Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 266] [प्रज्ञापनासूत्र 2138. एवं जाव लोभसमुग्घाए / एए वि चत्तारि दंडगा। [2138] इसी प्रकार (क्रोधसमुद्घात के समान) यावत् लोभसमुद्धात तक समझना चाहिए। इस प्रकार ये चार दंडक हए। 2136. एगमेगस्स णं भंते ! गैरइयस्स गेरइयत्ते केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया? गोयमा ! अणंता, एवं जहा वेदणासमुग्धाओ भणियो (सु. 2101-4) तहा कोहसमुग्धानो वि भाणियन्वो गिरवसेसं जाव वेमाणियते। माणसमुग्धारो मायासमुग्घातो य णिरवसेसं जहा मारणंतियसमुग्धामो (सु. 2116) / लोभसमुग्घामो जहा कसायसमुग्धाओ (सु. 2105-15) / णवरं सव्वजोवा असुरादी णेरइएसु लोभकसाएणं एगुत्तरिया णेयव्वा / [2136 प्र.] भगवन् ! एक-एक नैरपिक के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत [2136 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं। जिस प्रकार (सू. 2101-4 में) वेदनासमुद्घात का कथन किया है, उसी प्रकार यहाँ क्रोधसमुद्घात का भी समग्र रूप से यावत् वैमानिकपर्याय तक कथन करना चाहिए। इसी प्रकार मानसमुद्धात एवं मायासमुद्गात के विषय में समग्र कथन (सू. 2116 में उक्त) मारणान्तिकसमुद्घात के समान कहना चाहिए / लोभसमुद्घात का कथन (सू. 2105-15 में उक्त) कषायसमुद्घात के समान करना चाहिए। विशेष यह है कि असुरकुमार आदि सभी जीवों का नारकपर्याय में लोभकषायसमुद्घात की प्ररूपणा एक से लेकर करनी चाहिए / 2140. [1] णेरइयाणं भंते ! णे रइयत्ते केवतिया कोहसमुग्घाया अतीया ? गोयमा ! अणंता। केवतिया पुरेक्खडा ? गोयमा! अणंता। [2140-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के नारकपर्याय में कितने क्रोधसमुद्घात अतीत [2140-1 उ.] गौतम ! वे अनन्त हुए हैं / [प्र.] भगवन् ! भावी (क्रोधसमुद्घात) कितने होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे अनन्त होते हैं / [2] एवं जाव धेमाणियत्ते। [2140-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय तक कहना चाहिए। 2141. एवं सट्ठाण-परट्ठाणेसु सम्वत्थ वि भाणियन्वा सव्वजीवाणं चत्तारि समुग्धाया जाव लोभसमुग्घातो जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते। [2141] इसी प्रकार स्वस्थान-परस्थानों में सर्वत्र (क्रोधसमुद्घात से लेकर) यावत् लोभसमुद्घात तक यावत् वैमानिकों के वैमानिकपर्याय में रहते हुए सभी जीवों के चारों समुद्घात कहने चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org