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## How much of their lifespan remains when beings of the four gati (types of motion) bind their lifespan for the next birth?
This topic is discussed in seven sutras (677 to 683) of the **Prajnapana Sutra**. The meaning of **Parabhavikayushyadwar** is: how much of their current lifespan remains when beings in the hellish and other realms bind their lifespan for the next birth (future birth)?
**Explanation of Sopakram and Nirupkram:**
* **Sopakram** is the lifespan that is affected by **upkram** (violent events).
* **Nirupkram** is the lifespan that is not affected by **upkram**.
**Upkram** refers to violent events like poison, weapons, fire, water, etc., that can cause premature death.
* **Sopakram lifespan** is the lifespan that is cut short by **upkram** before the full lifespan allotted by karma is experienced. This is also called **Akalamrityu** (premature death), **Sopakram lifespan**, or **Apvartaaniya lifespan**.
* **Nirupkram lifespan** is the lifespan that is not cut short by **upkram** and is experienced fully until the end of the lifespan allotted by karma. This is also called **Nirupkram lifespan** or **Anpavartaneya lifespan**.
**Nirupkram lifespan** is found in **Aupapatik** (hellish and heavenly realms), **Charmashareee** (those with a physical body), **Uttama Purusha** (the best of humans), and **Asankhyatavarshajeevi** (humans and animals with an immeasurable lifespan).
**Conclusion:**
* **Aupapatik** and **Asankhyatavarshajeevi** beings have **Nirupkram lifespan**.
* They bind their lifespan for the next birth when 6 months of their current lifespan remain. This includes **Nairyik** (those who live in the hellish realms), all types of **Devas** (heavenly beings), and **Asankhyatavarshajeevi** humans and animals.
* Beings from **Prithvikaayika** (earth-bodied) to **Manushya** (humans) have both **Sopakram** and **Nirupkram lifespan**.
* Those with **Nirupkram lifespan** bind their lifespan for the next birth when two-thirds of their current lifespan has passed and one-third remains.
* Those with **Sopakram lifespan** may bind their lifespan for the next birth when one-third of their current lifespan remains, but this is not a fixed rule.
* If they do not bind their lifespan at that time, they will bind it when two-thirds of the remaining one-third has passed, leaving one-third of the one-third remaining.
* This can continue, with the lifespan being bound when one-third of the remaining one-third of the one-third remains, and so on.
* Some scholars believe that **Sopakram lifespan** beings may bind their lifespan for the next birth when one-ninth of their current lifespan remains, or even when one-twenty-seventh of their current lifespan remains.
