________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद] [273 - [2153.4 प्र.] भगवन् ! वे बाहर निकले हुए पुद्गल वहाँ (स्थित) जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का अभिघात करते हैं, प्रावतपतित करते (चक्कर खिलाते) हैं, थोड़ा-सा छते हैं, संघात (एक जगह इकट्ठा) करते हैं, संघट्टित करते हैं, परिताप पहुँचाते हैं, मूच्छित करते हैं और घात करते हैं, हे भगवन् ! इनसे वह जीव कितनी क्रिया वाला होता है ? [2153-4 उ.] गौतम ! वह कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है / / [5] ते णं भंते ! जीवा तायो जीवाओ कतिकिरिया ? गोयमा ! सिय तिकिरिया सिय चउकिरिया सिय पंचकिरिया। [2153-5 प्र.] भगवन् ! वे जीव उस जीव (के निमित्त) से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [2153-5 उ.] गौतम ! वे कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते हैं। [6] से गं भंते ! जीवे ते य जीवा अण्णेसि जीवाणं परंपराघाएणं कतिकिरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि चउकिरिया वि पंचकिरिया वि। [2153-6 प्र. भगवन् ! वह जीव और वे जीव, अन्य जीवों का परम्परा से घात करने से कितनी क्रिया वाले होते हैं ? [2153-6 उ.] गौतम ! वे तीन क्रिया वाले भी होते हैं, चार क्रिया वाले भी होते हैं और पांच क्रिया वा 2154. [1] गैरइए णं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहए ? एवं जहेव जोवे (सु. 2153) / णवरं रइयाभिलावो / [2154-1 प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ नारक समबहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर निकालता है, उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र प्रापूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? इत्यादि पूर्ववत् समग्र (छहों) प्रश्न ? [2154-1 उ.] गौतम ! जैसा (सू. 2153/1-2-3-4-5-6 में) समुच्चय जीव के विषय में कहा था, वैसा ही यहां कहना चाहिए। विशेष यह है कि यहाँ 'जीव' के स्थान में 'नारक' शब्द का प्रयोग करना चाहिए। [2] एवं जिरवसेसं जाव वेमाणिए / [2154-2] समुच्चय जीव सम्बन्धी वक्तव्यता के समान ही यावत् वैमानिक पर्यन्त (चौवीस दण्डको सम्बन्धी) समग्र वक्तव्यता कहनी चाहिए / 2155. एवं कसायसमुग्घातो वि भाणियव्वो / [2155] इसी प्रकार (वेदनासमुद्घात के समान) कषायसमुद्घात का भी (समग्र) कथन करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org