________________ छत्तीसवां समुद्घातपय [287 अगंतूणं समुग्घायं अणंता केवली जिणा। जर-मरणविप्पमुक्का सिद्धि वरगति गता // 230 // [2170-2 प्र.] भगवन् ! क्या सभी केवली भगवान् समुद्घात करते हैं ? तथा क्या सब केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं ? [2170-2 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [गाथार्थ-] जिसके भवोपनाही कर्म बन्धन एवं स्थिति से आयुष्यकर्म के तुल्य होते हैं, वह केवली केवलिसमुद्घात नहीं करता। समुद्घात किये विना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं / विवेचन केवली द्वारा केवलिसमुद्घात क्यों और क्यों नहीं ? -प्रश्न का प्राशय यह है कि केवली तो कृतकृत्य तथा अनन्तज्ञानादि से परिपूर्ण होते हैं, उनका प्रयोजन शेष नहीं रहता, फिर उन्हें केवलिसमुद्धात करने की क्या आवश्यकता ? ___ इसका समाधान स्वयं शास्त्रकार करते हैं कि केवली अभी पूर्ण रूप से कृतकृत्य, पाठों कर्मों से रहित, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त नहीं हुए, उनके भी चार अघातीकर्म शेष हैं, जो कि भवोपनाही कर्म होते हैं / अतएव केवली के चार प्रकार के कर्म क्षीण नहीं हुए, क्योंकि उनका पूर्णतः वेदन नहीं हुा / कहा भी है--'नाभुक्तं क्षीयते कर्म / ' कर्मों का क्षय तो नियम से तभी होता है, जब उनका प्रदेशों से या विपाक से बेदन कर लिया जाए, भोग लिया जाए। कहा भी है-"सव्वं च पए कम्ममणभावो भइयं" अर्थात सभी कर्म प्रदेशों से भोगे जाते हैं, विपाक से भोगने की भजना है। केवली के 4 कर्म, जिन्हें भोगना बाकी है, ये हैं-वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र / च कि इन चारों कर्मों का वेदन नहीं हुआ, इसलिए उनकी निर्जरा नहीं हुई / अर्थात् वे प्रात्मप्रदेशों से पृथक् नहीं हुए। इन चारों में वेदनीय कर्म सर्वाधिक प्रदेशों वाला होता है। नाम और गोत्र भी अधिक प्रदेशों वाला है, परन्तु आयुष्यकर्म के बराबर नहीं। आयुष्यकर्म सबसे कम प्रदेशों वाला होता है। केवली के आयुष्यकर्म के बराबर शेष तीन कर्म न हों तो वे उन विषम स्थिति एवं बन्ध वाले कर्मों को आयुकर्म के बराबर करके सम करते हैं / ऐसे सम करने वाले केवली केवलिसमुद्घात करते हैं / वे विषम कर्मों को, जो कि बन्ध से और स्थिति से सम नहीं हैं, उन्हें सम करते हैं, ताकि चारों कर्मों का एक साथ क्षय हो सके / योग (मन, वचन, काया का व्यापार) के निमित्त से जो कर्म बंधते हैं, अर्थात् आत्मप्रदेशों के साथ एकमेक होते हैं, उन्हें बन्धन कहते हैं और कर्मों के वेदन के काल को स्थिति कहते हैं / बन्धन और स्थिति, इन दोनों से केवली वेदनोयादि कर्मों को आयुष्यकर्म के बराबर करते हैं / कर्म द्रव्यबन्धन कहलाते हैं, जबकि वेदनकाल को स्थिति कहते हैं / यही केवलिसमुद्घात का प्रयोजन है। जिन केवलियों का प्रायुष्यकर्म बन्धन और स्थिति से भवोपग्राही अन्य कर्मों के तुल्य होता है, वे केवलिसमुद्घात नहीं करते, वे केवलिसमुद्घात किये बिना ही सर्व कर्म मुक्त होकर सिद्ध, बुद्ध एवं सर्वजरा-मृत्यु से मुक्त हो जाते हैं / ऐसे अनन्त सिद्ध हुए हैं / समुद्धात वे ही केवली करते हैं, जिनकी आयु कम होती है और वेदनीयादि तीन कर्मों की स्थिति एवं प्रदेश अधिक होते हैं तब उन सबको समान करने हेतु समुद्घात किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org