________________ 280] [प्रज्ञापनासूत्र को संख्यात योजन ही कहा गया है / इसी प्रकार नारक, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च एवं वायुकायिक की अपेक्षा से पूर्वोक्त प्रमाणयुक्त लम्बे क्षेत्र का आपूर्ण होना नियमतः एक दिशा में ही समझना चाहिए / नारक जीव पराधीन और अल्पऋद्धिमान होते हैं। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च भी अल्पऋद्धिमान होते हैं और वायुकायिक जीव विशिष्ट चेतना से विकल होते हैं। ऐसी स्थिति में जब वे वैक्रियसमुद्घात का प्रारम्भ करते हैं, तब स्वभावत: ही आत्मप्रदेशों का दण्ड निकलता है और प्रात्मप्रदेशों से पृथक होकर स्वभावतः पुद्गलों का गमन श्रेणी के अनुसार होता है, विश्रेणी में गमन नहीं होता। इस कारण नारकों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और वायुकायिकों का पूर्वोक्त अायाम क्षेत्र एक दिशा में ही समझना चाहिए, विदिशा में नहीं, किन्तु भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव तथा मनुष्य स्वेच्छापूर्वक विहार करने वाले हैं स्वच्छन्द हैं और विशिष्टलब्धि से सम्पन्न भी होते हैं, अतः वे विशिष्ट प्रयत्न द्वारा विदिशा में भी आत्मप्रदेशों का दण्ड निकालते हैं। इसी दृष्टि से कहा गया है.---'णवरं एगदिसि विदिसि वा' अर्थात् ----असुरकुमारादि भवनपति आदि चारों निकायों के देव और मनुष्य एक दिशा में भी पूर्वोक्त क्षेत्र को प्रापूर्ण और व्याप्त करते हैं।' (2) पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र, विग्रहगति से उत्पत्तिदेश पर्यन्त एक समय, दो समय अथवा तीन समय में विग्रहगति से आपूर्ण एवं व्याप्त होता है। इस प्रकार विग्रहगति की अपेक्षा से मरणसमय से लेकर उत्पत्तिदेश पर्यन्त पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र का प्रापूरण अधिक से अधिक तीन समय में हो जाता है, उसके चौथा समय नहीं लगता / वैक्रियसमुद्घातगत वायुकायिक भी प्रायः त्रसनाडी में उत्पन्न होता है और त्रसनाडी की विग्रहगति अधिक से अधिक तीन समय की ही होती है / इसलिए यहाँ कहा गया है, कि इतने (एक, दो या तीन) समय में पूर्वोक्त प्रमाण वाला क्षेत्र प्रापूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / (3-4-5-6) इसके पश्चात् क्रियासम्बन्धी चार तथ्यों का प्ररूपण वेदनासमुद्घात सम्बन्धी कथन के समान ही समझना चाहिए / तेजससमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा 2165. जीवे णं भंते ! तेयगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेते अफुण्णे० ? एवं जहेव वेउब्वियसमुग्धाए (सु. 2156-64) तहेव / णवरं आयामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभाग, सेसं तं चेव / एवं जाव वेमाणियस्स, णवरं पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स एगदिसि एवतिए खेत्ते अफुणे / [2165 प्र.] भगवन् ! तैजससमुद्घात से समवहत जीव समवहत हो कर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र आपूर्ण और कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? [2165 उ. गौतम ! जैसे (सू. 2156-64 में) वैक्रियसमुद्घात के विषय में कहा है, उसी प्रकार तैजसस मुद्घात के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि तैजससमुद्घात निर्गत 1. (क) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अ. रा. कोष. भा. 7, पृ. 452 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1093-1094 2. पण्णवणासुत्त (मूलपाठ-टिप्पण) भा. 1, पृ. 441 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org