Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ [प्रज्ञापनासून होकर जिन पुदगलों को प्रात्मप्रदेशों से पृथक् करता (बाहर निकालता) है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट (निरन्तर व्याप्त) होता है ? / [2156-1 उ] गौतम ! विस्तार और बाहल्य (मोटाई) की अपेक्षा से शरीरप्रमाण क्षेत्र तथा लम्बाई (मायाम) में जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग क्षेत्र तथा उत्कृष्ट असंख्यात योजन तक का क्षेत्र एक दिशा में (पापूर्ण और व्याप्त (स्पृष्ट) होता है / ) इतना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है तथा इतना क्षेत्र (व्याप्त) होता है / [2] से णं भंते ! खेत्ते केवतिकालस्स अफुण्णे केवतिकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा विग्गहेणं एवतिकालस्स अफुणे एवतिकालस्स फुडे / सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया। [2156-2 प्र.] भगवन् ! वह क्षेत्र कितने काल में पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा कितने काल में स्पृष्ट होता है ? [2156-2 उ.] गौतम ! वह (उत्कृष्ट असंख्यातयोजन लम्बा क्षेत्र) एक समय, दो समय, तीन समय और चार समय के विग्रह से इतने काल में (उन पुद्गलों से) अापूर्ण और स्पृष्ट हो जाता है। तत्पश्चात् शेष वही (पूर्वोक्त पांच तथ्यों से युक्त कथन) यावत् (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और) कदाचित् पांच क्रियाएँ लगती हैं; (यहाँ तक कहना चाहिए।) 2157. एवं गैरइए वि। णवरं पायामेणं जहण्णणं सातिरेगं जोयणसहस्सं उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयगाइं एगदिसि एवतिए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे; विग्गहेणं एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा, णवरं चउसमइएण ण भण्णति / सेसं तं चेव जाव पंचकिरिया वि / [2157] समुच्चय जीव के समान नैरयिक की भी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए / विशेष यह है कि लम्बाई में जघन्य कुछ अधिक हजार योजन और उत्कृष्ट असंख्यात योजन एक ही दिशा में उक्त पुद्गलों से आपूर्ण होता है तथा इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है तथा एक समय, दो समय या तीन समय के विग्रह से (उस क्षेत्र का प्रापूर्ण और व्याप्त होना) कहना चाहिए, चार समय के विग्रह से नहीं कहना चाहिए। तत्पश्चात् शेष वही सब पूर्वोक्त पांच तथ्यों वाला कथन यावत् (कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाएँ होती हैं यहाँ तक कहना चाहिए / 2158. [1] असुरकुमारस्स जहा जीवपए (सु. 2156) / गवरं विग्गहो तिसमइओ जहा रइयस्स (सु. 2157) / सेसं तं चेव / _ [2158-1] असुरकुमार की वक्तव्यता भी ( सू. 2156 में समुच्चय ) जीवपद के मारणान्तिकसमुद्घातसम्बन्धी वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए / विशेष यह है कि असुरकुमार का विग्रह (सू. 2157 में उक्त) नारक के विग्रह के समान तीन समय का समझ लेना चाहिए / शेष सब पूर्ववत् / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org