Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ छत्तीसा समुद्घातपद] [289 गोयमा! णो मणजोगं जुजइ णो वइजोगं जुजइ, कायजोगं जुजति / [2173-1 प्र.] भगवन् ! तथारूप से समुद्घात प्राप्त केवली क्या मनोयोग का प्रयोग करता है, वचनयोग का प्रयोग करता है, अथवा काययोग का प्रयोग करता है ? [2173-1 उ.] गौतम ! वह मनोयोग का प्रयोग नहीं करता, वचनयोग का प्रयोग नहीं करता, किन्तु काययोग का प्रयोग करता है। [2] कायजोगण्णं भंते ! जंजमाणे कि ओरालियसरीरकायजोगं जुजति पोरालियमीसासरीरकायजोगं जुजति ? किं वेउब्वियसरीरकायजोगं जुजति वेउन्वियमीसासरीरकायजोगं जुजति ? पाहारगसरीरकायजोगं जुजइ प्राहारगमोसासरीरकायजोगं जुजति ? किं कम्मगसरीरकायजोगं जुजइ ? गोयमा ! पोरालियसरीरकायजोगं पि जुजति पोरालियमीसासरीरकायजोगं पि जुजति, णो वेउव्वियसरीरकायजोगं जुजति णो वेउविवयमीसासरीरकायजोगं जुजति, णो आहारगसरीरकायजोगं जुजति णो पाहारगमीससरीरकायजोगं जुजति, कम्मगसरीरकायजोगं पि जुजति; पढमट्टमेसु समएसुओरालियसरीरकायजोगं जुजति, बितिय-छट्ठ-सत्तमेसु समएसु पोरालियमोसगसरीरकायजोगं जुजति, ततिय-चउत्थ-पंचमेसु समएसु कम्मगसरीरकायजोगं जुजति / [2173-2 प्र.] भगवन् ! काययोग का प्रयोग करता हुमा केवली क्या औदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, वैक्रियशरीर काययोग का प्रयोग करता है, वैक्रियमिश्रशरोर काययोग का प्रयोग करता है, प्राहारकशरीर काययोग का प्रयोग करता है, पाहारकमित्रशरीर काययोग का प्रयोग करता है अथवा कार्मणशरीर का प्रयोग करता है ? [2173-2 उ.] गौतम ! (काययोग का प्रयोग करता हया केवली) औदारिकशरीरकाययोग का भी प्रयोग करता है, औदारिकमिश्रशरीरकाययोग का भी प्रयोग करता है, किन्तु न तो वैक्रियशरीर काययोग का प्रयोग करता है, न वैक्रियमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, न पाहारकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है और न ही आहारकमिश्रशरीरकाय योग का प्रयोग करता है, वह कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। प्रथम और अष्टम समय में प्रौदारिकशरीरकाययोग का प्रयोग करता है, दूसरे, छठे और सातवें समय में प्रौदारिकमिश्रशरीरकाययोग का प्रयोग करता है तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मणशरीरकाययोग का प्रयोग करता है। 2174. [1] से णं भंते ! तहासमुग्यायगते सिझति बुज्झइ मुच्चइ परिणिव्वाइ सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ? गोयमा ! णो इणठे समठे, से गं तो पडिनियत्तति, ततो पडिनियतित्ता ततो पच्छा मणजोगं पि जुजति बइजोगं पि जुजति कायजोगं पि जुजति / [2174-1 प्र.] भगवन् ! तथारूप समुद्घात को प्राप्त केवली क्या सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं, क्या वह सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org