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524] [Prajñāpanā Sūtra [772 Pr.] Bhagavan! Among these closed-womb beings, open-womb beings, closed-open-womb beings, and wombless beings, which are fewer, many, equal, or superior? [772 U.] Gautama! The fewest are closed-open-womb beings, (from them) open-womb beings are countless times (more), (from them) wombless beings are infinite times (more), and (from them) closed-womb beings are infinite times (more) // 3 //
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________________ 524 ] [ प्रज्ञापनासूत्र [772 प्र.] भगवन् ! इन संवृतयोनिक जीवों, विवृतयोनिक जीवों, संवृत-विवृतयोनिक जीवों तथा अयोनिक जीवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ? [772 उ.] गौतम ! सबसे कम संवृत-विवृतयोनिक जीव हैं, (उनसे) विवृतयोनिक जीव असंख्यातगुणे (अधिक) हैं, (उनसे) अयोनिक जीव अनन्तगुणे हैं (और उनसे भी) संवृतयोनिक जीव अनन्तगुणे (अधिक) हैं // 3 // विवेचन तीसरे प्रकार से संवृतादि त्रिविध योनियों की अपेक्षा से जीवों का विचार प्रस्तुत नौ सूत्रों (सू. 764 से 772 तक) में शास्त्रकार ने तृतीय प्रकार से योनियों के संवतादि तीन भेद बता कर किस जीव के कौन-कौन-सी योनि होती है ? तथा कौन-सी योनि वाले जीव अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? इसका विचार प्रस्तुत किया है। संवतादि योनियों का अर्थ-संवत योनि = जो योनि आच्छादित (ढंकी हुई) हो। विवृत. योनि = जो योनि खुली हुई हो, अथवा बाहर से स्पष्ट प्रतीत होती हो। संवृत-विवृत योनि = जो संवृत और विवृत दोनों प्रकार की हो। किन जीवों की योनि कौन और क्यों ?--नारकों की योनि संवत इसलिए बताई है कि नारकों के उत्पत्तिस्थान नरकनिष्कुट होते हैं और वे आच्छादित (संवत) गवाक्ष (झरोखे) के समान होते हैं। उन स्थानों में उत्पन्न हुए नारक शरीर से वृद्धि को प्राप्त होकर शीत से उष्ण और उष्ण से शीत स्थानों में गिरते हैं। इसी प्रकार भवनपति, बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की योनि संवृत होती है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति (उपपात) देवशैय्या में देवदूष्य से आच्छान्दित स्थान में होती है। एकेन्द्रिय जीव भी संवृत योनि वाले होते हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्तिस्थली (योनि) स्पष्ट उपलक्षित नहीं होती। द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों तथा सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पंचेद्रियों एवं सम्मूच्छिम मनुष्यों की योनि विवृत है, क्योंकि इनके जलाशय आदि उत्पत्तिस्थान स्पष्ट प्रतीत होते हैं / गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों और गर्भज मनुष्यों की योनि संवत-विवृत होती है। क्योंकि इनका गर्भ संवृत और विवृत उभयरूप होता है। अन्दर (उदर में) रहा हुमा गर्भ स्वरूप से प्रतीत नहीं होता, किन्तु उदर के बढ़ने आदि से बाहर से उपलक्षित होता है। संवृतादि योनियों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहत्व-सबसे थोड़े संवृत-विवृत योनि वाले जीव होते हैं, क्योंकि गर्भज तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और गर्भज मनुष्य ही संवत-विवृत योनि वाले हैं। उनकी अपेक्षा विवृतयोनिक जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव तथा सम्मूच्छिम तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय एवं सम्मूच्छिम मनुष्य विवृत योनि वाले हैं। उनसे अयोनिक जीव अनन्त गुणे हैं, क्योंकि सिद्ध अनन्त होते हैं और उनसे भी अनन्तगुणे संवृतयोनिक जीव होते हैं, क्योंकि वनस्पतिकायिक जीव संवृतयोनिक होते हैं और वे सिद्धों से भी अनन्तगुणे होते हैं।' मनुष्यों को त्रिविध विशिष्ट योनियां 773. [1] कतिबिहा णं भंते ! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता। तं जहा-कुम्मुण्णया 1 संखावत्ता 2 वंसीपत्ता 3 / 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 227 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003483
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages1524
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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