Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 244] [प्रजापनासूत्र 2112. पुढविक्काइयस्स गैरइयत्ते जाव थणियकुमारत्ते अतीता अणंता / पुरेवखडा कस्सइ अस्थि कस्सइ पत्थि / जस्सऽस्थि सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा सिय अणंता। __ [2112] पृथ्वीकायिक जीव के नारकपर्याय में यावत् स्तनितकुमारपर्याय में अनन्त (कषायसमुद्धात) प्रतीत हुए हैं तथा उसके भावी कषायसमुद्धात भी किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके कदाचित संख्यात, कदाचित असंख्यात और कदाचित अनन्त 2113. पुढविक्काइयस्स पुढविक्काइयत्ते जाव मणूसत्ते अतीता अणंता / पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ गस्थि / जस्सऽस्थि एगुत्तरिया। वाणमंतरत्ते जहा रइयत्ते (सु. 2112) / जोतिसियवेमाणियत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा कस्सइ अस्थि कस्सइ णस्थि, जस्सऽस्थि सिय असंखेज्जा सिय प्रणता। [2113] पृथ्वीकायिक के पृथ्वीकायिक अवस्था में यावत् मनुष्य-अवस्था में (कषायसमुद्घात) अतीत अनन्त हैं / इसके भावी (कषायसमुद्घात) किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके एक से लगा कर अनन्त होते हैं। वाणव्यन्तर-अवस्था में (सू. 2112 में उक्त) नारक-अवस्था के समान जानना चाहिए / ज्योतिष्क और वैमानिक-अवस्था में (कषायसमुद्घात के) अनन्त अतीत हुए हैं / (उसके) भावी (कषायसमुद्घात) किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते / जिसके होते हैं, उसके कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त होते हैं / 2114. एवं जाव मणूसे वि णेयव्वं / [2114] इसी प्रकार (पृथ्वीकायिक के समान) मनुष्यत्व तक में भी जान लेना चाहिए। 2115. [1] वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारे (सु. 2108-10) / णवरं सट्टाणे एगुत्तरियाए भाणियन्वा जाव बेमाणियस्स वेमाणियत्ते। [2115-1] वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों की वक्तव्यता (सु. 2108-10 में उक्त) असुरकुमारों की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए। विशेष बात यह है कि स्वस्थान में (सर्वत्र) एक से लेकर समझना तथा यावत् वैमानिक के वैमानिकत्व पर्यन्त कहना चाहिए। [2] एवं एते चउवीसं चउवीसा दंडगा। [2115-2] इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौवीसों दण्डक चौबीसों दण्डकों में कहने चाहिए। 2116. [1] मारणंतियसमुग्धाओ सट्टाणे वि परहाणे वि एगुत्तरियाए नेयव्वो जाव वेमाणियस्स वेमाणियत्ते। [2116-1] मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में भी और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से (अर्थात्- एक से लगाकर) समझ लेना चाहिए; यावत् वैमानिक का वैमानिकपर्याय में (यहाँ तक अन्तिम दण्डक कहना चाहिए / ) [2] एवमेते चउवीसं चउवीसा दंडगा भाणियव्वा / इसी प्रकार ये चौवीस दण्डक चौवीसों दण्डकों में कह देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org