेज्जगुणा, प्रसच्चामोसभासगा असंखेज्जगुणा, प्रभासगा प्रणंतगुणा। पण्णवणाए भगवईए एक्कारसमं भासापयं समत्तं // [600 प्र.] भगवन् ! इन सत्यभाषक, मृषाभाषक, सत्यामृषाभाषक और असत्यामषाभाषक तथा अभाषक जीवों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [900 उ.] गौतम ! सबसे थोडे जीव सत्यभाषक हैं, उनसे असंख्यातगुणे सत्यामृषाभाषक हैं, उनकी अपेक्षा मृषाभाषक असंख्यातगुणे हैं, उनसे असंख्यातगुणे असत्यामृषाभाषक जीव हैं और उनकी अपेक्षा प्रभाषक जीव अनन्तगुणे हैं। विवेचन-सोलह वचनों और चार भाषाजातों के प्राराधक-विराधक एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा---प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 896 से 100 तक) में सोलह प्रकार के वचनों तथा सत्यादि चार प्रकार की भाषाओं का उल्लेख करके उनकी प्रज्ञापनिता (सत्यता) और उनके भाषकों की आराधकता-विराधकता की प्ररूपणा की गई है। अन्त में उक्त चारों प्रकार की भाषाओं के भाषकों के अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। सोलह प्रकार के वचनों को व्याख्या--१. एकवचन-एकत्वप्रतिपादक भाषा, जैसे पुरुषः अर्थात्-एक पुरुष / 2. द्विवचन-द्वित्वप्रतिपादक भाषा, जैसे-पुरुषौ, अर्थात्-दो पुरुष। 3. बहुबचन-बहुत्वप्रतिपादक कथन, जैसे-पुरुषाः अर्थात-बहुत-से पुरुष / 4. स्त्रीवचन-स्त्रीलिंगवाचक शब्द, जैसे- इयं स्त्री-यह स्त्री / 5. पुरुषवचन-पुल्लिगवाचक शब्द, जैसे--अयं पुमान् - यह पुरुष / 6. नपुसकवचन–नपुसकत्ववाचक शब्द, जैसे-इदं कुण्डम्-यह कुण्ड / 7. अध्यात्मवचन- मन में कुछ और सोच कर ठगने की बुद्धि से कुछ और कहना चाहता हो, किन्तु अचानक मुख से वही निकल पड़े, जो सोचा हो। 8. उपनोतवचन-प्रशंसावाचक शब्द, जैसे-'यह स्त्री अत्यन्त सुशीला है।' 6. अपनीतवचन-निन्दात्मक वचन, जैसे----यह कन्या कुरूपा है। 10. उपनीतापनीतवचन-पहले प्रशंसा करके फिर निन्दात्मक शब्द कहना, जैसे--यह सुन्दरी है, किन्तु दुःशीला है। 11. अपनीतोपनीतवचन--पहले निन्दा करके, फिर प्रशंसा करने वाला शब्द कहना. जैसे-यह कन्या यद्यपि कुरूपा है, किन्तु है सुशीला। 12. अतीतवचन-भूतकालद्योतक वचन, जैसे--अकरोत् (किया)। 13. प्रत्युत्पन्नवचन-वर्तमानकालवाचक वचन, जैसे-करोति (करता है) / 14. अनागतबचन-भविष्यत्कालवाचक शब्द, जैसे--करिष्यति (करेगा)। 15. प्रत्यक्षवचन–प्रत्यक्षसूचक शब्द, जैसे-'यह घर है।' और 16. परोक्षवचन--परोक्षसूचक शब्द, जैसे-वह यहाँ रहता था। ये सोलह ही बचन यथावस्थित-वस्तुविषयक हैं, काल्पनिक नहीं, अतः जब कोई इन वचनों को सम्यकरूप से उपयोग करके बोलता है, तब उसकी भाषा 'प्रज्ञापनी' समझनी चाहिए,' मृषा नहीं। 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्रांक 267 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org