Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 1467
________________ 272] [प्रज्ञापनासूत्र शेष 3 समुदधात पाये जाते हैं / वायुकायिकों में वैक्रियसमुद्घात अधिक होता है। मनुष्यों में 6 ही छानस्थिकसमुद्घात पाए जाते हैं।' वेदना एवं कषाय-समुद्घात से समवहत जीवादि के क्षेत्र, काल एवं क्रिया को प्ररूपरणा 2153. [1] जोवे णं भंते ! वेदणासमुग्घाएणं समोहए समोह णित्ता जे पोग्गले पिच्छभति तेहि णं भंते ! पोग्गलेहि केवतिए खेत्ते अफुण्णे ? केवतिए खेत्ते फुडे ? __ गोयमा ! सरोरपमाणमेत्ते विक्खंभ-बाहल्लेणं णियमा छद्दिसि एवइए खेत्ते प्रफुण्णे एषइए खेत्ते फुडे / [2153-1 प्र.] भगवन् ! वेदनासमुद्घात से समवहत हुआ जीव समवहत होकर जिन पुद्गलों को (अपने शरीर से बाहर) निकालता है, भंते ! उन पुद्गलों से कितना क्षेत्र परिपूर्ण होता है तथा कितना क्षेत्र स्पृष्ट होता है ? [2153-1 उ.] गौतम ! विस्तार (विष्कम्भ) और स्थूलता (बाहल्य) की अपेक्षा शरीरप्रमाण क्षेत्र को नियम से छहों दिशाओं में व्याप्त (परिपूर्ण) करता है / इतना क्षेत्र प्रापूर्ण (परिपूर्ण) और इतना ही क्षेत्र स्पृष्ट होता है / [2] से णं भंते ! खेत्ते केवइकालस्स अफुण्णे केवइकालस्स फुडे ? गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा विग्गहेण वा एवइकालस्स अफुण्णे एवइकालस्स फुडे। [2153-2 प्र. भगवन् ! वह क्षेत्र कितने काल में आपूर्ण और कितने काल में स्पृष्ट हुआ ? [2153-2 उ.] गौतम ! एक समय, दो समय अथवा तीन समय के विग्रह में (जितना काल होता है) इतने काल में प्रापूर्ण हया और इतने ही काल में स्पृष्ट होता है / [3] ते णं भंते ! पोग्गला केवइकालस्स णिच्छुभति ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तस्स, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तस्स / / [2153-3 प्र.] भगवन् ! (जीव) उन पुद्गलों को कितने काल में (आत्मप्रदेशों से बाहर निकालता है ? [2153-3 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त में (वह उन पुद्गलों को बाहर निकालता है।) [4] ते णं भंते ! पोग्गला णिच्छूढा समाणा जाई तत्थ पाणाई भूयाइं जीवाई सत्ताई अभिहणंति वत्तेति लेसेंति संघाएंति संघटृति परियाति किलावेंति उद्दवेति तेहितो णं भंते ! से जोवे कति किरिए ? गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। 1. (क) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका) भा. 5, पृ. 1057 से 1061 (ख) प्रज्ञाना, मलयत्ति, अभि. रा. कोष भा. 3, पृ. 1354 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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