Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
**Twenty-eighth Food-Chapter**
**First Objective:**
The eleven gates mentioned in the first objective are:
1. **Saccittaahara** (having consciousness of food)
2. **Aaharaarthi** (desire for food)
3. **Kevati** (for how long)
4. **Kimva Vi** (what kind of food)
5. **Savvano Chev** (from all directions)
6. **Katibhagam** (how much)
7. **Samve Khalu** (do they all eat)
8. **Parinaame Chaiv** (do they always transform)
9. **Egendriyasheeraadi** (one-sense-bodied etc.)
10. **Lomaahara** (hair-eating)
11. **Manobhakkhi** (mind-eating)
**Discussion:**
The first objective presents eleven gates related to food, explained in two Sangrahani-Gathaas.
The first gate explores whether beings from the Nairyaika to the Vaimanika realms are **Saccittaahara**, **Acittaahara**, or **Misraahara** (conscious eaters, unconscious eaters, or mixed eaters).
The second to eighth gates address:
* **Aaharaarthi** (whether beings like Naraka are desirous of food)
* **Kevati** (how long the desire for food lasts)
* **Kimva Vi** (what kind of food they eat)
* **Savvano Chev** (whether they eat from all directions)
* **Katibhagam** (how much food they consume)
* **Samve Khalu** (whether they eat all the ingested particles)
* **Parinaame Chaiv** (how they transform the ingested food)
The ninth to eleventh gates discuss:
* **Egendriyasheeraadi** (whether they eat the bodies of one-sense-bodied beings)
* **Lomaahara** (whether beings like Naraka are hair-eaters or **Prakshepaahara** (particle-eaters))
* **Manobhakkhi** (whether they are **Ojaahara** (life-force eaters) or **Manobhakkhi** (mind-eaters))
The first objective elaborates on these eleven gates.
________________ अट्ठावीसइमं आहारपयं अट्ठाईसवाँ आहारपद पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक प्रथम उद्देशक में उल्लिखित ग्यारह द्वार 1763. सच्चित्ता 1 ऽऽहारट्ठी 2 केवति 3 किंवा वि 4 सव्वानो चेव 5 / कतिभागं 6 सम्वे खलु 7 परिणामे चैव 8 बोद्धव्वे // 217 // एगिदिसरीरादी 6 लोमाहारे 10 तहेव मणभक्खी 11 // एतेसि तु पयाणं विभावणा होइ कायव्वा // 218 // [1793 गाथार्थ-] [प्रथम उद्देशक में] इन (निम्नोक्त) ग्यारह पदों पर विस्तृत रूप से विचारणा करनी है-(१) सचित्ताहार, (2) आहारार्थी, (3) कितने काल से (आहारार्थ) ?, (4) क्या आहार (करते हैं ?), (5) सब प्रदेशों से (सर्वतः), (6) कितना भाग ?, (7) (क्या) सभी आहार (करते हैं ?) और (8) (सदैव) परिणत (करते हैं ?) (8) एकेन्द्रियशरीरादि, (10) लोभाहार एवं (11) मनोभक्षी (ये ग्यारह द्वार जानने चाहिए) / / / / 217-218 / / विवेचन--प्रथम उद्देशक में प्राहार-सम्बन्धी ग्यारह द्वार--प्रस्तुत दो संग्रहणी-गाथाओं द्वारा प्रथम उद्देशक में प्रतिपाद्य ग्यारह द्वारों (पदों) का उल्लेख किया गया है / प्रथमद्वार---इसमें नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के विषय में प्रश्नोत्तर हैं कि वे सचित्ताहारी होते हैं, अचित्ताहारी होते हैं या मिश्राहारी ?, द्वितीयद्वार से अष्टमद्वार तक-क्रमशः (2) नारकादि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ?, (3) कितने काल में आहार की इच्छा उत्पन्न होती है ?, (4) किस वस्तु का आहार करते हैं ?, (5) क्या वे सर्वत: (सब प्रदेशों से) आहार करते हैं ?, सर्वतः उच्छवास-नि:श्वास लेते हैं, क्या वे बार-बार आहार करते हैं ? बार-बार उसे परिणत करते हैं ? इत्यादि, (6) कितने भाग का आहार या आस्वादन करते हैं ?, (7) क्या सभी गृहीत पुद्गलों का आहार करते हैं ?, (8) गृहीत आहार्य पुद्गलों को किस-किस रूप में बार-बार परिणत करते हैं ? (E) क्या वे एकेन्द्रियादि के शरीरों का आहार करते हैं ?, (10) नारकादि जीव लोमाहारी हैं या प्रक्षेपाहारी (कवलाहारी)? तथा (11) वे ओजाहारी होते हैं या मनोभक्षी ? प्रथम उद्देशक में इन ग्यारह द्वारों का प्रतिपादन किया गया है।' 1. (क) प्रज्ञापना. (मलय. वृत्ति) अभि. रा. को. भा. 2, पृ. 500 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 541, 563, 613 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org