________________ बत्तीसवां समुद्यातपद] [293 योग या असत्यामृषावचनयोग का प्रयोग करते हैं, किन्तु मृषावचनयोग या सत्यमृषावचनयोग का नहीं / इसी प्रकार समुद्घातनिवृत्त केवली गमनागमनादि क्रियाएँ यतनापूर्वक करते हैं। यहाँ उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया का अर्थ क्रमश: इस प्रकार है-स्वाभाविक चाल से जो डग भरी जाती है, उससे कुछ लम्बी डग भरना उल्लंघन है और अतिविकट चरणन्यास प्रलंघन है। किसी जगह उड़ते-फिरते जीव-जन्तु हों और भूमि उनसे व्याप्त हो, तब उनकी रक्षा के लिए केवली को उल्लंघन और प्रलंघन क्रिया करनी पड़ती है।' (5) समग्र योगनिरोध के बिना केवली को भी सिद्धि नहीं-दण्ड, कपाट आदि के क्रम से समुद्धात को प्राप्त केवली समुद्घात से निवृत्त होने पर भी जब तक सयोगी-अवस्था है, तब तक वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त नहीं हो सकते / शास्त्रकार के अनुसार अन्तर्मुहूर्त काल में वे अयोग-अवस्था को प्राप्त करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हो जाते हैं, किन्तु अन्तर्मुहुर्त्तकाल तक तो केवली यथायोग्य तीनों योगों के प्रयोग से मुक्त होते हैं / सयोगी अवस्था में केवली सिद्ध-मुक्त नहीं हो सकते, इसके दो कारण हैं(१) योगत्रय कर्मबन्ध के कारण हैं तथा (2) सयोगी परमनिर्जरा के कारणभूत शुक्लध्यान का प्रारम्भ नहीं कर सकते / / (6) केवली द्वारा योगनिरोध का क्रम-योगनिरोध के क्रम में केवली भगवान् सर्वप्रथम मनोयोगनिरोध करते हैं / पर्याप्तक संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव के प्रथम समय में जितने मनोद्रव्य होते हैं और जितना उसका मनोयोग-व्यापार होता है, उससे भी असंख्यातगुणहीन मनोयोग का प्रति समय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में मनोयोग का पूर्णतया निरोध कर देते हैं / मनोयोग का निरोध करने के तुरंत बाद ही वे पर्याप्तक एवं जघन्ययोग वाले द्वीन्द्रिय के वचनयोग से कम असंख्यातगुणहीन वचनयोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णतया द्वितीय वचनयोग का निरोध करते हैं। जब वचनयोग का भी निरोध हो जाता है, तब अपर्याप्तक सूक्ष्म पनकजीव, जो प्रथम समय में उत्पन्न हो तथा जघन्य योग वाला एवं सबकी अपेक्षा अल्पवीर्य वाला हो, उसके काययोग से भी कम असंख्यातगुणहीन काययोग का प्रतिसमय निरोध करते हुए असंख्यात समयों में पूर्णरूप से तृतीय काययोग का भी निरोध कर देते हैं। इस प्रकार काययोग का भी निरोध करके केवली भगवान् समुच्छिन्न, सूक्ष्मक्रिय, अविनश्वर तथा अप्रतिपाती ध्यान में प्रारूढ होते हैं / इस परमशुक्लध्यान के द्वारा वे वदन और उदर आदि के छिद्रों को पूरित करके अपने देह के तृतीय भाग-न्यून प्रात्मप्रदेशों को संकुचित कर लेते हैं / काययोग की इस निरोधप्रक्रिया से स्वशरीर के तृतीय भाग का भी त्याग कर देते हैं।' सर्वथा योगनिरोध करने के पश्चात–वे अयोगिदशा प्राप्त कर लेते हैं। उसके प्राप्त होते ही शैलेशीकरण करते हैं / न अतिशीघ्र और न अतिमन्द, अर्थात् मध्यमरूप से पांच ह्रस्व (अ, इ, उ, 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1133-1135 2. वही, भा. 5, पृ. 1138 से 1140 3. वही, भा. 5, पृ. 1141 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org