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## Fifth Special Point (Paryaya Pab)
[381] The most excellent perception is of 500 dhanush, and the least perception is of an innumerable part of an angul. All the perceptions between these two are of the category of medium perception. This means that medium perception should be understood as being from an innumerable part of an angul more to an innumerable part of an angul less than 500 dhanush. This perception can be four-fold degenerate like the perception of an ordinary naraka.
A naraka with a lower position is equal to another naraka with a lower position in terms of the position of the lower position, because there is only one position of the lower position, and no kind of inferiority or superiority is possible in it.
A naraka with a lower position is four-fold degenerate in terms of perception compared to a naraka with a lower position, because the perception in them ranges from an innumerable part of an angul to 7 dhanush.
A naraka with a medium position is four-fold degenerate in terms of the position of the naraka with a lower position, because the position of the naraka with a lower position and the position of the naraka with a higher position are considered equal to each other, but there is four-fold degeneration in the position of the naraka with a medium position, because the medium position is of many types due to gradation. In the medium position, the situation is calculated from a time more than ten thousand years to a time less than thirty sagaropama. Therefore, it is natural for it to be four-fold degenerate.
A naraka is equal to another naraka in terms of the Krishnavarna Paryaya, because there is only one form of the lower, and there is no diversity or inferiority or superiority in it.
Knowledge and ignorance do not exist together. A naraka that has knowledge does not have ignorance, and a naraka that has ignorance does not have knowledge, because these two are mutually contradictory. Samyagdristi has knowledge and mithyadristi has ignorance. A samyagdristi is not a mithyadristi, and a mithyadristi is not a samyagdristi.
[3] The Paryaya of Asurakumara and other Bhavanapati Devas with perception of lower, etc. 464.
[1] "Bante! How many types of perception do Asurakumaras have?"
"Gotama! They have infinite types of perception."
"Bante! How is it said that Asurakumaras have infinite types of perception?"
"Gotama! An Asurakumara with lower perception is equal to another Asurakumara with lower perception in terms of wealth."
________________ पांचवां विशेषपद (पर्यायपब)] [381 असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट अवगाहना 500 धनुष्य की होती है। इन दोनों के बीच की जितनी भी अवगाहनाएं होती हैं, वे सब मध्यम अवगाहना की कोटि में आतो हैं / तात्पर्य यह है कि मध्यम अवगाहना सर्वजघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग अधिक से लेकर अंगुल के असंख्यातवें भाग कम पांच सौ धनुष की समझनी चाहिए। यह अवगाहना सामान्य नारक की अवगाहना के समान चतुःस्थानपतित हो सकती है।' जघन्यस्थिति वाले नारक स्थिति की अपेक्षा से तुल्य-जघन्य स्थिति वाले एक नारक से, जघन्यस्थिति वाला दूसरा नारक स्थिति की दृष्टि से समान होता है; क्योंकि जघन्य स्थिति का एक ही स्थान होता है, उसमें किसी प्रकार की हीनाधिकता संभव नहीं है। जघन्य स्थिति वाले नारक प्रवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित-एक जघन्य स्थिति वाला नारक, दूसरे जघन्य स्थिति वाले नारक से अवगाहना में पूर्वोक्त व्याख्यानुसार चतुःस्थानपतित हीनाधिक होता है, क्योंकि उनमें अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग से लेकर उत्कृष्ट 7 धनुष तक पाई जाती है। मध्यम स्थिति वाले नारकों की स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित होनाधिकता-जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति वाले नारकों की स्थिति तो परस्पर तुल्य कही गई है, मगर मध्यम स्थिति वाले नारकों की स्थिति में परस्पर चतु:स्थानपतित होनाधिक्य है, क्योंकि मध्यम स्थिति तारतम्य से अनेक प्रकार की है। मध्यमस्थिति में एक समय अधिक दस हजार वर्ष से लेकर एक समय कम तेतीस सागरोपम की स्थिति परिगणित है। इसलिए इसका चतु:स्थानपतित हीनाधिक होना स्वाभाविक है। कृष्णवर्णपर्याय की अपेक्षा से नारकों की तुल्यता--जिस नारक में कृष्णवर्ण का सर्वजघन्य अंश पाया जाता है, वह दूसरे सर्वजघन्य अंश कृष्णवर्ण वाले के तुल्य ही होता है, क्योंकि जघन्य का एक ही रूप है, उसमें विविधता या हीनाधिकता नहीं होती। ज्ञान और अज्ञान दोनों एक साथ नहीं रहते-जिस नारक में ज्ञान होता है, उसमें अज्ञान नहीं होता और जिसमें अज्ञान होता है उसमें ज्ञान नहीं होता, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं / सम्यग्दृष्टि को ज्ञान और मिथ्यादृष्टि को अज्ञान होता है। जो सम्यग्दृष्टि होता है, वह मिथ्यादृष्टि नहीं होता और जो मिथ्यादृष्टि होता है, वह सम्यक् दृष्टि नहीं होता / 3 जघन्यादियुक्त प्रवगाहना वाले असुरकुमारादि भवनपति देवों के पर्याय 464. [1] जहण्णोगाहणगाणं भंते ! असुरकुमाराणं केवतिया पज्जवा पण्णता ? गोयमा! अगंता पज्जवा पण्णत्ता। से केण→णं भंते ! एवं वुच्चति जहण्णोगाहणगाणं असुरकुमाराणं प्रणता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णोगाहणए असुरकुमारे जहण्णोगाहणगस्स असुरकुमारस्स दब्वट्ठयाए तुल्ले, 1. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 188, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 638 से 639 2. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्राक 189, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 644 से 647 3. (क) प्रज्ञापना म. वृत्ति, पत्रांक 189, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनी टीका भा-२, पृ. 649, 654 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org