________________ 292] [प्रज्ञापनासूब योगत्रय में से काययोगप्रवृत्ति का उल्लेख और उसका क्रम भी बताया गया है / आवर्जीकरण के चार अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं--(१) आत्मा को मोक्ष के अभिमुख करना, (2) मन, वचन, काया के शुभ प्रयोग द्वारा मोक्ष को प्राजित-अभिमुख करना और (3) प्रावजित अर्थात्-भव्यत्व के कारण मोक्षगमन के प्रति शुभ योगों को व्यापृत-प्रवृत्त करना आवजितकरण है तथा (4) प्रा--मर्यादा में केवली की दृष्टि से शुभयोगों का प्रयोग करना / केवलिसमुद्घात करने से पूर्व प्रावर्जीकरण किया जाता है, जिसमें असंख्यात समय का अन्तर्महत लगता है। आवर्जीकरण के पश्चात् बिना व्यवधान के केलिसमुद्घात प्रारम्भ कर दिया जाता है, जो पाठ समय का होता है / मूलपाठ में उसका क्रम दिया गया है। इस प्रक्रिया में प्रारम्भ के चार समयों में आत्मप्रदेशों को फैलाया जाता है, जब कि पिछले चार समयों में उन्हें सिकोड़ा जाता है। कहा भी है- केवली प्रथम समय में ऊपर और नीचे लोकान्त तक तथा विस्तार में अपने देहप्रमाण दण्ड करते हैं, दूसरे में कपाट, तीसरे में मन्थान और चौथे समय में लोकपुरण करते हैं फिर प्रतिलोम रूप से संहरण अर्थात विपरीत क्रम से संकोच करके स्वदेहस्थ हो जाते हैं।' (2) समुद्घातकर्ता केवली के द्वारा योगनिरोध प्रादि को प्रक्रिया से सिद्ध होने का क्रम-(१) सिद्ध होने से पूर्व तक की केवली की चर्या-दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्घात को प्राप्त केवली समुद्घात-अवस्था में सिद्ध (निष्ठितार्थ), बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वाण को प्राप्त (कर्मसंताप से रहित हो जाने के कारण शीतीभूत) और सर्वदुःख रहित नहीं होते / क्योंकि उस समय तक उनके योगों का निरोध नहीं होता और सयोगी को सिद्धि प्राप्त नहीं होती। सिद्धि प्राप्त होने से पूर्व तक वे क्या करते हैं ? इस विषय में कहते हैं-समुद्घातगत केवली केवलिसमुद्घात से निवृत्त होते हैं, फिर मनोयोग, वचनयोग और काययोग का प्रयोग करते हैं / 2 (3) केवलिसमधातगत केवली द्वारा काययोग का प्रयोग-समुदघातगत केवली औदारिकशरीरकाययोग, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग तथा कार्मणशरीरकाय योग का प्रयोग क्रमशः प्रथम और अष्टम, द्वितीय, षष्ठ और सप्तम, तथा तृतीय, चतुर्थ और पंचम समय में करते हैं। शेष वैक्रियवैक्रियमिश्र, आहारक-पाहारक मिश्र काययोग का प्रयोग वे नहीं करते। (4) केवलिसमुद्घात से निवृत्त होने के पश्चात् तीनों योगों का प्रयोग-निवृत्त होने के पश्चात् मनोयोग और उसमें भी सत्यमनोयोग, असत्यामृषामनोयोग का ही प्रयोग करते हैं, मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोग का नहीं / तात्पर्य यह है कि जब केवली भगवान् वचनागोचर महिमा से युक्त केवलिसमुद्घात के द्वारा विषमस्थिति वाले नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म को आयुकर्म के बराबर स्थिति वाला बना कर केवलिसमुद्घात से निवृत्त हो जाते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त में ही उन्हें परमपद को प्राप्ति हो जाती है। परन्तु उस अवधि में अनुत्तरौषपातिक देवों द्वारा मन से पूछे हए प्रश्न का समाधान करने हेतु मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके मनोयोग का प्रयोग करते हैं / वह मनोयोग सत्यमनोयोग या असत्यामृषामनोयोग होता है। समुद्घात से निवृत्त केवली सत्यवचन 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5 2. वही, भा. 5, पृ. 1130 3. वही, भा. 5, 1131-32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org