Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 282] [प्रज्ञापनासूत्र [2166-2 उ.] गौतम ! जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को) बाहर निकालता है। [3] ते णं भंते ! पोग्गला णिच्छुढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणंति जाव उद्दर्वेति तो गं भंते ! जीवे कतिकिरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चकिरिए सिय पंचकिरिए। ते णं भंते ! जीवा तातो जीवानो कतिकिरिया ? गोयमा ! एवं चेव / [2166-3 प्र.] भगवन् ! बाहर निकाले हुए वे पुद्गल वहाँ जिन प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, यावत् उन्हें प्राणरहित कर देते हैं, भगवन् ! उनसे (समुद्घातकर्ता) जीव को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? [2166-3 उ.] (ऐसी स्थिति में) वह कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाओं वाला होता है। [प्र.] भगवन् ! वे पाहारकसमुद्धात द्वारा बाहर निकाले हुए पुद्गलों से स्पृष्ट हुए जीव आहारकसमुद्घात करने वाले जीव के निमित्त से कितनी क्रियानों वाले होते हैं ? [उ.] गौतम ! इसी प्रकार समझना चाहिए / [4] से णं भंते ! जोवे ते य जीवा अणेसि जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि / [2166-4 प्र.] (आहारकसमुद्घातकर्ता) वह जीव तथा (आहारकसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट) वे जीव, अन्य जीवों का परम्परा से घात करने के कारण कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? [2166-4 उ.] गौतम ! (पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार) वे तीन क्रिया वाले, चार क्रिया वाले अथवा पांच क्रिया वाले भी होते हैं / / 2167. एवं मणसे वि। [2167] इसी प्रकार मनुष्य के आहारकसमुद्धात की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। विवेचन-आहारकसमुवघात सम्बन्धी वक्तव्यता–शरीर के विस्तार और स्थौल्य जितना क्षेत्र विष्कम्भ और बाहल्य की अपेक्षा प्रापूर्ण और स्पृष्ट होता है / लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र उन पुद्गलों से एक दिशा में आपूर्ण स्पष्ट होता है / वे पद्गल विदिशा में क्षेत्र को आपूर्ण या व्याप्त नहीं करते / विग्रह की अपेक्षा से पूर्वोक्त क्षेत्र एक समय, दो समय अथवा तीन समय की विग्रहगति से आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है। अाहारकसमुद्घात मनुष्यों में ही हो सकता है। मनुष्यों में भी उन्हीं को होता है, जो चौदह पूर्वो का अध्ययन कर चुके हों / चौदह पूर्वो के अध्येताओं में भी उन्हीं मुनियों को होता है, जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org