Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 1485
________________ 29.] [प्रज्ञापनासूत्र [2174-1 उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। पहले वे उससे (केवलिसमुद्घात से) प्रतिनिवृत्त होते हैं। तत्पश्चात् वे मनोयोग का उपयोग करते हैं, वचनयोग और काययोग का भी उपयोग करते हैं। . [2] मणजोगण्णं जुजमाणे कि सच्चमणजोगं जुजति मोसमणजोगं जुजति सच्चामोसमणजोगं जुजति असच्चामोसमणजोगं जुजति ? गोयमा ! सच्चमणजोगं जुजति, णो मोसमणजोगं जुजति णो सच्चामोसमणजोगं जुजति, असच्चामोसमणजोगं पि जुजइ। [2174-2 प्र. भगवन् ! मनोयोग का उपयोग करता हुअा केवलिसमुद्घात करने वाला केवली क्या सत्यमनोयोग का उपयोग करता है, मृषामनोयोग का उपयोग करता है, सत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है, अथवा असत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है ? [2174-2 उ.] गौतम ! वह सत्यमनोयोग का उपयोग करता है और असत्यामृषामनोयोग का भी उपयोग करता है, किन्तु न तो मृषामनोयोग का उपयोग करता है और न सत्यामृषामनोयोग का उपयोग करता है। [3] वयजोगं जुजमाणे कि सच्चवइजोगं जुजति मोसवइजोगं जुजति सच्चामोसवइजोगं जुजति असच्चामोसवइजोगं जुजति ? ___ गोयमा ! सच्चवइजोगं जुजति, णो मोसवइजोगं जुजइ णो सच्चामोसवइजोगं जुजति असच्चामोसवइजोगं पि जुजइ / [2174-3 प्र.] भगवन् ! वचनयोग का उपयोग करता हुआ केवली क्या सत्यवचनयोग का उपयोग करता है, मृषावचनयोग का उपयोग करता है, सत्यमृषावचनयोग का उपयोग करता है, अथवा असत्यामृषावचनयोग का उपयोग करता है ? 2174-3 उ. गौतम ! वह सत्यवचनयोग का उपयोग करता है और असत्यामृषावचन / उपयोग करता है, किन्तु न तो मृषावचनयोग का उपयोग करता है और न ही सत्यमषावचनयोग का उपयोग करता है। [4] कायजोगं जुजमाणे पागच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिट्ठज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयटेज या उल्लंघज्ज वा पलंधेज वा पाठिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणेज्जा। [2174-4] काययोग का उपयोग करता हुआ (केवलिसमुद्घातकर्ता केवली) अाता है, जाता है, ठहरता है, बैठता है, करवट बदलता है (या लेटता है), लांघता है, अथवा विशेष रूप से लांघता (छलांग मारता) है, या वापस लौटाये जाने वाले पीठ (चौकी), पट्टा, शय्या (वसति-स्थान), तथा संस्तारक (ग्रादि सामान) वापस लौटाता है / 2175. से गं भंते ! तहा सजोगी सिज्झति जाव अंतं करेति ? गोयमा ! णो इणठे समझें। से णं पुवामेव सण्णिस्स पंचेंदियस्स पज्जत्तयस्स जहण्णजोगिस्स हेट्ठा असंखेज्जगुणपरिहोणं पढम मणजोगं णिरु भइ, तो अणंतरं च णं बेइंदियस्स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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