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## Translation:
**First Proclamation of Conduct**
[111] Those who have accepted the [Jain] principles from a [Jain] monk, they accept it from him; not from others. The conduct of such monks is called **Pariharavishuddhicharitra**. Those who practice this conduct are called **Pariharavishuddhicharitraarya**. There are two types of **Pariharavishuddhicharitris**: **Itvarik** and **Yavatkathik**.
**Itvarik** are those who attain the same **Kalpa** or **Gachchha** after the end of a **Kalpa**. Those who immediately accept the **Jinkalpa** without any obstruction as soon as a **Kalpa** ends are called **Yavatkathikcharitris**. **Itvarikparivaravishuddhiks** do not experience **Devaditrit Upsarga**, **Pranaharaka Atanka** or unbearable pain due to the influence of the **Kalpa**, but **Yavatkathiks** who accept the **Jinkalpa** may experience **Upsarga** along with the feeling of **Jinkalpi**.
**The nature of Sukshmasamprayacharitraarya**: The conduct in which **Sukshma** (subtle) **Samprayaya** (passion) in the form of subtle **Lobha** (greed) remains, is called **Sukshmasamprayacharitra**. This conduct occurs in the tenth **Gunasthan** where only a subtle part of **Sanjwalanakshaya** remains. There are two types of this conduct: **Vishuddhamanak** and **Sanklishyamanak**. The conduct of those who ascend the **Kshapak Shreni** or **Upshama Shreni** is **Vishuddhamanak**, while the **Sukshmasamprayacharitra** of a monk who falls from the eleventh **Gunasthan** after reaching there through the **Upshama Shreni** and returns to the tenth **Gunasthan** is called **Sanklishyamanak**. Those who practice **Sukshmasamprayacharitra** are called **Sukshmasamprayacharitraarya**.
**Yathakyatcharitraarya**: The word **Yathakyatcharitra** is a combination of three words: **Yatha** (truly), **Pra** (completely), and **Akyatcharitra** (free from passions). It means truly and completely free from passions, or the conduct that is known and famous in the entire world as passionless, is called **Yathakyatcharitra**. There are two types of this conduct: **Chhadmasthik** (of the eleventh and twelfth **Gunasthan** beings) and **Kaivalik** (of the thirteenth **Gunasthan** beings - **Sayogikevali** and the fourteenth **Gunasthan** beings - **Ayogikevali**). Those who practice this type of **Yathakyatcharitra** are called **Yathakyatcharitraarya**.
**Four types of Devas**: [136] How many types of **Devas** are there? **Devas** are of four types: 1. **Bhavanavasi**, 2. **Vanamantara**, 3. **Joisiya**, 4. **Vemaneya**.
________________ प्रथम प्रज्ञापनापन ] [111 से स्वीकार किया हो, उसके पास से अंगीकार करते हैं; अन्य के पास नहीं। ऐसे मुनियों का चारित्र परिहारविशुद्धिचारित्र कहलाता है। इस चारित्र की आराधना करने वाले को परिहारविशुद्धिचारित्रार्य कहते हैं। परिहारविशुद्धिचारित्री दो प्रकार के होते हैं--इत्वरिक और यावत्कथिक / इत्वरिक वे होते हैं, जो कल्प की समाप्ति के बाद उसी कल्प या गच्छ में आ जाते हैं। जो कल्प समाप्त होते ही बिना व्यवधान के तत्काल जिनकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे यावत्कथिकचारित्री कहलाते हैं। इत्वरिकपरिहारविशुद्धिकों को कल्प के प्रभाव से देवादिकृत उपसर्ग, प्राणहारक आतंक या दुःसह वेदना नहीं होती किन्तु जिनकल्प को अंगीकार करने वाले यावत्कथिकों को जिनकल्पी भाव का अनुभव करने के साथ ही उपसर्ग होने सम्भव है। सूक्ष्मसम्परायचारित्रार्य का स्वरूप-जिसमें सूक्ष्म अर्थात्-संज्वलन के सूक्ष्म लोभरूप सम्पराय =कषाय का ही उदय रह गया हो, ऐसा चारित्र सूक्ष्मसम्परायचारित्र कहलाता है। यह चारित्र दसवें गुणस्थान वालों में होता है; जहाँ संज्वलनकषाय का सूक्ष्म अंश ही शेष रह जाता है / इसके दो भेद हैं—विशुद्धधमानक और संक्लिश्यमानक / क्षपकश्रेणी या उपशमश्रेणी पर आरोहण करने वाले का चारित्र विशुद्धयमानक होता है, जबकि उपशमश्रेणी के द्वारा ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँच कर वहाँ से गिरने वाला मुनि जब पुन: दसवें गुणस्थान में आता है, उस समय का सूक्ष्मसम्परायचारित्र संक्लिश्यमानक कहलाता है। सूक्ष्मसम्परायचारित्र की आराधना से जो आर्य हों, उन्हें सूक्ष्मसम्परायचारित्रार्य कहते हैं। यथाख्यातचारित्रार्य –'यथाख्यात' शब्द में यथा--प्रा+आख्यात, ये तीन शब्द संयुक्त हैं, जिनका अर्थ होता है--यथा (यथार्थरूप से) प्रा (पूरी तरह से) अाख्यात (कषायरहित कहा गया) हो अथवा जिस प्रकार समस्त लोक में ख्यात–प्रसिद्ध जो अकषायरूप हो, वह चारित्र, यथाख्यातचारित्र कहलाता है / इस चारित्र के भी दो भेद हैं-छाद्मस्थिक (छद्मस्थ-यानी ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवी जीव का) और कैवलिक (तेरहवें गुणस्थानवर्ती-सयोगिकेवली और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली का)। इस प्रकार के यथाख्यातचारित्र की आराधना से जो प्रार्य हों, वे यथाख्यातचारित्रार्य कहलाते हैं।' चतुर्विध देवों की प्रज्ञापना-- 136. से कि तं देवा? देवा चाउम्विहा पण्णत्ता / तं जहा-भवणवासी 1 वाणमंतरा 2 जोइसिया 3 वेमाणिया 4 / [136 प्र. देव कितने प्रकार के हैं ? 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 63 से 68 तक (ख) सम्वमिणं सामाइयं छेयाइविसेसियं पुण विमिन्नं / अविसेसं सामाइय चियमिह सामन्नसन्नाए॥ -प्र. म. वृ., प. 63 (ग) अह सद्दो उ जहत्थे, आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं / चरणमकसायमुइयं तहमक्खायं जहक्खायं / / -प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक 68 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org