________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] {281 पुद्गलों से लम्बाई में जवन्यतः अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र प्रापूर्ण एवं स्पृष्ट होता है / (तैजससमुद्घातसम्बन्धी) शेष वक्तव्यता वैक्रियसमुद्घात की वक्तव्यता के समान है। इस प्रकार यावत वैमानिक पर्यन्त वक्तव्यता समझनी चाहिए / विशेष यह है कि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च एक ही दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र को प्रापूर्ण एवं व्याप्त करते हैं। विवेचन-तेजससमुद्घात-तैजससमुद्घात चारों प्रकार के देवनिकायों, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों और मनुष्यों में ही होता है। इनके अतिरिक्त नारक तथा एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय में नहीं होता। देवनिकाय आदि तीनों अतीव प्रयत्नशील होते हैं / अतः जब वे तैजससमुद्घात प्रारम्भ करते हैं, तब जघन्यतः लम्बाई में अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र प्रापूर्ण एवं व्याप्त होता है, संख्यातवाँ भाग नहीं / पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों को छोड़ कर दिशा या विदिशा में आपूर्ण होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च द्वारा केवल एक दिशा में पूर्वोक्त क्षेत्र आपूर्ण एवं स्पष्ट होता है / शेष सब कथन वैक्रियसमुद्घात के कथन के समान समझना चाहिए।' आहारकसमुद्घात-समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया को प्ररूपणा 2166. [1] जीवे णं भंते ! पाहारगसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छुभइ तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुष्णे केवतिए खेत्ते फुडे ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, पायामेणं जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं उक्कोसेणं संखेज्जाइं जोयणाई एगदिसि एवइए खेत्ते / ' एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुण्णे एवतिकालस्स [2166-1 प्र.] भगवन ! पाहारकसमुदघात से समवहत जीव समवहत होकर जिन (पाहारकयोग्य) पुद्गलों को (अपने शरीर से) बाहर निकालता है, भगवन् ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (व्याप्त) होता है ? [2166-1 उ.] गौतम ! विष्कम्भ और बाहल्य से शरीरप्रमाण मात्र (क्षेत्र) तथा लम्बाई में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट संख्यात योजन क्षेत्र एक दिशा में (उन पुद्गलों से) आपूर्ण और स्पृष्ट होता है / [2] ते णं भंते ! पोग्गला केवतिकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तस्स / [2166-2 प्र.) भगवन् ! (आहारकसमुद्घाती जीव) उन पुद्गलों को कितने समय में बाहर निकालता है ? 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5. पृ. 1100-110 1 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति. अभि. रा. कोष भा. 7, पृ. 456 2. पूरक पाठ-'अफुणे एवइए खेत्ते फूडे / [प्र. से णं भने ! केवइकालस्स अफुणे केवइकालस्म फुडे ? [उ.] गोयमा ! ......... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org