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The *Prajñāpanā Sūtra* is equivalent to the *Pradeśa* (region) in terms of *dravya* (substance), but is *ṣaṭ-sthāna-patita* (six-fold different) in terms of *pradeśa* (region), *catur-sthāna-patita* (four-fold different) in terms of *avagāhana* (penetration), and *catur-sthāna-patita* (four-fold different) in terms of *sthiti* (position). However, it is *ṣaṭ-sthāna-patita* (six-fold different) in terms of *varṇa* (color) and other *aṣṭa-sparśa* (eight contacts). [3]
"Bhagavan! How many *paryāya* (categories) are there for *skandha* (aggregates) in the *ajghannya-anutkṛṣṭa* (medium) *pradeśa* (region)?" [554-3 Pr.] "Gautama! There are infinite *paryāya* (categories)." [Pr.] "Bhagavan! Why is that said (that there are infinite *paryāya* (categories) for *skandha* (aggregates) in the *madhyama-pradeśa* (medium region)?" [U.] "Gautama! One *madhyama-pradeśa* (medium region) *skandha* (aggregate) is equivalent to another *madhyama-pradeśa* (medium region) *skandha* (aggregate) in terms of *dravya* (substance), *ṣaṭ-sthāna-patita* (six-fold different) in terms of *pradeśa* (region), *catur-sthāna-patita* (four-fold different) in terms of *avagāhana* (penetration), *catur-sthāna-patita* (four-fold different) in terms of *sthiti* (position), and *ṣaṭ-sthāna-patita* (six-fold different) in terms of *varṇa* (color) and other *aṣṭa-sparśa* (eight contacts)." 555. [1]
"Bhagavan! How many *paryāya* (categories) are there for *pudgala* (particles) with *jghannya-avagāhana* (inferior penetration)?" [555-1 Pr.] "Gautama! There are infinite *paryāya* (categories)." [Pr.] "Bhagavan! Why is that said (that there are infinite *paryāya* (categories) for *pudgala* (particles) with *jghannya-avagāhana* (inferior penetration)?" [U.] "Gautama! One *pudgala* (particle) with *jghannya-avagāhana* (inferior penetration) is equivalent to another *pudgala* (particle) with *jghannya-avagāhana* (inferior penetration) in terms of *dravya* (substance), *ṣaṭ-sthāna-patita* (six-fold different) in terms of *pradeśa* (region), equivalent in terms of *avagāhana* (penetration), *catur-sthāna-patita* (four-fold different) in terms of *sthiti* (position), and *ṣaṭ-sthāna-patita* (six-fold different) in terms of *varṇa* (color) and other *sparśa* (contacts) above." [2] "The same should be said about *pudgala* (particles) with *utkṛṣṭa-avagāhana* (superior penetration). The only difference is that they are equivalent in terms of *sthiti* (position)." [555-2]
________________ [ प्रज्ञापनासूत्र तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से , अवगाहना की अपेक्षा से चत:स्थानपतित है. स्थिति की अपेक्षा से भी चतुःस्थानपतित है, किन्तु वर्णादि तथा अष्टस्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [3] प्रजहण्णमणुक्कोसपदेसियाणं भंते ! खंधाणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा ! अणंता। से केणठेणं ? गोयमा ! अजहण्णमणुक्कोसपदेसिए खंधे प्रजहण्णमणुक्कोसपदेसियस खंधस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, प्रोगाहणठ्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-अठ्ठफासपज्जवेहि य छट्ठाणबडिते।। [554-3 प्र.] भगवन् ! अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) प्रदेशी स्कन्धों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [554-3 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है (कि मध्यमप्रदेशी स्कन्धों के अनन्तपर्याय हैं)? [उ.] गौतम ! एक मध्यमप्रदेशी स्कन्ध, दूसरे मध्यमप्रदेशी स्कन्ध से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित और वर्णादि तथा अष्ट स्पर्शों के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। 555. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! पोग्गलाणं पुच्छा / गोयमा ! अणंता। से केणठेणं? गोयमा ! जहण्णोगाहणए पोम्गले जहण्णोगाहणगस्स पोग्गलस्स दवट्ठयाए तुल्ले, पदेसठ्ठयाए छट्ठाणवडिते, भोगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठितीए चउट्ठाणवडिते, वण्णादि-उवरिल्लफासेहि य छट्ठाणवडिते। [555-1 प्र.] भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पुद्गलों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [555-1 उ.] गौतम ! (उनके) अनन्त पर्याय (कहे हैं)। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है (कि जघन्य अवगाहनावाले पुद्गलों के अनन्त पर्याय हैं) ? [उ.] 'गौतम ! एक जघन्य अवगाहना वाला पुद्गल दूसरे जघन्य अवगाहना वाले पुद्गल से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से चतु:स्थानपतित है, तथा वर्णादि और ऊपर के स्पर्शों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। [2] उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव / नवरं ठितीए तुल्ले / _[555-2] उत्कृष्ट अवगाहना वाले पुद्गल-पर्यायों के विषय में इसी प्रकार कहना चाहिए / विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से तुल्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org