Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 1481
________________ 286] [प्रज्ञापनासूत्र रसेणं-रसग्राहक रसनेन्द्रिय से। फासेणं-स्पर्शग्राहक स्पर्शेन्द्रिय से। सम्वन्भंतराए-सब के बीच में / सव्वखुड्डाए-सबसे छोटे / तेलापूयसंठाणसंठिए-तेल के मालपूए के समान आकार का। रहचक्कवालसंठाणसंठिए-रथ के चक्र के समान गोलाकार / परिक्खेवेणं-परिधि से युक्त / केवलकप्पं सम्पूर्ण / प्रच्छरा-णिवातेहि--चुटकियाँ बजा कर / अणुपरियट्टित्ता-चक्कर लगाकर या घूमकर / फुडे-स्पृष्ट है-व्याप्त है।' प्राशय-इस प्रकरण को इस प्रकार से प्रारम्भ करने का प्राशय यह है कि केवलिसमुद्घात से समवहत मुनि के केवलिसमुद्घात के समय शरीर से बाहर निकाले हुए चरमनिर्जरा-पुद्गलों के द्वारा समग्र लोक व्याप्त है / जिसे केवलि ही जान-देख सकता है, छद्मस्थ मनुष्य नहीं। छद्मस्थ मनुष्य सामान्य या विशेष किसी भी रूप में उन्हें जान-देख नहीं सकता। केवलिसमुद्घात का प्रयोजन 2170. [1] कम्हा णं भंते ! केवलो समुग्घायं गच्छति ? गोयमा ! केवलिस्स चत्तारि कम्मंसा अक्खीणा अवेदिया अणिज्जिण्णा भवंति / तं जहावेयणिज्जे 1 आउए 2 णामे 3 गोए 4 / सम्बबहुम्पएसे से वेदणिज्जे कम्मे भवति, सम्वत्थोवे से पाउए कम्मे भवति / विसमं सम करेति बंधणेहि ठितीहि य / विसमसमीकरणयाए बंधणेहि ठितीहि य / / 228 // एवं खलु केवली समोहण्णति, एवं खलु समग्घायं गच्छति / [2170-1 प्र. भगवन् ! किस प्रयोजन से केवली समुद्घात करते हैं ? [2170-1 उ.] गौतम ! केवली के चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए हैं, वेदन नहीं किये (भोगे नहीं गए) हैं, निर्जरा को प्राप्त नहीं हुए हैं। वे (चार कर्म) इस प्रकार हैं--(१) वेदनीय, (2) आयु, (3) नाम और (4) गोत्र / उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशों वाला होता है। उनका सबसे कम (प्रदेशों वाला) आयुकर्म होता है। गाथार्थ-] वे बन्धनों और स्थितियों से विषम (कर्म) को सम करते हैं / (वस्तुतः) बन्धनों और स्थितियों से विषम कर्मों का समीकरण करने के लिए। केवली इसीलिए केवलिसमुद्घात करते हैं तथा इसी प्रकार केवलिसमुद्घात को प्राप्त होते हैं / [2] सव्वे वि णं भंते ! केवली समोहण्णंति ? सव्वे वि गं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, जस्साऽऽउएण तुल्लाई बंधणेहि ठितीहि य / भवोवग्गहकम्माइं समुग्घायं से ण गच्छति // 226 // 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1114 से 1116 तक 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1. पृ. 443 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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