________________ छत्तीसवां समुद्घातपव] 0000 0000 पज्जत्तगस्स जहण्णजोगिस्स हेढा असंखेज्जगुणपरिहोणं दोच्चं वइजोगं णिरु भति, तो अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेढा असंखेज्जगुणपरिहोणं तच्चं कायजोगं णिरु भति / से णं एतेणं उवाएणं पढमं मणजोगं णिरु भइ, मणजोगं णिरु भित्ता वइजोगं णि भति, वइजोगं णिरु भित्ता कायजोगं णिरु भति, कायजोगं णिरु भित्ता जोगणिरोहं करेति, जोगणिरोहं करेत्ता अजोगय पाउणति, अजोगतं पाउणित्ता ईसोहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेज्जसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसि पडिवज्जइ, पुव्वरइतगुणसेढीयं च णं कम्मं 0 . तोसे सेलेसिमद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे खवयति, खवइत्ता वेदणिज्जाऽऽउय-णामगोते इच्चेते चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेति, जुगवं खवेत्ता पोरालियतया-कम्मगाई सम्वाहि विष्पजहणाहि विष्पजहति, विष्पजहित्ता उजुसेढोपडिवण्णे अफुसमाणगतीए एगसमएणं अविगहेणं उड्ढे गंता सागारोवउत्ते सिज्झति बुज्झति० / ' [2175 प्र.] भगवन् ! वह तथारूप सयोगी (केवलिसमुद्घातप्रवृत्त केवली) सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ? [2175 उ.] गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ नहीं होते। वह सर्वप्रथम संजीपंचेन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (मनोयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन मनोयोग का पहले निरोध करते हैं, तदनन्तर द्वीन्द्रियपर्याप्तक जघन्ययोग वाले के (वचनयोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन वचनयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् अपर्याप्तक सूक्ष्मपनकजीव, जो जघन्ययोग वाला हो, उसके (काययोग से) भी नीचे (कम) असंख्यातगुणहीन तीसरे काययोग का निरोध करते हैं / (इस प्रकार) वह (केवली) इस उपाय से सर्वप्रथम मनोयोग का निरोध करते हैं, मनोयोग को रोक कर बचनयोग का निरोध करते हैं, वचनयोगनिरोध के पश्चात् काययोग का भी निरोध कर देते हैं / काययोगनिरोध करके वे (सर्वथा) योगनिरोध कर देते हैं। योगनिरोध करके वे अयोगत्व प्राप्त कर लेते हैं। अयोगत्वप्राप्ति के अनन्तर ही धीरे-से पांच ह्रस्व अक्षरों (अ इ उ ऋल) के उच्चारण जितने काल में असंख्यातसामयिक अन्तर्मुहूर्त तक होने वाले शैलेशीकरण को अंगीकार करते हैं। पूर्वरचित गुणश्रेणियों वाले कर्म को उस शैलेशीकाल में असंख्यात कर्मस्कन्धों का क्षय कर डालते हैं। क्षय करके वेदनीय, प्रायुष्य, नाम और गोत्र, इन चार (प्रकार के अघाती) कर्मों का एक साथ क्षय कर देते हैं। इन चार कर्मों को युगपत् क्षय करते ही औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर का पूर्णतया सदा के लिए त्याग कर देते हैं। इन शरीरत्रय का पूर्णतः त्याग करके ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पृशत् गति से एक समय में अविग्रह (बिना मोड़ की गति) से ऊर्ध्वगमन कर साकारोपयोग (ज्ञानोपयोग) से उपयुक्त होकर वे सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं / विवेचन-केवलिसमद्घात से पूर्व और पश्चात् केबली को प्रवृत्ति-इस प्रकरण में सर्वप्रथम आवर्जीकरण, तत्पश्चात् पाठ समय का केवलिसमुद्घात, तदनन्तर समुद्घातगत केवली के द्वारा 1. अधिक पाठ-'तत्य सिद्धो भवति' अर्थात्-वह वहाँ (सिद्धशिला में पहुंच कर) सिद्ध (मुक्त) हो जाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org