________________ 288] [प्रज्ञापनासूत्र समुद्घात करने से उक्त चारों कर्मों के प्रदेश और स्थितिकाल में समानता पा जाती है / यदि वे समुद्घात न करें तो आयुकर्म पहले ही समाप्त हो जाए और उक्त तीन कर्म शेष रह जाएँ / ऐसी स्थिति में या तो तीन कर्मों के साथ वे मोक्षगति में जाएँ या नवीन आयुकर्म का बन्ध करें, किन्तु ये दोनों ही बातें असम्भव हैं / मुक्तदशा में कर्म शेष नहीं रह सकते और न ही मुक्त जीव नये आयुकर्म का बन्ध कर सकते हैं। इसी कारण केवलिसमुद्घात के द्वारा वेदनीयादि तीन कर्मों के प्रदेशों की विशिष्ट निर्जरा करके तथा उनकी लम्बी स्थिति का घात करके उन्हें आयुष्यकर्म के बराबर कर लेते हैं, जिससे चारों का क्षय एक साथ हो सके / गौतम स्वामी विशेष परिज्ञान के लिए पुनः प्रश्न करते हैं-भगवन् ! क्या सभी केवली समुद्घात में प्रवृत्त होते हैं ? समाधान-न सभी केवली समुद्घात के लिए प्रवृत्त होते हैं और न ही सभी समुद्घात करते हैं / कारण ऊपर बताया जा चुका है। समस्त कर्मों का क्षय हो जाने पर प्रात्मा का अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होना सिद्धि है। जिसके चारों कर्म स्वभावतः समान होते हैं, वह एक साथ उनका क्षय करके समुद्घात किये बिना ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।' केवलिसमुद्घात के पश्चात् योगनिरोध आदि को प्रक्रिया . 2171. कतिसमइए णं भंते ! प्राउज्जीकरणे पण्णते? गोयमा! असंखेज्जसमइए अंतोमुहुत्तिए पाउज्जीकरणे पण्णत्ते / [2171 प्र.] भगवन् ! आवर्जीकरण कितने समय का कहा गया है ? [2171 उ.] गौतम ! आवर्जीकरण असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त का कहा गया है। 2172. कतिसमइए णं भंते ! केवलिसमुग्घाए पण्णत्ते ? गोयमा ! असमइए पण्णत्ते / तं जहा-पढमे समए दंडं करेति, बिइए समए कवाडं करेति, ततिए समए मंथं करेति, चउत्थे समए लोगं पूरेइ, पंचमे समये लोयं पडिसाहरति, छठे समए मंथं पडिसाहरति, सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरति, अट्ठमे समए दंडं पडिसाहरति, दंडं पडिसाहरिता ततो पच्छा सरीरत्थे भवति / / [2172 प्र.] भगवन् ! केवलिसमुद्घात कितने समय का कहा गया है ? [2172 उ.] गौतम ! वह आठ समय का कहा गया है। वह इस प्रकार है-प्रथम समय में दण्ड (की रचना) करता है, द्वितीय समय में कपाट करता है, तृतीय समय में मन्थान करता है, चौथे समय में लोक को व्याप्त करता है, पंचम समय में लोक-पूरण को सिकोड़ता है, छठे समय में मन्थान को सिकोड़ता है, सातवें समय में कपाट को सिकोड़ता है और पाठवें समय में दण्ड को सिकोड़ता है और दण्ड का संकोच करते ही (पूर्ववत्) शरीरस्थ हो जाता है / 2173. [1] से णं भंते ! तहासमुग्घायगते कि मणजोगं जुजति वइजोगं जुजति कायजोगं जुजति ? 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1125 से 1128 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अ. रा. कोष, भा. 7, पृ. 823 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org