________________ 294] [प्रज्ञापनासूत्र ऋ, ल) अक्षरों का उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतने काल तक शैलेशीकरण-अवस्था में रहते हैं। शील का अर्थ है-सर्वरूप चारित्र, उसका ईश-स्वामी शीलेश और शीलेश की अवस्था 'शैलेशी' है / उस समय केवली सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती तथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नामक शुक्लध्यान में लीन रहते हैं। उस समय केवली केवल शैलेशीकरण को ही प्राप्त नहीं करते, अपितु शैलेशीकरणकाल में पूर्वरचित गुणश्रेणी के अनुसार असंख्यातगुण-श्रेणियों द्वारा असंख्यात वेदनीयादि कर्मस्कन्धों का विपाक और प्रदेशरूप से क्षय भी करते हैं तथा अन्तिम समय में वेदनीयादि चार अघातिकर्मों का एक साथ सर्वथा क्षय होते ही औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरों का पूर्णतया त्याग कर देते हैं। फिर ऋजुश्रेणी को प्राप्त हो कर, एक ही समय में बिना विग्रह (मोड़) के लोकान्त में जाकर ज्ञानोपयोग से उपयुक्त होकर सिद्ध हो जाते हैं। जितनी भी लब्धियाँ हैं, वे सब साकारोपयोग से उपयुक्त को ही प्राप्त होती हैं, अनाकारोपयोगयुक्तसमय में नहीं।' सिद्धों के स्वरूप का निरूपरण 2176. ते णं तत्थ सिद्धा भवंति, असरीरा जीवघणा सण-णाणोवउत्ता णिट्रियट्ठा जीरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागतद्धं कालं चिट्ठति / सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चति ते णं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता णिट्रियट्ठा जीरया गिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासतमणागयद्धं कालं चिट्ठति ? गोयमा ! से जहाणामए बोयाणं अग्गिदडाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती न हवइ एवमेव सिद्धाण वि कम्मबीएसु दड्ढेसु पुणरवि जम्मुप्पत्ती न हवति, से तेण→ण गोयमा ! एवं वुच्चति तेणं तत्थ सिद्धा भवंति असरीरा जीवघणा दंसण-णाणोवउत्ता निट्ठियट्ठा णोरया णिरेयणा वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिटठंति त्ति। णिच्छिण्णसव्वदुक्खा जाति-जरा-मरण-बंधणविमुक्का। सासयमव्वाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता // 231 // // पण्णवणाए भगवतीए छत्तीसइमं समुग्धायपदं समत्तं // // पण्णवणा समत्ता॥ [2176] वे सिद्ध वहाँ अशरीरी (शरीररहित) सघनात्मप्रदेशों वाले, दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त, कृतार्थ (निष्ठितार्थ), नीरज (कर्मरज से रहित), निष्कम्प, अज्ञानतिमिर से रहित और पूर्ण शुद्ध होते हैं तथा शाश्वत भविष्यकाल में रहते हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि वे सिद्ध वहाँ अशरीरी सधनात्मप्रदेशयुक्त, कृतार्थ, दर्शनज्ञानोपयुक्त, नीरज, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध होते हैं, तथा शाश्वत अनागतकाल तक रहते हैं ? 1. प्रज्ञापना (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1147-1155 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org