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[258] Regarding humans with Tejo-leshya, it should be said that those who are restrained are of two types: distracted (pramat) and undistracted (apramat). However, the distinctions of Sarag-samyat (restrained with attachment) and Vitrag-samyat (restrained without attachment) do not exist among humans with Tejo-leshya. [1153] The statement regarding Vanavyantaras (intermediate beings) in relation to Tejo-leshya (as mentioned in Sutra 1151) should be understood as similar to Asurakumara (demon princes). [1154] Similarly, the same should be said about Jyotishka (astronomers) and Vaimanika (aeronautical beings) with Tejo-leshya. The remaining aspects like Ahar (food), etc., should be understood as similar to the Asurakumara mentioned earlier. [1155] The same should be said about those with Padma-leshya (lotus-colored aura) regarding Ahar (food), etc. It is important to note that this statement should be made only for those beings who possess Padma-leshya. The statement regarding Ahar (food), etc., for those with Shukla-leshya (white aura) is also the same, but it should be made only for those beings who possess it. And just as the (general) statement about Audika (medicinal) beings has been made, the same should be said about all (beings with Padma-leshya and Shukla-leshya) regarding Ahar (food), etc. It is important to note that Padma-leshya and Shukla-leshya are found only in Panchendriya-tiryanch (five-sensed animals), humans, and Vaimanika (aeronautical beings), not in other beings.
________________ 258 ] [प्रज्ञापनासुत्र तेजोलेश्या वाले मनुष्यों के विषय में कहना चाहिए कि जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के हैं तथा सराग संयत और वीतराग संयत, (ये दो भेद तेजोलेश्या वाले मनुष्यों में) नहीं होते। 1153. वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा (सु. 1151) / [1153] तेजोलेश्या की अपेक्षा से वाणव्यन्तरों का कथन (सू. 1151 में उक्त) अपुरकुमारों के समान समझना चाहिए। 1154. एवं जोतिसिय-वेमाणिया वि / सेसं तं चेव / [1154] इसी प्रकार तेजोलेश्याविशिष्ट ज्योतिष्क और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत कहना चाहिए / शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए / 1155. एवं पम्हलेस्सा वि भाणियन्वा, णवरं जेसि अस्थि / सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसि अस्थि / सव्वं तहेव जहा प्रोहियाणं गमयो। णवरं पम्हलेस्स-सुक्कलेस्साप्रो पंचेंदियतिरिक्खजोणियमणस-वेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति / // पण्णवणाए लेस्सापए पढमो उद्देसओ समत्तो॥ [1155] इसी (तेजोलेश्या वालों की तरह पद्मलेश्या वालों के भी (आहारादि के विषय में) कहना चाहिए। विशेष यह है कि जिन जीवों में पद्मलेश्या होती है, उन्हीं में उसका कथन करना चाहिए। शुक्ललेश्या वालों का आहारादिविषयक कथन भी उसी प्रकार है, किन्तु उन्हीं जीवों में कहना चाहिए, जिनमें वह होती है तथा जिस प्रकार (विशेषणरहित) औधिकों का गम (पाठ) कहा है, उसी प्रकार (पद्म-शुक्ललेश्याविशिष्ट जीवों का आहारादिविषयक) सब कथन करना चाहिए। (इतना) विशेष (ध्यान रखना) है कि पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों, मनुष्यों और वैमानिकों में ही होती है, शेष जीवों में नहीं। विवेचन-कृष्णादिलेश्या विशिष्ट चौवीस दण्डकों में समाहारादि सप्तद्वार-प्ररूपणा–प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. 1146 से 1155 तक) में कृष्णादिलेश्याओं से युक्त नै रयिकों से लेकर वैमानिकों तक के समाहार आदि सप्तद्वारों के विषय में प्ररूपणा की गई है। कृष्णलेश्याविशिष्टनरयिकों के नौ पदों के विषय में-जैसे विशेषण रहित सामान्य (प्रोधिक) नारकों का माहार, शरीर, उच्छ्वास-निःश्वास, कर्म, वर्ण, लेश्या, वेदना, क्रिया और उपपात (अथवा आयुष्य), इन नौ द्वारों की अपेक्षा से कथन पहले किया गया है, वैसे ही कृष्णलेश्याविशिष्ट नैरयिकों के विषय में कथन करना चाहिए। किन्तु सामान्य नारकों से कृष्णलेश्याविशिष्ट नारकों में वेदना के विषय में कुछ विशेषता है। वह इस प्रकार है-वेदना की अपेक्षा नैरयिक दो प्रकार के हैं-मायी-मिथ्यादृष्टि-उपपन्नक और अमायी-सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक, किन्तु औधिक नारकसूत्र की तरह असंज्ञीभूत और संज्ञीभूत नहीं कहना चाहिए, क्योंकि सिद्धान्तानुसार असंज्ञी जीव प्रथम पृथ्वी में कृष्णलेश्या वाले नारक नहीं होते / पंचम आदि जिस नरकपृथ्वी में कृष्णलेश्या पाई जाती है, उसमें असंज्ञो जीव उत्पन्न नहीं होते। अतएव कृष्णलेश्यावान् नारकों में संजीभूत और असंज्ञीभूत, ये भेद नहीं होते। इनमें मायी और मिथ्यादृष्टि नारक महावेदना वाले होते हैं, क्योंकि वे (नारक) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org