________________ बत्तीसवां समुद्घातपद] [275 समुद्घातकर्ता जीव को कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच क्रियाएँ लगती हैं / आशय यह है कि जब वह किसी जीव को परिताप नहीं पहुँचाता, न ही जान से मारता है, तब तीन क्रिया वाला होता है / जब किन्हीं जीवों का परितापन करता है, या मारता है, तब भी जिन्हें आबाधा नहीं पहुँचाता, उनकी अपेक्षा से तीन क्रिया बाला होता है / जब किसी को परिताप पहुँचाता है, तब चार क्रियाओं वाला होता है और जब किन्हीं जीवों का घात करता है, तो उनकी अपेक्षा से पांच क्रियाओं वाला होता है / (5) वेदनासमुद्घात करने वाले जीव के पुद्गलों से स्पृष्ट जीव वेदनासमुद्घातकर्ता जीव की अपेक्षा से कदाचित् तीन क्रियाओं वाले, कदाचित् चार क्रियाओं वाले और कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं / जब वे समुद्घातकर्ता जीव को कोई बाधा उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते, तब तीन क्रियाओं वाले होते हैं / जब स्पष्ट होकर वे उस वेदना-समवहत जीव को परिताप पहुँचाते हैं, तब चार क्रियाओं वाले होते हैं। शरीर से स्पृष्ट होने वाले बिच्छू आदि परितापजनक होते हैं, यह प्रत्यक्षसिद्ध है। किन्तु वे स्पष्ट होने वाले जीव जब उसे प्राणों से रहित कर देते हैं, तब पांच क्रियाओं वाले होते हैं / शरीर से स्पृष्ट होने वाले सर्प आदि अपने दश द्वारा प्राणघातक होते हैं, यह भी प्रत्यक्षसिद्ध है / वे पांच क्रियाएँ ये हैं-(१) कायिकी, (2) प्राधिकरणिकी, (3) प्राषिकी, (4) पारितापनिकी और (5) प्राणातिपातिकी। (6) वेदनासमुद्धात करने वाले जीव के द्वारा मारे जाने वाले जीवों के द्वारा जो अन्य जीव मारे जाते हैं और अन्य जीवों द्वारा मारे जाने वाले वेदनासमुद्घात प्राप्त जीव के द्वारा मारे जाते हैं, उन जीवों की अपेक्षा से संक्षेप मेंवेदनासमुद्घात को प्राप्त वह जीव और वेदनासमुद्घात को प्राप्त जीव सम्बन्धी पुद्गलों से स्पृष्ट वे जीव, अन्य जीवों के परम्परागत प्राघात से, पूर्वोक्तयुक्ति के अनुसार कदाचित् तीन, कदाचित् चार एवं कदाचित् पांच क्रियाओं वाले होते हैं।' वेदनासमुद्घातसम्बन्धी इन्हीं छह तथ्यों का समग्र कथन नैरयिक से लेकर वैमानिकपर्यन्त चौवीस दण्डकों में करना चाहिए। कषायसमुद्घातसम्बन्धी कथन भी वेदनासमुद्घात के पूर्वोक्त कथन के समान जानना चाहिए। मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया की प्ररूपणा 2156. [1] जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे पोग्गले णिच्छु भति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुण्णे केवतिए खेत्ते फडे ? गोयमा ! सरीरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं, आयामेणं जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणाई एगदिसि एवइए खेत्ते अफुण्णे एवतिए खेत्ते फुडे / [2156-1 प्र.] भगवन् ! मारणान्तिकसमुद्घात के द्वारा समवहत हुआ जीव, समवहत 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भाग. 5, पृ. 1068 से 1076 तक (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष. भा. 7, पृ. 453 2. पण्णवणासुत्तं भा. 1 (मू. पा. टि.) प. 44. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org