________________ छत्तीसर्वा समुद्घातपद [285 हाथ में ले करके सम्पूर्ण जम्बूद्वीप नामक द्वीप को तीन चुटकियों में इक्कीस बार घूम कर वापस शीघ्र आजाय, तो हे गौतम ! (यह बतानो कि) क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो जाता है ? [प्र.] हाँ, भंते ! स्पृष्ट (व्याप्त) हो जाता है। [उ.] हे गौतम ! क्या छद्मस्थ मनुष्य (समग्र जम्बूद्वीप में व्याप्त) उन घ्राण-पुद्गलों के वर्ग को चक्ष से. गन्ध को नासिका से. रस को रसेन्द्रिय से और स्पर्श को स्पर्शन्द्रिय से किचित जानदेख पाता है ? उ.] भगवन् ! यह अर्थ समर्थ (शक्य ) नहीं है / (भगवान्-) इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि छदमस्थ मनष्य उन निर्जरा-पदगलों के वर्ग को नेत्र से, गन्ध को नाक से. रस को जिह्वा से और स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित भी नहीं जान-देख पाता। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे (निर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म कहे गए हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। विवेचन-केवलिसमुदघात-समवहत भावितात्मा अनगार के चरम-निर्जरा-पुद्गल-प्रस्तुत केवलिसमुद्घात प्रकरण में दो बातों को स्पष्ट किया गया है-(१) यह बात यथार्थ है कि केवलिसमुद्धात से समवहत भावितात्मा अनगार के चरम (चतुर्थ) समवर्ती निर्जरा-पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा वे समग्र लोक को व्याप्त करके रहते हैं। (2) छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श को किचित भी नहीं जान-देख सकते, क्योंकि एक तो वे पुद्गल अत्यन्त सूक्ष्म हैं, दूसरे वे पुद्गल समग्र लोक में व्याप्त हैं, कहीं भी कोई ऐसी जगह नहीं है, जहाँ वे न हों और समग्र लोक तो बहुत ही बड़ा है / लोक का एक भाग जम्बूद्वीप है, जो समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, और सबसे छोटा है, क्योंकि जम्बूद्वीप से लेकर सभी द्वीप-समुद्रों का विस्तार दुगुना-दुगुना है। अर्थात् जम्बूद्वीप से आगे के लवणसमुद्र और धातकीखण्ड आदि द्वीप, अपने से पहले वाले द्वीप समुद्रों से लम्बाईचौड़ाई में दुगुने और परिधि में भी बहुत बड़े हैं / तेल में पकाये हुए पूए के समान या रथ के चक्र के समान अथवा कमलकणिका के समान आकार का या पूर्ण चन्द्रमा के समान गोल जम्बूद्वीप भी लम्बाई-चौड़ाई में एक लाख योजन का है / तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष तथा 133 अंगुल से कुछ अधिक की उसकी परिधि है। कोई महद्धिक एवं यावत् महासुखी, महाबली देव विलेपन द्रव्यों से आच्छादित एवं गन्धद्रव्यों से परिपूर्ण एक डिबिया को लेकर उसे खोले और फिर उसे लेकर सारे जम्बूद्वीप के, तीन चुटकियाँ बजाने जितने समय में इक्कीस बार चक्कर लगा कर पा जाए, इतने समय में ही सारा जम्बूद्वीप उन गंधद्रव्यों (पुद्गलों) से व्याप्त हो जाता है। सारे लोक में व्याप्त को तो दूर रहा, लोक के एक प्रदेशजम्बूद्वीप में व्याप्त गन्धपुद्गलों को भी जैसे छद्मस्थ मनुष्य पांचों इन्द्रियों से जान-देख नहीं सकता; इसी प्रकार छद्मस्थ मनुष्य केवलिसमुद्घात-समवहत केवली भगवान् द्वारा निर्जीर्ण अन्तिम पुद्गलों को नहीं जान-देख सकता, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म हैं तथा सर्वत्र फैले हुए हैं।' कठिन शब्दों का भावार्थ-चरमा णिज्जरापोग्गला--केवलिसमुद्घात के चौथे समय के निर्जीर्ण पुद्गल / वण्णेणं- वर्णग्राहक नेत्रेन्द्रिय से। घाणेणं-गन्धग्राहक नासिका-घ्राणेन्द्रिय से 1. प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 1113 से 1116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org