________________ 490 [ प्रज्ञापनासूत्र प्ररूपणा तरकादि चारों गतियों के जीवों की आयु का कितना भाग शेष रहते परभवसंबंधी आयुष्य बन्ध होता है ? इस विषय में प्रस्तुत सात सूत्रों (सू. 677 से 683 तक) में प्ररूपणा की गई है। पारभविकायुष्यद्वार का तात्पर्य--वर्तमान भव में नारकादिपर्याय वाले जीव अपने वर्तमान भव सम्बन्धी आयु का कितना भाग शेष रहते अथवा आयुष्य का कितना भाग बीत जाने पर अगले जन्म (आगामी-परभव) की आयु का बन्ध करते हैं ? यही बताना इस द्वार का आशय है। सोपक्रम और निरुपक्रम की व्याख्या-~~जो आयु उपक्रमयुक्त हो, वह सोपक्रम कहलाती है और जो आयु उपक्रम से प्रभावित न हो सके, वह निरुपक्रम कहलाती है। आयु का विघात करने वाले तीव्र विष. शस्त्र. अग्नि. जल आदि उपक्रम कहलाते हैं। इन उपक्रमों के योग से दीर्घकाल में धीरे-धोरे भोगी जाने वाली प्राय बन्धकालीन स्थिति से पहले (शीघ्र ही भोग ली ज इन उपक्रमों के निमित्त से जो आयु बीच में ही टूट जाती है, जिस प्राय का भोगकाल बन्धकालीन स्थितिमर्यादा से कम हो, उसे अकालमृत्यु, सोपक्रम आयु अथवा अपवर्तनीय आयु भी कहते हैं / जो आयु बन्धकालीन स्थिति के पूर्ण होने से पहले न भोगी जा सके, अर्थात्-जिसका भोगकाल बन्धकालीन स्थितिमर्यादा के समान हो, वह निरुपक्रम या अनपवर्तनीय आयु कहलाती है / औपपातिक (नारक और देव), चरमशरीरी, उत्तमपुरुष और असंख्यातवर्षजीवी (मनुष्य-तिर्यञ्च), ये अनपवर्तनीय-निरुपक्रम आयु वाले होते हैं। निष्कर्ष-निरुपक्रमी जीवों में औपपातिक और असंख्यातवर्षजीवी अनपवर्तनीय आय वाले होते हैं / वे आयुष्य के 6 मास शेष रहते आगामी भव का आयुष्यबन्ध करते हैं, जैसे--नैरयिक, सब प्रकार के देव और असंख्यातवर्षजीवी मनुष्य-तिर्यञ्च / पृथ्वीकायिका दि से लेकर मनुष्यों तक दोनों ही प्रकार की आयु वाले होते हैं। इनमें जो निरुपक्रम आयु वाले होते हैं, वे आयु (स्थिति) के दो भाग व्यतीत हो जाने पर और तीसरा भाग शेष रहने पर आगामी भव का आयुष्य बांधते हैं, किन्तु जो सोपक्रम आयु वाले हैं, वे कदाचित् वर्तमान आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की पायु का बन्ध करते हैं, किन्तु यह नियम नहीं है कि वे तीसरा भाग शेष रहते परभव का आयुष्यबन्ध कर ही लें। अतएव जो जीव उस समय प्रायुबन्ध नहीं करते, वे अवशिष्ट तीसरे भाग के तीन भागों में से दो भाग व्यतीत हो जाने पर और एक भाग शेष रहने पर आय का बन्ध करते हैं। कदाचित इस तीसरे भाग में भी पारभविक आयु का बन्ध न हुआ तो शेष आयु का तीसरा भाग शेष रहते आयु का बन्ध करते हैं / अर्थात् आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग के तीसरे भाग में आयुष्यबन्ध करते हैं / कोई-कोई विद्वान् इसका अर्थ यों करते हैं कि कभी आयु का नौवां भाग शेष रहने पर अथवा कभी प्रायु का सत्ताईसवां भाग शेष रहने पर सोपक्रम आयु वाले जीव आगामी भव का आयुष्य बांधते हैं। 1. (क) प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयबोधिनी टीका भा. 2, पृ. 1142-1143 (ख) तत्त्वार्थसूत्र (विवेचन, पं. सुखलालजी, नवसंस्करण) 'प्रोपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः / ' 2.25 -तत्त्वार्थसूत्र अ. 2, सू. 52 पर विवेचन / पृ. 79-80 (ग) श्री पन्नवणासूत्र के थोकड़े, प्रथम भाग, पृ. 150 (घ) 'कभी-कभी अपनी आयु के 27 वें भाग का तीसरा भाग यानी 81 वां भाग शेष रहने पर, कभी 81 वें भाग का तीसरा भाग यानी 243 वां भाग और कभी 243 3 भाग का तीसरा भाग यानी 729 वां भाग शेष रहने पर यावत् अन्तमुहूर्त शेष रहने पर परभव की आयु बांधते हैं।' -किन्हीं प्राचार्यों का मत - श्री पन्नवणासूत्र के थोकड़े, प्रथमभाग 1. 150, प्रज्ञापना प्र. बो. टीका भा. 2, पृ. 1144-45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org