________________ छत्तीसवाँ समुद्घातपद [251 अर्थात् किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो अथवा तीन होते हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होते हैं / इसी प्रकार तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से लेकर वैमानिकपर्यन्त के नारकपन से लेकर यावत वैमानिकपन तक में अतीत कषायसमुद्घात अनन्त हैं और भावी कषायसमुद्घात जघन्य एक, दो या तीन हैं और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त है / इस प्रकार ये सब पूर्वोक्त चौवीसों दण्डक चौवीसों दण्डकों में घटाये जाते हैं / अतः सब मिलकर 1056 दण्डक होते हैं।' मारणान्तिकसमुद्घात स्वस्थान में और परस्थान में भी पूर्वोक्त एकोत्तरिका से समझने चाहिए। चौवीस दण्डकों के वाच्य नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के नारकपन आदि स्वस्थानों में और असुरकुमारपन आदि परस्थानों में अतीत मारणान्तिकसमुद्घात अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि नारक के स्वस्थान नारकपर्याय और परस्थान असुरकुमारादि पर्याय में अर्थात् वैमानिक तक के सभी स्थानों में अतीत मारणान्तिक समुद्घात अनन्त होते हैं। भावी मारणान्तिकसमुद्घात किसी के होते हैं, किसी के नहीं होते। जिसके होते हैं, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात और अनन्त होते हैं / जैसे नारक के नारकत्व आदि चौवीस स्व-परस्थानों में अतीत और अनागत मारणान्तिक समुद्धात का कथन किया है, उसी प्रकार असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक चौवीस दण्डकों के क्रम से स्व-परस्थानों में, अतीत-अनागत-कालिक मारणान्तिकसमुद्घात का प्ररूपण कर लेना चाहिए / इस प्रकार कुल मिलाकर ये 1056 पालापक होते हैं / वैक्रियसमुद्घात का कथन पूर्ण रूप से कषायसमुद्घात के समान ही समझना चाहिए। इसमें विशेष बात यह है कि जिस जीव में वैक्रियलब्धि न होने से वैक्रियसमुद्घात नहीं होता उसको वैक्रियसमुद्धात नहीं कहना चाहिए / जिन जीवों में वह सम्भव है, उन्हीं में कहना चाहिए। इस प्रकार वायुकायिकों के सिवाय पृथ्वीकायिक आदि चार एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में वैक्रियसमुद्घात नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इनमें वैक्रियलब्धि नहीं होती। अतएव इनके अतिरिक्त नारकों, भवनपतियों, वायुकायिकों, पंचेन्द्रियतिर्यचों, मनुष्यों, वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में वैक्रियसमुद्घात कहना चाहिए। इसी दृष्टि से यहां कहा गया है-एस्थ वि चउबीसं चउवोसा दंडगा भाणियव्वा / वैक्रिय समुद्धात में भी चौवीसों दण्डकों की चौवीसों दण्डकों में प्ररूपणा करनी चाहिए / इस प्रकार कुल मिला कर 1056 पालापक होते हैं। - -- - -- 1. (क) अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 441 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. 5 2. (क) वही, भा. 5 (ख) प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, अभि. रा, कोष, भा. 7. पृ. 442 3. (क) वही, अभि. रा. कोष, भा. 7, पृ. 443 (ख) प्रज्ञापना. (प्रमेयबोधिनी टीका), भा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org