________________ 264] [प्रज्ञापनासूत्र समवहत असंख्यात गुणे होते हैं / किन्हीं-किन्हीं वैक्रियलब्धि से रहित या सहित गभंज ति. प. में भी मारणान्तिकसमुद्घात पाया जाता है। उनकी अपेक्षा भी वेदनासमुद्घात से समवहत ति. प. असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि मरते हुए जीवों की अपेक्षा न मरते हुए ति. प. असंख्यातगुणे हैं। उनकी अपेक्षा भी कषाय समुद्धात-समवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च संख्यातगुणा हैं और इन सबकी अपेक्षा असमवहत पंचेन्द्रियतिर्यञ्च पूर्वोक्तयुक्ति से संख्यातगुणे हैं।' मनुष्यों में वेदनादि-समुद्घात सम्बन्धी अल्पबहुत्व- सबसे कम आहारकसमुद्घात-समवहत मानव हैं, क्योंकि पाहारकशरीर का प्रारम्भ करने वाले मनुष्य अत्यल्प ही होते हैं / केवलिसमुद्धातसमवहत मनुष्य उनसे संख्यातगुणे अधिक हैं क्योंकि वे शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ सौ तक) की संख्या में पाये जाते हैं / उनको अपेक्षा तैजससमुद्घात-समवहत, वैक्रियसमुद्घात-समवहत एवं मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत मनुष्य उत्तरोत्तर क्रमश: संख्यातगुणा, संख्यातगुणा और असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, क्योंकि पूर्वोक्त दोनों की अपेक्षा मारणान्तिकसमुद्घात-समवहत मनुष्य इसलिए अधिक हैं कि वह सम्मूच्छिम-मनुष्यों में भी पाया जाता है। उनसे वेदनासमुद्घात-समवहत मनुष्य असंख्यातगुण हैं, क्योंकि म्रियमाण मनुष्यों की अपेक्षा अम्रियमाण संख्यातगुणा अधिक होते हैं और वेदनासमुद्घात अम्रियमाण मनुष्यों में भी होता है। उनकी अपेक्षा कषायसमुद्घात-समवहत मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं और इन सबसे असमवहत-(समुद्घातों से रहित) मनुष्य असंख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि अल्पकषायवाले सम्मूच्छिम मनुष्य, उत्कट कषायवालों से सदा असंख्यात गुणे होते हैं / वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में सामुद्घातिक अल्पबहुत्व की वक्तव्यता असुरकुमारों के समान समझनी चाहिए। 2133. कति णं भंते ! कसायसमुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्धाया पण्णत्ता। तं जहा-- कोहसमुग्धाए 1 माणासमुग्धाए, 2 मायासमुग्घाए 3 लोभसमुग्घाए 4 / / [2133 प्र.] भगवन् ! कषायसमुद्घात कितने कहे हैं ? [2133 उ ] गौतम ! कषायसमुद्घात चार कहे हैं। यथा-(१) क्रोधसमुद्घात, (2) मानसमुद्घात, (3) मायासमुद्घात और (4) लोभसमुद्घात / 2134. [1] रइयाणं भंते ! कति कसायसमुग्धाया पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि कसायसमुग्घाया पण्णत्ता। [2134-1 प्र.) भगवन् ! नारकों के कितने कषायसमुद्घात कहे हैं ? [2134-1 उ.] गौतम ! उनमें चारों कषायसमुद्घात कहे हैं। 1. (क) अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 447 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5, पृ. 1925 से 1927 तक 2. (क) वही, भा. 5, पृ. 1927-1928 (ख) प्रज्ञापना. मलयवत्ति, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 447 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org