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The fifteenth Indriya-pada: The first Uddesaka] [163 Charamanirjara-pudgalas are said to be subtle; O Ayushman Shraman! They reside pervading the entire universe. 964. Gautama! Does a Chudmastha man know or perceive the otherness, diversity, inferiority (lowliness), or triviality, heaviness or lightness of those Nirjara-pudgalas? [994 Pr.] Gautama! This meaning (matter) is not possible. [Pr.] Bhagavan! For what reason is it said that a Chudmastha man does not know or perceive the otherness, diversity, inferiority, triviality, heaviness or lightness of those (Bhavitatma Anagar's Charamanirjara pudgalas)? [U.] (Not only man) even some (specific) Devas do not know or perceive the otherness, diversity, inferiority, triviality, heaviness or lightness of those Nirjara-pudgalas; O Gautama! For this reason it is said that a Chudmastha man does not know or perceive the otherness, diversity, inferiority, triviality, heaviness or lightness of those Nirjara-pudgalas, (because) O Ayushman Shraman! those (Charamanirjara-) pudgalas are subtle / they reside pervading the entire universe.
________________ पन्द्रहवां इन्द्रियपद : प्रथम उद्देशक ] [163 चरमनिर्जरा-पुद्गल हैं, वे सूक्ष्म कहे हैं; हे आयुष्मन् श्रमण ! वे समग्र लोक को अवगाहन करके रहते हैं। 964. छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं कि प्राणत्तं वा णाणत्तं वा प्रोमत्तं का तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासइ ? गोयमा ! णो इणठे समठे। से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति छ उमत्थे णं मणूसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किचि प्राणत्तं वा णाणत्तं वा प्रोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति ? गोयमा ! देवे वि य णं प्रत्येगइए जे णं तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि आणत्तं वा णाणतं वा प्रोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणति पासति, से तेणठेणं गोयमा! एवं बुच्चति-छउमत्थे णं मणसे तेसि णिज्जरापोग्गलाणं णो किचि आणत्तं वा जाणत्तं वा प्रोमत्तं वा तुच्छत्तं वा गरुयत्तं वा लहुयत्तं वा जाणइ पासति, सुहुमा णं ते पोग्गला पण्णत्ता समणाउसो ! , सव्वलोग पि य णं ते प्रोगाहित्ता चिठ्ठति / [994 प्र.] भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन (चरम-) निर्जरा-पुद्गलों के अन्यत्व या नानात्व, हीनत्व (अवमत्व) अथवा तुच्छत्व, गुरुत्व या लघुत्व को जानता-देखता है ? [994 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) शक्य नहीं है। [प्र.] भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं कि छद्मस्थ मनुष्य उन (भावितात्मा अनगार के चरमनिर्जरा पुद्गलों) के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व अथवा लघुत्व को नहीं जानतादेखता ? [उ.] (मनुष्य तो क्या) कोई-कोई (विशिष्ट) देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व, नानात्व, हीनत्व, तुच्छत्व, गुरुत्व या लघत्व को किंचित भी नहीं जानता-देखता; हे गौतम ! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छदमस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुदगलों के अन्यत्व, नानात्व. हीनत्व, तच्छत्व गुरुत्व या लघुत्व को नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (चरमनिर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म हैं / वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं। विवेचन-दसवां अनगार-द्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 663-664) में भावितात्मा अनगार के सूक्ष्म एवं सर्वलोकावगाढ पुद्गलों को छद्मस्थ द्वारा जानने-देखने की असमर्थता की प्ररूपणा की गई है। भावितात्मा प्रनगार—जिसके द्रव्य और भाव से कोई अगार-गृह नहीं है, वह अनगारसंयत है / जिसने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपोविशेष से अपनो आत्मा भावित--वासित को है, वह भावितात्मा कहलाता है। चरम-निर्जरा पुद्गल-उक्त भावितात्मा अनगार जब मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होता है, तब उसके चरम अर्थात् शैलेशी अवस्था के अन्तिम समय में होने वाले जो निर्जरा-पुद्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org