Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ छत्तीसवां समुद्घातपद] [279 का समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक दिशा या विदिशा में (उतना क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / ) इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार पर्यन्त ऐसा ही कथन समझना चाहिए / 2162. बाउक्काइयस्स जहा जीवपदे (सु. 2156) / णवरं एगदिसि / [2162] वायुकायिक का (वक्रिपसमुद्घात सम्बन्धी) कथन समुच्चय जीवपद के समान (सू 2159 के अनुसार) समझना चाहिए। विशेष यह है कि एक ही दिशा में (उक्त क्षेत्र प्रापूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / ) 2163. पंचेंदियतिरिक्खजोणियस्स गिरवसेसं जहा रइयस्स (सु. 2160) / [2163] जिस प्रकार (सू. 2160 में) नैरयिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी कथन) किया गया है, वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च का समग्र कथन करना चाहिए। 2164. मणूस-याणमंतर-जोतिसिय-वेमाणियस्स णिरवसेसं जहा असुरकुमारस्स (सु.२१६१)। [2164] मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक का (वैक्रियसमुद्घात सम्बन्धी) सम्पूर्ण कथन (सू. 2161 में उक्त) असुरकुमार के समान कहना चाहिए। विवेचन-वैक्रियसमुद्घात को क्षेत्रस्पर्शना, कालपरिणाम और क्रिया प्ररूपणा-(१) वैक्रियसमुद्धात से समवहत जीव वैक्रिययोग्य शरीर के अन्दर रहे हुए पुद्गलों को बाहर निकालता है (अपने से पृथक् करता है), तब उन पुद्गलों से, शरीर का जितना विस्तार तथा स्थूलत्व है, उतना तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में अथवा विदिशा में प्रापूर्ण एवं व्याप्त (स्पृष्ट) होता है / / यहाँ लम्बाई में जो उत्कृष्ट संख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र का व्याप्त होना कहा गया है, वह वायुकायिकों को छोड़ कर नारक आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि नारक आदि जब वैक्रियसमुद्घात करते हैं, तब तथाविध प्रयत्न-विशेष से संख्यात योजन-प्रमाण प्रात्मप्रदेशों के दण्ड की रचना करते हैं, असंख्यात योजन-प्रमाण दण्ड की रचना नहीं करते / किन्तु वायुकायिक जीव वैक्रियसमुद्घात के समय जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग का ही दण्ड रचते हैं / इतने प्रमाणवाले दण्ड की रचना करते हुए नारक आदि उतने प्रदेश में तैजसशरीर आदि के पुद्गलों को प्रात्मप्रदेशों से बाहर निकालते हैं, ऐसी स्थिति में उन पुद्गलों से प्रापूर्ण और व्याप्त वह क्षेत्र लम्बाई में उत्कृष्ट रूप से संख्यात योजन ही होता है। क्षेत्र का यह प्रमाण केवल वैक्रियसमुद्घात से उत्पन्न प्रयत्न की अपेक्षा से कहा गया है।' जब वैक्रियसमुद्घात प्राप्त कोई जीव मारणान्तिकसमुद्घात को प्राप्त होता है और फिर तीव्रतर प्रयत्ल के बल से उत्कृष्ट देश में तीन समय के विग्रह से उत्पत्तिस्थान में आता है, उस समय असंख्यात योजन लम्बा क्षेत्र समझना चाहिए / यह असंख्यात योजन-प्रमाण क्षेत्र को आपूर्ण करना मारणान्तिकसमुद्घात-जन्य होने से यहाँ विवक्षित नहीं है। इसी कारण वैक्रियसमुद्घात-जन्य क्षेत्र 1. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7 पृ. 456 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org