________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [295 [उ.] गौतम ! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने पर पूनः जन्म से उत्पत्ति नहीं होती। इस कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध अशरीरी आदि होते हैं, इत्यादि सब पूर्ववत् / {गाथार्थ- सिद्ध भगवान सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं। सुख को प्राप्त अत्यन्त सुखी वे सिद्ध शाश्वत और बाधारहित होकर रहते हैं // 231 / / विवेचन-सिद्धों का स्वरूप-सिद्ध वहाँ लोक के अग्रभाग में स्थित रहते हैं। वे अशरीर, अर्थात्-औदारिक प्रादि शरीरों से रहित होते हैं, क्योंकि सिद्धत्व के प्रथम समय में ही वे औदारिक आदि शरीरों का त्याग कर देते हैं। वे जीवधन होते हैं, अर्थात्--उनके आत्मप्रदेश सघन हो जाते हैं। बीच में कोई छिद्र नहीं रहता, क्योंकि सूक्ष्मक्रिय-अप्रतिपाती ध्यान के समय में ही उक्त ध्यान के प्रभाव से मुख, उदर आदि छिद्रों (विवरों) को पूरित कर देते हैं / वे दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग में उपयुक्त होते हैं, क्योंकि उपयोग जीव का स्वभाव है। सिद्ध कृतार्थ (कृतकृत्य) होते हैं, नीरज (वध्यमान कर्मरज से रहित) एवं निष्कम्प होते हैं, क्योंकि कम्पनक्रिया का वहाँ कोई कारण नहीं रहता। वे वितिमिर अर्थात्-कर्मरूपी या अज्ञानरूपी तिमिर से रहित होते हैं। विशुद्ध अर्थात्विजातीय द्रव्यों के संयोग से रहित–पूर्ण शुद्ध होते हैं और सदा-सर्वथा सिद्धशिला पर विराजमान रहते हैं।' सिद्धों के इन विशेषणों के कारण पर विश्लेषण-सिद्धों को अशरीर, नीरज, कृतार्थ, निष्कम्प, वितिमिर एवं विशुद्ध आदि कहा गया है उसका कारण यह है कि अग्नि में जले हुए बीजों से जैसे अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि अग्नि उनके अंकुरोत्पत्ति के सामर्थ्य को नष्ट कर देती है / इसी प्रकार सिद्धों के कर्मरूपी बीज जब केवलज्ञानरूपी अग्नि के द्वारा भस्म हो चुकते हैं, तब उनकी फिर से उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि जन्म का कारण कर्म है और सिद्धों के कर्मों का समूल नाश हो जाता है। कारण के अभाव में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, कर्मबीज के कारण राग के रागद्वेष आदि समस्त विकारों का सर्वथा अभाव हो जाने से पुनः कर्म का बन्ध भी सम्भव नहीं है। रागादि ही आयु आदि कर्मों के कारण हैं, उनका तो पहले ही क्षय किया जा चुका है। क्षीणरागादि की पुनः उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि निमित्तकारण का अभाव है। रागादि की उत्पत्ति में उपादान कारण स्वयं प्रात्मा है। उसके विद्यमान होने पर भी सहकारी कारण वेदनीयकर्म आदि विद्यमान न होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि दोनों कारणों से उत्पन्न होने वाला कार्य किसी एक कारण से नहीं हो सकता। सिद्धों में रागादि बेदनीयकर्मों का प्रभाव होता है, क्योंकि वे उन्हें शुक्लध्यानरूपी अग्नि से पहले हो भस्म कर चुकते हैं और उनके कारण संक्लेश भी सिद्धों में संभव नहीं है। रागादि वेदनीयकों का अभाव होने से पुन: रागादि की उत्पत्ति की संभावना नहीं है। कर्मबन्ध में पुनर्जन्म न होने के कारण सिद्ध सदैव सिद्धदशा में रहते हैं, क्योंकि रागादि का अभाव हो जाने से आयु आदि कर्मों को पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इस कारण सिद्धों का पुनर्जन्म नहीं होता। 1. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका, भा. 5, 1155-1156 2. वही, भाग 5, पृ. 1157 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org