________________ 254] [प्रज्ञापनासूत्र [3] एवं जाव वेमाणियाणं / णवरं वणस्सइकाइयाणं मणसत्ते अतीया अणंता, पुरेक्खडा अणंता। मणूसाणं मणूसत्ते अतीया सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा, एवं पुरेक्खडा वि / सेसा सब्बे जहा गेरइया। |2123-3] इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (कहना चाहिए।) विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अनन्त अतीत और अनन्त भावो (पाहारकसमुद्घात) होते हैं। मनुष्यों के मनुष्यपर्याय में कदाचित् संख्यात और कदाचित् असंख्यात अतीत (प्रा. समु.) होते हैं / इसी प्रकार भावी (ग्रा. समुद्घात भी समझने चाहिए।) शेष सब नारकों के (कथन के) समान (समझना चाहिए।) [4] एवं एते चउध्वीसं चउव्वीसा दंडगा। [2123-4] इस प्रकार इन चौबीसों के चौबीस दण्डक होते हैं। 2124. [1] जेरइयाणं भंते ! णेरइयत्ते केवतिया केवलिसमुग्धाया अतीया ? गोयमा ! णस्थि। केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! पत्थि। [2124-1 प्र.] भगवन् ! नारकों के नारकपर्याय में रहते हुए कितने केवलिसमुद्घात प्रतीत हुए हैं ? [2124-1 उ.] गौतम ! नहीं हुए। (प्र. भगवन् ! कितने भावी (केवलिसमुद्घात) होते हैं ? [उ.] गौतम ! वे भी नहीं होते। [2] एवं जाव वेमाणियत्ते / णवरं मसत्ते अतीता णत्थि, पुरेक्खडा असंखेज्जा / [2124-2] इसी प्रकार यावत् वैमानिकपर्याय पर्यन्त कहना चाहिए / विशेष यह है कि मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होते, किन्तु भावी असंख्यात होते हैं। [3] एवं जाव वेमाणिया। गवरं वणप्फइकाइयाणं मणूसत्ते अतीया णस्थि, पुरेक्खडा अणंता। मणसाणं मणसत्ते अतीया सिय अस्थि सिय णस्थि / जदि अस्थि जहण्णणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं सतयुहत्तं / केवतिया पुरेक्खडा? गोयमा ! सिय संखेज्जा सिय असंखेज्जा। [2124-3 / इसी प्रकार यावत् वैमानिकों तक (समझना चाहिए।) विशेष यह है कि वनस्पतिकायिकों के मनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्घात) नहीं होते। भावी अनन्त होते हैं / मनुष्यों के भनुष्यपर्याय में अतीत (केवलिसमुद्धात) कदाचित् होते हैं, कदाचित् नहीं होते / जिसके होता है, उसके जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट शत-पृथक्त्व होते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org